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Full text of "Bhoja_Prabhandha-Shyam_Sundar_Tripathi"

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नः 2.2.24 








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पण्डितविरचित- 4; 

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4 °वांसवरीनिवासी, कान्यङुनसुदुरुभूपण, अनेक प्रथकि > 2 

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त्‌ 6 यक्राकारू जीर वित, सनातनघमके महोपदेशक, 2 2 

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12. 





समर्पण! 
कण्णो ह (क 
ससत श्रीयुते मरृपतिभणियुङ्कट, कविङ्करुकमरूदिवाकर गो्राह्मण- 
मततिपलक, दृष्टननवालक, प्रजावरपल, भगवेद्धक्तिरसिक, धर्म. 
धुरन्धर, गुणग्राही, परमरवंशावतंस, छत्रपुरनरेश्च ए. प्र, 
श्री १०८ श्रीमहाराजासाहिव 
विश्वनाथतिह ज्‌ देव 
महोदयकरकमरेषु ! 
रानन्‌ ! 
आपका रास्यदातन कस्तद्ृमौ अधिक समय काविमंडल्के साथ भगव- 
रक्तिं जीर धर्भपुस्तककि अवटोकनमेही व्यतीत होता हे । हिन्दी साहित्यपर 
सायका वडा अनुराग है, इसीते आज श्रीमानूके करकमलोमे धम जीर 
लौतिक्र उपदशेति र्ण, वाल्पंडितके '“ भोजग्रवन्ध॒ » को मापाटीकासे 
भूपितर कर मपित कस्तर्् । आदा है कि, प्राचीनकवियोके वाक्य प्रिनौ- 
दरु दनेने इम ` अट ' को थाप अंगीकार करगे । 


आपका मकोती- | 
र्यामदुन्द्रखडङ नरपाठ, 


भूमिका । 
~~~ 
राजा मोज माख्वैवे परमारवंयमे उत्पन इए थे चीर विद्रानोसत बन्दिति 
होकर धारानगरीकर प्रपिद् राजा हए । कीरतिकीमुदी, घुकृतसंकत्तेन, मेर- 
तुगके ग्रवेषचिन्तामणि यर्‌ व्ट्यख्पण्डितके भोजग्रबन्धमे वियोत्साही भोज 
राजका पारेचय पाया जाता है । 
मोजप्रव॑धरमे टिखा है कि, धारानगरीमे सिन्धुटनामक राजा रता था 
जीर उसको रानीका नाम सावित्री था । राजाकी इद्धावस्यामे मोजनाम- 
वादा पुत्र उत्पन्न हआ ¡ जव मोजे पोच वधैमे पैर रक्खा तव वृद्ध 
राजने अपना मृ्युसमय निकट जान प्रधानमंत्री बुद्धि्ागस्ं कटा; अव 
मेस अन्तसमय है इस राव्यको विसे दूं £ यद. पोच वरपके वाठ्क भोजको 
राव्य दंगा तौ छटा भां सुज राव्य भसे यदि पुत्रकं मारडाख्गा तो 
वश्च नष हो जायगा । हसते मेरी सम्मतिमे यही आता दै कि, छोटे मा 
सुज्लकोदी राव्य दूँ ओर वाक मोजको उसकी गोदमें प्राटन कनके छि 
ठच्दूं । बुद्धिसागर वोखा महागज ! यदी ठीक है । तवर राजने श्ुममु- 
तमे अपने छोटे मादैको राव्य दिया ओर उसकी गोदमे अपने कुमार 


८4 


१. 


` भोजको व्रिग्दिया । फिर कुक दिनोंके वा राजा पररोकवाक्ती हए ! 


उक्त मोजप्रवंमे धाराधीरा, राजा सिन्युल्का छ्रेय म्ह च्लि दै ।. 
पर॒ पदमगप्तके ““ नवसाहसाङ्कवरित `? म छिलि हे कि, संज वीतय राजः 
सिन्धुख्का वडा भां था, मुंजकी सरलयुके पीछे सिन्धुर राजाने राव्य पाया 
इन दोनो राजांकी समाम पश्नगुतने राजकविके नामते चोमा पाई थी, 
दरस कारण प॒श्गुत्तकी ही वात दीक जान पडती है । 

उदयपुरप्ररस्ति, नागपुरप्ररास्ति, भोजके ताम्रश्चासन ओर नवसादसा- 


, कचरितिमं सिन्धुराजनाम रहते इदु मोजपरवेध, प्रवेधचिन्तामणि आदि ग्रमे 


&६ ~~ सिनः मही +) अ [1 पद्मयुप्त ८ 
न्धुड ' नामही दष्ट जता है । पर्गुप्तके नवसाहसाङ््वारेत प्रड- 
~~~ ~~~“ ~~~ 





% दिवं चियादुर्मम वावि अद्रामदत्त यां वाक्पतिराजदेवः । 
तस्वाचजन्मा कविचान्धवस्य भिनत्ति तां सम्प्रति सिन्धुराजः ॥ 
( नवच्राहुमाङ्कचरित १७) 


भूमिका । (९५) 


- तसे जाना जाता है कि, इनके नवस्राहसाङ्ग ओर कुमारनारायण यह 
-दो व्रिरुद थ । 
मेरतुङ्घने प्रचन्धचिन्तामणिभे छ्खिा है क्रि सिन्धुर कडा अबाध्य था 
-इसीसे उक्षका बडा भाई वाक्पति मुज सदा उसपर सासन करता था । 
एक समय पजने छोटे भाईके धुरे भ्यवहारोसे दुःखी होकर उसे निकार 
. दिया, त्तव वह गुजरातमे आक्षरकाराहद # के समीप रहम लगा । कुछ 
` दिनेकि पीठ फिर माल्वेमे रीट आया, तो वाक्पति राजा सुजने माके 
रीट आनेपर व्डे आद्ररके साथ उसे अपने यदह र्खच्िया । किन्तु ˆ नीम 
न मीटी होय सीच गुड घीसे › इस कहावतके अनुसार मनुष्यका स्वभावं 
. नहीं पठ्टता । इतने दिनके बाद आनेपरभी उसका चुरी इच्छर्ये नरीं 
दुर हई । तवर उसके नेत्र निकाङकर्‌ काठक प्।जरम वद्‌ कर दद्या | 
इसी बन्ददशामे मोजका जन्म इआ । एक दिन ज्योतिषीने कहा था कि 
मज वडा होकर राजा होगा । इसको खन सुज्ञ वडा दुःखी इजा जर 
सीप्रहीं मोजके मारडार्नेकी आज्ञा दी । उस समय भाज कुछ बडा 
होगया था ओर छिखना पठनामी सीत गया था । राजाकां अज्ञा पाक्न 
करलेके पडे मोजने राजा सुज्के पास एक शयेक छ्खिकर भेजा । 
शछोकके पडतेही मुज्ञकी इद्धि पट्ट गह ओर भोजको युवराजके पदपर 
-युखोभित किया । 
भोजप्रबन्धमे यहं वात अन्यप्रकारसे किखी हे मि- 
मजने राव्यसिहासनपर वैठतेही पुराने मत्री ओर कमचारिरयोको हटाकर 
उनके स्थानपर नये मत्री जीर कर्मचारी नियत किये, ओर सुखसं रान्य 
भोगने खगा । एकं दिन उ्योतिषी आया अर बाला क मह्यराज 
सुच सर्वज्ञ कहते है अत एव आपमी छु प्रभं । तव राजानं का 
अच्छा जो २ भैमे जन्मसे ठेकर आजतक काम किथ हं उन्दे कहा । तव 
उ्योतिषीनि राके गु्तसेमी युत किये इए कार्योकों कह सुनाया । राजानं 
-ञ्योपिषीका बडा सन्मान किथा ] उस समयं मंत्री बुद्धिसागरने राजास कहा 


-_--------------~______-_________~__~ 
% इसको आज कल काषिन्द्र पाठ्डी कहते दै, भौर यह अहमदावादके समीप है 4 


(६) भूमिका । 


महाराज ! मोजकी जन्मपत्री ज्योतिपीजीकों दिखाईये । राजान भाजकः 
जन्मपत्री ज्योतिषीको देकर कहा इसका फर सुनाओं । ज्योतिरपीने जन्मपत्र 
देखकर मोजको भ देखना चाहा 1 राजाने तुरन्त भोजको बुखकर दिखा 
दिया । उ्योतिषीने मोजकी सुरत देख भोजको त्रिदा करके कहा राजन्‌ 1 
मोजके माग्यका वर्णन ब्रह्माजीभी नहीं करसक्ते ह त मे उदर भरनवाक 


क्या वणन करः ? ठेकिन्‌ आपकी आज्ञसे बुद्धिकं अनुसार कुछ कहता ह 1. 


““ पृशादात्प्चवषौणि सप्तमासदिनत्रयम्‌ । 
भोजराजेन मोक्तव्यः समौडों दक्षिणपयः ॥ 
हे धाराधीश ! पचपन वर्ष, सात महनि ओर तीन दिनतक वंगा 
जर दक्षिण दैदापर भोज राज्य करेगा । 


यह सुनते सुजका सुख मलीन होगया । उसने ज्योतिपीको दक्षिणा 
देकर बिदा किया । फिर रात्रिम शाय्थापर जाकर ठे तो नींद न आई ! 
उसने सोचा कि जो राज्यर््ष्मी भोजको प्राप्त हो जायगी तो मे जीता हआ 
मृतककी समान रष्वगा } इससे भोजहीको मार डालना चादिये । प्रातः 
उठतेही वत्सशजमेत्रीको बुखकर कहा किं, तुम आज सं्यातस्तमय पाठा 
ङासे भोजको केजाकर भुघनेश्वरी देवार समीप मारडाङो ओर मस्तक मेरे 
पास रओं । वत्सराजने सायकारफ समय पाठ्याखासे मोजको केजाकर 
राजाकी आज्ञा सुना भोजने सुनकर वटदक्षके दो पत्ते उठाये एकका दोना, 
बनाया जर अपनी जंघामेते छुरीके द्वारा रुधिर निकाख्कर दोना मरा ओर 
दूसरे पत्तेपर उस दोनेके रक्तसे तुनकेके द्वारा एक शक क्ता । फिर 
वत्सराजके हाथमे देकर कहा कि, इसे राजाको दे देना | अव तुम अपने 
राजाकौ आज्ञाका पान करो । राजकुमार मोजके उस समय सुखचन्द्रको 
देख वत्सराजके छोटे माने कहा हे य्येष्ठ सहोदर ! मरनेके उपरान्त माता 
पिता माई, बन्धु, कुटुम्ब कवीखा, इष्टमित्र, स्वामी ओर सेवक वो्ईमी सहायका 
नस हाता उस समय केक घमही मनुष्यके साथ जातहि । म॒ल्यु जाति, आयु 
रूप ओर रग समीको हरण करती है यह जानकरमी तुम्हारे हृदयम दया नकष 
आता £ जा चज्नके समान हृद्य करके इस सुकुमार वालकके शिर काठनेके 


+, 
~ 
श) ५ 


भूमिका 1 (७) 


छिये तैव्यार हो यह सुनतेदी वत्ससजके हदयमे वैराग्य उत्पन्न होगया ! 
फिर उन्होने मोजको नक मारा । अधिक रात्रिक दोजनिपर भोजको अपनें 
घर ठेआये ओर तरखान छिपा रक्खा, फिर चित्रकारोको बुखकर मोमके 
दरा मोजका मस्तक वनवाकर्‌ राजक पास पुचाया । राजाने पुत्रका 
स्तक देखकर पा कि, मरतेसमय पुत्ने क्या कुछ कहा था £ वत्सराजनें 
मोजक्रा छिदा पत्र दे दिया राजनि दीपकके प्रकारमे पत्रको पडा- 


मान्धातेति महीपतिः कृतयुगेऽखट्ूलनरमूतो गतः 
सेवर्येन महोदधौ विरचितः कासं दरास्यान्तकः ॥ 
अन्ये चापि युिष्ठिरप्रश्रतयो याता दिवं भूपते ! । 
नकेनापि समं गता वसुमती मन्ये त्वया यास्यत्ति॥ १॥ 


प्रका समे समन्रतेही राजा मूच्छित्त होगया, जव चतन्यता इदं॑तत्र 
मोजके व्यि विरपःकरने टमा ! फिर सिन्धुखयाजाका अदेश स्मरण 
आतेही व्यक्र हगया आर प्राण त्यागनेका संकल्प करखिया | इसी समय 
एक योगी आया उसने राजासे कहा मे आपके भततीजेको जीवित करदुंगा 
तुम त्विता मत करो  हवनक्षी सामप्री स्मयानमें शीघ्र मेज दीजिये मे दमसानमे 
जाता ह्रं । योगीकी आश्ञायुसार हवनक सामग्री भेजी गहै फिर थोडी देर 
पीछे मोजको साय टेकर योगनि आकर राजसे कहा, राजन्‌ ! अपने आात्‌- 
सुत्रको म्रहण कीजिये! पुत्रको सन्मुख देखतेही राजाकी आंखोंसे आंघुभोकी 
धारा बह्वी । फिर राजा मुंजने मोजको राव्यरसिहासनपर विटाया ओर 
अपि रानीकों साथ छे प्रायश्चित्तख्पी तप करनेके छिये चनको चङ{गया !: 

( मोजप्रवन्ध ) 








१ टे राजन्‌ 1 चद्वयुगक्तरा आसूपण राजा मान्धाता चखागया, सागरे पुरुफो चथ 
रावणकतौ मारनैवाङे भगवान्‌ रामचन््रनी कदां है, ओरभी युधिष्ठिर जादि धममूर्ति 
सजागण स्वर्गको. सिषारग्ये परन्तु यह थ्वी किसीके मी खथ नहीं गई अव जानः 
पडता है आप श्च ध्रण्वीको अपने साथ कर्जोयगे ए 

= यह सव मत्री वद्धिसागरकी चतुराई थी । 


(८) भूमिका। 


वहुतसे प्रनन्धेमिं राजा युंजके पौरे आतृपुत्र मोजे राज्य पानेकी वात 
-रहनेपरभी ठीक नरह जान पडती । कारण पब्मगुतने नवसाहरसाकचसितम 
अपते नेमसि प्रत्यक्ष देखकर समस्त घटनार्ओको छ्खा है ओर यह्‌ वात 
हम परे कह आये हँ कि, पद्गु्तने वाक्पत्ति राजा भुजकौी ओर उनके 
छटे माई सिन्धुराजकी सभाको भूषित करके राजकविकीं उपाधि पाईं थी १ 
अतएव पश्मगुप्तकी वातकोही सत्य कहा जा सक्ता है । पद्मगुप्ने छ्लिा ह 
कि, राजा मंज अपना राज्य छोटे माई सिन्धुराजको सैपकर अम्बिकापुसमं 
चठे गये थे । ( ११।९८ ) सिन्धुराजने कौशठ्डा, वागड, काट ओर 
सुरखंको जीता था । ( १०। १४ ।२० ) इनके सिवाय सिन्धुराजने 
नम॑ंदाके एक सौ दश कोशपर विराजमान रत्नवती नामक स्थानम वज्रा 
-दाको मार स्वणपद्मके साथ नागराजकी कन्या सरिप्रमाको प्राप्त किया था। 
उदयपुरप्रशस्तिमेमा छिखा है कि, सिन्धुराजने हृणराजको जीता था । 

सिन्धुराजके बे माहं मुजकी कैसे मृत्यु है, ओर किस समय सिन्धु- 
राजने रोज्यसिहासन पाया, यह वात परुप्तने नहीं छख जीर न किसी 
प्रशस्ति छिखी हे । मेरतन्गे प्रव॑धयिन्तामणिमे छिला दहै कि, प्रधान मन्न 
शद्रादित्यकी सखाहसे वाक्पति राजा सुजने तैरपराज्यको जीतनेके च्वि 
चदा की, गोदावरे पार जाकर तैरपकी राजसीमामे प्च तैख्पके द्वारा 
हारकर बंदी इए । चिरकातकः जेठलानेमे रहनेके पे वह्‌ जेरुखनिसे 
-निकठ मागे, तो फिर पकंडेजाक्र जानसे मारे गये । चादुक्यराज दूसरे 
तेचपके दिखरेखमे भी वाक्पति मुजके हारलेकी वात छिखी ह । अमित 
गतिक सुभाषित रत्नसम्दोह प्रधके उपसंहारे छ्खा § कि; १०९० 
विकरमीय संवत्‌ ( ९९.६९४ ईसवीमें ) सुञ्कै राज्य करतेसमय उक्त 
भ्य बना है । इधर चाटुक्य वंरावटीसे जाना जाता ह वि, दूसरे तैर- 
पकी ९१९ रकान्दमे ( ९९७-९८ ईसबीमे ) मृत्यु इई । इस प्रकारसे 
९९१ से ९९७ ईसवीके मीच वाकयाति सुंजकौ मृत्यु जर सिन्धुराजके 
राज्य पानेका समय निश्चित हो सक्ता है | 

सिन्धुराजके बाडनख्का जीर यनेक स्थानके जीतनेका विवरण पटने 
अन्तम यही जाता जाना है कि, उन्दने ७।८ वषेतक राज्य करिया । 


भूमिका । (९) 


कविवर पर्मुप्तने सिन्धुराजके पराक्रम ओर राञ्यसमृद्धिका तो वि्ेष 
चरणन किया, परन्तु उनके पुत्र भोजराजका नामतकं नहीं किला । इसका 
कार्ण चद जन पडता द क्रि,यातो उस्र स्मय मोजका जन्मही नही 
ष्जाय्ावा भाज उन्न स्मय छोटा चारक था इस ध्यानसे भोजके नामको 
चिकना किन नही विचास | 
उदयषुरपरशरितिमं भाजफे शर, वीर, प्रतापी ओर मिद्रान्‌ होनेका पर- 
चग मिताह ] दून प्रश्चसितमे लिखा ६ कि, ^ कविराज श्रीभौजकी ओर 
अधिक क्या प्रदासा कट ? उन्देनि जो साधन किया दै, जो विधान 
कियाद, जो छिना पटह, जो जाना हि वद दूसरे मनुष्योकी शक्तिके 
चाहर टं । चेदिरज इन्दररथ, तोगग ओर भीमप्रसुख कर्नाट, लाट, गुर्ज- 
स्यपि आर तुरव्कगण जिनके सेवके पराजित इए ये । जिनको मीर सुर- 
गण सपना २ ब्राहूव्रट भिचारते जीर दूसरे येोद्धार्ओकी वीरताको कमी 
मननेमी नहीं खतेथे 1 केदार, रमेश्रर, सोमनाथ, युण्डीर, काठ, अनछ 
सर च्द्रादविके देवाटय स्यप्रित करके उन्दने संसारमे * जगतीं * नामस 
अश्नय कमतिप्राप्तक्तं |ॐ 
भोजयाजने जो कनीटपर आक्रमण किया था बद्ध कल्याणके तीसरे 
न्वान्क्यराज जयहे ९४१ दकम ८ १०१९-२० ईस्ीमें ) उत्कीर्ण 
दिदादिपितेमी जानाजाताह । किन्तु इस रिखाल्िपिमे मोजराजकी परा- 
च्खिीद्े।! १०११ ईसव्रीमे यदह थोर युद्धहजा था । गुजेयत्ति 
चचीटुक्य भीमके साथ ( १०२१-१ ०६९३ ईसवीमें ) भोजके युद्धकी वात 
प्रबन्धचिन्तामणिमेणां च्खिीं है । मेर्तुंग छिखिता हे कि, “जिस समय 
भीम, िन्धुके जीतनेमे खीन थे उस समय मोजराजने इुर्चन्द्रनामक्‌ 
` + ^“ साधितं विदितं दन्त ्ात्तं तथन केनचित्‌ । † | 
फिमन्यस्कमिराजस्य श्रीभोजस्य प्रदास्यते ॥ 
चेदीन्रेन्धरयतोऽगयलमीममुल्यान्कर्णारलाटपतियुजररारतुरष्कान्‌ । 
यद्रभृत्यमात्रविजितानवलोक्षय भेला दोप्णां वलानि कलयन्ति न योद्लोकान्‌ ॥ 


केदाररामेश्वरसोमनाथमुण्डीरकालानटपदसक्तकैः । 
सराशरयैरव्यीप्य च यः समन्तादययार्थसंत्ां जगतीं चकार ॥ ” 
८ उदयदुरभरशस्ति १८ से २० छेक} 


(१०) भूमिका । 
एक दिगम्बर ( जेन ) को सना रखकर अनहिख्वाञेमे मेजा थां । राजघान 
दात्रओंसे जीतकर कुल्चन्द्र जयपत्र ठेकर माख्वेमे खेटमाया । +” महाकवि 
बिहणने ‹ विक्रमाकदेवचरित › नामक रेतिहासिक कान्य छिखाहि किं 
विक्रमकके पितता दूसरे सोमश्वरन ( १०४३ सं १ ०६८६९ ईसवीतक ) 
अपने प्रचंड प्रतापसे धारानगरीपर अधिकार किया उस समय भाजरज 
धारानगरीको छोडकर माग गये थे । ( १।९.१-९.४ ) 


यह बात प्रसिद्ध है कि, मोजकी पुत्री भालुमतीके साथ विक्रमाकेका 
विवाह इमा था । अनेक रेतिहासिक तत्ववे्ता यह कहत दै किं, जव मोज 
विक्रमा्वके पित्तासे हार गया था उससमथ मोजकी पुत्री भावुमतीसे विक्र- 
भाकंका विवाह इञा । 

सुरुतान मुहम्मदका सोमनाथजीके मंदिरपर आक्रमण करना मारतके 
इतिहासमे प्रसिद्ध है । परम रैव मोजराजने उस देवमंदिरकी रक्षाके चयि 
छुखतान भुहम्मदसे घोर युद्ध फियाथा । प्रदास्तिमे उसीको तुरष्कसमरके 
नामसे ङ्ख है! 

मोजराज केवर देवभक्त ओर पराक्रमी राजाही नहीं थे वरन्‌ वह अपने 
पिता जीर ताऊसे बकर महाकवि, महापण्डित ओर पण्डितमण्डरके प्रति- 
पाठक भी थे । भोजप्रवेधमे देखा जाता है फ, सकद कवियोनि मोजकी 
सभाको सुरोमित विया ओर भोजराजे कविता सुनकर प्रव्येक अक्षरपर 
एक > राख रपय प्रस हीकर विद्ानोको दिये । उनकी सभावे कविमंड- 
खभ ससे ऊंचा आसन महाकवि काठिदासजीका था, महाकवि काठिदा- 
सके सिवाय ओरभी भवभूति, दंडी, वररुचि, बाण, मयूर आदि कवियोते 
उनकी सभा शोभित रहती थी । इन कवियोके अतिरिक्त साक्षात्‌ सरस 
तीका सूक्ति विदुषी जर कविच्ियोसेभी मोजराजकी सभा अच्छृत थी । 
खीकविसमाजमें सीतिका आसन सवम ऊँचा था । मोजराजकी प्रधान 

रानी रीरुदेवीमी परमविदुषी जीर कवि थी । यादवसिहके समयकी हिस 

छ्पिको पदठनेसे जाना जाता है कि, सिद्ध ्योतिर्धेद्‌ भास्कराचार्यके ब्द 
पतामह माक्करमहृने भोजराजपे ˆ विद्यापति › कौ उपाध पाई थी । 


भूमिका । ८११) 


धम्मेदात्र, दर्दनाल्ल, काव्य, मल्कार ओर व्योतिष शाघ्नादि समीकी 
मोजकी सभम याटोचना होती धी । देरदेशान्तसेके वद्ध पूवंप्ारिपा्यीके 
पण्ि्तोक। फयन ६ कि, मोजक्ती सममेही सत्र शाल्लोपर माप्य ओर निवन्ध 
वने थे, उनम “ कामयत › प्र्हीको प्रधान जानो । आजकर महारजाधि- 
यज मोजराजके वना सरस््तीकण्डाभरण, राजमातंण्ड नामस योगसुत्रका 
माप्य, सजमाततैण्ड, राजमूगांककरण ओर ॒विद्धजनवछ्टुभम नामक उ्योति* 
पराशरे मय समरहणनामकर वाश्तुकान्न ओर श्र्गारमंजसकया नामक 
खरकाव्य प्रायं जात द६। 

दने सिवाय भाजराजके नामते निन्नटिखित प्रथ प्रदस्ति दैः-भर्दि- 
व्यप्रतापसिद्धान्त ८ व्योततिव \, आदुर्दस्ेल ( चैयक ), चग्दूरमायणः. 
न्वार्चर्या ८ धर्म्मा }, तत््रप्रकादा ८ दीव ), विद्वननवटम प्रश्रचिन्ता- 
ममि, व्िश्रान्तयियायिनोद्‌ ८ वैक ), व्यव्रहरसमुचय ( धर्मसाल्ल ); 
खन्दानु्धासन, शाछिदत्र, दिषदत्तरनकयिका, समरङ्गणसूत्रधार, सिद्धा- 
न्तसंप्रह { शत्र : ओर वुभायितप्रवध ) 

अनेक विदान्‌ उपरोक्त प्रथोक भोजराजकी समाक पण्डितोके बनाये 
मनेते दै । 

केवल उपसक्त प्रथो दाह भोजराजका नाम संसारम प्रसिद्ध इञा 
यह नही वरन्‌ अनेक शाल्नकार अपने २ प्रथमे भोजका मत वा 
शेक उद्भूत करके उनके नामय सदाके छिव स्मरणीय कर गये ह । 
उने शूखपागि, दत्रट, जहटाडनाथ ओर स्मात्ते खुनन्दन मद्मचायेने 
मोजराजका नाम निवन्धके सयमे चिरस्मरणीय किय । मावग्रकारा भौर 
मायने रोग निदाने वैय ्र॑यकारके रूपमे; केरावाकंने ग्योतिष्ाल्ल- 
कारके पम; क्षीरस्वामी, सायण ओर महीपने आभिधानिक एवं वैव्याक- 
रणके खमे; चित्तथर, देवेश्वर, विनायक जीर कवियोनि कविके रूपम 
मोजराजके नामको उद्भूत कर सद]कै चयि स्मरणीय किया है । 
सिद्ध दार्शनिक वाचस्यतिमिश्रने अपना तच्कौभ्ुदी नामक रथे 
< मोजराजवािकः › उद्रृत किया है । बटयाखपण्डितक सिवाय मतग 
आचार्यं राजवह्म, वत्सराज, वभ, सुन्दर मुनेके रिष्य छमरीष्प्रमृतिः 


८१२) . . सूमिका। 


पृष्डि्तोने  भोजप्र्वघ ›*{खिखकर मोजराजके चारनेंका वखान किया । 
इन सव प्रव॑घोमें .भोजराजकी कीिका विकारा जीर सहास्य विदपर्पसं 
वणित इञा हे । 
उदयपुरप्रशस्ति, नागपुरप्रखस्ति, बडनगरप्ररास्ति, कौतिकौमुदी, सुज 
तसंकीर्तन जर प्रवधचिन्तामणिकी आलोचना कसनेसे जाना जाता दहै कि 
्ैदिरज, कर्णं ओर गुजेरपति चौदुश्य भीमक साथ युद्धभूमिम्‌ भोजरजाकीं 
मृत्यु इई ओर धारानगरी शुके हाथमे गई । उदयपुरपरश्ात्तमे छिखा हे 
कि, मोजराजके सुथोग्य पुत्र उदयादिप्यने नष्ट इर गीरवका उद्धार किया 
था प्रायः १०१० ईसर्वाषि १०४२ ईेसवीतक मोजराजने धारानगरी 
ओर माल्ेमे राज्य किया था इन्दौ मोजराजको ‹ भोजविद्या * प्रवस्तैक 
कहते हे । , । 
अन्तम हम सेमरा श्रीकृष्णदासजीको कोटिरः धन्यवाद देते है 
कि, जिन्होने हिन्दीसाहित्यका जीणोद्धार करके अपि रोगेकि सन्मुख रुग 
मग ३९०० ग्रंथ सकल्दाघ्रोके छापकर प्रस्तुत विये है जीर कंडे यत्नके 
-साथ विद्रानैके द्वारा प्रे सदा तैच्यार कराते रहते हैँ । 


आपरोगोका चिरपरिचित-~ 
िन्दीसाहित्यसेवी, 
रेयामसुम्द्रडार त्रिपाठी; 
गुखाबनगर-वं सवी, 


॥ श्रीः ॥ 
अथ मोजप्रबन्ध्र 


भाषाटीकापहितः। 


नन ~~~ 


धरीगणेशाय नमः । सस्ति धीमहारानापिराजस्य भोजराजस्य 
वधः कथ्यते} आदा पराराग्ये प्िधुटसंज्ञो राजा चिरं भजाः 
पयपाटयत्‌ 1 तस्य उद्धते भोज इवि पुत्रः समजनि । स यदा 
पचवापक्स्तदा पिता द्यालनो जरां ज्ञता उस्यामससनहूष 
अलु सुज महावटमारोकय पुत्रं च वारं वीक्ष विचार्याः 
माप्त । यदाह राजटक्ष्मीभारधारणपतम्थं सोद्रमपहाय र्यं 
पुवाय प्रयच्छामि तदा टोकपव दः । अथव। वां मे पुत्र सुनो 
राज्यलोगाद्धिपादिा मारपिप्यति । तदा दत्तपपि राज्यं वृथा । 
पुवहागिवशच्छेदध्र ॥ 

स्वस्ति श्रीमहारजाधिराज राजा भोजके प्रवेधको कहते है ॥ प्रथम 
श्रारानामकी राजधानीमें स्िधुटनागक्र राजाः; चिरकाठ्तक प्रजाका पाटन 
करता भया | उस्र बृद्राचस्यामे ˆ मोज › नामवाला पुत्र उत्पन्न इ ¦ 
जव मोजकी पोच य्की अवद्या हरं तव राजाने अपनी रिथिरु अवस्था 
जानकर सुख्य मर्नाक्ो बुखाय महाबदी चछेटे मादे सजको देख ओर 
गुत्रको वाख्क देख धिचार्‌ किया । यदि में राञ्यरक््मीका मार धारण करने- 
योम्य भारईको त्याग पुत्रको राज्य दंगा, तो संतारे निन्दा होगी । अथवा 
मेरे वाल्क पुत्रको, माहं मंज राज्यके छोभसे व्रिष-आदिके दारा मार 
डाखेगा, तो ८ पुत्रको ) दिया राज्य मी दथा होगा । एवं पुत्रकौ हानि 
होगी जीर वेदा नष्ट दौजायगा ॥ 


१४ ) भोजप्रबन्धः- 


लोपः भरष्छि पापस्य प्रसूतिरछोभि एव च ॥ 

देषङ्धोधादिनिनको लोपः पापस्य कारणम्‌ ॥ १ ॥ 

लोम पापकी जड है, रमसे पाय उत्पन्न होतादै ओर करोभीसे दवष, 
जोधादि उत्पन्न होति अतएव ठोम ही पापका कारण है ॥ १ ॥ 

ठोषात्कोधः भषति छोधाद्‌ शरः प्रवतंते ॥ 

द्रोहेण नरकं याति शाचज्ञोऽपि विचक्षणः ॥ २ ॥ 

ोभसे कोथ ओर करोधसे द्रोह उत्पनन होता ईै, दरोहके करनेसे रा्रके 
-मभको जानेवाला विद्रान्‌मी नरक जाता है ॥ २ ॥ 

मतरं पितरं पत्रं भातरं वा सुहरमम्‌ ॥ 

टोभाविशे नरो ईति स्वामिनं वा सहोदरम्‌ ॥ ३ ॥ 

, छोमी मुष्य माता, पिता, पुत्र, र्ता, मित्र, स्वामी ओर सोदर 

मको भी मार उाल्ता है ॥ २॥ ) 

इति विचा रां सनाय दसा तद्ततंगे भोजमात्मजं 
सुमोच । ततः कमाद्राजनि दिवं गते समापराज्यसम्पतिर्ुन् 
सुख्यामारयं बुद्धस्ागसलामानं व्यापारसुद्रथा दृशैरत्य तत्पदे 
अन्यं स्थापयामाप्त । तते। युकः क्षितिषाटघुत्र पाचयति ६ 
ततः क्रमेण सायां उयोतिःशच्पारगतः सकरविदयाचात्वाद्‌ 
बराह्मणः समागमत्‌ । रज्ञ स्वस्तीत्युक्ता उपविष्टः । स॒ चाह- 
दव | लोकऽय मां सवतं वक्ति तक्कि्भपि पृच्छ ॥ 
“ यह विचारकर राज्य मुंजको दे, सुंजकी गोदमे अपने पुत्र भोजको बिक 


| १ 0 किप [4 


दिया ॥ अनन्तर कुछ दिनके पीछे राजा स्वगंको सिधारे । तब राज्यसंप- 
त्तिको पाकर सुंजने अपने बुद्धिसागरनामक प्रधान मंत्रीको मं्रके पदसे हटा 
कर अन्य पुरुषको मंत्री बनाया । फिर ॒गुरुजनेके द्राण ^ राजा » कडारे 
रगा । इसके उपरान्त समाम ज्येततिषी समस्त विया्ेमिं चतुर एक ब्राह्मणः 


मापारीक।स्ितः 1 (१९) 


जाया ओर राजते * कल्याण हो › यह्‌ कहकर वैठगया । (फिर ) उस 
जआाघ्मणने राजासि कंहा हे देव { जगते सुत्ने सर्वज्ञ कहते रै, अतएव आप 
कुट ृद्धिये ॥ 
कंटस्था या भवेद्धिया सा भका सदा दुधैः॥ . 
या श्रौ पुस्तके विव्या तया मुटः पार्यते ॥ ४ ॥ 
कटमे स्थित विके विदान्‌ सदा प्रकादा करते हं, गुरदेवमे ओर पुस्त- 
कभ स्थित पियति मूर्खौको निवारण क्रिया जातादे॥ ४ ॥ 
इति राजानं ह्‌ । 
यह राजाक्त कटा | 
ततो रानापि किभस्याहुपावसुद्रया चमत्छतां तदत श्चुता 
अस्माक जन्मत आतपेतरक्षणपर्यतं ययन्मयाचरितं ययत्कतं 
तत्सवं वदति यदि भवान्हवज्ञ एवेल्युवाच । ततो नाहम रज्ञ 
यद्यत्छत तत्छवसुदाच गृटव्पापारसयि । तता रजाप सवण्य्‌ः 
पिज्ञतिावि त्नाला ठ॒र्ताष्‌ । एनश्च प्चपटूपद्मात गत्वा पद्याः 
पतिवा ईक्नीट्पुष्परागमरकतवैह पसलितरिंहासन उपवेश्य 
राना प्राहू 
ती राजा मी ब्राह्मणक अहङ्कारयुक्त चमत्कारी वचनेोको सुनकर बोढा कि 
जन्मे डेकर आजत्तक जो भने आचरण किया हे ओर कार्यं कियाद उसको 


भ, च 


ग्रदि आप कर्द त। आप ८ निश्चय ) ख्ज्न हौ । ( रजके से वचन सुन ) 
 ्राद्यणने उसी समय राजके समस्त कियेहुए गुक्तसे भा गुप्त कर्मोको कह 
द्विया । फिर राजा ब्राह्मणको सर्वज्ञ जानकर प्रसन इया | जीर पंच छः पग 
चटकर राजाने उस ब्राह्मगके चरणोमिं गिरकर इन्द्रनीरमाणि, पुष्पराग, मरक- 
तमणि ओर चदर्य मणि्योसे जडे हए राजसिंहासनपर उत बाह्मणको 
विटा कदा -" 


(१६ ) भोजप्रवन्धः- 

मृतिव रक्षति पितेव हे तिक्ते कतिव चािरमयत्य- 

पीय सेदम्‌ ॥ कीरति च दिश्चु विमलां वितनोति रकम 

क्षि # न साधयति कत्परतेव पिया ॥ ५॥ 

वेया माताकी समान रक्षा करती ह, पित्ताकी समान हित करनं ठगी 
रहती हे, खीकी समान खिन्न मनको प्रसन ` करती है, दिकाओमिं निमक 
कीसिको ैखाती है ओर धनको वढाती है, कल्परुताकी समान विया 
८ म॒नुष्यका ) क्या ९ साधन नहीं करती है अथात्‌ समी मनोरथ सिद्ध 
करती ३ ॥ ९॥ 

ततो विभवराय दशाश्वानाजनियाच्‌ ददो । ततः समायामा- 
सीनो बुदधिक्षागरः शाह्‌ राजानम्‌ । देव भोजस्य जन्मपनिकां 
बराह्मणे पृच्छेति । तते संजः पराह । भोजस्प जन्मपत्रिका पिधि- 
इीति। ततोऽस बाह्ण उवाच । अध्ययनशाटाया भोज आने- 
तव्य इति। सजोऽपि ततः कोतुकादध्ययनशालामलंङबाणं भोजं 
परेरानाययामास । ततः साक्चावितरमिव रानानम्‌नम्य सवर्य 
तस्थो । ततसद्रपखावण्यमोह्ि रानाङ्ुमारमंडठे प्रभूततोभाणयं 
महीमेडटमागते महमिव साकारं मन्मथपिव मूर्िमत्‌ सोप्ाण्य्‌- . 
मिव भोजं निरृप्य राजा प्राह देवज्ञः। राजन्‌ | भोजस्य भयो 
दये वक्तं विर्रिचिरपि नां कोऽद्सुदरपरिाह्षणः । किचित्‌ 
तथापि वदामि स्वमत्यलुसारेण । भोजंमितोऽध्ययनशालायां मेषय। 
ततो रानान्ञया भोजे द्यष्ययनशालां गते विप्र प्राह 
फिर ब्राह्मणको छ्य ( राजाने ) दश उत्तम घोडे दिये । समामे बैठे इए 
दसागर नामक ८ मत्री ) ने राजासे कहा, हे देव |. मोजकी जन्मपत्री 
दिखाकर बरा्मणसे प्रो } फिर राजने ८ जामते कहा ) भोजकी जन्म- 


४ 


४। 


भाषारीकासरहितः । ( १७ ) 


पत्रीको विचारे ( ्ाहमणेने कहा ) मोजको पाटस्चाखासे बुखाहये । तन 
महाराज भजने पाठश्ाटाको भूषित कारतेहुर मोजको श्ूरवीरके द्वारा 
आनन्दे तकाया । तव ( भोजने आकर ) अपने चचाको पिताकी समान 
रणामे किया ओर विनयके साथ खडा होगया । भोजके खूपकी खवण्य- 
तासे ओर राजकुमारको मुखमंडर्की कान्तिसे ८ समी मोदित होगये ) 
सीमाम्यसाखी इन्दर पृथिवीपर आगये अथवा कामदेव मूतं धारण कर सममः 
सागथे इस मति भोजको देख उस ज्योतिषी ब्राह्मणने राजासे कहा । हे 
राजन्‌ | भोजके माग्यक्रा वणेन त्रलाजी मी नदीं करसक्ते, पिर उदर र्ण 
करनेवाङा भें ब्राह्मण क्या क्रं | तीभी अपनी वबुद्धिवख्के अनुसार कहता 
द्वं । मोजको पाठराखमें मेजदीजिये । तव राजाकी आज्ञासे मोज पाव्का- 
खाको चखा गया, तो नराल्मणने कहा- ^ 


पचाशलंच वर्षाणि सपासदिनिनयम्‌ ॥ 
भोजराजेन भोक्तव्यः सगोडो दक्षिणापथः ॥ ६ ॥ 
पचपन वर्थ, सात महीने ओर तीन दिनतक गौडदेके साथ दक्षिणा-~ 
धृथपर्‌ ( वंगाठ्के साथ दक्षिणपर ) भोज राज्य करेगा ॥ ६ ॥ 
इवि तत्तदाकण्यं राना चातुर्यादपहसनिव सुरुखोऽपि षिच्छा- 
यवदनोऽभूतर । ततो राजा बाह्णं मेषपित्वा गिशीथे स्वश्यन- 
[9] [4 क [शक ४. 
मस्ता एकाक सन््याचवयव्र । याद रनटक्ष्पा्राजङ्खमाद्‌ 
गमिष्यति तदाहं जीवन्नपि मृतः ॥ 
हन वातोको सुन चतुरारईसे हसते एका समान प्रसनसुख रहनेपरभी 
सुजकी कान्ति जात्ती रही । फिर ब्राह्मणको विदा करके आ!धीरातके समयः 
द्य्यामे चिराजमान होकर चिन्ता करने ल्मा। जो रा्यरुक्ष्मी कुमार्‌ 
भोजको ग्राप्त हो जायगी तो भँ जीवन्मृतकी समान रहरा । 
त्नीन्िष्पकिकंलानि तेव नाम । सा उुदिसरिहिवा 
- ` । ` 


{ १८ ) भोजपवन्धः- 


वचनं तदेव ॥ अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षणेन । 
सोऽप्यन्थ एव भवतीति षिचिनमेतत्‌ ॥ ७ ॥ 
बडे आश्चर्थकी बात हे कि जब मनुष्यं धनदीन द्ये जतादहे तव वेदी 
स्वस्थ इन्दि, वही नाम, वही अप्रतिहत वुद्धि ओर वही वचन रहनेपंरमीं 
मनुष्य दृस्तरासा प्रतीत होने रगता है ॥ ७ ॥ 
{कच-शरारानसक्चस्य दक्षस्य व्यवक्षायनः ॥ 
उुदधिभार्काधेस्य नासित किंचन दुष्करम्‌ ॥ ८ ॥ 
सरीरकी अपेक्षा न करनेवाठे, चतुर, व्यवसायी जीर वुद्धि कारय 
करनेवाङे ( मनुष्य › को कुछ मी दुष्कर नदीं है ॥ ८ ॥ 
अप्तुयया हेव पूवोपायोदमेरपि ॥ 
तणा गृह्ये सम्यक्‌ सुहदिर्भमिभिस्तथा ॥ ९ ॥ 
अभ्रयाके साथ हत होनेसे ओर पठे उपायके उद्यमोसे कार्थं करनेवारे 
राजादिकोकी आङ्गार मित्र जीर मंत्री मानते है ॥ ९ ॥ 
ततोऽ मे रिं दुः्तध्यद्‌ ॥ 
ते। उदयम करलेसे सुने क्या दुःसाध्य हे 
अपिदाक्िण्यथुक्तानां शं कितानां पदे पदे ॥ 
पर पवाषमा इसा यात्‌ संपदः ॥.१० ॥ 
परम चतुर, पग २ प्र शंका करनेवारे जीर दूसरेकी निन्दासै 
कापनेवाठे पुरुषोको दूरसेही सम्पत्ति प्राप्त होती हे ॥ १० ॥ 
एक च-मदतिस्य प्रदूनिस्य कर्तव्यस्य च कमणः! ॥ 
कषिपमक्रियमाणस्य काठः पिवति सुपदः ॥ ११ ॥ 
ठेनेके, देने जर करने योग्य कार्यको मनुष्य रीघरह कतर नहीं करसे 
उनक्री सम्पत्तिको कां नष्ट करतां है ॥ ११ ॥ 
अवमत पुररस्द्‌ मन्‌ छत्‌ च्‌ प्ष्टत्‌ः ॥ 
स्वाथ सणुदसा्ञ स्वार्ेशो हि ससत ॥ १२ ॥ 


नि ५ 


भापारीकारदितः (१९ ) 
 अपमानको सम्मुख ओर मानक्तो प्रि कर विद्वान्‌ पने काको 
साधन कर, कायेका विगाडनादी मूर्खता हे ॥ १२९ ॥ 
न स्वलस्थ ठते भूरि नाशयेन्मतिभान्नरः॥ 
एतदथ तिषास्त्थं यत्स्वतयादूरिसाधनम्‌ ॥ १३ ॥ 
द्धमान्‌ पुरम अब काके छिपे बहुत ( धनादि ) को नष्ट न करे 
सुद्धिमानी इसपर है कि थोडे कार्ते प्रे कार्थको सिद्ध करे ॥ १३ ॥ 
जातात च पः रतु व्याधिवा त्रशम नयत ॥ 
अतिपु्टगद्क्तोऽपि स प्श्वात्तेन हन्यते ॥ १४॥ 
जो उत्पन्न होतेही शन्न जीर व्याधिको नष्ट नहीं करते बह अन्त पुष्ट 
दारीगत्रार होनेपर मी रच्च ओर व्यायिके दार मूल्युको प्राप्त दो जाते है ॥१४॥ 
प्रताय्॒शरीरस्य किं करिष्येति संहतः । 
हुस्तन्यस्तातपतरस्य वारिधारा इवारयः ॥ १५ ॥ 
निस प्रकार छतरी द्गाये मनुष्यक्री जक धारा कुछ नहीं करती उसी 
-प्रकार्‌ वुद्धिते रक्रा कमनेधाटका यात्र कर नदीं कर सक्ते दै ॥ १९॥ 
अफलानि दुरतानि समध्ययफानि च ॥ 
अशक्यानि च वस्तूनि नारपैत विचक्षणः ॥ १६ ॥ 
जिनन्‌ छु फट न दो, जो कटिनत्तासे सिद्ध हो, जिनमे टाम ओर हानि 
समानो, जा सिद्ध न हके एसे काथ विद्वानोंको नहीं करना चादिये ॥१६॥ 
ततेव विवितयशुक्त एव दिनस्य तपीये यामे एक एव 
मन्रपिखा वंगदेशाधीश्वरस्य महाबलस्य वत्सराजस्य आकारणाय 
स्वमंगर्षफं प्रहिणोत्‌ । स चांगरक्षको वसराजसपेत्य पराह । 
राना लामाकारयतीति । ततः स्वस्थमारुद्य परिवारेण परितः 
समागतो रथादवती्थं राजानमवलोक्य भणिपृत्योपविषः ।.राना 
च सौधे निर्जनं विधाय वससरानं भाद- | 


( दं ) मोजप्रबन्धः- 


` फिर इस भँतिसे चिन्ताकरफे राजा सुजने दिनके तीसरे पदर स्रयहीः 
निश्चय किया, संगदेशाधिपत्ति मावली वत्सराजको बुलानकं चयि अपः 
दारीरकी रक्षा करनेवारे निज दूतको भेजा । उस भंगरक्षकन वृस्सराजक परि 
जाकर कडा कि आपको राजा जुकाते है । तव वत्सराज अयन रथम वठ पार- 
बारकै साथ आया ८ ओर ) रथसे उतर जाको देख प्रणाम करकं चट- 
गया । तब राजनि सब मलुष्यौको हटाकर वत्सराजसे कहा- 
राजा तुशऽप प्रखाना मानमान प्रयच्छति ॥ 
ते तु सम्मानितास्तस्य भणि्पयुपडकवेत ॥ १४७ ॥ 
राजा प्रसन्न होकर सेवकोको मानमाघ्र देत दै, उससे सम्मानको प्रात ह्ये 
सेब तो अपने प्राक बाजी ख्णाकर स्वामीका उपकार करते है ॥ १७ ॥ 
4 श क # [^ 
ततस्खया भोजो युवते श्वरीविपिने हतव्य्रथमयामे निशायाः । 
शिष्यातःपूरमनितव्यमिति । स चोर्याय नष नखाह- 
अतएव तुम रात्रिक पहठे परम मोजको भुवनेश्वरकि वनम मार डाल १. 
हिरो महकमे छना । तो वत्सराज खडा होकर राजाको प्रणाम के बोडा- 
देवदेशाः भाणम्‌ । तथापि भवह्ाटनार्किमपि वच्का- 
मोऽसि । ततः सापराधमिति मे वचः क्षतव्यम ॥ 
हे देव ! भँ जापका आश्ञाक। शिरोधाये करता ह, तोभी आपके काड 
ठडानेते कु कहना चाहता द्र ! इससे अपराधयुक्त मेरे वचर्नोकों 
क्षमा करना । 
भोजे द्यं म सेना वा प्रि।रो बठानितः॥ 
4 भ [ च 
प्रं पोत इवास्तेऽय स हंत्यः कथं प्रभो ॥ १८ ॥ 
हे प्रमो ! जव मोजके पास द्रव्य, सेना जीर पारिवारका बक नही है ` 
तौ दीन भोजको कैसे मारना उचित है ॥ १८ ॥ 
पारय इवारक्तस्त्वलाद्‌ उद्रपरिः ॥ 


तषे कारण नेव पश्यापि दृपपुंगव ॥ १९ ॥ 


भाषादीकासदितः। . (२१) 
हे नृपपङ्गय ! जो आही चरणोमं स्थित होकर अपने उदश्को भरता 
है उत्त भोजके माए को कारण नक देखत ह ॥ १९॥ 
ततो राजा सवं प्रातः स॒पायां प्रवृत्त वृत्तमकथयत्‌ । स च 
शता हसन्नाह 
तव राजनि व्र्सराजते प्रातःकल्की साका समस्त दृ चान्त कहा । 
उसको सुनकर { बस्सराजने ) हसक कहा । 
=. [त क क (क 
चेटोक्यनाथो रामे(ऽसिि विष्टो जह्मपत्रकः ॥ 
तेन रानाफिपेके ठ॒ सहतः काथितोऽवत्‌ ॥ २० ॥ 
ब्रह्माजके पुत्र वरिएटनीने त्रिटोकीनाय रामचन्द्र गकि राज्याभिषेकका 
-सुहत्तं ताया था ॥ २० ॥ 
तन्मुहूर्तनं रामोऽपि वनं नीतोऽवमीं विना ॥ 
सीतापहारोऽप्यतषष्ठिरिचिवचनं व्या ॥ २१ ॥ 
तित मुदूततने रामचन्द्रो प्रथ्वीका राजा न बनाकर वनम निकार दिया, 
-वनमे जाक्षर सीतादरण इ इसते ब्रह्मा जीका मी वचन वृथा इञ ॥ २१॥ 
जातः कोऽयं नपश किं चिज्ज् उदरारिः ॥ 
यदुक्ष्या मन्मथाकार्‌ डुमारं हतमिच्छपि ॥ २२॥ 

: हे नृपश्च ¡ उदरको भरनेयाटेके कुछ जाननेपरमी क्या हो सक्ता है जो 
आप उसके वचनपर्‌ श्रद्धा करके कामदेवकी समान कुमारे मारनेकी अभि- 
-खापा करते दो॥ २२॥ 
किंच-किञचु मे स्यादिदं छा िदच॒ मे स्यादद्षेतः ॥ 

दूति संचिन्त्य मनसा प्रज्ञः कुर्वी वा न ष ॥ २३॥ 
इसके करनेसे मेरा क्या होगा ओर न करनेसे मेरा क्या होगा इस 

मति मनम विचास्कर बुद्धिमान मलु्य काय करते है जर नदीं भौ करते ह 
"अर्थात्‌ बुद्धिमान्‌ पुरुष प्रथम कार्यके फठ्को विचाकरही काम करते दै ॥९३॥ 


(२२) मोजपवन्ध्‌ः- 
उितमलुवितं वा कुर्वता कार्यजातं परिणतिरवधार्या 
य॒त्तः पंडितिन ॥ अतिरपसकतानां कमेणामािपत्तेवति 
हृदयदाही शल्थतुल्यो विपाकः ॥ २१ ॥ 
उचित हौ वा अनुचित हो जिस कायैका करो प्रथम उसका परिणामः 
सोच छो विना परिणाम जने जस्दीसे जो काम किया जाता है, शपत्तिसे 
हदथको जठानेवाङे शल्यकी समान उसका दुःखद फर होता 1 २४ ॥ 
किच-येन सहासितमितं हसितं कथितं च रहसि विसचब्धम्‌ ॥ 
ते प्रति कथमसतामपि निवतते चित्तमामरणात्‌ ॥ २५ ॥ 


भ भ१ 


जिसके साथमे वैठा, खाया, हंसा, बोला ओर इकसेमे विश्वास किया 
जाता है उसमे दुष्ट मयुष्योकामी चित्त गृव्युकाकुतक कैसे दृटता ६ ॥ २९॥. 

किंच असिग्हते वृद्धस्य राज्ञः पिुखस्य प्रमीतिपत्राभिः 

प श 7 प [स 

अहावीरास्तेवादुमते स्थिताः वचगरखछ्ोटकषोखाः पयोधरा इष 
परावपिष्यति विर्रदमूटेऽपि लपि भायः पोरा भोजे युषो तारं 
भावयति ॥ 

इसके मारडालनेसे सिधुरु राजके बडे प्यारे जो शररवीर तुम्ार आजञामे 
स्थित है वेही तुम्हारी राजधानकों इस प्रकार नष्ट करेगे, जिस प्रकार घोर्‌ 


मेष अति वषोकर नगरको डुबोकर नष्ट कर . डाक्ते है । यथपि चिरकार्से 


क्त दृढ हो रदी है तोम नगरनिवासी मोजपरही पृथ्वीका मार 
मानते है ॥ 


किच-स्यपि सुकतक्मणि दुरौपिषेस्छ्यं हरत्येष ॥ 
चै “ क 6 क # ® क, क क 
तटः सदिद पारसा विदल्वति 1 वाताटः ॥२ ६॥ 
र पे यदि दुनीतिका ग्यवहार हो तो रुक्षमीकी शोमा जाती रहती 
&, जसे तेपे पूर्णं दीपकी दिखाको प्रर वायु नष्ट करदेता है ॥ २६१ 


भाषा्दीकास्तहितः। (२६३) 


देव ! पुत्रवधः कापिन हिताय इत्युक्तं दत्पराजयचनमाकरण्ः 
राजा कुपितः प्राह तमेव राज्याधिपतिः न तु सेवकः ॥ 


[भ प ^ 


हे देव ! पुत्रका वध किसीकोमी हितकारी नक है, इस मति 
वत्तराजके वचनोको सुन राजनि क्रोधके साथ कहा, तुग्दीं रा्यके अधि- 
पत्ति हो, सेवक नही दो ?॥ | 
स्वाम्युक्तं यो न यतते स भुत्यो भृत्यपाशकः ॥ 
तन्नीवनमपि व्यथमनागरुकुचाविव ॥ २७॥ इति। 


स्वामीके वचनक जो पाठ्न नह करता वह सेवक सव सेवकोमे नीच है 
जीर उसका जीवनमी वकर्के ग्म छ्टकते इए मांसकी समान दथा है २७. 


ततो वत्सराजः कालोकितम।लोचनीयमिति मला त्र्ण्णी 
वभ्रव । अथ ठवमाने दिवाकरे उतुगसोधोसंगादवतसें ुपितामिव 
कृताति वत्स्राजं वीक्ष्य समेता अपि विविधेन मिषेण स्वपवनाति 
भरपुर्भीताः सपासदः । ततः स्वसेवकाम्स्वागासपरिजाणार्थं प्रेष 
यिता रथं ुषनेश्वरीवनागिषखं विधाय भोजङकमारोपाध्याया- 
कारणाय पाहिणोदकं वत्सराजः । स चाह पृहितम । तात | 
त्वामाकारयति वत्सराज इति सोऽपि तदाकण्यं वज्राहत इव भूता- 
पिट इव अहू्यस्त इव तेन सेवकेन करेण धृखानीतः पंडितः । तैः 
च उुद्धिमानू वत्सराजः स्पणाममित्याह्‌ । डित तात ! उपविश. 
रानङ्कमारं जयतमध्ययनश।छाया आनयेति । आयातं जयंत कमार 
करिमप्यधीतं पृष्टनेषोत्‌ । पुनः पराह पंडितं विम | भोजङमारमात- 
येति ! ततो विदितवृत्तौतो भोजः मि जटनिव शोणितेक्षणः- 
समेतयाह । आः पाप | राज्ञो मुख्यक्मारं एकाकिनं मां राजभव- 
नाद्‌ बहिरनेतठं तव कां नाम शक्तिरिति वामचरणपादुकामादायः 


८२४ ) ` भोजपवन्धः- 


प्नोनेन तादेशे हतो वत्सराजः । ततो -वत्सरीनः प्राह-भीन ! 
वये रानदिशकारेण इति बे रथे विश्य सङ्गमपकाशी 
कता जगामाश मह्‌मायाप्तवनम्‌ । ततो गृहीति भोजे रोकः 
कोलादृटं क्तः ! हभावश्च प्रवृत्तः फं किमिति बुबाणा भटा 
परिकोशंषव आगत्य सहा भोजं वधाय नीतं ज्ञात्वा हस्िशखाघु- 
शशं वानिश.खं खयशालं प्रविश्य स्वान्‌ जध्ठुः । ततः भते- 
ष राजणवनप्रकाखेधिकाएु बहिदारविरेकेषु पुरसमीपेष भेरी- 
पटदूसुरनमडकटिंडिमनिनिदडेबरेणांबरं विडंवितमभूत्‌ । केचिद 
-मृलापिन केचिद्धषेण केचित्ते केचित पाशेन केविदहिना 
क विखरशुना केविच्छेन फे वित्तोपरेण केविसारेन केविदभसा 
केचिद्धारायां न्मणपरोषितो राजपुत्रा राजसेषका राजानः पर्य 
भाणपरियागे दघुः। ततः सामिनीेजञा भोजस्थ जननी विश्वजननीद 
ध्थिता दासीडखात्‌ स्वपुत्रस्थितिपाकरण्यं कराथां नेत्रे पिधाय 
रती भ्राह । पुत्र ! पितृष्येन कां दशां गमितोऽकि। ये मया 
नियमा उपवास्‌!श्व खत्कते छताः तेऽय मे षिफटा नाताः दशापि 
देशयुखाति शून्यानि । पुज देवेन सवेन सर्वशक्तिना मृष्टाः 
, भयः । एत ] एनं दासीवगं सहसा विच्छिन्नशिसं १येस्युक्खा 
` भूमावपतत्‌ । ततः परीते वेश्वानरे सथुदूतधृमस्तेमेनेव पटीमसे 

नभि पापत्राप्तादिव पथ्िपपयोनिधो मपरे मातंडपडठे महमाय(- 
भवनमाप्राय प्राहु पाज वत्सराजः । मार ! भ्यां देवत] 


ज्योतिशालविशरदेन ेनचिद्र(्षणेन्‌ तव राग्पप्राप्ततुबसाकथा 
रज्ञा भवद्रध्‌। गाद इति भोज पाहू 


भाषारीकासदितः। (२५ फ 


अनन्तर वत्सराज समभयानुसार काये करना चाहिये यह विचारके चुं, 
दीगये । ज सूयं छिपने रगा तो ऊंचे महर्ते उतरतेहए क्रोधित यमराजकी 
-समान चत्सराजको देखकर समी समासद भयभीत हौ अनेक बहारनेखि 
अपने २ घर्रोको जाने खो । किर वत्सराजने जपने घरक रक्षाके चयि 
नोकरोको भेज मुघनेश्वरी देचीके मन्दिरे सामने रथको खडा कर भोजको 
पटानेवाे पण्डितको घुखनेके निमित दूत भेजा । दूतने जाकर पंडितसे 
कहा, हे महाराज [ आपको वत्सराज दुखतते दै । इस वातफो घुन वजे 
दतहृएकी समान, भूतचटेको समान ओर ग्रहे प्रते हएकी समान उस 
-दूतके द्वारा हाथ पकडे हश पंडित आया । उस पंडिततको प्रणाम करके 
-बुद्धिमान्‌ बत्तराजने कहा, है परडितजौ महाराज { विराजि राजकुमार 
जयंत्तको पाठ्दारपे बुलाये । राजकुमार जयंतके आनेपर कुछ पडे इए 
पराटको परकर वापिस भेज दिया । फिर पंडितसे कहा, महाराज अव 
-मोजको ब्रुखाहये तव सव समाचारको जाननेवाखा भोज क्रोधसे जक्ते हए 
-लाङ नेत्र किये आकर योटा | है प्रापी | राजाके मुख्य कुमारको अके 
राजभवने बाहर छे जनिकी तुमे क्या सामर्थ्य है? रसा कह वारये 
चरणकी खडाऊंको निकाछ.भोजने बत्सराजके दिस मार्य । तव वस्ससाजने 
-कहा, हे मोज ! भ राजाका आज्ञाकारी ह, यह कह बाख्क (भोज ) को 
-रयमे त्रिखाट खद्धको स्धानसे नि्रालकर देवीके मंद्िरपर पहुंचा [ तव भोज 
-पकडागया दसा कहते इए लोग कोहर मचने खे, ह क्या है ! क्याहे 
क्या हा 1! इस मात्तिसे ऊचे शब्दद्वारा पुकारते हए सरीर योधा रौर 
जये । भोजक। मारनेके चिये पकडा है यह्‌ जानकर हस्तिशाखा, उष्ट्रा 
जीर अश्वदादमें धुस्कर सथो मारने रगे । फिर गलियों, राजमहरूकी 
-खा$, किञ्के पास, चहरे दरवाजकि सम्युख, नगरके निकट भेरी, 
ढोर, शृदंग, डमरू, मड ओर सम्ब आदिके सन्दे आकाश मून 
-गया | तव कुछ मनुष्य तीक्ष्ण ॒तख्वारसे, विषते, माङेसे, फासीसे, 
आगमे जटकर, फरसेसे, वरकीसे, तोमरसे, खदिसि, जलम द्ूवकर ओर 
पृध्वीपर गिरकर्ही ब्रह्मण, खी, राज्रत, राजसेवक आदि नगखासी 
"जन अपन २ प्रा्णोको खोनै- खगे । भिर सावित्री नामवाङी मोजकी माता 


{ २६ ) मोजपवन्धः- 


विश्वजननीकी समान स्थित हो दासीक मुखे अपने पुत्रकी द्दाका चुन 
हा्थोसे नेतरोको मरुत ओर रोती हदे बोली, हे पुत्र ! तन्हा चचानः 
तुम्हारी क्या दशा की १ जो भने तुम्हारे खये नियमके साथ बरत कि्थयं व 
सब निष्फर होगये । द्यो दिश्षाओके मुख शल्य होगये । हे पुत्र ! सव 
स्ैशक्तमान्‌ देवने समस्त देशवयै नष्ट कर द्यि । हे पुन ! इन सव दात 
योको कटे इए शिरकी समान एक वार देखो यह कहकर प्रथ्वीपर गिरगई । 
मज्वङित अभिसे निकटेुए धु्से जैसे धिया दोजाताहै उसी प्रकार आकार ` 
सटीन हो गया । पापके त्राससे सूयैदेव पश्थिमी समुद्रम इवगये इस प्रकार 
दिनके छिपजानेपर वत्सराजने देवकि मन्दिरपर प्ूचकर भोजसे का । हे 
कुमार ! हे सेवकोवे स्वामी | किसी ज्योतिषी व्राह्मणने आकर तुम्दं राजा होना 
बताया था इससे राजाने तुम्हारे वध करनेकी आज्ञा दी है । मोजने कदा-- 
रामे परवजनं बहेनिंयमनं पंडोः सुतानां वनं । 
वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपते राज्यासरि्भशनम्‌ ॥ 
पाकरागारनिषेवणं च मरणं संचिन्त्य ठ्केश्वरे । 
सर्वेः काठवरेन नश्यति नरः को वा परिवायते ॥ २८ ॥ 
रामचन्जीका वनवास, राजा बछ्िका बन्धन, पांडवोका वनवास, याद-- 
वकर मृत्यु राजा नरका राज्यसे अष्ट होना जीर ॒रसोहयां बनाना एवं 
रावणकी मृल्युकी देखो समी दुष्य काकसे नष्ट इए किसने कारके 
गारसे रक्षा पाई ३ ॥ २८ ॥ । 
ठष्ष्मीकोस्तुभपारिजातसहनः सूखः सुधांभोगिये-। 
देन भणयमसाद्विषिना मधो धृतः शंखना ॥ 
अयाप्युजज्ति नेव देवप्रिहतिंकषेण्यं श्षपावद्ः । 
केनान्येन विेष्यते पिषिगतिः प्रषाणरेसासतली ॥ २९ ॥ 
र्मी, कौस्तुममणि ओर कयदृकषका सहोदर, अगृतरूपौ क्षीरसागर 
पनन ओर विनयैक प्रसन्रतासे महादैवजीके भाङ्पर्‌ विराजमान जो चन्दर 
वहं जब मी दैव्रुे क्षीणतावो नहीं छोडता है ओर उसकी कला 


भाषादीकासहितः। (२७) 
सदा क्षणि होती रहती है, जैसे प्थरपरकी लकीर नहीं मिटती है धैमेही 
विधाताकी गतिमी नहीं उलँघी जाती रै ॥ २९ ॥ 

विकटोव्यापप्यटनं शेडारोहणम्पानिषेस्तरणम्‌ ॥ 
निगडं शडप्रवेशो विधिपरिपाकः कथं उ संता्यः॥ ३० ॥ 
विकट भूमिपर विचरना, पर्वेतपर चठना, सागरकां तैस्ना, कारागार ` 
येवन जीर गुहाम प्रवेश करना यह व्रिधाताका बनाया ह है इसते कैसे 
यार पासक्ता है ॥ ६०॥ . 
अभोषिः स्थरतां स्थरं जरितां पूटीलखवः शरतां । 
=, र (- (1 क = # 
मरृरृतकेणत्ता तम इल्श्ता चज वृणप्रायताम्‌ ॥ 
वहिः शीतलतां हिमं दहनतामायाति यस्येच्छया । 
लीलाटुर्लिता्ुतव्यसनिने देवाय तस्मे नमः ॥ ३१ ॥ 
जिसकी रश्षासे समुद्र स्यरमूमिक्ते समान ओर स्थकूभूमि जक्मयी हो ` 
जातत हे, धृख्फे कण पर्व॑त ओर सुमेर प॑त कणक्षे रज द्य जते है, 
तिनके वज्रकं समान ओर वन्न तिनकेकरी समान हो जाते है, अश्र शीतर ` 
जीरं बरफ आगकी समान हौ जाती है, उन कामात्रसे अद्भुत कमे कर 
नेवाे देवको नमस्कार ३ ॥ ३१ ॥ 
ततो वव्रक्षस्थ पत्रे आदाय एकं पुटीकत्य जयां इरकिया 
छिसा ततर पुटके रक्तमारोप्य तृणेन एकसिमिन्‌ पत्रे कंचन्‌ 
श्टोकं ठिविला वतं भाह । महाप्राग | एतटतर दषाय दातव्यं 
तमपि राजाज्ञा विधेहीति । ततो वत्राजस्यादजो भात। भो- 
जस्य भराणपरित्यागमेये दीप्यमानछुसभियमवलोक्य प्राह 
फिर वटृक्षके दो पत्तोको ॐ एकका दोना बनाया उस दोनेमे अपनी 
जंघासे दछुरीये दारा रुधिर निकार तिनके दूसरे पेपर कोई शोक किखकर 
वस्प्राजसे कहा, हे महाभाग ! इस धत्रको राजाको दे देना, अव तमः 


(२८ ) भोजप्रवन्धः- 


-रजाकी आज्ञाका पाठनं करो । तव वत्सराजके छोटे माईने प्राणे त्यागतते 
समय भोजके मुखकी उञ्ञ्वर कान्तिकेो देखकर कहा- 
९ एव सुहृदश निषगेऽप्यहुपाति यः ॥ 
शरीरेण स्मे नाशे सवेमन्यच गच्छति ॥ २२.॥ 
केवर एकमात्र धर्मही एेसा मित्र है जो मरनेके उपसयन्तभी ( प्राणीकेः 
"साय जता है अन्य समस्त दारीरके साथ नष्ट हो जते है ॥ ३६२ ॥ 
न ततो ह सहायं माता भायौ च तिति ॥ 
न पुजमिने न ज्ञातिधभ्तष्टति केवलः ॥ ३३ ॥ 
शरे नष्ट हौनेपर माता, ची, पुत्र, माई, चं आदि. कोई भी सद्ायता 
† ` चषेको नह लडा होता उस समय पे धर्मही सहायता करता है ॥ ३३॥ 
` वलवानप्यशकतोऽो धननानिपि नरथनः ॥ 
[> [क्‌ भ (44 ५१ 
शुतिवानपि मूखंश्च यो धमेविष्खो जनः ॥ ३४ ॥ 
धर्मसे विमुख इए पुरषो यख्वान्‌ होनेपरभी निवैक, धनी हौनेपरमी 
निधैनी ओर राल्ली होनेपरमी मूखं जानो ॥ ३४ ॥ 
इव नरफव्यापेधिकिपां न करोति यः ॥ 
गता रिरोषधस्थानं स रोमी किं करिष्यति ॥ ३५ ॥ 
जो मनुष्य इसी टोकमे नरकारूपी व्याधिकी चिवित्सा नक्ष करता & वी 
रोगी ओषधरहित स्थानम जाकर क्या वरेगा ॥ ३९ ॥ 
जरा मृष्ट यं व्यापि यो जानाति स पंडितः ॥ 
स्वस्थारिकिषीदेदा स्वपद। केनचिदतेत्‌ ॥ ९६ ॥ 
` जसाचस्या, शरत्यु, भय, ओर व्यामियोके जानगेवारेको पडत कहते है, 
-मलुष्य सस्य होनेते स्थित होता है, स्वख हनेसे आराम करता है, स्वस्थ 
-होनसे सोता है ओर खस्थ होनेसेही किसीसे हैखता है ॥ ६६॥ | 
. ठल्थनातिियोहपान्‌ इतस्‌ पश्यत मृत्युन ॥ 


(५ 


नाहे तत्रासति ते चासो क्जवददपं तश ॥ ३७ ॥ इति। 


भाषारीकासहितः । (२९) 


अपनी समाने जाति, आयु ओर रूप्रवलि मनुष्यको मृष्युके दरा नष्ट 
हते इर देखते हो ताभी तुम्हारे हदय त्स नहीं होता, तुम्हारा हदय ` 
यजकी समान कटीर ६ ॥ ६७ ॥ 
तते वेरा्यमापन्नो वत्छरानः भोजं क्षमसेद्युक्तवा प्रणम्य 
ते च रथे निवेश्य नग्रदवथिने तमसि गृहमागम्य भूमिगृहे 
विक्षिप्य रसे । स्वयम्‌ छनिमावयावादः सुङ्कउर शरद 
नि्मीटितनेत भोजङ्कमारमस्तकं कारपिला तचादाय कनि 
रजगवन गत्वा राजान नचा प्राह ¡ भ्रमता यश्राद् वत्ाप्रत 
मिति) ततो राजा च पृत्धंज्ञाला तह वराज ! सङ्प-- 
हारसमये तेन पुत्रेण किसुक्तमिति । वत्सस्तवत्रमदात्‌ ¦ राना, 
स्वभ्रायक्ररण दीपमानीय तानि पनाक्षसाणि वाचयति- 
फिर यैराग्यको प्राप्त देकर व्तराजने भोजको प्रणाम करके क्षमा मांगी 
ओर भोनको स्थ प्रिठाट नस्क बाहर अंधसा हो जनिषर अपने धर 
लाय तदखमे भानो सा । एवं चिन्रकासे द्र सुन्दर ऊडर्येको धरं 
प्रकाशित युग्डकी छमतियुक्त, मिचहए नेत्रवाटे भोजक्ा मस्तक वनवाकर राज- 
मचन्मे जाय राजाको। प्रणाम करकं कदा, भि-भ्रीमान्‌की अआज्ञाका पाठ्न 
किया} तत्र राजाने पुत्रक वधको जान बत्राजसे कहा किं, मरते समय 
युत्रने स्या कटा ? तन त्तराजनं पत्रक द द्विया | राजा राते हाथ 
दीपककरो मेगाफर पत्रकों रवोचने कणा । 
माधाता च महुपातः रतवुगाठ्कारसूता मनः। 
सेतुर्थन महोदथो विरचितः कापतो दशास्थांतकः ॥ 
अन्ये चापि एृषिष्ठिखश्रतयो याता विं भूपते । 
तकेनापि समं गता वसुमती नूं लया यास्यति ॥ ३८ ॥ 
सतूयुगका भूषण सवर्य राजा मांधाता चला गया, समुद्रा धूल बाप 


१ 


रावणके मारेव्ाटे रामचन्द्रजी कहां दै £ हे राजन्‌ | ओरमी युधिष्ठिर 


(८३०) भोजग्रवन्यः- 


-आदि राजा खर्गको सिधार गये परन्तु यह पर्व किसीकेमी साथ नही 
-गई, अव जान पडता है किं दम इस ( प््वी ) को जपन पाय ख 
जागे ॥ ३८ ॥ 


राजा च तदर्ध ज्ञत्वा शस्थातो मूमो पपात । ततश्च 
देवीकरकमट चाटितचेला चलानिलेन ससंज्ञो भूखा देषि। 
मांमास्पृश हा हय पुज्वातिनिमिति विन्‌ करर इव 
द्वासारानानाप्य बह्मणानानयतेत्याह्‌ । ततः सखन्ञणा 
समागतान्‌ बाह्मणात्नत्वा मथा पुज हतः तस्य प्रायि 
वदध्वपिति वरतं ते तमूचुः । राजन सहा वहिमानि- 
शेति । ततः समेत्य इद्धिपागरः प्राह । थथा खं राना- 
धमस्तयैव अमाल्याधमो वत्राः । तव रि राज्यं 
दता सिंधुरदपेण तेन तडृतपमे भोनंः स्थापितः तच 
त्था पितृष्येणान्पत्छतम्‌- 


, राजा उस ( छक ) के अथक जानकर राच्यासे प्रध्ीपर गिर॒ गया ६ 
तव रानीने अपने करकमलों दरा वघ्नके ्जीचर्से पवन करके जाको चैत~ 
न्यता प्राप्त करां । तत्र राजाने कदा-हे देवि ! हाहा । मुञ्च पुत्रघातीका मत 
छञओ, इस भाति कुररी पक्षीकी समान विरूप करता इञा द्वारपा्ैकों 
बुखकर बोखा कि, ब्रा्मणोको बुखा काभो । अनन्तर अपनी आ्गाचुसार्‌ 
आये ब्रा्णोको प्रणाम के कहा, मैने पुत्रको मार उखा है सो माप इस 
( पुत्रवधके ) पापका प्रायश्चित्त ताहे । जके देसे वचन सुन ब्राह्मण वो 
हे राजन्‌ { सहा अभि प्रवे कौनिये । तो वर्घौपर विराजमान बुद्धिसाग-- 
रने कहा । जैसे तुम अधम राजा हो वैतेही मंत्री वत्सराजभी अधम & ६ 

कारण सिधु राजने तुम्हे रज्य देकर तुम्हारीदी गोदमे मोजको बिटादियाः 
था 1 उसका चाचा होकर तुमने मरवा डाल । 


भाषारीकासहितः। (३१) 


कतियदिविसष्यापिपि मदकारिणे यौवने दुरासानः॥' 

विदधति तयाप्राषं जन्म हि तेषां यथा वृथा पवति ॥ ३९॥ 

षर पुरुष कु का स्थित गहनेवाठे मदकारी यौवनम देसे अपराध कर 
डाख्ते हे जिसमे उनका जन्मदी वरया दो जत्ता ६ ॥ ३९ ॥ 

सतस्तणोरारणमुत्तमागातछुपरणंकोव्यर्णमामनेति ॥ 

् ॐ > १ [क 

पराणव्ययेनारि सतोपकराराः खलाः परं वैरमिवोद्हंति ॥४ ०॥ 

सज्जन पुरुप अपम दविपरसे त्िनकेको। उतार देनेवच्के छ्ि करो 
सोनेको मेहर देकर मान छते है ओर दुष्ट पुरुप प्राणत्याग करकेभी उपकार 
-करनवाटकः। वैरीफ समान सातते ह ॥ ४० ॥ 

उपक्रार्थापक्रासो यद्य व्रजति विस्मृतिम्‌ ॥ 

पपाणिहुदवस्पास्प जादताप्याकधा मुषधा॥ ४१॥ 

पिय द्रेर्‌ अपकार ओर उप्रकारोको जो भूट जति है, उन पत्थरकी 
समि हृदययाय जावनद्व वथा ॥४१॥ 

यर्थाङ्करः सुधुश्मोऽपि परथलेनांपिरक्षितः ॥ 

फृटभरे भवेत्काले तरथा टोकः सुरक्षितः ॥ ४२॥ 

जिन्त मति छोटा अद्रा यत्ने साय रक्षित रहनेसे समयपर फर 
देता &ै, उन्ती भति उत्तमतासे रक्षित किया इभ पुरुप समयपर फक 
देतादटे॥ ४९ ॥ 

हिर्यधान्धरलानि धनानि विषिधारि च ॥ 

तथान्यदपि यरिविलना्यः स्यरमहीप्रताम्‌ ॥ ४३॥ 


सुवै, धन्य, रत्न, विक्रिय मंत्तिके धन, तया अन्य प्रक्रासे चो कुछ 
पद्य त्रे सव राजा प्रजसे होते रै॥ ४६९॥ 
राति धर्मिणि धर्मिष्ठः पपे पपपराः सद ॥ 


राजानमदुपते यया राना तथा भजाः ॥ ४४ ॥ 


६८३२) भोजप्रबन्धः- 


ल क च 


राजाके धमीत्मा होनेसे प्रजा धामिक, राजाके पापी होनेसे प्रजा मी पापीः 
हतीरै, राजाके अनुसारही प्रना चरुतीहै इस कारण जैसा राजा दोताहि 
व्ैसीही प्रजा होती ३ ॥ ४४ ॥  , 

ततो रात्रावेव वद्िभवेशननिभ्पिते राज्ञि सवं समताः पाराश्व. 
पिभिः । पूं हा पाफायादू भीतो सपति प्रविशतीति 
दिंवदती स्ेजाजनि । ततो उदधिसागरो द्ासाखमाहूय न केनारि 
भूपाछ्तवनं परे्व्यमित्युक्ला नुपमेतःपुरे निवेश्य सपायामे- 
काकी शन्‌ उपविष्टः ततो राजमरणवातं धुता वत्सराजः सभा- 
गृहमागस बुद्धिसागर नखा शनेः भह तातं ¡ मया भोनरानो. 
र्षित इति । इदधिसागरव करणं तस्य किमप्यकथगत्‌ । तच्छरुला 
वत्स्राजश निष्कांतः। ततो सुहतंन कोऽपि करकलित द्देतदेडो 
विरचितपसयप्रनटाकलापः कशरकरमितपतितोदतितसकटतत- 
मूतिमान्मम्मथ इष सटिकडुंडटमड्तकिणयुगलः कोशेथकोपीनों 
मूतिंमाधदचूढ इव सभां कापटिकः समागतः । ते वीक्ष्य 
वदिषगरः प्राह । योगीन्ध ङु आगम्यते छतर ते विवेशश्च ! 
. कापालिके सपि यचभत्कारकारकिरा्िशेष ओषधविशषोऽ- 
प्यस्ति । योगी प्राह 


4 (ग. 4 


अनन्तर राजाका रात्रिम अभिमे प्रवेद करना निश्चित इमा । तव सव 
समन्त ओर नगरनिवासी मिरकर कहनेलगे कि पुत्रको मार पापरक्षे मये 
उरकर राजा अभिमे प्रवेद करता है, यह बात सर्वत्र फैकगरई । तव बुद्धि- 
सागर सेत्रने द्वापारोको बुखाकर कहा कि-एजावे महम किसीको न 
आने देना, ओर स्वयं राजावे मदहल्मे जाकर ' समाके स्थानप्र अकेरहीं 
यैठगया । फिर राजाकी मृ्युका सभाचार सुन वत्सराजने सभाम आकर 
: सुद्धिसागसको प्रणाम करके धीरे कहा, हे तात | भने मोजको बचा 


भाषारीकसरितः। (२३२) 
रक्खा ई 1 तय बुद्धिसागसने उसके कानमे करद कहा । उसको सुन वश्ल- 
राज चछा गया शिरि द्रौ षडकि परि दाथीदततिका दंड धरि, जटार्मोका 
जडा बनाये, क्के चूरण॑से भिटी म्मको सत्रे समाये, कामदेवकीं समाने 
पकाशमान स्फषिकमणिकरे कुंडलति दोनो कनको भूषिते कये, रेशमी 
यप्तकी कौपीन धारण किये ओर दामे कपर स्मि हए समामंडपभे 
साष्तात्‌ महादेवजीके समान एक योगी भाया ¡ उसक्रो देख ॒दुद्धिसागसमे 
कटा, टे योरगन्दरं ! कदास आये अर आपका स्थान कहौ है । तुम्हरी 
पारी चमत्कारी कलाविशचेप कोटं जीपाधे है क्या { योगीने कहा- 

देशे देशे भवने भवने भवने तथैव शिक्षात्तपर ॥ 
सरमे च नायं सटिरं शिवशिव तचार्थयोगिनां पुसाम्‌॥४५॥ 
विव २ तचे अयेको जाननेवाटे योनियोको प्रतिदेदमे धरै ओर 
ग्रयेक धरम भिक्षाका अन्न ह तया ससेघर एवं नदियेमें जर है ॥ ४९ ॥ 
यमे यामे ऊरी रम्या निरे निश्चरे जलम ॥ 
भिक्षायां सुलभं चां विभवैः किं प्रयोजनम ॥ ४६ ॥ 
मरत्येक ग्रामे प्मणीक कुसी है, रनम खुन्दर जठ दै, फिर सुगम~ 
ताते मिश्षाका अन प्राप्त होजातार तवर देशवयेका क्या प्रयोजन है ॥४६ ॥ 
देव | अस्माकं नेको देशः स्कठभूमंडछ भमामः । युह- 
पदेशे पटिमः । गिं भुवनतरं करतटामटकवसश्यामः । 
सर्पं विपव्याङ्कलं रोगयस्तं शक्चणिचशिरस्कं काठशिथिछितं 
तात | ततसणादेव विगतसकटव्यापिसंचयं कुम इति । राजापि 
डचातरहित एव श्ुतप्रकटवृत्तातः सभामागतः कालिकं देड- 
वत्मणम्य योगीन्र! शुद्कल परोपकाररायण | महपापिना मयाः 
इत्य पुत्रस्य प्राणदनेन मां रषत्याह । भथ कापाटिकोऽरि 
जच | मा मपीः । पुत्रस्ते न मरिष्यति शिवप्रसादेन गृहमेषयति 
३ । 


{ ३४) भोजमरवन्धः- 


दरं शशनमूपौ दुदधि्ागरेण सह होमद्र्याणि परषयेत्यषोचत्‌ । 
क * ¢. [^ १.०) (अ डि 4 
ततो रत्ना कापटिक यदुक्तं तत्वं तथा ङर्विति बदधिपाग्र 
प्रेषितः । ततो रात्रौ गृहह्पेण भोजोऽपि तत्र नदीपुलिने नीतः 
योगिन भोजो जीति इति प्रथा च समभूत्र॒। ततो गजद्रहम्र 
वंदिरिः स्तूथमानो पेरीमृदमादिवषिजगदषिरीङ्न्‌ पारामात्यप- 
दिवतो भोजराजे राजमषनमगात्‌। राजा च तमाटिग्य रोदिति। 
भ > न $ ® न श च, क @ क 
भोजो सदतं सुन निबायं अलतपीत्‌ । ततः सतु रान्‌] निन 
रिहा तस्मिलिषेशणिखा छलचामराया भूषयिखा तस्मं राज्य 
दरौ । निनपुकरेभयः प्रयेकमेकेकं भरमि दसा प्रमेमासप्द 
जयतं भोजके निवेशयामास । ततः प्रटोकपलिरिणो सजो. 
ऽपि निनपहरक्नीपिः सह तोवनभूमिं गल। परं तपस्ते । तो 
सोजभुपालथ्य देवनहणपरपादादरज्यं पाटयामोप ॥ 
इति भोजराजस्य राञ्यपािपवध्‌ः । 

हे देव | हमारा को. नियत एक दे नहीं है, समस्त -मूमंडख्पर विचरते 
ह ओर गुरुदेवके उपदेरासे स्थित रहते है । समस्त पृध्वीमंडक्को करत- 
गात वखेकी समान प्रयश्र देखते है । हे तात ! सर्पे उपतेको, विषसे 
व्याकुरुको, रोगीको, रा्नद्ारा छिनमस्तकबारेको ओर कारुषे रिथिक 
सुरुषको हम तत्का ग्याधेयोसे सहित कर देते है । राजाने इन सब 
चार्तोको मीतकी ओदरटमै खंडे इर सुनी । फिर सममे आकर कपाठधार 
योगीको प्रणम्‌ . के कहा-हे योगिरज } हे रिवजीकी समान परोपकार 
करस्नवाङ ! मुञ्च महापार्पानि पुत्रको मरवा उढा है उसका आप जिटाकरर 


अरं रक्षा कपे । तब योगीने कहा-हे राजन्‌ । तुम भय्‌ मत करो, तम्हारा 
यत्र नह मरा, राकरकी पासे घर आ-जायगा, तुम बुद्धिस्ागरके द्वारा 


स्पदानभू(मम हवनकी सामग्री पर्चा ' दा । राजन बहुत अच्छा एसी 


भापादीकासितः। (३५ » 


-होगा यह कहकर दुद्धितागर्को भेजा । फिर राक्रमे गुप्तमायपे भोजकौ 
नदीके स्थस्मे प्राप्त कर द्विथा, तवर योगिराजने भोजको जिद्य दिया य 
वात प्रसिद्ध हृद्‌ । उपरान्त हाथीपर चठ, बन्दीजनें द्वारा स्तुतिको प्राप्त 
होता हथ, गृदद्र आदि बर्ज शब्दस जगत्‌ वधिर करता दज, 
नगरनिवाती जर म्नि साथ राजा भोज राजमवनमे माया । तब 
राजा भोजसे मिटकर रने ठ्गा । भोजने राजाफा रोनेसे वंद कर स्तुति 
फी | पि राजने प्रत्न हौकर राजरसिदासतनपरं भोजको विग छतर, 
वामयति भूषित कर राव्य दवे दिया | आर अपने वैर्टोको एक एक भ्राम 
देकर परम प्रेमस्यान जयन्तक भोजकी गोदरे बिठा दिया । अनन्तर परटो- 
कमं रक्षा पलेकी अभिपाति मुन अपनी पटसनि्ों समेत तपोवने जाय 
तपस्या करने खमा ¡ ओर राजा मोन देवता जीर त्राह्म्णोकी छृपासे राज्य 
करने खगा 1 
राजा भोनका राव्यप्रापतिप्रवरध समापतत । 
ततो सुखे तपोवभं याते बुदिसागर ुख्यामाययं विधाय स्वस्यं 
उने गोन्राजपपतिः । एवमतिक्रामति कले कदाविद्रज्ना 
कीऽतोयां गच्छता कोऽपि धारानगेरखसी भो ठक्षितः। 
स्‌ च राजानं वीक्ष्य नेत्रे निमीत्य भागच्छनू राज्ञा पृष्टः । दिन | 
त्वं मां षट न स्वस्तीति जल्पति । विशेषेण लोचने निमय 
[११.०५ [9 ० च, [९ ए. 
तवर को हेतुरिति । पिम आह । देव ! सं वेष्णवोऽषि किरणा 
( 8९, क क 0 (भि ९, ९ 
नोपद्रवं करिष्य ततस्ततो न मे भीतिः, 8 तु कसपिकिम- 
विन प्रपच्छसि, तेन तव दाक्षिण्यमपि नालति । अतस्ते किमा- 
+भ [क [९ भद क 
तिचा । किं च ‹ भात रुपणयुलावटोकनात्‌ परतोऽपि 
खहानिः स्थात्‌ ' इति लोकोक्ता सोचने तिभीटिते ॥ 
मुंजवे तपोवने जानेपर राजा मोजने अपने पुराने मत्री बुद्धिसागरका 


6 9" क चिरकाख्के 


मत्री बनाया ओर अपने राञ्यको भोगने रगा । इस भातिसे चिरकाल 


८ ३8६ ) भीजप्रवन्थः- 

उपरान्त क्रीडास्थानरूपी बगीचेमे जातेसमय राजा भाजन वरानगस्वत्ति 
किसी त्रा्मणको देखा । उस त्राह्मणने गजाको देख .अपने दोनों नेत्र मीच- 
खिये, तब राजाने कहा कि~दे भूदेव ! तमने मुशे देख स्वस्ति ' कहकर्‌ 
आङीरबाद तो न दिया परन्तु अपने नेत्र मीचल्यि सो इसका क्या कारण 
& १ नाणे कहा हे देव ! ठम वैष्णव हौ अतएव ब्राहमणेपर उपद्रव न 
करगे इसीसे भे निर्भय द्रं । किसीको कुमी नही देते हो इस कारण तम 
उदार नहीं हो । इसस्यि आशीवौद देनेसे क्या काभ है । दूसरे प्रातः-. 
समय कृपणे मुख देखनेसे दूसरोसे भी हानि होती है इस ` किक. 
रविवदन्तसिः मेने नेत्र मीच 


अच्‌ 

प्रसादो विष्फलो यस्थ कोपश्वापि निरथेकः ॥ 

न तं राजानमिच्छति प्रजाः षढमिव च्चिः ॥ ४७ ॥ 

ओरभी जिसकी प्रसनता जर कध निष्फड हो उस राको प्रजा 
नहीं "चाहती है जसे नपुंसक पुरूपको खरी नहीं चाहती है ॥ ४७ ॥ ` 

उप्रगलोस्य या विया पणस्य च यद्धनम्‌ ॥ 

यच बाहुबल भीरोग्यथमेतत्रयं शुषि ॥ ४८ ॥ 

विना प्रगस्मता ८ दिठाईं ) की विद्या, कृपणका धन ओर डरपोकं मनु - 
ष्यक भुजाभका बरु पृथ्वीपर निष्फल जानो 1 ४८॥ 

देव ] मपित वृद्धः काशीं भति गच्छद्र मया शिक्षां पृष्टः 
तात | मया किं कत्तव्यामाति । पत्रा चत्थम्यश्पि ॥ 


हे देव { जन भे पिता-काशीजीको जने रगा तव मैने षा क्रि हे 
तात | मुञ्च क्या करना चाहिये, तब प्रिताने कहा 


यद तवे दय्‌ वदन्‌ सुनय्‌ स्वमेऽपि मासम सेषिष्ठाः॥ 
¦ “सत्वान्‌ षठाजेत युवतिजेतं चव राजानम्‌ ॥ ४९ ॥ 


भाषाटीकासहित; । (३७ ) 
हे श्रि्न्‌ | जौ तुम्हार दय नीतिते पूणे है, तो तुम मतरियोके, नपु- 
` सकफे ओर्‌ श्नियोके वरमूत राजाको सपर्मेमी नदीं सेवन करना ॥४९॥ 
पातकानां समस्तानां द परे तात पातके ॥ 
एकं दुर्चिवो राजा दितीयं च तदाश्रयः॥५०॥ 
हे तत्त} सव पपि दा पाप वड, एक तो दुष्ट मंतरीके वशीभूत 
"राजा ओर्‌ यूप्तर उत्त रजि आश्रय रहना ॥ ९० ॥ 
भकिविकमतितरपतिमतरि यणवत्छु व कितथीदः ॥ 
यत्र खलाश्च भरषरास्ततर कथं सजनादसतरः ॥ ५१ ॥ 
मू राजक गुणवान्‌ मन्रिगगेापर तिरी दष रहती है, जरह दु्ेकी 
प्रयता हतां ट वर्ह तजनो अवसर कर्द मिर्ता है ॥ ५१॥ 
राजा संपत्तिहीनोऽपि सेभ्यः सेव्यधणाभयः ॥ 
भवत्याजीवनं तस्माठं कांतरादपि ॥ ५२ ॥ 
सम्यततिते हीन दनेपरमी गुणी राजाका सेवन करे, कारण समथ अने 
पर उस आजीषिकार्यी फल प्राप्त दता है ॥ ९२ ॥ 
अशतुदाषिण्यं नहि भवति । देव ! पुरा कणदधीचिशि- 
विरिकरिमभमुखाः क्षितियो यथा प्रोकमटडुषोणा 
गिनरनसमृद्धूतदिव्यनवयणेरनिवपंति महीमेड्छे तथा 
 किमपरे राजानः 1 ॥ 
छृपणको चतुर नह कहते, हे देव ! पूर्वके राजा कणे, दधीचि, रिं 
अर विक्रमादिकेनि से पर्येकको भूषित किया है ओर अपने हाथके 
द्याया दानते उत्पन्न इ९ नव गुणो युक्त प्रध्परीपर वास कियाद वैते क्या 
खीर राजा | 
देहे पातिनि का रक्षा यशो रश्यमपातषत्‌ ॥ 
नरः पतति कायोऽपि यशःकन जीवति ॥ ५३ ॥ 


(३८) भीजप्रवन्धः- 


नष्ट हतेवङे सरीरकी स्या रक्षा करे, अविनाश यराकी रक्षा करः 
सत्ये होनेपर मनुष्यका शरीर न्ट होजाता है परन्तु यररूपी शरीर मच्युकरे 
उपरान्त मी अमर रहता रै ॥ ९३॥ 
9० भ क ० 
पाडत चवं मूस च बटदत्यप दुब ॥ 
रे च दरि च मृत्योः सवत्र तुल्यता ॥ ५४ ॥ 
पण्डित, मूख, वख्वान्‌, निव, धनौ ओर निनी सत्क चपि मृल्युकी 
समानता जानो ॥ ९४ ॥ 
[#*य ० ® ज च (अ ०१ 
तिमषमात्रमाप्‌ त वेसा गच्छन्न त्ष्ठाति ॥ 
तस्मदिैष्वनित्येड कीतिेकाुपाजयेत्‌ ॥ ५५ ॥ 
कषणम मी न ठहरनेवाटी तुम्हारी आयु वीती चली जाती हे,: अतएव: 


9 9 


इस अनित्य देदमं केवर कीतका सञ्चय करो ॥ ९९ ॥ 
जीवितं तदपि जीवितमध्ये गण्यते सुतिः किमु पुंसाम्‌ ॥ 
ज्ञानविकरमकल ढुरलनत्यागोगरहितं विफरं यत्‌ ॥५६॥ 
जो ज्ञान, पराक्रम, करा, छुरुकी सज, त्याग जीर भोगे रहित ह 
चह क्या जीतिजी सजनोकौ जीविनीमे गिने जा सक्ते है १ अर्थात्‌ नहीं 
गिने जाते ॥ ९६ ॥ - 
राजापि तेन वाक्येन पीयुषपूरात इव प्रक्रहमणि डीन इव 


रोचनाप्यां हषोभूणि सुमोच । प्राह च दिन विप्रवर ] श्ण- 
राज। भी उसके वचनद्वारा अमृतशणं सरोवरे गेत ठगानेकी समान्‌ 
परत्रह्मे छीन हो नेत्रोंस आनन्दके सू हाता इञा बोला कि-हे 
विप्रवर ¦ सुनो-- 
सुलपाः पुरुषा रोके सततं पियवाक्लिः ॥ 


अगियस्य च पथ्यस्य वक्ता धोता च दुः ॥ ५७ ॥ 
संसारम प्रियवचन बोरुनेवाठे मनुष्य बहुत ३ परन्तु अप्रियरूपी हितके- 
वचन कहने ओर सुननेवाठे मनुष्य बहुत कम ह || ९७ | 


भाषा्टीकासरहितः। (३९) 
म॒ मैविणः सतिन ते हिपिणो हितेकिणः सतिन ते मनीषिणः॥ 
सुहव विदयनि दुमो तृणां यथौषधं स्वादु हितं च दुछम्‌५८ 

सद्धिमान्‌ पुर हितैषी नरी होते ओर हितैपी पुरुप बुद्धिमान्‌ नही होते 
ह, जिस माति हितकारी अर स्वादिष्ट जीपधि दुरम है उसी माति मनुष्यो 
विद्वान्‌ भित्र मिटना दुर्म ६ ॥ ९८ ॥ 
इति विभाय ठक्षं दा कं ते नमेसयाह । विप्रः स्वनाम 
भमो टिखति गोविंद इति । राजा वाचयित्वा पि ] परह 
रानकपनमागन्तव्यं न ते कथिनः । विदाः कवयश्च कौठकात्‌ 
सप्तामनितव्याः। कोऽपि विदवाच्‌ न दुःखभगस्तु एनमधिकारं पट- 
येत्याह । एवं मच्छस्सु कतिपयदिवसेषठ राना विदलियः दानवितते- 
श्वर इति प्रथामगात्‌ । ततो राजानं दिशक्षवः कवयो नानादिकियः 
समागताः । एवं वित्तादिव्ययं कुबांणं राना भरति कदाचित 
सख्यामालनेल्यप्भ्यधापि । देव | राजानः कोशा एव विज- 
पिनो नान्ये 


इतना कह राजाने ब्राह्मणको खख रुपये देकर कहा-महाराज ! आपका 
नाम क्या है £ ब्राह्मणने अपने नामको पृध्वीपर “ गोविन्द ? च्लि दिया }. 
राजाने उसके नामको पढकर कहा हे विप्र तुम प्रतिदिन राजभवनमे आया 
कृरो ! तुम्हारा कोई निघ नहीं है । विद्वान्‌ ओर कवियोंको सहे सममे. 
खाया कसे ! कोई विद्वान्‌ दुःखी न रहे यह तुग्दं अधिकार दिया गया । 
इस मातिसे कुछ दिनके पछि राजा विद्रानौका दितैपी जीर वडा दानी है यह 
वात करदं तव राजाको देखनेके व्यि देश-देशान्तरोसे कविजन अने. 
खगे 1 एसे धनादिका व्यय करते देख राजासे सुख्यमंततीनि एक दिन कहा कि; 
देव ! धिपुर धनवाठे राजाह विजयी होते हे दूस नर्ही- 


(४०) मोनमबन्यः- 
ष जयी वरमातगा यस्व कस्पसिमेविी ॥ = ` 
कोशो यश्य स दर्पा दुगं यस्य स॒ दुजयः ॥५९ ॥ ` 
जिसके उत्तम हाथिोंते युक्त भूमि £ बह जय- पाति, जिसके खजाना 
३ उसका प्रचंड प्रताप जानो ओर जिषे किडा होता है वहं दुंजेष 
होता है ॥ ९९ ॥ । । 
देव ! टोकं प्- 
देव ! कोको दो । [र 
भ्ायो धनवतामेव धने तृष्णा रीयसी ॥ | 
१९ कोषदियापकतं टक्षाय प्रवणं धृलुः॥ ६० ॥ इति । 
प्रायः धनियोक्षी धनम बडी वृष्णा होती है । देखे! दो करोड शपयेवाखा 
सलुष्य खख श्पये धेने छिथ बडे उपाय करता है । ( यहां दूए माव यह 
है कि धनुषके दो कोटि (अग्रमाग ) देति ई बीचसे धुप कतो ३, य्ह 
खक्ष्नाम निशानेका होने अथं होता है ) दो कोटि आसक्त दो धनुपकतो 
रुक्ष ( निशान ) के स्यि दुषेहृएको देखो ॥ ६० ॥ . ` 
राना च तबाह 
इसको सुन राजाने का~ 
दानोपभोगर्व्ा य। सुहद्धिषा १ सुञ्पते ॥ . 
युतां समाहिता ष्षषीएटक्ष्मीः कमो भेत्‌ ॥ ६१ ॥ ` 
, जो दान मोगमें नकष आती, जो मितरद्ंरा न मोगीजात्ती वह पुरुषो 
रमित कौ इद रकम कातुसार अशुक हो जाती है ॥ ६१॥ =. *. . 
दतयुक्तवा राना तं मंत्रिणं निनपशहुरीकख तलदे<न्य 
हददेश । आह च तम्‌- „= 
, दसा ककर सजाने उस म॑नीको मन््ीके पदे हटाकर दूसरको मनी 
नाया जीर उससे कंहा- . ` “+: 


[शी 


भाषार्सीकासरितः । (४१) 


रक्ष महाकवे तद दडपत्य च ॥ 

विभ भ्म ४७ (५ ९. 

देव्‌ धार्पकमध्यस्य तस्याल्यध तदथ, ॥ ६२ ॥ 

मह्मकविकों एक दाख रुपये देना, पण्डितको पचास हजार, अथेके 
जाननेधटेको णक गौव ओर कटे अर्थतो समङ्षनेवारेके स्यि उससे आधा 
धन देना ॥ ६२॥ 

यश्च मे अमाखाद्धि पितरणनिपेधमनाः स हैतव्यः। उक च~ 

जो मेरे आध्ीय जन दान कलेका नियेध करेगे तो उनको मारा 
चाहिये । कहा मी द~ 

यदत यदश्ात तन्व पालना पनम्‌ ॥ 

अन्धे मृतस्य ऋीटंति दारैरपि धरेरपि ॥ ६३ ॥ 

जा देता हं भार जा मागता ह उस धनाका धन समक्न मरनका 
पृदधि धन एवं हिषे दृत्तरदी मोण्ते द ॥ १३॥ 

परियः प्रजानां दतिव न पुग्रविणेश्वरः ॥ 

आगच्छन्‌ क्ष्यते रेकेर्वारियो न्‌ ठु वारिपः ॥ ६४ ॥ 

दूता सव्रको प्यारा छगत्ता ह, घनीको कोह प्यार नही करता जसे 
सन॒ष्य मेधोका अना चाहते टं ओर समुद्रा कह ॥ ६४ ॥ 

सथहेकपरः भायः ससुद्रोऽपिं रसातटे ॥ 

दातारं जलद प्य गजि सुवनीपरिं ॥ ६५ ॥ 

सरवसंग्रह्वारी समुद्र स्सातर्मे पडा है ओर दाता मर्घोकों भुव्रनङ्पर 
गर्थते हए देखो ॥ ६९ ॥ । 

एवं वितरणशाछिनं पोजरानं श्रता कित्कटिगवशाक्त- 
विर मामत तस्थौ । न च कषोणीदशेनं भनति। आहारे 
धेप्मपि नास्ति! ततः कदाविदना मृगयापिला्ी बहिनिगतः 


शं कविरष्ा राजानमाह 


(४२) भोजप्रवन्धः- 
इस भोति राजा भोजको दानी सुनकर कर्टिगदेडावासी कवि आकर एकः 
मास रहा परन्तु राजाके दर्न नद इए । इधर इस काथिके पासका भोजनके 
स्यि पेसामी चक गया । किसी संमय राजा सिकार खेरनेको बाहर निकठा 
तो कविने राजक देखकर कहा- 
च्छे भ्ीगोजराजदे गलति बरीणि तसक्षणात्र ॥ 
शनोः श्चं कवेः कष्ट नीवीवधो मुमीदशाम्‌ ॥ ६६ ॥ 
श्रीराजा मोजके ददन करतेही तीन चीजे गिर जाती दै, एक तो शघ्रुका ` 
सल्ल, दूसरे कविका कष्ट ओर तीसरे चियोंकी नीवी ॥ ६६ ॥ 
[4 (१ क कि [प . 
राना लक्ष ददा । ततर्तस्मिन्पृगयारसिके रागि कथन 
सुखिदपतरो गायति । तेन गीतमाधुंण तृट राना तसम एुटिद- 
युत्राय पचलक्ष ददो । तदा कविः तदानमत्युज्तं किरातपातं च. 
च्छा नृरद्रपाणकमटंस्थपकनामेषेण राजान्‌ वदति. 
राजाने उसको राख रूपये दिये । तदनंत्तर राजाके सिकार खेरते इए 
किसी पुरिद ( मा ) के पुत्रे गाया । उसके सुरे गीत गानेसे राजाने प्रसन. 
होकर उस ( पुषदपुत्र ) के स्थि पाच रख रूपये दिये, तव उत्त 
काषेन भीख्पुत्रको अधिक धन देते देख राजाके हाथमे स्थित कमरुके . 
मिससे राजासे कदा- 
एते युणास्तु पंक सतोऽपि न्‌ ते भकाशमायांति ॥ 
यदकष्मीवसतेश्तव मधुपरपशुज्यते कोशः ॥ ६७ ॥ 
. हे कमरु ! तुके इतने गुण रहते मी दृष्टि नदह आते इसीसे र्ष्मीके 
स्थानस्वरूप तेरे खजानेको अमरही मोगते ई } राजक पक्षमे जाना जाता है 
वि, हे राजन्‌. ! तेरा खजाना मधुपान करनेवाठे गवारही कते है ॥ ६७ ॥. 
 भोजस्तमरिभयं ज्ञाला पुनरक्षमेकं ददौ । ततो राजाः 
जह्मिणमाह्‌- ` “` 


राजाने इश आदायको जान फिर उस बाल्मगको एक छख रुपये दिये- . 
ओर राजाने ्ाह्मणते कहा- - 


भाषादयीकासहितः । (४३). 


भुमिः परल्यते विभ कटेव न कुटीनता ॥ 
कठावान्‌ मान्यते मूर्धि सु देवे शुना ॥ ६८ ॥ 
हे चिप्र ! स्वामी कखाको एजते है ङुछ कुरीनताको नदीं एजते, जसे 
कलावान्‌ होनेसे चन्द्रमाको रिवजीने अन्य देवताओके होते हए भी अपने- 
स्तकपर धारण किया है | ६८ ॥ 
एवं वदति भोने इतोऽपि पचपाः कपयः समागताः । तानछ्ा 
राना विरक्षण इवासीत्‌ । भवेव मया एतावद्धि दरमिति । 
ततः कविस्तमभिपरायं ज्ञाला वरं प्रमिषेण पुनः प्राह- 

ˆ राजा मोज रसे कह्‌ रदा था तव कर्दीसि पोच छः कवि आगये | उनको 
देख राजा विक्षणकी समान हो गया ! अभी तो भने इतना धन दिया है ¦ 
राजाके इस अमिमरायको जानकर कमङ्के मिससे उस फप्रिने राजासे कदा । 

० [ब १ क क 
र इुष्यपि कसे पा नवसोरसाराय हि निनमधुने ॥ 
+ @= = & म, 
यस्य कृते शतपत्र तेद प्रतिपच मृग्यते मरः ॥ ६९ ॥ 
हे सौपततेवाठे कमठ ! तू विसव्मि ओर क्या कोप करता है १ नवीन 
सुगन्धिके मिढससे क्यो कोप करते हो ? उसी मिठासके स्थयी तो तेरे 
एक २ पत्तेको अमर खोज रहे है ॥ ६९ ॥ 
ततः प्रसं भसप्नवदनमवलोक्य भकारेन प्राह- 
फिर राजाो प्रपतन हआ देखकर प्रगटमें कहा-- 
न्‌ दातुं नोपपोक्त च शक्रोषि सपणः धियम्‌ ॥ 
छि तु स्पृशति हस्तेन नपुंसक इव स्वियम्‌ ॥ ७० ॥ 
कृपण मनुष्य रकषमीको न देता है ओर न भोगताही है केवर हाथसे दरूेता 
दे, जसे नपुंसक पुरुष च्रीको हाथसे छरुकेता है ॥ ७० ॥ 
` याचितो यः परहष्येत दला च प्रीतिमान्‌ पवेत ॥ 
तं छष्टप्यथवा श्चुता नर स्वगंमवाप्ठयात्‌ ॥ ७१ ॥ 


{ ४४ ) भोजप्रन्धः 
जी माणनपर प्रस्ना आर दान दक्र प्रीतिमान्‌ हयं ता प्स दत्ता 
देखने वा सुननेसे मनुष्य स्वगेको जाता हे ॥ ७१ ॥ 
ततस्तटे राजा पुनरपि कलिगदेशवासिकवये रक्ष दौ । 
ततः पूर्वकिः पुरः स्थितान्‌ षट्‌ कर्वी्रन्खट्रह । ह कवयो 
महासरस्पतुखुभूमो वाप्ती रजा यद्‌। भवेन ममिष्यात्‌ तदा 
, किमपि ज्रतेति । ये च स्व महाकवयोऽपि सर्व रात्तः प्रथपचेितं 
-ज्ञातवावर्चष तेष्वेकः स्रोमिषेण चप प्रई- 


, तब राजाने प्रसन्न होकर फिर करङ्गवासी कंविको ढाल पये दिय 

तो उसी पहठे कट्गवासी कविने सम्मुख खड इए उन छः कविराजासि 

कुहा हे कविगण | यदह महासरोवस्की भूमिपर धिराजमान राजो जव 
© 


` चरको जाय तब कुछ कना । तव वह कवि जो राजाके प्रवं किये कार्थोकों 
जाने खडे थे उन्मेस एक काविने सरोवरे मिससे राजासे कहा- 


आगतानामपूणौनां पूणानामप्यगच्छतापर्‌ ॥ 
, यदध्वनि न संघो घटनां तत्सरोवरम्‌ ॥ ७२ ॥ इति । 


खाखी आये ओर भरकर नहीं गये इस भांति घडींका मेर जिसके मार्मर्मे 
-नहीं होता है एेसा सरोवर है । भाव यह है कि आप देसे सरोधेर हो कि.आपर्यै 


९९. (५, 


पास रीते घटशूपी निधन आकर पूणं धन ठेकर नहीं गये एसा होत। नहीं |॥७२॥ 
तस्य रजा छ ददा । तत्‌ गाविदपाल्तस्ताच्‌ करव द्रन्खष्य 


चुकोप । तस्य कोपाणिपरायं ज्ञाला दवितीयः कविराह- 
एसा कहनेपर उसको राजने राख रूपये दिये ! तब गोचिन्द पण्डित 


उन कवियोको देखकर क्रोधित इञ । उस क्रोधपूर्णं अभिप्रायको जानकर 
दूसरे कथिने कहा- 


कस्य तृष न्‌ क्षपयापते पनतं न कस्तव पयः परदिश्पातः ॥ 
य सन्मागृसरोवर्‌ नक न कोडमपिवसति ॥ ७३ ॥ 


भाषाटीकासरहितः । (४९ >) 


. हे श्रष्ठमागेवारे सरीर ! तुम्हारी गोदमें नाके नदी रहते तौ तम 
कित्तकी प्यास्तको नही शान्त करते ओर तुम्हारे मीतर प्रवेश करके कीन 
जल्को नहीं पात 2 ॥ ७३॥ 

न ४ च ॥ म भे (७ कक 

` राजा तस्म ठक्षदयं द्रो । तं च गोविंदं व्यापासद्‌- 
हुरीरत्य खयापि सपायामागेतव्यं परं तु केनपि देयं न कर्त- 
च्यम्‌ । इत्युक्ता ततस्तेषः भयकं लक्षं दवा सवनगरमागतः । 
ते च यथायथ गताः । ततः कदाचिद्राना युख्यामाय प्राह- 

राजने उस कविको दो छाव रृपये दिये । जीर उस गौषिन्द पडितप्े 
सेवेतद्रारा कहा कि--आप समामे अव ओर किसीसे ईषा नहीं करै } यह 
कहकर फिर प्रथक्‌ २ उन कत्रियोको एक २ लाख श्पये देकर अपने, 
नगरम आया । ओर वह सव अपने २ स्थानेकरो गये । फिर किसी समय 
राजाने अपने मुख्य मंत्रीसे कहा-- 

विभोऽपि यो पवेन्मूसंः स पुराद्रहिरस्ठु मे ॥ 

दुंभकारोऽपि यो विदान्‌ स कितु पुरे मम ॥ ४४ ॥ इति 


[^ क 


मूख ब्राह्मणी मेरी राजधानीसे बाहर निकर जाय ओर विदान्‌ होने 
कुम्हार भी स्थित रहे ॥ ५४ ॥ 

अतः कोऽपि न मूरखोऽभद्धारानगरे । ततः क्रमेण पचशताहि . 
विदुषां वररचिबाणमयुररेफणहरिशंकरकटिगकपूरविनायकम- 
द्नवियापिनोदकोकिरतासण्खाः सरवशस्पिचक्षणाः सवत्नाः 
शरीषिनरानसामटचङ्ुः । एषं स्थिते कशाचिदिदववंदिे पिह 
सनासीने कविशिरोमणो कविखभिये विमिमियर्वार भोनेभ्वर 
दारा प्तय भगम्य व्यनिह्गपत्‌ । देव ! कोपि विदत्‌ दारि 
` कितीति 1 अथ राज्ञा प्रवेश्य तमिति आङ्गते सोऽपि दक्षिणेन 
पाणिन्‌ सुतेन विराजमानो किरः प्राह~ ` „ 





< ४६ ) भोजमवन्ध्‌४- 


इस कारण धारानगरीमे कोह मी मूख नहीं हज । फ़िर करमादुसार 
-सांचसौ विद्वान्‌ वररचि, बाण, रेफ़ण, हरिदांकर, कर्िग, करैर, विनायक, . 
मदन, वि्याविनोद, कोकिक, तरेर इत्यादि. सव शाक्चेमे दक्ष ओर सवै- 
ञोने राजा मोजकी समाको ठ्छृत किया ! इस तिमे किसी समय 
विद्वान से वंदित राजसिंहयसनपर विराजमान कवियेके शिसोमाणि ओर 
कवितारसिक, त्र लणेकि प्रिय, बांधवोंसे युक्त श्रीणजाधिराज भोजसे आकर 
दारपारने प्रणाम करणे कहा ! हे देव ! कोई विद्वान्‌ दस्वाजेपर खडा ३ ! 
तने राजाने कहा उसे ओ तव दक्षिण भुजाको उपर उटये इए 
जाहणने आकर कहा- - 


भ, क 


रजितयुदषाऽस्त्‌ शकरकवे क पनेकायामेदं । 

पद्य कस्य तवव भाजन्रपते पापन्यता प्यते ॥ 
एतप्तिमर्वदशद्रद्शा दक्‌ चमरादोटना- 
इष्छदुनवहिककणङ्ञणत्कारः क्षणं वायताम्‌ ॥ ७५ ॥ 


इस शकम राजा ओर शंकर कविका प्ररनोत्तर है । 
रोकर-द राजन्‌ ! आपका अभ्युदय हो । 

रजा-हे शक्रखवे ! इस पत्रिकामे क्या है ८ 
राकर--्क है । 

राजा-विसक्ा 

रकर~राजन्‌ ¡ आपका ही हे | 

राजा-पटकरे सुनाओ । 

राकर~पठता ह~ 


शमरनयना इनदरो व्वयोवे रवर खानेसे धु मती सजारूपिणी 


वि 9 
स कणा क्णत्कब्दको कषणसातके च्पि रोके. ककर्णोषौ को वक वं रोक्षिये ॥ ७९ 


यथ्‌।यथा्ोजयशो विवर्धते पिता निोकोमिव फतुमुयतमू ॥ 
तथा तामं हदयं विदयते पिपाटकाटीषवटखशकय। ॥७६४६ 


भाषाटीकासदितः । (४७ १ 

जैसे २ आपका यश्च वटता है उससे तीन ठक श्वेत हए जति है 
-इसी कारण मेरे हृदयम रोका होती हे कि करौ मेरौ प्रिया काञे बाड 
सफेदन हो जय ॥ ७६॥ 

ततो राजा शंकरकवये द्वादशरक्चं ददो । सवं विद्र 
विच्छायवदना बभूवुः । प्रं कोऽपि रजपयाचववत्‌ । राजा च 
-कार्यवशटरू गृहं गतः । तते विरूपां सां द्य द्डिपगणत्तं 
-निर्निद । अष चरपतेरज्ञता किमस्य सेवया वेदशाचविचक्षणेष्य 
स्वाधयकविः लश्चमदाद्‌ । किमनेन वितनापि । असो चं 
केवलं य्म्यः कविः शंकरः । किमस्य प्रगलयपि्ेवं कोट- 
हरये जति कथिशथगात्‌ कनकमणिङ्धंडटशाटी दिव्याशुकू- 
पावरणो दपङ्कमार इष मृगमदपंककटंकितगात्रो नवङ्सुभसमाय- 
वितिरीष्यदनांगरगेण विखोषयत्‌ विहा इव मूर्तिमान्‌ कवि- 
तेष तदुमाभितः श्रंगररसस्य स्यंद इव सस्येदो महेदर श्व ॒मही- 
वयं रपो किदवास्‌। ते छ सा विदतसिपित्‌ भयकोदुकयोःपन- 
मासीत्‌ । स॒ च सर्वानमणिपत्य प्राह । न भोजनृप्‌ इति । ते तमू 
चुरिदानीमेव सोधंतरगतत इति । ततोऽपता रत्येकं तेयस्ताबूढं 
दख गर्जद्रकुटगतः मूरगदर इवारषीत । ततः स महापुरूषः शकर 
 करिमिदनेन कपिान्‌ तान्‌ इद्धा प्राह । भवननिः शंकखषये 
, इदशणक्षाणि भरद्नीति न मतवयप्‌ । .अगिभायस्तु रक्ता 
मेव उद्धः। यतः शंकरपू जे परार श कशकवित्तवकेनेव रक्षेण 
पूनितः। किं तचिष्ठान्‌ तन्ना विभाजितानेकादश रवाद्‌ 
शकरानरान्‌ मतन्मियक्षन्‌ ज्ञत्वा तेषां परयकमेकक रक्ष 


८५८ > . भोजप्रवन्धः- 


तस्मे शकरकवय एव शकरमूतय प्रदत्तामाति राज्ञ(भप्राय इत । 
सर्वेऽपं चमल्छतास्तन । ततः का राजदुहषः वाहृदत्छह्ष 


भ कि 


द्रघमाज्ञं निवदयामाम्त । राजा च स्वमानताध सक्षाद्रादतदत व 
महेशमिव महापुर मन्यमानः सामक्ययातर । स च स्वस्ता- 
त्याह राजानम्‌ । राजा च तमार्िग्य प्रणम्य निजकरकमलेन 
तत्करकमरमवटेग्य सोधातरं गत्वा भगवा उपविष्टः प्राह 
क्रि | भरवनाघ्रा कान्यक्षराणि सोपाम्यावटंबितानि कस्य वा 
देशस्य भवद्विरहः सुजनानां बाधत इति । ततः कविटिखपि 
राज्नो हसे कालिदास इति । राजा वाचपित्वा. पादयोः प्रतति 1 
ततस्तत्राप्ीनयोः कालिदासभोजराजयोरापीरध्या । राना सखे} 
सध्या वणयल्यवादत्‌- 

` तिसके पीके राजाने शङ्कर कविको बारह खख रये दिये, तो समामे 
स्थित समी विद्वानोका मुख मीन होगया । किन्तु राजाके मयस किसीनेः 
कु न कहा ।' ( थोडी देर परे ) राजा कीयैके वृ महरम गया | राजाके 
च्चे जानेपर समी विद्वान्‌ राजकी निन्दा करने रूगे । अहा  मूखे .राजाकी 
सेवाही, क्या हे £ वेददाल्नके ज्ञाता अपने आधित कवियों स्यि लखी 
सूपये दिये । इसकी परम प्रसनतासेही क्या दै ? यह तो केवर ग्रा्माण 
कावि राङ्कर है । इसमे क्या षिरेषता पाईं । रेस कुलाहर्के समयही सुवण 
खीर मणियोके कुडर्छको धारे, दिव्य वल्को "पिरे, ` रजक्रुमारकी समान 
अगपर . कस्तूरी -आदि " ुगंधित पदाथे लगाये, नये .फखोसे भूषित रिरवारे 
-वन्दनकी गंधसे . सबको दुभाते कामदेवकी समान ` मूत्तिमान्‌, कविताकीं 
` स्मान ₹रीरधारी?  शरगाररसके रथकी समान रथयुक्त, इनदरकी समान 
ूमण्ड्पर कों विद्वान्‌ आकर . समारभे. विरजिमान इए .। उस विद्वानूको 
देख दिद्वानोकी सभा भय्मात ओर आश्वर्ययुक्त होगंई ।- तब उसं किन 
वकर प्रणाम करके कहा-यएजा मोज कहौ. दै । उन कवियोने.कहा महाराज 


भापारीकासदितः । (४९) 


मष्ट मवे ह फिर यह निद्चन्‌ उन पतभ समस्त कवियोको एक २. 
नागस्पान देकर सथियाके बीन सिदकी समान प्रैवगपा जीर उत्त मदा- 
युपे शंकर फक च्थिि {२ द्यत र्पये देनेसे कुपित सभाम विराजमान 
सय पटितोते क, तुम यद्‌ मन समसे फि राजनि रोकपकोदी भारह सख 
प्ये दिये 1 तुमने रजाक्रा अभिप्राय नदा जाना | कारण शकर 
८ शिच > पष पूजन फरनरमं त। शंकर ॒कत्रिका एकी राख स्पयेसे पूजन 
फिपा ] न्तु सदौ निष्रायादे उन्ती नामे प्रकाररित दए अन्य ११ 
ग्या स्रो मूिमान्‌ प्रत्ये म्मारह एोकरोकर। जानकर उनको परक २ 
पक २ साप्य स्ये द्वनेके चिवि उस क्षकर फविको बारह यख स्पे दे 
षिमे, राजाश्ना यह अभिप्राय जानो । एने उत्ते सव कविर्योको आश्चर्यमय 
कर द्विया } पिर किद्ी राजयुन्पने उस विद्वान स्वरूपको राजसे जाकर 
यटा } तव गजा अयने अभिप्राधके प्रयश्च जाननेव्राटे उस महापुच्पको 
महदिदं समान माननाहूभा समामे आया तौ उस्र कथिने राजाको 
< स्वदि ' कडा | राजनि उश्चकतो प्रणाम कर निज फश्वमरते उफ कर 
कमक सयक्षं कर गानमवरनमे जाय ऊंचे पषरोखेवराटे स्यानमें वैटकर पंख 
पिह चिप्र} आके नामते कौन २ अक्षर सौभाग्याय इए ह? किक 
देका आपसे पिथोन हुआ ? अरात्‌. आप पित देशे पधारे ? वरहोफे सज~ 
मोकी तुम्हारे यद्ध आजनने च्राधा दती होगी | त्त्र उस कविते राजके 
ह्ायपर ° फाचिदात ' टिख दिया | राजा उन भक्षरयोकों वेचि उक्तके चरणेपर 
गिरपडा 1 फिर वहां वे हए काडिद्ास भीर राजा भोजको सायंकार दो 
मया, तय राजाने कहा द मित्र ! सन्य्याकस्तमयका वर्णेन करो । 

क, [क क कष, क 

व्पस्षनिने इव विवा क्षीयते पकनधी-। 
संणिन इव विदेशे दैन्यमायाति भंगः ॥ 
कुनरपपिरेव रोकं पीढयत्यंपकारो । 
धनमिव ङपणस्य व्यथतामेति चश्चुः ॥ ७७ ॥ 
हे यजन्‌! सन्व्यमे कमरछोकी शोभा क्षीण हो जाती हे जसे व्यसनी पुरु- 

यमी विया क्षण दो जाती हे, अमर दीनमावको प्राप्त होते दै से गुरी 

4 


,.( 4५० ) भोजप्रवन्धः~ 
पुरुष पिदेशमे दीनताक्ो प्रात हो जति ईँ» अंवकार सवकरो पीडा देताहैजैसे 
दुट राजा अपनी प्रनाको पीडा देता है जीर सन्ध्यासमये कृपण जनके 
चनकी समान नेत्र व्यथं हौ जति दै | ७७ ॥ 
9 _ ० क [प 
पुनश्च राजत स्तात ककः ॥ 
फिर कथि रजाकी स्तुति करति । 
श, च र 
उपचारः कतव्य यावदचयनसाहुशः पर्षा; ॥ 
५ $ [प 
उसपलसोहदानाष्ठपचारः कैतवं भवति ॥ ७८ ॥ 
जवतक मित्रता न हो तबतक उपचार ( सत्कार ) करना चाहिये, जव 
पत्रता हो जाय तव उपचार करना टगी हे ॥ ७८ ॥ 
दता तेन किपः पृथ्वी सकरुपि कनकरपएूणा ॥ 
द्यां सुकाव्यस्वनां कमं कवीनां च यो विजानाति ॥७९॥ 
जो राजा कवियौकी काष्यरचनाको रमसे जानते है उन्दने सुबणेसे मर 


[> व + 


धुर समस्त पृथ्वी कवियकी ददा ॥ ७९. ॥ 
सुकवेः शब्दसोभापयं सत्कविवति नापरः ॥ 
व्या न्‌ हि विजानाति परा हदषपदम्‌ ॥ ८० ॥ 


उत्तम कापिके दराब्दोके सौभाग्यको श्रेष्ट कथिके सिवाय दूसरा नरह 
जानता, जसे. वध्या खी गभैवर्ताकी अवस्थाको नहीं जनती हे ॥ ८० ॥ ` 


इति । ततः क्रमेण भोनकालिदसयोः प्रीतिरजायत । तत्‌ः 
काठिदापतं वेशपादंपटं ज्ञखा तस्मिन्पवं हषं च्छः । न कोऽपि तं 
स्पृशति । अथ्‌ कद्चिच्‌ सपामध्ये काखिदसिमाटोकय भोजेन्‌ 
मनसा चितन, कथमस्य प्रा्ञस्यापि स्मसपीडप्रमाद इति। सोऽपि 

तदीपायं ज्ञाला प्राह- 
ि एसा कहा, फिर क्रमादुसार मोज ओर काछिदापश्ची प्रीति होम । 
-५ , काठिदासको वेश्यागामी जानकर सत्र विद्वान्‌ देष कसे रगे ६ 


भाषादीक्षासरहितः । (५१) 


 यहांततक ) कि कोरी मनुष्य काछठ्िदासको नहीं रता है ¡ किसी समय 
`काटिदासको समामे देखकर राजा भोजने विचारा किं इस पंडितकोमी काम- 
देवका कैसा प्रमाद है । तव काठिदासने राजाके अभिप्रायको जानकर कहा । 
४, 4 
चेतोथशशवापरताप्रसगे का वा कथा मालुषठोकक्षाजाम्‌ ॥ 
यद्हुशीटस्य पुरां विजेतुस्तथाषिषं पोरषधर्ममासीत्‌॥८१॥ 
कामदेवकी चपरत(के विषयमे मनुष्यलोकवासी जनोँका तो बातही क्या 
ह । क्योकि त्रिपुराुरको जीतनेवाछे महादेवे ( अगे ) भी कामदेव 
इष्टि आता ई इसीसे वह अद्धं पुरूष हो गये हे, कामदेवकी बाधासेही 
-दिवका अर्द्धाग च्रीका स्प दै ॥ ८१ ॥ 
# [| [९ [० 
ू ततस्तु भोनराजः प्रत्यक्षरं ठक्च ददो । ततः काटि 
भन स्तात 
तव प्रसनन हकर राजा भोजने एक २ अक्षरके एक २ खल सपय 
दिये फिर काछ्िदिासने भोजकी स्तुति की- 
महाराज श्रीमगति यत्ता ते धवसति । 
ववृश्ासवार्‌ परमपुरप्‌ऽय मृूयत ॥ 
कपर केटापं करिरमनोमं इरिशकत्‌ । 
केछानाथं राहुः कभलतरनो हसमधघुना ॥ ८२ ॥ 
हे शहाराज ! हे श्रीमन्‌ ! आपके यसे जगत्‌ श्रेत होगया इससे यह 
प्रम पुरुष विष्णु क्षीरसागरको द्रेढ रदे है, महादेवजी कैटासको खोज रहे है, 
इन्द्र रावत हाथीको द्रुढते है, राह चन्द्रमाको खोजता है ओर जहाजी हंसको 
दंड रहे ह अथीत्‌ आपके यासे उनको सब्र वस्तु शेतदी दीखती ह ॥ ८२ ॥ 
नीरकषीरे गहीला निखिरखगततीयाति नाठीकनन्मा । 
तक्र पृत्वा ठ सर्वानटति जलनिर्ीषकरपागिडुवः ॥ 
सर्वाल्ंगीढान्‌ दहति पशुपतिः फाटनेत्ेण पश्वन्‌ । 
व्याप्ता खत्कीतिकांता त्रिजगति पते भोजराज कित ८३ 


(८५२ ) भोजग्रवन्धः- 


हे पृष्वीपति राजा मोज ! तुम्हार कौतिरूया कान्ता तीनों छोकमिं व्यातं 
होरही है ! ८ पूर्वोक्त यदासे सव वस्तु शेत हग है इसीसे ) त्रह्याजी जठ 
जर दुधको ठेकर समस्त पक्षियोके पास हंसकौ परीक्षके ध्थि जारहे दहै, 
विष्णुं भगवान्‌ छाछ जीर शष्ठेको ठेकर द्धक परीक्षाके च्ि समुदरोके पास 
जा रहे है, जीर अपने तासरे अथिघ्ठरूप नेत्रोसे देखते हए शिवजी समस्त 


ऊेचे-२ पततोको दग्ध करते इए कैखास पर्थ॑तकी परीक्षा करते है ॥८३॥, 
हिक्रनश्समण दुखषठ्‌ धाता कबोय्‌ यशः । 
केतं च रिरीक््य ततर लघुतां नि्षिप्वान्‌ पूरवये ॥ 
उक्षाणं तदुषयुमासहचरं तममूधिं गंगाजल । 
तत्य फणिपुगवं तद्परि स्फारं सुधादीधितम्‌ ॥ ८४ ॥ 
हे विद्वन्‌ { हे श्रपतिमणिसुकुट भोजराज ! आपके यको तोलनेके चि 
नसाजीने बौरासवो देखा सो बह मी हका हुआ, उसे प्रा करनेके च्म उस 
पवेतपर नांदियाको स्थापित किया, तिसपर प्तक साथ ॒महादेवजीको 


भला, महादेबजीके मस्तकपर गंगाजीको, तिसके सन्पुख रशोपनागको ओर 
तिस उपर अनेक अगरृतकी किरणोयुक्त चन्द्रमाको स्थापित किया ॥ ८४ ॥ 
स्वगद्पार इन ब्रनपि पुरन मूतठे कामथेनो- 
पत्सर्पनतुकामस्तृणचयपधुना सुय दुष न तस्याः ॥ 
त्वा भकोनरानपचरवितरण तरड्शुष्कस्तवा स्रा | 
न्यथा 1ह स्यात प्रयापस्तदपि तद्रिकिष्वर्वितं सतस॒न्पाम्‌ ॥<८५॥ 
जार भा सवाद्‌ हे, (परश्च ) हे गोपारु ! त्‌ खसे कँ जाता ६ ट 
(उत्तर ) हे सुरसने ! कामधेदुके बडेकेरिये घास सेनक पृध्यीपर जाता 
( प्रशन ) हे सुग्ध { क्या उस ( कामधु ) कै दूध नहीं है । 
(उत्तर ) राजा भोजके विशार दानक सुनकर सजकते उसके स्तने 
दुध सुख गया.है । ¦ 


। कमिनेनरन्छतः पनस मोजराजपराकरान्तौः शतुभिवेनवासिभिभंक्षितम्‌ । 


भाषाटीकासहितः। (५३ ) 

( प्रशच ) तेरा घात खनेका यत्न द्रथा होगा कारण पएथिवीपरकी सव 

घात राजा भोजके वैरेयोने चाव डाखी है ॥ ८९ ॥ 
त॒ राजा प्रयक्षर टश्च दशं । ततः कात्‌ श्विस्मृति- 

सारं ग; केदिद्राजातं कवितलगिं ज्ञाता कविन्नगरादहि 
दुवनेशवरोपसदिव कवितं करिष्याम दट्युपविषः तेष्धमेत पठिते- 
मन्येन एकश्वरणोऽपाडि । भोजनं देहि रजरेति । अन्येनपाि ! 
पुतपूपरमन्वितमिति । उत्तरा न सुरति ततो देवतापवनं 
काटिदाप्तः भगामाथमम्‌ात्‌ । त वीक्ष्य द्विना उचुः । अस्माकं 
समय्रेदविदमपि भोजः किमपि नार्पयति । भवाह्णां हि यथे 
दत्ते । ततोऽस्माभिः कवित्वरिधानधियानागतम्‌ । रं विचय 

¢ ष [क ५ [>> @ ® क 
पूवधेमपधायि उत्तरा्धरुता देहि ततोऽस्माथं किमपि भयच्छ- 
तीत्युश्ला ततुरस्तवर्षमभाणि 1 स च तच्छरता, मिं च 
शुरचद्रद्रिक धव दधीयाहं ! पे च रनवनं गत्वा दवारि 
-कानूच्‌ः-पयं कवनं छला समागता राजानं दशयतेति । ते च 
कौतुकाद्‌ हसतो गत्वा राजान प्रणम्य परहु- 

फिर प्रसनन होकर राजने एक २ अक्षरे एक २ उख स्पपे दिये । 
तस्त परदध श्रत स्मरतिः ज्ञता काचगण राजक कविताप्रिय जानकर 
-नगरसे चाहर भुवनेश्वरी दे्बीकी प्रसनतासे कविता करेगे यह कहकर वैटगये, 
उन्मेस एक अपनेको विद्वान्‌ माननेवाखेने एक पद पढा । ^“ भोजनं देहि 
रजेन्द्र "” हे रजेन्द्र ! मोजन दो, दृक्षसे पडा “ पृतसूपसमन्ितम्‌ ' घी 
सीर दार्से युक्त दो. इस भोतिसे दो चरण परे इए ओर उत्तराद्र नौ बन 


सका | तव काडिदासजी प्रणाम करनेक्षे छिये देवकि मंदिरमे गये, उनको देख. 
क्र ब्रा्मणोने कहा । देसे भरी हमखोग समस्त वेदेके ज्ञाताको राजा भोज .कुछः 


-न् देता ओर तम्दासी समान मुष्योको इच्छानुसार देता है, इस कारण 


(५४) सोजप्रबन्ध्‌ः- 


कचिता करनेकी इच्छसे हम यदह आये है चिरकाकतक विचार करके 
शोकका पूवं तो बना ख्या जव उत्तारं तुम बना दो तो राजा हमे कुक 
देगा 1 यह कहकर उन्होने वही जधा श्चोक काठिदासके आगे पठा काडि- 
दास उस आधे शछछोकको घुनकर “माहिषं च सन्दचाकाधवरट दधि) 29, 
रारत्काकके चनद्रमाकी समान श्रेत भ॑सका दही भी ( माजन ) दो? यहं 
कहा । किर उन कवि्ोने आकर उ्यौढीपर वैठे हए द्वााखसे कहा कि; 
हम कयित्ता करफे राये है तुम राजाको दिखा दो । बे द्वाराङ आनंदके साथ 
हसते हृए राजाके समीप जाकर प्रणाम करके बोर 

राजमाषनिरैतेः कटिविन्यस्तपाणयः ॥ 

द्वारि किति र्द च्छांदसाः शोकशत्रवः ॥ ८६ ॥ 

हे राजद | उडदोकी समान काठ जर दुरे दातोसे युक्त, कमरपर हाथ 
धेर वेदपादी शोकके शाञ्ु पण्डित आये है ॥ ८६ ॥ 

[4 क # [9 ^> = [र्‌ विः (4 

इति राज्ञा प्रषेशितास्ते खरानससदो मिशेताः सहव कवित्वं 
पठंति स्म । रान्‌। तच्छा उत्तरां कालिदासेन कतमिति ज्ञाता 
विपरानाह । येन पूर्वां कारितं तन्पुखाक्रविलं कदाचिदपि न 
करणीयम्‌ । उत्तराधस्य किचिदीयते न प्रवोधैस्थेयुक्तवा भरत्य- 

9, च, ॐ $ क न 

्षरलक्ष ददो । तेष काठिदाे वीक्ष्य राजा भराई । -कवे उत्तरार्ध 
सया पठितिमिति । कविराह- 

फिर राजाकै बुखानेसे राजसमाको देख उन सबोने मिक्कर एकबार 
कविताको पदा । राजाने उस शछरोकको सुन उत्तरा काञ्दिासका बनायां 
इमा जान ब्रा्मणोंसे कहा । जिसने परवद्धं बनाया है. उसके युखसे कविता 
मत कराना । उत्तरका कुठ. देते दै, वाका दु नरी मिरेगा । ह 


. ककर प्रत्येक अक्षरे खख २ एपये देदिये । उने कारिदि।सको देखकर 
राजावे क्य । हे कविराज } उत्तराद्धं तुमने बनाया है । कविने कहा -- 


भापौरीकासरितः । (५९५ फ 


अध्र्य मधुरिमाणं छचकानिन्ं दशो तशं च ॥ 

कपितायां परिपाकं ध्यङ्धवरमिको विजानाति ॥ ८७ ॥ 

च्ियोके अधरामृतकी मधुरता, कु्चोकी कठिनता, नेत्रोकी तीक्ष्णता, 
कविताका भाव इन समस्त वर्तुजके स्यादको अनुभवी पुरुषही जानता दै८.] 

राजा च सुकवे ! सयं वदि 

राजाने कहा ह कविषिरोमाभि | सत्य वेचन रै । 

अपूर्वो पाति भार्याः कान्यामृतफटे रसः ॥ 

च्वेणे सर्वसामान्ये स्वादुवित्केवलं कविः ॥ ८८ ॥ 

वाणीके कान्यरूपी अश्रतफस्मे अपूर्व रस॒ जानपडता है । चावनेनै 
सवको समान है परन्तु स्वादको केवर कविही जानता ६ ॥ ८८॥ 

# कष्य कै क्ष [ ४५ ॐ [अ 
साच सचत जम समस्त चयः पदाथा हदय बरवः ॥ 
दक्षोरविकारा मतयः कवीनां मुण्धांगनापागतरगिति।मि ॥८९॥ 

समस्त जगतूकी वार २ चिन्ता करनेसे तीन पदार्थं हृदयमें प्रविष्ट होः 
गये हं ! १ दैखका> धिकार, २ कवियोंकी बुद्धि, ओर ३ मुग्धा. युवति- 
योक कटाक्षेकी उही ॥ ८९ ॥ 

ततः कदीचिद्राराखकः भणम्य भोजं भाह । राजन्‌ ! दरषि- 

देशाव कोऽपि द््ीथरनाम्‌ कद्दरिसष्यासत इति। राजा 
प्वेशयेत्याह्‌ । भविष्टमिव सूयोमिव विभाजमानं चिरादप्यविदित- 
वृत्ता परक्षय राना विचारयामाप्त पाह च~ 

फिर किसी दिन द्वारपाख्ने कर प्रणाम करके राजा भोजसे कहा है 
राजन्‌ ! द्रविददेखचसे उ्ष्मधिर नामक कोई कवि माकर दरे, खडा है !. 
-राजाने कहा उसको खाञों । उसके समाम आतेसमय मानो सू्ेदेवही, 
समामे आगये देसे प्रतापीका चिरकाकतक दृत्तात सभाम नहीं जान पडा. 
उसे देखकर राजाने विचारकर कहा- 

- > गुड, शक्कर, चीनी भादि । 


(५६ ) भोजप्रबन्ध्‌ः- 


आकारमातविन्ानरपादिमनोरथाः॥ . 

धन्यास्ते ये न्‌ शरण्वान्ति दनाः काप्याथनां गिरः ॥ ९० ॥ 

आकरमात्रके क्ञानसे जो समस्त मनोरर्थोको पर्णं कर देते है, खीर 
याचकोकौ दीन वाणीको नहीं युनते अथात्‌ खन्द धनी कर देते वै 
धन्य है | ९० ॥ 

स॒ चग तत्र राजानं स्वस्तीत्युक्ता तदा्ञयोपपिष्टः शाह्‌ । 
देव इथं ते पठितिमंडिा सा वं च सक्षाहिष्णरति । ततः क 
नाम परंडित्यं मम तथापि किंदिद्स्मि- 

इसके पीछे उस कविने राजाकौ ८ खस्ति ) कहकर यद्ीर्वाद दिया 
जीर कहा, हे देव { पक्षी सभा पण्डितोम शोभित & उसमे अप 
साक्षात्‌ विष्णुकी समान धिराजमान हो, इस कारण मेरा क्या पाण्डित्य शै 
तोभी कुछ कहता ह~ 

पोजमतापं तु विधाय धाना शेवेर्निर्सैः प्रमाणिः किम्‌ ॥ 

हरः करेऽभूत्पपिररे च भादः पयोधेरुदरे ङशा्ुः ॥ ९१ ॥ 

विधाताने जन राजा भोजके प्रतापको रचा ता निरन्तर अस्त इए पर- 
माणुओंते क्या हो सक्ता रै । यही विचारकार इन््रफे हाथमे वजन दिया 
माकर सूये निमौण किया जीर सागरम बाडवज्वाला वनाई ॥ ९१ ॥ 

इति । ततस्तेन परिषचमत्छता। राना च तर्य रयक्षरक्षं 
ददा । पनः कविशह्‌ । दव मया सङकरमननि निवाप्ताशय्‌ 
समागतप्रू॥ 

इसके पीछे उस कविने समस्त सभामे स्थित पुरपोको चमत कर 
ष्दया । राजानमी उसके एक २ अक्षरे ाख २ प्ये दिये तब कवि 
कहा दे देव } भै सकुटुम्ब आपके य रहनेकी जमिलमासे जाया ड१ ` 

कषमा दता णगराही सामी पुण्येन छमथते ॥ 

डद्र शुचिः कविविद्रन्धुदुकंषः ॥ ९२ ॥ इति। 


भाषारीकासहितः । (५७) 
्षमायुत दाता जीर युणमाही स्वामी पुष्यके प्रतापे प्रात हो जाता 
पर्त अदुक्र, पवित्र, चदवर भेर विद्वान्‌ कवि मिरुना दुरम है ॥९२॥ 
, वत राना खुल्यामाल प्ाहास्मे गृहं दीयतामिति। ततो 
निलिटमपि नगरं विराक्य कमपि मसंममत्यो नाप्त: पं 
रिरिस्य विदुषे गृहं दीयते । तन सर्वत्र भमन्‌ कश्यचित्कुर्विदस्थ 
गृह वीय र्वि भाई । इविद | गुहानिःतर तवं गृहं विदनिष्य- 
तीति । ततः डवियो रजकवनमासाच राजानं भणम्य्‌ भह । द| 
भवदमोयो मां मखं रखा गृहानि्ारयतीति । सं ठु ए 
मूर्खः पंडितो वेति- । ` 
फिर राजाने प्रधानमन्रीसे कहा पंडितजीषे स्थि घर दो | तव मत्रानि 
समी नगरको देखा पर किसीको भी मूख नरह पाया जिसे निकाख्कंर्‌ 
पंडितको धर दियाजाय । नगरमे घूमतेइए मंत्रीने किसी वचन बुननेवारे 
( जुखदे ) को देखकर कहा । हे छुषिन्द ८ जुरे ) ! त्‌. घरसे निकर्जा 
तेण घर पंडितजीके रहनेको दिया जायगा । तव वह॒ जखहा राजसा 
आकर राजाको प्रणाम क्के बोखा | हे देव | आपका मत्री सुने मूं कह- 
कर घरसे निकरे देता है, सो मपर देखिये, क्रि मँ मू हं गा विद्वान्‌ ह ॥ 
काव्यं करोमि नहि चास्तं करोमि । 
युरनाकरोमि यदि चातर करोमि ॥ 
भूपालमोटिमणिरितादपीट । 
हे साहसांक कवयामि वयामि यामि ॥ ९३॥ 
कान्य करता हर तो बह सुन्दर नक्ष होता ओर जो सुन्दर करता ईहत्तो 
दसम कर सक्ता द हे सम्राट्‌ { हे साहसांक ! हे राजन्‌ ! मे केविकी समानं 
-आचरण करता ह पर तोमी अपने जुखहेके काम करनेको जता हरं ॥ ९३7 
ततो राजा चंकारवदिन वदतं ङर्विदं रह । ठल्ताते _. 


| 
९८ > भौजपमन्ध्‌ः- 


रीर 


द्वकतिः। कवितामाधुयं च शोषनम्‌ ! प्रद कवितं विचा 
वक्तव्यमिति ॥ 
फिर राजाने “ तू › तेरे › एकवचनसे कुबिन्द ( जुखहे ) से कहा † 
त्तरे परोक्षो पंक्ति ठ्डित & ओर कविता मी मधुर एवं सुन्दर है परन्व॒ 
कविताको विचारकर कहना चाये । 
ततः पितः कुदः भाह । देव अगोततरं भाति कितु न्‌ 
वदामि राजधमैः पृथक्‌ विददमोदिति । राजा प्राह अस्ति बेह 
स्रं वीहि । देव ! काणिदाप्ताहयेऽन्यं कविं न मन्ये कोऽसि ते. 
सभायां काटिदासाहते कवितातत्तविदिदाच्‌ { ॥ 
तो कऋरोधित हो जुरादेने कहा । हे देव ! इसका उत्तर दष्ट आता है 
किन्तु भँ नह कहता, कारण बिद्रानके धम्मैसे राजधम्म प्रथक्‌ है । राजाने 
कहा जो उत्तर है तो कहो । ८ जुखहेने कदा ) हे देव ! कारिदासके 
सिवाय अन्यको मँ कवि नरौ मानता ह, तेरी समामे काठिदासके अतिरक्त. 
काविताके तत्चको जाननेवाराही कौन है ए 
यतपारस्यतवेभवं य॒रुकपापीयुषपाकोच्धवं 1 
तद ®> ष्य [+० 
थ कव॒व्‌ नव हठतः ¶ढम्रतिहज्खिषापर ॥ 
कापरारे दिवसं वसन्नपि पयःपूरं परं पकिरं । 
४ ॐ ॐ [4 सरि 
कुर्बाणः कमलाकरस्थ लते किं सोरभं सेरिभः ॥ ९४ ॥ 
जो गुद्देवको कृपारूमी अगृतपाकसे सरस्वती ८ वाणी › का रेश्रययं 
अकट होता है वह करसे मिक्ता है । हठे पाठप्रतिष्ठकि सेषन कसनेवाखेको 
नस सिकता । ( जसे ) जखुप्रणै सरोवरमे समस्त दिन पडे रहनेसे भसा 
जञ्को दका करनेके सिवाय सरोवरकी सुगन्धिको नहीं ठे सक्ता हे ॥९४ |. 
अयं मे बाग्यौफो पिशदपदेदपधपमधुरः। 
समुरद्रपो वेष्यःपरहदि रताथैः कविहृदि ॥ 


भापारीक।सदितः । (५९९ > 


. कटाक्षो वामाक्ष्या ददलितोतरतगलितः। 
` कुमारे निःसारः स तु किमपि युनः सुखयति ॥ ९५ ॥ 
यह मेर धाणीके दात र्चा हज प्रेय है, सो उत्तम पदोसे युक्त ओर 
कपिर्योको प्रिय ६ । दस्मे छन्दये सुरते दै । यह कवि्योके हदयको कृतार्थं 
कृरता £ ओर आरोक ददयमे वोद घ्रीकी समान निष्फल £ | जपे 
चिर्योका कटाक्ष युयकोको सुखद आर ल्कोको निष्र ६ ॥ ९९ ॥ 
| इति । विदञ्जनवंदिता सीता भाह्‌ ॥ 
फिर विद्रानोसे वेदित इई सीतनि कदा- 
[> क म ष क = 8 =, य, 
विपुरृहदयाभियोप्ये छियति क्ये जडो न मोस्यं स्वे ॥ 
निंदति कंुकमेव प्रायः शुष्कस्तनी नारी ॥ ९६ ॥ 
मू उक्तम काब्यकी ८ जो विद्रानोके समह्नने योग्य है उसकी ) निन्दा 
करते बह अपनी मूर्ैताकी निन्दा नरी करते हं, जसे क्षीण ऊुर्चोवाटी ल्ली 
कंचुकी ( चोली › सीनिवाटे दरजीकौ निन्दा करती है ॥ ९६ ॥ 
ततः कुविदः पराह- 
फिर उस्त जुखदे कथिने कदा- 
; [१ ५ क [अ ष 
वाल्ये सुतानां सुरसऽगनानां स्तुतो कविं समरे भटानाम्‌ ॥ 
खंकारयक्ता हि गिरः प्रशस्ताः कसते प्रो मोहर स्मर लम्‌ ९७ 
. वाल्यावघ्याम पुत्रको, भेशुनके समय लियोको, स्तुति करनेमे कविर्योको 
जीर रणमे योद्धा्भोको त्वंकार ( तू ) कब्दसे वाणीं रोमा पाती है! दै 
प्रभो ! तुम्दें इतना प्रवर मोद क्यो हमा जो तुमने “ तू. * रब्दसे सुस. 


कक म 


संबोधन दिया उसको स्मरण कीजिये | ९७ ॥ 

ततो राजा सधु भो ऊुविवेसयुकला तस्याक्षरट्षं ददी । मा 
जषीरेति पुनः किदं भाह । एवं कमेणािकते कियत्यपि कटेः 
बाणः पृडितवरःपरं रज्ञ मान्धमानोऽपिभाक्तनकर्मतो दारिदियाचु- 


(६० ) मोजपवन्य्‌ः- 


अवति । एषंस्थिते सतिः कवाविदानविेककी पच्छनवेशः सफर 
भ (9) [+ ^ 
चरन्‌ बाणगृहमेत्याणित्‌। तद। निशीथे बाणो दारिदयाद्ववाङ्ल- 
-तया कतां वक्ते देवि | राजा कियद मम्‌ भनोरथमप्ूरयतर । 
[9 ® ४७ मर्ख॑ ( 
अव्यारि पुनः परार्थितो ददात्येव । परत निरतसाथनरति मृखंस्यपि 
"क [क्‌ [५ न, श 
निहा जढीभवतील्युक्ला सुहतीधं मोनेन स्थितः । पुन पृठति- 
इसके पीछे राजान कुषविदसे कहा, तुमने बहुत ठीक कहा फिर एक २ 
अक्षरे खख २ रूपये दिये । जीर जुखाैसे कहा अव तुम मत डरो । इस 
भोति कमातुसार कुछ कार वातनेपर राजाका माननीय वाणनामक पीडित 
पर्वं कमेक वश दरिद्री होगया । इसी दशाम एकदिन राजा अकेटेही 
रात्रिभ अपने वेषको वदले इए नगसमै धूमता इजा वाण पंडितके घरक 
समीप स्थित हुआ ! उसीं रात्रिम बाण पण्डितने दरिद्रतसे व्याकु ह 
अपनी श्रीते कहा, हे देवि ! राजनि अनेक्वार मेरे मनोरथोको पररा किया 
है जीर फिर भी प्रार्थना करनेसे कुछ देताही है ।: छेकिन्‌ वृथा याचनासे 
मूरवैकी मी जिंहा जड होजाती है अथौत्‌ प्रतिदिन नहीं मोगाजाता, यह 
` कह एकं घडीखो चुप रहा, फिर पठने ठ्गा । 
ह्‌ हर एरर परुषं क ॒हलाहलकलणयाचनावचसोः ॥ 
९कव्‌ तव रसज्ञा वदुषयरसतासम्यज्ञा .॥ ९८ ॥ 
है हरहर ! हें पुरहर ८ त्रिपुराुरके पुरोके नाराक रिव ) ! हखाहर 
विष जर निरथेक याचना इन दोन कीन कठोर है ? इन दोनेमे न्यूना- 
धिक जानेवारी जिह्ा तो एकी 8 । सिवजीने पिषणपान कियारै जीर 
याचना भी की है यह रिवजीकषे किये कहाहै अथीत्‌ दरया की याचना 
-चिषसे भी घुर है ॥ ९८ ॥ - 
देवि] 


दार्वा मरतियौच्ला न इद्रिणान्यति ॥ 
अपर कपानवान्‌ शयुस्तथापि प्रमेशवरः॥ ९९ ॥ 


भापारीकासाहितः। (8१) 


हे देष ! दारिद्यकी परम मृति याचना है, कुछ धनका अभावी 
दारकौ विशार मूरति नहीं है, कारण रिष्रजी कीर्पानधारी निर्रनी हेने- 
परमी परेश्वर है ॥ ९९ ॥ 
सेवा सुखानां व्यसते धनानां । 
याच्ना षणां डुरपः भजानाम्‌ ॥ 
प्णषशीटस्य सुतः कानां । 
मूलादवातः कमनः कुठारः ॥ १०० ॥ 
सत्रा समस्त सुर्खोकी जडको काटनेवाी कटिन कुर्दाडी है, धनकीं 
जटको काटनेवाठे किन छुर्दाडेस्वरूप ज्यसन दै, गीरताकौ जडको काट 
नेवारी कठिन कुर्दाडीरूपी याचना है, प्रजाकी जडो काटनेवाख कठिन 
कुटारस्रस्य दुष्ट सजा दै ओर कुर्क जउको काटनेवाखा कठिन कुल 
रस्वख्य दुःीख मनुष्यका पुत्र हे ।॥ १०० 8 
तत्त्यपि दार्ये राज्ञो वक्तुं मया स्वयमशक्यम्‌ ॥ 
अतएव दरिद्र होनेपर राजासे भें स्वयं कनेक लि असमथं हर | 
गृच्छन्‌ क्षणमपि जयो वह्वातामेति सवरोकस्प ॥ 
नित्यभसारितकरः करोति सूरयोऽपि संतापम्‌ ॥ १०१ ॥ 
क्षणक्राट वर्णा करनेवाखा मेव सचको प्यारा छ्गता है जीर प्रतिदिन 
पनी किरणोको फैखाता इञा सथं सवको सन्ताप देता है ॥ १०१ ॥ 
[न ५ च = ५ "8 ¢ # न (५ 
[कच्‌ द्व; वेथदवावसुर्‌ भ्राप्ताः दुषताः प्वायाताव 
तेदेव मे हृदयं दनोति॥ | 
परन्तु हे देवि { वैश्वदेव कर्मैके समय आयेहृए मनुष्य भूखे जते ईह, ˆ 
यही मेरे हृदयको सन्ताप हत्त है । । 
दाखियानटसंतपः शातः सन्तोप्वारिणा ॥ 
. . यचिकाक्षाविषातातदंहः केनेपशम्यते ॥ १०२॥ 


६२) भोजप्रबन्ध्‌ः- 


दारितरूपी भनरुका सन्ताप सन्तोषरपी जल्पे सान्त दोजाता ई 
भवितु याचकके निराश होनेकौ अन्तञ्वौढा किससे शान्त दोसक्ती है ॥ १०२ 


6 कन 


राजा चेत्र श्वल नेदानीं किमपि दातं योऽथः, भात्य 


चाण पणमनोरथं करिष्यामीति निष्कतिः ॥ 
राजन इस सव इततान्तको सुना ओर विचारा ॒करि इस समय कुछ 
नहीं देना चाहिये, प्रात्तःकारही बाणण्डित्तकी अभिद्यपा पूरणी करगा यद 
-कहकर चर दिया । 
छृतो येनं च वागमी च व्यनी तत्न वेः पम्‌ ॥ 
® क च 


येरात्पस्इशो नार्थ किं तैः काव्यरबरधनेः । १०३ ॥ 

जिस काम्यने मूखेको विदान्‌ नहीं बनाया, जिस ॒यर्खनि व्यसनीक 
इच्छित स्थानपर न पर्ैचाया ओर जिस धनीने याचको अपनी समानं 

धनी न बनाया, उस काव्य, बी ओर धनीको वृथा जानो | १०६ 
एवं पुरे परिभममाणे गजनि पर्ल॑नि चोर्यं गच्छति । तपो- 
रेकः भाह शङुतकः । ससे स्फाराधकारविततेऽपि गत्यंजनव्‌- 
शत्सवं परमाणमायमपि वसु सवन पश्यामि । प्रतु संगारृहानी- 
तकेनकजातमपि न्‌ मे सुखायेति । द्विपो मराहनामा चौर 
आह्‌ ! आहतं सपार हात्‌ कनङजातमपि न हितमिति कस्मा- 
दतोरुच्यते इति । ततः शङुंतकः माह-सर्वतो तगररक्षाः परि 
भिमाति स्वाऽपे जागरिष्यस्येषा पेरीपटहूदीनां नितिन । वसमाद- 
` हत विभज्य स्वस्वक्षागगते धतमादाय शीघमेव गंत्यतिति १ 
मरार: भह । ससे] तमनेन फोष्दिपपरिमितमणिकनकनातित कविः 
करपयतीति। शतपदं कस्मैविद्धिनन्मे दूस्थापि ! 
वथा वदवदगपारया अन्यं न भयेय्‌ति। मराठः-सते! चार्‌ ॥ 


भापार्रकासहितः । (६३ ) 


दस भोति राजा धूमरद्यथा उसी समय मार्गमे दो चोर जारहेये, उन- 
मेस “ शाङ्कन्तक › नामक चोरे कय, हे सखे ! यपि धोर अंधकार 
फैटरह। है तोम मै सिद्धाञ्जनफे व जगते सत कृ देखता हूः परमाणु 
मात्र द्रव्यको मी सव स्यानेैमं देखता हँ परन्तु खजने+ खायाहमा सुव 
णोदि समस्त धन मेरे सुखे स्मि नरह रै । दूसरे “ मरार ‡ नामक 
न्ोरे कहा जो खजानेते खयि सुवर्गगात्र भी हितकारी नहीं यह इच्छ 
र्यो ह्येतौ ६ ? तथ ' शक्कन्तक ' मे कदा समी खाने, नगरके रखवाढे 
सिपाही विचररदे ह ओर भेरी, दोर आदि शब्दौसे सव जाग उरठेगे, 
अतएव चुरयेहर धनको योटकर अपने २ रिस्सेके धनको लेकर रीर 
न्रटना चाद्ये ! “ मग › ने कहा~-हे सते ! उगभग दो करोड सुवणे 
माणि आद्रि धनको क्या करेगे । इष्ुन्तने कहा धनको किसी ब्राह्मणक 
"दिये देदरंगा जिते चेद वेदाद्चका ज्ञाता ब्राह्मण फिर किसी दूसरेखं न मनि ! 
“ मराछ ° ने कदा है से } बहुत अच्छा बिचार है । 
ददते युध्यमानस्य पठतः युलक!ऽथ चेत्‌ ॥ 
आलमनश्व परेषां च तदनं पोषं स्मृतम्‌ ॥ १०४ ॥ 
दान करते, युद्ध करते ओर पाठ करते हए मनुष्यके यदि रोमटे खडे 
दर्जौच तो दाम एवं पुरपायं कते ह ॥ १०४ ॥ 
मरलः--अनेन दानेन तव कथं पुण्यफटं भविष्यतीति । 
अस्माकं ितृपतामहोऽयं धरैः यवोर््येण वित्तमानीयते । मराटः- 
शिरच्छेद्गीरस्याजितं शयं निसिटमपि कथं दीयते । शङ्न्तः- 
मरार वोका-दस दानके द्याया तुमे पुण्यका फर कैसे मिलेगा १ (रक 
न्तवने कहा ) हमारे चाप दार्दोका यही धरम है कि--चोरी कर्के धन वैदा 
कसना चाहिये ! मराठने परा, शिर कटाना स्वीकार करके पैदा किया इमा 
धन कैसे दिया जायगा 2 श्ुन्तक्ने कदा- 
मूखौ नहि दवायर्थं नरो दर्द्ियशंकया ॥ 


प्रज्ञस्तु वितस्य्थ नरो दरिदवशंकयां ॥ ३०५ ॥ 


(६४) मोजमवन्धः- 
मूख दरिदकी शङ्कासे धनको नदीं देता है ओर बुद्धिमान्‌ पुरम दरि 
अकीही शाङ्कासे घन देता है, अर्थात्-दारिघ्रके नेते धन नष्ट होजायगी 
इससे दान करनाही ्रष्ठ है ॥ १०९ ॥ 
किंदिद्वेदमयं पातं किंचितानं तपोमयम्‌ ॥ 
पा्रणायु्तमं पातर शूद्रां यस्य नोद्रे ॥ १०६ ॥ 
वेदपाठी कुछ पात्र है ओर तप करनेवाला मी कुछ पात्र है परन्तु गट्के 
अन्नसे उदरो वचनिवाकाही सव पत्रमे शरेष्ठ सत्पत्र है ॥ १०६ ॥ 
शृङधुतः-अनेन विंतेन किं करिष्यति भवान्‌ । मरालः-सखे ! 
काशीवासी कोऽपि विपरबटुखागातत्‌ तेनास्मसितुः ६ काशीवा 
सेफरं व्यावर्णितेमू । ततोऽस्मत्तातः बाल्धादारष चोर्यं कुर्वाणो 
“ “ [4 भ [१ [र 
देवेवशाव्‌ स्वपापानिवृत्तो व्रग्यात्पङ्कटुम्बः काशीमिष्यति 1 
तदर्थमिदं दरविणनातम्‌ । शङुतः-महदाग्यं त पितुः । तथाहि- 
कुन्तने केहा हे मित्र | इस धनसे तुम क्या करोगे £ मरार बोल 
काशीवासी कोई मालमणङ्कमार यदहं आया, उसने मेरे पितासे कारीवास 
करका फठ वणेन किया, उससे मेरा पित्ता बार्कपनसे चोरी करते रहनेपरं 
, भी दैवयोगन्ते जपने पापद्वारा निदृत्त हो वैराग्य उत्पन्न दोजानेके कारण सङ्क- 
म्ब काञीको जायगा उसौके छिये यदह सकर धन है } शकुन्ते कहा, ` 
तेरा पिता बड़ा भाग्यशाली है, देखो- | 
वाराणरीएुरीवाप्तवांसनावासितासना ॥ 
किं शुना समतां याति वराकः पाकशासनः ॥ १०७॥ 
कारीपरीमे वास करकी इच्छा रखनेवाटे कुत्तेकी समान क्या गरीव इन्द्र 
सोसक्ता रै १ अथात्‌ इन्दी उस कुत्तेकी बरावरी नहीं करसक्ता है ॥ १०५७] 
ऊषरं कमं सयानो क्षें वाराणसी एरी ॥ 
य॒त्र संखयते मोक्षः समे चंडाठ॑तैः ॥ १०८ ॥ 


माषाटीकासहितः (६९ ) 


कारीपुरी-कमेखूमी बीजोका ऊषरखेत है, अथात्‌ कारीजीमे सव कर्म नष्ट 
ईजाते क्योकि जहा चाण्डा ओर विद्वान्‌ समानख्पसे मोक्ष पाता ६१०८ 


मरण सग य॒त्र विभूतिश्च विभूषणम्‌ ॥ 
के पिनि यत्र करायस्ता कथा केन मायत॥ ३०९॥ 


क, 8 


जिस काशीजीममे मरना मगरुसरल्य है, विभूति अुङकारखख्प है जीर की- 
पीन रेशमी वल्लकी समान है उस कासीपुरीकी कीन वरावसी करसक्ता है] १०९॥ 


एवसु्योः सवाद शता राना तुतोष । अर्चितयच मनसि 
कर्मेणां यतिः स्येव पिचिन्ा । उभयोरपि पधा मतिरिति । 
ततो राजा विगर भवनांतरे पितृषुत्ावपश्यत्‌ । तत पता 
युर प्राह । इदानी प्रिज्ञातशास्चतवोऽपि सूपतिः कपण्येन किमपि 
न्‌ प्रयच्छत । कतु- 

रेते उन दोनों ८ चोरों ) के संवादको चुन राजा प्रस॒न् इजा ओर , 
मनम करमोक्ती यत्तिको विचारने खगा । समी विचित्रता हे भक्िन्तु दोनोकी 
खुद्धि पवित्र है, इसके उपरान्त राजा दूसरे स्थानपर पंचा वपर पिता 
सुत्रको देखा, पिता पुत्रसे बोला मव शाल्रके तको जाननेवाडा मी राजा - 
छपणताते कुक नही देता है, किन्त॒- 

अधं कवयात्र कववात पदाति च पठत स्तवान्डख स्तव ॥ 


क ®> कि 


पएष्वायामीत्युकते मोनी रं निमीटयति ॥ ११० ॥ 
अर्था अर कव पुर्ष्क्र कावेता्पर कारवता करता ठ) प्रटतहुएपरर 
ध्द्रताडई ओर स्तुत करनपर्‌ स्तुति करता € 1पएर ४) जातह्‌ एसा कदह्गपर 
रीन होकर नेत्र मीचठेता ह ॥ ११० ॥ 
` राना एतच्छरत्वा तत्समीपं पाप्य मेवं वदेति स्वगात्रात्सवा- 
रणान्युत्ता्थं ददो तस्मे । ततो गृहमाप्ाय कालात सपामुपवः 


काटिदार् भाह-सते ! 
~ षु 


(६६) भोजगवन्ध्‌ः- 


रर्जा इस बाततको घन उसके पास जाकर बोला मत कटो, यह 
कह अपने शरीरसे सव आमूषणोको उतार उसे देदिया फिर अपने रधर 


५७ 


आय किसी दिन समामे धैठ काछिदाससे करा--सले ! 
कवीनां मानस नौमि तरति पतिता ॥ 
ततः कविराह्‌- 
यतेन पथासीव युवनानि चतुदश ॥ १११ ॥ 
नँ कविय मनको प्रणाम करता, जिनकी प्रतिमा जकमे तिस्जाती 
ॐ ! तव कार्दिासने कहा--उसी प्रतिमारूपी डोगीसे चौदह भुवनके पार 
जायाजाता है ॥ १११ ॥ 
ततो राना भयक्षरमुक्ाफलरक्ष ददो । ततः भविशति हारः 
पालः । द ! कोऽपि कौपीनावशेषो विदान्‌ दारि कितीपि। 
राज भवेशय । ततः प्रवेशितः किरागस्य स्पस्तीत्युक्तवा- 
उक्‌ एषोपविष्टः प्राह- 
इसदे पीछे राजाने एक २ अक्षरके एक २ खाल मोती दिये, तिस 
पि द्वारपाठते सममं आकर कहा--हे देव ! कहै कीपीन घारेहए विदान्‌ 
द्रे खडा हे । राजाने कहा उसे मीतर ञो । तव कवि समामे गया जीर 
“ स्वस्ति † कहकर राजाकी आश्ञासे वैठगथा जीर बोल-- 


इ निवसति मेहः शेखरो भूरणा- । 
मिह हि निहितभाराः सागराः सप चेवं ॥ 
इदमतुरमनपं मूतर भूरि भूतो- । 
द्वध्रणसमथं स्थानमस्मदिधानाम्‌ ॥ ११२ ॥ 
, ` इस स्थानपर पैतोका शिखर्प सुमेरु पतैत्त वसता, इसी स्यानपर 


सकर मारोसमेत सात समुद्र वसतेह ओर यह तुम्हारा स्थान अतुरु अनन्त 
रूखंडस्वरूप है एवं अनेक प्राणि्योकी उत्पतति धारण करमेको समद ।११२॥१ 


१ परज्ञा नवनबोन्मेषक्रालिनी अतिभा इति शः । 


भापारीकासहितः । ` ८६७ ) 


, राजा महाकवे | फिं ते नाम॒ अधत्स्व । किः नामभरहणं 
नोचितं पंटितात, तथापि वदामो यदि जानासि ॥ 
राजाने कहा, फ टे महाक्वर ! नुम्हारा क्या नाम है सो चता । काथिने 
फटा पडि अदना नाम ठना उचित नही तोणी यदि जानना चाहते 
हतो र्टरुमा। 
नहि स्नधयी बुद्धिग्ीरं गाहते वचः ॥ 
तट तोयानि यिति न वैणवी ॥ ११३ ॥ 
भ्तनयान करनेत्ाटे दुधरुहं चाटककी बुद्धि गंभीर वचनकौ थाहको न्ह 
जान्तक्तौ ज टकी ससुद्रकी तर्यीको नहीं दसक्ती हे ॥ ११३॥ 
कर्णय- 
द दत्र ! तुनिने- 
` -्छतार्िदोरखां रतिकरं च वलयं । 
† क ॐ (® 1, 
सुम्‌ चक्रव प्रहाद्तदुषा शटख्ततया ॥ 
अबोचयं पथेत्यन्तु गिरिशः सा च गिरना। 
स॒ च करीडाचेद्रो दशन किरणपररिततदः ॥ ११४ ॥ 
द्विव शीर पार्तीनीकी रत्ति कर्टमे दियर्जकि मस्तकपर विराजमान 
चंरकटा निरगई चीर इधर पार्वतीजीका क्न द्रूटगया, तो इन दोनौको 
चगावर्‌ करे चक्रको समान चनाय हसत पा्वतीजीने कहा, यह देखो, 
घ्‌ तिका पिर्णेति ( चंद्रपक्षमे ६२ किरणो ) युक्त ररीरवाख क्रीडा- 
चद ध्वं पा्वतीना जर कषिवनी तुम्दारी रक्षा करं] ११४॥ 
[प [९ # ॐ षैः = क क क 
काटिदसः सखे ! कीच पिरद्टऽपि। कथमीहशी ते दशा 
७ मृडछे 4 ०, क [प $ (१ [> * र 
इरे इट व्रानत्यप राजानं बहुषनवात । कच 
काटिदासने कदय दे सदे करीडाचंदर ! चिरकाख्मे तम देखा है, तुम्हा 
यह्‌ दशा क्यो हग १ मंडल २ मधनी अर राजाओमे विराजमान होनेपरंभी 
यह्‌ अत्र्या क्यो हृद १ ीडचन्द्रने कहा- 


` (६८) मोजप्रबन्धः- 


धनिनोऽप्यदानविभवा गण्यन्ते धुरि मह्‌दरििणाम्‌ ॥ 
हेति न यतः पिपाप्तामतः सयुद्रोऽपि पररय ॥ ११५. ॥ 
जिनके दानरूपी रेशर्वं नहीं है, वे धनी मनुप्यभी महादरिप्रियोमि जगे निने 
जाते दै, जिससे तृषा शान्त न हो वह समुद्मी मरस्थर्के समानःहै॥ १ १९ 
किंच-उपक्रोगकातराणां पुरुषाणापथप्चयपराणाम्‌ । 
५ # भमः (क ९ * निस 
कन्यामाणिरव सदतं तिष्टवयथः परस्याथ ॥ ११६ ॥ 
जो ठकष्मीको नहीं मोगते ओर केवट धनकोही संचय करते दै, उनका 
धन घरमे कन्यारूपी ररनकी समान दूसरेकाही जानो ॥ ११६ ॥ 
पुवणमपिकेयूराढबररन्य भूकषतः ॥ 
कट्यै पदं भोज तेषामिति सारवित्‌ ॥ ११७ ॥ 
हे भोज ! अन्य राजा तो सुवणं मणि बानुंद भादि जाडम्बरतिं विरा- 
जमान रहते है जीर सारवेत्ता अपनी कठासेही उन स्थानेको प्राप्त होतेह १ १७. 
सुधामयानीव सुधां गति विदग्धसेयोजनमंतरेण ॥ 
काव्यानि गिव्योजमनोहराणि वार्गनानामिव योवनामि॥११८॥ 
विदग्ध अक्षरासे रहित कवियोके काव्य अग्रतमय है ओर उनसे अमृत 
चरता है जसे वेदयासौका निष्कपट यौवन समीको अमृतकी समान सुख 
देता है॥ ११८॥ । 
ज्ञायते जातु नामापि न राज्ञः कवितां किना ॥ 
कवेस्तदवयतिरेेण न कीर्तिः स्फुरति क्षित ॥ ११९ ॥ 
विना कवितातरे राजका नाम नहीं जानाजाता जर उस राजाके निना 
कविकी कौरतमी पृथ्वीपर प्रगट नकं हेत्ती ६ ॥ ११९ ॥ 
मयूरः , ` 
` तास्ते महात्मानस्तेषां रोके स्थिरं यशः॥ 
पतनद्याने काव्यानि ये च कषे प्रकीतिताः ॥ १२०६. ` 


भापाराकापरितः । ८६९) 
८ समामे सियित ) मवूर्‌ कविने कहा-जो कात्यक्रो करते ह जीर जिनके 
कान्य वान दता दे, वेदी धन्य है, प्ेहीं महात्मा रै जीर उन्दीका यदा 
सलारमे चटट रता रै ॥ १२० ॥ 
वररुचिः- 
प्दस्यक्तव्यक्तीरुतसहध्यवभटस्िति । 
न 9 धक क [4 [व 
कृतना मागजसमन्स्रत्‌ इधमात्रस्य धपमा ॥ 
न च करीडठेशव्यप्तनग्शुनोऽयं कुखधू- । 
कराक्षाणां पथाः स खु गणिकानामविपयः ॥ १२१ ॥ 
समामे स्थित वरदयि कथिते कह~-परेकि प्रकट करने हदयका अभिप्राय 
प्रकट कचा रै, कत्रियेकि दस मार्गमे पण्डिनमात्रकी बुद्धि फुरतौ हे । यह माग 
करटक टेदाका जीर व्यसनका विसेधी नदीं किन्तु कुल्वधुभके कटक्षोका 
मार्ग ‰ यह वेद्याथंका विपय नदी है॥ १२१॥ ् 
राना कीडा्धाय विंशति गजेद्ाच््‌ प्रापाक्कं च द्दो। 
# [प अ ५ 
ततो राजान कविः स्तोति- 

- राजनि क्रीडचन्द्रके चिरे वीस ह्ययी ओर पाच गवि दिषे, परे कविते 

-राजकौं स्तुति का~ 
ककण नयनद््र तिलक करपटषे ॥ 
भह मूपणवेकितयं मोजपत्यधथियोषिताम्‌ ॥ १२२ ॥ 

- अद्या ! आश्व्यं है! कि राजा मोजके शदुमोकी लियोकि अद्भूत 
आभूपण ई दोनों नेत्रम ककण ( जख्की वृदे, पू ) है ओर होमं तिरक 
( तिलोदक › दै ॥ १२२॥ ि | 

त॒ष्टो राना पुमरक्षरलक्ष ददो । ततः कथापिद्‌ कप जरा- 


७ ¢ 9 ० 


जीरणस्वागंिः पठितो रामरामा सपामपगात । स चाह 


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9 करणे उद्करविटुः । २ तिरोदकम्‌ | 


(७० ) भोजपवन्ध्‌ः- 


प्रसन्न होकर फिर राजने एक २ अक्षसके एक २ खल रुपये दिये. 
तिसके' पीछे किसी समय जरा अवस्थाते रिथिर शरीरवादा रामेश्वरनामक 
वदध पण्डित समामे आकर वोडा- 
१ = ई ५०, १ क “ 
पचालनस्य सुककेगजमस्चषात्रया ॥ 
पारणा जायते कापि सवेत्ेयोपदापिनः ॥ १२३ ॥ 
सने स्थानेमें उपवास नत करनेशरारे कविकी आर निराहारं व्रतत करनेवाङे 
सिहकी पारणा हाथीके मांससे ओर राजाके देश्र्यते दती हे ॥ १२६ ॥ 
वाहानां पडितानां च परेषामपरो जनः ॥ 
कवीदराणां मने्ाणां पाहो नृपतिः परः ॥ १२४ ॥ 
वाहन ओर पण्डितोके ग्राहक तो अन्य पुरुपभो हौ जतै परन्तु प्रष्ठ 
कवियोके जीर रेष्ठ हाथियोंके ग्राहक श्रेष्ठ राजाही होता है ॥ १२४ ॥ 
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सुवणः पटूचेखेथ शोभा स्थाप्यो पतिन्‌ ॥ 
न भै [९ [ 
पराक्रमम दूर्नेन राजतं राजनदनाः ॥ ३१२५ ॥ 
सेही-एुवणं ओर रेरम वलते वेद्या शोमा पाती है एवं पराक्रमः 
भीर दानक दवारा रजकुमारकी शोमा होती है ॥ १२५ ॥ 
, इ्याक्यं राजा रामेरप्तिय स्वापरणान्युत्तायं ठक्ष- 
हय प्रायच्छत्‌ । ततः सापि कषिः- 
पह सुनकर समस्त आभूषर्णोको उतार रमेश्वर पडितके धि दो लल 
दये दिये । तव उस कविने राजाका स्तुति कौ है-- 
भोन लतछीर्िकोाया नोभे स्थितं मव्‌ । 
-कतृरात्छक राजन युणाकर विराजते ॥ ११६॥ 
₹ राजन्‌ } हे गुणनिधान ! आपकी कोौरिरूपी कान्ता (ली) काः 
~. विक कस्तूरीका तिलका आकारामे भाखर खित है, अर्थाद्‌ आपकी 
विशार कीर स्वगेधामत्तकं कैरुगरं है ॥ १२ ₹ ॥ । । 


भाषादीकासरहितः। (७१). 


धये न रणानुयात्‌ शा वेति यतः खयम्‌ ॥ 
गखग्रि च म जथा परोक्ता पेति सः ॥ १२७॥' 
प्ण्डितके सन्मुख गुणोका ब्धान न करै कारण वह खयंही जानता है 
ओर मूरखंके सामने मौ गुरणोका चखान न करै कारण मूर परण्डितके वच- 
नको नहीं जानता हे ॥ १२७ ॥ 
तेन चमलत्छताः सर्वैः रमेषरकरिः भाह- 
इस वातसे समी चमकत इए, तव रमेश्वरकविने कहा-- 
स्याति गमयति सुजनः सुकविर्दिदधापि फेषटं कार्यम्‌ ॥ 
पुष्णाति कमलर्मभो रक्ट्या ठु रविर्वियोनयति ॥ १२८ ॥ 
सजन पुरूष विख्यात होजातदि जीर घुकवि केवर कार्यको करता है, . 
जैसे कमठ्को जर बढाता ओर सू खिढाता दै ॥ १२८ ॥ 
ततस्तुष्टो राना भत्यक्षरकषं ददो । र्द कषः पाह 
इसपर प्रसन्न होकर राजाने प्रत्येक अक्षरके छख २ शएपये दिये | तवे 
गाजासे कविने कहा- 
कितवं न श्रणोत्येव पणः कीतिवर्जितः॥ 
नपुसुकः किं ऊर्व परः स्थवसृवश्या ॥ १२९ ॥ 


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कीररहानि पण कषिताको नकष घनता है जसे सन्मुख विराजमान खरीसे 
मर्युसक क्या करसक्त टै ॥ १२९ ॥ 


सति प्राह 
` इता देवेन कवयो वराकास्ते गना अपि ॥ 
शोका १ जायते तेषा मेड्ठन्दगुहं किना ॥ १६० ॥ 
समामे स्थित सीताने कहा-दैवदारा इत होनेपर दीन कवि जीर हाथी 
जमवनके धिना शोभित नदी होते ॥ १६० ॥ 


(७२ ) मोजप्रवन्ध्‌ः- 


कािदासः- सवि 
अदातृमानसं कापि न स्पृशंति करेिरः॥ 
दुःलधिवाविदस्य विलापरास्तरुणीकताः ॥ १३१ ॥ 
(८ समामे स्थित काठिदास वो ) छषपणके मनको कविकी वाणी नह 
शू जेस युबतषि हाव-भाव वृद्धको दुःखी देते ह ॥ { ६१ ॥ 
राजा प्रपिंहितं ठक्च टश्चं दत्तवान्‌ । तवः कदादिद्राना सम्‌- 
स्तादपि कमिमेदटादपिकं काटिदपमायानतपवलोक्य प्रं वेश्पा- 
सोडलेन चेतति खेदं चक्रे । तदा सीत। विद्दि तद- 
पिपा ज्ञात्रा भाह्-देव ! 
` फिर राजाने प्रत्येक पण्डितको एक ९ राख रुपये दिये ! इतके पीक 
किती समय समस्त कविमेडको प्रवीण वेदयागामी काठ्दिसको आति हए 
देख राजाने अपने मनम खेद किया । राजकि मनकी वात जानकर विदानो 
वन्दित सीताने कहा-हे देव ! 
दोषमपि एणव्ति जने छरा एणरागिणो न सिये ॥ 
भयव शशिनि पतित पश्यति लोकः केठंकमपि ॥१३२॥ 
गुणी मतुष्यमे दोष निहारकरमी गुणम्राही पुरुष खेदित नहीं होते, जैसे 
कलक्गित चन्द्माको समस्त संसार प्रीतिभावसे देखताै ॥ १३२॥ 
तुशे राना सीतयि ट दरौ । तथापि कारिदातं यथापू् 
न मानयति यद्‌ तदा स॒ च काल्दाप्ो रज्ञोऽभिभायं विष 
तुखामिषेण भाह- 
इस वेचनसे प्रसन्न होकर राजाने सीताको सख स्पये दिये । इते 
परमा जवे रजनि वेवी समान काछ्दासवो नहं माना तच काडिदासने 
-सजाव मनका माव जानकर तराजूके मिसे कहा- 
भ्‌ पमाणपदरवी को नागास्ते तुरेऽवखेपसते ॥ 
भयात गछिमयसतातदितरपवैसरो इरे ॥ १२३ ॥ 


भाषाटीकक्तहितः । (७३) 
हे तान्‌. } तू भारीको नीचा ओर हस्केको ठचा करके मी अपतेको 
भ्रमाणका प्राप्तकर स्या गत्रे करतादट्‌ ॥ १३६३६॥ 
पुनराह 
पिर कदा- 
यस्यासि सपत्र गतिः स कस्मात्‌ । 
स्वरेशरगेण हि याति चेदम्‌ ॥ 
तातस्य कूपोऽयमिति बुवाणाः | 
क्षारं जरं कापुरुषाः पिति ॥ ९३५ ॥ 
जिप्रकी सव स्यानेमिं गति है बह क्यो अपते देश्के सहसे खेदित 
दता दै | वह हमर पितपका बनाया कमा है रेसा कहकर मूख खासी 
जय्को पते द ॥ १३४ ॥ 
ततो राज्ञा छतामवज्ञा मनति विदिखा कालिदासो दुर्मना 
 निनवेश्म ययो ॥ 
अनन्तर राजके दारा अपमान विचर कर काछिदाक् उदासर होकर 
अपने घर्‌ चद ग्र | 
अवङ्ञ्फुलितं पेम समीकर्तुं क ईश्वरः ॥ 
सेधि न यति सुधिते छक्षलेपेन मौक्तिकम्‌ ॥ १३५ ॥ 
अवज्ञाते फटेहए प्रमको मिखनेषो छियि कौन समयं हे जैसे एटी मोती ` 
- खखके द्राय नही जुडती दै ॥ १३६९॥ । 
ततौ राजापि चिन्नः स्थितः । ततो दीटावती सिन इछ 
राजानं विषशकारणमपृच्छत्‌ । राजा च रहसि रषं तस्यं प्राह । 
-सा च राजसुखेन काठिदापान्ञा ज्ञात्वा पुतः प्राह-द भराण- 
. नाथ | सर्वज्ञोऽपि ॥ 


{७२८ >) `“ भोजप्रबन्धुः- 


पिर राजाका भी मन खिन हुआ, तव डीखावतीने राजाकौ अनमना द 
विषादके कारणको परा ! राजाने इकलेमे सव छततान्त कह दिया उसन 
राजाके सुखे काठिदासकी अवज्ञाको घुन फिर कदा-हे देव प्राणनाय ! 
त॒म सर्वज्ञ हो । _ 
लेहे हि वरमधटितो न षरं संनातविवटितसतेहः॥ 

हूतनयनो हि पिषादी ने विषाद भवाते स खद नार्यः ॥१३६॥ 

जहका न करना अच्छा परन्तु करके तोडना ठीक नदी, जैसे नेत्रोके 
नष्ट हो जनेपर मयुष्यको दुःख होता है ओर जन्मान्धको दुःख नर्ही 
होता है ॥ १३६ ॥ 

परत्‌ कालिदासः कोऽपि भरत्या पुर्षावतारः । तत्वा- 
वेन्‌ संमानयेनं विददवः । प्शथ- 


परन्तु काठ्दिास कोई सरस्वतीका पुरुपरूपी अवतार है । अतएव 
उसको सब भांतिसे विद्रानोके द्वारा मान कृराओं । देखो-- 
दोषाकरोऽपि इुटिलोऽपि कटंकितोऽपि । 
मिघावसानसमये विंहितोदयोऽपि ॥ 
चंद्रस्तथापि हद्धतासुपेति । 
नवानित्‌ड्‌ युणड्षाक्चारण स्पत ॥ १२३७॥ 


दोषोकी खान, क्ुटिरु, करकी, मित्र ( सूये ) क अस्तम उदय होनेवाखा 
न्द्रमा मी दिवजीको प्रिय है, इसी कारण आश्रित जनके गुणदोषोका 
विचार नीं किया जाता करते रहै ॥ १३६७ ॥ 


राजा-प्रिये ! सवेमेतत्सत्यमेवेत्थंगीरुत्य श्वः कालिदासं प्रात- 
खे सेतोषपिष्यामीत्यवोचत्‌ । अन्ये राना दंतधावनादिरिधि 
विधाय निवेतितनित्यकत्यः सभां पाप पडििाः कवयश्व गायका 
अन्ये भक्तयश्च सवं समानग्युः । काठठिदासमेकमनागतं 


भापादीकासहितः । (७६) 


वीक्ष्य राजा स्वरेवकमेकं तदाकारणाय वेश्यागरह पेषयामाप ४ 
स च गता काल्दाप्त चता प्राहु । कर्द ! तामाकारयति 
भ पि क्न कू ह कर्त कि क क 
भोननरद इति ! ततः केविव्यर्वितयत्‌ । गतेऽहि सपेणावमानि- 
तोऽहमवय.भातकारणे किं कारणमिति- 

राजने कदा-दे प्रिये ! सत्य है, अच्छा कठ प्रातःकाठही मै काठि- 
दासको प्रसन्न कर्गा 1 दूसरे दिन राजा दतीन आदि शद्धिकरियाको कर 
नियकरमोको प्रण कर॒ सभाम आया । पण्डित, कावि, गायक ओर समस्त 
समासद समामे पधारे, केवर काठिदासको समामे नहीं आया इजा देख- 
कृर राजाने अपने एक सेवक्रको उन्दँ बुकन सिये वेदयाके घरपर मेजा }' 
सेवकने जाकर काटिदासते प्रणाम करके कहा, हे काविकुटमुकुटमाणि ! 
राजा भोजने आपको बुलाया । तव कवरिको वडी चिन्ता हई, कि कठही 
राजान मेरा अपमान कियाथा अव प्रातःका्ही कयो बुखाता है 

यं यं नृपोऽ्ठरागेण संमानयति सेसदि ॥ 

तस्य तस्योतारणायथ यतते राजवहषाः ॥ १३८ ॥ 

राजा जिस २ मचुष्यंसे समामे प्रम करति, राजप्रिय जन उसी उसके 
उखाउनेका यत्र करते ह ॥ १२८ ॥ 

कंतु विषते राज्ञा अन्वहं मान्यमाने मथि मायाविनो 
मत्सरं बोधयति ॥ 
` किन्तु प्रतिदिन रजके द्वारा मेरा मान हेनेपर मायाथी पुरुष इंषापे वैर 
कराते दै । 

अविविकमतिर्नृपतिर्मभि णवर यंत्रितः ॥ 

यत्र खलाश्च भरवलास्त्र कथं समनापसतरः ॥ १३९ ॥ 

` अज्ञानी राजा गुणी मंनियोके वशीमूत रहता दै, ओर' जहो दु्टेकीः 

रवठता होती दे. व्हौँ सजनोको अवकाश्च कैसे दोसक्ता है ॥ १३९ ॥ 


(७६ ) ` मोजप्रन्धः- 


इति रिचारयन्‌ सामागच्छत्‌ । ततो दूरे समायातं वीश्च 
-सानंदमासनादुत्थाय पुकवे मलसियतमाय कथं विवः क्रितं 
इति भाषमाणः पय षट्‌ पदापि संुखो गच्छति । ततो निि- 
लपि सपा स्वास्नादुलयिता सर्वे सभासदश्च चमत्छताः। वैरि- 
णश्वास्य विच्छाय्वदना बभूवुः । ततो राज मिजकरकमलेन्‌ 
अस्थ करकमटमवटष्य स्वाप्तपदेशं प्राप्यं ते च सिंहासने 
उपवेश्य स्वयं च तद्नणा ततेयोपविषटः । ततो राजसिहासनारूढे 
काल्दासे बाणकविदेक्षिण बाहुषु भरह- 
यहं विचार समामे आया | तत्र काठिदिसको दूरहीसे आते देख दषैके 
साथ राजाने खंडे होकर कहा--हे सुक्वे ! है मम प्रिय } आपने र्यो 
` विखम्बर किया एेषा कह पच छः पग अगमानीके स्थि चला. तो समस्त 
समास्द्‌ पुरूष अपने २ आसनपिर खड ह्‌।गय इर काख्दासक राञ्ज 
आका मुखे मन दगया । तब राजान निज करक्परसं कालिदासके 
करकमख्का गहकर अपन आसनके स्थानपर जाय कविराजकां सिहदास्नपर 
बिठाया ओर उनकी आज्ञासे आपथी वहीं वैठगया । जव कालिदास राज- 
` सिहासनपर विराजे तब बाण कथिने अपनी दहनी भुजा उठाकर का~ 
भोजः कलाविह वा कारिदासस्य माननात्‌ ॥ 
विडुषेष रते राजा येन दोषाकरोऽप्यसो ॥ १४० ॥ 
मोजको कडाजेका ज्ञाता करै वा रुद्र कहु, क्याफे जितने दोक्षद्र 


( दोषाकी खान ) काञ्दासको पण्डितेमे राजा करदिया, रुद्रक्षमे दोषोकीं 
खान द्वान करा राजा चन्द्माको शिवजीने अपने माल्ये स्थान दिया | १४० || 


_ ततोऽस्य विरषेण विधिः सह यैरानटः प्रदीपः । ततः 
कमभ्ादम दिः मनयिता स्वरपि विद्धिः भोज्य तावल 
गाह दत। ध्नकेनकदित संमानिता । तेच तें प्रयु 


भाषाटीकासदितः। (७७). 


पायमूनुः । सुभगे ! असत्कीतिमसो कादा गहयति. 
अस्मासु कोऽपि नतेन कलापताम्यं भवह्े। वसते | यथैनं राना देथा- 
तरं निनसारथति तद्रवत्या कर्तव्यमिति । दाप भह । भवद्भयो 
हारं पराप्य मया युष्मत्कायं क्रियते तन्मम पथमं हाये दातव्यः 
इति । ततः सा ताूलवाहिनी तैश्तं हारमादाय व्यचितयत्‌ । 
तथाहि-उषैराध्यं फं वाति । ततः समतिकराम्पु कतिपय- 
वासर देददिकाक्िनि भसुपे राजनि चरणसंवाहनादिरेवामस्य 
पिधाय तत्रैव कपदेन नेतरे निमील्य सुपा । ततश्वरणचलनेन राजा- 
नमीपलाधहक सम्बश्लातवा पराह । ससि मदनमाशिनि ! स दुरा- 
त्मा काटिदाप्तः दासीपेषेण अतःपरं पप्य टीठदिव्या सह समते । 
राना तच्छरता उत्याय प्राह । तरुगवति ! फं जागर्षीति। सा च 
दिन्याङुदेव न श्रणोति । राना च तस्या अपध्वनिं शला 
व्पृयितयत्‌ । इये तरगवती दिदरायां स्वभषशं यता वासनावशा- 
देव्या दष्वरितं भाई । स च घीवेषेणांतःपुरमागच्छतीयेतदपि संभा- 
वपते ! को नाम सरीचरितं वेदेति । ततश्वत्थं विचायं राना परेयुः 
प्रातरासनि कुतिमञ्वरं पिधाय शयानः काटिदां दापीरुखेन 
आनाय्य तद।गमनानंतरं तयेव टीखदेवीं चानाप्य देवीं भरत्यवदत्‌। 
पिये! इदानीमिव मथा पध्यं भोक्तव्यमिति । इत्यकते सारि तथेवेति . 
पृथ गृहीत्वा रज्ञे रजत्पत्र दला तत मुद्रवाटी प्त्यवेषयत्‌ । 
ततो राजापि तयोरीपराये जिज्ञासमनः शोकाष पराह 

इसके उपन्त विद्वानेके साथ वैको आग प्रगट इहं । फिर इछ 


[^ , अछ १ 


विद्रानौकी सखाहसे समी विद्वानेने भोजको पानकी बीडी देनेवारी दासीको 


{ ७८) मोजप्रबन्धः- 


सुव आदि दिया । भीर उप्त दासीको उन्दने उपाय वताया । हे घुमगे 
हमार ॒कीिको काङिदास खंडित कयि देता है, हमारे पिभ कोेमी 
काल्दिसकौ समान कठावान्‌ नही है । हे वत्से ( वेदी )} जिस 
राजा काठ्दासको देसे निकार दे तुम उसी कामको करे । दासीने 
-कहा, तुमसे हार ( मेोतियोकी साखा ) ेकर भ इस काथेको करूगी, 
अतएव परछे तुम सुने हार दो । फिर उस पानक वीड देनेवाटी दासीने 
उनसे हार केकर विचारा, कि बुद्धिमान्‌ क्या नौ करसक्ते ह । कुछ 
-काठके उपरान्त जब राजा अकेखा सोरदाथा तव यह दाक्षी राजके पैर 
दाब सेवा करके वक्ष क्पटसे नेत्र मीचकर सोगदई । चरण फैरनेते 
राजाको कुछ जागता जानकर वोखी-हे सखी मदनमाछिनि ! वह दुष्ट 
काछङ्दास दासीके वेषसे अन्तःपुरमे जाकर टलीखादेवी ( रानी ) के साथ 
रमण करता है । राजलि इस बातको सुन वैठकर कहा हे तरद्गवति ! स्या 
जागत्ती हो £ तव वह निद्राम व्याङ्कुल्की समान नीं सुनती हे, सजाने 
उसकी बुरी बाणीका रान्द्‌ सुनकर विचारा । यह्‌ तरङ्गवती नींदके क्छी- 
भूत है, वासनासे रानीके दुश्वरित्रौको कहती हे, बह लखीनेपसे अन्तःपुर 
आता है, यह सम्भव होसक्त है । चि्योके चरित्र नरी जानेजति । यदह 
विचारकर दूसरे दिन रजा अपने शरीरम छठसे उ्वर॒वताकृर सोगया 
फिर काकिदास कविको दासीक द्वारा बुखाया जीर उसी दासीमे टीख- 
देवीको चुखाकर काहे प्रिये { अभी सुक्े पथ्य ठेना चाहिये, तब रानीने 
राजाकी आङ्गानुसार पध्यस्वरूप चोदके पाम राजकि स्यि रभूगकी दाठ 
` परोसी । तन राजाने उनका मभिप्राय जाननेकी लर्साते आधा शेक पदा 


सउद्रगटी गदव्याली कवी वितुषा कथम्‌ ॥ 
हे कविराज ! रोगकी नारक सा्पिणीरूपी भूगशका दा छिख्योसि 
रहित वैसे इद ? 
६0। ततः काठिदसः देव्यां सु्मीपवर्विन्यामपि उत्तरा६ भाहू- ` 
तब काठिदासने रानीके समीप होनेपर मी आघा शोक पदा- 


भाषादीकासद्ितः ८७९ 9 


अधवहनप्तयाव जाता पिगतकचका ॥ १४१ 1 

भोजनस्य पत्तिके संयोगमे इस ८ दाररूपी ) घ्रीने अपनी कंचुकी 
खाठ्दा ॥ १४१ ॥ 

दवा तच्छा ग़र्ञेताथसदह्षा हरसतवि तदथ दला 
रमरएसा मनात प्रवसूव्‌ । रानपपतद्ष्ा विचास्यापाप्त । इष 
युर आटदन्नं छद्यतव सननं एतस्या समापवातन्यापप स्त्य्‌ 
सोयधायि इयं च स्मेरद्खी वमूव । द्वीणां चरितं को वेद ॥ 

फिर रानी इस पदको सुन अर्थको जाननेवारे सरस्वतीकी समान उसके 
अथैको जानकर सुसकराईं । राजाने भी यह देख विचारा, यह पहठ्सेही 
काटिदाससे स्तेह करतीं है, इसी कारण कथिने इसके सर्मीप रहनेपरभी 
ठे्ा कहा ओर यहभी कुछ सुसकराईं । ल्ियोके चा्नको कौन जानताहै । 

अश्वष्छतं वाप्तवगभिते च चीणां च वित्तं पुरूषस्य 

भाप्यभ्‌ ! अवर्षणं चप्यतिवर्पणं च देवो न जानाति 

कुतो मदष्यः ॥ १४२ ॥ 


घेडेका कूदना, इन्द्रका गना, ल्िकोका चित्त, पुरुषोका माग्य, वषं 


न होना अर अत्तिवपाके हेनिको देवतामी नद जानसक्ते तो मनुष्यक्री क्या 
सामध्यै है जे जानसके ॥ १४२ 


फ खयं बाह्मणः दारुण राधि ईतव्य इति । विशेषेण 
सरस्वत्याः पुरुषावतार इति विचायं कारिदापे पाह । कवे! सर्वथा 
अस्पदेशे न स्थातव्यं किं बहुनोक्तेन । भतिवाक्यं किमपि न 

वक्तव्यम्‌ । ततः कालिदासोऽपि वेगेनटाय वेश्यगृहमेय तां 
भत्याह्‌ । भिये! अरुज देहि मपि भोजः कुपितः खदेशे न स्थात- 
च्यमितयुवाच । अह्ह- 


(८०) .. मोजप्रवन्धः- 


चिन्तु दारण अपराधी होनेसे यह जाह्मण मारनेकी योग्य है । विशे-- 
खक्रर यह सरस्वतीका अवतार है ( रानीके ) इस वातको विचार काठि- 
दाससे कहा-हे कवे ! अधिक क्या वरह, तुम हमारे देदासे निकठ्जाओ 
खीर सृन्ञे उत्तर न दो | तव काश्दास तुरन्त खडा होकर चरुदिया ओर 
वेदयत घरमे आकर कहा-प्रिय'!. विदा दो, सुक्षपर कुपित होकर राजाने 
देशसे निकरुजानेको कहा है । अहह | 
अघटितघपतानि घटयति घरितपटितानि दर्षरीङरते ॥ 
दिधिरे [^+ $= क म त "क 
विधिरेव तानि घटयति यानि पुमा्ेव चितयति ॥ १४३ ॥ 
विधाता जनहोनी बात करदेता है जीर हेनेवाटी वात नष्ट कर देतदि 
जिनका कमी पुरुष विचारभी नीं करता उनके करदेता है ॥ १४३.॥ 
क च किमि विददचेशितिमेषेति भरतिभाति । तथाहि- 
वन्तु इ विद्वानोंका ही यह समस्त चेष्टित दीखता ह, रेसा कहामीह- 
बहूनामत्पसाराणां समवायो दुरत्ययः ॥ 
= 0 (१ ७9 ॐ ® ` 
वृणेविधीयते रज्येते पेन दैतिनः ॥ १४४ ॥ 
अलसारवार्छोका एकत होना दृढ हो जातादि से तिनवोंकौ वनी इष्ट 


शि, 0 क 


रस्सासे हाथी बधि जति है ॥ १४४ ॥ .. 
ततो विलासवती नाम केशवा तं षरह्‌- ` 
फिर विकासवत्ती नामवाटी वेरयाने कविसे कहा 
तदेवास्य पर मित्रे यत्र संक्रामति दयम्‌ ॥ 
उ एुखं च दुःखं च प्रतिच्छपेषे दे ॥ १४०५ ॥ . 
इस परणीका वही परम मित्र है जिसके दर्शने सुख, दुःख दोनों दै 
णमे प्रतिविम्बके समान दीखते हे ॥ १४९ ॥ 


कित द्पित्‌ | मथि विमानाया किंते रक्ञा.फिवा राजदततेन 
वित्त काम्‌ । सुखेन तिभ्यकं कि महृहतःुहर इति 1. ततः 


॥ 


भाषाटीकासहित । (८१) | 


(9 न्य (क का ९ १ 
कारकः तत्रव कस्तत्‌ कतपयदनानि गमयामास । ततः काट 
“ कू द * , [*। ४ (9 [> 
दासे गृहानिग॑ते राजानं लीरदिवी राह । देव काटिदात्तकविना . 
ॐ क 9 क अ ७ न्द &@ क क छ $ + 
` साक तितत तिबडतमां मतरा वाब्दानामद्धाचते कस्मात्छत यस्य 
दशेऽप्यवस्थानं निषिद्धम्‌ ॥ 
हे प्रिय ! जवतक भै जीवती तवतक राजासे तुह क्या काम है 
जर राजाके धनसे तुम्दे क्या काम 8 £ दखके साथ मेरे धरके तहखनिमें 
निःंक होकर रदो, फिर काङिदासने कुछ दिन वहीं रहकर विताय । इसके 
पीछे काछिदिास घरसे निकल्गये, तव रीर वती देवने कहा-दे देव ! 
काडिदासके साथ आपकी परम मित्रता थीसो अव क्यो जातीरहीजो 
काछ्दासकेो देशसे भीं निकार दिया । 
इक्षोरथात्कमशः पर्वणि पर्वणि यया र्तविशेष्‌ः ॥ 
तद्त्सन्ननमेवी मरिपरीतानां च विपरीता ॥ १४६ ॥ 
जैसे गनेके आगेसे कमानुसार पोरा २ मे अधिक मिठस होती है, 
वैसेही सजनेकी मित्रता दिनपरदिन अधिक होती जाती है ओर दु्टकी 
मित्रता उट होतीहै अथोत्‌ प्रतिदिन घटती जाती है ॥ १४६ ॥ 
शोकारातिषरिाण प्रीदिविक्ेपपाजनपू ॥ 
केन रलमिदं सृष्टं मि्मित्यक्षरदयम्‌ ॥ १४७ ॥ 


[.अ्>.९ [~ [१ ६6 + 


 ओोकरूपी रातरुसे रक्षक, प्रीति जीर विश्वासका पात्र ^ मित्र *? नामक 
दो अक्षरकते रत्नको किसने स्वा है ॥ १४७ ॥ । 
राजाप्येतह्टीठदिषीवचनमाकरण्य पराह-देवि केनापि ममेत्य 
गरिधापि 1 तत्कारिदापो दासीवेषेण अतश्पुरमासाय देव्या सहु 
भत इति । मया केतद्रयापारनिज्ञास्या कपदज्वरेणायं भवतीं 
च वीक्षितौ । ततः संमीपवर्तिनयामपि तग्छत्तरादेमित्थं पराह ! 
तचाकण्यं लयापि कतो हाप्तः । तत्व समेत्य. बाहणहन- 


(८२ ) भोजप्रवन्धः- 


नरीरणा मया देशाचिश्ारितः। तवां च न दाक्षिण्येन इन्पीति । 
ततः हासपरा देवी चमर्छता प्राह । निभ्शंकं देव ! अहमेद धन्या 
यस्यास्छं पतिरीरशः । यया युक्तशीखाया मम्‌ मनः कथम्‌- 


र (नि किर 


न्यत्र गच्छति यतः सवकामिनीपिरपि कातिपीगे स्म्चव्योऽपि 1 
अदद देव ! सं यदि मां सतीमपतीं बा अरूखा गमिष्यति त्सं 
सरथा मरिष्य इति। ततो रजापि प्रिये ! स्थं वेदीति ! ततः स॒ 

(५ = क ४. र 
सपति पुर्भरहिमानपामाप्‌ ततं सोहगोरक कार्यामापत धतु 
सज्‌ चक्रे । ततो द्वी साता निनपातिबस्ानलेन देदीप्यमाना 
सुङपारगाची सयमवलोक्य प्राह । जगदशुश्लं सर्वसाक्षी 
स्वं वेलि- 

राजनि जीकदेवीके वचननेको सुनकर कहा दै दैवि ! किसने मेरे 
सामने कहा फ दासीके वेपसे काठिदास अन्तःपुरमे आकर रानीक साथ 
रमण करता है । मेने इसकी सत्यताके सि ज्ये छते तुग्द जीर कारि. 
दासको देखल्या । किर तुम्हारे समीप रहनेपरमा इस प्रकार श्वोकके 
राधकं पटा जीर उस पदको सुनकर तुमभी हसी 1 तव इन सव वा्तोको 
दख नाह्मणव्रधका भय जानकर उस कथिक भैम देसे निकार दिया । 
देम चतुरा आर बुद्धिमती हो इससे तुमं नहीं मारत । किर ॒रानीने 
दीक साथ चौशकर कडारे देव ! मे निःखंक इई धन्य ह जिसके तम 
ति द्ये } तुम्‌ भेरे खमावको भटी मतिसे जानते हो तुम्हारी मोग इका 
श मन अन्य स्थानम क्यो जायगा कारण हे कान्त ! तुम समी चिकि 
एपमागप्तममं स्मरण होते ह, अहा ! बडे खेदकी बात 8 कि तुम सच्चे 
सत्य अथवा असतीं चिना बनाये जाओगे तो निश्चय प्राण चाग दुगी ! 
सव राजन क-्यारी ! सत्य कहती छो, फिर राजनि पुरुषोसे सपं मगाया 
दः गच्को तपाया ओर धलुषपर बाण चाया । त्व उस सकुशं 


भापाटीकासदिततः । (८३) 


राननि स्नान फरक अपने पातिन्रतधरमरूपो अभ्निसे दीप्त हो सूर्यैका ददीत 


-करकेः का~ जगतकते चक्रु ! तुम समीके साक्षी हो ओर सब कुछ जानते दो । 
जा्रति स्वमकाठे च सुषौ यदि मे पतिः ॥ 
भोज एव प्रं नान्धो मदि भाषितोऽपि न ॥ १९४८ ॥ 
जनते, सोत जीर छप समय मेरे चित्तम अपने प्राणपति मोजके 
सित्रय दूसरा नदीं आति इसको सव्य केः दिखाओ ॥ १४८ ॥ 
द्युक्ला ततो दिच्यनयं चक्रे । ततः शुद्धायामन्तपुरे टीटा- 
वत्यां ठनानतशिराः सृपतिः पश्वत्तापातयुरो देवि क्षमस्व पाणि 
सां करि वदामीति कथयामास । राजा च तदापरति न निदरितिन 
च युक्ते न केन विदरक्ति । केवटसुदठियमनाः स्थला दिनि 
मविटपति । फं नाम ममट्जा फं नाम दक्षिण्यं क गर्व 
हाहा फे कविकोटिसुङकटमण कालिदास हा | मप भ्राणतम्‌ | 
ह मूरसण क्रिमि ्राविरोऽसि अवायु कोऽसीति प्रुत छव 
यह्यस्तं इव सयाव्िष्वस इव पषद। ततः परियाकरछमटसिकत- 
जटसंनातसं्ञः कथमपि तामेव प्रां वीक्ष्य स्वास्िंदपरः पर 
सिद । तते निशा निशाताथहीनेव दिविकरहीनिव दिनी्ियो- 
गिनीव योषिद्‌ शकर सुषमा त भाति भोनसूपारपनना 
-रहिता कटिदपिन । तदप्रपति न कस्यचिन्छखे काव्यं न कोऽपि 
विनोदं षच वाक्ते ! ततो गतेषु केष्चिदिनेष कदाचिद्राका- 
पूर्णदु्मडलं पच्‌ पुर टीलदेवीषखेह वश्य पाह 
दत मौतिते कहकर दिव्यत्रय किया, अथौत्‌-पपंसे नदीं उसी, अथिसे 
नकट जखी जीर वाणद्रारामी नदीं र्विषी । अन्तःपुसेही लीरवत्ी शद्ध 
होनुक्षी तव तो दाजसे नीचे मुख किये राजने पृछताकर पहर कहा, कि~ 


(८४). मोजप्रचन्ध्‌ः- 


हे देवि । मुञ्च पापी क्षमा करो अधिक क्या क? तवसे रजाको नर्नीद 
जती है जीर न भूख रुगती है । राजा विक्तीसे कु नकष कहता दै । ५ 
उदासीन होकर रात दिन विलाप करता है, अव मेरी टज।, चतुराद ओर 
गरवता वर्ह है ? हा ! हा! हे क्वे } हे किकरुख्घुकुटमाणि ! हे कादि ! 
हे मम प्राणतुस्य ! हा ! ! मुञ्च मूर्खने क्या दुनने योग्य तुमको नक सुनाया 
जीर क्या कहनेयोग्य तुमते नहीं कहा, इस माति निद्राभिभूत प्रते भ्रसे 
इएकौ समान छरुसे विध्वस्त हनेकौ समान गिरगया | तव॒ रानौके करक- 
मटदवारा जर्‌ छिडकनेसे चेतन्यता हई, फिर रानीको निहार मोन होकर 
बेठगया । पि चन्द्रहीन रान्निकी समान, सू्हीन दिनी समान, वियो- 
गेनी च्रीकी समान ओर इन्द्ररहित दुधर्मा समाकौ स्मान राजा भोजकी 
समा काठिदाससे हीन हनेसे श्रीहीन होगे ¡ फिर तवते किसीयेः मुखे 
कान्यकी स्वना नहीं सुनपडी, को विनोदके वचन नहीं कहता £ । इत 
भाति कुछ काठके उपरान्त प्राणिमाकी रत्रिमे पूर्णचन्द्रमाको देखकर राजा 
ठीकादेवाके मुखचन्द्रको निहार कहने ल्गा- 

दलन अड अणक्रद गछ सो मुहचदस्छ स दये ॥ 

कि यह चन्द्रमा इस रानि मुखचनद्रकी बराबरी करता है । 


व च पूणे चद्रमपि नेनविलसाः कदा वाचो विलसति 
तम्‌ । पतश्वात्थतः प्रतिविधीन्विधाय सां प्राप्य राजा विद्र 
रान्ाह्‌। अहा कपयः दयं समस्या पू्ेताम्‌ ! ततः पठति । 
पर्ण अणु अणस्रइ ग्छा सो मुह्वदस्स ख एदाये पराह 
दयं चेरपस्था न पूते रवद; मेरे न स्यातव्यमिति । ततो 
पतात कवयः स्वानि गृहानि जगुः! चिरं विचारितेऽप्यथं 
कस्यापि नाथति; स्मुरति । ततः सवर्मिलिख बाणः मेति 
पतः सा भाप्याह राजानम्‌ । देव ] सवरव प्याह जानम्‌ । दव! स्वदनं मषितः। अ 


+ च्छया-तुनामन्वतुसरति गलैः स सुखस्य खसेतस्ग्राः । 


मापाटीकामहिषः । (८९ >) 


वासरानवधिमिधेहि । नेऽ पूरयिष्यति ते । न बेदेशमि- 
गच्छति ते 1 राना असितुं । ततो बाणः तेषं कि्ञप्य राज- 
संदेशं सगृहमगत्‌ । ततोऽ दिवकषः अप्रीतः । अष्टमदिन- 
रात्रो मिलति वाणः प्राह । अष चारूण्यमेन राजततन्पनमदेतं 
फिविद्धियामदेन कालिको निनशारितोऽाषद्‌ । समे पतः सरव 
एव्‌ कववः । विषमे स्याने ठु स॒ एक एव किः । तं निम्र 
ददान। फ नाम महत्वमासीव्‌ । स्थिते तस्मन्‌ कथमियपवस्था- 
स्मर गवेद्‌ । तचिन्तरेया या बुद्धिः कता सा भवद्धियि 
अदभूयते ॥ 
ठेस कमी पूणं चन्द्रमा नेत्रका वरिस हआ ओर पिर कमी वाणीका 
विसम हआ । ( यह कवित्ता रची ) फिर प्रातःकार रजा उल ओर 
परात्तःकाटको नित्य कमे समाप्त कर समां आय ब्राह्मणोसे कदा-दे कवि- 
गण ! इतत नमष्ठाक पूणं करा रजा पठतहि-“ तुख्णं अणु अणु सर 
ग्ट सो मुहूचन्दस्त खु एदाये ›› पटकर कहा यद्रि इस समस्याको तुम प्रा 
न करसको तो मेरे देशसे निकट जाओ । तव तो मारे रये वह कव्रि अपने 
शरक! चटेगये  चिरकाङ्तक अर्थं विचारनेपरी किंसीको अथैकी सद्गति 
नदीं परी । तव सवने मिठकर वाणकविको भेजा । वाणने सभमिं आकरं 
-राजासे का हे देव { सवने मिखकर मुञ्चे मेजा है, आप अठ दिनकीं अवधि 
दानिम । नवमे दिन समवाप करेगे, नरी तो आपके देते निकङजार्थगे । 
राजानि रह वात मान छी | फिर वाणक्रवि राजके संदे सव॒ कवि्ोको 
सुनाकर अपने घर भावा । जव्र आठ दिन वतिगये | आद्ये दिनश्ी ररि 
सव एकत्रित इए.तव वाणने कहा-अहो ! तरगाईकै मदते, राजसन्मानके 
मदसे ओर दुछ विद्ये मदे काणिदि(सको निक्राङ दिया । साधारण 
स्थानम तुम सभी कवि हो जीर विषम स्यान तो वह एकी कत्रि है । 
उसको निकालकर अव क्या गौरव पाया । उसके हीते हमारी यह दरा 
-नयो होती १ उसके निकाठनेमे जो ९ दुद्धिये की थीं उनदका स्वाद मिक ॥ 


(८६ ) भोजप्रवन्थः- 


सामान्यविपरदेषे च इुटनाशो वेकि ॥ 
उमाहप्य विदरषो नाशः कविष्ुटस्य हि ॥ १४९ ॥ 
समान्य तराणके साथ द्वेष कएने निश्चय क्र न्ट हजातदि । पावती 

जीके रूपके द्वेष केसे कवियोका कुठ अवद्य नष्ट हेजातहि ॥ १४९ {+ 

ततः सर्वं गहं करहायते स्म । मयुरादयश्च ततस्ते सर्वाय 
कलहाचिवा्ं सयः प्राहुः । अयेवावषिः पूणः काटिदासमतरण, 
न्‌ केस्यवित्सामथ्यंमसि समस्यापूरण ॥ 

तिसवे पीडे सव कवि वडा कलह कणेखो । फिर मयूर आदते 

रेकेर समस्त कवि सत्रको कष्हसे रोककर धोक कि, याज अवधि प्रस 
होगईं । काल्धासके धिना समस्यापि को$ नही करसक्तर । 

सेथामेष भटदरणां कवीनां कविमेडठे ॥ 

दीवा दीपमिव घहूतनेव जाते ॥ १५० ॥ 
ह समरभूमिमे योद्भाभोक ओर कविमेडल्मे कावि्योकी हार जीत सुहर्षभर- 
गहः दखजत्तीहे ॥ १९०} 

यदि रोपे तोऽयेष ष्याम रुपितचद्मति गिगृहमेव 
गच्छामः संपततिसंप्ारमादाय । यदि न गम्यते श्वो राजसेवकः 
भस्मान्वलाभिःतारयंति तदा देहमनिणेवास्मागिन्यम्‌ । तदाय. 
मध्यरात्रे गमिष्याम्‌ इति सव नधत गृहमागस वटीवदवयद्ध 
शकट रपरमारोप्य रात्रावेव गिष्करताः । ततः ऊाटिदासः 
ततव रो विलाप्वतीशदोयाे वन्‌ पृथि गच्छतां तेषां गि 
शरुता मश्पाचेदी भरकतिवान्‌ पिमे | पश्य के एते गच्छंति बाह्णा 
स । ततः सा समय सर्वानपश्यत्‌ । उपेत्य च कालि पाह 
, _ जो महर सम्मति हो तो आजही आ्धीरातके समय चन्द्रोदयमे अपने. 
` त भना केकर चुपकेसे च्छे भीर जो नरी चठेगे तो कलहः 


भाषादीकासहितंः। (८७) 


राजसेवक इमे बख्के साथ निका्देगे तव हरमे केव रारिको च्करही 
न्वखनां पडेगा } अतएव आजही रात्रिमे चर्नां चाहिये । रेसा निश्चय कर 
सव अपने २ घरपर आकर वैलको जोत छकडोमिं अपने मारु असवावको 
खाद रात्रिकोही निकङ्चङे ! तव कवि काछ्दिासने वदषा विलसवतीके बगी- 
नवम दुपेहुए मामे जातेहए उन कचिर्योकी वाणीको सुनकर वेद्याकी दासीको. 
भेजा किं, हे प्रिये ! देख तो सही ये कीन जतेहै, सुनने ब्राह्मण जान पडते ।- 
पीछे दापने बहौ जाकर सबको देखा ओर लौटकर काठिदाससे कदा- 
एकेन राजहंसेन या शोष सरसोऽपवत्‌ ॥ 
न्‌ सा बकसहसरेण परितस्तीरवासिना ॥ १५१ ॥ 
एक राजहंससे जो सरोवरकी शोभा होती है बह चारौ ओर वसनेषाछे" 
हजार वगखोसे नह होसक्तीरै ॥ १९१ ॥ | 
सर्वे च वाणमयूखसुखाः पलायंते नात्र संशय इति । काठि- 
दासः पिये | वेगेन वांसि भवनादानय यथा प्रठायमानानू 
` पच्‌ रक्षामि ॥ 
निश्चय समस्त बाण मयूरसे आदि खेकर किगण मागे जारे । 
( यह सुन ) कालिदासे कहा प्रिये ¡ शप्र वन्न ठाओं जिससे मागतेहए 
ज्राह्म्णोकी रक्षा करः । 
किं पोषं रक्षति यो न वातान्‌ । 
किं वा धने नार्थिजनाय यत्स्यात्‌ ॥ 
सा क्रिया यान हिताच्बद्‌ । 
किं जीवितं साधुविरोधि यद्वै ॥ १५२ ॥ 
कारण~पीडितोकी रक्षा न की तो वर क्या दहै? अम्यागतोको नदिया 
तो धनक्याहै जो अपना हितन करे वह क्रिया क्या ह ? जीर साघु-- 
, ओसि विरोध रखकर जीवन क्या हे अथात्‌ कुछ नरी ॥ १९२ ॥ . , ` 
ततः स॒ काठिदारष्वासेषं विधाय सङ्गुदहन्‌ ोशाधसुत्रं 
गत्वा तेषामभिमुखमागत्य ` सर्वाचिहप्य जयेत्याशीवचनमुदीर्यः 


(८८ ) मोजप्रवन्यः- 


वभरच्छ चारणाषया ! भहो विद्यावारिधयो भोनस्भायां सपि 
महसातिशथाः वहपतय इव संभूय इन जगामप्वा १व्‌त्‌ः। 
कवित्कुशट वो राजा च कशा । अस्माः कशड्शिदब- 
-म्धूते भोजदशनाय वित्तस्पह्या । ततः पररहाष्ठ वतः सर्व 
निष्कतिः । वत्त काश्चतताद्रमाकण्यत च चस मन्यम्‌निः 
उ तहछेन विपथिसाह अहे चारण | श्र खय। पवादपि श्रोष्यत 
व अतो मया अदेषोच्यते । राज्ञा किरेभ्यो विद्रदधयः पूरणाय 
समस्योक्ता तद्वूरणाशकाः पता रान्ना दशतर क(च्(मजणामषव्‌ 
एते निश्वक्रमः } चारणः-राज्ञा कातरा समस्या प्रोक्ता । ततः 
पटा स॒ विषाश्चत्‌ । ˆ दुखण अण अयपतरद्‌ गछ सा सुह्वदस्त 
षु एदाय ॥ ˆ चारण~एतत्ताध्यव गरढाथमततदणदुमड्ट वप 
-राज्ञापाहि । एतस्योत्तराददमिद भवितुमहति ॥ 
इसके पीछे काण्दासने यह विचारकर गुप्त चर बनकर खह्ग ठे अद्धैकोदरा 
आगे जाय उन कवियोके सामने आय खवर करी जय दे एेसे आश्चीवोद्‌ 
दे उनसे चारणकौ माषासे परख कि, दे विद्यासागर ! राजा मोजकी समामे 
बहस्पतिकी समान डे गरव पानेवाखो ! तुम सव ॒मिरुकर करटौ जनेकीं 
इच्छा क्रतेहो १ करिये तुम कुरर्से तो हो ए ओर राजा मी क्रुरास्पूषैकः दै 
( यह कह फर काठिदासने कहा ) धनकी अभिराषासे राजा मोजके व्यि 
कारीधामसे जयां । तच सव र्हसतेह्वए चरुणये ! तिस पलि उनमेसे किसी 
विद्वानूमे उसकी वाणी छुन ओर उसको चारण मान आश्वर्थसे कदा कि हे 
चारण | सुनिये आप परिमी सुनेहीगे अतएव अभी कहत । सय तो यदद 
14> राजां भाजने हन सोक एक समस्या पूर्ति छ्यि दी उसका यह पर्व ` 


न करकः अतएवे राजासे कोध कर यह सब निकाेहुए दुसरे देशम बसनेकी 
`“ रङूसास जारहहं । यह सुन चारण काड्िदासने कहा राजाने कीनसी समस्या 


साषारीकासहितः। (८९ ) 


“प्रिव ख्य दी है तब उसा विदरान्‌ने कहा । “ तुकणं अणु अणुस्‌ ग्ड सो 
-मुहचंदस्त खु एदाये । ?” चारणने कटय यह ठकिही हे । चन्द्रमाका प्ण 
-मडक देख इस गूढ अथेभरी समस्याको राजनि कहहिं । सो इसकी प्रति 
“एसे होनी चाहिये ॥ 
` ` अणि बणयदि कह अणकिदि स्त पलिदि चंदस्स ॥ 
^“ अन्विति वण्यते कथमनुकृतिस्तस्य प्रतिपदि चन्द्रस्य । 7" 
भ (क क ह 
स्व शवला चमत्कृताः । ततश्वारणः सवीन्णिपत्व रथय । 
भ) क +. ४ [43 १०५९ 
` ततः सवं विचाध्यति स्म अहो दयं साक्षात्सरस्वती परुषेण सर्व 
पूमस्माङ्‌ प्रित्राणाधागता नायं भवितुमहति मद॒ष्यः। अवापि 
किमपि केनापि न ज्ञायते । ततः शीघमेव गृहमापाय शकटोषो 
भारतं भरातः -सर्वैरपि राजर्भवनं गेतवयं न चेचारण एव निवे- 
-दपिष्यति ततो श्चटिति गच्छाम इति योजयिता तथा क्रः । 
, ततो राजसभां गला राजावमाटोक्य खस्तीत्युक्ला विविशुः। 
ततो बाणः.भाह । देष सरवैन यखया प्यते तदीश्वर एव वेद । 
(+. 4 (न क 
“केऽमी वराका उद्रपरयः दिनाः तथाप्युच्यते- 
इसको सुनकर समी विस्मित होगये । पर्ठि चारण सनको प्रणाम करके 
--चरगया | तव सवने' विचारा कि, अहा { यहं पुरुषरूयसे साक्षात्‌ सर- 
सवती थी सो जानयडताै किं, हमारी रक्षा करनेहीको आई थी इसको मनुष्य 
.नहीं मानना चाये { ममा तो किसने कुक नह जानादै । फिर शीघ्रही 
सब धर आकार छकाोसे असवा उतार सम्मति करनेरगे कठ प्रातःकार्ही 
सनको राजाकी समामे चना चाहिये । नहीं तो यह पद्‌ चारण कर्हजायगा | 
-इस कारण शीघ्र चठेगे यह सलंह कके देसाही क्षिया । पीछे राजसभा 
जाकर जीर राजाको देखः" स्वस्ति › रूप आरीवाद दे विराजमानं इए । फिर 
वाणकाविने कहा हे देव ! जो आप सवै्ने कहा है उसको भगवानूही जान 
सका, थे तच्छ पेट मरमेवाे त्राय क्या जरनगे परु फिरमी कहते ह~ 


० 


{९० ) मोजग्रबन्धः- 


सैडणं भण अण ग्डो सो सुहवं खु एदपे ॥ 
अणट्रदि प॑णदि कह अणकिदि तस्स पद्पदि चदस्स्‌॥१५३४. 

आपकी समस्याका आद्य यह्‌ है कि, इस रानीके सुखचन्दरकी वरावरीः 
यह चन्द्रमा करताहै ( अव उत्तरा प्रतत रेसे ३ ) परन्तु रानीका सुखचन्द्र 
सोखह कराजोे सदैव पूर्णं रहत जौर चन्द्रकी कठा प्रतिपदाको एकदी 
रहजाती दै इससे रानीके मुखचन्द्रकी बरारी यदह चन्द्रमा न्दी 
करसक्ता ॥ १९३ ॥ 

राना यथान्यवसितस्यागिपरायं विदिखा सर्वथा काठिदामो 
दिवसुभाप्यस्थने निवसति । उपयेश्च सप साध्यम्‌ । तते बाणाय ` 
रुकमाणां पेचदशरक्षाणि भादात्‌ । संतोषमिपेणेव विदद खं सवं 
सदनं भतिमेषितम्‌ । गते च विद्रन्णडठे शने्रोरपालायादिि रज्ञा ! 
यदि केचितु द्विजन्मान आयास्यति त्दा गृहमध्यषानेत्व्याः ! तत 
सवेमपि वित्तमादाय स्वगृहं गते वाणे केषिदंहिता आहुः । अहो 
वाणेनादुचितं व्यधायि । यदपतावपि अस्माभिः सह नगरानिष्कर- 
तोऽपि स्मेव धनं गृहीतवान्‌ । सर्वथा भोनस्य बाणस्य रपे ज्ञाप- - 
यिष्यामः। यथा कोऽपि नान्यायं विधत्ते विद्रु । ततस्ते राजा- 
नमासाय दश्शुः राजा तानाह एतत्छरपं ज्ञातमेव भ्विर्य- - 
थाथतय। वाच्यम्‌ । ततस्तै सर्वमेव गिवेतिम्‌ ! ततः राजा पिचा- 
रतवान्‌ । सर्वथा काठिदारश्वारणवेकेण मद्धयान्पदीयनगरम- 
याते । ततथागरकषकानाविदेश । हो पलाय्य तुरगाः । वतः : 


„° च्छाया-ुखनामन्नुरति ग्लौः स॒ सु खचंद्रस्य खल्मेतस्याः । अन्विति वण्धेते- 
कथमयुकतिस्तस्य प्रतिपाद चेद्रस्य 


मापारीकासहितः 1 (९१) 


य इति शुश्रुमः । पुनरिदानीं कीञेयानं गमिष्यतीति व्याङखाः 
व भः सभूव एवायांति। ततो राना तेदिदिनिः स अश्वमारुह्य 
रते य॒त्र चारणप्रगः समजमि तसदेशं भरप्तः । ततो रजा 
= ( [० (र 
चरता चराणा प्ञाननिपुणनाहूय भह । अनेन वरना यः 
कोऽपि रतरो नितः तस्य पदाति अयापि संते तानि पश्यदिति। 
ततो राजा प्रतिपडितं रक्षं द्वा ताम्मेपयित्वा च स्ववनम- 
गात्‌ ! ते च पृदह्णा राजाज्ञया स्व॑तश्वरतोऽपि तमनवेक्षमाणा वि- 
मूढा इवासय्‌ । ततश्व ठंवमाने सितारे कामपि दाप्तीमेकं पद्‌- 
णं तुटितमादाय चमकाखेश गच्छतीं दष त हासन । 
ततस्तत्‌ श्दु्राणं तया चर्मकारकरे न्यस्तं वीक्ष्य तेष तस्य करा- 
म्मिपेणादावं रेणे पे सुर्ला तदेव ९६ तस्येति ज्ञालातां 
चं दुर्म क्रमेण वेश्यापवनं वजैतीं वीक्ष्य तस्य! मंदिरं प्रिता 
[१ क [^ च [। क 

देष्टयामाघुः । ततश्व तैः क्षणेन भोजश्रवणपथविषयं अभिन्ञान- 
वाती भापिता ! ततो राना स्परः सामायः पद्धयामेष विराव 
तीपवनमगात्‌ । ततस्तच्छरला विलासवतीं प्राह कालिापतः १ 
प्रि | मत्छते रं कष्ट ते पश्य । विर तवती प्राह सुकवै- 

देखा सुन ठीक है कहकर राजाने विचारा फि, अव्य एक दिनमे प्राप्त 
देनिवाठे स्थानम काठिदास रहत! उपाय करनेसे सबही सिद्ध होदि । 
तिसके पीडे पन्द्रह खख सपथे वाणकविको राजा भोजने दिये | में तुम स्वोसे 
ग्रसन इ इस वहानेसे सव विद्रानको राजाने अपने २ घर मेजदिया । जव 
सव विद्वान्‌ चटेगये तवहा राजने द्वासास्से कहा जो कोह ब्राह्मण अवे 
खन्द हमारे स्थानपर छना । फिर समस्त धनको छेकर सव वाणकवि अपने ` 
खर चछछछागया तव कुछ पंडितोने कहा अदयो ! वाणक्रविने वडा अनुचित विया {- 


८९२ ) माजमवन्धः- 


कारण जव यही हमा साथ नगरसे निकखया तो हमार बयवरही इजा तत्र वह्‌ 
इकठेही सव धनको कथो ठेगया | मटीमातिसे रजा मोजकै नामने वाणकविदे 
स्वखूयको करेगे । जिससे फिर कोई विद्रानमे अन्याय न करनेपवि । फिर चह 
विद्वान्‌ रजके पस आये । राजाने उनसे कहा यह स्वख्प तो जानखिया 
परन्तु तुम सत्य सय कहौ । तव उन विद्वानेनि सव समाचार कहदिया । 
राजने विचारा सव मांतिते मेर भयसे चारणका वेष चनाये काटिदास मेरेदी 
नगस्मे विराजमान है । तब राजाने स्ेनापतियोकौ आज्ञा दी भदौ थो्डोको 
दीडाओ । फिर वगीचम चख्नेके स्यि नगाडा वजा राजा देवप्रूजन कररहे 
है पीछे वागे जर्यिगे । देसे शब्दको सुनकर भ्याकरुक हो सव लोग इक 
हो राजके पठि चरनेको तैय्यार इए | तव राजा उन विद्रानोके साथ 
घोेपर चडकर रात्रिम जहां चारण भिलाथा वहां पवा । किर राजनि 
विचस्तहृए चोरकं पदचिहको पह्चाननेत्ासेके स्यि बुकाथा ओर उनसे 
बाढा कि, इस मागंसे त्रम जो गया है उसके पदचिह्न अव्रभी दीखते 
उसं पहचानो । फिर राजनि उन प॑डिरतोको एक २ लख रपरये देकर घर 
भनाप्या जार अपमा अपने सखानको चखाथया { उन पदचिद्धको पद- 
चाननवाखनं चारा मार धूमकर मूक समान पदचिर्होको नदीं पहिचान ! 
जवे थ दन रहा तव द्रटी जूती स्थि किसी दासीको चमार घर 
-जत्ताइह्‌ दख प्रसन इए । पछ उस ट्टी जूतीको दासीनि चमार दायें 
ष्टाः चह दल उन खाज करवाने ट्टो जतत चमारके हाथसे किसी 
वहान॑स उडा जीर रेतीखी भूभिमे जहां पदचिह पायेथे उसमे डार्कर देखा 
ता वहं पदि इसी जूतीका पाया । जीर उस दासीको वैरयाके धर 
श्रा जान वेदयाके धरकी चारौ ओरसे रक्षा करतेहृए्‌ ! फिर उन्हँने क्षण- 
भरम इस पदचिहके जाननेकी नात राजाकौ पहु चाह । तव राजा मोज 
नररनवासी ओर मन्नियोकषे साथ पैदछ्ही विखासवत्ती ८ वेद्या ) के स्थाच- 
पर आया । पीछे इस इत्तान्तको सुन काञिदासन विलसवे्तीसे कहा हे 


` भन | मरे कारण तुजे कैसा कष्ट प्राप्त हा उसे ख । विछस्व्त्ती वोदीं 
ङ कविकरुरुगुर्‌ | सुनो- । 


भाषाटीकासाहितः ! (९३ भः 


उपस्थिते विषुव एव पुंसां । 
समस्तपावः प्रमीयतेऽतः ॥ 
अवाति वायो नहि तृटराश- । 
गिर कोश्चलतिभाति मेदः ॥ १५९४ ॥ 
पुरुयाको व्िपत्तिके समय सव्र मात्र दृष्टि अतह तते विना पवनके 
चठ ररदूका ठेर जीर पर्वत एकत्ता दीखतै ॥ १५९४ | 
मिन्रस्वजनवेभृनां उद्िविततस्य चालनः॥ 
आपनिकपपापाण)। जने। नानाति सारताम्‌ ॥ १५५ ॥ 
मित्र, सजन, वरु, वुद्धि; धरन ओर अपने सार॒भिपक्चिख्य कसीसी- 
वाडा पुत्पही जानताहै ॥ १९९ ॥ 
अभराधितानि दुःखानि यथेवायांति देहिनः ॥ 
सुखानि च तथा मन्ये देन्यम्‌त्रातिस्च्यते ॥ १५६ ॥ 
दारीरधारियोको विना मांगे श्वयंही जे दुःख ओर सुख प्राप्त होजति 
३ सों भं उनमें द्रीनताकोही धिदोप समकषतर ॥ १९६ ॥ 
सुवे | राज्ञा तायि मनाक्‌ निराङते वचसापि मया संहे 
@ 99 (२ म, = (+ = (9५ क =$ $+ + ॐ 
दावं पदीतदहो पतिष्यति । कालिदासः परिये! नेवं मतव्यं मां 
ठा विकारीरुतास्ये भोजः पादयः पतिष्यतीति । ततो वेश्या- 
गृहं प्र्शि भोनः काठिदुत्तं छ्य सेप्तनममाष्प्य पदयोः 
यतति ! सर राना एति च- 
हे घुक्रवे ! यदि वाणीपे राजाने कुमी तुम्हार निरादर क्रियातो 
भे दासीगणोके सराय प्रज्वच्ति अभम भ्म होजाऊंगी । काञ्दिसन 
कहा भवे | यह मत समन्नाना सच्चे देखकर राजा हसताहमा चरणोपर 
गिरपडेगा । तिसकषे उपरत वेदयाके घम माकर राजा मोज काठिदासवो , 
देख चित्त दोक्रर चरणेमिं गिपडा । ओर कहने ख्गा । 


९४) । भोजप्रवन्ध्‌ः- 


गच्छतस्तिष्ठतो वापि जाधतः स्वपतोऽपि वा ॥ 

मा सूल्मनः कदचिन्मे लया विरहितं कवे ॥ १५७ ॥ 

हे क्वे ! चरते, ठदहस्ते, जागते ओर सेततहएभी मेया मन कमी - 
तुमसे दूर नहे ॥ १५७ ॥ 

कटदापरस्तच्छत्वा गेडवनताननास्वात । राजा च 
काटदास॒सुखमुनमप्पाह्- 

काङ्दिस इस वातको घुने नीचेको सुख करके खड हौगये । त्व 
-राजाने काठिदासके मुखको सामने करे कदा- 

कावद कलावास्‌ दासयचचाछितो यदि ॥ 

राजमामं वरन्त प्रेषां त्न का पा ॥ १५८ ॥ 

दे कलाओं के क्षेत्र काड््दिस ! अपने राजमार्गे चरतेहए्‌ सुत्ने 
दासकी समान बलिया तो इषम दूससेको क्या कज ह ॥ १९८ ॥ 

धन्थां विसि मन्ये काटिदाहे यदेतया ॥ 

[र द 4 @ भभ 

नबद्धः स्वरणरष शङ्कत इव पजर ॥ १५९ ॥ 

५ वरिरसिनी वेद्याको धन्य॒मानताहं जिसने अपने गुणस पज 
प्तक समान काष्दासका वाध स्ख ॥ १५९ ॥ 

रोजा नेनयोः हुषश्च मानयति करयं ऊारलिदासस्प ! 
ततः वसािपरसचो राना बाह्मणः प्रयेकं खक्षं ददौ । गिनत॒- 
र्‌ च काटदासमारोप्य सषारारः विजगृह्‌ यया । छयलपे 
कालेऽतिक्रति राजा कदावितध्यामाटोकषय पाह . 

फर राजान काठ्दासके आनंदाश्चको सप्ते कखमलेसे पो जीर . 
का्दासकं पाने राजान प्रसन्न होर प्रसयेक ब्राह्मणको एक २ खख 
सपय दय । कर्‌ राजा मोज अपने घोडेपर काछ्दिसको सवार कराय 


दख्वङ्क साथ अपने घर आया !। थोडे दिन 
पो उपरान्त राजते किस 
ददन सन्यकों देखकर कफहा ॥ 


भापाटीकास्हितः। ( ९५ ) 
परिपतति प्योनिषो पतंगः । 
सूय समुद्रम पतित दोतारै । 
ततो वाणः भा-सरिरुहासदरेष मत्तम: ॥ 
-वागकाधिने कहा-जपे बगीचमे कमफ वीच भ्रमर परडताहि । 
ततो महेश्वरकपिः-उपवनतरुफोररे विहगः। 
-मदेश्वरकविने कहा-जेसे बगीचेभं वृक्षो की खखोहडमे पक्षी छिपता है 1 
ततः काटिदसः-युवतिजगेष शनैः शनेरनंगः ॥ १६० ॥ 
कालिदासने कदा-जस लियो रारीरमं घीरे २ कामदेव प्रवेदा करतार ! 
यह सन्ध्यासमयका वर्णन है ॥ १६० ॥ 
तुष्ट राना ठक्षं क्षं दद । चतुर्थचरणस्य लक्षदरयं ददौ । 
कदाचिद्राजा वरिरुदयानपध्ये मागं प्रतयागच्छतं कमपि कि 
ददर्शं । तस्य करे चर्ममयं कटं वीक्ष्य तं चातिदसिं ज्ञातां 
सुतभिया विराजमानं चावलोक्य तुरगं तदे निधायाह । कषः 
चर्मपातरं किमर्थं पणो वहसीति । स च विप्रः नूनं मुखशोधया 
मृदक्त्या च भोज इति किवियीह्‌ । देव | ददान्यशिरोमणो भोजे 
पथ्यं शति लोह्लापघ्नाावः समजगि तेन चर्ममयं पत्रं वहम 
मीति । रजा भोजे शास्ति खोहतप्नापषे को दिः । तदा 
विभः पठति- 
प्रसन्न होकर राजाते वाण ओर महैश्वरकविको एक ९ छख पये दिये 
ओर काठिदासको दो खख रषये दिये । किसी समय राजा भोज बाहर 


- वगीयेके गसि जाताया तो सामनेपे सतिप किस्त ब्राह्मणको देखा ] उसके 
हाथमे चमडेका कमण्डट देख, दीन जान, मुखपर तेजकी छटा निहार उस 
न्ाद्यणके सन्मुख घोडको रोककर कहा कि, हे ब्राह्मण ! चमेडका कम्‌ क्यो 
हाथमे रखते हो 2 उस ब्राह्मणे सुखकी शोभासे जर मधुरमाषणसे जनिय ` 


८९६ ) भोजप्रचन्धः- 


करि, यह राजा मोज दै तव बोल कि, हे देव ! दानिम रिरोमणि राजा 
भोजके होनेपर रहे जीर तिका अभाव होगया इसीसे चमडेका करमड्ु 
रखता हं । राजाने पूछा, राजा भोजके होनेपर ठोहे ओर तांवेका कयो अमाव 
इोगया 2 तव उस त्राह्मणने कहा- 
अध्य श्रीभोजराजस्य द्वयमेव सुदुलकम्‌ ॥ 
+ ॐ ॥ + | 
शरणां शृखेलीहं ताम्रं शास्तनपत्रकेः ॥ १६१ ॥ 
इस राजा मोजके राञ्यम दो वर्त्रम दोग एक तो रत्ुजकीं वेडि- 
्योकी अधिकतासे ठोहा ओर दानके पट टिलनेसे तावा ॥ १६१ ॥ 
[1 4 = [9 
ततस्तु राजा ्त्यक्षरं ठक्च ददो । कदाचिद्रारपाटः श्राह । 
धाद] दृरदेशादागतः कथिद्धिदानर हरि विति तयली च तत्पुरः 
सपलीकः अतोऽपिपवित्रं वदठुटुवं द्वारि िषितीति । राना 
अहो गरीयसी शारदरसादपद्धतिः । तस्मिचरवसर गर्नद्पाल 
आगत्य राजान भरणम्य प्राह । भोज | सिंहटदेशाधीश्वरेण स्पा- 
शतं 9 ज भ क म थ) 
दत गजव्राः प्राषताः बड सहपणयश्च । तता बाणः प्राहु - 
पि प्रसन होकर राजाने एक २ भक्षरफे एक २ ठख स्परे दिये !{ 
किसी समय दवारपाने कदा कि, हे धारानगसके प्रस ! दूर देखते आकर कोः 
विदान दवारपर खडा है साथमे उसकी ची ओर पुतरभी दे अत एव परम पवित्र 
विदधाना वुटुम्ब दरवाजे खडा है । ८ यह सुन ) राजनि कहा अहा ! 
सरस्व्तीकी छपा अपार है । उसी समय गजेन्द्रपारने आकर राजासे प्रणाम 
करके कहा-हे मोजराज ! सिह्देरके राजने सवासौ १२९ हाथी 
मजे है ओर सोरु महामणि भेजी है, तव वाणकराभिने कहा- 
स्थितिः कवीनामिव इुनासणां । 
स्परमेदिरे वा नृप्र वा ॥ 
द ० (भ (५ 
गृहे ह फ मशका देते । 
भवाति भ्पालक्भूतपितमाः ॥ १६२ ॥ 


भाषारीकासाईतः ( ९७) 


हे राजन्‌ } कवियोकी समान हदाथियोकी ` प्थिति अपने मदि वा 
राजमवनम सोभा पाती है} फिर राजाओंे भूषित शरीरवारे कति ओर 
हाथी क्यो मच्छरोकी समान फिरते र ॥ १६२॥ 


ततो राना गजावलोकनाय वहिगात्‌ 1 ततक्तद्िलुटु 
वीक्ष्य चोलपंडिते राज्ञः पियोऽहमिति गरं दधार } यन्मया रान- 
भरवनमष्यं ग्यते । विद्तछुटुषं तु द्वासारश्ञापितमपि बहिराप्ते । 
तदा राजा तेता गर्वं विदिा चोदि साधागणा्िःसारि 
तवान्‌ 1 काशीदेशवाी कोऽपि तंडटदेवनामा रज्ञे खस्तीत्यु- 
क्ताकिष्ठत्‌ । राजा च वे पप्रच्छ । सुमते | डतर निवातः 


[ > ५ 


तितत पीछे सजा हाथियोके देखनेको वाहर आया । तव उस सुटुव 
विद्वानूको देख चोर्पाण्डितने गकेसे कहा कि, भे राजमहलमे जानेसे राजाका 
प्रिय रं | अन्य विद्वान्‌ तो द्वारपालक बताये बाहर खंड है । तव राजान 
चोपण्डितके मनमें गर्वं जानकर उसको महख्के आंगनसे वाहर निकार 
द्विया । पछि कोई काशीनिवासी तण्डुरुदेव नामक विद्धान्‌ राजासे आकर, 
® स्वस्ति › कहकर वैठगया तव राजान उस. पुदछा कि सुमते ! हे विन्‌ ! 
तुम कहां रहतेहो । 

वैते यत्र सा वाणी रपाणीं रिक्तशालिनः॥ 

श्रीमन्मालवभपाट तत देशे वसाम्यहम्‌ ॥ १६३ ॥ 

हे श्रमिन्‌ ! दे माठ्वदराके राजा ! जहा राति हाथवारे मयुष्यके पासं 
चाणीही तल्वारके समान रहतीहै भै वीं ( प्वेदेशमे ) रहता ॥ १६३ ॥ 


तष्टो राजा तस्मे गरनदसप्त़ं ददो । वेतः कोऽपि विद्वानागसं 
अहि | 
- रसन होकर राजन. उस विदानो सात हाथी दिये । पछि कित 
विद्रानने आकर का~ 
|~, 


< ९८ >) भोजमबन्यः- ` 


तपतः सेपदः भ्या स्तत्तपोऽपि न पियत ॥ 

प * कक = = क 

यन्‌ त्वं भजक्लद्रुहगाचरणप्याप्त ॥ ३६४ ॥ 

जिस तपते संपतति प्राप्त होती है उसको तप नहि कहते जिससे आप 
-मोजरूप कलयदरक्च हमारे दृष्टिगोचर हौ उसेही तप॒ कहते है ॥ १६४ ॥ 

तस्मै रान्‌। दशनान्‌ ददो । ततः कथिद्राह्णपुत्रो भरभा- 
खं कुदौणोऽयेति । ततः सथं सभताः कथ भूभारं करोषीति 
रक्ञ। स्वहगोचरमानीतः पृष्टः स पाह्‌- 

राजाने उसको दरा हाथी दिये, फिर किसी ब्राह्मणक्ुमासते ° भूमा 
ङाब्द श्रिया ८ रोया ) उसे सुन सभी चकित दौकर वाठे यह “भूमा शब्द 
-केथो करताहै, राजाने अपने पास ुखकरं प्रू तव वाङ्न कहा- 

देव ! तवदानपाथोधो दारिवस्य निमनतः ॥ 

न्‌ कोऽपि हि कराटंबं दत्ते मततेद्‌यक ॥ १६५ ॥ 

हे देव ! मत्त हाथियोके दानी ] तुम्हारे दानरूमी सागरम इवते हए ` 
द।रिदको कोई हाथका सहर नर देता ६ ॥ १६९ ॥ 

स॒ ४ । = (१७ म [ह ९ 

ततस्छड[ राजा तसम जशत्‌ गजद्राच्‌ भरदात्‌ । ततः प्रवशति 

पलनीषहितः कोऽपि विलोवनो विदान्‌ स्वस्तीसयुक्सा्राह- 


[हि ० ककर 


पिर प्रसन्न हो राजने उपे तीस हाथी दिये । तिसके उपरान्त सच्चीक 
किसी विराचननाभवाङे विदवान्‌ते ‹ स्वस्ति › कहकर कहा- 
निनानपि गजान्‌ भोजं दशतं पेय पार्वती ॥ 
र ॐ [न 
गद्रवदन पुत्र रक्षय पुनः पुनः ॥ १६६ ॥ 
अब पृवित्तीजी राज। भोजको हाथि्योके दान करते हए देखकर जपने पुत्र 
स्तिुलबारे गगेराजीकी बार २ रक्षा करती है ॥ १६६॥ 


भ 
हि 9 ज पथम दवारे खड( था, उसीको यहां विलोचन कहा हे । अथव प्राचश्च होने 
विलोचन कद! है । 


भापारीकासहितः । (९९ ). | 
ततो राना सपर गनान्‌ तस्मे ददो । ततो राजा दिदिखुटुवं 


दैव पुरतः स्थितं वीक्ष्य ब्रह्मणं भाह- 
तेत्र र।जाने उसे मात द्‌।थी द्वियं । फिर राजाने विद्रानके कुटुंवको सन्मुख 
विद्यमान देख त्रा्मणसे समस्याप््तिको कहा- 
क्रेयापिद्धिः संखे भवति महतां नोपकरणे । 
-महत्‌ पुरप्रीकी क्रियासिद्धि ररी होती टै सामम्रीमं नहीं होती । 
वृददिनः भाह- 
वृद्ध ्ल्णने कदा- 
घटो जन्मस्थानं मृगपरिजनो भूरजवसनं । 
वने बात: कंदादिकमशनमेवेविषटयणः ॥ 
अगरत्यः पाथोधि यदर्त कररंभोजङ्हरे । 
करियािद्धः ससे भवति महतां नोपकरणे ॥ १६७॥ 
प्रद जन्मस्थान है, मृगी पराके भुष्य दै, मोजपत्रही वल्ल है, 
चनह ब्रा्तस्थान द, कंदमू भोजन है रेस गु्णोसे भूषित अगत््यसुनिने ससु- 
दका आचमन करर छिया इस कारण महत्‌ पुरपका क्रियासिद्धि शरीसही 
दोती ६, चाम्र नरह दोती ॥ १६७ ॥ 
ततो राजा बहुमूल्पानपि पोडशमणीर्‌ तस्मै द्रौ । ततस्त- 
सलीं पराह राना अव ] तमपि १ । दवी- 
ततव राजान हृत मूत्यत्रा्यी सोटह मणि उसे देदीं । फिर राजा 
उस ब्राह्मणकी चरी बोला किं, है मातः ¡ आपभी समस्याकी प्रति कारये । 
ह्यमी वोली- 
रथस्यैकं चक्रं थुजगयमिताः सपतुरगा । 
निरालंबो मा्श्वरणविकलः सारथिरपि ॥ 
रवियोत्येवातं भतिव्निमणारस्य नसः । = 
` क्रिणािद्धः ससे भवति महतां नोपकरणे ॥ १६८ ॥ 


(१००) मोजप्रवन्धः- 
ू्के स्थका पिया तो एक, सर्पत वधे सात वेड, आकाङामागे ओर ` 
चरणहीन सारथिक हेनेयरभी प्रतिदिन सूर्यं आश्रारके पार हो जाताहै इससे 
महत्‌ पुरोकी क्रियसिद्धि शरीरही होतीदि, सामधरमं नह होती ॥ १६८ ॥. 
ड = क क 
राना तषट सप्तदश गजाच्‌ सत्र सथाश तस्य दद । तता वित्र. 
त्र भाद राजा विपरुत | वमपि ठ । पिपसुतः- 
तव राजनि प्रसन्न होकर १७ सन्रह हाथी ओर सात.र्थ उस ब्रह्मणीको 
दिये । पीछे राजने ब्राह्णकुमारसे कहा हे विप्रयुत ! व॒मभी समस्याकी पूर्तिः 
करो । यह युन ब्राह्मणकुमारने कय~ 
विजेतव्या रंका चरणतरणीयो जटनिधि- । 
विपक्षः पोटस्तयो रणयवि सहाया कपयः ॥ 
पदाविमरतयोऽपो सकटपवधीदराक्षसडुलं । 
कियापिषधिः ससे प्रवति महतां नोपकरणे ॥ १६९ ॥ 
ठंकापुरीकरो जीतनेवाले, सागरको चरणोसे परार करनेवाके, पुट्सयक- 
षिका पुत्र महानस राबणके विपक्षे, वानरोकी सहायतति, पेदर्ही रम- 
चन्द्रजीनि मनुष्यशरीरसे समस्तराक्षसोके करका ना्च कर॒ दिया इससे 
जानपडता फि, महतपुर्मोवी क्रियासिष्धि शरीरम दोतीदै सामम्रीमे नदीं 
होती ॥ १६९ ॥ 
तश राजा विपसुताय अष्टादश गनद्रन्‌ परादात्‌ । ततः घुङ्- 
मारमनेन्ञनिखिलागावयवाटेरतां शृगाररसोपजातमूरतिमिव चंप- 
केटतामिवि लाण्यगात्रयष्टि विप्सुषां वीक्ष्य रतं भारयाः 
केपि रीलारूतिरियमिति चेतसि नमस्य राजा राह । मात- 
रतमप्याथिषं वद । विभस्यषा-देव शूणु- 


क प्रसन होकर राजने ब्राह्मणङरुमारके व्यि अठारह हाथी वि ! 
छ शुमारी सुंदरी कोमलोगी शुंगाररसकौ मू्िकी समान चपकी वेक 


ह $ कासाहितः ( १०१ ) 


५५. 
समेन शोभापयीन्छीरवा तरह्मगकी पुत्रवरध्रुको देखकर राजाने कहा 


-निश्यव्र-सं स्वीका ठीठामयी आकृति है रेसा विचार प्रणाम करके 
सजाने का, ह मत्तः ! तुपभी आर्यवद्‌ दीजिये । तव पंडितकी पुत्रवधू 
-वोटी, दे दव ! मुन- 
= 5 = % 9 
धतुः पोष्पं मोवी मधुकरमयी चचर्द्शां । 
रशा कणा वाणः सहुद१ नाला [मकरः ॥ 
स्वथ चकोऽनमः सकटसुदन व्याङ्कखयातं । 
किधारिदधिः सचे भवति महतां नोपकरणे ॥ १७० ॥ 
पुष्यस्मी धनुपको ध्रारण करमेचादा, अमरख्पी प्रत्यंचावाका, च्च नेन 
चासी लिक नेनकोणसरूपी णवा, जडात्मा चन्द्रपो मित्र, अंगहीन 
अनेमनामवाला कामदेव समस्त भुवर्नोको व्यार करदेतटि, इससे विदित 
हीतादै कि महत्पुदपोकी चियासिद्धि शरीरमही होतीरै सामग्रीमे नही 
-दोती ॥ ६७० ॥ 
चमत्छतो राना टीटदेवीभूपणाि स्वाण्यादाय तस्ये ददौ । 
( १ >. ५ क 
अनर्घ्य सुवर्णमोकतिकनेहुेभवाटांण भद्द । ततः कदारि- 
-ट्सीमंतनामा कविः प्राहू | 
चकित होकर राजनि रीदखयद्रिवी ( रानी ) के सत्र आभूष्णोको ठेकर 
उसको दे दिया ओरी वेशी कीमती सवणे, मोती, मणि एवं मृगो दिये! 
पीछे किसी समय सीमंत नामक कविने कहा । 
पथाः ससर दीथतां वयज निजं तेजः कंटोरं खे । 
श्रीमरनिध्यगिरे परसीद सद्यं सव्यः सुमे भव ॥ 
इयं दूखछायनश्रमवतीं ष्य निजोपरी । 
श्रपन्तान तव दषः प्रपतन जत्पात्‌ मच्छि य्‌ १७१५ 


( १०२ > भोजप्रवन्धः- 


हे मर्गं ! शीघ्र अपनी दूरीको छोडकर आजाभो, हे सये ! अपने प्रचंड 
तेजको त्यागदो, हे श्रीमन्‌ विन्ध्याचरू ¡ दयाकरके प्रसनन होकर शीघ्री 
समीप होजा । इस माति दूर मागनेसे थकीडद्‌ अपनी छ्ियोको देखकर 
तुम्हारे शाघ् प्रतिदिन बकते है ओर मूश्छित होते रै ॥ १७१ ॥ 

तस्मिनेव क्षणे कथित्सुवर्णकारः भति परागमणिमंडिवि 
सुवणेभाजनमादाय राज्ञः पुरो सुमोच । तनो राजा सीम॑तकविं 
भार । सुकेवे ! इदं पाजनं कामपि शरियं दशयति। ततः कविराह~- 

उसी समय किसी सुनारने आकर पुण्यरागमणिते जडेहए थाल्को 
छाकर्‌ राजाको मेट किया, तव राजनि समंत किते कहा हे क्वे ! यह्‌ 
पात्र केसी विचित्र रोमा देरहहि उसको सुन कवं वोर- 

धरेश खसतापेन पराभूतस्सविषापतिः ॥ 

एुषेणेपातरव्याने देवं तामेव सेवते ॥ १७२ ॥ 

हे देव ¡ हे धारे ! तुम्हारे प्रतापे सूर्यनारायण तिरस््त हो सुवर्णन 
पात्रके बहाने तुम्हारी सेवा करना चाहतेहै ॥ १७२ ॥ 

ततस्तषटो राजा तदेव प्र सुक्तफरैरपूरयं परादात्‌ । कदा 
पिदराना एगयारसेन पुरः पलायमानं वराईं॑इष्ट स्वयमेकाकी 
तदा दूर वनातमाप्तादितवान्‌ । तन कंचन दविनवरमवछोकय भह । 
दिन ! इन गंताति ! दिनः-ारानग्रम्‌ 1 पोनः- किमर्थम्‌ । 
दिनः-पोनं ऋ विच्छा । स पडिताय दते । अहमपि मूर 
न याचे । भोन-विम्‌ ! तह लं पिदन्कमिवां । दिनः-महा- 
भाग ¡ कदिरहमू । पोनः-तरि किमपि पठ । दविनः-पोनं पिना 
मतद न्‌ कोऽपि - जानाति \ राजा-ममाप्यपरवाणीपरि- 

_ ज्ञानमत्ति राजा च मयि, लिति लदुणं च भावपिष्यामि ॥ ` 


भाषादटीकासदितः। { १०३ >` 


किमपि कलाकोशलं दशय । मिः वणंयामि । रोना 
केटमनतान्वणय्‌ । विभः 

फिर प्रसन्न होकर राजाने उस सुवर्णके थाटको मोति्योसे भरकर किव 
चये दे दिया । किसी समय राजा रिकारकी इच्छासे भागते हए सुभरको 
देख उसके पि दूरतक धनम चटा गया । वदां किसी उत्तम ब्राह्मणको दे.द- 
कर कहा हे विग्र ! कहां जते हो ? ब्राह्मण बोला धारानगरीको । राजानै. कहा 
किसटियि, ब्रासणने कदा दरव्यकी अभिटप्रासे मोजका ददन करनेके स्यि । 
राजा वोख~मोज तो पण्डितफोही धन देता दै । त्राहमणने कहा ममी मूते ` 
नही मागता द्वं } राजाने कहा हे विप्र | तुम कवि हो वा विद्वान्‌ । ब्राह्मणने 
कहा भं कवि ह्रं । भोजने कहा-तव दुछछ पदिवे | ब्राह्मण वोखा राजा भोजके 
सिवाय मेरे पर्दकी प्रक्तिको कों नहीं जानस्तकता । राजनि कामै भी 
देववाणीको जानता हँ ओर राजा भोजभी मु्षपर सेह रखता है तुम्हारी 
गुणावर्छको में राजाको युनाऊंगा, कु बि्याकी चतुरता दिखादये ! 
नालणने कहा क्या बणैन कं । राजा वोल--हन कर्मेको अर्थात्‌ खेतमे 
स्थित्त धान्यविदोपकों वर्णन करो । ( तव ) त्राह्मणने कहा - 

कटमाः पाकिनप्रा मूटतलाप्राणपुरणिकहाराः। 

पवनक्रंपितिशिरसः प्रायः कुति परिमलश्ाम्‌ ॥ १७३ ॥ 

हे राजन्‌ { इन चविलोकीं जडमें प्राणरहित कमख्क। गेध है ओर 
सरख्तासे पकजारतर । पवनके वेगे दिठ्नेके कारण शिरको हिति इए 
यद धान्य कमख्के गंधकी प्रदंसा करते द ॥ १७३ ॥ 

राजा तसै सर्वागरणान्युत्ायं ददो । ततः कदाचिरुपकार- 
वधुः राजगृहमेलय दासार प्राह । इसा | राजा ऋष्यः। स 
आह किं ते रज्ञ कायमु । सा चाह । न .तेऽतिधास्यामि शषाः 
एव कथयामि} सृ सकनामागस्य पराह । देव | इंशकारभिया काचि 
््ो दशनाकाक्षिणी न्‌ वक्तं मलयुरः कायं ससुरः कथवि-- 
ध्यति । राजा पाह प्रवेशय । सा चागत्य नमस्छत्यं वक्ति- ` 


६१०४). भोजमरबन्धः- 


राजनि उसके ल्थि सव जाभूषण उतारदिये । फिर भिसीं समय किसी 
म्दारीनि आकर राजभवनं द्ारपारसेकहा हे द्वारा ! सुक्े ाजाका ददौन 
राओ । दारपाङ बोल, तेरा राजासे क्या काम है १ छुम्दारीने उत्तर दिया 
तु्चसे नही कहूंगी राजासेही कर्म! । तव द्वारपाले सभाम जाकर कहा 
देव ! कोई छ्म्हारी आपके दशरनोकी खाङसा करतीं ह ओर सुञ्चसे कार्थको 
नट कहती । हे राजन्‌ | आपके सन्मुखही कहना चाहती है । राजान कद 
छिवाखञओ । कुम्हारनि आकर प्रणाम करके कहा-- 
? , देव मृरंखननाद्छं निपानं वद्ठपेन मे ॥ 
स पृ्यननेव तास्ते तां ज्ञापपितुमायगाम्‌ ॥ १७४ ॥ 
हे देव { मदी खोदते हए मेरे स्वामीको खजाना मिखा है सो वह वहीं उस 
स्थित होकर देख रहा है इतनेमे भ आपसे नित्ेदन करने आई द्र ॥ १७४ ॥ 
राजा च चमत्छृतो निधानकलशमानयामाप् । तद्रारलाव्व 
यावसश्यति राजा तापरत्तदतव॑तिं यं मणिपरामंदटमालोक्य 
डुंकार पृच्छति । किमेत्छुंभकार । स चाह- 
राजाने चित होकर उस धनप्र करको मंगाया । जब राजाने उसको 
ऊपर उघाडकर देखा तो उसके भीतर मणियोकी कान्तिसे युक्त द्रव्य दि 
आया उपे देख कुम्हारसे पूछा ह इुम्भकार ] यह क्या है ? कुम्हारने कडा- 
शजं समारोक्य सा त॒ मूतलमागतपू । 
रलभेणिमिषान्मन्येनक्षत्राण्यायुपागमन्‌ ॥ १७५ ॥ 
हे राजन्‌ ! भै तो यह समन्ता दरं राजा भोजरूपी चन्द्रमाको पथिवीप्र 
आया इ देखकर यह नक्ष्रोश्ञी पक्ति रेक रूपसे आकर आपको 
ग्रा इर हे ॥ १७५ ॥ 
सना इगकरसुलच्छोकं ठोकोत्तसाकण्ये चमत्कतः 
| क द । ततः कदादद्रिना रानी पपेतो नगर्‌- 
प ववर्‌ परगिरमाकणंयद्‌ चचार । तद्‌ ककिर 


भाषारीकासदितः । ६ १०९ > 


= (क (0 , न ष्‌ 
वेश्यः स्वियां प्राहू भरि ! राजा खत्यदानंरोऽपि उनयनी- 
क च, क ४ क, & $ कह भोजेन = 
-नगराधिपतेरिकमकंस्य दानपरतिषठां कक्षे सा किं भोजेन 
९ = क 9 न कक क 6 _ (०५ १६ 
भाप्यते । केषिरतनपरायणेरमय रदिकरििर्महिमातं भाषति पोनः। 
परेतु भोजो भोज एव । परिये श्ण- 
राजाने कुम्दारफे मुखसे उत्तम शयोक सुनकर उ्तीको समस्त; धने 
देद्िमा । फिर किसी समय राजा इकला रात्रिम नगरके चरँ मोर घूमता 
हआ नगरासि्योकी बाणी सुनकर विचारे खगा । उसी समय किसी 
-वनियाने अपनी श्रीसे कटा हे प्रिये ! राजा मोज थोडे दान करनेसे उलेन 
नगर्दके स्वामी विक्रमादिव्यकी समान यङ्षको चाहता है सो क्या मोजकों 
मिल सक्ता दै ? मयूरादि कितनेही क्रियोनि तेत्रके दवाय मोजकी महिमा 
-म्रगट की है ठेकिन मोज तो भोजदीं हे । हे प्रिये । उने- 
भवद्तिमसदाजयिछिं्भिकरारोपितो यदि पदं मृगवे- 
रिणः श्व ॥ मत्तङ्कुभतसपाटनलपटस्य नादं करिमथिति 
कथं ह्रिणाधिपस्य ॥ १७६ ॥ | 
यद्धि को वुत्तेपर सिदकीं समान वाठोको व्यैट सिंहके स्थानपरं 
दुत्तेको धद तो क्या वह कुत्ता मत्त हाथीके मस्तकके फाडनेवाठे सििकीं 
-समान रन्द्र कर सक्ता हे ॥ १७६॥ 
^+" ^ । > (= ड 
राना श्चखा विचारतवादच्‌ । अ सत्यर्मव वदति | तत 
-युनःपुनर्वतं श्णोति- 
राजा यह घुनकर विचारने छ्गा कि, यह सत्य कहता है । फिर वार 
-वार कटनेको सुनता इञ। 1 ू 
$ ०, कन [५ # 
आपन एव पतर दहीसछचारणं न वेद्यम्‌ ॥ 
उपपतनमेव देयं स्यागस्ते विक्रमकं किछु वण्यः ॥ १७७॥ 
हे विनामादित्य ! अपके दानक क्या वर्भेन करं कारण यदि किसी दीनः 


{ १०६ ) भोजप्रवन्ध्‌ः- 


विपततधुकत पुरषने आपसे पात्र मांगा तो उसमे आपको बडा दुःख हीता ओर 
याप उसे पूणं धन दे देते जिसे उसे अधिकं विपत्ति न रहे 1 १७७॥ 
विकमफ खय। दत्त श्रीमत्‌ मामशताटकम्‌ ॥ 


[र 


अर्थिने दिजपुत्राय भोजे खन्महिमा कुतः ॥ १७८ ॥ 
हे विक्रमादि्य राजन्‌ ! आपने धनके निमित्त अगि इए त्रा्मणक्कुमारके 
चिये। १०८ प्राम देदिये अतत एव भोजम तम्दार महिमा कासे आश 
सक्तीरै ॥ १७८ ॥ इ 
, श्रप्रोति ईभकारोऽपि महिमानं भनापतेः ॥ 
य॒दि भोजोऽप्यवापोति भतिं तव विक्रम ॥ ३७९ ॥ 
यदि कुम्हार पिद्ठके वत्तन आदिवे वनानेसे नहाजीके पदको प्राप्त दो जाय 
तो हे विक्रमादिदय ! भोजी अपकी पदवीको प्राप्त हो जायगा ॥ १७९. ॥ 
राना रोके सर्वोऽपि जनः स्वगृहे निःशंक सतय वदति । मया 
वा अन्येन वा स्मैथा विक्रमाकंपतिषठा न शक्या प्राप्तुम्‌ । ततः 
कदाचितकधित्केविः रानहारं समागप्याह्‌ राजा व्यं इति । ततः 
प्रवाशत्‌। रना स्वस्तालयुक्ला वदज्ञयपावः पडत- 
राजान कहा संसारम सन मनुष्य अपने धर निडर हौकर सत्य कहते 
है| भरे वा ओर कोईहैमी विक्रमादित्यकी प्रतिष्ठाको नहीं प्रप्त कर सक्ता 1. 
फिर कुछ कारके उपरान्त किसी काधिने राजद्वारपर आकर कहा कि, . 
राजे ददीनकी खारुसा ह । तव कविराज सभाम जाय राजाको “ खस्ति ” 
कहकर राजाकी आज्ञासे वैठगया ओर यह पठने ङ्गा । 
कवि वादिषु भोगि देहि बविणवल्ु सतासुपकारिष। 
[ क्त [प ¢ क्षि कि क, क = क, 
धनिषु धन्विषु धरमधनेष्वपि क्षितितलेनहि भोजसमो सृपः१८०. 
= वादियोमे, मोगियोमे, रारीरधारि्योमि, सद्पुरु्षोका उपकार 
करनवारोमं, घनियोमे जीर॒धमोत्माओंमे इस प्रथिवीपर राजा भोजकी. 
समान दूसरा नरी ६ ॥. १८० ॥. . 


भापारीकासहितः । ( १०७ ) 


~ध + [र [ ५ 
राजा तसे रक्षं भायात्‌ । ततः कदाचिद्राना कीडोया 
प्रस्थितो मध्येमागं कामपि महिनांशुकं वसानां तेक्ष्णकरतपन- 
करविदग्धञुख।ररविदां सुरोचना टोचनायामालोकय प्रच्छ ॥ 
राजान उस कविको एक छख स्पये दिये । फ़िर किसी समय राजा 
मोज वगीचेको जा रहा था तत्र मामे मैरे बल्ल परर, प्रचण्ड सूय्यंकी 
किरणो सुखमण्डर्पर पर्सनिको धारे ओर युदर नेत्रोवाछी किसी श्मौको 
देखकर राजने प्ख । 
्कातवपुति।) साच तं श्रीभोनभूपाटं मुखभिया 
विदिता वश राह“ नख छर्थकवधूः ' हषो राजा वस्या 
पटुबधादवधेनाह- हसते किमेतत्‌ । ' सा चाह ~ पष्‌ । 
रानाह्‌~ क्षमं फं ¦ › सा चाह-एहनं जमीमि चृपते यदयद्श- 
च्छरयते ॥ गायंति लदरिभियाशतपिनीतीरेषु िददागनाः। गीति 
 मृनतृणं चरंति हरिमाप्तेनामिपं दटंभम ॥ १८१ ॥ 
हे पृश्नि ! तुम कीन हो १ उसने सुखकरी कतित राजा मोज जान प्रसनन 
होकर कहा हे नरेन्् ! मै परिधा ली हं । उसके युखसे रेतसे पदको खन 
प्रसन्न दोकर राजन कहा, हाथमे यह क्या है ? वह बोली, मांस दै । राजाने 
ढा थोडा क्यो हे ? उसने कदा हे राजन्‌ ] यदि सादर युनते हो तो सत्य 
` कहती हं । तुम्हरे शदुरयोकी व्िथोके ओँुकी नदीके किनरे सिद्धान्नना 
मान करती है, वरहीपर गानरूपी तणको हिरण चरते है अतएव मांस दुम 
हो गया है ! ८ जात्‌ भूखे मरगोका मांस सूख गया है ) ॥ १८१॥ 
राना तदै प्रक्ष लकष भारात्‌ । सर्वापरणान्युत्ताय तं चतुरं 
द । ततो गृहमागत्य गवक्षि उपविष्टः । तन चीनं भोनं द्र 
राजवर्संनिस्थिला कशिदाह्‌। देव सकरमहीषट | अक्रणय ॥ 
राजान उसके प्रत्येक अक्षप्पर छख २ परय दिये | ओर अपने सकः 


< १०८ ) भोजप्रचन्धः- 
`आभूषणोको उतारकर घोडासाहित उसे ददविये । फिर घरमे आकर श्वरो 
-खोमि बैठगया । बहा विराजमान भोजको देखकर किसी पुरषे राजमामेमे 
-खडे होकर कहा-हे देव | हे सकठमदहीपाड ! सुनो । 
इतेतश्वादिविवसितितरः सेतुरुदरे । 
धरित्री दुध्या कहुरदहिमपको गिरिरयम्‌ ॥ 
॥। ७ (= [५ [4 
इदार्ी निवत्ते करितुरगनीराजनविधो । 
न जाने यातारस्तव च रिपवः केन च पथा ॥ १८२ ¶ 
हे राजन्‌ ¡ आपकी सेनाके हाथी घोधोको जक परिदाने, नहटने जीर 
सथन सेनाकौ सजावटसे भपके शल किप मार्गसे जा्यगे सो नक्ष जान 
“पडता वर्योकि पुरक किनारे वा वीचमे बहुत भीड होनेसे प्रवी दुर्छघनीय 
है ओर हिमार्य पतैते वहत वक्षे पडता हे ॥ १८२ ॥ 
„ वष भने वनि स्थितयेव तति वैश्यान्‌ पच गाव 
ददो । कदाविद्राना पृगयारपपराधीनो हयमारुद्य भतस्थे ॥ 
यहं सुन प्रसन्न हो राजने मेम स्थित त्राहणको पांच हाथी दिये । 
पकिसी समय राजा शिकार खेकनेकी इच्छसे घोडेपर सवार होकर चग ! 
ततो नदीं ससुरीर्णं शिरस्पारोपितेधनम्‌ ॥ 


वेषेण बाह्मणं ज्ञाता राजा प्रपच्छ सत्वरम्‌ ॥ १८ २॥ 
तव रिरपर कञो गवो धेर नदामें त्तिरतेहृए मेषसे ब्राह्मण जान 
राजानं पु ॥ १ ८३ ॥ 


फियन्पातं नङ किमि । 

हे विप्र | कितना जरै | 
स आह-जानु्ं नराधिप ॥ 
स चमत्कते। राजाह्‌-शटशी क्िमवस्था ते+ 
प आह-न हि सर्व प्वास्शाः ॥ ९१८४ ॥ 


भाषारीकासदितः। ( १०९ > 


ब्राह्णने का हे राजन्‌ । धुटनोंतक । राजाने चमक्छत होकर कार . 
विद्वान्‌ होनेपरभी पम्दारी यहं दा क्यों है ? त्राह्मणने कहा~सव तुम्हारे 
समान गुणग्राही नकष है ॥ १८४ ॥ 

राना भाह उतूहलात्‌ । विदन्‌ ! पाच कोशाधिकरारिणं, 

शे क चै, कि [4 १, क क 
लश्च दास्यति मदचसा । ततो विदान्‌ कष भूमौ तिक्िप्य कोश- 
` पिकारिणे ग्ला पाह । महाराजेन पेषितोऽहं लक्षं मे दीयताम्‌ ॥ 
ततः स॒ रसन्‌ आह्‌ । विप भवन्ूर्तिः रक्षं नार्हति । ततो विषादी 

“ मेव पु १ क शै क, 
सं राजानमेत्याह । स पुनह्तति देव नपंयति। राना उुतहटा- 

५ श क क क र्म 

दाह्‌ । टक्षद्वयं प्रथय दास्यति । पनरागय विपो रक्षय देय- 
पिति राज्नोक्तमित्याह्‌ । पन्ति । पुनरपि भोजं प्रप्याह्‌ । स 

[94 ज [द १ क ०, क, [> [0९ न, 
परिष मां हृसति नापंयति । ततः कोतृहटी टीढानिषिर्क 
शित्‌ भोजराजः पराह । विम लक्षत्रयं याचस्व अवशं स. 
दास्यति । पुमरेतय प्राह । राजा भे ठक्षनयं दपयति। स पुनहं 
सुति । ततः कृदधो विभः पुनरेत्याह देव स ना्पयत्येव ॥ 

राजाने सहपं कहा फ, हे त्रिप्र ¦ खजानचीके पास जाकर मेरे हुक्मसे 
एक साख रपय छेको । तेव व्राह्मणने रिरके वोन्नको पृरथवोपर डाक खजा- 
नचीके पात जाकर कहा, मुनने महाराजने भेजा है एक छाल शये दे दो ।- 
तवर खजानचीनि दंसकर क, हे बराह्मम ! तुम्हारी तो सूरत ङ्ख 
पये योग्य नहीं हे । फिर खिन मन दह्ये ब्राह्मणे राजके पास जाकर 
कहा, हे राजन्‌ ¡ उस खजान्चीनि पये न देकर उपाक्त किया । त्तव 
राजान सद कहा, यच्छा दो कख रुपये मांगो देगा । त्रा्मणने खजान- 
च्वि पास जाकर कहा, अव राजाने दो रख षये देनेक्देदैसो 
दौजिये । खजानन्वी फिर हसा, तब फिर भोजके पास जाकर बराह्मणे 
कहा फ, महाराज | बह पापी खजानची हसता है.ओर मुञ्चे सपे नीः 


११० ) मोजप्रबन्धः- 
देता हे । फिर जनन्दसे क्रीडने क्षेत्रस्यरूप प्रष्यके शिक्षक राजा भोजने 
देता हे । फिर अनन्दते क्रीड रूप पूर्वीय शिक्षक र र 
कहा हे विप्र | अव जाकर तीन खख र्पये मागो वह अवस्प देगा | त्त्र 
ह्मणने खजानचीसे आकर कहा सुत्ने तीन खख रूपये दो देसा राजने - 
-वाहा हे । यह सुनकर खजानची फिर ईस दिया तव क्रोधित्त हो ब्राद्मणने 
राजसे आकर कहा है देव ! वह तो देता नहीं । 
क क्न ॥ श कष 
-रामन्कनक्धारारस्लाय सुवन वषवि॥ 
अगण्यच्छनेसछसे मपि नायाति विदवः॥ १८५ ॥ 
हे यजन्‌ ! आपकी सुवर्णधारा समी स्थने वप रहीं ई परन्तु अमा 
ग्यरूयी छत्रसे ठके होनेसे मेरे उपर वृदमी नह पडती हे ॥ १८९ ॥ 
श, 6 „न, , न्युः __ + 
त्वपि वषि पजन्य स॒वं पह्मिता दमः ॥ 
अस्माकमकंवृक्षाणां प्रवेष संक्षयः ॥ १८६ ॥ 
है राजन्‌ ! मेघरूपी तुम्हारे वधैनेसे सशरं इक्षोपर पत्ते आगथे जीर 
दमसरीखे आकवृ्षेकि तो परे पत्तेमी न्ट हो गये ॥ १८६ ॥ 
एकमस्य प्रमेकमुव्यते निष्चपखमपरस्य वस्तुनः । 
. वितयसुरगमहृसा निरस्यते नित्यमंधतमसं भधावति ॥१८७॥ 
ख्जान करना ही केव एक मार जीवका उपाय है, क्योकि प्रति- 
दिन दिनके प्रकाशरूपी उष्णता अन्धकार भाग जता हे उषम किसीकीः 
रुजा नही आती हे ॥ १८७ ॥ 


ततो राना प्राहु 

¦ फिर राजाने का~ 
कोषं मा डुर मदराक्थाद्त्वा कोशाधिकारिणम्‌ ॥ 
सक्षनप गजदाध दश ब्ाह्माघ्वया दिन ॥ १८८ ॥ 


, ह ब्रह्मण | क्रोध मत्त करो ओर मेश आक्षे खजानचीवे पातत जाऽ 
_फव तीन राख शम्ये ओर दश्च हाथी छे ठो] १.८1 


भापारीकासदितः । ( १११) 


_ ततः स्वाग्क परपयति। ततः कोशापिारी धर्मपर 
{ख्ख । 

पीट राजाने अपने सेवको भेजकर दिवा दिया । तव॒ खजानचीनि 
-धर्मधतर्रर टिखा । 

लक्षं रक्षं पूनटक्षं मताश्च दश इतिनः ॥ 

दनाः श्रीभोजरानेन जाद्ुदरप्रषाषिणि ॥ १८९ ॥ 

खा, खान सीर फिर यख इस्त भांति तीन वारकी आज्ञसि तीन लख 
स्पये ओर दद हाथी श्रीराजा भोजने धुटनोंतक जर कहनेवाठे व्रिदवानूको 
दिये ॥ {८९ ॥ 

ततः सिंहासनमटेङ्कवणि श्री भोजसृपतो इसाट आगत 
आह्‌ । राजन | कोऽपि शुक्देवनामा कदिद्रारि वर्षते । रना 
वाणं प्राहु । पंडितवर सुकवे ! तं विजानाति । बाणः-द्व ! 
शुकेदेवपरिज्ञानस्रामध्यापिक्नः काटिदापर एव नान्यः | र।नाह्‌ 
सुकवे सषे कालिदास ! कि एव विजानाति शुकदेवकषिम्‌ । 
आह काटिगासः-वेव | | 

तिनवे पछ सिदासनपर विराजमान राजा भोजसे आकर द्वारपार्ने 
कया, दे राजन्‌ ! कोद यकदेवनामक्र कचि द्वारपर खड हैँ । राजाने बाण- 
कोविसे काहे घुक्वे ! आप शयुकरदेवकविको जानते हो  वाणने कहा--हे 
देव ! ञयुकदेवकापिकरे जाननेकौ साम्य काठिदासके सिवाय दूसरेकी नरै 
& } राजनि कदा कि, दे क्वे ! हे सखे काञ्दिास | तुम छकदेषकविको 
जानते द्ये £ काट्दासने काहि कि, हे देव ! 

सुकविद्धितयं जाने निविठेऽपिं महतठे ॥ 

गवनतुतिः शुकश्वायं वाल्मीक्िश्ितयोऽनयोः ॥ १९० ॥ 

समस्त पृध्वीततर्मे केवर दो श्रेष्ट कवियोको जानता ह एक मवभूति जीर 


[^ प) 


दूस जुफेवको एवं हन दोनेके वीचमें तीसरे वाद्भीकिकं । १९० ॥ 


॥ 
त ०५९. 


(१९१२) भोजप्रबन्धः- 


ततो विष्ृन्दवंदिता सीता प्राह 
फिर विद्रानोसे वन्दित इई सीता वोटी- 
अपृष्टस्तु नरः किंचिद बते राज्स्तदि ॥ 
व केवटमसम्माने ठते च विडवनाम्‌ ॥ १९१ ॥ 
राजसभा मिना प्छ जो मनुष्य छु कहता है बह असत्करारकोही नरश 
पाता वरन्‌ दु ःखकोमी पातदि ॥ १९१ ॥ 
देव तथाप्युच्यते- 
हे देव ¡ तौमी कहतीहं । 
का सुभा कि कविज्ञानं रासेकाः कवय्व के ॥ 
भोज किं नाम ते दानं शुकस्तुष्यति येन सः ॥ १९२ ॥ 
हे राजा भोज ¡ क्या आपकी समा है, क्या कविका ज्ञान है, क्या रसिक 
कवि है जीर क्या आपका दान है जिससे शकक प्रसन हो ॥ १९२९ ॥ 
तथापि भवनद्(रमागतः शुकदेवः सप्ायामानेतव्य एव । तदु 
राना विचारयति । शुकदेवक्षामथ्यं श्चुला ह्षकिगिदयोः प्त्रमा- 
सीत । महाकविरवलोकरित इति हषः । अस्मे सकरविकोष्िङकट- 
अृणये कि नाम देयमिति च विषादः । भवतु दारपाड | भवेशय 1 
ततव आत शुक्देवं इषा राजा सिहासनादुदकछित । सवे 
धृडितिस्तं शुकदेव प्रणम्य सविनयसुपवेश्य॑ति। स च रानां 
सिंहासन उपवेश्य स्वयं तदाज्ञयोपविष्टः । ततश्शुकदेवः भाह। देव 
धारानाथ | श्रीषिकमनरदस्य या दानटक्षषीः सा तामेव सेवते ! 
देव मादर एव धन्यो नान्ये मूञुजः। यस्य ते कालिदाप्तादयो 
महाकवयः सतनद्धाः पृक्षिण इव गिवसंति । ततः पठति 


भापारीकासाहितः । ( ११३ ) 


तथापि द्वारपर आये ज्चुकदेत्रकयविको सभामे बुखाना चाहिये । तव राजाः 
शोचने र्गा, छ्यकदेवकनिकी शाक्तिको सुन राजाको हप ओर छरा दोना इए ! 
महाकविके दन होगे इससे तो मनन्द हभा ओर श्रेष्ट कविकोटियेमि मुकुट 
मणिरूप कचिको क्या देना चाहिये इससे विषाद हज । पिर राजाने कहा 
कुछ चिन्ता नही, हे दारा ! तुम कविको दुराखाओ, फिर ॒छय्रदेवकविके 
आनेपर राजा सिंहाश्चनसे उठा । साथहीं समस्त प्रण्डितमंडलो शुकदेवकविको 
प्रणाम कर विनयकरे साय वेटगये | ज्ुकदेवकषिने राजाको सिहासनपर विटाया 
ओर आपमी राजाकी आज्ञासे चैरगये | फिर ज्युकदेवजी दोले-हे देव धाराप्रति ! 
राजा विक्रमादित्यकी दान्क््मी आपकीही सवा करत्ती है, हे देव माले ! 
तुम्ही धन्य हो ? जो तुम्हारे यहां कालिदास आदि महाकविगण सूत्रसे वेधे 
पक्षियोकी समान वास्त करते दै | फिर इ्टोक पठा- 
नि [ , १ [ (क 
परतापी भोनस्थ तपनो मित्रतामगात्‌ ॥ 
भ, क [न (किमे क (। 
ओषा वाडवतां धत्ते तिव क्षणिकतां गता ॥ १९३ ॥ 
मोजके प्रतापके उरते सुय मित्रताको प्रात हआ, समुद्रकी अयि वाडव~- 
ताको प्राप्त दईं ओर विजखी क्षणिकताको प्राप्त दोगरई ॥ १९३ ॥ 
ना (० ५ क १. 
राजा-तष पुकवे नापरः शक्रः पठनायः ॥ 
राजाने कहा हे सुक्वे ! ठहरो ओर अभीं दूसरा शक न पढना ॥ 
षुः 1] [क] ५, श 
सुवेणकट्श प्रादाहव्यमागक्यसत्रुतम्‌ ॥ 
प श्‌ [। कद, क कि, ७ 
कानः शुकाय त९। द।तनश्वच चतुःशतम्‌ ॥ १९४ ॥ 


१ 
राजा मोजने ग्रसनतासे कदेव कथिका सुन्दर मणियोंसे भरकर कर 


[^ ५ 


छको दिया आर चार सो हाथी दिये ॥ १९४ ॥ 

इति पुण्यपत्रे शिखेखा सरवे दा कोशधिकारी शुक्र प्रस्था 
गरयामप्त । राजा स्पदेशं भरति मतं शुकं ज्ञाता तुतोष । साच्‌, 
य॒रिपत्‌ संता । अन्यदा वषीकाठे वघुष्वो नाम करिः कथिग- 
गत्य राजान वान्‌ । राना ुकमे पजन्य १३ । ततः किरा 


( १९४) मेनजमवन्धः- 
यह पुण्यपत्रमं छि राजाकषा दिया इ समस्त .धनादि खजानर्चनि 
ह्यकदेवकविको देकर त्रिदा करिया । ह्ुकदेधकवि सपने देको गये यह 
जानकर राजा प्रसम हा । फिर वपरजतुमे किसी वामुदेवनामक कविने 
आकर राजाका दरीन किया, राजाने का दै सुक्वे ! मेधका चैन करे 
तव कविने का~ 
नो वितमणिगिन कत्यतरिनौ कामपेन्वादिभि- । 
गुः १ [क [ज न, क 
नौ देषेण परोपकारनिरतः स्यूम सूष्ेरपि ॥ 
4, भ, । ७ $ भ 9 
अगम निरतर जलरसं प्िचता। | 
१०५३ क ४ क क 
परयण धुर तपाद वहता मन्ये नगनीपति ॥ १९५. ॥ 
चिन्तामणि, कट्यतर्‌, कामधेनु, देव्ता, परोपकासं चीर सथूड सकषम 
कोद चीन नही है परन्तु निरन्तर जरणं प्रथिवी सीचतेवछे, मारे 
मन्द्‌ २ चरुगेवाे मे क्षारा > मानता दर जगत्‌ जीता है ॥ १९९ ॥ 
¶ । [न्‌ (1 @ $ 4 
रना ठ्न दद । कदाचिद्रानानं निरंतरं दशनमारोक्य 
भाः व. [क [+ 
खल्यमात्या वकुमशक्त। राज्ञः शयनावनभितौ व्पकान्यक्षराणि 
{ट खतवाच्‌ ॥ 
राजनि ह सुनकर लाल रुपये दिये । विपी समथ राजाको निरन्तर 
दानं करते देल कहने असमथ प्रान मंत्री राजा सोनेके स्थानकी भीततपर 
स्पष्ट कषरोदयारा यह पद लिलता इमा । 
आपदं षं रेत, 
विप्िक छियि धनकी रक्षा करनी साह्य | 
राना शयनादुत्थित गच्छन्‌ भिक्त तान्यक्षराणि दीय 
स्वय दितीयचरणं ट्टे 
राजान जागकर चकते समय मीतप 


हे ए उन अक्षरौको देख खयं दूर 
,-बाद्को छि दिया | 


मापार्दीकासदितः । ( ११५ ) 


श्रीमतामापदः ऊतः ॥ 
श्रीमानेक कसी बिपत्ति ? | 
अपरेदुरमात्यो द्वितीयं छिखितं छा स्वय तुपीयं टिठेख । 
दूसरे द्विन मंत्रीन दूसंर पादको खिला दख तीसरा पाद टिख दिया । 
सा चेदपगता ठ्षषीः, 
चह क्षमी चटी जायमी तो ? 
परेदु राना चतुथं टिसति- 
अगे द्विन राजनि चये चरण ( पाद ) को टिखदिया। 
ॐ 9 ट, क क 
सात्ताया वनशपात ॥ १९६५ 
सवित धनमी नष्ट हौ जाता है ॥ १९६ ॥ 
व [१ [- [| 
ततो सुल्पामात्यो रज्ञः फदयोः पतति। देव क्षतत्योऽयं ममा- 
पुराधः। अन्यद्‌! धाराधीश्वसमुपर सोधमो शयानं मला कथि- 
द्विनचोएः खातपातद्ं रज्ञः कोशगृहं रविश्य बहुनि विविध- 
[क ४९ [न > क 
रलानि दैदुपदीनि हतवा तानि तानि परटोककरणानि मत्वा तेष 
वेरप्यमप्नो विचारयामास ॥ 
फिर प्रधान ( मंत्री ) राजक चरर्णोमे गिएडा ( ओर बोल ) हे 
देव | मेरा अपराध क्षमा के । एक सम्रय राजा मोज अपने महर्क छत 
परसो रदे थे, इस अव्र्स्को जान कोटं चोर जलग घुरुग उगाकर 
राजाके खजनिमे आया ओर अनेक माति वैद्यादि रत चुराये फिर उन 
सवनो परलोकका कण मानकर वहीं वैराग्यको प्रात्त हो त्रिचासे खा । 
यद्वयेणः इनः पवश्व दरिदरिणः ॥ 
पूवपार्थितपापस्य फटमश्नति दैहिनः ॥ १९७ ॥ 
पूरवजन्मक पकरि फरसे मनुष्य अंगमंग, दीः संधा, द्ूखा ओर 
द्री दयेत दै ॥ १९७ ॥ 


( ११६) भोजप्रचन्धः- 


ततो राजा निद्राक्षये द्व्थिशयनस्थितो विवधमणिकंकणा- 
कृते दपितवर्गं॒दशनीयमारोक्य गजतुरगस्थपदातिताम्थी चः 
चितयन्‌ राग्यतुखसंतुषः पमोदशरादाह ॥ 
फिर राजा जत्र सोकर उठे तव युन्दर राय्यापर स्थित अनेकः मतिकीः 
मणि ओर कंकर्णोसे भूषित रानियोको देख, हाथी, घोडे, रथ, पैटखको. 
देख विचारने रगे ओर प्रसन्न होकर हैके साय चोट । 
चेतोह युवतयः पुहदोऽलद्ूखाः सधवा परणयगगिरथः 
त्याः ॥ वत्मंति दतिनिवहास्तरलस्तुरगाः । 
मनोहारिणी मेरी च्ियां है, अनुकर मित्र है, मृद्‌ वोख्नेवा सेवक है. 
हाथी शब्द करत ओर घोरे चथ्चरु है । 


इपि चरणतयं रज्ञाक्तम्‌ । चतर्थचरणः रान्नो खखान्न निः 
सुरति तदा चोरेण श्चखा पूरम्‌ ॥ 


यह तीन पाद्‌ राजाने कहे चौथा पाद राजाके सुखते नहीं निक तो 
न्चोरने सुनकर प्रण कर दिया वि~ 


संमीलने नयनयोनहि किंचिदस्ति ॥ १९८ ॥ 

नेत्र मित्नपर ( अथात्‌ मरनेपर › कुमा नहीं है ॥ १९८ ॥ 
. ततौ अथितग्रथा राना चोर वीक्ष्य तस्मे वीरवटयमदात्‌ ! 
ततस्तस्कर्‌। व।रवल्यमादाय बाह्नणगृहं गा शयानं बाह्नणसु- 
त्थाप्य तस्म द्वा भाह्‌ । विभ | एतद्र्ञः पणवं बहमल्थम्‌- 
त्पमूतथेन न विक्रेयम्‌ । तते बाह्मणः पण्यवीथ्यां त। देकीय 
पिव्य्रषणान पड्दुकूलानि च जाह । ततो राजकीयाः केचन्‌ 
एन चीर मन्यमाना रज्ञो नििदयंति । ततो राननिकरे नीतः} 
राजा पृच्छते पम ] धारय पटमपि यासि अय प्रत्ये दिवय्‌- 
डलापरणपददुकूनि ङतः । पिः पाह | 


भाषारीकासितः । ८ ११७ > 


†*भ1 


किर फी पूर्ति राजने जान अर चोरको देख उपे वाव्कण 
देदिये । पिर ब्रह चोर बररकंशणको टे तराह्ममवे घर गया जीर सोतेहए 
माणो जगाय परंकण देकर मोल, द विप्र! यह्‌ रजाका कंकण चडे 
भरल्यदय ह इत्र शोडे मूल्यम्‌ नही वचना, परे ब्ास्मणने उसको वाजास 
येच घुन्दर आभूषण, पाट आर रेदामके बच् रीदे । तच राजाके वहुतते 
सच्रकनि इसन त्रम्मणको चोर जान सजाक्रे आकर कहा | फिर उसे राजाके 
पास्ने टये } तो राजने पंख है भूरे ! पहने गरो वल्रभी नहीयेसो 
सान प्रात्तःकाट सुन्दर कुण्डल, अाभूयण, प्राट्‌ अर रेदामी व्र कहासे 
सागरे ए नाद्मणने कदा 
किः कोररशापििृतमिव क्षमावतं कच्छः । 


ष 


[अ ० क [प 

पाठीनैः पृथुवक्रपटिद्टेऽनायसिनमुमंच्छितम्‌ ॥ 

तार्मरशुष्क्रस्यकालजठदनागप्य तेदेशिम्‌ । 

यजात निमृभवन्यकरिणां युथः पयः पीपते ॥ १९२ ॥ 

जद मदक मर्क समान कोटे पटेथे, कषटुप्‌ पृध्वी दवे पडे ये ओर 
मन्दी फीचर गर्म सोती मूच्छित पडी थी, उसी सखे सरोवरे अकाङ 
मवने आकर वर्पस चेय की जिसे वर्मे हाथी मी रिरतक दव 
तान करके जल पीति ९ 


है ॥ ६९९ ॥ 

ते राजा तस दीखल्यं चोखद्तं पिधित्य खयं च रक्ष 
खदा । अन्यदा कोऽपि कवीश्वरः पिष्णव।रुपो राजहयारे समागत 
पैः भवेशितो राजानं श ससिपूर्वकं १।६- 

सह मुन प्रसन्न ह राजाने उस चोरके रर ककण दिथाथा यह्‌ जान 
चारमी एक सख द्पयरे आर दिये । एक समय कोर विष्णुनामक्‌ कर्वाश्वर 
-राजदारपर अगि तव द्वारानि मतर प्रष्ठ किया तो रयजाको देख सस्ति 
` -केटकर चोटे- 


( ११८ ) भोजप्रवन्धः- 


4 प [^ ५ 
धाराधीस धरामगणनाकतरहटीपामिय । । , _ 
्ेधाशलद्रणनां चार खटिकासंडेन रखा दवं ॥ 
सेवेय तिदापमा समाव्तुल्यभूमीधरा- । | 
पावात्तयनति सम सोपमवनीर्पे तपाराचलः॥ २०० 
` हे धारनगरीक सामी राजा भोज ! पृरध्वीके महान्‌ राजां निनी 
करसे माध्य साथ त्रहमाजनि खदिया मकि दुकडेते आकाशा जपक् 
नामकी जो रेवा खैची वही यह आकाशगंगा दय गहै । किर पृथ्नीपरं 
आपकी समान कोई न दीखा तव ्ह्माजीनि वह खडियाका टुकडा भूमिप 
फैकदिया वही टुकडा यह हिमाख्ययपैत हो गया है ॥ २०० ॥ 
राजा लोकोत्तरं शोकमाङण्ये फ देयमिति व्यर्वितयत्‌ 1 
तस्मिन्क्षणे तदीयकवितवमभरकिदद्माकण्य सोमनाथाल्यकमेमुसं 
[९ (र + न 
विंच्छायमकवत्‌ । ततः त दायद्वानाते गराह्‌ । व्वा पकरि 
भवति प्रमनेन्‌ न कदापि वीक्षितास्ति राजसभा । यतो दारियग- 
रिषिरयम्‌ । अस्य च जैरणमपि कोपीनं मास्ति! ततो राना: 
सोमनाथं प्राई- 
राजाने रोको त्तर इस शछोकको सुन क्था देना चाहिय यह्‌ विचा, उक 
समय उसकी सुन्द्र कविताकौ सुन सोमनाथ कविका मुख कुभित होया, 
पीछे दुःखमावसे सोमनाथने राजसे कहा-हे देव } कवि तो श्रेष्ठ हे पस्तु 


= न 2 


इन्दौने राजसभा नहीं देखी है ! अतएव दरिद्का सागर ६ । तनपर जीर्णैः 
वौर्पानतक नरी है । त्र राजाने सोमनाथसे कहा- 
 निरवदयानि पयानि यदााथस्य का क्षतिः ॥ 
कषणा कक्षगिकषिपः किमिकषगीरसो ष्वेव ॥ २०१॥ ` 
जो कविता सुन्दर है तो इस अनाथकौ कया हानि है । क्यो $वका 
4 गनेका १ टक मिश्ुकके कामे दाबनेसे बह रसहीन नहीं दोताद।२० ११; 


भापादीकाप्तदितः। ( ११९) 


ततः सर्वेभ्यः तृट दता राना सणाया उदतिष्ठत्‌ । स्वैर 

प्यन्यन्पभितयण्यपापि । अदय पिष्णुकवेः कविलतमाकण्यं रोम- 
नायेन सम्य्दोएटयमकारे । ततः ससुत्यिता विद्सरिषत्‌ । 
तते विण्णुकाविरेके पये पते टिसित्वा सोमनाथकिहस्ते दा 
प्रणम्प गतुमारभत । अनर सप्तायां खमेव चिरं नेद । ततो 
वाचयति सोमनाथकविः ॥ 

पटि सवको ताग्बूक देकर राजा उटा 1 तव सवने प्रष्पर कहा कि, 
आज विप्णुकाधिकी कचिता सुन सोमनाथने वड दुष्टता कौ । किर त्रिद्या- 
नकी समामी उट गई | अनन्तर धिष्णुककिने एक पत्रपर श्छक छिखकर 
सोमनायका्ेकं हाथमे दे प्रणाम कर जानकी ईच्छा प्रकट की ओर कहा 
इत सममिं तु्दीं तरिरकालत्तक प्रहनतामे रहौ । फिर सोमनाथ कवने 
ऋलोकको पठा- 

एतेषु हा तरुणमास्तधूयमान्‌- । 
दावानेः कवटितेषु महीरुहे ॥ 
अतो न चेज्जछद सुचपि मा विशं । 
वज पुनः क्षिपा निर्दय कस्य हेतोः ॥ २०२॥ 

हे मेघ ! यदी खेद दै फ, प्रचंड पवनद्रारा धूयमान दवान प्रसित 
छपर जठ नहीं वर्पाता तो मत वौ परन्तु हे निर्दयी मेष | तू. वन्न क्यों 
छोडता दै ॥ २०२॥ 

ततः सोमनाथकविः निखिलमपि पद्दुककवित्तहिरण्पर्था 
त॒रगमादिसप्ते कटतवशावशेषं दत्तवान्‌ । ततो राजा सृगयारस्‌- 
रदो गच्छन्‌ तं विष्णुकविमालोकय व्याचैतयत्‌ । मया भस्मे 
भोजनमपि न पद्म्‌ । मामनादृत्य अयं संपततू्णः स्वदेशं भति 
यास्यति । पृच्छामि विष्णकवे | कुतः संपत्तिः पराप्त † 


८१२० ) मोजप्रनन्यः- 


तव सोमनाथकयिने अपने समस्त पाट, रेदमावघ्ल, द्रष्य, सवणे आदि, 
घोडे धीर संर्ण संपत्ति उस किक दे दी केवर एक “पहने इप्‌ वलः जीर 
खी शेष रक्खी 1 फिर राजनि शिकास्को जाते समय मागेमे विष्णुक्व्रिको 
देखकर विचारा कि, इक्को भोजन मी नहीं दिया । ( जीर ) यह मेरा 
अनाद्र करके पूरण संपत्तिको छिये अपने देको जाति । राजाने परूखा-- 
हे विष्णुकवि † यह संपत्ति करहासे मिटी ए । 
कविराह्‌ ॥ 
-कविने कहा | 
नणि दे १ अ भद क 
सोमनाथेन र्द देव वहणिश्ुणा ॥ 
अय शोच्यतमे पूर्णं मपि कत्पट्रुमायितम्‌ ॥ २०३ ५ 
हे देष ! हे राजेन्द्र ! तुम्हरे गुणोके भिक्षुक सोमनाथ कविने मेरी 
दरिद्रता दशमे कस्पवृक्षकी समान वाञ्छित फर दिया ॥ २०३ ॥ 
9 द 9 _ ० 
राना पूर्व सायां शरुतस्य श्छोकस्य अक्षरलक्ष ददो । सोम- 
नाथेन्‌ च यावहत्तं तावदपि सोमनाथाय दत्तवाच्‌ । सोमनाथः पार- 
राजने पूरवे्तमामे जो शछोक सुनाथा उस छोकके प्रत्येक अक्षरपर 
एक २ छाख रुपये दिये ओर सोमनाथकविने जितना दिया था उतना 
सामनाथ कयिको भी दे दिया । तव सोमनाथने का~ 
केत्तख्याने कुतः कुसुमानि वा ! 
क च फलानि तथा वनवीरुधामू ॥ 
अयमकारणकारुणिको यदा | 
न तरतीह्‌ पयांसि पयोषरः ॥ २०१ ॥ 
जन्‌ अकारण दया मेध जक नहीं वषौवेगा तो बनके बरषोपर पत्त, 
र जीर फर कैसे लगेगे ॥ ९२०४ ॥ 
9 क ५ ण , 
तत विष्यकवेः सोमनाथदतेन राज्ञा दत्तेन च तुवो । 
तदा सीमतङ्गपिः प्राहु | । 


मापार्दीकासटदितः । ( १२१.) 


पिर चिष्युकवरि मामनाथ भर राजसि भन मिटेनेसे प्रस प्रसन इ । 
-तव सीमन्त फविने कट्‌ा-- 

वहति सुवनभर्णी शेषः फठफलकस्थिा। 

कमृठृतिन्‌ मध्य सद्मास च धापत ॥ 
तमाप ङुद्त कड, पनि पपानापिरद्वर-। 
दहह महतां निस्सी मानश्वरित्रविभूतयः ॥ २०५ ॥ 

सेपरजी अपने फणे; एक मागमे समस्त सुवनको धारे है, कच्छपजीने 
सन्रा उन शेपजाको जनी प्रीखपर धारण किया है ओर उन कच्छपजीको 
सुने जदर्ते अपने उदरमे उट शक्ल द अहा ! देखो कैसे आनन्दकी 
वात £ करि, चर्वी व्रिमूति मी जार होतीं द ॥ २०९ ॥ 

कदचिमौधते रानानमेत्य भ्रत्यः प्राह । देव ! भषिरेष्वपि 
कोशेषु यद्वित्तजातमसि, तत्सवं दषेन कविक॑थ। दम्‌ । प्रतु 
कोशगुहै धनटेशरोऽपि नासति। कोऽपि कविः परयहं दारं कठति। 
इतः प्र क्वििद्राच्‌ व केपि रज्ञे त भाप्प्‌ इति सुख्पामास्छन 
देवसमिधों षित्तपनीयमिल्यक्तम्‌ । राजा कोशस्थ सवं ॑दत्तामातें 
लानन्नपि प्राह । अय द्रारस्थं किं प्रवेशय । ततो विदान 
स्वस्तीति वदच प्राह- 

किसी समय राजभवनक्षे नीचे राजासे सेवकने कहा कि, हे देव { समा 
-लजानोका थन आप कविर्थोको दे. चुके अव वह खाखी हो गये है| कोई 
कचि प्रतिदिन द्रारपर खडा रहता हे, अव किसी कवि वा व्रि्ानकं राजाक 
पाञ्च न जाने देना यह प्रधानमंनीकां अक अपका छुनाद | तव राजा 


भाजने खजानोक रीते दयनेको जानकरमी कहा दार विराजमान कविको 
तरीघर मेनो । फिर क्रिस विद्रान्‌ने जाकर ^“ सस्ति +” कहकर कय~ ` ` 


(१२२) सोजप्रबन्धः- 
नभसि गिल सीदता द्वकल । 
त्वदभिषुखविसूशोत्तानचंचूपुटेन ॥ 
नठधर्‌ जर्तारो दूरतस्तावदास्ता । 
ध्वनिरपि मधुरते न शुतश्वातकेन ॥ २०६ ॥ 
हे मेष ! विना अवरम्बके चिरकाक्से दुःख पति इए तेरे सन्मुखः 
वचोचको कैकाय चातकने मधुर वचनभी नहीं घुने, जल्कीं वृन्द ॑तो दूरः 
रही ॥ २०६ ॥ . . 
राजा तदाकण्यं धिग्जावत याद्रदन्तिः कवयश्च दारमाग्रत्य 
9 ® कह क कन अ १ _ 
सीदेतीति। तस्मे विभाय सवोण्यरणान्ुत्तापं ददो । ततो राजा 
कोशाधिकारिणमाहूयाह । भाडारिक | सखंजराजस्य तथामे पूर्वथा 
च ये कोशाः संति तेषां मध्ये रलपूणान्कटशानानय । ततः. 
काश्रीरदेशान्सुचुदकन्दकविरागत्य स्वस्तील्युषरलवा भार- 
 राजाने यह सुनकर विचारा किं अव जीवनको धिक्वार है क्योकि विद्वान. 
ओर कवि दारपर आकर दुःख पाते दहै । उस ब्राह्मणको समस्त भाभूषण 
उतारकर राजाने दे दिये । पीछे राजाने खजानचीको बुटाकर कहा-हे 
माण्डारेक राजा मुंजक अथवा मेरे प्रवेोफे खजनेमेसे रत्नोसि प्रण कल~ 
खको ऊाओ । फिर कारमीरदेरासे  सुचुकुदकाथिने आकर “‹ स्वस्ति ›*` 
कृट्तर कहा-- । 
तवव्यशोजटघों भोज निमउजनयादि ॥ 
सूदुषि ® भ [| म 
बमिषतो धत्ते कुद्वयं नभः ॥ २०७ ॥ 
. हे भोज ! अपके यञ्चरूयी सागरम इबनेके भयसे यह आकाश चंद्र 
चीर सूयक मिसे दो घट धारण किये है | २०७॥ 
राना तस्म प्रयक्षरं ठक्च ददो | पुनः कविराह- 


„राजान उस कविके एक २ अक्षरपर एक २ छख रूपये दिये फिर 
कृविने .कहा- 


भाषाटीकासहित; । ( १२३ >: 


आपन क्षणानि यावंति चातकराभूणि तदे ॥ 


तविताभप तयादर न सुच्छ जलर्बदवः॥ २०८ ॥ 

्े मेव ! तुमने ज व्पनिमं जितनी देर कीं है चातक्रके उतने ही 
कालतक आंत निकटे दै तोहे उद्रार. मेव ! तुमने चातके आंुओंकी 
चन्देकि बरावरभो जरकौ वृन्द नहीं वरह ॥ २०८ ॥ 


ततः स राजा तस्मे शततुरगानपि ददो तते भांडारिको टिखति ॥ 
पि याजने उसको सी घोडे ओर दिये । तत्र खजानचीने धमपत्रपरठिला । 
मुचुङ्कदाय कवय जाव्यनन्वाञ्यत दद ॥ 
पोनः भरदत्तटश्चोऽपि तेनास यादितः पनः ॥ २०९ ॥ 
राजा भोजने शकक प्रव्येकं भक्षरपर कविको लाख २ स्पयेमां 
दिये पस्नु जव कने पुनः परीश्राकी तो सौ घोडे भी सुचुकुदकविको 
ष्देये॥ २०९॥ । 
ततो राजा स्वानपि वेश्म मेपपिलवातिरगच्छति । ततो रा्तश्वा- 
मरयाहिणी भाह- 
पटे राजा सवको घर भेजकर महख्मे गये, बर्हा राजाकौ दासनि, 
चमर इटयते हए कहा- 
राजन्छंनकुटपरदीष सकलक्ष्मापङचूडमणे । 
युक्तं संचरणं तवाद्ुतमणिच्छतरेण राजादपिं ॥ 
म्‌ भूखद्रदनावलोकनवशारीडाकिनप्रः शशी । 
] जचेयमरधती भगवती दृश्भीटताभनिनम्‌ ॥ २१० ॥ 
हे राजन्‌ ! ह सुंजकुख्दीपक ! दे सकक राजाओंके चूडामणि ! अपके. | 
अद्भत मणियोको छते प्रकाशासे रात्रिम चकना उचित ह" कन्तु तुम्हार 
सुखकमलट्को देख चन्द्र॒ उनित न हो ओर मगवती अरृन्धता दुरा 
नहो ॥ २१० ॥ 


दे 
करो 


< १२४ ) भोजपरवन्धः- 


[१ | 4 (स अः @ क क प 
राजा तस्यै परयक्षरं टक्ष दवौ । अन्यदा कुंडिननगराद्रोपासो 
"नूम कविरागत्य सस्तिपरषकं भाह- 
राजने उस दासीक एक २ अक्षरपर एक २ लक्ष त्ये दिये । किसी 
- समय कुण्डिन नगरसे गोपार्नामक कविने आकर ' खरित › कर्हकर कहा 
तदितते भोज गिथतं दये तृणकणायते ॥ 
मेधे क अ क 9 = क 
कोपे विरोधिनां सेन्थं प्रसादे फनकोचयः ॥ २११ ॥ 

हे भोज ! आपके चित्तम उदय हई दो वस्तुं तृण ओर कणकी समान 
आचरण करती है । अथात्‌ जापर क्रोधमे शघ्ुकी सेना तृणकी समान 
खीर प्रसन्नतामे सोनेका पर्व॑त कणकी समान आचरण कहता ह ॥ २११ ॥ 
(क वषि [ष्व [4 छः 
राजा श्वतापि वटो न दस्यति । राजपृषेः सह च 
कुर्बाणक्षिषठति । ततः ककिव्पर्चितयत्‌ । किमु राज्ञा नाभाति ष 

ततः क्षणेन स॒सुद्यपमेवमवरोक्य राजानं कषिराह- 


राजनि सुनकर प्रसन होनेपरभी कुछ नहौ दिया } अपने मंत्नियोके साथ 
चातोखाप करताहृञआ वैठारट्य ! तव कविने विचाय कि, क्या राजने 
नदीं छुना । फिर उमी समय राजाको मेघ समुनत देखकर कदा- 
हे पाथोद यथोच्चते हि भवतां दिश्यादरता सवतो 1 
मन्ये धीर्‌ तथा करिष्यसि खट क्षीरान्धितुल्पं सरः ॥ 
र खेष क्षमते नहि क्षणमपि पीषमोणणा च्वाक्ुलः । 
पाठीनादिगणस्त्वदेकशरणस्तदषं तावकियत्‌ ॥२१२॥ 
हे मेष ! हे धीर ! य मे जानत कि, तुम ककर समस्त दिशाओमे 
याह हो पृष्वीके समपूणे सरोवरोको क्षीरसागरकी समान अवदय करदोगे, 
किन्तु मी्मकतुकी उष्णतासे व्यकुर तुम्हारे आभरित मीनादि जीव ईस 
` -ुःखवप नहीं सह सक्ते ह । अतएव जरम्भमे छु तो वषा करो ॥ २१ शा 


भाषारटीकासरितः। ( १२५) 


रना कविंहृदयं विज्ञाय गोपाटक्वे  दाख्ियाधिना किति 
दग्धोऽपीति वदन्‌ पोडश मणीनध्यान्‌ षोडश देती ददो । एकदा 
राना धारानगरे विचरत कविच्छिवराटये प्रसुप्ते पुरुषद्रथम- 
पूरयत्‌ ! तयोरेको षिगतनिदो पक्ति । अहो तं ममास्तरासन्न एव 

क भदै क [ भेद [ष 

कर्तं भरसुप्ोऽपि जामपि नो बा । ततस्र भह । पिष प्रणतेऽ- ` 
सि अहमपि बाह्मणपनः लामत्र परथमराते शयां वीश्य रते 
च भरीपे कमंउटूपवीतादिभिव्रह्नणं ज्ञाता गेषदास्तरात्तन्न एवाहं 
सुपः! इदानीं यदिरमाकण्यं भङुदधोऽसि । भथमः शाह्‌ । वस्स | 
यदि तं भ्रणतेऽपि ततो दी्वायुस्तव । वद्‌ कुत आगम्पते करि ते. 
नाम अतर चरकं कायम्‌ | द्वितीयः पराह । पिपर भास्कर इति 
नम्‌ । पथिपससदरतीरे प्रपासतीथंसमीपे वपति्मेम । ततर भोजस्य 
वितरणं बहूभिव्यावर्णितं ततो याचित॒महमागतः। ठं मम वृद 
तावितरकत्पोऽपति। स्वमपि वद । स आह । वत्सशाकत्य इति 
मे नाम । मया एकशिलनग्यी आगम्यते पज परति दरविणाशया । 
वत्स | चयाठुक्तमपि दुःखं तपि ज्ञायते । कीर्थं तद्वद ततो 
भास्करः प्राह । तात | कं ववीमि दुःखम्‌ ॥ | 

राजनि कवक हदये मारको जानकर कहा--दे गोपाठ्कवे ! तम दरि 
ताकी अथिसे निरन्तर दग्ध हो रहे हये यह कह राजाने उस कथिको वद्धम्‌- 
व्यक सोटह मणि दी अजर उत्तम सोर हाथी दिये । एक दिन धारानग~ 
रमि विचरते हए राजनि किसी रिवाख्यमे सेति इए दो मनुष्योँको देखा 
उनमेते एकन जागकर कहा-महा { तू कौन है जो मेरे विप्तस्के समीप 
सोया । जागता हे वा न । तव दूता बोका-दे भूदेव ! मै आपको 
म्रणाम करता हु, मे मी व्राह्मणङ्कुमार द्र | आपको यहो सोया देख दीप~ 


१२६ ) भोजप्रवन्धः- 


-कके प्रकारा यज्ञोपवीत ओर कमण्डल्को देख ब्राह्मण जान विस्तरके समीप 
-सोरा । अव तुम्हारे वचन सुनकर जागा ह । प्रयम ब्राह्मणने काहे 
चत्स [ जो तुमने प्रणाम किया त्तिससे तुष्हारी आयु वदे, कहो करसि अवि, 
क्या नाम है जीर्‌ क्या कामै? दूसरे त्राणे कहा-दे वरिप्र ¦ मेरा नाम मासक 
ह, पश्चिम सागरके किनारे प्रभास ताीर्थकरे निकट रहता द्र । अनेक पुर्पोक 
सुखसे राजा मोजा दान सुनकर याचनाक चयि यरहौँ आया द्रं तुम जायु 
-वडे होनेते भेर पितके समान हो, तुमभी अपना परारेचय दो । तव वह वोख- 
हे वत्स । सुत्ने शाकल्य कहते है, एकशिानगरीते धनकी आशा खगाय 
मोजके समीप आया ह हे बरस ! तुम्हारे न कहनेपरमी मे तमे ह्वी 
जानता द, सो क्या दुःखद १ कदो तो सही । तव भाक्करन कहा-हे तात १ 
दुःखको क्या बं । 
सुर क ५1 # $ प [] 
स्समाः शरावः श्वा इ तर मेदाशयो वाध्वा । 
(क ४४ १.९ ५4 + ५ 
ठा जजरषषधर्‌। जनुटवेना मां तथा बाधते ॥ 
अ, क ॐ $ ¢ है, ॐ क = # 
हन्या तत्तशुक घटयेतु रत्वा सकाङु सिमत्‌ । 
. ४७ ती कषे भ क © [1 [9 
प्तौ पतिवेशरोकगृहिणी सूचि यया याचिता॥२१३॥ 
शुषासे क्षीणकाय हो बारुका शावक समान हो गये है, उुटुम्बीजन मेस 
जरस मनको हटाय है, घस कटे ऋय लाखके टुका्से जोडकर रखा 
हे, दण्डिता यह दश्चामौ ृन्ने दुःखद नहीं हे परन्तु फटे वलो श्वि मेरी खर 
जब सुई मागनेको गांबक ल्ियोमे जाती है तश्र वह ल्िथे तो सुखसे संद 
दती हई जो इषित होती यही दुःख सुसने मरे डरता है ॥ २१६॥ 
शुः प ९, 
रमि छसो स्वक्षिरणम्युत्तायं तस्मे द्या प्राह । सासकर 
4 ^ ५ भ, 9 _ क 
सदतथतेव ते बलाः ज्ञटिति देशं याहि । ततः शङ्गत्थः पहि 
सजने सुनकर अपने सब जमूषणोको उतार ब्राह्मणो दे दिये ओद 


ा- ६ भाक ! तुम्हारे बाख्क डे दुली होगे अतः तुम श्र देशकः 
जाओ | फिर राकत्यमै वाहा- 


भाषाटीकासदितः। ( १२७ १ 


अत्यदधता वसुमती दल्ितिऽसिगः। 
ऊ डीरत। बरवत बलिराजरष्ष्मीः ॥ 
एकन जन्मनि इते यदनेन युना । 
जन्मत्रये तदकरोटपुरषः पुराणः ॥ २१४ ॥ 
राजा माजन पृथ्वीका उद्धार किया, शत्ुओंको दलित किया ओर राजा 
-वखिकी राजलक्ष्मी दीन री यह्‌ चिष्णुके तीन जन्मो करने योगय कर्मक 
-राजा मोजने एकी जन्मे करखिया | २१४॥ 
ततो राजा शाकल्याय लक्षत्रधं दचवान्‌। अन्यग राजा मृग- 
यारसेन विचरन्‌ ततर पुरः सपागतहरिण्यां बाणेन विद(यामपिं 
पवित्ताशथा कोऽपि किरा 
तव राजनि शाकट्थको तीन राख रूपये द्विये । एक समय राजने दिकार 
-सेरते हए हिरणीकी बाणसे वेधा तत्र द्रव्यकी आरासे किसी किनि कहा-- 
भ्रीभोने मृगयां गतेऽपि सहसा चापे समारोपिते<- । 
पयाकणान्ेगतेऽपि खशिगिख्ति बार्भेऽमरेऽपि च ॥ 
स्थाननेव पलायितं न चलितं नीतकंपित नोष््ड1। 
मृग्या मदशगं करोति दयितं कामोऽपमिययाशया ॥२१५. ॥ 
राजा भोज ! आपके रिकारके छथि अनेपरमी, बाण धयुषपर चढनि- 
यरभी, कानतक सैचनेपरमी, सुद्धीसे छोडनेपरमी. जौर अगम ठ्गनेपरमी यह 
हरिणी कामदेव मेरे पतिको मेरे वशम करता है योँ मोहित होकर न मागी, 
न ची, न कापी जीर न कूदी केव अचर खडी रदी ॥ ९१९ ॥ ू 
राजा तस्मै टक्षत्रयं परयच्छति । अन्यदा सिंहापनमलंकुबाभि 
` श्रीपोननरपतौ द्ासाछ आगत्य भाह । देव ! नाहषीतीरातिनी 
@ = क ® (~ क भ श्‌ 
काचन्‌ बृद्धबाह्नणी विदुषी दारि तिति । राजा प्राह पशप । तत्‌ 
अग्च्छ¶ राज। प्रणमति । सा तं रिरिमविव्युश्वाह- 


८ १२८ ) मोजप्रवन्धः- 
राजाने उस कथिको तीन खख रुपये द्वैये एक दिन राजा मोज सिहा- 
9, ५ ठवासिनी ५५, ट 
सनपर बैठे थे तब. द्वारपाटने आकर कहा-हे देष ! गंगातटः कोह 


विदुषा ब्राह्मणा दार खड ह | राजाने कहा-ठेआओ फिर ब्राह्मणि आनेपर 
राजने प्रणाम किया उस ब्राह्यणीन चिरज्ञवि रहा! यह कुकर कह{- 


भाजप्रतापाश्नरूव एष जागत समुतकरकर्यलह ॥ 

यस्मिन परविष्टे रिपुपाधिवानां तृणानि रोहति गृहामणिष्ठु २१६ 

यह मोजकी अप्व प्रतापरूपी जि पवेतोके कटकस्थटम जाग रही 
हे, जिस प्रतापरूपी अध्चिके प्रवेद होनेपर रत्ुराजाभोकै घरके आंगनमें 
चण जमभाते है अर्थात्‌ आपके प्रतापसे समस्त रात्र नष्ट होगे ओर 
उनके घरोम घास उपजने क्गी ॥ २१६ ॥ 


राजा तस्यै सपर्ण कटशपरयच्छति। ततो सिखिति भांगार्कः॥ 


राजने उस ॒त्राह्मणीको रतस परणं कठ्दा दिया } तव खजानचीने 
धमेपत्रपर छिखां । 


भर्जन कलश दत्तः इुदणम।भेस्तः ॥ 


भपस्तुततुष्टन बद्धाय राजत्षस्‌।द ॥ २१७॥ 


म्रतापका स्तुतिसे प्रसन होकर राजा भोजने राजसभा बद्धाको सुवर्ण- 
मणियोसे एणं कट्दा दिया ॥ २१७ ॥ 


अन्यदा दूरदेशादागतः कथिचोरो रजानं भाह। देव ! सिह- 
चदें मया काचन चण्डाट्ये राजकन्या चछा । साच मां ष्टा 
माखपदेशदेवस्य महिमानं बहुधा शते त्वमपि वदेति प्रच्छ । 
मया च तस्यं दवणा व्यावर्णिताः सा चायंततोषाचंदनतरोर्वि- 
प गखंड दा यथस्थाने शदे! देव | एणाभिव्णमप् 
तदतद्रहमण । एतसद्ोपरिमलभरणे भगा सजंगाश्च समायाति । 


राजा तद्हराला तुष्टस्तस्मे रक्षं दत्तवत्‌ । तती दापाद्रकविस्त- 
. क्मचण राजान्‌ स्ताति ॥ 


भाषाटीकासदितः। ८१२९) 


एक समय दूरदेशे आकर किसी चरने राजसे कहा-रे देव ! सिह- 
ख्यसमे देवकि मंदिमं किती रजङ्धुमारीको भेन देखा है । ट्‌ स्ने देखकर 
पने दमी कि, मस्तके राजा मदमा बहुततोके युख्तते मुनी है सो ठममी 
फस ट वेन } तय मैने उसके भगे युणवर्णन किया} तव सने च्डे 
सानेदरस चन्दनं र्त सुंदर यीचका टुकडा दिया भर अपने स्यानकों 
वली मह्‌ । द दरव { आपके ुणेकरि चलाने जो यद चन्दनका टुकडा प्रात 
यथा टै उसको साप पण कलिव । देनो दृतकी वुगभिमे अमर अर सर्प 
आति द | यजने उसको टेदरं प्रकत ४ एक ठखस्प्रये द्विये | फिर 
दामोदस्कभिन उसके मिपमे राजाकी स्नुति की । 
भ्रीमचंदनव ॐ ५ क क भ 

श्रीमृचदनवर्ष सतिं चहवस्ते शाखेनः कानने । 

> + = ५ क क ५, [कि 

यषा सारममातकर तिवस्ताद भयण पृषपात्रपा ॥ 

#* ऋ र [आ 6 ि [क्षप (३ 
प्रत्यग्‌ घुद््तन तन शएचना स्प्रतः ब्रप्द्वा्पना | 
च > [र क, ण ते 
योऽसौ गंधरणरत्वया भकसितः कामाविह गेश्यते ॥२१८॥ 
ड श्रीमन्‌ ¡ रे चन्दनग्क्ष ! वनम एसे अनेक वृश्च ई जिनके पोर 
युपि रहतीं दै अरं जो य॒ गन्ध वमत प्रगट है सो चह युण्यके प्रत्तापसे 
५, [१ एषि = श्वि ० चै, ० 1 
प्रसिद्ध अात्मामे तुम्टरे समी अंगम विल्यत्त दै सो तुम यहां किसको 
देखते दो ॥ २१८ ॥ 
[1 क (स 
राजा स्वस्तु उद्धा लक्ष द्द । ततो खार आगत्य 


[+ ११९ 


प्राह । देवे ! काचित्सूत्रधारी शी श्रि वतैते । राजाह भवेशय्‌ ! 


ॐ क 
ततः सागरत्य रजन प्राणपत्याह- 
राजान अपनी स्तुति जानकर उसको खख स्यथ दिये | पीछे द्वारपार्ने- 
आकर कहा-द्‌ देव ! को सूत्रधारश्णी घ्री द्वारे खडी है । रजन कष 
मेज दो ! उसने भाकर्‌ राजाको प्रणाम करके कहा- 
कि क्ष के ५ ^ [क 
वाटः परवाटविटयाऽदरुत(्वत्रमन कष्‌ ॥ 


अपुशतो दिवस्थोऽपि चित्र कल्पद्भुमरत्वया ॥ २१९ ॥ 


| 


५ 


.( १३० ) भोजप्रवन्ध~ . 
पाताख्वासी बिके मापने! नीचे कर' दिया इसमे विचिता क्या हे 
जव स्वर्गम स्थित कद्यदरक्षको मी पने नीचे कर दिया ॥ २१९ ॥ 
=> क ५ [^ चर कणेः 
राजा तस्यं प्रत्यश्चर लक्ष दद । ततः कदाचिन्मृयापार- 
भातः राजा कचिससहकास्तरोरस्तातित्ति । तन मदिनाथा- 
ए्यकविरागष शाह | 
राजनि उसको प्रयेक अक्षरके एक २ ख रपय दिये । फिर किसी 
समय राजाने दिकार खेनेसे थककर आमक इृक्षकी छायाम तरिराम किया | 
ततव मद्िनाथ कविने आकर कहा- 
शाखाशतशतवितताः संति श्येतो त कानने तरवः ॥ 
क्ष कि [१ कष @> ०७५, अ, 
पृरमल्भरामठदाटङ्ल्दाटतद्टः भशालना वदः ॥२२०॥ 
सी सी श्ाखार्ओवछे ब्रक्ष वनमे वहत दै किन्तु सुगंधिके भारसे युक्त 
अभक दर्ते धित पत्रा व्रश्च वहत कम है ॥ २२० ॥ 
४०३ + = क क ० क 
„ ततो राजा ते हस्तवटयं ददो । ततैव आसीने राज्ञि कोऽपि 
विदातागस स्वस्तील्युक्खा प्राह । राजद ! काशीदेशमारथ 
तीया प्रिभामधते दक्षिणदेशवासिना मया । राजा-ताहशं 
तीथवासिनां दशनात्छताथ{ऽसमि । स आह्‌ । वय मांविकाश्च । 
क. ७ [| [द # क 
रना स्व्‌ स॒पय्यित्‌ | राजा दुन्‌; भह । मनया 
यथा प्रलोकफटमापिः तथा किमिह टकेऽप्यसि । पिभ 
राजन्‌ ! सरस्वतीचरणाराधनाद्वियावापिविवनिदति परं पना- 
चतक्नायादता ॥ 
पीछे राजाने उसको अपने हाथका कड्ूण दे दिया । राजा वही रा 
इतने किसी विद्रानने माकर ‹ स्वस्ति * कह आशीर्वाद देकर कदा-~ 
द रजन्‌. भ॑ दक्षिणदेशवासी कारीसि तीथेधाना करता इभा आया दु, 
राजाने र मापे समान तीर्थसेवियोके दरीनेसे मै इृता्थं इभा । नाद्य 
. णन कहा भै मतरश्ा्नको जानता हं | तव राज! वोा-हाराज { जाह्म- 


भाषारीकासदित्तः । ( १२३१) 


णमे सघ दो सक्ता दे 1 राजति फिर काहे चिप्र | मेत्रवियास्े चैसे प्रर~ 
सक्मे पट मिटतता दै भते इ दोक्मेमी मि सक्ता है १ ब्रा्मणने का~ 
हे राजन्‌. { प्रतीको चरणसेवासे इस सोके वियाकी प्राप्ति होती ह परन्तु 
धनयी प्राप्ति म्यक अधीन द । 

रणा ख यणा एव न यणा सूपिहैतवः ॥ 

धनसेचयकणि भाग्यानि पृथगेव हि ॥ २२१ ॥ 

र्ण ता गा ८ कट सप्त्तक कारण युण नशा ६ | धरक( सचय 
दरनेषादा भाग्य दूसरे ॥ २ २१॥ 

देव  विद्याणा एव छोकानां भ्यं भवति न तु कैवं 
संपदः | देव । 

ह दध्र ! ठक्रिकी प्रतिघ व्रियायुणदी कहा है फेवट संपत्ति नदीं 
कमा द 1? दत्र ! सुना- 

आलायते यणयमे नेरयुण्यं वचनीयता ॥ 

देवायत्तेु विततेषु पुसां का नम्‌ वाच्यता ॥ २२२॥ 

गुणराशि उक्त जीवासाकं अधीन दै, अतएव जो मनुष्य गुणेको ग्रहण 
न्ष करते उनकी मृखतकी निन्दा दती हे आर धनको प्रारब्धे अधीन 
लनः कारण निर्भनकी जिन्द्रा नरं चेती दे ॥ २२२॥ 

देव! म॑चाराभनेनाप्तिहता शक्तिः स्थात्‌ । देव | एवं इहं 
यस्थ । मया यश्व शिरे करो शिधीयते स सरस्वतीभसतदेन 
अस्घटितविदयाभसारः स्थात्र । राना प्राह । सुमते | महती देव- 
ताशद्निः । तते रना कमपि दाक्रीमाका्यं पिर भ्राह्‌ । द्विनवर। 
अस्या केथायाः शिरि करं निधेहि । विपरस्तस्याः शिरसि करं 
निधाय तीं प्राह देवि । यद्राजाज्ञापयति तद्वद । ततो द राह 
देवाहमव समस्तवादमयनावं हस्तामल्कवसथामि दवादश क 


, ( १३२ ) मोजप्रवन्ध्‌ः- 


, वणयामि ! ततो राजा पुरः खङ्गं वश्य भाद । सङ्घ मे व्यावण्‌- 
येति । दासी प्राह „ 
हे देव ! मंत्रोकी आराधनासे अरोधश्क्ति हो जातीं दै । हे देव { 
उसका यह आश्व हे कि, भ जिसके शिरपर हाथ रख दं वही सरस्वतीकी 
छृपासे धारप्रबाहविधासम्पन हो जाता है । राजाने कहा, हे सुमते ! दैव~ 
्ाक्ति विद्या हे । फिर राजने दासीको बुखाकर कद्‌, हे विप्रवर { इस 
दासीके शिरपर हाथ धरो । त्रा्णने उसके सिरपर हाथ धरकर कहा- 
हे देवि ! जो राजा मन्ना दे उसे क्ये । तव दासी बोी-दे देव ! मँ 
समपरणं बाणीमय शास्रको हाथमे स्थित आंवलेकी समान देखती हं हे देव ! 
आक्ञा दीजिये क्या वणेन कर १ फिर राजने सामने खन्नको देखकर कहा~ 
मेरे खह्गका वणेन कर । दासी वोली- 
[भ भ कर क 1. सि ब, रा 
धाराधर तदसिरेष नरद चिरं वर्षति ैरिषनिताननटो- 
चनानि ॥ कोशेन संमतम्ेगतिराहवेऽस्य दारियमचुव- 
यति भरतिपाथिवानाम्‌ ॥ २२३ ॥ 
हे धाराधर ! ह नदर ! यह तुम्हारा खङ्ग वडा विचित्र हे । शघ्रुओंकी 
चियोके नेत्रम अघुओंको धारा वर्षाता है, युद्धक्षेत्रमे म्यानसे बाहर रता ्े 
ओर समस्त राजाओंको दीन करता है ॥ २२३ ॥ 
०, $ न [9 १ 
राजा तस्ये रलकटशाननर्यान्‌ पच ददो । ततस्तस्िन्‌ क्षे 
इतत पच कवयः समाजग्मुः । तानवलोक्य दषदविच्छायमुखं 
राजान चछ महेश्वरकविः वृक्षमिषेणाह- 
राजाने सुनकर उसको पांच अमूस्य कलश दिये ¡ फिर उसी समयं 
करस पांच कवि भये । उनको देख बुष सुख मलीन होते राजाको निहार 
मदर कविने इक्षके मिषते कहा- 
(44 ० कन [व ० = इछ 
[क जातास ट पप वनतरच्छाय्‌ऽपि क्र छयया। 
छन्नेत्‌ फाटत्‌।भस कर कलभर्‌ः पूणौऽपि क संब्रतः॥ 


मापरासीकामहितः । ( १३३ ) 


ह सद्वृक्ष सहस्व संभरति चिरं शाचाधिसोकरषणं । 
्षोभामोटनेजनानि जनतः सरव दृशेः ॥ २२४ ॥ 

ददद) तु चीरं रयो उपरे १ घनीं छाया क्यौ धारी १ छयासे 
आाण्टादित दाकर कोषो ? अरि पएरसेकि मास्ते क्थ पूर्णहृए दहो 
यंटिध्ताहागयादै नौ जव समनी घुरी च्रे मनुप्येके चावाश्चि- 
सासि म्ीचने, उोधन्र मोडन ओर्‌ तोडने आदि दःखको चिरकाकत्तक 
सहा ॥ ६२४ ॥ 

त्ता दमा तस्म दश्च दद 1 वतस्त ्जवरः परथकङ्पृथम्‌ा- 
शीवचनसुदीगं यथाक्रमं रानाज्ञया कंब उपविश्य मंगठं चङकः। 
तते एकः पठति ॥ 

पिर गजाने उनका सख नपय द्विय } तिके पी वह विप्रवर प्रथक्‌ २ 
आा्नरीद > रनाकौ आमे कमातुसार कंवरट्पर वैटकर मग कसे च्गे 
फिर उनमेन एकन पटा | 
कूर्मः पतागंगपय पि विहता तत्तरीरदमुस्ता- । 
मादत्तामादियोती शिधिटयतु फणामडछं कुड द्रः ॥ 
दिम्तया मृणाटीक्वटनकटनां इवतां पवतेः । 
-स्व्‌ छर चरतु सपि वहाते विता भान दवा धल ॥२२५॥ 

दरे माज } दे समथ | तुम्हरे पृथ्वी धारण करनेते करम तो पातार्गगामे 
प्रौढा करता है, वराहावतार उस मगाके किनारे जमे इए मोधिर्योको खाता 
दे, दोपजी अपने फ़णमंडटको द्टाकर आराम कर्तं ६ ओर दिया 
हाथो कमस्को प्रसते दै, परवती इच्छदुक्ष।र विचरन २ ॥ ९९९ ॥ 


राजा चमर्छतः तसमै शताश्वाच्‌ ददो । तते "(शरक 


= क क 
ठटल्षत- | 
राजाने चमत्कृत होकर उसको सी घोडे दिये । तब खजान चीने यह ठिखा~ 


( १३४ ) भाजप्रवन्धः- 


कीटोदाने नरेण शतमश्वा मनोजवाः ॥ 
भदत्ाः कामदेवाय सहकारतरोरः॥ २२६ ॥ _  . 
राजाने वगीचैमे मामे वृक्षक नीचे मनकी समान वेगवाे सी घोडे 
कामदेव कविको दिये ॥ २२६ ॥ „ 
ततः कदाचिद्धोनो विचारयति स । मत्सदशो वदान्यः कोऽपि 
नास्तीति । त्व्व विदिला सुर्ामात्यो विक्रमाकस्य पुण्यतरं 
भोजाय भरदशेयामा्त। भोजस्तच पते किंवित्‌ भरतावमपथव्‌ । 
तथाहि विक्रमार्कः पिस्य भराह्‌ ॥ 
पिर क्रिसी समय राजा भोजने विचारा कि, मेरी समान दूसरा दाता 
नहीं है । प्रधान मननानि राजा भोजकना रेता गवै जानकर राजा विक्रमादि- 
प्यका पुण्ययत्र भोजको दिखाया । भोजने उस पत्रमे कु प्रस्ताच देखा । 
वह्‌ यद्‌ है कि, विक्रमने प्यासयुक्त होकर कहा । 
रषच्छ सज्ेनचित्तवदयघुतरं दीनार्तिवच्छीतटं । 
[+ ४३ + + 
युत्राटमेनवत्तथेवं मधुरं तेद्वाल्यतस्षजत्पवद्‌ ॥ 
एलाशीरटगग्च॑दनरपत्कपुरकसतुरिका- । 
[+ अन ० ®> # [^ ५ 
जातापारटकतकः सुराभत पाचायमानापताम्‌।॥ २२५ 
सजनगे चित्तकी समान खच्छ, दीनकी व्यथाकी समान ल्घु, पुत्रके 
आाचिङ्गनकी समान सतर, वाठ्कुमारके वचनकरी समान मधुर, इखायची,. 
खस, खग, चन्दनसे शोभित, कषर, कस्तूरी, मती, पाटलिका ओर 
केतकासि सुगंधित पानी खो ॥ २२७॥ 
ततो मागधः भाह्‌ ॥ 
तन मागघने कहा | 
न सरस्वत्यभिवसति सदा शोण एवाध्रे । 


ह कास्थवीरयसमतिकरणपटुकषणतते सखः ॥ 


+ 
ड 


भापारीकासदहितः । ( १३९५ ) 


वाहिन्यः पाशवमेताः केथमपि भवतो नेव सुच्यपी्षं । 
५ की ण , ४ [क 
स्वच्छ चिते डुतोऽभरूत्‌ कथय नरपते तेऽडुपानाभिा१॥२२८॥ 
हे नरपते ! तुम्हारे सुखरूपी कम्मे सदा सरस्ती वसती है, शोण नद- 
रूपी तुम्दरर रेट है, तुम्दारी दहनी युजा श्रीरमचन्द्रजीके पराक्रमको स्म्रण 
करानेमे चतुर सामररूप है, पतवाडेमै वाहिनी सेना अयवा नदी निरन्तर 
रहता टै सो दे राजन्‌ ¡ खच्छः चित्तके होनेषर जरु पीनेकौ अभिटापा तुम्दँ 
क्या हुई २॥ २२८ ॥ 
ततो पिकमाकंः भाह तथाहि ॥ 
तथ विक्रमने कहा यह ठीक है । 
अटो हाटककोटयद्विनवतिमुक्तफलाना तुलाः । 
पचाशन्मधुर्गेधमत्तमधुपाः करोधोदताः सिराः ॥ 
अश्वानामयुतं प्दचतुरं वारागनानां शतं । 
[९ क [२ क # क, इ ॥ 
दत्तं पूंश्यनरपेण योतकमिदं वेतािकायाप्यतामू ॥ २२९ ॥ 
आठ करोड सुण, तिरानवे तोटे मोती, मदमाते करोधप्रणं पचास हाथी, 
ददा हजार धोडे ओर बिदासिनी सौ वेदाय दहेजमे विक्रमादिने दिथा है 
सो वैताधिकके य्यि सर्पण करो ॥ २२९ ॥ 
भ 9 क १, ® चरि (4 | +>» ४५१ 
ततो भोजः प्रथमत एव अद्भुतं विक्रमार्कचरितरं खा निनिगवं 
[क [२१ [8 | 
तत्याज । ततः कदाचिद्धारानमरे रत्रिं विचर्‌ राजा कच्‌ 
देाख्ये शीतां बाह्षणमित्थं प्ठ॑तमवलोकषय स्थितः ॥ 
तव मोजने पूर्व होनेवाटे विक्रमादित्यका अद्भूत चारेत्र देखकर अपने 
मर्यको च्याग दिया । फिर किसी दिन धारानगरीमे रातमे विचरते हए राजा . 
मोज देवस्थानमे शीतसे व्याक्ुर ब्राह्मणको पटते इए देख स्थित होगये 1 
शतिनाध्युषितस्य माघनटवविताणवे मनतः । । 
श्रतिः स्षुटिताधरस्य धमतः शुर्नामङुक्षेमम ॥ ` 


{ १२६) मोजप्रबन्धः- 


निदा कप्यवमाषितेव दयिता सत्यज्य दरं यता । 


सदात्रपतिपादितेवं कमला नो हायते शवर ॥९ ३२० ॥ 
माघमासके जछकी समान जिसे व्याप्त चिन्तारूपं सागरम इवत 
शान्त अथिवाडे कम्पायमान होट, अग्रिको धमनेबा, कुवास सूखे 
वेटवाङे मेरी निद्रा त्यागी हई खीकी समान छोडकर दूर चटी गई । अस 
सत्प्तकी संचित कौ हई र्क््मी क्षीण नौ होतीदै त्योदी राति क्षीण 
न्दा हतां ॥ २६३० ॥ 
इवि छता राज प्रतिस्तमाहूय प्मच्छ । तिम } पद्यु रत्र 
स्वया दारुणः शातक्रारः कथ सोढः ? कम अह 
यह सुन राजान प्रातः उसको बाकर प्रा कि, हे विप्र} कठ रानिको 
-तुमने दारुण शीत कसे सहा ए तत्र ब्राह्मणने कहा~ 
म (ह 4 १ 
रातो नातरविवा भावः ङुशाुः संष्ययोदैयोः ॥ 
एवं शीतं मया ति जातुभाचरुशादभिः ॥ २३१ ॥ 
र्मे घुटनेके वीच दिर रके, दिनमे सूर्यकी धूमे वैठकरर ओर 
संष्यासमय अधिको तापक्र मैते जाडा भिताया ॥ २६१ ॥ 


राजौ तस्मे हुवणकश्त्रय भादात्‌ । ततः कवा राजानं 
स्तात ॥ 


राजाने उस ब्राह्मणको तीन सुवणेके कर्ड दिये । फर कवन राजाकीं 
स्ुतिका! 


धाराया तयाटमानं महाद्यागधनारषा ॥ 

मोचिता बलिकणवयाः स्वयशोयुप्वभ्पिणः ॥ २६२ ॥ 

हे राजन्‌ ! आपने शरीर धारण करके अपने यराके द्रा ` वकि, कणे 
आदिकोके महदयानीपनेको छिपा दिया ॥ २३२ ॥ 
 _ राना तस्मे रक्ष ददने । एकश कीडोयानपार अमत्य . एक~ 
एमशुदड राज्ञः पुरो मुमोच । ते राजा करे गृहीतवद्र। ततो 


भापादीकासहितः । ( १३७ ) 


मृयूरकविः मितत प्रर्वियधात्‌ आलि रत्ना रुतापकनं 
ममपि रिधाय द्षुमिषेणाद्‌ ॥ 

रामेन उनको एक सन्य स्थे दि | एक समय व्रागवानने आकर 
द ( गतता : राजक सामने कवा, उपरे राजनि दामे उव छिया | तत 
मयूकमिन भ्रतिदिन भनेजानेते साज सिरस्कास्को मनम स्ख गनेके 
यने दरा । 

क भ, अ, ऋ, अ, क न (५ क ५ क 
कमता नित्यमधुराऽसि रमाङ््ख।ऽप्ति क चाष पच- 
शरकामुकमष्ितीयम्‌ ॥ शनो तास्ति सकट परमेकमुनं 
यदित भनि निसतां करमेण ॥ २३३ ॥ 

ई {मते} !नूनुन्दर द, सदा पुर्‌, स्तते पूर्ण है, कामदेवका 
धनुध ‰ सीर त्‌. ननुण्युक्त £ प्रर एकी वातकी कमी दहैकि, निससे 
निगन्तर कमम सेने रमेवर नौरसताको प्राप्त दयता अर्यात्‌ भ्यो व्थों 
चभ त्यो रत कम द्ाता जाता ॥ २३६॥ 

शूना कविदधयं न्ना मूर सुपानतवान्‌ | 
रान चातिकं दद्या सान मयुग्का सन्मान किया । 
ततः कृल्ाचिद्रग सव्रापर्‌ क्पर्‌ रजा गशदिमा- 
ठकिव शह 
पिर किम द्विन रजा क्रौटमं छीन दाकर महट्मेसो रहा थासो 
चन्द्रमा देग्वक्र्‌ कटेन टगा-- , 
युरेतचद्रोतर्जटदछवटीटां मितत । 
तदच लोकः शशक इति नो मां भ्रति त्था ॥ 
यह जे। चन्द्रमा वीच मेवक्रे छेयकी दल दृष्टि आती हे इसक्रो 
मनुध्यं यदाक्र कदत त्‌ भना पुन्न प्रतीत न्दीदता॥ ` ~ +, 
तत्व्रामूमा साधाः प्रावः काथ्वच्‌ार्‌ आहू 
किर मषिं नीचे पृथिव्रपिस्ते किसी चोखे कदा 


[ह 


६ १३८ ) मोजप्रबन्धः- 
. अहं विदं मन्ये खदरिविरहाक्राततरुणी- 
कटाक्षोल्कापातवणकणकलठंकाकिततचप््‌ ॥ २३५ ॥ 
` में तो यह मानतां कि, आपके रात्रुओके विरहसे दुःखी उनकी ल्ियोंके 
कटाक्षसे वन्नपातरूप चरणके छेदा द्वार च॑द्रमाका शारीर कलङ्कसे युक्त दै।। २.३४] 
राजा तत्‌ श्वत भाह। अहो महाभाग ! कस्तवमर्धरातरे कोश 


> अ] 


गुहमध्ये किसीति । स आह । देवं | अभयं नो देहीति । राजा 
तथेति । ततो राजानं स चोरः प्रणम्य स्वद्तावमकथयत्‌ । तष्टे 
राना चोराय दश कोटीः सुवर्णस्याशेन्मत्तान्‌ गर्जं ददो । 
राजा सुनकर बोला, बडा आश्व है । हे महामाग | तुम कीन हो १ 
जो जाधी रातके समय खजानेमे घुसभाये । उसने कहा, हे देव ! भेरा 
अपराध क्षमा करो । राजाने कहा, क्षमा किया | तव चोरने प्रणाम करके 
अपना समस्त इत्तान्तं राजासे कहा-तो प्रसन्न होकर राजाने चोरको दख 


हथ क 


करोड सुवणकी मोहरे जीर आठ मदमाते हाथी दिये । 
ततः कोशाधिकारी धरमपत्रे टिखिति ॥ 
~ , फिर खजानन्चीने धरमैपत्रमे छिखा | 
> जद [० [+र 
तदस्मे चोराय परतिनिहतमृत्युषरतिभिये । 
भरुः भीतः भरादादुपरितनपाददरयरुते ॥ 
एुवणानां कोदीरश दशनकोटिक्षतगिरीच्‌ । 
गनेद्रानप्यो [क ५ 
1 मदाव्तक्नन्मद्ालहः ॥ २३५ ॥ 
सयक समान मय दूर्‌ करको चोरके व्यि शोके पिच्छे दो चरण , 
बनानेपर महाराज ( भोज ) ने प्रसन्न होकर दख करोड सुवर्णकी मोरे 
छीर अपने रातोसे पवैतोके अप्नमागको चूर्णे करनेवाले मदमाती अमरो 
यज्लारित मदसे रमते इए. आठ हाथी दिये ॥ २३९ ॥ । 
पतः कदापित्‌ द्वारपाल आगतस्य भरा । देव ! कौपीनावशेषो ` 


भाषारीकासाईतः । ( १३९) 


मिन्‌ दारि वतेत इति । राजा प्रवेशयेति । ततः ग्रद्िस्प 
कविभाजमालोक्य मे दारिढनाशो भविष्यतीति मता तुशे हषा- 


अन ० 0 


शरूणि सुमोच । राना तमाछोक्य प्राह । कवे ! फं रोदिषि इति। 
ततः कविराह । राजन | आकर्णय मटुहुस्थितिम्‌ ॥ 

फिर किसी दिन द्यारपार्ने आकर कहा--हे देव ! एक कौर्पीनधारौ 
विद्वान्‌ दारे खडा दे । राजनि कहा--ऊे आभो | तव मातिर जाकर कविने 
मोजकों देख, दरिद्रता जाती रहेगी यद्‌ जान आनन्दके आंसू छोडे । 
राजाने उसे देख कटा कि, हे कथे ! क्यों रोते हो £ तव कविने कहा--हे 
राजन्‌ } मेरे घरकी दा सुनो- 

भ = _ क १ _ क 
अय लाजा उकः पराध वचनपकिण्य गृह्णा । 
शिशोः क्णो यतासुपिहितवती दीनवदना ॥ 


कष भ = 


मापि क्षीणोपाये यद्र दशावश्चबहूले । 
तदतः शल्यं मे त्वमपि पुनरुदतुखषितः ॥ २३६ ॥ 
खि छो २ मार्गमे देसे ऊँचे शब्दको सुन मेरी स्री दीनमावसे यन्नके 
साथ वाठकोके कानोको ढक देती है, ओर मरे घरमे क्षीण उपाय जानकर 
नेमिं आंसु वहाती रहती दै इस द्दयसे मेरे हृदयम शल्यसा चुभा रहता दे 
सो उसको आप निकाल सकते दै ॥ २६९ ॥ 
राजा शिव शिव इष्ण छष्णेदयुदीरयन्‌ प्रत्यक्षर दला 
राह । सुकवे ! तवरितं गच्छ गेहं खद्रहिणी चिदाभूदिति । ततः 
कदाचिन्मृगयापरिभातो राजा कस्यचिन्महाबरक्षस्य छयामाभि 
तिष्ठति स्म । तज शांपवदेवो नाम॒ कविः कथिदागत्य राजां 
बृक्षमिषेणाह ॥ _ 
~ राजाने दिव २ ष्ण २ कहकर एक २ अक्षरपर एक २ छख सपय 


[^ भ, । 


देकर कहा--हे सुक्ये ¡ शीघ्री धरको पधा्ये खरी बी -दुःखी होगी । एकः 


८ १४० ) भोनप्रन्धः- 


` दिन रजा रिकार करताहं भा थककर किस विक्रार बरक्षकी छायाम वेटगया 
-वहां शाम्भवदेव नामक किसी कविने आकर क्षकं मिषसं राजाको कहा । 


आमिदिर्रतो मृगाः किप्ठरयोपिस्छचा तापसाः । 

एः प्टवरणाः फेः शङ्नयो पमा्विाशछायया ॥ 

स्ेथगजास्लयेव विषिताः सर्वं छताथास्ततः । 

तवं विश्वोपतिक्षमोऽपि भवता भभपदोऽन्ये दुमाः॥२३७॥ 

घुगन्धिसे पवन, सुखी यसे मृग, छारोसे तपसी, एके भ्रमर, छायासे 
मागह्यरा थकित पीडित ओर प्छन्धोसे गंधगज कृताथ होते है, अतएव सवके 
उपकारके लिय तुम समथं हो, ओर इक्ष तुमसे रक्षित रद सक्ते ह ॥२३०] 

िच-अविदितणएणापिं सत्कविशणितिः कर्णे सुदमति 

मधुधाराम्‌ ॥ अनपिगतपरिमलापि च हरति दशं 

माटतीषाला ॥ २३८ ॥ 

जर कहा हे! उत्तम कविकी कविता अज्ञातगुणोके मी कानोको 
मधुर रसमयी धारासे तृप्त करती हे, जैसे सुगन्धरदित मारुतीकी माला 
नेत्रोको वशीभूत करती है ॥ २३८ ॥ 

तषा इकक्षा चप्त्छत। राजा पयक्चर रश्च दद । 
अन्यद्‌ शाः भाह्न्वर वतु गरिवाटयमम्थगात्‌ । तदा कोपं 
बरह्मणा राजतं शिवसन्निधो प्राह ॥ 
# उन शछोकोंसे चमकत होकर राजने प्रयेक अक्षरपर एक २ खख 
एप दिये । एक समय राजा मोज महद्देवजीको प्रणाम करनेके च्यिं 
दिवारुषमे गये । तथ विसी बराह्णने महादेवजी प्रास कहा । 


अध दतिववारणा गिरजयाप्यधं शिवस्य । 


व्षत्थ्‌ नमततल पुरहुरापावे ससुन्मीरुति ॥ 
गगर साग्रमव्र्‌ शशिकङा नागाधिपः क्ष्मातलं । 


स्वज्ञतवमव्वरलमगमां मां तु क्षामम्‌ ॥२३९॥ 


भापारटीकासदहितः। ( १४१ >) 
हे देव } रिवजोका भधा शरीर विष्णुभगवान्‌ने देया जर आधा 
पाचेतीजानि, जय पृभ्वीपर शित्रजौ अगदहीन हए तो गंगाजी सागरको चरी 
गदु, चन्दरमाकी कल आकाश्लको, ओपी रसातठको, सर्वज्ञता आपको 
आरि भिन्नाटन भप्त प्राप्त इभा ॥ २६९. ॥ 
राना अक्षरश्च ददो ! ततः कदाचिट्‌ द्ासाट आगम्य पाह ! 
देव्‌ कोऽपि व्द्वच्‌ द्र तिश्तात। रजा परवेशुपेति ह्‌ | 
ततः भविषटे विदान्‌ पठति ॥ 
रानान प्रत्यक अश्षरपर एक २ खत र्पये दिये ¡ फिर किसी दिन 
द्ररपाटने आक्र कदा-दे द्रव ! कोई धिद्रान्‌ ररे खडा है । राजन कहा 
 मेजदो } तत्र समामे जाकर विद्रानने कदय 
क्षणमप्यद्गृहाति यं दषटस्तेऽछरागिणी ॥ 
दष्येयेव यजसयाश ते नं दरिदता ॥ २४० ॥ 
हरे नशद 1 आपकी नदमया दृष्टि जित्तपर शक्षणमात्रमी अयुप्रह्‌ करती 
है उमे दारता ईर्पाकं समान ज्लीघ्ही याग देती ₹॥ २४० ॥ 
राजा टश्च दग । एनरीप पठति ककः ॥ 
राजान उते लार चये द्विये | फिरमी कविने पटा । 
केचिन्मृठाङलक्षाः किचिदपि पुनः स्कधप्तनंधनानः । 
श्छायां केचिखप्नाः भरपदमपि परे पहवादुलयंति ॥ 
अन्ये पुष्पाणि पाणो दधति तदपरे मेधमात्रस्य पात्र । 
वाह्याः रितु मदाः फकमहहं नहि ब्र्ुमप्युतसहते २४१॥. 
हे देव ! कोई मनुष्य दृक्ष मूकी आद्रा कसते दहै, को स्कर्थोकी, कोड 
छायाकी. को जकी, कोई कोमल पर्चियोकी आया ल्णति है, कोई एकको 


हायमे ठेते ह आर कोई दक्षकी गंधको ग्रहण कसते है परन्तु आश्व यद हेकि 
मृ मनुष्य वाणीरपरां वल्क फठ्‌ दखचका भां रस्ता नहा करत हे ॥२४१॥: 


[॥ 


४५ 


( १४२) मोजप्रवन्धः- 


एतदकण्यं बाणः प्रहि ॥ 
यह सुनकर बाण काविने कहा । 


1} 


पारराच्छ्चः स्वादा(म्रतछडमधुक्षाव्षयसता । 
- कृदाचच्पिपतिदजात नतु वरास्पमाधकम्‌ ॥ 
. गियार्विबो$ वा सचिरकविषास्येऽप्यनवधि- । 
£ $ ष, [स = (५ 
नेवानेदः कोऽपि सुरति तु रसोऽसा विसुपमः ॥ २४२ ॥ ,. 
अमृत, गुड, शहत, मधु जीर दूधका स्वाद अल्यही है कारण कि, 
कमी घट जाता है ओर कमी अधिक सेवन करनेसे विरस हो जाता है 
ेकिन प्यारीके अधराष्त ओर श्रेष्ठ कविके पदमे तुरु आनन्द ओर अनु* . 
पम रस उदय होता है जिसका स्वाद निराङा ह ॥ २४२ ॥ 
ततो राज ठक्ं दत्तवान्‌ । ततः कदाचित्‌ पिंहासनमलङ्बाणि 
भीभोने द्वायाठ आगत्य भाह । देव | वाराणसीर्शादागतः कोऽपि 


® क क भ अ क 


भवभूतनाम कविद्रारि तिष्ठतीति । राजा पराह प्रवेशयेति । तदः 
भविष्टः सोऽप सपतामयात्‌ । ततः सयाः स्वँ तदागमनेन तष्ट 
अभवन्‌ । राजा च भवभूति पेक्य भणति स । स च सस्ती 
तयुक्वा तदाज्ञयेपविष्टो भवभूतिः भाह । देव | 

तब राजने खख रपये दयं । एर किसीं व्नि सजास्षदह्यनपर बर इए 
भाजसं दारपाख्ने आकर कहा--हं दव ! कट्‌ भवभूतिनामक ।वह्यन्‌ सारा 
धामस् आकर दरार खडा ह । राजानं कहा--अच्छा मंज दा । तव भवद्रूत 
समान प्राप्त हए तो समस्त पण्डितमण्डलं सभाकी उन देख प्रसन्न इई 


श 9 


जान भवभूतेको देखकर प्रणाम विया । मवमूत्िने * स्वस्ति ` कहकर 
सजाका सज्ञा पाय वैटकर कहा--देव ! 
नानायते घुं मद्यपाः पारजातप्रसुन- 


वप्त तुहनरुचिनश्चद्रिकायां चकाराः ॥ 


भापादीकासदितः\ ( १९३.) . 


जसद्रारमाधुरिमधुरमापय पूवीवताराः । 
६, + [१ च [क 
साप्त स्त्रः स्वयापह्‌ इषाः क सुधयधनािः ॥२९४३॥ 
दाह्त पर सक्तिरयोको कीन दयुटनि जाता ह, चन्द्रकी वौदनीमे चको- 
रोको कलयदृ्तके टस कीन वादने करता दे । वरन्‌ यह्‌ सव स्वयंही 
आते हु इसी भति मेसं बाणीकौ मधुरताते इम सभामे प्के पारोचित पण्डित- 
जन स्वयं ्रनन रोजथेग जतरव व्रृधा प्राना करसे क्या ॥ २४३ ॥ 
नास्माकं भिषिका न कापि कटकायाटक्रिषा सछ्िया। 
५ => ४५. ५, क, 9 + = 
नोहतंगर्वुरगो न कथिदचो नेवांवरं सुरम्‌ ॥ 
किल क्ष्मातल्यशेपविदुषां साह्य पियाज्खपां । 
निष किः कन, कन, [ (प की क, [ कप 
चेतस्तोपफरी भिरोगतिकरी वियनववास्ति नः॥ २४१ ॥ 
दे दैव !न हमरि पाक्त पाठ्काद्े, नगाडी दहे, न आभूषणदैः, न 
सत्कार, न ऊँचा वोडा हे, न सेवक द जीर न युन्दर षरष्ठही है किन्तु 
साहिस्यतरियाको सेवन करेवा प्रथिव्रीके निवासी समस्त विद्रानोके 
चिचतको प्रत्न करना सुकुटसरूपिणां निर्दोष भ्रष्ट विया है ॥ २४४॥ 
इत्य।कण्यं बाणपंडितपुतः प्राह । 
अः पाप | षारधीशस्पायपह्कारं मा उथाः ॥ 
चह सुनकर वाणपण्डितके पुत्रने कदा~व्ड खेदकौ वात है, दे पापी ! 
राना मोजकी समाम अहंकार मत करो | 


[ताः 9) 


रिमव्ोऽपि च निर्याति वाणे हृदपवस्मंनि ॥ 

कि पुतः प्रकदाटोपपदवड। सरस्वती ॥ २४५ ॥ 

जव बाण हयम प्राप्त दोजात्ता हे तो ऊर््य श्वासी नदीं निकठकता हे 
फिर सामने परखण्डीकी माति माडम्बरयुक्त कवित। क्या हो सक्ती है ॥२४१॥ 

ततो भवमूतिः परापवपपहमानः प्राह ॥ 

त्तव भवभूति त्िरस्कारको न सकर वोख। । 


(१४४) मोजम्रवन्धः- 


हटादमरृटनं कतिपयपदानां स्वपिता 
जनः स्पट्ेदहह कविना ृश्वचसा ॥ 
विदय श्वो वा किमिह वहूल। पापिनि कठा । 
घटनां निमीत॒िसवनविपातुशच कठहः ॥२४६॥ 

कडे चेदकी बात & पि, कुछ पद कीस खचकर बोटनेवाटा वाणीकों 
वभूत रखनेबाठे कविके साय हषी करता ६ । इस कलियुगे घटको 
बनानेवाखा कुम्हार त्रिरोकी स्वनेवाठे ब्रह्माजीके साथ अत्रस्य कट्ह 
करेगा ॥ २४६ ॥ 

युनराह- 

फिर कहा-- 
कारिदापकवेवणी कदाचिन्मद्विर सह्‌ ॥ 
कलयत्यवय साम्ये चेद्धीता भीता पदेपदे ॥ २४७॥ 

काछ्दास कविकौ वाणी किसी समय मेरी वाणम मिक जाती है, सो 
वही अव पद २ मे मयमीतकी समान मिख्ती रै ॥ २४७॥ 

ततः कालेदाप्तः प्राह । ससे भवभूते ! महाकविरेपि अन 
किस वक्तव्यम्‌ ॥ 

तब काठिद्सने कहा-हे मित्र मवसूति ! त॒म निःसन्देह महाकाधि हो । 

एषा धरिन््परिषन्महापंडितर्मेडिता ॥ . 

अवयोरतरं वेत्ति राजा वा शिवसननिभः ॥ २४८ ॥ 

महापण्डितोसे भूषित यह राजा भोजकी समा वा रिवजीके समान राजा 
हमारे तुम्हारे अन्तरको जानते है ॥ २४८ ॥ 
तच्छृत्वा राज भरा । युवाया रत्येतो वणेनीयं इति । भवभूतिः- 


तिसको घन राजाने कहा-तुम मैथुनो अन्तको ` वर्णन कसो ! 
मवभूतिने कहा- 


भापारीकासहितः । ( १४५ ) 


सक्ाभूषणरमिदु्िबमननि व्याकीर्णतारं नप 
स्मारं चापमपेतचापरमभृटिदीवरे स्ति ॥ 
व्याटीनं कटकण्डमेद्रणितें मंदािलरमदि । 


निष्प्दस्तवक। च चपकटता साशच जानं ततः ॥ २१५९ ॥ 

चन्यरधिव ! मुख 3) सटकारेति दीन रोगया, इधर उधर नक्षत्रे 
पिखरनेते ( क््यनीयैः तुपुनः दिदकनेसं ) काद्य ८ कमर ) का दसा 
मन्द हद्‌, ामदेनफा धनुष ( मूषुटौ ) अचट हींग, नीठ कमठ (नेत्र ) 
खुदम, सुन्दर कटक सन्ये वद्‌ द्गवाः मदर्‌ पवन धामो पडगह ( ज्यात्‌ 
श्वास चलनं टमा ), सूत्रणं ची च ( युवती ) अचल गुच्छं ( स्तनो ) 
से युक्तं टोगह फिर न जन्या दूना?) २४९॥ 

ततः काटिदा्ः प्राह ॥ 

पिर काटिदरासने कदा । 

सिनं म॑टल्मेन्वं विदलं समारदं तमः। 

= [क क ७ क 

प्रागेव भरथमानकेतकशिखाटीरापितं पुसितम्‌ ॥ 

श्राति ऊढदख्ताहवं कवटयदद विरामादठदत । 

वीत विदुमसीत्छेतं नहि ततो जाने किंमासीदिति ॥ २५०॥ 

चन्द्रमण्डल ( मुद ) परर पीना आगया, इसे पहले एरोस वधे इए, 
संयक्तार ( मङापादरा } सुग्गवे, सिमितने पटच केतकाग्रकी रीटा की, 
कुटज का दिखना स्क गया, दोनों नीखकमछ ८ नेर ) भदगये ओर मूका 
{ दोर्ठेका ) सी सी खन्द जतारा, फिर न जने क्या इञ ॥ २९० ॥ 

राजा क्राटब्राप्त प्राहहःएकदं ¡ पवभतना सह्‌ सम्पतन्‌ 
वक्तत्यमू । भवभूतिराह । देव | किमिति वारयि । राजा सवः 
भरकारण कावराप्त । तता वाणः ह्‌ । राज्‌ गवभरतः कविश्च 
त्काटिदासो वक्म्यो वा । राजा~वाणक्वे ¡ कालिदासः कवि 


+. 


८ ९८४६ ) भोजप्रवन्धः- 


किति पाष्या कथिदवनेो पुरुषावतार एवं । ततो भवभूतिराह । 
देव । किमत पाशस्य भवति । रजा भाई भवभूते ¡ कि वक्तन्यं 


श्रशस्यं काठिदिष्षेके यतः केतक्शिसारीरापितं सुणित- 


पिति पठितम्‌! ततो भवपूतिराह । देव | पक्षपातेन वदीति 1 ततः 


काटिसः प्राह । दव ! अपर्यातिमौ भरत्‌ युवनेश्वरीदिवतालयं 
गख! तत्सननिपौ तँ पुरस्य धे संशोधीयं ठया । ततो 
ओजः सूर्वकषिदन्दवेदितः सनु युधनेश्वरीदेवाल्य भपय तत्र 
ततभेधो भवतिहस्ते धटे क्वा कद्यं च तुल्यपनदवये 
टिखिखा व॒लायां मुमोच! ततो भवतिभागे धुलोदूताम्‌ 
हषदुन्नतिं न्ञात। देवी भक्तपसधीना सदि तसरिषो म भूदिति 
स्वावरतसकह (समकर वामकलखपेण गृहीखा भवशतिपने 
विक्षेप । ततः कारिदसः प्राह ॥ 


राजने काठ्दाससे कहा-हे सुक्वे } मवभूतिके साथ तुम्हारी वरावरी 
नहीं हो सक्ती । मवभूततिते कहा-दे देव ! देता क्यों कहते हो १ राजा 
नोका-तुम सव प्रकारसे कतरि हो । फिर बाणक्विने कहा-दे राजन्‌ ! जे 
भवभूति कवि ह तो काठिदासको भी कहिये । राजनि कहा-हे वाणकवि ! 
काठिदास कवि नदीं है किन्तु परथ्वीपर पातीका कोई पुरुषरूपी अवतार 
ड ! तव भवभूतिने कहा-हे देव ! यौ क्या उत्तमता। है । राजनि कहा-दे 
भवभूति ! उत्तमता क्या वहं} काञ्दिासके शोकम जो “ कैतक- 
म्शिला्जीखयितं -सुस्मितम्‌ यह पद है सो शरेष्ठ कविता ह ! तव 
भवभूतिने कदा हे देव ! पक्षपाते कहते हो । तब काछ्दिासने कहा-दे 
देव { किसीका तिरस्कार न. हो अतएव सु्नेश्वरी देवीके मवने . जाकर 
. दिवि समीप कानिताको रखकर तराजूसे परीक्षा करि । तव भोजने सव 


कनियोके कहने भुवनेश्वरीदेवी मंदिरे जाय देधीके समीप भवभूतिकेः 


मापारीक।सदहितः ! ( १४७ ) 


हाये तरय, दे दोनो शोक एकसे पमे छिखिकर तरज््ते दो पषमे 
रक्ले । भवभूतिने तरा, उदा तो मवभूतिका पत्र हट्केपनसे उपरे 
उट्ने खगा, यह्‌ देख भक्ताधीन दवी विचारा कि समामे मेरे भक्तका 
सपमान न दौ जाय इसलिये निन कर्णभूपणक्मटकी रेणुको वाय हायदरारा 
भवमूतिक्े प्रपर गिरनि ठ्मी; त्तर काटिदासने कदा- । 
क कि ६) क क 
अहिः म्‌ सक्निग् मम्‌ च पवेश भात्‌ | 
[द ५ क ५ [घ 
धटायाम्‌।रोप्य प्रतिकृति तस्यां कविमनि ॥ 
क, & = क क क [५ 
प्या इव्‌ मचः छवकटतक्स्कर्कि- | 
[९ छै ®+ क [१ पूर्य गवर 
सधर्म प्षकात परपूत्य पवता -॥ २५१ ॥ 
घन्य £ मेर सीमाग्यको जौ मरी जीर भवभूतिकी काधैता तराजू 
रकी जामिर जव भवभूतिकी फवित्ता दयक दोनेत्ते उपरको उत्ते ठगी 
तमी यणियोकी अभरिषटाठदयी लपने कर्मभे रक्लीं कहासर्जीकी ्रुखीको 
दण रेपः सिये यचभूतिश् पएत्रपर्‌ गरन गी | २९१ ॥ 
न > भ + [4 पवश 7 (व क [4 
ततः काच्सपादयोः पतति भवभूतिः! रानानं द विशेषनं 
भ, ० भ वभ [| भ, ह 
मूतुते स्म्‌ । त्ता रजा तिकव्धं शतमत्यजीनच्‌ दद । 
अः धृ म च ५, ह => 
न्यदा रजा धारानगरे रत्रविकाकी विचर्‌ काचन स्वैरिणी 
७०, ॐ गर्छ [५ च्य ० [वव 0, क १९ 
सकत गर्छ छ्य पच्छ । मव | क ठर्मकाकची मध्य्रनिं क 
[9 भ 4 का + + = क ०४ १.८ 
गच्छक्तीति । ततश्वतुर सरणी सा त रत्रा विच ब्रीषीनं 
क क # 
विश्वत्य्‌ प्राहं ॥ 
तव भवभूति काटिदरासके चरणे गिखड। भौर राजाकोभी विप 
जाननेवाहा जाना ! फिर राजने भवभूविकों सौ मदमाति हाथी दिये | एक 
विन राजानि धारानगरीमे हके विचरते इय किसी सैरिणी चखीको संकेत 
स्थानपर जातीहुई देखकर प्रा कि, दे देवि ! तुम कौन दो £ ओर इकटी 
साधी सतम करस जाती हौ 2 तव उस्र भ्चैरिणी चतुरा चीने. राश्रिमे विचरते 
दए राजा भोजको निधित कर का । 


( १४८ ) भोजप्रवन्ः- 


तवत्तोऽपि विषमो राजू विषमेषुः क्षमापते ॥ 
शाहं यस्य राया दाएवनपर्ध वैते ॥ २५२ ॥ = 
हे राजन्‌ ! तुमसे प्रवर कामदेवका शासन दै जिसकी जज्ञाको शद्रादि 
देवगण दासकी समान अपने मस्तकपर धारण करते ह ॥ २९९ ॥ 
ततस्तुष्टो राना दो्डादादाय अंगद व्यं च तस्ये दत्तवान्‌ । 
[ १ | क कि = क कर्मी 
सला च यथास्थातं प्राप । ततो व्भनि गच्छच्‌ कचिदरहे एकां 
रुदतीं नार श किमथमधेराने रोदिति किं दुः्वमेतस्या इतिं 
गिचारपितुमेकमंगरक्षके प्रहिणोत्‌ । ततोऽगरक्षकः पुनरागत्य 
प्राहं । देव ! मया पृष्टा यदाह्‌ तच्छुए ॥ 
तन प्रसन्न होकर राजाने अपनी भुजाअओंमेसे निकाककर वाजूतद ओर 
कैकण उसको दिये । वह अपने स्यानको चटी गर । पके मागमे विचरते 
इए राजाने किसी धरम अकेडी रोती इई त्रीको देखकर कहा यह क्या 
रात्रिम रोर्ही ह, इसे क्या दुःख है ? यह विचार जपने सेवककों भेजा, 
सेवकने आकर कहा-हे देव ! मेरे पूनेपर उसने जो कहा उसको सुनो ) 
वृद्धो मततिरेष मंचकमतः स्थुणावेषं गुरं । 
कालोऽयं जलदागमः ुशदिनी वतस्य वातामि नो ॥ 
9 क क क भ क शः 
यलत्ताचतवलनदुषास्का भधात पयाङ्कला । 
इष्टा गभरालसां निनवधू शवशरूधिरं रोदिति ॥ २५३ ॥ 
यह मेरा वृढा पति पठंगपर पडा रै, घरमे ओर कोई पुरुप नहीं है, इस 
वषानरतुमे भरे पुत्रका कुशल समाचारभी नहीं मिख, बडी सावधानीसे 
स्खनेपरभी तेरुकी करसिया क्टगईं इसख्ि व्याकु होकर सास गर्भ | 
भारसे दुःखी अपना पनवशरको देखकर वहत्‌ रो रही 8 ॥ २५९३ ॥ 
.. ततः रमावारिधः शाणीपाटस्तस्ये रकं ददो ! अन्यदा 
कोकणदेशवाती विमो रहे खसतीतयकत्वा भह ॥ 


भापादीकासदित्तः । ( १४९ ) 
तय छप्रासागर राजने उस स्त्रीको राख रुपये दिये ¡ एक समय 
्वोकण्डेश्चवासी व्राह्मण राजावो * स्वस्ति › कहकर बोखा ! 
शुकिदधथपुरे भोज यशोभ्धो तव रोदसी ॥ 
न्ये + ५ ५ ५ ७ 
मन्व तट मुक्तफर शतिाशुमडटम्‌ ॥ २५९ ॥ 
द राजा भोज ! आप्रके यशरूपी सागरम आकाश ओौर॒भूमिरूपी जो 
दो नीपियोका पुट द उमे सन्न चन्द्रमण्डलको मोत्ती मानता हं ॥२९४॥ 
राजा तस्मे रक्षं द्द । अन्यदा का्मीरदेशात्कोऽपि कोन 
वशेषो राननिकटस्थकवीस्‌ कनकमाणिक्यषटदुकूरालंरताच्‌ 
भष | 
आद्य राजान पराह्‌॥ 
राजाने उसको खख सये द्विये । एक समय कौपीनधारी किसी 
विदानने कादमीस्ेदसे आकर घुवर्णं, माणिक, पाट, रेदामसे भूषित यजाके 
पास कषि्योकतौ ठेखकरर कहा । 
५५, ^ # =, „न णयं न, „० 
ना पणा ररकक्णक्रणद्युता त कणयुः डर । 
ु्यस्सीरधिद्ग्यद्कषमहसी नो वाससी भूषणम्‌ ॥ 
दतस्तंषविकापिका न शिविका नाश्वऽपि विशवो्तो । 
[द (१ क, 
राजन्राजसणासु भाषितिकराकोशत्यभेवास्ति नः ॥ २५५॥ 
, द राजन्‌ { दमे द्धम श्रष्ट शब्दा ककण नदीं है, कानमे वुण्डक 
नही दै, क्षीरसागरफे समान शेत वच नह दै, हार्थादातकी समान प्रकार 
वाली पाटका नही हे ओर ऊंचा घोडा नक्ष हे परन्तु रजसमभामे कहने योग्य 
केव पाविताका कटाकीरट हमि पास दे ॥ २९९ ॥ 
* न (५ 4 
ततस्तस्मै राना ठश्षं ददौ । अन्यदा राना रात्रो चद्रषण्डठं 
द्रा तदतस्थकटकं वणयति स्म ॥ 
राजाने उसे छाख रुपये दिये । एक समय. राजाने रात्रिम चन्द्रमंडको 
देख उसमे स्थित कटंकका वणेन विया । | 


( १५० ) भोजप्रवन्ध्‌ः- 

अकं केऽपि शशिरे जटनिधैः प पर मेनिरे! 

सारगं कतिकिच संजगदिरे भूच्छयमेच्छन्पर ॥ | 

यन्वमचमे कोद कणडकी शा कते है कोह सुटकौ कीच मानते 
है, कोहं सारङ्ग कहते है जीर कोई परथिवीकी छाया माने ६ ॥ 

इति राजा पूरं छिखिला कारिदापहसते दवो ! ततः स 
तस्मिनेव क्षणे उत्तरार्थ टिखिति कपिः ॥ 

इस भोति पादं टिखिकर कालिदासे हाथमे द्विया | तव कालिदासे 
उसी समय उत्तराद्‌ छ्खि दिया ह 

इदो यद्ि्नीटशकटशापं दसीरते | 
. वलं निशि पतमंधतमसे इक्षिस्थमाचक्संहे ॥ २५६ ॥ 

चन््मामे जो दरि इनद्रनीरु मणिको समान ्यामता दृष्टि आती है 
उसके विषयमे मेँ यह कृहता कि, चन्दरमाने रात्रिका जो घोर अन्धकार 
पान किया वही कोखमे भान होता है । २५९ ६॥ 

राजा पयक्ष रक्षमु्रादस्य दत्तवान्‌ । तो रावा काटि- 
दासकेमिताप्तिं वीक्ष्य चमत्छतः पुनराह्‌ । सखे ! अकटंकं 
सदरम व्यावणयेति । ततः कः पति ॥ 

राजाने उत्तरे प्रत्यक अश्षरपर एक २ छाछ पये दिये | पिर 
राजने काञ्दिासकी कवितासलीको देख चमल्छत होकर कहा हे सते }. 

निष्कलः चनद्रमाका वर्णन कर । तव कविने पडा | ˆ, । 

रक्षमीकीडातडागो रतिषवरगृहं दपण दिवधृनां । 

उ श्यामाल्ताया्िमुवननयपिनो मन्मथस्यात्पजम्‌ ॥ 
` पिजभत हस्य सितममरपुषीपुडरीकं मृगांक- । 
-जोसापपवपी नयति पिपासे ठकलय९५७॥ जयति सितव्षस्तारकागोखकस्य २५७॥ 


` १ धरगको ज्योतत्ापसूषवापे जनयति निकरस्तारकागोलकस्य ॥ इति तैलगुत्त- 
#ेपाढठा युक्त इति माति । 


भाषाटीकासहित । ( १५१ ) 


य चन्दर र््मीकी क्रीडका सरोवर है, रातका श्वेत भवन 8, दग्ख्पाः 
हुोका दर्पेण है, स्यामावेरका परक है, तरोकाको जीतनेवाऊे कामदेवका छत्र 
हे, रिवजीका पिण्डभूत मंदी हे, आकाशगंगाका कमर है, अपनी 
¶विरणजार्को सुधाकी वाचडी है ओर तारागोटकका श्वेत वैर है इस मातिः 
विचित्ररूपसे चन्द्रमाकीं श्रेष्ठता कही रै ॥ २९७ ॥ 

५ ° , ण [ 
राना पुनः भर्यक्षर लक्ष ददो । एकदा कष्िदृदूरदेशादा- 
गृतो वीणाकविराह ॥ 

राजाने फ़िर म्रत्येक भक्षरपर एक २ खख श्पये दिये । एक समय. 
किसी दूरदेशसे आकर वाणाकविने कहा । 

¢ धिषणो ४4 क 
तरकव्याकेरणाध्वनी्ना नह्‌ च साहत्याव-। 
न्नो जानामि विचिकाव्यर्चनाचातुष्य॑मत्यदतमू ॥ 
१ + क क क (५) 
दता का विाद्चवहहुता पाणस्थर्वाणाक्द- 1 
काणापि्नखं तथारि किमि बूते सुखस्था मम ॥ २५८ ॥ 
न्याय ओर व्याकरणसे मजी इई मेरी बुद्धि नहीं है, न भँ साहित्यको 
जानता ह ओर न विचित्र काव्यको कह सक्ता द्र । परन्तु कोटे ब्रह्माकी प्यारी 
युत्री देवी ( सरखती ) मेरे मुखम विराजमान है तो मी वह हाथमे होनेसे 
वीणाके कर ( मनोहर ) रब्दवी समान शब्द कहती है ॥ २९८ ॥ 
~ ९९ [4 (9 # ® 
राजा वस्म कक्ष दबा । बाणन्तस्य हएुखदलतप्रवव ताः 
भ्राह्‌ ! स्व | . 
राजाने उसको कख रपये दिये । वाण कविने उसके सुरुङित प्रबधको 
सुनकर कहा-हे देव ! ` 
मतगीमिव माधुरी प्वनिषिो वैव सपशेतयु्मां । 
व्युत्पत्ति कुखकन्यकामिव रसोन्पत्तां न पश्वन्त्यमी ॥ 
करतुरीषनसारसोरभसुहद्युसत्तिमाधुरथयो- । 


न्दुः भ 


योगः कणेरपायनं सुरुषिनः कस्यापि सेप्यते ॥ २५९ ॥ 


( १५२ ) भोजम्बन्धः- 


वनते ज्ञाता इस कचिता मदोन्मत्त हयिनीकी समान माधुरी ध्वनिको 
नह सपश करते है, यह रसौठे कविमी कुरीन कन्याकी भांति उत्तम बुस 
तिवो नक देवते । कसूरी जीर करकी समान गन्धलुक्त एवं कारनं रसा- 
यनसौ गयुलतति जीर माधुरीका जो संयोग है उसे कनको रस्रायनरूस 
कहा है तो बह यहां किसी सुरृतिको प्रात दता है ॥ २९९ ॥ 
अन्यदा राना सीतां भातः राह । देवि | भातं व्यावणयातं । 
सीता भह ॥ 
एवा दिन राजाने सीता प्रातःकाक कहा कति हे देवि ! प्रभातका वणेन 
केर । सताने कहा | । 
दिरिः स्थूटास्ताराः करपिव सनना ) 
ष द 
मन्‌ इव मुनेः सवत्व पर्मभू्लभः ॥ 
अपसरति च ध्वातं पितात्सतामिव दुर्जन । 
व्रनति च निशि क्षिपं खक्ष्मीिरुयमना इव ॥ २६० ॥ 
कलिुगर्मं सननकी समान एकाथ स्थूढ तारा दृष्टि आहे, सुनिमनक 
समान आकार प्रसंने हो गया, सत्पुरषोके चित्ते दुजनकी समान अंधकार 
दूर होगया । वैसेहौ निरुबमेकी ठ्मीकौ समान रात्रि बीत गईं ॥ २६० ॥ 
राजा श्चं दला काठिदाहं आह । सखे सुक्ये ! तमपि 
प्रपाते व्यावर्णयेति । कालिदासः ॥ 
, जाने उसे खख एपये देकर काछ्दाससे कहा । हे सखे ! हे इषवे । 
अपी प्रमातका वर्णेन कारये । तो काठिदासने कहा । 
अभूत्पिमा भरी रसपतिरि भाश कनकं । 
गतच्छायथेदर बुधजन इव धरम्यसदसि ॥ 
क्षणल््ाणास्ताय बृपतय इवादव्यमपरा । 
न दीपा राजते विनयराहितानाणिव एणाः ॥ २६१ ॥ 


माषाटीकासदितिः। (१९३ ) 


घुबणसे मिलनेपर पारा जैसे पीलौ पड जाताहै वैसेही प्रदिशा पाली हो 
ग, ररोकी समामे ससे पण्डित श्लोभादीन हो जाताहै पैसेही चन्द्रमा- 
सोभारहित हो गया । निरुयमी राजे क्षीण होनेकौ समान समस्त तरे क्षण 
काट क्षीण हो गये । घ्रिना विनये जैसे युण प्रकाशित नक्ष होते पैसेही 
दीपक प्रकाराहीन हो गये ॥ २६१ ॥ 
राजा तरे भ्रयक्षरटक्षं ददो । अन्यदा द्वासाक आगत्य 
भाह्‌ ! देव ! कापि भााक।रपली द्वारे किरति । राना भवे- 
शयेति । ततः भवेशिता सा च नमस्कृत्य पठति ॥ 
राजाने उनको एक २ अक्षरपर एक २ खख रूपये दिये । एक दिन द्वारः 
प्राटने आकर कहा । दे देव ! कोड मारन द्वारे खडी है । राजाने कहा चवा 
खाज, तवर उस मालनने समामे आकर प्रणाम करके पठा । 
समुन्नतथनस्तनस्तवकचु बितंबीरट-। 
कणन्मधुीणय्‌ बिडधलोकलोलद्वा ॥ 
त्वदीयसुपगीयते हरषिरीदकोिसर । 
तुषारकरकंदलीकिरणपूरगोरं यथः ॥ २६२ ॥ 
हे राजन्‌ ! उठे कठोर ओर गुच्छेवाले स्तर्नोको जिसकी तू चूमती है 
रेसी मधुर शब्दवाखौ ्वाणुको छतीसे खगाय स्वगेवासिनी लियां आपके 
याको गाया करती हसो वह आपका यदा शङ्करे सुंकुटमे अम्रमागपर 
, विराजमान चन्द्रमाकी किर्णोक समान प्रण सच्छ जीर श्वेत है॥२ ९९ ॥ 
॥ [६ [4 क 6 न, ५ प्र # , 
राजा अहा महता पदपद्धति वस्य त्यकष्रसक्ष द।॥ 
अन्यदा रानां राजा धारानगरे विचर्‌ कस्यविद्हे कमपं 
कामिनीुद्खटपरायणां ददश । रामा तां तरणी पूर्णचद्राननां 
-सुकुमागी विलोक्य ततकरस्थं मुसठं भराई । हे मुस ¡ एतस्याः 
् क कषे, क [4 [५ [^ ४५१ भ 
करषदधसपर्नापि लपि कितं नासीत्‌ ति सवथा कष्टमेव 
त्वामिति । त्तो राजा एक चरण पति स ॥ | 


(१५४) मोजप्रवन्धः- 


रजनि कहा जहा ! पदस्वना बी उत्तम है, यह विचार उस 
अयेक सक्षरपर एक २ छख रूपये दिये । एक दिन पान 
हए अनर छती किसी छीको देखा । राजाने उस युवती चनदन ओर 
मारी कोमला्गीको देखे उस हाथमे स्थित मूर्ते क मूस ! भ 
युवते कमलोको द्ुनेपरमी जे त्‌. नह पतीजा तो एणतया काषटदीका 
है । फिर राजान एक चरण पटा } 
मुस फिस्खयं ते तसणायत्न जतम्‌ । 
हे मूल ! जो तू उसी समय नरह पसीजा 
ततो शना भरातस्सपायां समागतं कालिदासे वीक्ष ' पुरर 
किट ते तस्णाव्यत्त जातम्‌ › दति परित्वा हके ठ चरण 
ज्रय्‌ पठेद्युवाच । ततः काठिदाष्तः प्रई ॥ 
फिर राजनि प्रा्तःकारु समामे काच्िदासके आनेपर प्वाक्त चरण पठकर 
कहा कि, हे सुकवे ! तान चरण तुम पटो । तत्र कालिदासने कहा । 
लगति विषतमेतत्का्टमेवासि नूत । 
तदपि घ किल सत्यं कानने वधितोऽपि ॥ 
नवद्कषेयनेत्रापाणिगोत्सवेऽस्मिन्‌ । 
सुसु +क्त ९ 
सुसर केसुटय ते तर्षणावयन्न जातम्‌ ॥ २६३ ॥ 
हेमूसर ! यह वात जगत्‌ परसिद्ध है कि तू काठका है ओर वनम वटि. 
फिर कमयनी ल्के हाथमे इस उत्सवपर आतेही त्‌ नरी पसीजा ॥२६३॥ 
तो राना चरणवयस्य भयक्षर रक्षं ददौ । अन्यदा राना 
दीधकं 9 केडि +~ (~क , ५ 4 क ( 
दीवकाठं नठकेटि विधाय परिभासतरीरस्यवदिप्च्मियाया 
निषण्णसततरं कथितकपिरागतय भाह ॥ 
, पिर राजाने तीन चरणोधो प्रत्येक जक्षरपर एक २ खाख रुपये दिये । 
., धष समय राजा चिरकारुतक जलक्रीडा करनेसे थककर सरोबरफे किनारे 
चटदक्षकी छायामें वेठगया । वयं किसी कविने आकर का । 


माषादीकासदितः ! ( १५९ >. 


छं सेन्यरजोभरेण भवतः शीपोजदेव क्षमा-। 
रक्षादक्षिण दक्षिणक्षितपरिः गेकष्यातरिकषं णाद्‌ ॥ 
रिःशंको गित्रो निर्गो निबाधिषो निशवुह- । 
निःश्रीको निरपत्यको गिरचुनो गिहंटको नितः ॥२६४॥ 
हे मोजदैव ! है क्षमा ओर रक्षाम दक्ष | तुम्हारी सेनक रजके उडनेसे 
शरूक्से आच्छादित आकादाको देख दक्षिणदेशका राजा क्षणकार्मे निःशङ्क, 
उजाहीन, सेवकहीन, वांधवहीन, मित्रहीन, चली, सन्तान, अनुज ओर 
धनहीन होकर बाहर निकर्गया ॥ २६९४ ॥ 
किंच- 
ओर भी- 
अकंडधतमानसष्यवतितोत्सवैः सास्ते. । 
रकोडपटुताड्ैरमि शिखं धिना डैः ॥ 
दिशः समवलोकिताः सरसनिररपोहपत- । 
उवत्पृथवरूथिनीरननिभूरनःश्मामटाः ॥ २६५ ॥ 
विना अवसर मानसम निश्चय कर उत्सवयुक्त सारसोसे ओर विना अवसर 
न्दर नँवनेवाठे मोरो मैडते वाररससे उत्तेजित आपकी विक सेनासे 
उडी इ ्ूटिसे रात्रिके समान इयामवणेवाकी दिशाय जान पडती दै ॥२९९॥४ 
ततो राजा रकषदयं द्दो। तदानीमेव तस्य शखायामेकं काकं 
रतं गेय कोकिटं चान्यशाखायां कूंतं वीक्च देवनयनापरा 
कविशह ॥ 
“ "किरं राजाने दो खख रपये दिये । उसी कार वरब्तकौ शाखापर्‌ 


9] 


वौठते इए काकको . जीर दूसरी शाखापर चटी वोत इई मैनाको देखकर 
देवजयनामक्ष. कविते कहाः। ` ५, 


. १५६ ) भीजप्रबन्धः- 


नो चाह चरणो न चापर चतुरा चंच वाच्यं वचो । 
नो लीरा चतुरा गति च शुचिः पक्ष्रहोऽयं तव ॥ 
= क@ क श) $ क क, ० न, ७ 
चूरकरु पिनष मह स्थन वुधवाद्रुरब्‌ । 
मूस ध्वा न टल्वतैऽप्यसदशं पांव्युन्नाटयन्‌ ॥२६६॥ 
हे काक | न तो तेरे दुध्र चरण दै, न सुन्दर चच दहै, न चतुर वचन 
बोख्ने आते, न मनोहारिणी खीला करता है जीर न तेरे दोनों पदी 
सुन्दर है फिरमी क्रूर तुन्चे कौ के शब्दसे वाणी निकाट्ते हए मूखका 
- समान चतुराई दिखाते इए छाज नहीं आती ॥ २६६ ॥ 
तत एनां देवनयकिना काकमिषेण विरचितां स्वगरणा 
मन्यमानस्तत्धीटहरिशमं नाम कविः कोपेनेप्यपूर्व पराह ॥ 
देवजयनामक कविके काके मिपसे एेसा कहनेपर हारदामीने अपनी 
निन्दा मान डाहके साथ क्रोधकर कहा- 
{ _ न् क = 1 
तुल्यवरणच्छदेः छष्णः कोकिलः सह संगतः ॥ 
केन ्यास्थायते काकः स्वयं यदि न भापते ॥ २६७॥ 
रग ख्य जीर पंखसि कोयर्के समान कारे ओर कोयख्के साथ समता 
रखनेवाठे काकरूपी यदि आप न वोरते तो कैसे जाना जाता ॥ २६७ ॥ 


० {५ 


ततो शना तयोहीरश्मदेवनययोः अन्योन्यदैरं ज्ञाला मिथ 
आरिगनादिवच्चालकारादिदानेन च मिनित व्यधात्‌ । अन्यद्‌ राजां 
यानमारुद गच्छन वतमनि कंचित्तोनिरि चात भा । पवास्शानां 
दन भाग्यायत्त । भवतां क स्थितिः । भोजनार्थं के वा प्राध्यंन्त 
इते। ततः स॒ राजवचनमाकण्यं तपोमिषिराह्‌ ॥ | 
फिर राजाने हारेदामी ओर देवजयमे भैर जान आपसमे भेट कराय 
वार्‌ आमूषण दे मित्रता करादी । एक समथ सवारीमे बैठकर मागेमे 
जाते इ९्‌ किसी तप्ीको देख राजने कहा--आपये समान द्चैन माम्य ' 


मापार्टीकातदितः। ( १९७) 


होते ई । आप कहां रहते हो ओर भोजनक प्रार्थना किससे कतेहे 
तव तपोनिधिने राजाकी चात सुनकर कहा | 

फट स्वेच्छारूपं भरतिवनमसेदं ्षिरिरुहा 

पयः स्थानेस्थाने शिशिरमधुरं पुण्यसरिताम्‌ ॥ 
मृदुसपश शम्या सुखहितरतापहवमयी । 
सहते सतापं तदपि धनिनां द्वारि रुपणाः॥ २६८ ॥ 

हे राजन्‌ ! बनाम इ्षाफे फ विनाही धमते मिल जाते हे, पवित्र नदि~ 
यका जल ठंडा ब मधुर स्थान २ पर मिटता्ै, घन्दर बेटे ओर परक 
पर्तोवाी फोमट शय्या है, तो भी धनियोकि द्वार जो कृपण रहते है वह 
टुःखही सहते ई ॥ २९८ ॥ . 

राजन ! वयं कमर नापथयामः न गृहीमधयेति राना तुशे 
नपृति | तत उत्तखेशदागत्य कथिद्राजानं खस्तीयाह । तै च 
राजा पृच्छति । विद्रव | इच ते स्थितिरिति । विदागाह- 

दे राजन्‌ ! हम किसीते कुछ नहीं मांगते ओर न ठेते है, यह सुन राजाने 
प्रसन्न होकर प्रणाप किया } फिर किसने उत्तर देसे आकर राजसे “सछस्ति. 
कहा ! तव जने प्राह विदन्‌ ! तुम्हारा कहं सान है £ विद्रानूने कहा~ 

यना निंदत्यमृतपःयजाश्च सुरेश्वराः ॥ 

वितामणिश्व पापाणास्तव नो वसतिः भो ॥ २६९ ॥ 

जर्हौका जर अगृतको टजाता दै, जके चाण्डा इन्द्रकी वराबसै 
करते ह आर जरहेकि पत्थर चिन्तामणिको जति दै । हे प्रमो ! मे वहीं 
रहकर ह ॥ २६९ ॥ धा 

तदु राजा ठक्षं दला प्राह काशेदिशे का विशेषवाच्तति। स 
आह्‌ देव | इदानीं काचिददुतवारता तत्र छोकखेन शता, दा 
दुःखेन दीना इति । राना देवानां इतो दुःखं विन्‌ । स चाह- ` 


६ १५८) मोजप्रवन्ध्‌ः- 


` तव राजाने उसको खख रुपये देकर कहा, कारीजीमें क्या वितरेपता 

हे ? यह बोखा--देव ! वर्होपर जो मनुष्योके मुखसे बात सुनी वद यहे 

वि वह देवता दुःखसे दीन होरे ह । राजने कहा दे विदन्‌ ! देवता- 
ओको क्या दुःख हे १ उसने कहा-- 

निवातः काय नो दत्तो भोजेन्‌ कनकाचलः ॥ 
इति व्यप्रधियो देवा भोज वार्तति नूतना ॥ २७० ॥ 

हे महाराज मोज ¡ यह नई वात है फि आपने जो सुमेस्प्॑तको दान कर 

दिया इससे देवगण व्याकर होकर विचारते है फि, हम कहौ जाकर रदे २७०॥ 

ततो राजा इुतहोक्तया तुष्टः सन तस्मै पुनर्चं ददौ । ततो 

दासालः प्राह । दैव ] शीशेखादायतः कथिद्न्‌ बक्षचर्थन 


क क्षः क 


1९ वतत इति राजा प्वेशयत्याह । तत आगत्य म्रह्वचाय्यं (त्र 
जवति वदति । राजात पृच्छत । वह्यव | वल्प एव कारूका- 
खनद किं नाम वते ते अन्वहुसुपवासेन ङशोऽपि । कस्यचित्‌ 
माह्मणस्थ कन्या तुय दपपिष्पापि । त्व्‌ चडहुस्थधममगाकार- 
ष्या । बह्मचारीं भाह्‌ । दव | त्वमाश्वरस्तय क्रमस्य ॥. 
तब राजान कुतूहककी उक्तिसे प्रसत्र हो उसको फिर खख रूपये दियै । 
छ द्वाराखने आकर कहा--हे देव | श्रीरीरते आकर कोई व्रह्मचारी 
नाह्मण दवाएपर खडा हे । राजाने कहा छवा खाञ । तव बह्मचारीनि आकर 
(रञपव ' कहा । राज्ाने उससे प्छ कि हे ब्रहन्‌ ! कठिकाय 
आपका बाव्यावस्थामें कौनसा जत साध्य हं क्या प्रतिदिन आप उपवास 
कका छरा हारहे है । यदि तुम गृहस्थधम्पको स्वीकार करना चाहो तोः 
किसी ब्राह्मणक कन्या दिखादं । ब्रह्मचारीने कहा-कि, हे देव ¡ माप 
ईश्वर & आपको समी साम्यं हे | 
सागा सुहदो गृहं गिरिणा शांतिः मिया गेहिनी । 
दा्तशलिरताफेनिवसषते ओं तरूणां त्वचः ॥ 


भापारीकासहितः। (१५९) ! 


तद्धयनमृतएूरमय्मनसां येषामियं पिविति-। 
क, कष | ५ क भ क्ष 
स्तेपामिदुकुखवतेसयमिनां मोक्षि गे न सहा ॥ २७९ ॥ 
हे देव } प्च पक्षी मेरे मित्र है, पथैतकी गुफ्ठा घर्‌ हे, शान्ति चरी हे, अधि, 
कट सीर प्सते लापिका दे, दृक्ोको श्रं वलन दै, तुम्हारे ध्यानामृतसे 
जिनका मन एण ग्रसन्‌ हुआ ह वही आनंदः है किन्तु चन्दरकखको सुकरुमे 
धारण करतेयारं शिक नेम ब्रत हमारी मोकषमेभी सभिरपा नदी है २७१ 
राजा उत्थाय पदयोः पतति आह च । वहत्‌ | मया कि कच 
व्यमिति] स॒ आह । देव ! वयं कश जिगमिपवस्तत एकं विधेहि। 
पे खत्सदमे पंडितवराः तानू सर्वानपि सपलीकान्‌ की प्रति 
भ 9 [) कन क [4१.१५ भ 
मेप ! ततोऽहं गतृ का गमिष्यामीति । राना तथा च । 
ततः सृ पृडित्वरस्तदज्नया भर्थिताः। फटिति एक म्‌ गच्छति 
स तदा साना काचिदपि प्रहु! एके! सं ते ¶ गतऽसति। 
ततः काठिदासों राजानं पाह । देव | सवन्ञोऽसि ॥ 
राजा उच्कर चरणेमिं भिरगया मीर बोला दे ब्रह्मन्‌ मै क्या कर £ 
उसने कहा हे देव ! मेस काशी जनेकी: अभिका है, अतएव एक काम 
कय तम्दार यक्तं जो निद्र & उन्द सल्लीक काशीजी भेजो तो भे उनके 
ताय प्रमे कारी जाऊँगा । सजाने यदी किया । समसत पण्डित जाकी 
आाङ्ञासे काशीजीको चट्दिये । केवर काठिदास दह गये तन राजान 
काष्दाससे कहा हे घुक्चे ! ठुम क्यों नही गये £ ते काकिदासने राजास 
कहा दे देव { अप् तो सवज है । 
ते याति तीर्थ इधा ये शंपोद्तिनः ॥ 
क श्वितत & (> भ > ९ 
यस्य गैरीशवर्िते तीर्थ भोन परं हि सः ॥ २७२ ॥ 
हे मोल ] जो पण्डित रिवजीसे दूर रहते दँ येही तीर्थम जति दै ओर 


% £ स, 


{जिसके मनने गौसीश्वर विराजमान दै वह खयंही परम तीथं टे ॥ २७२ ॥ 


- (१६०) भोजपरवन्धः- 


तते दिसु काशीं गते राना कदावित्तपायां काषिदापं 
पृच्छ स। कालिदास! अय किमपि श्च किं लयेति। स आह्‌ 
- पठि विद्वान्‌ काशीको चरे गये तेव एक दिन राजानि राजसभामे कालिदास 
रखा-हे काठिदास ! आज आपने वु सुना है क्या £ किदासने कहा । | 
मरे मददरा हिमवत्ानो मदाच । 
केछासस्य शिकत सहयभागारमेभ्वपि ॥ 
सद्यद्राविं ते तेष बहशो भोन शत ते मया । 
लोकाटोकविचारवारगगणेस्रीपमानं यशः॥ २७३ ॥ 
हे भोज ! सुमेर, मेदराचरुकषी युफा्मिं, हिमालयमे, महेन््राचररमे, 
कैठासकौं रिरमिं, मव्याचरके प्राभार जीर सद्याद्रिमेभी अनि जनि- 
वे चारणो मुखसे तुम्हारे यरा गान छुना है ॥ २७६ ॥ 
ततश्वमस्छतो रान प्र्क्षरकषं ददो! ततःकदाकिद्राना विद्द- 
दं मिगेतं कालिदासं च अनवरतवेश्वाखपटं ज्ञालाप्यवितयत्‌ ! 
अहह्‌ | वाणमयूरमरतयो मदीयामज्ञा व्यद्षुः। अपं चवेशाठं- 
परतया मभन्ञा नाद्रियते ईं कुष इति । तते राना सवतं काटि- 
दाप्षपप्थत्‌ । तव भालनि राज्नोऽवज्ञा ज्ञाता कालिदासो वहा 
ख्देश गखा तदेशपिनाथं पराप्य प्राह । देव ] माव्य भोन- 
त्याव््तया सदशं भप्तोऽह काटिदासनाभकविरिति। ततो रना 
तमात उपवेश भाह । क्वे ¡ भोनतताथा इहातः पवतः 
सादः शतशसते महिमा । सुरे] तां सरस्वतीं वदति वदः 
किमि पठेति। ततेः कालिदाप्त भह ॥ | 
त चमकत हकर रोजाने एक २ अक्षरपर एक २ राख -रपये दि 
~ पर किसी दिन राजनि विद्ानोरेः चके जनपर कालिदासको वेदयारम्यट 


भाषारीकासदहितः । ( १६१ > 


जानकर विचारा कि, बडे खेदकी वात है छ, बाण मयूर आदि विद्रानोने 
मेयं आज्ञा मानी पर दस वेश्यारम्पट कालिदासे नहीं मानी अब क्या 
फर तव काटिदासको अपराधी सदराया । काठिदासने साजाकी अवङ्गासे 
वल्याख्दरमे जाय व्क राजात्ते कहा हे देव ! मालवेन राजा भोजकी 
सवज्ञा करनेसे म कालिदरानामेक कवि आपके यही आयां । तव राजानि 
आसनपरर वैटाकर कदा ट क्वे ! मोजक्री समासे आकर सैकर्टी 
पण्डितानि नुन्दासं प्रसंसा कीट, दे कवे ! तुमको साक्षात्‌ सरस्वती कहते 
है जतर्व कु पटिम ! तत्र काञिदासने कटा । 
५ क क भ, # [8 
वहछाटक्चोणिषाल तदहितनगरे संचरती किराती । 
कैन ¶ ५. क्म % र | 9 ® 
कोणान्यदप्‌ रलान्युरतरखादरागाशकङ्खमा ॥ 
५५ (^ भा. ५. ० भू भ [+ 
क्षिप्त्वा श्रखडखड तदपार सङ्कर सतनत्रा धमता । 
= £ क क, ह # 9 क क 
श्वासमेदादपतेम॑धुकरनिकरेषुमशकां विपति ॥ २७४ ॥ 
हे व्मलक्षोणिपार ! आपके शत्रुओके नगरमे विचरती इदं मीखनी 
विवरे सरको ऊ उन्दं चमकते इए सैरके बडे अगारे जान व्याक्घुरु होकर 
उनपर चन्दनको छिडक नेत्रो मीच मधुर श्वाक्षके वहनेसे सुगन्धिसे मच्च 
हो अमरगणोकि आनेते ध्रूमको शाष्का करती दे ॥ २७४ ॥ 
ध प्रस्‌ = क ~. 
ततस्तस्पं भरयक्चरटश्च ददा । ततः कदार्चदटाटराना काटड- 
+ य्‌ ० $ ५ ~> ॥ 
दासं पप्च्छ । सुकवे { एकशिडानगरी व्यावणयेति। ततः कविराह॥ 
फिर राजान उनके एक २ यक्षयर एक २ खख ॒र्पये दिये । पिद 
किसी दिन राजा वद्याठने कालिदासे प्ख । है युके ! एकरिखानग- 
रकि वर्णन करो } तव काकिदासने कहा ! । 
५. देश स=, क क त श 
अपांगपतिरपदेशपूरवरणीदशमेकशिखानमयामू ॥ 
9 श क क" 9 ऋ, शनि, 4. = 
वीथीषु वाथष् नापराधं पद्‌ १द शराटता इवानः ७५ 
एकरिठानगरीमे गृगनयनीः च्ियोके तिस्छारित कटाक्षे गरी २. 
ओर्‌ पद पदपर चुवक जन साक वधगये | २७९ ॥ 
१ । 


< १६२ ) भोजप्रवन्ध्‌ः- 


पुनश भ्यक्षरलक्षं ददो ! कविः पुनश्च पठति ॥ 
. किमी राजा बह्ाख्ने एक २ अक्षरर राख २ रुपये दिये, तो कविने 
फिर पटा । 
अंभोनपत्रायतलोचनानापंभोपिवीर्पास्िह दीषिकाष्ठ ॥ 
समागतानां ष्ठिरषगिरनंगवाणेः भहता युवानः ॥ २७६ ॥ 
यह सागरकी समान विरार वावडिरयोर्मि आद इद्‌ कमक्दलकी समान 
नेत्रवासी च्ियोके तिरछे कटाक्ष कामदेधके वाणोसे युक जन मारे 
गये ॥ २७६ ॥ । ^ = 
पुनश्व बह्याटनृपः प्रतयक्षरलक्ष ददा । एवं तन्व स्थितः 
काठिदासः। अंतरे धारानगयां भोजं प्रप्य दाराः पाह 
देव ! शजैरदेशात्‌ माघनामा पंडितवर आगत्य नगराद्रहिरास्ते। 
` तेन च स्वपती राजद्वारि परेषिता । राजा तां भेशयेत्याह्‌ ! ततो 
मराषपत्री भवेशिता सा राजहस्ते परत्र भाषच्छत्‌ । राना तदा- 
दाय वाचयति ॥ 


प्िरमी बह्छाठदेरके राजाने एक २ अक्षरपर ख २ रये दिये | 
इसी भांति वहीं काठिदास रहने खगे ! इसी अवसरपर धारानगरीमे राजा 
मोजसे.ाकर दवारपार्ने कहा हे देव ! युजरातसे माघनामक पंडितराज आकर 
नगरसे बाहर विराज रदे है । उन्होने अपनी स्ीको राजद्वारपर भेजा ह, 
राजानं कहा दुका ऊाभो । तब माघकी जनि आकर राजाके हाथमे पत्र 
दिभरा । राजाने उसे ठेकर पडा । 
कुमुदवनमपभि श्रीमरदभोनषडं । 
सजाति मुदमुलूकः भीतिमांशवक्रव कः ॥ 
उदयमाहिमरशियाति शौतांशुरस्तं । 
हतविधिलसितानां ही षिचिजो विपाकः ॥ २७७ ॥ 


भाषारीकासदितः } ( १९३) 


सुयैके उदय जीर चन्द्रम अस्त हनेपर दुसुदकी शोभा जाती रही जीर 
कमर्छोपर शोमा अगद । उ्ट पक्षियोका आनन्द जाता रहा जीर चकवा 
असन इए इससे जान पडता हे कि, कर्मफठकी विचित्र गति हे ॥२७५१ 
इतिं राना तद्गते भरभात्वणेनमाकण्यं सक्षय दसा मापनी- 
माह । मातरिदं भोजनाय दीयते भातरहं माघपंडितमागत्य नम्‌- 
स्त्य परूणमनोरथं करिष्यामीति । ततः सा तदादाय गच्छती 
[| ह # क ६ 
याकता इखत्स्वभ्ठः शरद्चद्रकरणमारात्‌ यण्‌ शला 
तेयो धनमसि भोजदत्तं दत्तवती । मापपंडितं सगर्तारमासाय 
भराह्‌। नाथ ¡ राज्ञा भोजेनाहं बहू मानित। धने स्व याचकेयस्ल- 
दणानाकरण्यं दत्तवती । माघः प्राह । देवि ! साधु कतं परमते 
याचकाः समायाति किंठ तेष्यः किं देयमिति । ततो माषपन्िं 
वंच्चावशेपं ज्ञता कोऽपयरथा भाह्‌ ॥ 
राजान उस पत्रमे चिलि प्रातःकाले बणैनको सुन माघकी चरीको तीन 
-खाख रुपये देकर काकि, हे मात्तः ! यह आपके भोजनके छथि दिया हे 
कट प्रातःकाठ माघमहाराजके दन कर मनोरथको पणे कूगा ¦ जन 
माघकी ली टेकर चली तो मागमे भपने स्वामीके शरद्तके चन्द्रमाक्पि 
्वादनीके समान निर्मठ गुण याचकेकि मुखंते सुने तो समस्त धन उन्द 


भ, ® भ 


याचको दे दिया 1 जीर स्वामीके पास जाकर वोी हे नाथ | राजा 
भोजने कंडे भानसे तीन लख एपये दियेथे सो आपके गुण वखाननेसे 
याचको दे दिये । माघने कहा हे देवि } अच्छा किया । परन्तु याचक 
आरै सो इनको क्या देना चाहिये । पिर माघ पण्डितपर केवर वेल्ल 


जानकर एक याचकने कहा । 


आश्वास्य पवैतक्करं तपनोष्णतप- । 
सुदहामदाविधुराणि च काननानि ॥ 


( १६४). मोजप्रबन्धः- 


 नोनानदीनदशतानि च रमिला। . 
^ `रिकोऽपि युलढद सेव तवोत्तमधीः ॥ २७८ ॥ [र 
^ हि तेय | सूये प्रचण्ड तापसे तपते इए पवैतोको धीरज दे नोक 
तीव्र दावानङ्को शान्त कर सैकडं नदी जीर नाको रणे करके जो त; 
खाठी इना है उसीसे तेर उत्तमं शोमा हे ॥ २७८ ॥ 
, इत्येतदाकण्यं माघः स्वपीमाह । देवि ! 
यह सुन माघने अपनी सीसे कदा-हे देवि ! 
अथा न संति न च सुं चति सां दुराशा । 
त्यागि शति वहति दुलत मनो मे ॥ 
याच्ञा च लायवकरी स्ववधे च पाप । 
राणाः स्वयं वजत क परिदेवनेन ॥ २७९ ॥ 
सङ्घपर धन न होनेपरमी दुराशा नहीं द्रुटती जीर दित मनको छोड 
नेमे हषं होता है, याचना गीरवको नष्ट करती है ओर स्वयं मरनेसे पाप 
होता है, इस कारण विरप केसे क्या होगा भेर प्राण स्वयंही निकठ 
जाय तो अच्छा है| २७९. ॥ , , 
दारिदरयावल्षतापः शावः संतोषवारिणा ॥ 
याचकाशाविषातपिदोहः केनोपशाम्यतीति ॥ २८० ॥ 
दरिदरताकी अथिसे उत्पन हमा ताप सन्तोषरूपी जरसे शान्त हो जाता 


भ भ क 


है} परन्तु याचकोकीं आदा भग होनेसे आन्तरिकदाह किसी मांतिसे छान्त. 
नहीं होता है ॥ २८० ॥ 


ततस्तदा माघपडितस्य तामवस्थां विंरोक्य सव याचकाः थथा 


स्थानं जग्छुः। एवं तेष थाचकेष्ठ यथायथं गच्छत्सु माघः भराह्‌ ए 
फिर माघपण्डितकी यह दा देखकर सव याचक अपने धर चले गये } 
उन सन याचकोके चठेजानेपर माघर्पडितने कहा । 


भापादरोकासहित! । ( १६५ >) 


क द रः 


वजत तरनत भाणा अयापिव्यथता मतः ॥ 


पध्वादूपि च गेतव्यं क सोऽथंः पनरीटशः ॥ २८१ ॥ 
म्राण जति दहतो ज्वं कारण याचक व्यर्थं चङे गये । एक दिनतौ 


च कव क 


प्राण जायनेद्वी फिर इन्दे किस प्रयोजनसे विरमाये रक्खुं ॥ २८१ ॥ 
दपि विल्पत्‌ माघपाहतः परलाकर्मगात्‌ । ततां मपला 


[व क [म 
स्वामिनि परटोकरं गते सति पराह ॥ 

सा विलाप करते ह्र९ माघ परलोकको सिधारे जव सवामी परलोक- 
साप्त हए तद उनका तान कहा | 


सेवते स्म गृहे यस्य दावद्युनः सदा ॥ 
स्‌ स्वभायासहायोऽयं प्रियते माघपाड्तिः ॥ २८२ ॥ 


चित्तके प्रस्ो राजा दरास्करी समान सदा सेवन करता टै, व्च माघ 
पंडित क्ट भायि सायक दोनेधर मृव्युको प्राप्त दोता है ॥ २८२ ॥ 

ततो सजना माघं विपन्नं न्ना विजनगराष्धिमरशतात्रतो मोनी 
रात्रदिव तापात्‌ । ततो माधपनी रानानं वीक्ष्य प्राह ! रजन्‌ ! 
यतः पँडितवरस्वदेशं पापतः परलोकमगात्‌ ततोऽस्य छयशषं सम्य 
माराधनीयं भवतेति । ततो राजा गावं विप नमेदतीरं नीला 
ग्रथोक्तेन विधिना सस्कारमकरोत्‌ तन च माधपतरी वहो भविष। 
तयोश्व पृजवत्‌ सर्व चक्रे भोजः! ततो मापे दिवं गते राजा 
-शोकाङुलो षिेषेण कटिदासवियोगेन च ॒पंडितानां भवासि 
-कशोऽमूदिनेविि बहुटपक्षशशीव । ततोऽमात्य मिटितना चितितम्‌ ? 
वह्याख्देशे कालिदासो वसति । तास्मिलागते राजा शंखी भधष्य- 
तीति। एवं विचायोमासयेः पत्रे फिमपि टिखिता ततः पत्र चक- 
ह्यामात्थस्य हस्ते द्चा भेषितम्‌ 1 स्‌ कालक्रमेण काटदासमाः 


(१६६ ) भोजप्रनन्धः- 


साय राज्ञोऽमातयैः पेषितोऽस्मीति नला तसं दत्तवान्‌ । ततस्त 


[.@ भ ५ 
त्काटदप्ना वाचयत्त ॥ 

फिर राजा माघकी मृल्युको सुन सैकड बराहमणौको साथ ठे मीन धारण कर्‌ 
रातिहीमे वँ आया । तब माघकी खीने राजाको देखकर कहा-हे राजन्‌. 
पडितजी तुम्हारे देशम आकर ृत्युको प्राप्त इए है मत एव इनके तक संस्कार- 
को भली मोतिसे पूरणं करो ! तन राजनि माघका शृतक शरीर ठेजाकर नमदांनदी 
विनारे संस्कार किया ओर वहीं माघकी त्री चिताने प्रवेश कर्के सती- 
रोकको पधार । उनकी समस्त क्रिया राजा मोजने पुत्रके समान करी 
जब माघपण्डित स्वर्गको सिधारे तव शोकसे व्याकर हो दूसरे काल्दिसकी 
वियोगाथसे सन्तप्त हो तीसरे पण्डितेकि प्रवासी होनेसे राजा दिनपर दिन 
दुब दने ख्गा । जैसे छ्ृष्णपक्षका चन्द्रमा कठाहीन होता दै 
मत्रयोने परस्पर मिककर निश्चय किया किं, ब््ाब्देदामे काठ्दिास रहते है! 
उनके आनेपर राजा सुखी होगे । यह विचार मंतरियोनि पत्रमे दुक छिखकरं 
एक मत्रीके हाथ वह पत्र वरह भज दिया । वह्‌ मत्री चरकर काछिदासके 
पास पर्चा ओर प्रणाम करके बोटा महाराज ! आपवो पत्र देनेके स्यि 
सुह मत्र्योने मेना है । यह कह पत्र दे दिया । तन काल्दिासने उसे पडा ! 


नृ भवात भवात वें [चिर भवतिं [चिर चद्‌ फएठ तिस्वादा ॥ 
कापः स्पुरुषाणां त॒ल्यः सेहेन नीचानाम्‌ ॥ २८३ ॥ 
 सदपुरूमोको कोप नहीं होता, यदि होमा तो वह॒ चिरकाठ्तक नकी 
रता, यदि चिस्कार रहे तो उससे उत्तम फर होता है । अतः उत्तमः 
पुरुभाका कोप नीच पुरुषोके सेहे समान होता ह ॥ २८६ ॥ 
' सहकारे चिरं ध्थिला सखीलं बाटकोकिट ॥ 
ते हितवायान्यतृकषेढ विचरन विखनसे ॥-२८१४ ॥ ` 
हं वारुकोकि † खीकाके साथ आमे ब्र्षपर चिरकाक रहकर अब 
आमक त्याग जन्य ब््ञोपर विचरते इए तके रजा क्यों नहीं आती ॥२८४॥ 


॥ 1 ५ 
९ + 


भाषार्सकासदितः । ( १६७) 


केटकंठ यथा शोका सहकारे भवदिरः ॥ 
खदिरे वा पलाशे वा रिं तथा स्याक्िचारयेति ॥ २८५ ॥ 
हे सुंदर कंट्वाखी कोकिर ! विचार तो देख ! जेसी शोभा तू आमक 

बरक्षपर पाती है वैसी शोमा आर सैर ढाकके दृक्षपर महीं पासक्ती ॥२८९ ॥ 

तत कालिदासः प्रभाति तं भूमाटमापृच्छय माखवदेशमागयय 

६ [२.९ [|] ॐ 
रान्तः कीडेयाने तस्थ । ततो राजा च तनागतं ज्ञाता सख्यं 
गृत्वा मृहूता परिवारेण तमानीय संमानितवाच्‌ । वतः कमेण 
विदन्मैदले च समायाते सा भोजपरिपत्‌ भागिव रेजे। ततः पिहा- 
[ १ $ कजं भ 9 क 

सनमदैङ्वोणं भोजं दासपाट आगर भणम्याह्‌ । देव ¡ कोऽप 
विदद्‌ जारटधरदेशादागत्य दायोरत इति । राजा भवेशयेत्याह । 
सच विद्ठनागत्य सभार्या तथाविपिं राजा जमगन्पान्पाद्‌ 
काटिदासादीन्‌ विपुगषान्वीक्षय वदजिहं इवाजायत । सायां 
किमपि स्य सूखान्न निस्सरति । तदा राज्ञोक्तं विदत्‌ | किमपि 
पठति । स आह्‌ ॥ 

फिर काञ्दास प्रातःकाठ राजातसे छ मर्वे आकर राजाके वगी- 
वेने विराजे ! तव राजा काञ्दासको आया जान परिारसहित वह 
आया ओर सन्मानके साथ उनको खेगया 1 फिर इछ कार्म विद्रानोका 
मंडल आगया | तो राजा भोजी समा पूवैकी समान शोमाको प्रात दौ 
गई । समाक वीच सिहासनपर वैे इए राजा भोजसे आकर द्वाराठने 
प्रणाम करके कहा हे देव ! फो विद्वान्‌ जाटन्धरदेशासे आकर दसाजेपरः 
, खडा है । राजते कदा छिा ओ । उस विद्रानूने सममे आकर राजा 
मोजको जगन्मान्य काठिदासादि कचियोे साय वे देखा तो उसकी 
जिहयाकी गति र्कगई । समके वीच उसके सुखसे कुछ नदीं निकारा । 
तव राजाने कहा हे विद्वन्‌ ! क्छ किये । उसने कहा । ` 


१९८ ) - भोजग्रबन्धः- 


आसाटगङदाहथकया । 
मन्पुखादपगता सरस्वती ॥ 
ते तैरिकमलाकचय्ह- । 
व्ययहस्त न कविलमसि मे ॥ २८६ ॥ 
हे रा्रुमोकी राजकक्ष्मीके केशौको पकडनेमे ग्यप्र हस्त॒ राजा भोज 1 
कांजीकी शंकासे मेरे सुखसे वाणीरूपिणी सरखती चरीमदुं अतएव मेरे 
सुखम अब कविताशाक्ति नक है ॥ २८६ ॥ 
राना तसम महिषीशतं ददो । अन्यदा राजा कोतुकाकुलः 
सीता भाह । देवि सुरतं एति । सीता भह- 
राजने उसको सौ भसँ दौ । एक दिन राजाने आश्चर्यके साय सीतासे 
कहा हे देवि ! सुरतको पटो । सीताने कदा- 
सुरताय ममस्तस्मे जगदानदहेते ॥ 
आसुर्षगि फठं यस्य भोजरान भवाह्शः ॥ २८७ 
हे रजामोज ! जगते आनन्दके कारण सुरतको प्रणाम ^, जिसका 
फर तुम्हारी समान पुरर्षोका मिलना है ॥ २८७ ॥ 
ततस्तुशे राजा तस्थे हारं ददौ । राजा ततो चामसाहिणी 
वेश्यामवरोकष्य काटिदापं भाह । सुक्वे! वेश्यामेनां वणयेति। 
तामवलोक्य कालिदाप्ः प्राह ॥ 
तव राजे प्रसत होकर रानीको हार दिया 1 फिर राजा यवर इकने- 
वाङ वेस्याको देख काठ्दाससे बोरे हे घुकवे ! इस वेदयाका वर्णन करो । 
उसे देख काछ्दिसने कहा | 
कचभरात्डुचपारः कचभाराद्ीतिमेति कचपारः ॥ 
कचङुचभारान्नयने कोऽयं चंदानमे चमत्कारः ॥ २८८ ॥ 


भापारीकासरितः । ( १६९ ) 


हे चन्द्रसुखी ¡ यह क्या आश्वर्यं हे जो कचभार ( करके भार › से 
कुचमार जीर कुचभाप्से फचभार जीर कच घ कुचके भारसे जं मय्‌- 
मत ५ री ह अथौत्‌ यह सवर हिटकर पचित करते टै कि, आपसे 
भयस क्प रह्‌ ह ॥ २८८ 

भोजस्व्॒टः सत्‌ स्वयमपि पठति ॥ 

पिर प्रसन होकर राजानि खय॑भी पटा । 

वदनातदयुगरीयं वचनादर्थ दंतपेक्तेश्च ॥ 

कृचतः कुचयुगटीयं सोदनदगहं च मध्यतचसति ॥२८९॥ 

इ्के मुखत दोनों चरण, वचनते हठ चा समस्त दांत, केशोसे दोनो 
छुत्च जीर फटिभागत्ते दोनों नेत्र उरते है ॥ २८९ ॥ 

अन्यदा भोजो राजा प्रारानगरे एकाकी विचरन्‌ कस्यचिद्ि 

भवरस्य गृह गृत्वा तत कांचन पतिववां स्वांके श्यावे भतौरसु- 
दप एन्‌ ततः त्स्याः शिशुः सुष्प्थितः ज्वालाया: समीप- 
मगच्छत्‌ । इयं च एतिधरमपराथणा स्वपतिं नोत्थापथामाप। त्तः 
शिश च वहम पततं नागहाद्‌ । रना चाश्वयमारोक््याकित्‌ । 
ततः स्‌ पतिध्प्रायणा वेशानरमभार्थयद्‌ । यज्ञेश्वर ! तं सव- 
कर्मसाक्षी सर्वधर्मान्‌ जातापि मां पतिथमपरधीनां शिशुमगृहती 
च जाना ततो मदीयशिशमदगह्य सं मा देति । ततः शिशुय- 
तेश्वरं भविश्च तं च हस्तेन गहीलाधवटिकापयतं त्नात्‌ 
ततभारोदीव्‌ भरत्र्ुखच शिशुः सां च ध्यानादाषित्‌ । ततो 
यहच्छया सयते भरवरि सा श्चटिति शिश जाह । त च पसम 
धर्ममाठोकषय पिस्मयाक्छि चृपतिरह्‌ । अहो सम भाग्यं कस्या 
सि । यदीद्छः पुण्यक्ठियऽपि भ्तगरं वसतीति । वतः भतः 


€ १७० ) भोजप्रवन्धः- 


सभापामामत्य सिहास्व उपविशे राजा काठिदातं प्राह षु 
महदाश्वयं मया पूर्वद्य्‌ रात्रा टएमस्ताल्युक्त्वा राजा पक्त ॥ 

एक समय राजा भोजने धारानगरीमे इकटे विचरते हए किसी त्राल्मणके 
धर जाकर देखा कि, पतिव्रता च्लीकी गोदमें धिर धरे उसका पति सो रदा ट जीर 
उसका वाख्क सोतेसे उटकर अधिके समीप जा रदा है, तमीं पत्तिधमकरों 
जाननेवाखी त्री अप्रने पतिको नहीं जगाती है, देखते > वाटक्र अचिकरुडमं 
जाकर गिरगया तवमी च्वीने जाकर वाख्क नरह पकडा । राजा इम माश्च 
यको देख सित होगया । तव उस पतिव्रताघ्नीनि अभिदेवकी प्राथना 
क्रा । है यकगेश्वर ! तुम समी कमोके साक्षी जर ञाता हो, र पतिव्रतधर्मक्रे 
वञ्चीभूत होनेसे चाख्कको नदीं पकड सकी यहमी जनते हो, अनएव्र मेरे 
वाख्कको दया करके मत जलाना । फिर अधिदेवको प्राप्त दाकर वाटकः 
उनके हाथ आधी वडीठखाो स्थित रहा पटे वाल्क प्रसनताते रोने 
खगा । इधर पततित्रता अपने व्यान्मे छीन रही । जत्र उसके स्यामीकी नीद 
चटी तव उसने उठकर शीघ्रतासे वाठकको उटा च्या । उततके परमधर्मक 
देख राजा अचंभित होकर वोखा अहा ! में वडा माग्यसाखी रं ! जिससे रेस 
पतित्रता चरी भरे नगस्मै वास करती है ! फिर प्रातःकार आकर जवर रजा 
सहासनपर वैठा तव॒ काञ्दाससे कहा हे सुक्वे ! भने कट रचि वडा 
आश्चयं देखा यह कह राजाने पडा । 

हुतागनश्वदनपकशातह इत । 
आरि चन्दनकरी कीचके समान शीतर होगे । 
कालिदासस्ततश्वरणत्रयं स्षटिति पठति ॥ 
किर काठिदासने रीघ्रही तीन चरण पठ दिये | 
छतं पतत भसमाक्ष्य पावके । 


न बोधयामास परं पतिता ॥ 
तदाभवत्तततिभक्तिगीराद | 
इतारानध्वदनपकशीतटः ॥ २९० ॥ 


भाषा्सीकासदहितः। ( १७१ ) 


पुत्रको अभ्रिक्रुडमे गिरते देखकरभी पतिव्रता घ्ीने अपने पतिको नहीं 
जगाया } तत्र उप्तकी परतिभक्तिकी युरतासे अचि चन्दनकी कीचकी समानः 
कीतर होगई ॥ २९० ॥ 
९ 1 (न ५९ 
राजा च स्वाभिपायमालोक्य विसितस्तमार्टिग्य पादयोः 
पतति स्म ! एकंदा पीप्मकारे राजा अतिःपुरे विचरन्‌ धमताप- 
तप मालगनाविकमङवन्‌ ताभिः सह सरसढापाद्यपचारमदु- 
भूय तनैव सुप्तः! ततः भरातरत्थाय राजा सपा भविः इतुह- 
साद्‌ पठति ॥ 
राजने अपने अभिप्रायको कहते देख आश्वर्यं किया ! फिर काकिदिससे 
पिरकर उनके चरणेमिं गिरपडा । एक समय म्रीन्मवतुके ` प्रचंड सूर्यकी 
रूपके तापसे तप्त दोकर राजाने रनवासमं जाकर आष्द्धिन आदि नरष 
किया जीर रानिरयोके साय रसीखी वातोके सुखकरा अनुभव करके ¦ वही सो 
रदा फर प्रातःकाठ समामे आकर आनन्दसे पडा- 
मरुदागमवातयापि शरन्ये समये जाति संमवृद्ध एव ॥ 
प्यन आनेकी बातमी नहीं एसे समयके प्रवर होनेपर । 
पवभुरिराह- 
मवमूतिने का~ 
उरग शिशवे बुभुक्षवे स्वामदिशतफूत्छतिमाननानिखेन ॥२९१ ॥ 
सर्पिणीने अपने क्ुधित वारुकको सुखकी वायुकषे ९ङ्कारदी ॥ २९१ ॥ 
क सुम्धय भ क ष पृमिनं ज 
राजा प्राह । भवततत लोकोकिः सम्धयुक्तेति । तताऽपमिनं 
राजा काणां पश्यति । ततः स आह ॥ | 
यह्‌ सुन याजाने कदा हे भवभूति ! ॐोकोक्ति जच्छी कही । फिर सके- 
त्से काड्िदाससे कडा तव काकिदासने कठा । 
अवलासु विकापिनोऽन्वभुवन्नयनेख नेवोप्गहनानि ॥ २९२ प 


[नि 


+ 


८ १८२ ) भोजप्रवन्धः- 
( उस समय ) विकासी पुरन आटिद्नन करने गरमी मान नेतरि 
देखनेसेदी प्रसन्नता प्राप्त की ॥ २९२ ॥ „ , 
तदा राजा स्वाभिप्रायं ज्ञाता वटः । काठदाप्त (विशषण 
सुम्मानितवान्‌ | अन्यदा मृगयापखशो राजा अत्पतमातः कर्प 
वित्सरोवरस्य तीरे निनिच्छायर्य जंवृक्सय मूपा ॥ 
तत्र शयते राज्ञि जंबोरपारि वहुभिः कपिपिः जं्फलानि सवा- 
ण्यपि चारितानि । तानि सशब्दं पतितानि पश्यन्‌ षारेकामातर 
स्थिता भमं परिहृत्य उत्थाय तुरगमवरमारुद्य गतः 1 ततः स- 
भायां राजा प्ूवाचुकैतकप्विलितफरपतनरवमलुङकवन्‌ समस्या 
बाह । ' शडदग्यछएखट ' तत आहं कालिदासः ॥ 
तन राजा अपने अमिप्रायको जानकर ग्रसन इमा ओर कालिदासक्ते 
विरोेष माना । एक समय शिकार वेरूतेहृए थकश्षर राजा सरोवरफे किनारे 
धनीछायावारे जापुनके बृक्षकी जडके पास वैव्गया । ओर जवलञ्ेयातो 
जामनके दृक्षपर चढ़कर अनक वानरोमे जामनकी साखा्भोको हिखय 
जामुनके फर नीचे गिरादिये । तव॒ उन फलके गिरनेफे शब्दको देख 
चडीभरल वरहो विराम ठे श्रमको दूर कर उटा ओर धोडेपर सार हो चक 
दिया । पिर समामे आकर पूर्वके देखे जामुन फर गिरतेहृए शब्दका 


अनुकरण करके समस्या कही । ८ गु गगगुड गुग्ुह्ध ) तव काठ्दा- 
सने कडा । 


ज॑तुरखानि पकरानि पतंति विमरे जे ॥ 
कपकपितिशालातो शण्ड ॥ २९३ ॥ 


वानरो द्वारा जासुनदृकषकी शाखाजोके हिरनेसे पके इए जानक फक 
जवं जरम गिरे तव शब्द्‌ इञा गुल गुग्युदध गग्युट ॥ २९६ ॥ 


_ राना तु जाह । एकव | अश्मपि परहदयं कथं जानासि 
पात्रच्छरदासति सुदूमुहुः पादथोः पतति स्म । एकद्‌ धारान्‌- 


भापारीकासारतः ( १७३ > 


भरे पच्छन्नवेपो विचस्न्‌ कस्यदिहृदत्राह्षणस्य गृहे राजा मध्या- 
हस्मये गच्छन्‌ तन फति स्म! तद्‌ वृद्दविभो वैश्वदेवं रला 
काक्वाट गहन गृहाचिगत्य भरमा नशुद्ायां विक्षिप्य काक- 
माहयति स्म ! तत्र दस्तविस्फाटनेन हहिपिशव्येन च काकाः स- 
मायाताः । ततर काेत्काकप्तारं ररदीवि स्म । तच्छृत्वा तखन 
तरणी ततेव हस्तं गिनोरसि निधाय अये मातरिति चंद ! 
ततो बाह्मणः पराह । प्रि सुशीठे} किमर्थं विेपीति। सा ्राह। 
नाथ ] माह्शीनां प्रतिवारणं करध्वनिधवणं सद्य वा । सु 
शीठे { तथा सवेदेवेति पिपर आह्‌ । ततो रान तबक सरं श्छ 
व्याचितयत्‌ । अहो इयं तरुणी दृश्शीला नूनम्‌ । यते निनयनं 
विभेति स्वपातिवसं स्वयमेव कीर्तयति च नूनमयं निर्भीता पती 
अल्यते दारुणं कर्म राघो करोत्येष । एषं निथित्य राना त्तद 
रा्ावताह्ति एवाकिद्‌ । अथ गिशीथे भतीरि सुपे सा माप्पिरिकां 
वेश्यक्ररेण वाहपिखा नर्मदातीरमहगच्छत्‌ । रानाप्यालान 
गोपयिलाुगच्छति स्म । ततः सा नर्मदा पराप्य तत्र समागतानां 
याहाणां मां दा नई तीवा अपरतीरस्थेन शुलयरासोपितेन 
स्वमनोरमेण सह स्पते स्म ! तवचि ट राजा गृहं समागत्य 
परातस्सपायां कारिदासमारोकय पराह । सुकषवे { शृण ॥ 

राजनि प्रसन्न हकर कहा ! है सुकते ! धिना देखे हृदयके भावकं कैसे 
जान चते हौ इससे निश्चय होता ६ कि पुम साक्षात्‌ सरस्वती अवतार 
हये. यह्‌ ककर बारम्ार उनक्षे चस्णोमे गिरनेख्गा । एक समय राजानं 
मेप वदख्कर ध्ारानगरोम्‌ विचरते हुए किस ब्राक्चणक् घरपर जाद्र मन्या 
टके समय वदँ विराम किया । जव दद्र बराल्ण वैशदेवकएो काकबिको 


#7 
ग 


€ १७४ ) भोजप्रन्धः- 


छे घरक दवारे जा शद्ध भूमिपर जर छिडक काकोको बुराने च्गा । तव 
पजक कषैखय हाहा शब्द करके काक आगये । उनमें कोद काक ऊचे 
शब्दस रटने ङ्गा । तिसकी वाणी सुन त्राह्मणकी युवती सरी मयसे. 
व्याङकढ होनेकी समान हदयपर हाथ धरके अरौ पैथ्या ! पुकारने खग । तव 
जालणने कहा हे प्रिये ! हे साधुरीठे ! क्यो भय मानती हो ? वह बोडी 
नाथ | मेरी समान पतिव्रता ल्ियोको रेसा क्रूर शन्द नीं सहन होता । 
ज्राह्मणने कहा-हे साधुरीठे  रेसाही होगा । तव॒ राजान उसका समस्त 
वरित्र देखकर विचारा कि, यह युवती चरी निःसन्देह दुराचारिणी है ! 
इसीसे डरनेके कारणक बता अपने प्रतित्रताधमैको आपही कौीत्तेन करत 
हे ! यह अवदय मयमीताकरी समान रात्रिम अतिदारूण काम करती होगी ॥ 
इसे निश्थित कर राजा रात्रिम वही छिपरहा ¦ जव आ्धीरात वीती भीर 
स्वामी सोगया तब यह वेदयाके हाथ मांसकी पियास ठे नम॑दानदकि किनारे 
गहं । इधर राजाभी अपने भेपकों छिपाये उसके पीछे चला गया } फिर 
उसने नमेदानदीपर जाय वके प्राहोको मांस देकर नदि पार उतर शरो 
पर आरोपित अपने प्रियतमके साथ रमण किया ¡ राजते उस चारत्रको 
देख घरपर आकर प्रातःकारु सभाम काकिदासको देखकर कहा-श्रेष्ठ 
काविजी ! सुनिये । 

दिवा काकर्तादीता । 

दिनम काकोके सब्दसे डरी । 

ततः कालिदास आह-रानो तरति नर्भदाम्‌ ॥ 

तनं ािदासने कहा-रात्रिमे नमेदके पार गई । 

ततस्त ना पुनः भाह्‌-तन संति जरे पाहः । 

असन्न होकर राजाने कहा-वर्हौ जसम प्राह थे । 

ततः कविराह-मरभज्ञा सेव सुंदरी ॥ २९४ ॥ 

फिर काण्दासने कहा~बह सुण्दरी सर्मको जानती ह ॥ २९४ ॥ 


तत। राजा काटिदापतस्य पादयोः पतति । एकदा धारानगरे 


भापारीकारषहितः । ८ १७५ ) 


विरत्‌ ेश्यावीथ्यां राना कंटूकटीरातलरां तद्रमणवेमेन 
पदयोः पतितावतंसां कांचन रुदर रा सपायामाह्‌ । कंदुकं 
वृणु कव्य इति । तदा भदगरातराह्‌ ॥ 

{फर्‌ रुजा काटदास्क चरणमम परपडा 1 णक समय धारानगरीमे 
चिचरते ए येद्यायी गमे जाकर राजाने कन्दुकरीटा करती जीर उसके 
भमणके धेगस्ते चरणेमिं माखा पदीहूै कसी स॒न्दरीको देख समामे आकार 
कटाहे फथिगण । कन्दुककरा वणन करो तच मवमूतिने कहा | 
दिदितं नलु कंदक ते हद्यं भमदाधरसगमदन्ध इव ॥ 
वानेताकरतामर्सापेहतः पाततः पाततः पुनरुदतासं ॥२९५ ॥ 

दे कन्दुक | तेरे हदमके माबकरो मं जानताद्भं तू. च्ियोके अधरामृतके 
योमीरी समान च्ियक्रि करक्म्छसे ताडित हज गिरागेरकर किर 
उठता रै ॥ २९५ ॥ 

ततो परसवः भार ॥ 

तव वरचचिने कहा { ` 
एकोऽपि नय इव जाति कंदुकोऽयं कातायाः करटरागरकरक्तः ॥ 
भूमो तदरणनलांशगोरगोरः स्ःस्थः सययनमरीचिनी रनीरः ॥ 
एकी कन्दक तीन प्रकारते विदित दता है, चियाके हार्थोकी रीस 
सख. पृथ्यीपर उनके नर्खोकी किरणे गीर ओर स्वस्थ होनेपर नेत्रोकी 
छायासे नींडा प्रतीत होता हे ॥ २९६ ॥ 
ततः काटदाप् आह्‌ ॥ 
फिर काय्दासने कदा । 
प्योषराकारथरो हि कंटुकः । 
करेण रोषाद्िहन्यते सुहूः ॥ 
दूतीव नेत्रारतिपीतद्चुखलं । ह 
तिया; प्रसादाय पपात पदयोः ॥ २९७॥ 


८ १७६ ) मोजम्रवन्धः- 


यह्‌ वन्दी लेक कुचोके समान ई अतएव कषस वारम्बार ताडन 
करना चाहिये । नेननोके आकारसे भीत कमल्मी लीकी प्रसन्नताकरे चये 
चरणे गिरते ह ॥ २९७ ॥ चि . 
तदा राजा व॒षटछषयाणामक्षरलक्षं ददो । विशेषेण च काटि- 
दापमदशवतंसद्ुसुमपतनबोदधारं संमानितवानरु । ततः कदाचिच 
चकम्िरोकनतलरो राना चि्रिसितं महाशेपं च्छा सम्यग्डि- 
सितमितयृषदद्‌ । वेदा कथिच्छिवशमा नाम कदिः शेषमिपेण 
रानानं स्तोति ॥ । 
पिर सह राजाने तीनों कवि्योको प्रत्येक अश्तरपर छख २ पये 
ष्दिये ! विना देखे मस्तकके मुकुटके एके गिरनेको जाननेवाठे काठिदय- 
सको विशेष माना 1 फिर चित्रकारीके देखनमें खीन हए राजने महाक 
छ्खि चित्रको देखकर कहा अच्छा छ्खा है ] ततर दिवदामां नामक कषिने 
दोषके मिस राजाकी स्तुति की 1 
अनेके फणिनः संति मेकाक्चषणततराः ॥ 
एकं एव हि शेषोऽयं धरणीधरणक्षमः ॥ २९८ ॥ 
मटठक्यक भक्षक ता अनेक सपे हे परन्त पृथ्वकिा धारण करनकाटं कवङ 
दाषजा हह ॥ २९८ ] 


तदना राजा तदाप्राय ज्ञाता तस्मे ठक्च ददो } कदाचिद 
यतक रु समागतं जेरा हरतो सस्वयच्‌ राजा काल्दान्त ११६ ॥ 
क्वे ! हसता दणयेतिं ! ततः सुकवराह्‌ ॥ 

तव राजान उसके अभिप्रायको जानकर रख रपय दिये } किती 
समय हमन्तनतुमं जती हु आगकी अंगीटीका सेवन करते इए राजाच 
काङुदासत्त कहा । हे सुक्वे ! अंगीठीका वर्णन करो । फिर सुकाधेनं कहा 

केवमत्तख भहूलाहा सुषाटतचक्त] प्रभातवेखेव ॥ 
_ ह्मूषवारव हसती भाति विधूमानटलपता ॥ २९९ ॥ 


भाषादीकासदि ( १७७ >) 


कंचिक्री वुद्धिकी समान वहत लोह्वारी, प्रात्तशकास्के समयक समाद 
वदित चमेवाली भौर धूमे रदित अचिते एण अगाढ शोमा 
पती हं ॥ २९९ ॥ 

राना अक्षरलक्षं ददो । एकदा भोनरनोऽतगृहे भोगा्स्तुः 
ल्यदणाश्चतकनो निजांगना अपश्‌ । वाघ चे सुंतलेश्वरपर्था 
पञ्मावत्यामृत॒ल्लानम, अगराजस्य पुरयां चद्सुख्यां कममापिष्‌, 
कमलाना्न्या च यूतपणजयलन्धप्रापिम्‌, अप्रभाहिष्या च ी- 
ठदेष्यां दूतीपेपणसखेनाहनि च एवं चतरो गुणात्‌ श्म तेष 
गुणेषु न्यूनाधिकमावं राजाप्य्चित्यत्‌ । तत सर्वत्र दाक्षिण्य 
परिधी रानराजः भीपोनस्त॒ल्यकषायेन द्वितिषटिकापय॑ते विर्चितय्‌ 
विशेपानवधारणे निद्र मतः! परातथोत्याय सताहिकः सभाम- 
गात्‌ 1 तत च िदा्तनमटंङवाणः श्रीषोनः सकठविदत्कविमं- 
ठलमंडनकालिदासमाटलोक्य सुकवे ! इमां अक्षरोनत॒रीचरणां 
समस्यां शरण इत्युक्त्वा पठति ॥ 


तवर राजान अक्षर २ पर टाख २ रुपये दिये । एक समय राजद 
भोजने रनवासमे भोगनेयोग्य समान गुणवाटी चार अंगनाभोको देखा { 
उनवे वीच दुतटेश्वरफी पुत्री पश्नाव्रतने ऋतुस्नानसे, अङ्गराजक्षी इुमारैीं 
्वन्द्रमुखीनि कमप्रा्तिसे, कमटारानीने एसे जीतकर ओर पटरानी लीला 
ठेव दूती भेजकर बुलाया है उन चारो गुणोमे राजा न्थूनाधिक विचा 
रने वगा | उन समे एकसती चतुरा जान राजा भाज दों तीन घडी 
विचास्नेसत उनमें न्यूनाधिक न जानसका तत्र॒ सोगया । प्रातःसमयं उठ 
नित्यक्रिया कर सभाम आय सिहासनपर वैट राजा मोजने कविमण्डलके 
शिरोमणि काट्दसको देखकर कहा दे घुकवे ¡ तीन अक्षर कम चौथे चर 
णकी समस्याको सुनो ! यदह कह राजान पडा । 

१२ 


{ १७८ ) भोजप्रवन्ध्‌ः- 


अप्रतिपत्तिमूढमनसा दि्ाः स्थिता नाडिकाः । इति पठता 
ष्‌ [९ 4 नि क # 
राजा कारिदर्तमाह । सुक्रवे | एतत्तपरथाद्ुरण ऊुवितति । तत 
काटिदासस्तस्य ह्यं कसटामलकवत्‌ भप्यन्‌ पक्षराधेक- 
चरणत्रयविशिष्टं तां समस्यां पवि । देव | 
अयुक्तिसे मूढ मनवाखी दो तीन घडी विचारे खगीं । हसे पटकर राजाने 
-काठिदाससे कहा हे सुक्ये ! इस सम्याको पूर्णं करो । तव काष्िदासने 
राजवे हयक मावद्रो हाथमे सित आमलकी समान जान तीन अक्षर 
अधिक तीन चरणोको बनाय उस समस्याकों पटा हे देव ! 
लाता किति इुतटेश्वरसुता वारोऽगराजस्सु- 1 
चते रात्रिसियं रता फपटया देवी भत्ाव्याधुना ॥ 
इव्यतःपुरसुदरीजनगुणे न्यनाधिकं ध्यायता । 
् कि = कथ क कि [न 
देवेनाभतिपतिमूढमनसा दिजः स्थिता नाडिकाः ॥ ३०० ॥ 
कुन्तङश्वस्की कुमारोने ऋतुसमयमे लान किया दै, अंगराजकी वहनकी 
भ्माजुसार वारा आ हे, कमलदेवीने जुप्मे जीतकर राधि अपनी कर्‌ 
खी है जीर रीरदेवीनि दूतीको भेजकर दुराया है अतएव उक्त चर्ये. 
रानिर्ेमि न्यूनाधिक मावके विचारनेम राला भोजने अथुक्तिसे मूदमनवाछी 
दो तीन घदीं कगाद ॥ ६०० | 
तदा राजा स्वहदयमेव ज्ञातवतः काटिदापस्य पादयोः पतति 
२१ ॥ कमर च चमर्छतमनायत । एकदा राना ध्रानगर 
सरत्‌ कचते पूणं पृत्वा समायाति परणचद्ातनां कावि 
वडनर शम्भ च केचन शवला सनमेव तस्थाः कंउमरहुऽयं घे 
नतव दूजतीति मन्यमानः सपायां कालिदासं भ्राह ॥ 
: पिरि जाने पने अमिप्रायको जाना भीर काठ्दासके चरणेमि गिर- 
षडा तां कविसमाज मुग्ध €! गया । एक समय राजाने धारानगरीमे विच- 


भाषारीकासदहितः। ( १७९ > 


रते दए फिसी स्थानपर जल्से मेरे घडेको खत्ती इई चग्रसुखी घी देखी 
सतवे घेम होमेवाठे दान्दको सुन व्रिचारसे निश्चय क्रिया कि घी घ्ठ्के 
भुखको पकडे दे ओर धडा रतिकृलित शच्दके समान श्रब्द करता है तो 
राजान समाम चाकर फाटिदाससे कटा 1 
वूनितं रतिदरूनितमिति ॥ 
यर शब्द रतिकूजित शब्दैः समान रोता £ । 
कपिराह- 
-काटिदासने का~ 
विदम्पे सुषधसे रक्तैः मितबोपरि संस्थिते ॥ 
कामिन्य शिषे कूजितं रतिदरूनितम्‌ ॥ ३०१ ॥ 
नुन्दर धके स्यटयर्णके मुखवराट चटेकौ जल्से भस्के जव चरी कमरपर 
चरके चनी ता रतिकरलित्त उच्दकौ समान शब्द्‌ निकटा ॥ ३०१ ॥ 
{ तु राजा भ्रव्यक्षरखक्ष स्य ननम च । एकक नम 
दया महषः जाटकरकः शखाड दपदनरताक्षरः काष्वहः 
ते परिचितिम्‌ । इदमत्र डिखितमिव रिचिद्धाति नूनम 
राजिकः नेयमिति इद्धया भोजसदसि समानीतम्‌ । तदाकप्यं 
भोजः प्राह । पूं भगवता हनूमता भीमद्रामायणं छते तद हदे 
नतः भक्षगिमिति शतमस्ति । ततः किमिदं टिसितमित्यवश्य 


विचायामेतिं छपित्नत काय नतुषराक्षयाक्षराण पारज्ञाप पएति । 


तत चरणद्रयमादपभरद्टभ्धष्‌ ॥ 

ततव राजनि प्रसनन होकर प्रत्येक अक्षरपर खख २ रुपये दिये जर प्रणाम 
किया | एक समय नर्मदानदीके महाकुंडमे जखको खोदनेवाखने विगडे हए अक्षर 
यि धचिछाखण्डको देखा सीर वरिचाय कि, इसपर कुछ छिखासा जान पडता हं 
सतव राजाः एन छे चना चय रेता विचास्कर वह राजा भजक 


(१८० ) मीजघ्रवन्धः- 
समामे उसको ठे मधे । राजाने सुनकर कहा प्रथम मगान्‌ हमानूजीने जी 
श्रीमद्रामायण वनं थी बह यहा नूतन पुर्ोने क दी सुना जाता हं | फिर 
समे क्या छिखा है इसको अव्य विचरना चाहिये, इस रिराके किखित 
अक्षरीको खाखकी परीक्षा जानकर पठढा-तो दो चरण आचुपूरवीसि प्रप्त हए ¶ 
अपि खट विषमः पुरातना । 
भवति हि ज॑तुष्ट कमणां विपाकः ॥ 
अयि मित्र ] पूव कोके फ जीर्वोको निश्चय विषमस्य हेते दै } 
ततो भोजः प्राह । एतस्य प्ूवारथं कथ्यतामिति तदा भद्‌ 
भूिराह ॥ 
तव मोजने कदा-इसका पूरोद्धं पडो । तव भवभूतिने कहा~ 
के सु कुलमकरकमायताक्षयाः। 
क ठु स्ननीचरसंयमापवादः ॥ ३०२ ॥ 
विकाङनयनी सुन्दरीका कर्हौ तो निष्करुंक छक सौर राक्षसोके साथका 
कहां अपवाद ॥ ६०२॥ 
ततो तोजस्ततर ष्वनिदोषं मम्बानस्तदेव पूरवामन्यथः 
यढति स्म ॥ 
फिर ध्वनि दोष मानकर राजा भोजने उसी प्रबोद्धेको अन्य प्रकारसे पडा 
क जनकतनया क रामराय | 
क च दशकेधरमदिरे निवासः ॥' 
क्‌ जनककुमार, कहां रुवरकी रानी जर कहां रावणे मन्दिरे 
वास ॥ ६०२ ॥ 
आय स०-° विपाकः । ततो भोजः कालिदासं भाइ ( 
कते ! लम कदिहदयं पति । स भह- 
, . फिर परव कदे उततराद्धके ( अथि ] मित्र | वं कोके फर जीवोंको नियः 


भापाटोक्रासदहितः । ( १८१ ) 
विषम दूति हं ) पीदं बनानेको यज। मोजने कालिाससे कदा-है सुकये 1 
लाप परियं तत्र काषिदात्तने कटा-- | 
धिवशिरसि शिम याति रजः 
शिष्‌ शिव ताति ति गृधपदेः ॥ ३०३ ॥ 

| दिव ! शिर }! जित रा्णके शिर महादवजीकषे मस्तकधर शोभित होते 
भ वही खेतर गिक चरणेमे सेटते दह ॥ ३०६॥ 

अपि खट °-° परिपाकः । ततस्तस्य धिलासंडस्य पूरथटे 
नृहुशोधनेन काटिदसः पठति तमेव चा राजा प्ररं तुतोष । 
फदाविदधोजेन विलापता्थे तूतनगृहतरं निर्मितम्‌ । तत गृहान्तरे 
गुहपवेशाच् पूवमेकः कथिदरूहमरक्षपः परिः स इ रो त्रये 
वसंति तान्‌ भेक्षयति । ततो मानिकरावर समाहूय तदुचटनायं 
राजा यतते स । स च अगच्छद्‌ मांनिक्षनेव्‌ भक्षयति । फ 
च्‌ स्वयं फर्रिवारकिं पू्वाप्यस्तमेव पदम्‌ तिष्ठति । पएवं स्थिते 
तेव रक्षति राजा कथमस्य निवृत्तिरिति चितये । तदा 
काठिदासः राह । देव नूनमयं राक्षसः सकटशाक्तभवीणः इक- 
विश्व पराति! भतस्तमेव तोपपितवा कार्य साधयामि । माति 
कारितषटतु मम म॑मे प्शेत्युकतवा स्वयं तत रात्रो भला शतै 
स्स्‌ ! ततः पथमयामे बह्रा्चसः समागतः। स च पूर्वं पुरूष 
ष्ट भरतियाममेक्ेकां समस्यां पाणिनिदुतरमे पठति । येनीत्तरं 
तद्धदथं यतं नोक्तभयं न बह्मणोऽतो हृतव्य दरति निव हत । 
हदानीमि पूर्ववदयमपूरयः पुरुषः अतो मया समर्था. पठनीया ब्‌ 
ब्रे्क्तिं सदशशुत्तरं तस्याः तदा हतव्य इति इद्धया पठति ॥ 


( १८२ >) मोजमरवन्ध्‌ः- 


पिर वही उत्तरां कहा पीडे उस शिखके खण्डको प्रं पुटे छखसे 
सोधन कर काखिदासने पटढा-तव काठिदासके चनाये प्वाद्धको देखकर राजः 
बहुत प्रसन्न हआ । किसी समय राजा भोजने अपने बिखसके च्य महक 
बनवाया । उस महरम गृहप्रवेश करनेसे पहरेदी को बह्मराक्षस प्रविष्ट ोगया } 
तव रात्रिम उस महछ्के वन्वि जो सोता वह उसेही भक्षण करजाताथा । पिर 
मत्रशाछ्रके ज्ञाताओंको घ्रुखाकर राजाने उसके उवाटनके स्थि यत्न किया; 
तब ब्रह्राक्षसने आतेही उन्हे मक्षण कर लिया ओर पूर्ैके अभ्याससे कवित 
आदिको पठता हआ विराजमान रहा । उसके एसे विराजमान रहनेसे राजनि 
विचारा कि, अव कैसे यह दर हो । तव काठिदासने कहा-दे देव ! अवद्य 
मेव राक्षस शाच्मे प्रवीण है । अतएव इसे प्रसन करके कार्यको सिद्ध करगा १ 
हे मत्ररालियो ! ठहरो ओर मेरे मत्रको देखो यह्‌ कह कालिदास रात्रिम वहां 
जाकर सोरहे । जव परे पहसमे ब्रह्मराक्षस आया तव वह पुरुपको देखकर 
पहर २ मे एक २ समस्या पाणिनिके सूत्री पठता इजा 1 जिसने उसके हद 
यक भावको नही कहा उञ्चको ब्राह्मण न जानकर मारदेता था । उस दिनमीं 
ूवेकी समान अप्र पुरुष जानकर समस्या पटी अर कहा यदि अजभी ठक 
उत्तर न देगा तो मारदंगा यह निश्चय कर पदा | 
४ [9 

सवस्य दे-दति ॥ 

सकी दो वस्तु है । 

तदा कालिदासः पराह ॥ 

काछ्दिासने कहा। 


मतिङ्कमती संपदपतिरेत्‌ ॥ 

मात सर कुमति सम्पत्‌ जीर विपतके कारण है । 

पतः स गतः । पुनरपि दितीययामे समागत्य पठति ॥ 
ह सुनकर वह चा गया--फिर दूसरे पसम आकर बोख । 


उ! युना-इति ॥ 
शद्वफुरुष युवतीके साथ । 


भाषाटीकासदितः 1 ( १८३ > 


तदा कविरह्‌ ॥ 
तव कालिदासने कहा । 
सह्‌ प्रिचयायन्यते कामिनीः इति ॥ 
परिचय टोनेपर न्नियोद्रारा व्याग दिया जाता है । 
त॒तीययामे स राक्षसः पुनः सुमागत्यं पठति ॥ 
तीसरे पहर आकर उस राश्चसने फिर पठा । 
एको गेते-इति ॥. 
गोत्रमे एक । 
ततः कपिराह्‌ ॥ 
तच कालिदासने का । 
स भवति पुमान्‌ यः इटुबं विभति ॥ 
वहीं पुरुध है जो ुटुम्बको धारण करता है । 
तततुर्थयामे आगत्य स॒ राक्षसः पठति ॥ 
फिर चीथे परमे आकर राक्षसने पडा । 
स्री पुंवद-दति ॥ 
खरी पुरपकी समान । 
ततः काराह्‌ ॥ 
तव काटिदासने पटा । 
परभवति यदा तद्धि गेहं विनष्टम्‌ हते ॥ ३०४ ॥ 
जव प्रमु हो जती है तव उस घरका नादा होता है॥ ६०४ ॥ 
ततः स॒ राक्षसो यामचतुषटयेऽपि स्वाभिभायमेव ज्ञाला तुष्टः 
भातसमये समागत्य तमाय प्राह । सुमते] वशेऽस्मि कं तवा- 
भीटमिति। काठिदासः भराह । भगवनेतदृहं विहायान्यत्र गत्य 
पिति । सोऽपि तथेति गतः। अनंतरं पुष्टो भोजः कविं बहु मानि- 


€ १८४ ) भोजप्रवन्धः- 


तवान्‌ । एकदा दहयहनमलङ्वाण चिज सुक कभूषाखरराः 
मणो इारषाङ आग प्राहं । क्व॒ दक्षणव्शतकिथपि माहनायः 


नामा कविः कौषीनावशेषो दारि वतैते । राजा भवेशयेत्याह । 
ततः कृविराग्य स्वस्ताद्युक्ला तदाज्ञया चपावष्टः पडत ॥ 
तव उस रक्षसे चाय पहर अपने अभिप्रायको जाना आर प्रन होकर 
प्रातःकार आकर काठ्दासपे मिरुकर कहा--हे सुमते ! मे प्रन हं तम 
क्या चाहते हो ? काठिदास वोे--हे मगवन्‌ | इस स्थानक त्यागकर दूसरे 
स्थानपर चङे जाद्ये । तब वह काडङ्दास्तकी वात मानकर चरा गया | फिर 
म्रसन्न होकर राजा भोजने कवि काछ्िदिासका वडा सन्मान विया । एक 
समय समस्त राजाओंमे युकुटमणि राजा मोज सिहासनपर वटे थ! 
तव दरपार्ते आकर कहा हे देव ! दक्षिणदेशपे कोई मद्धिनाय कवि कौपीन 
परे अयि जीर द्वारपर खड दै । राजने फदा-भेजदो । तव कविने आकर 
सस्ति › कहकर आशीवौद दिया ओर राजाकी आन्ञासे कैटकर पडा | 
नगो भाति मदेन खं जरषरः पूरणेदुना शर्वरी । 
टत परमदा जवन दरम तलल्पवेमाद्रम्‌ ॥ 
वाणी व्याकरणेन ईसमिथुनेनवयः सपा पंडितः । 
सुतपुत्रेण कुं तया वसुमती टोकत्रयं भाता ॥ ३०५ ॥ 
हे राजन्‌ ! जेस हाथी मदसे, आकार मेघोत, रत्नि पूर्णचन्दरसे, सरी 
छीरुसे, घोडा वेगसे, मंदिर प्रतिदिनके उत्सवोंसे, वाणी व्याकरणे, न्दी 
हसक जोडंसि, सभा प्रण्डितोसे, कुरु सप्ूतसे ओर तीनों ठोक सु्थदेवसे 
ओभा पाते है वैसेही यह परथिवी आपसे शोभित हो रही ह ॥ ३०९ ॥ 


तत। सन बराह । विदस्‌ } तवोदे्‌ कमिति । ततः कविराह्‌ ॥ 
“हर राजान कहा-हे विद्वन्‌ । आपका क्या उदय है १ तथ कषिने कहा { 


ऽवि प्ति वं मथा न्‌ स्वुषया सुपि नवया न मया ॥ 
अहम१ न तया न्‌ तया वद राजन्‌ कस्य दोषोऽयम्‌ ॥३०६॥ 


भाषाटीकासरहितः! (१८९) 


भैरी माता क्रोध करती दै सो मुदासे मीर पुतरवधूसे नही, भेरी पुत्रवधू 
-कोर करती है सो मेरी मातासे जीर सुन्नपे नरी, एवं मैमी रोध करता द्भ 
सो मात्ता जीर पुत्रवधू नरी तव हे राजन्‌ ! बताओ किसका दोष है ॥६०६॥ 
इति । राजा च दारियशषं ज्ञाला किं पूणंमनोरथं चके ! 
एकया द्ारषाट आगत्य राजानं भराई । देव | कविशेखरो नाष 
महाकिद्वीरि वतैते राजा भरवेशयेयाह । ततः किरागत्यं 
स्वस्तील्यशते। पठति ॥ 
राजाने द्ारद्रताको कारण जान कविका मनोरथ पूणं किया | एक समय 
टारपाखने अकर राजास कहा-हे दव { शेरनामक महाकवि हारपर खडे 
ट! राजाने कहा मेजदो { तव किनि कर स्वस्ति, कह आारीवीद देकर पडा । 
राजन्‌ दौवारिकिदिव भाप्तवानास्ि वारणम्‌ ॥ 
मदवारणमिच्छमि सोऽहं जगतीपते ॥ ३०७ ॥ 
दरे राजन्‌ { हायी तो सन्ने दारपाङ्ते प्राप्त होगया है परथि्रीनाय { अव 
सदमात दा्थीकी आपसे अभिका है ॥ ६०७॥ 
क, क 9 ४4 न टि. भ, (4 
तद श्राडूइखारन्‌ सजातस्तुषटः 7 शग्ब्श सुद्‌ कृवृष्‌ दत्त 
मत्वा दक्षिणाभिसुखोऽम्‌प्न्‌ ! ततः कविश्वितयति किमिद राजा 
सुखे पसाद मां न प्श्वतीति । ततो दक्षिणदेशे समागल्ाि- 
सुखः कविः पठति ॥ 
पिर पूर्वं दिङाको मुख पयि राजा वै था सो प्रसषन होकर राजाने 
-मनसे कथिक समस्त पूवदेशा देक दक्षिणको सुख करख्या । तव ॒कविने. 
विचारा यह श्या वात हृष्ट जो राजाने मेर ओससे सुखं फेरखिया, पि 
कविते दक्षिणदिरामें जाकर राजाफे सन्मुख हो पडा । 
अपूर्वयं धटुर्विया भवदा शिक्षितां कथम्‌ ॥ 
मार्गणौवः सफायाति यणो याति दिगैतर््‌ ॥ ३०८ ॥ 


( १८६ ) भोजप्रवन्धः- 
हे राजन्‌ ! यद अर्व धनुषविया आपने कहा सखी, जो वाणोका समह 
स्वि उ्या आकारको ची जाय ॥ ३०८ ॥ 
भ कि, क कि [6 दर ५ डः 
तता राजा दक्षणद्श्माप मनस्ता कव्य द्वा स्वय मत्य 
खखोऽमूत्‌ । केविस्तत्रागत्य भाई ॥ 


फिर राजान मनमे कविको दक्षिण देश देकर अपना सुख पशिमकरो ` 
करिया | तो पश्चिममे आकर काषिने कहा । 


सर्वज्ञ इति छोकोऽयं भवतं भाषते मृषा ॥ 
पदमेकं न जानीषे वक्तं नास्तीति पाचके ॥ ३०९ ॥ 
हे राजन्‌ । मनुष्य इथाही आपको सर्वज्ञ कहते है कारण याचक 
सामने “ नीं › कहना नदौ जानते | ६०९. ॥ 
ततो राजा तमपि देशं केवेदत्तं मत्वा उदङ्सोऽमूत्र ! 
कविस्तत्रापि अगस शह ॥ 


फिर राजाने पश्चिम देशभी मनमें कविको देकर अपना उत्तरको मुख 
करलिया, तो कविने उन्तरकी ओर आकर कहा । 


सवदा सुवदोऽसीति मिथ्या ख'कथ्यमे इयः ॥ 
नारयो ठेषिरे पृषं न वक्षः परयोषितः ॥ ३१० ॥ 
हे राजन्‌ | मनुष्य मिध्याही आपको सदा समस्त वस्तुजोका दाता 


कहते दै क्योकि शत्र तुम्हारी पाठ आर परल्नी तम्हारी छाती नहीं 
देखती है ॥ ३१० ॥ 


क्ता रानां स्वा भूम कविदत्तां मता उत्ष्ठति स्म। 
क विश्च तदातोप्रायमज्ञात्वा पुनराह्‌ ॥ 


किर राज अपनी भूमि कविय दी मानकर उठ खडा हआ तव कवितं 
ऋजवः अभिप्रायको न जान फिर कहा 


राजन्कनकधारापिस्त्वयि सर्वच वर्षति ॥ 
ए अभाग्यच्छन्छन्ने मपि नायाति दषः ॥ ३११ ४ 


भाषादीकासदहितः। ( १८७) 

हे राजन्‌ ! तुमत सुवणैकी धारा प्रवाह बृष्टि ' हानपरभी अभाग्य 
छत्रेसे अच्छदित मेरे उपर व्रिन्दु भी नही पडते ॥ २११ ॥ 

तदो राजा चातुरं गवा टीटदेवीं परह्‌ । देवि | सरम राज्ये 
कंवये दतत तरत्तपोवनं मया सहागच्छति । अस्मिनवसरे विदा- 
नारे निग॑तः डदिसागरेण वृद्धामासेन पृष्टः । विदन्‌ | राज्ञा कि 
दत्तमिति । स आह । न फिमपीतिं । तशमायः प्राह तनोक्तं 
श्योकं पठ । ततः कविः श्ोकचतुष्टयं पठति । अमात्यस्ततः 
प्राह । सुंकेवे | तव कोटिद्वयं दीयते प्रं राज्ञा यदत्र तव दं 
भवति तसपुनर्विंकीयतामिति । कविस्तथा करोति । ततः कोरि- 
रव्यं दसा कविं प्रेषयित्वा अमायो राजतिकटमागत्य क्वि 
स्म तदा राजा च तमाह । इद्धि्ागर | राज्यमिदं स्वं दत्तं कवये 
पतीभिः सह तपोवनं गच्छामि । त तपोवने तवपेक्षा यदि मया 
सहागच्छेति । ततोऽमात्यः प्राह । देव तेन कविना कोच्यमू 
ल्येन राज्यमिदं विक्रीतम्‌ । कोरिक्यं च दिदुषे दक्तमतो राज्यं 
भरवदीयमेवे भुश्वेति। तेद राजा च बुदि्गरं विशेषेण सम्मा 
नितवान्‌ । अन्यद्‌] राजा मृगयारसेनटषीमय्‌ ठरते तपने. ` 
युनदेहः पिपापापयाङ्कटस्तुरममास्ड उदकार्थी निकरतव्थव- 
मटनू तदरुग्धवा परितः कस्यचिन्महातरोरधस्तादुपविष्ठः । तत 
काविद्रीपकन्या सुङकुमारमनोज्ञसवागि यद्च्छया धारानगरं भरति 
तक्रं किक्रेतकामा तककाण्डं वचोद्ठहुती समागच्छति । तां आम 
च्छन्तीं दषा रजा पिाप्तवशदितद्वडस्थं पेयं चेत्‌ पिवारमीति 
उुद्धयापृच्छच्‌, तरुणि ! विमावहसीति । सा च तन्मुखभिया भोजं 
मता तलिपासां च ज्ञाता तन्युसापलोकनंवशाच्छंयोहपगाह ॥ 


( १८८ > मोजप्रचन्धः- 


किर राजानेःरनवासमे जाकर खीरदेर्वासे कहा-ह देवि [ पेते समस्त राञ्य 
कविको देदिया अतएव तुम मेरे साथ तपोबनम चलो.1 इधर वह विदान्‌ दरे 
आया । तव बुद्धि्ागर नामक प्रधान मत्ीने परूढा हे विद्यन्‌ ¡ राजाने क्या 
दिया £ तब वह्‌ वोखा कुछ मी नहीं दिया । फिर मंत्रीने कहा-सभामे सुनाये 
इए छोकको पडो, तव विद्मानने चास शलोक सुनाभे ! फिर मंत्रीने . कटाहे 
सुकवे } राजाने जो तुम्हं दिया है उसको यदि तुम वचा चाहो तो एक कसेड 
रुपये देता द बेच दो । कविने वेच दिया | तव एक करोड रुपये देकर 
कविको स्थानपर मेज मंत्री राजक पास आया । राजनि बुद्धिसागरसे कहा हे 
छ्ादधेसागर ! भ समस्त राज्य कव्रिको दे चुका अव रानि्योके साथ तपोवनको 
जाता हं उस तपोवने तुम चराचाहो तो मेरे साथ आओ । मंत्रीने कहा-हे 
देव { उस कविने एक करोड रुपये ठेकर राव्य वैच दिया ! ओर करोड 
रैपये कविको दे दिये अब राव्य अपर्हीका है आप्‌ इसे मोगिये । तव 
राजाने बुद्धिसागरका कडा सत्कार किया । एक समय राजा शिकार खरता 
हिज वनम विचरता था जवे स्य शिरपर माया तव प्याससे व्याकु हों 
घाडप्र सवार हो जक्के चये पृध्वीपर धरूमने कगा जीर जल न पाया फिर 
थकानानसे विज्ञा दृक्षये नीचे वैठगया । बहौ कोमलाङ्गी सदसी गोप्ुमासै 
स्वतः घारानगसम छाछ नेचनेको छच्प्रूणं घडेको च्ि इए अ!ई॑ उसको 
. आत दख राजान प्यास्तके वद विचारा कि, यदि इस पात्रम कोई पीने योग्य 
वस्तु इद ता अवद्य पिवूगा इस पिचाह्मसे प्रा कि, ह तरुणि { इसमे क्या 
2 £ वहं गपक्कुमर सुखकी कांतिसे राजा मोज मान ओर राजाको प्यासा 
जानकर उनके सुखारविन्दको देखनेके अर्थं छन्द बनाकर वो । 


हिमडुदशशिभक्शं खनित । 
परिपकरकर्त्यषुगंधरसम ॥ 

युवतीकरपह्वनिर्भयितं । 

पिब्‌ ह चपराज सुजपहरम्‌ ॥ ३१२ ॥ 


2 राजन्दर [ बरफ, कुंद, चन्द्रमा जीर रंखकी समान श्वेत, पके कैथकी 


माषारीकासदहितः। ( १८९ > 
समान सुगनितरसयुक्त ओर धुवतीके करकमरेसे मयेहुषु रोगनारछ इस 
पदार्थो पान कौलिये ॥ ३१२ ॥ । 
दति । राजा तच तक्रं पीवा तुष्टः ता पाह पुपर ! किं तवा- 
१ एिति । सा च किंचिदापिष्रतयोवनामदपखशा गोहाङ्कर- 
नयना पराह । देव कन्यामेषप्रेहि । सा पुनराह ॥ 
इस प्रकार राजा उसकी छा्टकरो पीकर प्रन हो बोस । हे सश्र तुम 
क्या चाहती हो १ तव वह नेरमुचती, चश्वर्नयनी, मोह ओर मदके वक्ष 
होकर भोली है दव | मुन्च कन्याही जानो । फिर वोर | 
ददु कैरविणीव कोकपटटीवांभोजिनीवं। 
में चातक्रमंहीव मधुपभेणीवं पुष्पव्रजम्‌ ॥ 
माक पिकपुद्रीव रमणीबासेश्वरं भरोपितं । 
चेतोवृत्तिरियं सदा सृपव्र लां बरुदधकंठते ॥ ३१३ ॥ 
हे रजन्द्र { जसे डुमोदिनी चन्द्रको, चक्रवे सूयेको, चातक मेघोको, 
अमर पोको, कोयल पुटके रसको ओर घ्री चिरकाख्कै गये छामीको 
देखनेकी अभिलखपा करनी है तेद मेरे चित्तकी वत्ति सदा आपको देख- 
नेकी इच्छा करतौ है ॥ ३१३ ॥ 
राजा चमत्छतः प्राह । सुङ्कमारि ! खां दीखदिव्य। भद्वमत्या 
[1 भ [च्‌ क क 9 [१ 
स्वाङ्कमः । दति धारनगर्‌ ताला ता तथव स्वरति । कद्‌ 
चिद्रानाकिचेके मदनशरपीडिताया मदिर क्षयाः करतलगलितो हेम- 
कलशः सोपानपंकिष रसेव पपात । ततो राजा रफायामागदय्‌ 
कालिदासे प्राह । सुवे ] एनां समस्यां पूय । ८ ददटटट्टटटटं-. 
टम्‌ तद्‌ काटिशक्रः प्राह ॥ 
राजने मुग्ध हौकर का~ सुकुमारी ! तु्दे रीरदेवीकी अजुमतिसे 
ग्रहण करगा 1 यह कह धारानगरीमे लाकर उसी प्रकार राजान अंगीकारः 


(१५०) भोजपवन्ध्ः- 


षिवा ! किसी समय राजक स्लान करनेके समय काम्ाणते पीडित मदमाते 
ेत्रवासीं युवती हायते सुवर्भका कड सीडियोपरं॑ शब्द करता इम 
गिर पडा । तव राजनि सभाम आकर काठिदाससे कहा-दे उुकव ! इस 
समस्याको पूर्णं करो ¢दधददटटटटेटटंटम्‌? फिर काटिदासने कदा- 
राजाभिषेके मदविहठलाया । 
हस्ताच्च्युतो हेमधरो युवत्याः ॥ 
सोपानम करोवि शष्ं । 
दरटटटटटट्टटम्‌ ॥ २१४ ॥ 
राजके खन करानेमे मदमात्ती युवत्तीके हाथसे पैडियोपर जठसे मरा 
सुवणेका कठ्ड गिरा तो उसमे खब्द इआ टटेटंटूयटवययय्‌ ॥ ६१४ ॥ 
तदा राजा सवातिप्राप ज्ञालाक्षरलक्च स्य ॥ 
तव॒ राजने अपने अमिप्रायको जानकर प्रप्येक अक्षरपर छख 
सपये दिये 1 ~ 
. अन्यद सिंहसनपरंङुबणि भीभोजे कथिचोरः आरक्षे 
रानकिटं नीतः। राजा तं छ कोऽयापित्यपृच्छत्‌ । तदा आर- 
क्षफाः पराहुः । देव ! अनेन कुन फरिमथ्िदेश्यागुे वतपात्‌- 
क [+ ® क 9, 4, क, 
परभण भ्पाण अपूता 1 वदा राजा ग्रह्‌ । अपय डी 
इति । ततो सुक्को नाम्‌ चोरः प्राहू ॥ 
एक समय राजा मोज सिहासनपर वैठे थे तव राजदूत किसी चोरक 
पककर राजाके पास राये 1 राजने उसे देखकर षा यह कीन दे ६ तब 
दूतोने कहा-हे देव ! इस चोरे किसी वेदयाके घरमे सध लगाकर ब्य 
निकराक छिया । तव राजा वोख यह दंड ॒पनेवे योग्य है । फिर सुकंड 
नामक चोरने कहा 
गहि भारमिश्वापि नशे 1 
क ष [१ क, क 
पिक्षगंशे भीमरेनोऽरि नः ॥ 


भापारीकासहित्तः। ( १९१ १ 
योऽहं भूपतिस्तं हि राजन्‌ । 
पमोपक्तो काटधमेः भविः ॥ ३१५॥ 
दे राजन्‌ ] मि, माश्वि, भि चु जीर मौमतसेनादि तो नष्ट होगये अव केवर 
य॒क्छरुड ओर अप भूपति हो भव्मापरक्तिमि फाठधर्मं प्रविष्ट इञा ३ै॥११९॥ 
तदा राजा भह । भो सुश्ड गच्छ गच्छ यथेच्छं विर । 
कदाविद्रोजो मगयापयाड्कटः इने विचरन्‌ विभमाविष्हदयः 
केविततदकमासताय स्थितवाच्‌ भ्रमालयसुपतः । ततोऽपरपयोनि- 
पिङ्कहूरं गते भास्करे ॥ 
तेव राजाने कहा हे पुक्छुड । जाओ २ इच्छानुसार अमण करो! 
किसी समथ राजा मोज रिकार लेखने गये वनमे विचरते हुए जव विश्रा- 
मको जौ चाहा त्तव किसी सरोवरके किनारे वैठनेसे थक जनिके कारण सोगये । 
ततरेवारोचत निशा तस्थ राज्ञः सुखपद् ॥ 
चचचंकरानंद्संदोहपरिकंदसा ॥ ३१६ ॥ 
फिर जव सय अस्त होगये ( तो ) रहौ चन््रमाक्री किरणेसे , प्रकारा- 
मान रचौदनी रात्रि राजाको सुख ओर आनंददाथिनी इर ॥ ३१६ ॥ 
ततः प्युपपतमये नगं भति भस्थितो राजा चरमगिरिनितं- 
वटंवमानशशकिर्विनणवछोक्य सकुतहटः सपामागत्य तदा 
समीपस्थान्‌ कर्वदरधिरीक्षय समस्याम कामयदत्‌ ॥ 
फिर प्रातःका राजा नगरमे आया तो पश्चिमपवेतरूपी नितंवपृर 
ठटकते इए चन्धविम्बको देख आनन्दे साथ समामे आकर निक्रट विर- 
जमान कवीन्द्रोको देख एक समस्या कदी । 


क कि कः # 


च्रमगिरिनितंषे चंदर्धिषं खटषे। 
पश्चिमपर्मतरूपी नितंवपर चन््रमाक्षा विम्ब ठ्टक रहा है । 


तदा प्राह भवतिः ॥ 


€ १९२ ) भोजप्रवन्ध्‌ः- 


तन भवभूतिने काटा 

[4० (का >. 9 
अरुणाकरणनाटख्रतारक् गतक्ष । त 
सूर्यकी विरणजारसे आकाञचसे नकषत्रोके दूर दनेषर । 
ततो देडी प्राह ॥ 
किर दंडीकविने कहा । 


क्ष, क क 


चरति शिशिशवति मंदमंदं प्रभते । 
म्रातःकाख्की मद २ शीतर पवनके चरन परर । 
ततः काषर्दास्ः प्राहु # 
फिर काडिदासने कहा । 
युवतिजनकदंमे नाथमुक्तो्निवे 
चर्मगिरिनितैवे चंद्रि ठर्ठ॑बे ॥ ३१७ ॥ 
हे नाथ ! च्ियोके पततियेसि ओष्ठ्िव त्यागनेपर पश्चिमपरवैतख्पी नितं- 
वम चन्द्रचिन ख्टक रहा हे ॥ ३ १७ ॥ 
ततो राजा सवोनपि सम्भानितवान्‌ । तत्र कालिदासं विशे- 
धृतः पूनितेवाच्‌ । अथ कदाचिद्धोजो नगराढहिनिगेतः । सूतके 
तदाक बाल्यक्ताधितकपाटशोधनादि चकार । तन्मूकेनं 
कश्वन्‌ शफरशावः कपाठं प्रविशे विकटकरोटिकािकटधसिती 
विनिः । ततो राना स्वपुरीभवाप्‌ ! तदारथ राज्ञः कपाटे 
वेदना जाता । तततमतयनिषण्वरेः सम्यक्‌ विकिस्सितारि न 


शाता । एवमहानैशं॑भितरामस्वस्थे राक्ञि अमातुषविदितेन 
षहारष्ण ॥ 

पिर राजाने सव कािरयोका सन्मान पिया, उसमे काठिदासका विशेष 
समान रिया । पिर किसी समय राजा मोज नगससे बाहर निक्के तो चये 
रावरम गारुकपनके स्वभावे असुसार शिर धोया ! शिर धोते समय म्ली 


भाषारीकासहितः । (१९३ ) 


शिरपर चटकर ( नाकक छिद्ोद्यरा ) उपरको चढ गई । तव . राजाः 
सपनी राजधानी आगये ओर उसी दिनसे राजाके कपारमे पीडा होनी, 
आरम्भ इई । मी मांतिसे वैयोने चिकित्सा करी परन्तु पीडा न गई । 
इसी रीतिसे प्रतिदिन राजाका स्वास्थ्य विगडने ठ्गा । उस महारोगको 
वेदयनि नही जाना । 


सपक्षाममभृहपयतुसं हेम॑तकाेऽगनव- । 

दकं निगतकाति राहुवदनक्रतिन्जर्विगोपमम्‌ ॥ 

चेतः कारयपदेु तस्य बिसुखं क्वीवस्य नारीणिव । 

व्याधिः प्रणतरो वभू विणि शुष्के शिखावानिव ॥३१८॥ 

हेमंतनततु्म कमख्की समान राजाका शरि क्षीण हो गया । राह ` 
ग्रसे चन्द्र्विवकी समान मुखकी कांति जाती रही, चियोके नपुंसकके 
चित्तकी समान सव कार्योसे चित्त हटगया ओर सूखे वनम अग्निक प्रबल 
होनेकी समान दारी पूण व्याधिये दोग ॥ ३१८ ॥ 


एवमतीते सवस्परेऽपि काटे न केनापि मिवासितसतद्रदः ततः 
श्रीभोजो नानाविधसमानीपधग्रसनरोगहुःखितमन समीपस्थं शोकः 
सागरनिमे इदधितामरं कथमि समताषराएवाच पाचम्‌ । उदः 
सागर ! दतः प्ररमस्मद्िषये न कोऽपि भिष्बरो वसतिमातनोत । 
बाहरादििषजकोशाच्‌ मिलिन्‌ सोति. रिरस्यागच्छ, ममु 
देवस्षमागमप्तमयः समगत इति । वच्छरुला सर्वऽपि पोरजनाः कवः 
यश्च अवरोधत्तमानाध्च रिगरदल्प्तारलयना बभूवुः । ततः कद्‌ 
विदेवसणायां पुरदरः ` सकटष्नन्दमध्यस्थं वीणामुरिाह्‌ ॥ 
सुने ! इदानी भूलोके का नाम वर्तिति । ततो नारदः भाह । सुरः 
नाथ | न किभप्याशव्मं किंतु धारानगखासी .भीभोजपूपाटः रोग- 


पाहता नितरामस्वस्या वतेते स तस्य रः केनाप चं नक्रा ॥ 
१३ 


८१९४) मौजपरवन्धः- 


तदनेन .पोजनेपाठेन भिषण्वरा भपि स्वदशानिष्कासिताः वेयः 
शाच्मपि अनरृततिति रिरस्भिति । एतदाकण्य पुशहुतः समीपस्थो 
नापत्याविदमाह्‌ । भोः स्वरयो } कथमत धन्वतरीयं शाम्‌ । 
तदा तबाह देव ] न व्यदीकृमिदं शा फिंखम्रविदितेम 
रोगे बध्यतेऽसो भोज इति । इदः कोसाववार्थरोगः किं भवतो- 
विष्तिः। ततस्तावू चतः । देव ¡ कपाटशोधने कते भोजेन तश 
भविः पाठीनः तन्रोऽथं रोग इति । तदा इद्रः स्मयमानमुखः 
भाह । तदानीमेव खवा गंतव्यं न चेदितरं भूरोके भिष- 
कशाक्षस्यािदिवेव्‌। त. खट सरस्वती विटासस्य निकेतनं 
शष्ठाणछ्दधता चेति । ततः सुरदिशेन त। उपावपि पृतद्विनन्मवे- 
९। पारातरर प्रप्य दारस्य माहतुः । दारस्य | आवां गिषनो काशी- 
देशादागत भीषोजाय विज्ञय तेनातृतमित्येगीकतं वेयशाघ्मितिं 
शरुता तसकिहापनाप तद्रोगनिवारणाय चेति । तते दरस्थः रह्‌ । 
भो विभो न कोऽपि भिषकपषरः प्रवेष्टयति राज्ञोक्तम । राना त॒ 
केपठमस्वस्थ) नायमवसरो विज्ञापनस्पेति । तसिमिनक्षणे कायंव- 
शद्वाहानयतो इद्धिागरस्वो हृष्य को मवतावित्यपृच्छत्‌ । 
ततस्ता पथागतम्‌चतुः । ततो बुदिसागरेण तो राज्ञः रपीपं नीतं 
ततो राजा ताववरकेय सुखधिथा अमादुषापिति इदा आथां 


शक्यऽय रगे नेवारितुमिति निथिव्य तो बहु मानितवाच्‌ । 
ततस्तादरचतुः । रानक्न भेतव्यं रोगो निगैतः 1 तु कुब- 


स्वरकति तथा भवितव्यमिति । ततो राज्ञपि तथा कतक । तत्‌- 
स्तविपि रान महिचूगन्‌ महापा शिरःकपाट मदाय तरो 


भापाटीकासरहितः 1 .( १९५ ) 


टिकाषुटे स्थितं शफरं गृहीख। कसभिद्ानने निक्षि्य 
संधानकरण्था कपाटं यथावशस्च्य संजीविन्या च त जीद- 
पिता तस्मे तददरोयताम्‌ । तद तृ राना विंसितः क्िमेत- 
वेदति ता बहव । तद तावच । राजच्‌ ! कथा बात्यादासंप्‌ 
परिचतक्पाटशधनतः समाप्तामात्‌ । तता राजा तेवाश्वन। मवा: 
तच्छोधनार्थमपृच्छत्‌ । किमस्माकं पथ्यमिति । ततस्ताब चतु; ॥ 
ठेते एक वेके वात जानेपरमी वह रोग किसीसे नही गया | फिर 
-उनेक प्रकारकी ओप्रधियोके सेवन करनेसे दुःखी होकर राजा भोजने 
रोकस्ागरमे इवते इए समीपमे वैठे बुद्धिसागर नामक प्रधान मन्त्रे बडी 
कठिनादेके साथ कहा कि, हे बुद्धिसागर ! अव कोई रेसी ओषधि नहीं 
हे जिससे मेया येग चान्त दो। तुम वाहृट आदि सभी आीषधियोकी 
निधिको जकभ्रवाह कर दो । मेर गृष्युका समय निकट आगया है । यह 
सुन समस्त नगरत्रासरी ओर कविसमाजके कवि रनवाक्षम रोने खमे । एक 
समय देवतार्थोका समाम विराजपान इन्द्रे सुनियोके वीच वीणाधारी 
नारदजीसे कहा-हे सुने ! अव पथ्वीपिर क्था बात हो रही हे । तव नार- 
दजी वोञे~हे देवराज ! ओर तो को नदे बात नही है केवर धारानग- 
रीका राजा मौज योगसे पीडित जीर अस्वस्थ हो रहा है । राजाका वह 
` रोग विसीसे दूर नही हृंजा । अतएव राजा मोजने वैयोकोभी अपने देदासे 
निकार दिया ! जीर वैयकाल्रको मिथ्या जान जल्भं इब दिया । 
-इसको सुनकर इन्द्रे अश्विनीकुमायेसे प्रछा-हे लर्गीय वैयगण ¡ क्या वैय- 
-करान्न मिथ्यो है ? तव वह्‌ बोक-दे घुर ! हे देव ! यह चाल मिथ्या 
नक हे, परन्तु राजा भोज देवताओके ज्ञात रोगसे पीडित है । इन्द्रने 
कहा-निवारणकै अथोग्य इस रोगो तुमने कैसे जाना । तब वह नोके 
हे देव ! ( सयेवरमे ›) जव मोजने हिर धोया था उस समय गला कपा- 
` छम चढग् उसीका यह रोग है । तव इन्द्रने ₹ंसकर कहा; तुम अमी 
` जाौ-नक्षे तो कैयकदाल्न मिष्या सिद्ध होगा ! राजा सरस्वतरीविासंके 


( १९६.) भोजप्रचन्ध्‌ः- 


स्था्नीको जर शाघ्रौको नष्ट करदेगा } फिर इनद्रका अक्स उन दो्नौनि 
ब्ाह्मणका रूप धरकर धारानगरीमे जाय दारपारसं कहा-दं दारपाड 1, 
हम देने तैय काशीधामसे जये है राजाको सरचना दौ ॥ जा रजत्च' 
वे्कराश्चको मिथ्या मान रक्ला ३ सो वैयकदाल्लकों सत्य दिखाकर । 
राजका रोग दूर करनेके छियि आये द । दरारपाख्ने काहे ब्राह्मणो ! 
राजाकी आज्ञा है कि, कोई वैयवर नहीं अने पवि, अतश्व रजार्कर 
अधिक रेगपीडित हेनेसे यह समय सूचना देनका नदी हे । उसां. समय 
किसी कषर्थसे बुद्धिसागर बाहर आया ओर उनको देखकर उसन पृक जपि 
कीन है ? फिर उन्होने यथार्थं रूपसे अपना परिचय दिया । तव बुद्धसागरं 
उनको राजावे पास केगया । राजान उनक्र युखमण्डल्की कांति देखकर. 
विचारा कि यह मनुष्य नरौ है ओर इनके दारा रोग अवश्य दूर होगा, रेसा 
मानकर उनका बडा सत्कार विया } तव अध्िनीकुमार वोठे-दहे राजन्‌ 
मय मत करो अव रोग दूर इञा । ठेकिन किसी एकान्त स्थानम च्व 
राजा एकान्त स्थानम चका गया 1 फिर उन्होने राजाको मोहवूणेसे मोदित 
कर रके कपार्को ठे उसकी करोटीके पुटमेसे मछ्डीको, निकार किसी 
पात्रम डाङ्कर सेघानकरणीसे कपार्को ठीक स्थापित कर मृतसञ्जीविनी 
विद्यसे जिलाय राजाको मछली दिखाई तब राजनि उसको देखकर आश्व 
साथ पूछा यह क्या है १ उन्हनि कहा-हे राजन्‌ ! तुमने'बाल्यावस्थासे जो 
कपाठरोधन किया उसीसे यह रोग होगया | तव राजाने उन्द अध्िनीङ्कुमार . 


क, 9 


मान उसकी शुद्धिके व्यि प्रा कि अवं क्या पथ्य होना चाहिये । व वोरे- 
-अशीतिनभित कतत पयमानं वराः वियः ॥ 
गरम जते स्नान करना, दूध .पीना जीर उत्तम छीसेवनं ।, 
एतद्वो मादषाः पथ्यमिति । 
हे मनुष्यो ! तुम्हारा यह पथ्य है । 
क राला मध्ये" मादषाः › इति संबोधनं शवला वयः 
रषाः का युवामात तयारस्ता ्चारति रव्रस्ताीयपम्हठ्‌ # 


भापारीकासहितः । ({ १९७ ) 


तेतस्तरक्षण एव तावेतधत्त वुव॑तावेष काटिदासेन पूरणीयं तुरी- 
यचरणमिति । ततो राजा विसितः सवनाहूय वष्रतमनवीत्‌ । 
तच्छ्रत्वा सवप चमत्छताः विसित बभूवुः ॥ 
उसमे राजने मनुष्या सबोधन युन हम मनुप्यहै तो अप कौन है 
यह्‌ कट्‌ ीपरत्तासे उनके हाय पएरकडविये । तवर वह्‌ उसी समय यह्‌ कहते 
इद्‌ अन्तर्धान दोगमरे परि, चथा पद्‌ कालिदास पूणे करेगा । पिर सजाने 
चिस्ित दोकर सवो घुखाय समाचार कहा ! इस वातकरो सुनकर समा 
चमत्कृत हुए जीर विमित हए । 
तत्काटिशापेन तुरीयचरणं पूरितम्‌ । 
लिगधसुण्णं च भोजनम्‌ ॥ इति ॥ २१९ ॥ 
नीथा पदर कालिदासने इस मातत पूणे किया चिकना गरम भोजन 
पथ्ये ॥ २१९ ॥ 
ततो भोजोऽपि काल्दिसं टीटामालुष मला एरं एम्पानित- 
वान्‌ ! अथ भोजनृपाठः भतिद संनातवलकावििवृषे धारा- 
धीशः छण्णेतरपक्षे चंद इव । ततः कदावितिहापनमद्डवाणे 
श्रीोजे काटिदाप्तपवमूतिदडिवाणमयूरवररविभकृ तिकषितिर- 
-कङलारतायां सुधायां द्रसाठ एत्या । देव | कथित्कवि्ारि 
किति । तेने परेषिता याथा सनाथा चीका देवसाथां किक्षि- 
प्यतामिति ताँ दशयति राजा गीता तां वाचयति ॥ 
फिर राजाने काल्िदासको खीखामानुप जानकर बडा सत्कार किया । 
पिर धाराधीदा राजा भोज शु्टपक्षके चंद्माकी समान प्रत्तिदिन निरोग 
खीर स्वस्य ॒दोनेठे । किसी समय राजा भोज सिहासनपर बैठे थे 
 काणष्छस, मनशरति, दंडी, वाण, मयूर जीर वररुचि जादि कविराज 
श्तिक्कर्ूपसे समाम धरिराजमान थे । तव द्वापाढने आकर कटा हे-देव 


( १९८ ) भोजप्रनन्थः- 


को कवि. दरवाजे खडे दै । उन्होने -यह गाथा युक्त चिद्धी देकर कटा हैः 
कि, इस्रको राजाकी समामे ,रखकर दिखाओ । राजानि उसको ठेकर पडा ।' 
काविद्राटा रमणवसतिं परषयन्ती करड । 
दासीहस्तातपयमटिसन्याटमस्योपरिस्थम्‌ ॥ 
गोरीकति पवनतनय चषकं चान षं । 
पृच्छत्था्या निपुणतिडको मष्ठिनाथः कर्वः ॥ ३२० ॥ 
किसी युवत्तीने अपने प्रवासी पतिके पति दासीक द्वारा पिटारी मेजी । 
उसमें उसने भयके साथ प्रहरे सपं छिखा, सर्पे ऊपर महादेवजी, महादे- 
वजीके ऊपर हनुमान्‌ जीर हयमानूजीके ऊपर चेपाका एक चछ्खा सों 
इसका क्या अभिप्राय है १ यह प्रचीणोका तिख्कख्यी कवीन्द्र मद्धिनाथ 
प्रछत है ॥ ६२० ॥ 
तच्छुत्वा सर्वापि विद्सरिषचमस्छता । ततः कालिदासः. 
भाहं । राजन्माहिनाथः शीघचमाकारपितव्य इति । ततो रानादे- 
र भ भे [4 [ [1 
गात्‌ दाखसदन स प्रवाशतक्कव्‌] राजान स्व्स्ताघ्युक्ल तदक्ञयो- 
परष्ः 1 तते रज प्राह त कर्वम्‌ । विदन्मदिनाथकवे | साधु. 
रता गथा । कालिदासः प्रा । किसुच्यते साधिपि । देशात 
रगतकातायाार्िपवणेनेन छायनीयोऽपि पिरिष्य तचद्धावभति-; 
9 सरपं आदि चार चिन्नकि लिखनेका ताप्यं यह र कि, युवतीने पिटारीभे परक 
रखके भेजे-ते परलोक गंवको यदि पवन ठेते अपर तो सैके यसे नदीं ेसकेया ए 
रलोको-वाण वनानेके सिय यदि कामदेव केना चहि तो शिर्वजीके भयते नै 


क । परलोको-सूयै भपनी किरणो सुखाना चादे तो दलुमि्जके भयते नं खश 
। ओर्‌ एूलोकि मधुको भ्रमर पीना चाहे तो चम्पके पूलको देख पास नदीं अर्वेगे.4 
[~~~ 


( ९५१) नन भम । (२) दिवने कामदेवक्रो भस्म किया है १ 
जानं उत्पने होतेह सूर्यको निगरुलिया । (४ ॐ - पलप 
शमर नहीं जात्ताहै । । =  . । । ॥ | 2 च्माकः लप 


माषादीकासारहैतः । ( १९९ फः 


भटवर्णनेन । तदा पव भूतिः प्राह } पिषष्यते इयं गाया पकक 
च यानपैरिमं [द्‌ प [8 
ढोयानेवैरिणो वत्तालजस्य व्णनादिति ! त्तः प्रीतेन राज्ञा तस्मे 

कै ¢ ॐ # ४४ 
दत्त वणानां दकष पव गना दश तुरगा दत्ताः । कतः भीतो 
विदान स्तोति राजानम्‌ ॥ 

उसको सुन सव विद्रगाण्डडीं चमकत इटं । तव कालिदास. वोरे-हे 
राजन्‌. ! मद्टिनाथको रौीघ्र घुखद्ये । ्षिर राजाकी आज्ञासे दारा कनिको 
समामे ठेभाया } कथिते राजासे आकर ‹ स्वस्ति ' कहा ओर राजाकी आज्ञासे 
यैठगया | तव राजा उत्त कत्रिराजसे वोे~हे विद्रन्‌ सद्िनाथकवे ! अच्छी 
गाया बनाई है । कालिदासने काक्या उ्तमही वतिदो, प्रवासी पत्िके 
-चरित्रके बणनमे समी माव शयनीय ह । मवभूतिने कदा-यह गाथा हनू- 
मानूर्जीके वणनसे वटर है | फिर प्रसन्न हौ रजनि उसको खं मोहर, पांच 


क, ह भ 


दायी ओर दश्च घोडे दिये } त्तव प्र्तन होकर विद्रानने रजाकी , स्तुति की १ 
[.। 


देव भोज तव दानजलौषेः । 
सोयमद्य रजनीति पिशके ॥ 


(क क 


अन्यथा तदुदितेड शिखगो-। 
भूरुदे कथमीर्शदानम्‌ ॥ ३२१ ॥ 

हे सजन ! हे मोजदेव ! वम्दारे दानके जसे शंका होतीरै कि, तुम्हारे 
थरपर रात्रि, नहीं तो वहां उवन्न इई शिडा गी ओर वृक्षोमि देसा दान कैसे 
हेव अर्थाच दानके निमित्त सेनिकी शिखा ओर अनेक गी हैँ । उस दानके जक 
गिरमेते प्रथ्वीपर वृक्ष जमअयिहै, इसीसे रात्रि दीखती है । एेसा दान क्या 
& यही शंका है ॥ ६२१ ॥ 

ततो लोकों शोकं वत्वा राजा पुनरपि तस्मे ठकषत्रं 


प ५५ क्न 


द्रौ ! ततो छिखति स्म भांडारिको परमप ॥ 


# पंत्तिकटस्य रावणस्योयानमश्तोक्वनं तस्य वैरेण; । 


< २०० ) ˆ मोजप्रवन्धः- 
^ फिर विचित्र शलोक सुन राजे उसको तीन ङख स्पये ओर पिये 1 
त्तव खजानचीने धर्मपत्रपर छिखा । । - “ 
` भीतः शरीषोनमूपः सदसि विरहिणीगूढनमोक्तिपयं। 
' श्चुखा ह्रां च रक्षं दश सर च तुरगा पच नागानयच्छत्‌ ॥ 
 पृ्वत्तरव सोऽयं वितरणयस्ेनात्‌ भीतचेता । 
. ठक्षं लक्षं च क्षं पुनरपि च ददो मदठिनाथाय तस्म ॥३२२॥ 


क श 


. म्रसन्न होकर समि वीच राजा मोजने वियोगिनी युबतीकी गूढ युक्तिप्णं 
छोकको सुन मद्िनाथ कविके ख्य खख मोहर, द घोडे जीर पाच हाथी 
दिये । फिर उसी स्थानपर राजा भोजके दानकी महिमा वर्णन करनेसे प्रसननं 
होकर राजाने फिर तीन खख रुपये म्धिनाथ कविको दिये ॥ ६२२ ॥ 


ततः.कदाचिहद्धोनराजः कालिदासे प्रति प्राह । घुकवे तम- 
स्माकं चरमं पठ । ततः छद्धो राजानं षिनिंय कालिदासः 
क्षणेन तं देशं त्यक्ता विलासवत्या सह्‌ एकशिटानगरं भाप । 
ततः काटिदास्वियोगेन शोकाङ्करस्ते काटिदाते मृग्यत राजा 
कापारिकवेषं धृत्वा कमेण एकशिङानगरं भाप । ततः काटिदासो 
योगिन्‌ इटा तं सामपूर्वं पच्छ । योगिन्‌ ! कुत्र तेऽस्ति स्थिषि- 
रिति । योगी वदति । सुवे ¡ अस्माकं धारानगरे वस्ततिरिति। 
ततः क्िराह्‌ । तच भोजः कुशली किमू । ततो योगी भह । कि 
मया च वक्तव्यमिति! ततः कविराह । तन्रातिशियवात्त॑स्ति 
चैस्यं कथयेति । तदा योगी प्राह । भोजो दिवि गत इवि । ततः 
कषिभूमों निपर्य भ्ररपति । देव ! खां किनास्माकं क्षणमपि भूमौ 
न्‌ स्थितिः । अतस्तस्मीपमहमागच्छामि इति कालिदास 
बहुशो विटप्य चरमण्टोकं कुतवानू ॥ 


भाषारीकापरहित्तः । (२०९६) 


फिर फिंसी समय राजा मोजने काठिदाससे कहा-हे सुक्वे ! तुम हमारे 
संततस्तमयके प्रधको पदो । तव क्रोधित होकर काठिदासने राजाकी निन्दा 
क्री ओर उसी समय धारनगरीको याग विखासवतकिो साथ ठे एक- 
शिखनामकं नगरमे जा चसे । फिर काकिदासफे बियोगसे शोकित हो 
काटिदासके टूढनेके लिये राजा जोगीका भेम वनाय एकरिखनगरै गये ! 
काचिदासने जोमीते परख, हे भगवन्‌ ! आपका कहौ निवास है १ जोगीने 
कहा-रे घुक्वे { मे धारानगरीमे रहता हं । कालिदासने कहा~-वराका 
राजा भोज तो प्रस्तन् है! योगी चोखा क्था करट १ काठिदासने कदा-वहांकी 
विचित्र व्रतत दहो तो कयि ! त्तव योगी बोद~यजा मोज तो स्वगैको 
तिधा । यद सुनते काडिद्टास परथिवीमें गिरकर विाप करनेरुगे । 
कि, हे देव ¦ तुम्हारे विना नैं क्षणकाट्भी प्रथिवीपर नही रहसक्तह्ं । अत- 
एव भैमी तुम्हरे एात् आतां यद कह काछिदासने वारेवार विलप करते 
° इए सन्तस्मयका शोक रचा 1 
क [क क क 
अद्य धश नराय नदना सरस्वता॥ 
+ ५. ५ १९५ नो = (9, „भ 
पाडताः खाताः सवे भाजराज विव गर ॥२२३॥ 
जज राजा भोजके खरग सिधासनेप्र धारानगरी निरधार हग, विया 
आश्ववहीन दोग जीर संप्णं पंडित खंडित होगये ॥ ६२३ ॥ 
ड क ४५९ ॥ भ न १ द 
एवं यदा क्वकेना चर्क्‌ उकस्तदव स य्या अतल 
र्‌ ॥ . , ^~ =. लो * भ, 
विपन्नः पपत | ततः.काठदाप्तस्तथाविधं तमवटक्य अय्‌ भानं 
क क 9 क र क [> वि 
एवेति निधित्य अहह महाराज ! ततभवताहं वंकितोऽस्मीयि- 
विकि ०6 छे $ क रे ॥ 
धाय श्चरिति तं शोकं प्रकारातरेण पपाठ ॥ 
इस प्रकार जव कथिते अन्तक! छेक पडा तव योगी जचेत्त होकर प्रष्वी- ` 
प्र गिरपडा । तव काछिदासने उसे ध्यानसे देख भोजी हे ठेसा निश्चय 


कर्‌ कदा, अदाह्य } बडा खेद है महाराज { आज आपे सुने 'ठगङिया । 
यह्‌ कह शीपरतासे कािदासने दूसरे प्रफारसे उसी रोक पडा । 


(२०२ ) भोजग्रवन्धः- 


अव धारा सदाधारा सदटवा सरस्वती ॥ 
पोडिता मंडिताः सरवे भोजराजे खवं गते ॥ ३१४ ॥ 
आज राजा भोजके परथिवीपर आनेसे धारनगरीको भटी मांतितसे आधार 
परिखा, सरस्तीको जवल्व मिरखा ओर समस्त पंडित मंडित हागये ॥३२४॥ - 
वता भलस्तमालम्प प्रणम्य वारवयर्‌ भत यया] 
पिर राजा मोज कारिदाससे मिरुकर प्रणाम कके धारानगरे चरेआये {: 
=, च्रे, (त, कि $ 9 (+> 
शेडे शेटविपिष्वलं च हृदयं सुंजस्य तसिमिन्षणे । 
भोजे जीवति हषसंचयसुधाधाराडधो मन्नपि ॥ 
सीभिः शीरवतीभिरेव सहसा कत तपस्हत्वरे । 
* = क (२१ (न्स क 9 
सजे सचात राज्यक्ारमत्तजतस्यगश्व नामचृपः ॥ ३२५ ॥ 
इति भीबह्माटपण्डिताविरवितः शीमन्पहाराजाधिराजस्य 
धारानगराधीश्वरस्प भोजराजस्य प्रमेषः 
स॒मापिमफाणीत्‌ । 
राजा सुजने ८ वत्सराजके दारा ) भोजके रिरो कटवा छखिया था आर 
पिर मोजके ( योगीद्रारा ) जीवित हो जानेपर ८ सुज ›) आनन्दसागसमः 
मम टोगया फिर मुञने पत्थसका हृदय बनाय अपनी रीर्वती रानिर्योको 
साथ के तप करनेके निमित्त वने प्रवेरा किया } सुलके राज्य छोडनेपर . 
राजा भोजने दान ओर मोगके साथ राज्यका रासन किया 1 २२५ ॥ 
इति श्रीबह्छारपंडितकृत मोजप्रथकी सरु हिन्दी माषाटीका ोँस- 
बरेर्छनिव।सी पंडित श्यामुंदरडारु निपात समाप्त । 
इति भोजप्रचन्धः समाप्त! । 


त्तकं मखनका एकना-गगाविष्णु श्रीङष्णदास, 
ठष््मविङ्करधर ' स्दीम्‌ परे, कटाण-पुंबईै 


अनुरागरसभापा नारावणख्वामीकरत पदम ,.~ ०~३ 
यहिरावणटीला भाषा पमे .... ५, ०-ई 
आनद वहार न ^ „+ ०१ 


५.५ 11 
44 

र जाहरात, 

५ नाम. की.₹,आ. 
9 असती रूद्‌ ७१० 111) [ 1), । ०१ 
श्य सुनीता भाषा ७५०४ 1 ७१४४ 1 
असतारधाविदानि १९० ,. ०१२ 
ष 

न 


2 


अद्टुते मनर्छला ^ „^ ०~र 
अमिटालसागर दान्त ^ ... १८ 
अम्वयप्रयोध = ,,. ०२ ¢ 
अपिषेगरयामायण मा० दी? ^ „^ ०~ढ 
अहुरागग्रकार १०७९ १७५१ ०७५» ~-९ © 


अनुरागसागर ४० दस्तिदचित पोधि्यापि 

शुद्ध कियाद ^ ००७५ ,,. „© 
आद्दारामायण सारतो कांड „~ ^= ०१० 
आद्दारामायण-वडा-सम्पू्णं सार्ती- 

काण्ड पं० चतुशचुन भिश्रक्रत इसमे 

वीरतामेय आदा छन्द सातं 

काण्ड रामायणकी कथा आगर है! 

आर्हा रसिकके। रापायण बच 

नकै लिये आद्दा वन्द्‌ करनेकी 

जरूरत नही ^. „५ = „^~ ३.८ 


भ 


आर्द्वारामायण ( आरण्यर्काड ) ,... ०~-६ 
आद्हारमायण ( संद्रकाड) ^ ५ ©= 
गणेपतिरतक भाषा "^ त | 


ए क्कु कनक 


कददकवनल्तवसकककः नूलकुनकृन्कक्नुतक्कक्ककः 


थः २, 222००४४० 
1 र 

| आद्हारामायण ( क्काकाड 2. ००, ** ०८ 
2 आरदखण्ड-आर्हाउदङ पृथ्वारान 

1 आदि क्त्रियोका युद्ध ५२ रडाहेमं „^“ २४ 
‰ आनंदसागर .० ००५ ० ० 
~ आनंदसरोवर-जिसमं ईैशरस्ठति, माना 

+ धभमेविषथक अनेक रागरागिनियोमं 

म कवित्त भजन, दुमरी, दादरा, गजर, 

[२१ हरी 
ॐ सावन चोमासा, बारामासी, ह | 
[> ७ ह 

~ सख्या, शैर रावणी आदि संग्रह है ^ ~अ 
| आरतीसंगरह २९ आरतीका वडा „० ०~-र्‌ 
| अध्यात्मप्रकाश्च ०५७ ०० . ०-र 
| इतिहासकथा सत्यनारायण तथा स्यार 

‡ अष्टपदी कवितमं ०५० ००, @-~र्‌ 
- उपाचरित माषापद्योम्‌ „८७ ० ० 
ॐ उपदेशचंद्रिका .. „~ ०-र्‌ 
2 एकाद्शस्कन्ध भाषार्यीकासदहित नूतन 

3 छपाई निद्द्‌र्वद्‌ गेन ^ १-~८ 
प तथा रर कागज ०००७ ५००७ ०० ए. 
4 कवित्तराभायण ^. ० „ ०४ 
3 कवितरामायण सटीक „+~ ८ ,... ०~-शद 
| कनीरकसोरीः ( श्रीकबीरणीषी साखी ओर 

2 उनका द तोति मरतिपादन है ) „ ०४ 
-4 कनारकृष्णगाता ( अन्यत्र नहह छपी }) ..„. १-० 
~ कङिमरपचप्चीसी ,०८ ... ०-१ 
ॐ कनरीरागसंमरह कि ,, ~र 
‰ कान्यङ्न्नार्चतामाणे मा० दी° „., ०~८ 
"अनुक ककलन (1 


(1.044.444 44444144 4444444 


४ 


1 


वृ. 01१2200, 4 1. 


३ £ . 
कान्यङकुन्जवंशावली भाषादीका „^ „~ ०१० | । 
ङण्डरिया गिरधररायक्रत ति १ 
कृष्णकरेवा-{ इसमें करेवाहास्यविरा- (क 

सादि रहस्यटीखा वार्णित्त हे ) „„ ०-र्‌ 8 
केदारनाथका नक्सा ~ ^ ~ ०१ 
गनलसंग्रहः „^ .. न , ५ ,... ०४ ` | 
गजेन्द्रमोक्ष भाषार्टीका + = ० 
गंगाविष्णुमडन ` ^ ~ "^ ०२ (६ 
गंगाविष्णुमण्ड्नका उत्सशपत्र „~ „+~ ०~-१ (६: 
गीताश्तधारा भाषा + „~ ०८ &. 
गीतामादारम्य ( माषा >) चौपाई, दोहा, , £ 

सोरडा, छद्‌ इत्यादिकोमे „~ ०१५ & 
गीतावरी रामायण माषारीका „~ „^~ २० 
गीत्रामाहात्म्य भा० री १८ अध्याय .... ०-१२ & 
गुरुगीताभापान्याख्या = =^ ०~र 
श॒रुचरितायतमाषा “~+ = ^ ~~ ०-8 
गर्वकावछी ~ ० र~ ०१० 
गूजरगीत मंगर ८ .. ०~४ 
गोविदय॒णब्ृन्दाकर निसमं दोहा सवया आदि 3 


छन्दा मगवान्फा वर्णन खिखके उसके नीचे ` & 
स्पष्ट भाषामं अर्थं'ङ्खा गयाहै „^ ०-१२ 


गोपदेशचप्रेका ०७०० ~ ७१११ ०१ ॥ ई 
गोपीनके प्रेमकी उन्परत्त अवस्यारीखा, .^ ०-~-र 
गोवद्धनरीर ` ००५० ०, © | 
गोदोहनरीडा ® “ ५ ०००७ ०२ 1५1 


हक 


गोविन्द्‌ाष्टक तथा कृष्णाष्टक उन्द्वद् .,,. ०-~१ (4 
(44433444. 3451 


4: 


गापाटईइकतींसां „० ॥ ५ © ~र 
* गोपारविछास्र यदह पुस्तकं दोहा, चीचाई 
 कावित्त, संषे्या आदिक छंदाकेरके रचित 

ह ओर आदयोपान्त श्रीज्रष्ण्जोके षिचित्र 

| सरि दशे हे ^ ०००५ ,०० १.८ 
> गोपीचदभरथरा ०५९ .... .. ०~र 
जोगभरथरी चरित्र „^ ., ..„ ०-~-१॥ 
* गोषिन्दशतक जिसमे भक्तपनानन्ददायकं 
 सवैजगनायकश्रीराधारपणविहारी 

भ सायामवुजतनुधारी करुणावरुणा्यके 

| निकट पूषादधमे विनय तथा उत्तराद्धे 





| , सरूर्त रखा बाणत्त हे ० @--र 
च गरासवर मजरी ^ ५०७४ ०० ~ 
| गकाचित्र ००८ ० „^ ०१ 
 घरमासरा ^ ^. कि .... ०-~-१ 
र चान्द्रायणवरतकथा „~ „^^ ० 
4 चाणक्यनीति माषादीका छोक दौहासाहित्त „+ ०-८ 
् चेतावनी अर्थात्‌ ज्ञानसुरसरी ८ संयह किये 

५ . इए ९०० दोहे है ) न ,. ० 
‰ चीरहरण लीला ०५७७ ... „९ ०~-र्‌ 
‰॑चोताचेदधिका ५ „. ० 
५ 


छप्पयरामायण ०७० ॥ . ०-१॥ 

| नगन्नाथरतक-इसमे रद्ुरान सिह रीबधि- 

‰ पातके वनायेहुये १०० कवित्त विनये ह .... ०-४ 

५ जगद्विनाद्‌ [ पञ्माकेरङ्घत नायकाभेद ] „ ०८ 
चन्र कवन ककक्ककककरकूलकूक्क 


चिटोदोहापरकाश ( विद छिखनेकीरीत्ति ) „.. ०-४ 
श 
द्‌ 


+++... कवपकददतषटदकयनयणकणकफकययपकयफणकक 


९1००९०1 चय... 2.1, 


य... 


तकानां 


९ 
जादूवगाला भाषा ^ „^ ,.„ ०१ 
जानकर ०७४ 11, | ०--९ 


जनकी सत्स इसमें नायक नायिका 
क्षण चेट विर विदूषक आदिकाका 
लप्रण श्रगारादि सव रसकि निरूपण 
स्थायि भावोका वर्णन दश अवस्थाओंका 
वणेन खीका नखश्लिख वणन इत्यादि 
साहित्यक वहत बिषय ह इर 


दोहै ७०० है .. ५० ,„, ०-8ि 
जीवनचरित्र वर्सीदासजीका नवीन 

वडा ( शरीराणां कपलङ्व (रक्त ) ,... ०८ 
ताजीरात हद्‌ < ब्रूत्तन आद्भात्ति ) ..„ १-१६ 


तीर्थमाहा ( अर्थात्‌ तीथेदपंण ओर पवित्र 
स्थानानरूपण >) ००७ [11 ०७७ © ~~ 
दुरुपीदासजीका जीवनचस्ति वखारामायण .... ०-४ 


तुखसीसंध्या माषादीका ५८१ ...„ ०~र्‌ 
ठम्दीं तो हौ-श्रीक्ृष्णाष्टक छाषनी ... ०-१ 
तेजमाड .... ,०९ ,१० „... ०~र्‌ 
त्रियाचरित्र ( कषिथुगी सियकि अनेक 
छड छिद्र ओर उनसे वचनेका उपाय 
उदाहरण समेत वर्णित हे ) „... ०५ 
द्म्पत्तिवाक्यपिरस जिसमे सब देरशातरकी 
यात्रा ओर धंदेके सुखको पुरुषने म॑डन 
ओर खीने खंडन किया दोहा कवित्तोमं 
चिच्रित जिष्द्‌ सहित „= „~ ० 
द्वात प्रूजा ०१ ०० ५ ० 
रक क्कु कुर © 5 ह = © = ठ ठ © छ © = 2 ८ 


नि | 


पवकणदषककन 


६ 


ककााााकाकनके 


भ 


५५४. 


००५ क 2. 


3 


1070१. 








| ६ 
दाधेीरा ^ ९ ०००० . ,,.. ०~१ 
दयानन्दतिपिरभास्कर "० ` ००, ३ -© ` 
दानखीला नागलीखा गमचताभाणे ,... ०-१ : 
दिह्टगीकी पुडिया म्रयम भाग "^ „= ० 
दवितीय भाग „०० ०... = ० 
ततीय माग ५५०७ ००९० ००० ० 
चतुथेभाग „^^ न ९ „^. @-र्‌ 
पंचम भाग... ... ^. ० ० ~र 
दुगाचारीषी त स 
देवीचरित्र दोहा चौपाई ,५ ०, © ~र 
द्रौपदीकी वाएमापी ~ „~ „^ ०~१ 
दष्टात पश्चासीं ,,.. ०० ०- 
धमेप्रचार साषाटीका सह ( भाग १-२ ) 
मत्येककी कीसत ५ ... ,... ०~-र 
धूम्यनीति सटीक ५ । न ० ~र 
धाम्यनाति भाग्दी० ,... „८ ०० ०~~रे 
नवरत्ररासविखास प्रथम भाग इसमे श्री ` 
ष्णजीकी रासर्खछा है „१०० ,.„„ ०-१३्‌ 
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पुस्तक मिल्क एकाना- 
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श ज्विष्णु गदाः 
<} चर्‌ ` छपाखाना, 
कटयाण-मुबङ 
व ककन्छ्कन्कनरपरकःन्लकरकरकण्कतनमदू 


५ 


एकयकपरयगतककककमनणकषकदम नदकदक वकपककदपरकययययवय 


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