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भषण] ९२९७5००१ ,--आरूतिविशेषेषु आदरःपरदं करोति, आत्मत्यप्रत्ययं चेतः, देवप्रत्ययात , प्रथमः कल्पः, अनुतिष्ट आत्मनो नियोगं, स्वनियोगमयुन्यं
` कुरु ,अपि हा, अह प्रिदेवितेन, वसंतावतारसुचकं, शरकांडप।दुगेदस्यलेयमाभाति ५ मुखेन सीता शरप्॑दुरेण, पदं, गृहीतार्था, लब्धक्षणः, अस्ति मे विशेषः, उपचारापिकमं परमाम, आत्मनः सदेन, पर्याप्मेतावता कामिनां, एतावान् मे मतिषिभवो भवैतं सेवितुं! 5 भाणो ढः ८0००8) 158:--अचिराषिष्टितराज्यः शत्रः प्रकतिष्वरूदमुलत्वाव & अय वीक्ष्य रघरं प्रापिष्टितं भकतिष्वाव्मजमात्मातित्तया, अतिमानमासुरस्वं . पुष्य रि मानोः परियहादन्टः & दिनाति निहितं तेजः सवितेव हुताशन : , अहौ सर्व. स्थानानवद्यतारूपापिरेषस्य& अहो सर्वास्ववस्थासु रामणीयकं आङतिविरेषाणां, र्या- भायते न युष्मासु यः कौचनमिवाभिषु & हन्मः सेलक्यते घ्म विशुद्िः ्याभिकापि षा, आपरितोषादिदुष। &८. ५०१ पंडितपारिनोषप्रत्यया मदजातिः आकान्ता तिक्र. याप तिलकैर्तरद्विरेफौ जनैः $ ल प्रदिरेफौजनमकिवितरं, कुतो विभवः स्निग्धस्य सस्ीजनः स्यम इत्त॑नमाख्यातुं & स्ग्धिननसापिभक्तं हि टःखे सद्यवेदनं भवति , तत्वाववोमकरसो न तर्कः & कामी स्वतां प्रश्यापि, अपि शरीरमति & मेनका कषवेषेन शरीरीभता शकता, प्रथमं लोकयवाद एव @& असति त्वपि वारुणीमदः प्रमदानामधूना विडवना, प्रणयमयान्यक्षराणि विवतिरितानि & श्ा्गतकमितिरदरः, समानुरागयोः & तुस्याल्राग पिशुनं, धृतिपुष्यमयमि-
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; स वदधराति & न च्ु्वधाति धृति तदूपाटोकदुितम , कर्मगृहीतेन ॥ ककेन % शोप्ेण गृहीतस्य कुभीलकस्यास्सि वा प्रतिवचनं, तस्याः प्रणि- तेवां मन्ये & कितु प्रणिपातलघनादहमस्यां र्थमवलेबिष्ये, निसर्गनिपुणाः लियः श्रीणामाशिक्षितपटृत्वं , उचितः प्रणयो वरं विहतं % तदूतनायानुग॒ नापि त्वं॑संवंषिनो मे प्रणयं वितु, उपचार - विषिर्मनस्िनीना 2110 प्रियवचनशतोऽपि योभितां छ ४७ ण्ठ ४९688 ००००1५०४ ० = 8 १०९०१९०० ०४ विद्ष. कं 9 हण्ड ४0७ ०४]९५४ ० 178 10४९; विदषक'8 {68 8100४ ५४७ (1 विद्षक'8 नण पदट४प््ण्९ते णा ४ 80८ ( चनन ) ; "6 @०१०९।४४0४ 0 » ब्राह्मण! ०7५8 एण्ड एप्छण्डत भ्ठ #6 ००५७ ० ४४९ 018 णत्षण्वप्लणद् पापना 0 = ॥13 एलरन्; नल प्6 ग 6 व०्पषा० पश्टुष्णर९, ००० ७ न च न परिवितो न चाप्यगम्यः, तन्न वो न विदितमः -@#<--#06868 3० पाषण्ड = 0010678 = &० ४0 ० (08 = ४€ शप्ठः ज
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. मारखिकाथिमित्रम् ।
---> °> ०० <== प्रथमोङुः ।
रकैश्वये स्थितो ऽपि प्रणतबहुफले यः स्वयं कृतवासाः कान्तासंमिश्रदेहो <प्यिषयमनसां यः पुरस्तादययतीनाम् ।
वेदादीनां विशुद्धानां विद्यानां जन्महेतवे ।
पा्ैतीपरतन्त्राय परस्मे वस्तुने नमः ॥
भाग्यं नाम समग्रमीदशमातिस्नेहैकपात्रं यतो ः नीरं काटयवेममुदध तप्पुध्वंसे नियुज्य स्वयम् । नित्यं नन्दति नतेनैरभिनवैः कान्तरवसन्तोत्सवैः । सेतानाभ्युदयैः कुमारगिरिभ पालो नृपालोत्तमः ॥
अत्र कविः कालिदासः प्रारिप्सितस्य भ्रन्थस्यावित्नेन परिसमाप्त्यथैमि-
देवतास्मरणपूर्वकमाशिषं प्रयुङ्क्ते---एकैडअयं इत्यादि । स ईशः पर- मेश्वरः सन्ममगत्मिकनाय सन् प्रशस्तो मार्गः पन्था मेोक्षमागैस्तस्यालोक- नाय दशनाय वो युष्माकं तामसी तमःसवन्धिनीं ( अज्ञानामिकां अधका- , रप्रचुरां च ) वृक्ति प्रवृत्ति व्यपनयत्वपाकरोविति सेवन्धः। कयभूत ईशः । यः प्रणतबहुफले । वहूनि ( स्वगौपवगौदीनि ) फल्मनि यस्मात्तत्तथो- । क्तम् । प्रणतानां प्रणामं कृतवताम् । भक्तानामित्यरयः । तेषां बहुफलं त- । र्मिन् एकैश्वर्ये । ईश्वरस्य भाव एश्र्यम् । एकं मुख्यम् । अनन्यसाधा- । र णामित्यर्थः । त्च तदैश्वर्यं च । तस्मिन् ( परमेश्वरत्वे ) स्थितोऽपि । ( तद्विशिष्टो ऽपीत्य्यः ) । अणिमयिश्चरययुक्तो ऽपीत्य्थैः । स्वयमात्मना
। (9 ) 8, एकैस्वर्यस्थितोऽपि प्रणतबहुफलो. ( २) 4. ४, प. ५. परस्तात्
#-4 वैन्य.
४.१९)
अष्टाभियेस्य छ्रत्स्नं जगदापे तनुभि्विभ्रतो नाभिमानः सन्मागा लोकनाय व्यपनयतु स वस्तामसी ृततिमीश्ः॥ १॥ ( नान्यन्ते ) स॒त्रधारः--( नपथ्याभिमुखमवल्येक्य । )` मारिष इतस्तावत् । ( प्रविदयं ) पारिपारर्बंकः-- भाव अयमस्मि ।
कृत्तिवासाः कृपतिश्वर्म वासो वसनं यस्य स॒ तयोक्त तेनअर्किचन इत्यर्थः । ) यः कान्तासमिश्रदेहो ऽपि कान्तया च्रिया
संमिश्र: संमिकितो ( सक्तो ) देहः शरीरं यस्य॒ स ॒तथोक्तस्तादशोऽपि
सन् । ८ अर्धौगीक्तनारीदेहः ) | अविषयमनसाम् । न विन्दन्ते विषयाः श ब्दादयो येषांतान्यविषयाणि । तनि मनांति येषां ते तयोक्ताः । तेषां यतीनां संयमिनां परस्तात्परः श्रेष्ठः । दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ् चमी प्रयमाम्यो ‹ दिग्देशकल््वस्तापिः ' इत्यस्तातिप्रत्ययः। अष्टाभिस्तनुभि पृथिव्यादिमतिभिः कृत्लं सर्वे जगष्टोकंबिभ्रतो पि धारयतो्पि यस्याभे
मानः प्रणयो ममत्वं न भवात । एषु विशेषणेषु विरोधालुकरेणान्येश्वरस्य `
ल्ेकातिशापितं व्यज्यते । अत्र प्रणतवहफलकैश्वयैस्वित्या कान्तासंमिश्र णेन जगद्भरणेन ईश इत्यनेन च रोकोत्तरः कश्चिद्राजास्मिन्नाटके वर्ण्यत इति सूच्यते । सन्मागीलोकनायेत्यनेनात्र कश्चिन्मागीभिनयः प्रतियत इति सूच्यते । मार्गो नाम नाटचविेषः । ययेोक्तम---“ भार्गोऽ दे शीतितद्वेधा कयितं नाटचवेदिभिः । तत्रमार्गौ भवेन्ना नाटचेदोक्तल- क्षणम् ॥ › इति । एष नान्दीश्छोकः । नान्यादिलक्षणं तु
र्यान एवामिहितम् । अत्र ‹ पदादिनियमोऽपि वा ' इति विकल्पात्पदा- दिनियमामावः ॥ अव प्रस्तावनां वरिवुस्तद ङयोः प्ररोचनामृखयोः भररोचनां
प्रस्तौति -- नान्यन्ते सृञ्रधार इत्यादैना । मारिष इतस्तावत् । ग- ` गम्यतामिति शेषः । नटः सूत्रधारेण मारिष इति वाच्यः । " सूत्री नडेन ` मावो तेनासौ मारिषेति च ' इत्युक्तत्वात् | परि पाशं यया भवति तया `
।
(१) सवै. (३). नः (३) 8. ©. १५५ सूत्रधारः (* ) 9७.५44
अद्धमतिषिस्तरेण, ८ ५ ) 0, ©. ४५ गरिगान्वकः
(३)
. भूत्रधारः--अभिरितोऽस्मि विद्परिषदा कारिदासम्रयितवस्तु ~ । मालकािमिवरं नाम नाटकमसिन्वसन्तोत्सवे प्रयोक्तव्यमिति । तदारभ्य “ तां सेगीतम् । । पारिपाश्वैकः- भौव तावत् प्रथितयशसां भासंसीमिछकविपुत्ादनिं प्रन्धानतिक्रम्य वतेमानकवेः कालिदासस्य क्रियायां कयं परिषदो बहुमानः सुञ्रधारः--अयि विवेकनिश्रान्तमभिहितम् । पर्य | =: 4... पुराणमित्येव न साधु सबं ॥ न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
ब्तंत इति परिपाश्चैकः । नट इत्यर्यः । ‹ परिमुखं च ' इत्यत्र चकाराष्क् (सूत्रधाराकििद्नगुणको नटः पारिपाश्चकः) ॥ अभिहितोऽ"मी- स्यादि ! विद्रत्परिषदा बिद् षां विपश्चितां परिषत्सभा तया । अनेन सभा- प्रशसा क्ता । कालिदासग्रथितवस्तु काल्दिसेन . ग्रथितं वस्तु कथा (अभिनयपदा्थजातं ) यस्मिस्तत्तयोक्तम् । माखविकाभिमित्रम् । “ अ- ` धिकत्य कृते प्रन्ये ' इत्यण् । यथा मालतीमाधवम् ( माल्पैकासदहितोऽ- भिमित्रः शाकपार्विवादित्वात् समासः । तमापिर्त्य कृतो प्रन्यः अण् ।
द्द्रसमासत्वे किरातअजुनीयवत् छप्रत्ययः स्यात् । प्रयोक्तव्यमभिनेतन्यम्। अभिनयश्च यद्यपि तत्रत्यपात्राणामेव तथापि तदुपलक्षितग्रन्यस्यापि स उपचर्यते )। वसन्तोत्सव इत्यनेन कालनिदे शः कृतः। संगतिं नाम कार्यत्रयम् | तदुक्तं संगीतरत्नाकरे --' नृत्तं गतिं तथा वाद्यं त्रयं सगीतमुच्यते ' इति । आरभ्यतां प्रयोक्तु यलः क्रियताम् ॥ मा तावत् । मा इति निवारणे । भास-कविपुत्र- सैमिछछकाः कवयः प्राक्तनाः । प्रचन्धान्रूपकाणि । अति करम्योछङ्व्य । परिदत्येत्य्थः। कालिदासस्य कालिदिसनामघेयस्य कवेः । क्रियायां कृतौ रूपके । कथं घहुमान आदरातिशयः । कयमिति आक्षेपे ॥ विवेकशनांं विवेकदुर्वटम् । ( विवेको विश्रान्तो निवृत्तो यस्मात् निष्ठान्तस्य परनिपातः ) ॥ विवेकडान्यमित्यरवः ॥ क्रिय्रिशेषणं चेतत् । पुराणमित्या-
(१) 4. 8.9. +. ?. ० विद्वत्. (२) ` 8. ©. अ... 2, 1९४4 + मातावत् । & ८ ३ ) 4, भासकविसौमि्काभेमित्रादीना. 8. ७५
4. धावकसौमिद्टकविपुत्ा्दीनां. }५, माससौमि्टकंकंविपुत्रादीना, ( ४ ) ॥, (@."1. स्तौ कि छ्तो बहुमानः }४. ० परिषदो.
।
क ४, १ अकमय 4 त
१ ५५५५५ ११५९५५७५, ` "क ४ ) |
सन्तः परीक्षयान्यतरद्जन्ते मढः परप्रत्ययनेयबुदधे; ॥ २ ॥ पारिपाञ्ंकः-- आर्यमिश्राः प्रमाणम् । सू्रधारः--तेन हि त्वरतां भवान् । शिरसा प्रथमग् दीतामाज्ञामिच्छामि परिषदः कर्तुम् । देव्या इब धारिण्या; सेादक्तः परिजनोऽपम् ॥ ३ ॥ ( इतिं निष्करान्ती 1)
प्रस्तावना | ५. >... ५५, ५... ६५.०७५ ४ ९१.०.१५
दि । सर्वं काव्यं कवेः कर्म । कतिरित्यर्यः । पुराणमित्येव पुराणत्वदिव साधु रम्यं न भवति । नवमिति च “वत्वादेव अवयं गमं न भवति । कितु सन्तो विद्वांसः ( सद सद्धिवेकरिनः ) परीक्ष्य पुराणं नवं च काव्यं गुणतो दोषतश्च परामृश्य अन्यतःत्तयोरेकं पुराणं नवं वा । गुणयुक्तमिवयर्थः । भजन्ते स्वीकुभन्तीतयर्यः । मृटो ऽस्तु परपत्ययनेयवुद्धिः परस्यान्यस्य ` प्रत्ययेन ज्ञानेन ( विश्वासेन तच्छदधादर्शनेनेतियावत् ) नेया प्राप्या बद्धिर्थस्य स तयोक्तः । ( तथा च प्रेञावताम् गुणदोषाकेव भैरवागौरव- योस्तत्रतरे न नव्यप्राचीनत्वे इत्यतोऽज प्रन्ये बहगुणवत्वात्
प्रवातः स्यात् नतु नव्यतवेनानादर इति भावः ) । अनेन कविकान्यप्रशंसा कृता ॥ शिरसेस्यादि । एवं परिषदः ( प्रसायाभिनया्थै तदाज्ञां निषु प्रकृतपात्रप्रवेशनाय कयां प्रस्तौति । ) शिरसा मूध्नौ प्रथमगुदीतां पूः स्वीकताम् । शिरसा ग्रहणेन भक्त्यति शयो गम्यते । परिषदः सभाया आज्ञां शासनं कर्तुं निर्तेपितुमिच्छाम्यभिलषामि । अत्रोपमामाह- धारिण्या देव्याः । धारिणी नाम कवानायकस्य पतनी । तस्या आज्ञां सेवा दक्षः परिचयौनिपुणोऽयं ( पुरोवतीं अनंतरमेवरंगभमौ प्रवक्षय॑तं रा्ञी- परिजनं अंगुल्या निर्दिशक्नाह । ). परिजन इव । परिचारको जनः परि. जनः । अनेन प्र्िपहेतुः प्रयोगातिशयो नाम म लाङमुक्तं भवात ॥ प्रस्ताबना ॥ कविरिदानीमङ्मारभमाणः कयोपयोगितया प्रमं मिश्र-
(१) ^, ©. ०५५. दति,
€.
(५ )
( ततः प्रविशति चेटी )
चे - आणतष्दि देवीए धारिणीर । अडरप्पैउत्तोवदेसं चलिअं णामणट्रअं अन्तरेर्णं कीरिसी मालविरएत्ति णद्भारिअं अज्जगणदासं पुच्छिदुं । ता जावं सीद सार गच्छम्दि । (इति परिक्रामति ) । ( कं )
( तरतः प्रविशत्यप॑तचेटी आभर णहस्ता । )
भ्रथमा--( अन्यां ष्टा) ह्म कोमुरीए कुदो दे इअं ॒धीरदा । „ जं समीवे वि अदिक्तमन्ती इदो दिटिण देति। (ख) । ` दविततीया--अम्हो बडलावलिओ । सहि देवीं दं सिपपिसओसादो । आणीदं सप्यभदासणाहं अङ्गुलीयं सिणंद्ध िंञज्ाअन्ती तुह उवालम्भे
( क ) आज्ञघ्रास्मि देव्या धारिण्या । अचिरप्रवृत्तोपदेशं चलितं नाम नाट्यमन्तरेण कीदशी माह्छविकेति नाटबाचायंमायगणदासं प्रष्टुम् । ` तावत्सगीतशालां गच्छमि । (ख) हला कौमदिके कृतस्त इयं धीरता। यत्समीपे ऽप्यति क्रामन्तीतो दृष्ट न ददासि ।
विष्कम्भं नामायपिक्षेपकं प्रस्तौति ततः प्रबिशतीत्यादेना । ` अन्तरेणेत्यय निपात उपदेशार्थे वतेते । चलितं नामनत्त
(नाट ) विशेषः । तदुक्तं“ तदे तचचलितं नाम साक्षाद्यदभिनीयते । व्यपारेश्य
पुरावृत्तं स्वामिप्रायप्रकाशकम् ' ॥ इति ॥ ( वृषपवदुहितुः शिष्ठाया ठतिश्वतुर्भिः पदैः समन्वितं छलिकं नामनाटकं । अचिरमुपनीता उ पदेश | धृतनियमा । कीदशं उ पदे शं गृह्णातीति जिज्ञासां नःट चाचार्य समीपे सखीप्रेषणमिति द्रष्टव्यं ) । ८ धैर्यम् चांचल्यं प्ररेतविषयमपेक््य विषया । न्तरे ऽनासक्ततेत्यथेः। ) यत्स्मपिनाप्यतिक्रामन्तीतो ष्टि न ददाति ॥ अहो । (१) प. ¶. बकुलावलिका. ( २ ) 1. अविरोवणीदा. ८३) 8. पि. । ©. ¶. ख्लिअं ( उ्लिकं) (४) . अन्तरे ८( उषदेकषगहणे ) „ष (५) । दाव ( तावत् ). ( ६ ) 2. ००. ततः ( ७ ) 8. तै, ©. 1. आामःणहस्ता ॥ द्वितीया केरी. (८) 8. पि. ©. 1. अन्या.(९) }९, समीवेण. (१०) प, । [णष्ललेाक्णद्5. (११) ए, प. ©. 1, णा ( नाग ). (१२) 8.14. 0. णिब्भाटअन्ति ( निभाटयर्ता )*
पडिदण्हि | ( क )
बकलाबछिका--( विलोक्य ) ठाणे ख्वं सज्जदि दिद । अङ्कलीअएण उन्मिण्णकिरणकेसरेण कूमुमिदो मिअ दे अग्गहत्यो पैडिभादि । ( ख ) क:
कौमुदिका हला क पथ्यिदासि । (ग) |
बकु ०- देवीए एवय वअणेण नद्ाआटिअं अञ्जगणदासं' उवदेसग्गहः णे कीरिषी मालविएत्ति पुच्छिदुं । ( घ ) च्व ।(ष) क ६ 4. (क ) अहो वकुलवलिका । सखि देव्या इदं रिन्पिसकाशादानीतं , सर्पमुद्रातनावमङ्गुलीयकं स्निग्धं निध्यायन्ती तवोपाकूममु, पूतितरस्मि ।
( ख ) स्याने खल् सज्जति ट्टे: । अनेनाङ्गुर्छधकेनोद्धिन्नकिरण- केसरेण कुस॒मित इव ते प्रहस्तः प्रतिभति ।
( ग ) सखि कुत प्रस्ितासि ।
( घ ) देव्या एव वचनेन नाटचाचार्थमायगणदासमपदेशग्रहणे कीदशी ` मालविकेति प्रष्टुम् ।
(आकस्मिकदर्शने हषौश्चर्ययोतकं अहो इत्यव्ययं ) वकृत्मवलिका साति इदं देव्याः शिन्पिसकाशादानीतं नागमुद्रासनायमङ्गुीयकं (नागमृद्रया ना- गविषहारकमणिखवितया मुद्रया नामांकनयेोग्ययंत्रमेदेन सनां युक्तं । अनेन विषहारकमणिना विद् षकस्य कत्रिमविषापदारो भविष्यतीति चतुर ङक व्यक्तीभविध्याति । ) लिग्धं निध्यायन्ती पश्यन्ती तवोपकम्भे पतितास्मि ॥ ` अनेनाङ्गुलीयकेनेद्धिन्नकिरणकेसरेण कुसृमित इव ने ग्रस्तः नाटकाचा- `
(+> ७. ©. रे, 1, १७४4 प्रवमा ५०व द्वितया ०॥ १११००४४ णि ककु, ४०4 कौम. (२) †. कि. 9. 1, ०५, (३) 8.8.¶, ` ४५५ दे (४) 8, (७. 1, पि, ०, ( ५ ) २, १५११ तृमक्छ तुम उण, (६ ) `
6. ५११ सुणाहि. (५) ए, ७. प. 1, ०० (<) ति. नाढमाः ( १) ` 1, ©* 1, ।५७॥ पृचच्वं 11८79 ४०५ रष, स्वि ५५ ००, ।४8॥ पुच््छिवि,
( ७) कमु ०-- सहि ईरिसेण वाव्वारेण अर्पोणिहिदा वि दिध किल सा
| भटरिणा। (क) .
बङ०-- आनं । देवीए परस्सगदो सो जणो चित्ते दिष्टो । (ख ) कौमु०-- कहं विअ । (ग) बकु ०-- सुणाहि । चित्तसार गदा देवी प॑चग्गवण्णराअं वित्तरेदं
1 आअरिस्स ओलोअन्ती चिद्रइ । तरि अन्तरे भद्र उवरि । ( घ)
कमु ०-- तदो तदो । ( च ) बक ०-- तदो अ उवआराणन्तरं एक्तासणोवविदरेण भद्रिणा चित्तगदा
ए देवीए परिअणमज्ज्ञगदं आसण्णञअरं तं पेकेवअ देवी पुच्छिदा । (छ)
कौम ०--किवेअ | ( ज )
व्यापरेणासंनिष्ितापि [ ~ | व कय थ + ( क ) सचि ईशेन व्यापरिणासनिरितापि दष्टा किर साभा । ^“. ( ख ) आम् । देव्याः पाशचंगतः संननश्वितरे दः > ८.२ ==:
(ग) कथमिव ।
( ध) णु । चित्रशालां गता देवी प्रत्यग्रवणरागां चित्ररेखामाचारय स्यावल्छेकयन्ती तिष्टति । तस्मिन्नन्तरे भर्तोपस्वितः।
(चं) ततस्ततः । ^~
( छ ) ततश्चोपचारानन्तरमेकासनोपविष्टेन भत्र चित्रगताया टेव्या प्रिजनमध्यगतामासन्नतरां ( चरां ) तां प्रक््य देवी पृष्ट । ` (ज) किमिव।
. र्यमार्यगणदासं ष्टम् उपदेशग्रहणे कीटशी मालिकेति ॥ सलि ईशेन
"चा 0 कक क कक् ^
व्यापारेणासिनिदहितापि सा कयं भत्र ट्टा । ( ईदरेन अभिनयशिक्षण व्यापारेण कर्मणा तदभ्यासाय अन्यत्रावस्थितेरावरयकतवात् न तस्याः तत सनिधिसंभव इत्याह असन्निहितेति देव्याः अन्तः पुरस्य वत्यर्थ; । कथं
(3)8. 6. पि.ण. साकं माणा दद्रा (२), ©, पि, १
सो जणो देवीर &५ ८३) 8, ©. 4. ४५१ नदा. (८४) पि. ०० क&
४04 अ नि भटा. ८५) 8. 6. 1, च. ०, तदो अ. (६) 8.
५७. 1, आस्ष्णपरिआरिथं & म. आसण्णदारिमं ). (८५) 13. ©, पि. प. किचि 4
4
११५४. ।
(#) |
बकु9-- अपु] इअं दारिआ तह आसण्णा आसिहिदा रकिणामहे अत्ति। (क)
कौम ०-- भाकिदिविपेसेस॒ आअरो पदं करेइ । तदो तदो । (ख )
बकु०- तदो अवहीरिअवअणो भद्र किदो देवीं पुणोवि अणाब न्धिदुं पउत्तो । तदो कुमाीए् वसुलच्छीए् आचक्खिदम् । आवत एसा माखप्रिएत्ति । ( ग )
कौमु ०--( सस्मितम् । ) सरिसं क्खु बालर्भीवस्स । तैदो वरं कोहि । ( घ )
बक ०-- किं अण्ण | सेपदं मालविंआ सवितेसं भट्रिणो दंसणपहा- दो रख्खीअदि । ( च )
( क ) अपूर्वेयं दरिका तवासन्ञालिलिता किनामघेयेति ।
( ख ) आकृतिविशेषेष्वादरः पदं करोति । ततस्ततः ।
( ग ) ततोऽवधीरितवचनो भनत्तौ शङ्कितो देवीं पुनरप्यनुबन्ध् प्रवृतः । ततः कुमार्या वसुलष्षम्याख्यातम् । आउत्त एषा मालवकेति । ^... ( घ ) सदशं खल् बालभावस्य । ततः परं कयय ।
( च ) किमन्यत् । सांप्रतं मालविका सविशेषं भवै शीनपयाद्रक्ष्यते ।
भत्र द्षटेत्यक्तिः प्रकतकयप्रसंगार्यः । अनेन च कयोद्रातेन तस्याः भतरं प्रवेशो भविष्यतीति प्राकूपृचितं । “ असूचितस्य प्रवेशो नास्ति । इति नाटकसंप्रदायात् तत्मृ चनं ) । आमेत्यभ्युपगमे ( आमइत्यगीकारे ) । स जनो देव्याः पा्खगतश्िवे ष्टः । ( प्रत्यग्रः वर्णस्य रागो यत्र चित्र- ` रेखायां ताद्षौ ) । भरत चोपस्थितः । आसन्नदारिकां । अपूरवेथं दारिका आसन्नाच देव्या आनिविता किनामघेयेति ॥
(१ ) 4. अपृन्व्वा ( २ ) 8. ७. ¶. देवी आसण्णा नि, आसण्णा अ देवीए ( ३) 7, 0. ¶1. अकिदिविसेते ( आखतिषिशेषे ). ( १ ) ४, 2. 00. ( ५ ) पि. ०४, अकि 8०५ 4. पुणो पणो वि गिन्बषि, (६) ॐ. ५* प. 1. अज्ज. 97 अज्जउत्त 12. ध, ४५५ जाव देवी ण कदि दाव. (*) ए. ~. अ. 4. छं (<) ति. वदोकरं १०१8. 9. 7. कदो अकर. `
(५)
कौमु ०--हस अगुचिद अप्पणो णिंओञं । अहं वि ददं अङ्गुलीः
अञ देवीए उवणरस्सम् । ( इति निष्क्रान्ता ) ( क )
क ०-( परिक्रम्यावलोक्य च । ) एसो णद्राआरिओ अज्जगणदासो" सेगीद साल्मदो णिक्रमाद` । जाव से अत्ताणं दंसेमि । ( इति परिक्रामति । ) (ख)
( प्रविस्य )
० गणदास्षः- कामं खल् सर्वस्य कुखविद्या बहुमता । न पुनरस्माक
नाटचं प्रति मिथ्यागौरवम् । कुर्तः। देबानाभिदमामनन्ति मनयः कान्तं क्रतुं चाषं
( क ) हला अनुतिष्ठ आत्मनो नियोगम् । अहमष्येतद कुंलीयकं देव्या
उपनेष्यामि ।
( ख ) एष नाट्याचाययं आर्यगणदासः सेगीतशालखतो निष्क्रामति । यावद स्मायात्मानं द यामि ।
( अवधीरितं देव्या प्रयुत्तरादानेन अवज्ञातं वचनं यस्य अत एव शंकितः शंका मद्र चनश्रवणे पि कयं नोत्तरं दत्तमित्यत्र केनचित् कारणेन भवितव्यं
ग्वा न
१ ॥ 4.
८,
नवेत्याकारकः संशयो जातो यस्य तारकादेलात् इतच् । ) आर्यं एष इत्यादि ।
अपुव्वा इअं दारिभ ' इत्यारम्य ' दे सणपहादो रक्लीअदि ' इत्यन्तेन वाक्यकदम्बकेन गम्यमानो मालविकागोचरो राज्ञो ऽभिल्ाषो+त्र नाटके बीजः मित्यनुपस्येयम् ॥ सखि आत्मनो नियोगमनुतिष्ठ । एष नाटचाचार्यः संगी तशाल्ातो निर्गच्छति । देवानामित्यादि । मुनयो भरतमतङ्गादय इदं नायब
(१ ) 8. ©. ‰. परि. अत्ताणो. (२) प. अत्ताणो णिओओ अणुचिद्र. (३) 4. 2. देवीए अंगुलि &०. (9४) 8. ७. प्रि, ¶. ०, (५ ) 8. ७. ४. 1, गिगच्छदि. ( ६ ) 8. ©. ४4५ गणदासः 0616. (५ ) ‰. ©. वि. 7. ४44. अपि. (< ) 3. ©. 4. कुतः | तथाहि । ३१, तथारि- (९ ) 2१. शान्तम्.
ब
= नद+^ १,
(०) ध
सद्रेणेदमुमाक्ृतव्यतिकरे स्वादे विभक्त द्विधा । ॥ ेगुण्योदधवमत्र लोकचरितं नानारसं दश्यते `~“ ` नाटचचं भिन्नरुचेजंनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम् ॥ ४ ॥
देवानामिनद्रादनां क्रतुं यज्ञं (सकल्पं च) आमनन्ति । (एतदनि चक्षुषः प्रीतिकरी देवानामभीष्टय संकल्पयो परािरितयर्य) कीदशम् । कांतं (शान्तं) सीम्यम् । पशुविशसनादिरहितमित्य्ंः । पुनः कीशम् । वचाघषुषं चकषुरनुभाव्यम् । ( तेन वास्तविकयज्ञादस्य विशेषः ) । अस्य नाटेबस्य क्रतुत्वनिरूपणं चतुरमद सारनाटयवेदविहितकम॑त्वादिति मन्तव्यम् । तथा च कुमारसंभवे-“ कर्म यज्ञः फलं स्वर्गः ' इति । अत्र॒ चतुर्ैदसारत्व भारतीये प्रतिपादितम्“ सवंशाखत्रायंसेपन्नं॒सरवरिल्पपरद डनम् । नाट्-
सज्ञमिमं वेदं सेतिहासं * करोम्यहम् ॥ एवं सेकल्प्य य
रन् । नाठचवेदं ततश्चक्रे चतुर्वेदाङ्् संभवम् ॥ जग्राह
त्सामभ्यो गीतमेव च । यजर्वेदादभिनयान्रसानायर्वंणादपि ॥
बद्धो नाय्यवेदो महात्मना । एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा ललितात्मना ॥ उत्पाद्य नाटबवेदे तु ब्रह्मोवाच सुरेश्वरम् ॥ इति ` प्रकारान्तरेणाप्यस्य करतुत्वं प्रतिपादितम- प्रयोगं यश्च कुर्वीत प्रेते चावधानवान् ॥ याग- तिर्वेदविदुषां या गतियंज्गयाजिनाम् । या गतिर्दानशीत्मनां तां गात प्रापुयान्रः ॥ ' इति । पुनः कीद् शमिदं नाटच् । रुद्रेणेश्वरेणेमाकत- व्यतिकरे उमया पार्वत्या कृतो' व्यतिकरः सेवन्धो यस्य॒ स ॒तथोक्तस्त-
सिमन्साङकं आमदेहे दविधा म लमस्यताण्डवरूपेण लं प तम् । ( च्रीपुंसयोनत्ययोर्भेदात् मनतंनं गी च स्रीनर्तनंकृतमित्यर्थः ) तथा चोक्तं॑संमीतविदाविनोदे -* उदण्डताण्ड- बमुद नरितलास्यलील कतुं स्वयं युगपदेव समुतसुकात्मा । यकामिनी कलितिकम्रतरार्धकायः सोयं विभाषे विभुरादिनटः सराणाम् ॥ ' अत्र नाटबे त्रेगुण्योद्रवं । त्रयो गुणाः सत्वरजस्तमास्येव , ५५ | चतुर्वणादि त्वासवा्ये ष्यञ् । तस्मादुद्भवमृदतं लोकचरितं ल्मेकानां लोकस्यानां ( प्रशस्यानां ) रामाद्यनुकायौणां चरितं ( चेष्टितं ) सुखदु :ख-
( 3 ) स्वगि; ( २) १. समाराधकम,
न ना न का
नीक
(भ.
बकु०--( उपगम्य । ) अज्ज वन्दामि । (क ) गण०-- भद्र चिरं जीव ।
बकु ° -- अञ्ज देवी पुच्छदि । अवि उवदे सग्गहणे णादिकास्सादं बो तिस्सा मालविएत्ति । ( ख )
गण०-- विज्ञाप्यतां देवी परमनिपुणा मेधाविनी चेति । किं बहुना ।
+ , ° ष,
यद्यत्पयोगविषये भाविकमुपादश्यते मया तस्ये ।
1 - ५०.९१५ +^... (क ) आयं वन्दे । ( ख ) आर्यं देवी पच्छाते । अप्युपदे ग्रहणे नातिष्किश्यति वः
शिष्या मालविकेति । १० "८६. ‰.८..2 4 प
मिश्रात्मकं चरित्रं नानारसं नाना बहुविधा रसाः प्रीतयो यस्मात्तयोक्त म॒ । इस्यते ज्ञायते । सामाजिकैरनुभयत इत्यर्थः । स्मकानुकारयस्य चरि तं सुखदुःखमिश्रात्मकमपि नाट्येनमिनीयमानं सत्सुखरूपेभेव प्रतीयत इति भावः । पुनः कीटशम् । नाटचं नटनप्रयोगः । एकमप्येकैकमपि भि न्नरुचेर्भिन्ञा बहुविधा रुचयः प्रीतयोयस्य स॒ तयोक्तस्तस्य जनस्य बहुधा बहुप्रकरेण शृङ्रहास्यदिरूपेण समाराधनं सेतर्षकम् । तया चोक्तं भारतीये --त्रैरोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानकीर्तनम् ॥ धमे धर्मपरत्तानां कामः कामोपसेविनाम् । अर्यौपजीविनामर्यो धुतिरूदि चेतसा मरू | नानाभावोपसंपन्ने नानावस्यान्तरात्मकम्,। ोकवत्तानुकरणं नाटचमेत
, न्मया कृतम् ॥एतद्रसेषु भवेषु सर्वैकमंक्रियासु च । सर्वोपदेशजननं नाट मेत द्रविष्यति ॥ न तज्ज्ञानं न तच्छित्पं नसाविद्यान सा कल | नासौ
योगो न तत्कर्म नाटबर प्स्मन्यन्न टर्यते ॥ ॥ इति ॥ यद्यदित्यादि ॥ प्रयोगविषय ऽभिनयर्वे मया तस्थै मालविकायै यदयद्राविकं भाववत् ( शुं गाायवस्याविशेषाय दितंठक् ) । “ अतइनिठनै । इत ठन् । नुत्यमित्यरथ;।
(१) 8. 6. प. 1. जेत्य, (२) 8. ©, ¶. अज्ज ( आये).
(२) पि. इ्िनावि, ‰. हशयति, 8. 0. क्किष्यते. (३) 8. ७. ४. ¶. 204 भद्रे. ( ४) 2. विभाव्यतां.
~ ११)
तत्तद्विशेषकरणात्प्त्युपदिशतीव मे बाखा ॥ ५॥
बकु०- ( आत्मगतम् ) अदिक्रमान्तिं विअ इरावदिं पेक्तैीमि ।
( प्रकाशम् । ) किदत्या दाणि वो सिस्सा जैरस्सि गुरुअणो एवं तुस्सदि ।
(क)
गण ०-- मद्रे तद्विधानामसुलभत्वातृच्छामि । कुतो दे्व्यास्तत्पात्र मानीतम् ।
बकु ०--अत्यि देवीए वण्णावरो भादा वीरसेणो णाम । सो भद्िणा अन्तपील्दुगगे मरन्दौइणीतीरे इाविदो । तेण सिप्पाहिआरे जगा इअं दरिएति भइणीर्प उवाअणं पिदा । ( ख )
( क ) अतिक्रामन्तीमिवेरावतीं प्रेषे । कृतार्यदानीं वः शिष्या स्वां गुरुजन एवं तुष्यति ।
(ख) अस्ति देव्या वणीवरो भ्राता वीरसेनो नाम मत्रीन्तपाच्दुर्गे मंदा- ५५ स्थापितः । तेन शिल्पाधिकारे योग्येयं दरिकेति भगिन्योपायनं ता।
ययोक्तं --* आङ्किकाभिनयप्रायमल्पवाचि ससालिकम् । भावानामास्पदं नित्यं पदार्यव्यञ्जनात्मकम् । ||इा॥ उपदि श्यते । बोध्यते । तत्ता्ैशेषकरणात्तस्य तस्य भाव्रिकस्य विशेषेणातिशयेन करणं निवन तस्मात्सा बाल ( बाल्या- .. वस्थापन्नापि वयसा) मे प्र्युषैदि शचतीव । अनेन तस्या नृतये प्राविण्यातिशयो गम्यते ॥ (यो हि विशेषज्ञः स शिक्षकः इतिसंप्रदायात् )। अतिक्रान्तमिवेरा- वतीम् पञ्यामि (इरावती अप्सरो विशेषः) । (वणैतो ऽवरः तविितुः वैरयागर्भजा- तत्वात् तस्यावरत्वम् ) वीरसेनो नाम भ्रौ नर्मदातीरे ‹न्तपाल्दुर्गे स्यापितः।
(१) पपि. अदिकतं ( अतिकतां ). (२) पि. पेच्छामि ( ष्रश्यामि ). (३) पि. जाए (यस्यां) (१) 3.9. 9.¶. दे्यातत्. (५) मि. 0. (६) 8. ७. 1. अन्तवालदुगे णम्मदातीरे. }१. णम्मदातीरे अन्तवालदुगणे. णम्मदाकले. 12. मंगणीदीरे. (५) प. ४4 माणि. ( < ) 8. ©. 4. बहि ( प. मकण ) देवीर्
( ९३ ) ॥ भोम. ६ =
„मातवा । ( प्रकाशम् । ) मयां भद्रे यशस्विना भवितव्यम् । यतः । : पात्रविशेषे न्यस्तं गुणान्तरं रजति शिल्पमाधातुः । :: जलमिव समुद्रशु क्तौ मुक्ताफरूतां पयोदस्य ॥ ६ ॥ क ०---अह कर्हिवो सिस्सा | (क ) गण ०--इदानीमेव पञ् चाङ्गाभिनयमुपदि श्य विश्रम्यतामित्यभिदिता दीर्धिकावल्गेकनगवाक्षगता परवा्मासेवमाना तिष्ठति ।
बक०- तेण दि अणुजाणादु मं अज्जो । जाव से अज्जपरितोस- णिवेदणेण उच्छाहं वहवोमे । ( ख )
(क) अय कुत्र वः रिष्या ।
(ख) तेन ह्यन॒जानातु मामार्यः । यावद स्या आर्यपरितोषनिवेद नेनोत्साहं वधेयामि ।
तेन शिल्पाधिकारे कल््विद्याधिगम इयं योग्या दापिकिति भणिता भगिन्या देव्या उपायनं प्रेषिता अनूनवस्तुकामनुनमनल्पं विरिष्टं वस्तु वृत्तं यस्याः सा तथोक्ता तां संभावयामि मन्ये । पाञ्चविशेष इत्यादि । आधातुरूपदे- टुः शिल्पं कल्याविद्या पात्रा्शोषे विशिष्टपात्रे न्यस्तं निहितं सत् गुणान्तरं गुणविशेषं व्रजति प्राति । अत्रोपमामाह पयोदस्य मेषस्य जलं समुद्र शुक्तौ न्यस्तं सत् मुक्ताफलतां भीक्तिकत्वामिव || अय किम् । अय कुत्र वः शिष्या ॥ इदानीमित्यादि । पञ्राङ्ाभिनयं पञ्च अङ्गानि यस्य॒तत्त- यक्तम् । प्रेरणापित्यर्वः । तस्याभेनयः प्रयोगस्तमिदानीमदैवोपदिस्य
(१) 8. ७. प. ¶. आछ्तिविशेषपरत्ययात्. २. आङतिपरत्ययात्. (२) 98. 68.2.14. मद्रे मयापि. (२) पात्रविशैषन्यस्तं, (9) 8. 0.4. अज्ज {0 अह 200 पि. 90 अह इ. (५) 8. 6७. 14. दाणि. (६) 38. 6.17. पचागादिकमभिनयं. परचागमभिनयं. (५) 8.0. ति. 1. ४५ मया. ( < ) अप्रवातं पुरोवातं, ८ ९ ) ३. ४4 पृणो. ( १० ) १. अज्जस्स प्ररितोस. &८५
( %8 ) मग ०--दस्यतां ससी । अहमपि लब्धक्षणः स्वगृहं गच्छ । ( इतिनिष्करान्ती । ) मिश्रविष्कम्भकः । (ततः प्रविशत्येकान्तस्थ परिजनो मन्त्रिणा केखहस्तेनान्वास्यमानो राजा । )
राजा-- ( अन॒वाचितकेखममात्यं वि्मरेक्य । ) बाहतव किं प्रतिप
~ , द्यते श्रदर्भः। “~:
अमात्यः -ओत्मविनाशम् । । राजा-- पदे शमिदानी श्रोतुमिच्छामि ।
शिक्षयित्वा । प्रवातं प्रशस्तो वातो यस्मिन्देशे स तयोक्तस्तम् । प्रेरणस्या ङु पञ्चकमुक्तं सगीतरल्नाकरे -' न्तं तथा च कैवारो मर्मरो र) (बागडं) तया । गीतं चेति समाख्याते प्रेरणस्याङ्पञ्चकम् ॥
स्यातकरैवारं जागरं विना । ( चित्ताकिश्रहस्तपादिरगैश्वष्टारिसाम्यतः ।
पात्रा्यवस्याकरणं पश्रांगो.ऽभिनयो मतः ॥ इत्यक्तपञ्रागकं आदिपदेन
‹ भवेदाभिनयो ऽवस्यानुकारः स चतुर्विधः । आंगिको वाविकशचैवमाहार्थ साविकस्तया ' इत्युक्तचतुरंगकं । अभिनयं पात्रादेः चित्तादिभैः साभ्य करण । प्रकटो वातस्तमासेवमाना भजमाना । ) इति । अत्र
रूपनुान्तरोपक्रमकयनेन चङ्तिकनततं साकल्येन परिचितमिति सूच्यते । तेन हि पुनरनु जानातु मामार्यः । यावदस्या आर्यस्य परितोषनिवेदनेनोत्साहं वर्धयामि । रब्धक्षणो लब्धः प्राप्तः क्षणो निर्व्यापारस्थितिरविश्रमो येन स तथोक्तः स्वगृहमात्मगृहं गच्छमि । मिश्रविष्कम्भकः ॥ ततः प्रविशतीत्यादि । ( अन्वास्यमानः पश्वादु पवेशनेन सेव्यमानः | अ न्वापितमरूधत्योत वत् अनुपूरमकासतेः सकर्ममकत्वम् । ) बाहतवेति त-
स्यामात्यस्य सज्ञा | वैदर्भो विदर्भराजः कि प्रतिपयते किं कायं मन्यते ॥ ` सेदे सेदि टावं श्रोतुभिच्छामि ॥ अनेन वैदभेणेदं प्रतिलिवितं प्रदयुत्त- ` (१) ए. 0. पि. 1. 4. विष्कमः (२) 8. 9. पि. 4. न्विति, (३) |
.बाहतक, ( ४ ) 8. 9. (7. कहतक. (५) ए. 6.१. 1. ५ चे (९) 1. निदेशं, 8. ७. निर्दर, ( * ) 8. 9. 4, ज्ञातं
| |
| $) अमात्यः इदमिदानीमनेन प्रतिलिखितम् पयेनादमादषटः (पि-
तृच्यपुत्रो भवतः कुमारो माधवसेनः प्रतिश्रतसंबन्धो ममोपान्तिकमुपागच्छ न्नन्तरा लदीयेनान्तपाेनावस्कन्य गृहीतः । स त्वया मदपेक्षया सकलत्र
०५४
सोदर्य मोतैयितव्य इति?। त्न बो न विदितम् ५ भेमिषरेषु
रज्ञां पततिः । अतोऽ मध्यस्थः पूज्यो भवितुमर्हति । पनरम्य ग्रहणविषवे विनष्टा । तदन्वेषणाय प्रथतिष्ये । अ्थीवर्यमेव माधवसेनो ' पूज्येन मोचयितव्यः श्रयतांमैमि संधिः । "जर
सत्वेनाभिलिखितम् । पूज्येन पृजर्देण त्वया । अभिमित्रेणेत्ययं; | अहं . वैदभं आदिष्ट आज्ञप्तः । तमेवादे शं विवृणोति-- भवत इत्यादिना भवतस्तव॒ ८ वैदभस्य पितव्यपत्रः . पितृध्रातुसुतो माधवसेनो नाम भतिश्रुतसेबन्धः प्रतिश्रतोऽडीकृतः संबन्धः कन्यकाप्रदानरूपो येन त तथोक्तः । ममोपान्तिकं मत्समीपे ( अक्ष ( आक्नोमत्रस्य तरस्य समपि ) उपसप॑न्नप गच्छन्ञागच्छन्नन्तरा मध्ये त्वदीयेन ववत्संबन्धिना ( वदर्भसंबन्धिना ) अन्तपलेन ( अन्तस्य परयैन्तस्य पालेन रक्षकेण ) सीमादु गैरक्षकेणावस्कन्य पयि प्रहत्य गृहीतो निरुद्धः ( अवरुध्य निगृहीतः ) । बन्दीकत इत्यर्थः । स माधवसेनसूवया भवता वैदर्भेण मदपेक्षया ( अ्निमित्रे) मय्यपेक्षा इच्छा । स्नेह इत्यर्थः । तया हेतुना । सकख्त्रसोदर्यो भायौभगिनीसहितः। “वोपसजेनस्य' इतिसहशब्दस्य सादेशः । मोक्तव्यो विसजेनीयः । इति समाप्तौ । एतावता वैदर्भेणाभिमित्रपेषितपति कायानुवादः कृत ` इत्यनुसं धेयम् । इतः परं प्रत्यत्तररूपं वैदभभवचनमच्यते-- एतन्ननु शो विदिः तमित्यादि । एतद्वक्ष्यमाणं वो युष्माकं विदितं नन्वित्यत काकुरनुः सेधेया । तुल्याभिजनेषु समानवंशेषु । ज्ञातिषित्यथंः । ( तथा च माधव सेनः अस्माकमेकान्वयजः ततर ज्ञातिभिःसह वैरं विशेषतो नुपाणां भवत्येव |
( १ ) प्रतिेखित, ८ २) 8. ©. 2. 7. उपसर्पन्. ( १ ) प. मोक्तन्यः (४) 8.6. 0. त्वो न विदितं, }प. एतन्न नु वो विदितं , तन्नषो विदितं. (५ ) 4. भूमिभरेषु. £, म॒मोरिव हष. 0. ( ६ ) ‰. प्रवृत्तिः ( ७ ) 4. १. ००, (< ) 8. 6. सोदरी; 7, सोदरा. ( १ ) 3, ७, ¶, यतिष्ये. (१०) 8. ©. पि, अथवा अवश्यं, ( 3१ ) 8, ©, नि, 7, ४५ सया. (१२) ४4 मम.
न्द (९६) + 'मो यंसाववं विमुञ्चति यादि पञ्यः सेयतं मम श्यालम् । मोक्ता माधंवसेनं ततो ऽहमपि बन्धनात्सथः ॥ ७ ॥ हंति ।
राजा--( पैरोषम् ) कयं । कार्यविनिमयेन मपि व्यवेहरत्यनात्मन्ञः। वा्हतव प्ररत्यामित्रः प्रतिकलचारी च मे वैदः । तद्यातव्यपक्षे स्थितस्य
` पूरवसंकल्पितमुमूलनाय वीरसेनपरमुखं दण्डचक्रमाजञापय । धि "ऋ । | ५ । कथि , ` थुः - अमास्य;-- यदाज्ञापयति देवः । (१५१५६) £ `)
राजा-- अथवा किं भवान्मन्यते । अमात्य; शाख्रदष्टमाह देवः । कतः ।
अतः कारणादस्मिन् विषये पूज्यो ऽभनिमित्रो भवान् मध्यस्य: मध्ये उभ- यपक्षसाहाय्यस्याभवे स्थितः । ) राजञां वृतिर्वतेनमीदश्येवधोतै यत्तन्न बो विदितमिति सबन्धः । अतो.ऽस्मात्कारणाद वास्मन्नरये पूज्यो भवान्मध्य- स्यः समो भवितुमहीति । अस्य माधवसेनस्य सोदयं पुनः स्वसा पुनर््रहण- विवे विनष्टा तिरोहिता । ( सेोदरेत्युक्तिः प्रकतकयोपयोगिनी तचप्रेस्पषटं भविष्यति । ) तदन्वेषणाय तस्या अन्वेषणाय गवेषणाय प्रयतिष्ये । अय वोत पक्षान्तरे । ( माध्यस्थ्यं विहाय माधवसेनपक्षपातित्वं कर्तव्यं चेत् तवाह । अयोति । अय माध्यस्थ्यं विहाय माधवसेनपक्षपातित्वे मया वैद- भण हेतुकत्री पूज्येन मान्येन भवता अश्भिमित्रेण प्रयोजककर्त्रौ माधव सेनो वद्यं मोचनयिस्तदा अयमभिसंधिः अभिमुखः पणः उदेशो वा । ) मोचयितव्यो त्याजयपितव्यः [' अभि संधिर्निश्वयः । भै यै साचिबमित्यादि । पूज्यो भवान्संयते त्वया निगितं मम श्यालं पत्नीभ्रातरं ीर्यसचिवं भैर्वस- चिवनामानं विमुश्रति यादि त्यजति चेत् ततस्तस्मात्कारणान्मया सदयः सपदि माधवसेनो बन्धनात् ( निर्गत्मत् ) मोक्ता मुक्तो भविता । मृशते कर्मणि छ्ट्। =
( १ ) 8. ७. 1. आर्यसंचिवं मुंचति. ( २ ) ६. मोक्तामाधवतेनस्ततो मया &५. ( ३ ) 9. ७. च. 7. ०0. (१) 2. 00. सरोषम्. (५) 8. न्याहरति. ( ६ ) 8. 0७. 1. कहतक. ( * ) 93. 0. च. 1. 4 ( < ) ०४. ( ६ ) 0. सम॒न्मकनाय. ( १० ) 2१. वीरसेनमषं, ८ ११) 9. 0. >. 1. ०,
८4 ( ९७ (क (५ 4 अविराधिष्ितराज्यः शः प्रृतिष्यरूढम् खुत्वा ।
। राजा- तेन ह्यवितवं॑तन्त्रकारवचनम् । इदमेवं निमित्तमदाय “` समुदयोज्यतां सेर्नपापिः । र
अमात्यः-- तया । ( इतिं निष्क्रान्तः |} ु ( परिजनो ययाव्यापारं राजानमभितः स्थितः } ~~> ~ ^ | । ( प्रैविरं । ) बिदूषकः--आणत्तोहधि तत्तदोदा रण्णा । गोत्तम चिन्तेहि दाव उ- । बाञं । जह मे जदिच्छादिद्रपडिकिदी माखकरआ पच्छकंखदं सणा ोदित्त । । मए विं तत्तहा किदं । जाव से णिवेदोमि । ( इति परिक्रामति । ) (क) 1 ॥ राजा--( विदूषकं दष्टा । ) अयमपरः कारयौन्तरसचिवोऽस्मानुप- |
= त 1 जि कअ कः 3 92 0 अ वा स = क
। नव॑संरोहणशिथिरस्तरर्वि सकरः समुद्धतम् ॥ ८ ॥ । ।
। (कं) आन्ञपतो ऽसमि तत्र भवता राज्ञो । गौतम चिन्तय तावदुपायम् । । यथा मे य्च्छाष्टप्रतिकतिमालगविका प्रत्यक्षद शना भवतीति ।. मयापि तत्तया कृतम् । यावदस्म निवेदयामि ।
। (जैक्तेति शीत्मर्यत॒णतत्वान्न तयोगे कर्मणि षष्ठी । ) इति सिखिता्समप्तौ । ` प्रत्यमित्र: स्वभावतः शत्रुः । अत्र प्रकत्यमित्रतवं च वरिषयानन्तरत्वादिति , मन्तव्यम् ॥ ( यातव्यप्षेयुद्धार्थममियास्यमानपक्षे शत्रुपक्षे इति यावत् । दं उचते ऽरिरेभिरदं डाः पैन्यानि तेषां चक्रं समुदायं । ) अचिराधिष्टितेत्या- दि । ( प्ररत प्रनादिषु अचिरािषठितराज्यः अविरमाप्तयधिकारोऽरूढ- क्ैूठत्वाद टटमृलत्वाक्नवसंरोपणदिविलः नवाधिसेदणेन शिविलः छयमृकः
| समृद्धरतमुत्पाटयितुं नाशयितुं च सुकरः । ) तेनारूटमृलत्वेन हेतुना । तन्त्रकारवचनमय॑ शास््रकारवचनमतरेतयं हि सत्यमेव । भविष्यतीति शेषः ।
क
। (१) 8.6. >. +. सेरोपण. (२) पर. ४44 कवन. (३) प. ` ४ ८ ४) ष. सेनाधिपतिः ( ५ ) 2. ५७ ७१४५।६७४ 90© विद्षकः । ( ६ ) 0. 0. 1. ४५4 विद्षकः ( « ) 8. 6. 2.4. अ
६५ :
(९८) विदूषकः ( उपसूत्य । ) वदु भवं । ( क ) राजा--( संशिरःकम्पम् । ) इत आस्यताम् ।
( विदूषक उपविष्टः । ) राजा--कचिरदुपेयोपायद हीने व्यापृतं ते प्रज्ञाचक्षुः । दूषकः - पओभसिद्धि पच्छ । ( ख ) ५९ राजा-- कथमिव । बिदूषकः--( कर्णे । ) एव्वं विअ । * (ग )
( ख ) वर्धतां भवान् । ( ख ) प्रयोगसिद्धि पृच्छ । (ग ) एवमिव ।
हिशब्दोऽवधारणे । ' हि हेतावधारणे ' इत्यमरः । इदमेव वैदर्भस्य ` कार्यविनिमयरूपमेव वचनं वाक्यं निमित्तं हेतुमुपादायावलम्ब्य समुद्योज्यतां ्रव्त्यताम् ॥ मयाच तत्तया कृतम् । अव गम्यमानं राज्ञो मालविकाद हीनौ त्सुक्यमारम्भो नाम प्रथमावरस्येति मन्तव्यम् । अत्र बीनारम्भयोः समन्वया- न्मुखसंधिरित्यनुसेधेयम् । उपेयोपायद शने उपेयस्य साध्यस्य मालविकासा क्षाद हीनस्योपायद शने साधनन्नाने ते प्रज्ञाचक्षुः प्रतिभाद्ष्टिः किचिदीषदपि व्यापृतं प्रसृतम् । अपि प्रश्रे । ( उपायेन हेतुविशेषेण उपेयस्य प्राप्यस्य प्रकरणदिह दश्यस्येत्य्यादरीने साक्षात्करणे इय्ये्ण्यन्तात् स्युट् । निमि्तर्ये सप्ताम । द इीनायेत्यर्थः । ते तव प्रैव चक्षुः पदार्थपरिच्छेद कत्वात् ुद्धिनेतरं व्यापृतं स्व्रिषयग्रहणाय सम्य कच्चित् । मालिकाया ह्यद नाय उपायं किविचिन्तितवानित्यर्यः) । अत्रगम्यमानस्य माल्षैकारूपस्य बीजस्य विन्यासादु पक्षेपो नाम सेध्यङमृक्तं भवति ॥ ( प्रयुज्यते ऽस्मै इति प्रयोगः ` तस्य मालाविकादशनरूपस्य सिद्धि पृच्छ किमुपायवितनपुच्छयेति भावः) । कर्णी । एवमिव । एतद चनं नियतस्य व्यापारान्तरभेदयस्य गृद्यतरार्थस्य
(१) 8. 6. प. 7. उपगम्य. (२) }प. अपि किंविद्येयोपाय &५, 20 ए. ©. 1. कञ्चिदुपायोपेय & ( ३ ) २. ४4 जा, आः (४) ए. 6. 7. ५4 ( इत्यवद्यति । )
६, शाजा-- साधुं वयस्य निपुणमुपक्रान्तं । इदौनी। दुरधिगमतिद्धावप्य सिन्ञारम्भे वयमाशंसामहे । कुतः । ` अथ सप्रतिबन्धं प्रभुरधिगन्तुं सहायवानेव । -.\..- दृश्यं तमसि न परयति दीपेन बिना सचक्षुरपि ॥ ९॥ ( नेपथ्ये । ) ` अलमलं बहु विकथ्ये । राज्ञः समक्षमेवावयोरधरोतैरव्यक्तिभविष्याति । राजा- सखे वन्नीतिपादपस्य पुष्पमुद्भिन्नम् । बिदू०--फलं विं अदेरेण देक्खिस्ससि । ( क ) ( ततः प्रविशति कश्चैकी । )
( कं ) फलमप्यचिरेण द्रक्ष्यति ।
~ ककमा नारण्यो
प्रयोगे कविना प्रयक्तम् । तयोक्तम् कर्णे एवमिवेत्युक्वा ज्ञाप्यः पश्चा त्मसङ्तः ' इति ॥ ८ नाटयाचर्येण गणदासेन हरद त्तस्य विवाद म॒त्याप्य शिष्य प्रयोगद दनात् तन्निरणये ऽवधुते गणदासेन स्वशिष्यया मालवरिकया अ भिनयकरणसमये तस्याः प्रतयक्षद दीनं भविष्यति । तचानुपदं द शयिष्यते । ) ` इदानीमित्यादि । अस्मिन्नारम्भे माखविकासाक्षाद ेनोयोगे दुरधिगमपि- द्वावपि दुरुभसिद्धौ सत्यपीदानीं वद्र चनश्रवणानन्तरं वयमाशेसामहे सि दविमपेक्षामहे ॥ अथमित्थादि । सप्रतिबन्धं सप्रतिरोधमथै ( बाधकवा । ध्यं ) प्रयोजनमधिगन्तुं रन्धं सहायवानेव जनः प्रभुः समर्यो भवति । ( व्यतिरेकेण सहकारिसम्पन्नस्य कार्यहेतुलं समर्ययितुमाह । दृश्यामि ` त्यादि । सचक्षुरपि चक्षुष्मानापे अनेन दषटिकारणसम्पत्तिदे शिता । दीपेन
(१ ) ०४ साधु. ( २ ) 4. ग) &०व 2. ©. 16४व ध्र उपक्रोतं. , (२) 8. 9. ¶. प्प्रतिवधं काये. (४) 0. अले. (५) 4. । विक्त्यनेन, ( ६ ) 8. 9. तर. 7. अधरोत्तरयोः. (५ ) 8. ©. 24. 1. " ४10 ( आकर्ण्य ). ( < ) 8. 6. पि. †. सरवति &५ ( ९ ) 8. 6. ¶. ' ४1१ इदं. (१) 23. 6. 4. 2. 4. 00. ( ११) 4. कनिकेयः 9॥ प्रणष्टा,
(२० )
कश्चकी - देव अमात्यो विज्ञापयति । अनुषिता प्रभोराजञौ । एत पु नैरदत्तगणदासी । न
उभाव्रभिनयाचार्यो परस्परजयोदयंतौ । |
तं द्ष्टूमिच्छतः सा्ञाद्वावावित् शरीरिणी ॥ १० ॥ राजा- प्रवेशयतीः। ` कञ्ुकी -- यदाज्ञापयति देवः ( इति निष्क्रम्य पुरनस्ताम्यां सह प्रवि
टः । ) इत इतो भवन्ती । ५.4... हरदत्तः ( राजानं विशिक्य । ) अहो दुरासदो रामम तवोदि | न चन परिचितो न चाप्यरम्य- ~... अकितमुपोमि तथापि पाञ्बेमस्य ।
सचि्निधिरिव प्रतिक्षणं मे । मवाति स एव नवो नबो ऽयमक्णोः ॥११॥
~“ आलेकदतुपदार्येन विना तमसि अन्धकारे अनेन चटिपतिबन्धो दातः । दितः । स्वितमितिशेषः । द्यं दरष्टुं योग्यं उ दुतरूपवत् वस्तु द्रव्यं न पडयात । दर्शने च आल्मेकवान् दीपारिः सहकारी ‹ गृह्णाति हूतरूपयोः ' इल्युकतैः । ) इदानीं इत्यादिना सहायवानेव इत्यन्तेन तस्य बीजस्य बहुखकर णात्परिकर इति सन्ध्यङ्मक्तं भवाति । नेपथ्य इ* त्यादि । ( नटानां पातवेषपरिप्रहादानं नेपथ्यं )
कृत्वाट्म् । ( तत्साध्यंनास्तत्यर्यः । निषेधार्थकालं शब्दयोगे ल्यप् ) अल- मिति प्रतिषेधे । ` अलंखल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा इति क्लाप्रत्ययः अत्र बीनस्यददीकरणात् परिन्यासो नाम ॒सन्ध्यङ्कमृक्तं भवति । उभावि- त्यादि । शरीरिणी मर्तो सालाद्रावी प्रतयक्ञभावाविव नृत्याभिनयार्याविव । न च न पारोचित इत्यादि । अयं राजा परिचितः सेस्तुतश्च नं भवर्तीति न
(9) 98.06. करि. ¶. ४44 इति, (३) 8. ७. प.¶. जपैविणौ. (१) 8. 6. प. 1. ज्यतौ. ( 9 ) विवादिनौ. (५) पि, 0. (६) 29.69. नर. 7. 0. (*)9. 6. त. 7. गणरातः ( +.)
अक्टोक्य. ( ९ ) 23. 9. प. 4. ०. ( १९) 2. अगम्यः (११) जह ।
क १. भ्न |
( 70): च गणदास;-- महत्खल् पुरूुषाकाशमिदं ज्योतिः । तया हि ।
द्वारे नियुक्तपुरुषानुमत प्रवेशः
सिहासनान्तिकचरेण सहोपसर्पन् । | ५१५५५ तेजोभिरस्य बिनिवर्मितदृष्टिपाते - “+ ५ ¬. „4. वकयादते पुनरिव भ्तिबारितो ऽस्मि ॥ १२॥ + | ` कञ्चुकी--एष देवः । उपसपैतां भवन्तौ ।
उभौ - ८ उपेत्य । ) विजयतां देवः।
| राजा- स्वागतं भवदुबाम् । ( परिजनं विल््ेक्य । ) आसने तावद - जभवतोः।
शै
{ उभौ परिजनोपनीतयोरासनयोरूपविषट । ) शाजा-- किमिदं शिष्योपदेशकारे य॒गपदाचा्यौभ्यामत्रोपस्थानम् ।
४५2 श 4८4 + ९८ अ ९४५ (५1 क
~+
किं त परिचित एव | ( परिचितलाच्च न भयहेत्य्थीत् । ) अरम्यो ऽसीम्यश्च न कितु रम्य एव । ( तेनापि न भयहेतुः । अत्रभयहेतोर भवि पपि भयवर्णनात् विभावनारंकारः । न केवलं भयहेतुत्वमपि तु आश्चर्यलमपी- त्याह । स एवेति । स टष्टचरोएव अयं प्रत्यक्ष दस्यो राजा सकिलनिधि- सि प्रतिक्षणमक्ट्णोर्नत्रयोर्वेषये दशने इत्यथः । नवो नवः नव प्रकारः प्रकरे द्विवचनं भवति । ) तथापि चकितं सभयं यथा भवति तथास्य पाच समीपमुपैमि । शेषं स्पष्टं ॥ द्वारेनियु त्यादि । ( दारे नियुक्त पुरुषेण दौवारिकेण नित्यपिक्षतया ऽसमस्तविरेषणत्वे पि समासः। अनुमत सभ्यपगतः प्रवेशो यस्य अनिवारित इत्यर्थः । सिंहासनान्तिकचरेण राज सन्निहितपरिचारकेण कञ्चकिनासह अनेनाभयलवं प्रीतिभाजनतवं चोक्तम् । । उपसपैन्नन्तिकं गच्छन् । विनिवर्तितः दु :हत्वात् निवारितः स्वस्मिन् दष्ट पातो नेत्रविकषपो वैस्ताददौरददंैरियर्थः । अस्य॒ राजतेजोभिः शरीरकां
| (१) 7. &. पृद्षाधिकारं; ८ पृषषाधिकरणं ). ( २ ) 8. ©. प. 4. अभिमत". >
क कु कथक _ ~ ह क =
क 9५,
गण०-- देव श्रयताम् । मयौ तीयंदिभिनयविया शिक्षिता । दत्त प्रयोगो पिम । देवेन देव्या च परिगृहीतः ।
राजा-- ददे जने ।
~ गण ०- सो ऽहममुना हरदत्तेन प्रधानपुरुषसमक्षं नायं मे पादरनर्षी तुल्य इत्यधिक्षिप्तः ।
हृर₹०- देव अयमेव मयि प्रयमं परिवादरतः । अत्रभवतः किल मम च समद्रपल्वच्योरिवान्तरमितिं' । तदत्रभवानिमं मां च शाले प्रयोगे च विमृशतु । देव एव नौ विशेषज्ञः प्रान्निकश्चं ।
विदूषकः -समत्यं पडण्णाद । ( क ) गण०--प्रयमः कल्पः । अवहितो देवः श्रोतुम ।
राजा- तितु तावत् । पक्षपातमत्र देवी मन्यते । तत्तैरेयाः पण्डित कौरिकी्रदितायाः समक्षमेव न्याय्यो व्यवहारः । \,. -!
( क ) समयं प्रतिज्ञातं ।
तिमिः प्रभविरवा । पुनरपि प्रतिवारितो निवारितो ऽस्मि । ) विनिवर्तितदयि पतिर्विनिवारेतदापरसरिरस्य राज्स्तेजोमिः पुनः प्रकाशविशेषैस्तु वाक्या. दते प्रतिषेधवक्पं विना प्रतिवारिति इव निरुद्ध इवास्मि ॥ सृष्॒ सुखेन ` आगतं आगमनं भवद्रवाम् भवतोरियर्यैः । क्रिययायमपरैतीति सम्प्रदानता। ) ` तीयोद्भिनयरिदेत्यादि । तीवादिशिष्टुरोरभिनयविया _ नाटविदय
(१). ०. (२) 3.6. 4. सतीर्थात्. (३) 8.9.14. ष शिक्षिता. ( 9) 8. 9. पष. दत्तप्योगश्वास्मि, 1. दत्तपरयोगश्चास्मि देवेन । देन्या &९. ( «५ ) 1, प्रि. बाढं. ( ६ ) 28. 0. पि. 1. १ ततः किम. (*) 2.6. पि. ¶1. अयं मेन & (<) 3. ©. च. 7. १० अबि. (१) 8. ७. पि. ¶. ०0. (१९) 8.9. ति. ¶. परिषा- कर. ( ११ ) 7. अस्तीति १ &. 00. इति. ( १२ ) 4. विमर्शयतु. (११) 8.6. क्षि. 7. ०0 च. (१४) 98. 9. ¶. तिष्ठ तावत् &. ‰१. तिष्ठ वावत. (१५) 8.6. 2. 7. अस्याः. (१६) 2. ~^. कौरिक्यासहितायाः
"न्क
2. | ६३३)
विदू ० ~ सु भवं भणादि । ( क ) आचायों -- यदेवाय रोचते ।
राजा-- मेदरल्य अमुं प्रस्तावं निकेय पण्डितकौशिक्या सार्षमाहूय-
तां देवी । ५
-- यदाज्ञापयति देवः। ( इति निष्क्रम्य पखिराजनेकया ५ |
देव्या च सह पुनः प्रविरय । ) इत इतो देवी' धारणी ।
देबी-( परितराजिकां वि्मेक्य । ) भअवदि हरदत्तस्स गणदास स्स अ संरम्भे कहं पेक्खसि । ( ख )
९९८
परिज्राजिका-- अलं स्वपक्षावसादशङ्या । न पैरिदीयते प्रतिद्र- न्दिनो गणदासः। न
॥ ॐ रि >
( क ) सुष्टु भवान्भणति । ( ख ) भगवति हरदत्तस्य गणदासस्य च सेरम्भे कयं पर्या ।
शिक्षिताभ्यस्ता ( सुती्यात् पन्दरस्यानात् विशिष्टाघ्यापकात् । आख्या- तोपयोगे इत्यपादानता । देवेन दत्तप्रयोगः प्रयोगाधिकारः नाटबाभिनया- धिकार इति यावत् यस्मै तादृशः देव्या च परिगृहीतः आत्मपक्षीयत्वेनाभ्यु- पगतः | ) दत्तप्रयोगश्चास्मि । दत्तः शिष्येभ्यः प्रतिपादितः प्रयोगो वि नियोगो येन स तयोक्तः ॥ (प्रश्रं वाद प्रतिवादि नौ प्रति विवादानुगत विष यपुच्छां करोति ठक् । विवादनिर्णायकः । ) प्रयमः कल्पो मुख्यः पक्षः ॥ न्याय्यो युक्तः । व्यवहारो विवादः ॥ ( वादि प्रतिवादिनः प्रतिजञोत्तरादि कार- णानां सदसद्विवेचनेन जयपराजयसंपादको नुपादीनामनुमित्यादयात्मकः विचारापरपयौयो व्यापाये व्यवहारः । ) कथं मन्यसे । अनयोः कतरस्य पराजयं विचारयसीत्यवं : ॥ अङं स्वपक्षेत्यादि । अत्र॒ परित्राजकायाः
(१) 2.6... सह (पि प्त) प्ररिानिकया देन्या सहं प्रविष्टः (२) ए. ©. पष, 1. मवती &७, ^. इतो देवी धारिणी. (३) ए. 6, पि. ¶, न परिहीयते प्रतिवादिना ( प्रतिवादिनो ) & न च पराजीयते केनविद्गणदाजञः
४ { €>
( 4.2 (क). परित्रा ०--अयि राज्गीशब्द भाजनमात्मानमपि तार्वविन्तयतु भव- ` ती । पञ्य ।
° अतिमान्रभोसुरस्वं याति भानोः परि्रहादनङः ॥ अधिगच्छति महिमानं चन्द्रोऽपि निशापरिगृहीतः ॥ 9३ बिहुष ०--अविह अवि उ वषठिवी पीठमदिअं पण्डिअकोपिदईं पुरो कदुअ देवीः । ( ख ) राजा-- पर्याम्येनाम् । वैषा
८ क ) यद्यप्येवं तयापि रानपस्मिहोऽस्य पधानलमृपदरति । ‰^ `
( ख ) अपिंहा अपिहया । उपस्थिता पीठमर्दिकां पण्डितकौशिकीं पुरस्कृत्य देवी । ५५१ कन 1
स्रीत्वात्प्रकृते प्राते संस्कृताश्रयणं सिित्वारिति मन्तव्यम् । १ क्तम £ देबद्विजनरेनद्राणां छिङ्किनां संस्कतं वचः ' इति ॥ यद्यप्येवं रानपरिः ्रहोऽस्य हरदत्तस्य प्रधानलमुपहरति ॥ ८ राज्ञः परिग्रहः स्वकीयत्वेन स्वीकारः अस्य प्रभत्वे महिमानं वर्धयते ) । "न सुर
त्यादि । स्पष्टोऽ्यः ॥ ( राज्ञा स्वकीयत्वेनाङ्गकारस्य ५ हः भवदीयपरिग्रहस्यापि तयात्वे दृष्टान्तेन समर्थयितुमाह । अतिमात्रभासुर- त्वमिति । भानोः सू्किरणस्य परिग्रहात् रात्र स्वस्मिन् सेक्रमादनकः भासुरो ऽप्यतिमात्रभासुरत्वे दिवातनवन्दहिमपेक्ष्य पुष्यति धारयति तथा ` चद्रेपि निशया परिगृहीतः सेवद्धो दिवातनचंद्रापक्षयेत्ययौत् महिमानं महात्म्यं अतिमात्रभासुरत्वे अधिगच्छाते प्राति । अत्र॒ भानुः षि
(१) 8. ७. अ. ¶. षारिणी, (२) १. ००. ( ३ ) 28. ©. ‰, ब्हुचण ` ८ प्रभुत्वं ). ( » ) 8. 9७. च. 7. गफ €. ०76 नन्, ( ५ ) 4. 2, मास्वरत्वै, ( ६ ) मानपीरयहादहनः ( « ) प. अवि. (८) 8.6.9.7 देवी. (१) 98. 9.1. वचो शरणा &. १. षरि
( ९५ )
मङ्गलालक्ृता भाति कोशिक्या यतिबेषया ।
६. यी बि्रहवत्येव सममध्यात्मविदयया ॥ १४ ॥ "` ` ` ` ^ “`
पारिव्रा ०--( उपेत्य । ) विजयतां देवः । राजा--भगवत्यभिवादये । „= मेहासारप्रसवयोः सदृशचक्षमयोद्वयोः । धरिणीभूतधारिण्योभेव भतो शरच्छतम् ॥ १५॥
देवी- नेदु अज्जउत्तो । ( क )
राजा-- स्वागतं देव्यै । (परिव्राजिका विरोक्य । ) भगवति क्रियता- मासनपरिग्रहः ।
( क ) जयत्वार्यपुत्रः ।
हादन्दः इति क्रावित्कः पाठः असगततया उपेक्ष्यः । अन्हः परि्रहाभावे सूर्यस्थैवाभावात् कुतो भासुरत्वं स्यात् । उत्तरवाक्ये तु चद्रस्य दिवापिसत्वात् माहात््याभावमात्रे निशाभवि दितं । इह तु न तत् सेभव इति विवेच्य) । अपि हेत्यव्ययमाश्वर्ये द्विरक्तिरादरवदयोतनाय । आधे उपस्थिता देवी पीठ मरदिंकां पण्डितकैषिर्की पुरस्कृत्य धारिणी । पीठमर्द नाम॒ कामपुर् षार्यसहायो नायकसमीपवरतीं पुरुषः कथ्यते । तथाचोक्तम् ‹ पीठमर्द समीपस्यः कार्याखोचनकेविदः ' इति । अत्र विदू षकः परिहासेन परितरा निकायां पण्डितकौशिक्यां तद्धर्ममारोपयतीति मन्तव्यम् ॥ ६.२० । ` मङ्ल्मरुंकता मङ्कुलं शोभनं यया भवति तयालकृता भूषितेषा धारिणी यतिवेषया यतेः परित्राजकस्य वेष इव वेषः काषायदिधारणं यस्याः सा तयोक्ता तया कौशिक्या समं सार्धं भाति प्रकाशते । अत्रोपमामाह- विग्रहव त्या आरीरिण्याध्यात्मविद्यया समं त्रयीव त्रिवेदीव । ( अध्यात्मविद्या । व्रेदान्तपरतिपादयविव्यया बरह्मिकयज्ञानेन समं॒त्रैकर्मप्रतिपाद कवेदत्रय । मिव । मेगलेन धर्मेण मङ्ल्र्द्रव्यैश्चालंकृता । ) विग्रहवतीव विभक्ति । विपरिणामेन योजनीयम् ॥ महासारेत्यादि । महासारप्रसवयोः । महा-
` >
च
(न्न ® +) | ( सरवे थयोचितमपविशन्ति । ) राजा--भगवत्यत्रभवतोैरदत्तगणदासयोः परस्परेण ज्ञानसघर्षो जातः । तद त्रभवत्या प्राश्निकपदमध्यासितव्यम् । ५ पारत्रा ०-( सस्मितम् । ) अँल्मलमपालम्भेन । पत्तने विमाने ऽपि ग्रामे रलनपरीक्षा ।
राजा--मेमेवम् । पण्डितकौशिकी खल् भगवती । पक्षपातिनावहं देवी च ।
आचार्यो- सम्यगाह देवः । मध्यस्या भगवती नौ गुणदोषतः परि च्छेतुमहि । राजा-- तेनहि प्रस्त॒यतां विर्वोदः।
पारेव्रा०-- देव प्रयोगप्रधानं हि नाट्यशास्त्रे । किमत्र वाग्व्यवहारेण । कयं वा देवी मन्यते | भ देबी- जई म पृच्छमि एदाणं विवादो एव्व ण मे रुञ्धड । ( क )
( क ) यदि मां पुच्छसि एतयोर्विवाद एव न मे रोचते । ऽ
~
न्सारो वरः प्रसवः सेतानं ययोस्ते तयोः । सदशक्षमयोः सदी समाना क्षमा सदिष्णुत्वं ययोस्ते तयोः । शेषं स्पष्टम् ॥ भवतु पर्याम उरभ्रसंपातम् । किं मधवेतनदनिन । मा चण्डि । अन्योन्येत्यादि ८ प्रत्यायपितव्यम् बो धयितन्यम् इत्यर्यः । प्रतिपर्वादिणोण्यन्तात् तव्यः । बोधार्यत्वात् नगम्यादे
(१) 8. ७. परि, ¶. ०. ( २) 8. 6. प. 1. परस्परं विज्ञानसं- पिणो मंगवत्या &८, ४०५ 1. विज्ञानसंधर्षो. ८ ३ ) 2. ७. पि, 1. भगण ००७ अलम. ( ४) 8. ७. पि, 7, सति 91. विदिमानेऽपि. (५) 8. ७. पष. 1. नैतदेवम. ( ९ ) 2. 4, भवती, ( ७ ) 4. विवादवस्तु, ( < ) 2. ^, ५ ५06 86५19166 कयं &८. 190 ४0७ ०४ 9 ४५४५ ४10
( २७ )
©. ५०-३५4 ॥. ५-१-99 २
गण न मां देवी समानविदयतः परिहीनमनुमन्तुमरहेति । बिदूष०- देवि देक्खामो रब्भसेवादं । कि मृहावेअणदाणेण ।
(क) देबी--णं कलहप्पि ओसि । (ख ) विदू ०-- मा चण्डि । अण्णोण्णकंलदिदाणं मत्हवविणं एक्रदररिस
। अणिन्निदे कुदो उवसमो । (ग ) राजा-- ननु स्वाड्तैष्टवाभिनयमुभयेच्वती भगवती । ` ` ` ५ १५५१
परित्रा ०--अय किम् । राजा--तदिदानीमतःपरं किमाभ्थां प्रत्याययितव्यम् ।
परित्रा ०-- एर्तदेव वक्तकामास्मि | "छिष्ठा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था ^~. .
सं क्रन्तिरन्यस्य विशैषयक्ता |
( क ) देवि पर्याम उरुभ्रसंवादम् । किं मुधावेतनदानेन । (ख ) ननु कलहप्रियोऽसि । | ( ग ) मा चण्डि । अन्योन्यकल्हितयोर्मत्तदस्तिनेरेकतरस्मिन्ननिर्जिते
कृत उपयमः । शः । ) षछिष्ठेत्यादि । कस्यवित्कस्यापि पुरुषस्यापि क्रिया शिक्षा ।
विदयाभ्यास इत्यर्थ; । आमसंस्था आत्मनिष्ठा सती ष्टा संगता । रम्या भवतीत्यर्थः । अन्यस्य पुरुषस्य संक्रान्तिः शिष्येषु क्रियासेक्रमणम् ।
(१) 8. ७. द. 7, 2. देवि न मां समान ( 8 ©. 1. विद्यवा, 2. विद्यातः ४०५ ०८678 विद्यतया. ) ८२. (1. प, परिभवन &. (५, ए, परिभवनं ) ( ¶, पष, अवगतु, 8. (७, अवगमयितुं & 1, मतुं &. 0111618
अनुमत 01, अवमंतुं ) अर्हसि. &. न मां देवी .... परिभवनीयमनुमंतुं अर्हति.
(२) ९. ©. 1, भो देक्खामो. प, भोदि पेक्खामो. ( ३ ) 1 उअरंभरि ( उदरभरि ). (४) पि. भाष्वं, 3. 6.1. माश्ववं चंडि.(५) 723. 9. प. 4. कलहन्विआणं. ( ६ ) 8. ७. पि. 1. अतिशयं. ( ० ) दम्या, (<) 8. 6.पि. 1. तदेव. (९) 2.4. शिष्टि,
(2 3 9
यस्योभयं साधु स चिन्षकाणां ॥ धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ॥ १६॥ `
० १ -- सदं अज्जं भअवदीए वअणं । एसो पिण्डिदत्यो णिण्णओत्ति। (क)
हर ०--परमचितं नः। ~^ -- देवि एवं स्थितमेव ।
देषी-- जदा उण अमेहाविणीं सिस्सा उवदेसं मलिणेदि तदा आ अरिअस्स दोसो णं । (ख) „~ राजा-देवि एवमापर्येते । ५“ “~^ ++ | >गणदी ०८ विनेतुरद्रन्यपरिग्रह एवै बुद्धित्मधवं प्रकाशरथीति । “
( क ) श्रुतमार्याम्यां भगवत्या वचनम् । एष पिण्डितार्थ, उपदेश दशनेन निर्णय इति ।
( ख ) यदा पुनरमेधाविनी शिष्या उपदेशं मङिनियति तदाचार्यस्य नो = | ६.२ गतः
। सेक्रन्तिशब्दो (जन्तभावितण्य्ंः । विशेषयुक्तातिशयवती । यस्य पुर- षस्योभयमात्मसिद्धिः परसंक्रमणं च साबु रम्यं स पुरूष एव शिक्षकाणा मुपदेशकानां धुर्ये प्रतिष्ठापायेतव्यः प्रतिष्ठां प्रापयितव्यः ॥ श्रतमार्याभ्यां भगवत्या वचनम् । एष पिण्डितार्थः ८ निष्कृष्टार्थः ) उपदेशद दीनान्नि णय इति । अत्र माखविकाद हौनसेदेहनिणैयादुक्तिनौम सेध्यङ्कमक्तं भवति ॥ यदा पुनर्मन्दमेधा शिष्या उपदेशं मलिनयति तदाचार्यस्य दोषो नु ।
(9 ) 8. ७. प. ¶, दसणदो. (२) 3. 6. प. 1. परममिभतं ४०५ 4. प्ररमदयितं. ( ३ ) 4. देव. ( 9 ) 28. 6. १.1. ००, €+ 8.9. 2९.41. मदमेधा. ( ६ ) ए. 6. पि. 1. 1५९ 1४8६ णं #&€, (= ) 2. 4. उपवद्यते, प, आपिदयते &. आपतति, ( < ) 3.0. 2. 7. १ ७व ४118 8{श्छडौ। 88 9 9६ ० {06 ४०९८ 8}€€५॥ ज 6 इण (१९) 8.0. 2.4. र्रिपहोऽपि. ८१) १. ००५ इति
मिक क (८२
न 4. ~.
` "कदम. (2९ )
देगी--८ गणदयसं विलोक्य जनान्तिकभ् ) कहं दाणि । अलं अन्ज- उत्तस्सं उच्छाहकालणं मणोरहं पुरिअ । ( प्रकंशंम् ) विरम णिरत्यआ- दो आरम्भादो। (क)
बिदू°- मु होदि भणादि । भो गणदास संगीरदआवदेलेण सरस्सदईं उवाअणमोद आई खादअमाणस्स कि दे पर्छहणिग्गहेण विवादे - ण। (ख)
गण ०-- सत्यमयमेवार्यो देवीवचनैस्य । श्रूयतामवसरपराप्तमिद् ।
[8 क क)
( क ) कथमिदानीम् । अलमार्यपुत्रस्योत्साहकारणं मनोरथं पूरयि त्वा । विरम निरथकादारम्भात् ।
( ख ) सुष्टु भवती भणते । भो गणदास सेगीतकापदेशेन सरस्व त्यपायनमोद कान्खादतः किं ते स॒र्भनिग्रहेण विवदेन ।
नि 91, 8 1 दिः ड करि $ अ २५.८.42 {24 का. ध स
नुः प्रश्रे ॥ ( अद्रव्यस्यावस्तुनो मंद मतेरिति यावत् । परिग्रहो विनेयतया स्वीकारः कृदभितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशते इत्युक्तेः परिगृहीतमद्रव्यमपिं सपात्रं भवतीत्यर्थः । विनतः शिक्षकस्य बुद्धः प्रतिभाया लाघवं सीन्दयं प्रका शयल्यद्भावयति । ) ( संगीतकपदेन संगीतरूपलक्ष्येण उपलब्धानि
~त द& १५ ~ €"
नित्यानुशीलनेन अनुभूतानि सरस्वत्या उपायनभूतानि उपदौकनद्रन्याणीव
मोदकानि खादमानस्य भक्षयतस्तव॒सुखनिग्रदेण सुखतिरस्कारकारेण वि वादेन ष्ककलहेन किं । तदनुील्यतस्तव ईदक्षलदे प्रवृततिरनुचिते
(१) 8. 6.4. एष. ( जनातिकं प. स्वगतं ) कंहंदाणि । ( गणदासं
४. विोक्य प्रकाशं ) अलं &९. 120. कहं गणि । ८ गणदासं विलोक्य जनांतिकम् )
अलं &०. 4. ( गणदासं विदटोक्य जनातिकम् ) कहं &०, ( ३ ) ‰. ४५१. एदस्स. ( ३ ) 8, ७. ¶. ४५ प्ररि ४०१ ^ . रक्खिअ ८ रक्षयित्वा ). (४ ) 8. ©. 17. सगीदअपदोव्छम्भिअ. १. सं.. पदं ठस्मिअ; 20. 4, सगीदोव- देसं आरदिअ. ८ ५ ) 2. 4. किदे 06010 सरस्सदई &, ८ ६ ) पि. सुह ( सुख ). ( ५ ) प, वाक्यस्य, (< ) 8. ७. पि. 1, इदानीम) ‰* 9,
[मी ( ३० ) | छञ्धास्पदो ऽस्मीति विबादभीरो- स्तितिक्षमणस्य् परेण निन्दाम् । ^ यस्यागमः केवर जीगिकायै' | तं ज्ञानपण्यं बणिजं बदन्ति ॥ १७॥ द्वी --अइरोवणिदं बो सिस्सा । अवरिणिद्िदस्सं उबवदेसरस् अण्णं पआसणं । ( क ) ^ गेण ०---अत एव मे निर्बन्धः ।
( क ) अचिरोपनीता वः शिष्या । अपरिनिष्ठितस्योपदेशस्यान्या- य्यं प्रकाशनम्. । = <+**. (<. ३८1
त्यर्थः | ) छल्धास्पदो ऽस्मीस्यादि । ( अहं ल्ब्धास्पदः प्राप्तपर- तिष्ठो ऽस्मीति हेतोर्विवाद भीरोर्विवादे कदाचित् पराजय्यादित्याशं कया ततो भीतस्य परकरतुंकां निन्दां । द्ीविहिताकारयोगे वा . षष्ठीति कर्तरि तृतीया । तितिक्षमाणस्य सहमानस्य यस्य॒ जनस्य केवल्जीविकयि आत्मजीवनमत्रा्यं आगमः शास्त्रज्ञानं लभोपायश्च भवाति । तं ज्ञानमेव प- ण्यं विक्रेयं यस्य॒ तादशं. वाणिजं जीविकाभेगभीरुतया अपङ्ष्टपण्डित मित्यर्थः । वदन्ती पण्डिता मन्य॑ते । ) ( अचिरोपनीतायां शिष्यायां पुनः प्रतिष्ठितस्योपदे शस्यान्याय्यं प्रकाशनम् ) अचिरोपनीता वः शिष्या । तद- परतिष्ठितस्योपदे शस्य पुनरन्याय्यं प्रकाशनम् ॥ ( अचिरेण आदा उपनीता उपदेशग्रहणाय दीकषिता ते शिष्या मालविका इत्यर्यः । अतो ऽचिरोपनी तत्वेन न सम्यक् शिष्षितेति गम्यते अपरिनिष्ठितस्य स्थैर्यमप्रा्तस्य उप- ` देशस्य शिष्ये संक्रामणरूपव्यापारस्य आवेदनं ज्ञापनं प्रकृते ऽभिनयद शनेः
(१ )?. ^. जीविकैव. ( २ ) प, अहरोवणीदाए तिस्सा उण पटिष्िस्स उवदेसस्स अण्णाअं पआसणं, (३) 8.6. 1.2. (१) ^.
2०. ५५ ता. ( ५ ) 4. पशव्य ४9 असमाप्तस्य, ( ६ ) 8. 9. 4, ४५५ उण, (*) 4, ०४,
"^ नर ( ३९ ) देबी- तेण दि दुवेवि उवैदेसं भअवदीरं दंसह । ( क ) परित्रा ०--नैतल्याय्यम् । सर्व्स्यप्येकाकनो निर्णयाभ्युपगमो
दोषाय । दे्ी--( आत्मगतम् । ) मूढे" मे जग्गति वि सुत्तं विअ करेसि । ( इति सासूयं परावर्तते ) ( ख ) ( राजा देवीं पिरानिकायै दशयति । ) परित्रा०--( विलोक्य । } | आनिमित्तमिन्दुबदने किमत्रभवतः पराङ्मुखी भवसि । , ममवन्त्यो ऽपि हि भतृषु कारणकोपाः कुटुम्बिन्यः ॥१८॥
( क ) तेन ह द्वावप्युपदेशं भगवत्यै दीयतम् । (ख ) मूढे मां जाग्रतीमपि सुपतामिव करोषि । +..„
न सदसत्वबोधने अनायमनुचितमित्यर्थः । एतदुक्तिश्च राज्ञा माल्पकायाः कथंचिदपिद दीनं न भववित्याशयेन गणदासस्य तदभिनयनिवारणार्थेति द्रष्टव्या । ) ( जाग्रती मालविकाया राजसमीपे निगहनरूपे स्वकर्तव्ये अप्रमत्ताम् । सुप्तं प्रमत्तामिव । ) अनिमित्तमित्यादिं । ( हे इदुवदने प्रसन्नमवि अत्रभवतो मान्याद्राज्ञः सकाशात् किं कथं अनिमित्तं पराङ्म- खी विमुखी भवसि । कुटुबिन्यः सत्कुलच््रियो भतेषु प्रभवन्त्यः प्रभुतवत्यो पि कारणादेव कोपो यासां तादृश्यो भवन्ति न मधा । तथा च कारणाभवे किमिति तव राज्ञः पराङमखत्वं । ) अत्र देवी कोपेन वस्तविच्छेदे प्राप्ने विदू षककतं प्रोत्सादनमुत्तराङ्गोपयोगितेनाविच्छेद कारणवाद्िन्दुरित्यन्
८१ ) ए, च [ष्लनलाकण्९. (२) 3. ©. प. ३. १५१ देवी, (३) 2०. ^. 8. 9. पि. ¶. जनतिकम, (9) 8. ७. 2, 4. 4. 20, ४११ परिन्वाजिए. (५ ) 2, किं मं 804 ^. कि 9 म, (६) ५. ७, 0 ॥॥ + 01.
। गी (३२ )
विदुष ०--णं सकौरणादो एव्व । अत्तणो पक्खो रक्लिदव्बो ति । ( गणदासं विलोक्य । ) दिष्टिंआ कोवव्वाएण देवीए परित्तादो भवं ।* सपिकिखिदो वि सव्यो उवदेसेण णिरैणादो होड । (क) ` गण ०- देवि श्रयताम् । एवं जनो गृह्णाति । तदिदानीम् बिबादे दशं पिर्ष्यन्तं कियासंक्रान्तिमात्मनः । यदि मां न.नुजानासे परित्यक्तो ;स्म्यहं त्वया ॥ १९ ॥ ( आसनोदुत्तिष्ठति । )
दे शे-- ( स्वगतम् । ) का गई । ( प्रकाशम् । ) पहवदि आभरओ' पिस्सजनणस्स । ( ख )
21५5. गण ० -- विटेभपदे शङ्कितो ऽस्मि । ( राजानं विलोकय । ) अनुज्ञातं देव्या । तदाज्ञापयतु देवः कस्मिन्नभिनंयवस्तुन्युपदेशं दर्शयिष्यामि ।
राजा--यदादिशति. भगवती । .... परेवा ०-- किमापि देव्या मनसि वर्तते । तच्छङ्कितासिमि ।
( क ) ननु सकारणमेव । आत्मनः पक्षो रक्षितव्य इति । दिष्टा कोपव्याजेन देव्या परित्रातो भवान् । स॒शिक्षितोऽपि सर्वं उपदेशेन .
\ निष्णातो भवति । हिः । (ख) का गति । प्रभवत्याचार्यः शिष्यजनस्य ।
सेषेयम् । ) विवाद इत्यादि । स्पष्टोऽयं: ॥ ( अपदेशो निरारतिस्तत्राश- डा जाता यस्य तारकादित्वात् इतच् । कदावित् शिष्यशिक्षाद शने निवारितो भवेयं इति शंङ्। स्विता । सा च राया एतद्चनेन दुरीरुते त्ययैः । ) ( शर्मिष्ठायाः शुक्राचार्यस्य पल्याः कति कूदाभिदितभावत्वात्
( १ ) 2. कारणागे. ( २ ) 21. 8. 9७. ¶. उवदेसद॑सणे. (३) 2. णिज्णो ( निपुणो ) & ©, ‰#. णिल्हादो ( निन्हादो ). ( ४) 3. 8. पि, प्र. द्शंपिष्यामि. ( ५ ) 8. ©. पि. ¶. ज्त्यातुभिच्छति. (६) &., 2, अग्नो, (ज) 8.06. ति. 7. अपदेश &०, (< ) 9.6. पि. 7 अषलोस्य, ( { ) 20. अभिनेय^. ( १०) 238. 68... क्तः
"` नन | ( ३३ )
देबी-- भण विस्सध्दं । णं पहरविर्॑सं अत्तणो परिणस्स । ( क ) + राजा-- मम, चेति ब्रूहि । ` देबी-- भअवदि भणं दाणिम् ( ख )
परित्रा ०- देव॑ चतष्पदोद्धेवं धकितभैदाहरन्ति । तत्रैकार्थसेश्रयम्- ! “~ भयोः प्रयोगं पयामः । तावता ज्ञायत एर्वात्रभवतोरूपदे डतारतम्यम् । \! `
आचर्य यदाज्ञापयति भगवती ।
बिद्ष०- तेण दुवेवि वगा पेख्खाघरए सेगीदरअणं करिअ अततभरवदो दूदं पेसु । अहवा मुद सदो एव्व णो उद्भावइस्सदि । (ग)
( क ) भण विश्रन्धम् । ननु प्रभविष्याम्यात्मनः परिजनस्य । ( ख ) भगवति भणेदानीम् ।
(ग) तेन द्वावपि वगो प्रेक्षागृहे सेगीतरचनां कृत्वा अत्रभवतो दूतं प्रेषयतम् । अयवा मृद ङ् शब्द एव न उत्थापयिष्यति ।
कृतमित्यर्थः । चतुरः पादेभ्य उत्तिष्ठतीद्युत्यं उत्तरपदद्विगुः । चतुष्प दीयुक्तमित्यर्यः । छाञकं तन्नामधेयकं नाटकं दुष्प्योज्यं दुःखेन प्रयो अभिनेतं योग्यमदाहरन्ति कथयन्ति पण्डिता इति शेषः । उभयोैरदत्त गणदासयोः एकार्थः तद्रूप एकस्य उदेश्य: संश्रयो यस्यैतादडो प्रयोगं . क्रमेण उभयकर्तृकं तन्नाटकप्रयोगं अभिनयं पञर्यामः प्रार्थनायाम् लेट् । ) तेन है द्वावपि वग। प्रेक्षागृहे सगीतरचनां कृत्वा तत्र॒ भवतो दूतं प्रेषयतम् । अथवा मृद डुशब्द एव न उत्यापयिष्यति ॥ विजयी
(१) 8. ७. पि. 1. वीसद्व. (२) प. . पहवदि प्रम् &५, ( ३ ) प, मणेदानीम, ( ४ ) 8. ७. ४५१ शर्मिष्ठायाः इतिः । &. पष. ¶, शर्मि- छायाः क्ति &०, ( ५) 8. ©. पि. 1. चतुष्दोत्य. (६ ) ए. ©. प. ¶. उलिकम्. ८ * ) 2. 1. ४५११ दष्प्योज्यम्. ८ < ) 20. 4, तत्रभवतो (९ ) 8. ©. प्र. ॥. ^. २०. उपरैशान्तरम्. (८१०) ए. ©. त ` ¶, 204. दि. ( ११ ) 2० गदु. ( १२ ) प, तत्तमवदी. ८१३) ^ 12०. विसज्जेह ८ विसर्जतम् ).
४,
क. ( ३४ ) इरद ०-- तया । ( इव्युत्तिष्ठतिं । ) ( गणदासो देवीमधल्येकयाति । )
देबी-( गणदासं विल्येक्य ।) 'विअई होहि । णहु विभअपञ्चिणी अहं आअरिअस्स । ( कं ) १ ( उभौ प्रस्थितौ । ) +: परतरा ० निर्णयाभिकारे बरवीमि । सर्वडवौढठवामिव्यक्तये भविगतने पथ्ययोः पात्रयोः प्रवेशो.स्तु । , ,.. ` “" इमौ नेदमप्यौवयोरूपदेश्यम् । ( इति निष्कान्त । )
देवी --( राजानं 'विल्ेक्य । ) जद राअकज्जेमु विं ईरिसी उवांअ णिडणदा अज्जउत्तस्स ता सोहण भवे । ( ख ) |
राजा-देवि
( क ) विजयी भवं । न खल विजयप्रत्या्॑न्यहमाचार्यस्य ।
( ख ) यदि राजकार्येष्वपीदस्युपायनिपुणतार्यपुत्रस्य ततः शो भनं भवेत् ।
भव ॥ ( तार्तम्यनिश्चयकरणस्याधिकारे स्थितेति शेषः ब्रवीमि उपदि- . शामि । ) सबौङ़त्यादि । ( वीडु पौष्टवाभिव्यक्तये सर्वेषां अंगानां सष वस्य सैन्दयैस्याभिव्यक्तये प्रकाशनाय विगतनेपय्ययोः आहायौभरण सज्जारहितयोः पात्रयोः अभिनेययोः नायकयोः प्रवेशः रंगभूमौ समागमो.ऽ स्तु । ) अत्र गुणवत्वस्य गम्यमानतद्विल्ेभनं नाम सेध्येगमुक्तं भवति ।
( १) 8. ©. प. ¶. धारिणीम्. ( २ ) 2३. विहं होहि, ५०१ 8. ७, ¶. जयी भोदु अज्जो | ण विअअपच्वि्णा (1. विअअन्भत्थिणी) अअं अग्जस्स 2०. णहि । विजअप्रचत्थिणी अहं अज्जस्स ण होमि । ( ३ ) १4 “अभिनय (४) 20. 4. विरल. (५) 4. 8. 6.1. ०0 अपि. (१) 9. 6* पि, ¶. अवलोक्य. ( « ) 2०, 4. ४१ इदरेभ्. ( < ) पि, ०, वि, 0.4. श्वं. (९) 4. 3.9.¶, ०0. उभि, (१९) 2. 0. 2१. 1, अ. ।
९ + क ५" आरि ~ "क जः
( ऋ ) ‰ अकमन्यथा गृहीत्वा न खलु मनाखिने मया षथुक्तमिदम् ॥ भ्रायः समानविद्याः परस्परयशः पुरोभागाः ॥ २० ॥
( नेपथ्ये मृद ङध्वानेः । सवे कर्णं ददति । ) परित्रा ०--हन्त प्रवृत्तं गीतकम् । तथा ह्येषा
जीम॒तस्तनितविशङ़्िभिमयुरै- रुद्यबरनुरा सेतस्यपुष्करस्य । `." ` ४...
५८. निच्दिन्पपारेतमध्यमस्रोटथा- = 1. `; मायरी मदयति ,माजेना मनाते ॥ २१ ॥ ~~त
यदि राजकार्यैष्वित्यादिं । अत्र गृटा्ेद्धिद नादु द्रेदो नाम संध्यंगमुक्तं भवति । अखमन्यथागृहीखेत्यादि । स्पष्टो र्यः । ( परस्परयशसि अ- न्योन्यकीर्तौ पुरोभाग देषकद शनं येषां ते ) । जीभूतस्तनितेस्यादि । ~.“ नीमतस्तनितविेकिभिर्नीमतस्य स्तनितं गर्जितं विशेकंत * इति
#
तयोक्तास्तैरुद्ग्रवैरुत्कटैः ( हर्षात् ) मुरः शिखंडिभिरनुरसि -
तान नितस्य पुष्करस्य वादयभांडमुखस्य माय॒री मयूरप्रिया माजेना सि मदयति हैयति । कीदशी मार्जना । उपहितेमध्यमसखरेत्या । उप- दिवम योनितो मध्यमस्वरो मध्यमसंज्ञकस्वरस्तस्मादुत्ति्युदे तीति तथोक्ता ।
८ निद्ादवती मधुरगभीरेत्ययेः ) । मार्जना
नाम पुष्करवादनाविशेषः । तथोक्तं भारतीये । षोडशाक्षरसंपन्नं चतुमगिं
तथैव च | द्विेपनं षट्करणे त्रियति त्रियं तथा ॥ त्रिगतं त्रिप्रचारं च त्रिसंयोगं त्रिपाणिकं | द शारधंपाणिप्रहतं त्रिप्रहारं त्रिमाजेनं । एभिरगैस्तु सैपन्नं वाद्यं पुष्करजं भवेत् ॥ तत्र “ मायूरी चार्धमायूरी तया कार्मारवीति च । तिखस्तु मार्जना जञेयाः पुष्करेषु स्वराश्रयाः ॥ गांधारो वामके कार्यः षड्जो दक्षिणपुष्करे । मध्यमश्चोध्वेके कार्यो मायूयास्तु स्वरासत्वमी ॥। वामके
(८ १) वि, संमीतम. ( २) 3, ७. 4, अनुगमितस्य, ( २ ) {1 उपचित. (४ 90 91्7198४९९ }.
( ३६ )
राजा-देवि पामानिका भवामः। देबी-- ( आत्मगतम् ) अहो अविणओ अञ्जउन्तस्स । ( कं ) ( सर्वे उत्तिष्ठन्ति )
विद्षकः- { अपवार्य ) भो धीरं गच्छह्म । मा रु अत्तभेदि धारिणी विसंवादइस्सदिं । ( ख ) राजा--
धैरयांवखम्विनमपि त्वरयति मां मुरजवाद्यनादों ऽयम् अवतरतः सिद्धिपथं शब्दः स्वमनोरथस्येव ॥ २२॥
( इति निष्कन्ताः सर्वे ) इति प्रयमोऽङ्ः |
(क ) अहो अविनय आर्यपुत्रस्य । ( ख ) भो ध्रीरं गच्छामः। मा खल्वत्रभवती धारिणी विर्सवादयिष्यति ।
पुष्करे षड्ज ऋषभो दक्षिणे तथा । धैवतश्ोर्ध्वगेतरार्थमाधूय निदि. . डोदृबुधः ॥ ऋषभः पुष्करे वामे षड़जो दक्तिणपुष्करे । पैचमश्वोर््वग
कार्यः कार्मारव्याः स्वरा अमी ॥ इति ॥ भोः धीरं गच्छामः । तत्रभवती धरिणी विसंवादयिष्यति । ( विसंवदिष्यति विप्रलप्स्यते अन्यथा मेस्यते | ) ध्या बाबेनमित्यांदे । अयं मुरजवायरागो मुरजवाद्यस्य रंजकत्वं धर्यावलेत्रैनमापि मां त्वरया संभ्रमयति । सिद्धिपयं सिद्धिमार्ममवततरतः परापरुवतः स्वमनोरय स्यात्मवांच्छितस्य शब्द इव ध्वनिरि । अत्र बीजस्य
(८ १ ) ^, साद्मवाहिका, 8. ७. पि. ¶. ४११ तस्याः 20 सामवायिकाः
- 24 ?० सामाविकाः (२) 8. 0७. परि. ¶. स्वगतम्, (३). .^. 9,
0.1. गच्छ. (४) 8.8. पि. ¶. तत्तभमोदि 9 माव अत्तमोरि. (५) क्षि. रमः, 3. 6.4. रावः
( ३७ )
पुनरावर्तनात् समाधानं नाम सध्यंगमुक्तं भवति । अत्रैव सुखागमस्य गम्य मानत्वात्पाप्तिनौम संध्यं गमक्तं भवाति । अत्रोपक्षेपादिषु सेध्यंगेष कतिचिदेव कविनोक्तानि नेतराणि तथापि न दोषः । ' न्यनमप्यत्र चैः कैश्चिदंगैर्नाटये न दृष्यति । यद्युपात्तेषु संपत्तिराराधयति तद्विदः ॥ ` इति वचनात् । [ति प्रयमांकार्ये समाप धपि तमसामाप्यैवोत्तरांकादौ
: सगीतरचनाया अत्रैव निपातनादंकावतरणं ना- मार्थोपक्षेपकं उक्तं भवति । तय चोक्तम । 'अंकावतारस्त्वंकान्ते पात्रेणांकस्य सृचनात् ` ॥ हाप ॥ इति श्रीकाटयवेमम् पविरचिते कमारगिरिराजीये मालवेकाभिमित्रन्याख्याने प्रथमो ऽकः ॥
{ ऋ )
द्वितीयङ्ःः। ( ततः प्रविशति सेगीतरचनायां कृतौयामासनस्यः सवयस्योः राजां धारिणी परिव्राजिका विभेवतश्च परिवारः ) ~~ ^^, ‹ । ^^
राजा- भगवति अत्रभवतोराचार्यथोः प्रयममुपदेशरं कतरस्य
द्रक््यामः+ परित्राजिका- ननु समाने ऽ पि जानवृद्ध॑भवि वयो धिकत्वाद्ण-
दासः पुरस्कारमहति । राजा-- तेन हि मौद्रल्य एवमेीत्रभवतोरावे्य स्वनियोगमशुन्यं कुर । कचु की--यदाज्ञापयाति देवः । ( इति निष्क्रान्तः ) ( प्रविर्य )
गणदास्लः--देव शर्मिष्ठायाः कतिर्यमध्या चतुष्पदां । तस्याश्चतुर्य वर्मन: प्रयोगमेकमनाः श्रोतुमर्हति देधं ८
राजा-- आचार्यं बहुमानाद दितो ऽस ।
ततः प्रविशतीत्यादि ॥ * भगवति अवभवतेः ' इत्यादिना * गण- णदासः पुरस्कारमर्हति ' इत्यन्तेन राज्ञ॒ उपायेन माल्यकादइीनप्रवर्तनं प्रयत्नो नाम द्वितीयावस्थितिरिति मन्तव्यम् । अत्र बिन्दु प्रयलनयोः समन्वयात्प तिमखसेषिरित्यनुसंधेयम् ॥ देव शभिषटठाया इत्यादि । शर्मिष्ठा नाम पर्वणो राक्षसराजस्य दुहिता । तस्याः कतिः कान्यम् । छयमध्या येन
तालकालेन मध्या मध्यल्ययुक्ता । चतुष्पदा चत्वारि पदानि खण्डानै
(१) पवि. ०. (२) पि. 1ण्लनाष्ण्टु९. (३२) 8.6. ¶. उषदेशो दृश्यतां ( 1. उपदेशं दश्यतां ४8 ४1४७१०४४ ४९ ). (* ) 8. 68. ¶. ०0 वृद्ध ( 1. 88 धल १७ ). ( ५) ति. ( 1.४5 भत्मिध् ९९ ) बद्रत्वात्. ( ६ ) भ. ० तेनहि. ( « ) 9. ७. प. ¶. भ शव. (<) 1. 6. 24.17. भपणस्व, (१) १.1. ४१0 अति. (१) 28.98. 4. तस्याश्चतुष्पदवस्तुकं ( वर्णकं ) 2०, चतुर्थवस्तुक्थयोगं & ८ ११ ) 8. ©. 1, ५४६८ देवः 0610719 नतं &५, ( १२ ) 1, ४१५ ( कद्मकेशय परत. )
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` "थ द च क वक “१०. क अ 2 = - कक ना +
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\ : ` ( निष्क्रान्तो गणदासः) राजा--( जनान्तिकम् । ) वयस्य = नेपश्यगैहृगतायाश्चक्षुदेशंनसमुत्सुकं तस्याः „+ संहतुमधीरतया व्यवस्सित्मिव मे तिरस्कारणीम्॥ १ ॥
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विदूषकः ८ अपवार्य ) भो उवष्टिं णअणमहु । सेणिहिद सक्खिअं अ । ता अप्पमत्तो दाणि पेक्ख । (क )
( ततः प्रविशत्याचारयपरत्यवक््यमाणाङ् सी्ठवा मालविका )
(कं ) भो उपस्थितं नयनमध॒ । सन्निहितमाक्षिकं च । तदप्रमत्त इदानीं पर्य । “^
यस्याः सा तथोक्ता । तस्याः कतिसंबन्धिनश्चतर्थवस्तनश्चतर्थस्य तर्यस्य
वस्तुनः प्रबन्धस्य प्रयोगमाभिनयमेकमना अवहितः सन् श्रोतुमर्हति । अत्र
$ कका इक्क "~ ,
शुङ्ारस्य प्रतिपादयमानत्वाह्ययमध्येतुक्तम् । तया चोक्तं भारतीये---शुङ्ार हास्ययोरमध्यल्यः । करुणे विलम्बितः । वीररद्रादुतवीभत्सभयानकेष द्रुतः ॥ ' इति ॥ नेपथ्यपरिगताया हाते । नेपथ्यपरिगिताया यवनिकान्तरि तायास्तस्या मालविकाया द शनसमत्सकमवलोकनोतकाण्ठतं मे चक्षर धीरतया तरलतया तिरस्करिणीं यवनिकां सेदर्तमपनेतं व्यवसितमिबोयु क्तमिवे । अन्रष्टर्थविषयेच्छाया गम्यमानतवद्विखसो नाम सेध्यङ्म॒क्तं " भवति । ततः प्रविशतीत्यादि । आचायविह्ष्यमाणाङ्पीषटवा । आचा- येण गणदातेनविक््यमाणमङ्ानां सीष्ठवं यस्याः सा तथोक्ता ) सीव नामा- डानां शोभनावस्या ॥ यथे क्तम् ' अन् चनीचचरतामङ्गनां समपादताम् । कटिकूर्परशीरषासकण्ठानां समरूपताम् ॥ रम्यां प्रतीकविश्रान्तिमुरसश्च
(१) पि. 2. प्रि ७ गृह &. 4. परिणतायाः ( २ ) -4.. तिरस्करणम्. “^
(३) 8. (७. १, ¶. ०9. ( ४) 4. पलवल ( संनिहितमाक्षिकं ) &.
‰, 29. संणिदिदं मक्विभं च. ( ५ ) 1. प, अवेक्ष्य &५. ५५ 3, ©, प्रत्यक्षमाणा.
५ "(९ ॥. €
( ४० ) बिद षकः- ( जनान्तिकम् ) पेक्खदु भवं । ण द से पडिच्छ न्दादो परिदीभदि महुरदा । ( क ) राजा--( जनान्तिकम् ) वयस्य ,. चिच्रगतायामस्यां कान्तिविसंबादशङ्के मे हृदयम् । संप्रति शिथेरसमाथिं मन्ये येनेयमालिखिता ॥ २॥
9 । गणदासः- वत्से म॒क्तसाध्वसा सत्वस्या भव ।
राजा--( आत्मगतिम् । ) अहो सर्वस्थानानवयती रूपविशेषस्य । तथाह । (८.८.८६ ˆ | श्क् न,
("क ) पश्यतु भवान् । न खल्वस्याः प्रतिच्छन्दात्परिदहीयते मधुरता ।,
सम॒न्नतिम् । अभ्यासोपहितामाहुः सैष्ठवं नृत्यवेदिनः ॥ ` पञ्यतु भवान् । न खल्वस्याः प्रतिच्छन्दात्परिहीयते मधुरता ॥ अत्रापवार्यत्येतन्नियत श्राव्यार्यभेद स्यापवारितस्य विवक्षितत्वे कविना प्राकप्रलयुक्तमिति मन्तव्यम् | ययोक्तं वसन्तराजीये * अर्यस्त्वेकेन विज्ञेयो नियतश्राव्य इष्यते । द्विवि धः स परिज्ञेयो जनान्तश्चापवारितिः ॥ ` अत्र ` पररैरलक्ष्यव्यापारं कयि तो ध्य ऽपवाप्तिः । उक्त्वा प्रागपार्येति पश्चादेनं प्रयोजयेत् ॥ › इति ॥ चिच्रगतायामित्यादि। मे इदयं मनश्चित्रगतायामारेख्यगतायामस्यां मालविकायां कान्तिविसंवाद शङ्कि कान्तेः शओभाया विसंवाद विषयासं शङ्त
इति तथोक्तम् । ( एतस्या ईदृशी कान्तिभवेन्नवेति संदेहयुक्तमासीदिति शेषः ) । सेप्रतीदानीम् । साक्षादङनवेलायमित्ययः । इयं मालविका येन चित्रकरेणालिखिता ते चित्रकारं शियिरुसमाधिं शियिलप्रयत्नं मन्ये जा नामि ॥ मक्तसाध्वसा परित्यक्तभया । सभाकम्परहितेत्यर्यः । सत्वस्था ( सत्वे स्वभवे प्रकतौ वा तिष्ठति स्या--क अव्यग्रा इतिं यावत् ) । सत्व
(१) 8. ७. 2. ¶, वि (अपि) णिः पररि (२) अपवार्य. (३) स्वगतम्. (४)... 8. 0.7. सर्वास्विवस्थास्वनकद्यता ख्य ¶. ( ख्यस्य ) विशेषस्य, ( ५ ) 2. 4, 00. तया हि.
( ४९ )
दीघां शरादैन्दु कान्तिं बदनं बाहू नतावसेयोः ~. ` ` \“ संक्षिप्त निबिडोन्नतस्तनमुरः पार प्रमृष्टे इब ।
भै ४ =
मध्यः पाणिमितो नितम्बि जघनं ,पादावरालदगुरी छन्दो नतेयितु्येथेव मनसं; शिष्ट तथास्या वपुः ॥ ३॥
१ १५.८५५ ८
माङबेका--( उपगन कृत्वा चतुष्पद् वस्तु गायति |)
गृणयुक्ता अविक्ता भवेत्यर्थः । ययोक्तम्-- चित्तस्याविकतैः सत्वं विकृतेः कारणे सति › इति । अत्र विकतिकारणं नायकसंनिधिः॥ अहे) इत्याश्व्यै । सर्वस्यानानवदयता सर्वषु स्थानेषु सर्वावयवेष्वनवदयता निर्दोषता । रमणीयते त्यर्थः । दीचौक्षमिस्यादि । वदनं मुखं दीघक्षि दर्षि आयते अक्षिणी ` लोचने यस्य ( षचूसमासान्तः ) तत्तथोक्तम् । शरदिन्दुकान्ति शरदिन्दोः शरचन्द्रस्य कान्तिरिव कान्तिर्यस्य तत्तयोक्तम् (प्रसन्नमित्यथः) । बाहू भुजा. वेसयोः स्कन्धयोर्नती नम्रौ ( क्वमानावित्यर्थः ) । मध्यो ऽवलप्रं पाणिमितः पाणिना हस्तेन मितः परिमितः ( पाण्यपलक्षणेन मष्टिमितः ) । जघनं नितम्ि नितम्बातिशययुक्तम् । पादौ चरणावरालडङ्गुटी अराल्य आकुञ्निता अङ्गृक्यो ययोस्तौ तयोक्तौ । अस्या मालविकाया वपुः शरीरं नतंयितुनत्ता चायस्य ( मनसः ) छन्दो ऽभिप्रायो यया यादशस्तथा तेन प्रकारेण शिष्टं संगतम् । ( यादशांगरी्ठवे सति न्तेनं सुनिपुणं भवाति तथैव अस्या वपुरदेहः शिष्टं सेहतम् । स्वतःसिद्धसैन्दर्यादिगुणकतया संबद्धं इत्यर्थः ) । अनेन नर्तक्या नुत्तारम्भोचितावस्यानविशेष उक्तः । तथां चोक्तं ॑वसन्तराजीये--“ अङ्कस्य चतुरखत्वं समपादौ लताकरौ । आरम्भे सर्वनृत्तानामेतत्सामान्यमिप्यते ' ॥ इति ॥ उपगानं रागि (गा. नात् प्राक् कर्तव्यं वसंतदिरागानुगतं स्वरविशेषं ‹ आलपाचारि ` इतिं ख्यातं ) कत्वा । चतुष्पदवस्तु चतुष्पद संज्ञकं प्रबन्धं गायति । वर्व-
(१) 2. ७. 8. कान्तिवदनं. (८२) 8. ©. वैशयो. (३) 1. ५.८ अमितच, ८ ४) 8. ७. परि. 7. मनसि. ८५) ?. उपवहनं ९14 8, कपोतकं. ( € ) १. चतुष्यदवस्तु ४१ 8. ©. “1. चनुष्पदवस्तुकं, .
( ४९)
दुष्टो पिओ तरिंस भव हिअअ णिरासं
अद्या अपङ्ओ मे पैष्फूरह् किंपि वामो ।
एसो सो चिरादैो कहं ` उवणंडदम्बो
णाह मं पराहीणं तुड् ण सतिण्हूम्॥४॥ (क) ( ईैति यथारसमभिनयाति । )
(क ) दुलभः प्रियस्तस्मन्भव ददयनिराश- ८५८५६) ..-.... महो अपाङो मे प्रस्फुरति किमपि वामः | ८५५५) एष स चिरदृष्टः कयमुपनेतव्यो ^~ \..^ ~^. ^ {ॐ} नाय मां पराधीनां त्वयि गणय सतुष्णाम् नापः गा पराषीनां लि ग वन
ति प्रबन्धः। ‹ प्रबन्धो रूपकं वस्तु निबन्धस्याभिधात्रयम् ' इत्युक्तत्वात् । अहो ( अहह इत्यव्ययं हर्षे । एवमाशशाया वैकल्यसंभावनायामपि ) अपाङ्ो मे परस्फुराति किमपि ( किचित् अनिर्दिषटेतोः ) वामः ८ खरी- णां वामाक्िस्पदनं हि अभीष्टसमागममूचकं तया च पुनरात प्रियसमागमे मे भावी । वामा्षिस्कुरणात् तयाशंसे इतिं भावः ) । एष स विरष््टः कयं पुनरूपनेतन्यः ( एवं आत्मनो द शनाभिलाषमभिधाय सेकल्पोपनीतं नायं संवोध्याद ) । नाय मां पराधीनां त्ववि परिगणय सतुष्णाम् ( एतच पद्यं चतुष्पद वद्धं प्रकतार्वानुगुणं च एतदेव दवारीकत्य मालविकिया आत्मा नुरागो नृपे दर्शितस्तचचाप्रे विदूषकवाक्ये स्फुटीभविष्यति । अत्र च चतुर्षु पादेषु चतस्त्रो ऽवस्या वैरग्यौप्सुक्य संकल्पात्मसमर्पणरूपा दशिता) ॥ ततो गानानन्तरं ययारसं रसानुकूलमाभिनयति । अत्र रसोऽयोगविप्रलम्भ- शृङारः । ययोक्तम्--, अप्रतिविप्रलम्भः स्यादानोजीताभिलाषयोः । विप्र म्भस्य भेदाः स्युरयोगो विरहस्ततः ॥ प्रवासः शापः करुणा भानश्चेति च षण्मताः ॥ ' तत्र । ' सेप्रातेः प्रागसङ्खो ( अभावो ) यस्तमयोगं प्रच-
(१) पि. ४0५ मे. (३) अम्महे. (३) पष. परि 9१. ४०१ 8. ७. ¶. इुरह किंपि वामओ. (१) फ. ४१५ उण. (५) 4. ज्य दवौ, (६) 2, ५44 ग. ( *) 2. 6. 9.17. ५५५ क्वः
( ४३ ) बिद्षकः-- ८ जनान्तिकम् । ) भो चडप्यदवत्यु अं दैवारीकदु अ तुड उर्व्विदो विओ अप्पा तत्तदोदीए । (क) राजा- सते एववैवयोैदयम् । अनया खल् 8 „6 जनमिममनुरक्तं बिद्धे नयेति गेये ८ ` .. ज्व बचम्मभिनयन्त्या{ स्वाङ्निदेशपएवेम् । +=;
( क ) भोः चतुष्पदवस्तुकं द्वारीकृत्य व्वय्युपस्यापित इवात्मा तत्र- भवत्या | (५५.५१.५५ ४५६ + ४ (८ ¦
न र,
क्षते ' इति । अत्र चतुष्पदयां पाद चतुष्टये क्रमेण निवैदः सविस्मयो दर्षश्चि- न्ता दैन्यं चेति सेचारि ( वितादि ) भावास्तत्तदनुभवैमुखरागादिभिः सम्यक्प्रकाशिता इत्यनुसंधेयम् । तेषां लक्षणमुक्तं वसन्तराजीये- इष्टां विरहस्वाधिनिन्दापदवमाननैः । दरिद्ताडनाक्षेपपरव॒द्धबवलेपनैः । निष्फल- क निर्वेदो भावितादिषु ॥ ' अत्र इष्टार्थविरहजनितो िर्विदः ।
निःखवासस्वावमाननैः । दैन्यगद्रदवैस्वर्ैरभिनेयो भवेद- यम् ॥ हर्षो मनःसमृष्छासो गुरूदेवमहीम नाम् । प्रसादाभ्रेयसङ्काञ्च भवेदि- टवैलामतः ॥ ' अग्रटारवलामजनितो हैः । अपाड्स्फुरणस्येष्टायेलभ हेतुत्वात् । ‹ मुखनेत्रप्रसन्नलप्रियोक्तिपुखकोद्रमैः । दानत्यागपरीरम्भैरमि- नेयो भवेदयम् ॥ इष्टालभारिष्टनाश्चादनिष्टातिश्च दैन्यतः । वित्तस्यैका- ग्रता चिन्ता ॥ ' अत्र चिन्तेष्टालभजनिता । ‹ स्मरणं चानुपस्मतिः ॥ सेतापोच्छरासनिश्वासा मान्यमिद्वियकर्मणाम् । अधोमुखत्वमित्यायैरभिनेया भवेदियम् ॥ अनोजस्तवं तु मनसो दैन्यमित्यभिधीयते । मनःतेतापदारि. दरचिन्तौतसुक्यारिमिर्भवेत् ॥ ' अत्रीतमुक्यजनितं दैन्यम् | * अङ्कानाम- पि दीयिल्यं देहसंस्कारव्जनम् । अश्रितं भरते ¶स्मन्वै अनुभावाः प्रदर्ी- ताः ॥ ' इति ॥ जनमिममित्यादि । नाय स्वामिन् इमं जनम् । मामित्य-
(१ ) ए. ७. 7. ४५१ वअस्स. (८ २) ?. चउप्पदं. वत्थु. (२) 2० 4. दवारं करिअ. ( ४ ) 8. ७. च. 1. उवक्खिदो. ८ ५ ) प, 9४. (८ £ ) 2५. एवमेव ममापि.
( ४४) प्रगयगतिमदृषठा धारिणीसंनिकषा
दहमिच सकुमारप्रा्थनाव्याजमुक्तः ॥ ५ ॥ ( मालविका गीतान्ते गन्तुमिच्छाति । ) बिद्षकः- होरे चिद । किचि ो विसर्मर्दो कर्मभेदो । तं दाब पुच्छिस्सम् । (क) गण ०-- वत्से" स्वीयतामुपदे शविशदधौ* यास्यसि । ( मालविका निव स्थिता । )
राजा--( आत्मगतम् । ) अहो सर्वास्ववस्यीसु चारुता शोभानरं पु- ष्यति । तया हि ।
क णनि : ` 2 24219 (क) भवति तिष्ठ । किचिद्धो विस्मृतः कर्मभेदः । तं तावत् प्र्ष्यामि । $ ९१ । पक्के; (त ६.८; १. 0 क न (५ व
थः । अनुरक्तं ल्िधम् । त्वयीति शेषः । विदि जानीहि । प गीते । वचनं * णाह म॑ पराहणिं ' इत्यादि वाक्यं स्वाङ् त्म. -
डारीरप्रद होनपूवं यया भवति तयाभिनयन्त्या हस्तादिभिः
( स्वांगंनिर्दि श्य इममित्युत्वारणकारे इदं पदार्थतया स्वस्यांगे निदिख्ये- तयर्यः ) अनया मालव्रिकया धारिणीसंनिकषौद्धेतोः प्रणयति मम लेह प्वृत्तिमदषटाज्ञात्वा । अनुभावानामप्रकाशनादिति भावः । सुकुमारप्रार्यना व्याजं सुकुमारा मृदुल्य । रसनीयेत्य्थ॑ः सा चासौ प्रर्यन। पैव व्याजोऽपदेशो
(१) ३. अवि {07 इव. (२) त. निष्कमितुं ( 8. 9. ¶. निष्कात्तुं ) आरब्धा, (३) २. चिद किंवि। वो &८; 4. 2० चिद । किंपि &८. (४) 8. ८. पि. 4. विसुमरिदो कम्मभेदो 810 4. 20 विसुमारिदं कम्मेदेण ०१९ ( 8०७ कममेदेण ). ( ५ ) 7. & . शाव १८७ पुच्छिस्सम्, ( ६ ) 8. ५. ¶. कत्ते क्षणमात्रं स्थित्वोपदेशविशुद्धा यास्यसि, 2१. भद्रे उदेशविशदधा यातु- मति. ( ५ ) 4. शुद्धौ. ( < ) 13. 9. ¶. ०४ ( ९ ) स्वगतम्, ( १ )
स्वौवस्यासु. ( ११ ) {. शोभां !
( ४५ )
बामं संधिस्तिमितबर्यं न्यस्य हस्तं नितम्बे कृत्वा श्यामाविटपसदृशं स्रस्तमुक्तं द्वितीयम् । पादाङ््टाटुकितकुसुमे कुदटिमे पातिताज्ं सृत्तादस्याः स्थितमतितरां कान्तमृज्वायतार्थम् ॥ ६ ॥ देवी-- णं गोदमवअणं वि अज्जो रए करेदि । (क) गणदासः--देवी' मैवम् । देवप्रत्ययात्संभाव्यते स॒क्ष्मदरदीता गीतम स्य । परयै ~ ` ^ मन्दो ऽप्यमन्द तामेति संसर्गेण बिपञितः। पङ्च्छिदः फरस्येव निकपेणाविरं पयः ॥ ७ ॥
( क ) ननु गौतमवचनमप्या्यो इदये करोति । ^ †` “` ¦
॥, .' ६; +~
यस्मिन्कर्मणि तयोक्तम् । अहमक्त इवोदित इव ॥ बाममित्यादि । संघे स्तिमितवख्यं सधौ मणिबन्धे स्तिमितं निश्च वल्यं कङ्णं यस्य स तथोक्तः । तं वामं सव्यं हस्तं नितम्बे न्यस्य निधाय । उयामाविटपसदशं फलिनीशाखासंनिमं द्वितीयं दक्षिणं इस्तं सस्तमुक्त सस्त .शियिङं,. यथा 1 तथा म॒क्तं । छम्भितमित्य्यैः । कृत्वा विधाय । पादाङगछछा
। पादाङ्गृधरन्ललितमम्ष्टं कुसुमं यस्य तत्तयोक्तं तस्मिन्कु्म । स्फटिक खवितस्यले पातिते व्यापारिते ऽक्षिणी यस्मिन्कर्मणि तयो क्तम । ऋज्वायतार्भेम । ऋज अवक्रमायतं दीघं अर्धं शरीरस्योर्ध्वभागो ` यस्य तत्तयोक्तम । अस्याः स्थितमवस्थानं नत्तान्नर्तनादतितरामत्यर्थं कान्तं ` मनोहरं भवति ( अस्या नुः्यादनितराम् ऋजु सरलं आयतां दीर्घाि- ` इारीरस्येत्यर्यात कान्तं स्थितं । यद्वा पातितमानषि नेत्रमेवायतमर्धं यस्य ता- इ सत् कान्तं बभृवेत्यथैः ) | अत्र वाक्यस्य विशेषितत्वात्ुष्पं नाम संध्य. इ मुक्तं भवति ॥ मन्दो ऽप्यमन्दतामेतीति । स्पष्टो; | अस्य वाक्य.
+ (१) 8.७. पि. 1. ५५ मा. (२) ति. वैप्रत्यवात्, (२) पि. 0. (४) ©. निक्षे,
+
( ४६) ८९.५4 ५८५५
( विदूषकं विल्गेक्य । ) › शृणमो' विवक्षितमार्थस्य ।
भिद् ०-( गणदासं विलोक्य ) संद्खिणीं दाव पुच्छ । पच्छा जो मए कर्मभेदो लक्रिखदो तं भणिस्सं । ( क )
गणद्ा ०-- भगवति ययाद्ष्टममिधीयताम् दोषो वौ गुणो वौ । परिव्रा०-- ययाशाखरं सर्वमनवद्यम् । कुतः । + अद्ैरन्तानिहतवचनेः भचितः सम्यगर्थः ` पादन्यासो कयमनुगतस्तन्मयतवरं रसेषु । ~ "~ ` शालायोनिमृदुरभिनयस्तद्विकल्पानुवरततौ = = `^ भावो भावं नुदति बिषयाद्रागवन्धः स एव ॥ ८ ॥ |
( क ) साक्षिणीं तावत्पृच्छ व ककु ` > । पश्वादयो मया कर्मभेदो कक्षितस्तं „ भणिष्यामि | ` ४.८५ ^+
स्योपपत्तिमत्वादु पन्यासो नाम संध्यङुमक्तं भवति ॥ कौशिकीं तावतयच्छ । ` पश्चायो मया कर्मभेदो इष्टस्ते भगिष्यापि ४ अङरित्यादि । अन्तनि- हितवचनैरन्तरनिहितान्यम्यन्तरस्थापितानि पदानि वैस्तैरङ्ै- हस्तादिभिः ( वचनमंतरेणापि विक्षेपविशेषेण अन्तर्गतवचनैः ) । अत्राभ्यासपाटवाद ङ्गानां स्वत एवान्तर्निदितवचनत्वमुतप्रोकषेतभिति मन्तव्यम् । अर्यो गीतार्यः सम्यक् साधु सृचितः प्रकाशितः । पादन्यासः पादस्य न्यासो विन्यासः । ल्यमनुगतो+नुसृतः । ख्यो नाम तालमानम् । “ ताले ` तराख्व्तीं यः कालोऽसौ ल्य ईरित ' इत्युक्तत्वात् । अत्र पादन्याषस्य ` स्वतो ल्यानुसरणमम्यासपाटवादिति मन्तव्यम् । रतेषु रसविषयेषु तन्मयत्वं तादात्म्यम् । रसात्मता भवतीत्यर्थः । अत्र रसशब्देनोपचारात्परितोषाति `
(१) पष. ११ ततः ४०१ 8. अ. ¶. तत्. (२) }8. ४09 वयं, (३) 8. ७. पि. ¶. कोमिरं. ( 07 भिक्वुणीं ). (४ ) 8. ७. प. 4. कम्मभेदो दिके. (५) 8.७. पि. 41. गणोकादोषौवा. (६) 8.9. 1. 04 इति. ` (= ) पि. यथा टं ४५ 8. ७, ¶. वया दतं. ( < ) 8. 9. 4. वदति.
1 ¢ `;
( ४७ ) गण ०--देवः कयं " मन्यते । राजा-- गणदासं वयं स्वपक्षशेयित्मभिमानाः संवृत्ताः । ` गण०- अर्यं नर्तयितास्मि। `^“ इपदेशं विदुः शुद्धं सन्तस्तमुपदेशिनः । श्यामायते न युष्मासं यः काज्रनमिवाध्चिषु ॥९॥ देबी- दिष्िआ परिक्वआरदिणेण अज्जो वडुंह । ( क )
८ क ) दिष्टया परीक्षकाराधनेनार्यो वर्धते ।
शयवत्वादिभावाः कथ्यन्ते प्रकतरसस्यैकलवाद्र सेथिति बहुवचनानुपपत्तिः प्रसङ्त् । अभिनयः प्रयोगः । ययोक्तम् -- प्रयोगो यस्तु नाटचादेर्भवेद भिनयो हि सः ` इति । शाखायोनिः शाखा योनिः प्रभो यस्य स॒ तयो क्तस्तयाविधः सन् ( शाखातुल्यपाणिरेव योनिरुत्पाततिसाधनं यस्य हस्तश्रित इत्यर्थः ) । मृद्: सुकुमारः । शाखानाम नत्तहस्तानां मान प्रचारः । यथेक्तम्-‡ शाखा तु नृत्तदस्तानां या मात्रा विवनर्तने ' इति । तद्वि कल्पानवत्तौ । तस्याभेनयस्य ८ तस्य अभमिनेयनायकादे विकल्प्यन्ते इति विकल्पाः देहादि चेष्टादयर्तषामनुवृत्तौ अनुसरणे भावस्तद्गतो.$ वस्याभेदः स॒ एव अभिनेयनायकारिगत एव॒ रागबन्धोऽनुरागसंब॑धो विषयादन्यस्मादिति शेषः । भावं हदयं तुदति आकषंति । विषयान्तर. संसर्गराहित्येन स्वप्रवणं करोतीत्ययैः ) विकल्पो भेद स्तस्यानुवतिरनुगतिः .्ापिः । तस्यां सत्यां भावः । अभिनीयमानो निर्वदादिर्विषयादाश्रयात् । प्रतात्स्यायिन इत्यर्थः । भावं पुवौभिनीतं संचारिणं नुदत्यपाकरोति । रागवन्धो रञ्जनत्वयोगः स एव । पूर्वं यादशस्ताटश एवेत्यर्थः ॥ उपदेशं बिद्ुर्त्यादि । उपदेशिनः शिक्षकस्य युप्मासु युप्मादशोषु विवेकि
। (१) 2 ५१ कवा. (२) 8.७, पि. ¶, ग. (३) }२. स्वपक्षे &८, ( ४ ) 2० अथ. ( ५ ) 4. विद्वत्सु. ( ६ ) 4, पएर्क्खारा &५, ( परी क्षारा &, ) ( ५ ) †. वदद ( वर्धताम् )
च ध +. 8. ©. ¶. सगतम. ( ¦ ) 83. 9. ४. 1. जात्तारः (१) 2.1 । ९\ ०2१ |
॥1
(४८)
गण०्- देवीपस्यरहश्च मे' ृदधिदेतुः । ( विदुषकं विल्मेक्य | ) गौतम वदेदानीं यत्ते मनसि वर्तते ।
विदू ०-- पुटमोपदे सदं सणे पुदमं बद्मणस्स पूजा इच्छिदैव्वा । साउणै वो विस॒मरिदा। (क) „~ध
परि०---अदो प्रयोगाभ्यन्तरः प्रश्नः † । ” 1... ~ ५ १५८८.
( स्वे प्रहसिताः * । ) " ( माखविका चै स्मितं करोति । )
राजा--( आत्मगत् | ) आत्तसारश्चक्षुषा स्वविषयः । यदनेन
स्मयमानमायताकयाः किंचिदभिव्यक्तदशनरोभि मुखम् ।
असमग्र लद्यकेसरमुच्छरसदिव पडङ्जं दृष्टम् ॥ १० ॥
८ क ) प्रयमोपदेशद शने प्रये ब्राह्मणस्य पूजा एष्टव्या । सा पुनर्वो विस्मृता ।
व्वित्यर्यः । न इयामायते न मलिनीभवति । ‹ लोहितदित्वात् क्यष् ' 1 ¢ वा क्यषः ' इति व्िकल्पादात्मनेषदम् ॥ अयि पण्डितंमन्ये किमन्यत् । मोदकखण्डने ऽपि असमर्था किं जानाति । प्रसन्नचन्द्रपादसद्शः केश पाकेरेतान् भीषयसि । प्रयमोपदेशदर्डाने प्रयमे ब्राह्मणस्य पूजा एष्टव्या सा त्या विस्मृता । अव परिहासस्य गम्यमानत्वान्नमोति सेध्यङ्कम॒क्तं भवति ॥ स्मयमानमिस्यादि । रप्टोऽयैः ॥. अववा पण्डितपिताषप्रत्यया ननु
(१) पि. एव & 8. 6. ¶. अपि 0" वमे. (२8.
~ पि. 17. ^. काक्वा. (३) 8.6. पि. ¶१. गे & ^. ण वोपटक्िदा
(१). 4. प्रात्निकः (५) 20 २0११. विदषकः-अह पण्डितं मण्णे कि अण्णं | मोदअखण्डणे वि असमय्या नुमं कि जाणासि । परसण्णवन्दपादसरितिदि केसपासेहं एदाणं भीमिअसि. (६ ) 8. ©. हसिता: ( « ) पष. ०४. (< )
भी +
* कु कक क.
( ४९ )
शण ० -- महवब्राह्मण न खलं नेपथ्यसंगीतकमिदम् । अन्यया कथं त्वामचैनीयं नार्चयिष्यामः |
बिदू०-- मए णाम मद्धचादएण विअ सक्खघणगान्निदे अन्तरिति
नलप्राण इच्छिदं । (क )
परित्रा०-- एवमेव
बिदू०- तेण दि पण्डिद परितीसपञ्या *मूटजादी । जदि अत्तहो दीए सोहणं भणिदं तदो से इमं पारितोिभं पञच्छामि। ८ इति “ रज्ञो हस्तातकुटकुमकर्षति । ) ( ख )
देबी ०-- चिट दवि । गणन्तरं अजाणन्तो किति तमं आहरणं देसि । (ग) बिदू °--परकेरंभं त्ति करिअ । (घ)
^ 1 1 क (क ) मया नाम म॒ग्धचातकेनेव शष्कघनगीनते «न्तरिक्षे जल्पा-
नमिष्टम् । र > ५.2. २ न , ( ख ) तेनहि पण्डितपरितोषप्रत्यया मटजातिः । यतो(तरभकवत्या शोभनं भणितं ततोऽ स्यै इदं पारितोषिकं प्रयच्छामि ।
“` ( ग ) तिष्ठ तावत् । गुणान्तरमजानन्किमिति त्वमाभरणं ददासि ।
( घ ) परकीयमिति कत्वा ।
मढजातिः। अनेन मालिकानिर्गमनदेतुना देवीवचनेन राज्ञो हितरोधनाननि-
। (८१) 1. 8.6. (4. प्रथम ) नेपध्यसवनमिदम, ४५ प. प्रथम्
नेपथ्यप्रदर्शनमिदम. (२) 3. ७. 17. दक्षिणीय. (३) 8. 6. ¶. जलपाणेण ( 1, 01 जलपाणं इच्छ्दा ) चादआइतं. ध, 16848 6
9॥०७।ण६ 80९ 9 = विद्षक 1४ ९००५।५०६६{०0 ७1४11 {118
००१४५१४६ ५€ 8९८) ° पररिाजिका 2/५ 1९४५1१६ अहवा णिः वेणि, (9) प. संतोसष. (५) ॥. ७. 2४. {. ४५१ णं. (६) 2५ तत्तहोदीर्. ( * ) 2० गेण्हिदं. (< ) 8. ७. ०. (९ ) 8. ©. नि. 4. 4. २०. ००. ( १९ ) 8. ©. पि. 7. किणिमि्ं. ८ ११ ) 4. 29 प्रर्कीमं.
#
‰२.५
(6 ५० )
देबी--( आचाय विलोक्य । ) अज्ज गणदास णं ' दंसिदोवदेशा दे सिस्सा। (क)
गण ०-- वत्ते प्रतिष्ठस्वेदार्नम् । 1
( मालविका सहाचार्येण निष्क्रान्ता । ) ।
विद् ०--( जनान्तिकम् । राजानं ` विल्येक्यौ ) एत्तिओ मे मदिविहबो भवन्तं सेबिदुं | ( ख ) «^^...
राजा ०--अर्मलं परिच्छेदेन । अयं हि
भाग्यास्तमयभिबाक््णो हदयस्य महोतसवाव्रसानमिब ।
द्वारपिधानमिव धृतेर्मन्ये तस्यास्तिरस्करणतं ॥ ११॥
दू ० ( जनान्तिक ।) सीहु पमं द्ददुरो वि वेज्नेणं उव णीअमाणं ओसहं इच्छसि । ( ग )
( कं ) आयं गणदात नन दर्शितोपदेशा ते शिष्या । ( ख ) एतावान्मे मतिविभवो भवन्तं सेवितम् । (ग) साधु ववं दरिद्रातुर इव वैयेनोपनीयमानमीषधमिच्छसि ।
रोधो नाम सेध्यङ्मक्तं भवति ॥ भाग्यास्तमयमित्यादि । तस्या मालिं कायास्तिरस्करणं तिरोधानमक्ष्णोर्नेतरयोर्भाग्यास्तमयमिव भाग्यस्य भागधेय- स्यास्तमयामिव । हदयस्य मनसो महोत्सवस्यावसानमन्तमिव । धृतेः परतिद्री.. रपिधानमिवं द्वारस्य प्रवेशमार्मस्य पिधानं तिरोधानमिवं मन्ये संभावयामि ८ तस्या अददीने नेवं विफलमिव इदयं निरानन्दमिव सेत्तोषमावृतमिव च मन्ये ) अत्रारतेगम्यमानत्वादविधूतं नाम संध्यङुमक्तं भवति ॥ दरिद्र श्वातुरो वैयेनदोयमानीषधमि
(१ ) पि. 20 ०.८२) 28. 6. 4. एहि गच्छवः (३) 8.6. ¶. 9१. (9) &. ० मि. (५) 8. ©. पि. 1. अह. (4) 2 ए. ७, ¶. तिरसकारिणीम. ( ७ ). #, ० ०. ( < ) 8; 0७. ए. साह. पि. ०7 & 4. १५५ अहह. ०६०1७ ( ९ ) ष. उटिदे विभि आदे. (१) 8. 6. त. 1. केज्जेण ओसहं दाअमाणं (8. ©. ¶. उष्यार्दाभिमाणं ).
^) ( प्रविंङ्य ) हृर₹०- देव मदीयमिदानीमवलोकयितुं पयोग क्रियतां प्रसादः । राजा--(आत्मगतम् । ) अवसितो दर्शनार्थः ( दाक्षिण्यमवलम्ब्य । प्रकाशम् । ) हरदर्तं पर्यत्स॒का एव वयम् । हर .-- अनुगृहीतोऽस्मि ।
( नेपथ्ये । ) -स श्च बैता०-- जयतु जयतु देवः । उपारूढो मध्याः । तया हि । ^... पत्रच्छायासु हंसा मुक्कितनयना दीधिकापद्चिनीनां सौधान्यस्यथेतापाद्ररुभिपरिचयद्वेषिपारावरानि 1." बिन्द्रक्षपान्पिपासुः परिपतति रिखी भ्रान्तिमद्वारियन्त्रं ~~ ` च समभ्रस्त्व(भव नृपगुणदप्यत सप्तसा; ॥ १२॥
च्छसि ॥ पञ्जच्छायेस्यारि ( हंसा दीर्धकापानिनीनां वाप षरोजिनीनां- दल्च्छाातु मुकुल्ितिनयनाः संत॒ आसते इति शेषः । सधान अर्थ तापद्रङिरणात्यर्थसंसर्मकृत तापाद्रल्भिपरिचये वडभ्यनुश्ील्ने द्वेषि णो द्वेबयक्ता अननत्क्ताः पारावता यत्र तथा भतानि । शिखी मयर विपास॒ः सन् विन्द्त॒तपाज्जलकणानामुलषेपाद् भ्रांपिमद् भ्रमणयुक्त ` जयतं धाराधत्रं परिषरति गच्छति । हे नप सप्तसप्तिः स्यः गमैः समग्रः सेपुभ॑स्त्वमिव उखैः किरणः समग्रः सन् दीप्यते भाति ।)॥ अविध अवध । अस्माकं पुनर्भोननवेलेपस्विता । उचित वे्यतिक्रमे
4
(१) १. 6. १. ¶. [फ्छा्लौषद्नु<, (२) 8. ©. ^), स्वगतन. (३) 98. 8. 1. १५५ मे. (१) 1३. ७.1, ७») (५) ए. 010), ०0 जयतु. ९० । & . सुताय भत् मायंदिनी सव्या देवस्य | तथादि। (६) 2० मध्यमः; मध्यः ( ७ ) 1, ?० बिन्द््लोात् & 4. विन्कषेपान्. (< )~ 8. 6. ४» 1, प्रितरति. ( ९ ) 2. 0. ४, 4 समथः )
= # १ 4
५ क,
४ ( ५९)
बिषू ०-- अविहा अविह। । अद्ौणं उण भोअणवेत्म संउत्ता । उइदवेलादिक्रमे चिइच्छआ दोसं उदाहरन्ति ।* ( क )
राजा-- हरदत्त किं भणति ।
हर०-- नारसत्यवकाशो मद्रवचनस्य ।
रजा ( हरदत्त विलोक्य ) तेन हि व्वदीयमुपदेशं शवो र्थं द्रया मः । विश्राम्यतु भवान् ।
हर् ०-- यदाज्ञापयति देवः । ( इति निष्क्रान्तः । ) देशो--णिव्वटरदु अज्जत्तो मञ्कणविहिम् । ( ख ) विद् ०-- मोदि वितेतेण पामोअणं तुवरे$ ( ग)
( कं ) अविध अविध । अस्माकं पुनर्भोननवेलपस्थिता । उचित-
..... बेलातिक्रमे चिकित्सका दोषमदाहरन्ति । ।:. :. ¦
( ख ) निर्वतंयतवायपुत्रो मध्याहुविधिम् । ( ग ) भवति विशेषेण पानभोजनं त्वरयतु ।
चिकित्सका दोषमुदाहरन्ति । किमिदानी भणसि (अत्र मध्यद्भुपमये अन्यस्य वचनस्यावकाशोस्तीति काक्रा प्रश्रः) ॥ | निवंतेयत्वार्यपुत्रो म-
(१) 8. ७ ०1१). ०७ अविहा. (२) 12० १€४५ अत्तहोदो ५।६।। सेउत्ता, 7" बह्मणस्स भोअणवेला । अत्तहोदो सञत्ता | उहद &०, ४५ 8. ©. (7. अह्माणं भोअणवेटा । अचहोदो उददेटदि कमेण &९ 4. ण्हाणमोअणवेत्म उर्वाःग । अनहोदौ उडद &८. ( ३) 3. ७. प. ¶. 16५व ४५ {गोण्ड 8])€७८।\ ०[ (06 [10 1) (118, ०१०,।५।1१६ राजा. १, ४१५8 (हरदं विद्धोक्य ) & दाणि ५{८८॥ कि. ( 9 ) 2५ नास्तिमद्रवनावसरोऽ्र 9. (३, "1, लाभ्तिचान्यस्य वचनावकोशोऽत्र & प, नांत्तिवचनत्यायस्याक्कारोऽ्र.( ५ ) . प, ०. (६ ) 8. 6.1. ०0. (* ) 9. 6. 1. किरन्यतामः भवान. (< ) 2" अज्जो. ( ) 0 मज्जण, ८१९ ) ५ ०0 पराण, ( ११) 5. 6. 2२, ¶्. वुषरविवु. ।
( ५३ )
परित्रा०-- ( उत्याय । ) स्वस्ति भवते । ( शपरिजनया देव्या सह निष्क्रान्ता | )
बिद०--भो ण केवलं रूवे सिप्ये विँ अदुदीआ माल्विआ ( क )} राजा- वयस्य क अव्याजसुन्दरीं तां विज्ञानेन ककितेन, योजयता । ` परिकल्पितो विधात्रा बाणः कामस्य बिषादिग्धः ॥ १३॥ किं बहुना | "चिन्तयितव्यो स्मि तेः | ^ ^. ^ <”“ "4 ^“
*“ - ६५
बिदू०-- भवदा वि अहं । दिद" विपणिकन्दु विअ मे उदरन्भन्तरं टज्खई | (ख)
राजञा--एवमेव भवान्सुहदर्ये तरताम् । बिद्०-- गहीदक्खणो नचि । रिंद मेहोवरष्दजेष्डा अ पराहीण-
(क ) भो न केवरं रूपे शिल्पे ऽप्यद्वितीया मालविका । ( ख ) भवताप्यहम् । ददं विपाणिकन्दुरिवि म उदरमभ्यन्तरं दह्यते ।
ज्जनविधिम् ॥ अञ्या र सु. रं मित्यादि । ललितेन सुभगेन विज्ञानेन सं ` गीतकल्परिज्ञानेन ॥ विपणिकन्दुनौम पण्यवीधथिकायां पिष्टपचनपात्रम् । कन्दु स्वेदनी स्त्रियाम् ' इत्यमरः ॥ एबमेबेत्यादि । एवमेवेत्थमेव । ` यथा भवान्भोजनरूपे स्वकर्थे त्वरते तया सुहदर्थे मदर्थे मालपरैकापुनदं ` शने त्वरताम् । अव दष्टनष्टस्य बीजस्यानुपसर्पणात्पारेसपं इति सेध्यङ्मुक्तं भवति ॥ भवानपि स॒नाषेद ङ् ( सनापरिसरचरो व्रीहड् ) इव आमिषरलपो
(१) 8.०. ¢. (इतिदेन्या सह &९. ), पि. ( हप सपरिजनया देव्या 4५. ) (२) पि. ४५५. वअस्स. (३) 4 सिष्य अ, (१) 8. ७.4. उकसिषितौ. ८ ५ ) प. १५५ स्वे, ( ६ ) {०५0 ते, ( ७ ) ० ०). (<) 8. ©. 1. हिअअ, (९) 8. ७, 7. अम्मदय, ४१५ प. ५०१ अपि. (१९) त्वरयतु. (८ ११ ) ष, गहीगे क्वणो, (१२) 8. 0. १, 1, 4 मेहावछीष्द्र ( प, शद्धा ) जोण्हा & ४५५ माछ्रिजा &{191 तत्तहोदी. ।
( ५४) दसणा तत्तहोदी । भवं वि स॒णोपारिचसये `विहंगमो विअ आमिसलोलवो भीरओ अ अवादुरो भपिअ कञ्जतिद्धि पत्ययन्तो मे रोअकि । राजा--सले कयं नंतुरो भविष्यामि । ~~~ सवोन्तःएरबनिता व्यापारप्रातिनिवत्तहूदयस्य । सा बामखोचना मे स्नेहस्यैकायनोभता ॥ १४ ॥ ` (ति निष्कान्त स ) ५. इति द्वितीवोऽकः ५
५ १) #र
( ग ) गृहीतक्षणो ऽस्मि. । किंतु मेघोपरुद्धजयोत्स्नेव पराधीनद ना ततभवती । भवानपि शनोप्रिचरो विहङ्म इव॒ आमिषल्ेलृपो भीरूक श्रात्यातुरो भत्वा कार्यसिद्धि प्रार्षयमानेो मे रोचसे ।
भीरुकश्च । तस्मादनात॒रो भूत्वा कार्यसिद्धि प्रार्थयमानो मे रोचसे । अत्र सान्त्वनस्य गम्यमानत्वात्प्य पासनं नाम ॒संध्यडमक्तं भवति ॥ सर्बान्तः एरेतव्यादि । या स्नेहस्य प्रेम्ण एकायनीभूता । एकं केवलमयने स्यानम् । आश्रय इत्यर्यः । तद्भूता । मालिकाया निष्क्रमणेन कयाविच्छेदे ` सति सर्वान्त पुरेत्थादिना रो राज्ञो ऽभिल्यषातिशय उत्तरङ्कथा
हेतुतवाद्वन्दुरित्यनुसंधेयम् ॥ श श्रौकाटयवेमभृपविरािते कुमारगिरिराजीये ` मालविकाभिरमत्रव्याख्यने द्वितीयो ऽङ्: ॥
(१) 8. 9७. पर. ¶, सृणापरिवरो ( प. सरो). (८३) 98. 6.1, निने विअ ५।५ विहगो बिअ. ( ३) 8. ७. ओ, 1. 5९१६९०९९ ` ०१११९८९ 1€7७ ( ४ ) 8, ©. ¶. अचार गजि && पि. ता अणादूरो | ८ ५) 8. ७. पि. 1. ००. ( ६ ) 8. ७, }र 1. कंथमनातुरो, ( ५ ) 43. ७. 1. शज्यापारं प्रति &५.
( ५५ ) तृतीयो ऽदः । ८ ततः प्रविशति परिव्रिजिकायाः परिचारिका । )
परिच;०--आणत्तद्चि भअवदीए समाहिमदिए देवीए उवाण- अत्थ बीनपूरअं गेण्हिअ आभच्छेति । ता जौव॒पमदवणपलिअं महु अरिं अण्णेसामि । ८ परिक्रम्यावलोक्य च ।) एसा तवणीञसोअं ओलेअरन्ती चिद्वि । जाव णं उपसप्पामिं | ( क )
, ( ततः प्रविशव्युद्यानपालिका )
प्रथमा--( उपपुत्य ) महुअरिरं अवि रहो दे उञ्जाणवणंव्वावारो । (ख) द्वितीया--अद्यो समाहिमदिआ । साहे साअदं ते । (ग)
( क ) आन्ञप्तास्मि भगवत्या समाधिमतिके देव्या उपायना्थं बीजपरकं ¬> गृहत्वागच्छेति । तवयावत्प्रमद वनपालिकां मधुकरिकामन्विष्यामि । एषा
तपनीयाश्ञोकमवलोकयन्ती तिष्ठति । यावदेनाम्पसर्पीमि । >+ ५४६. 6 मधुकरिके (ख) अपिं सृखस्त उद्यानवनव्यापारः । ॐ “¦
(१५ (न
८ ग ) अहो समाधिमतिका । सखि स्वागतं ते । (१८... ९५
कविरिदानीमङान्तरमारभमाणः कथासंघटनायं प्रथमं प्रवेशकं नामा योपक्षेपकं प्रस्तीति तः प्रविशतीर्यादिना । समाभतिके (देव्याः) उपा
। .(१ ) प. 7. ४५ समारितिका. (२) 2. 6. परि. 1. समार्हितिका 4. समाभृतिका ५] ५१7००६॥. ( ३ ) २०. ४५ जहा समाहिमदिष, 1 । 000. समाहिमदिए. ( ४ ) 8. ७. प. ¶. 2० देवस्स; २४ ०1, (५ ) । ^. 20 सभाअणयं. ( ६ ) 23. 4. ता दाव, ध, जावं &. (+. तं दाब, (७) । ष, ० च, ( < ) 3. 6. ¶. 4. 2०.१५१ महुअरिआ. (९ ) ए. ©
। ^. 2. ¶. सेमर्विमि, ( १९ ) ए. 6. 1, आलि ज महु, .. अवि ( ¶
अवि ). (११) ‰. सुविहिदो. (१२) ८४ 4 त. उज्जाणन्वावारो, , 1
॥
( ५६)
समाधिमतिका-- हला भअवदी आणवेदि । अरित्तपाणिणा अद्या | रिसनणेण तत्तहोदी' देव" दक्खिदव्वा । ता बीनपूरएण सुस्सृषिदुं इच्छमि त्ति । (क)
करिका- णं संगिहिदं बीजपूरअं । केहि दयि अण्णोण्णसंघः रितिदाणं णद्राभरेआणं उवदेसं देक्खिअ कदरो भअवदीए पसंसिदो ्तिं। (ख) समाथिमतिका- दुवे वि किं आअमिणा पओअणिडणा अ । किदु सिस्सागुणविसेतेण उण्णमिदो गणदासो । ( ग )
मधु ररिका--अह माखविआगअं कोलीणं कि सुणीअदि । ( घ ) समायिमातिका--बलिभं क्ख॒साहित्गंसो तरसं भद्र । "केवलं
( क ) सखि भगवत्याज्ञापयति । अरिक्तपाणिनास्मादशजनेन तत्र- भवती देवी द्रष्टव्या । तद्वीनपूरकेण शुश्रषितुमिच्छामीति। `
८ ख ) ननु संनिहितं बीजपूरकम् । कयय तावदन्योन्यसंधूर्षितयो नौटयाचारययोर पदेशं दष्टा कतरो भगवत्या प्रशंसितः ।
( ग ) द्वावपि किलागामिनौ प्रयोगनिपुणौ च । कितु शिष्यागुणविशे षेणोक्रमितो गणदासः ।
( घ ) अय माल्विकागतं कौलीनं किं श्रयते ।
यनाय बीनपुरकं गृहदीत्वागच्छोति । अय मालविकागतं कौलीनं लोकबाती किमिति श्रयते । (देव्या रक्ष्यतेच । ) ततः परं न जने ॥ इति प्रवेशकः॥
८ १ ) 4 8. ©, 7. ?० अत्तमवं दक्िदन्वो, (२) 1. पक्त ८ सुस्सु- सिदृ ). (३) 8. ७. ¶, ० 8१५ 20 ^. दूवेणं सगीदओवदे्णिमिततं & ९, (४) ए. 6. दि. ¶. कण. त्ति. (५) ¶. (क्व् १।।९।११६।१७). ( ६ ) पपि, मालविओआए उवदे्ो पसंसिदो, 1. ८ सिस्साए विसेतेण उण्णमिदो उवदे- सौ गणदासस्स. &. 12. ५, गणदासो उण्णमिदोवदेसो. ८५) 4, च. 2०. क्ति. (< ) ५, चठ किल. ४0०५ 3. 09. 1. बादं किल. (१) 8.09. षि, (1, [णनो ४०६९, ( १९ ) पि, ११ कितु. |
। 4 ८.
1 देवीं धारिणीए चित्तं रक्खन्तो धहुत्तणं ण दंसेदि । मालिं वि इमे मु दिअहेसु अशहदम॒त्ता विअ माल्दीमाल्म मिलभमाणा लक्खीअदि । अदो वैरं ण जाणे । विसज्जेदि मं । ( क )
मधुकारिका-- एदं साहावलम्बिदै वीजपरअं गेण्ह । ( ख )
समाधिमतिका-- ( नाटयेन गृहीत्व । ) हला तुमं वि इदो पर्सल्दरं साहुजणसुस्स॒साए फरं अणुहविस्ससिं' । ( इति प्रस्थिता । ) ( ग ) . मधुकरिका- सहि समं रएव्व गच्छ्मो । अहं वि इमस्स चिरा- अमाणकुसुमोभीमस्स तवणीआसोअस्स दोहल्णिमिततं देवीए विण्णवेमि'” ।
9 "क = नक ११ तकनक
(ष) समाधिमतिका -नुज्जई । अदिआरो कसं तुह । ( च ) ( इति निष्कान्ते ) कि, = 1 पेशोकः
1 व ++ 4. (न. +
( क ) बल्वत्वल साभिखषो तस्यां भर्ता । केवरं देव्या धारिण्या- =
शित्त रक्षन् पुभत्वं न दशयति । माखविकाप्येषु दि वसेप्वनुभूतमुक्तेव मालतीमाला म्लायमाना रक्ष्यते । अतः परं न जने । विसज माम् ।
( ख ) एतच्छाखावुबितं बीजपूरकं गृहाण । १/०; ५५.८८..०
( ग ) हल त्वमपीतः पेशकतरं साधरुजनशुश्रुषायाः फलमनुभवति ।
( घ ) सखि सममेव गच्छावः । अहमप्यस्य विरायमाणकुसुमोद्रमस्य तपनीयाशोकस्य दोहद निमित्तं देव्यै विक्नापयामि । + ( च ) यज्यते । अधिकारः खल तव । ,
॥ १ |
८ १ ) ष. ००, ( २ ) ए सक्खमाणो, 29 4. रम््विद. ( २) 3. ७. ¶, ४44 सत्तणो ४०१ ^. 2० अरिटासदंसणे. &८. ( 9 ) 1. अणुटूदमुच्छा, ( ५.) पि. म्ना. ८ ६ ) ए. ७. 1. अवरं, ( « ) 3. (©, 1. साहावलंबि, 89 4, एणं साहावलंबिणं, ( < ) प. तह | ( हति नाग्येन बीजपूरकं गृहीत्वा )* ( ९ ) पि. अदो & 4. 0४; 20. अदो वरं. ( १ ° ) 2० विषुदरं & 2४ णण. (११ ) ए. 6. प, 4. पावहि ४०१ 120 4. लेह. ८१२ ) पष. इका, ( १३) 8. @. ०७. ( १२.) ^. "कुत॒मस्स. ८ १५) 8. ७, ¶ णिवेदेमि. ८ १६ ) 4. ०४. ( १५ ) प, ४0 हि, ।
<
£
ध
( ५८ )
८ ततः भविति कामयरमनोनिस्ो राजा विदूषकश्च ) राज्ञा-- ( आत्मानं विलोक्य ) शरीरं क्षाम स्यादसति दाथेतालिङुःनसुखे भबेत्साखरं चक्षुः क्षणमपि न सा दृश्यत इति । तया सारङुाक््या त्वमसि न कदाचिद्विरहितं `" भ्रसक्ते निर्णे हृदय परितापं वंहति किम् ॥ १ ॥
बिदू ०- अलं भवदो धीरदं उम्भ परिदेविदेण । दिलु मए ॒तत्तहोदीए् माल्विआए पिअसही बडउल्यवलिआ । सुणौष्दा अ तं- अत्थं जो भवदा संदिष्ो । ८ क )
राजा-- ततः किमुक्तवती ।
( क ) अलं भवतो धीरतामु्डित्वा परिदेवितेन । दृष्टा खल् मया तत्न- भवत्या मालपरिकायाः प्रियसखी बकुत्मवलिका । श्राविता च तमयं यो भवता संदिष्टः ।
ततः प्रदिश तीत्यादि । कामयमानावस्यः | कामयमानानां कामिनामवस्येवाव स्था दशा यस्य स तथोक्तः । शरीरामित्यादि । दयितालिङनसुखे परि यापरिष्वङ्सुखे 4सत्यविदयमाने ( सति ) शरीरं वपुः क्षामं स्यात्कशं भवेत् ( सेभावनायां जङ् । शरीरक्षामता संभावितैवेतयर्थः । अनेन स्मरजा क- शावस्या सूचिता । तथा चालिदनसुखविमृक्तस्य कडतोचितैवेत्य्ंः । ) । क्षणमपि क्षणमात्रमपि सा माल्मविका न इङ्यत इति न लक्ष्यत इति चक्षुः सास्रं सबाष्पं भवेतस्यात् । हे इदय चित्त सारङ्ाक्ष्या हरिणनेत्रया तया
(१) ए, ७. मद. (२) 8. ५, पष. 7. बनसि, ( ३) 8. 9. त्ष. ¶. ०४, शब्. ( ४ ) 8. ©. 7. ०0 ते, पि, सुणाविदो अअं अत्यो 9 अ ते अत्यं 8त् 0. मए ७ तं अत्थं, { ५ ) 29, 10४6००००
प किक ५1 `
८ ऋ? )
बिदू ०-- विण्णवे्े भद्रं । अणुगहीदद्यि इमिणा णिओएण । किदु सा तवस्सिणी देवीए अहिअदरं' रक्खिअमाणा णाअरकरखदो णिहिं विभ ण सुहं समासादइदव्वा । तहवि घडडस्सं ति । ( क )
शजा--भगवन्संकल्पयोने प्रतिबन्धवत्स्वापि विषयेप्वभिनिवे्यं तया प्रहरसि यया जनोऽयं कालान्तरक्षमो न भवति । ( सविस्मयम् )
ॐ श 9 ^. न
क खजा हूदयप्रमाथिनी क च ते विश्वसनायमायुधम्।
मृदु तीदगतरं यटुभ्यते तदिदं मन्मथ इश्यते त्वपि ॥२॥
( क ) विज्ञापय भतौरम् । अनुगृहीतास्म्यनेन नियोगेन । किंतु सा तपस्िनी देव्याधिकतरं रक्ष्यमाणा नागरक्षितो निधिरिव न स॒खं समासा- .“. दयितव्या । तथापि घटयिष्यामीति ।
कि ^~
मालविकया कदाचिञ्जातु विरदितं वियुक्तं नासि न भवसि ( मनसस्तदे- कायनत्वात् ) । अतस्तस्मात्कारणात् ( तन्मयत्वेन ) निर्वाणे . सुखे प्रसक्तं प्रस्तुते. सति किं किमथ परितापं सेतापं व्रजसि प्रामोषे ( अनुभवति ) । श्रविता च तम्य यो भवता संदिष्टः। ( श्राविता च मया यद्वता सेदिष्टं ) नागरक्षित इव निधिः । अत्र॒ तपस्विनीति करूणापात्रमुच्यते । ‹ तपस्वी करूणापात्रम् ' इति हत्युधः । अत्र प्रापतिसंभावनया प्राप्तयाशा नाम तुतीयावस्या मृचिता । अनया प्रायाशया बिन्दोः समन्वयाद्रभ॑ताधि रिति मन्तव्यम् । कररुजेस्यादि । ( ददयप्रमाधिनी हदयनिष्पीडिका रुजा रोगः क्र | ते विश्वसनीयं कुसुमायुधतवेन अपीडाकरत्वात् विश्चासपात्रमायु घं श्रे वा क्र । कृमुमशतत्रेण भवता हदयस्य पीडनं अतीवासम्भरवमित्य- यः| हे मन्मय लेके मृदु कोमलं सदेव तीक्ष्णतरमातितीक्ेणं यदुच्यते
(9 ) पि. ०१, ४१५ 8. &. 1. भद्रारअं, ८ २) पि. अहिअं रक्खतीए, ( ३ ) 8 9. 1. रक्िदाणं विअ णिदिणं सुहं &५,; ^. ष, विअ मणी ५।५व ए. मणि विअ. (४) 3. ७. ¶, जतिस्सं, ( ५ ) पि. प्रतिबन्धवत्स॒चापि & ^. 23, ©* ००. चापि. ( ६ ) प, अभिनिवेशकारी कि. (° ) 8, 6. पष, ¶, 1४८८1४०९
ॐ अ
:. बस्थापयतु भवानात्मानम् ।
( ६० ) बिद०--णं भणामि तरस साहणिजञ्जे किदो उवक्खेओ त्तं | तौ
पग्जवत्यावेदु भवं अत्ताणं । ( क )
राजा--अयेमं दिवसशोषर्मुचितव्यापारपराड़मखेने चेतसा क्र नु खल यापयामि ।
विदू ०--* अज्ज एव्व वघन्दपुदमावदारसुह ओंणि रक्तकुरबआणि उवाअणं पसिअ णववसन्तावंदरावदे सेण इरावदीए णिडणिआमदेण पत्विदो भवं ' । इच्छामि अज्जउत्तेण सह दोतदिरोदणं अणुहविदुं तति । भवदा बि से पडिण्णादं । ता पमदवणं एव्व गच्छद्य | (ख )
शाजा-- न क्षमामिदम् | िदू ०-- कहं विअ । ( ग)
(क ) ननु भणामि तस्मिन्साधनीये कृतो मयोपक्षेप इति । तत्पं
५ द
(ख ) अयैव वसन्तप्रयमावतारसुभगानि रक्तकुरबकाण्युपायनं प्रेष्य नववसन्तावतारापदे शेनेरावत्या निपुणिकामुखेन. प्रर्वितो भवान् । इच्छाम्यर्यपुतरेणसह दोलाधिरोदणमनुभवितुमिति । भवताप्यस्यै प्रति ज्ञातम् । तत्प्रमदवनमेव गच्छौवः ।
( ग ) कयमिव । । 6 ततिदँ त्वयि टइयते । तव शस्त्रस्य मृदुत्वात् तापकल्वाच्च तयात्वमिति भावः । ) ननु भणामि तस्मिन्साधनीये कृत उपक्षेप इति । (संस्तंभयतु) ।
(१) ‰. 8. ©. ¶. ४११ कञ्जे. (२) 2. 4. ०४०, चि, ‰. 2० उका- आओवक्लेओो सि (^. ०10. पि); 1. म? उवाओवक्खेओ ति; #. ©, म उवाओ ति. (३) प. ०५. ता, 3. ७. अत्तभवं) ^. 2५ अत्ताणं तत्तेमवं, ( ४ ) 8. ©, ०9. उचित, ( ५) 8. ७.28.1. षि णिष्रा. (१) 8.9. 1. ¶, जा. (ज ) ए. ७. प. ¶4. ४0 णे मव, (<) 8.6... 0). षसन्द् ( १ ) 2. 4. सृजभणि, ( १९ ) ए. ©. 2. 1. ` व्ववदेतेण, &५, ( ११ ) 8. ©* 2, 1, ०, ।
( ६९ ) शजा-- वयस्य निसगनिपुणाः स्त्रियः । कयं मामन्यसंक्रान्तइदयमुपल्य छयन्तमपि ते सखी न लक्षयिष्यति । अतः पडयामि।
इचितः प्रणयो बरं विहन्तुं बहवः खण्डनहेतओ हि दषाः इपचारबिधिमंनस्विनीनां न तु पृ्यधिकोऽपि भावशून्यः॥३॥
५. ।
त (1 ॥*. =
बिदू०--णारूहदि भवे अन्तेउरंपडिद्िदं दक्खिणं रक्तपदे पिहदो .
कादुम् | ( क ) शजा--( विचिन्त्य ) तेन हि प्रमदवनमार्गमादेशय 1 बिद ०- इदो इदो भवं । ( ख ) *( उभौ परिक्रामतः )
प थह ~= =," च
( क ) नार्हति भवानन्तुरमतिष्ठितं दाक्षिण्यमेकपदे पृष्ठतः ॥ ८.6.15 ९५५५५५५५ 3
(८ ख ) इत इतो भवान् ।
~~~ ~~~
अत्र * कृत उपक्षेपः › इत्यनेन कपटोपायकल्पनाया गम्यमानतवेन अभता हरणं नाम सन्ध्यङ्मुक्तं भवति । ( निसर्गेण स्वभावेन निपुणाः परचित्त ज्ञानदक्षा अन्यस्यां सेक्रान्तं हदयं यस्य । वृत्तिगतत्वात् अन्याशब्दस्य पु वदावः । तादशं मामुपलाल्यन्तं बाह्यव्यापारेण आनुकूल्यमाचरन्तं ते तव सखी इरावती लक्षयिष्यति । ) उचित इति । प्रणय इरावत्याः ्रर्यना विहन्तुं परतिषेद्धुमुचितो खो वरं मनाकूप्रियम् । अयं पक्षः किंचि त्सधुरित्य्ैः । दि यस्मात्कारणातखंडनदेतवः ( अभिमताननुष्ठानरूप स्य प्रणयखंडनस्य हेतवः ) ईष्यकोपकारणानि बहवोऽनेके ट्टा मया लक्षिताः ( कल्पयितुं शक्या इत्यर्यः ) । खंडनहेतुदर्शने ध्यु पचारविशेषः प्रलेभ्यतामित्यत आह । उपचारेति । भावशून्यः प्रेमरदित उपचारिषि- रिष्टाचरणं पूर्वाभ्यधिको.धपि पूरवैस्मादु पचारपिपररतिशयितो पि मनस्विनीनां
(१) 8. ७. >. 1. ०0 प्डि,+ (३) 4. राजा निष्कामति.
४१११
विदू ०- पयन्दो किर एदा पवणचलिदाहि पलवल तुकि विअ भवन्तं एदं पमदवणं पविसेदि । ( क ) 7 १ राजा--( सयं रूपयित्वा । ) अभिजातः खल् वसन्तः । सखे प्य । आमत्तानां श्रवणसुभगैः कूजितैः कोकिलानां \ 4.1... सानुक्रोशं मनसिजरुजः सह्यतां पृच्छते । यूल अदुः च॒तप्रसवसुरभिदेक्लिणो मारुतो मे <. सान्द्रस्पर्शः कर तर इव व्यापृतो माधवेन ॥ ४ ॥ “+. बिदू ०--पविस णिव्वुदि त्महाअ । ( ख ) ( उभी प्रविशतः )
( क ) वसन्तः किठैताभिः पवनचलितामिः प्छवाङ्गुीभिस्त्वरयतीवं भवन्तभेतत्प्रमद वनं प्रविशेति ।
( ख ) प्रविश निवंतिखाभाय ।
6
तु प्रशस्तमनसां पुनः । विवेकवतीनामिवयर्यः । उपचारिषि्नं भवति । कित्वपचारविधिरित्र्थः । अत्र नजर्व॑स्तद्िरोधः । इत इतो भवान् । एत- त्ममदवनं पवनदरचलिताभिः पवांगुीमिस््वरयतीव भवंतं प्रवेष्टुम् । अमत्तानामिस्यादि । ( श्रवणसुभग श्रुतिषुखदायकैरामत्तानां कोकिं लानां कूनितैर्मनसिज रुजः कामवेद नायाः सह्यतां सेदु योग्यतां सानुक्रोशं यथा तया मामिति शेषः । पृच्छतेव माधवेन वसन्तेन चृतप्रपवसुरभिरा्रकुसु- ममुर्गधिरेक्षिणो मल्याचनिकृष्टो मारुतो मेङ सान्द्रस्परः करतल इव व्यापृतः । रुग्णस्य करतलेन स्पश ल्येकसिद्धः । माधवेन मल्यवायुनेवा
८ १ ) 8. ७, प. 1, णं एवं पमदवणं पवणव ८ ३. दर ) चाह. भवतं प्वेभिदृ, ^. 0110, एदाहि. ( २ ) स्यशं निक्प्य 01 स्वर्शसुखं श्पपित्वा. ( ३ ) ए, 3. 1. उन्मत्तानां.
( ६३ )
०--भो वअस्स अवहाणेण दावं दिं देहि । एदं दखु भवन्तं विोहइदुकामाए पमदैवणलच्छीए् जुवईवेसलज्जात्त अं वसन्तकुसुमणेवत्थं गहीदं । ( क ) राजा-- ननं विस्मयादवैरोकयामिं ।
(न
^ ्माक्रान्ता तिखकक्रियापि' तिरुकेरेग्र द्विरेफा नै 1... सावज्ञे मुखप्रसाधनविधौ श्रीमोधवी योषिताम् ॥ ५॥ "कद. ३.५५५.५
^" ( उभावुंद्ानशोभां निर्वंणेयतः) ( ततः प्रविशति परयत्ुका मालविका )
( क ) भो वयस्य अवधानेन तावद् दुष्ट देहि । एतत्खल्् भवन्तं वि- रोभयितुकामया प्रमद वनक्षम्या युवतिवेषल्ज्जायेतुकं वसन्तकुसुमनेपथ्यं गृहीतम् ।
कारीत्यर्यः ) ॥ मधुलक्षम्या ॥ रक्ताशोकैत्यादि । विम्बाधरे ॥ बिम्बामिवा- धरस्तस्मिन् । ' विशेषणं विशेष्येण बहलम् ' इति विशेषणसमासः | * उप- मितं व्याप्रादिभैः सामान्याप्रयोगे ' इत्युपमितसमासस्तु कविभिरत्र प्रायेण नाङ्गीकृतः । अलक्तको तक्षा । रक्ताशोकरुचा रक्ताशोककुसुमस्य रुचा
{
८. मत्यारूयातविशोपकं दरवकं श्यामावदातारुणम् । ~^ <
कान्त्या विेषितगणः । विशेषितो (तिशयितो ( तिरस्कतो ) गणो रगो
यस्य स तथोक्तः । ( रक्ताशोकल्तयैव अधरयोग्यो ऽलक्तकरसो निष्पादित इत्यर्यः । ) इयामावदातारुणम् । शामं चावदातं चारुणं च तयोक्तम् । ‹ वर्णो वर्णेन !इति कर्मधारयः । कुरबकं कुरबकपुष्पं प्रत्याख्यातविंशेषकम् |
(१) 8. 6. १. 4. 00. मो वअस्स; (29 00). मो). (२) 8. 6.4, 4. ००. (३) तवि. मधुल. ( ४) पि. ०0. (५) प, ०4 तत्. ( & ) ४५ तथाहि. (* ) पिच 07 अपि. (< ) 4. २2. कीन,
। ~ ९ ) क्षि. ४१५ नाय्यैन, 8, ©, 1. इति {0 उभौ 96 निङ्पयतः
अ
\,. 1. रक्ताशोकरुचा विगोपितगुणो बिम्बाधरारुककः 5.1.
। °.
( ६४)
भाङ्विका-- अविण्णौदा्िअं भ द्रारं अहिरसन्दी अत्तणो वि दाव छज्जेमि । कुदो बिहवो पिणिद्धस्सं सहीअणस्स इमं" वुत्तं आचक्िखदं ण जाणे अप्पडिआरगरूअं बेअणां केत्तिअं कालं मअणो मै णडस्सदि तति । ( कैतिवित्पदानि गत्वा ) कौ णु पव्यिदद्धि । (ईति स्मृतिम भिनीय । ) आर संदिड्ृह्ि देवीए गोदमचावल्रदो दोल्मपरिभद्राए सरूजी मे चरणा । तुमं दाव गदु अं तवणीआसोभस्स दोहलं णिबद्ेहिं । जदि सो पञ्चरत्तव्भन्तरे कुसुमं दंसेदि तदो अहं ( अन्तरा निश्वस्य ) अहि त्सपूरइत्तअं पसादं दाइस्सं ति । जव णिओअभूमिं पृदमं गदा होमि । ञ्नौव अणपदं मह चलणालंकारहत्याए बडउल्मवलिओआए आअन्तव्वं धैरिदेवइस्सं दाव विस्सद्धं महत्त अं । ८ इति परिक्रामति । ) (क )
(क) अविवातददयं दतोरममिरनो ऽपि ताबहठम्ने । कृतं क ) अविज्ातहदयं भतौरमभिरुषेन््मनोऽपि ताबहणज्ने । कुतो
+<, विभवः स्निग्धस्य सखीजनस्येमं वृत्तान्तमाख्यातुम् । न जने प्रतीकारगुरु
५... वेदनां कियन्ते कारं मदनो मां नेष्यतीति । कृत्र ननु परस्थिता-
स्मि । आम् संदिष्टास्मि देव्या । गीत्तमचापरखदोलपरिभरष्टायाः सरुजौ मे
चरणी । तं तावद्रा तपनीयाश्ञोकस्य दोहदं निवंतैय । यद्यसौ पञ्नरात्रा-
भ्यन्तरे कुसुमं दर्शयति ततेऽहमभित्षपुरायितुकं प्रसादं दास्यामीति ।
: यावन्नियोगमूरमं प्रयमं गता भवामि । यावद नुपदं मम चरणारकारहस्तः या बकुलावलिकयागन्तव्यं परिदेवयिष्यामि तावदव शरवधं मुहूर्तकम् ।
प्रत्याख्यातं तिरस्कतं विशेषकं पत्रभङो येन तयोक्तम् । अनेकः सक्तो द्विरेफो भ्रमर एवाञ्जनं येषु
( १ ) &. ?. अणहि ( 2. मि ) ण्णाद. ८ २ ) 4. 7? सिणिद्धमणस्स &० 2), सिणिद्रसहीअणस्स. (३) 298. 0. 7. ०७. (४) प. १० इति. ८५) `. आः काहिं क्ख पत्थिद्छि, (९) 8. 9. ¶. 2. ( विचिन्त्य ); 4. ( आत्मगतम् ). (*). 3. 9. ¶, ‰. मा, पवि. आद्न्नि. ( <) 98. 6. प. ¶. सष्नो मह चलणो, 2०. # रिभ ण सङ्कमोमि अहं चलणे वालव. ( ९ ) 8. 6. 1. 4. 2. ०, (१९) 1. ^, प्रि. १५१ ति (११) 2. दव, 7. ता जाव. (१३) 9.6. 7. ध. दाव. (१३) 8.७. ¶. ता परिरेविस्सं दाव,
१ [का क्क. ~ `, "क ना ताबा
( ६५ ) बिद़०-- ( दष्टा ) वसत एदं क्खु सीहुपाणुव्वेनि अस्स मच्छ ण्ड उवणदा । ( क ) + ` राजा--अयि किमेतत् । । बिद्०--एसा क्खु णादिपज्जक्तवेखा पञ्नुस्सुओं विअ एअआइणी भालविभा अदूरे वटरदि । ( ख ) राजा-- ( सहधम् ) कयं माखविका । विदू ०--अह इई । ( ग ) शजा--शक्यमिदानीं जीवितमवरम्बितुम् । त्वदुपङम्य समीपगता परियां ह॒दयमुच्छ्सितं मम विज्कबम् । सैर्वरतां पथेकस्य जलायथिनः ^“ ` सरितिमारकितादिष सारसात् ॥ ६ ॥ «^...
~ -~- र -------~- ~~ ३१ स सीधु पानेदेनितस्य , "त ४ ( क ) वयस्य एतत्खलु सीधुानेद्ेड मतस्यण्डकीपनता । ५.५.
( ख ) एषा नातिपयीप्वेषा पर्युःसुकेवैकाकिनी मात्विकादूरे वतते 1 (ग) अय किम् ।
क *9
1 1 1 र त सि =" +
छकक्रियापि तिलकस्य छलाटिकायाः क्रियाक्रन्तोछङ्किता । परिभूतेत्य्॑ः। माधवी मधुसंबन्धिनी श्रीरदंमीः । शोभेत्ययैः । योषितां स्रोणां मुखप्रवाध- निधौ मुखालङ्कारकरणे सावज्ञेवावमानेन सहितेव । अवमाननां कृतवती वेत्य्ैः । ( इद्यु्र्षा ) । मत्स्यण्डिका नाम शर्करावशेषः । तदु परस्ये- त्यादि । ( आरपितात् शब्दायमानात् सारसात् तत्स्वनमाकण्यैत्यर्थः । तर्वृतां वृक्षच्छायाच्छन्नां सरितं नदीमिव त्वत् सकाशात् समीपगतां प्रि-
(१) 2 0०. 8. 6* 4. हीही षदं क्खु; २०. 4. ०0. कषु) (र) प. 10४6०४०6 (३) 8. ©. 1. अवटबरयितुं. ( ४ ) 2 तरवतं पथिकस्य जलार्थिनः सलिलमृद्रसितादिव सारसा । ( ५ ) 4. सरति,
५
( ६६ )
अयं क्र तत्रभवती ।
बिदू ०--एसां तरूरादमञ्जादो गिङ्गन्ता इदो एव्व पैिद्न्ती दी. सद । (क )
शजा--: वयस्यं पर्याप्येनार्ं ।
..:.. विपुलं नितम्बबिम्बे" मध्ये क्षामं समुन्नतं कुचयोः ।
8 -॥
094
अत्यायतं नयनयो मंम जीवितमेतदायाति ॥ ७ ॥ चे पुवैसमा्दवस्यान्तरमुपारूटा तत्रभवती । तथाहि ।
॥ ९५ शरकाण्डपाणडुगण्रथखियमा भाति परिमिताभरणा ।
मूधबपरिणतपत्रा कतिपयङसुमेव कुन्दखुता ॥ ८ ॥ बिद् ०-एसा वि भवं विअ मअणव्वादिणा परिमिग्रा भविस्सदि (ख) राजा-- सौहार्दमेव परयति ।
1 १.८ ०.८५ ५4.५.94. र 0५-४५-५५ ©+ =» )
( क ) एषा तरूरानिमध्यान्निष्करान्तेत एब परिवतंमाना उद्यते । ( ख ) एषापे भवानिव मदनव्याधिना परिमष्टा भविष्यति | ¡` `
याम॒पलम्य श्रता जलानां परिपासोः प्यिकस्येव मम विद्धं इदयं उच्छ तितमिव हषण स्फीतमित्य्थः । ) अत्र संवित्यमानार्धस्य प्रपि; क्रमो नाम सध्यङ्मृक्तं भवति । विपुखमिति । ( नितंबदेशे श्रोण्यां विपुलं स्यु मध्ये क्षामं क्षीणं कुचयोः समुन्नतमुत्तङ्ं नयनयोरत्याथतमेतन्माल्यिकावु
रूपं मम जीवितमायाति ) ॥ शरकाण्डेति । माधवे शाखे परिणतं पक्वं पत्रं यस्यास्तयाभृता कतिपयकुसुमा परिमितपुप्पा इन्द लतेव ॒परिमिता-
(१) 8. 6.7. अ). (२) २. ५५ गं &. ^. ०५ एता, (३) पपि, अहि 101 परि &. 2. ~, इदो एव आअच्छदि. (*) . »पप ( विलेक्य स्वम् |). ( ५ ) ‰. 0. ¶. ५०. (६ ) पि, भण, (+) 13, ©. ¶, -केशे. (€ ) 4. कम्मात् [01 पू्स्मोत् आकुटा {ण. उपारूढा &, ०।५ तया हि । &. १५. अतिमनोद्रं ५
|
( ६७ )
भाल ०--अअं सो ललिअदोहदपिक्ली अग्गहीद कुसुमणेवत्यो उ- क्ैठिदं` मं अणकरोरे' असोओ । जाव से“ पच्छायसीद ले स्पदे णि- सण्णौ अत्ताणे विणोदोमि । ( क )
विदू °- सुदं भवदा । उक्रण्ठिदन्ि तति तत्तहोदीए मन्तिदं । (ख )
राजा-- नैतावता भवन्तं प्रसन्नतर्क मन्ये । कृत
अनिमित्तोत्कण्ठामपि जनर्यति मनसो मर्यवातः॥ ९ ॥ ( मालविकोपविष्टा ) ` शाजा-- वयरस्यं इतस्तावत् । आवां र्तान्तरिती भवावः । विदू ०--इरावादं विअ अदूरे समत्येमि' | ( ग ) ` राजा-- नदि कमलिनीं दु ग्राहमवेक्षते " मतङ़जः।
( इति विखोकयन् स्थितः | )
( क ) अयं स॒ खछ्तदोहदपेक्षी अगृदीतकृसुमनेपथ्य उत्कण्ठितां मामनुकरोत्यशोकः । यावद स्य प्रच्छायशीतङे शिखापछ्के निषण्णात्मानं विनोदयामि ।
( ख ) श्रते भवता । उत्कण्ठितास्मीति तत्रभवत्या मान्नितम् । „(ग ) इरावतीमिवादृरे समर्थये |
भरणेयमाभाति ) ॥ अयं स सकृमारदोहदापेक््यगदीतकस॒मनेपथ्य
उत्कंठितां मां ( उत्कंठिताया मम }) अनकरोत्यशोकः । बे)देत्यादिं । ( कुरबकरजसां तुदुप्पपरागाणां ` बोढा बहनकर्ता तेन सुरगधिसत्यर्यः ।
(१ ) १. सृउमाल 97 टित. ८ २ ) ‰. उकंषिए मह. 13. ७. {. उकंटिकाए मह सोअ 9०५ 010. असो ओं, ( ३ ) }प. [४५७ला18०६९. ( ४ ) 24. एवस्स. ८ ५ ) 2. &. ५५१५ मविअ. ( £ ) 4. प्रसं्तकंता. ( ७ ) + ©. 2. 1. शीकर. (< ):8. 0. ४. 1. स्वे. (६; ) 8. 9.14. वेक्वामि. ८ १९ ) प. ठच्धवा. (१) ) ४. अभिक्तते. `
त
| न्ट ५8द-2) € 9
ष्ट्य
अ बोढाङ्कुरबकरजसां किसर्यपुमेःसीकगानुगलः } ५५४.
( ६८ ) भा ०--हिअअ णिरवलम्बणादो' मणेोरहादो विरम । किं मं आते.
सिः | (क) ( विदूषको राजनमवेकषिते ) ,.: , 4 राजा-प्रिये पर्य बमतां स्नेहस्य । ५५५५५ ओौत्मुक्यहेतुं विव्रणोषि न त्वं
तत्वाबबोधेकरसो न तकैः। ^^ ` ^~ तथापि रम्भोर करोमि छष्ष्य {८ ॥ मात्मानमेषां परिदेकितानां ॥ १० ॥ रिद् ०-- संपदं भवदो गिस्संसअं` भविस्सादे । एसा अष्पिम- अणसंदेसा विवित्ते णं* बउलावारेआ उवष्टिदा । ( ख )
( क ) हदय निरवलम्बनान्मनोरयाद्विरम । किं मामायासयसि ।
( ख ) सांप्रतं भवतो, निःसंशयं भविष्यति । एषार्पितमदनसेदेशा विविक्ते ननु बकुलवलिकोपस्यिता ।
किसलयानां नवपछ्छवानां मिनत्ति-भिद अण् । तेन मन्दः । सीकरैरनुगतः तेन शीतलः । पश्चात्कर्मधारयः । मख्यपर्व॑तसंसर्गी अनिलो नास्ति निमित्तं यस्यास्तादश्ीमपि अनिमित्तं उत्कंठां जनयति । ) हदय निरवलंबनादति भूर्मिगताद् ( अतिभूमिलधिनस्ते ) मनोरयाद्विरम । किं मामायास्य । ओ- चर । ८ हे रंभोरु त्वभीत्सुक्यस्य कारणं न निवृणोषि न कय- । तर्को ऽपि अनुमानैशेषो ऽपि त्वस्य वस्तुस्वाभाव्यस्यावबोधो नि श्चय एव एकं फलं यस्य तयाभतो न भवति । व्यभिचारादि संभवादिति भावः । अनुमानमात्रेण न वस्तुत्वनिश्वयो भवतीत्यथं; । तयाप्यात्मानं एषां तदुक्तानां परिदेवितानां विलापानां लक्ष्यं उदेश्य करोमि । त्वदुक्तप रिदेवनं मामुदिद्यैवेति तर्कयामि । अरपितेस्यादि । अर्पितो मया सैप्रेधितो
( 9 ) 2५. णिप्कलादो &५ ए. ©. प. 1. 8५५ अदिभूमिहटषिणो ( र. तै). (३) 8. 6. त. 1. माभाति. (२) 8.9. %. षीहते, पि. अपेक्षते, ( ९ ) प. वामत्वं [07 वामतां ४०५ 1. ७. 1. पर्य महत्वे स्नेहस्य.
(५) 2४. ०, ( ६ › 2० गिस्सं्मो, ( ज) 4. ४१0 ¶ना ( एका), + ^+, १. ५ > ^+: = (^. = `
( र ) | राजा-- अपि स्मरेदस्मदम्यर्थनाम् | १. बिद ० किदाणि एसा दासीर दुहिदां दाव॑शरूअं संदेसं विसुमरेदि | अहं वि दाव ण विसमरेमि | (क )
८ प्राविश्य चरणालङ्ारहस्ता ) बका ०-- अवि सुहं सदीए् । (ख ) माङ०-- अद्यो बउखवारेर्ओं । सहि सागदं द । उवकिसि | ( ग )
बका ०--( उपविर्य ) हला तुमं दा जोग्गदाए णिउत्ता । ता एक्क चरणं उवणेहि । जाव सारततअं सणेउरं करेमि । ( घ )
माङ०--( आत्मगतम् ) हिअअ (८ अरं उवद्टिदो अअं विहवो त्ति । कहं दाणि अत्ताणं अं । अहवा एदं एव्व मह मिचुमण्डणं भविस्सदि । ( च )
~~ ` क
८ क ) किमिदानीमेषा दास्यां दुदिता तावद्ुरुकं संदे शं विस्मरति । अ हम् तावन्न विस्मरामि । धत +^ $ ० ५.०५...
( ख ) अपि सुखं सख्याः | ( ग ) अहो बकुल्यवलिका । षि स्वागतं ते । उपविश ।
९..९-९१.८
4.५
यावत्सालक्तकं सनपुरं करोमि । ' (0.
( च ) हदय सुखिततया अलमुपस्थितोऽयं विभव इति । कथमि. .:
दानीप्रात्मानं मोचयेयम् । अयवेतदेव मम मृल्युमण्डनं भविष्यति ।
8 = १4. (१) प. ४9 असौ. ( ०. अस्मद् ). ( २ ) २. 4. सुता. (३ ) 2. पि, वृह. ( ४ ) 2४. 8. ७. ¶. ०. अहं &८,; दि. ०0. वि. & 4. 2२० गणि †0† दाव. ( ५ ) 4. ०0. चरण. ( ६ )4. ० ४५५ उतटिआ,. । ( ५ ) 2" ४१९ देवीए &९. ० 4. देहलकरणं. (< ) ए. 0. फ, ¶, सृदिदा, ( ९ ) ए. 9. 1. ०४. ति ( १९) फ, 8१4 दभि.
५।.८.( घ ) सखि त्वमिदानीं योग्यतया नियुक्ता । तस्मादेकं चरणमुपनय |
£ =
६ *०)
बकुला ०-- कि विओरेमि । उस्सुका कलु इमस्स तवणीआसोअस्स कुसुमेोग्गमे' देवी । ( क ) राजा---कथमशोकदोहदनिमित्तो धयमारम्भः। बिदृ-०- ` किं क्खु ण जाणासि अकालुणादो देवी इमं अन्तेडरणे- क्त्येण ण संजोअद्स्सदि तति । (ख). माङ०- हला मारेसेदि दाव णं । ( पादमुपहरति ) ( ग ) बकुखा०--अयि सरीरं सि मे । (` नाट्येन चरणसंस्कारमार- भते ) (घ) । रजा-- ५.. ४ चरणान्तानितेितां प्रियायाः ~+ सरसां प्य बयस्य रागरेखाम् । ^... ~ ~ प्रथमामिब पट्बप्रसूति `~ हर दग्धस्य मनोभवृहमस्य ॥ १३ ॥
रिद् ०--चरणाणुरूवो क्स तत्तहोदीए अदि आरो उवकरिन्तो । (च)
( क ) किं व्रिचारयसि । उत्सुका खल्वस्य तपनीयाञ्ोकस्य कसुमो- द्रम देवी ।
(ख) किं खलु न जानास्यकारणादेवीमामन्तशुरनेषथ्येन - न
संयोनपिष्यतीति ॥ १४॥ ¢ ८; £ ¢ ^ ४.५.१९ ५.)
( ग् ) सखि मर्षय तावदेनम् | = १५५४. + र, न २, १ (दक्र ++
( घ ) अपि शरीरमा मे । । ५4 ५ ५.८4 ५. ( च ) चरणानुरूपस्तत्रभवत्या अधिकार उपक्षिपः । ०,६१.० [ +
मदनविषयकरो सेदेशो भवदुक्तरूपो यस्मै ( यस्याः ) तादी । चरणान्ते
( १ ) 1. सम॒ग्गमे; ४. म॒ञ्हुग्गमे, (२) }६.किणु खु जाणाति तुमम्) माकाटणे ... नोअहस्सदि मि; 8. 6. ¶1. किचुण जाणासि ,.. „^ अड स्सदि, (३) प. ४५५ इति, (४) 8 ७. 2.1. ०४. (4) 29 अककाते.
9, ५" = कष क 1. क
( ७९ ) शंजा--सम्यगाह भवान् ' | नवकिसख्यरागेणाय्रपादेन बाङा {+ | ८ ~ स्फुरितनखरुचा द्वौ हन्तमहैत्यनेन | 4 4 अकुमुमितमशोकं दोहापेक्षया बा ग्रणमितंरिरसं बा कान्तमाद्रापराधम् ॥ १२॥ <. 4: बिद़०-- * पहरिस्सारे तत्तदोदि तुमं अवरद्वम् । (क ) ` राज्ा--“ प्रतिगृदीतंˆ वचः सिद्धिद शनो ब्राम्हणस्य । ६... ५५ ( ततः प्रविशाम यक्तमदेरीवती चेटी च ) 1.
इरा ०-दज्जे णिडणिए सुणामि बहुसो मदो किर इयि आजणस्ं विसेमण्डणं ति । अत्रि सो लोभवादो अं“ । ( ख )
( क ) प्रहरिष्यति तत्र भवति त्वामपराद्म् ।
८ ख ) हञ्जे ( चेदि ) निपुणिकं शुणोमि बहशो मदः किङ द्रीन- नसय विदव्डनमिति । अपि सत्यो लोकवादो धम् । ` मिति । अपि सत्यो ल्ेकवादो श्यम् । `` ` `
7 ५५५ न
, त्यादि । ( वयस्य प्रियायाश्चरणान्तानैवेशितां सरसामाद्र रागरेखां हर ` दग्धस्य शिवकोपानलमस्मीम् तस्य॒ मनोभवद्रूमस्य कामरूपतरोः प्रथमां । प्व्रसूतिभिव परय । ) । ( भो वयस्य चर णानुरूपस्तत्रवेत्या अल्कार् उपक्षिप्तः ) । किं नु खल् जानाति त्वम् । मम कारणादेवामामन्तः पुरनेष- । थ्येन 'तयोजयतीति । नबेकिसखयेत्यादे । ( बालम मालाभिकानेन प्रत्यक्ष दरथेन नवकिसख्यरामेण नवपट्वताग्रेण स्फरितनखरूचा प्रकाशित- । नकान्तिना अग्रपादेन दोहद पेक्षया कृसमेोद्रमार्थमषधप्रदानानरोभ५नाक्
+ , (,१.) २. 4. सम्यगभिहितं भवता. (२) 8. 6.4. आः. (३) 2. (रिरि (9) ९. ^. ॥3. ७. 1. पारड शसा वततहोदीर अवरध्वु. (५) ¶" । 4१. ०५५ मूर्व्ना. (६) 2. 4. परि . (9 129 4 . उन्मत्तषेषा. (८) 8. @, । 2. 7. ५५. पिते. (९) ५. अ. (१) 2. 3. ५५,
५
( ७९ ) निषु पुंटमं लोभवादो एव्व । अग्न सयो संबुत्तो । ( कै )
इरा ०--अलं षिंणेहभणिदेण । कहेहि कुदो दाणि अवग दोलय-
धरं पुदमं गदो भद्रौत्ति। (ख) निपु०--भद्रिणीए अखण्डदादो प्रणञआदो ।( ग ) ` इरा ०---अकं सेवाए । मञ्छत्यद' परिगेण्डीर् भणादि । ( घ )
निपु ° --वसन्दोवाअणलयेलवेण अन्नगोदमेण कहिदं । तुवरदु भद्रिणी । ( च )
इरा ०--( अवस्यासटशं परिक्रम्य ।) हञ्जे" मदेण किल्म्रामिअमाणं अत्ताणं अज्जनउत्तदंसणे हिअअ तुवरेदि । चरणा उण ण भणे पसर
रन्दि। (छ)
"क ग्यः क क नष ऋ ~
( क ) प्रयमं लेकवाद एव । अद्य सत्यः सेवत्तः । ( ख ) अलं स्नेहभणितेन । कथय कुत॒ इदानीमवगतं दोलगृहं प्रथमं गतो भर्तेति" `“ ˆ“ `
( ग ) भष्टि्या अखण्डितात्प्रणयात् । ( घ ) अलं सेवया । मध्यस्यतां परिगृह्य भण । ( च ) वसन्तोपायनलोलपेनार्यगौतमेन कथितम् । त्वरतां भद्विणी ।
( छ ) हञ्जे ( चेटि ) मदेन करभ्यमानमामानमार्वुवदर्ने इदयं
त्वरयति । चरणी पुननं मर्गे प्रसरतः ।
सुमितमपुष्पितमशोकं ओआद्रपिरादधं॑प्रणयकतापराद्धं अभिनवापराद्धं॑बा
८१ ) पप सकित्तणासतिणा सिगेदेण अल, 1. अलं मह तिणिहेण, 8. 9. सथितिसंक्तिणा &. ८ २ ) 8. ७. अवगमिद; 1. अवगमिदन्वं; ५. अवग- मिदन्वो, (३) 23. ७. वि. 11. ४4 णते, (४) 2. 4. गेग्दीभ; 98 ७. गदुअ, ( ५ ) ^, २. इला. ८ ६ ) 4. 2. मिलाअमाणं, 8.9. (7 निाअमाणं, ( « ) 2. ४५५ मह. ( < ) 9. 8. ¶. ओगलन्ति
4
1
^ - > ", शि
क क व कक १ का ~ क क क (क # +
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निषु ०-- णं पत्तद्य दोलाघरअं । ( क ) इरा०-- णिडगिए अज्जउत्तो एत्य ण दीसदि । ( ख ).
--भद्िणी' ओल)अदु । * परिहासणिमित्तं कहं वि* अदिङ्ेण ५५ भ
। अद्ये वि इमं पिअङ्ल्दापरिक्रित्तं असोभसिलापद
पविंसाह्य । ( ग )
इरा ०--( तया करोति ) “
निषु०--( विलोक्य ) ओखोअदु भट्विणी । चूदडूरं विचिण्णन्दीणं पिपीकिओआदं दंसिदं ८ । ( घ) | ॥
इरा०-- कं विअ ¡ “ ( च )
।नेषु०- एसा असोअपाअवच्छाआए मालक आए बडलावक्ि च- लणाुकारं णिवद्रेदि । ( छ )
(क ) ननु प्राप स्वो दोलगृहम् । 4 (~ र <^.
( ख ) निपुणिके आधपुत्रोऽत्र न दश्यते ।
८ ग ) भद्िन्यवल्येकंयतु । परिहासनिमित्तं कृतराप्यच््ेन भत्र भवितः व्यम् । आवामपीमं रियङुरुतापरिकषिप्रमशोकशिलपद परविंशावः।
( घ ) अवलोकयतु भद्विनी । च॒ताङ्रं , विचिन्वन्त्योः पिंपीकिकामभिं
कः +
दं्टम | <}. ५ ५4 ०५ १५ {रि १५१५५५६ , ५ =^ ९ (था ), + ज ६६ ¶ै
च््् म् र
०५ # छ. +
( च ) कथमिव । ( छ ) एषाशोकपाद पच्छायायां मालप्रैकाया बकुलावलिका चरणा. चक्र निर्ैतैयति । | ९५.६-८०.५.०.५५५-१. लै ~ | ५५4 |» 8. | ६ ॥ कषक, 3 5 =,
प्रणतद्िरसं कान्तं प्रियं च द्वौ हन्तुं ताडयितुमहति । ) कथय कुत
(१) 2. ^. ०0. ए. ७.4. णं मणी. (२३) 2० 4. मद्िणीर् € ३ ) 2० 4. गम्मे गृढेन; 2". 8. ©. 1. गुढेन. (४) पष, ०४, (५) 8. 6७. >. 7. तह । 19" तंयाकंरोति. ( ६ ) .&. देतणं ( दंशनं ), ( ५ ) 4. २. 8.6.17, कि तरिश
४३.
( ७४ )
हरी ०--( शङ्कां रूपयित्वा ) अभूमी इअं मालविआषु । कहं ' एत्थं तक्केमि । ( क )
३ --तक्नामि दोलापरिव्भट्राए सरुअचरूणाएं देवीए असोअदो- हलि आरे मालि णिउत्तेत्ति । अण्णहा कहं देवी सं धारिभं णेउर- जुअलं परिअणस्स अणुजाणिस्सदि । ( ख )
इरा०-महदी क्खु से संभावणा । ( ग ) निपु०--किं उण णँ अण्णेसीअदि भद्र ।( घ) इरी ०-- हञ्जे मे चरणा अण्णदो ण पवद्न्दि । मदो भ विओरेदि । आसंकिद स्स दाव अन्तं गमिस्सं । ( मालविकां` निर्णयं । आत्मगतम् । ) ठणे क्खु कादरं मे हिअअं । ( च)
बङ्कु०--( मालविकाय चरणं द शेयन्ती ) अर्व रोदे दे` अअं
राओरेहाविश्णासो । ( छ )
( क ) अभूमिरियं मालविकायाः । कथमत्र तर्कयसि ।
( ख ) तर्कयामि दोल्यपरिन्रष्टया सरुजचरणया देव्याशोकदोददा- धिकारे मालविका नियुक्तेति । ष
( ग ) महती खल्वस्याः संभावना । \~~ ` ~ ~
( घ ) किं पुननौन्विष्यते भता । | ^ 1 ४
८ च ) हञ्जे मे चरणावन्यतो न प्रवर्तेते । मदो मां विकारयति । आ-
॥
^ शङ्कितस्य तावदन्तं गमिष्यामि । स्याने खल कातर मे दयम् ४
८१, 1 ६५. ५.
८ छ ) अपि रोचते तेऽयं रागरेखाविन्यासः |
इदानीमवगन्तव्यो दोलगृहं प्रथमं गतो भर्तां न वेति । ( कुत इदमवगतं दोलागृह प्रयमं गतो भता न वेति । ) पिपीलिकाभिदं्टम् । भावेक्तः । सखि
(१) 2. 4. कि तकति. ( २) 4. 2. ०. (३) 8. 8. 8. ¶. भन्मणुजाणिस्सदि, ( » ) 8, ©. प, ¶. भ. उण. ( ५ ) ०. मणो &५. ६ ) प. ४१५ इति; 8. ७. माहविका-( आत्मगतम् ) &€, (५ ) -4 1. 6. 7. ००. ( < ) 8. 9. ¶. कि वि. (६ ) ४. 90, देभञं ७. 4. ०५. जम ौ
1 + + ॥
( ७५ ) माल ०--हला अत्तणो चरणं गदो" त्ति लज्जेमि णं पसंसिदुं । "केण पसाहणकल्ाए अदहिविणीदासि । ( क ) बक ०-- एत्य अहं भट्रेणो सिस्सद्धि। (ख) बिद् ०--तुवरेहि दवै णं" गुरूदक्लिणाए । ( ग ) माङ०्-- दिद्िआ ण गन्विदासि । (घ)
बकु ०--उवदेसाण॒स्वे चलणे लम्मिअ अज्ज दाणि गब्विदा भविस्सं । ( रागं विलोक्य । आत्मगतम् । ) इन्त सिद्धं मे दौ ।“ ( प्रकाशम् । ) सहि एक्रस्स दे चलणस्स अवसिदो राअणिक्ेोः । केवलं मुहमारुदो रम्भइदव्वो । अहवा पवाद एव एदं ठाणं । ( च )
राजा-- सखे पर्य परय |
( क ) सखि आत्मनश्चरणं गत इति लज्ज एनं प्रशंसितुम् । केन प्रसाधनकलायामभिविनीताकष ।
(, कक >?
( ख ) अत्राहं भतः शिष्यास्मि । = ~` ८५५ ८. म {~ ६ ५ | श गरुदक्षिणधि च 7 ~ ४ 24. ¢ क ॥: "(ग ) त्रय तावदेनां गुरूदक्षिणायै | (0 न 2 ₹-६. (घ) दिष्टया न गर्वितासि । ^^ , "ए ८
५....५।..८ च ) उपदेशानुरूपी चरणी र्च्धयेदानों गर्विता भविष्यामि । हन्त सिद्धं मे दौत्यम् । सचि एकस्य ते चरणस्यावसितो रागनिक्षेपः । केव
मखमारूतो लम्भापितन्यः । अथवा प्रवातमवेतत्स्थानम् । क = १ = "1 १ का ५, । 4 ॥
2
न मै चरणावन्यतः प्रवतत । मदश्च मां विचारयति । उपदेशानुरूपी
११) ए. 6. पि. ¶. 017). गदो; 4. 20 गदं. (२) 4. 2० ४५ करेहि; पि. तेण. ८ ३) 2० सिप्यसाहणकलाअं. ८ 9 ) ^. 2० ए. ©, व. १५५ कवु. (५) 4. 2. 2. 6. ¶. गणि. ( ६ ) पष. “स्वा चलणा ( ५ ) पि. इत्थम; ए. 68. ¶. सिद्धो मेदव्यः (< ) 20. °विक््वेवो. (९) कि. ०. (३८) १, 4. ०0. 006 प्श्य
~~ +
१,८.१५ ॥
. । £
: ^..५..( घ ) मन्त्रयितव्यमेव मया मन्त्रितम् ।
कः आद्रोखुक्तकमस्या चरणं मुखमारुतेन बीजपितुम् । ` प्रतिपन्नः प्रथमतरः सेप्रति व मे ॥ १३॥
। ` १.९ # 3 ५. 1,
विदः०- कुदो रे अणुसओ । ` र भवदो रं “कमेण अणो दव्वं ( क )
बकु ०-- सदि अरुणसद पत्तं तरि सोहदि दे चरणो । स्वहा भद्विणो अङ्कपरिवद्िणी होदि । ( ख )
( इरावती निपुणिकामुखेमवक्षते ) गजा--ममेयमाशीः। 9/4 4. ६५. माल०- हली अवअणीभं मन्तेति | ( ग ) कषक ०--मन्तिदव्वं एव्व मए मन्तिदं । ( घ ) माङ ०-- पिआ क्खु अहं तुह । ( च ) बकु०--ण केवलं मह | ( छ )
( क ) कृतस्ते {नुशयः । चिरं भवतैतत्करमेणानुभवितिव्यम् ( ख ) सखि अरूणशतपत्रमिव शोभते ते चरणः । सर्व॑या भर्तुर ङ्परिवर्तिनी भव । ˆ ` ~
ग ) सखि अवचनीयं मन्त्रयसे ।
४.१.५+ ( ( ` 4 { म.
( च ) प्रिया खल्वहं तव । ( छ ) न केवलं मम ।
चरणी र््ध्वाद्य गर्विता भविष्यामि ॥ आद्रालक्तकामित्यादि । मृखमारः
(१) . ¢ 1. शोषयतः; शोषयितुं ( २) ?. चिरं भवदा षदं अणुदोकन्वं अहरेण; ए. ७, ¶. एवं भवदा विरकमेण .अणुमविदन्वं. ( ३ ) 2. ^. 0४. | (१) ७, पष. ¶, क्लं. (५) ॐ. ७. प. ए, निषुणिकाम, (६) ष, मा भव्णीअं मन्तेदि, ए, ©. 1, ४५१, इडा ४० ४18, 2
[~ से 0
( ७७ )
माॐ०- कस्स वा अण्णस्स | ( क) बल्ः०-- गुणेसु अहिणिवोपिणो भद्विणो वि । ( ख ) भाङ०---अलीं मन्तेसि । एदं एव्व मयि णत्थि । ( ग ) बदु०-- सवं तुइ णत्यि । भ्िणो किसिसु 'इसिपरिपण्डरेसु अङ्कसु दीसइ । ( घ ) ॥ जिषु ०--पुटमं भणिदं विअ हदासाए उत्तरं । ( च
ऋः / लिः ह. अक् ०--अणराओ अणुराएण परिकिखदन्वो ति सुअणवअणं. पमाण्करोहि । ( छ )
माङ०-- किं अत्तणो छन्देण मन्तेसि । ( ज )
( कं ) कस्य वान्यस्य । 1 { ख ) गुणेष्वमिनिवेकिनो भतुरपि । = ५५.५.०० | ( ग ) अङक मन्त्रयसे । एतदेव मयि नास्ति । (५. ५५. ०४.६०५ ( घ ) सत्यं लपि नासिति। भर्तुः कशेष्वीषत्परिपाण्डुरष्वङेषु दख्यते। ( च ) प्रथमं भणितामिव हताशचाया उत्तरम् । ^५.८५५.> जनु , २ (छ) अनुरागो नुरागेण प्रीक्षितव्य इतिं सुजनवचनं प्रमाणी- +~" „. करु । 9 ८4
( न ) किमात्मनरुछन्देन मन्त्रयसे । कीर
तेन वीजपितुं शोषयितुं । प्रयमतरो मुख्यतरः । प्रतिपन्नः प्राप्तः ॥ भतं कृशेष दर ( वर ) पाण्ड्रेष अङ़ेष॒ द्यते । प्रयमं गणितमिव हताशाया उत्तरम् । नहि भर्तुः खल्वेतानि प्रणयमृदूनि िबान्तरितान्यक्षराणि । दुजति
८१) ए. 9. ¶. सुन्दर"; ए. वर. (२). 8. ©. 7. गुणितं; 1 गणितं, ( ३ ) 4. पडिच्छिदन्वो ( प्रतिच्छेतन्यो ); पष» वच्छेटन्वो ८ प्रत्येश््यः ); ¶ण्निन्वो + ५१) शा (4 ५1.1.52 ९८...
नि ८४) -ऋभ्( ~~ ४८. + ५६ * । ८९. ०५१, 1. ९,
+ 2 १ + रै क +
“4 ("+ ) भावज्ञानानन्तरं प्रस्तुतेन
( ७८ )
बकु ०--णदि णदि"। भट्रिणो क्लुं एदाई पणअमओआहईं अक्लराईं विम्बन्तिदां ( क )
माक०--हला दें विचिन्तिअ ण मे हिअअं विस्ससाे । (ख)
०--मद्धे भसरसंबार्धो भविस्सदि स्ति वसन्दावदारसन्वस्सं किण चदप्पसवो ओदपिदव्वो | (ग )
माङ०- तुमं दैव दुज्जादे° अच्वन्तं सहार्या होहि । ( घ ) बकु ०-- विमदसुरही बेउलवलिभ क्खु अहं । ( च ) राजा-- साधु बकुल्वलिके साधु ।
(४36 (3; &. £ प्रत्याख्याने दत्तय क्तो त्तरेण ।
५५५५ €+ ५.४ [3
( क ) नहि नहि । भतः खव्वेतानि परणयमयान्यक्षराणि बिम्बान्त- सितानि | ९१५६; «^ = ५५५ ॥ >
( ख ) सवि देवी विचिन्त्य न मे हदयं विश्वसिति । “^ ` > ८ ग ) मुग्धे भ्रमरसंबाधो भविष्यतीति वसन्तावतारसर्वस्वं किं न चत-
| प्रसवो ऽवतं सयितन्यः | । २,३५१९.५५.९५..
। च ऋ ( घ ) त्वं तावदु जीते यन्तं सहाया भव ।
( च ) विमद सराभे कूलावकिका खल्वहम् ।
क 1. 04 4 १ # > { ५५4. १ {5 ४ = ५७.५५
दुःखे । ‹ दुजौतं व्यसने क्कीवे असम्यग्नातवस्तुनि › इति केशवस्वामी । भावज्ञानेस्यादि । ( भावस्यास्या अनुरागस्य ज्ञानानन्तरं प्रस्तुतेन कृत
( 9 ) ^. ?. ०. णहि, ( २) 8. 9. प. ¶, मिदृआाह, ( ३ ) प.
वत्तन्तरिदाहं; 3. ७, 1, विप्येरिदाहं ( विपरिरितानि ). (४) 24. 4. 38. ७.
त्पादो. (५ ) 1. अच्थि; >. 4. 0109.) 8. ©. ममरसंपादौ कसन्तोदारं (¶. न्ताव्दार ) संमदो गणि (¶, 000. दाणि ) णवचुदप्यस्षवौ ओदसणिज्जो. (६ ) 8. 6. 7, जाव. ( * ) २०. ११ मे. (<) ?. अचन्तसहाहणी 1, गच्छन्स्स् सदाढ्णी, 13, 0. ओर्दीतणीज्जो. (९) ०. बउकिजावलिभा णं अहं,
( ७९ ) 144 ज्व (~ हि + {^ ४,
२ बाक्येनेयं स्थापिता, स्वे निदेशे < ननू 4) ५५, स्थाने प्राणाः कामिनां दृत्यधीनाः ॥ 98 ॥ ५
2५
इरौ ०- इ ञओ' पेक्ख । करदं एव्व बडउल्वल्ाए एदं * पदं मा. छाए । ( क ) निपु०--भ्रिणि णिन्विआरस्सं विं उस्सुअत्तणजणओ उवदेसो।(ख) इरा०- ठाणे क्खु सेकिदं मे हिअअं । गदीदत्या अणन्तरम् विन्त इस्सं । (ग) ०--एसो दुदी पि दे णिवुत्तपैरिकम्मो चरणो । जाव दुवे वि सणेडरे करोमे । ८ इति नाव्चेन नूपुरयुगलमामच्य । ) हल्य उद्वह । अ णवि" देवीए असोअविआसइत्तअं णिओअं । (घ ) १
(क ) हञ्जे प्रय । कारितमेव बकुलवलिकयेतत्पदं मालविकायाः ।.. ˆ“ “ #् € #^ ^ (.ख ) भर्विनि निर्विकारस्याप्युत्सुकल्जनक उपदेशः । ^“
( ग ) स्याने खल शङ्कितं मे हदयम् । गृदीतार्यानन्तरं ` चिन्तयि- ष्यामि | ५०६५ {^ १ भ, | "५.५ (जक ^ ५५५१
कौ
( घ ) एष द्वितीयोऽपि ते निरवत्तपरिकमां चरणः । यावद् द्वावपि 4 ५५ करोमे । हल्य उत्तिष्ठ । अनुतिष्ठ देव्या अशञोकविकासवितृकं ` |
प्रसङ्केन प्रत्याख्याने तया निराकरणे कते सतीत शेषः । द ्तोचिततोत्तरेण । वाक्येन स्वे मदर्थौभ्यथनप्रद शैनरूपे निदेशे तत्मरतिपाखनरूपे इयं माल- ` बिका ्यापिता। कामिनो जनस्य प्राणा दत्यधीना यत् तत् स्थाने ऽतीवयुक्त- मिव्यर्यः ॥ भर्ने नि्षैकारस्यापि उत्सुकल्जननमुपदे शः ॥ यावदेनं नूपुर.
(१) एषि, ग. ( २ ) कारिदन्वं बउलावलिओआए मारविओआ प्रदं. ( ३ ) 20,
.&. ०४.; ¶1. एदर्सि. ( 9 ) 8, ©. प, 1. णिन्विआरस्स ( प. 010. )
। -अहिआरस्स उददोवदेसो. ८ ५ ) ?. 4 . समन्त ; 8. ©. ¶. सेवृत्त. (९ ) । ए, 6५} ¶. णं ( एनं ) सणेउरं. ( « ) . ४१ दाणि.
॥
( ८० ) इरा०- पुरो देवीए णिओभे तति । हेदु दाणि । (कं) चकु०-- एसो उवारूढराओ उवभोअक्खमेो पुरदो दे वद्र । ( ख ) माङ्०-- किं मद्र ।(ग) |
घकु०--( सस्मितम् ) ण दाव भद्र । एसो अमोअसादावलम्बी पवगुच्छो । ओदंसीहै णं ` । ( घ ) 1,
िदृ०--अवि सुदं भवदा । (च ) | शाजा- सखे पर्याप्तमेतावता कामिनाम् । "~ "~+ ~ ५५५(* ५,१४०.४ अनातरतकण्ठितयोः प्रसेद्धचता ^<“ ^^
१4 समागमेनापि रतिने मां प्राति । परस्परप्रापिनिराङयथोषरं
~<: शरीरनाशो पि समानुरागयोः ॥ १५॥ | ९८७. ५ १ १५.५५
( क ) श्र॒तो देव्या नियोग इति । भवविदानीम् । +“ ^^ ` ` ,
( ख ) एष उपारूढराग उपभोगः परसत वरतेते। सि न
(ग) कं भती।
( घ ) न ताबद्भतौ । एषोऽओकञशाखावलम्बी पलवगुच्छः। अवतं `
( च ) श्रुतं भवता ।
शोभितं करोमि ॥ अनानुरेत्यादि । अनातुरोत्कग्ठितयो ऋ अनातुर नर्त उत्कण्ठितः कामोत्कण्ठित इत्यर्यः । प्रसिद्धबता संभवता समागमेन परकेणापि मां प्रति मामनु । मतपक्ञ इत्यर्वः । रतिनं शङारो न॒ भवति ।
(१) पि. ०००. ति. (३) 8.6. 1. चिद. (३) 9. ४११. दाव, ( ४) प. ००0. (५) 8. 6. 1. ५५4 मालविका जिषे नागरयति, ( ६ ) 2० 4. अनादरौ*. ( « ) ए, 6 समानरागेयौः ` ` `
(८९)
( मारुविका रितपड्कवावतंसा सखीलग॑ओोकराये पादं प्रहिणोति । ) राजा--बयस्य
भावाय कणकिपल्यमस्मादियमन्न चरंणमपंयति । ` इभयोः सदशविनिमयादा्मानं बञ्चितं मन्ये ॥ १६॥
9८७, ५ ५०५. मआछ०-- भवि णाम अद्याण संभावना सफलम भवे । ( क )
धषु०-- दल णत्यि दे दोसो । ` णिग्गुणो अअं अलोभ जई कूसुमोन्भदैमन्यरो भवे नो दे" चरूणसक्वारं रेदं । ( ख )
त (कमे
( क ) अपि नामावयोः सेभावना. सफला भवेत् ।
( ख ) सखि नास्ति ते दोषः। निर्ग गोऽयमशोको यदि कुसुमोद्वेद मन्थ. रो भवेद्यस्ते चरणसत्कारमरुभत ।
एकानुरागस्य रसांभासत्वात् । तया चोक्तम्, एक्त्रैवानुरागश्च बहुसक्ति-
योषितः । अनैौचित्यप्रवत्तत्वात् शृङ्गाराभास उच्यते | इति ( एताक्ता एतादशश्रवणेनैव कामिनां अभीष्टमितिशेषः । एकस्य अनातरस्य अपर स्य चोत्कठितस्य एतयोर्विषमानुरागयो नौयकनायिकयोः प्रसिद्धबयता कंचि जनिष्पदयमनेनापि समागमेन मां प्रति न वरं । किं तु समानुरागयोः परस्परप्रासि निराश्चयोः सतोः शरीरनाशोऽपि वरं । तया च एतस्या मथ्यनुरागवत्वात् स मागमाभवे मम देहत्यागोप्यभीष्टः ) । आदायेत्यादि । कर्णकिसल्यं कर्णपूरा किसलयम् । अत्र कणं शब्देन कर्णपूरो रक्ष्यते । कणेभूषण
(¶ ) 2 जअ. ( २) ८, अरोकताडनाय. ( १ ) ^. 2. द, ०1 ४0१8, 860}. ( १ ) 7. ४00 166 वामो क्खु एसो असोसो जो वभूनअं प्रमाणी कटय ( न्यंजकं प्रमाणी रत्य ) कसुमग्गमं गं सेदि &५.; (५) ¶. ४१५ भञअं जेन्व, (६ ) 2. 4. समन्भेदं; 1. 3. ७. गम. ( ७ ) }>, & । ईरित. (< ) पि. अलङ्कारं. ( १ ) 8. ४, ©. ¶. देमिभ ( प, भक्भत. ९, द्मे 2; र, ्भिवः,
9१
ज | क
~ टि ॥। + 6. {=
1. 4. शजा-- 08. ५ अनेन तनुमघ्यया मुखरनपुराराविणा ~+ नवाम्बुरुहकोमलेन चरणेन संभातरितः। यदि सद्य एव कुसुमे नं संपत्स्यसे ~ ` ` वृथा बहसि दोह ऊ, स्तकानिसाधारणम् ॥ १७॥ ~~ “^ सखे वचनावरपवैकं रेटुमिच्छाि । विदू ०- एदि । णे परिदासइस्सं । ( क ) ( उभी प्रवेशं कुरुतः । ) निपु०--मर्िणि भद्र एत्य परविदि । (ख ) इरा ०--एव्वं म पुटम् चिन्तिदं हिअएण । (ग ) बिदर° --( उपमुत्यं ) हर्दि नुत्तं णाम अत्तहोदो पिवभस्सो
ॐअ असोओ बामपादेण ताडेदं । ( घ )
( क ) एदि । एनां परिहासयिष्यामि ।
( ख ) भ्न भत्ता प्रविशति ।
( ग ) एवं मम प्रमं चिन्तितं हदयेन ।
( घ ) भवति युक्तं नामात्रभवतः प्रियवयस्यो ऽयमशोको वामपादेन ताडयितुं ।
चरणार्पणयोस्तुल्यरूपपरिवर्तेन वश्नितं अकृतायं मन्ये ॥ यस्ते चरणस त्कारं लब्धा ( क्च्ध्वा ) ॥ अनेनेत्यादि । लङ्तिकार्मेषाधारणं चारू
(+) 8. ७, पि. ¶. मुङ्कैः. (२३) 8.0. 1. मषा. (३)8 ७. "1, “अवकारा०, २. “अनसर'. ( १ ) ^. माटविभाए 07 मम. (५) ` 8. © १.17. जेव्व. (६) चि, ०४. &. 4, 2 १4 ग, (*) 8. ७. प. 1. 4. ०0. जअ, ( < ) प, "अपम । णं &
+ ` (भ
( ८३ )
इभे-( ससंभ्रमम् । ) अह्यो द्य । (क)
बिद् ०-- बउलवल्ए् गहीदत्याए तुए अत्तहोदी ईरिसं अविणअं करन्दी कीस ण णिवरिदां । ( ख )
( मालवेका भयं रूपयति ) निषु--मर्िणि देकैख । किं पञजुत्तं अज्नगोदमेण । ( ग ) इरा ०-- करः बद्मबन्धु अण्णहा जीविस्सदी । ( घ )
. ङ ०-- अज्ज एसा देवीर् णिओअं अणचिद्ाे । एदार्स अदिक्रमे परवदी इअं । पसीदतु भद्र । ( आत्मना सममेनां प्रणिपातयाति। ) ( च )
शजा--यदेवमनपरार्दधासि । उत्तिष्ठ भद्रे । ८ इति हस्तेन गृहीत्वो - त्यापयति । )
( क ) अहो भर्ता |
( ख ) बकुल्मवल्कि गृहीतार्थया त्वयात्रभवतीदामाषेनयं कुर्वती : .
कस्मान्न निवारिता | "^^ षन ४. १८४५. ५.१ ( ग ) भर्िनि प्य किं प्रयुक्तमार्यगैत्तमेन । ( घ ) कयं ब्रह्मबन्धुरन्यया जीविष्यति ।
( च ) आर्यं एषा देव्या नियोगमन॒तिष्टति । एतस्मिन्नतिक्रमे परवती यम् । प्रसीदतु भता ।
कामिसाधारणं चारुकामिजनतुल्यं दोहलं पादनिक्षेपरूपं वृथा मिथ्या वहसि ॥ ‹ जुत्तणाम ' इत्यत्र काकुरनुसंधेया ॥ भयं ङूपयतीति । अत्र भयकयना
(१). ^. वारिदा, (२) ?. ^. निरूपयति, (३) 8. ©. पष, ध. वक्व. (४) 20 00. (५) 8. ७.7, 2, षतं ( प्रवृत्त), (६) 8. ७. पि. 1. १११ खु; 2०. &. &प सः. ( ७ ) १, होदि, («८ ) 8. ७. पि, †. ( इत्यात्मना सैनां &< ). ( ९ ) पि, ११ एना,
(£)
विदू ०--नुजनर । देवी एत्य माणइदत्वा । ( क ) शाना--
किसकूयमृदोश्चिकासिनि कठिने निितस्य पाद् पर्कन्धे। चरणस्य न ते बाधा संप्रति बामोङ बामस्य.॥ १८ ॥ ( मालविका लज्जां नौटयति ) इरा ०-- `अहो णवणीदौदिअओ अज्जउत्तो । ( ख )
भाङ०-- बडउलावकिए एहि । अणद्टिदं * अत्तणो णिओअं देवीर् णि बेदेद्य | ( ग )
क्षु ०--तेणेदि विण्णवेहि भटरारं विसज्जेदि ति । ( घ )
॥ 1 71
राजा--भद्रे यास्यसि । मम तावदुतपननावसरमरधतव श्रूयताम् । बङ्०--अवहिदा सुणाहि । आणवेदु भद्रा । ( च )
( क ) युज्यते । देव्यत्र मानयितन्या । ( ख ) अहो नवनीतददय आर्थपुत्रः । ५१५ ^; \ “५५,
( ग ) बकुलावकिके एदि । अनुणितमात्मनो नियोगे देव्यै निवेदयाबः। ( घ ) विज्ञापय भर्तारं विसर्नयेति |
( च ) अवहिता शुणु । आज्ञापयतु भर्ता ।
संभ्रमणं नाम सेध्यगमक्तं भवति ॥ किश्चलयेत्यादि | स्पष्टोः ॥ अत्र प्रियोक्त्या सेगृहो नाम सेष्यद्ुमक्तं भवात ॥ अहो अविनीतइदयो धयभारथपत्र
(१). ^. लज्जते; ष, शप्यति, ( २ ) २. ५० सास्यम, ( १) 98. ७. नि. ¶. 2० गवणीदकष्य. ( ४) 4. ४4 स्व. (५, 8.9, 10 ^ ५। (४1111 २०, 4, (१,१\॥) हि,
( ८५ )
राजा-- ©) (८.५५५.५७५
धृतिपुष्पमयमापि जनो बघ्नाति न तादृशं चिरात्मभूति । `." स्परोमृतेन पूरय दोहदमस्याप्यनन्यर्चेः॥ १९॥ ` "`` `
€` (न १५.५.१ ९।५4
इरा०--( सहसोपसृत्य । ) पूरेहि परेहि । णं ' असोओ कुसुमं दंसेदि । अअं उणं पुष्फड फक्ड अ । ( क )
( स्वे इरावतीं दष्टा संभ्रान्ताः । ) शजा--८ अपवार्य । ) वयस्य का प्रतिपत्तिरत्र । ` बिदू०- कि अण्णं । जङाबलं एव्व । ( ख )
कौ,
( क ) पूरय पूरय । नन्वदोकः कुमुम दर्शया । अयं पुनः पुष्यति
फलति च ।
र (ख ) किमन्यत् । जङ्ावल्मेव । ^, \ ,
५" भै 0१५ 4
( दयाद्रीचित्ततात्तयातवोमक्षा ।सेचछुनोक्तियिं ) । धूतिषुष्पेति ( अयं भादशः जनः चिरात्प्रभृति धृतिपुष्पं धृतेः पुष्पं न बध्नाति । अतोऽनन्य रुचेरनन्याभिलाषस्यास्य मादृशस्य जनस्य दोहदं अभीष्टं स्पशौमृतेन पूरय । पूरय पूरय । अदकः कुसुमं न दयात ( अशोकः पुष्पं दर्शायति । ) अयं पुनः पुष्प्याते फलते च ( न विकाशते किन्तु फलति फरिष्यः तीत्यथेः ) । अत्र सेरब्धवचनात्तोटकं नाम सेध्यङ्ुमुक्तं भवति । बयस्ये- स्यादि । का प्रतिपत्तिः को विचारः । क उपाय इत्यथः । अत्र भीतेर्मम्य मा्मतवादद्धेगो नाम संध्यङुमुक्तं भवति । मया आत्मनो. वश्चना बचने प्रमाणीकृत्य व्याधगीतरक्तया हरिण्येवाशंकितया न विज्ञातमेतत् । एतदित्यनेन रात्ता कपटाचरणं परामश्यते ॥ प्रतियोजयेदानीं किमाप ।
(१) 8. ©. 7. ¶. असोभौ कुसुमं ण दंसो. ( २) 12० 4. अअं उण ण कैवलं पुप्कड फल्ड अ; पष. अअं उण पुफदि छव; 1. 9. 1, अअं जण छत्तंमिदो एव; ( 1. 804 ग पुष्कड फल जेन्व ), ( १ ) 7, ४0५ ( सरणं ),
( ८६ )
इरा ०.- ' बउत्मवलिं साहु उवक्घन्तम् । मात्म तौ दाणि तुमं सञ्जउन्तं सफलपथ्यणं करेदि । ( क ) इभे--पसीददु भद्िणी । का अद्ये भत्तुणो पणपदधिगहस्स । ( इतिं नेष्करान्ते । ) ( ख ) इरा०-- भविस्ससणीआ पुरिसा । मौ क्ख अत्तणो वश्चणावभर्ण पमाणीकररि अ बाहगीदरतताएं हरिणीए विअ असंकिदां एदं ण विण्णादं । (ग)
( क ) बकृलावलिके त्वया साधू प्रान्तम् । मालगिके तावदिनानीं त्व सार्पं सफलप्ायनं कुरु । छ
( ख ) प्रसीदतु भध्धिनी । के आवां भवैः प्रणयपरिग्रहस्य ।
५०.२९. ५६.१.३४ २९०५.५५५
( ग ) अविश्चसनीयाः पुरूषाः । मया खल्वात्मनो वश्चनावचनं प्रमाणी- कृत्य व्याधगीतरक्तया हरिण्येवाशाङ्तयैतन्न विज्ञातम् ।
4५.५५.4७ | (2 १.११ 2 , +
कर्मगृदीतेन कर्मणि चौैकर्मणि गृहीतेनापि कुम्भीरकेन चोरेण संधिच्छेद ने । सेषेः पिदितभृमिः सधिस्तस्य छेदेने भेदने । सुरङ्करण इत्यर्यः । शितिः तः । अभ्यपतो {स्मीति वक्तव्यं भवाति । किमपि प्रतियोजय । उपपन्न
( १ ) ए. 6. 1. १५ साह. (८ २) 2. 4. 8. ©. पि. †. ४4 वृ. ( १) 8. ७. प. 1. ०0. मालविर ता त॒म; &. 2. शव 9 कधि; ` 2. ७. दाणि करहि अग्जरम्तं सफलपत्थण. ( ४ ) 20). व्यसंगस्स ( प्रसंगस्य ). (५) ९. 4. ०४. इति. ( ६ ) 2. 4. ४५१ भह. ( * ) 8.06. भ. 1. ०0, ( < ) प. ४५५ असिता बाहनणगीदगहीदवित्तार विभ इरिणीर् एवं ग विण्णादं; 8. 9. 1. अश्वित्ताए पिअधरिणारि हिअअभसलं किं | एव्वं भ विण्णादं मए वाहइनणगीदगहीदवित्ताः अविसंकिशाए हरिणी विभ विणासो चि। ८ १) पि, काहनणगीर्गहीदचनित्ताए; 70, ०, नण) ( १९ ) प, भ.
।
( ८५ )
बिद्०-- ( जनान्तिकम् । ) पैडिओजोहे दाणिं किप । कम्भः गरहीदेणं कुम्भीलएण सेधिच्छेअणतिक्खिओ हि त्तं वत्तव्वं होदि । (क )
राजा- सुन्दरि न मे माखविकार्ी कश्चिदयं: । मया लं वविरायसीतिं केयेचिदात्मा विनोदितः ।
इरा ०--विस्ससणीओ सि । मए ण विण्णादं ईरिसं विणोद वत्यु अं अज्जउत्तेण उवलद्धं त्ति । अण्णहा मर्दभाईणीए एव्वं ण॒ करीअदि ।
(ख)
बिद्०--मा दाव अत्तदोदी अर्चहोदो दक्रिखण्णस्स उ अरोहं भणादु । संमावत्तिदिद्ेण देवीए परिअणेभ संकदा वि जई अरहो उवीअदि एत्य तुमं एव्व पमाणं ( ग ) ५
( क ) प्रतियोजयेदार्नीं किमपि । कर्मगदीतेन कम्भीलकेन सीधि- + ॥ च्छेदनशिक्षकोऽस्मीति वक्तव्यं भवाति । = =^,
( ख ) विश्वसनीयो पसि । मया न विज्ञातमीदु श ॒विनोदवस्तुकमायंपत्र णोपलब्धमिति । अन्यया मन्दभ॑गिन्यैवं न क्रियते । ८.५८
८ ग ) मा तावद त्रभवत्यत्रभवतो .-दाक्िण्यस्योपरोधं भणतु । समा- `“ पत्तिच्टेन देव्याः परिजनेन सकथापि यदयपराधः स्याप्यते$त्र त्वमेव
प्रमाणम् । ४ ठय ६५.04. म ०१. ५०१ 1
¬+-% “ (२११
मनुपपन्ञं वा उत्तर कुरवित्ययैः । विश्वसनीय ऽसीत्यत्र॒विपरितलक्षणानुसंधे-
(१) 8. ©. 7. मो पडिवज्जेहि कपि उत्तरं, (२) अ, ०५१ कि, ए. 9. †. किं ण मणई । उदकान्दमूले विमि . विमरिदिेण ( उदकान्त. मूले विपथिके विमथितैन ) कुमलिण्ण ( 8. ७. सेदेसो रक्खिदन्वो त्ति) (
. सेषिच्छेदो सिक्िविदन्वोधि ). (३) 20 4, ४५५ एत्थ. ति. "रेज &८.
( 9“) 8. 9. प. 1. माकविकया (५) 8. ७, प. ¶. ११५ वथाः. (€ ) 8. 9. ¶. भविस्सः, (७) 3. किवि; २. 4. एतारिसिं. (< ) प. क्क्खमाः; 3, 9. ¶. दुक्खन्वावारिणी ट्वं ण करेमि; 2० 4 , दुक्खतरं एवं (७ छव ) ण करेमि. ८ ९ ) 2. तावदा. (१० ) पष. ततमअदो. (११) 8. ©» मबिदु; प. भणिदं (१२) 8. ७. ¶; समीवद्धरिण, ८ १२) 8. ©. पररिगथिजजणेण; "7. परिअररित्यिजाजणेण ( १४. ) २०. अवराहे, ^. अक यहो, 1, वारिभदि; >, (३, सकदा अहिमुभा ( 9. अवराहो ) स्खभाअद्,
( ८८ )
इरा १-- णं सकहा. णाम दोदु ¦ किति" अत्ताणं आभाषदस्सं । (इति रुष्ट प्रस्थिता ) ( क )
राजा ( अनुसरन् । ) पधी चक |
( इरावती रश्नासदिं तचरणा व्रजत्येव । ) शजा- सुन्दरि न शोभते प्रणयिज्ञननिरपेक्षता । ८०... इरा ०- सठ अविस्ससणीअदहिअओ सि । ( ख )
९५७५.५५६०.० ५. ५ ५७9 3९
राजा शठ इति मये तावदस्तु ते `“ ` 1... “परिचयवत्यव धीरणा प्रिये । चरणपतितया न चण्डितां -> .~ ~)
बिसृ नसि मेखल्यापि याचिता ॥ २० ॥
इरा ०--रअ पि हदाता तुमं एव्व अणसराई । ( रशनामादाय रा- जानं ताडयितुमिच्छति । ) ( ग )
( क ) ननु संकया नाम भवतु । किमित्यात्मानमायाषविष्यामि । ( ख ) शठ अविश्चसनीयडइद योऽपि । ॥ ( ग ) इयमपि हताशा लमेवानुमरति । = ` ,
^ ५.) श त
या ॥ मा तावद त्रभवतो दक्िण्यस्योपरोध भणतु । शदइत्यादि । दहे प्रिये परिवियवति परिचयः सेस्तवो स्य स॒परिचयवान् । अतिशायने - मतुप् । तस्मिन्माधि शठ इति गृदविंप्रियकारीति अवधीरणा तिरस्कारोऽस्तु । अतः ‹ अतिपरिचयाद वङ्गा ' इति वदन्ति । तस्मादियमवधीरणा यक्तैवे व्यर्थैः । हे चण्डि अत्यन्तकोपने चरणपतितया मेखलया रशनया याचि-
(१) केसिभं काकं. (२) प. शवा. 4. 2. 0०1०. एति, ( १ ) प, सदासि) {. ©. ¶" सेदानित, (४) 2. 4. भ्रणयनननिरपेश्षता; पष. प्रणयिनि जने &&, ( ५ ) ५ &. चष्डतां; 2६. चण्डितां
‡ तै ८4 © ह क (4५० १९५... वाष्पासागा हेमकाग्रीगुणेन कि तर ६, श्रोणी विम्बादग्यपेक्षाच्युतेन ॥ =-द५०५= ४ ( ९,५१५.५६. चण्डी चण्डं हन्तुमभ्युदयता मां" = ~ : ` “^ बिदुहाञ्ना मेघराजीब विन्ध्यम् ॥ २१ ॥ इरा०-- किं मं एव्वं" भूओ वि अवद्ध करेमि । °( इति सरशनं हस्तमालम्बते । ) ( क ) ध ८५८४११५५ ` ८42 ^ अपराधिनि मायि दण्डं संहुरासि किमुद्यतं कुटिकेशि । वधयसि बिरसितं त्वं, दासजनायात्र कुप्यसि च ॥२२॥ 1
५ + ४ (ज चः रि पिक
(क) किं मामेवं भयोऽप्यपराद्धां करोषि | ०५५2 म = ५ ८०५
# 1
शेषः ( सखीयाचनेन कोपत्यागस्योचितत्वेन कोपाभवे चावधीरणात्यागो ~< युक्त एव । तन्नकरोषीत्यनुवितमिि भावः ) । बाष्पासारेत्यादि । बाष्प ~< ` आसार इव यस्याः । श्रोणीनिम्बात् प्रशस्तनितम्बस्थानुदुपेक्षया असावधाने. न च्युतेन गर्तिन.विनुदाम्ना विदुन्मा्येव हेमकार्चगुणेन स्वणेरशनया चण्डमुग्र ( ययास्यात्तया ) मेघराजीव मेघमालेव इयं चण्डी कोपना विन्ध्यं पर्वतमिव मां हन्तुमुद्यता उदुक्ता) । किं मामेवं भूयो ऽप्यपराद्ां करोषि । अप. राधिनीत्यादि । स्प्टोऽ्वः॥ नू नमित्यादि । इदं तद्र शनासंहरणमनुन्ञात
५. ४ तपि प्रार्वितापि तामवधीरणां न विसृजसि न त्यजसि । किमिदं युक्तमिति . =+:
८१ ) ए. ६, एवेरावत्ती; 1. वयस्यैरावती; प, हइयमिरावती; 4. यैषा, ( ३).8. ©. ४. 4. अन्युपेक्ञा &०. ८ ३ ) पि. वाहं, (४) 2. 4. ०90. (५) ए, ©, ¶. अवधीरिअं; ^. अवरद्रं ( अषरोधं ) (६ ) 8. ७. 2५. 7. 1980 ( सरशनं हस्तमवलबयति ) ४67 राना ४9610 फ़, ( ७ ) पि. अद्य. ( < ) 2. ४१५ ( आत्मगतम् ). ( ९ ) रप, इदम्, १३
&\च
| > ज
(९० ) इरा०-- ण खु इमे माखामेआएं चणा जे दे हरिसंदोदलंपृरयिस्स- न्ति । ( इति निष्कान्ता सचेटी । ) ( कं ) बिदू ०--भो उदेहि उर । किदैप्पसादोषि । ( ख ) राजा--( उत्याय इरावतीमपद्यन् । ) कौं गतेव प्रिया । विदू °- वअस्स दिद्विआ इमस्स अविणअस्स अपिसादिदा गदां । तौ वअ सिग्घं अवक्रमाम जाव अङ्कार ओ रासि विअ सौ अणुक" ण करेइ । (ग) राजा-अहो मनसिंजैवैषम्यम् | ` ˆ ˆ ^“ | मन्ये प्रियाहुतमनास्तस्याः प्रणिपातरुक्कनं सेवाम् । एष हि प्रणयवती सा शक्यमुपेक्षिदुं कुपिता ॥ २३ ॥ ` (इति निष्कान्तः सह वयस्येन । ) ** “^ "1
इति ठ तीयो ऽङ्ः।
९.4 ¢ ॥
( क ) न खन्विमौ मालविकायाश्चरणौ यौ ते दष॑दोहदं पुरयिष्यतः।
(ख) भो उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ । कतप्रसादो धसि 1 08.४१ ( ग ) वयस्य दिष्टया अस्यविनयस्य प्रसादिता गता । तदावां ड्मपक्रमावः यावद् कारको राशिमिव सा अनुवक्रं न करोति । > _ करोति । ~
मनुमतम् । मत्परर्यनया इति शेषः ॥ वयस्य दिष्टचा अनेनाविनयेनाप्रसन्ना गतैषा । तावदावां शीधमेवापक्रमावः यावद कारको राशिभिवानुवक्रं (पतिगम- न) प्रतीपं न करोति । मन्य इत्यादि । प्रियाइतमना मालमिकादतमनाः
( १ ) पष. माठविआचलणा,. ( २) 2० पररिसि, 20 करिस, 4 . इस्ति.
“ ¶, वितेसेण. ( १ ) 2. ^. ८ ससी निष्कान्ता । ); ३. सहेथा. (४) "8. ©. पि, ¶, ०0, मो & ००. उदेहि. ( ५ ) ए, 6. 4. अकिं &. (६) ए. ©. हेत; 1. तत्, (७) 2. 4. ०४, ( < ) पि. अष्यसण्णा;
. 8. 6. 1. अपप्यसारिदा, ( ९ ) १, ४५५ एता. ( १ ° ) 8. 8. अत्तिणा,
¶, महदाव [0 ता वं, (११) 28. 6७.94. 4. ००, (१२३) 2, तत पडिगमणं, ( १२३ ) २१, 1. मदनस्य; 8» ७, मदन. (१४) 98. 9. ¶. एषं प्रणयवती सा नहि शक्यम् ८८. ( १५.) 1. ^, ( इति परिकन्य निष्कान्ताः र्वे ) 28. (3, ४ क ( हति निक्रान्ताः सर्व )*
८.९९ )
प्रणिपातलङ्कनं प्रणामातिक्रमं तस्या इरावत्याः सेवामनुकूलचरणं मन्ये । सेवायाः फलमाह कुपिता कुद्धा प्रणयवती प्रेमवती सा इरावती एव- मनेन क्रमेण प्रणिपातलद्ुनरूपेणोपेक्ितुमीदासीन्येन वर्तितुं शक्यं हि शक्या खल । शक्यमिति निपातः ( तदतिक्रामणीं प्रसादनविंशेषं प्रणा- मधिकामिते यावत् सेवां मन्ये तादृशी सेवैव प्रसादनाया अलं नान्येत्य्थः । साहि कुपितापि मयि प्रणयवती अत उपेक्षितुं तस्याः प्रसादनमिति शेषः न शक्यम् । ) अत्र बीजानुसेधानादाक्ेपो नाम सेध्यङ्कमृक्तं भवति । इद मनुसंधानमेवोत्तराड्कयोपयोगितवाद्विनदुरित्यनुसंधेयम् ॥ इति श्रीकाटयवेमम्- पविरदिते कुमारगिरिराजीये माखगिकाभिमिन्न्याख्याने तृतीयो ऽङ् ॥
(२)
चतुर्थो ऽङ्ः ( ततः प्रविशति पर्यत्को राजा प्रतीहारी च । ) शजा- ८ आत्मगतम् ) ` ` “
1, १ ५१,.८५५.६
संप्राप्रायां नयनविषयं ङूढरागः प्रयः । ~: हस्तस्परे मुकुलितं इब व्यक्तरोमोद्रमत्वा- त्कुयोल्छन्तं मनसिजतरमां रसन्ञं फरस्य ॥ 9 ॥ ( प्रकाशम् । ) सखे गीतम ।
भ्रती ०- जेदु भद्र । असंणिदिदो गोदमो । ( क )
राजा--८ आत्मगतम् । ) अये" माखविकावृ्तान्तजञानार्य प्रेषितः ।
( प्रविरयं ) बिद़०-- वटुं भवं । ( ख )
( क ) जयतु भता । असंनिहितो गीतमः। ( ख ) वधेताम् भवान् ।
कविरिदार्नामङ्ान्तरमारभते-- ततः प्र बेशती यादना । तानिति। मरकत इव सजातमुकुल इव कान्तं कामनायुक्तं कुथौदि ति प्रार्थनायां ( आ शंसायां ) लिङ् । अत्र प्रसञ्जितं बीजं प्रकरीस्याने कृतमिति मन्तन्यम् ॥ असंनिहितोऽत्र गौतमः ॥ सा खलु तपस्विनी तया पिङ्तयक््या सारभाण्ड-
(१) 8.6. पि. 41. ब्रमूः. (२) 8.6. पि. 1. खर्शीः+ (३) ए. 9. 1. कसुमित. ( ४ ) ?. रोमोदगत^. (५ ) 7. ‰. कौत, (६) 13. ७.2. 1. १९) मेद्, (५) 8.0. 9.1. नाः. (<) पि, (1. 0 मया, ( { ) 8, ©, ४५५ विद्षकः, (१०) 9. ©. 4. नेद् नेद् 904 2, 4 नेद्,
(९१) राजा--जयसेने जानीहि क्रं देवी धारणी कयं व सरुजचरण तवाद्विनोयत इति । प्रती ०- जं देवो आणवेदि । ( इति निष्क्रान्ता । ) ( क ) राजा-- सखे* को वृत्तान्तस्ते सख््यास्तत्रभवर््याः । बिदू ०-- जो बिडालगदीदाए परहुदिआए् । ( ख ) शाजा-( सविषादम् । ) कथमिव ।
विदू०--साखु तवस्सिणी ताए पिङलच्छिए सारभण्डभूषैरए मि- म॒हे विअ णिक्िखत्ता । ( ग )
राना-- ननु म्ंपर्कमुपलभ्य | बिदू०--अह इं । (घ)
( क ) यदेव आज्ञापयति | + ( ख ) यो बिडाल्गृहीतायाः परमृतिकायाः।
(ग ) सा खल तपस्विनी तया पिङ्लाक्ष्या सारभाण्डभूगहे म॒त्यमख इव निक्िप्ता । ५4 \
( घ ) अय किम् ।
भृगृे गुहायामिव निक्षिप्ता । शुणोतु भवान् । परिरानिकया मे कयितम् । ह्यः पूर्व्यः किल तत्रमवतीरावती रुजाक्रान्तचरणां देवीं सुखपृच्छका आगता ॥ तयोक्तम् ( ततस्तया व्याख्यातं । मदो वा उपचारो वा । य त्तव परिजनस्य वह्छभत्वं जानत्यपि पृच्छति ) । मन्दो व॒ उपचारः ।
(८ १ ) 2. 04 तावत् , 8, ©. तावत् | क वा देवां कथं वा &०, 8०१ ¶, तावत् । कासो &. ( २ ) 8. ७. पि. 7. ०. कयं वा. (३) 8. ७. षि. 4. गँत्तम. (४) ए. ७. प, {7 तत्रमवत्यास्तेसल्याः ( ५ ) 4. 2०. -माडमूमि" 204 8, ©, 1. -माडगेहमुहे परिक्िता, (८५) 8. मे; ( की # ¬. ४
क > | @१३, क
( ९४ )
राजा--गीत्तम क एवं विमुखो.स्माकं येन चण्डी कृता देवी । .
बिद्०--मुगदु भवं । परिव्वानिओं मे के । हि किंल तत्त होदी इरावदी रुजाविहैत्यचरुणं देवि पु्हपुच्छिआ आअदा । ( क )
शजा--ततस्ततः।
बिदू०-- तदो सा देषीए॒पुच्छिदा। किं णै लक्िदो जणो वह्ल- हो त्ति। ताए उत्तं। मदो वा उवआयो वा जं दे परिअणस्स वह्हत्तणं ॥. जाणन्ती वि पुच्छसी त(स] 4 राजा-- निर्भेदाते पिं मालार्वकायामयमुपन्यासः शङ्कयति । ~ ५ ० 4.4 (८4८. 2 ४ =, ६ ६ _ (© ५.६.62 + + 0.९ ( क ) शृणोतु भवान् । परित्रानेका मे कवयति । ह्यः किक ॒तत्र-
` भवतीरावती रुजाविहस्तचरणां देवीं मुखपच्छकागता । १५.५५ = ४५६, # ^ )
(ख ) ततः सा देव्या पृष्टा | किं न लक्षितो जनो वह्भ इति | तयो क्तम् | मदो वा उपचारो वा यत्परिजनस्य वह्छभव्वं जानन्त्यपि पृच्छसीति ।
ति
4, व् 1 र
यत्परिजने संक्रान्तं वह्णभव्वं न ज्ञायते ~ निर्भदादते ऽपि 4 ;; नापि ॥ ततस्तयानुबध्यमानया भवतो कृता ।
~ ; ( धरिणी ) राजाविनयमिरावत्याः सकाशा्ज्ातत्रती्यर्थः ॥ किमतःपरम् ।
(१) 8, ७. 7. ¶. ०. ( २) पि. परित्वानिभार भे कहिदं. (३ )
पष्, स्भक्रत ४५ 8, ध. 4, ( शुनायमान ). ( °) 3. 6.
; ¶, २०. सुहं पच्छ (५) 2. 0108 ५118 86९न) ४० २७४१8
` „ + निग्फण्डु न्€भः ण विद्षक 1 00६ पपम कत
६ -- ४10५ ४0०१९. (६) ३. 9. ¶. कि अच्णो वि अणलंकिदो हिभअनेणो
; बहो ति । &. परि, #ि णु ओलोषदो षहहनणोति, (५ ) 120 &. भ॑रो वौ
८ ~ उकओआरो । जं दे परिअणस्स वहदत्तणं तं ण नाणति ति । प, मेदो,. जं प्रिमणे
॥ सक्तं षचहत्णं ण नाणी अदि, ४०५ 2. 9. 1. तदो शार उत्तम्म॑तीर मंतिदम् `
. ¦ कुदो वा उवओआरो जं परिअणे सेकतं बहहृत्तणं जाणिस्सदि ति |, (< ) 2४. 9१ भो & 1. अहे. (*) 23. 9. ¶. ००. अदि |
(१९ )
| ०- तदो तार अणुवन्धिज्जमाणाएं भवदो अविणअं अन्तरेण परिगहीदत्यां किंदा देवी । ( क ) राजा-अहो दीर्घरोषता तत्रभवत्याः । अतः परं कथय । ` `
बिद ०--अदोवरं किम । माख्विभा बडखावक्िआ अ णिअलवदी य अदिद्रस॒ज्जपादं पादाल्वासं ण।अकण्णआ विअ अणहोन्ति । ( ख )
राजा-कष्टम् । द
त ५ ,&., भै ~
मधुरस्वरा परभृता भ्रमी च विबुद्ध चतसङन्यौ । ~... : कोटरमकाखवृष्टचा प्रवरुपुरोबातया गमिते ॥ २ ॥ <... +~.
= ~~~ +~ [अ रि ष्क. त
ˆ बयर्सय अप्यत्र कस्यचिदुपक्रमरस्यं गतिः स्यात् । <...
बिद् ०-- कदं भविस्सदि । जं सारभाण्डघरप वाउदा माहविओआ देवीए संदिद्रा । मम॒ अङुरीअरमुदं अदेक्खिअ ण मोत्तव्वा तुए॒हदासा मावे बड खवलिओआं अं त्ति । ( ग )
` (क ) ततस्तयानुवध्यमानया भवतो विनयमन्तरेण परिगृरहातार्या कता ४. दवी ] ५५. ५८.52
( ख ) अतः परं किम् । मापिका बकुलावलिका च निगख्वत्यावद- ¡५८ ्सूर्वपादं पाताल्वासं नागकन्यके इवानुभवतः ।
( ग ) कथं भविष्यति । यत्सारभाण्डगृहे व्यापता माधविका देव्या <~ <^ संदिष्टा । ममाुलीयकमुद्रामद्ा न मोक्तव्या लया हताशा मालविका बः ,
कुलावलिका चेति । मधुस्बरेत्यादि । ( मधुरस्वरा मघुरनादा परभृता कोकिला भ्रमरी च तत्तु
८ १ ) 2०. गिबेषि &० 4 च, अणृकिन्नमाणा सा ( २) 8. 8. ¶. प्रिद. ( ३ ) 7. किं अदो वरं, ४०१ 13. ©. 1. कि अवरं. ( ४) 3.6, पिष, १९68६. (५) 2. मधुररवा परभृतिका; मधुरस्वरा प्रभति, ( ६ ) ए. (५. प, ¶, ००0.; २. वयस्याप्यन्नोपकमस्य कस्यचित्. &८, (८ « ) 13. ©, भमौडन्वावारिदा, 20 †. मांडगिहन्वावारिदि. (८ < ) पि. अगृखीजअ &५* 8. ©, “मुदम 324 †7, मुदि. ( ६ ) 70. ०.
^£ )
राजा--( निश्स्यै ) सखे किमत्र प्रतिकर्तव्यम् । +८७५२य बिदृ०--( विचिन्त्य । ) अत्यि एत्य उवाओ । ( क ) राजा--क इव ।
विदू ---( सदृष्टिक्षेपम् । ) को वि अदिष्ठो सुणादि । कष्णे दे कदे मि । ( ` उपष्छिष्य कर्णे" । ) एव्वं विअ । ( इत्यविदयति । ) ( ख )
राजा-( सहर्षम् ˆ ) सुषु चिन्तितम् । * प्रयुज्यतां सिद्धये । ( प्रविङ्य )
प्रती०-- देव पवादसअणे देवी णिसण्णा रत्तचन्दणधारिणी परि अणहत्यगदहीदेणं चलणेण भअवदी कहार्दि' विणोदिअमांभा चिड्ड । (ग)
| राजा---'` अस्मत्प्रेव॑योग्यो ऽयमवसरः ।
( क ) अस्त्यत्रोपायः । ( ख ) कोप्यदष्टः शृणोति । कर्णे ते कथयामि । एवमिव ।
( ग ) देव प्रवातशयने देवी निषण्णा रक्तचन्दनधारिणा परिजन दस्तगृदीतिन चरणेन भगवत्या कथाभिर्विनो्यमाना तिष्ठति ।
ल्ये मालाविकाबकुलावलिके इत्यर्थात् विवुद्ध चृतसेगिन्यौ व्िकापितसहकार- सक्ते मदाश्रिते इतिध्वानैः प्रबलपुरोवातया वृष्ट्या कोटरं वृक्षकोटरं त-
(१) 8.6. पि. ¶\, ४५५ सपरामर्शम . (२) 23.6.9.¶7 00,
प्रति, ( ३) प, ४५ इति. ( °) 3. 6.1. मण. कर्वे (५)4.? 0). (६ ) १. गण) चितितम. (*) 8.6. 17. ५44 (8. 6. अनुष्टितं & {, अनष्टेयम. ). ( < ) ए. 8. ¶, "वारिणा. ( १) 8. ७. प. ¶, इत्थगदेण, ( १०) ?. 4. प्डिन्वाजिआा. (११) .8. ७. †. 1ण््ल०४०९७. ( १२३ ) 3. ©. 1. ५५५ तस्मात्. ४५ त. तेनदि, (१२३ ) 3. 6. 4, प्रयाणं,
॥ ¦ । ।
।
| ( ९७ ) बिद ०-- त गच्छदु भवं । अहं षि देवि पेकिखिदुं अरित्तपाणी भविस्सं । ( क ) राजा--जयतेनायास्तावत्संवेदयय गच्छं । बिद्०- (क । ) दोरि एव्वं विअ । ८ इत्यवे निष्क्रान्तः । ) | (ख)
राजा---जययेने पवातशयनमार्गमादे शय । भ्रती०- इदो इदो देवो । (ग ) ( ततः प्रविशति शयनस्था देवी परिव्राजिका विभेवतश्च परिवारः )
देशी--भ अवदि रमणिज्जं * कहावत्यु । तदो तदो । ( घ )
परि०--( सदषटक्ेपम् । ) देवे अतःपरं पुनः कथयिष्यामि । अत्र भवोनीरवरः संप्राप्तः ।
देबी--अद्यो अज्जउत्तो ' | ( इत्यत्यातैमिच्छति । ) ( च )
॥।
( क ) तद्रच्छतु भवान् । अहमपि देवीं द्रष्ुमरिक्तपाणिभविष्यामि । . ' ( ख ) भवति एवमिव ।
0 शतो दः ` 4. ( घ ) भगवति रमणीयं कयावस्तु । ततस्ततः । ८ च ) अहो आयपुत्रः।
ल्य नित्रिडान्धकारं इति ध्वनिः । गमिते प्रापिते ) । अत्र राज्ञः कणी वि-
| दूषकीक्त उपायो नियमेन माकविकाप्राधिदेतुतवाननियतापिर्नाम चतुर्थाः
+ ~+ +
(१) 3. 6. . मो. (२) 4, सपाय, 8. ©‹ ¶, संविरितं &. प्प; अस्मद्रहस्यं विदितं कुह. ( ३ ) 8. 0. प. 1. तह । ( करणं ) एवं विअ होषि; ८ 9 ) 4. 2. अदिरमणिज्जं, ( ५ ) 1. अत्रभवान् विदिशैन्वरः ४१५ षृ अत्र भगवान् विदिशेवरः, ( ६ ) 8. ७, पि. 1, भरा, (ज ) ए, ©. अभि 90 इति
१३
क | , +} थ
# + # =. * #ै ५ & क ॥ प | त | 0 । ^ #९२ 1 (न (+ 1
राजा--अलमलमुपचारयन्त्रणया । , ५ वव अनुवचितनूपुरबिरहं नाहैसि तपनीयपींटका छम्ब । „~ चरणं रजा परीतं करूमापिणि मांच पीडयितुम् ॥ ३ ॥ परि०-- विजयतां देवः।
धारिणी-- जेदु अज्जउत्तो । ` ( क ) शजा--( पख्रानिकां प्रणम्योपैश्य * । ) दोषे अपिं सद्या वेदना ।
धारिणी-- “अव्य मेः वितेसो । ( ख ) ( ततः प्रविशति यज्ञोपवीतवद्धाङगृष्ठः संभ्रान्तो विदूषकः । ) ` बिद ०--परित्ताअदु परित्ताअदु भवं । सप्पे्णं ददेन्न । ( ग ) ( सर्वे विषण्णाः । ) राज्ञा~--कष्टम् ` । क भवान्परिघरान्तः ।
( क ) जयववाुपुत्रः। ( ख ) अस्ति मे विशेषः । | ( ग ) परित्रायतां परित्रायतां भवान् । सर्पेण दष्टो ऽस्मि ।
वस्या सूचिता । अत्र पूर्व॑ प्रकरीस्यानोक्तबीनस्यानया नियताप्त्या सम- न्वयादवमर्शोनाम चतुर्वसंभिः प्रतिपादित इतिं मन्तव्यम् ॥ परिनिनहस्तग तेन चरणेन । अहो भतौ ॥ अनुचितोति ( अनुचितनुपुरविरहं सततत परिचितनूपुरसंगमित्य्ंः । रुजा परीतं रोगव्याप्तं चरणं तद दीनेन र. गाक्रान्तं मां च पीडयितुं नार्हसि ) । अद्यास्ति मे विशेषः ॥ तत इति ।
(१) 3.6. प. 4. पटिका. (३) 8. ७. न. 7. [9५७ 00906 09 5[66०0५8, ( ३ ) 8. 6. ¶. १५ च. (१) ४. ४११. वै, ( ५ ) पि. ४०११ अज्ज . (६ ) 2. १५१ शर्णि, ( ५ ) 2०. भगक्डा सप्येण सदेन, ५०१ 8. 6. †. सप्येणद्नि दके, (< ) 8. 0७. पि.
¶, १५५५४
।
(९ 3
` विद्० देक्खिसं' त्ति आअआरपुप्फग्गंहणकारुणादो पमदवणं । गदो । (क) देवी दद्धीहदधीं । अहं एव्व बह्मणस्स जीविदसंसंभणिमित्तं जादा । (ख ) बिव्-०-- तरिं असोअत्यवअस्सं कालणादो मए पसारिदे दक्ख णहत्ये कोडरणिग्गदेण कालेणं सप्परूविणीं दद्ोच्चि । णं एइं दुवे दंत पदाईं । ( इति दंशं द शयति । ) ( ग ) परि०- तेन दि दंशच्छेदः पूवैकर्मेति श्रयते । ख॒ तावदस्य क्रिय ताम् "` । । , "^ : क | "छदो देशस्य दाहो बा क्षतेवोरक्मोरक्षणम् । ` ` ` ` एतानि दष्टमाजणामायुष्यौः प्रतिपत्तयः ॥ ४ ॥ `...
(1. 5 अ ~ 9. ^ ` 0... 1 क ऋ,
( क ) देवी द्रह्यामीत्याचारपुष्पम्रहणकारणात्प्रमदवनं गतोऽस्मि । ( ख ) हाधिक् हा धिक् | अहमेव ब्राह्मणस्य जीवितसंरायनिमित्तं जाता। ८:
( ग ) तस्मिन्न शोकस्तवकस्य कारणान्मया प्रसारिते दक्षिणहस्ते को. टरनिर्गतेन कालेन सर्परूपिणा दष्टो पमि । नन्वेते दवे दन्तुपुदे । „^.
# # 4.८.-+~^
यज्ञोपवीतेन बद्धोऽङु्ो यस्य स तथोक्तः । अत्र॒ कपटकल्पनाया गम्यमा-
नत्वा्लनं नाम सध्यङ्मुक्तं भवात ॥ तस्मिन्न शोकस्तबककारणात्प्रसारिते दक्षिणहस्ते कोटरनिरगतेन सर्परूपेण कारेन दष्टो ऽस्मि । छेदो दशस्ये-
(9 ) दक्खिदुत्ति. ( २) 8. ७. ¶. 00 ग्गहण,. (३) ‰. ४११ प्रर्तिा- अद् पर्तिअद्. (४) &. 00. (५) 2० ससए &९. १. जादा ००4 8. ©. 1. जादा बह्मणस्स. ८ ६) 8. ©. 7. असोअत्थपुप्फकाल. ४१ ष व्यवअकां , ( ० ) पष, ००. ( < ) 8. 9. 7. एसारिदो द्क्खिणहत्थो । तदो &९. ८९) 2. अग्गहत्ये, 4 . हत्थे, (३) 8. ©. 1. [०४९१९४९ १. स्प्परूवेण किण. (११) 8. ©. पि. 4. णंष्दाणि द्वे दंसणपदाणि ( 8. 6. ००. दस्ण ). ( १२) 8. 6. ¶. ० तेन... कियताम्. (१२) 4, 78848 ४16 १6786 8११ ५16 {911०५1० २४१ ‰ ००1४ ५९ 919७9 18८ 10 {6 [०६5 57९५५५५ ४५, (१४) प. मोचनम्, ( १५) 2. आयुषः,
10
४ ~ ह १,
(^०* ।
संप्रति विषरवदयानां कर्म |
राजा--जयसेने किप्रमानीयंतां भरुवतिद्धिः ।
प्रती ०- जं देवो आणवेदि । ( इति निष्क्रान्ता |) (क) `
विदू °-- अहो पावेण मिच्णा गहीदोच्चि ( ख )
राजा--मा कातरो भूः । अविषो ऽपि कदाचिदंशो भवेत् ।
बिद ०-- कहं ण भाईस्सं* । सिमतिमाअन्ति मे अङ्ाहं । ( 'विषवेगं रूपयति । ) ( ग )
देी- "दी ही आहिअं दं मिदं विअरिण । हत्य अवलम्भह णं । (घ)
( परिजनः" ससंभ्रममवलम्बते )
बिद्०-- ८ राजानं विलोक्य । ) भोः भवदो बात्तणादो पिअवअ- स्सो हि । तं व्रिभरिअ अपुर्ताए मे जणणीर् जोअक्वेमं वहेहि । ( च ).
( क ) यदेव आज्ञापयति ।
( ख ) अहो पापेन मृब्युना गृहीतोऽस्मि | = „4.4 ४५. ( ग ) कयं न भेष्यामि । सिमििमायन्ति मेऽङ्गानि ।
( घ ) ही दही आधिक्यं दारितं विकारेण । हतम अवलम्बध्वमेनम् ।
( च ) भोः भवतो बाल्यात् प्रियवयस्यो ऽस्मि । ते विचायपुत्राया मे जनन्या योगक्षेमं वह ।
स्याद । धवसिद्धिरिति तस्य भ्रैयस्य नाम ॥ अनेन सेतापः सच्यते ।
( १) 8. 6. पि. 1, 1४(लत) ११६९७, ( २ ) 2. ००. अपि. (३) 4. 106 ])7648 भाहस्सं ७९ भविष्यामि, (४) 9. ७. प. ¶. ५4 इति (५) 8.७. ¶, हा हा दंसिदं विआरेण । अवटंवध णं | ( ¶, बह्म 0 णं ) पपि. हा दंसिदं असहं विआरेण ( दारतमशुमं विकारेण अवलेवध बह्मणे ४११ 2. हीही अमृ दंसिदं ( असुखं दं & ८, ) .. अवलबह ण. (६) }४. ¶, परिानिका & ए. ७. पारिपाध्विका. (५) }3. 6. 1. भो बाठष्यिभवअस्सोह्धि दे (1. तुर) । अविेण ( अधिकारेण ) अपृत्ताए जणणीए & । ‰, भो बहारेषि &, ( < ) 4. मृष्टा ६५ 120 मृष्दाए मे
( ९०९ )
राज्ञा-- मा भेषीः ' । अचिरात्तं षै्श्िकित्सते । स्थिरो भव । ( प्रवेर्य ) जय ०- देव आणावदो भ्रवसिद्धि विण्णवेदि । इह एव्व आणीअ
3 (4 गोदमो त्ति । ( क ) । १.४
> = 1 नि "|
राजा--तेन दि वथूरमतिगृहीतमेनं तत्रभवतः सकाशं प्रापय । जय तहा | ( ख)
बिद् ०--( देवीं विलोक्य । ) भोदि निवेअंवाणवा । जं मए अत्तभवन्तं सेवमाणेण दे अवरद्धं ते मैरिसेहि । ( ग )
देबी-दीहाऊ होहि । ( घ ) ८ निष्क्रान्तो विदूषकः प्रतीहारी च । )
` शजा- - प्रकतिभीरुस्तपस्वी । शरुवसिद्धेरपि यथार्थनाम्नः सिद्धिं न. भन्यते |
( क ) देव आन्नापितो भरुविद्धि्वज्ञापयति । इहैवानीयतां गौतम इति । ( ख ) तया। ( ग ) भवति जीवेयं वा नवा | यन्मयावभवन्तं सेवमानेन ते ऽपराद्ध
` तन्मष्यस्व |
( ष ) दीघायुभव ।
विषवेगं विषप्रापं रूपयति प्रकाशयति । विषवेगास्तु वसन्तराजीये कयिताः- ५" ; = |
८ ¶ ) प. ४५ गौतम, ४१५१ ५९] स्थिरोभव 1616 2{॥€]' {६. (२ ) 7१. 4. चिकरिम्सिष्यति ४५१ 13. (७. विकित्सविष्यति. ( ३ ) ‰. ‰. प्रतिहारी ४।| {017014}1, ( ४ ) &, 2. ०४. ( ५ ) प. ४५ सो, (६) 12. वर्षवर प्ररि & पच. ०४). वर्षधर. (५ ) 12० ४११ तं सन्वे, ( < ) ५, निम्कान्तौ.
(८१) 20. 4. धुव. सि्दिं मन्ये, }. श्रवसिभ्डिमपि यथार्थं नामानं सिष्दिमतं
न मन्यते,
45२ “` जय०-- जेदु भद्र । भुवतिद्धी वरिण्णवेदि । उदकुम्भदहाणेण सष्प भृदिअ किंपि कप्पइदव्वं । तं अण्णसीञदुत्ति।(क)
देबी--इदं सप्पमुिअं अङ्गुलीअअं । पच्छा मम इत्ये देहि णं
(ख) ( इति प्रयच्छति । ) › अ ४ ~
राजा---जयसेने* कर्ममिद्धावाडा प्रतिपत्तिमानय । ^*^*~+८4 ` प्रती०-- जं देवो आणवेदि । ( इति निष्क्रान्ता । ) ( ग ) परि०--यथा मे* हदयमाचष्टे तवा निर्विषो ग क (न राजा भृयदेवम् । [४ | | ( प्राविर्य ) जय०-- जेदु भद्रौ । णिवुत्तविसवेगो गोदमो मृहुत्ेणौ पकिदित्यो संवृत्तो । ( घ )
=
( क ) जयतु भर्ता । प्रुविद्धिरविज्ञापयति । उदकुम्भविधानेन सर्पं द्रितं किमापे कल्पयितव्यम् 1 तदन्विष्यतामिति ।, (को ६५८.
(- ( ख ) इदं सर्पमदरितमङुलीयकम् । पश्चान्मम हस्ते देद्येतत् । ˆ `` ` ¦ ( ग ) यदेव आज्ञापयति ।
( घ ) जयतु भर्तां । निवृत्तविषवेगो गौतमो मृहूर्तेन प्रकतिस्य संवृत्तः
' वैवर्ण्य वेपयुर्दाहिः फेनः स्कंदस्य भञ्जनम् । दुःखं जाड्यं मृतिश्चेति वि. वेगाः स्युरष्टधा ॥ ` यन्मया तत्रभवन्तं सेवमानेन अपराद्धं तन्मृष्यताम्
(१) ए. ©. प. 1. 29. किहाणे | सप्यमृदिभं कंपि अण्णेसीद् | . (२) 8. ७. 4. ००. & पष, इति अंगृर्टीयकं ददाति 9०५ ४५१ प्रविहार गृहीत्वा ` प्रस्थिता, (३) पप. ०. (१) 8.6.14. ०. भे. (५) 8.9.14. । 7९०४६. ( ९ ) कि, देवो. ( ५ ) 12४. णिदृत्त.. गोचमो । मुहत्एण पकिरितव श्व सवुत्ो, 120, 4. णिवुच..^ गोत्तमो प्िदित्यएव्व &८, ।
( ९०६ )
देगी-दिष्ठिमा वैअणाआदो भृत्तन्चि ( क )
श्रती °--एसो खण अमो वाहतओ विण्णवेदि । राकज्जं बहु मन्तिदव्वं । ता दंसणेण अणुग्गहं इच्छामि ति । ( ख )
देबी--गच्छदु अज्जउत्तो कञ्जसिद्धीए । ( ग )
राज्ा--आतपाक्रान्तोऽयमदेशः । शीतक्रिया चास्या रुजः प्रशस्ता ।
तदन्यत्र नीयतां शयनीर् | ॥ १ देबी--बालेओ अज्जउत्तवञ्जणं अणुचिटह । ( घ ) परिजनः- तर्द । ( च ) ( इर्ति निष्कान्ता देवी परित्रानिका परिजनश्च । )
राजा-- जयसेने गदेन पथा मां प्रमदवने परापयं ।
प्रती०--इदो इदो देवो । (छ)
राजा--जयसेने समापतकत्यो ननु गौतमः ।
( क ) दिष्टबा वचनीयान्मुक्तासिमि ।
( ख ) एष पुनरमात्यो वाहतको विज्ञापयति । राजकार्यं॑बहु मन्व ` यितव्यम् । दर्शनेनानुग्रहमिच्छामीति ।
( ग ) गच्छत्वार्पु्रः काय॑सिद्धये | ~ ^~. < 9:
( घ ) बलिका आरयपुत्रवचनमनुतिष्ठत ।
(च ) तया।
(छ ) इत इतो देवः।
इति ॥ दरितमङाभे विकारेण । अवलम्बध्व ब्राह्मणम् ॥ विवृत्तविषवेगो
(१) पि, ००. (२) 8. ७.2१. 7, ००.८३) 38. ७. ०, च, ८४) प्रि. ©. शयनम् ( ५ ) 8. 9. ¶. पालिआा, 28. बाटिआओं ४०व 4 , बालिशा. ८ ६ ) अज्जउन्तस्स सदेसं, () ४११ ८ पए्ररिजनस्तथा प्रकान्तः ). {< ) पि. ०, इति. (९ ) २०. गुदपथेन, #. 8, ७. ¶, 20 ०, सां. ( १० ) 8, ७. ¶. “काम्यो. & 2. करणीयो.
4
धती ०--अह इ । (क) राजा
"> रनज >^ ॥ त
9 १).
४ “ इशरधिगमनिमित्तं परयोगमेकास्तसःध्यमपि मत्वा
संधिग्धमे सिद्धौ कातरमाशङ्ते चेतः ॥ ५॥ । ( प्रविस्य ) विदू ०-- बहदु भवं । सिद्धाईं दे मङ्ल्कग्नाई* । ( ख } राजा--जयसेने त्वमपि नियोगमशन्यं कुर । ती०-- जं देवो आणवेदि । ( इति निष्क्रान्ता । ) ( ग ) राजा-- वयस्थ क्षद्रा माधविका । न खल् किंविद्विचारितमनया । विदू ० - देवीए अङुटीभअमुदं देक्लिभ कदं विआरीअदि । (घ)
०४५१ शजा--न खल मुद्रामधिकत्य ब्रवीमि। एतयोर्रद्धयोःकिं निमित्तो यं
| , मोक्षः । वि देव्याः परिजनमतिक्रम्य भवान्संदिष्ट इत्येवमनया त ११
बिदू °-- णं पुच्छिदो । पुणो मन्दस्सवि भे तरस्सि पचुष्पण्णा
मदी | (च)
, (क) अव किम् |
) | < ,( ख ) वर्धतां भवान् | सिद्धानि ते मङ्लकार्याणि ।
( ग ) यदेव आज्ञापयति । ( घ ) देव्या अङ्गुलीयकमुद्रं इष्टा कयं विचारयति । ।, ,
पी कलि 0 ( च ) ननु पृष्टोऽस्मि । पुनर्मन्दस्यापिं मे तस्मन्परयुत्पन्ञा मतिः |<
गौतमो मृहूर्तमत्रेण परकतिस्यः संवृत्तः ॥ इष्टाधिगमेत्यादि । ( इष्स्या
(र. ८०.)
( १ ) व. हदयम्. ( २) ९, &, नेद् & 8. ७* 4. १७५५४ ( ३) 8, ©. 1. -कम्माह; ( मम कज्जाहं ). (४) 8. 09. त. 7. गौतम. (५) 8, 9७. ति. 1, मुदि. (६) 8. 9. ॥. त्वोदयोः & प. एतयोरयोः ( ७ ) 08. ७, प. 1. ००. अयं, (<) 8. ©. न. 1. कवा. (९) 8. ७. 1, मेदस्सवि पूणो मे तह पच्चुप्यणं जतं आति, २. पच्चुप्यण्णुद्धिणा म कहिदं, ^. पच्चुत्तरपभ्वुप्यण्णवुद्धिणा मर काहिं,
. तर ५ $ कायौसेद्धिपथः सृदमः स्नेहेन पकः ते॥ ६॥ ८. _ - ८4
“` ऋका क क "छः `
( ९०५ )
िद्०- भणिदांः मए । देव्वचिन्तए विण्णाविदो राभा । सोवसगणे
बो णक्लत्तं । सव्वबन्धणमोक्खो करीअद् त्ति । ( क ) राजा-ततस्ततः,
बरिदू०-- तं सुणिअ देवीए इरावदीवित्तं रक्खन्तीए् राआ किल मो. एदित्ति अहं संदिष्टो त्ति । तदो जुज्जइदि तति ताए संपादिदो अत्थो । (ख)
राजा- ( विदू षकं परिष्वञ्य । ) सखे प्रियो ऽहं तव राजा (व्द् १ सले पियो दं (तन् ।
॥ ॥,; (८ (व. 4 +
नाहि बद्धिगुणेनेव सुहदाम्ेद शनम् ॥
4.27)
( क ) भणिता मया । दैवचिन्तकैर्विज्ञापितो राजा । सोपसर्गं बो नक्ष: .
रम् । सर्वबन्धनमेोक्षः क्रियतामिति |, |, „1
०५“ ५4९. ९~# ५
८, {८1
ˆ ख ) तच्छत्वा देव्येरावर्तीवित्ते रक्षन्त्या राजा किरु मोचयतीत्यह `“
५५१. ५,
संदिष्ट इति । ततो अ > इति तया संपदितोऽः।
धिगने प्राप्तौ निमित्तं कारण एकान्तसाध्यं निःपन्देदेन संभवदुत्पा्तिकसा ध्यभेव रूपमाप प्रयुज्यत इति प्रयोग उपायस्तं सिद्धये साध्यनिष्पादनाय
सेदिग्धमेव कार्यं स्यान्नवेति कृतसंदेदं मत्वा चेतः कातरं यथा तथां आश
ङ्ते ॥ पृनर्भन्दस्य मे तस्मन्प्रवयुतन्ञा मतिः ॥ ( पुनम॑न्देनापि प्रत्युत्पन्न
द्विना मया कवितम् । उपसर्गेण ज्योतिषेक्तक्ररम्रहवेधमृचितः बोपद्रबेण
सहितनि्र्थः। )। नहि बद्धीस्यादि । ( मुदां बुदिगणेनैव अर्यददनं न किन्तु स्नेहेनैव पृष््मः हद्रादनुद्धावनीयः कायंतिद्धिपयः अभीटिसिद्ध
(१) 4. 2. ०४ ५06 8५९९८} कणत 1€व्व् ४6 9116
॥ १ 19 ९०१४०९०५ 100 116 १७०१५ 8066 ज विद्षकः*
(२) ¶. मणिदं ५५ ^. 2. ०0. भणिदा मए. ८ ३) 8. 0. .\. 2.
0०५ ५७ 8[06७८}1 ४116 २९५५ ५।५ (०॥०५५1०द ४[५५०५।\ ०{ बिदृषकं 1) ७०।५४५५५।७५५ भाप ५४८ ५०५४०, ( ४ ) <, पलक््यते,
११
। 2
१४६.
( ९०६ )
बिदू०-- तुवरदु भवं । समुदघरए ससा" मालिं ठाविअ भवन्तं पचुग्गदोद्ि । ( कं )
राजा--अहमेनां सेभावयामि । गच्छाग्रतः ।
विदू ०--एवु भवं । ( परिक्रम्य । ) इदं समुदघरभं । ( ख )
राजा--( साशदधुम् । ) वयस्य एषा कुसुमावचयव्यग्रहस्ता सख्यास्त हरावत्यौः परिचारिका चन्द्रिका वैमागच्छति । इतस्तावदावां भित्तिगदी भवावः।
बिद् ०- कैम्भीकएाि कामणं भ पडिदर्णीआ खु चन्दिआ ।(ग) ( उभौ यथोक्तं कृरुतः । )
, रजा गौतम कयं नुते सखी मां प्रतिपाख्यति । एहि । एनां गवाक्षमाश्रेत्य विरोकयामि ।
बिदू ०-- तह । ( घ ) | ( उर्भ विलोकयन्ती स्थितौ ' । ) ( ततः प्रविश मालविका बकुलावंकिका च । )
( क ) त्वरतां भवान् । समृदरगृहे ससखीं माविकां स्यापयित्वा भव न्त प्रत्युद्रतो.ःस्मि। 9
( ख ) एतु भवान् । इदं समृद्रगृहम् । (ग) कुम्भीकः कामुरकैश्च परिहरणीया खल् चन्द्रिकां । ( घ ) तया। ं
कपाय उपलभ्यते उद्भाव्यते इत्यर्यः ) । सखी सहितां । अहो इत्यामन्त्रणे ।
( १ ) 2. ७. पि. ¶. सहीसदिदं, (२) 1}. 0. 1. बेहक. (३२) प. ०0. इरावत्याः. (9) 8. ७. पि 7. संनिरुष्मागच्छति, ( ५ ) 8.6. परि. 7. ४५ अहो, (६) ^. ०0. (*) 8.09. 7. यथास्मि. ( € ) 4. ०0. ( ९ ) 2१, विषटतः. ७६
प
( ९०७ ) ब्रु०-- सदि पणम भ्रं । जो पस्सदो पिष्दो देक्खीअदि । (क) सैजा- मन्ये प्रतिकर्ति मे दशयति । >~... माङ०--( संध ) णमो देˆ । ( द्वारमवलोक्य सविषादं । ) ह्र म विष्पलम्भेसिं । ( ख )
राजा- संवे दर्षविषादाम्यामत्रभवत्याः प्रीतोऽस्मि ।
सृ्योदये मवति या सूयोस्तमये च पुण्डरीकस्य ।
बदनेन सुबदनायास्ते समवस्थे क्षणादृढे ॥ ७॥ ~=. बङ्कु°--णं एसो चित्तगदो भन्न । (ग) | इभे--( प्रणिपत्य । ) जेदु भद्र । (घ)
|
( कं ) सि प्रणम मर्तार् ।.यो पाश्वतः पृष्ठतः दृयते | “^^ ८ (ख ) नमस्ते । सवि मां विप्रलम्भयसि । ( ग ) नन्वेष चित्रगतो भता ।
( घ ) जयतु भतौ ।
` श्योदय इत्यादि । ( ¶डरीकस्य प दमस्य सूयी मे यावस्था विकाशरूपा
सर्यीस्तमये च या संकोचरूपावस्या भवात ते विकाशसंकोचानमिके दव समवस्ये सुवदनाया मालविकाया वदनेन क्षणादूटे धुते )। सखि तदा
(१) ए. ©. ४6 86७०४७५९ ; ४ 1. ७. गृ, 169 1४ 2197 णमो दे 219) छ1{}) माटविका8 866८). (२ ) "8. ७. पष, ¶, 010, 804 169 &{9 "गमो दे | › “ राना-शङ मे प्रतिति निर्दिशति ।
(३) 8. 6. प. 7. ग. (४) ए. ©. ¶, ४११ जोपस्सदो ( 1,
४4 पिष्दो ) केक्वीअदि; 3. ७. ६. 1, मालविका--८ सहपै द्रारमवलोक्यं ) & ( ५ ) 2 1049०9००, ( ६ ) ए, ©. पि, 1१ भर
( ६०८ ))
माछ०-- हला सदा ससभमं उक्रठिआ अहं भ्िणो सूवदसभेण तह ण वितिण्हल्मि जह अज्ज विभाविदो चित्तगददंसणो भद्र । (क )
बिद ०-- मुदं भवदा । अत्तहोदी चित्ते जह दिद्रो भवं तह अदिदधो तति मन्तेदि । मुधा दाणि मञ्चुसा वरअ रअणमभण्डं जोव्वणगव्वं वहेति । ४ (ख) + राजा--सखे कुतृहल्वानपि निसगशत्शैनः खीजनः । पद्य ।
कारस्नेन निवेणेयितुं च रूप १.०५ ५०५५५. मिच्छन्ति तत्परवेस॒मागतानाम् । ५.१. \. ९५. „51... ( क ) सखि तदा समंभ्रममुत्कंठिता अहं भर्तृरूपदर्शनेन तथा नं , © वितुप्णस्मि ययाद्य, विभावितश्रित्रगतद डोनो भती ।
१ ( ख ) श्रतं भवता । अत्रभवती चित्रे यया दषो भवांस्तथाष्ट इति मन्त्रयते । मघेदानीं मनुषेव रत्नभण्डं यौवनगर्वं वहसि ।
संभरमदृष्टे भर्तरूपे यया न वितुष्णास्मि तयायापि मया भावितो धवितुष्ण दशनो भता ( सखि ससंश्रमदष्टे भर्त॑रूपे यया सतुष्णास्मि तया अद्यापि मया न विभावितो वितुष्णद हनो भता ) ॥ तत्रभवती चित्रे यया दृष्टस्त
वा दष्टो भवानिति मन्त्रयते ( तत्रभवती चित्रे यथा ४० भवान् इति मन्त्रयते ) । कात्स्नथेनेत्यादि । ( प्रियेषु ।
(१). 6. 7. तर्हिसंममेषटिदा भदट्िणो रूवस्स ण तह पितिण्डद्धि जह अज्ज म भाविदौ अवितिण्हदंसणो महा. । 1" हटा तदा समृहटटिदा भद्िणो रूवस्स ण तह वितिण्दह्ि नह अज्ज विभाविदौ वचित्तगददंसणो भटा । २० इहा तदा संमृदशेदा अहं मद्ेणो ङ्वदैसणेण तह ण वितिण्डद्वि जह अज्ज विमाविदो चित्तगदो एव्व भटा | }६. हला तदा सेभमदि भदविणो सुवै नह ण ॒वितिण्दम्दि तह अज्जवि म भावरिदो अवितिण्हदंसणो भदा. (२ ) . सुदं भवदा । अत्तहोदीए दि जह वितेण
तह दिन्नो भवं ति मन्तिदं । 13. ©. {. सुदं भवदा । ण किं अन्तहोदी तुए जह दिध तह ण विशे भवं &५, }६. सुदं भवदा । तत्तहोदी विपे जह दिने तह दिने मवं वि मन्ते
(*९ 3 न च॑ प्रियेष्वायतखोचनानां समम्रपंतानि बेखोचनानि ॥ ८॥ भारभ हला का एसा इसिप्पर्डित्तवअणां भद्िणा सिणिद्धाए दिः ए णिज्ज्ाईंआरे । ( क ) | बकु०--णं इअं प्स्सगदा इरावदी । ( ख ) भाङ०- सहि अदक्खिणो विअ भ्र मे" पडिभा्े। जो सव्व देवीजणं उन्जिअ एक्काएु मुहे बद्धल्क्खो । ( ग )
क्कु ०--( आत्मगतम् ) चित्तगदं भट्रारं परमत्यदो गेण्हि्ं अ- भणादि । होदु । करिस्सं दाव एदाए । ( प्रकाशम् । ) हर भद्िणो बह्छहा एसा । ( घ )
माङ०-- तदो कि दाणि अत्ताणं आआसे । (सासूयं परावर्तते ।) (५)
( क ) सखि कैषा ईषत्परिवृत्तवदना भ्रा जिग्धया इष्टया निध्यायते ।
( ख ) नन्वियं पाश्रगतेरावती ।
(ग ) सखि अदक्षिण इव भर्ता मे प्रतिभाति । यः सर्वं देवीजनमु- न्किवैकस्या मुखे बद्धलक््यः | ।
८ घ ) चित्रगतं भर्तारं परमायैतो गृदीतवामूयति । भवतु । क्रीडि- (५. ष्यामि तावदेतया । सखि भर्तुवहटभेषा ।
( च ) ततः किमिदानीमत्मानमायासयिष्यामि ।
---
आयतलोचनानां व्यापारितनेत्राणां स्त्रीणामिति दोषः । विल्येचनाने ततपूवं
(१). नतु; 8. ©. ननु. (२) 8. ©. `वर्तीनि; पष. 1. वृत्तीनि, (८ ३ ) परासपरिवसिदवदणेण, (४) 38. ७. 1. 19४6८१०९, ०५ >. ७०. महर, (५) 12, प्रमत्थ, (६) 3. © नि. 1. संकप्िअ, (७) फ, ^, ०, ( < ) 8, च, ©, 7, आञात्तिअ,
( ९० )
राजा-- सखे पश्य । भर भङुभिन्नतिककं स्फुरिताधरोषट , सासूयमाननामतः पारेव्तंयन्त्या । | , कान्तापराधकुपितेष्वनयः बिनेतुः ५ संर्दाशतेब रुडिताभिनयस्य रिक्ञा ॥ ९ ॥ तरिद् ०--अण॒णअसञ्जो दाणि होदि । ( क ) ` माङ०--अञ्जगोदमो एत्य एव्व तेवदि णं । ( पुनः स्वानान्तराभि मुखी भवितुमिच्छति । ) ( ख ) बकु०--( मालविकां रुद्रा ।) ण खु कुविद दाणि तुमं । (ग)
माङ०-- जई चिरं कुविदं एव्वं मं ` मण्णेति एसो पञ्चाणीअदि कोवो । ( घ)
( क ) अनुनयसज्न इदानीं भव । “^> ५. ५४८०८ ( ख ) आर्यगीतमेोश्रैव सेवते ननु । `: :; + (ग) न खल् कुपितेदार्मौ त्वम् । ^ ( घ ) यदि चिरं कुपितामेव मां मन्यसे एष पानीये कोपः ।
समागमानां स एव पूः । तैः नेत्रः पूर्वः ) समागमो येषां कतप्रयमदर्श नानां प्रियाणामित्ययंः । रूपं लावण्यं कार्त्स्येन समग्रवत्या निर्वर्णपितु द्रष्टुमिच्छन्ति सेत्सुकानि $ ५८.५७) संपूर्णव्यापारवन्ति न भवन्ती- ति शेषः । इष्टविषयद शने ओत्सुक्ये सत्यपि समग्रतया स्रियो न पडय- न्ति लज्जाशीलत्वादिति भावः । ) पार्र॑परिवृत्तवदना । चित्रगतं भर्तारं परमार्यतः संकल्प्यामृयति । श्रूभङ्केत्यादि । ( विनेतुः शिक्षकस्य इति कर्तरिषश्ठी | कान्तापराधकुषितेषु कान्तस्य योऽपराधः अन्यच्ीसेगमादिकता
( 9 ) ए. ©. विषयेप्यनया. (२). 9. 1. ¶्च्छ; | फ. स्वये पसेवरि. ( . | > + (11. ्
( ९९९) । शंना--(उपेच ) `
क कुबर्यनयने 4 त्रार्पित्त म ४४०१ ॥ क । त वि कुप्यसि कुबख्येनयने चित्रापिततवेष्टया किमेव मयं ।. ।... नन तव साक्षादयमहमनन्यसाधारणो दासः ॥ १० ॥
२-%*५ 0 1, क 9) (., ४ (न वछु०-- जेदु भद्रक) | मा०--( आत्मगतम् । ) कहं चित्तगदो भ्र मए अमसूइदो ।
( त्रीडवदनमञ्चलि करोति ।) (ख) ( राजा मदनकातयं रूपयति |) जिदू०--किं भवं उदासीनो विअ | (ग) शाजा--अविश्वसनीयत्वात्सख्यास्तव । बिद् °-- अत्तदोदीए अअ तुह अविस्सासो । ( घ )
राजा--श्रूयताम् |
( क ) जयतु भता ।
( ख ) कयं चित्रगतो भता मयासूपितः । ( ग ) किँ भवानुदासीन इव ।
(घ) अतभवत्यामयं तवाविश्वासः । ?
+ ५५८.‰. "धन स्7 "
पराधस्तत्र कुपितेषु नपुंसके भव्रे क्तः । लक्िताभिनयस्य मनोहरस्य ` कोपव्यंनकचेष्टारोषस्य कर्मणि षष्ठी । शिक्षा उपदेशो ऽनया मालविक- या॒सदरशितेव तत्र हेतुगर्भविशेषणं पूरवर्धं ) ॥/ कुप्यसीत्वादि । ( वित्रार्पितचेष्टया किं कस्मात् कुप्यसि मह्यमिति शोषः । ननु अहं साक्षा- दनन्यसाधारण एकभक्तिकः इत्यर्थः तव॒दासः ) । भवत्यामयं तवापरि-
८१ ) ए. ७. 4. कथय किमिदं मे & ५. किमेतत्भे 9 किमेव मयि, 2. 4 . किमेव मयि. (८२) ष, ( इति सप्रणयवदनं &९, ); 8. (, 11, प्रकाशं | सत्रीडवदनं. ८ ३ ) 2. ^. निरूपयति, ( ४ ) 3, ©. 1. कहं 9 अञं तुह; 2. 4. मा दाव अच्वहोदीअं तृह् & ८,
( ५५२ )
पथि नयनयोः स्थित्वा स्थितां तिरोभवति क्षणां+
त्सरति सहस्रा बाहरोभ॑ ध्यं गतापि ससी तब । ५
मनसिजचजा हिष्टस्येवं समागममायया ~^ मिब सखे विश्रब्धं “ स्यादिमां प्रति मे मनः ॥ १२ ॥
धकु०--सदि बहुसो किल भद्रा विप्पलद्धो । दाणि दीव अत्ता वि- स्ससणिज्जो करीअदु । ( क ) मार०--सहि मह उण मन्दभग्गाए् सिविणसमाअमो व भद्टिणो दुहो आसि । ( ख ) । कु०- भद्र देहि से उत्तरं । (ग ) राजा- - 4२ | उत्तरेण किमात्सैव पत्रवाणाध्रिसाक्षिकम् | ˆ ` `“ ^ तवर सख्ये मेथा दत्तो न सेव्यः सेविता रह{॥ १२॥
( क ) सलि बहुशः किल भताँ विप्रलब्धः । इदानीं तावदात्मां वि- श्वसनीयः क्रियताम् । ( ख ) सखि मम ॒पुनर्मन्दभाग्यायाः . स्वप्रसमागमोपि भरतुर्दुलभ आसीत् | {+ ६९ = ( ग ) भत देद्यस्या उत्तरम् ।
श्वासः । अस्मिन्वाक्ये काकुरनुतंघेया ॥ पथि नयनयोरित्याहि । उः क्तरूपेण बहशप्रतारणेन अविश्चासकारणाचरणादिमां मालविकां प्रति मे मनः कयं विश्रन्धं विश्वस्तं स्यादपि तु कयमपि न । प्रतारिकायाः प्रतारणा वश्यं भावेन तत्रविश्चासस्थैव युक्तत्वादिति भावः। इउत्तरेणेस्यादि ।
(१) 4, स्क, (३) 2. 4. 8.6. अबला सती. (३) 9. 3. 1. कथमपि. ( ४) पप. विक, (५) 9. ©. ध. क्र णि दाणि शव; ० दव एत्य &९.; 4 . गवअव्यं &<.; ( ६ ) 3.6. ¶ ४५५ वू. ( * ) पि, करैर,
॥ ^
>
।
( ६५३ )
कु०--अणगदीदद्ि । (क ) जिद्०-- ( परिक्रम्य । संभ्रमम् । ) बउलावक्ए एसो बालसोभः
हक्लस्स पञ्छवाईं रभि हरिणो । दि णिवारेम णं । ( ख )
, बककु०-- तद । ( इतिं प्रस्विता । ) (ग) राज्ञा--वयस्थं एवमेवास्मिनरक्षणे हितेन त्वया भवितव्यम् | ‡* ` “^ विदू ° - एवं वि गोदो संदि स्सीअदि' । ( घ ) ५ बदु ०--अस्ज गोदम अहं अप्पओआते चिद्धामि । तुमं॑दुवाररक्खंभो
होदि । (च ) विदू ज॒ज्नद। (छ)
( क ) अनुगृहीताः स्मः । । | ८ ख ) वकुलावाछिके एष वाखशोकवृक्षस्य पछ्छवानि लङ्यति हरिः ^.“}
+ णः | एहि निवारयाम एनम् ।
(ग) तथा|
( घ ) एवमपि गौतमः संदि स्यते | १. % >. १८५५५ ९५५१७५५ =? ( च ) आर्यं गौतम अहमप्रकाशे तिष्ठमि । ववं द्वाररंक्षको भव ।
( छ ) युज्यते ।
[ उत्तरेण कि उत्तरसाध्यं नास्ति । पचबाण एवाभिस्तापकत्वात् साक्षी
यत्र तद्या तया अनेनाभिसाक्षिकतेन दुरभदयत। दशिता । मया इदानीं
(१) परि. ०. (३) 8. ©. ¶. असोअपहवाह. ८ ३) 2. 4. दषिदं आअच्छदि; 8. ©. ¶. अदि ठंषिदं हच्छेदि. (४) १. 00.; 0 4. ता हि. ( ५ †,भण।४ (8 ४०१ ५16 ४० जामग्णण्् 80९९५168, ( ६ ) 4. २. ०. ( ५ ) 8. ©. प. 1. एवमम्मद्रक्षणन्षणे &०. 8. (* १]. एवमेवास्मिनक्षणीयेऽबलेनितेन &८, ( < ) >. एदं वि. (९) ‰?. 4 . १५ णे (नन् ). ( १. ).8. 8. ¶. णिदिसीअदि. ८११) पे, ४0 परिक्रम्य, ८ १३) दृवारक्खी.
9५
(१६ )
( निष्क्रान्ता बकुलावलिका । ) बिद् ०- इमं दाव फङिहत्यलं' अस्सिदो' होमि । ( इति तथा क- त्वा । ) अहो सुहष्कारिदा सिलावितेसस्स । ( इति निद्रायते । ) ( क+) ( मालतिका ससाध्वसं' तिष्ठति । ) राजा- बिसुज सुन्दारे संगमसाध्वसं, तञ चेरात्परभूति प्रणयोन्मुखे । ५५८. परिगृहाण गते सहकारतां ०५५; {.. ॥ स्वमतिमुक्तरता चरितं, मायि ॥ १३ ॥ माङ०- देवीर भएण अत्तणो वि" पिअं कादं ण पारोमि । ( ख ) राजा--अयिं न भेतव्यम् ।* माक०--( सेोपालम्भम् । ) जो ण भाएदि सो मए भद्विणीदंसणे दिषसमवत्यो भद्र । (ग)
( क ) इमं॑तावत्स्फदिकस्यलमाश्नितो भवामि । अहो सुखस्परशता शित्मविशेषस्य |
,-५.. ,.८ ( ख ) देव्या भयेनात्मनो.धपि प्रियं कतुं न पारयामि । #‰) (+ । (ग) योन बिभेति स मया भ्ठिनीदशने दष्टसमवस्यो भती
आत्मा तव सख्यै दत्तः । रहसि निर्जने ऽस्याः सेविता सेवकं एव भक्ष्या. मिन तु सेव्य इत्यथः । ] बिसूजत्यादि । [ विरात्ममुति बह काल्मवाधि तव प्रणयोन्मृखे प्रणयसमुत्सुके सहकारितां सहचारतामाम्रवक्षवन्न गते मपि त्वमतिमुक्तल्ताचर्तिं माधवीलतासादश्यं बन्धनाशेषेणेति शेषः परिगु-
(१) 1. ७. ¶. व्वन्भे, } क्लम्भम् (२) 8. 0७. 1. संतिगै. (३ ) प. । ससाध्वसा, 4. साध्वसं. ( ४ ) 1. 4. नन्. ( ^) 3. ©. ॥. दैवी भअदो. ` ( ६ ) 2४ ००. अवि. ( * ) 8. 9. ¶4. ०. ( < ) 4. ?2. १९९०४. । (१) 2. 4.०0. (१०) पि. 1. -तमत्थो ( शतामर्ष्यो), 28. 9. समाकथो; ‰. दिशे समवत्यो
3
| ( ९९५ )
। ~ # [8 गोट स्वकानां . + । 3 दाक्षण्य नाम बम्ब बैम्बिकानां कुखत्रतम् । +“ ^ 1 तन्मे दीघोल्षि ये प्राणास्ते त्वदाशानिबन्धनाः ॥ १४॥ *4 ``
तदनुगृह्यतां चिरानुरक्तोऽ यं जनः । ( इति संशेषमुपजनयति । ) ( मालविका नाटेनं परिहरति । )
राजा-( आत्मगतम् । ) रमणीयः खल़्॒नवाङ्नानां मदनविषय व्यापारः । तया हि । + 4
हस्तं कम्पवती रुणद्धि रशनाव्यापारलोखङ्गु <<. + | स्वो हस्तो नयति स्तनावरणतामािडग्यमाना बरात्। ~. | पाठु पदमलनेत्मुन्नमयतः साचीकरोत्याननं ^. «4
। ५५4 \..व्याजेनाप्वभिलषप्रणसुखे निबेतेयत्येवे मे ॥ १५॥ - ~+: ^^ ^“ “4... ( ततः प्रविशतीरावती निपुणिका च । ) ˆ“ इरा०--दञ्चे गिडणिए सच्चे तुमं परिगदत्या चन्दि भए् । समुद घर अलिन्दए सदो ए भाई अन्जगादमे दिषो ्ति। (क) र ५ कक - 0: म ^ य क ( क ) हञ्जे निपुणिके सत्यं त्वं परिगतार्था चन्द्रिकया ९। समुद्रगृहा- डिन्दे शपित एकाकयार्यगौतमे इष्ट इति । " “^^ ~°" ५ ५०५. ^ ५८4
। ` हाण । दाल्लिण्यमित्यादे । [ दे निबोष्टि । नाम संभावनायां प्रकाश्ये वा । दाक्षिण्यं सर्वदयितास्वानुकूल्यं नायकानां कुलत्रतमवरयपालन)धो नियमः । यद्यपीति शेषः तत् तयापि ये मे प्राणास्ते वदाशानिवन्धनास्तवा- काला परवशा इत्ययः । | वैबिकास्तदरेश्या राजानः ॥ हस्तमित्पादि ।
` (१) 8. ©. ¶. नायकानाम् . (२) ˆअनुरकहृदयो &८. ( ३ ) 2, -4.
अभिनयति; (उपनयति); (४) पि. ०, ( ५ ) 8. ७. पि, 1, ^ , “अवतारः
( & ) 8. &. अ. 4. कम्पयते. (५ ) 2. ©. ¶. "अगुः ; पवि. अगृरटी. । (<) 2. 1णप्लजाभ्ण्ू (९) 2. 4. चक्षुः, (१०९) 7, 4. । पह चंदिआए संदि समुद &, ( ११ ) }१. अलिदसहदो) 8, ©, 1 कालि षदो, (१२) ॥, ©, ^. ०४, (माह,
( ९९६ )
निपु०--अण्णह कहं भष्रिणीए् विण्णावोमि' । ( क )}
इरा०- तेण हि तदं एव्व गच्छामो । संसओआदो मत्त अज्जउत्त र पिअवअस्सं पुच्छिदुं अ । (ख) ,
निपु०--सावसेसं विअ भद्िणीए् वणं | (ग) ~ # / 9 इरा ०--अण्णं अं वित्तगदं अज्जउत्त पसदेदुं । (घ) निषु०--अह कहं दाणि भ्रौ एव्व ण प्पसीदीदि । ( च ) +
इरा०-- मदधे जारिसो वित्तगदो भं तारिसो एव्व अण्णसंकन्ता
अओ अज्जउत्तो । केवलं उअआरादि क्रमं पमन्निदुं अंअं आरम्भो । (छ)
( क ) अन्यथा कयं भट्टिन्यै विज्ञापयामि ।
( ख ) तेन हि तत्रैव गच्छामः । संशयान्मक्तं आरपुत्रस्य प्रियवयस्यं
“ „* "क्छ
ष्टं च | ५५० १ 6५१. .४५द, =
( ग ) सुवोषमिव महिनया कचनम् । <^
(ष ) अन्यच्च चित्रगतमार्यपुत् प्रसादयितुम् | ¢ ५ । न ( च ) अय कयमिदानीभरतँव न प्रसायते । ' “~ ५ (८५५५५
( छ ) मुग्धे यादशश्वित्रगतो ननु तादश ॒एवान्यसंकरान्तहदय आर्य पुत्रः । केवलमुपचारातिक्रमं प्रमाजितुमयमारम्भः॥ ण ५४,
(44 ~~ [1 च 22: १.१
[ रशनाव्यापार्ेला गु रशनायां व्यापारे तदूग्नन्यिमोचनरूपचेष्टाां
“-( १ ) 2० किं अण्णहा, 4. कि अली; (२). 89.17. किण्णाषीअदि, ^ . विण्णधिदं. ( ३ ) 2० 4. णिमृं. ( ४ ) 8 ©. प. 4. ०. ( ५ ) 2. 4. ६५1७ अ 1४8. ( ६ ) 20 भटर, ( = ) ‰, ०४. भहा, 3. ७. ¶. णु भटा एव अगु" & ( < ) ए. 9. 4. अणुणीभदि) २. ^, किण ( ^, ०४) ग ) प्णुणीअंदि, ( १ ) 9. 9, 1, 4. ‰, 9८४, ( १० ) 2, &^ जद्लाण
= र ~ (1 = ४
(. ६५७.)
निथ॒०--इदो ददो भ्धिणी । (क )
ऋ ( उभे परिक्रामतः । )
क ` ( भरविह्य )
चेटी- जेदु मद्िणी | देवी भणादि । णै मे एसो मच्छरस्स काश । तुह वैखु बहुमाणं ददु वअस्सिआए सह णिअलबन्धणे किंदा माखवि आ । जइ अणमण्णेमि अज्जउत्त वि त॒हकिंदे विण्णावहस्सं । जं तुह इच्छिदं तं मे भणादि त्ति (ख)
इरा०--णाअरिए विण्णवेहि देवि" । का वअं मर्रिण णिओजेदुं । परिअण्णिंभलणेण द॑सिदो मइ अणग्गहो । कस्स वा अण्णस्पं पसदेण अअं जणो वडदि त्ति । (ग )
चेटि-- तह । ( हति निष्क्रान्ता । ) ( घ )
( क ) इत इतो भष्टिनी | ॥..
( ख ) जयतु भिनी | देवी भणति । न म एषः मत्सरस्य कालः । तव खलु बहुमानं वर्धयितुं वयस्यया सह निगडबन्धने कृता मारिका । यद्य नुमन्यस आरयपत्रमपि, त्व कते विज्ञापयिष्यामि । यत्तवेष्टं तन्मे भणेति । ८ ^~.
८ ग ) नागरिके विज्ञापय देवीम् । का वर्यं भट्टिनी नियोजयितुम् | परिज- \. ` ननिगडनेन दर्दितो मय्यनुग्रहः । कस्य वान्यस्य प्रदे नायं जनौ वधेत दते। `
( घ) तथा।
समुत्सुकतेन व्यग्रागलीर्यस्य तं हस्तं रुणद्धि रों गृह्णाति । बलाद्धठेनाछि-
(१ ) 2, 4. ०7. 006 इदो. ( २ ) ‰. ^ . इति. (३) 8. ©. 4. णमे एसो मस्सरस्स कालो तव बहमाणं वहेद् &; प. मस्सरस्स एसो &८, (४) `. तेण, (५ ) ए, ७. ¶, 4. 720, ०0. ( £ ) 2, 2० भज्जउत्तस्स पिअं कादं तह करेमि. ८ * ) 8, ७, 1. ००1६ {© 86४४९९९, (<) 2. जपे ने. ( ९ ) 2०. 4. मर्ण, (५ <) ?. 4. णिग्गहेण, (११) 2. ७. १. ¶ ५४, ( ३२ ) 2५, &, ४44 भणादि
7
(८)
निपु° --( परिक्रम्यावलोक्य च | ) भरणि एसो द्वारदे से' समदधर अरस विपणिगदो विअ बलीवदो' अज्जगेोदमो आसीणो एव्व गिदाआरि `. ८.) इरा ०--अच्चाहिदं * । ण क्खु सावसेतषविसविआरो भवे" । ( ख ) निपु०- -पसण्णमृहवण्णोः दीसइ । अवि अ धुवसिद्धिणा विइच्छि दो। ता से असङ्णिज्जं पाव ( ग ) विदू ०--( उत्सवप्नायते ) भोदि माखविए् । ( घ ) पु०-- सुदं भट्िणीए । कस्स एसो अत्तणिओअसंपादणे विस्स साणिज्जो हदासो । सव्वकालं इदो एव्व सेोत्थिवाअणमोदणएाहं कुच्छि पुरि संपदं मालवं सिबिणविदि । ( च ) 1 =
(क ) भध्रिने एष द्वारदेशे समद्रगहस्य विपरणिगत इव बलीवर्द आर्य गौतम आपीन एव निद्रायते ५१.५.९८,८ ८८८०4
( ख ) अत्याहितम् । ने सावजोषविषविकारो भवेत् ।
( ग ) प्रसन्नम् खव्णौ इश्यते । अपिच धरवसिद्धिना चिकिसितः। तदस्याशङ्नीयं पापम् | ^ =^ = + >> ¶
( घ ) भवति माचपरिके । ॥ ५.१
( च ) श्रुतं भद्िन्या । कस्यैष आत्मनियोगसंपादने विश्वसनीयो हताशः । सवैकालमित एव स्वस्तिवाचनमोदकैः कुलि पूरयित्वा सप्रतं माल्विकां स्वभायते । ` “ ˆ
ग्यमाना स्वी हस्तौ स्तनावरणतां स्तनावरकलत्वं नयति । पक्ष्मखनेत्रमाननं
( १ ) 2. ७. 4. दवारे, ‰* ?. दृषारोच्छले , 2१, द्वार्देते, ( २ ) 8. (३. 1. ^. वंसो; ४१५ ^. ?. ४१५ विस्सद्धो. (३) 23.09.17. कि णु ख॒ अचाहिदं | सावसेषो विअ विस & ०, (४) १, साषसेसो &८. (५ ) विसो & 12० विसवेओ. ८ ६ ) ^. ?. परसण्णमृहो. ( « ) 7?) अत्तेणीणो ह्दासो । सन्वकालं &८. ० ^, अत्तणीणो अन्मषहारसेवादपिक्वी. ८ ^ ५१५8 कितवो ) इासो ओदरिओ हदो. ८ 2० ससक्रारं ) ( ग सन्वकालं ) &५. ¶ 13. (७. अत्तणीणो. ( 1. १११ एस कितवो ) अन्भवहारि भ ( 98. ©. ४५वं दावे अ ) किदन्धो ( 9. 6, ४५५ सक्रामो ) इदो &५,
त
(९ )
जिद ° इरावदिं अदिक्रमन्दी होहि । ( क )
निषु °-- सुदं' अच्वाहिदं । इम मुअङ्भीरुअं बेह्मबन्धुं इमिणा भुअङ्कुडिङेण रद॑ण्डकदरेण तम्भन्दरिदा भाअईस्सं । ( ख )
इरा०-अरुहदि एव्वं किदग्धो उवदवस्स । ( ग ) ( निपुणिका विदूषकस्योपरि दण्डकाष्ठं पातयति । )
बिद ०-- ८ सहसा प्रबुद्ध । ) अविहा अविहा । भो दव्वीकरो मे उवरि पडिदो । ( घ )
राजा--( सहसोपसुत्य । ) सरे न भेतव्यं न भेतव्यम् ।
9
( क ) इरावतीमतिक्रामन्ती भव ।
( ख ) श्रुतमत्याहितम् । इमं भुजंगभीरुकं बह्मबन्धुमनेन भुजंगकु टिकेन दण्डकष्टेन स्तम्भान्तरिता भीषयिष्यामि | ~... (1. 3 ॥
( ग ) अर्हत्येव कृतंन्न उपद्रवस्य ।
( घ ) अविधा अव्रिधा । भो दर्वीकिरो म उपरि पतितः। 1 `
पातं चंबपितमन्नमयत उत्तोख्यतो साचीकरोति वक्रं स्थापयति । अतो व्यानेन छलेन ममामित्मषपूरणसुखं अभिलाषस्य पूरणेन यत्सृखं तन्नि वर्तयति निष्पादयत्येव ॥ ) हञ्जे निपुणिके सत्यं लवं परिगतां चंद्रिका याम् | अत्याहितं नाम जीवानपेक्षि कमं | अत्याहितं महाभीतिः कमं जीवान पक्षि च ' इत्यमरा्िहः । अत्र दोषोद्वाटनादपवादो नाम ॒संध्यद्मुक्तं भ वति । अत्रैव रोषभाषणात्सफेटोनाम सेध्यङ्मुक्तं भवति । दण्डकाष्ठेन स्तम्भान्तरिता भीषपिष्यामि । ' उवदवस्स ' इत्यत्र क्रचित् असादेः इति ` प्राकृते कर्मणि षष्ठी । अवत अवत । अब्रदरेजनादुक्तिनाम सेध्यङुमुक्तं भ-
(१) 8.6७... 2. वं. (२) ए. 6.1. 2. 6. 000. (3) 98. 6. 7. ५५५ अत्तणो, ( 9 ) 8. 0. ¶. ०, & . किल. (५ ) 29 4. किंदवो. ( ६ ) #. ©. ¶. 90. ४०५ म, ४44 बस्स. (५ ) पि. पष्य, ( < ) 8. 6. 1, ०,
( ६२० )
माल०--( अनुवृत्य |) भद्ध मा दात्र सहसा गिद्ध | सप्यौ त्ति भणीभदिं । ( क ) इरा ०-- हद्धि हद्धि । भद्रा इदो एव्व धावदि । (ख ) `` ५) --( सप्रहासम् । ) कहं दण्डकं एदं । अहं उण जाणे जं दसं करिअ सप्पस्सं विअ दंसो किदो तं मे फलदं ततिं । ( ग ) ( प्रविर्य पटाक्षेपेण । ) धकुला०“ मा दावै भद्रा पविसदुँ । इर्ह कुडिलगई सप्पो विअ दीसदी । ( ष ) इरा०-- ८ रोजानमुपसुं । ) अकि" णिविग्घमणोरहो दिवासंकेदो मिहुणस्स । ( च )
( क ) भर्तः मा तावत्सहसा निष्क्राम । सर्पं इति भण्यते ।
(ख) हाधिक् हा धिक् । भरता इत एव धावति ।
( ग ) कयं दण्डकाषठमेतत् । अहं पुनज यन्मया केतकीकण्ट , कैदं कृत्वा सर्पस्येव दंशः कृतस्तन्मे फलितमिति । ८८ “ "^ " ^“ (घ) मा तावद्भर्त प्रविशत । इह कुटिगतिः सर्पं इव इयते ।
( च ) अपि निर्विरमनोरयो दिवासंकेतो मियुनस्य । ~
वि, ण व भ "० चक
वति । भैः मा तावत्सहसोपसर्पं । प्रसीदतु भष्िनी । कि नु खल् दर्दुर
(१) 8. ©. ¶. गिक्मिस्सति ( 7. 988० 1१७70 ४८११९ णिक्कमद् भ्रा ). (२) 8. 6.4. 4. 2. मणोदि, (३) 2० 4. ०. कंसं कर्थ; प. सप्यस्त उवरि अअसो किदं; 23. 0. 1. सम्यस्स ( 1. १1४७१५१8 सप्यदंसो ) अअसो किदं, ( 9) पि, ००, ( ५ ) 1, 4. 44 ससंभ्रमम्, (६) 8, 6.1. वृ. (५) 9. 4. कहि स्प्यो । माश्ख प्रकिसि, (मा कु मा क्खु महरा विसि अ. ( <) पष. ०७. ( ६ ) पि, स्तेभतिरिता सजानमु- वेत्य ; ( १० ) 83. ७. ¶. ५५५ सहसा ४९१ रानानम् . ( ११) 2५ „4. अवि तिष्दा मणोरहा दिषा सकेदमिहूणस्स. ।
4 ^ अ 4
| ¢) रिती ५ इद (१९ ) । ,४८ ^ ऋ) ६९८7८ ` | ८ सरवे इरावतीं षट संभ्रान्ताः । ) ५.2 राजा-प्रिये अपूरवोऽयमुपचारः । ~+. (|-.4.1५.6.¡:~
इशा ०--बउत्प्रवलिए दिद्टिमा दुच्चाहिआरविसओ संपुण्णा दे प्रण्णा | ( क )
बकु ०--परसीददु भट्टिणी । किं मए किदं त्ति देवो पुच्छिदव्वो । दुरा वाहरन्ति त्ति किं देव्यो पुटविं वरिसिदुं सुमरि । ( ख )
बिद्०--मा दाव | होदरं दंसणमेत्ेण अत्तभवं पणिपादलङ्कणं विसुमरिदो । होदी उण अज्ज वर पसादं ण गेहदि । ( ग )
इरा ०- कृविदा वि" दाणि “किं करिस्सं | ( घ )
राजा-- अस्थाने कोप इत्यनपपन्नं त्यि । तथा हि ।
। + द६-१५ ~< , >) को = ¬ र य यः म म अ 9 प नि ० +
~
(क ) बकुलमवकिके दिष्टया दुत्याधिकारविषया सेपू णौ ते प्रतिज्ञा ।
(ख ) प्रसीदतु भद्विनी | किं मया कृतमिति देवः प्रष्टव्यः । दर्दुरा व्या- हरन्तीति किं देवो पुथिवीं वर्षितुं स्मरति । ।“
[7 ए ¢. (५) (=,
(ग) मा तावत् । भवत्या दशेनमत्रेणात्रभवान्प्रणिपातलङनं वि. स्मरतः । भवती पुनरदयापि प्रसादं न गृण्ाति | <› ¬~ ~, 4 ` ( घ ) कुपितापीदानीं किं करिष्यामि । 4
व्याहरन्त्यक्रोशन्तीति पृथिव्यां देवो वर्धितुं विरमति ( दुदरा व्याहरन्तीति किं देवः पृथिवीं वर्धितुं स्मरति | भेकशद्भश्रवणेनैव किमिद्रो वषैणाय प्रवर्तते अपि तु नैव । यदा तस्थेच्छा तदैव वातै । अतः देवेच्छैवात्रकार
(१ ) 20, 4. ००. (२) 2. दि. ०. ५06 86०४७०९९, ( ३) कणु खु दुरा वाहरन्ति चि देवीए पुटवीए वरिमिदं षिरमाटि, 2. कि द्रा वाहरम्तिति /,.¡ देवो पुटि विसुमरेदि; 4, ०1, 16 8९।१८७१५९. ट ४ ) . 2०. ^. अत्तहो -दीए. ( ५ ) 23. 0. च. 1, 29. 4. तुम... गेण्डेदि, ( ६ ) १. ०, (७ ) २५ 4. ४५५ अह, 4 ग,
(वीर् / कदा मुखं बरतनु कारणाहृते तवागते क्षणमपि कोपपात्रताम् । ¦ ^. ५. 1.4, अपर्वणि ब्रहकलुयेन्दु मण्डला `” विभावरी कथय कथं भविष्यति ॥ १६॥ इरा ° -- अङ्के ति सुदं वारिदं ' अज्जउत्तेण । अण्णसंकन्तेसु अह्माणं भाअहेएु सु जदि उण कृष्पेअं" तदो हस्सा भवें* । ( क ) राजा-- लमन्यया कल्पयसि । अहं पुनः सत्यमेव कोपस्यानं न पड्यामि । कुतः" । ॥ नाहाति छतापराधो प्युत्सबादिव सेषु परिजनो बन्धमरं । इति मोचित मयेते प्रणिपतितु मामुपगतते च ॥ १५७॥*
( क ) अस्यान इति सृष्ट व्याह तमायपुत्रेण । अन्यसकान्तष्वस्माकं भागयेयेषु यदि पुन॒ः कु्येयं ततो हास्या भवेयम् । ` = ` {६६ {
णं कि मम प्रतिज्ञयेतिभावः ) । कदेति । ( हे वरतनु तव मृखं कारणादते अपराधारिरूपं हेतु विना कोपपात्रतां कोपभागितां क्षणमपि कदागतं । अपि तु अपराधं दषरैव कुप्यसि नान्यया कदापीव्यर्यः । कारणाभवे कोप स्यानुवितत्वं इष्टान्तेन दटयति । अपर्वणि पूर्णिमाप्रतिपत्सधिकालभिन्न विभावरी रात्रिगरहकल्षेन्दु भइल कदा भवति । अपि तु नैव । तथा च कोपकारणं विना इदं कथं भवति तत्कयवेत्यर्थः) । नाईैतीस्यादि । ( #- तापराधो.धपि परिजन उत्सवदिवसेषु बन्धनं नार्दति संय॑तु योग्यो न भवति इति हेतोर्मया मालविकाबकुलावाछके बन्धनान्मोचिते । ते च
नमस्कतुं मामुपगते नान्यकारणादिति वाक्यशेषः|) भो अनर्थः सपतितः ।
(१ ) २. 4. भणिदं, 8. ©. 1. अवधारिं. ( २) 8. 6.1. ग अहै. ८ ३) कृषिस्सं 904 भविस्तं. (४) प, ०. (५) 4. पि. दण्डमः 4. बन्ब्दम्. ( ६ ) सभाजयपित्. ( « ) ४04 विद्षकः -दयाह् खु एतो भीश्ओो अ.
९ ‰२३) इरा०- णिडणिए गच्छं । देवि विण्णवेहि । दि भवदीए् पक्ख- वादो णं अज्ज त्ति । (क ) निपु०-- तह । ( हति निष्क्रान्ता । ) ( ख ) बिदू०-- ८ आत्मगतम् । * ) अहो अणत्यो संपडिदो । बन्धव्भ- रे गिहकवोदोः चि्ठाए“ मृहे पडिदो । ( ग ) ( प्रविर्य ) निपु०-- ८ अपायं । ) भरिण जदि च्छादिाए माहविआए आच क्खिदं । एव्वं ख एदं णिव्वृत्तं त्ति । ( इति कण कथयति । ) ( घ ) इरा०--( आत्मगतम् । ) उववण्णं एव्वं । बैंदयबन्धुणा किदो अअं ` पओ । ( विदूषकं विल्येक्य प्रकाशम् । ) इअं इमस्स काम-
८ क ) निपुणिके गच्छ । देवीं विज्ञाप्य । दष्टो भवत्याः पक्षपातो
नन्वयेति । ^+“ ०.0. 19. नः (ख ) तथा । । ( ग ) अहो अनर्थः सपतितः । बन्धभ्रष्टो गृहकपोतो चि्ठाया भखे पतितः । ।
( घ ) भद्िनि यटच्छादृष्टया माधविकयाख्यातम् । एवं खल्वेतन्निं त्तमिति | | ५4. {< +^
बन्धश्रष्टो गृहकपोतः पारावतो बिडालिकाया आलोके पतितः ( बिडालिक-
(९) 8. ©. †‰. गच्छि; 2०. & . ०. (२) 2. 4. दद्र मवदीए प्रक्खवां दित्तण अज्ज तति; ए. ©. ¶, एक 16016 प्रक्खवादो ५१ अवदहिदं ( अवधृतं ) मे हिअअ 0९016 अन्जत्ति; दिदपक्खपादं अवगदं दे हिअअं त्ति. (३) स्वगत म्. -( १) 2, भोः, (५) 23. ७.2. 7. 20 बन्धणन्मद्रौ, (६) ए. ©, 1. गेहकवोदओ. ( « ). 8. 6. पि. 1, बिडालिआाए. ` (< ) 4, मंदारलताटस्नो विअ कवोदो चिठा मुहे एडिदो. ८ ९ ) £. ० त्ति; 8. ©. ¶. णिमित्तम्. (१९) 8. 9. (. सत्वं जेव्व; ४० 4. }. 0०. (११) फ. ४१५ स्वं अअं एत्थ &14 00, अअं $ किदो, ( १२) उन्भिण्णो ८१३ ) प, भप,
५.8,
( \९४ ) तन्तसचिवस्स णीदी । (क )
बिद् ०--होदि जदि णीदिणं एक्तं वि अक्खरं पदेअं तदो भाथत्ति वि विसभरेअं । (ख )
राज्ञा--( आत्मगतं । ) कयं नु खल्वेस्मात्सकटादात्मानं मो्धामि | ( प्रविद्यै )
जय ०--( सवेगम् ) देव कुमारी वसुलच्छी कन्दु अं अणुधाबरन्दी पिङ्ल्वाणरेण बलिअं तातिदां अङ्णिसण्णों देवीए पवादकिसल्यं विअ वेवमाणा णं किं विं पकिदिं पडिवज्जई । ( ग ) |
( क ) उपपन्नमेव । ब्रह्मबन्धुना कृतोऽयं प्रयोगः । इयमस्य कामत
न्त्रसचिवस्य नीः । ९०.८.०2 ४) ( ख ) भवति यदि नीतेरेकमप्यक्षरं पठेयम् तदा गायत्रीमापि विस्मरयेम् |... : (+ ^“ ३ १६.१.५५.
८ ग ) देव कुमारी वसुलक्ष्मीः कन्दु कमनुधावन्ती पिङ्कलवानरेण बल- ¬ वत्त्रूतिताङ्निषण्णा देव्याः, प्रवातकिंसख्यामिव वेपमाना न किचित्परकृतिं प्रतिपदयते ।
या आलोकितः ) । भवति यदि नीतिगतमेकमप्यक्षरं पठेयम् ( भवति यदि नीतौ एकमपि अक्षरं पठितं ) तदात्मानं गोहत्या प्रापितोभवेयम् । परि त्रातस्त्वया स्वपक्षः अहमिति शेषः । अत्र देव्यनुग्रहरूपकार्यसंग्रहणादादानं नाम सेष्यङ्कमृक्तं भवति । इदं मालविकाक्तमदयानपक्िकानुसरणमुत्तराङ्ो
( १ ) प, णीदिगदं, ( २) }प. णे मए अत्तमवे पेतिदो हषे । 1. ण मए अत्त- मवं संसिदो भवे ( न मया..संभितौ &५. ). ( ३ ) 8. ७, संसिदो ( संशितः ) ( ४ ) 1. अपवार्य; स्वगतम्. ( ५ ) 2. 4. 0, ( ६ ) प. मोचपिष्यामि, ए. ७. ¶. ००. आत्मानं ४५१ ५७५५ मोच्यावरैः मोचयामहे. ( +) ¶. ०५५ सावेगं जयतेना &114 0101४ सावेगं ७९)०७; 3. ७. सकेगा, (< ) भणगुहोन्ती. ( १.) .. 4. उत्तातिगः, 3..09. 1, विततापिका. (१० ) अके &, ( 11 ) 2०, पवाद्चढ*. (१२) 2० &., दाणि ति 9 . यकि,
1/0
( ९२५. )
राजा-- कटम् । कातरो बार्भावः।
। इरा० --( सवेगम् । ) तुवरदु अज्जउत्तो णं समास्सासइदुं । मा
से सेतसिजणिदो व्रिआरो वड्दु । (क ) ।
शाजा- अ्जयमेनां सज्ञापयामिं । ( इति सत्वरं परिक्रामति । )
विदू °-- साहु रे पिङ्ल्वाणर साहु । परित्तादो तुए सपक्खो। (ख)
( निष्करान्यौ राज विदू पकश्च । इरावती निपुणिका प्रतीहारी च । )
माङ०-दल देवि चित्तिं केवदि मे हिअअं । ण जणे अदो
' व्रं किं वा अण॒इवरिदव्वं हुविरसदि त्ति । ( ग )
। ( नेपथ्ये )
` अच्वरिअं अद्रिअं । अपुण्णे एव्व पञ्नरत्ते दोहलस्स म॒उलेहि सेण- दधो तवणीओआसोओ । जाव देवीए ण्विदेमि । ( घ-)
1
| | - 1. "| ५" षाक श्र षः ^ (क) त्वरतामायंपुत्र एनां समाश्वासयितुम् । मास्याः सत्रासजनितो विकारो व॒र्धताम् । 9
(ख) साधु रे पिङ्ल्वानर साधु । परित्रातस्त्वया स्वपक्षः ।
। (ग) सखि देवीं चिन्तयित्वा वेपते मे हदयम् । न जाने ऽतः परं
कि बानुभवितव्यं भविष्यतीति । {. क स ५५५ ( घ ) आश्वर्यमाश्चरयम् । अपूणं एव पञ्चरात्रे दोहदस्य, मुकुर
"न क
सेनद्धस्तपनीयाशोकः । यावदेव्ये निवेद यामि ।
| । पयुक्तताद्रिनदुसत्यनुसंधेयम् (- [अ श्रीकाटयवेमभपविरचिते [9 पयुक्तववाद्विनदुसि्यनुसंधेयम् ॥ इति म् कुमारगिरिरा-
॥ (१) 8. ७. "9५५४. (२) 23. ©. 4. 4. 2० साव. (२) 2... " .6, अहं. ( ४ ). 120. & , निन्करान्तो वयस्येन राजा 40; ४ निक्रान्तः हक्यस्यो ॥ गाना & (+) 8. ७, ¶. ०.. (६) 4. वितअंदीए, («) 8. ७. ¶. किः " अदो &&, ४४4 ०, वरं वा; 2. ^, ०, वा, (<€ ) 8. ७. 1. भण.
( ९२६ )
( उभ श्रुत्वा प्रहष्ट' । ) बकुला ०-- अस्ससदु सदी । सच्चप्पइण्णा देवी । ( क } माङ०-- तेण हिं पमदवणपालिआए पिडदो होमं । ( ख ) बकुला०-- तह । (ग) ( इतत निष्क्रान्ते । )* इति चतुर्थो ऽङ्ः ।
(क ) आश्वितु सखी । सत्यप्रतिज्ञा देवी । (ख) तेन हि प्रमदवनपाल्कायाः पृष्ठतो भवावः। (ग) तथा। १
जीये मालविकश्निमित्रव्याख्याने चतुः ।
7- ५ > 0, ५ (न नौ: ~ 1 (भ +~
( १ ) 2४. ६५१. मवतः (२) ए. पिअसही, (३) 29. ००. 8. ७.7, (४) 8.9. पि. 1. हेभि, (५). 9. ¶. ( इति निष्कान्तः स्वे ); ८५, इति निष्कान्ता
( ५२९७ )
पञ्चमो ऽङ्: । ( ततः प्रविशत्युयानपाल्िका । )
इद्यान ०--उवक्खित्तो मए किद सक्नारविहिणो' तवणीआसोअस्स वेदि.
आबन्धो । जाव अण्द्िदणिओअं अत्ताणं देवीए णिवेदेमि । ( परिक्रम्य |) अहो देव्वस्स अणकम्पणीआ मालेआ । तस्सि तह चण्डि देवी | इमिणा असोभकुसुमवृत्तन्तेण पसादर्सुमुदी भविस्सदि । कर्दि ण खु हुव देवीं । ( विलोक्य । ) अद्यो एसो देवी परिथणन्भन्तरो किवि जदुमु । दालज्छिदं चीर्म्जसं करे गेह्विअ चंउस्साल्दो कुञ्जो सारसओ णिक्रम- दि । पुच्छिसं दाव णं । (क) । ( ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः कञ्जः । ) उथान ०--( उपसंत्य । ) सारसअ करहि पत्थिदोसि । (ख )
(क) उपक्षिप्तो मया कृतसत्कारविधेस्तपनीयारोकस्य वेदिकाब- ` ` ¦ ` न्धः । यावदनुष्ठितनियोगमात्मानं देव्यै निवेदयामि । अहो दैवस्यानुकम्पनी- ` + या मालविका । तस्यां तथा चण्डिका देव्यनेनाशोककृसमवत्तान्तेन प्रसाद- ^ . समखी भविष्यति । कूत्र न॒ खल भवेदेवी । अहो एष देव्याः परिजनाम्य- ~ ॥ नतरः कामपि जतुमृद्रा्न्छितां चीरमञ्चषां कुर, गृहीत्वा चतुःशालतः , च | कुम्जः सारसको निष्क्रामति । प्रक्ष्यामि तावदेनम् । थ
(ख) सारसक कृत्र प्रस्ितोऽि।
आ * -
कविरिदानीमङ्न्तरमारभमाणः कथासंघटनार्थ प्रयमे प्रवेशकं नामा- यपक्ेपकं प्रस्तौति -ततः प्रिरातत्यादि । उपक्िसो मया कतस-
' (१) 8.9.14 सक्कारविरहिणा (२) 4. 2०. भित्ति; ४.७. ¶ भिषिवेदिआ. (३) 1.9 हरिसदोहदवुत्तणेण; ^, कुसुमन्थवएण ८ ४ ) 3. ७* 1. ०1. सु; &. २०. प्रसादाहिमृही, ( ५ ) प, 1०४७16]0904९. ॥ ॥ (६) 4. २०. णप, (७) देवीपरिजण &०. (< ) 8, ७. प. १ 0. (१ ) ए. ७. 2. 4. चतुस्ताठादो कुञ्जो ( पि. सारसकौ ) णिकमदि १ ( १९ ) कवि. भा, {16 0४६९४ धत 168 ५6 जामरकण 8५५० 81008 फा ५16 2००५९
“4 । क ॥
( ९९१८ )
सारसकः- मह अर्पि विव्जापारअणं अणुचिद्रन्तागं बह्मणाणं इयं णिच्चदक्रिलिणा मसिओआ। दादन्यरा। तां अज्ज पुरोदिद स्य इत्यं पाविदुं । (ग)
इदान ०--- किं णिमित्तं ( क )
सार ०- जदप्पहुदि स॒दं' सेणावडर्णौ जण्णतुरगरक्खणे णिउत्तो भद्िदारओ वसमित्तो त्ति तदप्पहरि तस्स आउसो णिमित्तं अद्रौदसस॒व- ण्णपरिमाणं दक्खिणं देवी दक्रिवणीरहिं पडिग्गाहेदि ।* ( ख )
--भह कां देवी । किं वा अणुविद्धरि । ( ग )
सार०--मङ्ुलघरे आसणत्या भविअ विदव्भविखओआदो भादुणा
वीरसेणेण पेसिदं ल्मििअरेहि' बाचीअमाणं रह सुणदि । ( घ )
( ग ) मधुकरिके विद्यापारायगमनुतिष्ठतां ब्राह्मणानामियं नित्यदलि-
^५^..णा 3 4 दातव्या । तामार्यपुरेितस्य हस्त प्रापपितुम् 1
(क) किं निमित्तम् | ` ( ख ) यदाप्रभृति श्रुतं सेनापतिना यज्ञतुरगरक्षणे नियुक्तो भर्वृदारको
„ सुमित्र इति तदप्रभृति तस्यायुषो निमित्तं अष्टाद दत्षि णां देवी दक्षिणीधैः परिग्राहयति । “* ^ “^~ स ४४७४७६९
(ग) अय कुत्र देवी । किं वानुतिष्टति । ( घ ) मङ्लगृहे आपनस्वा भूत्वा वरिदर्भविषयद् श्रता वीरसेनेन प्रेषितं
८.५५ लिपिकारिवच्यमानं ठेखं श्रुणोति ।
त्कारविधिस्तपनीयाशोकस्य वेदिकाबन्धः । तस्यां तथा चण्डीकृतां देव्य.
( १ ) महूअरिए विज्जापारगामीणं बह्मणाणं इमाणि दक््िणा णिक्काणि । तां पुरोहिदस्स हत्यं पादु । 120. महअरिए विज्जाप्रारआणं...हमा &^, 8. 0. 1. महुअरिए विज्जाचरिओाणं इमे..मासि ( 8. ७. अ ) अज्ज .पाव्डस्सं.. ६. मह् अरि९ विज्जामरिओआणं बह्मणाणं गि्चदश्खविणा माडिआ पूरोहिदस्स हत्य पावदस्सं. (३) 8.6.14. १५५ अह. (३) 24, ०५०, सदै. (१) प. सेणावर्वा 8, ७. 7. ०19. वसुमित्तो, ( ५ ) १. आउसणिभित्तं, 8. 6. 1. आउस- व्यं, ( ६ ) प. गिक; ए. ७, ¶. अटरसद, (५) 8. 6. 1. दक्विणा शरं परिणा होदि. [07 दक्विणां &९, ( < ) 7. & , १५५ नुज्ज, ४१4 ०, | किंवा &९, ( ९ ) 27. लिकिथिरीहि )१. लेहकरोहं ४०५ ४५।७ लेहं ४क09 (018. ( १ ° ) कैखपत्तं
ण तक
^
~र ` (५ (2 ६/९ ( ^ {५,. तकर). 1 उदान ०--को उण विदन्मराअवुत्तन्तो” । ( क )
सार०--वसीकिदो किल वीरतेणप्पमहेोदे भ्रिणो विजअदण्डेर्हिः विदन्भणादो । मोहदो आँ से दाआदो माहवसेणो । ददो अ तेण महासारा-
: णि रअणवादणाणि सिप्परिमि इदं परिअणं अं उवाअणीकरिअ भट्टिणो
संओआसं पेषिदो रैवो किक भ ्रारं दक्रिखस्सदि त्ति (ख)
उदयान ०-- च्छ । अणचिटर अत्तणो णिओअं । अहं वि देविं पे. क्खिस्सं । (ग )
( इति निष्क्रान्तौ । ) `प्रवेशकः
( क ) कः पुनर्वद भराजवुत्तान्तः । व 3 ५
( ख ) वीकृतः किल धीरतेनयमुर्भरविनयदण्डे्िर्मनायः । मो- „. चितश्वास्य दायादो माधवसेनः । दूतश्च तेन महासाराणि रलनवाहनानि -*
शिल्पकारिकामूपिष्ठं प्रजनं चोपायनीकत्य भतुंः सकाशं प्रेषितः श्वः किल भतौरं पश्यतीति । " ` ~ «1:
( ग ) गच्छ । अनुतिष्ठ आत्मानो नियोगम् । अहमपि देवीं परक्िष्ये ।
नेनाशोककुस॒मवृन्तान्तेन प्रसादसुमुखी भविष्यति । कुत्र खल देवी भवेत् । अहो एष खल् देव्याः परिजनाभ्यन्तरः किमपि जतुमृद्राखाज्छितां मञ्घां गृहीत्वा चतुःशाखतः कुञ्जः सारसको निष्करामातै । मधुकरिके
बिद्यापारायणमनुतिष्ठतां ब्राह्मणानां नित्यदक्षिणानिष्काणि । आर्यपुरोहित-
स्य हस्त एव वितरीतुम् । यदाप्रभति श्रुतं सेनापतिना यक्ञतुरंगरक्षणे
न् अ 6 व
(१) 8. ©. प. 7. २५ सुणीअदि, (२) 8. ७, 4. वकि. ८३) ए. ७. 4. किल, (४) पि. रभणाणि &५ ( ५) ९२० &. 8. ७. ¶. दारिका, (६) ए. ७. पष, 7. ०५. अ, (७) पिर ०. {06 8९४६९१०८ सुवो &०© 8१५ ६१॥६6 1981. ति 1616; 8. ©. 1, ०फ. [१७८ चि, (< ) त. अहं वि देवीर सओआसं गच्छद्धि । तुमं वि अणो णिओओ अणुचिदर | ( ९ ) ३. ४५५ इति,
९6
=
( ६३० )
८ ततः प्रविशति प्रतीहारी । ) `
प्रती ° ---आणन्तद्यि असोअसक्कारवावृदाएं देवीए । विण्णवेहि
अग्जउत्तंः । इछि अज्जउत्तेण सह असोभरुकलस्म॑पसूणस्मच्छि
पचक्खीकदु त्ति । तौ जव धम्मासणगदं देवं पडिवालेमि । ( इति परिक्रामति । ) ( कं )
( नेपथ्ये वैतालिकाः )..-.“.., तिरः ह
१,१५५५.८..९-० - अरथमः--दिष्टबा दण्डेरेव रिपुशिरसु वर्तते देवः । +.{~
+ ५ > परभूतकरब्याहाः घु स्वमात्तरतिपधुं ++ मन नयाति सिदिशधातीरीया^ष्वनेड्ः इबाङ्वान् | ^...
~ ६५५.) विनयकरिणामालानाई सुपोढबलस्य ते ~ =~&+ ` _\ : बरद बरदाराधावृक्णः सह वनता पपुः ॥ १५. वरदाराधावरृक्षः सतबनता रिपुः॥१॥ .
( क ) आङपासम्यशोकसत्कारव्यीपतया देव्या । विज्ञापयार्पुत्रम् । इच्छाम्यार्यतुत्रेण सहाशोकगवृक्षस्य प्रम॒नलक्ष्मी प्रत्यक्षीकर्तुमिति । तदाव- दधमासनगतं देवं प्रतिपालयामि । †““
नियक्तो भर्पदारको वसुमित्रः इति । तद प्रभृति तस्यायर्निमित्तं अष्टशतस- वर्णपरिमाणां दक्षिणां देवी दक्षिणीवैः परिप्राहयति । दक्षिणीयो दक्षिणा्हः। ‹ कडङ्रदक्तिणाच्छः च ' इति छप्रत्ययः । युज्यते। कुत्र देवी । किं वा- नुतिष्ठति । ( अत्र च दत्तस्य अशोकविकासस्य वर्तिष्यमाणस्य शशिल्पिदा- रिकावन्तातस्य निद दीनं ) । ततः प्रिर तीत्यादि ॥ आन्नपतास्म्यो- कसल्कारवत्सल्या देव्या । विज्ञापय आरयपत्रम् । इच्छाम्यावपत्रेण सहा्ोक ` वृक्षस्य कलमलक््मीं प्रत्यक्षीकतुमिते । तस्मायावद्धमाषन्यितं देवं प्रतिपा- ल्यामि । परभूतत्याःद । ( आत्तरतिगहोतरतिनामपत्नोको गृहीतसंतोषश्च विदिशातीरोयानेषु ॒विदिश्ाख्यनदीकूलस्यारामेष्वनेग इव काम इव॒ अनं-
(१) ए. ^. ०.; 3. 68. ¶. देवीए असोअ &९. ८ ३) 2३, ०, (३ ) पपि. भ. ( ४) २. 4. च्क्लपसू्ण , ( ५) 2, ००, (६) नि भआलानतवं गतैः प्रबलस्य ते, ।
४.५.६.८
4०
# न ^ १, 2 ॥
४ >, ५ |
1 (९२३९ )
दितीयः-- ॥॥ बिरचितपद् बीरग्रीत्या सुरोपम सूरिभि 1.
अरितभभयोमेष्ये कत्य स्थितं, कथ त्शिकान् | ५. तव हूतवतो दण्डानी निद भेपते; श्रियं
८८ { परिधगरुभिद्भिः शौरेः" प्रसद्य च रुकिमिणीम् ॥ २॥
` श्रती०-- एसो जअसदस्उदप्पत्थाणो भद्रा इदो एव्व आअच्छदि ।
अहं वरं दाव इमस्स पमुहादो" किति ओसरिओं एदं रमुहालिन्द तोरणं
समस्सिदा होमि । ( इ्येकान्ते स्थिता । ) ( क ) ( ततः प्रविंशतिं सवयस्या राजा )
# (1 4.
( क ) एष जयजशब्द स॒चितप्रस्थानो भर्तेत एवागच्छति । अहमपि तावदस्य प्रमलाक्िविदपसत्य न समाश्रिता भवामि |
। ५५४ ५. [3
गवान् प्रशस्तांगवान् परभुतकल्व्याहारेषु परमुतानां कोकि्यनां बेदिनां च कल्व्याहारेष कलोक्तिष मधं वसंत माधु च नयसि । हे वरद अभीष्द उपोटबर्स्य सम्थतैन्यस्य उजितसाम्ध॑स्य च ते तव रिपुः शत्रुः विजयक- र्गा पिनयदा्तनां आलनाकैः धनसाधने: वरदारोधवक्षेः वरदाख्य- नदीतीरस्यवृक्षैः सह अवनतः नघ्रतामनुकूख्तां च गतः) । [अरर तति । क्रधकैशिकानिविदरभान्मिध्यकृत्य आक्रम्यत्थर्थः | ‹ मध्ये पदे निवचने च इति गतिसं्ञायामर॒“ कगापिप्रादयः ' इति समासः । समासान्तरं वत्वो- ल्यवितिल्यवदेशः। ( सुरोपम रेवतुल्य परिघगुरूभिः परिघाखवदटै द भिबहमिः चतुर्भिरियियात् रुदिमणी इतवतः डौः कृष्णस्य ॒विदर्भपते श्रियं दण्डप्रधानसैन्यैः इतवतः तव॒ च एतयोरूभयोश्चरितं सुरिभि पण्डितै बैरशरत्या शूरभक्त्या च विरचितपदं कीर्पितमाहास्य॒क्रथकैशि-
, (१) 3 ७. ‰. 1. विणो; (२) देवो 1५5४ 0 भटा; (३) 8. ७. मुहादो, (४) पि लोआदो 101 क्रिषि ५५4 8 (3, 11. ०00 1४. (५) ॥. (3. समोर, ( ६ ) प. ख-वेतरिदा 1.01 ए९,.स्तिडा, (७) 7. 4, ०10. इति (<) 8. ७. पि. 1, प्रविध्य सवयस्य,
(. ६६२.)
राजा-- द ५ कान्तां विचिन्त्य सुरुभेतरसंप्रयोगां
श्रुत्वा बिद्र्मपातिमानमितं बै! =
धाराभिरातप इवाभिहतं सरोजं , “~~ । ˆ ` टुःखायते च॑ हृदयं सुखमन्युते च ॥३॥ ` `
बिद् ०-जह अहं* पेक्खामि तह एक्रन्तसुहिदो भवं भविस्सदि ।(क) .
राजा--कथमिव।
बिद् ०---अज्ज किल देवीर पण्डितकोसिई भणिदा । भवा जइ तुमं* पसाहणगव्व॑* वहति तँ दं तोहे मालयेभाएु सौरे विवादैणेव- तवं ति । ताए श्रं सविसेसालकिदा मागे । रतहोदी कदावि पूरण भव- दों मणोरहं' । ( ख ) नकाः रि
( क ) यथाहं पड्यामि तथा एकान्तसौवितो भवान्भविष्याति ।
(ख ) अद्य कि देव्या पण्डितरकौशिकी भणिता । भगवति यि त्वं प्रसाधनगर्वं वहसि तद दीय मालविकायाः शरीरे विवाहनैपथ्यमिति । तया च सविशेषालुंकृता मालग्रिका । तत्रभवती कदावित्पूरयेद्रवतो मनोरयम् ।
कांस्तदाख्यविषयं मध्ये कृत्य अधिष्ठाय स्थितं अनेन तव॒ विदर्भश्री- हरण कृष्णस्य रूकरमिणीहरणमिव तवातीवयशस्करमिति भावः ) ।
कान्तां बिचिन्येत्यादि । सुरभेतरसंपरयोगामसुलभ (दुभ) समागमम् |
(१) पि. मम मनः (२) 8, ७, ( ¶, ५5 ध) १।८९१०५।१५९ ) इह
वेस्वामि. ( ३ ) ?, ‰, 010. अहं ४५ 1९९५ देक्खाभि, ( २ ) पि, ०, तह & ^. सन्वहा [0 1४. ( ५ ) ९0. &* 3. ©. 1. धारिणीए ०१ >, ३५५ छ्वं, ( ६ ) 8. ७. 1. तुमेजदि; (1. ५५५ सं, ( अ ) परसाहणणेउणं (< ) 8. ७, 7. ००, ( ९ ) 12. 4, वैदब्मअं. (३०) }३. ०, अ, 3. ७. ¶, वदो [7 ताए अ; ४५ ।€#५ तत्भोदीए ६{४९7 मालकिज, ( ११ )
8. 0. 1 छपा, (१२) पि, ४५५ वि, ५३) 7, 4. ५५८ षह (2०. `
दि {७८ इ. ) 06 ७" परए,
1
ध चै „9
८
„ॐ १
(*६३३ )
[1 + +^, ९ ६१६, < “4 वै जनौ +न ध प
राजा--सखे मदपेक्षानुवृत्यौ निवृत्तेष्यीयां धारण्याः पूवैचरितैः स॑भा- व्यत दतत् । ‡; <“.
ग्रती ०--( उपगम्य । ) जेदु भद्र । देवी विण्णवेदि । तवणी आसोअस्स कुसुमसोहौगदं णेण मह आरम्भो सफलो करीअदु ति । (क)
राजा-- नन् तत्रैव देवी ।
प्रती ०---अह इई । जहरूदसमाणसहि अं अन्तेऽरं विसन्जिय माल विआपुरोएण अत्तणो परिअणेर्णं सह देवं पडिवाल्दि । ( ख )
राजा--८ सहर्षं । विदूषकं विल्गेक्य । ) जयसेने गच्छाप्रतः |
प्रती ०-एदु एदु देवो । ( इतिं परिक्रामति । ) ` (ग ) विदू०-( विलोक्य | ) भो वअस्स किचि परिवुत्तजोव्वणो विअ बसन्दो पमदवणे लक्ीओहे । ( घ )
|
॥ 1
(क ) जयतु भत । देवी विज्ञापयति । तप॒नीयाशोकस्य कुसुमसी भाग्यदञ्ेनेन ममारम्भः सफलः क्रियतामिति । =} ~ 44 ८
(ख ) अथ किम् । ययार्हसमानसुलितमन्तुरं विसृज्य मालवि- । > कापुरोगेगातमन परिजनेन सह देवं प्रतिपाख्यति । ५ ++. ५4 +...
(ग ) एतवेत देवः।
८ घ ) भो वयस्य किवित्परिवृत्तौवन इव वसन्तः प्रमदवने रक्ष्यते |
न. 0 - "1 ~क २/९
दुःखायते । “ सुखादिम्यः कतुंवेद नायाम् ' इतिक्यञ् । अत्र माखनिकारूपबी- जानुसंधानात्संधिनौम निह णसंध्यङ्मुक्तं भवति । कथमिवेति प्रश्रे । अत्र
(८ १ ) प. 8. ©. मदयपेक्षामनप्राप्य; 1. मदपेक्षामनरङ्य, (२) 8. ©. पि. ˆ.“ ¶. अनया धारिण्या, (३) 3. ७. ६. 1.५५ एवः मदपेक्षानुरत्याप्यनया संभान्यमेः तत्, (9४) 8 (७, 1, 7९१७१४५ (५) ?०, ^, सोहा; पि, सम; 3. 6. ¶ । कुसुमोगगमसिरिं अज्जञःणसह ¶्चक्लीकादं इच्छामिति, (६ ) 8. ¶. जह + तुह सम्भाणसुहं, ८ अ) 2०, &, अन्तेउरजणं, ( < ) 1, [ पण्डिककोसिकीए ] सम, (९) 2, 4. 010, इति परिकामति, (१९) {2 किति,
( ९३४ †
राजा-- ययाहं भवनु । , (८...) ५५.५५. अगे कः 2 बिभुज्यंमानसहकारम् । परिणामामिमु खमृतोर्सुक्यति यौवन, चेतः ॥ ४ ॥ ^ ` ^
बिदृ०--( परिक्रम्य । ) भो" अञ सो दिण्णणेवत्यो विअ कुम त्यबएदिं तवणीआसोओ। ओलोअद् भवं । ( क )
शजा-- स्याने खल प्रसवमन्यरोऽभयेदयमिदानीमनन्यसाधार्णी शोभार्म॑दहति । परय । „5
स्बौशोकतषूणां प्रथमं सचितव्रसन्तवबेभवानाम् । निवत्तदोहरेसिमिन्संक्रान्तानोव कुसुमानि ॥ ५॥
व ~ (क) भो अयंस दत्तनेपथ्य इव कृमुमस्तवक्रैस्तपनीयाशोकः । अवलोकयतु भवान् | = 1*“-.4..‡ ~^ ५ +“
कार्यान्वेषणाद्टिरोधो नाम सेध्यड्मक्तं भवति । तत्रभवती धारिणी कदा- _ चित्पृरयेद्रवतोऽपि मनोरयम् । अत्र कार्थोपद शना्पव॑भाव इति सेध्यङ्मुक्तं भवति । अग्रे विकीणकु (चकेरेयादि । ( अग्रे पुरतो विकीर्मीनां व्याप्ता- नां कुरबकाणां फलजालकः एलपमूहै भिद्यमान) वच्व्यमानः सहकाय यत्र तादशमतोवैसंतस्य इदं परिणामम् खं परिणतेः परिपाकस्य आरंभात्मकं यौवने चेतः समुत्सुकयति उत्कंठितं करोति ) । सर्वा शोकतरू०ामि- त्य,दि । ( प्रयमं सवितवपंतविभवानां ज्ञापरितवसंत सेष्तीनां सर्वाशोकल- तानां मध्ये निर्वृत्तदोहदे निष्पन्नौषधे प्राप्तमाटवरकापादस्पर्ची इति यावत् अस्मस्तपनीयाश्ोके मुकु जाने सर्वालाित्यनुषेगः सेक्रान्तानीव ।
अन्येषां दोहोदाभावात् सर्वेषां मुकुलानामेकज समावेशादिव पुष्पश्राचयीमि
(१) ¢. ^, यथादघं ( 120. ०10. इतं ) भवानाह, (२) # विकीर्णं खं कलजाछनिभज्य", ( ३ ) ४. 1. जाल्कमिद्य , 8. ७, जालकहीय. 10). भज्य (9) १, अहो, (५) 12. अयं ७५।०५॥७ प्रसव ‰।५ }६. ७८।७॥७ अभूत्, ५०५ ०५॥१ ©0॥१ [016६6 ६।५ 8९1८५1९९ ला अभृत, ( ६ ) 1. ( ५७ चप 81८61 1४६{९९ ) पुष्प्यति, (अ) 9 (३, 1, छतानां, (<) 8. 0.1. म॒कूलानि
( -९‰३५ )
बिद०-- भो विसद्धो होहि । अद्येस॒ संणिहिदेसुं वि धारिणी पस्स- परिवर्िणं मालपरेभं अणमण्णेदिः | ( क )
राजा--( सहम् । ) सखे पश्य । "` मामियमस्युपातिषटति देदी बिनयादु पस्था भियया । > + वि्मूतहस्तकमस्या नरेन्द्ररृ्टम्या वसुमतीव ॥ ६ ॥ 4 ( ततः प्रविशति देवी परि्राजिका मारिका विभवतश्च परिवारः । )
| माङ०--( आत्मगतम् । ) जाणामि णिमित्तं कोदु आरकारस्स ।
तह वि विसिणिपत्तगदं सारं विअ वेवदि मे हिअअं । अवि अंदविख- णेदरं वि मे णअणं बहुसो फुरदि । ( ख )
षिद्०-- भो वअरस्घ॑ विवाहणेवत्येण सविसेसं खु सोहदि अंदोदी
। मालवे (ग)
[९ ६५१५१.१९- कि ` १ क क,
८ क ) भो विखन्धो भव । अस्मामु सनितेप्वपि धारिणी पश्चपरिव-
तिन मालतरकामनुमन्यते | - व (ख) जानामि निमित्तं कौतुक । तथापिं विसिनीपत्रगतं । सलिलमिव वेपते मे हदयं । अपि च दक्षिणेतरमपि मे नयनं बहुशः ` स्फुरति । । , (ग) भो वयस्य विवाहनेपथ्येन सविशेषं खलु शोभतेतरभवती | मालविका । ` त्याहायः ) । मामियमिति । ( विस्मृतदस्तकमख्या प्रियया मालव्रिकया
॥ (१) पि. ५५५ तह। ५५ 8. 6. 1. णि मोः. (२) 4.2०. 4. । उवगदेनु; 9. 9. तदहगदेसु. ( ३) 3. ©. परस्सपतिदिअं. ८४) 2०. 4, ` । अणुणेदि. (५) 8, ©. "7. अन्त्थिता; प. ^ , अन्थथिता, देवी वचनादनत्थिता. (८६ ) पि. 4. विस्तृत, (७) २, पएरििाजिका देवी &८; 8. ७. प. 4
। धारिणी मालत्रिका पखिनिका ५. (८ ) 1. १११ मह, (९) 8. ७. पि, 7, =. , | ५५ मे हिअअं ७९०1८ बित्तिणि &५. 8. ७. प. 1. विअ सण्लिं. (१०) 8* <: (3.4. 2. ^. 00. आ अ. 2. 818० मे; 8, ©. ¶. ००, वि ०१ तव्
ज थिः गअणं, (3 ) 2. 4, असंदेहं {0४ वस्त, ( १२) नि, १४,
( \३६ )
राजा--पर्याम्येनम् । पैषौ ।
अनतिकछम्बिुकूलनिबासिनी कघुंभिराभरणैः प्रतिभाति मे। . उड्गणेरुदयोन्मुखचान्दरिकां -गतेहिमेरिब चैत्रविभावरी ॥ ७ ॥ देबी--( उपेत्य । ) जेदु अज्जउत्तो । ( क ) विक् ०-- वदद मोदी । ( ख ) परित्रा ०- विजयतां देवः । राजा-- भगवति अभिवादये । परित्रा ०---अभिप्रेतसिद्धिरस्तु ।
देबी--८ सस्मितम् । ) अञ्जउत्त एसो दे अदिं तरुणीजणसहाअ- स्स असोओ स्केद्घैरअं किदो । ( ग )
बिदू*-- भो आराहिदो ति । (घ)
( क ) जयत्वायैपुत्रः ।
( ख ) वधंतां भवती ।
( ग ) आर्यपुत्र एष तेऽस्माभिस्तरुणीजनसहायस्याशोकः संकेतं कल्पितः | - ५.६.३९२ ` "व
( घ ) भो आराधितोऽसि ।
अनृत्यिता अनुगतेति यावत् देवी धरिणी नलेन्रलक्षम्या नुपश्रिया अनुगता वसुमतीव मामभ्यत्िष्ठति ) । अ ति खम्बीत्यादि ( अनतिचछ्बिदु कूलनि-
(१) 2. 4 . ५५१ आमारणालंख्ताम. ( २ ) ?. ०४) कैषा; 8. ७. प. भ, या. ( ३) 2, बहुमिः.-( ४) मचखकौमृदी. ( ५ ) 8, ७. प. ¶. ह्व, ( ६ ) 8. 9. 1. 1९]0न७१. ( ५ ) 2० 4. प. कमो; 8. 6.7. गेष्म. ं
वियोग ॥
\ +“ धारिणी ८६... अननृज्ञातसंपको ) रजनीव नो ॥ ९॥
( ६३७ ) राजा--( सत्रोडमशोकमभितः परिक्रामन् । )
नायं देव्या भाजनत्वं न नेयः + ` सत्काराणामीदशानामशोकः। =` ˆ `
> क -
[ति )
` ++ ^" “^. यः सावज्ञो माधवश्रीनियोगे... " (*
८.१ पुष्यः शंसत्यादरं सस्मयत्ने ॥ ८ ॥ ¬, ९८०५८। बिदू०-- भो विसद्धो भविअ तुमं इमं जोव्वणवादं पेक्ख । (क ) देवी-कं । (ख ) विदू ०-- भोदि तवणीआसोअस्स कुर॒मसोहम् । ( ग )
( स्वं उपविशन्ति । ) शजा- ८ मालवेकां विलोक्य । आत्मगतम् । ) कष्टैः खल सेनिधि- ५८.
रथा रुनमिव । अहं रथाङ्नमिव भिया सहचरीव मे । ऋ
त 4
(क ) भो विक्लव्धो भूत्वा त्वमिमां यौवनवती पर्य । (ख ) काम् । (ग ) भवति तपनीयाशशोकस्य कुसुमशोभाम् ।
वासिनी परिहितानतिदीधेवसना )। नायं देया इत्यादि ।( अयमशोको देव्या इटशानां सत्काराणां सम्मानानां भाजनं न नेयः न प्रापणीयः इति न। अपि तु नेयएव । तत्र हेतुतेन द्वितीयार्धं । योऽशोको माधवश्रीनियोगे वसेत संपदो नियोगे सपुष्पलभवनरूपे आदेशे साव्ञः ठृतानादरः सन् लगप्रयल्ने तव प्रयाते पुष्पैः विकाशैःकरणैः आदरं शसति सूचयति) । अहं रथाङ
(१) 2. ग. तुम; ^, ०10. इमं, ए. 6. ¶, ग. तमं हमं. (२) 8. 8.1. २. ^. ००. मोदि; 2. ^ असोअङमुमसोह. ८ २ ) ©. 4. कष्टं, ( ४ ) 2, ^, ४५५ ममाद्य,
१६
( ५३८ )}
( प्रविर्य )
की-- जयत जयनं देवः । अमात्यो विज्ञापयति । तस्मिन विदर्भं रजेपियने दवे शिल्पकारिके मर्गपरिश्रमादलधुकरे इतिˆ कत्वा नं परव शिते । संप्रति देबोपस्थानयोमये, । तदाज्ञां देवो दातुमदैततिं'
राजा- प्रवेशय ते ।
कञ्च की- यदाज्ञापयति देवः । (इति निष्कम्य ताभ्यां सह प्रविंहय |) इत इतो भवत्यौ ।
प्रथमा--{ जनान्तिकम् । ) हला मदणि र॑ अपुतव्वं इमं राअउलं पविसन्तीए पसीदारे मे हिअअं ' । (क )
द्वितीया--' जोपिणी{* आत्थ वखु लोअप्पवादो '* आमि पुं दुक्ले वा हिअअसमवत्या कहेदि त्ति । ( ख )
( क ) सखि मदनिके अपूरमिमं राजकुलं प्रविशन्त्या प्रसीदति मे दयम् । ४९ ...-१
( ख ) ज्योच्तिके असिति खल ल्मोकप्रवाद आगामि सुखं दुतं वा हदयसमवस्या कययतीति । १)
त्यादि । ( अहेरथाङ्नामा चक्रवाकं इव । मे मम प्रिया मालिका सद चरीव।
(१). 4. ( ततः प्रविशति कंचुकी, 2. काचिकेयः 0 कंचुकी ), (२) पि. विजयता; ¶ जयति, जया; ^ . जयत. (३) प. ०१५ देव, (*) पि
` . ०४. 8४7 ¶. ४4 कि, ( ५) 2. 4 . ३. “विशयो ( ६ ) 20. #.
४१५ 17. ( 95 81) ४८९71४४ ५€ ) शरक. ( « ) 2. 4, अहसशरीरे (<) 2५. पै. (१) पि. ५१ सदये. (१. ) 8, 6. ¶. ०७. (११) पि, भ, ( १२) प, ०0, (३३) 2. 4. रजणिए, (१४) 2. &. अन्मंदरगदो अप्या, 13. ©. 17. अभ्मैदर ( 8. ©. अन्भं, ) सगदो अप्या ( १५.) . +. ४१५ हन्ने. ( १६ ) ए. &. 9११ महवि एव्वं एव; 8. 68, (1, महि एव्वं, ( १५ ) 2४, लोमवादो,
+ छ
क! १" १ अ १०२११,
(५३९ )
ग्रथमा--सो' सच्चो दाणिं होदु । (क ) `
` कञ्चकी--एष देव्या सह देवस्तिष्ठति । उपसर्पतां भवत्यौ । ( उभे उपसर्ष॑तः । ) ( मालका परिव्राजिका च चेटयौ ष्टा परस्परमवलोकयतः । )* इभे--( प्रणिपत्य । ) जेदु भद्र । जेदु मणी । (ख )} ( राजाज्ञया उभे उपविष्ट | )
रजा कस्यां कल्मयामभिविनीते भवत्यौ । +! “1 इभे-- भद्र सेगीरदे अभिविणीदे' ह्य । ( ग )
राजा-देवि गृह्यतामनयोरन्यतरा |
देबी- मारूिए् इदो पेक्ख । कदरा दे सगीदसह आरिणी ' रुइ । ५. 49
(क ) स सत्य इदानी भवतु।
( ख ) जयतु भां । जयतु भद्विनी ।
( ग ) भर्तः संगीति ऽभिविनीति स्वः। `
( घ ) माल्यविके इतः पर्य । कतरा ते संगीतखहकारिणी रोचते ।
चक्रवाक्येव निकटस्यैवति ध्वनिः । धरिणी नौ अवयोरननुज्ञातः सपक अनभ्युपगतसयोगा रजनीव प्रति्बेधिकेति शेषः । नानुज्ञातः प्रति-
1 = व 9
(१) 8, 9. 1. ०. सो. (२) 2. ^. 8५१णो. (३) ४७,
| ©. 1. उपरस्वाम . (४) 2. ©, 1. मालविकां पचराजिकां च दष्टा &५. १८५.
।
(५) 8. 9. 1. 166४ ( ६ ) २, ^, 20 राजा-स्वागतम इतो
निषीदतम् 1, ४०५ राजा-निषीदतमः; राननिर्देशाव; 3, ©. प्रविष्टे, 720. ^, ८1... 10, रनाज्ञया. () 2, 4. अमियोग) भवत्योः (< ) 8. 6. ‰,7 2, ` 6. संगीद९. ( ९ ) 28.6७. 9. 17. 2. ^. अन्भदरे. (१०) 8.06
णु. दक्खंदरा {07 देक्ख कंदरा, ८ ११) ?., ^. 8. ©, 4, सहाहणी,
~
( ५४० )
इभे--( माखविकां दष्टा । ) अद्यो भद्रदारिआ । (- व्ैणिपत्य . तया सह बाप्पं विकिरतः । ) ( क ) |
८ सर्वे सविस्मयमवत्मेकयन्ति । )
राजा-- के वौ भवत्यौ । का वेधम् |
इभे-- देवे अद्याण भद्दारिभ एस । (ख)
राजा--कयमिव ।
इभे- सुणादु भद्र । जोसो भद्रिणा विअअदण्डोहं विदग्भणाहं वसीकरिअ बन्धणादो मोदो कुमाल माहवसेणो णाम तस्स इअं कणी- असी भईणी माल्विआ णाम । (ग)
देबी-- कर राअदारिआ इअं । चन्दणं क्खु मए ॒पादुओवैओएण
दूसिदं । ( घ )
राजा--अयत्रभवती कयमित्॑भूता । ^> “> = ®^"
( क ) अहो भतंदरिका ।
( ख ) देवअस्माकं भतैदारिकैषा ।
(ग) शृणोतु भर्ती । यः स भर्त्री विजयदण्डैर्विदर्भनायं वश्ित्य बन्धनान्मोचितः कुमारो माधवसेनो नाम तस्येयं कनीयसी भगिनी मालि का नाम ।
( घ ) कयं राजदारिकेयम् । चन्दनं खल् मया परुकोपुयोगेन दूषितं । | "क,
षिद्धः सपक यस्याः । पक्षे मुनिदापात् प्रतिषिद्धः सेपककौ यस्यामिति विग्रह.
(१ ) 1०. ^. 8 ©. 4, भ्टि. (२) 8.0.14. जेद नेद् भहिदारिभा { इति प्रणिपत्य .विसृजतः )} षृ, ( इति प्रणम्य ) नेद् नेद् मदारिभ । ( तवा. सह ‰&५. ); 20 विसजतः. ८ ३ ) 20, 4. ग). ( १ ) 2०. ^. च णिः वा, ए). केयंवा. ( ५) 8. 6.4. ०); प. भह (६) 2. इ; 8.68. ¶. ग, (५ ) 8. ७. 1. बहिणिभा, (< ) 2, ^. अन्नो. (१) 98. 9. 1. अषदेततेण; 7. 4, परिभोएण, | ग
( ९.४९ )
माङ०--( निःश्वस्य । आत्मगतम् । ) विदिंणिओएण । ( कं ) द्वितीया-- सुणादु भद्र । दाआदवसंगदे अद्याणं* भट्रदारएु माहव- सेणे तस्स अमच्चेण अज्जस॒मदिणा अद्यरिसं परिअणं उज्जि गदं
आणीर्दां एसा । ( ख )
राज्ञा-- श्रुतपूर्वं मयैतेत् । ततस्ततः ।
द्वितीया--भर््रं अदोवरं ण आणीमो । ( ग )
परित्रा ०---अतः परर्महं मन्दभागिनी कथयिष्यामि ।
डभे-- भट्रदारिरं अज्जकोपिईए विभ सरसंजोओ'" । ( घ )
[= पा एव्न। (च).
उमे--जदिवेसधारिणी अज्जकोसिईं दक्खेण विभावीअदि । भञ- वादे बन्दामो । (छ)
( क ) विंधिनियोगेन ।
( ख ) डणोतु भत । दायादव गते ऽस्माकं भतृदारके माधवसेने तस्यामात्येनायसुमतिनास्माशं परिजनुमुच्छितवा गूढ मानीतेषा ।
( ग ) भर्वैः अतः परं न जानीमः ।
( घ ) भर्तृदारिके आर्यकौशिक्या इव स्वरसंयोगः ।
(च ) ननु सैव । + ^ क (छ) पतिवेषधारि्ार्थकौशिकी दुःखेन विभाव्यते । भगवति वन्दा.
॥ ऋः) #:
{ १) 2. 4. विहिणो. ( २ ) पवि. ०0. सुणादु मा, 84 1684 भटृद- आद &८ ( ३) 8. 6. 1. वि, ००, (४) ९. ^, अवणीदा+ ( ५) ४. एतावव्र॒ ४4 00, ततस्ततः, ८ ६ ) 12. ^, एषि एव 0 मद्रा. (५) 8. ©. ¶. जाणामि, (<) ५, ततः प्रं ४ ०0. अहं, (९ ). 220. “भाग्या, (१०) पि. ०, (११) २० 4. अन्ना कोसिकीए. (१२) 12 20 सुणीअदि; 8. ७. 1. ४४७ णं सा एव्व | 0616 ४4 16६ ७०0, भाठषिका अह वि. ( १३) 2, ©, 1, णमो ३.
( ९४९ )
` परिव्रा०-- स्वस्ति भवतीभ्याम् । „“ शाजा- कयमाप्तवरगो ऽय भगवत्यौ: ।१ परित्रा ०-- एवमेतत् । विदू०-- तेण हि कहेदु भअवदी अत्तहोदीए् उ्तन्तौवसेसं । (क ) परिव्रा०--( स्र््यम्* । ) शरयता तावत् । माधवसेनसचिवं सुमति
ममा्रजमवगच्छ । राजा उपर्रितमै । ततस्ततः। ५८0") ४ 1 ८०. पररा०-- पत इमां त॒यागतभ्रातकां मया सार्धमपवाह्य भवत्संबन्धा- पेक्षया पयिकर्सौथं विदिशागामिनमनप्रविष्टः ।
राजा-ततस्ततः ।
परित्रा०--स चाटव्यैन्तरे निविष्टो गता वागिगननः न भ
शजा--ततस्तंतैः। ~+“
परिव्रा०--ततश्रं । ~. 9 ४५.
`“ 4..." तूणीरपंरिणंड मुजान्तराल- ४ 01
( च ) तेन हि कवयनु भगवत्यत्रभवत्या वृत्तान्तावशेषम् । `
भेदः । अतः परं न जानीमः । त्णीरपटेत्यादि । ( तुणीरपदरेन परिणद्धं
कव. (१) 2. 4. मवत्याः. (२) 8.0. पि, ¶. वन्तं ( 9.09, ३११ दव असें. ) ( ३) 3. 6७. (1, ( सवि्कवम ); (४) 8. 8.¶ 0 ६्ला८))8026. ( ५ ) 3, 6. ¶. उपलक्ितः; 2. ^, "उपलश्म्. ( ६ ) ए. ७. ग. (७) पि. सापे, (<) 2. बैव्िशि. (१)8. 9. गन्तन्यमतेरेण; 1. ^, अर्न्यन्ते. ८ १० ) २. 4. ४00 अध्वश्रमार्तो विन्न मितं, ¶. इव विन्रमिन॒मारब्ः ८ ११ ) प. 8. ©. किंचान्यत्; › क्लिभूयः (१२ ) ¶. 8४१५ क्वान्य. प. छ. च. ( १३ ) २, “बच, (१९) नि प्रिद. ( १५ ) ए. "करण, ( १६ ) 7. ध. पिच्छ, (१५) 2. 4. (1. “कारि ४
1 (६४२ )
|
| {£ # ५,५१५.८
$ 7 कोदण्डयाणि निनदत्पातिरोधकाना-
| “~ , मापातदुष्प्रसहमाबिरभूदनीकम् ॥ १० ॥
। र ( जलिक मद-कवति । १२ | ५ विदू ०-- भोदि" मा भे । अदिक्घन्तं क्स भअवदी कहेदि । (क) . 4 `
। राजा--ततस्ततः। परिव्रा०--ततो मृहुतं बद्धवुदवस्ते पराङ्मुलीकताः- सार्थवाहयोद्धार- स्तस्करैः। 4...
` शजा- भगवति अतपरमिदार्ीः कष्टं श्रोतव्यम् । 3.: 9,6८.9 ‹
च. परित्रा०-- तत स मत्सीद्युः | ¢" ऊर ४ ४: ६ ४ 4 । “4 इमां परीप्सुदु नाति" पराभिभवकातराम् । 1.4.
प भदभ्रिय प्रवभतुरातण्यमसु नगत; ॥ ११॥ ` (१८५८० ४ | प्रथमा-- ` 'दंदो गदो तादो मरणं ( ख ) |
( क ) भवति मा बिभेहिं । अतिक्रान्तं खलु भगवती कथयति । ( ख ) अहो गतस्तातोमरणम् ।
भजान्तराकं यस्य । आपा्ण पारणिपयतं खम्बिनं दोखयमानं शिखिनो मयूरस्य पिच्छानां बहांणां कल्पेन शोभि । कोदण्डपाणि धनुष्पाणि
। प्रतियेधकानां दस्युविशेषाणामनीकं सैन्यं आपातदुप्प्रसहं प्रबरुसेयोग-
` मात्रेण अव्य॑तदुःसदं यथा तथा निनदत् शब्दायमानं सन् आविर. . भूत् ) । भवति मा बिभेहि । अतिक्रान्तं पुनरत्रभवती कथयति । इमा नित्यादि । दुजते आपदि पराभिभवकातराम् परेषां शत्रूगामभिभवं
* 9 ) पि. विनदव्र, ( २) 20, +\. ००. ( ३ ) 3. ७. 1. अत्तरोदी; पर. तत्तदोदी, ( ) 4. ( ४।८७) ४४४९ ) मुगयोद्रारः 1, ए. ७. पष. वष्दायुधाः ( ५ ). 8. ७. ए, ¶. मृताः, 2, 4. ४५।॥९ तस्करैः 1619 धिः ॥118, ( ६ ) 2१, हन्त; 1. ४५१ इन्त, (* ) 3. 6. ¶. अतः; पि इतःपरं, ( < ) 2१. कषटतर; कष्टतरमिदानीम, ८ ९ ) पि. समतिः, ( १< ) 20, ‰. 8. 9. 7. दविः. (5) ) प. 70. हंहो ( प्र. अहये ) हदो सुमदी; 8. 0.4. भ हा हृदो सुमदी णं; हदो तादो अन्जसुमदी अह्याण
(88)
दवितीया--भदो क्ख भद्रिदारिाएु इअं समवत्या संवृत्ता । ( कं ) ( परित्रानिका बाष्पं विकिरति । ) राजा--भगवतिं तनुमुतमीरशी लोकयात्रा । न शओोच्यस्तत्रभवा- न्सफलीकृतभतंपिण्डः । ततः दः (१
परित्रा०-- ततोऽ मोहमुपगता यावत्सनञामुपलभे तावदियं दुर्लभ दर्शना संवृत्ता ।
~ । 8 । क 4 १८५६५) 3
राजा--महत्वल्् कृच्छरभनुभतं भगवत्यीं । ‰.०,८६2 परित्रा ° भ्रुः शरीरमभिसात्कता पुनर्नवीकंतैैधव्यदु :खया मया त्वदीयं * दे शमवतीर्येमे काषाये गृहीते ।
राजा- _य॒क्तः सज्जनस्पैषा पन्थाः । ततस्तैः । ˆ" "< `
परिव्रा० --तत इयमप्याटेम्यो वीरतेनं॑षीरतेनाेवीं गता देव. गृहे लन्धप्रवेशया मया पुन दष्टा । इत्येतदवसानं कथायाः ।
~
( क ) अतः खल भतंदारिकाया इयं समवस्था सेवृत्ता ।
~ 9 ^, १५५2. ५.4.40)
आक्रमणं तस्मात्कातरां दुःखितामिमां मालविका परीप्सुः पर्यु परित्रातु मिच्छः । * आग्जञप्युधामीत् ' इतीत्वम् । अत्र ‹ च्ेपोऽम्यासस्य ` इत्य- भ्यासलोपः ‹ पर्यातिः स्यात्परित्राणं हस्तधारणमित्यापि ' इत्यमरः । भतं परियः स्वामिभक्तः । प्रिेरिषैरसुभिः प्राणैभतुरानृण्यमनृणत्वं गतः प्रातः
(१) 8.6. ¶. तदो. (२) `. विसृजति, 8. 9. 4. सृजति,
३ ) 2५. ^. ०). (४) 13, अ. प. 4, त्यजा. (५ ) 20. -&. शोवि.- तन्यः; प. शोच्यं, ( ६ ) मर्तप्रतिज्ञः; 8. 0. 1, १५५ तपस्वी, (* ) 2, ‰. ए. ७ ¶, ०0.; पष, ततस्ततः ( < ) 2३, लभे, 1, प्राति, 9, 6. प्रतिलेभे. ( \ ) }३, संप्रवृत्ता, ( १०) 120, कष्ट. ( ११) 8. ©. 1. तत्रमः वत्या, ( १२ ) 120, 4. भात् ° ( १३ ) पि, “भत, 3. ©. ¶. ०, वैषन्य, (११४ पि. त्वदीयदेश, (१५) ए. ७.1, ०0. (१९) 8.09... सेयमारविकेस्यो वीरसेन वीरसेना्च ( 3. अ. 1, ००१, च ) देवीं गता । देषगिहे हन्धप्रवेशया (13. 6, 1. ३५५ मया) दृत्येतदवसानं कथायाः, (१५) ष, ०,
८ ९४५ )
भाकं०--( आत्मगतम् । ) किं णु खु संपदं भद्र भणादि । (कं)
2 १००... ५५. ८
राजा-अहो परिभवोपहारिणो' विनिपाताः । कतः | “^ >~ "^~
प्रेष्यभावेन नामेयं देवीशब्दक्षमा सती । "` ` ` स्नानीयबसखरक्रियया पत्रौ०। बोपयुज्यते ॥ १२॥ देशी- भअवदि तए अभिजणवदि मारकिअं अणाचक्खन्तीए् अस. पदं किंदम् | ( ख ) परित्रा ० -- शान्तं पापं शान्तं पापम । कारणेन खुं मया नैभृत्यं मदलवतम् । 1420 ~ ~+ ~ दे्ी-किं विअ ते" कारणम । ( ग ) ५५{ ५...
परित्रा०-- ˆ इयं पितरि जीवति केनपि लोरकैयात्रागतेन सिद्धादेशेन ˆ "
साधुना मत्समक्षदिष्टा सेवत्सरमात्र' ` प्रेष्यभावमनुभूय ततः सदशभरतुंगा- मिनी भविष्यतीति । तदवडथं भाविनमादेशमस्यास्त्वत्पाद शुश्रूषया परिणी मन्तव्य कालप्रतीक्षया मर्थ साधुक्तमिति पश्यामि | >...
व 4. ------------------------ ४ (च 41, ~ च १ ।
(कं) किंनु खल सांप्रतं भर्ती भणति । ध (ख) भगवति त्वयाभिजनवततौ मालग्रिकामनाचक्षमाणयासाप्रतं कृतम् । त ८ 4.6
| अहो इतः समतिः । प्रेष्य भानेरयादि । देवीशब्दक्षमा देवीशब्दयोग्यां
+ (१) 8. ©. पररिमिवप्हारिणो. (२) 4. पररर्णो. (१) 8.0. मि. धू. ०19, 0)6 शान्तं पाप्रम् . (४) पि. केन च कारणेन. (५) 23. (३, पि. पू, नै्ग्यम्; नैत्यम्. (€) (0. ^. अत, २० (एथ). कि वा कारणम्, ( ५ ) 2. ^. ४५५ सजा--पदि वकन्यं त.कथ्यतां, ( < ) 12). ६१५ श्रयतां
१६) पर््द-यन्ती 10१7 पितरि जीवति (१०) 8.3 पि, ¶ देव (१ १):
ए, ©. 1. शिवादेशकेन, ५, सिष्ादेशकेन, (१२) 8. 9.4" न्यिः; 4. समादिष्टा. (१३) 8, ७, 24, 1, ५५1६6 इयं 161९, ( १४) तदेवं भाति; 8. (© 1. ०१४, 17011 {1118 [४० विज्ञ प्रयति 19 कुकी "3 8 [60011 &110 1880 118 1611,411010 8[0660॥ 8100& 1४0 ४18. ( १५) पि, परिणत, ( ११ ) २. 4. ४५ तत्.
१९
न
ध
| + "प । च
| 2,
( \४६ )
शजा--पुक्तपिक्षं ति ^ भी रिः
इश्च को रेव कयान्तरेानतरिपम् ¡ भमो सो ।निदरभग तमनुय उेयमवधरितभस्माभिः । देवस्य तावर भिप्रेतं श्रोतुमिच्छति ।
रजा मैतं तत्रभवतो पनमाभेनयमिदानीमब
स्यापपितुकामोऽस्म । += # >`
(५. > ५4) ४६८८ \^(९\
¡ पृथश्बरदाकूखे तिष्टमुत्तरदक्षिणे । ८ |
(लि. ^‰..१-५
नक्तं दिवं भिभज्योभो शीतेष्णारणाविब ॥ १३ ॥ कश्चङ़ी- रेव एवममात्यपरिषदे निवेद यमि । €५६..६ ( रानादुलयानुमन्यते । ) ( निष्क्रान्तः कञ्चकी | )
प्रथमा--( जनन्तिकम् । ) भद्दारिए दिदि भट्रदारभ अद्धरग्ने पटिद्धं गमिश्सदि । ( क )
( क ) भर्तृररिके दिष्टया भर्तृदारको धराये प्रतिष्ठां - ह |
सतीयं मालिका प्रेष्यभावेन परिचारकत्वेन उपयुज्यते किल । पोर्ण बा धौतकौशेयभिव । वेत्युपमायाम् ‹ उपमायां विकल्पे वा † इत्यमरसिंहः । स्नानीयवस््रक्रियया स्ननीयवस्त्रकरणेन ॥ भगवति त्वयाभिजनवती माल. विकामनाचक्षाणयासाप्रतमयुक्तं कतम् । तौ धा । तौ यज्ञ. सेनमाधवसेनी पृथक्पाथैक्यनोत्तरदक्षिणे वरदाकूङे । वरदा नाम तत्रत्या नदी तस्याः कूरे उभे तीरे शिष्टां रक्षताम् । भर्तृदारिके दिष्टा भरतृदारः
(१) पि. प्रतीक्षा, (३) 2. 4. प्रविश्य कंवुकी &०..अंत्तितिमिदममात्यौ ` &, (१) 8. 6, ¶. उपस्थितमभतः । ( अवधासिभस्माभिः ); पि. अनहटितममत् ११ ०, अस्माभिः. ( १ ) 2०. ^. अभिमते, 1. 0. 2, ` ¶, अभिप्रायं, ( ५) 3. ७. ००, (६) 2, 6. 9. ०. (५) 2 इयोराज्यं . स्यापयितुमिच्छामि. (< ) 13. ©. 1. दिनं, ( १ ) 8. 8.4. 2४. विज्ञापयामि. ( १ ) प, ४१५ महिणा, ( ११ ) पप, गमविभ्यते,
+ 3 १ ऋः + क ह @# 3 4 '# भवुक अ ८7, +न .1.42-4 ~~ @# ) ^. न ओ १ ४» &८. 6/7 21-4 4 1“
( ९४५ ) माषट०- एदं दाव बहुमन्तव्यं जं जीविद संसआदो पुत्तो । ( क ) ( पुनः" प्रविङय । )
(ॐ कटुकी -- विजयतां देवः । देवै अमात्यो विज्ञापयति ।`कल्याणी ` देवस्य बुद्धः । मन्तिपरिषदो्येतंदेव द डनम् । कृतैः । ~.
^ द्विधा विभक्तां ्ियमुदरहन्तो `
४ ११४ | 70 | | वी ४ 2 श्युरं रथाश्वातिव संम्रहीठुः। कर) ५५५ 4 (= ध +
भ
^ चौ स्थास्यतस्ते नृपती निदेडो ^.4.. र
८. परस्परावधहनिषिकारौ ॥ १४॥ ^ ^ ् श + - ग । । {+ ९ १
शज्ञा-- तेन दि मन्त्रिपरिषदं ब्रूहि । सेनापतये' वीरसेनाय चलि". स्यतामेवं क्रियतामिति । ५ --यदाज्ञापयति देय: । ( इति निष्क्रम्य, सप्राभेतकं ङेखं नः
गृहीत्वा पुनः प्रविदपै । ) अनुष्ठिता प्रभोराज्ञा । अयं पुनरिदानीं देवस्य सेनापतेः पुष्पामित्रस्य सकाशात्सभ्रीमृतको लेखः प्राप्तः । प्रतयक्षीकरोलेनं देवः।
छ"
( क ) एतत्तावदरहु मन्तव्यम् यज्जीवितसं शयान्मुक्तः ।
को.ऽराज्ये प्रतिष्टां गमयिष्यते | द्विधा बिभक्तामित्या{द । ( उक्त प्रकारेण द्विधविभक्तां सेगृहीतुः संयन्तुः धुरं रथाश्चाविव श्रियं वहन्तौ धार- यन्तौ तौ यज्ञसेनमाधवसेनौ नृपती परस्परावग्रहे युद्धादिना आक्रमणे
(१) 2०. एवि. (२) 86. भणिक्न्वं, (३) 2. 4 0. पनः (४) 2, 4. ०. 8१ 8. 9७. 1. देवस्वं ४{१९। अमात्यौ {७7 देव, ` ( ५ ) 20. १ अहो. ( ६ ) 2"). एवसेवदरशन, (८७) 13.6७. 4.14. 2५. भ, (<) ¶. न्पतेः; 8.6. पि. मृपते, ( « ) ६. उपग्रहृ, ( १० ) 8. 0७ }३. 1. सेनान्ये, ( ११) पि. 4. करष्यतौ 8. ©. कथ्यतां. ( १२) 120. 4 . तथा {07 ६16 8€11€11९. (११) 8.6. पि. प्रतिः. (१४) 9.9. दि. 4, ०. पृनरिदानीं. ( १५)
। 8. 6 1.0 ॥ 1 सो तरीयप्राभृतकं &८,
( ५४८ )
८ शना सहवोाव वचर परिगृह्य प्रामृतकं परिलनायापंयति । ` खं च नाटबेनोदरषटयति । ) ०८.
हेवबी--८( आत्मगतम् । ) अद्महे तदोमृहं एव्व णो हिअअं । सुणि स्स दाव गुरुअणस्ते कुसल्ाणन्तरं वसुमितस्स वृततन्तं । अहिअर य॑खु मे पुत्तओ सेणावदिणौ णिउत्तो । ( क )
शाजा--( उपविश्य वाचयति । ) स्वस्ति । मबा ण । पुष्पमित्रो बरैदि शस्यं * पुत्रमायुष्मन्तमभिमित्रं सेहात्परिष्वज्य अनुद हीय विदितमस्तु । योऽसौ राजमययज्ञेदीक्षितेन मया राजपुत्रशतपरिवृतं वसुमित्रं
^“ गोप्तारमादिश्य सेवत्सरोपावतंनयों " निरगलस्तुरगो " विपैः स सिन्धोदंकष
णैरोधसि चरन्ञश्चानीकेन यवनानां ° प्रार्थितः | तत उभयोः तेनयोभेहानासी त्संमदं | =...
----------^ "व ५.५८. €+ ५०१०५५६ ५५११ । [+ {#८। डः ८ ~ ५य्ब' {^
( क ) अह्महे ततोमखमेव नो हदयम् । श्रोष्यामि तादुरुजनस्य र
करुरालानन्तरं वसुमित्रस्य वृत्तान्तम् । अधिकारे खल मे पुत्रकः सेनापतिना
नियक्तः | 3
निर्विकारी द्वेषरदिती संतौ ते तव निर्देशे आन्नायां स्थास्यतः ) । अद्ये
“` इति हर्षे । अतिभारे खल पुतकः सेनापतिना नियक्तः । यज्ञशरणा
दित्यादि । अत्र राजयज्ञो नामाश्चमेधः । राजपुतरशतपरिवृतं राजपुत्राणां
\ ^ (9) ८. 4. सहसोपसूय प्रमृतक ८ ¢. भरामतं ) सोपचारं शिरसि श्वा प्रिजनायार्पयति । ठेखं च नाग्येनेद्रषटयति; 8. ©. ३. 1. उत्याय प्राभतके
सोपचार गहीत्वा टेखे (8, 0. सल्ल, }. टेप {€ सोपचारं ) परि.* अर्पयति । परिजनः उद्धाग्यति, उद्वेजयति. ८२) 7. 4. 8.0. 1. गृष्जण. &. (३) 8. 6. 1. अदिभारे, 2. अद्षिरे( ४) 9. 0.9. 1. ०४, मे, ( ५ ) ३. ७. ¶. क्ेणवदी, ( ६ ) प. ५५५ लेखं सोपचारं गरीवा. (७ ) }प, वैदिशस्तत्रत्यं, (८) प, ०११ ब्द. (१) 8. 8. }\.1. शनयज्ञ,” (१०) 13. 0. (1, संवसराय निवर्तनीयो, ५. संवत्सरोषार नियमो, (११) 8.9.17. त्रंगमो, &. तुरगो. (१२) 8.6. 1. विसभितः ८११) 8. ©. 4. द्षिणे रोषति, ( १४) 8. 9. ३, 1, पषनेन्, ।
( ९४९ ) ८ देवी विषादं नाटंथति । ) राजा--कयमीदशां संवृत्तम् । ( शेषं पुनवाचियति । ) , , ` 0 = ततः परान्पराजित्य बसमित्रेण धन्विना। ` ° भ्रसह्य स्हियमाणो मे बाजिराजो निबतितः ॥ १५ ॥
देबी- दाणि आस्ससदि मे हिअअ । ( क )
राजा--( ठेखशेषं वाचयति ¦ ) सो{हमिदानमिंशुमतेवै सगर चैत्रेण प्रत्याइताश्चो यक्ष्ये | तदिदानीमकारहीनं विगतरोषचेतसा भवता बधूजनेन सह यज्ञसेर्वेनायागन्तव्यमिति | = ~^ ^^ ५ न
राजा-- अनुगृहीतोऽस्मि ।
एरित्रा °-- दिष्टया पुत्रविजयेन दम्पती वर्धेते । (देवीं वि्गेक्य ) | भन्रास्ति वीरपत्नीनां छाष्यानां'" स्थापिता धुरि । वीरसूरिति शढब्दोध्यं तनयाच्वामपस्थितः ॥ १६ ॥ `
( क ) इदानीमाश्चपिति मे हदयम् |
शतेन परििषटितम् । तथा च श्रतावश्चमेधप्रकरणे ' शतेन राजपर्रैः सह
इति ॥ ततः परः नित्याद् । ( दियमाणः परैरिति शेषः । मे मम वानिरा जः अश्वश्रष्टः अश्चमेधीयत्वलक्षणाक्रान्ततवात् श्रं । प्रसद्य बलेन निवर्तितः प्रत्यादतः इत्यर्थः ) । अनेनाश्चस्तं मे हदयम्। भत्र सस्यादि । (मत्रा खानि. ना अश्चिमित्रेण वीरपत्नीनां वीरः पतियासां तासां छघ्यानां स्रीणां धूम्र स्था पितासि । तनवाद्धेतोः रसति वीरमतित्ययं शब्दः त्वःमपरिथतः प्राप्तः )
(१) ?. निक्प्रयति; ^, रूपयति. ( २ ) 8. ©. ¶. 00. शेषं, ( २ ) 8. 9. पष. 1. आभ्ससिदं मे हिअअं, (८ 2) ६, शेषं पनर् &८. (८ ५ ) प. “अंशुमता सगरपृत्रेणेव &९. ८ ६ ) 2. 4. काठर्हानं* (*) 2. ^, संतर्शनाय. ( < ) ‰, षति, ( ९ ) 8. 9. पि, ¶, ०, (१) ?, 4. "लाष्यायां.. 4.1.“
3 |
0
( ५५० )
षिदू०-- हेदि परितुदेद्यि जं पिदरं अणगवो वच्छ । ( क ) पारेव्रा ०--करभेन यूयपतिरँनुकतः । 4.14.
कुकी रेव मयं कुमाः - नैताबता वीरबिजुम्भितेन 1.11... | चित्तस्य नो विस्मयमादधाति । .::: 14.44 यस्याप्रधृष्यः प्मवस्त्वमुचचै- +... ६५4८: वेदरपां दग्धुरिबो जन्मा ॥ १७॥
राजा--मैदरन्य यज्ञतेनरयालमुररीैत्य मू्च्य्तां सर्वे बन्धनस्याः । कत्र की--यदाङ्नापयति देवः । *( ईति निष्क्रान्तः । ) देबी--जयतेगे गच्छ । इराैरिष्पमुहाणं अन्तेउराणं पुत्तस्स बँतन्तं
णिवेदेहि । ( ख ) ( क ) भवति परितुष्टोऽस्मि । यतितरमनुगतो वत्सः |
( ख ) जयसेने गच्छ॒ । इरावतीपरमु वेभ्यो ऽन्त पुरेभ्यः पुत्रस्य वृत्ता न्तं निवेदय ।
भगवति परितष्टोस्मि । यापतरमनजातो कत्सः। मै ताद तेति ।( एतावता शत्रुपराजयपूर्वकाश्वाहरणरूपेण वीरविनुभितेन _ शरवेष्टितेन नोस्माकं वित्तस्य विस्मयं न आदधाति । अविस्भयाधानकत्वे हेतुमाह । अप्रधृष्य ~~~
(१) 8.6. ¶, धारिणी-भोरि &८. १४०८ 1). मे. पप. देवी-भअविदि प्रितुदरद्धि अणनदो मे षच्छओ., (२) 98 6७. 2,7., ?. 4. रजा भोगस्य ( 1, }. ७. †. नन ) कलमेन ( ?. 4 . खल् ) यूथपतितुर्तः (३) 8.0. ¶. युयप्तिः (४) 8. ©. 7. ?. ^. छ. चवि अय कुमाः (५) परस्य, (६) 28.09. 9. 17. अध्रैः(*) 89. पि. 4, ऊरीरय. (< ) ६, मोचयत. (१९) 2०9 ^. तथां 07" यदा... ८१. ) 8. 6. 4. मेक {9 हरावरि ( ११ ) 7. &. ५५५ विभम, `
( ६५९ )
( प्रतीहारी तयेति प्रस्थिता । ) हेवौ-- एदि दाव । ( क ) भ्रती ०--( प्रतिनिवृत्य । ) इं द्धि । ( ख ) देबी--( जनान्तिकम् । ) जं मए असोअदोहल्णिओए भालकिभा- ए पइण्णौदं तं से अहिजगं अ गिवेरिअ मह वअणेण इरावदि अणुणे हि । तुए अदं स्चादो ण बेभंसइदव्वेत्ि । ( ग ) प्रती ०--जं देषी आणवेदि । (इति निष्क्रम्य पुनः प्रविश्य ।) भद्िणि पुत्तमिअअगणिमित्तेग परितोषेण अन्तेउसणं आहरणाणं मञ्जूप हि संवुत्ता ॥ (घ) देबी--कि एत्य॑ अद्रिं । ण साहारणो ताणं" मह अ अथं अ- व्भुदओ । ( च ) (क ) एदि तावत् । ( ख ) इयमस्मि । | ( ग ) यन्मयाश्ञोकदोहदनियोगे मालविका प्रतिज्ञातम् तदस्या अ-
भिजनं च निवेद्य मम॒ वचनेनेरावतीमनुनय । त्वयाहं सत्यान्न भ्रशयि- तन्येति । १ 1.1
( घ ) यदेव्याज्ञापयति । भर्धरिनि पुत्रविनयनिमित्तेन परितोषेणान्तः पुरणामाभरणाना मञ्च षास सुवृत्ता । ८६८४ ८ १५११ ९, ९, ८१ ७०५ ०५.
नः #
( च ) किमत्राश्व्यम् । साधारणः खल तासां मम चायमभ्यदयः ।
=१,५५॥
अन्येवपितुमशक्थो यस्य वीरस्य अपान्दग्धुरमेवंडवानलस्येव ऊरूज- न्मा ऊरुतो जन्म यस्य स ओैऋरषिः । अय च उरु ्रे्ट जन्म यस्य
(4) 8. ७. प्रि, 1, ०४. तयेति; 2. 4, प्रति -तह । ( इति &९. ) (२) पर परिवल्य, ¢, उपसृत्य, ८ ३ ) 1. 4, 1१८५1५४9. ( ४ ) 2, 4. ४५५ च ५५ 1९५4 च 0 (16 अ 10 छपर ९२६६. ( ५) २. ^. १ परिः प १५५ वि, ( ६ ) 3. ©, 7. ५५५ च, (७) एवं क्रं 071 कि श्यः 8.9.14. अं । कि &५, ( < ) प, साहारणो क्वु, 8. ५७. †, साहारणो ग अभ्भुदओ. ८ ९ ) 9. ©. 7. भन्तेउराण, ;
(१)
प्रती ०--{ जनान्तिकम् । ) भरिण इरावदी उणं विण्णवेदि । सरि सं" क्खु पहवन्दीए् दे बअणं पुदमसंकष्पिदे ण नुग्नइ अण्णहा कादं ति । (क ) ।
देबी--मअवदि तुए अग॒ण्णादा इच्छामि अज्नसुमदिणा पुदमं्॑क- षिदं अज्जउत्तस्स मालबरिअं पडिवादेदुं । ( ख )
परित्रा ०--इदानीमपि त्वमेवैस्याः प्रभवति ।
देी--(माल्विकां दमे गृहतः 1) इमं अञ्जउत्तो पिअणिबेदणाणु ख्ूवं पारितेतिओं पडिच्छदु । ( ग )
( राजा सत्रीडं जोषमास्ते । ) ५.८ देबी--( सस्मितम् । ) किं अवधीरोरे मं अज्जउत्तो । ( घ )
गवन ¢ 84 ( क ) भ्रिनि इरावती पुनविज्ञापयति । सदशं खल् प्रभुवृन्त्यास्तव वचनं प्रथमसंकल्पितं न युज्यते <न्यया कर्तुमिति! । ^ ( ख ) भगवति त्वयानुज्गते च्छाम्याधिसुमतिना प्रयमसंकल्मितामारप- पुत्राय मालबिकां प्रतिपादयितुम् । ( ग ) इदमायपुबः पियनिेदनानुरूपं पारितोषिकं प्रतीच्छतु । ( घ) ्रिमतधीरयिममाधपत्ः |
तवाभू पस्त्व च प्रभव उत्यतिकारणं उत्पत्तिस्यानं । एतादशेत्वक्तिकस्य- बीर चेष्टितं उवितमेवोति न विस्मयाधानकवं इति भावः । यज्गसेनशालमु- रीरुत्य ग्रहीत्वा तेन सदेत्यथैः । तस्याभिनवबद्धतात् प्रयगृक्तिः ) । अत्र किमाश्वर्यम् । साधारणो.न्तुराणां मम चायमम्युदयः । भ ्िने इरावती
(१) 2. 4.०. (६) 2.4. 6. 1. ©). (३) पि, रषी पहवन्तीए । तह वअणं सेकष्थिदेण &८, 3. ७. 1. क्व पहुवीए पहवन्तीए तव वअण | संकप्विदेण &०. 12०. ^, कलु दैवी विण्णवेदि पढमं संकविदं &०५ . (१) ८०. 4. 8. 9. 7. अशग॒मदं; अणमदा. (४) 8. 9.4. कि. (4) 8, ७. 7. ००. एव, (६) 2. 4. ०१५ माल्विओ. (* ) 8.. 0.2. 1. बीड माटधति (८) 2. 4. ४04 त. (१8. 06. 9.1. 9, `
न
( ६५३ )
विदू ® --भोदि एतो स्मेअव्ववहारो । सव्यो णववरो लग्नादुरौ. होदि । ( क)
( 0&-ट {4 ८८4 २५ ~+ ( राजा विद्षंकमवेक्षते । )* .~- (~ ~~ ८1/40. बिद ® --अहवौ देवी पणअविसेसं दिण्णदेवीसदं माखनिभं अत्तः
भवं पडिग्गहीदु इच्छदि । ( ख )
देवी - एदि राअदारिआए् अदिजणेण एव दिण्णो देषीसदो । किं पुणरुत्तेण । ( ग )
परित्रा०-- मा भवम् ।
( क ) भेवति एष रोकग्यवहारः । सर्वो नववरो कज्नातरो भवति । ( ख ) अयवा देव्या प्रणयविशेषं दत्तदेवीशब्दां माखविकामत्रभवा
नप्रतिग्रहीतुमिच्छति । ` ` ` “^ ./^““ ~
( ग ) एतस्या राजदारिकाया अभिजनेनैव दत्तो देवीशब्दः | किं पुनरुक्तेन । ^“
विज्ञापयति । सदशं खल प्रभवन्त्यास्तव वचनं प्रथमसेकल्पितं न युज्यते {न्ययाकतुमिति । इदमायपुत्रः प्रियनिवेद नानुरूपं पारितोषिकं माल- विकां प्रतीच्छत । अत्र प्रीत्यत्पादनत्परसादो नाम सध्यङ्मृक्तं भवतिं । भवतिं एष ल्ोकव्यवहारः । सर्वोपि नववरो ख्ज्जातरो भवतीति । अथवा देव्या प्रणयविशेषं दत्तदे वीशब्दां माखविकां तत्रभवान्म्रतिग्रदीतुमिच्छति ।
(१) ¶. अत्थि क्खु छोअप्यवादो सत्वो नणो णववरो लन्जदरो होदिति) 2... एषो लोअधणवग्धरो छज्नउलोहोदि पे, 1. ^. एव्वं लोअप्पयषादो &८. (२३) 2. &. ४५५ वि, २. 4. लन्नाटुओ, ( २) ©. ¶. ४५ त्ति. (४) र. अयक्ष. (५) ९१५ द्वा ट्वं विअ होदि एसो लोअप्पवादो सन्वो णववरो लन्जारो होरितति। ८६) 8. ©. 4.4. अह; £. इमे देवीर् दिण्णदेवीसदं; 20. अहवा इमे देवीए पणम &. (७ ) 3. 9. ग. 2७84 वं किदप्यणः &८, ( < ) 8, ७. 1. ४११ अ, ( † ) 8. 6. ‰* श्व 81४७7 दिण्णो.
(१.
( \५४ ) ॐ ५५१५४१६... 2
` "क ५८ ¢, छध्याकरसमुत्पन्ना मणिजातिरसंस्छेता । :..\ जातरूपेण कल्याणि नं हे` सेयोगमहैति ॥ १८॥ देबी--( स्मतौ । ) मरिपेद् भअवदी । अब्भुदअकहाए मंद ण किदं । जअसेणे गच्छ दाव । कोसेअपत्तोणं ` उवणो । ( क ) प्रती ०--जं भद्िणी आणवोद । ( इति निष्क्रम्य पञ्नोणौ गृहीत्व परविरय । ) देवि एदभू । ( ख ) देवी--( मालविकामवगुण्ठनव्तीं तवा । ) अज्जउत्तो" दाभिः इमे ` पडिच्छदु । ( ग ) | राजा-देवि वच्छासनाद प्रयुत्तरा वयम् ।
( ख ) यद्घ्धिनी आज्ञापयति । देवि एतत् । ( ग ) आर्यपुत्र इदानीमिमां प्रतीच्छतु ।
अप्याकरेत्यादि । स्पष्टोऽयं: । अत्र छन्धार्यस्य स्थिरीकरणात्कतिर्नौम सेध्यङ्मुक्तं भवाति । मर्ष॑यतु भगवती । अभ्युदयकथयोचितं न ल्य्॑ितम् । जयसेने गच्छ॒ तावत् । कौशेयपत््ोर्णयुगलमुपनय । हन्त हर्षे । प्रतिगु-
८ १ ) ष. अप्याकर...त्न्नो मणिजातिपुरस्छ्तः, 8. ७. ¶. अस्माकमस्सव ¦
`“ मूणर्मणिनातिपुरछ्तः ¡ २ } 1. ©. }२. 1. सहि ८ ३) 2. &, ००, (४)
प, उदं 07 मए; ¶. पम अवगृधिं; 8, ७, पढमं ण & (५) पि. पर्तण्णजु अलं; 1. पत्तोणंनुअलं, ए. 0. कोतिं, ( ६ ) 2०, &. तह णिः 06 86०६९००6; पपि, वेवी 01 मग्िणी ( ५ ) 8. ७, च. 1. 4, निष्कान्त, (<) पि, ४५१ पनः ( ९ ) ^. देवि श्यं छि. ( १० ) 2४. ४५ तं. (११) 29. अवख, ( १२ ) 2, 4, 19६००1१० &९. (१३) 8. 6. अन्जज््त॒ ` इअं पडिच्छिआा, ¶, अज्जञत्त इम पडिच्छीअद्; 2. 4, ००, इमे, ( १४) 8. ७. प, 1. लच्छासनात् ( प. प्रश्चा एव, 8. 9. 4. प्त्यनुरका ) बयं । ( अपवार्य ) हन्त ( प. प्रतिगृहीता, 8, ©. 1, प्रतिगृहीतं )* 1 ^. १. 1
( ९५५ )
परित्रा०--हन्त प्रतिगृहीता । बिद ०--अहो देवीए अत्तहोदो' अणुऊलदा । ( क ) ( देवी परिजनमवल्ोकयति । ) ~“ परिजनः-( मालविकामपेत्य । ) जेदु भद्विणी । (ख ) ( देवी परि्रानिकामवेक्षते । ) परित्रा ०--" नैतवित्रं त्वा | (४ परतिपक्नेणापि पतिं सेवन्त मवत्ससाः साच्व्यः। ` अन्यसरितां शतानि हि समुद्रगाः प्रापयन्त्यञ्धम् ॥१९॥ ( प्रपिशय )
निपु०--जेद् भद्र । इरावदी विण्णवोदे । जं" उवआरादि क्षमेण तदा भद्िणो अर्परद्धं तं' सअं एष्व भद्विणो अणुं णाम मए आ-
( कं ) अहो देव्या अत्रभवतोऽनुकूकता । ( ख ) जयतु भद्विनी ।
हीता वहीकृता । अत्र वाज्छितावापतरानन्दो नाम हु मुक्तं भवति । प्रतिपक्षेणेस्यादि । ( भर्तवत्सला स्वाम्याराधनतत्परा नाये: प्रतिपक्षेणापि
(१) ए, ७. प. 7, ०, (२) 5, ७. ¶. ४११ धारिणीए् ८ इति परिजनं &८, 0101198 देवी ); 4. ०110, 000 देवी परि &९. ८४० देवीं पएचिानिकां & ८ ३) 2. ७. 1. 1९९४६ ( ४ ) कप. निरीक्षते
8. 6.7. निर्वणयापि, (५) 8. © 7. ४११ देवि, ८ ६ ) 4. ०, (4) 8. ©. चि. 1. अगि नटं ( 4. रसं &8 216170891९6 ). (<) ३, ७. पर. 7. उदषिम् ( ९ ) 2, ७.7. ६००९५. (१०) ए, ७, ¶, ४4 हि. ( ११ ) पष, अवरद्रा; 2०५ ^, अहं अवरद्ा; 8. ७. 1\ । रहं मष्िणो अवरद्राः (१२) 8. ©. 7. णं सो अत्णो मद्रा । अणुपदं मद्विणो अअणुरूवं एव मए आअरिदं । संपदं पुण्णमणोरहो मद्रा जादो सेपसादमेरेण &५. २०.
॥ & मदविणो अणुकलं ण मए &0. 2०, ^, 01. {00 तं &९, & 76४ र्पदं पूण्णमणोरहो मदा | अ्हवि &,, 20. २१ अहंवि 0910919 मभ्णि,
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( ९५६ ) , रिदं । सेपद पुण्णमणोरहेण भद्विणा पसादमेत्तेण संभावइदब्व त्ति । (क) `
देबी--णिडणिए अवक्ष्सं ताए सेदेसं अग्जउत्तो अणुजाणिस्मदि । (ख) निषु०--अगुगहीदन्नं। (ग) ५4. "+= परित्रा ०- देव॑ अहममना भवत्सेबन्धेन चरितायै माधवसेनं सभाज- पितुं इच्छापि यदि मे तव प्रसादः।
देबी--भअर्वेदि ण जुत्तं अद्ये परिचडइदुं । ( घ ) राजा-- भगवति मदीयेषु क्खेषु॒तत्रभवतस्त्वामुदिश्य प्भाजना- ्षराणि पातपिष्यामः । त १
परित्रा०-- युवयोः सेहेन परवानयं जनः ।
( क ) जयतु भर्ता । इरावती विज्ञापयति । यदुपचारातिक्रमेण तदा भतुरपराद्धं तत्स्वयमेव भतुंरनुकूलं नाम मयाचरितम् । सपरत पणैमनो- स्येन भर्त्र षाद मतर सेभावयितव्येति । ।
( ख ) निपुणिके अवश्यं तस्याः सेदे शमार्यपुत्रो नुजञास्यति ।
( ग ) अनुगृहीतास्मि ।
( घ ) भगवाति न युक्तमस्मान्परित्यक्तुम् ।
सदाथ तृतीया । प्रतिपसखिया सहापि पातं सेवते । ततर चा॑नतः खषद्रगा `
(१) वसन्ते सेविदं अज्ज &८, ¶, प. दे सेविदे, ए, वाए सदे, (>) }8. जानि । स्सारि, ^+ ताए सेविदं नाणिःसारे अज्जो, (3) 1. 4, ने देवी आणवेदि । (इवि निष्कान्ता |). (४) ०, देवे; १, देव अमुनायुक्तसवं ' ‰५. 1. देव अमुकत्वतसंब ८६८, 1, ५७. देष वट्क्ता त्वं &८, (५) त्वदाज्ञया दृटा नयतसाफल्यं कतुभिः च्छामि; प. सभाजयितृं गच्छामः ( ६ ) 4. भअवदीए ४४५ 2०, &, ०५ #0 ४18 अवसिदकन्नाए. ( « ) 9, 6. प. 1. ०५ छव, (<) 8.6. ` %, श्मननानि यातविष्यामै, ( { ) 9, (७ प. ¶. स्ते. । ।
( \५७ ) देवी--आणवेदः अज्जउत्तो भूओ वि किं पिअं अणुचिद्ामि । (क) राजा--किर्मतः परम् । तथापि भवत्वेवं तावत् । ^. <4. 4\42 न =. त्वं मे प्रसादसुमुखी भव चण्डि नित्य- मेताबदेव मृगये परतिपक्षहेतोः" । ^ ^ ~““ ' “^ *-“
( क ) आज्ञापयत्वायंपुतरो भूयोपि किं प्रियमनुतिष्ठामि ।
नयोऽन्यसरिच्छतान्यापि अब्धि समद्र प्रापयन्ति ) । जयतु भर्ता । इरा- वती व्रिज्ञापयति । यदुपचारातिक्रमेण तदा भतुरपराद्धं तत्स्वयमेव भर्तुरनु कूटं नाम मयाचरितम् । पणमनोरयेन भ्रौ प्रसादमात्रेण सेभावयियव्येति । निपुणिके अवश्यं रोषमायपुत्रो हास्यति । आज्ञापयतु आर्यपुत्रः किं ते भूयोपि प्रियमनुतिष्ठामि । त्वं म प्रसादेत्यादि । हे देवि त्वं मे मम नित्यं सर्वदा प्रसादसुमुखी प्रसदेन प्रसन्नतया शोभने मुखं यस्यास्तथोक्ता भव भूयाः । एतावदेवेदमेव हदये मनसि प्रतिपादनीयमपेक्षणीयम् । इतःपरं ` भरतवाक्यम् । आशास्यमित्यादि । प्रजानां जनानामभ्यधिगमात्संप्रा्तः । परिग्रहादित्य्थः । तस्मात्परभुत्यारभ्यान्निमितर ९स्मिन्ञायके गोपरि रक्षके सति तासां प्रजानामाश्ास्यमपेक््यवस्तु ( ईतिविगमप्रभुति अतिवृष्टयादि रा्ै- त्यादि ) न संपद्यत इति न न सेभवतीति न॒ । संभवत्यवेतयर्थः । अनेन आदोसनरूपेण इाभरसनेन प्रहस्तिनाम सेध्यङमुक्तं भवाति । यदुक्तम्
^ प्रशस्तिः इाभदसनम् ' इति । सर्वनाटकप्रयोगान्ते भरतेन सर्वैकाल- साधारणे आश्चीवैचने कर्त्ये सति अत्र प्रजानामाशास्यसिद्धि प्रति गोषु
८ 9 ) पि, अज्जउत्त किदे भओ पि अं उपहरामि, (२) 8, 6. दप. ¶. ४१५ ३, ८ ३ ) 8. ©, ¶, उवअरिस्सं. ( ४ ) प, ०10, कि... .तावत् ; 8. @. 1. मम तावदेताषदेव प्रियं, ( ५ ) प. देवि (1. देवि 98 ४1४६४५१९), (६) 2, इदये ( ५ ) प. प्रतिपादनं.
( ऋभ€ )
4 „. . भरतवाक्यम् ।
भाशास्यमोतिविगमयभ्रति प्रजानां
संपत्स्यते न खलु गोषरि न्चिमेत्रे ॥ २० ॥ ( इति निष्क्रान्ताः स्वे | )
इति श्रीमत्कालिदासकृतं मालविकाभिमित्रं नामनाटकं समाप्तम् ।
रभिमित्रस्य कयनं तत्कालराजोपलक्षणमिति मन्तव्यम । इति श्रीकाटय- वेम पविरचिते कुमारगिरिराजीये मालविकाभिमित्रव्याख्याने पञ्चमो ऽङ्: ॥
श्रीमत्काटयबेमस्य कृतिवज्ञानशालिनः। कुमारगिरेराजीया जीयादा चन्द्रतारकम् ॥
(१) 2, &. ०४, ( ३) प. अभ्यषिगमावे, ( ३ ) १. सेषद्यते,
(0 ` ` णा. # ॥(¶ (.
ए.1. माटविकाधिमित्रौ अपेतो यरस्मिस्तन् माठत्िकापिमितरं नाटकम् । ए ह: एषभ्ठणाकः8 एप6. 19प्ततवप्टणष | (1) कमि च+ ग्त्-- कात धण्ण्डा, सरामाकछन्त् क उमर (द्वान्छ ) । कणफष्छफक्छक कठो) एलेवड फकणामिति = एल्डण्डुञ ४० इपएुगा८न्प७8, एप €" २५६ । शशा कण्छाह भूत्-हु४षप७ण४; फ10, भकष 118 एरक 28 पादवत् कान कष 9 9 एथरर्ल्ते ( पल्ष ए्णाप्टत् प एकव कापा 8 06 10१९६ ), 8{8708 8६ (6 € ० 88९९668 = ग]086 = 01048 219 छष्छाटत् {0 = फणणत्_ ०0)९8 5 10 फा०ण 6 18 ०० इश । €०ात०॥ प्रणो 16 णमह ४6 फण् = प्णोण्छाह फ] 118 लाह । शजिःणड छ 16 1७07 एत 86४16 0 ४२1६०७88 10 ०प्वछा 0 ®8016 णप 1० एनत #ल ष्पा ज हरन्त, सग्धरा. । 45 ४ नार््दा, ४५५०170 {0 {116 6878 01 ालम००, 0प्टा४ ४० (नय अऽ ल्लः ग लटो ० (नर पदा३ ( न ) एमर्डणाः (19780819 १०९३ | १०४ ९बा] +॥18 98 नान्दीं एष ४ फला८ 10एकलव्ना 0 #6 कपालः ` कलु ( मंगलाचरण ), 7४४ 116 एषा अलप पदा 8 ¡ह मतिश्च ( प्दनियमोऽपरि वा) प्रा 118 09}९८॥7० 18 १०४ १४11१. 2868468 1† ७ ५४९७ (06 ४९86 ॥0 ४6 । 9 7676 मगलातरण, नाद्यंते १०४1१ 19.76 79 71680, 1106 . [०6४ 66, 28 । क. 078: ०पलः = १01}:8 ६त१८९७३९8 118 = 6द्वालमण ६0 गिवण 8 5 ॥0 इपर])०86 ६8६ 06 79 ७६ 16 9 १९९०४९७ ० शिव । । 29 छ भ 16 प्षछताक्षजणक्ष एलोर्लं पिष्ति 16 क ४ स0ा8]119 ६ कालि. ४९४ 8 १७१०४०० ६० ब्रह्मा 9० विष्णु ९०७७ ००४ भजः 1688 (४०४ ० 1४ फ०क्ोला० 80) क इद्वा 0 05 एन १ एन॑ त धी ६०१९१९३७ कालि जाप फोन 8 00796 18 80864 ८० 06 १९७, १७. ६ =४ वणतष्ठवप्ठ्तमण ० 9]०७॥ भ एड जनत, = क6 कलमा गृकृन्डपकेष पप पड ^^ ३२५ | १७७९ 0051548 7 प्रणतवहूफले एवै वेयै स्थितोऽपि & यःस्वयं छ्िवासाः ; का ५५ १५ त समित्देहोऽपि ५५५ अविषय &.; ०५०१ अटामि : &०. ००व यस्य नामिमानः) 4 ४40 एद धलाः6 18 २९४] नुत (00 10 एकं 9४ बहु एवौ वं &८. पिभ | ( $णन्णप्फक्षा [0कला ) ९00818६8 9 न्वा ्लपोत्लड एद --अणिमा ` देषिमाप्राः प्राकाम्यं महिमा तथा । ईशित्वं च वशित्वं च तथाकामवसापिता ॥ ५--
४ ५५५१ न ५, | क ५०९ ५ ११2९, ०4 (} १९,, ~~ 9 & ५ >४-५०. ^-^ ९५ ५५. ~~ ५, | 1 1 2. |
रिक्रमोषशीय 1. 1.यस्मिन्नी"वर हत्यनन्यविषयो ' &. "7७ २९४त;०् प्रणत ...को &९. 15 ००६ त्माश्19 ४8 च6 फए्णृपलक ० अपि ५ ग्थ्] ‰ ० ७ 1019 1106 15 1०5६ पोमत्छफ; ©{ 5 गृहिणीपदे स्थिता ' शाक. 1४. 18. ०५ 07, 6४ 86678 19 185० [र्छामन्वे ३६ छतिवासाः -- बरणीलाड ६० ९ क्० ० ७ कृषणक्रलः ० लृनृोषय कन शिव 3 $णृण्ड्लव ४ ०, कातासंमिभर &०, ग्थाला४ ४0 ध© ००९ णवाण्वण्डक् ० शिव त 115 (009७1, #116 पद्व कन ॥09 9 ४6 ४० एलण्ड पठ १० ४8 [६ ००6 {6816 ; ५ : (अधनारौने^वर, अर्धनारीश' &८. अविषयमनसां 4९.- पिषय- 49 ०४९९४ ० 8ला86 म 868४४] कल्छकप९. = ¶078 अजक ड ४ ९- | ४४०६. ७9 कान्तासंमिभ्देह 4५. पुरस्तात् 0१०२०४५. प्रस्ताव्-1" ४९१० „,\ # भानल कश्व्वोणद कालो 38 [ष्डलिःश्वे णो ए, आक्ण्वेद्; न एको रागिषु राजते प्रियतमादेहारधहारी हरः । नीरागेषु जनौ विमूक्तललनासंगो न यरमतप्र : ५:-- शाकंतल 1.1. ' श्रुतिविषयगुणा &५..२.“ अष्टामि :&९.116 6६५४ 008 #76 1216 १७ = नशन ७०8, ( उमा, जत्या, १९, १६, ४१ . कोलः 07 शः ) #6 इण, 6 6जा, अत ४6 शष्लालिणटठ [७०४
८ पृथ्वी, जल, तेज, वायुं, गगल, सुर्य, वद्र, & यजमान ). यजमान 1१०४५] » ४ लऽ भ10 लणमु$ एः९8॥8 #0 कृश्ण 8 8८0९8, = ५0८6 ॐ लमल, 8 कपप = तो€१४, ल -- शकृ तह. {. 1 १७० ४ --
जलं वन्हिस्तथा यष्टा सूयकद्िमसौ तथा ।
आकाशं वायुरवना मर्तयौ रौ पिनाकिनः ॥ ४180 <:-- भविष्यपुराण :-- ।
शिवायक्षितिमृतये नमः । भवाय जलमूर्तये नम : ।
ददरायाप्निमृ्तये नम : । उग्राय वायुमुतये नम : । |
भमियाकाशम्र्तये नम : । परशपतये यजमानमूतेये नम : ।
महादेवाय साममर्तये नमः: । ईशानाय सूर्यमूर्तये नम : । सन्मार्गालोकनाय &.-- [9 0709 ० ७४४1७ १० ४० 8९७ {० %। ० ००, ( ४© कष) ज ह०्न्ते + ल्लः चन कृषो) ज गाल ४8 ९ ४१७ 0 168 19 {:5 कणा] म € कृषी) ज १४: मोपपतैमण ज १9१॥ = ४९०।१४११७). [प मार्ग, {१6 6०फा०९०॥१(०॥ काटयवेम १1७० &०]]०७७5 11५ । पीहु वे ० ४ ४१०१ 9 १४०९९; १११९. (०; ६०१ ६18 18 10 #<८०ातेक66 तै चह रणड (१५४ ध,० नागी 6१०८।९ 1 कान्यार्थसूचका( ५" रगभसाध्य मधुरैः शोकै : का- न्या्सूुचकैः! &, ) ४5 1 पण ४ (26 6006) ए्जणक्९७ ४६ {जताण४ 11718. 7 2.11. एणा कण्ण [रलः ४/6 १८४त)णह वः छण] भल मार्गं 5 पतमक॑००व ५ ॥:5 5८5९ त 70६ ४ (09 जपेफक्षकृ ००५, ५ व कवा ७९९ चकर ०»
1
व्ण ४ कृष्णलः #९ प्ठष्कण्डु इनणलशा, तामसी(तमस हाप तामसीं) -891008 ण्ट ४ 16 तमन्. एष्णृण्फ-००6 ० ५७ ५८९ -सत्व ¶ ण्डा भ ००९०९88 , रजस् १ 9 29881008 ४0 तमस वृषभा ग तक्ष 1१९88.--
एष्णृशंटड 9 ४१6 क0प्त, 8000०86 ४0 8 १७ २68१1४6 ४ ० ४त-
0 6076 ० ब्रद्य ४०१ माया का ४ हावाः 8 0 ४6 ध्ल्लाः ४०
` 0णणश्श्वृ्छणनिकग = स्धप्रणष् प्म. बद्या, विष्णु ० शिव- 716 धण०्त ण ,
४५ पतप, ए९ु९86ा४8 ॥11९86 वपा प्रइ 169ृ6्त र्न, 7018 एरा४७ 7ाप्७-- ४९७ 6 876 बि रोधाभास. नदी( नन्द् )-- 8919त16060 ० & पण ग एष्णण्हुप्ल-- ( नेदंति देव्ता यत्र): | आशीनमस्कियार्पः शोकः कान्यमुखोदितः ८ कान्यार्थसुचकः ) । नादीति कथ्यते प्राज्ञैः पदादिनियमोऽपिवा ॥ अर्थतः शब्दतो वापि मना कायाथसुचनं । मांगल्याशखचकराञ्जकोकंकैरवशेपिना । यत्राशामिद्रादशभिर्टादशभिरेव वा| + द्वाविंशत्या परैर्वा सा नादीति प्रकीर्षिता |
[ष७ 078 ४ का] ४७ ००४८९ नद (कभा 18 0066४00 0४8 ०0 768] {०००१४६०
नाल्य्ते--ना्दी परित्वा सूत्रधारः सूत्रं धारयते ' यस्तु सूत्रधारः स उच्यते (्रधाननटः ० स्थापकः-1 6 ११७८१०१. ४6 8४86 0०510688;706 8096 ८९०४६. प्र ००६६ ४०४९४ एत्थ" प१. नेपच्यं ( ने- 10० ९० & प्व -4&"९्ब४९)- फ 0५४ 38 87868118 {9 ५6 81४४ ७०५९ 1 ) भणण प्फ, ०८ ( 2 ) व७88 ७ कपना; “उदारनेपथ्यम्ता राज्ञा. 6१९1६ ९8०8 06 {जपाः मारिष ( मृष् ० ४९ ए6८पध )-4 पव्गृव्पा ध्यय छ कल ४९ सूत्रधार १११९९७७०8 1:8 5815६8०८ ८ पारिपा्वकं ); 19 10 18 \णप
` 9११०९७७९ सूत्रधार ०७ माव. ८ सूत्री नेन भावेति तेनासौ मारिषेति च). पारिषा-
स्वकः ( पारि पाश्वं ०८ परारिवार्त्वे वर्तत इति सूत्रधाराकिविद्नो नरः )-- 4४ ४5988101 #0 #06 फक्क्ूछाः 9 ४16 [श्व . 2. 3. प्ररिणदा परिषद ०षद्ाणात
प्रालषा ४06 [५५6 १००४ ४06 8९. प्ररिषीदन्ति अस्यामिति. 17५ 1१५९ ऋ 10616 1167 816, 19066 8०16066. एप्मप ४16 016 9 ४७ सूत्रधार (०५२५8
४४७ ४०९०००९, (6 शूड8ं०प ० विद्रन् 0००7७ परिदा {० ००४) 2198. भगृभा$ 9 ए549}58 ०६ (० ००९७५. कालिदासेन प्रथितं वस्तु यस्य । वस्तु - (अभिषेय)8१।)००४ प४{७, [010४; ग--द्शन्य 66 #16 ४०० ५1८५ ० ४0५ ५109०५68 6८७७५ {16 ३५१५०४1 ४५१8 9 ५४५४८ ९०५०१०७१५०४३
©7० 9 =कापिला८छ०९७ 1 वत्तु. ०{:-- वेणीसंहार 1. “उदारकयावस्तृगौरवात् नाटकं-- 73 ;5 ००००१ (१००० 1८०05 ० दृश्य 0 अमिनैव कान्य भढ; नाटकं च प्रकरणं माण : प्रहसनं डिमः । ॥ न्यायोगसमवाकारौ वीव्यकेहामुगा दश ॥ 1. 04 :- नाटकं ख्यातवृकं स्यात् ¶चसंिसम वत । म विद्ासर्व्यादिगुणवन् युक्तं नानाविभूतिभिः ॥
10 & नाटकं 80706 ०४९ 860६70९४ पप 6 कृष्ट्तलफाण्डा+ #त ४6 |
०ाड हपएणाप०४५९. = प्रला७ ल कष्व्वनफाप४०४ ७९।१०९०४ 1 शुयार् (10)
जः णलः कृष्टण ४४०प४ 1४ रविः (त्ल्म ००९७ ० नारक
ज
६३ ^५..810त 5668 ॥0 18४९ 66 कापाला] छप) ०९ ए ५७ ष्रल ॐ हरम
शि
1० पर तणचण्वण्ठ०, व :-- वीरशुगारयोरेकः प्रधानं यत्र वर्ण्यते । प्रख्यातनाय-
कोरेतं नाकं तद्दाहृतम्. ॥
वसंतोत्सव --11\० श्ा००] {5७६;१४] 10 कल८भप० {7० 996४६ ज मृण नोत सप्फप्भोु ८००८8 ०४ ४1८ 98४ 09 ` 9 ४6 पकः 09 ज काल्युन
€5 [6९9] ए क0ा०७) 199. 11056 १७८९६ 0 88109 8] ])6978 {0 ४ ₹© ८्ल ४१प५९त् + {९86 त४१३ ए ४प्रोहभः लल 19 ॥€ जप ज प्रभा ००७०० 111॥168.1 16 ०0ह्छाएका८९8 लशाुमणल्वे जिः ध 5 ल्कम् ७ -( 1 ) ¶० ॥प९}) & 9) ०१ पलप (0 ४४।))6 (0 हल्छपष्ठे पिलछ्वेनत्र 9 आ भ0४, 80108 8१ त्8९2868 ; ( 2) 1० कणडो ४ 0011-9])०॥ (० 86०7९ ‰8 पदडप०४० ण 9] एण ; = कत् ( 3 ) (9 ९४४ प फणद्ु० 0०० पन्च ऋध) 8१०१३] ७०० {० 8९6१6 {१९ द्ध ९९४ बृ ०९8७ ; । पल्लनण चन लिजकः०६ मताऽ वन्दिताति सुरेःद्रेण ब्रह्मगा शंकरेण च | अतस्त्वं ब्रहि नो
टि मृते मतिप्रदा भव | चतम वसन्तस्य माकंदकूसुमे तव । सचेनं परिवास्य
सर्वकामा्ंतिद्धये । निर्णयर्मिधु | .+180 तणप्णष्य ८ ६९ कृशं ० कर ऋण ` ४९४ ० रत्नावली. 0 तप (015 ल्छनल्मृाते+ (0 ४ फ०्वेलतन प्माक्ग्ब. ।
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( परिषदा )-- फ» १०९७ ४16 ०९6०९ 90 ६०९७ ९४१ {0 ४6
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णण एलापक्षर 18 $ 10 लातक्ट् कठणाणल.
(2) छल पणद् ( व्नण०डप्म ) 18 106 &००त ण] १९९४०8७ 1४18 ०1१. कणप 38 ४ (0कक््प्तमा प्पकजाकी ग एषा (गः 8४ ४ ७९6 (त त त, १.१ 1 ४१९ ४ तप९ दकष फकप्रमा तमु प्ल ००७ ०१ ४6 कनल, = (0९ न्नः - ४९84 085 118 {०१8६१७०४ हुपव्हत् छ ४6 (ए०्परनन्प रम ०४९8. इंद्रवजा.
पुरा नवमिति पुराणं- फन ७४ परभा णम, ७०७९ णव इति- ४९५३०७०. अवद्यम् ०४ 8४ ४ 16 शृणेप्छ 9, 16066 8४ #0 ४९ €०१९११९. वद. ८९९१४ छपा ४० [०8९. ?. 4. परप्रत्ययनेन नेया \ जु दवि्यस्य, परि+$न्न्- ¶0 866 10पत €दभर्थणाा, = 0९०९6 0 = @दभ्या०९. आर्यमित्राः--1४५ 1000 प४४1९ ०९, = ( प्रग्कणष्छणी७ = 89९८४08 ). आर्यमिच्रा :& ८ प्रजार्थे मिश्रम् )- 7106 ॥00प्फश01९ 8[9७८।४078 876 {19 भणतः (0९8 पवद) , 108 १०९७ ००४ र्मः (० सूत्रधार, तेनाहि-
80 भल, प})6प कणप 8०क एना ९6 70 पान प्व,
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अव ए०ण्वण्डु ४0 ॥€ नाभललः १४६ 18 [पऽ कणलधं०& ५1९6
| ०५७०, सेवायां कुशलः.
1118 [०९ भं प कछवप्लणड ४ लोक्ावललः को ॥€ 8 18 } छक
१ 88 प्रथोगातिशव- (016 0 {1५ १७ ८:०१8 9 प्रस्तावना 7 भना) ४ षौ ण ग्जिकक्षा९ 15 उपला ९९व९वै ४ पप०ीला प प्ट 9» पभ्णाजलाः {४४
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8 तोलाला 15 शप्रतेवलणकु एष्णणद्टो¢ ० (16 रिद. 1.6 = ज))लशा८ ४१९ सूत्रधार ६०८४ छप [ण्ण ६५५ वत्त ००७ ०» ९४०४८७८ ६० ४ चड [लज ड ४
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74:-- यदि प्रयोगे एकाभ्मिन् प्रयोगोऽन्यः प्रयुज्यते | | तेन पराजप्रवेश>त् प्रयोगातिशयस्तदा ॥ ( 8.7. 802 ) 0. एषोऽयमित्युपकषेपात् सुत्रधारयोगतः । ६ पाजप्रवेशो यनव प्रयोगातिशयो मतः ॥ | ८: शाद्ूतल-1.5, प्रस्तावना ( प्र+स्तु )- 4 पष्ठ [ष्यप्वम, 81) 111४7५4०८५५५१ वःभण्द्वणठ ( पप] 80०९४ ४ ४४५ प्मण्डहुलः ४० ०४५ 01 ५।७ ४५४५४ ; 0:- नटी विद्षको वापि प्ारिपारेर्वकं एव वा | सूत्रधारेण सहिता संछा यत्र कूर्वते ॥| चितरैरवाक्यैः स्वकार्यो.यैः प्रस्तुतालोपिभिर्भिथः । आमं ततत्तु विज्ञेयं नाम्ना प्रस्तावनापि सा ॥
आमुख 15 ०००६)७् पा० {07 प्रस्तावना, 8.7. 300 1६88 ०8९७ ०त8:--
उदघात्यकःकथोदधातः प्रयोगातिशयस्तथा ॥ | प्रवर्तकाक्गलते पच प्रस्तावनाभिदाः ॥ [ 8.7. 301 ]. + ¶)) 8 ;5 9 ध6 पप्प् ६०. २११९, ७१}. -शा ूतल.1.5 तवस्मिगीतरागेण' &५, ५॥;९] काटयवेम ०५९७ ४७ 9 {०७।७००९ ०६ प्रयोगार्पेशय,\ १००६४ साहित्य ५ गकार "८५708 1४ 88 8 10819006 अवगत,
१.5५ यती विद्-1० श्थश्थु-- 4 {९०४७ #ला ४०६. अचिरप्रवचोपदेश-- 1 |) 1८|) 1086एप्८प्जाप 185 0660 1846] = (फ प्लातस्व् ( ४० ४ञः ) ३. ९, ४४6 96 18 एलाणड णी पल्ल्लणपु. व ०18 छते 06९ 18
21५ &००५ चटितं-- ^ 1८14 9 १४००९, ४१९. त्णणप्डाध्छ्. नस्वि
{ नगरस्य हदं शत्यं ष्यञ् )-( 1 ) 09णलण्ह ( ४५ ३९०8७ भकोव्छछर रलो; ( ३) {116 8८1696९ छ ४१४ ० वेढ्णलाणड्ठ भः चठल्णद्वु 1. 6, 8८०16 इत ( भुगोल्ाड ० नारं भि्नर्वैः &०. 1८४ }* नाट अतरेग--अन्तरेण -ए़; ग्छष्ुश्पपे ४ ० ९०१०८८1६, ४म९6 ;9 ४6 १४०८९.अत्ततत अन्तरेण &&. ्णष्थाप कल्प १७, ५००६५. 545
(01५८१४७ {16 6०00 [११९६1५९ र 1.1.1.1. 1.10 3.8] ] 0-698-06) 19 {00086 १०५३. = 1716 ठणपप९प(७(० ३५ {® ठक लकापा ० अत. एकता४8 पणेत, भा्माद 19 १५११०६ उपदेशारथे ७००३०७७ १८ १०८४ १०४ ६1*७ 8 2००५१ 8.9 € 86086, उदेशारथे ( 19 ५४० ७०४० ० ए"०- $ {7166, एष्ष्छलो ' ) 8 1 80085 ४6 = त०तण्छ सकृ, कभ नत्तविशेषः. 19 ४09 त्णणपलाकाक प्रावत्त-एपपणतवे ९४०
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आभरणं हस्ते यस्या सा. हटा--.4 1श ०६ ४११२०8३ ४०1० €808.
५६ :--इंडे हंजे हलाद्वाने नीचां वेगी सखीं प्रति प्५1०० " कुत: &०.-- फण)
876 ‡0प 80 76-०८्८ण]01९त्. धीरता प्ालकणाणष्टु < हए, 8€1008688 70 कश्ल्वाण् सणि 6 980० 9 पठ ्णणत् ॥0कदप्वेञ उ०पारतपणषटु.
अतिकरामन्ती -- ९97०६. इतो &०.--12० ००४ ९३७४ ४. 19०९6 ३० एण १८९५४.
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ज्ििग्धं--८1०5न्5. निध्यायन्ती--1०0८1०8 ४४, ९०प६्€० [19 णद्ट; "विर निदन्यौ
दहतः स्र गोदुहः ` २५१ निदच्युरकयुगपत्मरना इव..6. स्थाने &९.--] ०७1» । शण्पाः &ष8 38 छन्हि ० ४ ए्णृनः ०४]९९४. उङ्ध्दकिरण-
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( 9 868 ) 9 7४5 071691६8 {ण कुसुमित इव --43 £ 3 11०88०८.
( कसुममस्य सेजात इहापि । तदस्य सजातामेप तारकाय इतच्. 1४ 33 ४ उच्क्षा. ) अग्रहस्त ८ हस्तस्य अग्रं -तत्पुरष )-- ¶० {०७ 97 ० ५४९ । 1182, 1. ९. १0 8०8६९०8. उपदेशग्रहणे &.--० शश्व्लणणह् = उणशपप९क०प > €. प्र] ३07४ न एप 9०6 85 8100० 06861 .7.इंदशेन
8 9०९) €णमुणलण, € कवण्टश्हाणट मालविका 3० 0४७३० &९. पण्वलः
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। ९४०8 186 ¶0पदो, (© पण्ड 8 १००० ॥€ः ७९8६ 0 1६९९? माटविका००४ ण ४८ श्ण ४८ द ए 8116 क88 866 17 01. आम् -- 40 1४६श¡९८- । #४ ०६ ०७७९० "00 ‰०8› ०६--विक्र° 117, “आम् ताप्मिूर्वश्या वचनं स्वाति ` भार्सात्ः शाकु. 111. “आम् ज्ञातं. पाश्वै गता पारर्वगता-7) 11० 8:१०. पर्थू । ममूहः-पारर्वः--4 ००1००४०० ०६ 108.वित्रशाटा--¶1० 0;०६९8 8८०0०. प्रत्य- ` अरवर्णरागां चित्रलेवा--76 0७ ०४ फ<्) ० 1०९8 ग {06 स्गरप्णण्डटु ` भलाछ ( का ) परत ( कल्य ). उपचार : ( उपचरति यस्मिनिति )-- | थाणा, रणकण्यकु गक००९. त, शाकुं, 171. नोपचारमहपि' &. 1 । “उपचारं ताव्मतिपद्स्व. 415० रघु.111.2..उपचाराजलिष्ि्दस्तया.परिजिनमन्यगतां
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च्छक 10 च19 फा त७६ जा वृषल) 'इ कतलाते९०१७. २ 8. अपूवा - कर. एर०ता४. ब् ए. ¶ काश ष्टवे ४15 0 * पिट -०06, ० पतौ ह्ला एर्मजत्ठ (न पएृवै दृष्टा ). 2०८३४ फु ९५४. 06 11९ ज कल) वति णम संह एरिर सप्०ाप णडा, क०ण्तेजणो'. 1 १० १०६ 866 कण पट्टकरमे भ तण
१४; १७ १९०५७ ० 21१.12००६;४. काठिरास ॥%७ ०४८त अपूर्वं १ हरण्छने 19. ०; <.-- शाकुं. 1. “ अभिन्ञानशाकुतलं नामाप नाटकं परथोगऽधिक्रिवताम्,
&15० ११४. 111.*अपूर्वोऽयमुपचारः "79९७७ क] = एताः ००६ ०६ ऋ९७ ण्ठ तन्म. ¶0५ कलः प्दवाण्डठ अपूर्व्या शो१८ ५५ 8976 8086 ण २४ 18 ५0० गृ [णिः € पण्ड 0 स्क 80 कणत + दपृाष्छ् 18 95० {07 छलः रल 0401, आद्तिविशेषेषु &५.-- 6०० †०ल इ ४{11४6४ ६४९००; कवापकजप फक्त्भोक = जाम्क्ड = [गरल िच्यड,
(पदं 1०४७1८० 81०८८ ००1०१९18. आक विशेषाः) विशेषाश्च ता आकूतय 5 > ३.( भः आकती विशेषः ० विशिष्टा आक्ूतवः--पटसधष्०्ेःफ् ( १९०१ ) २. )५~ {ण ण8. अः--अतिधिविशेष, अवधीरितवचनः--अवधीरितं वचनं षस्य सः-]णत्- ` \ ४.५१ १८ णहु प ०० ४६९४० ५४5 9 (० 05 ¶०९७।००. अनुद ( 9. 2. )-419 1९88, ¡ पकम ॥प९, पाण्ट. न :--काडवरी 69--' पुनःपनन्वानुबध्यमाना. 4150. 133,207,238. निर्वेध (८9, 7. )-10 [९७७ &६,, †8 1०89 ९००0 19 38०७- एत पलपपा०, 1९ ज निर्बखिषित् ( ण्पिणत 10 फण व्ताक्चग्छड } 5 ००४ 6011९९४ 8&8 {16 २००४ बध् €109$ ० #< 1४० अनिट् १००१७. वसुलक््मी 88 1106 ‡०००६८८ हरल त पारगा आउत्त (भगिनीपतिः) --106 अऽ ७ }05- ४४०१). ल: 8. 6 सदृश खट् &८.--1। 8 ¶४५३४ ए6सणद भध, सि-णणपतछ 02४18 लो१त फक्प७ धा ०र्छाः, सदश 08 06 परत्व भ 1४)) ४6 हछ111 ९७ छह 708- ८९191. सविशेषम्) [14 भर्ूरदरशनपथात - ०४ 9 ५० "90९ ज € 1४ द ९९ ; 9101941 १९ 15 ०४९ते ९1७ १७८8४०5९ 1६ कड ४४० &००१०७ ० {997 (मतिर्थांनां ).९.9.अनापिष्ठ आःमनो &.--1.0०)६. ०८ ४५१७ {0 ए0प 0 तेण ; #1{दाणत् ४ कण्ण एषम जा :---शाक, 1. 'स्वनियोग अशुल्यं कु" ०८८११ 10 097. [19068 > ताक, । ०८्टपा8 प 8006 €त16008. 116 7००# प जषद्व एलथर्णद्कणड - ० उभवषव हलनथा भृत 1० परस्मैपद, = दशंयामि--1ति ० २७९ {0 १06 प० ०५८८ {८५९ कुलविद्या ( कूलागता विद्या )--प्रिशण्पा्भ वकद { 1गर ) ` बहूमता--{ 15 ) ष्ठो एषय्ल्त्, एञल्वे प्ण्ठो). न पुनरस्माक9 ९४७९ }0 कण्टा, म न र. परक, प~ (तयापि न पुनरस्ति विष्वासः'. मिथ्या गौरवम्--ए4]89 ( ६०००१1९8 ) पकृण+१०९० ; ण प्थकृष्य, = =
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~-चक्षुषान॒मान्यं --* ४० ४९ ९०1०7०१ ए ४० ९०. कतं कतुं चाक्षं - फ ४५०४
९28९8 &०05§ 98 70 प८}1 &8 8 88677069 १०९8, 16 जणा वः6€००8 एल 6 ०286066 भ अणा] क्प्ल, ए0ण ४06 भत एण+७8 कांतिं
४०१ चाल्ुषं ४7. ९४००६ 98 1४४ 6 [88886 एाश8 ४0 8 ९० जच कः>] 88066 12 ९078 0 06 ए९६्$१०त कः कष्ण ४8 एलणष्ट नतः ४०१ 05४९९801 ४0 ४०९ ९ु6--9 धरा०९, ४08४ 28 0 इथ, जन © एपतत08॥6 14988 0 ४6 ४ ९16 8861066 ए600101996त, 1706 २९8१. ॐ शतिं ( १०१९६, फाध०ण४ ण शप्ठए्छा ) 2180 &0०68 ४0 णछर७ ४6 &9708..10 उमार्नन्यतिकरे-- 778 गर्थाा5 10 ४16 तपशाक्ति 79 णण ग शिव 82 ‰;3 8, ४6 1४ 8:१6 ग शिव णथण्ट {16 8876 88 पार्वती, 1. 6. 8 1४ 846 38 {616 क016 ४०७ स्ट ००९ 38 916. {078 7768 28 €रसा0७ 10९७ 07 035 ०61०१७१, ५. कान्तासंमिन्नदेहः' 7 ४6 6४6ा८००. वि + अति + ङ - 70 ८०:४७. शिवा§ {0०02688 {ए 0णभपष्ट भणत ण्डा6 +... ‡8 जथा] ००. प618 पटु प्डज्छन्ल्व् 28 त9णलाणह्ु 80 अण्ण का 0718 +. +:
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५६ :-दशल्प 9 ° “ मधुरोद्रतभेदेन तद्वयं द्विविधं पुनः| लास्वतांडवद्पेण नाटकायुपकारकम् ॥'
ज्रगुण्योदधवं( तरयाणां गुणानां समाहारः त्रिगुणमेव बैगुण्यम्. )-- = गशण६ छि ४€ 766 == एतण्लएक = पृण्ः०७७ = ( सत्व, रजस्, ४०१ पमस् ) ० ०४०8. नार्चं- अवस्याभिनयः, रसः ~ 1956९, 86०४१ ०१९०४. 4.8 2 0))) 6८४ 9 एण्ड, 8 रसा 9७ हरणा] ९००८७7७160. (3) शुगार--110१०, (२) वीर--पशः७5), (३) करण-- 1००१९०९8, (2) सैद-- ४४ (५) हास्य-- अ, (६) भयानक, (ॐ) अदूत--रण्णः$९, 820 बीमत्स्॒ ~ ^} : -
"१ ^<. ९६. ५। 1 कि , ¢ = द + ५, ५०९५ के ९6 , 0 4 ह ~ ¢, 4 4 श दः , $ ककन ५५
10 0 श्रण्भै. शान्त -#५०१०।1४१ ०" वात्सत्य--?४श०४] ¶९फतेला०९७७ 15 इठा० ६९४ €0णकवनश्ते ४8 (6 पण्लौ). बहुधा - 7० ४५ वण्यणते नाध भिन्नष्वैः. 2.11 भद्रे- 6००१ 105, आयं केव पृच्छति 11.1.41... 1.1 1.1 ॐ १180 £००0. हि ( 4 हच्ण्लभाफ़ ^» पभरलफ 2. )-70 ४९ धणप्फश्ण € © {70प णले व ( 9 ?. )--1० भण ४ गः ४0 ध्छपो९. 8०9 ४७
8868 876 811८01९ ४५७, 116 णिका 38 = पद्य प१९ ४०१ ५९ कलाः 28 तकण१९. 6 गणाः कण्पावे ४5 एनैध्ल. विज्ञाव्यता-- 194 6 15 3४0८०१९, विभाव्यताम् 18 ४101}; 76901 06 †जत्छः ॐ एधसिषा९ ; ४०८००७९ विभावय १८९8 ‹ ॥0 09 ०6 पछ » च्छति ९०४ वा्ि०प ० कणेष्व्९ › ते पन ^ पमण, कण 168 पाशो कलय णह 15 ^ ० कृष » कद एलणार गाल पते. किं बहूना-- पलछ ॐ 6 ०८९६त ज च णह फप८0; ६0 एण ४५ पथ्ला व्गणलंश्लु त
(5 ) 1 (९ गुलाः ता वप्या ४९ 7कू1९8९ ४७४०४ ( ड़ रतु 9 ७५४०६), क 816९7 86111016 181 86११० ( प्0ष्लपलण+ ९२१९७81 96 01 82००००४ ) ४०६१४ {० एलः 9 २९, ४६४ 106 0, ४5 1 स्९, ५९०7068 ‰ 6 1 करछ॑प ॥¶ 1ण०कणह् पण ४ आर्य.
16 10106 ० अगि ५० बाला 18 "71:९4. प्रयोगविषय ( प्रयोगाय ) भाविकं ( भावाय हितं )-- प ४४।९०८ः 3 ९९।९८16१ ॥ एण ००४ # श्लिषु + < भाविक, प्रत्यक्षा इव यद्वावाः श्रियन्ते भृतभाविनि;। तद्धाविकं । कान्यप्रः 2. 10. 2.12. अतिकामन्तीं &५-- 1 8९ ४6 ०प॑५ण् ०ण॑ ( अतिकरामंतीं ) इरावती 8. 1 णाः 56 की ऽप] ०58 इरावती, इरावती क४8 1119 ८००० (प~ ल्छकणन्त् ) वपव ग ९ ण्ह. ए. 1४9००) र्ृभ०ह इरावती ४ अन्तरो विरीषः | 11; ;8 उचरक्षा. छृतार्था { इतिरना )-- ननातिकम् (1०0;०१०५७1० }-~ 45146 ( # &००४९ ) . ए्ः-- उक्तस्या्रवणं कायत्पिारर्वस्थैः स्यात जनांतिकम | ( भरत ) छः, ल्िपताकेकरेणान्यानपवायतिराकथां | अन्योन्यामजणं यत्स्याज्जनान्ते तज्जनातिकम् ॥ 8.1.425. %1, 2० ;118 €> 1994100 ° जनौतिकम् १०९७ ००४ 9697 वृण ०४६४, 1 8 ०६ ०५८०९] ५५६ बकूलावाछिका 8०४1 ® प४ 6 ७०००७७७ ०१ फनः छात ४प४ जण्णोते ००४ 116 ४० वमन ४९४ श्नि म॑ 8 एलीणारे गेणेदास. अपवासितिं--अपवारितकेनापवा्य- ^1५\, ४510९, ४० ००१७ ( 9ृण. ० अकारा ), 1४ ८1976 ००४६५००६४५। ४४४ जनान्तिकम्, 1४ 8 भृ
- ॥
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11
8०) 3 क्थ ५४६ 0१] #6 6३० ११२९७३९१ पु [6 11. फ्थः-- = निगूढभावस्यक्तमपवारितकं भवेत | ( भरत ) तद्धवेद्प वारिति । रहस्यं तु यदनस्य परावृत्य प्रकाश्यते | ॑ निपताककरेणान्यमपवायोतराकथां || 8.7.6 प्रकाश-- 1०१, ०4०15. र्तोऽर्थो यस्याः यया ० सा छतार्था- ६०००९७०1 1प्थक. यस्या-- ६५9 1०५९६१९ ०7 108०९४६९]. गुद्रैवजनः ( कर्मधारय ). सा विषा यासां तासां-- ९8०8 ० 167 11४ ० 0९३०१००, 11158 पथ. असुल-
भत्वं. देव्याः ४९४५०. पाते-- फणी = ०रश्छौ ० 098०”
` ^ "नकल [
त्यात 198 ४ मालविका. वर्णावरः ( वशनावरः )- 0 पश०९ ००७॥९. वर्णा 5 ७8 वणः 7 पराश. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैशय & शूदर, 07 ५४९९९ एशा8०छ ०८ ४1&्ाथः ०९ ०1 डफ 8 हणा ० 018 ० ९४३८९ 88 णश् ४8 8 हापा भक म ५16 1णलिजर 08868. पप्र # एधा ५०पव् कण ४ हा] ०8 एष9फप ४० €्ला » हप] 9 ४४७ स्तिय, वैश्यं ० 0, कषति, ००७ ० क्षत्रिय ५४७९ 94 कश, ००6 भ वैश्य णः शुद्र ०७५९; ५० ० {०‰. मनुस्मृति, 171. 19. 13. 8० वीरसेनः भएचछा8 ४ 16 एण्य ण्य धारिणी१७ 1४।।७८ ० » वेय ०7 शूद्र पणभा,
अन्तपाल्ूर्गं ८ अन्त-प्णिणधश, पाल-6णभाप, दुी-0४)-4 ¢ 79 गणका ० 9 {णलः हिप. 4 0 ० ४6 तछपनछः ० ००९8 लापच्णपु* भदाकिनी ( मंदमकति अक् णिनि )- 75०1] पशु९७6य॥8 1116 तष्ट 0 ४ {७69 9 1 0976 2४ 1९86}068 ५४७ एन ४8. --रधु. उ-48 & प्ेघ-67. ५५01019 ४0 वायुपूराण, {४ 18 का 10त6कृ6्ण्वलण पर्छ 76 १०६ [३५१।,। ॥:11 * 11. क 111 विष्णुपुराण 2. 184 २८०४ पमः७ 1४ 18 पलंप्नः ५४७ णफला ००८ ॥16 1४४७. मंदाकिनी 9 ४५७ 6 86४४ 1098896 18 2 एः 1810 ह {70 १९ विन्ध्या २५०६९ 80 10 फ8 ४ एश 9 ५06 06९८४. [¢ 18 8180 [7006 ६४४ ३८८० वाप ० ४७ ४०४] 1786166 ०६ 16 प्रापवणड 81] छष्लः [ण्कोड भं वल्डाहणकतण्टु भण 6860764 एषा 0 = ५6 ०8४ = 8808 ०४6 ( 88 ४७ ५१० ष्णा फ़ गगा ५४ [९७७४४ ), 1४ 160६ ४6 १३९६ [९९७ 197 नर्मदा 9७ 1)ए, {21 ४0वे शशः 8९०८8 ४ ¢}. शिल्पाधिकारः (शिल्पस्य-शिल्पविषयकोऽधिकारः ) ४,५०५७8 ४06 पन्८ण09प्०ण ० ४8. प्तष्ठ ४७ दाष ४ ५ 1ल9 &५, दारिका ( ट+ण्वुल. )-^ &;५, उपायन ( उप्+इ+इण् गतौ )- 4 १९००५.
2.18. आछृतिषिनयमरत्ययात् ( आछतिश्च विनयश्च तयोः प्रत्ययात्. आछतिः # &०० {97 , विनय-९०(€ ५००१०५॥, &००ब कला )--, पप्वहुणद् जप © &००व {००५ ४०१ जा1+#6 ५०४५८८४, 4 ५००७।५९ € {० ७ ००४५ ४४. भमः भप, 9: -शाकू ° आाङतिमनुगृहणन्ति गृणाः' ५।४० "त्राङधतिस्तत्न गुणा
#८ | ६१. ^ भ त्त ट्ष =, \ [6 दु: "कन र श ९ ‡ £ + \ ४९ ॥ (१), वे १ भै 1/0 ~ त्त ( (#५५५ षर
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12
बसन्ति.'न ( छन-- शिभः, वस्तु भणी, पणः] ०१ कले» पण्ड 8 ००१९, पणभा, १०७०००५ &€. ) न ऊने वस्तु यस्या स्तादरशी. मयापि &०.- 1 ४7 87७ ( १९७६6 ) ४० 6 8०८०६881, कष ०४०७ 6 ल०णकप्लमः,
( 6 ) 716 ४ ( भता ) म ४ छव्मलोालः 109 ९त ६० ४ भठ्ना०६ २९- लए २8108 ल्कक्टा 6२८611९९, 98 106 कदल्या 9 9 6)०फवे, (वप्म्नते) 1४0 ४ 868-806]] &८प ८२९७ ४6 ०४{पा७ 9 # €, आर्या.
आदधातीति आधात, ५: ‹ वितरतिगृरः प्राज्ञे विद्यां ययैव तथा जडे › &०.
छत्तररामचरित्र. जलमिव &.--र्था8 ४० १४० २०६००, 0४ त१०ृ)8 ० कंप, 8116 1४0 ४06 868-8)16]] प्रवह ४6 भपनृ८&छ 9 धल बम्लतंश & प्ल त्पणड
(स्वाति), ०१०८० 0९०९. भर्तृहरि स्वात्यां सागरशुकिमध्यपतितं सन्मौकि- कं जायते." पंचांगाभिनयं - 4५४०६ ९२)10:॥९॥ ४ ( ०००७5४०६ ०६ ) ९७ ९१५७. अभिनय ~^: 18 {16 [०१६४० ० 60फवाप्ंणण कन) 18 9 णः ६०९९, (1) (छपा, ल०्ण्शा०ते ४ ४0 १९५००; ( 2 ) ए ००, व्०णक्छुण्वं ण 08; (3) छर78०९0०३, 000९९ ७त् ॥ ११९७8, 0९०४ &६, (4) [ल्यप् त्णाश्छु6ते ४ ५७ फडणा्िक्० ज 1पन्ला ण् †न्लणदह; भले ४8 कलश 8०, पप्रष्ठ &९. एः = लीपप्ठय = &८. = एव९, = (जणणश्छष्छा- अभिनय -4 ५४४६ 1४ क 0101 ४6 प, ४06 ९९, ४06 कुशेणण, ७७४, ४० 1848 876 द्वृष्भा़ कणाकन्त ( वमयी ). 1४ 38 8150 सपक्ष ०९ते 98 9 0रगा ४ ठ०ाशाड्णट 9 9९९ 98, 0 = जठ) &7७ वकल १६ #०त् ; अणडण्डः विन्नस्यताम्-1४० "९७ २०७७११९ 1प9५९९. दीषिका & `` प कीषिकाया अवटोकने यस्मातादृश गवाक्ष गता)- 6००४० (® तेण ` , ४ छरगज्न ( व्नफफक्षाते8 ४16 एरक 9) क कठिन भ. गवाक्ष २ ( गौ+अत्ति इव ०. गवानां किरणानां अक्षीव) -#. क०0०, [णे गः ०४- न नप्ठणानः 10 826 [८ ४06 शु6 भं 9 ००. प्रवति प्ररो वातस्तम् ०: प्ररषटो वातो यत्र तम्, 1100 78 ००१९ 18 9] [मृ 16९. अयवाते ०८ पुरोवातं ७० 918० &००१. अग्रवातं - ए०४८ भप, पिको, भते १८७ भ, © ध्रवातशयनस्था देवा! माल. 1४ 4; ५7९ 1006७ ५५ ०धालयः ७७०७९, ‹ छप भ्त १1५० * 18 076 9०४८९. आसिवमाना तिष्टति-- 18 ०्णागाण््ट. शीष. का... तिष्टति- ४: (०००४०१४ प्र०प४6 ; “ 816 ७8४४ १०५४ &{ ५५ [५५ .9. क भ) ‰0 10)0916 ४५6 6810०९88 ग 06 एण्य 46. ' & ' {९ प्त जह ०१८1००६० ४५ [९५९ ग जभ" , से (अस्याः ) प्ण अनः ४9. धल 98 99. 00९५१९७ हिलण४रड १०१ ्षण्ह णिवेद्णेण ० =» 1208905 8:5९ वप्भाकिण्ट उच्छाह, आयं &०.-- ए पण्णा पल ज कणप णमा 92६19 {8110 वरधयामे-वध् 1. 4. ( ४४५ 2. *1909 ४ © $व्न्छयते पिषठ 4018६ १५१ (00००४), १५ १89 19 10०890० ०४१९), करल 1॥° एषष्ण-
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13
४९९ पणा ) क 1] 8180 १०. यावत् पुरानिपातयौः ट्ट ( पा.)--7४९ एष्चडला६ 18 २86 79 {06 8०56 01 17170616 †पपा€ कध पुरा & यावत्. यावत् भक्ते) षरा भुक्त 10686 (० क0वालापचणालड 800 क कलभ ण, 2. 14. ठब्धक्षण; -(छब्ध, क्षणो नि्न्यापारस्थितिः येन )-1708{ 188 &०{ 161507९. :-शाकुतट- ' लब्धल्ञ- णोऽस्मि ` ( विद ०). 7018 णा काथ ° सण ', 7०८ णाम कृष्य 1978 ४० #)8 क 07त २16. 1008. ००७ ० गृहीतक्षणः- ४५४ 11. निष्कतिः - ` ४ ( ए. कप्य, )
विष्कंभकं : ८ विष्कंम : )--^प प६शग]पव७ ४४ {06 एण्डाण्णणड ० ४० ०४ ० 8 वेष््य& 89 [€णिएणकत् ४ ००९ छा = 0016 लोषालला8, पपतताा णषु
८ मध्यम ) ० 1४७० ( नीच ) फ 10 €0पाक्त ॥16 8० त 6 800 वाशकजणड ० प6 कात एक् एतन सपकक्िपोणह ६0 प्6 8पत९९९ क४४ 088 ` ०्थ्छपप्रकत् प ०6 णाछाएश्इ 9 ४6 868 0 फ 186 18 लु ५० भुगृन्ण ४६७, ००. 8, 10. 90768 16 पऽ :-- पी वत्तवर्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शक ४ ९.“ ^“ सिर्थसतु विष्कंम आदावंकस्य दर्शितः ॥ मध्येन मध्यमाभ्यां वा परात्राम्यां संप्रयोजित : । शुद्ध स्यात् स तु संकीर्णो ( मिन ) नीचमध्यमकस्पित : ॥
भरत ४8 १००५९५१ ४ जगद्धर 1 0:8 0०016087 0 माटती माधव १९१००९४.
४४०० ः कुतोऽपि स्वेच्छया प्राः सेवंधेनोभयोरपि । विष्कंभकः स विज्ञेयो यस्तु कान्यार्थसूचक : ॥ विष्कंमस्तु द्विधा सोऽयं शुद्र : संकीर्णं एव च | शुद्धो मध्यमपात्रेण संकीर्णो मध्यमाधमै | 1.5. हि ` कि भ्व ५ प्रवेशक :--11 ०४०११०७. 42 7४1€]०त९ ४९१९ णि [पश्णि०ः ५१8. उन 1४6९8 ( 87५11 85 867982६8, एप्?0००§ &८, ) ए ६6 कएषपा]०४७ गा क्ट्वुकण६- = 7 > 19 ४७ ४०९९6 111 6१९08 ००४ "6860४४९ ०0 6 8४४९6, ४४ 6 ४70 166 ज क )016 18 6886०४४] 0 कल [ष्णु पणवला8॥8ण०दोणहु ग ज} 1011058 ; 116 {९ विष्कभकं ८ ९०१९८४७ ॥116 8101 9 ५6 पप एकञ्च ४0 ४८६8, 11118 28 ४ मिन्नरविष्कभक, ¶1€ 5:0679066 ०७४७९९५ विष्कंभक & प्रवेशकं :- (1) विष्कंभकं १४४ ९016 ४६ {16 एर्व पपण्ड्ठ 1. ९ एर्नणि'© #6 878४ ४6 © ए6॥कल्ला 80 ए ४० 8618, ४४ प्रवेशक ०९१८ = ०0८८ण१8 ४६ ४16 ॥९्ह्ाप- ४10 भ (€ तष 86 जः ४ {06 €त ज ४४८ 1४७४ ४५४. ( अंकद्रयतार्व॑तेय : ). (४) विष्कभक 19 ५०९ फ़ ९878०678 नकलः पाठितोषण्ड ० पवतर ५ ५ 324 प्टिपणय 0६०, एप पका ४ ४४५ णप 01४6198 = ०1००6 र
14
ऋ}, 1}€ प्रवेशक 8 १6४६ ४ 1ण0 तो भ४6शा8 21006 ; ४00 परोप पलार ज ४० ५५८१४८५० 88 शद ४० मिन्न ० प्रवेशक, 3. 7. १९6०० + ५४०७ :-- प्रवेशकोऽनुदाचोक्त्या नीचपात्रप्रयोनित : | = ` अंकद्र्यातावज्ञेयः शेषं विष्कंभके यथा ॥ ५ ९०४. अनदाततोक्त्या नीवोक्त्या नीचेनैव नीचाभ्यां वा पात्राभ्यां प्रयोजित : । एव कारेण संकीर्णप्वेशकन्युदास : | जगद्धर १ ४18 ©. "0 मालती, १९०७७ 16 (198 :-~ यन प्रयोगवाहृल्यादेके ऽर्थो न समाप्यते । बहुवत्तान्तोऽत्पकथे : स विधेय : प्रवेशक : ॥ अंकानामंतराटेष॒संकिपार्थग्योजनै : । || भ्यव कथाव द्रो विज्ञेयोऽयं प्रवेशक : ॥ ¦ एकातस्थः ( एकांतस्थित : ) परिजनो यस्य फर 8 पशपत नवताण्ड ४६ ४ ५1818066 ( 8{४०वण६् ४४२६ ). ट्वो हस्ते यस्य स; (न्यापरिकरण बहु° ). अन्वास्यमानः-60श्ध05 {116 8५५०8०६ १९; ५५ 1. 56. ' अन्वातितमहन्धत्याः &. अनुवाच् ( १४०8६] )--10 1७६ ६० ०९४७} ( एर्धणि९ १९७४ ४।०० ) र: विकर ‹ अनवाचय तावत. वाहतव--1॥५ ४४०6 ७ #6 णणड्थः प्रतिपद ( 4. 4. )--10 ५४४१० ० ४८६ {0 कषात8. किं प्रतिपयते-- भ ५५४ ५०८३ ॥9 [70]०86 ४ 0० कध १०७३ 6 शभ 9 स्शृ, ५: मद्रा 1. 18. ‹ निवि प्रतिपन्नवस्तुषु सतामितद्धिगोचवृतं ), 8180 शारतल एए ‹ नजाने किं तातः प्रतिपःस्यते ( नति ) इति. ' प्रप्यते-- 1.4. 2... 26 ६००६ ५० ५५४९ ? लिर- 6 फणन्वन्छा एनान प माक्वा भर७ ४6 (थतम अभिमित्र, 1४ ५४७ ` ७६५१४१७ ०० (6 ४४०६ ०६ ४० वेत्रवती ०००१० बटवा, आतमविनाशं ( प्रतिपद्यते ) -- (घ७ भ्थु$ 1० प्श ) 108 ०७० तरर, 1, 9. 0 थ प्ट का 0९७ ४85 ०४ ९०७००४०४. निदिश्यते इति निदेशः --14५ = 1०७१०४०१, = भृष्लंदलन००. प्लस, भण ९०७०७७0 तछा पप्८४त०. 106 8926 85 संदेश, व~ ०४६), ९२19०876 ४ ' परण, अभिसाषिः ' २. 15. इद-- ३४९१8 0? ४५ गाककणह् ठणालय8 णा ४6 ]नल, ज
भपितन्यपुजो..माचायेतन्य हति' 19 ५५ ( अनुवाद ) १००अ्१।४००४ ° अधनिै- 1. 1 ध्र) ४० बेधनात्सद्यः 38 };5 णु ० ##. पितृन्यमातृमातामहिता- भहा एते निपाताः । निपातं 15 9 फणे 0 पावे छ 11867 काणक 9० स 1001० पितु्ाताल्यित् | न्य ;§ ४११९ ॥० वित्ति # भो०क् #@ [ज्मः ० 6 {५1)6: प्रतित्रतःसवधोयेन सः-- ० ४४१ एप्णणकल्वे (४ = सध्नः ०॥० ) # 961 ्00)8| 81114066 ( का अभिगित्र). अंतरा 0४ ५५ ग्भ, इमन्तपालेन-~ "७०५५ ६००१. अवस्कद्य-- ५५१५४९५. गृहीतः- 1
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विदिते--1४ 8 ००४ पण्ताछकण ४0 ‰0प : 3. ९, इृ०प ए०डमतिकलत् पणत 18 86 च्छ प८॥०० 38 ` च्छपा००० कं ४6 शपकिठ; ला. र्णाढ (नवचनं अरिवितो न चाप्यगम्यः ` &€. 1. 11. 106 १€९त1०६ ० 7. २2००५१४ & ४१४४ ० +€ €्गण 7७०६९०7 8 तन्न वो विदित्तं 11676 ४6 १९६४९ 28 = प०१९६॥००ब्
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09ः-- अतःपुरचरो वद्धो विप्रो गुणगणागिवतः सर्वकार्याथकुशलः केचुकौत्यमिधीयते ।।
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+ ॐ उलेक्षा. ( प्रच्स्वोत्कटा ईक्षा ). ५. उत्तरराम 111. + प्रवेशय तौ-- । ००९७ ५४९२, 90 ४6 २०, दुराप्तद्ः ( द्ःखेनासादयितुं धोग्यः ) ~~ ्षिन्म # ४6 07०५0०4. राजमाहिमा ~--3्नणव०्णः 9 ५४० ४ णद.
1. = ` = ५५.4१ ८ । १५.४7 9. > म 4. \ ः क ॥ £ १ 0५ ,
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(11) प्ण च 16 18 ००4 किक # 76, पणः }8 16 8{60; $] का ४९ = भृाणड्लो) 5 1९8९००6 = ( १९ ). 1.९ ४७ १९९६ {07७ ण भाः ( 0८७४ ), €श्शक ००९५४ 16 9016878 0 प्ण ९68 पन पुम्िताथा ५15० ०५।०० ओपच्छंरिक
न चन &८.-भः 8५1४. तन्न वौ न विदितं ५० ६७ १०८ ध ०९००-- ८. 21. पुषोऽपिकारो यस्य॒ तत्-- ६८५१1०8 1५ » २०५०. अविकारः ८ अपि करणं ) -«^ ४५५९ महत्तलु पुरषापिकारमिदं ज्योतिः- महत्बलु॒पुषषामिकरणमि- बं ज्योति : , महत्खलु पु्ाधिकारमिदं ज्योपिः- ५१९९४ ३५५८० }# ५४७ |००7७ पण ४06 षण 98 ०७४०, 1 ५6 ५१० प्लवा पद्वु पुदषाभिकरणम् + ७९५५७. अभिकरण-स्थान, अगिकार ७५०८६ &७०८४॥|$ २४९4 ४ ४५ 86756 ० अधिकरण,
( 12 9) 7 भ 1086 €. ९९ ज्र४5 911०6 छ ध+ कल्म) ( हण्डे ) शम ४य्छवे 8४ ६५९ तका, क 1116 अवरकण्लणद् ( (ककप्वड ४४७ हण्ड ) 1८40 106 ६160४०४ ५४४ ( ४।फ8 9) ०१९७ ३००६ };8 पमाम्,
४४९९ एल्ला १९]५।}९व ४ 8९००५ ५96 ४ 5 शीप्ला५७ ४४४ 1088 ४१९१६ 0 £४४८७ +.1-@, ५.८4 वसततिटक.
एणः दरार नियुक ५०, ४१० तारानाथा'§ €]019191100 1 ४6 ककषशल्छ+ो विनिवाितो (५५९०) हरिपातो ( ४।५४५९ १ वैस्तादशैः । पनरव -- ^» ४ | 8५ ( ००९७ 7१076 ), 1९9 ८४४ ०८९३७१०४ ग 05 ॥९ण पणृ्ोश्व एनण्ड ४६ । #© प०० भ ५७ १००६०९९) ५४ ॐ {९ १९०००१., आसने तावत्-- च ०७४ 195९ {0 8९४६5 4९, [४ 18 196 8४०६९ च ल ण जण ४6 ०३५१९ $ 16 ०९, (० ०प्पेहाः 8९६६5 }¡ फ७४ले{. उपसपेताम 18 कण्ण ०७८४८९७ पललः सुपू ज्मः उपसुष् + ^^ शिष्योप्देशकाले -- ५४ # {10९6 छल) एकप ०१६४४ #9 ४९ 1फरप्पठक्तणह कण्ण एष. | युगपद्-ऽ;००४।- ४४१९००४}. आचायन्याम् - 15 ००१ ०५४५९7. २. २२. तीथं (गुरः )-4 ए्ल्कृध्णः
( तीर्यते अनेन वा ) ~ तीं शाखाव्वरकषोषायनारीरन : सुच । अवातरारषैनुशौवु पातोपाच्यायमंनिषु ( हापि मेदिनीं ), ~ (11
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क श म ~ 0 विः. । ` " जक" ॥ क `; [य १, क 11 ३ |; न १५ ५५ कन | ४ < ४ † । "क {क ५ = ५ 2६ च ~. 2५९ 1. ह 111 + #५.५ ननद 0५ ऋ ५०4 दै ` चै ५५५) च ४ | ५४. ४.5 | ५) ५
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श क | ४0१६।०६९. उपहरति ( उह )-19 छश, एष्व्डछणम ण्डः ४७९१ का भथ ४४९ १५८९७ ० ६०५४५१९. 16 स्च्छताण्ड अपहरति ०३ ००९७ ५ फर वकृ छण ( गणदास } 9 ५8 8प 6०" 7४06 १०७९० ०९७०३ ४१५४ ५००६४ गणदासत 15 १८५०९1] ऽपृनपमः ४ हरदत्त, ४७ का] ७ \ + (4०४46 भा ४८००४०४ ज = ४९ न्भ 9 ४७ ण्ड्व 9 हरदत्त.
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मेगल यथा तथा अलटेकता. याणां समाहारः त्र्या ( शः-- जयी वै विद्या क्वो ` ह यजेषि सामानि ). आत्मनः संबद्रा [ आत्मामे अषि (छता ) वा}अच्याःमा चसा विद्या ^. +. च अध्यामविद्या-7४७ ६००1९0९७ ° ४6 1018 ( 8 प}"€०० ) 8] ( ब्रह ) ९ अध्या्न- 1४५ 8 पएश७ 8४ 7080116566त 85 {16 17007 रतप] इला म 006 =` ` (प ५
7619607 >शक्ण्भ) ४6 1961710991 82 6 3९०९ 8००1. अक्षरं बरह्म प्रमं ज सवमावोऽध्याःमंमुच्यते | ए. 8. 3. ८ स्वस्यैव ब्रमण एव अंशतया जीवरूपेण मावो मवनं स एवाःमानं देहं अधिकर्त्य भोकःवेन वर्तमानः अध्यामशब्देनोच्यते ); ~ ` । दाशो कक्ष 8 06 उणा, {176 17वदश्ा पलट; 108 7081 16818॥100 ( ४8 22 अपक्राणतष्म चनह ) + अध्यात्म-16०४. 70० अलंकार 38 उत्पेक्षा. ` ( # > 8* ०८ 9 + ४०४९7९५ 9 ३९४ {16 1० ० धारिणी ( ५४८
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क्रमो, ४. 1. कैवलं वारिप्रसवा भव, 1110 1706४९९ ४४8 १6 8९86 ०9 (१6 ४९०९८॥११७. 715 ४0८९७ महासारप्रसवयोः & सदशक्षमयोः ४० ४७ ४०१७
8००त् ॥०() क ६। (४० १०९७० & ५० ९७0. सदश क्षमा ययोस्तयोः धारिणी च मृतधारिणी च तयोः, ४41. २४०१६ 1०8 ४१४६ ५८७७ = अत ४प।९७ #९
०७९ ६9 {9416 #6 १०९८०. # शै्जत् कण = इप्रलक्ष) ४४० ४७ ९०7१०८८ इपृ०्डप्त० = कलो = भकृकश्काह = 0 76. क्लः एः ९५9९8.
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#150 उत्तर, 1. 15. शरद 20018 1. . का न)
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--' प्रश्येम शरदः शतम् जीवेम शरद : शतम् ' &० +159 भी तुञ्यापिक्ा प्रच प्रावसाके ज्यास्त पाहि आहेत. शरच्छतं 18 ०५८०९१४ ४९ ण ६०९. मछिनाथ, रघु 11. 8. ‹ दावं चचार. › देशकाटाध्वतन्याः कर्मसेज्ञाद्यकर्मकाण, पाणि.
| नि. 555. स्वागतं -- ए ८१०००१९, ४०१९०४ {16 ११७१९. ?. 26. ज्ञानस्यतसषर्षः--
¢ १७7०6 ४/0 पणा ०४19 ।६००छोर0े८, श्राज्तिकयदं &<--- रज्य
{०छात ०५९०] ४6 7081४०0 ० # वद्र ( षणा 6 ) भः पीर ष्वेहाक्क ४९९५, ). अङं &५, 8५"० +४०१।8. पत्तने &०,-- पभ 9 पए, ॐ
०९००७७०, वेत ` छलः द्र छ १ न प्रण कौशिकी, ०१५ ०? ००व९५५ नल -- न श्नः) ४ ॥ + पण भा) ४ (099. पंडित &९.- १०० 76 (ल ण ४४७ [७४००९
कौशिकी. प्०८ ५१९ ए7९प१९४॥७ पृित 35 ४०५ दर # कृष्णक णर १०७
80 {१8 क 1]] 60706 पण्तेभः अविमृदटिथेयाशदोष, ( अविमृष्टः प्राधान्येना निग विषेयांशो यत्र तत्र ) ~ “ वपुार्षरूपामलक््यजन्मता ॥.. 1.3 शाेन--७५५1. नौ गुणदपिषः &०,- ए ०। 9 19099 ४0. पोककणाक
घः शा) र्छाशट०९९ ९ ( 1. ९, 9७ 8 ]्तह्टपढा(६ ० ). छणाः पल (8 = भात्
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। जलत 18 कण्ण 88 6 कष्व्छलचणाड एलं त०, धार क्यात् ००१ 0ष्६ नः 9ः ४० प्रयोगः प्रधानं ( ०४७ भणण्६ ) यस्मिन तत्र॒ ०८ प्रयोगः
्रधानः ( 6४७ ) ` यस्मिन् त~ (१ 8८९1106 0 १४००६ @ार्ना क 0०0०88४8 , " ` १५४८
। ण गशुधरकला४000. वाग्न्यवहारः ( वाचा न्यवहारः )-- पश् 00णष्णणाम् [५ १,११ १५५) 4) ` कंथं वा च८.--16 ९९८) 8)10ण1त ४6 7४ (्णाषणपक््तमा म कऽ कृश्ट्नार्भ पखिजिकां ४७ © 1४९९ #8}:6, 6८8७6 0९ {गानकण्ट कष08कछाः 0 ४6 वृष्ट ३8 ४० परिव्राजिका क्त् ००४ #© #6 [ण््. 80 ए, एषणा ४३ ॥6व्ता पष्ट ४ल७ भृ०छ8 ००. 2. 24, न मां देवी समानविदयतः परिहीनमन्मतुमर्दति- ॐ 0 छह च०॥ #0 तकाव ( 9110 ) ४0 क़ ए6०ह ( 8प०8९त् ) पलितिणः ० ७९ क0© निारक्तऽ = ४06 8876 कार्णाल्डडाठण काण ०९. सा---विक्र० वा. “ ओजस्वितया न परिहीयते शच्या. ' 4180 1"78 777. न प्रतिच्छं- दाव्रिहीयते अस्या मधुरता. ४". ए०तः४ १०85 देवि न मां अभिनय- विद्यतः प्ररिमषनीयं मल अर्हसि.-- २1०86, १० 7०४ (गणशंतलः ४8# व णा ०6 व्भृष्छाह भं एल एष्ट 0 [निह कछ ग चलण्हु, ©. त 5. ¬९०त देवि न मां समानविद्यतया परिभवनीयमवगमपिनुं (7 अवगन्तुं 9 अवमन्तुं ) अर्हसि- ४०८ 8110014 ००४ 086 06 8618109 ९०४ ष्टण ए पणद्वणद्ठ 6 ४0 ४6 श्वृष्भ् 7प कनंणौ म [व्ण फ़ ४6 8149 ण ०९ ( 16 गान क8 ॥06 806 वा रडडा0ण 88 7078 ). ¶01९ एव्ध्ताण्ठ
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न मा देवां समानवि्यतः प्ररिमवनीयमनमेतु मर्हति 17 197 ९ ¶णच्ण का]
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31
एषण००6००. = पुरोभागा --एरप्य णकणट्, 2९905 ( एष्छप पुरोभाग 1#--170९ 8९४ 9 अञ्न णद 006'8 00 6886 9078६, ९0८९ ]€व०प्ड. ) थः- रघु उ. 2४. ^ प्रियोपमोगचिन्देषु पौरोमाग्याभिवाचरन् . काणिदास 185 &180 ०8७ ४738 कछ 7४ शाकुं = ४, ण 6 8686 ० * इा{-क्ान्प
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निषादषंमगाधारषद्जमव्यमपैवताः | पंचमश्येदमी सघ तंजीकेटोत्थिताः स्वराः ॥
(1) ष्डजन (सा) धत 0. 6 1०१००९१ णु 268९06८8, (2 ) ऋषभ (री) फ़ (०७, (3) गधार (ण) ए ४०४, (4) मध्यम् (म) णा ५८००००४8. (5) पंचम (षृ) फ़ ९८४६००७, (6) पैवत ध) ण ४००६९७, ४०0 (7) निषाद् (नी) ण शश९्०४०६७. लय 28 पद्वु" धल 7 पड) कोलो 38 णा {07९6 ४०08 :-- (1) द्रत ( १००६), (४) मध्यम् ( 209 ), ४०व ( 3 ) विलेबित (9०४ ). मारजना- पर06 एश्वण्णणड शणदर गं पपाठ ( कध 28 ९81९त 10 अकच “ मृदेगावर थाप पडली." ) मदयति -619406४8. 19 7७80108 मादयति (1४-
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समा०००४. गुपड 15 ४180 ॐ ` ण्ण = सकतेणड्, र्थ ~~विक> परि. ' किमि- दाली तज्रमवती उर्वशी भवतो मनोरथानां कमं कर्शयित्वा फे `वित्िवदाति पए। 8006 वाड्वकृकमं ण ०० # ® {०४९ ' |
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( १ ) पण्णा 1 एषण ०४ दरापि ( ४।६७४ ४० ४७ लभा ) #18 8009 ग ध१6 वषपर 7१४९8 726 19567) 116 6 ००8७ ग ए जक वस्म वच्छछ्लाणद्ठ धौल 6४ ज 091९४ ` र्यौ.
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ययौ अनद्धातसुव्ेन मागे सवेनेव पूर्णेन मनोरथेन. | ` 7. अ. 7४५ नज्डणडु एषण णि8 £ 8 ०३।।स्व अकावतार, 00९9 ४ष
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अकति सचितः परा तदेकस्याविभागतः |
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अकावतारस्त्वकौते पातौ; कस्याेभागतः |
एभिः संसूचयेत् मुच्य दृष्य्मकैः प्रदशयत् ॥ 0८ ९४१४71७ »।१० शाल्व ४ 4 ५, ५०१ महावीर 11 ९४५. =.
47 11.
2. 38. सेगीतरवनायौ &०-- ^.शः ४४० ००४०७६२६] ( 70९७१०५] ) का180&€ 60४8 280 ९66४ 6001646त. विभवतः ( विभवान्रूपः ) परिवारः + ॥५.. त... तन् &- 1 पणः "प्व पल एकमत्र ऋत ९५४ 0 ६ण०क16वक्6 38 ध्वृ , ३, 6. णप धणश &76 ९4०४ 79 168". वयोप्रिकत्वात-- 0 &०००प४०४ ° ४३8 ए6- ३०६. गवः ॐ १६९. पुरस्कारं &०- भयर 7"९५०१०००९. &-- §पॐ २०४७ ०४ अनुतिष्ठ आत्मनो नियोगं &-- «०४ 1. शर्भष्ठा-7)9 १९६१५७४ ण वषपर्वन् + {© €०प 8४10४ ग देवयानी &१ ४0० 9 ° यथाति,. 806 88 #08 ४०४०९88 ० ४०७ 6५6 16) मालविका ४8 &००& ४9 शो ४. 806 38 कला-0०क० 79 *महामारत, 9:-- शाक्रंतल 1४. 6.
ययातेरिव शर्मिष्ठा मतुर्बहमता मव.' लय--मध्यलय ०" लयमच्य ( वाप धप6 )
8 ए्शलताछते 07 1०९७ 807९8. एताः पप्छान कृक््ठणोक्षड १९ तन्ण. &-- 3प"४ 11. 9 चतुष्पदवस्तुकं प्रयोगं-- 116 श्ण ० ॐ
1909 6्०ण४8ण््ठ 9 10 1९6 {० 1०९8). (05 मात्रा 0978 8७ 30 8०१ #6 ®शतःण्व 87119791 38 1०४६. एकमनाः--एकस्मिन्मना इति, ¢ पच्छष्ाभः वहूतीहि. बहूमानात्- (०४४०६ "९९४ 81९0४ 0: ४४७ ए९०९्॥० ( 07 ०८). = बहूमानात्-- फश््ि 2180 भिः ४0 "06 8107 . 9 ५6 1666. ।
7. 89. (1) ४ शाम श्व्ट्भः ४० एशानि ४९, 100 38 70 ४06 ४ ण्ठ ००, = चाछप्डठी) षणकृष््लप०९, 18 88 1४ सला २6४ ( वरभप्ठणड ) ४ पष्डक् प ४५6 (णयना. आर्या,
नेपथ्यगुह 8 6169. तिरस्करिणी ८ तिरस्कियते अनया + ल्युट् ० तिरस्करोति + णिनिः )- + ००१९०. संनिहित &-- ( संनिहिता मक्षिका यत्र )~ प 06 ४९७ 18 2697. धारिणी 38 (0009७त क मह्षिका ( ०९}. 4.8 8 68 8069 ४0 कक०8८ो॥ 0७ पाप5४ 06 ठथाछपि] &00प४ ४6 ५९७ © ४५७ 06601९6, 80 विद् ° ५७78 © ण + एचक्6 6वभर्णणाङ़ र ४५ ७8७69 ग ४6 १०९९. अप्रमत्तः-- १1000४४ 1008 ४७
४०18166 ० गणपः प०6; ८७०५००8. च--एण+, आयचार्यपरत्यकेक्य &०~~
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34
1: त 11, 8. 8... 3... 7.5.23... एष्ट, ¢ शाकु ए. ‹ प्रत्यवेक्षिताः प्रमदवनभूमयः. १ परतिच्छदात् &- 7 इ 1 2.5 1.1
¢. 40. (६) ४ ४69 ४8१ १०८४७ ककल ९ एष्छणता ०9 फलः 86 0780 59 {6 कलपाह कणप #6 0णफत् त्र्य जः [1.8 1 ; व १9... त, 21... 3 प ४ पृश ९6४ 00णठल ४1109, आर्या,
चिन्न & -- फ € 806 ४8 8660 }़ 76 70 ५९ एणा वितवाद्- 10159 ह्ुष्ट्०९०।. शिथिलः समाधिर्यस्य-- ए)) 056 60फद्शछण प्ठणश्ाते्
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सप1५०४००-‹ अनिपृणलेख्यसाभरीं मन्ये । एतस्याः कौतिलेखने वा या सामी अपेक्षिता सा तस्य नासीदिति मन्ये । समाधिः ण 16 (५६९० #० ९४० करण- सामयी- 31५67918. :--रपघु ° 1. 29. “ तं वेधा विदधे ननं महाम्तसमाधिन्प समाधोयते उत्याद्यते अनेनेति समाविः मुक साव्वसं यस्याः सा मुक्ताव्वता मव 09. ए 88 ए०८7 †<78- मुगधसात्वसा भव ( € उष्य शव 06 }ककये ) कभक 70 8९5९. सत्रे स्वभावे प्रतौ वा तिष्टतीति सत्वरुथा- (०7०7०९९३, ४००३४४०7 ४९्, " ` सतो मावः सत्वं 111५४ ७0100 ००८३ ००६ 96 ४6 पत ४० 9 अल४न्व. अहो &--0४ ० ०] ८७०९७ ( कृ्ववकणा ) भ च्छु पठ
४1] (०णतो#००8. :--शाकुं ° ` ४1. ‹“ अहो सर्वास्ववस्थासु रामणीयकम् आ- छतिविशेषाणाम्. अवस्था-- ६५०५९. अवस्थान--& 0] ५७।०९॥ ( ० पप$ }, स्थान--081#109. ५ 196४ ` 18 - एकल,
ए. 41. (3 ) पलः ८6 195 &०४ 1०0 ९९७ ४2त ॥98 {96 शूलते ण ६1८ ४०४] 10000; फलाः क्षा 78 8८९ € प्ाज्ठत् ४६ #06 81कणोतल+ ; ४७६ ९10€8# 18 600 ]996£ 87 ` 83 [०१०७००४ ` एप्डाि; 06 81068 &75 ॐ १४ जल १०6तव क; एला जहौ ऋक 26 फलकड्ाच्ते फ़ (6 कणत ; एलः कए क७ शृण -( गणु -ष००ब९द ) 5 © #6&॑ ४8९९ ६0९ 8) ध €पाएल्पे ; ४५ ०० ४8 0660 छज्णातन्व् {प 88 0 इण (6 श्ण 19 ४09 पणत् 9 ४७ वछठणद्ठु चकमंडः, #
शार्दूविक्रीडित अंसयोरंसमागयोः पार्ष्वे &-70था रश० 50 अ000 ५४१५ कणु
97769९0 &८. प्राणिभिवः--पाण्युपलक्षणेन मृषटिमितः ; भित | {16 &6# ० मेय. 171० ९५००४ अमित च जघनं -( 7} ४७ # 109 ) ;9 &180 & ६०० १७५९;०६, नितंब-81०7५ भ ¢ ४५४७ (७ 1७ 11209 9
35
नर्तयितुर्मेनसि यथैव छंदस्तयास्या वपुः न्िष्टमस्ति ". उपवहल &०१ उपगान पाल 10 = त्डठ ^ कष्भुा्णापक्षप अप्ह्णड्कः ' पाकाः 2 धप9 0609 ` 9श््ाणणाणह्ु ४० &0& १1००१. कपोतकं --& ८००१९ ०१ 7०14० ४119 8०१8३ ` #ण्भ्फलः तष्डण्ड ण (6 09०8 ए कथका ग कथप्धणष्टु,
2. 42. (4 ) 7४9 ००९ ४७०र्स्व 18 काप {0 ग्विाछ } 6 पतप , ग कनै, जां ती0ण केण 106 कन्न) ८७९८४ ४0 11179 ; ९10, ४6 कफल द्गाण्डाः शं गणक 16 शु® ५५००8 ०४ 807९ &0८०पण४. प्रि५ण 18 75 ०6 , 86७ #6 ॐ 100 प्र + #0 6 20]07०86)6 ? = ङ 10, तकृलणत्रणौ 98 ‡ 8 €्कावहछा 106 ४0 8 ‰746४४ = 100०६ 07 ५१९९.
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8076 &००५ ०1९, किमपि--ए०ः 8079९ ०४०७७ फ)101 ¶ ९87०८ एलाएशए७ ‰ €. 806 ०९8०8 †98# ४6 ॥एप्मेणणद् णड एषण 80७6 &००त् {0 06 क) 8106 88. 70 106 ० हटनणड् पणन ॥6 एषछ्डला॥ कफटणणा #900688. 17078 छा56€ १187188 {छपा ध्लाणद्वुड 10 ॥06 0 पा' 11968 ए-( 1) नैराश्य ( पाशः), (2 ) -आशा (0०९), (3 ) संकल्प ( ‰#५७०४ ), 82१ ( 4 ) आत्मसमर्पण = ( फवा०६& ०0९४ जरः), इति यथारसं -- ४५ ४०89 क्रणःत३ ( रो]6 अण्ण ) 806 द८्जातपान्चर 90९07 ४0 ४५06 शनशत्तण्डा, 06 ग ७५वाण ततः यथारसं 4५ £ ४06 अण्ण 2७ 0४७ 806 &९. (7018 18 8180 7 &€९07080८6 ऋ ५6 1786106 मा अण्ण कणु 800 0४ णत् पलः १४०९९ भा दच्जर्णाकप्०णड कदच्छडएड 9 पाल इलााणाटा+इ ० (6 800४. एफ शत॒ ७ 20.057 प०५१९३॥९०५ 11616 अभिलाषविप्रटमशुगार.
शृगार 18 ० ४० 108, सभोग ( 10१७ §60६्णड०४ 19 ` पजा ) ४० विप्रलेम ( ००७ 1 शशुभा्ण ). 106 [कलाः 28 ग ष्ट [०१8 शाद अभिलाषविरहे्याप्रवासशापहेतकः इति प्रचविधः (कान्य ° २. 100. ) अभिलाष 18 समः ४४6 तणाः 06८60 9 096 = 10१७8 0 क्वो ०लाः 0 ४6 १९७७ 0 पणत ० एनी 00 #76 ००४६ 6४ [गणवत् पिण्क त 08 6856 1 पश 06 अधथाण्ठ णक {णा 6०५) ०८०८, प्रवाति ॐ 1161 {06 ९४०8९ ० ६९77" 8९४१३४०४. ।
गूणभ७ 38 9180 9 6 ४ त०त ० विप्रल्मः--
यूलोरेकतरस्मिन् गतवति छकारं पुनर्कभ्ये | विमनायते यदैकस्तदा भवेत् कटणविप्रलंमः ॥ वाचस्पतिमित्र. ४. 432. द्वारं इर्वा- 1५16106 88 {06 ०५01 प४. द्रारीङत्य 1४5 ५1७ 88719
86
४6०86. दारीङत्वा 18 ००१ ९०१९५४ चतुष्यदाषस्थार्क--चत्वारि पदानि एव चत- ख्ञोऽवस्था यत्र तादृशं प्यं ( ४ 6 ८००७००० ) ० चतुष्पदे स्थिता अवस्थाः- ककि्तणह् ४० 60णजभपज त०डड्णड भ ण 11०९8 पतालभौर९ ० {00 पमण 8५८68, 98 106 हताय, त्वयि &०--प्रनः 1०69 1098 88 ३६ क€6 पात्छक्राण शक्नो ४६ १० 1. 6. ०१११९ ल्ल 0च्छः ४० १००. एवं &०--8प्लो। 18 {16 81868 ( व्लेभ्नणय ) 9 जणा 0व्डत ; 1, ९, 1०४६ 88 [ 1856 ¢006८6ेए६्तव् 10१७ {0 भः , 80 8)6 ०४ ४ कृष्य ॐ ४१६8९166 ६0 ९.
(5) खलु “ नाथ इमं जनमनुरक्तं विद्धि ` इति वचनं गेये स्वागनिर्दशपूर्व भभिनयन्त्या तया धारिणीसनिकर्पाद्णयगतिम टा सु कुमारप्रारथनान्यानं ( यथा तथा ) अहमुक्त इव, |
(5 ) * ह प०७, 0०90 10तत, धाह 5 एशरण 15 १५७60 6स्व् # शकय, ® 1119 ह्णा णद ४१०५८७९ 0705 ए 8९००8 9 06८ 00 11708 1 कड &8 1६ 76 80076886 क € प१त९६ ४06 [ष्ट ग 8 हश्धड स्स्व ००४ 0०कापड् ४9 ०ुृन्णणह ( ०पन्र४ ) णिः छलः 10५6 छक्ाण्ह ५७ चह णशद्णण्णपे००त ग धारिणी, मादिनी.
वचनं &--‰ 9१८७७०४६ {6 कणात8 19 ४06 0, 86९००४० ९ 7 ५५ 10068008 ० ४€ 1०008. स्वस्यगस्य निर्वेश पूर्वो थथा स्यात्तथा-- ९88१६ (6 इलाध पला४ ४ 6 11०05. ए. 44. सुकुमारा प्रार्थना एव व्याजः धस्मिन् कर्मणि यथा तथा.
(1) फिवित् ( किमि ) बो विस्मृतः कर्ममेदः--3०७ ( 76९1 ) 90110) 18 1{0्0छण ० 8 तभा 6५७०६,
पीन २९०१; ण६्8 :--
(1) क्िंविद्विस्मृतं कर्ममेदेन-' 7०४ ४१९ गिदटणधैकय हापनणण्ड ण जठ 9 ४6 ७७९८} ० 80706 ७6 ( ¢ 68 0606881] एर्पणि ® ) ' 9 - एव्म 8 कृष्णश ए९०त णहु, कोला ४6 1 पडतपप्लाच्थ् ५३5७ 29 प्रत्ययी
तुतीया ( 47 108 प्र ९०४४] 6886 01 10०00 68{0४ )
(9) किचिद्विस्मृत कर्ममेदः--००७ [097४००1४ &0¢ 18 †गद्ु०+७प छि १०. 118 # 180 ९००१. क्रिचिद्विस्मृत कमभेदः--' १०० 9१९ {०7~ ०४४७० 8००6 कृकप्ठपान्र पपन जवम ' ऋ] १18० ००. एष ' किकी श्मृतं क्रमभेदेन ' 18 10099511. 7168 18 0 कमभेद ४80७७ 19 ४४५ ज)0016 भैना. प ४७ ०७8७ ००1१ ४९ हेत्वर्थीं तृतीया भ ०0 ५४ ४
। ००५ 6१त60४, ४ कमभेद $ ००१ ४6 ९४प७९ 9 विस्मृति, ४ ४४० +००० । ४०१ {017 २५०५०६४ =" मेद् ` ४ (७४९ पण्नएत्भन्वे प " एषठ "
।
1) --यशवणट विरोष् ४8 7 ^ पूष्पभेद्. ' उपदेशविशुदौ &.- एण क ४०
भल एण्य सज्य. ज 70807060100 38 पेश्लाभ९त् ४० 06 प२९ ( {२७७ ष्म #प]४ ). 709 र्ड्ताण्ड ‹ उपदेशविशुद्रा यास्यति --69 ए 1९ उ०प
&78 ¶९८ो४6त 88 707 = ‰& प ३० #06 7णडप्पला०ण ( पपष+९्त् ॥० १००), ^
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८.५१ ए. 45. (6) ए४८ 10्लोालः धाक [हाः पक्षलणद् ०6 38 16
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अन्यद्ावाभ्रयै न्य नत्तताललयानयम् । भयं पएरदायीभिनयो मार्गो देशी तथापरम् ।
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माव मनीगतं साक्षात् स्वगतं व्यजयति ये ।
तेऽनुभावा इति ख्याताः । यथा भर्ग : कोपस्य न्यंनकः ॥ उद्वुदधे कारणैः स्वैः स्ैवहिरमावं प्रकाशयन् ।
लोके यः का्स्पः सोऽनुभावः कान्यनाटघयोः || 8. 7. 102
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४७९ विषय 7४ ध 1&॥€ ९]&प56 19 ॥४€ 8€08 ०9 स्थायभिव,
रञ्जते मनो यस्मितिति रागः, . 41. स्वपक्षे ( स्वपक्षत्रिषये ) शिधिलोऽभिमानो येषां तादशा 0४" 01 ०४००४ 9}00प६ छपा [0706९६९ 0180) गणम 2000४ छाः 000९6 = ( हरदत्त ) 188 660 88]६8०९0. शिथिल ४७०६ ९५1५९४6 स्वपक्षाभिमान 7४ # एलः 0 ९०१ शिथिलस्वपक्षामिमानाः + = #7. 41 १००७४ 8 0888966 88 शिथिल & 79 013 0ण्णक्णा, पाणण = ध्8
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एणः अष्णाशः 1१९8 ० रघु 1. 10 हेम्न : संलक्ष्यते ह्यस्नौ विशद्धिःश्या. भिकापि वा; ५० शाकु. 1. 2 आप्ररितोषाद्विदृषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानं 150 कुमार्, 1. 20.
लोहितरयामद्ःखानि हर्षग्धसुखानिच |
मुर्छा निद्रा छपा धूमाः कषणा नित्य चर्मणी ॥
तेभ्य : क्य | श्यामा मवति श्यामायते, परीक्षकाराधनं -- ६५४९६५८० ०
हिष्ड0्क्ण 9 ( कषीणाः ४0 ) ४06 1०१९8. 9 :-- उत्तर, 1. 19
“ थार वा जानकीमपि आराधनाय लोकानां मूचतो नास्ति मे व्यथा. ` वद्धिः--
8०८०९९88, ४१९६०९० ००॥, 786, :--शिशपाल 1, ‹ परवद्विमत्सरि मनो 1६ मानि
ना, ` %. 48. वो विस्मता-1॥० ६७४०४१८ 18 ०४७ {9 6 105्प्णरड 6
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{-1्४प सेगोतकेऽभ्यंतरे स्व; › ४1*0 शाकुं. 7. ‹ मदनगतवृ्ौतस्य, अहो... प्रनः-- छण्ण. ०८श्धुग 38 _ ९. १०९५० ९०११९८६९ ४10)) एलु07९8९१ 1६10४, 116 1९9त9 प्रात्निकः-- गन =
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डितमात्मानं मन्यत हाते पंडितंमन्यः-- ४५०९) ४६ ५४९.७०्१ 9 ४ लभफश्ते र; ०५९१४९१ 61800 मीषयति ००६४४ ४० ४९ भाययति, भौ ५४० ( 1 ) ४, ० भीषयते ~ 17० 7120" € &. मृडो भीषयते; ( ३ ) भा- ययते-- 70 1710८९४ 90 ००९ कपि\ 90 ००९.७ कंचूकिना एनं भाययते,
आतसारः -- 106. ९} ९ ४९७ &?४७]१९व् ११९ 1९६] ९88७१166 {छण 1⁄5 ०१९५४ ( चक्षषा ) आत्तः सारौ यस्मात् यस्य वा. आत्तसारः ॐ ४५९१ 1९0८9॥)‡- विष-
यः-- ४ ०४}९५४ 9 +८। 8७. {11686 78 9७ 00" ८नृ०कह ॥ #न© ५ `
०४५०७ ०१ ७००5९, -- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, & गंध न्णपण्मृतणषड ४ ४09 ९७१, 8६1४, ९$ ९, 100९, क& २०86. 30 ॥ला८ {15 विषय न # ० ९५ श्प, | \, ९, ४0 १1४101० ०९८1 ४०१ धोलर्धण९ मालाक्िका 15 ० विषय ग ४७ शु, `
( 10) यदनेन &५--8106 ॥¶ 1५ भ 9060 6 अपण् । ५५५०
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आर्या.
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गृहीतक्षण :-क्षण ^. क्षणोति दुःखं + अच् --क्षण ८ क्षणोति दःखं + अच् )--14. ५४6 एर्व त०फप ए, ७१९७ 16187716. 078 छत ०८८प्प्ड णश पश्वृप्लण्तफत पप श्राद्ध ८शलफ०णड 0678 ४७ यजमान ८ ४०७४ ) २९१०७8१8 06 भपप 0
इ॥९॥ †9ः (6 ल्लालपा०णङ ४0 1७ 118 [686 0 ४70 ४ ४6 कणप आसने क्षण : कर्तन्यः, ? 110) 18 ©0४]7€ भध ए ५५ एष्भछकप
क 8998 ‹ तथा. ` शौनकस्मति 198 ॥© {0700 प]9 1०३ :-- ‹ गृहीत्वामुकशर्मस्यामुकगोजस्य चामुके भादर तु कै्वदेवाथै करणीयः क्षणस्त्वया || इत्येवं शराद््त ब्रुयात् तं प्रातु भवानि । स वदेत्माप्रवानिति इतरस्तंप्रति द्विज : । पित्रादेर्यनेनैव इणीत् विधिना दविजान ॥ ›
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24". २५०,४ 910 १००९७ दक्ञस्मापि, ७, १६, ' उदयास्तमये यावन क्षणिको मक्त ` ४१ नागोजीभटु8 ५०१०१०४४ ४0७९-0 क्षणो नि- ्यापारस्थितिस्तयु्तो न भवेत्, › [०००७ गृहीतकण : ०५०७५ 96 1९60 रश (पपा 7100 6 एप्त फोणड 0 ११४६ ९955 19 #6 86058 ०, " य़ 165प6 18 ४4 कपत प8[०58॥ ' ० ' [ ])6त&6 ण कप्त (० १० 0णपः कणा ॥.' 8१९० ४७ ‹ ब्राह्मणाला क्षण देणे ` ४०१ क्षण वेण 5 » ९०४१०. ल्पता च किं भाप 168) 0 श्राद्ध ०७५०४. ल~ शाकृतल, 1. ‹ कि मोदकावंडिकायां । तेन हि अयं सुगृहीतल्षणः ` ०७० 8०४ 1. लब्यक्षणः स्वगृहं गच्छामि,
2.54. शूना( स्वि अधिकरण कः संप्र. द्ध; )-^ 91*०846"-४००९९ आमिष (1) 4 ९४, ४० गरष्ट ग न्मुमु०७०४; ( 2 ) 21५७). अत्यातुरो &&. ~ 1४६७ ( ४ &०प३९ब ) ४० 866. कणप इगु ४४५ ३१५५७७8 9 ४ल रणाः एण एश पाप्टो १5५५९७७९. ५ क्क मला तुश्च
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“वैदोरिवेधो हृदयं विदे." तषनमिव पतं तपनीयं तस्य विकारः ; तपनीयश्वासौ अशोकः 6०19-1 ६ लाज ) अशोक, सेभावयामि ( 7० एष २९७०५४8 ० ) 13 ४०५ ४1& 8 कताव ० (19 ग्णभत-श्लज्ड०४. उपप्र्पामि (1 शना भुण०४० ४० ) भण्ड १६6१४] 1९78. अपि सुखो & ~ ‰76 कण्ण 8णण्ध ०० णना ४) कणप &४7060 ११४९8 सुषु आगतं स्वागतं- ०५०१९. .56.नन 1०१९० 45 {97 &५. तावत्र. ~ ए"8. सघतितयोः ~ ४ ए 1४11 68८} 006 = ( स+ धं ~ 170 #1९, ७ ००००९. ) किंल्-एम श श्भा, © 97९ ८०१. आगमोऽ- स्यास्तीति ८ अगामिन-आगमः 14. 4४ ४9411098] 1076 ४६४०१९१ त०कप {भ ४०९०8078. )-- 168706त. शिष्याया गुणविशेषेण ~ ए 6880 9 6 86ल भ् फला 9 ४०८ एणा. उन्नमित : ~ ९8 पल्लाभिःल्त् पला (.# भ०७९त ६० अधःङत : ). किमिति & ~ पछ 8 2४ +9॥ ७ षाः 9 6०४०१४1 &€. कौटीन ~ 8८९०१९1, ८0०, ( कुलादागतम् ~ 7४४ ४०००४ 40 > 1; 9 कौ पनया हयोऽरदतीति ~ 1४९५ 100 १९६२४१०४ ॥
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मंदारो नर्मवा्यात्पट्गृदृहसना्यैपको वत्करवाता |
च्वूतोगीतान्नमेरू विकसति च पुरो नर्तनावकाणकारः ॥ ४1७० न: नैषध 111. 21, ‹ महीरह्य देोहदतेकशकेराकालिकं कोरकमृद्धिरन्ति, ` ४150 मेध 78. | प्रवेशक-& » 1४९1०१6. १1१९9. 8प्वृ$ 2. 13 & 1# [४ सम पहला ९०७७ 19 ४6 एशद्वाणण णह 9 ४6 त्म १५४
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अट & - 4 कष कध हाराण्ड्ठ कथा ४0 18फजात्रणट्ठ 08रा ण्ठ 19 8306 2] अत्छदटध) ग पणत्. अठ 1० ॥0:8 86086 हरला8 न्रा 016 णञप्ाथा १8] 07८ ४106 हशप्णते 10 त्वा+ एः अणक 1468 स:-व्िक्रर 1 ‹ विद्.-अह परिदिषितेन । अविरेण ते इदटसंपादयिता &. ' तपरसिनी- + पलल एडण७ ९०७००. ¢ शाकु {१ . (ता तपस्विनी निरता भवतु."0.59.नाग- रक्षित इव निधिः-1४७ ६५ (९९७7७ (छा 0876 0 ए ५0५ 867106०॥8, प्र एटडिः8 ४0 ४6 8प 0008० ४8४ ४06 र ]1016 ७९81४10 14460. प ४४6 @97#0 18 ॥8्ना 0876 ०१ ए ४9 इला ए6०४8. = & पडला 13 8प०8€त्
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५६ दशकुमार. ‹ भन्भयो मां मध्नन् निजनाम सान्वयं करौति." 80 ]षूणोल् 1० ०ः-शाकु "कुतस्ते कुसुमायुधस्य सत स्तैक्यम्.' ,60 तस्मिन् 41 1५११ ५४१० # एलु ०४।०६ भ परुश ० ५५ न्ट ४० ७ ४०००१. प्र्य॑व,
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53
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पररिभवादपि द: खमुत्पादथति. * मनस्विनीनां --18 ०8९0 176 &8 01] 9९ ००४०९. भमावः--‰१०५८००; «-कूमार ए.81 ‹ ममात्र माकैकरसे मनः स्थितै, 2 भः-विक्र 11. 22. प्रियवनशतोऽपि योषितां दयितजनान॒नयौ रसाहते ।
प्रविशति हदये न तद्विदां मणिरिव ङत्रिमरागयोजितः.' परवान्या्ैक 23 ०४०४००१ = , षि 191४0 98 पूवै अन्थधिकं-8९1079 ९२८०७७१७ > एप पण एणपे १. ण एषवल० | । +" <~ नार्हति &-एणणण 100०णए का] त० कन्] ००४ {0 पठ ४81१6 ४09 ०१4७०९७8 ४४ 09७. प्रतिशितं ( दरिर्ढ )-पणण।; ९९0. दुक्िणस्य भावः
दाल्षिष्ध-1\ ;8 ४० ००१०९५.--'दाक्षिण्य चेया वाच पराकतानुवर्तनम्., 2. 6. पवनचदिताभिः- 8१८०० ए ४९ ०0. द्र-इईषत्, ल--शां् "्वातेरितांमिः पहवागुटिभिस्त्वरयति मां केसररक्ञः. › स्पश सूपयित्वा- आीजकण्ट्ठ प 06 ४ (6 चणण्टा ग ५७० कणत, अभिजातः पण्णा एत. ४7, ?६०३;६ ¶००।९8 #6 गानकणह पणय भर्तृहरि ० © ७६. 19६ 9 "18 नण0:-
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधि
क: निरत्ेकरो रक्ष्य : परकथाः | रियं छत मीति सोते कयनं नापयुपने भुतत्यन्तासकिः पुर्षेभभिजोतं कथयति ॥ फा) श९ 16 195 अनमिभेवगन्धा २७ प्वैपस्तेः ४ ८" 1 1४१९ कहर ० ० काराः & न 28 ०८८०फष्ट 10 ४ { मतृहरि 870 शाण + ९०२० ( 8९०86 ), ५, ५६ (4) छ (००8 8१९९४७16 0 8. शध 0०९1०८8 शटा
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कारगुरवीं ( अविद्यमानः प्रतिकारो यस्याः सा, अपरतिकारा अत एव गुवीं )- प् 98 णठ 20. णात, १९७६ ए९००९० पशा ०क७४०. चापल-- प५ी०९७8, प्णरछ्6र००३ कृनत {प ००88. 2--कमार “ द्विजातिभावादपपन्नचाप
कादंबरी, * स्वविन्तदततिरिव चापलेभ्यो निवारणीया. ` परिभ्र्टा-५।1०० १०७०. हें ( दोहं -" ९ ०४९०४ ददातीति )-3०।७१७०।००. पंचरात्राभ्यन्तरे (पचान रीणां समाहारः पे परात्र तस्याभ्यन्तरे )- फा + 8१० 0/8. अन्तरा निः- ष्वस्य-51)1् 2० ४6 ¡०९९81 मालविका 808 ९8 820 8) १९8 ०५४ श्छ शं 0०6 (न्फ ४6 ७९०४९०८९ = ९९७०8681 [719४8 ४86 ६16 पतिन ० € १० इ क्ण ६0 हक्णफि शाः तल्ड6 88 वृषः6 3फकृष्णछधणालु कण्वे फन 2 08६ र्णं 000060६ 1१6१8 ©8०९ 70 छलः फ;9त 0016 806 ल्गपते पनः
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मत्स्यडिका संडसिताः कमेण गृणवत्तमाः
यथायथा 1 नैर्मल्यं मधुरत्वं तथा तथा ।
बाट्केव मशं सूक्ष्मा सुस्निग्धा सितर्षिगला
मःस्य!डाङतिसादर्ययोगान्मत्स्यंडिका स्मृता ॥ ४150 वाग्मट 1. 5. 49, इष्याः क्षतक्ञीणाहिता र्कपित्तानिलापहाः
मत्स्यडिका सैडसिताः कमेण गृणव्त्तमाः ॥ `
80: मत्स्येडिकादयस्रयो ष्याः वथा क्षीणदतहीता रक्तपित्ानिहापराश् ।
चथा कमेण गुणवत्तमाः ॥ धौतगुडादपि मरस्यंडिका गुणकरीनिर्मलतरत्वात | ततोऽ पि खंडो गुणवत्तरः } सेडादपि शर्करा गुणवततमा निर्मटतमत्वादर ॥
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4०१ ए ४५ {गान काण्ड ५०४ ७ योगरत्न ( मदात्ययचिकित्सा ) भयं रत्वा यदि वा ततज्ञणमेव लेद्यावर ( 9० तत्षणमवलेडि) शर्करा सघुतां । सदयापि न जातु मयै मनागपि अयितवीर्यमपि ५ सीषु (सिध् + उ ) ~ अप+ पनीत किण फणेष्छ- ९8. ५--रघु 2४. 52. उद्वेजितं ( ०४०७. ?, 2, ) - _ ४००४७ 18 ०७६९ ः- शाकै, 7. मत्स्यडिका ( मत्स्य + अड + इका ) = | 1 ०8 एश 0णणह कध 9 ०७९, ६06 २०७९ ज क्ज्+ 9 शकन्धु ०१५७७९8 3 पष्ण्ए6्व; 98 शकं ~+ ओषु शर्कषु & पाक 0४5 ६09 गा०कण्ह नपभ्व00 ०0 (15 ७००५८००९. ‹ मद्यपानकिन्दकस्य धवा म. तस्यंडिका काणितमुपकारकं तथा मदनातुरस्य तेव स्वयमृपगता ( अताकैतमुपस्विता ) सात्विका, अपि (प्रक) ~ 4 भ्ण ० णण वृष्क, स
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निःसंशयं ( निर्गतः संशयो यस्मिस्तत. ५९०७११४ निर्गतः संशयो यस्मि- न् कर्मणि यथा तथा )-~ तथाश्प्ाफ़ ण ३४९८४] = (जणाएत्य णत्, रला गकषाछा फ ०३९ ४8 & 10०. ए0ाः € चप)6 , शाकु. 1. ‹ छतं भवतां नि्म॑क्षिकं ` ७०८८७ निर्म्षिकं 18 51111191} ०७९त. 1 € 8९८९])६ ॥€ 7८वत्- ण्ड्व निःसंशयः , ४ पप 06 8४९) 858 8 तत्पुटष €0ए0ण्ण्ते कालो € ४76 १०६ 801)107228त ६० १०. निःसंशयः - संशयस्य अभावः .
अपितमदनसदेशा ( अर्पितो मदनस्देशो यस्यै )--170 क]10घ) ० 1०९७ ` 16886 {+ ००६०5४९१. ‡. 69. तावद्गुद्कं 1 80 पाप्रट}) 3एकृनाश1८6. योग्यतया नियुका- ४० ४९९ एष्टा) ध] 90 प्व भा ध८ल्छपप६ र ए०पाः 8४
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च दिग्भिः (१०)
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दयुग्मेऽतोऽहिभीः स्यान्मुखल्गपरयो श्चान्ययो श्वोरभीतिः ॥ `
भाग्य ( पूर्वाफल्गुनी ) दयु कैब ( उत्तराषाढा ) कुग्ि
इह केऽ ( रोदिणी ) स्त्य॑तक्त्पिन्य ( मघा ) क्री
पिच्यन्राह्म ( रोहिण ) द्विप ( विशाखा ) ब्र्तपि खल् न-- हहा ( अरवणश्रष्टायां ) ऽमलः सन् ॥ ५ ॥
५11. 2. 9 9 त 1 तवैप्पण्ठ ५४6 (०प१8९ ० लाप पटए्णप््ठण, = पणणण्ड भकना २४०४ ४५ल१ &०० ०ए ४७१ ०१०९०८७ 86९8 ४9 ४९ कृल् पशणनिणणह्त् प भण छ, प्र००९ पथ्पष्भाक ८४७ शपा कणी०९०५९ 9 प्6 भ्ण 878 185 १€९००७ 070रश 0:31. विद्षक १७६०8 प0णह्ठ = ठा पो) ४086 न शण ०४1१ ग्छणत 8008 छप ६0 06 ण्ठ, ए, ९४०१;॥ पणार ४०४६ ४18 €] क०णतव ४७ ५४७ ताकिल्णक्त ४ ४6 कक्ष भ 6०पण भाटविका ४ € 676 २९००५1७0 * इरावती, 8६ 10868 ०६ ४ ४७६०६ 19 भ5 86086, ] पण्ड 1४ कण्ठते ४6 एड ४0 भृ ४४७ ६००९४] 86086 1616, 1, €, 88 {1९ 21878 18 कण०००8 39 2:38 ७० २४००. 0०१७७ 80 816 ०पात दःए७ 070 ( ४९ णहु ) इष्टम २४७प16 ‰# &४€ कलह 0 गलणाछ. {10० 8 8180 8170४ भष्णुभल0९88 1४ 0००69798 इरावती ७४५ 16 19९६ 4978 88 8106 18 1997९७००६७१ 19 ४७ ॥०४प्लणलल्व क ४116 ४८ 14०९४ 1578 8180 18 २७५,
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आनित्य-- 9५" "९४०२१ ०, रूटश्वासी रागः स एव प्रवालः. व्यक्तो रोमोद्रमो यस्यं सः | तस्य भावः, + ४6 ६४}6 1४ ४8 कर्मधारय, ५6 पन णकप०ण त्व कषापे 96 प००९८८७७अ. हृस्तस्पर्शे &५. ¢ :--विक्र> 1. 12. ‹ स्पृष्टः सरो- भविकरियमेकूरितं मनसिजेनेव, ` कुर्याव ( आशंसायां लिडः ).-76 ०८९) 28 ॥€ा€ ०566 7 ६16 ०]४९ ६१७ 86086. कुर्याति 18 ४४१९७४०० &8 8 प ९७६०४ छक 90196 भ 160 18 ०0४ ००१७५६४. 106 ९०07४ कान्तं भ (18०8) 88 ०४ ॐ ६१९४ [ष्णम 105 18 रूपकं ४०१ ००४ उपमा, सखे गौतम 80078 {116 9।86०६-०११०१९त०७७8 9 ४७ णह # 0 38 कमो] 2080706 19 ध€ ५०००६४४ 9 माटमिका, #. 93. जयसेने &०५.-- 086१९ 1116 0046 ° 86070 8 3 00873616" ४086 18 ०० ८०76 16व ९१. वा-4180. सर्ज &९.-- 9 18 806 ए९ह्पाणह ४९8१ ०४ ध८ठ०प्प ग छ 00 एलण् ०,७००1१. ¢ --शाकूः ° 111. ‹ क न् खल्वात्मानं विनोदयामि. ` ४1. “ हतासु दृटिं विनोदयामि. ` 150 “ कथमात्मानं विरदाकूकमधुना विनोदयामि. ` यो &५.- प्र© 86 98 ४४६ 9 9 6िप४ा6 दप्लो०० ०४प््ो० णा ४ ०४४, विद् 06808 ६18 806 18 70 28 70186789916 # (०णतान्चि०ण ४७ {१४६ 9 ४ (१९६०० &९. प्रैभृतियंस्याः सा ( अत्पार्थे कन् ). तपस्विनी ८ अनुरकेप्या )--7 7०07 1457 <&;-मराटी, ` बापडी, ' पिगलान््या ( पिगले अक्षी यस्याः सा ) 0० ०-९€व ०४०6, प्िगल--& ५००0४५०४ 9 $नो०क्, णकः ०५ 16
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भ एकक कक ~ ` ~ ` "न्क क नका ज
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न्ना, नागकेन्यका इव 11७ ६५० १४०६४६० ० १6 ०९४७, ॐ 7806 ण न्व् एनण्डर कन्णडुणडन्त् णः फलम एषण ४० 5ण्णृ०४७वे ४ 1७ 19 ४१९ पर्ल १९६ 1००5 ( पाताल ).
(२४) 1४९ 8९6८ 8णह्ण६ ९८६०० ॐत ४6 ४९९ ४8४ ह+ 0४ #€ ०€९त 8० 0198800, 858 एल्छण तेप्र्छा ४ ४16 0नाणत णि क एणक्षणफथु 800 8८८०8015 ए 8 एानगल्ण+ ००६ &न6 आर्या
विबुद्ध ( ०००९१ ). चूते संनतः ० विबुद्चूतस्य संगो ययोः--अकाल-
वृष्टया--अविद्यमानः कालो यस्याः सा, अकाटा चासौ वष्टः, प्रबलपुरोवातया ( पुर
वातः पुरोवातः, 9 77९2०18" तत्पुरष ; प्रबलः पुरोवातः यस्मिन् ) भ ः-- रघु षा. 38. ' आशाः पुरोवातमवाप्यमेधः.' अप्यत्न-08 827 १९४३९ 06 ०8९ 7 18 पा्6ः ( ० स्शाश्शण्ड् लय )? ' उपृक्म--& ण ४४1४६ एश, 760960४. सारभडे न्यापृता- फ) 18 19 00976 9 ४06 (९०5०७ १००86. 96
किंमन प्रतिकर्तन्यं-- ए} 76160 ५४० ९ 200४ 10 ४078 ८886 ? सह. षिक्षेपम-- ४ > £1966. अदृष्टः श्रणोति- फा] ०१७0९97 प्रयुज्यतां सिद्धये
1.6४ ३४ 08 एण 1४४० गृ€क५०४ ण १८ तण्ा्,००य४ ( ० ५४6 एप्त ०७€ ). प्रवातशयने निषण्णा--191& 7० {© ७त ( ० % 802 ) ॐ ४९ ०®४ 1९९2९. प्रवातः ( प्ररुष्टो वातो यास्मिन् )-^» भप्फ 11906. ‰& 11969 €ग ०8९ ४0 ४06 छएणणप्छा४ ग त. < ;-- " प्रवातनाटोत्पट ` &५. चरणेन~
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हितवेगोदयस्तस्मात्पुमान्सद्यो जहात्यसून ॥
4180 0170876 ॥116 ०ण००08 9 वप ्०0न8० 80196008, वु 88 88०४ 19 015 उण्णा 887 8--' ला 6 भण तण ४6 971768४ 6 8080० 9 6 [नव्य एक किलो फहट 8 11ह्8ज्पा€ प्या 1 स € ९7186 806 ण १९ कणपणत्, छ ४06 €्लह०ा ग (06 क०१०१०९ब् एष ४0 छ ४06 भणााल्बप्रजय ज फत्ा८ ४, 6४00116४. ० ४७ पप४6 त भार्म, '
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यथादचोऽर्थो यस्य तद्यथाथै, यथाथ नाम यस्य स यथार्थनामा,
६ इरैवाःनीयताम् &- 1४ ;8 9०४४ प) 1 जयसेनाः ®श्€ः 6६ ४ ४6 ए०,०८०-०्छा, = ०त९ाः ४16 19186 ०१७१९७६९ विदूषक 86०४७ 0 18१9 0998 ६९६९०. ४0 80716 छीन 1806 क्षो6ा 06 पण 18 68 16त ४0 पण ज ककड 10 ७6 ०860] # 0 10 19८७ माटलमत्रिका ०० ४9 ९००99109, (70७6 2006878 00 = ०न८९्७भक 9 1 }1<8४प६् धुव सिद्धि »०१ प्ररििाजिका 1० ४18 1०४ #७४ ५४७ १88१९०७ एज यथाहृदध भाच & 168०8 811} १००४५ ४४६ प्रिानिका प्ण 18१९ ९66 ४४[६&प 19६० ८०8१९००९ छ विद्षक. 7. 102. "€ प्रारुत उद कमविहाणे शक, 06 ण४छा१९४९त् सधक 88 ^ उद कुभविधाने ? 07 ‹ उदकूभपिधाने ' उदनकुभ- विधाने-- ४०८ ४५० €०1709006 ०६ ४16 1680196 ए/6 ज उदकुम { फश््ल-*ए, 1४7 पिाम्वे काप ककण ). उदकुभपिषाने--ए० 00ण्ल्ाण ( एग्ध्यण्ड् ण्डाः ) ४०७ फण्ण्ः ग फष्लाक्षा. एप ४16 २९९तणद् उदकुंभविहाणेण १०४४ 6 1604616 ण उद कुभविधनिन-8 016 (शाकण णं उदकुभ. प्छ७ ४6 = प्छणवनःण् उदकुंभपिधानिन ००1१ 1१९ ००. 96786. उदङुमविधाने &०--3०ण९४ ण 1४ ४ 8€ा]60४- फक 18 #0 6 १8० 10 ६८ ०भ6ण० ४ ० उदकुंम, (16 10५81९७ 18 0676 ०86: ४० 9० ०४९५४ ०८ एषण 0०9९; नः- महामा = ' चर्मणि द्रीमिनं हति". ० # छक 8180 6 [त्मा ृशन्ते ॐ {96 ०प्वाणशकृ 8७56 ^ [9 ४0९ 0भ€प्यछणक 9 उद्कुम 80060118 चरण ४ अशृ फक 28 ४0
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ससरत्नावलिः -- नागं विधाय मतिमानद्यु चारणपूर्वकम । ४ नागं करेण संस्पृ*य मत्रानरतान्िर्चरेत ॥ ` ॐ जीनागस्य प्राणा इह प्राणाः । ॐ भरीनागस्य जीव इह स्थितः | ॐ“ भीनागस्य सर्वैररिथाणि इह स्थितानि । ॐ भीनागस्य वाङ्मनः प्राणा हृहायान्तु स्वहा इति श्राणपविष्टापित श्रीनागं नमस्कर्यात् ।
84
एवं ्राणप्रषिष्टां वै कतवा नागं निधापयेत् । उवरकुममुवे रम्ये पत्रे ताम्रमये शुमे ॥ सर्षपैः पूरिते रकसूतरवेितकंधरे । स्थापयेद्षहस्तेन संस्पृश्य मनुमुच्चरेत् ॥ अथ मतरः | ॐ ह: सर्पकुलाधिपतये श्रीनागयामृतमू्तये इृटृहृट् सर्पविषं शमय शमय नमस्ते स्वाहा ।
हति मंतरेणाभिमंभ्य चाश त्तरशतं सुधीः | नागमद्र। तः रत्वा पृजयेत्सस्तुवीत च ॥ नागराज नमस्तुभ्यं गरदोषनिवर्हण । भूतेशाभरणमेष्ठ विषं संहर ते नमः ॥ तत उद्वास्य ते नागं तोयेनानेन सेचयेत् । विषं निरभिषतां याति सर्पंदरस्यतत्षणात्र ॥ ¶1)8 18 1००५४ &8 मागमुद्राविधान, ^199 मैरवतंत्रः-- घटमेकं समादाय मृन्मयं चावणं शुभं । कन्याकाततसुत्रेण वेष्टनं तद्रले चरेत् ॥ कोशातक्यन्निकः पाया सूर्ववह्यभृतामयोः । शेलुः शिरिषः किणिही हरिर क्ौसाहूया ॥ पर्न बा त्रिकटुकं वृहत्यौ सारिषै बला | कल्कमेष। कुमार्याश्च रतेन पररिकःपयेत् ॥ ध 1 रदेपयेत्तेन बहिरभागं तु धूपयेत् । तद्रन्मधृकमधुकपद्मकेसरवंदनैः || | मौनेन जलमाहृत्य नद्यास्ताम्रधेन च । ते धः पूरयेन्मत्रमिममुचारयं यत्नतः ॥ ॐ नमः पृरषसिहाय नमो नारायणाय च । यथासौ नाभिजानाति रणे छष्णः पराजयम् ॥ एतेन सस्थवाक्येन सिलं चा्तायताम् | हस्तेन तं घटं स्पष्ट उत्तराभिमुखः स्थितः एतेन मंघ्रराजेन जलं तदभिमंरयेत | नमो वैडर्यमाते हृल् रक्ष मां सर्पविषेभ्यः गौरि गौधारि चौडाछि मातंगि स्वाहा ॥
्मन्र्वनृजाय विनतानेनाय काश्यपाय पक्षिराजाय नारायणवाहनायाभूत- हरणाय । ॐ नमो गरुडायेदं जलममृतसूपं कुर कुर दर्वाकिरा्यादिलपन्नगानां विषं संहर । ॐ नमो नारायणायेति ॥
पिष्यल्यौ ध्यामकं मासा खपूरः कददस्तथो | परचवल्कवरायर्टनागपुष्पैलवाटुकमः ॥
जीषकर्वभकोशीरं सितापश्रकमप्पलम् । कुमार्या स्नातया दमे कषिपेत्सचृ्यं मैरषि ॥
सुरसामाकवकुशीशरीष।वुदानिवकैः | वद्धकर्वेन तोयं सेचयेच्छतवारकम् ||
सर्पदशटपरवेशं तु मंजमेनं पटनपुनः । श्न्रवनज इत्यादि यावद्रोमाचहूर्षणम् ॥
विषमुक्तो भवेज्छन्तु स्तक्षकेणापि दंशिषः । अपमूःयु विनाशाथं सिचेच्छिरसि मानः |
सप बाधाप्रशमन विषरोगनिवारणं | उदकुभविधानं ते भया देवि प्रकीतितम् ॥
एित्मपे (656 {क वृत्रम्कछह ३४ का) ४5 लेल्छः ४६ कण
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(13 ) ७९5 ए, ०0 एष्डप्रघणि 006, धौ6 क ० पणा, 46४ ४४७ ४7४ ०१ ४९ अतिमुक्त ५७९९ ६०७१३ २०९, १०२०५७१ 88 1 भ
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7. 132. (3) 'एण््तणड् भं फक एरा० रहते ककष पे 8 । ;9 छान
1. १.1, १११ लका १६ ५१४६ ५1९ प णटु 9 ५१९ विदर्भा 19 0०४1९ १०५ (6 क पु {0८९७ णा कप 1किलेऽ क्षम १8 कशो ऋ अ१(४१०।१०6, 11४9 4 9 10118 इदैत्पलोत छक भोाजकथाड 9 प, ४७ 9 9 ऋ, वलेततिक्क, ' ` 4
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एवात सुषि 6०९९ भ्ण. ( एकत - अव्यत, सर्वथा ). प्रसाधन-
शर्ैः--\4€ ४ ५४७ 8)६311 19 ९०5०९८५ ( ९०5९० ज १९८०४३०४ ) ४6 ४१९१४५०४ वैद्भकं {ण्पिपव् प आप 2५८3 ल्वाप््छण ९०८९ तरिाह ८. 13 | ः ए0606७8े ©{--विदषक्र 9 8१८८।\ एनृण्ण, ‹ भो विव्राहनेधध्येन सविशेष ;
मे शोभते मालषिकौ ` सविशेष --एतपपटणावण्र, = पण्दुण;8<ल४पकु 7. 1338. मदपेत्ानुरःयाः `ङया-०४ ' ४८००८१६ ०६ 67 ०४८११८७ ` कपो प्ट्ुकप्प 0 प्ण
१०९. ( मदयेल्ञाणामनद्या ० मदपेलाया अनदतियस्यास्तया ). ० उतर; ‹ नाहं जनको नाधि नानदति संततिः; ` १. 1. मदपेक्षामनप्राप्य-8 9१77 1 भ 0४ 6 वण्टणप्र००. पूर्वं चरितैः--8) ४७ 1७४१०८७ ०५५७. सौभाग्यं -- 82५४; ` भम आरंभः-- ध पणवना्व1णद्व 9 ५४०8४ ४० अशोक ४० एण ०0 ष ¦ १०४०७. नन्--0? ०००१७७. अथ ि-- 7 ९७, ७२५८] 80. यथाईतमानसु- ` द्वितं ( अर्मिनतिका-तो यथाईः; यथार्ह: संमानस्तेन सुखितं )--24०१० "ए क| न &०४8९॥ ) ४ ९१५६ ०००५१९९ 103 ४९ 0ज0० पल् 1 ४५५०५४७० 16 पलप णश, . भालकिकाप्रोगेण--मालतिका पुरोगा ( {०७-*०००० ) यस्मिस्तादृशैः. पररि 8 इत्तयौ वन. यौवनः ४४० ४ ४११४५०९१ 1 ?००॥. ‰, 14, वथा आह मवान्- ` [१ 8 8 ककण §४त्, इ०प ७४१७ इत पल चण
८ 4 ) घथःह 06706 प8, ४ € [पं € ज ४05 एलापकष] 8685800, 19 कलो ५७ कुरबक्त 0०७8 ४९ 8८४५६९७५ ६१०४ 814 ५11€ ५५४०० ४९68 876 0९60४ ॥ द्ण्कण 0 & १७0९ 9 {५५।८३, ४० क 116) ( एय, पाथर ०९ ) 18 भवह ४० ३65 01086 ००६९३ 106 16. ४९१०8. आर्या
विकीर्णं &०.--विर्कार्णानि कुरवकानि धर्मिन् फलानाम्, जादेन विभज्यमाना;
हष्टकाराश्च यस्मिस्तत. कतोः--वतंतस्य, अये ०५४ ७ ४६७ 8180 ५४
। शर्क &. भ्ल ५ कणणते फल ५४६ ४७ कुरवक 00९08 &76 । ७०९४६९७त ०9 ४0७ ००६७ 8106 ४ , € पाठ ८८८७ 816 ७०४ ऋ + 10० ग 38 षप, 06 एणणृण्पपतव् कषक 9180
> ~^
४४. (
९ 088०1९५4 ७5 विकीर्णानि कुरवकफलानि तेवा जाछेन विभज्यमाना: सहकाराः ।.
, यस्मिन तत्र---1४ भ १५ ५6 ०४०० ४८८ ९८ ५७५६ पण्य) ४ ४७ । | सूरवक पि क०६त 0१७ पड. एप 1015 ००4९ 38 ००४ ४6०९) ४8 | । हं ८०६ 9 लख्कृल्ः एष # का४०४ ६१४८ ककला8 194७ १9 धल । मा 609००. ०: अमर~' पातः कुरको ज्ञेयो रकः कुरबकस्नूतः ',
| ॐ दकल न्परधप ४ ताबडीकोरौरी, इतत नेपन्यः--7० क०ष्य
104
१०९७९ 188 1669 ९5०. नेदथ्यं- -1४ ०० ज्णोन्न्ध० भ
०८४५४०७०४७ = {जण # १८५०९. कुसुमस्तवकैः--8) 6 एत्रणटन ० 2०5७8. तपनीयाशो केः--तपनीयमिवाशोकः, प्रसवमंथरः--31०् ४ ४९७7 १०678 { मेदगामीं तु मंथरः ), वद्वं &५--81००० ५१७ ००७ ०० 1९७००४8 ४19१००१ ००६ ००७०० + ०५४०८ ( ००३५ल०द ). न अन्यैः सा- कारणा अनन्यसाषारणा.
(5 ) 76 05678 9 9] (४५ अशोक ६०९७९, क 19\ 8 प्ण काकोभान्े ४09 &107ए 9 ४७ अतण, ५८९, ६9 1६ भ५०९, ५५०७७८० ४० ४४७ अशोक
0088 10919 १७७१७ 086 66० {०1811९4 (.॥॥
7. 135. 75 ' उच्रक्ला, वित्रन्धो मव-~1५४० ०००,१४९. अस्मासु संनि- हितेभ्वपि -- ४१५४ भ 10116 ० ४7७ ¶7851 ०७४7, धरिणी ५1०५४ मालविका ४०
8४९०५ ०७९४८ 167, विदषक १४०8६ 16 10किप्छा०७ ति धह = एनकशज्प्य
&१त 1197 गपा ०४७ ( २११७ १५४ {. ६०५ [1. ) ५१४५ 8116 0०5८ 8१९ पणन १०४५७ ए] ॥७ए 010 ७ दाऽ ५ मालविका ० ५५५ ४19६ #9 ॥
118. १. }. अनुनयति-(०५२९७, ११९५४३ 16951019. 1५७५५००८, अनुमानयतिं --18 १४1०६ ५७ ५०४७७०४.
( 6 ) परश७ ७ १०९९०, &{४७०१्व् छ फ़ ४०१७, काप प्व्मृन्मै, ४1868 0 &€७॥ ( ६० 16661९९ ) ७ 11७ ४७ ७४1) {७०१6 छ 8 ७०११७४७ 9 प ७भ]ध 9 ४५७ 1०पवे ज 1जप्व्ड, भ 0, ४8 1४ भलः९, 099 {ज~ ६०४५९४० ० ४०1 ५४७ 1०४०8 19 ॥9 ४8०१. आया,
18 ;5 न्यतिरेकालेकार ५५०१ ५, उपमा. विनयाद विनयेन ० पषिनये, विस्मृतं हस्तकमलं ( हस्ते कमलं ) यया-- प ४० ५५8 णष्ण्णन ४० १०1 (&५. 0५ ६० {१९ ० लक्त्मी ५४८०८५० ५५ (णह भा & 194४5 च छम ४४०१. 9 :--र्घु* 1४. 0, |
' छायामंडललक्ष्येण मह्या किल स्वयम् | पद्मा पद्मातपत्रेण मेने साप्राज्यदीक्षितम् ॥ '
नानामि &०.-- फ नपाल 806 ५४७ प17७९द पणि फक्त छ ७ वृच्श्यः | 9 09 1१७0008 0 8016 पशश 1४8 09 ६6 ®6्ल मे वेत्य ६1 र्क्छे ४0 67 ७४००६ 96 ०8111४९1} ६०1१. 8५४ ४४७ 1४० 8०००0 भल
7१०४५१1९. कौतुकालंकार-- प ०१५५ ( प द6 ) १०८७७. कौतुक--ए०७५१० | ००५१81०0. [१ ४ ४180 ००७९० {५76011५ १७७७. चितिनौ --100०9, इ्षिणेतर- ~, 8०७ ४०७ ०४ 11, # ‹ अहो अपोगको ' &०, प्षविशेषं ` =-१०[भ 11, \
105
| ॐ. 156. (7) फल्मण्द् ४ अर दकाल ( दुकू) ०६ ४ ०६ तेछक्ण 150 छि, 2० 0४ ण्टट ` क़ & {छक ०ाकणला{8, 6 अणक {0 6 111६6 १ कः \ ष्ट ण, ६ चैने 1 कठो छठ पत्ना 8 प्डः भणण 6 प8९, (ह्सानः पप ३ लर तण्ड गा उवा, 1166 पणण {१०७६ ( 5 ). दरतविटवित,
उदय &. --उदये उन्मृखश्व्रौ यस्यां सा उदयोन्मुखचंदि का. ० उदये उन्मुः शा चंररिका यस्यां सा, ( 1 < 05४ ०९७९ का ९०६ » वटर ९०8४१00) ` भृतं ( ०? हतं ) हिमं येषां तैः, अमिप्रत- ९51" ०४९५. सकेतगृहं --1३९०१९८- 008, , 719९6 9 8ल्ला७# ९९०8. कल्पितः ( संकस्पितः )--1०6१९त१ 0 ` त९अष्ट०€्प. तरणी &८.-तरण्य एव॒ जनस्तरणोजनः, तदणीजनः सटायो यस्य (बहु ) ० तरणो जनस्य सहायस्य ( तदयु, )* (71०९ भुणएषप्टण्ध तदर्णाजन १. 7068098 इ0प्रण्ट्ठ 1१68 9 ४6 19, भाला 6 38 9 ०८८ एल96066 ४
भालविक्रा, ` शेठ+९९० ०4
ॐ. 151. (8 ) 1४33 ०० प च;5 अशोक शन्णत् ००६ € 96९ 6 त्ंल्ल ज कण्ठो 100०5 फ़ ध,< पृप्श्टा --796 अशोक, छ॥०, प९६भत]९88 चल गवलः भं € रश] वले, ( 0० ) पाश्0116818 175 7880९6४ णाः + रणाः इडल008 ङु ( प्ण एषी) ) 00९३, शालिनी,
नायं &९--1६ 5 २०४ &. 3. ०. © पृण ` पदशश ९७ &९. ईदृशानां &.-0{ श्ल) शृल्लभि कका प्०ण 88 38 कतक एए #6 वृष्टये ए लः शरस 18 ४0 81६6 1779. प ० 00 कलऽ. सावज्ञ-- ९8701988, २०४ एष्ण्ण्ड् षतो ¶०श एत धोणड 800 काण €0प+्लण, माधवश्री - ४ 6081 मक्ष. नियोगः--07१9. यौवनवती -प्र०४०९ #© नश््थः ४णत 6णभु शाकर8 ० विट्षक, 0 0०05९ यौवनवती ॥© ०९४8 माठविका, 28 का] ४6 हरवला ए ४९ (0६8 8]€ब्५् = एलठकर, एष ¶९86०१९त् ए ४९6 4०९७०, € क्र ४ 76 1९०त$-२५५१ क्श. संनिधिप्रियोगः-- 8९४४४०४ (फण्ण्ड ) एषण्सापाक्त. & | ८9) भण 1९१9 चक्रवाक; "5 ९10१९ 18 171६6 18 781९ ; णत् धारिणी, 9110 १०९७ 2०४ &]]0क़ छपा प्प्णा, 28 119 #5 फक 6 ०३९.
9 + कि. 4 प्र ^. नत „ ` र्थौगनामा-र्थागो नाम यस्य सः-- फ1086 0806 18 9 कृषा ० 8 छक्र
1 (१. ९. ण) €छ] ), १९०९९ चक्र 0" चक्रवाक ~ 1९१९ ००8९. अननुज्ञात &५-- । षऽ पजणह # 176 णकण्छ० ४४६ 0० [न्त०ह ९०४९ ग चक्रवाकं ५ 14
क
। -©1०5९ भ<क०ण , शृच्लंन प्त, 1४ हल ०8 © 1०८०५१९. 2. 139,
{ ४८०1७ ). स्वरसंयोगः---1“11. = (०णरफलया ०9 अकल = इतणड
106
चक्रवाका "०७ ॥णण्टो) 70 पण एष्ण्सप्णक्त् वपप्ण्डु #९ गौनर मकण 4 ०५०१००४ ४९ ८०४९१. ° :-शावुँ = 1४. ‹ शकृन्तला--( ननौपिकम् ) हृदा प्श्य ` र निनीप्रौतरितमपि सहचरमपरयन्त्यातुरा चक्वा्यारौति दष्करमहं कौमा ` 4150 रघु 24. * र्थागनाभ्नोरिव भाववधनं बभृव यतेम परस्पराश्रयम्. | #180 विकर ° 1४. 18. ‹ रथौगनामन् वियुतो रथागभोणिविबया | अयं त्वौ पृच्छति ` रथी मनोरथशर्तैरत
2. 198. विदर्भविषयोपायने ( विदर्भविषयादपायनीम्ते परेषिते-- 11४६ भक९ 8९1४ ४8 7९868 णय {9 विदर्भं (छप, 1४ 18 एलः #० चब]७ 3४ १8 ४ ४५}८८४ १९ १५70६ शित्पकारिके धा ४ 00 3 {6 1०6१७ & अ 72४०४ #लछ8 ४0 1४१७ ६६९), तस्मिन् ४6०६ €१०४। ४ तस्मिन् कले छः तद[ ४७ 8)0017 ९०४४४86 ४) १४५ गोम णहु सपाप्ै- 4 ४ ५४४ प ९, ४६ ५७ धप९ फोट (९ भा ए९त ७५९. शित्पकारिकि-7ण० णऽ (भेलान्व) कटल्मणा- = ` 81164 19 ९ 9118. अलसशरीरे- भ 1५86 [€ा8008 ४16 197१५ ( १०४९४९९ ). देवोपस्थानयोग्ये-- ४ (० ४81 (१०४? 007९) कण्ण ४१९8. इतिरुत्वा-89
४५:9०. लोकवादः "०१४9५ 8951६. आगामि-^ 17०५८४६, आगामि \ | ०.--1)46 81816 0 यत 1701९9168 {प0ा९ 0890688 णा क९. ० ८० 1०4८०68 प्पा० 089०९७5 ० ०९. अभियोगः ` `
|
अभिविनीत--1०५।००१९१. ९, 140. चंदनं खट मया &५-६७१७॥, ११९९ ॥% +=
€» १€)6व ए 06 $ ०81४६ 1४ 98 9 8804}& { भाश ).. इर्यभूता-- प४5 १6१०९८९ ६० प्ल), 9 8॥७16. 2. 141. विषिनियोगः-९०७७ ० ५९, =
दायादवशंगते- प०४०६ {911९४ 1110 #9 [कथ ० 108. 1095708. उन्दित्वा 8९१६ _ ४७१९, 168810 ५8:0९. पुतं शरुतं त्रतपूव--प्च्छष्धे भाणः
१९५०० १०१९९, ००१० ० 81०6). शाकं ४. ‹ वीणायाः स्वरसेवोगः श्रयते `. द्ःखेन-- +) ( ४१८४ ) कलमा, = विभान्यते--1 ८५५५९ ०४६ १५८०६०४;२५५. 2, 145. आप्तवर्गः-(धप्णेर ० 0००8. अनमवत्याः-दमलिऽ ४० माटविका, दत्त॑तशेषं-- 171 गशणभ णाण्ट् [षष ण एला ऋलत०्प्णौ+ उ
व्धम्- 8० (८ प०१९४।००१ )}. तथागत &-- फर )०७० षणा क पत्पपल्छते (0 ४४४ €0णकात्०ण, अपवाद्म-- (भण भकु, सवतकणः मवत्सवेधापिक्षया-- पथ्शाण्् 7 शकक कुणपः तणणफषल्कण. | १यिकसायथं-- 1 ए०दः ० प्छलोलः अनुप्रविष्टः-भपल्य निवि्टिः-- ०८१०], ¶० त 1५ ४१६०८ 4 विन्रभितं % 9 [०८००९ गतोऽध्वा येन स॒ गताध्वा-
107
४ छष्त 4्ष्छर्लान्त् 9 कषण ० ५06 ०४त्. पमु (10 ) फल भल्ल > अपण एकवणव 9 कणा-भुलाञ फा ५४९ ००८० 0९फ९्लय = ध्लाए = अए08 14606 = ( ९८०३६्त् ) ए ४४७ पणपग्डाः-उ908, = कलबाण् 5 0 660 श्वलाऽ ॥पट्ाण्ड १० फ ए णलः ॥द्ला8, >पत् का 0०8 70 धाथ ४०९8, 1088 ण्णप़ ०णछः कड एथ प्त ६0 एड <. ५ = | वसंततिकक
| ५ ५. ध ४, 1. नणीरबेध 4५. ०७४०8 6 89716. ए. 1, आकर्णं. &५ प्शणडण्ड ०० ०८० ६७ ०००७. ९. 143. वद्धयुदाः-ए०६१४० ० 0४. 5 प्राङमुषी छ्ता-- ण ©७ एण ५० &7* सार्थवाहः धश्रया ०३,
16 ॥.
ध 4 (71) 0९ ५५६ एष्ण्छालः ग प, 0 ककष ९४८ ४0 5 ` 1०्व, किण ४० उठ एलः च पाष ताञ, 00 कथ अदत् ०६ कण 0पाा प्ण, नृल्पत्व 6 १७०४ ४0 08 10प्व् ३४ ४06 ९०७४ ०६
४15 0९० 1119. अनुषटम्.
। परिप्सुः- 490०३ ४0 पर्ल, दूनति-” 0750९88. ए, 144. समवस्था तदत्ता-- ८५8 ४९९४ २6०९६ ४0 8प्८]1 & ९0तप्च ज. तनुमृ्ता-- 07 ०९18.
लोकयान्ा-- (०८३७ ० 116 ०10. तन॒ &८--1)8 18 ~ 008 18 06 गपा ०0४४२
९०८८९ ०६ ००113. , सफ्लीरुतभर्तृडः ( सफटीचख्तो मर्तिडो येन सः )--
1086 1083 {पत् ६0 ०86 ४16 20756]8 ( 9६ 10० ) 9 5 08516.
मोहमुपगता- एमा ०८० » ७१०००. संजञामुपलमे _ दर्धसण्डते ` ० 1४६० ॐ 50० संज्ञामुपटभे-- ९८६०।०९व् (८०४ । . 8७००७०९७३. दूरकम क<-- प्र ४8 ००६ ० 06 ६९००. कच्छे -0फन्ण्. अभि- । की र
सात्रङ-19 ५०४5;&० ८ 8९, (०४८४. पुलर्नवीख्त॒&८--रण ६७ उछातछक
~~ --- ~
। 1.कव ९६ 0८ १९४६ ० प्क १०७०७५०. अवतीर्य -प५१;०८ ८००९. काषाय-- £ पमान छक्र ५८९08 ( ०४ ४ ए प्वता0;5४ 00018 8 पप्र 9 ४०७ वभक8 एचक्छवा ण्ठ ५४५ प्य 0६ एछृह्काग्णड प्दाताल्०४७- । सन्यासीऽ 0? ५७ 17९86४४ 4४7 ). = पंथाः--(0४8०. 211, 907४ 76० ड
066 ४०४४ उप्वताडप कड 681९6५८ ४४ ६16 क€पम्व् कोल ४16 तत्धॐ ४३ क 1160. [४ ५४8 106 80, प्र व5 = छण [्ठ्वप्ला०. आपरत्रिकः--
4 {07९91 गता--6०४० 190 ५५ ॥४7१& ०६, लब्धप्रवेश-- प्श्णण्ड &० &व59००. अवसान-- 12५0, (०५०५००००, 2. [ 45. किन् खल
द-प ४६ प्ण 05 पठञ्च ००? ए, रणत मोडल ४० ०१८७ ०६ दणि [ णठ्फ ] 15 कललः ४6 णद ५८ १४॥ प्यक लाः फा पठ भमि एव्वपणड् एलः पण ०१ ९८6 ७५८७ 1 ४€ ६ १४१६ भजकञ, [ चण, पताणद् पजा हक्य ० ४०४३० ४9 6) पण्द्वञ विल्लङजण कलिः 6 ४४ 0ल्भते {16 १००१९ अजक अ ध षः |
शाकुं ४. ' शकुं किन् खलू आर्यपुत्रो भणति । 1
अहो--^198 ! प्ररिभवोपहारिणो विनिपाताः--6१)४४ ९8 नि- ` पाताः ) पण्डु ०५) पप्णो ८८ ( १५६४६५०८). परिभवस्य उ ~ ५.1, परिमवोपनिपापिनः--0००० ०९०,४९. १, 1, परिमवप्रहारिणः ० (५1०10९8 = अप9 ४ ०६५००; ० शाकु ४, ‹ रधोपनि- पातिनः अनर्थाः ' | 98 ( 12) ल्ल 06 पल 9 9 १०९८० 88 306 8, 6 ४86 19- ध 0५५ ४€€४ ०७६ ॥\४€ >» 818१९, 28 ४ अधा दभ ०७०४ 8 ०७6 ७7 ४७ एप्प0०86 ० एक इभ्ल०६. अनष्टु.
्ेष्यमावेन--8 9 ७1५९७. प्रण ( प्त्र॑--1,५९९, ` उर्णो-- ०० )-- 81} &१८०९०६. अभिजनवत्ती-- ४०४७1७० ५५१. भ शाकः 1. 18. अभिजनवतो भर्तुर्ाव्ये स्थिता गृहिणीपदे. ` शातं परापं--0० जवे ४४ 1 अ०णव् ४५ ५५[न्रल जं व्ण 8 9 अप. कारगेन-- एजः 9०४७ ` ( &००व ) ८५७००, मैमत्यम्-81५५०. ए. 1. न्पून्यम्--11:11८5००८९७ ४: ४०१ सैभत्यम--४०4०5४, ४ पण्णा, लोकवानागतेन-- 0५५1७ [णु प ४ 701{4.1 {0्, 1, & कल [ग्णद् 19 (05 जभ कमत, लोकयात्रा 18 ५6 #५भ ५ ४018 116, ४: 3णुछ, ८ ईदश लोकयाच्ा &&, ` ४५.11 111 ०५५5 देवयान्नागतेन रशिवददिशकेन॒ &०-छ ५ {०१००-६ णद ०७०७९ भ] ४4 ००५५७ (० ४५ ५०1 -००८७अ००. तिद्वदिशन ( सिद्ध अद्धो यस्य तैन )~ 07 ५;भोल एष्नलप्यद्पपकषा 0९8, = भ]0०56 = (0णद्ुपर लछम ००४ ४९ ` ५15९, साधू-^ प।४।४९ [«ष०्०४ ४९, ००७ = [०७७९०1४ द कपल ००९8 {0 कणप, 0--रत्नावलि 1४ 16} ९५५५८४। फ स्वय ४५४, सदशभतं «० फ ण्पेतवे ४ पणोन्ल्व् कपि ४ पातन चकते सः शाक 1४. 12. ‹ संकलिषितं &०-मर्तारमात्मसदशं सुख्तै तावन * = `
{१
अव्ययं भाविनं--४र्य-णणण्टठ ५०९, ४०९ पमाः, अदेश एत्मृणन्छु, परिणमत ९००४, ४८०६ {181न्व, काट &०-1५
५०[०५१४।१५५ 9 ५५ एषण ५५७. 2. 146. अपेक्षा ध ५१६ एण,
109
कष्ठ कारट्ण०४ परविश्य कंचुकी ? ० 10, 2५०0148 व्वाकचण ॐ म । ` -कंवुकी 06७ 1015 १]6०४०९6 फ }©४ 16 19५0१०९८७ ४8 ४79 1४458 ० ८ 18 ०० फ6ा6 फञछ०पल्त् कोड 06 कल्य ० । - तिल त्छप्वः, 36468 कथौतरेण &० नान्य] 5110608 ४0४6 16 28 ॥ 4 [अ४दणणड् ४० #6 ३५००००४ 9 पतिाजिका ४०१ थण 0 08 (णण 0 ह वला च्छः 18 २०९३8९७ क160 पृरिजिका'ऽ ५०००१८४६ णपा 06 ण्य, बधोतरेण अतसं -- 0 98 ३९]०४१५६०१ ०८ एप ०० ए ४ पालष6ण४ = अज ५ 4 1 कनन 8),] 9 ॥113 18 16 [गाजक्षाण्ठ ०९७७8९9 9 ४0०6 प्षापाइच्मः,
दर्भगतं &८-- पा श्वभ्य ४० ( ४०७३८१३ ) ५९. = अनृषेयम्-- ५ ॥४४ । ॐ ( गण्ड) (० ४५ १००९. अवधास्तिम--18 ५००४७१०५७५१. अभिप्रेतं 0००. दराब्यं-- ०16 &०१७००५७४॥, २५९ ०६ ५०७ ८७०. = अवस्थाप- त वितु--19 ९४।९॥।७॥ ॥ "44 हः, 1 # 7.
(13) 1. पल्ण पपात, इलृकभलुङक 0 नल पणतालप भणत 8००४७८४ ४४०१६३०६ ४५९ वरदा, ४5 ५५ ५००1-१५१५५ ०४७ ( ५ {000 9) ४०६ धल क्न न9९त ००७ ( ५५५ उप ) गण वाश्व एलफल्छ्य
, 1४७ , ५४७ ०६५४ ५५4 ५५७ ५४). । अनुष्टुभ्,
लक्तं द्वं विभज्य--1416. 4167 वापकाण्षट ( ४५ शग वभ ) 9
०३६४ ४४१ पम, अमात्वपरिषद्--५०५५। ५६ पा050918, (६००८६६४, प्र
। ति गनिव्यात- 1 ०५ ००५५।०।५५८५. #, 1 4. जीवितसथवः -॥49198 ५०
४0 ५४०६& ४५ 118 119 ५।१& 1प ४७ ७०७७८३७० 9 118 छगल +8 * कंल्यार्णी--ध ५५९1०५8) ८०४।५. बु्ि-- व. दशन ए ७, [५६९५६७२
(14) एव्छतणटठ ण ४७ मपणड तएवल्व् ४0 षण (कृष्य) ८७ ४ ०४७8 ५ ४ ०९५०८ एष्डतण्ड ४७ ०६९ ५५०९ णद) ४८०1688 ०५ ध८८०पण४ 9 पप्य कन्य) भा १०१७ १.
प ४४८ वणप म १५८८-9 ५५७, ( उ्देहवजा,
उद्रहतौ हेती- 80418 ०}. संधरहीत -- 0४6 119 10148 (© एश18, 0668 006 #10 ५०।७८६४; 16७ ५][011८3916 9०६" (० ४ 0०4६० ५० ० ८. परस्पर «०--परस्रस्यावधरहे निर्विकार -,०० ६० ५७ ००१०७ 9 - ४५ न ~ €6}) ०५७८. प्रा भतक-- [1 ०५००।, इ ` स्व ` ५ ~ 48 ॥०१५४७१,-{0७ ५०५१५५५५१८८ पुष्पमित्र, देवस्य + ॥५५ » 1९9[५८४
। पपि वतय ४44नव (७ पुष्यमित्र, 0५ ५५५ ०५५०६ ० तेनाप ४९५ ४५८०
119
गणा ९.18. , 148. सोपचार ४ ७०८८०००. उदरेढवति- 02९०४, `
ततो मुखमेव &०.--0५ १५५ 8 (५१०ब (0७१७६४० एथ वे४७।१०१ क ४७ ३४६०४ लपृच्छणड्ठ ०९७४8 0० ५००८ अविकारः 1०१०६ ५१० क, त त त त त त अतिमित ण्ट ४९७ 0960 अण्वा कातो 18 सिला ०0 भटठत्र ० 13 पालः 0४ रण 86६ 118 809 ६0 ४७ ५४०७ 9 ४४७ 0७6.
अ.) 94 अतिभारः--68]0015:019 ५॥५"६०. यज्ञशरणाव्र--ए्जय) ४५७
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26 (१७ ५०१४६१५४] 1068 ०1 :-- स्वपक्षशियिलभिमानाः, अभ्यन्तर, आगामिन्, कौटीन, अलं परिदेवितेन, मन्मथ, उचितः प्रणयो वरं वितु, सह्यतां, लन्ज्, शक्यमिदानीं जीवितमवलबितुं, न मे मात्पकिकायां कच्िद्थः, म॒द्रामधिकृत्य, प्रभ, कांतापराधकूपितेष्, विनेत्ः, कप्यसि कमेः वमधि, चिकित्तित, अन्निसात्क, त्वमेवास्याःप्रभवाते, कुसुमित, माधवसेनं मोक्ता अदं, एकायनीभता, स्यामायते.
27 अ पाल ल्क ४६इ ० ५06 गाम्क्णह कणत8 98 ०86 10 माल- विकाभिमित्र :--
भाविक, प्रार्थित, प्राभुतक, आरंभ, सिद्धादेश, आत्मनीन, ८, म्रतिपत्ति, तिरस्करण, तिरस्कारणी, क्रिया, संक्रति, सामानिक, `
रागबन्ध, आराधन, परिग्रह, परिच्छेद, पर्॑त्सक, अव्याज, सभाजन, विभावय् , संभावय्, प्रयोग, नाट, कौलीन, तपस्विनी, उपक्षेप, प्यवस्था- पय, उपचार, प्रतिष्ठित, दाक्षिण्य, मत्स्यडिका, पीठमर्दिका, लक्ष्य, परि क्षिप्त, अभिविनीत, परिकर्मन्, वंचित, धृति, उपरोध, समापातति, अन्य पक्षा, विनुद्, सारभांडभृगरद, रुजाविदस्तचरणा, उपन्यास, उपक्रम) ८९ , आतपुक्रांत, प्रत्यद्रम, समवस्वा, परमार्थ, वस्त, उदासीन, निर्धना, अन्यसंक्रांतहदयः, निर्भेद, अत्याहित, मार्ग, उपक्षिप्त, दं इचक्र,
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यातव्यपक्ष, शिल्पकारिका, दंड, प्रसवमंयर, संकेतगृह, उपस्थान, अभियोग, स्वरसंयोग, अपवह्, अनुप्रविश्, गताध्वा, च्येकयात्रा, परिणमंतम्, विदर्भेगतम् , संमर्दं, चरितार्थ, ईति, निर्वदधुम् ,
28 १०४७ 81118 10688 {50 ०धालाः क ता ६8 0 {16 94706 १1० अः 0 0 8प््ःजाड ४0 {06 जाम्ण्षण्द --पात्रविशेषन्यस्त &५.1. 6 | अ-
चिरधिष्ठित &५. दर्यं तमसि न प्यति &.। पंकच्छिद फलस्येव निक- षेणाविं पयः । श्यामायते न युष्मासु ( विद्वत्सु ) यः काचनमिवा्निषु । आमत्तानां श्रवणसुभगै &.। क्र रुजा हदय &८.। कुतो विभवः स्निग्धस्य सखीजनस्येमं वृत्तांतमाख्यातुम् । कार्यसिद्धिपयः स॒क््मः स्नेहेनाप्युपलम्यते |
निसर्गशालीनः स्त्रीजनः । विस्मृतहस्तकमल्या नरन्द्ररषम्यावसुमतीव । 29 @००॥७ ४९०९8 {छि ०६९ कता त (78 8 प्तः अच्छः #0 †996
निन्मण्ड :-इमं भुजंगभीरुकं ब्रह्मवेधुमनेन भुजंगकृटिलेन दण्डकाष्ठेन स्तंभांतरिता भीषयिष्यामि; अपिहा अपिहया । भो दर्वीकरो मे उपरि पतित बकुलावछिके एष वाद्यडोकवृक्षस्य पट्टवानि हरिणो रंघयितुमागच्छति । एदि निवारयाव एनम् , प्रतिपन्न प्रयमतरः संप्रति सेवावकाशोयम् । देव्या इव धरिण्याः सेवादक्ष परिजनो ऽयम् ।
30 61९6 ४०६७ ० {16 {गोलक ण्् शर्मिष्ठा चतप्पदा, चतुर्यवस्तुन अपि पंडितं मन्ये &०.८ 20". २५०१४ »००व०६ एन० ), नेपथ्य सेगीतकम् , गृहीतक्षण, अरिक्तपाणिना----" न द्रष्टव्या, ब्रह्मवेधु, वणीवर, शठ, दानिण्य, चंडी, परभृतिका, रक्तचंदन, आचारपुष्प, योगक्षेम वर्षवर, सोपसर्ग, पचबाणाभिसाक्षिकम् , बिक, केवलमपचारातिक्रमं प्र मामयमारंभः, नागरिकि, विपणिगतो बलीवदं इव, स्वास्तिवायन, अपरवैणि गृहकल्षेदुमंडला विभावरी कथय कयं भविष्यति, परित्रातस्त्वया स्वपक्ष क्रयकैरिकान्मध्य कृत्य स्थितम् , दक्षिणेतरमपि नयने बहुशः स्फुरति, अहं रवांगनामेव प्रिया सह चरीव मे । अननुज्ञातसंपकौ धारिणी रजनीव नौ ॥ सफलीकृतभतुपंडः, पुनर्नवीकृत्वैधव्यदुःखया, युक्तः सज्जनसथष पया, लोकयात्रागनेन मिद्धादेमोन मारिषा, म निधो दिप सेधसि चरन्नश्चानीके न यवनानां प्रार्थितः, सो {मिदानीमशुमतेव सगरः पत्रेण प्रत्याहताश्चो यक्ष्ये विगतरोषचेतसा, वहुरपां दग्धुरिवोरुजन्मा, पैचांगाभिनय, चलित, पुरुषा "9४ अध्यात्मविद्या, अंतपाल, चतुष्पदं वस्तु, मार्जना, अन्याजसुंदरी, `
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। 31 19 € गाणर्ण्ड् ०७88९९8 8६8४8 क]1700॥ ए८तफ5` एठप एण । @70 हए एप 16050105, ४7808181 {© [०७९9९९8 फ 66 पकतल्डडधृ ए (सवरूपय ( ₹. 1. अपूर्वेयं ) दारिका किंनामधेयेतिं । त ("स्तै पुष्यति भानोः परित्रहादनलः ( ,. 1. भानुः पररह. दहुः)) । अङंस्वपक्षावसाद शेकया । न पराजीयते केनचिद् गणदासः ( »1. न परिहीयते प्रातवादिना गणदासः ) । ददर व्याहरन्तीति किं देवो पृथिवीं वर्धितुं स्मरति ( १.1. ˆ विस्मरति , यस्यागमः केवलजीविकैव ( १ 1, जीविकायै ) सांप्रतं भवतो निःसंशयं ( ».1. निःसंशयो ) भविष्यति । असुखं दर्शितं विकारेण ( ».1. ` दष्टं विषरेण ) कातासंमिश्रदेदोप्यविषयमनसां यः पुरस्तात् ( ».1. परस्तात् ) यतीनाम् । आचार्यबहुमानात् ( *.1. आचार्यं बहुमानात् ) अवहितो स्मि । । नेपथ्यगृहगतायाः ( ».1. ` परिगतायाः ) चर्षुः &« । . द्वारपिधानमिव धृतेर्मन्ये तस्यास्तिरस्करणम् ( , ९. ) तिरस्करिणीम् ! चसंतस्त्वरयतीव भवंतमेततप्रमदवनं प्रविशेति ( ».1. प्रवेष्टुम् ) । सरितं ( ».1. सछिकं ) उद्रसितादिव सारसात् । ` प्रणहितशिरस ( १.1. प्रणिहितशिरसं ) वा कांतमाद्रोपराधम् । ` चताकूरं विचिन्व॑त्योः पिरषीष्िकमिदेष्टम् ( ,. 1. पिपीलिकानां द शनम्) अनातुरोत्कंठितयोः ( १.1. अनादरोत्कंठितयोः ) &०. । एतानि दष्टमात्राणामायष्याः ( ». 1. आयुषः ) प्रतिपत्तयः। तदा सरसंभ्रममृत्कठिताहं भर्तृरूपद दीनेन न॒ तयावितुष्णास्मि यथा द्य विभावतधित्रगतदङ्नो भर्ता ( *.1. सर्ंभ्रमदृष्टे भर्तरूपे यया सतष्णा- स्मि तयाद्याप न मया विभावतो वितुष्णद शनो भता ) । कास्यन निर्वर्णयितुं च रूपमिच्छन्ति तत्पुवेसमागतानां ( १.1. ततपूरवंसमागमानान् )
कस्य एष आत्मनीनो हताशः ( ».1. कस्य एष आत्मनियोगरसंपादने विश्वसनीयो हताशः |)
ती . य
( ९९५ )
केतसत्कारविषेः ( *.1. कतसत्कारवरिषिः «८. सैस्कारव्रिधेः ) तपनीया- शोकस्य वेदिकवेधः। चि 1 विदयापारगमिणां ब्राह्मणानामिमानि दक्षिणानिष्काणि ( २.1. वरिद्यापा- ` रायणमनुतिष्ठतां ब्राह्मणानामियं नित्यदक्षिणा मासिका दातव्या ) । अहो परिभवोपहरिणो ( ९.1. परिभवप्रहारिणो ) विनिपाताः । कारणेन खल् मया नैरभत्यं ( ».1. नैर्ैण्यं ) अवलंबितम् । अधिकारे ( ५.1. अतिभारे ) खल सेनापतिना मे पुत्रको नियुक्तः
32 दविक ५१७ नानक ण् हाणणद्ठ ४८ 0ज्ण्नडः ना ०७८७४ :-- त्रयी विग्रहवत्येव सममध्यात्मविद्या ।
पत्तने विदयमने ऽपि ग्रामे रत्नपरीक्षा ।
अत्रभवती धारिणी विसंवादयिप्यति ।
असखं दारितं विकारेण ० दष्टं विषारेण ।
नहि कमलिनीं दृष्टा ग्राहमवेक्षते मतंगनः। `
विमर्दृस॒रभिर्मन् बकृलवचिका ।
तावदावां शीघ्रमपक्रमाबो यावदं गारको राशिमिव सानवक्रं नं करोति । ` ततः सा देव्या पृष्टा किंन लक्षितो जनो वभ इति । तयोक्तं । मदो
बोपचारो वा यत्ते परिजनस्य वभवं जानत्यापि पृच्छसीति । `
सखे मदपेक्षनुवुच्या निवृ्तर्याा धारेण्याः पुैचरितैः संभाव्यत एतत् । अहो सर्वास्ववस्थासु चारुता शोभां पुष्यात । ।
ननु भैौत्तमवचनमप्यारयो हदये करोति ।
देवप्रत्ययात्संभाव्यते सृक्ष्मदर्दिता मौत्तमस्य । ऋ कि मां भयोऽप्यपराद्धां करोषि ।
मटः परप्रत्ययनेयुद्धिः ।
प्रभवन्त्योऽपि दि भरतुषु कारणकोपाः कृट्बिन्यः । | अलं बह विकथ्य रान्न समक्षमेवावयोरधरोत्तरव्यक्ति भविष्यति |
तवन्ीतिपादपस्य पुष्पमुद्भिन्नम् । ( भावो भावं नुदति विषयाद्रागबन्धः सं एव । ४ आत्तसार श्वत्मुषा स्वविषयः । र मया नाम मृग्धचातकेनैव शुष्कघनगर्निते (तरिके जच्पानमिष्टम् |
तेन हि पेडितपरितोषप्रत्यया मदजातिः ।
( ९२९९ )
अवितो दर्शनाय: । उचितवेलातिक्रमे. चिकित्सका दोषमुदाहरन्ति । ` विपणिकन्दुरिव मे उदराम्य॑तर दह्यते । गृदीतक्षणो.ऽस्मि । भवानपि शनोपरिचिरो विदंगम इव अतयातरो मूता कार्यसिद्धि प्ार्- ` यमानो मे रोचसे । | शिष्यागुणविदेषेणोलमितो गणदासः । केवलं देव्याश्विततं रक्षन् प्रभुत्वं न दज्ञेयति । ला तपिनी देव्या अधिकतरं रक्ष्यमाणा नागरक्षितो मणिरिव ¶ । सुखं समासादयितव्या । उचितः प्रणयो वरं विहन्तुम् । उपचारविधिर्मनस्विनीनां न तु पू्वाभ्यधिको पपि भावः । एतत्सीधुपानेदेनितस्य मलस्यीडिकोपर्यिता ।
क:
त्वं देव्या योम्यतया नियुक्ता ।
अयवा एतन्मे मतयुमंडनं भविष्यति । प्रयमामिव प्छवप्रसू्ि हरदग्धस्य मनोभुवदरमस्य । परिगृहीतं सिद्धिद शिनो ब्राह्मणस्य वचः । प्रयमं लोकवाद एव । अदय सत्यः संवृत्तः । संकीरनाशंसिना स्नेदेनालम् । अलं सेवया । मध्यस्यतां परिगृह्य भण । अभूमिरियं मालविकायाः ।
^ महती खल्वस्याः संभावना ।
, अत्रादे भरैः शिष्यास्मि ।
लरय तावदेनां गुरुदक्षिणयि ।
हन्त सिद्धं मे दौत्यम् ।
केवलं मुखमारूतो रभयितव्यः ।
गुणेष्वभिनिविनो भतरपि ।
(६२३ )
प्रवम मणितमिव हताशाया उत्तरम् । । नः 0 + अनुरागोभनुरागेण ्तयष्ठव्य इति सुजनवाक्यं प्रमाणीकुर । भ 1
किमात्मनश्छदेन मंत्रयसे |
भर्तुः खल्वेतानि प्रणयमदरूनि विवांतरितान्यक्षराणि । 6 9५ #
मुग्धे भ्रमरसंबाधो भविष्यतीति वसंतावतार सवसं किं न चतस ऽवत सयितव्यः। ` ,
लवं तावहुजौते ममात्य॑तसहाया भव । क
कारितमेव बकुल्मवल्िकया एतत्पदं मालविकायाः ।
निर्विकारस्याप्युत्सुकत्जनक उपदेशः |
गृहीताथौनंतरं चितयिष्यामि ।
पयौप्तमेतावता कामिनाम् । ५४
एतस्मिन्नतिक्रमे परवतीयम् । | ५: 9.
नवनीतददय आर्यपुत्रः। ` ५
धृतिपुष्पमयमपि जनो बध्नाति न तादक्गं चिरात् प्रभृति ।
नन्वशोकः कुसुमं दर्शंयति । अयं पुनः पुष्प्यति फरति च । . +
जंघा बलमेव | 1.
न मया विज्ञातमीटशं विनोद वस्तुकमायपुत्रेणोपरब्धमिति ।
मा तावद त्रभवत्यत्रभवतो दाकषिण्यस्योपरोधं भणतु । समापततिच्े> देव्या परिजनेन सेकथापि यद्यपराधः स्थाप्यते ऽतर त्वमेव प्रमाणम् |
शट इति मयि तावदस्त॒ ते परिचयत्यवधीरणा प्रिये। `
नूनमिदानीमनुज्ञातम् । 0, न खल्विमी मालिकायाश्वरणी यी ते स्यदंदोहलं पूरिष्यतः। उत्तिष्ठ कृतप्रसादो ऽपे ।
दिष्टा अस्याविनयस्याप्रसादिता गता । |
यो बिडालगृहीतायाः परभृतिकायाः । 0
निर्भेदादुते ऽपि मालविकायामयमुपन्यासः शंकयति 1 ` मात्मेकाकुलावाटिके पाताख्वासं नागकेन्यका इव अनुभवतः 1 अलमलमुपचारयंत्रणया । ` ५ दंशच्छेदः पूर्वकर्मेति श्रूयते । ` | कार्यसिद्धावाशु प्रतिपत्तिमानय । ` नः
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