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Full text of "12817 maanasagarii"

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कृष्णदास संस्कृत सीटीज 
४२ 


सचित्र- 


मानसागरी 


भनोरमा' हिन्दी व्याख्यया समखखनकरता 





सम्पादकोऽनुवादकश्च 


डा °रामचन्द्रपाण्डेयः 
रीडर, ज्योतिष्िमाग 
प्राच्यविद्या धमेषिद्नान संकाय 
काटी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी 





कृष्ण दास अकादमी, वाराणसी-२२१००९१. 


` १९८३ 


प्रकाशकं : कृष्णदा अकददमी, बाराभती 
मुष्क : जोखम्बा प्रेस, वाराणसी 
संस्करण : प्रथम, वि° पसं० २०४० 


भुल्य ० हिप 8 6? ^ 0 | 
05 40 {0 | 


© ङष्णदास अकादमी 


पो०.था० ११८ 
चौक, ( चित्रा सिनेमा बिरडिग ), वाराणसी-२२१००१ 
( भारत ) 


अपरं च प्रात्तिस्थानम्‌ 


चौखम्बा संस्कृत सीरीज आसि 
के° ३७९९. गोपाठढ मन्व्रि ढेन 
पो० बा० ८, बाराणल्ी-२११००१ { भारत ) 
फोन : ६३१३५ 


राञ ताषि 00.98 8.9 वजासरागा, ऊहा ह8 
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॥ (६.३.१९. २)। 





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४१.९१.११८ 81-221001 
1983 


© धरा पषि^ 1/5 ^ थार 
क} एपणागषटाड & 198० 
20०8 2309 ति०. 118 
(जक, ( (लाधर (ष्टम एषप्पाताणह ), सनन्कम-221001) 
( प्रा ) 


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९८७7 ८209 8 
रक्षा 2०0851-22100 1 ( 1०५12 ) 

1००९८ : 69145 


भमिक् 


आकाशीय ज्योतिष्पिण्टे का विवेचन भारतीय ज्यौतिषशास्त्र मे विविध प्रकार 
सै किया मयाहै। ग्रहों कास्वश्प, कक्षा, परिश्नमणकाल, उदय-अस्त आदि विष्यो 
का गणितशास्त्रीय विष्डे्षण भाज भो अपना वि्िष्ट स्थान र्ताडै। विना 
किसी यन्त्र या उपकरण के अमीष्ट समयमे समस्त ग्रहों को स्थिति ज्ञात करने 
कीक्षमता केवल भारतीय ज्योतिष शस्व्रमेहै। यथपि प्रह के सम्बन्ध मे भौतिकं 


एवं सैदढान्तिक ज्ञान हेतु भधु'नक विज्ञान भी सतत प्रयल्नक्ील दै; परन्तु इनका 
समस्त प्रयास यन्त्राधीन होन के कारण सर्वजन सुलभ नहीं है । भारतीय ज्योतिष- 


शास्त्र की दूसरी तथा महस्वपुण विशेषता है हन आकाशीय पिण्डा का पृथ्वी अथवा 
पृथ्वी वासियों पर पडने वले प्रमाव का तलस्पर्शी विवेचन । भारतीय ज्योतिष 
शास्त्र की यही विशेषना हतकी लोकप्रियता का हतु है एव इते जन-मानसते 
जोडतीहै। करोड़ों मील दूर त्वितप्रहोका हमसे कितना निकटतम सम्बन्धं है 
तथा हम उनसे कितने अधिक प्रमावित है इस गृढ प्रन्िको सुलक्षाने का त्रेय 
भारतीय ज्योतिकषिकोदहै। 
अनन्त बाकालमे ब्षश्वरे हुये तारोके बोच हमारे सौर मण्डलके ब्रहुभी 

रात्रि मं टिमटिमति हुए दिखाईदेतेरहु। उन्हींमे हमारी पृथ्वी मी प्रकाित ग्रहुके 
रूप मं अन्य ब्रह पिण्डोते देखी जा सकतीहै + जसे मन्य प्रहुपिष्डों गे रचना हूर 
दै लगमग उन्हीं तस्वोते पृथ्वी कौ रचना हुई है तथा पृथ्वो मी सूयं की परिक्रमा 
उसी प्रकार करतीहै जसे अन्य ग्रह पिष्ड। हस सौर परिवार की रचनाके 
सम्बन्ध मे भगवान मस्कि^ ने बयं सदन्त में लिका है- 

अग्निसोमौ भानुचन्द्र ततस्स्वङ्गारकादयः। 

तेजो मृशाम्बुगतेम्यः क्रमशः प जञ्जिरे सू. सि. १२।२४। 


अभिप्राय यह कि सूयं पूर्णं स्पसे तंजसदटहै क्योकि इसकी उत्पत्ति अग्नि 
तस्वसते ह्ईदटहै आाधुतिक अनुसन्धानोंसे मी ज्रतहोतादहै कि सूयं हीलियम 


नामक दाहक गेव का समूहटै। सूयं मण्डलके चारों तरफ लाशों मील लम्बी- 
लम्बी ज्वालार्ये निकलती रहती है तथा विम्बके मध्यमे मौ ज्वालार्ग का तूफान 
उठ्वा रहा है। 


अम्मा सोमात्मक ह) सोम शब्दका प्रयोग वहिक साहिष्यमे कईं मथो 
मे कियागयादहि। सोम एक प्रकारका रसभी होता है। यहां रसव्मक् सोम 
ही अभोष्टटहै। बन््माही रसोष्पादक है। वनस्पतियोंका विकास, पूरष्योका 


विकसित होना आदि प्राङ्कतिक प्रमाव चन्द्रमा का सोमाश्मक होना सि 
करता है। । 





"वि 11 


१. श्र. ६८५।८५।३.६।८७।६ 


( ६ ) 


भौमादि पाव तारा ब्रह की उस्पततिभी कमसे असनि, भू, आकाश, जल 


ओर वायुतरस्वोते हुई ह) यच्चपि सभी पिण्डों मे पञ्च मणु तो का भिश्वनदहै। 
सभी तस्वो के सम्मि्षण से हो भौतिक पिरष्डौ की रचना हुदहि परभ्तु मौममें 
अगिि तस्व की प्रभानताया आर्धिक््यहोनेसे ठते अग्नि वल्व से उह्पन्न कहा 


मया) इसी प्रकार बुषमे पृथ्वी तद्वकी, बुरूमे आकाक्षतस्वकी, शुक्रम 
जल तत्व तथा शनिमे बाबु तरव की प्रधानताहै। 


द्नके भतिरिक्तदो ग्रह राहु भौरकेतु नमसे विद्यति जिका भौतिक 
नस्तिष्व आकाक्षमें नहीहै। येदोनोंही भाकाश्च मण्डलमें ४ निश्चितं स्वनो 
के सूचक है। चन्द्र विमण्डल ( कक्षा) गौर सूर्यं कक्षा (करन्ति , आधुनिक 
मतानुसार मृश्रमण मागे) के दोनों सम्पारतोँको राहु मौर केतु कहाजताहै। 
यही कारणहैकि राहु सेकेतुकी दूरी निरन्तर ६ राति (३०३८६१८०. अंश) 
तुल्य होती है । इन्हे तमो प्रह भी कहा जाताहि। आकाशमे पिष्डकेश्पमेन 
होने से वराह मिहिर प्रमृति कुष्ठ अबयोंने इनदोनों ग्रहो को ब्रहकोटिमें 
स्वीकार नहीं क्िादहै। 

इस प्रकार नवग्रहों कोचार कोटिमे विभक्त कर भाचा्योंने यह्‌ व्यक्त कर 
दिया कि पूयं भौर चन्रमा का पृथक्‌-पृथक्‌ गुण-षर्मं भौर भस्तिष्वटहै। पांच 
तारा ग्रह ( भौमः बुध. गुह, शुक्र, शनि ) एक कोटि मेंमिने गये हं इनका भौतिक 
भौर गाकाश्षीय लक्षर्णो के आधार पर पृथक्‌ वर्गीकरण क्यादै। राहु गौर केषु 
दोनों पात ग्रहै । प्रहण कालमें इनका विशेष महत्व होताहै। सूर्यया चन्द्र 
ग्रहण इन्हीं राहु गौरकेतु नामक परत स्थानोमें ही होतादहै। ब्रह गणित की 
दुष्टि से इन पातस्थानों का अपना महत्व है अतः इन पातस्वानोँकी भमी गणना 
ग्रहोकीदहीतरह की जती) तथा इन पात स्थानोंसे ब्रह षर पडने वाह्ञ 
प्रमावों काकी अध्ययनकर भारतीय मनीषियोंनेदन्हुभी ग्रहुका स्थान दियाहै। 


माभुनिक मतानुसार सूरय को तारा, चन्द्रमा को उपग्रह, मंगल, पृथ्वी, बुध, 
बुर, शुक्र, शनि, हशेल ( यूरेनस )› नेपभ्युन गौर प्लूटो को प्रहु, राहु ओर केतु 
को पात ब्रह माना जातादहै। 

पुरा्णोभे भी सूयं का अस्तिश्व प्रहोंसे मिन्नमनादहै। धुराणों के अनुसार 
सभी ब्रह सबसे ही उत्पतन हये ह।१* तथा सूयंकी विर्मिन्न किरणे पृथक्‌-पृथक्‌ 
ग्रहो को प्रकाश्चित करतीदहै। सूर्यं की प्रत्येक राशिका नाम, गुणमौर भम 
पुथक्‌-पृथक्‌ है । प्रत्येक ग्रह पिषण्डसे पवित होकर जबवे र्मियां पृथ्वी षर 
आती ह तक्ष उनमे तत्तद्‌ ्रहोके मी गुण धर्मं मिश्रित हो जत्तेर्ह। भूमं 
पुराणय् के आधार पर सुर्यं रह्मि्यां तथा उनसे पोषित ग्रहोकेनाम इस प्रकार ` तथा उनसे पोषित प्रहोकेनाम इसप्रकार दह । 





१. नक्षत्र प्रह सोमानां प्रतिष्ठा यानि रेव च। 
चन्दर्रक्ष ग्रहा सवं विज्ञेया सूयं सम्भवा ॥ मत्स्य धु. १२७.२९ 


२, कू. ¶. १,४१.२-७ 


सूर्यं रदिम प्रकाठित प्रह 
१. श्ना खन्द्रमा 
रः शेन नन 
३. विश्वकर्मा बुष 
४. विश्वभ्यवा शुक्र 
५. संयहसु मौम 
६. अर्वा बृहस्पति 
७, घुराट शनि 


मानब शरीर मी पाञ्चभौतिकहीहै। रषनामें मेद है। मस्थि-मांस-रक्त- 
स्नायु-बम प्रभृति शारीरिक दवर््योसे नि्मितक्षरीर पर सभी प्रहोंका समान्य 


से प्रभाव नहीं पडता है अर्पतु प्रत्येक ग्रह किसी मवयव विशिष्टसे सम्बन्धित 


होते ह तथा उन प्रहोके शुमाशुभ प्रभाव उनसे सम्बन्धित भवयर्वों पर विके 
श्प ते पडते है । यथा- 


ग्रह प्रभावित अंग 

सूयं पित्त, अस्थि एवं केश 

चन्द्रमा कफ, वायु, स्धिर गौर, वाणी, 
मंगल पित्त, रक्त मौर मञ्जा 
बुष त्रिधातु, चम, स्नायु गौर वाणी 
गह कफ, माँस, अस्थि गौर बुद्धि, 
शुक्र कफ, वायु, शुक्र तथ।केश 
शनि वायु, स्नायु, नकल, दात, ओर रोम 


राह तथाकेतु वयु, दाति गौर ओष्ठ, 
इस प्रकार हेम समक्ष सक्ते किये दूरस्व प्रह हमारे अत्यन्त समीपस्य है। 


ग्रहा का सम्बन्ध मात्र शारीरिक अवयवो से संक्षेपमे दर्शाया गया है इस सम्बन्ध 
मे विस्तृत ज्ञान अन्य ग्रन्थोंसे कियाजा सक्ताहै। इूनप्रहोंका प्रभाव विभिन्न 


राशियों के संसर्गे से तथा जन्म लग्न के सम्बन्धसे प्रत्येक व्यक्तिके लिए पृथक्‌- 


पृथक्‌ शूप से द्ष्टिगत होता है इनका समुचित ज्ञान प्रन्थों के अवलोकन 
तथा जन्म पत्रोंके अभ्यासे ही सम्भवदहै। 

जन्मचक्र--जन्मचक्र या जन्माङ्खगचक्र आकाश का मानचित्र होतादहै। 
अन्म समय में आाकाक्ष के किंसमभागमे कौनमसी राश्िथौ तथा किन-किंन 
रा्िर्योसे किनि प्रह का सम्बन्ध था दसमान चित्रसेज्ञातहो जातादहै। 
जन्म लग्न आकाशीय राशिचक्र (क्रान्ति वृत्त) का वहभाग होताहै जो जन्म 
कालम स्थःनीय क्षितिज को स्पक्ं करताहै। क्षितिजपर जो राशि होती है 
उसी को लग्न तथा मध्य आकाशमे जो राल्षिहोतीदहै उसे दशम भावया दशम 
लग्न तथा नीचे आकाश मध्यमे जोराशिहोतीहै उसे चतुथं भाव तथा भस्त 


क्षितिज परजो रादिहोतीहै उसे सप्तम भाव कहतेह। शृन्हीं चारों स्थानों 
की केन्र संज्ञ होतीटहै। इस चक्रके निर्माण की विधि इसी प्रभ्ब मे दें 


( 5 ) 


उपयोगिता--इस शास्त्र के माध्यम से मनुष्य अपनी क्षारीरिक एवं मानसिर 
ह्वास-बद्धि का समयानुस्तार ज्ञान कर सक्ताहै। इतना ही नहीं मनुष्य जीवनके 
हर क्षेत्र मे जातक शास्त का सहयोग प्राप्त कर सक्ताहै। बराह भिह्िर१्ने 
लिखा है कि मनुष्य पुवंजन्म के शुभाशुभ कमा का परिणाम किस प्रकार इस जन्म 
मे प्राप्त करेगा इसे ज्यौतिष शस्त्र उसी प्रकार प्रकट करदेतादहै जैसे अन्धकारम 
पड़ी हई वस्तु को प्रकाश । 

कह्ने का अभिप्राय यह्‌ किं मनुष्य का जन्म अपने पुरवंजन्म के कर्मानुसार 
शुमाशुम योगोमेहोतादहै। मनुष्य का मविध्य अन्धकारमे होता । जागे भन 
बले क्षणोंको कोई नहीं जानता । मनुष्य अज्ञात एवं अन्धकार पूणं मागम 
भटकता है यदि उसे प्रकाश की एक रेखा मिल जाय तो वहु अपना गन्तव्य स्थल 


मौर गन्तव्य मार्गेश्चात करलेता है तथा सरलता पुर्वकं पर्हुचने का प्रयास करता 
है । यह प्रकाश्च ज्यौतिषशास््रके होरा मागमे प्राप्त होतादहै। भस्कराचायं 
“न कहा है-- 
““ज्यौतिःशास्व्रफलं पुराणगणकंरादेश दत्युष्यते'"? 

प्राचोन देवज्ञो ने ज्यौतिषशषस्त्रके फल को अदेश कहा है। अर्थात्‌ उन्हं 
सकी प्रामाणिकता पर रश्मात्र मो सन्देह नहींया। 

मानसागरी--ज्योतिष क्सत्र के होरा स्कन्धं का एक संग्रह म्रन्थहै। 
मानसागरी म्रन्थ अपनी विशेषताओं के कारण अबतक पर्याप्त लोकप्रिय एवं 


प्रसिद्धो चुका दहै । जन्म~पत्र निमणि विधि, लेखन विधि, एवं फलादेश विधिम 
सम्पन्न यह ग्रन्थ ज्योतिषानुरागी व्यक्तियों के लिए कल्पदूम सदुश हँ। ग्रन्थ कर्तान 
इस म्रन्थमे विभिन्न मानक ग्रन्थो से आवक विषयों का संकलन कर संग्रहीत 
कियादहै। यद्यपि विषयों कासंकलन कई श्रन्थोंसे क्रिया गयादौ फिर भी 
बृहत्पारा्चर होराशास्त्र का इसपर सर्वाधिक प्रमावहै। बहुतसे स्थलों परतो 
बृहत्पाराशरहोरा प्रन्थ के लोक ही यथावत उदृत है। इसके अत्िक्त 
बृहज्जातक, नीलकण्ठी, ग्रहूलाधुवर भ्रमति प्रन्थों के मी श्लोक मिलते ह । 

इस प्रत्य के प्रायः सभी संस्करणों मे अल्यधिक् अशुद्धियां है । हस संस्करणमे 
अशुद्धियो को निकालने का पूणे प्रयास कियागयाहै। साथहीहइस बातपषरमभी 
ध्यान दिया गयादहैकि ग्रन्थ की मौलिकता नष्टनदहो । कहीं कही पर असंगत पाठ 
होने पर मैने भी लोक बदल कर सम्बन्धित ब्रन्य ब्रहत्पाराक्चर होरा य बृहज्जातक 
का इ्लोक रश दिया है। अविकांश्ि अशुद्धियां लेक्लन गौर मुद्रभकालेमे प्रमादे 


ही उह्पन्न प्रतीत होती हँ । भस्तु प्रस्तुत संस्करण यथासम्भव संशोधनो द्वारा नये 
परिवेश मे प्रस्तुत कियाजारहादै। 


-------------------------------------------------------------------------------`-`--`---~--~`---- ~~~ 


१. यदुपचितमन्यजन्मनि शुमाऽखुमं तस्य कर्मणः पक्तिम्‌ । 
व्यड्जयति शास्त्रमेतत्‌ तमसि द्रव्याणि दीप इव।। 
( लुजातक श्लो. २) 





२. सिद्धान्तकषिरो१णि मोलाध्यायः ६ 


( र ) 


रेचनाकाल - त्स प्रम्थ के सम्बन्धमे यद्यपि कोई समुचित संकेव नहीं 
मिलता है जिसके आधार पर ग्रन्थ रचना काल गौर प्रन्थकर्ताके सम्बन्धमे कोई 
पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत किया जा सके । प्रहलाघव, नीलकण्ठी, सारावली आदि प्र्न्थो 


का मानसाबमरीमें उद्धरण प्राप्तहोनेसे इतनातौ सुनिश्चितदहै कि इसका संग्रह 
इन प्र्म्थोके बादही हुआ है। 


संवत्सर शान के प्रसङ्खुमे प्रन्यक्ताने लिलादहै- 


शाकं रामाक्नि संयोज्य षष्टि भागेन हारयेत्‌ । 
शेषं संवत्सर श्रेयं लब्धं तत॒ परिवत्तकम्‌ ॥ 


इस प की उकपस्ति१मे पं. श्री अनप भिश्रने दिक्षलाया हि कि क १७६; 
को आधार मान कर उक्त प्रक्रिया संवत्सर ज्ञान हतु सिद्ध होती दहै । भतः ग्रन्थ 
रखना कालम शकाम्द १७६५ ही रहा होगा यह अनुमान किया जा सक्ता दहै । 

ग्न्थारम्भमें लेलक ने करई ध्मोँके अनुरूप मंगलाचरण प्रस्तुत कियाहै। 


सर्व्॑रथम जेन धमं सम्मत तथा अन्त में एक मङ्गलाचरण यवन धमं के अनुकूप 


वेगस्बर रहमान की प्रशन्तिमें किया गया है- 
~ यः ५श्िमाभिमुश्षसंस्थित विद्यमानो 
हयाव्यक्तमूत्ति परिवत्ति विश्चमोगः। 


दुलंक्ष्यविक्रमततिः कृतकम लक्ष्या, 
राजधियं दिक्षतुवो रहमाण एषः ॥ 


इस मङ्गला चरणके आधार पर यह अनुभान किया जातादहै कि म्रन्थकर्ता 
किसी यवनक्षासक का दरबारी पण्डित रहा होगा । १७६५ शकान्द के आसन्न 


भारतमे या्व्नोकाही शासन काल था । 


सन्‌ १८३७ से १८५७ तक द्वितीय बहादुर शाह्‌के शासन कालका प्रमाण 
मिलता ह । अतः इस ग्रन्थ की रचना बहादूर शाहके शासन कालम सन्‌ १८४३ 
( शकाड्ट १७६५ ) मे हर होगी । 














१. पं. श्री अन॒पभिश्र कृता उपपत्ति -- 
२२ इ.श. 1४२६१ 
१८७१५ 
अत्र हितीयश्लण्डस्य व्यक्तोकरणप्रयार्न दष्टककस्वाने १७६५ ग्रहणात्‌, 
ष्टि, खं, ~ २२०८१७६ + ४२९१ _ ४३१२१ ~ ४३१२१४४ 
१८७५६ १८७५ १८७५ 

४२१२५ ४ ४ 

षन ` ०५ ` `` ` १८७५ 
इह ऋण त्मकखब्डमतीवाल्पल्वास्यक्तं तडा द्वितीय खण्ड" २२ 


भतः उत्थापनात्‌ मतबस्सरः=इ क्ष +- २३ फलमिदं सेकं तदा चतमानं 


-स्यादिस्यनेन -पद्निर्वहिो जायते । इत्यं प्रम्थविरथनकालः १७६५ तम 
शकाभ्वः । 


प्रथमप्रकारेणागत गतवस्सरस्वश्पमन्न्द्‌ श 














( १० ) 


ग्न्थकर्ला-- सम्पूणं प्रन्थ मे प्रन्थकर्ताने अपना परिचय कहीं भी नहीं 
दियादहै। ग्रन्थके भन्तमें लिखा है- 


आसीद्‌ गुजंरमण्डले द्विजवर: शाण्डिल्यगोत्रोहवः- 
श्रीमद्याजिकवशमण्डनम णिरज्योतिधिदामग्रणीः । 


श्रौतस्मातंरतो जनार्दन इति स्यात स्वकीवैरगुणे- 
स्तस्सूनुहं रजी दशां स्फुटेतरां चक्रे परां योगिनीम्‌ ॥ 


हस पद्य मे ( गुजरात ) देश वास्तव्य शाण्डिल्य गोत्रोत्पन्न जनादन पत्र हरजी 
कानाम जाया परन्तु इसमे यहमी लिखादहै-हरनजीने योगिनी दकशाको 
स्पष्टश्पसे यहां संग्रहीत किया । अतः हरजीने सम्पूर्णे मानसागरी की रचना 
की हो यह सम्भव नहींहै। परन्तु हरजी के पिता जनादन दैवज्ञे इसकी रचना 
कोहो यह मानाजा सकतादहै। 


कुछ विद्वानों का मतहै कि 'मानस्तागरीः नाम ग्रन्थ कर्लाने अपने नाम पर 
क्रिया होगा । इसके आधार पर ग्रन्थकर्ता का नाभ (मानसागर' हो सकता है। 
साथ-साथ यहु भी क्ल्पनाकीजतीहै कि मानसिहके आश्रित रह कर किसी 
दैवश्चने राजा की प्रशस्ति अथवा स्मृतिमे (मानसागरी' नामसे संग्रहुप्रन्थकी 
रचनाकी। इसप्रकार साक्ष्यके अभावमें केवल कल्पनाके आधार पर ग्रन्थ 
कर्ता का नाम मानसागर' ही माना जाता है। 


प्रतिपाद्यविषयः इस ग्रन्थ के माध्यम ते लेखक ने जन्मपत्र विषयक ष्याव- 
हारिक जान से जनसाधारण को परिचित करनेका प्रयास कियादहै। प्रारम्भमें 
जन्मपत्र-निर्माण एवं लेक्लन वििदी गर्ह है प्चात्‌ जन्मपत्रके लगमग सभी 
पहलुओों का फल निदेश किया गयादहै। इसप्रकार यह भ्रन्थ अपने आपमें पूरणे 
ग्रन्थ है । यद्यपि ज्योतिष त्यन्त गहन मौर विस्तृत है कि समस्त विषयों का समावेश 
एक ही लधुकाय ग्रन्थमें सम्भव नहींहै फिरमी स्यवहारोपयोगी विषयों का 
एकत्र सग्रह इस ग्रन्यमे किया गयादहै। 

जन्मकालिक ग्रहस्थिति के अनुसार नवजातक्शिशुके शारीरिक एवं मानसिक 
विकास एवं हासि को समयसे पवंजानाजा सक्ता तथा विकासमे बाधक 
हैतुओं के निराकरण का प्रयासभी किया जा सकता है इसके लिए अरिष्टादि बहत 
सी विभिर्यांदी गरईदहै। कामो है-सवं प्रथम जातक के आयुका चान करना 
चाहिये । यदि ायु (जीवन) ही नहीं रहैगी तौ राजयोगादि सुल का उपमोग 
कौन करेगा ?4 

अरिष्टज्ञान हेतु जन्मचक्र मे स्थित ग्रहों का सृक्ष्मदुष्टिसे अवलोकन करना 
चाहिये । यदिकशशरीरमे कष्टके योगहंतो कष्ट कि्षप्रकारका होगा इसका 
भी अन्वेषण करना बाहिये । यथा--किसी हिश्ु का जन्म मेष लग्नमें हा । 
लन्नेहा मंगल छट भाव मे, चन्द्रमा अष्टम भोवमे तथा चतुर्थं भावम शनि स्थित 





वकि 


१. पञ्चस्वरा ६,७ 


( ११ ) 


हो तो एेसी स्थितिमे नवजात कहिशुकी परिशर्या बहुत सावधानीसे करनी होगी 


अन्यथा क्षिशु उवर-अतिसार भौर वमनसे पीडित होकर पोलियो जसी गप्भीर 
बीमारियों काकिकार हो सकताह। 


हसी प्रकार अन्य योगोमे भी हस प्रकारकी बीमारियों का भय उक्वन्नहो 


सकता है। यथा--शुक्रसे शनिवयुत हो गुरुसे रवि यतहो तथा इनको शुभप्रट 
देश्वते होवो षपरसे लंगडा हो सकताटै। 


यदि लग्नेश पापाक्रन्त हो सूयं से सप्तस्य चन्द्रमा रट मयवाक्तुते युक्तो 


तो क्षारीरिक दृष्टस ठीकहोतेहूयेभौ जातक का मानसिक विकास मवष्द 
हो सकता है। 


इस प्रकार हम विभिन्न प्रहस्थित्तियो के कारण जातक को शारीरिक 
अवस्थाओं को जानकर उनके निराकरण का यथासम्भत् प्रयास क्ास्त्रीय विधिसे 
तथा आधुनिक चिकि्सा-विज्ञान के सहयोगसे कर सक्ते ह । 


इतना ही नहीं जातक की हिला, भ्यवसाय एवंयात्रा आदिके सम्बन्धमेभी 


जन्मपत्र का सहयोग मिलताहैि। हम किसी मी विवादास्पद स्थिति मे अपनी 
जन्मपत्री के सहयोग ते भी निर्णय ले सक्ते है । 


इन विषयो के ज्ञान हितु करई प्रकारके योगोंका वणन इस प्रन्यमे सग्रटीतदहै। 
योगो के अतिरिक्त शुमाशुभ समयके ्जनहैतु सभी प्रहोकी दशां एवं अन्तर 


आदि सृष्ष्म दशाओं कामी विस्तृत विवेचन क्या गया । इनके आधौारपर 
समयनुसार कार्यं करने का निर्णय लिया जा सकता है। 


दीषं कालिक यात्रा, युद्ध, मथवा दी्ेकालिक बीमारियोके ज्ञान हतु नक्षत्र 
पुरुष, सूयं कालानल आदि विविध प्रकारके चक्रोंका निर्माण किया गणाहै। 
हेनके उपयोगसे यात्रा के लिए उपयुक्त समय, युदधके लिए उपयुक्त काल एवं 
दिला का निय, अस्वस्थ व्यक्तिके लिए चिकित्सा सम्बन्धी निणय सम्बन्धी निर्णय लियाजा 
सकता दहै। इन सभी चक्रोंका वर्णन इस प्रन्थमं सचित्र एवं सोदाहरण किया 


गया है। इन चरक्रोमे से अष्वचक्र, गजचक्र तथा कालद्रष्टा चक्रोंके सम्बन्धमें 
परम्परागत पद्धति के अरिक्त पुनविचार की आवक््यकता प्रतीत होती है। 


मातङ्गनायक (गज) चक्रके सम्बन्धमें स प्रन्य में लिखाहै (द्र. ४.५६३-६६) 
किं मुख, शुण्डाप्र, नेत्र आदि अंगों मे २-२ नक्षत्र तथा पृष्ठ भौर उदर मे ४-४ 
नक्षत्रों का स्थापन करना बाहिये। इसक्रममे दो-दो नक्षत्रों कोपस्थापनाकरने 
के बद अन्तिम आठ नक्षत्रं का स्थापन। गजके पृष्ठ भौरपेटपर होता है। 
परन्तु मेरी द्ष्टिमे गङ्खोके कमसे दोदोनक्षत्रोकी स्वाप्ना करते हुये पृष्ठ 
पर चार नक्षत्र पुनः पुष्धादि गोम दो-दो नक्षत्र स्थापित कर उदरमें ४ नक्षत्र 








१. कविना सहितो मन्दो गुष्णा सहितः रि । 
शुमग्रहाः न पश्यन्ति पादखस्जो भवेन्नरः । मा. सा, ४।१२४ 


( १२ ) 


तथा अग्रपादमे दो-दो नक्षत्र स्थापित कर गज क्र फा निमणि करना च हिषे 
स्पष्टां मातङ्ख नायक चक्र देले - 


आश्ले.मः 








इसी प्रकार अश्व चक्रभ्मे भी अज्जो के कमानूमार नक्षत्रों काक्मये स्थ।पन 
मश्च चक्र 





१, भानक्वाबरी ४ ५७१-७२ 


( १३ ) 


करते हुए भुल, नेत्र, कणे मे दो-दो नक्षत्र, पृष्ठ पर ५ नक्षत्र, पुच्छ, पिते पैरों 
पर २.२ नक्षत्र, उदर पर ५ नक्षत्र तथा अमले वैरो पर दो-दो नक्षत्रों का स्थापन 
कर अश्वचक्र का निमणि करना चाहिए । ( द. महववक्र ) 

कालपुरुष एवं नक्षत्रपुरुषं + का निममि मी इसी क्रमसे हुभाह) ब्र्होके 
धुरथाकार चक्रये भी अङ्को के क्म काध्यान रशागयाटह। कृछही अन्तर्योके 


साथ लबभम सभी प्रहोके पुरुष चक्रों का नि्मिणि किया बया है। धतः मातङ्खचक्र 
गौर अश्वचक्रमे भी उसी परम्परा का अनुगमन उपयुक्त होगा । 


कालदंष्टा चक्रके निर्माण मेंभी गने कु आवक्ष्यक संक्षोषन कियादै। 
प्राचीन पुस्तकों मे काल दंष्टा चक्रके निर्माणिमे वृर्णं संका चित्र बनाकर उसके 
अर्ज मे नक्र का न्यास किया गया है। परन्तु सपंके सम्पूणं शरीर मे नक्षर््रो 
काभ्यास करने से श्लोकोक्त विधि वहित नहीं होती है। सपंकार्दात स्पेकेपौठ 
पर कल्पना कर वष्टा स्थित नत्र का न्यास किया मयाहै जो सर्वथा अनुपयुक्त 
है) बहुत प्रयत्नो के गाद ओने प्रन्योक्त रीति से उचित स्थानों मे नक्षत्र स्थापन 
करने मे सफलता प्राप्त करली । कालदष्टा चक्र केवल सपं काफणहै। केवल 
रुण मे निर्दिष्ट विधि के अनुसार नक्र्त्रोका न्यास करनेसे सपके दतो एवं मूख 
मे स्थिति नक्षत्र स्वयमेव इन स्थानों ये आजतेह। तथा जिन न्त्रो का 
परिषश्याग करनाहोताहिवेस्वतः नङीसे बाहर स्थितो जते है 13 

सर्पाकार त्िनाडी चक्र (अ. ४ इलो. ६०३ ) मे भीमेन परम्परागत चक्र को 
ओटखकर नये इङ्गते चक्र का निर्माण कियाटहै। स्पंकेक्षरीरमे मुख से पुच्छ तक 
तीन नाडी बनाकर अर्द्रा से गारम्भ कर मृग्शिरा पर्यन्त २७ नक्षत्रोंकोक्रमसे 


भ्रत्येक प मे स्थापित करने से ˆ“मध्ये भूल प्रतिष्ठितम्‌" स्वयमेव सिद्ध हो 
ता है। 


इस प्रकार कुष महस्वपूणं संशोधन कर मूल प्रन्वके वास्तविक अभिप्रायको 
प्रकट करनेका प्रयास किया गयादौ । चन्द्र सान एवं अन्तदशा सानम कष 
आधुनिक्ता लाने का भी प्रयास किया बया है जो अत्यन्त सुगमदटै। 

प्रस्तुत संस्करण-मानस्ममरी के इस संस्करण के सम्पादनमे मानसागरीके 
उपलब्ध संस्करर्णो का सहयोग लिया गया है। तथा विषयवस्तुको कुद मौर 
सरल इङ्गते प्रस्तुत करने के लिए बृहश्पाराक्षरहोरा, बृहभ्जातक, ग्रहलाषव, मुहूतं 
चिन्तामनि, नरपतिअयचर्या एवं मुङुन्दविजय प्रभृति भ्रन्णो का भी सहयोग लिया 





१. ब्हस्तंहिता १०४.१-५ 

२. मनसागरी ४.५९८-६०२ 
३. ( अरष्टब्य प्रू. ३४४५) । 

४, (तर. ध. ४६ )। 


( १४५ ) 


षया है । मूल ग्रन्ध की रचनामे भमी हन प्रन्थों का उपयोग किया गया दतका 
आमस बहृतसे स्थलों पर सरलता पूवकहो जाताहै। अतएव इन्र म्न्णोके 
सहयोग से यषासम्मव शुद्ध पाठ प्रस्तुत करनेका प्रयास क्वाययादहै। 

साधुनिक सम्पादन प्रक्रियाके अनुसार श्लोक संश्याके क्रम को बीच-बीच 
मेन तोड कर प्रत्येक अष्यायमे क्मानुसारसश्या करदी बर्ईहै। इत प्रक्रिया 
से श्लोकों के अन्वेषण मे, उद्धरण देने मे अथवा उदृत संख्या के आधार पर श्लोको 
को दढने मे अघ्यन्त सरलता हो जाती है । 

ग्रन्थ को सरल बनाने कौ दष्टिसे स्थान-स्थान परर तालिका एवं उदाहरण 
दिये गयेह। गढ़ ग्रन्थिर्यो को सुलक्षाने के लिए टिप्पणियां दी गई ह । जिनके 
सहयोग से पाठक गण को कहीं भी अव रोध नहीं प्रतीत होमा । 

इस प्रन्यमे कुल पांच अध्यायदहै। प्रथम मध्यायमे ३३६ शलोक, द्वितीय 
अध्याय में २७५ श्लोक, तृतीय अध्याय मे ४६३ श्लोक, चलुषं अध्याय मे ७२४ 
इलोक तथा पञ्चम अध्याय में ४४७ इलोक है। समस्त श्लोको की संश्या 
२२४५ है । 

ग्रन्थ के अन्तम एक ल्‌ परिशिष्टहै। जिसमे जन्मपत्र निर्माण सम्बन्धी 
प्रारम्भिक एवं आवद्यक विष्यो का दिग्दक्षन कराया नय! है। 

दन संवर्धनो के साथ मानसागरी नये कलेवर एवं नवीन केली में पाठकोंके 
समक्ष उपस्थित हो रही है । आया है पाठक गण इससे लाभान्वित होगे । 

ग्रन्व सम्पादन का श्रेय चौश्लम्ब। परिवार के वरिष्ठ सदस्य श्रौ विदट्लदास 
गुप्त जी कोह जिनकी प्रेरणासे मैने इस ग्रन्थ के सम्पादन एवं हिन्दी भावानुवाद 
का कायं अपने हाथमे लिया। श्री गुप्ता जी के सतत प्रयल्न एवं निष्ठाके कारण 
दूस ग्रन्य का प्रकाशन अति क्षीर सम्मव हो सका। मेरे अनन्य मित्रडार 
सुधाकर मालवीय जौ विशेष म्यवादाहं है, इनके सतत प्रोष्ताहून से ही अत्यन्त 
व्यस्तता के कर्णो मे भोरे इस कायं को पूणं कर षपाया। 

मेरे प्रयासों की सफलता विद्रज्जर्नो की सन्तुष्टिपर निर्मरकरतीहै। कहा 
भी है ““जापरितोषाद्‌ विदुषां न साकु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्‌ ।१ 


गबादवद्यहरा र([मचन््रपषाण्डम 
२०६४० वाराणसी 


१. भ{मज्णानराङ्घुन्तलम्‌ ( १. र. २,) 


विषयवुक्रमणी 


विषय पृष्ठ संख्या विषय पृष्ठ संख्या 
प्रथम अध्याय १-८० नवाश फल ५६ 
मगन इलोक १ लग्न चन्द्र का प्रयोजन ५७ 
जन्मपत्र लेखन विधि ६ चन्द्र राक्षि कल ५८ 
संवत्‌-शक ज्जन ७ अन्द्रकुषण्डली स्थित- 
युगसाधन, कलियुग फल ७ ग्रहो के फल ६१-०२ 
सवस्सरोके नाम ८ सूर्यं फल ६१ 
संवत्पर साषनविषि ६ भौम फल ६२ 
1) बुधफल ६५ 
सवरसर के फल १० गुड फल ६६ 
१२ चक्षवत्सराट्मकं बुगानयन २१ शुक्र फल ६८ 
युगो काफल २२ दानि फल ७० 
अयन, अयन फल २४ राहु फल ७१ 
गोल, गोल कल २४ राशिर्यो के चरणानुसार फल ७२ 
ऋतु एवं ऋतु फल २५ लगन से आयु ज्ञान ८० 
मास फल २६ द्वितीय अध्याय ८१-१४६९ 
अधिमास कल २८ ग्रहस्फुटीकरण का प्रयोजन ८१ 
पक्षफल २८ गतकलि साधन ८ १ 
तिथि कल | ९€ पलभा तथा चरखष्ड साधन ८१ 
तिथियों की नन्दादि संज्ञा ३१ मृज कोटि लावन ` ८२ 
नन्टादि तिथियों का फल ३२ अयना साधन दर 
वारफल ३३  चरपल-दिनमान-मिश्वमान साष्षन ८३ 
दिवस फल द | प्रकारान्तर से दिनमान साधन ८५ 
रात्रि फल २४ ¦ इष्टकालिकं प्रहसाधन ८६ 
वाथा उर ~¦ स्पष्टबन्द्र सान ८६ 
करण साधन ५ `: श्रीपतिकृत मयलानरम ९१ 
करभ फल ४६ | फलदेक्त हेतु आबकर्यक निदे ९१ 
गण सार्षन ४4. लङ्कोदय द्वारा स्वदेशोदय साधन श्र 
गणो का फल ४६ लग्न सान ६३ 
योनिज्ान ४६ नतकाल साधन ६ 
योनि फल ५० दशषमलभ्न साधन ६९ 
वारसे भभु ज्ञान ४५२ दसमलग्न सान मे विगेष १०० 


अभ्म लग्न का कल ५३ सतम्षि हाद भाव सार्थेन १०० 


( १६ ) 


विषय पृष्ठ संख्या 
विक्षोपक बल साधन १०२ 
दवादश भाव विचार १०३ 
हाद भाव गत- 
ग्रहोंके फल १०५-१२८ 
रबिफल १०५ 
चन्दरफल १०५८ 
मौमफल १११ 
बर्षफल ११५ 
गुरुफल ११७ 
शुक्रफल ११६ 
शनिफल १२१ 
राहृफल १२३ 
केतुफल १२५ 
दो ब्रह का युति कल १२८ 
तीन रहो का युति फल १३१ 
चार ्रहो का युति फल १३७ 
पाच ब्रह का युति फल १४३ 
शः प्रहो क। युति फल १६१ 
सात ब्रह का युति फल १४८ 
केन्द्रायु साधन ४८ 
तृतीय अध्याय १५०-२३७ 
मगलावरण १५० 
दादक्षमावगत लग्नेन फल १५० 
दरादक्षभाकषमत ह्वितीकेक फल १५२ 
दवादशभावगत ततीयेद् फल १५४ 
हादक्षमावगत चतुर्वेशफल १५६ 
हादक्षभावगत पट्न्वमेक फल १५८ 
हादक्षभावमत वष्टेश कल १६० 
हादश्च भाकभत सप्तमे कल १६२ 
दादश भावगत अष्टमे कलं १६४ 
हादक्चषभावमत नवमश्च फल १६६ 
ढादश्चभावमत द्षमे्ष फल १६५ 
ादलसभावन्रत एकाकि करल १७० 
दाद्शभावकत हाश्च कल १७२ 


=+ ~ ~ म = 


विषय पृष्ठ सरथा 
नीचस्य प्रहु फल १७५. 


उश्वराक्षिणत ग्रहों काफल १७६ 
भूलत्रिकोण गत ग्रहों काफल १७७ 
स्वक्षेत्र ग्रहोंका फल १७८ 
मित्रराहिगत प्र्होका फल १७८ 
शत्रुराशिमत ग्रहो काफल १७९ 
हादशभावगत लषन का फल १७६ 
धनभावगत राध्यो काकल १८९१ 
तृतीय भावगत राक्षियों का फल १८४ 
चतुथं भावगत राशियों का फल १८६ 
पर्वम भावगत राक्षिर्यो का फल १८८ 
वष्ठभावगत राशियों का कल १९० 
सप्तम भावगत राशियों का फल १९२ 
अष्टम भावगत राहियों काफल १९४ 
नवम भावगत राशिर्यो का फल १९६ 
दशम भावमगत राशियों का फलन १९८ 
एकादश भावगत राशियों काफल २०० 
द्रादक्च भावगत राशियों का फल २०२ 
द्वाद राकशिगत- 


ग्रहोंके फल २०५-२१६ 
सूर्यं फल २०५ 
वद्र फल २०७ 
भौम फल २०९ 
बुध फल २११ 
गुरु फल २१२ 
शुक्र फल २१५ 
शनि फल २१७ 
ग्रह मत्री प्रयोजन २१६९ 
नैस्भिक एवं ताह्कालिक प्रहमेत्री २१९ 
पन्छधामेत्री २२९१ 
बरवे ते बिारणीय विषय २२२ 
ववं प्रदसा २२२ 


होरा सार्भन २२३ 


( 





कषय ` पष्ठ संख्या 
देष्काभ सान २२४ 
सप्तमा सान २२५ 
नवर्माक्षि सार्भैन २२६ 
ढादशांश सार्णन २२७ 
त्रिक्ांह् साधन २२५८ 
होरा फल २२६९ 
द्रष्काण फल २३१ 
सप्तमांक्ष फल २३२ 
नवमांश कन २३३ 
नवांश चकत मं पश्चम भावस्य म पञ्चम भावस्थ- 

ग्रहो का फल २३४ 
ददशां फल २३५ 
तरिशाक्ष फल २३७ 
चतुथ मघ्याय २३८-३८० 
मगलाचरण २३८ 
पमहापुरंष लक्षम २३५ 
रुचक योगका फल २३८ 
मद्रयोगका कल २२६ 
हत्त यागम का फल २४० 
मालब्य योगकाफल २४१ 
दश्च योगका फल २४१ 
पश्चमटापुरुष मङ्गं योम २४२ 
अनफ।-सुनफा दुदधरा योन २४२ 
सुनफा फल २४२ 
अनफ। फल २४३ 
वुरुषषरा फल २४४ 
केमव्रूम योग का फल २४६ 
केमद्रुम मङ्खयोम २४७ 
वोक्ि-बेशि-उमयवरी योग २४८ 
वोल्ि योग काफल २४८ 
बेहि योग का फल २४६ 
उमयजेरी योग का फल २४९ 
सहासन योम २५० 


१७ 


~~ = न 8 क ऋ 1 


) 

विषय पृष्ठ संख्या 
ध्वज योग २५० 
हुसयोग २५० 
कारिका योग २५० 
एकावली योग २५१ 
चतुः सागर योग २५१ 
अमर योग २५१ 
चाप योग २५२ 
दण्डयोग २५२ 
हंसयोग २५२ 
वापीयोग २५२ 
यप-क्षर-शक्ति-दण्ड योमलक्षभ २५३ 
यपयोगका फल २५३ 
शर योगका फल २५३ 
शक्ति योमका फल २५३ 
दण्ड योग का फल २५४ 
नौ -कूट-षछत्र-चाप अद्ध चन्द्र- 

योग लक्षण २५४ 
नौका योगफल २५४ 
कूट योगे का फल २५४ 
छत्रयोग का फल २५५ 
चापयोग काफल २५५ 
अद्धं चन्द्रयोग फल २५१५ 
चक्र समुद्र योग २५५ 
चक्र योग का फल २५५ 
समुद्र योगकाफल २५६ 
गोल आदि योगो के लक्षण २५६ 
भोल योग का फल २५६ 
युग-योग काफल २५६ 
धूल योग काफल २५७ 
केदार योग २५७ 
पाशयोग २५७ 
दामयोब २५७ 
वीणा पो २५७ 


( 
विषय पृष्ठ सस्या 
चश्योग का फल २५८ 
कारक यो २५५८ 
कारक योम का फल २५६ 
क्लकट योषं २५९ 
नन्दा यो २६० 
शाता योग २६० 
राजहस योष २६० 
व्िह्की पुच्छ योग २६० 
लालारिकं योम २६१ 
लालाटिकयोषण का फल २६१ 
महापातक योम २६३ 
कववमसे धात योग २६२ 
आस्पहस्या योम २६२ 
बुक्ष से मृत्यु योग २६२ 
नासाश्डद योग २६२ 
कणेष्ठेद योम २६३ 
लंमण ( खंज ) योग २६३ 
सपदंश्च योप २६३ 
व्यान्नसे षत योम २६३ 
अिधात योग २६३ 
कश्षरधात योग २६४ 
ब्रह्यद्स्या याग २६४ 
सन्तान हानि योग रप 
दोलायोग २६४ 
केन्द्रस्य गुङका फल २४ 
पद विच्छेद योग २६४ 
इच्छित मृत्धुयोग २६५ 
वर्षन्ति मे मृष्यु योम २६५ 
राजयोग २६५ 
भरष्ट योग रर्‌ 
लग्नभाव विवार २९५ 
धनभाव विचार २६७ 
पहजमाव विार २९८ 


भुखभाव विच्वार २९९ 








) 


बिषय पृष्ठ संख्या 
सुत भाव विचार ३०२ 
शत्रुभाव विचार ३०५ 
सप्तम भाव बिलार ३०५ 
आयु एवं रिष्ट बिजार ३०७ 
भाग्य भाव विबार ३१५ 
एकादश भाव विशार ३२२ 
ध्यय भावे विलार ३२३ 
राजयोग ३२ 
उश्वामिलाषी प्रह के लक्षण २३२४ 
बली प्रहु का लक्षण ३२४ 
सबल माव लक्षण ३२५ 
दुष्टि विचार ३२५ 
अन्धं ब्रह ३२५ 
जन्म पत्रके नाम ३२५ 
जन्म पत्रके नामका फल ३२६ 
शब्द जजान ३२६ 
नालवेष्टित लक्षण ३२६ 
सिर-वैर से जन्म जान ३२७ 
यमल योग ३२७ 
मूक योग २२७ 
राजयोग २२७ 
नवग्रहों के पुरषाकार चक्र ३२८-२३३ 
सूयपुरष चक्र ३२८ 
चन्द्रपुरष चक्र २३३० 

मौ मपुरष चक्र ३३० 
बुषपुरष चक्र २२३१ 
पुरुपुरष चक्र ३३१ 
मगुपुरुष क्र ३२१ 
मार्गीं शनिपुरव चक्र २३३२ 
वक्री शनिधुरुष चक्र ३.३२ 
राहुषुरुष खक्र ३३६३ 
केतुपुरुष चक्र ३३३ 

ग्रहो की मवस्था ३३४ 


( ६९ ) 





विषम पृष्ठ सस्या विषय पष्ठ संख्या 
मातङ्ग नायक क ३३५ अष्टकवमं ३६८ 
अश्च चक्र ३३० रेखा एवं विन्दुफल ३७१ 
सतपद चक्र ३३८ सर्वाष्टकव्गं मे रेखा फल ३७४ 
सुरयंकालनल चक्र ३४१ आगुविच।र ३७६ 
बद््रकालानल चक्र ३४३ दीर्षाधु पुङ्व लक्षण ३७८ 
यमदेष्ट्‌ा चक्र ३४४ नै सिक आयु ३७८ 
नरिनाडी चक्र ३४६ अक्लावु साधन ३७८ 
सर्वतोभद्र षक ३४७ ग्रह-आयु साधन ३७९ 
पल्न्चस्वर चक ३४८ लग्नावु सार्बन ३८० 
स्वर साधन ३८९ पच्छम मध्याय  ३८१-४६६. 
अहर सान ३५१ मंगलाचरण ३८१ 
रहिमि संस्कार ३५२ युगानुसार दशा ३८१ 
रहमि कल २५३ विको्तरी दशा बधं प्रमाण ३८१ 
बलविवेचन ३५६ जन्म समय से दशा ज्ञान ३८२ 
स्थान बल ३५६ मन्तर्दक्षा साधन ३८४ 
उम्चबल ३५७ उपदकश्षा सार्थेन ३८५ 
भूलत्रिकोणादि बल ३५८ फलदलशा सार्भन ३८५ 
दिग्बल ३५९ किशोरी दशा कालनिर्णय ३८६ 
नतोक्नत बल ३६० नक्षत्राय साषन ३८६ 
पक्षबल ३६० घुवाद्कुसे दक्षा साधन ३८६ 
दिनरात्रि बल ३६१ मष्टोत्तरी दशा साधन ३९६८ 
वषश साधन ३६१ नक्षत्र दवारा दक्षा पति साधन २३९८ 
मासपति साधन ३६२ मष्टोत री दशा क्रम एवं प्रमाण ३६६ 
ज्याण्ड ३६२ अन्तदहा सधन ३६६ 
अयन-चेष्टाबल ३६४ दशाकाल निर्ण ४०१ 
भोमादि ग्रहों के वेष्टाबल ३६५ णय ४१० 
नैतगिक बल ३६५ नक्षत्रायु साधन ४१० 
दृष्टिबल ३६९ दशाका घुदाङ्खू साधन ४१० 
दभ्टिसाधन ३६६ सन्ध्यादकशा साधन ४११ 


पाचकदला ४१२ 
भावबल ३६७ दशा वाहन ४१४ 


( २० ) 


विषय . पृष्ठ खंस्वा 
वाहन फल ४१४ 
विक्षोत्तरी महादशा- 
अम्तर्दशाफल ४१६-४२३ 
सू्ंदशाफल ४१६ 
अन्दर दक्षाफल ४१८ 
मंगल दशाफल ४२० 
राहुदशाफल ४२१ 
गुरुदशाफल ४२३ 
शनिदशश्चाफल ४२५ 
बुषदस्चाफल ४२७ 
केतु दशाफल ४२६ 
शुक दश।फल ४३१ 
अष्टोस्तरी दकशा-अन्तदक्षाफल ४२३३ 
सूयं दशाफल ४३३ 
चन्द्र दक्चाफल ४२३५ 
मौम दश्चाफल ४२३७ 
बुष द्ाफल ४२८ 
शनि दक्लाफल ४४० 
गुर दक्षाफल ४४२ 
राह दक्चाफल ४४४ 
शुक दक्षाफल ४४५ 
सर्वग्रह दक्षाफल ४४७ 
उषदश्ा फल 81 
सर्यान्तर मे उपदशा फल ४४८ 
चन्ान्तर मे उपदशा फल ४४९ 
भौमान्तर में उपदशा फल ४५१ 
राह्न्तर मे उपदशा फल ४५२ 
शुवेन्तर मे उपदश्चाफल ४५४ 











किय 

दान्यस्तर मे उपदक्ष। फल 
बुषन्तर मे उपदशा फल 
केतट्वन्तर मं उपदशा फल 
शुक्रान्तर मे उपदशा फल 
सन्ध्या दश्च फल 

सुदक्षा मे प१।चकदशाफल 
चन्धदशा मे पाचकदश्च फल 
भोमदकल्ा मं पाचकदक्षा फन 
बूधदशा मं पाचरक्दश। फल 
गुरुदश। मे पाचकदशा फल 
शुक्कदश। म पाचकदशा कुज 
शनिदला मे पाचकदक्चा फल 
यागिनो दक्षा साधन 

दशा वकष-अन्तदक्षा साधन 
योगिनो महादक्च। फल 
मङ्गला अन्तदशा फल 
भिङ्गला अन्ददंशा फल 
धन्या भन्तदक्षा फल 
ज्राभरी अन्तदश्चा फल 
भद्रिका मन्तदश। फल 


उल्का अन्वदश्चा फल 
घिद्धा भन्तदशा फल 
संकटा अन्तदश। फल 
योगिनीदक्षाके स्वामी 
योगिनियो ते ्रहोल्पत्ति 
ग्रहो के बलनुसार फल 
वर्षप्रवेश वारादि सार्थेन 


रि 


पृष्ठ संख्या 


४५६ 

४६८ 

४६० 

४६१ 

४६२ 
४६९७ 
एय 
४६६ 
४.७१ 
४७२ 
४.७३ 
| 3.6९ 
४७६ 
४3७ 
| १, 
८२ 
{21 
४८५ 
$ ८७ 
४९८ 
४९० 
४६१ 
४९३ 
४९५ 
४९१ 
४६५ 
४९६ 


|| श्रीः ॥ 


मानसागरी 


मनोरमाः हिन्दोभ्यासूयोपेता 
न्म अ~ 
जन्म-पत्र हेतु मङ्गन श्लोक 
स्वस्ति श्रीसौख्यधात्री मुतजयजननी तुणुप्रदात्री 
मा ङ्कत्योत्माहकर्त्रो गतभवसदमत्यमंगां व्यञ्जयित्री । 
नानासम्पद्धि घात्री घनकुलयणगमामायुपां वद्ध यित्री । 
दृष्टापरद्रिघ्नहर्त्री गुणगणवसतिलिंस्यते जन्मपत्री ॥ १ ॥ 
रीकाकारकृत्‌ मङ्खनाचग्ण 
प्रशस्य संविन्मणिमेदु रान्ना नसत्तरङ्खा सुधियोऽध्िमानसम्‌। 
दिगन्तरालोकनदो्तिदीधितिविमासनां सम्प्रति मानसागरी ॥ 





कल्याण ममृद्धिए्वं सुख्रक्मोदेनवानी, पुत्र तथा विजय प्राप्तकराने वाली, सन्तोष 
एवं संवर्धन करनं वाली, मङ्गल कार्यांम उत्साह वदानि वाली, भूत एवं मविष्यके 
शुमाशुम करमां कोप्रकट करने वाली, विविच प्रकार की सम्पत्तियों को देनेवाली, 
धन, कुल (परिवार), सम्मान तथा आयु को बटन वाली, दृष जन (शत्रु), विपत्ति 
एवं विघ्न काटरणकरन वाली,गुणोंक समूह्‌ नेः मूति जन्मपत्रीकयो निषखरहाहूं।। 
श्रीआदिनाथप्रमुखा जिनेशाः श्रीपुण्डरीकप्रमुखा गणेशाः । 
सूर्यादिषेटक्षयुताण्व भावाः शिवाय सन्तु प्रकटप्रभावाः॥ २॥ 
श्री आदिनाथ आदि जिने ( जन धमे के जिनावतार ), श्री पुण्डरीक प्रभृति 
गणपति तथा सूर्यादि नवग्ररों एवं नक्ष्रोते युक्त बार्ते माव कञ्याणहेतु समथंहों। 
दशावतारो भुवनंकमन्लो गोपाङ्कनासेवितपादपद्यः । 
श्रीकृष्णचन्द्रः पुरुषोत्तमोऽयं ददातु वः सवंसमीहितं मे ॥ ३ ॥ 
दशावतार (दश बार विभिन्नसरूपोंमे अवतरिते हीने वाक्ते), समस्त संसारके 
एक मात्र योद्धा, गोपक्न्याओंसे पूजित चरण कमल वाले, पुरूषो मेंश्वेष्ठये भगवान्‌ 
श्री कृष्णचन्द्र हमारी कामनाओं की पूति करं ३॥ 
श्रीमानस्मानवतु भगवान्‌ पाश्वंनाथः प्रियं वो 
श्रेयो लक्ष्म्या क्षितिपतिगणंः सादरं स्तूयमानः । 


२ मनोरमा" हिन्दीन्याश्योपेता 





भर्तृयंस्य स्मरणकरणात्तेऽपि सवं विवस्वन्‌- 
मुख्याः खेटा ददतु कुशलं सवंदा देहभाजाम्‌ ।। ४॥ 


लक्ष्मी एवं भूपालो दवारा आदर पूर्वक वन्द्यमान श्रीमान्‌ मगवान्‌ पाश्व॑नाय 
( जैनती्थंङ्कःर ) हमलोगों के प्रिय ( अभीषए) एवं कल्याणक रक्षाकरं) जिस 
परु कास्मरण करनेसे मी सभी, सूर्यादि ब्रह समी शरीर धारियों ( प्राणियों) की 
रक्षा करं तथा सदव कुक्ञनता प्रदान करं ॥ ४॥ 
सूयं: शौयंमयेन्दुरुच्वपदवीं सन्मङ्गलं मङ्गलः 
सद्बुद्धि च बुघो गुरुश्च गुरुतां शुक्रः सुखं शं शनिः । 
राहूर्बाहुबलं करोतु विपुलं केतुः कुलस्योक्नति 
नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु भवतां सवं प्रसन्ना ग्रहाः ॥ ५॥ 
सूयं शौयं तथा चन्द्रमा उन्नतपद प्रदान करे, मङ्खुलशुम, बुध सद्बुद्धि, गुरु 
गौरव, शुक्र सुख, शनि वःल्याण, राहु विपुन बाहुबल, एवं केतु प रवार की उन्नति 
करे । समी ग्रह प्रसन्नता पूर्वक निरन्तर आपके लिए प्रीतिकारक टोवं। ५॥ 
कल्याणं कमलासनः स भगवान्‌ विष्णुः सजिष्णुः स्वयं 
प्रालेयाद्रिसुतापतिः सतनयो जानं च निर्विंघ्नताम्‌ । 
चन्द्रज्ञास्फुजिदकंभौमधिषगच्छायासुतंरन्वित- 
ज्योतिश्चक्रमिदं सदव भवतामायुश्चिरं यच्छतु । ६ ॥ 
भगवान्‌ विष्णु एवं इन्द्र स्ति ब्रह्मा कल्याण प्रदान करं, अपने पुत्र 
सहित स्वयं पावतीपति ( शिवजी ) ज्ञान एवं निर्विघ्नता, चन्द्र, बुघ, शुक्र, 
सूयं, भोम, गुरु, शनि तथा समस्त भ्योतिश्चक्र ( नक्षत्र मण्डल ) आपको निरन्तर 
दीर्घायुष्य प्रदान करं ॥ ६ ॥ 
सूर्यो यच्छतु भूपतां द्विजपतिः प्रीति परां तन्वतां 
माङ्कल्यं विदधातु भूमितनयो बुद्धि विधत्तां बुघः । 
गौरं गौरवमातनोतु च गुरुः शुक्रः संशुक्रा्थदः 
सौरिवंरिविनाशनं वितनुतां रोगक्षयं संहिकः ॥ ७ ॥ 
सूयं राजत्व प्रदान कर, चन्द्रमा उत्तम प्रीति बढर्वे, भूमिपुत्र मौम मङ्गल 
करे, बुघ बुद्धि प्रदान करे, गुरुश्रे्ठ गौरव तथा शुक्र बल एवं धन दर्वे, शनि शत्र 
कानाश तथा राहु रोगों का विनाश करं । ७॥ 
श्रीमान्‌ पङ्कजिनीपतिः कुमुदिनीप्राणेश्वरो भूमिभूः । 
शाशाद्धिः सुरराजवन्दितपदो दैत्यन्द्रमन्त्री शनिः । 
स्वर्भानुः शिखिनां गणो गणपतिब्र हमेशलक्ष्मीधरा- 
स्तं रक्षन्तु सदंव यस्य विमला पत्री त्वियं लिख्यते ।। 5 ॥ 


मानमागरी ३ 





श्रीमान्‌ सूयं, चन्द्रमा, मङ्गल, बुघ, गुरु, शुक्र शनि राहू तथा केतु, ( नवग्रटीं 
का समूह्‌ ) एवं गणेश, ब्रह्मा, शिव तथा लक्ष्मीधर विष्णु सभी उसकी सदैव रक्षा 
करे जिसकी यह दोषरटहित जन्मपत्री निखीजारहीहै। ८ ॥ 
कृतं मया नोदकयन्त्रसाधनं न मेक्षणं चापि न शङ्कुषारणम्‌ । 
पगोपदेशात्समयावबोधकं विलिख्यते जन्मफलं नराणाम्‌ ।। & ॥ 
[ शुद्ध समयज्ञान हेतु] मैने घटीयन्त्र का साधन नहीं किया, नक्षत्रों काबेध 
तया शंकु (छाया द्वारा समय बोधक यन्त्र) का भी उपयोग नहीं किया, दूसरों 
दारा बताये गये समय के आधार पर जात्तक का जन्म फलन निखग्हाहू।)। £ ॥ 
ललाटपट्टे लिखिता विधात्रा षष्ठीदिने याऽक्षरमालिका च । 
तां जन्मपत्री प्रकटीं विधत्ते दीपो यथा वस्तु घनान्धकारे ।। १० ॥ 
ष ( छठी, जन्मसे छे दि- ) कै दिनब्रह्मयाने ललाटसूपी पटूपरनजो 
अक्षरमाला लिख दी, उयौ (शरुमाण्रुम क्मंफ़न) को जन्मपत्री प्रकट करती है, 
जैमे घने अन्धक्रारमे पड़ीहूर् वस्तु रे द्रीपक प्रत्यन्त क्रातादटै। १९॥ 
यावन्मेरुधंरापीटे यावच्चन्द्रदिवाकरौ। 
तावन्नन्दतु बालोऽयं यस्यंषा जन्मपत्रिका ।। ११ ॥ 
जव तकर पृथ्वीपर मेरु पवत दै तथा जवतक मूं ओर चन्द्रमा हैँ तब तक यट 
चालक आनन्द पूवक रहै जिगी यर जन्प-पचिका दहै । ११॥ 
यस्य नास्ति किल जन्मपत्रिका या शुभाऽशुभफलप्रदशिंनी । 
अन्धकं भवंति तस्य जीवितं दीपहीनमिव मन्दिरं निशि ॥ १२॥ 
शुमःशुम प्रकट करने वाली जन्मपत्री जिसके पास नहींहै उसका जीवन उसी 
शकार अन्धकारमयदहै जसे रात्रिम विनादीत्क का गृह।। १२॥ 
वंशो विस्तरतां यातु कीतिं्यातु दिगन्तरम्‌ । 
आयुविपुलतां यातु यस्यंषा जन्मपत्रिका ।। १३ ॥। 
जिस व्यक्ति की यह जन्मपत्री है उसके वडाक्ा विस्तार धे, दिगन्तर (दूरः 
द्रुर ) तक ऋति व्याप्त हो तथा आयु ¬ वृद्धि लो । १३॥ 


यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति परं प्रधानं पुरुषं तथान्ये । 
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा तस्मं नमो विघ्नविनाशनाय ।। १४॥ 
जिक्तको वेदान्ती लोगब्रहयक.ते है अन्य ( सार. शाखज्ञ ) लोग प्रधान पुरुष 
कहते है तथ। जिसे संसार की उत्पत्तिका कारण स्वशू्प ईश्वर मनते उन 
{ परज्रह्य ) कोर विघ्नोंके विनाश हेतु प्रणाम कन्ताहूं'। १४॥ 
आदित्याद्या ्रहाः सवे सनक्षत्राः सराशयः । 
सर्वान्‌ कामान प्रयच्छन्तु यस्यंषा जन्मपात्रका ॥ १५ ॥ 


र "मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेता 


सूयं आदि समी नव ग्रह समस्त नक्षत्रों एवं राशियों सहित उसकी समी काम- 
नाओं की पूत्ति करें जिसकी यह जन्मपत्रिका है ।। १५॥ 
जननी जन्मसौख्यानां वधिनी कुलसम्पदाम्‌ । 
पदवी पूरवपुष्यानां लिख्यते जन्मपत्रिका । १६ ॥ 
जन्म-सम्बन्धी सुखो को उत्पन्न करने वाली, कुन-सम्पदा को वाने वाली पूरक 
पुण्यो की आधार भूत जन्म पत्री को लिख रहा हँ ।। १६॥ 
एकदन्तो महाबुद्धिः स्वजो गणनायकः । 
सवंसिद्धिकरो देवो गौरीपुत्रो विनायकः ।॥ १७ ॥। 
एक दत वाले अत्यम्त बुद्धिमान्‌ सवज्ञ (स^ शास्त्रों को जानने वाले) गणा के 
नायक, गौरीपुत्र विनायक समी प्रकार से द्धिद्रारकटों।। १<॥ 
ब्रह्मा करोतु दी्घयुविंष्णुः कुर्याच्च सम्पदम्‌ । 
हरो रक्षतु गात्राणि यस्यंषा जन्मपत्रिका ।। १८ ॥। 
जिसकी यट्‌ जन्म पत्रीहै उसे ब्रह्य दीर्घायु ८, विष्ण्‌ सम्पत्ति प्रदानकन नथा 
शिव उसके शरीर को रक्षा करे ।¦ १८॥ 


गणाधिपो ग्रहाश्चंव गोत्रजा मातरो ग्रहाः । 
सवं कल्याणमिच्छन्तु यस्यंषा जन्मपत्रिका ॥ १६ ॥ 
गणपति, सभी ग्रह. गोत्रज (अपन कुलम उत्पन्न) लोग, तथा नाता 
( माृपक्षके लोग ) समौ लाय उनक कल्य।५ को व.मना-करः जिसका यह्‌ जन्म- 
पत्रिका है ।। १६॥ 
कल्याणानि दिवामणिः सुललितां कीतिं कलानां निरवि- 
लंक््मो क्ष्मातनयो बुधश्च वुधतां जीवश्चरञ्जी विताम्‌ । 
साभ्राज्यं भृगुजोऽकरजो विजयतां राहुबंलात्कष॑तां 
केतुर्यच्छतु तस्य वाच्छितमियं पत्री यदीयोत्तमा ॥ २० ॥ 
सूयं कल्याण, चन्द्रमा मनोटूर्‌ कान्ति, मङ्कु धन सम्पत्ति, वृध विद्रत्ता, गुरु 
दीधयुष्य, शुक्र साम्राज्य, शनि विजय, राहु बल का उत्कर्ष, तथा केतु, इच्छित फल 
उसे प्रदान करं जिसकी यह उत्तम जन्मपत्री है ॥ २० ॥ 
श्रीजन्मपत्री शुभदीपकेन व्यक्तं भवेद्धावि फलं समग्रम्‌ । 
क्षपाप्रदीपेन यथा गृहस्थघटादिजातं प्रकटत्वमेति ।। २१॥ 
श्री जन्मपत्री रूपी शुम दीपक द्वारा समस्त मविष्ट. फन उसी प्रकार प्रकट 
हाताहै जेसेरत्रिमें गृहमे स्थितधट आदिवस्तु दीपकके प्रकाशसे प्रकटं 
( द्य ) होती है ॥ २१॥ 


मानसागरी ५ 





ये कुर्वन्ति शुमाशुमानि जगतां यच्छन्ति ते सम्पदो 
ये पूजात्रलिरानहोमविधिभिर्निंध्नन्ति विघ्नानि च। 
ये संयोगवियोगजीवितकृतः स्वेश्वराः सेचरा- 
स्ते तिम्मांशुपुरोगमा ग्रहगणाः शान्ति प्रयच्छन्तु वः ।। २२॥ 
जो मंसारकाशुभ-अशुमकरतेरहै, जा मम्पत्तिप्रदानकम्तेर्ह, जोपूजा, बलिदान 
होम आदि विधि्योंमे विघ्नों काविनान्ञ करते है नथा जिनसे नंयोग-वियोग 
काक्रम चल ग्हाहै हसे समोर स्वामी आकाशम संचरण कम्ने वाले सूर्यादि 
ग्रहगण तुम्हे शान्ति प्रदान करं ॥ २२॥ 
येनोत्याटच समूलमन्दरगिरिश्छत्रीकृतो गोकुले 
राहूयेन महाबली सुररिपुः कायादरधंशीर्षीङितः । 
कृत्वा त्रीणि पदानि येन वसुधां बद्धो बलिर्लीलिया 
सत्वां पातु युगे युगे युगपतिस्त्र॑लोक्यनाथो हरिः । २३॥ 
जिसने जटम मन्दरे णि + उतरा कर गोकुनमं छत्रकी तरह धारण 
किया, देवताओं क शतु मटावला राहू तर जिमन अवंश्रोर्‌ क्या, जिसन पृथ्वीका 
तीन पगम माप कर लीना (छन) न वनि क्रो वाधि लिया वही युगोँक स्वामी 
तिलो नाथ विष्णु युग-युगतुम्ानो रक्षा करे ॥ २३॥ 
पूषा पुरि दिशतु सततं सन्तति शीतरोचि- 
भामो भाग्यं सितकरमुतः शान्तिमाद्धल्यमेवम्‌ । 
जीवो राज्यं चिरशुभगतां भागंवा भूमिमार्की 
राहुः सौख्यं शिखिन इति ते कीतिमञ्भ्र लिहं च ॥ २४॥ 
सूयं मैव पुष्रि, चन्द्रमा मन्तनि. मङ्गल माम्य, बुधदान्ि ओर मङ्खल 
(शुम), गुरु राज्य, शुक्र चिरसौमाग्य, गनि मूमि, राहु ओर केतु सुख प्रदान करं 
तथा समी (ग्रह्‌ ) आकाश पर्यन्त ( दैशदेशान्तर तक ) कीतिदे।॥२४॥ 
ग्रहा राज्यं प्रयच्छन्ति ग्रहा राज्यं हरन्ति च। 
ग्रहैव्याप्तिमिदं सवं त्रलोक्यं सचराचरम्‌ ॥ २५॥: 
ग्रह राज्य प्रदान करते दहै तथा ग्रह्‌ राज्यका हरण करतेह। प्रहोंकेट्वारा 
स्थावर जंगम सिन यह्‌ समस्त त्रैलोक्य व्याप्त है ।। २५॥ 
उमा गौरी शिवा दुर्गा भद्रा भगवती तथा। 
कुलदेव्यथ चामुण्डा रक्षन्तां बालकं सदा ॥ २६॥ 


उमा ( पावती), गौरी, शिवा, दुर्गा, भद्रा, मगवती, कुलदेवी तथा चामुण्डाये 
देविय सदेव बालक ( जातक) की रक्षा करं २६॥ 


६ "मनोरमाः हिन्दीन्याख्योपेता 


अविरलमदजलनिवहं भूमरकुलानीकसे वितकपोलम्‌ । 
अभिमतफलदातारं कामेशं गणपति वन्दे ।। २७ ॥। 
निरन्तर-मदजल राशि एवं ्रमरकरुलों से सेवित ( अच्छादित ) कपोलवाले, 
अभीष्ट फल को देने वाले, कामनाभों के अधिपति गणपति (गणेशजी) की वन्दना 
करता हूं ।। २७॥ 
रहमान ( यवनो के ईश्वर खुदा ) के प्रशस्ति-- 

यः पश्चिमाभिमुखसंस्थितवि्यमानो ह्यव्यक्तमूतिंपरवतिंतविष्वभमोगः । 
दुलक््यविक्रम्गतिः कृतक्म॑लक्ष्यो राज्या॑श्रयं दिशतु वो रहमाण एषः ।। २८ ॥ 


जो पश्चिम को नोर मुखकर आराधना करने वालों ( मूसलमानों) के लिए 
विद्यमान है तथा विश्च के ठेश्वयं को परिवतित केर अब्यक्त ( निराकार) सशूपटहै 
जिसके पराक्रम की दुर्वोध ( गखिनारईसे समक्षने योग्य ) गति उनके द्वारा किये 
गये कर्मोँसे ही लक्षित होतीहैरेसेवे ^रहमान' तुम्हे राज्यश्री प्रदान करे ।। २८॥ 

“अथ श्रीमन्नृपविक्रमार्कं राज्यादमुकसंवत्सरेऽमुकशाके करणगताब्दाधि- 
कमासावमदिनाह्गंणामुकायनामुकगोलगते श्रीसूर्यऽमुकतावमुकमासेऽमुक- 
पक्षेऽमुकतिथावमुकवासरे घटीपलामुकनक्षत्रे धटीपलामुकयोगे घटीपलामुक- 
करणेऽत्र दिने सूर्योदयारहिनिगतघटीपलामुकराशिम्थते श्रीसूर्य अमुकराशिस्थलञ 
चन्द्र , अमुकरांगस्थिते भौमे, वुवे गुरौ शुक्रे शनौ राहौ केतौ वा अमुकराशि- 
नवांशेऽमुकलग्नाधिपतावमुकराश्य।धपतौ, एवं पुण्यतिथौ पचा शुद्धो शुमग्रह- 
निरीक्षतकल्यागवत्यां वेलायां तात्कालिकामूवर लग्नोदये संक्रान्तिगतांशघरी- 
पलायनांशाः घटीपलमिश्चप्रमागघरीपलदनाघंप्रमागघटीपलाक्षरनिशाघंप्रमाण- 
घटीपलाक्षरदिनप्रमाणघरटीपलरात्रिप्रमाणघटीपलसंमीलनेऽ्टोरात्रप्रमाणघटीपल- 
रविभोग्यलद्धोदयाद्‌ गतघटीपल उक्नतघटीपलसूर्यपुरुषाकारनक्षत्रं अमुकस्थाने 
पतितं तत्र कंलासगिरिशिखर उमामहेश्वर संवादविशोत्तरीदशाप्रमाणनादाव- 
मुकदशामध्ये जन्मामुकसंघ्यायाममुकयामकेऽमुकवंशोद्धवगङ्गानीरपवित्रोपमा- 
मुकान्वयेऽमुकगोत्रेऽमुकपुत्रे, अ मुकगृहे भार्याऽमुकनाम्नी पृत्ररत्नमजीजनत्‌ । 
अत्र होराशास्व्रप्रमाणेनामुकनक्षत्रेऽमुकचरणेऽमु काक्षरेऽमुकयोनावमुकनाडधाम- 
मुकगणेऽमुकवगंऽमुकवर्गेऽमुकयुंजायां तस्य चिरञ्जीवामुकनाम प्रतिष्ठितं स च 
जिनप्रसादाहीर्घायुभंवतु इति । 

जन्मपत्र को विषयानुक्रमणी- 

अथजन्मकृण्डली--कलियुगफलं संवत्सरफलायनफलगोलफल-ऋतुफलमास- 
फलपक्षफलतिथिवारफलदिनजातफल-योगफलकरणफलगणफलयोनिफलवारायु- 
लंग्नफलांशफलानामग्रं चन्द्रकृष्डलिकाचक्रं चन्द्रकुण्डलीफलम्‌ । चन्द्रात्फल- 


मानसागमे 9 


पाता 


राश्यायुर्मावसाघनाथं सूर्यादिकमध्यमसूर्यादिकर्ष्टसूर्यादिकतात्कालिकभावचक्र- 
विधिफलादशमवने नवग्रहाणां हादशमवननिरीक्षणविधिद्टादशमवने नव- 
ग्रहाणां फलं द्वादशमवनेशफलं दादशभवने द्वादशलम्नफलं हादशलग्नानां 
स्वामिफलं षड्वगंमंत्रीचक्रं षडवगं कण्डलीचक्रं पमहापुरुषयोगफलं युनफा- 
ऽनफादुरूषराकेमदुमवोसिवेश्युभयचरीयोगिनी-फलराजयोगद्रादशायुगंतिनवग्रह- 
फलदीप्तस्वस्थनवप्रकारग्रहफलम्‌, अरिष्टम ज्गराजयोगचक्रम्‌, अश्व चक्रम्‌, शतपद- 
चक्रमू सूरयकालानलचन्द्रकालानलयमद्रष्टाव्रिनाडयन्त्रसवंतोभद्रचक्रम्‌, चन्द्रा 
वस्याचक्रं रश्मिचक्रं र्मिफलं चतुविध वलाष्वर्गा्ट्वगंफलं सर्वाष्टकवगं- 
चक्रं मत्रीचक्रं महादशाफलंविशोत्तयंष्टोत्तरीसंध्यापचकचक्रमन्तदंशाफलमुपदशा- 
चक्रमुपदशाफलम्‌ ।'' 





संत्रतृ से शक ज्ञान-- 
विक्रमादित्यराज्याग्दात्‌ प्त्रिशोत्तरं शतम्‌ । 
पातयित्वा भवेच्छाकं चंत्राद्धत्तिययः स्मृताः ॥ १ ॥ 
विक्रम मवत्‌ स १३५ (एक मोौवषैनिस) धटान पर णकान्दहोता है। चैत्र मासके 
अधे ( चेत्र शुक्ल प्रतिपदा ) से तिथियों को गणनः जारम्म होती है ।। १।। 
उदाहरण--वि० संविन्‌ २०८३७ इमम म १३५ घटाया २०३०१३५ १६०२ 
शेष ररा यती शक्ाब्द हुअः। 
तदनन्तरं करणगताब्दाधिकमासाऽहगंणाद्या यस्मिन्‌ । 
ग्रन्यमते जायन्ते तस्मिन्नेव ग्रन्थे विलोक्य लेख्याः ॥। 
गग नाधन~-~ 
हातव्िशच्च सहस्त्राणि कलौ लक्षचतुष्टयम्‌ 
वेदाग्निनेत्ररगृण्यं हि कृतं त्रेता च द्ापरम्‌ ॥ २॥ 
कलियुग का मान ४३८०५५० सौर वर्ष । इस (कलियुग )केमानकाभ्से 
गुणा करन पर्‌ कृन्‌ ( मत्य ) यु१. रेस गुणा करने परत्रेना युग तथा से गृणा 
करन पर द्वापर का मानसौ वर्पोमटोतहै।॥२॥ 





४३२०००८१ = ४३२००५० मौर वषे कनियुग 
४३२१००० > २ ८६४५९०५ , # हेपर 
४२२०००५२ = ६९२६६५०० ,) श्रता 
ह २३२०००८४ १७२८००५ ,, कृतयुग 
४३२०००० ,, एक महायुग 
कलियुग का फल-- 


पापात्मा दुःखसंयुक्तो धनहीनोऽयशा नरः । 
दृष्टवुदिर्दुराचारो जायते च कलौ युगे । ३॥ 


कलियुग म पापात्मा, दुखी, निर्धन, अपयकशी, दुण-वुद्धि एवं दुराचारी पुरूष 
( प्राणी ) उत्पन्न होते ह ॥ ३॥ ॥ 





"मनोरमाः हिन्दीव्याख्योपेता 


प्रभवादि साठ संवत्सयाके नम- 


प्रभवो विभवः शुक्लः प्रमोदोऽथ प्रजापतिः । 
अङ्किराः श्रीमुखो भावो युवा धाता तथंव च ॥ ४॥ 


ईश्वरा बहुघान्यश्च प्रमाथी विक्रमो वृषः । 
चित्रभानुः सुभानुश्च तारणः पार्थिवो व्ययः ॥ ५॥ 


सवंजित्‌ र्भा च विरोधी विकृतिः खरः । 
नन्दनो  विजयश्चंव _ जयो मन्मथदुर्मुखौ ।। ६ ॥ 
हैेमलम्बी विलम्बी च विकारी शावंरी प्लवः । 
शुभकृत्‌ शोभङ़ृत्‌ क्रोधी विश्वावसुपराभवौ । ७ ॥ 
प्लव ङ्कः कीलकः सौम्यः साघारग-विरोधकृत्‌ । 
परिधावी प्रमादी च, आनन्दो राक्षसो नलः । ८ ॥ 
पिङ्कलः कालयुक्तश्च सिद्धार्थी _रौद्रदुमंती । 
दुन्दुभी रुधिरोद्‌गारी रक्ताक्षी क्रोधनः क्षयः ॥ ६ ॥ 


| इन साठ संवत्सरोंकै नाम सारणीम सरलताके लिएक्रमस दिए गए) 
प्रथम से बीसवें संवत्सर तकं ब्रह्माविगतिका २१ वेंँसे ४० वें तक विष्ण्‌ विक्षतिका 


तथा ४१ से ६० वें संवत्सर तक रद्रविशतिका कहते है ।| 
मनश्सरवोधर्साग्यि 





ब्रह्यविंशतिका विष्णु विंशतिका रद्रविशतिका 

१ प्रमव १ मर्वाजि! ४१ प्लवन 

२ विमव २२ मर्वेधानी ४२ कीलक 

२ शुक्न २८३ त्रिराघी ८ सौम्य 

४ प्रमाद २४ विक्रनिं ८४ माघारण 
५ प्रजापनि २५ खर ४५ विगोध्रक्रन्‌ 
६ अद्धिरा ५६ नन्दन ८६ परिधावी 
७ श्रौमूख २३ विजय ४७ प्रमादी 

८ माव २८ जय ४८ आनन्द 

६ युवा २६ मन्मथ ४६ राक्षम 
१० घाता ¦ ३० दुम्‌ ५० नन 

११ ईश्वर ¦ ३१ हैमनम्बी ५१ पिङ्कन 
१२ बहुधान्य । ३२ विलम्बी ५२ कालयुक्त 
१३ प्रमाथी | ३३ विकारी ५३ सिद्धार्थी 
१४ विक्रम ३४ शावंरी ५२ रौद्र 

१५ ठष ३५ प्लव ५५ दुमंति 
१६ चित्रमानु ३६ शूमकृत्‌ । ५६ दृन्दुमि 
१७ सुमानु २७ शोभकृत ५७ रुधिरोद्गारी 
१८ तारण ३८ क्रोधी ५८ रक्ताक्षी 
१६ पाथिव ३६ विश्वावसु ५६ क्रोधन 
२० व्यय ४० परामव ६० शय 


मानमागरी (अ 





घ्र संत्रन्सर माघन-व्िधि-- 
शकेन्द्रकालः पृथगाकृतिघ्नः शणाद्भुनन्दाश्वियुगेः ४२९१ समेतः । 
शराद्रिवस्विन्दू-१८७५ हूतः लब्धः पष्ट्याप्तणेषे प्रभवादयोऽ्दाः ।। १० ॥ 


अमी शकाब्दकोरेरम गुणाक्रर गुणनफलमें ४२६१ जोड कर १८७५ से 
मागदेने प्रजो लबन्धिप्राप्नदटोौ उमे अमी गकान्दमं जोदढकर ६०्का माग 
देने से शेष गन संवत्सर सानाद्ै। भेधम १ जोटनेमे वतमान मंवत्‌सर की संख्या 
होनी है । १०॥। 


उदाह रण-अभीष्ट शक्रः १६०२ 
१६०२८ २२ ४१८४४ -- ४२६१ ८४६१३२५ 


४६१३५ _ ~ 
९३ न्=नन्धि २४प्राप्न हुई इमे गक्ाब्द १६०२ 


१८७५ 
मजो कर ६० कामाग दिया १९०२२४९. ^ =नन्ष ३२ शेष € 


© 


१८७५ कामागदेनेसे 





शेष तुल्य ९ठां गत मंवनूसर ६ १== अवा श्रीमृ वर्तमान संवत्सर हूभा। 

विशेष- 

बृहस्पति के मध्यमानम णक गा्ञिके मोग कान का एक मंवत्मर कते है। 
ट्नको गणना सिद्धानन प्रन्ोंम विजयादि क्रममरै। अर्था जहां पर सृष्टधादि 
से अटर्गण एवं प्रहगणना वद्धा चिरि है वदाँ प्रथन मदत्यर 'विजय'टोतादहै। 
अनन्तर जय मन्मय प्रभति क्रनने मंव्त्मर दाते दहै। नथा जरां छकान्द ( करण- 
ग्रन्थो म) से प्रगणना ज गईटै व्हा प्रभव. विमव्र लादि क्रमे मंव्त्सर की 
गणना की गईटै। 

अमीष्ट्‌ ममयम मंव्रत्सर काज्ञान कमनं के निए [मन्न-भिन्न ग्रन्थो म मिन्न- 
भिन्न विधियांदी गर्ईइहै। जो गर्ब्दस करीं विक्रमःव्दसै संवत्सर सिद्ध क्या 
जाता है । विक्रम संवत्‌ मसंद्रदूपर जाननेकी विधि इम प्रतार है-- 

मंवत्कालस्त्वरद्भूयुतः कृत्वा शून्यरमेहंनः। 
शेषः संवत्सम. ज्ञेयः प्रभवादिर्वृधंः क्रमान्‌ ॥ 
विक्रम संवा मं ६ जोड कर {न्स मागदं शेध गन संवत्सर नथाशेषमे एक 
जोद्ने से वतंमान्‌ संवत्सर होनादहै। यथा संवन्‌ २०३७ शक १६०२ मे संवत्सर 
ज्ञान अभीष्ट है । अतः संवत्‌ ( विक्रमाब्द ) २०३७ -:- ६२०४६ योगफल गे ६० 
का माग दिया-- 
६०) २०४६ (३४ 
१८० 
२४६ 


(नगण क त 1 १, 


६ शत संवत्सर 
६ ~+ १७ बां वतंमान्‌ भीमुख संवत्सर हुआ । 


१० "मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता 





कछ विद्रानों ने वतमान संवत्सर के गतमासादि निकालने की मी विधि लिखी 
है । म्रन्थोक्त विधि से शकाब्द द्वारा संवत्सरानयन विधिमें २२ गुणित दाकान्द मे 
४२९१ जोड़कर १८७५ का मागदेनेसे जो शेष रह जाताहै उसे १२से गुणा कर 
१८७५ का भाग देने से लण्धि गत मास तथाशेषकोरे०्से गुणाकर १८७५ से 
भाग देने पर लब्धि दिन एवं पुनः शेष को ६०से गुणा कर १८७५ से माग दने 
पर लग्धि घटी होती है। 


हाकाब्द से प्रकारन्तर हारा संवत्सर साधन- 


शाकं रामाक्षि-संयोज्यं षष्टिमागेन हारयेत्‌ । 
शेषं संवत्सरं ज्ञेयं लन्धं तत्परिवतंकम्‌ ॥ ११॥। 
अमी शकान्द मे २३ जोड़कर ६० का भागदेनेसे शेष प्रमवादि (गत) 
संवत्सर रोते है। लग्धि अभीप्र शकाम्द तक ६० संवत्सरो को चक्र भ्रमन संक्या 
होती है। यह विधि अत्यन्त स्थूलहै। हससे शुद्ध संवत्सर काञ्चन नहींहो 
पाताटै। यथा- 
शकाब्दय १६०२ 
१६०२-२३= १६२५ योगफनमें ६० का माग दिया-- 
६० ) १६२५ ( :> 


१६०५ 


[| 


१२५ 
१२० 


५ गतसंवत्सर 
५ + १==६ वतमान संवत्सर अंगिरा हुभा। परन्तु यह अशुद्धटहै क्योंकि उक्त 
दाकाब्द मं सतवा श्रोमुख संव्रत्सरथा जैस्ाकिरगणतद्वारा भी सिद्धहोचुक्रादै। 
अतः इस प्रक्रिया मे २३ केस्थान पर २४ जोड़कर ६० कामागदंतो गत संवत्सर 
आयेगा ॥ ११ ॥ 


संवत्घरोके फल 


प्रभव -- 
जातिस्वकूलघर्मात्मा विद्यावांश्च महाबलः । ॥ 
क्रूरश्च कृतविद्यश्च जायते प्रभवोदयः । १२॥ 
प्रमवसंवत्सर में उत्पन्न हृभा व्यक्ति अपनी जाति एवं कुल के धमां का भाचरण 
करने वाला, विद्धान्‌, शक्तिशाली, क्रूर तथा शालनी का मम॑ होता है॥ १२॥ 


मानसागरी ११ 


[१ कवक 





विभव-- 
स्त्रीस्वभावश्च चपलस्तस्करः स धनी तथा । 


परोपकारी पुरूषो जायते विभमवोदये ॥ १३॥ 
विभव संवत्यरमें उत्पश्च पुन्षन्तरी को तरद स्वमाव एवं चश्ल प्रकृति वाला, 
तस्कर (चोर), धनी नया दूसरों का उपकार करने वाना होता है। १३॥ 
शुक्ल 
शुद्धः शान्तः मुशीलश्च परदाराभिलाषुकः । 
परोपकारकर्ता च निर्धनः स हि शुक्लजः । १४॥, 
जो शुद्ध (अन्नः करण युक्त), गान्न, भुशीन, अन्य लियो मे आसक्त, परोपकार 
करने वाला तथा निधनहोना दहै वही शुक्ल संवत्सर मोना है। १४॥ 
प्रमोद-- 
क्वचिल्लक्ष्मीः क्व चिद्धुार्या बन्धुमित्रारिविग्रहः । 
राजपुज्यः प्रधानश्च॒ प्रमोदान्दभवो नरः ।॥ १५॥ 
जो प्रमोदनामकसंवत्सर म उत्पक्नहोतारहै वह कटीँ लक्ष्मी (धन), कहीं पत्नी, 
मारई,मित्रजौरशञत्रसेविगाधवग्नवाला, जासि पूजित तथा प्रधान पुरुष होताहै। 


प्रजापति-- 
प्रजापालनसन्तुष्टो दाता भोक्ता बहुप्रजः । 
विदेशेषु समाख्यातो वित्तहेतोः प्रजापतौ ॥ १६॥ 
प्रजापति संवत्सर म उत्पन्न व्यक्ति अपनी प्रजाके पालन म सन्तुष्ट रहने वालाः 
दानी, उपमोग करने वाना, अधिक सन्तान वाना तथा अपने ( अत्यधिक ) घनके. 
कारण विदेशोँमं स्याति प्राप्न कमन वाना होता है ॥ १६॥ 
भङ्धिरा- 
क्रियाद्याचारसम्पन्नो धमंशास्त्रागमादिषु । 
आतिथ्यमित्रभक्तोऽयमद््धिरोजात उच्यते ॥ १७ ॥ 
अङ्जिरा मे उत्पन्न हुआ व्यक्ति (घमं) श्रिया आदि आचारोंसे युक्त, षमंशाल्ञ,. 
वेद आदिमे दक्ष, अनिधथि एवमित्रोंका आदर करनेवाला होताहै।॥ १७॥ 
श्रीमुख-- 
धनवान्‌ देवभक्तश्च धातुग्यवहूतौ कृती । 
पाखण्डकृतकर्मा च श्रीमुखे तु भवेन्नरः । १८ ॥ 
श्रीमुख नामक मंवत्तरमे उत्पन्न हभ व्यक्ति. धनवान्‌, देवताओं मे मक्ति 
रखने वाला, धालुभों के उ्५वहार ( धातु सम्बन्धी कायो ) मे निपुण, तथा पाखण्ड 
युक्त कायं करने वाला होता है ।। १८ ॥ 


१२ "मनोरमा" हिन्दीभ्याख्योपेता 


भाव- 
भावनां कुरुते नित्यं क्मंकर्ता पुमान्‌ भवेत्‌ । 
मत्स्यमांसप्रियश्चव जायते भाववत्सरे ॥ १६ ॥। 
जो व्यक्ति माव नामक संवत्सर मं उत्पन्न होतादहै, वह प्रतिदिन मावना करने 
वाला, काये-कुशल तथा मत्स्य एवं मांस क्राप्रेमीटानारहै। १६॥ 
युवा- 
भाय जलभीतश्च व्याधिदुःखादिपीडितः । 
सवंदा प्रीतिसंयुक्तो युवसंवत्सरे फलम्‌ । २० ॥ 
पत्नीसे दुःखी, जलसे भय्मात,व्याधि एवंदुःखोमे पीलिति नथा सदव प्रसन्नता 
-युक्तं युवा संवत्सर म उत्पन्न व्यक्तिवे फनदहोताहै।॥ ~° ॥ 
घाता-- 
सवंलोकगुणगौरवयुक्तः सुन्दरोऽप्यतितरां गुरुभक्तः । 
शित्पशस्त्रकुशलश्च सुशीलो धातृवत्सरभवो हि नरः स्यात्‌ । २१ ॥ 
धाता संवत्सर म उत्पन्न व्यक्ति मभीप्रान के गृ्यी एवं गौरव से युक्त, 
सुन्दर शरीर वाला, अनिथय गृरूभक्ति-र्म्नन्न, ठिन्प गासन म निपुण तथा 
सुशील होता है ।॥ २१॥ 
ईश्वर-- 
घनी भोगी तथा कामी पशुपालप्रियो भवत्‌ । 
अ्थधमंसमायुक्तो नर ईश्वरसम्भषेः।। २२॥ 
ईश्वर नामक मवन्सर म उत्पन्नः व्यक्ति घनवा-, मोगी ( नौशनिक सुखो 
का उपमोग करनेवाला), कामी. पश्रुपालन मे श्चि न्प्वन वाना तथा अथं णवं 
धमं से सदव युक्त रहन वालादोनाहै।। ८२ ॥ 
बहुान्य-- 
वेदशास््ररतो नित्य कलागान्धवंगायनः । 
नातिगर्वी सुरापश्च जायते बहुघान्यके ।। २३ ॥ 
बहुधान्य संवत्मरम उत्पन्न टोन वाना व्यक्ति निरन्तर वेद शास्रं के अध्ययन मं 
रत रहने वाला, कला एवं नृत्य-गीन का ज्ञाता, अधिक्र ग्वेन करने वाला 
तथा सुरापान करने वाला होता दै । २३॥ 
प्रमाथी-- 
परदाराभिलाषी च परद्रव्यरतो नरः। 
व्यसनी चतवादी च प्रमाथिनो भवेन्नरः ॥। २४॥ 
प्रमाथी नामक संवत्सरम उत्पन्न हुभा व्यक्ति परसरी एवं दूसरोंकंषनमें 
जासक्त, व्यसन ( नशा ) करने वाला तथा जुभारी होता दै ।। २४॥ 


मनसागरी १३ 





विक्रम-- 
सतुष्टो व्यसने सक्तः सप्रतापो जितेन्द्रियः । 
शरश्च कृतविद्यश्च विक्रमे जायते नरः ॥ २५॥ 
विक्रम मंवत्सरमं उत्पन्न हुआ व्यक्ति सन्तोषी, व्यसन मं आसक्त, प्रतापी, 
इन्द्रियों को जीननं वाला, शूर तथा गाख्ज्ञरोताहै। २५॥ 
वरष~-- 
स्थलोदरः स्थलकचोऽन्पपाणिः कुलापवादी कुलसंवकश्च । 
घर्मार्थयुक्तो व्हूवित्तद्रारी वृषे प्रजातश्च॒ भवेन्मनुष्यः ।\ २६ ॥ 
वृष नामयः संवत्सर मं समुत्पन्न व्यक्ति मोटे ( तुन्दिन ) पेट, मोटे बाल तथा 
छोटे हाथों वाला, कुलनिन्दक, कुलकी सेवा करने वाला, धर्म-अथं स युक्त एवं 
बहुत अधिक ध्न संग्रह करन वःलाद्रीनादै ।। २६॥ 
चित्रमानु-- 
तेजस्वी ह्यतिगर्वी च हीनक्मकृतस्थितिः । 
देवपूजा प्रियो नित्य चित्रभानौ भवेन्नरः ॥ २७ ॥ 
चित्रमानु संवत्सर म उन्न व्यक्ति तजस्वी, घमण्डी, हीन कार्यो मं रुचि रखने 
वाला, तथा देत्राराघनक्राप्रेमी रोता है ।। {3 ॥ 
नृमानु-- 
सर्वाणि शुभकार्याणि मित्रामित्रफलं लभेत्‌ । 
सवंसग्रहकर््ता च मुभानौ जायते नरः ॥ २८ ॥ 
मुमानु संतत्सरम जन्म लने वाना प्राणी सृभी प्रकारके शुभ कार्योाको करने 
वाला, मित्र एवं शत्रुके (णन अशम ) परिणा्मोंस युक्त तथा समी प्रकार की 
वस्तुओं का संग्रह करन वालाटहानाहै 1 र< ॥ 
नारण-- 
सवं लोकमप्रियो नित्यं सवंधमंवहिष्कृतः । 
राजपुजाप्तवित्तश्च तारणे जायते नरः । २६ ॥ 
जो तारण संवत्मरमं जन्मनलेताहै वह्‌ सदव सवत्र जनप्रिय, सभी ध्मोँसे 
वटिष्कृत, राजा की सवा ( राजकीय सेवा) स धन अजित करने वाला व्यक्ति 
होता है। २६९॥ 
पाथिव-- 
शिवनब्रह्मविकर्मा च शुभसौख्यप्रदायकः । 
भव्ययुक्तश्च धर्मात्मा पार्थिवे जायते नरः ॥ ३० ॥ 


१४ मनोरमा' हिन्दीग्यास्योपेता 





पाथिव संवत्सर में उत्पश्च होने वाला मनुष्य क्िव एवं ब्रहम की उपासना करने 
वाला, कल्याण एवं सुख को देने वाला, सौन्दयं युक्त तथा घर्म्त्मा होता है ।३०॥ 
ग्वव-- 
दाता भोक्ता प्रधानत्वं जन्मक्मणि सौख्यकम्‌ । 
बहुधा मित्रलाभश्च जायते व्ययवत्सरे ॥ ३१ ॥ 
ग्यब संवत्सरमे जन्मलेने वाला दानी, विषयोपभोग करने वाला, अपने जन्म 
तथा कर्मो से प्रतिष्ठित, सुखे-प्राप्त करने वाला, अनेक बारमित्रों का नाभ प्राप्त 
करे बाला होता है। २३१॥। 


सर्वजित- 
जित्वा च सकर्लाल्लोकान्‌ विष्णुघर्मपरायणः ।` 
पुष्यानि स्व॑कर्माणि सवंजिज्जो भवेस्नरः ।। ३२ ॥ 
समस्त जगत को जीतकर विष्णु को अराधनाम लीन ( वैष्णव ), तथा पुण्य- 
दायक समी कर्मोँको करने वाना ग्थक्ति स्वजित्‌ नामक संवत्सर मं उत्पश्च 
होता टै ।। ३२॥। 
सवघारि- 
पितृमातृप्रियो नित्यं गुरुभक्तो भवेक्नरः। 
श्रः शान्तः प्रतापी च सवंधारिभव्रौ नरः ॥ ३३ ॥ 
सवधारि संवत्सर मं उत्पन्न होने वाला व्यक्ति माता पिता का प्रिय, गुरुमक्त, 
-वीर्‌, शान्त एवं प्रतापी होताहै। ३३॥ 


विरोधी-- 
विरोघौ कर्मंशार्दलो मत्स्यमांसकतादरः। 
धर्मंबुद्धिरतो नित्यं प्रशस्तो लोकपूजित ॥ २४॥ 
विरोधी नामक संवत्सरमें जन्मलेने वाला व्यक्ति निर्मीक कार्यकर्ता, मत्स्य 
शवं भासि का प्रेमी, सदा धर्माचरण करने वाला, श्रेष्ठ एवं समाजमें आदरणीय 


५ प्रतिष्ठित ) होता है ॥ ३४॥ 


विकृति 
चित्रवादी च नृत्यजो गान्धर्वो भिश्रसंशयः। 
दाता मानी तथा भोगी विकृतौ जायते नरः ॥ ३५ ॥ 
विकृति संवत्सर म जन्म लेने वाला पुङ्ष विचित्र वचन बोलने वाला ( हास्य- 
य्यंग करने वाला ), नृत्य का ज्ञाता, गान्धवं ( गीत गादि) कलाम निपुण, संशय- 


रहित, दानी, स्वाभिमानी, एवं सुखोपमोग करने वाला होता है । ३५॥ 


मानसरागरी १५ 





खर ~~ 
परहिसापरो मंत्र्या परद्रन्यरतो भवेत्‌ । 
कुटुम्बभारकोत्पाही जायते खरवत्सरे । ३६॥ 


क्सरो की हिसा करने वाला, मित्रताद्वारा दूसरोंके धनम आसक्त, परिवार 
का मरण-पोषण करन वाला व्यक्ति खर नामकं संवत्तग मे उत्पन्न होता है।। ३६॥ 


नन्दन-- 
सर्वदा प्रौतिसयुक्तो गृहे कल्याणकारकः । 
राजमान्योऽपि पुरुषो नन्दने जायते नरः ॥ ३७ ॥ 
सदैव प्रीति से युक्त, गृहम कल्याण कुरते वाला, तथा राजा-द्रारा सम्मानित 
पुरुष नन्दन नामक संवत्सर मं उत्पश्नहोताहै। ३७। . 
विजय- 
कोतिंरायुर्यंशः सौख्यं स्वंक्मंशुभान्वितः । 
युद्षे श रोऽरिणाशक्तो विजये वत्सरे फलम्‌ । ३८ ॥ 
कोति, आयु, यशश, मुख, सभी प्रकार के कार्यों राफलना, युद्धम शूर, ञत्रमे 
अजेय, य्‌ सव विजय संवत्सर (म जन्मलेने) काफनटोतादहै।॥ ३८ ॥ 
जय~ - 
जेता युद्धे कलत्राणि मित्रामित्रफल लभेत्‌ । 
व्यापारकर्मसयुक्तो जयसंवत्सरे फलम्‌ ।। ३६ ॥ 
युद्ध म विजयी, स्त्रीसु युक्त, शत्रु एवं मित्रके (शुमाशृभ) फल को 
प्राप्त करने वाना, व्यापार कमस ग्क्त जय संवत्सर में जन्मतेने वाला 
व्यक्ति होना है । ३६॥ । 
मन्मथ-- 
अतिकामी चातिबुद्धिस्तृष्णावानु बहुमानतः । 
निष्ठुरो भोगबलवान्‌ मन्मथे जायते नरः ॥ ४० ॥ 
मन्मथ नामक संवत्सर मे उत्पन्न व्यक्ति अत्यन्त कामी, अत्यधिक बुद्धिमान, 
लोमी, समाज मे सम्मानित, निष्टूर, सुख के साधन एवं बलसे सम्पञ्ल 
होता है। ४० ॥ 
मृख-- 
शुचिः शान्तः सुदक्ष्च सर्वत्र गणपुजितः । 
परोपकारी वादी च दुर्मुखे दुर्मुखीप्रियः ॥ ४१॥ 
दुम नामक संवत्सर में उत्पन्न हभ व्यक्ति पवित्र आस्मा, लान्त, परमनिपृण, 


१६ "मनो रमा हिन्दीग्याख्योपेता 





अपने भृशो द्वारा सवत्र पूजित, परोपकार करने वाला, वाद-विवाद करने वाला 
तथा दुष्ट मुख वालीस्त्री करा प्रिय होता है। ४१॥ 
हेमलम्बी- 
मणिमक्तोस्तथा रत्नमषटघातुसमन्वितः । 
अदाता कपणः पुज्यो हेमलम्बौ नरो भवेत्‌ । ४२॥ 
हेमलम्बी संवत्सर मे उत्पन्न हू व्यक्ति मणि, मृक्ता ( मोती), रत्न (हीरा, 
पन्ना आदि ) तथा अषटवातुओं* ( १. स्वणं, ३. ताबा, ४. रागा, ५. जस्ता, ६. 
सीसा, ७. लोहा, ८-पारा) से युक्तहोताहै। दान नदेने वाला, कृपण परन्तु 
पूज्य ( सम्मानित ) होता है ।। ४२॥ 
विलम्बो-- 
अलसः सततं जातो व्याधिदूःखसमन्वितः । 
कटुम्बधारको वापि विलम्बौ जायते नरः ।॥ ४३ ॥ 
विलम्बी नाम संवत्मरम जन्मनेन बाला व्यक्ति आलसी, निरन्तर होने 
वाली व्याधियों के दुःखम वक्तं तथा कुटुम्ब का मार वहन करने वाला 
होना है ।। ४३ ॥ 


विकारी-- 
रक्तवंकारयुक्तश्च रक्ताक्षः पित्तसम्भवः। 
वनप्रियो धनहीनो विकारौ तु भवे्नरः॥ ४४॥ 
विकारी नामक मवत्सर्‌ मं उत्पन्न व्यक्ति रक्तदाप म युक्त, लाल अखं वाला 
पित्तविकार मे वुक्त, जंगन का प्रेमी तथा धनमरटीन रोना ।। ४४॥ 
शबंगी- 
वेदशास्त्रप्रियो देवत्राह्यणे शुचिभक्तिमान्‌ । 
शकंरारसभोगी च शा्व॑रौ जायते नरः ॥ ४५॥ 


जिसका जन्म शवंगी नामक मंवत्मरमं होना है वह्‌ वेदशास्त्र का प्रेमी, 
देवता तथा ब्राह्मणों मं पवित्र मक्ति ग्न वाना, शकेगा आदि मधुर पदार्थोँका 
सेवन करने वाला रोना टै ।। ४५॥ 
प्लव-- 
सुनिद्रो बहुभोगी च व्यवसायी यशोऽन्वितः । 
पूजितः सवंलोकानां प्लवसंवत्सरे कलम्‌ ।॥ ४६ ॥ 





१. स्वणं शूप्यं च ताज्नं च, रङ्खुं यशदमेव च। 
सीसं लौहं रसश्चेति धातवोषएरौ प्रकीतिता ॥ 


मानतागरी १७ 





प्लव नामक संवत्सर मे अन्म मेने वाला ्यक्ति शुन्दर ( प्रगाढ) निद्राम सोने 
स्तना अधिक सुखमोग करने वाला, व्यापारी, यक्षस्वी तथा लोक में पूजित ( समाज 
मे प्रतिष्ठित ) होता है।॥ ४६॥ 


् कर्मवान्‌ सुयशाः प्रोक्तो धर्मशीलस्तपस्करः । 

प्रजापालः सुनिष्णातः शुभसंवत्सरे फलम्‌ ॥। ४७ ॥ 

क मंठ, सुन्दर यजश्, धरमपरायण, तपस्वी, प्रजा (आश्रित) का पालन करने 
वाला, स्यन्त निपुण शुम संबत्सरमे जन्मलेने वाले व्यक्ति का फल कटा 
गया है ।। ४७।। 

दमन ~~ 

सुचित्तः शान्तचित्तश्च श्रो दाता ह्यनेकधा । 
नातिवृद्धो न पूणंत्वं शोभने फलमश्नुते ।॥ ४८ ॥ 


शोभन संवत्सर मे उत्पन्न हज भ्यक्ति निमेल चित्त एवं शान्तचित्त वाला, शूर, 
अनेक बार दान करने वालाहोतादहै। न बधिकवृद्ध होतादहै गौरनपूर्ण॑ताको 
प्राप्त करताहि । इस प्रकारके फलका भोग करतादहै।। ४८ ॥ 


क्रोधी - 
अतिक्रोघीमतिः शरो विजानौषधिसग्रही । 


परापवादी सर्वंत्र॒ कोधसंवत्सरे फलम्‌ ॥ ४६ ॥ 
अस्यन्त क्रोधी स्वमाव वाला, दूर, विज्ञान ओर मौषधि का संग्रहुकरने वाला 
दूसरों का सरवेत्र अपवाद (निन्दा) करनेवाला व्यक्ति कोष नामक संवत्सर मं उत्पन्न 
होता है ४६॥ 
विश्व- 
छत्रदण्डपताका दिचामरादिविभूषितः । 
प्रधानपुरुषो जातो विश्वसंवत्सरे फलम्‌ ॥ ५० ॥ 
छत्र, दण्ड, पताका ( क्षष्डा ), चेवर आदि राजचिह्ोंसे युक्त तथा प्रधान 
( भेह ) पुरुष विश्व संवस्सर मे जन्म लेने बाला होता ह ॥ ५० ॥ 
पराभव- 
भयार्तः शीतभीतश्च कातरो जायते नरः । 
अधमंपरधाती च पराभवभवो मतः १५१॥ 
पराभव नामक संवत्वर मे उस्पन्न हुमा व्यक्ति मयसे प्व, शीतसे डरने 
बाला, कातर ( कायर), घमंसे रहित तथा दूसरोंका भत (प्रहार, ोखा) 
करने बाला होताहै॥ ५२॥ 
२ मावे० 


१द मनोरमा हिन्दीग्याश्योपेता 


व्लवङ्ग-- 
रौद्रस्तस्करकर्मा च क्षितिपालो नरेश्वरः । 
योगाभ्यासरतो नित्यं प्लवडगे जायते नरः ॥। ५२ ॥ 


प्लवङ्ग नामक संवत्सर मं उत्पन्न व्यक्ति उप्रस्वमाव वाला, तस्कर कमं (बोरी 
से अवैध व्यापार) करने वाला, मूमि का रक्षक, एवंराजा होताहै, तथा व्रति- 
दिन योगाभ्यास म लीन रहता है। ५२॥ 


कीलक-- | 
चित्रकर्ता समानश्च सुखी स्यादुब्राह्मणप्रियः । 
पितृमातृषु भक्तश्च जायते कीलके फलम्‌ ।। ५३ ॥। 


कीलक संवत्सरम जन्मलेने वाला, चित्र बनाने वाला, समान प्रकृति वाला, 
सुखी, ब्राह्मणों का आदर करने बाला तथा माता-पिता का मक्त होता दहै ॥ ५२३॥ 


सौभ्य-~ 
शुचिः शीलः समो दक्षः सप्रतापो जितेन्द्रियः । 
अतिन्याकूलभक्तश्च सौम्ये सौम्यफल भवेत्‌ ॥ ५४ ॥ 
सौम्य संवत्सरमं जन्म लेने वाले पवित्र, कीलवान्‌ ( चरित्रवान्‌ ), सम 
( तटस्थ ), सूखी, निपुण, प्रतापी, इन्द्रियों को जीतने वाले, तथा रोगियों की सेदा 
करने वाले होते है ।। ५४॥। 


साघारण-- 
व्यवसायी चाल्पतुष्टो धममंकमंरतः सदा । 
शीघ्रागमोऽपि तत्रव कलं साधारणे मतम्‌ ॥ ५५॥ 
साधारण संवत्सर में उत्पन्न व्यक्ति व्यापारी, थोडेमे सन्तु रहने वाला, धर्मं 
कायं मे सर्दव रत तथा धाभमिक कार्योमें शीघ्रभाने वाला (मगनलेने वाला) 
होता है ॥ ५५॥ 


विरोषकृत्‌-- 


विरोधकृति सञ्जातो विरोधी बान्धवः सह्‌ । 
क्षणं सौम्यः क्षणं हीनो दुर्वारो जायते नरः ॥ ५६॥\. 


विरोधकङृत संवत्सर में उत्पन्न व्यक्ति अपने वन्धुभों ते विरोध करने वाला, क्षण 
भँ सौम्य (सुशील ) क्षणम हीन (दुष्ट), किसीमी प्रकारन रोकाजने बाला 


शौता है ॥ ५६॥ 


मानभागरी १९ 





परिधावि- 


स्वत्पबुद्धिः क्रियास्वल्पो देशं श्राम्यति मानवः । 
देवतीर्थप्रियो नित्यं परिधाविनि जायते ॥ ५७ ॥ 


पारिधावि नामक संवत्सर मं जन्म लेनं वाला व्यक्ति अल्प बुदि वाला, 


अल्प कायं करने वाला, देक मं ध्रमण करने वाला, देवता एवं ती्थौम निरन्तर 
श्रीति रखने वाला होता है । ५७ ॥ 


प्रमादी-~ 


शवं भक्तिप्रियो नित्यं गन्धमात्यानुलेपनैः । 
शौचङ्रियानुरक्तश्च प्रमादिप्रभवो नरः ॥ ५८॥ 


प्रमादी म उत्पन्न ष्यक्तिकशशिवम मक्तिरखरन वाला तथा गन्ध (सुगन्धित द्रव्य) 
भाला चन्दन मे नित्थ उनकी पूजा करन वाला, तथा पवित्र कार्यों में लीन रहने 
वाला होता है।। ५८॥ 
अानन्द- 
सवंदानन्दसंयुक्तः सववंदातिधिप्‌जकः । 
स्वजनार्थागमो नित्यमानन्दे जायते नरः ॥ ५६ ॥ 
अनन्द नामक संवत्सर म उत्पन्न व्यक्ति सदव आनन्दसे युक्त, निरन्तर 
अतिचिणों का सत्कार करने वाला, अपने बन्धुवगं से नित्य धन प्राप्त करनेवाला 
होता है। ५६॥ 
राक्षस- 


मत्स्यमांसप्रियो नित्यं नित्यं लुन्धकवृत्तिमान्‌ । 
सुराहारी वृथापापी जायते राक्षसे नरः ॥ ६० ॥ 
राक्षस नामक सवत्सरम उट्गन्ल हुआ मनुष्य नित्य मछली मासिका प्रेमी 
€ भक्षक ), प्र~दिन शिकार श्चेलन वाला, सुराऽान करने वाला, व्यथं पापकरने 
वाला होता है।। ६० ॥ 
नल- 
बहुपुत्रोऽनन्तमित्रो द्रव्यलोभी कलिप्रियः । 
हान: शोकस्तथा दुःखं नले जातो भवेन्नरः ॥ ६१ ॥ 
नल संवत्सर म उत्पन्न पुरुष बहुत पृत्रों तथा असख्य मित्रोत युक्त, धनका 


सोभ करने वाला, . क्षगश्ालू, हानि, दुःख तथा शोक प्राप्त करने बाला 
डोता है ।॥ ६१॥ 


२० "मनोरम ` हिन्दीम्याख्योपेता 





पिङ्गल-- 
पिचप्रकोपसर्वात्मा नानाग्याभिरनेकधा । 
वाहश्च समायुक्तः पिङ्गले जायते नरः ।॥ ६२ ॥ 
पिङ्गल संवत्सर मे जन्महोने से पित्तके प्रकोपते भनृष्यके शरीरम अनेक 
प्रकार की व्याधिर्यां होती । तथा वहक्र प्रकारके बाहनों से युक्त होता है।।६२।॥ 


कालयुक्त-- 
कृषिकाणिज्यकर्ता च तेलभाण्डादिसंग्रही । 
क्रयविक्रयकर्ता च कालयुक्ते भवेन्नरः ॥ ६३ ॥ 
कृषि कमं एवं व्यापार करने वाला, तेल, वतंन आदिका संग्रह करने वाला, 
क्रय एवं विक्रय करने वाला पुङ्ष कालयुक्त संवत्सर मे उत्पन्न होता है॥ ६३॥ 


सिदढार्थी- 
वेदशास्त्रप्रभावज्ञः सिद्धचित्तश्च कोमलः । . 
सुकुमारो नृपः पूज्यः कविः सिद्धाथिजो नरः ॥ ६४ ॥ 
सिद्धार्थी संवत्सर मं उत्पन्न पुरुष वेद शास्त्रके प्रमाव को जानने वाला, 
शान्तचित्त, एवं कोमल प्रकृति वाला सुकुमार, राजा से सम्मानित तथा ककि 
होता है ॥ ६४॥ 
दद्र 
तस्करश्चपलो धृष्टः परद्रव्यरतः सदा । 
निन््यानि स्वंकर्माणि कुर्ते रद्रसम्भवंः ।। ६५॥ 
सद्र संवत्सर में उत्पन्न व्यक्ति चोर, च्ल, धृष, सद॑व दूसरों के धन मं भासक्त, 
तथा समी निन्दित कमो को करने वाला होता दहै । ६५॥ 
दुर्मति-- 
पापबुद्धिरतो नित्यं पापात्मा पापसंन्नितः । 
वं्कममंसमायोगो दुमंतौ जायते नरः ॥ ६६ ॥ 
दुर्मति नामक संवत्सर में उत्पन्न पुरुष सदैव पापबुद्धि मे रत ( पापाचरण 
करनेवाला १), पापी एवं पापियों के आधित रहने वाला तथा हत्या ( बधकम ) मे 
संलग्न रहता है ॥ ६६ ॥ 
दुनदुमि-- 
मीतवाद्यानि . लिल्पानि भन्श्रमौषधिमेवं च । 


सर्वाङ्गगुणसम्पन्नो नरो दुन्दुभिसम्भवः ! ६७ ॥ 


मानतामरी २१ 





ुन्दुभि संवत्सर मे उत्पन्न व्यक्ति गीत-वाद्य-मूतिकला, मन्त्र, मौषधि को जानने 
वाला समी प्रकारके गुणों से सम्पन्न होता है ॥ ६७॥ 


दधि रोद्गारि- 

वातशोणितसंयुक्तः कफमास्तमेव च । 

कौटसाक्ष्यरतश्वेव रुधिरोदगारिसम्भवः ॥ ६८ ॥ | 
हधिरोद्गारि संवस्धर में जन्म लेने वाना व्यक्ति वायु-रक्त एवं क्फ-वायु विकारो 

से भुक्त, छलप्रपश्च ( मिथ्ययवाद ) में लीन रहने वाला होता है॥ ६८ ॥ 

रक्ताक्षी- 

देशत्यागो धनन्न शो हानिः सर्वत्र जायते । 

धृता-विवाहिता भार्या रक्ताक्षेयो नरो भवेत्‌ ॥ ६६ ॥ 


रक्ताक्षी संवत्सर मे उत्पन्न पुरुष अपनेदे्का त्याग एवं धन का नाश करने 
याला सरवेत्रहानि प्राप्त करने वाला, स्वेच्छासे ( बिना विधि के) पत्नी रखने 
वाला होता है ॥ ६६ ॥ 


करोधन-- 


क्रोधी क्रोधसमुत्पादी सिहतुल्यपराक्रमः । 
ब्ाह्यणः परजीवी च क्रोधसंवत्सरे नरः ॥ ७० ॥ 


कोष नामक संवत्सरमें उत्पन्न व्यक्तिस्वयं क्रोधो है तथा दूसरोंको मी क्रोधित 
करता है। सिह के समान पराक्रमी ब्रह्मण (वेद अथवा दर्शन का ज्ञाता), दूसरों 
के सहारे जीविका प्राप्त करने वालाहोता है । ७०॥ 


क्षय-~ 


कुटुम्बकलहो नित्यं मदवेश्यारतो नरः । 
धर्माधर्मविचारो नो जायते क्षयवत्सरे ॥ ७१॥ 


क्षय नामक संवत्सर में उल्पन्न हुआ व्यक्ति प्रतिदिन पारिवारिक कलह, मदिरा 
एवं वेश्या मे अनुरक्त रहता है तथा उसे धम अधमं का विचार नहीं होता । ७१॥ 


पश्च सवस्सरात्मक युगानयन- 


"युगं भवेद्र त्सरपग्चकेन युगानि च दादश व्षषषपाम्‌ । 





१. पश्संवत्सरास्मक युग की कल्पना वेदाङ्गं जोतिषमे मिलती है। परन्तु 
वहा साठ संवत्सरो के साथ उनके सम्बन्ध का कोई उल्लेख नहीं ह । वेदिक 
साहिस्य मे पाज संवत्सरो के नाम हस प्रकार है--१. संवत्सर, २. परिवत्सर, 
३. इदावस्सर, ४. गनुबस्सर, ५. इटत्सर । ( द्र ° भारतीय ज्योतिष प° ३७ ) 


२२ "मनोरमाः हिन्दीष्यास्योपेता 


पाजि संवत्सरो का एक युग होता है। ६० संवत्सरो में बारह युग होते दैः। 
प्रथम युग का फल- 


मद्यमांस्प्रियो नित्यं परदाररतः सदा । 
कविः शित्परतः प्राजो जायते प्रथमे युगे ॥ ७२ ॥ 


प्रथम युग ( प्रमवसे प्रजापतिपर्न्त पाच संवत्सरो) मे उत्पन्न व्यक्ति नित्य 
मदिरा-मांस का सेवन करने वाला, सर्दव पन्ख्लीमे आसक्त, कविता करने वाला, 
मूतिकला मे लीन एवं बुद्धिमान्‌ होता हैँ । ७२॥ 
द्वितीय युगकाफल- 
वाणिज्ये व्यवहारी च धमिष्ठः सत्यसज्गुतः । 
द्रव्यं लुम्यत्यपापात्मा युगे जातो द्वितीयके ॥ ७२ ॥ 
द्वितीय युग (अङ्गिरा से धाता पयंन्त पाच संवत्सं) में समुत्पन्न पुरुष व्यापार 
मे व्यवहारी, धार्मिक, सत्य का अनुसरण करने वाला, धन का लोभी तथा पापक 
रहित अन्तःकरण वाला होता है । ७३॥ 


तृतीय युग का फल-- 
भोक्ता दाता कृतप्रजो देवनब्राह्याणपु जकः । 
तेजस्वी धनयुक्तश्च तृतीये फलमश्नुते ॥ ७४ ॥। 


तृतीय युग (ईश्वरसे षतक पाच वर्षो) म उत्पन्न व्यक्ति सुखमोग करने 
वाला, दानी, बुद्धिमान्‌, देवता ओर ब्रह्मणो कीपूजा करने वाला, तेजस्वी तथा 
घन से युक्त ठोता है ॥ ७४॥ 
चतुथं युग का फल-- 
वाटिकाक्षेत्रलोभी स्यादोषधीप्रियमानवः । 
घातुवादे स्वार्थनाशी जायते च चतुर्थके ॥ ७५ ॥ 


चतुथं युग ( चित्रमानु से व्यय तक ५ वर्षों) मे जन्म लेने वाला मनुष्य बाग 
तथात का लोमी, गौषधि काप्रेमी तथा धातुवाद (धतुगोंके ब्यापार या 
आदान-प्रदान ) मे अपना धन नष्ट करने वाला होत्ता है ॥ ५५॥ 
पखमयुग का फल-- 
पुत्रोत्पत्तिः सदा प्रोक्तो धनववांश्च जितेन्द्रियः । 
पित्॒मातुप्रियश्च॑व जायते पन्चमे युगे ॥ ५७६॥ 
पाचर्वे युग ( सर्वजित से खर पर्यन्त ५ वषो) मे जन्म लेने वलि को सदैव 
पत्र उत्पन्न करने वाला, धनवान्‌, जितेन्धिय तथा माता-पिता का प्रियक्हा 
गया है ।। ७६ ॥ | 


मानसागरी २8 





षष्ठ युग का फल- 
सव॑दा नीचशत्रुश्च स्वंदा महिषीप्रियः। 
पटघातो भयात्तश्च युगे षष्ठे च जायते ॥ ७७ ॥ 
छठे युग (नन्दन से दुर्मुख तक ५ वषो) मे जन्मलेने वाला सदैव नीच व्यक्तियों 
का शत्रु सदा मैस पालने वाला, पत्यरसे घायल तथा मयसे पीडित होता ह ॥७७॥ 
सप्तम युगकाफ्ल- | 
अहुमित्रप्रियश्चंव व्यापारे कुटिला गतिः! 
शीघ्रगामी तथा कामी जायते सप्तमे युगे ॥ ७८ ॥ 


सातवे युग ( हेमलम्ब मे प्नव पर्यन्त ५ वर्षों) मं उत्पन्न होने बाला बहूत 
मित्रोंका प्रिय, ब्यापारमेंकुटिन (धोखाका ) ब्यवहार करने वाला, हीघ्रमामी 
तथा कामी होता है।। ७८ ॥ 


नषम बुगकाफल-- 
पापकर्ता च संतुष्टो व्याधिदुःखान्वितस्तथा । 
कर्ता च परहिसाया जायते त्वष्टमे युगे ॥ ७६ ॥ 


माव्वेयुग¶ (शुभकृत्‌ से परामवत्तक ५ वषो ) मे उत्पन्न पुरुष पापी, सन्तोषी, 
व्याधि एव दुर्ध मे युक्त तथादूमयपेकोकष्रदेने वाला होतः है ॥ ७६॥ 
नवम युण का फल-- 
वापीकूपतडागादिदेवदीक्षातिधिप्रियः , । 
भूपतिव्‌ त्रहातुल्यो जायते नवमे युगे ॥ ८० ॥ 


जिसका जन्म नवम युग ( प्नवङ्कुमे विगोधड्कत्‌ तक ५ वर्षों) में होता है 
बह बावली, कृप, तालाब आदि देवता, मन्त्र एवं अतिथयो का प्रेमी तथा इन्द्रके 
समान राजा होता दै ।। 5० ॥ 

दशमयुगकाषट्- 


राजाधिराजमन्त्री च स्थानप्राप्िमहासुखः । 
सुवेषरूपो दाता च जायते दशमे युगे ॥ ८१॥ 


दसवें युग ( परिधाविसे नल तक ५ वषो) मे जिसका जन्म होहा है वह 
राजाभिराज का मन्त्री, स्थान मिल्नेसे सुखी, सुन्दर वेष एव स्वरूप बाला तथा 
दानी होतादहै। ८१॥ 
एकादक्ञ युग फल- 
बुद्धिमांश्च सुशीलश्च स्थापकश्चासुरद्िषाम्‌ । 
संग्रामे च भवेच्छुरो जात एकादशे युगे ॥ ८२॥) 


२४ "मनोरमा" हिष्दीभ्यास्योपेः 


ग्यारहर्वे युग ( पिङ्गल से दुमंति तकर्पाच वर्षो) में जन्मलेने बाला बुद्धिमान्‌, 
 सुक्षील, देवताओं की ( भूति ) स्थापना करने बाला तथा संत्राममें पराक्रमी 
होता है ॥ ८२॥ 
हाद युग का फल- 
तेजस्वी च लसन्नात्मा नरमध्ये महाजनः । . 
कृषिवाणिज्यकर्ता च जायते हादशे युगे ॥ ८३ ॥ 
जो व्यक्ति नार्वे युम ( दुन्दरभिसे क्षय तक पाच वर्षो) में जन्मलेता है वह्‌ 
तेजस्वी, प्रसन्न हृदय, मानवं मे श्रे, कृषितथाव्यापार करने वाला होता है ।८३॥ 
अयन- 
 भकरादिगते षट्के सुर्यस्येवोत्तरायणम्‌ । 
कर्कादिषट्‌कगे सूये दक्षिणायनमुच्यते ।॥ ८४ ॥। 
मकर आदि छः राशियों ( मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष, मिथुन ) मे सूयं हो 
तो उत्तरायण, ककं आदि छः राशियों ( कर्क, सिह, कन्या, तुला, बृश्चिक, धनु ) में 
सूयं हो तो दक्षिणायन कहा जाता है ॥ ८४॥ 
उत्तरायन का फल-- 
उत्तरायणे नरो जातः सवंशास्त्रविशारदः । 
घ्मथंकामशीलश्च गुणवांश्च सुरूपवानु ॥ ८५ ॥ 
उत्तरायण में उत्पन्न हुआ व्यक्ति समी शाखो का ममं, षम-अर्थं ओर काम 
से युक्त गुणवान तथा स्वहूपवनै होता है ॥ ८५॥ 
दक्षिणायन का फल-- 
याम्यायने नरो जातः कृटसाक्षी सदानृतः 
अधर्मी चाथ रोगी च बहुव्याधिः सदा भवेत्‌ ।। ८६ ॥ 
दक्षिणायन में जन्म लेने वाला मनुष्य छल-प्रपश्छ एवं मिथ्या भाषण करने 
बाला, अधर्मी, रोगी तथा बहुत तरह की व्याधियों से सर्दव युक्त रहता है ॥८६॥ 
भोल- 
मेषादिषट्कगे सुयं उत्तरो गोल उच्यते । 
तुलादिषट्‌कगे सूयं याम्यगोलः स उच्यते ।। ५७ ॥ 
मेष से कन्या पर्यन्त छः राशियों मेसूयं हो तो उत्तर मोल, तुला ते मीन 
षरयन्त छः राक्षियो मे सूर्यं हो तो दक्षिण गोल कहा जाता है ॥ ८७ ॥ 
उत्तर गोल का फल- 
यो जात उत्तरे गोले धनवान्‌ विद्ययान्वितः । 
पुत्रपौत्रादिगुक्तश्च राजमान्यो नरो भवेतु ॥ ८ ॥ 


मानसानरी २५ 





जो ष्यक्ति उल्लर गोल मे उत्पन्न होता है वह धनवान्‌, विद्या से युक्त, पुत्रपौत्र 
आदि से सम्पन्न तथा राजा हारा सम्मानित होता है । ८८ ॥ 


दक्जिण गोल का फल-- 
याम्यगोले छु यो जातः सदा स॒ सुखर्वाजितः। 
कूटसष्ी दुराचारो हीनाङ्गश्चापि निर्धनः । ८६ ॥ 
दक्षिण गोल में जो उत्पन्न होता है वह सदव सुख से रहित, जालसाजी करने 
वाला, बुराथारी, हीनाङ्गं ( विकलाङ्गु ) तथा निधन होता दै ॥ ८६९ ॥ 
ऋतुज्ञान-- 
मृगादिराशिद्रयभानुभोगातु षट्‌ कं ऋतूनां शिशिरो वसन्तः । 
ग्ीष्मश्च वर्षा शरदश्च तद्वद्ध मन्तनामा कथितोऽत्र षष्ठः ।। ९० ॥ 
मकर आदि दौ-दो राशियों मंसू्यंकेरहनेते छःऋतुये होतीदहै। जोक्रम 
से शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्‌ तथा छठी हेमन्त नामसे कही गई है ।\६०॥ 
[ अर्थात्‌ मकर कृम्ममें सूयं हो तो शिशिर, मीन, मेष मे वसन्त, वृष मिथुन 
मे ग्रीष्म, ककं सिहमे वर्षा, कन्या तुनामे शरद्‌ वृश्चिक-धनु मे हेमन्त ऋतुरये 
होती है । | 
दिशिर का फल- 
रूपयौवनसम्पन्नो दीर्घसूत्री मदोत्कटः । 
साधुयुक्तः कामुकश्च शिशिरे जायते नरः ॥ ६१॥ 


शिशिर ऋतु मे जन्मलेने वाला प्राणी शूप यौवन से सम्पन्न, आलसी, मत- 
वाला, सभ्जन पुरुषो के साथ रहने वाला तथा कामीटोतादै।। ९१॥ 
वसन्त का फल- 


महोद्यमी मनस्वी च तेजस्वी वहुकायंङत्‌ । 
नानादेशरसाभिज्ञो वसन्ते जायते नरः ॥ ६२ ॥ 


वसन्त श्रतु मे उत्पन्न होने वाला व्यक्ति महान्‌ उद्योगी स्वाभिमानी, तेजस्वी, 
-बहूत कायं करने काला, भनेक देशों तथा रसो को जानने वाला होता है ।॥ २॥ 


ग्रीष्म का फल- 
बह्वारम्भो जितक्रोधः क्षुधालुः कामुको नरः! 
दीर्घः शठो बुदिमांश्च ग्रीष्मे जातः सदाऽशुचिः ॥ ६३॥ 
प्रीष्म ऋलु मे जन्भ लेने बाला व्यक्ति बहूतसे कायोंको आरम्म करने बाला, 
कोष को जीतने वाला, बुभूक्षित, कामी, लम्बो शरीर बाला, दुष, बुडि- 
भाष्‌ तथा तदा अप्ित्र रहने बाला होता है ।। ६३॥ 


२६ मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेता 


अर्वा कल~ | 
गुणवानु भोगयुक्तश्च राजपुज्यो जितेन्द्रियः । 
कुशलोऽर्थानुवादी च वर्षाकाले भवेश्नरः ॥ ६४॥ 
जिसका जन्म वर्षा ऋतुमे होता है वह्‌ गुणवान्‌, भोगसाधन युक्त, राजा 
दवारा सम्मानित, जितेन्द्रिय, चतुर तथा उपयुक्तं वचन बोलने वाला होता है ।।६४॥ 
शरद्‌ का फल-- 
वाणिज्यकृषिवृत्तिश्च धनधान्यसमृद्धिमान्‌ । 
तेजस्वी बहुमान्यश्च शरज्जातो भवेन्नरः ॥ ६५॥ 
शरद्‌ ऋतु मे उत्पन्न व्यक्ति व्यापार तथा कृषिकमं करने वाला, धन-घान्य 
आदि समृद्धियों से युक्त, तेजस्वी तथा सम्मानित होता है \ ६५॥ 
हेमन्त का फल-- 
बहुव्याधिर्हीनतेजास्त्रासयुक्तः प्रणिष्टुरः । 
हृस्वपीनगलो भीरुहमन्ते जायते नरः ।। ६६ ॥ 
हेमन्त ऋतु म जो जन्मलेताहै वह्‌ नाना प्रकार की व्याधियों से युक्त, कान्ति- 
हीनः भय से युक्त, निष्टुर, छाटा एवं स्थून गदेन वाना तथा कायर हौताहै ।॥९६। 
चैत्र मास फल- 
चतरे च दुष्टिभाग्यजातः साहद्धारः शुभाकरः। 
रक्त क्षणः सरोषश्च स्त्रीलोलः स भवेत्‌ सदा ॥ ६७ ॥ 
जिसका जन्म चत्र मासम होता है वह स्वरूपवान्‌, अहंकारी, मङ्गल काये 
युक्त, लाल आंखों वाला, क्रोधी तथा सदेव लियो म लुब्ध रद्रता है ।। ९७ ॥ 
वंशाख भास फल- 
मोगी धनी मुचित्तञ्च पक्रोधश्च सुलोचनः । 
सुरूपो वल्लभः स्त्रीणां माधवे जायते नरः ।। ६८ ॥ 
वशाल में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति मोगी, धनी, अच्छ विचारों वाला, क्रोष- 
युक्त, सुन्दर नेत्र एवं सुन्दर स्वषूप वाला तथा ज्यों का प्रियहोतादहै।॥ ९८ ॥। 
ज्येष्ठ मास फल-- 


परदेशरतष्वव  शुभचित्तो धनान्वितः । 
दीर्घायुश्च सुबुद्धिश्च ज्येष्ठे सुष्टु धनी भवेत्‌ ॥ ९६ ॥ 


ज्येष्ठ मासमे जन्म होने से परदेश मे रहने वाला, सद्विवारी, षनयुक्त, दीषु 
वथा अश्छी बुदि वाला व्यक्ति होता है।। ६९॥ 


मानसागरी २७ 





भाषाढ्‌ माशन का फल-- 
पुत्रपौत्रान्वितो धर्मी वित्तनाशेन पीडितः। 
सुव्णश्चात्पसुखितो ह्याषाढे च भवेन्नरः ॥ १०० ॥ 
आषाढ़ मास मे उत्पन्न होने से पृत्र-पौत्र से युक्त, घामिक, घन नासे दुःली, 
सुन्दर वर्ण ( गौर ) वाना तया अल्प सुश्री होता है।। १००॥ 
भावण मास फन- 


सुखे दुःखे तथा हानौ लाभे च सषमचित्तकः । 
स्थूलदेहः सुरूपश्च श्रावणे जायते नरः ॥ १०१॥ 
जिसका जन्मश्रावण मासमहोना दहै वह सुख, दुःख, हानि तथा लाममें-सम- 
बुदि रखने वाला, स्थन शरीर तथा सुन्दर स्वरूप वाला होता है॥ १०१॥ 
भाद्रपद मास फल- 
नित्यप्रमोदी जल्पाकः पृत्रयुक्तः सुखी मवेत्‌ । 
मृदुमाषी सुशीलश्च भाद्रजातो भवेन्नरः ॥ १०२॥। 
भाद्रपद मासमे जो जन्मलेतादटै वह निरन्नर हास्-परिहास करने वाला, 
श्यथं बोलने वाला, पत्र मे युक्त, सुखी, मधुर वचन बोलने वाला तथा सुशील 
होता है । १०२॥ 
माश्िन मास का फन-- 
सुरूपश्च सुखयुक्तः काव्यकर्ता परः शुचिः। 
गुणवान्‌ धनवान्‌ कामी ह्याश्विने जायते नरः ॥ १०३ ॥ 
माश्िन मासमे उत्पन्न व्यक्ति सुन्दररूप एवं सुख से युक्त, काव्य रचना करने 
बाला, श्रेष्ठ, पवित्र, गुणवान्‌, धनवान्‌ तथा कामीटोतादहै। १०३॥ 
काततिक मास फल-- 


सुघनी कामबुद्धिश्च दुरात्मा क्रयविक्रयी, 
पापीयान्‌ दुष्टचित्तश्च कातिके जायते नरः ॥ १०४॥। 
जिसका जन्म कातिक मासमहोताहै वह अधिक धनी, कामुक, दुरात्मा 
क्रय-विक्रय करने वाला, पापी तथादु. बुद्धि वाला होताहै।॥ १०४॥ 
मार्ग हीषं मास फल-- 
मृदुभाषी धनी धर्मो बहुमित्रः पराक्रमी । 
परोपकारी जातश्च मागंशीषं भवेन्नरः ।॥ १०५ \। 
जो भ्यक्ति माश शीषं गे उत्पन्न होताह। वह मधुर बोलने वाला, धनवान्‌, 
धामिक, बहुत मित्रों वाला, पराक्रमी, दूसरों का हित करनेवाला होता है ॥१०५॥ 


२८ “मनोरमाः हिन्दीष्याख्योपेता 


पौष मासं कल-- 
श्र उग्रप्रतापी च॒ पिसुदेवविर्वजितः। 
पेश्वयंजन्मकारी च पौषे मासे नरो भवेत्‌ ।। १०६ ॥ 
पौव मास मे उत्पन्न होने वाला व्यक्ति श्रुर, उग्र ( क्रोधी ), पराक्रमी, पितर 
-तथा देवतां की मक्ति से रहित, धन सम्पत्ति पदा करने वाला होता है ।१०६॥ 
माध मास फल-- 


मतिमान्‌ धन्वांश्च॑व शरो निष्टुरमाषकः । 
कामुकञ्च रणे धीरो माधजातो भवेन्नरः ॥ १०७ ॥ 
माष मासमे जन्म तेने से बुद्धिमान्‌, धनवान्‌, शूर, कटु वचन बोलने वाला, 
-कामौ तथा संग्राम मे धयं रखने वाला व्यक्ति होता है ।॥ १०७ ॥ 
फाल्गुन मास फल 
शुक्तः परोपकारी च धनविद्यासुखान्वितः । 
विदेशे भ्रमते नित्यं फाल्गुने जायते नरः । १०८ ॥ 
फाल्गुन मासमे जन्मलेने वाला व्यक्ति स्वच्छ ( गौर) वणं वाला, परोपकारी, 
-छनं, विद्या ओर सुख से युक्त, तथा विदेशमें भ्रमण करने वाला होता है ।॥१०८॥ 


अधिमास का कफल- 


विषयहीनमतिः सुचरिव्रदुगविविधर्तीथंकरश्च निरामयः । 
सकलवल्लम आत्महितद्भुरः खलु मलिम्लुचमासभवो नरः ॥१०६॥ 
मलिम्लुच ( अधिकमास ) में उत्पन्न व्यक्ति विषय-वासनाओंसे रहित बुडधि- 
. वाला, सश्वरित्र एवं सुन्दरनेत्रों वाला, विभिन्नतीर्थोकी यात्रा करने वाला, रोग- 
रहित, समी लोगो का त्रिय तथा अपना हत करने वाला होता है ।। १०६ ॥ 
कृष्ण पक का फल-- | 
निष्ठुरो दुर्मखश्चंव स्त्रीदर षो मतिहीनकः । 
परग्रेक्षो जनंर्युंक्तः कृष्णपक्षे प्रजायते । ११० ॥ 
जिसका जन्म कृष्ट पक्षम होता है वह निष्ठुर, ` विमत्समुलखवाला,ल्लीका 
षी, ब्द्धिहीन, परान्रित, तथा लोर्मो से युक्त ( सामाजिक ) होता है। ११०॥ 
शुक्स पक्ष का फल-- 
पूर्णचन्द्रनिभः श्रीमान्‌ सोद्यमो बहुशास्त्रवित्‌ । 
कुशलो जआनर्संपलः शुक्लपलो भवेन्नरः । १११ ॥ 
जिसका अस्म शुक्ल पक्लमे होता है वह पूर्णं चमा की तरह कान्ति वाला, 
-उन्ोगी, बहुत काश्यो को जानने वाला, निपुण, तथा ज्ञान सम्पन्न होता है ।। १११॥ 


मानसागरी रष 


प्रतिपदा-~ । 
कूरसङ्गो धर्नर्हीनिः कुलसंतापकारकः । . 
व्यसनासक्तचिततश्च प्रतिपत्तिधिजो नरः ॥ ११२ ॥ 


प्रतिपदा मे उत्पन्न व्यक्ति करूर ( हिसक ) लोगो का साथी, धन से हीन, कुल 
( परिवार) को सन्तप्त करने बाला तथा बुदिको भ्यसन मे लीन रखने वाला. 
होता है ।॥ ११२॥ 
दितीया- 
परदाररतो नित्यं सत्यशौचविवजितः । 
तस्करः स्नेहहीनश्च द्वितीयासम्भवो नरः ॥ ११३ ॥ 
जो द्वितीया मं जन्मलेतार्ह वह सदा दूसरों की जियो मे आसक्त, सत्य बौर 
पवित्रता से रहित, चोर, तथा स्नेह से रहित होता है ।॥ ११३॥ 
तृतीया- 


मचेतनोऽतिविकलो निद्रव्यः पुरुषः सदा । 
परद्र षरतो नित्यं तृतीयायां भवेन्नरः ॥ ११४॥ 
तृतीया मं जिसका जन्म होता है वह चेतना हीन ( ज्ञान शून्य ), अत्यन्त ब्ध, 
निषंन, तथा सदेव दूसरोंसेद्ेष करने वाला होता है ।॥ ११४॥ 
चतुर्था- 
महाभोगी च दाता च मित्रस्नेहो विचक्षणः । 
धनसंतानयुक्तश्च चतुर्थ्या यदि जायते ॥ ११५॥ 


जिसका जन्म चदुर्घी तिथिमे होतादहै वह अधिकं सुख भोग करने वावा,. 
दानी, भित्र से स्नेह करने वाला, विद्धान्‌, षन तथा पत्र से युक्त होता है ॥ ११५॥ 


प्मी- 

व्यवहारी गुणग्राही पितुमात्रोश्च रक्षकः । 

दाता भोक्ता तनुप्रीतः पञ्चमीसम्भवो नरः ॥ ११६ ॥ 
प्मी तिचिमे जो उत्पन्न होताहि बह व्यावहारिक, गुण को ग्रहण करने. 


वाला, मातानपिताकी रक्षाकरने वाला, दानी, भोगी, तथो प्रफुल्लित क्षरीर. 
वाला होता है ।। ११६ ॥ 


वष्टी--- 
नानददेशाभिगामी च सदा कलहेकारकः। 
निर्यं जलठरपोषी ब षष्ठां जातौ भवेन्नरः । ११७ ॥ 


३० "मनोरमा" हिन्दीष्या स्योपेता 





बष्ठी तिथि में उत्पन्न ष्यक्तिबहूतसे देशोंमे भ्रमण करने वाला, सदा कलह 
करने बाला, तथा निरन्तर अपना उदरपोषण करने वाला होता है ॥ ११७ ॥ 
सप्तमी-- 
अल्पतोषी च . तेजस्वी सौमाग्यगुणसंयुक्तः । 
पुत्रवान्‌ धनसम्पन्नः सप्तम्यां जायते नरः ॥ ११८ ॥ 


जो सप्तमी में जन्मलेता है वह थोडे में सन्तु होने वाला, तेजस्वी, सौभाग्य 
ष्एवं गुणो से युक्त, पुत्रवान्‌ तथा घन से सम्पन्नहोतादहै। ११८॥ 
बषटमी- 
घमिष्ठः सत्यवादी च दाता भोक्ता च वत्सलः । 
गुणज्ञः सवंकायज्ञो हयष्टमीसम्भवो नरः ॥ ११६ ॥ 
अष्टमी मे उत्पन्न व्यक्ति घापमिक, सरः बोलने वाला, दानी, मोगी, दयाभाव 
-रखने वाला, गुणी, तथा सभी प्रकारके कार्यां को जानने वाला होता है।। ११६॥ 
नवमी-- 
देवताराधकः पुत्री धघनस्त्रीसक्तमानसः । 
शास्त्राभ्यासरतो निरयं नवम्यां जायते यदि ॥ १२०॥ 


नवमी निथिमं जन्मतेने वाला व्पक्तिदेतता को आराधना करने वाला, 
पुत्रवान्‌, धन ओर स्त्री में आसक्त चित्त वाना, नथा निरन्तर शाखं का अभ्यास 
करने वाला होतादटै।। १२०॥ 
दश्चमी-- 
दशम्यां धर्म॑शास्त्रज्ञो देवमेवी च याजकः । 
तेजस्वी सौख्यसंयुक्तो जायते मानवः सदा ॥ १२१ ॥ 


जिसका जन्म दशमी तिथिमेंहोनादै वह्‌ धममशाख्का ममज्ज, देवताओोंका 
सेवक, यज्ञ करने वाला, तेजस्वी, तथा सदव सुख स युक्त हाता है।॥ १२१॥ 


एकादशी-- 
मत्पतोषी नरेन्द्रस्य गेहगामी शुचिभ॑वेत्‌ । 
घनी पृत्री भवेद्धीमानेकादश्यां भवेन्नरः । १२२॥ 
भो एकादशी मे जन्म लेता है वह थोडे म सन्तु, राजा कं घरमे जानेवाला, 
न्ववित्रात्मा, धनवान्‌, पुत्रवान्‌ तथा बुद्धिमान्‌ होता है ।। १२२॥ 
दादली-- 
चपल्रपलजानी सदा क्षीणवपुः स्मृतः । 
देशश्रम्रणशीलश्च दादशीजातको मवेत्‌ ।॥। १२३ ॥ 


मानसागरी ३१ 





ाििियोयययेदेोमनिियोिितयिेििमिियििियभिािनराययायनिकनणि 


दशी मे अन्भलेने वालि व्यक्ति को चन्न वुद्धि, सर्दव ङश शरीर तथा 
देदाटन में सुचि रखने वाला समन्ें। १२३॥ 


त्रयोदनी- -- 
महासिद्धो महाप्राज्ञः शास्त्राभ्यासी जितेन्द्रियः । 
परकार्यरतो नित्यं त्रयोदश्यां यदा भवेत्‌ ।। १२४॥ 
त्रयादशी तिथि मं उत्पन्न व्यक्ति मदान्‌ साधक, अर्धिक बुद्धिमान्‌, शाल्लों का 


अभ्यास करने व ला( ुनतन्दिय , नित्य दूसगे का कायं करने वाला 
होता है ॥॥१२४॥ । 


चतुदशी ~~ 


घनाढघो धर्मशौलश्च श्रः सद्राक्यपालकः । 
राजमान्यो यशसी, च चतुर्दश्यां यदा भवेत्‌ । १२५ ॥ 
चतुर्दगी म उत्पन्न व्यक्ति धनम युक्त धार्मिक, शुर, अच्छेनोगों के वचनो का 
पालक (अदर्णेवरादी), राजास मम्मानितते तथा यश्षस्वी होता है ।१२५॥ 
पणिमा-- 
श्रीमांश्च मतिमंश्चापि महाभोजनलालसः । 
उद्यतः परदारेषु ह्यासक्तः पूणिमाभवः ॥ १२६ ॥ 


ूणिमा तिथि मे उत्पन्न पुरूष धनवमन्‌, बुद्धिमान्‌, अधिक मोजनकी इच्छा 
रश्ने वाला, उद्यागी तथा परली मे आसक्त होता है ।। १२६॥ 


जमावस्मा- 
स्थिरारम्भपरदरषी ठक्रो मूखंः पराक्रमी । 
मूवमन्त्रौ च॒ सजानोऽप्यमावास्याभवो नरः ॥ १२७ ॥ 


जिसका जन्म अमावस्याम होतादहै वह घीरे-घीरे कायं आरम्भ करने वाला, 
दूसरों से द्वेष करने वाला, कुटिल, मुखं, ५राक्रमी, मूढ व्यक्ति का सलाहकार तथा 
स्वयं ञ्जनी होता है ।॥१२७॥ 


नन्दादि तिधयो को सक्ञा- 
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः क्रमात्‌ । 
वारत्रयं समावल्यं तिथयः प्रतिपन्मुखाः ।॥ १२५ ॥ 


प्रपिदा अदि तिथियों पाँच-पाच तिथियोकी 1 र आगसि करनेचे 
क्रम से नन्दा, मद्वा, जया, रिक्ता तथा पूर्णासिंशषक तियियां ह । यथा- 









र 























॥ मन्दा [0 भा १ शिख | पूर्णा | षंश्ा | 
प ४ | ५ | तिथिय 
£ „७ , 1 ४ १० 
११ |||”; | | १३ | १४ | १४५ | ` 
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| ३ 

















नन्दा तिथि का फल- 
नन्दातिथौ नरो जातो महामानी च कोविदः । 
देवताभक्तिनिष्ठश्च ज्ञानी च प्रियवत्सलः ॥ १२९॥ `. 
नन्दा ( १, ६, ११ ) तिथियों मे उत्पन्न मनुष्य विरिष्ट मादर बाला, विदान" 
देवताओं की भक्ति मे निष्ठावान्‌ ज्ञानी तथा प्रिय लोगे पर अनुग्रह करने वाला 
होता है ॥ १२६॥ 
भद्रा तिथियों का फल- 


मद्रातिथौ बन्धुमान्यो राजसेवी धनान्वितः । 
संसारभयभीतस्व परमार्थमतिर्नरः ॥ १३० ॥ 
भद्रा (२, ७, १२) तिथियों में उत्पन्न ष्यक्ति बन्धुओं द्वारा सम्मानित, राजा 
का सेवक, धन से युक्त, संसार से भयमीत तथा दूसरों के हिति की भावना रखने 


बाला होता है ।। १३० ॥ 
जया तिचि फल-~ 
अजयातिथौ राजपुज्यः पुत्रपौत्रादिसंयुतः । 
शूरः शान्तश्च दीर्धायुर्मनोविज्च् जायते ॥ १३१ ॥ 


जया (३, ८, १३ ) तिथि्योमे जन्म लेने वाला पुर्व राजा द्वारा धूम्य 
(सम्मानित), पुज्र-पौतर से युक्त, धूर, सन्त, दीर्थायु तथा मनोवेक्ञानिक हता है ॥१३१। 
रिक्तातिधिकाफल- 
रिक्तातिथौ वितकंञञः प्रमादी गुर्निन्दकः । 
मदहन्ता च कामुक नैरो भवेत्‌ ॥ १३२॥ 
५ ) तिथियों में अस्म लेते वाला मनुष्य तर्क बितकं ( तकं 










रिचा (४, ९, 
स्व ) को अनते र्‌ 
को जनिते बाला, 


प्रमाद (-अख्ावभथानी ) करे वाला, गुरनिन्दक, शास्र 
शर्गा करमे वाला तमा कामुक होता है ॥ १३२१५ 





मानघागरी ३8 


पूर्णा तिभि फल- 
धर्नः पूर्णो वेदशास्त्रा्थतच्ववित्‌ । 
सत्यवादी शुखचेता विज्ञो भवति मानवः ॥ १३३ ॥ 
पूर्णा ( ५, १०, १५) तिथियों में जो जन्म लेता है वह व्यक्ति घन से पूर्ण, बेद- 
शास्त्र के तस्व को जानने बाला, सत्य बोलने बाला, शुद्ध हदय तथा विद्वान्‌ 
होता है ॥ १३२ ॥ 
रविवार फलम्‌- 
पित्ताधिकोऽतिचतुरस्तेजस्वी समरप्रियः । 
दाता दाने महोत्साही सूर्यवारे भवेन्नरः । १३४ ॥ 
सूये (रवि) वार कौ उत्पन्न हभ व्यक्ति अधिक पित्तवाला, अत्यन्त चतुर, 
तेजस्वी, युद्धश्रिय, दानी तथा दनि में अस्यधिक उत्साही होता है।। १३४॥ 
सोमवार कल- 
मतिमान्‌ प्रियवाक्‌ शान्तो नरेन्दराश्रयजीविकः । 
समदुःखसुखः श्रीमान्‌ सोमवारे भवेत्पुमान्‌ ।। १३५॥ 
सोमवार को जिनका जन्म होताहै वह्‌ बुद्धिनान्‌, प्रिय बोलने वाला, शान्त, 
राजां के अक्ित रहकर जीविका प्राप्त कनने वाला, सुखओौर दुःखम समान 
तथा कान्तियुक्त होता है।। १३५॥ 
भौमवार फल- 
वक्रबुद्धिजंराजीवी रणोत्साही महाबली । 
सेनानीस्तन्त्रपालो वा धरापृत्रदिनोद्धवः ॥ १३६ ॥ 
मङ्गलवार को जन्मलेने वाला व्यक्ति वक्रं बुद्धि वाला ( कृट नीतिज्ञ), 
बुद्धावस्था तक जीवित रहने वाला ( दीर्घायु), संग्राम में उत्साह दिखाने वाला, 
महान बलवान्‌, सेना-नायक, अथवा शासकीय किसी तन्व्र ( संगठन ) का रक्षक 
होता है ।॥ १३६ ॥ 
बुधवार फल-- 
लिपिलेखनजीवी स्यास्परियवाक्यण्डितः सुधीः । 
रूपसंपत्तिसंयुक्तो बुघवासरसम्भवः ।॥ १२३७ ॥ 
जिस व्यक्ति का जन्म बुधवारको होता है उसमी जीविका, लिपि ( सुन्दर 
अक्षरों में प्रतिलिपि ) गौर लेखन-कायं ( निबन्ध, पुस्तक ) से होती है। तथा वह 
प्रियवादी, विह्वान्‌, सुबुङ, सुन्दर स्वरूप एवं सम्पत्ति से युक्त होता है ॥ १३७ ॥ 
गुरुवार फल-~ 
धनवि्यागुणोपेतो विवेकी जनपूजितः। 
आचार्यः सचिवो वा स्याद्‌ गुरुवासरसम्भवः ॥ १३८ ॥ 
३ मा०सा० 


डे "मनोरमा" टिन्दीष्याख्योपेता 








गुरवार को उत्पल व्यक्ति घन, विद्या, ओर गुणों से युक्त, विकेकशील, लोगों 
से पूजित ( सम्मानित ), आचाय ( गुरु, उपदेशक ) तथा मन्त्री होता है ॥ १३५ ॥ 


शुक्रवार फल -- 
चलचित्तः सुरद षी धन-करीडरतः सदा । 
बुद्धिमान्‌ धुभगो वाग्मी भृगुवारे भवेन्नरः । १३६ ॥ 
शुक्रवार को जन्मलेने वाला ्यक्ति चनछल प्रकृति वाला, देवताभों कादेषी, 
धन एषं कोडा मे सदव आसक्त, बुद्धिमान्‌, सौमाग्यश्चाली तथा वक्ता होता है ।१२६९॥ 
शनिवार फल-- 
स्थिरजः स्थिरगीः ज्रूरो दुःखचित्तः पराक्रमी । 
अधोदृड्‌ न चलः केशी वृद्धनारीरतः सदा ॥ १४० ॥ 


जिसका जन्म शनिवार को होता है वह भालसी पुरुष से उत्पन्न, स्थिर (हद) 
वचन बोलने वाला, क्रूर, दु.लित हृदय, नीचे देखने वाला, अडिग, केश ( बाल) 
रखने वाला तथा वृद्धास्रीमं गासक्त रहने वाला होता है । १४० ॥ 


दिवस जन्म फल~~ 
सद्धमंयुक्तो बहुपुत्रभोगी प्रियान्वितः कामनिपीडिताङ्कः 
वस्त्रानुयुक्तो मतिमान्‌ सुरूपो भवेन्मनुष्यश्च दिवा-प्रसुतः । १४१ ॥ 


दिन में उत्पन्न हुआ व्यक्ति उत्तम धमं से युक्त, बहुत पुत्रों वाला, अधिक सुखो- 
पमोग करने वाला, श्रिया ( पत्नी ) से युक्त, कामस पीडित अंगों वाला, वरूोंसे 
सम्पन्न, बुद्धिमान तथा सुन्दर स्वरूप वाला मनुष्य होता है । १४१ ॥ 
रात्रि जन्म फल- 
मन्दवाग्बहुकामातंः क्षयरोगी मलीमसः । 
क्ररात्मा छन्नपापश्च निशि जातो भवेन्नरः । १४२ ॥ 


रात्रिमे जिसका जन्महोतादहै वह धीमी आवाजमें बोलने वाला, अधिक 
काम से पीडित, क्षयरोग युक्त, मलिन हृदय, क्रूर स्वभाव, तथाच्पिखूपसे पाप 
करने वाला होता है। १४२॥ 


नात्र फल 
अश्चिनी- 
सुरूपः सुभगो दक्षः स्थूलकायो महाधनी । 
अश्विनीसम्भवो लोके जायते जनवल्लभः ।॥ १४३ ॥ 
अश्विनी नक्षत्र मँ अन्मलेने वाला व्यक्ति सुन्दर, सौमाग्य शाली, कुदाल, स्थूल 
शरीर बाला, बहूव धनी, तथा लोक मे जनप्रिय होता है ॥ १४३ ॥ ` 


मानसामरी ३५ 


भरणी- 
अरोगी सत्यवादी च सत्प्राणश्च दुढत्रतः। 
भरण्यां जायते लोकः सुसुखी धनवानपि ॥ १४४ ॥ 
भरणी मे उत्पन्न व्यक्ति रोष ररित, सत्य बोलने वाला, सत्यनिष्ठ, दृढप्रतिज्ज, 
संसारमें सुखी तथा धनवनहोताहै। १४४॥ 


कुति का-- 
कृपणः पापकर्मा च क्षुघालुनित्यपीडितः । 
अकर्म कुरुते नित्यं कृत्तिकासम्भवो नरः ॥। १४५ ॥ 
कृत्तिका मं उत्पन्न पुरुष कृपण (कंजूम), पापक्मं करने वाला, भूखा । निरन्तर 
पीडति, तथा नित्य कुकर्म करने वालाहोतादै॥ १४५॥ 
रोहिणी-- 
धनौ कृतजो मेघावी नृपमान्यः प्रियंवदः । 
सत्यवादी सुरूपश्च रोहिण्यां जायते नरः ॥ १४६ ॥ 


जो रोहििणीमें जन्मलेना दै व धनवान, कृनज्ञ { उपकार मानने वाला), 
प्रतिभा-सम्पन्न, राजा दवारा सम्म।नित, प्रियवादी, सत्यवादी, तथा सुन्दर स्वरूप 
याला होतादहै।। १४६॥। 


मृगक्षीष-- 

चपलश्चतुरो घीरः कूटक्म॑स्वकर्मङृत्‌ । 

महद्धुारी परद्र षौ मृगे भवति मानवः ।। १४७ ॥ 
मृगशिरा म उत्पन्नव्यक्ति चपल (चल), चतुर, ध॑यंवान, छल कर्म, एवं अपना 

कायं करने वाला, अहंकार युक्त तथा दूसयोंस द्वेष रखने वाला होता है ।॥ १४७॥ 

बद्रा- 

कृतघ्नः कोपयुक्तश्च नरः पापरतः शठः । 

आद्रानक्षत्रसम्भतो धनघान्यविवजितः ॥ १४८ ॥। 


आद्रा नक्षत्र मे उत्पन्न ष्यक्ति कृतघ्न (उपकारके बदले अपकार करने 
वाला ). क्रोधी, पाप में लीन, द्र, तथा धन-सम्पत्ति से हीन होता है ॥ १४८ ॥ 
पूनवसु-- 
शान्तः सखी च सम्भोगी संभगो जनवल्लभः । 
पुत्रमित्रादभिर्युक्तो जायते च पुनवंसौ ।॥ १४६॥ 


१६ "मनोरमा? हिन्दीग्याश्योपेता 


[पी 





पुनर्वसु मे जन्म लेने वाला शान्त, सुखी, सुरति प्रिय, १ सुन्दर, जनप्रिय, पुत्र 


शौर मित्रों से युक्त होता है । १४६ ॥ 
शृष्य- इवधमयनं्य्त 
{क्तः पत्रयुक्तो विचक्षणः । 
पुष्ये च जायते लोकः शान्तात्मा सुभगः सुखी ॥ १५० ॥ 
पष्य मे उत्पन्न होने वाला मनुष्य दैवता ( मक्ति ), धर्म धन, मौर पुत्र से युक्तः 
विदान, शान्त चित्त, सन्दर तथा सुखी होतारँ ।। १५० ॥ 
आश्लेषा- 
सवंभक्भी कतान्तश्च कृतघ्नो वकः खलः | 
आश्लेषायां नरो जातः तक्मा हि जायते ।॥ १५१ ॥ 
आश्लेषा मे जिसका जन्म होता है वह सर्व॑मक्षी ( सबकुछ खानेवाला); 
यमराज तुल्य, कृतघ्न, ठग, दुष्ट, तथा किये हुये कायं को इहराने वाला होता है । 


मधा-- 
बहुमृत्यो घनी भोगी पितृभक्तो महोद्यमी । 
चमूनाथो राजसेवी मघायां जायते नरः ॥ १५२॥ 
मधा में जन्म तेने वाला पुरुष बहुत नौकरों वाला, धनी, मोगी, पिताक 
मक्त, महान उद्योगी, सेनापति, तथा राजकीय सेवक होता है ।॥ १५२॥ 
पूर्वाफात्गुनी-- 
विद्यागोधनसंयुक्तो गम्भीरः प्रमदाप्रियः। 
पूर्वाफाल्गुनिकाजातः सुखी पण्डितपूजितः ॥ १५३ ॥ 
जिसका जन्म पूर्वाफाल्गुनी में होतादै वह्‌ विद्या, गाय गौर धनसे युक्त, 
गम्भीर, छी प्रेमी, सुखौ तथा विद्वानों से सम्मानित्त होता है।। १५३ ॥ 
उत्तरा फात्गुनी-- 
दान्तः शूरो मृदुरव॑क्ता धनुवंदार्थपण्डितः। 
उत्तराफाल्गुनीजातो महायोद्धा जनप्रियः ॥ १५४ ॥ 
जो उत्तरा फाल्गुनी मे जन्मनेतादहै वह दमन करने वाला, शुर, मृदुभाषी, 
धनुविद्या मे कुल, महान्‌ योद्धा तथा जनग्रिय होता है ।॥ १५४ ॥ 
दत्व 
असत्यवचनो धृष्टः सुरापी बन्धुवजितः। 
हस्तो जतो नरश्वौरो जायते पारदारिकः ॥ १५५॥ 


१. सम्यक प्रकारसे मग करने वाला" यह भी मथंदहै। 


मानसागरी ३७ 


1111 ककव २२1 


हस्त में उत्पन्न व्यक्ति असत्य बोलने वाला, धृष ( डीठ, निर्लज्ज ), मद्यपान 
करने वाला, बन्धुमो से रहित, चोर तथा परली को रखने वाला होता है ॥१५५॥ 
चित्रा- 
पुत्रदारधुतस्तुष्टो धनधान्यसमन्वितः । 
देवब्राह्मणभक्तश्च चित्रायां जायते नरः ॥ १५६ ॥ 
चित्रा मे उत्पन्न पुरुष पुत्र एवं खी मे युक्त, सन्तुष्र, धन-धान्य से सम्पन्न, देवता 
तथा ब्रह्मण का भक्त टोता है।। १५६॥ 
स्वाती- 
विदग्धो धा्मिकश्चंवं कृपणः प्रियवल्लभः । 
सुशीलो देवभक्तश्च स्वातौ जातो भवेन्नरः ॥ १५७ ॥ 


स्वाती मे उत्पन्न होने से मनुष्य विद्वान्‌, धार्मिकः, कृपण, ली का प्रेमी, सुशील, 
तथा देवताओं का मक्त होता है ।। १५७ ॥ 


विशाखा- 
अतिलुन्धोऽतिमानी च निष्टुरः कलहप्रियः । 
विशाखायां नरो जातो वेश्याजनरतो भवेत्‌ । १५८ ॥ 
यदि विशाख्ाम जन्महोतो अत्यन्त नोमी, असमिमानी, नदय, कलह प्रिय 
( भगडाल्‌ ) तथा वेश्याओों मं आसक्त रहत। है । १५८ ॥ 
अनुराधा- 
पुरुषार्थप्रवासी च बन्धुकायं सदोद्यमी । 
जनुराषाभवो लोकः सदा धृष्टश्च जायते ।। १५६९ ॥ 


अनुराधा में उत्पन्न मनुष्य पुरुषार्थी, प्रवासी (घरसे दूर देशमें रहने वाला), 
बन्धुओं के कायं मे सदा प्रयत्न शील, तथा सर्दव वृष्ट होतादहै॥ १५६॥ 


ग्येषएा- 
बहुमित्रप्रधानश्च कविदन्तो विचक्षणः । 
ज्येष्ठाजातो ध्मंरतो जायते शद्रपूजितः ॥ १६० ॥ 
ज्येष्ठा मे जन्म लेने वाला बहूत मित्रों वाला, श्रेष्ठ, कवि, उदार, विद्वान, धमं 
मे लीन तथा शदो ते पूजित होता दहै ।। १६० ॥ 
भूल 
सुखेन युक्तो धनवाहनाढधो हिरो बलाढधः स्थिरकर्मकर्ता । 
भ्रतापितारातिजनो मनुष्यो मूले कती स्याज्जननं प्रपक्षः ।\१६१॥ 





हद "मनोरमा शटिन्दीभ्यारूणेपेता 


{भा कवक 1 कनकाय 11 





मूल नक्षत्रम जो जन्मलेताहि बह सुख, धन एवं वाहन से युक्त, हिसक, 
बलवान, स्थिर चित्तसे कार्यं करने, तथा शत्रुं का दमन करने वाला 
होता है ॥ १६१ ॥ 
पुवषिढा- 
दृष्टमात्रोपकारी च भाग्यवांश्च जनप्रियः । 
पूर्वाषाढाभवो नूनं सकलार्थविचक्षणः ।॥ १६२ ॥ 
यदि पूर्वाषाढामें जन्म होतो निश्चयी वह देखने मात्रसे परोपकार 
करने वाला, भाग्यवान्‌, जनप्रिय, तथा समस्त अर्थोँको जानने वाला विदान 
होता है ॥ १६२ ॥ 


उतराकाढः 
बहुमित्रो महाकायो जायते विनतः सुखी । 
उत्तराषादृसम्भूतः शरश्च विजयी भवेत्‌ ।। १६३ ॥ 


जिसका जन्म उत्तराषडामं होतादहै वह्‌ अधिक मित्रों एवं विशाल शरीर 
वाला, विनम्र, सुद्वी, शूर, तथा विजयी टोता है ।। १६३॥ 


अभिजित्‌- - 
अतिसुललितकान्तिः सम्मतः सज्जनानां 
ननु भवति विनीतश्चारुकीतिः सुरूपः । 
द्विजवरसुरमक्तव्यंक्तवाडमानवः स्या- 
दभिजिति यदि सूतिर्भृपतिः स स्ववंशे । १६४॥। 
अभिजित्‌ में उत्पन्न हभ मनुष्य अत्यन्त मनोहर कान्ति वाला, सज्जनोंते भादर 
प्राप्त, विनम्र, सुन्दर यश्च एवं स्वरूप वाला, देवता भौर ब्राह्मणों का मक्त, स्प 
वक्ता तथा अपने कुलम राजा कणो तरट्‌ होता दहै ॥ १६४॥ 


श्रवण- 
कृतजः सुभगो दाता गुणः सर्वेश्च संयुतः । 
श्रीमान्‌ सन्तानबहूलः श्रवणे जायते नरः ।। १६५ ॥ 
जिसका जन्म श्रवणमे होता ह वह कृतश्च, सुन्दर, दानी, समी गुणों से युक्त, 
धनवान्‌ तथा अधिक सन्तान वाला होता है।। १६५॥ 
घनिष्ठा- 


गीतप्रियो बन्धुमान्यो हिमरत्नेरलंकृतः । 
जातो नते धनिष्ठायां शतकस्य पतिर्भवेत्‌ ॥ १६६ ५ 


मानसागरी १९ 





धनिष्ठा में अन्म सेने वाला पुष गीत का प्रेमी, मायो द्वारा सम्मानित, स्वर्णं 
एवं रस्नों से सुपर्जित, तथा एकं सौ व्यक्तियों का नायक होता है ।। १६६॥ 


शत मिषा-~ 
कृपणो धनपूर्णंः स्यात्यरदारोपसेवकः । 
जातः शतभिषायां च विदेशे कामुको भवेत्‌ ।॥ १६७ ॥ 


णत मिधा मे उत्पन्न पुरुष कृपण, धनवान, परस्त्री का सेवन करनं बाला, तथा 
विदेश मे कामुक प्रवृत्ति वाला होता है ॥ १६७ ॥ 


पूर्वामाद्रपदा- 
वक्ता सुखी प्रजायुक्तो बहूनिद्रो निरर्थकः । 
पूर्वभाद्रपदायां च जातो भवति मानवः ।। १६८ ॥ 


पर्वा भाद्रपदा मं उत्पन्न मनुष्य वक्ता, सुखी, सन्तान युक्त अधिक सोने वाला 
तथा निरथंक (बेकार ) होता है ।। १६८॥ 


उस्रा माद्रपदा- 
गौरः ससतो ध्मंजः शत्रुघाती परामरः । 
उत्तराभाद्रपदजो नरः साहसिको भवेत्‌ ।। १६६ ॥ 


उत्तरा भाद्रपदा मं जिसका जन्म टोताह वह गौर वणं वाला, सतोगुणी, धमं 
काज्ञाना, दार करा नाश > देवता तुल्य तया साहसी लह्येनाहै। १६६॥ 
रेवती-- 
सम्पूर्णाङ्गः शुचिदक्षः साधु श्रो विचक्षणः । 
रेवतीसम्भवो लोके घनघान्येरलंकृतः ।। १७० ॥ 


रेवती मं उत्पन्न हुभा व्यक्ति, पूणं अङ्गीं वाला, पवित्र, चतुर, साधु, शूर, 
विद्वान तथा घन-घान्य से सुमज्जित होता है ॥ १७० ॥ 


योगज एल 


विहकम्भ- 


विष्कम्भ + जातो भनूुजो रूपवान्‌ भाग्यवान्‌ भवेत्‌ । 
नानालङ्कारसम्पूण) महाबुद्धिविशारदः ॥ १७१ ॥ 


विष्कम्म योग में उत्पन्न हु ग पुरुष रूपवान (सुन्दर ) माग्यवान्‌, विविध प्रकार 
के भाषणों से पूर्ण, अतीव बुद्धिमान्‌ एवं विद्वान होता है । १७१ ॥ 


१. "बिष्कुम्भ' इति पाठान्तरम्‌ 





&० "मनोरमाः हिन्दीष्याश्योपेता 





प्रीहि- | 
प्रीतियोगे समुत्पन्नो योषितां वल्लभो भवेत्‌ । 
ततत्वज्ञश्च महोत्साही स्वाथे नित्यं कृतोधमः ।। १७२ ॥ 
भ्रीति योग मे उत्पन्न होने बाला ज्यों का प्रेमी, तस्व को जानने वाला, महान 
उत्साही तथा स्वां पूति मे नित्य प्रयत्नकशील रहता है ॥ १७२ ॥ 
आयुष्मान्‌- 
जयुष्मन्नामयोगे च जातो भानी धनी कविः। 
दीर्घायुः सत्त्वसम्पन्नो युद्धे चाप्यपराजितः ॥ १७३ ॥ 
जायुष्मान्‌ योग में जिसका जन्म होता है वह अभिमानी, भनी, कवि, दीर्बयु, 
शक्ति सम्पन्न, तथा युद्ध मे अजेय होता है ॥ १७३ ॥ 
सौभाग्य- 
सौभाग्ये च समुत्पक्नो राजमन्त्री स॒ जायते । 
निपुणः संवंकार्येषु वनितानां च वल्लभः ॥ १७४ ॥ 
यदि सौमाग्य योगमेंजन्मदहोतो वह्‌ राजा का मन्त्री, समी प्रकारके कायो 
मे कुराल, तथा स्त्रियों का त्रिय होता है ।॥ १७४ ॥ 
शोमन-- 
शोभने शोभनो बालो बहुपुत्रकलत्रवान्‌ । 
आतुरः सर्वकार्येषु युद्धभूमौ सदोत्सुकः ॥ १७५ ॥ 
लोभन योग में उत्पन्न बालक सुन्दर, बहुत पृत्रणएवं स्त्री वाला, समी 
कार्यों मे जल्दबाजी करने वाला, तथा युद्ध भूमिमे सदा उत्सुक रहन वाला 
होता है ॥ १७५॥ 
अतिगष्ड- 
अतिगण्डे च यो जातो मातृहन्ता भवेच्च सः । 
गण्डान्तेषु च जातस्तु कुलहन्ता प्रकीतितः । १७६ ॥ 
अतिगण्ड मे जिसका जन्म होता दहै वह्‌ अपनो माताका वध करने वाला, 
होता है । यदि गण्डान्त? मेँ उत्पन्नहोतौ रमस्त कुल कानाश्च करने वाला 
होता है ॥ १७६ ॥ 





१. शष्डान्त तीन प्रकारका होता है। तिथि गण्डन्त, नक्षत्र गण्डान्त तथा लग्न 
गण्डान्त । वस्तुतः विशेष तियि, नक्षत्र भौर ल्मनो के सन्धिकाल को गण्डान्त. 
कहा जाताहै। ये मशुभहोनेते शुम कायोंमे वर्जित ह। इन गण्डान्तौं 


मानसागरी ४१ 





सुक्मा-- 
मुकमं-नामयोगे तु सुकर्मा जायते नरः। 
सर्वेः प्रीतः सुशीलश्च रोगी भोगी गुणाधिकः ॥ १७७ ॥ 


सुकर्मा नामक योगमेजन्महो तो वह्‌ भच्छाका्यं करने वाला, समी जनो का 
प्रिय, सुशील, रोगी, भोगी तथा अधिक गुणों वाला होता है । १७७॥ 
षृति- 
धृतिमान धृतियोगी च कीतिपुष्टिषनान्वितः । 
भाग्यवान्‌ सुलसम्पन्नौ विद्यावान्‌ गुणवान्‌ भवेत्‌ ।। १७८ । 


यदि दृति योगम जन्महो तो वह धयंवान्‌, यशश्वी, स्वस्थ एवं धन से युक्त, 
भाग्यनाली, सुख सम्पन्न, विद्वान तथा गुणो होता है ।॥ १७८ ॥ 
शूल--- 
शले शलव्यथायुक्तो धामिकः शास्त्रपारगः । 
विंद्यार्थकुशलो यज्वा जायते मनुजः सदा । १७६ ॥ 


मे जन्मलेने वाला शिशु भी अशम फलकारक तथादुम्खीटोतादहै। गण्डान्तों 
कता विवेचन इस प्रकार किया गया है-- 


ज्येष्ठापौण्णमसापेमान्त्यधटिकायुग्मं च मूलाश्िनी, 

पिन्र्यादौ घटिकाद्यं निगदितं तद्धत्य गण्डान्तकम्‌। 

कर्कल्यिण्डज भमान्ततोऽ्धघरिक्रा निहाश्विमेषादिमा, 

पूणन्तिष्‌ धटिकात्मकं त्वशुभदं नन्दातियेश्चादिमम्‌ ॥ 

( मूहत्तंचि० म० ६,४३ ) 

ज्येष्ठा, रेवती, आश्लेषा नक्षत्रों को अन्तिम दो घटी तथा मूल, अश्चिनी, 
मघा नक्षत्रों की प्रारम्भिक दो घटी नक्षत्र गण्डान्त तथा ककं, बुध्िक, मीन 
राहों की अन्तिम आधी घटी एवं सिह, धनु भौर मेष की जादि की जाघी 
चटी करन गण्डान्त तथा पूर्णा तिथियों (५,१०.१५) गो अन्तिम एक घटी ओर 
नन्दा तिथि (१,६,११) की आदि की एक-एक घटी तिथिगब्डान्त होती है । 


स प्रकार स्येष्ठाके अन्तमेंर षटीतथाम्‌लके भआरम्मकोरषटी 
दोनों मिलकर ४ घटी तक नक्षत्र गण्डान्त होता । ककं राजि की अन्तिमिद्ध 
धटी ( ३० पल ) तथा व्ह राक्चिकी प्रारम्मकी धटी अर्थात्‌ दोनोकी 
सन्बिगत १ षटी राशि गण्डान्तं तथा पूणिमा की अन्तिम एक धटी तथा प्रति- 
यदाकीप्रारभ्मङी एक, कूल २ षटी तक तिमिं गष्डान्त होतादहै। इसी 
प्रकार अन्य नक्षत्रादि गष्डम्तों को भमी समन्ता बाहिये। 


४२ "मनोरमा" हिन्दीग्यास्योपेता 


` जो मनुष्य शूल योगमें पेदाहोताै वह शूल (पीड़ा), व्यथा (ददं) ते 
युक्त, धामिक, शास्त्रों का ममज्ज, विद्या एवं अथंसंग्रहमे कुषल, तथा यश्च करने 
याला होता है। १७६ ॥ 
` गण्ड-- 
गण्डे गण्डव्यथायुक्तो बहुक्लेशो महाशिराः । 
ह्वस्वकायो महाशरो बहुभोगी दृढव्रतः ॥ १८० ॥ 
गण्ड योग मे गण्ड (फोडा) की व्यथा से युक्त, अत्यन्त दुःखी, बडे िर^ एवं 
छोटा शरीर वाला, महान्‌ पराक्रमी, अधिक सुख मोगकरने वाला तथा अपने 
संकल्प पर दृढ़ रहने वाला होता है ।। १८० ॥ 
वृदि-- 
वृद्धियोगे सुरूपश्च बहुपुत्रकलत्रवान्‌ । 
धनवानपि भोक्ता च सत्त्ववानपि जायते ।॥ १८१ ॥ 
जिका जन्म वृद्धि योममें होता है वह सुन्दर, अधिक सन्तान एवं स्त्रियों 
वाला, धनवान्‌, मोगी, तथा शक्तिशाली होतादहै। १८१॥ 
घ्र व-- 
घ्रुवयोगे च दीर्घायुः सर्वेषां प्रियदशंनः। 
स्थिरकर्माऽतिशक्तश्च ध्रुवबुद्धिश्च जायते ॥ १८२ ॥ 
घ्रव योग में जिसका जन्म होतादहै वह दीर्घायु, समी लोगों का प्रिय, स्थिर 
चित्तसे कायं करने वाना, अत्यधिक शक्तिशाली ओौर स्थिर बुद्धि ( दद्निश्चय ) 
वाला होता है ।। १८२॥ 
व्याधात-- 


व्याघातयोगजातश्च सर्वः सवंपुजितः । 
सर्वकर्मकरो लोके विख्यातः सवकर्मसु ॥ १८३ ॥ 


व्याघात योग में उत्पन्न व्यक्ति सब कुछ जानने वाला, सभी वर्गो ते पूजित, 
समी प्रकारके कार्योको करने वाला तथा समी प्रकारके कर्मके लिएसंसारमें 
विक्यात होता है ।॥ १८३ ॥ 


हर्षग-- 
हषंणे जायते लोके महाभाग्यो नुपप्रियः । । 
धृष्टः सदा ध्ैर्युक्तो विद्याशस्त्रविंशारदः । १८४ ॥ 





१. महाशिरा का अर्थं अधिक नसौ वाला भी होता दहै। 


मानसाभरी ॥ {; 


9) 99 
साया मक्कन 


जो व्यक्तिं हर्षण योगमे जन्मतेताहै वह अस्यधिक् भाग्यशाली, राजाका 
प्रियपाच्र, बुष ( ढीठया निर्लज्ज) सदैव धनसे युक्त विद्या तथा शास्त्रका 
विशेषश्च होता है ॥ १८४ ॥ 
वजर॑-- 
वयोग वच्रमुष्टः सवंविद्यास्वरपारगः । 
घनधान्यसमायुक्तस्तत्वजो बहुविक्रमः ।॥ १८५ ॥ 
वयोग में जन्म हो तौ वख के समान मृषटिका ( बक्सर), समी 
विद्याओों एवं अस्रो त्रा विशेषज्ञ, धन-सम्पत्ति ते युक्त, तत्व को जानने वाला एवं 
बहूत पराक्रमीहाताहै। १८५॥ 
सिडि- 
सिद्धियोगे समृत्पन्नः स्वंसिद्धियुतो भवेत्‌ । 
दाता भोक्ता सुखी कान्तः शोकी रोगी च मानवः ॥ १८६॥ 
जो सिद्धिम जन्मलेतादहै वहु सभी सिद्धिोंसे युक्त दानी, भोगी, सुखी, 
सुन्दर तथा शोक एवं राग म युक्त र्ता टै ।॥ १८६ ॥ 





व्यतिपःत- 
व्यतीपाते नरो जातो महाकष्टेन जीवति । 
जीवेच्चेद्धाग्ययोगेन स॒ भवेदृत्तमो नरः ॥ १८७ ॥ 


जिसका जन्म व्यतीपात योगम लातादहै वह महान कषटके साथ जीवित 
रहता है । ( जीविन रहना कठिन लोतादहै।) यदि माग्ययोगसे जीवित रह्‌ 
गया तो उत्तम पुरुप होता है । १८८ ॥ 
व रीयार्‌- 
वरीयान्नामयोगे च बलिष्ठो जायते नरः । 
शित्पशास्त्रकलाभिजो गीतनृत्यादिकोविदः ।॥ १८८ ॥ 
वरीयान्‌ योगम जन्म लेने वाना मनुष्य बलवान्‌, शित्पशाशतर ( मूत्ति-कला ) 
एवं कला (चित्रकारी) का ज्ञाता, गीत, नृत्य आदि का विशेषज्ञ होता है १८८।४ 
परिध- 
परिषे च नरो जातः स्वकुलोन्नतिकारकः । 
शास्त्रः सकविर्वाग्मी दाता भोक्ता प्रियंवदः ।॥ १८६ ॥ 


जौ परिधमे जन्मलेताहै वहु अपने कुल की उश्नति करने वाला, शास्त्र 
का ज्ञाता, कविके साथ-साथ वक्ता, दानी, सुखमोग करने वाला एवं प्रिव 
भाषौ होता है ।। १८६ ॥ 


4; "मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता 


1 षव धा ॥ 
१ 
चोका 


शिव 





शिवयोगे नरो जतः सवंकल्याणभाजनः । 
महादेवसमो लोके सदा वुद्धियुतो भवेत्‌ । १६० ॥, 


शिव योग मे उत्पन्न व्यक्ति संसारम महादेव के समान समी प्रकारसे कल्याण 
करने मे समथं तथा सदैव बुद्धिसे युक्त होता है। १६० ॥ 
सिद-- 
सिद्धियोगे सिदिदाता मन्त्रसिद्धिप्रबतंकः । 
दिष्यनारीसमेतश्च सर्वसंपद्युतो भवेत्‌ ।। १६१॥ 
सिद्ध योग मे उत्पन्न व्यक्ति सिद्धियोंको देने वाला, मन्त्र एवं सिदडिका 
चारक, सुन्दर स्त्री एवं सभी सम्पदाओं से युक्त पुरुष होता है) १६१॥ 
साध्य- 
साध्ये मानसिकी सिद्धिर्यंशोऽशेषसुखागमः । 
दीर्घसूत्रः प्रसिद्धश्च जायते सवंसंमतः ॥ १६२ ॥ 
साघ्य योग में उत्पन्न व्यक्ति को मानसिक सिद्धि यश एवं असीम सुखकी 
प्राप्ति होती है तथा वह्‌ भालसी, प्रसिद्ध एवं सबक्राप्ररियहोतादहै।। १६२॥ 
शुम-- 
शुभे शुभशतंर्यक्तो धनवानपि जायते । 
विज्ञानज्ञानसम्पप्नो दाता त्राह्मणपूुजकः । १९३ ॥ 
जो शुम योगम जन्मलेताहै वह सैक्डोंशुम (कायो) से युक्त, धनवान्‌, 
-्ञान-विज्चान से सम्पन्न, दानी एवं ब्राह्मणों का आदर करनेवाला रोता है ।।१६३॥ 
शुक्ल 
शुक्ले सवंकलायुक्तः सर्वाथंजञानवान्‌ भवेत्‌ । 
कविः प्रतापी शूरश्च धनी सवंजनप्रियः ॥ १६४॥ 
शुक्ल योग में उत्पन्न व्यक्ति सभी कलाओं ते युक्त, समी प्रकार के अर्थो (अर्थ- 
श्ा्ञो ) को जानने वाला, कवि, प्रतापी, शूर, धनी एवं समी अनोंका प्रिय 
होता है ।॥। १९४ ॥ 


रहय 
ब्रह्मयोग महाविद्वान्‌ वेदशोस््रपरायणः । 
ब्रह्जञानरतो नित्यं सव॑कायषु कोविदः ॥ १६५ ॥ 
जो ब्रह्मयोभ मे अन्म लेता है वह महान्‌ विद्धान्‌ वेदन्सस्त्र का मननक्से 
वाला, निस्य ब्रह्मज्ञान में लीन एवं सभी कयं मे निपुण होता है । १६५ ॥ 


मानसानरी ४५ 





एेग््-- 
एनय शूपकुले जातो राजां भवति निश्चयः । 
अल्पायुस्तु सुखी भोगी गुणवानपि जायते ॥ १९६ ॥ 
राजकुल में यदिणन््र योगम क्रिसीका जन्मो तौ वह्‌ भवश्य राजा होता 
है । अल्पायु, सुखी, मोगी तथा गणवान्‌ भी होता है ।॥ १६६॥ 
वैनति- 
वैधृतौ जायते यस्तु निरुत्साही बुभुक्षितः । 
कुर्वाणोऽपि जनेः प्रीति प्रयात्यप्रियतां नरः ॥ १६७ ॥ 
वैति योग मे जौ उत्पन्न दोना दहै वह उत्साह हीन, वुभृक्षित ( भूखा ), लोगों 
का प्रिय कायं करता हुभामी लोक मं अप्रिय ( निन्दित ) होता है। १६७॥ 


करण साधन 


कृष्णपक्षे तिथिद्धिघ्ना मूनिभिर्भागमाहरेत्‌ । 
शेषांकेन बवाद्ं च तिथ्यादौ करणं विदुः । १६८ ॥ 


कृष्णपक्ष मं करण ज्ञान अपेक्षित होतो इष्रतिथिकोदोसे गुणा करसातसे 
मागदेने प्रजो शेष बचे उमी { संख्या) कं अनुसार तिथिके आदिमे बवादि 
कारण होते है ।। १६८॥ 
तिथिद्विध्ना द्िकोना च शुक्लपक्षे सदा बुधः । 
शेषके सप्तभिर्मागस्तिथ्यादौ करणं मतम्‌ ॥ १६६ ॥ 
शुक्ल पक्ष मं यदि करण अपेक्षितिहोतो इटतिथिकोदोसे गुणाकर ( गुणन. 
फलस ) दो धषटाक्रशेषमं ऽसे मग देने पर शेष संख्य बवादि करण तियिके 
पूर्वाषिमे होते है । १६६ ॥ 
उदाहरण- (१) सं. २०३५७ शक १६०२ फाल्गुन कृष्ण पश्चमी तिथि ष 
१०।२४ मौमवार्‌ को करण ज्ञान अवेक्लित है। अतः तिथि ५कोदूनाकर७का 
माग दिया--५>८ २-१०-७ == $° = लन्धि १, शेष ३ शेष तुल्य तीसरा कौलव 
कंरण तियिके पूर्वि मं तथा तंतिल करण तिथि के उत्तराधंमें हमा । 


(२) सं. २०३७ फाल्गुन शुक्ल १० तिथि ष० ३२।७ रविवार को करण ्ानः 
करना है मतः द्विगृणित तिथिमेर षटाकर७का भाग देनेसे- 
१० ०८२ २०-२ = १८--७ = 
=्लबन्श्रिर 
- शेष ४ 
शेष तुल्य चौथा तंतिल करण पुवधिं मे तथा तिथिके उत्तराषंमे भर 
करण हुआ । 


॥ # "मनोरमाः हिन्दीष्याश्योपेता 


निमेये ोयोयेणेदििभममनकयोिययकेक 





विशेष- प्रसंगात्‌ यह ातय्यहैफि करण दो प्रकारके होते ह १-चर, 
२-स्थिर । 
बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि ये सात रकरण तथा 
१ शकुनि, २ चतुष्पद, ३ नाग, ४ किस्तुष्नये चार स्थिर करण होतेह । 
कृष्णपक्ष की चलुदंशी के उत्तराघं मे शकुनि आदि चार करण आरम्महोते है 
लथा शुक्ल पक्ष की परतियदाके पूरवाधिमे समाप्तो जाते हैँ । अन्य तिथियोमें 
प्रतिपदा के उत्तराषंसे चर करणहोतेर्है। चक्रसेस्पष्टहै। 


[1 



































कृष्ण पक्ष | शुक्लपक्ष 
तिथि | शवां | चतरा | तिथि | रवा | उत्तर) पूरवाधिं ¦ उत्तरे तिचि | पूरव | उत्तरार्धं 
 १,८ | बालव कौलव १ म््तुध्न | बव 
२,६ । तेतिल | गर २,६ , बालव कौलव 
३,१० | वणिज । विष्ट ३,१० ¦ तंनतिल गर 
४,११। बव । बालव ४,११ ` वणिज विष्ि 
५,१२ कौलव  त॑निल ५,१२ ! वेव , बालव 
६,१३ ¦ गर विज ६.१३ | वेलेव ¦ तेतिल 
४ क, वन | व | श विष्ट बव ७,१४ | गर ' वणिज 
१४ मद्रा शकुनि ८,१५ | विष्टि । बव 
३० चतुष्पद नग >< > | >< 
करण जतिष्ल- 
बव- 


बवाख्ये करणे जातो मानी धमंरतः सदा । 
शुममद्खलकर्मा च स्थिरकर्मा च जायते ॥ २००॥ 
बव नामक करण में जन्मलेने वाला स्वाभिमानी, सर्दव धमम अनुरक्तः शुभ 
"शवं मङ्खुल कायं कर्ता, तथा स्थायी कायं करने वाला होता है ।। २०० ॥ 
बालव-- 
बालवीच्ये नरो जातस्तीथदेवादिसेवकः। 
विच्रा्थंसौख्यसम्पन्नो राजमान्यश्च जायते ॥ २०१॥ 
बालव करण मे उत्पन्न व्यक्ति तीर्थस्यान, देवता आदि कीसेवा करने वाला, 
विचा, धन गौर सुख से सम्पन्न तथा राजासे सम्मानित होता है। २०१॥ 


कौलव- 
कोलवाख्ये तु जातस्य प्रीतिः सर्वंजनंः सह । 
सङ्गति्मित्रवर्गेश्च मानवाश्च प्रजायते ।॥ २०२॥ 





मानसागरी ७ 


यदि कौलव नामक करणम जन्महौतो जातक सभीलोगोंके साथत्रेम 
रखता है, तथा मित्रों के साथ रहने वाला एवं स्वाभिमानी होता है ॥ २०२॥ 
तैतिल-- | 


तंतिले करणे जातः सौभाग्यघनसंयुतः । 
स्नेही स्वजने: साद्ध विचित्राणि गृहाणि च ॥ २०३ ॥ 
तैतिल करण मं उत्पन्न व्यक्ति सौमाग्य, भौर धनसे युक्त समी लोगों के साथ 
प्रेम रखने वाला, करई प्रकार के ( सुसज्जित ) गृहो का अधिपति होता ह ॥२०३॥ 





मर-- 
गराख्ये कृषिकर्मा च गृहकार्यपरायणः । 
यद्रस्तु वाञ्छितं तच्च लमते च महोद्यमः ॥ २०४॥ 
गर नामक करणम जिम्मा जन्मटो वह कृषि (हेती ) कार्यं करने वाला, 
धरेल्‌ कायां मं दक्ष, तथा अपनी इच्छित वस्तुको महान्‌ उद्योगसे प्राप्त करने 
वाला होता है २०४॥ 
वणिज- 
वाणिज्ये करणे जातो वाणिज्येनेव जीवति । 
वाञ्छितं लभते लोके . देशान्तरगमागमः ॥ २०५॥ 
वणिज कर्णम जिसका जन्मटता वह व्यापारसे ही जिविका चलाताहै तथा 
देश-विदेश की यात्राओं द्वारा अपनी अमिलाषाको पूणं करतादहै॥ ₹०५॥ 
विषणटि- 
अशुभारम्भशीलश्च परदाररतः सदा। 
कुशलो विषकार्येषु विष्टयाख्यकरणोद्धवः ॥ २०६॥ 


विष्टि (मद्रा) नामक करण में उत्पन्न मनुष्य अशुम कार्योको करने वाला, 
सदा परस्त्री मे आसक्त, तथा विष सम्बन्धी कायो मे कुशल ( विष वंद) 
होता है ।। २०६ ॥ 


शकुनि-- 
शकुनौ करणे जातः पौष्टिकादिक्रियाकृतिः । 
गौषधघादिषु दक्षश्च भिषग्वृ्तिश्च जायते । २०७ ॥ 


शकुनि करण मे जिसका जन्म होता है वह पौष्टिक आदि कायं ( योगासन- 
व्यायामादि ) करने वाला, ओषधि निर्माणमे दक्ष एवं चिकित्सक होता है ।२०७॥ 


॥ 1 - "मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेत। 


चतुष्पद -- 
करणे च चतुष्पादे देवद्विजरतः सदा । 
गोकर्मां गोप्रनुलकिं चतुष्पदचिकित्सकः । २०८ ॥ 
चतुष्पद करण मे जन्महोतो वह देवता ओर ब्राह्मणों मे सदव अनुरक्त, 
गौभों का पालन करने वाला, बहुत सौ गयों का अधिपति तथा पशुचिकिल्सक 
होता है ॥ २०८ ॥ 
नाग-- 
नागे च करणे जातो धीवरप्रीतिकारकः। 
कुर्ते दारुणं कमं दुर्भगो लोललोचनः ॥ २०६ ॥ 
नाम नामक करणमं जन्मटहोतो मनुष्य धीवर ( मष्टा ) जाति से सम्बन्ध 
रखने वाला, कूरकमं करन वाला, कुरूप तथा च्ल नेत्रो वाला होता है ।। २०९॥ 
किस्तुध्न-- 
किस्तुध्नकरणे जातः शुभकर्मरतो नरः। 
तुष्ट पुष्टि च माङ्गल्यं सिद्धि च लभते सदा ॥ २१० ॥ 
जिस व्यक्ति का जन्म क्रस्तुष्न करणम होताहै वह शुम कयंमें लीन 
रहता है तथा सन्तोष, पुष्टि ( स्व.स्थ्य ) मंग्ल (शुभ) गौर सिद्धिको सदैव 
प्राप्त करता है । २१० ॥ 
गणसाघन- 


अश्विनीमृगरेवत्यो हस्तः पुष्यः पुनर्वसुः । 
अनुराधा श्रुतिः स्वाती कथ्यते देवतागणः ॥ २११ ॥ 
अभिनी, मृगक्षिरा, रेवती, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवणा तथा स्वाती 
देवता गण सं्ञक कहे जाते है । २११॥ 
तिस्रः पूर्वाश्रोत्तराश्च तिस्रोऽप्यार्द्रा च रोहिणी । 
भरणी च मनुष्याख्यो गणश्च कथितो बुधे: ॥ २१२॥ 
तीनों पूर्वा ( पूर्वाषाढा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा भाद्रपद ), तीनों उत्तरा ( उत्तरा 
फात्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा माद्रपदा ) आर्द्रा, रोहिणी तथा भरणी ये मनुष्य 
गण कहे जाते है २१२॥ 
कत्तिका च मधाऽऽश्लेषा विशाखा शततारकाः । 
चित्रा ज्येष्ठा धनिष्ठा च मूलं रक्षोगण: स्मृतः ॥ २१३ ॥ 
कृतिका, मधा, आश्लेषा, विकशाक्ला, शतमिषा, चित्रा, श्यष्टठा, धनिष्ठा, तवा 
भूल ये राक्षस गण हं ३१३॥ 


मानसाभरी ४६ 





देवगण का फल-- 
सुन्दरो दानशीलश्च मतिमान्‌ सरलः सदा । 
अल्पभोक्ता महाप्राज्ञो नरो देवगणे मवेत्‌ ॥ २१४॥. 
जो देवगण मे उट्पन्न होता है वह्‌ सुन्दर, दानी, बुद्धिमान्‌, सरल, अल्पाहारी 
तथा महान्‌ बुद्धिमान्‌ होताहे ५ २१४॥ 
मनुष्य गण का फन-- 
मानी धनी विशालाक्षो लक्ष्यवेघी धनुघंरः । 
गौरः पौरजनग्राही जायते मानवे गणे ।, २१५ ॥ 
मनुष्य गण मे उत्पन्न व्यक्ति स्वामिमानी, धवान्‌, विज्लाल नेत्रं वाला, 
निश्ञानेवाज, धनुष धारण करने वाला, गौर, नागरिको पर प्रमाव रखनेवाला 
होता है । २१५॥ 
राक्षस गण का फन-- 
उन्मादी भीषगाकारः सवंदा कलिवल्लभः । 
पुरुषो दूसहो ब्रते प्रमेही राक्षसे गणे २१६॥ 
जिमका जन्म राक्षत गणनं होता है वह उन्मत्त, मयानक आङकृतिवाला, 
सदैव कल््रेी, असट्नीय (कटु ) वचन बोलने वाला तथा प्रमेह ( मूत्ररोग) से 
ग्रस्त होता है ।। २१६॥ 
योनि ज्ञान- 
अश्विनी वार्णाश्चाश्वो रेवती भरणी गजः । 
पुष्यश्च कत्तिका छागो नागश्च रोहिणी मृगः ॥ २१७ ॥ 
अग्विनी, शन्मिषा, अण्व, रेवती, भरणी, गज, पुष्य, कृत्तिका, छाग, 
रोहिणी, मृशशिरा, सपं योनि संज्ञ. हैँ ।। २१७॥ 
माद्र मूलमपि श्वा च मूषकः फल्गुनी मघा । 
मार्जारोऽदितिराश्लेषा गोजातिश्चोत्तराद्रयम्‌ ॥ २१८ ॥ 


आर्द्रा, मून श्वान । मधा, पूर्वाफल्गुनि मूषक । पुनर्वसु, आश्लेषा मार्जार $ 
उ्तराफात्गुनि उत्तराभाद्रपद दो नक्षत्र गौ योनिह ॥ २१८॥ 


महिषो स्वातिहस्तौ च मृगो ज्येष्ठाऽनुराधिकाः । 
व्याघ्रश्चित्रा विशाखा च शरुत्याषाठे च मकटौ । २१६ ॥ 


स्वाति, हस्त मर्हिष, ज्येष्ठा, अनुराधा मृग, चित्रा, विशाखा व्याघ्र, पूर्बाषाद, 
अवण, वानरयोनिदहै।। २१६॥ 


ई मार्सा० 


४५७ "मनोरमा ' हिन्दीव्याख्योपेता 


वंसुभाद्रपदाः सिंहो नकुलश्चाभिजित्स्मृतः । 
योनयः कथिता भानां व॑रमेत्रीं विचारयेत्‌ ।॥ २२० ॥ 
धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा सिह । अभिजित्‌ नकुल । दस प्रकार नक्षत्रौ हारा 
योनियं कही गर्द ह । इनसे शत्रुता तवा मित्रताका विचारकरना चाहिये २२०॥ 


योनिफल 


अश्व-- 
स्वच्छन्दः सद्गुणः श्‌रस्तेजस्वी घर्घरेष्वरः । 
स्वामिभक्तस्तुरङ्स्य योन्यां जातो भवेक्नरः ॥ २२१ ॥ 
अश्व योनि मे उत्पन्न व्यक्ति स्वतन्व, अच्छ गुणोंसे युक्त, शूर, तेजस्वी (प्रमाव- 
शाली), घर्घर स्वर वाला तथा स्वाभिमक्त होता है ।॥ २२१॥ 
गज-- 
राजमान्यो बली भोगी भूपस्थानविभूषणः । 
आत्मोत्साही नरो जातो गजयोनौ न संशयः ।। २२२ 
गज योनिम यदि जन्महोतो वहु राजाभों द्वारा आदर प्राप्त, बलवान्‌, 
मोगी (सुखी), राजदरबार का भूषण, अपने को उत्साहित करने वाला 
होता है ।। २२२॥ 
गी-- 
सत्रीणां प्रियः सदोत्साही बहुवाक्यविशारदः । 
स्वल्पायुश्च नरो जातः पणशुयोनौ न संशयः ॥ २२३॥। 
गौ योनि में उत्पन्न व्यक्ति निःसन्देह्‌ चिर्यो का प्रिय सदैव उत्साही, वाक्पटु 
तथा भत्पायु होता है।। २२३॥ 
[ पशु शब्द छाग के अथं में भी प्रयुक्त होता है] 
सप-- 
दीर्घ॑रोषः सदा क्रूरः उपकारं न गृह्यते । 
परवेश्मापहारी च सपयोनौ न संशयः ॥ २२४॥ 
सपं योनि मे जन्म लेने वाला निःसन्देह महान्‌ क्रोधी, सदैव क्रूर ( निर्दय); 
उपकार न मानने वाला तथा द्रो के धर का अपहरण करनेवाला होताहै॥ 


दवान-~ 


सोमः समहोत्साही शरः स्वज्ातिविग्रही । 
मातृपित्रोः सदा भक्तः श्वानयोनिसमृद्धवः । २२५॥ 


मानसागरी ५१ 





नानानामानं 


जो शवान योनि में उत्पन्न होना दहै वह उद्योगी, उत्साहथुक्त, शक्तिगाली, अपनी 
जातिसेदेष करने वाला तथा अपने माता-पिता का सदा भक्त होता है।२२५॥ 
मार्जार- 
स्वस्वकाय शरदक्षो मिष्टाप्नाहारभोजनः। 
निर्दयो दृष्ठपद्धावी नरो मार्जारयोनिजः ॥ २२६॥ 
मार्जार योनि में उत्पन्न पुरुष अपने कायं साधनम शूर (समर्थं), चतुर, मधुर 
पदथं का भोजन करने वाला, निदयी एवं दुष्टँ का साथी होता ह । २२६॥ 
मेष ( छाग )-- 
महद्िक्रमयोद्धापि--ईश्वरो विभवेश्वरःः । 
परोपकारी नित्यं च मेषयोनौ भवेन्नरः ॥ २२७॥ 
जिस पुरुष का जन्म मेष योनिम होताहै वह्‌ महा पराक्रमी, योद्धा, ईश्वर 
क समान समर्थ, घनपनि तथा प्रतिदिन दूमरों का उपकार करने वाला होता है ॥ 
मूषक-- 
बुद्धिमान्‌ वित्तसम्पूणंः स्वकायंकरणोद्यतः । 
अप्रमत्तोऽप्यविश्वासी नरो मृषकयोनिजः ॥ २२८ ॥ 
मूषक योनिम उत्पन्न ब्प्रक्ति बुद्धिमान्‌, धनसेर्पापर्णं, अपने कायं मे सदव 
सख्रद्ध, प्रमादसे रहित तथा अविश्वाती होता है । २२८ ॥ 
सिह्‌- 
स्वघमं तु सदाचारसत्करियासद्गुणान्वितः । 
कटुम्बस्य समुद्धता सिहयोनिसरवो नरः ।। २२६ ॥ 
मिह योनि म उत्पन्न व्यक्ति अपने धर्मानुमार अच्छा आचरण करने वाला, 
अच्छे कायां एव्र सद्गुणो से युक्त तथा अपने कुटुम्बका उद्धार करनेवाला 
होता दहै) २२६॥ 
महिष-- 
संग्रामे विजयी योद्धा सकामस्तु बहुप्रजः । 
वाताधिको मन्दमतिनंरो महिषयोनिजः॥ २३० ॥ 
महिष योनि मे उत्पन्न व्यक्ति संग्राममे विजय पाने वाला, योद्धा, काम 
वासनासे पृक्त, अधिक सन्तान वाला, वातव्यधि से युक्त तथा मन्दबुद्धि (मूढ) 
होता है ॥ २३० ॥ 
व्याघ्र- 
स्वच्छन्दाऽ्थं रतो ग्राही दीक्षावान्‌ स विभुः सदा । 
गात्मस्तुतिपरो नित्यं व्याघ्योनिभवो नरः ॥ २३१ ॥ 


४२ "मनोरमा? हिन्दीष्याख्योषेता 





जिसका जन्म व्यान्न योनिमे होता है वह स्वतन्त्र प्रकृति बाला, धन सश्चयमें 
आसक्त, सद्विवारों को प्रहण करने वाला, दीक्लाप्राप्त, सदैव धन से सम्पन्न, तथा 
निरन्तर अपनी प्रशंसा करने वाला होता है) २३१॥ 
कृण 
स्वच्छन्दः शान्तसद्वृत्तिः सत्यवान्‌ स्वजनप्रियः । 
धमिष्ठो रणश्‌रश्च यो नरो भृगयोनिजः । २३२ ॥ 
मृग योनि मे उत्पन्न पुरुष स्वतन्त्र ॒विवारों वाला, शान्त, सदाचारी, सत्य 
वादी, अपने सम्बन्धियों का प्रिय, धामिक तथा युद्धमे पराक्रमी होता है ।२३२॥॥ 
वानर- 
चपलो मिष्टभोगी चा्थलुन्धश्च कलिप्रियः । 
सकामः सतप्रजः शरो नरो वानरयोनिजः ॥ २३३ ॥ 
वानर योनि मं उत्पन्न व्यक्ति, च्ल, मीठा भाजन करन वाला, धनकां 
लोभी, क्षगडाद, कामवासनासे युक्त, अच्छी सन्तान वाला तथा पराक्रमी 
होता है ।। २२३३॥। 
नकुल- 
परोपकरणे दक्षो वित्तेश्वरविचक्षणः। 
पित्रमातृ्रियो नित्यं नरो नकुलयोनिजः ॥ २२४ ॥ 
जिसका जन्म नकुल योनिमेंहोतादहै वट्‌ दूसरों का ईहित करनेम चतुर, धनः 
का स्वामी, विद्वान्‌ तथा माता-पिता का सदव त्रिय होतादहै।। २३४॥ 


वार से भयुञ्ञान 
रविवार- 
विपदः प्रथमे मासे द्वात्रिंशे च त्रयोदशे । 
षष्ठेऽपि च ततः सूयं जातो जीवति षष्टिकम्‌ ॥ २३५ ॥ 


रविवार को जन्म लेने वालों को प्रथम, छठे, तेरहर्वे, ओर बत्तीस्वे मास्म 
कष्ट होतादहै तथा वे ६० वषो तक जीवित रहते ह ।॥ २३५ ॥ 


सोमवार- 


एकादशेऽमे मासे चन्द्रपीडा च षोडशे । 
सप्तविशतिवषं च चतुर्युक्ताणितौ मृतिः ॥ २३६॥ 
सोमवार को जिसका जन्म होता उसे आठवें, म्यारह्वे, मासमे तथा 
सोलहूरवे, एवं सत्तादस्वे वषं मं बन््हृत गरिषट से कष होता है । पन्न चौरासी 
यरं की आयुर्मे मृत्यु होती है ।॥ २३६॥ | 


मानसागरी ५३ 


भौमवार- 


हवात्रिशे च द्वितीये च वषं पीडा च मङ्खले। 
चतुः सप्ततिवर्षाणि सदा रोगी स जीवति ॥ २३७ ॥ 


मङ्गलवार को यदिजन्महोतौ दूसरे भौर बत्तीसर्वे वषमे कष्ट पाकर सदैव 
रोगी रहता हुआ ७४ वषो तक जीवित रहता है । ६३७ ॥ 


बुषवार- 
बुधवारेऽष्टमे मासे पीडा वषं तथाष्टमे । 
पूणं चतुःषष्टिवरषं ततो मृत्युर्भविष्यति ॥ २३८ ॥ 


जो बुधवार को जन्म लेमा वह अठ मास भौर ठव वषं मे पीडित होगा 
तथा ६४ वषं पूणं होने पर उसकी मृत्यु टो जायेगी ।। २३८ ॥ 


गुख्वार- 
गुरौ च सप्तमे मासे षोडशे च त्रयोदशे । 
पीडा ततश्चतुर्युक्ताशीतिवर्षाणि जीवति ॥ २३९ ॥ 
जिसका जन्म गुरुवार कोहातादहै वह्‌ सातवें, सोलहरवे, भौर तेरह मासमे 
कष पाता है तथा ८४ वषं तक जीवित रहता है ॥ २३६॥ 


शुक्रवार-- 
शुक्रवारे च जातस्य देहो रोगविवजितः। 
षष्टिवषेऽथ संपूर्णे श्ियते मानवो ध्रुवम्‌ ॥ २४० ॥ 


शुक्रवार को उत्पन्न व्यक्तिका शरीर रोग रहित होत्ताहै तथा ६० वषं पूणं 
होने पर निश्वय ही उसकी मृत्युहौो जानी दहै ।। २४० ॥ 


शनि वार-- 


शनौ च प्रथमे मासे पीडयते च त्रयोदशं । 
दुदृदेहस्तदा जातः शतवर्षाणि जीवति ॥ २४१ ॥। 


जिसका जन्म शनिवारकोहोतादहै वह्‌ पहले तथा तेर्टर्वे मासमे पीडति 
देता है अनन्तर पूर्णं स्वस्थ होकर १०० वर्षों तकं जीवित रहता है । २५१ ॥ 


जन्म लमन क श्ल 
अष- 
मेषलगने समूत्पस्नश्चण्डो मानी धनी शुमः। 
क्रोधी स्वजनहन्ता च विक्रमी परवत्सलः ॥ २४२ ॥ 


४६ "मनोरमाः हिन्दीग्याख्योषेता 


मेष लग्न मे उत्पन्न व्यक्ति उग्र, स्वाभिमानी, घनी, शुमकायं करने वाला, 
क्रोधी, स्वजनों का हनन करने वाला, पराक्रमी तथा दूसरों परदया करने 
वाला होता है ।॥ २४२ ॥ 
वृष- 
वृषलग्नभवो लोकगुरुभक्तः प्रियंवदः । 
गुणी कृती धनी लोभी शूरः सवंजनप्रियः ॥ २४३ ॥ 


वृष लग्न मं जिसका जन्महोताहै वह लोक ( देश) भौर गुरुजनोंमें भक्ति 
रखने वालाः प्रियमाषी, गुणवान्‌, यशस्वी, लोभी, शक्तिशाली ओौर स्त्रिय 
होता है ॥ २४३ ॥ 
मिथुन- 
मिथुनोदयसञ्जातो मानी स्वजनवल्लभः । 
त्यागी भोगी धनी कामी दीर्घं त्रोऽरिमदंकः ।। २४४ ॥ 


मिथुन लग्न के उदयकालमें जनमलेने वाला स्वाभिमानी, स्वजनों का प्रेमी, 
त्यागी, सुख-मोग करने वाला, धनवान्‌, कामी, आलसी एवं शत्रुओं का नाकच करने 
वाला होता हैँ । २४४॥ 
कक-- 
ककलग्ने समुत्पन्नो भोगी धमंजनप्रियः। 
मिष्टान्नपानसंयक्तः सुभगः सुजनप्रियः ॥ २४५ ॥ 


ककं लग्न मे उत्पन्न व्यक्ति सुख मोग करने वाला, धर्मं ओर सभीजनोंका 
प्रिय, भिष्ठान्न एवं मधुर पेयका सेवन करने बाला, सुन्दर तथा सज्जनो का 
प्रिय होता है ॥ २४५ ॥ 
सिह- 
सिहलम्नोदये जातो भोगी शत्रुविमर्दकः। 
स्वल्पोदरोऽल्पपुत्रश्च सोत्साहो रणविक्रमी ॥ २४६ ॥ 


सिह लग्न में उत्पन्न व्यक्ति मोगी, शत्रुभों का दमन करन वाला, छोटे षैट भौर 
मल्प सन्तान वाला, उत्साह युक्त तथा संग्रामम पराक्रमा हौतादहै।। २४६॥ 
कन्या- 
कन्यालम्ने भवेद्बालो नानाशास्त्रविशारदः । 
सौ माग्यगरुणसम्पश्नः सुन्दरः सुरतप्रयः ॥ २४७ ॥ 


जिद बालक का जन्म कन्यालमनमं टहोताहै वह्‌ विविध शाल्ञो का मर्मज्ञ, 
सौमाम्य एवं गुण से सम्पन्न, सुन्दर तथा रतिक्रीडा का प्रेमी होता है । २४७ ।। 


मानसामरी ४४ 





तुला- 


तुलालग्नोदये जातः सुधीः सत्कर्मजीविकः । 
विद्वानु सवंकलार्भिज्ञो धनादश्चो जनपूजितः ॥ २४८ ॥ 


तुना लग्नमें जिसका जन्म होताटहै वह अच्छी बुद्धिवाला, अच्छे कार्योँसे 
जीविका प्रप्त करने वाला, विद्वान्‌, सभी प्रकार की कलार्गोकाज्ञाता, षनसे 
युक्त तथा लोक मे सम्मानित होना दहै ॥ २४८ ॥ 
वुश्िक~- 
वृश्चिकोदयसञ्जातः शौयंवान्‌ धनवान्‌ सुधीः । 
कुलमध्यप्रघानेश्च प्राज्ञः सर्व॑स्य पोषकः ॥ २४६ ॥ 
वृश्चिक लग्न के उदय काल मे जिसका जन्म होता है वह शक्तिशाली, घनवान्‌, 
विद्वान्‌, अपने परिवारमें सर्वंश्रेठ, बुद्धिमान्‌ आर सबका पालन करने वाला 
होता है ।। २४६ ॥ 
धनु-- 
धनुलंग्नोदये जातो नीतिमान्‌ घमंवान्‌ सुघीः । 
कुलमध्ये प्रधानश्च प्राज्ञः सवंस्य पोषकः ॥ २५० ॥ 
जौ धनु लग्नके उदय कालम जन्मलेताटहै वह्‌ नीति को जानने वाला, 
घा्मिक, वुद्धिमान्‌, अपने पर्वारमें प्रान, बुद्धिमान्‌, तथा सबका पालन करने 
वाला होता है । २५० ॥ 


भमकर-~- 


मकरोदयसञ्जातो नीचकर्मां बहुप्रजः। 
लृन्धोऽलसो विनष्टश्च स्वकार्येषु कृतोद्यमः । २५१ ॥ 


मकर लग्न मे उत्पन्न व्यक्ति नीच क्रमं करने वाला, अधिक सन्तान वाला, 
लोभी, आलसी, समी प्रकारसे नष, तथा अपने कायोँमे प्रयास करने वाला 


होता है ।। २५१ ॥ 
कुम्भ-- 
कुम्भलग्ने नरो जातोऽचलवित्तोऽतिसौहूुदः । 
परदाररतो नित्यं मृदुकायो महासुखी ॥ २५२ ॥ 


कुम्भ लगन में उ्पन्न व्यक्ति स्थिर विस्त, अधिक भित्र बाला, परन्ञीमे सदा 
आसक्त, कोमल शरीर वाला तथा भघ्यन्त सुखी होता है ॥ २५२ ५ 


५६ "मनोरमाः हिन्दीष्यास्योपेत। 


मीन- 
मीनलग्ने भवेद्‌ बालो रत्तकाशचनप्‌रितः। 
अल्पकामः कृशाङ्गश्च दीधंकालविचिन्तकः ॥ २५३ ॥ 
मीन लग्न मे उत्पन्न बालक रत्न भौर स्वणे से पूणं, अरूप कामवासना युक्त, 
दुर्बल दारीर वाला, तथा दीधं काल तक चिन्तन करने वाला होता है ॥ २५३ ॥ 


नवाशफल- 
पिशुनश्चपलो दुष्टः पापकर्मा निराकृतिः । 
परेषां व्यसने सक्तः प्रथमांशे भरजायते । २५४॥ 
प्रथम नवांश मे उत्पन्न व्यक्ति चुगली करने वाला, चश्चल, दुष्ट, पाप कमं करने 
वाला, ( सुन्दर ) आलृतिहीन, दूसरों के व्यसन (कष्ट देने) में भमासक्त 
शोता है।। २५४ ॥ 
उत्पन्नविमवो भोक्ता संग्रामे विगतस्पृहः । 
गान्घवंप्रमदासक्तो द्वितीयांशे प्रजायते ॥ २५५ ॥ 


जिका जन्म द्वितीय नवमांशमे होतादहै वह्‌ टेश्वयं को उत्पन्न कर उसका 
मोग करने वाला, युद्ध की इच्छा से रहित, नाचने-गाने वाली स्त्रियो मं आसक्त 
होता है ॥ २५५॥ 
धर्मिष्ठः सन्ततव्याधिः सवंसारज्ञ एव च । 
सवं्नो देवताभक्तस्तृतीयांशे प्रजायते ॥ २५६ ॥ 
यदि ततीय नवमांशमं जन्मो तो धार्मिक, निरन्तर रोगसे पटिति, समी 
विषयों के सार को जानने वाला, सर्वज्ञ तथा देवना का भक्त होता है । २५६॥ 
चतुर्थाशेऽजिजातस्तु दीक्षितो गुरुभक्तिमान्‌ । 
यत्किञ्चिद्धरगौ वस्तु तत्सवं लभते हि सः ॥ २५७ ॥ 
यदि चतुर्थं नवमांशमं जन्महोतो वह्‌ दीक्षप्राप्त, गुरुके प्रति श्रदालुः पृथ्वी 
पर जो कुछ मी वस्तुहै वहु सबप्राप्त करने वाला टोता है । २५७॥ 
सर्वलक्षण सम्पन्नो राजा भवति विश्रुतः । 
दीर्घायुरबहूपुत्रश्च जायते पञ्चमांशके ॥ २५८ ॥ 
यदि पचे नवमाशमं जन्महो तो बहु समी प्रकारके लक्षणों से धुक्त, 
सूप्रसिद्ध राजा, दीर्भायु सम्पन्न एवं बहुत पत्रो वाला होता है ॥ २५८ ॥ 
स्वीनिजितः शुरभर्हीनो बहुमानी नपुंसकः । 
अर्थ्वसी प्रमाथी च चषाले जायते नरः ॥ २५९ ॥ 


भानसामरी ५७ 





जो मनुष्य छट नवमांश मे उत्पन्न होता है वह लियो के वहीभत, शुभकार्यं से 
हीन, अभिमानी, नपुंसक, धन नष्ट करनेवाला तथा दसररो को सन्तप्त करने 
वाला होता है ॥ २५६॥ 
विक्रान्तो मतिमाञ्नछुरः संग्रामेष्वपराजितः । 
महोत्साही च सन्तोषी जायते सप्तमांशके ।। २६० ॥ 
सप्तम नवमांश मे जन्म लेने वाला पराक्रमी, बुद्धिमन्‌, शूर, संग्रामम अजेय, 
महान्‌ उत्साही एवं सन्तोषी होना है । २६० ॥ 
कृतघ्नो मत्सरी क्रूरः क्लेशभागी बहुप्रजः । 
फलकालपरित्यागो जायते चाष्टमांशके । २६१ ॥ 
अष्टम नवमांश मं उत्पन्न व्यक्ति कृतघ्न, ईरध्यालु, क्रूर, दुःखी, बहुत सन्तान 
वाला तथा फलदायक समय का परित्याग करने वाला हता है ॥ २६१॥ 
क्रियासु कुशलो दक्षः सुप्रतापी जितेन्द्रियः । 
भू्यश्च वेष्टितो नित्यं जायते नवमेऽशके ।' २६२ ॥ 
यदि नवम नवमांशमेंजन्महोतो वह्‌ समी प्रकारके कायोँमं निपुणः योग्य, 
पराक्रमी, इन्द्रियों को जीतन वाला तथा सदैव सेव्रतों मे धिरा रहने वाना 
होता है ।॥ २६२ ॥ 


लग्नचन्द्र आदि का प्रयोजन 
लग्न देहो वगंषट्कोडुकानि प्राणश्चन्द्रो धातवोज्न्ये ग्रहेन्ाः । 
प्राणि नष्टे देहधात्व द्धनाशो यस्मात्तस्माच्चन्द्रवीयंप्रघानः । २६३ ॥ 
लग्न, शरीर, षडवगे एवं नक्षत्र देद्‌ (शरीरके अङ्क), चन्द्रमा प्राण एवं अन्यग्रह 
शरीरस्थ धातुओं के प्रतीक होतेह । प्रणके नष्ट होन पर शरीर, धातु एवं भङ्गो 
कानाकश्षहो जाता है । अनः चन्द्रवल ही प्रधान है ।। २६३॥ 
सूयं "आत्मा मनश्चन्दरस्तदात्मा जीवयोगवान्‌ । 
लग्नांशाद्‌ द्वादशांशाद्रा ग्रहाणां फलमादिशेत्‌ । २६४ ॥ 
सूयं आत्मा एवं चन्द्रमा मनदहै। इसी (मन) के योगसे आत्मा जीवसे 
युक्त होता है । लग्नके अंश ( नवमांश) या द्राददांशसे प्रहोंके फलको कहना 
चाहिए ।। २६४ ॥ 


इन्दुः सर्वत्र बीजाभो लग्नं च कुसुमप्रमम्‌ । 
__ फ फलेन सदृशोऽशश्च भावः स्वादुरसः स्मृतः ॥ २६५ ॥ 
१. लग्नं ' आध्मा' पाठान्तरम्‌ । 








४५८ "मनोरमा हिन्दीष्याश्योषेता 


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चम्दमा सर्वत्र बीज के समान, लग्न फूल के सहश, भंश ({ नवांशादि) फल 
एवं ( हादश ) माव स्वाद्रुरस के समान होते है ॥ २६५॥ 


चन्द्र राशि फल 
मेष-~-- 


लोलनेत्रः सदा रोगी धर्माीथंकृतनिश्चयः । 


पृयुजङ्खः कृतघ्नश्च निष्पापो राजपूजितः ॥ २६६ ॥ 
कामिनीहूदयानन्दो दाता भीतो जलादपि । 
चण्डकर्मा मृदुश्चन्ते मेषराशौ भवेश्चरः ॥ २६७ ॥ 
मेष राशि मे उत्पन्न व्यक्ति चश्चल नेत्रं वाला, सदव रोगी, धमं धार भथंके 
लिए कृतसंकल्प, मोटी जावो वाला, कृतघ्न, पाषरहित, राजा से सम्मानित, खी 
के हूदय को आनन्दित करने वाला, दानी, जलसे भो भयमीत, कठोर र्यं करने 
वाला परन्तु अन्त मे विनम्र होता है ॥ २६६-२६७॥ 
बुष 
भोगी दाता शुचिद॑कषो महासत्वो महाबलः । 
धनी विलासी तेजस्वी सुमित्रश्च वृषे भवेत्‌ ।। २६८ \! 
यदि वृष राक्िमंजन्महौनो सुख का भोग करने वाला, दानी, पवित्रात्मा, 
कुशल, महान्‌ आत्मा, महान्‌ शक्तिशाली, धनी, विलासी, तेजस्वी एवं अच्छे भित्र 
वाला होता है ।। २६८ ॥ 
भिथुन-- 
मिष्ट्वाक्यो लोलदष्टिदंयालुर्मेथुनप्रियः । 
गान्धवंवित्कण्डरोगी कौतिभागी धनी गुणी ।। २६६ ॥ 
गौरो दीः पटुवंक्ता मेधावी च दृढव्रतः । 
समर्थो न्यायवादी च जायते मिथुने नरः ।। २७० ॥ 
मिथुन राशि मे उत्पन्न व्यक्ति मृदमाषी, च्ल टट वाला, दयालु, ल्ली प्रसङ्ग 
का इच्छक, गान्धर्वं विद्या ( नृत्य, गीत मादि) काज्ञाता, गलेसे रोगी, यरस्वीः 
धनी, गुणवान्‌, गौरवर्णं एव लम्बे हरीर वाला, का्यकुक्लल. वक्ता, बुदिमान्‌, 
शढसंकल्प, समी प्रकार से समर्थं ओौर न्याप प्रिय होता ह । २६६, २७० ॥ 
कक-- 


कार्यकारी घनी शुरो धर्मिष्ठो गुरुवत्सलः । 
शिरोरोगी महाबुद्धिः कशांगः कत्यवित्तमः ॥ २७१ ॥ 


मनस्ागगी ५९ 


+ ~ -नन "चे 





प्रवाखशीलः कोपान्धोऽबलो दुःखी सुमित्रकः। 
मनासक्तो गृहे वक्रः कर्कराशौ मवेन्नरः ॥ २७२ ॥ 


यदि ककं राशिमंजन्म्ीनो कायं करने वाला, धनवान्‌, शुर, धार्मिक, गुर 
का प्रिय, दिरसे रोगी, अनीव वुद्धिमान्‌, दुर्बन शरीर वाला, सभी कायो का 
जाता, प्रवासी, भयंकर क्रोषी, निर्बन, दुःखी, अच्छे मित्रो वाला, गृहमे अवि 
रखने वाला तथा कुटिल होता है ।। २७१, २७२ ॥ 
िह- 
क्षमायुक्तः क्रियाशक्तो मदयमांसरतः सदा । 
देशभ्रमगशीलश्च शीतभीतः सुमित्रकः || २७३ ॥ 
विनयी शीघ्रकोपी च जननीपितुवल्लर्भः । 
व्यसनी प्रकटो लाके सिहुराशौ भवेन्नर ॥ २७४ ॥ 


यदि सिह राशिमंजन्महोतो वह्‌ पुरुष क्षमाल्लील, कायं मं समर्थं, मद्यमांस 
मे सदैव आसक्त, देण में रमण करने वाला, रीत से मयमीत, अच्छे भित्रौं वाला, 
विनयशील, शीघ्र क्रुद्ध होने वाला, माता-पिता का प्रिय, व्यसनी (नशा आदिङ्गुरे 
कायो मं मम्यस्त ) तथा संसार में प्रख्यात होता है 1 २७३, २७४॥ 


कन्पया- 

, विलासी सुजनाह्लादौ सुभगो धमंपूरितः। 
दाता दक्षः कविवृ द्धो वेदमागंपरायणः ॥ २७५ ॥ 
सर्व॑लोकप्रियो नाटघगान्धवंब्यसने रतः । 
प्रवासशीलः स्त्रीदूःखी कन्याजातो भवेन्नरः ।। २७६ ॥ 


कन्या राशि म उत्पन्न व्यक्ति विलासी, सज्जनो को आनन्दित करने वाला, 
सुन्दर, धमं ते परिपूणं, दानी, निपुण, कवि, वृद्ध, वेदिक मागं का अनुगामी, सभी 
लोगों का त्रिय, नाटकं, नृत्य ओर गीतके धुन मं आसक्त प्रवासीएवंल्ञीसेदुःखी 
होता है ।। २७५, २७६ ॥। 
पुला-- 
अस्थानरोषगो दुःखी मृदुभाषी ङपान्वितः । 
चलाक्षश्चललक्ष्मीको गुहमध्येऽतिविक्रमः ।॥ २७७ ॥ 
वाणिज्यदक्षो देवानां पूजको मित्रवत्सलः। 
प्रवासी वुहूदामिष्टस्तुलाजातो भवेन्नरः 1 २७८ ॥ 


हुला लग्न मे उत्यन्न भ्यक्ति अकारण क्रोष करने वाला, दुःखी, मधुर भाषी, 
द यालु, च्ल नेत्रो एवं अस्विरधन वाला, धरमे ही पराक्रम दिखने वाला, 


६० मनोरमाः हिन्दीष्याश्योपेता 


व्यापार मे चतुर, देवताओं का पूजन करने वाला, मित्रोंके प्रति दयालु, परदेश 
वासी तथा भित्र काप्रियपात्र होता है ॥ २७५७, २७८ ॥। 
बुन्िक- 
बालप्रवासी ऋूरात्मा श्रः पिगललोचनः । 
पारदररतो मानी निष्टुरः स्वजने भवेत्‌ । २७६ ॥ 
साहसप्राप्तलक्ष्मोको जनन्यामपि दुष्टधी: । 
घतश्चौरकलारम्भी वृश्चिके जायते नरः ॥ २८० ॥ 


बृश्चिक लगन में उत्पन्न व्यक्ति बात्यावस्थासेही परदेशमं रहने वाला, कूर 
स्वभाव वाला, शूर, पीले नेत्रो वाला, परख्री मे आसक्त, अभिमानी, अपने भार्ई- 
अन्धुओं के प्रति निदय, अपने साहससे धन प्राप्त करने वाला, अपनी माताके 
भ्रति मी दृष्ट बुद्धि वाला, धूतंता भौरचोरीकी क्लाका भअम्यास करने वाला 
होता है ।॥ २७६, २८० ॥ 
धनु-- . 
शूरः सत्यधिया युक्तः सात्विको जननन्दनः। 
शित्पविज्ञानसम्पन्नो धनाढ्यो दिव्यभार्यकः।। २८१ ॥ 
मानी चरित्रसम्पन्नो ललिताक्षरभाषकः । 
तेजस्वी स्थलदेहश्च धनुर्जातः कुलान्तकः । २८२ ॥ 
यदि धनु राशिगत जन्म हौ तो श्ूर, सत्य बुद्धिसे युक्त, सात्विक, मनुष्यो के 
इदय को भानन्दित करने वाला, शिल्प ( मूत्तिकला ), विज्ञान से सम्पन्न, धघनसे 
-युक्त, सुन्दर खी वाला, मभिमानी, चरित्रान्‌, सुन्दर शब्दों को बोलने वाला, 
तेजस्वी, मोटी शरीर वाला तथा कुल का नाशक होता है ॥ २८१, २८२ ॥ 


मकर- 

कुले नष्टो वशः स्त्रीणां पण्डितः परिवादकः । 

गीतज्ञो ललिताग्राह्यो पृत्राढश्चो मातृवत्सलः ।। २८३ ॥ 

घनी त्यागी सुभृत्यश्च दयालुबहुबोन्धवः । 

परिचिन्तितसौख्यश्च मकरे जायते नरः ॥। २८४ ॥ 

मकर राक्षिमें अन्मलेने वाला श्यक्ति मपने कुल मं नष्ट ( सबते हीन अवस्था 

में ), लियो के वशीभूत, विद्धान्‌, पर निन्दक, संगीतज्ञ, सुन्दर लियो का प्रियपात्र, 
युरो से युक्त, माता का प्रिय, धनी, त्यागी, अच्छे नौकयो वाला, दयालु, बहुत 
भादययो ( परिवार ) वाला तथा सुल्लके लिए अधिक चिन्तन करने बाला होता 
ह ।। २५३, २८४॥। 


भानसागरी ६४ 





कुम्भ-- 
दाताजसः कृतज्ञश्च गजवाजिधनेश्वरः । 
शुमदुष्टिः सदा सौम्यो धनवियाङृतोद्यमः ॥ २८५ ॥ 
पुष्याढचयः स्नेहकीतिश्च धन मोगी स्वशक्तितः । 
शालूरकुक्षिनिर्भोकः कुम्भे जातो भवेन्नरः ।॥ २८६ ॥ 


यि कम्म रामे जन्म हो तो मनुष्यं दानी, जआलसी, कृतज्ञ, हाथी, घोडा 
भौर धन कास्वामी, शुम रि एवं सदव कोमल स्वमाव वाला, धन ओर विद्या 
हेतु प्रयत्नशोल, पुत्र स युक्त, स्नेहयुक्त, यशस्वी, अपनी शक्तिसे धन का उपमोम्‌ 
करने वाला, मेढक की तरह उदर वाला तथा निर्मीकि होता है । २८५, २८६ ॥ 


मौोन- 


गम्भीरवेष्तिः श्रः पटुवाक्यो नरोत्तमः । 

कोपनः कृपणो ज्ञानी गुगश्रेष्ठः कुल प्रियः ॥ २८७ ॥ 

नित्यसेवौ शीघ्रगामी गान्धवंकुशलः शुभः । 

मीनराशौ समुत्पन्नो जायत बन्धुवत्सलः ॥। २८८ ॥ 

जिसका जन्म मीन राशिमहोताहै वह्‌ गम्भीर चेष्टा करने वाला, शक्ति- 

शाली, बोलने म चतुर, मनुष्यों म श्रेष्ठ, क्रोधी, कृपण, ज्ञानसम्पन्न, श्रेष्ठ गुणो से 
युक्त, कूल म प्रिय, नित्य सवा भाव रखन वाला. गोघ्रग्रामी, नृत्य गीतादि मे 
कुशल, शुमदर्हन वाला तथा भारई-बन्धुओं का प्रमी होता हु ॥ २८७, २८८ ॥ 


चन्द्रकुण्डली स्थित ग्रहा क फल 


ह! दश भब गत सूयं फल 
चन्दरात्प्रथमगो भानुजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
विदेशगामी भोगी च कलहे कृतवासनः ।। २८६ ॥ 
चन्द्रमासे प्रथम माब ( जन्म रा्ि)मेयदि सूयं होतो विदेश कीयत्रा 
करनेवाला, मोगौ तथा क्षगडा प्रकृति का होता है ।। २८६॥ 
जन्मकाले यस्य भानुदि तीयो यदि चन्द्रतः। 
बहुभृत्ययशाश्वव राज्यमान्यो भवेन्नरः ॥ २६० ॥ 
जन्म समयमे सूयं यदि चन्धम।से द्वितीय माव गतहो तो बहुत नौकरों तथा 
यदा से युक्त तथा राजसे सम्मानित रोना है ।। २६० ॥ 
चन्द्रा द्रानुस्तृतीयश्चंव जन्मकाले यदा भवेत्‌। 
स्वर्णार्थी बहुशुचिश्चंषे राजतुल्यो भवेक्षरः ॥ २६१ ॥ 


६२ "मनोरमाः हिन्दीस्यस्योपेता 





षिण मम 


चन्द्रमाते तृतीये मावमें सूयं यदि जन्मकालमेंहोतो स्वर्णका अभिलाषी, 
अधिक सोचने वाला तथा राजाके समान होता है । २६१॥ 
चन्द्राच्चतु्थंगो भानुज॑न्मकाले यदा भवेत्‌ । 
गणकाः कथयन्त्येव मातुहन्ता न भक्तिमान्‌ ।। २६२ ॥, 
चन्द्रमा से चौथे भावमे यदि जन्मकालिकसूयंहो तो ज्योतिषी कहते हकि 
-वह माताम श्वद्धान रखने वाला अप्तु माता का हनन करने वालाहोतादहै॥ 
चन्द्रात्पञ्चमगो भानुजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
सुताभिश्वासुखी चव बहुपुत्रो भविष्यति ।। २९३ ॥ 
यदि जन्म समय मे सूयं चनद्रमाते पँचवें मावमे हो तो वह कन्यास 
दुःखी तथा बहुत पुत्रों वालाहोता है । २६२॥ 
चन्द्रात्षष्ठगतो भानुजंन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
शत्रूणां विजयी श.रः क्षात्रकर्मरतः सदा ॥ २६४॥ 
जन्म समय मं यदि चन्द्रमासे ष्ठं मावमंमूयंटोतो शत्रुओं पर विजय प्राप्त 
करने सला, पराक्रमी तथा क्षत्रियो के अनुकूल कर्म ( प्रहासन-युद्ध ) करने वाला 
होतादहै। २६४॥ 
जन्मकाले यदा भानुश्वन्द्रात्सप्तमगो भवेत्‌ । 
सुस्त्री सुशीलचारी च राजमान्यो महातपाः ।। २६५ ॥ 
चन्द्रमासे सप्तम मावमं यदि जन्भकानिक सूयो तो उसको पत्नी सुन्दरी 
"एवं सुशीला ( सर्वत्रा ) लेती है तथा स्वयं राजमान्य एवं तपस्वी होता है ॥ 
चन्द्रादष्टमगो भानुजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
सवंदा क्लेशकारी च ह्यतिगोगात्प्रपीडतः ॥ २६६ ॥ 
जन्मकाल में चन्द्रमासे अष्टम मावे यदिसू्ंहोतो वह सदेवदुःखीतथा 
-मबङ्कुर रोगो से पीडति होता है। २६६॥ 
चन्द्राक्रवमगो भानुजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
धर्मात्मा सत्यवादी च बन्धुक्लेशी सदा भवेत्‌ 1 २६७॥ 
चन्द्रमासे नवर्मे माव में यदि जन्मक्ालिकसूर्यं टो तो धर्मात्मा, सत्यवादी 
, तथा बन्धुमो से कलेन प्राप्न करने वाला होता है ।। २९७ ॥ 
चन्द्रादृशमगो भानुजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
तस्य द्वारेषु तिष्ठन्ति धनवन्तो न॒ संशयः ॥ २६५ ॥ 
चन्द्रमासे ददा भावम यदि जन्मकालिक सूयं हो तो उसके दरवाजे षर 
"धनवान्‌ श्रेष्ठी लोग बठते ह इसमें सन्देह नदीं ॥ २६० ॥। 


मानसागरी ६३ 





चन्द्रादेकादशं भानुजजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
राजगब्यंतिवेत्ता च प्रसिद्धः कुलनायकः ॥ २६६ ॥ 
चन्द्रमासे एकादग माव्रमे यदिसूर्धहोतो राजगौरवको प्राप्त करने वाला, 
अधिक (विषयों का) ज्ञाता प्रसिद्ध एवं भपने कुल का नायक होता है ॥ २६९ ॥ 
चन्द्राद्‌ दादशगो मानुजंन्मकाले यदा मवेत्‌ । 
तैजोहीनौो नयनयो रोषावेशातर मुच्यते । ३०० ॥ 


यदि जन्म समय मे सुयं चन्द्रमाते बारहवें भावर्भंहो तो जातक नेत्र ज्योति- 
दीन होता है तथा वह्‌ क्रोध एवं भावेदा से मुक्तं होता है ॥ ३०० ॥ 


दादश भावगत भीम एल 


चन्द्रात््रथमगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
रक्ताक्षी रुधिरसखरावी रक्तवर्णो भवेन्नरः । ३०१ ॥। 
यदि जन्म समयम चन्द्रमासं प्रथम माव ( राक्शिस्थान) मे मंगलहोतौ 
लालनेत्रौं वाला एवं लाल वणं का पुरुषदटानाहै तथा उसके शरीरस रक्त ज्ञाव 
होता है।। ३०१॥ 
चन्द्राद्‌ द्वितीयगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
धराषीशो भवेत्पुत्रः कृषिकर्ता न संशयः ॥ ३०२ ॥ 
चन्द्रमासे हितीय मावमें यदि जन्मकालिक मंगलदहौोतौोउस जातक का 
पुत्र पृथ्वी कास्वामी तथा कृषि काय करने वाला होताहै इसमे संशय नहीं। 
अर्थात्‌ जमीन्दार होता है। ३०२ ॥ 
चन्द्रात्ततीयगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
चतुर्भ्ात्समायुक्तः सुशीलः सवंदा सूखी ।॥ ३०३ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे तृतीय भावम मंगलहोतो वह्‌ चार माइयोंसे 
युक्त, सुशील तथा सदव सुखी होता है । ३०२३ ॥ 


चन्द्राच्चतुर्थगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
सुखभङ्खो दरिद्रः स्यात्प्‌ंसः स्त्री अियते प्र्‌.वम्‌ ।। ३०४ ॥ 
जग्म समयमे यदि मंगल चन्द्रमासे चौथे मवमे होतो उसके सुखका 
नाश, दारिद्रचः प्राप्ति तथा प्रल्नीकी मृत्यु होतीहै। ३०४॥। 


चन्द्राद्प्मगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
ुत्रहीनो नरः स्त्रीणां लग्ने पतति निश्चितम्‌ ।॥ ३०५ ॥ 


६४ "मनोरमा" हिन्दीभ्याख्योपेता 





"णाध 


अन्द्रमासे पाचवं मावमे मंगल जन्म समयमे पड़ाहोतो पुरुष पुत्र हीन 
होता हि। यदि स्त्री संज्ञक लग्न मे जन्म हौ तो अवश्य ही निःसन्तान 
होता है ।॥ ३०५।। 
चन्द्राच्च षष्ठगो भौमो जन्मकलि यदा भवेत्‌ । 
अघम शत्रुता चेव सदा रोगेण पीडितः ॥ ३०६ ॥ 
यदि चन्द्रमासे छठे मावमे जन्म कालिक मंगल होतो अधमंमे शत्रुतो 
होती है तथा सदैव रोगसे पीडित होताहै।। ३०६॥ 
चन्द्रात्सप्तमगो भौमो जन्भकाले यदा भवेत्‌ । 
स्त्री कुशोला भवेत्तस्य सदा चाप्रियवादिनी ॥ ३०७ ॥ 
चन्द्रमासे सप्तम भावम मंगल यदि जन्म समयमे होतो उसकीस््री 
दुश्चरित्रा, एवं प्रिय वचन बोलने वाली होती है ।। ३०७ ॥ 
चन्द्रादष्टमगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
जीवहम्ता महापापी शीलसत्यविवजितः । ३०८ ॥ 
चन्द्रमा से आठर्वे मावमं यदि जन्म कालिक मंगल होतो वह जीव हिस 
करने वाला, महापापी, ज्ञीन भौर सत्यसे रहित होतादहै।। २३०८ ॥ 
चन्द्रान्नवमगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
लक्ष्मीवांश्च भवेत्पुत्रो वृद्धकाले न संशयः । ३०६ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे नवं मावमं मंगलदहौीतो वहु व्यक्ति धनवान 
होता है तथा वृद्धावस्था मे उस पृच्र प्राप्त होता है । ३०६॥ 
चन्द्राहृशमगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
तस्य दारेषु तिष्ठन्ति गजा अश्वा न संशयः ॥ ३१० ॥ 
चन्द्रमासे दकशर्वं माव म यदि जन्म कालिक मंगलहो तो उसके दरवाजे षर 
निःसन्देह्‌ हाथी गौर धोडे ठते ह ॥ ३१० ॥ 
चन्द्रादेकादशे भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
राजद्वारे प्रसिद्धः स्या्यशोरूपसमन्वितः ॥ ३११ ॥ 
यदि जन्म कलमे मंगल चन्द्रमासे ग्यारहू्वे मावमेहोतो बहु राजदरबार 
मे प्रसिद्ध एवं सुन्दर स्वरूप से युक्त होता है ।॥ ३११॥ 
चन्द्राद्‌ दादशगो भौमो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
मातुश्चासुल्लकारी च सदा कष्टरदायकः ( ३१२॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे बारह मावमें मंगल हो तो भ्यक्ति मत 
को सुख न देने वामा एवं सदव कषटदायक होता है ॥ ३१२ ॥ 


भानसामरी ६१ 





दएरमावमत बचफल 
चन्द्राल्मथमगः सौम्यः सुखरूपं विना नरः । 
दुष्टमाषी मतिन्न शी स्थानन्नष्टो दिने दिने ।। ३१३ ॥ 
चन्द्रमा से प्रथम भाव (रारि) में यदिबुघहो तो मनुष्य सुख मैर सौन्दयं 
से रहित, कटुमाषी, भर बदधि वाला तथा बार-बार स्थान-च्युत होने वाला 


होता है ।॥ २३१२॥ 


चन्द्राद्द्वितीयगः सौम्यो धनधान्यसमाकुलः । 
गृहबन्धुषनप्राप्तिः शीतरोगंविनस्यति ॥ ३१४ ॥ 
अन्दमासे द्वितीय मावमें यदिबरुषहोतो वह धन सम्पत्तिसे परिपूर्ण, गृह, 
परिवार एवं धनको प्राप्त करने वाला होता हं । तथा शीतजन्य रोग से उसकी 
भृत्यु होती है ।॥ २१४ ॥ 
चन्द्रात्पहजगः सौम्यः कुर्ते चां संपदः । 
राज्यलाभो भवेत्तस्य महतां सङ्गमो धवम्‌ ॥ २३१५ ॥ 


चन्द्रमा से सहज (तृतीय) माव मेवुधहो तो धन गौर सम्पत्तिकोदेने वाला, 
राज्य-लाभ एवं महान्‌ पुरुषों का सङ्गम कराने वाला होता है।॥ ३१५॥ 


चन्द्राच्चतुर्थगः सौम्यः सवंदा सुखकारकः । 
मातुपक्षान्महालाभः सुखं जीवति मानवः ॥ ३१६ ॥ 
चन्द्रमासे चलुथं मावमें गया हुभा बुघ सदंव सुखे दायक, माताके पक्षस 
महान लाभ दिलाने वाला टोता है तथा मनुष्य का जीवन सुखमय बनाता है ॥।३१६॥ 
चन्द्रात्‌ पञ्चमगः सौम्यो बुद्धिमांश्च विचक्षणः । 
रूपवांश्च महाकामी कुवाक्यं धारयेन्नरः ॥ ३१७॥ 
यदि चन्द्रमासे पांचवे भावम बध हो तो वह मनुष्य सभ्जन, बुद्धिमान्‌, 
विद्वान्‌, सुन्दर, अत्यन्त कामी, तथा अपकषब्द बोलने वाला होता है ॥ ३१७ ॥ 
चन्द्रात्‌ षष्ठगतः सौम्यः कृपणः कातरो भवेत्‌ । 
विवादे चं महाभीरू रोमशो दीर्घलोचनः ॥ ३१८ ।। 


चन्द्रमासे छठे भावम बृधहोतो व्यक्ति सौम्य, कजूस, कातर ( डरपोक ), 
विवाद से भयमीत, रोर्ये तथा दीघंनेत्रों वाला होता है । २३१८॥ 


चन्द्रास्सप्तमगः सौम्यः स्त्रीणां च वशगो नरः । 


कृपणश्च धनाढघश्च बह्वायुश्च भविष्यति ॥ ३१९ ॥ 
9 भमा०्धा० 


६६ "मनोरमा" हिन्दीम्यास्योपेता 


चे 





चन्द्रमा से सप्तम मावमे बुष मयाहोतो बेह पुर्वन्ली के वशीभूत, कञुस, 
धन से युक्त तथा दीर्षायु सम्पन्न होता है । ३१९ ॥ 


चन्द्रादष्टमगे सौम्ये देहे शीतो भविष्यति, 
राजमध्ये प्रसिद्धश्च शत्रूणां च भयद्धुरः ॥ ३२० ॥ 


यदि बन्द्रमासे भव्वे मावमे बुधटोतोशरीरमे शीतं का प्रमाबहोगा। 
राजाओं के बीच प्रसिद्ध, तथा शत्रुओं के लिए मयङ्कुर होतादहै।। ३२० ॥ 
चन्द्रान्नवमगः सौम्यः स्वघमंस्य विरोकः । 
अन्यधर्मरतः पुंसो विरोधी दारुणो भवेत्‌ ॥ ३२१ ॥ 


चन्द्रमासे नवम भावम गया हज बु मनुष्य को अपने घमं का विरोधी, 
अन्यघमं मे आसक्त, पुरुषों का विरोधी तथा भयानक कायं करने वाला 
अनातादहै।॥ ३२१॥ 


चन्द्राहुशमगः सौम्यो राजयोगी नरः सदा । 
कर्मराशौ यदा चन्द्रः कुटुम्बे नायको मवेत्‌ ॥ ३२२ ॥ 
चन्द्रमा से दशम मावमेबुषहोतो वह मनुष्य सदंव राज्ययोग प्राप्त करता 
दै । दशनं मावमे यदि चन््रमाहोतो वह कुटुम्ब का नायक होता है ।। ३२२॥ 
चन्द्रादेकादशे सौम्यो लाभकारी पदे पदे। 
वषं एकादशे पुंसः पाणिग्राही भविष्यति ॥ ३२३ ॥ 
यदि चन्द्रमासे ग्यारहू्वे मावमेबुधहोतो कंदम-कदम पर लाम देने वाला 
तथा ग्यारहरवे वषं में विवाह करने वाला होत्रा है ।। ३२३॥ 
चन्द्रादद्रादशगः सौम्यः सव॑दा कृपणो भवेत्‌ । 
तत्युतस्य जयो नास्ति लभेत्तत्र॒ पराजयम्‌ \ ३२४ ॥ 


चन्द्रमासे बारह मावमेंबुधटोतो मनुष्य कृपण होताहै। उसके पृत्रकी 
कहीं भी विजय नहीं होती है सरव॑त्र पराजयही होती है। ३२४॥ 


ढहद्श भाविगत गुरुश रल 
'=वन्द्रस्र॑थ्मगो जीवो जीवयोग्यो भवेन्नरः । 
व्याधिना रहितः शूरो निधनो न कदाचन ॥ ३२५॥ 
अन्द्रमाते प्रथम भावम गुरुहोतो वह्‌ ग्यक्ति जीने योग्य होताह। ्याधि 
ओ रदित शक्तिशाली होला है तथा कजी निर्धन नहीं होता ॥ ३२५॥ 


च्दुहिकीधमो श्रीवो राजमान्यः शताक्षी । 
भत्युग्रञ्च प्रतापी च धर्मिष्ठः पापवर्जितः ॥ ३२६ ॥ 


मानत्ागरी ६७ 





यदि चन््रमा्रे दृसरे मावमे गुरुहोतो राजासे सम्मानित, १०० वषं की 
आयु वाला, मत्यन्त क्रोषी, पराक्रमी, धामिक तथा पापस रहित होता दै ।३२६॥ 


चन्द्रात्तुतीयगे जीवे नारीणां वल्लभो भवेत्‌ । 
धनवृद्धिः पितुगेहे वषं सप्तदशे तथा ॥ ३२७ ॥ 
चन्द्रमासे तृतीय भावम यदि गृरुहोतो वहु ल्यं का प्रिय होता है । सत्रह 
चष की भयुमे पिताकेधरमंधन की वृद्धि होती है।। ३२७॥ 
चन्द्राच्वतुर्थंगो जीवः सुखश्च व॒ विवजितः । 
मातृपक्षे महाक्ष्टौ परेषां गृहकर्मकृत्‌ ॥ ३२८ ॥ 
चन्द्रमासे चौये मावमं स्थित ब्ृदृस्पतति सुख मे रहित, माताके पक्षसेदुःखी 
तथा दूसरोँके ग्रह का निर्माण करने वाला वनाता है।। २२८॥ 


चन्द्रात्पश्चमगो जीवो दिव्यदृष्टिभेवेन्नरः । 
तेजस्वी पुत्रदा नारी ह्यत्युग्रश्च महाधनी ॥ ३२९ ॥ 
चन्द्रमा से पाच्वे भावम ब्रटरस्पति रो नो मनुष्य तीव्र दृष्टि वाला, तेजस्वी, 
अत्यनन उग्र ओर महान्‌ धनवान होता है तथा उसकी पत्नी पुत्र उत्पन्न करने वाली 
श्ोती है । ३२६ ॥ 


चन्द्राच्च षष्ठगो जीवो +दासीगृहुविवजितः । 
आयर्बाह्य ° भवेत्पुंसां भिक्नाभोक्ताऽव्यवस्थितः ॥। ३३० ॥ 
चन्द्रमासे छठे मावमें गुरुहोतो सेविका (खी) एवं गृह से रहित, आयु 
क्रो व्यथं बिताने वाला, भिक्षा से मोजन करने वाला एवं अव्यवस्थित होता टै॥ 
[ इस श्लोक मं मतान्तर है । वस्तुतः इसका आशय यह है कि चन्द्रमासे षष्ठ 
भावम बृहस्पतिहोतो व्यक्ति गरृहका त्याग कर॒ रिक्षावृत्ति से जीवन यापन 
करताहै। | 
चन्द्रात्तप्तमगो जीवो बहुजीवी व्ययं विना । 
स्थलदेही क्लीबपाण्डुगु हमध्ये च नायकः | ३३१ ॥ 
चन्द्रमासे सप्तम मावमेब्रृहुस्पतिहोतो दीष जीबी, खचं न करने वाला 
( कृपण ), स्थूल शरीर वाला, नपुंसक, पीले वणं वाला तथा गृह ( परिवार) में 
शष्ठ ( अग्रणी ) पुरुष होता है ।। ३३१ ॥ 


चन्द्रादषटमगो जीवो देहरोगी सदा नरः। 
सुतातोऽपि महाक्लेशी सुखं स्वप्ने न दुश्यते ॥ ३३२ ॥ 





१. उदासी, हपुदासी इति पाठान्तरम्‌ । 
२. भायुर्बहु पाठान्तरम्‌ । 


६८ "मनोरमा" हिम्दीभ्यास्योपेता 





चन्द्रमसे अष्टम भावम यदिगशुरुहो तो मनुष्य सदैव हारीरसे रौभीश्ोता 
है । सुयौग्य पिताके रहते हये भी मदान्‌ दुःखी तथा स्वप्ने भी सुख न देखते 
वाला होता है।। ३३२ ॥। 
चन्द्रान्नवमगो जीवो धर्मिष्ठो धनपुरितः । 
सुमागं सुगतश्च॑व॒ देवगृर्वोश्चि सेवकः ॥ ३३३ ॥ 
चन्डमा से नवम भावमेंगुशुहो तो जातक भा्भिक, घन से परिपूर्णे, मन्छे 
मार्गं में सदाचार पूवंक रहने वाला, देवता ओर गुरु का सेवक होता है । ३३३ ॥ 
चन्द्राहशमगो जीवो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
पत्रदारपरित्यागी तपस्वी च भवेन्नरः ।॥ ३३४ ॥ 
जन्म समय में यदि चन्द्रमा से ददयवंभावमे बृहृस्पतिहो तो पु्रन्लञी का व्याक 
करटे वाला तथा तपस्वी पुरुष होता है ।। ३३४ ॥ 
चन्द्रादेकादशे जीवो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
अश्वारूढो भवेत्पुत्रो राजतुल्यो भवेन्नरः ॥ ३३५ ॥ 
जन्म समय मे चन्द्रमासे एकादेश भावम यदि गुरुहो तो उस ब्यक्तिका 
पुत्र धुडसवारी करने वाला राजाके समान होता है ॥ ३३५॥ 
चन्द्राददरादशगो जीवो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
स्यात्कुटुम्बविरोधी च सुखं शत्रोद्‌ शा गृहे ॥ ३३६ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे बारूर्वे भावम गृरूहोतो कुटुम्बियों से विरोक्ष 
होता तथा शत्रुभावमे हटि होने से सुख प्राप्त करता है।। ३३६॥ 


दाद शभावगत शक्र का छल 


चन्द्रात्तु प्रथमे शुक्रो जन्भकाले यदा भवेत्‌ । 
जले मत्युमवेत्तस्य सन्निपातो हि हिसया ॥ ३२३७ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे प्रथम मावमें शुक्रहौी तो उसकी मृष्यु जलम 
होती है अथवा हिसा हारा निश्चय ही उसका पतन होता है ।॥। ३३७ ॥ 
चन्द्राद्द्वितीयगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
महाधनी महाज्ञानी राजतुल्यो न संशयः ॥ ३३८ ॥ 
चन्द्रमा से द्वितीय भावमें शुक्र यदि जन्म समयमेहोतो वह्‌ महान्‌ भनवान्‌ः 
बहुत बडा विदान्‌ तथा निःसम्देह्‌ वह राजा के तुल्य होता है ।॥ ३३०८ ॥ 
चन्दरास्यहजगः शुको जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
धर्मिष्ठो बुदधिमांस्वंव म्लेच्छतो लामकारकः ॥ ३३९ ॥ 


मानस्ागरी ६ 


चन्द्रमा से ततीय भावम यदि जन्म समयमे शुक्रहो तो वहु व्यक्ति धामिक, 
बुदधिमान्‌ तथा म्नेष्छों ( चाण्डालो ) से लाभ लेने वाला होता है ॥ ३३९ ॥ 


चन्दराश्वतुर्थगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
कफाधिको भहाक्षीणो वाद्ध॑क्ये धनवजितः ॥ ३४० ॥ 


जन्म समयमे चन्द्रमासे चतुर्थं भावम यदिशुक्रहो तो कफ की अधिकता 
शवं अधिक दुर्बलता होती है तथा वृद्धावस्थामे धन का अमाव होता दहै । ३४० ॥ 
चन्द्रातपच्बमगः शुक्रो जन्मकाले यदा मवेत्‌ । 
बहुकन्या भविष्यन्ति धनाढच्ोऽयशसान्वितः ॥ ३४१ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे पवर्वे भाव मं शुक्रहो तो बहुत सी कन्याये 
शोती है तथान से युक्त एवं अपयशका मागी होता है । ३४१॥ 
चन्द्राच्च षष्ठगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
दु्व्यंयाद्धयकारी च संग्रामे च पराजितः । ३४२ ॥ 


जन्म समयमे यदि चन््रमासेषठठें मावमे शुक्र हौतौ भपव्यय के कारण 
मयमीत होने वाला तथा संग्राममे पराजित टोने वाला पुरुष होता है ।। ३४२ ॥ 


चन्द्रात्सप्तमगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
पुरुषार्थंहीनोऽकुशलः शद्धितश्च पदे पदे ॥ ३४३ ॥ 
जन्म समयम यदि चन्द्रमासे सातर्वे भावमेशुक्रटोतो वह व्यक्ति पुरुषां 
से रहित, अयोग्य तथा पग-पग परर शंका करने वाला होता है ।॥। ३४३ ॥। 
चन्द्रादष्टमगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
प्रसिद्धो हि महायोद्धा दाता भोक्ता महाधनी ॥ ३४४ ॥ 
यदि जन्मकालम्‌ चन्द्रमासे आठवें भावम शुक्रहो तो वह्‌ व्यक्ति प्रसिद्ध, 
महान्‌ योद्धा, दानी, मोग करने वाला ओर महान्‌ धनवान्‌ हौता है ।। ३४४ ॥ 
चन्दरास्नवमगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
बहवः सहजा मित्रभगिनोबहुलो भवेत्‌ ॥ २४५ ॥ 
अन्दरमाते नवम मावमं यदि जन्मकालिकं शुक्रटो तो बहुत अधिक भाई, 
अह्न एवं भित्रों वाला होता है । ३४५॥ 
चन्द्राच्च दशमे शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
भातुपित्रोः पुखप्रापिर्जीवितं तु बृहद्धवेत्‌ । ३४६ ॥ 
यदि जन्म समयमे जन्दमासे दशवे मावमेशुक्र दहो तो माता-पिासे शुष 
आप्त करने वाला त्था दीर्षयु होता है ।॥ ३४६ ॥ 


७० “मनोरमा हिन्दीष्यास्योपेता 


चन्द्रादेकादशे शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
बहायुश्च भवेत्पुसो रिपुरोगविवर्जितः ।। ३४७ ॥ 
जन्म समय मे यदि चन््रमासे ग्यारहर्वे भावमेशुकहोतो मनुष्य लम्बी भाय 
वाला, शत्रु तथा रोगों से रहित होता है। ३४३ ॥ 
चन्द्राद्‌ द्वादशगः शुक्रो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
परदाररतो नित्यं लम्पटो ज्ञानहीनकः ॥ ३४०५ ॥ 


जन्भ समयमे यदि चन्द्रमासे बारहर्वे भावमें शुक्र होतो जातक निरन्तर 
अन्य खरी मे आसक्त, लम्पट तथा मूखं होता है ॥ ३४८ ॥ 


दादश भावगत शनि ङा एल 


चन्द्रात्‌ प्रथमगो नूनं शनिजंन्मनि सम्भवेत्‌ । 
प्राणनाशोऽथंनाशश्च बन्धुनाशस्तथापरे ॥ ३४६ ॥ 
जन्म समयमे यदि चन्द्रमासे प्रथम भावमेंशनिरहोतो प्राण, धन, बन्धु एवं 
अन्य सदस्यो का नाश होता है 1 ३४६ ॥ 
चन्दरादद्वितीयगो मन्दो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
मातुश्च कष्ट्कारी स्यादजाक्षीराच्चजीवति ॥ ३५० ॥ 
जन्म समयमे यदि चन््रमासेद्िनीय शावमेशनिरटरोतो मताकोक्षदेने 
वाला हता है तथा उसका पोषण बकरीके दूषसे होत्तादहै। ३५० ॥ 
चन्दरात्पहुजगः सौरिजंन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
बहूुकन्याः समूत्पद्य श्रियन्ते तस्य केवलम्‌ । ३५१ ॥ 
चन्द्रमा से तीसरे भाव मे यदि जन्मकालिक निहो तो उस व्यक्ति को बहुत 
मरी कन्यार्ये पैदा होकर मर जाती ह ।। ३५१॥ 
चन्द्राच्चतुथंगो नूनं शनिजंन्मनि संभवेत्‌ । 
महापौस्षकारी च शत्रहन्ता नसंशयः ।। ३५२ ॥ 
चन्द्रमा से चौये भावम यदि शनि जन्म समयम होतो वह्‌ महान धुरषार्थी 
एवं शत्रु का नाश करने वाला होता दहै इसमं सन्देह नहीं ।। ३५२ ॥ 


चन्द्रात्पञ्चमगः सीरिर्जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
स्री स्याच्छधामलवर्णा च ह्यथवी प्रियवादिनी ।। ३५३ ॥ 


जन्म समयमे यवि चश््रमासे पशव मावमेदानिहो तो उस ग्यक्ति की पल्ली 
श्याम वर्णं की अथवा त्रिय बोलने काली होती है ।। ३५३ ॥ 


मानस्तागदी ७१ 





रविजः वछठगश्न्द्राज्जन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
महाक्लेली तथा कष्टी बयुर्हनो भवेन्नरः ॥ ३५४ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमासे छट मावमें शनिहो तो मनुष्य महान्‌ क्लेश 
पाने वाला, कष्ट सहन करने वाला तथा आयुते हीन होता है ।। ३५४ ॥ 
चन्द्राच्च सप्तमे स्थाने यदा च रविनन्दनः । 
महाधर्मी च दाता च बहुस्त्रीणां करग्रही ।। ३५५ ॥ 
चन्द्रमासे सातं मावमे यदिशनिहोतो बहु महान्‌ धार्मिक, दानीतथा 
बहुत सी लियो + पाणिग्रहण करने वालाहोतादहै। ३५५॥ 
रविजो ह्यष्टमे स्थाने चन्द्रतो जन्मसम्भवंः । 
पितुश्च कष्टकारी च बहुदाने शुमं भवेत्‌ ॥ २५६ ॥ 
जन्म समयम चन्द्रमासे ाठ्वेमावमे यदि शनिहो तो जातक पिताको 
कष्टदेने वालाहोतादै तथा बहून दान करने से उसका कल्याण होता है ॥३५६॥ 
चन्दरान्नवमगः सौरिजंन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
तदा मुग्धदशाप्राप्तिघंनहानिभंविष्यति ॥ ३५७ ॥ 
अन्द्रमासे न्वे मावम शनि यदि जन्म समयमेहो तो उसकी दशा गाने पर 
मूर्छा एवं घन हानि होनी ॥ ३५६ ॥ 
चन्द्राहुशमगः सौरिजन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
नृपतुल्यो भवेहही कृपणो धघनपूरितः ।॥ ३५८ ॥ 
अन्द्रमासे दशम भावम यदि जन्मकालिकश्निहो तो वह मनुष्य राजाके 
समान, धन धान्य से परिपूणं तथा कजृस होता है ।। ३५८ ॥ 
चन्द्रादेकादशे सौरि्जंन्मकाले यदा भवेत्‌ । 
देहक्लेशी महाकष्टी ह्यधर्मो च न संशयः ।। ३५६ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमा से ग्यारह माव मे दनिहोतो वह व्यक्ति 
निःसम्देह शरीरसे पीडित, कृष्ट पाने बाला तथा अधर्मी होता है ॥ ३५६ ॥ 
द्वादशे भवने सौरिश्नन्द्राच्च पतितो यदि। 
निधनो भिक्षुकश्चंव धर्मणंवं विवजितः ॥ २६० ॥ 
अन्द्रमासे बरहरवे भाव मे यदि जम्मकालिक् शनिष्डाहो तो व्यक्ति निर्षन, 
भिल्ला मांगने वाला वथा धमं से रहित होता है ॥ ३६० ॥ 


दादश भावेगत शाहु का फल 


ध्म॑कर्मतनुस्यनि चन्द्रादि पते्तमः। 
जन्मकाले भृपतिश्च बुद्धकाले महाधनी ॥ ३६१ ॥ 


७२ "मनोरमा" हिन्दीष्याश्योषेता 





यिषया णमि रणिरीर 


चश्मा से प्रथम, नवम तथा ददहामस्वानमे यदि राहु हो तो जातक जन्म 
समयमे राजा तथा बुदधावस्था मे धनवान्‌ होता दहै। [ अर्थात्‌ षीरे-षीरे हास 
होता है ] ॥ ३६१ ॥ 
षष्ठं च द्वादशे राहुश्वन्द्राच्च पतितो यदि ।५ 
सराजं राजमन्त्री च धनधास्यसमाकुलः । ३६२ ॥ 


चन्द्रमासे छट मौर बारह््ये मावमे यदि राहुपडाहोतौ वहु व्यक्ति राजा, 
राजा का मन्त्री अथवा धन-घान्य से परिपूणं हाता है । ३६२॥ 
चतुथं सप्तमे राहुश्न्द्राच्च यदि जायते । 
माता पिता महाकष्टी सदा ह्यसुखदायकः । ३६२ ॥ 


. यदि चन्द्रमासे चौचेया सत्वे मावमेंरहूहो तो माता-पिता महान कष्ट 
क्षेलने वाले होते है तथा स्वयं मीसदादुःखदेने वाला व्यक्ति होत। है ॥ ३६२॥ 


घन एकादशे स्थाने चनद्राद्राहुः प्रजायते । 
धनमानवसंयुक्तः सुखं स्वप्ने न दृश्यते ॥ ३६४ ॥ 


चन्द्रमासे दूसरे तथा ग्यारह मावमें यदि राहूहो तोव्यक्तिषन एवं परिजन 
से युक्त तथा स्वप्नमंभीसूुखको न देखने वाला होता है। ३६४॥ 


पञ्चमे च यदा राहुश्चन्द्राज्जलजसम्भवम्‌ । 
निधनं चापि सिद्धः च भआपदश्च पदे पदे । ३६५ ॥ 


चन्द्रमासे पांचर्वे भावम यदिरहूहोतो जल से (मथवा जल से सम्बन्धित 
रोगों हारा) मृत्यु होती है तथा पग-पग पर आपत्तियां आती हं ।। ३६५ ॥ 


राशियों क चरणानुसार एल दवं आयु-विचार 


अश्विनी-मरणी-कृत्तिकापादे मेषराशिः । भौमक्षेत्रे जन्मतो नवपादफलम्‌- 
प्रथमे राज्यवान्‌ १, द्वितीये धनवान्‌ २, तृतीये विद्यावान्‌ ३, चतुथं देवगुरुमक्ततः 
४, पय््वमे चौरः ५, ष्ठ कालभाषाहीनः ६, सप्तमे योगीच्ः ७, अष्टमे 
नि्षंनः ८, नवमे शुभलक्षणः € । १ मासे कष्टम्‌, १, १३ वर्ष॑योः अत्पमृत्युः, 
१८ वषं जलधातः, ६४ वषं घातः, ५० वषं अङ्खरोगः, ( तत्रैव चौरलोहपीढा, 
उपघातश्च ), यदा शुभग्रहनिरीक्षितस्तदा जीवति वर्षादि ७५।२।०।१५।१५ 





१. “शृतीयं कादश षष्ठे राहुश्रन्द्राद्‌ मवेद्यदि”” इति पाठान्तरम्‌ । 
इससे तीसरे भावस्य राहु काफल मिल अताहै। परन्तु किती ग्रन्थ 
मे यहु पाठ अम्थत्र महीं भिलता। 


मानसषागरी ७३ 





यावत्‌ । ततः कातिकमासे ( पक्षे ? ) चतुर्थ्यां कुजवारे भरणी नवात्र देहं 
त्यजति ॥ १ ॥ इति मेषराशिफलम्‌ । 

अश्विनी अर भरणी के बार-बार पाद तथा कत्तिका का एक (प्रथम) पाद मेष 
राशि होती हि। यह मौमकाक्ेत्र ( राक्ि) ह दस्मे उत्पन्न व्यक्तिका फल नव 
चरणों के अनुसार इस प्रकार है--प्रथम चरणर्मे राज्य युक्त, द्वितीय चरणमें 
धनी, तीसरे में विद्यावान्‌, चौये मे देवता मौर गुरू का भक्त, पर्वे मे चोर, टे 
मे काल ( सामयिक ) भाषासे हीन, सातर्वे मे योगीन्र, आ्ठ्वे में निर्धन, नवमर्मे 
शुम लक्षणों ते युक्त होता है । मेष राशि मे उत्पन्न व्यक्ति को प्रथम मासमे कणर, 
१, १३ वषो मे अल्पमारकेश ( मृत्युतुल्य कष्ट ), ०्वे वषं मे जलमय, ६४ वषं 
मं घात, ५० में अंगरोग, अथवा चोर, लोहा आदिसे उपघात होता है। यदि 
शुभग्रह देखते हों तो ७५ वर्षं २ मास ० दिन १५ टी १५ पल तक जीवित 
रहता है । अनन्तर कात्तिक मास की चतुर्थी मौमवारको भरणी नक्षत्रमेदेहका 
परित्याग करदेतादहै।। १॥ यह्‌ मेष राहि गत फलदहै। 


कृत्तिकायास्त्रयः पादा रोहिणीमृगशिरोद्ध वृषराशिः । शुक्रक्षेत्रे जन्मतो 
नवपादफलम्‌- प्रथमे यशोवान्‌ १, सुतवानू २, रणवान्‌ ३, शुमलक्षणः ४विद्या- 
वान्‌ ५, सौभाग्यवान्‌ ६, कुलमण्डनः ७, धनधान्यसमर्थः 5, परदारचौरः ६ । 
वषषु २।६।८।३३।४६।५२।६२ एतेषु अग्निलोहसाण्डसप्पंकष्टदेवदोषघाता एते 
अल्पमृत्यवो यदा व्यतिक्रामन्ति तदा वर्षादि ८५।६।७ जीवति माघमासे शुक्ल- 
पक्षं ९ तिथौ शुक्रदिने रोहिणीनक्षत्रं अर्धरात्रे देहं त्यजति ॥ २॥। इति वष- 
राशिफलम्‌ । 

कृत्तिका के ३ चरण, रोहिणी के चार तथा मृगशिराकेदो पाद मिलकर वृष 
राशि होती है, यह्‌ शुक्र काक्ेत्र है इसमें उत्पन्न ष्यक्तिका नव चरणों के अनुसार 
` फल इस प्रकार है प्रथम चरण मं जन्म हो तो यक्षस्वी, द्वितीय मे पुत्रवान, तीसरे 
मं योद्धा, चौथे मे शुम लक्षण सम्पन्न, पांचवें मं विद्वान्‌, छठे में सौमाग्यशाली, सातवें 
मे कुलभूषण, आठकं मे धन-~षान्य से पूणं तथा नवम में जन्म होतो षर्लीका 
अपहरण करने वाला होता है। 

जन्मसे ३, ६, ८, ३३, ४६, ५२, ६३ वर्षो में अल्पायु ( अरिष्ट ) योग होते 
है इनमे अगिनि, लौह, साड, सपं, कष्ट, देव दोष तथा धात सेक्ष्टहोतादहै। यदि 
ये बीत जायं तो ८५ वषं. ६ मास ७ दिन तक जीवित रहकर माषं मास शुक्ल पक्ष 
९ तिथि, शुक्रवार रोहिणी नक्षत्र मे, अद्धं रात्रिम देहकास्यागक्रताहै।२॥ 
यह वृषरा्ि काफल दहै। 

मृगशिरोऽद्ध , आद्रपुनवंसुपादनत्रयं मिथुनराशिः। बुधक्षेत्रे जन्मतो नवपाद- 
` फलम्‌-प्रथमे भाम्यवान्‌ १, निधनः २, कृत्सितभाषी ३, धनेश्वरः ४, भाम्य- 


७४ मनोरमा” हिन्दीष्यास्योपेता 


कान्‌ ५, भनधान्यभोगी ६, चौरः ७, भाहातम्यसिदिः, देवगुरुमाननीकः & + 
कष्टमासः ६, वषं ६ अङ्गरोगः, १० वषे चक्षुपीड, ११। १८ वषं घातः । २४). 
५६।६३ वर्णेषु अत्पमृत्युः, यदा शुभग्रहनिरीक्षितो भवति तदा जीवति वर्षाणि 
८५। पौषमासे कृष्णपक्ष अष्टमीतिथौ बुधवारे आरद्रानिक्षत्रे प्रथम प्रहरे दर 
त्यजति ।। ३ ॥ इति मिथुनराशिफलम्‌ । 


मृग्िरा कार पाद, आरद्रका रु तथा पुनवसुका ३ पाद मिलकर मिथुन 
राहि होती है। पह बुष काक्षेत्र हि । इसमे जन्म लेने वालों का चरणानुमार फल 
एवं मायु कट रहा £- 


प्रणम चरणमे जन्मही तो भाग्यवान्‌, दूसरे में निधंन, तीसरे मे गपरशब्द बोलने 
वाला, बौये मे धनवान्‌, पचे मे माग्यवान्‌, छठे मे बनसम्पत्ति काभमोम करने 
वाला, सातवे मे चोर, आ्ठवे मे मानवृद्धि तथा नवम मे देवता भीर गुरुम भक्ति 
रखने वाला होता है । हस राशिवाने को च्ठे मासमे कष्टः छठे वषंमेशरोरमे 
रोग, १०दें वर्षमे नेत्र पीडा, ११, श्वे वषमे घात होतादहै। २४, ५६, ६ 
वषं मे अरिष्ट होता है । यदि राक्षि पर शुमग्रहों कीटृषटिहोतो वह ८४५ वषं तक 
जीवित रहता है । अनन्तर पौष मासके कृष्ण पक्षम, अष्टमी तिथि बुषवार आर्द्र 


नक्षत्र एवं प्रथम प्रहरमे शरीर कात्यागकरता है॥३॥ यह मिथुन राहि 
काफलदहै। 


पुनवंसुपादमेकं पुष्य आश्लेषान्तं कक॑राशिः । चन्द्रकषेत्र जन्मतो नवपाद- 
फलम्‌ -प्रथमे धनवान्‌ १, महीपतिः २, स्वाङ्खमूनीश्वरः ३, विद्यावान्‌ ४, घर्म 
वान्‌ ५, चौरः ६, निर्धनः ७, देशपतिः ८, कुलमण्डनः € । अल्पमृत्युदिनम्‌ ११, 
कष्टमासः €, वषंम्‌ १, रोगवर्ष॑म्‌ ७, जलघातवषम्‌ ९, अङ्गरोगवषंम्‌ १३, 
जलघातवर्णमू १९, अङ्गरोगवर्णमू २०, लोहधातवर्णम्‌ -७।३५, अल्पमूत्युदोष 
वर्णम्‌ ४१५, देवदोषवर्भम्‌ ५५।६१ अल्वमृत्युः, आमकष्टम्‌, असाध्यरोगः, 
अम्नीसपंजलघातसाण्डव्याघ्रघातः यदा शुभग्रहनिरीक्षितस्तदा वर्षाणि ७० 
मासाः ५ दिनानि ३ जीवति । फाल्गुनसासे शुक्लपद्े चन्द्रवारे ४ प्रहरे 
गोधलिकवेलायां देहं व्यजति ।। ४ ।॥ इति ककंराशिफलम्‌ । 


पुनव॑सु क। १ चरण, पुष्य भौर आश्लेषा के चार-चार चरण मिलकर ककं 
राशि होती है । चन्द्रमाके क्षेत्र ( ककं राशि) में अन्मलेने वार्लो का चरणानुसार 
कल इत प्रकार है- 


प्रथम चरण मे धनी, दुसरे मे राजा, तीसरे में भूनिबेक्ल का डम्बर करने 
- वाला, चौवे-मे चिद्धात्‌, पज मे धार्मिक, छट म चौर, सातवे मे निर्न, भरठर्वेः 





भानसामरी ७‰ 


मे देशयति (राजनेता) , नवम शरणमे जन्म होती कुलभूषण होता ह । इसमे उत्पश्च 
व्यक्ति को ११ दिन अल्प भृस्यु, (मृत्यु तुल्य कष्ट), श्वे मास एवं १ वषमे कष, 
अवे व्वंमें रोग, नवम वर्षमे जलसे धात, १३बे वषमे अङ्गौ में रोग, १६ वर्ष 
मे जल से भय,२०बे वर्षमे मंगोमे रोग, २७ एवं २४ वर्षमे लोहेसेधात, ४४गे वषमे 
अरिष्ठ, ५५ अर ६१ ववं मे देवदोष, अल्प मृत्यु, राम क्ष, असाध्य रोम, बग्नि,. 
सर्प, जल, साड, नथा व्याच्रसे मयहोताहै यदिराक्षि पर शुमग्रहोंकीद्श्टिहोतोः 
५८० वषं ५म।स ३ दिन तक जीवित रहता है। फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष मे सोमबार 
को खलुरथं प्रहूरमें गोधूलिवेलामं श्रीर त्यागकरतादहै॥४॥ यह ककं राशिः 
काफलदहै। 


मचा च पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनीपादे सिहराशिः । सु्य॑क्षत्रे जन्मतो 
नवपादफलम्‌-श्रथमे राज्यमान्यः १, धनेश्वरः २, तीर्थवासी ३, पत्रवान्‌ ४, 
स्वपक्षहीनः ५, मातुपितृतारकः ६, राजमान्यः ७, धनधान्यसमर्थं; ८, 
निर्धनः ६। चौ्यमासः ठ तथा वषंम्‌ १, कष्ट्वषं १०। १५, अङ्खरोगव्षे 
२५। ४५, देवदोषसन्निपात-वषेम्‌ ५१। ६१ धातः, अल्पमृत्यु्यंदा व्यतिक्रामति 
तदा जीवति वर्षाणि ६५ श्रावणमासे शुक्लपक्षे १० तिथौ पूर्वाफल्गुनीनक्षत्र 
रविवारे प्रथमप्रहरे देहं त्यजति ॥ ५॥ इति सिहराशणिफलम्‌ । 


मथ, पूर्वा फात्गुनि, उत्तरा फाल्गुनि का एक चरण मिलकर धिह राजि होती 
है । सूर्यके क्षेत्र ( सिह) मे जन्मलेने वालों के नव चरणों काफल इत प्रकार है- 

प्रथम चरणमें जन्महोतो राजा हारा सम्मानित, दूसरे मे धनपति, तीसरे 
मे तोय मं निवास करने वाला, चौये मं पुत्रवान्‌, पचे में अपने समर्थकों से रहित,. 
छः में माता-पिता का उद्धार करने बाला, सातवेमें राजाद्वारा माननीय, आखव 
मे घनधान्य से सम्पन्न तथा नवम पादर्मेजन्महोतो निर्धन होता है । आ्ठर्वे मास 
मे तथा १ वर्षमे चोर मय, १०, १५वषोंर्मे कष, २५.४५ व्षोँर्मे भङ्की में रोग, 
५१, ६१ वषो मं देवदोष एवं सन्निपात से घात होता है। यदि ल्प मृत्यु 
योग बीत जाय तो ६५ वषं तक जीवित रहता है। अनन्तर शधावण शुक्ल दशमी 
पू्ाफाल्गुनि नक्षत्र, रविवार प्रथम प्रह्रमं देहत्यायक्रतादहै।। ५॥ यह सिह 
राशिकाफलहै। 


उत्तरायास््रयः पादा हस्तः चित्राद्ध कन्याराशिः । बुघकषत्र जन्मतो 
नवपादफलम्‌-प्रथमे निधनः १, पुत्रहीनः २, शत्रुमरणम्‌ ३, धनयानम्‌ ४. 
भोगी ५, पुत्रवान्‌ ६, राज्यमान्यः ७, स्वंसमर्थः 5, पराक्रमी £ ( मातृ- 
पितुगुरुभक्तः। मासं: 3 वषंम्‌ ३ अङ्गरोग १।१३। वषं बदूुपीडा 
जलघातवषंम्‌ २६ ब ङ्गरोगदेवपीडावर्षंम्‌ ३३ लोहधातव्ष॑म्‌ ४३ भङ्गरोगः, 





७६ "मनोरमाः हिम्दीग्याश्योपेता 





अत्पमृच्युः यदा शुभग्रहनिरीक्षितो भवति तदा जीवति वर्षाणि ८४ यावत्‌ 
भआद्रपदमासे शुक्लपल्ञे & तिथौ बुधवारे हस्तनक्षत्रे गोषलिकवेलायां देहं 
स्यजति ।६॥ इवि कन्यारािफलम्‌ । 


उत्तरा के तीन पाद, हस्त केचारपादतथाचित्राके २ पाद मिलकर क्म्या 
राजि होती है । बुष क्षेत्र (कन्या) राशि में जन्म ज्ञेन वालों का बरणानुसार फल-- 

प्रथम चरणमे जन्महो तो निर्धन, दूसरे मे पुत्रहीन, तीसरे मे हात्रुमरण, चौथे 
मे घन एवं वाहन कीप्राप्ति, पाचर्वे मे मोगी, छे मे पुत्रवान, सातर्वेमे राजा से 
मान्य, अषवेमे सभी प्रकारसे समं, तथा नवम चरणमें पराक्रमी टोतादै।१ 
तीसरे मास एवं तीसरे वषं मं अङ्खरोग, १,१३ वषं में नेत्रपीडा, तथा जलमय, 
२६ वं वषं मे अङ्घरोग देव पीड, ३३ वें वषं मं लौह्षात, ४२वे वर्षमे गङ्ग 
रोग, अल्पमृत्युं (अरिष्ट) होतादहै। यदि राशिशुमप्रहोसे््टहोतो ८४ वषं 
तकं जीवित रहता है । भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में नवमी बुषवार हस्त नक्षत्रम 
-गोधूलि वेला मं शरीर त्याग करताहै।॥ ६ ॥ यह कन्या रालिका फनहै। 

चित्राद्ध स्वाती विशाखापादत्रयं तुलाराशिः । शुक्रकषेत्रे जन्मतो नवपाद- 
व-कलम्‌-प्रथमे घनमोगी १, घनेष्वरः २, निधंनः ३, भाषाहीनः ४, जातकर्म? ५, 
परदारचौरः ६, मातृपितृनारकः ७, राजमान्यः <, भाग्यवान्‌ € । भासः 
४ कष्टमासः, १६ अङ्गरोग वषम्‌, ४ कष्टवष॑म्‌, १६ जलघातवर्षम्‌ २१। ३३ 
अङ्गरोगः, ४१ अ द्खवुद्धिवषम्‌, ५१ देवदोषवषम्‌, ६१ अत्पमृत्युः। यदा शुभ- 
ग्रहनिरीक्षितो भवति तदा जीवति वर्षाणि ८५ वंशाखमाते शुक्लपक्षे १३ 
तिथौ शुक्रवारे शतभिषानक्षत्र मध्याह्नवेलायां देहं त्यजति ॥७॥ इति 
तुलाराशिफलम्‌ । 


चित्रा का आधा (२ पाद), स्वातीके चार पाद, विश्ाष्ाके तीन षाद 
मिलकर तुला राशि होती है । शुक्रकेत्र (बुला राशि) में जन्मलेने वालोंका नव 
चरणों के अनुसार फल- 

प्रथम चरण में जन्महो तौ घनका मोग करने वाला, दूसरे मे घषनपति, तीसरे 
मे निर्धन, चौयेर्मे माषाहीन, पाँचवेर्मे जातक्मं ( प्रसूति तन्व्र) काक्चाता, छे 
मे परस्त्री का अपहरण करने वाला, सात्वेमेः माता, पिताकोतारने वाला, 
-अव्वि मे राजा से सम्मानित, नवममे माग्यवान होता है। 

वौये मासमे कष्ट, १६ वे मासमे अङ्गरोग, बौधे वर्षमे कष्ट, १६ वषं 





मेः जलसे मय, २१ एवं ३३ यें व्षोमेः गङ्गरोग, ४१ भङ्गं वदि ( भङ्गो 


१. माता-पिता भीर गुड का भक्त होता है। 
२. क्ातकर्मा इति पठाम्बरम्‌ । .. 


भानसाभमरी ७७ 


भाक) 


विस्तार स्थूलता मादि), ५१ मे देव दोष, ६१ वे अल्प मृत्यु (गरिष) 
होता है। 

यदि र्षि शुमग्रहो केष्टहौीतो ५ वर्षों तक जीवित रहताहै। वशा 
शुक्ल त्रयोदक्षी शुक्रवार शतभिष नक्षत्र मे मध्याह्ल काल मे शरीर-त्याग करता 
है ॥ ७ । यह दुला रािकाफलदहै। 


विशाखापादमेकं अनुराधाज्येशछठन्तं वृश्चिकराशिः । भोमक्ेत्रे जन्मतो 
नवपादफलम्‌--्रथमे धनेश्वरः १, यशोवानु २, भागमवान्‌ ३, महान्तिकः ४. 
माषाहीनः ५, कुलमण्डनः ६, धनघान्य समर्थं: ७, विद्यावानू ८, राजमान्यः & 
(यशोवान्‌ ?)1 मासे २ कष्टम्‌ वषं ३ कष्टम्‌ वष ७ अङ्गरोगः, ८ जलघातवष म्‌,. 
१३ वृक्षघातवष'म्‌ ३२। ३५ अङ्खरोगलोहधातवष' म्‌, ४५ अङ्गरोगवष म ७५,. 
अल्पमूत्युः यदा शुमग्रहनिरीक्षितस्तदा जीवति वर्षाणि-७५ मासः २ दिनानि 
७, ज्येष्ठमासे कृष्णपक्षे तिथौ ११, मंगलवारे अनुराघानक्षत्रे प्रथमप्रहरे देहु 
त्यजति ॥5५॥ इति वुश्चिकराशिफलम्‌ । 





विशाखा काएक पाद, अनुराधा तथाज्येएठाके चार-चार चरण मिलकर 
वृश्चि राशि होती है । मौमके क्षेत्र (-श्चिक) मेः जन्महोनेसे नव चरणोंके फल 
ह्म प्रकार-- 


प्रयम चरणमेः जन्महा तो धनाधीदा, टसरेमेः यशस्वी, तीसरे मेः आगमः 
(वेदादि) का ज्ञता, चौथेमेः महान्‌ पुग्षों का सहयोगी, पचर्वेमेः माषाः 
से हीन, षष्ठ मेः कुलभूषण, साने मे धनधान्य से सम्पन्न, आठवें मे विद्या से युक्त, 
नवममे राजा द्वारा मान्य ( यक्षस्वी ) होता है 1 


दूसरे मास एवं तीसरे वर्षमे कष्ट, सातवे मे अङ्गोंमे रोग । आवे मेः जल 
घात, १३ मेः वृक्ष घात, २३२ तथा २५बं वषा मे भङ्गरोग एवं लौह बात, भभम 
गङ्गां मे रोग, ७४ मे अस्प मृत्यु (भरष्ट) होताहै। यदि राशिश्ुमब्रहसेट्टहो 
तौ ७५ वर्षं २ माक्ष ७ दिन जीवित रहकर ज्येष्ठ कृष्ण, ११ मंगलवार; 
अनुराधा नक्षत्र, प्रथम प्रहर में शरीरे का त्याग करताहै।। ७ ॥ यह बृश्रिक राशि 
काफलदहै। 


मूलं च पूर्वाषाढा उत्तराषाढपादे धनू राशिः । गुरुक्षेत्रे जन्मतो नवपाद्‌~ 
फलम्‌-पथमे नवान्‌ १, निधनः २ नीचकरमकारकः ३, राजमान्यः ४,. 
क्रोधी ५, पुत्रवानू ६, कामलम्पटः ७, धनेशः ५, रधिरविकारी ६ । मासः ५. 
वषम ३ कष्टवष म्‌ ६ अङ्गरोगवष'म्‌ ११ चदुःपीडावष म्‌ १६ अलघातवष 
२४, १६, अङ्गरोगवर्षाणि ४७।५७।६७। सपंजलघातः, अल्पमृल्वुः । यदा 


७८ "मनोरमा ' दिन्दीष्य)स्पोपेता 





` शुमग्रहनिरीक्षितस्तदा जीवति वर्षाणि ८५। आषाढमासे शुक्लपक्षे १ तिथौ 
गुरुवारे हस्तनक्षत्र गोधलिवेलायां देहं त्यजति ।€॥ इति धनुरार्षिफलम्‌ । 


मुल धपुर्बषिडाके बार-चार चरण तथा उत्तराषाढा क एके पद मिल कर 
धनु राश्चि होती है। गुरुके क्षेत्र (धनु) मे अन्म सेनेवालों का नषचरणों 
के अनुसार फल-- 


प्रथम चरण मं जन्मो तो जातक ज्ञानी, दूसरे मे निधन, तीसरे मं नीच कमं 
करने वाला, चौथेमं राजा द्वारा सम्मानित, पचर मेः क्रोधी, छठे चरणर्मे पत्रवान्‌ 
सातवे मे" कामी एवं लम्पट ( व्यभिचारी ), आठ मे" धनाघीश्ष, नवम चस्णमेः 


 रक्तदोष से युक्त होता दै । 


जन्म से श्वा मास एवं तीसरा वषं कष्टकर, €्वें वषं मेः अङ्खुरोग, ११ वर्षमे 
नेत्र पीडा, १६बे व्षेमे' जलघात, २४, ३६ वे वषं मेः अङ्गुरोग, ४७, ५७, ६७ वषो 
मे सप॑मय, जलधात एवं अल्पभरृत्यु (अरिष्ट) होता है । ( ४७ सर्पेमय, ५७ मे जल- 
चात, ६७ मे अल्पमृत्युं वस्तुतः इस प्रकार संमत अर्थं होगा) । य्दिशुमग्रटौ से 
हृष्ट राशि हो तो ८५ वषं तक जीवित रहता है । आषाढ़ मास के शुक्ल पक्षदो १ 
तिथि गुख्वार को हस्त नक्षत्रमे गोधूलिवेलामे कशगीरका त्याग करता है ।६॥ 
यह धनुराशि का फलदहै। 


उत्तरायास््रयः पादा श्रवणधनिष्ठाद्ध मकरराशि: । शनिक्षेत्रे जन्मतो नव- 
पादफलम्‌-प्रथमे अङ्कहीनः १, गुरुभक्तः २, परदाररतः ३, भङ्करोगवान्‌ ४, 
देवांशभोगी ५, पुत्रवान्‌ ६, उत्तमः ७, महापतिः ८, उभयपक्षतारकः € 
{ धनेश्वरः ? ) । मासः ३ कष्टमासः. १ देवदोषपीडावष म्‌, ३ अङ्कुरोगवष म्‌, 
५७ देवेदोषवष म्‌, १० मङ्करोगः, अग्निपोडावष म्‌ ३२, लोहधातवष म्‌ ३३, 
कष्ट्वष म्‌ ४३ तथा ५१ अत्पमूृत्यु । यदा शुमग्रहनिरीक्षितो मवति तदा 
जीवति वर्षाणि ६१ ( देवदोषानन्तरं ) अल्पमूृत्युयंदा व्यतिक्रामति तदा जीवति 
वर्षाणि ७१ कातिके मासे शुक्लपक्षे ५ तिथौ शनिवारे श्रवणनक्षत्रे देहं त्यजति 
-॥ १० ॥ इति मकरराशिफलम्‌ । 


उस्तराके तीन पाद, धवणके चारपादतथाधनिष्ठाके दो वाद मिलकर 
मकर राशि होतीहै। शनि क्षेत्र ( मकर राशि) मेःजन्महोतो नव्चरणों का 
{अल मलम) एत इत प्रकार है- 

प्रथम नरनमे जन्म दहो तो गङ्खङीन, दूसरे मे गुरुमक्त, तीसरे परस्तीमेः 
- आसक्त, चौवे मे" भङ्गो ने" रोद, पांचवे मे' देवतार्मो के निमित्त म्ंकेल्पित वस्तु का 
ऋय करते शाला, छठे ये" शुकान्‌, सातवें मे" उत्तम, गठवे" मे पमि कास्वामी 


भानसाभरी ७९ 


भ्व्य 





लिमन्ार ), नवम मे" उमय पक्ष ( मातृकुल एवं पितृकुल ) को तारने वाला, 
तादे) 

अन्मसे इरा मास ककर, ? वषं मे' देवदोष जन्य पीडा, तीसरे बर्ष मे" 
गङ्ग मे" रोग, ५७बं वर्षं मे" देवदोष, दकषर्वे मेः गङ्ग रोग, ३२र्वे वषं मे बग्निपीड, 
३३ मे" लोहे से अपघात, ४३ मे कष्ट, तथा ५ वेमे अत्प मृत्यु होती ह। यदि 
शुमग्रहोसे ष्ट राशिहोतो ६१ वर्षोतक जीवित रहता है । (देव दोष के अनन्तर) 
यदि अल्पमृत्यु टल जातीदहैतो जातक ७१ वषँ तक जीवित रहता है । अनन्तर 


कातिक मास के शुक्ल पक्ष ५ तियि शनिवार, श्रवण नक्षत्रम देहत्याग करता 
दै ॥ १०॥ यह मकर राशिकाफनहै। 


घनिष्ठाद्॒शततारकाः पूर्वामाद्रपदात्रयं कुम्भराशिः। शनिक्षेत्रे जन्मतो 
नवपादफलम्‌ -प्रयमं मध्यमः १, श्रीमान्‌ २, कालभाषाहीनः ३, पुत्रवान्‌ ४; 
राजमान्यः ५, पापकर्महीनः (?) ६, योगीन्द्रः ७, अ ्गहीनः ८, शुभलक्षणः &, 
कष्टदिनम्‌ ७, अल्पमृत्यु वर्णम्‌ १८ । ३२। यदा शुभग्रहनिरीक्ितो भवति तदा 
जीवति वर्षाणि ६१ माघमासे शुक्लपक्ष २ तिथौ शनिवारे उत्तराभाद्रपदानक्षत्र 
मृत्युभंवति ।॥ ११॥ इति कृम्भराशिफलम्‌ । 


घनिष्ठाका आधा (दो चरण ) शतभिषा का चार चरण, पूर्वाभाद्रपदा का 


तीन पाद मिलकर कुम्भमराशिहोतीहै । शनिके क्षेत्र ( कुम्म राल्लि } के नवचरणों 
क्रा फल दस प्रकार है- 


प्रथम चरणमे जन्महोतो मध्यम (न अधिक उत्तम कायं व बुद्धिन अधिक 
मन्द ), दूसरे मे' धनवान, तीसरे मे सामयिक भाषासे हीन, चौयेमेः पुत्रवान, 
पाचर्वेमेः राजाभोंद्रारा मान्य, छटठेमे पापकमसे रहित, सातवे मे" योमियोंमे 
श्रंष्ठ, आ्ठवेमे अङ्खहीन, नवममेः शुमलक्षणोंसे युक्त होता है। 

जन्म समयसे ७वे दिनि कष, शत्वं एवं ३२वें वषं मेः अल्प मृत्यु (अरि) 


होताहै। यदिणशुमग्रहोकीराशिषपरर्षटिहो तो ६१ वष तक जीवित रहताहै। 
तथा माघशुक्न द्वितीया क्षनिवार उत्तरा माद्रपद नक्षत्रम मृ्युहोतीदहै। ११॥ 


यह्‌ कुम्भराशि काफलदहै। 

ूर्वामाद्रपदापादमेकं उत्तराभाद्रपदरेवत्यन्तं मीनराशिः । जीवक्षेतरे जन्मतो 
नवपादफलम्‌ -प्रथमे धनवान्‌ १, कालहीनः २, लम्पटः ३, धनवान्‌ ४, चौरः 
५, कपटी ६, निधनः ७, भाग्यवान्‌ ८, नवमे अपक्लेशः ६ । कष्टव्णे १८, ३३ 
यदा शुभग्रहनिरीक्षितस्तदा जीवति वर्षाणि ६१ माधमासे शुक्लपक्ष १३ 
तिथौ उत्तरामाद्रपदानक्षत्रे गुरवार प्रातःकाले देहं त्यजति । १२ ॥ इति मीन- 
राकिफलम्‌ । 


पूर्वा भाद्रपदः काएक पाद, उत्तराभाद्रपदा का बारजरण एवं रेवती का 
अरथरण भि्षकर मीन राशि होतो है। गुरु क्षेत्र ( मीन राजि) के मंवचरणों 
काफल इस प्रकार है 


दर "मनोरमा हिन्दीष्याख्योपेत। 


। गीरिषा 





प्रथम चरण में जन्म हो तो धनी, दुसरे मे' कालहीन ( समय को न पहुबानने 
वाला ), तीसरे मे" लम्पट, चौथे मे" धनी, पाषवेमे बोर, छठे मे" कपटी, सातवे 
मेः निधन, आठबे" मे भाग्यशाली तथा नवम चरणमेः जन्महोतो भपारक्लेश 
होता है । 

१८बे तथार२े३वे वषंमेःक्षटहोतादहै। यदिशुमग्रहोसेष्् राशिहोतो 
६१ वषो तक जीवित रहता है । ( अनन्तर ) माध शुक्ल १२ तिचि उत्तरामाद्र- 
नक्षत्र मे गुरूवार को प्रतिःकाल शरीरका त्याग करताहै।! १२॥ यह मीन 


राशि का फलै) 
लग्न से आयुर्घान 
दिक्‌-काल-नख-बाणेमदुङ्नखाः समयो दिशः । 
मनवो रामवेदाश्च मेषादष्टोत्तरं शतम्‌ ।। ३६६॥ 
दिक्‌ = १०, काल = €, नख = २५, बाण=५ इभ =८, हडः भ्र, नखा 
२०, समयः = ६, दिः = १०, मनवः = १४, रामः =३, वेदाःज४। ये मेषादि 
रारियों के १०८ वषं प्रमाणके घ्रवाद्कुहँ। अर्थात्‌ मेषलम्न का १०, वृषका 


६, मिथुन का २०,कक काभ, सहका, क्न्याका २, तुला का २०, वृश्चिक 
का ६, धनुका १५, मकरका १४, कुम्मका २ तथा मीन लग्न का ४ वषं 


ध्रवाद्कुहै ।। २६६ ॥ “ 
जन्मपत्रयां यत्र स्थाने ग्रहो मवति तत्र तेषां लग्नानां घरवाद्धान्‌ संमेल्य 
तदेवायुनज्जयम्‌ । 


जन्मपत्री मे जिन-जिन स्थानोमे ग्रह दयं उन-उन भावों मेः स्थित लग्नोंके 
घ्रवाद्धों का योग लग्नायु होता है) 
उदाहरण - निम्नाद्धति जन्माङ्खं से लग्नायु सान करना है- 





सुय सप्तम मावमें ककः लग्न मे" अतः कक ~ 
का लगन प्रवद्ध ५ प्राप्त हुमा । चन्द्रमा बष्टम क 
मावमे सिह लग्नमे हैमतः सिहकाध्वाङ्कु 

८ ग्रहण किया इसी प्रकार मंगल स्थित राशि 
कक का ५, बुध स्थित विह का ८, गुरू स्थित 


कुस्म कार, शुक्र स्थित सिह का 5, दनि 
स्थित मीन का ४, राहू स्थित तुला का २० केतु 













१ के । । ~ 
स्थित मेष का १० घ्रवाद्धु हुमा इन सबका योग- 


सूम ६ 
^ 
सु चं. भं. बु. गु. शु. श. रा. के. 


५-1-5५ --५-+त+ ३८-४1-२० १०७१ 
अर्थात्‌ ७१ वषं लग्नायु हई । 


मानसागरी का ( अन्मबत्र पति नामक ) प्रथम अध्याय समाप्त ॥ १।५ 
336 


अथ द्विवीयोऽध्यायः । 


ग्रहस्फुटीकरण का प्रयोजन- 
स्पष्टं ग्रहैविना किञित्निगदन्ति कुबुद्धयः । 
अन्तदंशादशादौनां फलं यान्त्युपहास्यताम्‌ ॥ १॥ 


स्पष्ट ग्रहों के विना दशा-अन्तर्दशा आदिका जो कुनबरुद्धि लोग फलादेदा करते 
उनका उपहास होता है। १॥ 


गत कलि का साधन- 
वेदान्धिशन्यरामाङकंर्यते विक्रमवत्सरे । 
मवेदयनवल्ली सा तस्या गतकलिस्तथा ।। २ ॥ 
विक्रमसं्वत्‌ मे ३०४४ संख्या जोड़ने से अयन वल्ली होतीदहै। यही गत 
कलियुग कामानमीहोतादहै। २॥ 
उदाहरण-सं० २०३७ के आरम्भममं गत कलिका मान==२०३७-{-३०४४= 
५०८१ वषं हुजा यही अयन वत्ली मी हुई । 


पलमा तथा चरब्रण्ड साधन-- 

मेषादिगे सायनमागसूयं दिनाद्धजा भा पलमा भवेत्सा। 

त्रिष्ठा हता स्युदंशभिर्भजङ्गं दिग्मिश्चरादढानिगणोद्धृतान्त्या ॥ ३ ॥ 

सायन सूर्थं जब मेष राशिके भादि विन्दु पर जाता है उस (विषुव दिन) दिन 
मध्याह्न काल मे दवादश अंगुल शंकु की छाया उस स्थान की अंगुलादि पलमा होती 
है । पलभा को तीन स्थानों पर रखकर क्रमसे १०,८,१०से गुणाकर तीसरे 
गुणनफल को २३ से माग देने पर अभीष्ट स्थानके चरखण्डहोतेदह।॥२॥ 


उदाहरण-( पलमा शंकु यन्त्रसे सिद्ध की जाती है अतः यहां ज्ञात पलमासे 
चरखण्ड का उदाहरण प्रस्तुत है।) 
काली की पलभा ५।४१५ 











५।४५ 9।४५ %।४्‌ 
११० _ >९८ ठ < १७ 
५५०।४५० &०।२६० ५०.४५० 
५७।३ ० &६।०० ५.७।३० 


& भा०्सार 


८२ "मनोरमा? ` हिन्दीव्याल्योपेता 





टृतीय गुणनफल ५७।३० को ३े से भाग देने प्र लग्धि १६।१० तृतीय चरखष्ड 
हुमा अर्थात्‌ काक्षी का चर खण्ड == ५०।४९।१६ 

भृज कोटि का साघन- 

श्यूनं +मुजः स्यात्त्यधिकेन हीनं 
माद्ध' च भारदधादधिकं विभाद्धम्‌ । 
नवाधिकेनोनितकमंमं च 
भवेच्च कोटिस्विगृहं भुजोनम्‌ ॥ ४ ॥ 

ग्रहादिकों का राश्यादि मान यदिर३े राशिसे अल्पहोौतोवेही भुज होते है। 
बदि ३राशिसेगधिकहोतो ६ राशिसे षटानेपर शेष मुज, ६ राश्षिसे अधिकहो 
तो उसमे से६ राशि धटानेषपर तथा £ राशिसे अधिकस्पष्ग्रहहीतो १२ रा्चिसे 
धटाने पर शेष मुज होता दहै । मुजकोरे राशिमे धटनेसेकोटिहोतीरहै।। ४॥ 

उदाहरण-- स्पष्ट सायन सूयं १।५।७।३० है । यह तीन राशिसे न्यून दहै अतः 
यही भुज हुभा । ३ राशि से घटाने पर ३-(१।५।७।३०) => १।६।२२। ३० कोटि 

यदि सायन सूयं = ५।२।४।५०। ( ६ राशि से अल्प ह भतः) ६।०।०।०- 
५।२।४।५० == ०।२७।५५।१० = मुज तथा ३।०।०।०-~---०।२७।५५। १० == २।२।४। 
५० न््कोटि। 

सायन सूर्य॑: ८।५।४०।३० (६ राशि से अधिक है मतः) ८।५।४०। ३०- 
६।०।०।० == २।५।४०।३० = भुज तथा २३।०।०।०~-२। ५।४०।३ ० = ०।२४।१६। 
३० == कोटि । 

सायन सूर्यं १०।१०।३०।४० (६ राक्षसे अधिक है मतः) १२।०।०।०-१०। 
१०।३०।४० == १।१६९।२६।२० == मृज तथा ३।०।०।०- {1१ ६।२९।२० = १।१०। 
३ ०।४० == कोरि 

यनां साधन 

अथ शरान्धियुगे रहितः शको व्यपहूतः खरसंरयनांशकाः । 

मधुसितादिकमासगतं प्रति शरपलेः सहितं कुर सवंदा ॥ ५॥ 

शकाब्द मे ४४५ बटाकरशेषमें ६० का भागदेनेसे लगि अंशादि अयनांश 
होताहै। चैत्र शुक्लादि जितने मास बीत चुके हो उतनी मास संस्याको ५ से 
भुणाकर गुणनफल तुल्य विपल उक्तं लब्धि मे जोड्नेसे टदहसमयमें अयना 


होता है। ५॥ 


उदाहरण--सं. २०३७ शक १६०२ कातिक कृष्ण भमावस्या शुक्रवार को 
अयनश अमीष्ट है। अतः नियमानुसार इष्ट शकाम्द १६०२ से ४४५ वटाकरः 
६० का भाग दिया। 


१--भूज कोटि का साधन प्रायः स्रायन प्रहुके सायही होता है। 


मानक्षागरी ८३ 





१९०२ - ४४५ १४५७ 

१४५७ --६० == २४।१७ वर्षारम्म कालिक अंशादि अयनांश हमा । 

चैत्र. शुक्ल प्रतिपदासे कातिक कृष्णा अमावस्या तक ७ मास हूये अतः 
७>८ ५ = ३५ विकला जोट्नेसे 

२४।१७-- ०।०।२५ = २४।१७।३५ इषएटकालिक अंशादि मयनांश हुमा । 

चरपल दिनमान गौर मिश्रमान साघषन-- 


स्पष्टाकायनमागयुक्तभुजवद्मृक्तक्ष तस्तच्चरं 
धृत्वा भोग्यचरध्नबाहुलवतः खाग्नयु-३० दधृरतस्तैर्यतः । 
मेषा्स्वं शरवारिघी ४५ ऋगमथो कुर्यात्तुलादौ स्फुटं 
तन्मिश्वं द्विगुणं चुमानमुदितं रात्रस्तु षष्टघन्तरम्‌ । ६॥ 
स्पष्ट सूर्यं मे भयनांश जोड़कर, ( सायन सूयं के ) भुज बनाने पर राशिस्थान में 
जितनी संख्या टो उतने चरखण्डों के योग तुल्य भुक्तचर को पृथक्‌ रखकर, अंशादि 
भुज को अग्रिम चरष्ण्डसे गुणाकर ३० से भाग देकर प्राप्त लब्धि को मक्तचर में 
जोव्नेसे स्पध चरपनहौतादहै। - 
मेषादि छः राशियों में सायनसूर्यंहो तो स्पष्ट चरपल को ४५ में जोडने तथा 
तुनादि ष्ठः राशियोमें सायनसूर्यंहोतो स्प चरपलको धटानेसे भिश्मान 
होना है। 


मिश्रमान को द्विगुणित कर ६० धटनेसे दिनमान तथा दिनमानको ६०में 
चटानेसे रात्रिमानोतादहै। ६ ॥ 
उदाह रण--स्पष्ट सूयं ११।६।२८।२७ 
अयनाकशषाः २३।२५७।२४ चरखण्ड ५७।४६।१६ ( स्पष्ट सूयं मे अयनांश जोड़ने से 
सायन सूयं } 
११।६।२८।२७ स्पष्ट सूयं 
२२।२७।२४ अयनांश 
०।२।५५।५१ सायन सूर्यं 
तीन राशिसे अत्पहै अतः यहीमुजहुजआ। राशिस्थानमें शून्य है अतः 
मृक्तं चरपल ° भभ्रिष चरखण्ड ५७ से अंशादि भूज २।५५।५१ को गुणा किया- 
२।५५।५१ 
५७ 
११४।३८५।३ ५७ 
२७५ २५५ 
११४।२३१३५।२६०७ 
१६७। ३। २७ गुणनफल 








ठ | मनोरमा" हिन्डीष्यास्योयेत। 





२०) १६७।३।२७ (५।३४।६ 
१५० 
१७>८६० 
१०२० 
२ भक्त चरपल 9 








६० लन्षि ५।३४।६ 


१२९० इटं चरषपल ५।३४।६ 








सायन सूयं मेषादि रा्ियों मे है अतः ४८५में जोडनेते- 
४५।०० ~ ०।०५=४५।५ मिश्चमान हुमा 
द्विगुणित भिश्चमान्‌ ४५।५>८२ = €०।१० 
== --६०।७० 
३०।१० दिनमान 
६०1०० 
२०।१० दिनमान 
२६।५० रात्रिमान 





(२) इसी प्रकार यदि सायन सूर्य ८।१५।२०।३२ हो तो चरपल क्या होभा- 


८।१५।२०।३२ 
६ 
२।१५।२०।३२ भज 


राशिस्थानमेदो है अतः दो चरखष्डोंकायोग 
७ -+- ४६ == १०३ भृक्त चर हुमा 


तृतीय चरखण्ड १६ से अंशादि भुज को गुणा किया 


१५।२०।३२ 
>< १६ ` 


२९१।३०।८ शुणनफल को ३० ते भान दिया 





मानसामरी 1, 





३० ) २९११३०।८ ( ६।४३।० 
२.७० 


२१०८ ६० -- ३० 
१२९० भक्त जरपल १०३ 
१२० _ 
९७ 
९० लन्धि ६।४३।० 
ॐ ८ शष्ट चरषपल ११२।४३।० 
धस्थादि १।५२।४३ 


सायन सूर्यं बुलादि राशियों में है अतः ४५ म चरपल घटाने से-- 


ह ५।० ० 
१।५३ 
४३। ७ मिश्चमान हुमा । 
द्विगुणित मिश्रमान ४३।७>८२ = ८६।१४ 


६ ०199 





६०।०० दिनमान २६।१४ 
२६। १.४ 


३ ३।४६ रत्रिमान 


भकारान्तर से दिनमान साधन- 


अयनादिकवासररामहता गगनानलबाणशशा द्भुयुताः । 
परिभाजितशन्यरसंघंटिका मकरादिदिनं कर्कादिनिशा ।॥ ७॥ 


अयन ( उत्तरायण-दक्षिणायन ) के आरम्म दिन (सायन कर्क तथा सायन 
मकर संक्रान्ति) से इष्ट दिन तक जितने दिन हों उनको ३से गुणा कर गुणनफलमें 
१५२३० जोड़कर ६० का मागंदेनेसे लश्धि घटिकादि मकरादि राशियोंमेषूरयहो 
दिनमान तथा कर्कादि रारियोमेहोतो रात्रिमानहोतादहै। ७ 


उदाहरण-(१) सं° २०३७ आषाढ शुक्ल पुणिमा रविवार २७ जुलाई १६८० 
को दिनमान अपेक्षित है। 


आषाढमास से पूवं सायन ककं संक्रान्ति शुद्ध ज्येष्ठ शुक्ल अषमी शनिवार २१ 
जून १६८१ को मभ्याह्ल ११।२० बजे गारम्म हुई । अतः संकान्ति दिन से अभीष्ट 
दिन तकं दिन संख्या ३७ हई । इसे नियमानुसार ३ से गुणाकर १५२० जौडकर 
६०्से माम दिया- 


८६ मनोरमा हिन्दीम्यास्योपेता 








३७ >< ३ = १११ १५३० = १६.४१ 
६०) १६४१८२७ 
१२० . लब्धि घटथादि २७।२१ रात्रिमान हभ ( क्योकि 
४४१ सायन सूये ककं राशिमेहै) 
४२० 
२१ 
अतः ६०1५69० 
२,७।२१ 


३२।३६ दिनमान हुभा । 


(२) सं° २०३७ माघ शुक्ल पूणिमा बुधवार दिनाद्कु १८ फरवरी १६८१ को 
दिनमान अपेक्षित है । इससे पूवं सायन मकर संक्रान्ति मार्गंशीषे शुक्ल पूणिमा 
रविवार १२ दिसम्बर १६०८० कोरात्रिमे थी । अतः संक्रान्तिसे इ समय तक 
दिनों की संख्या ६८ हुई । अतः - 


६८६ >< ३ = २०४ -[ १५३० = १७३४ 
६०) १७३४ (२८ 
१२० 
५३४  लम्वि घट्यादि २८।५४ मक्र मे सायन सूर्यं होनेषे 
४८० यही दिन मान हज । 
४ 


६० मे घटाने से ( ६०।००--२८।५४ ) = ३१।६ घटादि रात्रिमान हुमा + 
[ नोट~-दिनमान साधन की यह प्रक्रिया स्थूल है । ] 
इष्ट कालिक ग्रह साघधन-- 


गतंष्यदिवसाद्येन गतिनिघ्ती खषड्हूता । 
लन्धमंशादिकं शोध्यं योज्यं स्पष्टो भवेद्‌ ग्रहः ॥॥ = ॥ 
गत दिवसादि (ऋण बालन) अथवा रेष्य दिनादि (घन चालन) को प्रह मति 
से गुणाकर ६० से मागदेने पर प्राप्त अंशादि लग्धिको पक्तिस्थ ग्रह में ऋण चालन 
होने पर षटाने तथा धन चालन होने पर जोडने से इृषटकालिक स्पष्र ग्रह होता है ॥८॥ 
विशेष-यह्‌ ग्रहानयन कीप्राचीन परिपाटी है। जब पक्षमे केवल दो दिनों 
के ब्रह स्पष्ट रखे जतेये उस समय यह प्रक्रिया उपयुक्त थी। ऋण चालन भौर धन 
चालन का ज्ञान निभ्न प्रकारसे किया जाताधा- 
पंक्तिः स्वेष्टाद्‌ भवेदग्रे पंक्तचामिष्टं विशोधयेत्‌ । 
तश्वानलमृणं ज्ञेयं व्यत्यये बभ्यत्ययं विदुः ॥ 
अर्थात्‌ पचाङ्गस्थ प्रहपंक्ति यदि दष्ट दिनसेभक्चैहो तो पंक्तिस्थ दिन एवं इष्ट 
धटी ( भिभधमान भादि जिस समयकाब्रहुस्पषटक्रियाहो } ते अपना अभीष्ट शिनि 


मानसागरी ८छे 





एवं घटीपल धटाने से ऋण चालन तथा पक्ति पीषठेहोनेतो शृष्टषटी (दिवसादि) 
मे पंक्ति के दिवसादि धटनेसे ऋण चालनहोतादहै। 


परन्तु आाजकल पश्चाङ्गोंमे दैनिक स्पष्टश्रहु दिये जाते । प्रायः स्पष्ट ग्रह 
सूर्योदय कालिक या सिश्रमान कालिक दिये जाते । कुछ प्वाङ्खों मे प्रातः ५।३० 
बजेके ग्रह दिये रहतेदहु। इन स्थितियों में ग्रन्योक्त नियम का अक्षरशः पालन 
करना केवल क्रिया गौरव होगा । अतः विभिन्न परिस्थितियों मं अपने विवेक से 
पश्चाङ्गस्थ प्रह का दृष्ट समय पर्यन्त भन्तर ज्ञातकर ग्रह॒ गतिसे गणा करे तथा ६० 
कामागदं। लन्धि कलादि को षञ्जाङ्कुस्थ ग्रहमं जःइने धटाने ते स्फुट ग्रह्‌ होता 
है । यदि सूर्योदय कालिक ग्रहहोंतो ग्रह गति भौर दृष्टषटी का परस्पर गुणाकर 
६० का मागदेकर लब्ध कलादि फल पक्तिस्थ ग्रहुमे जोहनेसे इष कालिक ग्रह 
होता है । वक्री ग्रह तथा राहूकेतु के स्पष्टीकरण मं अन्य ग्रहोंसे विषरीत कार्य 
(ऋणहोतो धन, धनहोतो ऋण) करना चाहिये! 

उदाहरण--सं° २०३७ फाल्गुन कृष्ण ८ शुक्रवार को मिश्रमान ४५।१ सूर्ये 
१०।१५।२६।४३ गति ६१।२० इसी प्रकार मिश्रमान कालिक अन्य ग्रह॒ मी उक्त 
तिथिकोस्पष्टकरके रखेहटूये ह यदी पक्तिदै। 

(१) सं २०३७ फाल्गुन कृष्ण ६ बुधवार को इष्टी ३२।४० पर सूयं स्पष्ट 
करना है। अतः चालन (बीच का अन्तर ) निकालेगे- 

बुधवार की संख्या ४ तथा शुक्रवार की संख्या ६ है । षक्ति मागे होने से दिवस 
तथा दृष्टषटी मे अभीष्ट दिवस तथा इषधवरी घटाने से ऋण चालन होगा । यथा- 


पंक्तिस्य वारादि ६।४५।१ 
इष्ट वारादि -४।२२।४० 


ऋण चालन <।१२।२१ 
द्से प्रहगतिसे गुणा कर ६० का भाग देकर अंशादि लन्धि पेक्तिस्थ ग्रहमे 
धटानेसे दष्ट कालिक प्रहु होगा। 


ऋण चालन २।१२।२१ 
सूयं गति >< ६१।२० 


&०। २४०।.४२० 
१२२।७२२।१२८१ 


१२२। ७७२।१५२१।४२० साठसे भागदेने पर 
२। १५ १७ २६८ ०० 


पंक्तिस्थ सूयं १०।१५।२६।४२ 
-- २।१५।१७ 


दषटट कालिक स्पष्ट सूयं १०।१३।१४।२६ 











~ "मनोरमा" हिन्दीभ्यास्योपेता 





(र) यदि £ शनिवार ष्ट धटी १५।५० पर ग्रह स्पष्ट करना होतोषन 
चालन अयेगा । यथा-- 
शनिवार ==७ | 
अतः इष्ट वारादि ७।१५।५० से पेक्तिस्थ वारादि ६।४५।१ को पचे ( अल्प ) 
होने से षटाया- 
७।१५।५० 
६।.४५।० १ 
०। २०।४६ धन चालन 
०। २०।३६ 
६१।२० सूयं गति 
७०।९००।६८० 
०।१८३०।२६८६ 
७। १८२३ ०।२३ ५८ ६।६८० 
०।३१। ३० ५। २० 
धन चालन होने से पक्तिस्य सूर्यं मे जोऽने से इष्टकालिक सूयं होगा । अतः 
१०।१५।२६।४३ 
~+ ०।३१।३० 
१०।१६। १।१३ दष्ट कालिक स्पष्ट सूर्यं 











(३) सं° २०३७ चैत्र ङकृष्ण > रविवार को आओौदयिक द॑निक 
स्पष्ट सर्य ११।७।४२।४७ गति ५६।३५ 
इसी दिन २८।३० इष्टवटी पर स्पष्ट सूयं साधन करनाहोतो- 
भति ५६।३५ 
इष्ट घटी >< २८।३० 
१७७०।१०५० 
१६५२।६८०। 
१६५२।२७५०।१०५० 
६० से मागदेने पर २८।१५ । ७ । ३० 
यहां केवल षटी पल काही गुणा होनेसे लन्धिभीक्ला विकलाहीहोभी 


जतः उदयकालिक प्रहकीकलाविक्लामें भन्तिमवो लग्धि जोढनेते स्पष्ट ग्रह 
होगा । यथा-- 


गौदयिक सूयं ११।७।४२।४७ 
+ २८।१८ 
दष्टकालिक स्पष्ट सूयं १६।०।११। ५ 





मानस्नागरी । 4 





स्पष्टबन्पर साधन-- 

खषड्ध्नं मयातं भभोगोद्धृतं तत्‌ खतकंध्नधिष्प्येषु युक्तं द्विनिघ्नम्‌ । 

नवाप्तं शशी भागपूर्वस्तु भुक्तिः खलान्नाष्टवेदा ममोगेन भक्ताः ॥ ६ ॥ 

पलाट्मक मयत को ६० से गुणाकर पलाट्मक मभोगसे भाग देकर लग्धिको 
६० से गुणित गत नक्षत्रकी संख्याम जोड़कर रसे गुणाकर ध्से मागदेने पर 
लम्धि अंशादि स्पष्ट चन्द्रहोताहि। (अंदामे३०कामागदेनेसे राश्यादि होता 
है । ) तथा ४८००० को ममोगसे भागदेने पर चन्द्रमाकी गति होतीहै। (भाग 
देते समय ४८००० को ६० से गुणाकर पलास्मक बना लेना चाहिये) ९॥ 


विशेष- चन्द्रमा का साधन नक्षत्रों पर आधारित है । नक्षत्रके गतमान को 
भयात तथो नक्षत्र के अरम्म कालसे समाप्ति परथन्त सम्पूर्णं मोग काल को भभोग 
कहते ह । इसका साधन इस प्रकार होता है-- 

(१ गत नक्षत्र को ६० घटीमें धटाकर केष मे दृष्ट घटी जोडने ते भयात तथा 
शेष मे वर्तमान नक्षत्रके घटी पल जोडनेसे भमोग होता है) 

(२) यदि एकही दिनम उदय काल में भिन्न नक्षत्र तथा जन्म समय में भिन्न 
नक्षत्र हो तो उदय कालिक नक्षत्र के घटी पलको इष्ट धटी में घटाने से भयात तथा 
६० धटी मे उदयकालिक नक्षत्र को षटाकर शेषम अग्रिम दिनके नक्षत्र मान को 
जोडने से भभमोग होता है । यथा- 


(१) चैव शुक्ल ७ शनिवार को मूल नक्षत्र ३२।१३ 
गत नक्षत्र ज्येष्ठा २७।४८ इष्टधटी २५।३० 


& ०1०99 
--२३। ४८ मत नक्षत्र 


शेष ३२।१२ ३२।१२ शेष 
२५।२० इष्ट घटी ३२।१३ बहंमान नक्षत्र 


५७।४२ भयात ६८२५ भभोग 





(२) यदि दृष्ट घटी ४५।५० 


४५।५० 
-२३२।१२ मूल उदयकालिक नक्षत्र 
१३।३७ भयात 


६०1०० 
२३२।१३ 
२७।४७ 
३५।२८ अग्रिम नक्षत्र पूर्वाषिहा 


६३।१५ भमोग 


~~~ ---------------------- ~. 


९० ` "मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेता 





उदाहरण-मूल नक्षत्र मे भयात ५७।४२ भभोग -६४।२५ इष्टधटी २५।३० 


चन्द्र साघन करना है- 


रोर 


६४८६० = २८४० ~- २५८ ३८६५ पलात्मक मभोग 
७ >८ ६० = ३४२० -- ४२ ३४६२ पलास्मक भयात्‌ 











३४९६२ 
>< ६० 
३८६१५)२०७७२०५३/४४ लण्धि 
१६३२५ 
१४४७० 
११५६५ गत नक्षत्र ज्येष्ठा की अश्िन्यादि 
१८७५ 
>< ६० संख्या १८ 
१७२५०० १८५८ ६० = १०८० 
१५४६० ५३१४४ लग्धि 
१७६०० ११३२३।६ 
१५४६० > २ 
२४८४० २२६७।२८ 
६ ) २२६७।२८ ( २५१।५६।२६ 
१८ 
द्‌ 
५५ 
१७ अशादि चन्द्र २५१।५६।२६ 
€ 
८३६६० ३० ) २५१ (८ रारि 
४८9 २.४० 
र्ट 
ष्ट 
४५. राश्यादि स्पष्ट चन्द्र ०८।११।५६।२६ 
8; 
21 
४८६० 
२४० 
१८ 
६० 
< 


, 
४८००० ८ ६०२८६८६ ०००० 


मानसामरी ९१ 





३८६५ ) २८८०००० ( ७४५।५ 
२७०५५ 


१.७.४५० 
१५.४६० 
१६६०० 
१६३२५ 
३.७५ >८ ६० 
२२५०० 
१६३२५ स्पष्ट चन्द्रगति 


पिरि 


३१७५ ७.४१।५ 


भीपति कृत वस्तुनिदगात्मक मंगलाचरण- 


“नत्वा तां गुरुदेवतां त्रिसमयजानोद्मतेः कारणं 
तत्पादाम्बुरुहप्रकाशविकसदबोधो बुषः श्रीपतिः । 
शिष्यप्रा्थनया विचायं सकलान्‌ होरागमार्थान्‌ मूहु- 
वक्ष्ये जातककर्म॑पद्धतिमहं होराविदां प्रीतये ।।१०॥* 


तीनो कालों ( भूत-वतंमान-मविष्य } काञ्ञान कराने वाले उन गुख्देवता को 
प्रणाम करके उन्हींके चरण कमलोंके प्रकाशे ञान सम्पक्नर्मै धीपति अपने 
शिष्यो के आग्रह से समस्त होराशास्त्र को विचार कर पुनः होराशास्त्र के विद्वानों 
कौ प्रसन्नता के लिए जातक कर्मं पद्धति को कह रहाह।। १०॥ 


फलादेश हेतु भावश्यक निदश- 


जेयोऽत्र॒ प्रथमं हि जन्मसमयस्तुर्यादियन्वरः स्फुटं 

तत्कालप्रभवा विलग्नसहिताः कोर्यास्ततश्च ग्रहाः 
सिद्धान्तोक्तपरिस्फुटोपकरणेः स्वंर्वासकृत्कमेणा 

भावाः सेटदृशो वलानि च ततस्तेषां विचिन्त्यानि षट्‌ ॥ ११॥ 


सवं प्रथम तुरीय आदि ( आजकल धड़ ) यन्त्रो से स्पष्ट ( शुद्ध ) समयका 
ज्ञान, जन्म कालिक लग्न एवं स्पष्ट ग्रहोंका साधन सिद्धान्तोक्त स्फुट करभ. 
विषिसे अथवा असकृत कर्मं (बार-बार ) हारा अन्य विधिसे करना बाहिमे। 
अनन्तर दादश माव, हृष्टि एव बल इन छः विषयों का अच्छी तरह विचार करना 
चाहिये । ११॥ 


वदन्ति भाव॑क्यदलं हि सन्धिस्वत्र स्थितः स्यादबलो ग्रहेः । 
उने तु सन्धेगंतभावजातमागामिजं चाप्यधिके करोति ॥ १२। 


९२ "मनोरमाः हिन्दीष्याश्योपेता 





दो भावों के योगां को सन्धि कहते ह । वहां ( संधिमें ) स्थित ग्रह निर्बल 
होते ह । सन्धि से अल्प ( अदादि ) ग्रहहोतो भत भावे तथा सन्धि से अभिक 
होने पर अग्रिम भावम ग्रह को समक्षना चाहिये।। [ जिस भावमेंग्रहहोभा 
उसी से सम्बन्धित फल देगा ] 
भावांशतुल्यं खलु वत्तंमानो भावो हि सम्पूणंफलं विधत्ते । 
भावोनके चाप्यधिके च खेटे त्रिराशिकेनात्र फलं प्रकल्प्यम्‌ ।। १३ ॥। 
यदि भावके तुल्य ग्रहहो (ग्रह भौरभावमें अंशादिसे सम्यहो) तौ वह 
मावपुणं कलदायक होता है । भावे न्यूनाधिक अंणादिग्रहहोतो त्रैराशिकसे 
उसके न्यूनाधिक फल का ज्ञान करना चहिये ॥ १३॥ 


भावप्रवृत्तौ हि फलश्रवृत्तिः पूणं फलं भावसमांशकेषु । 
ह्वासक्रमाद्धावविरामकाले फलस्य नाशः कथितो मूनोन्द्रैः ।। १४ ५। 
भावके मारभ्मसे फलका ारम्म होतादहै। भाव गौर म्रहुके अंादि 


साम्य होने पर पूर्णं फल होता है। मनन्तरक्रमसे फलकाहासहीतादहै तथा 
भाव सन्धितक फलकानाश्चहो जाताहै।। १४॥ 


जन्मप्रयाणे व्रतबन्धचौलनृपामिषेकादिकरग्रहेषु । 
एवं हि भावाः परिकल्पनीयास्तंरेव योगोत्थफलानि यस्मात्‌ । १५॥ 


जन्म समय, यात्रा, व्रतबन्ध, चौल ( मुण्डन ), राज्याभिषेक, विवाह, आदि 
कार्योँमे दसी भ्रकार हादक्च भावों का साधन कर उनके द्वारा उत्पन्न योगौंका 
फल कहना चाहिये ।। १५ ॥ 


लङ्कोदय द्वारा स्वदेशोदय साधन- 


लद्भोदया नागतुरङ्खदस्रा गोऽद्काश्विनो रामरदा विनाडयः । 
क्रमोत्क्रमस्थंश्चरखण्डकंः स्वं: क्रमोत्करमस्थाश्च विहीनयुक्ताः ।। १६॥ 


लङ्का क्ितिजमे मेषादि तीन रा्ियों के क्रम से २७८, २६६, ३२२ पलात्मक 
उदयमान होते है । इनको क्रमते तथा उत्कमये रख कर स्वदेशीय चरखर्ण्टोको 
कम ते बटाने तथा ब्युटक्रम से जोडने से स्वदेशीय उदयमान होते ह ।॥। १६॥ 


विष्षष-लङ्का क्षितिज मे केवल मेष वृष भिथुन का उदथमान परित है उसी 
को उत्कम ते रद्ने पर कर्मादि तीन राशियों का उदय भानहोतादै। हस प्रकार 
मेषति कन्या तक छः राशिर्यो काक्रमसे उदय मन हो जाता है । पुनः उल्कम 
से यही बुलादि छः र्िर्यो के भी उदयमान हो अतिह। स्पष्टता हेतु 
उद्महरण देे-- 


भानसागरी १३ 


भयययर 0२०२।11।11 पाय 





उदाहरण काही का उदयमान अभीष्ट है। अतः काशी का वरदण्ड ५७। 
४६।१९६ कोक्रमते एवं व्युत्क्रमसे लङ्कोदय में षटाया तथा जोडा। 


लद्कोदय चरखण्ड काशी का उदयमान 
मे. २७८ मी. - ५७ == मेष २२१ मीन 
वृ. २६९६ कृ. - ४६ == वृष २५२ कुम्म 
मि. ३२३ म. -~ १६ == मिथुन ३०४ मकर 
क. २३२३ घ. ~ १६९ == ककं ३४२ धन 
चनि. २६६ वु. ~+ ४६ == शह ३४५ वृध्िक 
का. २.७८ तु. ~ ५७ == कन्या ३३५ तुला 
नग्न माघन~~ 


तत्कालाक॑: सायनः स्वोदयघ्ना भोग्यांशाः खत्रयुदधृता मोग्यकालः । 

एवं यातां शं मंवेद्यातकालो भोग्यः शोष्योऽमीष्टनाडीपलेभ्यः ।। १७।}) 

तदन जहीहि गृहोदयांश्च शेषं गगनगुणघ्नमशुद्धहुल्लवादयम्‌ । 

सहितमजादिगृहैरश दधपर्वेभंवति विलम्नमदोऽयनांशहीनम्‌ । १८ ॥ 

दुष्ट कालिक सूयं मं अयनांश जोड़कर सायन सूयं के अं्ादि को ३० अशमे 
घटनेसे शेष मोग्यांश होतादै। उसे ( भोग्यांज्ञ को) अपने ( जिस रािपर 
सायन सूयं हो उस राशि के ) स्वदेशीय उदय मानसे गुणा कर३ण्से भागदेने 
पर लन्धि मोग्यकालहोतादहै। इसी प्रकार सायन सूयं के मक्तांश को स्वोदयसे 
गुणा कररे०्से मागदेने पर लब्धि भुक्तकान होता) इष्टघटी को पलात्मक 
बनाकर उसमे मोश्यकाल को धटाकर शेष मे अग्रिम ( सायन सूयं जिस राश्षि 
परो उससे गेकी ) राशियों के स्वदेशीय उदयमान क्रम से जितने षट सर्के, 
घटाना चाहिये । शेष को ३० से गुणाकर अशुद्ध राणि (जो राशिन घट सकी 
हो) के उदयमानसे मागदेने परजो अंशादि लग्षि प्राप्त हो उसमे शुद्ध राशि 
( अन्तिम राशिजोषट चुकीहो) की संख्या जोड कर अय्नांश षटाने से स्पष्ट 
राश्यादि लग्न होता है ।॥ १७-१८॥ 

विशेष--लम्न साधन की दो रीतिहै। १ भृक्तरीति २. मोग्यरोति। स्पष्ट 
सायन सूर्यं के अंशादि (भुक्त) दारा लग्न साधन की प्रक्रिया को मुक्त, तथा 


अंशादि को३० मे षटाकर सायनसूयंके मोग्य अशो दवारा लग्न साधनकी 
रीति को मोग्य रीति कहतेहै। 


अक्त रीतिसे लग्न साषनमे रत्रिशेष का दष्ट ग्रहण करतेहै। अतः जद 
मध्य रात्रिके बाद लग्न साधन ध्भीष्टहोतो तमी मुक्तरोति दवारा लगन साधन 
करना शा्यि। इष्टषटीको ६०्घटीमेषटनेषै रत्रिशेषकी दष्टषटीहो 
जातीषहै। इसी रात्रिशेष दृष्ट षटी को पलाह्मक बनाकर उनमेसे उक्त रीतिः 


६४ 'अनोरमा' हिन्दीग्याख्योपेता 





षष रे+~.|४ 


साधित भूक्तकाल को घटाकर शेषम पिष्ठली राशियोंके उद्यमान क्रमसे 
धटाना चाहिये । जब कोई राज्ञि न घटे तब उस ,शेषकोर३०से गुणाकरजो 
राशिन षटसकीहो ( अ्खुद्ध राशि) उसके उदयमान से भाग देकर प्राप्त 
मंशादि लन्धि को अशुद्ध राशि की संख्याम घटाने से शेष सायन लग्न तथा उससे 
अयनांज्ष षटा देने पर स्पष्र राश्यादि लग्न होगा । 

उदाहरण--(१) स्पष्ट स्यं ११।७।२६।२१ अयनांश २३।२६।३५ इषटवटी 
२५।३० इन उपकरणों के आधार पर वाराणसी अक्षांश २५।२० पलभा ५।४५ के 
उदयमान द्वारा भोग्यरीति से लग्न साधन- 

स्प० सू° ११।७।२६।२१ 





अयनांश्ञ ` २३२३।२६।२८ 
सायन सूयं ०।०।५५।५६ 
३०० 19 


०।५५।५९ भक्तांश 


२६।४।१ भोग्यांश 
सायन सूयं मेष राशिमेहैमतः ( काक्षौमें) मेष राशि के उदयमान २२१से 


गुणा कर २०से माग दिया-- 











२६।४।१ 
_-><२२१ 
६४० ६।८८४।,२१ २३०) ६४२३।४७।४१ (२१४ 
६४२ ३१ ४.७।४१ ६०९. 
-लन्षि २१४।७।३५ भोग्यकाल ४२ 
इष्ठ पल = ५८ ६० १५०० २० 
३० १२३ 
११३० १२० 
३ >< ६० ¬+ ४७ 
२२७, ७ 
२१०८ 
१७ 
>८ ६० 
१४५१३०० 1० १०२० 
--२१४।७ ।३५ मोग्यकाल ४१ 
१३१५।५२।२५ १०६१ ( ३५ 
| 8० 
१६ 
१५० 
११ 


मानसागरी. ९४. 





१३१५।५२।२५ 
वृष २५३ 
१०६२ कन्या का उदयमान ३३५ नहीं चट सका अतः कन्या 
मिथुन ३०४ अशुद्ध तथा सिह शुद्ध राशि हुई । 
७५८ † 
र्कं ३५२ 
४१६ 
सिह ३४५ 
७१।५२।२५ शेष 
> ३० 


२१५६।१२।३० 


गुणनफल २१५६।१२।३० को अशुद्ध राशि कन्याके उदयमान ३३५ से 
मम दिया । 


३३५)२१५६।१२।३०(६।२६।११ 
२०१० 
१४६०८६० । 
८७६० लब्धि ६।२६।११ अंशादि सायन लग्न है। इसे 
१२ शुद्ध राशि संख्या ५ मे डोडकर अयनांश षटानेसे- 
८७७२ ( ५। ६।२६।११ 
६.७० ~? ३।२६।३८ 
२०५२ ४।१२।५६।२३ निरयन 
२०१० स्पष्ट लग्न सिद्ध हुमा 
६२०८ ६० 
३७२० 
३० 
३७५०८ 
३३५ 
४०9 
३३५ 
६५ 


(२) भुक्तरीति से लगन साषन- | 
स्प. सूर्यं १०।४५।२५।३० भयनांश २३।२६।३४ इष्टघटी ५२।३० कारी अक्षांश 
२५।२० पलमा ५।४५। 


६४ "मनोरमाः हिन्दीष्याश्योयेता 





इष्टवटी ४२।३० म ६०।०० घटी मे बटाकर शेष ( ६०।००-५२।३० ): 
७।३० को रात्रिशेष कादष्टकाल मान कर भक्तं रीति से लगन साधन होगा। 


स्पष्ट सूयं १०। ५।२५।३० 
अयनांशाः ।२३।२६।२४ 





१०।२८।५२।०४ सायन सूयं 
२८।५२।०४ भक्तांकषाः 
हसे कुम्म राक्ि के उदयमान २५२से गुणाकर ३०्से माग दिया-- 


२८।५२।४ 
>€ २५३ 


७३०३।३२।५२ 
३० ) ७३०३।३२।५२ ( २४३।२७।५ 


~° 
१३० 
१२० 
१०३ 
६० 
१३>८६० 
\७८ 9 
३२ 
८१२९ 
< 
२१२ 
२१० 
२०८६० 
१२० + ५२९ 
१७२ 
१५०९ 


२९ 














लन्धि २४३।२७।५ मुक्त काल को रात्रि शेष के पलार्मक दृष्ट ४८५० मे घटाया 
४५७ ०१० 
२४२३।२७।५५ 
२०६।३२।५५ शेष पिछली राहि मकर के उदयमान २३०४ 
से अल्प ह अतः यही अशुद्ध राशि हुई । 
शेव २७०६।३२।५५ 
ॐ 3 9 
६१६६।२७।३० 





मागसागरी ४ 





गुणनफल को अशुद्ध राशि मकरके उदयमान ३०्४से मग दिया--लन्नि 
२०।२२।५५८ को अशुद्ध राहि १० मे धटाकर शेष ९।९।३७।२ में अयनांश्च २३।२६। 
३४ धटाने ते शेष ८।१६।१०।२०८ मभीष्ट निरयन लग्न हुभा ' 


भोग्यात्पकालात्खक्रिघ्नात्स्वोदयाप्तलवादियुक्‌ । 
रविरेव भवेल्लग्नं सषड्‌ मार्कानिश्ातनुः ॥ १९॥ 


यदि भोगकाल से इष्टपल अत्प होतो द्ृष्टपल को तीससे गुणाकर 
सायन सूयं के राष्युदय।सुपेभागदेनेषरजो लम्धि होगी उसे पुनः स्पष्ट सूयं में 
जोडनेसेसूर्यहीलमनहोगा। 

यदि रात्रिम लग्न साधन अमीष्टहो तो स्पष्टसुयकी राशिमें ६ जोड़कर 
उवते सूयं तथा इष्टवटी में दिनमान घटाकर शेषको रात्रि गत इष्ट मानकर 
लगन साधन करना चाह्यि।॥ १६॥ 


उदाहरण-(१)--स्पष्ट सूयं ३।१०।२२।३० इष्टधघटी १।३५ अयनांशाः 
२३।२६।३० 








३।१०।२२।३० ३०।० ।° 
-{- २३।२६।३० ३।४६।०० 
सायन सूयं ४।०२।४६।०० २६।११।०० मोग्यांश 


सिह के उदयमान ३४५सेमोग्यांडाकोगुणाकर ३०से भागदेने पर प्राप्त लन्धि 
(३०१।६।३० मोग्यकाल) हृष्टपल ६५ से अधिक है । मतः उक्त नियमानुसार इष्ट- 
पल ६५ को र०सेगुणा कर स्वोदयमान ३४५ से भाग देकर लब्षि ८।१५।३६ 
को स्पष्ट मूर्यं ३।१०।२२।३० मे जोरनेसे स्पष्ट लग्न ३।१०।३८।०६ हुमा । 
(२) स्पष्ट सूयं ५।२७।८।२० अयनांदा २३।२६।३५ दिनमान र८।४४ इष्ट 
भटी ४०।१० 
रात्रिमे लग्न साधन अभीष्ट होतो क्रियालाधव हेतु सूर्यको ६ राशि 
आगे बढ़ाकर रात्रिगत इष्ट षटी से भोग्यरीति द्वारा लग्न साधन करना चाहिये) 
स्पष्ट सूर्यं ५।२७।८।२० ष्टवटी ४०१० 
६ दिनमान २८। ४४ 
१९२०७ ८।२० रात्रिगत इृष्टषटी ११।२६ 
शयनांश २३।२६।२५ 
सायन सूर्यं ००।२०।३४।५० 
३०।० ॥ ०। 
२०।३४।५८ 
६।२५।२ भोग्यं को स्वोदय ( मेष के उदयमान ) २२१ से] गुणाकर 


७ मा०सा० 














शध "मनोरमा हिष्दीभ्यास्योषेता 


३०से भागदेने पर ६६।२२।२३ भोग्यकाल हुभा । पलाह्मक रात्रिगत इष्टषटी 
६८६ में भोग्यकाल तथा अग्रिम उदयमान को षटाया- 
६८९६ 
~ ६६।२२।२३ 
६ १६।२३७।३७ 
बव _ २५३ 
३६३ 
भिषुन ३०४ 
५६।२७।२३७ 
> ३० 
१७८८।३८।३० 


गुणन फल को अशुद्ध राशि ककं के उदयमान ३४२ से भाग दिया । लन्बि 
५।१३।५० वये शुद्ध राशि मिथुन मे जोडने तथा अयनांश षटने से- 
३।०॥० ॥ 9 
५। १३।४६ 


२३।५। १३।४६९ सायन लगन । 
-२३। २६।३८ अयना 


स्पष्ट लगन २।११।४७।११ 














नतक्ल साभन- 
पूवं नतं स्याहिनरात्रिखण्डं दिवानिशोरिष्टवटीविहीनम्‌ । 
दिवानिशोरिष्टयटीषु शुद्ध युरात्रिखण्डं त्वपरं नतं स्यात्‌ ॥ २० ॥ 


दिनाधं में दिनगत इष्टघटी तथा राश्यधंमें रात्रिगत इष्ट घटी धटाने से पुवं 
नत एवमेव दिनेष्ट धटी मे दिनार्धं तथा रात्रिगत इष्टवटी मे रात्र्यषं घटनिसे 
परनत होता है।। २०॥ 


उदाहरण - (१) इष्टधटी १०।५० दिन मान २८।३० 
दिनाध १४।१५ 
-१०।५० इष्टधटी 
३।२५ पूवं नत 
(र) इष्टधटी ३५।४० दिनमान २८।३० रात्रिमान्‌ ३१।३० राच्यं १५।४४ 
३५।४०-२८।३०~७।१० रात्रिगत दष्टघटी 


१५।४५ 
७११० 


` ८।३५ पूर्वनत 





माभसागरी ९९ 





(३) इष्टधटी १८।३० दिनमान २८।३० 
दिनार्धं १४६१५ 
इष्ट चटी १८।३० 
दिनाषं -१४१५ 
४।१५ पर नत 
(४) इष्ट धटी ५०।५० रात्रिमान ३१।३० 
दिनमान २८।३० 
५०।५०-२८।२३०२२।२० रातरिगत दृष्टघटी 
रात्रिगत शष्टचटी २२।२० 
राश्यघं -१५।४५ 


६।२३५ पर नत 








दशम लग्न साधन - 
ततो लद्कोदयेर्मृक्तः भोग्यं शोध्यं पलीकृतात्‌ । 
पर्वंपश्चान्नतादन्यत्‌ प्राग्वत्तट्शमं भवेत्‌ ॥ २१॥ 
लग्न साधन कीतरह लद्कोदयदहारा मृक्तकालया भोग्यकाल का साघनकर 
( इष्टकाल के स्थान पर) पूर्वेनत या परनतके पलात्मक मान मे धटाकर 
पर्वोक्तं नियमानुसार साधित लग्न ददाम लग्न होता है । 
यदि पूवं नत होतो मृक्तरीतिसे तथा परर नतहोतो भोग्य रीतिसेलमग्न 
साधन करना चाहिये ।। २१॥ 


उदाहरण - स्पष्ट सूयं ११।७।२६।२१ इष्टवटी २५।३० 
दिनमान ३०।७ अयनांश २३।२६।३८ 








प्रनत १०।२७ 
११। ७ ।२६।२१ २०। ० । ०। 
२३।२९६।२८ + ०।५५।५६ 
०1० [५५।१ूसायन सूय २६।४। १ भोग्या 


मेष के लद्ोदय मान २७८ से भोग्याश को गणा किया । गुणन फल ८०८०। 
३६।२३८ को ३०से भाग दिया। लन्धि २६९६।२१।१३ भोग्यकाल को प्रनत 
१०।२७ कै पलात्मक मान ६२७ में धटा कर अग्रिम राहियोके उदयमान 


बटाया- ६२७। ०। ° 
२६६।२१।१३ 
३५५७।२८।४७ 
वृष २६६ 
शेष को ३०से गुणा कर अशुद्ध राि मिथुन ५५।३८।४५७ 
के उदयमान ३२३ से भाग दिया । शेषक्रिया ०८३० 





लन साधन की तरह्‌। १७५६।२३।३० 


१०० "मनोरवा' हिस्दीर्याङ्योपेता 





शुद्ध राशि २।०।०॥9 
+ ५।२६।४६ 
२। ४५१२६९४६ 
अयनांश्ष २३।२६।३८ 
१।१२। ०।११ 

स्पष्ट दक्षम्‌ लगन । 








दशम लग्नानयन मे विजैष- 


३२३) १७५६।२३।३०५।२६।४६ 








१६१५ 
१४४०८ ६० 
८६४० {२३ 
३८६६ 
६०६ 
२९०३ 
१६९३८ 
२६५ >< ६०१५९ ०० 
३७ 
१५६३० 
१२६२ 
३०७१० 
२६९०७ 
१०३ 


मध्याह्न चांरात्रे वा स्वेष्टकालो यदा भवेत्‌ । 
तदा तात्कालिकः सूर्यो भवेल्लग्नं खतुयंकम्‌ ॥ २२ ॥ 


यदि ठीक मध्याह्लुकालिक इष्ट घटी मं ददाम लग्न साषनकरनाहो तौ उस 
समय स्पष्ट सूयं ही दशमलग्न होता है । इसी प्रकार यदि ठीक मध्य रात्रिकालिक 


दृष्ट हो तो स्पष्ट सूर्यं ही चतुथं लग्न होगा ॥ २२॥ 


ससन्वि दादश भाव साधन- 


लग्नं चतुर्थात्संक्ोष्य शेषं धद्भिविभाजितम्‌ । 
राश्यादि योजयेल्लम्ने सन्धिः स्याल्लमवि्तयोः ॥ २३. 


सन्धिः षडंशसंयुक्तो धनभावौ भवेत्स्फुटः । 


धनभाव: षटंणाढठधः 


सन्विघंनतृतीययोः ॥ २४ ॥ 


षडंशसंयुतः सन्धिस्तृतीयो भाव उच्यते, 


षडंशाढधस्तृतौयः 


तृतोयसन्धिरेकाढधस्तुर्यः 


स्यात्न्धिर्रातुचतुर्णयोः ।। २५॥ 


सन्धिभंवेदिह्‌ । 


दधाढचस्तृतोयमावोऽपि पृत्रभावो भवेह्स्फुटः ॥। २६॥ 
व्याढथो द्वितीयनन्षिः स्थात्सन्धिः पञ्चमभावजः । 


धनमावो वेदयुतौ 


रिपुमावः रजायते ।। २७ ॥ 


लम्नन्धिः पष््युतः सन्धिः स्याद्रिपुमावजः। 


मानसागरी १०४ 





लग्नाचाः सन्धिसहिता भावाः वद़ाशिसंयुताः ! 
सप्तमाशा भवन्तीह भावाः सवं सन्धयः ।। २८ ॥ 
चनु लग्नसे प्रथम लग्नको धटाकर शेषको ६से भाग देकर लग्धि 

रायादि को प्रम लग्ने जोडनेसे प्रथम भाव तथा द्वितीय भाव की सन्धि होती 
है । सन्धि मे षष्ठा जोडने से हितीय मावस्पष्टहोतादहै। धन में षष्ठां जोडने 
से द्वितीय-तृतीय की सन्धि, पुनः षष्ठश्च यृक्त सन्धि तृतीय भाव होता टहै। तृतीय 
मावे वंश जोष्ने से तृतीय-चतुर्थं की सन्धि होती है । तृतीय सन्धि मँ एक जोडने 
से धतुं की सन्धि, तृनीयमावमेंदो जोडने से पञ्चम भाव, द्वितीय सन्धिर्मे 
३ जोढने से पञ्चम की सन्धि, दवितीय भावमे ४ जोड़ने से षष्ठ माव, लग्न सन्धि 
मे णाच जोडनेसे षष्ठ भाव की सन्धि होती है। 


लग्नादि सन्धि सहित भावों में ६-६ गशि जोडने से सन्धि सहित सप्तमसे 
कादश पर्यन्त भाव स्पष्ट हो जाते हं ।। २३-२८ ॥ 


विशेष- लग्न मे ६ राहि जोऽने से सप्तम भाव तथा दशम लग्नमे ६ रादि 
जोडने से चतुर्थं भाव होता दहै। 
उदाहरण- स्पष्ट (प्रथम) लगन ४।१२।५६९।२३ 
स्पष्ट दशम लग्न १।१२।०।११ 
£ 

चतुर्थलग्न ७।१२।०।११ 

७।१२। ०।११ 

४1१२।५६।२३ 

२।२६। ० ।४द 

६) २।२६। ° ।४८(०। १४।५०।८ षष्ठा 


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पिरि 


> 


१०२ "मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता 




















प्रथम लगन ४। १ २।५९।२३ 
०। १४५० द 
सन्धि ४।२७।४६।३ १ 
०।१.४।५०। ८ 
हितीय भाव ५।१२।३६।३९ 
०।१४।५०। द 
सन्धि  ५।२७।२६।४७. 
०।१४।५०। ६ 
तृतीयभाव ६।१२।१९।५५ 
०।१.४।५०। ८ 
सन्धि ६।२७।१०।०३ 
०।१.४।५०। च 


चतुथं भाव ७।१२।००।११ 


(त° स०& १) संर ७।२७।१०।०३ 
(तृ० भा०+-र) पञ्चम भाव ०८।१२।१६।५५ 
(द्वि° सं० ३) सन्धि ८।२७.२९।४७ 


(द्वि° भा०--४) षष्ठ भाव ६।१२।३९।३६ 
(प्र० सं०+५) सन्धि ६।२७।४६।३१ 
(प्र भा० ~+ ६) ~ सप्तम भाव १०।१२।५९।२३ 
(सं° ~+ ६) = सन्धि १०।२७।४६।३१ 
(द्वि°भा० +-६) = अष्टम भाव ११।१२।३६।३६ 


( सं° + ६) = सन्धि ११।२७।२६।४७ 
(त° भा०-+-६) = नवम भाव ०।१२।१९।५५ 
(सन्धि + ६) = सन्धि ०।२७।१०।०३ 
(बतु०भा० + ६)= दरम भाव १।१२।०।११ 
( सं० ~+ ६) = सन्धि १।२७।१०।०३ 
(१०मा ० ६) ~ एकादक्षभाव २।१२।१९।५५ 
(सं + ६) = सन्धि २।२७।२६।४७ 
( षष्ठ $ ६) = द्वादश भाव ३।१२।३९।३६ 
( सं° ~+ ६) = सन्धि ३।२७।४६९।३ १ 
विशोपक साधन- 


घन्धिखेटान्तरं कायं यच्छेषं नदताडितच्‌ । 
भावसन्श्यन्तरेणाप्तं वत्र विशोपकं फलम्‌ ॥ २९ ॥ 


मानसागरी १०३ 


कियो 





सन्धि भौर प्रह का अन्तर करशेषको नीससे गुणाकर भाव भौर सन्धिके 
अन्तरसे भागदेने पर विंशोपक बल होता है। २९॥ 

उदाहरण -- जन्म-लग्न से चतुर्यं भाव मे सूयं ७।८।२०।४० राष््यादि है) 
अतुर्थं भाव की सन्धि ७।२७।१०।३ है । अतः दोनों के अन्तर १८।४६।२३ अंशादि 
को २० से गुणा किया । गुणनफल ३७६।२७।४० को विकला मे परिणत कर भाव 
गौर सन्धिके अन्तर १५।६।५२ के विक्लात्मक मान ५४५६२सेभागदेने पर 
लग्धि २४।४०८ सूर्यं का वशोपक बल हुजा । 


दादशभाव विशार 


त्वादयो भावबलं वदन्ति तत्स्वामिसम्पुणंबलंः समेतः । 
युक्तं ऽय दुष्टे शुमदुम्युते च क्रमेण तद्धावविवृद्धिकारी ॥ ३० ॥ 
तनु ( प्रथम भाव) आदि द्वादश भावों के स्वामी अपने-अपने सम्पूणं बलों से 
युक्त होकर अपने अपने भावम होया भावकोदेखर्हेहीं तथा माव शुभग्रहों 
से यत॒ अथवा दृष्ट हौ तौ उत्तरोत्तर भाव वृद्धिकरी होता है। इस प्रकार 
भावों का बल कहा जाताहै। ३०॥ 


रूपं तथा वणं विनिणंयश्च चिह्लानि जातिरवंयसः प्रमाणम्‌ । 
सुलानि दुःखान्यपि साहसं च लम्ने विलोक्यं खलु सवंमेतत्‌ ॥। ३१॥ 
स्वरूप, शरीर का वणे निर्णय, चिह्ब (लहसन, मस्सा आदि का) ज्ञान, जाति, 
आयप्रमाण, सुख-दुःख, साहस इन सबका विचारं लगन ( प्रथम माव) से करना 
चाहिये ।॥ ३१॥ 
स्वर्णादिधातुक्रयविक्रयश्च रत्नानि कोषोऽपि च संग्रहश्च। 
एतत्समस्तं परिचिन्तनीयं घना्भिधाने भवने सुधीभिः ॥ ३२ ॥ 
स्वणं आदि ध तुओं का क्रय-विक्रय, रत्न, कोष (खजाना) तथा विभिन्न वस्तुओं 
का संग्रह हन समस्त विषयोंका विचार विद्रनों को धन नामकं द्वितीय भाव से 
करना चाहिये ।। ३२॥ 
सहोदराणामथ किङ्कराणां पराक्रमाणामूपजीविनां च । 
विं्ारणा जातकशास्त्रविद्धिस्त॒तीयभावे विनयेन कार्या ॥ ३२ ॥ 
सहोदर भाई, नौर, पराक्रम तथा आश्ितजनों का विचार जातक शास्त्र के 
ज्ञाता को नियमानुसार करना बाह्य । ३३॥ 


पुहृदगृहग्रामवतुष्पदो वा केत्राचमालोकनकौ चतुर्थे । 
दष्टे शुभानां शुमयोगतो वा भवेत्परबुद्धिनियमेत तेषाम्‌ । ३४ ॥ 


१०४ "मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता 








कयना 


मित्र, गृहः प्रम, पशु, खेत भादि आस-पास का विचार चतुयंभाव से 
करना चाहिये । भाव यदि शुभग्रहोंसे दष्ट अबा यतहो तो निबमानुसार भाव 
की बुद्धिहोतीहै।॥ ३४॥ 
बुद्धिप्रबन्धात्मजमन्त्रविद्याविनेयगर्भस्थितिनीतिसंस्थाः । 
सुताशिधाने भवने नराणां होरागमन्जैः परिचिन्तनीयम्‌ ॥ ३५॥ 
बुद्धि, प्रबन्ध (लेखन), पुत्र, मन्त्र (गुप्त विद्य), विद्या ( अध्ययन ), शिष्य, 
गमं स्थिति तथा नीति सम्बन्धी मनुष्यो के विषार होराशास्त्रके पण्डित को 
सुतनामक (पञ्चम) भावसे करना चाहि्यि॥ ३५॥ 
वेरित्रातं क्र्रकर्मामयानां चिन्ता शद्धा मातुलानां विवारः । 
होरापारावारपारं प्रयातेरेतत्सवं शत्र॒मावे विचिन्त्यम्‌ !। ३६ ॥ 
दात्र समूह, ऋर कमे, रोग, चिन्ता, शङ्का (भय), मामा (ननिहाल) इन सब 
का विचार, होरा रूपी समृद्रके पारगामी व्यक्ति को, शत्रु (षष्ठ) मावसे करना 
चाहिये ॥। ३६ ॥ 


रणाङ्गणं चापि वणिकुक्रिया च जायाविचारो गमन प्रमाणम्‌ । 
क्ास्त्रप्रवीणेन विचारणीयं कलत्रमावे किल सव॑मेतत्‌ ॥ ३७ ॥ 


युदक्षेत्र, व्यापार, स्तरो, यात्रा का समय इन समस्त विषयों का विचार शास्र 
मे कुशल व्यक्ति को कलत्र (सप्तम) भावसे करना चादहि्यि।। ३७ ॥ 
नद्यतारात्पन्थवेषम्यं दुगं शस्त्रं चायुः सद्भुटञ्चेति सर्व॑म्‌ । 
रन्प्रस्थाने सर्वया कल्पनीयं प्राचीनानामाजया जातकज्ञैः ।। ३८ ॥ 
नदीकेउतारसमे मागे की विषमता (नदी नालों से युक्त कठिन मामे, समुद्री 
यात्रा), किला, शस्त्र, आयुर्षकट नादि विषयों का विचार, दैवज्ञ को प्राचीन 
विह्धार्नो को आज्ञासे, अष्टम मावे करना चाहिये । ३८ ॥ 
धर्मङ्कियायां हि मनअवु्िर्माम्योपपति विमलं च शीलम्‌ । 
तीर्थप्रयाणं प्रणयः प्राणः पृण्यालये सर्वमिदं 9दिष्टम्‌ ॥ ३६॥ 
धार्मिक क्रियार्थो में मानसिकं भुकाव, मण्य की उपलभ्वि, स्वश्छ स्वभाव, 
तीर्थयात्रा, पराभो मे अनुराग इन सबका विचार नवम भावके अन्तर्गत कहा 
मया है ॥ ३६॥ 
भ्यापारमुद्रानृपमानराज्यं प्रयोजनं चापि पितुस्तशैव । 
महृव्फलाप्तिः अलु पर्वमितद्राज्याथिधाने भवते विचारयन्‌ ।॥ ४० ॥ 


१. गमा सब्द सामीप्वकाचोतकहै! : `, 





निष 


भानसागरी १०४ 





प्षिषपणरिीिीपििीिीोपीििीिगिणिणणरीणीीीीणगिणणग णण णिरप 


ग्यापार, मृद्वा (भन या अधिकार चिह्ु), राजसम्मान, राज्य (अधिकार) 
जा वक्यकता, पिता तथा महान्‌ उपलग्वि इन सबक; विचार राज्यनामक (दशम) 
भावि करना चाहिये ।॥ ४० ॥ 


गजाग्यहेमाम्बरच्छत्रजातमान्दोलिकामङ्गलमङ्गलानि । 
लाभः किलंवामखिलं वि्ा्यमिचत्त॒ लाभस्य गृहे गृहजः ॥ ४१।। 


हाथी, घोटा, स्वर्णं , वस्त्र, छत्र, पालकी, शुभकार्यं, सौभाग्य, लाभ इन समस्त 
विषयों का विचार, माव जानने वालों को, एकादज्ञ भावमे करना चाहिये ।३१॥ 


हानिर्दनिं व्ययश्चापि दण्डो निर्बन्ध एव च। 
स्व॑मेतद्‌ भ्ययस्थाने चिन्तनीयं प्रयत्नतः ।। ४२॥। 
हानि, दान, ब्यय, दण्ड, विवाद (मुक्दमः आदि) इन सब्रका विचार प्रयास 
शूर्वक द्वादश मावसे करना चाहिये । ४२॥ 


रहो के एल-- 
भृष्यदियः पदार्था जायन्ते येन जन्तूनाम्‌ । 
तदिदमधुना भरवकषये भावाध्यायं विशेषेण ।॥ ४३ ॥ 
प्राणि्यो के मू्ति (शरीर, धन, मित्र) आदि पदार्थो का ज्ञान जिस विधिसे 
होता है उम मावाष्याय को अबर्मै विशेषसू्पसे कह रहाहं।। ४३॥ 


दादश भावगत रवि एल 
सवितरि तनुस॑स्थे शंशवे व्याधियुक्तो ` 
नयनगदसुदुःखी नीचसेवानुरक्तः । 
न भवति गृहमेधी देवयुक्तो मनुष्यो 
भ्रमति विकलमूतिः पृत्रपौत्रंविहोनः ॥ ४४ ॥ 
लश्न में सूयं स्थित होतो मनुष्पर बाल्यावस्था मे रोगी, होतादहै। नेत्र रोमं 
से पीडित, नी व्यक्ति की सेवामें लीन गृहस्थाश्रम गृणों से रहित, भाग्य युक्त, 
ुत्र पौत्रसे रहित तथा व्यग्रताके साथ घ्रमणकरने वाला होताहै। ५४॥ 
धनगतदिननाये पुत्रदारविहीनः 
रक्तनेत्रः कुकेशः । 
भवति च थनयुक्तो लोहताल्न ण सत्यं 
न भवति गृहमेधी मानवो दुःख मागी ॥ ४५॥ 
धन भावमे सूयंहोतोष्यक्ति पुत्र ओरस्त्रीसे रहित, दुबल शरीर वाला, 
-अत्यम्त दीन, लाल मो वाला, कुत्सित बालो वाला, लोहे ओौर तविसेषन 
कदा करने वाला, व्यावहारिक ज्ञान ते रहित तथा हुः होता है । ४५॥ 


क्म 


१०६ "मनोरमा" हिन्वीष्यास्योपेता 





सहजमवनसंस्थे भास्करे ातुनाशः 
प्रियजनहितकारी पृत्रदाराभियुक्तः। 
भवति च धनयुक्तो धंर्यंयुक्तः सहिष्णु- 
विपुलघनविहारौ नागरीग्रीतिकाशी । ४६ ॥ 
जन्म लग्न से तृतीय.भाव मे यदिसूर्यहो तौ भाहयोका नाश होता है। एेसा 
श्यक्ति अपने प्रियजनों का हित करने वाला पुत्र, स्त्री एवं धन से युक्त, धैयवान्‌, 


सहिष्णु, अपार सम्पत्ति का उपभोग करने वाला तथा सभ्य एवं कुलीन स्वियौ मे 
प्रीति रखने वाला होता है । ४६ ॥ 


विविघजनविहागै बन्धुसंस्थे दिनेशे 
भवति च मृदुवक्ता गीतवाद्यानुरक्तः । 
समरशिरसि युद्ध नास्ति भङ्गः कदाचित्‌ 
प्रचुरघनकलच्रा पाथिवानां प्रियञ्च ।। ४७ ॥ 
जिसके जन्म लग्न से चतुथं मावमें सूर्यंहो तो वह व्यक्ति विविष व्यक्तियों 
के बीच विचरण करने व?ला, मृदुभाषी, गीत-वाद् मे अनुराग रने वाला, कमी 
मीयुद्धमें पराटितन होने वाला, प्रसूत धन भौर स्त्रियों से युक्त, राजां का 
प्रिय पात्र होताहै :। ४७ ॥। 


तनयगतदिनेशे शैशवे दुःखभागी 
न भवति धनमागी यौवने व्याधियुक्तः । 
जनयति धुतमेकं, बान्यगेहश्च शर- 
अपलमतिविलासौ भ्गूरकर्मा कुचेताः ॥ ४८ ॥ 


यदि पर्चम मावमें सूयंहोतो वह्‌ व्यक्ति बाल्यावस्था में दुःखी, युवावस्था 
मे षनसे रहित तथा रोगीहोताहै। एकही पृत्रको जन्मदेताहै, दूसरों के 
धर मे निवास करनेवाला, वीर, चञ्चल, बुद्धिवाला, विलासी, क रकर्मा तथा दुष्ट 
हदय वाला होता है ।। ४८ ॥ 
अरिगृहगतभानौ योगशीलो भतिस्थो 
निजजनहितकारी जातिवर्ग्रमोदो | 
कृशतनु गृहमेषी चार्मूतिविलासौ 
भवति च रिपुजेता कर्म॑पुञयो दुढडाङ्गः ॥ ४९ ॥ 
शत्रु स्थान (षष्ठ मव) में यदिसूरव॑हो तो मनुष्य योगी, स्थिर बुद्धिषाला 
मात्मीय अर्नो का हिर्तषी, अपनी जाति एवं कुल को आनन्दित करने बाला, दुर्बल 
शरीर वाला, अतिथि सत्कार में दक्ष, सुन्दर स्वकप वाला, विलासी, शत्रु को 
जीतने वाला, अपने कायां हारा सम्मानित तथा दढ शरीर वाल। होता हि ॥४९॥8 


मानसाभरी १०७ 





धुवतिभवनसंस्थे भास्करे स्त्रोविलासी 
न भवति सुखभागी चन्बलः पापशीलः । 
उदरसमशरीरो शातिदीर्घो न हस्वः 
कपिलनयनरूपः पिङ्खकेशः कुमतिः ।॥ ५० ॥ 
यदि जन्म लग्नसे सप्तम भवनम सूयहो तो वह ब्यक्ति स्त्री में आसक्त, 
सुख से रहित, चञ्चल, पाप कमंमें रत, उदर के समानश्नीर वाला, ( मध्यम 
कद ) न अधिक बडानषछोटा, पीली आशो एव स्वरूप वाला, मरे बालो, 
तथा विकराल स्वप वाला होता है ॥ ५० ॥ 
निघनगतदिनेशे चनचलस्त्यागभीलः 
किल बुघगणसेवी सवंदा रोगयुक्तः । 
विकलबहूलभाषो भाग्यहीनो विशीलो 
रतिविहितकुचंली नीचसेवी प्रवासी ।॥ ५१॥ 
जन्म लग्न से अष्टम भावम यदिसूयं गयाहौ तो जातक चञ्चल, त्यागी, 
विदत्‌ समाज का सेवक, सदव रोगी, अधिक क्भूठ बोलने वाला, भाग्यहीन, क्षील 
से हीन, रति म उपयोगी मलिन वस्त्र वाला, नीचोकीसेवा करने वाला तथा 
प्रवासी ( परदेश में निवास करने वाला ) होता है । ५१॥ 


ग्रहगलदिननाथे सत्यवादी सकेशं 
कुल जनहितकाशे देवविश्रानुरक्तः। 
प्रथमवयसि रोगो यौवने स्थै्ययुक्तो 
बहुतरघनयुक्तो दीघजीवी पुमूतिः ॥ ५२ ॥ 
जिसके जन्म लग्नसे नवम भाव मसूथगया होतो वह सत्य बोलने वाला, 
सुम्दर बालों वाला, कटुम्बीजनों का हितचिन्तक, देवता ओर ब्राह्मणों से अनुराग 
रखने वाला, बाल्यावस्था म रोगी, युव।वस्था मं स्थिर ( अर्थात्‌ स्वस्थ ) बहुत 
अभिक धनवान्‌, दीं काल तक जीविन रहने वाला तथा सुन्दर होता है॥ ५२॥ 


दशमभवनसंस्थे तोव्रमानौ मनुष्यो 
गुणगणसुखमागी दानशीलोऽभिमानी । 
मृदुलधुशुचियुक्तो नृत्यगीतानुरागी 
नरपतिरतिपूज्यः शेषकाले च रोगी ॥ ५३॥ 

तीक्ष्ण रिम वाले ( सूयं ) जिसके दशाम भावमेहों वहु मनुष्य विषिषमूणो 
एवं सुशो से युक्त, दानी, अभिमानी, कोमल, चञ्बल एवं पवित्र, नाचन्बानारमे 
अनुराग रश्ने वाला, अस्यचिक सम्मानित राजा ( राजनेता ) तथा अन्तिम समब 
मे रोगी होता है॥ ५३॥ 


१०८ "मनोरमा" हिन्दीभ्यास्योपेता 





` बहुतरषनभागो चायसंस्थे दिनेशे नरपतिगृसेवी भोगहीनो मुणश्चः । 
हृशतनुघनयुक्तःकामिनीचित्तहारो भवति चपलमृतिर्जातिवगं ्रमोदी ।॥ ५४ ॥ 


एकादश्च भाव में सूयं स्थित हो तो अल्यकिक भनवान्‌, राजषराने का सेवक 
( अथवा राजकीय सेवारत ) भोगसे रहित, गुणवान्‌, दुर्बल शरीर वाला, घन 
ञे युक्त, सुन्दर स्त्रियों का प्रिय, चञ्चल स्वभाव बाला तथा अपनी जाति एवं 
समाज को आनन्दित करने वाला लेता है ॥ ५४॥१ 
जडमतिरतिकामी चान्थयोषिद्िलासी 
विहगगणविधाती दृष्टचेताः कुमूसिः । 
नरपति धनयुक्तो हवादशस्थे दिनेश 
कथकजनविरोधी जंधरोगी कृशाङ्गः ॥ ५५ ॥ 
यदि दवादश भावमेसूयहोतो व्पक्ति जड़ बुद्धि वाला, अत्यधिक कामी, 
परस्त्री मे ासक्त, पक्षियों का वघ करने वाला, दृष्ट हृदय वाला, करूप, राज- 
कीय सम्पत्ति से युक्त, कथकजन ( कथाकारया क्षगडाल्‌ ) का विरोधी, जंषासे 
रोगी तथा कृश ( दुर्बल ) शेर बाला हौतादै।॥ ५५॥ 


दाद्‌ य भावगत बन्द्रण्ल 
तनुगतकुमुदेशे वित्तपू्णंः सुखी स्याद्‌ 
बहूुतरधनमोगी वींयुक्तः सुदेहः । 
भवति च यदि नीचे चन्द्रमाः पापगोवा 
जडमतिरतिदीनः स्यासदा विहीनः ॥ ५६ ॥ 


चन्द्रमा यदिलग्नमेहो तो जातक धन से पूणे, सुखी, अत्यधिक धनका 
उपमोग करने वाला, बलवान एवं सुन्दर शरीर वाला होताहै। यदि चन्रमा 
नीच राशिमेंहो अथवा पापग्रह की राल्िमें हो तो ग्यक्ति जड बुद्धि वाला, 
अत्यन्त दीन तथा घन से रहित होता है॥। ५६॥ 
धनमतहरिणाद्कु व्यागशोलो मतिज्नो 
निधिरिव धनपूर्णो चश्वलात्मा सुदुष्टः । 
जनयति बहुसौख्यं कीतिणाली सदिष्णु- 
मख कमलविलासो " चन्द्रतुस्यस्वङ्पः । ५७ ॥, 
जिरके जन्म सग्नसे दूमरे भाव में चनमा हो वह त्यागी, बुद्धिमान्‌, निषि 
कीतरह वनसे परिपूर्णं, चञ्चल चित वाला, दर्शनीय, अधिक सु उत्पन्न करने 





१. नीया, २. युबतिजन विलासी पाठान्तरम्‌ ।, 
३. निभि नव होती ह---पपमोऽस्तियां महापथः शलो मकरकश्छपौ । 
मुकुन्दकुन्दनीलाई्ज अवद्य निधयो नव ॥।. इष्दा्णंवः 


जानसागरी १०९ 


क्वधययिकयाणयययोकयाणोभयििििकयणिणनोनयििेिोदोोकिोियोमिेयेयकदमिकणोदाणदेयााग्यिये 





वाला, यदास्वी, सहननील, कमल के समान ( सुन्दर ) मुल का आनन्द लेने वाना 
तथा चन्द्मा के सदुश स्वरूपवान्‌ होता है ॥ ५७॥। 


शशिनि सहजसंस्थे पापरेहे च नित्यं 
न मवति बहुभाषी जातुहर्चारिमूिः। 
भवति च सुखभोगी सौम्यगे रात्रिनाथे 
सकलघननिघानं शास्व्रकाष्यग्रमोदी ।॥ ५८ ॥ 


जन्मकालिक चन्द्रमा यदि तृतीय मावमे पापम्रहकी राकिमेहोतौो जातक 
प्रतिदिन कम बोलने वाला, भारईका हेरण करने वाला, शत्रस्वूप होताहै 
यदि शुभग्रहकी राशिमेंहोतो सूखका भोग करने वाला, समी प्रकारङी 
सम्पत्तियों से परिपूर्ण, शास्त्र तथा कान्य से आनन्दित होता है ( अर्यात्‌ काम्य 
शस्त्रकाप्रेमी होता दै। )॥ ५८॥ 


बहुतरवसुपूर्णो रात्रिनाये चतुथं 
प्रियजनहितकारो योषितां प्रीतिकरी । 
सततमिह स रोगो मांसमत्स्यादिभोगी 
गजतुरगसमेतः क्राडते हरम्यपृष्ठे । ५६ ॥ 
चन्द्रमा यदि चतुथमावमेंहो तो विविध सम्पत्तियं से सम्पन्न, प्रियजनो का 
हित करने वाला, स्वियों का प्रमी, निरन्तर रोगयुक्तः मांस तथा मछली भक्षण 
करने वाला, हाथी घोडे से युक्त तथा ह्म्यपृष्ठ ( महल ) के ऊपर क्रीडा करने 
वाला होता दहै ॥ ५६॥ 
तनयगतशशाङ्ं वित्तपुणः सुखी स्याद्‌- 
बहुतरसुतयुश्तो वश्यनारीसमेतः । 
यदि भवति शशाद्धुः क्षीणपापारिगेहे 
युवतिसुखसमहैः पु्रपौत्रंविहीनः ॥। ६० ॥ 
पञ्चम भावम चन्द्रमा स्थित होतो जातक धने पूर्णे, सुखी, अधिक 
सन्तान वाला, मनोनुकृल स्त्री से युक्त होता है। यदि चन्द्रमा क्षीण हो, पापग्रह 
अथवा दात्रुग्रह की रारिमेहो तौ स्त्रीजन्य सुखोसे, पुत्र एवं पौत्रो से रहि 
होता है ॥ ६० ॥ 


रिपुगृहगमशशद्धुः क्षीणतानाशकारी 
न मवति बहुभोगी व्याधिदुःशस्य दाता । 


यदि गृहमथ तुङ्ग पुणदेहः गशाङ्खो 
बहूतरसखदाता स्यादा मानवानाम्‌ ॥ ६१॥ 


११० मनोरमा" हिन्डीभ्यास्योपेता 


छचूणाव मे स्विति चन्द्रमा यदि क्षीणहोंतो वह नाश करने वाला होताह 
( अर्थात्‌ अनिष्टकर होता है। ), सुखभोगसे रहितकर व्याधि एवं दख प्रदान 
करता है । यदि अपने गृह ( ककं राक्षि ) अथवा उच्च ( वष राशि) मेहो तथा 
पूर्णं हो तो मनुष्यो को बहुत सुख देने वाला होता है ।॥ ६१ ॥ 
विमलवपुषि चन्द्र सप्तमस्थे मनुष्यो 
दषिरयुवतिनाथः काखचनाठधः सुदेही । 
शशिनि कृशशरीरे पापगे पापदृष्टे 
न मवति सुखमागी रोगिपत्नीपतिः स्यात्‌ ॥। ६२ ॥ 
पुणं चन्द्रमा यदि सप्तम मावमेंहौतो मनुष्यसृुन्दरस्त्रीका स्वामी, स्वर्णं 
से युक्त तथा सुन्दर शरीर वाला होताहै। यदि क्षीण चन्द्रमा सप्तम भावम 
पापग्रहकी रारिमेंहो अथवा "पग्रहसे दृष्टो तो वह्‌ सुखी नहीं होता दहै 
तथा उसकी पत्नी रोगिणी होती है ।॥ ६२ ॥ 
निवनमवनसंस्ये शीतरश्मौ नाणणां 
निघनमचिरकाले पापगेहे ददाति । 
निजभृगुगरूगेही सौम्यगेहो च पूर्णो 
जनयति बहुदुःखं श्वासकासादिरो्गैः ॥ ६३ ॥ 
अष्टम माव में पापृग्रहकीरानिमयदि चन्द्रमा हौ तो शीघ्र ही {अल्प 
आयु मे ) मृत्युकारक होता है । यदि अपनी राणि (ककं), शुक्त, गुर तथा बुष 
की (२, ७, €, १२, ३, ६ ) राशियों मे गया हभ चन्द्रमा पूर्णं बलवान्‌ हो तो 
असि-कास ( दमा, खाँसी ) जादि रोगों से बहुत कष्ट उत्पन्न कराताहै। ६३॥ 
नवमभवनसंस्थे शोतरश्मौ प्रपूर्णं 
बहुतरसुखभुक्त्था कामिनीप्रीतिकारी । 
न भवति घनमागी क्षीणगे नीचगे वा 
विमलपथविरोधी निर्गुणो मूढचेताः ॥ ६४ ॥ 
नवम भावनं स्थित चन्द्रमा यदिपृणंहो तो व्यक्ति विविध सुखो के उपभोग 
से स्त्रियों द्वारा अनुराग प्राप्त करता है ( अर्यात्‌ उसके टेश्वयं से स्त्रियां आङ्ृष्ट 
होती है )। यदि उसी मावमें चन्द्रमा क्षीण हो अथवा नीच राक्िगत होतो 
जातकं निधन, सुमार्ग का विरोधी, गुगहीन तथा मूं होता है ।। ६४॥। 


बहूुतरधनमागौ कमंसस्ये हिमांशौ 
विविधषननिधानं पृत्रदारादिपूणंः । 

सिपृकूटिलगृहस्ये कासरोगः कृशाङ्गः 
पितयूवतिषनाढ्ः कर्महीनो मनुष्यः ।॥ ६५॥ 


मानसागरी १११ 





दक्शम भावमेयदि च््रमाहोठो बहुत मिक धन का अधिकारी विविष 
भकार की ( चल एवं स्थिर ) सम्पति का खजाना तथा स्त्री-पुत्र आदि बे परिपूर्णं 


होता है । यदि जन्मा शतरुग्रहको राशिमहो मथवा वक्रब्रहकी राशिमेहो 
तो कास (ऋसि, शांसी आदि) रोगोसे पीडित, दुबल शरीर वाला, पिता एवं 
स्व्रीके घनोँसे युक्त तथा कर्महीन होता है ।॥ ६५॥ 
बहुतरधनमोगी चायसंस्थे शणाद्धु 
9चुरसुखसमेतो दारमृत्यादियुक्तः । 
शशिनि कृशशरीरे नीचपापारिगेहे 
न मवति सुखभागी व्याधितो मृढचेताः ॥ ६६॥ 
यदि ग्यारहवे मावमे चन्द्रमा स्थितहो तो जातक भत्यधिक सुशो से सम्पश्न, 
स्त्री एवं सेवको से युक्त होता है। 
यदि चन्द्रमा क्षीण होकर नीच (वृश्चिक) राशिमें हो, पापग्रह अथवा शत्रग्रह 
की राश्शिमेंगयाहोतौ वह व्यक्ति सूखसे रटित, गोगी तथा मूख होता है ।६६॥ 
व्ययनिलयनिवेशे रात्रिनाये कृशाः 


सततहिमसरोगी क्रोघनो निर्धनश्च । 
निजबुघगुरुगेहे दान्ति कस्त्यागशीलः 
कृशतनुसु भोगी नीचसङ्खो सदेव ।॥ ६७ ॥ 
दादश भमवनम यदि चन्द्रमा का निवास हो तो मनुप्व प्रतले अङ्खों वाला, 
निरन्तर शीत रोगसे पीडति, क्रोधी तथा निवन होताहै। यदि उसी भावम 
चन्द्रमा अपनी राशि (४), बुष की राशि (३,६) तथा गुरु की राशि (९,१२ )में 
स्थितहो तो दुर्बेल शरीर वाला, सुखी तथा सदैव नीचों का साथी होता है ।६७॥ 


दादश भावगतं मोम फल- 


उदरदशनगेगी शैशवे लग्नभौमे 
पिशुनमतिङृशाङ्खः पापवित्करृष्णरूपः । 
भवति चपलचित्तो नीचसेवी कू्च॑लः 
सकलसुखविहीनः सव॑दा पापशीलः । ६८ ॥ 
लग्न (प्रथम मावर) में भौमटहोतो बाल्यावस्थामे उदर तथादांतोंसे रोगी 
होता है । चुगली करने वाला, दुबल, पाप्म उा ज्ञाता, काले रंग का चञ्चल, 


नौषो का सेवक, मलिन वस्त्र धारण करने वाला, समस्त सुशो से हीन तथा सदैव 
पाप कमं करने वाला होताहै।॥ ६८ ॥ 


११२ 'मनोरमा' हिन्दीस्वाश्योपेता 





धमगतपृथिवीजे धातुवादी प्रवासी 
ऋणघनकृतकितो च तक्ता सहिष्णुः । . 
कृषिकरणसमर्थो विक्रमे मम्नचित्तः 
कृशतनुसखभागी मानवः सवदैव ॥ ६६ ॥ 
धन भावम यदिमंगलहो तो मनुष्य धातुओं का ज्ञाता, परदेश वासी, ऋण 
वारा षन संग्रह मे लीन ( अथवा आय-गव्यय, हानि-लाम में दत्त चित्त, सषा करे 
वाला ), जुगारी, सहनशील, कृषि कमं मे समर्थं, पराक्रम सम्बन्धी कार्योमे 


आनन्दिते रहने वाला, दुबल, तथा सदा सुक्ी होता है ।। ६६ ॥ 


सहजभवनसस्थे भूमिजे चरातृहर्ता 
कृशतनुसुखभागी तुङ्गमोमो विलासी । 


धनसुखनरहीनो नीचपोपारिगेहे 
वंति सकलपुर्णो मन्दिरे कुत्सिते च ॥ ७० ॥ 


तृतीय भवन में यदिमंगलहोतो माई का हरण करने वाला, दुबला-पतला 
तथा सुखी व्यक्ति होता है। मौम अपनी उच्च ( मकर ) राशिमेंहो तो विलासी 
होता है । यदि नीच राशि (ककं ) पापतथा शत्रुग्रहुकी राशियोमे गयाहोतो 
वह्‌ धन-जन एवं सुखो से हीन होता है । समी प्रकारसे पूणे होने पर मी निन्दित 
गृह ( महू ) मे रहता है ॥ ७० ॥ 
जडमति रतिदीनो बन्धुसंस्थे च भौमे 
न मवति कुल आये बन्धुहीनेन दुःखी । 
रमति सकलदेशे नीचसेवानुरक्तः 
परवशपरदारे लुष्वचित्तः सदव । ७१ ॥ 
चतुर्थं मावमें यदि भौमहोतो जातक शष्ठ कुल मे उत्पन्न नहीं होता, 
बन्धुओों के अभावसे दुखी होताहै। सदैव पराध्ित, परस्त्री में आसक्त तथा 
नीर्बो की सेवा मे लीन रहता हमा समस्त देशो मे भ्रमण करता है ॥ ७१ ॥ 


तनयभवनसंस्थे भूमिपुत्रे मनुष्यो 
भवति तनयहोनः पापशोलोऽतिदुःखी । 
यदि निजगृहतुङ्गं वत्ति भूमिपुत्र 
कृशमलिनशरीरं पुत्रमेकं ददाति ॥ ७२॥ 
वथ्वम भावमे मंगल यदि स्थित हो तो वहु मनुष्य सम्तानहीन, पापी तया 
अत्यन्त दुःखी होता है । यदि मंगल अपनी राशिया उश्वरा्िमें स्थित होतो 
दुर्बल तथा मलिन शरीर वाला एक पुत्र देता है ॥ ७२ ॥ 


` मानसागरी ११३ 


रिपुगृहगतमौमे सङ्गरे मूत्युभागी 
पुतधनपरिपुणंस्तुङ्खगे सौख्यमागी । 
रिपुगणपरिदृष्टे नीचगे क्षोणिपुत्र 
भवति विकलमूखिः कुत्सितः क्ररकर्मा ।। ७३ ॥ 
षष्ठ भावम यदि मंगल गयाहो तो सं्राममें मृत्यु होती है । यदि मंगल टे 
भाव में भपनी उच्च राशिमेंहोतो पुत्र मौर धने परिपणे तथा सूखी होता ह। 
नीच राशिमे स्थित मंगल यदि शत्र ग्रहोंसेदुष्टटोतो विक्लिप्न ( अथवा अङ्गु 
हीन ., निन्दिति एवं क्रूर कायं ( हत्या आदि) करनेवाला होता है ॥ ७३॥ 
मुनिगृहगतमौमे नीच रभस्येऽरिगेहे 
युवतिमरणदुःखं जायते मानवानाम्‌ । 
मकरनिजगृहस्थे नान्यपत्नीश्च धत्ते 
चपलमतिविशालां दुष्टचित्तं विरूपाम्‌ ॥ ७४ ॥ 
सप्तम भाव्र गत भौम यदि नीच राथिमंयारशत्रु र्चिमंहोतौ मनुष्योंको 
स््रीकीमृत्यूसे कष्टटोतादहै। यदि मंगन उमी स्यान म ( अपनी उच्च) मकर 
राशि मे अथवा अपने धर ( मष, वृश्चिकं )मद्रोनो पुरुप चञ्चल, विद्ाल शरीर 
एवं दुष्ट हृदयवानी, कुरूप “ स्त्रीकासेव-कग्ताद्धै। ऽ४॥ 
प्रलयेभवनसष्ये मङ्गले क्षीणनीचे 
व्रजति निधनमावं नीरमध्ये मनुष्यः । 
घनुकिरणिचरोऽकः सवंदा चेव भोगी. 
करपदगसुनीलो मुत्युलोकं प्रयाति ॥ ७५॥ 
यदि अष्न्म भवनम मंगल निबंल लोकर अपनी नीच राहि ( ककं) मे स्थित 
हो तौ मनुष्यजनमें इब कर मरतादटै। यदि धनु ओौर मीन राशिमें सूयं 
शो तो सदेव मोगकरने वाला टाथ एवं वैर दोनोंसे चलने वाला नीलेरंग का 
होता है तथा (शीघ्री ) मृत्युलोक चला जाता (अर्थात्‌ मर जाता) है ।१ ॥७१५॥ } 
नवमभवनसंस्ये क्षोणिपुत्रेऽतिरोगी 
नयनकरशरीरः पिङ्गलः स्वंदेव। 
बहुजनपग्पूर्णाो भाग्यहीनः कुचंलो 
विकलजनसुवेशो शौलविद्यानुरक्तः ॥ ७६ ॥ 








१. इस दलोक का पाठन्तर ““षनु निकटचरेऽजे सव॑दा चैव भोगी ।”“ है । 
इसका अमिप्राय है-षनु राशि के आसन्न जो राशि अर्थात्‌ वृश्चिक एवं 
मकर तथामेष रारिमें भौमहोतो भोभीहोतादहै। अथं संगत है। मेष, 


बुश्िक भौम का गृहै तथा मकर उच्चस्थान दहै अतः संगति ठीक है। 
८ भाण सा० 


११४ "मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता 





नवम भव मे यदि मङ्गल हो तो जातक अत्यन्त 'रोगी, हीता है । उसके हाय, 
नेत्र एवं शरीर सदैव पीला होता है । बहत जनो ते परिपूर्ण, माग्यहीन, मलिन 
बस्तर धारण करनेवाला, विक्षिप्त, शीलवान्‌ तथा विच्चा मं अनुराग रखने वाला 
होता है ॥ ७६॥ 

दशमगतमहीजे दान्तिकः कोषहोनो 
निजकुलजयकारी कामनीचित्तहारी । 
१जटरसमशरीरो भूभिजीवोपकोपी- 
. द्विजगुरजनमक्तो नातिदीर्घो र न हस्वः ।। ७७ ॥ 

दकशशषम भावम मंगलहोतो इन्द्रियो का दमनकरने वाला कोषटहीन (निषेन), 
अपने कुल का मान बहाने वाला, स्त्रियों का चित्त हरने वाला ( मोहक ), उदर के 
समान सम शरीर वाला, भूमि ( बेती-बाये, भूमि सम्बन्धो व्यापार) से जीविका 
पाने वाला, क्रोधी, ब्र!ह्यण एवं गुरुजनांका भक्त, न अधिक लम्बान छोटा अर्थात्‌ 
मध्यम कद का होता रहै ॥ ७७॥ 

सुरजनहितकारी चायसंस्थे च भौमे 
नृप इव गृहमेधी पीडितः कोपपूर्णः । 
भवति च यदि तुङ्ग लोकक्षौभाम्ययुक्तो 
धनकिरणनियुक्तः पृण्यकामा्थलोभी ॥ ७८ ॥ 

जिसके ग्यारह मावमे मंगल हो वह सुरजनों (देवतुल्य सत्पुरुषो) का हितैषी, 
राजा के समान गह की व्यवस्था वाला, पीडा युक्त तथा क्रोधी होताहै। यदि 
मंगल उसी भाव मं अपनी उच्च राशि (मकर) मेहो तौ लोक-सवैभग्य 
( सामाजिक प्रतिष्ठा ) से युक्तः धनी, तेजस्वी, धमं, अर्थं भौर कामका लोभी 
होता है । ७५ ॥ 


परषनहरणेच्छुः सर्वदा चव्वलाक्ष- 
श्रपलमतिविहारी हास्ययुक्तः प्रचण्डः । 

भवति च पुखभागी द्वादशस्थे च भौमे 
परयुवतिविलासी साक्षिकः कमपुदः ॥ ७६ ॥ 


दादश भावमें मंगल होतो बह व्यक्ति दंसरों का धन छीनने का इच्छक 
सदेव चञ्चल नेत्रो एवं चञ्चल बुद्धि वाला, विनोदी (अधिक हंसने वाला), 
उग्र, सुखी, परस्त्री का उपमोग करने वाला, प्रमाण प्रस्तुत करने वाला तथा कार्यं 
को पूणं करने वाला होता है।। ७९॥ 





१, जरठ पाठान्तरम्‌ । २, नीचो भुल षाठः। 


मानसागरी ११५ 





दश भ्ग्‌ बच फल 
तनुगतधशिपृत्रे कान्ति्माश्चातिदहृष्टो 
विमलमतिविशालः पण्डितस्त्यागशीलः । 
मितमृदुशुचिमोगी सत्यवादी विलासो 
बहुतर सुखभागी सर्वंकालप्रवासी ॥ ८० ॥ 
लग्नमें बुधो तो जानक तेजस्वी, हृष्ट पृष्ट, निर्मल एवं विशाल बुद्धि वाला, 
विद्धान्‌, व्यागी, मीठा एवं पित्र स्वल्प आहार ग्रटण करने वाला, सत्य वक्ता, 
विलासी अलत्यधिः सुख मोग करने वाला तथा सदैव परदेशमें निवास करने वाला 
होना है। ८० ॥ 
भवति च पितृभक्तः सुस्थितः पापभीर- 
मु दतनुखररोमा दीधंकेशोऽतिगौरः । 
घनगतिशशिसूनौ सत्यवादी विहारी 
बहतरवसुभागी सवंकालप्रवासौ ॥ ८१ ॥ 
घन भावम बुध गयाहोती व्यक्ति पिता का भक्त, सुव्यवस्थित, पाप से 
मयभीत, तोमन वयर, क्तोर्‌ गोम एवं लम्बे वालों वाला, अत्यन्त गौर, सत्य 
वक्ता, विहार करने वाला, अल्यधिक घन कां स्वामी तथा सदव परदेशमे रहने 
बाला होतादहै । ८१॥ ^ 
साहसी निज जनः परियुक्तश्चि सशुद्धिर हितो हतकौख्यः । 
मानवः कूशलतेप्सितकर्ता शीतमानुतनयेऽ्नुजैसंस्थे । ८२ ॥ 
श्रतु भाव ( तीसरे षर) म यदिब्ुषघहोतो साहसी, आत्मीय लोगों से युक्तः 
मलिन हृदय वाला, सुखसे हीन, तथा अपने अभीष्ट कायं की सिद्धिम निपुण 
ञ्यक्ति होता है ।। ८२।। 
बहुतरधनपूर्णो रातृहर्ता* च पापे 
बहुतरबहुपत्नोपुणंगेहः रस्वतुङ्ध । 
तरलमतिरलज्जः क्षीणजंघः कृशाङ्खः 
शिश्ुवयसि च रोगी बन्धुस्थे कुमारे । ८३ ॥ 
चतुथं भावमे पापग्रहकी राशिमें या पाप युक्त बुघस्थितिटो तो मनुष्य 
धन-धान्यसे परिपूर्णं, भाईका (अंश) रण वर्ने वाला होता है । यदि उसी 
स्थान में बुष अपनी उच्च (कन्या) रःशनमेंदहोतो वह बहुत सी स्त्रियों से पूरणं 
गृह का स्वामी, दयालु, निर्लज्ज, रुग्ण जघों एवं दुबल शरीर वाला तथा बात्य- 
कालम रोगी होताहै)। ८२३ ॥ 


१, हन्ता वाठान्तरम्‌ । २, पूरणेगेहे स्वतुङ्गं । पूरवंपाठः। 


११६ "मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता 


तनयमन्दिरभे शलिनन्दने पुतकलत्रयुतः पुखभाजनम्‌ 
विकचपद्कुजचारुमुखः सुखी सुरगुरद्विजभक्तियुतः शुचिः ॥ ५४ ॥ 


पञ्चम भावमे बुषहोतो वह व्यक्ति पुत्र एवंस्वरीसे युक्तं सुल भोग करने 
वाला, विकसित कमल के समान सुन्दर मुख व।ला, सुखी, देवता, गुरु एवं ब्राह्मण 
मे भक्ति रखने वाला तथा पवित्रात्मा होता है ।॥ ८४ ॥ 
अरिनिकेतन्वतिशाङ्ुजो रिपुकुलाद्भयद्ो यदि वक्रगः । 
यदि च पुण्यगृहे शुभवीक्षितो रिपुकुलं विनिहन्ति शुभप्रदः ॥ ०५॥ 
षष्ठ भाव में स्थित बुध यदिवक्रीहौ तोशत्रु पक्ष से मय उत्पन्न कराने 
वाला होतादहै। यदि बुष शुमग्रहोकी रशषिमेस्थितिहोतो हत्रकुल को नाश 
करने वाला तथा शुभकारक होता है । ८५॥ 
तुरगभावगते हरिणाद्धुजे भवति चन््लमध्यनिरीक्षित। । 
विपुलवंशमवभ्रमदापतिः स च भवेच्छुभगे शशिवंशजे ॥ ८६॥ 
सप्तम भावमे बुधहो तो चञ्चल एवं मन्द दष्ट दती है । यदि शुभग्रह 
की राश्लिमें बुषहोतो वहु व्यक्ति विशिष्ट कुलीन परिवार म उत्पन्न कन्याका 
पति होता है ।। ८६॥ 
निधनवेश्मनि सत्ययुतो बुधे निधनदोऽतिथिमण्डन एव च । 
यदि च पापयुते रिपुगेहमे मदनकामभ्यजवेन पतत्यधः ॥ ०७ ॥ 
अष्टम भावमें बुधो तो मनुष्य मत्यवादी. कमण तथा अतिथयो का स्वागत 
करने वाला होता है। यदि बुध पापग्रहते युक्त टो अथवा शत्रुरालि म स्थितिहो 
तो कामवासना के प्रबल वेग से मनुष्य का अधःपतन होता है ।। ८४ ॥ 
नवमसौम्यगृहे शशिनन्दने धनकलत्रसुतेन समन्वितः । 
भवति पापयुते विपथस्थितः श्रुतिविमन्दकरः शशिजोद्यमी ॥ ०८ ॥ 
सवम भावम शुमग्रदोंकीराशिमें यदिबुषहोतो जातक धन, स्त्री ओौर 
पुत्रसे युक्तहोतादै। यदि पापग्रहौकी राशिमंस्थितिहोतौ कुमार्ग पर चलने 
वाला बेदनिन्दक तथा उद्यमी पुरुष होता है ।। ८८ ॥ 
गुशुजनेन हिते निरतो जनो बहुधनो दशमे शशिनन्दने । 
निजभुजाजितवित्तवुरङ्गमो बहुषनंनियतो मितभाषणः ॥ ०८६ ॥ 


देशम माव में यदि ब्ुघहो तौ गुश्जनों (वरिष्ठ लोगो) द्वारा मनुष्य हितकायं 
भे लगाया जाताटै तथा वह धनवान, अपने बाहुबले धन एवं धड़ा अभित 
करने वाला, धनाढध् तथा सीमित भाषण करने वाला होता है।। ८६॥ 


पी भष ् 








१. शुभो मूलपाठः | 


मानसागरी ११७ 








धुतिमतिनिजवंराहितः कृशो बहुधनप्रमदाजनवल्लमः 
उजिरनीलवपुर्गणलोचनो भवति चायगते शशिजे नरः ॥ ९६० ॥ 
ग्यारहबे मवमे बुषहोतो जातक वेदे का अनुयायी, अपने कूल का हित- 
चिन्तक, दुबल, अधिक धन एवं स्त्रियों का स्वामी, सुन्दर नीलवर्णंकी शरीर 
वाला तथा गुणम्राही नेत्रो वाला होता है ॥ ९६० ॥ 
भवति ख व्ययने शणिनन्दने विकलमूतिधरो धनर्वाजितः । 
परकलत्रघने धनविततवानू व्यसनदूररतः कृतकः सदा ॥ ६१ ॥ 


यदि बारहव भावम बुधो तो मनुष्य विक्षिप्त स्वषूपवाला ( अथवा विक- 
लाङ्ग ), निर्धन, परायी स्त्री एठं धन मं आसक्त, स्वयं धनवान्‌, व्यमन्‌ (नक्ष) से 


रहित तथा सदेव कृनज्ज होता है । ६१॥ 


दादश भावगत्‌ गुरं एल 
विविधवस्वरविपुर्णंकलेवरः कनकरत्नधनः प्रियदशंनः । 
नृपतिवंशजनस्य च वल्लभो भवति देवगुरौ तनुगे नरः । ६२ ॥ 
देवगुरु (बृहस्पति) के लग्न > स्थित रोने से मनुष्य विविध वस्त्रो मे परिपूर्णं 
शरीर वाला, सोना नथा रत्नोंमे धनवान्‌, देखने में सुन्दर, राजाओों के वंशजं 
( राजपरिवार ) का अघ्यन्त प्रिय होताहै।॥ ६२॥ 
सुरगुरौ धनमन्दिरसंश्िते प्रमुदिते रुचिरप्रमदापतिः । 
भवति मानधनो बहुमौक्तिकंगंतवसुर्भविता प्रसवाह्िके ॥ ६३ ॥ 
बृहस्पति, घन (दहितीय) भाव म मुदितावस्या१्मेंहो तो जातक सुन्दरस्त्रीका 
पति होता है । बहूत अधिक मोतियों द्वारा मानी एवं धनी होवा दहै । परन्तु जन्म 


के दिन ( समय ) वह निधन रहता है । ( अर्थात्‌ जन्म के समय निधन पष्चात्‌ 
धनवान्‌ होता है) । ६३॥ 


सहजमन्दिरगे ख बृहस्पतौ मवति बन्धुगतार्थसमन्वितः। 
कृपणतामपि गच्छति कस्सिते घनयुतोऽपि सदा घनुद्टानिमान्‌। €४ ॥ 
ततीय भावमे बेहस्पतिहोतो जातक काषन भहयोंकेहाथमेहोतादहै। 


बह बुरे कायो मे कृपणता दिङलाता है । धन से युक्त होते हुये भी सदंव धन-हानि 
ही देखता है ।॥ ६४ ॥ 


सम्माननानाषनवाहनाधं : सञ्जातहरषं। पुरुषः सदेव । 
नुपानुकम्पासमुपाससम्पट्म्भोलिमुन्मन्त्रिणि भूतलस्य ॥ ६५॥ 





१. अपनी उश्च राश्िमेदीप्त,स्व राशिमे स्वस्थ, मित्रकी रारिमे मुदित, 
बुभ गं मे शान्त, उदित ब्रह की राति मे शक्त, भस्तग्रहु की राक्षिम सुप्त, 
नी राशिमे दीन तथा शषु राशि मे पीडित भवस्वा होती है। 


११५ "मनोरमा" हिन्दीष्याक्योपेता 





जिसके अन्तग्न से चौके, भाव मे कृहस्पति हो वह विदि सश्चिर एवं वाहनों 
वारा सम्बान प्राप्त-करतादहै, निरन्तर प्रसन्न. रहा .है तथा राजओं.कीङकपासे 
सम्पि अजित करता है॥ ६५॥ | 
सुहूदयश्च धुहज्जनवन्दितः भुरगुरौ भुतगेहगते नरः । 
विपुलशास््रमतिः भुखभाजनं भवति सवंजनप्रियदर्शनः ।॥ ६६ ॥ 
सुत ( पञ्चम ) भाव में ब्रहस्पति गयाहो तो वह मनुष्य सहृदय एवं मित्र गणो 
से आदर प्राप्त, अनेक शास्वोंका ज्ञता, सुखी तथासमी लोगों का प्रिय 
एवं अपने दशन से आनन्दित करने वाला होता है।॥ ६६ ॥ 
करिह्ेश्च कृशाङ्गतनुमवेज्जयति शत्रुकुलं रिपुगे गुरौ । 
रिपुगृहे यदि वक्रगते गुरौ रिपुकुला द्धयमातनुते विभुः ॥। ६७ ॥ 
शत्रुभाव (षष्ठ) मेगुरुहो तो जातकं दुबले-पतले शरीरवाला, हाथी एवं 
घोडों द्वारा शत्रुकुल को जीतने वाला होताहै। षष्ठ मावमें गुर यदिवक्री हो 
तौ वह शत्रु-कुल से भय प्राप्त करता है ।॥ ६७॥। 
युवतिमन्दिरगे भुरयाजके नथति भूपतितुल्यसुखं जनः । 
अमृतराणिक्मानवचः सुधीभवति चारुवपुः प्रियदर्शनः ॥ ६८ ॥ 
सप्तम भाव मे बृहस्पति हो तो मनुष्य राजा के समान सुख प्राप्त करताहै। 
अभूतरा्चि के समान मधुर बोलने वाला, विदधान, सुन्दर शरीर वाला तबा देखने 
मे प्रिय होतादहै।॥ ९८ ॥ 4 
विमलतीर्थकरश्च बृहस्पतौ निधनगे न मनःस्थिरता यदा । 
धनकलत्रविहोनकृशः सदा मवति योगपथे निरतः परम । ९९ ॥ 
अष्टम भावम ब्हस्पतिहोतो पवित्र तीर्थो यात्रा करने वला, चञ्बल 
चित्त, भन एवं स्त्रीसे रहति, दुर्बल, तथाः निरन्तर योप्यम्णद् में लीन 
रहता है ॥ ६६ ॥ 


पुरगुरौ नवमे मनुजोलमो भवति भूपतितुल्यधनी शुचिः । 
कृपणनुद्धिरवः कृपणः युली बहुधनप्रमदाजनवल्लभः ॥ १०० ॥ 
नवम भाद मे. बृहस्पति ष्ोतोर्ह भ्यक्ति मनुष्यो मेश्रेष्ठ, राजा के समान 
धनवान्‌, पविज्रस्मि, कृपन प्रवृति दला, स्वयं कजूस, पृज्ली, बहुत धन्‌ .एवं 
स्तर्यो का प्रिय होता है + १००५४ 
दशमस्दित्मे च वृत््ी शूरण 
भवति गीतिषु 


* ॥ 
;॥ १०१॥ 





मानसागरी ११९ 


|, १, 





दशम भावमें गुरु स्थितौ तो जातकं का गृह घोटा मौ रत्नों से विभूषित 
होता है तथा वह्‌ नीति, गुण एवं विद्वानों मे युक्त, सुन्दरी परस्िर्योसे रदित 
तथा भामिक होता है।। १०१॥ 
व्रजति भूमिपते समतां घरन॑निजकुलस्य विकारकरः सदा । 
सकलधर्मंरतोऽर्थसमन्वितो भवति चायगते सुरयाजके ॥ १०२॥ 


जिसके जम्मलग्नसमे ग्यारहवे भावम बृहस्पतिहों व्ह धनमेंराजा की 
समता करने वाला, मपने कुनके निए हानिकर, समी धर्मों में आस्था रखने 
वाला तथा धन ते युक्त होता दहै ।। १०२॥। 
शिशुदशाभवने हृदि रोगवानुचितदानपराद्मुख एव च । 
कुलधनेन सदा कुलदाग्भिको भवति पापगृहे च बृहस्पतौ ॥ १०३ ॥ 
दवादक्ष भावमें बरृहस्पतियदि वाल्यावम्थामे होतो जातक हृदथ रोगस पीडित 
एवं उचित दानमे विमृखहोतादहै। यदि पाप ग्रहों की राकशिमेगुरुहौतो पैतृक 
सम्पत्ति के बल पर अपने कुलमें दम्म करने वाला होता है ।॥ १०३॥ 


दादश भबगत शुक्र फल 


१अथ जनृस्तनुगे भृगुनन्दने भर्वात काय्यंरतः परपण्डितः । 
विमलशल्ययुते ° सदने रतो भवति कौतुकहा विधिचेष्ठितिः।। १०४॥ 
जन्म समयमे शुक्र यदि लग्नमेंहोतौ जातक अपने कायं मे लीन, अत्यधिक 
विद्धान्‌, सुन्दर षल्य ( कंटीली क्षाटी, एक प्रकार की मछली ) से सुसज्जित गृह में 
आसक्त, कलाबाजि्यिों मे अनिच्छा रखने वाला, भाग्यानुसार कायं करने 
वाला होता दहै। १०४॥ 
परधनेन घनी धनगे भृगौ भवति योषिति विलपरो नरः । 
दरजतसौसधनो गुणशौशवः कृशतनुः सुवचा बहुबालकः । १०५॥ 
दवितीय भावम यदिशुक्रहोतो मनुष्यदूमरोंके धनसे घनी होताहै। स्रियो 
कोधनदेने वाला, चांदी ओर शीश्षा ( अथवा सीसा) के व्यापार से धनी बचपन 
के गुणों से युक्त, दुबल; मधुरभाषी तथा अभिर सन्तान वाला होता है॥ १०५॥ 


सहटजमन्दिरवतिनि भागंवे प्रचुरमोहयुतो भगिनीयुतः* । 
भवति.लोनरोगसमन्वितो धनयुतः प्रियवाक्यसदम्बरः ॥ १०६।। 


तृतीय भाव में शुक्र हो तौ अत्यधिक मोह-माया वाला एवं वरनों से युक्त, 


१, उरसिगे तनुगे । २. विमलक्शल्यगुही । पूरव॑पाठः । 
३.. पालकः पू्वपाठः । ४. भगिनीसुतः । 





१२० "मनोरम" हिन्दीष्य।ख्य)पेता 





नेत्ररोग से पीडित, धनवान्‌, प्रियवादी तथा सुन्दर वस्त्रो कोषारण करने बाला 
होता है ॥ १०६ ॥ 
भवति बन्धुगते भृगुजे नरो बहुकलत्रसुतेन समावृतः । 
सुरमते सुखमध्यवरे गृहे वसनपानविलाससमावृतः ॥ १०७ ॥ 
शुक्र चुथं भावमेहो तो मनुष्य बहुत स्त्रीएवंपुत्रौतेधिरा होताहैतथा 
वस्त्र, पान ( पेय पदार्थो ) एवं विलाससे युक्त होकर सुन्दर गृह मे आनन्दपूर्वंक 
रहने वाला होता है ॥ १०५७ ॥ 
तनयमन्दिरगे भृगुनन्दने बहुसुतो दृहितुरवंरपूजितः । 
बहुधनी गुगवानू वरनायको भवति चपि विलासवतीरभरियः ॥१०८।। 
पञ्चम भावमें शुक्र स्थितो तो जातक बहुत सन्तान वालाहोतेहूयेभी 
कन्या के पति (दामाद) म आदरप्राप्त करताहै। तथा बहुत धनवान्‌, गुणवान्‌ 
श्रेष्ठ, अगुआ (नेग) एवं सुमे स्त्रियोंकाप्रेमी होता दै ॥ १०८॥ 
भवति वै सुक्लोदवपण्डितो रिपुगृहे भृगुजेऽस्तगते नरः । 
जयति वंरिबल निजतुङ्कगे भृगुयुते सखदे [कल षष्ठगे ।। १०९ ॥ 
यदि षष्ठ भावम अस्तंगत शुक्रहोतो गनुष्य अच्छे कुल मे उत्पन्न विद्रान 
होता है । यदि अपनी उच्व राशिमेंशुक्रटो नोकशत्रुकीसेनाको जीतकर आनन्द 
पूर्वक रहता दै ॥ १०६ ॥ 
धुवतिमन्दिरगे भृगुजे न 7 बहुसुतेन धनेन समन्वितः । 
विमलवंशमव्रमदापतिर्भवति चाङ्वपु्मदितः सुखौ ।। ११० ॥ 
सप्तम भःव्रमेशुक्रहौतो मनुष्य बहूुतसे पत्रं एवं धने युक्त, स्वच्छं 
( पवित्र ) कुल म उत्पन्न कन्या का पति, सुन्दर शरीर वाला, प्रसन्न एवं सुल्ली 
होत है ।।: ११० ॥ 
निधनसद्मगते भृगुजे अजनो विमलघमरतो नुपसेवकः । 
भवति मांसप्रियः पृथुलोचनो निधनमेति चतुर्थवयस्यपि । १११ ॥ 
अष्टम भावम शुक्र होतो जातक पवित्र धर्मम लीन, राजा का सेवक 
( राजकीय करभवारी ), मसिभक्षी, मोटी अखोँवाला तथा बुद्धावस्था में मृल्वु 
प्राप्त करने वाला होता है।। १११॥ 
विमलतोर्थपरोऽक्ञतनुः सुखी सुरवरद्विजवणं रतः शुचिः । 
` निजभुजाजितभाग्यमहोत्सवो भवति धर्मगने भृगजे नरः ।। ११२ ॥ 
जिस मनुष्य के नवम भावम शुक्रहो क्ट पवित्र ती्ोंगो यात्रा में तटपर, 
सुम्दर शरीर वाला, भुदी, दैवता तथा श्र ९ठ ब्राह्मण जातिमें भतस्था रखने बाला, 
पवित्राहमा, अपने बाहुबल से अजित धन का उपभोग करने वाला होता ह ।११२॥ 


मानस्तागरी १२१ 


दशममन्दिरगे भृगृवंशजे बधिरबन्धुयुतः स अ भोगवान्‌ । 
वनगतोऽपि ख राज्यफलं लभेत्‌ समरसुन्दरवेषसमन्वितः । ११३ ॥ 
दशाम भावम शुक्र गयाहोतो जातकं का माई बहरा होता दहै तथा स्ववं 
सुख भोग करमे वाला, जंगल मे रहता हजा मौ राज्य सुल्लकोप्राप्त करता 
{ जंबल विमाग का अधिकारी होता) तथा युद्ध योग्य सुन्दर शरीर समे युक्त 
होता है ॥ ११३॥ 
लमनभावगते -मृगुनन्दने वरगुणावहितोऽप्यनलव्रतः। 
मदनतुल्यवपुः सुक्वभाजनं भवति हास्यरतिः प्रियदर्शनः ॥ ११४ ॥ 
एकादश मावमें शुक्रहो तो अच्छे गुणसे युक्त, अभ्नितव्ररी ( गरि होत्र- 
भरति दिन वेदिकं विधिसे हवन करने वाला), कामदेव के समान सुन्दरक्षरीर 
वाला, समी प्रकारसे सुखी, हासपरिहास का प्रेमी तथा देषठनेमे प्रिय ग्यक्ति 
शोता है। ११४॥ 
अनुषि चेद्‌ व्ययवतिनि भागवे मवति रोगयुतः प्रथमं नरः । 
तदन दम्भपरायणचेतनः कृशबलो मलिनः सहितः तदा ॥११५॥ 


लग्न स बारहवं माव मेँ यदि जन्मकालिक शृक्रहो तौ पटने मनुष्य रोगी 
होता ह पश्चात्‌ धमण्डी, दुबल, तदन्तर मलिन वेष-मृषा वाला एवं मलिन 
भ्यक्तियों कासथी टोतः है। ११५॥ 


दादश भावगतं शनि एल 
सततमल्पगति्मंदपीडितस्तपनजे तनुगे खलु चाधमः । 
भवति हीनकजः कशविग्रहः बहुसुहूद्विपुस सनि मानवः ॥ ११६॥ 
शनि लगन ( प्रथम माव) महो तो मनुष्य निरना. मन्दगतिवाला (आलसी), 
अमण्ड ( मिथ्याभिमान ) से स्वयं व्यथित, अषम. स्वत बालों वाला, तथा कश- 
कायहोता है । यदि लग्नमें शत्रग्रहकी रशिमंशनिटो तो मनुष्य बहुत भित्रों 
बाला होता है। ११६॥ 


घननिकेतनवतिनि भानुजे मवति वाक्यसहः स धनान्वितः । 
चपललोचनसच्छलने रलो भवति चौरपरो नियतं खदा ॥११७॥ 


धन भावम यदिशनिहो तौ जातक सहनशील, घन से युक्त, षञ्वल नेत्रो 
वाला, धनसंप्रह मे त्सर, तथा सदैव बोरी करने वाला होता है ॥ ११७॥ 
वहजमन्दिरगे तपनाटमजे भवति सर्वंतहोदरनाशकः । 
तवदनुकूलनूपेण समो नरः ससतपु्रकलत्रसमन्कितिः ॥ ११८ ॥ 





१९२. . मनोरमा" हिन्दीम्याख्योपेता 





तृतीय मावृमे+षनिदहो;तो बह समी सहोदरः म।इयो का नाङ्धः करने वाला, 
इसी प्रकार. ( चतृष्टीन) राजा के. समन, पुकरस्करी. एवं पौन्र से; युक्त मनुष्य 
होता है ।॥ ११८ ॥ 


बन्धुस्थितो भानुसुतो नराणां करोति बन्धोनिधनं च रोगो । 
स्त्रीपुतरमत्येन विनङृतश्च प्रामान्तरे चासुखदः स॒वङ्की ।.११९॥ 


चतुथं भाव मे स्थित शनि माइयों का नाह करतादहै तया स्वयं मनुष्य को 
गी तथा स्त्री, पुत्र आर नौकःों से अपरम।त्रिति करताहै। यवि शनिवक्रीरटो 
तो दूसरे प्रममें जनेपर मीदुःख प्रदान करतादहै। ११६॥ 
शनंश्चवरे पखमशत्रुगेहे पृत्रा्थंहीनो भवतीह दुःखम्‌ । 
तुञ्खं॑निजे मित्रगृहे च पञ्जौ ृरत्रंकभागी भवतीति कश्ित्‌ ॥१२०॥ 
पञ्चम भावम यदिशतग्रहुकी राशिमेंशनिहो ती जतक पुत्र ओौरषन 
से हीनः दुःखी होता है। यदि अपनी राशि (१०, ११) उच्चराक्ि(७) तथा 
मित्र ग्रह की राशिमें शति हो तो एक पुत्रहोताहैटेमा कृ माचा्योका 
मत है।। १२०॥ 
नीचे रिगोर्नोचकुलक्षयं च षष्ठे शनिगंच्छति मानवानाम्‌ । 
भग्यत्र शत्रून्‌ विनिहन्ति तुङ्खी पुर्णाथंकामाज्ज॑नतां ददाति ॥ १२१॥ 
जिस मनुष्य के जन्म लगनसेषछे माव म शनि अपनी नीचराकशिमेंयाश्षत्रु- 
रालिमेंष्डादोतो कुल का.नाश् करता.है।. जन्य रारशियोंमेहोतो शरुओोंका 
नाश कराताहै। यदि अपनी उच्वराशिमेंहटोतो कामनाओं की पूति करपूर्णं 
ख्य ते धन, गौर जीविका प्रदान करता है । १२१॥ । 


विश्वाममूतां विनिहन्ति जायां सूर्यात्मजः सप्तमगश्च रोगान्‌ । 
घते पुनद॑म्मघ राङ्गहीनं मित्रस्य वणे रिपुता सुहूद्धिः ।१२२॥ 
सप्तम मावमें शनिदहौंतो अतिशय गुणवती मार्या ( पल्नी ) का नाश (पृ्यु), 
जतक स्वयं रोगी, अहंकार, मूमि एवं अज्खोसे हीन टोता है तथा अपने भित्रवर्ग 
मे भित्रोंते श्त्रता होती है।॥ १२२॥ 
शुनंश्वरे चाष्टमगे मनुष्यो दे्ान्वरे तिष्ठति .दुःडभागरी । 
चौर्यापराघेन च नीचहस्ते पश्चत्वमाप्नोत्यथ नेत्ररोगी ॥ १२३ ॥ 
शत्नि यद्वि अष्टम मावर्मे गयाहो तो मनुष्य नेत्रोँसे रोगी, द्ुसरेदेश्चमभें 
निवास करने बाला. तया दुःखी होता है ।.चोरी के.जपराध्‌ मनी ब्यक्तिके हार्थो 
उसकी मृत्यु होती .दै ।।.१२३.॥ 


मननस्षागरे १२३. 





धर्मल्थपङ्गौ कहुदम्भकारी धमर्थहीनः पितृवन्कश्च । 
मदानुरक्तो निनी च रोगी पापिष्ठमार्वापिरहीनबीर्य; ।। १२४ ॥ 
नवम मावमें शनिहो तो जातक बहुत धमण्ड करनं वाला धमं गौर गथंसे 
रहित, पिता को बोद्ध देन वाला, मद्ानुरागी ( नीली वस्तुभों का सेवन करने 
वाला ) नि्षंन, रोगी तथास्त्रीके पाप आचरणसे वह नि्बंन होत। है १२४॥ 
शनंश्चरे क्मगृहे स्थितेऽपि महाधनो नृत्यजनानु रक्तः । 
प्राप्तप्रवासे नुपसश्मवाकौ न शत्रुवर्गाद्धयमेति मानी । १२५॥ 
शनि यदि दक्तम मावमेंहो तो जातक महान धनवान्‌ नर्तक-न्तकियों में 
अनुरक्त, विदेश या अन्य स्थानम जाने पर राजमवनमे निवास करने वाला 
होता है । वह स्वामिमान पूर्वक रहता हुमा शत्रुवे से मयमीन नहीं होता ॥ १२५॥ 
सूर्यात्मजे चायगते मनुष्यो घनी विमृश्यो बहुमोग्य भागी । 
शीनानुरागौ मुदितः सुशीलः स बालभावे भवतीति रोगी । १२६ ॥ 
शनि यदि ग्यारह्वे.मावमेंहो तो मनुष्य घनवान्‌, चचारगील, मौतिक सुख 
सानो का उपमोग क्रने वाला, दण्डी वस्तुओ का सेवन करने वाला, प्रसन्न, 
सुष्टील तथा बाल्यःवस्थामे रोगीहोतादहै॥ १२६॥ 
व्यये शनौ प्गणाधिनाथो गदान्वितो हीनवपुः सुदुःख । 
अंघाव्रणी क्गरमतिः कृशाङ्खो वचे रतः पक्षिगणस्य नित्यम्‌ । १२७॥ 
हादश् मावमेकषनिहोतो जातक पञड्चगणों ( किमी संस्था या पञ्चायत के 
सदस्यो ) का प्रधान, रोषयुक्त, छोटे कद.का, प्रायः दुःखी रहने वाला, जंषोा ब्र 
( फोडा या चोष्) युक्त, क्रूर स्वमाव वाला, दुक्गन तथा सदेव पक्लियोंका वष 
करने बाला होता है ॥ १२७॥ 


दादश भाव गत राहु फल 


रोगी सदा देवरिपौ तनुस्थे कुलस्य धारी बहुजल्पशीलः । 
रक्तेक्षणः पापरतः कु क्म॑रतः संदा साहसकमंदक्षः ।। १२०८ ॥ 
जिसके जन्म समयमे लग्नमे ही राहु पडाहो वह कुल की मर्यादा एवं 

भार वहून करने वला, सदव रोगी, अधिक वाचाल ( व्यथं बोलने वाला ), लाल 
भशं बाला, पपमें लीन, कुक्ममें रत तथा साहसिक कायं मे निपुण 
हेता .है ।(. १२८ ॥ 

राहौ धमस्व कृतकौरवृत्तिः सदावलिप्तो बहुदुःखभागी । 

मल्स्येन मांसेन सदा. भती च खदा वसेन्नीषमृहे मनुष्यः ॥ १२९ ॥ 


धन.स्थानमे राहुहो-सो. जातक जोर, सद्र मोहमाया मे लिप्त, बहुत दुःली,. 


१२४ मनोरमा" हिन्दीष्याङ्योषपेता 





मछली के व्यापार से घनवान्‌ तथा सदेव नीच मनुष्यके षरमे निवासत करने 
बाला होता है। १२९॥ 
जाहुविंनाशं भददाति राहृस्तृतीयगेहे मनुजस्य देहे । 
सौख्यं धनं पुत्रकलत्रामत्रं ददाति शुङ्गा गजवाजिभष्यान्‌ ।। १३० ॥ 
यदि जन्म लग्ने तृतीय मावमें राहुहोतोमार्ईकानाश होता है परन्तु 
उस मनुष्य को शारीरिक सुख, धन, पूत्र-स्त्री एवं मित्रकालाभ होताहै। राहु 
यदि अपनी उच्च, रा्षिमे हो तो घोडा-हाथी तथा नौकर प्रदान 
करतादहै॥ १३०॥ 
राहौ चतुथं घनबन्धुहीनो म्रा्मकदेशे वसति 9 कृष्टः । 
नीचानुरक्तः पिशुनश्च पापौ पुत्रं कभागी कृशयोषिदस्य ।। १३१ ॥ 
राहु यदि चतुथं मावमंहोतो धन एवंमाइयोसे हीन हेताहै | प्रामके एक 
माग ( संकुचित क्षेत्र) में रहताहै। नीच व्यक्तियों का साथी, चुगली करने 
वाला, पापी, तथा एकं पुत्र एवं दुबली -पतली स्वरीसे युक्त होतारहै।; १३१॥ 
राहुः भुतस्थः शशिनानुगो हि पुरस्य हत्त कुपितः सदेवं । 
गेहान्तरे सोऽपि सुर्तकमात्र' दत्ते प्रमाणं मलिनं कुचंलम्‌ ।। १३२ ॥ 
राहु पञ्चम माव में चन्द्रमासे युक्त हो तो सन्तान नाशक, तथा सदैव क्र 
रहने वाला होता है । यदि दोनों गेहान्तरमें ( पञ्चम माव में राहु तथा किसी 
अन्य माव मे चन्द्रमा) स्थितहोतोएक मात्र मलिन एवं गन्दा पत्र प्रदान 
करता है।। १३२॥ 
षष्ठे स्थितः शत्र विनाशकारी ददाति पुत्र चं धनानि भोगान्‌ । 
स्वर्भानुरुज्वं रखिलाननर्थान हन्स्यन्ययोषिद्गमनं करोति ।। १२३ ॥ 
छठे भावमें राहू शत्रुओं का नाशक, पत्र, धन तथा विविष भोगों कोदैने 
वाला होताहै। यदि अपनी उच्व राशिमेंहोतो समी प्रकार के अनिष्टो को 
दूर कर परस्त्री से सम्बन्ध करने वाला होतादहै।॥ १३३॥ 
जावास्थराहूषंनहानिमेवं ददाति नारो विविधांश्च मोगानु । 
पायानुरक्तां कुटिलां कुशीलां ददाति शेषबहुभिर्युतश् । १३४॥ 
सप्तम भावम राहृहोतो जातक को धनहानि होती हि परन्तु वहु विविष 
मोमो एवं अन्य वस्तुभों के सुखो से युक्त होता है तथा उसकी पत्नी पाप कममें 
लीन, कुटिल तथा अशिष्ट होती है ।। १३४ ॥ 





१. राह की उच्व-नीच राशियों का निर्णय इस प्रकार किया मया है- 


यद बुषस्य प्रहस्योच्चं राहोस्तद्‌ गृहमुभ्यते , 
यद्‌ बुधस्य गृहं राहोस्तदु्वं ब्रुवते बुषा! । भूवन दीपकः १८॥ 


मानसाभरी १२५ 





साहु: खदा बाहटममन्दिश्स्थो रोगान्वितं पापरतं प्रगल्मम्‌ । 
जीरं ङशं कापुरुषं धनाढच' मायामतीतं पुरषं करोति ॥ १३५॥ 


अष्टम भावस्य राहु सदैव मनुष्य को रोगयुक्त, पाप कमं में लीन, साहसी; 
चोर, दुर्बल, कायर, धनाहष् एवं छल-~प्रपञ्च से रहित कराता है ॥ १३५ ॥ 
ध म॑स्थिते चन्द्ररिपौ मनुष्यश्नाण्डालकर्मा पिशुनः कुचंलः । 
जञातिग्रमोदे निरतश्च दीनः शत्रोः कलाद्धौतिमुपंति निष्यम्‌ ॥ १३६॥ 
नवम भावम राहुहौ तो मनुष्य चण्डानोंका कायं करने वाला, बृगुल शोर, 
मम्दे वस्त्रों वाला, अपने जाति बन्धुओं की प्रसन्नता मे संलग्न, एवं दीन होता 
है तथा उसे निरन्तर शत्रुओं से मय प्राप्त होता रहता है ॥ १३६ ॥ 
कामातुरः क्मंगते च राहौ परार्थलोभो भखरश्च दीनः । 
म्लानो विरक्तः सुखर्वाजतश्च विहारशौलश्रपलोऽतिदुष्टः ।। १३७ ॥ 
दरम भावमेंराहूहोतो जानक कामी दूसरों के घन का लोभी, स्वंत्र अमुजा 
(मुखिय।) बनने वाला, दीन, खिन्न, विरागी, सुख से टीन, घूमने फिरने की प्रवृत्ति 
वाला, अस्यन्न चञ्चल तथा दुष्ट होता है । १३७ ॥ 


* भायस्थिते सोमरिपौ मनुष्यो दान्तो मवेप्नीलवपुः सुमरि । 
वाचाल्पयुक्तः परदेशवासी शास्व्राथवेत्ता चपलोऽत्रपश्च ।। १३८ ।। 
एकादश भावम राहूहो तो मनुष्य इन्द्रियों का दमन करने वाला, नीले 
(कलि) रंगक्राशरीर वाला, सुन्दर, अल्ममाषी, दूमरे देक में निवास करनेवाला, 
शास्त्रों का ज्ञाता, चञ्चल तथा लज्जासे हीन होता है ।। १२३८ ॥ 
व्ययस्थिते सोमरिपौ नराणां धर्महीनो बहुदुःखतप्तः । 
कान्ताविमुक्तश्च विदेशवासी सुखश्च हीनः कनखी कुवेषः ।। १२९ ॥ 
बारहवे भावम राहुहो तो मनुष्य षर्म-अथं दोनों से रहित, विविष दुशोसे 
सन्तप्त, स्त्रीसे रहित, विदेशमं रहने वाला, सुखसे हीन, खराब नाखन तथा 
कुरिसित (निन्दित) वेष-मूषा वाला होता है ।। १३६ ॥ 


इदिश भावगत कतु एल- 
तनुस्थः शिखी बान्धवक्लेशकर्ता तथा दु्जनेम्यो भयं व्याकलत्वम्‌ । 
कलत्रादिचिन्ता सदोदरेगिता च शरीरे श्यथा नेकधा माख्ती स्यात्‌ ॥१४०॥। 
जन्म लग्नमे यदिकेतुहौोतौ जातकं अपने भाष्यो को कष्ट देने वाला, स्वयं 
दुर्जनो से भयभीत तथा व्याकुल, स्वी सम्बन्धी विन्तागों से युर, सदव उद्विग्न 
रहता है तथा बार-बार वायु अनित रोगों से उसकाशरीर दुःशी होता है ।॥१४०।। 


` १२६ मनोरमा” हिष्दीव्याश्योपेः 


घने ऋतुरेष्यशरता ` {नरिदं `घन्यिनारो भसे "रोगश्च , 

कुम्ब रोधो वेचः सत्कृतं वा मवेतस्वे गृहे सीम्यनेऽतिसौवम्‌ । १४१ ।। 

धन भावे यदिकेतुहो तो किंसी दृष्ट राजा ह्वारा धन-धन्यका नाश 
म्मे रोग, तथा कुट्भ्बियो से विरोध होता है । भपने गृह (राशि)मे यदि 
केतु होतो वाणीसे सर्त एवं शुमभ्रहोंके गृहमे हो तो अधिक सुख प्राप्त 
होता है ।॥ १४१ ॥ 


शिखी विक्रमे शत्रुनाशं विवादं धनं भोगमेश्वर्यतेजोऽधिकं च । 

सुहृ्र्गनाशं सदा बाहुपीडाभयोद्रेगचिन्ताकृलत्वं विधत्ते ।। १४२ ॥। 

केतु यदि तीसरे मावमेंहोतो रात्रुओं का नाश, विवाद (षग), घन प्राप्ति, 
मोग (सुख), एेश्व्यं, तथा तेज की अधिकता होतीहैसथही भित्र वे काना, 
-भृजाभों में सदैव पीडा, मय, उद्रेम, चिन्ता एवं आकुलता तो मी वृद्धि 
होती है । १४२ ॥ 

चतुथं न मातुः स॒खं न कदाचित्‌ सहदगंतः पतृक नाशमेति । 

शिखी बन्धुवर्गात्सुखं स्वोच्चगेहे चिरं नो वसेत्स्वे गृहे व्यग्रता चेत्‌ ।। १४३ ॥ 

चतुथं मानम केतुहातोन मतासन मित्रवर्गे ही सुख प्राप्त हानहै, 
पतक सम्पत्ति का नाश होताहै। यदि केतु भपनी उच्च राश्िमहोतो अपने 
अन्धु वगते सुख प्राप्त होतारौ तथा परःय गृहमे रहनेसे मनमे व्यग्रता बनी 
रहती है ।। १४३ ॥ 

यदा पश्चमे राहुपुच्छं भ्रयाति तदा सोदरे घातवातादिकष्म्‌ । 

स्वबुद्धिव्यथा सतत स्पल्पपुत्रः सदासो मवेद्रीयंयुक्तो नरोऽपि ।। १४४ ॥ 

यदि पञ्चम मावर्मेकेतुहोतो भाष्यं को चौट एवंवायु विकारसे कष्ट, 
सदेव अपनी बुद्धि हारा व्यथा ( अर्थात्‌ अपनी कल्पनाभों के कारण कष्ट ) अल्प 
धुत्र एवं नौकरों से युक्त तथा बलवान्‌ पुरुष होता है ।॥ १४४ ॥ 

तमः पुच्छमागः+ शिखी षष्ठमावे भवेन्मातुलान्मानभङ्खो रिपूणाम्‌ । 

विनाशश्चतुष्पात्सुखं तुच्छचित्तं शरीरे सदानामयं व्याधिनाशः ।। १४५॥ 

राहुपुच्छ (केतु ) यदि षष्ठ भावमेंहो तो अपने मामा लोगों द्वारा अपमानः, 


शत्रुभों का ना, चौपायों ( प्शुभों) से सुखी, दुर हूदय वाला, शरीर से भारोग्य 
तथा व्याधियोसे हीन होता है॥ १४५ ॥ 


शिखी सप्तमे भूयसी मागंचिन्ता निवृत्तः स्वनाशोऽथवा व।रिभोतः ।२ 
मवेत्कोटगः सर्वंदा लामकारी कलत्रादिपीड भ्ययो व्यग्रता चेतु ॥। १४६.॥ 


१, 'सप्तमस्थः' पाठान्तरम्‌ । २. वारिभीतौः । 


मानसागरी -१२९ 





केतु यदि सष्तम भावम तो मागे संभ्बन्धी तीव्र चिन्ता, अपनी होति, जल 
से भयः होता है । यदिकेतु ककं रारिमेंद्टो तो सदैव लाभदायक, ` स्त्रीभ्युत्र जादि 
को पीड़ा, व्यय तथा व्याकुलता होती हँ ।। १४६ ॥ 
गुदं पीड्यतेऽर्शादिरोगेरवश्यं भयं वाहनादेः स्वद्रब्यस्य रोध॑ः । 
मवेदष्टमे राहूपुच्छेऽथंलाभः सदा कोटकन्याजगोयुग्मकेतुः ॥ १४७ ॥ 
अष्टम मावमं राहु पुच्छ (केतु) ह तो अने ( ववासीर ) भादि अतडीसे 
सम्बन्धित रोगों से गह्य स्थानम पीडा, वाहनादि (गाड़ी, घोट जदि) से अवक्ष्य 
मय ( दुर्घटना) होती है तथा अपने घनक्ा अवरोध होता दहै । यदि केतु ककं, 
कन्या, मेष, वृष, मिथन राहियों महोतो सदैव धन लाम होता है। १४७ ॥। 
शिखी धममावे यदा क्लेशनाशः स॒तार्थी भवेन्म्लेच्छतो भाम्यवुद्धिः 
षहोत्थव्यथां बाहुरोगं विधत्ते तपोदानतो हास्यवृद्धि तदानीम्‌ । १४८ ॥ 
यदिकेतु नवम मावमं होतो कष्टों का नान, पुत्र केो अभिलाषा, तथा 
म्लेच्छों के सहयोगसे माग्यमं वरद्धटोनीदहै। मने माई-बहुनों को पीडा, हाभों 
मे रोग तथा जप-तप-दान आदि (पुण्य) कयं कम्ने पर जातक का उपहास 
होता है ।। १४८ ॥ 
पितुर्नो स॒खं कर्ममो यस्थ केतुस्तदा दुर्भगं कष्टमाजं करोति । 
तदा वाहने पाडितं जातु जन्म वृषाजालिकन्यासु चेच्छत्रुनाशम्‌ ।। १४२ ॥। 
जिसके जन्म समयमे केतु दक्म भावमे गयाहोतो वह पिताके सुखसे 
वञ्चित, अभागा, कष्ट पने वाला तथा वाहन की अभिलाषा से पीडित रहत। 
है । यदि केतु वृष, मेष, वृश्चिक एवं क्न्थाराशिमेहो "तो शत्रुओंका नाक्च 
होता है ।॥ १४६ ॥ 
सुभाग्यः सुविद्याधिको दशंनीयः सुगात्रः सुवस्वः सुतेजाश्च* तस्य । 
दरः पीडते सन्ततिर्दुभगा ? च शिखी लाभगः स्वंलाभं करोति ॥ १५० ॥ 
लाभ ( ग्यारहूर्वे ) भावममेकेतु समी प्रकार कालाम देनेवाला होता है तथा 
जातक सौमाग्यशाली, विद्या सम्पन्न ( विद्वान्‌ ), दशनीय, सुन्दर शरीर एवं वस्त्र 
से युक्त, तेजस्वी एवं मये पीडति होतारहै तथा उसकी सन्तान माग्यहीन 
होती है।। १५० ॥ 


१. 'कीट शब्द का अथं वस्तुतः ककं राहिके लिए किया जातादहै। "कीटः करकट 
राशिः सरीसृपो वृश्चिको ज्ञेयः | ( बृहज्जातक । ) परन्तु बहुत स्थानो मे कीट 
का अर्थं ककं मौर वृश्चिकं दोनोही लिया गयाहै। अतः ककंकेस्थानमें 
वृश्चिक अथं मी ज्ियाजा सक्तादहै। 

२. सुतेजोऽपि तस्येति पूर्वपाठः। ३. सन्ततं शवरुवर्गः पाठान्तरम्‌ । 


1) 








२० "मनोरमा" हिन्दीष्याङ्योपेता 


शिली रिष्फमो वस्तिगुह्याक्धिकोपी इजा पीडनं मातलान्लेव शमं । 

षदा शाजतुल्यं नरं सद्ब्ययं तद्‌ रिपूणां विनाशं रणेऽपौ करोति ॥ १५१॥ 
वादश भावमेकेतुहो तो जातक के वस्ति (पेड ), ग्य, ( मलमूत्र माम) 

तथा पैरो में कष्ट, रोगोँसे पीडा, तथा मामा लोगों से सुख का अभाव होता है। 

परन्तु बह . संग्राम मे अपने रतुं का नाश करता है तथा सन्मागे में व्यय करने 

वाला राजा के समान पुरुष होता है । १५१॥ 


दो गरदो का युति फल- 
स््ीवशः क्रकर्म्मा च दूविनोतः क्रियादृढः । 
विक्रमी लधुचेताश्च चंद्रमुयंसमागमे । १५२॥ 
यदि धयं भौर चन्द्रमा का समागम (दोनोंषएकही राशिमे) होतो स्त्रीक 
वहीमूत, क्रूर क्म करने वाला, अशिष्ट, दृढता पूवेक कार्यं करने वाला, पराक्रमी 
तथा क्षुद हृदय वाला व्यक्ति होता है ।॥ १५२॥ 
सूयंमङ्गलसंयोगे तेजस्वी पापमानसः । 
मिथ्यावादी च मूखंश्च वघनिष्ठो बली नरः ।॥ १५३ ॥ 
सूयं मंगल यदि एक रामे हों तो तेजस्वी, पाप्मा, कूठ बोलने वाला, 
मूखं, वध (पशु-पक्षी आदि की हत्या) करने वाला बलवान पुरुष होता है ॥१५३॥ 
विद्वान्यो राजमान्यः सेवाशीलः प्रियवदः । 
यशस्वी च स्थिरद्रग्यो बुषसूयंसमागमे ।। १५४ ॥ 
यदि बरघ भौर सूयंका समागम होतो जातक, विद्वान, शरेष्ठ, राजा द्वारा 
सम्मानित, सेवा मे तत्पर, प्रियवादी, यज्ञस्वी तथा धनंग्रहु करने वाला 
होता है ॥ १५४ ॥ 


नृपमान्यो धर्मनिष्ठो मित्रवानर्थवानपि । 
उपाध्यायोऽतिविष्यातो योगेः जीवाकंयो मवेत्‌ ।। १५५॥ 
बृहस्पति मौर सूयं काएक राशिमें योगहोतो राजा से सम्मानित, धर्मका 
घ्ाचरण करने वाला, मित्रों से युक्त, धनवान, अध्यापन कायं करने वाला तथा 
अत्यन्त प्रसिद्ध व्यक्ति होता है ।। १५५ ॥ 
शस्तरप्रहारो बन्धश्च रङ्गज्ञो नेत्रदुर्बलः। 
स्त्रीसङ्गलम्धद्रव्यश्च सक्तः णुकाकसङ्गमे । १५६ ॥ 
सूयं भौर शुक्र एक राश्षिगत हो तो जातक शस्त्र प्रहार ( शस्त्र सथ्वालन ) 
बन्धन तथा रगमञ्च की कलाओं काशता, दुर्बल नेर््रो वाला, स्त्रीके सम्पकेसे 
धने प्राप्त करने वाला तथा विषयासक्त होता है ।। १५६ ॥ 





नानस् [खै ` -. १३६. 


विद्वानपि श्िवानिो . धाठुजो वंदन्रेषटििः । 
प्रणसुतदारश्च . ` : शनिसुरयंसमागमे ॥ १५७ ॥ 
यदि सूर्यं भौरशनिएकही रारिर्मेरं तौ विद्वान, क्रियानिष्ठ ( शर्माशिरष 
का श्चद्धा पूर्वक निर्वाह करने वाला ) धालुभों का विशेषश्च ( पारसी ), षडोका" 
भाचरण करनेवाला होता तथा उसके पृत्र एवंस्त्री को शीघ्र भष्यु हो. 
नाती है । १५७ ॥ . । 
चन्द्रमञ्जलसंयोगे रक्तपीडतुसो - भवेत्‌ । 
मृच्चमंधातुशित्पी च घनी शरो श्णे भवेत्‌ ॥ १५१ ॥ 
चन्द्रमा भौर मंगल एक रा्िमेहींतो वह्‌ व्यक्ति रक्त-दोष से पीडित होता 
है। मिरी, चमड़ा एवं धतुका कलाकार, धनवान तथासंग्राम में बहादुर 
होता है। १५८ ॥ 
स्त्रो संसक्तः सुरूपश्च काव्ये च निपुणो नरः । 
धनी गुणी हास्यवक्त्रो वुषेन्द्ोर्घामि कोऽन्वये ।। १५६ ॥ 


चन्द्र ओर बुषका संयोग एक राशिमे टोतौ वहु व्यक्तिस्त्रीमें ासक्त, , 
सुन्दर, काव्यक्लामे निपुण, धनवान, गुणवान्‌, हंस मुख तथा अपने कलमे 
धार्मिक होता है ।। १५६॥ 


देवद्विजार्चामक्तश्च बन्धुमन्यकरो घनी । 
दृढृ रीतिः सुशीलश्च जीवचन्द्रसमागमे । १६० ॥ 


गुरु ओर चन्द्रमा एक राशि गतहोंतो देवता एवं ब्राह्मणों की पूजाम शरदा 
रखने वाला, भाई वन्धुभों काञादर करने वाला, धनवान्‌, दृढ्‌ ( स्थायी) प्रेम 
करने वाला, तथा सुरील व्यक्ति होता दै । १६०॥। 
कुशलो विक्रयादौ च वृषलः कलहप्रियः । 
 भाल्यवस्तरादिसंयुक्तः शशिमा्गवसङ्धमे ॥। १६१ ॥ 
चन्द्रमा ओौर शुक्रएक राशिमेंहौ तो वह व्यक्ति क्रय-विक्रय में निपुण, शूद्र 
( आचार हीन )' क्षगडाल्‌, तथा माला, वस्त्र भादि से संयुक्त रहता है । १६१ ॥ 
` गजाश्वपालो दुःशीलो वंदधस्त्रीरमणो नरः । 
वेश्याधनोऽल्पपुत्रश्च शनिचद्द्रसमागमे । १६२ ॥ 
जिसकी कुण्डली मे शनि-बन््रमा एक राकषिमे हों वह हाथी-घौडा पालने 
बाला, दुष्ट, वृद्धा स्त्रीक साथ रमण करने वाला, वेषया से घनप्राप्त करने वाला 


तथा स्वत्प पुत्रो वाला होता है। १६२॥ 
६ मा०्सा० । 


११५ "मनोरमा" हिन्दीस्यास्योवेता 


भूषुभवुषसंयोने निनो विषयात ५ 
स्वी दुवा कयपीतः स्वर्ण शोहपरकीर्णकंः ।। १६२ ॥। 
जवल आौर बुष एक राक्षि मे स्थितहो तो निर्षंन, विधवा एवे ङुर्पास्तीते 
विकाह करने बाला तथ। सोना-लोहा एवं बिभिन्न बस्तुरओ के कय ( अरीददारी ) 
भे इषि रश्ने वाला व्यक्ति होता है । १६३॥ | 
पेधावो लिल्पशास्वजः शतो वाग्विशाशदः। 
अद्वप्रियः प्रधानश्न जीवमङ्गलसङ्गमे ।। १६४ ॥ 
गुड भौर मंगल एक राशिमेहों तो प्रतिभा सम्पन्न, शिरूप ( भूति-कला ) 
शास्व का श्ञाताः बहुश्रुत ( सुनकर शान प्राप्त करने वाला ), भाषण में निपुण, 
मश्प्रिय ( भुडसवारी करने वाजा ) एवं प्रधान (शरेष्ठ ) पुरुष होता है ॥ १६४॥ 
गुणप्रधानो गणको चूतानृतरतः शठः । 
परदाररतो मान्यः शुक्रमङ्गलसङ्गमे ।॥ १६५।। 
शुक्र ओर मंगल एक साथएक राशिमेहोंतोगु्णों द्वारा प्रधान, मभक 
( श्योतिषी अश्वा गणना सम्बन्धी कार्ये करने वाला ), जगा तथा भुठ में जास्त, 
दुष्ट, परस्त्री मे आसक्त तथा समाजमे मादर पाने वाला व्यक्ति होता हि ।॥१६५॥ 
वाग्मीचजालदकषश्च विधर्मी कलहप्रियः __ 
विषमचप्रपन्ाढ्ो मन्दमञ्गलसङ्गमे । १६६॥ 
मङ्गल मौर शनि एक ही रारिमेस्थितिहों तो व्ह व्यक्ति वालाल, दश््रजाल 
(सम्मोहन, जादुग री), में निपुण, धर्म॑हीन, सगडाल्‌, विष, एवं मदिरा का निर्मान 
अथवा भ्रयोग करने वाला होता है।॥ १६६॥ 
बुधस्य गुरणा योगे नुष्यवाचविचक्षणः । 
धयंयुक्तः पण्डितश्च सुखी भवति मानवः ।। १६७ ॥ 
बुष ओौर गुरुएकराशि म हों तो मनुष्य नृस्य-गीत एवं वाचम दक्ष, 
केयंवान्‌, विद्धान्‌, तथा सुखी होता है ॥ १६७ ॥ 
बुधभार्गवयोयोगि नयज्ञो बहुशिल्पवित्‌ । 
धनी सुवाक्यो वेदक्लो गीतजो हास्यलालसः। १६८ ॥ 
बुष गौर शुक्रका एक रा्िमेंयोगहो तो व्यक्ति कानून ( राजनीति ) का 
ता, विवि स्ित्पो ( कला ) को जानने वाला, धनी, सुन्दर वश्चन बोलने वाला, 
केद का ज्ञता, संगीतज्ञ तथा हास्य काप्रेमी होताहै॥ १६८॥ 
क्षीणो गमनशील निष्पावो जगत्कलिः । 
शुखवाक्यः कार्वंदको भानुसुनबुषान्धये ।। १६९ ।। 





मावल्लानरी १३३. 


शनि भौर बुष कर ब्रणदकय होमे षर गनुष्य (शरीरतः) रवशः श्राय! यात्रा 
करने नाला, उपाक दहित ( उश्वः हीन ), सबसे मेहने वाशा, शुभवचन 
बोक्षने वाला, तवा कायं मे तुर होता है ॥ १६९ ॥ | 


गुङमारगेवसंयोगे दिष्यदारो महाधनी । 
धर्मास्तिकप्रमाणजो वि्ाजीवी च जायते ॥ १७० ॥ 
यदि गुर गौर शुक्र एक राहिमे स्थिता तो ग्क्ति सुन्दरी एवं सदाचारी 


पत्नी से यक्त, महान्‌ भनी, चमं एवं ईश्वर प्रधान सस्वर ( दर्षन ) का जाता तथा 
क्च्विद्वारा जीविका प्राप्तकरते वाला होता है ॥ १७० ॥ 


वुत्तिसिदश्च शूरश्च य्स्वी नगराधिपः। 
णीसेनाभिमुख्यश्च गुरमन्दान्वये नरः ॥ १७१ ॥ 
जिसकी कुण्डली मे गुर ओौर रानि एक ही राक्शिमे स्थित हों तौ बह मनुष्य 
जीविका प्राप्त करनेमें कुशल, वीर, यदास्वी, नगर का अधिपति ( जिलाधीद, 
आदि ), किसी गं ( पार्टी ) का नेता, सेना का भुष्य अधिकारी होता है ॥१७१॥ 
शुक्रेण च श्नेयगि भस्त! पशुपतिर्न॑रः । 
दार्दारणदक्षश्च क्षाशम्लादिकशिल्पवितु ॥ १७२ ॥ 
शुक्र गौर दानि कीयुतियदिषएकही राशषिमे हो तो मनुष्य मतवाला 


( उण्ृङ्कल ), पशुगो का मालिक, लकड़ी चीरनेमें निपुण, शारा एवं खट्टे 
पदार्थों ( अार-सिरका जादि) का ज्ञता तथा शिल्प ( काष्ठ एवं प्रस्तरकला ) 


भे निपुण होता है ॥ १७२ ॥ 
तीन ग्र का युविफल 


यत्त्राष्वकूटकुशलोभसुगवेदनापीडितोऽतिश्‌र्च । 
अआादित्यचन्द्रभौमरेकस्यं र्जायते सुतविहीन। ॥ १७३ ॥ 
सूरये, चन्द्र भर मङ्गल यदिएक ही भावम हों तो जातक मीन, षोड 
एवं क्ट ( छल-वघोशाषडी ) सम्बन्धी कायो मे निपुण, रक्तविकार से पीडित, 
जति साहसी, एवं पुत्र से रहित होता है ॥ १७३ ॥ 
विच्चाघनस्पयुतः काव्यकथाकविसमाश्रियः स्धनः। 
नृपसेवकः प्रियवागेकस्थे सरयचन्रवुषे ॥ १७४॥ ` 
सूर्यं बद्र भौर बुष यदि एक ही भावमे षडेहों तो वह व्यक्ति बिद्या, धन 


जौर स्वस्प से बुक्त, कवि, कषानीक्ार, कविसम्नेलन का प्रेमी, षनवानू, 
राजसेवकः, तथा त्रिय बोलने बाला होता है ॥ १७६ ॥ 


१३२, मनोरमा" हिष्वीष्याश्योषेता 


॥ गअ ५ यय 





धर्मपरो नुपसचिवो मानकृख्वबन्धूनाम्‌ 
. देवद्टिजाचंनरतो षका सदैकस्यैः ॥ १७५॥ 
तुये, चन्द्र भौर गुरु यदि एकही भावम बैहेहोंतो जातक घमं परायण, 
राजा का म्री ( राजनेता ),. स्विरबुद्धिवाला, भाई.बन्धुबों का आदर करमे 
वाला तथा देवता ओर ब्राह्मणों की परजा ( सम्मान ) करने वासा होता है ॥ १७५॥ 


शुवपुर्दृश्कृतारिनंरपतिसुभगः सदा प्रवरतेजाः 
 -श्विशशिशुक्रः सहितभंवति नरो दन्तविङृतञ्च ॥ १७६॥ 
सर्य, चन्द्र भर शुक्र यदि एक राशिगत हों तो पुरूष सुन्दर शरीर वाला, श 
का दमन करने वाला, अत्यन्त सम्पन्न राजा, सदैव तेजस्वी, तथा दतां के रो 
ध युक्त होता है ॥ १७६ ॥ 
धर्मपरो विगतघनो गजाश्वपर्पालकः धुकर्मरतः । 
इविरवितनयशशाद्धु रेकस्थंविगतशोलश्च ॥ १७७ ॥ 
सूये, चन्द्र गौर शनि यदि एक ही भावम स्थितहों तो जातक धर्मपरायश्च, 
निर्वन, हाथी-षोडों का पालक ( गजाश्व-शाला का अधिकारी), अच्छे कायौँमें 
दीन, तथा शील ( विनम्रता) से रहित होता है ॥ १७७ ॥ 
भानुमौमवुघंयेगि ख्यातः साहसिको नरः । 
| निष्ठुरो गतलज्जश्च धनस्त्रीपुत्रमण्डितः ॥ १७८ ॥। 
` सुर्यं, मङ्गल ओौर बुधघकायोगएक ही राशिमेंहो नो मनुष्य विषयात, साहसी, 
निष्टुरः लज्जाहीन, धन, स्त्री एवं पुत्र से युक्त होता है । १७८ ॥ 
जीवसूयंकुजयेगि प्रचण्डः सत्यमाषणः । 
राजमन्त्रो नरश्चापि पुवाक्ष्यो निपुणो भवेत्‌ ॥ १७६ 
सूयं, मङ्गल ओौर बहस्पति का एक राशिमें योग होने पर मनुष्य उग्र स्वभाव 
बाला, सत्यवादी, राजमन्त्री, सुन्दर वचन बोलने वाला तथा निपुण 
होता है ॥ १७६ ॥ 
शुक्रमौमाकंसंयोगे पुभगो नयनातुरः । 
कुशीलो वस्सलो दक्षो विषयासक्तमानसः । १८० ॥ 
सर्व, मङ्गल तथा शुक्र कायोगहो तौ जातक सुन्दर, नेत्रौसे रोगी, शीलसे 
रहित, स्नेहक्षील, चतुर, तथा हृदय से विषयों मे अनुराग रखने वाला 
हता है ॥ १०८० ॥ | 
शनिसूयंकुजैयोगि भूरा , गोधनवजितः । 
शोगात्तंः स्वजनेरहीनो विकलः कलहाकूलः ॥ १०१ ` 


नानलागरी १३३ 


दूषं-मङ्गल एवं शनि कामोगहो तो बह ग्यक्ति, मलं, गौ (स्पी) भन 
से रहित, रोग से पीडित, भार्मीमय जर्नोसे हीन, व्यग्र तथा लडाई-क्षगडे के लिश 
उतागला रहता है ॥ १८१ ॥ 
बुधजीवाकसंयोगे नेत्ररोगी महाधनी । 
शास्त्रशित्पकलामिज्ञो लिपिकर्ला भवेन्नरः ॥ १८२ ॥ 


मयं हष भौर गुरु कायोगहोतो वह व्यक्ति नेत्र-रोगी, बूत धनवान, शास्त्र, 
शिल्प (पत्थर एवं काष्ठ कला), कला ( चित्रकारी, नृत्य, गीत आदि) काशाता 
तथा लेखन कायं करने वाना होता ३॥ १०८२॥ 
शुक्रसूर्यबुधंयगि गुखुवर्गेनिराङृतः । 
माभिश्प्ता दशो याति स्व्रोहेवोस्तप्तमानसः ॥ १८३ ॥ 
भूयं बुघ ओर शुक का योग एक राशिमेंहोने पर जातक गुर वगं ( माता- 
पिता-गुरुजन ) से अपमानित एवं मभिकशषप्त ( क्षाप प्राप्त कर) होकर इधर- 
उभर श्रमण करताहैतथास्त्रीके लिए सन्तप्त होता हि ।॥ १८३॥ 
शनितू्यवुघंयगि दुराचारः पराजितः । 
बन्धुभिश्च परित्यक्तो विद्रेषी जायते नरः ॥ १८४॥ 


रथं, बू मौर शनि कायोगहो तो मनुष्व दुराचारी, पराजय प्राप्त करने 
वाला, भाहयों हारा परित्यक्त, तथा विरोध करने वाला होता है। १८४॥ 


मन्दजीवाकंसंयोगे पुत्रमित्रकलत्रवानू। 
निय नुपतिद्रेष्टा॒स्वेष्टबन्धुमवेश्ल रः ॥ १८५॥। 
सूं गुर भौर शनि के सथोग ते मनुष्य पृत्र-भित्र-स्त्री से संयुक्त, निडर, राजा 
सेः द्वेष करने वाला, तथा अने भाष्यों का हितैषी होता है॥ १८५॥ ` 


चन्द्रचान्दरिकजेयोगि निजाचारश्च पापकृत्‌ । 
भाजीवितहतो लोके बन्धुहीनश्च जायते ॥ १८६ ॥ 


चन्द्रमा, मङ्गल जौर बुषका योग हो तो मनुष्य नीच आचरण वाला, पापकमं 
मे रत, जीवन पयन्त संघार मे अपमानित तथा भाद्यों से रहित होता है ॥ १८६॥ 


चन्द्रजोवकु्जयगि स्त्रीलोलो व्णंसंयुतः । 
 , कान्तश्च सङ्गतः स्त्रीणां चनद्रतुल्यमुखो भवेत्‌ ॥। १८७ ॥ . 
अन््रमा, बहस्पति मौर मङ्गल यदिएकही राशिमेंहों तो वह ष्यक्ति स्यो 
के प्रति चञ्बल, वणो से यूत, सुन्दर, स्तरियो का ववुमामी, तथ चन्द्रमा के समान 
भृखवाला होता है.॥ १८७५ +, + 


> 


१३६ "मनोरमा" हिन्वीग्यास्योपेता 


` अशुक्कुज॑यगि दुःशलायाः पतिः धुतः 
शीतभीतोऽपि जायते ॥ १५८५ ॥ 
चन्द्रमा, शुक्र जर मङ्गल कायोभएक राशिमेंहो तो वहु ष्यक्तिदुष्टासछी 
का पति एवंदुष्टास्तरीका पृत्र होताहै। (अर्थात्‌ एसे ्यक्तिकी माता एवं 
स्त्री दोनों ही दुष्टा होती ह । ) सदैव रमभ करने वाला तथा शीतसे डरे वाला 
व्यक्ति होता है ॥ १८८ ॥ 


शनिचल्द्रकुजंयगि बाल्यै स्यान्मृतमातुकः । 
्षुद्रावलोकविद्िष्ठो विषमो जायते नदः ॥ १८६ ॥ 
चन्द्र, मङ्गल ओर दनि कायोगहो तो त्रतक की बाल्यावस्थामें टी माता 
की मृत्युहो जाती दै, क्षुद्र लोग ( उससे ) देखने मात्र से ई््या-देष करते ह तथा 
उसका जीवन कठिन होता है । १८९ ॥ 
जीवचष्द्रबुधयोगिं तेजस्वी धमवामपि । 
पुज्मित्रादिसंयुरो वारमी ख्यातश्च कोतिमाच्‌ ॥ १९० ॥ 
चन्द्रमा, बुष मौर गुरु कायोग एक राशिमे हो तो ग्यक्ति तेजस्वी, गनवान, 
पुत्र-मित्र जादि ( पुजन ) वे युक्त कुशल वक्ता तथा विख्यात होता ह ॥ ११० ॥ 


बुषेन्दुभागंव॑योगि विशयालद्कृतो नरः । 
पेर्ष्यो घनातिलोभी च नीचाचार्च जायते ॥ १९१ ॥ 


बुष, चन्द्रमा मौर शुक्रका यौन हो तो मनुष्य विच्वा से सुशोभित, ईष्यन्जु, 
धन के सस्बन्ब मे त्यन्त लोभी तथा नीच भचरण करने वाला होला है ।॥१६९१॥ 


बुचेन्दुमन्दसंयोगे प्राज्ञो भूपतिपुजितः । 
अत्युश्चो विपुलाङ्ग्न वाग्मी भवति मानवः ॥ १६२ ॥ 
बुध, चम्दर तथा शनि कायौ हो तो पुरुष बुद्धिमान्‌, राजा ते सम्मानित, 
वा एवं विशाल शरीर वाला तथा वाचाल होता है ॥ १६२॥ 
शुकजीवेन्दुर्सयोगे साष्वीपुत्रश्च पण्डितः । 
साधुः वंकलाभिन्नः सुभगो जायते भरः ॥ १९३ ॥ 
शुकर-गुर गौर अन्म का योग एक रारिमेंहो तो जातक साष्वीस््रीहे 
उत्वन्न, पण्डित ( विद्धान्‌ ), सश्जन, सजौ कनाम का ज्ञाता एवं चुल्दर 
हिरा १९२ ॥ 


वीवेन्धुमन्दंयोगे नीरोगः श््रीगतो भदः. 
शोरवा्यविज्ञः पर्वशो प्रामपरनपोलकः ॥ १९४ ॥ 











मानसाबरी १३५ 





गुर, चन्द्रमा भौर हानि का योम यदिएक राक्िमे. हो तो मनूष्य निरोग, 
स्क्री में आसक्त, शास्त्र का मर्मज्ञ, सवक जानने बाला, श्रम एवं नगर. का 
पालन ( रक्षा) करने वाला होता है ॥ १९४॥ 
शमिशुङगन्दुसंयोगे लिपिकर्ला च वेदवित्‌ । | 
पुरोहितकुलात्पन्नो भवेत्पुस्तकवाचकः ।॥ १९५॥ 


शनि-गृक्र गौर चन्द्रमा की युतिहो तो जातक लिखने का कार्यं करने वाला, 
बेद काञ्ञाता, पुरोहित कुल मे उत्पन्न, पुस्तकों का वाचन (पुरार्णोकी कथा) 
करने वाला होता है।॥ १६५ ॥ 
जीर्वभौमवुर्धयोगि स॒कविर्युवतोप्रियः । 
परोपकारकृसीक्ष्णो गाम्धर्वकुशषलो भवेत्‌ ॥ १६६ ॥ 
गुरू-मङ्गल एवं बुष का योग यदिएक राशिमेहोतो वह सुन्दर कवि, भुन्दर 
स्वर्यो का प्रेमी, परोपकारी, उग्र स्वभाव वाला, तथा गर्धवं विज्ञा ( नृत्य, 
गीत, अभिनय आदि) > निषपुणरोतादहै।॥ १६६॥ 
भृगुमौमवुरध॑यगि विकलाङ्गश्च चश्चलः। 
अकुलीनः सदोत्साही तृ्तश्च मुखरो नरः ॥ १९७ ॥ 
शुक्र-मङ्गल भौर बुष कायोग एकही राश्षिमेंहो तौ मनुष्व बिकलाङ्ज 
(किसी मंन मे विकार युक्त), चश्चल, असम्मानित कुल मे उत्पल, निरन्तर उत्साह 
बुक्त , सम्तुष्ट, तथा सभी कायो मे भागे रहने बाला होता है ॥ १९७ ॥ 


बुषमन्दकु्जंयगि प्रवासी नेत्ररोगवाच्‌ । 
्रष्यो वदनरोगी च हास्यलुन्धो भवेन्नरः ।॥ १९८ ॥ 
बुष-दानि भौर मङ्गल कायोग एकही भावम हो तो मनुष्य परदे में 
रहने वाला, नेत्रौ से रोगी, दूत कार्यं करनेवाला, भक्षसे रोगी, तथा हास्य का 
प्रेमी होता है।॥ १६८॥ 
बीवकाव्यदुजयोगि दिग्यनारीयुतः सुखी । 
सर्वागन्धकरो लोके जायते नृपतिप्रियः ॥ १९९ ॥ 
भुर-शुक्र भीर मङ्गल का योग हो तो मनुष्य अत्यन्त घुम्दरी स्त्री ते युक्स, 
धुल, सदैव भानन्द करने वाला, तथा राजा का प्रिय पात्र होता है।॥। १६६ ॥ 
गोवमन्दकू्व॑यमि कूष्यङ्गो राजपुजितः । 
बीवाचारो नि्षंनश्च भवेन्मित्रविमरहित : ॥ २०० ॥ 
बृहस्पति, सनि, गौर मङ्गल का योम यदिएकही राधषिमेहोलतो उत 
ष्यवितिके भङ्खोमेङ्कुष्ठ रोग होता है। बह राणा से सम्मानित, नीच नावरण 
करने बाला, लिन तथा भिर हारा भपमानित होता है ।। २०० ॥ 


१३६ "मनोरमा" हिरपीभ्यास्योपेता 





दुःषीलायाः पतिः शुभः। - 
प्रवासश्ीलो दुःखी च जातको जायते सदा ॥ २०१ ॥ 
हक, शनि मौर मङ्गल का योग यदि .एकं राशिमें हो तौ जातक दुष्ट 
स्वभाववाली स्त्री का पति होताहै। स्वयं शुम, परदेशवासी, तथा सदैव दुली 
होता है ॥ २०१॥ | 
बुषेज्यभृगुसंयोगे स॒तनुनु पपुजितः । 
जितारिर्दीधंकोत्तिञ्च सह्थवादो भवेल्लरः ॥ २०२ ॥ 


बुष, शुरु ओर शुक्र कासयोगहो तो वह मनुष्य सुन्दर शरीरवाला, राजा 
से पूजित, शत्रुओं को जीतने वाला, अधिक यक्षस्वी तथा सत्यवादी होता है ।२०२॥ 


बुधाकिजीवसंयोगे सुदारो क्हुभाग्यवान्‌ । 
धनेश्व्ययुतः भाज्ञः सुधं्ंयुतो भवेत्‌ ॥ २०३ ॥ 
हष, शनि गौर गुरुकायोगहो तो व्यक्ति चुन्दर-स्त्री वाला, बहुत भाग्य 
काली, वन-सम्पत्ति से युक्त, बुद्धिमान्‌ सुख एवं षेये से युक्त होता है ॥ २०३ ॥ 
मन्दशुक्रबुघे्योगि मुखरः पारदारिकः । 
असङ्गतिः कलारभिज्ञः स्वदेशनिरतो भवेत्‌ ॥ २०४ ॥ 
शनि, श्रु ओर बुव कायोगहोतो वहु सभी कयोँमें भग्रणी, दूसरों की 
स्त्री मेँ आप्षक्त, बु ती संगति वाला, कलाओं का ज्ञाता, तथा गपने दश्च में मनुराग 
रशने वाला- होता है ॥ २०४ ॥ 
भन्देज्यशुक्रसंयोगे राजा भवति कीत्तिमान्‌ । 
 नीलवंेऽपि सम्भूतः शोलयुक्तो नुपो भवेत्‌ ॥ २०५॥ 
शनि, ब्रहस्पति ओर शुक्र की युति यदि एक ही राशिमेंदहो तो व्ह यशस्वी 
राजा होताै। यदिनीच कुल में मी उत्ण््रहो तो बह बहत शालीन राजा 
होक्षा है ॥ २०५॥ 
शुक्रजीवारकसंयोगे शजमन्त्री च निर्घंनः। 
दुष्टवसुश्च शूरश्च पराज्श्च परकर्मकृतु ।॥ २०६ ॥ 
कुक, बृहस्पति मौर पूर्य कायोग यदिएक राशिमेंहोतो वह भ्यक्तिराजा 
का मन्त्री ( मन्त्रिमण्डल का सर्दस्य.}, निर्न, ने््रोसे रोगी, `8र, बुद्धिमान तथा 
दूसरी का कार्यं करने वाला होता है।। २०६॥ ` 


 .  शनिशुक्राकसंयोगे . कलामामत्रिवजितः | 
कुष्टी शत्रुभयोद्धिम्नो दुराचारी नरो भवेत्‌ ।। २०७ ॥ 


मानसाषरी १३७ 





दानि, शुक्र मौर धूं का योग एक रारिमेहो तो मनुष्य कला मौर र्म्मान 
ते रहित, कुष्ठ रोगी, शनभ के भवसि उद्धिग्न ( परेशान ) तथा ङगवचारी 
होता ह ।॥ २०७ ॥ 
प्रायः पार्यते चष््रे मातुर्नाशो रवौ पितुः । 
शुभग्रहैः शुभं वाच्यं मिधितंमिश्रितं फलम्‌ ।। २०८ ॥ 
यदि चन्द्रमा पापग्रहो (कमते कम तीन पापग्रहा) वे यक्तहोतोमताकी 
` तथो सूर्यं ( तीन से अभिक ) षपिग्रहोते युक्त हो तोप्रायः पिता की मह्य 
होती ह । यदि सूर्य-बन्द्र ( तीन ) शुमग्रहों से युक्तहोतो शुभफल तथा मिश्रित 
(पाप गौर शुभ) ग्रहों से युक्त हो तो मिश्चित ( शुम~अचुम दोनों) फल 
होता है ।। २०८ ॥ 
शुमास्त्रयो ग्रहा युक्ताः कृर्वन्ति सुखिनं नरम्‌ । 
पापास्त्रयो दुःखितं च दुविनीतं विर्गहितमू ।। २०६ ॥ 
यदि तीन शुभग्रहोका योगएक राशिमे होतो भनुष्य सुखौ होताहै। 
यदि तीन पाष्ब्रहों का योग हो तो मनुष्य दुःखी, भक्िष्ट हवं निन्दित 
होता है ।॥ २०६९ ॥ 


चार प्रहा का युतिफल 
चन्द्रचान्द्रिकूजारकणिां योगे लिपिकरो नरः। 
तस्करो ब्ुखरो वाग्मी मायावी कशलो भवेत्‌ ॥ २१० ॥ 


चन्द्र, बुष, मंगल तथा सूर्यं कायोग पदि एक राशिमेहो तो मनुष्य नेखक 
` (स्टेनौ ), चोर, अग्रणी (मुखिया), कामी, मायावी, तथा चतुर होता है ॥२१०॥ 
भौमभास्करबन्दरेज्यसयोगे निपुणो धनी । 
तेजस्वी गतशोकश्च नोतिज्ञश्च भवेन्नरः ॥। २११॥ 
मंगल, सूर्यं, चन्द्र तथा बरहेस्पति का संयोग यदि किसी राशिमेंहो तो मनुष्य, 
निपुण (चतुर), धनवान, तेजस्वी, चिन्ता शोक से रहित तथा नीति जानने वाला 
होता है । २११ ॥ 
 : सूयन्दुमौमशृक्राणां योगे विद्याथंसंग्रही । 
सी पृत्री कलत्रो च वाग्वृत्तिमनुजो मवेत्‌ ॥ २१२ ॥ 
सुपे, चन्द्र, मेगल सथा शुक्र.का योग यदि एक ही भाकमभेंहो तो मनुष्य विच्चा 
एवं घन कां संग्रहं करने वाला, सुकी, पुत्रवान्‌, स्त्री युक्तं तथा दी ( वकालत, 
मनन जादि ) से जीविका लने वाला होता है ॥ २१२१. . `: 


१३८ 'मनोरभा' हिन्दीग्पास्योपेता 


अर्काकशिलिमोमानां योने पूर्य निषंनः ' 


हृस्वो विषमदेहश्च भिश्नावुसि भवेन्नरः । २१३ ॥ 


सूयं, चन्द्र, मंगल तथा शनि का योग एक राशिमें हो तो मनुष्य मूलं, निर्धन, 
छोटे कद का विषम शरीर (कुबडा) बाला तथा भिक्षुक होता है ।॥ २१३॥ 
खोमसौम्याकंजीवानां योगे शिस्यकरो धनी । 


सौ्बणिकाप्लुताकषञ् रोगहीनश्च जायते ॥ २१४ ॥ 
चल््र-बुध-सुयं तथा गुरु कायोग एक रारिमेहोतो वह भूतिकार, भनी, 
स्व्णैकार एवं बङी-बरी अखं बाला, रोम रहित होता दहै ।॥ २१४॥ 
चन्द्राकंवुधशक्राणां संयोगे सुभगो भदः । 
हस्व्च राजमान्यश्च वाग्मो च विकलो भवेत्‌ । २१५॥ 
चद््र-सूर्य-बुध भौर शुक्र की युति यदिएक राशशिर्मेहो तो वह मनुष्य सुन्दर, 
छोटे कंद का, राजसम्मानित, चतुर वक्ता तथा ष्यन्न (उलन्नन शुक्त) होता है।२०५॥१ 
अर्काकि बान्दरिचल्द्राणां योगे भिक्षाणनो मरः । 
नियुक्तः पितृमातुभ्यां विकलाक्षश्च निर्धनः ॥ २१६ ॥ 
सूं, शनि, बुष तथा चन्रमा यदिषएकही भावम हों तो मनुष्य माता-पिता 
ढारा भिक्षा व्तिमे नियुक्तहोताहै तथा मिक्ञासे जीवन यापन करने बाला, 
विकलाक्ञ (अन्धा, कानः अथवा नेत्र-दोष-युक्त ) तथा दरिद्र होता है ॥२१६॥ 


बर्यचन्देज्यशुक्राणां सम्बन्धे राजपूजितः । 
जलारण्यमृगस्वामी नरः स्यान्निपुणः सुखी ॥ २१७ ॥ 
रय, चम, बृहस्यति शुक्र यदि एक ही राशिमें स्थित होतो बहु ब्यक्ति 
राजा से सभ्मानित, जल (नौ सेना) जंगल (वन विभाग) तथा मृग ( पुमो या 
जिहियाषर ) का अधिपति, कुचल कार्यकर्ता तथा सुली होता है ॥ २१७ ॥ 
सूर्यन्द्राकिजीवानां मान्यश्च बअतिताप्रियः । 
बहुवित्तसुतः क्षीणः समीक्षश्च प्रजायते ॥ २१५ ॥ 
सूये, चन्द, श तथा बृहस्पति यदिएकही मावमें्होतो बहु ब्यक्ति 
स्वरी का प्रेमी, अक्क अन रएवं पूर्वो वाला, दुरवंल तथा समानदृष्टि षाला 
होता है ॥ २१८ ॥ 
सिताकजशवीन्दूनां योगे बात्यन्तदुर्वसः । 
= अनितासदुलावारी भीररप्रेवरो शरः ॥ २१९॥ 
शुक, शनि, सूम तथा अनामा का गोग वदिएक ही राकिरमेहोतौ बुध्य 


भानसाथरी १३९ 





अत्यन्त दुरवेल शरीर बाला, स्त्री की तरह जारण करते वोला, डरपोक तथा प्राया अत्यन्त दुल शरीर बाला, सती की तरह जाजरण करते वाला, डरपोक तथा परायः 
सभी कायो मे आमे रहने बाला होता है ॥ २१९ ॥ 


योगं स्॒रकरो भः! 
परदारतः शरो दुन्ली चक्रो भवेत्‌ ॥ २२० ॥ 
बुष, सूयं, मंगल तथा शुर कायोगएकहीराशिमेंहो तो वह ग्यक्तिसूतका 


काये करने वाला, परस्त्री में आसक्त, शूर (बसवान) तथा चक्र (अस्त्र विक्तेष अथवा 
अरा ) धारण करते वाला होता है ।॥ २२० ॥ 


र्विशक्ृक्जेन्दूनामन्वये पारदारिकः । 
निर्लज्जो दुर्जनञ्नौरो विषमाङ्गो नरो भवेत्‌ ।। २२१ ॥ 
सूर्यं, शुक्र, मंगल, ओर चन्द्रमा की एक रा्षिमे युति होने से मनुष्य परस्त्री 


मे आसक्त, निर्लज्ज, दुष्ट, चोर, तथा जिषम ( कोई अंग छोटा कोर बडा) गो 
कला होता है। २२१॥ 


अककिबुषभौमानां योगे योदा कविर्जनः। 
मश्त्रौ च भूपतिस्तोकष्णो नीवाचारोऽपि जायते ।। २२२ ॥ 
सूर्य, शनि, बुष भीर मंगल की युति यदिएकहीराशिमेहो तौ जातक 
योद्धा, कवि, मन्त्री, राजा, तेज बुद्धि वाला, तथा नीच आचर करने वाला 


होता है ॥ २२२॥ 
भौमाकबुषशुक्राणां योगे पृज्यो धनी मतः । 
सुभगो नुपमान्यश्च नरो भवति नीतिमान्‌ ।। २२३ ॥ 
मौम, सूर्यं, बुष भौर शुक्रकेयोग से मनुष्य लोक मे पुञ्य, धनवान्‌, सुन्दर, 
राजा हारा सम्मानित तथा नीतिश्च होता है।॥ २२३॥ 
भाष्वकिभौमजीवानामैक्ये च गणनायकः । 
सोन्भादो नृपमाग्यश्च विदधार्थो जयते नरः ।। २२४ ॥ 


रय, शनि, मंगल तथा शुरुके एक राक्षि मे योग होने पर मनुष्य सभूह (संष). 
का नेता, उन्मत्त, राजा हारा सम्मानित, अपनी इण्छायों को पूणं करने बाला 
होता हि ।। २२४ ॥ 
मन्दमासतंष्डशुक्रारं जायते नरः 
लोकिः समाख्यातो श अजडङृतिः॥ २२५॥ 
शनि, पूर्व, शुक्र तथा मंगल का योग यदिएक राक्षिमेहो तो मगुष्व सभी 
लेनो का देवी कहा जाता, नीव आवरण करते वाला तथा जड स्वरूप बाला 


होता है ॥ २२६. 


१४० “मनोरमा हिन्दीष्पाश्योवेता 


जीवशुक्रवुषार्कानां योगे बहुमति्दः । 
धनी सुखी च सिद्धाः सृष्टश्च प्रवायते ।। २२६ ॥ 
गुर, शंक, बुष तथा सूयं का योग दिष्क रारिमेहोतो मनुष्य मधिक 
बुद्धिमान्‌ ( विवि विषयों का ज्ञाता ), अनंवान, सुश्ची, अपनी कामनाओं की पूति 
करने वाला तथा बच्छी तरह से पृष्ट होता है। २२६॥ 
अर्कािबुषदेयज्यैरेकराशिस्थितंनंरः । 
भ्रातृमान्‌ कलह मानी क्लीबाचारी निश्यमः ।। २२७ ॥ 
स्ये, शनि, गुरु ओर बुध यदि एक ही भाव में स्थित हों तो मनुष्य मायो से 
युक्त क्षगडालु, घमण्डो, नपुंसकं कौ तरह आचरण करने बाला तथा उद्योगहीन 
{ कोई कायं न करने वाला ) होता है ॥ २२७॥ 


शुक्र सौरिवुधार्काणां योगे मित्रयुतः शुचिः । 
मुखरः सुभगः प्राज्ञो जायते च सुखी नरः ।। २२८ ॥ 
क्र, शनि, बुष तथा सूये का योग यदिएक ही राकषिमेंहो तो मनुष्य भित्र 
से युक्त, पवित्रात्मा मुखिया (नेतु्व करने बाला), सुन्दर, बुद्धिमान्‌ एवं 
सुची होता है ॥ २२०८ ॥ 
सर्यसौरिसितेज्यानां सम्बन्धे लोमवान्‌ सुखी । 
कविः काङकनाथश्च राजप्रीतो भवेन्नरः ।। २२९॥ 
सूं, शनि, शुक्र तथा गुरु का सम्बन्ध (योग ) एक ही साव मं होने से मनुष्य 
लोभी, सुल्ी, कविता करने वःला, शिल्पकारों में भेष्ठ तथा राजा का प्रियपात्र 
होता है।। २२६९॥ 
चन्द्रचान्द्िकृजेज्यानां योगे शास्त्रविबक्षणः। 
नरेन््रण्व महामान्यो महाबुद्धि्नंरो भवेत्‌ ।। २३० ॥ 
चन्द्र, बुष, मंगल भौर ब्रहस्पति कायोग एक ही मावमें होने ते मनुष्य 
-लास्त्रो मे निष्मात, मनुष्यो मे श्रेष्ठ, महान लोगों द्वारा सम्मानित तथा अत्यन्त 
बुदिमान होता है । २३० ॥ 
भौमेन्दुबुधशुक्राणामन्ववे बन्धकीपतिः । 
निद्रालुः कलही नी्ो बन्धुदरेषौ जनो भवेत्‌ । २२१ ॥ 
मंगल, चन्द्रमा, बुष एवं शुक्रका संयोगयदिषएकही राशिमेहोतो बह 
अन्ध्या स्त्री का परति, अधिक. सोने वाला, क्षगहालू, नीच ` तथा माई बधं 
द्वेष करने बाना होताहै। २३१॥ 





मागसाबरा १४१. 


भौमिन्ुदंधसौशणां - योगे शुरकूलोश्धवः 1. 
पुजमिन्रकलत्री च . द्विमातुपितुकी अनः ॥ २३२॥ 
भौम, चन्द्र, बुध तथाशनि का योभएकही राशिमेहोतौ जातक शुर 
( बलवान एषं साहसी ) ग्पक्तिर्यो के कुल मे उत्पन्न, पुत्र, भित्र एवं छी 
से कक होता हि तथा उसके दो माता-पिता होते ६।। २३२ ॥ | 


चन्द्रारगुरुशुक्राणां यौगे ताहततिको मवेत्‌ । 
विकलाङ्गो धनी पुत्री मानी प्राज्ञोऽपि जायते । २३९ ॥ 


न्द्रमा, मंगल, गुर भौरश्ुक्यदिषएकही रा्िमेहों तो जातक साहसी, 
निकलाङ्खं ( किसी अङ्गं मे विकार युक्त ) धनवान्‌, पुत्र से युक्त, स्वाभिमानी, तथा 
बुद्धिमान होता है । २३३ ॥ 


भौमेन्दुमन्दजीवानामन्वथै बधिरो धनी । 
सोन्मादः स्थिरवाक्यश्च शुरो विज्ञो भवेल्नरः ॥ २३४॥। 


मंगल, चन्द्रमा, शनि, भौर गुरु के सम्बन्ध होने से जातक बहरा, धनवान, 
उन्माद ( पागलपन ) से युक्त, अपने वचन पर स्थिर रहने वाला, शूर तथा जानी 
होता है। २३४ ॥। 
चन्द्रारशुक्रमन्दानां मलिनः कूलटापतिः। . 
सोद्रेगः सपंतुल्याक्षः प्रगल्मो जातको भवेत्‌ ।।! २३५ ॥ 
चन्द्र, मंगल, शुक्र एवं शनि की युति एकही राशशिमेहो तो जातके मलिन 
स्वभाव वाला, चरित्रहीन स्त्री का पति, चिन्ता एवं व्याकुलता से युक्त, सपंके 
समान आंखों वाला तथा उदण्ड स्वभाव का होता है।। २३५।। 


जोवशृक्रवुचेन्दूनामन्वये सर्भगो धनी । 
विमातुपितृकः प्राज्ञो गतारिर्जायते नरः ॥ २३६॥ 


गुरु, शुक्र, बुध तथा चन्द्रमा कायोग यदि एकही राशषिमें हो तो वह 
ष्यक्ति, सुन्दर, धनवान्‌, माता-पिता से रहित, बुद्धिमान तथा शत्रुओं से रहित 
होता है ।। २३६ ॥ | 
मन्देज्यचन्द्रचान्द्रीणां योगे बल्धुप्रियः कविः। 
तेजस्वी राजमन्त्री च यशोधमंयुतौ नरः । २३७ ॥ 
शनि, गुरु, चन्द्र भौर बुध कायोगएकही रा्षिमेंहो तो मनुष्य भारईबन्धुओं 
का प्रेमी, कवि, तेजस्वी ( प्रमावक्षाली ), राजा का मन्त्री, यशस्वी एवं धार्मिक 
होता है ।। २३७ ॥ | 


१४२ "मनोरमा? हिन्वीक्ास्योषेता 


____----------------- नताया स 
नेनलेषी वृराग्िशो ` अहुशा्युतो की | २३८ ॥। 
अन्मा, बुव, शुक्र एवं शनि यदि एक ही राशिभेहांतोक्हव्यक्तिराजाते 


भजित ( सम्मानित ), नेषों से रोयी, नयर का अकिपति ( मकिकारी ) तथा बहुत 
क्षी स्त्रियों से यच एवं धनी होता है ॥ २३८ ॥ 


चण्दरेज्यसितसखीरीनामन्वये वारदारिकः । 
+ प्रा्ो निद्रम्यवन्धुश्व स्वलभार्यो नरोत्तमः ।। २३९ ॥ 
अनामा, गुर, शुक्र एषं शनि के एक राशि मे स्थित होने से व्यक्ति परस्त्री में 
आसक्त, बुद्धिमान, धन एवं बन्धुर्भो से रहित, स्थूल शरीर वाली पत्नी ते युक्त 
तथा मनुष्यो मे शेष्ठ होता है ॥ २३६ ॥ 
बधारमृगुजीवानां योगे स्त्रीकलहप्रियः। 
धनी सुशीलो नीरोमो लोकपुज्यो नरो भवेत्‌ ।॥ २४० ॥ 
बुष, मंगल, शुक्र एवं गरु यदिएकही राशिमंहोंतो वह स्त्री एवं कलह 
( क्षषड़ा ) का प्रेमी, धनवान्‌, सुदील, रोग से रहित (स्वस्थ), लोक में सम्मानित 
धुरव होता है । २४० ॥ 
भौमेज्यसौम्यसौरीणां योगे शरश्च निर्धनः । 
सत्यशौचव्रतो विद्वान्‌ दीनो वाग्मी नरो भवेत्‌ ॥ २४१ ॥ 


भौम, गुर, बुष एवं शनि का योग यदिएकही राशिमेहो तो मनुष्य कुर 
वीर, निर्न, सत्यवादी, पवित्राह्मा, व्रिद्रान्‌, दीन तथा वाक्पटु होता है ॥३४१॥ 
मल्लोज्यपुष्टिेद्धा च बुधारयमभागंवैः। 
ख्यातो सोके दृडाङ्गश्व सारभेयरुचिर्मवेतु ॥ ४२२ ॥ 
बुध, मंगल, शनिः, एवं शुक्त का योग यदि एक राशिमेंहोतो वहू भ्यक्ति, 
महलवान, दूसरे लोगो हारा हृष्ट पृष्ट किया हमा ( अर्थात्‌ किसी के भाषितं 
रहकर पहुलवानी करने वाला ), योद्धा, लोक प्रसिद्ध, पृष्ट अंगो वाला तथा कुत्ते 
की तरह स्वामिभक्त होता है ॥ २४२ ॥ 
मौमेज्यशनिशुक्राणां योगे स्याद्रासनातुषः । 
परदाररतो मानी कितवो जायते नरः ॥ २४३ ॥ 


भौम, गुरु, हानि एवं शुक्र का योग यदि एकही राधिर्मेषो तो मनुष्य 
जासन ( काम, नशा मादि ) से व्याकुल, प्रस्ती मेँ आसक्त, मभिमानौ तथा पूर्त 
डोला ह ॥ २४३॥ 





भावतानबदी १४३. 


बृषवीवसुकत्रीरः अह स्थितस्तीत्रयोमे ।। २४४ ॥। 


बुधः बुर, शुक्र एव कषजिका तीच योम ( मिकटतम अर्घो ) एक राश्चिमें 
हो तो जातक प्रतिजाक्षानी, शास्वाम्यास मे लीन, कामी, सत्य का दाब (अर्बात्‌ 
अधिक सत्यवादी ) होता है ।। २४४ ॥ 


कय बहो का इुतिरल 
बहुप्रपव्ची दुःखी च जायाविरहतापितः। =. 
सुर्यचिजीवपर्यन्तनंरः स्यात्पच्मिग्रहेः ।। २४५ ॥ 
सूयं से शुर पर्यन्त ( सूर्यं, चन्द्र, मंगल, बुघ, गुरु ) पांच ग्रहोकायोम यदि 
एक राकिमेहो तो मनुष्य बहुत प्रपञ्च करने वाला, दुशीतभास्त्रौ वियोगे 
सन्तप्त होता है ॥ २४५ ॥। 
गतसत्यो बन्धुहीनः परकर्मरतो नरः। 
क्लीबस्य च खला सूयंमौमेन्दुबुधभा्गवंः । २४६ ॥। 
भूयं, मौम, चन्द्र बुष तथा शुक्र यदि एक ही साथ पडे हों तो मनुष्य सत्य 
से रहित ( अर्थात्‌ कुठा ), भाई से रहित, हुसरो के कायं में रत तथा नपुंसक लोगो 
का साधी होता है ।॥ २४६ ॥ 
स्यादल्पायुलश्व विकलो दुःखी युतविर्वाजितः । 
धर्काकिवुघचन्द्रारयोगे बन्धनभागपि ॥ २५७ ॥ 
सूयं, शनि, बुष, चन्द्र ओर मंगल की युति एकही राशिमेंहो तो बह मत्पायु 
{ भस्प समय तक जीबित रहने वाला ), व्यप्र, दुःखी, पुक्रहीन, तथा बन्बन का 
भागी होता है ( भर्थाति जेलयाश्रा करनी पडती है ) ॥ २४७ ॥ 
जसत्यन्धो बहुदुःखी च पितृमातृविबजितः । 
नागभ्रीतो नरो भौमभानुचन्द्रञ्यभागंवंः ।। २४८ ॥ 
मंगल, सूरय, चन्द्र, शुरु तथा शुक्र एकही राशषिमे हो तो जाति का ञन्ा 
अर्थात्‌ जाति कोन मानने वाला, बहुत दुदी, माता-पितासे रहित तथा हाबी 
कोप्रेमी होता है ॥ २४८ 1) 
परप्रव्यहरो योदा परतापकरः खलः । 
समर्थो जायते मन्दचन्द्रजोवाकंमूसुरतैः ।। २४९ ॥। 
शनि, चन्द्र, शुर, सूरय एवं मंगल ये पचो प्रह यदि एक राश्चिमेगयेहोंतो 
जातक दूसरयो के व्रव्य काहुरणकरने वाला, योधा, दूखरों को पी्हित करने वाला 
दुष्ट तथा समं ( कायं मे सक्षम यवा प्रभावशाली होता है ॥ २४९ ॥ 





१४४. नौ रमा" हिन्दौन्वाश्योपेता 





मानधारध्नहीनिः.  -परशररतो ` ` करः 1 ; 


एकस्व्ायते भानुमोमनदुश निभाः ॥ २५५, 


सुं, मौम, -चन्द्र, शनि एवं शुक यदि एक ही राशिमें हो तो मनुष्यः सम्मान, 
आावार-वि्वार एवं धन से रहितः; तथा दूसरों कौ स्त्री मे आसक्त होता है ॥॥२५०। 
शाजमन्त्री मूरिवित्तो यन्त्रजञो दण्डनायकः । 
ख्यातो जने यशस्वी च जीबाकल्दुजभागं वैः ।। २५१॥। 
गुरु, सूं, चन्द्र, बुध आर शुक्र एक ही राशि में स्थितिहोंतो जातक, राजा 
का मन्ती, बहुत अधिक धनवान, यन्तरंके ज्ञान मे निपुण, दण्ड देने के अधिकार 
से युक्त तथा यशस्वी होता है ॥ २५१ ॥ | 
परान्नभोजी सोन्मादः प्रियतप्तश्च वग्खकः । 
उग्रो भीरनंरः सर्यशनिचन्द्रेर्यचन्द्रजः ।। २५२ ॥ 
सय, शनि, चन्द्र, गुरु, बुध यदि एकं सायहो तो मनुष्य, दूसरे का अन्नशाने 
वाला, उन्मत्त, . अपने प्रियजनों को सन्तप्त ( दुःखी ) करने वाला, धृत्तं ( ठग ). 
क्रोधी तथा इरपोक हाता है ।। २५२ ॥ 
घनपुत्रसखंहीनो मत्य्‌त्ाही च लोमशः । 
दीर्घौ भवति चन्द्राकबुधशुक्रशनेश्चरंः । २५२३ ॥ 
चश्द्र, सूर्य, बुष, शुक्र तथा दानि एक ही राशिमेटो तो वह धन, पृत्र एवंसुख 
से रहित, आत्महत्या की चेष्टा करने वाला, रोम (बाल) यृक्त शरीर वाला तथा 
शरीरसे लम्बा होता है ।। २५३ ॥ 
हन्द्रजालरतो वाग्मी चलवचित्तोऽङ्गनाप्रियः । 
प्राज्ञश्च दक्षो निर्भतिः शुक्रेज्याकन्दुसूर्यजैः ॥। २५४ ॥। 
धुक्र, गुर, सूये, चन्द्र गौर शनि यदि एक ही मावमें स्थितहौंतो वहु व्यक्ति 
जादूगर ( लेल दिश्ाने वाला ), चतुर वक्ता, चञ्चल मन वाला, स्वियौ का प्रेमी, 
बुद्धिमान, निपुण, तथा भय से रहित होता है ॥ २५४ ॥। 
स्फीतो बहुहयः कामी नरः शोकी चमपतिः । 
बुधाकंकुजशुक्रज्यंः सुभगो भृपतेः प्रियः ॥ २५५॥ 
यदिषएकही रातिम ब्ध, सूयः मंगलः शुक्र तथा गुरुस्थितहोंतो जातक, 
मोटा-ताजा अधिक घोड़ी को रक्षने वाला, कामवासना युक्त, चिन्ता युक्त, सेना- 
पति, (सेनाम अधिकारी) आङृति से सुन्दर, तथा राजाका प्रिय पात्र 
होता है ।। २५५ ॥ 


"मनोरमा" हिम्दीग्याश्योपेता १४५ 


भिक्लाभोगी च रोगी च नित्योद्िम्नो मलीमसः । 
जीर्णो नरो भानुभौमशनिजीववुधंभंवेत्‌ ।। २५६॥। 


यदि जन्म समयमे सूरय, मंगल, शनि, गुरु भौरबुधणएकहीसाथहोंतो बह 
मनुष्य भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाला, रोग-युक्त, प्रतिदिन व्याकुल रहने वाला, 
मलिन बेषभूषा-युक्त तथा जजर शरीर वाला होता है ।। २५६ ॥ 
व्याधिभिः शत्रुभिग्रस्तः स्थानज्रष्टो बुभुक्षितः । 
नरः स्याद्विकलः शुक्रमन्दाकबधभूसुतैः ॥ २५७ ॥ 
शुक्र, शनि, सूय, बुष एवं मंगल यदि एक साथदहों तो जातक व्याधि ( रोग) 
तथाशत्रुसे पीडित, स्थानसे च्युत ( अर्थात्‌ धर छोड कर अन्यत्र निवास करे 
अथवा अपने पद (नौकरी) से हटा दिया जाय मूखसे पीडित, तथा व्याकुल 
होता है ।। २५७ ॥ 
विज्ञो विचारदेहश्व धातुधन्त्रश्सायनैः। 
नरः प्रसिद्धो भूपुत्ररविजीवसित्तासितंः । २५८ ॥ 
यदि मंगल, सूयं, गुरु, शुक्रं तथा शनि एकही ग्षिमेंहोंतो वहु ग्यक्ति 
विद्वान्‌, विवेककश्ील, घातु ( लोहा, ताबा, सोना, चांदी, रागा, सीसा, जस्ता, 


पारा) यन्व्र॒ (मक्षीनरी ), तथा रसायन (आषधि तथा अन्य तेजाब, स्प्रिट आदि) 
के कायो मे प्रसिद्ध होता है ।। २५८ ॥ 


मित्रभीतिः शस्व्रवेत्ता धार्मिको गुहसम्मतः। 
दयालुः दुकरमूर्याकिबृधजीवंजंनो भवत्‌ ।। २५६ ॥ 
यदि अन्म समयमे शुक्र सूर्यं, शनि, बुष भौर गुरु पांचो एकत्रहोंतो मनुष्य 
भिर्त्रोसेप्रेम रखने वाला, शास्त्रों का ज्ञाता, धार्मिक, गुरुजनों ( माता-पिता, 
रिक्षागुरु आदि वरिष्ठजनों ) का बाज्ञाकारी तथा दयासु होता है ॥ २५६ ॥ 


साधुः कत्याणहीनश्च धनविद्यासुखान्वितः । 
बहुपुत्रो नरो जीवभौमेष्दूवधमायंवंः ।। २६० ॥। 
गुरु, मंगल, चन्द्रमा, बुष ओर शुक्र यदि जन्म कालमेंएकही राशिमे स्थित 
हों तो वह्‌ व्यक्ति सज्जन कल्याण ( मंगल कर्यो. मथवा किसी की सहायतासे) 
रहित, षन, विद्या, भौर सुख से युक्त, बहूत पुत्रो वाला, होता है ॥ २६०॥ 
। परान्नयाचको विभो मलिनस्तिमि गमयी । 
नरो भवति भौमेन्दुजीवशुक्रशनेस्वरंः ।। २६१ ॥ 


यदि मंगल, चन्र, गुर, शुक्र एवं शनि एक ही भाव म बेड हों तो मनुष्यद्रुसरों 
१० मा० सा० 


१३६ मानसामरी 





ते अन्न मांगने वाला ( यिक्षुक अथवा उधार करने वाला ) शर्धन वुत्ति वाला, 
मलिन आचरण एवं केषमूषा-युक्त तथा रतौधी (रातमेंनदीञ्लना ) रोगे 
ज्रस्त होता है ॥ २६१ ॥ 
दुभंगो मलिनो मृखंः प्रष्यः क्लीबल्न निधनः । 
नरो भवति चन्दरजशुक्रसौरिमहीसुतैः ॥ १६२ ॥ 
चन्द्र, बुष, शुक्रः शनि ओरमंगलये पो ग्रह यदिएकही राशि में स्थित 
हों तो जातकं मही माति वाला, मलिन स्व भाव युक्त, मूख, मृत्य ( सन्देश वाहक, 
अपरासी ) नपुंसक तथा निषन होता है ॥ २६२ ॥ 
वहुमित्रारिपक्षक्च दुःशीलः परपीडकः। 
मानी नरः सोमजीवशुक्रभन्दधरासुत्तः ।। २६३ ॥ 
जन्म समय मे यदि चन्द्र, गुरु, शुक्र, शनि एवं मंगल एक ही रशिमें्होतो 
जातक बहुत मित्रों एवं शत्रुओं से युक्त, दुष्ट, इसरों को पीडित करने वाला 
अभिमानी, होता है ॥ २६३ ॥ 


राजमन्त्री राजतुल्यो लोकपूज्यो गुणाधिकः । 
अन्द्रचन्द्रजमन्देज्यमृगुपुत्रनंरो भवेत्‌ ।। २६४ ॥ 
जन्म समय मे यदि चन्द्र, बुघ, शनि, गुरु, भौर शुक्र एकही राशिमेहोतो 
मनुष्य राजा का मन्त्री, राजा के समान प्रभावशाली एवं षनवान्‌, समाज में पुञ्य 
( सम्मानित ) तथा अधिक गुणवान्‌ होता है ।॥ २६४ ॥ 


भलसस्तामतो नित्यं सोन्माशो राजवल्लमः । 
निद्रातुरो नरो भौमबुधजीवाकिभार्गवः ।। २६५ ।। 
यदि जन्मकाल मे भौय, बुष, बुर, धाति भौरशुक्र एकही रारिमेहोवो 
जातक आलसी, कोषी, सदैव उन्मत्त रहने वाला, राजा का प्रियपात्र तथा नित्रासु 
{ निरन्तर ऊंघनेवाला ) होता ह ॥ २६५ ॥ 


छः ग्रह का युविफल 
विद्चाधर्मधनंर्युंक्तो बहुमोगी च भाग्यवान्‌ । 
सर्याच्चैः शुक्रपयन्तः स्यातो मवति षडुग्रहैः ॥ २६६ ॥ 
सूं से शुक्र प्यन्त ( सूयं, चण्द्र, मंगल, बुष, भुर, शुक्र ) छः श्रहों का योम 
वदि एक हीभावमेहोतो वहु विद्या, धर्म, भौरधनसे युक्त, सभी सूर्थोका 
उपभोग करने वाला, भाग्यशाली षुरुष होता हि ॥ २६६ ॥ 


परकार्यकरो दाता शुद्धात्मा धष्बलाङृतिः । 
वर्मिग्रहैिविना शुङ्ग रमते बिजयी अनः । २६७ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्य श्योपेता १४७ 





जन्म समय मे वेदि शुक्र के बिना शप्रहो (भु. च. म. बु. गु.श.) कायोगही 
तो वहु हुरो काकायं करने वाला ( परोपकारी), दानी, शुद्ध हृदयवाला, 
स्वभाक से चश्वल तथो विजय प्राप्त कर मानन्वलेने वाला होता है॥ २६७ ॥ 


संशंथी सुभगो मानी स्यातो युद्धेऽरिमदंकः । 
विना जीवं ग्रहैः षदभिविवादे रमते जनः ।। २६० ॥ 
यदि ब्रहस्पति के विना ष्टः ग्रहों (सूरय, चन्द्र, मंगन, बुध, शुक्र, शनि) का योग 
एक ही राशिमेंहोतो वहू संशयात्मा (हूर समय सन्देह करने वाला अविदवासी), 


सुन्दर, स्वाभिमानी, विख्यात, युद्धम शत्रुओं का दमन करने वाला, तथा विवाद 
( लडारई-स्षगड़ा ) में आनन्द लेने वाला होता है॥ २६८ ॥ 


मार्याप्रियो रणोत्साही विभ्रमक्रोधलोभवान्‌ । 
अर्काक्िचन्द्रभौमेज्यमार्गवेः सुभगो नरः २६६॥ 
सूर्य, शनि, चन्द्र, मंगल, गुरु, एवं शुक्र का योग यदि एकहीभावमेहोतो 
मनुष्य पत्नीसे प्रेम करने वाला, संग्राम मे उत्साही, संहायशील, कराधी, लोभी तथा 
सुब्दर होता है ॥ २५६ ॥ 


कलत्रहीनो निरद्रग्यो राजमन्त्री क्षमायुतः । 
रवीन्दुबुधजीवाकिमृगुभिः सुभगो नरः ।। २७० ॥ 
जिसके जन्म समय मे सूर्य, चन्र, बुष, युर, दानि एवं शुक्र एक ही मावमेंहों 
तौ वहू स्त्रीसे रहित, धनहीन, राजा का मन्त्री, क्षमाशील, तथा सुन्दर पुरुष 
होता है ॥ २७० ॥ 
धनदारसुतर्हनस्तीर्थगामी वनाधितः। 
सुर्य सौम्यजीवाकिमृगृपुत्ररमवे्नरः ॥ २७१ ॥ 


सूयं, मंगल, बुष, गुर, दानि, शुक्र इन छः ग्रहो कायोग एक राक्षिमे्ोतो 
वह्‌ घन, स्री मौर पुषसे रहित, तीं यात्रा करने वाला बनबासी पुरुष होता 
है ॥ २७१ ॥ 
धनी मन्त्री शुचिस्तद्दरी बहुभार्यो नृपश्रियः । 
किना सूरयंग्रहैः षंश्मि तापी जायतते नरः । २७२ ॥ 
सूं के बिना अम्य धः ग्रहों ( बन्द, मंगल, बुष, शुक्र, दानि; कायोग एक 
ही भागजेहो तो कह म्यक्ति नवान्‌, मन्त्री, पवित्रात्मा, मालसी ( अबे निद्राकी 
स्थिति मं }, बहत पर्नर्यो ( करई बिकह कटे ) वाला, राजा का प्रियपा्र, तथा 
प्रतापी होता है ॥ २७२ ॥ 


द मानसागरी 


भरायो दरिद्रो भूलंश्व वड्मिर्वा पथ्भिर्रहैः 
धन्योर्यदर्शनासेषां फलमेतरप्रकीसितम्‌ ।। २७३ ॥। 
पाच प्रहोकेया षः ग्रहोके योग मे उल्पश्न जातक प्रायः दरिद्र या मूखं होता 
ै। अब तकजोफल कहे गये इनकी पारस्परिक दुष्टियों पर आश्रित 
है ।॥ २७३ ॥ 
वि्ठोष-पाँव-धः ग्रहो का योग किसी जन्मकुण्डली में देख कर उक्त फल 
कह देना अनुचित होगा । क्यों कि ग्रहों की युति सभी भवोंमेएक ही समान 
कलदायक हो यह सिद्धान्ततः असंगत होगा । युति में पाप ब्रहों तथा शुभ्रो के 
बलाबल के अनुकार किन-किन भावोंके साथ युति एवं दष्टि सम्बन्धहो रहाहै, 
इसका विचार करते हुये फलददेश करना चाहिये । 


साति ग्रहों का युतविफल् 
दिवाकरनिमस्तेजा भूपमान्यः शिवप्रियः । 
ूर्याद्यं : शनिपर्यन्तंयोगि दानी धनान्वितः ।। २७४ ॥ 
सूयं से शनि तक सात ग्रहों ( सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुघ, गुर, शुक्र, शनि ) का 
योग एक ही राक्षिमें हो तो जातक सूयं के समान तेजस्वी, राजा द्वारा सम्मानितः 
शिवभक्त ( भगवान शिव की आराधना करने वाला), दानी तथा धनवान्‌ 


होता है ।। २७४ ॥ 





कैन्द्रायु सादन 

केन्द्राशसंख्यां त्रिगुणां विधाय राह्लारशन्यद्धुकृतो विहीनम्‌ 

मायुः्रमाणं कथितं मुनौन्यर्चिरन्तनेर्ज्यौतिषिकंः स्मृतड्च ।। २७५ ॥। 

केन्द्रस्थानूस्थितानद्धुंसि्रिगुणीकृत्य यावान पिण्डस्तावद्वषंसंख्यायुः, यदि 
केनद्रमघ्ये राहृशनिमङ्गला भवन्ति ( तदा) तक्केन्द्राङ्कान्‌ संमील्य शेषं 
तरिगुणं कार्यम्‌ । | 

इति जन्मपत्रीपद्धतौ मावचक्रानयनभमावाध्यायदित्रिवतुः 
पश्चग्रहषदप्रहसप्तग्रहुफलाध्यायो द्वितीयः ।। २ ॥ 


सभी केन्द्र स्थानों (१,४,७, १० भावो) मे स्थित राशि संख्याओं को 
जोड़कर तीनसे गुणा करलं यदिकेन्द्रस्थानोंमें राहु, शनि भौरमंगलहोया 
इनमे से कोईभीग्रहहो तो उनकी राशि संख्याओों का योगम उक्त त्रिगुणितं संश्या 
से षटाने पर शेष कन्द्रायुका वर्षमान होतादहै। एेसा चीन दैवज्ञ ऋषियों का 
मत है। 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता १४६ 


गद्याधं- केना स्थानो मे स्थित राष्यङ्कोक्ि योग कोतीनसते गुणा करने 
जितनी गुणनफल संशया हो उतने वषं तुल्य आयु होती है। यदिकेन्रस्थार्नोमें 
शनि, राहु भौर मंगल स्थितहोतो इन ग्रहोंकी राशि संख्यार्गोके योगको 
( राश्यंको के योगसे ) घटाकर शेष का तीन गुना भयु होती है । 
वि्ोष--दलोक सं. २६५ के अनुसार कैन्दंको के त्रिगु णत योगसे राहू शनि 
एवं मगल को रा्िर्यो कायोग धटनेसे आयु होती हैँ । परन्तु गद्यद्वारा ससे 
भिन्न भाव स्पष्ट होता है । गद्य का आशय यहहैकिकेन्द्रांकोके योगसे राहू शनि 
गौर मंगल की संस्याओों का योग धटाकर तीन गना करनेसे आयुहोतीदहै। इस 
भ्रकार दोनों विधिसे आयु साधन में बहूत अन्तर भयेगा । "जातकतत्व' की टीका 
मेभीग्द्यका टी मावाथं लिया गया है। 
केन्द्रायु का मनस्यलदहै। इते स्पष्टायु नहीं मानना चहिये । 
कहीं-कहीं पर राहू भौर मंगलकी ही संख्या घटाने का उल्लेख है । 
उदाहरण- यदि किसी व्यक्ति की जन्मकालिकं ग्रहस्थिति निम्नलिखित 
चक्रं के अनुसार हो तो उसकी केन्द्रायु काप्रमाण इस प्रकार होगा- 
जन्माङ्ग- 
दलोकानुसार केन्द्र स्थित राश्यकों 
का योग~१२- ३ ६1 ६३० 
३० >८ ३६० वषं 
हानि अधिष्ठित राशि १२+भौम 
अधिष्ठित रक्षि € दोनों का योग 
१२६२१ ( राह केन्द्रसे बाहर 
है अतः यहाँ राहु वी गणना नहींकी 
गई । ) 
६०-२१-६६ वषं केन्द्रायु हई । 


गद्य मे कहे गये नियमानुसार केन्द्राङ्कोंके योग ३०से शनि मंगल अधिष्ठित 
राशि योग २१ षटानेसे शेष ९ का तीन गुना ( ६>८३ ) २७ वषं केन््रायु हुई । 


दोनौ स्थितियों मे अपेक्षाकृत प्रथम सिद्धान्त व्यवहार योग्यहै। 
विमला हिन्दी व्यास्या सहित मानसागरी का 
दवितीय मध्यायसमाप्त ॥ २.॥ 


व 








तृतीयोऽध्यायः 


भगलाचरण 
प्रणिपत्य परं ज्योतिः सवं च जगतीतलम्‌ । 
तमः्रशमनं वध्ये जन्मशास्त्रप्रदीपकम्‌ ।॥ १॥ 
परम ज्योतिस्वरूप परब्रह्म को तथा समस्त विष्व को प्रणाम .कर अन्धकार 


( अश्ञान) को नष्ट करने वाले जन्मश्ास्तरप्रदीप ( जात्तकपद्धति जिसके दारा 
मानव जीवन की भूत-वतंमान एवं भविष्य सम्बन्धी समस्त घटनाओं काञ्ञान किया 


जाताहै)कोकहरहाहूं। १॥ 
दादश मावगत लम्नेश का फल 
लग्नाधिपतिलंग्ने नीरोगं दीघजीविनं कुस्ते । 
अतिबलमवनीक्षं वा भूलामसमन्वितं जातम्‌ ॥ २॥ 
जन्मलग्न का स्वामी यदि लग्नमेंहो तो जातक स्वस्थ, दी्धंजीवी, अत्यन्त 
बलवान्‌, राजा, तथा भूमि्ाभते सम्पन्न होतारहै। २॥ 
लग्नपतिधंनभवने धनवन्तं विपुलजोविनं स्थूलम्‌ । 
अतिबलमवनीष्ां वा भूलाभं वा पुधर्मरतं कुख्तै ।॥ ३ ॥ 
लग्नेश यदि षन स्थान (द्वितीय भाव) मं स्थितहोतो वहु जातक को धनवान्‌, 
दीर्घजीवी, स्थूल (मोटा ्षरीरवाला ) अत्यन्त शक्तिशाली, राजा बनाता 
तथा भूमिलाभ एवं धमं मे लीन करता दहै। ३॥। 
सहजगतो लम्नपतिः सद्बन्धुश्रव रमित्रपरिकलितम्‌ । 
धर्मरतं दातारं शुर सबलं करोति नरम्‌ ॥ ४॥ 
लग्न का स्वामी यदि तृतीय मावमेंस्थितहो तो अच्छे भादयों एवं श्रेष्ठ 
भिन्रों से यक्त, धर्माचिरण में लीन, दानी, दूर एवं बलवान्‌ होता है।। ४॥ 
भम्नेदो घुर्यगते नृपर्रियं प्रचुरजीवितं कुर्ते । 
संल्लन्धपितरं पित्रो मक्तमबहुमोजनं जातम्‌ ॥ ५॥ 


लग्नेश्च यदि चतुर्थ भावमेमयाहो तो जातक राजा का प्रिययात्र, दी्षंजीषी, 
पिताकोप्राप्त करने बाला (अर्थतु द्तक), माता-पिता का भक्त तथा स्वल्पाहारी 


होता है ॥ ५॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्याख्योपेता १५१ 


पश्चभने लम्नपतौ धुसुतं सह्थागमीश्वरं विदितम्‌ । 
बहुजीविनं भुनौतं पुकम॑निरतं भन कुर्ते ॥ ६॥ 
यदि लग्न का अधिपति पञ्चम भावमेंगयाहोतौ जातक मच्छ पूद्र 
( सुयोग्य पुत्रों ) से युक्त, रागी, राजा ( अथवा प्रधान ), सुविख्यात्‌, दीर्घजीवी, 


यशस्वी ( जिसके शणो का मान किया जाताहो), तथा सत्क में लीन रहने 
बाला होतादहै।॥ ६॥ 


रिपुभवने लग्नेशे नीरोगं लन्धभूमि च। 
सबलं कृपणं धनिनं धुकममपक्षान्वितं कुरूते । ७ ॥ 
लग्नेद शत्रुभाव ( षष्ठ माव) में गयाहोतो वह्‌ जातक को निरोग (स्वस्थ), 


मूमिल।भ, बलवान्‌, कजृस, धनी, तथा अच्छे कायो को करने वाला एवं सत्कभियों 
का साथी बनातादहै।॥ ७॥ 


प्रथमपतौ सप्तमगे तेजस्वी शोकवानु भवेत्पुरूवः । 
तद्भार्यापि सुशीला तेजःकलिता सुरूपा च।॥ ८ ॥ 
प्रथम माव (लग्न) का स्वामी यदि सातवे भावमें स्थितो तौ ग्यक्ति 
तेजस्वी एवं शोक सन्तप्त होता है तथा उसको पत्नी सुशीला, तेजस्विनी एवं सुन्दर 
स्वषूप वालो होती है ॥ ८ ॥ 
लम्नपतावष्टमगे कृपणो धनस्शखयी तु दीर्घायुः । 
ररे खगे तु खेचरे काणः सौम्ये पुरुषो मवेत्सौम्यः । £ ॥ 
लग्नेदा यदि अष्टम भावमेहोतो जातक कजूस, घनकासंग्रह॒ करने वाला, 


दीर्षायुहोतादहै यदि लग्नेश पापप्रहहोतो जातक काना, शुमग्रहहोतो सौम्य 
( मोला-माला ) होता है। ६ ॥ 


मूतिपतिर्यदि नवमे तदा भवति प्रचुरबान्धवः सुकृतिः । 
समभिन्रस्तु सुद्छौलः सुमती स्यातः सुतेजस्वी ॥ १० ॥ 


लग्नेशा यदि नवम भमावमेंहौतो वह्‌ अधिक माई बन्धुओों से युक्त, अच्छा कायं 
करने वाला, अपने समान वर्गं में भित्रता करने वाला, सदबुद्धि वाला विख्यात एवं 
तेजस्वी होता है । १० ॥ 
प्रथमेशो द्ामस्थो नृपलाभो पण्डितः सुशीलश्च । 
गुरुमातुपुजनमतिनु प्रसिद्धः पुमान्‌ मवति ।॥ ११॥ 


प्रथम ( लगन) भावक स्वामी दकमभावमेषोतो वह्‌ व्यक्ति राजा भै 
लाभान्वित, विद्वान्‌, सुशील, गुर, माता-पिता के प्रति श्रद्धालु, तथा राजाभो मे 
भ्रसिद्ध ( सम्मानित ) होता है॥ ११॥ 





१५२ मानसारो 





एकाद्मस्यतनुपः भुजोवितं सुतखमन्वितं विदितम्‌ । 
तेजःकलितं करते पुषं बलिनं सुवाहनंर्युंक्तम्‌ ॥ १२ ॥ 
- लम्नेश यदि ग्यारह भावमेहोतो जातक का जीवन सुकली, पुत्रो से युक्त, 
क्या तिप्राप्त, तेज युक्त, बलवान्‌ तथा अच्छे वाहनों से युक्त होता है ॥ १२॥ 
द्वादशगे मूतिपतौ कटुकवत्‌ कमपरोऽशुभो नोचः । 
मानौ सहगोत्रीमिविदेक्षगो दत्तभक्तनरः ॥ १३ ॥ 
यदि बारह भावम लम्नेशहोतो वहु व्यक्ति कटु कर्मं ( कुत्सित कर्म) करने 
वाला, अशुभविन्तक, नीच, अपने भाई-बन्धुओों के प्रति अभिमान प्रकट करने 
बाला, विदे मे प्रवास करने वाला, तथा परान्न मोजी होता है। १३॥ 


चनेश ङा इादश भावो ब कल 


द्रव्यपतिलंग्नगतः कृपणं भ्यवसायिन सुकर्माणम्‌ । 
धनिन श्नीपतिविदितं करोति नरमतुलमोगयुतम्‌ ॥ १४॥ 


धन भावका स्वमी यदि लग्न ( प्रथम) भावम गयाहो तौ मनुष्य कंजूस, 
ग्यापारी, सत्कमं करने वाला, घनी, धनपतियों मे विख्यात तथा अतुल भोग 
( समस्त भौतिक सुख सम्पदा ) से युक्त होता है।॥ १४॥ 


व्यवसायी च सुलाभी ह्य त्पन्नमुगलीककारको नोचः। 
नालीककृद्विदितोऽपि च पुणद्रिगी धनपतौ घनगे ॥ १५॥ 


धनेदा यदिषः; भावमें हीहोतो जातक व्यापारी, अच्छा लाभ करने वाला, 
छट्पन्न वस्तु ( अपने प्रयास से अजित वस्तु ) का उपमोग करने वाला, जा व्यव- 
हार करने वाला, नीच, सत्यवादीके शूपमें विख्यात होने पर भी उद्धिन रहने 
बाला होता है।। १५॥ 
धनपे सहजगते चेद्बन्धुविभेदादिवजितः श्ररे । 
सौम्ये शजविरोधौी भूतनये तस्करः पुरुषः ॥ १६॥ 
पाप ब्रह भनेश होकर यदितृतीय मावमेहोतो बन्धु बान्धवों से किसी प्रकार 
कारेदनहीं होता यदि शुमग्रदहोतो राजा का विरोधी तथा यदि मंगल धने 
होकर तृतीय भावमेहोतो वह्‌ भ्यक्तिषोरहोतादहै। १६॥ 
तुर्यगते द्रविणप्रतौ पितृलाभपरः सस्यदयायुक्तः । 
दीर्घायुः ज्गूरखगे पुनरथ वा मरणं विनिदश्यम्‌ ।॥ १७॥ 
अतु भाव में यदि धने होतो पिता से लाम, सत्य एव दया युक्त, दीं जीवी, 
होता है परन्तु अनेहा यदि पापप्रहहोकतो जातक की शीघ्र मृ्युहोती है ॥ १७॥ 


"अनोरमा" हिन्दीष्याश्योषैता १५३ 


ततयकमलविलासी कषटतरे कर्मणि असिद्ध च । 
कृपणं ुःकनिधानं तनयगतो धनपति कुरते ॥ १० ॥ 
धनेक्ष यदि पञ्चम भावे गयाहोतो बहू कमल के समान ( प्रसन्न चित्त) 
पुरो के साथ सुखी, कष्ट कर कायोँको करनेमें प्रसिद्ध, कंज॒स तथा दुरलोवे 


चिरा हमा, ्यक्तिहोताहै। ( अर्थत एते ष्यक्तिको केवल पुत्रसुखही प्राप्त 
होता 8 )।॥ १८॥ 


वष्ठगतो द्रेविणपतिर्घनंग्रहतत्परं रिपुषध्नं चं । 
भूलाभिनं सुखचरंः पापंघंनवजितं पुरुषम्‌ ॥ १९॥ 
शुभ ग्रह धनेरा यदि ढे भावम गयाहो तो पुरुष धन संग्रह करने मे तत्पर, 
शत्रुगों का दमन करने वाला तथा भूमि लाभ करने वाना होता है । यदि पापग्रह 
होतो धनसे रहित होता है।॥ १९॥ 


धनधैऽपि च सप्तमगे श्वेष्ठचिन्ता विलाषमोगवती । 
धनसंग्रहणी भार्या ज्ूरे सेचरे भवेत्‌ वन्ध्या ॥। २० ॥ 
धने ( शुमग्रह ) यदि सप्तम मावमेंहो तो उच्चस्तर की चिन्ताये होती दहै 
तथा उसकी पत्नी विलासिनी, सुक्षी, तथा धन संग्रह करने वाली होती है। यदि 
अनेराक्ररग्रहहो तो बन्व्या होती दहै ।। २०॥ 


धनपेऽषट्ममवनस्थेऽष्टकपाली शचात्मघातकः पुरुषः । 
उत्पक्लभुग्विलासी परघनहिसी भवति दंवपरः ॥ २१॥ 
धनेदा अष्टम मावमें होतो वहु अष्टकपाली, आत्महत्या करने वाला स्वो- 
काजित वस्तु का उपभोग करने वाला, विलासी, दूसरों की घन-हानि करने वाला, 
भाग्यवादी पुरुष होता है । २१॥ 


धनपे धमगृहस्ये सौम्ये दानप्रसिद्धवाग्भवति । 
करे दरिद्रभिक्षुविंडम्बव्‌तिस्तथा मनुजः ॥ २२॥ 
धनेदा नवम भावम शुभग्रह होकर गयाहोतो दानके द्वारा प्रसिद्ध, तथा 
अवन का पक्काहोताहै। यदिक्रूरग्रहहो तो दरिद्र, भिखारी, तथा सर्वत्र लज्जित 
{ अपमानित ) होता है ॥ २२॥ 


दष्टामगृहस्थे धनपे नरेग्प्रमान्यो भवेन्नृपाल्लक्ष्मीः । 
सौम्यगृहगे च मातुर्भनुजः पितृपालको भवति ॥ २३॥ 
अनेदा यदि दशाम भावमें गया हो तो मनुष्य राजा ह्वारा सम्मानित तथा, राजा 


बे लकमी (चन) प्राप्त करने बाला होता है । यदि धनेशा दशाम भावमे भुभग्रहकी 
राशिमे हो तो माता-पिता का पालन-पोषण करने बाला होता है ॥ २३॥ 





१४४ मानसाभरी 





एकौददभः वेषरभ्यवहारे शीवतिः ध्यातः । 
लोकौधदतिपाखनरतं च नरं भवेज्जातम्‌ ॥ २४॥। 
एकादशा भाव में गया हुआ धनेश जातक को ग्रह ब्यवहार ( अथवा आकाशम 
सञ्बरण करने वाले हवाई जहाज आदि ) मे कुशल, धनवान्‌, विध्यात्‌, लोकस 
का पालन करने वाला मनुष्य होता है ॥ २४॥ 
द्रविणपतौ ष्ययलीने कृपणं धनवजितं क्रूरे । 
सौम्बे लाभालाभस्यातं पुरुषं वदेज्जातम्‌ । २५॥ 


करर हितीयेश यदि दादश भावम हो तो मनुष्य, कृपण एवं निर्धन होता है। 
यदि शुभग्रह हो तो लाभहानि के कायं में विख्यात होता है ।॥ २५॥ 


दादश भावगत दतीयेश फलब्‌ 
सहजपतिलंग्नगतो वागवादी लम्पटः स्वजनभेदी । 
पेवापरः कुमित्रः कूटकशः प्रोच्यते पुरुषः ॥ २६ ॥ 
तृतीय भाव का स्वामी यदि लग्नमेहो तो वहु वाद-विवाद करने वला, 
लम्पट (आवारा), आपसे फूट डालने वाला, सेवा कायं में कुशल, दुष्ट मित्रो से 
युक्त, छल-प्रपञ्च करने वाला पुरुष होता है । २६ ॥ 
धनगृहगे सहजेशे भिक्षुविधनोऽल्प जीवनो मनुजः । 
बन्धुविरोधी सरे सौम्यः पुनरीश्वरः खचरे ॥ २७ ॥ 
करर ब्रह तृतीये होकर यदि धन भावमेंहो तौ मनुष्य भिक्षुक नसे रहित, 
अल्पायु, भादयों से विरोध करने वालाहोता है, यदि शुभग्रहहो तो धनवान्‌ 
होता है ॥ २७ ॥ 
सहजगते सहजपतिः समत्वं सुसुहदं शुमस्वजनम्‌ । 
देवगुरुपुजनरतं नुपलामपरं नर कुरते ।॥ २८॥ 
तृतीय भावका स्वामी यदि तृतीय भावमेंही गया हो तो मनुष्य अपने घमान 
बलल्ाली एवं अच्छे मित्रो से युक्त, हितैषी आत्मीय (मारई-बन्धु) जनों से सम्पन्न, 
देवता-शुरं के पूजनम लीन तथा राजा का लाभ कराने वाला होता है।॥ २८ ॥ 
भ्ातृपतौ भातृगते पितृकधुसहोदरेषु सुलभोनी । 
मात्रा सह रकरः पिषुविंसिस्य भाः पुरषः ॥। २९ ॥ 
तृतीय नवेश यदि चतुर्थं मावमे भयाहो तो वह पुरूष पिता-बन्धुं ( चचेरे 
माई ), सहोदर ( सगे भाई बहनों ) के बीच सुख भोग करता है । परन्ु माता के 
सा वेर करने वाला एवं पिताके जनका उपभोग करने वाला होता है ॥ २९॥ 


"मनोरमा" हिम्दीष्याश्यीपेता १५१ 





दु्िक्यपतौ भुनषे शुतबान्थवसुतखहोदरंः पाल्यः। 
दीर्घवु्भंवति नरः परोपकारोकनिरतमतिश्ज ५ ३० ॥ 
तृतीयेश यदि पञ्चम मावमें ययाहो तो उस व्यक्ति का पालन उसके पुत्र, 
भतीजे एवं माई करते है तथा वह दीर्घायु एवं परोप्रकारी विचारों वाला होता 
है । ३०॥ 
घष्ठगते सहजपतौ बन्धूविरोधो नयनरोगी च । 
भूलामो भवति मृश्च कदाचिदपि रोगस द्धुलितः ॥ ३१॥ 
तृतीये यदि षष्ठ भावमें गयाहो तौ व्यक्ति भाहयों का विरोधी, नेत्र 
रोमी, अधिक मात्रामें मूमिप्राप्त करने वाला तथा कमी-कभी रोगो से ग्रस्त भी 
होता है।। ३१॥ 
सप्तमगे सहजेशे नरस्य भार्या भवेत्सुशीला च । 
सौभाग्यवती युवति करे दैवरगृहं याति॥ ३२॥ 
सप्तम भावमें यदि तृतीयेश टो तो उस पुरुष की स्त्री सुक्षील, भौर सौमाग्य- 
वती होती है । यदि तृतीये पापग्रह हो तो उसकी स्त्री देवर ( पति के छोटे माई 
के घर (पास) जाती है ( अर्थात्‌ देवरसे प्रेम करतीटै)।। ३२॥ 
श्रातृपतिरष्टमगः सहजं मृतसोदरं नरं कुरते । 
करे बाहुव्यङ्कखिनिमपि जीवति यदष्ट॒वर्षाणि ॥ ३३ ॥ 
भ्नात्‌ स्थान ( तृतीय माव ) कास्वामी यदि अष्टम मावमे मयाहो तो उसके 
सहोदर भाई-की मृत्यु होती है । यदि तृतीये पापब्रह हो तो बाहू रीगसे पीडित 
होता है । यदि रोगसे जीवित रहा तो आठ वर्षं की मायु होती दहै । ३३॥ 
धर्मगते सहजपतौ क्रे बन्धज्नक्षितस्तथा सौम्ये । 
खद्बान्धवश्च सुकृती सोदरभक्तो भवेन्मनुजः ॥ ३४ ॥ 
तृतीय भावकास्वामौ यदि क्रूरग्रह हो भौर नवम भावमेंस्थितहो तौ 
मनुष्य भाष्यं इरा परित्यक्त होता ह । यदि शुमन्रह (तृतीयेश) हो तो अच्छे भाई 
बन्धुओों से शुक्त सत्कार्यं करने वाला तथा अपने समे माद्यो का मक्त होता है ।३४॥ 


दुश्जिक्ये्े दशमगते नृपपूज्यो मातृबन्धुपितुमक्तः । 
उस्तमाधो बन्धुषु विनिश्चितो जायते जतः ॥ ३५॥ 


तुतीयेश यदि ददाम भावमे णया हो तो जातक राजा हारा सम्मानित, माता- 
भारं एवं पिता का मक्त, उत्तम ज्ञानी, भाश्यो के प्रति दृह व्यवहार (प्रेम ) रश्ने 
वाला होता है। ३५॥ 


१५६ मानखलाभरी 





लार्भस्थः सहजदाः सुवान्धवं राजदालिनं कर्ते । 
कुरुते बन्धुपु सेवाविधायिनं भोगनिरतं च ॥ ३६॥ 


सहजे यदि लाभस्थान ( गयारहरवे भाव) मेहो तो जातक अच्छे भादयोंसे 
युक्त, राजा का आश्चय पने बाला, भा्यों के प्रति सेवा भाव रखनेवाला तथा 
ओग एेश्वयं सुख ) मे लीन रहता है ॥ २३६ ॥ 
व्ययगे दुश्चिक्ये मित्रविरोधी च बन्धुसन्तापी । 
दूरे वासितबन्धुविदेशगामौ नरो भवेज्जातः ॥ ३७ ॥ 
व्यय ( हादक्ष ) भावमें यदि तृतीय स्थान का स्वामी गया हो सो मनुष्यमिश्रो 
का विरोधी, वन्धुओं को कष्ट देने वाला, बन्धुओं को दूर बसाने वाला तथा स्वयं 
विदेश श्रमण करने वाला होता है ।॥ ३७ ॥ 


दादश भावगत चतुर्येश का फल 
तुर्य॑पतिर्लग्नगतः पितृपुत्रयोः स्नेहं मिथः कुरुते । 
उत्तमे पितृपक्षे वैरी कलितं ॥पतृनाम्ना प्रसिद्धः च ॥ २३८ ॥ 
चतुर्थं माव कास्वामी यदिलमनमें गयाहो तो पिता-पुत्र का परस्पर स्नह्‌ 


अदता है । उच्च कूल से पिता पक्ष(चाचा, मतीजा आदि) से वैरमाव रखने वाला 
तथा पिताकेनामसे प्रसिद्धि प्राप्त करने वाला होता है ।। ३८ ॥। 


पाताले घनस्वे करूरखगे पितृविरोधङृच्छुभे जातः । 
पितृपालकः भ्रसिद्धः पिता शुनक्तीह तल्लक्षमीम्‌ । ३६ ॥ 
चतुर्येदा रर ग्रहहो भौर धन माव (द्विनीय)मे्बेठाहो तौ जातकं पिता का 
विरोधी होताहै यदिशुमब्रहहोतो पिताका पालन करने वाला, विश्यात पुरुष 
होता है तथा उसकी लक्ष्मी ( सम्पत्ति) का उपमोग उसका पिता मी 


करता है । ३९ ॥ 

तुर्येशे सहजस्य पितुमातुवेदनाकरं कुरते 

पित्रा सह कलहकरं पितृबान्धवचघातकं नियतम्‌ ।॥ ४० ॥ 

चतुर्येशा यदि तृतीय मवमेंहोतो वह गिता एवं माताके लिए कष्ट कर 

होता है। पिताके साथ कलह करने वाला तथा सदैव पिता एवं भ्यो के लिए 
जातक होता हि ४०॥। 

तुर्यगते तुर्यंपतौ पितरि कितिपाततप्रचुरमानः । 

विदितः पितृलाभकरो भवति सुधर्मा सुखी धनपः ।। ४१॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योषेता १५७ 





यदि चहुर्थेश हुव मावमेंही स्वितहोतौ राजाहवारा पिता का सम्मान 
क॑राता ह बथा जातक स्वयं प्रसिद्ध, पिता को लाभान्वित करने वाला, मली मति 


धमचिरण करने बाला, सुली एवं धनपति होता है ।। ४१॥ 
सुतगे वुर्यगृहेशे पितुसंलामवांश्व दीर्घायुः । 
भवति कृतिप्रसिद्धः ससुतः सुतपालकश्चंव ।। ४२ ॥ 
चतुर्थे यदि पञ्चम मावमेगयाहो तो जातक अपने पितासे लाभ प्राप्ते 
करने वाला, दीर्धायु, अपने कायो दवारा, प्रसिद्ध, पुत्रवान्‌ तथा पुत्रका पालन 
करने वाला होता है ।। ४२॥ 
हिबुकपतौ रिपुसंस्थे मात्रथंविनाशकः शिदयुर्जातः । 
पितृदोषरतः क्रूरे सौम्ये धनक्षश्चयो तनयः ॥ ४३॥ 


चतुर्थं माव क। स्वामी यदि षष्ठ मावमेंगयाहोतथाक्रग्रहहोतो रेते 
योग मे उत्पन्न बालक अपनी माताके धनको नष्टकरने वाला, पिताके दोषों 
का अन्वेषण करने वाला होता है । यदि शुमप्रहहोतो जातक षनकासंग्रहु करने 
वाला होता दहै ।॥ ४३॥ 


अम्बुपतौ सप्तमगे ङ्गूरे श्वर स्नुषा न पालयति । 
धौम्ये पालयति पुनः कुलवतों कुजक्वो कुरुतः ॥ ४४ ॥ 
चतुथं भाव कास्वामीक्रर ग्रह सप्तम मावमेंगयाहोतो उस व्यक्ति की 
पत्नो अपने श्वसुर का पालन (सेवा ) नहीं करती है यदि शुम प्रहहोतो श्वसुर 
कीसेवा करती है । चलुर्थशा यदि मंगल या शुक्र हो तो पत्नी कुलीन (श्रेष्ट) महिला 
होती है ।। ४४।। 
चद्रगतस्तुयंपतिः क्रं रोगान्वितं ददिः वा। 
दुष्कमंकरं मृत्युप्रियमथवा मानवं कुरते ॥ ४५॥ 
पापग्रह चतु्ेश होकर भष्टम म।वमेगयाहोतो जातक रोगी, दरिद्र, 
ककम करनेवाला, तथा (जीवनसे ऊब कर) मृत्यु की अभिलाषा करने वाला 
होता है । ४५॥। 
सुकृते तु्यंपतौ पितर्यसङ्खो समस्तविद्यावान्‌ । 
पितुधमंसग्रहपरः पितृनिरपेक्षो भवेन्मनुजः ।॥ ४६॥ 
चतुथं मावका स्वामी यदि नवम मावमेंहोतो जातक अपने पिता का 
विरोधी, समस्त विद्याओं काञ्ञाता, पिताके धर्माचरण का अनुगमन करने बाला 
परन्तु पिता तै किसी प्रकार की अपेक्षा न रखने वाला होता है । [अर्बात्‌ पिताके 
गुणों का आदर करते हये मौ पितासे पृथक्‌ रहताहै।]॥ ४६॥ 


१४८ माचक्षामरी 


पतालपेऽप्बरगते पापे सुतमातरं त्यजेञ्जनकः । 
सृजते स्वन्यां दयितां सौम्ये पुमरन्यसेवकः पर्वः ॥ ४७ ॥ 


पापग्रह चतुथा होकर दशम माबमे गयाहोतौो जातक का पिता अपनी 
वह्नी (जातक की माता) का परित्वा कर अभ्वस्क्रीके साथ सम्बन्ध करता है। 
यदि तुश शुभग्रह हो तो अन्यस्त्रीका जी सेबने करतादहै। ( अपनी पल्नीका 
परित्याग नहीं करता । ) ।। ४७ ॥ 
एकादश तुयंपतौ धर्मो पितृपालकः सुकर्मा च । 
पितुभक्तो भवति पुनः प्रचुरायुरग्याषि श्ितश्वं ।। ४८ ॥ 
चतु्येदा एकादष् मावमेंगयाहोतो धामिक आचरण करने वाला, पिताकी 
आज्ञाका पालक, अच्छा कर्मं करने वाला, पिताका मक्त, दीर्घायु तथा रोगसे 
रहित होता है॥ ४८ ॥ 
दादषषगे तुर्यंपतौ भृतपितृको वा विदेष्शगो वाच्यः । 
पुत्रस्य पापलखेटे बान्यपितु्जन्भ निर्देश्यम्‌ ॥ ४९॥ 


चतुथं माव का स्वामी (शुभग्रह हो तथा) बारह मवमे गयातो जातक के 
पिताकी शीघ्र मरत्यु होकी दै अथबा वह विदेश में निवास करता है। यदि चतुर्थे 
वापन्रह हो तो अन्य पिता (परव्यक्ति) से उत्पन्न होता है ।। ४६॥ 


पथ्वमेश का दादश मावगत एल 


लग्नगत पष्चमयपे प्रसिदस्तोकतनयपरिकलितम्‌ । 
वास्वविदं वेदविदं सुकर्मनिरतं तथा कुरते ॥ ५० ॥ 
पञ्चम भाव का स्वामी अदि स्न (प्रथम माव) मे गथाहो बो जातक प्रसिद्ध, 
अल्य सन्तान से डुशोभित, शास्त्र की भागने बाला, वेदश्च, तणा सत्कम मे लीन 
रहने गाला होता है ।॥ ५० ॥ 
पव्मपति॑नस्यः श्भूरे खेटे धनोज्कितं कुरते । 
गीतादिकलाकलितं कष्टमजं स्थानकप्रचुरम्‌ ।। ५१ ॥ 
पड्म भाव का स्वामी यदि कूरप्रहहो तथा दितीय भावम स्वितहोतो 
आानब्नक धन से रहित, संगीत आदि कलाओं का ञाता, प्रचुर स्थान ( अधिक भूमि 
अथवा मकान ) से युक्त तथा कष्ट ते भोजन (निर्वाह) करने वाला होता है ॥५१॥ 


तनयषतिः सहमत सुमधुदवाक्यं बन्धुजनेषु विदितम्‌ । 
कुश्ते सुतास्तदीयाः परिपालयन्ति = वद्कण्ुनु ।। १२ ॥ 





मनोरमा" हिन्दीय्याश्योपेता १५९ 





पञ्चम्‌ भाव कास्वामी तृतीय भावमे गयाहो तो जातक मघुरभाषी, अपने 
बन्धुवर्गं मे सर्वाधिक यशस्वी होता है । उसके पृत्र उसके भाई बन्धुओं का पालन 
करने वाले होते ह ।। ५२॥ 
सुतपः पातालगतः पितृकर्मरतं प्रपालितं पित्रा । 
अननीभक्तं कुर्ते कृ.रंस्तु विरोधिनं पितृभिः ।। ५३ ॥ 
पञ्चमेदा यदि चतुर्थं भावमें गयाहोतो जातक पताके कायंको करने 
चाला, पिता द्वारा शलित तथा माता का भक्त होता दहै । यदि पञ्चमे क्र रग्रह 
हो तो वहे पिता के साथ विरोधी भाव रद्तादहै। ५३॥ 


तनयगतस्तनयपतिमंतिमन्तं मानितं जनं कुर्ते । 
सुतकलितं प्रकटजनविस्यातं मानवं कृरूते ।। ५४ ॥ 
पञ्चमेदा यदि पञ्चम भावम गयाहो तो जातक अल्यन्न बुद्धिमान, सम्मानित, 
योग्य पूत्रो ते युक्त तथा सम्मानित लोगों के बीच प्रख्यात होता है ॥ ५४ ॥ 
प्चमपतिश्च षष्ठे दात्रुयुतं मानहीनं च । 
रोगयुतं षनरदितं क्र रः कजदः करोति नरम्‌ । ५५॥। 
यदि पट्वम कास्वामी कऋरब्रहहो तथा षष्ठ मावमें स्थित हो तो बह पुरुष 


सदव रात्रुओं से युक्त, सम्मान से रहित ( निन्दित ), रोगी, तथा नि्धैन होता 
डे ॥। ५५॥ 


तनयपतौ सप्तमगे स्वसुता: सुभगग् देवगुरुमक्ताः । 
प्रियवादिनी सुशीला नरस्य ननु जायते दयिता ॥ ५६॥ 
पञ्जमेश यदि सप्तम ध्ावमे गयाहो तो उस ब्यक्तिके सभी पृत्र सुन्दर, 


देवता एवं गुर के भक्त होति हँ तथा उसको पत्नी, सुशीला एवं प्रियवादिनी (मधुर 
भाषिणी) होती है ॥ ५६॥ | 


सुतपे निधनगृहस्थे कटूवाक्यो भार्याया्युतो भवति । 
सभ्यङ्गवण्डदाब्दाः षहुजांस्तनया भवन्ति यथा ॥ ५७ ॥ 
पथ्बमेश यदि अष्टम मावमे गयाहौतो जातक पतीस रहितो जातादहै 
( भर्ति शीघ्र पत्नी की मृत्यु हो जाती है ) । तथा उसके भाई एवं पुत्र व्यङ्ख ओर 
व्वन बोलने वाले होते है ॥। ९७ ॥ 
सुङृतगतस्वनयपतिः सुबोधविच्चं कवि पुगीतिज्ञम्‌ । 
नृपपूजितं सुरूपं नाटकरसिकं नरं करते ॥ ५०८ ॥ 
सन्तान ( पंचम ) भाव कास्वामी नवम भावये पया हो तो मनुष्य श्युर्प्च 


१६० जानसाभरी 





( सरलता सै सभी वि्चागों को समश्षने वाला), कवि, संगीत का ज्ञाता, राजा 
दवारा सम्मानित, सुन्दर तथा नाटक में रुचि रखने बाला होता है ॥ ५८ ॥ 


सुतपतिरम्बरलीनो नृपकर्माणं नृपात्‌ कलितभावम्‌ । 
सत्कर्मरतं प्रवरं जननीयुखङ्त्सुतं कुर्ते ॥। ५९ ॥ 
पड्चमेदा यदि दशम भावमेहोतो राजय कायं करने वाला, राजासे 


सम्मान प्राप्त ( उच्चपदाधिकारी ), सत्कायं मे लीन, शरेष्ठ, माता को सुख पहुचाने 
बाला ( सुत ) व्यक्ति होता टै ॥ ५६९॥ 


लाभगते सूतनाये शरः सुतवान्‌ सुह्कृतासङ्गः । 
गीतादिकलाकलितो नृपभोगी जायते जातः ॥ ६० ॥ 
लाभ (एकादश ) भाव मे यदि पञ्चमे गया होतो जातक शूर ( बहादुर), 


पुत्रवान्‌, मित्रो का साथदेने वाला, गीत आदि ( संगीत ) कलाओं का ज्ञाता, 
राजसुख भोग करने वाला होता है ॥ ६० ॥ 


पश्चमे हादशगे ज्ररे सुतरहितः शुभे ससुतः । 
सुतसन्तापपरः स्याद्विदेशगामी भवेन्मनुजः ॥ ६१ ॥ 
पञ्चम माव कास्वामी द्वदश भावमे गयाहोतथा क्रःश्रहहो तो मनुष्य 


सन्तान हीन होता है । यदि शुभ ग्रह हो तो पुत्रवान्‌, सन्तान से सन्तप्त ( दुःखी) 
तथा विदेह भ्रमण करने वाला होता है। ६१॥ 


दादशभावगत्‌ षष्टेश ङा फल 
षष्ठेशो लग्नगतो नोरक्सबलः कुटुम्बकष्टकरः 
वटुपक्षो रिपुहन्ता भवति नरः स्वं रवचनधनः ॥ ६२ ॥ 
ष्ठ भाव कास्वामी यदि लमनमेंगयादहो तो जात्तक निरोग, बलवान्‌, 
परिवार को कष्ट देने वाला, गट बन्दी करने वाला, शत्रुं का दमन करने वाला, 
स्वतस्त्र तथा अपने वचन का धनी (बार्तो पर दृढ रहने बाला ) होता है ॥ ६२॥ 
शतरुपतौ द्रविणस्थे दुष्टञ्चतुरो हि संग्रहपरेष्टः । 
स्थानप्रवरो विदितो व्याधिततनुः सुहृदढनहा ॥ ६३ ॥ 
कत्र ( षष्ठ ) भाव का स्वामी यदि धन ( द्वितीय) मावमें गयाहोतोबह 


दुष्ट, चतुर, ( घन ) सग्रह करनेमें तत्पर, श्रेष्ठ स्थान का स्वामी, विख्यात, 
रोगी शरीर वाला तथा मित्र केधनकोनष्ट करने वाला होता है॥ ६३॥ 


वषपति। कुर्ते तं लोककष्टकरम्‌ । 
निजजनमारणश्रतुरं कष्टं संप्रामतस्वस्य ॥ ६४ ॥ 


"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योपेता १६१ 





धष्ठेरा जिसके तृतीय माव मेहो वह समाजके लिए कष्ट कर होता है । अपके 
ही भ्यक्तिर्यो को मारने वालासंग्रामसे कष्ट पाने वाला होता है ॥ ६४॥ 
धष्ठाधिपतिस्वरये पितृतनयौ वेरिणो मिथः कुर्ते । 
सरक्‌ पिता सोऽथ भुतो लक्ष्मीं लमते नरः सुचिरम्‌ ॥ ६५॥ 
वष्ठेश यदि चतुर्थं भावमेंहो तौ पिता भौर पुत्रमे पारस्परिक शत्रुता होती 
है। पिता रोगी होता ह स्वयं वह तथा उसके लड़के अधिक समय तक लक्ष्मी 
( पवय ) लाभ करते ह ॥ ६५॥। 
रिपुभवनपतौ सुतगे पितुननयौ वैरिणौ मृतिः भुततः । 
करे शुभे च विधन: पदवौदृष्टश्च तत्कपटी ॥ ६६ ॥ 
शत्रु माव का स्वामी क्रूरग्रह यदि पञ्चम भावम ग्याटोतो पिता मौर पुष 
मे शत्रुता होती है तथा पुत्र हारा पिताकीमृत्युमीहोतोहै। यदि शुमग्रहहो 
तोषनसे रहित, दुष्ट के रूप में विख्यात ( दृष्टपदवी प्राप्त ), तथा कपटी होता 
है ।। ६६ ॥। 
रिपुभवनेशरिपुस्थे नीरूग्वंरी सुखौ कृपणः । 
न हि जन्मतोऽपि सीदति कृस्थानवाक्नो नरो भवति ।॥ ६७ ॥ 
षष्ठेश यदि षष्ठ भावमंहो तौ मनुष्य निरोग, रात्रुभं से युक्तः सुखी, कृपण 
( कंजूस ), जीवनम कमी दुख न प्राप्त करने वाला तथा कुत्सित ( बुरे ) स्थान 
मे रहने वाला होता है ॥ ६७ ॥ 
बहितिपतौ सप्तमगे क्ररे भार्या विरोधिनी चण्डौ। 
तापकरो त्वथ सौम्ये वन्ध्या वा गर्भ॑नाशपरा ॥ ६८॥ 
षष्टेश यदि सप्तम मावमें गयाहौो तथाक्रगप्रहदौ तो उसकी पल्नी 
विरोधी प्रकृति वाली, स्वभाव से अत्यन्त उग्र, कष्टदेने वाली होती है यदि शुमग्रह 
हयं तो वन्ध्या ( सन्तानहीन ) या भृतवत्सा ( जिसके गर्मनष्टहो जतेहोंया 
बरुवा जन्म लेक मर जाताहो) होती है ।। ६८॥ 
शनेग्रुहणिकाश्जो विषधराद्धरानन्दनाद्‌ 
बुधाच्च विषदोषतः सपदि पृत्युगणाद्धुतः । 
रवेमृ गपतेवं घाल्रकंटमष्टमे षष्ठपाद्‌- 
गुरोरपि च दुष्टघीने पनदोषवाञ्छुक्तः ॥ ६६ ॥ 
शनि षष्ठेश्च होकर अष्टम भावम ग्याहोतोसग्रहणी लेगसे, मगलहोतो 
विषधर ( सपं, शष्ू आदि) से, बुषहोतो विषप्रयोगसे, चन्द्रमाहो तौ शीघ्र 





१. भष्टमात्‌ इति पूवं पाठः 
११मा० सा 


१६२ मानसागरी 


ही ( आकस्मिक, इदययति स्क्ने से ), शूरय हो तो सिह (चेर, चीता भावि) से, 
भुरुहोतो दुष्ट बुद्धि बले (गु्डा, शक्‌ जादि) ष्यक्तिसे आजतक की भृल्वु होती 
है । यदि षष्टेश शुक्र श्ष्टयमे होतोनेत्रोषे रोगी होतताहै।॥ ६€॥ 
शत्रपतिर्यदि नवमः क्र.रः अजरस्तदा भवेत्‌ चस्जः। ` 
बन्धुविरोधी दास्तरं न मन्यते याचकः पुरषः ।। ७० ॥ 
वष्ठेश यदि नवम भावमेग्या होतया करर प्रहहो तो वह्‌ व्यक्ति लंगा, 
जायो का विरोधी, शास्त्र न मानने वाला, तथा भिक्षा वृत्ति वाला होता है ॥७०॥ 
अरिपे दलमगुहस्ये क्र रे मातु रिपुस्तदा दुष्टः । 
धर्मसुतपालनमतिर्मातुरदोषी भवेद्रंरी ।॥ ७१ ॥ 
बष्ठेता यदि दरम भावमेंहो तथाजक्ररग्रहहो तो जातक अपनी माताका 
शत्रु, दुष्ट, अपने धर्म भौर पृत्र के पालनमें अनुरक्त माता के दोष के कारण सदेव 
उसका शत्रु बना रहता है ।। ७१ ॥ 
वरिपतौ लाभगते ज्गरे मरणं विपक्षतो भवति । 
वैरी तस्करहानिश्वतुष्पदाल्लाभवान्मनुजः ॥ ७२ ॥ 
शत्रु स्थान का स्वामी लाभस्थानमे स्थितहो तथाक्रूर ब्रहहो तौ शत्रु पक्ष 
दारा मृत्यु होटीदहै। उसके शत्रु अधिक होतेह, चोरोंसे हानि तथा पशुसम 
लाभ होता है।। ७२॥ 
वष्ठपतौ द्वादशगे चतुष्पदानुं द्रष्यहानिकरः । 
गमनागमनाल्लक्ष्मीहा देवपरः केवलं भवति ।। ७३ ॥ 
 वष्ठेडा यदि बारहर्वे भावमे गयाहो तौ जातक पशुओंके हारा घन-हानि 
करने वाला, यात्रा मे अदभ्यय करने वाला, तथा भाग्यवादी होता है ।। ७२ ॥ 


दादश भावगत सप्तमेश इ! एल 


दयितेशलो लम्नगतः स्तोकस्नेहिनमन्यभार्यायाम्‌ । 
भोगमुजं रूपयुतं जनयति दयितादलितचित्तम्‌ ।। ७४ ॥ 
खप्तमेहा यदि लग्नमे गया हौ तो जातक परस्त्रौ से अल्प स्नेह करने वाला, 
हेश्व्यं का मोग करने वाला, सुन्दर, तथा अपनी स्त्री मे अत्यधिक आसक्त 
होता है ।॥ ७४॥। 
जायायतौ धनस्वे दुय दयिता सृतेष्ठिता भवति । 
वित्तं च कलत्रकतं सततं वसतो विसङ्जश्च ॥ ७५॥ 
इच्तमेश्च अदि द्वितीय भावम होतो उस भ्यक्ति की स्त्री स्वभावे दुष्ट शवं 
दुवो की मनजिलाया स्ने बाली होती है । उतेस्तरीते भनलाभ होता है तथा साथ 





मनोरमा हिन्दीम्याश्योपेता > १६३ 


मे रहते हये भी एक दुसरे मे हूर रहते है । ( भागां यह है कि पत्नी को नौकरी 
के कारण अलग भी रहना पडता है) ॥ ७५॥ 
तत्तमने सहजगे हयात्मबशो अन्धुवत्वली दुःखी । 
देवररता सुख्या गृहिणी ङ्धूरे सृहृद्गृहगा ॥ ७६ ॥ 
सप्तमे यदि तृतीय भावमेहो तो वह व्यक्तिं आत्म-बल युक्त, बन्धुर्मोसे 
स्नेह करने वाला तथा दुःखी होता है । यदि सप्तमेश पाप ग्रहहो तौ उसकी पत्नी 


अपने देवर ( पति क छोटे भाई ) में मासक्त, सून्द रस्वरूपवाली, तथा मिर्वो के गृह 
मे अधिक जाने वाली हौती है ।। ७६ ॥ 


जयेशे दूर्यस्थे लोलः पितृर्व॑रसाधकस्नेही । 
शस्य पिता दुर्वाक्यस्तद्धार्यां पालयेज्जनकः ।। ७७ ॥ 


सप्तमेश यदि चतुथं भावमेंहोतो वहु व्यक्ति चञ्चल एवं पिता के तरुम से 
स्नेह रखने वाला होताहै। उसका पिता मी कटु वचन बोलने वाला होता है 
तथा उसकी पत्नी का पालन उसके पिताके धर (मायके) मं होता है। ७७॥ 
सप्तमपतौ सुतस्थे सौभाग्ययुतः सुतान्वितः पुरषः । 
प्रियसाहसो दृष्टमतिस्तत्तनयः पालयेट्यिताम्‌ ।। ७८ ॥ 
सप्तमेश यदि पञ्चम भावमे हो वह पुरुष सौभाग्यशाली, पूत्रो से युक्त" साहस 
त्रिय ( अधिक साहसी ) एवं दृष्ट विचारों वाला होता है । तथा उसकी पत्नी का 
पालन उसके पुत्र करते है ।। ७८॥ 


रिपुगृहगः काष्तेशः प्रियया सह वरिण सरूगभार्यम्‌ । 
दयित्तासङ्गक्षयिणं क्रः कृरतं च मृत्युपदम्‌ । ७६ ॥ 
शत्र स्थानमें गया हभ सप्तमेश स्त्री के साथक्षत्रूता कराने वाला, तथास्त्री 
रोगिणी करनेवाला होताहै। यदि सप्तमेशक्ररग्रहहोतो जातक स्त्री संसग 
से क्षीण ( मथवा क्षय रोग ग्रस्त ) होकर मर जाता दहै ।। ७६॥ 


सप्तमपः सप्तमगः परमायुः प्रीतिवत्सलः पुरषः । 
नि्मलक्षीलसमेत्तस्तेजस्वौ जायते जातः ।। ८० ॥ 
सप्तमे यदि सप्तम भावमेहोतो जातक दीर्घायु युक्त, प्रेमी ( मधुर सम्बन्ध 
रखने वाला, ), सदाजारी, सुशील तथा तेजस्वी होता है ॥ ८० ॥ 
सप्तमपतिनिधनगतो गणिकासु रतः करब्रहरहितः । 
नित्यं चिन्तायुक्तो मतुजः किल जायते दुःखी ८१॥ 
सप्ठजेश यदि अष्टम मावमेहोतो जातक बेदभाभों मे अनुरक्त, अविवाहित 
सदैवं चिन्ता बुक्त तथा दुली होता है ॥ <१॥ 


१६४ मानसागरी 


सुक्तगते सप्तमपे तेजोवाञ्छीलवीन्‌ प्रियाऽप्येवस्‌ । 
क्रे षण्डविरूपां लग्नेशो वीक्षिते नये प्रबलः ॥ ८२॥ 
नवम भाव मे यदि सप्तमेदा गया हो तो व्यक्ति तेजस्वी, शील सम्पन्न तथा इसी 
प्रकार की ( ुकश्ीला) स्त्रीति युक्त होताहै। यदि सप्तमेशक्रुरब्रह होतौ वह 
करूप एवं नपुंसक होता है । यदि लग्नेश से सप्तमे दृष्ट हो तो वह्‌ व्यक्ति राज 
नौति मे कुशल होता है ॥ ८२॥ 
सप्तमपे दशमस्य नुपदोषी लम्पटः कपटविल्तः । 
ररे दुःखात्तंः स्याच्छत्रोवंशगो भवेत्पुरषः ॥ ८३ ॥ 
सप्तमेश यदि दशम भावमें गयाहोतौ वह पुरुष राजाकी दृष्टिमे दोषी 
लम्पष्ट ( लफंगा ), कपटी हृदय वाला होता है। यदि सप्तमेशषक्ररमप्रहहोतौ 
दुःख से पीडित, तथा शत्रुओं के वशीमूत होता है| ८३॥ 
लाभस्थं जायेशे भक्ता रूपान्विता सुष्ोला च । 
दयिता परिणीता स्यान्नरस्य ननु जायते सततम्‌ ।। ८४ ।। 
सप्तभमेहा यदि लाभ ( एकादश) भावमंगयाहोतो उस व्यक्ति की विवाहिता 
पत्नी रूपवती, सुशीला, तथा मक्त ( पतिव्रता से अर्मिप्रायहै) होती है ॥ ८४॥। 
सप्तमपे द्वादशगे गृहबन्धुग्तो न वा भवेद्भार्या । 
सा लोला दृष्टयुता दू गच्चलति च तस्य पुरुषस्य ।। ८५ ॥ 
सप्तमेश यदि द्वादश मभावमं स्थितहो तो वह्‌ व्यक्ति अपने गृह एवं बन्धु 
( परिवार } के कायां में तल्लीन रहता है । परन्तु उसकी कम आयु वाली नयी 
पत्नी ( अधिक अवस्थाहम जने पर नवीन छोटी आयु वाली कन्यासे विवाह 
होता है । ) चञ्चला, दुष्टा तथा पतिते दूर-दूर रहने वाली होती है ।। ८५॥ 


दादश भावगत अष्टमेश फल 
ष्टमपे लग्नगते बहुविघ्नो दीघंशंगभृत्स्तेनः । 
नेष्टानुवादनिरतो लक्ष्मीं लमते नृपतिव चसा ।। ८६ ॥ 
अष्टम माव का स्वामी यदिलग्नमे गया हो तौ जातक बहुत विष्नों से युक्त, 
दीधेकाल से रोगी" चोर, अप्रिय कार्यो में संलग्न, तथा राजा के आदेश से धनप्राप्त 
करने वाला होता है।, ८६।। 


निधनपतौ धनलोनेऽत्पजीवी वरिमान्नर्ौरः । 
क्रूरे सौम्येऽतिशुमं किमु क्ित्तिपालता भरणम्‌ ॥ ८७ ॥ 
यदि क्रूर, ग्रह अष्टमेश होकर द्वितीय मावमे स्थितहोतो वहु व्यक्ति, 
अल्पायु, शत्रु से युक्त तथा वोर होता है। यदि शुमग्रह हो तो अत्यन्त शुमकारक 
होता है परन्तु राजा क द्वारा मृत्यु ( मृ्यु दण्डते ) होती है ॥ ८७ ॥ 





"मनोरमा" हिम्दीग्यास्योपेता १६५ 


बष्टमपतौ हृतीये बन्धुविरोधी पुहुद्विरोधी च । 
ध्यङ्खो दुर्वाग्लोलः सोदररहितो भवत्यथ वा ॥ ८८ ॥ 
जष्टममाव का स्वामी तृतीय भावम हो तो अपने बन्धुगों एवं मित्रोंसे 
विरोषं करने वाला, अपङ्ग, कटुमाषी, चञ्चल तथा सहोदर मार्ईसे रहित 
होता 8 ।। ८८ ॥ 


निधनेशे बुरयंगते पितृगते पितृतो नयेल्लक्ष्मीम्‌ । 
पितृपुत्रयोश्च युद्ध जनको रोगान्वतो मवति ॥ ८९ ॥ 
अष्टमेशा यदि चतुर्थं मावमेहोतौ पिताके मरनेके वाद पैतृक धन का लाम 
होता है । ( पाठान्तर "पितु रिषुश्च' के अनुसार जातक पिताका विरोधी होता 
है ।) पिता ओर पुत्र का युद्ध टोता है तथा उसका पिता रोग युक्त होता है ।८६॥ 
चिद्रपतौ तनयस्थे > सुतविरहितः धुभे तु शुमः। 
जातोऽपि नेव जीवति जीवेदथ कितवकममंरतः।। ६० ॥ 
अष्टमेक्ष यदि पञ्चम भावम स्थितहो तथा क्ररग्रहहो तो जातक सन्तान 
हीन होतादहै। यदिशुमभम्रहौीतोशुमक्रारक् होता है । यदिकिसी प्रकार सन्तान 
ही तो नष्टहो जाय ॥ ६० ॥ 
छिद्रे रिपुसङ्खते दिनकरे भूभृद्विरोधी गुरौ 
त्वङ्गं सीदति दृष्टिरोगकलितः शुक्र स रोगो विधौ । 
भौमे कोपयुतो बुधे हि भयभृत्तुष्डातिभूतः शनौ 
कष्टं वं विदधाति तत्र दारिमृत्सौम्येक्षितेनव किम्‌ ।। ६१ ॥ 
अष्टम भाव कास्वामीसूर्यहो ओर वहु षष्ठमभावमे गयाहोतो जातक 
राजाका विरोधी,यागुरुटौतौो उद्खोमे पीडा, शुक्रहो तोनेत्रों में कष्ट, 
चनद्रमाहोतो रोगी, मंगलहोतो क्रोधी, बुध हो तो मयमीत (आतद्धित), शनि 
होतो मुखम रोगहोतादहै। यदि षष्ठ में ( अष्टमेश ) चन्द्रमा हो भौर उसे बुष 
देश रहा हो तो विविश्वप्रकारसे कष्टदायक होताहै। ६१॥ 
भृत्युपतौ सप्तमगे दुरुदरर्क्‌ शोलवल्लमो दुष्टः । 
क्रूरे भायद्िषी कलत्रदोषान्मृति लमते ।। ९२ ॥। 
अष्टमे यदि सप्तम मावमें होतो पेटमे बुरा रोग ( कसर आदि) होता 
ह, सुशीला स्त्री का पति तथादुष्टहोताहै। यदिक्रुर्रह अष्टमेशषहोतो वह्‌ 
स््रीपेद्रेष करनेवाला तथास्त्रीके दोषे मम्युप्राप्त करने वाला होता है ॥€॥ 
निधनपतौ निधनगतं ध्यवसायी व्याधिंवजितो नोरक्‌ । 
कितवकलाकलितवपुः कितवकृले जायते विदित! ॥ ६३ ॥ 


१६६ मानसाभरी 





यदि अष्टमे अष्टम भावम स्वितहोतो जातक व्यापारी, ष्याभियो से 
रहित, नीरोग, वृत्ततः मे निपुण धू ( ठम ) के कुल में उल्पन्नं तथा विख्यात 
होता है ।॥ ९३ ॥ 
धर्मस्थे मृतिनाये निःसज्जी जीवविघातकः पापी । 
निर्बन्धुनिःस्नेही पूज्यो विमुखे मुखे व्यङ्गः ॥ ९४॥ 
अष्टम भाव कास्वामी यदि धमे ( नवम ) भावमें स्थितो तो वहु व्यक्ति 
मित्रों से रहित, जीवों की हस्या करने वाला ( क्िकारी ), पापी, अन्म से रहित 
स्नेह्ठीन (निर्दय), विपक्षियों मे सम्मानित, तथा मुख में रोगयुक्त होता है ।1९४॥। 


कर्मंगते निधने नुपकर्मां नीचकमनिरतश्न । 
लसः क्रे खचरे तनयो माता न वा जीवति ।॥ ९५॥ 
यदि अष्टम भावकास्वामी कमं ( दशम ) स्थानमेंगयाहोतो वह ब्यक्ति 
राजा का कार्ये करने वाला एवं नीच कमं मे आसक्त, होता है । यदि अष्टमेशक्रुर 
ग्रहहो तो आलसी होता है तथा उसके माता या पुत्र कां ( असामयिक ) निधन 


होता है ।। ५ ॥। 
लाभस्थे मृत्युपतौ बाल्ये दुःखी सुखी भवति पश्चात्‌ । 
दीर्घायुः खौम्यखगे पापेऽत्पायुर्नरो भवति ॥ ९६॥ 
यदि मष्टमेश लाम ( एकादश ) मावमेंहो तो जातक बाल्यावस्थां दुःशी 
तथा बाद मे सुखी होता है। यदि अष्टमे शुभ ग्रहहोतो वह दीर्षायु, पापग्रह 
हो तो अल्पायु होता है ।। ६६ ॥ 
व्ययशंस्थितेऽषटमेषशो क्ररवाक्तस्करः शठो निषु णः । 
भआत्मगतिष्यंङ्गवपुमृ तस्तु काकादिभिभ्क्षयः ॥ ६७ ॥ 
व्यय ( हाद ) भाव्म यदि अष्टमेशहोतो वह ब्यक्तिश्रर ( कठोर ) वन 
बोलने वाला, चोर, दुष्ट, निर्दय, स्वेश्छाचारी तथा विकृत अंगों वाला होता है । 
मरने के बाद कौवा आदि ({ पक्षियों ) का सक्षय होता है ( अर्थात्‌ निर्जन स्थानमें 
मरने घे उसका संस्कार नहीं हो पाता । )॥ ९७ ॥ 


दादश भावमत नवमेश का एल 
लग्नगते नेवमेष्छे देवगुरूणां पसेकः शूरः । 
कृपणः क्षितिपतिकर्मा स्वल्पग्रासी भवति भतिमान्‌॥ ९८ ॥ 
नवमेश्च यदि लग्नर्मेग्याहो तो जातक देवता भौर गदकी भण्डी तरह 
सेवा करने वाजा, शूर, कंजुस, राजकीय कार्ये करे बाला, भसल्याहारी (कम 
नौजन करने वाला ) तथा बुद्धिमान होता है ॥ ९८ ॥ | 


"मनोरमा हिन्दीष्याश्योपेता १६७ 


नवभेक्षे धनयाोते वुषतो विदितः भुशीलवात्सल्यः। 
सुकृती बदनभ्यङ्गश्रसुष्पदोल्पत्नपीड्तौ मनुज! ॥ ९९ ॥ 
नवभेक्ष यदि धन ( द्वितीय) भावमें गया हो तौ मनुष्य बलो के सम्बन्धसे 
विश्यात, मृदुभाषी, अच्छे कायो में संलग्न, मुख पर विकार युक्त, षौपायों 
(पशुओं) से पीडित रहने वाला होता है ॥ ९९ ॥ 
सहजगते धुकृतपतौ सूपस्त्रीबन्धुवत्सलः पुरुषः । 
बन्धुस्ती रक्षणक्रद्‌ यदि जीवति बन्धुभिः सदा सहितः ॥ १०० ॥ 
नवम (भाग्य ) माव कास्वामी यदि तृतीयमावमं गयाहोतो वहु व्यक्ति 
सौन्दर्य, स्त्री तथा बन्धुभों का प्रेमी बन्धु भौरस्त्रीकी रक्षाकरने वाला होता है। 
यदि वहू जीवित रहता है तो सदैव उसे मादइयों का साथ मिलता है ।। १००॥ 


सुकृते हिबुकस्थ पितृमक्तः पितृयात्रादिकेऽपि हितः। 
विदितः सुक्ती पुरुषः पितृकर्मरतमतिभंवति ॥ १०१॥ 
भाग्येश यदि चतुथं मावमेहोतो वह्‌ व्यक्ति पिता का मक्त, पिताके लिए 
तीर्थं यात्रा आदि की व्यवस्था व.रने वाला, विख्यात, अच्छे कार्योमे संलग्न तथा 
पिताके कार्यं में रुचि रशने वाला होता है ।। १०१॥ 


सुकृतगृहपे भुतस्थे सुकृती देवगुरूपजने निरतः । 
पुषा पुन्दरमूतिः सूकृतसमेताः धुता बहवः ॥ १०२ ॥ 
नवम मावका स्वामी पञ्चम भावम गया होतो जातक सत्कमं करने 
वाला, देवता ओौर गुर के पूजन मे रत ( आस्तिक ) शरीर से सुन्दर स्वरूप बाला 
तथा बहुत से सदाचारी पृत्रो से युक्त होता है ॥ १०२॥ 
शत्रप्रणतिपरायणधर्मनिमम्नं कलाविकलकायम्‌ । 
दर्चननिन्दानिरतं सुकृतपतिः षषठगः कुरुते ॥ १०२३ ॥ 
यदि नवेशा षष्ठ भावमे होतो वह व्यक्ति शत्रओं की स्तुति ( चापलूसी ) 
करने वाला, धमं कायम संलग्न, कला की दष्टिसे विकृत शरीर बाला, तथा 
ददनशास्त्र की निन्दा करने बाला होता है ॥ १०३॥ 


भवमपतौ सप्तमगे सत्यवती सुवदना सुरूपा च । 
शीलभीयुतर्शपता सुकूतयुता जायते नियतम्‌ ॥ १०४॥ 


नवम भाव का स्वामी सप्तम मावमें गयाहो तो सत्यवादिनी, भमुख, 
सुन्धर स्वरूपवाली, शीस भौर कान्ति से युक्त तथा सदेव रकम मे रत रहने बाली 
पत्नी होती है ॥ १०४॥। + 





१६८ मानसाभरी 





दुष्टो जन्पुविधाती गृहुबन्धुविवजितः सुकत रहितः । 
निधनगते नवभेश्चे कररे षष्ठः स॒ विज्ञेयः १०५।। 
नबश यदि अष्टम भावम गयाहो तो जातक जन्तुगो का वध करने वाला, 
ब्रह मौर बन्धु ( माई-कुदुम्बी ) से रहित तथा सत्कमं से हीन होता है । यदि नव 
मेश षापश्रह हो तो जातक नपुंसक होता है । १०५॥। 
सुकतगतः सुक तपतिः स्वबन्धुभिः प्रीतिमतुलितसमत्वम्‌ । 
दातारं देवगुरौ स्वजनकलश्रादसंसक्तम्‌ ।। १०६ ॥ 
नवमेद्च यदि नवम माव मे गया हौ तौ अपने भादयों से अत्यन्त स्नेह तथा 
समान माव रखने वाला, दौनी, देवता, गुरु तथा आत्मीय (मत्र-बन्धु) जनों, स्त्री- 
पुत्र आदि में आसक्त रहता है ।। १०६ ॥ 
नृपकर्माणं शुरं मातापित्रोश्च पूजकं पुरुषम्‌ । 
धम्मख्यातं कुरुते धुकृतपतिगंगनगृहणीलः ।। १०७ ॥ 
नवम भव का स्वामी यदि दक्शम मावमें स्थित दतो व्यक्ति राजकीय कर्म. 
चारी, शूर, माता-पिताका आदर करने वाला तथा धामिक आाचरणसे प्रसिद्ध 
होता है ।। १९०७ ॥ 
दीर्घायुषंमपरो धनेश्वरः स्नेहलो नृपतिलाभी । 
सुकृतस्यातः सुसुतः सुकृतविमौ लाभभवनस्थे । १०८ ॥ 
नवम भाव का स्वामी लाम ( एकादक् ) मावमंहो तो जातक दीजीवी, धर्मं 
परायण, धनपति, लोगोंका प्रियपात्र, राजा से लामान्वित होने वाला, अपने 
सत्कमौँ से विषयात तथा अच्छे ( योग्य ) पत्रों वाला होता है ।। १०८ ॥ 
द्वादशगे सुकृतेणे मानी देशान्तरे सुरूपश्च । 
विद्यावाञ्छुमखेटे क्रूरे च भवेद्अतिधू्तः ।। १०९ ॥। 
बारहूर्वे मावमें यदि नवमे गया होतो वड मनुष्य, अभिमानी, दूतरोंके 
स्थानम रहने वाला होता है। यदि नवमेश शुमग्रहहो तो विलासे युक्त यदि 
ऋर ग्रह षहो तो अत्यन्त ध॒त्त होता दहै।। १०६॥ | 


दादश भाषगत दशमेशषफल 


दशमपतौ लगते मातरि बैरी पितुर्म॑क्तः। 
भृत्यं गते च तति लु परपुरषरता मवति माता ॥ ११० ॥ 


क्लम भाव कास्वामी लग्न (प्रथम भाव) मे गयादहोतौ जातक भाता का 
शत्रु तथा पिताका भक्तहोतादहै। पिताकीमृत्युके बाद माता परे पुर्षके 
साथ सम्बन्ध कर लेती है। ११०॥ 


"मनौ रमा' हिन्दीष्याख्योपेता १६९ 





वितस्थे गगनपतौ मात्रा पाल्यः सुतो भवति लोभी । 
भातदि दष्टो नितरा स्वल्पग्रासी धुतसुकर्मां च ।। १११॥, 
दशषमेश धन भावम गयाहौो तौ जातक का पालन-पोषण केवल माहाही 
करती है ( अर्थात्‌ पिता का सहयोग नहीं मिलता) । तथा वहु बाक्तक लोभी, 
माता के प्रति दुष्ट, निरन्तर अल्प आहार ( मोजन ) ग्रहण करने वाला, श्रौता 
( कथा, वार्ता आदि सुनने वाला) एवं सुन्दर कमं करने वाला होता है ॥१११॥ 


मातृस्वजनविरोधी सेवानिरतो न कर्मणि समर्थः । 
मातुलपरिपालितः स्याह्शमपतौ सहजभवनस्थे ।। ११२ ॥ 
दशम भाव “कास्वामी' यदि तृतीय भाव्म गयाहो तो वह्‌ व्यक्ति माता 
एवं आत्मीय जनों का विरोधी, सेवा कार्य मे संलग्न, कायं करने में असमर्थं तथा 
मामाकेद्वारा पालित होता है। ११२॥ 
व्योमपतौ वुर्यगते सुखे तु विरतः सदाचारः, 
भक्तश्च मातुपित्रोनु पमानी जायते पुरुषः ।। ११३ ॥ 
दशमेश यदि चतु्थंमावमं गयाहो तो पुरुष सुख से रहित, सदाचारी, माता- 
पिता का भक्त तथा राजा दारा सम्मानित होतारहै। ११३॥ 


शुभकमंको विडम्बौ नृपलाभी गोतवाद्यनिरतः स्यात्‌ । 
गगनपतौ तनयगते पालयति च तं सुतं माता ११४॥ 
दशम भाव कास्वामी यदि पश्चम भावमे गथाहो तो व्यक्ति णुमकायं करने 
वाला, डींग हाँकनेवाला, राजासे लाम प्राप्त करने वाला, संगीत-बाद्चमे रुचि 
रश्ने वाला, होता है तथा उसका पालन-पोषण केवल माताही करती है ॥११४॥ 
भअस्बरपे रिपुसंस्थे शत्रुभयात्कातरः कलहशील: । 
क्रपणः कृपया हीनो नरो न रोगी भवति लोके ॥ ११५॥ 
कत्रुं (षष्ठ) भावमे यदि दशमेशगयाहौ तो वह शत्रुजोंके मयसे कातर, 
क्षगडाल्‌, कंजूस, निर्दय तथा निरोग बनाताहै।। ११५॥ 


सुतवती शुभरूपसमन्विता निजपतिप्रतिपालनलालसा । 
भवति तस्य शुभं कुर्ते सदा प्रियतमाम्बरपे दयितां गते । ११६ ॥ 
दशममाव का स्वामी यदि सप्तम भावमेगयाहोतो उस व्यक्ति की स्त्री पूत्रो 
बाली, सौन्दयं युक्त, पति सेवा में सदैव तत्पर, तथा पति का सदेवशुम करने 
वाली पतिप्रिया होती है । ११६॥ 
पुष्करपतिरष्टमगः क्रूरं श्रं मृषान्वितं दुष्टम्‌ । 
मातरि संतापकरं जनयति तनुजीवितं कितवम्‌ ।। ११७ ॥ 


१७० ` मानसाभरी 





ददमेश यदि अष्टम भाव मे गया होतो जातक क्रूर स्वभाव बाला, शूर, शूठ 
बोलने वाला, दुष्ट, माता को कष्ट देने वाला, अल्प आबु वाला तथा प्रपश्ची 
होता है ।॥ ११७ ॥ 
शुमशीलः सद्बन्धुः सन्मित्रो दशम्पे नवमलीने । 
तन्मातापि सुकला सुङृतवती सस्यवचनरता ॥ ११० ॥ 


दशमेश यदि नबम भावमेस्थितहो तो जातक सुशील, अच्छे भित्र एवं 
भाष्यं वाला होता है । उसकी माता भी सुशीला, अच्छे कमोंको करने वाली 
तथा सत्यवादिनी होती है ।। ११८ ॥ 
गगनपतिगंगनस्यः कुरते अननीसुश्प्रदं पुरषम्‌ । 
अननीकुलविपुल-सुखं प्रकथनलटनापटीयांसम्‌ । ११६९ ॥ 
दशमेश यदि दशममेंहीस्थितहोतो वहु व्यक्ति अपनी माताको सुख देने 
वाला, मातुकरुल ( मामा भादि ) से पर्याप्त सूखी तथा वार्तालाप में अत्यन्त चतुर 


( प्रत्थुल्पन्न मति ) होता है ।॥ ११६९ ॥ 
मानाजिताथं सहितो माता च रक्षिणी मवेत्सुखिनी । 


दीर्घायुर्मातुसुखी पुश्षो लाभस्थितेऽम्बरये ॥ १२० ॥ 
दक्षमेश के लाभ माव ( एकादश) में स्थित होने से मनुष्य सम्मान के सा 
धन संग्रह करने वाला, दीर्घजीवी एवं माता से सुखी होता है। माता उसकी रक्षा 
करने वाली तथा सृखी होती है । १२० ॥ 
मात्रोज्छ्ितो निजबलः शुमकर्मा नृपतिकमंरतचेताः । 
व्योमपतौ भ्ययसंस्ये देश्ान्तदगतश्च पापखगे " १२१॥ 
व्यय ( वारहरे ) मावमें दकशमेश स्थित हो तो जातक माता से परित्यक्त, 
स्वावलम्बी, ( अपने बल से अपना भरण पोषण करने वाला), शुम कार्यं करने 
वाला तथा राजकीय कायो में निष्ठापुर्वंक संलग्न रहता है । यदि दकामेक्ष पापब्रह 
हौ तौ विदे मे निवास होता 2ै॥ १२१॥ 


दादशभावगत लामेश फलं 
अस्पार्युश्लकलितः शूरो दाता जन्रियः भुमगः। 
लाभपतौ लग्नगते वुष्णावोषान्मृति लभते । १२२ ॥ 
लभेच्च ( एकादश्च भाव के स्वामी) के लग्न में स्थित रहने ते जातक अल्प. 
आदु वाला, बल से परिपूर्ण, दानी, लोकप्रिय, सुन्दर होता है तथा उसकी बृष्यु 
लोभवे होती है ॥ १२२॥ 


मनोरमा" हिन्दीभ्याश्योपेता १७१ 





रिष. य 


विक्तगते लामपतावुत्पश्नमूु“ह्पिमोजनोऽल्पायुः ! 
भष्टकपाली रोगी ङ्गूरे सौम्ये च भनकलितः।॥ १२३.॥ 
लाम भाव कारस्वाभी यदिन स्थनमं ग्याहो तौ वहु भ्यक्ति उत्पन्न 
(स्वयं कृषि द्वारा उस्पन्न) कर शाने वाला, अस्प भोजन करने वाला, अल्पायु, होता 
है। यदिक्ररग्रहहोतौ वहू रोगी एवं भष्टकपाली भिक्षुक होतादहै। यदि शुभ 
ब्रहहोतो षने पूणं होता है ॥ १२३॥ 


बन्धुस्त्रीपालनकः सुबोन्धवो बन्धुवत्सलः सुभगः । 
लाभेशे सहजगते बन्धूनां रिपृुकुलनच्छेसा । १२४॥ 
एकदक्ष भाव का स्वामी यदि तृतीय मावे गयाहो तौ जातक भाई-बन्धुर्गो 

के भी परिवार का पालन-पोषण करने वाला, अच्छे ( सदाचारी) भार्यो वालाः 
बन्धुओों का प्रेमी सुन्दर स्वरूप वाला तथा बन्धुओों क शतरगोंके कूल का नाह 
करने वाला होता है । १२४ 

तु्यस्थे लाभेशे दीर्घायुः पितरि भक्तमाग्मवति । 

समर्यककमंनिरतः स्वधमंनिरतश्च लाभवान्‌ मनुजः ॥ १२५॥ 


चतुर्थं भाव में यदि लाभेश गया हो तो मनुष्य दीर्घजीवी पितामें श्रद्धा भक्ति 
रशने वाला, एक समयमे एकही कार्यं करने वाला, अपने धमं मे लीन, तथा 
लाभ ( सफलता ) प्राप्त करनेवाला होता है ।॥ १२५॥ 


लाभपतिः पुत्रगतः पितुपुत्रस्नेहलं मिथः करुते । 
तुल्यगुणं च परस्परमत्पायुर्जायते पुरषः ।। १२६॥ 


लाभे यदि पञ्चम मावमें गयाहोतो पिता गौर पुत्र में परस्पर स्नेह हता 
है तथा दोनों समान गुणी होते है । इस योग मे जातक अल्पायु होता है । १२६॥ 


वषछठाते लाभपतौ सुदौ्धंरोगी सुव॑रिकलितश्च । 
तस्करहस्तान्मृल्युः क्रे देशान्तरगतस्यं ।॥ १२७ ॥ 
षष्ठ मावमे यदि लाभेश गया हो तो जात्तक दीधंकाल तक रोगी एवं 
शत्रुजों से युक्त होता है। यदि लाभेशक्ररग्रह होतो विदेशमे चोरोंके हाष 


उसकी मृत्यु होती दै । १२७ ॥ 


सप्तमगे लाभेशे तेजस्वी शीलसम्पदः पदवान्‌ । 
दौर्षयुर्मंवति नरस्तर्थंकदयितापतिनित्यम्‌ ॥ १२८ ॥ 
लाभे यदि सप्तम भवमें गया हो तो पुरुष तेजस्वी, शील कपौ सम्पत्ति से 
यक्त ( अर्थात्‌ अत्यन्त सहृदय ), उश्च पदाधिकारी, दीषंजीवी तथा सदैव एक 
वल्निब्रती होता है ॥ १२५ ॥ 


१७२ भानसाभरी 





एकादशपेऽछमगेऽल्पायभंवति स जातको रोगी । 
जोवन्मृत्युश्च दुःखी भवति भरः सौम्ययगनचरे ॥ १२९ ॥ 
एकादश भाव का स्वाभी यदि अष्टम भावम गयाहो तो बह पुर्वं भर्पायु, 
रोगी तथा जीवन~मृत्यु से संघषं करता रहता है । यदि लाभे शुमब्रहहो तौ 
दुःखी रहता है । १२६ ॥ 
एकादशषेशे सुकृतालयस्थे बहुश्रुतः शास्रविचारदक्षः । 
धमं प्रसिद्धो गुरुदेवभक्तः क्रे च बन्धुत्रतर्वाजितश्च ।। १३० ॥। 
एकादकल भाव कास्वामी वदि नवम मावमे गयाहो तौ मनुष्य बहुश्रुत 
( विविध विद्वानों के विचारों को सुनने एवं मनन करने वाला), शास्त्र चर्चामें 
निपुण, प्रसिद्ध धार्मिक, गुरु एवं देवता का भक्त होता है। यदि क्रूर ग्रह एकादशेश 
हो तो बन्धुओं के प्रति स्नेह भावसे रहित होता है ॥ १३०॥ 
मातरि भक्तः सुकृति पितरि षौ सुदीधंतरजीवी । 
घनवाञ्जननीपालननिरतो लामाष्पि खगते।। १३१ ॥ 
लाभेष्ठा यदि दक्षम भावमे गयाो तो जातवः माता का भक्त, धामिक, पिता 
षे देष रखने वाला, दीघंजीवी, धनवान्‌ तथा माता के पालन में अनुरक्त 
रहता है ॥ १३१ ॥ 
लाभाधिपो लामगतः करोति दीर्घायुषं पुष्कलयुत्रपौत्रम्‌ । 
सुक्म॑कं रूपवरं सुशोलं जनप्रधानं विपुलं मनोज्ञम्‌ ।। १२२ ॥, 
लाभे यदि लाभमस्थानमेहीगयाहोतो दीर्घायु प्रदान करताहै। जातक 
अनेक पुत्र-पौवों से युक्त, सत्कर्म, सुन्दर स्वरूप वाला, सुक्ील, लोगों मे कष्ठ 
विक्षाल क्षरीर वाला तथा मन को आनन्दित करने वाला ( प्रसन्नषि्त) टोता 
दै ॥ १३२ ॥ । 
द्वादशगे लमिशे सृत्पन्नभुक्‌ स्थिरो भ्वति रोगी । 
उत्पातरतो भानौ दाता च सुखी सदा पुरषः ॥ १३३ ॥ 
दरादक् ( बारहर्वे ) भावमें यदि लाभे गया हो तो स्वयं वारा उ्पादित 
वस्तुर्गो को चाने वाला, स्थिर चित्त वाला, रोगी, उत्पात में संलग्न, स्वाभिमानी, 
यानी तथा सदेव सुल रहने वाला पुरुष होता है । १३३ ॥ 


दाहश भवत इादयेश फल 
ध्ययपे लसन शते विदेशग। सुवन: सुरूपश्च । 
भपयङ्गवाददोषो भवति कुमारोऽथ वा षण्डः ॥ १३४॥ 


'भनोरमा' हिन्दीग्यास्योषेता १७३ 


ध्यय ( बारहवे ) भावकास्वामी यदिक्लग्नमेगयाहो तो जातक बिदेशमें 
रहने बाला, भृदुभाषी, शुन्दर स्वरूप वाला, कुसङ्गति के कारन कलद्धत, नवि- 
वाहित अथवा नपुंसक होता है ॥ १३४॥ 


हादशपे वित्तगते कृपणः कटूवाग्विनष्लामलयः । 
सौम्ये तु निधनं गच्छति नूपतस्करवद्धितोऽभिभयम्‌ ॥ १३५ ॥ 
बारहर्वे भावकास्वामी यदिन स्थानमें गयाहोतो वह व्यक्ति कृपण, 
कटु माषी, नष्टधनकाभौो लाम प्राप्त करने वाला, होता है। यदि ब्ययेश शुम- 
ग्रहहोतो राजा, चोरणएवं अश्निसे हानि तथा मृत्यु होतीदहै।। १३५॥ 


सहजगते हादशपे क्रूरे गतबान्धवः शमे च धनी । 
तनुसोदरः सुकृपणे बन्धुषु दूरे सदा वसति ॥ १३६ ॥ 
द्रादश भाव कास्वामी यदि तृतीय मावमं गया हौ तो व्यक्तिक्र्‌र एषं 
भादयों से रहित होता है। यदिशुमग्रहहो तो अल्प सहोदर ( माह्यों वाला), 
भत्यन्त कपण, तथा सदव मायो से दूर रहता है ॥ १३६॥ 
तुर्यगते व्ययनाथे कृपणो रोगी सुकर्मा च। 
भृतिमाप्नोति सुतेभ्यः सततं मनुजो महादु शी ।। १३७ ॥ 
व्ययेश यदि चतुथं मावमे गयाहोौ तो व्यक्ति कंजूस, रोगी, सुकर्म ( अच्छे 
कायं ) करने वाला, निरन्तर महान्‌ दुःख मोगने वाल होता है । तथा भपने पुत्रो 
हारा उसकी मृत्यु होती है ॥ १३७ ॥ 
एादशपतौ सुतस्थ क्रूरे सुतविर्वाजितः शुभे ससुतः । 
अजनककमलाविलासी समर्थताविरहितः पुरुषः ॥ १३८ ॥ 
दादश ( व्यय) माव का स्वामी यदि प्श्वम मावमेंगयाहो तथाक्रूरम्रह 
हो तौ सन्तान से रहित शुमप्रह हो तौ सन्तान युक्त करताहै। वैतृक धन का 
उपमोग करने वाला सामथ्यं से रहित पुरुष होता है । १३८ ॥ 
वष्ठगते व्ययनाथे क्रूरे कृपणोऽक्षिदूषणः पुरुषः । | 
लमते भृति नितान्तं भृगुतनये नेत्रहीनः स्यात्‌ ।॥ १३६ ॥ 
छठे मावमे यदिब्ययेशगयाहोतो तथा क्र ग्रहहो तौ मनुष्य कृपण, 
नेत्र दोष से युक्त तथा निश्चय ही अकाल मृत्यु पनेवाला होतादहै। यदि शुक्र 
हादशेश हो तां उसकी गख अंधी होती है ॥ १३६ ॥ 


दवादशपे सप्तमगे दुष्टो दुश्चरितर्ृत्यटुवचनः । 


ररे स्वस्त्रीतः स्यात्‌ सौम्ये क्षयमेति गणिकातः ॥ १४० ॥ 
द्रादशेश यदि सप्तम भावमेहोतो बह व्यक्ति दुष्ट, चरित्रहीन तथा बात- 


१७४ मानसारी 





चीत मे विपु होताहि। ऋर प्रह हादे हो तो अपनीस्तरी द्वारा. यदि शुभग्रह 
हो तो वेश्या हारा निधन होता है ॥ १४० ॥ 
निधनगते ष्ययनाथेऽछ्कपाली कार्य॑साधरनं रहितः । 
द्रोहमतिः सौम्यञ्गे धनसंग्रहपरो नरो भवति ॥ १४१ ॥ 
व्ययेदा करग्रह अष्टममावमेंहोतो मनुष्य अष्टकपाली ( मवधड, या 
कपाल में भिक्षा मांगने वाला), कायं एवं साधनोंसे हीन (बेकार) तथा द्रोह 
( ईर्ष्यालु ) बुद्धिवाला होता है। यदिशुम ग्रह हो तो धन सख्य में संलग्न 
रहता है ॥ १४१ ॥ 
सुकृतगते व्ययनाथे तीर्थालोकाटनं वृत्तिः । 
क्रे खगे च पापा निरर्थकं याति तद्द्रव्यम्‌ ॥ १४२ ॥ 
नवम भावम व्ययेशहो तो स्थानोंमें रमण करके जीवन यापन करता 
( तीष पुरोहित या दरवेल एजेन्ट होता) है। यदिव्ययेहाक्ररग्रहहो तौ पापी 
तथा व्यथं घन व्यय करने वाला होता है।॥ १४२॥ 
व्ययपे गगनगृहस्थे पररमणीपराङ्मृखः पवित्राञ्ः । 
सुतधनसग्रहनिरतो दुव॑चनपरा भवति तन्माता ॥ १४२३ ॥ 
व्ययमावका स्वामी यदि दशम मावमे गयाहोतौ मनुष्य परस्त्री से 
विमुद्ध, पवित्र अंगों वाला, पुत्र मौर धन के प्रति अधिक आसक्त होता है । उसकी 
माता कटुमभाषिभणी होती है ॥ १४३ ॥ 


दादशपे लाभस्थे द्रविणपतिदर्धिंजीवितो भवति । 
स्थानप्रवरो दाता विख्यातः सत्यक्चनपरः ।। १४४ ।। 
दादा माव कास्वामी यदि लाम (एकादश) भव मे हो तो धनपति 
( धनवान्‌ ) दीषंजीवी, अपने क्षेत्र का श्रेष्ठ दानी, विद्यात, सत्यवादी तथा वचन 
का पालन करने वाला व्यक्ति होता दहै ॥ १४४॥।। 
विभ्रूतिमान्‌ ग्रामनिवासचि्तः कारपण्यबुद्धिः पशुसंग्रही च । 
चेज्जीवति प्रामयुतः खदा स्यादर्याधिनाये व्ययगेहलीने ।। १४५ ॥ 
व्ययेश यदि भ्यय (रवे) मावमेंहीहोतो जातक एेश्ववं सम्पन्न, प्रामीण 
जीकन मे टचि रखने वाला, कषण, पशुभों का संग्रह करने वाला होतादहै। 


यदि दीधंकाल तकं जीवित रहा तो वह गर्वोका स्वामी (जमीन्दार) हो जावा 
है ॥ १४५ ॥ 


नीकस्य ब्रह शा एल 
निष्टरश्न्तर दनः सपरासार्थलनङ्खुकरपादः । 
स्ीनिशह्धजिदधिततो मानूर्नोषस्थितः कुडते ।। १४६ । 


मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता १७५ 





यदि भूं अपनी नीच राक्षि (धुना ) मे स्थितो तो जातक कठीर तों 
एवं मुख बाला, समान शरीर, मोटे जंषा, हाय गौर परां बाला होता है । विवाह 
के वाद बहस्त्रीके वरीभूठदहो जाताहै। १४६॥ 


कुमतिः संशयनिरतो ` नीषस्यो हिमकरः कुरते ।। १४७ ॥ 
जन्म॒ समय मे यदि चश्मा अवनी नीच राशि ( वश्चिक ) मेस्थित होतो 

जातक नाशने, बजने, व्यथं बार्ते करने वालो तथा धृतं जनों की संगति करने वाला 

दुबदि युक्त तथा सन्देह में रहने वाला होता है ॥ १४७ ॥ 

लक्ष्मी हयत्यग्रबला स्थिरविभवो बृदधिमान्‌ गूणज्ञ् । 


॥। १४८ ॥। 











मंगल ` अपनी नीच राशि ( ककं) में स्थित हो तो व्यक्ति अत्यन्त बलवान्‌ 
स्थिरसम्पत्ति वाला, बुद्धिमान, गुणवान, रात्रिम विचरण करने वाला, त्यन्त 
चोर तथा दुष्टात्मा हौता है । १४८ ॥ 





जन्म कालमे यदि बुष अपनी नीच राशि ( मीन) में स्थित हो तो उस व्यक्ति 
की स्त्री सदुबुदधि वाली, सुन्दरी, एवं सुक्शीला पति की आज्ञाका अनुगमन करने 
वाली तथा कन्था एवं पुत्रं से हीन होती है । १४६ ॥ 
दिव्यस्व्रीवंरकाश्चनपुष्पफलप्रकश्पुजितः पुरुष 
भत्तो देान्तरगतो नीचचस्यः सुरगुरूः कुस्ते ॥ १५० ॥ 
बृहस्पति अपनी नीच राशि ( मकर) में स्थित हो तो सुन्दरी एवं श्रेष्ठ स्त्री, 
स्वभ, पष्प, फल भादि उस्म वस्तुभो से सम्पन्न होता है । यदिस्त्रीहो तो उसका 
पति देहान्तर ( बिदेश ) मे निवास करतादहै।। १५० ॥ 


धतिकौतुको विनोदी सभासु सुवाक्सदा प्राज्ञः । 
राज्यकलामणिमष्डितो नीषस्थो भागवः कुरते ।। १५१ ॥ 


शुक अपनी नीच राशि (कन्या) मेहो तो जातक कौतुकी (कीड़ा में निषु) 
हास्य-विनोदप्रिय, समा मे मृदुभाषी, बुद्धिमान, राजनीति मे मूषन्य होता है।॥ १५१॥ 


शभ्रणां क्षयकारको उव्वपूदासााग्नका।न्तशचल्‌ 


देशग्रामपुरादिप्तनवली __ साज्नाज्यराञ्याधिपु; । 


ण भक 


; स्ौसौष्वयुक्तः सदा 
जआतिजातृजनातन्बितोऽपि च भवेन्नीषस्विताकिर्यंदा ।। १५२॥ 




















१७६ मानसाभरी 


कनि अपनी नीच रक्षि (मेष ) मे गया हो तो जातक शतरर्ओं का क्षय करने 
वाला, दृढ शरीर वाला, प्रज्वलित अग्निके समान तेजवाला, चञ्वल, देश, राम, 
धुर नमर आदिमे बलवान, साज्नाज्य के अन्तगेत राज्य का अभिपति, स्वेष्ा- 
चारी विचारधारा मे निपुण, सुन्दर सदैव स्त्री सुते सम्पन्न, श्ञाति ( जाति) 
मौर शारद आदि जनों से युक्त होता है १५२॥ 
/ दु्ंगश्च खलो दुष्टः पापात्मा दुष्बुदधिकृद्‌ बहुलः । 
स्वकुटुम्बपक्ाहीनो नीचस्थो शाहुरिति कुरते ।। १५३ ॥ 
अपनी नीच राशि (धनु) में राहू स्थित हो तो जातक, मही आकृति वाला, 
उत्पातौ, दुष्ट, पापी अधिकांश निन्दित कार्यो मे बुद्धि लगाने बाला तथा अपने 
कटुम्बियो के समर्थन से रहित होता है ॥ १५३ ॥ 
/ काणस्तथा कुशील: स्त्रोविरही दःखकातरो विरुिः । 
करिपक्षमक्षकुशलो नीचस्यः केतुरपि कुर्ते ।। १५४ ॥ 
अपनी नीच राशि (धनु) मेंहोतो व्यक्ति काना (एकनेत्रसे टीन ), शील 
से रहित ( दृष्ट )., स्त्री से वियुक्त, दुःख से चिन्न, उत्साह हीन, तथा कशत्रुपक्षके 
दमन में निपुण होता है । १५४ ॥ 


| उच्च राशिगत ग्रहो का एल 
^ धीरः प्रचण्डः कुशलो गौरः श्रः कलानिधिश्चतुरः । 
दण्डपतिषंनयुक्तो ह्य च्वस्थो भास्करः कुरते ॥ १५५॥ 
सूर्यं अपनी उच्च रारि (मेष)में हो तौ जातक धीर अल्यन्त उग्रम, निपुण, गौर 
वणं वाला, बूर-वीर, कलागो का ज्ञाता, बुद्धिमान, दण्ड देने का अधिकारी, तथा 
धनवान होता है।॥ १५५ ॥ 


विज्ञानधनसमेतः पात्रपवित्र्च कामिनोविरही । 
बहूजनतावल्लमजन उच्चस्थो हिमकरे ॥ १५६॥' 
चन्द्रमा अपनी उच्च राशि ( वष) में होतो जातक रवक्ञनिक, धनवान, 
पवित्रता का पात्र ( अर्थात्‌ अत्यन्त शुद्ध हृदय वाला ), स्त्रीके वियोग से युक्त, 
विशाल जन समुदाय का प्रिव हौताहै।। १५६॥ 











१. ग्रहोका राधिर्योके साथ करईप्रकार का सम्बन्धमाना गयाहै। इनमेसे 
स्थान ( गृह ), उच्च, नीच तथा भुल त्रिकोण विशेष महश्व पूणं हँ । फलित 
ज्योतिष मे पग-पगषर इनका उपयोगदहै | स्वानयाक्षत्रकास्वामी वही 
ब्रह होता है जिसका वह क्षेत्र (गृह) होता है यथा-सूयै का क्षेत्र सिह राशि तथा 
सिह का स्वामी सूयं हसी प्रकार भू की उश्च रारि मेष १० तक, तथा 


"मनोरमा" हिम्दीग्याश्योपेता १७७ 





इग्रदुढग्रहारं शस्त्रं जभ्र वचनबहूविदितम्‌ । 
नृपकुलवल्लमश्‌रं हा ज्चस्थो भूसुतः करते ।। १५७ ॥ 
जन्म समय मे अपनी उच्च राच्ि( मकर ) में मंगलहोतो जातकं स्वभाव 
ते उग्र, शक्तिपुर्वक शस्त्रप्रहार करने वाला, वाणी से अत्यन्त प्रसिद्ध, राजाका 
प्रियपात्र, तथा शूर (बहादुर) होता है। १५७ ॥ 


पूलव्रिकोणगव ग्रहो का एल 
धनो सुती कार्यविज्ञरित्रिकोणस्ये दिवाकरे । 
चल्द्रे धनो च भोक्ता च भौमे शु रोऽदयः खलः ।। १५८ ॥ 
सू्यं अपनी मूल त्रिकोण राशि ( सिह) मेहो तो जातक घनवान, सुखी, सभी 
प्रकारके काययम दक्षटोताडहै। यदि चन्द्रमामूल त्रिकोणमेहोतो धनी एवं 
भोगी, भौमहोतो शूरवीर, निर्दय तथा दुष्ट होता दहै ।। १५८॥ 
बुधे त्रिकोणगे विज्ञो विनोदी विजयी नरः। 
गुणै ग्रामपुरादोनां मठस्याधिपतिः धुघीः ॥ १५६॥ 
जन्म समय मे बुष यदिमून त्रिक्रोणमेहोतो ज्ञाता, विनोदप्रिय, एवं विजय 
( सफलता ) प्राप्त करने वाना, गुरु होतोग्राम, नगर, एवं मठ का अधिकागी 
तथा विद्धान रोता है।। १५६९ ॥ 
शुक्रे वरिकोणगे स॒मः सुखयुक्तो महीपतिः । 
मन्दे नगो घनैः पूर्ण महाश्षूरः कुलन्धरः ।। १६० ।। 
शुक्र अपनी मूल त्रिकाण राशि म स्थित लो तो सुवुद्ध ( धिद्रान ), सुख से युक्त 
तथा राजा (भूमि कास्वामी) होताहै। यदिश्निमूनत्रिक्ीण म होतो 


नीच राशि तुलाके १०* तकं होतीहै । सरलताके लिए समी म्रतेंके क्षेत्र, 
उच्च, नीच तथा मून त्रिकोण बतलाते है- 


ग्रह राशि/लेत उच्च नोच मूलत्रिकोण 





सूर्य सिह मेष १०* तुला १०१ सिह 
चन्द्र ककं वृष ३१ वृ चक ३ वृष 
मंगल मेष, वृश्चिक मकर २८* ककं २८० मेष 
बुष मिथन, कन्या क्न्या १५० मीन १५. कन्या 
गुर धनु, मीन ककं ५५ मकर ५० धनु 
शुक्र वृष, तुला मीन २७० कन्या २७* तुला 
शनि मकर, कुम्भ तुला २०० मेष २०० कुम्भ 
राह कन्या भिथून 

केतु मीन धनु 


१२ मा०्सा० 


१७६८ मानसागरी 





जातक धन से परिपूर्णे, महान बलवान, तथा अपने कुल के भारकोधारण करने 
बाला होता है) १६० ॥ 


सवक्ेत्री प्रह का एल 
 स्वगृहस्थे श्वौ सोके महोप्र्च सदोद्मी । 
चन्द्रे क्मेरतः साधुमंनस्वी रूपवानपि । १६१ ॥ 
जन्म समय मे सूयं यदि अपने गृह (सिह) राशिमेहोतो जातक संसारम उभ्र 
( तेजस्वी ) तेथा सदेव उद्योगी ( कर्मठ ), चन्द्रमा अपनेक्षेतर (ककं) मेहो तो 
कायं मे संलग्न, सज्जन, स्वाभिमानी, तथा सुन्दर स्वरूप वाला होता है ।॥१६१॥ 
स्वगृहस्थे कुजे वापि चपलो धनवानपि । 
बुधे नानाकलाभिञ्ञः पण्डितो धनवानपि ।। १६२ ॥ 
यदि मंगल अपने गृह ( मेष, वृश्चिक ) में स्थितहो तौ जातक चश्जल एवं 
धनवान, बुष अपने गत्‌ (मिथुन, कन्यामेंहो तौ अनेक कलाओं का ज्ञता, विद्धान्‌ 
तथा धनवान होता है ।। १६२ ॥ 
धनो काव्यश्रुतिज्ञश्च स्वचेष्टः स्वगृहे गुरौ । 
स्फीतः कृषोवलः शुक्रे शनौ मान्यः सुलोचनः॥ १६३ ।। 
बृहस्पति अपनी राशि (धनु, मीन)मंहोतो जातक काव्य शास्त्र एवं बेद 
का ज्ञाता तथा स्वयं उद्योगी ( अथवा जिज्ञासु ) होता है । शुक्र अपने गृहमेहोतो 
कृषि काये करने वाला, शनि अपनी राशि (मकर-कुम्भ) में होतो सम्मानित एवं 
सुन्दर नेत्रो वाला होता है।। १६३ ॥ 


भित्र ग्रहो के राशिगत ग्रहो ङा एष 
सूरये मित्रगृहे ख्यातः शास्र स्वस्थसौहदः। 
चन्द्रे नरो भाग्ययुक्तश्चतुरो धनवानपि ॥ १६४॥ 
सूं यदि मने मित्र ग्रहों कीराशिमे गयाहो तो मनुष्य प्रसिद्ध, शास्वरोका 
ज्ञाता, स्वस्थ तथा मि्रों ते युक्त होता है। चन्द्रमा अपने मित्रग्रहों की राशियोंमें 
हो तो मनुष्य भाग्यशाली, घतुर तथा धनवान्‌ होता है ॥ १६४ ॥ 
मौमे शस्त्रोपजोवी च बुषे श्पधनान्वितः । 
गुरौ मित्रगृहे पुज्यः शतां सत्कर्मसंयुतः ।। १६५॥ 
मंगल अपने मित्रग्रहकी रारिमेहोतो शरस्त्रौकेदधारा जीविका होती षै । 
( शरस््रो के निमणि, ब्यापार अथवा शस्त्रो के उपयोग से जीवनयापन करने बाला 
होताहै।) बुष मिवरक्षेत्रमेदहोतो शूप एवं धन से युक्त, गुरु अपने मित्र ग्रहके 
कषेत्रम हो तो सदेव पूज्य, सत्कर्म में संलग्न व्यक्ति होता है॥ १६५॥ 


मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता १७९ 


शुक्रे भित्रगहे लोके धनी बन्धुजनप्रियः । 
शनी रजाक्रुलो देहः कृकर्मनिरतो भवेत्‌ ॥ १६६ ॥ 
शुक अपने मित्र प्रह की रारिमे स्थितहो तौ लोकम प्रसिद्ध षनी, माई- 


बन्धुभों का प्रिय सथा शाति मित्रक्षत्रमे होतो रोगोंसे पीडितलश्रीर वालाकत्तथा 
कुकर्म में संलग्न व्यक्ति होता है।॥ १६६॥ 


शत्रु राशिगत ग्रहा का फल 


सूये रिपुगृहे नीचो विषयैः पीडितो नरः । 
चन्दे हदयरोगी च भौमे जायाजडोऽघनः ॥ १६७ ॥ 
सूये अपनी शत्रु रक्षि मे स्थित हो तौ मनुष्य नीच ्रकृति वाला, विषय 
वासना्भौँ से पीडित होतादहै। चन्द्रमा अपने शत्रु ग्रहकेक्षेत्र्मेहोतोहूदयमे 
रोगी, मौमहोतो स्त्री के ककंश व्यवहार से जड़ तथा दरिद्र होता है॥ १६७॥ 
बुधे रिपुगृहे मूर्खो वाग्धनी दुःखपीडितः। 
जीवे च जायते क्लीबो नष्वु्ति बंमुक्षितः ॥ १६८ ॥ 
बुध अपने शत्रु प्रहकेक्षेत्रमे हो तो मूखं, वाणी से घनवान्‌, एवं दुःख से पौटित 
होत। है । गुरुशत्रुक्षेवरमेहो तौ मनुष्य नपुंसक होता है तथा उसकी जीविका का 
साधन नष्टहो जातादहै ओर वह्‌ क्रृधासे पीडित रहता है।। १६८॥ 
शुक्र शतरुग्रहे भृत्यः कृबुद्धिर्दुखितो नरः। 
शनौ व्याध्यय शोकेन सन्तप्तो मलिनो भवेत्‌ ॥ १६९ ॥ 
शुक्र अपनी रात्र ग्रह की राशिमे हो तो मनुष्य सेवक ( चपरासी, नौकर). 


दुष्ट बुद्धि वाला तथादःखीहोताहै। शनिरशत्रुक्षेत्रमेहोतो व्याधि, एवंषनके 
गोक से सन्तप्त तथा मलिन आचरण वाला होता है।। १६६॥ 


दश भावगतं लग्नां ङा एल 
मेषोदये रक्ततनुमंनुष्यः प्लेष्माधिकः क्रोधपडः कृतघ्नः । 
समन्दवुद्धिः स्थिरतासमेतः पराजितः स्वीभृतकैः सदेव ।। १७० ॥ 
यदि जन्मकाल मेँ लग्न (तनुभाव) में मेष लग्न हो तो मनुष्य रक्त बणं एवं कफ 
प्रकृति वाला, क्रोधी, कृतघ्न, अत्यन्त मन्द बुद्धि वाला, स्थिर विचारों वाला, 
तथा निरम्तर स्त्री एवं नौकरोंसे पराजित (सन्तप्ठ) रहने बाला होता है ॥ १७०।। 


वृषोदये जन्म यदा भवेश्च स्ववि्तरोगं स्वजनापमानम्‌ । 
इष्टवियोगं कलहं च दुःखं शस्त्राभिधार्त च धनदाय च । ६७१ ॥ 


१६० मानसाभरी 





कमणाम 


यदि वृष लग्नमें किसीकाञजन्महो त्तो वह्‌ मानसिक से अस्वस्थ, आत्मीय 
जनो से अपमानित, इष्ट व्यक्तियों से वियुक्त, कलह ( विवाद ) एवं दुःख ते युक्त, 
शस्त्र से आहृत (छरा आदिमे घोट लगती है), तथा घन का नाश होता है ( अर्बत्‌ 
दुष्ट लोग शस्त्र से घायल कर धन का मपहरण कर लेते है । ) ॥ १७१ ॥ 
तृतीयलग्ने पुरुषोऽतिगौरः स्त्रो रक्तचिततो नृपपीडितश्च । 
दूतः प्रसन्नः प्रियवाग्विनीतः समृद्ध जो गीतविचक्षणश्च ॥ १७२ ॥ 
मिथुन लग्न मे किसीकाजन्महोतो वह्‌ व्यक्ति अत्यन्त गौर वर्णं वाला, 
सत्री मे अषिक अनुराग रखने वाला, राजा (सरकार) द्वारा पीडित, हूत कायं 
( संवाद प्रेषण, चपरासी, टेलीफोन आपरेटर आदि ) करने वाला, प्रियमाषी 
विनम्र बड़े-बड़े बालों का शौक रखने वाला तथा कुशल गायक होता है ॥ १७२॥ 
कर्कोदये गौरवपुर्मनुष्यः पित्ताधिकः कल्पतर्प्रगल्मः । 
जलावगाहानुरतोऽतवुद्धिः शुचिः क्षमी धर्मरुचिः पुपतेन्यः॥ १७३ ॥ 
ककं लग्न मे जिसका जन्म हो बह व्यक्ति गौर वर्णं वाला, पित्त प्रकृति वाला, 
कल्प वृक्ष की तरह उदार प्रकृति वाला, अधिकं वाचाल, जल क्रोडामें निपुण, 
अत्यन्त बुद्धिमान्‌, पवित्रात्मा, क्षमाशील, धमं में रुचि रखने वाला, सरलता से 
प्रसन्न होने वाला होता है ।॥ १७३ ॥ 
सिहोदये पाण्डुतनुमनुष्यः पित्तानिलाभ्यां परिपीडिताद्खः । 
प्रियामिषो रम्यरसः सुतीक्ष्णः क्षुरः प्रगल्भः परितोऽटनश्च । १५४ 
जिसका जन्म सिह लगनमेंहो वह पीले वणे वाला, पित्त भौर वायु से पीडित 
शरीर वाला मसि एवं सुन्दर रसो ( मदिरा भादि) का प्रेमी, तीव्र बुद्धि वाला, 
बलवान्‌ वाचाल तथा चारो तरफ "धुमने-फिरने' वाला होता है ।। १७४ ॥ 
केन्याख्यलमे कफपित्तयुक्तो मवेन्मनुष्यः शुमकान्तभावनः । 
श्लेष्मी प्रियः स्त्रीविजितो नु मोरर्मायाविकः कामकदथिताङ्खंः ॥ १७५॥ 
कन्या लग्न में उस्पन्न होने वाला मनुष्य कफ एवं पित्त से युक्त अपने आचरण 
से लोकप्रिय, कफ प्रकृतिषाला, प्रेमी, स्त्रीसे पराजित, डरपोक, मायावी तथा 
कामवासनाके कारण विकृत अङो वाला होगा ।॥ १७५ ॥ 
तुले विलग्ने च भवेन्मनुष्यः एलेष्मान्वितः सत्यपरः सदेव । 
पराप्रियः पायिवमानयुक्तः सुरार्चने तत्परकल्य एव ॥ १७६ ॥ 
तुला लग्न मे उत्पन्न मनुष्य कफ ( शास, म्यमोनियाँ रोग ) युक्त सदैव सत्य- 
वादी, परस्त्री में भासक्त, राजसम्मान से युक्त, देवतामों की पुजा-भाराधना में 
संलग्न रहने वाला होता है ॥ १७६ ॥ 


मनोरमा हिष्दीग्याड्योषेता १९१ 





[ 1 1 


लग्नेऽषमे कोपधरो जरावान्‌ भवेष्मनुष्यो नृपपुजिताङ्गः । 
गुणान्वितः छस्व कथानुरक्तः प्रमर्दकः शन्रुगणस्य नित्यम्‌ । १७७ ॥ 


बुश्िक लभ्न में जिसका जन्म हो वह्‌ व्यक्ति क्रोधी, वृद्धावस्थाके लकषर्णोसे 


युक्त, राजागों से सम्मानित, गुणवान्‌, हा।स्त्रचर्वा मे भनुरक्त सदैव शत्रु गणो का 
मर्दन करने वाला होता हि ।॥ १७७ ॥ 


चापोदये राजयुतो मनुष्यः कायें प्रवीणो द्विजदेवरक्तः । 
तुरङ्गयुक्तः सुहृदा प्रयुक्तस्तुर ज्गंजद्ुश्च भवेत्पदंव ।॥ १७८ ॥ 
धनु लग्न में जिसका जन्म होता है वह्‌ व्यक्ति सदैव राजाभों के साथ रहने 
वाला, कायं में कुशल, ब्रह्मण भौर देवताओं मे आस्था रखने वाला, घोड़ा (वाहन) 
रखने का शौकीन, मित्रों से युक्त, (घुड़सवारी करने से) घोड़े की तरह जाषों वाला 
होता है ॥ १७८ ॥ 


मृगोदये तोषरतः सृतीत्रो भीरः सदा पापरतः सुमूतिः । 
एलेष्मानिलाम्यां परिपीडताङ्कः सुदीघगात्रः परव खकश्च ।। १७६ ॥ 
मकर लग्न में उत्पन्न व्यक्ति सन्तोषी, स्वमावसे तीत्र (आलस्य रहित), डर. 
पोक, सदेव पापकमंमं रत रहने वाला, सुन्दर मूरति वाला, कफ गौर वाधूसे 
पीडित शरीर वाला, लम्बी शरीर वाला तथा दूसरों को ठगने वाला 
होता 2 ।॥ १७६ ॥ 


धटोदये सुस्थिरतासमेतो वाताधिकस्तोयनिषेवणोत्कः । 
सुहत्स्वगात्रः प्रमदास्वभीष्टः शिष्टानुरक्तो जनवल्लमश्च ॥ १८० ॥ 
जिसका जन्म कुम्भ लग्नमे हो वह स्थिरता पूवक (सोच विचार कर) कायंकरने 
वाला, वायु विकार से युक्त, जलका अधिक सेवन करे वाला, भि्रों के लिए अपना 
शरीर ( स्वस्व) भपित करने वाला स्त्रियों का प्रेमी, शिष्ट पुरुषों की संगति करने 
वाला तथा लोगों का प्रिय होतादहै॥ १८० ॥ 


मीनोदयो तोयरतो मनुष्यो भवेद्रिनीतः पुरतानुक्‌लः । 

सुपण्डितः सूक्ष्मतनुः १४चण्डः पिसाधिकः कीतिसमन्वितश्च ॥ १०१ ॥ 
मीन लग्न के उदय काल में जिसका अन्महो वहू मनुष्य जल में अधिक 
आनन्द अनुभ्रव करने वाला, विनशन, स्तरीप्रसङ्ग के लिए सदैव उद्यत, सुबु, दुर्बल 


शरीर वाला, प्रतापी, पित्त प्रकृति वाला तथा यदस्वी होता है ॥ १८१ ॥ 
धनभाव पे स्थति राशियों का फल 


मेवे धनस्थे कुरते मनुष्यो धनं सुपणयधिविधैः प्रभूतः । 
सुनीतिषुक्त' तनयं प्रसूते ' चतुष्पदाठच' बहुपण्डितज्ञम्‌ ॥ १८२ ॥ 


१८२ भावसाशरी 


न्न 





धन भावम यदिमेष राशिहो तो मनुष्य विविध पुष्य कार्योसे मिक धन 
लाभ करता । सुन्दर नीति (सदार) से युक्त पत्र सन्तान को अन्म देने 


वाला, चौपायों से युक्त ( पश्ुप।लन मे रचि रशने वाला ) तथा विद्धानों की संगति 
करने वाला होता है।॥ १८२॥ 


वृषे धनस्थे लभते मनुष्यः कृषि परसादेन धनं सदैव । 
अनाभिधातं च चदुदाख्य तथा हिरण्यं मणिमौक्तिकद्यम्‌ ।। १८३ ॥ 


वृष राहि यदि धन भावमेहो तो मनुष्य निरन्तर कृषि कमंद्वारा धन लाभ 
करने वाला, अहिंसक पशुभों ( गाय-बंल-मैस भादि ) का पालन करने वाला तथा 
सोना, मणि एवं मुक्ता ( मोती) आदि बहुमूल्य रत्नों कासंग्रह के वाला 
होता है ।॥ १८३॥। 
तुतीयलम्ने धनगे मनेष्थो धनं लभेत्‌ स्त्री जनतश्च नित्यम्‌ । 
रौप्यं तथा काशखचनजं प्रभूतं हयाधिक साधुभिरेव सख्यम्‌ ॥ १८४ ॥ 


घन भावमे यदि भिथून लग्नहो तो मनुष्य स्व्रियोंसे घन लाभकरताहै। 
चादी, सोना, घोड़ा (माधुनिक युग मे वाहन मोटर-कार) आदि से युक्त तथा साघु 
(सज्जन) पुरुषों की संगति करने वाला होता है ।। १८४ ॥ 


चतुथराशौ धनगे मनुष्यो धनं लभेद्‌ वृक्षजमेव नित्यम्‌ । 
जलाद्धयं यद्वनमिष्टमोज्यं नयाजितं प्रीतिकरं सुतानाम्‌ ॥ १८५॥ 


धन स्थानमें यदि कक राशिहो तो मनुष्य निरन्तर वृक्षों से घन लाभ करने 
वाला { लकड़ी का व्यापारी, जंगल का ठेकेद।र अथवा जंगल विभाग में सेवारत) 
होता है । जल से भय, जंयली वस्तुओं ( कन्दभूल ) का रुचि के साथ सेवन करने 
वाला, नीति पूर्वकं धनार्जन करने वाला तथा पत्रों के साथस्नेह करने वाला 
होता है ॥ १८५ ॥ 


हे धनस्थे ल्मते मनुष्यो धनं तपोऽरप्यजनात्तु मानम्‌ । 
स्वोपकारं वणं प्रमृतं स्वविक्मोपाजितमेव नित्यम्‌ । १८६॥ 


धनभाव में सिह राशि स्थित होतो मनुष्य निरन्तर अपने पराक्रम से भजित 
किया हना अपार धन प्राप्त करता है । तपस्या ( साधना) में उनि रक्षने वाला, 
वनवासियों अथवा तपस्वी सन्त महाह्माभो हारा सम्मान प्राप्त के वाला, षी 
प्रकारसे उपकार करने वाला एवं विनन्न होता है। १८६॥ 


कश्योदये वित्तगते मनुष्यो धनं लमेद्‌ भूमिपतेः खकाष्चाव्‌ । 
हिरष्यमुक्तामणिरौप्यजालं गजास्वनानाविधर्वितजातम्‌ । १८७ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्यास्योपेता १८३ 


कन्या लरन यदि धनस्थयनमेंहो तौ मनुष्य भूमिपति (राज।, बड जमीन्वार) 
से घन, सोना, मोती-मणि एवं चाँदी काडर, हाथी, घोड़ा तथा विविध प्रकारकीः 
सम्पत्ति एवं व्रस्तुओं को प्राप्त करता है ॥ १८७ ॥। 


तुले धनस्थे बहुपुण्य जातं धनं मनुष्यो ल्मते प्रम्‌तम्‌ । 
पाषाणजं मृण्मवरमातिजातं सस्योद्धवं कमं मेकं नियम्‌ ।। १८८ ॥ 
घन स्थानमेतुला राशिहो तो मनुष्य ईमानदारी ओौर पश्रम ( पवित्र 
कर्यो) से अत्यधिक धन प्राप्त करने वाला, पत्यर-मिद्री, कठोर श्वम तथा कृषि 
(अस्त) से सम्बन्धित कायो को करने वाला होता है।। १८८ ॥ 


धने व्वलिर्यस्थ भवेच राशि. स्वषमंशोलं प्रकरोति नित्यम्‌ । 
विलातिनो मपरं सदव विवित्रत्राक्यं दविजदेवमक्तम्‌ । १०६॥ 
जित व्यक्तिके जन्म समयमे धन भावमें वृश्चिक राशि दहो वह्‌ नित्य अपने 
कलधम का पालन करने वाला, सुन्दरी स्त्रियो के प्रति सदव आसक्त ( वशीभूत ), 
अद्भुत बचन बोलने वाला ब्रह्मण मौर देवताभों का भक्त होता है।। १८६ ॥ 
धनुधंरे वितगते मनुष्यो धनं लभेत्स्वर्यविघानजातम्‌ । 
चतुष्पद घ ` विविधं यशस्वौ रसो द्भव धर्भविधानजातम्‌ ॥ १६० ॥ 
धनभाव मे यदिधनु राशि होतो मनुष्य रसे उत्पन्न धन तथा स्थायी 
सम्पत्ति ( सोने-वांदी, भूमि आदि) से सम्बन्धित धन का लाम करता है । विभिन्न 
प्रकार के पशुओं ( गय-मैस, घोडा, कुत्ता आदि ) को पालने वाला, यक्षस्वी, तथा 
धार्मिक क्रियाओं मे सबि रखने वाला होता है।। १९० ॥ 


मृगे धनस्थे लभते मनुष्यो धनं प्रपञ्चवंविविषंर गयेः। 
पेवासभूत्थं च सदा नुपाणां कृषिक्रियार्भिस्व विदेशङ्गात्‌ ॥ १९१ ॥ 
धन भवमें मकर रारिहोतो मनुष्य विवि प्रपञ्चो एवं साधनोंते, 
सदैव राजं कीसेवासे, कृषि हारा, तथा विदेशके सम्पकंसे षन लाभ 
करता है। १६१॥ 


धटे धनस्थे लमते मनुष्यो धनं मूतं फलपुष्पजातम्‌ । 
जनोद्धवं साधु अनस्य भोज्यं महाजनोत्थं च परोपकारी ॥ १६२ ॥ 
कुम्भ रारि यदि भनस्थानमेहो तो मनुष्य फल-फूलके व्यापार से बहुत 
विक धनप्राप्त करता है। बडे-वरे (शेष्टी ) लोगों से तथा जन साधारणसे षन 
संग्रह कर साधूुतेव। कले वाला परोपकारी होताहै॥ १६२॥ 
भत्स्ये धनस्थे लभते मनुष्यो धनं ्रभूतेनियमोपवासंः । 
विचाप्रभावालिषिसङ्गमाच्च सदा पितुभ्यां समुपाजितं च ।॥ १९३ ॥ 


१८४ मानसागरी 





धन स्थानमें मीन रािहो तो मनुष्य. अत्यधिक नियम ( साधना ) उपबास 
( इत ) अर्थात्‌ घा राधना एवं विद्या हारा, निधि ( सस्चित द्भ्य यालाटरी) कै 
क्ंयोग से तथा माता-पिता हारा अजित धन का लाभ करता है। १९६३॥ 


तृतीय भावस्य राशिरयो का फल 
तृतोयसंस्ये प्रथमे च राशौ द्विजातिमित्र्च मवेन्मनुष्यः । 
परोपकारः श्रवणैः शुचिश्च भ्रभूतविद्यो नुपपूजिताङ्खः ।। १६४ ॥ 
तृतीय भावम यदिमेष राशिहोतो मनुष्य ब्राह्मणों का मित्र, परोपकारी, 
कथा-पुराण आदिके श्रवण से पवित्रात्मा, विविध विद्याओोंका ज्ञाता तथा राजा 
हरा सम्मानित होतादहै। १६४॥।। 
वृषस्तृतीये कुरुते मनुष्यं नरेन्द्रमित्रं प्रचुर तापम्‌ ॥ १९५। 
सुवित्तदं भू।रय्लोनिधानं सूरि कवि ब्राह्मणरक्तचित्तम्‌ ।॥ १६५ ॥। 
तृतीय मावमें वृष राशिटहोनेसे मनुष्य राजा का मित्र प्रबल प्रतापी, मुक्त 
हस्त से दान करने वाला, सर्वत्र यशस्वी, विद्रान, कवि एवं ब्राह्मणों मे श्रद्धा रश्ने 
वाला होता है ।॥ १६५॥ 
तृतीयसस्ये मिथुने च लगे करोति मत्यं वरयानयुक्तम्‌ । 
स्त्रावल्लभं सत्यमुदारचेष्टः कुलाधिकं पूज्यतम नृपाणाम्‌ ।॥ १९६ ॥ 
तृतीय भावमें मिथुन लग्नहो तो मनुष्य उत्तम वाहन से युक्त, स्व्री-प्रेमी, 
सत्यवादी, उदार, कुल में श्रेष्ठ, तथा राजां द्वारा पूज्य होता है । १६६॥ 
कुलीरराश्चौ सहजं प्रयति मंत्रं लभेद्रेश्यगृहषदेशे । 
कृषीवलं धर्मकथानु रक्तं सदा सुशौलं मदकंमतख ॥ १९७ ॥ 
यदि ककं राशि तृतीय भाव्मेहो तो जातक की मित्रता वश्य वे ( ब्यापा- 
रियोँके परिवार) सेहोतीदहै। तथा वहु कृषि कर्म करने वाला धर्माचरणं एवं 
कथा में श्रद्धा रखने वाला, सुशील तथा स्वाभिमानी होता है। १६७ ॥ 
तहे तृतीये कुरते मनुष्यं शुरं कुमित्रं वरविंत्तलुञ्धम्‌ । 
वधात्मकं पापकथानुरक्तं प्रचण्डवाक्यं नहि गवितं च । १९० ॥ 
तृतीय भाव में तिह राशि हो तो मनुध्य शूरवीर, दुष्ट लोगों का मित अधिक 
धन का लोभी, हिसा करने वाला, पापकथा मे अनुरक्त कठोर वश्वन बोलने वाला 
तथा अभिमान से रहित होता है ॥ १९०८ ॥ 
तुतीयमावस्थितलभ्नकन्या  शास्तरानुरक्तं मनुजं सुष्यालम्‌ । 
नानापुहृत्संस्तुतकल्पकोपं प्रियद्विजं देवगररभमक्वम्‌ ।॥ १६९ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योवेता १८५ 





तृतीय भाव मे कंभ्या लषन स्क्रिति हो तो मनुष्य शास्त्रों के भध्ययन मे लीन 
रहने वाला, सुक्षील, विचिष भिर््रोद्ारा उत्तेजित करने पर क्रोषै करने बला, 
ब्राह्यणो का प्रिय, देवता मौर गुर का भक्त होता है । १९१९ ॥ 
तृतीयसंस्ये तु तुनार्मिधाने मंत्री भवेत्पापपरंमनुष्यैः। 
लौत्यात्मको लौल्यकथानुरक्तः साधं मनुष्यैः स्वसुताल्परकंश्च ।।२००॥ 
तृतीय मावमें बुला राशिहोतो पाप कमंमे लीन मनुष्यों के साथ मित्रता 
होती है । चञ्चल स्वभाव वाला, चञ्चलता पूरणं बातोंकोप्रेम से सुनने वाला, 
मनुष्यों ( ब्हूत लोगों) के साथ रहने वाला तथा अल्प सन्तान से युक्त 
होता है ।। २०० ॥ 
अलौ तृतीये मनु जस्य मंत्री भवेत्‌ सदा पापजनर्दरिदरः। 
कृतघ्नघा्तः कलहानुरक्तंग्यपेतलक्षंजंनताविरद्धं : ॥ २०१॥ 
वृश्चिक राशि यदितृतीयमावमें होतो उस व्यक्ति की मित्रता सदेव पापी 
दरिद्र, कृतघ्न ( उपकार के बदले उपकार करने वालों) धातक, ्षगडाल्‌, 
लक्ष्य से हीन, तथा लोक-विशद अ.चरण करने वालोंके साथटोतीदहै। २०१॥ 


चापे तुतीये च भवेन्मनुष्यो मंत्रो सुशुरो नृपसेवश्श्च। 
चित्तः स्वरंधंमंपदंः प्रसम्नो नृपानुरक्तो रणकोविदश्च ।। २०२ ॥ 


धनु राति यदितृतीय भावमे होवे तो मनुष्य मन्त्री, अत्यन्त साहसी, राजाका 
सेवक, मन, वाणी गौर धम-आचरण ( सत्कर्म ) से सदैव प्रसन्न रहने वाला, राजा. 
मे विश्वस रशने वाला रणनीति में कशल होता है ।॥ २०२॥ 
नङ्गस्तृतीये च नरस्य यस्य करति सौम्यं सहितं सुतादयः । 
नित्य॒ सुहृदेवगुरुप्रसक्तं महाधनं पण्डितमप्रमेयम्‌ ।। २०२ ॥ 
मकर राशि जिस मनुध्यके जन्म लग्न के तीसरे भावमं हो बह अत्यन्त 
सौम्य ( शान्त, सुशील ) पृत्र-पौत्रों से युक्त, प्रतिदिन मित्र, देवता एवं गुर 
का सत्कार करने वाला, धनवान्‌ तथा अद्वितीय प्रतिभा युक्त विहन 
होता है । २०३ ॥ 
कुम्भे पृतीये लभते मनुष्यो त्रीं व्रतजंबंहुकीतियुक्तंः । 
क्षमाधिकंः सत्यपरः सुशीलं्गातिश्रि्यगोपवरंः खलश्च ॥ २०४ ॥ 
ततीय भावम ङ्रुम्म राशिहो तो मनुष्य, व्रत विधान को जानने वालो ( धमं 
शास्तरि ), यशस्वी, क्षमाशील, सत्यवादी, सुशील, संगीत में रुचि रखने वाले, 
ष्वालो, तथा दुष्टजनों के साथ मत्री करने वाला होता है ॥ २०४॥ 


१८६ मानसामरी 





तृतीथमवस्थितमीनरादौ नरं प्रसूतं बहुवि्तयुक्तम्‌ । 
पुत्राल्ितं पुण्यधनेश्पेतं त्रियातियि सवंजनाभिरामम्‌ ॥ २०५॥ 
तृतीय भाव मे यदि मीन राहि हो तौ मनुष्य जन्मजात धनवान्‌ पुत्रवान, पुण्य 
रूपी धन से युक्त, अतिथि प्रेमी, तथा समी लोगों का प्रियप।चर होता है ॥ २०५॥ 


यतुथं भावगत राशिफल 


मेषे सुखस्थे लभते सुखं च चतुष्पदेभ्योऽथ विलासिनोम्याम्‌ । 
भोगेविचित्रैः भरचुरान्नपानैः पराक्रभोपा्जितमर्दनेश्च । २०६॥। 
मेष लगन चतुथं भावमे होतो वह व्यक्तिपशुओं, दो-दो स्त्रियों, विवि प्रकार 
की उपभोग वस्तुओं, अत्यधिक शाने पीने की वस्तुमों, अपने पौरुष से अजित भन 
तथा मदन ( मालिक्ञ अथवा व्यायाम ) से सुख प्राप्त करता है । २०६॥ ` 


वृषे सुखस्थे लमते सु्ानि नरोऽतमान्येविविधंश्व मोगैः। 
शौर्येण भूपालनिषेवणेन ` श्रियोपचाररौनियमंत्रतंश्च ॥ २०७ ॥। 
वृष राशि सुख ( चतुथं ) माव मेहो तो मनुष्य अत्यधिक सम्मानित अनो, 
अनेक उपभोग करने वाली वस्तुओं, पराक्रम, राजाभों की संगति, मनोनुकूल 
व्यापार, संयम-नियम एवं व्रतो (रा सुख प्राप्त करता है ॥ २०७ ॥ 
तृतीयराशौ वृखये सुश्षानि लमेन्मनुष्यः प्रमदाकृतानि । 
जलावगाहैवंनसेवयां च प्रमूतपुष्पाम्बरसेवनेन ॥ २०५ ॥ 
मिथुन राशि चतुयं भावम टो तो मनुष्य, स्वि द्वारा जल क्रीडा, वन-उपवन 
( शराकृतिकं सौन्दयं के बीच ) विहार करने से, अधिक्‌ (विविध) पष्प भौर वरस 
के सेवन से आनन्द-सुख प्राप्त करता है ।। २०८ ॥ 
कुलीरराशिः कुर्ते सुश्षस्थो नरं सुरूपं सुमगं सुश्षीलम्‌ । 
स्त्रीसम्मतं सर्वगण: समेतं विद्याविनीतं जनवल्लभं च ॥ २०९॥। 
चतुर्थं भाव में स्थित्र ककं रक्षि मनुष्य को सुन्दर, सौभाग्यशासी, स्त्रीके साय 
अनुकूल, सर्वगुण सम्पन्न, विद्या हारा विनन्र ( विनन्न विदधान ) तथा अन प्रिय 
बनाती है ।। २०६ ॥ 
खिहे सृशस्थे न सुखं मनुष्यः प्रप्नोति जातु प्रषुरधकोपात्‌ । 
कन्यां भरसूति च दरिग्रषङ्गात्नरो भवेश्छोलविवजितश्व ॥ २१० ॥ 
सिह राशि धुख मावमेहो तो मनुष्य अत्यस्म क्रोषके कारण सुख ते रहित, 
कन्या सम्ततिवाला, दर्द की संगतिके कारण शील ( सौजन्य) ते रहित होता 
2 ।॥ २१० ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीग्याश्योपेता १८७ 





कुमित्रसङ्गो धनसंश्चयाच्व कंन्धागृहे बन्धुगते मनुष्यः । 
पशुन्यसङ्खाल्ल भतेऽतुशानि चौर्येण शुदं न विमोहनेन-।। २११ ॥ 
कन्या राशि यदि धतुं मवमे स्थित हो तौ मनुष्य धन संग्रहुके कारण दुष्ट 
लोगो का साथ करत) है, पिशुन ( चुगल शोर ) लोगों, चौर तथा मोहन ( इन्दर 
जाल विशुद्ध छल ) दवारा कष्टपातादहै। २११॥ 


तुला सुस्था च नरस्प यस्थ करोति सौम्यं शुमकर्मदक्षम्‌ । 
विद्याविनीत सततं सुक्वाढथ ` प्रसन्नचित्तं विभवः समेतम्‌ ।। २१२ ॥ 


जिस मनुष्य के चतुथं मावमें तुलाराशि हो वह्‌ सौम्य शुभकार्यं में निपुण, विचा 
से विनम्र, निरन्तर सुख सम्पश्च, प्रसन्न चित्त, तथ घन से युक्त होता है।॥ २१२॥ 


शलौ चतुथं विपदा समेतं नरं सुकीक्ष्णं परमोतचितम्‌ । 
प्रम्‌ततेवं गतवीयंदपं परः सुदक्षर्मतिभृद्िहोनम्‌ ॥ २१३ ॥ 
वृश्िक राक्ति चतुथं भवमेहोतो मनुष्य विपत्तियोंसे युक्त, उग्र स्वभाव 
वाला, दूसरों से भयभीत, बहुत लोगों का सेवक, दूसरों के प्रभावसे नष्ट शक्ति 
एवं गवं वाला ( मानमदित ) , मत्यन्त निपुण एवं बुद्धिमान व्यक्तियों के सम्पकंसे 
रहित होता है ॥ २१२ ॥ 
चपे सुखस्थे लमते मनुष्यः सुखं सदा सङ्खरसेवनेन । 
ततकीत्तनेनव हयंविवित्रंः सेवा सुखं स्वेन ।नचन्धनेन ॥ २१४॥ 
घन राशि यदि चतुथं भावमेहो तो मनुष्य संग्राम में भागलेने, युद्ध सम्बन्धी 
अर्थासे, विचित्र प्रकार की धुडसवारी, सेवाकाय तथा अपने इवारारनिमित यौज- 


नाभो से सुल प्राप्त करता है। ( अर्थात्‌ एसा व्यक्ति सेनामें अधिकारी होता 
है । )॥ २१४॥ 


मृगे सुश्वस्थे सुखमाङ्मनुध्यः सदा भवेत्तोयनिषेव्रणेन । 
उद्यानवापीतटसङ्गमेन मित्रोग्चारः सुरतप्रधानः॥ २१५॥ 
मकर राशि यदि षलुथं भावमेहो तो मनुध्य जल के सम्पकं से (जल मे उद्पन्न 
बस्तुओं, अटहाज सेवा, आदि), उचने, तालाबके किनारे, मित्रों के धाव 
ध्यवहार तथा स्त्रीकेसाथ बिहारकरने से सदेव सुख का नुमव करता है ॥२१५॥ 
घटे सुशस्ये प्रमदार्मिधानात्राप्नोति सौख्यं विविधं मनुष्यैः । 
मिष्टान्नपानं फलद्ाकपत्रविदग्धवाक्येश्व समत्सु क्वः ॥ २१६ ॥ 
चतुथं भावम यदि कुम्भ राशिहो तो मनुष्य स्त्री के सहयोय से मिष्ठान्न, 
पेय पदार्थं, फल, साक, पत्र ( ताम्बल ) भादि पदार्थो से, वैदुष्यपूणं वतिं तथा 


१८८ मानसामरी 





उत्सुकता पैदा कस्ने वाली बातोंसे विविष प्रकारके सुलोकोभ्राप्त करता 
ह ।। २१६॥ 

मीने सुखस्थे तु सुखं मनुष्यः प्राप्नोति सौख्यं जलसंश्षयेण । 

शनैश्चरो देवसमुद्धवंश्व स्थानैः सुवस्त्रः सुधनेविचित्रं : ॥। २१७ ॥ 


मीन राशि सुख भमावमेहो तो मनुष्य जलके आश्रय से, देवतानों के निमित्त 
सञ्नित भूमि एवं धन से प्राप्त वस्तुओं हारा, सुन्दर वस्त्रों, तथा विबिष प्रकार 
के धनसे सुख भोग करता है ।। २१७॥ 


पञ्चम भावगत राशियों का फल 


मेषे सुतस्थे लमते मनुष्यः प्रियेण पुत्रान्वितचेतसा च । 
सुरत्सुखानीह कृतानि यानि पापानुरक्ताक्लचित्तयुक्तः ॥ २१८ ॥ 


सुत भाव में मेष राशिहो तो मनुष्य अपने प्रिय जनों एवं पुत्र में अधिक स्नेह 
रखने से तथा अपने कायो से सुख प्राप्त करता है । परन्तु पापकम मे आसक्त रहने 
से व्याकुल चित्तवाला होता दहै ।॥ २१८॥ 


वृषे सुतस्थे नियतं मनुष्यः प्राप्नोति कन्यां सुभगां सुरूवाम्‌ । 

अपत्यहीनां बहुकान्तियुक्तां सदानुरक्तां निज मतृ घमं ।। २१६ ॥ 

वृष राशि पञ्चम मावमेंहोतो मनुष्य सौभाग्यश्लालिनी, सुन्दरी, कान्ति 
युक ( तेजस्विनी ), निरन्तरपति के धमं म अनुरक्त रहने वाली ( परति पराया ) 
परन्तु सन्तान हीन कन्या प्राप्त करतादहै।। २१६॥ 


तृती यराहौ सुतगे मनुष्यः प्राप्नोत्यपत्यानि मनःसुखानि । 
सुशीलयुक्तानि गुणाधिकानि प्रीत्या समेतानि बलाधिकानि ।। २२० ॥ 
पञ्चम भावमें यदि भि्रून राशिहोतो मनुष्य मन को प्रसन्न करने वाले, 
सुशील, गुणवान्‌, प्रेम-व्यवहार से युक्त तथा बलवान्‌ पुत्रों को जन्म देता है ।२२०॥ 
कंक सुतस्थे जनयेन्मनुष्यः पुत्रान्‌ प्रसिद्धान्‌ पितृतोषकाश्च । 
विस्तीणंकीतिश्च महानुमावान्‌ धनेन विधाविनयेन युक्तान्‌ ।॥ २२१॥ 
ककं राशि प्म भावमेंहो तौ मनुष्य प्रसिद्ध, पिता को सन्तुष्ट करने वाले, 
विस्तृत यशवाज्ते, महान्‌ ( महापुरुष ), धनवान्‌, तथा विद्वा मौर बिनय से युक्त 
पुत्रो को जन्म देता है॥ २२१॥ 
कहे सुतस्थे जनयेन्भनुष्यः क्ररस्वमावान्ञथनेन कान्तान्‌ । 
मांठभ्रयान्‌ स्ीजनकान्‌ पुतीत्रान्‌ विदेशभाजः क्षुणया समेताम्‌ ।२९२॥ 


'मनौरमा' हिन्दीभ्यास्योपेता १९ 





पञ्वम भाव मे यदि सिह राणि हो तौ मनृच्य क्रुरस्वभाव काले, भुष्दर नेत्रो 
ते दर्दनीय, मस प्रेमी, कन्या सन्तान वाले, स्वभावसे उश्र, विदेशे रहने भोले 


तथा निरम्तर शाने की इच्छा रखने वले धूरो को अन्मदेताहै।॥ २२२॥ 


कष्या यवा पश्वमगा तदा स्युः कन्या नराणां तनयैविहीनाः । 
पतिप्रियाः पष्यतराः प्रगल्भाः भ्रशान्तपापाः प्रियमूषणाश्ब ।२२३॥ 
कन्या राक्षि यदि पड्म भावमेस्थितहोतो उस्र ष्यक्तिको कन्या सन्तति 
ही होती दहै परन्तु कन्याये पूर््रोते हीन पति को प्रिय, पृण्यकायं करने वाली, षष्ट 
( प्रौढ ), पाप हीन, तथा आमूषणों में रुचि रखने वाली होती है ।॥ २२३॥ 


तुला यदा पश्चमगा नराणां तदा सुशीलानि मनोहराणि । 
भवस्स्यपत्यानि सलू्पकाणि क्रियासमेतानि शुभेक्षणानि । २२४ ॥ 
जिसके पञ्चम मावमे तुला राशिहो उस व्यक्ति की सन्तान सुशील, मनोहर, 
सुन्दर स्वरूपवाली, काये में संलग्न ( क्रियाक्षील ), तथा सुन्दर अखों वाली होती 
है ।। २२४॥ 
कीटे सुतस्थे जनयेन्नृयोनौ पुत्रान्‌ मनुष्यः सुभगान्‌ सुशोलान्‌ । 
अजातदोषान्‌ रणयेन युक्तान्‌ निजेऽत्र धमं सततं मनुष्यः ।'२२५॥ 
वृश्चिक राशि पञ्चम मावमेहो तो मनुष्य पुरूष योनिम, सौमाग्यक्ाली 
सुशील, दोषों से अनभिश्ष, प्रेम से युक्त, अपने कुल धमंमे अनुरक्त पुत्रको जन्म 
देता है । २२५॥ 
चापे सुतस्थे जनयेन्णनुष्यः सुतान्‌ विचित्रान्‌ हयलुभ्धदक्षान्‌ । 
धानुष्कचर्यान्‌ हतशतुपक्षाच्‌ सेवात्रियान्‌ पायिवमानयुक्तान्‌ ॥ २२६ ॥ 
जिसके पञ्चम भावमे धनराशि हो उस व्यक्ति के पुत्र विचित्र षोडोंके प्रति 
भासक्त, धुटसवारीमे दक्ष, घनूविद्यामे निपुण, दात्रुपक्ष कोनष्ट करने वाले, 
सेवा कार्य मं रवि रखने वाले तथा राजा से सम्मानित होते है ।। २२६॥। 
मृगे सुतस्थे जनयेन्मन्‌ष्यः पुत्रान्‌ सदा पापमतोन्‌ कुरूपान्‌ । 
क्लोबान्‌ कुभावान्‌ विगत्रभावान्‌ सुनिष्टुरान्‌ प्रेमविवजितांश्च ।। २२७ ॥ 
मकर राक्षि यदि पञ्चम भावमेहो तो मनुष्य सदैव पाप बुद्धिवाले, बुखूप, 
नपुंसक, दुष्ट भावना वाले, प्रभावहीनः, निष्ठुर तथा प्रेमसे रंहित पुत्रको जन्म 
देता ह ॥ २२७ ॥ 
कुम्भे सुतस्थे स्थिरतासमेतान्‌ गम्भीरचेष्टानतिसत्ययुक्तान्‌ । 
पुत्रान्‌ मनुष्यो जनयेत्रषिद्धान्‌ कष्टंसहानु पुण्ययश्चः ४तान्‌ ॥२२८॥ 


१९० मानसागरी ` 





जिसके पञ्चम भाव मे म्म राशि हो उसके यहा चन्म लेने बाले पृत्र स्थिर 
बुदधिवाले, बम्भीर चेष्टां से युक्त, अधिक सत्यवादी, प्रसिद्ध, कष्ट सहने में समर्थ, 
तथा अत्यधिक पुष्यात्मा एवं यशस्वी होते ह ।। २२८ ॥ 


मीने सुतस्वे ललितान्‌ सुरक्तान्‌ पुत्रान्‌ मनुष्यो लभते व्यवायात्‌ । 
रोगेः समेताश्च सदा कुरूपान्‌ सहास्यकान्‌ स्त्रीसहिताम्‌ सदैव ।२२१।॥ 


मीन राशि पञ्चम भमावमेहोतो उस स्यक्तिको रक्तिम गौर वणंके सुम्डर 


पत्र कालाभ होता ह। यदि पापश्रह ुक्त राछ्ि हो तो पत्र रोगी, कुरूप, हास्या- 
स्पद, तथा सदा स्त्री से युक्त होता है ॥ २२९ ॥ 


षष्ट भावगत राशिफल 


मेषे रिपुस्थे भवेद्धि वैरं सदा नराणां वृषभे रिपृस्थे । 
अपत्यमार्गागतकामिनीनां सङ्खो नितान्तं निजबन्धुवगे ।। २३० ॥ 


रिपु (ठे ) भावमेमेषराशशिहोतो उस व्यक्तिसे सभी लोगोंसे शत्रुता 


हो जातीदहै। यदि वृष राक्षिहो तो अपत्य कोटि की स्त्रियों ( कन्यागों } के साथ 
संग करनेके कारण वन्धु वे (परिवार) से बहिष्कृतहोयाबैर होता है ।॥२३०॥ 


तृतीयराशौ रिपुगे नराणां वैरं भवेत्सत्रीजनितं सदैव । 
तथा नराणां निहितं च पापंवंणिम्बननोचिजनानुरक्तः ॥ २३१ ॥ 
मिथन राशि यदिषष्ठभावमेंटोतो सदैव स्वरियोंके कारण बैर होताहै। 
इस प्रकारके योगमें पापकम में लीन, बनिया ( व्यापारी), वथा नीचजनोंके 
अनुयायियों के साय उस मनुष्य की.शवुता होती है ।। २३१ ॥ 
ककं रिपूस्ये सहसा मयं च भवेन्मनुष्यस्य पुतातुरस्य । 
समं द्विजनदरंस्व नराधिपंश्च महाजनेनव परानुरोधातु ।। २३२ ॥ 
ककं र्षि यदि षष्ठ मावमेंहोतोपृत्रके अतिशय स्नेहे तथा दसर्रौके 
अनुरोष ( चुगली निन्दा ) ते, शष्ठ ब्राह्मण, राजा एवं महापुरुषों के साथ जचानक 
वैर हो जाता है।॥ २३२॥ 
हे रिपस्थे भ्रमवेच्व वैरं पुत्रीभवं बन्धुजनेन नित्यम्‌ । 
धनं क्षणासस्य विनिर्जितं च यद्रा मनुष्यस्य पराङ्गनाभिः ।। २३३ ॥ 
षष्ठ मावमे यदि सिह राशषिहोतो पत्री के सम्बन्ध से स्वैव भाई-बन्धुबोंसे 


रत्रुता होती है तथा उसका धन क्षणमात्रमे (ङ्रुगाहारा ) अथवा परासरी 
हारा जीत ( हर ) लिया जाता है॥ २३३॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता ४११ 


कम्यास्थिते दात्रगृहे स्वव॑ररसंयुतिनिधंनता नराणाम्‌ । 
दुह्वारि णीभिश्च सूनिम्ननामिवेश्यामिरेवाश्रयवजितामिः । २३४ ॥ 
कम्या राक्षि जि्के षष्ठ भावमेंहो वह व्यक्ति शत्रुता से रहित होता 
परन्तु हुराबारि नी, सुन्दर निम्न नाभिवाली ( अर्थात्‌ अति सुन्दरी ) वेष्याओं एबं 
आश्चय रहित ( अनाथ ) स्तयो के सम्पकंमें आकर घन नष्ट कर निर्धन दहो जाता 
है ।। २२४ 


हुलाधरे शत्रुगृहे नरस्य निधिस्थितस्य प्रभवेच्च वरम्‌ । 
कायं सुधर्मस्य नरस्य साधोः स्वबन्धुवर्गाच्च निजालयाल्व ॥ २३५ ॥ 


तुला राशि शत्रु ( षष्ठ ) भावमेहो तो मूमिस्थित द्रव्यके कारण तथा धम 
कायं एवं साधुसेवा के कारण अपने माई बन्धुओों तथा अपने धर से उस मनुष्य का 
वैरहो जाता है ।॥ २३५॥ 
कौप्य रिपुस्थे ५भवेदि व॑र सादं द्विजिह्व श्च सरीसुपेश्च । 
ठयालंमृगंर्चौरगणंर्नणां सवः भुधन्यंश्व विलासि्भिश्व ।। २३६ ॥ 
वृश्चिक राहि यदि षष्ठ मावमेहोतौ चुगली करने. वालों सरीसुप (विच्छ 
आदि ), सर्प, मृग, चोरोंके दल, प्रतिष्ठित व्यक्तिगों तथा विलासी लोगोँके 
साभ शत्रुता होती है ।। २२३६॥ 
चापे रिपुस्ये नु भवेच्च वरं शरः समेतश्च सरोगकंश्च । 
सदा मनुष्यश्च हयेश्च नागे: पृण्यंस्तथान्येः परव ञनाच्च ।। २३७ ॥ 
धनु राशि यदि षष्ठ भावम स्थितहोतोशरधारण करने वालों (तीरन्दाजो) 
रोगियों, बोरा, हाथियों, अन्य पुण्य कार्यों तथा दूसरों को ठगने वाले मनुष्योंके 
साथ देष रहता है ।॥ २३७॥। 
मृगे रिपुस्थे च भवेच्च वरं सदा नराणां धनसम्भवं च । 
मित्रैः समं साधुजने सहाये प्रभूतकालं गृहसम्भवं चः। २३८ ॥ 
मकर राशि षष्ठ भावमेंहो तो धन सम्बन्धी विवाद तथा दीषंकालिक गृह 
कलह के कारण मित्रंसे भीहात्रुताहो जाती है केवल सज्जन धुरुषही सहायक 
होते है ।॥ २३८॥ 
कुमे रिपूस्ये मनुजस्य वरं नाराधिपेनंव जलाश्चवंश्ब । - 
वापीतडागादिभवं च नित्यं कषत्राधिपरुच्चचलितंन्‌ भिश्च ।॥। २३९ ॥ 


वत्रुभाव मे कुम्भराकशि स्थितो तो उस मनुष्य के साथ राजाभों को, जलके 
आश्रित रहने बाले ( मत्लाहू भादि, ) वापी, तालाब ( जल-मषछली, मादि जल से 





१९२ मानलामरी 


उल्यश्न वस्तुओं ) के सम्बन्ध से, शेष के भविकारि्यो, तथा प्रतिष्ठित पुरषो की 
शत्रुता होती है ।। २६९ ॥ | 
मीने रिपुस्थे च भवेल्तरा्णा व॑र च नित्यं सुतवस्त्रजातम्‌ । 
स्त्रीहेतुकं स्वीयभवं पराणामपि प्रियाणामितरेतरं च ।। २४० ॥ 
भौन राशि यदि किसीकेषष्ठ भावम हो तो वह्‌ व्यक्ति पुत्र, वर्त्र, स्त्री, 
अपने विचारों, दृसरों के विचारों तथा एक दूसरे के हित ( स्वार्थं) को लेकर 
सदा देव भाव रखता है ।। २४० ॥ 


सप्तम भावगत राशिफल 


मेषेऽस्तसस्थे च भवेत्कलत्र क्रं नराणां च खलस्वभावम्‌ । 
पापानुरक्तं कटिनं नृद्यसं वित्तप्रियं साध्यपरं सदव । २४१ ॥ 
सप्तम भावमे यदि मेष राशि होतोडस व्यक्तिकी पत्नी, क्रूर, दुष्ट 
स्वभाव वाली, पाप कमं मे लीनः, कठोर, निदंय, घन लोलुप तथा संदैव अनुशासन 
हीन होती है ।। २४१ ॥ 
वृषेऽस्तसंस्थे च भवेत्कलत्रं सुरूपकं वाक्प्रणतं भरशान्तम्‌ । 
प्रतिव्रताचास्गुणेन युक्तं कलाधिकं ब्राह्मणदेवभक्तम्‌ 1 २४२ ॥ 
वृष रारि सप्तम मावमेंहो तो उसकी स्त्री सुन्दर स्वरूपवाली, विन्न, 
शान्त स्वमाव वाली, पतिव्रता, अच्छे गुणों से युक्त, कलाभओों वो ज्ञाता, तथा ब्रह्मण 
आर देवताओं की भक्त होती है। २४२ ॥ 
तृतीय शिः कुर्ते कलत्र कलत्रयुक्तं सुधनं सुवृत्तम्‌ । 
रूपान्वितं सवंगुणोपपन्नं विनीतवेषं गणवजितं च ।। २४३ ॥ 
मिथूुनरा्ि यदि कलत्र (सप्तम ) भावमेहोतो वह्‌ स्त्री से युक्त, धनवान, 
चरित्रवान्‌, रूपवान्‌, सर्वगुण सम्पन्न, विनच्न वेष वाला, तथा किसी प्रकारके 
संगठन से पृथक्‌ रहत। है ।॥ २४३ ॥ 
ककण युश्ते च मनोहराणि सौभाग्ययुक्तानि गुणान्वितानि । 
भवन्ति सौम्यानि कलत्रकाणि कलङ्खुहीनानि सुसम्मतानि ।२४५॥ 


सप्तम भाव ककं रारिसेयुक्त होतो मनुष्य, सुन्दरी सौमाग्यक्षालिनीः 
गुणवती, सौम्य, कलद्कुते हीन तथा आदे का पालन करने वाली क स्त्रियोसे 
युक्त होता है ॥ २४४ ॥ 
सिषिऽस्त स्थे च भवेत्कलत्रं तीव्रस्वभावं च खलं च दृष्टम्‌ । 
विहोनवे्ष परस्मयुक्तं वसु्रियं स्वल्यकृतं कृषं च ।२४५। 





"मनो रमा" हिन्दीम्याख्योपेता १९३ 


सिह रारि सप्तम भावमेहोतोस्त्री उग्र स्वमाव वाली, अल ˆ कलह करने 
वाली ), दुष्ट, बेषरहित ( केव तथा वस्त्रौ को अस्तव्यस्त रखने वाली}, पराये 
धरमे रटने वाली, धनलोलुप, अल्प कार्यं करनं वाली तथा दुर्बल होती है ॥२४५॥ 
कन्यास्तगा चेन्मनुजस्य दाराः पुरूपदेहास्तनर्यंविहीनाः । 
सौमाग्यभोगाथनयेन युक्ताः प्रिर्यत्रदाः सत्यधनाः भरगल्माः ।॥ २४६ ॥ 
कन्या राहि सप्तम भावमेहोतो उस व्यक्ति की स्त्री सुन्दर स्वशूप वाली, 
पुत्रोसे हीन, सौमाग्य ( पति सुख), भोग, धन तथा राजनंतिक गत्तिविधियोँसे 
युक्त, प्रियवादिनी, सत्य पर दढ रहने वाली तथा घृष्ट होती है ।। २४६ ॥ 
तुनेऽस्तसंस्थे गुणगविताङ्गघो भवन्ति नार्यो विविघप्रकाराः , 
पुण्यप्रिया घ्म॑पराः सुदान्तप्रभ्‌तपृत्राः प्राथवीविनीताः ।। २४७ ॥ 
तुला राशिसप्तम मवमे होतो अपने-अपने गुणों पर गवं करने वाली, 
पूञ्य कार्यं करने वाली, धमं परायणा, शिष्ट एवं भधिक पुत्रों वाली, पृथ्वीतुल्य 
क्षमाशील \स प्रकार विविध गुणो से सम्पन्न कई स्त्रियो से युक्त वह॒ व्यक्ति होता 
है ।। २४७ ।। 


कीटेऽस्तसंस्ये विकलासमेता भवेच्च भार्या कृपणा नराणाम्‌ । 
सुशिक्षिता च प्रणयेन हीना दौर्भाग्यदोषेवि'वघंः समेता ।। २४८ ॥ 
वृश्चिक राशि यदि सप्तम मावमो तोरएमसे मनुष्यों की परिनियां विशेष 
प्रकार की कलाओं से युक्त, कृपण (कजम), पुणं रूप से रिक्षा प्राप्त, प्रेम-ग्यवहार 
से हीन तथा दुर्मग्यसूचक दोषों से युक्त होती है| २८ ॥ 
चपेऽस्तसंस्थे च भवेत्कलत्रं नृणां सुदुष्टं विगतस्वमावम्‌ । 
विल्लस्तलज्जं परदोषगक्षं युदप्रियं दम्मसमन्वितं च ॥ २४९ ॥ 
धन्‌ र। शि यदि सप्तम भावमेंहो तो उस व्यक्ति की स्त्री अत्यन्त दुष्ट, 
मब्यवह्‌'रिक, निल॑ज्ज, दूसरों के दोषों की छिपाने वाली, क्षगडाल्‌ तथा घमण्डसे 
युक्त होती है ॥ २४६ ॥ * 
मकरो यस्य च शने भार्या दम्भान्विताऽधमा। 
निलंज्जा लोलुपा क्रूरा दुःस्वमावा च दुःखिता ॥ २५० ॥ 
जिस ष्यक्ति के सप्तम भावम मकर राशिहो उसकी पत्नी धमण्ड से युक्त, 
अधम, निर्लज्ज, लोमी, क्र्‌र, दृष्ट स्वभाव वाली, तथा दःखी होती है ॥ २५० ॥ 
घटेऽस्तसंस्थे च मवेत्कलत्रं नृणां सुदुष्टं विगतस्वमात्रम्‌ । 
देव द्विजेभ्यः सततं हृष्ट धर्मध्वजं सत्यदयासमेतम्‌ । २५१ ॥ 


१३मा०्सा० 


१९४ मानसागरी 


ण्यक यरय 





सप्तम माव मे यदिकुम्भराशिहो तो उस व्यक्ति की पत्नी अत्यन्त दृष्ट, 
व्यवहार से हीन, देवता ओर ब्राह्मणों द्वारा सदैव प्रसन्न रहने वालीःषमंकीरन्ञा 
करने वाली, सत्य एवं दया से युक्त होती है ॥ २५१॥ 
मीनेऽस्तसंस्थे च विकारयुक्त भवेतकलत्र' कुसुतं कुबुद्धम्‌ । 
स्वधमंशीलं प्रणयेन हीनं सदा नराणां विंकलग्रियं च । २५२॥ 
मीन राशि यदि सप्तममावमेंदहोतो उस व्यक्ति की पत्नी विकारे ( रोगों) 
से युक्त, दुष्ट पुत्रों एवं दुष्ट बुद्धि वाली, अपने धमं का आचरण करने वाली, प्रेम 
व्यवहार से रहित, तथा विशिष्ट कलाओंमें रवि रखने वाली होती है ।। २५२॥ 


अष्टमभावगत राशिकल 
मेषेऽ्टमरथे जनने नराणां भवेद्विदेश तु श्जां स्थितानाम्‌ । 
कथामनुस्मृत्य विभूच्छितानां महाधनानामतिदुःखितानाम्‌ ।। २५३ ॥ 
जिसके जन्म समय में अष्टम मावगत मेषराशिहो वहु विदेशमं रहते हये 
रोगग्रस्त तथा पुरानी घटनाओं को स्मरण कर मृ्िति होताहै। महान्‌ धनपति 
एवं अत्यन्त दुःखी व्यक्ति होता है।। २५२ ॥ 


वृषेऽष्टमस्थे च भवेन्नराणां मृत्युग्‌ हे श्लेष्मकृताद्विकारात्‌ । 
महाश्वनाद्राऽय चतुष्पदाद्रा रात्रौ तथा दुष्टजनादिसङ्खात्‌ ।। २५४ ॥ 
अष्टम भावमं वृष राशि स्थितहो तो उम व्यक्ति वे कफके विकार से अपने 
घरमे मृत्यु होती है । अथव्रा अधिक मोजनकरलेनेमे, षशुभों तथा दुष्ट व्यक्ति 
के संसगेसे रात्रिम मृत्यु टोती है ॥ २५४॥ 


तृतीयराशै च भवेन्नराणां मृत्युस्ते मृत्युरनिष्टसङ्कात्‌ । 
लाभोद्धवो वा रससम्भवो वा गुदश्रकोपादथवा प्रमेद्रात्‌ ॥। २५५॥ 
मिथुन रालि यदि मृत्यु (अष्टम) मावमेस्थितहोतो उस व्यक्ति की भृत्य 
किसी प्रकार के अनिष्ट ( शत्रुता, दु्धेटना आदि) से, लाम ( अधिकलामसे 
उत्पन्न विवाद अथवा धनापहरण ) से, रासायनिक प्रयोगसे, गुद ( बवासीर, 
मगन्दर आदि ) रोगोंते, अथवा प्रमेह ( बहुमूत्र या डयविटीज ) से मृत्य होती 
है ।। २५५ ॥। 
ककष्टमस्थे च अलोपसर्गात्कीटात्तथा चेव विंभीषणाद्वा । 
भवेद्विनाशः परहृस्ततो वा विदेशसंस्थस्य नरस्य चवं ।। २५६॥ 
ककं राशि अष्टम भावमेहोतौ उस व्यक्तिकीजलमेंडूबनेसे, कीट ( सर्ष- 


विच्छ्‌ आदि) के दंशसेया भयसे मृत्यु होती है। अथवा विदेश मे किसीके हाथों 
भ मृत्यु होती है। २५६॥* 


“मनोरमा हिश्दीष्या ख्योवेता १९१५ 


सिहेऽछ्मस्थे च सरीसृपाश्च भवेद्िनाशो मनुजस्य सम्यक्‌ । 
व्यालोवौ वापि वनाधितस्य चौरोद्धवो वथ चदुष्पदाच्खं ।। २५७ ॥ 


सिह राहि मष्टमभावमेंहो तो सरीसुप (जमीनमं रेगने वाके जीव) या सपं 
से, घोरो ते, मथवा पश्ुओोंते जंगलमें स्थित मनुष्य की मृल्यु होती है ॥ २५७ ॥। 


कल्या यदा चाष्टमगा विलासात्सदा स्वचित्तान्मनुजस्य विद्यात्‌ । 
स्त्रीणां हि हिलादिषमाशनार्स्यात्‌ स्त्रीणां कृते वा स्वगृहाश्रितस्य । २५८ ॥ 


कन्या राहि अष्टम मावमेतो विलास ( मोग-विलास मद्यपान आदि) से, 
अपने चित्त की अस्थिरता ते, स्त्री कीदटृत्या करने से, असन्तुलितं ( अथवा 
विषाक्त ) मोजन करनेसे अथवा क्रिसीस्त्रीकेकारण भपने घरमे जातक की 
मृत्यु होती है ।। २५८ ॥। 
दुलाधरे वचाष्टमगे च मृत्युभंवेन्नराणां द्विपदोत्य एवं । 
निशागमे स्वस्थकृतोपवासा दिष्टस्य कोपादथवा प्रतापात्‌ । २५६ ॥ 
तुला राशि यदि मष्ट्म भावमंहौतो मनुष्य कीमृह्यु द्विपद ( मनुष्य ) 


द्वारा होती है। इसके अतिरिक्त उपवासद्वारा, क्रोघसे अथवा शौर्यं प्रदर्शन में 
अपने स्थानपरही रात्रिम म्ृत्युहोती है।॥ २५६९॥ 


स्थनेश्मे वृश्चिकराशिसजे नृणां विनासो रधिरोद्धवेन । 
रोगेण वा कीटसमृद्धवंश्च स्वस्थानसंस्थाय विषोद्धवो वा ॥ २६० ॥ 
अष्टम मावमें वृिचक राशि टोतो मनुष्यों की मृत्यु रक्तदोषसे उत्पन्न 
रोगों द्वारा, कोट (कृमि) दोष या कीड्ंके दंश से अथवा विषप्रयोग से अपने 
स्थान (धर) मे होती दहै।। २६०॥ 
चापेऽष्टमस्थे प्रमवेन्नराणां मृत्युः स्वसंस्थं शरताडनेन । 
गृह्योद्धवेनापि गदोद्ध वेनः चपुष्पदोत्थेन जलोद्भवेन ॥ २६१ ॥ 
अष्टम मावमेधनु राक्षिहो तोक्लर (बाण) के आघाते, गुप्त रोगों 
( मलमूत्र मागे से सम्बन्धित रोगों) हइवारा, प्शुओंके प्रहार से अथवा जलमें 
नने से अपने धर परी मृत्यु होती है। २६१॥ | 
मृगेऽ्टमस्थे च नरस्य यस्य ॒विद्यान्वितो मानगुणं शपेत: । 
कामी स श्‌रोऽय विशालवक्षाः शास्त्राथं वित्सवंकलासु दक्षः.॥ २६२ ॥ 
जिस ब्यक्तिके अष्टम भावम मकर राक्िदहो व्ह विद्धान्‌, स्वाभिमानी, गुणों 


से युक्त, कामी, शूर, विशाल वक्षवाला, शास्त्रों को मली-मांति जानने बाला 
विविध कलाओं मे निपुण होता है । २६२॥ 


१६६ मानसागरी 


धटेऽषटमस्ये विभरवप्रणाश्चो वैस्वानरात्सप्रगतासु जन्तोः । 
नानात्रणेर्वायुमवेविकारेः शरमाततथा गेहविहीनमृल्युः ।। २६३ ॥ 
अष्टमभाव मे ङ्कुम्मराश्ति होतो उस ष्यक्तिके गृहमे आग लगने से समस्त 
सम्पत्ति नष्ट हो जातीटहै। नाना प्रकारके व्रण ( फोडे-फुन्सि्या, घाव) तथा 
वायुजन्य विकारो से मथवा परिश्रमद्वारा धरसे बाहर मृत्यु होती टै । २६३॥ 
मीनेऽ्टमस्थे प्रभवेच्च भृत्युनु णामतीसारकृतश्च कष्टात्‌ । 
पित्तज्वरादा सलिलाशयाद्वा रक्तमकोपादथवा च शस्त्रात्‌ । २६४॥ 
मीन राशि अष्टम भवमेहो तो अतिसार जन्य कष्ट से, पित्त सम्बन्धी ज्वर 
से, जल में बने से, रक्तसम्बन्धी दोषों से अथवा शस्त्रके आघात से उस व्यक्ति 
की मृत्यु होती है । २६४॥ 
नवभभाषगत राशिफल 


धघरम॑स्थिते चेव हि मेषराशौ चतुष्पदोत्थं प्रकरोति धमम्‌ । 
तेषां श्रदानेन तु पोषणेन दया।ववेकेनं सुपालनेन । २६५॥ 
घमं ( नवम) मावमें यदि मेष राशिहोतो वह व्यक्ति पशुओं से सम्बन्धित 
( पशुपालन-गोशाला आदि ) धर्म करताहै। पशुओं का दान, पोषण तथा दया 
एवं विवेक पूवक उनका पालन करने वाना होता है ।। २६५ ॥ 


वृषे च धम प्रगते मनुष्यो धम करोत्येव धनप्रभूतम्‌ । 
विचित्रदानेबंहुगोप्रदानेविमूषणाच्छादनमोजनेन ˆ ॥ २६६॥ 
वृष राशि यदि धमं मावमेंगर्ईहोतो मनुष्य अधिक धनवान होता ह तथा 
विचित्र ( अनेक प्रकारके) दान, अधिक मात्रा मे गोदान, आमुषण (स्वर्णं आदि), 


वस्व, ओर भोजन सामग्री के दान द्वारा धर्मकार्यं करता है) २६६. 
तृतीयराशौ प्रकरोति घमं धर्माकृति सौम्यकृतं सद॑व । 
अभ्यागतोत्थं द्विजमोजनाद्वां दीनानुकम्पाश्चयभानपतेभ्यः । २६७ ॥ 

मिथुन रा्चि यदि घमं (नवम) मावमेहोतौ वह व्यक्ति अतिधियोंके 
सत्कार, ब्राह्मण भोजन, दीन-दुशियों की सहायता करने तथा सदैव शुमकायों के 
करने से स्वयं ध्मस्वषशूप हो जात। है ।। २६७ ॥ 
धर्माश्चिते चवं चतु्थंराशौ तीर्थाश्चयाद्रा वनपेवनेन । 
व्रतोपवासंविषर्मविचित्रंधमं नदः संकुश्वे सदव ॥ २६८ ॥ 
ककं राछ्चि नवममवमेंहोतो वहु मनुष्य तोयो मे मण एवं निवास, 
वनबास, विचित्र एवं कठोर ब्रत-उपावाष हारा सदैव धमंका आरण करता 


है ॥ २६५ ॥ 





"मनोरमा" हिन्वीव्यास्योपेता १९७ 





धर्मास्यभावस्थितर्विहराशौ धमं परेषां प्रकरोति भत्यः । 
स्वधर्महीनो विङृतक्रियाभिः सुती्थंरूपे विनयेन हीनः ।। २६९ ॥ 


धमं ( नवम) भावमे यदि सिहरि होतो मनुष्य दसरोंके धमं को 
स्वीकार कर अपने धमेका परित्याग करताहै। कुत्सिति कमं करता हूमाभी 
पने को पवित्राध्मा मानने वाला तथा विनज्नतासे रहित होता दै ।॥ २६६॥ 


धर्माधितः स्याद्यदि षष्ठरािः स्त्रीधमंसेवां कुरते मनुष्यः । 
विहीनमक्तिबंहु जन्मतश्च पाषण्डमाश्चित्य तथान्यपक्षम्‌ ।! २७० ॥ 


धमं ( नवम ) भावमें कन्या राक्शिस्थितहो तो मनुष्य स्त्री घमं कीसेवा 
करने वाला, जन्म-जन्मान्तर से भक्तिहीन, पाश्वण्ड मथवा अन्य पन्थ का अनुगमन 
करनेवाला होता है ॥ २७० ॥ 


तुलाधरे धर्मगते मनुष्यो धमं करोत्येव सदा प्रसिद्धम्‌ । 
देवद्विजानां परितोषणं च जनानुरागेण तथादूभुतानाम्‌ ।। २७१ ॥ 


नवम भावमंतुला राशिहोतो मनुष्य देवता ओर ब्रह्मणां को सन्तुष्ट 
रखने वाला, जनता के अनुराग से अद्मृत कायं करने वाला तथा प्रसिद्ध धार्मिक 
कार्ये कर्ता होता है ॥ २७१ ॥ 


धर्माधिते चाष्टमगे च राशौ पाखण्डधमं कुरुते मनुष्यः । 
पीडाकरं चवं तथा जनानां भक्त्या विहीनं परपोषणेन ॥ २७२ ॥ 


धमं मावमें वृरिचकं राशिहोतो मनुष्य लोगों को कष्ट देने वले, दूसरोंके 
मरण-पोषण ( परोपकार ) एवं भक्ति से रहित केवल पाखण्ड धमंको मानने वाला 
होता है ॥ २७२ ॥ 


चापे तथा ध्मंगते मनुष्यः करोति धमं द्विजदेवतृपनिम्‌ । 
स्वेच्छाल्वितं शास्त्रविनिर्मितं च प्रमृततोयं प्रथितं त्रिलोके । २७३ ॥ 


धनुराहि पदि नवम मवमे ग्ईहोतो मनुष्य ब्राह्मण भौर देवताओं को 
तृप्त करने वाला, अपनी इच्छानुसार तथा शास्त्र द्वारा बताई गई विधिसे घमं का 
आचरण करने वाला समुद्र की माति जलोक्य में प्रसिद्ध होता है ।॥ २७३॥ 


धर्माधिते व मकरे मनुष्यः प्राप्नोत्यधमं कुर्ते प्रतापम्‌ । 
पञ्चादिरक्तश्च विडम्बनार्भिः कीलं समाित्य सदव पक्षम्‌ ॥ २७४ ॥ 
नवम भावमे मकर गशिहो तो मनुष्य अधमं का भाचरण करते हये अपने 


प्रताप का प्रदर्शन करताहै। विभिन्न विडग्बनाभौं के उपरान्त वह ( जातक) 
बिरक्त होकर अपने कुलधमं का आचरण करता है । २७४॥ 


१९८ मानसागरो 





याप णीणणणणणरिणिपिोपरयीिपिषपिपपपयागण 


कुम्भे हि धमं प्रगते मनुष्यो धर्मं विधत्ते सुरसङ्घंजातम्‌ । 
वृक्षाथयोत्थं च तथा हिव च आरामवापीप्रियता सदैवं । २७५ ॥ 
कुम्भ राशि यदि घमं मावमें गरईटो सतौ मनुष्य देवतागों के सभूह्‌ से उस्पन्न 
धमे का आचरण करताहै। ( अर्थात्‌ वैष्णव, शैव, शक्त आदि समी सम्प्रदायोमें 
आस्था रखता है । ) वृक्षों से सम्बन्धित ( वुक्षारोपण ) धर्मं, कल्याणकारी कार्यों 
( चिकित्ता, क्षेत्र, आदि) में, बाग लगाने एवं तालाब निर्माणमें मी रुचि रहती 
है ॥ २७५ ॥ 


धर्मान्ते चेव हि मीनराशौ करोति धमं विविधं नृलोके । 
सत्तेवयारामतडागजातं तोर्थाटनेनाथंसुलविर्ित्रैः ।। २७६ ॥ 


धमं भावमे यदि मीन र्जिहोतो वहु व्यक्ति, मनुष्य ( मर्घ्यं) लोकमें 
विविध प्रकारके धार्मिक कार्योँकोकरताहै। अपने विविध धनों दारा सदस्पुरुषों 
को सेवा, उद्यान एकं तालाब का निर्मम तथा तीर्थो का भ्रमण करता है ॥२७६॥ 


दशमभावगव इादशराशिएल 


कर्माधिते मेषसुनामराशौ करोत्यधमं प्रवरं सुदुष्टम्‌ । 
प शुन्यरूप विनयातिरिक्तं सुनिन्दितं साधुजनस्य लोके । २७७ ॥। 
मेष नामक राक्षि कमं ( दशम) भावमेंहोतो वहु अत्यधिक अधर्मं करने 


वाला, अति दुष्ट, चुगलखोर, विनग्रतासे रहित, सज्जनो के बीच अत्यन्त 
निन्दनीय चरित्र वाला होता है । २७७ ॥ 


वूषेऽभ्वरस्थे प्रकरोति कमं व्यथात्मकं साधुजनानु कम्पम्‌ । 
द्विजन्द्रदेवातियि्मितिमाजकं नात्म श्रीतिकरं सतां च ॥ २७८ ॥ 
वृष रारि दशम मवमेंहोतो वह व्यय करने वाला, साधुजनो पर दयामाव 
रखने वाला, ब्राह्मण, देवता भौर अत्तिथि मे उनके स्वरूप के अनुसार बुद्धि रखने 
वाला तथा सज्ब्रनों में ज्ञ(नपूरवक प्रीतिम।व रखने वाला होता है ।॥ २७८ ॥ 
युग्मेऽम्नरस्थे प्रकरोति मत्यं: कमेप्रधानं गुरुभिः प्रदिष्टम्‌ । 
कीर्यान्वितं प्रीतिकरं जनानां प्रभासमेत कृषिजं सदव ॥ २७९ ॥ 
मिथुन राक्चि दशम मावमेंहोतो मनुष्य गुरुजनों से उपदिष्ट, कीति को बदृे 


वाला, लोगो के लिए प्रीतिकारकः कृषि से सम्बन्धित, तेजस्विता से युक्त प्रषान 
कायंको करता है ॥ २७६ ॥ 


ककऽम्बरस्वे प्रकरोति मर्त्यः कमं भपारामतडमगसंजञम्‌ । 
विचित्रवोपीतटवृन्दजं च कृपापरं नित्यमकंस्मषं च ।। २८० ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेता १६६ 


ककं रा्षि दशम मावमेहोतो मनुष्य प्रपा (प्याया पौसरा), बाग, 
तालाब तथा विचित्र वापीके तट पर समूह्‌ में उगने वाली (क्लोमा युक्त क्षादिर्यो) 
का निर्माण करने वाला, दयालु एवं पापरहित होता दहै ।॥ २८० ॥ 
सिहेऽम्बरस्थे करते मनुष्यो दद्र सपापं विकृतं च कमं । 
स पौरष प्राणसमं स्वकीयं वधाटमकं निन्दितमेव नित्यम्‌ ।। २८१ ॥ 
सिह राशि भम्बर ( दकम) भावमे स्थित होतो मनुष्य मयंकर, पापी, 


विमत्त कमं करने वाला, अपने पौरष का प्राण तुल्य समक्षने वाला, हत्यारा 
तथा सदैव निन्दित होता है।। २८१॥ 


नमःस्यलस्थे त्वथ षष्ठराहौ करोति कर्माज्ञमितो मनुष्धः । 
स्त्रीराजमानौ भजते विरद कामाल्पकं निधंनमन्त्रिलोके ।। २८२ ॥ 


दशम मावमं कन्या रारि स्थित हो तो मनुष्य अज्ञानी की तरह कायं करता 
है । स्त्री भौर राजाके सम्मान के विरुद्ध कायं करने वाला, स्वल्प कामवासना 
युक्तः तथा मन्त्रियो क बीच निधन होता है ।॥ २८२ ॥ 


तुलाधरे व्योमगते मनुष्यो वाणिज्यकमं प्रचुरं करोति । 
धर्माद्मकं चापि नयेन युक्तं सतामभीष्ट परमं पदं च ॥ २८३ ॥। 
तुला राक्षि दशम भावमे हो तो मनुष्य बड़ पैमाने पर व्यापार करने वाला, 
बभिक, राजनीतिज्ज, सज्जनो का अभीष्ट परम-पद ( कायं ) सिद्ध करने बाला 
होता है ।। २८३ ॥। 
कीटेऽप्बरस्थे प्रकरोति कर्म॒पंधामदुष्टं अनतम्मत च । 
व्ययद्कुरं देवगुरुद्िजनां सुनिर्दयं नोतिविवर्जितं च ॥ २५४॥ 
वृश्चिक रारि दशम भावमे होतो वह पुरुषों के लिए हितकर, जन सम्मत 
कार्योँको करने वाला, देवता, गुरु ओौर ब्राह्मणों के निमित्त ग्यय करने बाला, 
निदंय, तथा नीति-ज्ञान से रहित होता है ॥ २८४ ॥ 
चपेऽम्बरस्ये च कशेति कमं सर्वात्मकं चापयूतं मनुष्यः । 
परोपका रात्मकमोजनाथ नृपात्मकं भूमियशशःसमेतम्‌ ॥ २८६५ ॥ 
धनुराशि दशम भःवमेंहो तो मनुष्य समी प्रकारसे लाभप्रद कायं करता 
है । वथा परोपकारी, भोजनादिमें राज्ञा की तरह माचरण करने वाला भुमिएकं 
पदाति युक्त होता दहै । २८५॥ 


मृगेऽम्बरस्ये प्रख दप्रतापं कमं पधानं कुरते मनुष्यम्‌ । 
सूनिर्यं बन्धु ज्मः समेतं धमेण हीनं खलसम्मतं चं ॥ २८६ ॥ 


२०० मानसागरा 


मकर राशि दशम भावमेहो तौ मनुष्य प्रबल प्रतापी कमं मे विश्वास रखने 
बाला, निदेय, भाद्यों एषं मितोंसे युक्त, षमंसे हीन, तथा दुष्टो से समर्थन प्राप्त 
होता है ॥ २८६ ॥। 
धटेऽम्बरस्थे च करोति कममंप्रषानमत्यं परवञ्चनार्थ॑म्‌ । 
पाखण्डधर्मान्वितमिष्टलोभाद्िश्वासहीनं जनताविख्डम्‌ ॥ २५७ ॥ 


कम्भ राशि यदि दकम भावमें होतो मनुष्य कमं प्रधान (कमं को प्रधान 
मानने वाला ) होताहै। दूसरोंको ठगने के लिए पाक्लण्ड युक्त, अभीष्ट लोभ 
दवारा विश्वास हीन तथा जनता के विरुद्ध आाचरण करने वाला होता है ॥ २८७ ॥ 
भीनेऽम्बरस्थे प्रकरोति कर्मं मत्यं कुले धमंगुदप्रदिष्टम्‌ । 
कीर्यान्वितं सुस्थिरमादरेण नानाद्विजाराधनसंस्थितं च ॥ २८८ ॥ 
मीन राशि दशम भावमेंहो तौ मनुष्य अपनेक्ुलमे धमं गुरु दवारा बताये 
गये कर्मं को करने वाला स्थिर कीति से युक्त, आदर पूर्वक अनेक ब्राह्मणों की सेवा 
करने वाला होता है ॥ २८८ ॥ 


लाभमावगत हाद शराशिफल् 
लाभालये मेषसमास्यराशौ चतुष्पदोत्थ प्रकरोति लाभम्‌ । 
तथा नराणां नृपसेवया च देशन्तराराधितसुष्रभूतम्‌ । २८६ ॥ 
चाभमावमें मेषरािहो तौ पशुगओोंसे लाभ, राजाओंकीसेवासे तथा 
है्षान्तर ( दुसरे देश ) मे सेवा कार्यं करनेसे प्रचुर धनलाभ होता है॥ २८९॥ 
भायस्थिते वं वृषभे भ्रलाभो भवेन्मनुष्यस्य विशिष्टजातः । 
स्त्रीभ्यः सकाशादथ सञ्जनेभ्यः कुशोलगोधमंकृतेस्तथेवं ।। २६० ॥ 
एकादल माव में वृष राशिहो तो उस मनुष्य को विशिष्ट व्यक्तियों से, स्त्रियों 
बे, खभ्जन पुरुषो से, किसी निन्दित कमसे, गौ गौरधमंकी सेवा करनेते धन 
का लाभ होता है।। २६०॥ 
तृतोयराणिः कुरुतेऽतिलाभं लाभाधितः स्त्रीदयितं सदव । 
चस्त्वर्थमुश्यासनपानजातं सदाऽ जातं विबुधप्रसिद्धम्‌ ।॥ २९१ ॥ 
मिथुन राहि लाभभावमें हो तो अल्यभिक लाभ उठने वाला, स्त्री के प्रति, 


यान्नु, बहुमूल्य वस्तुगों, भासन ( कुर्सी, विस्तर आदि ) के सं्रह द्वारा सदैव विहत 
ज्रमाभ मे यशस्वी होता है ॥ २९१ ॥ 


लाभो भवेस्लामनते च राशौ सवा चतुथं वरजातकानाम्‌ । 
धेवाङ्िभ्यां जनितः प्रभूतः शास्त्रेण वा साधुजनेश्च पश्चात्‌ । २९२ ॥ 


"मनोरमा हिन्दीष्याङ्योपेता २०१ 





लाभ भावमे क राशिहो उस समय उत्पन्न श्रेष्ठ व्यक्ति को सेवा भौरकृषि 
ते उत्पन्न लाम, पश्चात्‌ शास्त्र के अध्ययन अध्यापन अथवा साधुजनो की सेवासे 
प्रचुर मात्रा में घन लाभहोताहै॥ २६२॥ 


लाभाश्रिते पर्वमभे धुलाभो भवेन्मनुष्यस्य निगर्हणाच्च । 
नानाजनानां वधबन्धनवा व्यायामदेशान्तरसंश्याच्च । २९१३ ॥ 


लाभ माव में सिह राशि हो तो मनुष्य निन्दित कर्म॑, अनेक व्यक्तियों की हत्या 
जथवा उन्हे बांधकर रखने से, व्यायाम ( क्ेलक्‌द, ) कसरत एवं दूसरे स्थान 
( अथवा विदेश ) के आश्रय से धनलाभ करता है( माव यह कि रेता 
व्यक्ति सेना अथवा पुलिससेवा द्वारा विभिन्न स्थानों में रहकर लाभान्वित 
होता है । ) ॥ २६३ ॥ 
कष्यास्मके लाभगते मनुष्यः प्राप्नोति लाम विविधं सपर्या: । 
शास्त्रागमाभ्यां विनयेन साकं नित्यं विवेकेन तथाऽ्दभुतेन ।॥ २९४ ॥ 
कन्या रादि लाभ भावम हो तो मनुष्य शास्त्रों एवं वेदोंके अभ्याससे 
विनय हारा, अपने अदूमृत विवेक से तथा विविषप्रकारके सेवा का्योँद्वारा षन 
प्राप्त करता है ।॥ २९४॥ 


तुलाधरे लाभगते मनुष्यः प्रप्नोति लाभं वणिजे विचित्रे, । 
सुसाघुसेवाविनयेन नित्यं पुखं स्तुतं मुख्यतमं प्रभूतम्‌ ।। २६५ ॥ 
लाभ भावम तुला राशिस्थितहोतो वह व्यक्ति विचित्र व्यापारे लाभः, 
सत्पुरुषो की सेवा द्वारा, विनम्रतासे निरन्तर विशेष प्रकार का सुख एवं अल्यथिक 
प्रशंसा ( सम्मान ) प्राप्त करता है ।। २६५॥ 


लामाधिते चाष्ट्मसंज्ञराषौ प्राप्नोति लाभं मनुजोऽतिमुख्यम्‌ । 

छलेन पापेन सुभाषणेन परस्य पशुन्यकृतेविकारंः ॥ २९६ ॥। 

लाभ भावमे यदि वृश्िकराशिहोतो वह व्यक्ति छल ( षोखा-षडी ); 
पाप, मृदु भाषण, एवं दूसरों की चुगली निन्दा से अपना परम मभीष्ट काये सिद 
करता है।। २६६॥ 


लाभाधिते चैव धनुर्धरे च नृपविलासान्‌ भजते मनुष्यः । 
सत्तेवया वा निजपौरुषेण मुख्यं-चराराधनतश्चलाभम्‌ ॥ २९७ ॥ 
लाम मावमेंषनु राशिहो तो भनुभ्य राजाभों के साथ आनन्दोपभोग करभे 
वाला, सल्पुरुषों की सेवा से, अपने पौरुष से, दूतो, गुप्तज रों ( अथवा एकेष्टो ) 
हारा बन कालाभध करने बाला होता है।॥२.-७॥ 





वीण" 


१. बाणिसज्यतौ लाभमलं करोति । पाठाम्तरम्‌ । 


२०२ मानस्ागरी 





लाभधिते वं मकरेऽथं लाभो भवेन्नराणां जलयानयोगात्‌ । 
विदेशवासान्नृपसेवनाटा व्ययात्मकं भूरितरं सदव । २९० ॥ 
लाममावमें मकर राशिहो तो जातक समुद्री जहाज के सम्बन्धसे ( नेवी 
द्वारा), विदेश मे निवास करने, राजाओोंकी सेवाद्वारा धनलाम करनेवाला 
तथा खर्चीली प्रवत्तिकाहोता दहै ।। २६८ ॥ 


भायस्थिते कुम्मधरे च लएमो भवेन्मनुष्यस्य कुकरमं जातः । 
त्यागेन धमण पराक्रमेण विधप्रमावात्वुसमागमश्च ।॥ २९९॥ 


लाम मावमं कम्म राश्िहो तो मनुष्य कुक्रमं द्वारा धनलाम करतादहै। 
उसके त्याग, धमे, पराक्रम ओर विद्याके प्रमावसे शिष्ट पुरुषों के साथ समागम 
होता है ॥ २६६ ॥ 


लाभाश्चिते चान्त्यगते च राशौ प्राप्नोति लाभ विविधं मनुष्यः । 

मित्रोदुभवं पाथिवमानजातं भिचित्रवाक्येः प्रणयेन नित्यम्‌ ॥ ३०० ॥ 

लाममावमं मीन राशिहो तो मनृध्य, अपने मिश्रोंसे, राजाओं का सम्मान 
करने से, अपनी भाषणकला से, तथा प्रेमव्यवहार से विविध प्रकार का लाभसदैव 
प्राप्त करता है।। ३०० ॥ 


व्ययभावगत इादशराशिषल 


पेषे व्ययस्थे च भवेन्नराणां व्ययः पुखाच्छादनमोजनेन । 
चतुष्पदानेकविवद्धनेन लाभेन नानाविधंपौरूषेण ॥ ३०१ ॥ 
मेष राशि यदि व्यय (बरहवें) भावमेंहौ तौ अपनी इच्छानुक्ल मोजन- 
वस्त्र मे, अनेक पशुओं ( गाय, मै, बैल आदि) की संख्या बृनिमें, लाभकारी 
बोजनाओों मे तथा विविध प्रकार से भपने शक्तिसंवद्धन मे मनुष्य व्यय 
करतादहै। ३०१॥ 


वृषे व्ययस्थे व्यय एवं पुंसां मवेद्धिचित्राम्बरयोषितां च । 
लाभेन राज्येन पराक्षमेण सधातु त्रादेविबुधं : सदैवं ।। ३०२ ॥ 
वृष राशि बारह भावमें हो तो विविध प्रकार के वस्त्रों में, स्त्रियोंके साथ 
मागम मे, लाभकारी योजनाओं मे, राजकीय कार्यो मे, शक्ति प्रदर्शन मे ( अर्थात्‌ 
किसी प्रकारके विवादसे दण्डके रूपमे, मुकदमेमे अथवाटेक्सकेश्पमे ग्यय 
कश्णा पठता है । ) तथा कुदाल व्यक्तियों के साथ धातु सम्बन्धी व्यापार मे मनुष्य 
ब्व कर्ता है। २३०२॥ 


हुतीय रादौ व्यये नराणां व्ययो भवेत्नीष्यसनास्मकेश्च । 
शूतोद्भवो वा सततं प्रभूतः कुशील जः पापजनैगं जश्च ।। ३०३ ५. 


"मनौ रमा' हिन्दीग्याद्यौपेता २०३ 


~~ मामा 





तृतीय (मिथुन) राक्षियदिद्वादक् मावमंहोतो स्पियो के व्यसन मे, निरन्तर 
भूत-प्रेत सम्बन्धी परीडामं कुरित कार्यम, पापी लोगो के संसग से तथा हाथी के 
रखरखाव में अल्यधिक ््रयहोतादहै। ३०३॥ 


ककं व्ययस्थे द्वि देवतानां ष्ययो भवे्ज्ञषमूदभवश्च । 
धमंक्कियाभिविदधाति चेवं प्रसितः साधुजनेन लोके । ३०४॥ 
ककं राशि व्ययमावमंहो तौ ब्राह्मण भौर देवता के उदश्य से, यज्ञ॒ एवं 
ध(मिक क्रियाभोके सम्पादनमघनव्य होतारै तथ एेता व्यक्ति लोक में 
सत्पुरुषो दरा प्रशंसित होता है ।॥ ३०४ ॥ 


वहे व्ययस्थे तु भवेन्न +राणामसंशयो भूरितमः सदैव । 
रूपश्च जातेश्च कुक्मंणा च निन्य: सतां पार्थिव चौरतो वा ॥ ३०५॥। 
सिह राक्शि व्यय मावमेहोतो स्वरूप ( रूप सज्जा}, सन्तान, कुकमं, राज- 
कीय आदेश एवं चोरों द्रा निश्चय हौ उस व्यक्ति का अत्यधिक व्यय होता हैतथा 
वहु सम्य समाज मे निन्दित होता दहै ॥ ३०५॥ 
कन्य त्मके चान्त्यगते भ्ययी च भवेन्मनुष्यः स हि बाङ्जुनोत्सुकः । 
विवाहमाङ्गल्यविचित्रमुख्येः सूत्रप्रमागिवंहूसाघुसङ्खात्‌ ।॥ ३०६ ॥ 
कन्या राशि यदिव्यय मावमेहोतो मनुष्य स्त्रियोंके प्रत लोलुपता मे, 
विवाह, सूत्रप्रम। ( यज्ञोपवीत ) भादि विविध माङ्गलिक कार्यों मे, तथा साधु-सेवा 
मे अधिक धन ध्यय करतादटहै। ३०६॥ 
तुले व्ययस्थे सुरविप्रबन्धुश्रुतिस्मृतिभ्यश्च कृतो व्ययश्च । 
भवेन्नराणां नियमे्यमेश्च पुता्थंतेवाजनितः भरसिद्धः ॥ ३०७ ॥ 
तुला राश्षि बारहवे मावमेहौ तो देवता-ब्रह्मग, माई-बन्धु, वेद एवं स्मृतियों 
के लिए, अपने संयम-नियम के निर्वाह के लिए तथा पुत्र एवं षनकी सुरक्षहेतु 
ब्व्य करनेमें वहु व्यक्ति प्रसिद्ध होता है ।। ३०७॥ 
अलौ ध्ययस्ये च भवेद्रधयस्तु पुंसां प्रदानेन विडम्बनाभिः । 
कुमित्रसेवाजनितः धुनिन्धः कुबुदितश्ररङृताधिकारात्‌ ॥ ३०८ ५ 
वृश्चिक राशि व्ययमभावमेहो तो दैवी विपदाओं ( विडम्बना) के निराकरण 
भे इष्ट मित्रों का सहयोग करने मे, दुरबृदिवश घोरो द्वारा अधिकार करसेनेसे 
मनुष्य का धन व्यय होता है तथा कह भली भांति सम।ज मे निन्दित 
होता है ।॥ ३०८ ॥ 





१. “व्ययो नराणाम्‌" पाठान्तरम्‌ । 


२०४ मातसागरी 





चापे ष्ययस्थे परवच्चनेषु ध्ययो भवेत्पापजनप्रसङ्गात्‌ । 
सेवाङृतो जास्यधिकारिपंसः कषिप्रसङ्गात्परवश्चनाद्वा ।। ३०६ ॥ 
धनु रारि यदिव्ययमवर्मेहोतो दूसरों को ठगने से, पापी लोगों के प्रपश्च 
से, अपने वे के अधिकारी पुरुषों के सेवासत्कार करने, सेतीके सम्बन्ध में 


अथवा किसी को षोकादेने मं ग्ययहोतादहि। ३०६॥ 


मृगे ध्ययस्थे च भवेप्नरो हि व्ययेस्तु पापाशनकश्च जातः । 
स्ववगपूजानिरतस्तथाऽ्ल्प्कृषिविहोनश्च विगहितश्च ।। ३१० ।। 
मकर रा्ठि यदि बारहरवेंमाव्मेहो तो मनृष्य का पापान्न ( पापी व्यक्तियों 
का भोजन ) ग्रहण करने से, अपने वर्गं ( आति या सम्प्रदाय) के कार्योमं संलग्न 
रहने से धन व्ययहोतादहै। तथा वह स्वल्प सेनी करने वाला, साधनहीन एवं 
समाज मेँ निन्दित होता है।। ३१० ॥ 


धटे व्ययस्थे सुरसिद्धविप्रतपस्विभिववन्दिमवो भ्ययश्च । 
मीने* कुपुत्राशनपानजातस्तथा विवादेन विनिगंतेन । ३११ ॥ 


जिस व्यक्तिके हाददा मावे कम्म रारि हो वह्‌ देवता, साधक, (योगी), 
ब्राह्मण, तपस्वी एव बन्दीगण (चारणो) की तेवासुश्रषा में धनव्ययं करने 
वाला होता है। यदि दादश्मावमे मीत राशि दहो तो दष्ट सन्तानं द्वारा, मोजन- 
पान ( मद्यपानादि ), विवाद एवं यात्रा में उसका धन व्ययटहोतादहै। ३११ 


थे स्थानचिन्तासु पुरा प्रदिष्टा योगा मया तान्‌ परिगृह्य शास्त्रात्‌ । 
योगा विचिन्त्याः सुधिया ततस्तु वाच्या नराणां हि शुभाशुभास्ते । ३१२ ॥ 
शस्त्रो से संग्रह कर स्थानों ( हादश मावो) के विवेचन पुरःसर जिन योगों 





१. “प्ता मूलपाठः । 

२. आधार ग्रन्यमे दवादश मावे स्थित मीनराक्षिका फल नहीं दिया है। 
१० सीतारामक्षाद्वारा अनूदित ग्रन्थमंकुम्मकेसाथ मीन का फल इस प्रकार 
दिया गया है--षटे भ्ययस्थे सुरसिद्धविगप्रतपस्विनो वन्दनगौ भ्ययश्च । 

मीने च पुंसां जलयान जातस्तथ।विवादेन विनिर्गतेन ।॥ ११॥ 
१० श्री निवासकश्षर्माने अपने संग्रह म्रन्य जातक तत्व र्मे व्यय माव में स्थित 
भीन रक्षिका फल इस प्रकार लिश्ाहै---नाव, जहाज, आदि जलयान से, 
कुसंगति से, पुत्र के सम्बन्धसे सोने विदाने के सामान र्मे, सवारी के सम्बन्ध 
मे, भुकदमा तथा यात्रा में ष्यय होता है | इण्हीं फलदे्लो के आाणार षर ने 
धसा केस्थान पर मीने पाठ रञ्षकरमीन रिका भी समकेदाकर लिया है। 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योषेता २०५ 





को गने पहले इस ग्रन्थ म कहा है उनका अण्छी तरह चिन्तन करके मनुष्यो के 
शुमाशुभ का फलादेश विद्रान पुरुष को करना चाहिये । ३१२ ॥ 


दवादशराशिगत ब्रह के फल 


भवति साहसकर्मकरो नरो रधिरपित्तविकाश्कलेषरः । 
क्षितिपतिर्मतिमान्‌ हितकृत्सदा सुमहां * महक्ामध्िपे क्रिये ॥ ३१३ ॥ 


तेज के अधिपति सूयं यदि मेष राशिर्मेहों तौ मनृष्य साहस पूर्णे कार्यं करने 
वाला, रक्तपित्त जन्य विकारोंते युक्त शरीर वाला, राजा, बुद्धिमान तथा सदेव 
महान लोगों का हितकारक होता है।। ३१३॥ 
परिमलेविमलंः कुमुमासनः सुवसने: पशुभिः सुखमदूमुतम्‌ । 
गवि गतो हि रविजंलमोरुतां विहितमाहितमादिशते नृणाम्‌ ॥ ३१४॥ 
सूयं वृष राशिमं होतो सुगन्धित-स्वच्छ कुसुमास्तरण ( पुष्प शय्या ), सृन्दर 
वस्त्रो एवं पशुओं द्वारा अद्मृत सृखप्राप्त करने वाला, जल से मयमत तथा 
लोगों को शास्त्र विहित हितक्रारक आदेशदेने वाला होना है।। ३१४॥। 
गणितशास्त्रकलामलशीलतासुललितोऽदभुतवाक्प्रथितो भवेत्‌ । 
दिनपतौ मिथुने ननु मानवो विनयतानयतातिक्षयान्वितः । ३१५॥। 
दिनपति ( सूयं ) यदि मिथुन रारिमेहौ ता मनृष्य गणित क्षास्त्रएवं कला 
मे निपुण, निर्मल चरित्र, अपनी सुललित वाणी से प्रसिद्ध ( लोकप्रिय), विनम्र एवं 
राजनीतिज्ञ होता है ।। ३१५ ॥ 
सुजनतारहितः कलिकालविज्जनकवाक्यविलोपकरो नरः । 
दिनकरे तु कुलोरगते भवेतसषनताधनतासहितोऽधिकः ॥ ११६ ॥ 


सूयं ककं राकशशिमेहो तो मनुष्य सज्जनतासे रहित कलिकाल ( युग प्रभाव) 
को अच्छी तरह जानने बाला, माता-पिता के अदेश की उपेक्षा करने वाला धन- 
वान्‌ तथा दिनों-दिन अधिक सम्पन्न होता है ॥ २३१६ ॥ 


स्थिरमतिश्च पराक्रमतोऽधिको विभुतयाद्भुतकीत्तिसमन्वितः । 
दिनकरे करिवैरिग्ते नरो नृपरतः परतोषकरो भवेतु ॥ ३१७ ॥ 
( हाचियोंकेषात्रु ) सिह रािमेंसू्यंहो तो मनुष्य स्थिर बुद्धिवाला, अधिक 
पराक्रमी, अपनी तेजस्विता से कीतियुक्तः राजा का दरबारी तथा (स्वामीको) 
सन्तुष्ट रखने वाला होता है । ३१७ ॥ 


॥ णिग 





१. सुसहसो पाठान्तरम्‌ । 


२०६ जानसागरी 





दिनपतौ युवतौ समवस्थिते नरपतेश्च नरो द्रविणं लभेत्‌ । 
मृदुवचाः श्रुतगेयपराथणः समहिमहिमापहतादितः । ३१८ ॥ 
सूयं क्न्याराहिमेहोतो राजाते षन प्राप्त करने वाला, मृदुभाषी, संगीत 
सुनने एवं गायन मे दक्ष, महिमा युक्त तथा अपने प्रमृत्व से शत्रुं को नेष्टकरने 
वाला होता है ॥ ३१८ ॥ 


नरपते रतिभोतिमहनिष्ं जनविरोधविधानमधं दिशतु । 
कलिमनाः परकर्मरतिधंरे दिनमणिनं मणिद्रविणादिकम्‌ ।। ३१६ ॥ 


दिनमणि ( सूर्यं ) तुलाराश्षिमेहोतो निरन्तर राजकीय मयसे त्रस्त, जेन- 
विरोधी कार्यो से पापयुक्त क्षगडाल्‌ प्रवत्ति वाला, दूसरों के कार्योंमेप्रीति रखने 
वाला रत्न एवं धन से हीन व्यक्ति होता है ।। ३१६॥ 
कृपणतां कलहं च भृषं रषं विषहूताशनशस्तर मयं दिष्त्‌ । 
अलिगतः पितृमातृविरोधितां दिनकरो न कशेति समृश्नतिम्‌ ।। २२० ॥ 
वृरिचक राशिमेंसमूरयहो तो जातक कृपण, कज्षगड़ातू, भस्यन्त क्रोधी, विष- 
अग्नि-शस्त्र के भय से युक्त, माता-पिताका विरोधी तथा कमी भी उश्नतिन करने 
वाला होता है ।॥ ३२० ॥ 
स्वजनकोपमतोव मह॒न्मति बहुधनं हि धनुर्ध॑रगो रविः । 
स्वजनपूजनमादिश्षते नृणां सुमतितो मतितोषविवद्ध नम्‌ ॥ ३२१॥ 
धनु रािमेंसूयंहो तो आत्मीय जनों पर अधिक कोष करने वाला, अत्यन्त 
बुद्धिमान्‌, बहुत धनवान्‌, अपनी सदुबरुद्धि के अनुमार आत्मीय ( कहीं सुजन पाठ 
अतः प्ज्जन ) व्यक्तियों के सत्कारे तत्पर व्यक्ति होताहै तथा उसकी बुद्धि 
सन्तुष्ट बढ़ाने वाली होती है ।। ३२१॥ 


टनतां निजपक्षविपक्षतः सधनतां कुरुते ततं नृणाम्‌ । 
मकरराशिगतो विगतोत्छवं [दनविभूर्न विभुत्वसुखं दिशेत्‌ । ३२२ ॥ 
मकर राक्लिमे ग्या हुमा सूर्यं मनुष्यां को भ्रमणशील, अपने पक्ष-विपक्ष दोनों 
से निरन्तर धन लाभ कराने वाला, उत्सव ( मंगल कायो) से रहित तथा वैजहीन 
करने वाला होता है।॥ ३२२ 
केलशगामिनि पद्कुजिनीपतौ शठतरो हि नरो गतसौहृदः । 
मलिनताकलितो श्हितः सदा कंरुणयादणया्तंसुखी भवेत्‌ ॥ ३२३ ॥ 
कमलिनी पति ( सूर्यं) कुम्म राक्शिमें गयेहौ तो जातक अस्यन्त दुष्ट, मित्रता 
सेमी दूर, सदेव मलिन आचरभ युक्त, दयाभाव ते युक्त, कमी-कभी दुःखी व्यक्ति 
होता है ।॥ ३२३ ॥ 


मनोरमा" हिभ्वीभ्यास्योषेता २०७ 


बहुधनं कृयविक्रयतः पघुखं निजजनादपि गृह्यमहामयम्‌। 
दिनपतौ क्षगेऽतिमति्भवेद्विमुतयाऽद्‌भ तयायतकीसि भाक्‌ ।। ३२४ ॥ 
सूं मीन राशिमेंहो तो जातक अधिक बुद्धिमान्‌, अपने अद्भुत प्रभुत्वे 
से विस्तृत यशवाला, क्रय-विक्रय (व्यापार) ते धन समञ्^न्ष, एवं-युखी होतादै 
परन्तु आत्मीय जनों से गुप्त स्पसे भय बना रहता है ।। ३२४ ॥ 


, चन्द्र॒ फल-- 
स्थिरनो रहितः सुजनीर्मरः पुतयुतः प्रमदाविजितो भवेत्‌ । 
भजगतो द्विजराज इतोरितं विभुतयाद्भुतया स्वसुकीतिभाक्‌ ॥ ३२५ ॥ 
मेष राशि मे चन्द्रमाहोतो जातक स्थायी रूपसे धनवान्‌ सज्जन पद्षों से 
रहित, सन्तानयुक्त, स्तरीके वक्षीमूत, तथा मपने अद्मृत प्रमाव से सत्कीतियुक्त 
होतादहैरएेसा ( क्षास्तरोमे) कहा गयादहै॥ ३२५॥ 


स्थिरगति सुमति कमनीयतां कुशलतां हि नृणामुपभोगिताम्‌ । 
वृषगतो हितगुभृ शमादिशेत्सुकृतितः कृतितश्च सुखानि च । २३२६ ॥ 
वृष राशि मे या हआ चन्द्रमा जातक को सत्कार्यं के लिषएप्रेरित करताहै 
तथा वह॒ सत्कायं से सुख, स्थिरता, सदृबुद्धि, सीन्दयं, चातुव तथा उपमोग की 
वस्तुओं को प्राप्त करता है ।। ३२६॥ 


प्रियकरः भुरकममंयुतो नरः सुरतसौख्यभरो युवतीत्रियः । 
मिथुनराशिगतो हिमगुभवेत्सुजनताजनत। कृतगौरवः ॥। ३२७ 
मिथुन राशिमें चन््रमाहोतो वहु व्यक्ति प्रिय कार्योँको करने वाला, देव 
कायं ( पूजा-जप-तप ) में रत, सुरति सुख से सम्पश्च, स्वियों का प्रिय, तथा अपनी 
सञ्जनता से लोक मं गौरवान्वित होता है ।। ३२७ ॥ 
शृतकलाबलनिममेल वृत्तयः कुसुमगन्धजलाशयकेलयः । 
किल नरास्तु कुलोरगते विधौ वसुमती सुमतोप्सितलब्धयः ॥ २२८ ॥ 
ककं राशिमे चन्द्रमा गया हृभाहो तो मनुष्य ( कथा-वार्ता) सुनने वाला, 
कला-शक्ति एवं स्वच्छ आचरण से युक्त, पुष्प ( इत्र आदि) सुगन्धित द्रव्य, जल- 
क्रीडा में रुचि रखने वाला, मूमि, सदृबुद्धि एवं अमीष्ट वस्तुओं को प्राप्तः करने 
वालाहोतादहै।। ३२८५ ॥ 
लचलकाननयानमनोरथं गृहकलि विकलोदरपीडनम्‌ । 
द्विजपतिमूगराजगतो नृणां वितनुते तनुते यशदहीनताम्‌ । ३२९ ॥ 


सिह राशिमे बन्द्रमाहो तो पवंत-जङ्खल तथा वाहन मे अधिक इचि रखने 


२१४ मानत्ागदी 


|" कननककनकन्यवकेव 1111 वाकाककणयकवतकरवयननयगककादकयादकोकमयवकाकावकाकायाकात्‌ 


बाला, गृह मे कलह से युक्त" व्यभ्रः ऊपरसे पीडित तथा यशसे रहित होता 
ह ।। २३२९ ॥ 
युवतिगे शशिनि प्रमदाजनप्रबलकेलिविलासकृतूहलेः । 
विमलष्चीलसुताजननोत्सवेः सुविधिना विधिना सहितः पुमान्‌ ।। ३३० ॥ 


कन्या राशि में चन्द्रमाहोतो वह स्त्रियों के साथ अत्यधिक क्रीडा एवं विलास 
के लिए उत्सुक, निर्मल हृदयवाला, सुशील, कन्याओं का जम्मोश्सव विधि-विधान 
से मनाने वाला ({ अर्थात्‌ कन्या सन्तान वाला ) तथा भाग्यशाली पुरुष होता 
है ॥ ३३० ॥। 


वृषतुर ङ्गंपविक्रयवानू क्रये द्विजसुराचंनदानमतिः पुमान्‌ । 
चन तौलिगते बहुदारभाग्विमवसम्भवसच््चितविक्रमः ।। ३३१ ॥ 
चन्द्रमा यदितुला रक्िमेहौतो वह व्यक्ति बल, घोड़ा आदि का क्रय 
विक्रय करने वाला, विप्र भौर देवताओं के पूजन एवं दानमे रुचि रखने वाला, 
बहुत सी स्त्रियौ से युक्तः समी सम्मव सम्पत्ति एवं पराक्रम से युक्त होता 
है ॥ ३२३१ ॥ 


शशधरे हि सरीसृपगे नरो नुपदुरोदरजातधनक्षयः। 
कलिरचिविबलः खलमानसः कृशमनाः शमनापहतो भवेत्‌ ।। ३३२ ॥ 
चन्द्रमा वृदिचक राशिमेंहोतौजुभायास्हाममे, राजाकेकोप सेधनका 
नाच्चहोताहै। तथा वह व्यक्ति क्षगडालू, निर्बल, दुष्ट प्रकृति का, दरबल हृदय 
वाला होताहै। तथा यमराज द्वारा प्रताड्ति होतादहै ( अर्थात कष्ट ते मृत्यु 
होती है )॥ ३३२ ॥ 
बहुकलाकुश्चलः किल गीतवान्‌ विमलताकलितः सरलोक्तिभाक्‌ । 
शदाधरे हि धनुर्धरगे नरो धनकरो न करोति बहव्ययम्‌ ॥ ३३३ ॥ 


चन्द्रमा धनु रारिमें ग्याहो तो मनुष्य बहुत सी कलामों में निपुण, गायक 
स्पष्ट-सुन्दर ( मधुर ) एवं सरल वचन बोलने वाला तथा धनसंग्रह करनेवाला 
होता है । परन्तु मधिक व्यय नहीं करता है।। ३३३॥ 


कलितश्चीतभयः किल गीतवित्तनुरषा सहितो मदनातुरः 
निजकुलोत्तमविखकरः परं हिमकरे मकरे पृरूषो भवेत्‌ ।॥ ३३४ ॥ 
चन्द्रमा मकर राक्षिमें गया हमा हो तो पुरुष शीत-मय से युक्त गान विच्चा 
का ज्ञाता, कोषी स्वमाव वाला, कामवासना से आहुर, अपने कुल मे सर्वाधिक 
सम्पत्ति पलिन्वित करने वाला होता है ।। ३३४ ।। 





"मनोरमा" हिन्दीव्याश्योपेता २०६९ 


लसतावहिवोऽन्यसुतप्रियः कुभलताकलितोऽनिविचक्षणः । 
कलदहागामिनि शीतकरे नडः प्रदामितोऽशमितोररिपुत्रजात्‌ । ३३५ ॥ 
कम्म रादिमे चन्द्रमा गयाहोतो मनुष्य मालसी प्रकृति वाला, इूसगोंके 
प्रो से स्नेह करने वाला, निषूण, अस्यन्त विद्रान्‌, शत्रु समू से दबये जानेषर मी 
न दबने तराना होता है॥ ३३५ ॥ 
शशिनि मोनगते विजितेद्धियो बहुगुणः कुशलोऽनिललालसः । 
विमलधोः किल शस्त्रकलादरान्न चलताचलता , लितो नरः । ३३६ 
चन्द्रा मीन रक्षिमेगयाहोतो व्यक्ति जितेन्द्रिय, विविध गुणोंसे युक्त, 
कायो मे दक्ष, वायुसेवन की इच्छा रखने बाला ( प्रातः सायं खुनी हवा मे टहलने 
वाला धग में पंखा कूलर आदि रखने वाना ), निमेन बुद्धि युक्त, शास्त्र एवंकला 
के आदर से विचलितन होने वाला तथा स्थिर चित्तवाला होतादहै।॥ ३३६ ॥ 
भौमफल-- 
क्षितिपतेः क्षितिमानघनागमं सुवचा महसा बहुमाहसेः । 
अवनिजः करते ततं शुभ त्वजगतो जगतोभिमतं नरम्‌ ।, ३३७ । 
मेष रक्षि में गया हुआ मंगल सदैव शुभ करने वाला, राजासे भूमि-सम्मान 
एवं धन दिलानेवाला, मृदुभाषी, तेजस्वी, अधिक साहसी तथा लोक में प्रिय बनाता 
है ।॥ ३३७ ॥ 
गृहघनाल्पसुखं च रिपुदयं परगृहस्थितिमादिङते नृणाम्‌ । 
अवनिजोऽररुजो वृषमस्थितः क्षितिसुतऽ।तसुतोदधवपीडनम्‌ ।२३३८॥। 
मंगल वृष राशिमेंहोतो मनुष्यों का गृ एवं घन का अल्प सुख, शत्रुओं 
की वृद्धि, दूसरींके गृहम रहनेके लिए ब।ध्य, रात्र एवं रोगे पीडित, तथा 
अधिक सन्तान होनेसेमीदुखी रोता है ।॥ ३३८ ॥ 
बहुकलाकलनाकुलजोत्कलि प्रचलन्रियतां च नि जस्थलात्‌ । 
ननु नृणां कृरते मिथुनस्थितः कूतनयस्तनय “मुखात्सुखम्‌ ॥। ३३६ ॥ 
मंगल मिथुन राहिमंहो तो मनूष्य विविध कलाओंकेज्ञःन हेतु आकुल रहने 
बाला, क्षगरालू्‌, अपने स्थानसे नि.-न्तर चलने की अभिलाषा रखने वाला (अर्थात्‌ 
देशाटन प्रेम) तथा श्रेष्ठ (बः ) पुत्रसेसूखप्राप्नकगनेवला गेना है ॥३३६।।. 
परगृहस्थिरतामतिदीनतां विमतितां समितां च पूदयम्‌। 
हिमकरालयगे किल म्ले प्रबलयाऽबलया कलहं व्रजेत्‌ ॥ २४०॥ 
खन्द्रमाकेक्षेत्र ( ककं राहि) में मंगलस्थितहोतो षप.गये गृह म निवासः 
अष्यभिक दीनता, दुर्बुद्धि, शान्त, शत्रु मे ग्ड्धि, तथा. विसी प्रतापी स्त्रीके साथ 
कलह होता है ।। ३४० ॥ ५ + 


१४ ० सा० 


२१० मानसागरीं 





तितरां सुतवारसुखान्वितो हतरिपूविततोचमसाहसः । 
वनिजे मृगराजगते पुमान्‌ सुनयता नयताभियुतो भवेत्‌ ॥ २४१ ॥ 
मंगल सिह राशिमेगयाहोतो वह पुरुष दधृत्र भीर स्त्री के अतिहाय सुशषसे 
युक्त, हात्रओं का शमन करने वाला, प्रसिद्ध उद्यमी एवं साहसी, सुन्दर नीति का 
पालन करने वाला तथा राजनीतिज्ञ होता है ।। ३४१ ॥ 


स्वजनपूजनताजनताधिको यजन पाजनकर्मरतो भवेत्‌ । 
क्षितिसुते सति कन्थकयान्विते त्ववनितो वनितोत्सवतः सुखी ॥ २४२ ॥ 


मंगल यदि कन्था राशिमेगयाहोतौ आत्मीय जनों का पूजन (आदर) 
करने वाला, अधिक सन्तति युक्तः हवन-यज्ञ करने वाला, भूमि-स्त्री एवं उत्सवो 
हारा सुखी होता है । ३४२ ॥ 


बहुवनबग्ययिताङ्गंविहीनतागतगृर्प्रियतापरितापितः । 
वणिजि भूमिसुते विकलः पुमानवनितो वनितोद्धवदुःखमाक्‌ ।। ३४२३ ॥ 
तुला राशिमे मंगल होतो अधिक व्यय करने वाला, अङ्खगहीन, गुश्जन 


( माता-पिता ) एवं प्रियजनौं के दिवंगत हो जाने से सन्तप्त, विकल (ब्यप्र), 
तथा भूमि एवं स्त्री के सम्बन्धसे दुःखी पुरुष होता है ।। ३४२ ॥ 


विषहुताशनशस्त्रमयान्वितः सुतसूतावनितादिमहासुखः । 
वसूमतीसुतभाजि सरीसुपे नुपरतः परतश्च जयं व्रजेत्‌ ।। ३४४ ॥ 
वृश्चिक राशिमेमंगलहो तौ विष, अग्नि, एवंकस्त्र से मय, पुत्र, पुत्री, स्त्री 


भादि से बहुत सुल, राजा कीसेवामें रत तथा अन्य लोगों पर विजय प्राप्त 
कर्ता है ।। ३४४ । 


रथतुरङ्गमगोरवसंयुतः परमरातिजनंः कृतदुःखितः। 
भवति वाऽवनिजे धनुषि स्थिते पुवनितावनितां भवति प्रिया ॥ २३४५ ॥! 
भनु राशिमेंभोमहोतो रथ, घोड़ा ( भाजकल, कार, स्कूटर ) एवं प्रतिष्ठा 
मे युक्त, परम शत्रुम द्वारा दुःखी, तथा सदालारिणी स्त्री उसकी प्रिया होती 
है । ( अर्थात्‌ कुलीन एवं सदाचारी स्वरी से उस व्यक्ति का विवाह होता है ।३४५॥ 
रणपराक्रमतां वनितासुखं निजजनप्रतिक्लभयाधितः । 
विभवतो मनुजस्य धरात्मगे मकरगे करगा च र्मा भवेत्‌ ॥ ३४६ ॥ 
मंगल मकर रा्िमेहो तौ युदक्े्र मे पराक्रमी, स्तरीसुख से युक्त एवं 


जःरमीय जनों के शत्रुओं से भयश्रीत रहता है । धन से इतना सम्पन्न होता है मानो 
लक्ष्मी उसके हायोमेदहों। ३ । 


"मनोरमा हिन्दीष्यास्योपेता २१४ 


विंनयितारहितं सहितं श्जा निजजनदतिकूलमलं अलम्‌ । 
प्रकुरुते मनुजं कलशाधयः क्षितिसुतोऽतिषुतोद्धवदुःखितम्‌ । ३४७ 
मंगल यदिषुम्थ रशषिमेहोतो जातक विनत्नता ते रहित, रोमी, भपने 
शुभ चिन्तको के विपरीत आश्ररण करने वाला, दुष्ट तथा मति सन्तानसे दुगली 
होता है ।। ३४७ ॥। 
व्यसनत शलतामदयालुतां विकलतां चलतां च निजालयात्‌ । 
क्षितिसूतस्तिमिना भुसमन्वितो विमतिना मतिनाशनमादिष्षेतु ॥२४०॥ 
मंगल मीन गाशिमेहोतो जातक व्यसनी (बुरी मादर्तो वाला), दुष्ट, 
निदंय, व्यग्र, अपने धरते बाहर जाने के लिए हमेशा उद्यत रहता है तथा बुद्धिहीन 
व्यक्ति के सम्पकं से उसकी मी बुद्धि नष्टहो जाती है ।। ३४८ ॥ 


बुघफल-- 
खलमतिः किल चच्डलमानसो बहुलभुक्कलहाकुलितो नरः । 
अकर्णोऽ्युणवांश्च बुधे मवेदविगते विगतेप्सितसाधनः ।। ३४६ ॥। 
बुध मेष राशशिमेहोतो मनुष्य दुष्ट बुद्धि वाला, चश्वलमति, बहुभोजी, 
कलह के लिए आतुर, निर्दय, ऋण लेने वाला, तथा मभिलषित साधनों से रहित 
होता है ।। ३४६ ।॥। 
वितरणप्रयतं गुणिनं दिशेद्बहुकलाकुष्षलं रतिलालसम्‌ । 
धनिनमिन्दुसुतो वृषभस्थितस्तनुजतोऽनुजतोऽतिसुखं नरम्‌ ॥ २५० ॥ 
बुष वृषराशि म स्थित होतो वह्‌ वितरण प्रिय (दानमे रुचि रखने वाला); 
गुणवान्‌, बहत सी कलाओं में निपुण, स्त्री-सहवास हेतु लालायित एवं घनवान्‌ 
होता है तथा पुत्र भौर छोटे माई से सुख प्राप्त करता है ॥ ३५० ॥ 
प्रियवचो रचनासु विचक्षणो द्विजननीतनयः शुभवेषभाक्‌ । 
मिथुनगे जनने शशिनन्दने सदनतोऽदनतोऽपि सुखी नरः ।। ३५१॥ 
जन्म समयमे यदि बुघ मिथुन राक्षिमे स्थित होतो मनुष्य प्रियभाषी, 
रचना ( काग्य-निबन्ध भादि लेखन कला ) मे मद्मृत विदान्‌, दो माताभोंका 
( एकलौता ) पृत्र, सुन्दर वेष-मृषा युक्तं, गृह एवं ल्लान-पान से भी सुज्ली होता 
है २५१॥ 
कुचरितानि च गीतकयादरो नुपदचिः परदेशगतिनु णाम्‌ । 
किल कुल्लीरगते दादिमृत्सुते सुरततारतता नितरां भवेत्‌ ॥ ३५२ ॥ 
शध ककं राशिमेहो तो जातक कुस्सिति चरित्र बाला, गीत एवं कथा-कहानी 


२१२ ` मानतायरी 





में रुचि रशनेवाला, राजा का भक्त, परदेशगामी, तथा स्त्रीसहबासमें सदैव 


आसक्त होता है ।। ३५२ ॥. 
अनृततासहितं विमति परं सहजवंरकरं कुरते नरम्‌ । 
युवतिहषंपरं शशिनः सुतो हरिगतोऽरिगतोन्नतिदुःखितम्‌ ॥ ३५३ ॥ 
बुघ यदि सिह रक्लिमेहो तो मनुष्य मिध्या-माषी, बुद्धिहीन, मायो से शत्रुता 
करनेवाला, स्त्रीको प्रसन्न रखने वाला, तथाक्षत्रु की उश्रतिसेदटुःखी होता 
है ।। ३५३ ॥ 


सुवचनानुरतश्चतुरो नरो लिश्चनकर्मपरो हि वरोत्नतः। 
शध्िसुते युर्वति च गते सुखी सुनयनानयनाश्ललचेष्टितैः ।। ३५४ ।। 
बुष कन्या राक्शिमे गयाहोतो वह व्कक्ति मधुरमाषी, चतुर, लेखनकला 
मे निपुण, उक्षतिशील, तथा सुन्दरी स्त्रियो के नेत्रकटाक्षों का सुख प्राप्त करने 


वाला होता है।॥ ३५४ ॥ 


अमृतवाग्ययभाक्लु शित्पवित्कुचरिताभिरतिर्बहुजल्पकः । 
व्यसनयुम्मनुजः सहिते बुधे वितुलयच्चवलयान्वसतीयुतः ॥ २५५ ॥। 


बुध तुला राशिमेंहो तौ अमृत तुल्य मधुर वाणी बोलने वाला, शर्चीला, 
शिल्प (कला) काञ्चाता, चरित्रहीन स्त्री के साथ सहवास करने वाला, व्यर्थ 
बोलने वाला, व्यसन ( बुरी आदतों से ) युक्त, चञ्चल तथा मावास ( गृह आदि ) 
से सम्पन्न होता है ॥ ३५५ ॥ 
कृपणतातिरतिप्रणयश्रमो निहितकर्मसुखोपहतिभेवेत्‌ । 
धवल मानुसुतेऽलिगते क्षतिस्त्वलसतो लसतोऽपि च वस्तुनः ।। ३५६ ॥ 
चन्द्रमा ( धवल भानुसुत } वृिवक राशिमे गया होतो जातक कृपण, स्री 
संसग मे अधिक आसक्त, सन्वितकमं के सुख से रहित, वस्तुभों से शुसण्जित रहने 
पर भी भालस्यवह हानि उठाने वाला होता है ।। ३५६ ॥ | 
वितरणप्रणयो बहूव मवः कुलपतिश्च कलाकुशलो भवेत्‌ । 
शषिसुतेऽत्र शचरासनसस्थिते विहितया हितया रमयात्वितः । ३५७ ॥ 
चन्द्रमा यदि धनुराशिमेहोतो जातक दानमे रुचि रक्षने वाला, अधिकं 
सम्पत्तिशाली, कुल ( परिवार ) का श्रेष्ठ व्यक्ति, कलागों में निषूण तथा सन्मार्गे 
से अजित हितका रकं लक्ष्मी ( धन ) से युक्त होता है ॥ ३५७ ॥ 
` रिपुमयेन युतः कूमतिनं रः स्मरविहीनतर! परकर्भकत्‌ । 
भकरगे सति श्रोतकरात्मजे व्यसनतः स नतः पुर्षे मवेत्‌ ॥ ३५० ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीव्यास्योपेता , २१३ 


बुध मकर रामे गयाहोतो व्यक्ति शत्रुमोंके मयसे युक्त दुर्बृदि, काम- 
वासना से रहित, दूसरों का कायं करने वाला, व्यसनके प्रमाव से नन्न रहने 
वाला होता है ।। ३५८ ॥। 
गृहकलि कलक शशिनन्दने वितनुते तनृतामनृदीनताम्‌ । 
धनपराक्रमधर्मविहीनतां विमतितामतितापितक्षत्रुर्िः ॥ ३५९ ॥ 
बुघ यदि कुम्म राक्षिमंहोतौ गृहकलह्‌, दरिद्रता में दिनौं-दिन कमी, घनः 
पराक्रम एवं घमं का अमाव, बुद्धिहीनता तथा शत्रुओं द्वारा सन्तप्त हृदय होता 
है ।॥ ३५६ ॥। 
परथनादिकरक्षणतत्यरो द्वि जसुरानुचरो हि नरो भवेत्‌ । ` 
शदिसुते पृथुरोमसमाध्विते सुवदनावदनानुविलोकनः ।॥ २६० ॥ 


बुष यदि मीन राशिमेगयाहो तो मनुष्य दूसरोंकेधनकी रक्षाम तत्पर, 
विश्र एवं देवताओं का अनृचर, तथा सुन्दर स्त्रियों के मुख को देश्चनं वाला होता 
है । ( अर्थान्‌ सुन्दरी स्त्रियों के संसगंमे रहताहै)॥ ३६०॥ 


बृरस्पति फन-- 
बहुतरां कुर्ते समुदारतां चरितानि च वंरिसमृक्ततिम्‌ । 
विमवता च मरत्पतिपूजितः क्रियगतोंगतोऽनुमतिप्रदः ।। ३६१ ॥ 
देवगुरु ( ब्रहस्पति ) मेष रा्ि में स्थित हों तो व्यक्ति अतिशय उदार, सदा- 
चारी, एवं अथसंगत ( उचित ) कायो की स्वीकृतदेने वाला होता है । उसके 
शत्रुओं की भी उन्नति ( वदि ) होती रहती है । ३६१ ।। 
द्विजसुराचंनभक्तिविभुतयो द्रविणवाहनगौरवलन्धयः। 
सुरगुरौ वृषभे बहुवं।रणश्चरणगारणगाढपराक्माः ॥ ३६२ ॥ 
बृहस्पति वृष राशिम गयाहो तो देवता-ब्रह्मण की मक्ति एवं आराधना 
ते सम्पत्ति, धन, वाहन एवं यश प्राप्तहोतादहै। तथाघोर संग्राम में पराक्रम 
दिश्चाने वले ( वीर ) शत्रुसमरह॒ उसके चरणों मे क्षुते । ३६२ ॥ 
कवितया सहितः प्रियवाक्‌ शुचिविमल्ालरुविर्निपुणः पुमान्‌ । 
मिथुनगे सति दैवपुरोदिते सहितताहिततासहितंभंवेत्‌ ।३६३॥ 
बृहस्पति मिथुन राशिमेंतो पुरष कवि, प्रियमाषी, पवित्रात्मा, निमल 
जभाचरण वाला, चतुर, एवं शुभचिन्तकं मिघ्रों से युक्त होता है।॥ ३६३ ॥ 
बहुधनागमनो मदनोप्रतिविविषशास्वकलाकुशलो नरः । 
त्रियवचाश्च कुलीरगते गुरौ चतुरगेश्तुरगः करिभिर्युलः ॥ २३६४ ॥ 


~ २९४ | मानसाभरी 





कर्कं राशि में बृहस्पति हो तो मनुख्य को विविध प्रकारसे धनलाभ होताहै। 
कामवासना में वद्धि, विविभ शास्वों एवं कलाओं में निपुण, त्रियमाषी, चतुर 
व्यक्ति, घोडे एवं हाथी ते युक्त होता है ॥ २३६४ ॥ 
भचलदुगंवनप्रभुतोजितो दुढतनुनंनु दीनपरो भवेत्‌ । 
अरिविभूतिहरो हि हरौ युत, धुवचसा वचसामधिपे गुरौ ॥ ३६५ ॥ 
सिह राक्षिमे गरुहो तो पवत, जंगल, एवं किला को अपने पराक्रमसे जीत 
कर अधिकार में रखने वाला, दृढ शरीर ( हद्रा कटरा ), दानी, शत्रुओं की सम्पत्ति 
काहुरण करने मे समयं तथा मधुर माषी होता टै ।। ३६५॥ 
कुसुमगन्धसदम्बर्ालिता विमलता धनदानमतिभु चम्‌ । 
सुरगुरौ सुतया सति संयुते रुचिरता चिरतापितशत्रुता ॥ ३६६ ॥ 
बृहस्पति कन्या राशिमे स्थित होतो जातक पुष्प, गन्ध ( दत्र भादि), 
सुन्दर॒ वस्त्र से सुसज्जित, स्वच्छ हृदे, धन-दान में अधिक उदार, भाकृतिसे 
सुन्दर तथा शत्रुओं को अच्छी तरह सन्तप्त करने वाला होता है । २३६६ ॥ 
सूतनयो जपहोममहोत्सवौ द्विजसुराचंनदानमतिभवित्‌ । 
वणिजजन्मपवित्रशिदण्डिजे चतुरतातुरतासहितारिणा ॥ ३६७ ॥ 
बृहस्पति तुलाराशि में हो तो सुन्दर-शिष्ट सन्तान युक्त, जप-हवन एवं बडे-बढे 
उत्सवो को करने वाला, ब्राह्मण भौर देवताओं के पूजन एवंदानमं ठचि रखने 
वाला, चतुर, रुग्ण तथा शत्रुओं से युक्त होता है ।। ३६५७ ॥ 
धनविनाश्चनदोषसमृद्धवंः कृशतनुबहुदम्भपरो नरः । 
अलिगते सति देवपु रोहिते भवनतो वनतोऽपि च दुःखमाक्‌ ॥ ३६५८ ॥ 
अलि (वृश्चिक) रषक्शिमेमगुरहोतौ धन नष्ट करने के दोष से उत्पन्न (चिन्ता 
हारा) दुबल शरीर वाला, धमष्डी, घर तथा जंगलमे ( घर-बाहूर दोनों जगह ) 
दु पाने वाला होता है ।। ३६८ ॥ 


वितरणप्रणयो बहुवेमवं ननु धनान्यपि वाहूनसश्चयः । 
धनुषि देवगुरौ हि मतिभवेत्सुरुविरा रचिराभरणानि च ॥ ३६९ ॥ 
धनु रा्तिमें गदो तो मनुष्य सम्पत्ति ( धन-स्व्णे, मभि, अन्न-वस्त्र) का 

अधिक मात्रा में इच्छा पूवक दान करने वाला, धनवान्‌, वाहन ( मोटर-कार ) 
का सप्रह करने वाला, सद्बुद्धि युक्त तथा सुन्दर आमूवणो को धारण के बाला 
होता है ।॥ १६९ ॥ 

हतमतिः पर्कर्मंकरो भरः स्मरविहोनतरो भयरोषभाक्‌ । 

पुरगुरौ भकरे विदधाति ना अनमनो न मनोरथसाधनमू ॥ ३७० ॥ 


"मनोरमाः हिन्दीष्याश्योपेता २१५ 


0 0 व । 





बृहस्पति मकर र'शि्मेहो तौ मनुष्य बुद्धिहीन, दुसर्योके कर्योमे रत 
( नौकरी करने बाला), कामवासनास्ते हीन, भयभीत, एवं क्रोधी होताहै, 
तथा उसका मन कमी अपने मनोरथो की सिदविमें नदीं लगता है ।। ३७० ॥ 


गदयुतः कमतिर्द्रीवणोजिक्षितः कृपणतानिरतः कृतकिल्विषः१। 
धटगते सति देवपुरोहिते कंदणनो दशनोदरपीडितः । ३७१ ॥ 
गुरु यदि कुम्भ रारिमेहोतो वह व्यक्ति रोगी, दुष्ट बुद्धि वाला, षनहीन, 


कृपणता में लीन, पापकर्म करने वाला, कुत्सित पदार्थो को खाने वाला, दांत तथा 
उदरके रोगसे पीट्िहोतादहै॥ ३७१॥ 


नृपकृपाप्तधनो वदन्तिः सदनपाधनदानपरे नरः । 
सुरगुरौ तिमिना सहिते सतामनुमत।ऽनुमतोत्सवदो भवेत्‌ ॥ ३७२ ॥ 
मीन राहि म ब्रहस्पति होतो मनुष्य राजा कीङक़ृपासे धन प्राप्त करने वाला, 
माषण कला से उघ्नति पाने वाला, भवननिर्माण के साधन (मूमि अथवा उपकरण) 
के दानमे तत्पर, सत्पुरुषो का अनुगामी, तथा उनकी अनुमति से उत्सव करने 
वाला होता दै । ३७२ ॥ 
। शुक्र फल-- 
अवनवाहनवृन्दपुराधिपः प्रचतनप्रियताविहितादरः । 
यदि च सञ्जनने हि भवेत्कविः° कवियुतो वियुतो रिपुभिनं दः ॥ ३७३॥ 
यदि जन्म समयमे मेषमं शुक्रहो तो मनुष्य गृह, वाहनौ के समूह्‌ एवं नगर 


का अधिपति होतादहै। घूमने-फिग्ने का शौकीन एवं उसी से सम्मान पाने बाला, 
कवियों से युक्त तथा शत्रुओं से रहित होता है ॥ ३७३ ॥ 


बहुकलत्रसुतोत्सवगौरवं कुसुमगन्धरुचिः कृषिनिमितः । 
बुषगते भृगुजे कमला मवेदविरला विरला रिपुमण्डलौ ।। ३७४ ॥ 
बुषराशिमं शुक्रो तो बहत सी स्रियो एवं पुत्रों के उत्सवो से गौरवान्वित, 
पुष्प गन्ध (त्र आदि) का प्रेमी, कृषि कमंद्वारा सबक करने वाला, भपरिमित 
लक्ष्मी ( घन ) से युक्त तथा अल्परशत्रुभों वाला होता है ॥ ३७४ ॥ 
१. हशतनुननु देव विनिन्दकः ।। पाठान्तरम्‌ 
२. मूलपाठ “मबेत्कविः' यही प्रतीत होतादहै। बादमें किसी संशोषक ने भेष 
राशि कानामन भाने से भजगतः पाठ परिवर्तित कर दिया होगा । ' सश्जनने' 
का अभिप्राय अन्मलम्नसे है, तथा लग्न से बाद्च स्थान अर्थात्‌ मेष का बनि- 


पराय प्रन्वकार को अभीष्टहै। यह विड प्राणायाम मृलपाठके रक्षां चैने 
ग्रहृण किम्रा है। 





भकययनमकोक 


२१६ मानसागरी 





भृगुसुत जनने मिथुनस्थिते सकलशास्त्रकलामलकौौशालम्‌ । 
सरलता ललिता किल भारती सुमधुरा मधुराप्तरुचिरभवेत्‌ ।। २७५ ॥ 
अश्म समय मे यदि शुक्र भिथन राशषिमेंहो तो समस्त शास्त्रों एवं निर्दोष 
कलाकौौशल मे निष्णातः सरल, ललित एवं मधुर वाणी बोलने बाला, तथा 
मिष्ठान्न का प्रेमी होता है । ३७५ ॥ 


द्विजपतेः सदने भृगुनन्दने विमलकर्ममतिर्गृणसंयुतः । 
जनमलं सकलं कुरुते वशं सकलया कलयापि गिरा नरः ॥ ३७६ । 
चन्द्रमा की राहि (ककं) मेंयदि शुक्रहोतो निर्मल बुद्धिसे कार्यं करने 
वाला, गुणवान्‌, तथा अपनी वाणी एवं कलाओं से समस्त जनता को वशमे करने 
वाला होता है ।। ३७६ ॥ 


हरिगते सुग्वरिपुशेहिते युवतितो धनमानसुखानि च । 
निजजनव्यसनान्यपि मानवस्त्वहिततो हिततोषमन्‌त्रजेत्‌ ।। २७७ 
शुक्र यदि सिह राशिमेहोतोस्त्रीद्रारा घन एवं सुश्च की प्राप्ति होतीदहै। 
उसके आत्मीय जन व्यसनी होते हैँ तथा शत्रुओं से उसे सन्तोष प्राप्त होता 
है ।। ३७७ ॥ | 


भृगुसुतं सति कब्यकयान्विते बहु धनं खलु ती्थंमनोरथः। 
कमलया पुरुषोऽपि विभूषितस्त्वमितया मितयापि गिराम्वितः ।२७०८॥ 


शुक्र यदि कन्या राशिमहोतो पुरुष धनवान्‌ तीययात्रा का अभिलाषी, 
भपार लक्ष्मी से विभूषित, तथा मित ( स्वल्प ) माषी होता है।। ३७८ ॥ 


कुसुमवस्वरवि वित्रवनान्वितो बहुगमागमनो ननु मानवः । 
जननकालतुलाकलनं यदा सुकविना कविनायकतां व्रजेत्‌ ।। ३७६ ॥ 


जन्म समय में शुक्र तुला राशिम्‌ स्थितहो तो मनुष्य पुष्प, वस्व, विचित्र 
धन से सम्पन्न, बहुत यात्रा करने वाला तथा कवियों मे श्रेष्ठ होता है । ३७९ ।। 


कलहधातमति जननिन्द्यतां प्रजनतामयतां नियतां नृणाम्‌ । 
व्यसनतां जननेऽलिसमाधितः कविरलं विरलं कुरते धनम्‌ ॥। ३८० ॥ 
जन्म काल में शुक्र यदि वृश्चिकं राशिमेंस्थितहोतो जातक कलह, बान 
( धोल्लाया हत्या ) में दनि रश्ने वाला, समाज मे निन्दित, निरन्तर जननेन्धिय 
से ङश, व्यसनी, तथा दिनों -दिनों घनक्षय करने वाला होता है ॥ ३८० ॥ 


युवतियुनुषनागमनोस्सवं सचिवतां नियतं शुभरीलताम्‌ । 
जनुषिकार्मुकगः कविनन्दनः कविरति विरति कइत नृणाम्‌ । ३८१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्याख्योपेता २१७ 


जन्मकालमेंशुक्रषनु राशिमेंगयाहोतो मनुष्य स्त्री, पत्र गौरषन की 


प्राप्ति से आनन्द मनाने वाला, मन्त्री, शील स्वभाव युक्त, कविर्यो के प्रति अनुराग 
रश्ने वाला विरक्त प्रकृति का होता है।। ३८१ ॥ 


धभिरतिस्तु जराङ्गनया नृणां व्ययभयाक्कृशतामतिचिन्तया । 
भृगुसुत मृगशणिगते सदा कंविजने विजनेऽपि मतिभवेतु ॥३५२॥ 
मृग (मकर ) राक्िमें शुक्रहोतो मनुष्य वद्धा स्वर्यो मं विशेष अनुरक्त, 
ग्ययके मयसे दुर्बल, तथा चिन्तित रहता है । एकान्त ( निर्जन) में रहता हमा 
भी कविरयो के प्रति आदर रखना है॥ ३८२ ॥ 
उशनः कलो जनुषि स्थितौ वसनभूषणमोगविहीनता । 
विमलकर्ममहालसता नररुपगतापगतापि रमा भवेत्‌ ।। ३८३ ॥ 
अन्म समयमे यदि शुक्रकुम्भ राशिमेगयाहोतो वह व्यक्ति वस्त्र, जामूषण, 
विविध प्रकारके भोगों (सुखो) से वंचित अच्छे कार्यो मं आनस्य प्रकट करने 
वाला, तथा लक्ष्मी ( घन ) प्राप्त करके भी नष्टकरने वाला टोताहै।। ३८३॥ 
भृगुसुते सति मौनसमन्विते नरपतेविभुता वितता भवत्‌ 
रिपुसमाक्रमणद्रविणागमो वितरणे तरणे प्रणयो नृणाम्‌ ।। ३८४ ॥ 
शुक्र यदि मीन राशिमंगयाहोतो व्यक्ति, राजा की सम्पत्ति से लाभान्वित, 


शत्रुमों पर आक्रमण करनेसे धन-लाभ करने वाला, विनरण (दान) में तथा 
तैर।की में निपुण होता है ॥ ३८४ ॥ 


शनि फल - 


धनविहौनतया तनृता तनौ जनविरोधितयैप्सितनाशनम्‌ । 
क्रियगतऽकसुते सुजनंनू"णां विषमता समताशमनं भवेत्‌ ।। ३८५ ॥ 
शनि मेषराश्ि म गयाहोतो धनहीन हो जाने से शारीरिक दुबंलता, जनता 


के विरोधसे अमीष्टकारयेकीहानि, सज्जनो के साथ शरुता तथा मित्रो से सम्बन्ध- 
भङ्ग होता) २८५॥ 


युवतिसौस्यविनाशनता मृं पिशुनसङ्रुचि मतिविच्युतिम्‌ । 
तनुमृतां जनने वृषमस्थितो रविसुतो विसुतोत्सवमादिक्षेत्‌ ।। ३८६ ॥ 
मनुष्यो के जन्म कालम वृष राशिमे हनि ग्याहोतो स्त्रीसुखं का नाकच, 


चुगललोरोंके साथ विशेष रुचि, बुद्धिहीनता तथा पुत्रोध्सव का अभाव षदा 
करता ह ३८६ ॥ 


प्रबलताविमलत्वविहीनता भवनबाह्यविलासकतहलात्‌ । 
व्रजति नो मिथुनोपगते सुते दिनविभोनं विभोलंमते सुखम्‌ ॥ ३८७ ॥ 
मिथुन रादिगत श्निहोतो जातक शक्तिशाली, मलिन हृदय वाला, षरसे 


५ आनन्दोपमोग से विरतनहोने बाला तथा धनकेसुखसे हीन होता 
॥ ३८६७ ॥ 


२१८ मानसागरी 





शशिनिकेतनमामिनि भानु तनुभृतां कशता भृदामम्बया । 
वरविलासकरा कमला भवेदविरलं विरलं रिपुमण्डलम्‌ ॥ ३५०८ ॥ 


चन्द्रमा के गृह ( ककं राशि )मेंशनि गयाहो तो जातक ओर उसकी माता 
दोनो शरीर से दुबल, समस्त अनन्दोपभोग की सामग्री से सम्पन्न, अपार लक्ष्मी 
( धन ), तथा अस्यत्प शत्रुओं से युक्त टोते दँ ॥। ३५८ ॥ 


लिपिकलाकशलश्च कलिग्यो विमलकशषीलविहीनतरो नरः । 
रविसुते रविवेश्मनि संस्थिते हतनयस्तनयः प्रमदातिभाक्‌ ।। ३८६ ॥। 
शनि सिह राशिमेस्थितहो तो जातक लेखनकला में निपुण, क्षगडालु, 
सौजन्य से रहित होताहै। उसके पुत्र नीतिसे हीन तथास्व्री रोगी होती 
है ।॥ २३८६ ॥। 


विहितकर्मणि शमं कदापि नो विनयतोपहतश्चलसौहूदः । 
रिपुसुते सति कन्यकयान्विते विबलता बलता सहितो भवेत्‌ ।। ३९० ॥ 
शनि कन्या राशिमेंहोतो व्यक्ति अपने (विहित) कर्योँमे कभी मी जानन्द 
( सन्तोष ) का अनुभव नहीं करता है । विनम्रता से रहित, क्षणिक मित्रता वाला, 
कमी बलवान तथा कमी निर्बल होता है॥ ३६० ॥ 


निजकृलेऽवनिपालबलान्वितः स्मरबलाक्लितो बहुदानदः । 
जलजिनो्सुते तुलयान्विते न॒पक्ृतोपकृतो हि नरो भवेत्‌ । ३६१ ॥ 
शनि यदि तुना राशिमें होतो मनुष्य अपने कुलमें राजा के समान बलवान्‌, 
अतिहय कामी, अधिक दान करने वाला तथा राजा से उपकृत होता है ।३६१॥ 


विषहूताह्यनशस्व्रमयान्वितो धनव्रिनाशनवंरिगदादितः । 
विकलित।कलितोऽलिसमन्वितौ रविसुतोविसुतोऽप्यसु खीनरः 1२९२! 
वृश्चिक राक्शिमे श्निहो तो विष, अग्नि एवं शस्त्र मये युक्त धनहानि, 
शत्रु भौर रोगसे पीडित, ब्याकूलता से युक्त, पुत्रहीन तथा दुःखी मनूष्य होता 
है । ३६२ ॥ 
रविसुतेन युते सति कार्मुके सुतगणेः परिपूणंमनोरथः । 
प्रथितकीतिसुवृत्तिपरो नरो विमवतो भवतोषयुतो भवेत्‌ ॥२९३॥ 
शनिषनु रािमंहोतोपत्रों द्वारा मनोरथ पूर्णेकरे वाला ( अर्थात्‌ सुयोग्य 
पूर्रों से युक्त), विख्यात यशस्वी, उत्तम साधनो से युक्त जीविका वाला तथा सम्पत्ति 
वारा सांसारिक सुशो से सन्तुष्ट व्यक्ति होता है॥ ३९३ ॥ 


नरपतेरतिगौरवतां तब्रजेदरविसुते मृगराशिगते नरः। 
अगदणाकूसुमेमू गजातया विमलया मलयाचलः सुखम्‌ ॥ ३९४ ॥ 


मनोरमा" हिन्दीम्याल्योपेता २१९ 





पि 


मकरराक्शिमें यदिशनि गयाहोतो मनुष्य राजासे सम्मान प्राप्त करने 
वाला, मगर, पष्प, कस्तुरी से उस्पन्न सुगन्ध एवं निर्मल मलयगिरि में उत्पन्न 
चन्दन से सुख प्राप्त करने वाला ( अर्थात्‌ पूणं शंगारिक सख मोगने वाला ) होता 
है । ३९४॥ 
ननु जितो रिपुर्भिव्यंसनावृतैविहितक्मंपराङमुखतान्वितः। 
रविसुते कलष्येन समन्वितं सुहितः ख ॒हितत्रचयनेरः । ३९५॥। 
शनि कम्म राकशिमहोता मनुष्य शत्रुभोसे पराजित, व्यसनोंसेषिरा 
हुभा, भपने लिए निदिष्ट कार्यों से विमुख, अच्छे लोगों का साथी तथा हितेषियों 
से युक्त होता है।। ३६५॥। 
विनयता व्यवहारसुशीलता सकललोकगृहीतगुणो नर! । 
उपकृतौ निपुणस्तिमिपश्िते रविभवे विभवेन समन्वितः ॥ ३९६ ॥ 
मीन रालिमे श्निहा तो व्यक्ति विनम्र, सुशील, व्यवहारिक, लोगोंते बण 
ग्रहण करने वाला, उपकृत ( उपकार मानने वाला); निपुण तथा षनसे युक्त 
होता है ।। ३६६ ॥ 
ग्रहमत्री प्रयोजन- 
विना हि मेत्रीं बलु खेचराणां न जायते ह्य त्तमध्यदहीनता । 
महादशान्तविदशादिकानां तस्मात्प्वक्ष्ये खलु मंत्रिचक्रम्‌ ।। ३६७ ॥ 
ग्रहों को मित्रता ( मित्र-सम-शत्रु ) के ज्ञान विना महादशा या अन्तर दश्षाके 
शुभाशुभ फलो के उत्तम-मध्यम-हीन कोटि काज्जान नहींहो सकता अतः ग्रहमत्री 
चक्र को कह रहा दहं ।। ३६७॥ 
नैसगिक एवं तात्कालिक प्रहूरमत्री- 
शत्रू मन्दसितौ समश्च शशिजो मित्राणि शेषा रवे- 
स्तीक्ष्णांशुहिमरष्मिजश्च सुहूदौ शेषाः समाः शीतगोः 
जीवेन्दृष्णकराः कुजस्य सुहृदो जोऽरिः सितार्का समौ । 
भित्र सूर्यसितौ बुधस्य हिमगुः शत्रुः समाश्चापरे ॥ ३९० ॥ 
सूयं के शनि ओर शुक्र शत्रु, बुष सम तथा शेष ( चन्द्र, मंगल, गुरु) मित्र, 
चल्दमा के मित्र सूर्यं ओर बुष अन्य सभी प्रह (मं, गु. णु. श.) सम, मंगल के मित्र 
बृहस्पति, धन्द्र, सूयं, शत्र बुध तथा सम, शुक्र भौर शनि बुधके सूर्यं भौर शुक 
भित्र, चन्द्रमा शत्रु, तथा अन्य ( मंगल, गुर, शनि ) सम होते है ।। ३९८ ॥ 
सुरे सौम्यतसितावरी रविसुतो मध्योऽपरे त्वन्यथा 
सौम्याकीं सुहृदौ समौ कुजगुरू शुकस्य शेषावरी 


२२० मानसागरी 


शुक्रजौ सुहदौ समः सुरगुरः सौरस्य बाब्येऽरयः- 
तत्काले च दशायबन्धुसहजस्वान्त्येषु मित्रं स्थितः+ ॥ २३६६ ॥ 
बृहस्पति के बुष गौर शुक्र वात्र" शनि सम तथा अन्य प्रह (सू. चं. मं.) मित्र, 
शुक्र के बुष ओौर दानि मित्र, मंगल, गुरु सम, शेष प्रह (सू.चं.) शत्रु, शनिके 
शुक्र, बुध मित्र, ब्रहस्पति सम तथा अन्य (सु, चं., मं.) शत्रु होति ह । ( यह 
नैसथिक मंत्री होती है । ) तात्कालिक मैत्री का निणेय इस प्रकार होता है- 
अपने स्थान से दूसरे, तीसरे, चौथे, दशवे, ग्यारहर्वे तथा बारह भावम जो 
ग्रह हों वे तात्कालिक मित्र तथा इनसे मिलन ( लग्न, पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, 
नवम, भावों मे स्थित ग्रह॒ तात्कालिक शत्रु होते ह ।। ३६६ ॥ 
नसगिक मंत्रीषक्र 


हस्‌. |च. [म | डु. [ग. शु. | श. 


ग्रह | सु. |च. | मं |. | यु. | शु. | ष. गु. | शु. | श. 
मित |च.मसू.बु. चश. व बुषा दुषु 






































बृ. | 
सम ¦ बु शु होए. श. | श 8. र. 
शत्र शु र | >< | बु | . |बु.शु. इ चं. ६ 





तात्कालिक मित्र (स्वस्थान से) २, ३५ ४, १०, ११, १२ मावों में स्थित ग्रह्‌ । 
तात्कालिक हात्र ( स्वस्थान से) १, ५६, ७, 5, ६ भावों मं स्थित ग्रह । 
मित्रमुदासीनोऽर्व्याख्याता ये निसगंभावेने । 
तेऽधिसुहुन्मित्रसमास्तत्कालमृपस्थिताश्जिन्त्याः । ४०० ॥ 
मित्र, उदासीन (सम), शत्रु, का जो विवेचन नैसगिक मावसे किया गया 
ह उससे तथा तात्कालिक मित्र शत्रु सम्बन्ध ज्ञात कर अधिमित्र, भित्र, सम आदि 
का निर्णेय करना चाहिये ॥ ४०० ॥ 


मूलत्रिकोणषत्रिष्ठकोणनिधनंकशणिसप्तमगाः । 
एककस्य यथा सम्भवन्ति तात्कालिका रिपवः ॥ ४०१॥ 


१. बृहस्जातकम्‌ २.१६.१७ विल्लेष-नैसगिक मत्री मे ब्रहों की मित्र सम दत्र 
तीन कोट्या होती है । तथा इनमें परस्पर स्थिर सम्बन्ध होते ह । 
परन्तु तात्कालिक मत्रीमें केवलदो कोट्यां मित्र गौर शत्रुकी 
होती है। जो अस्थिर होती टह। दोनो के सम्बन्ध से पर्वा 
मत्री कां निणेय होता दहै। 





"मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता २२४ 


मूल त्रिकोण, षष्ठ, पश्वम, नवम, मष्टम, प्रथम, सप्तम स्थानों में स्थित 
प्रत्येक ग्रह तत्कालिक शत्रु होता है।* ४०१॥ 
पर्चा मंत्री चक्र-- 
वत्कालमित्रं तु निसग॑मित्रं दयं भवेतस्वधिमित्रसंजम्‌ । 
तथेव शत्रारधिशतुसंजमेकत्र शत्रुः समतामुपंति ।॥ ४०२ ॥ 
तात्कालिक मित्र ओर नसगिक मित्र दोनों मिलकर अधिमित्र, इसी प्रकार 
नैसगिक शत्रु गौर तात्कालिक शत्रु दोनों मिलकर अधिदात्रुहोतेर्द। एक ही ग्रह 
एक मतसे मित्रहूसरे मतसेश्त्रुहो तो दोनों मिलकर सम तथा नंस्गिक मतसे 
सम तथा तात्कालिक मित्रो तो मित्र, एवंसमशत्रुहों तो शत्रु होते हँ ।४०२॥ 
“यया स्वाभाविको-मेत्रोचक्रं यत्र॒ प्रतिष्ठति! 
तादृगेव हि तत्काल्मंत्रोचक्रं निवेशयेत्‌ ।॥ ४०३ ॥ 


जिम प्रकार नैसगिक मंत्रोचक्र का निर्माण होता है उसी प्रकार तात्कालिक 
मत्रीचक्रका भी निर्माण कर जन्म पत्र मं सन्निवेश कर लेना चाहिये ॥ ४०३॥ 


उदाहरण--पन्चधा मैत्री चक्र निर्माणदहेतु जन्माङ्गं चक्र तथा नैसगिक मैत्री 


चक्र की आवद्यता पड़ती है । इस चक्रमे अधिमित्र, मित्र, सम, शतु, अधिशात्रुये 
५ विमाग होते ह। इसीलिए इसे “"पचषा मंत्र" कहते ह । 


जन्माङ्ग चक्र-- 


नि) 


८ प्रस्तुत चक्र मं सूयं का चन्द्रमा 
नसगिक मित्रहै परन्तु तात्कालिक शत्र 


है अतः मित्र +शत्रु-सम सूयं का मंगल 
नसगिक मित्र तथा तात्कालिक मित्र 
है । अतः मित्र + मित्रन्अधिमित्र। इसी 


प्रकार सभी ग्रहोंका विचार करना 
चाहिये । 





१. तात्कालिक मित्र शत्रु के निर्णय मं विविघ मतान्तरं । अतः केवल उक्तमत 
ही प्रमाण नहीं ह । हस ह्लोक के अनुसार जो सामान्य माव प्रकटहोतादहै 
वस्तुतः वह संगत नहीं है । इसका आकषय हस प्रकार होना चाहिये--अपनी 
मूल त्रिकोण राशि ते प्रथमः, पश्चम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम भावोंमें 


स्थित प्रह शत्रु होता है। जसा कि भहट्रोत्पल ने बृहञ्जातकंके वे इ्लोककी 
टीका में किसी माचा का मत उद्धूत कियाहै। 


“मूल जिकोणाद्धनषमबन्धुपुत्रम्ययस्थानगता ग्रहे्ाः। 
तस्कालमेते सुहृदो मवन्ति स्वोध्वे च यो यस्य विङृष्टवीर्यः ।' 


२९१२ भानसागरी 





पश्चधा मत्रीजक्र 





० | सूयं | चन्र मंगल बुष | गुर रति 











[.  , रं 


अधिमित्र | म. | > दुच]द्षु मं | >९ | र सु.शु| म. |बु श. बुश. 

















न | बु. म॑बु | श. | क > | शु. । >€ 








सम शु | सुबु. | बु. | >९ शु | सुचं | म. 


_ शव |> |बृ.श.| शु. | > | >€ | बश, | शु. | > | श. | म. | गु. 


























अधिरशत्र | श. | >€ | > | च. | > | > ।सूचं. 


[1 





षटवे से विचारणीय विषय-- 

लग्ने देहाचारो होरयामर्थंसम्पदो विपदः । 

द्रेघ्कणि कर्मफलं सपा बन्धुसंख्या च ।। ४०४ ॥ 

जातकफलं नर्वाशे द्वादशमागे विचिन्तयेत्पत्नीम्‌ । 

विशांशे निधनं वं यवनाचार्येः सदा ह्य क्तम्‌ ॥ ४०५॥ 

गृह ( लगन ) सेशरीरकी स्थिति, होरासे घन सम्पत्ति भौर विपत्ति, 
सघ्तमांशसे कमं फल, सप्तमांश से भाद्यों की संख्या, नवमांश से जातक का फलः, 
दवाद्ांल से पत्नी, व्रिशांश से मृत्यु कवा सदेव विचार करना चाहिये । एसा यवना- 
चायने कहा हि ॥४०४,४०५॥। 
षड्वगे प्रशंसा-- 
यस्मिन्मित्रगृहे स्वकीयभवने तुङ्खं त्रिकोणेऽपि वा 
तत्सवं विदधाति जन्मसमये षडवरगंशुद्धो ग्रहः । 


एकस्तत्र हि स्वं भूतिनिकरो हस्तेषु कोषान्वितो 
द्ाम्यां कि्नरमच्र सिद्धसदृशं कुवन्ति मत्यं मुवि ॥ ४०६॥ 


जिसके जन्म समयम कोई एक ग्रह भी अपने मित्रग्रहकी राशिमे, मपनी 
राहि मे, जपनी उच्चराशि अक्ष्वा त्रिकोण (मूल त्रिकोण) मे षव्गं शुद्धहो 
{ अर्थाव्‌ उक्त रशियोमंहीष्डव्गोमेहो) तो व्ह ब्यक्ति समी प्रकारकी 
सम्पत्तिर्यो से युक्त तथा कोष (षन) से परिपूर्णं होताहै। यदि दो ब्रह ष्व 
शुद्धहो तो उस मनुष्य कोक्या कहना है ? वह्‌ तौ सिद्ध पुरषो की तरह इत पलार 
में इण्छानुक्ल सुख प्राप्त करने वाला होता है ।॥ ४०६ ॥। 


मनोरमा" हिन्दीथ्याश्योपेता 


२२९३ 





होरा साघन-- 


भोजे रवी्द्रोः सम इ्दुरव्यो्होरे गृहार्प्रमिते विकिष्त्ये ॥ ४०७ ॥ 
राश्यषं (१५ अछ) कीषएकहोरा होतीहै प्रत्येक रारिमें दोन्दो होरा 
होती है। विषम रादियों मे प्रथम १५० तक सूं की तथा पश्चात्‌ १५ तक 
चन्द्रमाकीहोरा होतीहै। इसी प्रकार सम राशियों में प्रथम १५ अंशा तक 
चन्माकी तथा बाद ( उत्तरां) के १५* अशो तक सूर्यकी होरा होती 


है ।।४०७॥ 

























































































स्पष्टाथं चक्र-- 
रालि | मेष | वृष [मिथन | ककं | सिह | कन्या 
००१५० | शयं | चन्द्र | सूयं | चन्र | सूर्यं | चन्द्र 
= ५ | ४। ५ | ४ । ५ | ४ 
१५०३०. | चन्द्र | सूये | चन्द्र | सूयं | चन्द्र सूयं 
__ __।४।५।४८।५ | ४८ ५ 
|  । 
राि | तुला वश्धिन घनु मकर | कम | न कुम्भ | मीन 
००१५० | सयं चन्द्र | सूयं . चन्दर | पूयं | चन्द्र 
| | ४ च । ४ । ५ ४ 
१५०-३०० | चन्द्र | सूयं | चन्द्र॒ | सूयं | चन्द्र | सूयं 
४ | ५ | ४ | ५ | ४ | ५ 
उदाह रण- लग्नं ३।७।२।४० 
सूर्यं ०।१६।५०।४० चन्द्र॒ ३।२३।९।३३ 
भौम ५।०।४१।५२ बुष १।३।४०।१५ 
गुर ६।१४।४५।१० शुक्र ११।१३।८।३८ 


शनि ५।२६।६।६ 


राहु २।२३।१०।२८ 


लग्न ककं ( सम ) राशिमे १५ अशसे अत्प है अतः चन्द्रमाकी होरा लग्न में 
होगी । भूयं विषम राशि (मेष) मे १६ अंशदहै। १५ अहा से अधिक होनेसे सुं 





सू. 
शु 


| 





1 
. बु. 
ख. 
५ गु. 
श. 
रा. 


: भी बन्दमाकीहोरामें रहेगा । इसी प्रकार सभी 
ग्रहों का स्थापन होगा होराचक्रमे केवलदो 
ही कोष्ठ होते है एक मे चन्द्रहोरा दूसरे मे सूं 
होराहोती है। इन्हीं दोनों मे समी ग्रहोंका 
स्थापनहोीराक्रमसे होताहै। 








होरा चक्र 


२२४ मानसागशरी 





देऽकाण साधन- 
रालित्निमागा वेष्काणास्ते च षट्त्रिशदीरिताः। 
परिवनित्रयं तेषां मेषदेः क्रमशो भवेत्‌ ॥ ४०८ ॥ 
स्वपञ्चनवपानां च विषमेषु समेषु च। 
नारदागस्तिदुर्वासो -्रेऽकाणेशाश्चरादयः१ ॥ ४०६ ॥ 
एक राशि (३० ) के तृतीयांश को द्रेष्काण कहते हैँ । अतः १०° का एक- 
एक द्रेष्काण होता है । दस प्रकार एक राशिमे३ तथा १२ रादियोंमे ३६ देष्कण 
होते है। इनकी गणना करनी हो तो सम-विषम दोनों राशियों में प्रथम द्रेष्काण 
अपनी राशिकेस्वामीका, दुसरा अपनी राशिसे पांचवीं राशिकेस्वामीका 
तथा तीसराहो तो अपनी राशिसे नवमराशिके स्वामी का द्रेष्काण होता है। 
चरादि रारियों के स्वामी क्रमशः नारद, अगस्ति एवं दुर्वासा हँ। अर्थात्‌ 


जरराशियोके नारद, स्थिर राशियोंके अगस्ति, तथा द्िस्वमव राशियों के 
दुवसि स्वामी होते ह | ४०८, ४०६ ॥ 
दरेषकाण बोधक चक्र 


= | मंश मे. व्‌. म. ॥ ॥ 














तु व्‌ घ |म कुमो. 








नारद | ०.-१०० |१ २ र ५।५ | ६| ७ ८६ १०११,१२ 





~ {+~ ४ 
1 


| १०।१ ॥ १. ६।२३५ | २| द| 

















अगस्ति | १००-२००।५ | ६ ७| ८।९ 




















11 


९ |१|११ १२१ २ ॥ ४५ | ६| ७ 

















दुर्वारा | २००-३० 








स्पष्ट लग्न ककं राशि मे ७ अशपर है अतः प्रथम १० अशोके अन्दर है मतः 
बरन मे अपनी राक्शिकककाटही द्रेष्काण द्रेष्काण चक्र 


होगा । सूयं मेष रालि मे १६० 
वर द्वितीय खण्ड (द्रेष्काण) मे अतः 
अपनी राशिसे पांचवीं राशि सिह 
के व्रेहकाणमे ह । चन्रमा ककंके 
२३ अंश अर्थात्‌ तृतीय क्षण्ड में अतः 
अपमी राच नवम राशि मीनके 


दिष्काण में होगा । इसी प्रकार 
सभी ग्रहों का विचार करेगे । 


१. ब्रहष्पाराशषरा होरा ६.७-~- 




















"मनोरमा" हिन्दीम्यास्योपेता 


२२५ 





सच्तमादि साधन- 
सप्तांशपास्टकोजगृहे गणनया निजेशतः । 


युगमराणौ 


क्षाशसषीरौी च द्याजौ तथेक्षुरससम्मवः । 
मश ॒शुद्धजलावोजे समे शुद्ध जलादिकाः । ४११ ॥ 


विषम रायो मे सत्ते की गणना अपनी राशिसे, सम राशियों मे अपनी 
राशिसे सप्तम राशिसे गणना करनी चाहिये । तत्तद राशियों केस्वामीही 
सप्तमांश के स्वामी होतेह । विषम राक्शियां मसातमागोंकेनाम क्रमसेक्षार, 
क्षीर, दधि, आज्य, 6! रस, मद्य, शुद्धजल, सम राशियोंमं नाम क्रमसे शुद्धजल, 


मश्च हशुगस, आज्य, 
ह ।। ४१०-४११ ॥ 


तु विज्ञेयाः सप्तमरक्षादिनायकात्‌ ॥ ४१० ॥ 


ध, क्षीर, क्षार ( इन सप्त सागगोंके नाम पर) कहे गये 


मप्नमांश एक राशि के सातवे माग को कहते रह मतः डई~=४०।१७. एक खण्ड 
कामान टोताहै। हसी प्रमाणसे सात भाग करके जिम मागमेंग्रहया लग्न के 
अं आर्वे उतनी संख्या तुल्य अभ्रिम राशि में ग्रह या लग्न रहेगा । यदि सम राशि 
मं ग्रहहो तो अपनी राशिसे सातर्वे राक्िसे गणना होगी। सरलता हतु चक्र 

















































































































प्रदशित है। 
सप्तमांह बोधक चक्र 
| व| | नाम नाम 
> ६५ 
४०११ | १११४ | 
४१७ १,.८। २१० २१ ६ क्ष ५ जन 
_ =$ २.६ ४१६ ६१ ०८ ३१० ५१. ७ क्षी” | मच 
१२.५१.२१० ५१२, ७. >, ६ ८६१ ६ १ = दाष | इक्षु न 
१०८ = ०८ &€ धून | नुन 
२१-२५| ५।१२। ७, २| € ५४१४ हि छ = इ इक्षु-म | दधि 
२५-४२।६। १| ८| २३/१०. ५१८ ७.२६ ५११. मद्य | क्षीर 
-३०-००। ७। २। €। ४।११ ६, {।८। ३,१०। ५/१२।शुद्धनन। क्षर | ७ ॥ €| ४।११ ६ ६ ८ ३।१०| ५।१२। र क्षर 
सप्तमांश चक्र 
उदाहर्ण--लग्न ककं सम 1 | 
राशिमें ७° है अतः द्वितीय खण्ड तु <न 7. क 7 स 
के अन्तगंतहै। समराक्षि होनेसे १ १ <न € शु 
ककं से सप्तम मकर रक्षि से के > र : राव. 
गणना करेगे । मकरसे दूसरी राहि 
कम्म अतः सप्तमांश लग्न "कुम्भः ||“ २ <. < 
है इसी प्रकारप्रहोंकी भी गणना स 1 4. प ६ 


होगी । 


१५ मा०सा० 














क १ 








२२६ मानसाभरी 





नेवांशसाषन--~ 


मेषाद्या धनुर्विहश्च मकरा वृषकन्ययोः। 
तुलाद्या धटमिथुनश्च वुश्िकमीनकुलीराच्ाः ।। ४१२ ॥। 


मेष से मेष सिह धनु की, मकरसे मकर, वृष, कन्या की, वुलासते बुला, 
मिथन; कुम्म की, तथा ककं से ककं, वृश्चिक भौर मीन की नवांश गणना होती है । 


एक राशि के ६ भाग करने पर ३०.२० काएकभागहोताहै। इसप्रकार 
नव भागो मे विभक्तहोने से नवांश कहा जाताहै। जिस भागम ग्रह या लगन 
हो उस भाव तक उक्त क्रमसे गणना कर चक्रमे रखनेसे नवमांश चक्र बनता 
है ॥ ४१२॥ 


नवांशबोधक चक्र- 

































































| जं [ष सिह, [ृष, कनया, मिथुन, ना मेष, सिह, [ बष, कन्या, [मिथन, तुला, वृश्चिक, 

| अश्च | मेष, सिह, |वृ व | युन, तु | 4 | 
३०.२० | १ | १० | ७ | ४ 
६०.४० | २ | ११ | = | ५ 
१०००० | ३ | १२ | ६ | ६ 

१२.२०. ४ | १ । १९ ७ 
१६०.४०। ५ | २ ११ ८ 
२००.०० ६ | ३ १२ 3 
। २३०.२० | ७ | ४ १ | १० 
[नर २६०.४०० | ठ | ५ २ | ११ 
| ३००००, ६ |__ ९ | ३ |. | € ६ | ३ | १२ 
नवमांश चक्र 








॥ | नती | 
उदाहरण- लग्न कक राशि 


हि ष्क < 
मे ७१।२* कला है जो तीसरे भाग <. ६ ४ 
मेँंगाताहै। मतः ककं राशषिसे ३ 
तीसरी राक्षि कन्या नवा लगन २ । | 


५ रा.१. | 


१ पनन 











॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेता 


#२२७ 





दवाददादि सषिन 


द्वादशास्य गणना तत्तत्सोजराद्विनिदिशेत्‌ । 


तेषामषीणशाः 


क्रमशो गणेशाष्वियमाहयः ॥ ४१२ ॥ 


, राशिके बारहूरवे भाग को दादर्श कहते ह । ३० ~ १२-२.३०' का एक- 
एक भाग होता है। दइादशांशा की गणना अपनी-अपनी राशचिसे ही होती है। 
प्रथम भागमे लसनया ग्रहतो उसी राक्तिमे, उससे अग्निम भागोंमें ग्रहो के गक्ष 
हों तो उतनी संख्या अपनी राशि से भगे बढ़ाकर प्रह को रद्ना चाहिये। 
दादक्षांशो के स्वामी कम से गणेश, मश्चिनी कुमार, यम मौर सपं होते ह ।४१२॥ 


दादकशांश्ष बोघक चक्र 










































































































































































अंश । मे. | मि,| क.[सि.क. धः व्‌.धनु म.कु . मी. | 
। गीयं 
२०.३०.| १।२।३।४। >| ६।७| ८। ६१०१११२ गणेश __ 
५००२२३५५ ६।७२। ६१०९११२ र| मस्िनी 
७.३० | ३। ४| ५ ७| ८| € १२। १ (र्‌ __ यम 
१०.०९ | ४, ५ ६०७ ८। ६१०११९१२ १२।३| सपं 
१२.२० | ५। ६| ७ ठ ६१०१११२. १| २।,३।४| गणेश 
१५०० | ६. ७| ८| ६।१०।११.१२| १, २| ३। ४, | अविनी कुमा? 
१७३० ० २(६१०।१११२ १२३४५५६ यम 
२०००० र र३। र्ट ५ ६। ७ सप 
र२३० | ९१०।११।१२। १२३ ४५|६।७।८|_ गणेश _ 
२५.०० |१०।११।१२। ६ २।२३। ४ ५। ६| ७ - = अदिवनी कमार 
२७.३० |११।१२। १ २|३। ४।५| ६। ७|८| €।१०| यम 
१३००० |१२| ५२२ | ५| ६|। ७; ८| ६।१०।११ सपं 
दादशांश चक्र 
[यि 
>< <न द क << 
० <-> <. . 
म र("गु१२ < 
| ११ {च 








२२८० मानसागरी 





विषां साधन 


कुजशनिजोवज्ञसिताः पञ्चेश्व्ियवसुमुनीष्द्ि्याानाम्‌ । 
विषमेषु समक्षघूत्करमेण तिशांदाकाः कल्प्याः ॥ ४१४॥। 
विषम राशियों के विशां अन हेतु ५, ५, ८, ७, ५, अंशो के पाच भाग 
कथि गये हँ तथा प्नभागोँकेस्वामीक्रमसे मंगल, हनि, शुरु, बुध, ओर शुक्र 
होते है । समराशषियों मे इससे विपरीत अर्थात्‌ ५, ७, ८, ५, ५ भागोके स्वामी 
क्रम से शुक्र, बुष, गुर, शनि गौर मंगल होते हैँ ॥ ४१४॥ 
तरिर्घांदा के जिस भागमे लग्न या ग्रह के अंश आगे उस भागके स्वामी ग्रह 
कौ रारि का त्रिशांश होता है। इन सभी ग्रहों की दो-दो राशियां होती है । भतः 
ग्रह विषम रारिमेंहोतो स्वामी प्रह की विषम राशि,समराशिमेहोतो उक्त 
ग्रह की सम राशिमें प्रहुया लगन को रखना चाहिय । | 
त्रिशांश्ञ बोधक चक्र 


= किष्मराथि | राशि | समराशि 
-ल न -रदाद ् ५| ८ | ७| ४५|| ५ | ७| ८| ५। ५ | खण्ड 
"|| र १० | १८ । २५ | ३० | ५ | १२ | २० | २५ | ३० | अश 


म॑. श. | बर. | बु. |शु. | णु. | बु. | वृ |च. | मं. [म्वामी ग्रह 
१|११ | £| ३। ७| २ ६|१२|१०| ८ | राशि 


स = | ज्रलद | जनद | कवे | इन्द्र | वायु | अग्नि स्गमी 


त्रिशांश चक्र 
























































उदाहरण- लग्न सम रादिके द 








घात अंश्ष पर अतः त्िश्लाह् का >< «> 


द्वितीय खण्ड है जिसका स्वामी बुष 
है। इसलिए बुष की समराशि “< ~< रा. 


“कन्या' वतिं लग्न हुई हसी ||चं.१० प्र १२ < ब्‌ 
प्रकार ग्र्होके अंशोंते भी विचार „१ । 
करना चाये । 


 टिप्यणी--षष्वर्ग साधन मे प्रायः बृहता राशर होराशास्व के ही श्लोक यहं साधन मे प्रायः बृहत्पाराशषर होराशास्त्रके ही श्लोकं यहां लिये 
गये है । एक दोस्यलोंमेपराशरको नलेकर वराहके षको लिया 
गया है। परिणामतः कर्ही-कहीं पर व्गोके स्वामियों का उल्लेक्ष 
किया शया है कहीं-कहीं पर नहींकियादहै। पराश्षरने सभी-वगोंके 
स्वाभिययो के नाम बतपये ह परन्तु वराह भिहिरादि अन्य भावायोंने 
स्वामियो का उत्कल नहीं किया है। 








( 














"मनोरमा" हिभ्धीष्यास्योपेता २२९ 





होरा का फकल- 
होरागतोऽ्वस्यि करोति चल्दरो नरं सकामं वनिताप्तकष्टम्‌ । 
दोषात्मकंः बन्धुजनंविमुक्तं सब्याधिदेहं रिपुवगंगम्यम्‌ ॥ ४१६ ॥ 
सूर्यं की टोरामे चन््रमाहोतो पुरुष कामी,स्तीसे कष्ट पाने वाला, दोष 
युक्त, बन्धुजनो से परित्यक्त, रोगयुक्त, तथा शत्रुम के बीच रहने वाला 
होता है । ४१५ ॥ 
सुय॑श्च होरां प्रगतो हि्माघोनंरः प्रतापी विविधं च सौख्यम्‌। 
स्वबाहुसम्पादितवित्तपुष्ट जायास्वभावस्य मति करोति ।। ४१६ ॥ 
च्माकी होराम सूयं चला जाय तो व्यक्ति प्रतापी, विविध सुखो से युक्तः 
अपने बहुबल से अधिक सम्पत्ति कासंग्रह करने वाला, स्त्रियों के स्वभाव के अनु- 
कूल माचरण करने वाला टोता है ।। ४१६ ॥ 


धमिष्ठः सत्यवक्ता च गुरुदेवप्रपुजकंः । 
उपाजिता्थसम्भोगौ होरायां सूर्यलक्षणम्‌ । ४१७ ॥ 
सूये की होरा मं उत्पन्न व्यक्ति धार्मिक, सत्यवादी, गुरु भौर देवता का पूजन 
( सम्मान ) करने वाला, अपने प्रयाससे अजित घन का उपमोग करने बाला 
होता है ॥ ४१७ ।। 
गान्धवंसिद्धि राज्यं च लक्ष्मीभुक्‌ सदा सुखी । 
पुत्रपौत्रं च कल्याणं शतवर्षाणि जोवति।। ४१८॥ 
गन्धर्व विद्या वी सिद्धि, राज्य ल।म, लक्ष्मी ( घन ) सुख का उ्मोग करने 
वाला, सदैव सुखी, पूत्र-पौत्र एवं कल्याण ( शुम एव मंगल कायोँ से ) युक्त तथा 
सौ वषो तक जीवित रहने वाला होता है। ( जिस्तके शुमग्रह सूर्यकी होरामें 
स्थित हों ` ॥ ४१८ ॥ 


क्राः सूर्य॑स्य होरायां धनधान्यविभूतिदाः । 
शाचारसस्यद्षीलाढघो रोगाङ्गो नृपवल्लमः । ४१६९ ॥ 
सूर्यं कीहोरामेंयदिक्रूरग्रहरहोंतो व्यक्ति धन-धान्य से सम्पन्न, आचार एवं 
सस्यपरायण, रोगी, तथा राजा का प्रियपात्र होता है। ४१९॥ 
शुभाण्वेच्चन्द्रहोरायां कामिनीपरमवान्नरः। 
शीघ्र मंथुनगामोति चिरं सेवेत कामिनीम्‌ । ४२० ॥ 
चन्द्रमा कीहोरामे यदिशुमम्रहहो तो मनुष्यस्तरीमे अनुराग रखने वाला, 
शीघ्र (बोडे अन्तराल मे अर्थात्‌ बार-बार) मैथन (स्त्री सहवास) करने वाला तथा 
अधिक समय तक स्वियौ के संसग मे रहनेवाला होता है ।॥ ४२० ॥ 


९३० मानसामरी 





यदि सूर्यस्य होरायां कठिनधायश्च सम्भोगः । 
तपैः सर्वर्बलवान्‌ जितेन्द्रियो मानवो भवति ॥ ४२१ ॥ 
सभी बलवान पापग्रह यदि सूर्यंकीहोरामेंहों तो अघ्यन्त कठिनाई से सम्मोग 
करने वाला तथा जितेद्छिय मनुष्य होता है।। ४२१ ॥ 
ककंटे चन्दरहो रायां मत्यं: सुल्दरमुत्तमम्‌ । 
कामिनीनां श्रियं चेव जनयेत्पूत्रमीदु्चम्‌ ॥ ४२२ ॥ 
चन्द्रमाकी होरा ककं राक्लिमें जन्महो तो मनुष्य सुन्दर, श्रेष्ठ तथा स्त्रियों 
के लिए प्रिय पुत्र को जन्म देता है ।। ४२२॥ 
बुधः करोति विख्यातं साध्वीपत्नीपति शुभम्‌ । 
जीवः करोति विधनं तेजस्विनिमनिन्दितम्‌ ।। ४२३ ॥ 


( चन्द्र होरा में स्थित ) बुधहो तो जातक को विषख्य(त, साध्वी स्त्री का पति 
एवं कल्याण कारक बनाता है । यदि ब्रहस्पति हो तो निधंन तेजस्वी गौर निष्क- 
लङ्क करतादहै। ४२३॥ 

भोग्यपत्नीपति शुक्रः क्षीणश्चन्द्रोऽपि शुकवत्‌ । 
जनयेत्‌ ककंटे भौमे मृतस्त्रीकं नराधमम्‌ । ४२४ ॥ 

ककं राशि ( चन्द्रमा की होरा) में शुक्र हो तो भोग्य ( अर्थात्‌ स््युण सम्पत्च 
होने से राह्म ) स्त्रीका पति होता है। यदि क्षीण चन्द्रमा अपनीहोरामेहोतौ 
शुक सदृश फल ( अर्थात्‌ सुयोग्य स्त्री ) प्राप्त करताहै। यदिककंकी होराम 
मंगलहोतोस्त्रीकीमृत्युहोतीदहै तथा वह व्यक्ति मघ्यन्त पतित होता है ।४२४। 

रविदुःखितमत्यन्तं पीडितं गृद्यपीडितम्‌ । 
शनिर्दासीपति कूर्यत्किर्कटस्यो न संशयः ॥ ४२५॥ 
ककंकीहोरामेसूर्यंहो तौ अत्यन्त दुख, पीडित, गुप्त रोगसे भ्रस्त तधा 
यदि शनिहोतोदासीस्त्रीका पति होता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ४२५॥ 
स्वहोरायां रविः कर्यादविद्ासं दृष्टपौरषम्‌ , 
जितेन्द्रियं च शुरं तमुखमे धृतमानसम्‌ ॥ ४२६ ॥ 

अपनी होरा ( तिह राशि }) में यदि सूरवंहो तो जातकं विद्वान, वृढ पौरष 

वाला, जितेद्दिय, शुर, उद्योग मे अपना मन लगने वाला होता है ॥ ४२६॥ 
सूर्थंहोरागतो भौमो धीरं जातं सतां प्रियम्‌ । 
शूर ख्यातं धनाढघ ` च सन्मित्रं प्राप्तसम्पदम्‌ ॥ ४२७ ॥ 


मूर्यकी होरामे भया हमा मंगले जातक को धैर्यवान्‌ सण्जर्नो का श्रियः 


"मनोरमा" हिन्दीम्यास्योपेता २३१ 


भमो) 





शूर, विख्यात, नाड, अण्छे मितरोंसे युक्त करता है तथा सम्पत्ति दिलाता 
ह ।। ४२७ ॥ 


कष्टीरवस्य होरायां चन्द्रे नीचमनारतम्‌ । 
बुधे दारिद्रधपिशुनं जीवे रोगमृ्ततकम्‌ । 
शुक्र ऽगम्यामति कूर्यादवृषली च यमाधितः१ ॥ ४२८ ॥ 
सिह (सूर्यं) कीहोरामें चन्द्रमाहो तो जातक नीच कमम लीन, बुधो 
तो दरिद्र गौर चुगुलल्लोर, गुरुहोतो मम्मीर रोगे मृत्यु, शुक्र हो तो अगम्या- 
गमन ( रोगिणी, वद्धा, वेश्या आदि कुत्सित स्त्रियों के साथ समागम) करने 


वाला, तथा शनि हो तौ वृषली * (शूद्रा अथवा चिरकाल तक अविवाहित कन्याका) 
पति होता है ॥ ४२८ ॥ 


द्रष्काण का फल 


यादृग्रेऽ शणगाः सौम्या उच्चस्था च स्ववगगाः। 
निष्यं भुञ्जयते लर्दमोवंरदाः सत्यवादिनी ।॥ ४२९ ॥ 


जिस किसी द्रेष्काण मे सौम्य (शुम) प्रह अपनी उच्च शारि अथवा अपने वँ 


(गृह, मृल त्रिकोण डव) मे स्थित होतो जातक नित्य सश्यवादिनी एवं वरदान 
देने वाली लक्ष्म का उपभोग करता है ॥ ४२६॥ 


रेघ्काणयातः प्रकरोति सौम्यः केन्द्रत्रिकोणोपगतो बलिष्ठः । 
द्रव्याधिकं मानगुणः समेतं विद्यान्वितं सवंकलासु दश्चम्‌ ।॥ ४२० ॥ 
अपने ब्रेष्काणमे गया हुमा शुभग्रह यदि केशर अयवात्रिकोणमें भी स्थिति 


तथा बलवान हो तो जातक, अधिक द्रव्य, सम्मान, गुण, एवं विद्या से युक्त तथा 
षमी कलाओं मे निवुण होता है ।। ४२० ॥ 


्रेष्काणपे सौम्यगते निरीक्षिते शुक्रक्षिते स्याष्िविधं अ सौख्यम्‌ । 

आरम्यतां मानयशोऽमिवृद्धि स्वदेधकमप्रकटं विरम्‌ ॥ ४३१॥ 

यदिद्रेष्काणका स्वामी शुभग्रह की रािमेंस्वितहोया दुष्टहो अथवा 
शुकसे दुष्टहोतो विविध प्रकारके सुशोसे यक्त, निरोग होता है। अपने देश 
के कायां दवारा सम्मान एवं यदम बृद्धि होतीहै। परन्तु स्वभावसे विरोधी 
होता है । ४२१॥ 


१. भार्य॑याभितम्‌ पाठान्तरम्‌ 
२. पुमे च या नारी रजः पश्यत्यसंस्कृता । 
श्ुनहस्या पितुस्तस्या सा कम्या बुषली स्मृता ॥ 





२३२ मानसागरा 


हेहकाणनाये शशिसंयुतेकषिते भौमेक्षिते वा भृगुनन्दनेन । 
कयःप्रमाणेनं कलेद्धि कमं धम धनं स्याद्विविघग्रकारम्‌ ॥ ४३२ ॥ 


बेष्काण का स्वामी चनद्रमासे युत दष्ट हौ अथवा मंगल या श्रुक्से दुष्ट 
हो तो अपनी आयु के अनुरूप कर्मं एवं घर्मिरण से विविषप्रकारकेषन को 
प्राप्त करता है । ४३२ ॥ 
द्रेष्काणः केन्द्रगः कूर्यादुच्चस्यो नृपति गृहे । 
स्वक्षत्रस्य स्वम्‌ताथं मंत्रे सन्मानमागमम्‌ । ४३३ ॥ 
देष्काण का स्वामी अपनी उच्च राशिमें स्थित होकरकेन्धमेगयाहोतो 
जातक राजा के समान, अपनी राशिमेहो तो धनवान्‌, भित्रग्रहकी राशिमेहो 
तो सम्मानित होता है तथा मित्रों का समागम होता रहता है । ४३३ ॥ 


तथा पणफरस्थाने स्वमित्रोच्वगृहाश्रयः । 
सन्मित्रं पाथिव॑ तद्रद्धनिनं कुरुते नरम्‌ ॥ ४३४ ॥ 


उसी प्रकार ( अर्थात्‌ द्रेष्काणका स्वामी ) यदि पणफर ( द्वितीय, पञ्चम, 
अष्टम, एकादक्च ) स्थानों मे अपने मिच्रग्रह को उच्च राक्षिमें होतो जातक 
अच्छे मित्रों से युक्त, राजा अथवा राजा के समान धनवान होता है ॥ ४३४॥ 


आपोक्लिमे च व्युत्पन्नो मित्रस्वगुहगस्त्वसौ । 
अपत्यं हि सदाचारं कृषितः प्राप्तवित्तकम्‌ ॥ ४३५ ॥। 
देघकाण का स्वामी यदि आपोक्लिम ( तृतीय, षष्ठ, नवम, हवादश ) मवनौँ में 
नपनी राशि अथवा भित्रग्रहुकी राशिमंग्येटहों तो वहु व्यक्ति व्युस्पन्न ( अष्यन्त 
बुद्धिमान्‌ ), सदाचारी प्रीते युक्त तथा कषिद्वारा धन प्राप्त करने वाला 
होता है । ४३५ ॥ 
शत्रनीवाधिता ये च तेषां तत्त॒ल्यके तनौ । 
व्रणे वातादिकं चापि वदे्तदनुपुवंकम्‌ । ४३६॥ 
जो हेष्काणेहा अपनी शत्रुराशि मथवा नीच राशि में स्थित होकर आपोक्लिम 
मे णये होतो उस रा्िसे सम्बन्धित अंगो में ब्रण (चोट, या फोडा), वातविकार 
(वायुजनित पीडा), आदि इसी प्रकार के कष्ट होते है ।। ४३६ ॥ 


संष्तमां् का कल- 


सपतीशपे च्द्रयुते च य चेत्स सहोदरः स्यात्‌ । 
अल्युग्रताकान्तियशो मेत्रयुतः प्रगल्मः । ४३७ ॥ 


सप्त्मांश का स्वामी चन्द्रमास्ते युत-दष्ट हो जथवा शुभव्रहो से दष्टष्हो तो 


"मनोरमा हिन्दीष्याश्योषेता २३१३ 





जातक सहोदर ( सगे ) भादयों से यक्त, उग्र स्वमाव वाला, कान्ति युक्त, यामे 
वृद्धि, भिं की अधिकता होती है तथा भिन्रौसे युक्त होकर उद्कत स्वजावं का 
होता है ।। ४३७ ॥ 

सरताश्चके च ये चेटा नीषस्था रविवजिताः। 

तैषां बलवतो जेया बन्धूनां चिन्तया स्थितिः ।॥ ४२८ ॥ 

सूर्य को छोड कर शेष ग्रहो में जितने ग्रह सप्तमांशमं नीच राशि गत हों 

उनमे जो सर्वाधिक बलवानदहो उसीसे भाद्यों से सम्बन्धित चिन्ताका जान 
करना चाहिये ॥ ४३५ ॥ 


व्गेऽन्तिमांशे ये खेटा उच्चस्था वा स्ववर्गगाः । 
भाश्वादिवाहने दक्षः शूरो बण्धुविवजितः । ४३९ ॥ 
वग (सप्तमांश) के अन्तिम अंशो मे यदि अपनी उच्च राशि या अपने वेमे 
स्थितहोतो वह व्यक्ति घोडों की सवारी में निपुण, शूर, तथा माइयोंमे रहित 
होता है ॥ ४३९ ॥ 
नृपपुज्यो भवेत्तित्यं सवं कार्याथंसम्पदा । 
सप्तवगंग्रहाश्चंवमूच्चस्थाः शुभवगंगाः ।। ४४० 
सप्तमांश में ग्रह॒ अपनी उच्चराशि अथवा शुभ वगो की राशियों मे स्थित हों 
तौ जातक राजाद्वारा निरन्तर पूजित (सम्मानित), सभी प्रकारके कार्यों में सफल 
एवं घन सम्पत्ति से सम्पन्न होता है । ४४० ॥ 


सप्तंणे मातृमवने शविर्जविश् भूमिज: । 
पञ्चाज्जातं पितुः पुत्र शुक्र्षशगशिनः सुताः ।॥ ४४१ ॥ 
सप्तमांश मे यदि चतुर्थं मावमं सूर्यं, गरु ओर मंगल स्थितहोंतो पिताकी 
मृत्यु के पश्चात्‌ पुत्रका जन्म होतादहै, यदि शुक्र, बुष ओौर चन्द्रमा बवैठेहों तो 
कन्या की उत्पत्ति होती है ॥ ४४१ ॥ 
उच्वस्थक्षेत्रगाः खेटाः सप्तांणे निखिला स्थिताः । 
महाधनी च भवति नीचस्थे च दरिद्रकंः।। ४५२॥। 
( जिसके जन्म समयमे ) समी ग्रह सप्तमाश्च मे अपनी-अपनी उच्च राशियों 
मे स्थितिहोतो वह महान धनवान, तथा समी ग्रह्‌ नीच राशियों मे स्थितहोतो 


दरिद्र होता है ॥ ४४२ ॥ 
नवमांक्ष का फल 


गुरोनं्वाशे विषरञ्छशाङ्ो नरं प्रसूते बहुविलयुक्तम्‌ । 
पुजात्वितं पुष्यधनेख्पेतं प्रियातिधि सवंजनाभिरामम्‌ ।। ४४३ ॥ 


२३४ मानप्षागरी 





बृहस्पति के नवमांहा मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य जन्मजात धनवान्‌, पुत्रं ते य॒क्तः 
पुथ्यवान, भन ( स्वोपाजित घन ) से सम्पन्न अतिधियों का त्रेमी तथा सभी लोगों 
का प्रिय होता है । ४४३ ॥ 


सन्मित्रदाराधनमित्रसौख्यं श्रेष्ठप्रतीषछापिविशजमानस्‌ । 
नरं प्रकुर्थ्सुरराजमन्त्री नवांक्षके स्वे सुखसम्पदा स्यात्‌ ॥ ४४४ ॥ 
बृहस्पति अपने ही नवांशम होतो मनुष्य अच्छे मित्रों, स्त्री, घन तथा 
मित्रो के सुख से युक्त, उत्तम प्रतिष्ठा एवं सुख सम्पदा से सम्पन्न होता है ।।४४४॥ 


नोवस्त्रीकं च नीचस्थे भावेशे निजतुञ्खगे । 
कुर्यन्निपं नवांशे तु स्वनवांशे तदाध्िपम्‌ ॥ ४४५ ॥ 
मावेश नवमांश मं यदि नीच राक्षिमें स्थित हो तो उसकी स्त्री नीच प्रकृति 
वाली होती है । फदि भावेश उच्च राश्िके नवमांशमंहोतो राजा तथा पनेदही 
नवभांरामेहो तो राजाभों का भी अधिपतिहो जाता है ।। ४४५ ॥ 


पेनानीमित्रनवांशे भोगगुणसंयुतश्च । 
शतुनवांशे दुःखितमत्यन्तमलीमसम्‌ ॥ ४४६ ।। 
मित्रके नवमांश मे यदि कोईग्रहहोतो जातक सेनापति धनवान तथा 
गुणवान्‌ होता है। यदिशात्रुग्रहकी रा्षिमें होतो दुश्ची तथा मल्यन्त पापी 
होता है ॥ ४४६ ॥ 


नीचांशेऽपि दासत्वं दशां प्राप्य कलं भवेत्‌ । 
सर्वमेवं खगं श्िन्त्यं कलं वाच्यं विचक्षणैः ।। ४४७ ॥ 


ग्रह यदि नीच राशिके नवमांश मेहो तो दासत्व, अर्थात्‌ टे स्तर की 
नौकरी होती दहै। इसप्रकार प्रहोंकी दशा प्राप्त होने पर उनसे सम्बन्धित फल 
मी प्राप्त होता है। ग्रहों की स्थिति हारा फलादेश विह्नों को करना 
चाहिये ॥। ४४७ ॥ 
नवमांश चक्रमे पञ्न्वमभावस्थ ग्रह॒ का फल 
एकत्रिपन् पुत्राः स्युर्धस्थि हुयं कुजे गुर । 
द्विचतुःषट्सप्तसंख्यपुत्रदा असितौ शनिः ॥ ४४८ ॥ 
. यदि नवमांश चक्रके पञ्खम भावम मंगल तथा चतुर्धंमे गुर्होतो एक, 
तीन, अथवा पाच पुत्र होते ह। यदि बुध, शुक्र गौररनिहोतोदो, षार, घः 
अथवा सात धृत्र होगि ।। ४४८ ॥ 


वतीयं भुतजीवकेतु कठः शनिः भुयंकलत्रसंस्थ) । 
पमं च राह्वंशमे च मौमः वि ॥ ४४९ ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीष्यास्योपेता २३४ 





नवांश कुण्डली मे तृतीय माव मे सिह. दारि ( अर्थात्‌ मिथुन का नर्वाह लग्न 
म॑) हो, षड्चम भावम बृहस्पति ओर केतुहों, ठे भाव में क्शनि, सप्तम 


मं सूर्य, केन््रमे राहु तथा दशम भावमें भौम बैठा हो तो सन्तान हानि 
रीती है ।॥। ४४९ ॥ 


ग्रहः ङ्गरो भ्ययाधीशो धर्मारिसहजे व्यये । 
भृत्यौ वक्रः सुतस्थाने जातक्रो ज्चियते ध्रुवम्‌ ॥ ४५० ॥ 
नवांश लग्नसे बारहर्वे स्थान का अधिपति क्रूर ग्रहो गीर वह॒ €, ६, ३, 


१२, ८ भावम स्थितहो तथा मंगल पांचवें भावमं होतो निश्छितस्पसे 
उल्पन्न सन्तान नष्ट हो जती है ।। ४५० ॥ 


यावत्संख्या ग्रहाणां सुतमवनगता , पुणंदु्टियंदा वा 

तावत्संख्या प्रसुतिरभंवति बलयुताः पृग्रहाः पत्रकथ्यम्‌ । 

कन्या चन्द्रश्च शुको हितसुतरविजो ग्भंहानि करोति 

केचिच्चल्द्राद्विचायं मूनिगणकथितं तद्विचिन्त्यं नवांशो + । ४५१ ॥ 

जितने बलवान पुरुष ग्रह नवांश लग्न से पञ्चम भावमें गयेहों अथवा 

पञ्चम भाव को पूणे दुष्टिसे देखते हों उतने ही पत्र सन्तान कहना चाहिये । यदि 
प्म भाव में चन्द्रमा, शुक्र गौर बुघ हों अथवा पूरणं दृष्टि ते पल्वम भावको 
देखते हों तौ कन्या सन्तति होती है । यदि शनि पञ्चमम बंठाहोयादेखताहो 


तो मर्म॑ नष्टहोजातादटहै। कुछ मुनियोंकामत टै कि सन्तान का विचार चन्द्रमा 
के नवांशते करना चाहिये ॥ ४५१ ॥। 


दादशाश का फलः 
ग्रहाश्वेद दादशे भागे मित्रोर्चसमवस्थिताः । 
बहुस्तीस्वधिकारी स्यान्नाना-ऋद्धिसमन्वितः ।। ४५२ ॥ 
दादशांश मे यदि प्रह अपने मित्र, प्रह की राशिमेया उच्च राशिमें स्थित 


हो तो बहुत सी स्त्रियों का अधिपति तथा विविध प्रकार की सम्पत्तियं ते युक 
होता है ॥ ४५२ ॥ 


अरीतिचतुराचितिषडलीत्यगसप्तकम्‌ । 
अष्टो पच षलिविट्प्व्बाशज्चेव सप्ततिः ।। ४५२ ॥ 
नवत्यगाधिकाषषशविटप्ाक्षच्छतं तथा । 
उक्तमायुः प्रमाणेन द्विरसा्ेकमेदतः ॥ ४५४॥ 
प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि बारह दादा मे उक्पल्न होने वाले व्यक्तियों के 
जादुप्रमाभ कमस ८०, ठ, ८६, ७७, ८५, ६०, ५६, ७०, ९०, ६६, ५६, 





१. इस पच में शुदि है मतः जायं को जो अभीष्ट भा उसी भाव को अनुबाद 
मे अस्तुत किया गेया है। 


२३६ मानस्तागरी 


१००, बं कहे गये है । ( ददशां भेद से उक्त फल को जानने के लिए जन्म लग्न 
के दरदक्षां्को ही व्यवहारमें लाना चाहिये )।। ४५३-५४॥ 

जलेनाष्टदष्छे वषं सर्पेण नवमे पुनः। 

परेण दशमे चव दवात्निष्छे राजयक्ष्मणा । ४५५॥ 

( उक्त पुर्णायु के मध्यमे अरिष्ट काल कारण सहित बतारहेदहै) जोक्रमसे 
इादशांशो के भनुसार है प्रथम हादलांश मे उत्पन्न व्यक्तिको १८ वेंवर्षमेजलसे 
भय, द्वितीय द्वादशांश मे सपं से नवम वषमे, तृतीय मे दशर्वे वर्षमे शत्रु से, तथा 
चतुथं द्वादशांदा मे ३२ वें वषंम राजयक्ष्मासे कष्ट होता है ।॥ ४५५।। 


विष्ये रक्तप्रकोपेण द्वाविशे वह्िना तथा । 
अष्टावित्तमे वषं जलोदरमयं तथा ॥ ४५६॥ 
पाँच द्वादशांशमे जन्महो तो २० वें वषमे रक्त दोषसे, षष्ठ द्वादकशांश 
मे अग्नि से २२र्वे वषं मे, सातवं में रत्वे वषमे जलोदर रोगसे कष्ट 


होता है ॥ ४५६ ॥ 
व्याघ्रातुत्रिश्चत्तमे वष शरघातेन दन्तके । 


जलेन वातपोडाभिमंरणं त्रिशदब्दके ।॥। ४५७ ॥ 
आव्वे द्वादशांशमं जन्महोतो ३० कें वषेमंव्याघ्र से भय, नवम दादशांश 
मे ३२ वें वषेमे शर (बाण) से चोट, तथा दशर्वेमं ३० बे वर्षमे जल तथा वायु 
पीडासे मृत्यु होती है ॥ ४५७ ॥ 
स्त्रीकन्यामरणं विद्यात्त्शद्रषेऽप्यु मज्जनात्‌ । 
चक्रेण मरणं श्राहुरूनत्रिश ततो नरः। 
परवोक्तमायुः प्राप्नोति सत्यमेतन्मयोदितम्‌ ।। ४५० ॥ 
एकादश इ दशांशमे जन्म हो तोरेर्वें वषमे जलम बनेसेस्त्री मौर क्न्या 
कौ मृत्यु, बारहर्वे द्वदशांशमेंजन्महोतो २६ वें वषमे गाधो के चक्र (पहिया) में 
दबने से मृत्यु का भय होता है। इन कष्टों से बचकर ही मनुष्य पूर्वोक्त पूर्णायु का 
मोग करता है । इस प्रकार जो कुरमैन कहा वह सत्य है ॥ ४५०८ ॥ 
अरिष्ट बोधक वक्र 
(1 | 1 | २।३।४। ५| ६। ७: ८| €| १० । ११ । १२ 
पर्णायु {२० 1 - ५४५६।७०।६० ६६ | ५६ [१०० 





























. [न | ९|१०।३२|२०।२२|२८|३०।२२| ३० | ३० | २९ 
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"मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता २३७ 





विशां फल 


त्रिर्शांणके घ थै खेटा मित्रोश्वसमवस्थिताः। 
सर्वकार्यंकृतोत्साही धर्मिष्ठः कृतपूजितः ॥ ४५६ ॥ 


धिशांश में जो ग्रह भपने मित्र ग्रह की राशि में उच्चग्रह की राश्चिमें स्थित 
हों वे जातक को समी कार्यो मे उत्साही, धार्मिक तथा सम्मानित बनाते टै ।४५६। 


सत्वं रजस्तमो वा त्रिर्शाषो यस्य भास्करस्तादुक्‌ । 
बलिनः सदशी मूतिर्बुद्ध्वा वा जातिकुलदेशान्‌ ॥ ४६० ॥ 
त्रिशांश में सत्त्व; रज, ओर तम गुणों वालों जंसे दीप्ठ एवं बलवान ग्रह पड 
हों उसी के अनुसार तथा जाति, कुल भौर देश के अनुसार जातक का स्वरूप एवं 
आरण का ज्ञान करना चाहिये ।। ४६० ॥ 


गुरुशविश्शिनः सत्त्वं श्जस्सितजौ तमोऽकसुत भौमौ । 
एते ` ह्याद्मसमानाः भ्रकृतीस्तेम्यः प्रयच्छन्ति ॥ ४६१ ॥ 
गुर, मूं मौर चन्द्र सत्त्वगुण युक्त, शुक्र गौर बुष रजोगुण युक्त, शनि मौ 
मगन तमोगुण युक्त होतेहै।ये सभी ग्रह अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसारही 
जातक को फल देते ह ।। ४६१॥ 
यः सास्विकस्तस्य दया स्थिरत्वं सत्याजंवं ब्राह्मणदेवभक्तिः । 
रजोऽधिकः काष्यकरः कुलस्त्रीसमग्रचित्तः पुरुषोऽतिष्चु रः ।॥ ४६२ ॥ 
जो सास्विक ग्रह होता है उसमं दया स्थिरता, सत्यवादिता, सरलता, ब्राह्मण 
जर देवोंमे भक्ति होती है । रजोगुणी ग्रह प्रधान पुरुषो मे काव्य कला, कुलस्त्री 
( पत्नी ) मं भासक्ति, तथा अत्यन्त वीरता होती है ॥ ४६२ ॥ 
तमोऽधिके व्यते परेषां मूर्खोऽलसः क्रोषपरोऽतिनिद्रः। 
मिश्ंगृणेः सतत्वरजस्तमोमिमिश्रोच्यते सोपि बहुभेदा । ४६३ ॥ 


दति श्षीमानषागरीपद्धतौ तृतीयोऽध्याय ॥ ३ ॥ 
लमोगुण प्रधान पुरुष दूसरों को घोखा देन वाले, मूर्खं, आलसी, क्रोधी तथा 
धिक सोने वाले होते ह । मिश्रित गुण हो (सत्त्व-रज-तम तीनों आंशिक शप मं 
हकत्र हो) तो सतत्व-रज-तम की मात्रा के अनुसार बहुत से भेद होगे । तथा उनका 
तीनों गुणों के भिधित फल के अनुसार ही आचरण होगा ॥ ४६२ ॥ 
मानसागरी पद्धति के तृतीय अध्याय का मनोरमा 
नामक हिन्दी अनुवाद समाप्त ॥ ३ ॥ 


- 


चतुर्थोऽष्यायः 


ये महापुर्वसंककाः शुभाः पञ्च पूरवंमुनिभिः प्रकीतिताः । 
वच्मि तान्‌ सरलकोभलोक्तिभिः शजयोगविधिदर्दनिच्छया ।। १ ॥ 
महापुरुष संक जिन पांच शुभ पोगोंका वर्णन प्रान मुनियोनेक्यादहै 
उन योगों को राजयोग विधि प्रद्षंन की दइ्छासे सरल एवं कोमल ( ललित) 
उक्तो द्वारा कह रहादहुं। १॥ 
पच्चमहापुरुषलक्षण- 
स्वगेहतुङ्गाशयकेन्द्रसंस्ये शच्चोपगे वावनिसुनुमुस्यैः । 
क्रमेण योगा रुचकास्यमद्रहंसास्यमालव्यशशर्भिषानाः ।। २ ॥ 
भौमादि पांच प्रह अपनी-मपनी राशिमे या अपनी उश्चरादिमें स्थित होकर 
केन्द्र स्थानों (१,४,७, १० में ग्येहोंतो प्रत्येक ग्रह इारा क्रम से ङ्क, 
मद्र, हंस, मालब्य भौर श नामक पांच महा पुरुषयोग होते ह । ( अर्थात्‌ केन्द्र 
मे स्थित मंगल मेव, वश्चिकया मकर राशिमेहोतो चक, बुध, मिथुन, कन्या 
मेह्ोतो भद्र, गर ककं, धनु भौर मीनमेहो तोहंस, शुक, वृष, तुला गौर 
मीनमेंहो तो मालव्य, शनि, दुला, मकर ओर कुम्भमेहोतो शह नामक योग 
होता है।। २॥ 
रुचक योग का फल-- 
दीर्घायुः स्वच्छकान्तिरबहुरुधिरवलः साहसग्राप्तसिदि- 
श्चा दन्न नीलकेशः समकरचरणो मन्त्रविच्वारुकीत्तिः । 
रक्तः श्यामोऽतिच्चरो रिपुवलमथनः कम्बुकण्ठो महौजाः 
क्रूरो भक्तो नराणां द्विजगुरविनतः क्षामजानुरजद्घुः ।। २३ ॥ 
रुचक नामक योग मे उत्पश्च व्यक्ति दीर्घायु, नि्म॑लकान्ति, अधिक रक्त एवं 
बल से युक्त, साहसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करनेवाला, सुन्दर भौ, नीले रगके 
जाल, सुन्दर सुगसित हाथ-पे वाला, मन्त्र काञ्ञता, सुन्दर यश से सम्पन्न, 
रक्त-क्याम वर्णे वाला, अत्यधिक बलवान्‌, शत्रुओं कीसेनाको रौँंदने वाला, शंख 
की तरह कण्ठ, महान म्मा, स्वमाकव्से क्रूर, मक्त, ब्रह्मण भौर गुरके प्रति 
विनम्र तथा कश, दुबल उर, घुटना गौर जांधो वाला होता ह॥ २ ॥ 


कार्मुकचक्षवोणाविन्नाद्कृहस्तचरणः सरलाद्गुलिः स्यात्‌ । 
मन््राभिवारकुशलस्तुलयेत्वहस्र मभ्यं च तस्य गदितं मुखदरध्यतुल्यम्‌ ।। ४ ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीय्याद्णोवेता रद 





( शवक योग ओ रपत व्यक्तिके ) हाय भौरपेर मे शट्वाङ्ग ( मुलाङति 
सदु अस्त्र ), पार, बैल, धनुष, चक्र, अथवा वौणाके स्पष्ट चिह्वहोतेह। 
भशुलियां सीधी, मन्त्रविद्या एवं मभिचार ( मारण-उच्वाटन नादि ) क्रियार्मो का 


ज्ञाता, हजारो व्यक्तिर्यो की तुलना स्वयं अकेले करने वाला, मुख की लम्बाई 
तुल्य मध्य भाग ( कटि प्रदेश ) वाला होता है।॥४॥ 


सष्यस्य विष्ध्यस्य तथोञ्जयिन्याः प्रभुः शरत्सप्ततिरायुरस्य । 
शस्तराग्नििल्लो श्चवकाभिधाने देवालयान्ते निधनं प्रयाति ॥ ५॥ 
ख्चक नामक योग मे उह्पन्न व्यक्ति, सह्य पवत, विन्ध्यपवंन तथा उज्जैन के 
( जासन ) प्रदेश का राजा ( अथवा स्वामी ), शस्त्र एवं अग्नि के विह ते युक्त 
होता है तथा ७० वषं की आायु में देवालय ( तीथं स्थान ) मेमृस्यु होती है।। ५॥ 


भमदयोग का फल-~ 


शार्दलप्रतिमाननो द्विपगतिः पीनोख्वक्षःस्यलो । 
रम्या पोनसुवृततबाहुयुगलस्ततुल्यगात्रोच्छयः । 
कामी कोमलसुकष्मरोमनिचर्ये, संरंढगण्डस्थलः । 
प्राज्ञः पद्कजग्भंपाणिचरणः सत्त्वाधिको योगवित्‌ ॥ ६ ॥ 
भद्र योग में उत्पन्न व्यक्तिका मुखब्याघ्र की तरह, गति हाथी की तरह, 
विशाल वक्षस्थल, सृन्दर, दढ गोलाकार दोनो बाहु" दोनो मृजारओं के तुल्य ऊंचाई, 
कामी, कोमल पतले रोम समूह से ठके कपोलों वाला, बुद्धिमान्‌, कमल नाल की 
तरह हाथ-पैरों वाला, सत्त्वगुण प्रधान तथा योगास्व्र का ज्ञाता होताहै।। ६॥ 


शङ्खासिकुञ्जरगदाकुसुमेषुकेतुषक्राम्जलांगलविचिह्लितपाणिपादः । 
यात्रागजेन्द्रमदवारिङकृताद्रमूमिः सत्कुङ्कुमप्रतिमगन्धतनुः सुघोषः ।॥ ७ ।। 


भद्र योग में उस्पन्न व्यक्तके हाथो एवं षैरो में शंख, तलवार, हाथी, गदा, 
पुष्प; बाण, पताका चक्र कमल तथाहल का चिल्ल होताहै। उसके शरीरसे 


उत्तम ककम के समान सुगन्ध निकलती है तथा उसकी वाणी बहुत मधुर होती 
है । उसके यात्रा काल मे गजेन्दोंके मदश्चरावसे भूमि आद्र (गीली) हो जाती है 
( अर्थात्‌ उसके साथ हाथियों का समूह्‌ चलता है )।॥ ७॥ 


संर. युगोऽतिमतिमान खलु शास्त्रवेला 
मानोपमोगसहितोऽपि निगुढमुद्यः ¦ 
सत्कुक्षिधरमनिरतः सुललाटपटरो 
धीरो भवेदसितकुञिन्वतकेशपाशः । ८ ॥ 
दोनों भौह ( श्रुत्र ) सुन्दर, गत्यन्त बुद्धिमान्‌, शास्त्रज्ञ, सम्मान गौर उषभोम 
की सुविषार्ओो से सम्पश्न होते हये अपने रहस्यं को गुप्त रशने वाला, सुन्दर 


२४० मानसाभरी 





पाश्वं भाग पै युक्त, धमं में संलग्न; सुन्दर ललाट वाला, वैरयवान्‌ तथा काले- 
वराके बालों से युक्त भद्र पुरुष होता है ॥ ८ ॥ 
स्वततत्रः सर्वकार्येषु स्वजनं प्रति त क्षमी । 
भुज्यते विभवस्तस्य नित्यमर्थिजनैः परेः ।॥ ९॥, 
भद्र पुरुष समी कायोँ मे स्वतन्त्र, आत्मीय जनोंकोक्षमान करने वाला होता 
है परन्तु अन्य घन के इच्छक लोग उसकी सम्पत्ति का उपभोग करते ह ।॥ ९॥ 


भारं तुलायां तुलयेटयत्नैः श्रीकाष्यकुम्जाधिपतिभवेत्सः । 
मद्रोद्धवः पृ्रकलत्रसौख्यो जीवेन्नुवालः शषरदामष्चोतिम्‌ ।। १० ॥ 
भद्रयोग मे उत्पन्न व्यक्ति कान्यकुन्न ( कन्नौज ) का अधिपति होताहै तथा 
प्रयत्मपुर्वंक मार (सोने की विशेष मात्रा ) को तराच्‌ में तोलता है । पुत्र एवं स्त्री 
के सुखो से सम्पन्न उस राजाकी आयु ८० वषं होती है॥ १०॥ 
हसयोग का फल-~ 


शक्तास्योन्नतनासिकासुचरणो हंसप्रसन्नेष्द्रियो 
गौरः पौनकपालरक्तकश्जो हंमस्वनः एलंष्मिकः । 
रङ्ाम्जाड्कुशमत्स्यदामयुगकंः खट्वाञ्गमालाघटे- 
आञ्चत्पादकरस्थलो मधुनिभे नेत्रे सुवृत्तं शिरः ।॥ ११॥ 
हंस योग मे उत्पन्न व्पक्ति का लालिमा युक्त मुख, ऊंची नासिका, सुन्दर 
चरण, हंस के समान प्रफुत्लित इन्धिर्यां, गौर व्ण, विस्तीणे ललाट, लालरगकी 
मंगुलिर्या, हंस के समान वाणी, कफ प्रधान प्रकृति, शंख, कमल, अंकुश, मछली 
चुगलवीणा, खट्वाङ्ग, माला एवं धघडाके चिह्लोसे सुशोमित हाय-पर, मधुके 
समान लाल नेत्र तथा गोल सिर होता दहै । ११॥ 


जलाशयप्रीतिरतीव कामी न याति तुरति वनितासु नूनम्‌ । 
आौच्च्यं रसाष्टाक््गुलसम्मितं तसनोस्तथायु्मितिरत्र षष्टिः ॥ १२ ॥ 
जलाशय मे अधिक भानन्द अनुमव करने वाला; अत्यधिक कामी; स्त्रियोसे 
कभी तृप्त न होने वाला, ८६ अंगुल ऊंची शरीर वाला हंस पुरुष होता है । दसकी 
भाद्र ६० वषं होती दहै।। १२॥ 
वाह्लीकदेश्चादरध्युरतेनगान्धवंगङ्गायमुनान्त लान्‌ । 
भुक्त्वा वनान्ते निधनं प्रयाति हंसोऽयमुक्तो मुनिमिःप्रमाणेः ॥ १३ ॥ 
बाह्लीकः शूरसेन, गन्धवं प्रदेशो का, गंगा^यमुना के मध्यवर्ती भागों का 
उपभोग कर लेने ( इन प्रदेशो मे निवास करने अभवा इन स्थानों का अधिपति 
होने ) के पश्चात्‌ हंस पुरष का धोर वनम निषन होता है एसा मुनियोंका 
प्रमाणवनन है ।॥ १३॥ 


"मनो रमा" हिन्दीष्याख्योपेता २४१ 





मालय्य योग का फल- 
भस्थुलौष्ठोऽप्यविषमवपूर्नेव रक्तां पन्धि- 
मध्ये क्ष्रः शशिधररचिहंस्तिनासः सुगण्डः । 
सरीप्ताक्षः समितिविदितों जानुदेशाप्तपाणि- 
मालव्योऽयं विल सति नृपः सप्ततिरव॑त्सराणाम्‌ ॥ १४॥। 


मालव्य योग में उत्पन्न व्यक्ति का गोष्ठ पतला, सुडौल शरीर, ङ्ख की 
सन्ध्यां लालिमा रहित्त, मध्य भाग {क्टि) पतला, चन्द्रमा के समान कान्ति, 
हस्ती के समान दीर्धनासिका, सुन्दर कपोल, सुन्दर तीक्ष्ण र्खे, संगठन या 
संस्थानों के माध्यम से सुविख्यात तथा जानुपर्यन्तं लम्बी भृजार्ये होती ई । इस 
प्रकार मालव्य राजा ७० वषं तक आनोन्दोपमोग करते हँ ( अर्थात्‌ इनकी आयु 
७० वषे की होती है )। १४॥ 
वक्त्रं त्रयोदश्मितांगुलमस्य दीघं 
तिययंम्दशांगुलमितं श्रवणान्तरालम्‌ । 
मालब्यसजनृपतिः ससुतो भुनक्ति 
लाटाश्च मालवससिन्धुसुपारियात्रान्‌ ॥ १५॥ 
मालय्य पुरुष के मुख की लम्बाई १२३ अगल, कानोंके मध्यका तिर्यक्‌ अन्तर 
१० अंगुल होता है । मालव्य संश्जक राजा अपने पुत्रके साथ लाट, मालवा, सिन्धु, 
एवं पारियात्र देशों का उपमोग ( प्रशासन ) करता टै। १५॥ 


शक्षक योग का फल-- 


लघुद्विजास्योऽद्रिगतः सकोपः शठोऽतिश्चरो विजनप्रचारः । 
वनाद्विदुगेषु नदीषु सक्ताः प्रियातिथिर्नातिलधुः प्रसिद्धः ॥ १६ ॥ 


दादाक योग मे उत्पन्न व्यक्तिके मुखे एवं दात छौटे होतेह । पर्वत में निवास 
करने वाला, कोभी, शठ, अत्यन्त बलवान्‌, निजन स्थानों मे ्नमण करने वाला, 
वन, परवत, नदी भैर किला मे अधिक रुचि रखने वाला, अतिथियोंकाप्रेमी, 
मध्यम कद का विख्यात पुरुष होता है ॥ १६ ॥ 
नानासेनानिचयनिरतो दन्तुरश्चापि किञ्चि. 
दातोवदि भवति कूशलश्चञ्चलो लोलनेत्रः । 
स्वीसंसक्तः परथनहरो मातृमक्तः सुजक्घो 
मध्ये क्षामः पुललितमती रन्ध्रवेदी परेषाम्‌ । १७ ॥ 
( शकक योग मे उल्पत्न पुरुष ) अनेक प्रकारकी सेनार्ओंके संग्रह में तत्पर, 
कुर्क बड़ दातो वाला, धातुगों ( लोहा, ताबा, कासा मादि) के ब्यवहारमें 


१६९ भाग्सा 


२४२ मानसाभरी 


बिमकय 


निपुण, बश्वल प्रति एवं नेत्रो वाला, स्वी मे मासक, पराये धन का लैपहरण 
करने वाला, माता का भक्त, सुन्दर सुशैल जङ्घा मौर कुक्च कटि से युक्त, सुबु 
तथा दूसरों के रहस्य (या दोष ) को जानने वाला होता है ॥ १७॥ 
पयंद्ुशङ्खशरशस्तमृदञ्जमाला- 
वीणोपमाःखलु करे चरणे च रेखाः। 
वर्षाणि सप्ततिमितानि करोति राज्यं 
राप्तं शशासख्यनृपतिः कथितो मुनीन्द्रः ।। १८ ॥ 
श नामक योग में उत्पन्न राजाके हाथ ओौरपैरमें पयंद्धु( पलंग), शङ्क, 
बाण, दास्त्र, मृदङ्ग, माला, वीण। का रेखा चिद्भ होता है। तथा वह्‌ ७० वषं 


तक राज्य करता है अर्थात्‌ ७० व्ष॑की आयु होतीदहै एसा श्रेष्ठ मुनि्योने 
कहा है ।। १८ ॥ 





पच्च महापुरुष भङ्खयोग- 
केन्द्रोच्चगा यद्यपि भूसुतादया मार्तंण्डशोतांशधुता भवन्ति । 
कुर्वन्ति नोर्वीपतिमात्मपाके यच्छन्ति ते केवलसत्फलानि ।। १९ ॥ 


यदि अपनी-अपनी उच्च राशियों में स्थित होकर मौमादि पचो ग्रह केन्द्र 
स्थानोंमेंहों तथासूयेया चन्द्रमासे युक्त होंतो ( प महा पुरुष योग मङ्गहो 
जताहै।) वे राजा नहीं बनाते अपितु अपनी दशाम केवल अच्छे फल प्रदान 
करते है ।। १६ ॥ 
मनफा आदि योगों के लक्षण- 
श्विवज्जं द्वादशगेरनफा चन्द्रादद्वितीयगैः सुनफा । 
उमयस्थितंदुरुषरा केमदरुमसंज्ञको योऽन्यः ॥ २० ॥ 


चन्द्रमासे द्वादह भावमेसूर्यं को छोडकर कोई मी ग्रह हो तौ अनफा, 
द्वितीय भावम सूर्यरहित कोईम्रहहौ तो सुनफा तथा चन्रमा से दोनों तरफ 
अर्थात्‌ द्वितीय गौर दादश दोनों मावोंमें सूरह ग्रहहोंतौ दुरुधरा योग होता 
है । इससे भिन्न स्थिति मे अर्थात्‌ चनद्रमासे द्वितीय ओौरद्वादशमें यदिकोरभी 
श्रहनहो तो केमद्रुम नामक यौ होता है। २० ॥ 


मुनफा योग का फल-- 
मौमादीनां फलं यत्‌ स्याज्जञात्वा त्वविकलं बुधः । 
प्राज्ञाय भरवदेत्सम्यक्‌ धुनफादिङ्तं फलम्‌ ।। २१॥ 
भौमादि पचिब्रहोकाजो फल पहने बताया गयादहै उनको मलीनभति 
जानकर सुनफादि योगों का फल विद्धान्‌ पुरुष को करना बाहिये । 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता २४३ 





प्रच ग्रहों से पश्च महापुरुष योग बनते ह परन्तु उच्च गौर केन्द्रस्य होने पर 
उसी अनुपात में उससे कुछ न्यन उक्तर्पाच ग्रहों का फल सुनफादि योर्गोमें 
होता है । २१॥ 
विक्रभविं्तप्रायो निष्टुरवचनश्च भूपतिश्वन््रे ¦ 
हिल्लो नित्यविरोधी सुनफायां भमौमसंयोगे । २२॥ 


यदि चन्द्रमा से द्वितीयस्थानमे मंगल स्थिति होकर सुनफायोग बनारहा 
हो तो जातक, पराक्रमी, निष्टुर वचन बोलने वाला, राजा, हसक (जीवोंका 
वध करने वाला ) तथा नित्य लोगों से विरोधकरने वाला होता है।। २२॥ 


धृतिद्ास्त्रगेयकुशलो धर्मरतः काब्यकृन्मनस्वी च । 
स्वं हितो रुधिश्तनुः भुनफा्यां सोमजे भवति ॥ २३ ॥ 


यदि बुष सुनफा योग कारकहोतोवेद, शस्त्र ओर गान विद्याम निपुण, 
ध।भिक, काव्यकर्ता, स्वाभिमानी, सबकी भलाई करने वाला, लाल (कौमन) 
हरीर वाला होता है । २३॥ 
नानाविच्याचायं श्यातं नृपति वृषप्रियं चापि । 
सकुटुम्बधनसमृद्ध सुनफायां सुरगुरः कुरूते ।। २४॥ 
बृहस्पति से उत्पन्न सुनफा योग मे उत्पन्न व्यक्ति विविध विषयों का प्रामाणिक 
विद्वान्‌, विख्यात, राजा, न्यायप्रिय तथा कुटुम्बियो के साथ धन सम्पन्न 
होता है ॥ २४॥ 


स्त्रीक्षेत्रगृहपतिश्चतुष्पदाढचः सुविक्रमो भवति । 
नृपसत्कृतः सुवेषो दक्षःशूक्रेण सुनफायाम्‌ ।॥ २५॥ 
यदि शुक्र सुनफा योगकारकहोतोस्त्री, क्षेत्र (लेत) एवं गृहकास्वामी, 
पशुओं का पालन करने वाला, पराक्रमी, राजासि सम्मानित, सुन्दर वेष-मृषा 
धारण करे वाला तथा चतुर व्यक्ति होता है ।। २५॥ 
निपुणमतिर्ग्रामपुरनित्यं सम्पूजितो धनसमृद्धः । 
पुनफायां रवितनये ज्ियासु गुप्तो भवेन्मलिनः ॥ २६॥ 
शनि से सुनफायोगहौीतो कुक्षल बुद्धिमान्‌, नगर एवं प्राम में निरन्तर पूञ्य 
( सम्मानित ), धन से सम्पघ्न, गुप्त ल्पसे कायं करने नाला तथा मलिन स्वभाव 
से युक्त होता है ॥ २५॥। 
अनफा योग का फल- 
चौरस्वामी दतः स्ववशौ मानी रणोत्कटः सेष्यंः । 
क्रोधास्तम्पत्साध्यः सुतनूर्नन्नः कुजेऽनफायां च ।। २७ ॥ 


र मानसागरी 





भौम हृत अनफा योग मे चोरों का सरदार, तेजस्वी, आस्मसंयमी, स््राभि. 
मानी, युद्ध का अभिलाषी, ईर्ष्यालु, कोष से सम्पत्ति सिद्ध ( अजित ) करने वाला, 
शरीर से सुन्दर तथा विनम्र व्यक्ति होता है ।॥ २७ ॥ 


गन्धर्वो लेख्यपट्‌ः कविः भ्रवक्ता नुपाप्तसत्कारः। 
रविरेः सुभगोऽपि बुषे प्रसिद्धकर्माञ्निफायाँ हि ॥। २८ ॥ 
बुध अनफा योगकारक होतो गन्धवं ( गीत-वाद्य-नृत्य आदि कलाओं का 
ज्ञाता ), चित्रकला में निपुण, कवि, विशिष्ट वक्ता, राजासे सम्मान पने वाला, 
सुन्दर तथा सौमाग्यलाली पुरुष होता है । २८ ॥ 


गम्भीरः सन्मेधाचानुयुतो* बुद्धिमान्‌ नुपाप्तयश्षाः । 
अत्रफायां त्रिदशगुरौ सञ्जातः सत्कविभंवति ॥ २६ ॥ 


बृहस्पति अनफा पोगकारकहो तौ जातक गम्मीर, सद्बुद्धि से युक्त, बुदिमान्‌ 
( चतुर ), राजा से सम्मान प्राप्त तथा उच्चकोटि का कवि होता है ।॥ २६॥ 


युवतोनामतिसुभगः प्रणयो क्षितिपस्य गोपतिः कान्तः । 
कनकसमृद्धश्च पुमाननफायां भागवे भवति ।॥ ३०॥ 
शुक्र से अनफा योगहोतो स्त्रियोंकाभ्रिय राजाका प्रियपात्र, गौमोँ का 
पालन करने वाला, अङ्ति से सुन्दर एवं स्वणे सन्चय से धनवान्‌ पुरूष होता 
है ॥ ३० ।। 
विस्तीणंमुजः सुभगो गृहीतवाक्यश्चतुष्पदसमृदधः । 
दु वंनितागण भोक्ता गुणसहितः पृच्रवान्‌ रविजे ॥ ३१॥ 
शनि अनफा योगकारक होतो जातकं लम्बी मुजागों वाला, सुन्दर, अपने 
वचन पर दुढ़ रहने वाला, पशुगों से सम्पन्न ( अधिक संख्याम पशु पालन करते 
वाला ), कुत्सित स्त्रियो के साथ सहवास करने वाला तथा गुणवान्‌ होता है ॥३१॥ 
दुरुधरा योग का फल-- 
अनुतके बहुवित्तो निपुणोऽतिशठो गुणाधिको लुग्धः । 
वृदधस्त्रीषु प्रक्त। कुलाग्रणीः शिति मौमबुधमध्ये ।। ३२ ॥ 
चन्द्रमा मंगल भौर ब्ुषके मध्यमे ( चन््रमासे द्वितीय भौर द्वादशमे मंगल 


मौर बुष ) हों तौ मिथ्यावादी, मधिक धनवान्‌, बुर, अत्यन्त दुष्ट, अधिक 
गुणवान्‌, लोभी, वृद्धा स्त्रियो मे भासक्त तथा अपने कुल में रेष्ठ होता है ॥ ३२॥। 


[पौ 





१. समनुयुतो पाठान्तरम्‌ । 


मनोरमा" हिन्वीष्यास्योषेता २४५ 





श्यातः कर्मसु कितवो बहुधगवेरस्त्वमर्षणो धृष्टः । 
आरक्षकः कृ अगुरवोरमध्यगते शिनि संग्राही ॥ ३३ 
यदि मंगल भौर गुड दुरुषरा योगकारक हां अर्थात्‌ मंगल भौर शुरके मध्यम 


मे चन्द्रमा हों तौ अपने कायौ से प्रसिद्ध, धूर्ते, अधिक धनवान्‌, शत्रुता, कोष 
रहित, बुष्ट-ढीठ ), तथा भुरक्षा करने वाला होता दहै ।॥ ३३॥ 


उ्तमरामः सुभगो विषादशीलोऽस्त्रवि दद्रवेच्छूरः । 
व्यायामी रणश्ीलः सितारयोमंध्यगे चल्द्रे ॥। ३४ ॥ 


शुक्र गौर मंगल के मध्यमे यदि चन्द्रमा हो अर्थात्‌ इन तीनों ब्रहों ते दुर्वरा 
योगबनरहाहोतो जातक बुद्ध प्रिय, व्यायाम करने वाला, शूर, अस्त्र सन्चालन 
मे दक्ष, दुःशी एवं सुन्दर होता है । उसकी स्त्री उत्तम (सम्य, सुन्दरी एवं पतिव्रता) 
होती है । ३४॥ 
उत्तमसुरतो बहूुधनसञ्चवयकारी व्यसनसक्तश्च । 
क्रोषी पिद्युनो श्पुमान्‌ यमाश्योः स्यादृदुरुषरायाम्‌ ।। ३५॥ 
शनि भौर मंगलसे दुरुधरायोगदहो तौ जातक रति कला में शरुश्षल, अत्यधिक 
धनसंग्रह करने वाला, व्यमन मं आसक्त, क्रोधी, चुगलखोर तथा शत्रुओं से युक्त 
होता है।। ३५॥ 
धमरतः शास्त्रज्ञो वाचि पटु: सर्ववद्धनसमृद्धः) 
व्यागयुतो विख्यातो गुरुवुधमध्यस्थिते चन्द्रे ।। ३६ ॥। 
गुरु आओौर बुधके बीचमे चन्द्रमाहोतोधममे संलग्न, शास्त्रों का ज्ञाता, 
बातचीत मे निपुणः, सभो प्रकार की सम्पत्तियों की वृद्धि से सम्पन्न, त्यागी तथा 
विख्यात व्यक्ति होता है। २६॥ 


त्रियवाक्युभगः कान्तः भ्रवृत्तगो यदि भुकतवान्नृपतिः । 
सौख्यं शूरो मन्त्रौ बुषसितयामध्यगे च हिमिकिरणे ॥ ३७ ॥ 
बुष जीर शुक्र के मध्यमे चन््रमाहोतो जातक प्रियवादी, सुन्दर, मनोहर 
सुख सम्पन्न, शूर तथा मन्त्री होता है । यदि उसकी सत्कमं मे प्रवृत्ति हो जाती है 
तो बह यरस्वी राजा होता है।। ३७॥ 


देशे देषो गच्छति विशवंशे नास्ति विद्या सहित । 
चन्द्रेऽन्येषां पुज्यः स्वजनविरोधी जमन्दयोमंच्ये ॥ ३८ ॥ 
बुष भौर दानिके मध्यमे यदिचन्द्रमाहोतो वह ग्यक्ति देश-विदेश में अथं 
लाभ हेतु ्रमणकरताहैतथा विद्चासेहीनहोताहै। एषे लोग दसरों ते पुश्य 
तथा भाहमीयजनो के विरोर्षी होति है ।। ३८ ॥ 


# 1 


२४६ मानसागरी 


धृतिमेघः स्थेयंयुतो नीतिज्ञः कनकर्ल्नपरिपूर्णः । 
ख्यातो नृपङ़त्यकरो गुदसितयोर्दुरुधरायोगे । ३६ ॥ 
गुरु ओर शुक्र ते दुरुषरा योग बन रहाहोतो जातक धैर्यवान्‌, मेधावी, 
स्थिर चित्तवाला, नीति का ज्ञता, सोना ओर जवाहरात से परिपूर्णं, विषयात, 
राजा का कायं ( राजकीय सेवा) करने वाला होता है ॥ ३६॥ 
~ सुखनयरविज्ञानयुतः प्रियवाग्विद्वान्‌ धुरन्धरो मर्त्यः । 
ससुतो धनी सुरूपश्चन्द्रे गृरुमार्गवान्तरगे ।। ४० ॥ 
शुक्र ओर बृहस्पति के मध्य में चन्द्रमा हो अर्थात्‌ उक्त प्रहोंसे (दुरुषरा योग) 
हो तो सुख, राजनीति भौर विज्ञान से युक्त, प्रियवादी, विद्वान्‌, धुरन्धर ( निर्भीक 
एवं बलवान्‌ ), पुत्रवान्‌, धनी तथा सुन्दर होता है । ४० ॥ 


वृद्धवनितं कृलाठच् ` निपुणं स्त्रीवल्लभं धनसमृद्धम्‌ । 
नृपसत्कृतं बहुज्ञं कृरते चन्द्रः सिताकजयोः॥ ४१ ॥ 
शुक्र भौर रानि के मध्यमे चन््रमाहो तो उस मनुष्यकी स्त्री वद्धा ( अधिक 
आगु वाली ) एवं कुलीन होती है तथा वह्‌ निपुण, स्त्री क प्रेमी, धनवान्‌, राजा 
से सम्मानित, बहुत विषयों ( भथवा कलाओं ) काज्ञाता होता है । ४१॥ 


केमद्रुम योग का फल- 
केमदुमे भवति पुत्रकलत्रहोनो देशान्तरे व्रजति दुःखसमाभितप्तः । 
जञातिप्रमोदनिरतोमुखरः कुच॑लो नीचः सदा मवति मोतियुतश्चिरायुः ।४२॥ 


केमरूम योग ( चन्द्रमासे दवितीय भौर दादश भाव ग्रहहीन हो) में उत्पन्न 
ग्यक्ति धृत्र मौरस्त्रीसे हीन अपने देशको छोडकर दूसरेदेशमे जने वाला, 
वषो तक दुःख से सन्तप्त रहने वाला, ज, ति-बन्धुभों के आमोद-प्रमोद मे संलग्न, 
मुर ( अभिक बोलने वाला ); मलिन वस्त्रों कोधारण करने वाना, नीच, सदैव 
भयभीत रहने वाला तथा दीर्घायु होता है । ४२॥ 





दुरुषरा एवं. केमद्रुम का फल- 
उत्पन्नमोगसुखभुग्धनवाहनाढध- 
स्त्यागान्वितो दुरषराप्रभवः पुभृत्यः। 
केमद्रुमे मलिनदुःखितनीचनिःस्वाः 
प्रेष्याश्च तत्र नृपतेरपि वंदाजाताः१ ॥ ४३॥ 
दुश्षरा योग मे उत्पभ्न व्यक्ति भौतिक साधनों से उत्पन्न समस्त घुौका 








१. बृहज्जातकम्‌ । १३.६ "तत्र स्थाने "खलः" इति पाठः । 


"मनोरमा" हिभ्दीष्या्योपेता २४७ 





उकषमोग करमे वाला , अन एवं वाहन से युक्त, त्यागी प्रवृत्ति वाला तथा अच्छे 
सेवको से युक्त होता है। 


केमदुम योग मे उत्पन्न व्यक्ति मलिन ( गन्द ) आचरण वाला, दुखी, नीष, 
निर्धन तथा सेवाकार्यं करने वालाहोतादहै षाह वहराजाके कुलमें हीर्ग्योन 
उस्पल्न हो ।। ४२ ॥ 
केमद्रुम मङ्खयोग-- 

हित्वाकं सुनफानफा दुरुषरा स्वान्त्योभयस्वंग्रैः 

शोर्तांशोः कथितोऽन्यथा तु बहुभिकेमदुमोज्यंस्त्वसी । 

केन्द्रे शोतकरेऽय वा ग्रहयुते केमद्रुमो नेष्यते 

केचित्केल्द्रनवांशकेष्विति वदन्त्युक्तिप्रसिद्धा न ते१ ॥ ४४ ॥ 


सूयं को छोडकर अन्य प्रहोंमसे कोई भी ग्रह चन्द्रमासे द्वितीय भाव, दादक्ष 
भाव तथा चन्द्रमासे दोनों तरफ ( द्वितीय भौर द्वादश दोनों भावों) में होतो 
क्रम से सुनफा, अनफा, दुरुषरा योग होते ह । इससे विपरीत बर्थात्‌ चन्द्रमासे 
दवितीय मौर दवादक्ल दोनों माव ग्रहसे रदितिहो तो केमद्रुम नामक योग होता 
है । बहुत से आचार्यों का मतदहै कि चनद्रमाकेन्द्रमे हो अववा किसी ग्रहुसे युत 
होतो केमद्रम योग भर्ंहो जतादहै। कुठ आचार्योँका मतदहैकि चन्द्रमा केर 
नवांश मे अर्थात्‌ केन्द्रस्य रारियोंके नवमांशमे होतो केमद्रुम योग भङ्ग होता 
है । परन्तु यह कथन प्रसिद्ध नहींहै।। ४८४॥ 
कुमुदगहनबन्धुरवीक्षिमाणः समस्तं -- 
गंगनगृहनिवासंर्दर्धि जीवी स जातः। 
फलमशुभसमुत्थ यच्च॒ केमदुमोक्तं 
स भवति नरनाथः सावं मौमो जितारिः ॥ ४५॥ 
केमहुम योग होति हुये मी चन्द्रमा को यदि समस्त प्रहदेख रहेहोतो वह 
ध्यक्ति दीर्धंजीवी होता है । केमव्रुम योग से उस्पन्न होने वाले समस्त अश्ुम फल 


उसे प्राप्त नहीं होते । वह सावभौम राजा तथा श्रु को जीतने बाला 
होता है ।॥ ४५॥ 


पूणं शी यदि भवेच्छरमसंस्थितो वा 


सौम्यामरेज्यभृगुनन्दनसंयुतश्च । 
पुत्राषं सौस्यजनकः कथितो मुनोन्रः 
____________ केमदुमे मवति मञ्गलसुप्रसिदि;॥ ५६॥ 





१. बृहम्जातकम्‌ । 


रय मानसागरी 





पूणं चन्द्रमा यदि शुभग्रह की राशि में स्थित हो मथवा बुष, गुर भौर शुकसे 
यक्त हो तो केमद्रुम योग होने पर भी मनुष्य पूरन गौर सुख को उत्पन्न करने 
वाला एवं कल्याणकारी प्रसिद्धि (यश) को प्राप्त करने वाला होतारा 
मुनियों का कथयन है ।॥ ४६॥ 
वोशिन्वेशि योग-- 
सूर्यादधयगे वोशिष्टितीयगेश्न्द्रव्जितैवशिः 
उमयस्थितं्रहगर्णश्भमयवरीनामतः प्रोक्तः ।॥ ४७ ॥ 


सूयं से बारह भाव मे चन्द्रमा को छोडकर अन्य कोई भी ग्रहुस्थितहोतो 
बोशि तथा सूर्यं से द्वितीय भाव मे चन्द्रातिणक्ति कोई ग्रहहोतौ बेहि योग होता 
है । सूयं से दोनों तरफ द्वितीय गौर दादश भार्वोमेग्रहहोंतो उभयथारी नामक 
योग होता है ।। ४७ ॥ 


वौशि योग का फल- 
मन्ददुशं स्थिरवचनं पर्भूरिश्वमं ताद तनुम्‌ । 
कथयति गणिताधिपतिवंशिसमूत्थं॑तस्वधोदृष्टिम्‌ ।। ४८ ॥। 


वोक्षि योग मे उत्पन्न व्यक्ति की दृष्टि मन्द, वाणी स्थिर, हौतीहै। शरीर 
आधा क्षुका हओ तथा नीचे की तरफ दृष्टि रखने वाला होता है एसा गणितो 
का कटूना है ।। ४८ ॥ 


बहुसंचयी विनतदुक्‌ वौक्शौ पुरुषो भवेद्गरोर्जातः । 
भीरः कामविलीनो लघुचेष्टो भृगुयुते पराधीनः ॥। ४६ ॥ 
गुरु से वशि योग बन रहाहो अर्थात्‌ सुर्यसे बारह भावमे गृरुहोतौ 
पुरुष अधिक सन्य करने वाला दिनके समान स्वच्छ हूदय वाला होता है। यदि 
बारह्वे भावमेंशुक्रहोतो डरपोक, कामासक्त, स्वल्प अमिलाषा करनेवाला 
तथा पराधीन होता है ।॥ ४६ ॥ 


परतकितो दरिद्रो मृदूविनीतो बुधो विगतलज्जः । 
मातृध्नः क्षितिपुत्रो परोपकारो नरो वोक्ौ।। ५०॥ 
यदि वोश्ि योग बधद्वारा बन रहाहोतौ जातक द्रं की दुष्टिमे चर्बा 
का विषय, दरिद्र, कोमल प्रकृति वाला विनन्र तथा लज्जासे रहित होता दहै। 
यदि मंगल सते बनता होतो माताकी हत्या करने वाला तथा परोपकारी पुढष 


होता है ॥ ५० ॥ 
परदाररतस्व््रौ बृद्धाकारो घृणी भवेन्मनुज। । 
जातः सदाप्तजन्मा वो्यौ योगे शर्नश्चरेण युते । ५१ ॥ 


मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता ` २४४६ 


| 1 का 





यदि शनि द्वारा वो्ियोगबनादहो तो जातकं परस्त्रीगामी, मानसी, वृद्ध 
की तरह आङ्ृति वाला, चृणित, सदैव जन्म की सफलता प्राप्त करनेवाला 
( सन्तुष्ट ) होता है ॥ ५१ ॥ 
। | वेदि योग का फल 
उण्वेष्टवथाः स्मृतिमान्‌ भोगयुतो निरीक्षते तिर्यक्‌ । 
पूवंशरीरे पृथुलस्तुच्छातिः - सात्विकी वेषौ ॥ ५२ ॥ 
वेशि योग मे उत्पन्न होने वाले उच्चस्तर की अनुकल एवं उचित बात बोलने 
वाले, याद रखने वाले ( स्मरणशक्ति युक्त ), सुख भोग करने वाले, तिरी दुष््टि 
वाले ( गगल-बगल देखने वाले ) होते हैँ । उनके शरीर का अग्रभाग मोटा होता 
है तथा अघ्यल्प गति से चलने वाले होते है ।॥ ५२॥ 
धुतिसत्यबुद्धियुक्तो मवति गुर्वंशिगो रणे शशः । 
ख्यातो गुणवानार्यः शरो वं भागवि पुरूषः ॥ ५३॥ 
शुरु यदि वेशियोग कारक ( सूयंसे द्वितीय मावमें गुर) हो तो वर्यवान्‌, 
बुद्धिमान्‌, सत्यवादी तथा सप्राममें पराक्रमीहोतादहै। यदि सूर्यसे द्वितीय भाव 
मे शुक्र हो तो विर्यात, गुणवान्‌, श्रेष्ठ तथा पराक्रमी पुरुष होता है । ५३ ॥ 


प्रियमाषी रुचिरतनुरवेशौ स्याद्वा बुधे पशजकृष्मनुजः । 
ग्रामे विख्यातो भूमिसृते सूतगुणवानपि ख्यातः ॥ ५४ ॥ 
बुष वेहियोग कारको तो मनुष्य प्रिय बोलने वाला, सुन्दर शरीर वाला, 
बरुसरों को भूलं बनाने वाला होता है । 
यदि भौम वेक्लियोग कारकहो तौ संग्राम में प्रसिद्ध तथा सुतकर्म (रथ 
संशालन, ड़ाहविग ) मे निपुण होता है।॥ ५४॥ 


वणिक्कलास्वमावः स्यात्‌ परद्रव्यापहारकः । 
गृशद्ेषो शनिः सूर्यो सोमे वेशिः शनंश्चरे ॥। ५५॥ 
सूर्यं से द्वितीय स्थानमेंशनिहोतो जातक ब्यापार की कलाम कुशल दूसरों 
के धन का अपहरण करने वाला तथा गुरुकाद्वेषी होता है । ५५॥ 
उभयचरी योग का फल-- 
सर्वसहः भुसमदुक्समकायः सुस्थितो निपुणसंस्वः। 
नात्युज्चः परिपुणंग्रीवो भवेदुभयचर्यायाम्‌ ।। ५६ ॥ 
उभयचरी योगम (सूयंसेद्टिनीय ओौर हाद में चन्द्ररहित कोई भी ग्रहों 
तो उसमें ) उत्पन्न भ्यक्ति धब कु सहने करने वाला, समान दृष्टि एवं समान 


२४० ` मानसागरी 





शरीर वाला, स्थिरमति, निपुण एवं शक्ति-सम्पन्न, अधिक उन्नत नहीं ( अर्थात्‌ 
मध्यम कद ) तथा मोटी गर्दन वाला होता है । ५६॥ 


सुभगो बहुभृत्यजनो बन्धूनामाश्रयो नुपतितुल्यः। 
नित्योरक्ताही हृष्ठो भुनक्ति भोगानुभयचर्यायाम्‌ । ५७ ॥ 
उभयवरी योग मे उद्पत्र व्यक्ति सुभ्दर स्वश्प वाला, बहुत सेवको से युक्त, 
बन्धुओं का आश्चयदाता, राजा के समान वभव युक्त, निरन्तर उत्लाहयक्त, शरीर 
से स्वस्थ तथा मोमो का उपमोग करने वाला होता है॥ ५७॥। 


सहासन योग-- 
बष्ठाष्टमे द्वादशे च द्वितीये च यदा प्रहाः। 
सिहासनाख्ययोगोऽयं राजसिहासनं विशेत्‌ ।॥ ५८ ॥, 

( जन्म लग्नसे ) छट, आवे, बारहर्वे तथा द्रे भावो मे ग्रहहतो 
सहासन नामक योगहोताहै। इस योगमें उत्पन्न व्यक्ति राजर्विहासन पर 
बैठता है ( अर्थात्‌ अधिकार प्राप्त करताहै)॥ ५८॥ 

ध्वजयोग- 
अष्टमस्था यदा क्रराः सौम्या लगमे स्थिता ग्रहाः । 
ध्वजयोगोऽत्र जातस्तु स पुमान्नायको भवेत्‌ ॥ ५९॥। 
अष्टम भावमें समी क्रूर ग्रह तथा लमनमे सभी शुभग्रह स्थितहोंतो ध्वज 
योग होता है। हस योग में उत्पन्न व्यक्ति नायक होता है।॥ ५६॥ 
हंसयो ग-- 
त्रिकोणे सप्तमे लगे भवन्ति च यदा ब्रहाः। 
हंसयोगं विजानीयास्स्वर्वहस्यव पालकः । ६० ॥ 


त्रिकोण ( पञ्चम, नवम ), सप्तम गीर लग्न स्थानों मे यदि ग्रह स्वितहोतौ 
हंसयोग होता है । इत योग मे- जन्म लेने वाला अपने वंशा ( कुश ) का पालन 
करने वाला होता है।॥ ६० ॥ 
कारिका योग- 
एकादशे यदा सवं ग्रहाः स्युरदश्षमेऽपि च। 
लग्नस्य सम्मुखे वापि कारिकापरिकीतिता। ६१॥ 
ग्य(रहर्वे, दशवे तथा लगन के सम्बल ( सप्तम भाव ) मे समी प्रह होतो 
कारिका योग होता है ॥ ६१॥ 
उत्पन्नः कारिकायोगे नीचोऽपि नृपतिर्भवेत्‌ । 
शजर्वश्ेषमुत्यत्लो राजां तत्र न सदय ॥ ६२॥ 


"मनोरमा" हिन्दीय्यास्योपेता २५१ 


00 क 0 कायणतणाककककनावतनानााणाष्या) णक 


कारिका योग में उत्पन्न नी व्यक्तिभी राजाटोनाहै यदि राज कुलमेंही 
उस्पत्रहो तो निःसन्देह राजा होता टै ॥ ६२॥ 
एकावली योग- 
लग्नतश्वाच्यतो यापि क्रमेण पतिता "प्रहा! । 
एकावली समाख्याता महाराजो भवेन्नरः ॥ ६३ ॥ 
जन्म लग्न से अथवा किसी जन्य माव से क्रमानूसार समी ग्रह षडेहोंतौ 
एकावली योग होता है । इस योग मं उत्पन्न व्यक्ति महाराजा दता है। ( इसका 
अभिप्राय यहटै कि किसीमभीस्यानसे क्रम से एक-एक ग्रह अगले भावोंमें स्थित 
हों तो एकावली योग होता है) ॥ ६३॥ 
चतुःसागर योग-- 
चतुषु केन्दसंजेषु सौम्यपापग्रहाः स्थिताः । 
चतुःसागरयोगोऽयं शज्यदो धनदो भवेत्‌ ॥ ६४ ॥ 
चारों केन्द्रस्थानों में संभी शुभ ओर पापग्रह स्थित हों तौ चतुःसागर योग 
होता है । यह योगे राज्य ओौरधनदेने वाला होता है।। ६४॥ 
ककंटे मकरे मेषे तुलायां च ग्रहे स्थिते । 
चतुःसागरयोगः स्यात्सर्वारिष्टनिषूदनः ।। ६५॥ 
ककं, मकर, मेष गौर तुला इन चार राशिर्योमें ही समस्त प्रहपडेहोतो 
वह चतुःसागर योग होता है जो समस्त अरिष्टां का नाश्चक है।। ६५॥ 


चतुःसिन्धौ नरो जातो बहुरत्नसमन्वितः 
गजवाजिधनेः पूर्णो धरणीश्षोः भवेन्नरः ॥ ६६ ॥। 
चलुगसागर योग मे उत्पन्न व्यक्ति बहूत रत्नों से सम्पन्न, हाथी घोडे ओर षन 
से परिपणे एवं ममि का स्वामी (राजा) होताहै ॥ ६६॥ 
अमरयोग-- 
चतुर्ष्वपि हि केष्देषु क्रराः सौम्या यदा ग्रहाः । 
ह्रः पृथ्वीपति विद्यात्सौम्य॑लंद्मोपतिर्भवेत्‌ ॥। ६७ ॥ 
चारोंकेष््रो मे सभी पापग्रहया समीशुम ग्रहहों तो भमरयोग होताहि¢ 
कूर ग्रहों से ममि का स्वामी (अथक मूमि वाला राजा) तथा शुमग्रहो से षनवान्‌ 
( पंजीपरति ) होता है ।। ६७ ॥ 
अजमुगपतिलम्ने भानुकेष्द्रे त्रिकोणे 
ब्ययनिधनसुसंस्थे चन्प्रककं वृषे बा। 
यदि तदुभयदष्टधा वीक्षितौ जीवशुक्गौ 
ववमरवरयोगे सर्व॑रिष्छमणा्चः ।। ६८ ॥ 





२४५२ मानसागरी 





मेष, सिह राशियों मे अथवा जन्म लग्न में स्थित सुर्यं केन्द्र अथवा च्िकोणमें 
हो तथा चन्द्रमा ककं या वष रा्षि मे स्थित होकर आर्घ्वे या बारहर्वे मावमेहो 
तथा गुरु ओौर शुक्रसे दृष्टहो तो समस्त अरिष्टां का नाक्ष करने वाला अमर 
नामक योग होता है ॥ ६८ ॥ 
चापयोग- 
शुक्र घटे कुजे मेषे स्वस्थो देवपुरोहितः । 
तदा राजा भवेन्नूनं चापः सौष्यति दिङ्मुखः (?) ॥ ६६ ॥ 
शुक्र कृम्भराशि मे, मङ्गल मेष राशिमे तथा गुरु भपनी रा्षियों( षनु ओर 
मीन ) स्थितो तो निश्चित रूपमे जातक सभी दिशाओं मे गमन करने वाला राजा 


होता है ॥ ६९ ॥ 


ककटे मिथुने मीने कन्यायां चापगे ग्रहे । 
दण्डयोगः समाख्यातो रज्ञामास्पदकारक! ।। ७० ॥। 


ककं, मिथुन, मीन, कन्या ओर धनु राशियों मे यदि समस्त ग्रह स्थित हों 
तो राज्य पद प्रदान करने वाला दण्ड नामक योग होना दहै । ७०॥ 
दण्डे च जातः पृथुपुष्यभागी एकातपत्री भवति क्षितीः । 
तेजोमयः सिहपराक्रमश्च संसेव्यमानो गुरुपात्रवुन्दंः ।। ७१ ॥ 
दण्ड योग मे उत्पन्न व्यक्ति अत्यधिक पुण्यशाली, एक छत्र ( स्वंतन्व-स्वतन्त्र )' 
तेजस्वी, सिह के समान पराक्रमी, बड़े-बड़े प्रधिकारियों श्वैष्ठियों भादि के समूह 
से सेवित राजा होता है ।। ७१ ॥ 
हस योग-~- 
मेषे घटे चापतुलामृगालौ सर्वग्रह हंस इति प्रसिद्धः, 
सर्वेश पूर्णो नृपतेश्च पूज्यो हंसोद्धवो राजसमो मनुष्यः ।। ७२ ।, 
मेष, कुम्भ, धनु, तुला, मकर गौर वृश्रिक रारियों में समी ग्रह स्थितिहांतो 
हंस नामक प्रसिद्ध योगहोताहै। हंस योग में उत्पन्न मनुष्य सभी वस्तुओोंसे 
परिपूर्णं राजाओों से सम्मानित तथा राजा होता है ॥ ७२ ॥ 


वापी योग- 
लम्नव्ययधनोनेषु ग्रहाः स्थानेषु वेस्स्थिताः । 
वापीयोगो भवेदेवमुदितः पुवंसुरिभिः ॥ ७३॥ 
लग्न, व्यय ( बारहवे ) ओर द्वितीय भार्वोँको धोडकर शेष सभीभार्वोमे 
ग्रह स्थितो तो वापी योग होता है रेता पूवकियांने काह । ७३॥ 


मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता २५३ 


दीर्घायुः स्यादात्मर्वशप्रधानः सौख्योपेतोऽत्यन्तघीरो नरो हि । 
चन्द्रागयस्तन्मनाः पष्यवापौ वापीयोने यः प्रसूत प्रतापी ॥ ७४ ॥ 
जो ध्यक्ति वापी योग में उ्पन्न होता वह दीर्षायु, अपने कुलम भेष्ठ, 
सुशो से युक्त, अस्यन्त धै्यशाली, बोलने मे चपल ब्यवहार कुशल ( मिलनसार ), 
पुण्यशाली, तथा प्रतापी होता है ॥ ७४॥ 
युष, शर, शक्ति, दण्ड योग-- 
लम्नाच्वतुर्थातस्मरतः खमध्याच्वतुग हस्थंगंगनेचरेषद्रैः। 
कमेण युपश्च शरश्च हक्तर्द्डः पदिः खलु जातकञ्ञं! ।। ७५ ॥ 
लग्न, चतुथं , सप्तम भौर दशम स्थानों से भग्रिम चार भावोंके बीच यदि 
समी ग्रहहोंतो दैवश्ोनेक्रमसे यष, शर, शक्ति गौर दण्ड योग बतलाया है) 
अर्थात्‌ यदि लग्न से चतुर्थं भाव पर्यन्त सभी ग्रहहोंतो यूप योग, चतुर्थं से सप्तम 
भावके बीच यदिसभीप्रहहोंतो शषरयोग, सप्तमसे दशम भाव पर्यन्त सभी ग्रहों 
तो शक्ति योग तथा दलम से लग्न पर्यन्त सभी ग्रह हों तो दण्ड योग होता है ॥७५॥ 
यूपयोग का फल-- 
धीरोदारो यज्ञकर्मानुसारो नानाविद्यातद्विचारो नरोच्वः। 
यस्योत्पत्तौ वतते यपयोगो योगो लक्ष्म्या जायते तस्य नित्यम्‌ ॥ ७६ ॥ 


जिसके जन्म समयमेयूपयोगहो वह धीर ( षेयं युक्तं), उदार, यज्ञयागादि 
मे निपुण, अनेक प्रकार की विद्याओोंका जाता, सदाचारी, मनुष्यों में शरेष्ठ होता 
है तथा प्रतिदिन उसके घर लक्ष्मी आती रहती है ॥ ७६ ॥ 


दार योग का फल- 
हिलोऽत्यन्तं तुल्यदु.खंः प्रतप्तः 
प्राप्तानन्दः काननान्वे श्षरज्जः । 
मर्यो योगे यः च्रे जातजन्मा 
स्त्री दम्माख्या तस्य न क्वापि सौख्यम्‌ ॥ ७७ ॥ 


जिस सनुष्य काजन्मशर योगमेंहोतादहै वह भोर हिसक प्रवृत्तिवाला समान 
हुः से सन्तप्त ( जिसकी {हिसा करे उसी के समान स्वयं दुःखी ), जंगल में नन्द 
प्राप्त करने वाला तथा शर सश्ालनमे निपुण होतादहै। उसकी स्त्री रम्भाके 
समान सुन्दरी होती है फिर मी उसे सुख कहीं नहीं प्राप्त होता ॥ ७७ ॥ 


शक्ति योगं का फल- 
नीषरुष्वं प्रीतिहृत्पालसश्च सौख्यं र्थंवंजितो दुबल । 
वादे युद्ध तस्य बुद्धिविच्चाला शालासौख्यस्याल्पता श्क्तियोगे ॥ ७८ ।) 


२४५४ . मानसागयी 





शक्ति धथोम मे उत्पन्न व्यक्ति मीव तथा उन्वदोनों वगोंके ग्यक्तियोंसे प्रीति 
रश्चमे बाला, आलसी, सुख जौर षने रहित, दरबल, विवाद एवं द्रुद्ध मे विक्तेष 
बुद्धिमान्‌ (मुकदमे का विशेषज्ञ) होता है तथा गृह का अत्यल्प सु्ष प्राप्त करता है ।७५। 
दण्ड योग का फल- 
दीनो हिनोन्मस्तसञ्जातसौष्यो ह ष्योह् गी गोत्रजर्जातवेदः । 
काष्तायुत्रंरथंमित्ंविहीनो हीनो बुद्धधा दण्डयोगे तु जन्मी । ७९ ॥ 
दण्ड योग में उत्पन्न व्यक्ति दीन ( दरिद्र), हीन (निम्न कोटि का), विक्षिप्ता- 
चस्था में सुख प्राप्त करने वाला ( भर्थात्‌ पागल का ढंग रचने वाला ), ईर्ध्यालु, 
उद्विग्न, अपने कुटुम्बियो से सन्तप्त, स्त्री, पृत्र गौर मित्रों से रहत तथा बुद्धिहीन 
होता है ॥ ७६ ॥ 
नौ-क्ट-छत्र-चाप-अर्षचन्द्र योग-- 
लग्नाच्चतुर्थात्स्मरतः शमध्यात्पप्त्षगंर्नोरिथ कृटसंजञः । 
छवं धनुश्चान्यगृहपवृत्तरनपूर्वंको योग॒ शहादचन्दरा ।॥ ८० ॥ 


लग्न, चतुथं, सप्तम ओौर दशमसे आरम्भ होकर सात भावोौँमे एक-एक 
ग्रह स्थितिहोतोक्रमसेनौ, कट, छत्र गौर चाप योगहोते्ह। यथालग्नसे 
सप्तम भाव परयेन्त प्रत्येक भावमे एङ्-एक प्रहहोंतो नौका यौग, इसी प्रकार 
चतुथं से दशम पयेन्त सात भावोँमेंग्रहहों तो कृट योग, सप्तम से लग्न पर्यन्त 
सात भावोँमेग्रहटोंतो छत्र योग तथा दकश्मसे चतुर्थं परयेन्त ग्रहहोतो चाप 
( षनु ) योग होता है । इन ( केन्द्रस्थानों १, ४,७, १०) सेभिन्न स्थानों (२, 
३, ५, ६, ८, ६, ११, १२) मे आरम्म होकर सात माव पर्यन्त एक-एक ग्रह 
प्रत्येक भावम हों तो अद्धचन्द्र योग होता है।॥ ८० ॥ 

नौका-योग का कल- 


ख्यातो लुम्धो मोगसौल्यविहीनःस्या्ौयोगे लब्धजन्मा मनुष्यः । 


क्लेश्ी शश्वच्च्चलःस्यान्तवृिस्सोयोद्मूतेनार्थधाष्येन ततस्य ।॥ ८१॥ 


नीका योग मे जन्म लेने वाला मनुष्य विख्यात, लोभी, मोग ओौर सुललते 
रहित, दुःखी, निरन्तर चञ्चल तथा जल से उत्पन्न धन तथा घाभ्य प्राप्त करने 


से स्वतन्व वृत्ति ( विचारों ) वाला होता है।॥ ८१॥ 
कूटयौग का फल- 
दुरगरिभ्यावासशीलश्च मल्लो भिल्लप्रीतिनिषंनो निष्कर्मा । 
धर्माधिर्मज्ञानहीनस्व दष्टः कूटप्राप्ोत्यत्तिरेवं मनुष्यः ।। ८२।। 
कूट योग भे जन्म लेने वाला मनुष्य दुगं ( किला ) एष जङ्गल मे निवास करने 
चला, महल ( कृष्ती लश्ने धाला पहलभान ), भिस ( जंमभी जाति के ) लोगं 


"मनोरमाः हिन्दीग्याण्योपेता २५५ 





चे प्रेम करने वाला, निर्धन, निन्दित कमं करने वाला, धर्म॑-अधमं के बिवेकसे 
रहित वथा दुष्ट होता है ।॥ ०५२॥ 
छत्र योग का फल 


भ्राजो राज्ञां कार्यकर्ता दयालुः पूवं पस्वात्तर्वंषौख्वैशूपेतः। 
यस्योत्प्तौ छत्रयोगोपलन्धि्लंम्धिः स्याच्चेच्छत्रघच्चामरादेः ।। ८३ ॥ 


जिसका जन्म छत्र योगमेहोताहै वह बुद्धिमान्‌ राजा का कार्ये करने वाला, 
दयालु, जीवन के मादि गौर अन्तमं सभी प्रकार के सुखो से सम्पन्न तथा छत्र- 
चामर भादि राजकीय उपकरणोसे युक्त होतारहै। ८३॥ 


चाप योग का फल-- 
आये भागे चान्तिमे जीवितस्य सौख्योपेतः काननाद्विभ्रवारः । 
योगे जातः कार्मुके सोऽति दृष्टो गर्वान्मित्तोत्पत्तिकृत्कारमुकास्वः ॥ ८४॥ 


चाप योग में उत्पन्न व्यक्ति जीवन के पूरवद्धि में तथा मन्तिम भागम सुखोते 
सम्पन्न, जंगल भौर पवतो में भ्रमण करने वाला, अत्यन्त दुष्ट, घमण्ड से उन्मत्त 
तथा धनुष-बाण का कायं करने वाला होता है) ८४॥ 


मंचन्द्र योग का फल- 
भूमिपालभापतचन्धत्रतिष्ठः शेष्ठः सेनाभूषणार्थाम्बराः । 
चेदूत्पत्तौ यस्य योगोऽद्य चन्दरःस स्यादुत्सवाथं जलानाम्‌ ॥ ८५॥, 


अधंचन्द्र योग मे जिसकी उल्पत्तिहो वह राजां से गौरवशाली प्रतिष्ठा 
प्राप्त करने वाला, श्रेष्ठ, भाभूषण, वस्त्र मादि से युक्त तथा लोगों को मानन्दित 
करने वाला तथा उत्सवादिमे निपुणहोतादहै॥ ८५॥ 


चक्र समद्र योग- 


तनो्धंनादेकगृहान्तरेण स्यु स्थानषट्के गगनेचरेष्द्राः । 
चक्राभिधानश्व समूद्रनामा योगावितीहाकृतिजाश्षविशत्‌ ॥ ८६ ।॥। 


लग्न ओर धन से एक-एक भाव छोडकर ६ भाव पर्यन्त ग्रह स्थितहोतो 
क्रमे चक्र ओौर समुढ नामक योग होतादहै। अर्थात्‌ लग्नसे आरम्भ कर १, ३, 
५, ७, £, ११ भवोमें समस्तग्रह होतो चक्र योग तथा २, ४, ६, ८, १०, 
१२ भावोँमेंग्रहस्थितदहों तो समुद्र योगहोतारहै॥ ८६॥ 
चक्र योव का फल-- 
ध्ीमदरपोऽत्यन्तजातप्रतापो भूतो भूपोपायन रचितः स्यात्‌ । 
योगे जातः परषो यस्तु चक्र पृथ्व्याः शालिनी तस्य कोति: ॥ ८७ ॥ 


२५६ ` भानसागरी 





जिस पुरुष का अन्म चक्र योगम होता है वह श्री (कान्ति) मान्‌, स्वरूप- 
वान्‌, स्यन्त प्रतापी, राजा तथा राजागों हारा सम्भानित तथा मूमण्डलमें 
विस्तृत कीति वाला होता है ॥ ८७ ॥ 
समुद्र योग का फल- 
दाता बीरश्चारशीलो दयालुः पथ्वीपालप्राप्तसाम्यः प्रकामम्‌ । 
योगे जातो यः समुद्रे स धन्यो धन्यो वंशस्तेन नूनं नरेण ॥ ८८ ॥ 


जो समुद्र योग में उत्पन्न होता है वह्‌ दानी, धैर्यवान्‌, सुन्दर, शील स्वभाव- 
युक्त, राजा के समान समस्त अभिलाषा को पूणं करने वाला तवा यद्चस्वी होता 
है। उसके दवारा उसका कुल धन्य हो जाताहै ( अर्थात्‌ कूल की गरिमा बढ 
जाती 8 )॥ ८८ ॥ 
गोल आदि योग-- 
थे योगाः कथिताः पुश बहुतरास्तेषाममावे भवेद्‌ 
गोलश्चंकगतेर्यगो द्विगृहगेः चूलस्त्रिगेहोपगेः । 
केदारश्च चतुषु सर्वंखचरः पाशस्तु प्छस्थितेः 
षट्‌ ¶स्थंरेकदाम-सप्तगृहगंर्वणिति सख्या हमे ।। ८९॥, 
जिन योगों को पहले कहा चुका है उनके आभाव मेये योग होते है--यदि 
एक ही भावम समी ग्रहहतो गोल, दोस्था्नोमे होतो युग, तीन मर्वोमें 
हो तौ शूल, चार भावों में केदार, पचि भावोंमेंसभीग्रहटोतो पाक्ष, छः स्थानों 
मेहोतोदाम तथा सातस्थानों में समीप्रहहों तो वीणा योगहोताहै। इन 
योगो की सात संख्या होती है ॥ ८९ ॥ 
गोल योग का कल-- 
विद्यासत्यौदायंसामर््यं होना नानायासा नित्यजातप्रयासा । 
येषां योगः सम्भवेदगालनामा मानासत्यग्रीतयोऽनीतयस्तं ।। ९० ॥ 
गोल नामक योग मे उत्पन्न व्यक्ति विद्या, सस्य, उदारता, सामथ्यं ( पौरव ) 
से हीन, अनेक प्रयासो में प्रतिदिन निरत, अभिमान, मस्य एवं अनीति में संलग्न 
होता है ।। ६० ॥ 
युग योग का फल- 


पालण्डेनाखण्डित प्रीतिमाजोऽलज्जास्ते स्युंम॑क्मं युक्ताः । 
त्रैरर्थः सवथा ते वियुक्ता युक्तायुक्तजानधुन्या युगास्ये ।। ९१ ॥ 
युज योग मे अन्म तेने वाला प्षण्डी, अल्पकालिकप्रेम करने वाला (किसी 
से भित्रता न निभने वाला), ध्म-कर्ममे लभ्जा का अनुमव करने वाला, पृत्र 
जौर भर्म से सदैव हीन तथा उचित-अनुधित के जिवेकसे रहित होता है । ९१॥ 


'मनौरमा' हिम्दीष्यास्योपेता २४७ - 





दुल योग का फल- 


युद बादे तत्पराः भूरचेष्टाः अरुणः स्वान्ते निष्ठुरा नि्षनाश्न । 
योगो येषां शूतिकाले हि शलः शलप्रायास्ते जनानां भवन्ति । २ ॥ 


जिसके जन्म समयमे दुल योगहो कह रुद्ध, वाद-विवाद मे तत्पर, क्रूर 
कार्यों की चेष्टा करने वाला, हृदय से निष्टुर, निन तथा सदेव कष्ट का अनुमव 
करनेवाला होता दै ॥ ६२॥ 


केदारयोग का कल- 


चापोपेताश्चाषंवन्तो विनीता! कृत्यौत्सुक्याश्चोपकारादराश्च । 
योगे केदारे नरस्ते नु धीरां धाराश्चापीतरेषां विशेषात्‌ ॥ ६३ ॥ 


केदार योग मे उस्पन्न व्यक्ति, निरन्तर धनुषधारण करने वाला, आर्षं (वेद ) 
परम्परा का अनुगामी, विन्न, कृषि की उत्सुकता मौर उपकारसे जादर पने 
वाला, घेयं का आचरण करने वाला अन्य लोगों की अपेक्षा विक्षिष्ट पुरूष. 
होता है ॥ ९३ ॥ 
पाश योगकाफल- ^ 
दीनाकारास्तत्पराश्चापकारे बन्धेनार्ता भूतिजल्पाः सदम्भाः । 
नानानर्थाः पाद्ययोगप्रजाता जातारण्यप्रोतयः स्युमनुष्याः ।। ९४ ॥ 


पाद योग मे उल्पन्न व्यक्ति आकृतिसे दीन, दसं के भनिष्ट में तत्पर, 
बन्धनसे दुःखी, अधिकं बकवास करने वाला, षमण्डी, अनेक अनर्थो (दुष्कर्मो) को 
करने वाला तथा वन मे विहार करने वाला होता है।। ६४॥\ 
| दाम योग का फल-- 
जातनन्दो नन्दनाद्य : सुधीरो विद्राच्‌ भूपः कोपसञ्जाततोषः । 
चष्डच्छोलोदायंबुदि्रचस्तःशस्तः सूतौ कामिनी यस्य योगः ॥ ९६५॥ 
जिसके जन्म समय दाम (या दामिनी) योगहो वह पृत्रादिसे सूखी एवं 
आनन्दित, अस्यन्त धैयंवान्‌, विद्धान्‌, राजा, कोष करने से सन्तुष्ट रहने वाला, 
प्रशस्त शीलता से युक्त, उदार बुद्धि वाला, षष्ठ कोरिका होताहै॥ ९५॥ 
वीणायोगका कल- 
लथपिताः शास्त्रपार ङ्गताश्च सङ्गीतज्ञः पोषकाः स्युबहुनाम्‌ । 
नानासौस्यंरन्वितास्तु प्रवीणा वीणायोगे प्राणिनां जन्म येषाम्‌ ।। ६६॥। 
वीणा योम में जिसप्राणी का जन्महो वहु षन से सम्पन्न, शस्त्रो का पण्डित, 
सङ्गीत का ज्ञाता, बहृत लोगों का पालन करने वाला, मनेक प्रकारके सुले 
प्रकत तथ। बतुर होता है।॥ ९६॥ 
१७ मा०सा० 


देशव मामसायरी 





प्रोक्तेरेतेरनाभसाख्यै योगैः स्यास्सर्वेव व्राणिनां अन्म कामम्‌ । . 

तस्मावतेऽत्यम्तयत्तादपुर्वाः पु्वचिार्यर्जातिके सम्प्रदिद्छः.1। १७ ॥ 

इन नाभस नामक योगों का वर्णेन समस्त प्राभिर्यो के जन्म की सार्थकता जानने 
के लिए पूर्वाच्यों ने जातक शास्म किया है। अतः दैवो को प्रयास पूर्वक 
इनका अदूमृत योगों का विचार करना चाहिये ।। ९७ ॥ 


चन्द्रयोग का फल- 
उत्पातके कशतनुनिहि वाऽथ दुश्ये 
दुश्ये दिवा सिरिशगभंयशोदकंश्च ( ? ) । 
एवं स्थितः समफलः पृथिवीपतित्वं 
जातौ नयाय कुर्ते परिपूर्णमूतिः ॥। ९८ ॥ 
चन्द्रमा यदि उस्पात* कालमें क्षीण होकर रात्िमे दृद्य हो अथवा दिनम 
द्र्य हो तो एसे समय मे उत्पन्न व्यक्ति यशस्वी होता है । यदि उसी योम में पुरणं 
बली चन्द्रहो तो जातक न्यायप्रिय राजा होता है॥ ६८॥ 
| वामवामे ग्रहाः सवं सूर्यादीनां भूनिप्रमा। । 
दण्द्रियोगे जानीतरल्लात्र कार्या विचारणा । ६६ ॥ 
सूर्यादि समी ग्रह यदि जन्म चक्रमे वाम क्रमसे स्थित होँतो दरिद्र योग 
समक्षना चाहिये यह मुनियों का वचन है इसमें सन्देह नहीं ।। ९९ ॥ 
कारक योग-- 
मूलत्रिकोणस्वगृहोच्चसंस्था नमश्रराः केष्दरगता मिथः स्यु! । 
ते कारकाल्याः कथिता मुनीन्प्रविज्ञाय चाज्ञाभवने विष्येषातु ।। १०० ॥ 
जपने मूल्रिकोण, गृह तथा उच्व राशियों मे स्थित ग्रह केन्रमे्होतो 
परस्परवे कारक प्रहु कहलाते ह। विशेषसश्प से ददाम भमावमें स्थित ग्रह योग- 
कारक होते है एसा श्रेष्ठ मुनियों का कवचन है ।। १०० ॥ 


प्रालेयश्रिमयंदि मृतिवर्ती स्वमन्दिरस्थो निजतुङ्गंजातः । 

कुजाकजाकमिरराजपूज्याः केन्द्रस्थिताः कारकसंजिताश्च । १०१॥ 

चन्द्रमा यदि भपनी राहि (ककं) मे स्थितहोकरलग्नमें हो तथा मंगल, 
हानि, सूर्य, ब्रहस्पति अपनी~गपनी उच्च राशिरयोमे स्थिति होकर केदमेंर्टोतो 
कारक सं्ञक योग होता है भर्थात्‌ि ये सभी ग्रह कारक होतेह । १०१॥ 





१. न्द्रमा की स्थितिसे श्री उल्पात का ज्ञान होता तथा इसके मतिरिति 
अन् आकाक्षीय उहपात होते है जिनका विस्तृत विवेचन अदुमृतसागर ओर 


वृहत्संहिता में देखें । 


मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता २५६ 


शुजग्रहे लम्भमतेऽम्बराम्बुस्थितो ग्रहः कारकसंजजकः स्यात्‌ । 

तुङ्खनिकोनस्वगृहाष्षयातास्वेऽपीह मने तपनो विश्चेषात्‌ ॥ १०२॥ 

समस्त शुभग्रह लग्न मे हो तथा चतुर्थं एवं ददाम भावम कोई भी ग्रह स्थित हो 
तौ वह कारक संक्ञकग्रह होता है) तथा जपने उश्च, त्रिकोण, गृहः नवाक्षे 
स्थित ब्रह भी कारक संज्ञक होते दह। यह योग विशेष श्पते दशमस्य धूं के 
लिए कहा गया हि । १०२॥ 





कारक योगश का फल- 


नीवान्वये यद्यपि जांतजन्मा मन्त्री भवेत्कारकचेषरा्य : । 
राजान्वये तस्य यदि प्रसुतिर्मृमोपतित्वं स कथं न याति ॥ १०३॥ 


नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति मी कारकं ग्रहोंके द्वारा मन्त्रीहोजाताहै। यदि 
राजाके कुलमें उत्पन्नहोतो वह कर्योन राजा होगा? अर्थात्‌ अवश्य राजपद 
प्राप्त करेगा ॥ १०३ ॥ 


वेशिस्थितो यस्य शुभो नभोगो जन्भाख्यलम्ने च लवे स्वकीये । 
केन्द्राणि सर्वाणि च सदुग्रहाणि तस्यालये भीः कुरूते विलासम्‌ । १०४ ॥ 


बेदि ( सूयं भे हिितीय ) स्थान मे यदि शुभग्रह हो, जन्म लग्न अपने ही नव- 
मांश हो तथा सभी केन्द्र स्वानि शुभग्र्होसे युक्तो तौ उस व्यक्तिके षर में लक्ष्मी 
विलास करती है ।। १०४॥। 
केल्द्रस्थिता गुरुविलग्नपचन्रमेणा 
मध्ये च यस्य नितरां वितरन्ति भाग्यम्‌ । 
शीषदियाभ्युदयभेषु गता भवेयु- 
रारम्भमध्यमविरामफलप्रदास्ते ।॥ १०५ ॥ 
यदि जन्म समय मे बृहस्पति, लग्नेश ओर अन्दर राशीहा तीनों ब्रह केनामें 
स्थित हों विशेषश्ूपसे यदि दशममेहों तो सदेव भाग्यकी वृद्धि करने बाजे 
होते ह । यदि जन्भ शीषदिय (३, ५, ६, ७, ८, ११ राशियों ) लग्नमें होत्तथा 
उसी मे उक्त ग्रह पश्हो तो जीवन के आरम्भ, मध्य ओौर अन्त्य में फलदायक 
होते है । मर्थात्‌ ब्रहस्पति यदि शीषदिय राधिमेंहो तो जीवन के आरम्भे, 
लग्नेश हो तो मध्य में तथा राशी होतो जीवनके अन्त में सुख प्राप्त 
होता है १०५।। 


दाकट योग 
सस्या विलम्नेऽप्यव सप्तमे च पेतङ्गमुख्यास्यु ग्रहा निताम्व्‌ 
वदत्ति योगं शक्टाह्यं तं अति नरः स्याग्छ॑कटौपजीवौ ॥ १०६।, 


२६०. | भानलामरी 


(यणयमत्यययो 





अभ्म समयमे र्यादि समस्त ग्रह लग्न बौर सप्तम मे स्थित होतो शकट वौग 
होता है । इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति गाडी के हारा अपनी जीविका बलाताहै।१०६। 


नन्दा योभ- 
युग्मे युम्मे भवेलीणि ह्यं कंक च निषु स्थितम्‌ । 
लन्दायोगश्च विज्ेयश्रिरायुञ्च सुखप्रदः ।। १०७ ॥ 
तीनस्थानोमे दोदोग्रह तथा तीन स्थानों मे एक-एक ग्रह स्थितिहोतो 
उसे नन्दा योग जानना बाहिये। इस योग में उष्पन्न व्यक्ति दीर्घयु एवं सुख- 
सम्पन्न होता ह॥ १०७ ॥ 
दाता योग- 
लग्ने च जीवो युगगो भृगुश्च ध॒ने च सौम्यो दामे महीजः 
केन्द्रे त्वमी बारफलप्रदाः स्युः सर्वाथंदातार इति 9सिद्धाः ।॥ १०८॥। 
लग्न स्थान में ब्रहस्पति चतुथं भावमे शुक्र, सप्तममे बुध, ददाम में मंगल 
दस प्रकार चारों केन्द्र स्थानो मेये प्रह सुन्दर फलदायक होते हं तथा सभी प्रकार 
की सम्पत्तियो का दान कराने वाला 'दाता' नामक प्रसिद्ध योग होताहै।। १०८॥। 
राजहस योग-- 
घटे पेषे नरे चपे तुलायां सिहगे ्रहे। 
शाजहसो भवेद्योगी राज्यास्पदसुखप्रदः ॥ १०९ ॥ 
कुम्भ, मेष, मिथुन, धन, तुला गौर सिह रा्षियों मे सभी ग्रहहों तो राजहंस 
नामक योग होता है। यह योग राजपद एवं सुख देने वाला होता है।। १०९॥ 
चिल्ली पृच्छ योग-- 
विहासने च हंसे च दण्डे योगे मर्द्ध्वजे । 
चतुःसागरयोगे च विद्धिपृच्छो महाफलः ॥ ११० ॥ 
सिहासन, हंस, दण्ड, मरुष्वज, एवं चतुःसागर योगों मे यदि जिद्धिपुण्ड 
योग हो तो महान फलदायक होता है। ११० ॥ 
तुलामकरमेषाद्यलम्ने वं ह्यायवा क्वचित्‌ । 
सहासने च डमरौ चिर्लिपुच्छः श शस्यते । १११ ॥ 
बुला, मकर, मेष लग्न मे अथवा अन्यत्र सहासन भौर इमर्योगहो तो 
जिद्धिपुश्चु योम होता है । यह शुमकारकयोगदटहै। १११॥ 
भगे ककं ॒च पुच्छः त्याद्राजहषः. धुलप्रदः 


कम्मे च मन्मये चेव चिद्धिपुण्छोऽभिभीयते ॥ ११२॥ 


मनो रमा" हिन्दीग्याख्योपेता २६१ 


मकर, ककं, कम्म भौर मिथुन लग्न में यदि राजहंस योग हो तौ भुलदायक 
जिद्धिपुष्छ योग होताहै। ११२॥ 
मृगे ककं ध्वजो पुच्छः कष्यालौ वृषभे क्षे 
विद्धिपुच्छो भवेद्योगश्चतुःसागरगोचरे ।। ११३ ॥ 
* मकर ओर ककं लग्न में ध्वज योग हो तथा कन्या, वृदिषक, वृष गौर मीन 
लग्नोमें चतुःसागर योग हो तो चिद्जिपुष् होता है ।। ११३२॥ 
योगोदितफलं पुच्छः करोति द्विगुणं फलम्‌ । 
तेन योगाधियोगोऽयं लम्नेऽपि कस्यचिन्मते ॥ ११४ \ 
योर्गो के साथ चिद्धिपृच्छ योग होने से उस योगमें कषे गये फल का द्विगुणित 
फल होता है । इसलिए इसे योगाधियोग कहा जाता है । कु लोगोँके मतसे 
यह योग लगनमेभी होता दहै ।॥ ११४॥ 
धटशन्ये नृपसचिवौ गोमहिषीहयगजैयक्तः । 
नीतिज्ञो बहुपुत्रो लग्नेऽपि च सम्मताः केचित्‌ ।। ११५॥ 
कुम्भ लगन को छोडकर अन्य किसी लम्नमे यह्‌ ( बिद्जिपृच्छ) योगहो 
तो वह्‌ व्यक्ति राजा का मत्री, गय-मैप, घोडा, हाथी से सम्पन्न, नीतिश्च, तथा 
बहुत पुत्रो वाला होताहै। एसा कुछलोगोंकामतदहै।॥ ११५॥ 


लालाटिक योग- 


चन्द्रोऽषटमे चन्द्रगेहेऽर्काङ्शुक्रखगाः स्थिताः । 
केमद्रुमे च सम्पूणं योगो लालाटिको मतः ॥ ११६॥ 


च्धमा लग्न से अष्टम भावमेंहो, ककं राशिमें सूर्यं, शनि गौर शुक्र स्थित 
हों तथा पूणं स्पते केमहुमयोगहोतो लालाटिक योग होता है ॥ ११६॥ 
। , लालाटिक योग का फल-- 
माजन्मतो भवति कारक्गेः प्रसिदठः 
शिल्पादिकमंकुशलो मुशलाकृतिश्च । 
भर्यात्मिजोऽपि लभते विविधामलक्ष्मीं 
जन्मान्तरेऽपि न जहाति ललाटियोगः ॥ ११७ ॥ 


लालाटिक योग में उत्पस्न व्यक्ति कारक ब्रहोंके द्वारा जन्मसे ही ्रसिद्ध, 
शिल्प (पत्वर, काष्ठ , एवं मूति कला ) काय मे दक्ष, मुक्षसल के समान 
लाहृति वाला ( पतला लम्बा तथा मध्यभाग अतीव कृद ) होता है । भविक 


२६२ मानस्षागरी 


कोय 


सन्तान होते हये भी विविध प्रकार की दरिद्रता जन्मान्तरमे भी उसका साभ 
नहीं धोडती ॥ ११७ ॥ 





महाप्रातक योग- | 
राहुणा सहितश्चष््रः सपापगुरवीक्षितः । 
महापातकयोगोऽयं यदि शक्रसमो भवेत्‌ ।॥ ११८ ॥ 
राह से युक्तं बन्द्रमा यदि पापयुक्त गुरुसे दुष्ट्होतो महापातक नामक 
योग होताहै। इन्द्रके समान व्यक्तिमी इसयोगमें पथिकमं करने वाला 
होता दहि ॥ ११८॥ 
वृषमसे घात योग- 
भौमेन, वीक्षते लग्नं लग्नं पश्यति भास्करः । | 
गुरुशुक्रौ न वीक्षते वलीवर्दन हन्यते ।। ११६ ॥ 
मंगल भौर सूर्यं लग्न को देखते हों तथा गुरु गौर शुक्र लग्न कोन देशतेहों 
तोबेलयारसाँडके प्रहारसे मृत्यु होती दहै ।॥ ११९॥ 
हठहन्ता ( आत्महश्या ) योग- 
भआयस्यानगते चन्द्रे चन्द्रस्थानगते रवौ । 
हेन नाशो विज्ञेयः पञ्चरात्रौ विष्छेषतः ॥ १२० ॥ 
एकदश भाव मे चन्द्रमा तथा चन्दरस्थार्न ( ककं राहि) मे सूर्यहोतो षंच 
रात्रि ( अर्थात्‌ पांच दिन) के अन्दर हठ वस्र मृत्यु होती है अर्थात्‌ स्वयं आह्म- 
हस्या करता है ॥ १२०॥। 
वक्ष से मृत्युयोग- 
मदनाखल्यो यदा योगो लग्ने च राहुद्शिते । 
वृक्षस्थं मरणं तस्य यदि शक्रसमो भवेत्‌ ।॥ १२१॥ 
यदि केवल राह लग्नको देखता होतो मदन नामक योगहोताहै। इस 
जोगमें इन्र के समान योग वले ्भ्यक्ति कीमभी मृत्यु वुक्षसे होतीहै। (वृक्षे 
निर कर अथवा वुक् से लटक कर आत्महत्या करता है । ) ।। १२१ ॥ 
नासाग्छेद योग- 
बहस्थानगते शुक्र तनुस्थानगते कुजे । 
नासच्छेदकरं योगं वदामि भूनिखत्तम ॥ १२२॥ 
१, "अमेन" के स्थान पर 'मौमोन" पाठान्तर है। जो संगत नहीं प्रतीत होता । 
वदि भीमोम पाठान्तर प्रहण करते तो गह मर्व होता है--मगल लग्नको 
न देश्चता हो षरण्तु शूयं देशता हो । 





"मनोरमा हिन्गीभ्यास्योर्पेता २६३ 





“ „ कियक्रान्न 


हे मुनि सत्तम रै नासिका छेदन करे वाला योग कहताहं। लग्नसे ष्ठे 
भावमें शुक्र जर लश्नस्थानमें मंगल हो तो उक्त योग होता है । १२२॥। 


कर्णछेद योग-- 
मन्देन दुस्यते चन्यरो लग्ने च रविभागंवौ । 
शुमग्रहा म पश्यन्ति कण्च्छेदो न संशयः ॥ १२३॥ 


अन्द्रमा को दानि देता हो, लग्नमेंसूयं गौर शुक्र हों तथा उनपर शुमग्रहों 
कीदृष्टिन हो तो निःसन्देह कणंेद होता है ॥ १२३॥ 


पादलसञ्ज ( लंगडा ) योग- 
कविना सहितो मन्दो गुरुणा सहितः रविः१ । 
शुभग्रहा न पश्यन्ति पादखञ्जो भवेन्नरः ॥ १२४॥ 
शुक के साथ शनि एवं गुरुके साथ सूयं पड हों तथा शुभग्रहोतसि दष्टनहोंवो 
मनुष्य वैर से खल्ज अर्थात्‌ र्लगड़ा होता है ।। १२४॥ 


सपद योग- 
लग्नाज्च सप्तमस्वने शन्यर्क राहुसंयुतौ । 
सपण पीड तस्योक्ता शय्यायां स्वपतोऽंप च ।। १२५॥ 


लग्न से सप्तम मावमे शनि, पूयं मौर राहु स्थित्टोतो विस्तर पर सोते 
हये भी सपं से पीडति होता है । अर्थात्‌ सोते हये सपेदंश होता ह ॥ १२५ ॥ 
व्याघ्र से धषातयोग- 
गुरुस्थानगते सौम्ये शनिस्थानगते कुजे । 
पञ्चविशतिवषषण च वने व्याघ्ण हन्यते ।। १२६॥ 
जिसके अन्म समयमे गुरुके स्थान (षनु गौर मीन) मे बुष तथाक्षनिके 
स्थान ( मकर, कुभ्म ) मे मंगल स्थित हो उसकी परज्चीस ववंकीञायुमेवनमें 
ध्पाघ्रहवारा मत्युहोतीहै।। १२६॥ 
असिषात योग-- 
शुङक्ृस्यानगते चष्टे बअन्द्रस्थानगते शनौ । 
अष्टाविंशति वषं च हासिघातेन मृत्युदः ॥ १२७ ॥ 
अन्हमा यदि शुक्र के शत्र ( वृष, तुला) मे हो तथा चन्द्रस्थान (करक) 
शनि हौ तो भटादसर्ये ववं मे असि ( तलवार) के आघात से मृत्यु होती है ॥१२७॥ 





१. कविः इति पाठान्तरम्‌ । 


-२६४ ` मानसाभरी 





रारघात योग~~ 
धर्मस्यानगते भौमे शन्यर्कौ राहृसंयुतौ । 
शुभग्रहा न पश्यन्ति शरक्षेपेण हन्यते ॥ १२८ ॥ 
नवम भावमें मंगल हो, शनि भौर सुर्यं राहु से युक्त हों तथा उनपर शुभब्रहों 
कीदृष्टिनहोतोभाणके जाघात से मृष्यु होती है । १२८॥। 


ब्रह्महत्या योग-- 
रविणा सहितो भौमः शनिर्वा जीवसंयुत। । 
अष्टाविशतिवषं व ब्रह्मघातो न सं्यः। १२९॥ 


सूयं के साथ मङ्गल अथवा ब्रहस्पति के साथ शनि जिसके जन्म समयमेहो 
बह २८ वषै कीञायुमेंब्राह्मणकी हत्या करता है, इसमें सन्देह नहीं ।। १२९ ॥ 
सन्तानहानि योग- 
रविस्थानगते चन्द्रे गुरः स्वस्थानगो यदा । 
सागरे च स्थिते लम्ने पञ्चापत्यविनाश्चक्त्‌ ।। १३० ॥ 
सूयं के स्थान ( सिह ) में चन्द्रमा, गुड अपने स्थान (चनु भौर मीन) में 
स्थितहों तथा लग्न सागर योगसे युक्त शो तो पाँच सन्तान नष्ट होती 
है ।। १३०॥ 
दोला योग- 
मीने मेषे तथा चापे स्थिताः स्थानत्रये ग्रहाः । 
दोलासंज्ञकयोगः स्याद्राज्यदोऽयमुदाहूतः ॥ १३१ ॥ 
मीन, मेष मौर धनु इन्हीं तीन स्थानों ( रायो) में समस्त श्रहहोतो 
दोला नामक योग होता है। यह योग राज्य सुख प्रदान करने वाला कहा 
गया है । १३१॥ 
केन्द्रस्य गुर का फल-~ 
सन्मानदानगुणपात्रपरोक्षितो वा कलानिधि, कौशलगीतैनृष्यः 1 
मश्वोश्वरो राजसभाविवेकी केन्द्रस्थिते पापविवजिते गुरौ ।१३२॥ 
पाप ब्रह से रहित ब्रहस्पति यदिकेनरस्थानमें होतो बहु व्यक्ति सम्मानित, 
गुणवान, धूपररीलित, कलायो का मर्म, वेल-कूद, गीत ओर नृत्य का ज्ञाता, 
शष्ठ मन्त्री तथा राजसमा का पर्णं ज्ञान रखने वाला होता है । १३२ ॥ 
| पदविष्छेद योम , । 
सम्नस्वानगतो भौमो राहुशष्यर्कवौकषितः। ` ˆ ` 
योगः पदकविश्छेदो यदि शक्रसमो भवेत्‌ ॥ १३६ ॥ ` 


"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योपेता २६१५ 


लग्न स्यान मँ स्विति मंगल को राहु, शति मौर धुर्यं देशत हो तो पदक 
विच्छेद योग होता है । इस थोग में इन््रतुल्य व्यक्ति भी पश्ये श्युत हो गाता 
ट ॥ १३१३॥ 





इञ्छित मृत्यु योग-- 
केष्परस्थागगते भौमे संहिकेये च सप्तमे । 
यदि तस्य विजानोयादिश्छामस्थुस्तदा भवेत्‌ ।॥ १३४ ॥ 
केन्र स्थान में मंगल, सप्तम भाव्म राहूृहो तौ अपनी इच्छासे मरनेका 
योग समक्षना चाहिये । अर्यात्‌ योजनावदध बआत्महव्या का योग होता ह ।॥ १३४ ॥ 


वर्षन्ति मे मृत्यु योग 
लम्नाहपप्तमशीताशुः पापष्टशुमलग्नगः । 
लम्नस्थितो यदा भानुः समान्ते ज्यते शिदयुः ।। १२५॥ 
लग्न से सप्तम भावमें चन्द्रमा हो, पापग्रह अष्टम मे; शुभग्रह लव्नमें 
तथा श्यं भी लग्नमेंहो तौ वषं के अन्त में बालक की मृत्यु होती £ै। मर्थात्‌ एक 
वषं कीही जायु होती है।॥ १३५॥ 


गाजयोग-- 
लग्ने लगनपति्बंलान्वितवपुः केन्द्रे त्रिकोणे शिवं 
पृष्छाजन्मविवाहयानतिलके कृर्यान्नुपं तं धुवम्‌ । 

सच्छीलं विभवान्वितं गजयुतं मुक्तातपत्रान्वितं 
जातं निम्नकुलेऽपि भूतिपुरुषं शंसन्ति गर्गादियः ।१२३६॥ 
प्रहन लग्न, विवाह, यात्रा एवं वरवरण अथवा राज्याभिषेक लग्न का स्वामी 
बलवान होकर लग्न, केन्द्र अथवा त्रिकोणमें स्थित होतौ निश्चय ही राज्य पद 
देने बाला शुम योग होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति सुशील, सम्पन्न, हाबी; 
मुक्ता ( रत्न ), त्र से युक्त होता है। यदि नीच कुल मे उत्पन्न होतोभी 
सम्पत्तिशाली पुरुष होता है । गर्गादि मुनियों ने इस योग की प्रशंसा की है ।१३६। 


` एकः शुक्रो जननसमये लाभभसस्थे च केन्द्र 
जातो वै अन्मराशौ यदि सहजगते प्राप्यते वा त्रिकोणे । 
विद्ाविन्ञानयुक्तो भवति नरपतिविष्वविख्यातकीति- 
दनी मानी च शरो हयगणसहितः सद्गजैः सेव्यमानः ॥१३७॥ 
भकेला शुक्र ही अस्म समयमे यदि लाभ भाव, केन्द्र, अन्म राशि ( बमा 
के साव) ततीय भाव, अथवा त्रिकोणमे स्थित हो तो जातक विद्वा, विज्ञाने 
युक्त, राजा, विश्वविख्यात, यशस्वी, दानी, स्वाभिमानी, शूर, षोडशो के समूह एवं 
हाथियों के धुल से सम्पन्न होता है ॥ १३७ ॥ 


२६६ मानपागरी 





दशमभवननाथे केकोणे धनस्थे 
ऽवनिपतिबलयाने शस्तसिहासनेषु । 
स॒ भवति नरनाथो विश्वविख्यातकीत्ति- 
मंदगलितकपोलेः सद्ग सेव्यमानः ।। १३८ ॥ 
ददाम भाव का स्वामी केन्छ स्थानो मे+क्रिकोण मे अथवा हितीय भावमेहो 
तौ जातक पृथ्वीपति ( राजा), सेना, वाहन तथा प्रहस्त सहासन से सुशोभित, 
विश्वविख्यात, यशस्वी तथा मदल्राव करने वलि उत्तम हाथियोंते सेवित होता 
है । १३८ ॥ 
एकोऽपि कैन्द्रमवने नवपञ्चमे वा भास्वान्‌ मयूखविमलीकृतदिग्बिभागः। 
नि.शेषदोषमपहूस्य शुभसुप्रतं दोर्घायुषं विगतरोगमयं करोति ।१३९॥ 
जन्म समय में एक मी शुभग्रह अमनी तेजस्वी किरणों वारा समस्त दिक्चागों 
को विमल ( प्रकाशमान) कर रहा हो ( अर्थात्‌ पणणं बलीहो) तथा केन (१, 
४, ७, १० ) अथवा त्रिकोण (५, € ) मे स्थितहो तो समस्त दोषों कोहर कर 
कर जातकं को दीर्घयु जौर नीरोग बनाता है ।। १३६ ॥ 


चन्द्रः प्ये्यदादित्यं बुधः पश्येक्षिद्ापतिम्‌ । 
बस्मिन्‌ योगे तु यो जातः स भवेद्रसुधाधिपः। १४० ॥ 
यदि चन्द्रमा सूयं को देता हो तथा बुध चन्द्रमा को देश्षताहो तो इस योग 
मे उत्पन्न व्यक्ति राजा होता है ।। १४० ॥ 


यदि भवति च केन्द्र यामिनीनाथ एवं 
वितरति ग्रियमार्यां पुत्रिणीं वा सुखूपाम्‌ 1 
धनकनक्समृद्धि माणिक हौररत्नं 
स्वयति भृगनाभिष्यन्दमोदाचिताङ्गाम्‌ ॥ १४१ ॥ 
यदि चन्द्रमा केन््रस्यानमेहो तौ वह प्रिय, पुत्र सन्तान उत्पन्न करमे वाशी 
बुस्दरी वत्नी प्रदान करता है । धन, स्वणं, सम्पत्ति, माणिक, हीरा, धारण करमे 
बाला तथा मृग की नाभिसे प्राप्त कस्तुरी का सेवन करे वासा होता ह।१४१। 
शुक्तो यस्य बुधो यस्य यस्य केन्द्रे बृहस्पतिः । 
द्चमोऽङ्गारको यस्य स जातः कुलदीपकः ॥ १४२ ॥ 
जिसके जन्म समय मे बुष, शुक्र भौर ब्दस्पति के्में हों तवा मंबल दशम 
भावे स्थितो वह अपने कुल का दीपक (श्रेष्ठ) होता है।॥ १४२ ॥ 
हयरथनरनागारामसम्यक्फलेशो 
जलधितटनिवाीरल्लतुल्यं च धान्यम्‌ । 


'मनोरमा' हिन्दीग्यास्योपेता २६७ 





वहुजनकुलमित्रैः सत्यवादी प्रसुतो 
भवति यदि च केन्द्री द॑त्यपुज्यो बुष ।। १४२३ ॥ 
जन्म समय मे यदि शुक्र अथवा बुध केनदस्यनमे स्थितो तो षोडा, रथ, 
मनुष्य, हाथी, उद्यान भौर र्नो से परिपूर्णं, समुद्र के निकट निवास करने वाला, 
धान्य ( अन्न ) के समान रत्नों का सञ्चय करने वाला, बहूत से लोगों कामभित्र 
तथा सत्यवक्ता होता है ।। १४२३ ॥ 
कि कुर्वन्ति ग्रहाः स्वं यस्य केन्द्रे बहस्पतिः । 
मत्तमातङ्गयुथानां भिनतत्येकोऽपि केसरी ॥ १४४ ॥ 
जिसके केन्द्र स्थान में ब्रहस्पति पडा हो उसका भन्य ग्रह क्या करेगे ? (मर्थात्‌ 
कुष नहीं कर सक्ते । ) जसे उन्मत्त हाथियों केभ्ुण्डको एक ही शेर छिल्न-मिन्न 
करता है। उसी प्रकार अकेला एक ब्रहस्पति ही योगकारक हो जातादहै॥ १४४॥ 
एक एव सुरराजपु गोषाः केन्दरगोऽथ नवप्छमगो वा 
लाभगो भवति यत्र विलग्ने तत्र शेषखचररबलैः किम्‌ ॥ १४५॥ 
अकेले एक ही प्रह बृहस्पति केन्द्र, तिकोण (६, ५), लाम ( एकादा) 
अववा लग्नमेहो तो अन्य प्रहोंके निर्बल होने का कोई प्रभाव नहीं पडता। 
भकेते बृहस्पति ही सुख कारक रहेगा ॥ १४५ ॥ 
भवति सरलमृत्तिवल्लमः कामिनीनां 
, सकलजनसमर्थो दीर्षजन्माविधेयः । 
गजविषयगुणजो द्रव्यमूख्यः प्रधानः 
सधनकनकं पूर्णो दंत्यपो यस्य केन्द्रे ॥ १४६ ।, 
जिसके जन्म समय मे शुक केन््रस्थानमें हो वह अत्यन्त सरल स्वभाव वालाः 
स्त्रियो का प्रिय, समस्त लोगों मे समथं ( सक्षम ), दीर्घायु, विनज्र, यजशास््र 
( हाथियों के विषय ) एवं उसके गुणोंका ज्ञाता, धनको प्रधानता देने बाला, 
प्रथान ( सामान्य लोगों में शेष्ठ ), षन गौर स्वणं से सम्पन्न होता है ॥ १४६ ॥ 


धनवान्‌ प्राज्ञः क्रो मन्त्री वा दण्डनायकः पुरुषः । 
द्ामस्थे र्वितनये वबुन्दपुरग्रामनेता वा १४७ ॥ 
दशम भावम यदिशनिबेडाहो तो व्यक्ति धनवान्‌, बुद्धिमान्‌, सूर, मल््री, 
दष्डदेने बाला अधिकारो, तथा किसी सामाजिक संगठन या प्राम का नेता (प्रधान) 
होता है ॥ १४७ ॥ 
शला शोदष्डमीनस्यो लग्नस्थोऽपि शनंश्नरः । 
करोति शूपते्॑न्म वंसो ज नुपतिरभषेत्‌ ॥ १४८ ॥ 


२६८ भानसागरी 





जिसके अन्म समय मे शनि तुला, बन, मीन अथवा लग्ने स्थितहों वह 
राजा होता है । अवा राथकूुल मे उल्पन्न होता है ।। १४८ ॥ 


दिष्यस्त्रीवरकाश्वनाम्बरगतामाधारलवमीमयः 

दास्वरं कौतुकगोतनृत्यरतताब्यापारदीक्षागुः । 
पुत्रभ्रातृजनान्वितः स्थिरमतिः कर्तातिप्रीत्यन्वितो 

जीवः केन्द्रगतो मवेक्निजसुखी सत्क्मंकारी नरः ॥ १४९ ॥ 


जन्म समय में ब्रहस्पति यदि केन्द्र स्थान मे स्थित हों तो वह्‌ दिष्य ( अत्यन्त 
सुन्दरी ) स्त्री, स्वर्णं, गौर वस्त्रके आधार से लक्ष्मी के समान अर्थात्‌ अस्यधिक 
सम्पन्न ), शास्त्रों का ज्ञाता, खेलकुद, गीत-नृष्य मे आसक्त, व्यापार सम्बन्वी 
उपदेश देने वाला, धेष्ठ, पुत्र, माई, आदि पारिवारिक जनों से स्थिर बुद्धिवाला, 
कायं करने वाला, सभी लोगोंसे प्रेम करने वाला, स्वयं मे सुश्षी, तथा सत्कमं 
करने वाला पुरुष होता है ॥ १४६ ॥ 
भाकाश्चमन्दिरगतस्तनुपः स्वगेहे कूर्यान्नृपं नृपतिचक्रवरंः सुपेष्यम्‌ । 
कन्यप्रतापदहनाहतश्चतरुपक्षं शक्रो यथा सुरगणंश्च विराजमानः ॥१५०॥ 

जन्म समयमे लग्ने ददाम भावमें अपनीही राशषिमेंहोतो जातक राजा्ओं 
से सेवित शष्ठ राजा, अपनी सेना्बों की प्रताप ष्पी अग्निते शत्रु पक्षको नष्ट 
करने वाला, देवताओं से सेवित इन्द्र के समान होता है ॥ १५० ॥ 


` उपचयगृहसंस्थो जन्मिनो यतस्य चन्द्रः 
स्वगृहमथ नवांश केन्द्रजाताश्च सौम्याः । 
सकलवबलवियुक्ताश्वेव पापार्भिधानाः 
स॒ भवति नरनाथः शक्रलुल्यो बलेन्‌ ॥ १५१ ॥ 
जिसके जन्म समय मे चन्द्रमा उपचय स्थानों (३, ६, १०,११) मे स्थित 
हो तथा शुभग्रह अपनी राशि अथवा नवांशमे होकर केन मे स्थित हो 
तथा समी पापग्रह निर्बलहीं तो वह व्यक्ति इन्द्रे के समान प्रतापी राजा 
होता है ।॥ १५१॥ 
विच्याकलागुणविराजितकामधेनुर्मोगिः परोज्युवतीजितकामराजः । 
 देक्षाधिपत्यपुरपयंटनभमार्तो मीने सिते सकलमण्डलदीपतवीक्षः ।। १५२ ।। 
शुक्र यदि मीनराधि म स्थित होकर केम गया हो तो जातक विदा, कला, 
शणो से युक्त हकर कामधेनु की तरह ( सभी प्रकार) की इच्छामो की पूतिमें 
समवे ), भोम ( आनन्द बिहार) हारा पराई उश्व कुलं की स्तर्यो को वशीभूत 
करने वाला कामदेवके समान होता! देव के प्रशासनिकभार तथा नगर 


"मनौरमाः हिम्दीष्यास्योपेता २६६ 





दन के श्वम से थका हुमा तथा समस्त नगरासिर्यो को अपने प्रश्लर विचारोंवे 
दीप्त ( प्रकाशित ) करने वाला होता है।॥ १५२॥ . 
काऽमेजकन्ये रिपुरन्ध्रसंस्थे केन्द्रत्रिकोणे भ्ययगे च राहुः । 
कामी च शुरो बलवान्‌ स भोगी गजाश्वदछत्रं वहूुपुत्रता चं ॥१५२॥। 
समस्त भावमें मेष भौर कन्याराशिदहो तथा धटे, आर्ठर्वे, केन्द्र, त्रिकोण 
अथवा व्यय भावमें रहृहोतो जातक कामी, शूर, बलवान्‌ शु भोग करने 
वाला हाथी, थोडा, छत्र से युक्त तथा अधिक सन्तान वाला होता है।॥ १५३॥ 
मृगपतिवृषकन्या-ककटस्थे च राहौ 
मवति विपुललक्ष्मी राजराजाधिपो वा । 
हथगजनरनौकामेदिनोपण्डित्च 
स भर्वति कुलदोपो राहूतुङ्गी नराणाम्‌ ।। १५४ ॥ 
जिसके जन्म समयमे राहु सिह, वृष, कन्या ओर ककं राशिमे होतो 
अपार धन-सम्परत्ति से युक्त राजाभों का भी राजा होता है। यदि राहु 
अपनी उश्च राहि ( मिथन )मेहोतो व्ह घोडा, हाथी, मनुष्य, नौका, तथा 
मूमि का विशेषश्च एवं अपने कुल मे श्रेष्ठ होता है ।॥ १५४ ॥ 


केन्द्रत्रिकोणे बुधजीवशुक्ाः स्थिता नराणां यदि जन्मकाले । 
धर्माथंविद्यायदश्छकोतिलामी शान्तः पुशोलः स नराधिपःस्यात्‌ ॥१५५॥ 
जन्म समयमे यदि बुघ, गुरु गौर शुक्र केन्र भौरत्रिकोणमें स्थितहोंतो 
धमं, अर्थं ( धन ), विद्वा, यश-कीति ( जीवितावस्था में यश्च पत्यु के बाद कीति) 
से लामान्वित, शान्त, सुशील, तथा राजा होता है । १५५॥ 
भगुसुतसुरपुज्यश्चन्द्रमाः केन्द्रवर्ती 
बहुसुखथनवुद्धिः कमं साध्यं नराणाम्‌ । 
रवि सुतच्चथिपुत्रे भानुजीवे त्रिकोणे 
क्षितिसुतदशमे वं राजयोगा भवन्ति ॥ १५६ ॥ 
` शुक, बृहस्पति, चन्द्रमा यदिक्न््रमेहो तो मनुष्य के सुख, एवं घन की वुदि 
तथा कार्यो की सिद्धिह्ोतीदहै। यदि शनि, बुष, सूयं ओर गुरु त्रिकोण मे तथा 
मंगल दशम भावमेहों तो राजयोग होता दहै ।॥ १५६॥ 
केन््न्निकोणेषु मवन्ति सौम्या दुश्चिक्यलाभारिगताश्च .पापाः । 
यस्य प्रयणेऽप्यथ जन्मकाले धुवं भवेसस्य महीपतित्वम्‌ ।॥ १५७ ॥ 
ज्म समय मे यदि केन्र ओर भिकोणमे सभी शुभग्रह हो, तृतीय, एकादश? 


२७५ मानसागरी 


ष्ठ भारवोमें पापम्रहग्येहोंतो निषुवयही उसे राञ्यकीप्राप्ति होती है। 
यात्रा कालम यदि यहीयोषहोतोयत्रामे भी राज्य लाभ होता हि। १५७॥ 


लाभ त्रिकोणे यदि शीतरषिमिः करोत्यवश्यं क्ितिपालतुल्यम्‌ । 
कुलद्यानन्दकरे नरेष्द्र ज्योत्स्नेव दीपस्य तमोऽपह्त्रौ ।॥ १५८ ॥, 
अनमा यदि एकाददाभावमे या त्रिकोणमें स्थित हो तो जातक भवक्य राजा 
के समान होतादहै। तथा वह दोनों कुल ( मातु एवं पितृकूल ) को आनन्दित 
करने वाला ( दारिद्र रूपी ) अन्धकार को दूर करने वाले दीपक की तरह राजा 
शोता है ॥ १५८ ॥ 
शतरस्थाने यदा जीवो लाभस्थाने शशी भवेत्‌ । 
गृहमध्ये स॒ जातश्च विख्यातः कुलदीपकः ।॥ १५६ ॥ 
छठे भाव मे गुर, एकादश मे चन्द्रमा हों तो वह्‌ अपने गृह मे सर्वेश्ेष्ठ तथा 
कुलका मान बढ़ाने वाला होता है।। १५६॥ 
लम्नाभिपो वा जीवो वा शुक्रो वा यत्र केन्द्रगः । 
तस्य पुंसश्च दीर्घायुः स॒ भवेद्राजवल्लभः ॥ १६० ॥ 
लम्नेश, ब्रहस्पति ओर शुक्र इनमे से कोई भी ग्रहक््धमे स्थितहोतो बह 
ग्यक्ति दीर्घायु तथा राजा का प्रियपात्र होता है ॥ १६० ॥ 
दशमे बुधसूर्यो च मौमराहू ष षठगौ। 
राजयोगोऽत्र यो जातः स पुमाल्रायको भवेत्‌ ।॥ १६१ ॥ 
दशम माव में बुध ओर सूर्य, षष्ठ भावमें मंगल भौर राहू रिथतर्होतो 
राजयोम होता है । तथा इस योग में उत्पन्न पुरुष नायक ( राजा या राजनेता) 
होता है ॥ १६१२ ॥ 
जादौ जीवं शनिश्वान्ते ग्रहां मध्ये निरतस्य । 
राजयोगं - विजानीयात्कुटुम्बबलमु्तमम्‌ ।। १६२ ॥ 
जादि ( लग्न ) स्थान में बृहस्पति, अन्त्य ( बारह ) मावमें शनि हों तथा 
दोनो के मध्यमे सनी ग्रहों तो कुट्म्बका सामर्थ्यं बढ़ते बाला राजयोग 
डोता है ॥ १६२ ॥ 
सहजस्थो यदा जीवी मृत्युस्यानेयदा सितः । 
निरु्रं ब्रहम मध्यै शजं भवति निशितम्‌ । १६३ ॥ 
तृतीय भाव बृहस्पति भौर अष्टम मावमें शुक्र स्थितं तथा इन दोनो 
के बीम अभ्य सभी ब्रह ती जातक अवश्य राजा होता है॥ १६३॥ 





"ममौरमा' हिन्दीभ्याड्योपेता २७१ 


जीवो धुव भुधारल्मि्मिधुने भकरे 
सहि भवति सौरिश्च कन्यायां वुषभास्करौं ॥ १६४॥ 
तुलायामसुराचार्यो राजयोगो मनेदयम 
शत्र योगे समूत्पक्नो महाराजो भवेन्नरः ॥ १६५॥ 
वृष मे बृहस्पति, मिथुन मे चन्द्रमा, मकर में मंगल, सिह मे सनि, कन्यामें 
सूर्यं गौर बुष तथा बुला मे शुक्र स्थित हों तो यह राजयोग होता ै। इस योग 
मे उत्पन्न ध्यक्ति महाराजा होता है ॥ १६४-१६५॥ 


एको जीवो यदा लग्ने सर्वे योगास्तदा शुभाः । 
दीर्घजीवी महाप्राज्ञो जातको नायको भवेत्‌ । १६६ ॥ 
अकेले ब्रहस्पति ही पदि लग्न मेंस्थित हो तौ सभी योग शुभकारक हो 
जाते ह । तथा जातक दीर्घजीवी, महान्‌ बुद्धिमान्‌ तया नायक ( नेता ) होता 
है ।॥ १६६॥ 
धने शुक्रोऽव भौमश्च मीने जीवस्तुले बुधः । 
नीचस्थौ शेनिचन्द्रौ च रालयोगस्तदा ध्रुवम्‌ । १६७ ॥ 
धन भावमे शुक गौर मंगल, मीनमे ब्हुस्५ति, हुला में बुष तथा चनमा 
ओर अपनी नीच राशियोंमे स्थित हो तो निशित राजयोग होता ह॥ १६७॥ 


स्मिन्‌ योगेचयो जातः स राजां धनवजितः। 
दाता भोक्ता च विख्यातो मान्यो भण्डलनायकः ॥ १६८ ॥ 


इस ( उक्त १६७ इलोक मे वभित ) योग में उत्पन्न ग्यक्ति वनहीन, रबा, 
दानी, भुखभोग करने वाला, विख्यात, सम्मानित तथा मण्डल ( क्षेत्र विकेष ) का 
नेवा होता है । १६८ ॥ 
मीने शुको बुषश्रान्ते घने राहुस्तनौ रविः । 
सहजे च भवेद्धौमो राजयोगोऽमिघीयते ।॥ १६६ ॥ 
मीन मे शुक्र, द्वादश भावम बुघ, द्वितीय भावम राहु, लग्न में सूर्यंतथा 
तृतीय भावमे मंगलदहो तो राजयोग होता है ॥ १६६ ॥ 


षहजे च यदा जीवो लाभस्थाने व चन्द्रमाः । 
सं राजा गृहमध्यस्थो विख्यातः कुलदीपकः ॥ १७० ॥ 
जिसके जन्म समयमे लग्न से तीसरे माव में बृहस्पति एकादल् भाषमें 


जनमा स्थित हं, बह अपने गृहमे राजाके समान तथा अपने कुल का भेष्ठ 
ग्यक्ति होता है ।। १७० ॥ 





२७२ भानसाभरी 


शुभग्रहः शुभलेत्रे भवन्ति यदि केल्द्रगाः। 
तदा शुभानि कर्माणि सं करोति हि जातकः ॥ १७१.॥ 
` शुभग्रह शुभ स्थानों (शुभ ग्रह की राधिर्यो) में हौं तथा केन्र स्थानो में स्थित 
होतो जातकशुम क्मोंकोहीकेवाला होता है ॥ १७१५ 
उश्वस्थानगताः सौम्याः केन्द्रस्थाने भवन्ति चेत्‌ । 
ध्रवं राज्यं भवेत्तस्य यदि नीचसुतो भवेत्‌ ॥ १७२ ॥ 
शुभ प्रह यदि अपनी-गपनी उच्वराशियों मे स्थित होकर केम हों तो नीष 
कल मे उक्पन्न व्यक्ति भी अवश्य राजा होता है ॥ १७२ ॥ 
स्वक्षेत्रस्थो यदा जोवो बुधः सौरिश्च चेद्भवेत्‌ । 
तस्य जातस्य दीर्घायुः सम्पत्तिश्च पदे पदे ।॥ १७३ ॥ 
यदि बृहस्पति, बुष, शुक्र ओौर शनि अपनी-अपनी रादियोंमे स्थिति हतौ 
जातक दीर्घायु तथा पग-पग पर धन-लाभ करने वाला होता है ॥ १७३ ॥ 
मीने बृहस्पतिः शुकृश्वन््रमाश्च यदा भवेत्‌ । 


तस्य जातस्य राज्यं स्यात्पत्नी च बहूपुत्रिणी ।॥ १७४ ॥ 
मीन राशि में यदिनब्रृहृस्पति, शुक्र भौर चन्द्रमा होतो जातकं राजा होता 


ओौर उसकी पल्नी बहुत पुत्रों को जन्म देने वाली होती है ॥ १७४ ॥ 
| पश्चमस्थो यदा जीवो दश्षमस्यश्च चन्द्रमाः । 
स राज्यवान्‌ महाबुद्धिस्तपस्वौ च जितेन्द्रियः ॥ १७५ ॥ 
प्म भाव मे बृहस्पति, दशम भाव में चन्द्रमा, जिसके जन्म समयमेहों 
बहु राज्य से युक्त, महान्‌ बुद्धिमान्‌, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय होता है ।॥ १७५ ॥ 
सहि जीवस्तुलाकीटचापेषु मकरेऽपि च। 
ग्रहा यदा तदा जातो देशभमोगी भवेन्नरः ॥ १७६ ॥ 
सिह में ब्रहस्पति तथा अन्य सभी ग्रह दुला, ककं, धनु भौर मकर राधियोंमें 
स्थित हों तो इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति देश कं उपमो करने वाला अर्थात्‌ देश 
का उंश्वाधिकारी होता है ॥ १७६ ॥ 
तुलाकोदण्डमीनस्यो लग्नसंस्थोऽपि चेच्छनिः। 
करोति भपते्जन्म महापुण्यानुभावतः ।। १७७ ॥ 
यदि शनि दुला, धनु, मीन अथवा लग्नमं स्थित होतो इस योगम महान्‌ 
पुष्य के प्रभावे राजा का जन्म होवा है॥ १७७॥ 
विद्छास्याने यदा सौम्यः कमंस्याने च चन्रमा । 
धर्मस्थाने यदा सौम्या शजयोगस्तदा ` भवेत्‌ ॥ १७० ॥ 





"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपिता २७३ 





विद्या स्थान ( पञ्वम भाव) में बुष, कर्म ( दम ) स्थानम चन्द्रमा तथा 
नवम भाव मे शुमन्रह स्थित हों तो राजयोग होता है । १७८ ॥ 
मकरे च घटे मीने वृषे मिधुनमेषगोः। 
ग्रहास्तदा च विश्यातो राजा भवति मानवः ॥ १७६ ।। 
यदि जन्म समयमे समी ग्रह मकर, कुम्भ, मीन, वृष, मिथुन, मौर मेष 
राक्शियौमेहोंतो वह व्यक्ति प्रसिद्ध राजा होता ।। १७६॥ 
बुधमार्गवजोवाक्रियुक्तो राहुश्चतुष्ये । 
कुरते कमलारोग्यपुत्रमानादिक फलम्‌ ॥ १८० ॥ 
यदि बुघ, शुक्र, ब्रहस्पति भौर गनिसे युक्त राहुकेन्द्र स्थानम होतो वह्‌ 
कमला ( षन ), आरोग्य, पुत्र, सम्मान, आदि फलदेने वाला होता है ।। १८० ॥ 
चतुर्थंमवने शुक्रो गुरुचन्द्रधगसूताः। 
रविसौरियुतास्सन्ति राजा मवति निश्चितम्‌ ॥ १८१॥ 
चतुथं भाव में शुक्र, गुरु, चन्द्र, मंगल, सूयं ओर शनि एक साथ स्थितहौंतो 
जातकं निहिचितसकू्पमे गजा होता है १८१॥ 
बष्टमे च व्यये क्गरो मध्ये च क्रूरसौम्यकौ । 
राजयोगास््रयो जाता महामूपो भविष्ति । १८२ ॥ 
मष्टम भावमे भौर द्वादश मावमेक्रग ग्रहों, तथा दोनोंके मध्यमे (नवम 
से एकादश पर्यन्त ) कूर ओ“ शुमग्रह दोनोंहों तो तीनों स्थितियोँंमे तीन राज 
योग बनते हैँ । इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति महान राजादीनाहै। [ यहाँ ^मघ्य 
शब्द का अथं कुछ विद्धानो ने दशम माव लियाहै मध्यलगनटोनेके कारण] ॥१८२॥ 
लगने सौरिस्तथा चनद्रस्वरिकोणे जीवभास्करौ । 
कमंस्थाने भवेद्धौमो राजयोगोऽभिधीयते ॥ १८३ ॥ 
लग्न में श्नि तथा चन्द्रमा, त्रिकोणे बृहस्पति ओर सूर्य, तथा दक्शम मावमें 
मंगल स्थित हो तो राजयोग होता है ।। १८३ ॥ 
नवमे च यदा सूर्य॑ः स्वगृहस्थो भवेतदा । 
तस्य जीवात नो भ्राता स्या श्कोऽपि नृपः समः ।। १८४॥।। 
जिसके जन्म समयम नवम भाव मे अपने धर ( सिह राशि ) कासूर्यंहोतो 
उसका माई जीवित नहीं रहता यदि कोई जीवित रहजाय तो वहु राजाके 
समान होता है । १८४ ॥ 
द्ित्रितुये भते षष्ठे कर्मण्यपि यदा ग्रहाः । 
राजयोगं विजानीयाज्जातस्तत्र नृपो भवेत्‌ ।॥ १८५ ॥ 
१८ मा० सार 


२७४ मानसाशरी 


-------------~---~--------------------------------- ~ ----------~----------- ककम 





ति 


जश्म लग्न से दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवे, छट तथा दशवे माव में यदि समस्त 
ब्रहहों तो हसे राजयोग समन्षना बाहिये। इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति राजा 
होता है ॥ १५५ ।। 
लग्ने क्रो व्यये सौम्यो धने ङगूर्च जायते । 
शजयोगेन राजा च भूपति्भवति स्फुटम्‌ ॥ १८६ ॥ 
लग्न में क्रूरग्रह बारहवें भावमें शुमग्रह तथा धनस्थानमें क्रूर प्रह स्थित 
हों तो इस राजयोग से जातक राज। तथा भूमि का मधिपति होताहै ॥ १८६॥ 


लग्ने ञूरो व्यये क्रूरो घने सौम्यो यदा भवेत्‌ । 
सप्तमे भवति क्रूरः परिवारक्षयद्कुशः ॥ १८७ ॥ 
लग्न भौर व्यय ( बारह ) भावमें क्रूरग्रह, धन भाव में शुभग्रह, तथा सप्तम 
भावमेंक्रुरग्रहहोंतो परिवारको नष्टकरने वाला योग होता है ॥ १८७॥ 


धने चन्द्रश्च सौम्यश्च मेषे जीवो यदा भवेत्‌ । 
दश्षमे राहशुक्ौ च राजयोगोऽभिघीयति ।। १८८ ॥ 
धन भावम चन्द्रमा भौर बुध, मेष मे ब्रहस्पति, दशम-माव में राहू ओर शुक्र 
ह्य तो राजयोग होता है।॥ १८८ ॥ 
हे जीवोऽ्य कन्यायां भागंवो मिथुने शनिः । 
स्वक्षेत्र हिबुके भौमः स धुमाग्नायको भवेत्‌ ॥ १८६ ॥ 
सिह रारि में बृःस्पति, कन्या में शुक्र, मिथुनमे शनि, तथा चतुर्थं मावमें 
अपनी राशि ( मेष, वुदिचक ) में मंगलहो तो वद व्यक्ति नायक (किसी वेका 
नेता, या अधिकारी होता है।। १८६ ॥ 


शनिचन्द्रौ च कन्यायां सिंहे जीवो घटे तमः । 
मकरे च कुजस्तत्र जातः स्याद्विश्वपालकः ।। १६० ॥ 
शनि गौर चन्द्रमा कन्या राशिमे, तिह राशिमे बृहस्पति, कुम्म मं राहू तथा 
मकर राशिमेंमंगलहोतौ इक्ष योग मं उत्पन्न व्यक्ति विदव पालक ( महान नेता 
अथवा महान्‌ परोपकारी ) होता है।। १६०॥ 
शुक्रो जीवो रविर्मोमिश्चापे मकरकुम्भयोः। 
मीने च वत्सरे विद्यो समथः सवंकमंसु ॥ १६१॥ 
जिसके जन्म समयमे शुक्र, गुर, सूर्ये, मंगल (क्रमसे) धनु, मकर, कुम्भ 
भीर मीन राश्शियोंमं स्थितिहों तो वह व्यक्ति तीस वर्ष कीञआयुमं ही सभी 
प्रकारके कायम ममर्थहो जाता है।। १६९१॥ 


"मनोरमा" हिन्दीय्याख्योपेता २७५ 





कर्कलग्ने जीवयुक्ते लाभे चन्द्रजभागवौ। 
मेषे भानुश्च जातो यो योगेऽस्मिष्नृपतिर्भवेत्‌ ।। १६२ ॥ 
कर्क लगनमें जन्महो तथा लग्न (ककं) मं ही ब्रहस्पति बैठाहो, लाम 
( ग्यारहरवे ) भावम बुष ओर शुक्र हों, मेष ( अर्थात्‌ दशम भाव) मेंसूर्यहोतो 
हस योग मे मनुष्य राजा होतादहै।॥ १६२॥ 
कर्मंव्याने यदा जोवो बुधः शुक्रस्तथा श्यौ । 
सर्वंकर्माणि सिद्धधन्ति राजमाभ्यो भवेन्नः ।। १६३ ॥ 


दाम भावमे बृहस्पति, बुध, शुक्र, तथा चन््रमाहोंतोरेसेयोग मे मनुष्य 
सभी का्योँको सिद्ध करने वाला तथा राजाद्वारा सम्मानित होता है। १६३॥ 
वष्टेऽटमे पञ्चमे वा नवमे द्वादद्यं तथा। 
सौम्यक्ररग्रहैयगि राजमान्यो न संचयः ।॥ १६४॥ 
छठे, आवे, पांचवें, नवर्वे, तथा बारहवे भावम यदि शुम भौर पाप ग्रह 
(सभी) विद्यमानहोँनो वह्‌ राजासे सम्मानित होता है, इसमे सन्देह नहीं ।१९४॥ 
पन्छमे च यदा षष्ठे चाष्टमे नवमे क्रमात्‌ । 
भौमराहुसितार्काः स्युर्जातकः कुलपालकः ।। १६५ ॥ 
पचम, षष्ट, अष्टम, नवम, भावोंम क्रमसे मंगन, राहु, शुक्र जौर सूर्यं स्थित 
हों तो जातक अपने कुल का पालन करने वाला होता है ।। १६५॥ 
लगने सौरिस्तथा चन्द्रश्चाष्टमे भागंवो यदा। 
जायतेऽत्र नृपो योगे मानी भूरिगप्रियः सदा। १६६॥ 
लग्नस्थानम शनि ओौर चन्द्रमा, अष्टम मावमे शुक्रस्थितटहों तौ इस 


प्रकारके योगम उत्पन्न व्यक्ति राजा, स्वाभिमानी, तथा सदेव सबका प्रियपात्र 
होता है ।॥ १६६ ॥। 


मिथुनस्थो यदा राहुः सिंहस्थो भूमिनन्दनः । 
भत्र योगे नशे जातो नृपोऽश्वगजनायकः। १९७ ॥ 
मिथूनमे राह तथा सिहमं मगलहोतो जातक राजा एवं घो. रःधियों 
कास्वामी होता है । १६७ ॥ 
चपादघं शना युक्तो यदि सूर्यः प्रजायते । 
लग्ने च सबलो मंदो मकरे च कुजो भवेत्‌ ।। १६५ ॥ 


अत्र योगे समुत्पन्नो महाराजो भवेन्नरः । 
दुरादेव नमन्त्यस्य प्रतापश्चरणौ नृपाः ।। १६९ ॥ 


२७६ भानसाभगरी 


~ ~~~ ~ ~ | 





यदिधनुके अद्धंमाग मे स्थित सूयं चन्द्रमासे युक्त हो, लग्न मे बलवान शनि, 
तथा मकरमें मङ्गल हौ तो राजयोग होता है। इस योग मे उत्पक्त व्यक्ति महा- 
राजा होता है तथा इसके प्रतापसे प्रभावित राजा लोगदूरसे हीषरणोंमें 
प्रणाम करते है ।। १९८-१६६ ॥ 
विशेष :--यह योग अमावस्या के आसन्न पूर्वाषाढा नक्षत्रके आरम्भमें 
सम्भव है। धनु राह्िका अधं भाग ४्दै चरण-१५० पूर्वाषाढा के प्रथम चरणमें 
१०, ४०* बीतने पर होता है। यह स्थिति कृष्णपक्ष मे १४, ३० तथा शुक्ल 
प्रतिपदा तिथियों मे सम्मव हो सक्तीटहै। क्योकि र्न्ही तिधियोंमे सूयं भौर 
चन्द्रमा की युति होती है। 
उच्वाभिलाषुकः सूर्यस्त्रिकोणस्यो यदा भवेत्‌ । 
अपि नोचकुले जातो शजा स्याद्धनपूरितः।। २०० ॥ 
अपनी उच्च राशिमे जानेके लिए इच्छुक सूयं यदित्रिकोणमेस्थितटोतौ 
नीचकुल मे उत्पन्न व्यक्ति भी धनसे परिपूणं राजा होता है ।। २०० ॥ 
[ उच्चामिलाषी सूर्यं का अभिप्राय यहदहै कि सूर्यं उच्च राशिमें संक्रमणं 
करनेवालाहो। सूयं की उश्व राशि मेषहै। भतः जब सुर्यं मीनके अन्तिम 
चरण में होगा तभी वह उश्चाभिलाषी होगा । | 


धनस्थाने यदा शुक्रो दक्षमे च बृहस्पतिः 
षष्ठे च सिहिका पुत्रो राजा भवति विक्रमी ।। २०१ ॥ 
धन भाव में शुक्र, दशम में ब्रहस्पति, तथा शठे मावमे राहूहो तो पराक्रमी 
राजाहोतादहै।। २०१॥ 


चतुरग्रहा यदेकत्र स्थाने सौम्या भवन्ति हि। 
भ्रातुघोध्मंलम्ने वा राजयोगो भवेदयम्‌ ॥ २०२॥, 


चार शुमग्रह एक साथ यदि तृतीय, पश्चम, नवम अथवा लग्नमें स्थितहोंतो 
यह राजयोग होता है ।। २०२॥ 
सर्वंग्रहैयंदा चन्द्रो विना हलि निरीक्षितः । 
षष्ठाष्टमे च यामित्रे स॒ दीर्धायुनंराधिपः॥ २०३॥ 
ड, सातवे तथा भ्ठ्वे मावमें स्थित चन्द्रमा कोसूर्यके अतिरिक्त अन्य 
सभी प्रह देते हो तो मनुष्य राजा एवं दीर्घायु होता है ॥ २५३ ॥ 
नवमे पश्चमस्थाने चतुथे च यदा ग्रहाः) 
भादी जातञ्च नश्यन्ति पन्नाज्जातश्च जीवति ॥ २०४॥ 


"मनो रमा" हिन्दीव्याश्योपेता २७७ 





विवाहितायान्यस्यामेकपुत्रो भवेतदा । 
विख्यातो भुवने त्यागी स दीर्घायुर्महीपतिः । २०५॥। 


जिसके जन्मकालमें सभीग्रह नवम, पञ्चम, भौर चतुथं में स्थित हों उसके 
प्रादि कुष्ठ॒ सन्तति नष्ट होती है तथा बाद की सन्तान जीवित रहती है। पुनः 
दूसरीस्त्रीसे विवाह करने पर एक पृत्र उत्पन्न टोताहै जो संसार मे विख्यात, 
त्यागी, दीर्घायु तथा राजा होना है ।॥ २०४-२०५॥ 


कन्यायां च यदा राहुः शुक्रो मौमः शनिस्तथा । 
तत्र॒ जातस्य जायेत कृत्रेरादधिकं घनम्‌ । २०६॥। 


केन्यामे यदि गाह, शुक्र, भगल तथाशनिहींतो जातक के पास कुबेरसे मी 
मर्षिक धन होता दहै । ( अर्थात्‌ बहुत बड़ा घनिक होता दहै) ॥ २०६॥। 
लग्ने मीने जीवशुक्रौ मषेऽ्को मकरे कुजः । 
दासवंशेऽपि जातोऽसौ राजा छत्रघरो भवेत्‌ ॥ २०७ ॥ 
यदि मीन लग्नमें जन्म हो तथा उमीमे (लग्न में ) गुरु ओर शुक्र स्थित हों, 
मेष मे सूयं तथा मकरमं मंगलदहोंनोदसीके कंश मं उत्पन्न बालक मी छत्र 
धारण करने वाला गाजा होता है ।। २०७1 


्रातृस्थाने यदा जीवो लामस्थाने यदा शशो । 
स॒ लाउ गृहमध्यस्थो जायते कुलदीपकः ।। २०८ ॥ 
भ्रातुस्थान ( नृनीय मावर ) मं यदि ब्रहस्पति तथा एकादश मावमें चन्द्रमा, 
हो तो अपने समाज एवं गृहम रग्हृताहूना कुल का दीपक (वंश की मर्यादा 
बढ़ने वाला ) होत) है ।। २०८ ॥ 
दशमस्थौ बुधादित्यौ षष्ठे राहुधरापुतौ। 
राजयोगोऽत्र यो जातः स पुमान्नायको भवेतु ॥ २०६ ॥ 
यदि दकम मावम बुष-सूयं “था छठे मावम राहू ओर मगल स्थितहोंतो 
राजयोग होता है। इस योग मं उत्पन्न व्यक्ति नायक ( किसी वं का प्रमुश्च अथवा 
नेता ) होता है।॥ २०६ ॥ 
चतुग्रहैरेकगृहे च संस्थं्घोधिमंदुश्चिक्यतनुस्थितर्वा। 
दासश्रजातः क्ितिपालतुल्यो भवेश्नरेन्द्ोऽणंवपारगामी ।। २१० ॥ 
चार प्रह एकही साथ यदि पच्चम, नवम, तृतीय, ओर लग्न इनमें से किसी 
एक भावमें स्थितहों तोदासीके कुल मे उत्पन्न बालक भी राजा के समान 


होता है तथा समृद्र-पारकीयात्राकरने वाला होता है ( अर्थात्‌ समुद्र यात्रा दारा 
विदेश न्रमण करने वाला होताहै। )।॥ २१० ॥ 


२७८ मानसागरी 








सुरगुरुशशियुक्ते ककंटे लग्नसंस्थे 
भृगतनयबलिष्ठः केन्द्राजतोऽय शषाः । 
शिवसटजरिपुस्था यस्य वं जन्मकाले 
नियतमिति तदासौ चक्रवर्ती नरेश्षः । २११ ॥ 
जिसके जन्म समयमे ब्रहस्पति ओर चन्द्रमा एक साथ यदि ककं राशिमें 
स्थित होकर जन्म लग्नमें हों, शुक्र बलवान होकरकेन््रमे हो तथा अन्य सभी 
ग्रह एकादश, तृतीय ओर षष्ठमावमे स्थितदहोंतो वह सदैव चक्रवत्तीं राजा 
होकर रहता है ।॥ २११ ॥ 
तुले मीनमेषे वृषे देत्यपूज्यो भवेद्राजमानी कलाकौतुको च । 
त्रयं पु्ररत्नं चिरञ्जीवितं चभवेद्रत्सरे व्ियुग्मं च तस्थ ॥ २१२ ॥ 
तुला, मीन, मेष ओौर वृष रादियोंमसे क्सिीषएकमे शुक्रस्थित होतो 
जातक राजा से भादर पाने वाले, क्ला-कौतुक म निपुण, होता है । तथा २३ वषं 
की आयु मे तीन चिरञ्जीवी पुत्र रत्नों के प्राप्ति होती है ।। २१२॥ 
लग्नाधिपतिः केन्द्रे बलपरिपूणंः करोति नुपतुल्यम्‌ । 
गोपालकुलेऽपि जातं कि पुनरिह नुपतिसम्भूतम्‌ ॥ २१३ ॥ 
लग्न का स्वामी केन्द्र स्थान में बलवान्‌ होकर स्थितहोतो गोप (ग्वालो) के 
कूल म उत्पन्न व्यक्तिमी राजाके समानहोताहै यदि राज कुल मे उत्पन्नहोतो 
कहना ही क्या । २१३॥ 
दविस्तृतोये भृगुनन्दनः सुखे बुधो द्वितीये यदि पमे स्थितः। 
न नीचशशौ न च खान्तवेष्मगो भवेप्तरेन््रस्त्रिसमुद्रपालकः ।२१४॥ 
सयं यदि तीसरे माव मे, शुक्र चतुथं म, बुघ द्वितीय या पञ्चमम स्थित हो, कोई 
ब्रह नीच राशिगतन हो तथा दश्वां भौर बारहवां भाव ग्रह रहतहोतो जातक 
तीन समुद्र पन्त राज्यकरने वाला होता है॥ २१४॥ 
यदि भवति च केन्द्रे धर्मगः स्वोच्चसंस्थः 
सूतमवनगतो वा वाक्पति्जन्मकाले । 
स भवति नरनाथः सावं भौमो जितारिः 
दशिवुधमृगुपुत्रेरन्वितो वीक्षितो वा । २१५॥ 
वदि बृहस्पति जन्म समय में अपनी उच्च राशि (ककं) में स्थित होकर 
केन्द्र स्थान, धमं ( नवम ) भाव अथवा पञ्चम भ।वमे गयाहौ तथा चन्त बुष 
जीर शुक्रसे युत अथवा दुष्टहोतो जातक शत्रुओं को जीतने वाला सावभौम 
राजा होता 8 ॥ २१५॥ 


"मनोरमा" हिन्दीव्याख्यीपेना २७६ 


विलग्ननाथः सहजास्तसंस्थः सुहृदगृहे मित्रयुतो यदि स्थितः । 
करोति सवं पृथिवीतलस्य दुर्वारवेरिष्नमहोदयं शुभम्‌ ॥ २१६ ॥ 
लग्न कास्वामी ततीय भावमें या सप्तम मवमे अपने मित्र ग्रहुकी राक्ष 
मे मित्रप्रहके साथस्थितिहोतो समी कठिन शत्रुओं करा दमन कर अभ्युदय 
( उन्नति ) प्राप्त करने वाला तथा समस्त मृमण्डलका शुमकरन वाला होता 
है ।॥ २१६ ॥ 
लेगनं विहाय केन्द्रे सकलकलापुरितौ नि्ानाथः । 
विदघाति महोपालं विक्रमबलवाहुनोपेतम्‌ ॥। २१७ ॥ 
सभी कलाओंसे पूर्णं चन्द्रमा यदि लग्न को छोटकर अन्य केन्द्र स्थानों (४, 
७५ १० ) मेंस्थितहो तो जातक पराक्रम भौर वाहनसे युक्त राजा होता है।२१७ 
स्वोच्चे स्वकोयमवने कषितिपालतुल्यो लग्नेऽकंजे भवति दषापुराधिनाथः । 
दारिद्रधदुःखपरिपीडित एव लोके शेषेषु सर्वं जननिन्दक्चरीरवेष्टः ।।२१८॥। 
यदि शनि अपनी उच्चराश्शिमेंया अपने गृह (१०, ११) मेहो तौ जातक 
राजा के समान धनवान्‌ होतादहै। यदि शनि लग्न में उच्चस्थ यास्वगुही (७, 
१०, ११ मे) होतो वह देश अथवा नगर का अधिपति (अधिकारी) होतादहै। 
इससे भिन्न स्थिति मे श्निहोतो जातक दरिद्र, दुःखसे पीडित तथा अपनी 
शारीरिक वेष्टाओंके कारण लोक मे निन्दित होता है । २१८॥ 
लग्ने ह्य, च्वपदं गते दिनपतौ चन्द्रे धनस्थे भृगौ 
दुश्चिक्ये तमपंयुते सुखगते जीवे व्ययस्थे बुधे । 
लाभे सूयसुते हि शत्रुभवने जातः कुले भूपते- 
ज तोऽय मनुजः सदा नुपगणे सन्ना टपदं गच्छति ॥ २१६९ ॥ 
लग्न स्थानम उच्च (मेष) राशि का सूर्य, धन मवमे चन्द्रमा, तृतीयमें 
राह से युक्त शुक्र, चतुथं भाव में गुरु, व्यय ( बारहरवे ) मावमें बुघ तथा एकादश्च 
भावमेया ष्ठ भावम णनि स्थित होतो राजक्ुल में जन्म होता है। हस योम 
मे उ्पन्च व्यक्ति राजाओं के समूहमें सम्राट्‌ पदको प्राप्त करता है अर्थात्‌ सर्व॑- 
धेष्ठ राजा होता है ।। २१६॥ 


उच्चा्िलाषी सविता त्रिकोणे शी तथा जन्मनि यस्य जन्तोः । 
सोऽ्नाति पृथ्वीं बहुरत्नपूर्णं बहस्पतिः केन्द्रगतो यदि स्यात्‌ ।२२०॥ 

अपनी उच्च राशि (मेष) मे जने का अभिलाषी अर्थात्‌ मीन राशषिके 
अन्तिम चरण में स्थित सूयं त्रिकोण (५, ९ ) भावों मे, चन्द्रमा जन्मलग्न मे तथा 
बृहस्पति केन्र स्थानों में जिसकी जन्म कण्डली में स्थित हो वह रल्नों से परिपूर्णं 
पृथ्वी का उपमोग करता टहै।॥ २२०॥ 


२६० मानसागरी 





स्वेऽप्याकाशवासाः स्फटिकविमलताकाक्षकार्पासवेषा 
लग्नं सवीर्दयमाणा नरपतितिलकं तं समूल्पादयन्ति । 
नीयन्तेऽस्य प्रशस्तय वहुविभसुफलान्यन्यभगलजालं- 
निःशङ्कः स्वं सौख्यान्यनुभवति नरो भद्रमालापितः शीः । २२१ ॥ 


सभी आकाशत्रासी (ग्रह ) स्फटिक के समान निर्मल कान्ति युक्त काश भौर 
कपास के पुष्पके समान इवेत वान्ति युक्त रों अर्थात्‌ सभी प्रकार से दोष रहित 
एवं बलवान्‌ हों तथा लग्न को देखते टं तौ जातक राजाओंमे श्रेष्ठ होताहै। 
उसकी प्रशस्ति हेतु अन्य राजागण विविध प्रकार के उत्तम फलों से युक्त कल्याण 
कारी माला भौर राज्यलक्ष्मी को अपिति करते हँ तथा वह निर्भय होकर समी 
प्रकारके सुखो का अनुभवकन्ताहै।। २२१॥ 
सर्वेगंगन्नमणेदुष्टे लग्ने भवेन्महीपालः। 
बलिमिः सौख्याथयुतो विगतभयो दोर्घजीवी च । २२२ ॥ 
बल से युक्त सभी प्रह यदि लग्न को देखते हों तो सुख से सम्पन्न, निमय तथा 
दी्धंजीवी राजा होता है । २२२॥ 
चतुथं मवने शुक्रो दशमे च धरासुतः । 
रविः सौरियुतो यस्य शजा भवति निश्चितम्‌ ॥ २२३ ॥। 
जिसके जन्म समयमे लग्न से चतुथं मावमें शुक्र, दशममे मंगल तथा सूयं 
शनि सेयुक्तहो तो वह निश्चित राजाहोता है ।। २२३॥ 
मिथुनोऽजे वृषे मीनं कुम्भे च मकरे ग्रहाः । 
यो योगेऽत्मिन्नरो जातो जायते गजमानवान्‌ । २२४ ॥ 
मिथुन, मेष, वष, मीन, कुम्म तथः मकर -शियोंम सभी ग्रह स्थितहोंतो 
इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति हाथियों से युक्त तथा सम्मानित टोता है) २२४॥ 


जोवनिशाकरसूर्याः पञ्चमनवमतुतीयभा वस्थाः । 
लग्नाद्यदि भवन्ति तदा कुबेरतुल्यो धनश्रस्वंः ।' २२५ ॥ 
जन्म लग्न से पर्चम, नवम, तृतीय मावो म क्रमसे बृहस्पति, चन्द्रमा ओर 
पूयं स्थित हों तो जातक धनःगम से कुबेर ( देवताओं के कोषाध्यक्ष ) के समान 
धनवान्‌ होता है ।। २२५ ॥ 
सिहे . जीवस्सुलाकीटधनूर्मकरकेषु च । 
ग्रहाश्रान्ये तदा जातो देशभमोगी भवेन्नरः ।॥ २२६ ॥ 
सिह में ब्रहस्पति तथा तुला, वृश्चिक, धनु भौर मकरमे अन्य समी प्रहु स्थित 
हतौ हस योग मे उत्पन्न पूरुष देश का उपमोग करने वाला ( प्रशासक ) होता 
ह ॥ २२६॥ 


"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योपेता २८४ 


स्वगृहे च भवेत्सू्ंस्तुलायां च भवेत्सितः । 
मिधुने तिष्ठते सौरो राजयोगः प्रजायते । २२७ ॥ 


अपने गृह ( सिह राशि ) मे सूर्य, तुलामे शुक्र तथा मिथुन राशिमें नि 
बेठाहो तो राजयोग होता है । २२७॥ 
षष्टे च पञ्चमे चेव मवमे द्वादशे तथा। 
सौम्यक्ररग्रहा जातो राजमान्यः संकण्टकः ॥ २२८ ॥ 
जन्म लग्न से छठे, पांचवे, नवमं ओर बारहरवे मावमें यदि शुभ ओौर पापग्रह 
दोर्नो ही विराजमान रों तो जातक राजा द्वारा सम्मानित परन्तु कठिनाइयों ते 
धिरा होता है ।। २२८॥ 
त्रिकोणयाता बुधजौवशृक्रास्व्िषडगते सोमनुतेऽकपुत्र । 
जायास्थिते चेत्परिपूणंचन्द्रे ननं स जातो नृपतेः समानः +| २२६ ॥ 
त्रिकोण मवन (५, ९) म बुध, गुरु ओर शुक्र गये टो, बुष भौर शनि तीसरे 
छठे भावम हों तथा पूणं चन्द्रमा सप्नम भावमंहोतो इम योग मं उत्पन्न ग्पक्ति 
राजा के समान अवक््य होता है ॥ २२६॥ 
लग्ने सौरिस्तथा चन्द्रश्चाष्टमे भवने सितः । 
राजमान्यो महाकामो भोग्यपत्नीजनस्तथा ।! २३० ॥ 


लग्न में शनि ओौर चन्द्रमा तथा अष्टम भावमंशुक्र होतो जातक राजासे 
सम्मानित, अधिक कामव।सना युक्त तथा भोग्य ( विहार रुगने योग्य सुन्दरी ) 
स्त्रीसे युक्त होता है । २३० ॥ 
धने शुकश्च भौमश्च मीने जीवो घटे बुधः। 
नीचे चन्द्रः सूर्ययुको राजयोगोऽमघौयते ।। २३१ ॥ 
अस्मिन्‌ योगे नरो जातो राजा विभववजितः । 
दानभागातिविख्यातः सामान्यः स भवेन्नरः । २३२ ॥ 
घन ( द्वितीय) भावम शुक्र ओौर मंगल, मीने वृहस्पति, कुम्भमे बुष, 
अपनी नीच राशि ( वृश्चिक ) मं चन्द्रमा, सूर्यसेयृक्तटोंतो राजयोग होतादहै। 
इस योग मे उत्पन्न व्यक्ति घनहीन, राजा, दान एवं सुख-भोग करनेमें विख्यात 
तथा सामास्य (न मधि धनवान्‌ न निर्धन ) पुरूष होता है ।॥ २३१-२३२ ॥ 


मीने शुक्रो बुषश्चान्ते लम्ने सूर्य॑ः शशौ धने । 
सहजे अ भकेद्राहु राजयोगः प्रजायते ।। २३३ ॥ 


मीन में शुक्र, बारहर्वे भावमे बुष, लग्नमे सूयं, धन मावे चन्द्रमा तथा 
तृतीय धावमे राहुहो तो राजयोग होता है ।। २३३॥ 





२८२ मानसागरी 





मोने जीवस्तथा शुक्रश्चन्द्रमाश्च यदा भवेत्‌ । 
तस्य जातस्य राज्यं स्यात्पत्नी च बहुपुत्रिका ॥ २३४ ॥ 


यदि मीन में बृहस्पति, शुक्र ओर चन्द्रमा स्थितहोंतो जातक राजा होताह 
तथा उसकी पत्नी बहुत पुत्रो वाली होती है ॥ २३४॥। ॥ 


भयस्थाने यदा सौम्यः अरस्यानीयचन्द्रमाः। 
कमस्थाने पुनः सौम्यस्तदा राज्यं विधोयते ॥ २३५॥ 
यदि लाभस्थान म शुभग्रह, कूरप्रहकी राहिम चन्रमा हो तथा पुनः 
कमं स्थान ( दक्ञम भाव) मेशुमग्रहहों तो राजयोग होना है ॥ २३५॥ 
गादौ जावः पञ्चमं वा दहमे चन्द्रमा भवेत्‌ । 
राजमान्यो महाबुद्धिस्तेजस्वौ चातितेजसाम्‌ ॥ २२६ ॥ 


लग्न ( प्रथम ) स्थानम बुस्पनि, पञ्वम माव अथवा दकम भाव में चन्द्रमा 
हो तो जातक राजा द्वारा सम्मानित, महान्‌ बुद्धिमान्‌, तेजस्वी पुरुषो मे अधिक 
तेजस्वी होता है ॥ २३६॥ 
अरिष्ट योग---. 
“सूर्या नातस्य  नवमश्चन्द्रान्मातुश्चतुधंगः । 
मौमाद्भ्रातुस्तरतोयो ज्ञाच्चतुर्थो मातुलस्य च ॥ २३७ ॥ 
पुत्रस्य पन्चमो जौव्रादुभृगोः सप्तमकःस्तरियः। 
क्रूरः खगोऽरिष्टकरो शनेभृ त्यु गदोष्टमः ॥ २३० ॥ 
सुँ से नवम स्थानमेक्रूर प्रहहोनो पिताके लिए, चन्द्रमासे चतुथं भाव 
मे क्रूर ग्रह माताके निए, मंगनसे तीसरे माईके लिए, बुधसे चौथे मामाके 
लिए, गुरु से पांचवे पुत्रके लिए, शुक्रसे सप्तमक्रूर प्रह होतो स्त्रीके लिए 
कष्टकर होता है । यदि शनि से अष्टम भावम क्रूरग्रहहो तो स्वयं जातकं के लिश 
बृत्युप्रद ( अरिष्ट कर ) होता है ।। २३७-२३८ ॥ 


सूर्यो मौमस्तथा राहुः शनिर्मर्तौ यदा स्थितः । 
पन्तापो रक्तपीडा च सौम्यः सर्वनिरोगता ।॥ २३९ ॥ 


सुं, भौम, राहू भौर शनि यदि लग्नमं स्थित हों तो मानसिक सन्ताप 
( क्लेशा ) एवं रक्तसम्बन्धी विकार होता है । यदि शुमग्रह लग्नमें होतो सबीः 
प्रकार ते निरोगता रहती है। २३६ ॥ 
भौमक्षेत्रे यदा जीवो जोवकषेतरे च मृतः । 


दादक्षे वत्सरे मृत्यर्बालकस्य न संचयः । २४० ॥ 
मौमकेषषेत्र (मेव ओौर वृश्रिक राशियों) में यदि बृहस्पति हो तथा बृहस्पति. 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता २८३ 


के क्षेत्र (धनु मौर मीन ) मं मौनरोतौ बरहर वषम जातक की मृत्यु होती 
है इसमं सन्देह नहीं ।। २४० ।। 
घनस्याने यदा भौमः शनेश्चरसमन्वितः। 
सहजे च मवेद्राहुवंषमेक स जोवति। २४१॥ 
यदि धन स्थान ( द्वितीय भाव) म मंगन गनिसे युक्तौ तथा तृतीय भाव 
मे राहुहोतो जातकः केवन एक वषं तक्र जोविन ररना है ॥ २४१॥ 
चतुथं च यदा राहुः षष्ठे चन्द्रोऽष्टमेऽपि वा । 
सद्यश्चव॒ भवेन्मृत्युः शद्कुरो यदि रक्षति ।। २४२ ॥ 
यदि चतुथ मावम राहू, छठे अथवा भावव मावम चन्द्रमाहो तो स्वयं शंकर 
ही रक्षकहोंतो मी उसे शीघ्र मृत्यु होती है । २४२॥ 
मष्टमस्यो निशानाथः केन्द्र पापेन सवतः । 
चतुथं च यदा राहूवंषमेकं स॒ जीवति ।। २४२ ॥ 
अष्टम भावमे चन्द्रमा, केन्द्रस्थानोंम पापग्रहहौो तथा चतुव भावम 
राहु स्थित होतो जातक एक वषं तक जीवित रहता है ॥ २४३ ॥ 
लग्ने व्यये धने क्रूरा यदा मृत्यौ व्यवस्थिताः । 
मलावरोघकष्टं स्यादुद्रादशाष्टमवषंयो ॥ २४४ ॥ 
जन्म लग्न, बारह्वे, दुसरे तथा आवें भावम यदि षरपब्रहु स्थितिदहोंतो 
आवे तथा बारटवें वषं म मलावरोषसे कष्ट होता है ।। २४४ ॥ 
सप्तमे भवने भौमो ह्यष्टमे भागंवो यदा । 
नवमे भवने सूर्यश्चात्पायुर्जातको भवेत्‌ ।। २४५ ॥ 
सप्तम भावमे मंगल अष्टमभ।वमे शुक्र तथा नवम भवम सूयंहोतो 
जातक अल्पायु होता है ।। २४५ ॥ 
धने क्रः स्वभवने क्रूरः पातालगो यदा। 
दष्चमे मवने क्रः कष्टं जीवति जातकः ।। २४६ ॥ 
घन स्थानम, क्रूर प्रह अपनीही राशिमे ही स्थित हो, तथा चौथे भौर दशं 
भावमेभीक्रूर प्रहहोतो बालक कष्टसे जीवित रहता है ।। २४६॥ 
स्मरे व्यये सहजे मध्ये क्गरा यदा ग्रहाः। 
छदा जातस्य बालस्य ्षरीरे च कटमादिशेत्‌ । २४७ ॥ 
खाते, बारहर्वे, भौर दशवे मागमे यदिक्ररप्रहहोंतो इस योग मे उल्पम्न 
बालक के श्षरीरमे कष्टहोता है एेसा कहना बाह्ये ॥ २४७ ॥ 


२०८४ मानसागरी 





लम्नस्याने यदा भौमो द्वादष्ये च बृहस्पतिः । 
शुक्रा शत्रुगृहे यस्य॒ मासमेकं स॒ जोवति । २४८ ॥ 


लग्न मे मंगल, बारहवं ब्रहस्पति, तथा ष्ठे भावने शुक्रहोतौो एक मास 
तक ही जातक जीवित रहता है ।। २४८ ॥ 


क्षीणचन्द्रे गते लग्नं त्ररग्रहनिरीक्षिते 
द्वितीये द्वाद भौमे मासमेकं स जीवति ।। २४९ ॥ 
क्षीण चन्द्रमा यदि लग्न मे स्थितहो, तथा उसे क्ररग्रह देखते हों, दूसरे भौर 
बारहवंमे मंगलहोतोएकही मास तक जीवित रहता है ॥ २४६ ॥ 


मूत्तिसप्तमयोः कगरा पापा व्ययद्वितीयगाः । 
चतुथ च यदा राहुः सप्ताहाग्स्नियते तदा ॥ २५० ॥ 
लग्न ओर सप्तममे क्रूरग्रह, बारहवें तथा दूसरे मावमें पाप प्रहतथा 
चौबे मावमे राहु स्थित हों तो एक सप्ताह के अन्दर जातक कौ मृत्यु 
होती है ।। २५० ॥ 
षष्ठाष्टमेऽपि चन्द्रः सद्यो मरणाय पापसंदुष्टः । 
अष्टामिः शुमदुष्टौ वष्मिश्र॑स्तददुेन ।। २५१ 
छठे ओर आठवें भावमें चन्द्रमा पापग्रहोंसमे दष्टहोंतो बालक कीशीघ 
मृत्यु होती है । यदि उन्हीं मावोमे चन्द्रमा पर शुमग्रटों की द्ष्टिहोतो आठ वर्षो 
मे तथा शुभ ओर पाप ग्रहों की भिश्रित दष्टिहो तो उसके आषे अर्थात चार वषं 
मे मृत्यु होती है । २५१ ॥ 


दवादशस्यो यदा सौरिलंग्नखस्थश्च भूसुतः। 
चतुथः संहिकेथञ्^ ह्यष्टमासानु स जीवति ।। २५२ ॥ 
बारहवे मावमें शनि, लग्नमें मगल, तथा चौथेभावम रहूहोतो जातक 
माठ मासतक ही जीवित रहता है॥ २५२॥ 


शुमलग्ने यदा जीवो ह्यष्टमे च शनंश्चरः। 
रन्ध्रसंस्थे च पापे च सद्यो मृत्युभ्रदो भवेत्‌ ।। २५३ ॥ 


शुम लग्नो मे ब्रहस्पति, अष्टम मावमे शनि, तथा र्वं मावमें पाप ग्रह 
स्थितहोंतोक्षीघ्रही भ्रत्य कारक हाता है । २५३॥ 


1 


चतुथे नवमे सूयं ह्यष्टमे च बृहस्पतौ । 
दादश च शष्षाद्के च सद्यो मृत्युकरो मवेत्‌ ॥ २५४ ॥ 





१. पौरिकेयरच पाठान्तरम्‌ [ पुखवंश में उत्पन्न चन्द्र भौर तागा से उर्पन्न इष | 


"मनोरमा" हिन्दीव्याख्योपेता २८१ 





चतुर्थं भाव अथवा नवम भाव में सूर्यं, मष्टम मे बहस्पति, बारहूवे चन्द्रमा हों 
तो शीघ्रही मृल्युकारक होतेह ।। २५४॥ 
शदिमूयंसिते केन्द्रे संयुक्तश्चन्द्र भार्ण । 
हन्ति वषद्येनव जातकं शिष्टमाषितः।॥ २५५ ॥ 


चन्द्र, सूय, शुक्रक्न्द्रम हों तथा चनमा शनिसे युक्तहोतो जुभग्रहोँकी 
अनुकूलता रहने पर मी दौ वष के अन्दर जातक की मृत्यु होती दहै । २५५॥ 
गुरर्मन्दगृहे वक्लो मन्दगौ वुधभास्करौ। 
ईप्सितं कुख्ते मृत्युं मन्दे च॑ंकादशे घ्र्‌वम्‌ । २५६ ॥ 
बृहस्पति शनि के गृह ( मकर, कम्म ) म वक्री होकर स्थित हो, तथा सप्तम 
भावम बुध गौरसूयेहोंतो जातक को इच्छानु्षार मृत्युहोतीहै। यदि ग्यारह 
भावमेंहनिहो तो निश्चित ( शीघ्र) मृत्ु होती है ॥ २५६॥ 
सयंमन्दगृहे शुक्रो गुरणा च विलोकितः। 
नवमिर्मारयत्येनं वषंर्जातं न संशयः ॥ २५७ ॥ 
सूयं ओर शनिके गृहं ( सिह, मकर, कुम्म) मे शुक्रस्थितहो ओौरगुरुसे 
दृष्ट लो नो नव वषं बीतने पर नि-मन्देह्‌ मृत्यु होती है । २५७ ॥ 
सूर्येण सहितश्चन्द्रो बुधगेहगतः सदा । 
न वीक्षितश्च सौम्येन नववषण मृत्युदः ॥ २५८ ॥ 
सूयं से युक्त चग्द्रमा बुध की राकषिमें स्थित हो तथा बु्की दृष्टिउनपरन 
हो तो नव वषं कीआयुम मृत्युहाती दहै । २५८॥ 
बुधः सूयन्दुसंयुक्तो विक्षितोऽपि शुभग्रहैः । 
एकादशमिते वषं मारयत्येव जातकम्‌ ॥ २५६९ ॥ 
बुष, सूयं भौर चन्द्रमासे युक्त हो तथाबुभग्रहोसे दष्टहोतोभी म्यारह 
वषं की आयु मे जातक की मृत्यु होती दहै ।। २५६ ॥ 
लग्नादष्टमगो राहुः शनिसूर्यावलोकितः । 
निरीक्षितः शुर्मः कृ्यदिष्ट द्ादश्चामक्षयम्‌ ॥ २६० ॥ 
जन्म लग्न से अष्टम भाव में स्थित राहु, शनि गौर सवं से दृष्ट हो तथा शुभ 
ग्रहों कीभीद्ष्टिहो तो जातक वारह वषं तक जीवित रहता है ॥ २६० ॥ 
धने राहूर्बध शुक्रः सौरिः सूर्यो यदा स्थितः । 
तज्र॒ जातो लमेन्मृ्युं मृते पितरि जायते ।। २६१ ॥ 
धन ( द्वितीय ) भावम यदि राहु, बुध, शुक, दानि गौर सूर्यं स्थितहोतो 


२८६ मानसागरी 


जातक पिता की मृत्यु के बाद उत्प होताद्ै तथास्वयंभी कुष्ठ दिनोंके बाद 
मर जातादटै। २६१॥ 
व्यये राहुः सौरिसौम्यौ जीवो लग्ने च पश्चमे । 
छत्र योगे च यो जातो जातमात्रः स नश्यति । २६२॥ 
बारहवे मावमें राहु, शनि ओर बुष, लग्न अथवा पश्चम माव में बृहस्पति 
होतो इस योगमे बालक उत्पष्षहोतेही मरजाताटहै।॥ २६२॥ 


जीवाकराहूमौमाः स्युश्चत्वारः भ्रूरवेश्मगाः । 
सप्तमे च गृहे शुक्रो देहकष्टकराः सदा ।॥ २६३ ॥ 
बृहस्पति, सूर्यं, राहु ओर मंगल चारो ग्रहं यदिक्रूर प्रहोकी राशियोंमं 
स्थित हों तथा सप्तम मावमें शुक्रस्थितहोतो शरीरके लिए कष्ट करयोग 
होता है ॥ २६३ ॥ 
गुह्यस्थाने यदा भौमो राहुसौरिसमन्वितः । 
नृपपौडा भवेत्तस्य स्वासने नेव तिष्ठति ।। २६४ ॥ 
मंगल, छठे मावमें राहु भौरङनिसे युक्तो तो उसे राजपीडा ( राजकीय 
उलक्षनों ) से कष्ट होता है वहु भपने आसन पर नहीं बैठ पातादहै। ( अर्थात्‌ 
बार-बार स्थानान्तरण या पदच्यत होता है) । २६४ ॥ 


चतुथं शाहुसौरार्काः षष्ठे चन्द्रो बुधः कुजः । 
भागंवश्चात्र यो जातः स गृहस्य क्षयद्घुरः ॥ २६५॥ 
चतुथं भाव में राहु, णनि, ओौर सूर्य, छठे मावमं चन्द्रमा, बुष, मंगल, भौर 
शुक्र स्थितदहोंतो इमयोग म उत्पन्न व्यक्ति गृह फा क्षय ( घन-जन की हानि) 
करने वाला होता है।। २६५॥ 
एकः पापोऽष्टमस्थोऽपि शत्रुक्षेत्रे यदा मवेत्‌ । 
पापेन वीक्षितो वर्षान्मारयत्येव बालकम्‌ । २६६ ॥ 
एक भी पाप ग्रह॒ अष्टम भावम अपने शतरुग्रह की राशि मंस्थित हो तथा पाप 
ग्रहोसे दृष्टहोतो वालक क एक वषं के अन्दर मृत्यु होती है ॥ २६६॥ 
मौमभास्करमन्दाए्व शत्रठत्रेऽषमे यदा । 
यमेन ॒रक्षितोप्येष वषमात्रं न॒ जीवति ॥ २६७ ॥ 
मंगल, सूयं, भौर गनि अपने छत्रु ग्रहकी राक्शिमे अष्टम भावमें स्थित हौं 
तो स्वयं यमगाजद्वार) रक्षित बालक भी एक वर्षं तक ही जीवित रहता दहै ।।२६७।। 
वक्रो शनिर्ममिगेहे केन्द्रे षष्ठेऽटमेऽपि वा । 
कुजेन बलिना दृष्टो हन्ति वद्य शिशुम्‌ ।। २६० ॥ 





"मनोरमा" हिन्दीष्याण्योपेता २८७ 


[रिका 2 





शनि वक्री होकर भौम गृह ( मेष, वृश्चिक ) मे स्थित होकर केन्द्र अथवा 
छठे, आठवें भावमें गया हो तथा बलवान्‌ मंगलसेदुष्टहोतोदो वके के अन्दर 
उत्पन्न बालक की मृत्यु होती है ॥ २६८ ॥ 


शनिराहुकुजैर्यक्तः सप्तमे नवमे शशी । 
सप्तमे ।दवसे हन्ति मापे वा सप्तमे दिष्युम्‌ ।। २६९ ॥ 


शनि, राह भौर मंगल से युक्त चन्द्रमा सप्तम मावमं अथवा नवम मावमें 
हो तौ उत्पक्न बालक सात दिनोंमं भथवा सातवे मासम मृत्यु प्राप्त करता 
दै ॥। २६६९ ॥ 


लग्नस्थश्च यदा भानुः पश्चमस्थो निष्ाकरः । 
मष्टमस्था यदा पापास्तदा जातो न जीवति ।। २७० ॥ 


लग्न में सूर्यं, पञ्चम मावमे चन्द्रमा तथा अष्टम भावमें पापग्रह स्थित हों 
तो जातक जीवित नहीं रहता अर्थात्‌ शीघ्र उसकी मृत्यु होती है ॥ २७० ॥ 


लग्नपः पापसंयुक्तो लग्ने वा पापमध्यगे। 
लग्नात्सकप्तमगः पापस्तदा चात्मवधघी भवेत्‌ ।। २७१ ॥ 
लग्नेक्ष यदि पाप ग्रहों से युक्त अथवा दो पाप ग्रहोंके मध्य लग्नमं स्थितो 
तथा लगनसे सातवें मावमें पापग्रह्‌ स्थितहो तो आत्महत्या करने वाला होता 
३ ।। २७१ ॥ 
क्ररकषेत्रे यदा जीवो लग्नेष्लोऽस्तङ्गतो भवेत्‌ । 
कर्मा च तदा जातः सप्तवर्षाणि जोवति।। २७२ ॥ 
पापग्रहों की राशिमें यदि ब्रहस्पति हो तथा लग्नेश अस्तंगत ( सूर्यं के साय 
समीपके अंशोमहों) तो जातक अकर्मण्य होताहै तथा सात वर्षौतकही 
जीवित रहता है ॥ २७२ ॥ 
अष्टमे च यदा सौरिजंन्मस्थाने च चन्द्रमाः। 
मन्दान्न्युदररोगा च गात्रहीनश्च जायते ।। २७२ ॥ 
अष्टम मावम शनि, जन्म लग्नमें चन््रमादोतो जातक मन्दाग्नि, उदर 
रोगसे पीडित तथा भङ्करीन होता है । २७२३ ॥ 
शनिक्षेत्रे यदा भानुर्भानुक्षेत्र तदा शनिः, 
दादक्षे वत्सरे मृत्थुस्तस्य जातस्य जायते ।। २७४ ॥। 
शनि के क्षेत्र ( मकःर, कम्म) मे सूं तथा सूयंकेक्षेत्र में ( सिहमे ) श्नि 
ला तो उत्पन्न वालक की बारह वषंकीआयुमेमृत्युदहतीदहै ॥ २७४॥ 


रदत मानसागरी 





बुधभौमो यदा लग्ने षष्ठस्थानेऽय वा स्थितौ । 
तस्कश्श्यौरकर्मा स्याद्धस्तपादौ च नश्यतः ॥ २७५ ॥ 
बुष ओौर भौम लग्न मे अथवाषठें मावमेंस्थितहोंतो जातक शौरी करने 
वाला होता है तथा उसके हाथ-पांव नष्ट हो जाते है ।॥ २७५ ॥ 
षष्ठेऽष्टमे वा मर्तो च शत्रुक्षेत्रे यदा बुधः। 
चतुवषं भं वेन्मत्युर्बालकस्य न संशयः ॥ २७६ ॥ 
छठे, आवे, लगन अथवा शशत्रु प्रहुकी रशिमे यदि बुध होतो निःसन्देह्‌ 
चौथे वर्षमे बालक कीमृत्युहो जाती है ॥ २७६॥ 
भष्टमस्थो यदा राहुः कन्दरस्थाने च चन्द्रमाः । 
सद्य एव॒ भवेन्मृत्यर्बालक्स्य न॒ संश्चयः ।। २७७ ॥ 
अष्टम भावम राहूकेन्रस्थानमे चन््रमाहोतो सीघ्रहौी बालक की मृत्यु 
होती है इसमे सन्देह नहीं ॥ २७७ ॥। 
चतुथंस्थो यदा राहुः वष्ठाष्टमगृहे शी । 
विशत्या दिवतेमृत्यर्बालकस्य न॒ संशयः ।। २७५ ॥ 
चतुथं भाव में राहु, छठे, आव्वें माव मे चन्द्रमा हो तो निःसन्देह बीस दिनों 
मेही बालक की मृत्यु होती है ॥ २७८ ॥ 
सप्तमे नवमे राहुः शतरक्ेत्र यदा भवेत्‌ । 
षोडषे वत्सरे मद्युर्बालकस्य न संशयः । २७६ ॥ 
सप्तम अथवा नवम भावमे राहु अपनेकश्त्रु ्रहकी राशिमें हो तो बालक 
की सोलहर्गे वषं मे मृत्यु होती है इसमें सन्देह नहीं ।॥ २७६ ॥ 
दवादशस्थो यदा चन्द्रः पापः स्यादष्टमे गृहे । 
एकमासे भवन्मृत्युस्तस्य बालस्य निश्चितम्‌ ।। २८० ॥ 
दादश भाव मे चन्द्रमा तथा मष्टम भावमें पाप्रहु होतो निश्चित श्पसे 
एक मासमे बालक की मृत्यु होती है ।। २८० ॥ 
जन्मस्थनि यदा राहुः षष्ठस्थाने च चन्द्रमाः । 
षपस्मारस्तदा रोगो बालकस्य हि जायते ॥ २८१ ॥ 
जन्म लग्नमें राहु, षष्ठ स्थानम चन्द्रमाहोतो इस योग मे उत्पन्न बालक 
को अपस्मार ( मृगी ) रोग होता है॥ २८१॥ 
भार्गवेण य॒त्वन्द्रः षष्ठाष्टमगतो भवेत्‌ । 
मन्दाग्न्युदररोगी च हीनाङ्गोऽपि च बालकः । २८२॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याभ्योपेता २८९ 





"गगण 


शुक्र से युक्त चन्द्रमा यदिषटेया भावे मावम स्थित हो तो मन्दाग्नि एवं 
उदर रोग होता है तथा अङ्गहीन ब।लक होता है ।। २८२॥ 


बष्ठाऽष्टमे यदा चन्द्रो बुषयुक्तश्च तिष्ठति । 
विषदोषेण बालस्य तदा मरणमूच्यते ॥ २८३ ॥ 


छट, आ्ठ्वे मावमें चन्द्रमा ब्ुधके साथस्थितदहोतो विष दोषसे ( विषली 
वस्तुसे या विषपानसे ) बालक कामृत्युहोतीहै॥ २८३॥ 


भानुना संयुतश्चन्द्रः षष्ठष्टमगतो भवेत्‌ । । 
गजदोषेण मृत्युर्वा सिहदषिग वा भवेत्‌ ॥ २८४ ॥ 
सूयं से युक्त चन्द्रमा छठे, अच्वे मव म गयाहा तो जातक की मृत्यु हाथी 
अथवाशेर द्वारा होती है ।। २८४॥। 
एकोऽपि यदि मूर्तौ स्याज्जन्मक्राले दिवाकरः । 
स्थानहीनो भवेद्‌ गला दुष्टवृत्तिः सदा पुनः ॥ २८५ ॥ 
जन्म समयम यदि अकेलासूयंही जन्म लगनम बेठाहोतो जातकस्थानदे 
रहित तथा दुष्ट आचरण वाला होना दहै ॥ २८५ ॥ 


लग्नेऽ्टमे यदा राहुश्वन्द्रेणालोकितो भवेत्‌ । 
दशाहैर्जायते तस्य बलस्य मर्ण घ्रुवम्‌ ।। २८६॥। 
लग्न अथवा अष्टम भावमे स्थित राहु चन्द्रमासे दृष्टहोतो दशषदिर्नोौमेही 
जातक की मृत्यु होतीहै। २८६९ ॥ 
लग्नाच्च नवमे सूयः सुयंपुत्रे तथाऽष्टमे । 
एकादशो भागवे च मासमेकं स जीति ॥ २८७ ॥ 
लग्न से नवम मावम सूर्य, अष्टम में हनि, ग्यारहर्वे मावमेंशुक्रहोंतो वह्‌ 
एक मास तक जीवित रहता है ।। २८७ ॥। 
नवमे दशमे चन्द्रः सप्तमे च `यदा सितः। 
पापे पातालस्थे च वंशच्छेदकरो नरः ॥ २०८८ ॥ 


नवम अथवा दकम भावमे चन्द्रमा, सप्तममें शुक्र, तथा चतुथं मावमें 
पाप ग्रहो तो वंश विच्छेद कारक योग होता है अर्थात्‌ उसवंशका अन्तो 
जाता ह । २८८ ॥ 
शतुक्षेत्रेऽष्टमे षष्ठे द्वितीये द्वादशे रविः। 
स॒ जीवत्वङ्खशर्षाणि बालको नात्र संशयः ॥ २८६९ ॥ 
सूये अपने शत्रग्रह की राशषिमें स्थित होकर आ्ठ्वे, छठ दूसरे तथा बारह 
भावमे गयाहोतो जातक ६ वों तकं जीवित रहता इसमे सन्देह नहीं ।+२८९॥ 
१९ मा० सा० 


२९० मानसाभरी 


शतुधोत्रेऽ्टमे मूर्तौ बुधः वष्ठे प्रजायते । 
बालो जोवति वर्षाणि घत्वार्य्यव न संशयः । २९० ॥ 
अपने शत्र ग्रह की राशि में स्थित बुध, लग्न, छठे अथवा आ्ठर्वे भावमें गया 
हो तो बालक चार वषो तक ही जीवित रहता है ॥ २६० ॥ 
एकादशे तृतीये च नवमे पन्चमे गुरौ, 
मिव्रक्ेत्रेऽष्टपन्चाश्दायुभंवति निश्चितम्‌ ।। २६१ ॥ 
जन्म लग्न से ग्यारहर्वे, तीरे, नवे तथा पाँचवें भावम भपने मित्रग्रहकी 


राक्षिमे ब्रहस्पति हो तौ जातक की आयु अद्रावन वषेको होती है ॥ २९१॥ 
नवमे पञ्चमे वापि रिपृष्षेत्रं बृहस्पतिः । 
तदा जातस्य षटत्रिशदरर्षाप्यायुनं संशयः ।॥ २९२ ॥। 
लग्न से नवम अथवा पांचवे मावमे शत्र ग्रहकी राशिमें बृहस्पतिहोतो 
उस मनुष्य की आयु ३६ वषं की होती है इसमे सन्देह नीं ॥ २९२ ॥ 
मित्रक्षत्रगतो लभे दशमे वा यदा गृहः। 
शत्रकषेत्रेऽयवा शुक्रो द्वितीये द्वादशे मवेत्‌ । 
एकविशतिवर्षायर्जायते बालको घ्र्‌वम्‌ ॥ २९३॥। 
मित्र ग्रह की राज्िमें स्थित बृहस्पति यदि दशर्वेया ग्यारहवं मावमें गया 
हो अथवा शत्र ग्रह की राशिमें स्थित शुक्र यदि दूसरे भथवा बारहर्वे मावमें गया 
हो तो बालक निचय ही इक्कीस वषं तकं जीवित रहता है ॥ २६२ ॥ 
शत्रक्ेत्रेण्टमे षष्ठे द्रितीये द्वादशे शनिः, 
अष्टौ दिनान्यष्टमासानष्टवर्षाणि जीवति । २९४ ॥ 
शत्र ग्रह की राशिमं स्थित होकर शनि यदि छठे, दूसरे, अथवा बा रहर्वे भाव 
मे गयाहो तो जातक, माठ दिन, आठ मास अथवा ८ वषं तकही जीवित 


रहता है ।। २६४ ॥ 


चन्द्रघ्ेत्रं यदा भौमो जायते मनुजः सदा । 
रक्तपित्तेन रहीनाद्खो नानाव्याधिसमन्वितः ।॥ २६९५ ॥ 


चन्द्रमा के क्षेत्र ( ककं राशि) मे यदि मंगल दहो तो मनुष्य सदैव रक्तपित्त 
सम्बन्धी विकारसेनाना प्रकार की व्यधियों ते युक्त तथा अंगहीन होता है ॥२९५॥ 
चन्द्रकषेत्रे यदा चाद्दरर्जायते यस्य जन्मनि। 
सः जातः क्षयरोगी स्यात्कुष्ठादिर्भिरूपदूता ।। २४६ ॥ 
चन्द्र क्षेत्र ( ककं राशि ) में बुध जिसके जन्म समयमे टो वहु व्यक्तिक्षय 
रोग तथा कुष्ठ रोग के उपद्रव से पीडित रहता है ।। २६६ ॥ 





मनोरमा" हिन्दीव्याख्योपेता २९६१ 


राहौ च केन्द्रगे मृत्युः पापानां दृष्टिंयुते । 
संवत्सरे ठु दशमे षोडषे तु विशेषतः ॥ २९७ ॥ 
केन्द्रस्थानमें राहु पापग्रहोसे दृष्टहोतो जातक कौ दशर्के वषमे अथवा 
विशेषषूप से सोलदवें वषं में मृत्युटोतनी दै ।। २६७॥ 
चन्द्रः सप्तमभवने शनिकुजराटुग्रहरयक्तः । 
सप्तमदिवसे मृत्युः सप्तममाप्े न सन्देहः ।। २९८ ॥ 


सप्तम भावम शनि, मंगल ओर राहू से युक्त चन््रमाहोतो मातर्वे दिन मथवा 
सातवें मास मं निःसन्देह मृत्यु होनी रै ॥ २६८ ॥ 


भौमनलेत्रे यदा जोवो षष्ठेवाप्यष्ट्मे शशी । 
षष्ठेऽष्टमे भवेन्मृत्य्‌ रक्षको यदि हाद्धुदः। २६६॥ 
मौमके क्षेत्र ( मेष, वृरिचक ) मं बृहस्पति तथा छटठे अथवा ठव मावमें 
चन्द्रमा स्थितहोंनो छठे या आठवें दिन, मास या वषं में जातक की मृत्यु होती 
है स्वयं भगवान शंकर ही क्योँन रक्षक हों ।। २६६९ ॥ 
जन्मसप्तमभे सौरिरष्टमे यदि चन्द्रमाः । 
बरहयपुत्रावतारोऽपि बालकः स न जीवति ३००॥ 
यदि जन्म लग्न मथवा सप्तम भावमे शनि, अष्टम भावमे चन्द्रमा स्थित 
होतो श्सयोग मे उत्पन्न ब्रह्या का पुत्र भी जीवित नहीं रहता ३०० ॥ 
षष्ठाष्टमे यदा चन्द्रो रविर्भवति सप्तमः। 
पितुमातृधनं हन्ति मासमेकं न जीवति ।। २०१॥ 
छठे अथवा आवे मावमें चन्द्रमा तथा सप्तम मावमें सू्ंहोतो जातक 
माता-पिता के धन का नक्ष करताहै तथा एक ही मास तक जीवित 
रहता है ॥ ३०१॥ 
द्वादशे जीवशुक्ौ च जन्मतो राहूरेव च, 
सप्तमे च यदा सौरदिवंषंमेकं सं जीवति ॥ ३०२॥ 
जन्म लग्न से बारहरवे मावमें ब्रहस्पति, शुक्र भौर राहू, सप्तम भावम शनि 
होतो वहू बालक एक वषतकही जीवत र्टतारहै। ३०२॥ 
भौमे दिवाकरे द्रे जातः शत्रुगृहे यदि। 
मासेन भियतेऽवश्यं यमोऽपि यदि रक्षकः ॥ ३०३ ॥ 


मंगल भौर सूर्यं अष्टम माव में अपनी कशषत्रुरारिमेस्थितिहोीतो स्वयं यभराज 
ही रक्षकहोंतो भी बालक एक मासमे मव्य मर जाता है॥ ३९२॥ 





२९२ मानसागरी 





यदा लग्ने ग्रहः क्रो षष्ठे वाप्यष्टमे शशी । 
तदा सद्यो भवेन्मृव्युर्जातकस्य न संशय! ।। ३०४॥ 
यदि लग्न में करग्रह, छे अथवा आठवें भावमें चन्द्रमा स्थित होतो शीन्न 
ही जातक की मृत्यु हो जाती है । इसमे सन्देह नहीं ।॥ ३०४ ॥ 
चतुर्थेपि यदा राहुः केषर भवति चन्द्रमाः । 
विशद्षं भवेन्मृत्युर्जातकस्य न संशवः ॥ ३०५॥ 
यदि चतुथं भावमें राहु तथा केन्द्रस्थानमें चन्द्रमाहोंतो जातक की बीस 
वषे की गायु मे मृत्यु होती है । इसमें सन्देह नहीं ।। ३०५ ॥ 
सप्तमस्थो यदा राहु्जन्भकाले यदा तदा । 
दश्वषं्भवेन्मृत्युरमृतं यदि पीयते ॥ ३०६॥ 
जन्म समय मे सप्तम मावमेंयदिराहूहौीतो जातक यदि अमृत ही पीता रह 
तो भमी दश्च वषं मे उसकी मृल्युहो जाती है।। ३०६॥। 
लग्नेऽषटमे यदा राहुश्वन्द्रो वा यदि पश्यति । 


जातकस्य तदा मृत्युः शक्रेणापि सुरक्षितः ॥ ३०७ ॥ 
लग्न अथवा अष्टम भावम राहु च्धमासर दृष्टो तो जातक की रक्षा यदि 


इन्द्र करे तो मी उसकी शीघ्रही मृत्युहो जाती दै ।। २०७॥ 
दक्षमेऽपि यदा भौम उच्च शत्रुगृहे स्थितः । 
जातकस्य भवेन्मृत्यर्मातुश्चव न॒ संशयः ३०८ ।॥। 
दशम माव में भौम उच्च राशिया शत्र ग्रह की राशरिमेंस्थितहो तो जातक 
तथा उप्तकी माता दोनों की निःसन्देह्‌ मृत्यु होती है ॥ ३०८ ॥ 
लग्नस्थितो यदा भानुः पञ्चमस्थो निष्ापतिः। 
लग्नेऽटमे स्थिताः पापास्तदा जातो न जीवति ॥ ३०९ ॥ 
यदि जन्म लग्न में सूर्य, पश्छम भमावमे चन्द्रमा, लग्न मथवा अष्टम भावम 
पापग्रहः स्थित हों तो जातक जीवित नहीं रहता ॥ १०९ ॥ 


शग्नात्सपतमथीर्ताणुः पापोऽष्टमगतो ग्रहः । 
लम्नस्थितो यदा भानुमपिन नियते शिशुः ॥ ३१० ॥ 
अन्म लग्न से सप्तम भाव में चन्द्रमा, अष्टम भाव में पापग्रह तथा लग्न में भूर्य 
स्थितहोतो एक मासमेदही बालक की मृत्युहो जाती है ॥ ३१० ॥ 
धने गुरः संहिकेयो भौमः शुक्रश्च सप्तमे । 
ल्मे विचण्प्रौ च स्तेच्छ स्याचवने स्थितः ॥ ३११ ॥ 


“मनो रमा" हिन्दीग्यास्योपेता २३९३ 


द्वितीय भाव मे बृहस्पति गौर राहु, सप्तम भावमे मगल भौर शुक्र तथा 
जष्टम भावम सूर्यं गौर वन्द्रमा स्थितहो तो जातक यवन ( मुस्लिम ) घमं 
स्वीकार कर म्लेष्छहो जाता दहै । ३११॥ 


लग्नस्थाने यदा भौमो ह्यष्मे च दिवाकरः । 
सौरिश्रपुथंमवने तदा कुष्ठी भवेन्लरः ॥ ३१२ ॥ 


यदि जन्म लम्नमे मौम, अष्टम मावमें सूयं तथा चतुथं माव में शनि स्थित 
डो तो मनुष्य कुष्ठ रोगसे पीटिति होताहै। ३१२॥ 
धर्मस्थाने यदा पापो लग्नात्‌ पापश्चतुर्थंगः । 
क्म॑स्थानगतो राहुस्तदा म्लेच्छो भवेद्ध्रुवम्‌ ॥ ३१३ ॥ 
जन्म लग्नसे नवम एवं चतुथं मावमें प्रापग्रह स्थित हों तथा कर्मं ( द्म) 
मावमेंराहूहो तो जातक अवश्य म्लेच्छं होता है ॥ ३१३ ॥ 
ध्ययस्थानगते चन्द्रे वामं वचक्षुविनश्यति । 
यदा सूर्यो दितीयस्थस्तदा ह्यन्वं समादिशेत्‌ ॥ ३१४ ॥ 
बारह्वे भावम चन्द्रमाटोनो वायाँनेत्रनष्टहो जाताहै। यदि द्वितीय भाव 
मेसूयंहोतो दोनों आवे ज्योति रीन ( अन्धी) हो जती है ।। ३०४॥ 
सिहलस्ने यदा जन्म॒ शनिमूर्ता तथा मवेत्‌ । 
चकषुरहीनो भवेदबालः शुक्रे जन्मान्धको भवेत्‌ । ३१५॥ 
सिह लम्नमे जन्म टो तथा जन्म लग्नमें ही शनि स्थितो तो बालक नेत्र 
डीन होता है । यदि उसी नग्नमे भुक्रहो नो जातक जन्मान्ध होता है ।। ३१५॥ 


होरायां द्वादशे राद्यौ स्थितौ यदि दिवाकरः । 
करोति दक्षिणं काणं वामनेत्रं च चन्द्रमाः ।॥ ३१६ ॥ 


यदि जन्म समयमे मीन राक्लिकासूयं लम्नमंहोतो दाहिना नेत्र तथा उसी 
रा्षिमे यदिचन्द्रमाहोतो जातक वामनेत्रसे कृण (काना) होता है ।३१६॥ 
स्वस्थाने लग्नगः क्रूरः क्रः पातालगः पुनः । 
द्मे भवने क्रूरः कष्टं जावति जातकः । ३१७ ॥ 
कस्मिन्‌ योगे हि यो जातो मातुदुःखकरो भवेत्‌ । 
यदि जीवेदसौ जातो भातृपक्षक्षयङ्कुरः ॥ ३१८ ॥ 


लग्नमे अपनीदही रा्जिमे क्रूरग्रह स्थित हो, चतुर्थे मावमे तथा दशम 
भावम भी क्रूरग्रह स्थितहोतो बालक का जीवित रहना कठिन होतादहै। इर 
योग मे उल्पन्न बालक माताको कष्ट देने वालाहोताहै। यदि बह (बालक) 


२९४ मानसागरी 


१ पाणा ावायकाकाामयाााककयकााकयातयथनककयतकवककयककत 


जीवित रह जायतो माताके पक्ष (मामा, नाना आदि) को नष्टकरने वाला 
होता है ।॥ ३१५८-३१८ ॥। 
कर्रक्षत्रे भवेत्‌ सूर्य॑ः कन्यायां क्रूरसस्थितः । 
कररकेत्रे भवेद्राहुः कष्टं जीवति जातकः ॥ ३१९ ॥ 
क्र रप्रह की राह्म सू, कन्या राक्िमें क्रूर प्रहु तथाक्ुर ग्रह्‌ की राशि 
भे राहु स्थितहो तो बालक बहुत क्ठिनार्ईसे जीविन रहना है ।॥ ३१६॥ 
शुक्र च वाक्पतौ सौम्ये नीचे राहुसमन्विते । 
चन्द्रमाश्च न पश्येत सोऽपि बालो न जीवति ।। ३२० ॥। 
शुक्र, बृहस्पति ओर बुध इनम से कोई मी प्रर अपनी नीच राशिमं राहूसे 
युक्त हो तथा चन्द्रमासे दुष्टनटोतो वह बालक भी जीत्रित नहीं रहता ॥३२०॥। 
षष्ठाष्टमे यदा चन्द्रो द्रादश्चे रविमङ्खलौ। 
सोमि जातो न जीवेत रक्षको यदि शङ्धुरः ।। ३२१॥ 
टँ अथवा आठवें मावमे चन्द्रमा, बारह भाव ~ सूयं ओर मंगल स्थित हो 
तौ भगवानश्चंकरमी यदि रक्षा करे त भी बालकः जीवित नही रहता ॥ ३२१॥ 
व्ाष्टमे यदा केतुः केन्द्र भवति चन्द्रमाः । 
सयो बालस्य मृत्युः स्याद्रक्षिता यदि शङ्कुर: ॥ ३२२ ॥ 
छठे अथवा आठवें मावमकेतु नथा केन्द्रस्थानों म चन्द्रमा होतो भगवान 
शंकरसे रक्षित बाल भी शीघ्र मर जातादहै।) ३२२॥ 
चन्द्रो बृधस्तथा सुय: शनिश्चन्ते यदा भवेत्‌ । 
मध्यस्थानं गतो भौमो टीनदष्टिप्तदा भवेत्‌ । ३२३ ॥ 
चन्द्रमा, बुष, सूयं ओर गनिये सभी दवदश् मावमे स्थितहों तथा मंगल 
मध्य ( दशम) मावमेंस्थितहोतो जानक को मन्द दृष्टि होती है। ३२३॥ 
अकः सौरिस्तथा भौमः स्वर्मानुः केतुसंयुतः । 
नीचस्थानगतो यस्य स जातो मातृघातकः ॥ ३२४ ॥ 
सर्व, शनि आौर मंगल राहुअथवा केतु से युक्त हाकर अपनी-अपनी नीव 
राशियों मे स्थितहोंतो इस योग मं उत्पन्न बालक मातृघातक ( माता की मृह्यु 
का कारण ) होता है॥ ३२४॥ 
श्विराहु सौरिभौमौ जीवो लग्ने च पश्चमे। 
योगेऽस्मिन्नपि यो जातो जातमात्रो विनश्यति । ३२५ ॥ 
सय -राहू, शनि-मंगल तथा बृहस्पति लग्न मं अथवा पंचम भावमें स्थिति हो 
तो इस.योग मं उत्पन्न होतिही बालक वः भृत्युटहो जाती है ।। ३२५॥ 
कनूरकेत्रगतो जीवो रविं रहधंरासुतः। 
सप्तमे भवने शक्रो देही कष्टं प्रयाति च ॥ ३२६ ॥ 





'मनोरमा' हिम्दीष्यास्योपेता २९५ 





क्रूरग्रह की राक्षिमें यदि बृहस्पति, मूर्थ, राहू भौर मंगल स्थित होंतथा 
सप्तम भावमेशुक्रहोतौ जातक बहुत कष्ट पाता है ।। ३२६॥ 
क्र रे लग्ने भवेज्जातस्तत्स्वामी क्र.रराशिगः। 
ात्मघातो भवेत्तस्य शरीरे कष्टमादिष्चेत्‌ ॥ ३२७ ॥ 
क्रूर लग्न (१,३,५,७. ६, ११) मजन्म होतथानग्न का ध्वामीमी 
करर राशियोमंहीस्थितहोतो जातक आत्म-टत्या +र लेता है तथा उसके शरीर 
मे बहुत कष्ट होता है ।। ३२७ ॥। 
सप्तमे भवने भौमः पमे च दिवाकरः । 
शरण्ये च भवेज्जन्म वृक्षाधस्तश्न संशयः ॥ ३२८ ॥ 
सप्तम भावम मंगल तथा पश्चम मावमंसूर्ंलोनो जंगल में वृक्ष के नीचे 
जन्म होता है वसम सन्देह नीं ।। ३२८॥ 


एकः पापो यदा लग्ने लग्नेशो वा न पश्यति । 
सूयं: पश्यति नो लग्नमन्यजातस्दता भवेत्‌ ।। ३२६९ ॥ 
एक पापग्रह लग्नमं टो तथा लग्ना उसे न देखता हो तथा सूयं भी लग्नको 
न देक्षता हो तो जानः दूमरे ( अन्यपुरुष ) से उतपन्न होता है ।। ३२६॥ 


तिधिप्रन्ति दिनान्ते च लग्नस्यान्ते तथेव च । 
अरांशोऽपि च यो जातः सोञन्यजातः शिशुभवेतु ॥ ३३० ॥ 
तिथिके अन्तमे, दिनके अन्तम, लग्न के अन्तमे तथा चर राश्ियों(१, 
४, ७, १०) के नवमांशमे जिसका जन्म दों वह बालक परपुरुष से उत्पन्न 
होता है ।। ३३० ॥। 
न पश्यति शशो लग्नं मध्यस्थः सौम्यशुक्रयोः । 
ततः परोक्षे जन्म स्याद्धौमेऽस्ते वा तनौ यमे । ३३१॥ 
बुष ओर शुक्रके तीचम स्थित चन्द्रमा लग्न कौन देखता हो, सप्तम भाव 
मे मंगल अथवालग्नम शनिदहोतो पिताक परोक्षमें जन्म होता है ३३१॥ 
जोव्तेत्रगते चन्द्रे शुक्र वेतरराशिगे। 
दरेष्काणे च तदंशे वा न परोर्जाति इष्यते! ३३२ ॥ 
बृहस्पति के कोत्र (धनु गौः भौन) म चन्द्रमा हो अथवा शुक्र इतर राशियों 
(भनु मौर मीन को्योड़कर अन्य किसी राशि) मे गया हो अथवा बृहस्पति के 
द्रेष्काण या नवमांशमे स्थित होतो जातः पर-जात (परपुरुष से उतपन्न) नहीं 
हौत्ता अपितु पिता का भौरस पुत्र होता है।। ३३२॥ 


२९६ मानसाभरी 





पिम 


ह, लम्नमिन्दं न गुरुनिरीक्षते न वा छशाद्भु रविणा समागतम्‌ । 
सपापकोऽकण युतोऽथवा शशी परेण जात प्रवदन्ति निश्रयात्‌ ॥३३३॥ 


जन्मलग्न गौर चन्द्र ( जन्म-राशि)को बहस्पतिन देखता हो, सूर्यं भौर 
चन्द्रमा की युति नहो अथवा पापग्रह सहित सुयसे चन्द्रमायुक्तहो तो इन योगों 
मे उत्पन्न बालक परपुरुष से उत्पन्न होता है। एेसा निर्णेयपूवंक कहना 
चाहिये ।। ३३३ ॥ 
लग्नं पश्यति नो गुरनं च भुगु्जरिण जातः शिशुः । 
क्षोणीजः समवेक्षते शशधर सूर्योऽथवा जाग्जः । 
चल्द्रः पापयुतो दिनेशसदहितः स्यादेव मप्यन्यजः । 
प्रोक्तं प्राङ्मुनिपुञ्गवं स्फुटमिदं योगत्रयं जायते ॥ ३३४॥ 
जन्मलग्न को नतो गुरु देखतादहो न शुक्र, चन्द्रमा को सूयं अथवा मंगल 
देखता हो, चन्द्रमा पापग्रह ओर सुयसेयुक्तहोतो जातक जार्ज ( परपुरुष से 
उत्पन्न ) होता ै। ये तीनों योग स्पष्ट स्प से प्राचीन श्रेष्ठ मुनियों ने 
कहा है ।। ३३४ ॥ 
यदि वापि भमवेच्चष्द्रो जन्माष्टमद्वितीयगः । 
दवादशेकादशस्थो वा पश्चाज्जातस्तदा शिशुः ।। ३३५ ॥ 
यदि चन्द्रमा जन्म लग्न, अष्टम, द्वितीय, वादक तथा एकादक्ष भावोँमेसे 
किसी भी भावम स्थितहोतो पिताके परोक्षमें जन्म होता है। ३३५॥ 
क्षपाकरः पश्यति नेव लग्नं विदेशरसंस्थे जनके प्रसुतः । 
कुजा्िसंसगंगते विलग्ने कवीज्यकेन्द्रादाविहीनके वा ॥ ३३६ ॥ 
चन्द्रमा की दृष्टिलग्न परनहो, मगल ओर शनि ग्नम हों मथवा बृहस्यति 
जौर शुक्र केन्द्र स्थानों मेन जाकर अन्य स्थानोंमें स्थित हों तो पिताके विदेष 
(प्रवास कालर्मे) स्थित रहने पर पुत्रका जन्म होता है अर्थात्‌ परोक्ष में जन्म 
होता है ॥ ३३६ ॥ 
दविशध्ठियुते सहे लग्ने कृजाकिनिरीकितो 
नयनरहितः सौम्यासौम्यंः सबुदबुदूलोचनः ॥ 
व्ययगृहगतश्चन्द्रो वामं हिनस्स्यपर रकि- 
नंशुमा गदिता योगा याप्या मवन्ति शुभेक्षिताः ॥ ३३७ ॥ 
सिह लग्न मे जन्म हो तथा लग्नमे भूयं चन्द्रमा स्थित हों वथा ममल भौर 
निषे दुष्ट हों तो जातक नेत्रहीन होता दहै। यदि लग्न पर शुम ओर पाप 
होर्नो प्रकारके ब्रहोंकी दष्टिहोतो बुट्‌-बुद्‌ लोचन ( अधलुली ओशो से देशने 


"मनोरमा" हिन्दीग्याश्योपेता २९७ 


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बाला) होताहै। यदि बारहवें भावमें चन््रमाहों तो वामनेत्र, सूर्यो तौ 
दाहिना नेतर नष्टहोता दहै । ये शुभ योग कहे गये है । शुभग्रहोसे दष्ट होने पर 
उक्त फल में न्युनता हो जाती है ।। ३३७ ॥ 
धनमाव विचार- 
पापाः सवं धनस्थाने धनहानिकश मताः । 
अन्यः सौम्यः शमं सर्वमृद्धिवृद्धिधनादिकम्‌ ।॥ ३३८ ॥ 
सभी पापग्रहु घनस्थानमें धन हानि कारक होते हैँ! अन्य शुभग्रहों की युति 
धन स्थानमेंहो तो समी प्रकार से घन-सम्पत्तियों की वृद्धि होती दै ।॥३३८॥ 
कर्राश्चतुषं केष्दरेषु तथा क्रूरा धनेऽपि च। 
दरिद्रयोगं जानीयास्स्वपक्षस्य मयद्कुरम्‌ ॥ ३३६ ॥ 
क्रूरग्रह चागोकन्द्रोमेहों तथा षनस्थानमेमीक्रर ग्रहहतो दरि योग 
होता है । यह अपने कुल के लिए भी अनिष्टकर योग होता है ॥ २३३६॥ 
मष्टमस्यो यदा मौमस्त्रिकोणे नीचगो रविः । 
त शीघ्रमेव जातः स्याद्धिक्षाजोवी च दुःखितः ।। ३४० ॥ 
अष्टमभावमे मंगल, नीचराक्िगत (तुलाम) सूर्यं त्रिकोण (५, €) भाव 
्मेहोतो जातक शीघ्रही भिक्षा मांगनेवाला तथा दुध्ठी हौ जाता है ।। ३४० ॥ 


कन्यायां च यदा राहुः शुक्रो भौमः शनिस्तया । 
तत्र॒ जातस्य जयेत ॒कुबेरादधिकं धनम्‌ । २४१ ॥ 
कन्या रािमें यदि राहु, शुक्र, मंगल भौर शनिहोंतो जातक के पास कुबेर 
से मी अधिक घन होता है । ३४१॥ 


अर्कः केन्द्रे यदा चद्द्रो मित्रांशे गुरुणेक्षितः। 
वित्तवान्‌ जानसम्पन्नो जायते च तदा नरः।॥ ३४२ ॥ 
रयं केन्द्र मे, चन्द्र अपने मित्र प्रहु के नवांश मे स्थित हौ तथा बृहस्पति से 
दृष्ट हो तो इस योग मे मनुष्य धनवान एवं भ्ञानसम्पन्न ( विद्धान ) 
होता है ।। ३४२ ॥ 
स्वक्ेत्रस्यो यदा जीवो वृषः सौरिस्तथेव च। 
तदा जातस्य दीर्घायुः संपत्तिश्च पदे पदे ॥। २४३ ॥ 
अपने-अपने क्षेत्र मे यदि बृहस्पति, बुध ओर शनि स्थित हौं तो आतकं दीर्घायु 
होता है तथा पग-पग पर उसेषनकी प्राप्ति होती है ।। ३२४३ ॥ 


लग्नं लग्नेष्टसंयुक्तं यस्य॒ जन्मनि जायते । 
न मुश्वन्ति गृहं तस्य कुलस्त्रिय इव धिय! ॥ ३४४ ॥ 





२६८ मानसागरी 


शयायितो 





जिसके जन्म समयमे लग्न लग्नेश से युक्त हो ( अर्थात्‌ लग्न का स्वामी लग्न 
मे ही स्थित हो) तौ लक्ष्मी उसके गृह को कुलांगना की तरह नहीं 
श्लोडती ॥। ३४४ ॥। 
चन्द्रेण मङ्गलो युक्तो जन्भकाले पदा भवेत्‌ । 
तस्य जातस्य गेहं तु लक्ष्मीरनेव विमति ॥ ३४५ ॥ 
यदि जन्म समयमे चन्द्रमा मगलसे यृक्तहौतो जातक्रके गृह को लक्ष्मी 
कभी नहीं शोडती ॥ ३४५ ॥ 
मासमध्ये तु यत्संश्यदिवसंजयते पुमान्‌ । 
तत्सख्यवर्षमुक्तौ तु लक्मोर्भवति निश्चितम्‌ ॥ ३४६ ॥ 
जन्ममास के जितने दिन बीतने पर जन्म होता है जन्म से उतने वषं बाद 
निरिश्वत शूप से लक्ष्मी ( घन ) कौ प्राप्ति होती हैँ ।। ३४६ ॥ 
सहजमाव विचार- 
पापेस्तृतीयगेः स्वेर्बन्धिवं रहितो भवेत्‌ । 
सौम्यश्च च्नातृयुक्तः कीतियुक्तो धनत्रियः ॥ ३४७ ॥ 
यदि तृतीय भावमें सभी पापग्रहगये हों तो जातक माइयों से रहित होता है, 
यदि शुमग्रहों से युक ततीय भावो तो मादइयों से युक्त, कीतिसम्पन्न तथाधनका 
प्रेमी होता है ।। ३४७ ॥ 
लग्नात्त॒तोयमभवने शिखिना सह चन्द्रमाः । 
लक्ष्मोवाञ्जायते बालो भ्रातृहीनो न संशयः ॥ २३४८ ॥ 
लग्न से तोसरेमावम चन््रमाकेतुसे ग्क्त हो तो, उत्पन्न बालक धनवान होता 
है, परन्तु भादयो स रित होता है इमम सन्देह नहीं ।। ३४८ ॥ 
दौ जातं रविर्हृन्ति पश्चाद््रौमशनेश्चरौ। 
राहूनामा ह्य मौ हन्ति केतुः सवंनिवारकः ॥ ३४६ ॥ 
सूयं यदि तृतीय भावमदहौनो अग्रज (बः) भाई) का, मंगल ओीरषशनिदहो 
तोषठोटे भारईका, राहुटोतो बट-छौटे दोनों माइयोंका नाक्च होता दहै। यदि 
तुतीयमेंकेतुहो तौ उक्त अनिष्टो का निवारक होता है ॥ ३४९ ॥ 
स्वक्षेत्रस्थो यदा राटूर्घनश्थाने बृहस्पतिः । 
बुधेन च॒ समायुक्तस्तस्य बन्धुत्रयं मवेत्‌ ॥ २५० ॥ 
राहु अषनेक्षेत्र (क्न्या रशि) मदी, धन (द्वितीय) स्यानमें बृहस्पति बुष 
सेयुक्तहोतो जतः को तीन भद्रयों का योग कहना चाहिये ।॥ ३५० ॥ 


लग्ने चन्द्रो धने चक्रो व्यये च बुधभास्करौ। 
दाहश्वेत्‌ पशमे बालः स॒ मरवेद्रश्धङट4दा ॥ ३५१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्याख्योपेता २६९ 


लग्न मे चन्द्रमा, धन में शुक्र, व्यय भावम बुव आर सूर्ये, तथा पञ्चम भावमें 
राहरहोतो ( भाहयो ) को बन्धन ( दण्डिनि } कमाने वाला हौत्ता है । ३५१॥ 
धनस्थने यदा क्रो भौमः सौरिसमरितः। 
सहजे च भवेद्राहुरभ्राता तस्य न जीवति ॥ ३५२ ॥ 
घन स्थानम क्रूरग्रहटो, मंगलदनिस युक्तहा, नथा तृतीय भावम राहू 
हो तो उस व्यक्ति क्रा भाई जीवित नटीं रहना ॥ ३५२ ॥ 


षष्ठे च भवने भौमः सप्तमे राहुसम्भवः। 
भष्टमे च यदा सोरि््राता तस्य न जोवति ॥ ३५२ ॥ 
जन्म लग्नसे छठे भावम मगल, मातवेम राहू नथा अजष्वेम शनिहोतोी 
उस व्यक्ति का भाई जीवित नहीं रहना ।। ३५३ ॥ 


विलग्नस्थो यदा जवो घने सौरिर्यदा भवेत्‌ । 
राहुश्च सहजे स्थाने भ्राता तस्य न जवति । ३५४ ॥ 
लग्न म बृदेस्पति, द्वितीय मव म शनि तथा तीसरे मावम राहुयदिहोतो 
उसका भाई जीवित नहीं रहता ॥ ३५४ ॥ 


सप्तमे भवने भमौमश्चाष्टर्मेऽपि सितो यदि। 
नवमे च भवेत्सूर्यः स्वल्पायुश्च समूजितः ॥ २५५ ॥ 
सातर्वे मावमं मंगल, आ्ठ्वेंम शुक्रः नवममावम सूयं होतौ जातक 
अल्पायु होता है ।। ३५५ ॥ 
पु्रहो यस्य॒ सहजे ह्य च्वस्थानगतो भवेत्‌ । 
श्रातृषट्‌कं विजानीयादम्यथा भगिनी स्मृता ।। ३५६ ॥ 
जिसके जन्म लग्नसे तृतीय भावम परुष ग्रर अपनी उच्च राशिमे स्थित हों 
तो उसके छः माई होते दहै तथा उच्चराज्ञि गत तृतीयभावमे स्थितहोंतोश्चः 
बहने होती है । ३५६ ॥ 
सुखमाव विचार-- 
तुर्यस्थाने स्थिता पापा बालत्वं मातृकष्टदाः । 
सौस्षयं सौम्याः प्रकुवन्ति राजसम्मानदायकाः ॥ ३५७ ॥ 
चतुथं भाव में स्थित पापग्रह्‌ जातकके बाल्यकालमे माताके लिए कष्टकर, 
होते है । यदि शुभ प्रह स्थितं तो शुभकारक होतेह तथा 'राजसम्मान दिलाने 
वाले होते ह ।॥ ३५७ ॥ 
लग्नाश्चतुर्थगः पापो यदि स्याद्बलवत्तरः । 
सदा मातृवधं कुयत्किन्दरे वा न परो यदि॥ ३५८॥ 


३०० मानप्तागरी 





जन्म लग्न से चतुथं भावम यदि बलवान पापग्रहहो तथा केन्द्र स्थानोंमे 
अन्य कोर ग्रहनहोतो जातक माता का वधकरनेवाला होता है। ( इस योग 
में उल्पन्न बालक की माता मरजातीहै)।॥ ३५८॥ 


ह्ितीये हादच्चे स्थाने यदा पापो व्यवस्थितः । 
तदा मातुर्भयं विन्धाच्चतुथं दशमे पितुः ॥ २५९ ॥ 
लग्नसे दूसरे, बारहर्वे, स्थानमे यदिपाषम्रहहोतो माताके लिए कष्ट 
कर यदि चतुथं गौर दकम मावमे पाप प्रहहों तो पिताके लिए कष्टकर 
होता है ॥ ३५६ ॥ 
पापमध्यगते लग्ने चन्द्रे वा पापसंयुते । 
सौम्ये निधनगे पापे मातृहा सप्तवासरे ।॥ ३६० ॥ 
पाप ग्रहों के मध्यमे लग्न हो ( अर्थात्‌ दसरे गौर बारहवं मावमे पाप ग्रह 
रहो ) अषवा पापग्रहोंके मध्यमे चन्द्रमाहो, शुभ प्रह पाप ग्रहोँसे युक्त हों तथा 
अष्टम भावमेपापमग्रहहोतो जातक की माता सातदिनोंमेंमर जाती दहै ।३६०॥ 
चतुथं हन्यते माता दशमे च तथा पिता । 
सप्तमे भवने क्ररास्तस्य भार्या न जोवति ॥ ३६१ ॥ 
जिसके जन्म लग्नसे चतुथं भावमे पापम्रहहों उसकी माता की, दशम 
भावमे पापग्रहदहोतो पिताकी तथा सातं मावमें पापग्रहहोतोपत्नीकी 
क्षीघ्र मृत्यु होती है ॥ २६१ ॥ 
शन्यज्गारकमध्यस्थः सूर्यः कुर्यातितुरवधम्‌ । 
मध्ये वा रजनोनाथो मातुर्भरणमादिश्ोत्‌ ॥ ३६२ ॥ 
यदि सूयं शनि भौर मंगल के मघ्यमें स्थितहोतो पिता की मख्य, यदि शनि- 
-मंमल के मध्यचन्द्रमाहोतो माता की शीघ्र मृत्यु होती है।॥ ३६२॥ 


चन्द्रादष्टममे पापे चन्द्रे पापसमन्विते। 
पापबलिष्टः संदृष्टे सद्यो भवति मातृहा । ३६३ ॥ 


चन्द्रमा से अष्टम मावमें यदि पापग्रहहो, चन्रमा पाप ब्रहोंसेयुक्तहो 
वथा अन्य पापब्रहोंसे चनमा दष्ट होतो जातक की माता शीघ्रही मर 
आती ह ॥ २६३ ॥ 


लम्नस्थाने यदा ओवो धनस्थाने शनंश्चरः। 
दाहश्च सहजस्थानें माता तस्य न॒ जोवति । ३६४ ॥ 
यदि लगन मे बृहस्पति, हितीय में शनि, तृतीय मावमें राहु स्थितहोतो उस 
-ब्यक्ति की माता जिवित नहीं रहती अर्थात्‌ शीघ्र ही मर जाती है ॥ ३६४ ॥ 


"मनोरमा" हिष्डीभ्यास्योषेता ३०१ 


सहे भौमस्तुले सौरिः कन्यायां वा डितो मवेत्‌ । 
मिधुने च यदा रहूर्जननी तस्य नश्यति ॥ ३६५॥ 


सिह राशि में मगल, तुला मे शनि, अथवा कन्यामें शुक्र हो, वथा मिथुनमें 
यदि राहू स्थितहोतो जातक कीमता शीघ्ही मर जाता है ।। ३६५॥ 


चन्द्रः पापग्रहर्यु्तश्न्द्रो वा पापमघ्यगः। 
चन्दरारसप्तमगः पापस्तदा मातृवधो भवेत्‌ ॥ ३६६ ॥ 
चन्द्रमा पाप ग्रहो से युक्त अथवा पाप प्रहोके मध्यमे स्थित हो तथा चन्द्रमा 
से सातर्वे मावमेपापम्रहहोंतो माता की मृत्यु होती है॥ ३६६॥ 


एकादश्ले यदा ज्भूरः पञ्चमे शुक्रशोतगू । 
प्रथमं कन्यका जाता माता तस्यास्तु कष्टगा ॥ ३६७ ॥ 
ग्यारहवे मावमेक्रुरग्रह हों, प्छम माव मे शुक्र भौर चन्द्रमाहो तौ पृहे 
कन्या का जन्म तथा माता को अपार कष्टहोता दहै ॥ ३६७॥ 
धने राहूर्बधः शुक्रः सौरिः सूर्पो यदा ग्रहाः। 
तदा मातुर्भवेन्भृत्युमृ तोऽयं परिजायते ॥ ३६८ ॥ 
घन भावम राहु, बुध, शुक्र, गनि भौर सूर्यं सभी एकसाथ पषड़्होंतो माता 
की मृत्यु होती रहै तथा मृत बालकटही पदा होताहै। (ममम ही बच्चा मर जाता 
है उस बालक के जन्म के साथ-साथ मातामौो मर जातीहै }।। ३६५८॥ 


नीचस्थानगतें चन्द्रे तिष्टेद्र भार्गवात्मजः। 
पापासक्तो महाक्रोधो माता तस्य न जीवति ॥ ३६९॥ 


अपनी नीच राशि ( वृर्चिक }) में चन्द्रमा हो मौर वहीं (वृदिचकमे) शुक्रभी 
स्थित होतो जातक पाप कमं में सक्त होता है तथा उसकी माताश्षीघ्रहीभर 
जातीदहै।। ३६६९ ॥ 


दवादश्चे रिपुभावे च यदा पापग्रहो भवेत्‌ । 
तदा मातुर्भयं विन्धाच्वतुथं दशमे पितुः ।। २७० ॥ 
दवादश भाव एवं षष्ठ भाव में यदि पपप्रहहों तो माता को, बतुथं तथा दशम 
भावम परापग्रहहों तौ पिता को एय (कष्ट अथवा मृष्यु भय ) होता है॥ ३७० ॥ 


त्रिसप्तगो दिवानाथो अन्भस्थश्च महीसुतः । 
तस्य माता न जोवेत वर्षमेकं पलद्वयम्‌ । ३७१ ॥ 
जिसके जन्म समय में तीसरे भौर सातवे भावम सूये, जन्म लग्न मे मंगल, 
हो उसकी माता एक वषं से अभिकदो पलमी जीवित नहीं रह सकती अर्थात्‌ 
एक वषं के अन्त तक अवद्य मर्‌ जती है ।॥ ३७१ ॥ 


३०२ मानसागरी 





शूनाष्टमगते पापे क्ररग्रहनिरीकषिते। 
जनन्या सह मृत्युः स्याद्‌ बालकस्य न संछयः ॥ ३७२ ॥ 
सप्तम ओर अष्टम भाव में पापग्रहुग्येहों, क्ररग्रहोसे दष्टहोंतो माताके 
साथ-साथ नवजात शिशुको मीमृत्युहो जाती है ।। ३७२॥ 


पन्चमस्थाः शुभाः सवं पूत्रसन्तानकारकाः । 
करूराः सन्ततिमूत्युं च कुपुत्रं च धरासुतः ॥ ३७३ ॥ 
प्चमभाव मे शुभग्रह स्थित हों तो सन्तान कारक योग होतेह । यदि क्ररग्रह 
हो तौ सन्तान की मृत्यु होती है। यदि पन्चमस्थ मङ्गल हो तो कुपुत्र 
होते है ।। ३७३ ॥। 
बालस्य जन्मकाले तु पञ्चमो धरणीपुतः। 
अपुत्र भवेद्‌ बालो नारो चंव विष्णोषतः।। ३७४ ॥ 
जिस बालक के जन्म कालम पञ्चम भावमं मंगल हो वह सन्तान हीन 
होता है । यदि किसी स्वरी के पञ्चम भावमेंमंगलहोतो विशेष शूप से सन्तान 
हानिकारक होता है।। ३७४ ॥ 
अपुत्रः कुरुतं भानु पुत्रमेकं निशाकरः । 
सश्लोकं पुत्रहीनं च पञ्चमो धरणीसूता ॥ ३७५ ॥ 
पञ्चम भावमेंसूयंहोतो पुत्रहीन, चन्द्धमा होतो एकपृत्र,तथा मंगल हो 
तो शोकयुक्त एवं पुत्रहीन होतादहै। भाव यह्‌ कि पुत्र होकर मर जाता है ॥३७५॥ 
उच्चे वा यदि वा नीचे पञ्चमः गिखिखेचराः । 
हाहाकारं च कुरते पृत्र्षोकेन पीडितः ॥ ३७६ ॥ 
उच्च अथवा नीच राक्शिमे पञ्चम मावमे केतुहौ तौ मनुष्य पुव्रशोकसे 
सन्तप्त होकर हाहाकार करता दहै 11 ३७६) 
ऋतुरेतोऽप्यदुष्टं स्याद्‌ यदि चंको न पश्यति । 
अग्रसूतो भवेन्नापि बहुस्त्रीपरिणेतुकः । ३७७ ॥ 
उक्त ( पञ्चमस्य उच्च-नीच राशिगत केतु ) ग्रह पर यदि एक मीग्रहुकी 
दुष्टिनहोतो उस जातक की स्त्री कौ रजोधमं मी नहीं होगा-सन्तान तो दुर्ल॑म 
8 । इस योगवाला व्यक्ति करई स्त्रियोसे विवाह करर्लेतो भी सन्तान नहीं 
होता ॥ २३७७ ॥ 
पापः पचमराशौ जातं जातं णि विनादयति । 
सक्तमराश्नौ पापा द्वे भयं बादरायणेनोक्तम्‌ । २७८ ॥ 


यदि पाश्वे भाव में पाषग्रहुबेठे हों तो उस्पत्त बालकमभमी मर जाता । यदि 


"मनौरमा' हिन्दीग्यास्योपेता ३०३ 





सप्तम भावम पापग्रह बैठे हतो दो भार्या (पत्नी) का योग वादरायण ने 
बताया है ॥ ३७८ ॥ 
एकः पुत्रो रवौ वाच्यश्ननद्रं चेव सुताद्रयम । 
मौमे पुत्रास्रयो वाच्या बुधे पूत्रीचतुष्टयम्‌ ॥ ३७९ ॥ 
पञ्चम भावमेंसूयंहो तो एक पुत्र, चद्द्रमारों तोदो कन्याये मंगन्हो 
तो तीन पुत्र, बुषहोतौ चार पुत्रियां होती है ।। ३७६ ॥ 
विशेष-- यहां यह विचारणीयहै कि पञ्चम मावमें सूं ओर मंगल की उप- 
स्थिति सन्तान के लिए स्वंत्रहानिकर कटी गहै परन्तु प्रस्तुत इ्लोकमेंक्रमसे 
एक ओौर तीन पुत्र कारक कहा गयादहै। पररस्पर विर्द्ध बातें हँ । परन्तु स्मरणीय 
है कि शुक्र भौ मंगन के योग विना सन्तानोत्पत्ति नहीं होती 1 
कहा गया है--ऋतुश्च कथिनः शुक्रो रेतो भौमः प्रकीर्तितः । 
भौमः पयति यदरर्षे, तद्रषं गमसंस्थितिः ॥ 
मतः भौम का सम्बन्ध पञ्चम भाव या पञ्चमेशके साथ आवस्यक है। 
परन्तु केवल मंगल की उपस्थिति, वह भी दात्रुग्रह को राश्षिमं शुमग्रहों का सम्बन्ध 
नहो तभी मंगल मौर सूये सन्तानके निए हानिकर होते है, अन्यया नहीं । 
गुरौ गर्भं सुताः पञ्च षट्‌ पुत्रयो भृगुनन्दने । 
शनौ च गर्मपातः स्याद्राहमौ गर्मो मवे हि ॥ ३८० ॥ 
पञ्चम भावमेंब्ुहस्पतिहोतो पाँच पत्र, शुक्र हो तो ६ पुत्रियां, शनि हो 
तो गर्भपात, राहूहोतौ गम का अमाव होता है ।। ३८०॥ 
सुतस्थाने द्विपापौ वा त्रिपापाश्चात्र स्थिताः । 
तदा स्त्री-पुरुषौ बन्ध्यौ विज्ञेयौ सुतवोक्षिते ॥। ३८१ ॥ 


यदि पञ्चम मावमेदोया तीन पापग्रह बेठे हों तथा उनपर किसी प्रहुकी 
दृष्टि होतो स्त्रीपुरुष दोनों ही बन्ध्या होते है । अर्थात्‌ दोनों सन्तानोत्पादन में 
अक्षम होते है । ३८१ ॥ 
पुराणौ लग्नपतिः धुताधिपं वीक्षते वापि। 
सन्ततिबाधां कुरुते केष्रे पापान्विते चन्द्रे ॥ ३०८२ ॥ 
लग्तेश पुरुष राशि ( १, ३, ५, ७, ९, ११ ) में स्थित होकर पञ्चम भावके 
स्वामी को देखता हो तथा पापग्रहु के साथ चन्द्रमा केन््मे हो तो सन्तानोत्पत्ति 
मे बाधा होती दहै। ३८२॥ 


लग्नात्‌ पुत्रकलत्रमे शृभपतिप्राप्तेऽथवाऽलोकिते । 
चन्द्राद्रा यदि संपदस्ति हि तयोज्ञयोऽम्यथा सम्भवः ॥ 








३०४ मानस्ागरी 





पाथोनोदयगे रवौ रविसुतै मीनस्थिते दारहा । 
पुत्रस्यानगतश्च पुत्रमरणं पु्रोऽवनेर्यच्छति ॥ ३८३ ॥ 
लग्न से मथवा चन्द्र से पञ्चम गौर सप्तम भाव पर किसी शुभग्रह अथवा भावेश 

की ( पञ्न्मेशा की पञ्चम पर, सप्तमेश की सप्तम पर) दष्टिया युतिहोतो 
कम से सन्तान एवं स्त्रीप्राप्ति का योग समक्षना चाहिये । इससे भिन्न स्थितिमें 
पुत्र एवं स्त्री का अभाव होगा । यदि कन्या राशि मेसू्यंहो तथा मीन राशिमें 
कति हो तो स्व्रीषातक योग होता है । यदि पञ्चम भाव मे मंगलहो तो पुत्र 
कामरणहोताहै।॥ ३८३॥ ` 


लगे द्वितीये यदि वा तुतोये विलग्ननाये प्रथमः सुतः स्यात्‌ । 

तर्यस्थितेऽस्मिश्च सुतो द्वितीयः पूत्रो सुतो वेति पुरः्रकस्प्यम्‌ ।। ३८४ ॥ 

यदि लग्न का स्वामी लग्न में, द्वितीय भाव मे, मथवा ततीय भावमेहोतौ 
प्रथम सन्तान पत्र होता है । लग्नेश यदि चतुर्थंभाव मेंहोतो द्वितीय ग्म॑से पुत्र 
अर्थात्‌ प्रथम कन्या होती है । इसत प्रकार पुत्र भौर पुत्रीका निणेय पहृलेही कर 
सेना बाहिए ॥ ३८४ ॥ 


धनस्थाने यदा क्रः क्ररग्रहसमन्वितः। 
न॒ पश्यति निजक्षेत्रमल्पपुत्रस्तदा मवेत्‌ । २८५ ॥ 
धन स्थानं (द्वितीयमाव)मं यदिक्रुर प्रहसे युक्तक्रुरग्रहहो तथावे 
अपने-अपने क्षेत्र (गृह) कोन देश्वते हों तो अल्प पुत्र ( सन्तान) वाला ग्यक्ति. 
होता है ॥ ३८१५ ।॥। 


सहजे सहजाधीशो लग्ने वाथ धने भवेत्‌ । 
जायतेनतदा बालो यदि जातोन जावति। ३८६॥ 


तृतीय भाव कास्वामी तृतीय मावमेहीहोयालग्नमे हो अथवा धन स्थान 
भदो तो सन्तान नहीं होता, यदि किसी तरह उल्पन्न हो जाय तो मी जीवित नहीं 
रहता ॥ ३८६ ॥ 


क्षधनुर्धरपञ्चमभावगे प्रसवसौख्यफलं न च दुष्यते । 
भृतद्रजः छलु पञ्चमगे गुरो तदिह दुष्टिफलं धुभमर्नुते । ३०७ ॥ 
यदि पञ्चम भावमे मीन गौर धनु राशि हो तो प्रसव-सुख ( सन्तानोष्पति 
का सुख ) नहीं होता । यदि पड्बम भाव में ब्रहस्पति हो तो सन्तान पैदा होकर 
नष्ट हो जाता है मथवा भृत बश्चा पैदाहोताहै। परन्तु बृहस्पतिकी वृष्टि 
पठ्लम भाव पर शुभ फल ( सन्तान ) कारक होती है ॥ ३८७ ॥ 


' मना ` मा' हिन्दोव्याश्योपेता ३०५ 


लाभे धुते वा शुकरन्दुसुतं मौमोऽ्यवा क्रमात्‌ । 
शुक्गन्दर पश्यतः पृत्र॒वषऽस्मिनु सन्ततिस्तदा ॥ ३८८ ॥ 
लाभ मव (ग्यारह) में शुक्र भौर बुध, अथवा पञ्चम भावमें मंगलहो 


तो जिस समय शुक्र ओर चन्द्रमा की दृष्टि पृत्र भाव पर पट़ेगी उसी वर्षं पुत्रलाभ 
होगा ॥ ३८८ ॥ 


विषठोष - दस दलोक का उत्तरार्ध विचारणीय है । क्योकि शुक्र भौर चन्द्रमा 
की दृष्टि प्रतिवषं पृत्र माव पर प्रत्येक कुण्डला म पड्गी। दोनों शीघ्रगति वालन 
ग्रहै । चन्द्रमा प्रतिमास तथा शुक्र प्रति वपे १२ रारियोंका चक्न्नमणकर 
लेता है अतः दानोंकी दृष्टि प्रति वषं सिद्धान्तः स्म्भवहै। परन्तु प्रति वषं 
सन्तान योग वाहुना भस्वाभाविक होगा । भतः उक्त पद्यरः आश्य यहहैकि 
जिस समय ( वषे ) सन्तान योग रहेगा उस वेषं जब शुक्र मौर चन्द्रमाकी दृष्टि 
सन्तान भाव पर पट़ेगी उषी समय सन्तानोत्पत्ति टदोगमी । 
यत्र॒ चेकादशे राहुः पञ्चमे च शिखी स्थितः। 
सुताननं न दृश्येत यदीन्द्रोऽपि च सेभ्यते।। ३०६ ॥ 
जिसके जन्म समय ग्पारहर्वे भावमं राहु तथा पांचवें भावम केतु स्थित दहो 
तो वन्‌ व्यक्ति हन्द्रकोभी सेवाकरनेतो भी पुत्र न्म मखं नहीं देखता अर्थात्‌ 
सर्वथा पुत्र का अभाव रहता ३५६ ॥ 
टात्रभव विर 
षष्ठे क्ररा नरं कुर्युः शत्रुपक्षं विवजितम्‌ । 
सोम्याः षष्ठे महा रोगान षष्ठश्चन्द्रश्च मृत्युदः । ३६० ॥ 
षष्ठ मावमं स्थितक्रूर ग्रह्‌ मनुष्य को शत्रुओंसे रहित करते हैँ। शुभग्रह 
छठे भावम हों तो मयद्कुर रोग होतेह । यदि चनमा ष्ठे भावमेंहोतौ भृतु 
वारक होता है ।॥ ३६०॥ 





स्त्रीमाव विचार ; 
कुमार्या सप्तमे पापाः सौम्याः स्वजन प्रयाम्‌ । 


गुशुक्ौ शचीतुल्यां रूपलावण्यक्षालिनीम्‌ ॥ ३६१ ॥ 
सप्तम भावम यदिपाप्ग्रहहोंतो कुत्सित कमं करने वाली पत्नी होती ै। 
यदि शुभग्रह सप्तम मावमेहोंतो सभी लोगों की प्रियपात्र पत्नी होती है । गुह 
पैर शुक्र सप्तम मावमेहोतो इन्द्राणी (शची) के समान सौन्दयं एवं कान्ति 
युक सौ भाग्यक्षालिनी स्त्री होती है ॥ ३६१ ॥ . 
बष्ठे च भवने भौमः सत्तमे सिंहिकासुतः । 
अष्टमे च यदा सौरिर्भार्या तस्यन जोविति ॥ ३६२ ॥ 
छठे भावमें मंगल, सातवेम रद्र, अष्टम मवमे यदिश्निहोतोस्त्रीकी 
मृष्युहो जतीदहै।॥ ३६२॥ 
२० मा० सा 


३०६ भानस्ागरी 


जायागृहे सौरिशक्षो च राहूर्जायापतिः पश्यति नंजभार्वम्‌ । 

तस्यालये सम्मवतीह नारी व्योमा च गौरो बहूपुत्रिणी च ॥ ३९३ ॥ 

जिसके सप्तम माव मे शनि, चन्रमा भौर राहू स्थित हो तथा सप्तमेश सप्तम 
भाव को दक्षता हो तो उसके धर मे मस्यन्तं सुन्दरी गौर वणं वाली तथा अधिक 
पुतो वाली स्त्री शोभायमान होती है ॥ ३६३ ॥ 


लगने व्यये च पाताले यामित्रे चाष्टमे कुजे । 
कन्या भर्तुविनाष्चाय मर्ता कन्यां विनाशयेत्‌ \। ३६४ ॥ 
जन्म लग्न, बार हवं, चौथे, सातवें तथा आवे भावमे मंगल यदि पुदषकी 
कुण्डलीम होतो स्व्रीका, तथास्त्रीकी कुण्डलीमे होतो पुरुषका बिना 
करता है।। ३६४ ॥ 
लगे पापग्रहे गौरो दुबंलः शत्रुपोडितः। 
भवेद्दूर्वाच्यतायुक्तस्तथा परवधूरतः ।' ३६५ ॥ 
जिसके जन्म लग्नमें पापग्रहुबैठेहों वह गौर वर्णे वाला, दुर्बल, शत्रुभोसे 
पीटित, अपशब्द बोलने वाला तथा परस्त्री मे आसक्त होता है । ३६५॥ 
लग्नाद्भ्यये वा {पुमन्दिरे वा दिवाकरेन्दु भवतस्तदानीम्‌ । 
स्यान्भानवस्पात्मज एक एव भार्यापि वेंकेति वदन्ति सन्तः ।। ३६६ ॥ 
जन्म लग्नसे बारहूर्वंयाष्टठे मावमें सूर्यं गौर चन्रमा तो उस ष्यक्ति 
को एक पुत्र भौर एकर ही पत्नी होती है एेसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है।। ३९६॥ 
गण्डान्तकाले च कलत्रभावे भृगोः सुते लग्नगतेऽकं जाते । 
वन्ध्यापतिः स्यान्मनुजस्तदानीं शुभेक्षिते नो भवनं खलस्य ॥ ३९७ ॥ 
गण्डान्त ( तिथि गण्डान्त, लग्न गण्डान्तं भौर नक्षत्र गण्डान्तं इन तीनं 
गण्डन्तो ) मे जन्म हो, सप्तम भावमें शुक्र, लग्न मं शनि स्थित हो, सप्तम 
मे पापग्रहकी राशिहो तथा उसपर किसी शुभग्रहकी दष्टिनहो तो उक्त 
व्यक्ति की प्रट्नी वन्ध्या होती है । ३६९७ ॥ 


व्ययालये वा मदनालये वा लेषु बुदघालयगे हिमांशौ । 

कलत्रहोनो भनुजस्तनजविंवजितः स्यादिति वेदितव्यम्‌ । ३९८ ॥ 

बारट्वे भाव अथवा सातवे भावमें षापग्रह हौ तथा पञ्चम भाव मे चन्द्रमा 
हो तौ मनुष्व स्त्री मौर पुत्रस हीन होता है एसा जानना बाहिये ॥ ३९१८ ॥ 

असुतिकाले च कलत्रमवि यमे ष भमेस्तनयस्य बग । 

तार्या दष्टे व्वमिचारिणी स्याद्धार्या स्वयं च ष्यभिषारकर्ता ॥ ३१९ 





मनोरमा" हिन्दीग्याख्योपेता ३०७ 





जग्म समय मे यदि सप्तम भाव्म मुकुल के वयनं मे दानि स्विति हो अथवा 
दोनों (शनि गौर मंगले) ते सप्तम भाव दुष्टौ तौ ठस व्यक्ति की पल्नी 
ब्धनभिच्ारिणी होती हि तना वह भ्यक्ति भी स्वयं व्यभिचारी होता है।। ३९९ ॥ 

शुङरेन्दुपुत्रौ च कलत्रसंस्थौ कलत्रहीनं कुरुते नर तौ । 

शुभेक्षितौ वा वयसो विरामेऽकामां च रामां लभते मनुष्यः ।।४००॥ 

शुक्र ओर बुष सप्तम भावमें स्थितिहोंतोवे दोनों पुरूषको स्त्री-हीन कर 
देते ह । यदि उनपर शुमग्रहोंकी दष्टिहोतो अधिक उन्न ( बृद्धावस्था) में 
स्त्रीलाभ होता है परन्तु वह भी मनोनूकूल नहीं होती ।। ४००॥। 

चषदराद्िलग्नाच्च वलाः कलत्रे हन्युः कलत्र च लयं गतौ तौ । 

चन्द्राक पुत्रौ च कलत्रसंस्थौ पनर्भवास्त्रीपरिलन्विदौ स्तः ।। ४०१ ॥। 

चन्द्रमासेया लग्नसे सप्तम भावमे या आर्ठ्वे भावमे पापग्रहगयेहोतो 
स्त्रीकीमृत्युहो जातीहै। यदि बुध ओर शनि सप्तम भावमेंस्वितहाोंतो पुन्‌ 
भार्या ( विक्षवास्क्री) से पुनः विवाह होता है। ४०१॥। 


महीसुते सप्तभमावयातं कान्तावियुक्तः पुरुषस्तदा स्यात्‌ । 
मन्देन दुष्टे त्रियतेऽचिरात्तदा सूयण दृष्टे बहूदुःखपीडितः ॥ ४०२ । 
मंगल सप्नममंहोता वृरषस्त्रीसे रहित होता है ( मथवा स्त्री से सम्बन्ध 
विष्छेद हो जाता है) यदि सप्तमस्य मंगल को शनि देक्षताहो तो स्वयं पुर्षही 
शीध्र मरजाताहै। सूरयेमेदुष्टदो तो बहुत-दुःख से पीडित होता है ॥ ४०२॥ 
षष्ठे च भवने भौमः सप्तमे राहुसम्भवः । 
अष्टमे च यदा सौरिस्तस्य भार्या न जीवति ।। ४०३ ॥ 
जिमके टे भावम मंगल सातवेमें राहु, तथा आ्ठ्बेमं श्निहोतो उसरी 
पनी जीवित नहीं रहती । ४०३ ॥। 
आयु एवं अरिष्ट विचार 
पूवंभायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिलेत्‌ 
आयुर्हीननराणां हि लक्षणं: फ प्रयोजनम्‌ ।। ४०४ ॥। 
सवं प्रथम आायुकाही परीक्षण करना चाहिये। तस्पश्चात्‌ शुभाशुम लक्षणों 
को बताना चाहिये । भायु हीन पुरुष को लक्षणों से क्या लाम ।॥ ००४॥ 
खेटाः स्वं महा दुष्टा बष्टमस्थानमाभिताः । 
शदाङ्धुस्तु विशेषेण जन्मकाले च मृत्युदः ॥ ४०५ ॥ 
जन्म समय मे अष्टम भावमे स्थित सभी ब्रह महान दृष्ट ( भनिष्टकारक ) 


होते ह। शइनमे चिकेष स्पे चश्मा मररिष्ट कारक होकर मृष्युदेने बाला 
होता है ॥ ४०६॥ 


द०६ मानसागरी 





कृष्णपदं दिवा जातः शुक्लपक्षे यदा निहि । 
तदा बष्ठाष्टमश्चस्रो मातुवत्रिपालकः ।। ४०६ ॥ 
यदि कृष्णपक्षे दिन के समय जम्म हो तथा शुक्लपक्षमे रात्रिमेअजन्महोतो 
छठे ओर आठवें भावम स्थित चन्द्रमा माताकी नरह पालन करने वाला 
होता है ॥ ४०६ ॥ 
पच्चमस्यो निशानाथस्त्रिकोणे च बृहस्पतिः, 
द्मे च महीसूनुः शतवषं स जीवति ।। ४०७ ॥ 


जन्म समय मे पञ्चम म।वम यदि चन्द्रमा हो, त्रिकोण ( ५,६) मे ब्रहस्पति 
हो तथा दक्षम भावमेश्निहोतो सौ वों तक जातक जीवित रहता है ॥४०७।। 
शनश्चरस्तुलाकुम्भमक्ररे यदि वा भवेत्‌। 
लगने षष्ठे तृतीये वा तदारिष्टं न जायत ॥ ४०८॥। 
गनि तुला, मकर, कुम्म इनमे से किसी राशिम स्थितो कर लगन ( प्रथम 
माव ); षष्ठ, अथवा तृतीय मावमंहौतो अरिष्ट नाज्ञः. टोताहै।॥ ४०८ ॥ 


केन्द्रे शुमो यदंकोऽपि बली विश्वप्रकाशकः । 
सवं दोषाः क्षयं यान्ति दीर्घायुश्च भवेन्नरः ॥ ४.६, 
केन्द्र स्थानोंमं यदिषएकमी बलवान्‌ शुमग्रर होनो जानक विश्वको 
प्रकाशित करने ( प्रम।वश्चाली ग्यक्छित्व ) वाला हाता है। उपक समी दोष नष्ट 
हो जाते हैँ तथा मनृष्य दीर्घायु होता है ॥ ४०६ ॥ 
एकोऽपि केन्द्रे असितेज्यकानां क्रूराः सहस्राणि विष्दधयुक्ताः 
तथापि स्वष्यिपि यान्ति नाशं यथा मृगाः केसरिद्ष॑नेन ॥। ४१० ॥ 
बुध, शुक्र ओर ब्रहस्पति मेते कोई एक मी प्रहुकेश्ट्मं त्थितहोतो हजारों 
विशद योगकारक क्रूर प्रह उसी प्रकार नष्टहौजते है जैत सिह (शेर) को 
भाता देष कर मृग भाग जते ह ४१० ॥ 
पाताले वाम्बरे लग्ने भूते धर्मे तथायगे । 
बृहस्पतिस्तथा शुक्रो नाशयेदृदूरितं बहू ।' ४११॥ 
जन्म लग्न से चतुर्थं, देशम, प्रथम, पञ्चम, नवम तथा एकादश भावम 
बृहस्पति भौर शुक्रहातो विविध प्रकारके ल््ष्टों का शमनहो जाताहे।*११॥ 
एकोऽपि केन्द्रे यदि तुज्ख «स्थः सवं ग्रहा भावगुणेन तुल्याः । 
सर्वेऽम्परिष्टं च विनाश्चयन्ति तमो यथा मास्करदक्षनेन ॥ ४१२॥ 


एक शरी ग्रह पनी उश्च राशि में स्थित होकर-केन म्वोमें गयाहोतवा 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योषेता ३०९ 





[| जानिये 


अम्य सभी ग्रह अपने-अपने मावके प्रमावसे युक्तहोतोमी अरिष्टौका नाश 
उसी प्रकार होता है जते सूयं को देख अन्धकार क! ।॥ ४१२ ॥ 
शुक्रो दश्च सहस्राणि बुधो दश॒ शतानि च । 
लक्षमेकं तु दोषाणां गुरलंगने व्यपोहति ।। ४१२३ ॥ 
यदि लग्नमें शुक्रहोतो दस हजार, बुषदहोनो दक्ष मौ ( एकहजार ) तथा 
बृहस्पति हो तो एक लाख प्रह जन्य दोषों को शान्त करतादहै। ४१३॥ 
केन्द्रविकोणगो जीवः शुक्रो वा चन्द्रनन्दनः । 
तस्थ पुंसश्च दीर्घायुः स॒ भवेद्राजवल्लमः।। ४१४॥ 
जिसके जन्म लगनसे केन्द्र स्थानों ( १,४,७, १०} एवंत्रिकोण (५, ९) 
भावोंमे ब्रहस्पति, शुक्र अथवा बुष ग्याहोतो वह्‌ पुरूष दीर्घायु होत्ता है तवा 
राजा का प्रियपात्र होता दहै ।। ४१४॥। 
गुरुषंनुषि मोने वा तथा ककंटकेऽपि वा। 
लग्नाल्िकोणे कन्दरे वा तदारिष्टं न जायते ।। ४१५. ॥ 
गुर यदि जन्म लग्नसे त्रिरोणया कन्म धनु, मीन अथवा ककं राशिमें 
स्थित हा ना अरिष्ट नहीं होना ॥ ४१५॥। 
अजवृषककंटलगे रक्षति राहुः समग्रपीडाभ्यः । 
पृथ्वोपतिः प्रपन्नः कृतापराध यया पुश्षम्‌ । ४१६॥ 
मेष, व रा 7 नग्य  जन्महो तथ। लग्नमं ही राहू स्थितिहौ तो वह्‌ 
जातक की समी ग्र पीडाभोस उमी प्रकार रक्षाक्ःना दै जसे प्रसन्न राजा 
मपराधी पुरुष सो रक्षा उ्ग्तादहै।। ४१६॥ 
शहुस्त्रषष्ठलाभे लग्न त्सौम्यनिरोक्षितः सद्यः । 
नाशयति सवंदुरितं म।रुत इव तूलसङ्कातम्‌ ।॥ ४१७ ॥। 
जन्म समयत यदिराहू नग्ने गेमरे, छठे ओर ग्यारह मावमेहो तथा 
शुभग्रहोसे दुष्टहोतो समीप्रारके कष्टोकोशशौघ्रही सप्रकार नष्ट करता 
है जैसे हवा रू के समुह को नष्ट कर (उड़ा) देती है ॥ ४१७॥। 
विलग्नपो यत्र बलेन युक्तो लाभे तृतोये यदि कण्टके वा। 
सर्वाष्यरिष्टानि प्रयान्ति दूरं दीर्घायुरारोग्यतनुं करोति ।। ४१८ ॥ 
लभ्नेश बलवान होकर यदि ग्यारहर्वे, तीसरे अथवा केन्द्रमे होतो समी 
प्रकार के अरिष्टां को दूर कर दीर्षायु नथा शरीर को निरोग ( स्वस्थ) 
बनाता है ।। ४१८॥ 
एकोऽपि यदि केष््स्थो भागंवोऽय निशं पतिः । 
नवमे वा सुतस्थाने सर्वारिष्टं निवारयेत्‌ ।। ४१९ ॥ 


३१० माश्सागरी क 





शुक्र थवा बृहस्पति कोहं मी एक प्रहु नवम या पंचम भावमें स्थितहोतो 
सभी प्रकार के अरिष्टो का नाञ्च होता है ।॥ ४१६ ॥ 
बुल मागंवजोवानाभेक तमः केन्द्र मथितो बलवान्‌ । 
` क्रू रसहायो यद्यपि संथ्ोऽरिष्टथललमनावे ।। ४२० 1 
बुभ, शुक्र भौर ब्रहस्पति मे से कोई भी एक प्रह बलवान्‌ होकर केन्त्रस्यानमें 
स्थितहोतो कूर ग्रहे युक्तहोने पर शीघ्रही भरष्ट काशमन करनेभाला 
होता है । ४२० ॥ 


स्वस्थानगोऽधि क्ल. सुरराजमत्त्री 
केनद्रोपग प्रशमयेस्स्फुरदंशु जालः । 
एको बहुनि दुरितानि सुदृस्तराणि 
भक्त्या युक्त इव शुलधरे प्रणामः ॥ ४२१ ॥ 
अपने गृह ( धनु, मीन ) मे स्थित होकर अधिक बलवान बृहस्पति, केन्र 
स्थानोमे गयाहो तो अकेला ब्रहस्यति ही अपने प्रक्षर तेज से समस्त कठिन विध्नौं 
को उसी प्रकार समाप्त करदेताटहै जसे भगवानश्षंकर के चरणों मे भक्ति पूवक 
प्राम करनेते ही समस्त दुरितों काना होता है । ४२१॥ 
लग्नाधिपोऽतिबलवानशु मेरदृषटः 
केन्द्रस्थितेःश भवगेरथ वीक्ष्यमाणः । 
मृत्युं विहाय विदधाति सुदोघंमायुः 
संम्पूयंते निजगृहु परया च लक्ष्म्या ॥ ४२२॥ 
लग्नेडा अत्यन्त बलवान होकर केन्द्रमें स्थित हो, अश्ुभग्रहों से अदृष्ट तजा 
शुभव्रहों षे द्ष्टहोतो वह्‌ मह्य को टालकर ` दीर्घयु प्रदान करता है तथा जातकं 
अपने धर को धन-षान्यसे पररिपूणं कर ठेता है ॥ ४२२॥ 
लग्नादष्मसंस्थो गुख्वुधदु करदरेषका णगश्चन्दरः । 
मृत्यु प्राप्तमपि नरं परिरक्षत्येव निर्व्याजम्‌ ।। ४२२ ॥ 
लग्न ते अष्टम भाव मं स्थित चन्द्रमा यदि गुर, बुष गौर शुकके देककानमें 
स्थित हौ तौ भ्रत्य थोग प्राप्त होते हये मी चन्द्रमा जातक कौ रक्षा निस्स्वा्ं जाव 
से करता है ( अर्थात्‌ चन्र कृत अरिष्ट समप्त हो जाताहि)॥ ४२३॥ 
चगद्रः सम्पुर्णतनुः सौम्यर्षंगतोऽयवा शूभस्यान्तः । 
परकरशोत्यरिष्टमङ्ग विशेषतः शुङ्गषदुृष्टः ।। ४२४॥ 
पूणं चन्द्रमा ( बलवान्‌ चन्द्रमा ) यदि शुमग्रहोकी राशिमें अथवावो द्भ 
ग्रहों के मध्यमे स्थितहोतो भरिष्ट भङ्गं करतादहै। यदि चश्मा शुक्र पे दुष्ट 
हो तो जििषक्ू्प पे अरिष्टो का नाश होता है ॥ ४२४॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्याद्योषेता ३११ 


रिपुगः शुभद्रेऽकणि स्वितः शशो सौम्यलेचराः सबला. । 
कुर्वन््य टिषटमङ्गः संवितरन्तः शिवं सकलम्‌ ॥ ४२५॥ 
शुम प्रहोके द्वेष्काणमें स्थित चन्द्रमा षष्ठ मावमं गया हो तथा समस्त 
शुम प्रह बलवान होतो अरिष्ट मङ्ख कर समौ प्रकारसे कल्याण कारक 
होते है ।। ४२५।। 
सौम्यद्यान्तरगतः सम्पूणं: स्निग्धमण्डल श्चन्द्र: । 
भुनक्त्यशेषरिष्ठान्‌ भुजगारि्भुजगलोकमिव ।॥ ४२६। 
शुमप्रहों के मध्यमं स्थि चन्द्रमा पूणं बलवान होकर यदि ठे या आठवें 
भावमें स्थितहोतोौ वहु समस्त अरिष्टोंका नाश्ञ उधी प्रकार करताहै जैसे 
गङ्ड सयं समूह का कमन्ते ह ।। ४२६॥ 
प्रस्फुरितकिरगजने त्निधामलमण्डने -बलोपेते । 
सुरमन्त्रिणि केन्द्रगते सर्वारिष्टं क्षयं याति ।। ४२७ ॥ 
अपनी किरणों ते पूर्णरूपेण प्रकाशमान, स्निग्धमण्डल युक्त अर्थात्‌ पूणंरूपसे 


उदित एवं बलवान्‌ बृहस्पति केन्द्रमं त्थितदहोतं समौ प्रकारक अर्िष्टोँका 
नाश करते है ॥ ४२७, 


सौम्यभवनोपयाताः सौम्थांशकक्तौम्यद्‌ काणस्थाः । 
गुरुचन्द्रकाग्यशंिजाः सर्वऽरिष्टस्य हन्तारः ॥ ४२८ ॥ 
शुमब्रहों की राशियों में अथवा शुमग्रहों के देऽकाण मे स्थित बृहस्पति, चन्र, 
शुक्र मीर बुष समौ प्रकारके अरिष्टो का शमन करते हँ ॥ ४२८॥ 
चन्द्रोपाधितराणेरधिपः केन्द्रे शुभग्रहो वापि। 
प्रकरोदयरिष्टभङ्गु पापानि यथा शितवस्मरणम्‌ ॥४२६॥ 
चन्रमा जिस राशि पर स्थितहो उस राशि कास्वामी अथवा शुभग्रह यदि 
केन स्थित होतो समी प्रकारके अरिष्टो कानाश उसी प्रकार होताहै जैसे 
शिव-स्मरण करनेसे पापों का नाश होता है । ४२६॥ 
पापा यदि शुमवगं सौम्यदु'्टाः शुभांवगंस्येः। 
निष्नन्ति तदारिश्टं पति विरक्ता यथा युवतिः ॥ ४३० ॥ 
समस्त प्राप ग्रह शुभब्रहोकेषगंमे स्थितो तो तथा शुमब्रहों के नवर्माशमें 
स्थित शुमग्रहो से दुष्टहों तो समी प्रकारके अरिष्टं काना करते है जैसे पतिता 
स्त्री अपते पति कानार करती टै ।। ४२०॥ 


शीर्षोदयेषु राशिषु सवं गमनाधिवासिनोऽधिगताः । 
प्रतिहन्ति स्वंदुरितं यथा धृतं वाग्िसियोगातु । ४३१ ॥ 


३१२ मानसागरी 





यदि यदि सभी, ग्रह॒ शीषदिय रा्षियो (३, ५, ६, ७, ८, ११) मे स्थितिहोंतो 
समी प्रकारके दुरितो ( अरिष्टो) का नाक्ञ करते हैँ जसे अग्निके संयोगसे धृत 
नष्ट होता है ॥ ४३१॥ 


तत्कालयुद्धविजयी शुभः शुभनिरीक्षितश्चापि । 
नादयति कष्टनिश्हं वात्या इव पादपं सकलम्‌ ।। ४३२ ॥ 
तात्कालिक प्रह युद्धम विजयी शुमप्रहयदि शुभग्रहे दुष्टहोतो वह्‌ 
क्ष्टके समरहोंको नष्टकरताहै जंसेवायु वेगसे वृक्ष उखड़ कर नष्टहो 
जाते है ।। ४३२ ॥ 


गगनविभूषण सौम्यदु ्टो नाशयति सवंदुरितानि । 
सम्पूणमूत्तिरुड्पो दुनंयनः स्व॒ यथा नाशम्‌ ॥ ४३३ ॥ 
यदि पूणं चन्द्रमा शुमग्रहोंसे दष्टटोतो समी अरिष्टां काशमन करने 
वाला होतादहै जैसे च्ल चित्त ( चरित्रहीन) व्यक्ति अपने धन का नाकच 
करता है ॥ ४२३३।। 
मत्तस्तु राहुस्तिषडायवर्ती रिष्टं हरत्येव शभः प्रदुष्टः । 
शोर्षोदयस्थंविङृति न याति समस्तखेटः खलु रिष्टमङ्गः ॥ ४२४ ॥ 
जन्म लग्न स राहू तृतीय, षष्ठं अथवा एकाददया माव स्थितहो तथा 
ष्ुमग्रहोमे दष्टहोतो समस्त अरिष्टो कानाश होता दहै। यदि समस्त प्रह 
लीषदिय राशियोंमं हीस्थितदयीतो भी किसी प्रकारका विकार नहीं भाता 
समी अरे अरिष्ट नाक्शक होतेह ।। ४३४॥ 


तत्र॒ ग्यये लाभरिपुत्रिसंस्थःकेतुस्तु हितुनिधनोपष्चन्त्यं । 
परस्परं मागंवजीवसौम्पास्त्रिकोणगास्तेऽपि हरन्त्यरिष्टम्‌ ।। ४२५ ॥ 
लभ्नसे बारहूरवे;, ग्यारहर्वे, छठे एवं तीप्तरे मवमे केतु स्थित होतो मृस्धु- 
कष्ट ( मारकेश ) का निवारण करताहै। यदि शुक्र, बृहस्पति ओर बुध एक 
दुसरे से त्रिकोणमें स्थितहोंतो अरिष्ट का नाश करते है ।॥ ४३५॥ 


चतुष्टये श्रेठबलाधिश्षाली शु मो नभोगोऽ्टमगो न कश्चित्‌ । 
त्रि्चन्मितायुः भ्रकरोति नूनं दश्चान्वितं तच्छुमखेटदुष्टः ॥ ४३६ ॥ 


१. तारा ग्रहाणामन्योन्यं स्यातां युद्ध समागमौ । (सु. सि.) 
पश्चताराग्रहों ( मंगल, बुष, गुर, शुक्र भौरशनि) मं दोया दोसे 
अविक ग्रह एक -रिमेंस्थितहोंतो उते युद कहा जात। है । उसमें उदित, 
बलवान तथा दीप्त ग्रह विजयी होता है) 


"मनोरमाः हिन्दीव्याखश्योपेता ३१३ 





समी बलवान शुम प्रह केन्द्र स्थानोमें स्थितरहो, अष्टम मावमें कोर्भी 
ग्रहुनगयाहोतो जातक की आयु तीस वषं होनी है। यदि शुभव्रहोंकीवृष्टिही 
तो वशयुक्त अर्थात्‌ ४० वषं की आयु होती है । ४३६॥ 
निजत्रिभागे स्वगृहे गुरुश्चेदायुगंतिः स्यात्वलु विशविशत्‌ । 
बृहस्यतिस्सुङ्गगतो विलग्ने भृगोः सृते केन्द्रगते शतायुः ॥। ४३७ ॥। 
जन्म समय में बृहस्पति अपने दी द्रेष्काण मं मथवा अषने गृहमे स्थितिहोतौ 
जातक की आयु ४० वषं दोती दै। बृहस्पति यदि अपनी उच्चराशि (ककं) में 
हो तथा शुक्रकेद्रमेहोतो सौ वषं मायु होनी दै ॥ ४३७॥। 
लग्ने स्वतुङ्ग बलशालिनीन्दौ सौम्याः स्वमस्थाः खलु षष्ठिरायुः 
लग्नत्रिकोणेषु शुभेषु तुङ्खं लग्ने गुरावायुरश्ीतिरेव ॥ ४३८ ॥ 
अपनी उच्च राक्षि ( वृष) मे स्थित चन्द्रमा बलवान टोवःर लग्न में स्थित 
ठो तथा शुभग्रह अपनी अपनी राशियों मं स्थित्त होतो जातक की आयु ६० वर्षं 
होती है । यदि शुभग्रह अपने-अपने मूल त्रितेण मं स्थित हों तथा बृहस्पति मपनी 
उश्च रा्लिमें स्थित टोकर लग्नवेंगयान्नि तो आयु मौ त्ष की होती है ।॥।४*३८॥। 
लम्नाष्टमारोन्दुयुतिनं चेत्स्युः क्रराःस्वमस्था भ।प वेचरी द्रौ । 
बलान्वितावम्बरगौ भवेतां जातः शतायुः कथितो मुनीन्द्रः ।। ४२६ 
जन्म समयमं चन्द्रमा लग्न, मष्टम, पष्ठ भवनों मभ नहो, क्रूर प्रह अपनी- 
अपनी राशियोंमें स्थितिटोंतथादो बलवान ग्रह दश्षममावम स्थितहोंतो 
जातक की आयु १०० वषं होती एसा मुनियों तः कथन टै ।। ४३२६ ॥ 
श रण्प्रं केन्द्रगः सौम्यखेटलग्ने जावे नेधनेन्दूदयश्चेत्‌ । 
सदुष्टाः पापचेटस्तदा स्यादायुर्मानं सप्तति्वंत्सराणाम्‌ ।। ४४० ॥ 
अष्टम माव शुद्ध (प्रह हीन ) हो, शुमग्रटकेनद्रमे हों, ब्रहस्पति लग्न में एबं 
चन्द्रमा नवम भावम स्थितिहो तथा पमग्रहोंसे द्ष्टटोतो जातक की आगु 
स्तर वषं होती है ॥ ४४० ॥ 


भानावग्निमयाच्छशाद्ु उदकाद्धौमे मृतिश्चायुधात्‌ । 
सौम्ये कष्टकराज्ज्वराच्च विषमादजातरोगाद्गूरी ।। 
शुक्र क्षुद्रमनात्तृषाप्रजनितो मृत्युः शनौ लग्नतो । 
मृत्युल्थानगते खगे समुदितो जातस्य सत्पण्डितः ।। ४४१ ॥ 


जन्म लग्न से अष्टम मावमे सूयं स्थितहोतो अग्निसे, च्रमाहोतो जल 
ले, मौम हो तो अस्तर-शस्त्रसे, बुष हो तो भयङ्कर ज्वर से, बृहस्पति हो तो विषम 
( कठिन ) अन्ना रोगे, शुक्र हो तो, क्षुधा ओौर बमनसे, शनिहो तो पिपासा 


३१४ मानसामरी 


नरष कष्टसे जातक की मृष्युहोती है) हस प्रकार अष्टम भावं भत सभी ग्रहो 
का फल पण्डितो ने कहा है । ४४१ ॥ 


दशमे प्चमे जीवो बुधञ्मन्द्रश्न भागंवः। 
शतस्वी भवेज्जातो बताह वेदपारगः ॥ ४४२ ॥ 


जन्म लग्न स दशं भौर पँचवें मावमं गुरु, बुष, ब्म भौरष्ुक्रहोंतो 
इस योग मे उस्पन्न व्यक्ति सौ वषो तक जीवित रहने वाला, धनाढध तथाबेद 
काञ्ज(ता होता है।। ४४२॥। 


नवमे पमे जोवो बुधो मवति सप्तमः, 
लग्ने भागंवचन्द्रौ च शतञ्जीवी भवेन्नरः ।। ४४३ ॥ 


नवम या प्म माव ग ब्रटस्पति, सप्तम मावम बुध, लग्नमे शुक्र भौर 
चन्रमा हों तो मनुष्य सौ वर्षो तक जीवित रहता दहै ।। ४४२॥ 


सर्यादिभिनिधनगहु'तक्हसलिलायुधज्व रामय जः । 
कु्तट्करतश्च मूत्युः परदेशे नैधने चरमे ।। ४४४ ॥ 
सूर्यादि प्रह अष्टम भावम गयेहोंतोक्रमसे जग्नि, जल, भयु, उ्वरः 


आमय ( उदर रोग ), मृख-प्यास से उत्पन्न कष्टों से मृत्यु होती है । यदि अष्टम 
भावमे चर रश्षिटोतो परदेश्चमें मृत्यु होती टै । ४४४।। 


यो वा बलवान्निघनं पश्यति तद्धातुकोपजो मृत्युः । 
लग्ने त्रि्चाशापतिर्द्रविशतिहायने मृत्युः ।। ४४५ ॥, 


जो बलवान प्रह लग्न को देता हो उस ग्रहुसे सम्बन्वित घातुके श्रकोप 
से जातक की मृष्युहोतीदै। लग्नमें यदि तिर्ाश्च का स्वामी उषस्बितहोतौ 
बादसर्वे वर्षं मे जातक की मृल्यु होती है ।। ४४५ ॥ 


बष्ठाष्टमकण्टकगा गुदरच्वे भवति मीनलग्ने वा । 
शोषं रबलेजंन्मनि मरणे वा मोक्षगतिमाहुः। ४४६ ।। 


बृहस्पति अपनी उश्चराशिमें स्थित होकर वटे, आठ्वे गौर केशमे हो 
अथवा मीनराशिमे स्थित होकर जन्म लम्नमेहो, अभ्य ब्रह निर्बशदहों तो भृ्ब 
के बाद जआतक का मोक्षहो जाता है ।॥ ४४६ ॥ 


गुरुश्दूपविशुक्रौ पूर्यमौमौ यमज्ञौ 
विब्ुधपितृतिरश्बो नारकीयांश्च कुर्युः । 
दिनकरशश्िवीर्याधिदठिन्यंदानाथात्‌ 


प्रवरसमनिकृष्टस्तुङ्गहासादनुके । ४४७ ॥। 


"मनोरमा" हिन्दीष्यश्योपेता ३१४ 


सूयं ओर जन्दरमामेंजो बलवानहौ तथा जिम दरेष्काभमें स्थित हो उसके 
जधिपति प्रह के अनुसार, उत्तम, मध्यम भौर निकृष्ट फल अनू्‌# ( पूर्वबन्मके ) 
विचारमें होता है, यथाद्रिष्काणेश्च गष तोदेव योनिते, चन्द्रमा मौर शुक्र 
हो तो पित्‌ लोके, सूर्यं गौर मङ्खलदहौ तो तिर्यक्‌ योनि ( पक्चियौनि) षे गौर 
शनि, बुध ह्‌ातो नरक से जातक का आगमन होता है ॥ ४४७ ॥ 
स्थिरश्चरोद्रच ञ्गंसमाह्वयश्च राशिर्यंदा जन्मनि चाष्टमस्थः । 
स्वरकीयदेशो विषयान्तरे वा मागं अकु्ामिरणं क्रमेण ॥ ४४८ ॥ 
जन्म काल में अष्टम माव गन ल्थिर, चर ओर दविःस्वमाव राशियों से रमसे 
स्वदेश विदेश गौर ममम मृत्यु काज्ञान करना चह्ि। यथा-अष्टममावमें 
स्थिर राशिहोतो अपने आवास पर, चरो नता अन्यस्थान अन्यदेश्चमे तषा 
दविःस्वभावटहोतोयात्राके समय मागमे मृत्युहोतीदहै।। ण्ट ॥। 
आयुगु हं लेटविवजितं चेद्विलोक्येक्तद्बलवान्‌ ग्रहेन्धरः । 
तदधेतुजातं प्रवदन्ति मृत्युं बहुप्रकारं बहवो मुनान्दराः॥। ४४६ ॥ 
यदि आायु ( अष्टम) माव ग्रहसे रहितहो तो जिस बलवान प्रहकी वृष्टि 
नष्टम माव पर हो उसी ब्रह की धातुके प्रकोपसे जातक कीमत होती है ।*४६। 
पिं कफः पित्तमथ त्रिदोषं श्लेषमानिलो वाप्यनिलः कृमेणः । 
सूर्यादिकेभ्यो मरणस्य हेतुः प्रकल्पितः भराक्तनजातकञ्ञेः ॥ ४५० ॥ 
सूर्यादि ग्रहों की पित्त; कफ, पित्त, त्रिदोष ( वात-पि्ल-कफ ), कफ, कायु 
तथा वायुक्रमसे बाहुं बताई गई ह । यथा-सूयं कौ पित्त, चन्द्रमा की कफ, 
मङ्गल की पित्त, बुष की त्रिदोष ( वात-पित्त-कफ), गुड की कफ, शुक्र की 
वायु, तथा शनि की वायु प्रधान धतुहोतीदहै। जो प्रह मारक होगा उससे 
सम्बन्धित धातु विकार से मृत्यु होगी । ४५० ॥ 


भाग्यमाव विचार- 
विहाय सवं गणकंविचिन्त्यो भाग्यालयः केवलमत्र यल्नातु । 
भायुज्र माता च पिता च बन्धुर्भाग्यान्वतेनेव भवन्ति धन्याः ॥ ४५१ ॥ 


सभी भवो को छोड़कर ज्यौतिषी को विधिपूर्वकं केवल माग्य मावकाही 
विशार करना बाहवे क्योकि आद्भु, माता, पिताः भाई सभी भाभ्यवान ब्यक्िसे 
ही षम्य ( सार्ष॑क ) होते ह ।। ४५१ ॥ 

यस्यास्ति भाग्यं स नरः कुजोनः स पण्डितः स श्वुतिमान्‌ गुणज्ञः 

स॒ एव बक्ता स च दंनीयो भाग्यान्वितः सवंगुणंख्पेहः ॥ ४५२ ॥ 


जिसके पास भाग्य हि अर्थात्‌ जो भाग्यवान पुरुषै बही कुलीन पच्छ, 


३१६ मानसागशरी 





(क ए 1) 





यशस्वी; गुणवान, आच्छावक्ता, द्ौनीय ( अति सुन्दर), भाग्यक्ाली तथा 
सभी गुणों से सम्पत्त है ।। ४५२॥ 


द्वाविंशे रविणा च वषंकथितं चन्द्रे चतुविंशति- 
ह्य छाविश्षतिभूमिनन्दनमतं दन्तंर्बृधे ख स्मृतम्‌ , 
जीवे षोडश पन्चविशति-मृगोः षट्तिश-सौरे वदेत्‌ 
कमेशात्छलु कर्म चैव कथितं लग्नाधिपे वेत्स्मृतम्‌ ।। ४५३ 
बाहसवं वषे म सूये, र्वे वषं मं चन्द्रमा, अद्राईसवें वषमे मङ्गल, बत्तीसर्े 
वषं में बुध, सोलहवें वषं में बृहस्पति, पच्चीसर्वे वषं में शुक्र तथा छत्तीसवें व्व मे 
सनि भाग्योदय वारक होतादहै। दकशषम भावके स्वामी की प्रकृति के अनुसार 
कायं ( जीविका ) वा निणेय करना चाहिये । इस योगम नग्नेश की अनुकूलता 
आवश्यकः है ।। ४५३ ॥ 
भाग्ययोगकरे सौरे स्थिते जन्म यदा भवेत्‌ । 
लग्नपे तु विशेषेण यावज्जीवं समृद्धिमान्‌ ।। ४५४॥। 
यदि जन्म समयम शनि भाग्य योग कारकहौ तथा स्वयं लगेशमीहोतो 
जीवन पर्यन्त समृद्धिश्ाली रहता है ।। ४५४ ॥ 


मूत्तश्चापि निशापतेश्च नवमं भाग्यालयं कीत्तितं । 
तत्स्व स्वामियुतेक्षितं प्रकुरुते भाग्य स्वेदे्ोद्धवम्‌ ।, 
चेदन्थविषयान्तरेऽत्र शुभदाः स्वोच्चादिगाः सववंदा । 
ुर्यर्माग्यमसाधवो न च वलाद्दुःखोपलन्धि परात्‌ 1 ४५५ ॥ 


जन्म लग्न अथवा चन्द्र ( जन्म रक्षि) से नवम माव भाग्य माव कहा जाता 
है । भाग्य भाव यदि अपने स्वामी से युत भथवादृष्टटो तौ अषनेदेशमेंदही 
भाग्योदय होताहै। यदि अन्य ग्रहों से युतणएवं दृष्टटी तो देशान्तर ( अपने 
देश या स्थानके अतिरिक्त किसी अन्य स्थान) मं भाग्योदय टोतादहै। यदि 
शुभ प्रह गपनी उच्वराशिमे अथवा शुभ वगम हो तो प्र्वत्र सदैव भाग्योदय 
होता है। परन्तु पापग्रह उषश्वादिमें हो तो भाग्योदय नहीं होता अपितु 
अनायास दुःखो दी प्राप्ति होती है ॥ ४५५ ॥ 
भाग्येश्वरो भाग्यगतोऽस्ति कि वा स्वश्यानगः सारविराजमानः । 
भाग्याधितः कोऽस्ति विचायं सर्वमत्यल्पमस्पं परिकल्पनीयम्‌ ।॥ ४५४६ ॥ 
भाग्येश ( नवम भाव कास्वामी) यदि माग्य मावमें होया अन्यत्र अपनी 


ही राच्चिमें स्थित हौ तथा बलवानरहौ तो बलानृसार न्यूनाधिक फल जातक को 
प्राप्त होता है । वदि नवमे निर्बल हो तौ जातक भाग्यहीन होता है ॥ ४५६॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याडङ्योपेता ३ १७ 


हनुत्रिसुनुपगतो प्रहश्वे्यो वाधिवौर्यो नवमं प्रपश्येत्‌ । 
यस्य प्रसूतौ स तु भाग्यशालौ विलासशीलो बहुलार्थयुक्तः ।। ४५७ ॥ 


जिसके जन्म समयमे कोर्ईभी बलवान ग्रह लग्न, तृतीय, प्म भाव में 
स्थित होकर भाग्यभाव को देखताहौोतो वह व्यक्ति भाग्यशाली, विलासी तथा 
बहत धन-सम्पत्ति से युक्त रोता टै । ४५७ ॥ 
चेद्धराग्यगामौ खचरः स्वगेहे सौम्येक्षितो यस्य नरस्य सुतौ । 
भागयापिालो स्वकूलावतंसा हंसो यथा मानसराजभानः ॥ ४५८ ॥ 


जिस मनुष्य के जन्म समयम भाग्यभावमं गया हुभा ग्रह॒ अपनी ही राशि 
मेहो (अर्थात्‌ मग्येश् माभ्ये भावम हौ) तथा शुमग्रहोंसे दुष्टहोतो वहू 
बहुत माग्य शाली तथा मानसरोत्रर म शोभित होने वाते राजहस की तरह 
अपने कूल में श्रेष्ठ होता है ।। ४५०८ ॥ 


पणन्दुयुक्तो रवि मूमिपृत्रौ भाग्यस्थितौ सत्त्वतसमन्वितौ च । 
वंशानुमानात्सचिवं नृपं वा कुर्वंन्ति ते सौम्यदश्चं विशेषात्‌ । ४५९ ॥ 
पूणे चन्द्रमा से युक्त सूयं गो मङ्गल यदि माग्यमावमे स्थित हों तथा बलवान 
हों तो जात अपने कुल को स्थिति के अनुपार मन्तरीया राजा होताहै। यदि 
शुभग्रट की दशामीहो तो विशेष फलदायर होती है । ४५६ ॥ 


स्वोच्चोपगो माग्यगृहे न भोगो नरस्य योगं कुरुते च लक्ष्म्या । 
सौम्येक्षितोऽसौ यदि भूमिपाल दन्तावलोल्कृष्टविलासशोलम्‌ ।। ४६० ॥ 
अपनी उच्चराश्िम स्थित हायर ग्रह माग्य भावम गयादहा तो जातक 
लक्ष्मी ( धन-सम्पत्ति ) से युक्त होताहै। यदि वह शुभग्रहोसे दृष्टभीहोतो 
उत्तम कोटि की हाथियों से युक्त विलासी राजाहोताहै।। ४६० ॥ 
समुदितमृषिवयं्मानवानां प्रषत्ना- 
दिह हि दक्षममवे सर्वकमं प्रकामम्‌ । 
गगनगपरिदुष्ट्या रां्चलेटस्व मावः 


सकलमपि विचिन्त्यं सत्त्वयोगात्सुषीभिः ॥ ४६१ ॥ 
शष्ठ मुनियों ने दशम मावते सभी प्रकारके कायौँका प्रयारा पूवेक विचार 
कर मनुष्योंकेहिनकेमिषएन्हाहै। ग्रहों की दृष्टि, राशियों भौर ब्रहों के 
स्वभाव, एवं बल काज्ञान कर विद्वान को दकम भाव राम्बन्धी विचार करना 
चाहिये । ४६१ ॥ 


तनोः सकाशादशमे शशाङ्के वृत्तिभवेलस्य नरस्य नित्यम्‌ । 
नानाकलाकौदालवान्विलासंः सर्वोधरमः साहसकमंभिश्च ॥ ४६२ ॥ 


३.६व मानप्तामरी 





लगने क्वापि मवमे चन्रमा क्वाह तोखाना अकारके कलां कौदालमे 
निभ होने से, सकी स्ोगों एवं साहसिक कार्यों से उषे भलुष्य की सदैव 
जीविका सुरक्षित रहती है ।॥ ४६२ ॥ 

तनोः शालाङ्ाटृशमे बलीयान्‌ स्याज्जीवनं तस्य खगस्य व्या । 

बलान्विताद्रगंपतेस्तु यषा बुत्ति्भवे्तस्य खगस्य पाके ॥ ४६२३ ॥ 

जन्म लगनसेया खक्से दषम भावम जो बलवान्‌ ग्रह हो उसी ग्रहकी 
वुत्ति के अनुपार जातक की जीविका होती है । अथवा बलान वर्गपति ( षडव्गे 
के स्वामी) के वत्ति के अनुसार जीविका होतीहै तथा उसी ग्रहकी दह्ामें 
प्राप्त होती है ॥ ४६३ ॥। 


दिवामणिः कमंणि चन्द्रतन्वौद्रेभ्याण्यनेकोद्चमवृत्तियोगात्‌ । 
सत्वाधिकत्वं च सदा पुरम्यं पृष्टट्वमद्गे मनसः प्रसादः ॥ ४६४ ॥ 


जन्म लम या जन्मराशिसे दशम भावम सूर्यस्थित हो तो विविध प्रकार 
के उद्योगों द्वारा मधिकं धनलाभः, बल वृद्धि, सुन्दरता, भङ्गी की पुष्टता तथा 
सदैव मन में प्रसन्नता रहती है ॥ ४६४ ॥ 

लमेन्दूतः कमणि चेन्भहीजः स्यात्साहसाश्चौयंनिषादवृत्तिः । 

ननं नराणां विषयानिशक्तिदूरे निवसतः सहसा कदाचित्‌ ।। ४६५ ॥ 


लग्न या चन्द्रसे दशम भावम मङ्गल हो तो साहसिक कार्यं, चोरी, निषाद- 
वत्ति (नौकाया मछली कः व्यापार) से जीविका चलती है। कमी-कभी 
आकस्मिक कार्योसेधरसे दूर निवास करना पड़ता है तथा मनुष्य विषय-वासना 
मे अधिक गासक्त रहता है ।। ४६५॥। 
लग्नेन्दुभ्यां कर्मगो रौहिणेयः कुर्यादुदरष्यं नायकत्वं बहूनाम्‌ । 
सित्पेऽभ्यासः साहसं सवंकाये विददवुत्या जीवनं मानवानाम्‌ । ४६६ ॥ 
लग्न अथवा चन्द्रमासे दशम भावम बुधहौतो मनुष्यको द्रव्य लाभ होता 
है । तथा वह बहुत लोगों का ( किसी समाजय पार्टीका) नेता, शिल्प श्षास्व्र 
का अस्यास करने वाला, सभी कार्योमे साहस दिने वाला एवं अपनी विद्रा 
से जीवन यापन करने वाला ( भर्थात्‌ शिक्षक या लेखक ) होता है।॥ ४६६ ॥ 
विलग्नतः शीतभयुखतो वाऽऽ 
शाख्ये मघोनः सचिवो यदि स्यात्‌ । 
ननाधनान्यागमनानि पुषं 


विचित्रवृत्या नृपगौरवं च| ४६७॥ 
लग्न भथवा चसे दशम भावमे ब्रहस्पति हो तो मचुध्य विविधप्रकारके 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता दष्ट 





धनं सम्पत्ति के भागमन से सम्पन्न विचित्र वुत्ति ( विभिन्न प्रकारै जीविका 
अलाने गाला दवा राजा ते सम्मानित होता है ॥ ४६७ ॥ 


होरायाश्च निशाकगदर्भुगुसुती मेषुरणे संस्थितो 
नानाल्ास्त्रकलाकलापविलसद्वृ्या।दशेज्जीवनम्‌ । 

दाने साधुजने यथा विनयतां कामं धनभ्यागमं 
नानामानवनायकादिविरलं विस्तीणंशोलं यशः ।। ४६८ ॥ 


लग्न अथवा चश््रसे दशम भावमे यदिशुक्रहो तो जातक विविष शस्त्रो 
एवं कलाओं मे कुशल तथा उसी से जीविका चलाने वाला, साकु-ुखुषों को दान 
देने वाला विनशन, दच्छानुकूल धनसंग्रह करने वाला, अनेक लोगो कानेता, 
कश्ीलवान तथा महान यक्षस्वी होता है ॥ ४६८ ॥ 


होरायाश्न सुधाकराद्रविसुतः शंलूषमष्यस्थितो 
वृत्ति हीनतरां नरस्य कुरुते काश्यं शरीरे सदा । 
वेदं वादभयं च धान्यधनयोर्हानि स्वमृच्चं्मन- 
श्ित्तोद्रेगसमृद्धवेन चपलं शीलं च नो निमंलम्‌ ॥ ४६९ ॥ 
जन्म लग्न ओौर चन््रमासे दशम भावम यदिक्षनिहोतो वह व्यक्ति हीन 
वुत्ति ( निकृष्ट जीवन ) वाला, सदेव कश्षरीरमे दुर्बल, दुःखी, वाद-विवाद के भव 
से युक्त, धन-सम्पत्ति काहानि करने वाला, अपन उच्च मनोरथो से उद्विन, 
चश्जल स्वमाव वाला तथ। दुष्ट प्रकृति वाला होता है । ४६६॥। 
जीवो द्विजात्माकरदेवधर्मेः शुक्रो महष्यादिकरोप्यरत्नैः । 
शनेश्चरो नीचतरधरकारंः कुर्याक्षराणां खलु कममवृत्तिम्‌ ।। ४७० ॥ 
बृहस्पति यदि जीविका कारकटो तो ब्राह्मण ठलत्ति ( भध्ययन-अध्यापन) 
देवकायं ( यज्घ-यागादि ), तथा धर्माचरणसे, शुक्रहोतो मैस आदि पशुओं, चांदी 
एवं रल्नोंके व्यापारसे, श्नि होतो निभ्न कायो से मनुष्य जीवन~यापन 
करता है ।। ४७०॥ 
कर्मस्वामौ ग्रहो यस्य नवांशे परिवतते। 
तत्तल्यकर्मणा वुत्ति निदि्ान्ति मनीषिणः ।। ४७१ ॥ 


दशम भावका स्वामी जिस ब्रहके नवमांशहो उसी ग्रहुके अनुसार उस 
मनुष्य की जीविका का निर्देश विदधान लोग करते हैँ । ४७१॥ 


मित्रारिगेहोपगतंनं मोगंस्ततस्ततोऽर्थः षपरिकल्पनीयः । 
तुङ्गे पतङ्गे स्वगृहे त्रिकोणे स्यादथंसिद्धिंनजबाहूवोर्यात्‌ ॥ ४७२ ॥ 


जीविका कारक प्रह ({ दशमेशके नववाहाका स्वामी ) अपने मित्र-शत्रु-सम 


१२० माससाभरी 


प्रह की राशियोमे से जिसमे स्थित हो उसीके सहयोगसे जीविका होती है। 
यथा मित्र बृहमेहोतोमित्रोंके सहयोगे, शत्रु गृहमेहोतो शत्र के सहयोगे 
जीविका का साधन मिलताहै। यदि उक्त ग्रह अपनी उण्च राशि, स्वक्षेत्रया 
मूशत्रिकोणमेहो तो मपने बाहुबल से जीविका प्राप्त करता है ॥ ४७२ ॥ 


बुधमागंवजीवाक्ियुक्तो राहुश्तुष््ये । 
कुरते कमला रोरयपुत्रमानादिकं फलम्‌ । ४७३ ॥। 
बुध, शुक्र, बृहस्पति, शनि भौर राहु एक साथ केन्द्रस्थानोंमे स्थितहोतो 
जातकं धन, पुत्र एवं सम्मानादि से युक्त होता है ।॥ ४७२ ॥ 
कमेस्थानें निजक्षेत्रं भौमणशुक्रवुधंर्यतः । 
यदि र हिभवित्तस्य क्षणे बुद्धिः क्षणे क्षयः ॥ ४७४ ॥ 
यदि दशम भावमे मपनी गाति में स्थित राहु मंगल, शुक ओर बुध से युक्त 
होतो उस ष्यक्तिकीक्षणमें वृद्धि तथाक्षणमं हास होता है अर्थात्‌ जीवनमें 
उत्थान-पतन का क्रम चलता रहता है । ४७४॥ 
पाताले चाम्बरे पापो द्वादशे च यदा स्थितः, 
पितरं मातरं हन्ति देशाद्देशान्तरं ब्रजेत्‌ ।। ४५५ ।, 
चतुर्थं, दशम भौर दवादश मावम यदिपरापग्रहस्थितदहोंतो माता-पिताकी 
मृष्यु होती §ै तथा एक देश से दूसरे देज म जातक भ्रमण करता है । अर्थात्‌ माता- 
पिक्ञाकीभरृत्युके बाद ज।तकः गृह छोडकर अन्यत्र चला जाता है ।। ४७५॥ 
चापे सूर्यः शनि कुम्भे मेषे भवति चन्द्रमाः । 
मकरे च यदा शुक्रो भुक्ते नायं पितुंनम्‌ । ४७६ ॥। 
धनु राशिमं सूर्य, कुम्भ मे शनि, मेष मे चन्द्रमा तथा मकर राशिमें 
शुक्र होतो पिताका नाश्च होता है, अनन्तर जातक पैतृकं षन का उपभोग 
करता है ।। ४७६ ॥ 
सप्तमे अवने भानु्मध्यस्थो भूमिनन्दनः । 
दाहृश्चान्ते च तस्येव पिता कष्टेन जीवति ॥ ४७७ ॥ 
सप्तम माव में सूर्य, दशम भावम मङ्गल तथा बारहूवे भावमेंराहृहोतौ 
उस व्यक्ति का पिता बहुत कण्टके साथ जीनित रहताहै। ( व्हा पिताकी बृह्यु 
कामी अभिप्राय है) । ४७५७ ॥ 
कन्यायां मिथुने राहुः केन्द्रे षष्ठे व्यये भवेत्‌ । 
त्रिकोणे च तदा जातो दाता मोक्ता निरामयः ॥ ४७८ ॥ 





"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ३२१ 





कम्या या मिथुन मे राह स्थित होकर केन्र, छठे बारहवं अथवा त्रिकोण में 
गया हो तो जातकं दानी, सुक्ल मोग करने वाला, तथा निरोग होता है ।। ज७अ ।। 
सुय: पापेन संयुक्तः सूर्यश्च पापमध्यगः । 
सूर्यात्सप्तमगः पापस्तदा पितृवधो मवेत्‌ ।। ४७९ ॥ 
यदि भूयं पापग्रहेसे युक्त हो अथवा पापग्रहोंके बीचमें स्थित हो तथा दधवं 
ते सातवे भावम पाप प्रहुस्थितिहोतो पिता की मृत्यु होती है।। ४७६॥ 
दशमस्यो यदा भौमः शत्रक्षेश्रस्यितो यदि । 
नियते तस्य बालस्य पिता शोघ्र न संशयः ॥ ४८० ॥ 
दाम भावमेंदहाच्रुग्रहु की राशि यदि मङ्गल स्थितहोतो उस बाजक के 
पिताकीकशीध्रही मृत्यु होती दै इसमें सन्देह नटीं ।। ४८० ॥ 
लग्ने जीवो धने मन्दो रविर्मौमिस्तथा बुधः । 
विवाहसमये तस्य बालस्य न्रियते पिता । ४८१ ॥ 
जन्म लग्न मे बृहस्पति, धन मावमं शनि, सूरय, मौम एवं बुधये समी श्क 
साथ स्थितहों तो उस व्यक्ति के विवाह के समय पिताकीमृल्यु होती है ॥४८१।॥ 
भ्रातृस्थाने यदा जोवो लामस्थाने यदा शशी । 
स॒ लोके गृहमध्यस्थो जायते कूलदोपक्रः ॥ ४८२ ॥ 
यदि तृतीय मावम बदस्पति तथा एकादक्ञ भावम चन्द्रमा, स्थित हो तो 
वहू व्यक्तिसंसारमं ( विख्यात ) एवं गृहमे सर्वशवेष्ठ तथा अपने कुल को यञ्चस्वी 
बनाने वाला होता है ।। ४८२॥ 
सिहे लग्ने यदा मौमः पच्चमे च निशाकरः । 
व्ययस्थाने यदा राहुः स जातः कुलदोपकः ॥ ४८३ ॥ 
जन्म लग्न सिह हो उसीमे मंगल तथा उससे पांचवें मावमे चन्रमा तथा 


बारहर्वे मावमें राह ग्याहो तो जातक अपने वंशका दीपक (वंश का नाम 
उज्वल करने वाला ) होता है ।। ४८२॥ 


एकः पापो यदा लग्ने पापश्चंको रसातले । 
जयते च नाली स्यात्स जाततः कुलदीपकः! ।। ४८४ ॥। 
एक पाप ब्रह लग्नमे तथा एक पापग्रह चतुथं मवमे, स्थितो तो हिनानी 
योग होता अर्थात्‌ जातक को जन्म समयमे दो नाल होतीदहै। तथा बह 
बालक अपने कुल मे भेष्ठ एवं यक्षस्वी होता है ।। ४८४॥ 
लन्ते वा सप्तमे भौमः पमे च दिवाकरः । 
व्ययस्थाने यदा राहुवि्यातः स न संशयः ॥ ४८५॥ 


२१ भाग भाश 


३२२ भानसागरी 





जगन मे अथवा सप्तम भावम मंगल, पष्छम भावमे भूयं, व्ययत्थान में 
राहु द्ोतो जातक विख्यात होता है इसमे सन्देह नहीं ॥ ४८५ ॥ 
केन्द्रे शुभो यदंकोऽपि बलो विष्वप्रकाक्षकः। 
स्वंदोषाः क्षयं यान्ति दीर्घायुश्च भवेन्नरः ॥ ४८६॥ 
केन्द्र स्थानमे यदि एकं भी बलवान्‌ शुभग्रह स्थितो तो सभी दोषनष्टहो 
आति ह तथा मनुष्य दीधंजीवी होता है ।। ४८६ ॥ 
एकादश भाव विचार-- 
लाभस्थाने ग्रहाः सवं राज्यलामफलगप्रशः। 
गजाश्वपतिमीप्तां च सौम्याः कुवन्ति निश्चितम्‌ ।। ४८७ ॥ 
लाभ स्थान मे समी ग्रह राज्यलाम एवं शुम फल दायक होतेहै। यदि 
शुभग्रह लाभस्यानमे हो तो जातक हाथी-घोडोंसे सम्पन्न होत हुये गौर अभिक 
की अभिलाषा रश्ने वाला होता है ।। ४८७ ॥ 
सूयण युक्तःस्वविलोकितो वा लाभालये तस्य गणोऽत्र चेत्स्यात्‌ । 
भूपालतश्चौरकुलात्कलेवा चतुष्पदादेबंहुधा धनाप्तिः ॥ ४६८ ॥ 
लामस्थानमे सूयं स्थितौ यालाम मावको सूर्ये देषताहो तथा लाम 
स्थान सूयं के षटवगं में हो तो राजा से, चोरोंसे, विवाद तथा षतुष्पद 
( जानवरो ) के सम्बन्धे प्रायः घन का लाम होताहै।॥ ४८८ ॥ 
चन्द्रेण युक्तं च विलोकितं वा लाभालयं चन्द्रगणाश्चितं चेत्‌ । 
जलाशयं स्त्रोगजवाजिवृद्धिः पूणं भवेतक्षीणतरे विलोमात्‌ ।। ४८६ ॥ 
लाम माव चन्द्रमा के षट्वगेमे स्थित हो, चन्द्रमासे युक्त मथवा दष्टहोतो 
जलाशय निर्माण, स्त्री लाम एवं हाथी-षोडां की वृद्धिहोतीहै। चन्द्रमाके पूर्णं 
बली होने पर ही उक्त फल सम्भवदहै। यदि चन्द्रमा क्षीण होतो युक्त फलका 
विपरीत प्रभाव होता है । स्त्री-हाथी-घोड़ं आदि का ह्लास होता है ।। ४८९ ॥ 
लाभालयं मङ्गलयुक्तदुष्टं प्रकृष्टमूषामणिहेमलग्धिः । 
विचित्रयात्रो बहु्षाहसो स्यान्नानाकलाकोमलबुद्धियोगेः ॥। ४९० ॥ 
लाभस्थान मंगल से युक्त अथवा दुष्टहो तो उक्तम कोटि के भामृषण, मणि, 
श्वं स्वर्णं की प्राप्ति होतीदहै। विचित्र यात्रा करने वाला, मस्यन्तं साहसी, तथा 
अषपनौ कोमल बुद्धि के दवारा विविध प्रकार के कला कौशल में निपुण 
होता है ॥ ४६० ॥ 
लाभे सौम्यगणाशिते सति युते सौम्ये च सद्रीक्षिते 
नानाकान्यकलापविधिना शित्पेन लिप्या भुखम्‌ । 


(मनौ रमा" हिम्दीष्यास्योषेता ३३३ 





ुकतिर््रभ्यमया  भवेदनचयः  सत्साहसेख्चर्मः 
सख्यं चापि वणिग्जनर्बहुतरं क्लीबेन णां कोितम्‌ ॥ ४६१ ॥ 
लाभस्थान बुष के वदढवर्गमेहो, बुषसे युक्तया दृष्टहो, शुभग्रहोसे दष्ट 
हो तो जातक विविघप्रकार की काभ्य रचना से, हिल्प ( मूति कला) से नेशन 
द्वारा, सुज प्राप्त करने वाला तथा, अर्थोपा्जन की दुष्टिसे कायं कले वाला, 


धन सञ्चय करने वाला, साहसी, उद्योगी, व्यापारी लोगों का तथा नपसर्कोँका 
भित्र होता है। ४९१॥ 


यज्ञक्रियासाधुजनानुयातो राजाधितोत्कृषटकृपी नरः स्यात्‌ । 
व्येण हैमप्रचुरेण युक्तो लामो गुरौ वगं निरीक्षणं चेत्‌ ।। ४९२ ॥ 
यदि लाभ भावम गुरुया गुरु का षडवगं हो अथवा लाभमाव को गुर देता 
हो तो मनुष्य यञ्च कार्यं करने वाला, साघु-सन्तों का अनुगामी, राजा का माश्चय 
पनेवाला, श्रेष्ठ जनों का कृपापात्र, घन तथा पर्याप्त स्वर्णं से स्पश 
होता है ।। ४६२ ॥ 
लामालये भागंववर्गयाते युक्तेक्षिते वा यदि भार्गवेण । 
वेश्याजनेर्वापि गमागरमेवा सद्रौप्यमृक्ताभरचुरस्य लग्धिः । ४६३ ॥ 
लाभस्थानमे शुक्र याशुक्र का वर्गं स्थितहो, अथवाशुक्रसे दष्टहो तो 
वेदयाओं के संसग से तथा गमनागमन (यात्रा अथवा बाह्रके व्यापार ) से उत्तम 
कोटिके मोती तथारचादी का प्रचुर मात्रामे लाम होता है ॥ ४६३॥ 


लाभवेश्मनि शनीक्षितयुक्ते तद्गणेन सहिते सति पुंसाम्‌ । 
नीललौहमदिषौगजलाभो म्रामवुन्दपुश्गौरवमिश्रम्‌ ।। ४९४।। 
लाम ( ग्यारहूरवां ) माव शनि या शनिके वे से युक्त अथवा शनिसेदृष्टहो 
तो मनुष्य को नीलम ( नील वणं के अन्य पदाथंमी), लोहा, मैस मौरहाथीका 
लाभे तथा ग्राम, समाज, नगर दवारा सम्मान प्राप्त होता है । ॥ ४६४॥ 


युक्तेक्षिते लाभगृषे शुभाश्ये वगं शुमानां समवस्थिते च । 
लामो नाराणां बहुधाऽयवास्मिन्‌ सवग्रहर्यक्तनिरीक्षमाणे । ४६५ ॥ 
लाम मावशुभ प्रहोंसेयुतयादृष्टहो शुमप्रहोंके वगंमे स्थित हो भवा 
समस्त ग्रहों से युत-दष्टहोतो मनुष्य को प्रायः लाम होताहै॥ ४९५॥ 
ब्यय भाव विचार- 
कुषीलं च तथा काणं पापिनं दुःखिनं नरम्‌ । 
महाग्ययं महादुष्टं व्ययभवे यदा ब्रहाः॥ ४९६॥ 


हे च भावतानसी 


[षि णी णण | 





व्यय चावे यदि कोर भी प्रहहो तो मनुष्य बुरा्ारी, कनो ( एक वेष 
वावा), पापी, दुःखी, अधिक व्यय करने वाला, तथा अत्यन्त दुष्ट होता है ।४९६।। 
व्ययालये क्षोणकरः कलानां सूर्योऽधवा द्वावपि तत्र घंस्यौ । 
भ्यं हरेदभूमिपतिस्वु तस्य व्ययालये भूमिजदुष्टियुक्ते ।। ४९७ 
व्यय भाव मे क्षीण चन्रमा या सूर्यं अथवा दोनोंही स्थितहो तथा उन षर 
मंगल को दुष्टिहो तो उस व्यक्ति काधन राजा छीन लेताहै ( कुकी या नीलामौ 
हो जाती है) ॥ ४६७ ॥ 


पूणन्दुसौम्येज्यसिता व्ययस्थाः कुर्वन्ति संस्थां धनसश्यस्थ । 

प्राष्त्यस्थिते सूर्यसुते कुजेन युक्तेक्षिते वित्तविनाशनं स्यात्‌ ॥ ४९८ ॥ 

बारहरवे धाव में यदि पूणे चन्द्रमा, बुष, बृहस्पति भौर शुक स्थितहोतो षष 
कासंग्रहकरातेर्ह। यदि दवादश भावम शनिमगलसे युक्तहो अथवा दुष्टो 
तौ धन का नाह होता है ।। ४६८ ॥ 


राजयोग- 
उच्चाभिलाषिणः खेटा जन्मकाले भवन्ति चेत्‌ । 
स॒ नरो भूपपुज्यः स्याद्रशस्य नुपति्॑वेत्‌ ॥ ४६६॥ 
जन्म समय में उच्चाभिलाषी ( उश्च राशि एवं परमोन्च अंशोंमे जने बले) 
ग्रह पडेहोंतो वह्‌ व्यक्ति राजाओंसे सम्मानित तथा अपने वंश (कुल) का 
राजा ( श्रेष्ठ व्यक्ति) होता है । ४६६ ॥ 
उच्चाभिलाषी प्रह लक्षण- 


रविर्मनि शशौ मेषे भौमे धनुषि संस्थितः । 
सहे बुधो गु्युग्मे शुक्रः कुम्भे तथेव च। 
शनिः कन्यागतो ह्य च्वामिलाषी परिकीतितत। ॥ ५०० ॥ 
सूं मीन राशि मे, चन्द्रमा ककं मे, मंगल धनु मे, बुष सिह मे, गुर भिय॒नं धै, 
शुक्र कुम्भे, तथा शनि कन्या रारिमें स्थित हतौ उश्वामिलाषी कहा 
जाता ह ॥ ५०० ॥ 
बली ग्रह का लक्षण- 
उदितः स्वगृहस्यश्च मित्रगेहे स्थितोऽपि च । 
मित्रवगण दुष छ ग्रहः सबलः स्वृ: ॥ ५०१॥ 
उदित ( सूरय से दूरस्थित ), अपनी राशिमें मित्र ग्रह की रामे स्थित तथा 
मित्रो ते दृष्ट प्रह बलवान होते है ॥ ५०१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीभ्याश्योपेता ३२५ 





सबल भाव लकजलन-- 
स्वामिना बलिना दृष्टा सबलंश्न शुनग्र॑हैः । 
न दृष्टो न युतः पापे: स भावः सबलः स्मृतः ॥ ५०२ ॥ 
जपने बलवान स्वामी ब्रह एनं बलवान शुभग्रहे दष्ट तथा पाप ब्रहोँकी 
श्ुति एवं इष्टि से रहित भाव बलवान होता है॥ ५०२॥ 


द्ष्टि विषार- 
जञाकम्दुशुक्रास्विदशं त्रिकोणं तुर्याटमधूनमथांशवदधा , 
पश्यन्ति तुर्याष्टिमसप्तमस्थं दच्च त्रिकोणं च गुरः करमेण । ५०२ ॥, 
बुष, सूयं, शुक्र, तृतीय, दशाम को एकपाद, पञ्चम, नवम को दो पाद, चतुरं 
अष्टम को तीन पाद तथा सप्तम कोपाद ( पूणं ) दृष्टि से देक्षते ह । बृहस्पति 
अदु्ं-मष्टम को एकपाद, सप्तम को दो पाद, तृतीय-दक्षम को तीन पादतया 
पड्चम-नवम भाव को घार पाद ( पूणं ) दुष्टिसे देलता है । ५०३॥ 
त्रिकोणं चतुरस च सप्तमं त्रिदश्चं शनिः। 
अस्तं त्रिखं त्रिकोणं च चतुरस्र क्रमात्कुजः ।। ५०४ ॥ 
शनि पञ्वम-नवम भाव को एकपाद, चतुथं शष्टम को दो पाद, सप्तमको 
तीन पाद तथा तीसरे भौर दशवे को चार पाद ( पूर्णे) द्ष्टिसे देता है) मंगल 


सप्तम को एक पाद, तृतीय-दश्म कोदो पाद, पञ्चम नवम को तीनपादतथा 
अलुरये-मष्टम को चार पाद ( पूर्णं ) दष्टिते दैखता है।। ५०४॥ 


अन्यग्रह- 
आये व्यये न पश्यन्ति न पश्यन्ति द्वितीयके । 
मूर्तौ ग्रहाः न पश्यन्ति कथ्यन्ते तेऽन्धका ग्रहाः ।। ५०५॥ 
जिन ग्रहो की दुष्टि ग्यारहूर्वे, बारहवं, दुसरे, पहले तथा छठे भावों पर 
नहीं होती उन ग्रहों को अन्धग्रह कहा जाता है ॥ ५०५॥ 
जस्म पत्रके नाम 
तिथिवारं च नक्षत्रं नामाक्षरसमन्वि्तम्‌ । 
वेदेन हरते भागं शेषं नाम तदुच्यते ।। ५०६ ॥ 
व्योमा शोमा च मूर्धा च पद्मा चेव चतुथंकम्‌ । 
जन्भपत्रीगतं ताम यो जानाति सर पण्डितः ॥ ५०७ ॥ 
जभ्मकालिक तिवि, दिन भौर नक्षत्र की संशया के योगमे नामाक्षरोंकी सश्या 
जओडकरशारका भागदेनेसे शेषांकद्रारा अन्मपन्न का नाम जानना बाहिवे। 
एकशिषहो तो ष्यमा, २ शेष पर चशछोमा, ३ पर मूर्धा तथाग्शेषहोतो पश्य 


३२६ मानागरी 


क्षायो यययिोयेियिोिोनििोििििमनामकाकक 


नाम होहा है। इस विधिसे अन्म पत्री गतनामकोजो व्यक्ति जानतादहि बही 
पण्डित है ॥ ५०६-५०७ ॥ 
उदाहुश्ण- सं. २०२१ शक १८८६ आषाढ कष्ण ११ रविवार को कृत्तिका 
नक्त्र मे सरोज का जन्म हुमा । 
तिभि संख्या ( शुक्ल प्रतिपदा से ) २६ 





वार सख्या १ 
नक्षत्र संख्या ३ 
नामाक्षर संख्या (सरोज) ३ 

योम ३३ ` 
३ ३ ~- ४.८ शेष १ 


अतः “व्योमा संज्ञक जन्मपत्र हअ । 
जन्मपनत्र का नाम-फल 


व्योमाययां पितृहानिः स्याद्च्ोमा मातुक्षयङ्कुरौ । 
मूर्धा ह्यायुःकरी जेया पद्मा बलप्रदायिनी ॥ ५०८ ॥ 
न्योमा नामक जन्मफल होतो पिताकोहानि, ओोभाहोवतवो माताका 
नाकः मूर्दाहोतो आयुमे वृदधितथा पम्माहोतो बलमे वृद्धि करने बाली 
होती है ।॥ ५०८ ॥ 
शब्द शान- 


शब्दो मेषं वृषे सहे मकरे च तुलाधर । 
भद्ध शब्दो धटे षष्ठे क्षेषाः शब्दविवजिताः ॥ ५०९ ॥ 


मेष, वृष, सिह, मकर मौर तुला में जन्महो तो बालक उण्वस्वरमें, कुम्ब 
भौर कन्या लग्नमें हो तो बद्धं शब्द अर्थात्‌ मन्दस्वरमें रोदन करताहै। चेच 
भिथुन, केक, वृक, धनु भौर मीन लग्नमें जन्महोतो ( कुष समय तक) 
बालक निःशब्द रहता है ( रोदन ) नहीं करता ॥ ५०९ ॥ 


नालवेष्टित लक्षण- 
छागे सिहे वषे लगने वृश्चिके भालवेषितिः । 
नृलम्े दक्षिणं पाष्वे स्त्रीलग्ने वामपाश्वगः ॥। ५१० ॥ 
वदि मेष, सिह, वष, भौर वुदिचक लग्नमें अन्महोतौ बालकके शरीरें 
नाल सिषा हुमा होता है । यदि पुरुष लग्न (१, ५) में बन्महो शोश्षरीरके 
दश्च भाग मे स्त्री लण्न ( बुष मौर वुदिवक) मे जन्म हो तौ शरीरके बान 
` मे नान लिंपटा होता है ॥ ५१० ॥ 


"मनो रभा" हिष्दीभ्यास्योषेता ३२७ 











जन्म ज्ञान- 
शीर्वोदये विलम्ने मूर्ाप्रतवोऽ्यथोदये अरणी । 
* उभयोदये च हस्तौ शु मदृषटः शोमनोशषया कष्टम्‌ ॥ ५११ ॥ 

शीर्वदिय ( मिथुन, सिह, कन्या, बुला, वुदिचक एवं कम्म ) लग्न मे अन्म हो 
तो शिरसे प्रसव, पृष्ठोदय राहि ( मेष, वष, मिथुन, कर्कं, धनु, मकर) में 
जन्म्टोतो बालक का जन्मपैरकीतरफसेहोता है । यदि उभयोदय ( मीन) 
लग्न में जन्महोतोप्रथमहाष की तरफसे जन्म होताहै। लग्न पर शुमग्रहो 
की दुष््टि शुभ पापग्रहों की कष्टकर होती दहै) ५११॥ 


यमल योग- 
सुयंश्रतुष्पदस्वः शेषा द्विशरीरसंस्थिता बलिनः । 
केशंवितदेहौ यमलौ खलु तौ प्रसूयेते। ५१२॥ 
सूये अलुष्पद संज्ञक रादियों मे हो शेष समी प्रह द्विस्वभाव राशियों में स्थित 
हों तो बार्लोसे लिपटे शरीर वाले दो बच्चों ( जुढवे बच्चे) का जन्म 


होता है । ५१२॥ 
मूक योग- 


करग्रहसण्धिगते शशिनि वृषे मोमसौरिसंदुष्टे । 
मूकः सौम्येदुषष्टो वाचं कालान्तरे वदति । ५१२), 
अन्म समय में सभी पापग्रह लर्नो की सन्वियों मे अन्तिम अर्शो में स्थिति हों, 
चन्द्रमा वष राशिमे मंगल मौर शनिते दृष्ट होतो जातक मूक (गंगा) 
होताहि। यदि शुभग्रह की दष्टि हो तो कुचं समय बाद बालक बोलने 
लगता ह ।॥ ५१३ ॥ 
राजयोग-- 
दक्षिणादो ग्रहाः सवं दीप्तानस्तमितेक्षणाः। 
तस्य॒ चतरिक्ष्तमे वषं गजो हारेऽवतिष्ठति ।॥ ५१४ ॥ 
जन्म चक्रके दक्षिण भामे यदि सभो प्रह तेजस्वी भौर बलवान होकर 
पडेष्ोतो जातक की ३० वषं की आयुं होने पर उसके दरवाजे पर हाषी 
विराजमान हो जाता ह । अर्थात्‌ सप्तम से लग्न पर्यन्त समी ब्रहोंकीस्वितिहोतो 
जातक ३० ववं कीभायुमेही( राजाके समान) भनवान हो जाता है ।११४।। 


चतुःसागरगे च्रे कोणे चैव दिवाकरे । 
अपि दासकुले आतः सोऽपि राजा भविष्यति । ५१५॥ 
केशा स्वानो मे यदि चन्रमा तथा जिकोण भावमे यदि सुयंहोतो जातक 
बालत हल मे भी उत्पन्नो तो बह रजाहोताहै॥ ५१४॥ 


दरव  भातंसाभरी 


निभिः स्वस्थं भवेष्मल्त्री जिभिरण्नेनं राधिः । 
निभिर्निभवेदासस्विभिरस्तङ्गतंजंडः ॥ ५१६ ॥ 
तीच ब्रह स्वक्षेत्री ( नपनी-जपनी राति मे स्विति) हों तौ जातक मस्ति, 
लीन ब्रह उश्वराशिमे होतो राजा, तीन प्रह नीके होतो दापस्त ( नौकर ) 
तथा तौन ब्रह भस्तगत हो तो जातक जड होता है॥ ५१६॥ 


नबब्रहो के परषाकार चक्र 
सूयं पुरुष 
लिखित्वा नरथक्रं च यत्र सृर्था व्यवस्थितः । 
तन्लक्षत्रादि त्रयं तत्र॒ दाच्च नरमस्तके ।॥ ५१७ ॥ 
वदने क त्रयं दद्यादेककं स्कन्धयोरंयोः। 
बाहुद्रये तथेकंकं पाण्योश्चेकंकमेव- च ॥ ५१९ ॥ 
ऋष्ाणि हृदये प्च नाभौ स्यादेकमेवं हि । 
ऋक्षं गुह्य भवेदेकमेकंकं जानुकद्वये ।। ५११ ॥ 
नक्षत्राणि बडन्यानि दद्यात्पादद्ये बुषः। 
पादस्थिते च नक्षत्रं निद्ध नोऽल्पायुरेवं च ॥ ५२० ॥ 


विदेश्गमनो जातो गुह्य स्यात्पारदारिकः । 
अ ल्पतोषी भवेष्नामौ हदये वचेश्वरस्तथा ॥ ५२१ ॥ 
तस्करः पाणियुम्मे च बाहौ स्थानच्युतो भवेत्‌ । 
स्कन्धे गजस्कन्वगामी मुखे मिष्ठान्नमोजनः । ५२२ ॥ 
मस्तकस्थे च नक्षत्रे पटुबन्धो भवेन्नरः । 
सूर्यनक्षत्रतो अन्मनक्षत्रमिति गण्यते ।। ५२३ ॥ 


नराकार चक्र बनाकर सूर्याधिष्ठित नक्षत्रे ३ नक्षत्र सिर परर, तीन मुख 
पर, एक-एक दोनो कन्धेपर, दोनो भुजो पर एक-एक, दोनो हयेली मे एक-एक, 
हदय पर ५० नामि पर एक, गृह्य भाग में एकनक्षत्र, एक-एक नक्षत्र दोनो बुटनो 
पर, तथा छेष ६ नक्षर्त्रोको्वैरो मे स्थापित करना चाह्यि। 


ज्म न्त्र शारीरके जिस भागमेहो उसी के अनुषार उसका फल होता है। 
यदि जन्म नक्षत्र षैरमें होतो जातक दरिद्र, अल्पायु आर विदेश यात्रा करने 
वाला, शुद्ध स्थानमें षहो तो पारदारिक पर स्तरीमेँ असक्त, नाभी हो 
तो, ( स्वल्प) थोडेमे ही सन्तुष्ट, हृदयमे होतो ईश्वर दुल्य, दोनोहार्थोमें 
होतो बोर, भुजार्गोमें पडेतो पदश्युत, कर्म्षोपरहोतो हाषीकी सवारी 





"मनोरमा" हिन्दीय्याश्योषेता ३९६ 





करने बाला, मुखे हो तौ मिष्टान्न भोजन करने वाला तवा मस्तक षरहो 
तो राथा होताहै। इस प्रकार श्यं नक्षजले जन्म नक्षत्र पर्वन् गणो की 
जाती है ।॥ ५१७-५२३॥ 


जायु विचार- 


शतवर्षाणि जीवेत क्िरोजतो न संशयः 
मुखेनाल्ीतिवर्बाणि स्कन्धाध्यां च त्वव च । ५२४ ॥। 
हस्ताभ्यां बाहुयुम्मेन जीवेत सप्तसप्ततिः । 
नछ्वष्हि दि प्रोक्ता नाभावपि तर्थवं च । ५२५॥ 
भृषं च षष्टिवर्वाणि चाष्टौ वर्षाणि जानुनि । 
पादयोः षट्‌ च वर्षाणि इविङ्कं करमेण हि ॥ ५२६ ॥ 


ज्म नक्षत्र शिर परहोतो १०० वषं की मायु, भुल भौर दोनों कर्ण्वो पर 
हो तो अस्सी वषे की, दोनो हाथों एवं भुजां परहो तो ७७ व्व, हदय बौर 
नाचि षपरहो ६८ वषं, गृह्यस्थानमें ६० वषे, घटनेपरटोतो केवल ८ बं, 
तथा परो परहोतो ६ वकी मायु होती है । सूयं चक्रमे उक्त प्रकार न्ने आुञ्ञान 
करना चाहिये ॥ ५२४-५२६॥ 

उदाहरण--जन्म नक्षत्र मघा । जन्म समयमे सूयं वष रारिमें रोहिणी 
नक्षत्र पर था । बतः 


नक्षत्र संख्या बङ् 
रोहिणी, भृमहिरा, आर्द्रा (३) शिर 
पुनवसु, पुष्य, आश्लेषा (३) मुख 
मधा, पूर्वाफाल्गुनि (२) दोनो स्कन्ध 
उत्तराफाल्गुनि, हस्त (२) दोनो मृजा 
चित्रा, स्वाती (२) दोनो हभेली 
विक्षाल्ला, अनुराधा, ग्येष्ठा, 
भूल, पूर्वाषाढा } (9 द 
उत्तराषाडा (२) नाभि 
भवन (१) गद्य 
बनिष्ठा, शतभिषा (२) दोनो चुटन। 


षामा पद, उचरा भाद्रपय 
, अश्िनी, सरणी, कृतिका | (६) दोनों पैर 


। 


(4 +, मानसाभरी 





प्रस्युत उदाहरण में सूयं नर चकत मे अन्म नक्षत्र मथास्कन्बपर भा रहाह 
अतः जातक हाथी पर सवारी करने वाला ( षनाढष ) होगा । तथा ०० ब्षकी 
वायु तक जीवित रहैगा । 


चन्द्र पुरुष चक्र- 

यदुक्षं पूणिमायां तु तदादित्रीणि मस्तके । 

मुखे त्रीणि भुजे षट्कं हदि ब्रीष्युदरे रयम ।। ४२७ 
गृह्य श्रीणि पदे षट्कं न्यसेच्चन्द्रस्य स्वंदा । 
यावत्स्वजन्मनक्षत्रं गणनीयमिति क्रमात्‌ ।। ५२८ ॥ 
श्यं सिदिर्न्‌ वुलश्रीः कुशलं चाद्मृतं शुभम्‌ । 
मागमृत्युं श्चियं क्षेममिति चन्द्रफलं वदेत्‌ । ५२६ ॥ 


जन्म समयते पूवं पूणिमाको जो नक्षत्र हो उस नक्षत्रसे आरम्भ कर तीन 
नक्षत्र मस्तक पर, ३ नक्षत्र मुक पर, ६ नक्षत्र भुजामों पर, तीन हदय पर, 
तीन उदर ( पेट ) पर, तीन नक्षत्र गुह्य भाग पर तथा ६ नक्षत्र पैरों पर स्थापित 
कर चन्द्र घक्र का निमणि करना चाहिये । अपने ( जातक के ) जन्म नक्षत्र पर्यन्त 
मणना करने से स्थान के अनसार क्रम ते फल समक्षना चाह्यि- 


जन्म नक्षत्र शिर परहोतो षन लाभ, मुख पर लक्ष्मी प्राप्ति, भुजामों पर, 


कुदालता ( कल्याण ) हृदय पर अत्यन्त शुभकारक, उदरपर मार्गे में मृत्यु, गुह्य 
स्थान में लक्ष्मी, तथा पैरों पर जन्म नक्षत्रहोतो कल्याण कारक होताहै। इस 
प्रकार चन्द्र पुरुष चक्र का फल कहूना चाहिये ॥। ५२७-५२६ ॥ 


मौम पक्ष वक्-- 


यस्मिन्नृक्षे भवेद्धौमस्तदादित्रीणि भस्सके । 
मूखे त्रोणि श्रयं नेत्रं कण्ठे देच चतुष्करे।॥ ५२० ॥ 
पव्चोदरे त्रीणि गृह्य पादे चत्वारि दापयेत्‌ । 
जष्म-ऋषक्षं स्थितं यत्र फलं तत्र वदेत्पुमान्‌ । ५३१ ॥ 
मुखे रोग सुखं नेत्रे शिरोशाज्यं इजा करे । 
कण्ठे रोगी धनी वक्षे गृह्य ॒पादे च विभ्नमः । ५३३ ॥ 
जन्म समयमे भौम जित नक्षत्र पर स्थितहो उस नक्षत्र से तीन नत्र 
मस्तक पर, भश पर तीन, नेर््रोमें तीन क्ष्ठमे दो, हायोर्मे चार, उदरर्मे 
वाच, गुह्यमें तीन, वैरौमे चार नक्षत्रों कास्थापन करना चाहवे । जन्म नत्र 
जिस स्थान पर स्थित हो उसके अनुसार फल कहना चा हिये । मुख ते जन्य नशं 


"मनोरमा" हिम्दीव्यास्योपेता ३३१ 


"भभा 


होतो रोग, नेत्रमें होतोभुख, शरिरमेंहोतौ राभ्य लाभ, कर (हाथ) मे 
होतोरोम, कष्ठमे होतोरोग, वक्षमें हो तौ बनलाम, गृह्यतथा षैरोमें 
होतो भ्नान्ति होती है ।। ५३०-५१३२॥ 
बघ पुरुष क्र-- 
यस्मिग्नृदी भवेटतौम्यस्तदाध्ं मस्तके चतुः । 
मुखे त्रीणि चतुर्वामे करे दक्षिणके चतुः ।। ५४३३ ॥ 


हृदये षट्‌ तथा गृह्य चत्वारि दवे पदे भ्यसेत्‌ । 
जन्म -ऋषठां स्थितं यत्र॒ फलं तत्र वदेत्पुमान्‌ ॥ ५३४ ॥ 
मृलेष्ट भूक्छिरो राज्यं कष्टं वामकरे तथा । 
वक्षस्यन्यकरे सौख्यं गुह्य रोगो पदे चरमः । ५३२५॥ 


अन्म समयमे बुष जिस नक्षत्र पर हो उससे वार नक्षत्र सिर पर, तीन 
नक्षत्र गुल पः, चार नक्षत्र बार्ये हाथ पर, चार नक्षत्र दाहिने हाय पर, छु नक्षत्र 
हृदय पर, चार नक्षत्र गुह्य भागपर, दो नक्षत्र पैरों पर स्थापित करना चाहिये । 
अन्म नक्षत्र जिस अंग पर उसीके अनुसार फल कहना बारहिये--मृख पर 
जम्म नक्षत्र हो तो दच्छानुकूल भोजन, शिर पर हो तो राज्य सुख, बरे हाषमे 
होतो कष्ट, वक्षस्थल तथा दाहिने हाय परहोतो सुख, गुह्यषरहोतो रोगी, 
तथा बेरोपरहोतो भ्रम होता है ॥ ५३३-५३५॥ 
गुरुपुरुष चक्र-- 
शोषं चत्वारि राज्यं युगपरिगणितं स्कन्धयुर्मे च लक्मी- 
रेकं कष्ठे विभूतिमंदनप।रमितं वश्षसि भरीतिलाभम्‌ 
वडर्भिः पीडाडघ्रयुग्मे जलधिपरिमितं वामहस्ते च मृत्यु. 
द्‌ ग्युम्मे श्रोणि कुपन्नुपतिमसुखं वाक्पतेश्चक्रमेतत्‌ ।॥ ५३६ ॥ 
अर्म कालिक बृहस्पति जिस नक्षत्र पर हो उससे चार नक्षत्र सिर परर रा्य 
देने वाला, चार नक्षत्र दोनों कन्धो पर लक्ष्मी दायक, एकं नक्षत्र कण्ठ पर विभूति 
( एेश्वयं ) देनेवाला, सात नक्षत्र वक्षस्थल पर प्रीति कारक एवं लाभदेने बाला, 
धः नक्षत्र दोनो पैरों पीडाकारक, धार नत्र बि हाव में मृत्यु-कारक, 
जीन नक्षत्र दोनों अशो पर राजाके समान शुखदेने वाला होता है। इसप्रकार 
बुहस्पति पुख्व चक्र का निमि होता है) ५२३६ ॥ 


मृग पुरुष 
यस्मिष्लृ्ो भवेज्छुक्स्तदाचं च चतुः द्रे । 
कष्ठे च हदये पञ्च निगृह्य पञ्च बङ्कुयोः ।॥ ५३७ ॥ 





३३३ नावलाधरी 





चीणि दे पादयो्दचात्फलं भन्भर्लमानतः । 
हिरोराच्यं धनं कष्ठे हदये सोख्यमेव च ॥ ५१०८ 
शजुभीद्विजवेदगृह्य जङ्कायाभिष्टभोजनम्‌ । 
पादे ब सुखसंप्राप्िः शुकृषक्ते कमेण वे । ५२९ ॥ 
अनम समयमे जिस नक्षत्र पर शुक्रहा उस नक्षत्र से ४ नक्षत्र किर षर, 
कष्ठ घौर हदय पर पांल-पांच नक्त, तीन नक्षत्र युष्धभाग पर, पाँच नत्र 
जणो पर, तीन गौरदो (कुल ५) नक्षत्र दोनो पैरों पर, स्थापित करनरङ्खोके 
ऋमानुसार शुक चक्रके फलका ङ्खान करना चाहिये। 
अम्म न्त्र किर प्रदहो तो राज्य, कष्ठ पर धन, हृदय पर सुख, बुश 
भामे रात्ररजो ते भव, जंधापर इञ्कित भोजन, तवा पैरोमें सुख ढी प्राज्ति 


होती है । ५२३७५२९ ।। 
मा्बीं छनि पुरुष चक्र-- 
शनिचक्रं नराकारं लिखिष्वा सौरिमादितः। 
नाम-ऋष्षंभमवेचत्र भयं तत्र शुभाशुभम्‌ ।। ५४० ॥ 
नकत्रमेकं च श्िरोविमागे मुखे श्रीणि युगं ख गृह्या । 
नेत्रे च नक्षत्रयुगं हृदिस्थं त्रयं तथा वामकरे चतुष्कम्‌ ।। ५४१ ॥ 
वामे वं पादे त्रितयं च भानां भानां त्रयं दक्षिणपादसंस्यम्‌ । 
ऋक्षाणि चस्वारि च दर्षिणे करे घक्रं प्रणीतं मुनिनारदेनं ।। ५४२ ॥ 
शेगो लामो हानिराप्तिश्च सौख्यं बन्धः पीडा सल्रयाणं च लाभः । 
मान्दे चक्रं मार्गे कल्पनीयं तद्रंलोभ्याहङगे स्युः फलानि ॥ ५४३ ॥ 
मनुष्य के आकारमे शनि चक्र बनाकर शनिके नक्षत्र ( जिस नक्षत्र पर 
सनिहो) से आरम्मकर भंभोमे नक्षत्र का स्थापन कर जन्म नक्षत्र जहांहो 
उसते शुभाशुम का ज्ञान करना बाहिये। 
एक नक्षत्र शिर पर, तीन भुलपर, वार गुह्य पर, दो नेत्रो पर, हदय 
पर तीन, बर्ये हाथमे चार, र्ये वैर णर तीन, दाहिने पैर षर तीन, 
चार नक्षत्र दाहिने हाथ पर स्थापित कर मूनिनारदने शक्र का निमि किया। 
इसका फल अङ्गो के अनुसार क्रममे रोष, लाभ, हानि, लाज, सुख, बल्वन, 
पीड़ा, सुखद यात्रा तथा लाभ मार्गी क्षनिके चक्र काफल कटूना बाहिबे। यदि 
अक्री शनि हो तो इसते विपरीत समक्षना चाहिये ॥ ५४०-५४३ ॥ 


बक्रीद्यनि चक्र 
यस्मिस्छनिश्नरति वङ्रगतिस्सदादि, 
अत्वादि दक्षिणकरटेऽधियुगे च॒ षदकष्‌ । 


"मनो रमा" हिष्वौष्याख्वोपेता ३३३ 


चत्वारि भोमकरकेऽपयुदरे च शन्ड- 

मूर्ध्निं जयं भयनयोद्धिखयं निगह्य ॥ ५४४ ॥। 
रोगो लाभस्तथा द्रव्यलाभो बन्वनमेव च । 
पुजा अ जनसौमाम्यमल्पमृष्युः कमात्फलम्‌ ॥। ५४५ ॥ 


जिस नक्षत्र मे बकरी शनि हो उससे थार नक्षद दाहिने दामे, दोनो षैरोमे 
शः, वाये हाये चार, उगरमें पांच, सिर में तीन, दोनों ने््रोमेंदो, बृ 
मे तीन नक्षत्र होते ह । जन्म नक्षत्र उक्त क्रमङ्बुषार जिस गम हो उसका फ 
कम से रोग, लाम, द्ग्यलाभ, बन्थन, पूजा ( खम्मान), लोगो बे सुख, तवा 
जल्पमृष्यु कारकं होता है ॥ ५४४४५ ॥ 


राहुपुरुष अक 
यस्मिन्नृक्षे भवेद्राहुस्तदादौी सप्त॒ पादयोः, 
दक्षिणे च भुजे पच्च शिरसि त्रीणि दापयेत्‌ ॥ ५५६ ॥ 
ऋक्षे द्वे हृदयं न्यस्य मखे चैकं नियोजयेत्‌ । 
भपखक करे जेयमृक्षमेकं च नाभिगम्‌ ।। ५४७॥ 
तत्रैव त्रीणि गुह्य च राहूबक्र विधीयते। 
धनहानिभवेत्पादे सन्तापो दक्षिणे करे । 
शोष शत्रुमयं विद्याद्धृदये दूजजंनप्रियम्‌ ।। ५४८ ॥ 
मूखे दुर्जनसहारो मृत्युवमि करे भवेत्‌ । 
नाभिस्थय सर्वनाशाय गृह्य प्राणविनाशनम्‌ ॥ ५४९ ।। 
जन्म समय मे जिस नक्षत्र पर राहु हो उससे सात नक्षत्र पैरो पर, दाहिने हा 
पर पाच, शिर पर तीन, हृदय प्रदो, मुख पर एक, पांच नक्षत्र ( बार्ये ) हाष 
पर, एक नक्षत्र नाभि पर, तीन नक्षत्र गृह्य स्वान पर स्थापित केसे राहुपुङ्व 
अक्र होता है। अन्म नक्षत्र यदि पैर परहो तो धनानि, दाहिने हा पर 
सन्ताप, सिर परक्त्रु भय, हदय परहोतो दृष्टोसे प्रेम, मुखपरहो तो दृष्ट 
का नाकदा, बर्ये हाय परहोतो मृत्यु, नाभिपरहो तो सभी प्रकार से नाष, हक 
शुह्यास्वानपरहोतोप्राभ का विनाद (मृल्वु ) होता है ५४६-५४६ ॥ 
केतु एुरुष चक्र 
शीष पण्द्धे मुखे वश्च कणे दे वं वक्ष्यर्णव्षाणि हस्ते । 
अंघ्नौ बाणा बेदतुल्याश्च बस्त्यां केतोश्रक्र प्रोदितं बुदिमद्धिः ॥ ५५० ॥ 
भूखे भयं मूष्ति जयं करोति कणं भयं पाणियुगे च सौख्यम्‌ । 
पादे सुखं वक्षसि शोकमेव गृह्य भमं दुःशविकारहेतुम्‌ ।। ५५१ ॥ 


दे दे भानसामरी 





केतु अन्म समय में जिस नक्षत्र पर हो उससे पांच नलशत्र सिर पर, दौ 
भूख पर, कानों पर पांच, वक्ष पर दो नक्षत्र, हव परवार, चरणमे ५, तथा 
वस्ति मे ४ नक्षत्र केतु चक्रमे बिद्वानोने बताया है। | 


जम्म नक्षत्र मुलमेहोतोभय, सिरमेष्टो तोय, कनपर होतो भय, 
हार्थो परहोतोषुशल, पैरपरहो तोसुख वक्ष षर हो तोक्चोक, तथा बु 
(बस्ति) परहो तो दुख एवं विकार कारक भ्रमन होता है । ५५०-५५१॥ 


ग्रहों को अवस्था 
दीप्तः स्वस्थो मुदितः शान्तः शक्तः प्रपीडितो दीनः । 
विकलः शलश्च कथितो नवप्रकारो ग्रहो हरिणा ॥ ५५२॥ 
दीप्त, स्वस्थ, मुदित, शान्त, शक्त, पीडित, दीन, विकल, खल, ये नव प्रकार 
की अवस्थाय ग्रहों को बताई गर्ह । ५५२॥ 
दीप्तस्तुञ्खंतः शगो निजगृहे स्वस्थो हिते हषितः 
शान्तः शोभनवर्गगञ्च खचरः शक्तः स्फुरद्रषमिमाक्‌ । 
लुप्तः स्याद्विकलः स्वनोचगृहगो दीनः खलः पापयुक्‌ 
खेटो यः परिपीडितश्च खचरः स प्रोच्यते पीडितः ।॥ ५५३ ॥ 
अपनी उच्चराशिमें ग्रह दीप्त, अपनी रा्चि (गृह) मेहो तो स्वस्थ, 
भित्र ग्रह्‌ की राशिमे हित, शषुमग्रहोके वेमे शान्त, बलवान राशि युक्त ग्रह 
शक्त, अस्तंगत प्रह लुप्त, अपनी नीच राशशिमे दीन पाप प्रहुसे यक्त प्रहु खल 
तथा किसी ग्रहुसे पीडित होने पर पीडति मवस्वा होती है।॥ ५५३॥ 
मवस्था का फल 
दीप्ते प्रतापादतितापितारिर्गलन्मदालद्कृतकुञ्जरेशः । 
नरो मवेत्तन्निलये खलील पद्मालयालं कुर्ते विलासम्‌ ।। ५५४ ॥ 


जिसके जन्म समयमे ग्रह दीप्नवस्थामें हो वह अपने प्रबल प्रताप से शभ 
का दमन करने वाला, मदमस्त हाथियों का गधिपति होतादहै। तथा उसके षरमें 
स्वयं लक्ष्मी ही आकर विलास करती है ( अर्थात्‌ समी प्रकार की वनसमुद्धिमे 
परिपूणं होता है ) ॥ ५५४ ॥ 
स्वश्ये महद्राहनकान्यरत्नविशाललालाश्हुलेन युक्तः । 
तेनापतिः स्यान्मनुजो महौजा वंरिव्रजाषाप्तजयाधिक्षाली ॥ ५५५॥ 
ग्रह स्वस्थावत्था में होवो मनुष्य बहुत अधिक वाहन, भीभ्य, रत्न एवं 


विशाल भवनो से यक्त, सेनापति, महान तेजस्वी, तथा हात्र समूह पर विजय प्राप्त 
करने वाला होता है ।। ५५५॥ 


"मनोरमा हिन्दीग्याश्योपेता ३३१५ 





हषिते भवति कामिनीजनोऽस्यन्तभूकषणमणिव्रजवित्तः । 
धर्मकम॑करणं कमानसो भानसोद्धववयो हतकषत्रुः ॥। ५५६ ॥। 


जम्म समयमे प्रह हवितावस्था मे हो तो मनुष्य कामिनी (स्त्रियों), 
आभुषण, मणिर्यो के समूह एवं धन से युक्त, धामिक कायो के सम्पादन में 
दविस, उन्नतिशील विचारों वाना, तथा शत्रर्ओं का नाक्च करने बाला 
होता है ।। ५५६ ॥ 


शान्तेऽतिशान्तो हि महीपतीनां मन्त्री स्वतन्त्रो बहु मित्रपुत्र । 
शास्त्राधिकादि सुतरां नरं स्यात्परोपकारी सूकृतेकचित्तः ॥ ५५७ ॥ 


सान्तावस्थामे ग्रहर्होतो मनुष्य अत्यन्त शान्त प्रकृति वाला, राजाका 
मन्त्री, स्वतन्त्र विचारों वाला, बहुनसे मित्रो एवं पूर््रो ते युक्त, शरस्त्रोकाङ्ाता, 
सदैव परोपकार करने वाला तथा एर चित्त होकर सत्कार्य करने बाला 
होता है ।। ५५७ ॥ 


शक्तऽतिशक्तः पुरुषो विशेषात्‌ सुगन्धमाल्यामिरुचिः शुचिश्च । 
विस्यातकौतिः सुजनः प्रसन्नो जनोपकर्तारिजन भर्ता । ५५८ 


जन्म समयमें.ग्रह शक्त धवस्थामे हो तो पुरुष अत्यधिक शक्तिशाली, सुग- 
न्वित वस्तुओं पष्प-माला भादिमे रुचि रखने वाला, पवित्राह्मा, विख्यात 
यदवाला, सञ्जन, प्रसन्नचित्त, लोगो का उपकार करने वाला तथा शत्रुर्ओ पर 
प्रहार ( शत्रु-नाश ) करने वाला होताहे ॥ ५५८ ॥ 


हतबलो विकलो मलिनः सदा रिपृकूलत्रबलस्वगलन्मतिः । 
खलसलः स्यलसश्चरणो नरः कृष्ठतरः परकायंगताददः ।। ५५९ । 


जम्म समयमे विकल मबस्थामं ग्रहहों तो मनुष्य शक्तिटोन, मलिन विबारौं 
बाला, सदेव दत्रुकुन की प्रबलतासे दुबल मति, दुष्टजनों का साथी, भूमि प्र 
भ्रमण करने वाला, दुर्बल, दूसरोंका कायं करने वाला तथा सम्मानसे रहित 
होता है। ५५९॥ 


दीनेऽतिदीनोऽपचयेन तप्तः संप्राप्तमूमिपतिशत्रुमीतिः । 
संस्यक्तनोिः चलु हीनकान्तिः स्वजातिवंरं हि नदः प्रयाति ॥ ५६० ॥ 
जन्म समयमे ग्रह दीन भवस्वामे हो तो मनुष्य त्यन्त दीन, निरन्तर हस 
( आधिक हानि) से सन्तप्त, राजकीय उलक्षनों एवं शत्रुओं से भयभीत, अपनी 
नीति का परिल्याग कले बाला, काम्तिहीन, तथा पनी जाति (वमे) के लोगो 
दवारा शत्रुता प्राप्त करने बाला होताहै । ५६०॥ 


ह ३६ भानसाभरी 





[णगि 


शलाभिधति हि शलैः कलिः स्यात्‌ कान्तातिकिन्तोपरितप्तकिततः । 
विदेश्चयानं धनहोनतान्तःकोपी भवेल्लुब्धमतिप्रकाश्चः ॥५६१।॥ 
छल अवस्था मे जम्मकालिक प्रह पड़ेहों तो तक इृष्टोंके साव विवाद 


करने वाला, स्वरी सम्बम्धी चिन्तां ते सन्तप्त, बिदेस्ष ( गपना स्थान छोडकर 
अन्य स्वान) मे निवस के वाला, धनाभावसे प्रस्त, अन्तःकरणे कछोषी 


धाहर से अत्यन्त लोमी के ङपमेप्रक्टहोताहै।॥ ५६१॥ 


पीडिते भवति पीडितः सदा व्याधिभिष्यंसनतोऽपि नितान्तम्‌ । 
याति सञ्बलनतां निजस्यलाद्ग्याकुलत्वमपि बन्धुचिन्तया ।। ५६२ ॥ 
पीडित अवस्थानं में यदिग्रहहोंःतो जातक व्याधि (रोग) तवा दुर्ग्यसन 
बे सदेव पीहित रहता है । अपने स्थान को धरोडकर इधर-उधर श्रमभ करने 
वाला, तथा भारई-बन्धुओं की चिन्तासेष्यक्कुल रहता है ५६२॥ 
मातङ्खु नायक चक्र 
मातङ्नायकं चक्गं कथयामि समासतः । 
यस्य विज्ञानमात्रेण यात्रायुदूधे जयो मवेत्‌ ॥ ५६३ ॥ 
गजाकारं लिखेच्चक्रं सर्वावयवसंयुतम्‌ । 
अष्टाविशति-ऋलाणि देयानि सृष्िमागतः । ५६४ ॥। 
मुखशुष्डाग्रनेत्रे च कर्णशोर्षाङ्च्रिपुज्छङ्े । 
द्विक द्विकं च दातव्यं चतुः पृष्ठे तथोदरे ॥ ५६५ ॥ 
द्विरदब्ययमान्यादौ वदनाद्गण्यते बुधैः । 
ऋक्षे यत्र स्थितः सौरिज्ञयं तत्र शुभाशुमम्‌ ।। ५६६ ॥ 
मातङ्गं नायक चक्र कोम संक्षेपमे कह रहा हं जिसको जाननेमात्रसे 
बाजरा भौर बुद्ध में विजय ( सफलता ) प्राप्त होती है। 
सभी भ्ङ्गोते युक्त हाथी का चित्र बनाकर अभिजित्‌ सहित भट्ठाद्स 
नक्चभो का वणित क्रमातुसार भङ्गो में न्यास करना बाह्ये । 
मख, शुष्डाय्र, दोनो नेत्र, दोनों कान, सिर, धारो पैर भौर पृज्धरमे अश्धि- 
न्यादि दोनदो नक्षत्रोका न्यास करना चाहिये । अनन्तर जार नक्षत्र पीठषर 
कशा चार पेट पर स्थापित करने से भजचक्र होता है। 


इस प्रकार हावीके नाम नक्षत्र ते आरम्भ कर अुखनादि कमि समी 
भरङ्खो मे २८ नक्षत्रों को स्थापित कर, शनि जिस नक्षत्र पर स्थित हो उस नत्र 
के भङ्ग के अनुसार भुजादुभ का ज्ञान करना चाहिये ॥ ५६३-६६॥ 


हषीके अंग नक्षत्र संया 
भूख २ 
शुण्डाम्र र 
दोनों नेत्र २ 
दोनो कान २ 
दोनों अग्रपाद २२ 
दोनो पृष्ठपाद २4२ 
पुच्छ र्‌ 
पृष्ठ ४ 
उदर ४ 
फन- 


मनौ रमा” हिन्दीव्यास्योपेता 


मातङ्गं नायक चक्र ( द्र° भूमिका) 
हथिनी का नाम लक्ष्मी, नक्षत्र-अश्िनी 


३३७ 


नक्षत्र नाम 
मश्चिनी , भरणी 
कृत्तिका , रोहिणी 
मृगशीषं , आर 
पुनवसु › षृष्य 
जाइलेष।, मघा 
ए० फा०, उण फार 
हस्त  , चित्रा 

| स्वानो , विक्ाख्चा 
अनुराधा ; ज्येष्ठा 
मूल, पू षार 
उ० षा०, अर्मिजित 
श्रवण , धनिष्ठा 

{ शतभिषा , पू० भा 
उ० भा० , रेवती 


मुखशुण्डाग्रनेत्रेषु सौरिमं मस्तकोदरे । 

युद्धकाले गते यस्य जयस्तस्य न संशयः ।। ५६७ ॥ 

पृष्ठे पादे च पुच्छे च कणंस्ये शनेश्चरे । 

मृत्युम॑ङ्खो रणे तस्य एेरावतसमो यदि ॥ ५६८ ॥ 

जिस नक्षत्र पर शनि स्थितौ वहु नक्षत्र यदि मातङ्खनायक चक्रके मूलः 
ग्र, नेत्र, मस्तक भौर वेटमेंस्वितिहोतो उस समय युद्ध अथवा या्ाकरने 


ये निसन्देह विजय होती है। 


यदिदानि का नक्षत्र पीठ, पर, वच्छ ओर कानोँमें स्थित हो तो { अशुभ 


होता है ) । युद्ध मं मृ्पु तथा सेना का भङ्ग (नाश) होता है (चह जितनी सशक्त 
तेना योन हो ) ॥ ५६७-६८॥ 


एतेषां दृष्टमङ्गानां तत्काले संस्थितः शनिः । 
तत्काले पट्‌टबन्धोऽपि वर्जनीयः प्रयलतः ।। ५६९ ॥ 
इस प्रकार दर्यागि कारक शनि की स्थिति हो तो उस समय पटूबन्ध ( राज्या 


भिषेक ) या युद्धयात्रा दि को प्रयहन पूर्वक वजत करना चाहिये ॥ ५६९॥ 


पुथिष्या भूषणं मेहः शरव्या भूषणं शी । 
नराणां भूषणं विचा संन्पानां भूषणं गज॥ ।। ५७० ॥ 
२२ भार मा० 


¦ 8 ~ मानसाभरी 





जिषे वयोधिक ाकिषयेषकिकयकण्काण्येककि 


से पृथ्वी का भूषण (शोभा) मेर पर्व॑त, रत्रिका भावन ण चन्द्रमा तथा 
मनुष्य का भृषण विद्या है। उसी प्रकार सेना का आभूषण गज ( मातङ्गनायक ) 


अक्र ह ।। ५७० ॥। 
अण्वबक्र-- 


अश्वाकार लिवेख्वक्रमरबधिष्ष्यादिताश्काः । 
बदनात्सुषिगा देया बष्टाविशतिसंख्यया । ५७१ ॥ 
मुखाक्षिकणंशीषषु पृच्छाङ्घ्रधोयुग्मसंस्यया । 
पञ्व॒पञ्चोदरे पृष्ठे सौरिर्यत्र फलं ततः ॥ ५७२ ॥ 
बश्च (चोडा) की आजति का चक्र बनाकर घोडे के नाम नक्षत्रसे भआरम्भकर 
२८ नक्षत्रों का न्यास मुख से आरम्भ कर अन्य अंगोंमे सुष्टि कम ( अनुक्रम) ते 
करना चाहिये । 


, आंख, कर्णं, शीषं, पृच्छ भौर चरणों मे दो-दो नक्षत्र तथा पेटभौर 
पीठ पर क्रम से पचपच नक्षत्र स्थापित कर शनिको स्थिति के अनुसार फल 
कहना चाह्यि ।॥। ५७१-५७२ ॥ 

। अश्वचक्र ( द° भूमिका) 
भश्च का नाम चेतक, नक्षत्र अश्नी 


मश्वके मङ्ख नक्षत्र सस्या नक्षत्र 
मुख र अश्विनी , भरणी 
वोनों नेत्र २ कृतिका , रोहिणी 
दोनों कान २ मृगरीषं , आर््रा 
श्षीरषं २ पुनर्वु , पुष्य 
पन्व २ आश्लेषा , मधा 
पू०फ(०,उ०्का 
बोनों पृष्ठ पाद २२ 1 हस्त , बिता 
स्वाती , विच्चाश्ा 
बोर्नो बग्रपाद २+२ | अनु राभा, गयेषठा 
मल , ० शार 
अदर ^ उ० षा०, भ्रमि श्रवण 
धनिष्ठा , दतमिषोा 
षन् ५ 1 पु०.मा० , उ.मा.रेबती 


फल 


भुलाक्षयुदरदीषंस्थो यदा सौरिस्तुरङ्गमे । 
तदारि्मङ्गमायाति रणे शत्रुवशं गतः ॥ ५७३ ॥ 
अश्व चक्रमे शनि यदि भूख, मक्ष, पेट तथा सिर प्रस्थित होतो तेना 


"मनौरमा' हिन्दीग्याश्योपेता ३१९ 





नष्टहो जतीदहैतमासंग्राममे शत्रु बदीभंत हो जाता है ( नात्मसमर्षन कर 
देता है ) ॥ ५७३ ॥ 

कणर्डिच्िपुष्ठे पुष्डस्ये अश्वाङ्नेष्वकनन्दने । 
विश्रमं भङ्गहानि च कुरतेऽसौ महाहवे । ५७४ ॥ 


यदि शनि अश्वचक्र मे कान, चरण, वृं भौर पीठपर स्थित होतो संग्राम 
में ज्राम्ति, सेना का नाश तथा हानि होती है ।॥ ५७४॥ 


एतस्त्यानस्थितः सौरिः सदा काले हयस्य च । 
पटूबण्धे गमे युद्धं वजयेत्तं हयं नृपः ॥ ५७५॥। 


इन ( अशुभ ) स्थानोंमेंशनि यदि अश्वचक्रमे स्थिति होतो रास्याभिकेक, 
यात्रा भौरयुदधमे राजा को उस घोड़े का परिल्याग कर देना चाहिये ॥ ५७५॥ 


देशान्तरस्थितः सौरि रिपवः सन्ति शद्धिताः । 
तुरा यस्य॒ भूपस्य विचरन्ति महीतले ।॥ ५७६ ॥ 


जन्य (शुभ) स्थानोंमे यदि शनि, अश्वचक्रमेस्थितहोतो शत्रु लोग इवेव 
उस राजासे सश्शंकित रहते हैँ जिसका वह घोडा होता है।1 ५७६॥ 


शतपदच्क्र- 
चक्रं शतपदं वद्ये ऋर्ांशाक्षरसम्भवम्‌ । 
नामादिवर्णतो जअ यमृक्षराश्यंसकं तथा ॥ ५७७ ॥ 


सतपद चक्रको बतला रहा हुं जिसके द्वारा, नक्षत्रों के प्रत्येकं चरणोंके 
अक्षर, नाम का प्रथम अक्षर तथा राहियोंका ज्ञान होना है ।। ५७७॥ 


ति्यगृर्वंगता रेखा रद्रसंख्या लिखेद्बुधः। 
जायते कोष्ठकं तत्र शतमेकं न संशयः ।। ५७८ ॥ 
तिरी ( पूर्वापर ) तथा खडी ( याम्योत्तर ) ग्ारह्‌-ग्यारह रेखा शीजनेते 
रक म्नो कोष्ठक का चक्र बन जायगा ।। ५७८ ॥ 


ग्यस्यावकहडदोनि श्द्रादिविदिष्ः क्रमात्‌ । 
पञ्च पञ्च क्रमेणव विषाद्र्णान्‌ भ्रयोजयेत्‌ ॥ ५७६ ॥ 


पञ््वस्वरसमायोग एककं पञ्चधा कुर्‌ । 
कुयत्कुपुमूदुस्वानि त्रोणि त्रीण्यक्षराणि च ॥ ५८० ॥ 


कुघाढादछछा भवेत्स्तभ्मो रौद्र ईशानगोचरे । 
पुषाणाठ भवेत्स्तम्भो हस्तमामभ्नेयसन्नके ।। ५६१ ॥ 


भधाफाढडा भवेल्पूवं दूधाक्नाजास्तथोततरे । 
एवं स्वम्भवतुष्कं च जात्यं स्वरवेदिर्भिः । ५८२ ॥ 


धिष्व्यानि कृत्तिकादीनि प्रत्येकं बतुगक्षरेः । 
साभिजित्यंशकास्तस्य शतकं हदशा धकम्‌ ॥ ५८३ ॥ 


यदुकषांलककोष्ठस्यः क्रः सौम्योऽपि वा ब्रहः। 
ततस्तद्र्जयेन्षित्पं॑ पतो नामाचमक्षरम्‌ ॥ ५८४ ॥ 


३ $® 


मागसषाभरी 





सौ कोष्ठ बाजे ( शतपद ) चक्रके ईहान कोणसे आरम्भ कर भवकहड, 
मटपरत, नयभजलछ, गसदवचल इन २न्वणों को बीस कोष्ठो 


स्थापित करअ, ६, उ, ए, ओ इन रपावस्वरोके योगसे पाचि प्रकार से लि्खं। 


जहाँ परक्ुपुमृदुवणे हों वहां पर तीन-तीन अक्षर भौर लिखवें। 


ईशान कोणमेकुके साथषडङषछजोडनेसे रौद्र स्तम्भ, पुषणटठ अखि 
कोणमें हस्त स्तम्भम्‌षफढठपूवंस्तम्भतयादहुथन्ष ब उत्तर स्तम्भ होता है, 
(ये ारो स्तम्भ क्रम से आर्हा, हस्त, पूर्वाषाठ तथा उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र के सूचक 
ह )। इन चारो स्तम्मों को स्वरशास्त्र के विद्वानों को जानना वाहिये। कत्तिका 
नक्षत्रे आरम्भ कर प्रत्येक नक्षत्रके चार-वार अक्षर निर्णारित करने पर 
अभिजित सहित २८ नकषप्रोंके कुल ११२ अक्षरहोतेदहँ। (शतपद चक्रमे मौ 
१००५८ ३०८४ )=-११२ अक्षर है । जिस नक्षत्रके जिस चरणमे कोई पापया 
शुभग्रह बेठा हो उस चरण से सम्बन्धित अक्षरसे पुरुषका नाम नहीं रक्लना 


वाह्य ।। ५७६-८४ ॥ 


शतपद (भवकहडा) चक्र 














































































































| क्ब | न इग [न [र १ [रब । व | क | ह्‌ |डइ | म | ट |प |र |तं 
कृत्ति. | _ | _ | | मच | 
इ |वि | करि |हि [डि |मि |टि [प |ट?ि | नि 
-_(.._ | । [ने | |. ॥॥ . _ [विशा 
उ |वृ |कु [इ |द्‌ |मु |दट्‌ |प |स [तु 
| |घ.ड-छ पुष्य | | | [षणठ स्वानि 
|. [अर्द्रा] ।_ | |. _|टम्न 
ए |वे [के है ड |मे | टे |पे |रे | ते 
मृ० | पण | उ.फा [चित्रा | | 
ओ |वो | को | ही [डो [मा [ट | [य | तौ 
गै. ' | | | १. फा. | 
न |य | भ | अ | |ग |स |द |च | 
अनु, | | | | |षनि 
नि | यि | मि |जि | ज्ञि | गि | कि | दि |च | लि 
91111 | | श्रवण | ॥ भरणी 
तु | यु पषा ्ु | दु | ि (४ शु 
मु [भमि ठु [अ - 
_ _ |धफढ यक्ष 
नै [ये |अे [जै [शे [ने [से [दे [बे [ते 
ल | उ.ष।. १.भा. [रेवती 
नो [यो भा जो | श्लो |यो | सो |दो |चौ |लो 
| ण्ये. | शत. | 











"मनोरमा हिष्दीष्याश्योपेता ३४१ 


सौम्यविद शुं नेयमशुमं पापरेषरेः। 
भिर्मिधफलं तत्र निर्वेभेन शुभाशुमम्‌ । ५८५ ॥ 
नक्षत्र शुभग्रहोते विद्धहोतो शुभ, पापग्र्होसे विदहो तो अष्ुभ, भिश्रित 
शुभ भौर पापदोर्नो) प्ररोसे विदहो तो मिच्रित (शुमाभुभ) फल होताहै। यदि 
किसी भीप्रहसे विदनटहोतोशुभ भौर अशुभ दोनोंप्रकारकेफन होते ह | ५८५॥ 
यदुक्तं सर्वतोमद्रे ग्रहोपग्रहवेधतः। 
शुभाशुभफलं सवं तदिहापि विचिन्तयेत्‌ । ५०६ ॥ 


ग्रह भौर उपगप्रह्‌ङेवेध का शुमाशुभफन जा स्वंतोभद्र चक्रमे कहा गया 
है वही यहाँ शतपदे चक्रमे भी विचार कश्ना चाहिये ।। ५८६ ॥ 





सूय कमनाननचक्र-- 
सूर्यकालघ्नलं चक्र स्वरशास्त्रोदितं महत्‌ । 
तदहं विषदं वश्ये चमत्कृतिकरं परम्‌ ।। ५०५७ ॥ 


त्रिशलकाग्राः सरलाश्च तिलः 
कलोर्ध्वरेधाः परिकल्पनीयाः । 
रेखात्रयं मध्यगतं च तत्र 
द्रे दे च कोणोपरिगे विधेये ।॥ ५८८ ॥ 


त्रिशुलकोणान्तरगान्यरेवा 
तदग्रयोः श्यृञ्जुयुगं विषेयम्‌ । 
मध्यत्रिशलाह्वयदण्डमूलान्‌ 
सष्येन माग्यकमतोऽभिजजिस्व ।। ५८६ ॥ 
स्वर शास्त्रमें कहे गये, चमत्कार प्रदशित करने वाले सूर्यं कालानलचक्र को 
म विस्तारपूर्वक कहू रहाहूं। 
तीन सरल ऊष्वधिः (खटी) रेखा बनाकर उनके अग्र मागमे त्रिशूल बना, फिर 
तीन दक्षिणोत्तर ( तिरी ) रेखा बनावे । दो-दो रेख्ये चारों कोणोँमे जाने 
जाली बनाकर कोण मौर त्रिशूल के बीचमे एक अन्यरेखा लीं कर उसमेदो 
श्यंग बनावे । अनन्तर चक्रमे नक्षत्रों का न्यास करे । 
जिस नक्षत्र पर सूयंहों उस नक्षत्र को मध्यगत त्रिशूल रेखा के मूल में स्थापित 
कर वाम क्रमते अभिजित्‌ सहित २८ नक्षत्रोंको चक्र में स्थापित करना 
चाहिये ॥ ५८७-०८१ ॥ 
उवाहश्ण-सूरयं की स्थिति अनुराधा नक्षत्रमे मान कर सूर्यकालानलशक्र 
का निर्माण क्ियाजारहा 8- 


३४२ भानसामरी 





सूयं कालानल शक्र 


उगभाग अश्विर्भर० रो» सू" आद्र" पुन 


=" )|/ )|/ \|/ 


श्रव | रि पु. फा, 


1 
4 














अमि [६1.१५ 


७ षा० ८ भ हस्त 


| | (९ 


मूः ज्येष्ठा अन्नु विशा स्वाती 


शुमाशुम शान-- 
स्वनामभं यत्र गतं च तत्र प्रकल्पनीयं खदसत्फलं हि । 
तलस्थ च्हात्रिहये कमेण चिन्ता वधश्च प्रतिबन्धनानि । ५९० ॥ 
भपना नाम नक्षत्र कालानल अक्रमे जहां स्थितो वहीं ते शुभाशुभ फलका 
कषान करना चाहिये । तीनो त्रिशूल रेखा के नीवे यदि नाम (या जम्म ) नक्षत्र 
द्ठेतोक्रमसे चिन्ता, वधै तथा बन्धन होता है ॥ ५९० ॥ 


श्युङ्खदये रक च भवेश्व च द्ग नेष मतु रिष शषनेषु मृत्यं परिकल्पयन्ति , 


ोवेशु धिष्ण्येषु जयश्च लराणास्‌ ।। ५९१ ॥ 
दोनों श्रङ्गो मे नाम नक्षत्रहो तो रोम तथाहानि (सैन्यनाश), तीनों निशूनों 
मँ अपना मक्षत्र हो तो मृष्युं की सम्भावना होती है। लेव स्वा्नोमे नाम (या 














मनोरमा" हिम्दीग्याश्योपेता ३४३ 


1 ति 58, 1 


जम्म ) नक्षत्रहो तो विजय, लाम तथा विविधं प्रकार की अभीष्टं सिदिर्या प्राप्त 


होती ह ।॥ ५९१ ॥ 


भीसूर्यंकालानलचक्रमेतदगदे च वादे च रणे प्रयाणे। 
 परिखिन्तनीयं पुशतनानां वचनं रमाणम्‌ ।। ५९२ ॥ 


इस मयं कालानलचक्र को रोग, विवाद, संप्राम गौर यात्रा मे प्रयास पू्वंक 
विखार करना चाहिये । यह प्राचीन आचार्यों का प्रमाण वचन है।। ५६९२॥ 


वेध फल-- 
श्वेवेधे मनस्तापो रव्यहानिश्च भूसुते । 
रोगपीडाकरो मन्दो राहुः केतुश्च मृत्युदः ।॥ ५९३ ॥ 


सूर्यं हारा (जन्म राशिपर) वेषटहोतो मन में सन्ताप, मंगल, से षनहानि, 
शनिसे रोग पीडातथा राहु गौरकेतुसेवेषहोतोमृस्युहोतीदै। ५९३॥ 


गुरोवेधे भवेल्लाभो रत्नलामश्न भागवि । 
स्त्रीलाभश्चन्द्रवेषे च सुखं स्याद्वुधवेधतः । 
जन्मराक्षेश्च वेधस्य फलमेतटरकीतितम्‌ ॥ ५९४ ॥ 


यदि गुहहारावेषहोता लाम, शुक्र से रघ्नलाभ, चन्द्रते स्त्री लार, बुषसते 
वेष होतो सुशप्राप्तटोतादहै। वेष का यहु फल जन्म राक्षिके आधार पर कहा 
नया ह ।। ५९१४ ॥। 





चग्द्रकालानलचक्र-- 
चल्द्रकालानलं चक व्योमा कारं लिखेदूबुधः । 


चतुदिकषु त्रिशूलानि मध्यत्यस्राणि कारयेत्‌ ॥ ५६५ ॥ 
पूवं त्रिशुलमध्यस्थं दिवसक्षं समालिखेत्‌ । 
त्रि्षुले च बहिर्मध्ये मध्ये बहिस्िक्ललके । 
नामक्षं च स्थितं यत्र जेयं तत्र शुभाशुमम्‌ ॥ ५६६॥ 
त्रिशले च भवेन्मृव्युमष्यमं र्बाहरषटके । 
आयुः प्रजा जयो लाभन्नन्द्रगभं न संदायः ॥ ५६७ ॥ 


चन्दर कालानल चक्र कोष्योमाकार ( वर्तुलाकार ) बनाना चाहिये। चारो 
दिक्ता्भो मे इस प्रकार त्रिदुल बनावे जिससे वर्तुल मे त्रिमुजो का निर्मान हो जाय। 


अनन्तर पूर्वं दिशा मे चिशुल के मध्यमे अभीष्ट दिनके नक्षत्रको लिखकर 
फिर अग्रिम मक्षत्रो कोक्रमसे त्रिदूल पर, वत्तके बाहर, दृ्तके अन्दर, पुनः 


भन्दर, ब्त के वाहर तथा दूसरे त्रिशूल पर लिखना चाहिये। इसी प्रकार 
जभिजित्‌ हित भट्ाहस नक्षत्रों का चक्रमे न्यास करना बाहिये। 
अक्रमे अहां पर नाम मक्षत्रहो वहां ते शुभाषुभका जन करना बाहिये। 


यदि नाभ ( वा अन्म नक्षत्र त्रिधुलके ऊपरषडाहो तो मृ्यु, बृ्तके बाहर 
वाठ सक्षत्रौमेहो तो मभ्वम फलकारक तथा यदि क्तके भीतर नाम नशत्रहो 
तौ जायु, सल्ताल, जय तथा लाभ देते बाला होता है ॥ ५९१५-९७ ॥ 


४६ मानसाशरी 





उशहरभ-- कल्पना किया कि स्सीका नाम नक्षत्र माहि । तथा यात्राके 
दिन भश्िनी नक्षत्र हि परिणाम~मध्यम फलदायक। 


जक कालानल बक्र 


भर 











विरा” सवाली चित्रा 


यमद्रष्टा चक्र-- 


नवोर्ष्वंगानि धिष्ण्यानि नव तिर्यगगतानि च। 
अधोगतानि धिष्ण्यानि नव चवं विनिदिष्चेतु ॥ ५९५ ॥ 


चतुनाडीहतो नाडीकृतो वेधो जन्मनक्षत्रयोगतः । 
खपीकारमिदं चक्रं क]लचक्र प्रजाये । ५९९ ॥ 
एक सर्पाकार चक्र बनाकर उसमे € नक्षत्र ऊपर, € नक्षत्र मध्यमे तथा & 
नक्ञत्र बधो ( नीचे ) भागम स्थापित करने से सर्पाक्रार कालशक्र होता है। अत्म 
नक्लत्र की स्थिति हारा चार नाड्यो में वेध होता है ५९८-११॥ 


नीनि मध्यशतर्षाणि तानि कालमुलानि च। 
कोणस्थिते चन्द्रधिष्ण्ये तच्च दष्टा मतम्‌ ।। ६०० ॥ 


मध्य भाग स्थित नक्षत्रों में तीन नक्षत्र (क्रमसे १३, १४, १५ बां ) नक्षत्र 
काल युख तथा कोणमें स्थित मर्थति मध्यगतं नक्र््रोसे पूवं मौर पश्चात्‌ (कम 
धे १० बां १९ बा) दो चाश्छ नक्षत्र दोनो दरष्टा (कालसपं के दाति) होते §।।६००॥ 


मनोरमा" हिन्दीष्याश्योषेता ३४५ 


दिन्ीमादिमं इत्वा नामक्षं यत्र संस्थितम्‌ । 
मूखदष्टागते मृत्युः शु ममन्यत्र संस्थिते ।। ६०१ ॥ 


काल ( यमदंष्टा ) चक्रमे नक्षत्रों का स्थापन दिन नक्षत्र ( जिस दिन प्रन 
हो याविषारकरनाहो उसदिनके बा नक्षत्र ) से करना बाहिये। नाम 
नक्षत्र यदि मुख मे अथवा द्रष्टा में स्थितो तो मृत्यु ( अशुभ ) तथा अन्यत्र कहीं 
हो तो शुभ होता है।॥ ६०१॥ 
ज्वरे च लषटदरष्टे च विवादे विग्रहे रणे । 
कालदं्ास्यगं नाम यस्य तस्य महद्धयम्‌ ।। ६०२ ॥ 
यम (काल) दष्टा चक्र का उपयोग ज्वर, नष्ट वरस्तु, सर्पादि जन्तुबों के 


दंश, विवाद तथासंग्राममे किया जानादहै। जिमक्रा नाम ( नक्षत्र ) कालदंष्टा 
या काल भृखमे होगा उसके लिए महान भय उपस्थित दोना दै ॥ ६०२॥ 


वि्छेब--कालदंष्टा या यमदंष्टा चक्र के निर्माण एवं उपयोग विकषिमें 
अन्य प्रन्थों मे कुछ मतभेद है । नरपति जयवर्याम निखादहै करि “"चतुनडीमतौ 
वेधो मघ्ये छ्क्षत्रयो ज्क्षितः 11” अर्थात्‌ चार नाद्यो मं स्थित नक्षत्रों मे से मध्यगत 
तीन नक्षत्रों को ध्ोडकर अन्य सभी नक्षत्रोमं वेषहोतादटै। इसका अर्थं यहूभी 
कियागयाहैकि तीनों स्यानोंमं मध्यके तीन-तीन नक्षत्र काल मुख मे स्थिति 
होते ह । परन्तु कृच लोगोंने मध्य ( तिर्यक ) स्थानम स्थिते £ नक्षर्त्रोमेसे३ 
नक्षत्र को कलमुद्लगत तथा उमसे पूवं मौर पञ्चात्‌ दा नक्षत्रों को यमदष्टामें 
स्थित माना है। 





यम ( काल) दष्टा चक्र 





३४६ मनिसागरी 





यदि दिन नक्षत्र मधाहोतो मभा से ज्येष्ठा पर्यन्त £ मक्षत्र ऊध्वं भागम, 
मूल से रेवती पयंन्त € नक्षत्र तियंग भाग ( स्थित कालमुख ) मे तथा ्रश्धिनीसि 
आदलेषा पर्यन्त £ नक्षत्र अधो ( पृष्ठ ) मागमे स्थापित करना चाहिये । प्रह्न- 
कर्ता रमेहा का नाम नक्षत्र चित्रा ऊष्वं मागमे स्थित है अतः शुभदहै। गोपाल 
को नक्षत्र सतमिष १५ वां नक्षत्र कालमुखमे है अतः अशुम है। 


त्रिनाडी षक्र-- 
भाद्रचिं विलिखेच्चवक्क मृगान्तं च त्रिनाडिकम्‌ । 


भुजङ्गसदुश्ाकारं मध्ये मृलं भतिष्ठितम्‌ ॥ ६०३ ॥ 
आर्द्रा से मारम्भ कर भृगशीषं पर्यन्त २७ नक्षत्रों को सर्पाकार त्रिनाडी चक्र 
मे इत प्रकार स्थापित करें कि मूल नक्षत्र मध्यमे गा जाय ।॥ ६०३॥ 
तविनाडी चक्र 





यहिने एकनादिस्थाश्ररनामरमास्करः । 
तिनं वर्जयेतस्य विवादे विग्रहे इणे । ६०४॥ 
"जस दिन नाम नक्षत्र, चन्दरस्थित नक्षत्र ओर सूर्यस्थित नक्षत्र एक ही नाडी 


मे स्थित होतो इस दिन विवाद, विग्रह ( विरोध, अलगाव), गौर संग्राममे 
भाग नहीं लेना चाहिये ।। ६०४ ॥ 


रोगिणो जन्म-ऋष्षस्य एकनाड्धां यदा शशी । 
तदा पौड विजानीयादष्टपराहर्कं ध्रुवम्‌ । ६०५ ॥। 
रोमी का जन्म नक्षत्र भौर बीमाये मवस्था मे चन्द्र नक्षत्र यदि एकं ही 
नाडीमेस्थितहोंतो माठ प्रहर तक ( बर्थात्‌ चन्द्रमा जब तक उत नक्षत्रमे 
रहा तब तक ) रोगी को कष्ट रहता है ॥ ६०५॥ 
शोगिणो जन्भ-ऋ्षस्य एकनाडधां यदा रविः । 
यावदु्षं भवेद्धोग्यं तावलयोडा विनि्िषेतु ॥ ६०६ ॥ 
रोगी का जन्म नक्षत्र मीर सूर्यं नक्षत्र ( जिस नक्षत्र पर भूर्य स्वितिष्टो) 
यदिएकही गाड़ीमे स्थितहो तो जब तक सूयं उस नक्षत्र पर स्थित रेणा तब 
तक रोगी को पीडा होगी ॥ ६०६॥ 
दोगिणो जन्भ-ऋललस्य एकनाड्ां यदा भवेत्‌ । 
जन्म ऋक्षं रविश्रन्द्रस्तदा भृष्यु समादिष्षेत्‌ ।॥ ६०७ ॥ 
तोषीका जन्म नक्षत्र, सूर्यं नक्षत्र गौर चर नक्षत्र यदिएकही नाडीमेहो 
तो रोकी की शृल्वु होती हि रेता फलादेश्च करना चाहिये ॥ ६०७ ॥ 


"मनोरमा! हिन्दीष्यास्योपेता ३४७ 





अन्भ-ऋश्षं रर्वि्वनप्रो भवेच्चदि कथञ्चम । 
भन्यास्वन्यासु नाडीषु तदा नीरोगता भवेत्‌ ॥ ६०८ ॥ 


जन्म नक्षत्र, चन्र नक्षत्र मौर सूयं नक्षत्र यदि किसी प्रकार भिन्न-भिन्न 


नायो मेहोतो रोगी स्वस्थहो जाता है ।॥ ६०८ ॥ 


अथातः संप्रवद्यामि चक्क त्र॑लोक्यदीपकम्‌ १ । 
विद्यातं सवंतोमद्रं सद्यः प्रत्ययकारकम्‌ ॥ ६०९॥ 





१. यह श्लोक नरपतिजयवचर्या क सर्वतोभद्रप्रकरणका है। इससे आभे २९ 


इलोक पर्यन्त सर्वतोभद्र चक्रको निर्माण विधि बताई दहै जिसका उ्लेल 
प्रस्तुत ग्रन्थमे नहीं क्या गयाहै। केवल फलादेश वििदडी गर्ईटै। बतः 
आवश्यक समक्ष कर निर्माण विधि भी प्रस्तुत कररहाहूं। द्र. नरपति ज. 
च. २-९ “ऊर्ध्वगा दश विन्यस्य" इत्थादि नियमानुसार दस रेखा उर्वाषिः, 
दस रेषा तियंक्‌ लिखकर ७१ कोष्ठक वाला एक चक्र बना कर ईदान कोन 
ते जारम्म करवचारोंकोणों म अकारादि १६ स्वरो को स्थापित करना 
चाहिये । अनन्तर अस्वग् के भगेसे कृत्तिकादि २८ नक्षत्रोंको लिश कर 
पूर्वादि दिशामोंसे नक्षत्रों के नीचे अवकहडादि अक्षरों का म्यास करना 
चाहिये । पूनः उसके नीचे पूर्वादि दिशाओं मे वृषादि तीन-तीन राक्चिर्योका 
न्यास कर शेष ५ कोष्ठोंमे नन्दादि तिथियों एवं सूर्यादि सात वारोंकानाम 
लिखने से सर्वतोभद्रचक्र निमित होताहै। वारोंका नाम तिथियों के साथ 
इस प्रकार होगा--रविवार, भौमवार-नन्दा, सोमवार, बुषवार--मदहा, 


गु्वार-जया, शुक्रवार-{रक्ता, शनिवा र-पूर्णा । वेषज्ञान हेतु न रपति जयचर्या 
त. भ. प्र. २१-३३ देखें । 






















































































स्वेतोभद्र चक्र 
(= =: ङ्‌ |रो| मू. | आ. | पु. द्रुग नाः 
भ. |उ[अ| व॒ | क | ह. ` ह, |ड|ॐ| म. 
अ. [ल]ल्‌| व्‌ |मि. | क. [लू|मप्.फा. 
॥॥ मे. ओ [नन्दा | ओ सि ट |उ.फा 
१,६.११ । | 
र. म. | | 
मा. दमी. रिक्ता | पूर्णा | भद्रा [क.|पः ह 
 , {४,९,१४।५,१०,१५। २,७,१२ / 
[| । श. |सो.बुः ___ 
पू.भा|स कु | अः ५“ | अ | तु|र| बि. 
३,५११३ 
- 
श. ।ग।ए। म. ध॒ | व्‌. [९|[त|स्वा. 
भ. [ऋ|ल/ अ भ य |न[ऋ| वि, 
ईं [अ |अ.| उ. वा. | पु. वा. ( 


























३४ मानसागरी 


एकवेधे भवेदुद्धं युर्मवेषे धनक्षयः । 
त्रिवेषेन भवेद्धङ्गो मृत्युश्चंवं चतुग्रहैः ॥। ६१० ॥ 
एकादिङ्गूरवेषेन फलं पुंसां प्रजायते । 
उद्धेगश्च तथा हानी रोगो मृष्यु क्रमेण च ॥ ६११॥ 
श्रम ऋषषेऽक्षरे हानिः स्वरे व्याधिमंयं तिथौ । 
रादिवेषे महाविध्नं पञ्चवेधे न जीवति । ६१२ ॥ 
अकवेषे मनस्तापो द्रव्यहानिस्तु भूसुते । 
रोगपीडाकडः सौरो राहुः केपुश्च विघ्नदौ ।। ६१३ ॥ 
चन्द्रो मिश्रफलं पुसा रिपुश्चव तु मार्गवे। 
बुधवेधे भवेन्ना जीवः स्वंफलब्रदः । ६१४॥ 
इन चक्रो के अनन्तर अब्ज तीनों लोक को प्रकाशित ( प्रत्यक्ष ) करने वाला, 
भरसिद्ध, शीघ्र विश्वास उत्पन्न कराने व।ना स्वंतोमद्रनामक चक्र का विवेचन 
करनेजारहाहं। यदि हइसचक्र मे एक प्रहसेवेषहोतो युदहोतादहै, दो ब्रहों 
के वेधसे धन हानि, तीन ब्रहोंके वेषसे मङ्ख (सेना का पलायन), चारग्रहोके 
वेष ते मृत्यु होती दहै। 
एक याएकसे अधिक क्रूर ्रहोंकावेषहोतोक्रममे द्रेग, हानि, रोग ओर 
मृत्यु होती है । जन्म नक्षत्र विद्धहोतो भ्रम (श्रमण), नामक्षनर विदहोतो हानि, 
स्वरदविद्धहो तो महन व्घ्नि तथा यदि पाचों विद्धो नौ मनुष्य जीवित 
नहीं रहता । 
सूयं से वेष होतो मनमंसम्ताप, भौमसे वेषटहोनो षनकीहानि, शनि 
वेषकारकटोतो रोग ओर पीडा, राहू ओर केतु वेषङारङ्टहौ तौ विष्न, 
चन्दधसे वेषहोतो शुभ-अशुभ दोनों मित्ित फल, शुक्र वेधकारकहोतो शत्रु 
वृद्धि, ब्ुषसेबेधहोतोबुद्धिका विकास, तथा गुरुसेवेषटोनतो सभौ प्रकार 
का ( शुभ) फल प्राप्त होता है। ६०६-१४॥। 
पच्चस्वर वक्र-- 
भथादावुदयो यत्यास्तियेस्तद्भुक्तमानतः । 
बालस्वरादिकप्रश्ने फलं तस्य वदाम्यहम्‌ ॥ ६१५ ॥ 


प्रन कालमें जिन्न तिथि का उदयहो उसके मृक्तप्रमाणते बाल मादि स्वरों 
का कल बता रहा ह। ६१५॥ 


मृत्यर्बालस्तथा वृद्धः कुमारस्तङ्णः स्वरः। 
यो यस्य प्वमस्याने छ स्वरो मृत्युदायकः ॥ ६१६॥ 





"मनो रमा" हिन्दीग्याश्योपेता ३४६ 





मृत्यु, बाल, वृद्ध कुमार भौर तर्णये पाचस्वर होतेह) जो स्वर जिसके 
पश्चम स्थानम होगा बही स्वर उसके लिए मृल्वु कारक होता है ॥ ६१६५ 


किच्विल्लामकरो बालः कुमारस्त्वदड लाभदः । 
सर्वसिद्धि युवा दतं वृद्ध हानिमृते क्षयः ॥ ६१७ ॥ 


बालस्वर स्वल्प लाभकारी, कुमार स्वर मर्षलामप्रद, युवा स्वर सभी प्रकार 
की सिदधियोंकोदेने वाला, वृद्ध स्वर हानिकारक तथा मृल््रु स्वर कायं नष्टकरने 
वाला होता है ॥ ६१७॥ 


स्वर साघन- 
तिथिभुक्तवटीसंख्यां कृत्वा पलमयौं ततः । 
एवं बाणहूते शेषः स्व रस्तव्कालसम्भवः ॥ ६१८ ॥ 
वतमान तिथि की मृक्त घटी संख्या का पल बनाकर उसमे पाँच का भागदेने 
से जो शेष बचे उसी संख्या के अनुसार बाल-कुमार आदि वतमानस्वरहोतादहै। 
यथा १शेषहोनो बाल, २ कुमार, ३ युवा ४ वद्ध तथा ५ अर्थात्‌ °क्ेषहोतो 
मृत स्वर होता है ॥ ६१८ ॥ 


उदाहश्ण-- कल्पना किया ५ तिथि का घटादि मान २५।२२ गत तिथि भ्का 

मान २८।१२ इष्टघटी १५।३० 

अतः ६०।००-२८।१२ ~ ३१।४८- १५।३० 

== ४७।१८ तिचि मृक्तषटी 
४७ >८६० = २८२० + १८ ~ २८३५ पलात्मक मृक्तषटी 
५) २८३८ ( ५६७ 
२५ 
३३ 
३9 


लेव २३ है । अतः “युवा! स्वर हुआ । 
यमुरिश्य कतः प्रश्नः फलं तस्य वदाम्यहम्‌ । 
यत्र नो दुश्यते किलवितत्र धवं शसुमादुमम्‌ ॥ ६१९ ॥ 
जिस उह्यसे प्रश्न कियागयाहो तथा जिस प्रदन का कोई आधार दुश्यन 
हो उन प्रदनों के भुमाशुम फलों कोम कह रहा हुं ।॥ ६१९॥ 


३४० मानसाभगरी 





बालोदये यदा पृण्छा लाभा स्वल्पलाभदा । 
इनातं चिरशोगं च शमे हानि क्षयं रणे । ६२० ॥ 
बाल स्वर के उदयम यदि लाभालाभ का प्रदन होतो स्वल्पलाभ; रोगीका 
प्रघन होतो दीं कालिक रोम । यात्राका प्ररनहोतो हानि, संप्राम का प्रन 
हो तो युङ में विनाश होता है।॥ ६२० ॥ 
कूमारोदयवेलायां लाभो भवति पृष्कलः । 
राज्ये नाकं अयं युद्ध यात्रा सर्वार्थसिद्धिदा ॥ ६२१ ॥ 


कुमार स्वर के उदय कालम यदि प्रशन होतो अधिकं लाभ, राज्य सम्बन्धी 
प्रशन मे नाक्च ( हानि); युद्ध में विजय तथा बात्रामे सभी प्रकार की सिद प्राप्त 
होती ह ।॥ ६२१ ॥ 
युवोदये लभेद्राज्यं क्लेणच्छेदं च ॒तत्धषणात्‌ । 
संप्रामे शत्रुहन्ता च यात्रायां सफलं भवेत्‌ । ६२२ ॥ 
युवा स्वर के उदय होने पर राज्य लाभ, तत्काल दुःखों का अन्त (रोगोवे 
निवृत्ति ), संग्राम मे शत्रुं का नाश, तथा यात्रा में सफलता भिलती है ।॥ ६२२॥ 
वृद्धोदयें न लाभः स्यात्क्लेशात्कलेशधवद्ध नम्‌ । 
संग्रामे भङ्गमायाति यात्रायां न निवतंते।। ६२३॥ 
वद्ध स्वर के उदय होने पर लाभ का अभाव ( हानि), एक्‌ कष्टके अनन्तर 
कुसरे कष्टों की वृद्धि, संग्राममे पराजयटोतीटै तथा वद्धस्वरमें यत्रा करने 
से वापसी नहीं होती वर्थात्‌ यात्री वहीं नष्ट हा जाता है ।। ६२३॥ 
मृत्यूदये यदा श्रष्ठ॒ पृच्छति स्वप्रयोजनम्‌ । 
तत्सवं मृत्युदं ज्ञेयं युद्ध ॒मत्युः सभङ्गदः॥ ६२४ ॥ 
मृत्यु स्वर के उदय होने पर यदि प्रशन कर्ता किसी उश्यते प्रन पुषतादहै 
तो प्रष्नका उद्य ही उसकी मृत्युकाकारणहोता दहै) अथवा युद्ध मे पराजय 
के साथ मृह्यु होती है ।। ६२४ ॥। 
नरनामादिमो वर्णः स्वराचचस्मादधः स्थितः । 
ष॒ स्वरस्तत्य वर्णस्य वर्णस्वर इहोष्यतें ।। ६२५॥ 
मनुष्यके नामके पहले अक्षरम जोस्वरहोताहैि उस वर्णं (अक्षर) का 
वही स्वर उस व्यक्ति का वर्णं स्वरहोताहै। यथा रमेशमेर्‌4+ननरेशका "अः 
वर्णेस्वर, गोपाल का गृ+गोन्मो वने स्वर होमा ॥ ६२५॥ 
नक्षत्र संज्ञा विचार 
जन्भभं जन्मनक्षत्र वशम क्मंसंजकम्‌ । 
एकोनविद्चमाधानं त्रयोविशं विना्कम्‌ ।॥ ६२६ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता ३५१ 





अष्टादशं च नतत्रं सामुरायिकसंनितम्‌ । 
साधातिकं च विज्ञेयमक्षं वोढशसश्यकम्‌ ॥ ६२७ ॥ 
जिस नक्षत्र मे जन्म होता है उते जन्म नक्षत्र, उससे दश्वा नक्षत्र कमं सं्चक, 
उक्ीसर्वां नक्षत्र माधान संज्ञक, तेदसर्वां विनाद्य संज्ञक, अटारदवां नक्षत्र सामुदायिक 
संज्ञक, तथा सोलहर्वां नक्षत्र सांषातिक संज्ञक होता है ॥ ६२६-६२७॥ 


मृत्युः स्याञ्जन्ममे विद्ध कर्मभे क्लेहामेव च । 
अधानक्षऽपरकाश्चः स्याद्विनाश्चे बन्धुविग्हुः । 
सामुदायिकमे विद्धं कष्टं हानिः सुघातिके ।। ६२० ॥ 
यदि अन्म नक्षत्र विद्ध होतो मृत्यु, कमसंज्ञक नक्षत्र ब्ड़िहोतो कष्ट, 
आशान नक्षत्र विद्धहो तो अज्ञान ( बुद्धिनाश), विना्ञ नक्षत्र विद्धहो तो भार्यो 
में विद्रोह, सागुदापिक संज्ञक नक्षत्र चिद्धहोतो कष्ट, सांधातिक नक्षत्र विदहो 
तो हानि होती है१। ६२८॥ 
प्रहरहिमसाषन- 
नीचोनसेरोऽभ्यधिके च षट्‌ काच्चक्राच्च्युते सपहते विभक्तम्‌ । 
तर्कस्तु राश्यादिकमेव लब्धं सूर्यादिकानामिह रष्मिजं च । ६२९ ॥ 
अपने नीवांशसे रहित ग्रहके राशष्यादिमान यदि ६ राक्षिसे अ्षिकहांतो 
उसे १२ राक्षिमे षटाकरशेषको सातसे गुणाकर ६से भागदेने पर लन्धि 
सूर्यादि ब्रहों की राक्यादि रषि होती है । ६२६॥ 
उदाहृश्ण--स्प० सुयं ३।६।१२।१० सूयं का नीच ६।१०। 
मतः ३।६।१२।१०-६।१०।०।० ~ ८।२६।१२।१० शेष ६ राशिसे धिक 
अतः १२ राशि मे घटाने से १२।०।०।०-८।२६।१२।१० ~ ३।३।४७।५० 
शिव मे ७ का गुणा किया। 





१--श्लोक ६२७ के पूदं तथा पर्चात्‌ अधिक पाठदहै दोनों को संगति कं साभ 
इस प्रकार है-- 
एवं षड्भिः जनाः सवे जातिदेकषाभिषेकमेः। 
नवमो नृषतिङ्गयो नाडौताराः स्मूता अम्‌ ॥ 
इस प्रकार समी लोगों के जन्म-कर्मादि छः नक्षत्र होते है । परन्तु राजा 
केलिए जाति, देह ओर अभिषेक संज्ञक तीन नक्षत्र मौर अधिक होते है अर्थात्‌ 
नव नक्षत्र होते हि।ये नाडी संज्ञकं नक्षत्र होते ह। 
जातिनने कलनां च वन्धनन्ामिषेकमे । 
जाति संज्ञक नक्षत्र विदडहोतो कूल का नाश, अभिषेक विदहोतो 
अन्धन होता है । 


३५२ | मानसाशरी 





७ >< ३।३।४७।५० “~ २१।२६।३४।५० गुणन फल में 
६ का भाग दिया-- 
६ ) २१।२६।३४।५० (३ 
१६ 
३५८३० +-२६ 
६) ११६१९ 
६ 
५६ 
_ ५४ 
२०८६० + ३४ 
६ ) १५४ ( २५ 
१२ 
३४ 
३० 
४२८६० + ५० 
६ ) २९६० ( ४८ 
२४ 
५५०6 
ट्ट 
२ 
सूयं की र्यादि रिम ३।१६।२५।४८ हई । हसी प्रकार समी ग्रहों का रिम 


मान निकाला जा सक्ता है । 








रदिमसंस्कार-- 
स्वोच्वस्थिलस्य त्रिगुणं निर्क्तं स्वे हादशे मित्रगृहे हिनिध्नम्‌१ । 
नृपांश कोना कथितास्तु नोचे शत्रोः पुनश्चेदद्धिदशां्चके च। 
वक्रो पुनस्तद्द्विगुणं ददाति तत्यागकालेऽख्ममागहोनः ॥। ६३० ॥ 
ग्रह मपनी उश्च राश्शिमंल्वितिहोतो साधित रक्मिक्ोतीनसे गणाकरने 
चे, अपनी राशि, अपने द्वादशांश, तथः मित्रग्रहुकी राक्षिमें होतो गणितागत 





१--'शस्वोश्वस्थितस्य द्विगुणं निर्क्तं स्वे ददासि मित्रगृहे स्वराशौ ।'' प्राचीन 
धुस्तके पाठान्तरम्‌ । 
अपनी उश्चरालि, गृह, मपना दादर्श एवं भित्रग्रहकी राशिमें 
स्थित ब्रहहो तो साधित रक्षमिको द्विगुणित करने से स्पष्ट रमि होती है) 
यह्‌ मत भी विचारणीयदहै। 


मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ३५३ 





-रहिमि को द्विशुणित करने ते, यदि ब्रह अपनी नीचरादियाशत्रुके द्वादशषांशमे स्थित 
हो तो साधित रदिमि का षदमाग हीन केरेषठे, वक्री प्रह तो पूनः द्विगूणित 
करनेसे तथा बक्रत्यागके समये भागहीन करनेसे स्पष्ट रदिमि कामान 
होता है ॥ ६३० ॥ | 
| रमि का फल- 
एकादिपञ्ख यावद्रण्मिभिरतिदुःखिताः कुलविहीनाः । 
पतिता दृषट्दरिद्रा नीचरता सम्भवन्ति नराः॥ ६३१॥ 
ठक्त रीति से साधित समी प्रहोकी रदिमियोंकायोगययदिश्से५के गीष 
हो तो मनुष्य अत्यन्त दुःशी, कुल से हीन ( परित्यक्त ), पतित, दुष्ट, दरिद्र तथा 
तथा नीच लोगों के साथ रहने वाला हाता दहै ।। ६३१॥ 
परतो दश्चकं यावद्मृतकहीना विदेशगमनरताः । 
जायन्ते तत्र पराः सौमग्यपरिच्युता मलिनाः । ६३२ ॥ 
इससे (५ से) अधिक भौर १० से अल्प रिमियों कायोगहोतो मनुष्य 
परिजनों से रहित, विदेश यात्रामं रचि रखने वाला ( विदे वासी), भाग्य 
हीन, तथा मलिन विचारों वाला होता है । ६३२॥ 


पञ्चद्चम्यो जातस्तत्र प्रधानपूज्ययुताः । 
धर्मारम्माः सुसुखा कुलतुल्य जनाः प्रजायन्ते ।। ६३३ ॥ 
अनन्तर १५ तक रर्मियोकायोगहो तौ जातक, श्वष्ठ, सम्मानित पुरषो के 
साथ रहने वाला, धमं का आचरण करने वाला, सुखो से पृक्त तथा अपने कूल के 
अनुरूप व्यक्ति होता है । ३३३ ॥ 
आविशतेः कूलश्वेष्ठो धनवाञ्जनविच्युतः । 
भवेत्कोतिकरः शश्वत्ध्वजनंः परिपूरित: । ६२४ ॥ 
रहिमयों कायोग यदि २०तकहोतो मनुष्य भपनेङ्रुल में षष्ठ, धनवान, 
अन्य जनों से रहित ( असामाजिक ), कीततिकारी का्योँको करने वाला, निरन्तर 


माह्मीय अर्नो से भिरा रहने वाला होता है । (अर्थात्‌ अपने परिवारकेही हितम 
कायं करने बालाहोतादहै) ॥ ६३४॥ 


पूज्याः सुभगाः धरा कृतिनो वौराश्च चरकृति यावत्‌ । 
परतो भवन्ति मनुजाः संसारधत्तसकलकरणोयाः । ६३५ ॥ 
रदिमर्यो का योग यदि २५ तको तो मनुष्य पूज्य ( सम्मानित), सुन्दर, 
धै्ववान, कायेकुक्षल, बीर तथा संसार मे प्रचलित सभी प्रकारके कर्योँकोक्रने 
मे उश्च॑त होता है ॥ ६३५ ॥ 


२१ भाण् सार 


३५४ मानप्ताभथरी 


काणेय 





बत उ्तरेभ चष्डा नुपाशिता नृपतिलब्धधनसौस्याः । 
त्रिशद्यावत्सचिवाः पूज्याश्च भवन्ति भूतानाम्‌ ॥ ६३६ ॥ 
इससे ( २५) से अधिक तथा ३० तक यदि रहिमियोंका योग हो तो मनुष्य 
जल्यन्त उग्र स्वभाव वाला, राजाओं के भाभित रहने वाला, राजाते प्राप्त भन 
दवारा सुक्षी, मन्त्री तथा लोगों से पूजित होता है ॥ ६३६ ॥ 
एकत्रिश्द्धिरव प्रचुराः ख्याता महोभुजो निपुणाः । 
द्वात्रिंशद्भिः परुषाः पञ्चशतग्रामपतयः स्युः ॥ ६३७ ॥ 
यदि राशियों कायोग३१होतो पुहुष अतीव विषयात्‌ एवं चतुर राजा 
होता है । यदि रेरयोगहोतो ५०० ग्रामोंका मर्धिपति (मुद्िया) होता है ।६३७) 
ग्रामसहस्राधिपतिमधिकात्करोति रश्मीनाम्‌ । 


त्रिसहखग्रामाणां परुषं सूते चतुसिद्ात्‌ ॥ ६३८ ॥ 
इससे अधिक अर्थान्‌ ३३ योगो तो १००० ग्रमो का अधिपति तथा रदिमयों 


कायोग३४दटहो तो ३००० गावों का मधिपति पुरुष होता है ।॥ ६३८॥ 
परतो मण्डलभा जो बहुकोश्परिग्रहा महत्स्वाः 1 
्रस्यातकोत्तियशसो भवन्ति सुमगाश्च लोकानाम्‌ ॥। ६३९ ॥ 
इसके अनन्तर ( अर्थात्‌ ३५ रहमि योगदहोतो) मण्डल का अधिपति, बहुत 
अधिक धनवमन्‌, महान्‌ शक्तिशाली, अपनी कीति भौर यशसे लोक में विश्यात 
तथा सुन्दर होता है।॥ ६३६॥ 
त्रिशत्षड द्धिः सहिता रश्मीनां यस्य जन्मक्षमये स्यात्‌ । 
साद्धं मुनक्ति लक्षं ग्रामाणां स तु पुमाक्नियतम्‌ ॥ ६४० ॥ 
जिसके जन्म समय में ३६ रदिम संश्याहो वह ष्यक्ति निश्रयही लाखो गर्वो 
का उपभोग करने वाला होता है । ६४० ॥ 
व्रि्त्सप्तकसहिता शए्मीनां सञ्चयो भवेदेवम्‌ । 
लक्षत्रितयपतित्वं ग्रामाणां जायते पुंसाम्‌ ॥ ६४१ ॥ 
यदि रदिमर्योकेयोगकी संस्या३७दहो तो मनुष्य तीन लश प्रा्मोका 
अधिपति होता है ॥ ६४१ ॥ 
त्रश्दरसुभिः सहिता रश्मि्येषां भवेद्धि पूरषाणाम्‌ । 
भूनिसंमतलक्षामां प्रामाणां तेऽधिपा जेयाः ॥ ६४२ ॥ 
वदि रद्मर्योकायोगदेन् होतो ७ ला्धप्रामों का मविपति वह्‌ ष्य 
होता है ।। ६४२ ॥ 


मनोरमा" हिम्दीग्यास्योपेता ३५५ 


तनरिशस्सनवकसंश्या जन्मनि येषां गृहे स्थिताः सन्ति । 
ते तोषितस कलजना भवन्ति पथिवौषरवराः पुरषाः ।। ६४३ ॥ 


जिसके जन्मकालमं ३९ रदिमिसंश्या होतो वह व्यक्ति समी लोर्गोकौ 
सन्तुष्ट करने वाला समस्त पृथ्वी का स्वामी होता है ।। ६४३ ॥ 
शागन्वप्रमाणैः किरणैः प्रसूतः क्षोणीपतिस्तद्विजयप्रयाणे । 
भवन्ति तेनागजगजितानां प्रतिस्वनाः खे धनगजितानि ॥ ६४४ ॥ 
यदि रदिमियों से उल्पश्न योग संख्या ४ग्होतो जातक पृथ्वी का मिपति 
( राजा) होताहै। विजय यात्राके प्रसंगमेतेनाके साथ चलने वाले हाबियों 
की मर्जना से उत्पन्न प्रतिष्वनि मेधो की गजना के समान सुनाई पडतीहं। भाव 
यह कि वह्‌ व्यक्ति बहुत प्रभावलानी एवं प्रतापी होता है ।। ६४४॥ 


शक्षि जलनिधिसंख्ये रर्मिभिः सूयतिजा 
जलानधिसहितायाः पाथिवः स्थात्सुमूमेः । 
द्विजलधिरसनायाः पक्षवेदाख्यसंस्य- 
स्व्रिजलधिरसनाया रामवेदंस्तथेव ॥ ६४५॥। 
यदि रदिमयों का योग ४१ हो तो मनुष्य सूयं के समान तेजस्वी समुद्र सहित 
पृथ्वी का शासक (राजा) होतादहै। यदि रदिमिसंख्या होतोदो समुद्रोके 


मध्यकी पृथ्वी कास्वामीहोताहै। यदि ४३ योगो तो तीन समुद्र पयन्त पृष्वी 
काराजाहोता है । ६४५ ॥ 


वेदाभ्धितुल्यंश्च मयुखजालं जता नरेष््राः लु सा्वंभौमा। । 
सौम्याः सुरब्राह्मणमक्तयुक्ता दोर्षायुषः सत्वयुता भवन्ति ।। ६४६ ॥ 
यदि समस्त रहिमयों कायोगण्ण्टोतो मनुष्य सरल स्वभाव वाला, देव 


नौर ब्राहमणो मे आस्था रखने वाला, दीर्घायु सम्पन्न एवं शक्तिशाली सार्वभौम 
राजा होता है ।। ६४६ ॥ 


परतः किर्ण्िपान्वरपालकाः पुर्षसर्वगुणसत्वाः । 
सर्वनमस्याः पुभगा महेन्द्रतुल्यप्रतापाश्च ॥ ६४७ । 
इसके बाद अर्थात्‌ रदिमयों का योग ४५ होतो पुरुष एकद्वीपसे इूसरे हीष 
ङक का पालन-पोषण करने बाला ( राजा), सभी प्रकारके सद्गुणो से सम्प्चः 
इक्तिशासी, सभी लोगो वारा समस्य ( सम्मानित ), सुन्दर तथा इन्र के समान 
पराक्रमी होता है ॥ ६४७ ॥ 


अस्वारिद्युक्ताः वद्मिन्व॑वं वसूतिजाः किरणाः । 
स्य स्वंलिदिपालक भुक्वा ॥ ६४द ॥ 


ह१६ मानसाभगरी 


अन्म समयमे रदिमियों कायोग यदि ४६ होतोप्तनी राथा्मोको ओडकर 
उसी ष्यक्ति का आदेश्च सर्वत्र माम्य होता है) अर्थात्‌ स्वंेष्ठ राजा होता है ।६४८। 
भुषनमस्सहिष्णोः स्वंतः क्षीणश्चणो- 
स्त्िदश्चपनिनमस्यः सर्वंलोकस्सु हस्य । 
विदधति विहगानां रश्मयो यस्य सूतौ 
शुरगकृतिसमानाश्चक्रवतित्वमेवम्‌ ।॥ ६४१ ॥ 
जिसके जन्म समयमे सभी प्रहोकी रदिमियोंका योय ४८७ हो वहु ग्यक्ति 


समस्त देशों (संसार } का भार वहन करने वाला, सभी तरह से शुग से 
हीन, लोक में इन्द्र के समान आदर पाने वाला चक्रवर्ती राजा होता दहै । ६४९१ 


अभिमुखकरप्रवाहैः फलं प्रयच्छन्ति पुषट्तरमाशु । 
तद्विपरीतं पुंसां परशङ.मखस्थग्रहन्द्राणाम्‌ ॥। ६५० ॥ 
यदि प्रह ररिमर्यों का प्रवाह सम्मृक्ष) दिकशामं हो तो पूवंकथित फल पृष्ट 
होते ह ( अर्थात्‌ पूर्णं शूप से फल प्राप्त होता है । ) यदि किरणों का प्रवाह विपरीत 
दि्ामेहो तो फल भी विपरीत होते है ।॥ ६५० ॥ 
जन्मसमये रश्मीनां संक्षये क्षयो भवति । 
वृद्धे वृद्धिनु णामेवं मोक्षेऽपि तक्करमेणेव ॥ ६५१॥ 
जन्म समयमे रदिमयोंकेह्णासहोनेमे फल मं क्षीणता होती है। तथा 
रमियो की वद्धिसे फलमेवुद्धिटोतीदहै। मोक्ष मवस्थामे मी प्रहोंकी रहम 
के करमानुसार फल समक्षना चाहिये ।। ६५१ ॥ 
बल-विवेषन -- 
बलवबोधेन विना दशादिक्रमाववोषो न भवेद्यतोऽतः । 
तत्स्यानदिश्कालनिसगचिष्टादुग्भेदभिन्नं कथयाम्यकलेषम्‌ । ६५२ ॥ 
ग्रहो के बलकेक्षान विना दा-अन्तर्दशाके फल-क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता 
मतः ग्रहो के स्थान दिक्‌, काल, मैसगिक, नेष्टा तथा दृष्टि भेष से उत्पन्न समस्त 


बलों कोकहरहा हू । ६५२॥ 
^ स्थान फल- 


स्वोच्चे पुदृद्मे स्वनवांशकेऽपि स्वकं दुकाणे द्विरसांशकेऽपि । 
_  _कलाशकादुयंशयुतेऽपि चेवमुपंति तत्स्यानवलं प्रहे! ५६५३ 
१. सम्मुख-विगूख रदिमर्यो का अभिप्राय यहहै कि प्रह यदि बास्यावस्वाति 


हवावस्था की तरफ अग्रसर हो तो रदिमियां सम्बुक् होगी, यि पुवावस्या ते 
मृत भवस्था की तरफ बह रही हो तो विपरीत होती है। 





1) 





मनोरमा" हिन्दीष्याष्योषेता ३१७ 





ग्रह अपनी उश्च राशि, मित्रब्रह की राक्षि, अपने नवमांश, द्रेष्काण एवं 
हादर्षा मे कल्पिक या नंदाट्मक मानसे भी स्थित प्रहस्थान बल प्राष्त 
करता है ।। ६५३ ॥ 
उश्बबल-- 
नोयो सथर भार्षाधिकं चक्राद्‌ विदोधयेत्‌ । 
भागीङ्त्य त्रिभि्भ॑क्तं लब्बमूञ्ववबलं मवेत्‌१ ॥ ६५४ ॥। 


स्पष्ट प्रह के राष्यादि मानसे उस ग्रह का नीषांश् घटाने से शेष यदि ६ राति 
वै अभिकहोतोर्से १२ रािमें वटाकरसेषके अंहादि मानको ३सेन्राभ 
हैमे पर लब्धि उश्च बल होता 2। ६५४॥ 
उदाहश्ण-- स्पष्ट सूयं ७।२६।४।२५ तीष ६।१० 
७।२६।४।२५ 
६।१० 
१।१६।४।२५ शेष ६ राकि से अल्प है अतः इसके अंशादि मान 
( ३० + १६ )-४६।४।२५ मे ३ का माग दिया- 


३)४६।४।२५(१५।२१।२५८ 
३ 
१६ 
१ 
१०८६० + 





# 9 
~. = |“ 2 


> ६० + २५ 
५ 


.# 1 = 


कामि 


२५ 
२४ 


नोयो 


१ 
लब्धि फल १५।२१।२८ अदादि सूर्यं का उश्च बल हुआ । 





१, शलोक सं° ६५३ ब्ृहश्ाराशषरहोरा (२८।१.२) का पाठ है। यहां 
१० अनुपमिश्च ने निम्नलिखित अपना पच्च उदृतक्याषा- 
नीकोनखेटो रसमा किकद्वेश्यक्राद्विशोध्योऽथ कलीङृतश्च । 
शलाष्टदिग्भिजिहुतस्तदुश्ववलं अवेत्‌ स्थानवलप्रसङ्गं ॥ 


+, मानसागरी 





मूलत्िकोणादि बल१-- 


मूलत्रिकोण स्व्षाधिभिन्न मित्र समारिषु। 
अधिशत्रुगृहे चापि स्थितानां क्रमशो बलम्‌ । 
प्चाग्धि शछाग्निनिखर तिथिदिग्‌ युगदुष्ठयः । ६५५ ॥ 
ग्रह यदि अषने भूल त्रिकोणमेहोतो ४५ कला, अपनी राधि (गृह)में 
हो तो ३० कला, अभिमित्र ग्रह की राशिमेहोतो २५ कला, मित्रब्रहकी रि 
मेहोतो १५ कला, समप्रहकी राशिमेहोतो १० कला, शत्रु ब्रहकी रा 
भेषहोतोभ्कला, तथा अधिशत्रु की रा्चि में हो तो २ कला बल प्रप्त 
करतादहै।। ६५५॥। 
केन्द्रादि-दवेहकाम बल-- 
कण्टाकदुयुपगतेषु विधेया रूपकांचरणा निजवीयं । 
मान्तमध्यमुखगेषु च पादः स्तरौनपुंसकनरेषु विधेयः ॥ ६५६॥ 
केन्र ( १,४,७,१०, › स्थानों में स्थित ग्रह॒ १* (-६०") पणफर (२,५८.११) 
स्थानों मे स्थित ग्रह ३०, बापोक्लिम ( ३,६,७,१२, ) स्थानो मे स्थित ब्रह १४ 
वल प्राप्त करतेहै। 
स्त्री प्रह ( चन्द्रमा भौर शुक्र ) तृतीय हष्काण भें, नपुंसक प्रह ( बुष, शनि ) 





अर्धात्‌ नीचरहित प्रह यदि ६ राशिते अधिकहोतो १२ राशिमें षटाकर 
शिष रा््यादि मान को कलात्मक बनाकर १०५०० भागदेने पर लि 
उच्च बल होगा । 
वस्तुतः सिद्धान्त एक ही है। यहां प्र केवल ब्रविड प्राणायाम किया 
गया है। ६ राहि का कलात्मक मान १०८०० मानकर उक्त विबि लिली 
गई है। 
१. यहां बल विचार परादारके मतसे दिया गथा्ै। १० अनृपमिषने अपना 
विचार निम्नलिखित अपने प्च में हस प्रकार दिय। है- 
मूलत्रिकोणे शरवेदसंख्याः क्षेत्रे रदाः साषंकरद्धिवुल्याः । 
निजेऽधिमित्रै तिथयश्च मित्रे समे सल्लण्डा नगलिप्तिकादज । 
पादोन वेदाश्च रिपौ तथाबिषशत्रौ कलेका दहिद्चरा विलिप्ताः । 
अलं परं जातकलशास््रतस्वविद्धिनिष्क्तं गणितप्रबीणेः ॥ 
अर्थत मूलत्रिकोण में ४५ बल सम मं ७१३० बल 
स्वक्षेत्र मे ३२ , कषत्रे ३४५ ,, 
मभिभित्र में २२।३० मधिहत्रुमे १।५२ ,' 
भित्र मे १५ $; 


'मनाोरमा' ह्िनदीव्यःक्योपेन। ३५९ 





दवितीय देऽकाण मे तथा पुरुष प्रह (सूर्य, मंगल, बरटृस्पति ) प्रथम द्वेष्कणमं हा 
तो एक-एक पाद ( १५ कला ) बल प्राप्त करते ह ६५६॥ 
दिग्बल~~ 
स्थानवौ्यमिदमेवमिहोक्तं दिग्बलं श्यणु धूवंदिशातः । 
विद्गुरू रविकुजौ रविसूनुः शुक्रशोतकिरणौ बलिनौ स्तः ।। ६५७॥ 
उक्त पदयो मे स्थान बल बताया गयाटहै मब पूर्वादि दिष्षाओंकेक्रमसे ग्रहों 
के दिग्बल सुनो- | 
पूवंदिशा ( लग्न ) मं बुष ओौर गुरु, दक्षिण दिक्षा ( द्म माव) में सूर्य, 
मंगल, पश्चिम दिक्षा (सप्तम माव)मे सूयं गौर शनि तथा उत्तर दिक्षा (चतुथं भाव) 
मं शुक्र मौर चन्द्रमा नौ बलवान्‌ होते हँ अर्थात्‌ उन्हें दिग्बल मिलता है ।६५७॥ 
दिग्बल साधनविधि -- 
अकत्किजास्स्वाम्बुगृहं विशोष्य जोवादृबुधाच्चापि कलत्रमावम्‌ । 
भेषुरणं भागंवचन्द्रमाम्यां प्राग्लग्नमूष्णांशुजतोऽवशेषम्‌ ।। ६५८ ॥ 
वड मादिकचञ्चवेद्धगणादिशोध्यं लिपोकृतंाश्रगजान्नभूमिः। 
भजेसदाप्तं हि ककुष्बलं स्यादतः परं कालबलं वदामि ।। ६५९ ॥ 
सूवं भौर मंगल के स्पष्ट राह्यादिमानसे चतुथं मावको, गुरुभौर बुषसे 
पप्तम भावको, शुक्र भौर चन्द्रमासे दशाम भाव को तथा स्पष्टकशनिसि लग्नको 
धटानेसे शेष यदिच राक्षिसे अधिकटहोतो उसे १२ राश्िमे घटाकर शेषकी 
कला बनाकर १०८००्से भाग देने पर दिग्बल होता है। इसके उपरान्त काल 
बल को बता रहा ।। ६५८-५६॥ 
उदाहरण--स्पष्ट सूयं २३।५।१२।२८ चतुर्थं भाव ०।१६।१३।५ 
३।५।१२।२८-०।१६।१२।५२।१५।५६।२३ शेष के कलादि मान ४५५६।२३ 
मे १०८०० कामाग देने से लड्षि ०।२५।१६ सूर्यं का दिग्बल हुभआ। इसी प्रकार 
सभी प्रो का बल साधन क्या जाताहै। 





१. अकरत्‌ कुजात्‌ सुखं जीवाञ्ञाज्चास्तं लग्नमाक्रितः। 
मध्यलग्नं मृगोश्चन्द्राद्‌ हित्वा षडम.~के सति। 
चक्राद्‌ विशोध्य भागास्तु रामाप्तास्तहिशो बलम्‌ । व्‌, पा. हो. २८.७ 
पू्यं-मंगल से चतुथं, गुर-बुष से सप्तम, शनि से लग शुक भौर चन््से 
दशम भाव का षटनेसे शेव छं राशिसे अधिक हो तो १२ राशिमें 
अटाकर शेषके अंशादि मानमेंरे से भाय देने पर दिम्बल होता है। 
यथा- सूर्यं २।५।१९।२८-ब. मा. ०।१९।१३।५-२।१५।५९।२३ शेष अंशादि 
७५।५६।२१३-> ३ = २५।१९।४७ दिग्बल हुभा । 


३६९० मानसागरी 





नतोन्नत बल-~- 
नक्तं बला भौमल्ाङ्कुमल्दा गुरवकशुक्राच. बलाः खगाः स्युः । 
सौम्याः सदा वासरनक्तभाजो ग्राह्यो बुधेरूनतसंजकालः ।। ६६० ॥ 
नतश्च तत्कालभमवः पलीकृतः खखाष्टचन्द्रैविहूतो बलं भवेत्‌ । 


बुषस्य रात्रिन्दिवभेकमेव विधेयमेतत्समयोद्‌मवं बलम्‌ + ।। ६६१ ॥ 
मंमल, चन्द्रमा गौर शनिये तीनों प्रह रात्रिम तथा बृहस्पति सूयं मौर शुक्र 


दिन मे बलवान्‌ होते है । बुष सदैव दिन भौर रात्रिदोनों मे समान बलौ होति 


है । दिनबली प्रहोंका बल उन्नतकाल तथा र।त्रिबली प्रहोंका बल नतकालते 
सिङ् किया जात। है। 


ताष्कालिक नत या उल्ततकाल को पलात्मक बनाकर १८०० भागदेने पर 


लम्बि नत एवं उस्नत बल होताहै। बुष का रात्रि एवं दिनम एकही बल 
माना गयाहै। इसी प्रकार कालबल का जानयन किया जाता है ।॥ ६६०-६१॥ 


उदाहर्ण--नतकाल ४।२० हसे पलाध्मक बनाने पर ४८ ६०२४० $ 


२०००२६० हग इसमे १८०० भागदेने प्र लण्धि ०।८६।४० तकाल का बत 


हमा । इसी प्रकार उन्नतकाल से उम्नतबलका ज्ञान किया जायमा। बुषका 
बल निरन्तर ६० कला होता है। 


पक्ष बल- 


व्यकः शदो षडमवनाबिकश्चेच्चङ्ाद्विशोष्योऽय कलीकृतोऽसौ । 
चङ्रादूषंलिप्ताविहूतो बलक्षपक्षे बलं स्यादथ कृष्णपक्षे ॥ ६६२ ॥ 
तदेव सूपाच्च्यूतमेव कृत्वा जगुबु धाः पक्षबलं ब्रहाणाम्‌ । 
बसक्षपको भुमखेचराणां पापग्रहाणामसिते च पक्षो ॥ ६६३॥ 





२. 


(गी क 1) 8) णो 


. बरहश्पाराक्षर होराम नतोन्नत बल का स।घन अतीव सरल विधिसे किया 


गया है- 
भौोमचन्द्र्षनीनां नताषटच्यो द्विसंगुणाः । 
शुदास्ताः बष्टितोऽैषं कलाद्यं तद्बलं भवेत्‌ । 
बौषं नतोन्नतबलं सूपं जेयं सदा बुषैः॥ 
मंगल, न्द्रमा मौर शनि का नतबल ताषश्कालिक नतवटीको दोषे 
भुणा करने प्र मथति नतकाल का द्विगुलित मान मंगल, बन््रमा भौर शनि 
का नतबलहोताहि। नतबलको ६० धटीमें षटनेसे शेव अभ्य सूरय, धुड 
मौर शुक्रका बल होता है । बुध का बल ६० कलाहोताहै। 
चन्द्राच्छद्धो रविः बडमदूनः शोभ्यस्तु बक्रतः। 
ले्षाशाः वद्धि विहता शुभानामुदितं द्विज । 
पक्वं बलमिन्ुकधशुक्रार्यणां बु षष्टितः। 
शोध्यं तदेव विज्ञेयमिनाराक्नि षमुद्धवम्‌ ॥ 


मनोरमा हिष्वीग्याख्योषेता १३६१ 


रयं से रहित कजन्द्रमा ( स्पष्टवनश्दर ते स्पष्टस्य को षटनिसे शेष ) यदि 
६ राशिसे अभिकहोतोखते १२ राशिमेंषटा करलशेष को कलात्मकं बनाकर 
चकार्वंकला (६८२००८६० )- १०८०० भाग देने पर लब्धि शुक्लपक्ष में 
ग्रहो काबलहोताहि। एकमे उक्तवल को चटानेसे शेष कृष्ण पक्षमे बल 


होता है। शुक्स पक्षमें शुभ प्र्होका तथा कृष्ण पक्में पाप ग्रहोंका बल होता 
2 । ६६२-६३ ॥। 


उदाहरण स्पष्ट म्र ६।२२।१८।२३० स्पश्ट सूर्यं ९।१३।२२।२५ 

( ६।२२।१०।३० }-( ६।१३।२२।२५ )-९।०।५६।५ शेष ६ राशि से अधिक 
है । अतः १२ राश्चि मे बटाने वे १२।०।०।०-।८।५६।५-२।२१।३।५५ शेषके 
कलाट्मक मान ८४६३ में १०८०० का भाग देने ते लम्बि ०।४७१ शुक्ल पक्ष का 
बल अर्थात्‌ शुभग्हों का बल हना । १-०।४७।१-०।१२।५६ कृष्न पक्ष एवं ¶ाप 


प्रह का बल हुजा। 
दिनरात्रिबल-- 


बद्ध चिभागेषु बलं कमेण सौम्याकितिरग्मांशुनमश्चराणाम्‌ । 
दात्रौ तुवाराधु सितासृजाश्च रूपं सखदंवामरपूजितस्य 1! ६६४ ॥। 
दिन के ( दिनमान के तुल्य तीन भागमेसे) प्रथमतृतीय अंशम बुषको, 
हवितीयमें शनि को तथा तृतीय भामे सूर्वंको पूरणं बल प्राप्त होताहै। इसी 
प्रकार रात्रिके प्रथम तुतीयांशषमे चन्द्रमा, दविनीयमे शुक्र तथा तृतीय भाममें 
मंमस को पूर्णं बल मिलता है । बृहस्पति को सदैव पूणं बल प्राप्त होता है ।॥६६४॥ 
बर्वेदा साघन- 
छश्यक्विमवविहोनो धुगणः खरसाग्निभाजितस्तिध्नः । 
सैकः सप्त सुतष्टा सावनवर्बाधिपोऽर्कादिः ।। ६६५ ॥ 
जम्म दिनके अहगेणमे ११२१ षटाकरलेषकोरेसे गुणाकर ३६०्सेभाग 
देने प१र जो लल्वि प्रप्तहो उसमे एक जोडकरसातसे भाग देने पर शेष तुल्य 
सूर्यादि कम से वर्षेव होते ह ।॥ ६६५॥ 





स्पष्ट चशसे स्पष्टसूर्यंको षटाकरशेष को ६ राक्षिसे अल्पकरने 
के लिए १२ राशिमें षटार्ले। शेषके अंशादि मानको रेसेभाब रेने 
पर ल्व चन्र, बुष, शुक्र मौर बुरुका पक्षबल होताहै। उक्तवबलको 
६० मे षटनेते सूयं, मंमल कौर निका पक्ष बल होताहै। 

उदाहश्ण- बन्ध सूयं = ९।८।५६।५। १२-६।८।५६।५०२।२१।३।५५ 
अंशादि ८१।३।४५ तीन से भाग देने पर ल्व २७।१।१८ चन्द, बुष, 


गुड भौर शुक का पल्ल बल तथा ६०-२७।१।१८-३२।५८।४२ सूयं, मंबल, 
सति का पञ वल हुना। 


३६२ मानसामरी 





उदाहरण- सं २०३१ शक १८९६ कातिक शुक्ल १५ शुक्रवारको गहर्गेण 
१४०९ है । 
गतः १४०९- ११२१ = २८८२८३० ८६४ 





०६४--३६० ~ त ~ लम्धिर 


२4- १~ ३ सातसे अत्पहै यही वर्षे संख्या हुई । सूर्यादिक्रमसे 
वीक्षरा ब्रह मंगल वषश हुआ । 
मातपति का साधन- 
क्ष्तिमुनिहोनो धगणस्त्िशद्धक्तः फलं द्विगुणम्‌ । 
सेकं सप्त पुतष्टं सावनमासाधिपोऽर्कादिः । ६६६ ॥ 
अह्गेण ते ७१ घटाकर शेषम ३० का भागदेकर लब्धिकोदोसे गुणा कर 
एक ओड कर ७से माग देने पर शेष तुल्य सूर्यादि ग्रह मासपति होते ह ।।६६६॥ 
उदाहरण--जहर्गेण १४०६ 


३३८ 





१४०६-- अ १ = १३३८ । १२३८-२० = = लब्कवि ४४ । 


४४०६२ ~ ८८ + १-८९६ ०६--१ ~ ^. ~ शेष ५ अतः सूर्यादि करम से 


पाचवां ग्रह गुरु मासेश् हुमा । 


विश्लेष ¡- वदा भौर मासेश का साधन यहा बताया गया परन्तु व्षेश भौर 
माचेद्च का बलसाधन नहीं किया गया । अतः बरृहश्पाराशर होरा शास्त्र से वर्षे 
मौर मसे का बल उद्धत कररहाहु-- 
वर्पमासदिनेक्ञानां तिधित्रिशच्छरार्णेवाः। 
हो राधिपब्रलं धुणंमिति ज्ञेयं विचक्षणेः॥ 
व्षेशका का बल १५ कला, मसेक्षका ३० कला, वारेहाका ४५ कला तथा 
हो रापति का बल पूणं अर्थात्‌ ६० कला होता है । 


ज्याखष्ड--- 

“ तत्स्वाश्विनोऽकांप्रिकरता रूपभूमिषर्संवः । 
साङुाष्टौ पश्चचुन्येा बाणसरूपगुणेन्दवः ।। ६६७ ॥। 
धुन्यलोचनपञ्वं कार्छिद्ररूपमुमीन्दवः = । 
वियण्वन्द्रातिधुतयो गुणरन्प्रखलोचनः ॥ ६६८ ॥ 
मुनिवडधमनेत्राणि शद्दरत्रियुणलोषना) । 
पन्चाष्टविवयाक्षोणि कुख्जरार्विनगास्वित। ।। ६६१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीभ्यास्योपेता ३६३ 


र्प्रपञ्चाष्टकयमा वस्वथङ्कयमास्ततः । 
कृताश्शून्यञ्वलना नागा द्र्चशिवह्मयः । ६७० ॥ 
वट्पन्चलोचनगुणाश्वन्द्रनत्राम्निवह्यः | 
यमादविव्धिज्वलना रन्प्रशल्यार्णवाम्नयः ।। ६७१ ॥ 
सूपाम्नितागश्गुणा वसुत्रिकृतवल्वयः । 


प्रोज्छ्योत्क्रमेण व्यासा्दादुत्क्रमज्याद्धं पिण्डकाः ।! ६७२ ॥ 


एक वृत्तपादमे २४ ज्याखण्ड रोनतदहै। इन खण्डं का साषन कर इनका 


कलाश्मक मान पठित किया मया है। 


पहली जीवा २२५ दूसरी जीवा ४४६ तीसरी जीवा ६७१ 
अची जीवा ८६० पाचवीं जीवा ११०५ छठी जीवा ३३१५ 
सातवीं जीवा १५२० आठवीं जीवा १७१९ नवम जीवा १९६१० 
ददा्वीं जीवा २०६३ ग्यारहवीं जीवा २२६७ बारहवी जीवा २५३६१ 
तैरहवीं जीवा २५८५ चौदह्वीं जीवा २७२८ पन्द्रहवीं जीवा २८५० 
सोलहवीं जीवा २९७८ सत्रहवीं जौवा ३०८४  अठरह्वीं जीवा ३१७८ 
उश्रीसवीं जीवा २२५६ बीसवीं जीवा ३३२१ द्क्कीसर्वीं जीवा ३३७२ 
बाहसवीं जीवा ३४०८ तेहसवीं जीवा ३४२१ चौबीसवीं जीवा ३४३८ 


इन ज्याधपिषण्डों को त्रिज्यामे उत्करमसे घटाने पर उत्करमज्याङधं पिष्ड 


होते है ।। ६६७-७२ ॥ 


षष्ट र्ति साघन- 


पशमापक्रमस्या पु सपतरण्प्रगुणेन्टवः। 
तदगुणा ज्या त्रिजीवाक्त तच्चापं क्रान्तिरुच्यते ।। ६७३ ॥ 


परम क्रान्तिज्या का मान १३६७ क्लादहै। दष्टकालिक क्रान्ति साधनके 
लिए परम कान्तिके मान को षृष्टज्यासे गुणा कर च्रिज्यासे भाग देना बाहिये। 
लण्वि कान्तिज्या होती है इसका चाप (ज्यासे चाप) निकालनेसे क्रान्ति 
अंशाट्मक होती है ।। ६७२ ॥ 

विष्लेष !- सिद्धान्त प्रन्योमेज्याज्ात हो जाने पर क्रान्ति निकालने के लिए 
यही अनुपात दिया गया है- 


क्रान्तिज्या = भमा या । यही अनुपात यहां भी कयि बय 





१३९७८ इष्ट्या ११९७ ०८ इष्ट्या -ऋन्तिभ्या 
त्रिज्या ३४३८ ~त 1 । 
चाप करते से अंशाह्मक क्रान्ति होगी । 





३६४ नाबच्ागरी 





ग्रहलाषव मे परल रीति से कान्ति सान इस प्रकार कयिशयादहै। 
वट्वडिषुदधिवुक्कुभिर्थे+ शेट मजांराधिनांसमितैक्यम्‌ । 
शिषहतेष्य दिनांशयुतं बांदाच्चपमः भुशसंभ्यवहुत्यै ॥ प्र.ला. ४।१२ 
६, ६, ५, ४,२, १ कान्ति सार्षनं हेतु अंक पठित है । सायनप्रह के भृजांशा मे 
१५का भाग देकर लभ्धितुल्यपटित अंकोके योग कर्ले। शेव को अग्रिम संख्या 
से भुणा कर भुणनफल मे १५ का भाग देकर लब्विकोभंकोंके योगम जोडनेते 
अ्लादि कन्ति होती है । 
यथा--सायनसूयं ८।६।४८।१ मुज २।६।४८।१ मृजां ६६।४०८।१-- १५-सबन्ि 
४, शेष ६।४८।१ को अग्रिम संश्यारसे गुणा कर १५ ते भागदेमे 
पर प्राप्त लब्धि ०।५४।२४ को ४ चार संख्या्गोके योग (६+६‡ 
५४ )-२१ मे जोढने ते २१।५४।२४ कान्ति हुई । सायनं दक्षिण 
गोल का दहै अतः कान्ति भी दक्षिणा हूई। 
अयन भौर बेष्टाबल-- 
क्रान्तिः सौम्या स्वमिह परमापङ्कमे दक्षिणां 
धृक्रादित्यक्षितिसुतमरुस्पूजितानां विषेया । 
ध्यस्ता ्षीतद्युतिरविजयोस्तस्य नित्यं विधेया 
बाष्द्रेश्चंवं तदनु परमापक्रमेणाम्युपेता ।। ६७४ ॥ 
ग्राह्य राश्चिप्रमृति च फलं तस्कलोभूतमेत- 
द्ोमाकाशद्िरदखकुमिर्भाजयेदायनं स्यात्‌ । 
द्विघ्नं भानोरयनजबलं पक्षवी्यं तथेन्दो- 
युद बाणान्तरसुविहृतं शेरवीर्यान्तरं हि ` ॥ ६७५ ॥ 


शुक, पूरय, मंगल गौर बृहस्पति की उत्तरा क्राम्तिहोतो परम क्रान्तिमें 
अन, यदि दक्षिणा क्रन्तिहोतो परम कान्तिमें ऋण करना चाहिये। बन 
जओौर शनि मे विपरीत अर्थात्‌ उतरा कऋन्तिमे ऋण एवं दक्िणा कान्तिमे भन 
करना चाहिये । बुष की कान्ति उ्तराहो या दक्षिणा दोनों स्थितियोमे बनदही 
करना चाहिये । अनन्तर क्रान्तिकी कला बनाकर १०८००्से भागदेनेषर 
जायन बल होता है। 

शूं का आयन बल हिगुजित करने पर सूर्यं का स्पष्ट जेष्टा बल तथा बन््रके 
चेष्टा वल को द्ियुणित करने पर चन्र कास्पष्टजेष्टा बल होता है।ः 





१. भायन कस साधन की विकि बृहत्पाराश्चर होरा में इसते भिन्न है । 
२. यद्वेरायनं वीर्ये वेष्ट्य तावदेव हि । 
विधोः पञलवलं यावत्‌ ताबश्चेष्टावलं स्मृतम्‌ ॥ 


"मनौ रमा" हिम्दीष्यास्योवेता ३६५ 





ग्रहो के परस्पर बुद्ध, कलमे दोनो ब्रहों के बलाम्तरको शरन्तरसे भान 
देने पर स्पष्ट युद्ध कल होता है । ६७४-७५ ॥ 


उदाहरण -स्प० सूर्यं ९।१३।४४।१० दक्षिणक्रान्ति = १८।४४ प्रमक्रान्ति 
के्े। २०-१८।५४ == ४।१६ शेव  ४>८६० = २४० + ३६२७६ कलात्मकः 
२७६ १०८०० लड्धि ०।१।३२ आयनबल । 
आायनबल ०।१।३२ > २-०।३।४ सूयं का चेष्टाबल । 
भौपादि ग्रहो का बेष्टाबल- 
मध्यस्पषटय चरविवरा्धेन युक्तं बलोश्वं 
चेष्टाकेन्द्रं मगणपतितं षडगृहेभ्योधिकं चेत्‌ । 
लिपतीकृत्वा खखग अखम्‌भिमंजल्लग्धिमानं 
चेष्टावीयं तदिह गदितं हौरिकर्बृद्धिमद्धिः २ ।॥ ६७६ ॥ 
मध्यम ग्रह भैर स्पष्ट प्रह के अन्तर के षे को शीध्रोच्वमे जोडनेसे चेष्टा 
केनद्रहोतादहै। केन्द्र यदि ६ राशिसे अधिकटोतो उसे १२ राश्िमेषटादेना 
वाट्ये । केन्द्रको दलात्मक बनाकर उमम १०८०० काभागदेनेसे प्राप्त लम्वि 
चेष्टा बल होता है होरा-कलस्त्रके ्जाता विद्वानों का कयन है ॥ ६७६॥ 


उदाहरण--मघ्यममगल ६।२८।३७।४३ स्पष्टमंगल ६।२६।३८।२५। दोनो 
का अन्तर ०।२।८।१५ आधा ०।१।४।६ मंगल का शीध्रकेन्द्र ०।१५।६।४० 
०।१।४।९-०।१६।१२।४९ चेष्टा केन्द्र हुआ । बारह राक्षिसे अल्पदहै। मतः इसके 
कलादि मान १७३।४६ को १०८०० से भागदेने पर लब्धि ०।५।२४ मंबल का 
चेष्टाबल हुआ । 


नेसगिक बल- 
मन्दावनोसुनुशषषाङ्ुपुत्रवागो शणुङ्गन््रदिवाकराभाम्‌ । 
एकोत्तरं रूपनगेविमक्तं नेसगिकं वौर्यमुदाहरन्ति ॥ ६७७ ॥ 
एकादि सात संख्याम को अलग-अलग ७ साते भमागदेने परक्रम से शनि, 
मंगल, बुष, गुर, णुक्र, षन मौर सूयं का नैसर्गिक बल होता है । यथा- 





न्ति 


तारा प्रहाभामन्योन्यं स्यातां युद्ध समागमौ।सु.सि. 

२. ब्ृहष्पाराषर होरा तवा अन्य प्रन्योमे भमौमादिब्रहोंके बेष्टाबल सर्धनके 
लिए इससे विपरीत नियम मिलता है। यवा--मध्यम मौर स्पष्ट प्रहोंके 
योग का आषा अपने-अपने दीघ्ोण्बमे भटाकर शेव को अलास्मक बनाकर 
३ का भाभदेने से लष प्रहु का चेष्टा बल होता है। 


३६६ मानसागरी 





शनि मंगल बुष गुर शुक चन्र सयं 
ढे डे डे छे ४ 
र्बात्‌ शनि का ००।८'।३४ मंगल का ००।१७१८'', बुष का ००।२५१।४२., 
गुड का ००।३४।१७१, शुक्रका ००।४२,५१, चन्दर का ००।५११।२५'' तथा शङ 
का १।०।० नैतिक बल होता है ॥ ६७७ ॥ 
दुष्टि बल- 
उक्तानि यस्माद्बहुषा फलानि व्योमौकतां दृष््तिमृद्धबानि । 
तस्मात्‌ प्रवच्म्यानयन हि दुष्टेरहोराविदां दुव्फलनिणंया्म्‌ ।। ६७८ ॥ 
विविध प्रकारसेग्रहोके दष्टि जन्य फलक्हैग्येहै। गतः भी देवशो 
हारा द्य फल-के निणेय के लिए दृष्टि साधन विधि को कह रहा हूं ।॥ ६७८ ॥ 


दृष्टि साषन- 
अपास्य प्यत्िजदुश्यखेटा- 
देकादिशेषे धवलिप्तिकाः स्युः । 
पूणं खवेदास्तिययोऽषवेदाः 


खं षष्टिरन्न शरवेद संख्या ॥ ६७६॥ 
तिथ्यः खशन्द्रा वियदश्रत्काः 
शेषांकघातष्य विशेषधघातात्‌ 
लब्धं खराभेरधिकोनकंष्ये 
सवण ॒धुवेताः स्पुटदुष्टिलप्ताः+ ॥ ६८० ॥ 
दुष्य (जिसपर दृष्टिहो) प्रहस द्रष्टा(जोग्रह देखताहो) प्रहको 
घटाने से राशि स्थानम एक मादि शेष रहने पर दष्टिका कलात्मकं ध्रुवा इस 
रकार होता है-- 
१ शेषपर ०, २ पर ४०, ३ पर १५, ४पर ४२, पर °, ६१र, ६०, 
७ पर ०, ८ पर ४५, ९ पर १५, १० प्र १०, १११२, ०, १२ (या०) चेव पर 
८६० भुवा होता है । 

१. नीलकण्टी १.२.११-१२ ( दृष्टि साधन हेतु विविध प्रकारके नियम इन्धो में 
मिलते ह । मानसागरी की माषार प्रतिमे दृष्टि साषनदहैतु जातक पदनि 
का निम्नलिखित पच्च बुद्वितथा जो सुस्पष्ट नहींहै।) 

लैकाग्निद्धिलवेद रामयममुलाभ्नान्नमेकादिभे 
हष्टावजितद्द्यकस्य भुरणा बेदष्टवेहे कृताः । 
मन्देना द्ुयमेऽसृजा नननुनेद्धु भादिजाः संस्कृताः । 
भामभ्नक्षयनृद्धि शानललबेनाभ्ध्युढूतो दुग्भवेत्‌ ॥ 





"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योपेता ३६७ 


जयाय 





इस प्रकार प्राप्त भुवा भौर अग्रिम (एष्य) घ्रुवाके जन्तरसे दुष्य भौर 
इष्ड ब्रहोके अंशादि जन्तरको गुणा कर ३०तेभागदेने प्रजो लब्धि प्राप्त 
हो उवे एष्य ध्रुवा अधिक होने पर मत ध्रुवा मे जोड़ने तथा एष्य ध्रुवा भल्प होमे 
पर शत च्रुवा मे षटाने ते ब्र्हो की स्पष्ट दुष्टि होती है ॥ ६७९-६८० ॥ 

उदाहर्ण-- स्पष्ट बृहस्पति ६।७।१३।२५ स्पष्ट चन्द्रमा ३।१६।१२।३०। 
बृहस्पति को चन्द्रमा पणं दष्टिसे देक रहाहै मगा द्रष्टा चन्द्रमा तथा दुष्य ग्रह 
बृहस्पति हुमा । चन्द्रमा की स्पष्ट कलात्मकं दुष्टिका साषन उक्त रीति हस 
प्रकार होगा- 


दृकष्य बृहस्पति ६।७ ।१३।२५ 
द्रष्टा चन्द्रमा ३।१६।१२।३० 


२।२१।००।५५ शेष 
लेव राशि स्वानमेर है मतः द्वितीय बत ध्रुवा ४० तथा एष्य ध्रुवा १५ क 
अन्तर ( ४०१५) २५ से अंशादि शेष २१।०।५५ को गुणा किया-- 


२१। ०।१५ 
__ >८।२५ 
५२५। ०।३७१५ 
६० से अपवत गुणनफलन ५२५।६। १५ में ३० काभागदिया। 
३०) ५२५।६ (१७।३० 

३० 

२२९५ 

२१० 


१५०८ ६० 
६०99 
६ 


६०६ 
६०. 
६ 
यहाँ गत ध्रुवा ४० एष्य धरुवा १५ से अल्प है मता ४०-१७।३०२२।३० 
बृहस्पति पर बन्दमा की कलात्मक दुष्टि हई । 
भाव ब्ल- 
भावानां बलमीशजं च नुचतुपादाख्यकोटम्बुजाः 
जयाम्ब्वाचलभोनिताः खलु ततो दिग्वीयंवत्तचुतम्‌ । 


तद्दुषटपर्धियुगुग्रहटविरणोनं जेज्यदुरयुक्पुनः ।। ६८१ ॥ 
भत्येक भावके स्वामी प्रह का दल उस भावकाभी बल होता ह। ( शशक 








हेय भाभसाभरी 





अतिरिक्त विशेषयल ) यवि किसी भावेन्‌ ( हिपव ) संज्ञक राशिहो तो उसमें 
वच्तम भाव, बलुष्पद संक्ञक रकि होतो वतुं भाव, कीट संज्ञक रालि शोतो 
लब्न को, तथा अलंबर सं्ञक राशि हो तो उसमे दस्म भाव कोषरानेषे गो शेष 
बचे उससे दिग्बल साधन की रीति से बलानयन करना बाहिये । (अर्थात्‌ शेष यदि 
६ राशिषे अ्िकहोतो उसे १२ राक्षिमे बटाकरतेदके अंछादिमनकोरेते 
भाग हिते पर स्थि उक्त बल होगा । ) इस साधित बल को भवे ब्रहके वलमे 
जोड । अनन्तर भाव पर जिन-जिन शुभ ग्रहों कीदष्टिहो उन म्रहोंके बल योग 
का चतुर्थांश उक्त योग जओोडने तथा जितने पापग्र्हो की दृष्टिहो उन ब्रहोके बल 
योग चतुर्थाक्ष धटाने से भाव का स्पष्ट बल होता है । यदि बुध भौर वृहस्पति की 
दृष्टिहो तो इनके पूणं बल का योग करना बाहिये।। ६८१ ॥ 
अष्टक वर्ग-- 
सूयं सौरिश्न जीवश्च शुक्रो भौमो बुधस्तथा । 
चन्द्रो लस्नं कमात्स्याप्या भवे बुंग्रहाः ।। ६८२ ॥ 

अष्टक वें मे सूयं, शनि, गुरु, शुक्र, मंगल बुष, चन्द्रतथा लग्नको करमते 
स्थापित करना चाहिये । ६८२ ॥ 

विशेष-सात ग्रहो एवं लग्न को भिलाकर माठ वर्गे होते ह अत। अष्टक ब्ग 
कहा जाता है। परन्तु उक्त क्रमसे स्थापित करने का कोई मौचिव्य नहीं प्रतीत 
होता । इन चक्रों के निर्माण हेतु प्रत्येक प्रह एवं लग्न से रेखाप्रद स्थानों का उल्लेख 
किया गया है। उसी के अनुसार प्रत्येक ग्रह एवं लग्न का पृथक्‌-पृथक्‌ चक्र बनाकर 
विहित स्थानों मे रेका तबा चिन्दुमों का स्थापन करना चाहिये । सौविध्य हतु 


रेशाप्रद एवं विन्दुप्रद स्थानों का विवरम प्रस्तुत है । विशेष ज्ञान हेषु देख बृहत्षा- 
राशरहो राश्चास्त्र उ० मा० अ° ६६-७२ ) 


सूर्याष्टक वर्ग 
रेखाप्रद स्थान ४८ विन्दुप्रह स्थान ४८ 
सू° चं० मं० बु० गु० शु०्श. ल० सण चं० म० बु° गु० शु० शण लम 
१३ १३ ५६ १ ३२ ३२१ १२१ १ १९ ३ १ 
२६ २५ ६ ७ २ ४ ५ २५ २२ २५ ३ 
४ १०४ ६ £ १२८४८ ६ £ ४६ ४ ३ ३ ६५ 
७ ११७ ह ११ ७ १० १२५ १२७ ४ ४ १२७ 
द ८ १० ८६ ११ ७ द ७ ५४ छ 
4 ९ ११ € १३ ८ ८ 5 > 
९ ९ 
१० १० १२ १५ १२ १०१० 


११ ११ ११ १२ ११ 


३६९ 


विन्दु प्रद स्थान ४७ 


अन्द्राष्टकवर्ग-- 


"मनोरमा हिश्दीभ्याश्योपेता 


रेशा प्रद स्थान ४९ 


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२४ माण्सा० 


६ £ ४* ५११ २ ४४ 
११ ६९ १० 


११ ८ ७ ६१२ ४ ७ ६ 


१२१० 


मानसागरी 
विन्दु प्रद स्वान ४० 


जीवाष्टक वर्मे 


देखा प्रह स्थान ५६ 





३७० 


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१२ १२ 


¦ §, 
११ 


मनोरमा" हिन्दीग्याश्योषेता ३७१ 








लग्नाष्टक बनै-- 
रेशा प्रद स्थान ४९ विन्बु प्रब स्थान ४७ 

बु. च. मं. बु. बु. शु.श. ल. सु. चं. मं. बु. गु. चु. षख.न, 
8 ३ १ १ १११ १ ११ २ ३ ९१९ ६ ३ १ 
४ ६ ३२३ २ . £ २ २ ४ ९ ८ छ ‰ 
६ १० ६ ४ ४ २ ४१० ५ & ५ ७ १२१० छ ४ 
१० १११० ६ ५ » ६११ ७ १ ७ ६९ ११ बग ५ 
१११२ ११ ८ ६ ५१० ८ ७ ८ १२ १३ & छ 
१९ १० ७ 5५ ११ ६ = € ११३ & 
११ & ६ & ११ & 
१० १९ 

११ 

रेखा दवं विन्दुरज का फएल्- 


सूर्यं रेखा फल- 
वर्तते रबिरेश्ा च शात्रुणां च पराजयः । 


सहसा सिद्धिरेवात्र मावजेयभूपस्थिता ।॥ ६८३ ॥ 


अहां पर सूयं की रेलाहो उस भवमेंसूर्यके जनेचे शत्रर्मों की पराजय, 
अकस्मात्‌ कायं सिद्धि तथा भाव से सम्बर्धित फल प्राप्त होता है ॥ ६८३ ॥ 


सूयं विन्दु फल-- 
विन्बुः सकषट्फलदो महाग्यसनकाषकः । 
दोगशलोकप्रदाता च नुपोद्र गमकारेणात्‌ ॥ ६८४ ॥ 


जिस भावम सुयंके चिन्बुहों (उसमावमे सूयंके बनेपर) कष्ट की 
भ्रान्ति, दु्येसन मे प्रवुत्ति, रोग मोरशोककी प्राप्ति तथा कारन राजकीय 
उक्षे आती ह ॥ ६८४ ।। 


चन्र रेशा फल- 
ददाति शशिरेखा च वस्त्रामरगभूषणम्‌ । 
लम्ते प्रमुतम्मानं कर्मप्रातिमिवाम्बदम्‌ ।। ६०५॥ 
जित भावने चमामाकीरेखाहो ( उसमे चम यूति होने पर ) बङ्व बौर 


भाभुव्णो ते सौल्दयं बुद्धि, रादकीय सम्मान तथा सजी काव मं सिचि प्राच् 
होती है ॥ ६८५ ॥ 


३७२ मानसागरी 





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चन्द्र विन्वु फल- 
बिन्दुः कष्ट्फलं चेव कलहं वेरिभिः सह । 
दुःस्वप्नदशंनं नित्यं धननाशमवाप्युयातु ॥ ६०६ ॥ 
बन्द्रमाके विन्दु जिन भावोमे होगे वहा चन्दरमाके जाने पर कष्ट, शतर्भो 
के साथ विवाद, दुःस्वप्नं का देन तथा प्रतिदिन धन का नाक होता है ।६८६॥ 


भौम रेल्ला फल- 
ददाति भौमजा रेखा-अर्थप्राप्ि सर्दव हि । 
आरोग्यमायुन् द्धि च कायकान्ति भ्रदापयेत्‌ । ६८७ ॥ 
मौम से उत्पन्न रेखारये निरन्तर धन लाभ कराने वाली जायु एवं आबु कौ 
वृद्धि करने वाली होती है तथा शरीर म कान्तिकं वृद्धि कर्ती ह ।। ६८७ ॥ 
भौम विन्दु फल-- 


विन्दुस्तस्य फलं शश्वदूदराग्निरुजस्सदा । 
शिरः शलः प्रजायेत रक्तपिक्तर्जादितः ।। ६८८ ॥! 
निरन्तर मन्दारि> प्रमृति उदर रोग, सिर पीडातया रक्त-पिल्त सम्बन्धौ रोग 
की प्रास्तिही भौम के विन्दुभों वा फल दहै ।। ६८८ ॥ 
बुध रखा कल-- 
वृषस्य रेखया सौख्यं मिष्ठान्नं ल मते सदा । 
दानधमंरतश्चेव द्विजदेवाग्निपूजकः ॥ ६५८६९ ।। 


बुध की रेखार्ओं से जातक सदव सुख तथा मिष्टान्न का भोजन करताहै तथा 
दानधर्मं की क्रियामों मे अनुरक्त एवं ब्राहमण, देवता मौर अग्नि की पूजा करने 
वाला होता है । ६८६ ॥ 
बुघ विन्दु फकल-- 
विष्दुर्मङ्खप्रदश्च व कलहं वेरिभिः सह्‌ । 
दुःस्वप्नदक्ष॑नं नित्यमवेलाभोजनं तथा ।। ६९० ॥ 
बुध अपन विन्दु युक्तमावोंमे हो तो कायोंकी हानि, शवरर्मोसे कलह 
दु1स्वप्न दशन एवं निरन्तर असमय में मोजन प्राप्त होता हि ॥ ६९० ॥ 
गुड रेशा फल- 
रेखा जवौ जनयति सदा वित्तसौख्यादिपुष्ट 
जायाभोगं जनयतितरां शत्रहृन्त्री च नित्यम्‌ । 
मानोस्साहो विभवमघुलं वस्त्रहेमादिबुदधि 
प्राप्य सकलमतुलं ब्धुव्गोपहाशम्‌ ॥ ६९१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ३७३ 


बृहस्पति अपनी रेखाओं से युक्त मार्बोमेंहोतो सदैव, धनधान्य सृञ्ख की 
धवलता, स्त्री का अतिशय धुख, निरन्तर शत्रर्मो का नाश, सम्मान, उक्तह्‌ 
बृद्धि, अदुल सम्पति, वस्त्र एवं स्वणं की वद्धि, सभी प्रकारके उत्कृष्ट मुख तवा 
भपने बन्धु वर्गो आदर प्राप्त होता है) ६६१॥ 
गुह विन्दु फल-- 
विन्दुः कष्टं विगतधनधीर्मानसे वित्तचिरष्तां 
मागं भङ्ग जनयति सदा पातनं वाहनाद्रा । 
लोका दिषटं मवति कलहं वाङ्मयेनापमार्नं 
शतरुदरेषं व्ययमपि सदा माहसात्क्यंहानिः । ६९२ ॥ 
बृहस्पति यदि अपने विन्दु प्रान मावोंसे युक्तो तो कष्ट, घन टानि, बुदि 
हीनता, मनमंक्षन की चिन्ता मर्दैव मार्गमे हानि, वादन से पतन ( वाहन 
दुषंटना ), लोगो के संकेन पर क्नलद. बोलने मात्र से अपमान शत्रुसे दवेषः 
सदैव व्यय की वृद्धितथा नाहसमे वाये ना नाल होता है ।। ६६२॥ 


णुक्र रेखा फलन-- 


कचोक्री रेखा जनयति नरं राज्यसम्मानवृद्धि 
कन्यालाभं सुसुश्वव्रपुषं दीघंमायुश्च धत्ते । 
कंश्चित्करीडा मवति बहुधा जञानमेकाथंसिद्धि 
लक्ष्मीलामं जनयति सुखं सौख्यसंपत्तिवृद्धिम्‌ ।! ६६३ ।। 
शुक्र अपनी रेखाओंमे युक्त भ्यः ~ तो मनुष्य त राजतोय सम्मानमें 
वृद्धि, कन्या लाम, शागीरिफः सुख. दीर्घ्ु, तरिसीक्रौटामे निपुणता, ज्ञान की 
वृद्धि, मनोभिलाषाओों ग मिदि, क्षमी नाभ. तथा सुखे एवं सम्पत्ति की वुद्धि 


होती 2 1 ६६३ ।। 
शुक्र विन्दु फल-- 

विन्दुः कष्टं भवति हि रिपौवित्तनाशग्रदाता 

जआयापीड कलहमतुलं भूमिनाक्चं॑च कष्टम्‌ । 

बुद्धिन्न श्चं व्ययमपि सदा पातनं वाजिभिर्वा 

मागं मजं जनयति सदा सवंकालं जनानाम्‌ ।। ६६४ ॥ 

धुर भपने विन्दु वक्त भवमेहोतो शत्रुभों दवारा कष्ट, धननाशस्त्रोको 

कष्ट, भीषण कलह, मूमि कीहानि, विविष्ष कष्ट, वुद्धि का विश्रम अप्यय बोडं 
ते गिरने (बहन दुषेटमा) का भय तथा मा्गमेष्टानि होतीदहै। सी प्रकारके 
कष्टे मनुष्यों को सदेव हुभा करते ह ।। ६९१४ ॥ 


३७४ मानसामरी 





सनि रेशा फल- 
सौरी रेशा जनयति फलं भृस्यहेस्व्ंसम्पत्‌ 


काय प्राति नुपतिसचिवं साधुसम्पकौदात्री । 
भूमिप्राप्ति किंतवजयिता स्नानदानाच्चनेषु 
मिष्टान्नं स्यान्नुपतिवरदं धान्यसस्येषु वृद्धिः ॥ ६९१५ ॥ 


शनि कौ रेशा दास कमं से भयवा दासों ( नौकरों ) हारा सम्पत्ति, कायं में 
लाभ, राजा का मन्त्री पद, साधु पुरुषो का सान्निध्य दिलाने वाली, भूमि लाभ, 
धु्तो पर विजय, स्नान-दान पुजन मे खचि, मिष्ठान्न भोजन राज्य सम्मान तथा भन- 
धाल्य की वुद्धि करने वाली होती है ।। ६९५॥ 


कनि का विन्दु फल-- 
विन्दुः कष्टं नृपतिमयदो बन्धुपीडाविवृद्धयै 
धातः शस्त्रेविषमपतिर्तवित्तसंहारक्ता । 
चित्तोद्रेगो भवति बहुधा भूमिनाश्चः कलिर्वा 
बुद्धिन्न शो भवति च सदा वाहने हानिरेव ॥ ६९६ ॥ 
शनि अपने विन्दु युक्त भावमेंहोतो राजा से मय, बन्धुर्मो के क्लेशा मे बृद्धि, 
तस्त्र ते याधात, ऊंचाई से पतन, धन का नाद, प्रायः मन की अदन्ति, भूमि नाश 
अथवा कलह, बुद्धि हीनता तथा सदैव वाहनों से हानि होती है । ६१६ ॥ 
सर्वाष्टक वग में रेखा फल~- 
कष्टं स्याच्चंकरेलायां दान्याम्ंक्षयो भवेत्‌ । 
तरिरमि.क्लेशं विजानीयाच्चतुर्मिः समता भता ॥ ६१७ ॥ 
सभुदायाष्टक वर्गेमे यदिएक रेखाहोतो कष्ट, दोरेख्लाहो तो षन नाश, 
हीषशेखा हो तो क्तेह, तथा चाररेशाहोतो सम अर्थात्‌ लाभहानि दुह्य 
होती है ।॥ ६१७ ॥ 
पञ््वमिःक्षेममाशोग्यं षर्भि्थागमो भवेत्‌ । 
सप्तभिः पदमानन्दमष्टा्भिः सवंकामदम्‌ ॥ ६९० ॥ 
पड रेच्य होतो ;कल्याभ, छा में भनका गगम, सातहों तौ वरम 
अनन्द की प्राप्ति, भठरेलाहोतो सभी प्रकार की इष्ट सिदिहोती है ॥६१८॥ 





१. धर्वाष्टिक द्मे सूर्यादि प्र्के एवं लग्नाष्टक वर्गं मे जिस भावयां राक्षि 
पर बितनौ रेशाये प्राप्त हई है । उन समस्त रेखा्मो का योन कर वनी 
भावो मे रथ ने से सर्वाष्टिक वगं होता है। 


"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योषेता ३७१५ 


मरणं चतुर्दशभिः सङ्गरः पञ्चदशभिर्वा । 
वोडदाभिदङ्गपोडा मवति शरीरे महाग्याभिः ॥ ६१९ ॥ 
चौवहरेशाहोयाक्रूरप्रहोंते युक्त १५२ेला होतो मृट्यु ( अथवा भरल्यु तुल्य 
पीडा) होती है। सोलह रेशर्ये हो तो भङ्गी मे कष्टतथा भयङ्कर रोग 
होता है ।। ६१६९ ॥ 
श प्तदश्वमिदु मष्टादशमिघंनक्षयः प्रोक्तः । 
बन्धवपोडा बहली भवति वथ कोनविशवस्या । ७०० ॥ 
सच्रह रेशार्येहो तोदुःख, १८ रेशयेहोतो धनङकीक्षति, तथा उश्नीत 
रेखयें हो तो मारई-बन्धुओं को अधिक पीडा होती दहै ॥ ७००॥ 
भ्ययकलहो विशति्मिगंदो दुःखं तथं कविलत्या । 
कूमतिददराविश्चतिभिर्दष्यं च परामवो विफलम्‌ ॥ ७०१॥ 
यदि बीस रेशर्येटोतो कलह तथा मिक व्यय, दक्कीस रेार्येहोतो रोग 
नौर दुःख बहस रेख्ये होतो दुर्बुदधि पराजय एवं अस्तफलता मिलती है ।॥ ७०१॥ 
नूनं त्रिवगंहानिमंवति नराणां त्रिविषशतिभिनित्यम्‌ । 
द्रभ्यकायस्त्वकस्माद्वि्यतिर्मिश्नतुमिरषिकामिः ॥ ७०२॥ 
रेखाओं का योग यदितेषस हो तो त्रिवगं (षम, अं मौर काम) की 
निश्चित हानि होतीदहै। यदि कुल २४ रेखर्येहोतो माकस्मिक्‌ द्रब्य का नाकच 
होता हि ॥। ७०२ ॥ 
करतलगतमपि च धनं नश्यति नराणां पन्चविशतिभिः । 
वदविशतिमिः क्लेशः समता स्यात्सक्तविशतिभिः ।। ७०३ ॥ 
पीस रेखानों काोग होतोहाथमे आया हअ! षनभीनष्टहो जाता 
ह । छषम्बिस रेखर्ये हो तो क्लेश तथा सत्ताइस योग हो तो समता ( हानि-लाभ 
रस्य ) होती ह ॥ ७०३ ॥ 
अष्टाधिकविच्चत्या द्रव्यागमनं यथासुखं मवति । 
एकोनत्रिशतिभिलङ्िषु नरः पूञ्यतामेति ।॥ ७०४॥ 
भटुहस योग हो तो सुख पूवकं द्भ्य लाम, उनतिसहोतो मगुष्य लोकमें 
एषित होता है ॥ ७०४॥ 
भानं सुङृतब्यातिस्त्रश्चत्या नास्ति संदेहः । 
सुकृति सौख्यं नृणामेकाभिरषि शार्भिः स्यात्‌ ॥ ७०५ ॥ 
यदि रेशार्ओोका योगतीसहो तो निःसन्देह्‌ सम्मान तथा कीति कू बुद्धि 
होती ह । इकतिस योग हो तो सरश्कीति एवं धु ते बु मनुष्य होता है ॥७०५॥ 





३७६ मानस्ागरी 


राज्यादिफल प्राप्तिः कथिता शरङ्ति यावत्‌ ।। ७०६ ॥ 
रेखाओं का योग ३२ से अभिक ४५ तक हो तौ राज्य की प्राष्ति 
होती है ॥ ७०६ ॥। 
रेखास्याने तु सम्भक्ता यदा पापशुमग्रहाः। 
शुभास्ते च विजानीयादूविन्दुस्थाने च दुःखदाः ।। ७०७ ॥ 


रेखा स्थान ( जहां शुभ प्रदरेखार्येहो) मे पाप प्रह ओरशुभ प्रहदोनोही 
शुभ फल देते है । इसी प्रकार विन्दु प्रधान भावम पाप ओौर शुभ दोनों प्रकारके 
ग्रह दुःख कारक अशुभ फल प्रदान क्रते है ७०७॥ 


शुभा च कथिता रेखा विन्दुश्च कथितोऽशुभः । 
समः समफलं जेयं गोचरे यदि नान्तरम्‌ ॥ ७०८ ॥ 
रेखायं शुमप्रद तथा विन्दु अशुभ फल कारक कहै गये ह । यदि दोनो कीसंख्या 
समानहोतोफलमे मी शुमाशुमकी समानता रहतीदहै। इसप्रकार काफल 


तभी मिलतादहै जब गोचरमे किसी प्रकारका अन्तर ( विपरीत योगकारक 
स्थिति ) न हौ । ७०८ ॥ 


यदि संस्थितरेखायां फलं पंसां प्रजायते । 
लःऽमीमोगस्तथा सौख्यं सावंमौमजनेक्षता ।। ७०६ ॥। 
यदि रेखाबों के स्थानें स्थित ग्रहींकी दशा हो (अथवा किसीषएेममग्रहका 
विचार करन्हैहों जिमङे स्थान पर रेष्र्ये अधिकररों) तो लक्ष्मी ( षन), 
का उपभोग, सुख तथा समस्त मूमण्डनमे लोक्प्रियना प्राप्न होती दहै ॥ ७०६ ॥ 
यदि संस्थितविन्दूनां फलं पुंसां प्रजायते । 
उद्वेगहानौ रोगश्च मृत्युश्वास्य क्रमेण च । ७१०॥ 
विन्दु युक्तं प्रट अथवा विन्दु युक्त मात्र क्रा फलन मनुष्य के लिएक्रमसे उद्वेग, 
हानि, गोग भओौरमृष्यु कारक होता है ।। ७१०॥ 
यो ग्रहो गोचरे श्रेषठस्त्वष्टवगंषु मध्यमः । 
भधमस्तु दायां हि स ग्रहो ह्यधमाधमः। ७११॥ 
जो ग्रह गोचरम्‌ श्रेष्ठ, अष्टक वर्गे में मध्यम तथा दशामं अधमहोतो बहू 
प्रह अचमाधम होता 8 ।। ७११॥ 


आयु विषार-- 
पिष्डायु साभन-- 


नष्देन्ववो बाणयमाःशरकष्मा दिवाकाः प्मुवः कुपक्षाः । 
न्घ्न मस्वस्रमुलग्रहार्णां पिष्डायुषोऽब्दा निजतु ङ्गमानाम्‌ ।। ७१२ ॥ 


"मनोरमा हिम्दीग्याण्योपेता २३७७ 


अपनी-अपनी उश्वब रादियों मे स्थित सूर्यादि ब्र्होकेक्रमसे १६. २५, १४५; 
१२, १५, २१, २० पिण्डक कहै गये ह । अर्थात्‌ पर्ये का १९ वषे, अन्दर का २५ 


वर्षं, मंगल का १५ ब्ब, बुष का १२ वद, गुद का १५ वषं, शुक्र का २१ वषं तथा 
शनि का २० वषं पिष्डाङ्कु होता दहै) ७१२॥ 


निजोच्चशुदधः खचरो विष्टोध्यो भमण्डलात्‌षड मवनोनकश्चेत्‌ । 
यथास्थितः षड्‌मवनाधिकश्चेल्लिप्तीकृतः संगुणितो निजाब्देः ।। ७१२ ॥ 
त्र खान्नरसचन्द्रलोचनंश्दधृते सति यदाप्यते फलम्‌ । 
वषंमासदिननाहिकादिकं तद्धि पिण्डमवमायु्च्यते । अ१४॥ 


स्पष्ट प्रहके राक्यादिसे उस ग्रहके उच्च राद्यादि मान को घटने से शेष 
यदि ६ राहिसे अल्प होतो उमरे १२ राक्षिम घटाकर, यदि ६ राशि से अर्भक 
हो तौ यथावत्‌ शेष को कलात्मवः बनाकर अपनी पिष्डाद्भुं वषंसेगुणा कर 
२१६०० से भागदेने प्र नन्धि वष, मास, दिन, घटी, पन प्रह की पिष्डावु 
होती है ।। ७१३-१४ ॥; 
(सभी ग्रहोंकी मायु का योग मनुष्व की जयुहोनीदहै)। 
उदाहश्ण--स्पष्ट सूयं ६।१०।२६।४५ उच्च ०।१० पिष्डाद्खु १६ 
६।१०।२६।४१ 
-०।१०। _ _ 
६। ०।२६।४१ 
शेष ६ राशि से अधिक दहैअनः शमे १२ राधिमं नदीं घटाया । इसके कवलात्मक 
मान १६२२९।४५ कोसूर्यके पिण्डाद्कु १६ गुणाकर २१६००म भागदिया- 























१६२२६।४५ 
, ._->6।१६९ 
२१६००)२३०८३६५।१५(१४।३।६।२६।१५ 
२१६०० 
६२९२३६५ 
८६४०० 
५६६५ २२०३८५० ५४७9 
>< १२ १५ १ ६४४०० ॐ ६० 
७१५६५ ६४५० ३२४००० 
६४८०० < ६० २१९०० 
६७६५ ५६७००० १०८२००० 
५ 3© ४३२०० १०६७०७० 
२०३८०५० १३५००० >€ 
१२६९६०० 
५४ ७99 


सूर्ये की पिण्डायु १४ वषं ३ मास € दिन २६ षटी १५ १ल हुई । 


३७ मानसागरी 





. दीर्ण पुरुष का लक्षण-- 
ये धमंकमंनिरता विजितेष्डिया ये पे पथ्यभोजनरता हिजदेव्भक्ताः । 
लोके नरा दथति ये कूलशीललोलास्तेषामिदं कथितमावुर्दारधीभिः ।७१५॥ 
उदार बुद्धिवाले विद्वानों के कथननुसार जो धमं करम में निरत, इन्छियों पर 
नियन्त्रण रश्ने वाला, अपने स्वास्थ्य के अनुषूप सन्तुलित आहार क्ञेने बाला, 
ब्राह्मण जौर देवता का भक्त, एवं अपने कुल परम्परागत आजार-विषारका 
भगुसरण करने वाला होता है वही व्यक्ति संसार मे उक्त गणितागत आयु का पुरं 
भोग करता है ।। ७१५॥ 
ये पापलुन्धाश्चौराश्च देवग्राह्यणनिन्दकः । 
परदाररतास्तेषामकलि मरण ध्रुवम्‌ ।॥ ७१६ ॥ 
जो व्यक्ति पापी, लोमी, चोर, देवताओं मौर ब्रह्मणो को निन्दा करने बाले, 
परस्त्री मे आसक्त होते हँ उनकी भकाल ( समय से पूवं ) मृत्यु निदिकतस्पन्चे 
होती है ।॥ ७१६॥ 
अंशोद्धवं लग्नबलात्पसाध्यमायुश्च कर्मद्धिवमकंवीर्यात्‌ 
नँखगिकं अन्द्रबलाधिकत्वादायुनिर्क्तं हि मया विधार्या ।॥ ७१७ ॥ 
लग्न बलवान होतो गंशायु, सूर्यं बलवानहोतो कर्मज ( पिण्ड) गायु एवं 
चन्दर बलवान होतो नैसर्गिक आयु ग्रहण करनी बाहे । इस प्रकार बल चिष्ार 
कर आयु सान करना चाहिये ।। ७१७ ॥ 


नसगिक आयु-- 
विश्तिरेकं द्रावय नवधुतिविच्ठश्ब पश्ाशत्‌ । 
अब्दाः कमक्षो जेयाः सूर्यादीनां निसर्गभवाः ॥ ७१०५ ॥ 


नैसभिक भयु श्चान के लिए सूर्यादि ग्रहोके वर्षं प्रमाण क्रमते २०, १,२,९; 
१८, २०, ५० तये गये है । अर्थात्‌ सूयं का २० वर्ष, चन्दे का ¶ वर्षं, मंमनका 
२ वर्ष, बुष काश वषं, गुरुका १८ वर्षे, शुक्र का २० ब्व तक श्नि का ५० वर्षं 
नैसभिक ववं प्रमाण होता है ॥ ७१८॥ 

विकि--पिष्डायु की तरह निसर्माु काभो साधन शुष बिहार्नोने कियाहि) 
परन्तु वास्तविक निसर्मादुका प्रमाण १२० ववं होताहै। बोप्ररस्वेक व्रहोमे 
विभक्त करके र्धा गयाहै। इसका मरिप्राय यहि कि मनुष्य की स्वाभाविक 
भाव १२० ववं होती ह। 

जंशायु साथन- 


शबादयो प्रहा श्वाप्यास्वक्राश्चे दिग्‌ वियोजयेत्‌ 
शेवं यत्तु चिनिर्मुष्यं शआाद्भुमध्ये पुनस्त्यजेत्‌ ।। ७१९ ॥ 


"मनोरमा" हिम्दीग्यास्योपेता ३७९ 
विशोलरीदलावर्षे। स्वकीयेर्गणयेत्युमः । 
भागो नव्या दातव्यो लब्धाङ्ो वर्षसं्ञकः ।। ७२० ॥ 


परह के अंशादि मानम १० बटाकरशेषकोरेसे गुणाकर बुणनफलको 
९० मे चटाकर शेव को अपने विरो्तरी दशा व्षंसे गुणाकर श्०्से भामदेने 
षर अंक्षायु होती है । ७ १९-२० ॥ 


ठवाहरण-- स्प. सूर्य. ६।१०।२६।५५ 























१०।२९।४५ ६०। ० ° 
~ ?० ~ १।२९।१० 
०।२६।४५ ८८।३०।४५ जेष 
>€ ३ 
१।२९।१५ 
नेव को सूयं की विशोत्तरी महादशा वषं ६ ते भुणाकर ६०्से भाग दिया-- 
८८।३०।४५ 
>< ६ 
९० ) ५३१। ४।३० ( ५।१०।२५।४० 
° 
५१८१२ 
९७२ 
४ 
९७६ 
६० 
६ >< ३० 
२२८० सूयं की अलाबु ५ वचं १० मास ३५ दिनि 
३० ४० घटी) इसी प्रकार समीष्रहोंकी 
२२१० अंशापु का सान कर योक करने घ्रे स्पष्ट 
१८० भंशायु होती है । 
५१० 
8९. 
६० >८६० 
३६०० 
३६० 
ब्रह वु साधव 


तश्यंशकला गुणिता हादसनवभि ग्रहस्य भगणेष्यः । 
भदशहुतावसेवेऽ्यमाखदिननारिकाः 


क्रमशः 1 ७२१११ 


३९६० मानसाभरी 





रहो के राद्यादि मनको रसे तथा र्से गणा कर गूणनफल के भगणादि 
मानम १्२से भाग देने पर शिष ग्रह की वषह्मिक आय होती है । ७२१॥ 
उदाहृदण--स्पष्ट सूयं ( ६।१०।२६।४५ ) १२८ ६-१९१०।५३।२३३।०। 
९६्भ्मे १्२काभागदेनेसे भगण८२ शेष ६ बचा अतः भगणादिमान ८२।६।५३।३१ 
हमा ८२ मे १२ काभागदेनेसे शोष १०।६।५३।३३ वर्षादि आयु हई । दिन ५३ 
को मास बनने पर आयुमान १० वष ७ मास २३ दिन ३३ धटी हुभा। 
लग्नायु साधन-- 
होरादायोऽप्येवं बलयुक्तान्यानि राशितुल्यानि । 
वर्षाणि सम्भयच्छन्त्यनुपाताच्चांशकादफलम्‌ ।। ७२२ ॥ 
इसी प्रकार बल युक्त लग्न मी अपनी राक्षि तुल्य वषं आयुकेखूपमें प्रदान 
करता है। मासादि काञ्ञान लग्न के मक्त अंहोंके आधार प्र करना बाहिये। 
( राक्षि हरुल्य वषं प्रमाणहोताहै। अतः ३० अंशम १२ मासटोगे। इसी आधार 
पर मुक्त अहो से अनुपातद्वारा मास ओर दिन का साधन कग्ना चाहिये) ।।७२२॥ 
आयु साषन म विशेष 
वगेतिमस्वराशिद्रेष्काणनवांशके सङ्ृदद्विगुणम्‌ । 
वक्रोच्चयोस्त्रिगुणितं द्ित्रिगुणत्वे सकृत्वरिगुणम्‌ ।। ७२३ ॥ | 
जो ग्रह॒ अपने वर्गोत्तम, स्वराक्षि, देष्काण, एत नवमहिम दहो उनको आयु 
को दूना तथा जौ ब्रह वक्षीया अपनी उच्च राशिमे हो उनके आयु मन को तीन 
शूना कर देना चाहिये । जिन ङ्रहोंको दूना ओर तीन गुना दोनों की अव्यक्ता 
१३ उसे केवल एकं बार तीन गुनाक्रनेसे स्पष्ट भायु होनी है ॥ ७२३॥ 
पुनः विशेष-~ 
त्रकषेत्रे श्रयं नीचेऽद्धं पूर्यलुप्तकिरणाश्च । 
क्षपयन्ति स्वायुर्दायाक्नास्तं यातौ रविजशुक्रौ ।। ७२४ ॥ 
इति जन्मपत्रीपद्धतौ भावचक्रानयनभावाच्यायद्ितरिचतुः 
पच्छग्रहषषग्रहसप्तग्रहफनाध्यायो चतुर्थः ।॥ ४ ॥ 
जो ग्रह अपनेशत्रुकी राश्चिमे स्थित होते हवे अपनी भायु कातुती्याशतभाजौ 
शयं के सान्निध्य से अस्तहो जातेहँवे भपनी भयु का आचा भाग नष्ट कर्ते 
ह । मदुर्दाय प्रसङ्गमें शनि भौर शुक्र अस्तगत नहीं माने जते । ( इस प्रकार 
श्यष्टात्रु से उक्त नियमानुसार संशोधन करने से स्पष्ट आयु सिद्ध होती है।)।७२४॥। 
मानसागरी पदति के चतुरं मध्याय का मनोरमा 


हिन्दी अनुवाद समाप्त ।॥ ४॥ 


प्मोऽधष्यायः 


मंगलाचरण 
प्रणम्य स्व॑ज्ञमनग्यचेतसं लसत्तमं जानमणि महोदधिम्‌ । 
दशाफलं वच्मि महषि मापितं स्व बोधरूप स्वगुरूपदेशात्‌ । १ ॥ 
स्वक्ष, एक मात्र हूदयगम्य, प्रकाशमान ( तैजस्वी), ज्ञानसूपी मणजियोंके 
महासागर, उस पग्ब्रह्मका प्रणाम करर गुरुओंसे प्राप्न ्रानके आधार पर 
महर्षयो हारा कहे गये दना फन को अपनी समक्ष के अनुसार लिख रहा हूं ।१।। 
युग के अनुसार दकशा- 
कृते नंसगिकायुः स्यात्‌ त्रेतायां पेण्डमेव च । 
अश्चायुद्रपरे प्रोक्तं नक्षत्राय; कलौ युगे॥२॥, 


सत्य युगम नसगिकः आयु, तरेता म पिण्डाय, द्वापर मं अंशायु तथा कलियुग म 
तमोत्रायु का साधन करना चाद्ये ।। | 
विक्षात्तनी दशा वचं प्रमाण- 
सूयं विशत्तमो मागः श्चन द्वाद्षः स्मृतः । 
सुयंषट्मागयुग्मौमदशा चान्तदश्चा भवेत्‌ ॥ ३॥ 
भआादित्यात्विगुणो राहु रविचन्द्रयुतो गुरः । 
सूर्यस्तु द्विगुणो मौमे-मिलितस्तु चछचनिभंवेत्‌ ॥ ४॥, 
बुषश्नन्द्रयुतो भौमः केतुम ञंलवत्सदा । 
चन्द्रमा द्विगुणः शुक्रः परमायुः प्रकीतितम्‌ ॥ ५॥ 
मनुष्य के परमाय का बीसवां (दै5) माग सूयं का दद्या वषं, बारहूवां भाग 
चन्रमा का, सूर्य॑के दशा कालं भाग सूयं दशामें जोडनेसे मंगल का दशा वर्ष, 
शुय से तीनगूना राहु का, सूं मौर चन्द्रमाके योग दुल्य वषं गुदका,सूर्यकादो 
गुना मंगलसे युक्त होकर धनिका, चन््रगौर मौमके योग तुल्य बुषक्ा, 


मगल की तरहकेतु कात्या चन्रमा कादो गुना कादा वषं प्रमान 
होक्षा ह ।। ३-५ ॥ ` 


३८३ मानसागरी 





स्पष्ट ज्ञानां उदाहरम देखे-- 
मनुष्य की परमायु-२० वषं । 


प्रमाय १२० 
रः - प ~ ९ बरं पूयं की दशा 


-मरमायु _ १२० _ १० वषं चनामा की दशा 
१२ १३ 
सयं । श्व--, + ६ १~+- ६७ वके मंगल की दका 
£ | 
सूयं >८ ३-६८३-१० वषं राहु की दका 
सूयं + चन्द ६ + १०१६ वषं गु की दशा 
( सूयं >८२ ) + भौम-६>८२ 4 ७-१९ वषं शनि की दा 
चन ¬+ भौम-३० + ७= १७ वषं बुष को दक्षा 
मौम~केतु-७-~७ वषं केतु की दक्षा 
चन्द्रमा >€ २१० >८ २२० वषं शुक्र की दशा 
साधित दशावषं- 
वड्‌ दश्च सपताष्टादच्च बोडद्वनन्देन्दवो मुनिशक्षाक्काः । 
सप्त नखा वर्षाणि हि रब्यादीनां यथाक्रमतः। ६॥ 
सूयं की ६ वषं, चन्द्रमा की १० वषं, मंगल की ७ वषं, राहुकी १८ वषं, 
अड की १६ वषं, दानि की १६ वषं, बुष की १७ वषं, केतु की ७ वदं तवा शुक्र 
की २० वषं विलोस्तरी कमसे दल्ाहोतीहै।। ६॥ 
जन्म समयमे दशान्ञन- 
कृत्तिकातः समादध्य भमरण्यवधि गण्यते । 
वि्लोसरीदश्छाचक्रं षडत्रिशलद्धिश्र कोषठकंः१ ।। ७ ॥ 


१. जन्म नक्षत्रे दशाज्ञान की इुसरी रीति- 

दाज्ादितो जन्म भसंस्यका या दुगूनिता घाङ्खहतागकेषाद्‌ । 

अवकु राजीशबुकेश्ु पूर्वा दशाधिपाः संकषिता मूनीगैः ॥ 

जन्मनक्षत्र की अश्िन्यादिक्मसे जो संब्याहो उसमेहो षटाकर कषम 

श्काभागदेनेसे एक भादि हेव संश्याके अनुसार कम से धूर्व-वना-मंगल-राहु- 
बुर खनि-वुध-केतु भौर शुक की दशा होती दहै। ( भर्वात्‌ १ शिव होतो दूर्व, 
होतो चस भादि!) 

उदाहरण --कल्पना किया किकी का जन्म नक्लत्र पष्य है। 








"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योषेता ३८३ 





कलित कोष्ठक बाला चक्र बनाकर प्रथम पंक्ति के नव कोष्ठ्को मे बिचोखरी 


कम से भूर्यादि नवब्रहो को स्थापित कंर नीके वाते कोष्ठकं मे कृत्तिकाश्च 
नारम्म कर भरणी पर्यन्त २७ नक्षर्त्रो को तीन पं्छियो ( प्रत्येक पंक्तिमे कमे 


 मक्षत्र ) मे स्थापित करनेसे दशा बोधक चक्र बनेमा। ( इस प्रकार प्रत्येक ब्रह 





अश्विनी से पुष्य तक = संश्वा हुई । ८-२-६ मे श काभाग देन 
ते लम्बि० तवा शेष ६ बचा अतः उक्त क्रमावुसार छठी दशा शनि की हरं । 


क्शाज्ञान हो अनेपर दशा का भक्त भोग्य काल सान कर दषा चक 


का निमणि करिया जाताहै। अतः प्रसङ्गानुसार मुक्त मोग्य सानं विधि 
भौ प्रदरित कररहा । 


दशाम्दमनेन हतं भयातं भभोगमानेन हृतं फलं यत्‌ । 

वर्षादिक मृक्तमुशन्ति धीरा मोभ्यं दकश्षाब्दान्तरितं दकायाः ॥ 

जन्म नक्षत्र के गतमान (मयत) को दष्चावर्षंसे गुणाकर नक्षत्रके 
भोग प्रमाण (मभोग) से माग देने पर वषं-मास-दिनन्बटीमे दशा कषा 
भुक्त मानहोताहै। दशाप्रमाणमे मृक्तमानको षटनेसे दश्षाका भोग्य 
बर्षादि मान होता है। 


उदाहरण-वुष्य नक्षत्र का भयात २५।२० भभोग ५६।३५ कक्चापत्ति 
सनि वषं प्रमाण १६ 


भयात २५।२० का पलाट्मक मान १५२० को दहा वषं १६ से गुणा 


कर गुणन फल ( १५२०४६१६ }-२८८८० का मभोग के पलाङ्मक मान 
३५७५ से माग दिया- 


३५७१५)२८८८०(८।०।२८ 

















२८६०० 
२८० 
>€ १२ 
३३६० लब्धि ८ वशं ० मास देन दिन मुक मान 
| भतः दशा वषे १६।०।० 
३३६० ८1 ०। बृढ 
>< ३० १०।११।३ 
१०००८०० शोष्य मान १० ववं ११ मास २दिनि 
७१५० 
२९३०० 
२८६०० 





|. 1}, 


३८६४ मानसागरी 








के नीषे तीन-तीन नक्षत्र होमे । जिस नक्षत्रमे जन्म हो उस नक्षत्र की पक्ति 
का प्रह दशा कास्वामीहोताहै)॥ ७॥ 

दक्षा बोधक चक्र 
1 चन्र | भौम | राहु | गुरुं | दनि | बुष [केतु | शुक्र 
६्व. | १०. | ७व. | १८्व. | १६. | १६व. | १७व. । ७ब, । ह 
कात. | रोहि. | मृग. | आर्द्रा | पुन. | पुष्य | (4 | मधा | पू.का. 
उ.फा. | हस्त | चित्रा | स्वाती | विशा. | अनु. | ज्ेष्ठा | ¶ल | पूषा. 


«~= =~ ~~~ दि ति, 7, ति 1 न 


उषा. | धव. | घनि. | शत. |ष्.म.|उ.भा| रेव. |जश्वि. | भर | 



























































तन्तदंशा साधन-- 
दशा दशाहता कार्या दशमिभागमाहरेत्‌ । 
यल्लब्धं सो भवेन्मासस्वरिश्यन्निध्नं दिनं भवेत्‌ । ८ ॥ 


जिस ग्रह को महा दक्षाम जिस ग्रह की अन्तर्दक्षा भभीष्टहा उन दोनों ग्रहों 
के महादक्षा वषं का परस्पर गुणा कर १०से भाय देने पर लश्धि मास तथा शेष 
को ३० समे गुणाकर पुनः दशका मागदेनेसे दिन होताहै। इस प्रकार अभीष्ट 
ग्रह कौ अन्तदंशा कामान मासमभौरदिनमंमाजातादहै।॥<॥ 
विष्ोष--र०से गुणा कर १० काभागदेनेका अभिप्रायकेवल ३ से गुणा 
करने पर मीसिद्धिहोसक्ताहै क्योकि दोष >८२३० ~ शे० > ३ टोनाहै। 
१० 
उदाहरण सूयं की महादश्चा म सूर्यादि प्ररो का अन्तर ज्ञात कग्नाहै। 
अतः ६>८६ _ २३६ _ १०)२६(३।१८ 
१० १० २० 
६>८२० 
९८ ० (अथवा शेष ६१८ ३१८ दिन) 
© 
८9 
सूर्ये का अन्तर ३ मास १८ दिन ८० 


[र 


>< 





प्रकार 
इसी प्रकार ६०८१० _ ६० ._६ मास चन्द्रमा का अन्तर 








१०५ १० 
र मे 
४ न -- लब्धि ४, शेष ,२ भतः २५९३६ डिन 


४ मास ६ दिन मंगल का अन्तर 
इसी प्रकार सभी ग्रहों की अन्तर्दशा सिद्होगी । 


"मनौरमा' हिन्दीष्याख्यपिता ^ 1. 


उर्दक्ला ( प्रह्यम्तर ) सान-- 
स्वान्तदंशाचुवृम्दं च ह्यात्‌ स्वस्वब्वं हस्व च । 
विलोत्तरश्तेनाप्वं घला षटधोऽव्येवकमर्‌ ।। ९ ॥ 
अन्तर्वसा को दिनास्मक बनाकर जिस ग्रह को उपदया रात करनी हो उसके 
जहाददा अं से गुणा कर १२० ववसे भामदेने प्र दिन-बटी-पल में उपदशाका 
मान आताहै। ६॥ 
उदाहश्न-- सूयं की महादस्ा एवं भूयं भौर चन्रमा की भन्तर्दसा्मे दो्नोकी 


उपदशा ज्ञात करनी है। 
सुर्यन्तिर ३ मास १५८ दिन । 


दिना्मक ३०८ ३० १८१०८ 
¢ हे ९= लम्बि ५ दिन २४ धटी सूर्यान्तर में सूर्यं की उपदशा हुई । 
अन्त्रान्तर ६ मास । ६ > ३०१८० दिनाट्मक । 
१८००८ १० १८० १२) १८०१५ 
१२० १२ १२ 
९० 
९० 
>< 
अतः! बन्दरान्तरमे चन्द्र की उपदक्षा १५ दिन होतीदहै। 
फल ददा साषन-- 
स्यदशाया षटीवृन्दं हतं स्वाब्दं ग्रहस्य च । 
विशोत्तर्तेनाप्त' घट! शेषं फलादिकम्‌ ॥ १० ॥ 
उपदशा मे प्रहुके दिनादि मान को षटघात्मकं बनाकर अभीष्टग्रहु की 
महादशा वषं से गुणाकर १२० का भागदेने पर लब्धि घटो पलाह्मक फल दच्चा 
होती है ।॥ १९ ॥ 
उदाहरण सू्यगन्तिर मे सूं की उपदशा ५ दिन २४ षटी । षटघार्मक भान 
(५८६०) + २४२२४ षटी 
२४०८६ सू. द, वर्धं = ल्व १६ वटी, {२ पलपूर्यकी उपदधामें 
१२० सूयं की फल दशा । 


इसी प्रकार प्रत्येक प्रहकी उपदशामे सभी्रहोकी फलदला का साषन 
करना चाहिवे। 


२५ माग्सार 











हैक भानसागरी 





विदोखरी दक्षा काल निणंय-- 


कुषणपो दिवा जन्म शुक्लपहो यदा निशि । 
विशो्तरी दशा तस्य शुभाशुभफलप्रदा ।॥ ११॥ 


यदि कृष्ण पक्ष के दिनमें तथा शुक्लपक्ष की रत्रिमेंभम्महो तो उस 
जातक के लिए विश्लोत्तरी दशा ही शुभ एवं अशुभ फल दायक होती है। अर्षात्‌ 
उक्त समय मे विशोत्तरी दशाकाही प्रमावहोताहै।॥ ११॥ 

वि्ेष--उक्त श्लोक के अनुसार समी भ्यक्तियोंके लिए विदोत्तरी दशा 
फलदायक नहीं होती । शुक्ल पक्ष के दिन तथा कृष्ण पक्षकी रात्रिम जिसका 
जन्म हो उसके लिए यहां कोई निदेश नहींहै। परन्तु अन्य भ्रन्थोंके भार 
पर एेसी स्थितिमें अष्टोत्तरी दशा का प्रहणकियिादहै। इस सम्बन्धमे बहुत 
विवदर्हु। कष्ठ विद्वानोका मतहै कि विन्ध्य पर्वेतके उत्तरम विक्षोत्तरी 
तथा दक्लिण मे मष्टोत्तरी दक्ला का निरन्तर व्यवहार करना चाहिये। 


नक्षत्रायु साध्न-- 
जन्मक्छक्षगतनाहिकागणो विशताधिकश्चतेन शुष्यते । 
मज्यते नवतिसंख्थया ततो लन्धशुद्धपर मायुषः स्फुटम्‌ ।। १२ ॥ 


जन्म नक्षत्र के गत घटीपल (भयात) को १२०स गुणाकर ६्०्सेभाम 
देने पर जो वर्षादि लग्धि प्राप्त हो उसे परमायु १२० वषं में षटनेसे शेष स्पष्ट 
नक्षत्रायु रोनी है । १२॥ 
उदाहरण -मृगशीषं जन्मनक्षत्र का भयात्‌ २५।३० को १२० से गुणा 
किया- 
२५।२३० >< १२०३०६० 
३०६० ~ ६० ९०)३०६०(३४ 
> 99 
२९० 
३६० 
>< 
१२०-२३४- ८६ वषं नक्षत्रयु हू 








घ्रवाद्कुमे दकश्षासाधन-- 
दशभिर्वषरमासो मासचतुष्केण लम्यते दिवसः । 
दिवसद्येन धटो धटिकोयुग्मेन पलमेकम्‌ ॥ १३॥ 
दसव्षो मे एक मास, तार मासोमे एकदिन, डो दिनोंमे एकषटीतवावो 
चटी मे एक पल अन्तङशाका घुवङ्खु निलताहै। (बर्षात्‌ दशा वंको १* 


"मनोरमा" हिन्दीग्यास्योषेता ३८७ 





वे भागदेने पर लण्नि मास, शेवको मक्षि बनाकरधभ्से भागदेने पर सस्व 
विन, पुनः दिनाह्मक शेषम २ सेभागदेने पर धटी तथा षटध्ात्मकशेषर्मेरे का 
भाग देने पर लभ्धि पलाहमक धुवाद्धु होता है। घुवाद्ु को नपने-अपने दक्षा वर्षों 
ते शुणा करने पर प्रत्येक प्रह की अन्तदंक्षा का मान होताहै)॥ १३॥ 
उदाहरण- सूयं का महादक्ला बषं ६ 
६-+- १० १०)६(० मास 





६०९ १२ 
४)७२(१८ दिन 
र 


३. 
३२ 
>९ 


सूयं का ध्रुवाद्कु ०१८ सूर्यं कौ महादक्षा में सूर्यादि ब्र्हो का अन्तर ज्जात 


करनेके लिए प्रत्येक प्रहके दशा वषसे धुबाद्धु १८ दिनि को पृथक्‌-पुथक्‌ 
गुणा क्या-- 


गयं ६ > १८१०८ दिन सूर्याननर, वर्षादिमान ~०।३।१८ 

चग १०>८ १८१८० दिन चन्द्रान्तर । वर्षादिमान~०।६।० 

मौम ७८ १८१२६ दिन भौमन्तर । वर्षादिमान०।४।६ 

राह १८ > १८-३२४ दिन राह्ुन्तर । वर्षादिमान~०।१०।२४ 

इसी प्रकार सभी प्रहों की अन्नर दशाओं का साधन होगा । सौविध्य के लिए 
प्रत्येक प्रह का धुवा तथा अन्तर्दशाकामानदियाजा रहाहै- 


सूर्यान्तर चन्द्रान्तर भौमान्तर 
ध्रुवा ०।०।१८ प्रवा ०।१।० घ्रुवा ०।०।२१ 
प्र, व. मा, ॥ प्र, व. मा. दि. प्र. व. मा. हि. 
सू 9 ३ १८ च, ० ११ | भ, 9 1 २७ 
च, ० ६ 9 भ. 9 "७ 9 रा. १ 9 १६८ 
मं ० ४ रा. १ ६ ° गु ० १६ ६ 
रा. ० १०९ रेष गु. १ ४ ० श. १ १ ६ 
गु. 9 ६ १८ शष. १ ७ ० बु. > ११ २७ 
श. ० ११ १२ जु. १ ५ ०9 के. ० ४ २७ 
बु, ० १० ६ के, ० ७ ° शु. १ २ 9 
कै, 9 1 ६ शु. १ ८ 9 दु. > ४ ६ 
शु. १ |, । मू, ० ६ 9 ख ० ७ ® 


बेदद 





शीन्यन्तर 


धु्ेभ्तर 


घ्ुवा 9 1१।१०५ 


शाह्खन्तर 
वा ०। १।९४ 


न्रूवा ०।१।१८ 


मा, 


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4 क भः हः 


१२ 


र 


[91 


रा, 


१६ 


शुक्राम्तर 
धूवा ० २।6 


केटवन्त र 


बुषान्तर 


धवा ०।०।२९१ 


धवा ०।१।२१ 


दि. 


दि. 
२७ 


मा. 


दि. 


मा. 


प्र, व. मा 


डे 


२७ 


११ 


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२७ 


११ 


रा, 


@ (ॐ 








"मनोरमा" हिन्वीष्यास्यौपेता ३वह 
विशोच्दी सुयं महादश्चा वषं ६ 
ूर्यान्तर (०।३।१८) मे | बनरान्तर (०।६।०) मे , मौमान्तर (०।५।६) में 
उपदा उपदशा | 
प्र. भा० हिन भर] इ. मा दिम बण | प्र. मार दिन बर 
सू. ० ५ २४] षं. ० १५ ०| म. ७ २१ 
चं, | 4 ०1 बृ, ° १० ३०।२रा. ® १८  & 1 
म, ० ६ १८ रा. ० २७ ०| गु. ० १६ ४५ 
रा. ° १९६ १२| भु. ० र ०| क्ष्‌. ० १६ ५७ 
गु. ० १४ २४] श. ० २८ ३० बु. ० १७ ५१ 
क्ष. ० १७ ६ १ ०9 २५ ३०|के. > ७ २१ 
बु. 9 १५ १८ „+ ° १० ३०|शु. ० २१ ® 
कै. 9 ६ १८ शु १ 9 ०| मु. ° ६ १८ 
शु. ०. 6 १८ ® स _ °. (व ० | चं 9 ततर ३9 
राह्लन्तर (०।१०।२४) मे | गूरवन्तर ( ०।९।१८ म | शन्यन्तर (०।११।१२) मे 
उपदशा उपदा उपदक्षा 
ब्र, मा० दि० भण] प्र. मा० दि० ष०्| प्र. मा० दि० भण 
रा. १ {८ १६] गर. ! ८ र४। श. ई २४ ९ 
गु. १ १३ २] श. १ १५ ३६ बु. १ १८ २७ 
श. १ २१ १८ बु. १ १० ४८|के. ० १६ ५७ 
बु, १ १५ ५४ के. ० {६ ४८ शु. १ २७ ० 
के, 9 १८ ५४ शु. १ १८ ०| षु. ० १७ ६ 
शु, १ २४ ०| सू. ० १४ २४ च. ० २८ ३० 
सु. ० १६ १२|| च॑. ० २४ °|. ० १९ ५७ 
रच. ० २७ ०| म. ० १६ ४८ रा. १ २१ १८ 
म. ० १८ ५४| रा. १ १२ २|बू. १ १५ ३६ 
 बुषान्तर (०।१०।६ ने | केत्वन्तर (०।४।६ ) मे | शुकरन्तर ( १।०।० मे 
उपदशा उपदशा उपदा 
प्र, मा० दि० भण प्र. मा० दिऽ च| भ्र. मा० दि० चर 
बु. १ १३ २१ के. ० ७ २१ शु. २ ° ° 
के. ० १७ ५१ शु. ० २१ °| सु. ० श्ट 
शु. १ २९१ ०| घु. ° ६ १८। अ. १ 9 । 
धु. ० १५ १८ चं, ° १० ३०] मं. ° २१ 9 
शं. २५ ३० भ॑. ° ७ २१] रा. ¶ र ० 
म॑. ० १७ ५१ रा. ० ८ ५४ चु. ब ६ ° 
रा. १ १५ ४४ बु. ° १६ कश्‌. ई २७ ° 
भु. १ १० ४८ श्‌, ° १९ ५७ 3 | २१ | 
श. १ १८ २७ बु. ° {७ ५१। के. ° २१ ® 


| 









































३९० मानसागरी 
विशोत्तरो चल महादश्चा वर्षं १० 

बद्वान्तर ( ०।१०।० ) । भौमान्तर (०।७।०) मे | राह्भुश्तर ( १।६।० ) में 

मे उपदशा उपदशा उपदशा 
प्र. भा० दि० धर | श्र. मा० दि० ० | प्र. माण दि० बश 
चं. ० २५ °| भं. 9 १९ १५ रा. २ २१ 9 
भं. ०9 १७ ३०|| रा. १ १ ३०] गु. २ १२ 9 
रा. १ १५ ०| गु. ० २८ ०|कशष. २ २५ ३० 
शु. १ १० ० क्ष. १ ३ १५] बुः २ १६ ३० 
श. १ १७ ३०|| बु. ० २६ ४५] के. १ ३० 
बु. १ १२ ३०|| के. ० १२ १५ गु. ३ र प॑ 
कै, 6 १७ ३० शु १ 6 ०| सू ७ २७ © 
शु. १ २० °| घु. ० १० ३०[चं. १ १५ ० 
र. © १५ ०| चं. ० १७ ३०|| मं. १ ३० 
 गुर्बन्तर ( १।४।० रँ | शन्यन्तर {१५० म | बुषन्तर 7 एन 

उषदक्ा उपदशा उपदक्षा 
ग्र, माऽ टदिण घ०| श्र. मा० डिश घण ग्र मा० दिश घ9 
गु, र ४ ०| क्ष. ३ ० १५ ब्‌. २ १२ १५ 
श. २ १६ ०| बु. २ २० ४५|के. ० २९ ४५ 
बु. २ ८ ०| के. ३ १५ शु. २ २५ ० 
के, 9 २८ ०| शु. ३ ५ ०। सु. ०9 २५ ३० 
शु. २ २९ ०| मु. ० २८ ३०|| चं. १ १२ ३० 
सू. ० २४ ०| चं, १ १७ ३०|मं. ० २९ ४५ 
चं. १ १० ० भं. ३ १५ रा. २ १६ ३० 
मं. ०9 २८ ०| रा. २ २५ ३० गु. २ ८ ० 
रा. २ १२ ०|ग्‌. २ _१। नकत ०. र २० ४५ 
केत्वन्तर ( ०।७।० ) म॒ | शुक्रान्तर ( १।८।० ) म॒| बुन्तिर (०।६।०) म 

उपदशा उपदशा उपदशा 
ब्र. मा० दि० ० | श्र, मा० दिर घण्[| प्र. मा० दि० बण 
के. ० १२ १५|| शु. ३ १० ०|घू. 9 ६ ॥ 
शु. १ ५ ०| सू १ | ७। चं ® १४५ ® 
„, ० १० ३०|| चं १ २० ०| मं. > {१० ३* 
| ० {1७ २३० म. १ ५ °| रा. ° २७ 9 
म॑. ° १२ १५] रा. ३ ० ०| गु. ® २४ ° 
रा. १ १ ३०| नु, २ २० ०| क्च, ० २८ ३५ 
गु. ° रट ०| क्ष, ३ ५ °| बु. ० २५ ३. 
श. १ १ १५ ब्रु. २ २५ 9 | के, 9 १० ३० 
बु, ° २९ ४५) के ! ४ °| शु. १ ® 9 























“मनां रमा' हिन्दीष्यास्योपेता ३९१ 
विक्लोत्तरी भौम महादशा वषं ७ 

भौमान्तर ( ०।४।२७ ) राह्वन्तर ( १।०।१८) | गुरव॑न्तर ( ०।११।६) 

मे उपदा मे उपदशा म उपदशा 
प्र. मा. दि. ष. | भ्र मा. दि. ध. | म्र. मा. दि. भण 
भ, 9 ८5 ३५] रा. १ २६ ४२ | बृ. १ १४ ५ 
रा. ० २२ 3३|गु. १ २० २४]. १ २३ १२ 
धु. ० १९ ३६ श. १ २६ ५१ | बु. १ १७ ३६ 
श. ० २३ १६ बु. १ २३ ३२३/क. ० १६ ३६ 
बु. ० २० ५०] के. ० २२ ३ | शु. १ २६ 
के, ° ८ ३४ शु. २ २३ ० |, ° १६ ठ 
शु. ० २४ ३० | सू . १८ ५४ | चं ० २८ ० 
पू. ० ७ २१ चं. ५१ १ ३० |. ० १६ ३६ 
च. ० १२ १५|| ण ० २२ ३ | रा. १ २०५ २४ 
शम्यन्तर ( १।६१।९) म | बुधान्त ( ०।११।२७} |कल्वन्तर (ग ररब्ण 

उपदशा म उपदक्ञा मं उपदशा 
ध्र. भा. दि. ध. षप. | प्र. मा. दि. च. प. [ब्र मा. दि. षध. ष 
शष. २ २ १० २० बु. { २० ३४ ३० |के. ° ३४ ३० 
बु. १ २६ ३१ ३०| कं, ० २० ४६ ३० | शु. ° २४ ३० ° 
के. ० २३ १६ ३०| शु. १२६ ३० ० | सू. ० ७ २१ ° 
शु, २ ६ ३० ०।६्‌. ० १७ ५१ ० |च. ० १२ १५ ° 
षु. ० १९ ५७ ०|च. ० २६ ४५ ° म. > ८ २३४ ३० 
चं, १ ३ १५ ०| मं. ० २० ४६ ३० (रा. ° २२ ३ ° 
भं. ० २३ १६ ३०|रा. १२२ ३३ ० | गु. ° १६ ३६ ° 
रा १ २९ ५१ °| गु. ११७ ३६ ० |क्ष. ० २३ १६ ३० 
गु. १. २२ १२ ०|श. १२६ २१ २० ' ० २० ४६ ३० 
शुक्रान्तर ( १।२।० ) म ` सूर्यन्तिर (०,४।६} ` ( ०।४।६ ) चन्द्रान्तर ( ०।७।० ) 

उपदशा म उपदा मे उपदशा 
प्र. मा. दि. ष. | प्र, मा. दि. ष. |भ्र. भा. दि. ष 
शु. २ १० ० घु. ० ६ १८ |च. ० १७ ३9 
धरु. ° २१ ० |बं. ० १० ३० |मं. ० १२ १५ 
चं. {१ ५ ०५. ० ७ २१ रा. १ १ ३९ 
भै. ° २४ ३० | रा. ० {१८ ५४ | शगु. 5 २८ ० 
रा. २ ह ० | गु. ° १६ ४,८ |कश. १ २ १५ 
शु. १ २६ ०. ° १९ ५७ | बु. ° २९ ४५ 
क्ष, २ ६ ३० | बु. ° १७ ५१ |के. ° १२ १५ 
ह १ २९ ३० | के. 9 ७ २१ | शु. !  ॥ | 
+, श २४ ३० "शु. ० २१  । सु. 9 १० इ 




















३९२ मानलाबरी 
विद्योततदी राहु महादच्चा बं १८ 

| ( २।८।१२ ) । पुर्वेन्तर ( २।४।२४ ) ( २।१०।६ ) 

मे उपदला मे उपदशा मे उपदशा 
ब्र. भा. दि. ष. | चर. मा. हि. ष. | भ्र. मा. दि. ष 
रा. ४ २५ ४८ | शु. ३ २५ १२ |. ५ १२ २५ 
जु. ४ १ ३६ | क्ष. ४ १६ ४८ | बु. ४ २५ २१ 
श. ४५ ३ ५४ | बु. ४ २ २४ |के. ई २६ ५५ 
बु. ४ १७ ४२ | के. १ २० २४ | शु. ५ २१ 
के. १ २९ ४२ | शु. ४ २४ ० | ष्ु. १ २३१ ६: 
शु. ५ १२ ०| स्‌. १ १३ १२ |च. २ २५ ३० 
षू. १ ८ ३६ | चं. २ १२ ° |मं. १ २६ ५! 
चं. २ २१ ०| मं. २० २४ | रा. ५ ३ ५४ 
मं. १ २६ ४२ | रा. ४ £६ ३९ भन तन्न ४ {६ ४ 
बुषान्धतर ( २।६।१८ ) | केत्वन्तर ( १।०।१८ ) | शुक्रान्तर ( ३।०।० ) 

मे उपदशा मे उपदक्षा मे उपदक्षा 
ग्र. भा. दि. घ. | ब्र. मा. दि. ष. | ष्र्‌. मा. ईद. चष 
बु. ४ १० ३ के. ० रे ३ | शु. ९ ० ० 
के. १ २२ ३२३| शु. २ ३ ० | सु. १ २४ 9 
शु. ५ ३ ० | बरु. ० १८ ५४ |च. ३ ० ० 
सु. १ १५ ५४ चं. १ १ ३० | मं. २ ३ प 
चं. २ १६ ३० | भ॑. ० २२ २ रा, ५ १२ 9 
मं. १ २३ ३३| रा. १ २६ ५२|बरु. ४ २४ 
रा. ४ १७ ४२ | गु. १ २० २४ श. * २१ ४ 
शु. ४ २ २४ श. १ २९ ५१ ब्‌. भ र ४। 
श. ४ २५ २१ बृ. !१ गरो) के, २ २ ¢ 
` सूर्यान्तर ( ०,१०।२५ } | ` चन््रान्तर ( १।६।० } | भौमन्तर ( १।०।१८ ` 

मे उपदशा मे उषपदल्ला मे उपदक्षा 
ग्र. भा. दि. ष. | चर. मा. दि. ष. [प्रा मा दि. ष 
सु. ० १६ १२|| चं. १ १५ ०|म. ° २२ ३ 
चं. ० २७ ० | मभ. १ १ ३० | रा. १ २६ ४२ 
म॑. ० १८ ५४ रा. २ २१ ० | बु. 1 २० २४ 
रा. १ १८ ३६ | ब्रु. २ १२ ० | श १ २९ ५१ 
भु. १ १३ १२ भश. २ २५ ३० बु. १ २३ 38 
शष. १ २१ १८ | रु. २ १६ ३० के. ° २२ ३ 
4 १ १५ ५४ के. १ १ ३० |शु. २ ३ ® 
, . ® १८ ५४ षु . | ° | सु, ° १८ ५४ 
ह. १ ४ ०|ब्रु..० २७ ० | { १ ३ 



































'जनोरमा' हिष्दीष्याश्योषेता ३९३ 
वि्लो्दी शुरमहादश्चा वर्णी १६ 

बु्ेन्तर (२।१।१८ ) | (२।६।१२) में ( २।३।६ ) मे 

मे उपदल्ला उपदशा उषपवथा 
ज्र. मा० हि० च| ब्ज. मा० दि० भण | भ्र. मा० हिन धर 
बु. ३ १२ र४| षु. ४ रेण २४] बु. ३ २५ ३६ 
श. ४ १ ३६ बु. ४ ९ १२।के. १ १७ २६ 
4 ३ १८ ५८ के. १ २३ १२ शु. ४ १६ ° 
„, १ ४ ४८ |शु. ५ र ०| सु. १ १० र्द 
कु. ४ 5 ०।बघु. १ १५ ३६. २ ८ ° 
सू. १ ८ २४ ब. २ १६ ०। मं. १ १७ ३६ 
चं २ 1 ०. १ २३ १२।२रा. दे २४ 
मं, १ १४ ४८[रा. ४ १६ ४८|गु. ३ १८ ४८ 
रा. २३ २५ १२ शु. ४ १ ३६] श. ४ हा १२ 

केत्वन्तर ( ०।११।६ } | शुक्रान्तर (२।८।० } मे | सूर्याम्तर ( ०।६।१८ 

मे उपदक्षा उपदशा मे उपदश्चा 
ग्र. मा० दि० चण | ब्र. मा० दिन ष |च. मा० दि० बण 
के, ० १६९ ३६|| शु. ५ १० ०| कषु. ० १४ रथ 
शु. १ २६ ०| सु. १ १८ ० | चं. ०9 र % 
सू. ० १६ ज८| बं. २ २० ०६. ० १६ ४८ 
चं. ० २८ ० मं. १ २६ ०|रा. १ १३ १३ 
भ. ० १९६ ३६ रा. ४ २४ ०| शु. १ ८ २४ 
रा. १ २० रेषु. ४ ८ ०|श. १ १५ ३६ 
गु. १ १४ ५८४. ५ र ०| ब्रु. १ १० ४८ 
ष, १ २३ १२ ब्‌. ४ १६ ० | कै. ०9 १६ ४८ 
बु. १ _१७ _३६| के. १ २६ ० |शु. १ १८५. ० 
बद्वान्तर (१।४।०) म | ममान्तर्‌ ( ०।११।६) | राह्ान्तर (२।४।२४ ) 

उपदशा मं उषदक्ा मे उपदशा 
ब्र. मा० दिर शण | च्र. मा० दि भण |प्र. मा दिऽ षर 
शं. १ १० ०. ० १६ ३६ रा. ४ ९ ३६ 
मै. ० २८ °| रा. १ २० २४ गु. ३ २५ १२ 
श. २ १२ ० शु. १ १४ ४८|श. ४ १६ र्ठ 
मु. २ ४ °| कश. ? २३ १२। बु. ई २३ २४ 
क्ष. २ १९६ ०। बु. १ १७ ३६ के. १ २० र 
8. २ ८ ० | के. ° १९ ३६ शु. ई रष 9 
„, ® २८ शु. ! २९६ ०।्‌. १ १३ १२ 
बु. २ २० णषु. ० १६ ण्८|च. २ १२ 
षु. ० २४ °|. ० २८ °| मं. १ २० रे 























३९४ मानसागरी 
विंशोत्तरी शनिमहादश्चा वर्णं १७ 

शन्यन्तर ( ३।०।२३ ) मे | बुषान्तर (२।८।९ ) में | केत्वन्तर ( १।१।९ ) मं 

उपदशा उपदशा उपदशा 
ग्र. मा. वि. ष. प.|प्र. मा. दि. ष. प.|घ्र. मा. दि, ष. प, 
श. ५ २१ २८ ३०| बु. ४ १३ ३६ ३०|के. ° २३ {६ ३० 
बु. ४ ३ २५ २३०| के. १ २६ ३१ ३०|| शु. २ ६२३० ° 
के. २ ३ १० ३०| शु. ५ ११ ३० °|. ° १६ ५७ ° 
शु. ६ ० ३० ०| सु. १ १८ २७ ०|चं. १ ३१५६ ° 
बु. १२४ € ०[चं. २ २०४५ ०|मं. ० २३ १६ ३० 
च. ३ ० १५ ०|मं. १ २६ ३१ ३०|रा. १ २९५१ 
मं. २ ३ १० ३०|रा. ४ २५३१ ०°|गु. १ २३१२ ° 
रा. ५ १२ २७ °|गु. ४ ६१२ °|. २ ३ १० ३० 
गू. ४ २४ २४ ०|श. ५ २ २५ ३० क १ २६ २१ ३० 
शुक्रान्तर ( ३।२।० ) मं | सूर्यान्तर ( ०।११।१२ ) | चन््रान्तर (१।७।० , म 

उपदशा मे उपदशा उपदशा 
प्र. मा० दि० घण |प्र. मा. दि, ष. |प्र. मा. दि. ष, 
शु. ६ १० सू. ० १७ ६. ! १७ २३० 
सू. १ २७ चं ०9 २८ ३०. ५ ३ १५ 
चं. ३ ५ ०|मं. ० १६ ५७ रा. २ २५ ३० 
मं. २ ६ ३०२. १ २१ {८ गृ. २ १६ ° 
रा. ५ २१ ०| गु. १ १५ ३६|| श. ३ ० १५ 
गु. ५ २ ०|श. १ २४ ६ | बु. २ २० ४५ 
श. ६ ० ३०ब्‌ु, १ १८ २७|क. १ २३ १५ 
बु. ५ ११ ३०|क. ° १६ ५७|शु. ३ ५ ° 
के. र्‌ ६ ३० शु. १ १ २७ । पू, ०२० ° 6 २८ ३० 
भौमान्तर ( १।१।६ ) म | राह्न्तर ( २।१०।६ ) | गुवन्तर ( २।६।१२ ) म॑ 

शैदकशा म उपदशा उ१दशा 
ग्र. मा. दि. ष. प.|ष्र, मा, दि. चघ.|घ्र, मा. दि. ष, 
मं. ° २३ १६ ३०|रा. ५ ३ ४४[गु. ठ ६ ३ 
रा. १ २६ ५१ ०|बरु. ४ १६ ४८|कश. ४ रेष रष 
गु. १ २३ १२ ०१. ५ १२ २७] बु. ४ १ १२ 
छ. २ ३ १० ०|ब्‌. ४ २५ २१।क. १ २३ ६ 
4 २ २६ ३१ ३०|के. १! २६ ५१२ु ४ २ ° 
. ० २३ १६ ३०|शु. ५ २१ ०|स्‌. १ १५ ३६ 
शु. २ ६ ३० °| मू १! २१ १८. २ {६ ° 
घु. ° १९ ५७ ०|च. २ २५ ३० मं. १ २३ १२ 
शं. १ ३ १५ ०। मं १ २९ ५१२. ४ १६ ४ 











"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ३९१ 














विशो्तदी बुष महादशा वषं १७ 

बुष न्तर ( २।४।२७ ) | (०।११।२७) | शुक्रस्तर (२।१०।० ) 

उपदशा मे उपदक्षा मे उषदक्षा 
प्र. मा. दि. ध. प. प्र. मा. दि. ष ग्र. मा. दि भ, 
ब. ४ २ ४९ ३०|के. ० २० ४६ ३०|धु ५ २० ° 
के. १ २० ३४ ३०| शु. १ २९ ३० °| पू १ २१ ° 
शु. ४ २४ २० ०| सू. ० १७ ५१ ०. २ २५ ° 
स्‌. १ १३ २१ °| चं. ० २९ ४५ ० नं. १ २९ ३० 
चं. २ १२ १५ ० भं. ० >० ४६ ३०|| गा, ५ ३ ° 
म॑. १ २० ३४ ३०|रा. १२३३३ ० ब. ४ १६ ° 
रा. ४ १० २३ ०| गु. १ १७ ३६ °|. ११ ३० 
गु. ३ २५३६ ०| शु. १ २६ ३१ ३०|बु. ४ २४ ३० 
श. ४ १७ १६ २०|ब्‌. १ २० ३४ ३०|| के, १ २९६ ३० 
सूर्यन्तिर ( ०।१०।६ )} | चन्द्रान्तर ( १।५।० } म | मौमानर (०।११।२७) 

मे उपदशा उग्दज्ा म उपदशा 
प्र. मा. दि. ध.|्र. मा. दि. ध.|घ्र. मा, दि. ष. प, 
सू. ० १५ १८|चं. १ १२ ३०|मं. ° २० ४९३० 
चं. 9 २५ ३०||. ° २६ ४५] गा. १ २२३३ ° 
म. ° १७ ५१ ग. १९ ३०|| गु. १ १७ ३६ ° 
रा. १ १५ ५४ गु. र < ०|श. १ २६ २३१ ३० 
गु. १ १० ४८४. २० ४५ | बु १ २० २४ २० 
शष. १ १८ २७ | बु. २ १२ १५[के. ° २० ४६ ३० 
बु. ९१ १३ २१ क. ° २९ ४५] शु. १ २६ २३० ° 
के. 9० १७ ५१ धु. २ २५ °| सू, ० १७ ५१ 
४ न-- १ २१ ० |स. _° २५ ३० चं ० २९ ४५ ० 
राह्न्तर (२।६।१८ } | गुर्बन्तर (२,३।६ } म॒ | शन्पम्तर (२।०।६}) मं 

मं उपदक्षा उषदशा उषदक्षा 
प्र. मा. दि. घ.| प्र. मा. दि. ष.|ष्र, मा. दि ष प 
रा. ४ १७ ४२| गु. ३ १८ ४८] श ५ २ २५ ३० 
शु. ४ २ २४] शष. ४ ९६ १२ बु. ४ १७ १६ ३० 
क्ष. ४ २५ २१ बरु. ३ २५ ३६ के, १ २६ ३१ ३ 
वृ ४ १० ३] के. १ १७ ३६ शु. ४५ ११ ३० ° 
, १ २३ ३३| शु. ४ १६९ °|. १ १८ २७ ° 
शु. ५ ३२ °| मू. १० ४८|| च्‌. २ २० ४५ ° 
षु. १ १५ ५४. २ ८ °| भं, १ २६ ३१ ३ 
शं. २ १६ ३०. १७ ३६ रा. ४ २५ २१ ° 
म॑. १ २१६ ३३। रा. रे २५ ङु. ४ ९ १२ ° 























॥ 


३९६ जागघाबसी 
विद्लो्तदी केतु महादशा वर्ण--७ 
केत्वन्ल र (०।४।२७) ( १।२।० ) मे | पूर्यान्तर ( ०।४।६ ) मे 
मे उवदल्ा उपदशा उपदशा 
प्र. भा. दि. भ. १. | घ्र. ना. दि. षण् [प्र मा हि ष. 
के. ० ८ ३४ ३० |श्ु. २ १० ० |घू. ० ५ १८ 
शु. 9 २४ ३० | सू. > २१ 9 च. ० १० ३० 
सू. ° ७ २१ चं. १ ५४ ° | म॑. ° ७ २१ 
चं. ० १२ १५ ० [मं. ° २४ २० [रा. ० १६ ४ 
भं. ० ८ ३४ ३० [रा. २ ३ पु, ० १६ ४८ 
रा. ० २२३ ° [गु. १ २६ ० |. ° १९ ७ 
गु. ० १९ ३६ ° |क्ष. २ ६ ३० | बु. ° १७ ५! 
श. ° २३ १६ ३० | बु. १ २९६ ० |के. ° ७ २१ 
कन्न © २० ४६९ ३9 कै, ® २४ २० तल ० २१ 9 
वन्ब्राम्तर { ०।७।० भोमानर ( ०।४।२७ ) र ( १।०।१८ 
मे उपदशा मे उपदशा मे उपदक्षा 
प्र. मा. दि. ष. | ब्र. मा. दि. ध. षप. | ग्र मा, दि. ष 
चं. > १७ ३० | मं. ° ८ ३४ ३० |रा. १ २६ ४२ 
मं. १२ १५ | ग. ०२२ ३ ° |गृ १ २० २४ 
रा. १ १ ३० | बु. ° १९ ३६ ० |श. १ २९ *! 
गु. ० २८ ० | श. ° २२३ १६ ३० | बु. १ २३९ ३३ 
श. १ ३ १५ [जु ° २० ४६ ३० |के. ० २२ ३ 
बु. ० २६९ ४५ |के. » ८ ३४ ३० |शु ३ ® 
कै. 9 १२ १५ शु. ° २४ ३० 9 सू ० १८ ५४ 
कु. १ ५ ० |स. ० ७ २१ ° | षं १ १ ३० 
स्‌. 9 १० ३० |च. ° {२ १५ ० [मं ० २२ २ 
- गत्या [चन्व्त (द्ए्लन [बषन्तर( छम 
म उपदशा उषपदक्षा मे उपदक्षा 
प्र. मा. दि. ध. |ष्र. मा. दि ध. त | ग्र मादि च. प 
गू. १ १४ ४८ |कशष. २ ३ {० ३० | बु. १ २० २३ ३० 
ध. १ २३ १२ | ब्रू. १२६ ३१ ३० | क, ० २० ४९ ३ 
बु. १ ?७ ३६ | क. ० २३ १६ ३० |शु. १२९ १० ° 
के. ० १९ ३६ शु. २ ६ ३० ० |. ० १७५१ ° 
शु. १ २६ ० |भू. ° १९ ५७ ° |बं. ० २९ ४५ ° 
वू. ° १६ ४८ | षं १ ११५ ० |मं. ०२० ४९१३. 
ज. ० रे ० | भं. ० २३ १६ ३० | रा. १२३ ३३ 
भ. ० १९ ३६ |रा. १२९१ ५१ ° शु. १ १७ ३६ ° 
रा. १ २० २४ ' शु. १ १२ ० । श. १ २६ २१ २० 





न्नननिकासोीकिगिनििििभनिितििितकयागशानििनिायनाािनििितिकजगनियनिनिषेः भककिगििनिितािगरिनिनिकि 




















मनोरमा हिन्दीष्वाण्योषैता ३९७ 
विष्ठो्तरी शुक महादश्चा वर्ण १० 
षुकान्तर ( ३।४५० ) ( | ) | बश्रान्वर ( १।८।० ) 
मे उपदशा मे उपदशा मे उपदक्षा 
प्र. मा. दि. बष.|प्र मा दि. षच, मा. दि, ष, 
शु. ६ २०५ ० भु, ° १८ ब. १ २० ® 
षु. २ ¢ ०| चं. 1 प॑ म॑. ६ ५ प॑ 
श, र १९ °| मं. 9 . । रा. 8 © , 
भं, २ १० | रा, र गु. २ २० 9 
रा. ६ ९ ०| गु. १८ द. ३ ५ ० 
गु. ५ १० ०|क्ष. १ २७ बु. २ २६ ° 
श ६ १० ०] बु. १ २१ के. १ ५ ^ 
बु. ५ २० ०|के. ० २१ मशु. ३ १० ° 
के, २_ १९ __ ° २ १० | चु, २ _ ° । ©. ब्‌, १ 9 , 
भौमन्तर ( १।२।० राह्वन्तर ( ३।०।* । ईन्तर (२।०।०) ` 
मे उपदशा मे उपदक्ञा मे उपदशा 
प्र, मा. दि चघ.| प्रमा. दि. ष|प्र.मा. दि. भ, 
म॑, 9 २४ ३०|रा. ५ १९ 1 गू. ४ ८ 9 
रा, २ ३ ०| गु. ४ २४ शष. ५ रे | 
गु. १ २६ ०|श. ५ २१ णब. ४ १६ ० 
श. २ ६ ३०|बु. ५ ३ णके, १ २६ ° 
बु. ! २९६९ ३०|के. २ ३ गशु. ५ १० ० 
के 9 २४ ३० | भु ६ 9 ० मु, १८ 6 
शु. २ १० °|. १ २५ गु. २ २० 
षु. ० २१ ०|चं. ३ ° नमै. १ २६ 
च, १ ५ ०। मे, २ ३ ० पन ४ २४ ° 
शन्यन्तर (३।२।०) | बुषन्तर ( २।१०।० ) | केत्वन्तर ( १।२।० , 
मे उपदशा मे शेपदशा मे उपदशा 
प्रमा दि. बषण्[प्र.मा. दि. ष|त्र, मा. दि. ष, 
श. ६ 9 ३० | बु ४ र ३० के 9 २४ ३9 
बु ५ ११ २३० | के. १ २६ ३० शु. २ १४ 9 
के २ ६ ३० |शु. ५ २० णमु ० २१ ० 
शु. ६ १० °|. १ २१ चं र ५ ० 
धु. १ २७ ०| चं. २ २५ ० भै. ९ र४ ३० 
च २ ५ ०. १ २६ ३० रा. २ ३ 9 
मे. २ ६ ३०|रा, ५ ३ गु. १ २६ 9 
रा.५ २१ ०| गु, ४ १६ ० श. २ ६ ३५ 
गु, ५ र ०। क्ष. ५ ११ ३०. १ २९ ३१ 








३९८ भानसागरी 





गष्टो्तरी ठल्ला साधन 


ब्टाद्शाद्यः क्रियतेऽशुमाली 

लम्धं विसाद क्रियते हिमाुः ! 
विभागष्षुरः सकलश्च भोम 

स्तस्य त्रिभागः सच्चो बुधास्यात्‌ । १४ ॥ 


भानोस्ि्रिमागः कृजयुक्तसौरी- . 
रद्ध कुजश्चन्द्रयुतः गुरश । 
मानोद्रिगुण्यः क्रियते च रहु- 
हिमांशुमान्‌ सहितौ च शुक्रः । १५॥ 
अष्टोक्लरी प्रमाणशसे परमायु १०८ वषं का भट ( अठारहर्वां ) भाग ६ वषं 
सूय की दशा, सूर्यं का ढाह गुना ( ६>८२ै ) ~१५ वषं चन्दमा की दक्षा अपने 
तृतीयांश (  ) से युक्त सूयं दशा तुल्य ( § + ६.८ वषं ) मंगल की दक्षा, सूर्यं के 
तृतीयांश से युक्त बन्द्रमा के तुल्य ( ¬+ १५) ~१७ वषं बुधं की दशा, सूरयंके 
तृतीयाश्च को मंगलसे युक्त करने पर ( §+८ ) ~१० वष शनिकी दशा, मंगल 
का आधा चन्द्रमासे युक्त करने पर ( ६1१५) ~१६ वषं बृहस्पति की दशा, 
सूये कादो गुना (६>२) १२ वषं राहूकी दशा तथासूरयं मौर चण््रमाके 
योग दुल्य ( १५-- ६ )~-२१ वषं शुक्र की दशा होती है ।। १४-१५॥ 
नक्षत्र द्वारा दक्ञापतिकाज्ञान- 
चतुष्कं त्रितयं तस्माच्चतुष्कं त्रितयं पुनः । 
यावत्स्वजन्मभं तावदगणयेद्रौद्रभादितः+ ॥ १६॥ 


आद्निक्षत्र चे आरम्भ कर आर्द्रा, पुनबसु, पुष्य, आाष्तेवा इन जार नक्षत्र में 
सूयं की, मधा, पूर्वा फाल्गूुनि, उ० कार इन तीन नक्तो म बह्मा की, हस्त, 
चित्रा, स्वाती, विश्चाल्ला इन चार नक्षत्रों मे मंगल की, बनुराषषा, ज्येष्ठा, मूल ६्न 
तीन नक्षत्रों मंव्वकी,पू.षा, उ. षा, भर्भिजित्‌, श्रवण इन च,.रो नक्षत्रोमे क्षति 
की, षनिष्ठा, श्तभिष, धूर्वामः, इन तीन नभतो में ब्ृहस््ति की उ. भा., रेवती, 
अश्छिनी, मरण, ध्न जार नक्षत्रों में राहु की तथा कृत्तिका, रोहिनी प्रगशिरा इन 
तीन नक्षत्रों मे शुक्र की मष्टो्तरी दश्षाहोतोहै । (सप्रकार. बु गु. भीर शुः 
शुम शुभग्रह को ३-२ नक्षत्र तथार.मं. श. मौरराह हन पाप प्रों को ४-४ नत्र 
प्राप्त हति ह ।) आरा से भप्ने जन्म नक्षत्र परवन्त गणना करदशाका ज्ञान करना 
"अहये ॥ १६.॥ 


१, द्विवादिङृत्तिकादितः । पाठाम्तरम्‌ 


प यका 





"मनोरमा" हिन्दीष्याञ्योपेता ३९९ 


अष्टोलरी दशा क्रम एवं प्रमानण- 


बडादित्य च वर्बाणि चन्द्र प्छदष्षव च । 
मङ्गले चाष्टवर्षाणि बुषे सप्दशशंव च । १७॥ 
्षनौ च दक्षवर्वाणि गुरावेकोनविष्ठतिः । 
शाहोर््रादश्छ वर्षाणि शुक्रस्याप्येकविष्चतिः । १८ ॥ 
अष्टोत्तरी मत से सूर्ये की ६ वष, चन्द्रमा की १५ वर्ष, मंगल की ८ वर्ष, 


बुष की १७ वर्धे, कनि की १० वर्ष, गुरुकी १९ वषं राहुकी १२ वर्षं तथा शुक्र 
की २१ वचं क्रमसे पहादा होती है । १७-१८॥ 


अष्टो्तरी ददाम केवल आठ प्रहोकीहीदशा होतीदटै। राहु मौर केतु 
दोर्नो पात प्र्होका समावेश एकही ग्रह राहुमें कर लिया गयाहै। अत 


अष्टोत्तरी कममे केतु कास्वान नहीं होता । दलाषीशों का क्रम निभ्नलिखित 
अक्लिष्त श्लोकसेभी ज्ञात होता है- 


मूयश्चन्द्रः कुजः सौम्यः, शनिर्जीवस्तमो भृगुः । 
अष्टोत्त दभगाधीलाः केतुटीना नवग्रहा ॥ 


अन्तदक्षा साधन-- 
दशा दद्चाहता कार्या नवर्भिर्मागमाहरेत्‌ । 
यल्लब्धं सो भवेन्मासस्तिशन्निष्नं दिनं मवेत्‌ ॥ १९१ ॥ 


भष्टोत्तरी महादशा मे अन्तदेशा जानने के लिए महादक्षामे गाभीष्ट प्रहुकी 
महादशासे गुणाकर ६से भागदेने पर लग्धि मास, शेषको ३० से गुणाकर 


श्से भागदेने पर दिनहोताहै। (इसप्रकार "अन्तर्द्षाका मासादि भान 
होता है।)॥ १९॥ 


उदाहरण- सूयं की महादशामें सूयं ओर चन्द्र का अन्तर जात करना है । 
सूयं दशा ववं ६, शन्दशा वषं १५, 


९०५९. र = ४ मास सूर्यान्तर 


९ 
-«>५१५ ~ <° १० मास चनाम्तर 
&. ९ 


इसी प्रकार सती ब्रहों की महादशामे सभी ब्रहों अन्तर ङ्चात हो सकता ह। 


\ | 


मानसार 





अष्टोचरी दसारम्वद्चा शोभक जक 


सयं ६ वषं अम्र १५ ववे भौम ८ वर्षं 
(आ. षु. पुष्य आश्ले) (म, पूफा,'उ. भा.) (ह.चि,स्वा बिदा) 
ब्र. व. मा. दि. ष. ध्र. व. मा. दि. भ ब्रव, मा दि. ष. 
सु ° ह © 9 च ट | ७ ® म. ® ॐ 2 २०५ 
च, ० ३० ० ° म. १ ३ १०५ ० बरु १ ३ 2 २५ 
मं. ० ५ १० ० बु २ ४ १० ° श. ०9 5 २६ ४० 
बु. ° ११ १० 9 हा, १ ४ २० 9 गु. १ ४ २६ ४० 
क्ल ० ६ २० 9 शु २ ७ २० ° रा. 9 १० २० 9 
भु १ > २०५ ० रा. १ ८ 9 ° शु. १ ६ २० ° 
रा. ० छ ° ° शु २ १९१ ७ 9 सू ° ५ १० -) 
शु. १ २ 9 सु, ० १० ० 9 चं. १ १ १० ° 
बुघ १७ वर्षं दाति १० वर्षं गु १६ बं 
(गनु+भ्ये.मू.) (धषा,उ षा, अभि, शव) (०, तपु भा) 
प्र व. मा, दि. ष, ग्ध. मा दि. चष ग्र व. मा हि. ष. 
बु २ 5 ३२० श. ० ११ ३२० ,३ ४ ३ २० 
श. १ ६ २६४० गु. १ ६ ३२० गा. २ १ १० ° 
शु. २ ११ २६४० रा. १ १ २० 9 शु. ३ ८ १० ० 
रा. १ १० २० ° शु. १ ११ १० ° सु. १ ० २० ° 
शु. २ ३ २० ° सू. ० ६ २० ० चं, २ ७ २० ° 
सु. ° ११ १० ° चं. १ ४२० ० मं. १ ४ २६ ४९ 
चं. २ ४ १० ० मं, ० = २६ ४० बु. २ ११ २६ ४० 
मं. १ ३ ३२० बु. १ ६२६४० शष. १ ९ ३ २० 
राहु १२ वषं २१ बं 
(उ.भा.' ष ज. भर, ) (क रो.» भू. ) 
ग्र, व. मा. दि. ष, प्रः व. मा. दि. ष. 
रा. १ 1 9 9 शु. ४ १ 9 ० 
शु. २ ४ ० ° र, १ २ ० ° 
सू, ° ।- ® 0 चं, २ ११ । । , 
अ १ ८ 9 ० मं, १ ६ २० ° 
भ, ° १० २० ® षुः ३ षे २० (| 
बु, १ १०५ २५ 9 सष १ ११ १० © 
छ १ १ १० (| भुः डे द १० © 
बुः २ । १९ ® दाऽ २ 1 @ @ 


"मनौ रमा हिम्दीग्यास्योपेता ४०१ 





उपदशा (प्रत्यन्तर) धान 
भन्तदंशाऽर्गण एव गण्यः स्वमूलवर्षेवंसुखंक्भक्तः । 
पुनः पुनः धटिगुणावश्येषे दिनादयश्नोपदशाक्कमोऽयम्‌ ।। २० ॥ 
प्रों के अन्तर्दशा को दिनात्मक बनाकर प्रध्येक प्रहके महादक्षा भान से 


११९ पृथक्‌ गुणाकर गुणनफलमे १०८ का भाग देने से लश्धि दिनाह्मक तथा 


को ६० गुणा कर पुनः १०्८से भागदेने पर लणन्धि षटश्यादि उपदशा 
होती है ॥ २०॥ 


उदाहश्ण- सूर्यं महादशा के चन्द्रान्तरमें मौम की उपदशा अभीष्ट है। 
चन्द्रास्तर ०।१०।० भौम महादक्षा वर्षे ८ चन्द्रान्तर दिनाध्मक १०>९३०३०० 


३०००८ ८ ,, २४०० १०८)२४००८२२ 











१०८ १०८ २१६ 
२४० 
२१६ 
२४०८ ६० 
लश्धि २२।१३।२० दिनादि सूर्यं १००)१४४०(१२।२० 
महादल्ला मे चन्द्रन्तरमेमौमकी १०८ 
उपदक्षा ( प्रत्यन्तर ) सिद हुई । ३६० 
३२४ 
३६ >< ६० 
२१६० 
२१६ 
>< 


फलद्शा साधन 
उषपदशादिवसाः शरसाहता निजचटौसहिताः स्वदशाहताः । 


बपसुखवन्द्रहूता धघटिकादयः कलदशाक्रम एव पुनः पुनः ॥ २१॥ 
ग्रहों की उपदा मे फल दक्षाञ्जात करनीहो तो उपदक्षाके दिनोंको ६० 
से भूणाकर शुभनफल मे उपदा कौ धटी जोडकर ( भर्थात्‌ उपदशा को धटघात्मक 
बनाकर ) अलग-अलग समी ग्रहों की महादकश्ासे गुणा कर गुणन फलम १०८ 
काभागदेनेसे षटथादि ग्रहों की कल दशा होती है।२१॥ 
उदाहुश्ण--अन्द्न्तर मे भौम उपदशा २२ दिन १३ धटी २० पलदहै। 
२९ >< ६००१३२० + १३-१३३३ धटी २० पल 
१३३३।२० ०८८ भौम दशा वषं 
१०८ 
., १०६६६४०. लब्धि षटदचादि ६८।४५।५५ दिनादि १।३८।४५।५५ 
१० फलदा 
२९ भा० पार 








४०२ मानस्ागरी 





( हस दशा को निःसेष करने मे १।३०।४५।५५।११।४० लन्धियां अतीहं जो 


व्यवहार योग्य नहींहै।) 


ध्टोत्तरी सूयं महादशा वषं ६ 


सूर्यान्तिर ( ०।४।० ) मे उपदशा 
ग्र, सु. च.मं. बु. श. गु. रा. शु 


भा 9 9 9 9 ०9 9 9 
दि. ६१६ < १८ ११२११२२३ 


ध. ४० ४० ५२३ ५३ £ ६२० २५ 
प. ०9 ०9 २० २० ४० ४०9 9 9 


चन्द्रान्तर ( ०।१०।० ) मं उपदशा 
प्र, चं. म. ब्ु.श. गु. रा.शु.परु. 
मा. १ ० १ १११० 
दि. ११२२१७२७ २२ ३२८ १६ 
ध. ४० १३ १२३ ४६ ४६२० २० ४० 
प. ०२०२० ४० ४० ०9 ० © 





भौमान्तर ( ०।५।१० ) मं उपदा 


प्र. म. वु. श. गु. रा. शु. मू. चं. 


भा. ० 9 ०9 ०9 ० १ ० 9 
दि. ११२५१४२८ १७ १ ८२२ 
ध. ५१ ११२८ ८४६ ६५३१३ 
प. & € ५३ ५१ ४० ४० १० २० 


वि. ४० ४० २० २० ०9 ०9 9 9 





बुधान्नर ( ०।११।१० } पं उग्दणा 
प्र. बु. श. शु. रा. शु. पू. चं. मं 
मा. १ १ १ १ २ ०१६१० 
दि. २३ १२६९ ७ ६१८ १७२५ 
घ. २१२८ ४८४३ ६५२३ १२१६१ 
प. ६५२ ५३ ४० ४० २०२० ६ 
वि. ४० २०२० ० ० ० ० ४० 





दन्यनतर ( ०,६।२० ) मं उपदशा 


ग्र गु. गा. शु. मू. च. म. वु. 
मा. ० १ ० १ ० ० ० १ 
दि. १< ५२२ ८११२७ १८ १ 
ध. २११६१ १३५२३ ६४६४८ २८ 


प. ६ ६२० २० ४०४८०५३५ 
वि ८० ४० ० ०9 ० ०२०२० 





गुवन्तर ( १०२०} म उप्दणा 
प्र. गु. गा. शु. मू. चं. मं. वु. श. 
मा. २१२ ० १ ०१ १ 
दि. ६ १२१३ २१२२२८२६ ५ 
ध. ५११२३५३ ६४६ 5 ४८० ११ 
१, ६ २० २० ४० ४०५२५२३ ९ 
व्रि, ४० ० ०9 9 ० २०२० ४9 





राद्भनर ( <।८।० ) मं उपदन्ा 
प्र. र. शु. मू.चं.म. बु. श. गु. 
मा. " १ ० १ ० १ ° 1 
दि. २६ १६१३ २१७ ७२२१२ 
ध. ८० ८० २० २० ४६ ५६ १२ .३ 


त, 9० ५ 6 6 ४० ६५ >. २० 


शुक्रान्तर ( १।२।० } मं उपरा 

प्र. शु. मु.च. मं. बु. शष. गु. रा 
मा. २० १ १ १ २ 
दि. २१२२३२८; १ ६ १२१६ 
ध, ८० २० २० € ६५३५३ ८ 
पृ, 9० 9 9 ४० ४० २०२० 9 


"मनो रमा" हिन्दीग्याश्योपेता 


४०३ 





भषटो्तरी बन््र महादच्ा वषं १५ 


अन्द्राम्तर ( २।१।० ) में उपदा 

ग्र. षं. मं. बु. शा. गृ. रा. शुष. 
मा. ३ १ ३२ ४ २ ४ १ 
दि. १४ २५२८ € ११२३२५११ 
ध. १०३२३ २३२६ ५६९ २० ५० ४५ 
प. ० २० २० ४० ४० ° ०9 9 
वि. ० © ® ® 9 9 ® 9 


बुघान्त र ( २।४।१० ) मे उषदक्ा 
ग्र. बु. श. ग. रा.शु. सू. च. मं. 
मा. ४ २ ४३ ५ १ ३२ 
दि. १२३ १८२६ ४१५ १७२८ २ 
ध. ४७४२२३२ २६ १६ १३ ३५७ 
प. ४६ १३ १३ ४० ४० २० २० ४६ 


वि. ४० २०२० ० ० ०9 ० ४० 


गर्वान्नर ( २।७।२० ) म उपदा 


प्र. गु. गा. शु. स्‌. च. म. ब. श 


मा. ५ ३ ६ १ ८ २ र 
दि. १७ १५ ४२२ ११ १० २६२७ 
ध. ७३३ ४३ ४६ ५६ २२३२ ५७ 
प. ४६ २० २० ४० ४० १३ १३ ४६ 
वि. &० ०9 ० ० ० २०२० ४० 


शुक्रान्तर ( २।११।० ) म उपदक्ला 
ग्र शु. सू. च.र्गं. बु. श. गु. रा. 
मा. ६ १ ४२५२ ६) 
दि. २४२८ २५ १७ १५ ७ ४२६ 
ध. १० २० ५० ४६ १६ १३ ४२ ४० 
प. 9 6 ० ४० ४० २० २० 9 
वि, © 9 0 © 0 © 9 © 


मौमान्तर ( १।१।१० ) मे उपदक्षा 
ग्र. म. बु. श. गु. रा. शु.सूु.च. 
मा. ० २ १ २ १ २ ° 
दि. २६ २ ७ १० १४१७२२२५ 
ध. २७ ५७ २२२२६ ४६ १३३३ 
प. ४६ ४६ १२ १३ ४०४८० २०२७ 
वि. ४० ४० २०२० ७9 9 © 9 


शन्यन्तर ( १।४।२० ) मं उपदश्चा 
ग्र. श. गु. रा. शु. सू. च. मं. बु. 
मा. १ २ १ ३ ०२ १२ 
दि. १६९२७२५ ७२७ € ७१८ 
घ. १७ ५७ २३२ १२३ ४६९२६ २४२ 
प. ४६ ४६ २० २० ४० ४० १३ १३ 
वि. ४० ४० ० ०9 ० ०२०२० 


गह्वन्नर ( १।८।० ) मे उपदा 
प्र. गा. शु. सु. चं. मं. वु. श.गु. 
मा. २३ १ २ १३२ १३ 
दि. ६२६ ३२३ १४ ४२५ १५ 
ध. ४० ४०२० २० २९ २६३३ ३३ 
प. 9 9 9 9 ४० ४० २७० २०५ 
वि. 9 ॥ ५ © 9 ॥५। ॥९। © 9 


सूर्यान्नर ( ०।१०।० ) में उपदशा 
प्र. सु. चं. मं. बु. श. गु. रा. श्रु. 
मा. ० १ ० १ ° ६१ १ 
दि. १६ ११२२ १७ २७ २२ ३२८ 
ध. ४० ४० १३ १३ ४६ ४६२० २० 
च, ० ० २० २० ४०५ ४० ०9 9 
वि. 9 ०9 9 ०9 9 ० ० 9 


७.४ भानसागरी 





अष्टोसरी भौम महादल्ा वषं ८ 


भौमान्तर (०।७।३।२०) मे उपदशा बुधान्तर ( १।३।३।२० ) मे उपदशा 
प्र. मं. बु. श. गु.रा.-शुषु. च. | प्र. बु. श. शु. रा.शुरसू. ब.मं. 
भा. ० १ ० १ १ १ ० ०|मा. २१२ १ २ ०२१ 
दि. १५ ३ १६ ७२३ ११ ११२९ । दि. १११११६९ २० २८२५ २३ 
घ. ४८ ३४४५ २१४२२८५१ २७ |घ. २१५८ ४५२२ ८ ११५७ २४ 
प. ८४८ ११५१ १३५३ ६४६९ | १. ५०३१ १११२३५३ ६४६४८ 
वि. ५३५३ ७ ७२० २० ४० ४८० | वि. ५३ ७ ७२० २० ४०४० ५३ 





शन्यन्त र (०।८।२६।४०) मे उपदशा गुवन्त र (१।४।२६।४०) मे उपदशा 
ग्र. श. गु. ग. शु. सु. चं.रमं. बु. | प्र. गु. रा. भु. सू. चं.भं. बु. कश. 
मा. ० १ ० १ ० १ ० १मा. २१ ३ ० २ १२१ 
दि. २४ १६२६२११४ ७ १६११ दि. २६२६ ८२८ १० ७ १६ १६ 
घ. ४१ ५४२७ ५१४८८ २४५५८ घ. ८ १७३१ ८२२२१४५ ५ 
प. २८ ४८४६ ६५३ १३११३११. ८४६ ६५२३१३५१ ११४८ 
वि. ५३ ५३ ४० ४०२० २० ७ ७ | वि. ५३ ४० ४०२० २० ७ ७ ५३ 





राह्वन्तर ( ०।१०।२० ) मेँ उपदशा शुक्रान्तर ( १।६।२० ) म उपदशा 
प्र. रा. शु. समू. च. मं. बु. श. गु. । प्र. शु. भू-च.म. बु. श. गरु. रा. 
मा. १ २ ० १ ० १ ° १[मा. ३ १ २ १ २ १२३२ 
दि. ५ २ १७ १४२३२०२९ २६ दि. १८ १ १७११२८२१ ८२ 
ध. २३ १३ ४६९ २६ ४२२२ ३७ १७६. ५३ ६४९२८ ८५१३२११३ 
प. २० २० ४० ४५ १३ १३ ४६४६१. २० ४८० ४०५३ ५३ ६ ६२०५ 
वि. ० ०9 ० ०२०२७ ८८० ४० वि. ०9 ०9 ० २०२० ४०४० 9 








पूर्यान्तर ( ०।५।१० ) में उपदशा चन्द्रान्तर ( १।१।१० ) में उपदशा 
प्र. भ्‌. चं. मं. बु. शा. गु.रा.शु. | प्र. चं. मं. बु. श. शु. रा. शु. र. 
भा. ° ० ऽ ० 5 ०9 ० १। मा. १ ० २१ २ १ > 9 
दि. ८ २२ ११२५ १४२८ १७ १ दि. २५२६ २ ७ १० १४ १७२२ 
ध. ५२ १२५१ ११४८८ ८४६ ६ | भ. २३३३७ ५७ २२२२६ ४६ १३ 
प. २०२० ६ ६५३ ५३४० ४०|| १. २० ४८६४६१३ १३४० ४०२० 
वि, ० 5 ४०४०२०२० ० ० |वि. ० ४०४०२०२० ० 9 ० 








"मनोरमा" हिन्दीष्या्योपेता 


४०५ 





भष्टोत्तरी बुध महादश्चा वषं १७ 


बुषान्तर ( २।८।३।२०) मे उपदक्षा 
प्र. बु. हा. गु. रा. शु.सू. च. मं. 
भा. ५ २५ ३ ६ १ ४ 
दि. १२६९ १९१७ ७२३ १३११ 
ध. ३८ ११२८ २ १८३१४७२१ 
प. ८५१२१ १३५३ £ ४६२८ 
वि. ५३ ७ ५२०२० ४० ४०५३ 


जयोद्योगाय 





शम्यन्नर ( १।६।२६।४०। ) में उपदशा 
प्र. श. गु. रा. शु.सु.च.मं. ङु. 
मा. १३२२ १ २१२ 
दि. २२ ९ २२० ११८११२९ 
घ. २८ ४१५७ {१२८ ४२५८ १। 
प. ८२८४६ ६५३ १३३१ ५१ 
वि. ५३ ५३ ४० ४० २०२० ७ ७ 





[श 


गुर्वन्तर ( २।११।२६।४० } म उपदशा 
प्र. गु. रा. शु. षू. चं. मं. बु. श 
भा. ९ ३ ६ १ ४ २ ५३ 
दि. € २६२६ २९२९१९१६ £ 
ब. २४३७ २१४८३२२ ४५२८ ४१ 
१. ४८४६ ६५३ १३११३१२८ 
वि. ५३ ४० ४०२० २० ७ ७५३ 





गराह्वन्तर ( १।१०।२० ) में उपदशा 
प्र. रा. शु. सू. च. मं. बु ग 
भा. २४ १३ १३२ २३ 
दि. १५१२ ७ ४२० १७ २२९ 
ध. ३३ १३४६ २६ २२ २५७२७ 
प. २० *-० ४०४० १३ १३ ४६ ४६ 
वि © ०9 ® ० २० २० ४० ४५ 





शुक्रान्तर ( ३।३।२० ) म उपदशा 
प्र. शु. स्‌. षं. मं. बु. श. गु. रा 
भा. ७ २ ५ २ ६ ३ € ४ 
दि. २१ ६ १५२; ७२०२९९१ 
ध. २२ ९ १६ ८ {८११२१६३ 
प. २० ४०४२५३५३ ६ ६९ २० 
वि। 9 ०9 ० २० २०५ ४० ४० 9 


शधयययोगयायाक 





भर्यान्तिर ( ०।११।१० ) मे उपदक्षा 
ग्र. सू. चं. मं. बु. श. बु-रा. शु. 
मा. ० १ ० १ १११२ 
दि. १८ १७ २५२३ १२६ ७ 
ध. ५२३ १३११३१२८ ४८४६ ६ 
प. २०२० ६ ९५३५२ ४० ४ 
वि. 9 ० ४० ४० २०२० ० 9 





जम्ाम्तर ( २।४।१० ) मे उपदशा 
प. षं. भ॑. बु. श. गु. रा.शु.मु. 
भा. २३२ ४ २ ४ २ ५ १ 
दि. २८ २१३२८२६ ४१५१७ 
ध. ३५७ १७४२ ३२२५ १६ १३ 
१. २० ४६ ४६ १३ १३ ४०४० २५ 
बि. 9 ४० ४० २७२० 9 9 ® 


| दि 


भौमाम्तर ( १।३।३।२० ) मे उपदशा 


प्र. मो. बु. ष. गु.रा.-शु.षु.षं. 


भा. १ २ १२ १ २ ०२ 
३ ११ ११ १६ २० २८२५ २ 
ध. ३४२१ ५८ ४५२२ ८११५७ 
प१. ३८२८२३१ १११३ ५३ £ ६ 
वि. ५३५३ ७ ७२० २० ४० ४७ 





आनय 


४०६ 


मानसागरी 





अष्टोत्तरी शनि महादच्ा वषं १० 


शन्यन्तर ( ०।११।३।२० ) मे उपदश। 
ग्र. श. 
मा. १ १ १२ ० १ ° १ 
दि. ०२८ ७ ४१5५ १६ २४२२ 
ध. ५१२३८ २४८३२११७ ४८१२८ 
१. ५१३१ १३५३ ६४६२८ ८ 
वि. ७ ७२०२० ४०४०५३५३ 


गु. रा. शु. षु. च. मं. बु. 





गर्वन्तर ( १।६।३।२० ) मे उपदशा 
प्र. शु. रा. शु. सु. च.मं. बु. श. 
मा. ३२४ १२१ ३) 
हि. २११० ३ ५२७ १६ ६२८ 
घ. २५२२ ८ ११५७ ५४४१२८५ 
१. ११ १३५२ ६ ४६४ २८३१ 
वि. ७२० २० ४० ४० ५३५२३ ७9 








स ( १।१।१० ) मे उपदशा 
प्र. रा. शु. सू. चं. मं. ब्ु.श.गु. 
मा. १२० १ ०२१२ 


दि. १४ १७२२२५२६ २ ७१० 
ध. २९९ ४६ १२३२३३७ ५५७ २२२ 
प. ४० ४० २०२०४८६ ४६ १३१३ 
वि, 9० 9 9 6 ४० ४० २७० २५ 


शुक्रान्तर ( ०।११।१० ) मे उपदशा 
शु. सू. चं. मं. बु. श. गु. रा 
१२३ २ ४२ 
२१२० ४ ३१७ 
३ १३ ५० ११४८ 5 ४६ 


६२० २० ६ ६५३५२ ४० 
व, ४० ० ० ४० ४० २०२० 9 


[9.0 ! 





सूर्यान्तिर ( ०।६।२० ) मे उपदक्षा 
ग्र. स्‌. चं. मं. 
मभा. ० ० ० १ ० १ ० १ 
दि. ११२७ १४ १२८ ५२२ ८ 
ध. ६४६ ४८२८३२३१ ११ १३५३ 
प. ८० ४० ५३५२३ ६ ६२० २७ 
वि. ० ०२०२० ४० ४० ० 5 


बु. श. गु. रा. शु. 





चन्द्रान्तर ( १।४।२० ) मे इपदशा 
प्र. चं. मं. बु. श. शु. रा.शु.षु. 
मा. २१२ १२ १ ३ ० 
दि. ९ ७ १८ १६२५७२५ ७ २७ 
ध. २६ २४२ १७ ५७ ३३ १२ ४६ 
प. ४० १३ १३४६ ४६२० २० ४० 
वि. ०२०२० ४०४७ ०9 ० 6 





भौमान्तर ( ०।५।२६।४० ) मं उपदला 
प्र. मं, बु. श. गु. रा. शु.सू. च्‌. 
मा. ० १ ° १ ० १ ° ! 
दि. १६ ११२४ १६ २६९२१ १४ ७ 
ध ४५५८ ४१५४ ३७ ५१४८ २ 
प, ११३१ २८ ४८४६ ६५३ १३ 
वि. ७ ७ ५३ ५६ ४० ४०२०२०५ 





बुषान्तर ( १।६।२६।४० ) मं उपदशा 
ग्र धु. श. गु.रा.शु. पू. च. मं 
मा. २१३ २३२ १२1 
दि, २६२२ £ २२० १ १5५ ११ 
ध. ११२८४१५७ ११२८४२५८ 
१. ५१ ८२८४६ ६५३ १३३१ 
वि, ७ ५३५३ ४०४०२०२० ७ 





मनोरमा" हिन्दीब्धाड्योपेता 


कय 


४०३ 





अष्टोत्तरी भूद महादक्ा वर्षं १९ 


गुर्वन्त र ( ३।४।३।२० } मे उपदशा 
प्र. बु. रा. शु.सु.षं. मं. ब्रु. ष 
भा. ७ ४ ७ २ ५ २ ६३ 
दि. ११३२३ ६१७२९ १२१ 
चव ४१४२५८५१ ७ ८२४२५ 
प. ५११२३५३ ६४६ 5 ४८ ११ 
वि. ७ २० २० ४० ४०५३५२३ 3 


राह्वन्तर ( २।१।१० )} में उपदशा 
ग्र. रा. शु. षु. चं. मं. बु. श 
मा. २९ ४ १ ३ १ ३ २ 
दि. २४२७ १२ १५२६ २९ १० १३ 
ध. २६ ४६ १३२३३ १७३७ २२४२ 
१, ४० ४० २० २० ४६ ४६१३ १३ 
वि. ® 9 9 ० ४० ४० २० २५ 





शुक्रान्तर ( ३।८।१० ) म उपदशा 
प्र. शु. षू. चं. मं. बरु. श. गु. रा 
भा. 5 २ ६ ३ ६ ४ ७ ४ 
दि. १८१३ ४ ८२९ ३२३२७ 
ध. ३६ ५२३ ४२३३१२१ 5 ५३ ४६ 
प. ४०२० २० ६ ६ ५३ ५८ ४० 
वि. ०9 ० ० ४० ४८०२०२० 





णि | 


सूर्यान्तिर ( १।०।२० ) मेँ उपदशः 
प्र. सू. चं. मं. बु. श. शु.रा.शु. 
भा. ० १ ० १ १ २१२ 
दि. २१२२२८२९ ५ ६ १२१३ 
ध. ६४६ ८ ४८ ११५१ १३५३ 
प. ४० ४०५२३ ५३ ६ ६२०२० 
वि. ० ० २०२०४०४० ० 9 





बल्द्रान्तर ( २।७।२० ) म उपदशा 
प्र. चं. मं. बु. श. गु. रा. शु. पू 
मा. ४ २ ४२ ५ ३ ६ १ 
दि. ११ १०२६ २७ १७ १५ ४२२ 
ध. ५६ २२३२ ५७ ७२२ ४२ ४६ 
प. ४० १३ १३ ४६ ४६ २० २० ४० 
वि. 9० २० २० ४० ४9 ० ० 9 


भौमान्तर ( १।४।२६।४० ) म उपदश। 
ग्र. मं. बु. श. ग. रा. शु. सु. च. 
मा. १ २ १२ १ ३ ० २ 
दि. ७ १६ १६२६९२६९ ८२८ १० 
ध. ३१४५१५४ ८ १७३१ ८२२ 
प. ५२३ ११४८८ ८४६ ६५३ १३ 
वि. ७ ७ ५३ ५३ ४०४०२०२० 





बुधान्तर ( २।११।२६।४० } मं उपदशा 
प्र. बु. दहा. गु. रा. शु. सू. चं. मं 
मा. ५ ३ ६३ ६९ १ ४२ 
दि. १६९ १ ९६२९ २९२९२६१६ 
ध. २८ ४१ २४२३७ २१४८२२४५ 
प१. ३१२८ ४८ ४६ ६५२ १३११ 
वि. ७ ५२ ५३ ४०४०२०२० ७ 


कष 





| 


शन्यन्त र ( १।९।३।२० ) मे उपदशा 
प्र श. गु. रा. शु. सु.चं.मं. बु 
मा. १३ २ ४ १२१३ 
दि. २८२१ १० २३ ५२७ १६ £ 
ध, २३८२५२२ ८ ११५७५४४१ 
प. ३१११ १३५३ ६४६४८२८ 
वि. ७ ७२० २० ४०४० ५३ ५३ 





४७६ 


मानसाभगरी 





बष्टोत्तरी गाह महादश्चा वषं १२ 


राह्न्तर ( १।४।०) में उपदक्षा 
प्र. रा. शु... चं.मं.बु.षश. गु 
मा. १३ ०२ १२१२ 
दि. २३ ३२६ ६ ५१५ १४२४ 


ध. २०२० ४०४०२२३३ २६ २९ 
प. 9 9 ०6 ० २०९ २५ ४० ४6 
वि. 9 9 ०9 6 © 5 ०9 ° 





शुक्रान्तर ( २।४।० ) में उपदा 
प्र. शु. पु. चं. मं. बु. श. गु. ष 
मा. ५ १ ३ २ ४ २४३ 
दि. १३ १६२६ २१२ १७२७ ३ 
ध. २० ४० ४० १२३ १३४६४६२० 
प. 9 ० ० २० २० ४० ४० 9 
वि. ०9 9 9 9 ® @ ० ° 





सर्यान्तर ( ०।८।० ) मे उपदशा 
ग्र. सू. चं.मं. बु. श. गु. रा. श 
मा. ० १ ० १२ १ ° १ 
दि. १३ ३१७ ७२२ १२२६ १६ 
ध. {० २० ४६ ४६ १२ १२३४० ४१ 
वृ. 6 ० ह° ४० २० २९ ® 9 
वि. ० > ® © ० ०9 ० ° 


भौमान्तर ( ०।१०।२० ) मे उपदशा 
प्र. मं. बु. श. बु. रा. शु.पु.चं, 
मा. ० १ ० १ १ २ ° { 
दि. २३२० २६२६ ५ २१७१४ 
ध. ४२ २२३५७ {७३३ १३४६२ 
प. १३ १३४६ ४६२० २० ४० ४९ 
वि, २० २७ ४6 ४०6 ०6 9 ० ® 


शन्यन्तर ( १।१।१० ) में 'उपदशष। 


प्र. श. गु. रा. शु. षु.चं.मं. द्रु 


मा. १ २१ २ ० १ ° २ 
दि, ७ १० १४१७ २२ २५२९ र 
ध, २२२ २६४६ {२३२३१७५७ 
प. १३ {१३ ४० ४० २०२० ४६ ४६ 
वि. २०२० ० ० ® ० ४७ ४5 


चन्द्रान्तर ( १।८।० } मे उपदशा 
च. मं श. गु. रा. शु. सु 
२ १ १३ २ २३ ! 
२२१४ ४१५ १५ ६२६ ३ 
२० २६ २६३३ ३३ ४० ४०२० 
© ४० ४० २० २९ € ०9 9 
७ 9 @ 9 9 ® ५“ ® 


बु 
३ 
; 


~ 2 3 ~ 


बुषान्तर ( १।१०।२० ) मे उपदशा 

ग्र. बु. श. गु. रा. शु. दू. चं.म. 
मा. २२३२४ १३ 1 
दि. १७ २२६ १५१२ ७ ४२० 
ध. २५७ ३७ २३ १३४६२६२२ 


१. १३४६ ४६२० २०४० ४०१३ 
वि, २० ४० ४० ० ० ० ०२१ 


वन्तर ( २।१।१० ) मे उपदा 
प्र. गु, रा. शु. षु. च.मं. बुष, 
मा. २४ १ ३ १ ३ १ 
हि, १२३ २४२७ १२ १५२६२९१० 
ध. ४२ २६ ४६१२ ३३ १७१३७२२ 
॥ १२३४० ४० २० २० ४६ ४६ {३ 
| 


, २०१ ० ०9 ® ०४० ४०२१ 


` मना रमा. हृन्द्याख्यपता 


11 1 





अष्टोत्तरी शुक्र महादश्चा वषं १८ 


शुक्राम्तर ( ४।१।० ) में उपदशा 
प्र. शु. भु. चं. मं. इ. श. गु. रा 
मा. 2 २ ६ ३ 
दि. १५२१२४१८ २१ १६१६ १३ 
घ. ५० ४० १० ५३ २३ ६३८ २० 
प. ०9 ० ० २० २० ४० ४० 9 
वि. © ® ® 9 ® © 6 58 


७ ४ ८ ५. 9 





सूर्५म्तग ( १।२।० ) में उपदशा 
प्र. सू. चं.मं. बु. श. गु.रा. भु 
११२ १ २१२ 
दि. २२२८ १ ६ < १३ १६२१ 
ध. २०२० & ६ ५२ ५३ ४० ४9 
प. 9 ० ४० ४० २०७ २०५ ०9 6 
वि. ® ® © ® ® ०9 9 $ 





अन्रान्तर ( २।११।०) में उपदक्ञा 
ग्र. चं. मं. बु. श. गु.रा.शु.सू. 
मा. ४२ ५३ ६ ३ ६ १ 
दि. २५१७ १५ ७ ४२६२४२८ 
च. ५० ४६ १६ १३ ४३४० १०२३ 
प, =® ४० ४० २०२० ०9 ०9 9 
वि. 9 ०9 ० ०9 ० ० ० ° 





भौमान्तर ( १।६।२० ) में उपदक्ञा 
ग्र. मं. बु. श. गु-रा. शु. षु. चं. 
मा. १ २ १३२ २३ १२ 
दि. ११२०८२१ ८ २१०८ १ १७ 
घ. २८ ८५१३१ १३५३ £ ४६ 
प, ५२३ ५३ ६ ६२०२० ४० ४० 
वि, २० २७ ४७ ४० 9 ० ०9 € 





बुषान्तर ( ३।३।२० ) मे उपदशा 

प्रः बु. श. शु. रा.शु. सु. च. मं. 
मा. ६ २३६३ ७२५२ 
दि. १७ २० २६ १२२१ ६१५२८ 
ध. १८ ११२१ १३२३ ६१६ ८ 
प. ५२ ९ ६२० २० ४०४० ५३ 
विज २० ४०७ ४०७ ० ० ०9 ०२० 





शन्यन्नर ( १।११।१० ) मे उपदशा 
प्र. कश. गु. गा. शु षु.चं.मं. बरु. 
मा. २४२ ४ १ २३१३ 
दि. ४ ३ १७ १६ ८ ७२१२० 
ध. ४८ ८ ४६ ६५२३ ५२३ ५१ ११ 
प, ५२ ५३ ४० ४० २०२० ६ ६ 
वि. २०२० 9 ०9 ०9 ० ४० ४9 





गु्न्तर ( ३।८।१० } में उपदक्षा 
प्रः गु. रा. शुः सु. च॑मं. बु. 
भा. ७ ४ ८ २६ २ ६ ४ 
वि. २३२७ १८ १३ ४ ८२६ ३ 
ध, ५८ ४६ ३६ ५२३ ४३४८१२१ ८ 
प. १३ ४० ४० २०२० ६ ६५३ 
बि, 29 9 ® ® ० ४० ४०२७ 


ष 





रा हन्त र ( २।४।० ) मे उपदशा 
प्र. ग. शु. सु. च॑मं. इु.र. गु. 
मा. ३ ५ १२ २ ४ २ ४ 
दि. ३ १३ १६२६ २१२१७२७ 
ध २०२० ४० ४० १३ १३४६ ४६ 
प. ० © ० ० २० २० &७ ई6 
वि. 9 ०9 © ०9 ०6 9 > ® 





४१० मानसागरी 





दद्ाकाल निर्णय-- 
दशाप्यषटो्तरी शुक्ले कृष्णे विंशोत्तरी मता । 
गणनीया दशा सुजञस्तदुमेश्व श्सम्मतम्‌ ।। २२ ॥ 


शुक्ल पक्ष मे जन्म हो तो अष्टोक्तरी दशा कृष्णपक्ष मे जम्म हो तो विध्ो्तरी 
दक्षा का साधन बुद्धिमान गणितज्ग को करना बाहिए। एसा उमा-महेष्वर का 


मत है ।। २२॥ 
नक्षत्र-मायु साधन-- 


मासाश्वतुदंश तथा दिनानि द्वादशंव हि। 
एवं कृतेऽभ्दमानं यत्तत्त्याज्यं परमायुषः ।। २३ ॥ 
विशोत्तरी दशाक्म से साधित नक्षत्रायुते १४ मास १२ दिन षटाङेने ते शेष 
अष्टोत्तरी मत सेञायुप्रमाणहोतादहै। २३॥ 


नक्षत्रमोगनाडीभियु'ता त्िष्ठदवा रसं: । 
बाणमक्तेन चान्दानामष्टो्र्यादि सूरिभिः ॥ २४॥ 
अन्म नक्षत्र के भोगषटीमे ३० जोड़कर ६से गुण।करभ५से भाग देने पर 
लबन्कि अष्टोत्तरी मत से नक्षत्रायु होती दहै॥ २४॥ 


दशा का धुव साषन-- 

नव्भिवंषेर्मासः शेषमकगुणं करु । 

मासान्‌ क्षिप्त्वा ततस्त्रिश्चद्गुण तत्र दिनं क्षिपेत्‌ ॥ २५॥। 

अष्टोत्तरशनेनाप्तः दिनं तदृघ्रुवका बुधाः । 

तच्च षष्टिगुणं कृत्वा तन्मध्ये घटिकाः क्षिपेत्‌ ।। २६ ॥ 

बष्टोत्तरशतं्मागं लबम्धाद्धु घटिका वदेत्‌ । 

शेषं वष्ठिगुणं कृत्वा स्वहुरोर्मागमाहूरेत्‌ ।। २७ ॥ 

लब्धाङ्कु च पलं जेयं दोषं बाष्टगुणं कुर्‌ । 

अषटोत्तरध्चतंर्मागं लब्धं तद्विपल वदेत्‌ ॥ २५ ॥ 

नव वर्षोमे एक मास होतादहै अर्थात्‌ महादशा व्धंकोश्से भाग देनेपर 

लब्धि भास, शेष को १२ से गुणाकर अन्तर्देशाके मास को जोड़कर पनःइ३०्से 
गुणा करे तथा दिन सस्या जोड़कर १०८्से भागदेने पर लब्धि दिन, शेष को 
६० से गुणाकर धटी हकर १०८ से भागदेनेपर लम्बि चटी, पूनाशिषको 
६० दे शुभाकर पल जोडकर १०८ से माग देनेपर लक्षि पल तथा शेष को पूनः 
६०् धे शुभाकर अन्तरम विषलदहोँतो उसे जोडकर १०८ काभागदेनेते लब्वि 
विपल होती ह। इसप्रकार मास, ष्टी, पतल. विपल मेप्रहों का धुबा्खु 
आता ह ॥ २५-२८ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीभ्यास्योवेना ४११ 


उदाहरणः- सूर्यं दशा वषं ६ 
६ ९९) ६ (° 
| ५। 
६८१२ 
७२५३० 
१५८)२ १६०२० 
२१६ 
ज्रम 


© 


>< 


भूयं का धरुवाङ्खूु ०।२० इसमे प्रत्येक प्रहोंके महादशामानसे भ्रुला करने पर 
सूयं महादशा में समी ग्रहों का अन्तर अयेगा । यथा- (०।२०) > ६-।४।०० अर्थात्‌ 
४ मास० दिन सूर्यं में सूयं का भन्तर ( ०।२० )>८ १५-१०।०० अर्थात्‌ १० मास० 
दिन ू्य मे चन्द्रमा का अन्तर हुमा । दमी प्रकार सभी ्रहोंका अन्तर ज्ञात 
होगा । इसी प्रकार अन्तदश्ाओं कामी ध्रुवा्कु लाया जायगा। 
सनर्ध्यादश्ा -- 
परमायुर्ादश्ांशः स्फुटं सन्ध्या भवेत्ततः । 
स्वलग्नाधिपतेरादौ तदादीनां दद्या ततः ॥\ २६ ॥ 
परमाबयु १२० वषं के द्रादशांश ( १० वषं ) तुल्य सन्ध्यादक्षा होती है प्रथम 
दशा (लग्न) लश्नाधिपति^ की अनन्तर क्रमसे द्वितीयादि भावों मे स्थित राशियों 
की दशा होती है। (सभी राहियों की दक्षा तुल्य १०-१० वर्षो की ही 
होती है )। २६॥ 
याव र्णणि चदरस्य दशा विद्छोत्तरीमते । 
तावद्षंप्रमाणा च सन्ध्या मवति निश्चितम्‌ । ३० ॥ 
विशोल्तरी मानसे जितने वर्षोंकी चन्द्रमाकी महाश््ा होतीहै उतनेही 
वषं प्रमाण भाथु की सन्ध्या होती है। ( षन््रदशा १० वषंङी होती है अत। 
भायु की सष्छ्याकामानमभी १० वषंही होगा ॥ ३०॥ 





१. “'स्वलग्नाषिपतेरादौ'" इससे स्पष्ट होता है कि प्रथम दश्षा लग्नेदा की अनन्तर 
अन्य भावेदो की सन्ध्यादशा होगी । परन्तु यह असंगत है । यहाँ १२ राक्षियों 
की दहा बताई गर है। 

'"दक्षानां तम्मिताब्दाः स्युलंग्नरारिक्रमामता ।'" 


४१३ मानगसागरी 





उदाहर्ण- अम्मलष्व मकर, अम्मतिषि ३० बुलाई १९८२ 


अतः सवं प्रथम मकर राहि की द्छा १० वर्षं तक अनन्तर कुम्म-मीन आदि 
राशियों की १०-१० वर्षों की दशा होनी । यया- 


सन्ध्यादशा चक्र वषं १२० 


राहि वऽ मा दिश दि० माऽ सनू्‌° 
>€ >€ >€ ३० ७ १६०८२ ई० 
मकर १९ ० ० ३० ७ १९९२ 
कुम्भ १० 9 9 ३० ७ २००२ 
मीन १० , ० ३० ७ २०१२ 
भेष १० ० ] ३० ७ २०२२ 
वृष १० ° ° ३ ७ २०३२ 
मिथुन १७९ 9 9 ३० 9 २०.४२ 
ककं १० 9 9 ३० ७ २०५२ 
सिह १० ० ० ३० ७ २०६२ 
कन्या १० © 9 ३० ७ २०७२ 
तुना १० © | ३० ७ २०८२ 
व्चिक १० ° ० ३० ७ २०६९२ 
घनु १० ° ० ३० ७ २१०२ 
पाचक दक्षा-~ 
सष्ध्या रसगुणा कार्या चल्रव्िहूता कलम्‌ । 


प्रथमे कौछके स्थाप्यमद'मद्ध निकोष्ठके । ३१ ॥ 

त्रिमागं वसुकोष्ठेषु लिखेद्िष्ठान्‌ प्रयत्नतः । 

एवं हादशमावेषु पाचकानि प्रकल्पयेत्‌ ॥ ३२ ॥ 

सन्ध्यादल्ला प्रमाण को ६ से गुणाकर ३१सेभाग देने परओो वर्षादि लश्धि 

श्राप्त हो उसे प्रथम कोष्ठके रक्लना चाहिये । अनन्तर लन्विके भाषे वर्चादि 
मान को अग्निम तीन कोष्ठक मे र्ना भाहिये। दूनः लम्वि के तृतीयांश को लेव 
भाठ कोष्ठर्को मे रखने से पाकं दशा होती है। ( पाचक दक्षा का क्िप्राय 
अन्तर्दशा छे है) एक राछ्चि की महादक्षा मे समी राशियों की अन्तर्दशा काही 
साकम वाच्कदक्ञा मे किया जाता है) ॥ ३१-२२॥ 


मनीरमाः हिम्दीग्याख्यौपेता ४१३ 
उदाहुश्ण-मकर राहि की दशा का प्रमाण १० वषं 














१० र ६६० <- ३१ ३१) ६० (१ 
११ 
लम्वि १।११।६।४६ प्रथम कोष्ठे २९५६ १२ 
गाधा ०।११।१८।२३ तीन कोष्ठकोमिं ३१) ३४० (११ 
३१ 
तृतीयांश ०।७।२२।२३ माठ कोष्ठक मे इन ` 
१९१. 
७८३७ 
३१) २१० (६ 
१८६ 
२४५८ ६० 
३१) १,४.४० (४६ 
१२४ 
२०७०७ 
१८६ 
बे 
मकर राशि की सन्ध्यादक्षा मे पाचकदष्ा 
ब० मा० दि० ष दि. मा सन्‌ 
गा० > ॐ > > > ३० ७ १९८२ ई° 
मकर १ ११ ६ ४६ ४६ ६ ७ १९८४ 
कम्म 9 ११ १८ ३ ४६९ र ६ १९८५ 
मीन ० ११ १८5 ३ ५२ १२ ६ १९८६ 
मेष ० ११ १५८5 ३ ५५ ३० ५ १६८७ 
वृष ० ७ २२ २३ १८५ २३ १ १६८८ 
मिथुन ० ७ २२ २३ ४१ १५ £ १९८८ 
कवं ० ७ २२ २३ ४ ८ ५ १९८६ 
सिह ० ७ २२ २३ २७ ३० १२ १६८६ 
कभ्या ० ७ २२ २३ ५० २२ ८ १९९० 
तुला ० ७ २२ २३ १२ १५ ४ १९९४ 
बुश्छिकं ० ७ २२ २३२ ३६ ७ १२ १९९१ 
चनु ® ७ २२ २२३ ५६ ३० ७ १९६२ 


रि 


६० 


४१४ मानषागरी 





दहा बाहन- 
स्वकीयजन्मनक्षत्रादगणयेत्पाकमावधि । 
नवभिस्तु हरेदमागं शेषं घु पाकवाहनः ॥ ३३ ॥ 
गदंभो घोटको हस्ती महिषो जम्बुसिहकौ । 
काको हसो मयुरश्च नवते नरवाहूना ॥ २४ ॥ 
अपने जन्म नक्षत्रसे दश्चा नक्षत्र पर्यन्त गिननेसे जो पश्या प्राप्त हो उत्तमे श 
का भागदेनेसे शेष तुल्य दश्ाका वाहनहोतादहै। गर्दभ, बोडा, हाषी मता 
श्युगाल, शेर, कौमा, हस तथा मोर, ये क्रम से दकशषाभों के नव वाहन 
होते ह ।॥ ३३-३४॥ 
वाहन ज्ल- 
गदम वाहन फल- 
द्यापरवे्छे यदि गदभः स्यात्‌ उत्पल्लभोगी अडतासमेतः । 
लज्जाविहीनो धनधान्यहीनः स्यान्मानवो वस्त्र विवजितश्चं ।। ३५॥ 
दशा प्रवेश कालम यदि गदभ वाहन होतो उषपलन्ध समस्त वस्वुर्ओंको 
उपभोग करने वाला, जट, लज्जासे रहित, धन-धन्यसे हीन, तथा वस्त्रो से 
रहित मनुष्य होता है । ३५ ॥ 
घाटक् फल-- 
चपलच-लताबहूभक्षकः प्रकटवुदधिसघोषषमूपतिः । 
दुढतनुबहुकार्यकरो नरो तुरगयोयंदि वाहनसंस्थित। । ३६ ॥, 
दक्षा वाहन यदि घोटक ( अश्च) हो तौ, मनुष्य, च्ल, अधिक मक्षण करने 
वाला, अत्यन्त बुद्धिमान, गम्मी- वाणी से युक्त, सेनापति, दढक्षरीर वाला, तथा 
बहूत से कार्योँको करने वाला मनुष्य होता है ।॥ ३६॥ 


गजवाहन फल-- 

नानाका्य॑कृते हि सौषपजननो देवाधिपो वाहनः । 

संतृप्तौ बहुमानता शुभगतिः सेनापतिः शोमनः। 

सवं: सौख्यकरः ुभूषरणधरः स्याच्चञ्चलो दुष्टता 

पाकोऽयं यदि वाहनो गजपतेर्नानाकलाकौशल। ।। ३७ ॥ 

यदि दशापतिका गज वाहन हो तो जातक विविध प्रकारके सुख कारक 
काथोको करने वाला, सन्तुष्ट, सम्मानित, शुभ का्योँमे दवि रक्षने वाला, 
सेनापति, आङ़ृति से सुन्दर, समी प्रकार से सुखकारक, धुन्दर आमृषणो को धारण 
करने वाला, शच्धल तथा विविध प्रकारके कलाकौशर्लो मे निषु होता है ॥३७॥ 


"मनोरमा" हिम्दीव्याश्योपेता ४१५ 





महिष वाहन फल-- 
महिषयोर्ब॑ल लिना अयमलं प्रबलाम्निभमयातुरम्‌ । 
शकटयोः भरले बलसंयुतो महिषयोयंदि वाहनता मवेत्‌ ।। ३५ ॥ 


यदि दहाधीश का वाहन महिषहोतो जातक बल-बुद्धिसे हीन, स्वल्प विजय 
पमे वाला, प्रचण्ड अग्नि से अयमीत, गादियोसे युक्त तथा बलवान होता है।३८॥ 
जम्बुक वाहन फल-- 
जम्बुके बहुतरंव चञ्चला व्याधिदुःखपरिपीडाता ज्गना । 
क्लेरता रपुजनाञ्च पीडिता धान्यनाश्मतिसं्यो वेतु । ३९ ॥ 
जम्बुकोत्पन्नमोगी च लाभभक्षस्तथव च । 
रेता श्वेतवस्तरं च हानिः स्यात्क्रयविक्रयोः ॥ ४० ॥ 
दशाधीहा का वाहन यदि जम्बुको तो उम व्यक्ति को स्त्री अत्यन्त चञ्चला, 
श्याधि एवं दूखसे पीडित होती दहै, स्वयं भी क्लेश युक्त, शत्रुओं से पीडित तथा 
सम्पलिके नाशसेक्षीण होता है। 
जम्बुक वाहन वालो दक्षा म उत्पन्न व्यक्तिप्र।प्त सुखो का भोग करने वाला, 
लाभांश का मक्षण ( उपभोग) वरने वाला, इवेन वर्णं ( विशेव गौर वर्णं) तथा 
दवेत वस्त्रों से धुक्त तथा क्रय-विक्रयम दानि उठने वाला होना है ।। ३६-४०॥ 
सिर वाहन का फन्‌-- 
दशाप्रवेष्षे यदि वाहनश्च सिंहो बलिष्ठ विविधैः प्रकारैः; । 
उत्पक्नमोगौ रिपुनाश्शकाशी स्याद्वाहने केसरिणो विष्येषः ॥ ४१॥ 
दशा प्रवेक वं. समय यदि दाघो क्म वारन चिहरोता जातक विविष 
प्रकारसे बलिष्ठरोना टै, जपने पौरुषसे अजिन वस्तु का उपभोग करने वाला, 
वथा शत्रुओं का दमन करनेवःल' होता ।। ४१॥। 
कक वाटत फल- 
काके वाहनसंस्थिते यदि दशा स्याच्चखलो निभंयो 
त्वक्सागो मलिनः कुवेषधरितो नोचेजंनेः पूजितः । 
स्थाने राजभयं तथा रिपुभयं मानापमानं नराद्‌- 
ृष्टातिः कलहं कचेष्टतितरः स्तरीद्रेषकारी भवेत्‌ । ४२ ॥ 
दशाघीकश का वाहन यदि काक (कौमा) हो तो मनुष्य चञ्चल, निर्भय मोटे 
चर्मवाला, मलिन, कुटितिन ( भहा ) वस्त्र पहनने वला, नीच लोगों से पुजितं 
( सम्बन्धित ), स्वदेश मे राजमय, शत्रुभय, लोगों से अपमान, दुष्टों सेकष्ट, 
कल्ह्‌, निन्दित कमं की नेष्टा करने वाला तथात्रीसे द्वेष करने वाला 
होता है ॥ ४२॥ 


४१६ मानस्ागरी 





हं सवाहन का फल-- 
जलकलानिधिकेलिसमन्वितो द्विजपतेर्बहुजात्यसुखान्वित) । 
सदशने ज मति प्रबलायताधुगतिताचतुराननवाहन। ।। ४४ ॥ 
यदि दक्षापति का वाहन हंसहोतौ जातक विविध कथाभौँं मे प्रवीण 
( कलाकारों ) की संगति करने वाला, क्रीडाप्रेमी, ब्रह्म्नो हारा सुख बौर 
सम्मान प्राने वाला, विस्तृत यशसे भुक्त तथा बन्दर गति से बलने वाला 
होता है ॥ ४३॥ 
मयुर वाहन का फल-- 
मयश्वाहनतो बहुलं सुखं धृतिकलाकु्लो मखकेलिङ्कत्‌ । 
मधुरवाक्ययुतो मधुर्रियः सदश्चनेन नर्च समन्वितः ॥ ४४॥ 
दशाधीश का मयूर वाहन होतो जातक अध्यषिक सुर्शो से युक्त, षर्ववान, 
कलाओं मे निपुण, यज्जकायं एवं क्रिड़र्ओ का आयोजन करने वाला, मधुरभावी, 
मधुर पदार्थो का प्रेमी तथा सुन्दर दतं से युक्त होता है ॥ ४४॥ 


महादशा-अन्तदंशाफन्र- 
सूयं महादशा फल 
उद्विग्नचित्तपरिखेदितविलनाच्चं 
क्लेशप्रवासगदपोडमहाभिधातम्‌ । 
संक्षोभितः स्वजनबन्धुवियोगमेति 
सौरी दक्षा भवति राजकुलाभिधातः ।॥ ४५॥ 
सूर्यं की महादशा में चित्तम उद्वेग, किक्नता, धनहानिः कष्ट, प्रवास ( दुसरे 
स्थार्नो मे निवास), रोग पीडा, मानसिक भाषात, भारई-वन्धुओं के वियोग से क्लोम, 
एवं राजकीय अभिषात ( दण्ड ) प्राप्त होता ह। ४५॥ 
सु्यान्तर कल- 
सूयं शजकुलास्लामः पीडा स्यात्पित्तसम्भवा । 
विपत्तथा बान्धवानां भ्ययमेवं हि सर्वतो ॥ ४६। 
सूयं महादक्चामें भूयं का अन्तर होतो राजकुलसे लाभ, पितप्रकोपसे 
उत्पन्न पीडा, बन्धुमो के ऊपर विपत्ति तथा सर्वत्र भ्यय ही होता है ॥ ४६ ॥ 
बन्द्रान्तर फल - 
नृपाल्लामः सुवर्णानि मणिरत्नप्रवालकम्‌ । 
्ाप्यते यानमानं तु पूरय॑स्यान्तदं्ां कजे ॥ ४८॥ 


"मनोरमा" हिष्दीष्यास्योवेता ४१७ 


शत्रुं ते सन्वि (बुद्धया विवाद मे स्वि), यात्रा, षन लाभ, तथा 
ुखाुमूति होती है ।। ४७ ॥ 


भमैमाम्वर कल~ 


नुपाल्लामः पुवर्णानि मणिरत्नप्रवालकम्‌ । 
प्राप्यते यानमानं तु सू्यंस्यान्तदंशां कुजे ।। ४५८ ॥ 
सूयं की महादाम मंबल कामम्तरहो तोराजासे लाभ, स्वर्णं, मभि, 
भूषाभादि रर्ह्लो का लाम, यात्रा मौर सम्मान-प्राप्ति होती ह ॥ ४८ ॥ 
राहवन्तर फल-~- 
शंङ्काऽमानं ध्याधिकोपं वित्तनाशं अनक्लयम्‌ । 
सर्वमत्राशुभं विदयात्पुर्यस्यान्तर्गते तमे ।। ४९ ॥ 
सूरं महादल्लामें राहू काबन्तरहोतो प्राय कायोंमे कंका, अपमान, व्याधि, 
क्रोष, धन नाकच, जनहानि, तथा समी प्रकारसे धश्ुमफलही होता ह ॥ ४९॥ 
गुवन्तर कल-- 
मतव्याधिशशीरश्च अलक्म्या व्यज्यते नरः । 
प्राप्नाति ध्मपदवीं मानोरन्तगते गुरौ ॥ ५० ॥ 
सूयं की महादशा क अन्तगत यदि गङका अन्तरहोतो श्षारीरिकं भ्याधियों 


का अन्त ( अर्थात्‌ स्वास्थ्य लाभ), निधनता का परिल्यामं { धनलाभ ) भाभिक 
कायो मे अभिदचि तथा धार्मिक पदकोप्राप्ति होती दहै ।। ५० ॥ 


शन्यन्तर फन 
राज्यमङ्गः शक्तिहानिः सुहदबन्धुविवजितः । 
जायते तत्र॒ वेकल्यं सू्यस्यान्वगते शनौ ॥ ५१ ॥ 


शयं महादशा मे शनि कौ अन्तदक्षा हो तो राञ्यभङ्खु (सत्ता का पतन) सक्तिका 
जास, मिभ गौर भादरयो का वियोग तथा विकलता होती है॥ ५१॥ 


बुषान्तर कल - 
क्लेश्चः कष्टं च दारिद्र पामाविचचिकादिभिः । 
शरदान्यस्य निक्षिप्तं सूयंस्यान्तगंते बृषे ।॥ ५२॥ 
धर्यं महादक्षामे बुष का अम्तर हो तो श्तेश, कष्ट, दरिद्रता, पामा 
( शुजलो ) एवं विवविका ( गपरस ) जेते रोगोके कारण ( चिकिस्सा हतु ) षन- 
काम्य सभी निजिष्त ( बरोहर या निरवी) हो जाता है॥५२॥ 
केन्वन्तग फल- 
देदात्यागं बन्धुनाशमर्थनाशं कुल क्षयम्‌ । 
केत्वन्तरे सूर्यगते सवं भेवाशुभं वदेत्‌ । ५३ ॥ . 
१ “वन०' पाठान्तरम्‌ । 
२७ भाण्साण 





{> | मानसाभरी 





सूये महादशा मे केतु का अम्तरहो तो देश त्याग, बन्ुरभो एवं धन का नाश 
तथा कुल का क्षय ( हस) होतादै।॥ ५३॥ 
- शुक्राम्तर फल- 
शिरोरोगप्रबलेभ्यो ज्वरातोसारशलतः । 
शरौरे क्लेष्यमाप्नोति सुयंस्यान्तग॑ते मृगौ ॥ ५४॥ 
सुवं की महादकशषामें शुककाअन्तरहोतो प्रबलदोर्घोके कारणशिरमें 
रोग, ज्वर, अतिसार एवं भुल (उदर पीडा) सेक्षारीरिककष्टहोताहि। ५४॥ 


चन्दरमहाद शा-अन्तदशथाएल 
चन्दरमहादभाफल-- 
सम्यग्विभूतिवरवाहनदछत्रयानं 


क्षेमप्रतापब्लवीर्यसुलानि यस्य 
मिष्ठान्नपानशयनासनमोजनानि 
चन्द्रो ददाति धघनकान्छनभ्‌मिलामम्‌ । ५५॥ 
चन्द्रमा की महादक्षा मे भलीभांति सम्पत्ति का लाम, उक्तम कोटिके वाहन 
एवं ष्त्रसे विमृषित यात्रा, कल्याण प्राप्ति, प्रताप, बल एवं सुखकी बुद्ध, 
भिष्ठान्न, मधुरपेय, सुखद शय्या एवं भासन (सोने बैठने का स्थान), रुचिकर 
भोजन, धन, स्वर्णं तथा मूमिकालाम होताहै॥ ५५॥। 


चन्द्रान्तरफल-- 
चन्द्रान्तः स्व्रीपुत्रलाम वस्व्राभरणखयुतम्‌ । 


स्वपक्षगश्च कल्याणमात्मनिद्रारतिमवेत्‌ । ५६ ॥ 
चन्द्रमा की महादशा में चन्द्रमाका ही अन्तरहोतो, वस्त्र एवं बामुषगसे 
युक्त स्त्री एवं पुत्रका लाम, अपने पक्षके लोगों ( भित्रो-भनुयायिणों ) से कल्याण 
प्राप्ति तथा पु पूर्वक निद्रालेनेमें दवि हती दहै। ५६॥ 


मौमान्तर फल-- 
भम्निपिसक्ता पीडा वल्लिबौरभवा हया । 


पदव्युतिश्च नियता भौमे चष्द्रगते नृणाम्‌ ॥ ५७॥ 
चनमा की महदक्चाम भौमका अन्तरहोतो भग्नि उदर सम्बन्धी भौर 


पित्त सम्बन्धी पीटा, मनिनि भौर चोरे भय, तथा पदसे श्युति ( परित्याब) 
होता है ।। ५७ ॥ 
राह्वन्तर फल- 


रिपुरोगाग्निरदरेगो* बन्धुनाशो धनक्षय। । 
न किञ्चित्पुलमाप्नोति चन्द्रे राहरयदानुमः ॥ ५५.॥ 








१ “रिपु रोगग्निभिः पीडा पाठान्तरम्‌ । 


"मनो रमा" हिन्दीष्याश्योपेता ४१९ 


अममा की महादशामे यदि राहुकाब्न्तरहोतो शत्रु, रोम नौर अग्निस 
कष्ट, उद्वेग, बश्ुभो का नाश एवं भन हानि होती है तथा मनुष्य भोड़ा भी पुल 
नहीं पाता ह ।॥ ५८॥ 
वर्मध्मापिसौकयाव र फल - 
वस्त्रालङयुरण्जंयः । 
प्राप्नोत्वन्तर्दशायां हि गुरोश्चन्द्रगतस्य च ॥ ५९ ॥ 
शुर का अम्तर यदि चन्द्रमा की महादशामेहो तो धमं भौर अधमं के उपदेश 
( प्रव्न ) से अन लाभ एवं सुख, वस्त्रामृषण की प्राप्ति, तथा विजय प्राप्ति 
होती है ॥ ५९॥ 
दाम्यन्तर फल-- 


बन्धदेगं शोकभयं हानिग्यसनदोषगम्‌ । 
भवन्ति तत्र सन्ेहाश्वष््रस्यान्तगते शनौ ।। ६० ॥ 
चन्द्रमा की महादल्लामे शनि का अन्तर होतो बन्धुओं से उदेग, शोक, भय, 


हानि एवं सन प्रमृति दोषो की प्राप्ति होती है तथा सदैव सन्देह की स्थिति 
बनी रहती है ॥ ६० ॥ 
बुधान्तर फल- 


सवत्र लमते सौल्यं गजाश्वेर्गेोधिनादिकौः । 
भवत्यन्तरदं शायां हि चन्दरस्यान्तगंते बुषे ॥ ६१ ॥ 
चन्द्रमा की महादशा मे बुधका अन्तरहोतो हाथी, षोडा, गौ, धन आदिसे 
सर्वत्र पुल की प्राप्ति होती है। ६१॥ 
केत्वन्तर फल~~ 
चापल्यं चोद्रेगसत्ता बन्धुहानिर्धनक्षयः । 
जायतेऽन्तर्गते केतौ चद्द्रस्यव नरस्य हि ॥ ६२ ॥ 
चन्द्रमा की महादश्षामे केतु का अन्तरो तो मनुभ्य चश्ल स्वभाव वाला 
एवं उद्विग्न होता है । तथा उसके भाद्यों कीहानि एवं भन का नक्ष होता है ।६२॥ 
शुकरान्तर फल- 
बहूस्त्रीसंगमं चाथ कन्यकाजन्म एव चर । 
मुक्ताहीरमणिप्रा्तिश्चन्द्रस्यान्तर्गते सिते ॥ ६३ ॥ . 


चन्रमा को महादशामे शुक्रका अन्तरहोतो बहूतसी स्त्रियोके साथ 
समामम, कम्या का जन्म तथा मोती-हीरा-मभिं आदिकीप्राप्ति होती दहै ।। ६३॥ 


अन्मपथावसौखय सूर्याम्तर 9 
अन्मपरभावसौस्यं च ववाधिनाक्चं रिपुक्षयम्‌ । 


______ पेश्वयं सौस्यमुर सौख्यमतुलमक चन्द्रगते यदि ॥ ६४॥ 








१. "फलं चन्द्रगतस्यान्त वायां शछ्िजस्य हि" पाठान्तरम्‌ । 
२. निदितम्‌ । 


४२०५ भानसाभरी 








अन्द्रमा की महाक्शामें सूयं का अन्तर हो तो जातक जन्मजात प्रभाषं शाली 
भौर सुशी होता है। व्याधयो का नाक ( भारोग्य प्राप्ति); शत्रुम कामन, 
धन-सम्पत्ति एवं अतुलनीय भुख क प्राप्ति होती है ।। ६४ ॥ 

मङ्गलमदादशा-अन्तदशा ए्र- 
मदहादसा कल 

शस्त्राभिधातो नृपतेर पीडा चौर्याभ्निरोगाश्च घनस्य हानिः । 

कार्याभिषातश्च नरस्य देष्यं भवेह्ठायां धदणीसुतस्य ।। ६५॥ 

मंगल की महादक्षामें क्षस्त्रसे घात ( बोट), राजकीय पीडा, चोर गग्नि 
भौर रोग से धन हानि, एवं कायो कानाश्ष होता है, तथा मनुष्यदद्रिहो 


जाता है।। ६५॥। 
भौमान्तर फल~ 


कौरयां शत्र विमर्दश्च विग्रहो बन्ुमिः सह्‌ । 
शक्तपित्तकृता पडा षपरस्त्रीस गमो भवेत्‌ ॥ ६६ ॥ 
मंगल की महादशामें मंगल का अन्तरो तो रक्तपित्त जन्य पीडा तधा 
परायी स्त्रियो के साथ समाभम होता है। ६६॥ 
राहन्तर फल- 
शस्त्राम्निचौरशत्रुणामापदां च मयं भवेत्‌ । 
अ्थंनाशो खजा पोडा राहौ मङ्गलवतिनि ॥ ६७ ॥ 
मङ्गल की महादशामें राहू का भन्तरहो तौ शस्त्र, अग्नि, चोर, गौर क्त्र 
कृत जापति एवं मय धन हानि तथा रोग ते कष्ट होता है ॥ ६७ ॥ 
गुवन्तर फल- 
पुष्यतोर्थाभिगमनं देवब्राह्यणपुजनम्‌ । 
कजे जोवान्तरे राप्ते नृपात्किश्छिद्धयं मवेत्‌ ।। ६० ॥ 
मंगल की महाददामे शुहका अन्तरदहो तो पृष्यतीयोंकी यात्रा, देवतां 
भौर ब्राह्मणों का पूजन ( सत्कार), तथा राजाकीतरफसे कुच भय ( राजकीय 
उलक्षन ) प्राप्त होता है ॥ ६८ ॥ 
शन्यन्तर फत-- 
उपर्युपरि जायन्ते दुःखाष्यपि शहत्रलः । 
जनक्षयं कुजत्यार्कीयां प्राप्तान्वरदंका यदा ॥ ६९ ॥ 
मंत की महादशामे वनिका अम्तरहोतोएकके ऊपर एक हारो कष्ट 
जातक के ऊपर भते तथा भल्मीय (कारिषारिक }) सदस्यो कामी षय 


हाता ह ।॥ ६९ ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीग्यास्योवेता ४२१ 





बुषाम्तर फल-- 

; \पुञ्चस्वाम्निचौरेभ्यो नाश्य प्राप्नोति मानवं: । 

महाङ्गूरकतवा पीड कुजस्यानुगते बुधे ॥ ७० ॥। 

भौम की महादकामे बुष का जनम्तरहोद) शत्रु, शस्त्र, अगििमौरचोरसते 
मनुध्य का नादा होता है । तथा महान क्रूर व्यक्ति से पीडित होता है॥ ७०॥ 

केत्वन्तर फल- 

मेधाशनिमयं घोरं शस्त्राग्नितत्करंस्तथा । 

क्लेशमाप्नोति भौमस्य केतुरन्तर्गतो यदा ॥ ७१ ॥ 


भौम की महादक्ामे यदिकेतुका अन्तरहो तौ बादल, उपलवुष्टि ( अथवा 
विचत्‌ पात ), शस्त्र, अग्नि एवं चोर से मयंकर मय प्राप्त होता है।। ७१॥। 
शुकान्तर फल- 
हास्त्रकोपमयं व्याधिर्धनक्षयमुपद्रवम्‌ । 
प्रवासगमनानि स्युः कूजस्यान्तगंते सिते ॥ ७२ ॥ 
मंगल की महादशामें शुक्कका अन्तरहोतो जातक को हस्त्रसे, किसी 
( वितेष श्प से राजा) के क्रोषसे भय, व्याधि (रोग), भनक्षय, उपद्व, 
प्रवास तथा यात्रा्ये होती है ७२॥ 
सुर्यान्तिर फल- 
प्रचण्डहासनं याति नृपाद्धयजयान्वितम्‌ । 
क्ुवतेऽनयंयुक्तं च मौमस्थान्तर्गते रकौ ॥ ७२ ॥ 
मंगल की महादशा मेंसूयं काअन्तरदहोतो जातक राजाके कठोर शासन 
मे रहता हुमा घोडा तवा विजय ( अभियान में सफलता) प्रप्त करतादहै। 
स्वतन्त्र होने पर मन्थंकारी कार्यो में लिप्त हो जाता है॥ ७३॥ 
चन्द्रन्तर फल- 
नानावित्तसुहत्सौश्यमुक्तं मुक्तामणिः प्रभोः, 
भौमस्यान्तदशां प्रापतश्वष््रमाः कुरुतं भृशम्‌ ।। ७४॥ 
भौम की महादशा मे बन्द्रमा का अन्तरहो तो जातक विविषप्रकारकी 
धन-सम्पत्ति, एवं मित्रो के सुशसे युक्त होता दहै तथा स्वामी (राजा) से मुक्ता 
मीर मणि प्राप्त करता है॥ ७४॥। 
शाहूमहादशा-अन्तदेशा कल्- 
महादक्षा फएल- 
इुटधा बिहीनमतिविन्नमसर्वकषुष्यं 
विश्वं भयातिविषमापदमृष्युतुल्यम्‌ । 


४२२ मानस्रायरी 


व्याधिवियोगधनहानि विषानि चैवं 
राहोर्दशा सृजति जीवितसंश्चयं च ॥ ७५॥, 
राहु की महादशा में जातक बुद्धि ( विक ) से रहित होकर बुद्धि विन्नम 
( अद्धंविक्षिप्तावस्था ) का अनुभव करता है । समस्त संसार शून्य ( निरर्षक ) 
प्रतीत होता ह । भयद्कुर, कठिन एवं मृ्युनुल्य कष्ट देनेबाली आपदाये सामने 
जाती ह । रोग, स्वजनों से वियोग, धनहानिः, तथा विष प्रयोगसे कष्ट प्राप्त 


होताहै। इस प्रकार राहु की महादक्चा जीवन के प्रति सब्देह उक्पन्न कर 
देती & ॥ ७५ ॥ 





राह्न्तर फल- 
स्वभ्रातृतातमरणं बन्धुनाश्चात्भक इजा । 
अथंनाशो विदे्षस्य गमनं गौरवाल्पता ॥ ७६॥ 
राहु की महादश्चामें राहुका बन्तरदहोतो मपने माई बौर पिताकी मृष्यु, 
बन्धुं ( कुटुभ्बियों ) का रोग द्वारा नाश, षनहानि, विदेश यात्रा तथा सम्मानमें 
कमी ( न्यूनता ) जाती है ॥ ७६॥ 
गुवन्तर फल- 
ग्याधिदुःखपरित्यक्तो देवब्राहमणपूजकः । 
मवत्यर्थयुतश्चात्र॒राहोरन्तगंते गुरौ ॥ ७७ ॥ 
राहु महादशा मे गुहका अन्तर होतो जातक ध्यािं (रोग) भौर दुःखो 
ते मक्त होकर देवता भौर ब्राह्मणों का पजन करनेवाला तथा बनवान हो 
जातवा 8 ॥ ७७ ॥ 
शन्यन्तर फकल- 
रक्तपित्तकृता पोडा कलहः स्वजनं ःखह्‌ । 
देहमगः कृतत्यागो राहोरन्तर्गते शनौ ।। ७८ ॥ 
राहु की महादशामें शनिका अन्तर हो तो रक्त-पितत जन्य पीडा, भाह्मीय 
जनो वै कलह, अंग-मंग ( दुर्घटना या विवाद में किसी अंगमें गम्भीर बोट), तथा 
अपने कार्यं का परिट्याग होता 8 ।॥ ७८ ॥ 


बुधान्तर फन-- 
सुहूद्बश्धुजनायोगं बुद्धिमोगधनागमम्‌ । 
किञ्ित्क्लेुमवाप्नोति स्व मन्विन्तगंते बुधे ॥ ७९ ॥ 
राहु की महादशा मे बुष काभन्तर हो तो, मित्रों एवं बग्धुजरनों का समम, 


बुद्धि ( विकेक ), भख, एवं थन मे वुद्धि होती ह। हत्के सावसा भोड़ा कष्ट 
भी प्राच्ठ होता ह ॥ ७९॥ 


1 क 1 11 क 0-ककानकककण्नि, 


"मनोरमा" हिश्ीभ्याख्योपेता ४२३ 


केत्वन्त र फल- 
ज्वरोग्निरिपुशस्त्रेण मृत्युं प्राप्नोति जातकः । 
शहोर्तर्गते केतौ नास्त्यत्र संशयः क्वचित्‌ ।। ८० ॥ 
राहु की महादशा मेकेतुका भन्तरहोतो जातक की मयु लवर, मग्नि, 
शत्रू अथवा शस्त्र के माधत ते होनी है इसमे सन्देह नहीं ॥ ८० ॥ 
शुक्रान्तर फल- 
पुहतापः कामचिन्ता स्व्रोलामो वित्तसखयः । 
कलहो शन्धवैः सादृधं राहोरन्तर्गते सिते ।। ८१ ॥ 
राहु की महादक्षामे शुक्रका गन्तर हो तौ जातक अपने भित्र चे सन्तप्त, 
कामवासना के प्रति चिन्तित ( लालायित ), स्त्रीलाभयुक्त, धन संग्रह करने वाला 
तथा बन्धुमो से कलह करने वाला होता है।। ८१॥ 


षूर्यन्तिर फन-~ 
शस्त्ररोगमयं घोरमथनाश्छं नुपाद्धयम्‌ । 
अग्िचौरभयं चात्र देत्यस्यान्तर्गते रवौ । ८२ ॥ 
राहु की महादशा के अन्तगेत सूर्यं की अन्तदेशाहोततौ शस्व ओर रोगस 
मवंकर मय, धनहानिः राजा से मय तथा मग्निमौर चोरसि भी भय होता 
है ।। ८२॥ 
चन्द्रान्तर फल-- 
स्त्रीलामं कलहं चेव विततनाकश्चमनिरव तिम्‌ । 
बान्धवः सह संक्लेशो राहोरन्तर्गतः शश्ची ।। ८३॥ 
राह की महाद्ा में चन्द्रमा का अन्तरहो तो स्व्रीलाभ, कलहू, धननाक्ञ, 
अनावक्ष्यक लोभ, तथा बन्धुओंके साथ कलह होता है ।॥ ८३॥ 


भौमान्तर फल~ 
रिपुशस्त्राग्निचौराणां भयमाप्नोति सव॑दा । 
स्वर्भान्धत्तगंते भौमे निश्चितं नात्र संक्षयः! ॥ ८४॥ 
राह की महादशामें मंगल की अन्तदशाहोतो त्रु, भग्न, भौरबोरौँसे 
सदैव भय बना रहता है इसमे सम्देह नहीं । ८४ ॥ 


गुढ्महादशा-अन्तर था इद- 
महादशा फल ~ 


नूपश्रसादं धनधान्यपुत्रकलत्रमन्त्रादिसुरत्नलाभम्‌ । 
निषोगतां शत्रुजयं ब सौख्यं गूरोदंश्षा वाच्छितभातनोति ॥ ८५॥ 


रथ मानस्ामरा 


बृहस्पति की महादक्षाहो तो राजा की हृपा, धन-षान्य, पत्र, ङ्त्री, मण्डी 
मग्बरणा ( सलाह ), तथा उच्चकोटि के रत्नों की प्राप्ति, भारोग्यवृद्धि, शभु) 
पर विजय, सुश्च तथा भभीष्ट कार्यो की सिद्धि होती है॥ ८५॥ 


गूवेन्तर फल-- 
जेव्यान्तरे सुतोत्प्तिर्षनधर्माषं गौरवम्‌ । 
हैम्नश्चाम्बरलामश्च वणभ्यो ह्यतिसखयः ॥ ८६ ॥ 
बृहस्पति की महादशा मे बृहस्पति का ही अन्तर होतो पुत्र की उष्पत्ति, 
धमं बौर अथं (धन) की वि, स्वणं भौर वस्त्रोका लाभ, वणो ( अक्षरो) 
दारा मिक लाभ ( अर्थात्‌ लेखन क्रिया से धनलाभ) होताहि।॥ ८६॥ 
शम्यन्तर फल-~ 
वेश्यास्त्रीमचपानेश्च भूषितः सुशर्वजितः । 
विलुप्तधमंवस्वोऽपसौ सौरिर्गृवनुगो यदा ॥ ९७ ॥ 
गुद की महादशा में शनि की अन्तदश्ाहो तोबेश्या स्त्री एवं सुरापाने 
लिप्त, सुख से रहित, भर्माजरण का परिष्याग कर वस्त्रे भी रहितो 
जाता बै ।॥ ८७ ॥ 
बुषान्तर फल- 
स्वस्थो मिश्रयुतो भोगो गुुदेवाग्नि भक्तिङकत्‌ । 
सुकृताचरणे शक्तो जीवस्यान्तर्गते बुधे । ** ॥ 
गुर की महादद्यामे बुष काअन्तरहोतो जातक शारीर से स्वस्य, मित्रोंषे 
धु, भुख-भोग करने वाला, देवता ओौर अग्निके प्रति शद्धा रञ्जने वाला तबा 
सत्कायं में ( समं ) निरत होता ॥ ८८ ॥ 


केत्वन्तर फल-- 
पुत्रबन्धुक्षतो योगो युक्तः स्वस्यानवजितः । 
परिश्मते स्वंत्र॒केवावन्तर्गते गुरोः ।॥ ८९ ॥ 
गुह की महादयामेकेतुकामन्तरहोतो एत्र एवं बन्धु क्षत (नोट मादि) 
धुक्त, जपने स्वान (नीजी गृह) से रहित, सर्वंत्र ज्नमण करने बाला होता हि ।।५८९॥ 


शुकाम्तर फल- 
कलहं शतरवंरं च वित्तमानसनिवु तिः। 
स्त्रोभ्यो विधातमाप्नोति जोवस्यान्तगते सिते ।। ९० ॥ 
गुर की महादाम शुक्रका भन्तरहोतो कलह ( विवाव), शत्रु वैर, 
धन के प्रति उदासीनता, तथा स्तर्यो तै भाषात (या अपमान) काय 


होता है॥ ६० ॥। 


'जनोर ना" हिन्वीग्या श्योपेता ५२५ 





पूर्यान्तर फल-- 
शत्रुणां विजयं सौध्यं नृपपूजा च लभ्यते । 
प्रचष्डसाहसाङ्गे श्न जीवस्यान्तर्गति रवौ ।! ९१ ॥ 
गुद की महादशा में पूयं की अन्तदशा होतो शत्रुर प्र विजय, सुख, 
राजनं ते सम्मान, उग्र एवं साहसिक कायां को करने वाला होता है॥ ९१॥ 
वन््राम्तर कन-- 
बहुरत्रीपरिमोगश्न रिपुर्मोगवि्वजितः। 
नृपतुल्यो भवेन्नित्यं चन्द्रे गुवंम्तरं गते । ६२ ॥ 
गुरु की महादशा मे चन्द्रमा का अम्तरहोतो जातक राजा के समान होकर 
बहुत सी स्यो के साथ सुष्कोपमोग करता है परन्तु उसके शत्र सुख-मोग से रहित 


होते है ॥ ९२॥ 
भौमन्तिर कल- 


तीक्ष्णशौ्यंिपुं जित्वा घनं कोत्तिं लभेन्नरः । 
सुखसौमाग्यमायोग्यं गुरोरन्तगंते कुजे ॥ ९६३ ॥ 
बृहस्पति की महादक्षामे भौमका अन्तरहोतौ जातक उग्र मौर ( प्रबल 
प्रतापी ), सत्ररमो को जीतकर धन गौर कोति को प्राप्त करता है तथा सुख 


सौभाग्य मौर आरोग्य सते युक्त होता है।॥ ६३॥ 
राह्न्तर फल 
बन्धुद्धेग रुजश्च॑व कलहं मरणाद्भयम्‌ । 
स्वस्थानध्युतिमाप्नोति राहावन्तगते गुरोः ॥ ९४॥ 
राह का भनम्तर गुरुकी महदशामेहोतो बन्धुर्ओं को उद्वेग, रोग, कलह 
मृश्यु का भय तथा स्वान से अलगाव ( पद्यत, पद हानि) होता है ॥ ९४॥ 


शनिमहादशा-अन्तदे शा फल 
महादक्षा फल-- 
मिध्यापवोदवधबन्धनिराश्चयं च 
मित्राविवेरषनधान्यकलत्रश्ोकम्‌ । 
भाशानिराशकृतनिष्फलतर्वश्‌र्य 
कूप च्छिनंश्नरदशा सततं नराणाम्‌ ॥ ६५ ॥ 
शति की महादशा मनुष्यों को सदैव कृठा अपवाद ( अपयश्च ), भु्वुमय, 
बन्न ( काराधार ), भभय-हीनता (नौकरी से निलम्बन, अथवा बेसहारा ), 
भिर्भो ते शभुता स्वी पुर भौर धन ते सस्बन्बित शोक, प्रत्या शित कायो में निरा 


कवा अह़लताभों हे ॐ।रभ स्त बुन्यता ( अभाग ) ही प्रदान करती १ ॥ ९६॥ 


॥ ~ ~ ~ ----~ -न न ~ 


४२६ मानसाषरी 





णी 2 प 





शन्यन्तर फल- 
शनेश्ररादेहपीडा पुत्रदारेश्च विग्रहः: 
स्त्रोकृते बुद्धिनाशश्च विदेशगमनं भवत्‌ ।। ९६ ॥ 
शनि की महादशामें शनिका ही षन्तरहो तोशहारीरिक पीडा, पत्रभौर 
स्त्रोमे विरोधै,स्त्रीके कारण (स्त्रीके ग्यवहारसे ) डि का नाक, तथा विदेश 
यात्रा होती है ॥ ६६ ॥ 
बुघान्तर कल- 
सौभाग्य सौख्यवविजयं बोधसंस्थानमानतः । 
सुहद्वि्तप्रदं सौख्यं सौरस्यान्तगंते बुधे ।। ६७ ॥। 
शनि की महादशामे बुध का अन्तरहो तौ ज्ञान एवं संस्वार्गोहारा प्रद 
सम्मान से सौभाग्य, सुक, विजय तथा धन देने वाते मित्रों एवं सुल की प्राप्ति 
हाती है ॥ ९७ ॥ 
केह्वन्त्रर फल- 
र्तपित्तकृता पौडा चित्तवित्तानुसंग्रहः । 
दुःस्वप्नं बन्धनं चव केतावन्तगंते शनेः ।। ९८ ॥ 
शनि की महादशा में केतु का अन्तर हो तौ रक्तपित्त अन्य पीडा मनोवुकल 
धन का संग्रह, बुस्वप्न दहन तथा बन्धन की प्राप्ति होती है ।॥ ९८ ॥ 
शुक्रान्तर फल 
सुहृदबन्धुवशोयुक्तं 'भार्याविक्छजयान्वितम्‌ । 
सुखसौभाग्यवात्सल्यं सौरस्यान्तगति सिते ॥ ९९ ॥ 
हनि की महादशा में शुक्र का अन्तर हो तो मित्र-बन्धुओं के वशी मूत पनी, 
घन, विजय, धुख, सौमाग्य मौर स्नेह से युक्त होता है ।॥ ९९ ॥ 
सूर्थन्तिर फल- 
पुत्रदारधनैर्नाद्चं करोति समयं महत्‌ । 
सौरस्याण्तगते भानौ जीवितस्याऽपि संक्यः ।। १०० ॥। 
शनि की महादशा मे षयं काभन्तरहो तो जातक स्व्रीन्युत्र भौर धन के 
बी मत्यधिक समय नष्ट करताहै ( अर्थात्‌ नका भपव्ययभौर स्तरी-वुत्र के 
साथ मनो रश्जन में समय नष्ट करता टै) कजी-कभी जीवन का भय ( प्राण 


संकट ) भी उत्प हो जाताहै। १००॥ 
बन्द्रान्तर फल - 


मरणं शवीवियोगह्न बन्धुष्रगोऽपुलं ्युणु । 
कृ दमाश्वयो रोगं विधाव्दगति शते! ॥ १०१ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दडीष्वास्योपेता ४२७ 





शनि की महादाम बन्मा का अन्तरह) तो मृत्यु, ( गृष्यु दुष्य कष्ट), 
स्त्री नियोग, बन्धूओं से उद्ेम ( विवाद मदि), भुल क। भभाव, क्रोध की वृद्धि 
तथा वायुजन्य विविष रोगोते कष्टहोताहै) १०१॥ 
भौमान्तर कल- 
वेदान्न शं तथा दुखं कुरुते धुदिज् शताम्‌ । 
बष्तदशायां सौरस्य कौज्यां शणमहद्धयम्‌ ।। १०२ ॥ 
दानि महादशामें ममका अन्तरहोतौ स्थान परित्याग दुःख, ( व्याधिर्यो 
या उलक्षनो से ) बुद्धि का नाश तथा प्रार्णो का संकट उस्पन्न होता दहै ।। १०२॥ 


राह्वन्तर कल~ 
श्वभ्रावाताङ्गमेदश्च ज्वरातीषारपीडनम्‌ । 
शत्र मङ्गोऽ्ंनाशश्च राहावन्तगंते शनेः ।। १०२ ॥ 
शनि की महादक्षा में राहुका अन्तरहो तो षम रोग, मङ्ख मे भेद 
( लकवा भादि रोग ) भ्यर-अतिसार, आदि रोर्गोसे कष्ट, शत्रर्गोते पराजय 
तथा धन हानि होती है॥ १०३॥ 
गुवम्तर फल- 
द्विजदेवा्धनं सौस्यं बहुमृत्यगुणंर्यतम्‌ 
स्थानप्रापि गुरः कूर्यास्सौर्स्यान्तर्गतो यदि ।। १०४॥ 
शनि की महादगा मे गुरु की अन्तर्दशाहो तो ब्राह्मण ओौर देवताओं के पूजन 
मे सुचि, सुख, बहुत से नौकरों इवं गुणों से युक्त तथा नृतन स्थान की प्राप्ति 
होती है ॥ १०४ ॥। 


बु रमहादणा-अन्वदथा ष्ल- 
महा्शा फल- 
।दन्या क्गुनावद्नपकजषट् पदस्य 


लोलाबिलसवद्मोगसमष्वितघ्य । 
नानाप्रकारविभवागमकोशवदि 
कषिप्रं पुनर्बुषदकशाभिमतार्षसिदिम्‌ ॥ १०५, 
बुव की महादशा मे जातक परम सुम्दरी स्वि्यो के भुल कमलके साष भ्रमर 
की तरह लीला विलास हारा उत्तम सुख-भोब से बुक्तहोताहि तवा बिविष 
रकार की सम्पति का लाभ, भन बुद्धि, एवं शीघ्र ही मनोभिलवित कायो 
मरे पि प्राष्ठ करता १ ॥ १०६५॥ 


४रग मनसागशरी 





जो 
न त प र त त मि न नि स म = क त = कन = क भा-क ० 





बुषान्त र फल-- 
बुदिधमं समायोगो मित्रबश्ुतमागमः। 
प्रापिज्ञानस्य विपुला दवेहपोडप्रकोपनम्‌ । १०६ ॥ 
बुष की महादक्षामे बुषकाही अन्तरहोतो बुद्धि धार्मिक चिन्तन मे संलग्न, 
मित्र बन्धुभों का समागम, विशदज्ञन की प्राप्ति, शारीरिक कष्ट तथा धातुम 
{ वात-पित्त-कफ ) का प्रकोप होता है ॥ १०६ ॥ 
केत्वन्तर फल-- 
दुःखशोकाकुलं नित्यं शरोर क्लेशसंयुतम्‌ । 
भवत्यष्तदंक्चायां हि केतोर्बघगतस्य च ।। १०७ ॥ 
बुष की महादश्ामें केतुकाअन्तरहो तो जातक निरन्तर इख नौर शोक 
से व्याकुल, तथा शारीरिक कष्ट से युक्त होता है ॥ १०७ ॥ 
शुक्रान्तर फल-- 
गुखवस्त्राणि लभ्यन्ते बनं धमंप्रियं तथा । 
वस्त्रालंकरणर्युक्तं बुषस्यान्तगंते सिते ॥ १०९ ॥ 
बुध को महादशा मे शुक का अम्तरहोतो उश्च कोटिके वस्त्रौ की प्राप्ति, 
धन एवं धार्मिक प्रवति की वृद्धि, तथा विविष वस्त्र एवं माभुषभोंते युक्त 
होता है ॥ १०८ ॥ 
सूर्याम्तर फल- 
स्वर्णादिकं भवेत्रप्तं यज्घः प्राप्नोति सवंत: । 
जायास्वस्त्रीमवोद्रेगो बुधस्यान्तगंते रवौ ॥ १०६॥ 
बुष की महादक्षामे सूयंका मन्तरहो तोस्वणं आदि भूल्यवान वस्तुर्मोकी 
प्राप्ति, स्त्र यच्च लाम, स्त्री तथा पनी पक्नी हारा कमे की प्राप्ति 
शोती है । १०६ ॥ 
चन्द्राम्तर फल- 
कुष्ठगण्डवि का रश्च कषयरोगमगन्दरंः । 
गजादिवाहनंमीतिर्षषस्यान्तर्गते विधौ ॥ ११० ॥ 
बुषकी महादशा में चन्रमा का अन्तर हो तो, कुष्ठ, गण्डमाला ( तापयण्ड ) 
सम्बन्धी विकार, क्षय (टी. बी. ), मभन्दर रोग एवं हाषी भादि बाहरमे भय 


होता है ॥ ११० ॥ 
भीमानम्तर फल-~- 


लिशोगलगतं रोगंर्नानाष्लेशविमर्वनम्‌ । 
चौरमङ्ग भयं चाय बुजस्यान्तर्णते कुजे ॥ १११॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योवैता ४२९ 


बुष की महादशा भौमका अन्तर होतो सिर भौर गते के रोगो 
विविध प्रकारके कष्ट हवं शारीरिक श्ीणता तथा चोरय ये विनो का भय 
होता 8) १११॥ 
राह्खम्तर कल- 
अकस्माच्छत्र निर्थातमकस्मादर्थंनाष्चनम्‌ । 
सम्पकादिग्निदाहं अ शहोरन्तगंते बुधे ११२॥ 


बुष की महादशा मे राहु का अन्तर हो तो अकस्मात्‌ शषत्रुमों का आक्रमण, 
आकस्मिक धनहानि तथा अष्नि के सम्पकं से अग्निदाह ( बृहभादि आसे जल 
जाने) का भय होता है) ११२॥ 
गुवम्तर कल-- 
भ्याधिष्चतरु मयेर्वक्तो श्रहिष्ठो नुपवसल्लभः । 
पूतात्मा धामिकण्वव बुधस्यान्तगते गुरौ ॥। ११३ ॥ 
बुध की महादशा में शुरु कान्तरहोतो रोग गौरकशषत्रर्गोके भयते युक्तः 
ब्रह्मज्ञान मे लीन, राजा का प्रियपात्र, पवित्राप्मा तथा धामिक होता है। ११३॥ 


शन्यन्त र फल - 


धर्मथिमोगो गम्भोरः क्लीबो मित्रा्थलुब्धकः । 
सरवंकायष्वनुत्ताही बुषे सौरो यदानुगः ॥ ११४॥ 


बुष की महादकशामे शनि का अन्तरहोतो षम भौर मवं का उपभोगकरने 
वाला, गम्भीर, नपुसकं, मित्रों के धन के प्रति लोभ करने वाला तथा सभी कायो 
मे उस्साह न दिलाने वाघा ( भालसी ) होता है ।॥ ११४॥ 


केतुमहादशा-अन्तदशारुनन- 
महादशा कल~ 
विषादकरी वनधान्यहेर््रो सर्वापदां मूलमन्ंदात्री । 
भयङ्करी शोगविपद्िधाश्री केतोदंशा स्यात्किल जीवहृल्नी ॥ ११५ ॥ 


केतु महादशा अनेक प्रकारके कष्ट, धन-धाभ्यका नाष, समी प्रकारक 
भापदा्ो की भूल, अनं करने वाली, भयङ्कर, रोग एवं विपलि को देने बाली 
तथा जीव ( भराणी ) का नाश करमे वाली होती है। ११५॥ 


केस्वन्तर फल- 
केतौ कल्यापु्रलाक्षभनरोगाम्निविग्रहाः । 
भयं शजकुलादुवुहस्ीमि) शह कलिभंवेत्‌ ॥ ११६ ॥ 


{ मानामरी 





केतु की महाददा मे केठु का बन्तर होतो कन्या, अर पूज का नाकच, रोग, 
अग्नि, विरोध, एवं राजक्ुल ते भय तथा दृष्टस्त्रीते कलह होता है ॥ ११६ ॥ 
शुक्रान्तर फल-- 
केतोरन्तगंते शुक्र प्रियया चं कलिभंवेत्‌ । 
अग्निदाहं ज्वरं तीव्र शीत्याग कन्यकाः ॥ ११७ ॥ 
केतु की महादशामेंकेतुका अन्तरहोतो अपनी स्त्री ( अथवा प्रेमिका) से 
कलह, अग्निदाह भयंकर ज्वर, स्त्रीका परिल्याम तथा कन्या की उत्पत्ति 


डोती है ॥ ११७ ॥ 
सूर्यान्तर फल- 


केतोरन्तगते सुयं राजभङ्जोऽरिविग्रहः । 
अम्निदाहो ज्वरस्तोव्रो विदेशगमनं भवेत्‌ ॥ ११८ ॥ 
केतु की महादक्ामें सुर्यका अन्तरहोतौ राजभमङ्ग, ( राश्यका नाद); 
शत्रुगों से विरोध, अग्निदाह, तीव्र ज्वर, तथा विदेश यात्रा होती है । ११८॥ 


चन्द्रान्तर फल- 
म्थलाभोऽ्ंहानिश्च सुखं दुःखं तथेव च । 
स्त्रोलाभो धनहानिश्च केतोरन्तगतं विधौ । ११९ ॥ 
केतु की महादलामे चन््रमाका अन्तरहोतो षनलामभ, भौर धन हानि, 
सुख गौर दुख, स्त्रौलाभ तथा धन-हानि होती है ॥ ११९॥ 
मौमान्तर फल- 
गोत्रजः सह॒ संवादश्चौराणां च भयं वथा । 
शरीरश्पोडां प्राप्नोति केतोरन्तगते कुजे ॥ १२० ॥। 
केतु की महादशा मे म्ल का अम्तरहो तो भषने कुदुम्बिर्यो के साय कलह, 
चोरों का भय तथा शारीरिक पीडाप्राप्त होती है।॥ १२०॥ 
राह्वम्तर फल- 
चौरं शघुमिर्वापि देहमङ्गः प्रजायते । 
दूने, सह संवादो राहु केवोयंदानुयः ॥ १२१ ॥ 
केतु कौ महादक्षामें राहृका जन्तरहोतो रोर अथवा शत्रु ह्वारा क्षरीर 
भङ्गं ( हाथन्पेर भादि भंगोमे भाषत), तथा दुष्टोके साथ बाद विवाद 
होता है ।॥ १२१॥ 
गुवन्तर फल 
दुर्जनैः सह पयोगो राजमान्यैः सहाऽथवां । 
मूलाभो अन्म पुत्रस्य केतोरन्तर्गते गुही ॥ १२२॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याश्योपेता ४३१ 





केतु की महादाम शुरका अम्तरहोतो दुर्जनो ( दुष्ट लोगों) के साय 
मित्रता अववा सम्मानित राजपुरवौ के साय मित्रता होती ह) भूमिलाम तवा 
पुत्र की उश्पक्ति होती है ॥ १२२ ॥ 


दीम्यम्तर फल्‌ 
वातपित्तमवा पीडा स्वजनः सह विग्रहः । 
विदेश्चगमनं चापि केतोरन्तगतें शनौ ।॥ १२३॥ 


केतु की महादशा मे श्नि कागम्तरहोतौ वायु एवं पित्त जन्य विकार्यो 
पीडा, आाद्मीय जनों ते विद्रोह तथा विदेक्ष यात्रा हाती दहै ।॥ १२३॥ 


बुषान्तर फल~- 
सुहूद्बण्धुममायोगो बुद्धिवृद्धिषनागमः । 
न किञ्ित्क्लेश्चमाप्नोति केतोरन्तर्गते बे । १२४ ॥ 
केतु की महादलामे बुधका अम्तरहोतो मित्र एवं बन्धुमो का समागम, 
बुद्धि को वृद्धि ( विस्तार ) एवं धनागम ( षन-लाभ) तथा किसी प्रकारका 
थोडा भी कष्ट नहीं होता है ।॥ १२४॥ 


धकमहादशा-अन्तदंशा एल्न- 


महादशा फन- 
मित्रोपचारमतुलं प्रमदाविलासं 
श्वेतातपत्रनुपपुजितदेश्चलाभम्‌ । 
हुस्व्यस्वयानपरिपूणं मनोरथश्च 
णोक्रो दथा सृजति निश्रक्षराज्यलक्ष्मीम्‌ ॥ १२५ ॥ 
शुक्र को महादशा में मित्रों का अतुलनीय सदृव्यवहार, स्त्रियो के साथ 
जानन्द, ( क्रीडा सुख), श्वेत वणे कात्र, राजाओं से सम्मान, देश ( राज्य) 
की प्राप्ति, हावी, घोड़ा, बाहून की प्राप्ति ( सुख ); भभिलाषार्मो की पूर्ति, तथा 
अस राज्य लक्ष्मी की प्राप्ति होती है॥ १२५॥ 
स्तर फल- 
छौ स्त्रोघङ्गमो लामो धमंकामा्थंसंयुतः । 
कौशल्यं च महाकोतिनिधिलाभश्च जायते ॥ १२६ ॥ 


शुक की महादशामे शुकृकाही नम्बर होतो स्त्री सहवास, लाम, धमं-काम 
भौर अं की प्राप्ि, क्ु्तलता ( कुयं ), महान यश तथा अफार षन ( जान) 
की प्राप्ति होती है।॥ १२६॥ 


४३९ मामेसागरी 


गष्णोदरये 6 नवित 


उपहासो भवेन्नूनं शुकृस्यान्तगंते दकौ ।। १२७ ॥। 
शुक की महादशा मे पूर्य का अन्तर हो तो मण्ड ( तापभष्ड ), उदर विकार, 
क्षय ( टी० बी ) आदि रोगोसे कष्ट, राजकीय बन्धन ( बेलयात्रा) तवा 


छल प्रपल्व के ह्वारा निदषय ही उपहास होत्ता है ।॥ १२७ ॥ 
चन्द्राम्तर फल- 


भखास्थिजभिरोरोगैः कामलाचामयदश्चाम्‌ । 
शरोरे क्लेशमाप्नोति शुक्रस्यान्तगते विषौ ।। १२८ ॥ 
शुक की महादरामे चन्द्रमा का अन्तरहोतो नाखून, हृदी एवंशिरसे 
उत्पन्न रोगों तथा कामला ( पीलिया ) आदि विवि रोर्गोते क्षरीरको कष्ट 


होता है ॥ १२८ ॥ 
भौमान्तर फल- 


वातपि्तक्षयो रोगो मदोत्साहो न ंश्चयः । 
भयः स्याद्‌ भूमिलाभश्च शुक्रस्यान्तगंते कुजे † १२९ ॥ 
शुक्र की महादशा मे मंगल का जन्तरहो तो वाधु-पिक्त विकार एवंक्षय 
(टी° बी° ) रोय, भिमान, उत्साहवृद्धि तथा बार-बार भूमि लाम होता है 
इसमे सम्दैह नहीं ।। १२६ ॥। 





राह्वन्तर फल- 
बत्त्यजंः सह संक्लेथो बण्यद्रेगः सुदृदषः । 
धकस्माद्भयमाप्नोति राहौ शुक्रदशा गते ॥ १३० ॥ 
राह का भन्तर शुक्र की महादक्षामेहो तौ अन्त्यज ( निम्न जातियौ) ते 
क्लेष प्राप्ति, बन्धुमो को उद्वेग ( घबराहट, परेशानी )› भित्र का बध ( हृत्या ); 
एवं भाकङ्मिक भय को प्राप्ति होती है। १३० ॥ 
धूर्वन्तर फल 
धान्यरस्नसमृद्धि च भूमिपुत्रसुखावहम्‌ । 
धियं प्रभूत्वमाप्नोति जीवे शुक्रदा गते । १३१ ॥ 
क की महादशामे गुड का अम्तरहो तो वननधान्य, रनौ की बहुलता 
® सम्पल्ञ, भूमिः भौर धुरो की प्राप्ति, तेज (प्रताप ) भौर अविकार की 


प्राप्ति होती 8 ॥ १११ ॥ 
क्षम्यन्तर कन- 


बुटस्त्रीभिः पह हीडा पृत्रलाच्चो विषल्पदय्‌ । 
शवुनाद्ः सुखगाप्तिः सौरे शुकृदश्चां एते ॥ १३९॥ 


"मनोरमा" हिन्दीय्याश्योवेता ४३३ 


[1 कककाकयनककाचकथकत्यककककाकाकक 








शुक की महादशामे शनिका अन्तर आने पर वृद्ध स्िर्योके साथ कोडा 
( विलास सुक्ल ); पृत्र का नाकच, विपत्तियं की प्राप्ति, शतरर्मो का शमन, तथा सुख 
की प्राप्ति होती है ॥ १३२॥ 
बुणाम्तर फल-- 
घनागमश्च सौख्यं ब मनोश्ययल्ःशियः । 
नृपवस्लमतां शौय शुक्ृस्यान्तर्गते बुधे ¦ १३३ ॥, 


शुक्र की महादशा मे बुष का अन्तर होतो षन लाभ, सुख, मनोरथ ( मभि. 
लाषार्बो ) की पूति, यक भौर धन (कान्ति) की प्राप्ति, राजाकास्नेह मौर 
विश्वास प्राप्त होता है।। १३३॥ 
केत्वन्तर कन - 
कलहो बान्धवे: साद्धं रिपुनाशोऽरिविग्रहः। 
चलाचलं समग्रं अ केतावन्तगंते भृगोः ।। १३४ ॥ 
शुक्र की महादकशामं केतुकाजन्तरहो तो माई-बन्धुओोंके साव कलह 


शत्रुओं का नाश, शत्रुर्भो म आपसी द्वेष, तथा चल-मचल सम्पत्तियों मं मी भ्यवधान 
उपस्थित होता है ।। १३४ ॥ 


ब्टोचरो दशा-अन्तद्‌शा एल 
सूयं महादशा फल- 
रवेदं्लायामतितोश्णमोज्यं प्राप्नोति भानोपबयं महान्तम्‌ । 
धनानि चामोकरसम्प्रशान्तं संजायते बन्धुमुखं शुमं च । १३५॥ 
अष्टोत्तरी मान से यदिसूयं की महादशा हो तो, अस्यन्न तीक्ष्न ( तिक्त) 
मोजन मे दकि, सम्मान मे विकिष वद्धि, धन लाम, सुवणं (आदिके संग्रह) से 
गम्भीर, बन्धुनो के सुश्च एवं शुभकायां ते युक्त जातक होता है । १३५॥ 
सुषन्तिर फल- 
बन्धूनां स्वान्तरे मानोः बन्धूनां मरणं भवेत्‌ । 
प्रत्यन्तरे चान्तरादौ सर्वमेवं फलं वदेत्‌ ।। १३६ ॥ 
सूये की महादशा मे सूयं का मन्तर होतो भाष्योंके सम्मानमें वद्धि तषा 
चार्यो की मृत्यु भी होती है । इस प्रकार का फल बन्तर एवं प्रह्यन्तर दोनों में 
होता है ॥ १३६ ॥ 
अन्द्राम्तर फल- 
शतरुनाष्ठोऽ्वंलामन्न चिन्तानाशः सुखागमः । 
पूर्यस्यान्तगेते न्प्र भ्याधिनाद्यश्च जायते ॥ १३७ ॥ 
२८ माणर्तार 


४३२४ जानप्तबिरी 


ष्व ग्यनि 





शुयं की भष्टो्तरी महादस्ामें बश्रमा का अन्तर होतो शतुर्भो, का नाश, 
धन लाभ, चिन्तार्नो की समाप्ति, सुल मे बुद्धि, तवा भ्याचियों का नाण 


होता है ।। १३७ ॥ 
भौीमान्तर कल- 


ध्रवालमुक्तहिमादिधनं श्राप्नोति भषतेः । 
रवेरन्तगंते भौमे विभूतिः सुखमदभुतम्‌ ।॥ १३०५ ॥ 
सूयं की महादल्षामें मंगल का अन्तरहोतो प्रवाल (मंषा ) मोती, स्वर्ण, 
आदि षनोंकी प्राप्ति किसी राजा के सम्पकंसे होती है तथा सम्पति भौर मवुभृत 


सुख का लाभमभी होतादहै। १३८ ॥ 
बुषान्तर फल- 


ग्रहवातब्धाधिहामिद्रम्यनाश्चः कुलक्षयः । 
अविश्वासी भवेल्लोके रवेन्तरगंते बुषे ॥। १२३९ ॥ 
सूं की महादक्षामें बुध का अन्तर होतो ग्रह एवं वाब अन्य भ्याषियोँते 
कष्ट, धनहानि, कुलक्षय (पारिवारिक सदस्यों का नाश), तथा लोक मे अविश्वाकषी 
व्यक्ति होता है ( अर्थात्‌ भूठा ओर अपमानित होता ) है ॥ १३९१ ॥ 
शन्यन्तर फल-- 
महादुःखानि जायन्ते पुत्रमित्रविनाशनम्‌ । 
रवेरन्तगंते मन्दे शत्रुतश्च भयं भवेत्‌ ।। १४० ।। 
सूयं की महादशा में शनि का अन्तरहो तो मयद्कुर दुरो कीप्रप्ति, पृत्र 
भौर मित्रोंका विनाक्ष, तथा शत्रुओं से भय उस्पन्न होता है ॥ १४० ॥ 
गुवन्तर फल- 
विपद्रोगविनाशश्च लक्मोमेषे पुखानि च। 
दवेरन्तगंते ओवे श्त्र्वमङ्गलभुल्ववः ॥ १४१ ॥ 
सूर्यं की ( अष्टोत्तरी ) महादक्षा में गुद का अन्तरहो तो विपत्ति एवंरोगका 
विनाश्च, धन, बुद्धि ( विवेक ) गौर सृष्चकी प्राप्ति, क्भुभोंके लिए अमङ्गल 
(शत्रर्बो की ष्ानि), तथा अपने मृह में रउक्सव होता रहता है ॥ १४१ ॥ 
राह्न्तर फल-- 
शोको भो महाभोतिविपत्तिरशुभं नृणाम्‌ । 
रवेन्तगंते राहौ सर्वत्रामङ्गलक्गिया । १४२ ॥ 
सूर्यं की महादशामे राहुका अम्तरहो तो शोक, मङ्गं ( कर्यंया राज्यका 
नाश्च ), महानभय, विपि, तथा सर्वत्र अमङ्गल कयौ द्वार मनुभ्य के लिपु भशुभ 


समय होता है ॥ १४२ ॥ 


"ममौ रमाः हिन्दीग्यास्योषेता ४११५ 


शुक्रान्तर कल- 
गात्रपीडमय त्रावो उवरातोसारशलके । 
दष्यादिहानि प्राप्नोति रवेरन्तग्तिं सिते ।। १४३ ॥ 


शूं की महादल्ता में शुक्र क! अन्तरहो तो शरीरमें पीडा, भय, भ्बर, 
अतिसार एवं शृल ( उदरपीडा ) से कष्ट तथा द्रष्य (धन) जादि की हानि 
होती ह । १४३ ॥ 


अह्ोसरी चन्‌ महद शा-अन्तदशा फल- 


महादभा फन-- 
नित्यं विभूषामणिवस्व्रलाममं मिष्ठास्षपानं प्रमदानुरागम्‌ । 
चारी दशा साधुफलं नरणां ददाति पूजां नृपतेः सदव ॥ १४४॥। 


वस्रमा की ( गष्टोततरी ) महादहा में मनुष्य को निरन्तर वस्व, मनि, भाम्‌- 
वणका लाम, मधुर भोजन, स्त्रियों ते अनुराग ( प्रीति ), एवं अन्य शुम फलो की 
प्राप्ति तथा राजासे निरन्तर सम्मान भिलताहै।॥ १४४॥ 


चन्द्रान्तर फल 
चष्दरे स्वान्तगते सौरुधं सरवंत्र विजयो भवेत्‌ । 
स्वपक्षवंरं कन्यानां जन्म॒ निद्रारति्भंवेत्‌ ॥ १४५ ॥ 


चश्मा की महादशामे चन्द्रमाका ही अनम्तरहोतो सुख, सर्वत्र विजय 


( सफलता ); भपने पक्ष के सदस्यो से विरोध, कन्या की प्राप्तितवा निद्वामेप्रौति 
( भषिक सोने की अ्धिलाषा ) होती है १४५ ॥ 


भीमान्सर कल- 
शस्त्र रोगभयर्यक्तो वद्धिषौरधनक्षयः । 
विधोरन्तगते भौमे मनोदुःखं भवेन्नृणाम्‌ ।॥ १४६ ॥ 
अन्त्रमा की महादक्ामे भौम का अन्तरहो तो मनुष्य को शस्त्रो एवं रोगोसे 
मय, भग्नि गौर भोरोंसे धन-~नाश, तथ मन में मधिक दुगल ( मानसिक केशा) 
होता है ॥ १४६ ।॥ 
बुषान्तर फल-- 
स्व॑त्र लभते लाभं गजास्वंगेधिनादिकम्‌ । 
जायते कष्यकालामश्नन्रस्यान्तगते बुधे ।॥ १४७ ॥ 


चमामा की महादाम इुषका अन्तरहोतो स्वेन हावी, चोडा, गौ, बद 
नका लाभतया कन्या की उक्ति होतीहै॥ १४७॥ 


४६६ मानसामरी 





शन्यन्तर फल- 
बश्धुवंरं स्थानहानिः शोको वा कलहो बिपत्‌ । 
विधोरन्तगते मन्दे सन्दिग्धो मवति धुवम्‌ ।॥ १४० ॥ 
अनामा की महादशामें शनिका अन्तरहोतो भाद््योसे बैर, स्थानहानि 
(पद व्याग ), कषोक अथवा कलह एवं विपर्सिर्यां प्राप्त होती है तथा पग-पषर परर 
सन्देह होता है । १४८ ॥ 
गुवन्तर फल- 
धर्मवित्तसुखानि स्युवंसनाभरणादिकम्‌ । 
विजयो शजसम्मानो विधोरन्तगते गुरौ ॥ १४६ ॥ 
चन्द्रमा की महादशा में गुरु का अन्तर होतो धर्मं, घन गौर सुख, वस्त्र, 
आभूषण आदि की प्राप्ति, विजय ( सफलता ) तथा राजकीय सम्मान प्राप्त 
होता है ॥ १४६ ॥ 
राहन्त फल- 
बन्धुनाशः स्थानहानिः शत्रोबहुमयं तथा । 
न कृत्रापि सुखं राहौ विघोरन्तगंते सति ॥ १५० ॥ 
चन्द्रमा की महादशामें राहुकाबन्तरहोतो म।हयों का नाश, स्थानहानि 
( पदश्युति ), शत्रुओं से अधिक भय, तथा कहीं भी सुक्ल की प्राप्ति नहीं 
होती ॥ १५० ॥ 
शुक्रान्तर फल- 
क्याजन्म सुखप्राप्तिः स्त्रौषङ्गो विजयः सुखम्‌ । 
मुक्ताहेममणिप्रािश्नष््रस्यान्तगति सिते ।॥ १५१॥ 
चन्द्रमा की महादशा में शुक्र का अन्तरहोतो कन्या की उल्पत्ति, सुख-लाम, 
स्त्री का साह्यं, विजय ( सफलता ), सुख, मोती-सोना-मणि मादि र्नो का 
लाभषहोता है १५१॥ 
षूयन्तिर फल- 
मूपाभवसुखं राज्यं दिपुरोगक्षयो भवेत्‌ । 
एेश्वयंसौख्वमतुलं चन्द्रस्यान्तगंते रवौ ।॥ १५२ ॥' 
चन्द्रमा की महादल्लाके भन्तगेत सूयं काभम्तरहोतो राजाके भभव से 
सुद्ध, राग्व प्राप्ति, शत्रु मौर रोगो का नार, सम्पत्ति तथा अतुल शुखं की प्राध्ति 
होषी 8 ॥ १५२ ॥ 


'मनीरमा' हिम्दीष्यास्योपेता ४३७ 


ब्टोचरी भोम बहादशा-अन्तदंशा एल 


महादशा फल- 
शस्त्राभिघातवधबन्धनरेन््रपोड- 
चिन्ताग्रहो विकलश्क्व गृहाश्रमेषु । 
चोराग्निमीतिधननाश्यशः प्रणाशं 
कु्यद्विघातमयमत्र॒दष्चा कुजस्य । १५३ ॥ 


मष्टोत्तरी मानम मंगल की महादशाहातो शस्त्र से आघात, वष (हृत्या), 
बन्धन (जेल), राजकीय पीड़ा, धरेल्‌ चिन्नाओोंके आधिक्यसेब्यग्न, र्ग्ण, चोर 
ओर जग्निसे भय, धत मौर यलकीह्‌नि, तथा सदैव भाघात का मय विद्यमान 
ग्हता है ॥ १५३ ॥ 
मौमान्नर फल 
भौमे शत्रुविभदंः स्यात्कलहो बन्धुभिनु णाम्‌ । 
स्वान्तरे बहुपीडा स्ादवृद्धश्रीगणिकारतिः।। १५४ ॥ 
भौम की महादशामं मौमकारी अन्तरहोतो मनुष्य क्षत्रुमों का मदन, 
मौर भारई-बन्धुमं ते कलह करने वाला, विविध पीडागों से युक्त, वास्त्री एवं 
बेष्या मं आसक्त होता है । १५४ ॥ 
बुधान्तर फलन - 
मूपाग्निनृपचौरेभ्यो मयं पीडा ज्वरादिभिः । 
भूमिजान्तगंते सौम्ये कलहो दुजंनादिभिः । १५५ ॥ 


मौम की महादलामे बुषक्ा अन्तर होतो राजा, अग्नि, अधिकारी एवं 
चो से भय, ज्वर आदि गोगोंमे कष्ट तथा दुष्टों से कलह होता है) १५५॥ 
शन्यन्तर फल- 
महादु शादि जायन्ते जलमीतिम्तिनु णाम्‌ । 
मौमस्यान्तगंते मन्दे राजपीडाभयं नृणाम्‌ ॥ १५६ ॥ 
भौम की महादशामेंशनिका अन्तरहोतौ महान कष्टजल से भय, तका 
राजकीय पीडा का मय मनुष्य को होताहै। १५६॥ 
गुवन्तर फल-- 
पुथ्यतोर्थादिगमनं देवब्राह्यणपूजनम्‌ । 
भौमस्यान्तगंते जीवे लभते वित्तमुल्कटम्‌ '। १५७ ॥ 
भौम की महादशामे गुदका भम्तरहोतो पदित्रतीर्थोकी यत्रा, दैवता 
भौर ब्राह्यणो का पूजन सहकार तथा अतुल सम्पत्ति का लाभ होता है। १५७॥ 


॥#. मनिस्राभरी 


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(रि १) 


राह्न्तर फल-- 
शस्त्राग्निनृपचौराणां भीतिमृ स्यन्‌ पाद्यम्‌ 
मौमस्यान्तगंतं राहौ मनोदुःखं प्रवर्तति ।॥ १५८ ॥ 
मौमकी महादक्षामे राहूका अस्तर होता हतो शषस्त्र-अग्नि-राजा भौर 
चोरो से भय, मृत्यु, राजा स्ते भय, तथा मानसिक क्लेश मे बि होती है ॥१५८॥ 
शुक्रान्तर फल~ 
शत्रुमीतिर्महाक्लेशो षर्महानिः सुखष्ययः । 
भौमस्यान्तगंते शुक्र भयं भूपास्स्वबन्धनम्‌ ॥ १५९ ॥ 


भौम की महादाम शुक्र का अन्तर होतोक्षत्रगों से भय, महान क्ले, 
घमं ते भ्रष्ट, सृख का नाश, राजासे भय तथा बन्धन होता ह ।॥ १५९॥ 


सूर्ण्न्तर फल- 
सम्मतो नृ पतेर्मृरि्रचण्डंः सह॒ सङ्गतिः । 
मङ्गलान्तगंते भानौ भवेत्कुस्त्रौसमागमः ।। १६० ॥ 
मौम की महादक्षामेसूर्यं का अन्तरहोतो जातक राजा का बिश्रास पत्र 
मल्यधिक उप्र ( भयंकर ) लोगों का मित्र, तथा कुत्सित ( दृश्वरित्रा, भ्रष्टा १३ 
कुरूपा ) स्त्री के साथ समागम करने वाला होता है। १६०॥ 
चन्द्रान्तर कल-- 
बहुवित्तं सुहत्सोस्यं मुक्ताहेममणिधियन्‌ । 
भौमस्यान्तगंते चष प्राप्नोति परमं पदम्‌ ॥ १६१ ॥ 
भौम की महादशामें चन्द्रमाका अन्तर हो तो वित्त की बहुलता (बन।ड५), 
मित्रों से सृल्ल, मोती, स्वर्णे, मणि प्रभृति देश्वयें लाज तथा उश्च पदकी प्रा: 
होती है ॥ १६१ ॥ 


ˆ अष्टोचरी बुध महादशा-अन्तदंश! एल्न- 
महादक्षा फल-- 


प्राप्नोति सौम्यस्य दद्याविपाके शुमे शुभाति प्रियमिन्रसङ्गम्‌ । 
सुकण्डेमाम्बरपूर्णलामं विधायंलामं मनसः प्रमोदम्‌ ॥ १६२॥ 


बष्टोत्तरी कमते बुष की महदशाहोतो शुभ कायो पे समी प्रकारे शुभ, 
प्रिय निरतो का समागम, स्वणं जटित वस्त्रों का पूणंश्पते लाभ, विद्वा एवं अन 
का लाज तथा मानसिक भानम्द प्राप्त होता है ॥ १६२ ॥ 


"मनोरमा ' हिन्दीय्याश्योपेता ४३९ 


बुषान्तर फलन-- 
स्वदशान्तर्गते सौम्ये बुदिवद्धिः समागमः । 
शषदीरे युवतेः सौख्यं नानावित्तं सुखं यश्वः ॥ १६३ ॥ 
बुष की महादाम बुषकाही भअन्तरहोतो बौद्धिक विकास, सभ्जर्नों का 
समागम शारीरिक एवं स्त्री जस्य सुल, नाना प्रकारके धन, सृ मौर शका 
ला होता है॥ १६३॥ 
शन्यन्त र फल--- 
मित्राय साधकः सिद्धो गुणघर्मार्थतसाघकः । 
स्वं कार्योद्यमी मास्वान्‌ बुषस्यान्तगंतं शनौ ॥ १६४ 


बुध की महादशा म शनि का अन्नरहोतो मित्रौ की अभिलाषा ( कायं ) पूर्णं 
करते बाला, साधक, गुण, धर्मं ओर अथं की साना करने वाला, समी प्रकारके 
कार्यौ मे उद्योग ( प्रय ) करने वाला तथ! तेजस्वी होता है । १६४॥ 
गृर्वन्तर फल - 
रिपुरोगभयस्व्यक्तो धमजो नृपवल्लमः। 
हैमादिजनशो माढयो बुषस्यान्तगंतं गुरौ ॥ १६५॥ 
बुष की महादाम गुरु वा अन्तरहोतो शत्रु ओर रोगके अयसे रहित, 
धमं काञ्जाता, राजा का प्रिय, स्वणे आदि (मूल्यवान वस्तुओं) तथा सृहृद्‌जनों से 
शोभायमान होता है । १६५॥ 
राह्म्तर कल -- 
अकस्माद्‌ अन्धुमेदो वा हाकस्माद्ब्रजतो नृपात्‌ । 
मय॑ वा हययनाशो वा राहौ सौम्यान्तरे सति ॥ १६६॥ 
बुष की महादाम राहुका अन्तरो तो अचानक बन्धुर्ओंसे विद्धेव एवं 
अकस्मात्‌ राजा से बिरोध, भय तथाधनहानिरहोतोहै। १६६॥ 


शुक्राम्तर फल- 

गुरुदेवद्िजर्बासु दानधमपरो भवेत्‌ 

वस्त्रालङ्काररक्तस्य लामो अस्यान्तरे सिते । १६७ ॥ 

हुव की महादक्षा मे कुक का अम्तरहो तो गुर्देवता आौर ब्राहमणो की पुजा 
( सम्मान ) मे अनुरक्त, दान-धमं मे प्रद, वस्त्र-आमूषण मे इचि रखने बाला 
तथा लाभवुक्छ होता है ।' १६७ ॥ 
सुर्बाम्तिर फल-- 
सुबर्णेहयमानिष्यं विजयं लमते इुखम्‌ । 
राभ्यं भियं बलं तेजो बुधस्यान्तगते रवौ ।। १६८ ॥ 


4, मानसाभरी 


[ णिरप 





मकनन 


बुष की महाद्शामे सूयं का अन्तरहो तो स्वर्ण, घोडा, माणिक्य की प्राप्ति, 
विवाद या संग्राम में विजय, सुख, राज्य, देश्वयं, वन तथा तेज की वुद्धि 
होती है ॥ १६८ ॥ 
चन्द्रान्तर फल-- 
भाचारवान्‌ बहुधनो गजा श्वादिसुखाप्तयः । 
बुधस्यान्तगंते चन्द्र षयं द्कुच्छत्रसम्पदः । १६९ ॥ 
बुघ की महादशामे चन्द्रमा काअन्तरहौो तो जातक आचारवान्‌ ( सदा- 
चारी ), धनवान्‌, हदाथीन्धोडा आदि सुख-सामग्रीसे युक्त तथा पक ( उत्तम 
विस्तर ), छत्र एवं सम्पत्ति से सम्पन्न होता है ॥ १६९ ॥ 


मौमान्तर फन-- 
शिरोगृदरुजा पीडा वह्धि चौरनुपाद्धयम्‌ । 
बुधस्यान्तगंतं भौमे बन्धुपूत्रादिपीडनम्‌ । १७० ॥ 
बुष कौ महादशामे मंगल का अन्तरहोतो शिर भौर गुदा सम्बन्धी रोग 
से कष्ट, अग्नि, चोर भौर राजा से भय तथा बन्धु-पुत्र अ।दि पारिवारिक सदस्यों 
को कष्ट होता है ।। १७० ॥ 


अषटो्री शनि महाद शा-अन्तद शा एलन 
महादक्षा फल-- 
प्राप्नोति सौरस्य दद्चाविपाके दुर्गादिक्तीमागिरिनिक्ष॑रेण । 
सुधान्य जर्णाम्बरभूमिलाभं संयुज्यतेऽश्वंमंहिषादिमिश्व । १७१ ॥ 
मष्टोत्तरी मानसे शनि की महादशाहोतो जतक्दुगं (किला), देशकी 
सीमा; पर्वत, क्षरना मादिका रक्षक, उत्तम कोटिके अश्न, पुराने वस्र, मुमि 
लाभ तथा घोडा, मेस मादि पशुम से सम्पन्न होतादहै। १७१॥ 
शन्यन्तर फल~-- 
बन्धुदारसुतार्थानां नाभो वा पीडनं मवेत्‌ । 
विदेगमनं दुःखं सौरे स्वान्तरसंस्थिते ।। १७२॥ 
शनि की महादशा मं कशनिकाही मन्तरहोतो बन्धु, स्वरी, पुत्र भौर भनका 
नाश अथवा इनसे सम्बन्कित कष्ट, विदेश यात्रा तथा दुश्ल प्राप्त होता है ।।१७२॥ 
गुवन्तर फल-- 
देवद्विजा्चनं सौष्यं धनवुद्धिर्गृणोदयः । 
स्थानाततिः क।(भनातिश्च शनेरन्तगंते गरौ ।॥ १७२३ ॥ 
सनि की महादशा में बदरका भन्तर होतो देवता भौर ब्राह्मणके पूजन में 


"मनोरमा" हिम्दीष्यास्योपेता ४४१ 


अनुरक्त, भुखी, वन की वुद्धि एवं गुर्णो के उदय से युक्त, स्थान लाभ एवं कामनार्बों 
की पूति ते सम्पन्न होता हि॥ १७३ ॥ 
राह्लन्तर फल- 
वातरोगः कक्षिपीडा देलान्तरगतिवेत्‌ । 
बुधटेषः सुखाभावो राहौ शनिदकां गते । १७४॥ 


शनि की महादकशामें राहूका अन्तर होतो वायु रोग, कुक्लि ( लीवर- 
किडनी ) से सम्बन्धित कष्ट, दूसरे देश अथवा अन्य प्रदेशो म निवास, विद्रार्नोसे 
हेष तथा सुख का अभाव होता है ।। १७४॥ 


शुक्राम्तर फन-- 
वन्धुमित्रकलत्राथसुखसम्पत्समागमः । 
सौहादं नृपतेर्लक्ष्मीः शनेरन्तगंते सितं । १७५॥। 
शनि की महादक्षामे शुक्रका अन्तरहो तो बन्धु-मिव्र-स्त्री-षन-सुख आर 
सम्पत्ति का समागम ( लाभे) तथा राजाके सौहादं ( मित्रता) से भन प्राष्ति 


होती है ॥ १७५ ॥ 
भूयन्तिर फल-- 


दारासुतघनार्थानां भीतिर्जोवितसंश्चयः। 
शनेरन्तगंते भानौ स्वेत्राशुमदर्धनम्‌ । १७६ ॥ 
शनि की महादशा म सूर्यका अन्तरहो तो स्त्री-पुत्र-धन ओर दपये-पेसेके 
नाश का भय, जीवनके प्रति सन्देह तथा समी स्थानों मे अशुम ( भनिष्ट ) दकेन 
ही होता है। १७६ ॥ 
चन्द्रान्तर फल-- 
स््रीलाभं विजयं सोदयं महिषोगोधनादिकम्‌ । 
लभते कल्यकाजन्म शनेरन्तगंते विधौ । १७७ ॥ 


कनि की महादहा मे चन्द्रमा का अन्तरहोतो स्त्री लाभ, विजय, सुख, मैस, 

गाय एवं धन भादि कीप्रप्तिहोती है तथा गृहमे क्न्याका जन्म होता है । १७७। 
भौमान्तर फल- 
सुतनाशो वा विद्यस्पाततमवं भयम्‌ । 
महाव्याधिररिष्टं या शनेरण्तगंते कुजे । १७८ ॥। 

शति की महादशा ते मंगल का अन्तरहोतो बन्धु, स्त्री मौर पुत्रका नाशः, 
विद्युत उत्पात ( प्राङृतिक प्रकोप ) से उस्पन्न भय तथा मयङ्धुर व्याभियोसे कष्टे 
शोता है ॥ १७८ ॥ 


४४२ मानसामरी 





बुधान्तर फल- 
सौख्यं सौमाग्यमारोग्यं यशः सन्तोषवृद्धयः । 
धुहत्स्यानादिलामः स्याच्छनेरन्तगते बुधे ।॥ १७९१ ॥। 
शति की महादक्षा मे बुष काअम्तरहो तो षुक्च, सौभाग्य, आरोग्य ( निरोग), 
यदा ( सम्परान ) भौर सन्तोष मे वृद मित्रों तथास्थानका लाभ होता है ॥ १७९॥ 


अष्टोरी गुर्द शा-अन्तदं था इल - 
महादक्षा फन- 
गुरोदंशायां लमतेऽतिसौख्यं गुणोदयं बुद्ध्यवबोधनाग्रघम्‌ । 
स्त्रीवित्तलाभं गतिकान्तिभोगान्‌ महास्मचेष्टाफलमुतमं च ॥ १८० ॥ 
गुर की अष्टोत्तरी महादशा मे अत्यधिक सुशो की प्राप्ति, गुणों का उदय, 
बुदि भौर ज्ञानम अग्रणी, स्त्री ओर षन का लाभ, उत्तम भति ( गम्भीर बाल), 
कान्ति ( तेज; सौन्दयं ), गौर भोगों से युक्त, महाव्मार्गो के अनुरूप वेष्टा तथा 
उत्तम फल की प्राप्ति होती है ॥ १८० ।॥। 
गृरवन्तर फल- 
स्वदशान्तर्गते जीवे धर्माथंह्यलब्धयः । 
लाभो हेमस्थावराणां राजपूजा गुणोदयम्‌ । १८१ ॥ 
अपनी ही (गुरुको ) महादाम गहं का अन्तर होतो बरमै-मथं गौर 
अव की प्राप्ति, स्वणं तथा स्थावर वस्तुओं ( भूमि, बाय, भवन आदि ) का लाभ, 
राजा्गो द्वारा सम्मान तथ गुर्णोंको वद्धि होतीहै। १८१॥ 
राह्खन्तर फल-- 
अन्त्यजः सह सम्प्रीतिर्वातपितमयावहम्‌ । 
गुरोरन्तगंतें राहौ सवंका्यंविनाशनम्‌ ।। १८२ ॥ 
गुरु की महादशमे राहु की अन्तर्दशा होतो अन्स्यर्जो ( निम्न कायं करे 
वाली जातिर्यो ) के साय प्रेम, वातपित्त जन्य रोते भय, तथा तभी प्रकार 
के कायो का नाष होता है ।। १८२॥ 
शुक्रान्तर फल-- 
शिपुभोतिवि्तनाशो बन्धनं कलहो भदः । 
स््रीवियोगभवाप्नोति जोवस्थान्तर्गंते ।खते ।॥ १८३ ॥ 
धद की महदा मे शुक्र काभम्तर होतोश्षषरर्भोते भय, भत का नाष, 
बन्धन (देल), कलह (चरेल्‌ विवाद), रोम ठवा सी ते वियोव 
होवा है ॥ १५३ ॥ 


` मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपेना ४४३ 


सु्यान्तर फल-- 
नृपतुल्यक्रियायुक्तो व्याधिरोगविवजितः । 
बहुस्त्रीसुखसन्तोषी गुरोरन्तमंते रवौ ।। १८४ ॥ 
गुर की महादशा में शूरं का मन्तरहोतो राजा के तुल्य कायं करने वाला, 
व्याषिं रोग से रहित, बहुत सी स्त्रियों के भुल से युक्त तथा सन्तोषी 
होता ह ।। १८४ ॥ 
चन्द्रान्नर फन-~- 
शत्रुहानिः सुखं पुण्यं णरोरे पृष्टिर्तमा । 
स्वजनं: सह संवासो गुरोरन्तर्गते विषौ । १६५॥ 
गुह की महादशामे चन्द्रमा का अन्तरहोतो शत्ररओं की हानि, सुल, पुष्य, 
शरीर में पूर्णं शूपेण पुष्टता, तथा आत्मीय जनो के साय निवास होता है ॥१८५॥ 


भौमान्तर फल~- 
धनं कोतिः शत्रहानिबन्धुकोतिः सुखान्वितः । 
निरोगो पुमः श्रीमान्‌ गुरोरन्तगंते कुजे ॥ १८९६ ॥ 
गुर की महादशा म मगल का अन्तरहोतोधन मौरयदा का लाम, शत्र 
हानि, बन्धुमो की कीति, सुख से युक्त, स्वस्व, सौमाग्यशाली, लक्ष्मी से युक्त अर्बात्‌ 
धनवान होता है।। १८६ ॥ 
बुषान्तर फल-- 
समदुःखसुखः श्रौमान्‌ गुरुदेवाग्निपु जकः । 
गुरोरन्तर्गति सौम्ये शत्रुमित्रसमो भवेत्‌ । १८७ ॥ 
गुड को महादहा मे बुष का अन्तरहोतो जातक दुःख गौर भुल में समान 
खूपसे रहने बाला, कान्ति युक्त ( अथवा धनवान ) गुरुं देवता गौर अग्नि का 
पुजन करने बाला तथा शत्र ओर मित्र दोनोंके साथ समान ब्यवहार करने 
बाला होता है।॥ १८७ ॥ 


कन्यन्तर फल-- 

वारस्त्रीसङ्गमं दुःखं कुवृ्तिर्घ्मनाशनम्‌ । 

कामलोभौ मोचषख्यं गुरोरन्तर्गतं शनौ ॥ १८८ ॥ 
ब्रहस्पति की महादशा में शनि का अन्तर होतो वेश्या स्त्री के साथ घहबास 


करने वाला, दुःकी कुरित वुत्ति वाला, वमंनाक्षक, कामी, लोभी, नीर्थोका 
साक करने वाला पुरक होता हि ॥ १८८ ॥ 


4 41 मानसागरी 


018 ष, त १, 8 1 





बशोखरी राहुमहादशा-अन्तद शा एल- 
महादका फल-- 
धर्मव्ययः कामरतेविनाशः स्तरपूत्रमित्रादिविदेशयानम्‌ । 
मतिन्नमं स्यात्कलिकुष्ठरोगमयं भवेद्राहुमहादशायाम्‌ ॥ १८९ ॥ 
अष्टोत्तरी मत से राहृमहादशा हो तो धर्मं का (धार्मिक मनोवृत्ति 
का) हास, काम वासना तथा रति का विनाश ( नपुंसकता), स्त्री-पुत्र-मित्र 
मदि का विदेक्ष प्रवास, मतिश्नम ( मानसिक श्रन्ति), कलह तथा करुष्ठ रोगमे 
भय होता है ॥ १८५६ ॥ 
राह्कन्तर फल-- 
भयं स्वान्तर्गते राहौ रोगार्तंः पापपीडितः। 
स्क्रीपुत्रमित्रना्लो वा कलहो वा स्वबन्धुमिः॥ १९० ॥ 
राहू की महादक्तामें राहुृका अन्तरहो तो भय, रोगसे दुगली पापसे 
पीडित, स्वरी, पुत्र गौर मित्रों का नाञ्‌, अथवा बन्धुनों से क्लेश होता है।॥ १६०॥ 
शुक्रान्तर फल-- 
सौहादं विप्रमूपाम्यां पङ्कः स्वरोवित्तसखयः । 
कलहे विजयः श्यातो राहोरन्तर्गते सिते ।। १६१॥ 
राहुके महादशा के अन्तत यदि शुक्र का अन्तरहो तो ब्राह्मणों एवं 
राजामों द्वारा सौहादं ( भित्रता मौर सह्येग) कीप्रास्ति, स्त्रियों कामाथ, 
अन का संग्रह, विवाद मे विजय तथा विख्यात होन है।। १६१॥ 
सू्यन्तिर फल-- 
रिपुरोगभयं घोरं द्रव्यनाशो महद्भयम्‌ । 
भम्निवोरमयं चेव राहोरन्तर्गते रवौ ।। १६२ ॥ 
राह की महादक्षामे {यका अन्तर होतौ शत्रु भौर रोगका भवंकर भय, 
धनहूनि, अन्य प्रकारके महान भय, मग्निमौरवचोर का भयहोताहै।। १६२ ॥ 
चन््रान्तर फल-- 
रिपुठर्थाधिर्महाभोतिर्बन्धुवित्तविनाक्षनम्‌ । 
कलहो बन्धुविद्धेवो शहोरन्तर्गते विधौ । १६९३ ॥ 
राह की महादल्ला में चन्रमा की अन्तर्दाहो तौ शत्रु, रोग, महान भय, 
भार्यो के धन का नाक्ष, कलह, एवं बण्धुरगो हारा विद्रोह होता है ॥ १९३ ॥ 
भौमाम्बर फल - 
विषकशस्त्राम्निचौरेम्यो महाभीतिः पुनः पूनः । 
शहोरण्तर्गते भौमे वि्तस्त्रीवन्धुनाश्चनम्‌ ॥ १९४ ॥ 


"मनौ रमा" हिभ्वीग्याख्योपेता \ 4 





राहु की महादशामें मंगल का भम्तरहो तो विष-चस्त्र भग्नि मौर चोरो 
से बार-बार महान भय, णनः स्त्री भौर बन्धुर्ओ का विनक्लहोता है । १६४४ ॥ 


बृषन्तर फल-- 


बन्धुमित्रकलत्रादिवितमृत्यसुखान्वितः । 
न कत्रापि भयं तस्य राहोरन्तर्गते बुधे ॥ १९५ ॥ 


राह की महादशामें बुष का अन्तरहो तो जातकके बन्धूवयं, पित्र, स्त्री 
आदि निकंटतम सम्बन्धी धन-नौकर मौर सुकशोसे युक्तहोते दहै १९५॥ 


दीन्यन्तर फल-- 
वातपित्तमवा रोगाः कलहो बान्धवैः सह । 
दे्षत्यागौ धनन्न शा राहोरन्तर्गते शनौ ।। १६६ ॥ 


राहु की महादशा म श्नि का अन्तरहो तो वात-पित्त से उत्पन्न रोम, बन्धुओं 
कं साथ कलह, देश का परित्याग, तथान का नाक्ष होता है। १६९६॥ 
गवन्तर फल - 
नोरोगैः स्वगणंयक्तो देवद्रिजमतो भवेत्‌ । 
राहोरन्तर्गते जीवे धमतीथंरतो भवेत्‌ । १९७ ॥ 


राहु की महादल्ाम गुरुका अन्तरहोतो जातक निरोग ( स्वस्थ), मषने 
गणो ( सहचरो ) से युक्त, बरह्मन आर ठेवहाभोंकी तरफ शुकाव रखने वाला, 
तथ। घमं मौर तीयं म अनुरक्त होता है।॥ १९७ ॥ 


अषटोचरी धक महादशा-अन्वदं शा इल्- 


महादशा फल- 

शोय गोतरतिप्रमोदविभवो द्रष्या्षपानाम्बर- 
स्त्रीरत्नं मातमन्महोपकरणे रथाश्च नानाविधाः, 
स्वाष्यायायौषधमनत्रहिल्पकरणेर्थंस्य सिद्धिभवेत्‌ 

सौख्यं चेदुजिकारमोजनरविः ख्यातिः प्रतपोन्नति। । १९८ ॥ 


भष्टो्तरी कम से यदि शुक्रकी महादहाहोतो शौयं (वीरता), सगीत, 
प्रमोद, सम्पत्ति, धन, अल्न, पेय पदार्थे, वस्र, स्वरी रहन ( सुन्दर स्त्री ), सद्‌ बु; 
महरवपू्णं उपकरणों ( बस्तुओं ) तथा भनेक प्रकार के षन-सम्पत्तियों से युक्त होता 
है । स्वाध्याय ( अध्ययन ), भवनि निमि, मन्त्र-साषना, शिल्प ( चित्र-काष्ठः 
पाषाणं कला ) सम्बल्थी कायो की सिदि, सुख, इषु विकार भुज जादि मधुर 
पदार्थो के भोजन मे इजि, ध्याति, प्रभाव मे बुद्धि तथा उन्नति होती है ॥ १९८ ॥ 


४४६ मानसामरी 





शुकाम्तर फल-- 
लाभः स्वान्तरगे शुक स्त्रोषङ्गो धर्मजं सुखम्‌ । 
अभिलाष्थंयुक्तश्च कीतिकौश्चल्ययुर्भवेत्‌ ॥ १९९ ॥ 


शुक्र की महादशामेशुक्रकाही अम्तरहोतोस्त्रीसे संसर्गे, धमं से उत्पत्न 
सुश्च, ममिलाषाभों की पूति, यशलाध, एवं चाुरो से बुक होता है ॥ १९९ ॥ 
सूर्णमन्तर फल- 
नेत्रगण्डमवं रोगैः पीडयते नुपबाण्धवः । 
उत्पातश्च महददूखं शुक्स्यान्तर्गते रवौ ।। २०० ॥ 
कुक की महादशा मेसूयं कामन्तरहो तोनेत्र मौर कपोलमे उत्पन्न रोग 
से तथा राजा के बन्धुओ से पीडित, उत्पात, एवं महान दुःख होताहै।) २००॥ 


चन्द्राम्तर फल-- 
उद्वेगोऽकुश्लं हानिरण्वादोां धनक्षयः । 
बहुक्ले्ठमनोदुःखं शुक्रस्यान्तर्गते विधौ ।॥ २०१ ॥ 
शुक को महादशा मे चन्द्रमा का अन्तर होती उद्वेग ( षबराहट) कशलत। 
का अभाव ( अर्थात्‌ अमंगल), षोड आदि पशुओंकी हानि, षनका हास तवा 
अस्यधिक कष्टसे मनम दुःखहोतादहै। २०१॥ 
मौमान्तर फल-- 
नखोदरशिरोष्याधिः कलहो बन्धुसंक्षयः । 
दौर्बल्यं च शरीरस्य कुजे शुक्रदशा गते । २०२ ॥ 
शुक्र की महादक्ञामं मंगल का अन्तरहोतो नकल; उदर, एवं शिरकी 
व्याधि ( रोग ); विवाद, बन्धुमो का क्षय, एवं क्षरीरमें दुर्बलता रहती है ।२०२॥। 
बुबान्तर फल- 
धनं चान्य सुखं लाभो मानो धर्मो यश्चो जलम्‌ । 
महाजनेन सोहादं शूुङ्ृव्यान्तर्गते बुधे ॥ २०२३ ॥ 
शुक को महादशामे बुध का अन्तरो तो बन-बान्य एवं सुकका लाभ, 
सम्मान धर्म-यञ्च गौर बल की वृद्धि एवं महान्‌ पर्ष से मित्रता, का लाम 
शोता है। २०२॥ 
शन्यन्तर फल- 
वृदधस्तीगमनं पीडा पृज्रनाशो विपल्पदम्‌। 
शत्रुनाथः पृहत्माप्तिः सौरे धुकूदर्थां गते ।' २०४॥ 
शुक्र की महादाम शनिका मनम्तर्होतोददस्त्रीके साब समागम, पीडा, 


"मनोरमा" हि्दीष्याश्योपेता ४४७ 





पु नाश, बार-जार विपर्तियों का भआभमन, शत्रुनाश, तथा मिरत्रोकी प्राप्ति 
होती है ॥ २०४॥ 
गु्दन्तर फल - 
धनधान्यसमृद्धिश्न ध्मशोलसुलानि श । 
स्वीसुखं कीतिमाप्नोति गुरौ शुक्रदश्चां गते ।। २०५ ॥ 
शुक्र की महादशामे ग का बन्तरहो तो बन-धान्य एवं सम्पत्तियों की बृद्धि, 
धर्म-शीलता ( सदाचारी) भौर सुख, स्वीमुक्ष, तथा कीति को मनुष्य प्राप्त 
करता है। २०५॥ 
राह्वाम्तर फल- 
विदेशगमनं बन्धुद्रषः सङ्गमशद्धयः। 
स्ववंशनाशमाप्नोति राहौ शृक्रदष्ां गते । २०६॥ 
शुक की महादशामें राहूका बन्तरहो तो विदेश यात्रा, माई-बन्धुभओोंते 


विरोध, साथके कारण अगद ( निन्दित कमं करने वालोंका साथी ), तथा अपने 
कुल कानाक्ष करने वाला होता दहै ।॥ २०६॥ 


वं ब्रह दशा फएल- 


क्रग्रहदशायां च क्रूरर्गन्तर्दशा यदि। 
शत्रुयोगे भवेन्मृत्युमित्रयागे न संशयः । २०७ ॥ 
शत्रू ब्रहोंषे भयवा मित्र प्रहोसे युक्त करग्रह को महादश्चामे क्रूर प्रह 
का अन्तर हो तो मृत्यु (या मृल्यु तुल्य कष्टं ) होता है इसमे सन्देह नहीं ॥२०५७॥ 
मङ्गलस्य दशायां च शनेरन्तदशा यदि। 
भ्रियते च चिरञ्जीवी का कथा स्वल्पजीविनः ।। २०८ ॥ 
मंगल की महादक्षामे शनि की अन्तर्द्षाहौ तो चिरञ्जीवी (दीर्घायु) भ्यक्ति 
की मी मृत्यु होती है। भल्प जीवी ( अल्पायु वाले ) व्यक्तियों के लिए क्या कहना 
डे ? ( अर्थात्‌ वे अव्य मर्गे )॥ २०८॥ 
क्गरराशिस्थितः पापः ष्ठे वा निधनेऽपि वा । 
सितेन रबिणा दुष्टः स्वपाके मृत्युदो प्रह: । २०६ ॥ 
करूर ब्रहकी राक्शिमें पाप प्रह छठे अथवा आठवें माव मे स्थित हों तथा शुक्र 
यासू्ंसेदुष्टहो तो अपनी दशा-अन्तदशामे मारक होति है ।॥ २०६॥ 
लम्नद्याधिपतेः शब्रलंमेशान्तदशां गतः । 
करोष्यकस्भाम्भरणं सस्याबायण भाषितम्‌ । २१० ॥ 


टीट मानसागरी 





लभ्नेशा की महादशामे लग्नेशके शत्रु ब्रहकी अन्तर्दाहो तो अकस्मात्‌ 
मृष्यु होती ह एेसा सह्याखारय का कथन दहै । २१०॥ 
परवेक्षे बलवान्‌ खेटः शुभ्वा स निरीक्षितः । 
सौम्याधिमित्रवर्गस्थो रिष्टमङ्खो भवेत्तदा ॥ २११ ॥ 
दशा प्रवेशके समय यदि ग्रह बलवान हो अथवा शुमग्र्होते दृष्ट हो, शुम 
एवं अधिमित्र, प्रहोके वगमेहोतो अरिष्टं का नाशक होता है। २११॥ 
उष्दया कल~ 
यातः सभ्प्रवदष्यामि ग्रहस्योपदशाफलम्‌ । 
सौम्यङ्गरविर्मिन्नस्य पूर्वाचार्य दिसम्मतम्‌ । २१२ ॥ 
दश्शा-अन्तदेशा के फल के समनन्तर सौम्य (कुम), क्रूर (पाप) ब्रहोँकेभेर 
से पूर्वाायों के मतानुसार ग्रहों की उपदक्षाकाफलकहरहाहू। २१२॥ 
धर्यन्ठर मं उपदशा एल- 
सूयं क। उपदक्चा फल- 
ज्वरः शिरोऽतिः पीडा च कलिर्द्रेगकारकः । 
विग्रहश्च विवादश्च सूर्यं स्वोपदशां गते ॥ २१३ ॥ 
सूयं अपनी उपदशा महोतो ज्वर, शिरमे कष्ट, पीडा, कलह, उद्वेग, विर।घ 
तेथा विवाद होता है।। २१३॥ 
चन्द्र का उपदक्षा कल-- 
धननाशोदरे रोगं कूर्यात्‌ पामां चतुष्पदात्‌ । 
कषीरं स्नेहं विना भुड्क्ते चन्द्रः स्वोपदशां गतः ॥ २१४ ॥ 
चन्द्र की उपदशा होतो धन नाक्ष, उदरमें रोग, पुमो के संसर्गे से श्वामा' 
नामक रोगयुक्त तथ। दुग्ध-घृत के विना भोजन करने काला ( अर्थात्‌ बी-दूष 


का अभाव ) होता है॥ २१४॥ 
मगल का उपदशा फल 
राज्ञो मयं विकारश्चोपद्रवो रिपुविग्रहः । 
कुषाष्यमोजनं सूय मौमस्योपदशाफलम्‌ । २१५॥ 
सुर्यं की अन्तर्दशा मेँ मंगल की उपदशाहो तो राजा का भव, शारीरिक 
विकार, उपद्रव, श्वरो में परस्पर विरोध, एवं कुत्सित मन्न का भोजन करनेवाला 
होवा है ।॥ २१५॥ 
राहु का उपदशा फल- 
वातक्लेष्मं शत्रु मयं तोक्ष्णं क्षारं कुमोजनम्‌ । 
राजपीडा बने हानी रहिवुपदश्चां शते) २१६॥ 


.मनोरमा" हिन्दीभ्याख्योपेता + , 4 


सूं की अन्तर्दशा में राहु की उषदशाहोतो वायु, कफ विकार, शरर्गोचे 
भय, तीक्ष्ण (तिक्त), नमकीन कुत्सित मोजन, राजकीय पीडा, तथाचन की हानि 


होती है) २१६॥ 
शनि उपदशाफल-- 


हेमाम्बरजयेव' दधिः शत्रुनाच्चं महासुखम्‌ । 
मिष्ठान्नभोजनं सूयं शनेरुपदशा यदि । २१७॥ 
सूं की अन्तर्दशा शनि की उपदशाहो तो स्वर्णं, वस्त्र, मौर विजय की 
वुद्धि, शत्रर्ओ का नाश, महान्‌ सुक्ल, तथा भिष्ठान्न ( मधुर ) मोजन प्राप्त 


होता 2 ।। २१७ ॥ 
बुध उपदला फन-- 


नृपपुजा घनं कोतिविद्याबन्धुषमागमः। 
भोजनं मधुरान्नस्य रकौ जोपदशां गते।। २१८॥ 
सूयं की, अन्तर्दशामें बषकी उपदा हो तौ राजरम्मान, धन, कीत्ति, 
विद्य। मित्रों का समागम, मधुर अन्न करा भोजन टोता दहै) २१८॥ 
केतु उपदशा फन - 
दभ्यं परान्नमोजो स्याद्राजपीडा महद्भयम्‌ । 
शत्र दरेषश्चरेत्सूर्योपदष्चायां यदा शिखी ॥ २१६ ॥ 
मूं की अन्तर्दशा म केतुरी उपदशाटोतो दीनन, परान्न मोजन, ( दूसरों 
के घरमं मोजन कने वाला), राजकीय पीडा, महान म. एवंशत्ररजोंसे द्वेष 


होता है ।। २१६ ॥ 
शुक्र उपदशा फल- 


सुब द्धिसमानानि धनलाभो महोटमवः । 
स्त्रोविलासः सदा सौख्यं रविः सितदष्छां गतः ।। २२० ॥ 
मूर्याम्तिर मे शुक्र की उपदकशाहो तो समानस्पसेसुशोंकी वद्धि, षन लाभ, 
महान्‌ { बरे-बरे ) उत्सव, स्वरो-सुख तथा सदव सभी प्रकारका सुख प्राप्त 
होता है ।। २२० ॥ 
वनान्तर म उपदशा एल्- 
चन्दर उपदशा फन-- 
धनलाभो महासौसश्यं स्त्रीलोलापृत्रसम्पदः। 
व॑स्त्रान्नवानलामश्नोपदष्वाषु यदा शो ॥ २२१॥ 
चश्मा को गन्तदेक्षामे ब्रमा की ही उपदक्षाहो तो धनलाभ, महान सुख, 
स्तयो की शीला ( मनोबिनोद), पुत्र प्राप्ति, सम्पत्ति, वस्र, बन्न तथा पेय 
पदाषों का लाभहःताहै। २२१॥ 
२९ भा सा 


४५० -भानसाभरी 





भौम उपदशा कल-- 
ऋदिषंनागमो बुदिर्दन्वुस्वजनसौहूदः । 
रक्तवस्तुकृतो लाभश्नन्द्रस्योपद्चा कुजः ॥ २२२ ॥ 
चन्द्रमा के अन्तरम भौम की उपदश्षाहोतो समी प्रकार की सम्पदा एवं धन 
का गागमन, सद्बुद्धि का विकास, बन्धुवर्गे एवं अन्य आत्मीय अनो में सौहादं एवं 
रक्त वस्तुर्गो से लाभटोतादहै।॥ २२२॥ 
राहु उपदशा फल- 
दाजमानो महासौल्यं भतिकल्याणवद्ध नम्‌ । 
चन्द्रस्योपदशां प्राप्तो राहुः शत्रु मयावहः ।। २२३ ॥ 
चन्द्रान्तरमें राह की उषदल्ाहो तो राजदरबारमे भादर महान्‌ बुख, 
सम्पत्ति एवं जन कल्याण की वृद्धि तथाकशत्रु के लिए भयकारक होता है॥ २२३॥ 
गुरु उपदक्षा कल- 
धनधर्मो महत्तेजो मित्रलाभः भुभोजनम्‌ । 
सौख्यं च वस्व्रलाभं च चन्दरस्योपगते गुरौ ॥ २२४ ॥ 
चन्द्रान्तर में गुरु की उपदशाहौ तौ जातक धनी, धार्मिक, महन्‌ तैजस्वी, 
मित्रों से युक्त, सुन्दर भोजनः सुख, एवं वस्त्रलाभ करने वाला होता है । २२४॥ 


शनि उपदज्ञा फल-- 
पत्र बण्धुकृतोदरेगयुक्तः स्वस्यानव्जितः । 
चन्द्रस्योपगते सौरे तुषधाष्यादिमोजनम्‌ ॥ २२५॥ 
चन्द्रान्तर मे शनि की उपदशाहोतो धृत्र एवं ब्धुमोंद्वारा उद्विग्न, अपने 
स्थान से रहित, मषी सहित ( अथवा मोटे) अन्नका भोजन करनेवाला दुः 
भ्यक्ति होता 8 ॥ २२५॥ 
बुष उपदल्षा फलः- 
शुक्लवस्त्रस्तरिया लाभो माङ्गल्यं पुज्रसम्पदः । 
इयमृलाभदश्वव चष्दरस्योपगतो बुधः ॥ २२६॥ 
चन्द्रान्तर में बुष की उपदक्चाहो तो श्वेत वस्त्र एवं स्व्रीका लाम, मङ्गल 
काये, पुत्रोत्पति, सम्पत्तिलाभ, तथा बोड़ा एवं मुमि क लाम होता है ॥२२६॥ 
केतु उदक्त फल - 
रोषः ख्वंधर्माणां जीवितं कहुषंशयम्‌ । 
व्पाम्बुविषजा भोतिः शिी चोपदन्लां गत$ ॥ २२७ ॥ 
अनदान्तरमें केतु की उपदशाहो तो सभीषमों से विरो, जीवनके प्रति 
जर्षिक सम्देह, सर्पं, अल तथा दषते भय होता है ॥ २२०७॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ४५३ 


शुक्र उपदशा फल- 


जलोदरादिरो्गस्तु रिपुषौरोषंनक्षयः । 
शीर भोजनं स्दामिन्दोङपगते सिते ॥ २२८ ॥ 


अन्बराम्तरमे शुक्र की उपदकश्षा होतो जलोदर आदिरोर्गोँ से, क्षत्र मौर 
चोरो से धन का नाह होता है तथा धतन्दुग्ब रहति रक्ष॒ भोजन प्राप्त 
होता है ॥ २२८ ॥ 
मयं उपदक्षा फल- 
विजयं धनसोख्यं च ॒वस्त्रपानान्नलाभकङ्गत्‌ । 
चन्दरस्योपदष्षां भानुः कुस्ते नात्र संशयः ।। २२९ ॥ 
बन्द्ाम्तर में शूर्यं की उपदशा हो तो निःसन्देह विजय, भन, सुख, वस्व, पेम 
पदार्थं एवं अन्न का लाम होता है ।। २२९ 


भीमान्तर बे उपदशा इल्न- 
भौम उपदक्षा फल- 


पीडा क्त्रनरेष्राणां रक्तस्रावो भगष्दरः। 
भकस्माज्जायते भौमोपदश्ठासु स्वयं कुजे ।। २३० ॥ 


मौम की जन्तर्दक्षामें भौमकीही उप्दश्षाहो तो शत्रुम एवं राजा ( राज 
पुरूषो ) से कष्ट, तथा अकस्मात्‌ रक्तल्लाव एवं भगन्दर रोग से कष्ट 
होहा है ॥ २३० ॥ 
राहु उषदक्षा कल- 
कलहं बन्धनं रोग राज्ञं कुभोजनम्‌ । 
अपमृत्युदकश्चा राहूर्जायते शत्रुपीडितः । २३१ ॥ 
अौमान्तरमें राहु की उपदशाहोतो कलह, बन्धन, रोग, सत्ता (या 


अधिकार ) का पतन, निङृष्ट भोजन, अकालभृत्यु तथा कषत्रुमों से पीडा प्राप्त 
होती है ।। २३१ ॥ 


मुर उपदश्चा फल- 


कुबुदिहू वितो रोगी वेशे देशे परिश्रमः । 
भौमस्योपदश्ां जवे स्वणं भवति मृत्तिका । २३२ ॥ 


भौमाम्तरमे धुरुकी उपदशाहो तो कुबुद्धि ( दुष्ट), जपमानित; रोभी, 
इथर-ठ्थर भ्रमण करे बाला होता है) इस दक्षा में मनुष्य सोना कोस्पक्षंकरेतो 
मिहीहो जाता है ॥ २३२॥ 














श 


४५२ मानघामरी 


शनि उषदक्षा फल- 
दक्तवासो महान्रासो बत्धनं धनपीडनप्‌ । 
कोद्रवं च तिलं भोज्यं भौमस्योपदशां शनिः ।। २३३ ॥ 
मंगल के अन्तरम यदिशनिकी उषदश्ाहो तौ लाल वस्त्र पहनने बाला, 
भय एवं बन्धन से युक्त, धन का मभाव होनेसे कोदो तथा तिल का भोजन करने 
वाला होता है ॥ २३३ ॥ 
बुष उपदका फल- 
ज्वरातिः सुहृदासीनो विलम्बेन धनक्षयः । 
मोमस्योपदशां सौम्यस्त्वन्नवस््रादिनाशनः । २३४ ॥ 
भौमान्तरमें बुध की उपदशा होतो ज्वर से कष्ट, मिर््रोँका तिथि, 


विलम्ब से (धीरे-धीरे) धन-नाा, तथा अन्न एवं वस्त्र कालासहो जाता है ।२३५।) 
केतु उपदशा फल - 


जम्भण च श्विरमपोडा रोगमूृत्युन्‌ पाद्धयम्‌ । 
तन्द्रालस्यं कुमोज्यं च केतौ भ्‌ सुतमध्यगे ।। २३५॥ 
मंगल के अन्तरमेंकेतु की उपदक्षा होतो जमई ( उरवासी) भाना, क्षिर 
मे पीडा, रोग-मृष्यु भौर राजासे मय, तन्द्रा ( अषं निदा ), मालस्य एवं निङृष्ट 
भोजन प्राप्त होता है॥ २३५ ॥। 
शुक्र उषदकश्षा फल- 
रजशत्रुमयं त्रासो वम्यतीसारतो भयम्‌ । 
व्रणो जीर्णमियाददुःखं भौमस्योपदशां सिते ।। २३६ ॥ 
भौमान्तर मे शुक्र की उपदक्षाहीतो राजा मौरशत्रु ते मय, त्रास (आन्तरिक 
भय )› वमन भौर अतिसार (बार-बार शौषहोना)से कष्ट, ब्रभ (फोडा), 
एवं जीर्णं ( पुराने ) रोर्गोसे कष्ट होता है॥ २३६॥ 


शूरय उपदशा फल- 
भूमेश्च मणिलाभं च धनमित्रसुच्ावहम्‌ । 
तीक्ष्णं वं मधुरं मुङ्क्तं भौमस्योपदश्चा रवौ ।। २३७ ॥ 
मंगल की अन्तदका मे सूर्यं की उपदकशषाहो तौ भूमि भौर मणि (रत्नों) का 
लाभ, धन एवं मित्रों ते सुद, तीकष्भ-तिक्त भौर मधुर पदों का भोजन करने 
वाला, होता ह ॥ २३७ ॥ 
चख उपदया फल- 
मौक्तिकं शुक्लवस्त्रं च लमते च घुखं यश्च: । 
क्षीरमिष्ाक्मोज्यं स्यातु क्ुजस्थोपदस्ां शकली ।। २३८ ॥ 


मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ४५३ 


मंगल की अन्तर्दशा मे चन्द्रमा की उपदशा हो तो मुक्ता इवेत-वस्त्र, सुख, यश, 
हुग्ब तथा मधुर भोजन की प्राप्ति होती है ।॥ २३८॥ 


राहन्तद शा म उवदशा 


राह उषदशा फल- 


बन्धद्याचिस्तथा रोगः पौडा भवति दारुणा । 
स्थानच्युतिः कुमोज्यं च राहुः स्वोपदर्चा गतः ॥ २३६ ॥ 
राहु की अन्तर्दक्ामें राहुकी उपदशादहो तो बन्धन, रोग-व्याकि, भयङ्कर 
पीडा, स्थान का परिष्य।ग एवं कुत्सित भोजन ( अरुचिकर भोजन) की प्राप्ति 
होती है ॥ २३६ ॥ 
गुर उपदशा कल~ 
ज्ञानधर्मार्थनाश्चश्च कलह म्यसनं भवेत्‌ । 
कटुकं मिष्टमोज्यं च राहोरूपगते गुरौ ।। २४० ॥ 
राहि की अन्तर्देशो ये गुरु की उपदशा होतौ ज्ञान ( विबेक ), धमं ( धार्मिक 
क्रियार्भो ); एवं चन का नाश, कलह, द््यंसन में प्रवृत्ति, कड्वे तथा मीठे भोजन 
के प्रति रचिहोतीदहै। २४०॥ 


शानि उषपदन्ञा फन 
लनं गृहभजश्च हस्वपादाक्लिपीडनम्‌ । 
बन्धनं ब्हुजोकवश्च राहोरूपगते शनौ ।। २४१ ॥ 
राहु की अम्तर्दक्षामेंशनि की उपदकशाहीतो, यात्रा ( अथवा उपवास), 
गृह का नाष, हाथन-पैर ओर आ्लोमे कष्ट एवं बन्धन होताहि तथा जातक 
दोषे जीवी होता है॥ २४१ 
बुध उपदशा फल-~ 
घनवस्त्रादिहानिश्च पदबुद्धधोविनाश्चकृत्‌ । 
मोजनं कंलश्चाकांदि राहोश्ूपगते बुधे ।। २४२ ॥ 
राहु की भन्तदेशामे बुष की उपदहाहोतो धन, बस्ते आदि वस्तुगों की 
हानि, पद एवं बुद्धि का चिना, तथा फल मौरशाकका ही भोजन करने वाला 
डोता है ॥ २४२ ॥ 
केतु उपदा फल- 
भवनाशो विदेशश्च भृत्युौरनुपाद्धयम्‌ । 
राहोद्पदशां केतु्बश्वनं विग्रहो भवेत्‌ । २४२३ ॥ 


४५४ भानसागयरी 





राह्वम्तरमे केतु की उपददाहो तोष्नहानि, विदेश यत्रा, बृल्यु, भोर 
गौर राजा से भय, बन्धन तथा विरोध होता है । २४१ ॥ 
शुक उपदा फल 
स्वोनाक्चः कुलनाश्चश्च योगिनीभूतमाधुभिः । 
पीडनं च कुभोज्यं स्यद्राहोख्पदश्चां सितः ॥ २४४ ॥ 
राह की बम्तद्यामे शुककी उषदश्चाहोतो स्त्री एवं पारिवारिक सदस्यों 

का नाश योगिनी-प्रेतवाषा मथवा कुल मातागों ( हल देवियो ) के प्रकोपे होता 
है । विविध प्रकार की पीडा, एवं अरुजिकर भोजन प्राप्त होता है ।॥ २४४ ॥ 


सूर्यं उपदशा फल~ 
सुहृत्पुत्रमहापीडा  ज्वरशोगान्नहानिङ्त्‌ । 
राहोरूपदशषां सुय: कुर्ते नात्र संशयः ॥ २४५॥ 
राहू की अन्तदंश्चा मे सूरं की उपदक्षाहोतो मित्रो मौर पृत्रों षे महान्‌ कष्ट, 


ज्वर, रोग गौर भन्नसे निःसन्देहहानि होती है ॥ २४५ ॥ 
बन्दर उपदशा फल- 


चित्तश्नमो भनोभङ्ग उ्ेगोऽय कलिर्भयम्‌ । 
भोज्यं स्मेहं हविष्याण्नं राहोरपदशां शक्ची ।। २४६ ॥ 
राह की बन्तदेश। मे चन्द्रमा की उपदल्ला हो तो चित्त मे ज्रम, उभ्साह भङ्ग 
( हृदय पर माषात पहुंचना ), उद्वेग ( विकलता) एवं कलह होताहै। तथा 
मनुष्य हविष्याघ्र ( हवन सामग्री ), गौर धृत का भोजन कगता है ॥ २४६ ॥ 
मगल उपदशा फल-~ 
शोगमृत्यु भ्रमादश्च रक्तपित्तभगन्दरौ । 
कुभोजनं मानहानी शहोरपदश्चां कुजः ।। २४७ ॥ 
राहु कौ अन्तर्दक्षा में मंगल की उपदक्षाहोतो रोग से मृ्यु, प्रमाद ( पाल 
पम), रक्तपित्त विकार एवं भगन्दर, जपे रोर्गो से कष्ट, कुटितित भोजन की प्राप्ति 
तथा मन हानि होती ह ॥ २४७ ॥ 
गुवन्तर म उष्दथा ¶ल- 
गुर उपदश्च। फन-- 
यशोदयो महाबृदिर्णनहेमखमागमः। 
धुखमिहान्नमोज्यं च गुरौ स्वोपदशां गते ॥ २४८ ॥ 
हर की अन्तर्दशा मे गुड की उपदशाह्ोतो यस्च का उदय ( सम्मान बुधि), 
घम्पति का विस्तार, धन भौरस्व्णं का संचय ( लाज), दु हवा मधुर भोम 
की ब्राप्ति होती है ॥ २४८ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीम्याश्योपेता ४५५] 





शनि उपला फल-~ 
हयभमूमिपशुधरातिः सर्वत्र सुलमाप्नुयात्‌ । 
सुभोज्यं बहुषाध्यानि जीवस्योपदशां शनिः ॥ २५९ ॥ 
गुर की भम्तर्देशा में शनि की उपदशा द्रौ तो षोढा, भूमि, गौर प्रमो का 
लाभ, शवं घुल-प्राप्ति, सृन्दर भोजन, तवा अधिक अच्र (लेती मे अण्ठी उपज) 
का लाम होता है।॥ २४६ ॥ 


बुष उपदकश। फल-~ 


विच्चामोक्तिकशस्क्राणां लामो मत्रमयागमः। 
भश्चन स्नेहपक्वादि जोवस्योपदशां बुधः ॥ २५० ॥ 


गुरु की अन्तर्देश्षामे बुषकी उपदशाहो तो विच्चा, मोती मौरक्रखो का 
लाभ एवं मिर्त्रोषे भयकी भास्लका होतीदहै। तथा चृतपक्व सोजनका साभ 


होता है ॥ २५० ॥ 


केतु उपदक्ष! फल- 


बन्धूनां तस्क रादोनां कलितो मृत्युतो भयम्‌ । 
कुधान्यमदान जीवे केतोरुपदशं गते ॥ २५१ 


शुरु की बन्तदहामेकेतु की उपदक्षाहो तो मपने भाहयोंषे, बोर मादि 


हुष्टजनो से, विवाद एवंमृ्यु से मय तवा मोजन।बं निन्दिति अन्न प्राप्त 
होता है ।। २५१॥। 


१ 
शुक उपदशा कल-- 


हैमवस्त्रधनभ्ाप्तः क्षेमवृदिविभृषणः । 
भोजनं मधुरं क्षीरं जीवस्योपदशां सितः ॥ २५२ ॥ 


गुर की धन्तदकषा में शुक्र की उपदशा हो तो स्वे, वस्त्र गौर दन का लाभ, 
कल्याण बुद्धि, सुन्दर मृषो ते सुसञ्जित होता है तथा डुग निरभित मधुर 
भोजन को ब्रहण करता है । २५२ ॥ 


सयं उपदा फल- 
मातृपितृधनं भुङ्क्त राजपुज्यश्व जायते । 
घ्ुबमत्यादरप्रात्ति्जीविस्योपदश्चां रवौ ॥ २५३ ॥ 
गुर की अन्तर्द्षा मेयं की उपदशा हो तो जातक माता-पिता हारा भित 


धत का उपजोक करने बाला, राजानो से पूजित, तवा निश्चव ही अस्यजिक 
आदर प्राप्त करते वाला होता है) २५३॥ 


। 88: मानस्तागरी 





अम्र उपदशा फल- 
दधिमधुधुतक्षीरमणिमृक्ता सुलाभश । 
जीवस्योपदशां श्प कृदिपादभ्रपोडनम्‌ ।। २५४ ॥ 
कुर की न्तर्दशा में चन्द्रमा कौ उपदशा हो तो दधि, मधु, धृत, दुग्ध, मणि 
भौर मोती के सम्बन्धसे अधिक लाम होताहै तथा कुक्षि भौर वैरोमे पीडा 
होती है ।। २५४ ॥ 
मीम उपदशा फल-- 
धस्वशत्रुकृता पोडा गण्डमन्दाग्यजीर्णता । 
कुधान्यभोजनं भौमे जीवस्योपदस्चां गते | २५५॥ 


गुरु की अन्तदंशामें मौम कौ उपदशाहोतो ल्स्त्र गैर शत्रु से पीडा, 
खजली, मम्दारिनि, एवं अजीणं से कष्ट, तथा कुत्सित अन्न का भोजन 
होता है॥ २५५॥ 
राह उपदशा कल- 
चाण्डालव्याधिषत्रम्यः पीडनं वमनं भयम्‌ । 
कटुक्षारं च सम्भाज्यं जीवस्योपदश्षां तमः ॥ २५६ ॥ 
गुर को न्तदेशामें राहुकी उपदश्चाहोतो चाण्डाल ({ बधिक, निन्द कमं 
करने वाला), रोब भौर शत्रुओं से पीडा, वमन (उल्टी) रोग का भय, 
तथा कटु (कडवा) मौर नमक भिध्रित लटटे पदां ढे भोजनम रचि 
होती है ॥ २५६ ॥ 


शम्यन्दर प उपदशा शल्-- 


शनि उपदशा फल- 
जलौका देहपीडा च विदेशगमनं भवेत्‌ । 
कुषान्यतलिमश्नाति शनौ स्वोषपद्यां गते ॥ २५७ ॥ 
शनि की अन्तरदशामेंकनिकी उपदशाहोतोशरीरको कष्ट मौर विदे 
यात्रा होती है मोजन में कुरित अन्न भरति ही ने को मिलता है ।२५७॥ 


बुष उपदशा फल-- 
धनबुद्धौ रिपोः पीडा भन्नपानादिहानिकृत्‌ ' 
स्नेहं रसं विना भुश््तं सौरस्योपदशां बुधः ।। २५८ ॥ 
शनि की अन्तदंशा मँ बुष की उप्दक्षा होतो अं (षन) प्रान बुवि, 
सशरम वे पीडा, अन्न एवं पेय पदा्थोके सेवन से हानि, तथा स्मह ( वृत ) रहित 


"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योपैता ४१५७ 





ख्कछ्ा भोजन करने याला होताहै। ( अति उदरय्याधि से अधिक परहेज 
करना पडता हि) ) ।। २५८ ॥ 
केतु उपदशा फल~- 
सत्रुजिसमयं चातो दारिद्र च बहुदुषा । 
नीषसङ्गो कमी च सौरस्योपद्शा दिखी ।। २५९ ॥ 
शम्यम्तरमे केतु की उपदकषा हो तो श्रर्ओ हारा चित्तम भय, त्रास, 

दरिद्रता, अव्यकषिक भख का लगना, नीच जनों की संगति, वथा निन् पदार्थोके 
भक्षण मे रवि होती है ।। २५९ ॥ 


शुक्र उपदशा फल- 
शतवेस्यामवं द्रव्यं महिषोकृष्पलामदः । 
कन्याजन्म तदा गभं सौरस्योपदलां सितः ॥ २६० ॥ 
क्षनि की अन्तदेशामे शुक्र की उपदक्षाहो तो चूत ( जमा) भौर वेषयार्गो के 
संसर्गं से द्रव्यलाम, मैस एवं कृषि कमसे मी लाम होता है। यदि दइसदक्षामेंस्त्री 
को गमेहोतो कन्या का जन्म होता टहै॥ २६० ॥ 
सूयं उपदशा फल- 
शजाधिकारस्तेजस्वी व्याधिः पीडा ज्वरो व्यथा । 
कलत्रकललह चौय सौरस्योपदक्षां रविः । २६१॥ 


कषमि की अन्तर्दशा मे सयं की उपदक्षा हो तो मनुष्य राजकीय अिकारसे 
युक्त, तेजस्वी, रोग-पीडा मौर स्वर~ग्यथाते युक्त होतादहै। स्त्री के साथ कलह 
तथा गृहमे चोरी भी रोती है) २६१॥ 


चमा उपदशा फल- 
प्रमाणदुदि प्राघाष्यं बहुस्त्रोभोगवान्‌ भरनो । 
हविमधुक्षोरमोक्ता सौरस्योपदलां शली ॥ २६२ ॥ 
शमि की अम्तदभाये बन्दभा की उपदशः हो तो जातक बुदि प्रधान (कौडिक 
शम करने वाला ) एवं प्रामाणिक पुरुष टोता है । बहुत सौ स्त्रियो के साब सुख- 
भोग करने बाला, धनवान, हविष्यान्न, मधु, तथा दुग्ध युक्त मोजन करने बाला 


होता है ॥ २६२ ॥ 
भीम उंवदका कल- 


करवद्िरिपोर्मोतिर्बातरक्तालिमान्‌ नश | 
भोजनं मधुतपिभ्यां सौरस्योपदशां कुजे ॥ २६३ ॥ 


सषनिकी भम्तदशामे मंगल को उपदशाहोतो मनुष्य को शश्व, अण्न 





४४८ | भानसागरो 





ओर शत्रु भय, वायु-रक्त अनित पीडा, मधु भौर चत बुक्त भोजन प्राप्त 
होता है ।॥ २६३ ॥। 
राहु उषदल्ला फल- 


वोन मिप्ोर्वाक्चं कटुतीक्ष्णाप्लभोजनस्‌ । 
ं सौरस्योपदक्ां वमः।॥ २६४॥ 
शनि की अन्तर्दशा मे राहू की उपदशा हो तो धन-मूमि भौर पशग का 


नाक, कटु तिक्त एवं खट भोजन की प्राप्ति, मृष्यु ( मृत्यु हुश्य कष्ट ) तथा विदेष 
यात्रा होती है ॥ २६४ ॥ 
गुरु उपदक्षा फल - 
गृहध्वंसो भवेस्स्त्रीभिः क्लेशपीडानिरचमः । 
किञ्चित्सौस्यमवाप्नोति सौरस्योपदशां गुर! ॥। २६५ ॥ 
शनि की अन्तदंशा में गुरु की उपदक्षाहो तो स्त्रियों (के पारस्परिक कलह ) 
हारा गृह का नाश, मानसिक क्लेश, पीडा तथा निष्कियता ( वेकारी ) तवा कमी- 
कभी स्वल्प शुश्च की भी प्राप्ति हो जाती है ॥ २६५॥ 
बुषान्तर मे उपदशा फल 
बुष उपदक्षा फल- 
निचाबुद्धिधनप्राततिः स्वणं शूप्यं च माणिकम्‌ । 
लमते धान्यरत्नानि बुधे स्वोपद्चां गते ।। २६६ ॥ 
बुष अपनी ही अन्तर्दशा एवं उपदक्षा हो तो विचा बुदिगौर बन की प्राप्ति, 
सोना, वादी माणिक्य तथा उश्च कोटि के धान्यो (अन्न) की प्राप्ति होती है ।२६६।। 


केतु उपदश्चा फन- 
रक्तपिसकृता पोडा कख्यातोदरपोडनम्‌ । 
वस्त्रा्ं्चस्त्रहानिश्च सौम्यस्योपदशां दिली ।। २६७ ॥ 
बुष की अन्त्वेकामे केतु की उपदशा हो तो रक्त पित्त अन्य पीडा, इुश्यात 
( इृष्टकेश्पमे प्रसिद्ध), एवंउदरसे पीडितहोताहै तथा वस्त्र, भैनभौर 
शस्त्र की हानि (नोरी) होती टै ।॥ २६७॥ 
शुक उपदशा फल-- 
सौम्यदिक्ु भवेल्लामः पदशातिर्महत्युलम्‌ । 
भृटक्त मिष्ठान्नमाहार सौम्यस्योपदशां सितः ॥ २६५ ॥ 
बुषान्तर मे शुक की उपदशा हाती जातक को उततर दिक्ामें लाभ, बना 
पद एवं महान्‌ शख को प्राप्ति होती है तवा मिष्ठा्च एवं मुर पदाथा का भोजन 
करता हि २६८॥। 


"मनोरमा" हिन्दीष्यास्योपेता ४५९ 





सुय उपदक्षा फल- 
तेनोहानिः शिरःपीडा चोद्रगश्रलवि्कः। 
मवेण्छर्दो सौम्यस्योपदशां दवि, ॥ २६१ ॥ 
बुष की भन्तदेहामे बयं की उपदशाहो तो तेज की हानि, क्िरपीड, उद्धे, 
चित्त म बश्छलता, नेत्र विकार, तथा वमन (उष्टी) से कष्ट होता है ।। २६९ ॥ 
चन्र उपदक्षा फल- 
धियो लाभस्तथा कन्यासौम्यायं पृत्रपौत्रकः । 
निश्ठन्नमोज्यवस्त्राणि बुषस्योपदष्ां विधुः ।। २७० ॥ 
बुष की अन्तदंशामे बन्मा की उपदशा हा तो लक्ष्लीलाभ, कन्याप्राप्ति, 
शुमकायं हेतु वनसप्रह, पूत्र-पौत्र को वुद्धि, मिष्ठान्न मधुर शाख पदां एवं 
बस्त्रोकी प्राप्ति होती है ॥ २७० ॥ 


मौम उपदक्षा फल~- 
ाममृत्युश्रातिसारं चौराभ्निश्चस्त्रपीडनम्‌ । 
हानधमंघन गिः सौम्यस्योपदल्ां कजा ।। २७१ ॥ 
बुष की अन्तदेशा मे भौम की उपदक्षाहो तौ माम ( अजीर्णं ) रोगे मृष्वु- 
तुल्य कष्ट, अतिसार रोम, बोर, अग्निमौर क्षत्वसे पीडा, ज्ञान, धमं एवंषनकी 
प्राप्ति होती हि ॥ २७१ ॥ 
9 राहु उपदशा फएल--~ 
राजशत्रुमयं त्रासः कलहः स्त्री निरुत्सहा । 
स्नेहक्षीरं विना भुङ्क्ते वुधस्योपदशां तमः ॥ २७२ ॥ 
बुष की अन्तदंशामे राहु की उपदकशषाहोतो राजा मौर शत्रु से भय, त्रास 
(भार्तंक ) एवं कलह्‌ (विवाद) होता है । स्त्री साहसहीन होती है तथा जातक बी- 
दुष से रहित शलो भोजन करता है ।' २७२ ॥ 
गुड उपदक्षा फल--~ 
प्रधानपुरुषं राज्ये विचाबुदधिविवद्धनम्‌ । 
अन्नपानादिसौसषयं च बुधस्योपदश्चां गुदः ।। २७३ ॥ 
बुष की भम्तदेशामे गुरुकी उषपदश्षाहो तो राज्य में प्रधान पुरुवकी तरह 
सम्मान, विद्वा एवं बुद्धि का विस्तार, अन्न एवं पेय पदाथ का सुश्च प्राष्तः 
होता ह ॥ २७३ ॥ 
शनि उपदशा फल- 
विकलं चातपाताता बादपीशमहद्धवम्‌ । 
अननपानादिहानिश्च वृषस्योयदश्चां शतिः ॥ २७४ ।। 


४६० भानेसाभरी 





बुभ की अन्तदशामे सनिकी उपदक्षा हो तो आषात ( चों) एवं पात 
तथा ( उंवाई से बिरने) से चिकमता, वाब्ुजन्य पीड से महान भय, एवं लाननपान 
काभी अभावो जता है ॥.२७४॥ 
केत्वन्तर मं उकदशा एल 
केतु उपदशा फल- 
धननाशोपधातञ्च विदेशे दुःखपुरितिम्‌ । 
सर्वत्र विफलं बिन्धात्केतोरुपवशां कलिखो ।। २७५ ॥ 
केतु को भन्तदक्षामेकेतु की ही उपदक्षाह्ो तौ बनना, आबात, विदेश 
प्रवास मे बिविष प्रकारके कष्ट होते है तथा सवत्र असफलताही प्राप्त 


होती रै ॥ २७५ ॥ 
शुक्र उपदशा कल~ 


खतुष्पाटनहानिनत्ररोगः शिरो व्यथा । 
श्लेष्ममोर्थंहानिल्व केतोरपदशां भृगुः ॥ २७६ ॥ 
केतु को अन्तदक्षा मे शुकृकी उपदशाहोतो पशुभोंसे घन-हानि, नेत्र रोग, 
शिर मे व्यथा, कफ विकार एवं धघनकीहानि होती है ॥ २७६॥ 
रवि उपदक्ष। फल-~ 
मित्रस्वजनजोद्रेगो ह्यल्पमृत्युः पराजयः । 
भोजनं तक्रहीनं ष केतोरुपदल्तां रवौ ।। २७७ ॥ 
केतु की जन्तर्दक्षामें सूर्यं की उपदकशषाहौातो अपने मिर््रो एवं परिजन 
'( आशितो ) से मन में उद्विग्नता, बल्पायु में मृह्षु का भय, एवं पराजय होती ह 
तथा तक्र (मट्‌ठ।)से रहित भोजन मिलता है ॥ २७७ ॥ 
चन्द्र उपदक्षा फल- 
भन्तपानादिनाशं च व्याधिस्तस्य च विभ्रमः । 
मिष्ठान्नमोजनप्रात्तिः केतोर्पदक्षां शशौ । २७८ ॥ 
केतु की मन्तर्दडामे चन्द्रमा की उपदेक्षाहो तो अन्न गौर दुग्ब आदि पेय 
पदार्थों का नाश ( अभाव), व्याधिं (रोग) एवं विभ्रम ( वि्षिप्ताबस्या ) होता है 
परन्तु भोजनाय मिष्ठान्न की प्राप्ति होती रहती है ॥ २७८ ॥ 
भोम उपदशा फल- 
कहु: शत्रौ रणे भीतिर्वतिकष्टं भवं नृपात्‌ । 
कचाग्यं मरस्यमांसानि केतोक्पवर्शां कूजः । २७६ ॥ 
केत्वन्तर मे मौम की उषदकशाहोतो जगनि, शन गौरसप्रामसे जव, बायु- 
अम्य पीडा एवं राजा भवं होता हि । निङृष्ट जन गौर मर््स्य-्मासि दिके 
-अक्षण मे भिरष्वि होती है ॥ २७१ ॥ 


“मनोरमा' हिन्दीष्याश्थोपेता ४६१ 





राह उषदन्षा कल-- 
शश्वतो हि भयं स्त्रोणां नोेभ्योऽधिकपीडनम्‌ । 
बुभुक्षितं पराधीनं केतोख्पद्चां तमः ॥ २८० ॥ 
केतु के अम्तरमे राहुकीो उपदक्षा होतो शत्रुओं ङे भव, नीब भ्यक्छियों त 
स्त्री को कष्ट, मृज्लसे पीडति वथा पराधीन ष्यक्ति होता है। २८० ॥ 
गुड उपदक्षा फल- 
विवादो धनहानिश्च वस्त्रमन्त्रादिनाशनम्‌ । 
केतोरुपदष्ां जोव शख्खधान्यादिमोजनम्‌ । २८१ ॥ 
केत्वन्तरमे गुरु की उपदा होतो विवाद, धन हानि, वस्त्र एवं मन्त्र 
(उपदेश भौर साधना) का नाश, नथा शूखा-सूका भोजन प्राप्त होतादहै। २८१॥ 
शनि उपदक्षा फल- 
वस्तरान्नपानहानिश्च सुखमाश्चमपीडनम्‌ । 
गोमहिष्यादिनाशं च केतोरूपदशां शनिः ॥ २८२ ॥ 
केतु की अन्तदशामें शनि की उपदा होतो वस्त्र, अन्न पेय ( दुग्ब मादि) 
पि हानि, सुख ( मानसिक शान्ति) ओौर आश्वम (सामाजिक बन्धनो से) पीडा, 
7 -मेस मादि पशुभों का न्ग्ल होतादहै। २८२॥ 
बुधं उपदशा फन- 
धरत्रपोडा महोद्वेगो विद्याबन्धुधनक्षयः । 
केतोरुपदशां हि जन्तोः सौम्येन संशयः ।। २८३ ॥ 
केतु की जन्तदंशामे बुष की उपदशा होतोक्त्रुओंसे पीडा, महान्‌ उद्धेग 
उलक्षन ), विद्या का हास, बन्धु एवषन का नाक्च होता है इसमे संक्षय 
हीं ।॥ २८३ ॥ 
छकान्तर मे उषदशा रल 


शुक उपदशा फल-- 
माणिक्यसुन्दरी प्ाति्म॑ष्वाज्यपयभोजनम्‌ (?) । 
एवेतवस्वस्य सम्थाप्िभृ गुः स्वोपदश्षां गतः । २०८४ ॥ 
शुक्रान्तरमे शुक्र को उपदशाहो तो माणिक्य ( रत्न ), चुन्दरी-स्त्री, मघु- 
त आओौर दुग्ध मिधित भोजन तथा इवेत वस्र को प्राप्ति होती है ॥ २८४॥ 
सूयं उपदा फल- 
राजद्यभज्वरत्पीडा हदि जषाङ्िरोष्यवा । 
प्वल्पाचनन् लाभ शुक्रस्यौपदश्षां इवि) ।। २८५॥ 


४६२ मानलाभरी 





शुकरन्तर म सूर्यं को उपदक्षाहोतोा राजन भौरम्बरसे पीडा, हृदय. 
अधा, एवं सिर में कष्ट ( रोब); स्वल्प भोजन तथा स्वल्प लान होता है ।२०५॥ 
चन्र उपदक्षा फल- 
राज्याधिकभरदो राज्ये लभते वस्त्रकाश्चनम्‌ । 
कन्थाजन्भकलप्रापिः शुक्रस्योपदशां ्चश्ी ।। २८६ ॥ 
शुकान्तर मे चन्रमाको उपदक्ाहोतो राजकीय अभिकार्योमे बुद्धि, वस्त्र 
एवं स्वर्णं का लाभ, तथा कम्या की उत्पत्ति होती है ॥ २८६ ॥ 


मौम उपदशा फल-- 
अलाभं ताडनं क्लेशो रक्तपित्तश्रपीडनम्‌ । 
अन्नतपानादिसौर्यं ख शुक्रस्योपदश्चां कूजः ॥ २८७ ॥ 


शुक की अन्तदेला मे मंगल की उषदक्षाहोतो हानि, मारन्पीट ( अपमान 
क्सेदा, रक्तपित्त जन्य पीडा तथा खान-पान का सुख प्राप्त होता है ॥ २८७ ॥ 


राहु उपदशा फल- 


राजलत्रमवा पीडा स्त्रो्त्रकलहो भवेत्‌ । 
भोजने कटकार सितस्योपदश्चां तमः ॥ २८८ ॥ 
शुक्रान्तरमें राहु की उपदशाहोतो राजा गौर शत्रुबोंषे कष्ट, स्त्रीएवं 
शतरर्मो से कलह होता है) कवे तथा क्षार पदार्थो के भोजन में रचि 
होती है ॥ २८८ ॥ 
बुर उपदशा कल- 
वत्रमृक्तापदप्रापिगं जाश्वादिगवां (? ) धमेत्‌ । 
कपु रमिष्टमाहारं शुक्रस्योपदश्चं गुरः । २८६ ॥ 
शुक्र की अन्त्दशामे गुरु की उपदशा होतो वच ( हीरा), मोती भौर 
उश्च पद की प्राप्ति, हाथी-बोढा भौर भाय का लाभ, कर्पुर तवा अभीष्ट बस्तुर्भो 
का ( इच्छानुक्ल ) भोजन भ्राष्त होता है ॥ २८९ ॥ 
शनि उपददा फल -- 
गब्युषसर्लौहादि लभते स्वत्पलामङृत्‌ । 
भोजने तिलमावाश्न शुकरस्योपदद्ां शनिः । २१० ॥ 
शुकरान्तर मे शनि की उपदक्ता हो तो गाथ, ढेट, भधा नादि पुणो एवं लोहा 
भभुति धातुर्गो ते स्वल्प लाभ, तथा भोजन मे तिल भीर उडद ही प्राप्त होता है । 
< श्रायः इम्ही वस्तुनो मे इचि होती 8 ) ॥ २९० ॥ 


"अनो रमा" हिम्दीभ्याख्योपेता ४६३ 


बुष उपदशा फल-~ 


बुदिविक्लानराज्यश्रीनिष्यधिकारलामङ्त्‌ । 
भजनं हवितक्राध्यां शुक्रस्योपदण्चां बुधः । २९११ ॥ 
कुकर की अन्तदक्षा मे बुषकी उपदशा हो तो बुदधि-विक्चान, राभ्यलक्ष्मी 
( राजकीय उश्ब पद ); जाना, गौर अधिकार की वृद्धि तथा धुत श्वं महु बुक्त 
भोजन मे अभिरुचि होती है । २९१ ॥ 
केतु उपदश्चा फल-- 
भ्रमणं देशग्रामाणं रोगमृ्युमहद्धयम्‌ । 
लभते द्रब्यघान्यादि शुकृस्योपदश्षां शिखी ।। २६२ ॥ 


शुक्रान्तरमें केतु की उपदशा हो तो विभिन्न देशो ( स्थानो) एवं प्रार्मोभें 
भ्रमन, रोग गौर मत्वुसे भयद्भुर भय, तथा व्रब्य ( रूपये-पेसे ) गौर नका 
लाभ होता है ॥ २६९२॥ 


न्ध्या दशण्न्- 
रविसम्ध्या कल~ 
प्ण्थ्या दिनेष्य विपाककाले घनागमं श्ौर्यनरेष्दरसोख्यम्‌ । 
धर्मोचिमं सौस्यमतीवतीक्ष्णं भूपादिमौस्यं विभवादिमानम्‌ ॥ २९६३ ॥ 


सूँ की सम्ध्या दशा कालमें धन का आगमन, शौयं ( पराक्रम), राजा 
ते शुश्च, धम के आचरण मे पंलग्न, प्रबल पुश, राजा्गोंसे सुखं तथा सम्पत्ति आदि 
से सम्मान प्राप्ठ होता है ।। २६९३ ॥ 
प्रवष्डवित्तं स्वकूलाधिकारं सुक्णतान्नाश्वश्यादिप्रात्तिः । 
बरोग्यताबिद्रुमश्स्नलाभं प्राप्नोति कीतिं रिपुसंक्षयं च ॥ २९४॥ 


अस्यचिक धनलाभः, अपने कूल का अधिकार, स्वर्णे, ताञ, अश्व, रथ, आदि 


की प्राप्ति, निरोकता ( स्वास्य लाभ), मगा, गोर रल्नोंका लाम यक्ष बद्ध 
तथा शत्रु्भो कानार होता है ॥ २६४॥ 
तुङ्गादिसंस्वः फलमेव सन्ध्या नीवारिसस्थोऽप्यशुभं फलं च । 
तद्बंना्चं  पितवन्बुहानि हदक्षिपोडकरपिस्तरोगम्‌ । २६५ ॥ 
सूर्यं अपनी उच्य राति (मेष) मं स्थितहोतो उक्त फल होते है। यदि 
अपनी नीच राक (तुला ) या शर प्रहकी राशि ( कव, मकर. कुम्म) मेहोतो 
अशुभ फल होता है चथा वना, पिता एवं बन्धुर्यो को हानि, हदय भौर बर्ण 
मेँ पीड़ा तथा पित्त अम्य विकार उत्पन्न होता है । २१५॥ 


४६४ मानसोनरी 





अन्ध सन्ध्याफल- 


निशलेलसन्ध्यापरिपाककाले प्राप्नोति विं दिजमन्निसौख्यम्‌ । 
स्वविक्रमास्च स्थगुणेः सुवणं सुगन्धिद्रध्यादि सुकाला मष्‌ ।। २९६ ॥। 
चन्द्रमा की सन््याहो तो षन, ब्राहमण, मौर मन्त्री सुश्च, अपने पराक्रम 
गौर गुणों से स्वणं एवं सुगन्थिति देव्य का लाभ तथा सह्कायो मे सकलता 
भिलती है । २६६ ॥ 


प्रगोधकल्याणघनात्मजातिरमीषसिदिषंनधमलामम्‌ । 
सत्साधुसम्पककथानुरक्तं कुलाधिमुख्यं नुपपूजितं च ।। २६७ ॥ 
विक्ेष-ज्ञान, कल्याण, घन ओौर पुत्रको प्राप्ति, अभीष्ट कायो मे सिदि, 
धन गीर धमं का लाभ, स्पुशुषों ( उच्च कोटिक महात्मार्गो) के संसग एवं 
उनके उपदेशो में अनुरक्त, अपने कुल में श्रेष्ठ, तथा राजा्बों ते पूजित 
होता है ।। २९७ ॥ 


नीचारिसंस्थे कृषकस्वखूपो मित्रारिहर्ता वृहिषुः प्रसूतिः ॥ 
अ्थंक्षयं गोकदजादिकष्टं क्रोषोद्धवं विद्रवमृ्युकारी 1) २६८ ॥। 
चन्द्रमा यदि अपनी नीच ( ककं ) राशि अथवाशत्रु राशिमें स्थितहो तो 
कुषिकायं करने वाला, भिर्रोके शत्रर्ओका दमन करने वाला होताहै। कन्या 


सन्तति की उत्पत्ति, धन कानाक्ष क्षोक भौर गोगसे कष्ट तथा क्रो से उष्पन्न 
कायो हारा मृत्यु दुल्य कष्ट होता है ।। २६८॥। 


अम सन्ध्या कल~ 


स्वपाककाते धरणीसुतस्य सन्व्या समाप्नोति महाप्रतापम्‌ । 
शौय हविस्तस्कशर्पापकर्मा दोर्दष्डतेजा रणसाहसी च ॥ २९९ ॥ 


मंषल की सन्ध्या दक्षाहोतो जातक महान्‌ प्रतापी, शुर, चोर एवं पापकम 
करने वालों के लिए अग्नि के समान, अपने बाहुबल मौरतेजसे विसयात्‌ तथा 
संग्राम में साहसी होता है ॥ २६६॥ | 
नृपेष्वरः शरत्रविषाभ्निकमंनेतातथाप्नोति कुल्लस्यध्मम्‌ 
कान्तादिकायं सतता्थलानं हेमाङ्गनातान्नहिरण्यलामम्‌ ॥ ३०० ॥ 
राजानो मे शष्ठ, शस्त्र, विष मौर अग्निके कायों मे निपूज, अपने क्रुलोचित 
आचरण को मनने बाला, स्त्री जादि दे पम्बन्वित कयांको करे बाला, 


निरन्तर धन लाभ. सुवन, स्त्री, तान्न तथा स्वरणं (स्वने की वस्तुर्मो) का लाभ 
करते बाला होता है ॥ ३०० ॥ 


'मनीरभा' हिन्दीष्याख्यौपेता ४६५ 





बुधसन्ध्यादशा फल-- 
बुधस्य सन्ध्या विदधाति शश्वद्धनागमं मित्रकलत्रपत्ैः । 
वणिक््रयोगादलिलेः सुकाग्येमहेन््रजालेः कुहकादिभिश्न ॥ ३०१॥ 
बुष की सन्ध्यादशा हो तो मित्र-स्त्री मौरदु्त्रोद्रारा निरन्तर भन लाभ होता 
है । इसके अतिरिक्त व्यापारे, विविध प्रकारके काव्यां की रचना से, इन्द्रजाल 
( जाशगरी ) से, तथा छल-प्रपश्चसे भी धनोपार्जन होता है।॥ ३०१॥ 


दचतप्रयोगाद्‌ द्रिपक्ममन्त्ररदवज्जसिद्धान्तरसायना्ैः। 
मूहैमलोहस्वनपात्मजेम्यो लामो धनानां सुखसौख्यवृद्धिः ॥ ३०२ ॥ 


जभ खेलने, हायियों से सम्बन्वित कायं ( ्रय-विक्रय आदि), मर्क प्रयोग 
( तान्त्रिक वृत्ति ), ज्यौतिष विद्या, आयुरकद ( चिकित्सा), मूमि, लोहा, स्वर्ण, 
राजा एवं पूत्रो के सहयोगसे धन लाभ तथा सुख की वृद्धि हातीदहै॥ ३०२॥ 
नोचारिसंस्थोऽस्तमितश्च सौम्यस्त्रिधातुपोडां कृष्तेऽ्थनाद्यनम्‌ । 
कलत्रहानि नृपबन्धनाप्ति परस्वदुःखं नृपपीडितशख॥३०३।। 


यदि बुष नीचराक्षि (मीन) या, हात्रुराशिमं स्थित हो अथवा अस्तंगतहोतौो 
त्रिधातु ( बात-पित्त-कफ ) जन्य पीडा, घनानि, स्त्री हानि, राजकीय बन्धन 
पराये घन के कारण कष्ट तथा राजास पोडहोतीरै।। ३०३॥ 


गुरुसन्ध्यादकशषा फल-- 
गुरः स्वषन्ध्यां लभतेऽतिषोख्यं हेमाम्बरं रत्नगजाश्वजातम्‌ । 
धनं लभेत्पुत्रसमुच्चयं च स्वधमं सिद्धि द्विज्ेवपुजाम्‌ । ३०४ ॥। 
गुह अपनी सन्ध्पा दशाम अत्यधिकं सु, स्वण, वस्त्र, रल्न-जश्व-मौर हाचियों 
के सम्बन्धसे धन नाभ, पूत्रो की उत्पत्ति एवं घर्माचरणमे वृद्धि तथा विप्र ओर 
देवतार्ओं के. पूजनम सिद्धि ( सफलता) प्रदान करताहै।॥ ३०४॥ 


जनागमं च त्रिदिवेश्वरत्व वेश्म पवेशस्त्वपि चाथंसिदिः । 
स्वजातिसन्मानमतिग्रहषं भूपालसौख्यं विविघाथलार्मम्‌ ।। ३०५ ॥ 
जनागम ( अत्तिथियों का आगमन), इन्द्रकं तुल्य पराक्रमी, गृह प्रवेक्ष 
( नृतन गृह मग्रे), धन लाम, अपनी जाति मे सम्मान, अत्यन्त प्रसप्नता, 
राजकीय सुक्ल. तथा विविच प्रकारके घन कालाभहोगा।। ३०५॥ 


विदेशनिम्ने कतगोविवरणेर्गृरः श्वपाके सुहदर्थनाशम्‌ । 
भूपालमभङ्ग सुतकष्टरोगं करोति पाके बहुदुःखकारो ॥ २०६ ॥ 
गुर अपनी नी र।श (मकर)म होतो विदश्च प्रवास, निन्दित कार्ये, 


३० भा०्मा० 


४६६ मानसाभरी 





भिन्रोके धनका नाकच, राजानो कीहानि, पृजको कष्ट, रोय तथा विभिष 
प्रकारकेदुःलीको प्राप्ति होती है । ३०६॥ 


शुकरसन्ध्यादशा फल- 
दैत्येन्दपुज्यस्य करोति सन्ध्या महाथंसम्प्रात्तिमतोवसौस्यम्‌ । 
नृपेश्वरत्वं स्वकुलाधिकारं पराप्नोति वित्तं मणिमोक्तिकानिं ।। ३०७ ॥ 
शुक की सन्ध्याहोतो अपार धन की प्राप्ति, भत्यधिकं सुक्ल, राजार्नोंका 
अधिपति, अपने कुल के अधिकारसे युक्तः धन, मणिमभौर मृक्ताकी प्राप्ति 
होती है ॥ ३०७ ॥ 
गजास्वयाना सनमानहर्षेः पख्यातकर्मा कयविक्कयाणाम्‌ । 
धनागमं भूकृषिणा महोक्षः कलत्रवृद्धि सुखसौस्यजातम्‌ ॥ ३०८ ॥ 
( यदि शुक्र अपनी उच्च राशिमेहो तो) हाथी-षोडा-वाहन-मासन, सम्मान 
भौर प्रसन्नता ते युक्त क्रय-विक्रयके कायं में सुप्रसिद्ध, मूमि हषिकमं गौर बलों 
से घन लाभ, स्त्रियों मे वद्धि तथा सुख प्राप्त होता है ॥ ३०८ ॥ 
शुक्रगते निम्नगृहेऽरिगेहे योधंजितो वा रविलिप्तगपिः । 
दुष्टा ङ्गनासङ्खमसौख्यहत्ता धनक्षयं स्व्ोसुतघमनाशम्‌ ।। ३०६ ॥ 
शुक्र अपनी नीचराक्षिया रात्र राशिमें स्थितिहोयासूर्वंकी किरणोंमें भस्त 
हो तो योडानों से पराजित, दुष्टा स्त्रियों के सहवास ते सुख का नाश, धन हानि, 
तथा स्व्री-दृत्र कानाशहोता दै । ३०९॥ 
शानिसन्ध्यादक्षा फल- 


सदव तोक्ष्णांशुसुतस्य सन्ध्या ददाति लाभं स्वकुलाधिकारम्‌ । 
खरोषटूगोपाक्षिकधान्यवस्त्रकुलित्थभाषादिककोद्रवाप्तिः ॥ ३१० ॥ 


शनि कौ सन्ध्यादशा सदैव लाभ, अपने कुल का अधिकार, गधा, उट, गाय, 
पक्षी, अन्न, वस्व, कुलयो, उडद एवं कोदो ते लाभ प्रदान करती है ॥ ३१०॥ 


वन्देश्वरं ग्रामपदाधिपस्यं कूलोन्नति होनजनप्रमाणम्‌ । 
लोहायसोसत्रपुषन्महिष्यंधंनागमं मर््यचतुष्पदाखर्च ॥। ३११ ॥ 

( शनि अपनी उच्वराक्चिमे होतो) जन धमूह्‌ (किसी षार्टी) कानेता, 
ग्राम का पदाधिकारी ( सभापति), गपने कुल में उन्नतिक्षील, निम्नवर्गं का 
प्रामाजिक व्यक्ति, लोहा, सीसा, त्रु ( रागा), उक्तम नस्लकी मैरसोके व्यापारः 
से एवं अन्य चतुष्पदो ते धनकालाम होता है। ३११॥ 


नीचारिसंस्थास्वमितोदितस्य सौरस्य पाके कुरते च कष्टम्‌ । 
सद्बन्धुभार्यार्थसुपुत्रनाश्चं देहे रजा तोतव्ररवरानिलोत्या ॥ ३१२ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याष्योषेता ४६७ 


शनि यदि अपनी नीचया शत्रुराशिमे होया मस्तंमतहोतो कष्ट, अपने 
भारई-स्त्री-धन एवं पृत्र का नक्ष, शरीरमे रोग, तथा वायु विकारे तीत्र ज्र 
होता है ।॥ ३१२॥ 


उक्तान्यतो द्वादशभिः प्रकारेर्नेसगिकादीनि दष्यान्तराणि । 
तत्रापि सन्ध्याफलपाक उक्तः स चिन्तनीयः सदृश्चः फलेन । ३१३ ॥ 
नैसर्गिक भादि बारह प्रकारसे दशा-अन्तरदेशार्भो का फल कहा मया । इसके 
अनम्तर सन्ध्यां दक्षा काफल कहा ग्यादहै। इस दशषाका भी विचार उसी प्रकार 
करना चाहिये जैसे अन्य दशषाभों का करते हैं) ३१३॥ 


ध्रयदथा मं पावकदशा एब- 
सू्य॑-सूर्यदशा फल- 
राजमानं सुखं चव सम्मान शत्रुनाशनम्‌ । 
लभते सौश्यला्भं च रविमध्ये स्वयं रविः ॥ ३१४॥ 


सूयं को दशाम सूयं की पाचक दकश्षाहो तो राजसम्मान, सुख, प्रतिष्ठा, 
शत्रर्ओ का नाश, एवं सुख-लाभ होना है | ३१४ ॥ 


सुय-चन्द्रदला फल- 
रोगादिनाशं धनधान्यलाभं शक्रक्षयं प्रोतिसुखोदयं च । 
सूर्य॑स्य चण्द्रान्तरसन्धिपाके तत्रास्तभाददित्रिशुभं करोति ।। ३१५॥ 


सूर्यं मे चन्द्रमा की पाचक दशा भाने पर रोगादि कष्टोंका नाश, भन-धान्य 
नाभ, शत्रगों का नाक्ष, प्रीति, एवं सुख का लाभहोताहै। अस्त प्रह की अपेक्षा 
( उश्बस्थ ग्रह ) द्विगुणित-त्रिगूणित फल प्रदान करता है। ३१५॥ 


सू्य॑-मङ्गलदशा फल- 
दिवाकरस्यान्तरगः कुजश्चेल्लामो भयं विक्रमहेमताज्नम्‌ । 
संग्रामधर्याजयवाहनानि भ्रचण्डतां भूपसुखं करोति ॥ ३१६ ॥ 
सूयं की दक्षामे मंगल की पाक दकशाहोतो लाम, भय, पराक्रम, स्वर्णं, 
ताश का लाम, संग्राममे विजय, वाहन, स्वभावमें उग्रतातथा राजासे सुख 
प्राप्त होता है ।। २१६॥ 
सूर्य -बृषदशा कल-- 
देहे च कष्टं उवररोगदौस्थ्यं करोति शोकक्षयकषत्रुवेरम्‌ । 
अर्थ्यं रोगरुजा्रवासं बुधो विपाके दिवसेश्वरस्य ।। ३१७ ॥ 


सूयंदशा पे बुध की पाचक दशा होतौ शरीरमें कष्ट, ज्वर, रोग, क्षय, 


४६५८ मानसागरी 





शोक, शात्रुगों से वैर, धन हानि, रोग के कारण विदैशामें निवासत करना 
पडता है ।॥ ३१७ ॥ 
सूर्य-गुरदशा फल- 
पापादिरोगय्यसनादिमुक्तोधंमोदियं जानसुखागमं च । 
सूर्य॑ः सुरेज्यान्तरमो विपाके करोति लक्ष्मीं धनवर्धनं च ॥ ३१८ ॥ 
सू्यदक्षा मे गुरुकीपाचक दकशाहो तो पाप-रोग-ष्यसन मादिसे मुक्ति 
धार्मिक क्रियाओं का उदय, ज्ञान-सुख में वृद्धि, लक्ष्मी ( समी प्रकार की सम्पत्ति) 
तथा धन का लाभ हौतादहै। ३१८॥ 
सूय-शुक्रदशा कल- 
दद्रुशचिरोगान्‌ (?) गलरोगदोषाच्छरुलं ज्वरं वा सुहृदः स्वहर्ता । 
शस्त्राद्धयं मृत्युसमानकष्ट ॒सूर्थान्तरे दंत्यगुरः करोति ३१६॥ 
सूयं मे शुक्र की दशा होनेसे दाद ( दिनाय ), शिर एवं गलेसे सम्बन्धित 
रोगों के कारण शूल, ज्वर, मित्रके धन का अपहरण करनेवाला, शस्वसे भय, 
तथा मृत्यु तुल्य कष्ट होता है ।। ३१६ ॥ 
सूय-शनिदशा फल-- 
का्य्थंनाशं क्ितिपालभङ्गं देह रंजापित्तसमुद्धवं च। 
विद्युद्भयं बुद्धिविनाशदेन्यं सन्ध्या तु सौरेदिवसेण्वरस्य ॥ ३२० ॥ 
सूय मेकशनिकीदश होतो अभीष्ट कायं एवं धन का नाक्ष, राजा कीषरा- 
जय, शरीर में पित्तजन्थ पीडा, विद्युत ( बिजली) से भय, बुदिका नाश तथा 
हीनता ( नि्ष॑नता ) होती है । ३२० ॥ 


चन््रदशा म पवक दशा एल- 


चन्द्र-चन््रदशा फल--` 
मणिमुक्ताफलं चेव सौख्यानि विविधानि च । 
वस्त्रप्रात्तिः सुखप्राप्तिः स्वपाके तु यदा शशी ॥। ३२१ ॥ 
चद्दमामे चन्द्रमाकीदही पाचक दक्षाहो तो मणि-मूक्ता (मोती प्रमृति र्न), 
विविधं प्रकार की सुख सामग्री वस्त्र तथा शुखका लाम होता है ॥ ३२१॥ 
चन्द्रम ङ्गलदशा फल-- 
रक्तवस्तुभवो क्षाभो विदेशगमनं भवेत्‌ । 
सुखसन्तानमाप्नोति चन्द्रे भौमस्य पाचके ॥ ६२२ ॥ 
चन्मे मोम की पाचकं दशाहो तो लाल-वस्तुभो से सम्बन्धित लाभ, 
विदेश यात्रा, सुश्च एव सन्तान की प्राप्ति होती ह।॥ ३२२ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीग्यास्यौषेता ४६९ 


बन्द्र-बुधदशा फल-- 
दुःखं सुखं समं चेव लाभहानो तथेव च । 
उद्वेगवशगो नित्यं चन्द्रस्थान्तगंते बुधे ॥ ३२३ 
चन्द्रमामें बुघ की पाचक दारो तो दुःख मौर सुख लाम एवं हानि दोनों 
समानकश्पते मिलता है) तथा प्रतिदिन जातक उद्विग्न रहता है ।। ३२३ ॥ 
चन्द्र-गुरुदशा फल- 
स्वणंलाभं पृत्रजन्म ह्यानन्दं हषंसंयुतम्‌ । 
मणिर्मुक्ताफलं चव चन्दरस्यान्तगंते गुरौ ॥ ३२४ ॥ 
चन्द्रमा गुरु कीदकशाहोतौस्वणं लाम, पुत्र जन्म, आनन्द, प्रसन्नता, मणि, 
मुक्ताफन ( मोती } आदिका नाम होता दहै) ३२४॥ 
चन्द्र .शुक्रदश्च। फल-- 
उत्तमस्त्रीजनंर्योगो दिव्यक्न्यासमृद्धवः। 
घमयृक्ता धन्राप्तिश्वन्द्रस्यान्तगंते सिते । ३२५ ॥ 
चन्द्रमा की दकशामे शुक्रतो पाचक दशाहो तो उत्तम स्त्रियो ते सम्बन्ध, 
दिष्य ( परम सुन्दरी ) कन्याभौ क) जन्म, धार्मिक प्रवृत्ति नथाधनकालाभ 
होता है । ३२५॥ 
चन्द्र-लनिदशशा फल-- 
वेश्यागमं करोत्येव विवाद श्त्रीसमागमः 
अकस्माद्धनलाभश्च चन्दरमध्ये शनियंदा ।। ३२६ ॥ 
चन्द्रमामे शहनिकी दकशाटो तो वेष्याओंके साथ समागम, विवाद, स्त्री 
समागम तथा भाकस्मिक घन लाभ टोता है ।। ३२६॥ 
च्द्र-सुयदशा फन-- 
मणिविद्रुमलामं च सर्वसौख्यसुखागमम्‌ । 
प्रतापं गन्धसंयुक्तं करपरादि शशो रवेः ॥ ३२७ ॥ 
चन्रमा कोद मे सूयं की पचक दशा होतो मणि, मँंगा ( सदृक् रल्नों) 
का लाम, सभी प्रकारके सुल, प्रताप, सुगन्ध युक्त कर्पूर आदि पदा्थोका लाभ 
होता ह ॥ ३२७ ॥ 


मोमदशा पे पाषक्दशा एल- 
मौम-भौमदक्ा फलन 
भौमे कषत्रुविमदंः स्यात्कलहो बन्धुभिन्‌ णाम्‌ । 
स्वाम्तरे बहूपीडा स्थादवृदस्त्रीगणिकारतिः ॥ ३२८ ॥ 


#७* भानताभरी 


। णकार िी] 


भौम की सन्ध्या दलामे भौमकी ही पाक दरशाहोतो शत्रुभों का दमन, 
भाई-बन्धुजो के साथ कलह, शारीरिक कष्ट, वास्त्रो एवं वेहपामोंके साथ प्रीति 
होती है । ६२८ ॥ 





मौम-बुध दशाफल- 
बलं मानं सुखं चव धनलाभसुशागमम्‌ । 
लभते मानवो नित्यं मौममध्ये बुघो यदा । ३२९ ॥ 
भौम कीदशामें बुष की पाचक दशाहोतो बल (शक्ति), सम्मान, बुल, धन 
गीर सुख का लाभ मनुष्य को नित्यप्रति प्राप्त होता है।। ३२६९६॥ 
मोम-गुरु दका फल- 
सौभाग्यं सौरुयमतुलं नानाशत्र विमर्दनम्‌ । 
लमते सुखसौभाग्यं भौममध्ये गुरुयंदा । ३३० ॥ 
भौमकी दशामे गुरुकी पाचक दशा होतो सौभाग्य, अपार सुख, अनेक 
सत्रेगं का दमन तथा सुख-सौमाग्य को प्राप्ति होतीदहै) ३३० ॥ 
भोम-शुक्र दशा कल-- 
स्वदेहपीडां धनमानहानि महत्तां सुखवजितं च । 
ददाति भौमान्तरगो भृगुश्च धर्माथं सिद्धि वि जयं तथेव । ३३१ ॥ 
भौमदश्चान्त्गत शुक्र की पाचक दशाहो तो अपनेक्शरीरमें पीडा, भन एवं 
सम्मान की हानि, महान्‌ प्रताप (परमाव वृद्धि) एवं सुल का भमाव होता है । इसके 
अतिरिक्त ध्म-जर्थं भौर काम की सिद्धि तथ विजय भी प्राप्त होती है ।। ३३१॥ 
भौम शनि दक्षा फल~- 
स्वदेश्चमगं कुरते शनौ कुजो विपाककाले सुखव्जितं च । 
धनागमं ह्यर्थ विनाशन च तेवा भवेन्नीचजनप्रतापे । १३३२ ॥ 
भोमदहा में शनि की पाचक दशाहोतो बषने देश (स्वान) का नाशः सुख 
का अभाव, वनकीप्राम्ति तथान का नाश तथा नीच अनोंके संसर्गे ते तेषा 
कायं करता है॥ ३३२॥ 
भौम सुयदशा फल- 
सूर्यो रोगविनाश्चं च॒ श्वेतवस्तुफलप्रदम्‌ । 
सम्मानं चव भूपालात्‌ सर्वंसीख्यं धनागमम्‌ ॥ ३१३ ॥ 


मंगल मेद्य की पा्कवशाहो तोरोगका नाशः श्वेत बस्तुर्मो ते नाभ, 
राजा से घम्मान, सभी प्रकार का सुल तथा थनका लमहोताहै॥ ३३६३॥ 


मनोरमा" हिन्दीग्याख्योपेता ४७१ 





मौम-बन्द्रदशा फन -- 
ददाति हिमाम्बरसोख्यलाभं धनं तया मोगसुखं च सन्ततिम्‌ । 
मिच्रागमं ्नातुपितुश्च भक्ति ददाति बन्द्रोऽन्तरगः कुजस्य ॥ ३३४ ॥ 
भौम की दशाम अद्रमा की पाच दक्षाहोतो स्वर्ण, वस्त्र, सुल, लाभ, 
धन, मोग-सुल ओर सन्तान की प्राप्ति होती है। पित्रोंका जागमन तथा माता- 
पिता के प्रति श्रद्धा भाव उ्पन्न होता है ॥ ३३४॥ 


बुधदशा मे पाचक दशाकल- 
बुध-दुधदया फल- 
स्वओोधनुदधिदं चैव शत्रणां च क्षयङ्कुरम्‌। 
द्रव्यला मं धनं सौख्यं स्वपाके बृघगे सदा ॥ ३२५ ॥ 
बुष की दशामे बुधकौो ही पाचक दक्षाहोतोञ्जन बौर बुदधिमे बृद्धि, 
शत्ररमो का नाक्ष, दष्यलाभ, घन भौर सुक्षकीप्रात्ति होती है ॥ ३३५॥ 
बुध-गुरुदशा कल- 
हेमाम्बरादिलम्धिः स्थाद्रिदेशगमनं भवेत्‌ । 
बुधस्यान्तगंते जीवे धनधान्यसुखं भवेत्‌ ॥ ३३६ ॥, 
दुधदशान्तमत गुरु हो तो स्वर्णे-वस्व को प्राप्ति, विदेक्ञ-यात्रा, तथा घन-षान्य 
का सुल प्राप्त होतादहै।। ३३६॥ 
बुध- शुक्रदशा फल- 
बुधमध्ये यदा शुक्रो भवत्येव सुलागमः। 
घनषान्यसमृद्ध॒स्याद्बहूसौख्यं करोति च ।। ३३७ ॥ 


बुष कौ दशा मं शुक्र को पाचक दशाहो तो सुख की प्राप्ति, धन-धाभ्य-समृदधि 
एवं विविष लो की प्राव्ति होती है ॥ ३२३७ ॥ 


बुष-रानिदशा कल- 
बुधस्यान्तगतो यस्य मौरपाको भवेदसौ । 
तदा राजा भवेन्भानसुखसन्तानकारकः ।॥ ३३८ ॥ 
बुभ की दसाम शनि की पाचक दशाहोतो जातक सम्मानित, सशी एवं 
सन्तानयूक्त राजा होता है ।। ३३८ ॥ 
बुभ.रविदशा फकल- 
बातपिसङृता पीडा हानिकारी नरो भवेत्‌ , 
पाककाले बुधस्यापि यवा हयन्तरतो रविः ॥ ३३६ ॥ 


४७२ मानसागरी 





बुध की दशामे सूयं की पाचक्दशाहो तो बात-पित्तजन्य पीडा मनुष्यके 
शरीर के लिए हानिकारक होती है ।॥ ३३६ ॥ 
बुध-चन््रदशा फल- 
देहपीडा तथोद्रेगः कलहश्च गृहे भवेत्‌ । 
अत्यन्तहानिकारी च बुधमध्ये तु चन्द्रमाः ॥ ३४० ॥ 
बुधकीदशामे चन्द्रका अन्तर देहपीडा, उद्वेग ( घबराहट), एवं (घरमे 
कलह पडा करने वाला तथा अत्यन्त हानिकारक होतादहै।। ३४० ॥ 
बुध-भीमदशा कल~ 
अग्निदाहु ज्वर तीव्र भवेद्रक्तविकारकम्‌ । 
शत्रुघातरुजं चव बुधमध्ये कुजे सदा ॥ ३४१ ॥ 
बुधदशा मे भौम के अन्तर में अग्निदाह (अग लगने से क्षति), तीत्रञ्वर, 
रक्तविकार, शत्रओं द्वारा आषात तथा रोग उस्पन्न होता टै । ३४१ ॥ 


गुह्दशा प पावकदशा एत- 
गुर-गुरुदशा फन 
पापश्च रोगश्च भवेद्विमुक्तो धमेदियं प्राप्य समस्तकाले । 
जीवे स्वपाके फलमातनोति धनागमे मित्रकलक्रपुत्रः | ३४२ ॥ 
गुरु कीदक्ामें गुरुकीही पाचक दशाहोतौ पाप ओर रोगसे मुक्ति, 
छा्मिक क्रियाओंके अम्युदयसे निरन्तर शुम फर्लोकी प्राप्ति, तथा भित्रस्त्री 
ओर पुरो के सहयोगे धन लाभटोतादहै।। ३४२॥ 


गुरु-शुक्रदशा फल-- 
कार्यार्थनाशं च महाविरोधं विष्षोषमाप्नोति नरोऽतिसौख्यम्‌ । 
श्य क्गारकोशस्य नरश्च सौख्यं यदा भवेज्जीवगतो मृगश्च ।। ३४१३ ॥ 
गुर की दशाम शुक्र की पाचक दशा टोतोकायं मौरथधन कानाक्ष एवं 
महान विरो होताहै। फिर भी मनुष्य के वशिष्ट एवं सुल मे वृधि, श्युंगार 
मौर भन का सुख मनुर््यो के संसर्गे से प्राप्त होता है ।॥ ३४३ ॥ 
गुरु-शनिदशा कल-- 


नश्वरे पाकगतेऽथ जोवे दानं करोत्येव हि सर्वसौख्यम्‌ । 
दव्यापहारं व्य वनादिगुक्तं ज्वरा्मिघातं व्यसने च सौख्यम्‌ ;। २४४ ॥ 


गुहं की दशा में शनि की पचक दशाहो तो मनुभ्य दानी, सभी प्रकारै 
सृज्ी, भ्यसन ( जुभा भादि) ते पृक्त, ग्वरसे पीडित तथा भ्यसन ( नशा, मादक 


"मनो रमा" हिन्दीग्याभ्योपेता ४७३ 





स्तुमो के सेवन) से सुखी होताहै। तथा उसके धनका अपहरण भीहो 
जाता है । ३४४ ॥ 
गुरु-पूर्यदशा कल~ 
सण््या गृरोः पाकरविः स्वकाले धनागमं मित्रकलत्रकं च । 
चिरं वसेटेशविदूर एव लमेद्पतापं विजय च सौख्यम्‌ ।। ३४५ ॥ 
गह की सन्ध्या दशामे सूर्यकी पाचक दशाहौी तो दकशषाकालमें धनलाभः 
मित्र मौरस्त्री का सुक्ल, चिरकाल तक विदेशमें प्रवास, प्रभाव में वुद्धि तथा सुख 
प्राप्त होता है।॥ २३४५ ॥ 
गुर-चन्ददशा फल-- 
तीर्थागमे मवेत्सौख्यं पुत्रमित्रसमागमः । 
धनलाभो भवेच्वव गृरुपाके पदा दाशो । ३४६ ।। 
गुद को दशाम चन््रमाकी पाचक दक्षाहोतो तीययात्रा, सृख-प्राप्ति, पुत्र 
एवं मित्रों का समागम तथा धनलाभ होता है । ३४६ 


गुर-भीम दशा फल- 
भम्निचौरभयं नास्ति धनप्राप्तिः पदे पदे । 
शाजमानं गृहे सौख्यं जोवमध्ये कुजे गतिः । ३४७ ॥। 
बृहस्पति की दकशामे मगलकी पाचकदशाहोतो मग्निमौर बोरोकेभयसे 
रहित, पग-पग पर धन लाम, राजकीय सम्मान, तथा गृहमे सुखकी वदि 
होती है ॥ ३४७ ॥ 
गुरु-बुष दशा फल-- 
जीवान्तरगते सौम्ये पृत्रधान्यं गृहे सुखम्‌ । 
माङ्गल्ये च भवेन्नित्यं वस्तरप्ाप्तं सुखं मवत्‌ । ३४८ ॥ 
यवि गुरु की सन्ध्या दशामे बुध की पाचक्दशाहोतो पुत्र मौरधान्यकी 
डि, गृहमे सुक्ल, नित्य मंगल काये, वस्त्र को प्राप्ति तथा सृच्च-लाभ 
होता है ।। ३४८ ॥ 


शकदशा मे पाचढदशा एल- 
शुक्र-सुक्र पावक्दहा फल-- 
स्वपाककाले भुगृनन्दनोऽपि हिमाम्बरं सोख्यचयं ददाति । 
बस्तरादिभाप्ति च सुखागमं ख धनं लभेत्पुत्रसमन्वितं चं ॥ ३४६ ॥ 
शुक की सन्ध्या दल्षामे शुक्र कीही पाचक दशाहो तो सुवर्णं, बस्व्र, गौर 
सुख की बुद्धि, वस्त्र भादि कौ प्राप्ति, सुख का आगम तवा धनबौरपृत्रकी 
एक-साष प्राप्ति होती है ॥ ३४९ ॥ 


४७४ भागसागरी 





शुक-सनिदक्षा फल-- 
शज्याभिमानं सुखसम्पदं च परोपकारष्ययमातनोति । 
शन श्रे शुक्रगते समेति भाङ्गल्यकायं च सुशावहं च ॥ ३५० ।। 


शुक्र की दशा भौर हानि की पाचक दशा मे राभ्य सम्बन्धी अभिमान, सुख 
एवं सम्पत्ति, परोपकार मे व्यय तथा सुखदायक मंगल कार्यं होते ह । ३५० ॥ 
शुक्र-सूयं ददा फल-- 
कार्यनाशं गृहे सौख्यं भुञ्जन्ति प्रभवः सदा । 
विपाके सूर्यशुक्गं च मानवो लभते फलम्‌ ॥ २३५१॥ 
सूर्यं की पाचक दशा यदि शुक्रदशामें होतो कर्यं का नाक, एवंगृहमें 
सुख प्राप्त होता है । तथा मनुष्य सदेव अपने प्रभाव मौर शक्तिके बल षर फल 
प्राप्त करताहै। ३५१ ॥ 
शुक्र-चन्दर ददा फल- 
ददाति वित्तं बहूसौश्ययुक्तं वस्त्राम्बरं रत्नसमुश्वयं च । 
सौख्या्थलाभ स्वगृहे च सौख्यं यदा भवेच्छुक्रगतो हिमांशुः ॥ ३५२ ॥ 
शुक्र की ददाम चन्द्रमा को पाचक दशा हो तो अत्यन्त सृक्लके साथ धन 
लाभ, वस्त्र-आाभूषषण, रत्नों का ढेर सुख एवं धन का लाभ तबा गृह्‌ मे सदेव सुख 
पराप्त होता है । ३५२ ॥ 
शुक्र -मौमदक्षा फल-- 
भृगोविपाके धषरणीसुतोऽपि कार्यार्थलाभं बहुलार्युक्तम्‌ । 
महत्तापं धुलसङ्गमं च ददाति प्रप्नोति भयं कुतश्च ।। ३५३ ॥ 


शुक्र की दक्षामे मंगल की पाचक दशा कायं मे सफलता, बनलाभ, अल्य्षिक 
धनप्राप्ति, प्रमावमे वृद्धि एषं सुक-समागम प्रदान करतीहै। एेसी स्वितिमें 
भय कहांसेहो सक्ता है? अर्थात्‌ मयका अभाव होता है।॥ ३५३॥ 


शुक्र-बुषदष्ा फल- 
ददाति मौक्तिकं चेव सुखसौमाग्यपृत्रकम्‌ । 
कन्याजन्म गृहे सौख्यं मृगुमध्यगते बृषे ।। ३५४ ॥। 
शुक की दशा मं बुल की पाचक दशा हो तो भक्ता (मोती) सुल, सौभाग्य भौर 
पुत्र की प्राप्ति होती है तया गृहमे कम्या का जम्म तवा सुल होता है ॥ ३५४॥ 
1 फएल-- 


पुखं कशेति सौभाग्यं भ्यबहारे 
शामः कार्वंस्य खिदिः स्याज्छुकमधभ्यगते गुदो । ३५५॥ 


"मनोरमा" हिन्दीभ्यासख्योपेत। ४७५ 


[क रीरि "पारि 


शुक की दकहामे गुर की प्क दशा होने पर सुख, सोभाग्य, व्यवहार म 
महान्‌ भुल, लाभ तथा कार्यों गो सिदि होती है ॥ ३५५ ॥ 


शनिदथा पे पाषकदशा एल - 
शनिन्दानिदक्ला फल- 
शनेविपाके कुर्तेऽमिमानं महत्धुखं लौहगतार्भिवृदः । 
लाभं प्रतापं च क्षरीरकष्टं प्रान्ते ददात्येव हि सूयत: ॥ ३५६ ॥ 
शनि की सन्ध्या दशा मं शनिको पाचकं दक्षा मभिमान, महान्‌ सुख, लोह 


के व्यापार से धनवृद्धि, लाम, प्रमाव मं वृद्धि तथा क्षारीरिक कष्ट प्रदान 
करती ह ।। २३५६ ॥ 





वनि-सुयं दशा फल-- 


धनहानिभवेन्नित्यं हानिश्ोकौ मयं तथा । 
[वदेश्नमणं शीलं शने: पाके गतो रविः ॥ ३५७ ॥ 
शनि की दकश्ामेसूयं को पाचक दकशाहो तो निह्य-प्रति घनकी हानि, 
( जनहानि ), शोक मौर मय तथा विदे्ञयात्राोतो है ।॥ ३५७॥ 
शनि-चन््रदक्ा फल-- 
सुखदं रोगनिर्मृ्तं लामद हानिदं तथा । 
करोनि शनिपाकं चेश्बन्द्रमाः सुव्यवस्थितः ॥ २५८ ॥ 
यदिक्षनि कीदक्षा मौर अपनी पाचक दशाम वन्मा स्थितहोतो बुश 
प्राप्ति, रोगे भुक्ति, लामभीर हानि दानोंही प्राप्त होती है ।॥। ३५८ ॥ 
शनि-मंगलदक्षा फल- 
महीपुतेऽ्तरगते कलहं समुपद्रवः । 
अग्निदाहं ज्वरं तोत्र विफलं सुकृतं भवेत्‌ ॥ ३५६ ॥ 
शनि की दकशषामे मंगल की पाचक दरा होतो कलह, उपद्रव, अग्निसे दाह, 
तीन्न ज्वर तथा सत्कायं ग असफलता होती है ।॥ २३५९ ॥ 
शनि-बुषदक्षा कल- 
सौरान्तरगते सौम्ये शजमानं करोति च । 
मध्यसम्पतिमद्गेहं कायप्राप्तिः धुबस्णदम्‌ ।। २६० ॥ 
शनि कीदक्षामे इष की पाचक दशाहो तो रककीय सम्मान प्राप्त होता 


है । गृहमे मष्पमस्तर की सम्पत्ति होती है । कायो मे सफलता तथा सुन्दर बसो 
का लाम होता ह॥ ३६०॥ 


४७६ मानसागरी 





शनि-गुरुदकशा फकल-- 
करोति ओवो बहुबद्धिसौख्यं राज्यार्भिधं देशपुराधिपत्यम्‌ । 
परोपकारं सुखसम्पदश्च करोति सौरे च गुरः सदव ॥ २६१ ॥ 
शनि की दलामें गुरु की पाचक दशाहो तो मनुष्य बुद्धिमान्‌, बुल्ली, राज्ब 
अथव। देश का अविकारी, परोपकारी, सुखौ एवं सम्पर्ति्षाली होता है ॥ २३६१ ॥ 
शनि-शुक्रदश्ा फल 
ददाति वित्तं भृगुनन्दनः सुखं सुखां विद्चागमनं भवेत्स्वयम्‌ । 
सुनिमंलं बाहुभतापयुक्त विदेशयाने च नरः सुखं लभेत्‌ ॥ २६२ ॥ 
शनि की दशा मे शुक्रकी पाचक दशाहो तो मनुष्य को धन, सुखदेने वाली 
विच्चा का स्वयमेव ज्ञान, निर्मल आचरण, बाहुबल तथा विदेदायात्रा मं षुख प्राप्त 
होता है ॥ ३६२ ॥ 


योगिनीदशा 
नत्वा गणे्षं गिरमन्योनि विष्णुं शिवं सूर्यमखान्‌ ग्रहे््रान्‌ ' 
वक्षे स्फुटं सूर्यकृताद्यशस्त्राहश्चाक्रमं वा किल योगिनीजम्‌ ।। ३६३ ।। 
गणेश, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्यादि नवग्रहोँको प्रणाम कर 


भगवान्‌ सूयं द्वारा विरचित पूर्ववत शस्त्रके आधार पर योगिनी से सम्बन्षित 
दक्ाक्रम को कह रहा हूं ॥ ३६२३॥ 


योगिनी दक्षा साधन-- 
आदौ जनस्य विधिवत्‌ प्रसवं विचायं 
संवत्षरर्त्वयनमाक्षदिनरक्षकालैः । 
यस्मिन्‌ दिने भवति जग्म जनस्य सम्पक्‌ । 
तद्ध पिनाकनयनंः सरितं विधेयम्‌ ।। ३६४ ॥ 
गौ रीशम्‌र्या विभजेच्च शेषं यत्संस्यक सव दषा जनस्य । 
यया जनः क्मंफलस्य पक्तिः शुमाणुमस्य स्फुटतामृपंति ॥ ३६५ ॥ 
सर्वं प्रथम मनुष्य के जन्म सम्बन्धो वर्षं, ऋतु, अयन, मास, दिन, नक्षत्र भौर 
समय का श्चान करना चाहिये । जिस दिन जितस नक्षत्रम मनुष्य का जन्म हो उस 
के नक्षत्र की अश्विन्यादि नक्षत्र सस्यामं २ जोड़ दैना चाह्यि। योगफलकोप्ते 
भाम देने पर शेष तुल्य योगिनी की दक्षा होती है। ( शेषाङ्कु जितना हो उतनी ही 
क्रमसंस्या वाली योगिनी की दशा जन्म समयमे होती है) ॥ २३६४-६ ॥ 
यागिनी दक्षा के नाम- 
मङ्गला पिर्खुला धान्या ्नामरी भद्रिका तथा । 
उल्का सिद्वा सङ्कटा च-एतासां नामवत्फलम्‌ ।॥ ३९६ ॥ 





"मनोरमा" हिन्दीभ्यास्योपेता ४७७ 





१. मङ्गला, २. पिङ्गला, ३. धान्या; ४. न्नामदी, ५. भिका, ६. उल्का, 
७. सिद्धा, ८. संकटा । इन माठ योगिनिर्योके नाम प्रर दक्षार्ये होती है। इनके 
नाम के अनुषटप हौ इनका फलमभीहोताहै।॥ ३६६॥ 


दशावषं एवं अन्तर्दशा विषि-- 
एकं द्वौ गणवेदबाणरससपताष्टाङ्कषंश्याः कमात्‌ 
स्वीयस्वीयदष्शा विपाकतमये जञेयं शुमं वाऽशुभम्‌ । 
षट्‌त्रिशंविभजेटिनोकृतमथंकद्ित्रिवेदेषुषट्‌ 
सप्ताष्टघ्नदशा भवेयुरिति ता एवं दश्छान्तदंशा! ॥ २६७ ॥ 
योगिनियों के दशावषं प्रमाण क्रमते १,२, ३, ४, ५,६,७,५, वष॑है। 
अर्यात्‌ मंगला कौ १ वषे, पिंगला की २ वक्षं, धान्याके वषं, भ्रामरीकी ४ 
वर्ष, भद्रिका की ५ वष, उल्काकी ६ वर्ष, सिद्धाकौ ७ वषं तथा संकटाकी ८ 
वषे दक्षा होतीहै। अपनी-अतनी दशाओं म इनके शुभाश्ुम फल प्राप्त होते है। 
अन्तदशा ज्ञान के लिए य।गिनीके महादशा वंके दिन बनाकर ३६ से भाग्रदेने 
पर लन्धि अन्तदशा का धुवा होताहै। घ्रुवाकोक्रमसे १,२, ३,४, ५, ६, 
७,८से गुणा करने पर क्रम से मङ्गला-पिङ्गला आदि की अन्तरदश्ा होती 
है ।। ३६७ ॥ 


उदाहश्ण-- जन्म समय संवत्‌ २०२१ शके १८८६ आषाद्‌ कृष्ण ११ रविवार 
इष्टघटी ४२१३० जन्म नक्षत्र कत्तिका, भयात्‌ ३।५३ मभोग 
५४।३५ (इलोक २६४,६५) अश्िनी नक्षत्र से कृत्तिका की संक्या ३ 
२ ~+ २०६ ६-- ८ $~एेष ६ 
अतः छटीं उल्का योगिनी दशा मे जन्म हुमा । 


योगिनी दशा बोषक वक्र- 









































01 11: मगल। | पिगला (धान्या | भ्रमरी भद्रिका | उल्का | सिद्धा| सक्टा 

दशशावर्ध| १ | २ ३ ४ ५ ६ | ७ 2 

(६ आर्द्रा | पनववंषु | पष्प | अश्िनी| भरणी | कृत्तका| रो. | मृगक्षीषं 

छ चित्रा | स्वाती विज्ञा. | आ्लेषा, मधा ¦ पूर्वाका.|उ.फा.| हस्त 
श्रवण | धनिष्ठ) | शत. अनुराया ज्येष्ठा । मूल वू.षाढ्‌)| उण षाद 
| ३.भ।.पदा।उ.भा.पदा रेवती 

















"ण्डा 





ईट 


भानत्ताभरी 





इलोक ( ३६७ ) उल्का दशाम अन्तर्दशा त करनाहि। उल्का दशा 


दिनाह्मक ६ >८ ३६००२१६० 
२१६०८ ३६० 


३६ ) २१६० ( ६० 


२१६ 


>€ 


उल्का दक्ला का ध्रुवा ६० दिनयार मास 

अतः ०।२।० > ६०१।०।० उल्का का अन्तर 
०।२।० >€ ७०१।२।० सिद्धा का अन्तर 
०।२।० € ८०*१।४ ० संकटा का अस्वर 

इसी प्रकार सभौ दकशावर्षोसे गुणा करने पर सभी योगिनियों की अन्तदशा 


अयेगी । 


मंगला व. १ 
यो. व. मा. दि. 
मगला ० ० १० 
पिला ० ० २० 
धान्या ० १ ०० 
भ्लामरी ० १ १० 
भद्विका ० १ २० 
उल्का ७ २ 69 
सिद्धा ० २१० 
सक्टा ० २ २० 
भ्रमरीव. ४ 
यो. „भा. दि. 
भ्रामरी ° ५ १० 
भद्धिका ६ २० 
उल्का ट 9 
सिडा ९ १० 
संकटा १० २५ 
मंगला १ १० 
पिमिल्ता २ २० 
धान्या ४ 90 


9 


अन्तर्दशा बोधक चक्र-- 


पिङ्गला व. २ 
यो. व. मा. दि, 
प्िगिला ° १ १० 
धन्या 9 २ ०० 
भ्रामरी ० २ २० 
भह्धिका ० ३ १० 
उल्का 9 ई © 
सिद्धा ० ४ २० 
संकटा ° ५ १० 
मंगला ० ० २१ 

भद्िकाव. ५ 
यो. व. भा. डि. 
भद्िका ० ठ १९ 
उल्का ° १० 9० 
सिद्धा ° ११२० 
संकटा १ १ १० 
मंगला ० १ २० 
पिमा ° ३ १० 
ध्या 5 ‰ 9 
भ्रामरी ० ६ 


२० .. 


घान्याकव. ३ 
यो. व. मा. दि. 
धन्या ० ३ ° 
भ्रामरी ० ४ ० 
महिका ० ५ ° 
उल्का ० ६ 
सिद, © «५ 9 
संकटा ० < 9 
मंगला ० १ 9 
पिगला ० २ ° 
उल्का व. ६ 
यो. व. मा. हि. 
उल्का १ ००9 ० 
सिद्धा १ ०२ ° 
संकटा १ ४ ° 
मंगला ० २ ° 
पगला ० ४ ° 
धन्या > ६ 5 
न्रामरी ० 5 ° 
भह्धिका ® १० ° 


मनौ रमा" हिष्दीष्यास्योपेता ४७९ 





सिदडा ७ मंकटा ८ 
यो. व. मा. दिं. यो. व. मा. दि. 
सिद्धा १ ४ १० संकटा १ १९ १० 
संकटा १ ६ २० परशला ° २ २० 
मंगला ° र १० पिंगला ० ५ १५ 
पिगिला ° ४ २० धान्या ° द | 
धान्या 9 ७ ०० भ्रामरी ° १० २०५ 
भ्रामरी ° ९ १० मद्रिका १ १ १० 
भद्धिका ° ११ २० उल्का १ ७9 
उत्का २ ०० सिद्धा १ ६ २० 


मुक्त-योग्य दशा साघन- 
गतरक्षनाडो गुणिता दशाब्द: सर्वक्षंनाडोविहूता फलं यत्‌ । 
वर्षादिक भुक्तफलं ततश्च मोग्यं दशाब्दास्प्रविशोष्य लेख्यम्‌ । २६८ ॥ 
जन्म नक्षत्र के भयात्‌ ( पनास्मक) को दश। वषंसे गुणा कर पनाहमक 
भभोगसे माग देने पर लग्षि मक्त दशाप्रमाणटोततीदहै। मुक्त दशाको दशा वषं 
मे घटाने से मोग्यदक्षा होती है ॥ ३६८॥ 
उदाहरण -- मयात्‌ ३।५३ भमोग ५४।३५ 
महादशा उल्का व= 
३ >८ ६०१८० + ५२.२३३ पलाट्मक भयात्‌ 
५४ >८ ६०२३२४० + २५.-२२७५ पलाटमक भभोग 
मयात्‌ २३३८६ दकशावकषष~१३६८ 
३२७५)१३९८(० 
@ ® 
१२३९५०८ १२ 
३२७५) १६७७६(५ 
०९२७५ _ 
४०१५८३० 
१२०३०८३ 
६८२५ 
२२०५ 
मुक्त दशा ०।५।३ 
६।०।० 
-- ७।५।३ 
५।६।२७ भोग्य दशा 








ट मानसामरौ 


योगिनी महादशा एन्न- 
मंगला फल-- 
सद्धमं द्विजदेवगोपुरजनोत्कर्षश्रदात्री नृणां 
नानाभोगयशोऽयं सन्तुप-पराष्वेभाङ्गजापिग्रदा । 
सन्माङ्गल्यविभूषणाम्बरचयस्त्री मोगउदयिनौ 
ज्ञानानन्दकरी दशा मवति सा ज्ञेया यदा मञ्जुल ॥ ३६६ ॥ 
मङ्गला योगिनी दक्षा अश्छे धार्मिक कायं, ब्राह्मण, देवता गौ तथा पुरजर्नोकेलिए 
उत्कष कारक, मनुष्योके लिए नानाप्रकार के सुक्ल-भोग, यश भौर षन देनेवाली, 
सदाचारी राजा हारा उत्तम षोडे एवं हाथी दांत ( दातके कीमती सामान), 
प्रदान कराने वाली, मांगलिक वस्तुओं, भमृषण एवं वस्वो का संग्रह्‌, समी 


प्रकारके सुख प्रान करने वाली स्त्री, तथा सदव ज्जन एवं आनन्द बढाने वाली 
होती है ।। ३६६ ॥, 





पिङ्खला-दकशा फल-- 
स्यात्पुंसा यदि पिङुला प्रसवतो हृदोगक्लोकप्रदा 
नाना रोगकुसंगदेहमनसो ग्याध्यादितातित्रदा । 
तृष्णासृग्ज्वरपित्तशलमलिनस्त्रीपुत्रभृत्याप्तस- 
र्मानच्वंशकरी धनव्ययकरी सत्ेमहन्त्री खला ।। ३७० ॥ 
जन्मकालमही पिङ्कला दशः हो नौ हृदय गोग, शोक, विविध रोग, कुसग, 
शारीरिक एवं मानसिक व्याधि लोम, रक्तविकार, उवर, पित्त प्रकोप, शूल ( मङ्ग 
में पीडा), आदि रोगोते कष्ट ग्वं मलिन ( हिन्नता ) एवं शियिनता प्राप्त होती 
है । स्तरी-पुत्र भौर नौकरोसेप्राप्तहोने वाला मादर नष्टहो जाता है ( नर्थात्‌ 
स्त्री पुत्रादि उपेक्षा करते) धन का अपय्यय एवं प्रेम~ध्यवहार का अभावदहो 
जातादहै। यह दक्षा अुभषफलही देती रहै ।। ३७० ॥ 
धास्या-दन्या फल 
धान्या धन्यतमा धनागम सुखब्यापारमोगप्रदा 
पुसां मानविवुद्धिदा रिपुगणप्र्वंसिनी सौख्यदा । 
विद्याराज अनप्रबोधसुरतजञार्नाकुरोटडिनी 
सत्तीर्थामरसिद्धपसेवनशतिलम्या दशा भाग्यः । ३७१ ॥ 
धान्या योगिनी दक्षा धन्य (कत-हृष्य) करने वाली होती है । दस्मे भनुष्यको 
धन का लाभ, सुल, व्यापार, मोग ( भौतिक-सुल ) की प्राप्ति, मनुष्यों के सम्मान 
मे बृदधि, शत्ररगों के समूह्‌ का नाश, सुक्ल, विद्या भौर राजकीय पुरषो का सा्धिष्य, 


ज्ञान की वुद्धि, शुन्दर तीयं, देवतामों मौर सिद्धोंकीसेवामें अनुराग उ्वन्न होता 
है । एती दशा भाग्यते प्राप्त होती है। ३७१ ॥ 


मनोरमा” हिन्कीय्याख्योपेना ४८१ 


न्नामरीदलाफल-- 
दुगरिष्यमहीधरोपगहनारामातपब्याकृला 
दूराद्दूरतरं ज्रमल्ति मृगवतष्णाकूलाः सर्वतः । 
भूपालान्वयणा दशामकिगता ये वै नृपा ज्नामरी 
स्वं राज्यं प्रविहाय ते स्फुटतरं कष्माधो लुरुन्ते मुहुः ॥ ३७२ ॥ 
भ्रामरी दशामे मनुष्य दुर्गे (किला या बीहड स्थान), जंगल, पर्व॑त, एवं 
थन बर्गो मे धूपे ष्यकुल होकर अभीष्ट सिद्धिकेसोभते दूर-दूर तक उसी 
रकार धूमता है जते चिलधिलाती घूप को जल समक्षकर थ्यासा भम दौडतादहै। 
{ अर्थात्‌ निरेक दौहता है । }) यदि राजकुल मे उत्पन्न ष्यक्तिहोतो वह्‌ भ्रामरी 
दा अनेपर रा्य को छोडकर पुथ्वौ पर इधर-उघर मटकने लगता है ॥ ३७२ ॥ 
मदिका दशाफल 
सौहादं निजवंगंमूसुरसुरेशानां सुहन्मान्यता 
मांगल्यं गृहमण्डलेऽखिलसुखग्यापारसक्तं मनः । 
राज्यं चित्रकपोलपालितिलकासक्तांगनाभिः समं 
क्रोडामोदभरो दक्षा मवति चेत्पंसां हि भद्रामिधा ॥ २७३ ॥ 
सद्विका दशा मे मपने वर्गे (जाति) के लोगों, ब्रह्मणो मौर राजार्मोके 
सा मित्रता, भिर्भोदह्ारा जादर, गृहमे माङ्गलिक कायं, सभी प्रकार के सुशो 
की प्राप्ति एकं ब्यापारमं पृणष्पसेरस्चि होतीहै। र्यलाभ, तव। कपोर्लो 
के चित्राङ्धुन ( कूकुमादिसे कपोलों का श्युगार ) एवं तिलक (विम्दी) आदि 
प्रसाथर्नो मे भासक्त विलासिनी स्त्रियों के साय कोडा करते हुए मनुष्य आानन्डका 
अनुभवं करता है ।। ३७३ ॥ 
उल्का दक्षाफल-- 
खस्का चेदिह योगिनी गुरुदष्छामाना्श्गोवाहन- 
व्यापाराम्बरहारिणो नृपजनश्ले्प्दा नित्यः । 
भृत्यापस्यकलत्रवेरजननौ रभ्यापटन्री नृणां 
हृन्नेत्रोदरकर्णंदन्तपदजो रोगः स्वदेहे भृष्यम्‌ ॥ ३७४ ॥ 
यदि उल्का योभिनी की महादक्षा होतो सम्मान, षन, गौ, वाहन, भ्यापार 
एवं बस्तर की हानि, राजां अथवा राजपुरुषो दवारा निरन्तर कष्ट, नौक रपुत्र 
ही भादि अश्मीयजरननो से शत्रुता, जन्य सुन्दर कायोंकी हानि, तथा हदय, उदरः 
ने, कान, दाति भौरवैरों से सम्बन्धित शरीरम रोग हाता हि ।॥ ३७४॥ 
सिधा ददाःफल-- 
चखा सिदिकशी धुभोगजननी मानाषंसंदायिनी 
विद्या राजजनधतापषनसदरमापसज्जानदा । 


११ माण सार 


"धर भानसागरो 


व्यापाराम्बरभूषणादिकमुतोष्राहादिर्मागल्यदा 
सत्सङ्गान्नृपदत्तराज्यविभवो लभ्या दशा पुण्यतः ॥ ३७५ ॥ 
सिद्धा दशामें कायो की सि, उक्तम भोग (सुल) का लाभ, सम्मान, 
धन, विद्या, राजकीय अभिकारिर्यो हारा प्रभाव (या मभिकार) प्राप्ति, धन, अण्डे 
धामिक कायो दवारा ज्जन प्राप्ति, ध्यापार वस्व, आमूषण आदि का लाभ, पत्रे 
विवाह आहि मांगलिक काये तथा सत्पुरुषो के सहयोगते राजानो हारा सम्पत्ति 
कालाभहोताहै। हस प्रकार की दक्षा बटे पुष्यते प्राप्त होती है ॥ ३७५॥ 


संकटा दशाफल- 
राज्यश्न.शाग्निदाहो गशृहपुरनगरप्रामगोष्टेषु पुंसां 
तृष्णारोगा ङ्ुधाु क्षयविकृतिरयो पृत्रकान्तावियोगः । 
चेत्स्यान्मोहोऽरिमी।तः कृशतनुल तकासङद्धुटाया विरोधो 
नो मृत्युजंन्मकालाद्यमपि हि विना सङ्कट योगिनीजम्‌ ।। २७६ ॥ 
संकटा दह्लामे राज्य का नक्ष अग्नि से गृह, पुर, नगर, भ्राम भीर गोष्ठ 
( गोक्षाला ) मं विनाश, लोभ, रोग, अङ्कं मे धादुक्षीणता, क्षयविकार ( टीश्वी) 
पुत्र ओर स्त्री का वियोग, मोह ( मूर्छा), शत्रुमों ते मय, शरीर में दुबनता, एवं 
विरोध होतादहै। विना संकटा योगिनी की दक्षा के जन्मकाल के अनन्तर मृ 
नहीं होती । अर्थात्‌ मृत्यु या मृध्युतुल्य कष्ट संकटा दक्षा अन्तदेशा मनेषरदही 
होता है ॥ ३७६ ॥ 
श्रामर्यां च तथोत्कायां सद्भूटान्तदश्चा यदि । 
तदा तु यमराजस्य सदनं प्राप्यते नूर्मिः ॥ ३७७ ॥ 
श्रमरी महादश्चामे भौर उल्का महादक्ञामे यदि संक्टाकी अन्तर्दशाहोतो 
मनृष्य अवद्य यमराजके गृहम जाताहै अर्थात्‌ उसकी मृ्युहो जाती है ।२३७५७॥ 


मङ्गलामहादशा म अन्तदशा फएल- 
मङ्गला कल~ 

मिश्रपुत्रकलत्राङ्घब्यापारसुखदायिनो । 

मङ्गलान्तगंता जाता मङ्गला मङ्गलप्रदा । ३७८ ॥ 

मङ्गला महादशा में मंगला की ही भअम्तदंशा मित्र, पुत्र कलत्र (स्त्री), 
शारीरिक दुद एवं भ्यापारमें लाभदेने वाली एवं मंगलप्रद होती 8 ॥ ३७८ ॥ 

पिङ्गला कल~ 

कलहः स्वजन, सादधं मानसोद्रेग एषं हि । 

विविधातिश्रदा नित्यं विमला भगलां गता ॥ १७९ ॥ 





"मनोरमाः हिन्दीभ्यास्योपेता ४८३ 


मङ्गला महादशा मे पिङ्गला का भम्तरहो तो आध्मीय जनो के साय कलह, 
मानसिक उद्वेग ( ग्याद्रुलता); तथा विविध प्रकार के कष्ट सामने अते 
ह ।। ३७९१ ॥ 
धान्या फल- 
शजाश्वगोधनप्राप्तिः सुखमित्रसुखं महत्‌ । 
विलासो विविधः पुंसां धान्या चेन्मङ्गलां गता ॥। ३८० ॥ 
मगला की महादकशामे श्षान्या की भन्तदशा होतो हाभी, धोडा, गै मौर 
धनकी प्राप्ति, सुक, मिर्त्रो का जस्यधिक सुख, तथा विविधप्रकार की क्रिमो 
मे आनन्द प्राप्त होता है। ३८० ॥ 
भ्राम रीकल-- 
स्त्रौमित्रकलहो नित्यं प्रवासो घननाशनम्‌ । 
नरेष्ट्रः सह सांगत्यं भ्रामरी मंगलां गता। ३८१॥ 
मंगला की महादशामं न्रमरीको अन्तर्दक्षाहोतोस्त्री, अौरमभित्रोँंके साष 
निरन्तर कलह, धर मे पृथक किसी भन्यस्थान मे निवास, धन का नाक्ष, तथा 
राजाभों के साय संगति होती दहै ॥ ३८१ ॥ 
मद्विका फन- 
धनधान्यसुतस्त्रीभिः प्रोतिः स्यात्स्व जनै: सह्‌ । 
प्रभोदः घुरमिज्ञोवा भद्रा चेन्भंगलां गता ३८२ ॥ 
मंगला महादक्चामे भद्विरा का अन्तर हो तो षन-घान्य, पुत्र, स्त्री गौर अन्य 
मह्मीय जनों के साथ अनुराग, प्रसन्नता, तथा विविष सुगरन्षोके ज्ञान से युक्त 
होता है । ३५८२ ॥ 
उल्काकल-- 
धनकीतिसुतोद्ठेगस्त्रीमित्रपशुपोडनम्‌ । 
भूपतेरहानिदा निष्यमुल्का स्यान्मंगलां गता ।। ३८३ ॥ 
मंगला महादशा में उल्का मन्तदशाहोतो धन, यशमौर पूर्रौके कारण 
मानसिक क्लेशा, मित्र मौर पञ्ुओं को पीडा तथा राजाकीतरफसेमी निरम्तर 
कानि होती रहती है ।। ३८३॥ 
सिडाफल- 
मवेस्पुत्रधनस्व्रीमिविलासो विविधं सुखम्‌ । 
बन्धुमित्रसमायोगः सिद्धा बेन्मङ्लां गता ।॥ ३८४ ॥ 
मंणला की महादकशामे सिद्धा की मन्त्दला होतो पुत्र, भन भौर स्त्री 
से सम्बम्वित भानम्द, विविध सुल तथा बन्धुगों एवं भिरं का समागम 
शोषा है ॥ ३८४ ॥ 


छद मानसागरी 





संकटा फल--~ 
अलाग्निजौरभूपालपीडनं कलिवद्ध नम्‌ । 
मृव्युतुल्यं तथा शयं सङ्कटा मङ्गलां गता ॥ ३८५ ॥ 
अल-अग्निन्बोर ओर राजा हारा पीडा, लडार्-कषगडे मे निस्तार, तथा 


मृत्यु तुल्य कष्ट होता है ॥३८५ ॥ 
पिङ्गल्ञामहादशा मे अन्तदशा एढ्न-- 


पिङ्गलाफल- 
पिङ्गला स्वदशां श्राप्ता सक्छीतव्यसनासिदा । 
मानसोद्रेगसन्तापक्लेशश्नमणदा मता ॥ ३८६ ॥ 
पिङ्गला महादकशषामे पिङ्गलाका ही मन्तरहो तो रोग (ज्वर ) क्षीत, 
ूर््यसन भौर दुःख, मानत्तिक व्याङ्रुलता, सन्ताप, क्लेश, कष्ट तथा श्रमण 
( यत्रा) होता है।॥ ३८६ ॥ 
धान्याफल-- 
धान्या धान्या्थंदात्रो च विलाससुतकामदा । 
पिङ्गलान्तगतारण्यरमणीसुखदा नृणाम्‌ ॥ ३८७ ॥ 
पिङ्गला महादक्षामे न्याका बन्तरहौ तो मन्न बौर धन का लाभ, 
विलास, पृत्रसुख, एवं हष्धाजों की पूर्ति होती है तथा जंगलसे ( सम्बन्बित ) 
एवं भुन्दरी स्त्री से पुष प्राप्त होता है ॥ ३८७ ॥ 
न्नाम रीफल- 
देशत्यागो गृहग्रामपुरलोकधनक्षतिः । 
कलहः स्वजनैः साद्ध न्नामरशी पिङ्गलां गता ॥ ३८८ ॥ 
पिङ्गला की महादशा न्नामरीकी भन्तर्दशा हो तौ देशका परित्याग, 
धर, नाव, पुर भौरसोर्गोके धनकी हानि, तथा बाहमीय ब्यक्तियोके साथ 
कलह होता ह । ३८८ ॥ 
भद्रिकाफल- 
भद्रा भद्रकरी भोक्ता पिङ्खलान्तगंता यदा । 
स्थानान्तशल्पुत्रकीतिष्यापारे धनला्भदा ॥ ३०८९ ॥ 
पिङ्गला महादच्ामें भद्रायोगिनी की अन्तर्दशा कल्याणकारक कही गई है। 
इुरनदरूर तक पुत्र का य तथाभत का लाभहोता है ॥ ३८९॥ 
उल्का फल-- 
उल्कादल्ा यदा पंसा पिरङ्गलामध्यतो भवेत्‌ । 
विग्रहो बन्धुभिः साद शववौदजनादनमू ॥ ३९० ॥ 


"सनौर मा" हिन्दीष्यास्योवेता 11 





जानिके ििकेयिदेनेेोभोििनि निययिनं 


पिङ्गला दता उत्का का अन्तरहो तौ बन्र्गोके साय कलह, राजा 
चोर एवं अम्य जनो द्वारा मनुष्य को कष्टहोताहै॥ १९० ॥ 


तिदा कल- 
सिद्धिदा मन््रयन्त्राणां सिद्धा घाष्यघनप्रदा । 
पिङ्गलामध्यगा पुंसां कासस्वासप्रमेहदा ।॥ ३११ ॥ 
पिङ्गला के गन्तरमे यदिसिद्धा दक्षा हो तो मन्त्रयन्तं की सिद्धि एवं 
धनन्धान्य का लाम होताह। तथा लसी, दमा भौर मूत्ररोग (प्रमेह) धे 
कष्टे होता है। ३९१॥ । 
संकटा फल- 
पिङ्गलान्तर्यदा जाता सङ्कटा धनहानिदा । 
दष्टव्याधि विरोधित्वं शत्रराजमयं तथा ॥ ३९२ ॥ 
पिङ्गला महादशामें संकटा की भम्तदंक्षाहो तो धनहानि, दुष्ट (बरी) 
ध्याधिं ( रोग), विरोध, शत्रु गौर राजा का भय होता है। ३९२॥ 
मङ्गला फल- 
मङ्गला ¶ि विधब्याधिशोकमोहभयातिदा । 
पि्गलान्तगंता पंसामायुक्षयकरी तथा ॥ ३९३ ॥ 
पिङ्गला के अन्तर्गत यदि मङ्खला की अन्तर्दशाहोतो नानाप्रकार की ध्याचि, 
शोक, मोह (मरणा) मौर कष्ट होता है। तथा मनुष्य की मायु क्षीण 
होती है ॥ ३९३ ॥। 


धान्यामहादशा म॑ अन्तदंशा इल्- 
घषन्या कल- 
धान्या स्वीयदशा प्राप्ता भूम्रामधनधान्यदा । 
नृपस्वजनपृत्रस्त्रीसुखं स्याद्विविषं नृणाम्‌ ॥ ३९४ ॥ 
धान्या महारक्षा में धान्या की अन्तदशाहो तो भूमि, भ्राम, मौर घन-षान्य 
की प्राप्ति, राजा, आत्मीय बन्धुवगं, पृत्र, स्तौ तथा अन्य विवि प्रकारके सुखो 


वे मनुष्य युक्त होता है ॥ ३९४ ॥ 
भ्रामरी फल- 


धाग्यान्तर्जामरी बेत्स्याद्भ्मणक्लेशहानिदा । 
स्न ररम {ग (न स्ख स्वज्नश्च विरोधिता । ३९१५ ॥ 
धाभ्या योभिमी महादशामे भ्रामरी की अन्तर्दशा हो तो संसार का जमन, 
कष्ट, हानि, अन्य स्थान के माय से साभ ( अस्यत्र आवास) तथा अपने 
भाटमीय जनो ते विरोध होता है।॥ ३९५॥ 


#द६ मानसागरी 





मद्रिका फल-~ 
भद्रा सौभाग्यजननौ गृहमित्रसुखप्रदा । 
धान्यान्तनु पमत्रीशवाहनाम्बरभूमिदा ॥ ३९६ ॥ 
धान्या महादलामे भद्रा की अन्तदेशा होतो सौभाग्य, गृह भौर मित्रका 
भुखल, राजमन्त्रियों मे भेष्ठ, वाहन, वस्व एवं मूमि का लाभ होता है ।३९६॥ 
उल्का फल-- | 
विविषं कष्टमूत्पातमुल्का धान्यान्तरं मता । 
तत्र॒ हत्करिश्चलादिपीड्नं षननाष्ठनम्‌ ।। ३९७ ॥ 
धान्याकी महादलशामे उल्काका गन्तरहोतो विविध प्रकारके कष्ट, 
उष्पात, हृदय गौर कटि मं पीडा आदि अन्य कष्ट तथा षन का नाश 
होता है ॥ ३६९७ ॥ 
सिदाफल-- 
सिद्धा धान्यान्तरं याता सुनमित्रोत्सवश्रदा । 
नानाभोगप्रदा नित्यं ज्ञेया सा तु विचक्षणः ।। ३९८ ॥ 
धान्या महादक्षामे सिद्धाका अन्तरहो तो सुत ओर मिश्री से सम्बन्धित 
उतसव, नाना प्रकारके सुख-मोग की निरन्तर प्राप्ति होती टै, एसा बुद्धिमान 
पुरुषो को जानना चाहिये ।। ३६८ ॥ 
संकटा फल - 
धान्यासुपगता यत्र॒ सद्कुटा बल्धनप्रदा। 
नीतिग्यापारभूपालमानकोव्छाहदा मता ॥ ३९६ ॥ 
घाम्या महादशा अन्तर्गत यदि संकटा की अन्त्दशाहो तौ बम्धन, नीति 
( राजनीति ), व्यापार, राजकीय सम्मान तथा उत्साह की वृद्धि होती है ।३९९॥ 


मङ्गला फल- 
भूपाज्जयं क्षितिविक्ारविवित्रभोगं 
प्रौड पतापनिहितारिगणं सुपुण्यम्‌ । 
द्रव्यस्वलामयुतमनत्र च तीथंलाभ- 


नम्जाधिपा यदि चं धान्यदर्थां प्रपन्नाः१। ४०० ॥ 
यदि भाष्या की महादक्षामे मंगला की मन्तद्याहोतो रजके सहयोमसे 
सफलता, भूमिविकार ( मिहे बनी वस्तु ईट मादि) का भदुमुत सुख, प्रबल 
परताप, सत्रु्मों का नाश, पुष्य लाभ, भन-सम्पत्ति एवं तीनि का लाक प्राप्त 


होता ह ॥ ४०० ॥ 





१ योिनीनातकम्‌ ( मंगलान्वर्द्ा का फल मुल पृस्तकमे नहीषा।) 


"मनोरमा" हिन्दीष्यःग्योपेना ४८७ 





पिङ्गला फकल-~ 
पिङ्गला यदि धान्यान्तबंहुषाहस्तभूधनः (?) । 
सोस्साहो नृपतेर्भीति शिरोरुकश्षलमाजनः ।। ४०१ ॥ 
धाम्या महादशा मे पिङ्गला की भन्तर्दशाहोतो जातकके हार्थो ( अधिकार) 


म भूमि आरन होता है) उस्साहयुक्त, राजा से भयभीत, सिरमें रोर तथा 
ददं ( कष्ट ) होता है) ४०१॥ 


भ्रापगोमह।दशा म अन्वदशा कच्- 


भ्रामरी कल- 


भ्रामरी स्वदशामध्ये भीतिमोहविषातिदा । 
स्वस्थाने स्वजने शंले व॑रिदुष्टजलातिदा । ४०२ ॥ 
भ्रामरी योगिनी की मटादक्ञामं न्नमरीकीरी अन्तर्दशष। हो तो भय, मोह 
मौर विषसे कष्ट, अपने गृहमे भआह्मीयजनोंके जीचमें अय्वा पर्वतीय प्रदेशों 
मे शत्रओं, दुष्टजर्नो एवं जन मे भय उत्पन्न होता है॥ ४०२॥ 
मद्रिरा फन -- 
अद्रायां भ्रामरोभध्ये विदेशगमनं भवेत्‌ 
निजमित्रसमायोगो विद्यासम्मानभूपतिः । ४०३ ॥ 
भ्रामरी महादशामे भद्रा की अन्तर्दशा होतो विदे यात्रा, अपने भिरत्रोँका 
समागम एवं विद्या द्वारा राजा के समान सम्मानित होता है ।॥ ४०२॥ 
उल्का फन 
उल्का तु ज्ामशेमध्ये ज्वरशुलासृगातिदा । 
धनपृत्रकलत्राङ्गपोडा हानिकूरो मता ।। ४०४॥ 


भ्रामरौ महादशा मे उल्का अन्तदशाहोतो ज्वर, शूल एवं रक्तविकारसे 
कष्ट, धन-पुत्र-स्त्री भौर अपने भङ्गो से सम्बन्वित कष्टहोताहै, यहद 
हानिकारक ही होती है । ४०४।। 
सिद्धा कल- 
सिडा सिद्धिप्रदा नित्यं चामरीमध्यगा यदा । 
विवेकविथानिभिदा भयरोगातिनाशिका ।। ४०५॥ 
सिद्धा दशा निष्य सिद्धि देने बालीहोतीहै। यदि ्नमरी महदक्षा के 
अन्तर्जत सिद्धाका अम्तरहोतो विवेक, विचा ओर भनतका लाभ तथा भय, रोष 
भौर कष्ट का ताक होता है।। ४०५॥ 


ष भातसिगरी 





संकटा फल- 
सङ्कटा मरणं क्लेशः शोक मोहं गतं गदः । 
राजचखौरजनस्यातिप्रदा ामरिमध्यगा ॥ ४०६ ॥ 
घंकटा की अन्तदेक्ता यदि न्नामरी महाद्शाहोमे तो मरणसदुक्च क्लेश, शोक 
मोह ( मूर्छा ) से सम्बन्धित रोग होताहै। तथा राजा भौरच्ौरोँदहवारा स्याति 
प्राप्त करता ।॥। ४०६॥ 
मंगला कल- 
विलासो विविधं सौख्यं नृपसेवातिपुषटता । 
भ्राम्यन्तर्गता यत्र मङ्गला सह मङ्गला ॥ ४०७ ॥। 
भ्रामरी महादशा के अन्तर्गत मंगला की अन्दशा हो तो विलास, विविध प्रकार 
के सुख, राजकीय सेवा, पुष्टता ( उत्तम स्वास्थ्य ) श्वं निरन्तर मंगल काव 
होते ह ॥ ४०७ ॥ 
पिङ्गला कन- 
पिगला आ्ामरीमध्ये गुदाङ्धिमुख रोगदा । 
गजाश्वमहिषव्याघ्त्रण मीतिप्रदा भवेत्‌ ।। ४०८ ॥ 
पिक्घला की भन्तदं्ञा ्नामरो महादशा के भन्त्गेतहो तो गुदा, वैर एवं 
मुल मे रोग, हाथी, षोडा, मैत ओर बाध से आषात (बोट) का भय 


होता है ॥ ४०८ ॥ 
धान्या कल- 
श्रामर्युपगता वान्या धनवाहनमोगदा । 
नृपैः भ्रोतिकरी मिल्लंर्वरहानिकरो मता ।। ४०९ ।, 
भ्रामरी महादक्लामे धान्या की अन्तर्दशा हो तो धन, वाहन भौर शुख 
की प्राप्ति, राजासे प्रेम तथा भिल्ल (जंगली जातियों) से बरहरा हनि 
होती है ॥ ४०९॥ 


नहरिकामहादशा मे अन्तदशा एन- 
भिका कल- 
अद्रा भद्रां गता यत्र यशोमद्राश्वगोमतौ । 
व्यसनातिहश पुष्यमागंवरोधकरो भता । ४१० ॥ 
भिका महादशा मे भिका की भम्तरदंशा यहा, कल्यान, भोड़ा भौर णाय 
दान करने वाली, व्यसन ( नकषा एवं अन्य बुरी भदर्तो ) को तष्ट करने वाली 
वथा पुष्वमाजं मे अवरोध उपस्थित कटने बाली होती हि ॥ ४१० ॥ 


"मनो रमा" हिन्दीग्याश्योवेता ४८६ 





उल्का फल 


उल्का भब्राष्तरं याता विवादकृतरोगवा । 
स्थानज्न छदरभ्यहानिकारभ्यु्ेगदायिनी ॥ ४११॥ 
भदविका महादशा मे उल्काकाभन्तरहो वो कलह एवं रोग की उस्पतति, 
स्थान भरष्ट ( पदण्युत ), बअनहानि, तथा उद्ेग ( विकलता) पैदा करने वासी 
होती 8 ।॥ ४११॥ 
सिद्धा फल- 
सिद्धा भद्रान्तरं गता द्विजदेवा्ंने रतिः । 
पुत्रमित्रकलत्राङ्खगृहग्रामजनोत्सवान्‌ ॥ ४१२ ॥ 
भद्रा महादशा के अन्तरगत सिद्धा की अन्तदशाहो तो ब्राह्मण आर दैवता के 
पुजन मे, पुत्र, भित्र, स्त्री, शरीर गृह, प्राम तथा जनता से सम्बन्धित ( स।माजिक ) 
उध्सर्वो मे जातक की सचि होती है । ४१२॥ 
६ संकटा फल- 
भद्रादशां समायाता सङ्कटा सद्कुटातिदा । 
मोहशोकादिग्यसनभ्नान्तिदे्चगमातिदा ॥ ४१३॥ 
भद्विका महादश्षामें संकटा का अन्तर आनेपर संकट, क्लेश, मोह ( पूर्ण्छा), 
शोक, दुग्येसन, ज्नान्ति ( सन्देह वाली भव्ति, शक्की ), तथा भिन्न-भिन्न स्थानो की 
यत्रा होती है ॥ ४१३॥। 
ममला कल - 
सम्मानघनभुकीतिष्यापारे शुतसौख्यदा । 
मञ्जंला भद्रिकामध्ये पितृवंशविवुदिदा॥ ४१४॥ 
भष्ठिकादसामे मंगना की जन्तदेशाहोतो भ्यापारमें सम्मान, धन, भूमि 
जौर कीति का लाभपु्रोसे सुश्च तवा पितगंके वक्ष की वुद्धि होती हि ॥ ४१४॥ 
पिङ्गला फल- 
यवा मध्ये तु भद्रायाः पिङ्गला पिस्तरोगदा । 
कृषिवाणिज्यमूवद्ा्यतो विविधप्रदा ॥ ४१५॥ 
अदठिका महादक्षामे पिङ्गला की अन्तदशाहो तो पित्तजन्य विकार, ककि; 
व्यापार गौर भूमिविस्तार के भाश्रयसे विविष प्रकारका लाम होता हि ।॥ ४१५॥ 
धाग्या फल- 
कलन्रसौख्यं महिषोसुषेन्‌र्रव्यागमं शच्रुजयं विवाहे । 
गुपेन्मान्यं कुर्ते च धान्या भद्रादलायां यदि चेत्‌ प्रतिष्ठ + ।। ४१६॥ 


१ ोभिनी बातकम्‌ श्लो. ७ पृ. १८ 


{3 मानेस्तागरी 





भद्रिका दशामें धान्या की अन्त्दशलाहोतो स्त्री स, मैत, उत्तम नस्लकी 


गाय, गौर धनका लाभ, विवाद या मुकदमा मे शत्रुगों प्र विजय, तथा राजा 
सम्मान प्राप्त होता है।। ४१६॥ 


्रामरी फल- 
रधिराग्नियमाद्धोतिभं द्रायां ज्ामरी यदा । 
गृहकेत्ररिपृष्वंसो निजबण्धुजने : सुखम्‌ ।। ४१७ ॥ 
मद्रिका महादश्लामे च्रामरी की अन्तदेशा होतो गृह, ेत एवं शत्रर्णोका 
नाक्ष, रक्त, अग्नि, मौर यमराज से भय; ( अर्थात्‌ रक्त विकार, अग्निभय 
किसी की मृत्यु से कष्ट) तथा अपने भारई-बन्धुओं के साथ सुज्ली होता है ॥ ४१७ ॥ 


उरटकामहदादया म अन्वदशान्ल- 
उल्का फल- 
शत्रुभिः सहसा हानिद्रव्यस्य महती व्यथा । 
उल्कामध्ये यदोल्का च राज्यन्न श्ात्तु भीतिदा ॥ ४१५ ॥ 
उत्का महादकश्षामे उत्काकीटही भन्तदे्ला होतो कत्रर्मो हारा अचानक 
हानि, अ्थंसंकट, राज्यनाक्च या राज्यपरिवर्तंन से मय उपस्थित होता है ।॥।४१८॥ 
सिद्धा फल- 
सिद्धा वु स्वफलं त्यक्त्वा परस्य फलदायिनी । 
उल्कान्तर समायति विदेष्ठगमनप्रदा ॥ ४१९ ॥ 
उत्का की महादक्षामं सिद्धा की अन्तदंश्लाहो तो सिद्धा दक्षा मपने शुभ फलों 
का परित्याग कर अन्य अशुभ योगिनि्योका अशुभ फल देने लयतीहै। तथा 
विदे यात्रा होती है ॥ ४१९ ॥ 
संकटा कल-- 
उल्काया मध्यगा यत्र सङ्खुटा मरणग्रदा । 
स्व्रोपुत्रमृत्यादिमित्रजनहानिकुलक्षय। ॥ ४२० ॥ 


उल्का महादक्षा मे संकटा की मन्तदेशाहोतो मृत्यु या मृह्युतुल्य कण्टका 


अय, स्त्र , सेक, मित्र आदि जनों की हानि तषा कुल का ह्लास 
होता ॥ ४२०॥ 
मङ्गला फल- 
उल्काया मध्यगां यत्र मङ्गला मोहकारिभणी । 


धलमिश्रविवेकस्त्रीपुखदा मलहारणी ॥ ४२१ ॥ 
उल्का की महादल्चा मे मङ्गला की भम्र्दशाहो तो मनुष्य सीधा सादा 


होता है, वैन, भित्र, विवेक (बुडिमता) भौर स्त्रीति सृुष्ली तवा मल (विकार) 
के नष्ट होने ते स्वस्थ होता ह। ४२१॥ 


"मभोरमा' हिन्दीष्यास्योपेता ४६१ 





पिङ्गला कल- 


कुछकम्बुशिरोरोगेः पोडितो धरणी वले । 
मते नात्र सष्देहो यद्यल्कायां तु पिगला ॥ ४२२ ॥ 


उत्का की महादक्षामे पिङ्गला कौ अन्त्दशाहौ तो कुष्ठ, कम्बु (रम 
बिरगेदागया नाडी) एवं क्षिर रोगसे पीडति, तथा पृथ्वी पर हइथरसे उधर 
भ्रमण करनेषाला होता है इसमे सन्देह नहीं । ४२२॥ 


धान्या फन- 
न लामो न सूरखं किञ्िद्रातव्याधिकफादयः । 
धान्योट्काययां समायाता स्त्रौपुत्रस्वजनंः कलिः ॥ ४२३ ॥, 


उत्का महादशषामें धन्याकी भन्त्दक्षाहोतौो लाभ एवं सुख का मभाव, 
वायु-कफ आदि विकारोसे कष्ट, स्त्री, पत्र, ओौर अन्य पारिवारिक ष्यक्तिर्योसे 
कलह होता है ॥ ४२३॥ 
भ्रामरी फल -- 
उद्विग्नमानसं मोहो भ्रमः पुंमोऽरिजं भयम्‌ । 
नानाक्लेशसमायागो श्रामर्यल्कान्तरं गता ।। ४२४॥ 
उल्का को महादशाम ध्रामरी की अन्तदक्ाहो तो मन में उद्धेग, मूर्छा, 
भ्राम्ति, शत्रुं से भय तथा विविध प्रकारके कष्टहोतेह।। ४२४॥। 
महिका फल - 
उल्कामध्ये तु सम्प्राप्ता मद्रा भद्रा्दायिनी । 
भूषणाम्बरहानः स्यात्कुल मिश्रजनात्सुखम्‌ ।। ४२५ ॥ 
उल्का महादशा! के अन्तरगत मद्वा की अन्तदशा कल्याणकारक होती है, इसमे 
वस्त्र मौर बामृषषण की हानि तथा पारिवारिक सदस्यं एवं भित्र से सुख प्राप्त 
होता ह ॥ ४२५ 


सिङामहादथा म अन्तद्था रल- 


सिद्धा कल- 
सिदा सिदावंसंदान्री स्वजनेस्सह सौख्यदा । 
सिद्धायामयर्वश्वयं सुतमित्रसुखग्रदा ॥ ४२६॥ 
सिद्धा महादश। मे सिदधाकीही भन्तदंशाहोतो कायां की सिद्धि, अर्वलाभः, 
परिवार के साव सुश्च, सम्पत्तिलाम, पत्र भौर मित्रों के साब बरख प्राप्त 


होता ह ॥ ४२६ 


18. मानसारी ` 





संकटा फल -- 
वन्धनं नुपचौरेभ्यो धनहानिर्महद्धयय्‌ । 
देशत्यागो भवेन्नुनं सिद्धायां सङ्खटा यदा ।। ४२७ ॥ 
यदि सिद्धा महादक्ता में संकटा की अन्तर्दाहो तो राजा भअयवा बोरोहारा 
अन्थन, धनहानिः, महान भय हवा निद्चय ही देहपरित्याग होता है ॥ ४२७ ॥ 


ममला कल~ 
विलासः स्वजनः सौख्यं धनलग्धिनु पाड्धवेत्‌ । 
मंगला सिद्धिदा सिद्धा संगता विविधा यदा ॥ ४२८ ॥ 
सिढा की महादशामे मंगला की अन्तर्दाहो तो विलास, आश्मीय जनों के 
साथ सुख, राजा से षनलाभं तथा विविष प्रकारके कायो में तिदि प्राप्त 
होती है ॥ ४२८॥ 
पिङ्गला फल- 
सिद्धार्था पिगलायां तु मानं क्रोघाग्निदाहिका । 
वरोदयो निजैः सादं परद्रव्याभिधारणम्‌ ।॥ ४२९ ॥ 
सिद्धा महादशा मे पिङ्गला की अन्तदंगा होतो स्वाभिमान, कऋोषाग्नि को 
शमन करने की शक्ति, भआस्मीयजर्नो से शत्रुता का आरम्म तथा परायेषन का 
उपभोभ होता है ॥ ४२९६ ॥ 
धान्या फल- 
पुंसां धान्या तु सिद्धायां प्राक्पुष्यनिचयो भवेत्‌ । 
मनाश्रकल्पितं सवं तिद्धिमायाति सर्वतः ।॥ ४३० ॥ 
सिद्धा महादक्षा में धान्या की अन्तदंकश्ा हो तो प्राक्तन ( परवंजन्म के ) पूरण्यां 
का संग्रह (उदय) होता है तथा मन में सोचे हये कायो की पूर्ति होती 
ह ॥ ४१० ॥ 
न्र'मरी फल- 
ज्रामरी यदि सम्प्राप्ता सिद्धायां यस्य जन्मनि । 
स्वस्थानादुव्यसर्नस्व्यागान्ननु राजकुलाद्धयम्‌ । ४११ ॥ 
जिसके जन्मकाल में सिद्धा महादक्षामे ज्रामरी अन्तर्दशा होती है उते 
अत्यधिक भ्यसन हारा मपनेस्वान का परित्याग करना पडता है तथा राजदुत वे 
भय प्राप्त होता ह ॥ ४३१ ॥ 
भदहिका फम-- 
मगिस्यमोगजननी विचा छौख्यगुणश्रवा । 
नर्णां सिद्धिदा भद्रा सिद्धायामुपजायते ॥ ४३२ ॥ 


"मनोरमा" हिन्दीष्याख्योषेता ४९३ 


सिद्धा महादक्ामे महनिकाका भन्तरहोतो मंगल कार्ये, मोम, विचा, सुख 
भौर गुणो की प्राप्ति तथा मनूर््यो के सभी कार्याकी सिद्धि होती है । ४३२॥ 
उल्का फल~- 
उल्का सिद्धां समापन्ना धनान्थविनाश्चिनो । 
क्लेलशोकव्यसनदा गुदरूगमोहकारिणी ॥ ४३३ ॥ 
सिद्धा महादल्षामे उल्काका अन्तरहोी तो धन-चान्य का नाच्च, कष्ट, शोक 
भौर व्यसन की प्राप्ति, तथा गूदा सम्बन्धी रोग मौर मूर्खा उत्पन्न होती है ॥५४३३॥ 


सङ्कटामहादशा वै अन्तद णा एल- 

संकटा कल-- 
सङ्कटा स्वदश्ां श्रापता करोति मरणं ध्रुवम्‌ । 
शाजवंशाञ्च हानिश्च देशत्यागो धनक्षयः ॥ ४३४ ॥ 


संकंटा की महादशा मे संकटा की अन्तर्दशा हो तो निक्चय ही बरृत्यु होती है + 
राजकुले हानि, देश का परित्याग तथा षन नाश होता है ॥। ४२४॥ 


मगला फल -- 
शिरोरुग्विविधेः रोगे्ध्याधिभिर्यंस्नैस्तथा । 
कलत्रं सीदति यदा मंगला सङ्खृटां गता । ४३५॥। 
संकटा की महादक्षामे मंगला की अन्तर्दक्षाहो हो चिर मे रोग तथा अन्य 
विविध प्रकारके रोम-भ्याध्ियों षे स्त्री पीडित रहती है ॥ ४३५॥ 
पिङ्गला फकल-- 
अकस्मादनहानिः स्यास्पुत्र्योकोऽरिजिं भयम्‌ । 
पिङ्गला सङ्कटा याता वियोगः स्वजने सहु ।। ४३६ ॥ 
संकटा की महादशा मे पिङ्गला की अन्तर्दशा हो तो अकस्मात थन की हानि, 
पुत्रस्ोक, शन्रुभय, तथा स्वजनो (पारिवारिक सदस्यो) से बियोभ होता ह ॥४२६॥ 
धान्या फल- 
गृल्मोदरकृता पीडा निजपुत्रसुखं महत्‌ । 
स्वदेश्चजनताकीति्षा्या तु सद्धुटां गता । ४३७ ॥ 
कटा की महादक्षामे धान्या की अन्तर्दशा होतो भस्म ( बाबुबोला ); 
उदरपीडा, अपने पुज से अचिक सुक्ल, तथा वपने देक मे सोो ( जनता) हारा 
सम्मान प्राप्त होता है ॥ ४२७ ॥ 


४६४ मानसाभरी 





ज्ञामरी फल 
्रामषो सद्भुटामध्ये मणं पृथिवीतले । 
देशग्रामपुरहारराज्यन्च शषोऽरिजं भयम्‌ ।। ४३८ ॥ 
संकटा महादक्षा में भ्रामरी काभम्तरहो तो पृथ्वी पर रमन, देश, प्राम, 
पुर, हार, ओर राज्य का नाश तथाक्षत्रुमय होता है ॥ ४३२८॥ 
मद्विका फलन -- 
विध्ालंकारवस्त्राणि विविधानि महश्च । 
विग्रहोऽन्यजनैः सादधं भद्रा बेत्संकटां गता ।। ४३९ ॥ 
संकटा महादशा मे भदविका की अन्तर्देशाहोतो विविध प्रकार की विद्या 
अलंकार ( आमूषण ) एवं वस्त्रौ की प्राप्ति, महान यश्च तथा अन्य लोर्गोके साथ 
विरोध होता है।॥ ४२६ ॥ 
उल्का फल - 
उल्का प्राप्तधनग्रामहारिणो मूत्युकारिणो । 
संकटान्तर्गता निलयं पशुमात्रकुलादनः ॥ ४४० ॥ 
संकटा महादज्ञा मे उल्का की अन्तर्दशा होतो पूवं सस्त षन भौर प्रम 
( स्थायी सम्पत्ति ) का नाक्ष, मृष्यु (या मृष्युतुल्य कष्टं ) होती है । तथा जानक 
पशुम ओर अपने कुल को पीडित करनेवाला होता है ॥ ४४० ॥ 
निद्धा फन-- 
उताहो विविधः पुंसां नि जपुष्टिपुखादिजम्‌ । 
मन.प्रसान्नतामेति सिद्धा चेत्पदङ्कुटां गता ॥ ४४१ ॥ 
संकटा महादक्षामें विद्धाकी अन्तर्दशा भने पर भनुष्यके हृदय में विबिष 
प्रकार के उत्साह, क्षारीरिक वृष्टा ( स्वास्थ्य ); आादि सुक तथा मानसिक 
प्रसन्नता प्राप्त होती है ।। ४४१ ॥ 
सोगिनी-दक्ला संकलन-कर्ता का परिबय-- 
आसीद्गु्जंरमण्डले दिजवरः शाण्डिल्यगोत्रोद्रवः! 
धोमद्याजिकववंक्षमण्डनमणिरज्योतिविदामप्रणो । 
शौतस्मार्तरतो अनादन इति स्यातः स्वकोवर्गुण- 
स्तत्पुनुरहु रजी दष्यां स्फुटतरं बक परा योगिनीम्‌ ।। ४४३ ।। 
भुजरात प्रान्त में ब्राहर्णो मे श्रेष्ठ शाण््डि्य गोत्र मे उत्पच्च या्जिक वंदा ढे मुषन 
दवरो मे अग्रणी श्रौत-स्मातं कमम निरत मपे वर्णो ले विश्या भी जनार्दन 


नामक प्रष्यात पण्डित वे । उनके पत्र भी हरजी दैवह्लने योषिनी दका को क्पष्ट 
क्प ते कलित किया ॥ ४४२।॥ 


"मनोरम" हिम्दीग्यास्योपेता ४११५ 


योगिनीदशा के स्वामी- 
चन्द्रः सूर्यो वाक्पतिर्भृमिपुत्र- 
श्रान्दिमन्दो मागंवः संहिकियः। 
एते नाथा मङ्खला्र्प्रदिष्टाः 
सौम्याः सौम्यानामनिषटटाः खलानाम्‌ ।। ४४२ ॥ 


वमद, सूरय, बृहस्पति, मंगल, बुध, शनि, शुक्र भौर रहटूक्रमसे मंगला मादि 
योगिनियों के स्वामी होते है । अर्थात्‌ मंगला का स्वामी चन्द्रमा, पिङ्गला का सूरय, 
धाम्या का बहुस्पति, च्नामरी का मंगन, भद्रि का बुध, उल्का का शनि, सिडा 
का शुक्र तथासंकटाका स्वामी राहु हौताहै । शुभ योगिनियोंके स्वामी शुम 
तषा अशुभ योगिनिर्योके स्वामी पपश्रह्‌ होतेह ।। ४४३ ॥ 
मतान्नरसे प्ररो की उत्पत्ति- 
पिगलातो मवेत्सूर्या मङ्खलातो निक्लाकरः। 
भ्रामरीतो भवेत्कष्माजो धान्यातोऽभूद्धिधो. सुतः ।। ४४४॥ 
मद्रिकातो गुरुरभत्सिद्धातः कविसम्मवः। 
उल्कातो भानुतनयः सद्धुटातस्त्वभत्तमः ॥ 
स्या एव दश्चान्ते च कंतुरेवं विधीयते ।। ८४५॥। 
पिङ्गला नामक योगिनीसे सूय की, मङ्खनासे चन्द्रमा की, भ्रामरीसे मंगल 
की, धन्यासे बुष तो, मद्रिासे गुरुक), सिद्धस शुक्र को, उल्का हनिकी 
तथा संकटासे गहु को उत्पत्ति हह) तथा इसी (सक्टा) दशा के मन्तमे केतु 
की उत्पति हूरई। अर्थत्‌ संकटासे ही दोनों राह नौर केलु की उत्पत्ति 
इई । ४४४४२ ॥ 
ग्रहों का बलानुसार फकल- 
यः शेटोऽस्तगृहं तथारिभवनं नीचं प्रयातो यथा 
दायेशाद्रिपुग!* हि तस्य गदिता सवाऽमा मध्यमा । 
यश्रोश्वत्यलमाश्रितः स्वमवने मूलत्रिकोणे खगो 
मिन्रागारमुपागतो निगदिता तस्याऽखिला सौस्यदा ॥ ४४६ ॥ 
जो ब्रह अस्तहो, शशरग्रह को राशिम हो, नीच राकिमे तथा दकलाधीशसे 
टे भावमे स्थितहो उनण्होंका दशार्परिभाम मधम आौर मध्यम होताहै। 
( चुभव्रहो से मध्यम तथा पापग्रहा से अधम फलहोताहै)। यदि उण्चराक्षि, 
भपनी रा्षि (स्वक्षेत्र), मूलत्रिकोण अथवा मित्प्रहको रारिमेस्थितिहोतोरउन 
ग्रहों की सम्पूणं ददा सुश्च प्रदान करनेवाली होती है ॥ ४४६ ॥ 


१. “वेश द्विपुग) हि तस्य भदिता सर्वा दक्षा मध्यमा ।'* पाठान्तरम्‌ 








४९६ भानसाभरी 


वर्व-प्रवेहन-वा रादि साथन-- 
इष्टः शको जन्मद्चकेन हीन- 

स्व्रिधा सपादो दलितश्च वार्षम्‌ । 
समण्वितो अन्मगवाश्पुर्वे। 

स्फुटो अवेदब्दनिवेश्चवेला ॥ ४४७ ॥। 


मानसागरी पद्धतिः समाप्ता 


दष्ट शकाब्द मे जन्म शकाब्दको घटाने से शेष गतवषं संख्या होती है। रते 
तीनस्थानोमे रक्षकरक्रमसे प्रथम स्थानम सपाद ( चतुर्बाक्ष बुक ), हितीय 
स्थान में आधा तथा तृतीय स्थान मे साषे (गषेसे पृक्त) केसे जोबारादिसंश्या 


प्राप्त हो उसमे अन्मके वार तथा हृष्ट षटी पल की संष्या ओडने से वर्ष॑-प्रके- 
कालिक वार क्रौर हष्टघटीहोती है ।। ४४३॥ 


उदाहुश्ण-- जन्म शकाम्द १८९४ वैशाल शुक्ल ५ बुषवार इष्टे षटी १२।४२। 
वतमान ( इष्ट ) शकाष्द १६९०४ । इष्ट-क्षकाम्द १९०४१८९४ 
जन्म-शकाम्द ~ १० मतव्षं को तीन स्थानो मे रश्चकर 
“'सपादार्धक सा ङीङृते” इत नियम से चौवारईते युक्त, माषा 
तथा माषे से युक्त करने प१र- 





१०१० १० १०१० 
1 र्‌ र्‌ 
रं १२१३० ५ १५ 
तीनों को एक साथ जोडने पर १२।३० 
५। १५ 
१२।३५।१५ 
जन्म कालिकं बारादि जोहने पर ५।१२।४२ 
१७।४७। ५७ 


वार संख्या १७ को साते विभक्त करने पर शिष ३ षार संश्या। अतः ब्व 


भश. वारादि ३।४७।५७ अर्यात्‌ मंगलवार को ४७।५७ इष्ट वटी पर ११ वषं 
हना । 
मनोरमा हिन्दी भ्याक्या सहित मानक्षागरीका 


पर््वम अध्याय पसमाप्व ॥ ५॥ 


ड रामजसापाण्डेय कत मानसाबरी पङ्ति 
का मनोरमा नामक सोदाहरन 
हिन्दी भाषनुवाद समाप्त 
पनि 


परिशिष्टय्‌ 


[ मानक्तामरी की उपलब्ध प्रतिर्योतें 'मानसागरी-परिशिष्टम्‌,' के अन्त्गैत 
हुं प्रारम्मिक ग्यौतिचक्षास्त्रीय विषय व्यि गये । परन्तु सभी संस्करर्णो में 
बलग-अलग विषय ह । अतः यह्‌स्पष्टहै कि मानसागरी का परिशिष्ट टीकाकार 
या सम्पाको हारा प्रारम्भिक ञान हेतु दिया गया । इस परम्परा का पालन 
करते हुवे यहां भी कुष आवद्यक सामग्री का संकलनं कियाजारहाहै। जश्च 
ह पाठक्गज इस परिशिष्ट से लाभान्वित होमे । |] 

इष्टकाल साधन- 

भारतीय श्यौतिष-षिद्धन्त के अनुसार वार-प्रव्ति पूर्योदयसे मनी गरईहै। 
एक सूयय पते दुसरे सूर्यादय के मध्य का काल एक सावन ( म्म सम्बन्धी ) दिन 
होता £ । सूर्योदय मे जम्भ-समय तक के धटध्ादि अन्तर को हृष्टकाल कहृतेदै। 
सौविध्य हेतु इष्टकाल-पान के लिये तीन नियम दिये जा रहेहै। 

१. पूर्योदिय के पश्चात्‌ तथा दिन मं १२।५६ के पूवं जन्मो तो जन्म-समयमें 
पु्योदिय बटाकरलिव का ठर मुना करनेते इष्टकाल होता टहै। 

उद!ह रण-- अन्म-समय पूर्वा १०।४६५ सूर्यादय ६।१५ 

१०।४५- ६। १५०४३०५ 
शेय ४।३० का ठ ई गुणा =४।३० >८ ~ ११।१५ 
मथवा ( ४।३० ¬+ *,२० + २।१५ )~-११।१५ इष्टकाल । 

२. मध्यह्लु १ बजे से रात्रि म १२५९ बजे तक किसी काजन्महोतो जन्भ 
समयमे १२ जोहकर सुयदिप धटाकर शेष का ढाई भूनाकरनेसे ईष्टकाल 
होता है । 

उदाहरण -- जन्म-समय सायं ७।४२ सूयदिय ६।१५। 

अता ७।४२ 
+ १२ 
१६।४२ 
~६।१५ सुयदिय 
१३।२७ शेष का ढा गूनाकरनेते 
१३।२७ ०८ २२..३ ३।३.७।३० इृष्टकाल 

१. मध्यरान्रि एक येके वाद तथा प्रातः सूयदियते पूवकिसीकाजन्महो 
तो जन्म घमयमें २४ जोड़कर, सयदिय षटाकर शेवका ढाई मुना करे चे 
हष्टकाल होता है। 


३२ माण्षा* 





1 8.  , क) 


४६८ मानस्ागरी 








उदाहरण-- अन्म-समय रात्रि में ३।१२ पुर्यादय ६।१५ 
अतः अम्मनसमय ६३।१२ 
+र 
२७।१२ 
~६।१५ पु्योदय 
२०।५७ 
शेष का ढाई गुना २०।५७ ०८ २९५२।२२।१० दृष्टषटी 


नयात-भनोम सा्षन- 
जन्म नक्षत्र के यत षटी-पल को भयात तथा नक्षत्रके सम्युणं भोग ( मान) 
को भभोग कहते है । 
गतर्षनाडी खरसषु शुठा 
, भूयदियादिष्ट बटीषु युक्ता 
भयातसन्ा भवतीह तस्य 
नि जक्षनाडचा सहितो मभोगः॥ १ ॥ 
गतनक्षत्र के भटी-पल को ६० घटी में षटाकरमगेष कोदोस्वानो में 
रश्चकर एक स्थानमे इष्टकाल जोढने से मयात तथा दूसरे स्यान मे वतमान नक्षत्र 
के धटी-पल जोढने से भभोग होता ह । 
उदाहरण-- सं° २०३६ चंवर कृष्ण ० मौमवार, पूवषिहा 
४७।३९ गतनक्षत्र मूल ४१।४२ दष्टधटी ३३।३७ 
६०-~ग ० न ० ४१।४२३.१८।१७ शेष 
१८। १७ १८।१७ 
दष्टघटी ३२,३७  ४७,३९ वर्तमान ( जन्म ) नक्षत्र 
भयात्‌ ५१५४  ६५।५६ मभोष 
विशेष--सूयदिय-कालिक नक्षत्र यदि जम्म-समयसे पूवं समाप्तहो जयत 
इष्टवटी मे सुयदिय-कालिक नक्षत्र के षटीपसको षटानेसे भयात तथाण्में 


मौदयिक नक्षत्र को घटाकर शेष मे वतमान ( मभ्रिम हिनके) नक्षत्रके मानको 
जोटनेमे भभोग होता है) 

यथा-- मौदयिकं नक्षत्र पूर्वाषाढा ४७।३९ इष्टषटी ५२।२२ धप्निम दिन उण्वा° 
का मानि ५४।५ 











इष्टबटी ५२।२२ 
४७।३९ गौदयिक नक्षत्र 
४।४६ भयात्‌ 
६०9० 
४७।३९ 
१२,२१ 
५४५ अभरिम हिन उ०्षा० 


६६।२६ भभोष 





परिदिष्ट ४१६ 


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अन््र-सथन की सुगम विधि- 
गत नक्ष सख्या को १३०.२०८ ते (णाकर गुणनफल रमे दह्िगुणित भयात को 
श्से भाग देकर लन्वि अंसादि जोढनेसे अंशादि चख्माटोताहि। भंश्मेरेन्का 
भाग देने पर राश्यादि स्पष्ट चमर होता है। 


उदाहरण-- पूर्वाषाढा भयात ५१।५४, भभोग ९५।५६ गत नक्षत्र मूल, 
गत नक्षत्र सख्या १९ 
१९८ १३।२०२५३।२० 
भयात्‌ ५१।५४>८ २..१०३।४८ 


६) १०३।४८(११ 


६ 
१३ 
६. __ .._ २५३।२० 
ई >(६० ४ ११।३२ 
९)२०८(३२ २६४।५२ 
२७ 
१८ ३०)२६४(८ 
१८ २.४० 
> २४ 
स्प. चं. ८।२४।५२ 
यह विभि सुगम है परन्तुस्थलहै। 
चन्दषा हास दया सचन-- 


एक नक्षत्र क। मान १३०।२०' कला होताहै। चन्द्रमा जिस नक्षत्र परो 
उस नक्षश्रके गत अंहा कला रो सम्बन्धित ग्रह के दक्षावंसे गुणाकर ८०० कला 
षे भाग देने पर प्रह" की मूकता वषे-मासनदिन में आती है दशावषं से भुक्तदक्ता 
को चटाने से भोग्यदक्षा होती है। 
उदाहङ्ण - चन्द्रमा ८।२४।५२ 
अनुमाङे राशि अंशोंतेज्गातहोताहै कि षवु राशि मे २४०।५२' कला पर 
जगामा है अर्थात्‌ पूर्मवाडा नक्षत्रके ११ ०।३२' बीतने पर अन्म हुमा ह । क्योकि 
१३०।२०' कला से दवषिठा करा भारम्म होता है । अत ( २५।५२-१३।२०. 
==११।३२ ) । पुर्बाषाडा का वज्ञाधीक्ष शुक्र है । 
११९ ६०६६० + ३२६५२ 
६१२ >८ २००१३५४० 


 § ।, 


नक्षत्रों के प्रारम्भिक एवं अन्तिम अंशो का ज्ञान निम्नलिकषिति तालिका ते 


मानसाभरी 


२०।०।० 
भक्त बं १७।३।१८ 
भोग्य वर्धं २।८।१२ 


८००) १३८४०१७ 
11. 
५८४०५ 
५६०० 
₹४० 
> १२ 
८००)२८८०(३ 
२४०० 
८ 
६३० 
८००) १४४००१८ 

















288 


&४०० 
&४०० 





सरलता पूवक कियाजा सक्तादहै। 


राहि 





मेष 
मेष 


मेष 


अल 





७७9 
१३-२० 
२६०४० 
३०.०० 
१०-०० 
२३-२० 
३०७ ® 

६-४० 
२०००० 
ह ०० © 
३.२० 
१६४० 
०५*9 
११.२० 
२६-४० 


३०००७०७ 


नक्षत्र-बोधक तालिका- 








नक्षत दशाधीश 
अश्चिनी केतु 
भरी शुक 
कृत्तिका १ पूर्य 
कृत्तिका ३ भूयं 
रोहिनी चना 
मृगक्षिरा २ भौम 
मृगक्षिरा२े भोम 
भारा राह 
१ धृ 
पुष्य शनि 
भारश्तेवा बुष 
मधा केतु 
प. का. कुक 
उ.का. १ श्वं 


दकार्षं 


२० 
६ 
६ 


१० 
७ 
|. 

१८ 

१६ 


१४ 
१९ 
१७ 


७ 
२० 
९ 


परिदिष्ट ५०१ 











रादि अंश नक्षत्र दशाधीदा वशावषं 
कन्या ५ १०-०० उ. फा. इ सूयं ६ 
कम्या ५ २३-२० हस्त चन्द्र १० 
कन्या ५ ३०-०० चित्रार भौम ७ 
बुला ६ ६४० चित्रा र भौम ७ 
तुला ६ २०-०० स्वाती राहु १८ 
तुला ६ ३०-०० विशाखा ३ युद १६ 
विक ७ ३२० विशाश्षा १ गर १६ 
बदिवक ७ १६-४० अनुराधा शनि १९ 
वुदिचक ७ ३०-०० ज्येष्ठा बुष १७ 
धनु ८ १३.२० मूल केतु ७ 
षन 5 २६-४० पूर्वाषा. शुक २० 
धनु ८ ३०-०० उ. षा. १ भूयं ६ 
मकर र १०-०० उ. षा. ३ सूर्य ६ 
मकर € २३-२० श्रवण चन्द्र १० 
मकर श ३०-०० धनिष्ठा र भौम ७ 
कुम्भ १० ६.४० धनिष्ठा र भौम ७ 
कुम्म १० २०-०० शतभिष राह १८ 
कुम्भ १० २०००० पू. भा. गु १६ 
मीन ११ ३-२० प. मा. १ गुर १६ 
मीन ११ १६-४. उ. भा. शनि १९ 
मीन ११ ३०.०० रेवती बुष १७ 
बह स्प्टीकरण 


आजकल प्रायः सभी पञ्चाङ्गो मे देनिक सू्योदिय-कालिक या प्रात। ५।३० बजे 
अववा मिभ्रमान कालिक ग्रह दिये रहते दह । 


यदि उदयकालिकण्ह हो तो इष्टकाल जौर प्रह की मति का परस्पर 


भूभाकर ६० २ भागदेकर पंवांगस्य प्रह की कला-विकलामे जोड़ने इष्ट 
कालिक प्रह ्ेताहै। 


यदि भिथमान-कालिक या प्रातः ५।३०के ब्रह होतो जन्ध-समय खीर 
भिश्वमाम या प्राततः ५।३० का अम्तर करेष धटघादि मन को ब्रहगतिषि 
धूणाकर ६० वै भाग देकर तभ्च-फल को प्रहुते पूवं जन्भ-समय होने पर धटाने 
तथा पश्यात्‌ होने पर शओोडने से स्पष्ट-प्रह होति ह । 
ठदाहर्न- (£) भौदयिक पयं ११।२१।२।३० 
भति ५९।४ इष्टषटी ३३।३७ 


४५०२ म्रानसागरी 





५९।४ 
११३७ 
१९५५।२१ १८३ 
३८। १३२ 
२ 
३३। १०३०५ २३१७ 
१८० १८० 


१८५ ५१७ 


१८० &६७ 
५ ३७ पूयं ११।२१।२।३० 
६०्ये भाभगदेने षर लग्धि ३३।५ ३३। ४ 
इष्टकालिक स्पष्ट सू. ११।२१।३५।३५. 
(२) भिश्वमान ४६।३४ सूयं ११।२१।४०।२६ गति ५९।५ इष्टं ३३।३७ 
४६।३४-- ३३।३७०१२।५७ ऋण बालन 
५९। ५ 
१२।५७ 
७७६८ ६०9 
१३६३।२८५ सभी गुणनफलों को 
३४२३ 
०६०्से भागदेने पर अन्तिम लब्धि १२ तथा शेष ४५।७।४५ । मिश्मानवे 
इष्टकाल अल्प है अतः भिश्चमानकालिक ग्रह से लब्धफल बटनेतते इष्टकालिक 


स्पष्डव्रह होभा । 


यथा ११।२१।४८।२६ 
= १२।४५ 


११।२१।३५।४१ स्पष्ट सूर्यं । 
देसी प्रकार सभी ब्रह का स्पष्टीकरणहोताहै। यदि वक्षीप्रहहो तो लष्व 
फल का विपरीत संस्कार करना चाहिये । यदिफल नहो तो ऋभ, ऋनं 
हो तोनकरं। 
जैराधिकन-चिङ्धाम्तसे धी इष्टकालिक प्रहुका शानक जा सकता है। 
यवा--रणवष्टेमे प्रह की भतितो मभमीष्टबष्टेमेक्या? 


गहि मभप्डशाल नीन्डकाने = इष्ट चष्टा सम्बन्धी प्रहमति । 





१४८ 
१२० 
२६ 





























== धतिकल 
पल्न्नाङ्गुस्थ अह अम्मवमयसे पूवो तो उसमें बतिफल को जोड़ने तथा 
अम्मसमयसे वादर्भेषो तो गतिफल को बटाने ते इष्टकालिक श्युट्रह होता है । 


परर क्षष्ट ५०३ 





भयात-धमोग से दक्षा साभन- 
गतरक्षनाढी निहता दशाब्देः सवक्षनाडी विहृता फलं यत्‌ । 
बर्षाविक मुक्तमिति प्रकल्प्य, स्वाम्दादपास्यं मवती् भोग्यम्‌ । २॥ 


भयात को पलाट्मक बनाकर दकशावषं ( जिसकी दशा में अन्महो उस ग्रहुके 
दक्षाव्षं ) से गुणाकर पलारमक भभोगसे भाग देने पर लि मुक्त दशा वर्षं, 
शेष को १२ ते गुणाकर भभोगते म।गदेने पर मास तथा पुनः रोषकोर०्धे 
गुणाकर भभोगसि भागदेने पर लन्धि दिन होता है। मुक्त वर्ष-मास-दिनिको 
दशाबवं मे षटाने से वर्षादि भोग्यदशा होती है । 
अन्तदेशा साषन-- 


इदा दशाहता कार्या व्िहूता परमायुषा। 
लब्धमन्तदशामानें वर्षादिकमिहैरितम्‌ ॥ ३ ॥ 


जिस ब्रह की महादशा मं जिस ग्रह का अन्तर ज्ञात करनाहो उन दोनों ब्रह 
के महादशा व्घोंका परस्पर गुणाकर १२० का भागदेनेसे लब्धि वर्षादि 
अन्त्दंहा का मान होता है।+ यया- 


सूर्यं मे बम्ह का अन्तर अभीष्ट । अत 
६१२१० , ६० _ १२०)६०(०।६ 
१२० १२० ° 
६०८ १२ 

७२० 

७२०७ 

>€ 

सूयं मे बम्रान्तर ° वषं ६ मास० दिन 
हादशभ।व साधन- 


प्रह लाषवप् की रीतिसे लग्न साधन की विधि मानसागरीषृ. श३पर दी 
णयी है। इस विधिते लग्न साधन करना चाहिये अववा आधुनिक रीतिसे 
साम्पातिक अववा नाक्षत्र काल (७4८ व< ) से लग्नसाषैन करना 
आहवे । लग्न ही प्रथम भावहोलाहै। सग्न के अ्शोमे १५ अश जोडने ते लग्न 
की सन्धि, सन्थि मे १५ भंत जोडनेते द्वितीय भावहोताहै। धसी प्रकार लग्ने 
१५.१५ अंश ओोढते रहने से सग्धि सहित हादश भावहो जतेह। यह अष 
भमत है । यषा- 


१. दशान्तर्दक्षा सम्बन्धी विशद विवेचन पश्चम अध्याय में किया गया है। 
२. धर. ला. तरि. भ. शलोक २;,६३। 











"पणि जज ० ० ० ककय) | 





०४ मातसाभरी 














लग्न ३। ४।२२।३० त्‌. भा. ५। ४।२२।३० 
१५ १४ 

सन्बि ३।१९।२२।३० सं. ५।१९।२२।१० 
१५ १५ 

ह्वि°भा० ४। ४।२२।३० चं. भा. &६। ४।२२।३० 
१५ १५ 

सन्धिं ४।१६।२२।३० सं. ६।१६।२२।३० 
१५ १५ 


पं. भा. ७। ४।२२।३० 
इसी प्रकार सन्धिसहित बारह भावों को सिदधिहोतीदह। कु विहानोंनेश्ते 
स्वल बतलाया है परन्तु सिदास्ततत््वविवेकूकार कमलाकरशटरूने इसेही प्रमाण 
माना है- 
मरिभिः स्वीयङृतौी निरुक्ता 
लग्नांसतुल्या रविसद्यका ये। 
मावाः समा एव सदा फलार्थं 
ग्राह्यास्त एव ग्रहगोलविद्धिः॥ ४॥ 
लोकेषु मूदिरपूरभारथं 
मूर्खीवलग्नाहविसंस्यका ये। 
भावा निङक्ता) स्वधिया ह्वनार्षाः 
सम्यक्‌ कला्थं नहि तेऽवगम्याः।॥ ५॥ 
( सि° तण विर) 
मान्दि एवं गुलिक साधन-- 
चारः शारिजटाव्यो नटतनृख्नं चुभानं हतं 
शाङ्गाप्तं रविवासरादिघटिकास्तत्कालमे मन्दजः। 
रतरेर्मानमहश्रमागमटिहूत्लण्डप्रमाणं भवे- 
दरकश्चाशनिवासराग्तदिवसे वारेकष्व रात्‌ खब्डपा१ ॥ ६ ॥ 
रविकासरादि दिवसो के दिनमान को क्रमे २६, २२, १८, १४, १०, त्या 
६्से शुणाकर गुभनफठको ६०्ते भागदेने पर माग्दि ईष्ट होता है। इस इष्ड 
के आचार पर सारि लग्न भान्द लग्न होता है। 
रात्रिमान तजा दिनमान कोजाठ भागोमे विभक्त करनेसे बारश्ष्डशोता 
है । प्रथम ण्ड का स्वामी बारेश तथा हितीयादि शण्डोके स्वामी वारे से भत्रिमि 
वाररोके स्वामी होति ह 1 भष्टम जष्ड निरीश्वर होता ह। 


१, उ.का. 





परि खिष्ट ५०४ 





'.अन्त्वंश्लो हि निरीश्वरस्तु गुलिक। शम्यंसकस्तन्निश्षोः । 
वारेकशादिह पञ्खामादित भयं शण्डान्तमेे भवेत्‌ ॥” ७॥ 
शनि का अं “गुलिक" होता है। रात्रिमें प्रथम शण्डका स्वामी बारेशसे 
पश्चम प्रह होता है । तथा पश्मे्से अग्रिम प्रह अभ्रिम शरण्डोकेस्वामी होतेह । 
माल्दि मौर बलिक बहत मुभ माने जते ह । मान्दिसे लग्नशुद्धिका भीश्लान 


किया जाता है। 
अनिष्ट अरहो ढे निवारणार्थं रत्न 


व्व शुक्रेऽग्जे सुमृक्ता प्रवालं मौमोऽगौ गोमेदमाकौ पुनीलम्‌ । 
केलौ वैदूर्यं गुरौ पुष्पकं ज्ञे पाचिः प्रार्‌माणिक्यमर्के तु मध्यमे१ ॥ ८ ॥ 
अनिष्ट ग्रहों की शान्तिके लिए नवरत्न की अंगुदौ धारण करनी चाहिवे। 
अमृटीमें रत्नो का स्थापन इत तरकार करता चाहिये-पूवं में हीरा, अग्नि 
कोभ मे मोती, दक्षिण मे मूया, नश्य मे गोमेद, परिम मे नीलम, वायब्यमें 
वैदूर्य, उत्तर मे पखराज, तवा ईशान मे पन्चा । स्पष्टां बक देखं- 


उ. 


व दूयं (पुल गाज) पल्ला | म 
। | 


नीलम माणिक्य | हीरा । 





जिन "कमायन 


गोमेद मगा ¦ मोती | 
 . ॥ 
ग्रहो के रत्न- ॥ 
माणिक्यमूक्ताफलविद्रुमाणि गारत्मक पृष्पकवसख्नीलम । 
गोमेदवदूर्यकमरकंतः स्युः रत्नान्यथो ञस्य मुदे सुवर्णम्‌ * ॥ ६॥ 
पूयं के लिए माणिक्य, बन्हके लिए मोती, मंगलके लिए मषा, बुषके लिए 
शारहमक ( पर्ना), गुदके लिए पुशचराज, शुक्रके लिए हीरा, शनि के लिए 
नीलम, राहुके लिए गोमेद तथाकेतु के लिए वटूयं ( लहसुनिरयां ) धारण करना 
चाहिये । बुष की प्रसम्नता हतु केवल सोना भी धारण कर सक्ते है 
, इन महर्ष रहना के स्थान पर अल्प भूत्य के रत्न तथा काष्ठ-भौषधिपों को 
भीधारण करते का विधान ह सौविष्य हेतु उन धौषधियों एवं रत्नो कौ सूची ब्रहों 
के साव निम्नलिखित है- 





[ककावणकायानायकवाककककककयपयक 








१ २. बु.चि.भो.प्र 





५०६ मानसागरी 
प्रह स्न घातु काठ भोववि 
पूयं मुंगा सोना बत 
चन्द्र बादी वादी शिरनी 
मंगल मृगा ताबा नामजिह्वा 
बुष सोना सोना विषायरा 
शुर मोती सोना भारक्गी 
शुक वादी सोना अरष्डी या बाषष्टी 
शनि लोहा सोना विण्डु या वण्डोल 
राह लाजावततं सोना अम्बन 
केतु लाजावक्त सोना अश्वगन्धा 


बरहशान्त्यथं स्नान 


लाजा-दुष्ठवना-पियदङ्गुषन-सिदधार्वेनि्षादाङूभिः । 
पुङ्खा-लोघ्रयुतै्जतैनिगदितं स्नानं ब्रहोत्वाषहूत्‌ १ ॥ १०॥ 
लाजवन्ती, कठ, बला, ( बरियारा ), मालकांगनी, मोषा, सरतो, हल्दी 


दाश्हल्दी, सरपुङ्खा, तथा सषि । इन सभी मौषनिर्यो को भल में मिलाकर स्नान 
करने धै भी प्रहजम्य विकार मष्ट होते ह 


१. भु.षि.भो. प्र. १५ 


कल्ल-निदेश सम्बन्धी आवश्यक विषय 


जम्मषेक्मे बारह भावहोतेहै। १. तनु, २. भन, ३. सहज, ४. सुद, 
५. शुत, ६. रिषु, ७. जाया, ०. मृष्यु, ६. धम, १०. कमं, ११. भाय, १२. व्यय! 
इन बारह भार्वो मे मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित सभी विषयों का विवेचन किया 
भया हि) इन बारह भावों का सम्बन्ध १२ राशि्योतेषहैजो लग्नकेषरूप मे ग्रहन 
की जातीहि।१ जिस लग्न मे जन्म हो उस लग्न की क्रमसंख्या को जन्माङ्ग 
अक्के प्रथम भावम रस कर वामक्रमसे अग्रिम राियो की संख्यार्मो को लिखना 
चाहिये । प्श्चाङ्ग मे स्थित ग्रहोके आधार प्रर जन्मकालिक प्र्होके राक्यादि 
मान निकाल कर जिस राहि पर जो ग्रह स्थित टौ जम्भचक्रके अन्तर्गत उसी 
राशिमें उन ग्रहों का स्थापन करने से जन्मचक्र का निर्माण होतादहै। जिस भाव 
मओ राति होती है उत्त राधिका स्वामी-प्रह उस भावका स्वामी होताहै। 


वथा--अन्मलग्न ६।८।१० सूर्यं ०।१।३७ चन्द्र १।१।४६९ भौम ०।१२।४२ 
बुष ०।१७।४४ गुड ७।२२।३२ शुक्र १।११।३५ शनि ६।२।४७ राह २।८।३१ 
केतु ८।८।३१ 


अन्माक्क चक्र 






> रा. 
२ ॥ १ 
„^ चं.शु. | 


तुला लण्त मे जभ्महोनेसे प्रथम भाव मे ्ुला (७) को स्वापिति किया क्या। 
अनन्तर सभी ब्रहो को अपनी-अपनी राक्षिमे स्वापिति कर जन्मङ्ख चक्का 


निमि किया। 
१. लग्न भीर रास्िमे गोडान-पारसडान्तिक अन्तर हि। राकल्ि-बक्रके १२ अबो 





५०६८ भानसाभरी 





योयो 


लग्न ( तनु भाव ) मे हला लग्न है अतः वुला कास्वामी शुक्र लगन या प्रबम 
भाव (तनु) कास्कवामीहोगा। इसी प्रकारमन्य भावोंके स्वामिर्यो कोषधीः 
समक्षना चाहिये । सरलता हेतु राशियों के स्वामी, उश्च, नीव भौर मूलत्रिकोन 
रश्यो को तालिका निम्न लिखित है । 

































































ह ¡सूय [चन [ मोम | इष [ गुड [शुक्र [शनि गह्‌ | केतु सूय | बन्दर | भोम | बुष | गुड । शुक्त | शनि | रह | केतु. 

राल्ि | 8 | ९ भे ११५. ९१.२१.१८८१ | ब 
वु. ८.क. ६ मी.१२ु. ७ (क.११ १२ 

< मे. | वृष | म | क | षक । मी. | वु | मि 

अश्च | १० |३ | २८ | १५५ | २७| २० | १५ १५ 

नीच | तु. वृ. | क. | मी. | म. | क. (मे. | ध. | भि. 

राति । १००. ३० | २८० १५१ ५ | २७ | २० । १५ 

दान लिव. | ग. | र| ५ | द. |. | इ |. 

जिक्नोण सि. | वु | मे. | क. | थ. | तु. | कु. | कु, „ | ङ, वि. 

दृष्टि-- 


सजौ ग्रह अपने स्वान से सातवें भाव को पूरे दुष्टिसे देखते ह। सप्तम भाव 
कै अतिरिक्त मंगल चौवे भौर भआव्वे भावको, गुहर्पाचकें गौर नवम भावको 
तथा शनि तीसरे एवं दशम मावकोभी पूरणं वुष्टिसे दे्लताहै), शेव व्रहोकी 
इन स्वानो पर आंशिक दुष्ट होती है । ववा- 


३ ओर १० मावकोएक पाददड्ेदुष्टिसे 
५ भौर € माव को द्विपाद द दुष्टिसे 
४ भौर = मावको तीनपाद ई वृष्टिते ब्रह देशे ह । 





मे चन्धमा के भोग-काल ( जब तक चन्द्रमा एकः राहि पर होताहि तब तक 
के काल) को रा्षि कहते है चम्पा एक राशि में लभमग २९ दिन रहता 
ह 1 पुं क्षितिज पर बारह राशियों के दनिक उदय-काल को लग्न कहते 
ड । एक लग्न का समय लयभ र बष्टे काहोताहै। 

१. पष्यन्ति सप्तमं सर्वे शनिजीवक्ुजा पूनः । 
दिशिवतश्न तनिदद्चनिकोगबतुरबष्टमात्‌ +न. षा. 


षा रास्षष्ट ५०६ 





ताजिक शंस्तरै मे दुष्टर्यो का विवेचन इस प्रकार किया भया है- 
दुष्टिः स्यान्नवपभ्चमे बलवती प्रत्यक्षतः स्नेहदा 
पादोनाऽञ्खिलिकायंसाधनकरी मेलापकाश्योष्यते । 
धुष्तस्नेहकरी तृतीयनवमे कार्यस्य संसिडिदा 
अंशोना कविता तृतीयभवने भष्भागद्ष्टिमवे।। 
दृष्टिः पादमिता चतुर्यदह्षमे गृष्तारिभावा द्मृता 
ऽन्योन्य सप्तमभमे तथेकमवने प्रत्यक्षवैराकिला । 
ष्टं दुक्‌ त्रितयं क्षेत लयमिद कायस्य विष्वंसदं 
सद्द्रामादिगलिप्रदं दश दमाः स्युद्रदिशांशान्तरे ।। ^ 
प्रो की अपने स्वानसे नवम, पश्मभावमें ४५ क्लाकी दृष्टि प्र्यक्ष शूप 
से स्नेह देनेवाली तथा कायो को सिद्ध करनेव(लीहोतीहै। तृतीय स्थान की 
दृष्टि शुप्तश्प से नेह करने वाली ४० कलाहोतीहै। ग्यारह स्थान मं १० 
कला बी शुभदुष्टि रोतीङै। 


अतु भौर दषम भाव म गुप्तह्प से शत्रना करनेवाली १५ कला कौ, 
स्त मस्थानमें पूणे ६० कला की प्रस्य शत्रुता करनेवाली दृष्टि होती है । इन तीनों 
स्थानों की दृष्टि अशुभ एव कार्यों का नक्षि करनेवाली होती है। 


कारक ्रहु-प्रत्येक माव के कारक ब्रह पृथक्‌-पुषक्‌ होतेह । किसी भी 
भाव से सम्बन्धित परिणाम जानने के लिए भाव, मावका स्वामी ब्रह तयाभावका 
कारक ग्रह विारणोयहोताहै । ववा-सम्तान का विचार करनादहैतो लग्नसे 
पशम धाव ( सम्तान }) को देखेगे उसपर किसको दष्ट, किस ब्रहका योन 


टै, तथा प्ये किस भामे किस अवस्वामेहै। इसी प्रकार पश्छम भावके 
कारक प्रहु बृहस्पति षे भी पमस्थान कोसम्तान भाव मानकर उस भावसेभरी 
विचार करेगे । 


प्रत्येक भावके कारक प्रह इसप्रकार है 


भाष कारक प्रह भावं कारक ग्रह 
तु (लग्न) (१) शयं सहज (३) मंगल 
धत (२) भु _ षृष्द्‌ (४) चमा, बुष 





१. ताजिक नीलकणष्टी १.९१. १० 


५१० मानसाभरी 





भाव कारक ग्रह भावं कारक प्रह 

शुत (५) गुड धमं (६) सूयं, गुर 

रषु (६) मंगल, शनि कमं (१०) बुष, सूये, शुङ, ठनि 
जाया (७) शुक माय (११) भु 

मृत्यु (८) कनि व्यय (१२) शनि 


फलदेश्च विधि--भाव, भवे भौर कारक प्रहा की स्थिति, दष्टि एवं 
युति के अनुसार शुभाशुभ परिणाम होते है। एक सामान्य नियमहै कि जो भव 
अपने स्वामी-प्रहसेया शुम-प्रह से युक्तं अभवादुष्टहोगा बह भाव शुम एवं 
भाव से सम्बन्धित फल मी उतम एवं अनुकल होगा । इसी प्रकार जिस भाव 
का स्वामी अष्युम ब्रह से युक्त अथवा दष्ट हो उससे सम्बन्धित भाव का अशुमफल 
होतादहै, भवेशत्रिकमेहो अववा त्रिक कास्वामी भमीष्ट बावमेंग्याहो; 
शुम प्रहोतेदुष्ट-गुतन होतो उसभावसे सम्बभ्धित परिणाम को अशुभ कर 
देता है । 

यथा-शारीरिक अवस्था के सम्बन्धमे जाननादहै। अन्मन्वक्रमे शरीर क) 
स्थान प्रथम भावदहै। यदि जन्मलग्न का स्वामी त्रिक (६, ८, १२ )मे मया 
हो उसपर पापप्रहोंकी दृष्टिहो। अथवा ६, ८, १२ स्थानों के स्वामी-प्रह 
लग्न म स्थितो तो जातक भ्याचियोंते युक्तहोकर विविष प्रङारकेक्ष्टोंको 
क्षेलता है । यदि लम्नेश लग्ने हो अथवा शुम-प्रहुलग्नमें हो भौर लम्नेश शुभ 
ग्रहो की राशिमेंस्थितिहोतोक्षारीरिक बुल्लप्राप्तहोताहै। 

इसी प्रकार सभी भावों के सम्बन्धमें विचार करना बाहिये। इस सामाभ्य 
नियम के अतिरिक्त कुष्ठ विकतेष योग भी होतेह जिनका विस्तृत विबेन हस 
न्य मे सिया व्याह । उन विष्यो के अवलोकने फलादेश का भम्यसिहो 
सकता है। फलादेश करते समय ग्रहो के पारस्परिक सम्बन्ध, प्रकृति तथा सम्ब्द 
राशियों की प्रकृति एकं स्वप का ध्यान मव्य र्ना बाहिये। 

आवश्यक पारिभाषिक लसब्द-- 


केर = १, ४, ७; १९ भाव (इन मावोंको कष्टक भीर 
चतुष्टय भी कहा जता ह।) 


परिदिष्ट ५११ 





नरिकोण = ५, ६ माव, ( हश मर्तो के अनुसार निकोन १, ५,९ 
भार्गोते होताहै।) 

त्रिकं = ६, ८; १२ भाव 

तरिषडाय = ३, ६ ११ माव 

पणफर = २, ५; ठ; ११ भाव 

आपोक्लिम ३, ६, €, १२ भाव 

उपचय =२, ६, {० ११ भाव 


नो संक्षिप्तं न च बहु वृथा विस्तरं शास्त्र तरम्‌ ॥ 


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