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(ग्येद की सम्पूर्ण “शाकल-संदि ता” का दिन्दोआपान्तर)
भपल्तरकार और सम्पादक,
पण्डित रामगोचिन्द त्रिवेदी, वेदान्तशास्री
(“देदिक साहित्य, "पमे त २-बय?, “इन्दीर्तवष्णुपुरण्”, “इश्वर-
सिङ”, “रार्जाष प्रशाद? “मद्दासती मदालसा” आदि के लेखक
&,,र्य-मांइला? (बनारस), विश्वदूव” (रन बमो), “सेना-
पति” (कलकत्ता), “गङ्गा” (घुयतान+ज भागलपुर) रादि के
पूर्व सम्पादक, “गीता-प्रचारक महामणडल” (मोरिशस)
के जन्मदाता, “सनातन-वमे-मह्दामण्डल”
(डरबन, «बिस अफ्रोका) के संस्थापक
खर आजीवन सभापति तथा
भारत-4म-मंहामएडलख
(बनारस) के
मदापदेशक)
ललल नि निलम
ENG
इंडियन प्रेस ( ), लिमिटेड, प्रयाग
1
२०११ चिक्रमीय
मूल्य १२)
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सुद्रक--पी० एल० यादव, इंडियन प्रेस, लिप्रिटेड, प्रयाग
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श्रीमान् ठकुर कन्हैया सिंह
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जो उदाच-मना, उदार दानी ओर सह्कदयता की सूचि है, जो विद्याथियों,
विद्वान ओर कलाविदों के आ०य-स्थल हैं, जो आदश शासक
गर आदशे-वरित हैँ, जो वैदिक वाङ्मय के
परम भक्त त्रौर राष्ट्रभाषा हिन्दी के
अनन्य 'ग्रुरागी ४,
उन
बत्रिय-कुल-भूषण्, परदु:तकातर, परोपकार-बत-निरठ, घमे-प्राण, प्रसन्न-
वदन, भारत सरकार के आय-कर (इनकम-टेवस) विभाग के
डाइरेक्टर और गदमर (जि० ग्राजीपुर) के निवासी
> ७ का
श्रीमान् ठाकुर कन्हैया सिंहज।
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कमनीय कर-कमलों में
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सप्रेम समापत्
--रामगोविस्द शिवेदी
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वेद के स्वरूप पर तोन मत-वाद
विद्? धातु प बेद शब्द बना हुँ। छेटिन भाषा में विद धातु
को %४10८८' धातु कहा जाता ३1 इसी धातु से अंग्रेजी का [4९4
शब्द भी निकला है। पेद शब्द के लिए ठीक अंग्रेजी शब्द ' Vision
है, जिसका अर्थ दर्शन हुँ । जिन्हें यह महान् 'दशेन <आ, उन्हे
ऋषि कहा जाता हँ। ऋषि मन्व-द्रष्टा हैं । ऋग्वेद के एक मन्त्र
(“हिन्दी ऋग्वेद, पु० १३३६. मन्त्र ४) में भन्त्रन्द्रष्टा ऋषि का स्पष्ट
उल्लेख है । एक दूसरे मन्त्र (१३२४.३) मं तो और भी स्पष्ट कहा
गया है-- “ऋषियों ने (समाघि-दशा में) अपने अन्तःकरण में जो
[क (वेद-वाणी) प्राप्त की उसे उन्होंने सारे मनृष्यों को पढ़ाया !
ऋग्वेद के प्रख्यात क्रौषीतकि-त्राह्मण (१०.३०) और एतरेयत्राह्मण
(३.९) नाम के ग्रन्थों का भी मत है कि 'वेद-मन्त्र देखें गय हुँ॥
वैदिक संहिताओं में भूक्तों के ऊपर जिन ऋषियों के नाम पाय जाते
हें, वे मन्त्र-प्रणेता नहीं, मन्त्र-दशेक हूँ। थास्काचायं ने अपने निरुक्त
(नेगम काण्ड २.११) में लिखा हु ऋषिदेशेनात स्तोमान ददश ।”
अर्थात ऋषियों ने मन्त्रों को देखा} इसलिए उनका नाम 'क्रषि' पडा ।
कात्यायन ने अपने 'सर्वानिक्रमसूत्र' में लिखा हँ-- द्रिष्टार ऋषयः स्मर्तार: ।
आशय यह कि ऋषि मन्त्रों के प्रष्टा वा स्मर्ता हैं, कर्ता नहीं । कहा
जाता हूँ कि आकाश मं व्याप्त नित्य शब्दों को कण्ठ, ताल, जिज्ला
आदि के द्वारा जैसे अभिव्यक्त किया जाता है, वैसे ही शब्दमय नित्य
वेद को ऋषियों ने समाधि द्वारा अभिव्यक्त वा प्रकट किया! वेदान्त-
दर्शन के 'शारीरक-भाष्य' (२.३.१) में शंकराचाय ने वेद-नित्यता-
प्रतिपादक अनेक तर्को और वचनों को विन्यस्त किया हैं.
ऋग्वेद में एक स्थल (१३५९.९) पर कहा गया हूँ-- सवोत्मक
पुरुष (परमेश्वर) के सकल्परूप होम से थकत मानस यज्ञ से ऋग्वेदादि
प्रकट हुए। ब॒हादारण्यकोपनिषद वेद को भगवान वा ब्रह्म का इवास
मानती हे । नित्य वस्तु का श्वास नित्य हाता ही ह; उगलिए वेद
नित्य है । यहा श्वास का अर्थ ज्ञान भी किया जाता है। फलतः ईश्वर
के समान उसका ज्ञान भी नित्य हुँ। ऋषियों को तपःपुत समाविदश्षा
( २)
में ईश्वरीय प्रेरणा मिली, जिससे उनके निर्मल अन्तःकरण में वेदमस्त्रों
का अवतरण हुआ । आ लल
कहते हैं, महाप्रख्यावस्था में बेद अव्यक्त रहता है, जिसे सष्टि
के आदि में ब्रह्मा प्राप्त करते है । श्वेताइवतरोपनिषद् (६.८) में
कहा गया हे--- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तममे ।”
अर्थात् जो (परमेश्वर) सृष्टि के आदि में ब्रह्मा को उत्पन्न करता
और उसके लिए वेदों को भेजता हैँ ।' वंशब्राह्मण तथा संस्कृत के अनेक
ग्रन्थों में यही बात कही गई है। महाभारत, शीमद्मागधत आदि न
इस बात का पुर्ण समर्थेन किया हैं।
यह भी उल्लेख मिलता हे कि अजपृश्नि ऋषि ने तपोबल से,
प्रसाद-रूप मे, वेदों को पाया । कहीं अंगिरा ऋषि का पाना भी
लिखा हूँ। मणिकार के मत से मत्स्य भगवान् के वावय बेद है ।
सांख्य ओर योग दर्शनों का मत हूँ कि विद-कर्चा का पता नहीं
चलता; इसलिए वेः अपौरुष हुँ।' न्यायशास्त्र वेद को आप्त और
प्रवाइ-नित्य मानता हे--कूटस्थ नित्य नहीं। वैशेषिक दर्शन अर्थ-रूप
वा ज्ञान-स्वरूप वेद को अपौरुषेय मानता हें। यही मत वैयाकरण
कैयट का भी है ।
परन्तु कट्टर चित्यतावादी मीमांसाशास्त्र हैं। उसका अभिमत है
कि वर्णी की उत्पत्ति नहीं होती, अभिव्यक्ति होती है । कण्ठ, ताल
आदि अभिव्यञ्जक हें, उत्पादक नहीं। मीमांसाकार जैमिनि शब्द के
साथ ही शब्दार्थं को भी नित्य मानते हें ।
आयसमाज के स्वामी दयानन्द सरस्वती बेद के शब्द, अर्थ,
शब्दार्थ-संबंध तथा क्रम' आदि को भी नित्य मानते है। स्वामीजी
का मठ हूँ कि विद में अनित्य व्यक्तियों का वर्णन नहीं है ।' प्रकृतिः
प्रत्यय के अनुसार चळनेवाळी "पैगिक शैली ही आर्यसमाज में वेदार्थ
करने की उपयूक्त शैली मानी जाती हू । स्वामीजी वेद में आथे
घामों को एतिहासिक और भौगोलिक न मानकर यौगिक अर्थो में
लेते हैं। वे वेद के वसिष्ठ को ऋषि नहीं मानते, वसिष्ठ शब्द
का अर्थ प्राण करते हें। इसी तरह भरद्वाज का अर्थ मन” और विश्वा-
मित्र का अर्थ कान! किया गया हें। स्वामीजी के मत का समर्थन
भनजी ने भी किया हे--- |
सर्वषां स तु नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥” ( मनुस्मृति १,२१)
(३)
तात्पर्यं यह हे कि बैदिक शब्दों के आधार पर ही संसार के
प्राणियों के नाम, कमें और व्यवस्थापन अछ/गश-अलछग किये गये ।
फलतः यह कहा जाता हुँ कि वेद में उर्वशी शी, पुरुरवा, नहुष,
ययाति, यम, सुदास आदि के जो नाम और कर्म आदि कहे गये
छे, वे नित्य 8, नित्य एतिह सट, पौराणिक इतिह [स नहीं हु | पुराणादि
ने इन नाम-कर्मादिकों को लेकर इतिहास की रचना कर डाली---
बेद में न तो अनित्य इतिहास हैँ और न इन नाम-कर्मादि का ऐति-
हासिक तालर्यं ही & । इसलिए छोकोक्त विषय वेद में हैँ ही नहीं।
वेद का एक नाम श्रति ह। कहा जाता है कि परमात्मा से
ऋषियों ने, समाधि-दशा में, बेद का श्रवण” किया; इसलिए बेद
का नाम श्रति पड़ा। इसी आन्तरिक ध्वनि को, संसार के कल्याण के
लिए, ऋषियों ने विश्व में प्रसारित किया
शंकराचाय ने बेदान्तदशन (२.३.१) में अत्यक्ष और अनमान
प्रमाणां का खण्डय करके शब्द प्रमाण को स्थापित किया है। पाण्ड-
रोगवाला ब्यक्ति संसार को प्रत्यक्ष पीला देखता हैं और हरा चइमा-
चाळा विश्व को प्रत्यक्ष हरा देखता हे; परन्तु सारा संसार म तो पीछा
हुँ और न निशिल विश्व हरा। इसलिए प्रत्यक्ष-प्रमाण दोष-दष्ट
हैँ । इसी तरह बादल देखकर बृष्टि होने का अनमान होता हैं,
परन्तु सभी बादल बर्षा नहीं करते । पर्वत के वाष्प को घँ समझ कर
आग का अनुमान कर छिया जाता है, जो केवळ भ्रान्ति है। अतएव
प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण दूषित हें। बेद और ऋषियों के शब्द
शवरीय ज्ञान और योग की प्रक्रिया से विशद्ध हे; इसलिए प्रामाणिक
हुँ। क्षद्रतम मानव-बुद्धि अज्ञेय और अनन्त काल के तत्त्वों का कैसे
प्रत्यक्ष कर सकेगी और असीम समय के तथ्यों की कैसे अनमिति
करेगी ? इसीलिए गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा हुँ--“कतंव्य और
अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र प्रमाण हें।” (गीता १६.२४)
हमारे रामस्त शास्त्र वेद को नित्य मानते हैं। वैदिक साहित्य से
लेकर तस्त्रशास्त्र तक वेद-चित्यता का प्रचण्ड उद्घोष करते हैँ । वे स्पष्ट
कहते हे कि बेद ईश्वर की ही तरह नित्य है, शाश्वत है, अपौरुषेय हु और
ऋषियों ने तपःपुत अन्तःकरण सें बेद को उसी रूप में प्राप्त किया,
जिस रूप मे--छन्द, वाक्य, शब्द और अक्षर के रूप में--वह इन
सायणाचायं ने लिखा हँ---
( ४)
प्रत्यक्षेणान्मित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।
अर्थात् प्रत्यक्ष और अनमान के द्वारा जो उपाय अगम्य हें,
उसका उद्बोधन करान में वेद का वेदत्व हु।
मन्जी ने एक स्थान पर लिखा हं-+-
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्प्रसिद्धधति ॥
तात्पयं यह हुँ कि भूत, भविष्य और वर्तमान--सब कुछ वेद
से ही प्रख्यात हुआ ह--वेद से ही ज्ञात हुआ ह्ं।
इससे विदित होता है कि वेद से भविष्य और वर्तमान विषयों
का भी ज्ञान होता है। स्वयं ऋग्वेद के मन्त्र (पृष्ठ २९, अन्त्र ११)
में कहा गया हँ-- ज्ञानी पुरुष वर्तमान ओर भविष्य की सारी घटनाओं को
देखते हे। फलतः बेद त्रिकाळ-सुत्रधर हुँ और ज्ञानी ऋषि भी त्रिकाळ
दर्शी और मन्त्र-द्रष्टा हें।
ऋग्वेद के भाष्यकार सायण, वेंकट माधव, उद्गीथ, स्कन्द्
स्वामी, नारायण, आनन्दतीर्थ, रावण, मृदगल आदि ने भी वेद-नित्यता,
का प्रबल समर्थन किया हँ। अनेक शास्त्र दाब्दस्फोट, वाक्यस्फोट आबि
का सहारा लेकर वेद को नित्य मानते हें। मीमांसाकार जैमिनि ने
लिखा हं--'शब्द सदा रहता हँ, उत्पन्न नहीं किया जाता। उच्चा-
रण के पहले शघ्द अव्यक्त रहता हु, उच्चारण से व्यक्त होता हे।
उच्चारण के अनन्तर भी शब्द रहता ह, अवश्य ही अव्यक्त हो जाता
है; परन्तु विनष्ट नहीं होता। इसीलिए ग्रामोफोन के रेकाडं में भरे
हुए शब्द महीनों और वर्षों बाद सुनाई देते ह। शब्द बनाओ का
तात्पर्यं शब्द बनाना नहीं हु, ध्वनि करना ह। नित्य शब्द ध्वनि
के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता हे। जैसे व्योम-स्थित सूयं को, एक
ही समय, अनेक मनष्य, अनेक स्थानों में, देखते हें, वैसे ही नित्य वर्णा-
त्मक शब्द को, एक ही समय, अनेक स्थानों में, अनेक मानव सुनते
और बोलते हूँ । शब्द के अनित्य रहने पर उसे अभिव्यक्त करन के
लिए कोई ध्वनि भी नहीं करता; क्योंकि नित्य और अव्यक्त की ही
अभिव्यक्ति होती हे--अनित्य की नहीं। कोई भी नहीं कहता कि
आठ बार शब्द बनाओ। सब यही कहते हें कि आठ बार शब्द का
उच्चारण करो।' यह अनादि-काल-सिद्ध व्यवहार भी स्पष्टतया शब्द
की नित्यता बताता ह। शब्द का उपादान कारण भी कोई नहीं हैं।
ध्वनि से अभिव्यक्त शब्द ध्वनि से भिन्न हुँ। ध्वनि तो केवल अभिव्यंजक
हे और शब्द अभिव्यंजनीय। ध्वनि का ही उपादान कारण वाय
(५ )
है, शब्द का नहीं। फलतः शब्द नित्य है। भ्रम, प्रमाद, इन्द्रिय-
दोष, विप्रलिप्सा आदि के कारण मनष्यादि के शब्द अप्रमाण हं और
ऋषियों के विमल अन्तःकरण में उतरे वैदिक शब्द दोष-शून्य और
प्रमाण हैं ।
जैमिनि का मत हें कि शब्द ही नहीं, शब्द-शब्दाथं और वाक्य-
वाक्यार्थं का बोध्य-बोधक संबंध भी नित्य हें। यह भी स्वाभाविक हु,
सांकेतिक वा कृत्रिम नहीं हे। शब्द नाम हुँ, अर्थ नामी हे, शब्द संज्ञा
हुँ, अर्थ संज्ञी हु, शब्द बोधक हूं, अथ बोध्य हें। यह अनादि-परम्परागत
हे। ध्वन्यारूढ़ वण, पद, वाक्य सुनने के अनन्तर श्रोता के अन्तः-
करण में जो अर्थ-प्रत्यायक ज्ञानमय वर्ण, पद वाक्य उदित होते हैं,
प्रस्फुरित होते हें, वे ही प्रस्फुरित, अमूत्त पदार्थ स्फोट होते हें । स्फोट
निराकार वणे, पद, वाक्य को प्रतिच्छाया है अथवा स्फोट ही अनादि
निधन और वर्ण, पद, वाक्य नामों का नामी (नामवाला) हुँ। शब्द
असंख्य हु, अर्थ भी असंख्य हू
इस तरह अनेकानेक तरको, यक्तियों और शास्त्रीय प्रमाणों से
नित्यतावादी पक्ष वेद की नित्यता का प्रबल समर्थन करता हें।
दूसरा मत कहता हें कि ईश्वरीय ज्ञान अगाध और असीम हे।
किसी किसी सत्यकाम प्रोगी को समाधि में इस ज्ञान-राशि के अंश
का साक्षात्कार होता योगी या ऋषि अपनी अनभति को जिन
बक में व्यक्त करता हू, वे मन्त्र हु । स्फूति दैवी हे; परन्तु शब्द ऋषि
ह्।
कहा जाता ह कि कोई भी भाषा ध्वनि को प्रकट करने की
केवल प्रणाली हु ओर एसी प्रणालियों वा भाषाएं, विविध दशों में,
विभिन्न रूपों में हेँ। देश-काल के अनसार विभिन्न उच्चारण -सैलियां
होती ह। इनके अनसार शब्द बनते हें और मनष्य इन विविध शब्दों
के विविध अर्थ, अपनी प्रकृति और रुचि के अनसार, निश्चित करता
हैं। इसलिए कोई भी भाषा नित्य नहीं हो सकती--सारी भाषाएँ
और उनके अर्थ मानव-कृत संकेत मात्र हें। व्याकरण में शब्द की विकृति
(जसे 'इ' से 'य' और 'उ' से 'व' होने से शब्द विकृत होते हें) होती
हें, और; इस तरह जो शब्द परिवर्तनशील है, वह नित्य हो भी
नहीं सकता ।
यह आष मत है। इन दिनों इसी मत का बिशष प्राधान्य, प्रामण्य
वा प्राबल्य हे । नित्यतावादियों से पूछा जाती हें कि यदि झा०द-
मात्र नित्य हें तो शब्दरूप बाइबल, कुरान और प्रति दिन गढ़ी जासे
( ६)
बाली कजली, ठुमरी और सवैया भी क्यों नहीं नित्य हें? जब कि
न्याय, वैशेषिक आदि शब्द के आधार आकाश (वैज्ञानिक मत से
वायु) को ही नित्य नहीं मानते, तब शब्द कैसे नित्य हुआ ? सांख्यः
सत से जब प्रकृति की साम्यावस्था में आकाश और वायु भी नहीं
रहते, तब आकाश या वायु का गुण शब्द और शब्द-रूप बेद, छन्दो-
रूप में, कैसे रहेगा ?' इसी लिए तो वेद को न्याय केवल प्रवाह-नित्य
मानता है. कूटस्थ नित्य नही । बेशेषिक भी शब्दरूप वेद को नित्य नहीं
मानता! योग और सांख्य को वेद-कर्त्ता का पता नहीं चला; इसलिए
अपौरुषेय कह दिया--नित्य नहीं । वेदान्त भी व्यवहार-दशा में ही बेद को
नित्य मानता है; परमार्थ-दशा में तो वेदान्त का केवल ब्रह्म नित्य है ।
यह दूसरी बात है कि दैवी शक्तियों की उपासना, सत्याचरण, तपस्या,
विविध विद्याओं, विषयों और तठक्त्वों का उपदेश वेद में हे; दैवी
स्फुरण हुँ, जानाकर है; इसलिए ज्ञान-रूप वेद नित्य हू। विषय-दृष्टि से
वेद अनादि और नित्य हो सकता हूँ; परन्तु शब्द-दुष्टि से तो कथमपि
नहीं। अभाव-पूति के लिए मनुष्य भाषाएं बनाता है ओर भाषाएँ
बदला करती हें। तत्सम शब्द से तदभव शब्द बनते रहते हूँ। संस्कृत
भाषा बदलती-बदलती अपने मूळ रूप के अतिरिक्त बँगला, ब्रजभाषा
आदि आदि के परिधान में आ चुकी हैं। स्वयं वेदिक भाषा
कितने ही रूप धारण कर चुकी हुँ। क्रग्वेद की शाकल-संहिता और
शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन-संहिता की भाषाओं में भेद हूँ। कृष्ण
यजुर्वेद की तैत्तिरीय-संहिता वा मैत्रायणी-संहिता को देखकर कौन
कहेगा कि दोनों की भाषा समकालीन हूँ? द्वापर का अन्त होने पर
सूर्य ने याज्ञवल्क्य को शुक्ल यजुर्वेद की शिक्षा दी। ऐतरेय महिदास को
पृथिवी ने ऐसे मन्त्र बताये, जो उनके पहले सबको अज्ञात थे। एक बंश
के प्रपितामह से लेकर प्रपौत्र तक के मन्त्र वेद की संहिताओं में हूँ। ये
सब न तो समकालीन हो सकते हें और न इनकी भाषा ही समकालीन
हो सकती है । फलतः ऋषियों और उनके वंशधरों को विभिन्न समयों में
तपोबल से दैवी या दिव्य स्फूति मिली और उन्होंने विभिन्न समयों में
विभिन्न भाषाओं में वेद-मन्त्र बनाये।
स्वयं ऋग्वेद-संहिता (शाकल-संहिता वा वत्तंमान हिन्दी ऋग्वेद”)
में तये-नये मन्त्रों की रचना का अनेक बार उल्लेख है। अभूत पूर्व
वस्तु के उत्पादन के अथ में जन्, तन्, सृज्, तक्ष, कृ आदि धातुओं का
प्रयोग होता है । इन ७०० तं का प्रयोग ऐसे स्थानों पर ऐसी शैली में
आया हुँ, जिससे विदित होता है कि ऋषि लोग आवश्यकतानुसार नये-
( ७ )
बनाता हुँ । 'यृगे यग वितथ्यं गृणद्म्यौ रथि यशस धे हि नव्यसीम् ”
ee] स ०७
कहनेवाले को, अग्निदेव, घन और यश प्रदान करो ।' सायण ने “यगे युगे”
का अर्थ याग-योग्य अग्नि किया हुँ । शेष एसा ही अर्थ हुँ। ठीक इसौ प्रकार
का एक इलोकार्द्ध बायुपुराण (५९ अध्याय) में पाया जाता हँ--“प्रति
मन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते।” तात्पर्यं ग्रह है कि 'प्रत्येक मन्वन्तर
काल में दूसरी श्रुति बताई जाती हूँ। “ये च पुवे ऋषयो ये च नूत्ना
इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।” (पृष्ठ ८०१. मन्त्र ९) अर्थात् जितने
प्राचीन ऋषि हो गये हुँ और जितने नवीन ऋषि हें, सभी, हे इन्दर,
तुम्हारे लिए स्तोत्र उत्पन्न करते हे ।' 'हम इस नवीन स्तुति द्वारा तुम्हारी
सेवा करते हँ ' (प० ३२५. मं० १)। “ये स्तोत्र से स्तुति करता ह
(३३६-५) । पुरातन, मध्यतन औ अधुनातन स्तोत्र' का उल्लेख है
(४००-१३), जिससे ज्ञात होता है कि तीनों समग्रों में नये मन्त्र बने ।
'य नवीनतम और शोभन स्लुति-रूप वचन तुम्हारे लिए हे? ( (४४७.७ ) 1
नवीनतम शब्द ध्यान देने योग्य हे। अगके मन्त्र (१०८८.८) में नया
सुक्तः तक बनाने की बात है--सोम, तुम नये और स्तुत्य सूयत के
लिए शीघ्र ही आओ।' आगे के मन्त्र (१२०९.२) में तो और भी
स्पष्टीकरण हूँ--'मन्त्र-रचयिताओं ने जिन स्तुति-वचनों की रचना की
हे, उनका आश्रय करके अपने वाकय की बुद्धि करो।' फलतः रामय-समय
पर मन्त्र बनाये गये हैं; वे नित्य नहीं हें। सनातनधमियों के प्रामाणिक
आचाय सायण के ही ये मन्त्राथं ह।
वस्तुतः वेद मे अनन्त काल के अनन्त ऋषियों की अनन्त उच्चतम
और ज्ञानमयी चिन्ताएं, अनन्त गिरि-निर्भरों को चीरली और प्रतिध्वनित
करती हुई, इकद्ठी की गई हें। वेद में ऐसे दिव्य सन्देश, ऐसी मामिक और
मौलिक चिन्ताएं भरी पडी हे, जिन ९०९ सूक्त आदि की) चिन्ताओं के
समान, स्व॒० बाळ गंगाधर तिलक के शब्दों मं, 'सभ्यतम मनष्य कोई
स्वाधीन चिन्तन ही नहीं कर सकता।' वेद उन स्थित-प्रज्ञ और परदु:ख-
कातर मनीषियों की तेजस्विनी बाणी हे, जो हमारे प्रातःस्मरणीय
पूर्वज थे। इसी दृष्टि से वेद की महत्ता हुं और वेद हमारा पूजनीय
भग
ग्रन्थ हुँ।
(#3
आर्षमत-वादियों का यही मत हें और इस मत के समर्थक और
अनुमोदक अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ और अनेकानेक तकं-यूक्तियाँ हूँ।
यहाँ स्थानाभाव हं; इसलिए सारी बातें अत्यन्त संक्षिप्त कही गई हैं।
तीसरा मत एतिहासिकों का हुँ। इस मत के वेदाम्यासी इस देश
में तो हें ही. विदेशों में भी बहुत हें। ये ऋषियों को मन्व-द्रष्टा, सिद्ध
पुरुष और अतिमानव नहीं मानते, साधारणतः मनीषी मानते हैं। ये
वेद में इतिहास. भगोल, खगोल, साहित्य राजधमे, कृषि आदि को खोजने
में विशेष संलग्न रहते हें। अधिकांश आषेमतवादी इनकी अनेक धारणाओं
के पोषक हें। इनके मत से वैदिक काल में भी भल-बरे लोग थे--भली-
बुरी बातें थीं और इन दिनों भी हूं। य वेद को अद्भूत या दिव्य ग्रन्थ
नहीं समझते। ये वेद को संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ तो मानते हें;
परन्तु असौरिया की कोणाकार लिपि की एक खण्डित को भी
ऋग्वेद के समकक्ष ला बैठाते हं! इनकी अतीव संक्षिप्त -सरणि
सुनिए। कहते हें-- बृहदारण्यकोपनिषद् में जहाँ वेद को ब्रह्म का श्वास
बताया गया है, वहीं इतिहास को भी श्वास कहा गया हे।' स्मृति में
कहा गया हे |
“युगान्तेञ्न्तहितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः।
लेभिरे तपसा पू्वेमनृज्ञाताः स्वयंभुवा ॥”
अर्थात् ब्रह्मा की अनुमति से मर्हाषयो न, तपस्या के द्वारा, प्रलया-
वस्था मे छिपे हुए वेदों को, इतिहास के साथ, पाया।
इससे विदित होता ह कि वेद में इतिहास अनुस्यूत हें। छान्दोग्योप-
निषद् और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इतिहास को पञ्चम वेद” माना
गया है । वेद के कोष और वेदार्थं करने में व्याकरण से भी अधिक
सहायक ग्रन्थ यास्काचाये के निरुक्त ने भी वेद में इतिहास माना है।
निरुक्त के कई स्थानों मं तत्रेतिहासमाचक्षते” आया है। निरुक्त
(२.४) में यास्क ने इषितसेन, शन्तनु, देवापि आदि के इतिहास का
उल्लेख किया है । पिजवन-पुत्र सुदास कुशिक-पुत्र विश्वामित्र आदि का
भी विवरण यास्क ने दिया हैं। निरुक्त के ३.३ मे थास्क ने प्रस्कण्व को
“कण्वस्प पुत्रः" लिखा हु। ४.३ में लिखा --'च्यवन ऋषिभंवति |” ९.३
में कहा गया ३--भाम्यंश्वो भम्यश्वस्य पुत्रः।” इसी तरह “सन्तपन्ति
माम्” मन्त्र का अथे लिखन के बाद यास्क ने, सायण की ही तरह,
लिखा हँ-- कुएं में गिरे हुए त्रित ऋषि को इस सूक्त का ज्ञान हुमा।'
इरी मन्त्र के नीचे यास्क न लिखा हुँ-- तत्र ब्रह्मतिहास-मिश्रं ऋडङ-मिश्ं
( ९ )
गाथा-मिश्रं भवति ।” अर्थात् इतिहासो, झचाओं और गाथाओं से
मुक्त वेद { ।' फलतः थास्क के मत से वेद में इतिहास हें,
ऋग्वेद के सभी प्राचीन भाष्यकार ऋग्वेद सें इतिहास मानते
हँ । ऋग्वेद का 'दाशाराज्ञयृद्ध” प्रसि इतिहास हैं ; ऋग्येद में ऋषियों
और राजाओं का वंश-विवरण हे । अनेकानेक नदियों, समद्रों, नगरों
देशों और प्राणियों के नाम और विवृति है। यजुर्वेद (३.६१)
शिवजी के धनुष्, हाथी की छाल, उनके निवास-स्थान आदि का, पुराणों की
तरह, स्पष्ट उल्लेख हू । शतपथ-ब्राह्मण (१४.५.४.१०) और अथबं-
वेद में इतिहास को एक कला माना गया है ' बस्तुत वेद में आर्यो के
रहन-सहन. खान-पान, भाषा-भाव समाज-व्यवस्थ। आमोद-प्रमोद,
राज्य-स्थापन, देश-विजय आदि विषय है और अतीव संक्षिप्त रूप से
इतिहास हैं ।
यही ऐतिहासिकों का मत हैं और इसी मत के समथेक ग्रासमान,
लांगलोआ, टिबटने, राथ, मेंक्समूलर आदि जर्मन फ्रेंच अँगरेज आदि
पाश्चात्य और भांडारकर. दत्त, राजवाडे आदि एतहेशीय बेदाभ्यासी
सज्जन हं । |
वेदाथे करने की शेलो
वेद-स्वरूप बतानवाळ उक्त तीन भत-वाद अत्यन्त प्रसिद्ध तो
हैं; परन्तु वेद-रहस्य बतानेवाल और भी पक्ष हें। यास्क ने इन नौ
मतवादों का उल्लेख किया है--आधिदेवत आध्यात्मिक, आख्यान-
समय-परक, ऐतिहासिक, नदान, नेरुक्त पारब्राजक पूवयाज्ञिक और
याज्ञिक। यास्क न प्राय: एक दजन 'नरुक्तकारो का भी उल्लेख किया
है, जिनमें कइयों के अथ-सम्बन्धी विभिन्न मत हुँ। मूल धातु मे प्रत्यय
उपसगे लगाकर, सन्धि-विग्रह और आगम परिहार करके तथा शाब्द-
व्युत्पत्ति के दारा अनेकानेक बैदिक पदों और शब्दों के अनकानेक अर्थ
किये जाते ह। वतमान ग्रन्थ के पृष्ठ ५४१ के ३ य मन्त्र में 'महादेब
शब्द आया हुं, जिसका अथ किसी न 'सूर्य किया ८, किसी न “यज्ञ,
किसी न शब्द ! हिन्दी ऋग्वेद, पृष्ठ २५२. मन्त्र ४५ की व्याख्या
सायण और निरुक्त-परिशिष्ट' (१३.९) ने सात प्रकार से की हुँ!
सवयं यास्क नं अश्विनौ शब्द के चार अर्थ किये डे --स्वगे-मत्यं दिन-
रात, सूये-चन्द्रमा और दो धर्मात्मा ! इन्द्र शब्द के चार अर्थ किण गये
हे--ईश्वर, देव, ज्ञान और विद्यत् ! वृत्र के भौ चार अथं हे--अज्ञान
मेघ, असुर और असुरों का राजा ! पृदिनि के भी चार अर्थ हे--मर्तो
( १० )
य कै
की माता, पृथ्वी, आकाश और मेघ ! गौ शब्द के तो पाँच अर्थ किये
गये हें---गौ, किरण, जल्घारा, इन्द्रिय और वाणी !
यूरोपीय बेदाभ्यासियों ने तो और भी मनमाना अथे किया हें।
कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय-संहिता' (७.१.८.२) में श्रद्धादेवः शाब्द
आया है, जिसका सीधा अर्थ श्रद्धालु हे; परन्तु एगलिग ने इसका अर्थ
देव-भीर' ((७०त-८५४४४ ) कर डाला हुँ! पीठर्सबर्ग लेबिजकन
(संस्कृत-जमंन-महाकोष ) के छेखक राथ और बोट्लिगूक ने अश्व शब्द
के तृतीया एक वचन 'अझ्वा' का अर्थ कुत्ते के समान लिख मारा हैं!
अश्वा का अर्थ हे घोड़े के झारा । यही नहीं, 'हरप्पा' और मोहन जो दड़ो'
की खोदाई करानेवाले और “इंडो-सुमेरियन सील्स डिसाइफडे” के लेखक
एल० ए० वैडळ ने तो इतनी दूर तक छिखा हुँ कि इराक की सुमर
जाति (अनाय) ने ही आयो को सभ्य बनाया । उनके 'एदिन' शब्द से
सिन्धु’ शब्द बना हें 1 सुमेरियन भाषा के 'मदगल' शब्द से वेद का
मृद्गल' शब्द बना है ! ' इसी प्रकार सुमेरियन कन्व से कण्व, बरम”
से ब्राह्मण और 'तप्स' (अक्कद के सगून का मन्त्री) से 'दक्ष' बना!
वेद के पूजा” और मीन' शब्द चाल्डियन भाषा के हें! ऋग्वेद के “सचा
मना हिरण्यया ”में मना' बरेबीलोनियच शब्द हुँ ! अँगरेजी के 2) शब्द
से वेद का पन्था' शब्द निकला हूँ ! कुछ पाइचाच्य तो यह भी कहते हे कि
दक्षिण अफ्रीका में हजार सिरवाले राक्षस की जो कहानी प्रचलित
हे, उसी की नकल पर वेद में “सहस्रशीर्षाः” लिखा गया है !' इस तरह
अनेक पाइ्चात्यों ने बैदिक शब्दों के अर्थ का अनर्थ कर डाला है और
बहुत-सी वृथा कल्पना-जल्पनाएँ रच डाळी हें! सबके लिखने का यहाँ
न तो स्थान ही हे, न आवश्यकता ही । जिन्हें आर्य-धर्म और हिन्दू-
संस्कृति मे केवळ छिद्र ही ठू ढ़ने हैं, वे तो ऐसी ऊटपटाँग बातें करेंगे ही।
वस्तुतः वैदिक साहित्य को हीन बताने के लिए ही कितने ही विदेशी
विद्वान् वैदिक साहित्य के पीछे पड़े थी । मैकडानल ने अपने “ Vedic
mMy00]085 के प्रथम पृष्ठ में ही आर्यो को 'असभ्य' और 'बर्बेर' बना
डाला हे! जेसी समझ, वसी करनी” ठीक ही है। और, पक्षपात का
चश्मा पहननेवाछों से निष्पक्ष अर्थ करने तथा यथार्थ विषय उपन्यस्त
करने की आशा ही कंसे की जा सकती है ?
पक्षपात का चश्मा कुछ भारतीय विद्वानों ने भी ळगाया है। भेद
इतना ही हूँ कि पाइचात्त्यों ने जहाँ तृतीय श्रेणी का चश्मा लगाया हैं,
वहाँ भारतीयों में से कुछ ने द्वितीय श्रेणी का चश्मा लगाया है और कुछ
ने प्रथम श्रेणी का। राजेखलाल मित्र, के० एम० बनर्जी और रमानाथ
( ११ )
सरस्वती की वेदिक आठोचनाएं पढ्ने पर तो कभी-कभी यह सन्दे होने
लगता हूँ कि क्या ये भी मैकडानल के सहयोगी थे ?
हमारे यहाँ चतुवद स्वामी ने भी भहग्दरेउ थ एछ अंश पर भाष्य
लिखा हँ । इन्होंने ऋग्वेद के एक ही मन्त्र (पृ० १४०१.४) से इतने
बिळक्षण अर्थं निक्राळे ह--पूतना और कंस का बध, गोधद्धग-घारण
और कौरब-पाण्डव-युद्ध ! प्रसिद्ध वेद-विद्यार्थी डा० बी० जी० रेछे ने
“The Vedic Gods नाम की एक पुस्तक लिखी है, जिसमें उन्होंने
समस्त देवत संज्ञाओं (देव-वामों) को द्वयर्थक और नाचार्थक' सिद्ध
करने की चेष्टा की हे!
परन्तु किसी भी ग्रन्थ का एक प्रतिपाद्य होता है, एक उद्देश्य होता
है। यह बात कोई भी नहीं कह सकता कि बादरायण ब्यास का वेदान्त-
सुत्र की अद्दैतवाद, द्वेतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और विशुद्धा द्वत-
वाद आदि की सभी व्याख्याएं अभीष्ट थी । उन्हें तो केवल एक ही व्याख्या
अभीष्ट रही होगी, उनका एक ही प्रतिपाथ अभीष्ट रहा होगा, फिर
चाहे वह द्वैतवादी हो, अद्वेतवादी हो या जो हो। इसी तरह मन्त-प्रणेता
ऋषि को भी एक ही अर्थ अभीष्ट रहा होगा; परत; व्य।स्याक।रों ने अपने
उपयुक्त वा अनुपयुक्त मत की पुष्टि के लिए मनमान अर्थ कर डाळे!
हजारों वर्षों से एक दूसरे से, दूसरा तीसरे से, तीसरा चौथे से सुन-
सुनकर वेद-मन्त्रों को कण्ठस्थ करते आते थे। इस तरह हजारों मखों
और मस्तिष्को से छनकर कुछ मन्व-पाठ और मन्त्रार्थ विक्ृत हो चले हैं।
लिपिकारों को अञ्चता, अल्पज्ञा, प्रमाद, पक्षपात आदि फे कारण भी
कई मन्त्र और उनके अर्थ विकृत हो गये हे । ये ही कारण हैं कि पद,
क्रम, जटा, माला, शिखा, छेखा. ध्वजा, दण्ड, रथ और घन (विकृत-
वल्ली १.५) में आबद्ध करने पर भी अनेक वेद-मन्त्रों के पाठान्तर हो
गये, एक ही मन्त्र, दो-एक शब्द इधर-उधर करके, दुबारा लिखा गया
और भनेक मन्त्रों के शब्द इतने विक्त हो गये कि उनका शुद्ध पाठ
और अर्थ-ज्ञान दूर्वोध और अञ्चय हो रहे।
वेद-मन्त्रों के कुछ ऐसे शब्द हें, जिनका अथे-ज्ञान नहीं होता। एसे
शब्दों का परिगणन निघण्टु में किया गया है। कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका
मर्थं ढुँढ-ढाँढकर धात्वर्थं था विकृत खूप से या वाक्य में स्थान देखकर
अथवा जिन वाक्यों में उनका प्रयोग था हूं, उनकी तुलना करके
निश्चित किया जा सकता हूँ। परन्तु वैदिक शब्दों का एक बड़ा समूह
ऐसा है, जिसका अर्थ निश्चित रूप से ज्ञात होता हे अथवा जिसका
अर्थं निर्वेचन के अनुसार किया जा सकता हैं। बहुत से ऐसे वैदिक
६ १२ )
दाब्द हे, जिनका अर्थ परम्परा से प्राप्त है। परम्परा से प्राप्त अर्थ
अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता हे।
यास्क ने तीन ऐसे साधन बताये हें, जिनसे मन्त्रों का अर्थ जाना
जा सकता है--१ आचारयों से परम्परया सुने हुए ज्ञान-ग्रन्थ, २ तर्क
भौर ३ गम्भीर मनन । तं का तात्पर्य हुँ वेदान्त-दर्शन आदि से। वेदान्त-
सूत्र के अपने भाष्य में शंकराचार्य ने इन साधनों से अनेक मन्त्रों का
अथे-निणय किया भी हे।
इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मण-ग्रन्थ, निरुक्त, प्राति-शाख्य, कल्पसूत्र
आदि की सहायता से बहुत कुछ मन्त्रार्थं मौलिक रूप में सुरक्षित ह।
गस्भीर मनन, प्रकरण, प्रसंग और वेदार्थ करनेवाले प्राचीन-परम्परा-
प्राप्त आधार-प्रन्थों से असन्दिग्ध अर्थ-निर्णय किया जा सकता है । 'अमर-
कोर्ष रटनेवाले छात्र को भी तनूनपात्, जातवेदस् , वैद्वानर आदि वैदिक
शब्दों का 'अग्नि' अथं परम्परया ज्ञात हो जाता है। उपनिषद् , आरण्यक,
पुराण, धर्म-शास्त्र आदि परम्परा-प्राप्त अर्थ के आधार हें; इसलिए
वेदार्थ करते समय इन सबसे भी सहायता लेनी चाहिए। परम्परा-गत
अर्थ को छोड़कर केवल यौगिक अर्थ करना यथेष्ट भयावह हैं। गौ का
यौगिक अर्थ है चळनेवाला । परन्तु यदि किसी चलनेवाले मनुष्य को
गो कहा जाय तो वह युद्ध ठान बैठेगा ! इसी से कहा गया है--- रूढ़ियों-
गाद् बलीयसी अर्थात् यौगिक, वाच्यार्थ, व्युत्पत्ति-लम्य अर्थ से रूढ,
प्रचलित और स्वीकृत अर्थ बलवत्तर हुँ। इसलिए केवल यौगिक अर्थ
का अनुधावन करना अनुपयुक्त है।
भाष्यकार सायण
वेद-भाष्यकारों में सायण पहाप्रतिभाशाळी थे। वे विजयनगर के
राजा बुक्क (प्रथम), संगम (द्वितीय) और हरिहर (तृतीय) के मन्त्री
थे। उन्होंने चम्प-नरेन्द्र को पराजित किया था। सायण १४ बी शती में
थे और ७२ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी हुए थे । उन्होंने अनेक उद्भट
विद्वानों के सहयोग से चारों वेदों की संहिताओं पर महत्त्व-पूणं भाष्य
लिखा था। उनके प्रधान सहयोगी नरहरि सोमयाजी, नारायण वाज-
पेययाजी और पंढरी दीक्षित थे।
सबसे पहले सायण ने क्रृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय-संहिता पर भाष्य
लिखा । पश्चात् ऋग्वेद (शाकल-संहिता), शुक्ल यजुर्वेद ( काण्वसंहिता ),
सामवेद (कौथुमसंहिता) और अथर्ववेद (शौनकसंहिता) पर भाष्य
लिखा । सायण चे सामवेद के प्रसिद्ध आठ ब्राह्मण-प्रन्थों, एतरेय-ब्राह्मण,
( १२ )
पैत्तिरीय-ब्राह्मण, शतपथब्राह्मण, गोपथब्राह्मण, तैतिरीयारण्यक, ऐतरेया-
रण्यक, ऐतरेयोपतिषद् तथा सामप्रातिशाख्य पर भी भाष्य लिखा है । मन्त्रित्व
का दुरूह कार्य करते हुए भी सायण ने ये भाष्य लिखे और अन्य पाँच
मौलिक ग्रन्थ भी लिखे, यह देखकर सायण की अद्भूत प्रतिभा पर संसार
के बड़े-बड़ मनीपी मुग्ध हो जाते हैं।
यों तो ऋग्वेद पर अनेक भाष्य हें; परन्तु सब खण्डित हें। वेंकट
माधव का “ऋगर्थदीपिका” जाम का भाष्य आधा छप चुका है; आधा
शेष हूँ । परन्तु यह भाष्य भी यत्र-तत्र खण्डित है और अत्यन्त संक्षिप्त
हैँ । किन्तु सायण-भाष्य पूर्ण ६, विस्तृत हे और वेद-विज्ञान की ज्योति
पाने के लिए समस्त विश्व में एक मात्र आधार हुँ। सायण का ऋग्वेद-
भाष्य सर्वप्रथम विजयनगर में ही छपा।
ऋग्वेदीय मन्त्रों के कहीं आध्यात्मिक, कहीं आधिदैविक तथा कहीं
आधिभौतिक अर्थ हँ । सायण ने यथास्थात तीनों ही अर्थो को लिखा
है। ऋग्वेद में कहीं समाधि-भाषा, कहीं परकीय भाषा और कहीं लौकिक
भाषा का प्रयोग है और सायण ने यथास्थान तीनों का ही रहस्य बताया
है । जहाँ जिस भाषा और जिस वाद का कथन हैं, वहाँ उसी का
उल्लेख करके सायण न अथ-समन्वय किया है। अतएव यह धारणा
ठीक नहीं कि सायण ने केवल 'अधियज्ञ' अर्थ किया है।
१, सायण ने सर्वत्र प्राचीन-परम्परा-प्राप्त अर्थ किया हे। सारे
संस्कृत-साहित्य को मथकर सायण ने प्राचीन परम्परा और मर्यादा का
पालन किया हें ।
२. स्कन्द स्वामी, वेंकट माधव, उदगीथ, भट्ट भास्कर, भरत स्वामी,
कपर्दी स्वामी आदि सभी प्राचीन भाष्यकारों के अनुकूल ही सायण-
भाष्य हे ।
३. समस्त वैदिक साहित्य, लौकिक साहित्य और आर्य-जाति के
आचार-विचार से सायण-भाष्य का समर्थन होता हूँ।
४, विश्व की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित वेद-सम्बन्धी ग्रन्थो
के प्रणेता प्रायः सायणानयायी हूँ ।
५. सनातम-धर्मानुयायी सदा से सायण-भाष्य को आर्य-जाति की
संस्कृति, सम्यता और रीति-नीति का अनुयायी मानते हूँ।
६. सायण-भाष्य के अतिरिक्त ऋग्वेद पर किसी का भी भाष्य पूर्ण
नहीं है; इसलिए सायण-भाष्य के अभाव में ऋग्वेद का न तो सम्यक्
अर्थ-ग्रहण होता, न राथ की “पीटसंबर्ग लेकिजिकन” नाम की कोष-पुस्तक
ही बन पाती और न ग्रासमान का “वैदिक कोष” ही लिखा जाता।
फा० २
(१४ )
इन्हीं सब कारणों से इस “हिन्दी ऋग्वेद” में सायण-माप्य के
अनुसार ही मन्त्रार्थ किये गये हें। मन्वार्थो के साथ मन्त्रो को इसलिए
नहीं प्रकाशित किया गया हे कि हिन्दी-पाठक तो क्या, जो संस्कृत के
विद्वात् ब्राह्मण-ग्रन्थ, निरुक्त, प्रातिशाख्य आदि का सविधि स्वाध्याय
नहीं कर चुके हे, वे भी ऋग्वेद के एक मन्त्र का भी यथार्थ अर्थ नहीं
समझ पाते। मूल ऋग्वेद-संहिता अलग प्रकाशित है। जो पाठक चाहेंगे,
वे उसे लेकर देख सकेंगे । भाषानुवाद के साथ मन्त्रों का प्रकाशन इस
लिए भी नहीं किया गया कि वर्तमान ग्रन्थ का पू अधिक हो जाता
और साधारण पाठक उसे खरीदने में असमर्थ डो रहते ।
ऋगवेद में १० मण्डल, १०१७ सूक्त और १०४६७ मन्त्र हें। प्रत्येक
मण्डल में कितने ही सूक्त और बि क्त में कितने ही मन्त्र हें। किसी
सी मन्त्र का उल्लेख या उद्धरण समय मण्डल, सूक्त और मन्त्र
की संख्या लिखने की परिपाटी है । परन्तु यहाँ और विषय-सूची में पाठकों
के सुभीते के लिए इस “हिन्दी ऋग्वेद” के पृष्ठों और मन्त्रों की ही
संख्याएँ दी गई हैं। इस क्रम से मन्त्र देख छेन पर पाठक सरलता से
मण्डल, सुक्त और मन्त्र खोजकर विकाछ सकेंगे ।
ऋग्वेद का निमोण-काल
ईसाइयों की धर्मे-पुस्तक बाइबल के अनुसार मनुष्य-जाति का
इतिहास अधिक से अधिक ८००० वर्षो का हे । इसी के भीतर पाइचात्य
वेदाध्यायियों को सव कुछ घटाचा था। इसलिए अधिकांश पाइचात्य
ओर उनके एतद्देशीय अनुयायी ऋग्वेद का विर्माण-समय ३५०० से
४००० वर्ष तक मानते ह्।
कल्पसूत्रों के विवाह-प्रकरण में “ध्रुव इव स्थिरा भव” वाक्य आता
है। इस पर जर्मन ज्योतिषी जैकोबी ने लिखा है कि पहले भुव (तारा)
अधिक चमकीला और स्थिर था। यह स्थिति आज से ४७०० वर्ष पहले
थी। इसलिए कल्पसूत्रों के बने ४७०० वर्ष हुए। ग्रहों और नक्षत्रों
की आकाशीय स्थिति के आधार पर जैकोबी ने ऋग्वेद का रचनचा-काछ
६५०० वर्षो से भी अधिक सिद्ध किया हे।
सिकन्दर के समय ग्रीक या यूनानी विद्वानों ने जो यहाँ की वंशावली
संगृहीत की थी, उसके अनुसार चन्द्रगृप्त तक १५४ राजवंश ६४५७
वर्षा तक भारत में राज्य कर चुके थे। इन सारे राजवंशों से बहुत पहले
ऋग्वेद बन चुका था। इस तरह ऋग्वेद का रचना-काल ८००० वर्षो का
कहा गया है।
( १५ )
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने विदेशियों का अन्धानुकरण न्
करके स्वयं वेद का काळान्वेषण किया। उनके मत से ऋग्वेद के ऐतरेय
और यजुर्वेद के शतपथ नामक ब्राह्माण-ग्रन्थों के समय कृत्तिका नक्षत्र से
नक्षत्रों को गणना होती थी। उन दिनों कृत्तिका नक्षत्र में ही दिन-रात
बराबर ( 6702] >4णं705) होते थे। आजकल अश्विनी से नक्षत्र-
गणना होती हैं और २१ माचे तथा २३ सितम्बर को दिन-रात बराबर
होते हैं। खगोळ और ज्यौतिष के सिद्धान्तानुसार यह परिवर्तन आज
से ४५०० वर्ष पूर्व हुआ। इसलिए ४५०० वर्ष पहले ब्राहाण-ग्रन्थ बने ।
मन्त्र-संहिताओ के समय नक्षत्रों की गणना मृगशिरा से होती थी और
मृगश्षिरा में वसन्त-सम्पात होता था। खगोल और ज्योतिष के अनुसार
आज से ६५०० वर्ष पहले यह स्थिति थी। लोकमान्य के मत से सारे
मन्त्र एक साथ नहीं बने। ऋषियों और उनके वंशधरो ने समय-समय
पर, हजारों वर्षो में, मन्त्र बनायो । इस तरह कुछ ऋचाएंँ दस हजार
वर्षों की हें; कुछ साढ़े आठ हजार वर्षों की और कुछ सात साढ़े सात
हजार वर्षो की हँ। सभी प्राचीनतम ऋचाएँ (मन्त्र) ऋग्वेद की ही हे।
नारायण भवानराव पावगी ने भूगर्भशास्त्र के प्रमाणों के आधार
पर ऋग्वेद का निर्माण-काल ९००० वर्षों का प्रमाणित किया है।
डा० सम्पूर्णानन्द ने “आयों का आदि देश” नाम का ग्रन्थ लिखा
है। जहाँ पाइ्चात्त्यों ने आयौँ का आदि निवास एशिया माइनर और
लो० तिलक ने उत्तरीय धूव-प्रदेश प्रमाणित किया हैँ, वहाँ सम्पुर्णानन्दजी
ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों के अन्तःसाक्ष्य से सप्त सिन्धव' सिद्ध किया
है। उन दिनों इसके उत्तर, दक्षिण और पूर्व में समुद्र थे। उन दिनों
जहाँ यह भू-खण्ड था, वहाँ आजकल कश्मीर की उपत्यका, राजपुताना
और उत्तर प्रदेश अवस्थित हँ । उन दिनों समुद्र में से हिमालय ऊपर
उठ रहा था, पृथ्वी में बराबर प्रकम्प आते रहते थे और पर्वत चंचल
थे। इस स्थिति का वर्णन आर्यों ने इस मन्त्र (पृ० ३०५. म० २) में
किया हुँ--'मनुष्यो, जिन्होंने व्यथित (कम्पित) पृथ्वी को दृढ़ किया हैं.
जिन्होंने प्रकुपित (चंचल) पतों को नियमित (शान्त) किया है और
जिन्होंने शुछोक को निस्तब्ध किया है, वे ही इन्द्र हे।'
भूगर्भ-शास्त्रियों के मत से यह अस्थिर अवस्था २५ हजार वर्ष से
लेकर ५० हजार वर्ष के बीच की है । इस अवस्था को थार्यों ने अपनी
आँखों देखा था। इससे विदित होता है कि कुछ मन्त्र कम से कम २५
हजार वर्ष ही सु हैं। यही नहीं, ऐसे अनेक मन्त्र हें, जो भूगो फळ
भूगभ कोर के विषयों का ऐसा विवरण देते हैं, जैसा केवल
( १६ )
प्रत्यक्षदर्शी ही दे सकता है। ऐसा ही विवरण एक मन्त्र (१३४२.१३)
में है। इससे ज्ञात होता है कि उन दिनों सिंह राशि में युये की उत्तरायण
गति का आरम्भ होता था। इन दिनों मकर राशि में होता हें, दा जो चार
महीने पीछे आती है। आज से १८ हजार वर्ष पहले मन्त्रोल्लिखित दशा
थी। ऋग्वेद में ऐसे अनेकानेक मन्त्र हे, जिनसे सिद्ध होता हे कि ऋग्वेद
का निर्माण-काल १८ हजार वर्ष से लेकर ५० हजार वर्ष के बीच का
हैँ । यह बात अवश्य है कि सभी मन्त्र इतने प्राचीन नहीं हें ।
ऋतचपवेद के एक मन्त्र ( १४२९.५ ) में पूर्व और पर्चिम--दो समुद्रों
का उल्लेख है। दो मन्त्रों (११०४.६ और १२८५.२) में चार समुद्रो
का उल्लेख है। ये चारों समुद्र उपरि लिखित आर्थ-निवास की चारों
दिशाओं में थे। ४०१.२ से विदित होता हे कि विपाश (व्यास) और
शुतुद्री (सतलज) नदियाँ समुद्र में गिरती थीं। यह दक्षिणी समुद्र था।
‘ Imperial Gazetteer of India” (प्रथम भाग) से मालूम होता
है कि भूगर्भ-शास्त्रियों ने इसका नाम “राजपुताना समुद्र' रखा था । यह
अरबली पर्वत के दक्षिण और पूर्वं भागों तक फैला था। आज भी राज-
पूताना के गर्भ में खारे जल की झीळें (साँभर झील आदि) और नमक
की तहें यह बात बताती हें कि किसी समय राजपुताना समुद्र की लहरों
से प्लावित होता था । पश्चिमी समुद्र तो अब तक है ही। पुर्वी समुद्र
पंजाब से पूर्व गांगेय प्रदेश था।
उत्तरी समुद्र कहाँ था ? “Encyclopedia Britanica” (प्रथम
भाग) से जाना जाता है कि बळूख और फारस के उत्तर एशिया में एक
विशाळ समुद्र था, जिसका नाम भूगर्भशास्त्रियों ने 'एशियाई मेडीटरेनियन'
(एशियाई भूमध्य सागर) रखा था। उत्तर में इसका सम्बन्ध आर्क्टिक
महासागर से था। इसके पास ही यूरोपीय भूमध्यसागर था। एदिया-
वाले का तळ ऊंचा था और यूरोपवाले का नीचा। जब पृथ्वी के
परिवर्त्तनों ने वासफरस का मागे बना दिया, तब एशियाई समुद्र का जल
यूरोपीय समुद्र में पहुँच गया और एशियाई समुद्र विनष्ट हो गया । भूगभे-
वेत्ताओं के मत से अब इसके कुछ अंश झीलों के रूप में सूखकर रह गये
हे, जिन्हें इन दिनों कृष्णह्वद (8140: 569), काञ्यपज्लद् (C25-
pean 564) , अरालह्लद् (564 0£ 4191) और बलकाञ हद् (Lae
BalkaSh) कहा जाता है। ये ही उत्तरी समुद्र थे। इन चारों समन्रों
में घूम-तूमकर आयं लोग व्यापार किया करते थे (७८.२) | एच० जी»
वेल्स और भूगर्भ-विद्या के विद्वानों के मत से इन चारों समद्र | का अस्तित्व
ie]
पचास हजार वर्ष से लेकर पचहत्तर हजार वर्ष के भीतर था। इस प्रमाण
( १७ )
सै तो ऋग्वेद के मन्त्री का निर्माण-काल' पचहत्तर हजार वर्ष तक जा
पहुँचता हैँ। यह मत डा० शवदिदाशइन्द्र दास का है।
वेद के प्रतिपाद्य, उपदेश, संस्कृति, अपूर्वता आदि पर विचार न
कर पाइचात्त्यों ने काळ-निर्णय पर ही अविक माथापच्ची की हे।
परन्तु भूगर्भेशास्त्रियों से समथित अन्यान्य प्रमाणों को देखकर जमन
वेदाध्यायी इलेगन ने लिखा हें कि वेद संसार में सबसे प्राचीन
ग्रन्थ हे। इनका समय नहीं निश्चित किया जा सकता। इनकी भाषा
भारतीयों के लिए भी उतनी ही कठिन हें, जितनी विदेशियों के लिए ।'
दूसरे जर्मन वेद-विद्यार्थी वेबर ने लिखा है--'वेदों का समय निश्चित
नहीं किया जा सकता। ये उस तिथि के बने हुए हे, जहाँ तक पहुँचने
के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं ह । वर्तमान प्रसाण-राशि
हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर पर पहुँचाने में असमर्थ हे ।'
यह उन बेवर साहब की राय हे, जिन्होंने वेदाध्ययन में अपना
सारा जीवन खपा डाला था।
परन्तु जो वेद-नित्यतावादी हे, उनके लिए तो काळ-निणंय का
प्रश्न ही नहीं हे।
ऋग्वेद-संहिता
छन्दो से युक्त मन्त्रों को ऋक् (ऋचा) कहा जाता है । वेद
शब्द का अर्थ ज्ञान है। ऋचाओं का जो ज्ञान है, उसे ऋग्वेद कहते
है। ऋचा-विषयक ज्ञान चराचर-व्यापी हे ।
गुप्त कथन का नाम मन्त्र है। देवादि-स्तुति में प्रयुक्त अर्थ का
स्मरण करानेवाले वाक्य को भी मन्त्र कहा जाता हें । जैसे औषध
में रोग को दूर कर नीरोग करने की स्वाभाविक शक्ति होती हूं, वैसे
ही मन्त्र में सारी विघ्न-बाधाओ को दूर कर दिव्य शक्ति और
स्फूति पैदा करने की स्वाभाविक शक्ति है । जैसे चुम्बक में लौहा-
कर्षण की स्वाभाविक शक्ति है, वैसे ही मन्त्र मै फल देने की, स्वर्ग
मोक्ष आदि देने की और मनःकामना पूर्ण करने की स्वाभाविक
शक्ति है। मन्त्र की यह अद्भुत शक्ति संसार में प्रति दिन देखी
जाती हैँ ।
मन्त्रों का उपयुक्त प्रयोग और व्यवहार होने पर जगत में ऐर
प्रकम्प होते हे, जिनसे प्रसुप्त-अव्यक्त शपितयों में से कोई एक विशे"
शक्ति जागरित और अभिव्यक्त होती है। उस दाविति को लोग
मन््-देवता कहते हे। जहाँ यह कहा गया हो कि अमुक मन्त्रों के
( १८ )
था सूवत के देवता इन्द्र हैं, वहाँ यह समझना चाहिए कि उन
भन्त्रों या सूक्त के यथार्थ प्रयोग से ऐन्द्री शक्ति जागरित होती हूँ और
मन्त्र अपना फल देते हेँ। इन्हीं मन्त्रों के समुदाय या सग्रह का नाम
संहिता है। “ऋग्वेद-संहिता” का संक्षिप्त आशय यही हैं।
संस्कृत-साहित्य के अनेक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ऋग्वेद की
२१ संहिताएँ या शाखाएं हें। परन्तु इन दिनों केवळ एक “शाकल-
` संहिता” ही उपलब्ध हे। देश-विदेश में यही छपी हे और इसी का अनु-
वाद विविध भाषाओं में हुआ है। चारों वेदों की ११३१ शाखाओं मं
से इस समय केवल ये साढे ग्यारह संहिताएं ही प्राप्त और प्रकाशित
हे-ऋग्वेद की शाकल, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय, मैत्रायणी और
कठ, शुवल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और कण्व, सामवेद की कीथुम,
राणायणी और जैमिनीय तथा अथर्ववेद की शोनक और पैप्पलाद ।
कुष्ण यजुर्वेद की कठ-कपिष्ठल-संहिता भी आधी मिली हूँ और प्रका-
शित भी हो चुकी हुं । यह् तो सर्व-विदित है कि यजुर्वेद के कृष्ण और
शुक्ल नाम के दो भेद हें। इन समस्त संहिताओं में शाकरु-संहिता
सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण है। इसी संहिता का हिन्दी-अनूवाद “हिन्दी
ऋग्वेद” है। यह ग्रन्थ वैदिक वाङमय का मुकुट-मणि हे।
इसी शाकल-संहिता के मन्त्रों से सामवेद की कोथुम-संहिता भरी
पड़ी ह--केवल ७५ मन्त्र कौथुम के अपने हें। अथर्ववेद की शौनक-
संहिता में शाकल के १२०० मन्त्र पाये जाते हे । शौनक के २० वें
काण्ड के सारे मन्त्र (कुन्तापसूक्त और दो अन्य मन्त्रों को छोड़ कर)
शाकल के हं । कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय-संहिता में भी शाकल के
बहुत मन्त्र ह्ं। इसीलिए कहा जाता है कि 'शाकल-संहिता के अन्त-
गेत प्राय: अन्य तीनों वेद हें और इसके सविध स्वाध्याय से प्रायः
चारों वेदों का अध्ययन हो जाता हे।' बहुत दिनों से यह परिपाटी चली
आ रही हे कि केवल ऋग्वेद कह देने से "ऋग्वेदीय शाकरू-सं हिता”
का बोध कर लिया जाता है। ऋग्वेद की कोई अन्य संहिता मिलती
भी नहीं। ऋग्वेदीय संहिताओं के नाम तो २१ ही नहीं, विविध
ग्रन्थों में ३४ तक मिलते हें; परन्तु आज तक यह निश्चय नहीं किया
जा सका कि ये नाम संहिताओं के हे या संहिताभाष्यकारों, निरुक्तकारों,
प्रातिशाख्यकर्ताओं , पद-पाठ-कारों अथवा अन्क्रमणीकारों के हें।
इस शाकल-संहिता के दो तरह के विभाग किये गये हुं--(१)
मण्डल, अनुवाक और वर्ग तथा (२) अष्टक, अध्याय और सूक्त ।
सारी संहिता में १० #ण्डल, ८५ अनुवाक, २००८ वर्ग (बार्लखिल्य
( १९ )
कै? द ग को छोड़कर), ८ अष्टक, ६४ अध्याय और १०१७ सूक्त
हुँ। “A के एक मन्त्र (पुष्ठ १४०३. मन्त्र ८) से ज्ञात होता है कि
इसमें सब १५००० मन्त्र हुँ; परन्तु गणना करने पर १०४६७ ही
मन्त्र पाये जाते है। संभव है, वैदिक साहित्य की क की एक
विशाल राशि जसे नष्ट हो गई और वेद-ध्म-द्रोहियों के द्वारा
विनष्ट कर दी गई, उसी तरह मन्त्र भी, कई कारणों से, नष्ट
हो गये।
शौनक ऋषि की 'अनक्रमणी' के अनुसार तो ऋग्वेद में १०५८०॥
मन्त्र, १५३८२६ शब्द और ४३२००० अक्षर हें । औसतन प्रत्येक
सूक्त में १० मन्त्र और प्रत्येक मन्त्र में ५ अक्षर हें। परन्तु मन्त्रों, शब्दों
और अक्षरों की गणना करने पर अनुक्रमणी' की संख्याएं नहीं मिलतीं।
ऋग्वेद में केवल दो चरणवाले १७ और केवल एक चरणवाले
६ मन्त्र हें। स्वर वणो पर ३५८९, कवर्ग पर ४०७, चवर्गे पर १४२,
तवर्ग पर १८३३, पवर्ग पर १३७७, अन्तःस्थ अक्षरों पर १७३३ और
ऊष्म अक्षरों पर १३५६ मन्त्र ह !
श्र्ग्वेद के १० मण्डलों में से द्वितीय मण्डल के ऋषि गृत्समद, तृतीय के
विश्वामित्र , चतुर्थ के वामदेव, पंचम के अत्रि, षष्ठ के भरद्वाज और
सप्तम के वसिष्ठ तथा इन ऋषियों के वंशधर और इनके शिष्य-प्रशिष्य
है। आश्वलायन ने प्रगाथ-परिवार को अष्टम का ऋषि माना है। परन्तु
इड्गुरु-शिष्य ने प्रगाथ को कण्व ही माना है। नवम मण्डल के अनेक
ऋषि हो। आइवलायन के मत से दशम मण्डल के ऋषि 'कषुद्रसूप्क
और 'महासूक्त' हैं। परन्तु यह बात ठीक नहीं | दशम मण्डर के
ऋषि और उनके वंशज अनेकानेक हुँ। प्रथम मंडळ के २३ ऋषि
हें। प्रायः सभी ऋषि ब्राह्मण थे।
ऐतिहासिक कहते हैं कि इन सूचों के ऋषि क्षत्रिय थे--पुष्ठ १२५४
से १२६१. सूक्त ३० से २४ ईल्ष-पुचक कवष, पृ० १३६०. सु० ९१
वैतह्न्य अरुण, पृ० १३३८. सू० ९५ पुरुरवा, १४२५. सू० १३३ पिजवन-
पुत्र सुदास, १४२६. Es ० १३४ युवनाश्व-पुत्र मान्धाता आदि। पृष्ठ
१२८३. सू० ४६ के भालनन्दन वत्सप्रि वैश्य कहे जाते हें और
पू० १४५६. सू० १७५ के ऋषि अर्वृद-पुत्च ऊद्धेग्रावा शुद्र। परन्तु
यह विषय अभी संदिग्ध है। कितु इसमें संदेह रहीं कि इन सूक्तों की
ऋषिकाएँ स्त्रियाँ हे--पु० १२७०-७४. सूक्त ३९ और ४० ब्रह्म-
वादिनी घोषा, २७२. १७९ लोपाम् द्रा, १०४६.८० अत्रिपुत्री अपाला,
५७२.२८ अग्रिगोत्रोतान्ना विशवावारा, १३४१. ८५ मूर्या, १३९५. १०९
( २० )
ब्रह्मवादिनी जुहु, १४४३. १५४ विवस्वान् की पुत्री यमी आदि।
जिस सुक्त का जो ऋषि हं, उसका नाम सूक्त के ऊपर रहता हे
देवता, ऋषि, छन्द ओर (३:३
प्रत्येक सूक्त के ऊपर थे चारों सज्ञाएं लिखी रहती हें। लाघव
के लिये “हिन्दी ऋग्वेद” में तीन दी गई हें! वेदार्थ-ज्ञान के लिए इन
चारों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हें! बहहबता' में लिखा
“अविदित्वा ऋषि छन्दो देवत्वं योगमेव च ।
योऽध्यापयेत् जपेद् वापि पापीयान जायते तु सः॥
अर्थात् ऋषि, छन्द, देवता और विनियोग को जाने विनाजो
मन्त्र पढ़ता वा जपता है, वह पापी हैं।
शौनक की 'अन्क्रमणी' (११) में कहा गया हे--जो इन चारों
का ज्ञान प्राप्त किये विना वेद का अध्ययन, अध्यापन, हवन, यजन,
याजन आदि करते हं, उनका सब कुछ निष्फल हो जाता हे और जो
ऋष्यादि को जानकर अधघ्ययनादि करते हं, उनका सब कछ फळप्रद
` होता हें। ऋष्यादि के ज्ञान के साथ जोवेदार्थ भी जानते हे, उनको
ण फल प्राप्त होता हे।' याज्ञवल्क्य और व्यास ने भी एसा ही
खा हें।
ऋषि के संबंध में पहले लिखा जा चुका हैं। देवों के बारे में
आगं लिखा जायगा।
वेदिक मन्त्र छन्दों में ह। छन्दों का ज्ञान प्राप्त किये विना शद्ध
उच्चारण नहीं हो सकता । “जो मनुष्यों को प्रसन्न करे और यज्ञादि की
'क्षा करे, उसे छन्द कहा जाता ह ।' (निरुक्त, दैवतकाण्ड १.१२)
“ख्य छन्द २१ ह। २४ अक्षर से लेकर १०४ अक्षर तक में ये
छन्द आते ह। छन्दोऽनुक्रमणी' में ऋग्वेद के समस्त छन्दों का क्रमश
ववरण हेँ।
जिस कार्ये के लिए मन्त्र का प्रयोग होता हें, उसे विनियोग कहा
गातो है। मन्त्र में अर्थान्तर और विषयान्तर होने पर भी विनियोग के
रा अन्य काय में उस मन्त्र को विनियक्त किया जा सकता हे।
र्वाचार्यो न ऐसा माना ह । इससे ज्ञात होता है कि मन्त्रों पर शब्दार्थो
से भी अधिक आधिपत्य विनियोग का हें। यही कारण है कि अथर्व-
वेदकी पैप्पलाद-संहिता' के प्रथम मन्त्र “शन्नो देवीरभिष्टये” का
अर्थ दिव्य-जल-परक होने पर भी इसका विनियोग शनि की पूजा में
होता आ रहा हें ॥
( २१ )
यहाँ यह बात भी ध्यान देनं की हँ कि जैसे मन्त्रार्थ के लिए
और मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण के लिए उपर्युक्त चारों विषयों और
ब्राह्म ण-ग्रन्थ, निरुकत, प्रातिशाख्य, कल्पसूत्र, इतिहास. पुराण आदि का
ज्ञान अत्यावश्यक हु, बैसे ही मन्त्र-स्वर का ज्ञान भी नितान्त आव-
श्यक हुं। स्वर में जरा सा व्यतिक्रम होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता हैँ।
स्वर-दोष से मन्त्र बज़ बनकर यजमान को मार डालता हें। स्वर-
दोष से ही वृत्रासुर मारा गया । इन्द्र को मारनं के लिए विश्वरूप ने
यज्ञ किया । मन्त्र में था इन्द्रशत्रवंधेस्व ।” आशय था कि “इन्द्र के
शत्रु, वृत्रासुर की वृद्धि हो; परन्तु स्वर का अशुद्ध उच्चारण होने
के कारण अर्थ निकला--इन्द्र की, जो शत्रु हं. वृद्धि हो! इससे
इन्द्र की विजय हुई और वृत्रासुर की पराजय । फलतः स्वर-ज्ञान भी
अत्यावश्यक हँ। इसका भखर पक्षपाती एक स्वर-मक्तिवादी” संप्र-
दाय ही हे । प्रातिशाख्यों और जयन्त के स्वरांकुश' में स्वरों का विवेचन
ह। स्वर-चिह्ल भी एक तरह के नहीं होते--उच्चारण-शैली भी विभिन्न
प्रकार की होती ह । पदपाठ के ग्रन्थों में अवग्रह तथा उदात्त, अनुदात्त,
स्वरित आदि स्वरों का, संहिताक्रम से, विस्तृत विचार किया गया है।
कई 'पदपाठ' छप चुके हें।
देवतवाद
शक्ति और शक्तिमान् के द्वारा निखिल ब्रह्माण्ड संचरणशील
हँ। इन्हीं को माया और मायावी, पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति
आदि भी कहा जाता #। शिव के विना शक्ति निराधार हो जाती है--
टिक ही नहीं सकती और शक्ति-शन्य शिव शव के समान हें । यही
शक्ति परा देवता कहाती है। ज्यों-ज्यों जगत् का विकास होता है, त्यों-
त्यों यह परा देवता (मूल शक्ति) नाना रूपों को धारण करती जाती
हैं। विश्व में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक आदि जितनी
शक्तियाँ हें, सब इसी देवता के भेद मात्र हें। साधारणतः देवता
असंख्य हें। किन्तु इनमें से कुछ प्रधान शक्तियों या देवताओं को,
यज्ञ-संपादन के लिए, चन लिया गया हैं।
देवतावाद के प्रधान वैदिक ग्रन्थ बृहदवता ” के प्रारंभ में ही
कहा गया हे-
“वेदितव्यं देवत हि मन्त्रे मन्त्र प्रसत्मतः।
दैबतज्ञो हि मन्त्राणां तदर्थमवगच्छति ॥”
( २२ )
अर्थात् प्रयास करके प्रत्येक मन्त्र के देवता का ज्ञान प्राप्त करना
चाहिए; क्योंकि दैवत ज्ञान प्राप्त करनेवाला मनुष्य वेदार्थ और वेद-
रहस्य समझता हे । |
बृहद्देवता” का कहना हं कि मुदे (शव) के भी आँखें रहती हें।
परन्तु बह इसलिए नहीं देख सकता कि उसका चेतनाधिष्ठान
नहीं हुं । जब तक जड़ (नेत्र) का अधिष्ठाता चेतन रहता है, तब
तक वह भली भाँति देखता है। जड़ पदार्थ में स्वय कर्तव्य-शक्ति
नहीं हैँ; इसलिए उसका अधिष्ठाता चेतन माना गया है। इस तरह
अनेक जड़ पदार्थों के अनेक अधिष्ठाता चेतन (देवता) माने गये हे।
परन्तु ममुदाय-रूप से सब एक ही हें। एक ही अग्नि के अनेक
स्फुलिगों की तरह एक ही परमात्मा की सब विभतियाँ हे---“एको
देवः सर्वभूतेष गूढ:।” महाशक्ति की जो अनंक शक्तियां विविध
रूपों में प्रस्फुटित हे, उनके अनेक नाम हें; इसलिए अनेक नामों से
स्तुतियाँ की गई हें । वस्तुतस्तु सभी नामों से परमात्मा की ही' पुकार
लगाई गई हे---तिस्मात सर्वेरपि परमेश्वर एवं हयते।” (सायणाचार्य )
निरुक्तकार यास्क का मत हँ--“देवो दानाद् द्योतनाद् दीपनाद्वा।”
(निरुक्त, दैवतकाण्ड १.५) अर्थात् 'लोकों में म्रमण करनेवाले,
प्रकाशित होनेवाले वा भोज्य आदि सारे पदार्थ देनेवाले को देवता वा
देव कहते हें। ये तीन प्रकार के हं--पृथिवीस्थानीय अग्नि, अन्तरिक्ष-
स्थानीय वायु वा इन्द्र और द्वृस्थानीय सूर्य । अनेक नामों से इन्हीं की
स्तुतियाँ की गई हैं। जिस सूक्त के ऊपर जिस देवता का नाम रहता
हैं, उसका वही प्रतिपादनीय और स्तबनीय हे। जहाँ औषधि, जल,
शाखा आदि जड़ पदार्थो को देवतावत् माना गया है वहाँ ओषधि
आदि वर्णनीय हे और उनके अधिष्ठाता देवता स्तवनीय हँ । आर्य
लोग प्रत्येक जड़ पदार्थ का एक अधिष्ठाता देवता मानते थे; इसीलिए
उन्होने जड़ की स्तुति भी चेतन की तरह की है।
मीसांसाकार का मत ह कि जिस अन्त्र में जिस देवता का वर्णन
है, उस मन्त्र में उसी देवताकी-सी दिव्य शक्ति सदा से निहित हुँ।
अतएव देवत्व-शक्ति मन्त्र में ही है।
ऋग्वेद ( २१४.११) से ज्ञात होता है कि पृथिवी-स्थानीय
११, अन्तरिक्ष-स्थानीय ११ और स्थानीय ११--सब तैत्मैस देवता हे।
९६५.२ और ११७३.४ आदि में भी ३३ देवों का उल्लेख है।
तैत्तिरीय-संहिता (१.४,१०.१) में भी यही बात है। शतपथ-त्राहाण
(४.५.७.२) में ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, आकाश और पृथिवी
( २३ )
“ये ३३ देवता हें। ऐतरेय-ब्राह्मण (२.२८) में ११ प्रयाजदेव, ११
अनुयाजदेव और ११ उपयाजदेव--ये ३३ देवता हैं। परन्तु ऋग्वेद
के दो मन्त्रों (३७१.९ और १२९२.६) में ३३३९ देवताओं का उल्लेख
हू । सायणाचार्य ने लिखा है कि देवता तो ३३ ही हें; परन्तु देवों की
विशाल महिमा दिखाने के लिए ३३३९ देवों का उल्लेख हुँ?
निरुक्तकार का कहना है कि 'तत्तक्कर्मानुसार विभिन्न नामों से
पुकारे जाने पर भी देव एक हें। मतलब यह कि नियन्ता एक
है और इसी मूल सत्ता के विकास सारे देव हैं। इसी बात को
निरुक्तकार ने यो लिखा हे--“तासां महाभाग्यात् एकॅकस्यापि बहूनि
नामधेयानि भवन्ति।” (निरुक्त, देवतकाण्ड १.५) यास्क ने उदाहरण
दिया है--“नरराष्ट्रमिव” अर्थात् व्यकिति-रूप से भिन्न होते हुए भी
जैसे असंख्य मनुष्य राष्ट्र-झूप से एक ही हें, वैसे ही विविध रूपों में
प्रकट होने पर भौ देवों में एक ही परमात्मा ओत-प्रोत हें। इस तरह
भासमान भेद में अभेद और भासभान अचेकत्व में वास्तविक एकता
हे। इसीलिए निरुक्तकार ने लिखा ह--“एकस्यात्मनोऽन्ये देवा: प्रत्य-
ङ्गानि भवन्ति।” (निरुक्त, दैवतकाण्ड ७ म अध्याय ) अर्थात् 'एक ही
आत्मा (परमात्मा) के सब देवता विभिन्न भाग हैँ।' इन्हीं परमात्मा
को याज्ञिकों और ब्राह्मण-प्रन्थों ने प्रजापति' कहा है। सभी देवता
इन्हीं प्रजापति के विशिष्ट अंग माने गये हें।
ऋग्वेद, पृष्ठ ४३४ के ५५ वें मुक्त में २२ मन्त्र हे और सबके
अन्त में महहदेवानामसुरत्वमेकम्” वाक्य आया हे, जिसका अर्थ हैँ--
देवों का महान् बल एक ही है।' तात्पर्य यह है कि देवों की शक्ति
एक ही हँ--दो नहीं। महाशक्ति का विकास होने के कारण देवों
की शक्ति पृथक् नहीं हे --स्वतन्त्र नहीं हे।
ऋषियों ने जिन प्राकृत शक्तियों की स्तुति वा प्रशंसा की हे,
उनके स्थूल रूप की नहीं की हूं, प्रत्यृत उनकी शासिका वा अधिष्ठात्री
चेतनशक्ति की की हे। इस चेतनशक्ति को वे परमात्मा से पृथक्
नहीं सानते थे--परमात्मरूप ही मानते थे। उन्होंने ऋग्वेद के प्रथम
मन्त्र में ही अग्नि की स्तुति की हे; परन्तु अग्नि को परमात्मा से
स्वतन्त्र मानकर नहीं । बे स्थूल अग्नि के रूप के ज्ञाता होते हुए भी
सूक्ष्म अग्नि--परमात्म-शक्तिन्रूप के स्तोता और प्रशंसक थ। बे
मरणशील अग्नि में व्याप्त अमरता के उपासक थे--“अपश्यमहं महतो
महित्विममत्थस्य मर्त्यासु विक्षु ।” (पृष्ठ १३३५. मन्त्र १ ) अर्थात्
मरणझीळ प्रजा में मैंने अमर अग्नि को महिमा को देखा हे।' इसी तरह
( २४ )
वे इन्द्र में भी परमात्म-शवित को ही देखते थे। कहा गया ह--'जो
इन्द्र सृष्टि-कर्ताओं के भी सृष्टिकर्ता हैं, में उनकी स्तुति करता हूँ
(१४२१.७) ।' जितने देवता हु, सबको वे उसी तरह परमात्मरूप
समझते थे, जिस तरह एक ही सूत्र में माळा की सारी मनियाँ
ओत-प्रोत रहती हे और केवळ माळा समझी जाती हें।
वस्तुतः देवता या दिव्य शाक्तियाँ चारों तरफ हें--बाहर, भीतर,
सवैत्र । ऋषि लोग सब में--वृक्ष, शाखा, प्ण आदि में देव ही देव
देखते थे। अनुमान किया जा सकता है कि ऋषि लोग जब अपने को
चारों ओर से देवों से ही घिरा हुआ अनुभव करते होंगे, तब उनका
समाज कैसा आनन्दमय, स्वर्णमय और सुगन्धमय रहा होगा! क्षण
भर के लिए भी यदि आप अपने को देवों से घिरा हुआ अनुभव करें
तो आपके सारे दुर्गुण भाग जायंगे और आप सद्गृणों की खान हो
रहेंगे। यदि आप इन देवों में ही बिचरें, सोवें, जागें, तो आपका जीवन
दिव्य हो जायगा, आपके सारे कार्य सिद्ध हो जायेंगे और आपका संसार
देवों का नगर बन जायगा।
जो इस रहस्य को नहीं समझते, वे वेद के ऊपर तरह तरह के
सन्देह-जाल बिछाते हें। कहते हें--'वेद में औषधियाँ वैद्यो से बातें
करती हें, द्यावापृथिवी ्ोलती हें, जल और वायू, चमस और सुवा--
सबके सब चलते, वर देते या धन देते हें। जड़ पदार्थ ये सब कार्य कैसे
करेंगे ? '
वेद प्रधानतः आध्यात्मिक ग्रन्थ हँ; उसमें चेतनवाद की प्रधानता है।
वैदिक मन्त्रों के साथ विहार करनेवाले ऋषि चेतन में रमण करते
रहते ह, चेतनगत-प्राण हें! ऐसे पुरुष सभी पदार्थो को चेतनमय देखते
हबे चेतन के साथ ही खाते-पीते, सोते-जागते और बोलते-बतराते
हें। वे कुछ बनावट नहीं करते, वस्तुतः ऐसा ही अनुभव करते हैँ। अभी
भो यहाँ के या किसी भी देश के महात्मा ऐसा ही अनभव करते
और जड़ पदार्थो से बातें करते हें। जो 'आत्मवत्सर्वभृतेषु” को जीवन
में ढाल लेते हैं, वे पशु, पक्षी, कंकण और ठीकरे से भी बातें करते
हे। भला जो वैद्य अपनी औषधियों से बातें करना नहीं जानता, वह
नया भेषज का ममं जानेगा? जो वीर अपनी तलवार से बातें नहीं
करता, वह भी कोई वीर है? सचाई तो यह हे कि अपने में चेतन
का जितना ही अधिक विकास होगा, मनुष्य उतना ही जड वस्तुओं से
चेतनवत् व्यवहार करेगा । इसके विपरीत जिसमें चेतन-तत्त्व का विकास
नहीं हुआ हैं, जिसके मन, मस्तिष्क और प्राण जड़ानुगत हें, वह तो मनुष्य
( २५ )
को भी जड़ समझेगा और जड़ की ही तरह उस प' मनमान अत्याचार
करेगा । महात्माओ और जडवादी मनष्यों के थ य प्रतिदिन
प्रत्यक्ष देखे-सुने जाते हें। फलतः वेद-मन्त्रों का चेतनानृगत होना उनकी
अतयच्च अध्यात्स-भसिका हे।
वैदिक ऋषियों की इष्टि विशाल और व्यापक थी। उनकी माता
पृथिवी थी, उनका पिता दो था (१२२ .४) । वे प्रत्येक अबसर पर
सारे भवनों का स्मरण करते थे । वे अपन व्यष्टि को समष्टि से संवलित
रखते थे--साढ़े पाँच 'फीट' में ही अपन को केद नहीं रखते थे। उनके
मन विशाल थे, उनके वचन उदार थे, उनके कमें पिण्ड-ब्रह्माण्ड-
व्यापी थे। वे अपने में विश्व को देखते थे और विश्व में अपन को देखते
थे। ऐसे दिव्य पुरुषों का सर्वेत्र चेतन और देवता देखना स्वाभाविक
ही हे।
स्वार्थी, अहंकारी और विलासी व्यवितयों से देवता दूर रहते
हेँ। “तपस्वी को छोडकर देवता दूसरे के मित्र नहीं होते! (५१०. ११) ।
कुकर्म करनेवाले के भी देवता नहीं हँ (८१० .९)। देवों के गुप्तचर
दिन-रात विचरण करते हे--उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होतीं'
(१२२२.८) । देवों के गण सव देखते हे (१२२१ .२) | तात्पर्य
यह है कि जो संयमी तपः-पूत और सदाचारी हे. उनको ही दैबत
ज्ञान होता है, विलासी और चरित्र-स्रष्ट को नहीं। कौन कसा हे, यह
देवता जानते छ; क्योंकि उनके गप्तचर या जासुस सारा संसार घूम-
घूसकर सब कुछ देखते रहते ह।
~, ® ड्म
दर्ष-शेछु इन्द्र
वैदिक संहिताओं में सर्वाधिक मन्म॑ इन्द्र के संबंध में ह। सब मिला
कर प्रायः साढ़े तीन हजार मन्त्र इन्द्र के संबंध में हे। इन मन्त्रों से
इन्द्र का यथार्थ स्वरूप समझ में आ जाता ह।
इन्द्रदेव आर्य-साहित्य और आर्य-देश में ही प्रख्यात नहीं ह,
अन्य साहित्य और अन्य देशों में भी यथंष्ट विख्यात ह। रमानाथ
सरस्वती का मत हें कि वृत्रासुर असीरिया, सीरिया या शाम का
प्रसिद्ध दळपति था।' पारसियो की 'अवस्ता' से ज्ञात होता हे कि
बेबीलोन नगर को आर्य-शान्य करने के लिए बृत्र ने अद्विशूर नाम की
देवी की उपासना की; परन्तु प्रयत्न मं असफल रहा । अन्त को आर्य
इन्द्र ने वृत्र को मार डाळा। बुत्र आर्यो का घोर शत्रु था; इसलिए
उसके वध पर आर्यो न परमानन्द का अनुभव किया। फारस के राजा
( २६ )
साइरस ने जिस तरह 'टाइग्रीस' नदी का प्रबाह रोककर बेबीलोन
को जीता था, उसी तरह वृत्र ने भी आर्यभूमि को जीतन की ठानी थी।
यह अत्यंत प्राचीन कथा हे; इसलिए तथ्य-निर्षय कठिन हैँ। तो भी
“ग्वेद” और 'अवस्ता' से इतना तो विदित ही हो जाता है कि 'इन्द्र-वृत्र-
युद्ध हुआ था। ५
ग्रीस या यूनान के जियस' और 'अपोलो' देवां, के कथाएँ भी
इन्द्र की कथा के समान हें। मैक्समूछर का मत हू कि वृनन्युद्ध
की नकल पर ही होमर के 'इलियड' ग्रन्थ में ट्राय-युद्ध को कल्पना
है। वेद का पणिगण' ट्राय-युद्ध का पैरिस' हैं। इसी तरह इन्द्र-
वृत्र-युद्ध के ऊपर अनेक प्राचीन जातियों में अनेक कल्पना-कथाएँ गढ़
डाली गई ह।
इन्द्र-वृत्र-युद्ध की बातें ऋग्वेद के अनकानक भत्रों में हें। संस्कृत
के अनेक ग्रंथों में भी ये बातें हें। प्राचीन परम्परा भी एसी ही हूँ । परन्तु
निरुक्तकार यास्क कहते हे कि कहीं इन्द्र का वृत्रासुर से संग्राम हुआ
होगा, इसे हम अस्वीकार नहीं करते; परन्तु वेद में इन्द्र-वृत्रन्युद्ध के
बहाने वैज्ञानिक वर्षा का वर्णन हे। तात्पर्य यह ह कि यहाँ अप्रस्तुत
प्रशंसा (अन्योक्ति) अलंकार हु। परन्तु सोलह आने में से पन्द्रह
आने वेदाध्यायी सदा से, इन्द्र-वृत्र-युद्ध को वास्तविक युद्ध मानते
हैं। यास्क के पहले वेदार्थ-ज्ञाता वैदिक संप्रदायों की परम्परा अक्षुण्ण
थी; इसलिए वेदार्थ का ताच्विक ज्ञान प्राप्त करने में सुगमता थी।
यास्क के समय यह परपम्परा टूट गई थी; इसलिए वेदार्थ-रहस्य समझने
में कठिनता और जटिलता उत्पन्न हो गयी। फलतः इस प्रसंग में
अधिकांश वेद-टीकाकार यास्क से सहमत नहीं हें।
ऋग्वेद के एक स्थल (५०० .३) पर कहा गया हैं कि इन्द्र
ने अनेक सहस्र सेनाओं का बध किया/' अन्यत्र लिखा हे--
'इन्द्र ने तीस हजार राक्षसों को मार डाला (५०४ .२१)। ईन्द्र ने
बज्न द्वारा शम्बरासुर के ९९ वगरों को, एक काळ में ही, विनष्ट
किया था. (५७५.६) । इन्द्र चे शरत् वामक असुर की सात धुरियों
को विध्वस्त किया (६९६ .१०) । इसीलिए इन्द्र को पुरन्दर कहा
जाता हैं। इन्द्र तीन प्रकार (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधि-
भौतिक ? ) से मूर्तियां धारण करके प्रकट होते हें। वे माया द्वारा
अनेक रूप धारण कर यजमानों के पास आते हें। इन्द्र के रथ में
हजार घोड़े जोते जाते ह” (७३३ .१८)। सेवक सुदास राजा के लिए
६६०६६ जन मारे गये थे। ये सब कार्य इन्द्र को शुरता के सूचक
( २७ )
हो! (७९४ .१४)। इन्द्र ने शम्बरासुर की ९९ नगरियों को छिन्न-
भिन्न कर डाला और अपन निवास के लिए १०० वो नगरी को अधि-
कृत कर लिया' (७९७ .५) । ईन्द्र ने कॉपते हुए वृत्रासुर के सिर को
सौ धारोंवाले वज्र से छेद डाला' (९०८ .६)। कदाचित् तभी से इन्द्र
का एक नाम भाखण्डरू (शत्र-खण्डयिता) पड़ा।
आगे के कुछ और मन्त्र देखिए। कहा गया हँ---यदि सौ झुलोक
हो जाये, तो भी इन्द्र, तुम्हारा परिमाण नहीं कर सकते; यदि सौ
पृथिवियाँ हो जायें, तो भी तुम्हें माप नहीं सकतीं; यदि सौ सूर्य हो
जायें, तो भी तुम्हें प्रकाशित नहीं कर सकते ¦ इस लोक में जो कुछ
उत्पन्न हुआ हे, वह सब और द्यावापृथियी तुम्हारी सीसा नहीं कर
सकते' (१०२२.५)। इस मन्य में ऋषि ने इन्द्र में भगवान् की
दिव्य विभूति का दर्शन किया हे। इन्द्र, तुम्हारा एकमात्र बाण सौ
अग्र भागों से युक्त और सहर पात्रों से संयुक्त हैं! (१०३४ .७)।
'इन्द्र मे २१ पर्वेत-तटों को तोड़ा था । इन्द्र ने जो कार्य किया, उसे
मनुष्य वा देवता नहीं कर सकते' (१०५५ .२) । इन्द्र चे सोमरस का
यज्ञ करके अपनी देह को पुष्ट किया है। इन्द्र, तुम मनुष्यों के समान
स्पष्ट वाक्य का उच्चारण करते हो' (१२५२.१२) । इन्द्र ने कहा---
द्यावापृथिवी मेरे एक पाइवं के समान भी नहीं हँ। भेरी महिमा
स्वगं और पृथिवी को राँघती हें। भेरी इतनी शक्ति ह कि कहो तो
में इस पृथिवी को दूसरे स्थान पर ले जाकर रख दूँ। मेने अनेक बार
सोम-पान किया हं । 'इस पृथिवी को में जळा सकता हूँ। जिस स्थान
को कहो, उसे में विध्वस्त कर दूँ।' भेरा एक पाइवं पृथिवी पर है
थौर एक पाइवे आकाश में है । में महान से भी महान् हुँ । (१४१०.७-
१२) अनेक बार यञ्चपुत सोमपान करके और ईश्वरीय शक्ति से अमोघ-
वीयेंशालो होकर इन्द्र न एसे उद्गार प्रकट किये हें। इन्द्र ने दधीचि
ऋषि की हड्डियों से वृत्र आदि असुरों को ८१० बार माराथा' (११६.
१३) ) इन्द्र ने आकाश में द्युलोक को स्थिर किया हुँ, द्यो, पृथिवी और
अन्तरिक्ष को तेज से पूर्ण किया हे और विस्तृत पृथिवी को धारण कर
उसे प्रसिद्ध किया है” (३१२.२) । ईन्द्र, तुम्हारे गर्जन करने पर स्थावर
और जंगम काँप जाते हैं, त्वष्टा भी काँपते हूं” (११० -१४) । “इन्द्र,
गनुष्यों के लिए युद्ध करते है! (७७ .५)। ५.९ में इन्द्र सौ यज्ञों के
कर्ता कहे गये हं। ७४ .९ में कहा गया हैं कि 'सुश्रवा राजा के साथ
प्रीस राजा और ६००९९ सैनिक इन्द्र से लड्न के लिए आये थे।
नर ने सबको पराजित कर दिया। एक अन्य मन्त्र (३१७.६)
( २८ )
में कहा गया हे-- ईन्द्र, अस्सी, नब्बे अथबा सी अश्बों के द्वारा
ढोये जाकर हमारे सामने आओ। ३४३ .६ हे इन्द्र के 'उच्चे:श्रवा'
घोड़े का उल्लेख हैं। १०९ .८ में उल्लेख हे कि न्द्र के वज्य नब्बे
नदियों के ऊपर विस्तृत हुए थे। १०९.९ में कहा गया हें कि
एक बार १००० मनुष्यों ने एक साथ इन्द्र की पूजा की थी।
इन उद्धरणों से ज्ञात होता हें कि आय ऋषि इन्द्र में परमात्मा की भव्य
विभूति देखते थे साथ ही आये लोग इन्द्र को देव-श्रष्ण और महान्
शूर-वीर भी समझते थे! अघ्यात्म-दष्टि से इन्द्र परमात्मा थ अधिदेब-
दृष्टि से श्रेष्ठ देव थे और अधिभत-दष्टि से महान योद्धा थे। इन्द्रन॑वषयक
सारे विवरण पढ्ने से रे बातें माळूम पड़ती हैं। ब्राह्मणों और उपनिषदों में
इन्द्र को अद्वितीय आत्मा, जीवात्मा प्राण आदि कहा गया है । अनेक
देवों के साथ भी इन्द्र का वर्णन हैँ । बैदिक साहित्य में इन्द्र-तत्त्व एक
विशिष्ट प्रतिपाद्य हे।
अग्निदेव
ऐतिहासिकों के मत से हिन्दू, ग्रीक (यूनानी), रोमन, पारसी आदि
जातियाँ आर्य-जाति की शाखाएं हें और इन सब में अग्नि की पूजा प्रचलित
थी--बहूतों मे अब तक हें। ग्रीकों की राय से जो देवता, मनुष्य
की भलाई के लिए, स्वगं से पहुले-पहल अग्नि को चोरी करके ल आया, .
उसका नाम 'प्रोमेथियस' या प्रमन्थ (संस्कृत) था। उस देवता फे थनानी
अनन्य उपासक थे। रोमनों में वलकन वा उल्का नाम से अग्नि-पुजा
प्रचलित थी । लैटिन भाषी अग्नि को इग्निस और स्लाव लोग ओग्निस
कहते थे। ईरानी वा पारसी 'अतर' नाम से अग्नि के उपासक हैं। |
हिन्दुओं के तो प्रसिद्ध देवता अग्नि हं ही। निरुक्त (७.५) का मत है
कि पृथ्वी पर अग्नि, अन्तरिक्ष में इन्द्र (वा वायु) और द्यो (स्वगं वा
आकाश) में सूर्य देवता हेँ। ऋग्वेद के अंगरेजी भाषान्तरकार प्रो०
विल्सन का मत हूँ कि अंगिरा ऋषि और उनके बंशधरों न भारतवर्ष
में सर्वश्रथम अग्नि-पूजा का प्रचार किया।' परन्तु यह मत अनिर्णीत है।
ऋणग्वेद के प्रथम मन्त्र में ही अग्नि की स्तुति हैं। अग्नि को पुरोहित |
वा अग्रगन्ता इसलिए कहा गया हैं कि उनके विना यज्ञ ही नहीं हो सफता। |
अग्नि को देवाह्वानकारी ऋत्विक इसलिए कहा गया हे कि अग्निका |
जरूना ही देवों के आगमन का कारण है। अग्नि को रत्नवारी इसलिए
कहा गया है कि अग्नि यज्ञ-फल-रूप रत्नों वा धनों के पोषक टु। अखि "
दीप्तमान् तो हे ही। |
( २९ ]
पृष्ठ १३ के १३ वें सूवत के १२ मन्त्रों में इन नामों से अग्नि की
स्तुति को गई ह--१. सुसमिद्ध, २. तनूनपात्, ३. नराशंस, ४. इला,
५. बहिः, ६. देवीद्वार ७. नक्त और उषा, ८. देवीद्वय, ९. इला,
सरस्वती, मही, १०. त्वष्टा, ११. वनस्पति और १२ वे मन्त्र में स्वाहा ।
२१६.२ में तीन अग्नियों का उल्लेख हँ--जठराग्नि, विद्युगग्नि और
सूर्य-किरणों में विद्यमान अग्नि। ३८२.२ (२२वें सूक्त) में अनेक
अग्नियों का उल्लेख है। दु-लोक में सूर्य भू-लोक में आहवनीय, औषधि
में निगूढ तेज, समुद्र में वड़वानल और अन्तरिक्ष में वायु-रूप अग्नि हें
अग्निदेव के सम्बन्ध में वैदिक संहिताओं में प्रायः ढाई हजार मन्त्र
हूं। नमूने के लिए कुछ मन्त्रों का उल्लेख किया जाता है, जिससे अग्नि
के स्वरूप का परिचय मिलेगा। अग्नि सृष्टि के पहले अव्यक्त और
सृष्टि होने पर व्यक्त होते हे। वे परम धाम (कारणात्मा) में हे। वे
आकाश पर सूर्य-रूप से उत्पन्न हैँ। वे यज्ञ के पहले अवस्थित थे ।
वे बृषभ और गाय--स्त्री-पुरुष--दोनों है” (१२१६.७ ) । यहाँ
अग्नि के सर्वव्यापी रूप का दिग्दर्शन कराया गया हैं । 'काष्ठ-मन्थन से
उत्पन्न अग्नि, यज्ञ में देवों को बुलाओ (१३.३) । एक मन्त्र (१३३.२)
में दसों अंगलियाँ इकट्ठी करके अनवरत काष्ठ-घर्षण से अग्नि की उत्पत्ति
बताई गई है। १४४४.५ में अश्विनी-कुमारों के द्वारा अरणि-मन्थन से
अग्नि का उत्पन्न होना कहा गया है। ६८६.३९ में कहा गया है कि “अग्नि
ने त्रिपुरासुर के तीनों पुरों को भग्न किया है।' ३६.१ में अंगिरा लोगों
का प्रथम ऋषि अग्नि को कहा गया है। ३७.११ में अग्नि को अंगिरा
ऋषि का पुत्र बताया गया है। यहीं यह भी कहा गया है कि देवों ने
पुरुरवा राजा के पोत्र मानवरूपधारी नहुष का अग्नि को मनुष्य-शरीर~
वान् सेनापति बनाया था।'
इन दोनों मन्त्रों के बळ पर अनेक लोग अग्नि को प्रथम ऋषि मानते
हैं और अग्नि को ही ऋग्वेद का प्रथम स्मरण-कत्ती भी बताते है। बहुत
लोग अंगिरा का अर्थ आग का अंगारा करते हे और यह बात नहीं
मानते। कितने ही लोग यह कहते हैं कि यज्ञ-मण्डप में अग्नि को प्रथम
रखा जाता ह; इसलिए उन्हें प्रथम ऋषि कह् दिया।' जो हो; परन्तु
इसमें तो सन्देह नहीं कि ऋषि लोग जड़ाग्ति के अधिष्ठाता चेतनाग्नि
को मानते थे; इसलिए देव-रूप से अग्नि की स्तुति की गई हैं । इन्द्र
की ही तरह अग्नि के भी तीन रूप कहे गये हं--आध्यात्मिक, आधि-
दैविक और आधिभौतिक ।
इन्द्र और अग्नि के मन्त्रों में उपमाएँ बहुत आई हें। इन दोनों
फा० ३
( २८ )
में कहा गया हे-- छ, अस्सी, नब्बे अथबा सौ अश्बों के द्वारा
ढोये जाकर हमारे सामने आओ।' ३४३ .६ में इन्द्र के 'उच्च:श्रवा
पडे का उल्लेख हें। १०९ .८ में उल्लेख हें कि इन्द्र के वज्र नब्बे
नदियों के ऊपर विस्तृत हुए थे। १०९.९ में कहा गया हैं कि
एक बार १००० मनष्यों ने एक साथ इन्द्र की पूजा की थी।
इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि आर्य ऋषि इन्द्र में परमात्मा की भव्य
विभति देखते थे। साथ ही आयं लोग इन्द्र को देव-श्रंष् और महान्
शर-वीर भी समझते थे। अध्यात्म-दृष्टि से इन्द्र परमात्मा थे. अधिदंब-
दृष्टि से श्रेष्ठ देव थे और अधिभत-दृष्टि से महान् योद्धा थे। इन्द्रन॑वषयक
सारे विवरण पढ़ने से गे बातें मालम पड़ती हं। ब्राह्मणों और उपनिषदों में
इन्द्र को अद्वितीय आत्मा, जीवात्मा. प्राण आदि कहा गया है। अनेक
देवों के साथ भी इन्द्र का वर्णन हँ । वैदिक साहित्य में इन्द्र-तत््त एक
विशिष्ट प्रतिपाद्य हे।
अग्निदेव
ऐतिहासिको के मत से हिन्दू, ग्रीक (यूनानी), रोमन, पारसी आदि
जातियाँ आर्य-जाति की शाखाएं हैं और इन सब में अग्नि की पूजा प्रचलित
थी--बहुतों में अब तक हें। ग्रीकों की राय से जो देवता, मनष्य
की भलाई के लिए, स्वर्ग से पहले-पहल अग्नि को चोरी करके ल आया,
उसका ताम प्रोमेथियस' या प्रमन्थ (संस्कृत) था! उस देवता के यनानी'
अनन्य उपासक थे। रोमनों में वळकन वा उल्का नाम से अग्नि-पुजा
प्रचलित थी । छैटिन भाषी अग्नि को इग्निस और स्लाव लोग ओग्निस
कहते थे। ईरानी वा पारसी 'अतर' नाम से अग्नि के उपासक हें।
हिन्दुओं के तो प्रसिद्ध देवता अग्नि हं ही। निरुक्त (७.५) का मत है
कि पृथ्वी पर अग्नि, अन्तरिक्ष में इन्द्र (वा वायु) और दौ (स्वर्ग वा
आकाश) में सूय देवता हें। ऋग्वेद के अँगरेजी भाषान्तरकार प्रो०
विलसन का मत हें कि अंगिरा ऋषि और उनके वंशधरों न भारतवर्ष
में सर्वप्रथम अग्नि-पुजा का प्रचार किया।' परन्तु यह मत अनिर्णीत है।
ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में ही अग्नि की स्तुति है। अग्नि को पुरोहित
वा अग्रगन्ता इसलिए कहा गया है कि उनके विना यज्ञ ही नहीं हो सकता।
अग्नि को देवाह्वानकारी ऋत्विक इसलिए कहा गया हे कि अग्नि का
जळना ही देवों के आगमन का कारण है। अग्नि को रत्नधारी इसलिए
कहा गया हें कि अग्नि यज्ञ-फेल-रूप रत्नों वा धचों के पोषक हे । अग्नि
दीप्तमान् तो हं ही।
( २९ )
पृष्ठ १३ के १३वें सूक्त के १२ मन्त्रों में इन नामों से अग्नि की
स्तुति की गई हे--१. सुसमिद्ध, २. तनूनपातू, ३. नराशंस, ४. इला,
५. बहिः, ६. देवीद्वार ७. नक्त और उषा ८. देवीदय, ९. इला,
सरस्वती, मही, १०. त्वष्टा, ११. वनस्पति और १२ वें मन्त्र में स्वाहा।
२१६.२ में तीन अग्नियों का उल्लेख है---जठ राग्नि, विद्युदरिनि और
सूर्य-किरणों में विद्यमान अग्नि। ३८२.२ (२२ वें सुक्त) में अनेक
अग्नियों का उल्लेख है। द्यु-लोक में सूर्य भू-लोक में आहवनीय, औषधि
में निगृढ तेज, समुद्र में वड़वानल और अन्तरिक्ष .में वायु-रूप अग्नि हैं।
अग्निदेव के सम्बन्ध में वैदिक संहिताओं में प्रायः ढाई हजार मन्त्र
हें। नमूने के लिए कुछ मन्त्रों का उल्लेख किया जाता हे, जिससे अग्नि
के स्वरूप का परिचय मिलेगा । अग्नि सृष्टि के पहले अव्यक्त और
सृष्टि होने पर व्यक्त होते हैं। वे परम धाम (कारणात्मा) में हे। वे
आकाश पर सूर्य-रूप से उत्पन्न हे। वे यज्ञ के पहले अवस्थित थे ।
वे बृषभ और गाय--्त्री-पुरुष--दोनों हे” (१२१६.७ ) । यहाँ
अग्नि के सर्वव्यापी रूप का दिग्दशेन कराया गया हैं । 'काष्ठ-मन्थन से
उत्पन्न अग्नि, यज्ञ में देवों को बुलाओ (१३.३ ) | एक मन्त्र (१३३.२)
में दसों अंगुछियाँ इकट्ठी करके अनवरत काष्ठ-घर्षण से अग्नि की उत्पत्ति
बताई गई है। १४४४.५ में अझ्विनी-कुमारों के द्वारा अरणि-मन्थन से
अग्नि का उत्पन्न होना कहा गया है। ६८६.३९ में कहा गया है कि “अग्नि
ने निपुरासुर के तीनों पुरों को भग्न किया है।' ३६.१ में अंगिरा लोगों
का प्रथम ऋषि अग्नि को कहा गया है। ३७.११ में अग्नि को अंगिरा
ऋषि का पुत्र बताया गया है। यहीं यह भी कहा गया हे कि देवों ने
पुरुरवा राजा के पौत्र मानवरूपधारी नहुष का अग्नि को मनुष्य-शरीर=
वान् सेनापति बनाया था।'
इन दोनों मन्त्रों के बळ पर अनेक लोग अग्नि को प्रथम ऋषि मानते
हैं और अग्नि को ही ऋग्वेद का प्रथम स्मरण-कर्ता भी बताते हैं। बहुत
रोग अंगिरा का अर्थ आग का अंगारा करते हे और यह बात नहीं
मानते। कितने ही लोग यह कहते है कि 'यज्ञ-मण्डप में अग्नि को प्रथम
रखा जाता हे; इसलिए उन्हें प्रथम ऋषि कह दिया।' जो हो; परन्तु
इसमें तो सन्देह नहीं कि ऋषि लोग जड़ाग्नि के अधिष्ठाता चेतनाग्नि
को मानते थे; इसलिए देव-रूप से अग्नि की स्तुति की गई है । इन्द्र
को ही तरह अग्नि के भी तीन रूप कहे गये हे--आध्यात्मिक, आधि-
देविक और आधिभौतिक ।
दे और अग्नि के मन्त्रों में उपमाएं बहुत आई हैं। इन दोनों
फा० ३
( २० )
देवों के मन्त्रों में विशेषणों की भरमार ह्। इन गुण-बोधक विशेषणो
से इनके रूप समझने में यथेष्ट सहायता मिळती है। इनके मन्त्रों में
पुनरुक्तियाँ भी बहुत हैं। कदाचित् जटिल सन्दर्भो को बोधगम्य और
सुगम बनाने के लिए वा विषयों को दृढ करने के लिए पुदरपिदयाँ की
गई हैं।
सोम
इन्द्र और अग्नि के अनन्तर सोम के बारे मं वैदिक संहिताओं में
जितने मन्त्र हे, उतने किसी भी देवता के सम्बन्ध में नहीं हे। वैदिक
संहिताओं का दशमांश सोम की स्तुति और प्रशंसा से परिपुर्ण हे।
आयें लोग सोम के अतीव अनुरागी थे। आर्यो का सबसे प्रिय पदार्थ
सोमरस था। कहते हें, अत्युपकारी होने से जैसे अग्नि के लिए सब कुछ
कह दिया गया हे, वेसे ही उपकारक होने से सोम, सोमलता और सोम-
रस की भी बड़ी महिमा कही गई है।
कहा गया हे--ब्राह्मण लोग जिसे प्रकृत सोम कहते हँ, उसका
पान कोई यज्ञ-रहित मनुष्य नहीं कर सकता।' ' पार्थिव मनुष्य सोम-
पान नहीं कर सकता। (१२३४१.४-५) सोम, तुम्हें पीकर अमर होंगे ।
पश्चात् प्रकाशमान स्वर्ग में जायंगे और देवों को जानेंगे”! (१००२.३) ।
“शोधित, मधुर, यज्ञोपयोगी, क्षरणशीळ, स्वादिष्ट, रसधारा-संघ, अन्नदाता,
धन-घ्रापफ और आयु के दाता सोम प्रवहमान हे (१२०६.११) ।
दिन में सोम हरित-वण और रात में सरळ्गामी और प्रकाशमान दिखाई
देते हैं" (११८०.९) । सोम अनेक धाराओं से युवत और सुन्दर गन्ध से
सम्पन्न हे” (११८२.१९) ।' 'हरित-वर्णं सोम मेषलोम के छनने में संचा-
छित होते है” (११७२.१) । त्रतादि से जिनका शरीर तपाया हुआ
नहीं हें या जो यज्ञ-शून्य हे, वे सोम को धारण वहीं कर सकते' (११५७.१) |
सोम मदकर, स्वादुतम, रसात्मक, अरुणवर्ण और सुखकारी हे' (११५३.४) ।
सोम यज्ञ की नाभि हैं! (११४९.४) । 'सोम जल, दघि और दुग्ध से
मिश्रित हँ (११४३.८) । हाथों से कठिनता से रगड़े जाकर सोम
पात्र में स्थित होते ह” (१०९६.६) । सोम को दस अंगुलियाँ मलती
है” (११२०.७) । दस अँगुलियाँ सोम को मेषलोममथ दशापवित्र
पर प्रेरित करती हे” (११७१.१) । सोम लोहे से पिसे जाकर और
३२ सेरवाले कलश से युक्त होकर अभिस्रवण-स्थान में बैठते हें”
(१०८०.२) । श्रोताओ, तुम लोग पिगळवर्ण, स्वबळ~स्वरूप, अरुण-
वणं और स्वगं को छूनेवाले सोम के लिए शीघ्र गाथा का उच्चारण
( २१ )
करो' (१०८९.४) । सोम पर्वत से उत्पन्न ओर मंद के लिए अभिषुत
हँ (११२२.४) । कुरुक्षेत्रथ शर्यणावत् तडाग में स्थित सोम को इन्द्र
पियें (१२०८.१) । पवमान सोम, पत्थरों से कूटे जाकर कलश की ओर
जाओ (११३६.३) । सोम्न ऊपर चढ़नेवाली छताओं (ओषधियों)
को फल-युक्ता करके स्वादिष्ट करते है (११३९.२)। सोम, तुम्हारा
परम अंश छूलोक में हे। वहाँ से तुम्हारे अंश पृथिवी के उच्चत प्रदेश
(पर्वेत) पर गिरे और वृक्ष हो गये। पत्थरों से कूटे जाकर तुम्हें मेधावी
लोग हाथों से गोचर्म पर जल में दूहते है” (११५४.४) । सोम के शोधक
मेषचर्म और गोचर्म हैं” (११४३.७) । सोम में जौ का सत्त भी मिलाया
जाता था (११९८.२, ११३९.४, १०४६.२ और १०४७.४ ) ।
वस्तुतः सोम सबसे मूल्यवान् और शक्तिशाली जड़ी अथवा ओषधि
था। वह आरोग्य, आनन्द, आयु, वीये, प्रतिभा, मेधा आदि प्रदान
करनेवाला था। इसीलिए लाक्षणिक रूप से उसका देववत् महत्त्व कहा
गया है।
सोमयाग करने के पहले सोमवल्ली खरीदने की विधि है । अध्वर्यु, यज-
मान आदि खरीदते थे। सोम बेचना एक व्यापार था। ३६ अंगुल लम्बे और
१८ अंगुल चौड़े अभिषवण-फलक पर बिछाथे कृष्णाजिन पर इसे रखकर
और अभिमन्त्रित जल (वसतीवरी) से बीच-बीच में सींचकर चार
पत्थरों के यन्त्र से इसे कूटा जाता था। थयन्वर इसे आहवनीय पात्र
में डालकर उसमें जल छोड़ते थे और बल्ली को मल-मलकर पानी में
मिला देते थे। तलछट बाहर निकाल देते थे। इसे दशापवित्र (मेषलोम-
मय) वस्त्र के द्वारा छानते थे। वस्त्र में नीचे छेद कर और उसमें
ऊन का धागा डालकर इस तरह बाँवते थे कि सोमरस की घार छनती
हुई नीचे गिर जाया करे । देवता के प्रीत्यर्थ पहले इससे हवन करते थे।
बचे हुए भाग को सदोमण्डप' में होम करनेवाले, वषट्कार कहनेवाछे
उद्गाता, यजमान, ब्रह्मा, सहस्रक आदि १८ ऋत्विक् और कुछ सदस्य
तथा ३३ देवता पीते थे ।
इसमें हू दही, घृत, भधु, जल, जौ का सत्त, सुबर्ण-रज आदि,
देवभेद से, मिलाकर देवार्पण करने की विधि हैं। इवकीस गायों का
दूध मिलाने की भी विधि हैं।
रमानाथ सरस्वती का मत ह कि मोटी जड़ के काठ के मुसल से
सोमलता कूटी जाती थी। अनन्तर दो भाण्डों की तरह अभिषव-पात्रों में
रखी जाती थी। यजमान-पत्नी रस्सी से मथानी पकड़कर सोम-मन्थन
करती थी। सोमरस तैयार होते ही इन्द्र को दिया जाता था । बचा
( ३२ )
हुआ चलनी से छानकर दो चमस-पात्रों में रखा जाता था। अनन्तर
वह गोचर्म वा मेषचर्म के पात्र पर रखा जाता था। इस वर्णन का आभास
पृष्ठ ३२ के २८ वें सूक्त के ९ मन्त्रों में है ।
सोमरस में ओज, तेज, वर्चस्व, सुगन्ध, स्वाद, मधुरता आदि तो थे
ही; मादकता भी थी। विभिन्न वस्तुओं की मिलावट के अनुसार इसके
भारिर, गवाशिर, थवाशिर आदि नाम भी रखे गये हें।
सोमलता हरी होती थी । इसके पत्ते लाल, पीले, सावले आदि भी
होते थे। तरह-तरह के वर्णन पाये जाते हें । सुश्रत-संहिता (२९ अध्याय,
२१-२२ श्लोकों) में लिखा है, शुक्लपक्ष में जसे चन्द्रमा एक-एक कला
बढ़ते-वढ़ते पूर्णता को प्राप्त होते है, वैसे ही सोम भी शुक्लपक्ष में एक-
एक पत्ता बढेते-बढते पूर्णिमा को १५ पत्तों से युक्त हो जाता है । कृष्णपक्ष
में प्रतिदिन क्रमशः एक-एक पत्ता गिरता जाता है और जैसे अमावास्या
को चन्द्रमा लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही सोम के सारे पत्ते भी अमावास्या
को लुप्त हो जाते हं।' इन गृणों की समानता के कारण ही सोम को
` चन्द्रमा कहा गया हें ।
सुश्रुत में यह भी लिखा हें कि सोमरस के लिए सुवर्ण-पात्र चाहिए।
इसमें सोम के २४ प्रकार कहे गये हें। इसे कन्द कहकर केले के कन्द की
तरह इसका वर्णन भी किया गया है। सोमलता को पानी पर तैरनेवाली,
वृक्षों पर लटकनेवाली और भूमि पर उगनेवाली' कहा गया है । घर्म-
द्रोही. ब्राह्मण-द्ेघी और कृतघ्न के लिए इसे 'अळभ्य' बताया गया है।
मुजमान् (हिमाळयस्थ पर्वत), शर्यणावान् (तड़ाग वा झील ),
व्यास नदी, सिन्धु, सुषोमा (सोहान नदी) आदि इसके उद्गम-स्थान
बताये गंये हें।
_ पाइचात्य वेदाध्यायियो और उनके अनुयायियों के सोमलता के
सम्बन्ध में विविध मत हैं। राजेन्द्राल मित्र इसे 'वनस्पति' मानते हे।
जुलियस एगलिग और ए० ब्री० कीथ इसे एक प्रकार की ' सुरा' बताते
हैं। रागोजिन दैवी सुरासव' कहते हैं। इसी तरह वाट साहब 'अफगानी
अंगूरों का रस”, राइस 'ईख का रस', मैक्समूलर आंवले का रस” और
हिलेत्रान्त मबू' कहते हें! परन्तु ये सारे मत निराधार है; क्योंकि
इनमें से किसी में भी सोमलता की वणित गुण-बोधकता वा गुणानुरूपता
नहीं हे।
ऐतरेथ-ब्राह्मण की अनुक्रमणिका में माटिन हाग ने लिखा हे कि
मंन सोमरस तैयार कराकर पान किया था। पता नहीं, हाग साहब को
( ३३ )
कहाँ सोमलता मिल गई! कहीं-कहीं हिमालय की तराई में गुड़ च'
के रस को ही सोमरस कहकर बेचा जाता हैं !
इस समय सोमलता कहीं भी नहीं पायी जाती; इसलिए आजकल
यज्ञों में इसके अनुकल्प पुतिक-तृण' वा 'फाल्गुन' नाम की वनस्पति का
प्रयोग किया जाता है। आशवलायनथौत-सुत्र के अनुसार यही अनुकल्प है।
कलकत्ते के बेलगछिया नामक स्थान में एक बार “बनियाळाल
बाबाजी” नामक एक संन्यासी ने एक ऐसी लता दिखाई थी, जो परीक्षार्थ
लन्दन भेजी गई थी। परीक्षा करके हुटिनविड कम्पनी ने इसे सोमलता
बताया था। ऐसी किवदन्ती हे।
पूना के पास होनेवाली 'राशनेर' वनस्पति को भी बहुत लोग सोमलता
बताते हे; परन्तु उसमें सोमलता का कोई भी लक्षण नहीं हैं।
वंगाक्षर में चारों वेदों की चार संहिताएँ छापनेवाळे पं० दुर्गादास
लाहिडी ने सोमलता को विशुद्ध बुद्धि और सोमरस को निष्कलंक ज्ञान
बताया है । आध्यात्मिक अर्थ तो ऐसा हो सकता हे; परन्तु कर्मकाण्डादि
दुष्टियों से यह अर्थ ल नहीं हे।
ईरानी लोग सोम को 'हउमा' कहते थे। वे इसका कच्चा ही पान
करते थे। थियासोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लावस्की
की राय हैं कि वेद का सोम ही बाइबिल का ज्ञानवृक्ष' (Tree of
Kn0।९4ु€) है। यह भी कल्पना की एक उड़ान है!
वस्तुतः श्रौत-सूत्रों के समय (प्रायः ४ हजार वर्ष पहले) ही यह
अद्भुत पदार्थं अप्राप्त हो गया था; इसीलिए सूत्रों में इसके अनुकल्प
की विधि लिखी गई है ।
वेद-मन्त्रों से ज्ञात होता हे कि रणांगण में जाते समय भी आयें
सोमरस पीते थे। पीते ही पीते उनमें उमंग, तरंग और प्रतिभा प्रस्फुटित
हो जाती थी। स्फृत्ति और वक्तृत्व-शवित बढ़ जाती थी। पान करनेवाला
उच्च भावों ओर अपूव आनन्द में डूब जाता था । बृद्धि-वृद्धि करना तो
इसका विशेष गुण था ही। यह वृद्ध को तारण्य प्रदान करता था-~
असीम बल बढ़ा देता था । शरीर को रोग-रहित कर देता था।
जानवरों को भी सोम पिलाया जाता था । सोमरस पीनेवाळी गायों के
दूध में सोम का आंशिक गुण आ जाता था। ये ही सब कारण हुँ कि देव
और मनुष्य--सवकी इसमें चूड़ान्त आसक्ति थी।
सोम के सम्बन्ध में अनेकानेक आलंकारिक कथाएँ भी वैदिक साहित्य
में हे। उनको यहाँ लिखना अनावश्यक है । परन्तु महान् आश्चर्य तो
( ३४ )
यह् है कि इतनी महत्वपूर्ण ओषधि कैसे अऊभ्य हो गई ? बैदिक संहि-
ताओं का दशमांश जिसकी गुण-गरिमगा और महिमा से परिपूर्ण है, वह
झनमोल वस्तु जगतीतलछ से कैसे उठ गई ? सुश्रुत में कहे २४ प्रकार
के सोम की प्राप्ति की सम्भावना हिमाऊय आदि में बतायी जाती है।
धया कुछ साहसी पुरुष इसकी खोज के लिए चेष्टा नहीं घार सकते?
यदि यह वस्तु उपलब्ध हो गई, तो संसार में युगान्तर उपस्थित हो
जायगा ।
इन्द्र और अग्नि की तरह ही सोम के मन्त्रो में भी बड़ी उपमाएँ
और पुनरुक्तियाँ हे। कदाचित् विषय को सुबोध्य और सर्व-ग्राह्म बनाने
के लिए ये पुनरुक्तियाँ की गई ह।
थे
इन्द्र, अग्नि और सोम फे अनन्तर अश्विनीकुमारो के सम्बन्ध में
ग्वेद में बहुत मन्त्र हें। ये कौन थे? इसके उत्तर में भी बहुत माथा-
पच्ची की गई है। मैषसमूलर के मत से ये आलोक और अन्धकार हूँ।
गोल्डस्टकर के मत से ये प्रसिद्ध मनुष्य थे। इन्हीं की तरह ग्रीस में कैस्टर
और पोलक देवता हें। जिस तरह त्वष्टा की कन्या सरण्य ने अश्व-रूप
धारण कर अश्विद्धय को जन्म दिया, उसी तरह ग्रीक देवी एरिनिज
डिमेटर ( हा 8 Deme€£) ने घोड़ी का रूप धारण कर अरियेन
क्षौर डिस्पोना को जन्म दिया था ।
पुराणों में ये यमज और मन तथा शरीर के रक्षक देवता भी बताये
गये हँ। निरुक्त का मत पहले ही लिखा गया है। ऋग्वेद में दल और
नासत्य नामों से भी इनका विवरण है। १२३३.२ से ज्ञात होता हे कि
“त्वष्टा की कन्या सरण्यू से इनका जन्म हुआ। ये महान् प्रतिभाशाली
थे और दोनों भाई व्याधि और विपत्ति के भी देवता थे। ये नामी
शिल्पी और चिकित्सक भी थे। अश्विद्वय की नौका ऐसी थी, जिसमें
जरू नहीं जा सकता था। ' ये सौ डाँडोंवाली नौका में भुज्यू को बैठाकर
समुद्र से राजा तुग्र के पास ले आये थे। (१६६-६७ .३ और ५) एक
भन्त्र (२७६.५) में कहा गया हूँ कि अश्विद्वय, तुमने पंखोंबाली (पक्ष-
विशिष्ट) चौका बनाई थी। तुमचे नौका द्वारा महासमुद्र से तुग्र-पुत्र
भुज्यु का उद्धार किया था।
ये i महान् वैद्यराज तो थे ही। कहा गया हे---वृद्ध कलि नामक
स्तोता को अश्विद्वय, तुमने यौवन से युक्त किया था। तुम लोगों ने लँगडी'
{ ३५ }
विश्पला को रोहे का चरण देकर उसे गलि-समर्थ बना दिया था? (१२७९.
८) । विश्पला खेल ऋषि की पत्नी थी। यही बात १५८.१० और
१६८.१५ में भी है। इस १५ वें मन्त्र में कहा गया है कि “युद्ध में विश्पलछा
का एक पैर कट गया था। उसे लौह-जंघा देकर फिर अश्विद्यय ने
युद्धक्षेत्र में जाने में समर्थ किया था। यह असाधारण स्त्री युद्ध-क्षेत्र
में जाने में समर्थ थी। परन्तु साधारणतः स्त्रियों के लिए युद्ध-क्षेत्र निषिद्ध
था। १६८.१४ में कहा गया है कि अरिवद्वय ने नपुंसक-पति का वध्चि-
मती को हिरण्यहस्त नाम का पुत्र दिया था। यहीं १६ वें मन्त्र में वुषा-
गिर के पुत्र अन्धे ऋजाइव को नेत्र देने की बात भी लिखी है। १२४६.११
में अन्धे दीर्घेतमा को नेत्र और लँगडे परावृज को पैर देने की बात
कही गई हेँ। १६८.१० में च्यवन ऋषि का बुढ़ापा दूर कर उन्हें तरुण
बनाने का उल्लेख हूँ। यही बात ६४३.५ भें भी है।
वायुदेव
थास्क का मत (निरुक्त ७.५) हे कि वायु आयों के अत्यन्त प्राचीन
देवता हेँ। ईरानियों में भी वायु-पुजा प्रचलित है। ग्रीक और रोमन
पान (P21) (संस्कृत a नाम से वायु की पूजा करते थे।
ऋग्वेद के एक स्थान (५७८.८) पर कहा गया है--“मरुतों के
प्रभाव से द्यावा-पयूथिवी चक्र की तरह घूमने लगी थीं।' २०.३ और ४
में वायु को जल-वृष्टि का कारण बताया गया है। यहीं ७वें मन्त्र में
वायु को मेघ-माला का संचालक और जल-राशि को समुद्र में गिरानेवाला
कहा गया हैं। ९०.३ में कहा गया है---रुद्र के पुत्र मरुत् जरा-रहित
और तरुण हु और जो देवों को हव्य नहीं देते, उनके नाशक हें। ६१५.१७
में लिखा हँ-- सप्त-सप्त-संख्यक (४९) मरुद्गण एक-एक होकर हमें
शतसंख्यक गौ, अश्व आदि दें। इनके द्वारा प्रदत्त समूहात्मक धन को
हम यमूना-तीर में प्राप्त करें।' यहाँ तो विश्व-विख्यात ४९ पवनों का
ही उल्लेख हे; परन्तु १०५६.८ में ६३ मरुतों के द्वारा इन्द्र का संवर्धन
लिखा हुम है। मनुस्मृति (१.२३) में तो स्पष्ट लिखा है कि ब्रह्मा
ने वायु के द्वारा यजुर्वेद प्राप्त किया। अनेकों के मत से वायु वेद-स्मारक
ऋषि थे। उनके मत से अग्नि और सूर्य भी प्राथमिक ऋषि थे, जिनके
द्वारा क्रमशः ऋगेद और सामवेद प्रकट हुए। मनु जी के उक्त श्लोक
से यह बात सर्माथत की जाती है। इसी तरह चौथे प्राथमिक ऋषि”
अंगिरा माने जाते हे, जिनके द्वारा अथर्ववेद प्रकट हुआ। परन्तु यह
सब केवल मतान्तर है, जो विवादास्पद है ।
( ३६ )
ऋशभुगण
विलसन ने ऋभुगण का अर्थ सूर्य-किरण किया हैं और मैवसमूलर
ने सूर्यं । मैक्समूलर की राय से वृव् नामक ऋत्विक् ने सर्व-प्रथम ऋभुओं
को पूजा था। ग्रीस में ग्रीको के आरफेअस (011211605) की कथा
भी ऋणभुओं के समान ही प्रचलित हे। ऋभू का एक नाम अर्भुर भी हे।
सायणाचार्य के मत से ऋभु लोग पहले मनुष्य थे--तपोबल से देवता हो
गये थे।
अंगिरा ऋषि के वंश में सुधन्वा थे, जिनके ऋभू, विभु और वाज
नाम के तीन पुत्र थे। यह कथा अवश्य है कि उन्होंने कर्मबळ से देवत्व
प्राप्त कर सूर्यलोक में वास किया था। सायण ने ऋभओं का अर्थ
'सू्य-किरण' भी किया है। 'ऋभुओं की देवत्व-प्राप्ति का संकेत १५४. १-४
मन्त्रों में हें।
. ऋभुगण प्रसिद्ध कलाकार थे। उन्होंने अश्विद्यय के लिए सर्वत्र-
गन्ता रथ का निर्माण किया था।' ऋशभुओं ने अपने माँ-बाप को तरुण
बना दिया था।' ऋभुगण मानव-अन्म ले चुकने पर भी अविनाशी आयु
(देवायु) प्राप्त किये हुए हें। (२१.३-४ और ८) ये अद्भुत चिकित्सक
भी थे। इन्होंने मृत गौ के चमड़े से धेनु उत्पन्न की। एक अश्व से अन्य
अश्व उत्पन्न किया (२३९.७) । इन्होंने चमड़े से गौ को ढक दिया था
और उस गौ के साथ बछड़े का फिर योग कर दिया था तथा माँ-बाप को
युवा बना दिया था' (१५५.८) । ऋग्वेद में ऋभुओं के सम्बन्ध में
अनेक सूक्त हैं।
मित्रावरुण
मन्त्रों में मित्र और वरुण देवों का साथ-साथ उल्लेख किया गया है।
मित्र प्राचीनतम देव हूँ । ईरानी लोग मिथा नाम से मित्र की पूजा करते
ह। वरुण तो अत्यन्त प्रसिद्ध देवता हँ। ईरानी वरण नाम से वरुण की
पूजा करते हं। ग्रीक तो बरुण वा उरानोस (ए:2705) को सब
देवताओं का पिता मानते हें। अळेक्जेंडर वोच की राय से वरुण पहले
आकाश-देव थे; पीछ समुद्र-देव हुए। राथ के मत से वरुण समुद्र-देव
ही हें । वेस्टगार्ड की भी यही सम्मति हें। क्रग्वेद में वरुण समुद्रदेन हुं
मित्रावरुण को अपुर्व शक्तियों का विवरण अनेक मन्त्रो में है।
( ३७ )
उषा
स्वर्गपुत्री उषा के ग्रीकों में इओस. दहना, एथेना आदि कई नाम
है। लैटिन भाषाभाषी उन्हें मिनर्वा कहते हं। राजेन्द्रलाल मित्र की
राय है कि 'ऋग्वेद में उषा के जो अर्जुनि, व्रिसया, दहना, उषा, सरमा,
सरण्यू आदि नाम हे, वे सब नाम Argynoris, Briseis, Daphne,
Eos, hebn और 11198 नामों से ग्रीकों भं भी हुँ। ग्रीकों में यह
बात प्रसिद्ध है कि 09010 या सूर्य ने D2Phn€ या दहना का
अनुधावन किया था। उषा का एक वेदिक नाम अहना भी है, जिसे
ग्रीकों में सुबुद्धि-देदी-रूप से ^ ६/९712 नाम दिया गया हे।'
इन उद्धरणों से ज्ञात होता हे कि ग्रीकों, रोमनों और ईरानियों के
देवी या देवता बैदिक देवताओं की नकल पर बने हेँ। उषा के सम्बन्ध
में ऋग्वेद में अनेकानेक चमत्कार-पूर्ण और कवित्वमय मन्त्र हे, जो
कण्ठस्थ करने योग्य हें।
पषा
सायणाचायें ने पूषा का अर्थ 'जगत्पोषक पृथिव्यभिसानी देव” किया
है। उन्होंने पुषा को मेघ-पुत्र' भी माना है । इसका कारण उन्होंने
बताया है कि जल से पृथिवी उत्पन्न हुई है और मेघ जल धारण करता
हँ; इसलिए जछ-पुत्र ही मेघ-पुत्र या पृथिव्यभिमानी देव है ।' परन्तु
यास्क ने निरुक्त में पुषा का अथ सुर्य किया है। पुराण भी यही अथ
बताते हें। प्रसिद्ध वेद-विज्ञाता पं० सत्यत्रत सामश्रमी ने 'अल्पतेजा'
सूये को पूषा वा पूषन लिखा हूँ। पाइ्चात्त्य वेदालोचकों ने भी सूर्य को
ही पूषा माना हैं । वेदार्थयत्न ने लिखा है-- मेघ से ही सूर्य-प्रकाश आता
हुँ; इसलिए पुषा को मेघपुत्र कहा गया है ।'
ऋग्वेद में कहा गया हं-- प्रकाशमान पृषन् , कृपण को दान देने के
लिए प्रेरित करो और उसके हृदय को कोमल करो।' सुक्ष्म लौहाग्र-दण्ड
(आरा) से पणियों के हृदय को विद्व करो।' 'पणि वा चोर के हृदय में
सद्भावना भरो। (७४७.३ और ५-६) ७४८.२ में पूषा को रथि-
श्रेष्ठ, कपर्दी (चूट़ावान्) और अतुल एइवयं का अधिपति बताया गया है।
ऋणग्वेद में पूषा के सम्बन्ध में अनक दिव्य और भव्य मन्त्र हें ।
डा० वसन्त जी० रेले न दि चंदिक गाडस' नामक एक पुस्तक लिखी
है, जिसमें उन्होंने अपना मत व्यक्त किया है-- ऋषियों ने बाह्य विश्व
का पुणं और शुद्ध ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने जब शरीर-विज्ञान पर
( २८ )
विचार करना प्रारम्भ किया, तब उन्होंने अपनी पूर्व-परिचित दैवत संज्ञाओँ!
का व्यवहार, आलंकारिक दृष्टि से, शरीर-विज्ञान पर भी किया । इसलिए
दैवत संज्ञाएँ (देवता-नाम) दघर्थक और नानार्थक हैँ।' रेले का सिद्धान्त
है--वैदिक देवता प्रायः ज्ञान-तन्तु-संस्थान के विविध भाग हें? इन्होंने
इस पुस्तक मे त्वष्टा, ऋभु, सविता, अडिवद्वय, मरुत, पर्जन्य, उषा, विष्णु,
रुद्र, पूषा, सूर्य, अग्नि, इन्द्र, अदिति, बृहस्पति सोम, मित्रावरुण और
आप् आदि प्रसिद्ध देवताओं के सम्बन्ध में विचार किया है। डा० रेळे
का दावा है कि सम्पूर्ण वैदिक देवता और उनके कार्य हमारे मस्तिष्क
संस्थान के विभिन्न कार्यों के द्योतक हूँ।' रेले की यह भी प्रतिज्ञा है कि
बैदिक ऋषियों ने बहुत हुत सी ऐसी बातों का पता छगा छिया था, जो
वत्तेमान समय में आधुनिक विज्ञान की सहायता से पुनः जानी जा सकती
हें--बहुत सी ऐसी बातों का भी उन्हें ज्ञान था, जिनका ज्ञान वर्तमान
युग में अभी हमें प्राप्त करना है ।'
वेद के बहुत से शब्द द्वधर्थक और नानार्थक तो हें; परन्तु यह
नहीं कहा जा सकता सारे देवता-नामों को इलेषालंकार का जामा पहनाया
गया हूँ । वेद-कर्त्ता वा वेद-स्मर्ता का एक सिद्धान्त था, एक प्रतिपाद्य
था। सीषे-सादे ऋषि नानार्थक या द्वघर्थक का जाल फैलाकर अपना
प्रतिपाद्य उलझन में डाळनेवाले नहीं थे। दूसरी बात यह हे कि रेले ने
ब्राह्मण निरुक्त, श्रातिशाख्य तथा वैदिक सम्प्रदायों की परम्परा की
चिन्ता नहीं की हूँ। उनका अर्थ केवल काल्पनिक है और उन चतुर्वेद
स्वामी की दृष्टि का अनुधावन करनेवाला है, जिन्होंने वेद के एक ही
मन्त्र से पूतना-वध, गोवद्धन-धारण और कंस-बध आदि मनमाने अर्थ
निकाले हैं ! देवों का रहस्य बतानेवाले बृहृद्देवता', 'निएुक्त', 'निरुवत-
वात्तिक आदि अनेक वैदिक ग्रन्थ हें।
यमराज ओर पित-लोक
विवस्वान् के द्वारा सरण्य् के गर्भ से यम और बरुण की उत्पत्ति
हुई हें। ईरानी धर्म-पुस्तक 'अवस्ता' में यम को मित्र कहा गया है ।
वहाँ मित्र को प्रथम राजा और सभ्यता का उत्पादक माना गया हूँ।
सुकृती पुरुषही मित्र का और मित्र के साथ ee ज्द का साक्षात्कार
प्राप्त करते हूँ। जैसे वेद में यम के पिता ववस्वान् हे, बैसे ही
'अवस्ता' में विवन्वत् हे । जिस तरह ऋग्वेद की यमपुरी में पुण्यात्मा
निवास करते हें. उसी प्रकार 'अवस्ता' की यमपुरी में भी। फारसी के
( २९ )
प्रसिद्ध कवि फिरदौसी ने अपने शाहनामा' में मित्र को 'यमदिद' छिखा
है। यमशिद नामी सम्राट थे।
ऋग्वेद (१२२१.४) में यम के पिता आदित्य और माता सरण्यू
कथित ह। यम को सत्यवादी भी कहा गया हैं। आगे कहा गया हैं-.-
यम के पास ही सारी मानव-समृदाय जाता ह ।' जिस पथ से हमारे
पूर्वज गये हूँ, उसी से अपने कर्मानुसार सारे जीव जाय॑गे।' (१२२७.१-
२) जहाँ हमारे पितामहादि गये हैं, उसी प्राचीन मार्ग से हे मृत
पितः, जाओ। स्वधा से प्रसन्न यमराज और वरुणदेव को देखो ।' उत्कृष्ट
स्वर्ग में अपने पितरों से मिलो । साथ ही अपने धर्मानुष्ठान के फल से
भी मिलो। इमशान-घाट के पिशाचादिको, यहाँ से हटो, दुर जाओ ।*
“लम्बी नाकोंवाले दूसरों का प्राण-भक्षण करके तृप्त होनेवाले , मनृष्य
को लक्ष्य करके विचरण करनेवाले महाबली जो दो यमदूत (कुक्कुर)
हें, वे आज यहाँ हमें सूर्य-दर्शन के लिए समीचीन प्राण दें।' (१२२८.७-
९ और १२) ऋत्विको, राजा यम के लिए अत्यन्त मिष्ट हूवि का हवन
करो। यमराज ब्रिककुद् (ज्योति, गौ और आयु नामक) यज्ञ के
अधिकारी हे। यम चुलोक, भूलोक, जळ, उद्भिज्ज, उर्क तथा सूनृत
नाम के ६ स्थानों में रहते हे और संसार में धिचरण करते हे
(१२२९.१५-१६) उत्तम, मध्यम, अधम आदि तीन श्रेणियों के पितरों
का और पितरों के द्वारा यज्ञ-मण्डप में कुशों पर बैठकर हृव्य के साथ
सोमरस के ग्रहण करने” का भी उल्लेख है (१२२९.१ और ३) ।
पितरो, तुम लोग दक्षिण तरफ घुटने टेककर पृथिवी पर बैठते हुए यज्ञ
की प्रशंसा करो। हम मनुष्य हु : इसलिए हमसे अपराध होना संभव है।
इसके लिए हमारी हिसा नहीं करना।' “पितर हवन करना जानते
थे और अनेक ऋचाओं की रचना करके स्तोत्र प्रस्तुत करते थ॑ तथा
अपने कर्म-प्रभाव से देवत्व प्राप्त करते थे।' साधु-स्वभाव पितर देवों के
साथ हवि भक्षण करते थे और इन्द्र के साथ रथ पर चढ़ते थे।'
(१२३०.५ और ९-१०) 'जो पितर जलाये गये है और जो नहीं जलाये
गये हू, वे सबस्वर्ग में स्वधा के साथ आनन्द करते है (१२३१.
१४) । दो मन्त्रों में पितूयान का भी उल्लेख है (१२३५.१-२) ।
१२५४.१५ में देवयान और पित-यान, दोनों का उल्लेख हूँ । हे
पाठक देखें कि पुराणों में जो यमराज, यमदूत, पितर, पितृ-यान
आदि का उल्लेख है, उससे ऋग्वेद के एतद्विषयक विवरण से आश्चर्य-
जनक साम्य हूं। पुराणों में ही नहीं, संस्कृत-साहित्य के किसी भी ग्रन्थ
के एतद्विषयक विवरण से इस विवरण का अपुवे समन्वय है। ऊपर
( ~Yo )
के एक मन्त्र से यह भी पता चलता है कि कुछ ठ जलाये जाते थे
और कुछ लोग नहीं। ये दोनों बातें भी पुराणों में ह । अवश्य ही
पुराणों को भाषा और विषय प्रफुल्लित रूप में ह।
सूयदेव
अदिति देवी के पुत्र आदित्य (सूर्य) माने गये हें। आदित्य छ;
ह--मित्र, अर्यमा, भग, वरुण, दक्ष और अंश (३२९.१) । १२१०.३
में सात तरह के सूर्य बताये गये हें। १३३६.८-९ में कहा गया हे कि
अदिति के आठ पुत्र थे--मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग, विव-
स्वान् और आदित्य। इनमें से सात को लेकर अदिति देवी चली
गई और आठवें सूर्य को आकाश में छोड़ दिया।' 'तेत्तिरीय-ब्राह्माण' में
आदित्य के स्थान पर इन्द्र का नाम हे। 'शतपथ-ब्राह्माण' में १२ आदित्यों
का उल्लेख है । महाभारत (आदिपर्व, १२१ अध्याय) में इन १२ आदित्यों
के नाम ह--धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्,
पूषा, त्वष्टा, सविता और विष्णु। अदिति का यौगिक अर्थ अखण्ड
है। यास्क ने अदिति को देवमाता माना है।
कहा जाता हैं कि वस्तुतः सूर्य एक ही हे, कर्म, काल और परिस्थिति
के अनुसार सूर्य के विविध नाम रखे गये हें।
पृष्ठ ४५ के ३५ वें सूक्त में ११ मन्त्र हें और सबके सब सूर्य-
वर्णन से पूर्ण हें। सूर्य का अन्तरिक्ष में भ्रमण, प्रातः से सायं तक
उदथ-नियम, राशि-विवरण, सूर्य के कारण चन्द्रमा की स्थिति,
किरणों से रोगादि की निवृत्ति i के द्वारा भूलोक और द्युलोक का
प्रकाशन आदि बातें एक ही सूक्त से विदित होती हें। ८ वें मन्त्र में
कहा गया है--' भू ने आठों दिशाएँ (चार दिशाएँ और चार उनके
कोने) प्रकाशित किये हें। उन्होंने प्राणियों के तीनों संसार और सप्त
सिन्धु भी प्रकाशित किये हें। सोने की आँखोंवाले सविता यजमान को
द्रव्य देकर यहाँ आवें।
६७.८ में लिखा हँ--सूर्य, हरित नाम के सात घोड़े (किरणें )
रय से तुम्हें ले जाते हँ। किरणें वा ज्योति ही तुम्हारा केश हैं # ३४५.२
में कहा गया हँ--- सूर्य के एक चक्र रथ में सात घोड़े जोते गये हें। एक ही
अश्व (किरण) सात नामों से रथ ढोता है। इससे विदित होता है कि
ऋषि को सूर्य-रश्मिके सात भेदों और उनके एकत्व का भी ज्ञान
था।
१८६.८ में कहा गया हे---उषा सूर्य से ३० योजन आगे रहती
("१ )
है? इस पर आचार्य सायण ने लिखा हे--सूर्य प्रति दिन ५०५९
थोजन भ्रमण करते ह। इस तरह सूर्य प्रत्येक दण्ड में ७९ योजन
घूमते हे। उषा सूर्य से ३० योजन पूवेगामिनी है; इसलिए सूर्योदय से
प्रायः आधा घंटा पहले उषा का उदय मानना चाहिए।' पाइचात्यों
के मत से सूर्य बीस हजार मील प्रति दिन चलते हें। परन्तु सूर्य
की गति अपने कक्ष में ही होती है।
इन दो मन्त्रों में सूर्य-संबंधी अनेक ज्ञातव्य विषय हे--'सत्यात्मक
सूर्य का, बारह अरों, खूंटों वा राशियों से युक्त, चक्र स्वगे के चारों
भोर बार-बार म्रमण करता और कभी भी पुराना नहीं होता। अग्नि,
इस चक्र में पुत्र-स्वरूप होकर सात सौ बीस (३६० दिन और ३६०
रात्रियाँ) निवास करते हे।' अगले मन्त्र में दक्षिणायन (पूर्वाद्ध) और
उत्तरायण (अन्यार्ध) का भी कथन है (२४७.११-१२)। ७१४.५ में
भी दक्षिणायन का विषय हे। २५२.४८ में भी ३६० दिनों की बात है।
२३३.६ में काल के ये ९४ अंश बताये गये हे--संवत्सर, दो
अयन, पाँच ऋतु (हेमन्त और शिशिर को एक माननं पर), बारह
भास, चौबीस पक्ष, तीस अहोरात्र, आठ पहर और बारह राशियाँ ।
५९२.५-९ में सूर्य-ग्रहण का पूर्ण विवरण है।
८४७.११ में सूयं (मित्र, वरुण और अर्यमा) के द्वारा वर्ष, मास,
दिन और रात्रि का बनाया जाना लिखा है। २८.८ में १२ मासों की
बात तो हैं ही, तेरहवें महीने का भी उल्लेख है । यह तेरहवाँ महीना
मलमास वा मलिम्लूच हे। ३५०.३ में भी मलमास का उल्लेख है।
पृथिवी की चारों ओर सूर्य की गति से जो वर्ष-गणना की जाती
हैं, उसमें बारह 'अमावास्याओं' की गणना करने से कई दिन कम हो
जाते हैं। इसलिए सौर और चान्द्र वर्षो में सामंजस्य करने के लिए
चान्द्र वर्ष के प्रति तीसरे बर्ष में एक अधिक मास, मलमास वा मलि-
म्लुच रखा जाता हे । इस मन्त्र से ज्ञात होता है कि बैदिक साहित्य में
दोनों (सौर और चान्द्र) वर्ष माने गये हुं और दोनों का समन्वय
भी किया गया हैं।
१४४४.४ में कहा गया हे, अजर और ज्योतिर्दाता सूर्य सदा चलते
रहते ह। १४६४-६५.१-३ मन्त्रों में सूर्य की गतिशीलता और
तीस मुहूत का उल्लेख हे। ९२६.३० में इन्द्र द्वारा सूयं के आकाश
में स्थापन के साथ ही सारे संसार के नियमन की बात लिखी हे। १४३९.१
में कहा गया हैं कि सूर्य ने अपने यन्त्रों से पृथिबी को सुस्थिर रखा
है। उन्होंने विना अवलम्वन के द्युलोक को दृढ़ रूप से बाँध रखा है ।'
( ४२ )
इन उद्धरणों से विदित होता है कि म्मणश्ीळ सूर्य ने अपनी आकर्षण-
शक्ति से पृथ्वी, ग्रहोपग्रहो के साथ आफाश वा स्वगं (द्यौ) और सारे
सौर मण्डल को बाँधकर वियमित कर रखा है। इससे स्पष्ट ही विदित
होता है कि आयौँ को सूर्य की आकर्षण-शक्ति और खगो का
ज्ञान था। अगले मन्त्र से भी इस मत का समर्थन होता है--'इस
गतिशील चन्द्रमण्डल में जो अन्तहित तेज हैं, बह् आदित्यनकिरण
ही है” (११६.१५) । इस भन्व पर सायण ने निरुवत (२.६) उद्-
धृत किया ह--“अथाप्यस्यैको रङ्मिश्वन्द्रमसं प्रति दीप्यते । आदित्यतोऽ-
स्य दीप्तिर्भेवति।” अर्थात् सूर्यं की एक किरण चन्द्रमा को प्रदीप्त
करती हैं। सूर्य से ही उसमें प्रकाश जाता हैं।'
वैज्ञानिकों के मत से सूर्यं की किरणें अनेक रोगों को विनष्ट
करती हें। ऋग्वेद के तीन मन्त्रों (६७-८.११-१३) से वैज्ञानिकों के
इस मत का समर्थन मिलता हे---सूर्य, उदित होकर और उन्नत आकाश
में चढ़कर हमारा मानस (हूदयस्थ) रोग और पीतवणं रोग वा दारीर-
रोग विनष्ट करो। में अपने हरिमाण वा शरीर-रोग को दक
सारिका पक्षियों पर न्यस्त करता हूँ। आदित्य मेरे अनिष्टकारी रोग
के विनाश के लिए समस्त तेज के साथ उदित हुए हें।! इससे पता
चलता है कि सूर्योपासना से सारे शारीरिक और मानसिक रोग
विनष्ट हो जाते हैँ। सूर्योपासको के लिए ये तीन मन्त्र मुख्य हैं।
प्रत्येक सूर्योपासक, अपनी आधि-व्याधि की शान्ति के लिए, इन मन्त्रों
को जपता है। सूर्य-वमस्कार के साथ भी इन मन्त्रों का जप किया
जाता हैं। सायण के मत से इन्हीं मन्त्रों का जप करने से प्रस्कण्व
ऋषि का चर्म-रोय विचष्ट हुआ था।
ऋग्वेद में खगोलवर्ती सप्तषि, ग्रह, तारा, उल्का आदिका भी
उल्लेख है। कहा गया है--थे जो सप्तषि नक्षत्र हे, जो आकाश में
संस्थापित हें और रात होने पर दिखाई देते हे, वे दिन में कहाँ चले
जाते हैं?” (२७.१) मन्त्र के मूल में “ऋक्षाः शब्द है, जिसका अर्थ
सायण ने सप्त तारा' किया है। घालु से ऋक्ष शब्द बना हैं,
जिसका अर्थ उज्ज्वल हूँ। इसी लिए नत | का नाम उज्ज्वऊ पड़ा और
सप्तषियों का नाम उज्ज्वल भालू हुआ। पाश्चात्य भी इन्हें Great
5621 कहते हैं। अन्यान्य मन्त्रों में भी सप्तषियों का उल्लेख है।
७७.६ में इन्द्र के द्वारा ताराओं को निरावरण करवा लिखा हर
१३१३.४ में ग्रहों, नक्षत्रों और पृथिवी को देवों के द्वारा यथास्थान
( ४३ )
नियमित करने की बात है। १३१९.४ में कहा गया है---“सातो आकाश
से सूयं उल्का को फेक रहे हैं। १४०३५७ में १४ भवनों का उल्लख है।
इन मन्त्रों से ज्ञात होत हे कि आयं खगोल्नोवद्या के ज्ञाता थे।
वैदिक साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों में इसका बिस्तार हे। क्रग्बेद में
प्रत्येक विषय सूक्ष्मतम सूत्र में वर्णित हँ । अतः बड़ी सावधानी से प्रत्येक
विपय का अध्ययन और अन्वेषण करना चाहिए।
प्रसात्मा
परमात्मा के सम्बन्ध में, कई स्थानों में, सूत्र-रूप से विवृति दी गई
है। कहा गया है--झडाएलय-दशा में मृत्यु, अमरता, रात या दिन कुछ
नहीं था, केवल परमात्मा थे। 'अविद्यमान वस्तु के द्वारा वह सर्वव्यापी
आच्छन्न था। सर्वप्रथम परमात्मा के मन में सृष्टि की इच्छा
उत्पन्न हुई। फिर भोक्ता और भोग्य उत्पन्न हुए। (१४२१-२२.
२-५). थे उक्तियां उस विश्व-विख्यात नासदीय सूक्त की हें, जिसे
लो० बाल गंगार तिलक ने मानव-जाति का सर्वश्रेष्ठ चिन्तन' कहा
है। इसमें सात मंत्र हैं, जो कण्ठाग्र करने योग्य हें।
दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) मित्रता के साथ एक शरीर
में रहते हैं। जीवात्मा भोक्ता है और परमात्मा द्रष्टा हैं! (२४८.२०) ।
ईश्वर प्रजा के स्रष्टा और पृथिवी के धारणकर्तां हैँ (१२५७.८) ॥
परमात्मा एक हूँ; परन्तु क्रान्तदर्शी विद्वान उनकी अनेक प्रकार से
कल्पना करते हुँ' (१४०३.५) । सर्वप्रथम केवल परमात्मा थे। वे
सबके अद्वितीय अधीश्वर थे। उन्होंने पृथिवी और आकाश को यथास्थाच
स्थापित किया' (१४१२.१) 1 परमात्मा से सब देव उत्पन्न हुए।'
(४९९.१) । ईश्वर अनन्त सिरों, नेत्रों और चरणोंवाले हूं। वे
ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के बाहर भी व्याप्त होकर अवस्थित हे जो
कुछ है और जो कुछ होनेवाळा है, सो सब ईश्वर हेँ।' यह सारा
ब्रह्माण्ड उनकी महिमा हे--वे तो स्वयं अपनी महिमा से भी बड़े
हँ। उनका एक पैर (अंश) ही ब्रह्माण्ड है। उनके अविनाशी तीन पैर
दिव्य लोक में हें। (१३५८.१-३) समाधि-दशा में अ्रद्यात्मैक्य-
ज्ञान की अनुभूति में ऋषि कहते ह--'संसार में जो तृण खानेवारे हैं,
वह हम ही है । जो अन्न और यव खानेवाले हें, वह हम ही हैँ। विस्तृत
हृदयाकाश में जो अन्तर्यामी ब्रह्म हें, वह हम ही है (१२४८.९) ।
परमात्म-ततत्व के सम्बन्ध में इस तरह की अनेक उक्तियाँ ऋग्वेद में
पाई जाती हुं । इन्हीं के आधार पर ईश्वर-विषयक बिस्तृत विवेचन
( ४४ )
संस्कृत-साहित्य में किया गया है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त , पुरुष-
सूक्त', हिरण्यगर्भ-सुक्त' और अस्य वामीथ' सूक्त के सम्बन्ध में तो
बड़े-बड़े पोथे रच डाले गये हें और अद्वेतवाद, द्वेतवाद, द्रेताद्वेतवाद,
विशिष्टाद्वैतवाद तथा विशुद्धाद्वतवाद को लेकर अनल्प कल्पनाएँ की
गई हैं। ये सब सूक्त बार-बार मनन और निदिध्यासन के योग्य हैं।
इनके बार-बार स्वाध्याय से अध्यात्म-शास्त्र के सारे सन्देह निवृत्त हो
सकते हें ।
जो लोग केवल यौगिक अथे के पक्षपाती हे, उनके लिए तो समस्त
वैदिक संहिताओं में परमात्मा ओत-प्रोत और अन्स्यूत हूं।
अवतार ओर मूत्तिपूजा
विष्णु के वामनावतार की कथा का अंकुर ऋग्वेद के अनेक मंत्रों
में पाया जाता है। २३.१७ में कहा गया हुँ--'विष्णू ने इस जगत् की
परिक्रमा की । उन्होंने तीन प्रकार से अपने पैर रखे और उनके धलियुक्त
पैर से जगत् छिप-सा गया। आगे चलकर कहा गया है --विष्ण ने
वामनावतार में तीनों लोकों को नापा था। उन्होंने तीन बार पाद-क्षेप
किया था। विष्णु के तीन पाद-क्षेप में सारा संसार रहता है।' विष्णु
ने अकेले ही एकत्र अवस्थित और अति विस्तीणं लोक-त्रय को तीन
बार के पद-क्रमण द्वारा मापा था। (२३१.१-३) 'त्रिविक्रमावतार
सें विष्णु ने एक ही पैर से सम्पुणं जगत् को आक्रान्त किया था।'
(४३३.१४) । विष्णु ने अपने तीन पैरों से तीनों लोगों को वामना-
वतार में नापा था। (९२६.२७) ।
ऋग्वेद के एतरेय-ब्राह्मण (६.१५) में इस सन्दर्भ का कुछ विस्तार
है--देवों और असुरों के बीच जब संसार का बँटवारा होने लगा, तब
इन्द्र ने कहा--अपने तीन पेरों (तीन बार पाद-क्षेप) से विष्णु जितना
माप सकें, उतना संसार देवों का होगा ओर शेष असुरों का होगा ।
इस निर्णय से असुर भी सहमत हो गये। पश्चात् विष्णु ने पाद-परिक्रम
से जगत् को व्याप्त कर लिया।' यजुर्वेद के शतपभग्राद्माण (१.२.५)
में उल्लेख हे--असुरों ने कहा कि वामन-रूप विष्णू के शयन करने पर
जितना स्थान आवृत होगा, उतना देवों का, शेष अशुरों का। इसका
अनुमोदन देवों ने किया | व्रिष्णू ने सारे संसार को आवूत कर उसे देवों
को दिला दिया।
पुराणों में यही कथा विस्तृत रूप में आई है। इसी लिए पुराणों
को भी लोग वेद-भाष्य कहते हे। इसी प्रकार दधीचि, पृथवान्, वेन,
( ४५ )
राम, नहुष, उवेशी, पुरुरवा, यदु, मनु, मान्धाता, पृथुश्रवा, सुदास, च्यवन
आदि को कथाओं का अंकुर वेद में पाया जाता है और इन सबका
विशद व्याख्यान महाभारत, वाल्मीकीय रामायण और पुराणों में उपलब्ध
है। इसी से कहा गया है--
“इतिहास-पुराणाभ्यां वेदं समुपब् हयेत ।
विभेत्यल्पश्र्ताद्वेदो मामयं अहरिष्यति ॥
अर्थात् इतिहास और पुराण के द्वारा वेदार्थ का विस्तार करना
चाहिए । वेद अल्पश्रुत व्यक्ति से डरता हैँ कि 'यह मुझे मारेगा।'
सचमुच ऐसे ही अल्पश्रत और अद्ध-पक्व व्यक्ति इन दिनों हिन्दू-
संस्कृति और आर्य-सभ्यता की आधार-शिला (वेदिक वाङ्मय) पर
प्रहार पर प्रहार कर रहे हें। इतिहास और पुराण के ज्ञान से शून्य
व्यक्तियों का परम्परागत वेदाथं समझना कठिन हूँ ।
ऋग्वेद में मत्ति-पुजा का भी अंकुर पाया जाता है। ऋग्वेद से
विदित होता है कि पहले दाइमयी या काठ की मूत्तियाँ बनती थीं।
काठ शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है। यही कारण हैं कि इन दिनों
प्राचीनतम भूत्तियाँ नहीं पायी जातीं और अल्पश्रुत व्यक्ति मृत्तिपूजा
के मूल पर ही क्रुठाराघात करते हें। ऋग्वेद (५०८.२३) से स्पष्ट ही
ज्ञात होता हैँ कि काष्ठ की मूत्तियां बनती थीं। इससे यह भी पता
चलता है कि ये मूत्तियाँ सेव्य थीं। इसी मंत्र में मूत्ति-पूजा का
अंकुर है, जिसका विस्तार पुराणादि में किया गया हे।
त ©
आत्मा ओर पुनजन्म
परलोक वा देवयान और पितृयान का विवरण जिन सुक्तो में है,
उन्हीं में आत्मा और पुनर्जन्म का भी कथन हूं । अन्यत्र भी है।
१२३२.३ में कहा गया हुँ--'व्यक्ति का एक अंश (आत्मा) जन्म-
रहित और शाश्वत हूँ ॥ २४८.२० में जीवात्मा को कमंफल-भोक्ता
बताया गया हैं।
१२३५.२ में इस जन्म और पूवं जन्म के पापों से शुन्य होकर
पवित्र बनने की बात है । १४५८ पृष्ठ के तीनों मन्त्रों में जीवात्मा और
जन्मान्तर का विवरण हुँ--'मानस चक्षु से विद्वानों ने देखा कि जीवात्मा
को माया आक्रान्त कर चुकी हूँ । पंडितों ने कहा कि यह समुद्र (परमात्मा
सें घटित हो रहा है । विद्वान् (ज्ञानी) परमात्मा की किरणों (ज्योति
में जाने की इच्छा करते हैं! पतंग (जीवात्मा) को गर्भ में ही गन्धर्वो
वा देवों ने वाक्य सिखाया। बह् दिव्य, स्वर्ग-सुखदाता और बुद्धि का
फू १८
( ४६ )
अधीश्वर है। सत्य मार्ग में विद्वान् उस वाणी की रक्षा करते है ।
तात्पर्यं यह हे कि गर्भावस्था में ही जीवात्मा को देवों वा ईश्वरीय शक्ति
के द्वारा बीज-रूप से शब्द प्राप्त हो जाते हे । शब्दकी शक्ति असीम होती
है। उसे बुद्धिमान् लोग मिथ्या की ओर नहीं छे जाते।' तीसरे मन्त्र
का अर्थ हुँ--'जीवात्मा का कभी पतन वा विनाश नहीं होता। वह
कभी समीप और कभी दूर, नाचा मार्गो (योनियों) में, अमण करता
है । बह कभी अनेक वस्त्र पहनता (अनेक गुण धारण करता) हूँ और
कभी (नीच योनियों) में पृथक्-पृथक् (दो-एक अल्प गूण) पहनता
(धारण करता) है। इस प्रकार संसार में वह बार-बार आता-जाता है।'
आत्मा और पूनर्जन्म के रहस्य का विस्तृत विवेचन दर्शनशास्त्र
और पुराणादि में किया गया है। आत्मा के सम्बन्ध में तो संस्कृत-
` साहित्य के अनेकानेक पाण्डित्य-पूर्ण ग्रन्थों में विशद विवेचन किया
गया है। पुनर्जन्म का विज्ञान आर्ये-शास्त्रों की विशिष्ट संस्कृति हे।
क्रिश्चियानिटी, इस्लाम आदि धर्म पुनर्जन्म के विवेचन और विज्ञान से
दूर भाग कर पुनर्जन्म को ही अस्वीकृत कर डालते हें। किन्तु बौद्ध, जैन
आदि इस विज्ञान को शिरसा अंगीकृत करते हैं ।
यज्ञ हर्य
जेन-बौद्धों में अहिसा, ईसाइयों में दया, सिखों में भक्ति और
इस्लाम में नमाज का जो महत्व हुँ, बही वा उससे भी बढ़कर बैदिक
धर्म में यज्ञ का है। वेद-धर्म का प्रधान अंग यज्ञ हँ! वस्तुतः किसी
भी धर्म का, किसी भी राष्ट्र का, किसी भी समाज का और किसी भी
व्यक्ति का क्रियात्मक रूप ही उसका प्राण है । क्रियात्मक रूप के अभाव
में कोई भी धर्म, राष्ट्र, समाज चा व्यक्ति निःस्व, निष्प्राण और
जड़ीभूत शव है।
इसी लिए ऋग्वेद (१३५९.८-१०) में कहा गया है, यज्ञ से ही
वेद, छंद, गौ और चतुष्पद उत्पन्न हुए।' ध्यान-यज्ञ से देवों ने यज्ञ-
पुरुष की पूजा की। यज्ञ ही प्रथम वा मुख्य धर्म है! (१३५९.१६) ।
'तपस्वियों ने यज्ञ-पुरुष को हृदय में प्रबुद्ध किया' (१३५८.६-७)।
यज्ञ सत्यरूप और सत्यात्मा है (११४८.८-९) । देवों ने ज्योति, आयु,
और गौ के लिए ज्ञान-साधक यज्ञ का विस्तार किया था' (१०४९.२१) ।
अथववेद की घोषणा है--“अय॑ यज्ञो भुवनस्य नाभिः।” अर्थात्
“विश्व की उत्पत्ति का स्थान यह यज्ञ है। सभी कर्मो में श्रेष्ठ कर्म
यज्ञ है! (शतपथन्राह्मण १.७.४.५) । शतपथ यज्ञ को ईश्वरीय बताता
( ४७ )
ह--- प्रजापतियें यज्ञः”, 'बिष्णुर्वे यज्ञः।” यज्ञ को सूर्ये के समान तेजस्वी
कहा गया है--'स यज्ञोऽसौ स आदित्यः” (शतपथव्राह्मण १४.१.१.६६ ॥
यज्ञ करनेवाला सारे पापों से छूट जाता है! ( शतपथब्राह्मण २.३.१.६) ॥
परेयव्राह्मण (१.४.३) का मत है, यज्ञ ओर मंत्रों के उच्चारण से
वायुमण्डल में परिवर्तन हो जाता है और निखिल विश्व में धर्म-चक्र
चलन छगता हूँ। ' ब्राह्मण-ग्रंथों में यज्ञ को विश्व का नियामक भी
कहा गया हे।
वस्तुतः यज्ञ में मंत्र-पाठ से चित्त शान्त और मन सबल होता
हे । यज्ञाग्नि में दी गयी हवि वायु के सहारे सूयं की ओर जाकर समस्त'
अन्तरिक्ष में व्याप्त होती है। सूर्य के प्रभाव से मेघ-मण्डल के साथ'
धूम-मिश्चित हवि के मिल जाने पर वर्षा होती है। वर्षा से अन्न उत्पन्न
होता और अन्न से प्रजा की रक्षा होती है। हवि से पाथिव पदार्थ, वायूः
और सूर्य-रश्मि आदि भी युद्ध होते हैं। हवि से देवता तृप्त होकर
मानव-समाज का कल्याण करते हें। यज्ञ में देव-पुजन के कारण याज्ञिक
को देवत्व की प्राप्ति होती है। यज्ञ के कर्म-फळ से स्वर्ग की प्राप्ति होती'
हैं (२२.६) । जैमिनीय मीमांसा के मत से यज्ञ से ही मुक्ति मिळती है।
जैसे सूर्य के द्वारा संसार की दुर्गन्ध दूर होती है और जळ पवित्र
होता हूँ, वैसे ही यज्ञ के द्वारा भी दुर्गन्ध दूर होती और जल पवित्र
होता है। यञ्च के द्वारा विशुद्ध वर्षा-जल अन्य जल को और अन्न को
शुद्ध करता ह। शुद्ध अन्न-जळ वे ही शरीर स्वस्थ और मन पवित्र रहता
हूँ इसी लिए कहा गया हुँ--“बृष्टि-कामो यजेत” (वर्षा चाहनेवाला
यज्ञ करे) ।
अन्यान्य लाभों के अतिरिक्त यज्ञों के कारण विविध कलाओं
की उत्पत्ति भी हुई। यज्ञ-सम्पादन के लिए सूर्थ, चन्द्र और नक्षत्रों
की गति का निरीक्षण करते-करते ज्यौतिष विद्या की उत्पत्ति हुई।
यञ्ञों में विशुद्ध भन्त्रोच्चारण के विचार से आयं लोग जिन नियमों की
समीक्षा करते थे, उनसे दैव-विद्या, ब्रह्म-विद्या और व्याकरण-दास्त् का
जन्म हुआ। यज्ञ-सम्पादत के लिए जो चिति, यज्ञ-वेदी, रेखा आदि
का निर्माण किया जाता था, उसके नियमों से संसार में ज्यामिति-शास्त्र
का आविष्कार हुआ। दो अश्र (94७21८5), चार अश्र ( Triangle),
ट्रोणकार (717०७६॥) वाली वेदियों और चितियों के निर्माण ने
रेखागणित-शास्त्र का आविष्कार कर दिया। कल्पसूत्रों के शुल्व-सूत्रों
में इसका विस्तृत विवरण पाया जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने यज्ञ की परम्परा-प्राप्त
( ४८ )
ब्याख्या की हे और यज्ञ-रहस्य का सुन्दर विवेचन किया हं। यज्ञ का अर्थ
यजन, पूजन, समादर, परोपकार-ब्रत, लोकल्याण, अद्ट-करछोत्पादकता
आदि को तो माना ही गया हे, यज्ञ के भदोभेद तथा प्रविरूढ़ रहस्य
का भी गीता ने विवरण दिया हे । पहले ही गीता का उद्घोष है :---
“यज्चार्थात्कमंणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: ।” अर्थात् 'यज्ञ के लिए जो
कर्म किये जाते हँ, उनके अतिरिक्त, अन्य कर्मों से यह लोक बँधा हुआ
है ।' तात्पयं यह है कि यज्ञ-कर्म मूक्ति देनेवाले हुँ और अन्य कर्म
बन्धन डालनेवाले हें। आगे कहा गया हे--निाये छोकोउस्त्यवज्ञस्य
कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।” अर्थात् यज्ञ न करनेवाले को जब कि इस लोक में
ही कोई सफलता नहीं मिलती, तब उसे परलोक कहाँ से मिलेगा ?'
भगवद्गीता के ६ इलोकों (३.१०-१५) में भगवान् कृष्ण ने यज्ञ
की व्याख्या इस प्रकार की हे--यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न करके
प्रजापति ब्रह्मा न प्रजा से कहा--यज्ञ के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो। यह
तुम्हें इच्छित फल दे । तुम यज्ञ के द्वारा देवताओं को सन्तुष्ट करते रहो
और वे देवता तुम्हें सन्तुष्ट करते रहें। इस तरह परस्पर सन्तुष्ट करते
हुए दोनों परम कल्याण प्राप्त करो। यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता तुम्हे
इच्छित भोग देंगे। उन्हीं का दिया हुआ उन्हें वापस न देकर जो
केवल स्वयं उपभोग करता हुँ, वह सचमृच चोर हुँ। यज्ञ करके बचे
हुए भाग को ग्रहण करनेवाले सज्जन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।
परन्तु यज्ञ न करके केवल अपने ही लिए जो अन्न पकाते हें, वे पाप भक्षण
करते हे। प्राणियों की उत्पत्ति अन्न से होती है, अन्न वर्षा से होता है,
वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है और कमं से यज्ञ की उत्पत्ति होती है। कर्म की
उत्पत्ति प्रकृति से हुई है और प्रकृति परमेश्वर से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए
सवे-व्यापक ब्रह्म सदा यज्ञ में विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार जगत् की
रक्षा के लिए चलाये हुए यज्ञ-्चक्त को जो आगे नहीं चलाता, उसकी
आय् पाप-रूप हुँ। देवों को न देकर स्वयं उपभोग करनेवाले मनुष्य का
जीवन व्यर्थ हे।'
इन इलोकार्थों से ज्ञात होता है कि यज्ञ करना और देवों को सन्तुष्ट
करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, यज्ञ न करनेवाला चोर और
पापी हँ, यज्ञ से ही परम्परया जीवों की उत्पत्ति और उनकी घ्राण-रक्षा
होती हुँ, यज्ञ में साक्षात् परमात्मा विराजते हें और यज्ञ न करनेवाले
का जीवम ही वृथा ९। ॒
यज्ञ करना भगवान् की सेवा करना है। भगवान् ने स्पष्ट कहा
ह~ श्रद्धा के साथ अन्य देवों के भक्त बनकर जो लोग यजन (यज्ञ)
( ४९ )
करते हैं, वे भी मेरा ही यजन करते हें; क्योंकि मे ही सारे यज्ञीय पदार्थों
का भोक्ता और स्वामी हुूँ। (गीता ९.२३-२४) ।
१७वें अध्याय (११-१३ श्लोकों) में श्रीकृष्ण ने सात्विक, राजस
और तामस यज्ञों के लक्षण भी बताये हैं। कहा गया है--'फलाशा छोड़कर
और कत्तेव्य समझकर, शास्त्रीय विधि के अन् सार, शान्त चित्त से, जो
यज्ञ किया जाता हुँ, वह सात्विक है। फल की इच्छा से और ऐश्वर्य का
प्रदशन करन के लिए जो यज्ञ किया जाता हुँ, वह राजस है । शास्त्र-विधि-
रहित, अन्नदान-विहीन, विना मन्त्रों का, विना दक्षिणा का. श्रद्धा-शून्य
यज्ञ तामस यज्ञ है । चतुथे अध्याय के २४वें श्लोक में भगवान् ने कहा
हे--यज्ञ-साथक ब्रह्म को पाता हे।' इसी अध्याय के २३वें इलोक
में कहा गया हुँ--यज्ञ के लिए कमं करनेवाले के सारे (भव-) बन्धन
छूट जाते हेँ।
इसी स्थळ पर भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मयज्ञ, संयम-यज्ञ, योग-यज्ञ,
्रव्य-यञ्ञ, स्वाध्याय-यज्ञ, ज्ञान-यज्ञ आदि कितने ही याज्ञों को बताया
हुं और यह भी कहा हूँ कि इन सारे यञ्ञों का उल्लेख वेद में है । श्रीकृष्ण
ने अन्त में यह भी कहा दे कि यज्ञ से मुक्ति प्राप्त होती है ।' यहीं
(४.३२) गांधी जी ने भी अपने “अनासक्ति-योग” में लिखा है--
यज्ञ के बिना मोक्ष नहीं होता ।' यज्ञ से ही मीमांसा भी मोक्ष मानती
है। यह बात पहले भी कही गई है।
ऋग्वेद (१०५८.३) में ब्रत-रहित (अयाज्ञिक) की कुत्सा की
गयी है । १२४१.८ मे यज्ञ-शन्य को दस्यू (चोर) और आसुरी प्रकृति
का बताया गया हैं। ९४७.१४ में तो इतनी दूर तक कहा गया है कि
'अथाज्ञिक इतना बुद्धि-भ्रष्ट होता है कि वह पुरा वा मद्य पीकर पागल
हो जाता है। याज्ञिक ब्राह्मणों की प्रशंसा को गयी है (८८४-८५्.१
ओर ७-८) । १९०.१ में कहा गया हूँ कि भावयव्य के पुत्र राजा
स्वनय ने १ हजार सोमयज्ञ किये थे। २६५.१ में सोम-यज्ञ में उद्गाता
के द्वारा सामवेद के 'आकाशव्यापी गान' की बात कही गयी है । १२०७.२
में कहा गया है कि दूर देश से साम-ध्वनि सुनाई देती है।' वस्तुतः
यज्ञ में मन्त्र-्गान की मेघ-मन्द्र-ध्वनि मचःप्राणों को आनन्द-रस में
आप्लुत कर देती हूं
यज्ञ के भेद, विधि, सामग्री, ऋत्विक-भेद आदि आदि जानने के
लिए विविध ब्राह्माण-ग्रन्थ, विभिन्न श्रौतसूत्र, गृह्यसुत्र और आपस्तम्ब
ऋषि का यज्ञपरिभाषासूत्र” आदि देखने चाहिए । स्थानाभाव से यहाँ
अधिक नहीं लिखा जा सका। |
( ६० )
ञ्चु ओर नदियाँ
पहले ही कहा गया है कि आर्य लोग अपनी चारों दिशाओं के चार
समूद्रों में व्यापार-वाणिज्य करते थे (७८.२, ११०४.६ ओर १२८५.२) ।
'समुद्र में विशालकाय नौकाएँ चलती थीं! (६२.८, ६४.३, २८.७,
५२४.५ आदि) । समुद्र के मध्य रो राजा तुग्र के पुत्र भुज्यू के उद्धार
की बात भी पहले ही लिखी गयी हें (१५७.६) । एक मन्त्र (८६९.३)
में कहा गया हे--'जिस समय में (वसिष्ठ) और बरुण, दोनों नौका पर
चढ़े थे, जिस समय समुद्र के बीच में नौका को हमने भली भाँति संचालित
किया था और जिस समय जल के ऊपर नाव पर हम थे, उस समय
शोभा के लिए नोका-रूपी झूळे पर हमने सुख से क्रीड़ा की थी।' इस
प्रकार समुद्र आर्यो के क्रीडा-स्थल थे। समुद्र के मध्य द्वीप में, निजेन
प्रदेश में, भी आर्यों की अबाध गति थी (१२२१.१) ।
१४२९.४५ में लिखा हुँ--'मुनि लोग आकाश में उड़ सकते और
सारे पदार्थो को देख सकते हु' तथा 'मुनि लोग पूर्व और पश्चिम फे दोनों
समुद्रों में निवास करते हे।' यहाँ दो समूट्रों का उल्लेख है। इसके
पहले के १ और २ मन्त्रो में कहा गया है कि मुनि लोग पीले वल्कल
पहनते और देवत्व प्राप्त करके वायु की गति के अनुगामी हे" तथा
“सारे लौकिक व्यवहारों के विसर्जन से हम (मुनि लोग) परमहंस हो
` गये हे। हम वायु के ऊपर चढ़ गये हुँ। इन मंत्रों से पता चरता है कि
मुनि लोग महान् त्यागी और तपस्वी होते थे, वे वल्कल पहनते थ, बे
वायु-पथ-गामी और आकाशचारी होते थे तथा समुद्रों में भी निवास करते
थे। तात्पर्यं यह हँ कि वे देवत्व प्राप्त करके जल, स्थल, वायु और
आकाश में स्वतन्त्र विहरण करते थे--उनकी सबमें अप्रतिहत गति थी।
अङ्विनीक्ुमारों की समुद्रगामिनी नौकाएँ पंखोंवाली और सौ
डाँड़ोंवाली थीं (२७६.५ और १६७.५), यह पहले भी लिखा जा चुका
है। अन्य अनेक स्थानों में भी समुद्रो और नौकाओं का उल्लेख है।
१३३०.५-६ मन्त्र में इन नदियों के नाम आये हे--गंगा, यमुना,
सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णी (रावी), असिकूनी (चिनाब),
मरुद्वृधा (मर्वदंवन), वितस्ता (झेलम), सुषोमा (सोहान),
आर्जीकीया (व्यास), सिन्धु, सुस्त (स्वात्), रसा (रहा), इवेत्या
(अजूनी), तृष्टामा, मेहत्तू, कमु (कुरंम), गोमती (गोमल) और
कुभा (काबुल) । तृष्टामा, सुसत्तुं, रसा, इवेत्या और मेहत्नू सिन्धू नदी
की पश्चिमी सहायक नदियाँ हुँ। अइमन्वती, अंशुमती, अंजसी, अनितभा,
( ५१ )
आपया, कुलिशी, जल्वावी, दूषद्वती, यव्यावती, विपाश, विवाली, शिफा,
सरयू, हरियूपीया आदि अन्यान्य नदियों के नाम भी ऋग्वेद में पाये
जाते हैं। इस ग्रन्थ की विषय-र् पी में और इस ग्रन्थ में इन नदियों
के अतिरिक्त ऋग्वेद को अन्य वदियों का भी विवरण मिलेगा ।
सिन्धु नदी का सर्वाधिक वर्णन मिलता है। समुद्र और नदी के
अर्थ में भी सिन्धु शब्द आया हुँ । ईरानी या पारसी सिन्धू को हिन्दु
कहते थे। ईरानी सकोह और ध को द कहते थे। कहा जाता है कि
इसी लिए सिन्धू के पार रहनेवाले हिन्दू कहलाये और इस देश का
नाम हिन्दुस्थान पड़ा । अमेरिकी तो इस देश की रहनेवाली हर एक जाति
को हिन्दू कहते हुँ। ग्रीक या यूनानी सिन्धु को 'इन्दस्' कहते थे। इसी
इन्दस् वा इडस् से इंडिया और इंडियन शब्द बने हें ।
सिन्धु-तट पर अच्छे घोड़े होते थे; इस लिए घोड़े का नाम सैन्धव |
भी३। सिन्धू को समुद्र भी कहा जाता है और समुद्र में नमक
होता हैँ; इसलिए नमक का भी एक नाम सैन्धव (सेंधा नमक) पड़
गया ।
ऋणग्वेद में सरस्वती का भी ललित बिवरण पाया जाता है । दे देवता
(२५ अध्याय, १३५-३६ श्लोकों) में नदी और देवी--दोनों अर्थो में
सरस्वती का उल्लेख है शौनक के मत से ६ मन्त्रों में ही सरस्वती नदी
मानी गयी हुं । परन्तु ऋग्वेद के ३५ मन्त्रों में सरस्वती का उल्लेख
मिलता हूं। इसके तट पर अनेक यज्ञ और युद्ध हुए थे । मैक्समूलर
की राय से इसके तट पर अनेक मन्त्र रचे गये थे ॥ इसमें सन्देह नहीं कि
आयं लोग गंगा से भी बढ़कर सरस्वती को मानते थे क्रग्वेद में गंगा
का उल्लेख दो ही बार है।
सरस्वती का उत्पत्ति-स्थान मीरपुर पर्वत माना गया है । अनेकों
के मत से कुरुक्षेत्र के पास सरस्वती बहती थी और वह पटियाला राज्य में
विलुप्त हो चुकी है । बहुतों की राय में सरस्वती बीकानेर की मरभूमि
में लुप्त हुई है। परन्तु पुराणों के अनुसार सरस्वती पृथिवी के भीतर
ही भीतर आकर प्रयाग में गंगा और यमुना के साथ मिल गयी
है। इन्हीं तीनों का नाम त्रिवेणी है ।
१८१.१३ में लिखा हूँ कि (इन्द्र नौका द्वारा नब्बे नदियों के पार गये
थे। २८९.१३ में निनानबे (९९) नदियों के नामों का कीर्तन किया
गया हे। परन्तु ऋग्वेद में तो ९० वा ९९ नदियों के नाम अलभ्य हें।
वया मन्त्रों के समान इन नदियों के नाम भी लुप्त हो गये ?
(५२ )
देश बा विदेश !
ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर कीकट. कुरु, गन्धार, सेदि, पारावत
आदि अन्तर्देशों के नाम आये हैं। परन्तु कुछ एसे देशों के भी नाम आथे
हें, जिनके सम्बन्ध में निझ्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता फि ये नाम
अन्तदंशों के हें या विदेशों के !
१०९२.२ में 'पाँच देशों के परस्पर मित्र मनुष्यों' की बात कह
गयी हे । पता नहीं, ये पाँचों देश कहाँ और कौन थे ! ७३४.२१ में
'दासों के निवास उदव्रज' देश का नाम आया है । भगवान् जाने, यह देश
कहाँ था ! ५७८.१२ से १५ तक के मन्त्रों में रशम देश का उल्लेख
है, जहाँ के राजा ऋणञ्जय थे और जहाँ के निवासियों ने बभ्र ऋषि को
चार हजार गायें दान दी थीं। ११३२.२३ में आर्जीक देश का उल्लेख
है। १२८६.८ में गुंगुओं के देश का नाम आया है । १२८८.४ में वेतसु
देश का उल्लेख है। जसे ऋग्वेद के जर्भरी, तुर्फरी, फरफरीका, आछिगी,
विलिगी, तैमात, ताबुबम् आदि शब्दों के अर्थ सन्दिग्ध हें, वसे ही इन
देशों का स्थान-निर्णय भी संदिग्ध है ।
आयै-जाति
ऋग्वेद में आयं-जाति की विवृति देखकर आश्चर्य होता है कि
अगणित वर्ष पहले आर्यो की संस्कृति कितनी उच्च थी, उनका मस्तिष्क
कितना उदात्त था और आय आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधि-
भौतिक विषयों में कितनी उन्नति कर चुके थे !
आर्ये-जाति के प्रबळ प्रताप का लोहा पृथिवी-मण्डल की समग्र मानव
जाति मानती थी--अब तक मानती है । आजकल जड़वादी अभ्युदय,
वैज्ञानिक उन्नति और सभ्यता के शिखर पर पहुंचने का दम भरनेवाली
पाश्चात्य जातियाँ भी अपने को आर्थ-वंशज कहलाने में गर्व और
गौरव का अनुभव करती हैं ! ये मानती हे कि समृची धरित्री पर आर्य-
जाति की संस्कृति की अमिट छाप पड़ी हुई है और प्रायः निखिल
महीमण्डल में आयो की अबाध गति और आधिपत्य के प्रमाण उपलब्ध
हें। एशिया, यूरोप और अमेरिका तक में वैदिक संस्कृति के चिह्न अब
तक पाये जाते हुँ। मैक्समूलर के मत से आर्यो की अप्रलिहत गति और
अमिट आधिपत्य के प्रमाण ईरान, अमनी, अळबानिथा, आयरत, आरियाई,
आयलेड, एरिन आदि आदि स्थान-नाम भी हे
ष्टग्वेद में आर्य-जाति की प्रतिभा के अपरिमित प्रमाण पाये जाते
( ५३ )
हँ। १२०५.२ में कहा गया है, महान मनुष्यों (आयों) के राज्य में
हम तुम्हारा स्तोत्र करते हैं। इन्द्र ने आर्य-जादि के लिए ज्योति दी
है। इन्द्र ने आर्य-भाव द्वारा दस्यु का अतिक्रम किया हैं (३०५.
१८-१९) । आर्यो का एक मात्र धन ब्रह्मचरयतेज था। इस बात को
ऋगवेद (३२४.१५) में यों कहा गया हँ--बृहस्पति, जिस धन की
आये पूजा करते हं दो दीप्ति और यज्ञवाला धन छोगों (समाज) में
शोभा पाता है, जो धन अपनी दीप्ति से प्रदीप्त हें, वही विलक्षण घन
अर्थात् बरह्मचर्य-तेज हमें दो।' इसी ब्रह्मचर्य-तेज में आयों के अभ्युदय का
रहस्य छिपा हुआ है । ४९८.२ में तो स्पष्ट ही कहा गया हे कि हमने
(इन्द्र ने) आर्य-जाति को दान में पृथिवी दे दी हैं। फिर समस्त
भूमण्डल पर आर्य-राज्य के आधिपत्य में सन्देह ही क्या रहा ? अग्निदेव
को आर्यों का संवद्धंन-कारी कहा गया हे (१०६८.२) । एक मन्त्र
(८४६.२) में तो आर्य को स्वाभाविक स्वामी वा ईश्वर बताया गया हैं।
आर्यों की संस्कृति और धर्म जेन-बौद्धों की तरह जीवन-संग्राम'
से पलायनवादी नहीं थे। आर्य शूर-वीर थे और उनके सारे कर्म वीरता-
पूर्ण थे। वे समादरणीय मल्लके समान प्रसन्न-वदन और यशः-शाली
थे (९४४.२०) । आये महान हृदय और अत्यन्त उदार मस्तिष्क के
थे। उनकी माता मेदिनी और पिता स्वर्ग था (१२२.४) । बे मातु-
स्वरूपिणी और सुखकारिणी पृथिवी की शरण में जाने' को लालायित
रहते थे (१२३६.१०) । वे ईश्वरीय ज्योति से जगमगाते रहते थे
और वर्तमान तथा भविष्य की सारी घटनाओं को देखते' रहते थे
(२९.११) । वे किसी के सामने 'दीनता प्रकट करनेवाले नहीं थे
(३३३.११) उनका सुदृढ़ सिद्धान्त था--'च दैन्यं न पलायचम्। वे
'संसार के हितैषी पुरुष' थं (९६.२) ।
आर्यो का उद्घोष था-- जिसका मन उदार नहीं हे, उसका भोजन
करना वा अन्न उत्पादन करना वृथा हैं। उसका भोजन करना वा अन्न
उत्पादन करना उसकी मृत्यु के समान है । जो न तो देवता को देता है, न
मित्र को देता है, प्रत्यृत स्वयं ही भोजन करता है, वह केवल पाप ही
खाता है--केवलाघो भवति केवळादी' (१४०८.६) । निष्कर्ष यह हैँ कि
स्वार्थी का जीवन पापमय और घृणित हैं।
वे सत्य के लिए सर्वस्व स्वाहा करने को तैयार रहते थे। वे अपना
बाह्य और आन्तर--सब सत्यमय देखना चाहते थे। वे अपने सामने
असत्यवादी को देखना तक नहीं चाहते थे। वे अपने इष्टदेव से याचना
करते थे--हमें ऐसा पुत्र दो, जो सत्य का पालन करनेवाला हो और
| ५४ )
परिजनों के साथ रणांगण में शत्र का संहार करनेवाला हो' (५७०.६) ।
वे ऐसे पुत्र की याचना करते थे, जो अपन कमें से अपने पूर्वजों के यश
को प्रख्यात करनेवाला हो? (५७०.५) । उनका सुदृढ़ सिद्धान्त था---
पापी मनुष्य सत्य मार्ग से नहीं जा सकते (११४८.६) । उनका अचल
मत था--'यज्ञ-हीन, सत्य-रहित और सत्यवचन-शून्य पापी नरक-
स्थान को उत्पन्न करता है! (४६२.५) ।
सत्य के समान ही आयौँ के सदाचारी जीवन, उदारता, शुभ संकल्प,
निर्भयता, स्वावलम्बन, विइव-प्रेम, निर्लोभ और सामाजिक संघटन का
उल्लेख भी अनेक मन्त्रों में है बिस्तार-भय से यहाँ सबको लिखना
सम्भव नहीं। परन्तु इस समय के लिए अत्यन्त उपयुक्त आर्यों के
संघटन और एकत्व-बुद्धि को तो प्रत्येक देश-प्रंमी को शिरसा ग्रहण कर
लेना चाहिए। उनका पवित्र आदेश हुँ--'एक मन होकर जागो' (१३-
८१.१) । तुम्हारा अध्यवसाय एक हो, तुम्हारे हृदय एक हों और
तुम्हारा अन्तःकरण एक हो। तुम लोगों का सर्वागपूर्ण (सम्पूर्ण रूप से)
संघटन हो (ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र) ।
अपनी सन्तान के लिए आर्यों का यही अजर और अमर उपदेश है।
यदि इस उपदेश पर हम अचल और अडिग रहें, तो अणूबम, उदजन
बम, कोबाल्ट बम वा इनसे भी भीषणतम बम हमारा बाळ भी बाँका नही
कर सकेंगे--ये हमें खिळवाड जंचेंगे ।
आयो की युद्ध-कला
ऋग्वेद में यथेष्ट थुद्ध-वर्णेन है । वस्तुतः जीवन विलासिता में नहीं
हें। जीवन है तप में, जीवन हे युद्ध में । मुख्य बात यह है कि जीवन ही
संग्राममय है । तब जीवन का रहस्य बतानेवाले ऋग्वेद में युद्ध-वर्णन क्यों
न हो? और, जो समाज के शत्रु हे, मनुष्यों में जो राक्षस हे, वे तो सचमच
ताड़न के अधिकारी” है। दुष्ट-दमन न हो तो मनुष्य की सम्पूर्ण
सामाजिक व्यवस्था और समस्त श्रृति-मार्ग ही भ्रष्ट' होने का भय है।
इसलिए ऋग्वेद में दुष्ट-दळन की आज्ञा का उल्लेख उपयुक्त हँ ।
पुद के समय घाँसे की घुधुकार से आकाश घहरा उठता था। कहा
गया हं-- है युदध-दुन्दुभि, अपने शब्द से स्वर्ग और धरणी को परिपूर्ण
कर दो--स्थावर और जंगम--सब इसे जान जाये।' "दुन्दुभि, हमारे
शत्रुओं को रुलाओ । हमें बल दो। इतने जोर से बजो कि दुद्ध॑ष शत्रओं
को दुःख मिछे। दुन्दुभि. जो हमारा अनिष्ट करके आनन्दित होते है,
उन्हें दूर हटाओ ॥ (७२३५-२९-३०) 1 आगे कहा गया है--'जुझाऊ
( ५५ )
बाजा भयंकर रीति से घहरा रहा है। गोधा (हस्तघ्त नाम का बाजा)
चारों दिशाओं में निनाद कर रहा है। पिगल वर्ण की ज्या (प्रत्यञ्चा)
शब्द कर रही हैं! (१०२१.९) । सशस्त्र सेना के सम्बन्ध में कहा गया
हे--'इन्द्र की सहायता से हम हृथियारबन्द लड़ाकों की सुसज्जित सेना
के शत्रु को भी जीत सकेंगे! (८.४) । स्वामी के द्वारा संचालित सेना
अथवा धनुर्धारी के दीप्ति-मुख वाण के समान अग्नि शत्रुओं में भय
उत्पन्न करते है” (९४.४) दुन्दुभि नियत उच्च निनाद कर रही हे
हमारे सेनानी घोड़ों पर चढ़कर इकट्ठे हुए हें। हमारे रथारूढ़ सैनिक
और सेनाएँ युद्ध में विजयी बनें! (७३५.३१)
युद्ध में आये अनेकानेक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करते थे। वे लोहे
का कवच पहनते थे! (७८.३) । 'जिस समय राजा लोह-कवच पहनकर
जाता हे, उस समय वह साक्षात् मेघ माळूम पड़ता हे. (७७१.१) । योद्धा
कवच के आश्रय में रहते ह” (१०००.८) ।
युद्ध में धनुष् और वाण का प्रयोग बहुत होता था। घनष आरयों का
प्रिय शस्त्र था। हम धनष से समस्त दिशाओं में स्थित शत्रओं को
जीतेंगे।' ज्या वाण का शालिगन करके शब्द करती है / दोनों घनुष्-
कोटियाँ शत्रुओं को छेद डालें ।' 'तुणीर वा तरकस वाणों का पिता हुँ ।
बाण निकलते समय तुणीर “त्रिश्वा' शब्द करता है। तुणीर सारे शत्रुओं
को जीत डालता है (७७२.२-५)। आर्यों के घोड़े टापों से धूलि
उड़ाते हुए और रथ के साथ सवेग जाते हुए हिनहिनाते हें और शत्रुओं
को टापों से पीटते हु (७७२.७)
पुराने काठों, पक्षियों के पक्षों और उज्ज्वल शिलाओं से वाण बनाये
जाते थे! (१२०७.२) । वाण विषाक्त भौर लौह-मुख भी होते थे! (७७३.
१५) । ज्या वा प्रत्यञ्चा गो-चर्मं की बनती थी (१२५०.२२)
हस्तत्राण (दस्ताना ? ) और कर्तन (कटार) भी थे! (२६०.३) ।
आयो के नाना प्रकार के और बड़े शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र होते थे।
शतद्वार' नाम का प्रसिद्ध अस्त्र था (६८.३) । रुद्र के अस्त्र का नाम
हिति था (३४०.१४) । इन्द्र के आयुध का नाम 'हरिद्वर्ण था (४१७.४)
दाक्ति' नाम का अस्त्र भी इन्द्र के पास था (१४२७.६) । तलवार वा
लौहमय खडग' का बहुत बार उल्लेख है (७३२.१० और १३५६.८)
दो धारोंवाली तलवार भी थी (१३५०.७) । लोहे के कुठार बनते थे
(६६४.४ और १२९३.९) । फरसे और मद्गर भी थे (८८९.२१)
हाथी को वश में करने के लिए अंकुश थे (१३९०.६) । आर्य देवास्त्रों
का भी व्यवहार करते थे। |
( ५६ )
आयौँ के रथ सौ-सौ चक्कों और ६-६ घोडोंवाले भी होते थे
(१६७.४) । हजार पताकाओवाले रथ' भी थे (१७५.१) । पाँच-
पाँच सौ रथ एक साथ चल्ते थे (१३६६.१४) । रथ पर आट सारथियों
के बैठने योग्य स्थान होते थं (१२९३.७) । नगर के चारों ओर
परिखा वा खाइ होती थी (२०१४) । ४० कोस श्रतिदिन चळनेवाले
घोड़े थे (८९१.९) काष्ठ-खण्ड से सीमा बाँध कर घड़दौड़ की
जाती थी (१६९ १७ और १४४४.१) । असाधारण-बलशाली मृष्टिका-
प्रहार से भी शत्रं को मार डालते थे (७०६.२) ।
अंशुमती नदी के तट पर रहनेवाखे कृष्णासुर की दस हजार सेनाओं
का विनाश कर डाला गया था (१०५७.१३) । शम्बरासुर की ९९
पुरियों का विनाश करके १००वी पर अधिकार किया गया था (७९७.५) ।
युद्ध में ऐरावत हाथी से शत्रुओं के सिर कुचले जाते थे (२०४.२) । इन्द्र
ने १५० सेनाओं का विनाश किया था (२०४.४) । पचास हजार काले
राक्षसों का वध किया गया था (४७७.१३) । एक बार ३० हजार राक्षसो
का विनाश किया गया था (५०४.२१) ।
परन्तु आर्यो का सबसे बड़ा युद्ध दशराज्ञयुद्ध/ था । कदाचित् दस यज्ञ
विहीन राजाओं के साथ सूर्यवंशी सुदास राजा का भीषण युद्ध हुआ था
(८६४.६-७) । सुदास के सहायक वसिष्ठगण और तृत्सुगण आदि थे
(८१३.३ और ५) । इसमें भेद (नास्तिक) का भी वध विया गया था
(७ ) ५.१९) । इस प्रसिद्ध युद्ध में ६६०६६ व्यक्ति मारे गये थे (७९४.
१४) ।
वायुयान
ऋग्वेद में विमान, वायुयान वा आकाशयान का स्पष्ट उल्लेख तो
नहीं है; परन्तु अनंक मन्त्रों में कुछ इस तरह का विवरण पाया जाता
है, जिससे अनेक वेदज्ञ यह अनमान लगाते हें कि ऋग्वेद में विमान की
बातें हेँ। अमेरिकन महिला ह्लीलर विल्छाक्स ने अपने Sublimity of
the ४८००७ (पृष्ठ ८३) में इस बात को स्वीकार किया है कि
वैदिक ऋषियों को विद्युत्, रेडियो, एलेक्ट्रन, विमान आदि सभी बातों
का ज्ञान था। बड़ौदा में यन्त्र-सर्वस्व' नास का एक ग्रन्थ मिला है,
जिसके लेखक भरद्वाज ऋषि हें। इसके वैमानिक” प्रकरण में लिखा है
कि वेदों के आधार पर ही इस ग्रन्थ को बनाया गया हैं।' इस ग्रन्थ में
विमान-विषयक अनेक संस्कृत-पुस्तकों का भी उल्लेख हे। इसके उक्त
` प्रकरण में ३२ प्रकार के वैमानिक रहस्य बताये गये हैं । कहा गया
( ५७ )
है--प्रत्येक विमान में दूरदर्शक यंत्र रहता था । प्रत्येक में गति को
वक्र करने, दूसरे विमानवालों से बातें करने दूसरे विमान को वस्तुएँ
देखने, दूसरे विमान की दिशा जानने, दूसरे विमानवालों को बेहोश करने
और शत्रु के विमान को नष्ट करने के भी यंत्र लगे रहते थे।' इस
ग्रन्थ में बताये यदि सभी ग्रन्थ मिल जाते, तो इस विषय पर सम्भवतः
विशेष प्रकाश पड़ता ।
ऋग्वेद (४३.२) में कहा गया हें कि 'अश्विद्वय के रथ में तीन दृढ़
चक्र और रथ के ऊपर, अवलम्ब के लिए, तीन खंभ लगे हें। वेना के
विवाह के समय देवों ने इसे पहल पहल जाना। ४५.१२ में त्रिलोक में
चलनेवाले रथ का उल्लेख हं। क्या त्रिलोक मं साधारण रथ चरू
सकता हें? ६३.२ में भी ऐसे ही रथ का कथन हैं। २७४.१० में तो
आकाशचारी रथ का उल्लेख हे। ४१६.६ में भी ऐसा ही उल्लेख हुँ ।
परन्तु ५१३.१ में तो स्पष्ट ही कहा गया हैं कि 'अझ्विनीकुमारों का
त्रिचक्र रथ अश्व के विना और प्रग्रह के बिना अन्तरिक्ष में भ्रमण करता
है।' ऋभुओं नं इस रथ को बनाया था। ७६३.७ में तो एक एसे रथ
का विवरण है, जो पृथिबी अन्तरिक्ष और स्वर्ग--तीनों में चलने में
समर्थ था। तो क्या यह विमान ही था?
ऐहिक अभ्युदय
आर्य-जाति ने भौतिक उन्नति भो थथष्ट की थी। लोहे की बहु-
लता के कारण नगर के नगर लोहे के बनते थ जिन्हें आये 'लौह-पुरी'
वा 'लौह-वगरी' कहते थे । ३२०.८ में ऐसी ही एक लौहपुरी का इन्द्र द्वारा
विध्वस्त किया जाना लिखा हैं; क्योंकि यह दस्यु-पुरी थी । ७७९.७ में
तो लौह-पुरी के साथ ही अपरिमित सुवर्णमयी पुरी का भी उल्लेख है।
७९०.१४ में महान् लौह से निर्मित शतगणपुरी' की भी बात है ।
१०६४.८ में गरुड़ के द्वारा लौहमय नगर के पार जाना' लिखा है।
सौ दरवाजों वाळी पुरी का भी निर्माण होता था (१३७७.३) ।
हजार दरवाजों वाळे गृह भी बनते थे (८७०.५) । हजार खंभों-
वाले मकान होते थे (३५२.५ और ६३२.६) । हम्यं और अट्टालि-
काएँ होती थीं (२५६.४) । मकानों में तीन-तीन तल्ले होते थे (९८४.१२,
१३१५.५ और १३१६.७) । इन मन्त्रों से यह भी पता चलता हें कि
तीन कोठोंवाले गृह ही आर्यो को अधिक रुचिकर थे। ७३०.९ में एक
ऐसे गृह की बात है, जो लकष्टी, ईट और पत्थर का बना था और जिसमें
शीत, ताप और ग्रीष्म का प्रभाव नहीं पड़ता था । तो क्या आर्य शीत-ताप
( ५८ 2)
नियन्त्रक (911-८01701101166) गृह बनाते थे? दरवाजों पर
वेत्रधारी दरवान रहते थे (३१३.९)।
आर्यों को मिट्टी का घर बिलकुल नापसन्द था (८७०.१)।
खोदाई करनेवाले नाना प्रकार के हथियार थे (३८३.४) । वे खोदकर
तड़ाग बनाते थे (१२०५.५) ।
वे चादर (उष्णीष) धारण करते थे और उवटन लगाते थे (८०३.३
और १३४२.७) । वे धौत वस्त्र (घोती) पहनते थे (११७३.३) ।
उनकी पगड़ी सोने की होती थी (३४१.३) । वे तकिया भी लगाते थे
(१४३७.६) । वे तैल का भी उपयोग करते थे (१०३४.२) । आये
जड़ी-बूटियों से भी चिकित्सा करते थं (९४५.२६) । १०७ स्थानों में
औषधियाँ होती थीं (१३७३.१) ।
स्थाली में भोजन बनता था (४३०.२२) । कलश और जळ-्पान-
पात्र होते थे ( १२४५.४) । पेटिकाएँ (बाक्स) बनती थीं (१०२८.९) ।
नर्तेकियाँ नृत्य करती थीं (१२७.४) । नत्तैन-क्रीडन तो पितुमेध-
यज्ञ तक में होता था (१२३५.३) । वेणु बाजा बजाया जाता था (१४-
२८.७) । वीणा भी बजती थी (३४२.१३) । कर्करि नाम के वाद्य
का बड़ा प्रचार था (३५४.३) ।
कभी-कभी रथ में बकरे जोते जाते थे (१२४७.८) । गदहे (गर्दभ)
भी रथ-वहन करते थे (१६६.२) ।
समाज के आवश्यक कार्य-वाहक वर्ग भी कई थें। सोवा गळाफर
गहने बनानेवाला सोनार था (६६४.४) । सोनार और मालाकार (माली)
का एक साथ ही एक मन्त्र (१००१.१५) में उल्लेख हूँ । रथ आदि बनाने-
वाळे बढ़ई भी थे (१३६५.१२) । तन्तुवाय (जुलाहा) वस्त्र बुनता
था (१३८९.१) । काठ का काम करनेवाले और वाण आदि बनाकर
बेचने वाले शिल्पी थे। वैद्य थे और जौ भुननेवाली कन्याएँ थीं (१२०७.
१-३) । भाथी (भस्त्र) और भाथी वाल थे (५५७.५) । वाँह में छुरा
लटकानेवाले और दाढ़ी-मूँछ मुँडनेवाले नाई थे (९०३.१६ और १४३४.
४) । अप्सराएँ भी थीं (११५३.३) । गन्धर्वं का उल्लेख है ही
(१३४५.४०) । वणिक् तो थे ही, सूदखोर भी थे (१०१५.१०) ।
)
स्वण- राशि को प्रचुरता
यद्यपि ऋग्वेद में मणियों (४२.८) और रत्नों (१८९.१, ६४५.३
तथा १०५२.२६) की भी चर्चा है; परन्तु स्वर्ण की अधिकता का बार-
बार उल्लेख हँ । सोता इतना होता था कि सोने का नगर तक बनता था
( ५९ )
(७७९.७) । सोने की नौकाएँ बनती थीं, जो समुद्र के मध्य तक जाती
थीं (७५०.२) । सोने के रथ बनते थे (१२९.१८, २१२.३-४, ६४५.३
और ९९८.२४) । सोने का झूला या हिडोला होता था (८६८.५) ।
सोने के घड़े बनते थे (५०८.१९) । सोने का चर्मास्तरण होता था
(८९४.३२) । सोने से घोड़े विभूषित किये जाते थे और उन्हें सदा
मळा जाता था (१९१.४) । स्वर्णाअरण-विभूषित घोड़ों और श्यामवर्ण
घोड़ों का उल्लेख बहुत बार आया हे (२४०.२ और १३२०.११) ।
सोने की पगडियाँ बनती थीं (३४१.३, ६२०.११ तथा ९१४.२५) ।
पैरों के कटक (काड़े ), हाथों के वलय, हृदय के हार, गले की माला और
तरह तरह के आयुध--सब सोने के बनते थे (६१६. ४ और ६२०.११) ॥
सोने की ही मुद्रा चलती थी. जिसे निष्क कहा जाता था (१९१.२) ।
“ps ८
आर्यो को आदश दान-परायणता
आर्य लोग दान और दक्षिणा देनं में अनुपम थ। ऋग्वेद में दान
और दक्षिणा की महिमा के लिये दो सूक्त ही हे (१३९२.१०७वाँ सूक्त
'दक्षिणा-सूक्त' और १४०७.११७वाँ सूक्त दानसूक्त' है) । इन दोनों
सूक्तों का पाठ करने पर आर्यों की उदारता और पर-दुःख-कातरता पर
विमुग्ध हो जाना पड़ता है । कहा गया है कि दाता को क्ळंश और दुःख
नहीं होता। पृथिवी और स्वर्ग में जो कुछ अम्य है, सो सब दाता
को मिल जाता हुँ--दाता देवता बन जाता है' (१३९३.८) । जो
याचक को नहीं देता और मित्र की सहायता नहीं करता, वह दुःखी होता
है और वह मित्र कहाने योग्य नहीं रहता।' 'घन किसी के पास स्थिर
तो रहता नहीं--रथ के पहिये की तरह घूमता रहता हे। कभी किसी
के पास रहता है और कभी किसी के पास जाता है। जो स्वार्थी है,
जो बे कमाया स्वयं ही खाता है, वह पापी है ।/ (१४०७,२ और
४--६ |
कक्षीवान् नाम के ऋषि को सौ स्वर्ण-मुद्राएँ, सौ धोड़े सौ बैल,
१०६० गाये और १० रथों में जोते गये ४० लोहित-वर्ण अश्व दान
में मिळे थे (१९१.२-४) । अवत्सार ऋषि को तीस हजार वस्त्र दान
में मिळे थे (१११८.४) । देवातिथि नाम के ऋषि को ६० हजार गायों
का दान दिया गया था (९०४.२०) । सोने के रथ का दान राजा
पृथुश्रवा करते थे (९९८.२४) । वश ऋषि ने भी दान में ६० हजार
गाये पायी थीं (९९८.२९) । एक मन्त्र (९९७.२२) में वश ऋषि
ने स्वयं ही कहा हे--मेंने ७० हजार अश्व, २ हजार ऊंट, १ हजार
( ६० )
काली घोडियाँ और १० हजार श्वेत गायें पायी ह।' अपने को
सभ्यतम कहनेवाला कोई इन दिनों इतन! महान् दानी मिलेगा ?
९
कुषूक आय
आर्य खेती करते थे और कृषि-कम के लिये उन्हें देवी आज्ञा मिली
थी। कहा गया है---अिश्विद्वय ने मनृष्यों को कृषि-कार्य की शिक्षा
दी थी (९४८.६) । एक दूसरे मन्त्र (१७३.२१) में कहा गया है
कि 'अद्विद्वय ने आये मानव के लिये हल द्वारा खेत जुतवाकर,
यव (जौ) वपन कराकर तथा अन्न के लिये वृष्टि-वर्षण करके उसे
विस्तीण ज्योति प्रदान की। जौ के खेत बार-बार जोते जाते थे--
“किसान बैलों से जौ का खेत बार-बार जोतता है (२५.१५) । आयौँ
की अभिलाषा रहती थी--वबलीवर्द (बैल) सुख का वहन करे।
मनुष्यगण सुख-पूर्वक कृषि-कार्यं करें । लाँगल (हल) सुखपूर्वक कर्षण
करे। प्रग्रह-समूह (रस्सियाँ) सुखपूर्वक बद्ध हो' (५४०.४) । आगे कहा
गया हे--'इन्द्रदेव सीताधार काष्ठ को ग्रहण करें। पुषा सीता (छांगल-
पद्धति) को नियमित करें। फल या फाल (भूमि-विदारक काष्ठ)
सुखपूर्वंक भूमि कर्षण करे। रक्षकगण बलों के साथ गमन करें। पर्जन्य
(मेघ) मधुर जल द्वारा {थिवी को सिक्त करें। (५४०.७-८) १३८१.
के १०१ सूक्त के अधिकांश मन्त्रों में कृषि-सामग्री का विवरण हँ । लिखा
ह--ऋत्विको, कर्षण (जोताई) आदि कर्मों का विस्तार करो। हल-
दण्डरूपिणी नौका प्रस्तुत करो। हुल योजित करो। युगों (जुआठों)
को विस्तृत करो। स्तुत क्षेत्र में बीज बोओ। हुँसिये पके धान्य में
गिरें। लांगल जोते जाते हे । कर्मकर्ता जुआतों को अलग करते हे।
पशुओं के जलपान-स्थान को बनाओ। वस्त्र या तंग (चर्म-रज्जु) को
योजित करो। गड्ढे से जल लेकर हम सींचते हे। पशुओं का जलपान-
स्थान प्रस्तुत हुआ है। जलपूर्ण गडहे में सुन्दर चर्म-रज्ज है। इससे जल
लेकर सेचन करो। पशुओं का यह जळ-पूर्ण जलाधार एक द्रोण (३२
सेर) होगा। (२-७ मन्त्र) खेत काटने के हथियार को दात्र कहा
जाता था (१०३५.१०) । किसी भी खेत में इतना जौ होता था कि
उसे एक बार में नहीं काटा जा सकता था। एक मन्त्र (१४२३.२)
में उल्लेख हं--- जिनके खेत में जौ होता है, वे अलग-अलग करके, क्रमश;
उसे अनेक बार काटते हैं।'
जो धान्य की कोठी (कुशूल) में रखा जाता था और आवश्यकता
नुसार उसे बाहर निकाला जाता था (१३१९.३) । मान-दण्ड लेकर
( ६१ )
खेत मापे जाते थे (१५४.५) । उर्वरा वा उपजाऊ भूमि के लिए कभी-
कभी विवाद भी उठ खड़ा होता था (७०५.४) ।
जौ के अतिरिक्त किसी दूसरे अन्न का कहीं भी ऋग्वेद में स्पष्ट
उल्लेख नहीं है। जौ भूना जाता था (१२०७.३) । इसका सत्तू बनता
था और सत्तृ को सूप से साफ किया जाता था (१३२४.२) । सत्तू में
घी मिलाकर उसे व्यवहार में लाया जाता था (७४९.१) |
यव (जौ) देवान्न हँ । इसलिए हवन में इसी का उपयोग किया
जाता था--अब तक किया जाता हैँ। तैल का उल्लेख है। कदाचित्
यह तिल का तैळ हँ । सम्भवतः तिल भी होता था; क्योंकि जौ के साथ
तिळ मिलाकर हवन किया जाता हे । जौ का उबटन बनता था।
जौ और तिळ के सिवा अन्य अन्न मनुष्यान्न है, देवान्न नहीं। घी दु की
नदी बहती थी । अतएव आर्यो को आजकल के 'अटपट' अन्नों की
आवश्यकता भी नहीं थी ।
आय गौ के अनन्य भक्त होते थे--धामिक और आथिक दोनों
से। उन्होंने अपनी सन्तानों और मनुष्यों को उपदेश दिया है~-'जो गाय
ुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की भगिनी और दुग्ध का निवास-
स्थान है, मनृष्यो, उस निरपराध गो-देवी का वध नहीं करना। गो-देवी
को छोटी त्रृद्धि का मनृष्य ही परिर्वाजत करता है ।' (१०६६.१५-१६)
कीकट (दक्षिण मगध) में गायों की दुर्गेति होती थी; इसलिए उसे
अनार्य-देश कहा गया हुँ (४२८.१४) । गोष्ठ, गोचरण और यो-सम्मेलन
भी होते थे (१२३८.४) । 'चिरञ्जीविनी गायों का दुग्ध-सेवन? उनकी
उत्तम अभिलाषा थी (१२३८.६) । यही बात १२४२.१३ में भी है।
ऋग्वेद के तीन गो-सूक्त अत्यन्त प्रसिद्ध हे--७०९ का २८ वाँ सूक्त,
१२३७ का १९वाँ सूक्त और १४५३ का १६९वाँ सूक्त। गो-जाति के
सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये इन सूक्तों का स्वाध्याय करवा चाहिए ।
राज्य-शासन
ऋग्वेद से पता चलता है कि राजा का निर्वाचन होता: था--“राजन्,
तुम्हें मेने राष्ट्रपति चुना। तुम इस देश के प्रभु बनो । अटल-अविचल
और स्थिर होकर रहो । प्रजा तुम्हारी अभिलाषा करे । तुम्हारा राजत्व
नष्ट न होन पावे (१४५५.१) । इसी आशय के अगले चार मन्त्र और
हे । इस सूक्त के अन्तिम मन्त्र से ज्ञात होता हैं. कि प्रजा कर देती थी
(१४५६.६)। राष्ट्रपति के मन्त्री भी होते थे ( १४५६.५)। राजा की समिति
होती थी (१३७४.६), जिसके परामश से वह दासन में ळाभ उठाता था।
फा० ५ | | र
{ १२ )
निर्भय राज-पथ' होते थे (१९३.६)'। 'हास-परिहास करनेवाले
दरबारी (ममं-सचिव)' भी होते थे (१२०८.४) । 'बकवादी विदूषक”
(मसखरे) भी होते थे, जो बडी सरलता से हंसा देते थे” (२१७.७) ॥
कर्मचारी वेतन (भृति) पाते थे (१०१५.११, ११८५.३८ और ११९४.१)
कारागृह (जेल) और हथकड़ी भी थी (७८.३) । शतद्वारवाळे और
अन्धकारमय पीड़ायन्त्र-गृह (काली कोठरी ?) थे (१६७.८) ।
किसी भी राष्ट्र में यदि समाज का “सत्यानाश” करनेवाले कुकर्मी
न रहें तो शासन, जेल, हथकड़ी और पीड़ागृह की आवश्यकता ही न पड़े।
कुकर्मी ओर समाज-विध्वंसक थे; इसलिए इन वस्तुओं की भी आवश्यकता
थी। शास्य थे; इसलिए शासक और शझासन-यन्त्र भी थे।
उपद्रवी, द्वेषी और निन्दक थे (१९.३) । देव-निन्दक और दुर्बुद्धि
थे (३२२.८) । बाधक, चोर और कपटी' थे (५६.३) । गुफा में चुराया
घन छिपानेवाळे तस्कर थे (५६३.५) । मित्र-दार-गामी लम्पट थे (११-
७९.२२) । नास्तिक (भेद) थे (७९५.१८) । शराबी भी थे (८९५.१२
भौर ९४७.१४) । शौण्डिक के घर में चर्ममय न तो थे ही (२८८.-
९०) । जुआड़ी भी थे (१२५०.१७) । बहेरे के काठ से बने पासे होते
थे (१२६१.१) । जुआड़ी (कितव) की विन्दा उसकी सास करती है।
उसकी स्त्री उसे छोड़ देती है । जुआड़ी को कुछ माँगने पर उसे कोई
नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई नहीं खरीदता, वैसे ही जुआड़ी का
कोई आदर नहीं करता। पासा वाले की स्त्री व्यभिचारिणी हो जाती
है। जुआड़ी के माँ-बाप-भाई कहते हे--हम इसे नहीं जानते । जुआ-
डिओ, इसे पकड़कर ले जाओ । (१२६१.३-४) तिरेपन तरह के पासे
होते थे । जुआड़ी की स्त्री दीन-हीन वेश में रहती हुँ । जुआड़ी की माता'
व्याकुल रहती हूँ । जुआड़ी दूसरे के घर में रात काटता है ।/ (१२६२.९-
१०) अपनी स्त्री की दशा देखकर जुआड़ी का हृदय फटा करता है।
जो जुआड़ी प्रातः घोड़े की सवारी करता है, वही हारकर सायं वस्त्र-
विहीन हो जाता है और दरिद्र के समान जाड़े से बचने के लिये आग तापता
है (१२६३.११) । अन्त में जुआड़ी को उपदेश दिया गया है---
जुआड़ी; कभी जुआ नहीं खेलना (अक्षैर्मा दिव्यः)! खेती करना।
कृषि-लाभ से ही सन्तुष्ट रहना--अपने को कृतार्थं समझना” (१२६३.
१३) । भ्रम, क्रोध, अज्ञान और दूत-क्रीड़ा से पाप होता है' (८६७.६) ।
ये सब समाज-विनाशक तत्त्व तो थे ही, कच्चा मांस खा जाने-
वाले राक्षस भी बहुत थे। वे यज्ञ-विध्नकारी थे। तीन मस्तक और तीन
पैरों के भी राक्षस थे । वे सत्य-द्रोही थे। वे साधुओं के भंजक थे। कड़वी
( ६३ )
बातें करते थे। वे नर-भक्षक थे। मिथ्यावादी थे। वे मनुष्यों और
र ऐं के मांस का संग्रह करते थे । उनके सारे कमं विध्वंसक थे ।
लिए उन राक्षसों के बध की बार-बार प्रार्थना की गयी है।
(१३५०-५२. २-२५) ॥
गायें चुरानेवाळ पणि थे, जिनका नेता बळासुर था (९३०.८) ।
पणि ही नहीं, दास, दस्यु और असुर भी सत्क्मे-विध्वंसक थे । यद्यपि
ऋग्वेद मे असुर शब्द के नाना प्रकार के अर्थ भी हें; परन्तु असुर शब्द
का 'मायावी' और आर्य-द्रोही' अर्थ ही अधिक प्रसिद्ध था। असुर पक्के
समाज-विध्वंसक थे । अनेक बर्बर-जातियाँ भी थीं। य गोघातक थीं।
विस्तृत पृथ्वी पर दस्यु ही फैले हुए थे (७३४.२०) ।
एसे लोगों का शासन अत्यावश्यक था। इन्हें इनके स्थानों से भगा
दिया जाता था (७८२.६) । इन्हें जीतकर इनका धन छे लिया जाता
था (१३२१.६) । अनायोँ के यहाँ से गो-धन लाकर उसकी रक्षा की
जाती थी। सूदखोरों का धन भी ले लिया जाता था (४२८.१४) ।
तरह-तरह के दण्ड देकर इन्हें सत्पथ पर लाया जाता था वा इन्हें भगा
दिया जाता था वा मार डाला जाता था। ये सब बातें अनेक मन्त्रों में
बार-बार कही गयी हूं।
ऋग्वेद ओर नारी-जाति
प्रकृति में स्व, रज और तम नाम के तीन गुण हें वा तीनों गुणों का
समुदाय ही प्रकृति हे। प्रकृति का विकास विश्व हैँ। इसलिए जगत्
में तीनों गुणों के प्राणी सदा से रहते आये हें। अवश्य ही कर्मानुसार कोई
सत्त्व-अधान (सात्विक) होता है, कोई रजः-प्रधान (राजस) और कोई
तम:अधान (तामस) । देश, काळ और पात्र के अनुसार तारतम्य तो
हो सकता हू और होता हे; परन्तु यह असम्भव है कि किसी भी समय किसी
भी गुण वा गुणी का नितान्त अभाव हो जाय। पहले सात्विक व्यक्ति
अत्यधिक थे; त्यागी, तपस्वी, परोपकारी, आस्तिक, निश्छल, निष्कपट
मनुष्यों का बाहुल्य था; परन्तु राजसिक और तामसिक व्यक्ति भी थे।
फलतः जिन दिनों आर्य-जाति उन्नति के ३ च्च शिखर पर विराजमान
थी, उन दिनों भी कुछ दुष्ट पुरुष और दुष्टा स्त्रियाँ थीं। परन्तु ऐसों को
न्यायानुकूल कड़े से कड़ा दंड दिया जाता था । कोई पक्षपात नहीं था,
कोई अन्याय नहीं था। तपोधन ऋषियों के समक्ष पक्षपात वा अन्याय कः
होना सम्भव नहीं था ।
( ६४ )
आये-जाति. में आदश महिलाओं की प्रचुरता होते हुए भी प्रकृति के
नियमानुसार कुछ राजस और तामस स्त्रियां भी थीं। यह स्वाभाविक
बात थी। भले-बुरे में इन्द्र प्राकृतिक नियम हुँ । देवासुर-संग्राम विश्व
में सदा चलता रहता हुँ । वैदिक साहित्य में इसे इन्द्र-वृत्रासुर-य॒द्ध भी
कहा जाता है । यह शाश्वत पृद्ध ब्रह्माण्ड में ही नहीं, पिण्ड में भी
चलता रहता हूं । जो ब्रह्माण्ड में हे, बह पिण्ड में भी हे' की कहावत
शास्त्रीय है । प्रत्येक व्यक्ति में कुमति और सुमति का समर ठना रहता
है। समाज के प्रत्येक अंग में यह काण्ड होता रहता है । व्यक्तियों में
से किसी में देवी भाव का विकास अधिक रहता हैँ और किसी में आसुरी
भाव का। समाज में कोई देव होता है, कोई दानव। यह नियति हे।
इसे बदल देना या विनष्ट कर देना असंभव है ।
इसलिए यह धारणा ठीक नहीं हे कि पहले के सब लोग देवता थे
आर अब के सब लोग इत्य हे।' पहले भी कुछ दैत्यभावापन्न व्यक्ति
थे। अवश्य ही पहले त्याग और तपस्या की मृत्ति ऋषियों के आश्रमों
का जाल सारे देश मं बिछा था; इसलिए देश का वातावरण विशुद्ध
था और इसी विशुद्धता के कारण बहुत ही कम स्त्री-पुरुष दैत्यभावापन्न
हो पाते थे । इसका साक्षी सारा वैदिक वाङमय हुँ । इस वाङमय में गिने-
गिनाय स्थानों में ही ऐसे लोगों का उल्लेख पाया जाता है । यह भी
कहा जा सकता हुं कि कुकर्मी तो अत्यल्प रहे होंगे; परन्तु संसर्गं के
कारण अधिक लोग व्यर्थं ही कुयश के भागी बन होंगे । अगले मन्त्रों से
यही बात मालूम पड़ती भी हँ । |
कहा गया हँ-- मेश्यातिथि के धनदाता ध्रायोगि जिस समय पुरुष
से स्त्री बन थे, उस समय इन्द्र ने कहा था कि स्त्री के मन का शासन
करना असम्भव हूं। स्त्री की बृद्धि छोटी होती है! (९७२.१७) ।
ऐसे ही विलक्षण प्रायोगि से इन्द्र ने कहा-- तुम नीचे देखा करो ऊपर नहीं ।
पैरों को मिलाय रखो। इस प्रकार कपड़े पहनो कि तुम्हारे ओष्ठ-प्रान्त
और कटि के निम्न भाग को कोई देखन न पावे । यह सब इसलिए
करो कि तुम पुरुष स्तोता होकर भी स्त्री हुए हो' (९ ७२.१९)। तो
कया पर्दा करन का यह उपदेश केवल प्रायोगि के लिए है ? | |
राजा पुरुरवा से चिढ़कर एक मन्त्र (१३७०.१५) में उर्वशी उनसे
कह रही हे--'स्त्रियों का प्रेम वा मैत्री स्थायिनी नहीं होती । स्त्रियों
और वृकों (तेँदुओं) का हृदय एक समान होता हैं । एक तो उर्वशी
अप्सरा थी, दूसरे पुरुरवा से क्रुद्ध होकर वह उनसे दूर भागना चाहती
पी! इस दशा में उसका ऐसा कहना सामयिक ही था।
( ६५ )
किसी विषयान्ध पुरुष को लक्ष्य करके कहा गया हे--स्त्रैण मनुष्य
स्त्री की प्रशंसा करता है! (४८८.५) । कोई दो स्त्रियों का स्वामी भी
होता था (१३८२.११)। ऐसी ही एक सौत सौतियाडाह' से कहती
हँ--मिरी सपत्नी नीचसे भी नीच हो जाय। में सपत्नी का नाम तक
नहीं छेती। सपत्नी सबके लिय अप्रिय होती हुँ' (१४३७.३-४) ।
एक मन्त्र (८५८.३) में कुलटा की निन्दा और पतिब्रता की प्रशंसा हे।
एक स्थान (३३३.१) पर गुप्तप्रसविनी स्त्री के गर्भ की तरह मेरा अप-
राध” कहा गया हैँ। 'विपथगामिनी, पतिबिद्वेषिणी और दुष्टाचारिणी
स्त्री नरक-स्थान को उत्पन्न करती हुँ (४६२.५) । जार वा व्यभिचारी
और उपपत्नी वा रखेल (रक्षिता) का भी उल्लेख है (११०७.४) ।
एक मन्त्र (१२७३.६) मे व्यभिचार में रत स्त्री और एक (११७९.२३)
में जार और व्यभिचारिणी स्त्री' का उल्लेख पाया जाता हे । कदाचित
समाज को अधम मागं दिखानेवाळी एसी स्त्रियों का इन्ह ने विनाश
कर डाला था (१४०.१) ।
परन्तु समाज में एसे भ्रष्ट स्त्री-पुरुष अपवाद-स्वरूप थे। क्योंकि
ब्यभिचारी की निन्दा करते हुए एक मन्त्र (१२२२.१०) में भविष्य
के समाज में एसी भ्रष्टता आने का संकेत हु। कहा गया हे--'भविष्य
में ऐसा युग आवेगा, जिसमें भगिनियां (स्त्रियां) बन्धृत्व-विहीन आता
(पर पूरुष) को पति बनावेंगी।' परन्तु जो लोग उक्त शब्दों वा सन्दभों
का अन्य अर्थ करते हुँ, उनके लिए तो इन अपबादों का भी अस्तित्व नही ह ।
_ ऋम्वेद-संहिता का विहगावलोकन करने पर तो विदित होता हैं कि
कन्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्रीजाति का बडा सम्मान और
सत्कार था। जो कन्या पितुकुल में जीवन भर अविवाहिता रहती थी,
उसे पितृकुळ में ही अंश मिलता था (३१६.७) । आजकल के 'सभ्य'
कहाने वाले समाज में ऐसी उदारता अब तक नहीं है ! आये 'कमनीय
कन्या' की प्राप्ति के लिए बराबर याचना करते थे (११३७.१०-११) |
वे बच्चों को आभूषणों से विभूषित रखते थे (११९५.१) । वे स्वर्णा-
भरणों से अलंकृत करके कन्या का दान जामाता को देते थे। इसका
उल्लेख अनेक मन्त्रों में हे (९९९.३३, १११२.२, १२७२.१४ आदि )।
ऋग्वेद में पहले ही चन्द्रमा और रमणीय पत्नी' वेना की विवाह-
यात्रा का उल्लेख है, जिसमें अशिवद्वय आदि सभी देव' बडी तैयारी से
आये थे (४३.२) । ऐतिहासिकों के मत से ऋग्वेद का यह प्राचीनतम
मन्त्र हु । यथाविधि विवाहित और सती” महिला की बड़ी प्रशंसा की
गयी है। बली राजा के राज्य के समान सती का सतीत्व सुरक्षित माना
( ६६ )
गया है! (१३९५.३) । इन पवित्र-चरित्रा सती के सम्बन्ध में कहा गया
है---“तपस्या में प्रवृत्त सप्तर्षियों और प्राचीन देवों ने इन सती की
बात कही है। ये अत्यन्त शुद्ध-चरित्रा हें। तपस्या और सच्चरित्रता से
तो निकृष्ट पदार्थ भी उत्तम स्थान में पहुँच सकता है (तब इनकी तो बात
ही क्या?) (१३९५.४) ।
विवाह के समय वधू वस्त्र से ढकी रहती थी (९५९.१३) । १३४२-
. ४६. ६-४७ में सूर्या के विवाह का आलंकारिक वर्णन पढ़ते ही बनता है।
हून मन्त्रों में आयं-जाति के आदर्श विवाह का वर्णन पाया जाता है। कहा
गया है---वह मार्ग सरल और कण्टक-विहीन है, जिससे हमारे मित्र
लोग कन्या के पिता के पास (बारात में) जाते हें। पति-पत्नी मिलकर
रहें (२३वाँ मन्त्र) । वधू सौभाग्यवती और सुपुत्रवाली हो (२५)।
पतिगुह् में जाकर गृहिणी बनो । पति के बश मे रहकर भृत्य आदि का
व्यवस्थापन करो' (२६) । 'पति-गृह में सन्तान उत्पन्न करके प्रसन्न होना।
वहाँ सावधान होकर कार्य करना । स्वामी के साथ अपने शरीर को सम्मि-
छित करो। वृद्धावस्था तक अपने गृह में प्रभुता करो (२७)। यह
वधू शौभन कल्याणवाली हे। सभी आशीर्वाददाता आरवें। इसे स्वामी
की प्रिथपात्री बनने का आशीर्वाद दें! (३३) । पति कहता हे-- तुम्हारे
सौभाग्य के थिये में तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ। मुझे पति पाकर तुम
क में पहुँचना। देवों ने मुझे गृहस्थ-धर्म चलाने के लिये तुम्हें
है (३९) ' 'वप को पति दीर्घायु होकर सौ वर्षे जीवित रहेगा' (३९)।
(३९) । वर और वधू, परस्पर पृथक नहीं होना। नाना खाद्य भक्षण
करना । अपने गृह में रहकर पुत्र-पीत्रों के साथ आमोद, आह लाद और
कीड़ा करना' (४२) । “ब्रह्मा वा प्रजापति.हमें सन्तति दें और अर्यमा
बुढ़ापे तक हमें साथ रखें । वधू, हमारे मनुष्यों और पशुओं के लिये
कल्याणकारिणी रहना' (४३) । वधू, तुम्हारा नेत्र निर्दोष हो । तुम
पति के लिए मंगलमयी होना । पशुओं के लिए मंगछकारिणी बनो। तुम्हारा
मन प्रफुल्ल हो और तुम्हारा सौन्दर्य शश्र हो। तुम वीर-प्रसविनी और
देवों की भक्ता बनो। हमारे मनुष्यों और पशुओं के लिए कल्याणमयी
होना'। (४४) । इन्द्र, इस नारी को उत्तम पुत्र और सौभाग्यवाली करो।
इसके गर्भ मे दस पुत्र स्थापित करो' (४५) । वधू, अपने कर्म से तुम
सास, ससुर, ननद और देवरों की सम्राज्ञी (महारानी) बमो--सबके
ऊपर प्रभुत्व करो' (४६) । सारे देवता हम दोनों (वर-वधू) के हृदयों
को मिला दे । जल, वायू, धाता और सरस्वती हम दोनों को संयुक्त
रखे (४७) ।
( ६७ )
एक पुरुष का एक ही विवाह करना आदर्श था (३६७.४) । जिस स्त्री
का सम्मान-सत्कार उसका पति करता था, बह समाज में अभिनन्दनीया
गिनी जाती थी (१०२.३) । पतिव्रता हास्य-वदना होती थी (५४२.८) ।
स्वयंवर की प्रथा थी (१६६.१) । “जो स्त्री भद्र और सभ्य हे, जिसका
शरीर सुसंघटित हें, वह अनेक पुरुषों में से अपने मन के अनुकूल प्रिय
पात्र को पति स्वीकृति करती है (१२४९.१२) । श्चात होता हुँ, स्त्रियों
को अधिकांश कार्यो में स्वतन्त्रता प्राप्त थी । दास नमुचि न तो स्त्रियों की
एक सेना भी बनायी थी (५७८.९) । परन्तु आये इसके विरुद्ध थे
(१२४९.१०) ।
देव-रमणियों को यज्ञ में बुलाया जाता था (२३.९-१०) । इरा
को धर्मोपदेशिका बनाया गया था (३७.११) । इला पौरोहित्य कराती
थीं। कहा जाता है कि आयौं के अनुकरण पर यूनान में डीमेटर और
पर्सी फोन की पुजारिने भी उपदेशिका थीं और पौरोहित्य कराती थीं।
बोनियो की कयान स्त्रियां भी धान बोने के समय पूजा कराती हे।
अमेरिका के रेड इंडियनों में भी यही बात हे। ब्रिटेन के मन्दिरों में पुजा
करानेवाली स्त्रियाँ तो प्रसिद्ध ही हे।
आयं स्त्री के साथ यज्ञ करते थे (२०१.३) । ६०१.१५ और
१२७४.१० में भी यही वात है। पितृगुह मं वृद्धावस्था तक रहनेवाली
घोषा (१२७०.३) ब्रह्मवादिनी महिला थी (१८४.५) । घोषा आदि.
अनेक महिलाओं ने अनेक सूक्तों का स्मरण वा निर्माण किया था।
यह बात पहले लिखी जा चुकी हे । स्त्रियाँ हुवन करती थीं, उपदेश
देती थीं और वेद पढ़ती थीं।
परन्तु यह बात आरयेजाति में ही थी । संसार की अन्य प्राचीन
जातियों मे तो स्त्रियां उपेक्षणीय थीं। जो जितनी स्त्रयां चाहता
था, उतनी रख लेता था। पेगम्बर महम्मद के पहले अरब में जन्म
लेते ही लड़कियाँ जला दी जाती थीं। एथेन्स और स्पार्टा में स्त्रियों
की जो नारकीय दशा थी, वह इतिहास के विद्याथियों से छिपी
हुई नहीं है । |
प्रश्न हो सकता हुँ कि तब इन दिनों स्त्रियों के लिए वेदाध्यय-
नादि का निषेध क्यों किया जाता हे? इसका विस्तृत उत्तर आप-
स्तम्बधर्मसूत्रः (१.५.१-८) और 'हारीतस्मृति’ (२१.२०-२३) आदि
में दिया गया हृ। 'वीर-मित्रोदय' (संस्कार-प्रकाश) में भी यही उत्तर
हे--स्त्रियाँ दो प्रकार की हे--एक ब्रह्मवादिनी, दूसरी साधा-
रण। जो ब्रह्मवादिनी थी, वे हवन करती थीं, घर में ही वेदाध्ययन
( ६८ )
करती थीं और भिक्षा माँग कर खाती थीं।' यमस्मृति में कहा गया हु---
पुराने समय में कन्याओं का उपनयन होता था (गोभिल-गृहधसूत्र,
२ य प्रपाठक), वे वेद पढ़ती थीं, गायत्री भी पढ़ती थीं; परन्तु
उन्हें पिता, पितुव्य वा भ्राता ही पढ़ाते थे, दूसरा नहीं । फलत
साधारण स्त्रियों के लिए ये बातें निषिद्ध थीं। इ दिनों तो किसी
घोषा, विशवावारा, अपाला, सुलभा, मंत्रेयी वा गार्गी वाचकनवीका
अस्तित्व नहीं है। असाधारण स्त्रियों का कार्यं साधारण स्त्रियां
कैसे कर सकती हे?
आयं औरस पुत्र चाहते थे (७७६.२१) । अनौरस से दूर
रहते थे (७८१.७) । पुत्र के अभाव में दौहित्र उत्तराधिकारी होता
था (३९५.१) । |
विशेष
यह भूमिका ऋग्वेद का अत्यन्त सूक्ष्मतम विहगावलोकन है ।
परन्तु ऋग्वेद के समान विशाळ ज्ञानराशि की भूमिका हजार दो
हजार पृष्ठो में लिखी जाय, तो वह भी सूक्ष्म विहगावलोकन ही कही
जायगी । भूमिका में लिखित विषयों के विस्तृत ज्ञान और अन्यान्य विषयों
की ब्यापक अभिज्ञता के लिए तो पाठकों को 'विषय-सूची' और हिन्दी
ऋग्वेद! देखना चाहिए।
“ऋग्वेद के प्रायः प्रत्येक मन्त्र में आधिभौतिक, याज्ञिक, आधिदंविक
और आध्यात्मिक अर्थो की विमल मन्दाकिनी की पवित्र धारा बहती
है। इन सभी अधो का विहगावलोकन करना किसी तापस ऋषि
का ही कायं हं । ऋग्वेद का बहिरंग परिचय तो किसी उद्भट मनीषी
के लिए शकय भी हो सकता है; परन्तु अन्तरंग परिचय और समीक्षण
तो वे ही कर सकते हैं, जो उसके स्मारक वा कर्ता हैं। वेदज्ञान असीम
हैं और असीम को कोई कँसे शब्द-सीमा में बाँघेगा ?'
भारतवर्षं में कुछ विद्वान एसे है, जिनका उपर्युक्त मत हे। वे
यह भी कहते हें कि वेद अध्यात्म-विद्या का अनन्त आगार है।
उसमें विश्व के सवातन नियम प्रतिपादित हैँ। वह देशकालातीत नियमों
का वर्णन करता है। बह विश्व का नियामक है। वह सगं-स्थिति-
प्रलय के शाश्वत नियम बतात! ? 1 उसके एक-एक मन्त्र में निगढ़
रहस्य हुँ । क्या कोई ऐसा भाष्यकार हो सकता है, जो “इदं विष्ण॒वि-
' चक्रमे त्रेघा निदधे पदम्” (२३.१७) मन्त्र के आधिभौतिक, आधि-
देविक और आध्यात्मिक अर्था को समझाते हुए अर्वाचीन विज्ञान के
( ६९ ))
सुष्टि-विद्या-संबन्धी सिद्धांत और पुराणों की त्रिविक्रम (वामन)
विष्णुवाली कथा की संगति लगा सके ? यदि नहीं, तो वेद का भाष्य
(टीका) हो ही नहीं सकता।
तो क्या वेद-संहिताओं को मंजूषा में बन्द करके रख दिया जाय
और उन्हें .दीमक चाट जायं? इन पंक्तियों के लेखक का मत एसा
नहीं है। लेखक यह अवश्य मानता है कि वेद-वारिधि अगाध हूं
और इसकी अगाधता' इसलिए और भी अगम्य हो पड़ी हैं कि मन्त्र-
गत विषयों का सिलसिलेवार विवरण नहीं हं। यही. त्रिविक्रम के
परिक्रमण की बात, एक स्थान पर नहीं हुँ--कितने ही अध्यायों और
सूक्तों में, सैकड़ों मन्त्रों में अन्यान्य विषयों का कथन करते-करते,
बीच-बीच में, आ जाती है । ऋग्वेद का 'दशराज्ञयुद्ध' अत्यन्त प्रख्यात हे;
परन्तु इसका विषय भी एक स्थान पर नहीं है, यत्र-तत्र बिखरा हुआ
हु । अगणित मन्त्रों का अन्तर दे-देकर यह विषय कहा गया हैं।
जिन-जिन मन्त्रों में यह विषय आया भी है, बे मन्त्र इतने अस्पष्ट हैं
कि उनसे 'दाराञ्जयृद्ध' की संगति बेठाना बहुत ही श्रम-साध्य हो पड़ता
है। प्रायः सभी विषयों की यही दशा हुँ। किसी भी विषय का
क्रमबद्ध विवरण कदाचित् ही मिलता हुँ। बात यह है कि विभिन्न
समयों में विविध ऋषियों ने नाना विषयों के मन्त्रों का स्मरण बा
सृष्टि की और अपने-अपने मत्त्रों का उन्होंने सुक्त-रूप में अलग-अलग
संकलन किया । प्रत्येक सूक्त में एक-एक विषय के प्रतिपादक मन्त्रों का
संकलन या संग्रह भी नहीं हृं। एक ही सूक्त में अनेक विषय हैँ।
कितन ही सूकतों के तो अनेक ऋषि भी हें और अनेक देवता (वर्ष्यं
विषय) भी हैं । प्रसंग और प्रकरण का ठिकाना नहीं है। इन सूक्तों
को पढ़कर विषयों की संगति लगाना इसीलिए दुरूह हो जाता है।
दूसरी बात यह हैँ कि वेद-भाषा विश्व की प्राचीनतम भाषा हे;
इसलिए बैदिक व्याकरण (प्रातिशाख्य), वैदिक कोष (निघण्टु -निरुक्त)
और ग्राह्मण-ग्रन्थ आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना सस्कृत का
उद्भट विद्वान् भी वेद-मन्त्रों का अर्थ नहीं समझ पाता। सन
इस ग्रन्थों में भी मन्त्रों और अर्थो का क्रमिक विवरण नहीं है, |
अनेक शब्दों का अर्थ भी नहीं मिलता, अनेक शब्द नानार्थक बताये गये
हें और अनेक शब्दों के अर्थ संदिग्ध हेँ। इसलिए मन्त्रार्थ दुर्बोध्य हो
पड़े हें।
तीसरी बात यह हें कि छापाखाना तो अभी कल का हेर
हजारों वर्षों से वेदाध्यायी ब्राह्मण सुन-सुनकर मन्त्रों को कण्ठस्थ करते '
( ७० )
आये हे--एक ने दूसरे से सुना, दूसरे ने तीसरे से और तीसरे ने
चौथे से। इस तरह अनन्त काल से सुनते-सुनाते आते रहने से कितने ही
शब्द अशुद्ध हो पड़े--बहुत मन्त्रों के पाठान्तर हो गये। इसलिए शुद्ध
पाठ खोज निकालना और उनका यथार्थ अर्थ कर देना दुरधिगम्य
हो गया।
चौथी बात यह हे कि सुन-सुनाकर मन्त्र लिखनेवालों के दृष्टिदोष,
प्रमाद, अल्पज्ञता, अज्ञता आदि के कारण भी मन्त्रों में पाठान्तर और
अशुद्धियाँ हो गयी हूँ। यह बात भी अर्थ-दुर्बोधता का कारण है।
पाँचवीं बात यह है कि उपर्यक्त विचार के लोगो ने मनमाने अर्थ
कर डारे--सभी मन्त्रों में आध्यात्मिक आदि एक ही तरह
का अथे ढूँढ़ डाला वा एक ही मन्त्र के द्विविध, चतुविध वा सप्तविध
अर्थ कर डाले; जैसे आजकल रामायण की चौपाइयों के विविध अर्थ
किये जाते हँ! परन्तु किसी भी ग्रन्थकर्ता का एक सिद्धान्त रहता हैं,
एक उद्देश्य होता हुँ और वह उसी को किसी मन्त्र, इलोक, कारिका
वा वात्तिक में व्यक्त करता है। कोई भी निर्माता वा लेखक
अपनी समूची कृति को इलेषालंकार का 'जामा' नहीं पहनाता ।
फिर भी ऋषि सीधे-सादे-सच्चे, स्थिरबुद्धि और स्थितप्रज्ञ थे । उनके
लिए यह संभव ही नहीं हुँ कि वे एक ही मन्त्र में द्विविध, त्रिविध,
पंचविध बा सप्तविध उलझनों का जाल फैलाकर संसार को संश-
यात्मा बनावें। फलतः मन्त्रार्थो की मनमानी विविधता और एकदेशीयता
माननेवालों के कारण भी मन्त्राथं अज्ञेय से हो रहे। ये बातें पहले भी
कही गयी हें । |
लेखक के मत से किसी-किसी मन्त्र में एकाधिक विषय आ गये
हूँ, तो भी प्रत्येक मन्त्र का एक ही अथं हँ, एक ही उद्देश्य है।
किसी मन्त्र का उद्देश्य आध्यात्मिक अर्थ बताना हुँ, किसी का याज्ञिक,
किसी का आधिदैविक और किसी का आधिभौतिक। किसी भी मन्त्र
का लक्ष्य इन सब अर्थो का बताना नही हूँ और न ऋग्वेद के सभी
मन्त्रों का ध्येय एक ही प्रकार का--आध्यात्मिक, आधिदैविक, आघि-
भौतिक आदि केवल एक--अर्थ बताना है। यही मत सायण आदि
भाष्यकारों का भी हुँ--यद्यपि कहीं-कहीं, उपर्युक्त कारणों से, वे भी
सन्देह में पड़ कर कई अर्थ कर बैठे हें। |
पाठान्तरों का म्रम दूर करने के लिए पद-पाठ से लेकर घनपाठ
तक का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। स्वरों का नियम-बद्ध ज्ञान पाने के
लिए प्रातिशाख्य का स्वाध्याय करना चाहिए। अर्थावगति के लिए
( ७१ ]
बराह्मण-ग्रन्थ, निरुक्त और विविध वैदिक कोष आदि का अध्ययन
करना चाहिए। फिस मन्त्र का किस प्रकार का अर्थ है, इसे जानने
के लिए सायण आदि प्राचीन भाष्य देखने चाहिए । इसना सब
करने पर भी मन्त्रार्थ में यदि सन्देह ज्ञात हो तो इतिहास, पुराण,
धर्मशास्त्र आदि देखकर परम्परा-प्राप्त अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
परम्पराप्राप्त अथं सर्वाधिक प्रामाणिक है। प्रसंगत: यह बात भूमिका
में लिखी भी जा स हुँ ।
इन सब साधनों से वेद-मन्त्रों का तात्त्विक अर्थ समझ में आ जाता
हुं । अवश्य ही छ ऐसे शब्द हे, जिनका अर्थ समझ में नहीं आता।
ऐसे शब्दों का चिघण्टु-निरुकत में अलग परिगणन किया गया हे।
परन्तु ऐसे शब्द असंख्य नहीं है, गिने-गिनाय है । समग्र वैदिक वाङमय
और संस्कृत-साहित्य का मन्थन करके विद्वानों को इन परिगणित
शब्दों का भी अर्थ खोज निकालना चाहिए। किसी भी मन्त्र को लेकर
कई छायावादी कवियों की तरह उड़ान भरने से वा वेद को विचित्र
ओर अनिर्वचनीय वस्तु समझ लेने से कोई लाभ नहीं है । बेद को 'होवा'
बनाना व्यर्थ हूं ¦
इसमें संदेह वहीं कि वेद का एक-एक मन्त्र अत्यन्त सूक्ष्मतम
सूत्र में कहा गया है और एक-एक मन्त्र की अभिव्यञ्जना-संपत् और
ध्वनिशक्ति महती है । एक-एक शब्द की विराट् अभिधा है। एक-एक
मन्त्र का जितना ही मनन किया जाता है, उत्तरोत्तर उतनी ही विशाल
भावना मनःश्राणों को आनन्द-सागर में डुबोती जाती है । यही
कारण हैं कि वेद के एक-एक मन्त्र को लेकर एक-एक ग्रंथ की रचना
की गई ह, एक-एक शब्द पर एक-एक इतिहास लिखा गया हूँ और
एक-एक अक्षर पर एक-एक हजार श्लोक रचे गये हे।
इन दिनों देश भर में श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा की धूम मची
ई हे; गीता हूँ भी ऐसी ही महत्त्व-पूणं पुस्तक । परन्तु शुक्ल यजुर्वेद
की माध्यन्दिन-संहिता के ४०वें अध्याय के प्रथम दो मन्त्रौ (“ईशा-
वास्यमिद्म्” और “कुर्वन्न वेह” ) के आधार पर ही गीता के १८
अध्याय और ७०० श्लोक बने हें। ऋग्वेद के मान्धाता, दधीचि,
नहुष आदि एक एक शब्द को लेकर महाभारत, पुराण आदि में विस्तत
इतिहास रचा गया है। प्रसिद्र गायत्री मन्व में २४ अक्षर है और
एक-एक अक्षर को लेकर बाल्मीकि ने रामायण के एक-एक हजार श्लोक
बनाये। इस तरह उन्होंने वाल्मीकीय रामायण के २४ हजार श्लोक
कहे-- चतुर्विंशति-साह्रयं इलोक़ानामक्तवानृषिः।” इसी से कहा
| ( ७२ ) | |
जाता हे--'समस्त संस्कृत-साहित्य वेद की व्याख्या है । वेद-विरुद्ध
एक शब्द न तो कोई शास्त्रक्ता सुनना चाहता है और न एक भी आस्तिक
हिन्दू शुनना चाहता है, हिन्द ओं में जो नास्तिक हे उनमे भी वेदत्व
का इतना गहरा संस्कार है कि वे भी बात-बात पर अपने प्राणों की
आहुति देते रहते हें और छोटे-मोटे कार्यों की समाप्ति पर 'यज्ञ
सम्पन्न करते रहते हें । उन्हें भी किसी उच्चतम भाव को व्यक्त
करने के लिए आहुति और “यज्ञ शब्द से बढ़कर कोई शब्द नहीं मिलता ।
विश्व का उच्चतम कोटि का ऐतिहासिक यदि अपनी इतिहास-विद्या
के संवद्धंन मे वेद का एक शब्द भी था जाता है, तो आनन्द के
मारे ताचन लगता हुँ । वेद के शब्दों में ऐसी ही ताजगी, तारुष्य,
जीवट और प्रामाणिकता है; इसी लिए अनन्त काल से वेद पर हिन्दू
जाति की अविचल श्रद्धा हे । लोकमान्य तिलक के शब्दों में वेद को
स्वतः भ्रमाण मानना हिन्दू होने का अनिवायं लक्षण हु--“प्रामाण्य-
बुद्धिवेदेषृ ॥"
वेद हिन्दू-धमं की मूल पुस्तक इ--“वेदोऽखिलो धर्ममूलम्” (मन्-
स्मृति २.६) । वेद हिन्दू-जाति के प्राचीन इतिहास, कला, विज्ञान,
समाज-व्यवस्था, राष्ट्र-धमं, यज्ञ-रहस्य, सत्य, त्याग आदि को दर्पण
की तरह दिखाता है।
आयं-जाति की संस्कृति, सदाचार, देशसेवा, वर्चस्व, वीरता, तेज,
स्फूति आदि समग्र सद्गुणावली जानन के लिए बेद प्रामाणिक और
सुदृढ़ आधार है । इसी लिए मनुजी ने लिखा हुँ--'जो द्विज (ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य) वेद न पढ़कर किसी भी शास्त्र वा कार्य में
परिश्रम करता हुँ, वह जीते जी, अपने कुल के साथ, बहुत शीघ्र शूद्र
हो जाता है-- |
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवश्चेव शूद्रत्वमाश गच्छति सान्वयः ॥” (२.१६८
जेमिनि ऋषि के मत से वेद की किसी एक संहिता का स्वाध्याय
भी वेदाध्ययन माना जाता हुँ। वेद का ममं और रहस्य समझनेवाले
मनूजीने तो यह भी लिखा है कि वेद न पढ़कर और यज्ञ न करके
जो मुक्ति पान की चेष्टा करता हूँ, बह नरक जाता है' (मन् ० ६.३७)।
इस संसार मे वेदाध्ययन ही तपस्या हुँ' ( मन् ० २.१६६) । वेदाध्ययन
करके ही गृहस्थाश्रम में जाना चाहिए' (३.२) । मन् ने ईरवर न
माननेवाले को नास्तिक नहीं कहा है प्रत्यृत 'वेद-निन्दक को नास्तिक!
कहा हें (२.११) । वस्तुतः वेद ऐसा ही अद्भत ज्ञान हु ।
Nw
( ७३]
वैद संस्कृत-साहित्य का आकर हुँ, हिन्दूधर्मं, हिन्दू-संस्क्रति
और हिन्दुत्व की थाती हुँ, आयं-सभ्यता का उद्भव-स्थान है; इसी लिए
हिन्दू वेद की महिमा-गरिमा बखानते हे, ऐसा नहीं समझना चाहिए ।
वेद के वेदत्व और वेद की सर्वागपूर्णता पर संसार के वे सभी विद्वान्
मुग्ध हें, जिन्होंने विमल वैदिक ज्ञान की खोज मे अपना समय और
श्रम दिया हे । क्यूजिन का मत हुँ--'संसार की प्राचीन जातियों में
ईश्वर के लिए आये हुए सभी शब्द वैदिक 'देव' शब्द से निकले हेँ।'
दि बाइबल इन इंडिया मे जकोलियट न लिखा है--'धर्म-ग्रन्थों में
एकमात्र वेद ही ऐसा है, जिसके विचार वर्तमान विज्ञान से मिलते
हुँ; क्योंकि वेद में भी विज्ञानानुसार जगत् की रचना का प्रतिपादन किया
गया हँ । सिक्स और सेक्स-वारशिप (पृष्ठ ८) में वाळ साहब ने स्वीकार
किया है कि हिन्दुओं का धमे-ग्रन्थ ऋगवेद संसार का सबसे प्राचीनतम
ग्रन्थ है । रेगोजिन का कहना हँ--क्कग्वेद का समाज बड़ी सादगी,
निष्कपटता और सुन्दरता का था ।' फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान वाल्टेयर का मत
है किवल इसी देन (ऋग्वेद) के लिए पूर्वं का पश्चिम ऋणी
<हेगा।' वैदिक साहित्य और विशेषतः ऋग्वेद पर अपने जीवन का
अत्यधिक अमूल्य समय व्यय करनेवाले भंक्समृलर ने लिखा ह~
यावत्स्थास्यन्ति गिरयः धरितङुच महीतले ।
_तावदृग्वेद-महिमा छोके५ प्रचरिष्यति ।।”
अर्थात् जब तक पृथिवी पर नदियां और पर्वत रहेंगे, तब तक
संसार के मनुष्यों में ऋग्वेद की महिमा का प्रचार रहेगा ।
बहुत ठीक। परन्तु इस महानिधि की प्राण-पण से रक्षा किसने
की ? ब्राह्मणों ने। हजारों हजार वर्षो से ब्राह्मण-जाति विराढ्
वैदिक वाङमय और विशाल संस्कृत-साहित्य को कण्ठस्थ कर
सुरक्षित रखती आ रही हे । क्या इन ब्राह्मणों से सभ्य संसार और विशे-
षतः हिन्दु-जाति कभी 'उऋण' हो सकती है? इन आह्वाणो ने ऐसा नहीं
किया टीता, तो क्या अपार आयं-साहित्य हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति
और आये-सम्यता का नाम भी दुनिया सुनती? इस महत्कार्यं के
लिए ब्राह्मणों ने त्याग और तपस्या का जीवन बिताया, भारतवर्ष
का राज्य छोड़ दिया लक्ष्मी को छात मार दी स्वेच्छय। दरिद्र
जीवन का वरणे किया और सरस्वती की अनन्य उपासना की।
यदि व्यास, वसिष्ठ, परशुराम, द्रोण चाणक्य और समथं रामदास की
सोलह आन में एक आना भी कामना रहती, तो आज तक भारत-
बर्षे पर केवल ब्राह्मणों का राज्य रहता। परन्तु--
( ०४ )
“ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
स तु कृुच्छाय तपसे प्रेत्याचन्तसुखाय च॥”
अर्थात् ब्राह्मण का यह् शरीर विलासिता करने, धन बटीरने
या राज्य करने जैसे छोटे कामों के लिए नहीं हे। यह तो जीवन में
घनघोर तप के लिए और शरीरपात होने पर सच्चिदानन्द की प्राप्ति
के लिए है।
प्रसिद्ध वेद-भक्त, धर्म-प्राण और बचेली-राज्याधिपति कुमार कृष्णानन्द
सिह की सहायता से उनके विद्वान् प्राइवेट सेक्रेटरी पंडित गौरीनाथ झा
के द्वारा इन पंक्तियों के लेखक का किया हुआ ऋग्वेद का हिन्दी-अनु-
वाद कृष्णगढ़, सुळलानगंज, भागलपुर से, कई वष पहले, प्रकाशित हुआ
था। उस संस्करण में मूल मन्त्र ऊपर छपे थे, अनन्तर संख्या-क्रम से
प्रत्येक मन्त्र का हिन्दी-अन्वाद दिया गया था और सर्वान्त में
महत्त्वपूर्ण स्थलों पर टिप्पनियां दी गई थीं । परन्तु भूमिका और
विषय-सूची अतीव संक्षिप्त थी. अब की बार भूमिका और विषयः
सूची विस्तृत हैं। अत्यधिक परिश्रम करके विषय-सूची को सर्वागपूर्ण
बनाने की चेष्टा की गयी हे ऋग्वेद-संहिता पर ऐसी ही सूचियाँ तैयार
करके विद्वानों के द्वारा शोध और अनुसन्धान का श्रम-साध्य कार्य भी
किया जा सकता है ।
जीवन भर लेखक का यह सुदृढ़ विचार रहा हे कि पक्षपात-दून्य
होकर अपने विचार प्रकट किये जायं। तो भी हो सकता हूँ कि इस
भूमिका और अनुवाद से किन्ही वेद-विद्वान् का मत-भेद हो। यह भी
हो सकता है कि लेखक के दृष्टि-दोष, अज्ञता और अल्पज्ञता के कारण भी
इस ग्रन्थ में कोई त्रुटि रह गई हो। ऐसी त्रुटि और कमी के लिए
लेखक क्षमा-याचक हुँ । |
ऋग्वेद अपार, अगाध और अद्भुत ज्ञान-राशि है । यह ज्ञानः
राशि विश्व-मानवों और भारतीयों के हृदय और मस्तिष्क को
प्रोज्ज्वल और प्रदीप्त करे, वर्तमान जन-राज्य में इसकी महिमा और
प्रसार बढ़े, इसकी आज्ञा और आदेश के अनुसार हम अपने जीवन-
लक्ष्य को अधिगत करें, हमारा पथ निष्कंटक, मंगलमय और आनन्द
वाहक हो--यही पावन प्रार्थना हम प्रसन्नाल्मा प्रभु से प्रतिदिन करे ।
ग्राम कूसी, | रामगोविन की वेदं
डाकघर दिलदारनगर, न्द् त्रिवेदी
. जिला नाजीपुर धीरामनवमी, २०११ विक्रमाब्द
विषय वाको
५ ४ ८ ४४६
मयस अप्टक
प्रथम मयडल
यम अध्याय
१. स्वर्गे का उल्लेख १
२. कल्याणकारी अग्नि २
३. सोमरस अभिषुत होकर इन्द्र
और वायु के लिए तैयार र १-५
४. ज्ञानरूपिणी सरस्वती का महत्व ¥
४
५, गोदुग्ध-दोहन १
६. इन्द्र का वीरत्व और वृत्रा-
सुर का वध ५ ट
७. सोमरस-पान में इन्द्र की मुख्यता ५ ६
८. ऋग्वेद और सामवेद का उल्लेख ६ <
९. इन्द्र के तेजस्वी और रक्तवर्ण
के हरि नामक दो अश्व ६ २
१०. इन्द्र द्वारा गुफा में छिपाई गायों
का उद्धार। ये गायें पणि नाम
के दैत्यों ने चुराकर गुफा में
छिपाई थी । ६ ष्
११. ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का
उल्लेख ७ १
१२. बैल और गो-दल ८ ८
१३. पञ्चक्षिति (चार वर्ण और
निषाद)
१४. सशस्त्र योद्धाओं की सुसज्जित सेना
१५. सुन्दर वासिकावाले इन्द्र
NN
नए ७९ ७०
( २ )
पृष्ठ
- सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र १०
- बल देत्य (बेबीलोनाधिपति बेल ? )
का गो-हरण ॒ १२
. अरणि-मन्थन से उत्पन्न अग्नि १३
- सुखकर रथ | १४
- बारह नामों से बारह मन्त्रों में
अग्नि की स्तुति | १३-१४
. सूर्य-प्रकाशित स्वर्ग-लोक | १५
: रोहित नामक अश्व १६
. प्रस्तर से सोमरस बनाना १६
. गोरे हरिण म १७
- सम्राट् इन्द्र १८
. मानवेश इन्द्र १८
उशिज् के पुत्र कक्षीवान् १९
- ऊधम मचानेवाले मनष्यों द्वारा
डाह-भरी निन्दा १९
- वृष्टि-कर्ता मरुद्गण (वायु) २०
- मरुतों के द्वारा मेघ-माळा का
संचालन और सागर में जल
गिराना २०
द्वितीय अध्याय
- ऋभुओं का जन्म (तपस्या करके
ऋभु लोग देवता हो गये थे) २०
« ऋभुओं के द्वारा मनोबल से हरि
अश्वो की उत्पत्ति २०
- ऋभुओं के द्वारा माँ-बाप को
तारुण्य देना | २०
- सोमरस रखने का पात्र चमस २०.
- उत्तम, मध्यम और अधम नामक
तीन रत्न तथा सप्त हविय॑ज्ञ,
सप्त पाकयज्ञ और सप्त सोमयज्ञ |
का संकेत. | २३१
A श ~
२९.
. विष्ण का अद्भुत
. तीब्र सोमरस
१५.
- सहस्राक्ष इन्द्र
. पृथिवी, आकाश वा मेघ के पुत्र
- छः ऋतुओं का
„ चन्द्रमा और जल में अमृत, औषध
- मनस्मृति
( ३)
श्रभुओं की देवत्व-प्राप्ति
राक्षस का मन्त्र में प्रथम उल्लेख
स्बर्ग-लोक में कर्म-फल
चाबुक (कशा) का उल्लेख
- सूर्योपासना
. देव-रमणियों का यज्ञ में आना
. वामनावतार में विष्णू का तीन
बार पाद-क्षप
पराक्रम
आकाशस्थित इन्द्र
मरुत्
. विद्युत् से मरुतों की उत्पत्ति
- किसान द्वारा बैलों से जौ (यव)
का खेत बार-बार जोतना
उल्लेख
और अग्नि
रामायण, भागवत,
बिष्णुपुराण आदि में वर्णित
शुनःशेप ऋषि की कथा का
उद्भव
. वरुण के द्वारा सूर्य-पथ का विस्तार
. सप्तषि-मण्डल का
२५.
उल्लेख
असुर का अर्थ देवता और अनिष्ट
हटानंवाला भी हे
. चिडिया और उनके घोंसले
२७.
समुद्री नौकाओ का मार्गे
बारह महीनों और मलमास
(मलिम्लच) का उल्लेख
भविष्य का ज्चाच
फा० ५
२६-२८
पृष्ठ
३०. वरुण का स्वर्ण -धारण २८
३१, गोशाला का उल्लेख २८
३२. पिता का पुत्र को, बन्धु का बन्ध
को और मित्र का मित्र को
दान देना ३७
३३. अभिनव गायत्री छन्द ३१
३४. सोमरस के बनान की बिधि ३२-३३
३५. काठ के ओखल और मूस ३३
३६. असंख्य गौएँ और घोडे ३३
३७. कपोत और कपोती ३४
३८. पुरातन निवास या स्वगे? ३४
३९. लम्बी नासिकावाळी गायें | ३५
४०. उपमालकार २५
४१. सोने का रथ ३५
४२. मन् और पुरुरवा | ३६
४३. पुरुरवा के पौत्र नहुष की कथा।
इला उपदेशिका और पुरोहित
थीं । ३७
४४. मन् ओर ययाति राजा ३८
४५. विश्वकर्मा द्वारा इन्द्र के वज्र का |
| निर्माण | ३९
४६. इन्द्र-वृत्र-युद्ध ३९-४०
४७. सप्त सिन्धु” का उल्लेख ¥o
४८. इयेन (बाज) पक्षी ४०
४९. उपमाळंकार ४७
` तृतीय अध्याय
१. इन्द्र द्वारा पीठ पर धनुष् धारण
करनेवाले सेनापतियों को |
पुरस्कार-प्रदान | ४१
२. वृत्र-व् ४९-४३
३. सुवर्ण और मणि ४२
४. कुत्स और दशद्यु ४३
(५ )
„ रशध्मि-युक्त दिन और हिम-युक्त
रात्रि
. चन्द्रमा और उनकी पत्नी वेना
की विवाह-यात्रा के समय पहले
पढ्छ देवों ने अश्विद्वय के रथ
(विमाव ? ) को जाना
. रात्रि और दिन में तीन बार पुष्टि-
कर भोजच
. “सप्त सिन्धु” ।
, तेतीस देवों का उल्लेंख। त्रिलोक-
चारी रथ (विमान ?)
. सूर्य उदय से मध्याह्न तक ऊद्ष्वं-
गामी और उसके बाद सायं तक
अधोगामी होते हें। सूर्य के श्वेत
अश्व
- यमपुरी जाने का मार्ग अन्तरिक्ष
(त्रिलोक का उल्लेख)
- सूर्यं की आकर्षण-शक्ति--चन्द्रमा
आदि ग्रह-वक्षत्रों द्वारा सुर्यं का
अवलम्बच
« आठ दिशाएं (चार दिशाएँ क्षौर
चार उनके कोने) । तीच लोक
(द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवी) ॥
संसार और “सप्त सिन्धु”
४. सूये का गति-विवरण, रथ-संचा-
रत आदि
„ तुर्वेश, यदू, उग्रादेव, चववास्त्व,
बृहू्रथ और तुर्वीति
- वृद्ध और जीणं राजा
- मरुभूमि
- गायत्री छन्द
- पर्वत और वनस्पति
- विद्युत् के द्वारा वर्षा का लाना
पृष्ठ
प्टु ३
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te 1
४५
४६्
४६
४६
४५--४७
४९
५०
५२
५२
५३
५४
सन्न
नदी
पृष्ठ
२१. चोर और कपटी ५६
२२. श्रेष्ठ देव रुद्र ५८
२३. भेंड, भेंडा आदि ५८
२४. ग्राम भौर उसके पालक ५९
२५. तेतीस देवता ६०
२६. समुद्र आौर बृहत् समुद्री नौका ६२
चतुर्थ अध्याय
१. त्रिलोक में वत्तेमान रथ (विमाच ?) ६३
२. दानवीर राजा सुदास | ६२
३. अश्विनीकुमारो के सात घोडे ६४
४. उषा का महत्त्व-पूर्ण विवरण ६४-६६
५. समुद्र में नाव चलाना ६४
६. सौ रथों का उल्लेख ६५
७. अरुणवणे गायें ६६
८. द्विपद. चतुष्पद और पक्षी ६६
९. सूर्य के सात धोड़े ६७
१०. सूर्य की सात घोडियाँ ६७
११. हृदय-रोग और पीतवर्ण रोग ६७
१२. शुक तथा सारिका पक्षी और हरि-
ताळ (हरिद्रा) वृक्ष ६८
१३. सूर्योपासन। के तीन मन्त्र ६७-६८
१४ 'शतद्वार' नाम का अस्त्र ६८
१५. शुष्ण शम्बर और अर्बुद नामक
राक्षस तथा राजा दिवोदास ६९
१६. राजषि शार्यात ७०
१७. राजा कक्षीवान और उनकी पत्नी
बुचया राजा वृषणश्व और उनकी
कन्या मेना ७०
१८ नदियों का समुद्र-गमन ७१
१९. बल नाम का असुर और त्रितका
कृप-प्रपात ७१
२० इन्द्र के द्वारा भूलोक की सृष्टि ७२
२१.
२२.
( ७)
ऋषि नमी और मायावी नमृचि
राजा अतिथिग्व और ऋजिश्वान्
तथा करञ्ज, पर्णय और वंगुद नाम
के असुर एवम् सौ नगर
: बीस नृपतियों के साथ राजा
सुश्रवा और साठ हजार निनाचबे
अनुचर (सैनिक
क
- राजा तूर्वेयान (वोदास १)
और पुरुरवा-पुत्र आयु
. नर्य, तुवंश, रीति और यदू राजा,
रथ और एतद ऋषि तथा
शम्बरासुर के निनानबे नगरों का
ध्वस्त किया जाना
. साँड़ की सींग की तरह इन्द्र का
वखा रगड़ना
- ताराओं का उल्लेख
- व्यापारियों का समुद्र के चारों ओर
घूमना और ललनाओ का पर्वत
पर चढ़कर फूल चुनना
- छोड़े का कवच पहनना
- उद्रो और वसू गी का उल्लेख
- भुगवंशी लोगों के पास अग्नि का
आनयच
- घोड़े का रथ में जोता जाना
. देवपत्नियों का उल्लेख
४. तुर्वीति ऋषि की रक्षा
. नोधा ऋषि की शक्ति-प्राप्ति
» गोतम-गोत्रीय ऋषिगण
पंचम अध्याय
` १. अंगिरा लोगों ने पणि द्वारा अपहूत
गो का उद्धार किया
७४
७५
७६
७७
७८
७८
८७
८३
<
८५
८५
८६
८६
८७
सन्त्र
२०
( <)
. सरमा कुक्कुरी मे अपने बच्चे कै
लिए इन्द्र से दूध पाया
« शस्योत्पादक मेघ
. काली और लोहित गायें
« कुत्स ऋषि और दस्यु
« पुरुकुत्स ऋषि, सात नगरों का
विध्वंस और सुदास
. रुद्र-पुत्र मरुत् तरुण और अजर हें
« मरुद्गण बरसने के लिए मेघ को
प्रेरणा देते हें
« हस्ती या हाथी का उल्लेख
« सिंह और हरिण
- रथ के पहिये सोने कै
- सौ वर्षं का जीवन
- हंस की जल में स्थिति
. परिपक्व जौ (यव)
» सेना का उल्लेख
- पिता का आज्ञाकारी पुत्र
श संसार-हितैषी पुरुष
» प्रजा-वत्सल राजा
» वृद्ध पिता से पुत्र की धन-प्राप्ति
- विशाल सात नदियों का उल्लेख
अमृत-तुल्य हे
वेधा (ब्रह्मा) के मंत्र
« देवता अमर हुँ
, सात पाकयज्ञ, सात ह॒वियेज्ञ और
सात सोमयज्ञ
२५, पति-सेविता भौर अभिनन्दनीया
स्त्री
. पैतृक धन का स्वामी पुत्र
“३. रहगण-वंशीय गोतम
2. गायत्री द्वारा तुष्टि
|
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KAO ०९ ७० (५ दछ ,८ a ड्ड छ अनि बह नछक
स्दँछि PS NG
RRNA
२९.
३०.
३१.
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नब्बे नदियों के ऊपर विस्तृत इन्द्र-
बज्न । हजार मनुष्यों द्वारा एक साथ
इन्द्र-प॒जा
इन्द्र का लौहमय वज्र
प्रजापति मन् अथर्वा और उनके
पुत्र दध्यङ ऋषि
षष्ठ अध्याय
. मण्डराकार सर्प
- स्वराज्य’ का उल्लेख
» गौरवणं और नाना वर्णो (रंगों)
की गायें
. दधीचि की हडिडयों से इन्द्र ने
८१० बाय असुरों को मारा था
- शर्यणावत् सरोवर
. सूर्यं की ही किरण से चन्द्र प्रकाशित
होते हे
. गौओं का गोष्ठ
. भग, मित्र, अदिति, दक्ष, अर्यमा,
वरुण, सोम, सरस्वती
माता पृथिवी पिता यलोक
. स्थावर भौर जंगम के अधिपति
इन्द्र और पूषा
- पृक्ष के पुत्र गरुड ?
. सौ वर्ष की आयु
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शोर
निषाद
- पूषा और
. नर्तकी का
» व्याध की स्त्री
, स्वर्णमय रथ
१८,
पर्वंत और बाज पक्षी
पृष्ठ
१०९
११०
मन्त्र
८०९
२०
- वृषभ और पताका
« सिन्धु का उल्लेख
सप्तम अध्याय
« काष्ठ-घषंण से अग्नि की उत्पत्ति
- दिक्, काल (ऋतु) का निर्माण
विद्युद्रप अग्नि
. सिन्ध और नौका
- रुद्र-पुत्र मरुत्
« चार वर्ण और निषाद
- रैयामवर्ण और लोहितवर्णं अश्व
तथा राजषि ऋजाइव
` वृषागिर के पुत्र ऋजाइव, अम्बरीष,
सहदेव, भयमान, सुराधा
- इन्द्र द्वारा, ऋजिश्वा राजा के साथ,
कृष्णासुर की गर्भवती स्त्री का
विनाश किया जाना
« इन्द्र के द्वारा व्यंस, पिश्रु और शुष्ण
असुरों का विनाश
- सात नदियाँ ('सप्त सिन्धु' नहीं)
- तिगुनी हुई रस्सी
* कुयव, शुष्ण, वृत्र आदि का वघ
. शिफा नदी
` अंजसी, कुलिशी और वीर-पत्नी
नदियाँ
` सुन्दर चन्द्रिका के साथ चन्द्रमा का
आकार में दौड़ना
* सपत्नियों (सौतों) और चूहे का
उल्लेख
` सूर्य की सात किरणें, आपृत्य त्रित
और कूप
` बूक या अरण्य-कुक्कुर (तेंदुआ वा भेंड़िया)
त्रित का कुएँ में गिरना
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१३२
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१४१
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१४८
१४९
मन्त्र
HON (१ Aa अः
११
॒ १ ७
२१.
२२.
२३.
२४.
२५
२६.
२७.
२८.
२९,
३०,
३१.
३२.
३३.
३४.
३५.
३६.
३७.
३८.
३९,
"४0.
४१.
रे,
( ११ )
कुत्स ऋषि का कूप-पतन
तुवंश, हम अनु और पुरु
जामाता और श्यालक (साला)
ऋभुगण के पिता सुधन्वा
तीक्ष्ण अस्त्र । मानदण्ड से खेत मापना
ऋणभुओं ने माँ-बाप को युवा बनाया
त्रट्रभुओ द्वारा नई गाय का निर्माण
ऋणभुओं ने अश्विद्ठय के लिए रथ बनाया
विभु और बाज का सोम-पान
अश्विनीकुमारों का शंख बजान।
अश्विनों ने कृप-पतित रेभ, बन्दन और
कण्व की रक्षा की
कूप-पतित राजषि अन्तक की रक्षा, तुग्र-
पुत्र भुज्यु को नौका -द्वारा। समुद्र से बचाना
तथा कर्कन्धु और वय्य मनुष्यों की रक्षा
शुचन्ति, दह्यमान अत्रि, पुरिनग और
पुरुकुत्स की रक्षा
अश्विद्वय ने ge ज ऋषि को पैर दिये,
अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि दी और श्रोण
को जानु दिया
वसिष्ठ, कुत्स, श्रृतयं और नर्य की रक्षा
खेल ऋषि की पत्नी युद्धाथिनी विइपला
को जंघा दी गयी और अश्व ऋषि के पुत्र
वश की रक्षा की गयी
दीर्घतमा, दीर्घश्रवा, उशिज् और कक्षीवान्
अश्वरहित रथ (विमान? ) का संचालन
और कण्वपुत्र ्रिशोक -
राजषि मान्धाता और भरद्वाज की रक्षा
जल-मध्यस्थ दिवोदास और पुरुकुत्स-पुत्र
सदस्यु की रक्षा
विखनः-पुत्र वस्र, कलि ऋषि और पृथि
राजषि की रक्षा
शय, मनु ओर स्युमरश्मि
मन्त्र
~ ON NS XONAR
लग
NS XA
( १२ )
- राजषि पठर्वा और राजा शर्यात
. शुर मन् को बचाना
„ विमद ऋषि और पिजवन-पृत्र राजा सुदास
- मृज्यु, अश्चिग् और ऋतस्तुम ऋषि
- कृशान्, पुरुकुत्स, मधु और मधुमक्षिकाएँ
- कुत्स. नुर्वीति, दधीति तथा श्वसन्ति और
पुरुषन्ति ऋषि
अष्टम अध्याय
. कपर्दी और संहारकारी इद्र
- दुढांग वराह
. स्थावर और जंगम की आत्मा सूयं
. स्वयंवर का उल्लेख
. रथ-वाहक गर्दभे
- राजषि तुग्र ने अपने पुत्र भुज्यु को, सेना के
साथ, शत्रु-जय के लिए नौका द्वारा समृद्र-
स्थित द्वीप में भेजा
- सौ चक्कों और छः घोड़ोंवाला रथ
« सौ डाँडोंवाली नौका पर भुज्यु को बैठान।
- राजि पेदुको श्वेतवणं अश्व की प्राप्ति
- सुरा और शत कुम्भ
- शतद्वार-पीड़ा-यंत्र-गृह (काली कोठरी” ? )
„` अशिवनों ने बूढ़े च्यवन ऋषि को युवा बनाकर
विवाह कराया
- दधीचि, अश्व-शिर और मधु-विद्या
. वशध्चिमती को पृत्र-प्रदान
- खेल ऋषि की पत्नी को जंघा दी गयी
“दक्ष भिषक्” अश्विद्वय ने ऋजाइव की
आँखें बनायीं
„ घुइदौड में अश्विनीकुमारों का बाजी
जीतना । काष्ठखंड के पास पहुँचन पर
जीत
- वृषभ और ग्राह को रथ में जोतचा
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DR
( १३ )
. महषि जह ने
. राजा जाहुष को धेरे से बचाना
. वश ऋषि और पृथुश्रवा राजा
. ऋचत्क-पुत्र शर तथा श्रान्त शय ऋषि
. विश्वकाय ऋषि और विष्णाप्व
. रेभ ऋषि का दस रात नो दिन जल में पड़े
रहना
. मधु और शत कुम्भ
- अविवाहिता घोषा का कोढ़ दूर करना
, श्याव ऋषि का कोढ दूर करना, नुषद-
पुत्र को कान देना और कण्व ऋषि को
आँखें देना
- कुम्भ-पुत्र अगस्त्य, भरद्वाज और विश्पला
. वृक, वत्तिका पक्षी, जाहुष और विष्वा
असुर
. अपनी बुकी के लिए ऋजाइव का सौ सेंड
देना
- शयु ऋषि और राजा पुरुमित्र
. हल द्वारा खेत जोतना और जौ बोना
- दधीचि ऋषि और अइव का शिर
. तीन भागों में विभक्त श्याव ऋषि को
जिलाना
. मन के समान वेगवान् और वायु की तरह
गतिशील रथ (वायुयान ? ) । श्येन तथा
गृभ्र का उल्लेख |
- “सहस्रकेतु” या हजार पताकाएं
. अदिविद्वय का अश्व-रहित रथ (वायुयान ? )
. द्विपद, चतुष्पद और मनुष्य
. नब्बे नदियों का पार करना
~ ed
१३.
१४.
( १४ ऐ
द्वितीय अष्ठक
पथ अध्याय
तुणीर का उल्लेख
, श्वेत-त्वचा-रोग से ग्रस्ता और ब्रह्मवादिनी
घोषा
, यक्ष्मा रोग का उल्लेख
, दस इन्द्रियाँ, इष्टाइव और इष्ट-रश्मि नाम
के राजा (जेन्द-धर्मी ? )
. मशर्शार राजा के चार पुत्र और अयवस
राजा के तीन पुत्र
. सूर्य से उषा तीस. योजन आगे चरती हूं
अर्थात् सूर्योदय से आघा घंटा पहले उषा
का उदय होता हैं ; सायणाचाये के मत से
सूर्य प्रतिदिन ५०५९ योजन चलते हे।
कुछ भूरोपीयों के मत से सूर्य प्रतिदिन
२०००० मील चलते हे
. गृह में गृहिणी पहले जागकर सबको जगाती
है। अभिसारिका का उल्लेख
, स्वनय राजी का रत्न छाना । दीर्घतमा
और रत्न-राजि
, दक्षिणा देनवाळे दीर्घायु पाते और अजर-
अमर होते हैं
, ब्रतशाली जरा-ग्रस्त नहीं होते
, सित्ध-वासी भाव्य के पुत्र स्वनय ने हजार
सोम-यज्ञ किये
. ऋषि कक्षीवान् ने १०० निष्क (स्वर्ण
मुद्रा, आभरण या स्वर्ण का माप),
१०७ घोड़े और १०० बैल पाये |
भूरे रंग के अश्ववाले दस रथ और उन पर
अवस्थित वधृएँ । १०६० गायें
हजार गायें, दस रथ, चालीस लोहित-वर्ण
अरव । स्वर्णाभरण-युकत घोड़े
पृष्ठ
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१९१
गान्धारी भेंड़
. श्राह्वाण का उल्लेख
. काटनवाला परशु (फरसा) ! धन॒दूर्धर पुरुष
. निर्भेय राज-पथ
. अरणि द्वारा अग्नि-मन्थन करनेवाले भृगु-
गोत्रीय
. चोर की निन्दा
. प्रमेश्वर ने इन्द्र को उत्पन्न किया
, दिवोदास राजा के लिए इन्द्र द्वारा
९० नगरों का नष्ट
होता हं
. जौ (यव) का हव्य
, मित्र और वरुण के लिए घी
. नीचे मुँह करके मित्र और वरुण का सोमपान
. अर्यमा और भग देवता
दुग्ध-मिश्रित सोम
. दधि-मिश्चित सोम
( १९ )
, ग्यारह रथों की प्राप्त
. नकुळी का उल्लेख
किया जाना
. यजमान आये ¦ कृष्णासुर का वध
. केवि उशना की रक्षा
. सस्त्रीक यज्ञ करना
. परिखा (खाई) से वेष्टित नगरी
. इन्द्र के वजा की महत्ता
. शत्रुसेना और ऐरावत (इन्द्र का हाथी)
. इन्द्र द्वारा १५० सेनाओं का विनाश
. पिशाच का उल्लेख
. इन्द्र के २१ अनुचर
` इन्द्र के लिए गायों का दूध और घी देना
. जिस घर में घी रहता हू, वहां देवागमच
द्वितीय अध्याय
पुष्ठ
१९१
१९१
१९१
१९१
३९
१९३
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१९७
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२००
२००
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२१०
सन्त्र
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१९.
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( १६ )
पुष्ठ
प्रस्तर-खंड द्वारा सोम का बनाया जाना २१०
ऊंट का उल्लेख । पुषा का बाहन बकरा २११
. सोने का रथ ग
- जन्मान्तर की बाते जाननेवाले दधीचि,
अत्रि, मनु, कण्व क्षौर अंगिरा २१३
- तैंतीस देवता--द्युलोक में ११, अन्तरिक्ष
में ११ और पृथिवी पर ११ २१४
. दस दिशाएँ २१६
- वाचाल और हंसानेवाळा विदूषक २१७
- उत्साही, जनप्रिय और विद्याध्ययच
में प्रवीण पुत्र के लिए प्रार्थवा २१८
- सारथि के ल्याम की तरह अग्नि घृत-घारा
ग्रहण करते हुं | २२२
धनुर्धारी का तीर चलाना २२६
. स्वामी और सेवक २२७
. इन्द्रियों में मन अग्रगामी हँ २२९
देव-निन्दक का विनाश २२९
- रातहव्य राजा की दुग्धवती यायें २३१
. विष्णु के वामचावतार की बात २३१
- विष्णु की अपार महिमा । ९४ कालावयव--
संवत्सर, दो अयन, पाँच ऋतु (हेमन्त
और शिशिर एक में), बारह मास,
चौबीस पक्ष, तीस अहोरात्र, आठ पहर
और बारह राशियाँ २३३-२३४
अङ्विनीकुभारों का तीन पहियों और
तीन बन्धनों का रथ | २३४
तृतीय अध्याय
: उचथ-पुत्र दीघेतमा २३५
- त्रैतन द्वारा ममता के पुत्र दीर्घतमा का शिर
काटना, दास द्वारा हृदय पर आघात २३६
- तन्तु (ऊन) का उल्लेख २३६
६ तथा ३-५
३
८ १७ )
; स्वर्णाभरण-विभूषित अशव ( अश्वमेध-
पृष्ठ
यज्ञ) । अश्व नहीं मरता-इवकीसबां मंत्र २४०.४३
५. वाहन-रूप रासभ (गदेभ ? २४३
६. श्येन और हरिण २४३
७. गन्धनं का उल्लेख क २४३
८, सोने का सिर और लोहे का पैर... २४४
९, हंसों की पंक्ति बु २४४
१०. छाग (बकरे) का अश्व के आगे गमन २४५
११. प्रसिद्ध “अस्य वामीय” सूक्त (कण्ठाग्र करन
योग्य सब मंत्र) , . २४५-२५३
१२. एक ही अश्व सात नामों से सुये का रथ
ढोता हें दु २४५
१३. आत्मा और परमात्मा २४६
१४, १२ राशियाँ, ३६० दिन और ३६० रात्रिया २४७
१५. बारह मास और छः ऋतुएँ (हेमन्त और
शिशिर को एक करके पंच ऋतु” भी
कहते थे ) २४७
१६. मन के उत्पत्ति की जिज्ञासा २४८
१७. अभोक्ता परमात्मा और भोक्ता जीवात्मा
(मन्त्र में रूपकातिशयोक्ति अळंकार है) २४८
१८, गायत्री छंद, साम, त्रिष्ट्प्, अनुवाक, सप्त
छंद आदि २४१
१९. जगती छंद, रथन्तर साम भौर सर्वश्रेष्ठ
गायत्री छंद R २४९
२०, अमर जीवात्मा २५०
२१. चार प्रकार की वाणी २५२
२२. प्रभु एक ह्, तो भी उन्हें अनेक कहा गया
है । गरुड़ और यम का उल्लेख ३५२
चतुथ अध्याय
१. औरस पुत्र + २५६
२. हम्यं (अट्टालिका) २५६
३. बज्प-सदृश भायुध के साथ क्षुर (चाकू) २५७
G6 ~ ९
( १८)
. कवि मान्दे
. परिचारिका. हस्तत्राण (दस्ताना ? ) और
केत्तन
. ऋष्टि (वज्यायुध-विशेष )
. सामवेद का आकाशव्यापी गान
८. सात पुरियों का विनाश और पुरुकुत्स के
लिय वृत्र-वध
. सिंह को उपमा
. दास की शय्या । दुर्योणि राजा के लिये
. कुयवाचका वध
सीरा नाम की नदी : तुर्वेसु और यदु
इन्द्र ईश्वर हे
छोपामुद्रा। और अगस्त्य का विचित्र संवाद
. मनष्य बहुत कामनाव।छा होता हुँ
. नराकार अश्विनीकुमार
. आकाश-विहारी रथ (विमान ?
. अश्विद्वय ने सूर्य और चन्द्र के रूप से जन्म
ग्रहण किया था
- पीतवणे रथ
कुन्त का जघन्य शब्द
कै फके
पंखोंवाली चौका
- गौतम, पुरुमीढ़ और अत्रि
पंचस अध्याय
. कवि मान्य
- भारती सरस्वती और इला (इडा)
. कल्याण-वाही बृहस्पति
» शर, कुर, दभ, सेये, मुञ्ज. वीरण नाम
की घासों मे विषधर प्राणी
शोण्डिक के घर चर्ममय सुरा-पात्र
छ छै
. शकुन्तिका पक्षी
. विष-नाशक २१ प्रकार के पक्षी
. विषनाशक निनानबें नदियाँ
"के फ
( १९ )
स्त्रियों का घड़ों में जल भरना । २१ मयूरी
और ७ नदियाँ विष दुर करनेवाळी
. नकुल और लोढ़ा (लोष्टू)
. वृश्चिक (बिच्छु) का उल्लेख
डितोय मण्डल
. हजार, सौ और दस
स्त्रियों का कपड़ा बुनना
. गृत्समद-वंशीय ऋषि हे
. उकथ (ऋछ -मंत्र) कु
षष्ठ अध्याय
कक दास प्रजा कफ
. दनु-पुत्र वृत्र और ऊर्णनाभि कोट
- आर्ये को इन्द्र ने ज्योति दी, आय के द्वारा
शत्रु-नाश
, इन्द्र ने पृथिवी को दृढ़ किया, पर्वतो को
नियमित किया, अन्तरिक्ष को बनाया
तथा द्युलोक को निस्तब्ध किया
. इन्द्र ने ४० वर्षो में शम्बरासुर को खोजकर
मारा । अहि का विनाश
. सात नदियाँ । रौहिण दैत्य कु
- गृहस्थो द्वारा अतिथि को दान
- खेतों में फल ओर फूलवाली ओषधि
. दस सौ धोड़े
. बलिष्ठ जातुष्ठिर
- तुर्वीति वय्य और परावृज
द भीक और बळ असुर को नष्ट करना
नेनानबे बाहुवाल उरण और अर्बुद का
विनाश
. शुष्ण, पिप्रु, नमुचि और रुधिक्ता का
विनाश
. वर्ची के सौ हजार पुत्रों का विनाश, ,
tT हन Fa
( २० )
. कुत्स, आयु और अतिथिग्व RT
- हु्षेकारक वा मदकारक सोम ७००
. दभीति ऋषि को दान हि
दति, इरावती और परुष्णी नदियां ॥
सिन्ध वदी ल
. परावृज को पर और आँखें देना
. चुमुरि और धुनि का विनाश। वेत्रधारी
द्वारपाळ
२. आमरण पितु-गृह में रहनेवाली पुत्री पितृ-
कुल से अंश पाती थी
, चार तरह के प्रस्तर, तीन प्रकार के स्वर,
सात प्रकार के छंद और दस प्रकार के पात्र
, दो, चार, छः, आठ और दस हरि चामक
धोड़े
, बीस, तीस, चाळीस, पचास, साठ और
सत्तर हरि (घोड़े)
. अस्सी, नब्बे और सौ घोड़े (हरि)
- कुत्स के लिये शुष्ण, अशुष और कुयव को
वश में करना तथा राजा दिवोदास के
लिये शम्बरासुर के निनानबे नगरों का
भर्न किया जाना क
- देव-शून्य पीयु । सप्तपदी सख्यता
, अश्त के प्राचीन नगरों का चष्ट
किया जाना
» ऊँष्ण-जन्मा (द्रविड़?) दास-सेचा का
विनाश
- लौहमयी पुरी
. देव-निन्दको के विनाश के लिये प्रार्थना
, ऋण का परिशोध
. देवशन्य मन की निन्दा
, आये लोगों का धन ब्रह्मचरय-तेज ,,
२१६
३१७
३१७
३१७
३१८
३१८
३१९
३२७
३२०
३२३
३२३-२२४
३२३
३२४
८
८
११ तथा १७
१२
१९
HAR कछ
. गव्य और मेषलोममय दशापवे
, ब्राह्मण ऋत्विक् ५५
( २१ )
सप्तस अध्याय
. नवीन स्तुति कप
. धनुष्, वाण और ज्या
. राजमाता अदिति, अर्यमा, मित्र और
वरुण
करते थे
. पूर्वे पुरुष सौ वर्षों की आयु का उपभोग
. बछड़े का बन्धन रस्सी
. ऋण-कर्ता की दयनीय दशा
. किसी से दीनता प्रकट करना दुर्भाग्य
, गप्त-प्रसविनी स्त्री का उल्लेख
, पक्षि-वधिक व्याध
. शण्डिकों के प्रधान शण्डासर्क का वध
- सूर्या के स्वामी अर्विनीकुमार
. नवीन स्तोत्र
- राका (पुणिमा की रात्रि) । सूची (सुई)
और बनना
. सिनीवाली (अमावास्या वा देवपत्नी)
कुहू, इन्द्राणी और वरुणाची
-आयुध
. सोने का शिरस्त्राण (पगड़ी)
- वीणा और अरुण-वणें अळंकार
- वीणा-विशेष वाद्य । प्राण, अपान,
समान, व्यान और उदान नाम के
पंच वायु ७
- समुद्रस्थ अग्नि (वडवानल) ु
- इला, सरस्वती और भारती देवियाँ
- समुद्र से उत्पन्न उच्चैःश्रवा नाम का अश्व
(इन्द्र का घोडा)
क क
पुष्ठ
३२५
३२६
३३०
३३०
३३२
३३३
३३३
३३३
३३४
३३५
३३६
३२६
३२७
३२८
३२८
३४०
२४१
३४२
३४२
२४३
३४३
३४३
२४५
२४६
सत्त
WN प्टि ठछ ०८ ANH
न्ट
१३-१४
[२२ )
अष्टस अध्याय
पृष्ठ
१. अस्त्र बुननेवाली रमणी ति ३४८
२. प्रृद्ध-यात्रा करनेवाला राजा 2 ३४८
३. चक्रवाक-दम्पती का उल्लेख न ३४९
४. कुक्कुर। धमे (कवच) ०० ३४९
५. उपमालंकार की भरमार ०० २४९-२३५०
६, छः ऋतुएं और मलमास ५० ३५०
७. हजार रथ १ ३५१
८. हजार स्तम्भ हि ३५२
९. कपिञ्जल बक २५२३
०. शकुनि पक्षी। कर्करि (एक तरह का
बाजा) के २५४
तृतीय मण्डल
११. विश्वामित्र-वंशधर 5 ३५७
१२. कुठार (कुलिश) से रथ का संस्कार . . ३५८
१३. भृगुवंशीय ऋषि 2 ३५८
१४. तलवार को तीखी करना छ २५९
१५. सिंह-गर्जन | 4.3 ३५९
१६. भारती लोग (सुर्य-सम्बन्धी कु २६२
तृतीय अष्ट्रक
प्रथम अध्याय
१. पुरुष की एक स्त्री डे ३६७
२. यूप-काष्ठ का वर्णन ३६९-७०
३. गुहा-स्थित सिंह | ४५ ३७१
४. तीन हजार तीन सौ उनतालीस देवता ३७१
५. दासों के नब्बे नगर £ ३७४
६. खोदाई करनेवाले हथियार न ३८३
७. भरत के पूत्र देवश्रवा और देववात .. ३८२
८. दुषद्वती (राजपूताने की सिकता में
विलीन घष्घर नदी), आपया (कुरु-
NG दूरी दुट RNS
. ब्राह्मणों के द्वारा नदियों की स्तुति
. आर्य-वर्णे (ब्राह्मणादि जातियाँ)
- केश-यकत गन्धवे
( २३ )
्षेत्रस्थ नदी) और सरस्वती (कुरु
क्षेत्रीय नदी) छु
९. परमात्मा के अर्थ में अग्नि
, दक्ष की पुत्री इला (वा यज्ञभूमि ? )
द्वितीय अध्याय
. सुन्दर शिरस्त्राण
. वड़्वानल ( स्थ अग्नि)
कुशिकनन्दन (विश्वामित्र-वंशीय )
, पुत्र के अभाव में दौहित्र का ग्रहण उचित
. स॒रमा नाम की कुक्कुरी क
, सूर्य के कारण अहोरात्र का प्रवत्तेन ..
. दिन मास और वर्षे
on मध्यतन और अधुनातन स्तोत्र
[ (व्यास नदी) और शुतुद्री
(सतलज नदी)
. भरतवंशीयों का व्यास और सतलज
पार करना
श ® ®
छै तक छ ® क
यमज अश्विनीकुमार
तृतीय अध्याय
, गव्य-मिश्रित और जौ मिला सोमरस. .
, इन्द्र के घोड़े आकाश-मार्ग से चलते थे
, हरिद्रण आयध 2
. मयूरों के पिच्छ 5
. अंकुश (लग्गी) Re
. त्वष्टा नामक असुर >
. याज्ञिक भोज (अंगिरा, मेधातिथि
आदि) सुदास राजा के याजक ५७
«६ 6७ “० ०८ NG
छ
२४,
AAG
१०.
११.
AK RNS
( २४ )
` पिजवन-पुत्र सुदास का यज्ञ विश्वा-
मित्र ने कराया
- अनार्य-देश कीकट (जहाँ दुर्दशा-
ग्रस्त गायें रहती थीं)
- जमदग्नि-वंशीय दीर्घायु होते थे
* खदिर और शीराम (शिशपा)
- शाल्मली-पुष्प । स्थाली में पाक करना।
विश्वामित्र का अपमान
° भरतवंशीयों की शिष्टो के साथ संगति
नहीं है
वामनावतार की बात
- बल के अर्थ में असुर शब्द का प्रयोग।
देवों की शक्ति एक ईइवर हें है]
- दो-दो मास की एक-एक ऋतु--सब छ;
परन्तु हेमन्त और शिशिर को मिला देने
पर पाँच ही कतुएँ होती हे
चतुथं अध्याय
- जह्लावी नदी ३
- सुधन्वा के पुत्रों के साथ इन्द्र का सोमपान
- बुहस्पति-वाहून विश्वरूप
नयी स्तुति हि
« प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र वि
* जमदरग्नि ऋषि के द्वारा मित्रावरुण की क्
स्तुति
चतुर्थ मण्डल
- वर्णङृत जलोदर रोग...
° उष्ण दुग्ध स्पृहणीय होता हें मी
- सुवर्णनिमित सज्जा (काठी) के साथ
अश्व न
सात पुरुष (वामदेव और छः अंगिरा)
धोंकनी (भाथी) 5
४३०
४३२
४३४-३८
४३७
४४१
४४
४४७
४४७
४४०७
४४८
४४९
४४९
४५३
४५४
४५५्
१५
( २५ )
छ अनले
१२. अयमा और भग न ४५६ ५
१३. अभात्य-वेष्टित गज-स्कन्ध पर आरूढ
राजा क ४५८ १
१४. चक्षुविहीन दीघतमा ति? ४६० १३
पंचम अध्याय
१. छादन (छप्पर) वाला स्तम्भ .. ४६१ १
२. विपथगामिनी और पति-विद्वेषिणी स्त्री ।
यज्ञहीन, सत्य-रहित तथा असत्यवादी
नरक पाते हु ४६२ प्
३. अप्तवान् (भुगुवंशीय) ने अग्नि को
प्रदीप्त किया क ४६५ १
४. लोक म स्तम्भ-स्वरूप सूयं स्वर्ग का
पालन करते हे | ४७४ ५
सहदेव के पुत्र सोमक राजा ने अश्व
दिया । दीर्घाय की कामना क ४७७५ ७--१०
६. पिप्रऔर मृगय असुर । विदीथ का पुत्र
ऋजिश्वा । इन्द्र द्वारा पचास हजार
काले क सुरों का मारा जाना कि ४७७ १३
७. एतश को यद्ध से निवारित करना ४८१ १४
८, कुषवा नाम की राक्षसी 5 ४८४ ८
, जीवनोपाय के अभाव में वामदेव द्वारा
कुत्ते का मांस पकाकर खाना .. ४८५ १३
षष्ठ अध्याय
१. पूर्णमासी के दिन वृत्रासुर (ब्राह्मण)
का वध ४८५ ३
२. अग्रू-पुत्र को दीमक से बाहर निकालना ४८६ ९
३. स्त्री-अभिमानी स्त्री की प्रशंसा करता हे ४८८ प्
४, गौर मुग और गवय मृग 8 ४९० ८
५. परुष्णी (रावी) और इन्द्र हि ४९१ ४
६. वल्गा (लगाम) ०७ ४९२ ८
७, भूना .आ जौ (यव) FR ४९५ ७
( २६ )
हट दीघेतमा के पुत्र कक्षीवान् और अर्जुनी-
पुत्र कुत्स तथा प्रसिद्ध उशना कवि ..
. आयं को पृथ्वी का दान और शस्य के
लिये वष्टि-दान 0.4
« शम्बरासुर के ९९ नगरीं का ध्वंस और
राजषि दिवोदास के निवास के लिये सौ
नगर देना
- श्येन (बाज) पक्षी के द्वारा द्युलोक से
सोम लाना ७11
. अयुत (दस सहस्र ? ) यज्ञ #3
परमात्मा से सारे देवों की उत्पत्ति ..
. धनुष् पर प्रत्यञ्चा चढ़ाना और शर-
क्षेपण ल
अनेक सहस्र सेनाओं का विनाश ..
- कर्मे-हीन मानव गहित हु ०३
: सहृस्रसंख्यक अश्व ००
- शकट और चक्र Fr
- विपाशा (व्यास) के तट पर शकट का
गिरना
- कुलितर का पूत्र शम्बर पर्वत पर मारा
गया
; बचि नामक दास के हजार सेनिकों का
वच °+
- अग्रू का पुत्र परावृत्त स्तोता दुर
, राजा तुवंश और यदु को ययाति का
शाप । शचीपति इन्द्र
, सरय नदी के पार रहनेवाले अर्ण और
चित्ररथ राजा का वध
. दिवोदास राजा को शम्बर के पाषण-
निमित सौ नगर मिले
- त्रिशत्-सहस्र-संख्यक राक्षसों का विनाश
. सोन के दस कलश | ३३
१०३
५०३
५०३
५०४
५०४
५०४
५०८
स्स्त्र
( २७ )
२८. कमनीय शालभडिजका-द्य (अर्थात्
A A)
झक काष्ठमयी मूत्तियाँ) और दो
ले घोड़े
® क
सप्तम अध्याय
की त्यों रखा
नहीं होते
. ऋभओं ने मत गायको वषं भर ज्यों
. आर्द्रा से बारह नक्षत्र वृष्टि-कारक हें
. तपस्वी के सिवा देवता दूसरे फे मित्र
के क
अश्व के विना अन्तरिक्ष में चलनेवाला
रथ (विमान ?)
. निष्क (स्वर्ण-मुद्रा )
. राजषि श्रसदस्यु (ऋचाओं के स्मर्ता)
. दुर्गह राजा के पुत्र और त्रसदस्य के पिता
पुरुकुत्स तथा सर्प्ताष
. समुद्र का उल्लेख
. पुरुमीह्व और अजमीह्व ऋषियों के
ऋत्विकों की स्तुति
, मघ और मध -मक्षिका
. दरवर्ती उत्कृष्ट स्थान स्वर्ग और खोदा
हुआ कूप
. पन-हीन ब्राह्मण को घन-दान
® %
¢ 9
कै ©
अष्टस अध्याय
क्रे देवता
लौह-फल ? )
. समद्र के मध्य में गमन । अहिब घ्न्य नाम
. बैल, कृषिकाय, लांगल, प्रग्रह, प्रतोद आदि
. सीता (हल द्वारा चिह्नित भूमि-रेखा वा
फल वा फाल (भूमि-विदारक काष्ठ)
पजन्य (मेघ) द्वारा वर्षण
खै छै
सन्त्र
प्
ठू „€
ष् हे
( २८ )
इन्द्र ने गाय में दूध, सूर्य ने दधि और
अन्य देवों न घुत निष्पन्न किया
« कल्याणी और हास्य-वदना स्त्री पति-
भक्ता होती हु
« समुद्र-मध्य में बड़वार्नि, हृदय में
बेश्वानर-अग्नि और जल में विद्यदग्नि
पचस मयडल
८. गविष्ठिर ऋषि का नमस्कार-य क्त
स्तोत्र
९, अस्नि-गोत्रोत्पञ्ज वश ऋषि। निन्दक
निन्दनीय है
१०. आसुरी माया
११. त्वष्टा देव पोषण-कर्ता हे
१२.
AH ANS
अंगिरा (आग का अंगारा?) के पुत्र
अग्निदेव
तुथ अएक
अथम अध्याय
« माथी और भाथीवाछ।
« सेमि और चक्र के कील
. तस्कर का युहा में छिपाकर धन रखना ।
अत्रि ऋषि
, वक्षि ऋषि अशोभन दशा मं
« अत्रि के वंशधर युम्न ऋषि के लिये
पुत्र प्राप्ति की प्राथना
. विश्ववर्षिणि ऋषि और शत्रुओं का
हिसक बल
पुत्र ऐसा हो, जो पिता, पितामहादि
के यश को प्रख्यात करे
पुत्र ऐसा हो, जो सत्य का पालन करे
अत्रि ऋषि के वंशीय वसुयु क्रषिगण की
स्तुति ५१
पृष्ठ
मड
५४२
५४२
५ प्
५४६
५४६
RR
५५५
५५७
५६२
१६३
५६६
५६८
५६९
५७७
प् 90
५७६
सस्ते
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० +S +? जडीडि
2 A
१०.
११.
१२.
१३.
१४,
२,
कँ
१६.
१७.
१८.
त्रिवृष्ण के पुत्र ्यरुण राजषि द्वारा शकट-
युक्त दी वृषभ और दस सहस् स्वर्णे-
मुद्रा का दान शक
राजषि अश्वमेघ के द्वारा सौ बैलों का
दान | त्याशिर (दूध
सिलाया सोम)
वश्वावारा ऋषिका~-मन्त्र का स्मरण
या निर्माण करनेवाली
बजय द्वारा शम्बरासुर के ९९ नगरों का
विनाश । जिष्टप छन्द
( २९ )
दही और सत्त
फ ॐ
में स्तुति ..
शक्ति-गोत्रज गौरिवीति ऋषि । विदथि
पुत्र क्रजिश्वा । पिप्र नामक असुर
मरुतो के प्रभाव से द्यावा-पथ्वी का चक्क
की तरह त्मना ! असुर नमुचि न स्त्री-
सेना बनायी थी । इन्द्र ने दो स्त्रियों को
पकडा
बच्च ऋषि के अभिषत प्रोम-पान से
इन्द्र की प्रसन्नता
सग शाके राजा ऋहणञ्चय की प्रजा न
हक क
बज्न ऋषि को अळंकार आच्छादन,
स्वणे-कलूश और ४००० गाये दीं
अत्रि के वंशज अवस्य
की प्राप्ति
ऋषि को अश्वों
द्वितीय अध्याय
गिरिक्षित-गोत्रोत्पन्न पुरुकुत्स ` के पुत्र
भसदस्यृ द्वारा दस श्वेत अश्वो का दान
छकार का दान
. लक्षमण्य के पुत्र ध्वन्य
वंशीय संवरण ऋषि
और भाई का वध
. मरुताश्व के पुत्र विदथ के द्वारा शरीरा-
। अत्रि ऋषि के
भर कर
, मग नामक असर । यष्टा द्वारा माँ, बाप
0070
पृष्ठ
५७२
५७३
५७३
५७७
५७५
५७८
०७८
१ हि टन ७९ 9 2
अन्त्र
थ्
१२-१५
२ और ४
( २० )
५. अग्निवेश के पुत्र शत्रि नामक रार्जाष
प्रसिद्ध राता थे
आह्याणादि चार वर्ण
- श्रृतरथ राजा द्वारा ३०० गायों का दान
« अत्रि-वंशधर । सूयं-प्रहण का विवरण
- इड़ा और उवंशी नाम की दो नदियाँ ..
. अजँव्य राजा का देवसंघ त
. भग, सविता, क्रभक्षा वाज और पुरन्धि
. सरस्वती आदि ce
- स्त्री का पुरुष के साथ यज्ञ करना
. क्षत्र, मनस अवद, यजत, सधि और
अवत्सार ऋषिगण
. विश्ववार, यजत और मायी ऋषि का
सोमजन्य हषं
- सदापृण, यजत, बाहुवृकक्त, श्रृतवित् और
त्यं ऋषिगण
- नवग्व और दशग्व। सूर्य के सात अश्व
- नवग्वों ने दश मास यज्ञ किया
. गाडी में घोड़ों का जोतना
- इन्द्राणी, अग्नायी, अश्विनी, रोदसी, वरु-
णानी आदि देवियाँ
तृतीय अध्याय
- परुष्णी (रावी) नदी में मरुदगण ..
« उनचास (४९) पवन । यम्ना-तट पर
गोधन की प्राप्ति
- स्वणमय आभरण (अञ्जि), माला
(खरक), उरोभूषण (रुक्म), हस्त-पाद-
स्थित कटक (काडा और बल्य)
रथ. धनुष
- रसा. अनितभा, कुभा, सिन्धु और
सरयू नदियाँ ००
पृष्ठ मन्त्र
५८६ ९,
५८७ 3
१८८ ६
५९१-९२ ५ और ५-९
५९५ १९
५९५ २०
५९६ पा
५९७ १२
६०१ १५
६०३ १०
६०३ ११
६०३ १२
६०५ छथौर९
६०६ ११
६०६ २
६०७ ८
६१४ ९
६१५ १७
६५१६ ¥
६१७ ९
(२१ )
पैरों में कटक (काडा), हृदय में हार
(रुक्म) और मस्तक पर हिरण्यमयी
पगड़ी हा
. सीन का कवच
. एद्र-पत्नी या मरुतों की माता मीह लषी
. आयुध, क्षरिका, तुणीर और उत्कृष्ट
धनर्वाण ८
. हाथों में वलय
. प्राणियों से पुणे नौका जल के बीच में
काँपती हे
. लगाम, जीन और अश्वों की नाको में
बन्धन-रज्ज्
. कशा (कोड़ा वा चाबक)
, अग्नि-तप्त ताँबा
, अत्रि-वंशधघर श्यावाशव ऋषि। राजा
तरन्त तथा उनको पत्नी शशीयसी
(ऋषिका) और सौ भेंडों का दान
, पुरुमीह्ल ऋषि के गृह पर सज्जा-
विशिष्ट रथ
. रथवीति का निवास गोमती नदी के
तट पर
. हजार खम्भों का महल
. सुवणं का रथ और कीलक भी सोने के
. सोने का रथ और लोहे के कील।
दितिका अथ खण्डित प्रजा और अदिति
का भर्थ अखण्ड भूमि
चतुथं अध्याय
. अत्रि-वंशीय रातहव्य ऋषि । स्वराज्य
में जान की इच्छा
२. अपने (बाहुवृवत ऋषि के) गोत्र"
प्रवर्तक अत्रि ऋषि 5
पृष्ठ
६३३
५३७
६४३
~ ~ "छै
३ और ६
१५.
~
( ३२ )
, पौर ऋषि के पूर्वज अति द्वारा अग्नि
कः सुख-सेव्य बचाना
. विपिन मं व्याध का सिह को प्रताड़ित
करना
- जराजीणं च्यवन ऋषि को युवा बनाना
. मधु-विद्या-विशारद अधिवनी-कुमार , .
. सोनं का रथ
. अत्रिकुलोत्पञ्न अवस्यु ऋषि की स्तुति
. रात्रि का शेष भाग गो-दोहन-काल है
. हँस-पति-पत्नी चि
, हरिण और गौर 2
- वनस्पति-निमित पेटिका (बाक्स) ।
अत्रिवंशीय सप्तवध्रि ऋषि क 200
. दस मास के अनन्तर गर्भस्थ शिश की
उत्पत्ति
. वय्य-पुत्र सत्यश्रवा ऋषि के लिए
प्रार्थना ती
सविता के द्वारा स्वर्ग का प्रकाशन . .
- मेघ-गर्जन की सिहगर्जन से उपमा
- वारि-वषंण से ओषधियों का गर्भ-धारण
, मरु-भमियां
असुरहन्ता वरुणदेव। एक ईश्वर की
अनुभूति
- अत्रि-वंशोत्पन्नं एवयामर्त् ऋषि की
आत्ते स्तुति a
षष्ठ मण्डल
पंचम अध्याय
- कुठार से काठ काट्या । स्वणेकार का
सोना गलाना ति
॥
- सात नदियाँ ७
नये स्तोत्र क
६६४
६७०
६७२
सन्य
२-८
Me
© 5 5 fl 6
न ~
<?
( ३३ )
तन्तु (सूत अर्थात् ऊन) और ओतु
(तिरश्चीन सूत) तथा कपड का बनता
, शरीर की जठराग्नि द्वारा रक्षा ..
. दीर्घतमा को माता ममता (ऋषिका)
, भरद्वाज-वंशधरों के स्तोत्र i
हेमन्त ऋत से संवत्सर का आरम्भ ..
ब्रत-विरोधी का पराभवन
, भुगवंशधर ऋषि और वीतहव्य ऋषि
द्वारा अस्नि-स्यापन हक
(कम्बल) । अथर्वा का अग्नि-
मन्थन हक
, दूष्यन्त-पुत्र भरत
, भरद्वाज ऋषि और राजा दिवोदास
. अथर्वा ऋषि न पुष्कर-पत्र पर अस्नि-
मन्थन कर अग्नि को उत्पन्न किया ..
- पाथ्य वृषा ऋषि द्वारा अग्नि का प्रदीपच
षष्ठ अध्याय
. शोभन कपोल से युक्त €ब्द्र 2
. चमुरि, धुनि, पिप्रु, शम्बर, शुष्ण
आदि असुर की
. आसुरी माया ;
, आय् और दिवोदास, भतिथिग्व और
शम्बरासुर कि
. पणि की सौ सेनाएं
. राजा द्योतन के वशीभूत वेतसु, दशोणि,
तृतुजि, तुग्र और दभ असुर क
- शरत् असुर की सात पुरियों को विच्छिन्न
करने से इन्द्र पुरन्दर हुए हु
. उशना कवि । नववास्त्व असुर का वध
वैदिक उपासना के साथ स्तोत्र +.
१०
११
१५.
१६.
१७.
२८.
१९
२०.
२१.
०८ -०४ ७ ०0
ती
( २४ )
. कर्मकाण्ड-शन्य ही दस्य् ु
उपजाऊ भा मे के लिए विवाद त
ष्टिका-बल के द्वारा खच को का विनाश
. वृषभ, वेतसु और तुजि चाम के राजा।
तुग्रासुर-वध
. दभीति राजा के लिए चुमुरि का वध ।
पिठीनस् राजा को राज्य-दान । इन्द्र के
द्वारा साठ हजार योद्धाओं का एक काल
में विनाश a
प्रतदेन राजा के पुत्र क्षत्रश्री .
चायमान राजा के अभ्यवर्ती “त्र को धन-
दान । हरिथूपीय। नदी के पूर्व भाग मे
स्थित वरशिख के गोत्रज बूचीवान् के
पुत्रों का वध श्र
कवचधारी वरशिख के १३० पुत्रों का
यव्यावती (हारियूपीया) के पास वध
सृञ्जय और तुवंश राजा । देववाक-बंशज
अभ्यवर्ती के निकट धरशिख-पुत्र ..
पृथु राजा के वंशधर अभ्यवर्ती द्वारा
भरद्वाज को २० गायों का दान ,,
सुप्रसिद्ध गो-सूक्त हि
तड़ाग का निर्मल जल । कालात्मा पर-
मात्मा का आयुध
सप्तम अध्याय
. भूना जौ हवि के लिए संस्कृत न
. संग्राम में कुयव का वध
- सूर्य का दक्षिणायन होता और वर्षारम्भ
. इन्द्र द्वारा अंगिराओं के साथ पणियों
का संहार
न्द्र (प्रभु) सारे लोकों के स्वामी हे
- तुबेश और यदु को इन्द्र दूर देश से ले आये
- कुवित्स की असंख्य धेनृ्ोंवाली गोशाळा
पुष्ठ
(००४
७०५
७०६
७०६
७०७
७०३
७०८
७०८
७०८
७०९--१०
७१०
७११
७१२
७१४
७१४
७१७
७२६
७२८
NN Af
प्
XN
( २५ )
&. गंगा के ऊंचे तट का उल्ढेख । वहीं धृबुका
अधिष्ठान था ४०%
९. हजार गायों के दाता वृच् छस
६
„ पत्थर, लकड़ी और इंट का घर। शीत-
७ छ
ताप-चियन्त्रक गृह ?
. मधुर, तीब्र रसवान और बि सोमरस
« सोमरस ने ओषधि, जल और धेन् में रस
दिया हैं 5
- छौहमय खड्ग की धार
, इन्द्र के रथ मे हजार घोड़े । इन्द्र फे माया
दाणा अनक रूप
. धूमते-घू मते अनायं-देश में पहुंचना । मागं
देने के लिए प्रार्थना
छै»
. 'उदव्रज नामक देश ॒
, दिवोदास से दस घोडे, दस सोने फे कोश
कपड़े और दस सोने के पिण्ड मिळे
. अश्वत्थ ने वायू को दस रथ दिये .,
- गोचमं से रथ का बाँधना ९५
. जुझाऊ बाजे (युद्ध-दून्द्रुभि) के भयंकर
निनाद द्वारा पृथ्वी से स्वगं तक परिपूर्ण
होने की प्रार्थना छि
१. घोड़ों पर सेनानी और रथ पर सैनिक ..
अष्टम अध्याय
« एक ही बार स्वर्ग उत्पन्न हुआ और एक
ही बार पृथ्वी क
. वृक-दम्पती (अ्रेंडिया) ई
नमस्कार सबसे बड़ी वस्तु हे
नमस्कार के वश स्वग, पृथ्वी और देवता हे
. ब्राह्मण-द्वेषी के प्रति सन्तापक आयूध का
प्रक्षेप
- छौहाग्रदण्ड (आरा या प्रतोद) .,
कपर्री (चूडावान्) और रथि-श्रष्ट पुषा
पृष्ठ
७२९
७२९
७३०
७३१
७३१
७३२ `
७३३
७३४ `
'७३४
७३४
७३४
७३४
७३५
७३५
७३८
७४३
७४ ३
७४५ |
७४७
७४७
७. घी-मिला जौ का सत्तू ९%
८, सुवर्णमयी नौकाएं %०
९. इन्द्र और अग्नि यमज हूं ? +
१०. हव्यदाता बध्युश्व का प्रुष दिवोदास . .
११. दोनों तटों का विनाश करनेवाली सरस्वती
१२. सात नदियों या भगिनियोंबाली सरस्वती
१३. सात नदियों से यक्ता सरस्वती +.
१४ नदियों में सबसे वेगवती सरस्वती ..
पंचम अष्टक
प्रथम अध्याय
१, मरुदेश को छाँघ कर पानी के लिए जाना
२. समीढ़ की सौ गाये और पेसक का पक्वान्न ।
शान्त राजा का दस रथों का दान ..
३. पुरुपन्था चामक राजा का हजार भइवों का
दान be ७०
४. स्वर्णालंकारवाले रथ
५, सारथि और अश्व से हन तथा भआाकाइा-
चारी रथ (विमान?)
६. सप्त रत्नो का धारण करनेवाले थब्र
७. लोहमय कवच ४७
८, तुणीर का “त्रिद्वा” शब्द करता ..
९. धनुर्धारी के कान तक प्रत्यंचा का पहुँचचा ॥
रथ पर अस्त्रादि हु
१०. वाण का दाँत सृग-श्वंग । ज्या के आघात
से हाथ को बचानवाला हस्तघ्व'
(दस्ताना ? ) a
११, विषाक्त वाण का मुख लोहमय
सतम मण्डल
१२. अग्नि के द्वारा जरूथ (ईरानी पंगम्बर
जरथुस्त्र ? ) का दहव RR
७५०
` ७५१
७५४
७५४
७५५
७५५
७५५
७५७
७५९
७६०
७६२
७६३
७७०
७७१
७७२
७७२
७७३
७७३
७७५
हे
३ आर
११झौर् १४
( ३७ )
१३. आसुरी माया दु
१४. औरस पुत्र क
१५, खराब कपड़ा (दुर्वासस् } 5
द्वितीय अध्याय
१. सरस्वती, भारती और इछा देवियां .,
२. अपरिमित लौहुमय अथवा सुवर्णमय घुरियाँ
३. अकवि सत्यं में कवि अग्वि हर
४. अनौरस की अनिच्छा 0
५. दत्तक पुत्र (अन्य-जात) 5३
६, अनायों का देश निकाछा . रह
७. वसिष्ठ ऋषि द्वारा समिद्ध अग्नि के
१६.
जरूथ (जरथुस्त्र ?) का दहन ७८
शत्रुओं से बचने के लिए सौ लौहमयी
तगरियों का निर्माण हे
भूगुओं और दृह्य यों द्वारा सुदास और
तुवृश का साक्षात्कार | र
« प॒क्थ, भलान, असरून्तालिन, विषाणिच
और शिव लोग क्या अनार्य राजा थे या
चन्द्रवंशी राजा थे? आये की गायें . ,
« चरवाह्दों के विना गायों का जौ के खेत में
जावा ०२
श्रुत, कवष, वृद्ध ओर द्रुह्य
. अनु और तुत्सुकी गौओं कौ इच्छावाळे
९६,०६६ लोगों का वध
. सुदास द्वारा छाग से सिह का वघ कराना
और सुई से यूपादि का कोना काटना
` दाशराश'-युद्ध में भेद (नास्तिक) का वध।
तृत्सुओं ओर यमुना ने इन्द्र को संतुष्ट
किया । अज, झिग्रु और यक्ष् नाम के जनपदों
ने इन्द्र को उपहार में अक {के सिर दिये
पराशर और वसिष्ठ की स्तुति हे
पुष्ठ
७७७
७७५
७७९६
७७८
७७९
७८०
७८१
७८१
७८२
७८६
७९०
७९३
७९३
७९४
७९४
७९४
७९५
७९५
७९५
मन्त
१८०१९
(२८ )
पृष्ठ
१७. देववान् राजा के पुत्र पिजवन और पिजवन-
पुत्र सुदास ७९५
१८. सात लोक । यध्यासधि शत्रु का
विनाश क ७९६
१९. दिवोदास का नाम पिजवन कु ७९६
२०, अर्जुनी-पुत्र कुत्स । दास, शुष्ण क्षौर कुयव
असुर ७९६
२१. पुरुकुत्स-पुत्र त्रसदस्यु और पुरु की रक्षा ७९६
२२. दस्य, चमरि और धनिका वध ४.० * (ढक
२३. शम्बर की ९९ नगरियों का विनाश और
१००वीं पर अधिकार ७९७
२४. तुवंश और याद्व (यदुबंशी) को वश मे
करना ५ ७९७
तृतीय अध्याय
१. ज्येष्ठ से कनिष्ठ और कनिष्ठ से ज्येष्ठ
को धन-प्राप्ति तथा पितुधन प्राप्त ` म
करके पुत्र का दूर देश जाना ७९८
२. शिश्नदेव (अब्रह्मचारी) यज्ञ-विध्नकारी
होता हैं नि ८००
३. इन्द्र ईशान वा ईश्वर हूं 5 ८००
` ४, प्राचीन और नवीन ऋषि स्तोत्र उत्पन्न
करते हूं क ८०१
५. शिप्र (उष्णीष-- चादर) ८०३
६. पति द्वारा पत्नी का संशोधन (परिमाजत) ८०४
७. इन्द्र का सुहुन्त नाम का वज्र ८०७
` ८. कुत्सित-कमं-कर्त्ता के देवता नहीं ह ,, ८१०
९. बढ़ई का उल्लेख ८११
१०. श्त्रेतवर्ण और कमंठ वसिष्ठनब्रंशधर शिर
के दक्षिण भाग में चड़ा (कपदं) या
पगड़ी धारण करते ह ८१२
११. दाशराज्चयृद्ध' म इन्द्र द्वारा सुदास की रक्षा ८१३
चदि हटी
( २९ )
, दस राजाओं का संग्राम (पाँच अनाये
या चन्द्रवंशी और पाँच सूर्यवंशी १ )
. आदि त गि के थरतगण अल्पसंख्यक
थे । भरतों के पुरोचित वसिष्ठ
१४. अप्सराओं का उल्लेख
१५. वसिष्ठ अप्सरा (उर्वशी) से उत्पन्न हुए ?
१६. मित्र और वरुण द्वारा अगस्त्य और वसिष्ठ
की उत्पत्ति कुम्भ से
१७. वरुण राष्ट्रों के राजा और नदियों के रूप हे
१८. शान्ति-सूक्त । इसमें गो, अश्व, ओषधि
पर्वत, चढी, वृक्ष आदि की भी अर्चना हुं
चतुर्थ अध्याय
१. नदियों मे सिन्धु माता है और सरस्वती
. सातवीं नदी हे न
२. le सरस्वती cs
३० देवता न क
४, श्याम और लोहित वर्ण के अश्व ०».
५. वरुण का पीला घोड़ा
६. विवा, ऋभुक्षा ओर वाज--तीन ऋभ
७, जळ-देवियों के स्वामी वरुण सत्य और
मिथ्या के साक्षी हें हक
८. छद्षगामी सपं कक
९, स्तनाकृति अजका' नाम का रोग ««
१०. बन्दन नाम का विष ‘+
११. शिपद नाम का रोग +
१२. वास्तोष्पति (गृह्-देवता) 5
१३. स्तेन (चोर), तस्कर (डकत) हि
१४. सूअर (सुकर) का उल्लेख ०
१५. हुम्यं (कोठा)
« वाहन, आँगन और बिस्तरे पर सोने वाली
स्त्रियाँ
« वल्य और हार ०१
हट,
१९.
( ४० )
नीलबणे हेस 5३
बदरीफल (“यम्बकम्? आदि मन्त्र
जपन से दीर्घायू की प्राप्ति) ४
पंचम अध्याय
` विप्र (प्रसिद्ध ब्राह्मण) वसिष्ठ । पृथ्वी-
परिक्रामक सित्र और वरुण नि
९. क्षत्रिय (वीर) मित्र और वरुण ..
३. आयं शब्द का अर्थ ईश्वर (स्वामी) और
असुर शब्द का बली १८
४. वर्ष, मास, दिन और रात्रि न
NG
९,
१०.
११.
१२.
१३.
१.
२.
३.
४,
५,
« सुर्ये-पुत्री गा का उल्लेख (अश्विद्वय
की' स्तुतियों में पहले भी सूर्या का
उल्लेख बार-बार पाया जाता हे) ..
वृक ऋषि और शय् ऋषि तथा वृद्धा गाय
- रथ की नेमि (डंडा) । रथ-चक्र में जल ?
. त्रिबन्धुर (सारियो के बैठने के तीन
उच्च और निम्न काठ के स्थान) ..
धूप (ष्म) से वर्षा की उत्पत्ति ..
च्यवन ऋषि, पेदु राजा, अत्रि और जाहुष
अश्विनी ङुमारो और वसिष्ठ के पिता
एक ही थे ? २५
कुलटा स्त्री का उल्लेख 00
लज्जाहीना यूवती | कु
षष्ठ अध्याय
प्रजोत्पादक सोम न
मोटा परशु (घास काटन का हथियार?)
कुछ भाय रोग सुदास राजा के छात्र
भी थे ? ये चन्टवंशी थे ? की
सैनिकों के कोलाहल का धुलोक में फैलचा
यज्ञ-हीन दस राजा सुदास के शत्र
कर्मण्य और जटाधारी तुत्सु लोग वसिष्ठ
के शिष्य थे क
पृष्ठ
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Ye
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अस्त्र
१२
PD. "छ
६
७.
८.
( ४३ )
असत्य के विनाशक वश्ण ५३
रस्सी से बंधा बछड़ा 5
क्या पाप देवगति से ही होता हे? ««
९. सोन का हिड
१०. जल के रचयिता और समुद्र के स्यापक वरुण
११. वसिष्ठ और वरुण का समुद्र फे बीच
नौका पर झूरूना
१२. वरुण ने सुन्दर दिन में वसिष्ठ को नौका
प्र चढ़ाया था 5
१३. हजार दरवाजों का मकान बह
१४. मिटटी का घर न पाने की इच्छा ३.
१५. राजा नहुष १०
१६. इन्द्र-माता अदिति १०
१७. आसुरी माया
१८. विषशिप्र दास की माया का विनाश ..
१९. वाच असुर के हजार वीरों का विनाश
सप्तम अध्याय
१. एक वषं ब्रत करनेवाले ब्राह्मण (स्तोता)
ब्राह्मणा ब्रतचारिणः
२. शिश की अव्यत्रत ध्वनि अकूखछ” , .
३. ब्राह्मण (स्तोता) का उल्लेख। दो
मन्त्रों मं ' ब्राह्मणासः शब्द 35६
४. भूरे और हरे रंग के मेहक ५३
५. ग्राह्वाणनद्रेषी राक्षस ५३
६. सर्पं (अहि) का उल्लेख क
७. फरसा और मुद्गर ६7%
८. उलक (उल्ल), कुक्कुर, चक्रवाक,
बाज ओर गन्न 3
अष्टम मण्डला
९. दस योजन चलनेवाले हजार घोड़े ..
, रार्जाष एतश और अर्जुन-पुत्र कुत्स ऋषि
पुष्य
८६५
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८८९
८९१
८९१
सन्त
DO ०६
नस
# ० IIT YI
( ४४ )
हितीय अध्याय
१. धनी (अयाज्ञिक) मनुष्य सुरा पीकर
प्रमत होते
२. चित्र वामक राजा न दस सहस्र धन
दान किया
३. अरिविद्ठय ने ~ 0 को कृषि की शिक्षा
दी। हल से
४. त्रसदस्य् के पुत्र तुक्षि ऋषि को धन-प्राप्ति
७. पकथ, अध्िग और बश्च राजा की रक्षा
९. सोभरि ऋषि 00
७. व्यश्य के पुत्र /विश्वमना ऋषि ..
८. काव्य का अर्थं कवि-पुत्र (उशना)
और मन्
९. स्थूल्यूप ऋषि की यजमान के घर में पूजा
१०. व्यश्व ऋषि के वंशधर वयश्व कि
११. रार्जाष कुत्स के लिए शत्र-वध ..,
१२. बरु और सुषामा राजा
१३. वरु राजा का गोमती वदी के तट पर
निवासं | क
१४. क्षत्रिय शब्द का अर्थ बली कद
१५. उक्ष-गोत्रीय सुषामा के पुत्र वरु राजा
१६. वध का वस्त्र से आवृत होना ०६
१७. श्वेतभावरी नदी ०३
१८. तेतीस देवता °
१९. वामनावतार 4
२०. तेतीस देवता +
तृतीय अध्याय
१. सुविन्द, अनशैनि, पिप्रु और अहीशुव का वध
२. ओर्णनाभ और अहीशव का विना
३ सोने की क्रश। (चाबुक)
४ पुरुष से स्त्री होना । स्त्री के मन का शासन
सम्भव नहीं । स्त्री-बूद्धि की क्षुद्रता
पृष्ठ
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९७०
९७२
५७२
( ४५ )
हि पृष्ठ सुस्त
५ पर्दा-प्रथा का उल्लेख (स्त्री को पदे भे
रहने का उपदेश) ० यक ९७२. १९
६ शक वा हारीत ? 5 ९७६् . ७
७, हंस, भेंस और बाज 5 ९७६ ८-९
८. विश् (प्रजा वा वैद्य?) >> ९७७ १८
९, अत्रि, श्यावाश्व और त्रसदस्य क ९७९ ७
१०, शची (इन्द्र-पत्नी) ® ९७९ २
११. यौवनाश्व-पुत्र मान्धाता राजा ढक ९८२ ट
१२. कण्वगोत्रीय नाभाक ऋषि 04 ९८३ ४-५
१३. तीन कोठोंवाला मकान ९७ ९८४ १२
१४. ककुद (वृषभ-स्कन्ध की खूटी) .. ९९० १६
१५. पर्वत पर दशनीय गज के सदृश यद्ध ९९२ ५
१६. सहस्र-बाहु का विनाश 2 ९९४ २६
१७. तुवंश, यदु और अल्लवाथ्य हि ९९४ २७
चतुथं अध्याय
१. वश ऋषि और कन्या=पुत्र (कानीत)
पृथुश्रवा राजा ९९७ २१
२. सत्तर हजार अश्वो, दो इजार ऊंटौं
एक हजार काली घोड़ियों और श्वेत-
वर्ण दस हजार गायों की दक्षिणा .. ९९८ २२
३. सोने के रथ का दान ९९८ २४
४, पृथश्रवा के कर्माध्यक्ष अर्टूव, अक्ष, नहुष
और सुकृस्व ९९८ २७
५ उचथ्य ओर वपु राजा । घोड़ों, अँटो और
कुत्तों पर अन्न ले जाना कद ९९८ २८
६. साठ हजार गायों की प्राप्ति ति ९९८ २९
७, एक सौ ऊट और दो हजार गाये .. ९९९ ३१
८. बलबथ नाम का दास ९९९१ ३२
९, आभरण-विभूषिता कन्या vs ९९९ ३३
१०. कवचे के आश्रय में योद्धा ति २००० <
११. वरुण, मित्र और अर्यमा की माता
अदिति | “55 {ooo ९
( ४६ )
, सोनार (स्वर्णकार) और माली
(मालाकार) तै
. अन्न का तात्पयं घध, पायस आदि
भोज्य
. सोम पीकर स्वर्ग जाना ओर अमर होन।
. शर्यणावत् पुष्कर (कुरुक्षेत्रस्थ ), सुषोमा
(सोहान) और आर्जीकीया ( उरुज्जिरा==
व्यास नदी)
. इन्द्र ri और पणियों को दबाते ह
. भृति (वेतन) ह;
, क्षत्रिय का उल्लेख अ 5
; जाळ में बंघी मछली 5
पंचम अध्याय
. अतिथिग्व के औरस इन्द्रोत राजपुत्र
से दो सरलगामी, ऋक्ष के धुच्च से दो
हरित-वणं और अश्वमेध के पुत्र से दो
रोहित-वणं अश्वो की प्राप्ति ..
» गाय का नाम अघ्न्या (अव॒ध्याम्=न
मारने योग्य)
. रणांगण में जुझाऊ बाजे का घहराना।
गोधा नाम का बाजा और पिंगल-वणं
की ज्या (प्रत्यञ्चा
. सौ चुलोको, सौ पूथिवियो क्ौर सौ सुयों
के लिए भी इन्द्र अगम्य हें क
- सप्तवध्यि और मंजूषा (बाकस) .,
- क्रक्ष-पुत्र भ्रुतवो का वद्धन ‘+
. गोपवन नामक ऋषि का स्तोत्र 5
. तुग्र-पुत्र मृज्यु के लिए चार वावें ५०
. परुष्णी (रावो) नदी ++
, सौ अग्रभागोंवाला इन्द्र का वाण हिल
» अम्यंजन या तैल का उल्लेख क
पृष्ठ
१००१
१००१.
१००२
१०१२
१०१५
१०१५
१०१६ :
१०११
१२.
१३.
डि
४. ऋषि कृष्ण के पुत्र विश्वक का आह्वान
५. विमना नामक ऋषि की स्तुति जता
६. विष्णाप्व ऋषि हलाह
७, हम ऋषि । गौर मूग का तड़ाग
जल-पान RR
८. स्तोता ब्राह्मण (विप्र) Re
९, इन्द्र का सौ सन्धियोंवाला बज्न a
१०. अत्रि ऋषि को कन्या अपाला (ऋषिका)
को चर्मरोग po”
११. मुने हुए जो का सत्तू 5:
१२. निपुण ऋषि । जौ-मिला सोम
१३. ज्योति, गौ और आय के लिए ज्ञान-
साधक यज्ञ का विस्तार a
१४. दिवोदास राजा के लिए ९९ पुरियों का
विनाश क
१५. काली और लाल गायें हे
१६. रत्नों का उल्लेख FP
१७. इन्द्र के द्वारा २१ पवेत-तटों का तोड़ा
जाना डा
१८. पृद्ध-काल में इन्द्र के सिर पर शिरस्त्राण
१९ तिरेसट पवन `
२०. अशमती नदी के तट पर दस हजार सेनाओं
( ४७ )
इन्द्र किसी का तिरस्कार नहीं करते
एकद ऋषि का देवों और देवपत्तियों
को तुप्त करना 5
इष्ठ अध्याय
. इन्द्र ईश्वर हें क
- शतु मारना पुत्रादि से युक्त होकर आगे
बढ़ना हूँ
. मेधावी ऋषि कृष्ण (आंगिरस) । रथ
में रासभ (गदहा या घोड़ा ? )
से युक्त कृष्णासूर
१०४१
१०४१
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१०५१
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१०५५
१०५६
१०५६
{०५७
१२३-१५
२१.
२३.
( ४४ )
कृष्ण, वृत्र, धुनि, नमुचि, शम्बर्, शुष्ण
और पणि--ये सात इन्द्र-ञशु हं ..
२२. ब्रत-रहित गित है Fr
कण्वगोत्रीय रेश ऋषि । उपकारी प्राणी
सप्तम अध्याय
. भृगुगोत्रीय नेम ऋषि का मत है कि इन्द्र
नास का कोई नहीं हैं
२. परावत् (शत्रु) और ऋषि-मित्र शरभ
ई Ay
GANS
- गरुड और लौहमय तगर क
- जो गाय र*ुद्रों की माता, वसुओं की
पुत्री और आदित्यों की भगिनी हं,
वह अवध्य हुँ । छोटी बुद्धि का मनुष्य
ही गाय की उपेक्षा करता हूं हा
- ओवें भृगु और अप्नवान् का आह्वाव
. अध्वर ( हिंसा-शुन्य ) == यज्ञ 6
. आयौँ का संवर्द्धत करनेवाले अग्तिदेव . ,
बालखिल्यन्सूक्त
क्षुद्रा नाम की दात्री
- मेध्यातिथि बा नीपातिथि की रक्षा
- कण्व, त्रसदस्यु, पकथ, दशवज्, गोशर्य
और ऋजिश्वा
. सांवरणि (सार्वाण मनु) का इद्र ने सोम-
पान किया था
, आयें और दास | गौरवर्ण आये पवीरु
- विवस्वान् मनु के A सोम का पान ..
. दशशिप्र और दशोण्य के सोम का पान
. आयु, कुत्स और अतिथि की रक्षा .,
- संवत्ते ओर कुश के ऊपर प्रसन्नता
, श्यामवर्णं मागे 010
. एक सौ गर्देभ, एक सौ थ्रेड़ें और एक
सो दास ही
पृष्ठ
१०५७
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१०७७
१०७८
Na
१२.
१३.
= £ ID कटक
Fe
~
0 NG
( ४९ )
एक सूर्य सारे विश्व में अनेक हुए हू
कुश ऋषि का सोम-प्रवाह
भगम मण्डल
, बत्तीस सेरवाला सोम-कलश
सू्ये-पुत्री श्रद्धा
« द्रोणकलश, आधवनीय और पुत शृत में
सोम
„ भारती, सरस्वती थौर इडा थास की
तीन देवियाँ
. कवि और काव्य (स्तोञ्च) क
. नया सूक्त ई
, पियळवरणं और अरुणवर्ण सोम
अष्टस अध्याय
„ पाँच देशों के परस्पर मित्र RR
. सोमका हाथोंसेरगड़ाजाचा ,,
. मेषलोम पर सोम 5
, सोमका रंग हरा
« पिगरू-वर्ण सोम के लिए घृत और दुग्ध ॥
भवनपति सोम
. हरितवर्ण सोम को पत्थर से चित ऋषि
का पीसना
. चार समुद्रों का उल्लेख
, जार और उपपत्ती का उल्लेख
काले चमडेवालों को मारचा
. मैध्यातिथि (स्तोता) को पढ़ाने के लिए
सोसपाच
सप्तम अष्टक
प्रथम अध्याय
- अयास्य ऋषि का पूजन
२. पिता द्वारा अलंकृता कन्या का स्वामी
के पास जावा लक
ड्भ्ठ
१०७९
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११०३
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२१०४
११०७
११०९
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९१११
१११२
३
(५० )
३. ऋण-परिशोध
तीस दिन और तीस रात (एक मास)
. ध्वस्र और पुरुषन्ति राजाओं से तीस
हजार वस्त्र पाना
. दिवोदास के शत्र तुवंश और यदु राजा
, सोम का दसों अंगुलियों से मसला जाना
. पर्वत पर उत्पन्न सोम ।
. जमदग्नि ऋषि की स्तुति
द्वितीय अध्याय
. वयश्व ऋषि का सोम पीना
, इन्द्र, वायु वरुण और विष्णु के लिए सोम
` शार्यणावत सरोवर में सोम का अभिषव
, आर्जीक नाम का देश वा नदी ? पंचजन
(पंजाब ? )
५. सोम के दो टेढ़े पत्ते। सोमरस बचाने
की रीति
. मेषलोममय दशापवित्र (कुश) पर
सोम का बनायी जाना
. पत्थरों से सोम का कूटा जाना
, पूषा का वाहुन बकरा। सुन्दर कन्या
की याचना
. शयेन (बाज पक्षी) का घोंसला ..
मेषळोममय दशापवित्र को लाँघकर
सोस का कलश में जाना
क क
. सोम से ओषधियों का स्वादिष्ट होना. ,
, जौके सत्त में सोम का मिलाया जाना
, गायत्रीरूप पक्षी
. सूतों (ऊनों) से बना विस्तृत वस्त्र ,
. सोम के शोधक मेषचर्म और गोचर्म हे
कै छै
तम में जल, दघि और दुग्ध का मिलाया
जाना
, नाविको का नावों द्वारा मनुष्यों को नदी
पार कराना
`]
१११३
१११६
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ANN AS
NN
१०
१८.
१९,
२०.
२१.
~
न
( ५१ )
यज्ञ में ऋत्विकों (पुरोहितों) को दक्षिणा
सत्य मार्ग से पापी नहीं जाते। सत्य-
रूप यज्ञ
धर्षा के ईश्वर इन्द्र
यज्ञ की नाभि सोम
ततीय अध्याय
, कुशान नासक धनर्धारी का वाण-पतन
. अन्तरिक्षस्था अप्सराओ का यज्ञ-मध्य
में बेठकर पात्र-स्थित सोम का क्षरित
करना
- सोम मदकर (प्रसन्नता-दायक), स्वादुतम,
रसात्मक और सुखकारी हे
, सोम यलोक से पर्वत पर आकर वृक्ष
बना । पत्थर से कूटा गया और गोचर्म
पर दुहा गया
. सोम अतीव मादक, बलकारी और रस-
वा नें १?
. सोम के विशाल पत्ते
, जो पपस्वी और याज्ञिक हे, वे ही सोम
को धारण करते हूँ। सोम के रक्षक
गन्धं
- देवों क प्रियकारी और मादक सोम .,
- सोम सुन्दर पत्तोंवाला ओर मधुर हे
. गायत्री आदि सात छन्द
. सपे का चमड़ा (केंचुल) छोड़ना
. सोम तीन धातुओं (द्रोणकलश आध-
वनीय और पूतभृत्) वाला हे
« नदियाँ समुद्र की ओर जाती हं
चतुर्थं अध्याय
. दस अँगलियाँ सोम को मेषलोममय
दशापचित्र पर शोधित करती हे
. सोमाभिषव-कर्ता नहुष-वंशधर ,,
फा० ९
~} sn
ई A)
(७ G6 ,छी NDP
९.
२०
११
१२
( ५२ )
- मेष-लोम की चलनी
- सात मेधावी ऋषि (भरद्वाज, कश्यप,
गौतम, अत्ति, विश्वामित्र, जमदग्नि
और वसिष्ठ) 92
. तेतीस देवों का निवास दलोक में
. राजष मन की सोम-ज्योति द्वारा रक्षा
. धौत वस्त्र से आच्छादन
. सोम प्रसन्चताकारक और रमणीय हू
- लम्पट मनुष्य का कुकृत्य ८
. जार और व्यभिचारिणी स्त्री
. सुगन्ध से सम्पन्न सोम
; थजमाच के द्वारा तीनों वेदों की स्तुति
, कर्मचारी का वेतन
. दक्षिणा-दाता यजमान को फल देना
- सूखे हुरश्चित्' नाम के दस्यु कर
- शुक्रवर्ण दशापवित्र (छनना ? )
छै ® कु छ 9
पचस अध्याय
- लम्बी जीभवाला कृत्ता ५
. भगओं के द्वारा मख का वध . ०
. गोचर्म पर सोम है
« नौकर का वेतन
- माँ-बाप के द्वारा बच्चों को आभूषण
से अलंकृत करना ८4
- सतत् में सोम का मिलाया जाना
, घोड़ों के समान सोम का मार्जन
- गोदुग्ध-मिश्चित सोम का पान सब
देवता करते हुं शक
आयं-राज्य . i
सरोवर का खोदा जाना न
सोम के स्तोता वसुरुच् Fe
सोम आयु का दाता हे
दूर देश से साम-ध्वचि का सुना जावा
धूष्ठ
११७२
११७२
११७३
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११७२३
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१२०४
१२०४
१२०५
१२०५
१२०६
१२०६
१२०७
॥ पृष्ठ
१४. शिल्पी, वैद्य और ब्राह्मण के कार्य... १२०७
१५. काठों, पक्षियों के पक्षों और शिलाओं से
वाण-निर्माण हित १२०७
१६. जौ भुननेवाली कन्या और भिषक् (वंद्य)
पुत्र मर १२०७
१७. दरबारी का हास-परिहास की इच्छा करना १२०८
१८, शर्यणावत् तडाग में सोम की प्राप्ति .. १२०८
१९. स्वे में राजा वैवस्वत् और मन्दाकिनी १२०९
२०. स्वर्ग का दिव्य विवरण १२०९
२१. मारीच कश्यप । मन्त्र-रचयिताओं के
द्वारा मन्त्रजरचचा त १२०९
दुशम मयड्ल
२२. पितृ-मार्म (पितृ-यान) का उल्लेख .. १२१२
२३. शीत से आत्तं गायों का उष्ण योष्ठ में जाना १२१३
२४. ब्रह्महत्या, सुरापान, चौयें, गुरुपत्नी-गमन,
अग्निदाह, पुनः पुनः पापाचरण और पाप
करके न कहना आदि सातों में से एक का
आचरण करनेवाला भी पापात्मा हं १२१५
२५. ईश्वर-रूप से अग्नि की स्तुति (वह व्यक्त,
अव्यक्त, स्त्री, पुरुष--सब हे) .. १२१६
बष्ठ अध्याय
१. आपूत्य के पुत्र त्रित के द्वारा अपने पिता के
युद्धास्त्रों से युद्ध करना, त्रिशिरा का
बध करना और त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप
की गायों का हरण करना 35 १२१९
२. प्रसिद्ध यम-यमी-सूक्त ०० १२२१-२३
३. समुद्र के बीच में द्वीप ¢ १२०१
४. देवोंके गण चराचर कोदेखतेहे .. 30105
५. कभी भी मिथ्या कथन न करनेवाला यम ।
ए ५३ )
गन्धवं का उल्लेख। सुर्यं की पत्नी
सरण्यू हु १२२१
सन्तर
A १०७
२५.
( ५४ )
पृष्ठ
. भविष्य युग में श्रातृत्व-विहीव भगि
नियाँ शाता को पति बनावेंगी ९२२२
, अग्नि-ज्वाला वृष्टि-वारि का दोहन
करती हु १२२५
. जड़वें का उल्लेख । ओंकार और यज्ञ
के पाँच उपकरण (धाना, सोम, पशु,
पुरोडाश और घृत ) १२२६
. पितृलोक और यमपुरी का वर्णन । पितरों
के स्वामी यम १२२७-२९
. पृत्रेजों के मागे से सभी जीवों का
कर्मनिसार गमन १२२७
थवाले पितर। अंगिरा और क्रक्व
नाम के पितर । पितरों के लिए स्वधा १२२७
जहाँ प्राचीन मागं से पितामहादि गये
हें. उसी से हे मत पितः, तुम भी जाओ। १२२८
. “पितः. स्वं में अपने पितरों से मिलो।
ग्रह में पैठो।” पर १२२८
. श्मशान-घाट का विवरण का १२२८
. दो यम-दूतों (कुकुरों) का वर्णन १२२८
यमराज का स्वरूप-विवरण १२२८
. पितरों की तीन श्रेणियाँ (उत्तम, मध्यम
और अधम ) ४ १२२९
` कमं-प्रभाव से देवत्व की प्राप्ति १२३०
पितरों को ''स्व धा” के साथ अपंण १२३१
जायें या न जलाय गयं पितर स्वगे में १२३१
. शव का जलाय! आना १२३१
. चिता का मामिक वणन « १२३१-३२
. व्यक्ति मे जन्म-रहित अंश (आत्मा) ।
कौवा चींदी और सपे १२३२
. सरण्यू और यम-माता के विवाह की बात १२३३
देव-यान से दूसरा मागे पितृ-याच।
पूर्वं जन्म की बात १२३५
. नर्तन और क्रीडन कटाई १२२५
सन्त्र
२-३
सब १६ मन्त्र
९
रे
(५५ )
पृष्ठ मन्त्र
२७. पितरों के रहते पुत्रों की अकाल-मृत्यु १२३६ ५
२८. वृद्धावस्था तक जीने की कामन १२३६ ६
२९. पाणि-प्रहण करनेवाला पति चिता पर १२३६ ८
३०. मातु-भमि की शरण जाने का महत्त्व .. १२३६ १०
३१. माता पुत्र को अंचल से हकती है । शव म
पृथ्वी में १२३७ ११-१३
३२. वाण के मल में पंख । पस-पुत्र सकुसक
. ऋषि स्तोता १२३७ १४
सप्तम अध्याय
१. प्रसिद्ध गोसूक्त »« १२३७-३८ १--८
२. गोशाळा (गोष्ठ). गोसम्मेलन, गोचरण
और गोपाल की प्रार्थना १२३८ ४
३. गायों का दुग्ध पीने की उत्कट उत्कंठा १२३८ ६
४. प्रजापति-पुत्र विमद ऋषि १२३९ १०
५. यज्ञ-शुन्य दस्युदल थुत्यादि कर्मो से हीन
और अमानष है १२४१ ८
६. देवता नक्षत्र-निवासी हं १२४२ १०
७. 'गाय के दूध का भोग १२४२ १३
८. er १२४२ १४
९. मंछ और दाढ़ी का उल्लेख १२४२ और १२४३ १ और ४
१०. चरवाहे का गाय को पास बुला लेना . १२४३ द्
११. अरणि-मन्थन से अश्विद्वय ने अग्नि
को उत्पन्न किया १२४४ ५
१२. जल-पान-पात्र १२४५ ४
१३. अन्धे दीघेतमा को नेत्र और लंगडे परा-
बुज को पैर मिले १२४६ ११
५१४, यजमान की स्त्री की रक्षा के लिए प्रार्थना १२४६ १
१५. बकरा और बकरी । मेषलोम अर्थात
अन का कम्बल। वस्त्र धोना १२४६ «
१६. बकरों का रथ-वहन करना १२४७ ८
१७, चरवाहों के साथ गायों का जौ चरना
और उनका दुध दूहा जाना a १२४८ £
( ५६ )
पृष्ठ
१८. ब्रह्मात्मक्य-ज्ञान की अनुभवि १२४८
१९. स्त्रियों का यद्ध-भमि में जाना अनत्तम है १२४९
२०. कन्या-वरण १२४९
२१. स्त्री के द्वारा मनोनकलरू पति ढंढना
(स्वयंवरण ? ) १२४९
२२. सात ऋषियों, आठ बालखिल्यों, नौ भुगओं
और दस अंगिराओं की उत्पत्ति . १२४९
२३. यत-क्रीड़ा १२५०
२४. गोचमं-निमित प्रत्यंचा १२५०
२५. इन्द्र के पुत्र वसुक्र की स्त्री का कथन १२५१
२६. हरिण , सिंह, शुगाल और वराह १२५२
२७. शशक, सिंह, वत्स ओर महोक्ष (साँड़) १२५२
२८. पिजड़े में सिंह और गोधा, इयंन, महिष
आदि १२५२
२९. इन्द्र का मनृष्यों के समान स्पष्ट
उच्चारण १२५२
३०. त्रिशोक को १०० मनुष्यों की सहायता
और कुत्स ऋषि इन्द्र के साथ रथ
पर् १२५२
३१. युवा और युवती का प्रेम-मिलन (विवा-
होन्मुखता ) - १२५३
१२. जल-देव का वर्णन « १२५४-५६
३३. इस मण्डल के ३१वें सूक्त के ऋषि कवष
क्षत्रिय थे १२५६
३४. ईश्वर ओर उसकी सृष्टि (ईश्वर स्वगं
और पृथिवी के घारक और प्रजा-
स्रष्टा हुं ) क १२५७
३५. शमी एक्ष पर उत्पन्न अश्वत्त्थ वक्ष १२५८
३६. श्यामवणे कण्व ऋषि ३५४ १२५८
३७. पितासे पुत्र का धन प्राप्त करता .. १२५९
३८. स्तोत्रो की प्राचीन माता गायत्री और
उसकी सात महाव्याइतियाँ मु १२५९
३९. जळ में विगूढ़ रूप से अग्वि (वड़वानल )) १२५९
RN ANS
२५.
( ५७ )
९. कलि नामक पुरुष को यौवन और
विइपला को छोहे का पैर देना ,,
पृष्ठ
अष्टम अध्याय
. कवष ओर दुःशासु (दुद्धंष ) ऋषि १२६०
. मषिक (चूहा) १२६०
ps के पुत्र कुरुश्रवण राजा श्रेष्ठ
दाता १२६०
, एक सौ प्राण रहने पर भी दैवी नियम
के विरुद्ध कोई नहीं जा सकता १२६१
- जुआ और जुआड़ी « १२६१-६३
, मृजवान पवेत पर उत्पन्न सोम-लता।
पासे (बहेरे के काठ की गोली या
कौडी ? ) के कारण स्त्री का त्याग १२६१
. जुआड़ी को स्त्री छोड़ देती है ! जुआडी
का सर्वत्र तिरस्कार १२६१
. जुआड़ी की पत्नी व्यभिचारिणी
होती ह। वह परिवार से उपेक्षित
होता है । १२६१
. नकशे पर पीला पासा देखकर ज॒आडी
गीता हैं . १२६२
. नकशे के ऊपर तिरेपन पासे १२६२
, पासे ठंडे होकर भी हृदय को जलळाते हे १२६२
; जुआड़ी की दुर्गेति १२६२-६३
क्ल न खेलने का उपदेश--“अक्षैर्मा
१२६३
. घन से पूर्ण और राज्य-योग्य गृह की
याचना १२६५
ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र का १२६६
. आर्यो के साथ आयें के युद्ध का संकेत .. १२७०
, वद्धावस्था तक अविवाहिता घोषा
(ऋषिका==मन्त्र-स्मर्त्री १२७०
« पुरुमित्र राजा की कन्या के साथ विमद
ऋषि का विवाह १२७१
' १२७१
सन्य
( ९८ )
२०. अग्नि-कुण्ड से अति को बचाना .. १२७१
२१. तेंदुए के मुँह से चटका नामक पक्षी को
बचाना १२७२
२२. घस्त्राभूषण से अळकृता कन्या का जामाता
को दान १२७२
२३. विधवा और देवर १२७३
२४. व्याध ओर शार्दछ । व्यभिचार में रत
स्त्री ३४ १२७३
२५. कृश, शय्, परिचारक और विधवा .. १२७४
२६. अपनी स्त्री के साथ यज्ञ करना RE १२७४
२७. देव-पूजा मे कृपणता नहीं करनी चाहिए १२७६
२८. कृषि की वृद्धि करनेवाली सात नदियाँ १२७७
२९. जौ की खेती की वृद्धि जल से क १२७८
३०. साधु पुरुषों के पालक इन्द्र १२७८
३१. झग्नि का आकाश में विद्यद्रप, पृथिवी पर
द्वितीय रूप और जल में ततीय रूप , , १२८१
३२. धृतयुक्त पिष्टक पुरोडाश i १२८२
अष्टम अष्टक
प्रथम अध्याय
१. इस मण्डल के ४६वं सूक्त के ऋषि वत्स-
प्रि भालन्दन वैश्य थे ? १२८३
२. चार सम॒द्रों का उल्लेख | १२८५
३. आंगिरस सप्तगु ऋषि १२८५
४. इन्द्र ऋषि । ४८ से ५० सुक्तों--तीन
सूक्तों के ऋषि इन्द्र १२८५-९०
५, भधविद्या की गोपनीयता बताने के
कारण आथर्वण दध्यङ ऋषि का सिर
काटा गया १२८६
६. इद्ध-भक्त मृत्य्-पात्र नहीं होते १२८६
७. किसान का घान मलना। धान्य-स्तम्भ १२८६
श के
४६वाँ सृक्त
र्
६
सब २९५ मन्त्र
ढ्छ न” ०
, निऋति पाप-देवता हे
. सुबन्धु ऋषि को प्रार्थना
, भजेरथ-वंश के असमाति राजा का
( ५९५ )
, गूँगुओं का देश । पर्णय और. करज
का वध
. दस्य को आर्य नहीं कहा जाता
. वेतसु नाम का देश। तुग्र और स्मदिभ
कुत्स के वश में
. श्रुतर्वा ऋषि, मृगय असुर, वेश, आय
और षड्गृभि
. नेववास्त्व और बृहद्रथ का वध
. श्वेत हरिण का प्रत्यंचा से डरना
४, बावनवें सूक्त के ऋषि अग्नि
. ३३३९ देवों का उल्लेख
. आठ सारथियों के बेठने का रथ-स्थान
. अश्मन्वती नदी
. उत्तम लोहे का कुठार
. तेतीस देवता (८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य
प्रजापति और वषट्कार)
. विवस्वान् के पुत्र यम। मृतक के मन
१२९८-९९
को लक्ष्य कर परलोक का वर्णन
जनपद अतीव उज्ज्वल
* इक्ष्वाकु राजा धनी और शत्रु-संहा
स्कृ ह्
कुपण और अदाता व्यवसायी की परा-
भव की कामना
, दक्षिणा में गायें
, चम्न राक्षसो का यज्ञीय अग्नि के पास
न जाना
. मनु-पुत्र नाभा नेदिष्ट गूर्यवंशीय और
मनु के पुत्र थे ००
. अषवसेघन्यज्ञकर्ता सनु ००
पृष्ट
१२८९
१२८७
१२८८
१२८८
१२८८
१२९१
८. ११९१-९२
१२९२
१२९३
१२९३
१२९३
१२९५
१२९९
१३००
सन्त
७
टि
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RNG Hanne
१८
२१
पृष्ठ सन्त
द्वितीय अध्याय
१. नौ-दस मास तक लगातार यज्ञ करना १३०७ द्
२. अंगिरा लोगों के लम्बे-लम्बे कान .. १३०७ उ
३. सार्वाण मन् सौ घोड़े और हजार गाये देने
को प्रस्तुत १३०७ ८ और ११
४. विवस्वान् के पुत्र मन और नहुष के
पुत्र ययाति राजा . १३०८ १
५. समरुस्थल का उल्लेख । “लुतिक-पुत्र गय
ऋषि द्वारा अदिति की संवद्धेना .. १३१० १५ और १७
६. अज एकपात और अहिबध्न्य नाम के
देवता १३११ ¥
७. इक्कीस नदियाँ, गन्धव, रुद्र आदि .. १३११-१२ ८-९
८. अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा,
वायु, पूषा, सरस्वती, आदित्य, विष्णु,
मरुत्, सोम, रुद्र, अदिति और ब्रह्मा-
णस्पति १३१३ १
९. सूर्य, आकाशस्थ ग्रह, नक्षत्र, लोक
भूलोक और पृथिवी १३१३ ¥
१०. अन्न, गौ, अझ्व, वृक्ष, लता, पर्वत और
पृथिवी १३१४ ११
११. अङ्विनीकुमारद्वय, बधिमती और उसका
पिगळवर्णे पुत्र, विमद ऋषि और उनकी
भार्या तथा विइवक और उनका पुत्र विष्णाप्व १३१४ १३२
१२. तीन तल्लो का गुहू -- १३१५-१६ ५ओर७
१३. वसिष्ठ-वंशधरों की स्तुति १३१७ १४
१४. एक चरण के मन्त्र के रचयिता अयास्य
ऋषि १३१७ १
१५. किसानों का खेतों से पक्षियों को उडाना १३१९ १
१६. अन्न की कोठी से जौ निकालना .. १३१९ ३
१७. उल्का-पिण्ड 5 १३१९ ¥
१८, शेवाल (सेवार) Fe १३१९ ६
१९. थोड़े जल में व्याकुर मत्स्य ५६ १३२० <
( ६१ )
. स्वर्णाभरणों से विभषित श्यामवर्ण घोडा
- बध्यश्व के पुत्र सुमित्र द्वारा अग्नि-
स्थापन
. दासों को जीत कर उनका धन
आर्यो को देना
. इडा, सरस्वती और भारती नाम की
तीन देवियाँ 5
- प्रसिद्ध भाषा-सूक्त ३+
- सुप से सत्तू फटकना
, ऋषियों न अन्तःकरण में बेद-वाणी
को प्राप्त कर मनुष्यों को पढ़ाया
. कोई-कोई पढ़कर भी भाषा अथवा
वेद-वाणी -- वाक को नहीं समझते
. उत्तम भाव-ग्राही को वेदार्थे-ज्ञान होता हू
« कोई मनृष्य पुष्कर, कोई तड़ाग और कोई
गंभीर सरोवर के सदश होता हैं
- स्तोत्र ब्राह्मण ( ब्राह्मणाः”)
वेदा-ज्ञाता होते
- जो ब्राह्माण नहीं ह~ “ब्राहाणासो न
और जो अयाज्ञिक हुँ, वे लौकिक
भाषा जानकर हल जोता करते ह
` कीत्ति से दुर्नाम दूर होता है! ब्रह्मा
और अध्वर्यू के कतेव्य
तृतीय अध्याय
* आदि सूष्टि में अविद्यमान (असत्) से
विद्यमान (सत्) उत्पन्न हुआ । अदिति
ने देवों को उत्पन्न किया
- अनन्तर दिशाएं, पृथिवी और वृक्ष
उत्पन्न हुए
- अदिति के पूत्र मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा
अंश, भग, ।ववस्वान् और सूर्य हुँ । सूर्य
आकाश में रखे गये 5
सन्त्र
१०-११
4
G
१५.
- दो सूक्तो में ईश्वर (विश्वकर्मा) द्वारा
( ६२ )
पृष्ठ
. एक हजार वक (भेंडिय। या तेंदुआ) १३२७
. प्रसिद्ध नदी-सूक्त .- १३२९-३१
. सर्वोत्तम और सर्वाधिक ब्रहनंवाली
सिन्ध ३२९
गंगा, यमन।, सरस्वती शातुद्री (सत-
रज) परुष्णी (रावी), असिकनी
(चिनाब). मण्दवृधा (मर्वदेवन)
वितस्ता (झलम) सुषोम। (सोहान)
और आर्जीकीया (व्यास) नाम की
नदियाँ १२२०
. पृष्टाम। (सिन्धु की पश्चिमी नदी)
सुसत्त् (स्वात्), रसा (रहा) श्वेत्या
(अजनी) क्रम् ( (काल गोमती
(गोमल), कुभा लु) और
मेहत्न् (सिन्धु की प सहायिका |
नदी) १३२०
- गृह्-निर्माण-कारये में सोमरस सहायक १३३१
सुधन्वा के पुत्र विभ्वा शीघ्र-कर्मा हें १३३१
. साम-गाता अंगिरोबंशीय ॥ १३३४
. पृथिवी पर आकाश छुनेवाले विराट
वृक्ष। प्रकाण्ड लताएं १३३५
. जरत्कणं ऋषि की रक्षा । जरूथ (पारसी
जरतुष्ट या जरथस्त्र ?) को जलाना १३३६
- मन्त्र-द्रष्टा पुत्र १३३६
नहुषवंशीय और गन्धर्वो का हित-वचन १३३७
सुष्टि-क्रम का विवरण »« १२३७-३९
, साधारण मनष्य ईश्वर-तस्व को सम-
झन में असमर्थ ह १३२३९
. आर्यो के गत्रु आये भी (सूर्यवंशी के
शत्र चन्द्रवंशी ? ) १३३९ .
- ब्रह्मा न पृथिवी को आकाश में रोक
रखा हु a.% १३४१
ज्रि ~
रे
¥
६
सब १४ मन्त्र
७
१
A A)
५,
७,
, आर्य-विवाह का धामिक विवरण
« स्त्री को पति के वश में रहन तथा अपने
( ६३ )
, अयाज्ञिक और पाथिव मनष्य सोम-पान
नहीं कर सकता
. सूर्या (ऋषिका) के विवाह में उसके
वस्त्र साम-गान से परिष्कृत हए थे ..
. चादर. उबटन और कोश
. मघा, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा
फाल्गुनी
. दीघे जीवन के दाता चन्द्रमा
. पलाश और शाल्मली के वृक्षो शे बने
नानारूप रथ
पति में लीन होने का आदेश
„ स्त्री-धन से ब्राह्मण को दान देना । पत्नी
का वस्त्र पति न पहने
. बध को सास ससर ननद और देवर की
महारानी बनन का उपदेश
श पति-पत्नी के हूदयों का संमिलन .,
चतुथे अध्याय
« इन्द्र-पुत्र वृषाकपि (ऋषि) का सोम
पीना
„ कुत्ता और वराह
„ सुन्दर भुजाओं अंगुलियों, लम्बे बालों
और मोटी जाँघोंवाली इन्द्राणी
(ऋषिका )
. जन-शूत्य मरुदेशे और काटन योग्य
वन में योजनो का अन्तर
मनु-पुत्री पशु के बीस पुत्र
, दो धारो का खड़ग और अपक्व मांस
खानेवाल राक्षस
ब॒ध्य गौ का दुध चुरानेवाछा राक्षस
पृष्ठ
१२४१
१२४२
१२४२
१३४२
१२४३
१३४३
.. १३४२-४६
१३४४
१३४४
१३४६
१३४६
१३४६
१३४७
१३४७
१३४९
१३४९
१३५०
१२५१
६-४७
२६-२७
२९-३०
( ६४ )
. सवंमेध-यज्ञ (जिसमें सारे पदार्थो का
हवन होता हे)
. तलवार से गाँठ काटना
. प्रसिद्ध पुरुषसूक्त
_ ईश्वर अनन्त पदार्थोबाले और सर्व-
व्यापक हे--सब वहीं ह
. ईश्वर के मूख से ब्राह्मण, भुजाओं से
क्षत्रिय अघनों से वेश्य उत्पन्न हुए ..
. इस मण्डल के ९१वें सूक्त के ऋषि वैत-
हव्य अरुण क्षत्रिय थे ?
` प्रथम यज्ञ के कर्ता अथर्वा
१५.
. बढ़ई का सुदृढ़ रथ बनाना
. पाँच सौ रथों का एक साथ चलना।
आत्मा और वायु | ल
दुःशीम, पृथवान् , वेन और बली राम
राजाओं से ताम्न, पार्थ्य और भायव
ऋषियों से ७७ गायें माँगी
. कृष्णसार मुग
- वरत्रा (कसने का रस्सा==तंग), योक्त्र
(अझ्व की सामग्री) और १० रस्सियाँ
. सोम के खण्ड या डाँठ (अंशु) का
रस गोचर्मं पर
. क्रीड़ा-स्थल में बालकों का खेलना .
पंचम अध्याय
; इला-पुत्र राजा पुरुरवा और अप्सरा
- १३६८-७१
- सुर्जणि, श्रेणि, सुम्न, आपि, हृदेचल्षु,
उर्वशी की बियोग-वार्ता
ग्रन्थिनी, चरण्य आदि अप्सराएँ
. देव-लोक-वासिनौ अप्सराओं का लप्त
होना
स्त्रियों का प्रेम स्थायी नहीं होता
उनका हृदय भेंड़िये के समान होता है
छ
१३५४
१३५६
. १३५८५९
१३५८
१२५९
१३६०
१३६३
१३६४
१३६५
१२६६
१३६७
१२६७
१२६७
१२६८
१२६९
१३६९
१३७०
९१ सूक्त
१५
( ६५ )
. उर्वशी का नाना रूपों में मनुष्यों में
घमना
, इन्द्र की दाढ़ी-मंछें उज्ज्वल हं ..
. एक सौ सात स्थानों मं सब ओषधियाँ हे
. फल और फलवाली ओषधियाँ तथा
अव्वस्थ और पलाश वक्ष
९. राजा लोग समिति में एकत्र होते हे
अश्वावती, सोमावती, ऊर्जयन्ती और
उदोजस नामक ओषधियां
. नीलकण्ठ, किकिदीवि (श्येन ? ) और
गोह
, ओषधियो का राजा सोम
` शन्तन राजा याज्ञिक थे
. ऋषिषेण के पुत्र और झन्तन् के पुरोहित
देवापि (ऋषि)
. शन्तन् की सहस्र पदार्थो, की दक्षिणा
. अग्नि मे ९९ हजार पदार्थं आहुति
रूप में दिये गये
. सौ दरवाजोंवाली पुरी
- डोंगी (द्रोणि)
. तीन कपालो ओर छ: आंखोंवाले त्वष्टा
के पुत्र विश्वरूप
. उशिज् के पुत्र ऋजिश्या ने बञ्ज से
पिप्र के गोष्ठ को तोडा
. युवस्यु ऋषि का सरल रज्जु से याय
बाँधना
- समान-मना होकर जागने का उपदेश
. हळ, जुआठ, बीज बोना और हंसिये से
धान्य काटना
. वरत्रा oe ) जळ-पूणे गढ्ढे में
. पशुओं
जल पीने के लिये द्रोण (३२
सेर का) पत्थर का जळ-पाच्च ,,
( ६६ )
. दो स्त्रियों का स्वामी काठ का शकट
(गाड़ी)
- मुदगल (ऋषि) और उनकी पत्नी युद्ध ह
करने वाली मृद्गलानी (३न्द्र-सेचा)
. चाबूक और कपद (साँड़ का डील) .
. दर्बी (पात्र-विशेष)
. उत्स के पुत्र सुमित्र और दुर्मित्र ऋषि के
स्तोत्र
षष्ठ अध्याय
न्तुवाय (जुलाहे) के द्वारा वस्त्र का
बुना जाना
. धनी व्यक्ति का उपकारी होना
. हाथी को मारनेवाला अंकुश
. सुमिष्ट आहार गोदुग्ध । भूतांश ऋषि
की स्तुति
. दक्षिणा के द्वारा ही पुण्य कर्म की
पृर्णता-प्राप्ति
. दक्षिणा-दाता ग्रामाध्यक्ष ओर राजा हे
. दक्षिणा में अश्व, गाय और सुवणं दिये
जाते ह
- दक्षिणा-दाता दुःख नहीं पाते। वे देवता
हो जाते हं और पृथिवी तथा स्वग के
सारे दुलभ पदार्थ पा जाते हे
. सुरा या सोम ? ,
. अयास्य ऋषि और नवगगण द्वारा
साम-पान
. पणिगण और गप्त स्थान में चराई गायें।
सरमा कुक्कुरी की याचना
पवित्र-चरित्रा पत्नी । यथाविधि विवा-
हिता पत्नी
स्त्री के अभाव में ब्रह्मचर्यं के नियम
का पालन ०
®
( ६७ )
१४. यज्ञ में पशुओं के बाँधने का काष्ठ 'यप'
१५. इन्द्र-वृत्र-युद्ध
१६. धुनि और चृमुरिका बध और दभीति
राजा की रक्षा
१७. त्रिभुवन-व्यापी अख्वि और सूयं तथा
अन्तरिक्षस्थ वायु
१८. परमात्मा एक हूं, तो भी विद्वान उनकी
अनक प्रकार से कल्पन। करते हे
१९ बारह प्रकार के छन्द र
२० परमात्मा के १४ भवन हू
२१. पन्द्रह हजार ऋडङ-मन्त्र ह । स्तोत्र और
पाक्य (वाक) असीस ,
२२. मल वाक्य समझनवाला और सारे
मन्त्र जाननवाला कौन
२३ अदाता सदा दुःखी रहता ह
२४. मित्र की सहायता न करनेवाल। मित्र
मित्र नहीं हे
२५. रथ-चक्र की तरह धन धमत। रहता
-““किसी के पास स्थिर नही रहता
२६. जो उदार नहीं हे, उसका खान। वश हुँ,
जो देवता या मित्र को नही देता और
स्वयं खाता हु, वह केवल पाप ही खाता
२७. एक-वंश होकर भी लोग समान नहीं
होते
२८. त्वष्टा द्वारा सारथि-स्थान का निर्माण
२९. पृथिवी को जलाना या एक स्थान से
दूसरे स्थान पर रखन। न
सप्तम अध्याय
१. अथर्वा के पुत्र बृहह्वि ऋषि द्वारा मन्त्र-
पाठ ++
फा० १०
(०१
6 री 0
९-९०
८-९
१०.
१९.
१९.
१३.
१४,
१५
१६.
१७.
( ६८ )
पृष्ठ
पहले केवल परमात्मा थे। उन्होंने
पृथिवा-आकाश को स्थापित किया ., १४१२
परमात्मा जीव के जनक ह और मृत्यु
पर आधिपत्य करते हैं हक! १४१२
ससागरी धरित्री परमात्मा की सुष्ट
र क १४१२
. पुथिवी और आकाश के जन्मदाता
परमात्मा दे १४१३
. भागंव वेन ऋषि द्वारा वेन देवता की
स्तुति ०० १४१४-१५
न श) १४१५
का पैर बाँधना पाप हुं ,, १४१९
बुक, बुकी और चोर he १४१९
सुप्रसिद्ध नासदीय सवतः ». १४२१-२२
सृष्टिके पहल जीवात्मा आकाश, पृथ्वी,
मृत्यु, अहोरात्र, ब्रह्माण्ड, भुवन, जल-~
कुछ नहीं था। केवल परमात्मा थे ।
परमात्मा न॑ सूष्टि की इच्छा की, तब
उत्पत्ति-कारण और सबकी शृष्टि हुई ।
परन्तु वस्तुतः सृष्टि-तक्त्व अज्ञेय हं १४२१-२२
वस्त्र-वयच का कार्य त १४२२
क्षेत में जौ को अनेक बार अलय-
अलग करके काटच। | १४२३
इस मण्डल के १३३वे सूक्त के
ऋषि पैजवन सुदास और १३४बे के
सन्य
परौवचाइव मान्धाता क्षत्रिय थे. ,„, १४२५-२६ सू०१३३-१३४
दून (दूवा) का उल्लेख १४२७
शक्ति नाम का अस्त्र । छाय ्यौर
बक्ष-शाख! ति १४२७
चेचिकेत कुमार की अभिनव रथ की
इच्छी ०० १४२८
है
ष्
१
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
के डक
GENS oA
१४,
( ६९ )
यमपुरी में वेणु वाद्य का वादन यम की
प्रसन्नता के लिये
वातरशन के वंशधर वल्कल पहनते है
मुनि लौकिक व्यवहारों का त्याग करते
और आकाश में उड़ते तथा चराचर
को देखते हे
पर्वं और पश्चिम--दोनों समुद्रों में मुनि
निवास करते हे
केशी देवता. अप्सराएं, गन्धव और हरिण
विश्वावसु गन्धवं
छटनेवाली सेना ! दाढ़ी-मूँछ काटनेवाला
नाई
फूलोंवाली दूब, सरोवर, श्वेत पद्म आदि
अष्टम अध्याय
. कक्षीवान् ऋषि को यौवन दान
क्षोंवालळी चौका से समुद्र-पतित भुज्यु
का उद्धार
. छद्धेव्क्ृशन और ऋणभुदेव क,
. ताक्ष्य के पुत्र सुपणं ऋषि हि
. इन्द्राणी (ऋषिका) की सपत्नी ..
, सौतियाडाह्
, उपाधान (तकिया) का सिरहाने रखा
जाना
बुहत् वन वा अरण्यानी में श्राणियों का
“चिच्चिक” (चीची) करना
« रता, बुल्म आदि का गृह
. बन में स्वादिष्ट फळ, व्याघ्र, चोर आदि
. मुगनाभि का सौरभ हक
. बेन ऋषि के पुत्र पृथ का स्तोत्र 2
. अपने आकर्षण से सूये न पृथ्वी को बाँधा--
द्यो के ग्रहों को भी बाँधा हे as
गरुड का उल्लेख ०%
पष्ठ
१४२८
१४२८
१४२८-२९
१०४४९
१४२९
. १४३१-२३२
१४३४
१४३४
१४३५
१४३५
१४२६
१४२६
१४२६
१४२७
१४३७
१४३७
१४२७
१४३७
१४२८
१४३९
१४३९
१४४७
मन्त्र
३३.
३४,
` श्रद्धा के कारण मानव लक्ष्मी पाता है ।
श्रद्धाल होने की प्रार्थना
: पितरों का तपोबळ से स्वगं पाना ..
- दरिद्रता (अलक्ष्मी) कुशब्द और कुरूप
वाली तथा कोधिनी होती है
- दरिद्रता हिसामयी होती हुं 00
- धुड़दौड़ की बात कक
वणिक का वाणिज्य-कर्म क
सूय का सदा चलना
- ध्ुछोम-पुत्री शची (ऋषिका) और
सपत्वियाँ हि
- चंचल बद्धिवालों की सम्पत्ति
दूसरे छ लेते हे
- भकपट भाव, तल्लीन मन और प्रेमी
अन्तःकरण वाले का मंगल होता हुं
. राजयक्ष्मा आदि रोगों के विनाश के
लिय स्तोत्र हु
स्त्री-रोग दुर करने के लिये प्रार्थना-
मन्त्र (गर्भ-रक्षण सूक्त) मे
शरीर के प्रत्येक स्थल से रोग दूर
करन की प्रार्थना के
किसी भी अवस्था में हुए पाप-नाश के
लियं प्रार्थना
क
. क्लेश और अमंगल देनेवाला कपोत
भौर उल्लू चिड़ियां «a
` धनुष के दोनों प्रान्तों को ज्या (प्रत्यंचा)
से बाँधना ट
. श्रैसिद्ध गोसूक्त क
` भेजा द्वारा राष्ट्रपति का निर्वाचन
(राष्ट्र-सूकत) 5
कर-प्रदानोन्म्ख प्रजा Re
मन्त्री और राजा Fo
१४४१
१४४३
१४४४
१४४४
१४४४
२४४४
१४४६
१४४६
१४४७
१४४७-४८
१४४८
९४४९
१४५०
१४५०-५ १
१४५१
१४५३
१४५५
१४५६
९४५६
NAS NS
( ७१ )
पृष्ठ
ऊद्ध वग्रावा शूद्र थे ? १४५६
. इस मंडल के १७५वें सुकत के ऋषि
. साया-बद्ध जीव माय। से मुक्त होने के लिये
परमात्मा के प्रकाश को चाहता है ., १४५८
- वचन से सदा सत्य बोलव। चाहिये .. १४५८
. जीवात्मा बार-बार जन्म धारण करता हूं १४५८
. गरुड पक्षी की शक्ति का विवरण १४५९
- वासिष्ठ श्रथ और भारद्वाज सप्रथ विष्णु
के पास से साम-मन्त्र (रथन्तर) लाये १४६१
: अग्नि से बृहत (साम-मन्त्र) क्षौर सूर्य
से हक यजूवेंद-मन्त्र) लावा .. १४६१
प्रसिद्ध गर्भ-रक्षक सूक्त ०० १४६२-६३
. सूये का आकाश में परिश्रमण .. १४६४
. तीस हत और साठ दण्ड 5 १४६५
. ईश्वर के द्वारा सुष्टि-रचन। र १४६५
- सैज्चान-सुक वा एकता-सुक्त। एक
मन एक मत, एक प्रयत्न होने क्षौर
पूर्ण संघटन का आदेश १४६५-६६
अष्टम अध्याय समाप्त
दशम मण्डल समाप्त
अष्टम अष्टक समाप्त
"हिन्दी ऋग्वेद” की विषय-सूची समाप्त
[ १ अष्टक । १ मण्डल । १ अध्याय । १ अनुवाक ] |
१ सूक्त
(यहाँ से लेकर १० सूक्तों तक के विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा
ऋषि है। यहाँ से गायत्री छन्द के मन्त्र प्रारम्भ हैं ।
इस सूक्त के देवता आग्नि हैं ।)
१. यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों को बुलानेवाले ऋत्विक्
और रत्नधारी अग्नि की में स्तुति करता हूं ।
२. प्राचीन ऋषियों ने जिसकी स्तुति की थी, आधुनिक ऋषि
जिसकी स्तुति करते हँ, वह अग्नि देवों को इस यज्ञ में बुलावे।
३. अग्नि के अनुग्रह से यजमान को धन मिलता हे और बह
धन अनुदिम बढ्ता और कीत्तिकर होता हे तथा उससे अनेक बीर
पुरुषों की नियुक्ति को जाती हे ।
४. हे अग्निदेव ! जिस यज्ञ को तुम चारों ओर से घरे रहते
हे, उसमें राक्षसादि-हारा हिसा-कम सम्भव नहीं हें और वही यश
देवों को तृप्ति देने एवर्मे जाता हें या देवताओं का सामीप्य प्राप्त
करता हे । 4
हे झग्नि ! तुस होता, अशेषबुद्धिसम्पस्च या सिद्धकर्मा, सत्य
परायण, अतिशय कीत्ति से युक्त और दीप्तिमान् हो। देवों के साथ,
इस यश म आओ |
२ हिन्दी-ऋण्वेद
६. है अग्नि ! तुम जो हविष्य देनेवाले यजमान का कल्याण-
साधन करते हो, वह कल्याण, हे अद्धिरः ! वास्तव में तुम्हारा ही
प्रीति-साधक हैं।
७. हे अग्नि! हम अनुदिन, दिन-रात्, अन्तस्तल के साथ तुम्हें
नमस्कार करते-करते तुम्हारे पास आते है
८. है अग्नि! तुम प्रकाशमान, यज्ञ-रक्षक, कर्मफ्ल के योतक
और यज्ञशाला सें वद्धनशाली हो।
९. जिस तरह पुत्र पिता को आसानी से पा जाता हूँ, उसी तरह
हम भी तुम्हें पा सक या लुम हमारे अनायास-्छभ्य बतो और हमारा
मंगल करने के लिए हमारे पास निवास करो।
२ सूक्त
(देवता वायु आदि)
१. हे प्रियदर्शन वायु! आओ । सोमरस तैयार हे। इसे पान
करो और पान के लिए हमारा आह्वान सुनो ।
२. है वायुदेव ! यज्ञज्ञाता स्तोता लोग अभिषुत या अभिषवादि
संस्कार-रूप प्रक्रिया-विशेष-द्वारा परिशोषित सोमरस के साथ तुम्हारे
उद्देश्य से स्तुति-बचन कहकर तुम्हारा स्तव करते हैं।
३. हे वायु! तुम्हारा रोसगण-प्रकाशफ वाक्य सोसरस पीने के
लिए हव्यदाता यजमान और अनेक लोगों के निकट जाता है ।
४, हे इख और वायु ! दोनों अन्न लेकर आओ; सोभरस तैयार
है; यह तुम दोनों की अभिलाषा करता है ।
५. हे वायु और इन्द्र ! तुस सोमरस तैयार जानो । तुम अन्नसहित
हव्य सं रहनेवाले हो। शीघ्र यज्ञ-क्षेत्र सें आओ।
६: हे वायु और इन्द्र! सोमरस के दाता यजमान के सुसंस्कृत
सोसरस के पास आओ। हे देव्य ! तुम्हारे आगमन से यह
कर्म शीघ्र सम्पन्न होया
हिन्दी-ऋग्वेद ३
७. सें पवित्र-बल मित्र और 1हसक-रिपु-विनाशक बर्ण को यज्ञ
में बुलाता हूँ। चे दोनों इताइदि-याम-स्दरूप कर्षे करले
८. हे यज्ञ-वद्धक ओर पञ्च-स्पर्शी सित्र और वरण ! तुम लोग,
यज्ञ-फल देने के लिए, इस विशाल यज्ञ को व्याप्त किये हुए हो।
९. इरद्र और वरुण बुद्धिसस्पच्च, जनहितिकारी और विविध-लोका-
श्रय हें। वे हमारे बल और कर्म की रक्षा करें।
रे झुकत
(देवता अरिवद्वय)
१. हे क्षिप्रबाहु, सुकर्मपालक और विस्तीर्ण-भुज-संयुक्त अड्विद्वय !
तुम लोग यज्ञीय अञ्च का ग्रहण करो ॥
२. हे विविधकर्सा, नेता और पराक्रसशाली अडिवद्ठय ! आदर"
युक्त बुद्धि के साथ हमारी स्तुति सुनो ।
३. हे शत्रुनाशन, सत्यभाषी ओर झान्रुदसनकारी अश्विद्ठय !
सोमरस तैयार कर छिन्न कुशों पर रबखा हुआ है; तुम आओ।
४. हे विचित्र-दीप्ति-शाली इन्द्र! अंगुलियों से बनाया हुआ
नित्य-शुद्ध यह सोमरस तुम्हें चाहता हुँ; तुम आओ॥
५. हे इन्द्र! हमारी भक्ति से आइछृष्ट होकर ओर ब्राह्मणों-
द्वारा आहूत होकर सोम-संयुद्त वाघत् मास के पुरोहित षी प्रार्थना
ग्रहण करने आओ ।
६. हे अइवञ्माली इन ! हमारी प्रार्थना सुनने शीघ्र आओ।
सोमरस-संयुक्त यज्ञ में हमारा अन्न धारण करो।
७. हे विइदेदेवगण ! तुम रक्षक हो तथा मवुष्यों के पालक
हो। तुम हव्यदाता यजमान के प्रस्तुत सोमरस के लिए आओ । हुम
यञ्ञ-फल-दाता हो।
८. जिस तरह सुर्य की किरणं दिन सं आती हैं, उसी तरह
यृष्दिदाता विश्वेदेव शीक्र प्रस्तुत सोषरस के लिए आगमन करें ।
ह हिन्दी-क्रग्वेद
९. विञ्वेदेवगण अक्षय, प्रत्युत्पञ्चमति, निर्वेर और धन-वाहक
हैं। वे इस यज्ञ में पधारें ।
१०. पतितपावनी, अन्न-युक्त और धनदात्री सरस्वती धन के साथ
हमारे यज्ञ की कामना करें ।
` ११. सत्य की प्रेरणा करनेवाली, सुबुद्धि पुरुषों को शिक्षा देनेवाली
सरस्वती हमारा यज्ञ ग्रहण कर चुकी हें।
१२. प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की हे और
इसके सिवा समस्त ज्ञानो का भी जागरण किया है।
8 सर्त
(२ अनुवाक । दैवताइन्द्र)
१. जिस तरह दूध दुहनेवाला दोहन के लिए गाथ को बुलाता
हु, उसी प्रकार अपनी रक्षा के लिए हम भी सत्कसंशील इन्द्र को
प्रतिदिन बुलाते हें ।
२. हे सोमपानकर्ता इन्द्र! सोमरस पीने के लिए हमारे त्रिषवण-
ज्ञ के निकट आओ । तुस धनशाली हो; प्रसन्न होने पर गाय देते हो।
३. हम तुम्हारे पास रहनेवाले बुद्धिशाली लोगों के बीच पड़कर
तुम्ह जान। हमारी उपक्षा कर दूसरों में प्रकाशित न होना। हमारे
पास आओ। म
४. हिसा-द्रेष-रहित और प्रतिभाशाली इन्द्र के पास जाओ और
सुझ मेधावी की कथा जानने की चेष्टा करो। वही तुम्हारे बन्धुओं
को उत्तम धन देते हैं ।
५. सदा इन्द्र-सेवक हमारे सम्बन्धी पुरोहित लोग इन्त्र की स्तुति
करे और इन्द्र के निन्दक इस देश और अन्य देशों से भी दुर हो
जायें।
६. है रिपुमर्देन इन्द्र ! तुम्हारी कृपा से शत्रु और मित्र--दोनों
हमें सौभाग्यशाली कहते हैं। हम इन्द्र के प्रसाव-प्राप्त सुख में निवाप/5रे ॥
हिन्दी-ऋहग्बेद पु
७. यह सोमरस शीघ्र मादक और यज्ञ का सम्पतस्वरूष हैँ। यह
मनुष्य को प्रफुल्लकर्ता, कार्य-साधनकर्ता और हुष-प्रदाता इन्द्र का
मित्र है। यज्ञ-व्यापी इन्द्र को इसे दो ॥
८. हे शतयज्ञकर्ता इन्द्र! इसी सोमरस का पान कर तुमने
वृत्र आदि शत्रुओं का विनाश किया था ओर रणाङ्कण में अपने
योद्धाओं की रक्षा को थी।
९. हे शतकतु इन्द्र! तुस संग्राम में वही योद्धा हो। इख !
धन-प्राष्ति के लिए हम तुम्हें हविष्य देते हें।
१०. जो धन के त्राता और महापुरुष हें, जो सत्कर्म-पालक और
भक्तों के मित्र हें, उन इन्द्र को लक्ष्य कर गाओ।
५ सुत्त
(देवता इन्द्र)
१. हे स्तुतिकारक सखा लोग! शीघ्र आओ और बेठो तथा
इन्द्र को लक्ष्य कर गाओ।
२. सोमरस के तेयार हो जाने पर सब छोय एकत्र होकर बहु-दात्र-
विध्वंसक और श्रेष्ठ धन के धनपति इन्द्र को लक्ष्य कर गाओ।
३. 'अनन्तगुण-सस्पञ्च वे ही इन्द्र हमारे उद्देश्यों का साधन करें,
धन दें, बहुविध बुद्धि प्रदान करें और अन्न को साथ लेकर हमारे
पास आगमन करें।
४. युद्ध के समय में जिन देवता के रथ-युक्त अर्वों के सामने
शत्रु नहीं आले, उन्हीं इन्द्र को रक्ष्य कर गाओ।
५. यह पवित्र, स्नेहगुग-संयुक्त और विशुद्ध सोमरस सोमपान
करनेवाले के पानार्थं उसके पास आप ही जाता हैं।
६. हे शोभनकर्मा इन्द्र ! सोसपान के लिए, सदा से ज्येष्ठ
होने के कारण, तुस सबके आगे रहते हो। |
ध् हिन्दी-ऋग्वेद
७. हे स्तुति-पात्र इन्द्र! सवनत्रय-व्याप्त सोसरस तुम्हें प्राप्त
हो और उच्च ज्ञान की प्राप्ति में तुम्हारा भंगलकारी हो।
८. है सौ यज्ञों के करनेवाले इन्द्र ! तुमको सोसमंत्र और ऋकू-
मंत्र--दोनों प्रतिष्ठित कर चुके हैं। हमारी स्तुलि भी तुमको प्रतिष्ठित
यां संर्वाद्वत करे।
९. इन्द्र रक्षा में सदा तत्पर रहकर यह सहस्र-संस्यक अच्च ग्रहण
करें। इसी अञ्च था सोमरस में पोरुष रहता है।
१०. हे स्तवनीय इन्द्र ! तुम सामर्थ्यवान् हो। एसा करना कि
बिरोधी हमारे शरीर पर आघात न कर सकें। हमारा वध न होने
देना ।
६ सूक्त
(देवता इन्द्र और मरुद्गण)
१. जो प्रतापान्वित सुर्य-रूप से, हिसा-शुन्य अग्नि-रूप से और
विहरण-कर्त्ता वायू-रूप से अवस्थित हैं, उन्हीं इन्त्र से सब लोकों में
रहुनेवाले मनुष्य सम्बन्ध स्थापित करते हँ ।
२. बे मनुष्य इन्द्र के रथ में सुन्दर, तेजस्वी, लाळ और पुरुष-वाहक
हरि नाम के घोड़ों को संयोजित करते हुं ।
३. हे मनुष्यो ! सूर्यात्मा इन्द्र बेहोश को होश में करके और
झप-विरहित को रूप-दान करके प्रचंड किरणों के साथ उग रहे हें ।
४. इसके अनन्तर मरुद्गण ने यज्ञोपयोगी नाम धारण करके अपने
स्वभाव के अनुकूल, बादल के मध्य जल की गर्भाकार रचना की।
५. इन्द्र ! विकट स्थान को भी भदन करनेवाले और प्रवहमान
सरुदूमण के साथ तुमने गुफा में छिपी हुई गायों को खोजकर उनका
उद्धार किया या ।
६. स्तुति करनेवाले देव-भाव की प्राप्ति के लिए धन-सम्पन्न,
महान् और विख्यात सरुद्गण को लक्ष्य कर इन्द्र की उरह स्तुति करते हँ ।
हिम्दी-ऋण्वेद | ७
७. है सरुद्गण ! तुम लोगों की इन्द्र से संकोच-रहित अभिन्नता
देखी जाती हुँ। तुम लोग सदा प्रसञ्च और समान-प्रकाश हो ।
८. निर्दोष, सुरछोकाशिंगत और कामना के विषयीभूत मरुद्गण
के साथ इन्द्र को बलिष्ठ समझकर यह यज्ञ पूजा करता हुँ।
९. सर्वेदिशा-व्यापक मरुद्गण ! अन्तरिक्ष, आकाश या ज्वलन्त
सुर्येसंडल से आओ। इस यज्ञ में पुरोहित लोग तुम लोगों की भली
भाँति स्तुति करते हें।
१०. हम इन इन्त्र के निकट इसलिए याचना करते हैं कि थे
पृथिवी, आकाश और महान् बायु-लण्डडल (अन्तरिक्ष) से हमें धन-
दान दें।
७ सुक्त
(देवता इन्द्र)
१. सामबेदियों ने साम-गान-दहारा, ऋग्वेदियों ने वाणी-द्वारा
और यजुवेदियों ने वाणी-द्वारा इन्द्र की स्तुति की है।
२. इन्द्र अपने दोनों घोड़ों को बात की बात में जोतकर सबके
साथ मिळते हुँ। इन्द्र बज्नयुक्त और हिरण्यमथ हेँ।
३. दूरस्थ मनुष्यों को देखने के लिए ही इन्द्र ने सुर्य को आकाश
में रक्खा हे। सूर्य अपनी किरणों-दारा पर्चेतों को आलोकितं किये
हुए हुँ।
४. उग्र इन्द्र! अपनी अप्रतिहत रक्षण-शक्षित-द्वारा युद्ध और
लाभकारी महासमर में हमारी रक्षा करो।
५. इन्द्र हमारे सहायक और शत्रुओं के लिए वज्नघर हें; इसलिए
हम धन और महाधन के लिए इन्द्र का आह्वान करते हूँ।
६- अभीष्ट-फलदाता और वृष्टिग्रद इन्द्र ! तुम हमारे लिए
इस मेघ को भेदन करो। तुमने कभी भी हुमारो प्रार्थना अस्वीकार
नहीं की । |
८ हिन्दी-त्रहग्वेद
७. जो विविध स्तुति-वाक्य विभिन्न देवताओं के लिए प्रयुक्त होते
हें, सो सब वज्रधारी इन्द्र के हें। इन्द्र की योग्य स्तुति में नहीं जानता ।
८. जिस तरह विशिष्ट-गतिवाला बेल अपने गो-दल को बलवान्
करता है, उसी प्रकार इच्छित-वितरण-कर्ता इन्द्र मनुष्य को बलशाली
करते हुँ। इन्द्र शक्ति-सम्पञ्च हें और किसी को याचना को अग्राह्य
नहीं करते ।
९. जो इन्द्र मनुष्यों, यन और पञ्चक्षिति के अपर शासन करने-
वाले हूं।
१०. सबके अग्रणी इन्द्र को तुम लोगों के लिए हुम आह्वान करते
हें। इन्द्र हमारे ही हें।
| ८ सूक्त
(३ अनुवाक इन्द्र देवता)
१. इन्द्र! हमारी रक्षा के लिए भोग के योग्य, विजयी और
शबु-जयी यथष्ट धन वो ।
२. उस धन के बल से सदा-सर्वदा मुष्टिकाघात करके हम शत्रु
को दूर करेंगे था तुम्हारे हारा संरक्षित होकर हम घोड़ों से शत्रु को दुर
करेंगे । |
३. इन्व्र ! तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर हस कठिन अस्त्र धारण करके
डाह करनेवाले शत्रु को पराजित करंगे।
४. इन्द्र ! तुम्हारी सहायता से हम हथियारबन्द लड़ाकों की
सुसज्जित सेनावाले शश्र को भी जीत सकेंगें।
५. इन्द्रदेव महान् सर्वोच्च हुँ । वप्त्रवाही इन्द्र को महत्व आश्रय करे ॥
इन्द्र की सेना आकाश के समान विशाल हे।
६. जो पुरुष रण-स्थली में जानेवाले हें, पुत्र-प्राप्ति के इच्छुक हुँ
अथवा जो विशेषज्ञ शानाकाङ क्षा में तत्पर हूँ, वे सब इन्द्र की स्तुति-
द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हुँ। | |
हिन्दी-ऋग्वेद ९
७. इन्द्र का जो उदरदेश सोमरस-पान के लिए तत्पर रहता है,
धह सागर की तरह बिशाल हु। वह उदर जीभ के जल की तरह
कभी नहीं सुखता॥
८. इन्द्र के मुख से निकला हुआ वाक्य सत्य, बैचित्य-विशिष्ट,
महान् और गो-प्रदाता हैँ और हव्यदाता यजमान के पक्ष में तो बह
बाक्य पके हुए फलों से संयुक्त वृक्ष-शाल्रा के समान हे।
९, इन्द्र ! तुम्हारा ऐंडवर्य ही ऐसा है। बह हमारे जैसे हुव्यदाता
का रक्षक ओर शीघ्र फलदायी है।
१०, इन के सामवेदीय और ऋणग्वेदीय संत्र इन्र को अभिलषित
हैं और इन्द्र फे सोमपान के लिए वक्तव्य हु।
९ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. इस | आओ । सोमरस-रूप खाद्यों से हृष्ट बो । महाबल-
शाली होकर शत्रुओं में विजयी बनो।
.. २. यवि प्रसञ्चतादायक और कार्य-सम्पादन में उत्तेजक सोमरस
तैयार हो तो, हष-युक्त और सकल-कर्म-साधक इख को उत्सगं करो।
३. हे सुन्दर नासिकावाले और सबके अधीदवर इन्द्र ! प्रसन्नता:
कारक स्तुतियों से प्रस हो और देवों के साथ इस सवन-यज्ञ में
पघारो।
४, इन्द्र ! मेने तुम्हारी स्तुति की हुँ । तुम इच्छित-वर्षक और
पालन-कर्ता हो। भेरी स्तुति तुम्हें प्राप्त हुई है; तुमने उसे ग्रहण
कर लिया है ॥
५. इ्त्रदेव ! उत्तम और नानाविध सम्पत्ति हमारे सामने भेजो।
पर्याप्त और प्रचुर घन तुम्हारे पास ही हुँ।
६. अनन्त-सम्पन्तिशाळी इन्द्र! धन-सिद्धि के लिए हमें इस कर्मे
सं संयुक्त करो । हम उद्योगी और यशस्वी हें।
१० हिन्दी-ऋण्वेद
७. इन्द्रदेव ! गौ और अन्न से युक्त, एर और विस्तृत, सारी
आयु चलने योग्य और अक्षय घन हमें दो ।
८. इन्द्र ! हमें महती कीति, इएदाय-जामररेगुर धन और अनेक-
श्थपूर्ण अन्न दान करो।
९. धन की रक्षा के लिए हम स्तुति करके इन्द्र को बुलाते हैँ।
इन्द्र धन रक्षक, हचा-प्रिय और पज्ञ-गभन-कर्ता छँ।
१०. प्रत्येक यज्ञ में धजमान लोग सदामिवासी और प्रौढ इन्द्र
के महान् पराक्रम की प्रशंसा करते हूँ।
१० सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द अनुष्टुप्)
१. शतक्रतु इन्द्र ! गायक तुम्हारे उह्देदण से गान करते हें। पुजक
पुजनीय इख की अचना करते हुँ। जिस प्रकार नर्तक वंश-खण्ड
को उस्तत करते हैं, उसी प्रकार स्तुति करनेवाले ब्राह्मण तुम्हें ऊँचा
उठाते हें।
२. जब सोमलता के लिए एक पर्वत-सार्ग से दूसरे पर्वेत-प्रवेश
को यजमान जाता और अनेक कसे सिर पर उठाता हैं, तब इन्द्र यजमान
का मनोरथ जानते और इच्छित-वर्षण के लिए उत्सुक होकर ससद्-
दल के साथ यश-स्थल में आने को प्रस्तुत होते हैं।
३. अपने केशर-संयुक्त, पराक्रमी और पुष्टांग दोनों घोड़ों को रथ
में जोड़ो। इसके बाद हमारी स्तुति सुनने के लिए आओ।
४. हे जनाश्रय इन्द्र! आओ। हमारी स्तुति की प्रशंसा करो;
समर्थन करो और शब्दों से आनन्द प्रकाश करो। इसके सिवा हमारा
अन्न और यञ्च एक साथ ही बढ़ाओ ।
५. अनन्त-शात्रु-निवारक इन्द्र के उद्देश्य से ऋग्वेद के गीत
परिवद्धंमान हैं, जिनसे शक्तिशाली इन्द्र हम लोगों के पुत्रों और बन्धुओं
के बीच महानाद करें।
६. हम लोग मेत्री, धन और शक्ति के लिए इन्द्र के पास जाते
हैं और शक्तिशाली इन्द्र हमें धन देकर हमारी रक्षा करते हें।
७. इन्द्र ! तुम्हारा दिया हुआ धन सर्वत्र फँला हुआ और सुख-
प्राप्प है। हे वज्यधारक इन्द्र! गौ का वसति-द्वार उद्घाटन करो ओर
धन सम्पादन करो ।
८. इन्द्रदेव ! शत्रु-वध के समय में स्वर्ग और मत्ये दोनों ही
तुम्हारी महिमा को धारण नहीं कर सकते। स्वर्गीय जल-वृष्टि करो
और हमें गौ दो।
९. इन्ब्र ! तुम्हारे कान चारों तरफ़ सुन सकते हैं; इसलिए हमारा
आह्वान शीघ्र सुनो । हमारी स्तुति धारण करो। हमारा यह स्तोत्र
और हमारे मित्र का स्तोत्र अपने पास रवखो।
१०. इन्द्र ! हम तुम्हें जानते हें। तुम यथेप्सित वर्षा करते हो ॥
लड़ाई के मंदान सें तुम हमारी पुकार सुनते हो। इष्ट-साधक तुमको
अशेष-सुख-साधक रक्षण के लिए हम बलाते हें।
११. इन्द्र! शीघ्र हमारे पास आओ। है कुशिक ऋषि के पुत्र !
प्रस्घ होकर सोमरस पान करो। कार्यकारी शक्ति बढ़ाओ। इस
ऋषि की सहस्र-धन-सम्प्च करो ।
१२. हे स्तवनीय इन्द्र ! चारों ओर से यह स्तुति तुम्हारे पास
पहुँचे। तुम चिरायु हो; तुम्हारा अनुगमन करके यह स्तुति बढ़ती
पावे । तुम्हारा संतोष-साधन करके यह स्तुति हमारे लिए घ्रीतिकर हो॥
११ सूक्त
(देवता इन्द्र | मधुच्छन्दा ऋषि के पुत्र जेता ऋषि)
१. सागर की तरह व्यापक, रथि-श्रेष्ठ, अञ्नपति और साधु-रक्षक
इत्र को हमारी सारी स्तुतियाँ परिवर्धधित कर युकी हैं । .
२. बलपति इन्द्र ! तुम्हारी मित्रता से हस ऐसे शक्तिशाली हों
१२ हिन्दी-ऋग्वेद
कि, हमें भय न सालम पड़े। इन्द्र! तुम जयशील और अपराजेय
हो। हम तुम्हारी स्तुति करते हैं। |
३. इन्द्र का धन-दान चिर प्रसिद्ध हे। यदि इन्द्र प्रार्थ लोगों को
गो-संयुक्त और सामर्थ्य-सम्पञ्च घन-दान करे तो प्राणियों को चिर
रक्षा होगी ।
४. युवा, मेधावी, प्रभूत-बलशाली, सब कर्मो के परिपोषक,
वस्त्रधारी और सवे-स्तुत इन्द्र ने असुरों के नगर-विदारक रूप से जन्म
ग्रहण किया था ।
५. वप्त्र-युक्त इन्द्र तुमने गो-हरण-कर्ता बल नाम के असुर की
गुहा उद्घाटित की थी। उस समय बलासुर के निपीडित होने पर
देव लोगों ने निभेय होकर तुम्हें प्राप्त किया था।
६. वीर इन्द्र ! में चूते हुए सोमरस का गुण सर्वत्र व्यक्त करके
और तुम्हारे धन-प्रदान से आकृष्ट होकर लौटा हूं। स्तवनीय इन्द्र !
यज्ञ-कर्ता तुम्हारे पास आते थ और तुम्हारी सत्पुरुषता जानते थे।
७. इन्द्र ! तुमने मायावी शुष्ण का माया-द्वारा वध किया था।
तुम्हारी महिमा मेधावी लोग जानते हें। उन्हें शक्ति प्रदान करो।
८. अपने बल के प्रभाव से जगत् के नियन्ता इन्द्र को प्राथियों
ने स्तुत किया था। इन्द्र का धन-दान हजारौं या हज़ारों से भी अधिक
तरीक्रो से होता हे ।
१२ सूक्त
(४ अनुवाक । देवता अग्नि । यहाँ से २३ सूक्तों तक के कश्व के
पुत्र मेधातिथि ऋषि । छन्द गायत्री)
१. देवदूत, देवाह्वानकारी, निखिल-सम्पत्संयुक्त ओर इस यज्ञ के
सुसम्पादक अग्नि को हम भजते हैं ।
२. प्रजा-रक्षक, हव्यवाहक और बहुलोक-प्रिय अग्नि को यज्ञ-
कर्तो आवाहक मंत्रों-ारा निरन्तर आह्वान करते हें।
हिन्दी-क्रग्वेद १३
३. है काष्ठोत्पन्न अग्नि ! छिन्न-कुशोंवाले यज्ञ में देवों को बुलाओ॥
तुम हमारे स्तोत्र-पात्र और देवों को बुलानेवाले हो।
४. अग्निदेव ! चूंकि देवताओं का दूत-कर्म तुम्हें प्राप्त हो चुका
है; इसलिए हव्याकांक्षी देवों को जगाओ। देवों के साथ इस कुश
युक्त यज्ञ में बठो।
५. हे अग्नि ! तुम घी से बुलाये गये और प्रकाशमान हो। हमारे
द्रोही लोग राक्षसों से सिल गये हैं। उन्हें तुस जला दो।
६. अग्नि अग्नि से ही प्रज्वलित होती हे। अग्नि मेधावी, गृह"
रक्षक, हव्यचाहक और जहू-(घृतपात्र)-मुख हें। ॒
७. मेधावी, सत्यधर्मा और शत्रुनाशक देव अग्नि के पास आकर
यज्ञ-कार्य में उसकी स्तुति करो।
८. अग्निदेव ! तुम देवदूत हो। जो हव्यदाता तुम्हारी परिचर्या
करता हे, उसकी तुम भली भाँति रक्षा करो।
९, जो हुव्यदाता देवों के हुव्प-भक्षण के लिए अग्नि के पास
आकर भली भाँति परिचर्या करता हे, उसको तुम हे पावक! सुखी
करो ।
१०. हे ज्वलन्त पावक ! हमारे लिए लुम देवों को यहाँ ले आओ
और हमारा यज्ञ और हव्य देवों के पास ले जाओ।
११. अग्निदेव ! नये गायत्री-छन्दों से स्तुत होकर हमारे लिए
धन और वीर्यशाली अझ प्रदान करो ।
१२. अग्नि ! लुम शुञ्र-अकाश-्स्वलप और देवों को बुलाने में
समर्थ स्तोत्रों से युक्त हो। तुम हमारा यह स्तोत्र ग्रहण करो।
१३ सूक्त
(देवता अग्नि)
` १. हे सुखमिद्ध नामक अग्नि! हमारे यजमान के पास देवताओं
को ले आओ। पावक ! देवाह्वानकारी ! यज्ञ सम्पादन करो।
हं हिन्वी-ऋग्वेव
२. है मेधावी तनूनपात् नामक अग्नि ! हमारे सरस यज्ञ को
भाज उपभोग के लिए देवों के पास ले जाओ।
३. इस यजन-देश सं, इस यज्ञ में प्रिय, मधुजिह्ल ओर हव्य-
सस्पादक नराशंस नासक अग्नि को हम आह्वान करते हैं।
४. हे इलित (इला) अग्नि! सुखकारी रथ पर देयो
को ले आओ। मनुष्यो-ारा तुस देवों को बुलानेवाले समभे
जाते हो।
५. बुद्धिशाली ऋत्विक् ! परस्पर-संबद्ध और घी से आच्छादित
बहि:-(अग्नि)-कुश विस्तार करो। कुश के ऊपर घी दिखाई
देता है।
६. यज्ञाला का द्वार खोला जाय। वह द्वार यज्ञ का परिवर्द्धक
है। हार प्रकाशमान और जन-रहित था। आज अवश्य यज्ञ सम्पादन
करना होगा ।
७. सौंदयंशाली रात्रि ओर उषा (अग्नि) को अपने इन कुश्षों
पर बेठने के लिए इस यज्ञ में हम बुलाते हें।
८. सुजिन्न, मेधावी ओर आह्वानकारी देव-हय (अस्ति) को बुलाता
हें। वे हमारा यह यज्ञ सम्पादन करें।
९. सुखदात्री और अविनाशिनी इला, सरस्वती और मही आदि
तीनों देवियां (अग्नि) इन कुशों पर विराजें।
१०, उत्तम और नाना-रूपधारी त्वष्टा (अग्नि) को इस यज्ञ में
बुलाते हैं। त्वष्टा केवल हमारे पक्ष में ही रहें।
११. हे देव वनस्पति ! देवों को ह्य समर्पण करो, जिससे हव्यदाता
को परम ज्ञान उत्पन्न हो ।
१२. इन्द्र के लिए यजाय के घर में स्वाहा-द्वारा यज्ञ सम्पन्न करो ॥
उसी यज्ञ सं हम देवों को बुलाते हैं।
१४ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. अभ्निदेश ! इन विश्यवेबों के साथ सोमरस पीने के लिए
हमारी परिचर्था और हमारी स्तुति ग्रहण करने पधारो। हमारे यज्ञ
का सम्पादन करी ।
२. हे भेधा्जी अग्नि! कण्व-पुत्र तुम्हें बुला रहे हैं, साथ ही
तुम्हारे कर्मो की प्रशंसा भी कर रहे हैं। देवों के साथ आओ ॥
३. इन्द्र, वायु, बृहस्पति, सिच, अग्नि, पुषा, भग, आदित्य
और सरुदूगण को यज्ञ-भाग दान करो।
४. तुम लोगों के लिए तृपष्तिकर, प्रसच्चता-वाहक) विन्दु-रूप,
मधर और पात्र-स्थित सोमरस तैयार हो रहा हे।
५. अग्निदेव ! हव्य-संथुक्त ओर विभूषित कण्व-पुत्र कुश तोड़कर
तुमसे रक्षा पाने की अभिलाषा से तुम्हारी स्तुति कर रहे हैं।
६. अग्नि ! संकल्पमा् से ही तुम्हारे रथ में जो जुटनेवाले
दीप्त पष्ठवाहुक तुम्हें ठोते हैं, उनके द्वारा ही देवों को कोमरस-्यान
करने के लिए बुलाओ ॥
७. अग्नि ! पुजनीय और यज्ञ-वद्धक देवों को पत्नी-युक्त करो।
सुजिह्व ! देवों को सधुर सीसरस पान छराओ ॥ |
८. जो देव यजगोय और स्तुति-पात्र हें, अग्नि ! वे बषदकार-
काल में तुम्हारी रसना-हारा सोसरस पान करें।
९. मेधावी ओर देवों को बुलानेवाले अग्नि प्रातःकाल जागे हुए
सारे देवों को सुर्य-परकाशिए स्वर्गलोक से इस स्थान में निश्चय ले आदें।
१०. अग्निदेव | तुम सब देवों, इन्द्र, वायु और मित्र के तेज
पुञ्ज के साथ सोम-मधु पान करो।
११. अग्मि ! सनष्य-सझ्यालित और देवों को बलानेवाले यञ्च
में बंठो। लुम हमारा यज्ञ सम्पादन करो।
१६ हिन्दी-ऋग्वेद
१२. अग्निदेव | रोहित नाम के गति-शील और वहन-समर्थ घोड़ों
को रथ में जोतो और उनसे देवों को इस यज्ञ में ले आओ।
९५ सूक्त
(देवता ऋतु प्रश्नुति)
१, इन्द्र! ऋतु के साथ सोमरस पान करो। तृप्तिकर और आश्रय-
थोग्य सोमरस तुमको प्राप्त हो।
२. सरुदूगण ! ऋतु के साथ पोत्र नाम के ऋत्विक् के पात्र से
सोम पीओ। हमारा यज्ञ पवित्र करो। सचमुच तुम दान-परायण हो।
३. पत्नीयुक्त नेष्टा या त्वष्टा | देवों के पास हमारे यज्ञ की
प्रशंसा करो। ऋतु के साथ सोमरस पान करो; क्योंकि तुम रत्न-
दाता हो ॥
४. अग्नि! देवों को यहाँ बुलाओ॥ तीन यज्ञ-स्थानों में उन्हे
बेठाओ। उन्हें अलंकृत करो और तुम ऋतु के साथ सोमपान करो।
५. ब्राह्मणाच्छंसी पुरोहित के धनोपेत पात्र से, ऋतुओं के पश्चात्,
तुम सोम पान करो; क्योंकि तुम्हारी मित्रता अटूट हुँ।
६, घुतन्त्रत मित्र और वरण ! तुम लोग ऋतु के साथ हमारे इस
प्रवृद्ध ओर धात्रुओं-दारा अदएूनीय यज्ञ में व्याप्त हो।
७, नानाविध यज्ञों में घनाभिलाषी पुरोहित सोमरस तैयार करने
के लिए हाथ में पत्थर लेकर व्रच्िणोदा या धनप्रद अग्नि की स्तुति
करते हें।
८. जिन सब सम्पत्तियां की कथा सुनी जाती हुँ, द्रविणोदा
(अग्नि) हमें बह सब सम्पत्ति दें और बह सम्पत्ति देवयक्च के लिए
हस ग्रहण करेंगे ॥
९, द्रविणोदा, ऋतुओं के साथ, त्वष्टा के पात्र से सोस पान
करना चाहते हैँ। "त्विक् लोग ! थन सें आओ, होम करो; भनन्तर
प्रस्थान करो।
हिन्दी-ऋग्वेद १७
१०, हे द्रविणोदा ! चूँकि ऋतुओं के साथ तुम्हें चौथी बार पुजता
हुँ; इसलिए अवश्य ही तुत हमें धनदान करो।
११. प्रकाशमान अग्नि से संयुक्त ओर विशुदध-कर्सा अध्विनीकुमार-
इय! मधु, सोम पान करो। तुम्हीं ऋतुओं के साथ यज्ञ के
निर्वाहक हो ।
१२. गुहपति, सुन्दर ओर फलप्रद अग्निदेव ! तुम ऋतु के साथ
थज्ञ के निर्वाहक हो। देवाभिलाषी यजमान के लिए देवों की अचेना
करो ।
१६ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. यथेप्सित-वर्षक इन्द्र ! तुम्हारे घोड़े, तुम्हें सोम-पात कराने
के लिए, यहाँ ले आवें। सूर्यं की तरह प्रकाश-युक्त पुरोहित मंत्रों
हारा तुम्हें प्रकाशित कर।
२. हरि नाम के दोनों घोड़े घुतस्यन्दी धान्य के पास, सुखकारी
रथ से, इन्द्र को ले आवं।
३. में प्रातःकाल इन्द्र को बुलाता हुँ, यज्ञ-सम्पादन-काल में इन्द्र
को बुलाता हूँ और यज्ञ-समाप्ति-समय में, सोमपान के लिए, इन्त्र
को बुलाता हूं ।
४. इन्द्रदेव ! केशर-युक्त अश्वो के साथ तुम हमारे संस्कृत सोम-
रस के निकट आओ। सोमरस तैयार होने पर हम तुम्हें बुळाते हें ।
५. इन्द्र ! तुम हमारी यह स्तुति ग्रहण करने आओ; क्योंकि यज्ञः
सवन (सोमरस) तैयार है तृषित गोरे हरिणों की तरह आओ।
६. यह तरल सोमरस बिछायं हुए कुझों पर पर्याप्त अभिषुत
(संस्कृत) हे; इन्द्र ! बल के लिए इस सोम का पात करो।
७, इन्द्र ! यह स्तुति श्रेष्ठ ह; यह तुम्हारे लिए हृदयस्पर्शी और
सुखकर हो। अनन्तर संस्कृत सोम पीओ।
फा० २
१८ हिन्दी-ऋगवेद
८. वूत्रासुर का वघ करनेवाले इन्द्र सोसपान और प्रसन्नता के
लिए सारे सोझरस-संयुक्ता यज्ञों में जाते हैं।
९, सौ यज्ञ करनेवाले इन्त्र ! गायो और घोड़ों से तुम हमारी
सारी अभिलाषायें अली भाँति पूर्ण करो । हम ध्यानस्थ होकर तुम्हारी
स्तुति करते हें।
१७ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर वरुण)
१. में सम्राट इन्द्र और वरुण से, अपनी रक्षा के लिए, याचना
करता हूँ। एसी याचना करने पर ये दोनों हमें सुखी करेंगे।
२. तुम सेरे जेसे पुरोहितों की रक्षा के लिए मेरा आह्वान ग्रहण
करो । तुम मनुष्यों के स्वामी हो।
३. इस्ट्र और वरुण! हमारे मनोरथ के अनुसार, धन देकर हमें
तृप्त करो। हमारी यही इच्छा हुँ कि तुम हमारे पास रहो।
४, हमारे यज्ञ सें हव्य मिला हुआ है और इसमें पुरोहितों का
स्तोत्र भी सम्मिलित हो गया हे; इसलिए हम अन्नवाताओं में अग्रणी हों।
५, असंख्य धनदाताओं में इन्द्र धन के दाता और स्तवनीय
धेवों में बरुण स्तुति-पात्र हुँ।
६. उनके रक्षण से हम धन का उपयोग और संचय करते हैं।
इसके अतिरिक्त हमारे पास यथेष्ट धन हो ।
७. इन्द्र और बरुण ! तरह-तरह के धनों के लिए में तुस लोगों
को बुळाता हूं । हमें अली भांति विजयी बनाओ।
८. इन्द्र और बरुण ! तुम्हारी अच्छी तरह से सेबा करने के
लिए हुमारी बुद्धि अभिलाषिणी है। हमें शीक्ष सुख हो ।
९. इन्द्र और वरुण ! जिस स्तुति से हम तुम्हें बुलाते हें, अपनी
_जिस स्तुति को तुस परिवर्द्धित करते हो, बही सुञ्लोभन स्तुति तुम्हे
प्राप्त हो।
हिन्दी-महग्वेद १९
२८ सूरत
(५ अनुवाक । देवता ब्रह्मणस्पति आदि)
१. हे ब्रह्मणस्यति ! सुझा सोसरस-दाता को उशिज-पुंत्र कक्षीवान्
की तरह देवताओं में प्रसिद्ध करो ।
२. जो सम्पत्तिशाली, रोगापसारक, धन-दाता, पुष्टि-वद्धक
और शीघ्र फलदाता हैं, बे ही ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति देवला हंसारे
ऊपर अनुग्रह करें।
३. ऊधम झचानेवारे मनुष्यों की डाह-भरी निन्दा हमें न छ् संके।
हे ब्रह्मणस्पति! हमारी रक्षा करो ।
४, जिसे इन्द्र, वरुण और सोस उच्चयन करते हें, बह वीरं मनुष्य
बिताश को प्राप्त नहीं होता ।
५. हे ब्रह्मणस्पति ! तुम, सोस, इन्द्र ओर दंक्षिणांदेवी--स्
उस मनुष्य को पाप से बचाओ ।
६. आइ्चर्यकारक, इख-प्रिय, कमनीय और धनदाता सदसस्पतिं
अग्नि) के पास हम स्मृति-शक्ति की याचना कर चुके हैं।
७. जिनकी प्रसन्नता के बिना ज्ञानवान् का भी यज्ञं सिद्ध नहीं
होता, वही अग्नि हमारी मानसिक वृत्तियों को सम्बन्ध-युक्त किये हुए हैं।
८. अनन्तर वही अग्नि हव्य-सस्पादक यजमान को उच्चति करते
और अच्छी तरह यश्च की समाप्ति करते हें। उनकी कृपा से हमारी
स्तुति देवों को प्राप्त हो।
९. प्रतापशारी, प्रसिद्ध ओर आकाश की तरह तेजस्वी, बराझंस
देवता को भें देख चुका हूं ।
१९ सूक्त
(देवता अग्नि ओर मरुद्गण)
१. अग्निदेव ! इस सुन्दर यज्ञ में सोमरस का पान करने के छिए
तुम बूळाय जाते हो; इसलिए सरुदूगण के साथ आओ ।
२५. अग्निदेव | तुम महान् हो। ऐसा कोई उच्च देव या मनुष्य
नहीं है, जो तुम्हारे यज्ञ का उल्लड्भन कर सके । मरुद्गण के साथ आओ ॥
३, अग्निदेव ! जो प्रकाशशाली ओर हिंसा-शूम्य मरुदगण सहा-
बृष्टि करना जानते हैं, उन सरुतों के साथ आओ ।
४, जिन उग्र और अजेय:लझाली मरुतों ने णल-वृष्टि की थी;
अग्निदेव, उन्हीं के साथ पधारो।
५. जो सुझोभन ओर उग्र रूप धारण करनेवाले हुँ, जो पर्याप्त
बलशाली और शत्रु-संहारी है, अग्निदेव, उन्हीं मरुद्गण के साथ आओ।
६. आकाश के ऊपर प्रकाश-स्वरूप स्वगे में जो दीप्तिमान् मरुत
रहते हैं, अग्नि! उन्हीं के साथ आओ।
. ७, जो मेघ-माला का संचालन करते और जल-राशि को समुद्र
में गिराते हँ, अग्नि ! उन्हीं मझूदगण के साथ आओ।
८. जो सुर्य-किरणों के साथ समस्त आकाश में व्याप्त ह और
गो बरू से समुद्र फो उत्क्षिप्त करते हें, अग्निदेव, उन्हीं मरुद्गण के
साथ आओ
९, तुम्हारे प्रथम पान के लिए सोम-मधु दे रहा हूँ। अग्निदेव !
सरुवूगण के साथ आओ।
प्रथम अध्याय समाप्त ।
२० सूक्त
(बूसरा श्रथ्याय ५ अनुवाक (आवृत्त) देवता ऋसुगण्)
१. जिन ऋभुओं ने जन्म ग्रहण किया था, उन्हीं के उद्देश्य से
मेधावी ऋह्विकों ने, अपने रुख से, यह प्रभूत धन-प्रद स्तोत्र स्मरण
किमा था।
९. जिन्होंने इन्द्र के उन हरि नाम के घोड़ों की, सानसिक बल
से, सृष्टि की है, जो घोड़े आज्ञा पातने ही रथ में संयुक्त हो जाते
झिव्दीः मं ल र् १
हैं, वे ही ऋभुलोग, चसस आदि उपकरण-परच्यों के साथ, हमारे यज्ञ
में व्याप्त हैं ।
३. ऋशभुओं ने अश्विवीकुमारद्वय के लिए सर्वेत्र-गन्ता और सुखबाही
एक रथ का निर्माण किया था और दूध देवेबाली एक गाय भी
पैदा की थी ।
४. सरल-हुदय और सब कामों में व्याप्त ऋभुओं का मंत्र विफल
नहीं होता। उन्होंने अपने मा-घाप को फिर जवान बना दिया था।
५. ऋभगण ! मरुदृगण से संयुक्त इन्द्र और दीप्यमान सूर्य के
साथ तुम लोगों को सोमरस प्रदान किया जाता हें ॥
६. त्वष्ठा का वह नया चमस बिलकुल तेयार हो गया था; परन्तु
उसे ऋभुओं ने चार टुकड़ों में विभक्त कर दिया।
७. ऋभृगण ! तुम हमारी शोभन प्रार्थना प्राप्त कर हमारा
सोमरस तैयार करनेवाले को तीन तरह के रत्न, एक एक कर, प्रदान
करो और उसके सातौं गुण तीन बार सम्पादन करो ।
८. यज्ञ के वाहक ऋभुगण सनुष्य-जन्स ले चुकने पर भी अविनाशी
आयु प्राप्त किये हुए हैं और अपने सत्कमे-द्वारा देवों के बीच यज्ञ-भाग
का सेबन करते हें।
२१ सुक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि)
१. इस यज्ञ में इन्द्र और अग्नि का में आह्वान करता हुँ। उन्हीं
की स्तुति करना चाहता हूँ । वेही इस और अग्निविशेष
सोमपायी हें। आव, सोमपान कर ।
२. मनुष्यगण ! इस यज्ञ में उन्हीं इन्द्र और अग्नि की प्रशंसा
करो और उन्हें सुशोभित करो; उन्हीं दोनों के उद्देश्य से गायत्री
छन्द हारा गाओ।
३. भिन्रदेव की प्रशंसा के लिए हुम इन्र और अग्नि का आह्वान
२२ हिस्दी-नग्वेद
करते हे। उन्हीं दोनों सोम-रस-पान-कर्ताओं को सोमपान के लिए
आह्वान करते हें।
४, उन्ही दोनों उग्र देवों को इस सोरेमरस-संणुक्त यञ्च के पास
आह्वान करते हैं। इख और अग्नि इस यज्ञ में पधार ।
५. वे महान् ओर सभा-रक्षक इन्द्र और अग्नि राक्षस-जाति को
हुष्टतान्शून्य करें। भक्षक राक्षस लोग निःसन्तान हों ।
६. इन्द्र और अग्नि ! जिस स्घर्ण-लोक सें कर्म-फल जाना जाता
है, वहीं इस यज्ञ के लिए तुम जायो और हमें सुख प्रदान करो।
२२ सूक्त
(देवता अश्विनीकुमार आदि)
१. पुरोहित ! प्रातःसवन-सम्बन्ध से युक्त अझ्विनीकुमारों को
जगाओ । सोमपान के लिए वे इस यज्ञ में पधार ।
२. जो आश्विनीकुमार सुन्दर रथ से युक्त हैं; रथियों में श्रेष्ठ और
श्वगेवासी हैं, उन्हें हम आह्वान करते हेँ।
३. अश्विनीकुमार ! तुम लोगों की जो घोड़ों के पसीने और
ताडना से युक्त चाबुक है, उसके साथ आकर इस यज्ञ को सोमरस
से सिक्त करो ।
४. अश्विनीकुमार ! सोमरस देनेवाले यजमाच के जिस गुह की
ओर रथ से जा रहे हो, वह गृह बूर नहीं हे।
५, सुचर्ण-हुस्तक सूर्यं को, रक्षा के लिए, में बुलाता हूँ। वेही
वैव यजमान को मिलनेवाला पद अता देंगे ।
६. अपने रक्षण फे लिए जल को सुखा देनेवाले सूर्य की स्तुति
क्रो । हम सुर्य फे लिए यश करना चाहते हैं।
७. निवास के कारणभूत, अनेक प्रकार के घनों फे विभाजन-
कर्ता और मनुष्यों के प्रकाश-कर्सा सुर्यं का हम आह्वान करते हैं।
हिन्दी-ऋण्वेद २३
८. सखालोग ! चारों ओर बेठ जाओ। हमें शीघ्र सूर्य की स्तुति
करनी होगी। धन-प्रदाता सूर्य सुशोभित हो रहे हुँ।
९. अग्निदेव ! देवों की अभिलाषा करनेवाली पत्नियों को इस
यज्ञ में ले आओ । सोसपान करने के लिए त्वष्टा को पास ले आओ।
१०. अग्नि ! हमारी रक्षा के छिए देव-रमणियों को इस यज्ञ में
ले आओ। युवक अग्नि! देवों को बुलानेवाली, सत्य कथनझीला
और सस्यनिष्ठा सुबुद्धि को ले आओ।
११. अच्छिन्नपक्षा वा द्रतगामिनी और ममृष्यरक्षिका देवी रक्षण
और महान् सुख-प्रदान द्वारा हमारे ऊपर प्रसन्न हों।
१२. अपने मङ्कल के लिए और सोम-पान के लिए इन्द्राणी,
वरुणानी और अग्नायी या अग्निपत्नी को हम बुलाते हैं ।
१३. महान् छु और पृथिवी हमारा यह यज्ञ रस से सिक्त करें.
और पोषण-दवारा हमें पूर्ण करं । |
१४. अपने कर्म के बल झु और पृथिवी के बीच में, मेधावी लोग
गन्धवों के निवास-स्थान अन्तरिक्ष में, घी की तरह, जल पीते हें। |
१५. पृथिवी ! तुम विस्तृत, कण्टक-रहित और निवासभूता बनी।:
हमें यथेष्ट सुख दो।
१६. जिस भू-प्रदेश से, अपने सातों छन्दों हारा विष्णु ने विविध
पाद-क्रम किया था, उसी भू-प्रदेश से देवता लोग हमारी रक्षा करें।
१७. विष्णु ने इस जगत् की परिक्रमा की, उन्होंने तीन प्रकार से.
अपने पेर रखे और उनके धूलियुक्त पर से जगत् छिप-सा गया ।
१८. विष्णु जगत् के रक्षक हे, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं
है। उन्होंने समस्त घर्मो का धारण कर तीन पैरों का परिक्रमा किया ।
१९. विष्णु के कर्मों के बल ही यजमान अपने ब्रतों का अनुष्ठान :
करते हुँ। उनके कर्मो को देखो । वे इन्द्र के उपयुक्त सखा हुँ।
२०. आकाश सें चारों ओर विचरण करनेवाली आँखें जिस प्रकार
२४ हिन्दी-क्रग्वेद
वृष्टि रखती हूँ, उसी प्रकार विद्वान् भी सदा विष्णु के उस परम
पद पर दृष्टि रखते हें।
२१. स्तुतिवादी और मेधावी मनुष्य विष्णु के उस परम पद से
अपने हृदय को प्रकाशित करते हे ।
२३ सूक्त
(देवता वायु आदि । छन्द गायत्री आदि)
१. वायुदेव ! यह तीखा और सुपक्व सोमरस तैयार है। तुम
` आओ; यही सोमरस यहाँ लाया गया है । पान करो।
२. आकाश-स्थित इन्द्र और वायु को, सोम-पान के लिए, हम
खुलाते हें।
३- यज्ञ-रक्षक इन्द्र और वायु मन के समान वेगवान् और सहस्राक्ष
हैं। प्रतिभाशाली मनुष्य अपने रक्षण के लिए दोनों का आह्वान करते हें।
४. मित्र और वरुण--दोनों शुद्ध-बल-शाली और यज्ञ में प्रादुर्भूत
होनेवाले हें। हम उन्हें सोमरस-पान के लिए, बुलाते हें ।
५. जो मित्र और वरुण सत्य के द्वारा यज्ञ की वृद्धि और यज्ञ
के प्रकाश का पालन करते हुँ, उन लोगों का सें आह्वान करता हूं।
६. वरुण और भित्र सब तरह से हमारी रक्षा करते हें। वे हमें
यथेष्ट सम्पत्ति दे ।
७. सरुतों के साथ, सोम-पान के लिए, हम इन्द्र का आह्वान करते
हें। वै मरुद्गण के साथ तृप्त हों।
८. मरुद्गण ! तुम्हारे अन्दर इन्द्र अग्रणी हुँ, पुषा या सूरय
तुम्हारे दाता हैं। तुम सब लोग हमारा आह्वान सुनो।
९. वान-परायण सरुतो ! बली और अपने सहायक इन्द्र फे साथ
शत्रु का विनाश करो, जिससे दुष्ट शत्रु हमारा स्वामी न घन बैठे ।
१०. सारे मर्तुदेवों को सोमरस-पान के लिए हम आह्वान करते
हूँ। वे उप्र ओर पुदिन (पृथिबी, आकाश या मेघ) की संतान हैं।
हिन्दी-ऋग्वेद २५्
११. जिस समय मर्तूलोग शोभन यज्ञ को प्राप्त होते हें उस
समय विजयी लोगों के नाद की तरह उनका, दपं के साथ, निनाद
होता हे।
१२. प्रकाशमयी बिजली से उत्पन्न मरुत् लोग हमारा रक्षण ओर
सुख-विधान कर । |
१३. हे दीप्तिमान् और शीध्गन्ता पुषा या सूये! जिस तरह
दुनिया में किसी पशु के खो जाने पर उसे लोग खोज लाते हैं, उसी
प्रकार तुस आकाश से विचित्र कुशोंवाले और यज्ञधारक सोम को
ले आओ।
१४. प्रकाशमान पुषा ने गुहा में अवस्थित, छिपा हुआ विचित्र-
कुश-सम्पन्न और दीप्तिमान् सोस पाया।
१५. जिस प्रकार किसान बलों से यव का खेत बार-बार जोतता
है, उसी प्रकार पुषा भी मेरे लिए, सोम के साथ, क्रमशः छः ऋतुएं
बार-बार, लाये थे।
१६. हम यज्ञेच्छुओं का मातृ-स्थानीय जल यज्ञ-मार्ग से जा रहा
है। वह जल हमारा हितैषी बन्धु हे। वह दूध को मधुर बनाता हे।
१७. यह जो सारा जल सूर्य के पास है अथवा सूर्य जिस सब जल
के साथ हें बह सब जल हमारे यज्ञ को प्रेम-पात्र करे।
१८. हमारी गायं जिस जल को पान करती हैं, उसी जल का
हम आह्वान करते हैं। जो जल नदी-हूप होकर बह रहा है, उस सबको
हव्य देना कत्तव्य हँ।
१९. जल के भीतर अमृत और ओषधि हुं। हे ऋषि लोग ! उस
जल की प्रशंसा के लिए उत्साही बनिए।
२०. सोम या चन्द्रमा ने मुझसे कहा है कि जल सं औषध हुँ,
संसार को सुख देनेवाली अग्नि है और सब तरह की दवायें हें।
२१. हे जल ! मेरे शरीर के लिए रोग-नाशक औषध पुष्ट करो,
जिससे में बहुत दिन सुर्यं को देख सक् ।
२६ हिन्दी-त्रहर्वेद
नद
२२. मुझमें जो कुछ दुष्कमे हें जो फुछ अन्यायाचरण किया
है, मेने जो शाप दिया है और में जो झूठ बोला हूँ, है जल! बहू
सब घो डालो।
२३. आज स्नान के लिए जल में ऐठ्या हुँ, जल के सार से
सम्मिलित हुआ हूँ ॥ हे जल-स्थित अग्नि! आओ। मुझे तेज से
परिपुर्ण करो ।
२४. हे अग्नि ! मुझे तेज, सन्तान और दीर्घाय् दो, जिससे देवता
लोग, इन्द्र और ऋषिगण मेरे अनुष्ठान को जान सक्न ।
२४ सूक्त
(६ अनुवाक । देवता आग्नि प्रश्न॒ति)
(यहाँ से ३० सूक्तं तक के ऋषि अ्रजीगत-पुत्र शुनःरोप)
१. देवों में किस श्रेणी के किस देवता का सुन्बर नास उच्चारण
करें ? कोन मुझे फिर इस पृथिवी पर रहने देगा, जिससे म पिता
और साता के दर्शन कर सक ?
२. देवों में पहले अग्नि का सुन्दर नाम लेता हूँ, वह मुझे इस
बिशाल पृथिवी पर रहने दें, ताकि में मा-बाप के दर्शन कर सक॥
३. हे सर्वदा त्राता सूर्य ! तुम श्रेष्ठ धन के स्वामी हो; इसलिए
तुम्हारे पास उपभोग करने योग्य धन की याचना करता हूँ ।
४. प्रशासित, निन््दा-शन््य, द्वेष-रहित और सम्भोग-योग्य धन को
तुम दोनों हाथों में धारण किये हुए हो।
५. सुर्यदेव ! तुम घन शाली हो, तुम्हारी रक्षा-हारा घन को
उच्चति करने में लगे रहते हँ।
६. वरुणदेव ! थे उड़नेवाली चिड़ियाँ तुम्हारे समान बल और
प्राक्रम नहीं प्राप्त कर सकीं। तुम्हारे सदृश इन्होंने क्रोध भी नहीं
प्राप्त किया। निरन्तर विहरण-शील जल और वायु की गति भी
तुम्हारे वेग को नहीं लांघ सकी ॥
हिन्दी-क्रग्वेद २७
७. पवित्र-बलशाली वरुण आदि-रहित अन्तरिक्ष में रहकर श्रेष्ठ
तेजः-पुञज को ऊपर ही धारण करते हुँ। तेजः-पुञ्ज का मुख नीचे
और मूल ऊपर है। उसी के द्वारा हमारे प्राण स्थिर रहते हुँ।
८. देवराज वरुण ने सूर्ये के उदय और अस्त के गमन के लिए
सुर्य के पथ का विस्तार किया हे। पाद-रहित अन्तरिक्ष-प्रदेश में सूर्य
के पाद-विक्षेप के लिए वरुण ने मागं दिया हुँ। दे वरुणदेव मेरे
हृदय का वेध करनेवाले शत्रु का निराकरण करें।
९. वरुणराज ! तुम्हारी संकड़ों-हजारों ओषधियां हैं, तुम्हारी
सुमति विस्तीणं ओर गम्भीर हो। निऋतिया पाप देवता को विमुख
करके दूर रक्खो। हमारे किये हुए पाप से हमें मुक्त करो।
१०. ये जो सप्ता नक्षत्र हें, जो ऊपर आकाश में संस्थापित हैं और
रात्रि आने पर दिखाई देते हैं, दिन में कहां चले जाते हैं? वरुणदेव
की शक्ति अप्रतिहत है। उनकी आज्ञा से रात्रि में चन्द्रमा प्रकाशमान
होते हुँ।
११. में स्तोत्र से तुम्हारी स्तुति कर तुम्हारे पास वही परमायु
मांगता हूँ। हुव्य-द्वारा यजमान भी उसे ही पावे की प्रार्थना करता
हैं । वरुण ! तुस इस विषय में उदासीन न होकर ध्यान दो । तुम
अनन्त जीवों के प्रार्थना-पात्र हो। मेरी आयू मत खो।
१२. दिन और रात, सदा लोभ में मुझसे एसा ही कहा गया हैं।
मेरा हृदयस्थ ज्ञान भी यही गवाही देता हूँ कि, आबद्ध होकर शुनः-
शेप ने जिस वरुण का आह्वान किया था, वही वरुणराज हुस लोगो
को मुक्तिदान करें।
१३. शुनःदोप ने घृत और तीन काठो में आबद्ध होकर अदिति क्षे
पुत्र वरुण का आहाच किया था; इसी लिए विद्वान् और दयाळू
बरुण ने शुनःशेप को मुक्त किया था, उनका बन्धन छुड़ा दिया था।
१४. वरुण ! नमस्कार करके हम तुम्हारे क्रोष को दूर करते
हें और यज्ञ में हव्य देकः भी तुम्हारा क्रोध दुर करते हें। हे असुर !
२८ हिन्दी-ऋग्वेद
प्रचेतः ! राजन् ! हमारे लिए इस यज्ञ में निवास करके हमारे किये
हुए पाप को शिथिल करो।
१५. वरुण ! मेरा ऊपरी पाश ऊपर से और नीचे का चीचे से
सोल दो और बीच का पाश भी खोलकर शिथिल फरो । अनन्तर
हे अबितिपुत्र ! हुम तुम्हारे ब्रत का खण्डन न करके पापरहित
हो जायेंगे ।
२५ सुत्त
(देवता वरुण)
१. जिस तरह संसार के मनुष्य वरुणदेव के ब्रतानुष्ठान में भ्रा
करते हें, उसी तरह हस लोग भी विन-दिन प्रमाद करते हुं।
२. वरुण ! अनादरकर और घातक बनकर तुम हमारा ब
नहीं करना। झड होकर हमारे ऊपर क्रोध नहीं करना।
३. वरुणदेव, जिस प्रकार रथ का स्वामी अपने थके हुए घोशों
को शान्त करता हँ, उसी प्रकार सुख फे लिए स्लुति-द्वारा हम तुम्हारे
मन को प्रसन्न करते हैं।
४. जिस तरह चिड़ियाँ अपने घोसरों को ओर दोड़ती हुँ, उसी
तरह हमारी क्रोध-रहित चिन्तायें भी धन-प्राप्ति की ओर दौड़ रही हैं।
५, वरुणदेव बलवान् नेता और असंख्य लोगों के प्रष्टा हुँ। मुख
के लिए हम कब उन्हें यज्ञ में ले आवेगे ?
६. यज्ञ करनेवाले हव्यदाता फे प्रति प्रसञ्च होकर मित्र और वर्ण
थह साधारण हव्य ग्रहण करते हें, स्याग नहीं करते ।
७. जो वरुण अन्तरिक्ष-चारी घिड़ियों का मार्ग और समुद्र की
सौकाओं का मार्ग जामते हे।
८. जो सताबरूम्बन करके अपने अपने फरोत्पादक बारह महीनों
को जानते हैं और उत्पन्न होनेवाले तेरहवें मास को भी जानते हूँ।
९, जो यरुणदेव विस्तृत, शोभन और महाम् वायु का भी पथ
हिन्दी-ऋण्वेद २९
जानते हैं और जो ऊपर, आकाश में, निवास करते हैं, उन देवों को भी
जानते है । | |
१०. घृत-ब्रत और शोभनकर्मा वरुण देवी सन्तानों के बीच सास्राज्य-
संसिडि के लिए आकर बेठे थे।
११. ज्ञानी मनुष्य वरुण की कृपा से वत्तेमान और अविष्यत्--सारी
अद्भुत घटनाओं को देखते हैं।
१२. वही सत्कर्मपरायण और अदिति-पुत्र वरुण हमें सदा सुपथ-
गामी बनावे, हमारी आय बढ़ावं। |
१३. वरुण सोने का वस्त्र धारण कर अपना पुष्ट शरीर ढकते हैं,
जिससे चारों ओर हिरण्यस्पर्शी किरणें फेलती हैं। |
१४. जिस वरुणदेव से शत्रु लोग शत्रुता नहीं कर सकते, मनुष्य-
पीडक जिसे पीड़ा नहीं दे सकते ओर पापी लोग जिस देव के प्रति पापा-
चरण नहीं कर सकते।
१५. जिन्होंने मनुष्यों, विशेषतः हमारी उदर-पुति के लिए यथेष्ट
अञ्न तैयार कर दिया हैं। |
१६. बहुतों ने उस वरुण को देखा है। जिस प्रकार गौएँ गोशाला
की ओर जाती हुँ, उसी प्रकार निवुत्तिरहित होकर हमारी चिन्ता बरुण
की ओर जा रही है
१७. वरुण | चूँकि मेरा मधुर हव्य तैयार हैँ; इसलिए होता की
तरह तुम वही प्रिय हव्य भक्षण करो। अनन्तर हम दोनों बातें करेंगे ॥
' १८, सर्व-दर्शनीय वरुण को मेने देखा है। भूमि पर, कई बार,
उनका रथ मेने देखा है। उन्होंने मेरी स्तुति ग्रहण की हे।
१९. वरुण ! मेरा यह आह्वान सुनो। आज मु सुखी करो ।
तुम्हारी रक्षा का अभिलाषी होकर में तुम्हें बुलाता हूं। |
२०. मेधावी बरुण ! लुम थुलोक, भूलोक और समस्त संसार में
दीप्तिमान् हो। हमारी रक्षा-प्राप्ति के लिए प्राथना सुनने के अनन्तर
तुम उत्तर दो। है
३० हिम्दी-ऋग्वेद
२१. हमारे ऊपर का पाश ऊपर से खोळ दो। मध्य . बाचे का
पाश भी खोल दो, जिससे हम जीवित रह सके।
२६ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. यज्ञपात्र और अन्नभाजन अग्निदेव! अपना तेज गहण करो
और हमारे इस यज्ञ का सम्पादन करो।
२. अग्नि! तुम सर्वदा युवक, श्रेष्ठ और तेजस्वी हो। हमारे
होमकर्ता और प्रकाशमय बाक्यो-द्वारा स्तुत होकर बैठो ।
३. श्रेष्ठ अग्निदेव ! जिस प्रकार पिता पुत्र को, बन्धु बन्धु को
और मित्र मित्र को दान देता हे, उसी प्रकार तुम भी मेरे लिए दान-
परायण अनो ।
४. शत्रुञजय सित्र, वरुण और अर्थमा जिस तरह सन् के यज्ञ सें
बैठे थे, उसी तरह तुम भी हमारे यज्ञ के कुश पर बेठो।
५. हे पुराणहोससम्पादक, हमारे इस यज्ञ ओर सितता में तुस
प्रस्न बनो। यह स्तुति-वचन श्रवण करो।
६. नित्य और विस्तीर्ण हुव्य-द्वारा हुम और-और देवों का जो
यज्ञ करते हैं, वह हव्य तुम्हें ही दिया जाता है ।
७. सर्वे-प्रजा-रक्षक, होम-सम्पादक, प्रस और वरेण्य अग्नि हमारे
प्रिय हों, ताकि हुम भी शोभन अग्नि से संयुक्त होकर तुम्हारे प्रिय बनें ।
८. शोभनीय अग्नि से युक्त ओर दीप्तिमान् ऋत्विक छोगों
ने हमारा श्रेष्ठ हव्य धारण किया हुँ; इसलिए हम शोभन अग्नि से
संयुक्त होकर याचना करते हुँ। |
९, अग्निदेवं ! तुम अमरं हो और हुम मरणशील मनुष्य हुँ।
आओ, हम परस्पर प्रशंसा करें।
१०. बंल के पुत्र अग्नि! तुस सब अर्नियों के साथ यह यज्ञ और
स्तोत्रं ग्रहणं करके अझ्नप्रदान करो।
“¬ एस सूक्त
`“ `... ` (दवता अग्नि)
१. अंब्क्हिव ! तुम -धुच्छयुक्त घोड़े के समान हौ, साथ ही यज्ञ
के सस्राट् भी हो। हम स्तुति-द्वारा तुम्हारी वन्दना करने में प्रवृत्त
हुए हूँ।
२. अग्नि बल के पुत्र और स्थूल-गसन हैं। वे हमारे ऊपर प्रस
हों। हमारी अभिलषित वस्तु का वर्षण करें ।
३. सर्वेत्र-गासी अग्नि! तुम दुर और सन्षिकट देश सें पापाचारी
मनुष्य से हमारी सर्वदा रक्षा करो।
४. अग्नि! तुम हमारे इस हव्य की बात और इस अभिनव
गायत्री छन्द में विरचित स्तोत्र की बात देवों से कहना।
५. परम (दिव्य लोक का), मध्यम (अन्तरिक्ष का) ओर अन्तिकस्थ
(पृथिवी का) धन प्रदान करो।
६. विलक्षण-किरण अग्नि! सिन्धु के पास तरङ्ग की तरह तुमं
धन के विभागकर्ता हो। हव्यदाता को तुम शीघ्र कर्मफलप्रदान करो ।
७. अग्नि! युद्ध-क्षेत्र में तुम जिस सनुष्य की रक्षा करते हो,
जिसे तुम रणाङ्गण में भेजते हो, वह नित्य अन्न प्राप्त करेगा ।
८. रिपु-दमन अग्नि ! तुम्हारे भक्त पर कोई आक्रमण नहीं कर
सकता; क्योंकि उसके पास प्रसिद्ध शक्ति है।
९. समस्त-मानव-पुजित अग्नि ने घोड़े के द्वारा हमें युद्ध से पार
करा दिया। मेधावी ऋत्विकों के कर्म के फलदाता हो।
१०. अग्नि ! परार्थचा-द्वारा तुम जागो। विविध यजमानो पर कृपा
करके यज्ञातुष्ठान के लिए यज्ञ में प्रवेश करो। तुस रुद्र या उग्र हो ॥
रुचिकर स्तोत्रों से तुम्हारी स्तुति करते हैं।
११. अग्नि विशाल, असीस-धूम-केतु ओर प्रभूत-दीप्ति-सम्पन्न हैं।
अग्नि हमारे यज्ञ ओर अन्न में प्रसन्न हों ।
३२ हिन्दी-ऋग्वेद
१२. अग्नि प्रजा-रक्षक, देवों के होता, वेवदूत, स्तोत्र-पात्र और
प्रौद-किरणशाली हैं। वे धनी लोगों की तरह हमारी स्तुति सुनें।
१३. बड़े, बालक, युवक और वृद्ध देवों को नमस्कार करते हुँ। हो
सकेगा, तो हम देवों की पुजा करेंगे। देवगण ! हस वुद्ध देवों की स्तुति
न छोड़ दें।
२८ सूक्त
(देवता इन्द्र आदि)
१, जिस यज्ञ में सोमरस चुआने के लिए स्थूलमूल पत्थर उठाये
जाते हैं, हे इन्द्र! उसी यज्ञ में ओखल से तयार किया हुआ सोमरस,
अपना जानकर, पान करो।
२. जिस यज्ञ में सोम कूटने के लिए दो फलक, जाँघों की तरह,
विस्तृत हुए हैं, उसी यज्ञ में ओोखल-द्वारा प्रस्तुत सोमरस, अपना जानकर,
पान करो।
३. जिस यज्ञ में यजमान-पत्नी पठती और वहाँ से बाहर निकलती
रहती है, इन्द्र! उसी यञ्च में ओखल-द्वारा तयार सोमरस, अपना
जानकर, पान करो।
४. जिस यज्ञ सं लगाम की तरह रस्सी से मन्थन-दण्ड बाँधा जाता
है, उसी यज्ञ में इन्द्र! ओखल-द्वारा प्रस्तुत सोमरस, अपना जानकर,
पान करो।
५. ओखल ! यद्यपि घर-घर तुमसे काम लिया जाता हूँ, तो भी
इस यज्ञ में विजयी लोगों की दुन्दुभि की तरह तुम ध्वनि ६रते हो।
६. हे ओखल-रूप काष्ठ ! तुम्हारे सामने वादु बहती है; इसलिए
ओखल ! इन्द्र के पान के लिए सोमरस तयार परो ।
७, हे अन्न-दाता यज्ञ के दोने साधन ओखछ और मुसल! जिस
प्रकार अपना खाद्य चबाते समय इन्द्र के दोनों घोड़े ध्वनि करते हें, उसी
प्रकार तुमुल ध्वनि से युक्त होकर तुम लोग बार-बार विहार करते हो।
' हिन्दी-ऋग्वेद ३३
८. है सुदृश्य दोनों काष्ठ (ओखल और सूसल) ! दहोनीय अभिषव-
मंत्र-हारा आज तुस लोग इन्द्र के लिए मधुर सोमरस प्रस्तुत करो।
९. हे ऋत्विक् ! दोनों अभिषव-फलकों (पात्र-विशेष) से अवशिष्ट
सोम उठाओ, उसे पवित्र कुश के ऊपर रक्खो। अनन्तर उसे गो-चर्म-
(निमित पात्र) पर रक्खो।
२९ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. हे सोमपायी ओर सत्यवादी इन्द्र! यद्यपि हम कोई घी नहीं
हूँ, तो भी हे बहुधनशाली इन्द्र ! सुन्दर और असंख्य गौओ और घोड़ों-
एरा हमें प्रशस्त धनवान् करो।
२. शक्तिशाली, सुन्दर नाकवाले और धनरक्षक इन्द्र ! तुम्हारी
दया चिरस्थायिनी हैँ। बहुधनशाली इन्द्र ! सुन्दर और असंख्य गौओं
और घोड़ों-हारा हमें प्रशंसनीय करो।
३. जो दोनों यम-दूतियाँ आपस में देखती हें, उन्हें सुलाओ; वे
बेहोश रह । बहुधनशालो इन्द्र ! सुन्दर और असंख्य गोओं ओर घोड़ों
द्वारा हमें प्रशंसनीय करो।
४. शूर ! हमारे श्रु सोये रहें ओर मित्र जागे रहें। बहुधनशाली
इन्द्र सुन्दर और असंख्य गोओं और घोड़ों से हमें प्रशस्य बनाओ।
५, इन्द्र ! यह गर्दभ-रूप शत्रु पाप था वचन द्वारा तुम्हारी निन्दा
करता हें, इसे वध करो। बहुधनशाली इन्द्र ! सुन्दर और असंख्य गोओं
ओर घोड़ों से हमें धनी बनाओ।
६. विरुद्ध वायु, कुटिल गति के साथ, वन से दुर जाय। बहुधनश्ाली '
इन्द्र! सुन्दर ओर असंख्य गोओं और घोड़ों-द्वारा हमें धनी बनाओ।
७, सब डाह करनेवालों का वध करो। हिखको का विनाश करो।
बहुधनशाली इन्द्र! सुन्दर और असंख्य गोओं और घोड़ों हारा हमें
प्रशसवीय (धनवान) करो।
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है. लिएको मम पे
रै ९“ ६० 1६8 ५०९८
३० सूत
(देवता इन्द्र)
१. संसार में जिस प्रकार कुएँ को जल-पुर्ण कर दिया जाता है, उसी
प्रकार हम, अनाकाङ क्षी होकर यजमानो, तुम्हारे इस यज्ञ करनेवाले
और अतिवृद्ध इख को सोमरस से सेचन करते हें।
२. जिस प्रकार जल स्वयं नीचे जाता हे, उसी प्रकार इन्द्र सेकड़ों
विशुद्ध सोमरस और “आशीर” नासक सहस्न श्रपण द्रव्य से युक्त सोमरस
के पास आते हुँ ।
३. यह अनन्त प्रकार का सोम इन्द्र की प्रस्ता के लिए इकट्ठा
होता है। इसके द्वारा इन्द्र का उदर समुद्र की तरह व्याप्त होता है।
४. जिस प्रकार कपोत गाभणी कपोती को ग्रहण करता
है, उसी प्रकार, हे इन्द्र ! यह सोम तुम्हारा है, तुम भी इसे ग्रहण करो;
और, इसी कारण हमारा वचन ग्रहण करो।
५. घन-रक्षक ओर स्तोत्र-पात्र इन्द्र ! तुम्हारा एसा स्तोत्र तुम्हारा
प्रतिभा-प्रिय और सत्य हो।
६. शतक्रतु ! इस समर में हमारी रक्षा के लिए उत्सुक बनो।
दूसरे कार्य के सम्बन्ध में हम दोनों मिलकर विचार करेगे ।
७. विभिन्न कर्मो के प्रारम्भ में, विविध युद्धों में हम, अत्यन्त बली
इन्द्र को, रक्षा के लिए, सखा की तरह बुलाते हैं।
८. यदि इन्द्र हमारा आह्वान सुनेंगे, तो निश्चय ही सहस्रो ऐसी
शक्ति और घन-शक्ति के साथ हमारे निकट आवेगे ।
९. इन्द्र बहुतों के पास जाते हे। पुरातन निवास या स्वर्ग से में उस
पुरुष का आह्वान करता हूँ, जिसे पहले पिता बुला चुके हूँ।
१०. इन्द्र ! तुम्हें सब चाहते हैं, तुम्हें असंख्य लोग बुला चुके हें
“तुम सखा और निवास के कारण हो। सें प्रार्थना करता हूँ कि तुम अपने
-स्तोताओं पर अनुग्रह करो ।
हिन्दी-क्रग्बेद ३५
११. हे सोमपायी, सखा और बस्रधारी इन्द्र! हम भी तुम्हारे
सखा और सोमपायी हैँ। हमारी दीर्घ वासिकावाली गौओं को बढ़ाओ।
१२. सोमपायी, सखा और वज्जधर इन्द्र ! लुम एसे बनो, तुम इस
तरह आचरण करो, जिससे हम मंगलार्थ तुम्हारी अभिलाषा करें।
१३. इन्द्र के हमारे ऊपर प्रसन्न होने पर हमारी गाये दृधवाली और
पर्याप्स-शक्ति-सम्पन्न होंगी । गायों से खाद्य प्राप्त कर हम भी प्रसन्न होंगे ।
१४, हे साहसी इन्द्र ! तुम्हारे समान कोई भी देवता प्रसन्न होकर,
हमारे द्वारा याचित होकर, स्तोताओं के लिए अवश्य ही अभीष्ट घन ले
आ देंगे। वह उसी प्रकार धन देंगे, जिस प्रकार घोड़े रथ के दोनों
चक्कों के अक्ष को घुमा देते हुँ। |
१५. हे शतकतु इन्द्र ! जिस तरह शकट की गति अक्ष को घुमाती है,
उसी प्रकार घुस कामना के अनुसार स्तोताओं को घन अर्पण करो।
१६. इन्द्र के जो घोड़े खा लेने के बाद फर-फर शब्द के साथ हिन-
हिनाते ओर घहराता साँस फेकते हैं, उन्हीं के द्वारा इन्द्र ने सदा धन
जीता है। कर्मठ और दान-परायण इन्द्र ने हमें सोने का रथ दिया था।
१७. अश्विनीकुसारद्वय ! अनेक घोड़ों से प्रेरित अन्न के साथ आओ।
शत्रुसंहारी ! हमारे घर में गाये और सोना आवे।
१८. हात्र-ताशक अश्विनीकुमारद्वय ! तुम दोनों के लिए तैयार
रथ निनाश-रहित है; यह समुद्र या अन्तरिक्ष में जाता है।
१९. अश्विनीकुमारो ! तुमने अपने रथ का एक चबका अविनाशी
पर्यंत के ऊपर स्थिर किया है ओर दुसरा आकाश के चारों ओर घूम
रहा है।
२०. हे स्तुति-प्रिय अमर उषा ! तुम्हारे संभोग के लिए कौन सनुष्य
है? हे प्रभाव-सम्पच्च ! तुम किसे प्राप्त होगी?
२१. हे व्यापक और विचित्र-प्रकाशवती उषा ! हम दूर या पास से
ठुम्हें नहीं समझ सकते ।
२२. है स्वग-पुत्री ! उस अच्च के साथ तुम आओ, हमें धन प्रदान करो ।
३६ हिन्दी-नहृग्वेद
२१ सूक्त
(७ अनुवाक । दैवता अग्नि। यहाँ से ३५ सूक्त तक के ऋषि
अङ्गिरा के पुत्र हिरण्यस्तूप है )
१. अग्नि! तुम अङ्चिरा ऋषि लोगों के आदि ऋषि थे । देवता
होकर देवों के झल्वाण-याही सखा थे। तुम्हारे ही कर्म से मेधावी,
ज्ञात-कार्य और शुश्रशस्त्र मरुदूगण ने जन्म ग्रहण किया था।
२. अग्मि! तुम अङ्गिरा लोगों में प्रथम और सर्वोत्तम हो। तुम
सेधावी हो और देवों का यज्ञ विभूषित करते हो। तुम सारे संसार के
विभु हो; तुम मेधावी और द्विसातुक (दो काठों से उत्पन्न) हो। मनुष्यों
के उपकार के लिए विभिन्न रूपों में सर्वत्र वर्तमान हो।
२. अग्नि ! तुस मातरिश्वा या वायु के अग्रगासी हो। तुम शोभन
यज्ञ की अभिलाषा से सेवक यजसान के निकट प्रकट हो जाओ। तुम्हारी
शक्ति देखकर आकाश और पृथ्वी काँप जाती है। तुम्हें होता माना
गया हे; इसलिए लुभने यज्ञ में उस भार को वहन किया है। हे आवास-
हेतु अग्नि ! तुसने पुजनीय देवों का यज्ञ निष्पन्न किया है।
४. अग्नि ! तुमने मनु को स्वर्ग-लोक की कथा सुनाई थी। तुम
परिचर्या करनेवाले पुरुरवा राजा को अनुगहीत करने के लिए अत्यन्त
शुभफळ-दायक हुए थे। जिस समय अपने पितू-रू दो काष्ठों के घर्षण
से तुम उत्पन्न होते हो, उस समय तुम्हें ऋत्विक् लोग वेदी की पुर्व
ओर ले जाते हेँ। अनन्तर तुम्हें पश्चिम श्रोर ले जाया जाता हु। |
५, अस्ति| तुम इईप्सित-फल-दाता और पुष्टिकारक हो ।
प्रश-पान्त उठाने के समय यजमान तुम्हारा यश गाता हुँ। जो यजमान
` तुम्हें वषट्कार से युक्त आहुति प्रदान करता है, हे एकमात्र अदाता
अग्नि ¦ उसे तुम पहले और पीछे समस्त लोक को प्रकाश देते हो।
६ विशिष्ट-ज्ञान-शाली अग्नि | तुम कुसार्य-्ासी पुरुष को
उसके उद्धार-पोग्य कार्य में नियुक्त करो। युद्ध के चारों ओर विस्तृत
हिन्दी-ऋष्बेद २७
और अच्छी तरह प्रारम्भ होने पर तुम अल्प-संख्यक और वीरता-
विहीन पुरुषों के द्वारा बड़े-बड़े बीरों का भी वघ करते हो।
७. अग्नि ! तुम अपने उस सेवक मनुष्य को, अनुदिन अन्न के
लिए, उत्कृष्ठ और अमरपद पर प्रतिष्ठित करते हो। जो स्वर्ग-लोक
और जन्मान्तर की प्राप्ति या उभय-रूप जन्म के लिए अतीव पिपासु
है, उस ज्ञानी यजमान को सुख और अञ्न दो।
८. अग्नि ! हम धन-लाभ के लिए तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम
यशस्वी और यज्ञकर्ता पुत्रदान करो । नये पुत्र के द्वारा यज्ञ-कर्म की
हम बृद्धि करेंगे। हे द्यू और पृथिवी ! देवों के साथ हमें सुचारु-रूप से
बचाओ।
९. निर्दोष अग्निदेव ! तुम सब देवों में जागरूक हो। अपने
पितृ-मातृ-रूप द्यावा-पृथिवी के पास रहकर और हमें पुत्र-दान करके
अनुग्रह करो। यज्ञ-कर्ता के प्रति प्रसन्न-बुद्धि बनो। कल्याण-वाही
अग्नि ! तुस यजसान के लिए संसार का सब तरह का अजद्नप्रदान करो ।
१०. अग्नि ! तुम हमारे लिए प्रसन्न-मति हो; तुस हमारे पितृ-
रूप हो। तुम परमायु के दाता हो; हम तुम्हारे बन्धु हें। हिसारहित
अग्नि ! तुम शोभन पुरुषों से युक्त और व्रत-पालक हो। तुम्हें सैकडों-
हजारों घन प्राप्त हों।
११. अग्नि ! देवों ने पहले पुरुरवा के मानवरूपधारी पोत्र नहुष
का तुम्हें मनुष्य शरीरवान् सेनापति बनाया। साथ ही उन्होंने इला को
मनु की घर्मोपदेशिका भी बनाया था। जिस सभय मेरे पिता अङ्गिरा
ऋषि के पुत्र-रूष से तुमने जन्म ग्रहण किया था।
१२. वन्दनीय अग्नि ! हम धनवान् हुँ। तुम रक्षण-शक्ति-द्वारा
हम लोगों की ओर हमारे पुत्रों की देह की रक्षा करो। हमारा पोत्र
तुम्हारे ब्रत में निरन्तर नियुक्त हुँ । तुम उसकी गोओं की रक्षा करो।
१३. अग्नि ! तुस यजमान-रक्षक हो। यज्ञ को बाधा-शून्य करने
के लिए पास में रहकर यञ्च के चारों ओर दीप्तिमान् हो। तुस अहिसक
३८ हिन्दी-ऋष्वेद
और पोषक हो। तुम्हें जो हव्य दान करता है, उस स्तोत्र-कर्ता के मंत्र
को तुम ध्यान से ग्रहण करते हो॥
१४. अग्नि ! तुम्हारा स्तोता ऋत्विक् जैसे अभिलषित और परम
घन प्राप्त करे, वसी तुम इच्छा करो। संसार कहता हें फि, तुम पालनीय
या दुर्बल यजमान के लिए प्रसन्न-मति पितू-स्वछूघ हो। तुम अत्यन्त
परिज्ञाता हो। अज्ञ यजमान को शिक्षा दो। साथ ही सब दिशाओं का
निर्णय भी कर दो।
१५. अग्नि ! जिस यजमान ने ऋस्विकों फो दक्षिणा दी है,
उसकी तुम सिलाई किये हुए कवच की तरह, अच्छी तरह, रक्षा
करो। जो यजमान सुस्वादु अच्च-द्वारा अतिथियों को सुखी करके अपने
घर में जीव-तृप्तिकारी या जीवों-द्वारा विधीयमान यञ्चानुष्ठान करता
है, वह स्वर्गीय उपमा का पात्र होता है।
१६. अग्नि ! हमारे इस यज्ञ-कार्य की आन्ति को क्षमा करो और
बहुत दूर से आकर कुमार्ग में जो पड़ गया है, उसे क्षमा करो।
सोम का यज्ञ करनेवाले मनुष्यों के लिए तुम सरलता से प्राप्य हो, पितु-
तुल्य हो, प्रसन्न-भति और कर्म-निर्वाहक हो। उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दो।
१७. पवित्र अग्निदेव ! हे अद्धिरा! मन्, अङ्गिरा, ययाति और
अन्यान्य पूर्व-पुरुषों को तरह तुम सम्भुखवर्ती होकर यज्ञदेश में गमन करो,
देवों को ले आओ, उन्हें कुशों पर बेठाओ और अभीष्ट हव्यदान करो ॥
१८. अग्नि ! इस संत्र से बृद्धि को प्राप्त हो। अपनी शक्ति और
शान के अनुसार हमने तुम्हारी स्तुति की। इसके द्वारा हमें विशेष
धन दो और हमें अझ-सम्पक्च झोभन बुद्धि प्रदान करो।
२२ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. बद्धधारक इखछ ने पहले जो पराक्रम फा कार्य किया था, उसी
कार्य का हस वर्णन करते हैं। इन्द्र से मेघ का वध किया था। अनन्तर
हिन्दी-ऋण्वेद ३९
उन्होंने वृष्टि की थी। प्रवहमाना पार्वत्य नदियों का मार्ग भिन्न
किया था।
२. इन्द्र ने पर्वत पर आशित झेघ का वध किया था। विश्वकर्मा
या त्वष्टा ने इन्द्र के लिए दुरवेधी वस्त्र का निर्माण किया था। अनन्तर
जिस तरह गाय वेगवती होकर अपने बछड़े की ओर जाती हुँ, उसी
तरह धारावाही जल सवेग समुद्र की ओर गया था ।
३. बेल की तरह वेग के साथ इन्द्र ने सोम ग्रहण किया था। त्रिकद्रक
यज्ञ अर्थात् ज्योतिष्टोम, गोमेध और आयु नामक त्रिविध यज्ञो में चुवाए
हुए सोम का इन्द्र ने पान किया था। धनवान् इन्द्र ने वस्त्र का साथक
ग्रहण किया था ओर उसके हारा अहियों या मेघों के अग्रज को सारा था।
४. जिस समय तुमने मेघों के अग्रज को मारा था, उस समय
तुमने मायावियों की साया का विनाश किया था। अनन्तर सुर्य, उषा
और आकाश का प्रकाश किया। अन्त को तुम्हारा कोई शत्रु नहीं रहा।
५. संसार में आवरण या अन्धकार करनेवाले वुत्र को महाध्वंसकारी
वस्र-हारा, छिन्न-बाहु करके विनष्ट किया था। कुठार से काटे हुए वृक्ष-
स्कन्ध की तरह अहि या वृत्र पृथिवी पर पड़ा हुआ है।
६. दर्पान्ध वृत्र ने पृथिवी पर अपने समान योद्धा न समझकर
महावीर, बहुध्वंसक और इत्रुञ्जय इन्द्र का युद्ध में आह्वान किया
था। इन्द्र के विनाश-कार्य से वृत्र श्राण नहीं पा सका। इन्द्र-शञ्चु वृत्र
ने नदी में शिरकर नदियों को भी पीस दिया।
७. हाथ और पैर से रहित वृत्र ने युद्ध में इन्र को बुलाया था।
इन्द्र ने गिरि-सानु-लुल्य प्रौढ स्कन्ध में वस्त मारा था। जिस प्रकार |
वीर्य-हीन मनुष्य पौरुषशाली सनुष्य की समानता करने का व्यर्थ यतन
करता हें, उसी प्रकार वृत्र ने भी वथा यत्न किया। अनेक स्थानों सें
क्षत-विक्षत होकर वृत्र पृथिवी पर गिर पड़ा।
८, जिस तरह भग्न तटों को लाँघकर नद बहता है, उसी तरह
मनोहर जल पतित यत्न की देह को अतिक्रम करके जा रहा है।
४० हिन्दी-ऋणग्नेद
जीवितावस्था में अपनी महिमा-द्वारा बुत्र ने जिस जल को बद्ध कर रक्खा
था, इस समय वृत्र उसी जल के पद-देश के नीचे सो गया।
९. बृत्र की माता वुत्र की रक्षा के लिए उसकी देह पर टेढ़ी गिरी
थी; परन्तु उस समय इन्द्र ने उसके नीचे के भाग पर अस्त्र-प्रहार किया।
तब माता ऊपर और पुत्र नीचे हो रहा। अनन्तर बछड़े के साथ गाय
की तरह वृत्र की माता उन्” अनन्त निद्रा में सो गई।
१०. स्थिति-शून्य, विश्ञाम-रहित, जलमध्य-विहित ओर नास-विरहित
शरीर के ऊपर से जल बहुता चला जा रहा हैँ और इन्र-प्रोही बुत्र अनन्त
निद्रा में पड़ा हुआ हैं। |
११. पणि नामक असुर-द्वारा जेसे गाये गुप्त थीं, उसी तरह वृत्र
को स्त्रियाँ भी मेघ-द्वारा रहित होकर निरुद्ध थीं। जल का वाहक द्वार
भी बन्द था। वृत्र का वघ कर इन््र ने उस द्वार को खोला था।
१२. इन्द्र ! जब उस एक देव वुत्र ने तुम्हारे बस्त्र के ऊपर आघात
किया था, तब तुमने घोड़े की पूँछ की तरह होकर उसका निवारण
कर दिया था। सुमने पणि की छिपाई गाय को भी जीत रिया या,
स्वष्टा के सोभरस को जीता था ओर सप्त सिन्धुओं या नदियों
के प्रबाह को अप्रतिहत किया था। |
१३. जिस समय इन्द्र और वृत्र में युद्ध हुआ था उस समय वुत्र ने
जिस बिजली, मेघ-ध्वनि, जल-वृष्टि और वप्त्र का इन्द्र के प्रति प्रयोग
किया था, वह सब इन्द्र को नहीं छ सके। साथ ही इन्द्र ने वृत्र की
अन्य मायामें भी जीत ली थीं।
१४. इन्द्र ! युत्र-हनन के समय जब तुम्हारे हृदय में भय नहीं
हुआ था, तब तुमने किसी अन्य वृत्र-हन्ता की क्या प्रतीक्षा की थी या
सहायक खोजा था? निर्भीक शेन पक्षी की तरह तुम निन्यानवे
नदियाँ और जल पार गये थे।
१५. शत्रु-विनाश के अनन्तर व्त्रबाहु इन्र स्थावरों, जंगमों, शान्त
पशुओं ओर शूज्भी पशुओं के राजा हुए थे। इन्द्र मनुष्यों में राजा होकर
हिन्दी-त्रटग्वेद ४१
निवास कर रहे हैँ। जिस प्रकार चक्र-नेसि अराशओों को धारण करती
है, उसी प्रकार इन्द्र ने भी अपने बीच सबको धारण किया था।
द्वितीय अध्याय समाप्त ।
२३ सूक्त
(तीसरा अध्याय ७ अनुवाक । (आवृत्त) देवता इन्द्र । छुन्द्
त्रिष्ठुप्)
१, आओ, हम गाय पाने की इच्छा से इन्च्र के पास चलें। इन्द्र
हिसा-रहित हैं और हमारी प्रकृष्ट बुद्धि का परिवर्द्धन करते हैं। अन्त
को बह इस गोस्वरूप धन के विषय में हमें उच्च ज्ञान प्रदान करते हैं॥
२. जिस प्रकार इयेन पक्षी अपने पु्वे-सेवित नीड़ की तरफ़ दौड़ता
हैँ, उसी प्रकार में भी उपमानस्थानीय स्तोत्रों से, पुजन करके धनदाता
और अप्रतिहत इख्र की ओर दोड़ता हं। यद्ध-वेला में इन्द्र स्तोताओं
के आराध्य हें।
३. समस्त सेनापति पीठ पर धनुष लगाये हुए हैं। स्वामि-
स्वरूप इन्द्र जिसे चाहते हु, उसके पास गाय भेज देते हं। उच्चबद्धि-
शाली इन्द्र | हमं भरपुर धन देकर हमारे पास व्यापारी नहीं बनना
अर्थात्. हमसे गाय का मूल्य नहीं माँगना ।
४. इन्द्र ! शक्तिशाली मरुतों से संयुक्त रहकर भी तुमने अकेले ही
धनवान् और चोर वृत्र का कठिन वज्ञ-द्वारा वध किया था। यज्ञ-शत्रु
वृत्रानुचरों ने तुम्हारे धनुष से विनाश का उद्देश्य करके पहुँचकर मृत्यु
प्राप्त की।
५. इन्द्र ! वे यज्ञ-रहित और यज्ञ का अनुष्ठान करनेवालों के विरोधी.
सिर घुमाकर भाग गये हुँ। हे हरि नाम के घोड़ोंवाले, पलायन-विरहित
और उग्र इन्द्र ! तुमने दिव्य लोक, आकाश और पृथिवी से ब्रत-विरहित
लोगों को उठा दिया हें।
डश हिन्दी-क्रग्वेद
६. उन्होंने निर्दोष इन्द्र की सेना के साथ युद्ध करने की इच्छा
की थी। चरित्रवान् मनुष्यों ने इन्द्र को प्रोत्साहित किया था। शूरों
के साथ जिस प्रकार युद्ध ठानकर नपुंसक भाग जाते हैं, उसी प्रकार
वे भी इच्ध-हारा निराकृत होकर और अपनी शब्तिहीनता समझकर
इन्द्र के पास से सहज-मागे से दूर भाग गये।
७. इन्द्र तुमने हास्यासक्तों को अन्तरिक्ष में युद्ध-दान किया है।
दस्यु वृत्र को दिव्य लोक से लाकर अच्छी तरह दग्ध किया है। इसी
प्रकार सोम तैयार करनेवालों और स्तोताओं की स्तुति-रक्षा की है ।
८. उन वृन्नानुचरों ने पृथिवी को आच्छादन कर डाला था;
और, सुवर्ण और मणियों से भी चे सम्पन्न हुए थे। परन्तु बे
इन्द्र को नहीं जीत सके। इद्र ने उन विध्यकर्ताओं को सुर्य-द्वारा
तिरोहित कर डाला था। | म
९. इन्द्र! चूँकि तुमने महिमा-हारा शुलोक और भूलोक को
सम्पूर्ण रूप से वेष्टन करके सारा भोग किया हैँ; इसलिए तुमने
मन्तार्थ-ग्रहण करने में असमर्थ यजमानों की भी रक्षा करने में
समर्थ मन्त्रों-हारा वृत्र-रूप चोर को निःसारित किया था।
१०. जब कि, दिव्य लोक से जल पृथिवी पर नहीं प्राप्त हुआ और
धन-प्रद भूमि को उपकारी द्रव्य-ह्वारा पुर्ण नहीं किया, तब वर्षाकारी
इन्द्र ने अपने हाथों में वजा उठाया और यृतिमान् वच्च-द्वारा अन्धकार-
रूप मेघ से पतन-शील जल का पुर्णशप से दोहन कर लिया।
११. प्रकृति के अनुसार जल बहने लगा; किन्तु वृत्र नौकागम्य
नदियों के बीच में बढ़ा। तब इन्द्र ने महाबलशाली और प्राण-संहारी
आयुध-द्वारा कुछ ही दिनों में स्थिर-सना वुत्र का वध किया था॥
१२. भूमि पर सोये हुए वृत्र की सेना को इन्द्र ने विद्ध किया था
ओर शुंगी तथा जगच्छोषक वृत्र को विविध प्रकार से ताइना दी थी॥
इन्द्र ! तुम्हारे पास जितना वेग और बल है, उससे युद्धाकाङक्षी
शत्रु को वच्त्र-द्वारा हनन किया था।
हिन्दी-ऋण्वेद ४३ `
१३. इन्द्र का कार्य-प्ताधक वच्च शत्रु को लक्ष्य कर गिरा था।
इन्द्र ने तीक्ष्ण और श्रेष्ठ आयुध-ट्वारा वृत्र के नगरों को विविध प्रकार
ते भिन्न किया था । अन्त को इन्द्र ने वृत्र पर वज्ा-द्वारा आघात
किया था और उसे मारकर भली भाँति अपना उत्साह
बढ़ाया था ।
१४. इन्द्र ! लुम जिस कुत्स की स्तुति को चाहते हो, उसी कुत्स
की तुमने रक्षा की थो। तुमने युद्ध-रत, श्रेष्ठ और दसौं दिशाओं में
दीप्तिमान् दशद्य॒ की रक्षा की थो । तुम्हारे घोडौं के सुभों से पतित
धूति चुलोक तक फेल गई थी। शत्रु भय से जल में मग्न होकर भी
इवेत्रेय ऋषि, मनुष्यों में अग्रणी होने की अभिलाषा से, आपके अनुग्रह
से बाहर निकल आये थे।
१५. इन्द्र ! सौम्य, श्रेष्ठ और जल-मग्न दवेत्रेय को क्षेत्र-प्राप्ति
के लिए तुसने बचाया था। जो हमारे साथ बहुत समय से युद्ध कर
रहे हुँ, उन इात्रुताकाङ क्षी लोगों को तुम वेदना ओर दुःख दो ॥
३४ सूक्त
(देवता अशश््विद्वय )
१. हे मेवाबी अझ्विनीकुमारद्वय ! हमारे लिए तुम आज तीन
बार आओ। तुम्हारा रथ ओर दान बहुव्यापी हु। जिस प्रकार
रश्मियुक्त दिन और हिसयुक्त रात्रि का परस्पर नियम-रूप सम्बन्ध
हुँ, उसी प्रकार तुम दोनों के बीच भी सम्बन्ध हुँ। अनुग्रह करके
तुम मेधावी ऋत्विकों के वशवर्ती हो जाओ।
२. तुम्हारे मधुर-खाद्य-वाहुक रथ में तीन दृढ़ चक हैं; उन्हें सभी
देवों ने चन्द्रमा को रमणीय पत्नी वेना के साथ विवाह-यात्रा
करने के समय जाना। उस रथ के ऊपर, अवलम्बन के लिए, तीन
खम्भे हे । अश्विय ! उसी रथ से दिन में तीन बार और रात्रि
सें भी तीन बार गमम करो। |
४४ | हिन्दी-ऋग्वेद
३. अध्विहय ! तुम एक दिन में तीन बार यज्ञानुष्ठान का दोष
शुद्ध करो। आज तीन बार मधुर रस से यज्ञ का हृव्य सिक्त करो।
रात और दिन में तीन बार पुष्टिकर अज्न-हारा हमारा भरण करो।
४, अहिवद्वय ! हमारे घर में तीन बार आओ। हमारे अनुकूल
व्यापार में लगे मनुष्य के पास तीन बार आओ। रक्षा करने योग्य
मनुष्य के पास तीन बार आओ। हमें तीन प्रकार शिक्षा दो। हमें तीन
बार आनन्द-जतक फल प्रदान करो। जसे इन्द्र जल देते हैं, उसी
प्रकार हमें तीन बार अन्न दो । |
५. अदिवद्वय ! हमें तीन बार घन दो। देव-्युक्त कर्मा-
नुष्ठान में तीन बार आओ। हमारी बुद्धि-रक्षा तीन बार करो।
हमारा तीन बार सोभाग्य-सम्पादन करो। हमें तीन बार अन्न दो।
तुम्हारे त्रिचक्र रथ पर सूर्य की पुत्री चढ़ी हुई है।
६. अशिवद्वय! दिव्य लोक की औषध हमें तीन बार दो।
पाथिव औषध तीन बार दो। अन्तरिक्ष से तीन बार औषधप्रदान
करो। बृहस्पति के पुत्र शंय् की तरह हमारी सन्तान को सुख-दान
करो । शोभनीय-औषध-रक्षक ! तुम वात, पित्त, श्लेष्मा आदि
आदि तीन धातु-सम्बन्धी सुख दो।
७. अध्विद्यय ! तुम हमारे पूजनीय हो। प्रतिदिन तीन बार
पृथिवी पर आगमन करके तीन कक्षा-युत कुशों पर शयन करो।
हे नासत्यरयिद्ठय ! जिस प्रकार आत्म-रूप वायु शरीरों में आती हैं,
उसी प्रकार तुम घी, पशु और वेदी नाम के तीन यज्ञस्थानों में
आगमन करो!
८: अद्विद्य ! सिन्धु आदि नदियों के सप्त मातृ-जल-हारा
तीन सोमाभिषव प्रस्तुत हुए हें। तीन कलस और हव्य भी तैयार हें।
तुमने तीनों संसारों से ऊपर जाकर दिवा-रात्रि-संयुक्त आकाश के
सुयं की रक्षा की थी।
हिन्दी-ऋग्वेद ४५
९, हे नासत्य-अश्विद्यय ! तुम्हारे त्रिकोण रथ के तीन चक्र कहां
हैं? बन्धनाधार-भूत नीड़ या रथ के उपवेशन-स्थान के तीनों काठ
कहां है कब बलवान् गर्देभ तुम्हारे रथ में जोते जाते है, जिनके
द्वारा हमारे यज्ञ मं आते हो।
१०. हे नासत्य-अदिवद्वय ! आओ । हुव्य देता हूँ। अपने मधुपायी
भुख-द्वारा मधुर हव्य पान करो । उषा-समय से पहले ही सूर्य ने
तुम्हारे विचित्र ओर घृतवत् रथ को यज्ञ में आने के लिए प्रेरित
किया ह्।
११. है चासत्य-अश्विद्वय ! तेतीस देवताओं के साथ मधुपान के
लिए यहाँ आओ । हमारी आयु को बढ़ाओ। पाप का खण्डन करो।
विद्वेषियों को रोको। हमारे साथ रहो ।
१२. अश्विकुमारद्रय ! त्रिकोण या त्रिलोक में चलनेवाले रथ
हारा हमारे पास पुत्र-भृत्यादि-संयुक्त धन लाओ। अपनी रक्षा के
लिए हम तुम्हारा आह्वान करते हुं । लुम सुनो; हमारी वुद्धि करो
और संग्राम में बल-दान करो। | है,
३५ सूक्त
(देवता सविता, छन्द जगती) क्
१. अपनी रक्षा के लिए पहले अग्नि का आह्वान करता हूँ।
रक्षा के लिए मित्र ओर वरुण को इस स्थान पर बुलाता हूँ। संसार
का विध्ाम-कारण रात्रि को में बुलाता हूँ । रक्षा के लिए .सविता
देवता को बुळाता हूँ। १
२. अन्धकार-पुर्ण अन्तरिक्ष से बार-बार भ्रमण फर देव और
सनुष्य को सचेतन करके सविता देवता सोने के रथ से समस्त भुवनों
को देखते-देखते भ्रमण करते हे।
३. देव सविता उदय से मध्याह्व तक उद्धंगासी पथ से और मध्याद्न
पं सायं तक अधोगासी पथ देकर गमन करते हैं। बह पूजनीय सूर्यदेव
४६ हिन्दी-ऋण्वेद
दो श्वेत घोड़ों हारा गमन करते हैं ॥ समस्त पापों का विनाश
करते-करते दूर देश से आते हेँ।
४. पुजनीय और विचित्र किरणोंवाले सविता देवता भुवनों के
अन्धकार के विनाश के लिए तेज धारण करके पास के सुवरज-विर्चित्रित
और सोने की रस्तियो से युक्त विशाल रथ पर सवार हुए।
५. इवेत पैरोंवाले शयाव नाम के घोड़े सुवर्ण युग या सोने की |
रस्सियोंवाले रथ को लेकर मनुष्यों के पास प्रकाश करते हैत
सुर्येदेव के पास मनुष्य और संसार उपस्थित हूँ ।
६. गुलोक आदि तीन लोक हें। इनमें झुलोक ओर भूछोक--
दो सूर्य के पास हैं। एक अन्तरिक्ष यमराज के गृह में जाने का रास्ता
है। जिस प्रकार रथ कील का ऊपरी भाग अवलम्बन करता है,
उसी प्रकार असर या चन्द्रमा आदि नक्षत्र सुर्य को अवलम्ब किये
हुए हैं। जो सूर्य को जानते हैं; वे इस विषय में बोलें।
७. गंभीर कम्पन से संयुक्त, प्राणदायी सुनयन से संयुक्त किरणें
अन्तरिक्ष आदि तीनों लोकों में व्याप्त हैं। इस समय सूर्य कहाँ हैं;
कौन कह सकता हं ? किस दिव्य लोक में सुर्थ की रश्मि विस्तृत है ?
८. सुर्यं ने पृथिवी की आठौं दिशाय प्रकाशित की हैं। प्राणियों
के तीनों संसार और सप्त सिन्धु भी प्रकाशित किये हैं। सोने की
आँखोंबाले सबिता हव्यदाता यजसान के। वरणीय द्रव्यदान देकर यहाँ
आवें ।
९. सुचर्ण-पाणि और विविध दर्शन से युक्त सविता दोनों लोकों
में गमन करते हैं, रोगादि का निराकरण करते हैं, उदय होते हुँ
और तसोत्ताहक तेज-द्वारा आकाश को व्याप्त करते हैं।
१०. सुवर्ण-हस्त, प्राणदाता, सुनेता, हर्षदाता और धनदाता
सविता अभिमुख होकर आवं। वे देव, राक्षसों और यातुधावों का
निराकरण करके प्रतिरात्रि स्तुति प्राप्त कर अवस्थित हुँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४७
११. सविता देव! तुम्हारा मार्ग पुर्वे-निश्चित, धूलि-रहित और
अन्तरिक्ष में सुनिभित है । बैसे ही मार्गों से आकर आज हमारी
रक्षा करो। देव ! हमारी बातें देवों के पास प्रकाश कीजिए ॥
३६ शुक्त
(ऽ अनुवाक । देवता अग्नि । यहाँ से ४३ वे सूक्त तक के ऋषि
घोर के पुत्र कण्व)
१, तुम लोग बहु-संख्यक प्रजा हो; तुम लोग देवता की कामना
करते हो; तुस लोगों के लिए, सुक्त-वाक्य-द्वार) महान् अग्नि की हम
प्रार्थना करते हैं। अन्य ऋषि लोग भी उन्हीं अग्नि की स्तुति करते हें॥
२, अनुष्ठाता लोगों ने बल-वर्द्धन-कारी अग्नि को धारण किया
था। अग्निदेव ! हस हव्य लेकर तुम्हारी परिचर्या करते हूं। तुम अन्न«
दान में तत्पर होकर आज इस अनुष्ठान में हमारे प्रति सुश्रसक्ष होकर
हमारे रक्षक बनो।
३. अग्वि ! तुम देवताओं के होता और सर्वज्ञ हो। हम तुम्हें
वरण करते हँ। तुम महान् और नित्य हो। तुम्हारी दीप्ति विस्तृत
होती हे । तुम्हारी किरण आकाश छती है
४. अग्नि ! तुम प्राचीन दूत हो। वरुण, मित्र ओर अर्यमा तुम्हें
भली भाँति दीप्तिमान् करते हें। जो मनुष्य तुम्हें हविर्वान करता
है, वह तुम्हारी सहायता से समस्त धन विजय करता हे।
५. अग्मि ! तुम हर्षदाता हो। तुम देवों को बुलाओ। तुम
प्रजाओं के गुहपति हो। तुम देवों के दूत हो । सूर्थ, पर्जन्य, पुथिवी
आदि देवता जो सब अमोघ ब्रत करते हैं, वे सब तुमसे सम्मिलित
हो जाते हें।
६. युवक अग्नि! सोभाग्यशाली हो। तुम्हें लक्ष्य करके सब
हव्य दिये जाते हँ। लुम हमारे लिए प्रसञ्च-मना होकर आज ओर
क्ळनुन्सर्वेदा झोअनचीय वीर्य-शाली देवों का अर्चन करो।
४८ हिन्दी-ऋग्वेद
७. यजमान लोग तसस्कार-पुवंक उन स्वयं दीप्तिमान् अग्नि की
इसी प्रकार उपासना करते हुँ। शत्रु को दृढ्तर पराजय करने की
छावाले मनुष्य हेोत्र लोगों के द्वारा अग्नि को प्रदीप्त करते हुँ।
८. देवों ने प्रहार करके बृत्र का हनन किया था। दोनों जगत्
और अन्तरिक्ष को, रहने के लिए, विस्तृत किया था। अग्नि बलशाली
हैं। बे गो-प्राप्त के लिए संग्राम में हिनहिनाते हुए घोड़े की तरह
सर्वतोभाव से आहत होकर कण्व ऋषि के लिए यथेच्छ द्रव्य
दर्ष करं ।
९, प्रशस्त अग्निदेव ! बैठो। तुम बड़े हो; देवों की अतिशय
कामना करो । तुम दीप्ति-पुणै बनो। हे सेधावी और उत्कृष्ट अग्नि !
गमनशील और सुदृश्य धूम उत्पन्न करो ।
१०. हुव्यवाही अग्ति ! तुम अत्यन्त पुजा-पात्र हो। सारे देवों ने,
सन् के लिए, तुम्हें इस यज्ञ-स्थान सें धारण किया था। तुम धन-द्वारा
प्रीति सम्पादन करो। कण्व ने पुजा-पात्र अतिथि के साथ तुम्हें धारण
किया है। वर्षाकारी इन्द्र ने तुम्हें धारण किया हुँ । अन्यान्य स्तुति"
कारकों ने भी तुम्हें धारण किया हे ।
११. पुजाह और अतिथि-प्रिय कण्व ने अग्निको आदित्य से भी
अधिक दीप्तिमान् किया. हे। उन्हीं अग्नि की गति-विशिष्ट किरण
दीप्तिमान् हं । थ ऋचायें उन अग्नि को वाद्धत करती हें; हम भी
परिर्वाद्धित करते हैं ।
१२. हे अन्त-थुकत अस्ति ! हमारे धन की पुति करो। तुम्हारे
द्वारा देवों की मित्रता मिलती हुँ। तुम प्रसिद्ध अन्न के स्वाभी हो।
तुम सहान् हो। हमें सुखी करो।
१३. हमारी रक्षा के लिए सुर्य की तरह उन्नत बनो । उन्नत होकर
अन्नदाता घनो; क्योंकि विलक्षण यज्ञ-सम्पादक लोगों के द्वारा हम
ठुस्हें आह्वाव करते हैं।
हिन्दी-ऋणग्वेद ४९
१४. उन्नत होकर हमें, ज्ञान-दहारा, पाप से बचाओ। सब राक्षसों
को जलाओ। हमें उन्नत करो, जिससे हम संसार में विचरण कर सकें।
इसी प्रकार हमारा हव्य-रूप धन देवों के गृहों में ले जाओ, जिससे हम
जीवित रह सकं।
१५. हे विशाल किरणवाले युवक अग्नि ! हमें राक्षसों से बचाओ ।
धन-दान न करनेवाले धूत्तं से हमारी रक्षा करो । हिंसक पश से
हमारी रक्षा करो। हननेच्छ शत्रु से हमारी रक्षा करो ।
१६. हे उत्तप्त किरणचाले अग्निदेव ! जिस तरह हस लोग
कड़े दण्ड-हारा भाँड आदि नष्ट करते हैं, उसी तरह धन-दान न
करनेवालों का सदा संहार करो ।
१७. सुशोभन बीर्य के लिए अग्नि की याचना की जाती हैं । अग्नि
ने कण्व को सौभाग्य-दान किया । अग्नि ने हमारे मित्रों की रक्षा
की। अग्नि ने पुजए-पात्र ओर अतिथि-संयुक्त ऋषि की रक्षा की।
इसी प्रकार धनादि दान के लिए जिस-किसी ने अग्नि की स्तुति की, उसकी
अग्नि ने रक्षा को ।
१८. चोरों का दमन करनेवाले अग्नि के साथ तुर्वश, यद् और
उग्रादेव को दुर देश से हम बुलात हुँ । वह अग्नि , नवास्त्व, बहद्रथ
और तुर्वीति को इस स्थान पर बुलाव। |
१९. अग्नि ! तुम ज्योतिःस्वरूप हो। मन् ने विविध जातियों के
मनुष्यों के लिए तुम्हें स्थापित किया था। अग्निदेव ! तुम यज्ञ के
लिए उत्पन्न होकर ओर ह॒व्य-हारा तृप्त होकर कण्व के प्रति प्रकाश-
मान हुए हो। मनुष्य तुम्हें नमस्कार करते हें।
२०. अग्नि की शिखा प्रदीप्त, बलवती और भयंकर हुँ। उसका
विनाश नहीं किया जा सकता। अग्निदेव ! राक्षसों, यातुधानों और
विइवभक्षक शत्रुओं का दहन करो।
फा ४
५० हिन्दी-त्रहग्बेद
३७ सूक्त
(देवता मरुद्गण)
१. हे कण्व-गोजोत्पन्न ऋषिगण ! क्रीड़ासक्त और शज्रुशन्य सस्तो
को उद्देश्य करके गाओ। वे रथ पर सुशोभित होते हैं।
२. उन्होंने अपनी दीप्ति से सम्पन्न होकर बिन्दु-चिह्व-संयुक्त
मृगरूप वाहन के साथ तथा युद्ध-पर्जन, आयुध और चावा रूप अळङड्कारों
के साथ जन्म ग्रहण किया हैं।
३. उनके हाथों में रहनेवाली चाबुक जो शब्द कर रही है,
वह् हम सुन रहे हैं। वह चाबुक युद्ध में बल-वृद्धि करती हुँ।
४. जो तुम्हारे बल का समर्थन करते, शत्रु-दमन करते ओर जो दीप्य-
मान कीरति से पुर्ण ओर बलवान् हैं, हवि के उद्देश्य से उन्हीं सरुतों की
स्तुति करो। |
५. जो मरुद्गण पूदित-रूप या दुग्धदात्री-रूप घेनुओं के बीच स्थित
हैं, उनके अविनाशी, ऋड़ा-परायण और सहन-शील तेज की प्रशंसा
करो। दूध के आस्वादन में दही तेज परिवर्दधित हुआ है।
६. झूलोक और भूलोक में कम्पन करनेवाले नेतृ-स्थानीय मरुतो,
तुममें कोन बडा हे ? तुभ वृक्षात्र की तरह चारों दिशाओं को
परिचालित करो ।
७. सरुद्यण ! तुम्हारी कठोर और भयंकर गति के डर से भनुष्यों
ने घरों में सुदृढ़ खम्भे खड़े किये हे; क्योंकि तुम्हारी गति से अनेक
भ्यु द्ग-युक्तं पर्वत भी चालित हो जाते हैं ।
८, सरुतों की गति से सारे पदार्थ फेके जाने लगं। पृथिवी भी
बूढ़े और जीर्ण राजा की तरह कम्पित हो जाती है।
९. सरुतों का उद्भव-स्थान आकाश अविकम्प रहता है ॥ उनके
मातु-हुप आकाश से पक्षी भी निकल सकते हैं; क्योंकि उनका बल
दोनों लोकों में फेलकर सर्वत्र वर्तमान हुँ ।
हिन्दी-ऋणष्वेद ५१
१०. सदद्गण शब्दों के जनयिता हैँ। वे गमन-समय में जल का
विस्तार करते हैं और गायों को हस्बा” शब्द के साथ घुटने भर
अरू में प्रेरण करते हैं।
१, जो बादल प्रसिद्ध, दीघ और छोटे हैं, जो जल-वर्षण नहीं करते
और किसी के द्वारा बध्य नहीं हु; सी मर्त लोग, अपनी गति से
कश्पित करते हुँ ॥
१२. सरुतो ! तुम बलवान् हो; इसलिए आदभियों को अपने-
अयने कार्यो में लगाते हो। मेघों को भी प्रेरित करते हो।
१३. जभी सरुदृणण गमन करते हैं, तभी रास्ते में चारों ओर ध्वनि
करते हैं। उनकी ध्वनि सभी सुन सकते हें।
१४. वेगवान् वाहन के हारा तुरत आओ । मेधावी अमुष्ठात अं
ते तुम्हारी परिचर्या का समारोह किया हुँ। उनके प्रति तृप्त हो।
१५. तुम्हारी तृप्ति के लिए हव्य हे। हम समस्त परमायु जीने
के लिए तुम्हारे सेवक बने हुए हैं।
३८ सूक्त
(देवता सरुदूगण)
१. सरद्गण ! तुम लोग प्रार्थनाप्रिय हो। तुम्हारे लिए कुश
छिन्न हैं। जिस प्रकार पिता पुत्र को हाथों से धारण करता हुँ, उसी
प्रकार क्या हमें भी तुम धारण करोगे ?
२. इस ससय तुम कहाँ हो? कब आओगे ? आकाश से आओ ।
पृथिवी से मत जामा। यजमान लोग, गायों की सरह, तुम्हें कहाँ
बुलाते हैं ?
तुम्हारा तया घन कहाँ है? तुम्हारा सुशोभन प्रव्य कहाँ
है? तुम्हारा समस्त सोभाग्य कहाँ हे ?
ॐ, हे पृद्दिय नासक धेनु-पुत्र ! वद्यपि तुम मनुष्व हो; परन्तु तुम्हारा
स्तोता असर हो।
[षर् हिन्दी-ऋणग्वेद
५. जिस प्रकार घासों के बीच मुग सेवा-रहित नहीं होता, तुण-
भक्षण करता है; उसी प्रकार तुम्हारे स्तोता भी सेवा-शून्य न हों,
जिससे वे यम के पथ नहीं जायें।
३, तितक्रेति या पाप-्देवी अत्यन्त बलशालिनी हे; ओर, उसका
विनाश नहीं किया जा सकता। वह निऋति हमारा वध न करे
ओर हमारी तृष्णा के साथ विलुप्त हो जाय।
७. दीप्तिसान् और बलवान् रुद्रिययण या सरुदूगण सचमुच
मरुभसि में भी वायु-रहित वृष्टि करते हंत
८, प्रसुत स्तनोंवाली धेनु की तरह बिजली गरजती हे। जिस
प्रकार गाय बछड़े की सेवा करती है, उसी प्रकार बिजली भी मरुद्गण
की सेवा करती है। फलतः सरुद्गण ने बृष्टि की। |
९, मरुद्गण जलधारी मेधों-हारा दिन सं भी अन्धकार करते हैं।
पथिवी को भी सींचते हें।
१०. मरुद्गण के गर्जन से सारी पृथिवी के ग्रह आदि चारों ओर
काँपने लगते हैं। मनुष्य भी काँपने लगते हें।
११. मरुतो ! दृढ हस्त-द्वारा विलक्षण कूल से संयुक्त नदी की
भांति अबाध-गति से गसत करो ।
१२. मरुद्गण ! तुम्हारा रथ-चक्ऋ-वलथ या नेमि दृढ़ हो। रथ
ओर घोड़े भी दृढ़ हों। घोड़ों की रज्जु पकड़ने में तुम्हारी अँगुलियाँ
सावधान हों।
१३. हे ऋत्विकृगण ! ब्रह्मणस्पति या मरुद्गण, अग्नि और सुदृद्य
मित्र की प्रार्थना के लिए देवों के स्वरूप-प्रकाशक वाक्यो-द्वारा हमारे
सासने होकर उनकी स्तुति करो।
१४. ऋत्विकृणण ! अपने मुँह से स्तोत्र बनाओ। मेघ की
तरह उस स्तोत्र-इलोक को विस्तृत करो। शास्त्रयोग्य और गायत्री-
छन्द से युक्त सुक्त का पाठ करो।
५३
१५. ऋत्विकों ! दीप्त, स्तुति-योष्य और अर्चना से संयुक्त मरुतों
की वन्दना करो, जिससे वे हमारे इस कार्य में वद्धेनशीर हों ।
३९ सूत्त
(देवता मरुद्गण । छन्द बृहती) |
१. कम्पतकारी सरद्गण ! जब कि, दुर से आलोक की तरह तुम '
अपने तेज को इस स्थान पर विकीणं करले हो, तब तुम किसके यज्ञ-
द्वारा, किसके स्तोत्र-द्वारा, आकृष्ट होते हो? कहाँ किस यजमान
के पास जाते हो?
२. सरुद्गण ! इत्रु-विनाश के लिए तुम्हारे हथियार स्थिर हों।
साथ ही शत्रुओं को रोकने के लिए कठिन हों। तुम्हारा बल प्रार्थना-
पात्र हो। दुराचारी मनुष्यों का बल हमारे पास स्तुति-भाजन न हो।
३. नेतृ-स्थानीय मरतो ! जब स्थिर वस्तु को तुम तोडते हो,
भारी वस्तु को चलाते हो, तब पृथिवी के नव वृक्ष के बीच से और
पहाइ की बगल से तुम जाते हो ।
४. शत्रु-विनाशी मरुद्गण ! झूलोक और पृथिवीलोक में तुम्हारे
शत्रु नहीं हं। रुद्रपृत्र मरुद्गण ! तुम इकट्ठ हो। शत्रुओं के दमन के
लिए तुम्हारा बल शीघ्र विस्तृत हो।
५, सर्द्गण पहाड़ों को विशेष रूप से कंपाते हें। वनस्पतियों को
अलग-अलग कर देते हुँ। देव मरुद्गण ! प्रजागण के साथ तुम
यथेच्छ उन्मत्तों की तरह सब स्थानों को जाते हो।
` ६, तुम बिन्दु-चिल्लित या विविध-वणं विशिष्ट म॒गों को रथ
में जोतते हो। लोहित मृग वाहनत्रीय-मध्यवर्ती होकर रथ वहन करता
हे। पृथिवी ने तुम्हारा आगमन सुना है। मनुष्य डरे हें।
७. रुद्रपुत्र मरुतो ! पुत्र के लिए तुम्हारी रक्षण-शक्ति की हम शीघ्र
प्रार्थना करते हँ। एक समय हमारी रक्षा के लिए तुम्हारा जो रूप
आया था, वही रूप भीउ मेधावी यजमान के पास शीघ आवे।
प् हिन्दी-ऋण्वेद
८. तुम्हारे या किसी अन्य मनुष्य के हारा उत्तेजित होकर जो
कोई शत्रु हमारे सामने आवे, उसका खाद्य और बल अपहृत करो।
अपनी सहायता भी उससे वापस ले लो।
९, मरुद्गण ! तुम सब प्रकार से यज्ञ के भोजन और उत्कृष्ठ
ज्ञान से युक्त हो। तुम कण्ब अथवा यजमान को धारण करो। जिस
प्रकार बिजली वर्षा छाती है, उसी प्रकार तुम भी अपनी समस्त रक्षण-
शक्ति के साथ हमारे पास आओ।
१०. सुशोभन दान से युक्त मरुद्गण ! तुम समस्त तेज को धारण
करो। हे कम्पन-कर्ता मरुतो ! तुम सम्पूर्ण बल धारण करो । ऋषि-
देवी और क्रोध-परायण शत्रु के प्रति, वाण की तरह, अपना कोध
प्रेरण करो ।
४० सूक्त
(दैवता ब्रह्मणस्पति)
१. ब्रह्मणस्पति ! उठो । देव-कासनाकारी हम तुम्हारी याचना
करते हें। शोभन ओर दाता मरुद्गण के पास होकर जाओ। इन्द्र !
तुम साथ में रहकर सोमरस सेवन करो।
२. हे बहुबल-पालक ब्रह्मणस्पति देवता ! शत्रुओं के बीच प्रक्षिप्त
धन के लिए मनुष्य तुम्हारी ही स्तुति करता है । मरुद्गण ! जो
मनुष्य तुम्हारी स्तुति करता हूँ, वह॒ सुशोभन अश्व और वीयं से
युक्त घन पाता हैं।
३. ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति हमारे पास आवें। सत्यदेवी आवें ।
देवता लोग वीर शत्रु को दूर करें। हमें हितकारी और हव्यन्युक्त
यज्ञ में ले जायें । |
४. जो मनुष्य ऋस्विक् के 1 हण-योग्य धन-दान करता है, बह
अक्षय अन्त प्राप्त करता है। उसके लिए हम लोग इला के पासं याचना
हिन्दी-ऋणग्वेद पष्
करते हुँ। इला सुवीरा हूँ। वह शत्रु का हनन करती हैं। उन्हें कोई
नहीं मार सकता ।
५. स्ह्मणस्पति अवश्य ही पवित्र मंत्र का उच्चारण करते हैं।
उस संत्र में इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्थमा देवता अवस्थान करते हैँ ।
“ep
६. देवगण ! सुख के लिए उस हिसा-हेष-शुन्य मंत्र का यज्ञ में
हम उच्चारण करते हैँ। हे नेतृ-गण ! यदि तुम इस वाक्य की इच्छा
करते हो, तो सारे शोभनीय वचन तुम्हारे पास जायेगे ।
७. जो देवों की अभिलाषा करते हैँ, उनके पास शह्याणस्पति को
छोड़कर कोन आवेग? जो यज्ञ के लिए कुश तोडते हे, उनके पास
ब्रह्मणस्पति को छोड़कर कोन आवेगा ? ऋत्विकों के साथ ब्रव्य-दाता
यजमान यज्ञ-भूमि के लिए प्रस्थान कर चुके हैं और अन्तःस्थित बहुधन-
युक्त घर में गसन भी कर चुके हें ।
८. अपने शरीर में ब्रह्मणस्पति बल संचय करें। राजाओं के
साथ वे शत्रु का विनाश करते हे ओर भय के समय वे अपने स्थान
पर रहते हैं। बे वस्त्रधारी हुँ। महाधन के लिए बड़ या छोटे युद्ध में उन्हें
कोई उत्साहित और निरुत्साहित करनेवाला नहीं हँ।
४१ सूक्त
(देवता वरुण आदि । छन्द गायत्री)
१. उत्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न वरुण, मित्र ओर अर्यमा जिसकी रक्षा
करते हुँ, उसे कोई नहीं मार सकता ।
२. वे जिसको अपने हाथ से धन-युक्त करते ओर हिंसक से बचाते
हँ, वह मनुष्य किसी के द्वारा हिसित न होकर वृद्धि पाता हैं ।
३. वरुण आदि राजन्य वैसे मनुष्यों के लिए शत्रुओं का किला
विनष्ट करते हैं; साथ ही शत्रुओं का भी विनाश करते हें । अनन्तर
वेते मनुष्यों का पाप-मोचन भी कर डालते हैं।
५६ हिन्दी-ऋग्वेद
४. आदित्यगण ! तुम्हारे यज्ञ में पहुँचने का मागे सुख-गम्य और
कण्टक-रहित है। इस यज्ञ में तुम्हारे लिए बुरा खाद्य नहीं तैयार होता।
५. नेतृ-स्थानीय आदित्यगण ! जिस यज्ञ में तुम सरळ माग
से आते हो, उस यज्ञ में तुम्हें उपभोग प्राप्त हो ।
६. आदित्यगण ! वह तुम्हारा अनुगृहीत मनुष्य किसी के द्वारा
हिसित न होकर सारा रमणीय धन सामने ही प्राप्त करता है। साथ
ही अयने सदुश आपत्य भी प्राप्त करता है।
७. सखा लोग ! मित्र, अर्यमा और वरुण के महत्त्व के अनुकूल
स्तोत्र किस तरह हम साधित करेंगे ?
८. देवगण ! देवाभिलावी यजमान का जो हनन करता हे और
जो कद वचन बोलता है, उसके विरुद्ध तुम्हारे पास अभियोग नहीं
उपस्थित करता। में धन से तुम्हें तृप्त करता हूँ ।
९. अक्ष, दूत या जूए के खेल सें जो मनुष्य चार कौड़ियाँ अपने
हाथों में रखता हुँ, उस मनुष्य से तब तक लोग डरते हैं, जब तक
वह कौड़ियों को नहीं फेक लेता हैं; उसी प्रकार यजमान दूसरे की निन्दा
नहीं करना चाहता हूँ--डरा करता हूँ।
४२ सूक्त
(देवता पूषा)
१. हे पूषन् ! माये के पार लगा दो । विघ्न के कारण पाप का
विनाश करो। हे मेघ-पुत्र देव! हमारे आगे जाओ ।
२. पूषन् ! यदि कोई आक्रामक, अपहर्ता और दुष्ट हमें उलटा
सागं दिखा दे, तो उसे उचित मागे से दूर हटा दो।
३. उस सार्ग-प्रतिबन्धक, चोर और कपटी को माये से दूर अया दो।
४. जो कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष--दोनों प्रकार से हरण करता
और अनिष्ट-साधन करता है; हे देव! उसकी पर-पीड़क देह को
अपने पेरों से रोंद डालो ॥
हिन्दी-त्ग्बेद ५७
५. अरि-सर्दन और ज्ञानी-पूषन् ! तुमने जिस रक्षाशक्ति से
पितरों को उत्साहित किया था, तुम्हारी उसी रक्षा-शक्तित के लिए हम
प्रार्थना करते हैं।
६. सर्व-सम्पतृशाली और दिविध-स्दर्णास्कऋ्-संशुक्द पृषन् ! हमारी
प्रार्थना के अनन्तर हमारे निमित्त धन-समूह दान में परिणत करो।
७. बाधक शत्रुओं का अतिक्रम करके हमें ले जाओ । सुख-गम्य
और सुन्दर मार्ग से हमें ले जाओ । पूषन् ! तुम इस मागे में हमारी
रक्षा का उपाय करो। |
८. सुन्दर और तृण-युक्त देश में हमें ले जाओ। रास्ते में नया
सन्ताप न होने पावे। पूषन् ! तुम इस मागे में हमारी रक्षा का
उपाय करो।
९. हमारे ऊपर अनुग्रह करो । हमारा घर धन-धान्य से पूर्ण
करो। अन्य अभीष्ट वस्तु भी हमें दान करो। हमें उग्रतेजा करो ॥
हमारी उदर-पूत्ति करो । पूषन् ! तुम इस मागे से हमारी रक्षा का
उपाय करो ।
१०. हँस पूषा की निन्दा नहीं कर सकते; उनकी स्तुति करते हुं॥
हम दर्शनीय पूषा के पास धन की याचना करते हुँ॥
७३ सूक्त
(देवता रूद्र आदि)
१. उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, अभीष्ट-वर्षी और अत्यन्त महान् र्र
हमारे हृदय में अवस्थान करते हैं। कब हम उनको लक्ष्य करके सुखकर
पाठ करेंगे ?
२. जसे व जिस प्रकार भूमि-देवता हमारे लिए, पशु के लिए,
भनुष्प के लिए, गाषों के लिए और हमारे अपत्य के लिए रुद्र-सम्बन्धी
औषध प्रदान करें ।
५८ हिन्दी-क्रग्वेद
३. मित्र, वरुण, रुद्र और समान-प्रीतियुक्त सब देवता हमारे
ऊपर अनुग्रह कर। |
४. इद्र स्तुति-रक्षक, यज्ञ-्पालक और उदक-रूप औषध से युक्त
हुँ। उनके पास हम बृहस्पति-पुत्र शंयु की तरह सुख की याचना
करते हूँ।
५. जो रुद्र सुर्यं की तरह दीप्तिसान् ओर सोने की तरह उज्ज्वल
हुँ, दे देवों के बीच श्रेष्ठ और अधिवास-कारण हैं!
६. हमारे घोड़े, मेष, मेषी, पुरुष, स्त्री और गो-जाति के लिए
देवता सुगम्य सुख प्रदान करें ।
७. सोम, हमें प्रचुर परिमाण सें, सौ अनुष्यों का धन दान
करो। साथ ही महान् और यथेष्ट बल से युक्त अञ्च भी दान करो ।
८. सोमदेव के प्रतिबाधक और शत्रुगण हमारी हिसा न करें।
सोमदेव हमें अन्न दान करो ।
९. सोम! तुम असर और उत्तम स्थान प्राप्त किये हुए हो।
घुम शिरःस्थानीय होकर यज्ञ-गृह में अपनी प्रजा की कामना करो।
वह् प्रजा तुम्हें विभूषित करती हे, तुम उसे जानो ।
8४ सूक्त
(९ अनुवाक । अग्नि प्रभृति देवता हैं। यहाँ से ५० सूक्त। तक के
कण्व के पुत्र प्रसकण्व ऋषि हैं । छन्द बृहती )
१. अग्निदव ! तुम असर और सर्व-भूतञ्ञ हो। तुम उषा के
पास से हविर्दाच शील यजमान के लिए नानाविध और निवास-युक्त
घन छा दो। आज उषाका में जाग्रत देवों को ले आना।
२. अग्नि ! तुम देवों के सेवित हूत हो । हव्य वहन करो ।
तुम यज्ञ को रथ की तरह वहन करनेवाले हो । तुम अश्विनीकुमारों
और उषा के साथ शोभनीय, वीर्य-युक्त और प्रभूत धन हमें
दान करो।
हिन्दी-ऋग्वेद ५९,
३. अग्नि दूत निवासहेतु, विविध-प्रिय, धूम-झूप ध्वजा से युक्त,
प्रख्यात ज्योति के द्वारा अलंकृत और उषाकाल में यजमानो का यज्ञ
सेवन करनेवाले हैँ। उन्हीं अग्नि को आज हम वरण करते हैं।
४, अग्नि श्रेष्ठ, अतिशय युवक, सदा गति-विशिष्ट, सबके द्वारा
आहुत, हव्य-दाता के प्रति प्रसन्न और सर्व-भूतज्ञ हैं। उषाकाल में
देवगणाभिमुख जाने के लिए में उनकी स्तुति करता हूँ
५, है असर, विइव-रक्षक, हुव्यवाही और यज्ञा अग्निदेव, तुम
विश्व के त्राण-कर्ता, सरण-रहित और यज्ञ-निर्बाहक हो, में तुम्हारी
स्तुति करूंगा ।
६. युवक अग्नि ! तुम स्तोता के स्तुतिपात्र हो ओर तुम्हारी
शिखा अन्नदायिनी हँ । तुम आहूत होकर हमारे अभिप्राय को उपलब्ध
करो। प्रस्कण्व जीवित रहे; इसलिए उसकी आयु बढ़ा दो। उस देव-
भक्त जन का सम्मान करो।
७. तुम होमनिष्पादक और सर्वज्ञ हो। तुम्हें संसार दीप्तिमान्
कहता है। अग्निदेव ! तुझ बहुतों के द्वारा आहूत हो। उत्कृष्ट ज्ञान से
युक्त देवों को शीश्र इस यल्ञ में ले आओ। _ ॒
८. शोभन यज्ञ से युक्त अग्नि ! रात्रि के प्रभात में सविता, उषा,
अडिवद्वय, भग और अग्नि को ले आओ । हव्यवाही कण्व लोग
सोम तैयार करके तुम्हें दीप्तिमान् करते हैं। |
९. अग्नि ! तुम लोगों के यज्ञ-पालक और देवों के दुत हो।
उषाकाल में प्रबुद्ध सुर्य-दर्शी देवों को आज सोमपान के लिए ले आओ।
१०. प्रभामान् और धनशाली अग्नि! तुम सबके दर्शनीय हो ।
तुम पूर्वगामिनी उषा के बाद दीप्त हो। तुम ग्रामों के पालक, यज्ञों
के पुरोहित और वेदी के पूर्वेदिशास्थित मनुष्य हो।
११. अग्निदेव ! तुम यज्ञ के साधन, देवों के आह्वानकारी
ऋत्विक्, प्रक्ष्ट ज्ञान से युक्त, शत्रुओं के आयुनाशक, देवों के दूत और
अमर हो। हस मनु की तरह तुम्हें यज्ञस्थान में स्थापन करते हें।
€ हिन्दी-ऋष्वेद
“३३. मित्रों के पूजक अग्नि! जब किं, यज्ञ के पुरोहित-रूप से
हुम देवों का यज्ञ-कर्म सम्पादित करते हो, तब समुद्र की प्रकृष्ट ध्वनि
से युक्त तरंग की तरह तुम्हारी शिखायें दीप्तिमती रहती हूँ। .
१३. अग्नि ! तुम्हारे श्रवण-्समर्थ कर्ण हमारे वचन सुनें। मित्र,
अर्यमा तथा अन्य जो देवगण प्रातःकाल में या देवयज्ञ में गसन करते
हैं, उन्हीं हव्यवाही सहयामियों के साथ इस यज्ञ को लक्ष्य करके कुश
पर बंठो। :
१४, सरुद्गण दानशील, अग्निजिह्ण और यज्ञवर्धनकारी हुँ। थे
हमारा स्तोत्र सुनें। गुहीतकर्मा वरुण अदिविनीकुमारों और उषा के
साथ सोमपान करं । म
४५ सुक्त
देवता अग्नि । छन्द॒ अनुष्टुप)
१. अग्निदेव ! तुम इस यज्ञ में वस्तुओं, रुद्रों और आदित्यों को
अचित करो। झोभनीय-यज्ञ-युक्त और अन्नदाता अन्य मनुपुत्र देवों
को भी पूजित करो। |
२. अग्नि ! विशिष्ट प्रज्ञावाले देवता हव्यदाता को फल प्रदान
करते हूँ। अग्नि ! तुम्हारे. पास रोहित नाम का अइव हू। तुम स्तुति-
पात्र हो। तुम उन तेतीस देवों को यहाँ ले आओ। |
डे. अग्नि! तुम प्रभूतकर्मा और सर्वभूतज्ञ हो। जेसे तुमने
प्रियमघा, अग्नि, विरूप और अङ्िरा नास के ऋषियों का आह्वान सुवा,
बसे ही प्रस्कण्व का आह्वान सुनो।
` ४. यज्ञों के बीच, विशुद्ध प्रकाश-द्वारा, अग्नि प्रकाशमान होते हैं।
प्रौद़कर्मा प्रियमेधा लोगों ने, अपनी रक्षा के लिए, अग्नि का आह्वान
किया था
५. कण्व के पुत्र, अपनी रक्षा के लिए, जिस स्तुति से तुम्हें बुलाते
हुं, धृताहुत फलदाता अग्नि! वह सब स्तुति तुम सुनो।
हिन्दी-ऋग्वेद ६१
६, अग्निदेव ! तुम यथेष्ठ और विविध प्रकार के अस्नोंवाले हो
तथा बहुत लोगों के प्रिय हो। तुम्हारे दीप्ति-रूप केश . हैँ । मनुष्य
लोग तुम्हें हव्य वहन के लिए बुलाते हैं। |
७० अग्नि ! तुम आह्वानकारी, ऋत्विक् और बहुधनदाता हो ।
तुम्हारे कणे श्रवण-समथे हें। तुम्हारी प्रसिद्धि बहुव्यापक है । सेधावियों
ने यज्ञ सं तुम्हें स्थापित किया हे। |
८, अग्नि ! हव्यदाता के लिए हव्य धारण कर और ' सोमरस
तैयार कर मेधावी ऋत्विक् अन्न के पास तुम्हें बुलाते हँ। तुस महान्
और प्रभाशाली हो। | |
९, अग्नि | तुम काष्ठ-बल-द्वारा घषित होकर उत्पन्न हो । तुम
फलदाता ओर निवास हेतु हो। आज इस स्थान पर प्रातरागमन करने-
वा? देवों और अन्य देवता जनों को, सोसपान के लिए, कुश के ऊपर बुलाओ ॥
१०. अग्नि ! सम्मुखस्थ देवरूप प्राणियों को, अन्य देवों के
साथ, समान आह्वान के द्वारा यजन करो। दानशील देवो, तुम्हारे लिए
यह सोम अभी गत दिवस प्रस्तुत किया गया है। इसे पान करो॥ |
७६ सूक्त.
(देवता अश्विनीकुमारद्वय । छन्द गायत्री)
१. प्रिय उषा इसके पहले नहीं दिखाई दी। यह उषा आकाझ
से अन्धकार दुर करती हुँ। अदिवनीकुमारो ! से तुम्हारी प्रभूत
स्तुति करता हुँ।. |
२. जो दर्शनीय समुद्र-पुत्र देवहय या अध्विदय मनोहर और
घनदाता है ओर जो हमारे यज्ञ करने पर निवासस्थान प्रवात
करते हैं, उनकी में स्तुति करता हूँ। | |
३. अदिविनीकुमारद्य | जिस समय तुम्हारा प्रसित रथ घोड़ों
द्वारा स्वग म॑. चलता हुँ, उस समय हम तुम्हारी स्तुति करते हैं।
६२ | हिन्दी-ऋष्वेद
४. है नेतृस्थानीय अविद्य ! पुरक, पालक, यञ्ञ-दशेक और जल-
शोषक सविता हमारे ह॒व्य-हारा देवों को प्रसक्ष करें ।
५. हे नासत्यह्यय ! हमारी प्रिय स्तुति ग्रहण कर बुढि-परि-चालक
तीव्र सोसरस का पान करो ।
६. अदिवहृय ! जो ज्योतिष्क अन्म अन्धकार का विनाश करके
हमें तृप्ति-प्रदाव करता है, बही अन्न हमें प्रदान करो।
७. अदिविद्ठय ! स्तुति-समुद्र के पार जाने के लिए नौकारूप होकर
आओ। हमारे सामने अपने रथ में अश्व संयोजित करो।
८. तुम्हारा समुद्र के तीर पर आकाश से भी बडा चौकारूप
यान है। पृथिवी पर तुम्हारा रथ है। तुम्हारे यञ्ञ-कर्भ में सोमरस
भी मिला हुआ है।
९. कण्ववंशियो ! ! अध्विद्यय की जिज्ञासा करो । युलोक सै
सु्य-किरणें आती हुँ। दृष्टि के उत्पत्ति-स्थान अन्तरिक्ष में हमारी
निवास-हेतु ज्योति प्रादुर्भूत होती है। अझ्विनीकुसारद्य ! इन स्थानों
में से किंस स्थान पर तुम अपना स्वरूप रखना चाहते हो?
१०. सुषे-रदिमि-द्ारा उवाकाल का आलोक उत्पन्न हुआ है ।
सुर्यं उदित होकर हिरण्य के समान हुए हैं। सूर्य के बीच में जाने
से अग्नि कृष्णवर्ण होकर अपनी शिखा-द्वारा प्रकाश पाये हुए हेँ।
११. रात्रि के पार जाने के निमित्त सुर्य के लिए सुन्दर मार्ग
बना हुआ हैं। सुये की विस्तृत दीप्ति दिखाई दी है।
१२. अझ्विद्वय प्रस्ता के लिए सोम पान करते हैं। स्तोता लोग
बार-बार उनके रक्षण-कार्य की प्रशंसा करते हैं।
१३. सुखद अहिवहय ! पनु की तरह सेवक यजमान के घर में
. तिवास-शील होकर तुम सोमपान और स्तुति-धवण के लिए आओ ।
१४. अदिव्य ! तुस चतुदिकचारी हो। तुम्हारी शोभा का
अनुधावन करके उदा आग्रमव करे। रात्रि सें सम्पादित यज्ञ का हव्य
तुम प्रहण करो ।
हिन्दी-ऋ ग्वेद बेड
१५. अश्विद्वय ! तुम दोनों पान करो। तुम दोनों प्रशस्त रक्षण-
द्वारा हमें सुखदान करो ।
तृतीय अध्याय समाप्त ॥
७७ सूक्त
(चतुर्थ अध्याय देवता अश्विद्दय । छन्द बृहती)
१, है यज्ञवर््धनकारी अधिवद्वय ! यह अतीच मधुर सोम तुम्हारे
लिए अभिषुत हुआ है। यह कल ही तैयार हुआ है। इसे पान करो
और हव्यदाता यजमान को रसणीय धन दान करो ।
२, अधिविहय ! अपने त्रिविध बन्धन-काष्ठों से युक्त, त्रिकोण
या लोकत्रथ में वर्तमान और सुरूप रथ से आओ । कण्वपुत्र या मेधावी
ऋत्विक् लोग तुम्हारे लिए स्तोत्र-पाठ कर रहे हें। उनका सादर
आह्वान सुनो ।
३. यज्चवद्धनकर्ता अश्विद्यय ! अत्यन्त मधुर सोमरस का पान
करो । इसके अनन्तर हे अड्विद्ठय ! आज रथ पर धन लेकर हव्यदाता
यजमान फे पास थमन करो ।. |
४. सर्वज्ञाता अदिव्य | तीन स्थानों में अवस्थित कुश पर स्थित
होकर मधुर रस-हारा यज्ञ सिक्त करो। अध्विद्ृय ! दीप्तिमान्
कण्वपुत्र सोमरस तैयार करके तुम्हारा आह्वान करते हैं ॥
५. अधिवदय ! जिस अभीष्ट रक्षण-कार्य-ह्ारा तुम दोनों ने
कण्व की रक्षा की थी, हे शोअन-कर्स-पालक, उसी कार्य-हारा हमारी
रक्षा करो। हे यज्ञ-बर्द्धक ! सोसपान करो।
६. अश्विनीकुमारद्वय ! तुमने दानशील राजा पुजव॑न-पुत्र
सुदास के लिए लड़ाई में घन को घारण और अन्न को वहन किया
था। उसी प्रकार आकाश से अनेक के वांछनीय धन हमें दान करो॥
७. वासत्यद्वय ! चाहे तुम पास रहो या दूर रहो; सुर्योदय के
समय सुय-किरणों के साथ अपने सुनिमित रथ पर हमारे पास आओ ॥
६४ हिन्दी-ऋग्वेद
८. तुम सदा यज्ञसेवी हो । तुम्हारे सात घोड़े तुम्हें निकट लाकर
सवन-यज्ञ की ओर ले जायें। हे नेतू-स्थाीय अदिवद्य! शुभक्स-
कर्ता और दानशील यजमान को अन्न दान करके तुम कुश पर बैठो।
९. अदिवद्वय ! तुमने जिस रथ पर धन लाकर हव्यदाता को
सदा दान किया है, उसी सूर्य-किरण-्सम्बलित रथ पर मधुर सोस-पाव
के लिए आओ।
१०. हम रक्षा के लिए उक्थ और स्तोत्र-द्वारा अश्विद्य को
अपनी ओर आह्वान करते हूँ। अश्विद्वय ! कण्वपुत्रों या मेधावी
ऋत्विकों के प्रिय सदन में तुमने संदा सोम पान किया हूं।
४८ सूक्त
(देवता उषा). |
१. हे देवपुत्री उषा ! हमें धन देकर प्रभात करो । विसावरी
उषा देवता ! प्रभूत अन्न देकर प्रभात करो। देवी! दानशीला
होकर पशु-रूप-धत प्रदान-पुर्वक प्रभात करो । SE
२. उवा अइव-संबलिता, गोसम्पन्ता और सकलधनदात्री हे।
प्रजा के सुख के लिए उसके पास विविध सम्पत्तियां हैं। उषा!
मुझे सत्यवचन, बल और धनिकों का धन दो। हि
३. उषा पहले प्रभात करती थीं और अब भी प्रभात करती हैं।
जिस प्रकार धनाभिलाषी समुद्र में नाव प्रेरित करते है, जिस प्रकार
उषा के आगमन में रथ तैयार किये जाते हैं, उसी प्रकार उषा रथ-परर-
यित्री हैं । के के
४. उषा, तुम्हारा आगमन होने पर विद्वान् लोग दान की ओर
ध्यान देते हैं; अतिशय मेधावी कण्व ऋषि दानशील मनुष्यों के
प्रख्यात नास उषाकाल में ही लेते हें। |
. ५. उषा घर का काम संभालनेवाली गृहिणी की तरह सबका
पालन करके आती है। बह जंगम प्राणियों की परमायु का ह्लास करती
हिन्वी-क्रस्बैद ६५
है या जंगम प्राणियों की आयु को क्रमशः एक-एक दिन कम
करती हैँ। पेरवाले प्राणियों को चलाती हे और पक्षियों को
इड़ाती ह।
६. तुम सम्यक् चष्टावान् पुरुष को कार्य में लगाती हो । तुम
भिक्षुको को भी प्रेरित करती हो । तुम नीहार-वर्षी हो और अधिक
क्षण नहीं ठहूरतीं। अश्चयुक्त यज्ञसम्पञ्चा उषा ! तुम्हारे आगमन करने
पर उड़नेवाले पक्षी अपने घोंसळे में नहीं रहते ।
७. उषा ने रथ योजित किया हे । यह सोभाग्यशालिनी उषा
दुर से, सुय फे उदयस्थान के ऊपर से या दिव्य-लोक से, सो रथों
द्वारा मनुष्यों के पास आती हैं।
८. उषा के प्रकाश के लिए समस्त प्राणी नमस्कार करते हैं;
क्योंकि य ही सुनत्री ज्योति प्रकाश करती हैं और ये ही धनवती स्वर्ग-
पुत्री या द्युलोक से उत्पन्ना उषादेवी द्रेषियों और झोषणकर्ताओं को दूर
करती हुं । ; |
९. स्वर्गतनया उषा! आह्वादकर ज्योति के साथ प्रकाशित हो,
अनुदिन हमें सौभाग्य दो ओर अन्धकार दूर करो।
` १०, नेत्री उषा ! सारे प्राणियों की इच्छा और जीवन तुम्हारे
मं ही हं; क्योंकि तुम्हीं अन्धकार को दूर करती हो । विभावरी
उषा ! विशाल रथ पर आना । विलक्षण रथ-सम्पत्ता उषा ! हमारा
भाहान सुनो ।
११. उषा ! मनुष्य के पास जो विचित्र अन्न हें, बह तुम ग्रहण
करो ओर जो यज्ञ-निर्वाहृक लोग तुम्हारी स्तुति करते हु, उन सुकृतियों
को हिसा-रहित यज्ञ में छे आओ ।
१२. उषा! अन्तरिक्ष से सोमपान के लिए सब देवों को ले
आओ। उषा! तुम हमें अश्व-गो-युक्त, प्रशंसनीय और वोर्य-सम्पन्न
अन्न प्रदान करो।
की० ५
६६ हिन्दी-ऋष्वेद
१३, जिन उषा की ज्योति शत्रुओं को विनाश करके कल्याण-रूप
में दिखाई देती है, बह हम सबों को वरणीय, सुरूप और सुखद धन
प्रदान करें ।
१४. पुज्य उषा! पहले के ऋषियों ने रक्षण और अन्न के
लिए तुम्हें बुलाया था। तुम धन और दीप्तिशाली तेज से विशिष्ठ
होकर हमारी स्तुति पर सन्तुष्ट हो ।
१५. उषा ! तुसने आज ज्योति से आकाश के दोनों द्ारों
को खोल दिया हुँ; ईंसलिए हमें हिसकों से रहित ओर बिस्तीण गृह
दान करो। साथ ही गो-युक्त अन्न भी दान करो ।
१६. उषा ! हमें प्रभूत और बहु-विध-कूपयुक्त धन ओर गौ
दान करो। पुजनीय उषा ! हमें सब-शत्रुनाशक यश दान करो॥
अन्न-युक्त कियासम्पन्न उषा ! हमें अन्न दान करो।
४९ सूक्त
(देवता उषा । छन्द अनुष्टुप्)
१. उषा ! दीप्यमान आकाश के ऊपर से शोभन पथन-द्वारा
आगसन करो । अरुण-वर्ण गाये सोम-युक्त यजमान के घर में तुम्हें
ले आवे ।
२. उषा ! तुस जिस सुरूप और सुखकर रथ पर अधिष्ठान करती
हो, हे स्वर्गंतनया उषा! उसी से आज हव्यदाता यजमान के
पास आओ ।
३. हे अजुनि या शुश्नवर्णा उषा ! तुम्हारे आगमन के समय
द्विपद, चतुष्पद और पक्ष-युक्त पक्षिण आकाशप्रान्त के उपरि भाग
में गमन करते अर्थात् आकाशसण्डल में अपने-अपने कायं में लगते हें॥
४. उषा ! तुम अन्धकार का बिनाश करके किरणों के हारा जगत्
को प्रकाशित करो । कण्वपुत्रों या मेधावी ऋत्विकों से धन-याचक
होकर स्तोत्र-द्वारा तुम्हारा स्तव किया हुँ ।
६७
(दैवता सूय । छन्द गायत्री और अनुष्टुय्)
१. सुर्य प्रकाशमान हँ और सारे प्राणियों को जानते हँ । सुर्य के
घोड़े उन्हें सारे संसार के दर्शन के लिए ऊपर ले जाते हैं।
२. सारे संसार के प्रकाशक सूर्यं का आगमन होने पर नक्षत्रगण
चोरों को तरह रात्रि के साथ चले जाते हें।
३. दीप्यसान अस्ति की तरहु सूर्यं की सुचक किरणं समूचे जगत्
को एक-एक कर देखती हूँ ॥
४. सूयं ! तुम सहान् मार्ग का असण करो, तुस सारे प्राणियों
के दर्शनीय हो। ज्योति के कारण हो। तुम समूचे दीप्यमान अन्तरिक्ष
में प्रभा का विकाश करते हो ।
५. तुस सरुवूदेवों के सासने उदित हो। मनुष्यों के सामने उदित
हो। समस्त स्वर्गेछोक फे दशन के लिए उदित हो।
६. है संस्कारक और अभिष्टहम्ता तूर्यं ! तुम जिस दीप्ति-द्वारा प्राणियों
फे पालक यनकर जगत् फो देखते हो, हम उसी की प्रार्थना करते हैं।
७. उसी दीप्ति के द्वारा रात्रि के साथ दिवस को उत्पादन और
प्राणियों को अवलोकन करके बिस्तृत अन्तरिक्ष-लोक में सण करते हो।
८. वीप्तिमान् ओर सर्व-अक्ावाक सूर्य | हरित् नाम के सात
घोड़े रथ में तुम्हें ले जाते हें। किरणं ही तुम्हारे केश हें।
९. सुर्य ने रथयाहिका सात घोडियों को रथ में संयोजित किया ।
उन संयोजित घोड़ियों के दवारा सूर्य गमन करले हैं।
१०. अन्धकार के ऊपर उठी हुई ज्योति को देखकर हम सब
देत्रों में प्रकाशशाली सूये के पास जाते हें। सुर्थ ही उत्कृष्ट ज्योति हें।
११. अनुरूप-दीप्ति-युब्त सुर्य ! आज उदित होफर और उन्नत
आकाश में चढ्कर सेरा हुदूरोय था मामसरोग और हरिमाण (हली-
मक)-रोग या शरीर-रोय विष्ट करो ।
६८ 1हन्दी-्ऋणष्वेद
१२. से अपने हरिमाण (हलीमक) रोग को झुक और सारिका
पक्षियों पर न्यस्त करता हूँ। अपना हरिसाण रोग हरिद्रा पर
स्थापित करता हूँ।
१३. यह आदित्य मेरे अनिष्टकारी रोग के विनाशा के लिए
समस्त तेज के साथ उदित हुए हूँ। में उस रोग का विनाश-कर्ता
नहीं, वे ही हैं।
५१ सूक्त
(१० अनुवाक । दैवता इन्द्र वहाँ से ५७ सूक्त तक के ऋषि
अङ्गिरा के पुत्र सब्य हैं । छन्द जगती ओर त्रिष्टुप)
१. जिन्हें लोग बुलाते हें, जो स्तुति-पात्र ओर धन के सागर
हैं, उन्हीं मेष या बलवार इन्द्र को स्तुति-द्वारा प्रसन्न करो । सूर्य-
किरणों को तरह जिनका काम मनुष्यों का हित करना है, उन्हीं क्षमता-
शाली और मेधावी इन्द्र को, धन-सम्भोग के लिए, अजित करो ।
२. इन्द्र का आगमन सुशोभन हुँ । अपने तेज से इन्द्र अन्तरिक्ष
को पुरण करते हैं। वे बली, दर्पहर और शतक्रतु हें। रक्षण और
वर्दधन में तत्पर होकर ऋभुगण या मरुद्गण इन्द्र के सामने आये ओर
उनको सहायता की। उन्होंने उत्साह-वाक्यों-दारा इन्द्र को उत्साहित
किया था।
१ तुसन अङ्गिरा ऋषियों के लिए मेघ से वर्षा कराई थी।
जब असुरों ने अत्रि के ऊपर शतद्वार नास का अस्त्र फेंका था, तब भागने
के लिए तुमने अत्रि को मागं बता दिया था । तुमने विमद ऋषि को
अस्न-युक्त धन दिया था। इसी प्रकार संग्राम में विद्यमान स्तोता को,
अपना वचर चलाकर, बचाया था।
४, इन्द्र | तुसने जल-वाहक मंघ को खोल दिया है और
परंत पर वृत्र आदि असुरों का धन छिपा रक्खा है। इन्द्र ! तुमने हत्यारे
हिन्दी-ऋष्वैद ६९
धुत्र का वध किया था और संसार को देखने कै लिए सूर्य को आकाश
में चढ़ा विया था।
५. जिन असुरों ने यज्ञीय अच्च को अपने शोभन मख में डाल
लिया था, इन्द्र! उन सायावियों को साया-द्वारा तुमने परास्त किया
था। मनुष्यों के लिए तुम प्रसन्न-चित्त हो। तुमने पिप्रु असुर का
निवासस्थान ध्वस्त किया था। ऋजिश्वान नामक. स्तोता को,
चोरों के हाथ मरने से आसानी से बचा लिया था ।
६. शुष्ण असुर के साथ युद्ध में तुमने कुत्स ऋषि की रक्षा की थी
भौर तुमने अतिथि-वत्सल दिवोदास की रक्षा के लिए शम्बर राक्षस का
वध किया था। तुमने महान् अर्बुद नाम के असुर को पादाकान्त किया
था। इन सब कारणों से विदित होता है कि तुमने दस्युओं के वघ
के लिए ही जन्म ग्रहण किया है ।
७. निः्सन्देह तुम्हारे अन्दर समस्त बल निहित हं। सोमपान
करने पर तुम्हारा मन प्रसन्न होता है । तुम्हारे दोनों हाथों में बजा
है--यह हम जानते हैं। शत्रुओं का सारा वीये छिन्न करो।
८, इन्द्र! कोन आये और कौन दस्यु है, यह बात जानो।
कुशवाले यज्ञ के विरोधियों का शासन करके उन्हें यजमानों - के
वश कराओ। तुम शक्तिमान् हो; इसलिए यज्ञानुष्ठाताओं की सहायता
करो। में तुम्हारे हर्षोत्पादक यज्ञ में तुम्हारे उन समस्त कर्मों की
प्रशंसा करने की इच्छा करता हूं)
९. इन्त्र यज्ञ-विमुखों को यज्ञप्रिय यजमानों के वशीभूत करके
भोर अभिमुख स्तोताओं-द्वारा स्तुति-पराङमुष्ओों का ध्वंस करफे अधि-
ष्ठान करते हुं। वस्र ऋषि वर्द्धनशील और स्वर्य-ब्पापी इन्द्र की
स्तुति करते-करते सञ्चित ब्रव्य-समूह ले गये थे। |
१०. इख ! जब कि उशना के बळ-द्वारा तुम्हारा बल तीक्ष्ण
हुआ था, तब विशुद्ध तीकष्णता-द्वारा तुम्हारे बल ये चुलोक और
पुथिवीलोक को भीत कर दिया था। इन्द्र ! तुम्हारा मन मनुष्य के
प्रति प्रसन्न है । तुम्हारे बलशाली होने पर तुम्हारी इच्छा से संयोजित और
वायु की तरह वेग-विशिष्द घोड़े तुम्हें हमारे यज्ञास की ओर ले आर्वे॥
११. जब कि शोभन उशना ने इन्द्र की स्तुति की, तब इन्द्र
घकगतिवाले दोनों घोड़ों पर सवार थे। उग्र इन्द्र ने गमनशील मधों
से जल, प्रवाह-रूप में, बरसाया था। साथ ही शुष्ण असुर के विस्तीणे
नगर को भी ध्वस्त किया था ।
१२. इन्द्र! सोमपान के लिए रथ पर चढ़कर गमन करो।
जिस सोग से तुम प्रसन्न होते हो, वही सोम शार्यात राजबि ने
तैयार किया है; इसलिए अन्य यज्ञों में तुम जेसे प्रस्तुत सोमपान
करते हो, उसी प्रकार दार्यात का सोम भी पान करो । एसा करन पर
दिव्य-लोक में अविचल यश प्राप्त होया।
१३. इन्द्र ! तुसने अभिषव-कारी और स्तुत्याकाझक्षी वृद्ध कक्षीवान्
राजा को वृचया नाम की युवती स्त्री प्रदान की थी। शोभन-
कर्मा इन्द्र! तुभ वृषणश्व राजा की मेना नामक कन्या हुए थे।
अभिषवण-समय में इन सब विषयों का वर्णन करवा चाहिए ।
१४. शोभसकर्मा निर्धेनों की रक्षा के लिए इन्द्र की सेवा की गई
हैं । पञ्त्रों या अंगिरोवंशीयों के स्तोत्र, दारस्थित स्तम्भ की तरह
अचल हेँ। धनदाता इन्द्र यजमानों के लिए असव, गो ओर रथ की
इच्छा करते हे; और, विविच घन की इच्छा करके अधिष्ठान करते हुँ।
१५. इन्द्र ! बृष्टि दान कसे। तुम अपने तेज से स्वराज करते
हो। तुम प्रकृत-बल-सम्यन्न और अतीव महान् हो । हमने' तुम्हारे
लिए इस स्तुति-वाक्य का प्रयोग किया है । हस इस युद्ध में समस्त
घीरों-दारा यक्त होकर तुम्हारे दिये हुए शोभनीव घर सं
विद्टानों या ऋत्विकों के साथ वास करं।
५२ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् ओर जयती)
१. जिनके स्तुति-कार्यं सं सो स्तोता एक साथ ही प्रवृत्त
हिन्दी-ऋणग्वेद ७१
होते हें और जो स्वर्गं दिखा देते हैं, उन बली इख की पूजा करो।
गतिशील घोड़े की तरह वेग से इख का रथ यज्ञ की ओर गमन
करता है । में अपनी रक्षा के लिए उसी रथ पर चढ़ने के निमित्त
स्तुति-द्वारा इन्द्र से अनुरोध करता हूँ।
२. जिस समय थज्ञान्न-प्रिय इन्द्र ने जलू-वर्षण करके नदी का
प्रतिरोध करनेवाले वृत्र का वध किया, उस समय इन्द्र ने घारावाही
जल के बीच पर्वत की तरह अचल होकर और प्रजा की हजारों
तरह से रक्षा करके यथेष्ट बल प्राप्त किया था।
३. इन्द्र ने आवरणकारी इत्रुश्रों को जीता। इन्द्र जल की तरह
अन्तरिक्ष में व्याप्त हैँ। इन्द्र सबके हर्ष-मूल हैं। वह सोमपान से
वात हुए हैं। में, विवान् ऋत्विकों के साथ, उन प्रवद्ध और धन-
सम्पन्न इन्द्र को शोभन-कर्मयोग्य अन्तःकरण के साथ बुलाता हुँ;
प््योंकि इन्द्र अन्न के पुरयिता हेँ। |
४. जिस प्रकार समुद्र की आत्मभूता और अभिसुखगामिनी
नदियाँ समुद्र को पुर्ण करती हैं, उसी प्रकार कुशस्थित सोमरस
दिव्यलोक सं इन्द्र को पुणे करता है। शत्रुओं के शोषक, अप्रलिहत-
वेग और सुशोभन मरुद्गण, वृत्रहनन के समय उन्हीं इखके
सहायक होकर पास में उपस्थित थे।
५. जिस प्रकार गमनशील जल नीचे जाता है, उसी प्रकार इन्द्र
के सहायक मरुद्गण सोमयान-हारा हुष्ट होकर युद्धरिप्त इन्द्र के
सामने वृष्टि-सम्पन्न वृत्र के निकट गये । जिस प्रकार त्रित ने परिधि-
समुदाय का भेद किया था, उसी प्रकार इन्द्र ने यज्ञ के अञ्न से प्रोत्साहित
होकर बल नाम के असुर का भेद किया था।
६. जल रोककर जो वृत्रासुर अन्तरिक्ष के ऊपर सोया था और
जिसकी वहाँ असीम व्याप्ति है, इन्द्र, जिस समय तुमने उसी वृत्र की
केहुनियों को, शब्दायमान वज्र द्वारा, आहत किया था, उस समय तुम्हारी
शत्र-विजयिनी दीप्ति विस्तृत हुई थी ओर तुम्हारा बल प्रदीप्त हुआ था।
७२ है हिल्दी-ऋण्वेव
७. जिस प्रकार जलाशय को जलू-प्रवाह प्राप्त करता है, उसी
प्रकार तुम्हारे लिए कहे हुए स्तोत्र तुम्हें प्राप्त होते हैँ। त्वष्ठा ने तुम्हारै
योग्य बल-वृद्धि की है और शत्रुविजयी बल से संयुक्त तुम्हारे बच
को भी अधिकतर बरू-सस्पन्न किया है।
८. हे सिद्धकर्मा इन्ब्र ! मनुष्यों के पास आने के लिए सुमने
अइवयुक्त होकर बुत्र-विनाश किया, वृष्टि की, दोनों हाथों सें
लोह-वज्ञर ग्रहण किया और हमारे देखने के लिए आकाश में सूर्य को
स्थापित किया ।
९, बुत्र के डर के मारे स्तोताओं ने स्तौत्रों का अनुध्यान किया
था। वे स्तोत्र बृहत्, आह्हादयुक्त, बल-सम्प्न और स्वर्ग की
सीढ़ियाँ हैँ। स्वर्ग-रक्षक मरुद्गण ने उस समय मनुष्यों के लिए युद्ध
करके और उनका पालन करके, इन्र को प्रोत्साहित किया था ।
१०. इन्द्र ! अभिषुत सोमपान करके तुम्हारे हृष्ट होने पर जिस
समय तुम्हारे वस्त्र ने झुलोक और पृथिवीलोक के बाधक वृत्र का
मस्तक वेग से छिन्न किया था, उस समय बलवान् आकाश भी उस
के शाब्द-भय से कम्पित हुआ था ।
११. इन्द्र! यदि पृथिवी दसगनी बड़ी होती और यदि मनुष्य सदा
जीवित रहते, तब तुम्हारी शक्ति, प्रकृत रूप में, सर्वत्र प्रसिद्ध होती ॥
तुम्हारी बल-साधित क्रिया आकाश के सदृश विशाल हूं ।
१२. अरिमदंन इन्र ! इस व्यापक अन्तरिक्ष के ऊपर रहकर निज
भुज-बल से तुमने, हमारी रक्षा के लिए, भूलोक की सृष्टि की हृ॥
तुम बल के परिमाण हो । तुम सुगन्तव्य अन्तरिक्ष और स्वर्ग व्याप्त
किये हुए हो।
१३. तुम विपुलायतना पृथिवी के परिमाण हो, तुम दशनीय देवों
के बृहत् स्वगं के पालनकारी हो । सचमुच तुम अपनी महिमा-द्ारा
समस्त अन्तरिक्ष को व्याप्त किये हुए हो। फलतः तुम्हारे समान
कोई नहीं । |
दिव्द- ऋआरधिद 1६३ 1
१४ जिन इन्द्र की व्याप्ति को द्युलोक और पृथिवीलोक नहीं पा सके
हैं, अन्तरिक्ष के ऊपर का प्रवाह जिनके तेज का अन्त नहीं पा सका है, -
इन्द्र वही तुम अकेले अन्य सारे भूतों को अपने वश में किये हुए हो॥
. १५. इस लड़ाई में मरुतों ने तुम्हारी अर्चना की थी। जिस समय
तुमने तीक्षणघातक वज्त्र-द्वारा वृत्र के मुंह के अपर आघात किया था, उसे
समय सारे देवगण संग्राम में तुम्हें आनन्दित देखकर आह्वादित हुए थे॥
५३ सूक्त
| (देवता इन्द्र)
१. हम महापुरुष इन्द्र के उद्देश से शोभनीय-वाद्य प्रयोग करते
हैं और सेवाव्रती यजमान के घर शोभनीय-स्तुति-वाक्य प्रयोग करले.
हैं। इख ने असुरों के धन पर उसी तरह तुरत अधिकार कर लिया, `
जिस तरह सोये हुए मनुष्यों के धन पर अधिकार जमाया जाता है
धनदाताओं को समीचीन स्तुति करमी चाहिए । . हु
२. इन्द्र ! तुम अश्व, गौ और यव आदि धान्य वान करो॥
तुम निवासहेठु, प्रभूत धन के स्वामी और रक्षक हो । तुम दाम के.
नेता और प्राचीनतम देव हो। तुम कामना व्यर्थ नहीं करते, तुम याजकों
के सखा हो। उन्हीं के उद्दश से हम यह स्तुति पढ़ते हें ।
३. हे प्रज्ञावान्, प्रभूतकर्मा और अतिशय दीप्तिमान् इन्द्र ॥
चारों ओर जो धन हु, वह तुम्हारा ही हे--यह हम जानते हूँ । शत्रु
विध्वंसी इन्द्र ! वही धन ग्रहण करके हमें दान करो । जो स्तोता तुम्हें
चाहते हें, उनकी अभिलाषा व्यथे न करना । ॒
- ४. इन्द्र! इस प्रकार हव्य और सोमरस से तुष्ट होकर गौ और
घोड़े के साथ धन दान कर और हमारा दारिद्रघ दुर कर प्रसन्नमना
हो जाओ। इस सोभरस से तुष्ट इन्द्र की सहायता से हम दस्यु को
ध्वंस कर और शत्रुओं से मुक्ति प्राप्त कर अच्छी तरह अन्न भोगे ॥
. ५. इन्द्र ! हम धन, अन्न और आह्कादकर ओर दीप्ति-
ड नदीले
सान् बल पावें। तुम्हारी प्रकाशमान सुमति हमारी सहायिका हो।
बहु सुमति वीर शत्रुओं का शोषण करे। बह स्तोताओं को गौ आदि
पशु और अइव दान करे ।
६. साधु-रक्षक इन्द्र ! वुत्रासुर के वध के समय तुम्हारे
आनन्ददाता सरुइगण ने तुम्हें प्रसन्न किया था। वषक इन्द्र! जिस
समय तुमने शात्रुओं-दारा अप्रतिहत होकर स्तोता और हव्यदाता
यजमान के लिए दस हञ्जार उपद्रवों का विनाश किया था, उस समय
विविध हव्य और सोमरस ने तुस्हेँ हुष्ट किया था।
७. इन्द्र! तुम शत्रुओं के धर्षणकारी हो। तुम युद्धान्तर में जाते
हो। तुम बल से एक नगर के बाद दूसरे नगर का ध्वंस करते हो ।
इन्द्र ! तुमने, दूर देश में, वचा सहायता से नसुचि नामक मायावी
का वध किया था । |
८. दम अतिथिग्व नाम के राजा के लिए करंज और पर्णय
नामक असुरों को, तेजस्वी शन्रुवाशक अस्त्र से, वध किया था।
अनन्तर तुमने अकेले ऋजिइवान् नामक राजा के द्वारा चारों ओर
वेष्टित वंगुद नामक असुर के शतसंख्यक्क नगरों को उल किया था ।
९. असहाय सुश्रवा नामक राजा के साथ युद्ध करने के लिए जो
बीस नरपति और उनके साठ हजार निन्यानबे अनुचर आये थे, प्रसिद्ध
इन्द्र ! तुमने शत्रुओं के अलंध्य चत्रो-द्वारा उनको पराजित किया था।
१०. तुमने अपनी रक्षा-शक्ति के द्वारा सुवा राजा की रक्षा की
थी । तुवेयान राजा को अपनी परित्राण-शक्ति हारा बचाया था । तुमने
कुत्स, अतिथिव और आयु राजाओं को महान् युबक सुधवा राजा
के अधीन किया था।
११. इन्द्र ! तुम्हारे सित्रखूप हस यज्ञ-समाप्ति में विद्यमान हैं।
हम देवों-हारा पालित हुए हें। हम मङ्कलमय हैं। हम तुम्हारी
स्तुति करते हैं। तुम्हारी कृपा से हम शोभनीय पुत्र पादे और उत्तम
रूप से दीर्घं जीवन धारण करें ।
हेल््दी-ऋणष्वेद ७५
५४ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. सघवन् ! इस पाप में, इस यगुद्ध-समुदाय मैं, हमें नहीं
प्रक्षेय करना; क्योंकि तुम्हारे बल को अनन्तता है। तुम अन्तरीक्ष
में रहकर और अत्यन्त शब्द कर नदी के जल को शब्दायमान करले
हो। तब फिर पृथिवी दयों न भय पाये?
२. शक्तिशाली ओर बुद्धिभान् इन्द्र की पुजा करो । वह स्तुति
सुनते हैं। उनकी पुजा करके स्तुति करो। जो इन्द्र शत्रुजयी बल
के द्वारा दुलोक और पृथिवीलोक को अलंकृत करते हैं, वे वर्षा-
विघाता हैं, वर्षण-शक्ति-हारा वृष्टि दान करते हैँ।
३. जो इन्द्र शत्रुजयी और अपने बल सें दृढ्मना हैं, उन्हीं महान्
और दीप्तिमान् इन्द्र के उद्देश से सुखकर स्तुति-वाक्य उच्चारण
करो; क्योंकि इन्द्र प्रभूत-यशःशाली और असुर अर्थात् बलशाली हैं ॥
इन्द्र शत्रुओं को दूर करते हैं। इन्र अशव-द्वारा सेवित, अभीष्टवर्षी
और वेगवान् हें।
४. इन्द्र ! तुमने महान् आकाश के ऊपर का प्रदेश कस्पित किया
हुँ; तुमने अपनी इत्रु-विध्वंसिनी क्षमतां के द्वारा शम्बर असुर
का वघ किया है । तुमने हृष्ट और उल्लसित भन से तीक्ष्ण और रदिम-
युक्त वप्त्र को दलबद्ध मायावियों के विरुद्ध प्रेरित किया है।
५. इन्द्र ! तुमने सेघ-गर्जन-द्वारा शब्द करके वायु के ऊपर
और जठ-शोषक तथा जल-परिपाककारी सूयं के मस्तक पर जल
बर्षय किया हे। तुम्हारा मन अपरिवर्सनशाली और शत्रु विनाश
परायण हुँ। तुमने आज जो काम किया हुँ, उससे तुम्हारे ऊपर कोन
है? अर्थात् तुम्हारे ऊपर कोई नहीं--तुम्हीं सर्व-थेष्ठ हो।
६- तुमने नय, तुर्वश और यदु नाम के राजाओं की रक्षा की है।
शत-यज्ञकर्ता इन्द्र ! तुमने वय्य-कुलोद्भव तुर्वीति नाम के राजा की
रक्षा की हु । तुमने रथ और एतूश ऋषि की, आवश्यक धन के लिए
७६ हिन्दी-ऋणग्वैद
संग्राम में रक्षा की है। तुमने शम्बर के निन्यानवे नगरों का विनाश
किया है ।
७, जो इख को हव्य दान करके इन्द्र की स्तुति का प्रचार करते हुँ
अथवा हुव्य के साथ मंत्र का पाठ करते हैं, वे ही स्वराज करते हूँ,
साधु-रक्षा करते हैं और अपने को वद्धन करते हैं। फलदाता इन्न्र उन्हीं
के लिए आकाद से मेघ-जल का वर्षण करते हूँ ।
' ८. इन्र का बल अतुल है, उनकी बुद्धि भी अतुल है। जो तुम्हें
हव्य दान करके तुम्हारा महान् बल और स्थूल पौरुष बढ़ाते हे, वही
सोमपायी लोग यज्ञ-कर्म-दारा प्रवृ हों।
. ९, यह सोमरस पत्थर के द्वारा तैयार किया गया है, बत्तैन में
रखा हुआ है और इख के पीने योग्य है। इन्द्र! यह सब तुम्हारे
ही लिए हुआ है। तुम इसे ग्रहण करो। अपनी इच्छा तृप्त करो।
अनम्तर हमें धन दान करने सें ध्यान वो।
१०. अन्धकार ने दृष्टि की धारा रोकी थी। वृत्रासुर के पट के
भीतर मेघ था। वुत्र के हारा रदखे जाकर जो जल अनुक्रम से
अवस्थित था, इख ने उसे निम्न भू-प्रदेश में प्रवाहित किया।
११. इन्द्र ! हमें वद्धंमान यश दो । महान् शन्रुओं का पराजय-
` कर्ता और प्रभूत बल दान करो। हमें धनवान् करके रक्षा करो। विद्वानों
का पालन करो और हमें धन, शोभनीय अपत्य और अन्न दान करो।
५५ सृक्त
. (देवता इन्द्र | छन्द जगती)
१. आकाश की अपेक्षा भी इन्द्र का प्रभाव विस्तीर्ण हैं।
भहत्त्व में पृथिवी भी इन्द्र की बराबरी नहीं कर सकती । भयावह
और बली इन्द्र मनष्यों के लिए शन को दग्ध करते हैं। जैसे साँड़ अपने
सींग रगड़ता हुँ, उसी प्रकार तीखा करने के लिए इन्द्र अपना वच्छा
रगड़ते हूँ । |
(हहिन्दी-हहश्वैद ७७
४. अन्तरिक्षव्यापी इन्द्र, सागर की तरह, अपनी व्यापकता
के द्वारा बहुव्यापी जल ग्रहण करते हुँ। इन्द्र सोमपान के लिए साँड़
की तरह वेग से दौड़ते हें और बही योद्धा इन्द्र प्राचीन काल से अपने
धीरत्व की प्रशंसा चाहते हूँ ।
३. इन्द्र तुम अपने भोग के लिए मेघ को भिन्न नहीं करते।
तुम महान् घनाढयो के ऊपर आधिपत्य करते हो। इखदेव अपने
धीर्य के कारण अच्छी तरह परिचित हैं। सारे देवों ने उग्र इन्द्र को
उनके कर्म के कारण सामने स्थान दिया है। |
४. इन्द्र जंगल सं स्तोता . ऋषियों हारा स्तुत होते हैं। मतृष्यों
के बीच में अपना वीय प्रकट करके बड़ी सुन्दरता से अवस्थित
होते हैं । जिस सभय हव्यदाता धनी यजमान इख-द्वारा रक्षित
होकर स्तुति-वाक्य उच्चारण करता है, उस समय अभीष्ठवर्षी इन
च्छ को यज्ञ में तत्पर करते हैं। |
५, योद्धा इख मनुष्यों के लिए सर्व-विशुद्धकारी बल-हारा
प्रहन् संग्रामो में संलग्न होते हें जिस समय इन्र वघ-कारण ब्ध
फेंकते हँ, उस समय दीप्तिमान् इन्द्र को सब लोग बलशाली कहकर
उनका आदर करते हें। .
६, शोभनकर्मा इन्द्र यशःकामना करके, बलळ-द्वारा सुनिमित
असुर-गृहों का विनाश करके, पृथिबी सं समान वृद्धि प्राप्त करके
और ज्योतिष्कों या तारकाओं को निरावरण करके यजमान के उपकार
के लिए प्रवहमान वृष्टि-जल दान करते हुँ ।
७, सोमपाथी इन्द्र ! दान में तुम्हारा मन रत हो। स्तुतिप्रिय |
प्रपते हरि नाम के घोड़ों को हमारे यष के अभिमुखी करो।
छठ! तुम्हारे सारथि घोड़ों को वहा में करने में बड़े दक्ष हैँ; इसलिए
ुम्हारे विरोधी शत्रु हथियार लेकर तुम्हें पराजित नहीं कर सकते ।
८, इन्द्र ! तुम दोनों हाथों में अनन्त धत्त धारण करते हो।
रुस यशस्वी हो। अपनी देह में अपराजेय बल धारण करते हो।
हिन्दी “ुग्बेह श
जैसे जलार्थी मनुष्य कुओं को घेरे रहते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे सारे
अंग चीरतापूर्ण क्मों-द्रारा घेरे रहते हैं । तुम्हारी देह में अनेक कस
विद्यमान्र हुं.
५६ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द जगती)
जिस प्रकार घोड़ा घोड़ी की ओर दोइता है, उसी प्रकार
प्रभृताहारी इन्द्र उस यजमान के यथेष्ट पात्र-स्थित सोसरूप खाद्य की
ओर दौड़ते हैं । इख स्वर्णमय, अदबयुकत और रह्मियुक्त रथ को
रोककर पान करते हैं। वे कार्य में बड़े निपुण हैं ।
३. जिस प्रकार घनाभिलाषी वणिक् घूम-धूमकर समुद्र को चारों
ओर व्याप्त किये रहते हैं, उसी प्रकार हृव्श-बाहुक स्तोता छोग चारों
ओर से इन्द्र को घेरे हुए हैं। जिस प्रकार ललनायें फूल चुनने के लिए
पर्वत पर चढ़ती हें उसी प्रकार हे स्तोता, एक तेजः्पूर्ण स्तोत्र के हारा
प्रबुद्ध, यज्ञ के रक्षक, बलवान् इच्च के पास शीक्ष पहुँचो।
३. इन्द्र शत्रुहन्ता और महात् हैं । इख का दोष-शूल्य ओर तु"
विनाइक बल पुरुषोदित संग्राम में पहाड़ के श्युंग की तरह विराजमान
है। झत्रु-मदंक और लोह-कवच-वेही इन्द्र ने सोसपाननद्वारा हृष्ड
होकर बल-हारा, मायात्री शुष्ण को हथकड़ी डालकर कारागुह में
बन्द कर रक्खा था।
४. जेसे सूयं उषा का सेवन करते हें, उसी प्रकार छुस्हारा
दीप्विमात् बळ, तुम्हारी रक्षा के लिए, घुम्हररे स्तोन्न-दारा चाल
इन्द्र की सेवा करता है । बही इख विजयी बल द्वारा अन्धकार रूप
बुत्र का दमन करते और दात्रुओं को सलाकर अच्छी तरह उनका
ध्वंस करते हें। क्
५. शात्र-हस्ता इख ! जिस समय तुमने बच्-द्वारा अवरुद्ध,
जीदन-रक्षक ओर विनाझ-रहित जरू आकाश से चारों ओर वितरण
हिन्दीन्ऋग्वेद ७९
किया, उस समय सोमपान से हर्ष-युक्त होकर तुमने लड़ाई सें चुत्र का
वध किया था और जल के समुद्र की तरह मेघ को निस्वसुख कर दिया था॥
६ इन्द्र दुम महान् हो। अपने बल के द्वारा सारे जगत् के
धारक-वृष्टि-जछ को आकाश से पृथिवी के प्रदेशों पर स्थापित करते
हो । तुमने सोमपाय से हृष्ठ होकर मेघ से जल को बाहर कर दिया ह
और विशाळ पाषाण से वृत्र को ध्वस्त किया है ॥
५७ सूक्त
(देवता इन्द्र)
१. अतीव दानी, महाम्, प्रभूतधनश्ाली, अमोघबल-सम्पन्त और
प्रकाण्ड-देह-विशिष्ठ इन्त्र के उद्देश से सें मननीय स्तुति सम्पादित
करता हूँ । निम्नगासिनी जलधारा की तरह इन्त्र का बल कोई नहीं
धारण कर सकता। स्तोताओं के बल-साधन के लिए इन्ब्र सर्वव्यापी
सम्पद् का प्रकाश करते हैं।
२. इन्द्र! यह् सारा जगत् तुम्हारे यज्ञ भें (तथा) हव्य दाताओं
का अभिषुत सोमरस तुम्हारी ओर प्रवाहित हुआ था। इन्द्र का
शोभनीय, सुवर्णमय ओर हनमशील वमन पर्वत पर निद्रित था।
३, शुभ उषा ! भयावह और अतीव स्तुति-पात्र इन्द्र को इस
यज्ञ में इस समय यज्ञान्न दो। उनकी विइवधारक, प्रसिद्ध और इन्त्रत्व-
चिह्न युक्त ज्योति, घोड़े की तरह उनको मञ्ञा्-प्राप्ति करने के अर्थ,
इधर-उधर ले जाती है । |
४, प्रभूतधनञ्रालो और बहु-लोक-स्तुति इद्र ! हम तुम्हारा अवलम्बन
करके यज्ञ सम्पादन करसे हैं। हम तुम्हारे ही हैं। स्लुसि-पात्र ! तुम्हारे
सिवा और कोई यह स्तुति नहीं पाता । जैसे पूथिबी अपने प्राणियों को
धारण करती है, उसी तरह तुस भी वह स्तुति-वचन ग्रहण करो ।
५, इन्द्र । तुम्हारा बीर्य महान् है। हस तुम्हारे ही हें।
मघवन् ! इस स्पोसा की कामना पूरी करो। बिशाल आकाश ने
।
6७ हिन्दी-ऋण्वेद
` कुन्हारे वीयं का लोहा माना था। यह पृथिवी भी तुम्हारे बल से
वनत है ।
8. वजञ्चघारी इन्द्र तुमने उस विस्तीणं मेघ को, वच्च-हारा,
दुकड़े-दुकड़े किया। उस मेघ के द्वारा आवत जल) बहने के लिए,
क्ुमने नीचे छोड़ दिया। केवल तुम्हीं विश्वव्यापी बल धारण करते हो ॥
५८ सूप्त
(११ अनुवाक । देवता अग्नि । यहाँ से ६४ सुक्त तक के
ऋषि गौतम के पुत्र नोधा)
१. बड़े बळ से उत्पन्न और असर अग्नि व्यथा-दान या ज्वलन में
श्सर्थं हैं। जिस समय देवाह्वानकारी अग्नि यजमान के हव्यवाही हुत
हुए थे, उस समय समीचीन पथ-्वारा जाकर उन्होंने अन्तरिक्ष निर्माण
किया था या वहाँ प्रकाश किया था। अग्नि यज्ञ में हव्य-द्वारा देवों की
परिचर्या करते हें। |
२ अजर अग्नि तुण-पुल्म आदि अपने खाद्य को ज्वलन-शक्ति-
हारा सिळाकर और भक्षण कर तुरत काठ के ऊपर चढ़ गये। दहन
करने के लिए इधर-उधर जानेवाली अग्नि की पृष्ठ-देश-स्थित ज्वाला
भसनशील घोड़े की तरह शोभा पाती है। साथ ही आकाश के उन्नत
आर शाब्दायसान मेघ की तरह शब्द भी करती हूँ ।
३. अग्नि हृव्य का बहुन करते हुँ ओर ख्द्रों तथा वसुओं के सम्मख
स्थान पाय हुए हूँ। अग्नि देवाह्णानकारी और यज्ञ-स्थानों में उपस्थित
इहते हैं। वह धन-जयी और अमर हुँ। दीप्तिमान् अग्नि यजमानों की
स्तुति लाभ करके ओर रथ की तरह चल करके प्रजाओं के घर में
बार-बार वरणीय या श्रेष्ठ घन प्रदान करते हैं।
४. अग्नि, वायु-द्वारा प्रेरित होकर, महाशब्द, ज्वलन्त जिङ्का
र तेज के साथ, अनायास पेड़ों को दग्ध कर देते हेँ।
अग्नि ! जिस समय तुम वन्य वृक्षों को शीघ्र जलाने के लिए साँड की
हिन्दी-ऋग्वेद ८१
तरह व्यग्र होते हो, है दीप्त-ज्वाल अजर अग्नि ! उस समय तुम्हारा
गसत-माग काला हो जाता हे ।
५. अग्नि वायु-द्वारा प्रेरित होकर, शिखारूप आयुध धारण करके,
महातेज के साथ, अशुष्क वृक्ष-रस आक्रमण करके और गो-बुन्द के
बीच में साँड़ की तरह सबको पराभूत करके चारों ओर व्याप्त होते
हैं। सारे स्थावर और जंगम अग्नि से डरते हैं।
६. अग्नि ! मनुष्यों के बीच में मरहाष भृगु लोगों ने, दिव्य
जन्म पाने के लिए, तुम्हें शोभन धन को तरह धारण किया था। तुम
आसानी से लोगों का आह्वान सुननेवाले और देवों का आह्वान करने-
वाले हो। तुम यज्ञ-स्थान में अतिथि-रूप और उत्तम मित्र की तरह
सुखदाता हो । |
७. सात आह्वानकारी ऋत्विक जो यज्ञों में परम यज्ञाई और
देवाह्लानकारी अग्नि को वरण करते हुँ, उसी सर्व-धनदाता अग्नि
को में यज्ञान्न से सेवित करता हु और उनसे रमणीय धन की याचना
करता हूं
८, बलपुत्र और अनुरूप दीप्तियुक्त अग्नि ! आज हमें अच्छेद्य
सुख दान करो । अज्ञ-पुत्र ! अपने स्तोता को, लोहे की तरह, दृढ़
रूप से रक्षा करते हुए पाप से बचाओ।
` ९, प्रभावान् अग्नि ! तुस स्तोता के भुह-रूप बसो। धनवान्
अग्नि ! घनवानों के प्रति कल्याण-स्वरूप बनो । अग्नि ! स्तोताओं को
पाप से बचाओ। प्रज्ञारूप धन से सम्पन्न अग्नि! आज प्रातःकाल
शीक्ष आओ ॥
५९ सूक्त |
(देवता अग्नि । छन्द त्रिष्टुप्)
१. अग्निदेव ! अन्यान्य जो अग्नि हैँ, वे तुम्हारी शाखाथें
हैं अर्थात् सब अंग हैं और तुम अङ्गी हो। तुममें सब अमर देवगण
फा० ६
८२ हिंन्दी-ग्बेंद
दृष्टि आते हैं। बेशवोचर | तुस सनुष्यों की नाभि हो। तुस निखात
स्तम्भ के समान मनुष्यों को धारण करते हो।
२; अग्नि स्वगं के मस्तक, पृथिवी की नाभि और झुलोक तथा
धृथिवी के अधिपति हुए थे। वेदइवानर! तुम देवता हो। देवों
से आर्थ या विद्वान मनुष्य के लिए ज्योतिःस्वरूप तुमको उत्पन्न
किया था।
३; जिंसें तरह निः्चल किरणें सूर्य में स्थापित हुई हँ, उसी तरह
वेदिवानरै अग्नि में संस्पततियां स्थापित हुई थीं। पर्वतों, औषधियों,
जलो और मंनव्यों में जो धन है; उसके राजा तुम्हीं हो।
४, द्यावोपथिबी वैश्वानर के लिएं विस्तृत हुए थें । जसे बन्दी
प्रभु की स्तुति करता है, बेसे ही इस निपुण होता ने सुगति-सस्पन्ने,
प्रकृत-बलशाली औरं नेतेंश्रेष्ठ वेशवानेरं कें उद्देश से बहुविध महान्
स्तुति-वावेयं की योगे किया है ।
"६, बेबवॉनर ! तुमे सेब प्राणियों को जानते हो। आकाल
सें भीं वुम्हारां माहात्म्य अधिक हे। तुम मानव-प्रजाओं के राजा हो।
तुमने देवों कें लिए युद्ध करके धनं का उद्धार किया है।
६, मनुष्य जिन वृत्र-हन्ता या मेघभेदनकारी वेइवानर या विद्ये-
दंग्चि की, वर्षा के लिए, अर्चता करते हैं, उन्हीं जलवर्षी वेश्वानर का
माहात्म्य में झीघ्र बोलता है। बझवानर अग्नि ने दस्यु या राक्षस को
हैनन किया है, वर्षा का जल नीचे गिराया है ओर झम्बर को भिन्न
किया हैं।
७, अपले माहात््य-द्वारा वेश्वानर सब मनुष्यों के अधिपति
और पुष्टिकर तथा अन्नश्ञाली यज्ञ में यजनीय हैं । वेश्वानर प्रभा-
सस्पञ्च और सुकूत-्वाक्यशाली हें। शतयज्ञकर्ता या शतवनि के
पुत्रं पुरुनीय राजा, अनेक स्तुतियों के साथ, उन अग्नि की स्तुति
करते है ।
हित्वी-ऽ्ग्वेद ८३
६० हूक्त
(दैवता अग्नि)
१. अग्नि हव्यवाहक+, यवास्वी, यज्ञप्रकाशक और सम्यक रक्षण-
झील था देवों के दुत हैं; सदा हव्य लेकर देवों के पास जाते हैं।
वह दो काष्ठों से, अरणि-मन्थन से, उत्पन्न ओर घने की तरह
प्रशंसित हें। मातरिश्वा उन्हीं अग्नि को, सित्र की तरह, भुगु-बंशियों
के पास ले आये।
करते हैं; क्योंकि ये पूज्य, प्रजापालक ओर फलदाता अग्नि सुर्योदय
से भी पहले यजमानों के बीच स्थापित हुए हें।
३. हृदय या प्राण से उत्पञ्च और मिष्ठजिहँ अग्निं कै सामने
हमारी नई स्तुति व्याप्त हो। भनु-पुत्र मॉनव लोग थासमेये
यजञ-सम्पादन और यञज्ञाच्-प्रदान करके इन अग्नि को संग्रामं समय
में उत्पन्न करते हैं।
४. अग्नि कामना-पात्र, विशु्धिकारी, निवास-हेतु, वरणीय और
देवाह्लानकारी हूँ। यज्ञ स प्रविष्ट मनुष्यों के बीच अग्नि को स्थापित
किया गया है। अग्नि झत्रुदमन में कृतसंकल्प और हमारे घरों सें
पालनकर्ता हों। यज्ञ-भवन में धनाधिपति हों ।
५. अग्नि | हस गोतसगोत्रज हैं और तुम धनपति, रक्षणश्षील
शर यज्ञान्न के कर्ता हो। जसे सवार हाथ से घोड़े को साफ़ करतां
है, बैसे ही हम भी तुम्हें माजित करके मननीय स्तोत्र द्वारा प्रहांसा
करेंगे । प्रज्ञा हारा अग्नि ने धन प्राप्त किया है। इस प्रातःकाल सें
तुरत आओ।
“ हिन्दी-ऋग्वैद
(देवता इन्द्र)
१, इन्द्र बली, क्षिप्तकारी, गुण-द्वारा महाम्, स्तुति-पात्र और
अबाध-गति हैं। जैसे बुभुक्षित को अन्न दिया जाता है, वैसे ही में
इन्द्र की ग्रहण-योग्य स्तुति और पूर्ववर्ती यजमान-द्वारा दिया हुआ
यज्ञाच्ञ प्रदान करता हूँ।
२. इन्द्र को, अब की तरह, हव्य दान करता हूँ। शत्रुपराजय के
साधन-स्वरूप स्तुति-वाकयों का मेने सम्पादन किया है। अन्य स्तोता
भी उस पुरातन स्वामी इन्द्र के लिए हृदय, मन ओर ज्ञान से स्तुति-
सस्पादन करते हैं।
. ३. उन्हीं उपमानभूत, वरणीय-घनदाता और विज्ञ इन्द्रको वद्धं
करने के लिए में मुख द्वारा उत्कृष्ट और निर्मल स्तुति बच्चों से युक्त
तथा अति महान् आब्द करता हूँ।
४. जिस प्रकार रथ-निर्साता रथ-स्वामी के पास रथ चलाता हैँ,
उसी प्रकार में भी इन्द्र के उद्देश से स्तोत्र प्रेरण करता हूं। स्तुतिपात्र
इन्द्र के लिए शोभन स्दुतिवचन प्रेरण करता हूँ । मेधावी इन्द्र के
लिए विश्वव्यापी हवि प्रेरण करता हूं । क्
- प. जैसे घोड़े को रथ में छगाया जाता हे, बेसे ही में भी.
अन्न-प्राप्ति की इच्छा से स्तुति-हृप मंत्र उच्चारण करता हूँ।
उन्हीं घीर, दानशील, अन्नङिशिष्ट और असुरों के नगरविदारी
इस्र की वस्दना में प्रवृत्त होता हूं।
६. इख के लिए, त्वष्ठा ने, युद्ध के निमित्त शोभन-कर्मा और
सुप्रेरणीय घञ्ज का निर्माण किया था। शन्जुन्नाश के लिए तेयार होकर
ऐशवर्यवान् और अपरिमित बक्शाछों इस ने हननकर्ता व से वृत्र
का घर्म काठा था
हिन्दी-त्रहरवेद ८५
७. जगत् के निर्माणकर्ता इन्द्र को इस महायज्ञ में जो तीन
अभिषव दिय गये हैं, इन्द्र ने उनमें तुरत सोसरुण अन्न पान किया
है। साथ ही शोभनीय ह॒ृव्यरूप अन्न भी भक्षण किया है। सारे संसार
में इन्द्र व्यापक हैं। उन्होंने असुरों का धन हरण किया हैं। चे
शत्रुविजयी और वज्न चलानेवाले हे। उन्होंने मेघ को पाकर उसे
फोड़ा था।
८. इन्द्र-द्वारा अहि या वृत्र का विनाश होने पर नमनशील देव-
पत्नियों ने इन्द्र की स्तुति की थी। इन्द्र ने विस्तत आकाश और
पृथिवी को अतिक्रम किया था; किन्तु यलोक और पृथिवीलोक इन्दर
की मर्यादा का अतिक्रम नहीं कर सकते ।
९. शुलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष को अपेक्षा भी इन्द्र की महिमा
अधिक हें । अपने अधिवास सें अपने तेज से इन्द्र स्वराज करते हैं।
इन्द्र सव-काय-क्षम हूँ। इन्द्र का शत्रु सुयोग्य है और इन्द्र युद्ध में
निपुण हूँ। इन्द्र मंघरूप शत्रुओं को युद्ध में बुळाते हैं।
_ १०. अपने वज्ञ से इन्द्र ने जल-शोषक वृत्र को छिन्न-भिन्न किया
था। साथ ही चोरों के द्वारा अपहृत गायों की तरह वुत्रासुर-द्वारा
अवरुद्ध तथा संसार के रक्षक जल को छुड़वा दिया था। हव्यदाता
को इन्द्र उसकी इच्छा के अनुसार अन्न दान करते हें। |
११. इन्द्र की दीप्ति के द्वारा नदियाँ अपने-अपने स्थान पर
शोभा पाती हु; क्योंकि वज्न-द्वारा इन्द्र उनकी सीमा निर्दिष्ट
कर दी हे। अपने को एऐश्वयंवान् करके और हव्यदाता को फल
प्रदान करके इन्द्र ने तुरत तुर्वीति ऋषि के निवास-योग्य एक स्थान
बनाया । | :
१२, इन्द्र क्षिप्तकारी, सर्वेश्वर और अपरिसितशब्तिज्ञाली हैं।
इन्द्र तुम इस वृत्र के ऊपर वज्ञ-प्रहार करो। पशु की तरह वत्र
के शारीर को संधियाँ तिर्यग् भाव से अवस्थित बज्र से काटो; लादि
वष्टि बाहर हो सके और पृथिवी पर जळ विचरण कर सके।
८६ हिम्दी-ऋग्वेद
१३. जो मंत्रों-द्वारा स्तुत्य हैं, उन्हीं युदार्थकिप्रणानी इन्द्र के पू
कर्मों का वर्णन करो । इन्द्र युद्ध के लिए बार-बार सारे शस्त्र फेक”
कर और शत्रुओं का वध कर उनके सम्मुख जाते हुँ।
. १४. इन्हीं इन्द्र के डर के मारे पर्वत निल हो रहते हुँ और इन्द्र
के प्रकट होने पर आकाश और पृथिवी काँपने लगते हँ। बोचा ऋषि
ने इन्हीं कमनीय इन्द्र की रक्षण-शक्ति की, सूक्तों द्वारा, बार-बार
प्रार्थना करके तुरन्त ही वीर्य या शक्ति प्राप्त की थी।
१५; इन्द्र अकेले ही शात्र-विजय कर सकते हुँ। वह बहुविध
घनों के स्वामी हैं। स्तोताओं के पास इन्द्र ने जिस स्तोत्र की
याचना की थी, उसे ही इख को दिया गया। स्वइवपुत्र सूरये
के साथ युद्ध के समय सोमाभिषवंकारी एतज्ञ ऋषि को इन्द्र ने
बचाया था।
१६. अइ्वयुक्त-रथेइवर इन्द्र ! तुम्हें यज्ञ में उपस्थित करने के
लिए गोतम-गोत्रीय ऋषियों ने स्तुति-लूप मंत्रों को कीत्तित किया था
या स्मृत किया था। इन्हें बहुविध बुद्धि प्रदान करो। जिन इन्द्र चे
बुद्धिद्वारा घन पाया है, वे ही इन्द्र प्रातःकाल शीघ्र आयें।
चतुथं अध्याय समाप्त ॥
९२ सूक्त
(पञ्चम अध्याय । देवता इन्द्र)
१. वीर्यशाली और स्तव-यात्रं इन्द्र को लक्ष्य कर हम, अख्चिरा
की तरह, सन में कल्याणवाहिमी स्तुति धारण करते हैं। इ शोभन
स्तोत्र द्वारा स्तुति-कर्ता ऋषि के पुजा-्यात्र हें। उन प्रसिद्ध नेता की
हम स्तोत्र-हारा पुजा करते हुँ।
हिन्दी-ऋण्वेद ८७
२. तुम रोग उस विशाल और बलवान् इन्द्र को उद्देश कर
महान् और ऊंचे स्वर से गाय जानेवाले स्तोत्र अपित करी । इन्द्र
की सहायता से हमारे पूर्वे-पुरुष अङ्गिरा लोगों ने, पद-चिहक्ल देखते हुए,
अर्चना-पुवेक, पणि नाम के असुर-हारा अपहत गौ का उद्धार किया था।
३. इन्द्र और अङ्गिरा के गौ खोजते समय सरमा नास की
कुतिया ने, अपने बच्चे के लिए, इन्द्र से अन्न या दुग्ध प्राप्त किया था।
उस समय इन्द्र ने असुर का वध कर गौ का उद्धार किया था। देवों ने
भी गायों फे साथ आज्लादकर शब्द किया था ।
४. सर्वशक्तिमान् इन्द्र ! जिन्होंने नौ महीनों में यज्ञ समाप्त
किया है और जिन्होंने दस महीनों में यज्ञ समाप्त किया है--ऐसे
सप्तसंख्यक और सद्गति-कामी (अद्धिरोबंशीय) मेधावियों के सुख-
कर-स्वर-युक्त स्तोत्रों से तुम स्तुत किये गये हो । तुम्हारे शाब्द से
पर्वत औरं मेघ भी डर जाते हैं।
` ५ सुदृश्य इन्द्र ! अङ्गिरा लोगों के द्वारा स्तुत होकर
तुमने उषा और सूर्य की किरणों से अन्धकार का विनाश किया है।
इन्द्र ! तुमने पृथिवी का ऊबड़खाबड़ प्रदेश समतल और अन्तरिक्ष का
मूल प्रदेश दृढ़ किया हूँ।
४. पृथिवी की मधुर-जलपूणं नदियों को जो इख ने जलपुर्ण
किया है, वह उन वर्शेनीय इन्द्र का अत्यन्त पुज्य और सुन्दर कमं है।
७. जिस इन्द्र को युद्धरूप प्रयत्न से नहीं पायां जा सकंतॉ,
स्तोताओं की स्तुति-हारा पाथा जा सकता हुँ, उन्हीं इन्र ने एकत्र .
संलग्न द्यौ और पृथिवी को अलग-अलग करके स्थित किया है; उन्हीं
शोभन-कर्मा इन्द्र ने सुन्दर और उत्तम आकाश में, सूर्यं की तरह,
और पृथिवी को धारण किया हुँ।
क् ८. विषम-रूपिणी, प्रतिदिन सञ्जायमाना और तरुणी रात्रि तथा
उषा, &्यावा-पुथिवी पर, सदा से आ-आकर विचरण करती हें। रात्रि
काली और उषा तेजोमयी है ।
ट्ट हिन्दी-ऋग्वेद
९, शोभंन-कर्मे-कर्ता, अतीव बली और उत्तम कमं सै सम्पच्च
इन्द्र यजमानों से, पहले से, मित्रता करते आते हैं। इन्द्र, तुमने
अपरिपक्व गायों को भी दूध दान किया हुँ ओर कृष्ण तथा रोहित
वर्णोदाली गायों में भी शुक्लवर्ण का वूध दान दिया है।
१०. जिन यति-विहीन उंगलियों ने, सदा सन्नद्ध होकर स्थिति करने
पर भी, निरालसी बनकर, अपने बल पर, हजारों ब्रतों का पालन
किया है या इन्द्र का ब्रत अनुष्ठित किया है, वे ही सेवा-सत्परा अँगुली-
हूपिणी भगिनी लोग पत्ती या पालयित्री की तरह प्रगल्भ इन्द्र की सेवा
करती हैं। |
११. दर्शनीय इन्द्रदेव ! तुम मन्त्र और प्रणाम से स्तुत होते हो।
जो वुद्धिमान् अग्निहोत्रादि सनातन कमं और धन की इच्छा करते हैं,
वे बड़े यत्त के बाद तुम्हें प्राप्त होते हें। बळी इन्द्र! जसे कामिनी
स्त्रियाँ आकांक्षी पति को प्राप्त करती हैं, वैसे ही बुद्धिमानों की
स्तुतियाँ तुम्हें प्राप्त करती हैं।
१२. सुदुश्य इन्द्र ! जो सम्पत्ति, सदा से, तुम्हारे पास है, वह
कभी विनष्ट नहीं होती। इन्द्र ! तुम मेधावी, तेजशाली और यज्ञ-
सम्पल्त हो। कर्मी इन्द्र! अपने कर्मो-द्वारा हमें धन प्रदान करो।
१३. इन्द्र ! तुम सबके आदि हो। हे सुलोचन और बलवान्
इन्द्र! तुम रथ में घोड़े योजित करते हो। गोतम ऋषि के पुत्र
नोधा ऋषि ने हमारे लिए तुम्हारा यह अभिनव सुकत-रूप स्तोत्र
_ बनाय है। फलतः कर्म-हारा जिन इन्द्र ने धन पाया है, वे प्रातःकाल
में शीघ्र आवं।
३शसूक्त
(देवता इन्द्र)
१. इन्द्र तुम सर्वोत्तम गुणी हो। भय उपस्थित होनें पर अपने
रिपु-शोषक बल द्वारा तुमने ययो और पृथिदी को धारण किया
हिन्दी-ऋग्वेद <९
था। संसार के सारे घाणी और पर्वत तथा दूसरे जो विज्ञाल और
सुदृढ़ पदार्थ हुँ, वे सब भी, आकाश में सूर्य-किरणों की तरह, तभ्हारे
इर से कॉप गय थ। E
२. इन्द्र! जिस समय तुम विभिन्न-गतिशाली आअइवों को रथ सें
` संयुक्त करते ही, उस समय तुम्हारे हाथ में स्तोता बच्च देता है;
और, तुम उसी वत्र से शत्रुओं का अनभीष्ट कसं करके उनका विनाश
करते हो। बहुलोकाहृत इन्द्र ! तुम उसके द्वारा असुरों के अनेक
नगर भी ध्वस्त करते हो ॥
३. इन्द्र तुम सर्वोत्कृष्ट हो। तुम इन शत्रुओं के विनाज्ञक
हो । तुम ऋभुगण के स्वामी, मनुष्य-गण के उपकर्ता और शत्रुऔं के
हन्ता हो। संहारक और तुमुल युद्ध में तुमने प्रकाशक और तरुण
कुत्स के सहायक बनकर शुष्ण नामक असुर का वध किया था।.
४. हे वृष्टि-वर्षक और वच्तघधर इन्द्र! जिस समय तुमने झु
का वध किया था, हे वीर, अभीष्ट-वर्णन-कामी और शत्रुजयी इन्द्र!
उस समय तुमने लड़ाई के मैदान में दस्युओं को पराङमुख करके उन्हें
ध्वस्त किया था ओर कुत्स के सहायक होकर उनको प्रथितयझा
बनाया था।
५. इन्द्र ! तुम किसी दृढ़ व्यक्ति की हानि करने की इच्छा
नहीं करते; तो भी शत्रुओं के द्वारा मनुष्यों का उपद्रव होने पर तुम
उनके अइव के विचरण के लिए चारों ओर खोल देते हो अर्थात् केबल
अपने भक्तों के लिए चारों दिशायें निरुपद्रुत कर देते हो । है
वच्रघर ! कठिन वस्त्र से शत्रुओं का विनाश करते हो।
६. इन्द्र ! जिस युद्ध में योद्धा लोग लाभ और धन पाते हैं, उसमें
सहायता के लिए मनुष्य तुम्हें बुलाते हें। बली इख ! समर-क्षेत्र में
तुम्हारा यह रक्षण-कार्य हमारी ओर प्रसारित हो। योद्धा लोग तुम्हारे
रक्षा-पात्र हें।
९७ हिन्दी“क्रग्वेद
७. वज्िन् ! तुमने, पुरुकुत्स नाम के ऋषि के सहायक होकर,
उन सातो नगरों का ध्वंस किया था और सुदास नाम के राजा के
लिए अंहा नाम के असुर का धन, यज्ञ-कुश की तरह, आसानी से
विच्छिन्न किया था। अनन्तर, इन्द्र! उस हव्यदाता सुदास को वह
धन दिया था।
८. तुम हमारा विलक्षण या संग्रहणीय धन, व्याप्त पृथिवी पर जल
की तरह, वद्धित करो। वीर, जैसे चारों ओर जल को तुमने क्षरित
किया है, उसी तरह उस अन्न-द्वारा हमें जीवन दिया है।
९. इन्द्र ! तुम अइव-तम्पन्च हो। तुम्हारे लिए गोतमवंशीयों ने
भक्ति-पूर्वक मन्त्र कहे थे। तुम हमें नाना प्रकार के अन्न प्रदान करो ॥
६४ सूक्त
(देवता सरुद्गण)
१. हे नोधा ! वर्षक, झोभन-यज्ञ और पृष्प, फल आदि के कर्ता
सरुट्गण को लक्ष्य कर सुन्दर स्तोत्र प्रेरण करो। जिन वाक्यों से
वृष्टि-घारा की तरह अर्थात् मेधों की विविध बूँदों की तरह, यज्ञ-स्थल
देवों को अभिमुख किया जाता है, उन्हीं वाक्यों को धीर और
कृताञ्जलि होकर, मनोयोग-पूर्वक, प्रयुक्त करता हूँ। |
२. अन्तरिक्ष से मरुत् लोग उत्पन्न हुए हुँ। वे दर्शनीय वीर्य
शाली ओर रुद्र के पुत्र हें। वे शन्रुजयी, निष्पाप, सबके शोधक सूर्य
की तरह दीप्तं, सुत्र के गण की तरह अथवा बहादुर की तरह बले-
पराकमशाळी, वृष्टि-बिन्दु-युक्त और घोर रूप हेँ। |
३. रुद्र के पुत्र मरुद्गग तरुण और जरा-रहित हें तथा जो देवों
को हव्य नहीं देते, उनके नाशक हँ। वें अप्रतिहत-गति और पर्वद की
तरह दृढ़ाड्ः ह। वे स्तोताओं को अभीष्ट देना चाहते हैं। प॒थिवी और
शुलोक की सारी वस्तुएँ दृढ़ हैं, तो भी उनको मरुत लोग अपने बल
से संचालित कर देते हैं। द
हिन्दी-ऋष्वेद ९१
४, शोभा के लिए अनेक अलंकारों से मरुद्गण अपने शरीर को
अलंकृत करते हैं। शोभा के लिए हुदय पर सुन्दर हार धारण करते
हुँ और अंग में आयुध पहनते हैं। नेतुस्थानीयं भरदृगण अन्तरिक्ष से
अपने बल फे साथ प्रादर्भत हुए थे॥
५. यजमानों को सम्पत्तिशाली, मेघादि को कम्पित और हिंसक को
विनष्ट करके अपने बल-द्वारा भरुतों ने वायु और विदत् को बनाया ।
इसके अनन्तर, चारों दिशाओं में जाकर एवं सबको कम्पित कर
यलोक फे मेघ का दोहन किया तथा जल से भूमि को सींचा।
६० जेसे यज्ञभूमि में ऋत्विक् लोग घी का सिचन करते हैं, बेसे ही
दान-परायण मरुत् लोग सारखूप जल का सिचम करते हें। वे लोग
घोड़े की तरह वेगवान् मेघ को बरसन के लिए विनञ्ज करते और
धर्जनकारी तथा अक्षय्य मेघ का दोहन करते हैं।
७. मरुद्गण ! तुम लोग महान्, बुद्धिशाली, सुन्दर, तेजोविशिष्ट,
पवेत को तरह बली और त्रुतयतिशील हो। तुम लोग करयुक्त गज
की तरह वन का भक्षण करते हो; क्योंकि तुम लोगों ने अरुण-वर्ण
बड़बा को बल प्रदान किया हे।
८. उच्च-ञ्ञानशाली अरुद्गंण सिह की तरह निनाद करते हैं।
सर्वश्नाता मरुद्गण हिरण की तरह सुन्दर हें। सरत् लोग शत्रु-
विनाशक, स्तोता के प्रीतिकारी और कृद्ध होने पर नाशकारी बल से
सम्पन्न हें। एसे मरुद्गण अपने वाहुन भग ओर हथियार के साथ शकु
द्वारा पीडित यजमान की रक्षा करमे के लिए साथ ही आते हें ।
९. हे दल-बद्ध, सनुष्य-हितेषी और वीर्यशाली मरुद्गण ! तुम
लोग बल-हारा विध्यंसक कोध से यवत होकर आकाशं और पृथिवी |
को शब्दायमांन करो। भमरुवृंगण ! तुम लोगों का तेज विमल-स्वरूप
अथवा दशेनीय विद्युत् की तरह रथ के सारथिवाले स्थानं पर अव-
स्थान करता है ।
९२ हिन्दी-ऋणग्वेद
१०. सर्वज्ञ, धनपति, बलशाली, शत्रु-दाशक, असित-पराक्रमी,' सोम-
भक्षक और नेता मरुद्गण भुजाओं में हथियार धारण करते हुँ।
११. वृष्टि-वद्धन-कर्सा मरुदगण सोने के रथ-चक्र-हारा मार्गस्थ
तिनके और पेड की तरह मेघों को उनके स्थान से ऊपर उठा लेते
हैं। बे यज्ञ-प्रिय देवों के यज्ञ-स्थल में गमन करते हें। स्वयं शत्रुओं
प्र आक्रमण करते हैं। अचल पदार्थे का संचालन करते हुँ। दुसरे
के लिए अशक्य सम्पत् और प्रकाशशाली आयुध धारण करते हैं।
१२. रिप-विध्वंसक, सर्व-वस्तु शोषक), वृष्टिदाता, सवंद्रष्टा और
रदर-पुत्र मरुद्गण की, हम स्तोत्र-द्वारा, स्तुति करते हे । घृलिप्रेरक,
शक्तिशाली, ऋजीष-यक्त और अभीष्टवर्षी मरुतों के पास, घन के
लिए, जाओ ।
१३. मरुदुगण ! तुम लोग जिसे आश्रय देते हुए रक्षित करते हो; वह॒
पुरुष सबसे बली हो जाता और वह अश्व-द्वारा अन्न और भनुष्य-द्वारा
धन प्राप्त करता हें। वही बढ़िया यज्ञ करता और एंश्वर्यशाली होता है ।
१४, सरुद्गण ! तुम लोग यजमानों को सब कार्यों में निपुण,
युद्ध में अजेय, दीप्तिमान्, शत्रु-विनाशक, धनवान्, प्रशंसा-भाजन और
सर्वज्ञ पुत्र प्रदान करो। ऐसे पुत्र-पोत्रों को हम सौ वर्ष पोषित करना
अर्थात सो वर्ष जीवित रखना चाहते हूँ।
१५. सरुद्गण ! हमें स्थायी, वीर्यशाली और शत्रृजयी धन दो।
` इस प्रकार शत-सहस्र धन से यक्त होने पर हमारी रक्षा के लिए, जिन्होंने
कर्मे-हारा धन पाया है, बे मरुद्गण आगमन करें ॥
६५ सूक्त
(१२ अनुवाक । देवता अग्नि । यहाँ से ७३ सूक्तों तक के ऋषि
शक्ति के पुत्र पराशर । द्विपदा विराट छन्द)
` (१, अग्नि! पशु चुरानेवाले चोर की तरह तुम भी गाहा में
अवस्थान करो। मेधावी और सदृश-ध्रीति-सम्पञ्च देवों ने तुम्हारे
हिन्दी-ऋण्वेद ह
पद-चिन्नों को लक्ष्य कर अनुगमन किया था। तुम स्वयं हव्य सेवन करो
और देवों के लिए हुव्य बहून करो ॥ यजनीय सारे देवगण तुम्हारे
पास आये थे।
२, देवों ने भागे हुए अग्नि के पलायन-कार्य आदि का अन्वेषण
किया था। अनन्तर चारों ओर अन्वेषण किया गया। तुम इन्द्र आदि
सब देवों के आने पर स्वर्ग की तरह हुए थे अर्थात् अग्नि का
अनुसन्धान करने सब देवता भूलोक आये थे। अग्नि यज्ञ के कारण-
स्वरूप, जलगर्भ में प्रादुर्भंत और स्तोत्र-द्वारा प्रर्चाद्त हैं। अग्नि को
छिपाने के लिए जल बढ़ गया था।
३. अभीष्ट फल की पुष्टि की तरह अग्नि रमणीय, पृथिवी की
तरह विस्तीर्ण, पर्वत की तरह सबके भोजयिता ओर जल की तरह
सुखकर हैं। अग्नि, युद्ध में परिचालित अव और सिन्धु की तरह,
शीघ्रगामी हैँ। एसे अग्नि का कौन निवारण कर सकता हैं ?
. ४. जिस प्रकार भगिनी का हितैषी भ्राता है, उसी प्रकार सिन्धु
के हितैषी अग्नि हैं । जैसे राजा शत्रु का विनाश करता है, वेसे ही अग्नि
वन का भक्षण करते हैँ । जिस समय वायुप्रेरित अग्नि वन जलाने में लगते
हुँ उस समय पृथिवी के सब ओषधि-रूप रोम छिन्न कर डालते हं ।
५. जल के भीतर बेठे हंस की तरह अग्नि जल के भीतर प्राण धारण
करते है। उषा-काल में जागकर प्रकाश-द्वारा अग्नि सबको चेतना
प्रदान करते हुँ। सोम की तरह सारी ओषधियों को वाद्धत करते हे॥
अग्नि गर्भस्थ पशु की तरह जल के बीच संकुचित हुए थे। अनन्तर
प्रवद्धित होने पर, अग्नि का प्रकाश द्र तक विस्तृत हुआ ।
६६ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. अग्नि, धन की तरह विलक्षण, सूयं की तरह सब पदार्थो के
दर्सक, प्राणवायु की तरह जीवन-रक्षक और पुत्र की तरह हितकारी हैं।
क ` हिन्दी-हप्वेद
अग्नि अवे की तरह लीक को वहन करते ओर दुग्धदात्री गौ की तरह
उपकारी हैं। दीप्त और आलोक-युवत अग्नि वन दंग्य करते हूँ।
२. अग्नि, रमणीय घर की तरह, घन-रक्षा में समर्थ और पके
जौ की तरह लोक-विजयी हैं। अग्नि, ऋषि की तरह, देवों के
स्तोता और संसार में प्रशंसनीय तथा अश्वं की तरह हर्ष-युक्त हुँ ।
छसे अग्नि हमें अन्व प्रदान करें।
३. दुष्प्राप्यं-लेजा अग्नि यज्ञकारी की तरह ध्रुव और गृह
स्थित गृहिणी (जाया) की तरह घर के भूषण हैं। जिस समय अग्नि
विचित्र-दीप्तियुक्त होकर प्रज्वलित होते हँ, उस समय वह शुस्रंवण
सूर्यं की तरहं हो जातै हें। अग्नि; प्रजा के बीच में रथ की तरह
द्वीप्ति युक्त और संग्राम में प्रभा युक्त हे।
४, स्वामी के द्वारां संचालित सेना अथवा घनुंद्धारी के दीप्ति-
मख वाँण की तरह अग्नि शत्रुओं में भय संचार हैं। जो उत्पन्न
हुआ है और जो उत्पन्न होगा, बह सब अग्नि है। अग्निदेव फुसारियों
के जार हैँ; (क्योंकि 'लाजा-होस' के अनन्तरं ही कन्या विवाहिता
तसंआी जातीं है।) विवाहिता स्त्रियों के पति हँ; (क्योंकि विवां-
हिता चारी अग्निं कौ सेवा करने में पुरुष को साहाथ्य देती हें।)
५० जिसे प्रकार गाये घर में जाती हैं, उसी प्रकार ह जंगम ओर
ह्यांवर अर्थात् पंशुं और धान्य आदि उपहारे के साथ प्रदीप्त अग्मि
के पासं जातें हैं। जलन्प्रवाह की तरह अग्नि इधर-उधर ज्वाला
प्रेरितं करते हुँ। आकाशं में देशेनीय अग्नि की किरणं मिलित
होती हूँ । |
६७ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. जेसे राजा संर्वे-कर्मे-क्षम व्यक्ति काँ आदर क॑रते हैं, वेसे
ही अरण्य-जात और मनुष्यों के मित्र अग्नि यजसान पर अनुग्रह करते
हिन्दी-ऋष्वेद
हैँ ॥ अग्नि पालक की तरह कर्म-साधक, कर्म-शील की तरह भद्र+
देवों को बुलानवाले और हव्य-वाहक हैं। अग्नि शोभन-कर्मा बनो ॥
२. अग्नि सारा हुव्यरूप धन अपने हाथ में धारण करके गुह
के बीच छिप गय। एसा होने पर देवता लोग डर गये। नेता ओर
कर्म-धारयिता देवों चे जिस समय हुदय-धृत मंत्र-द्वारा अम्ति कौ
स्तुति की, उस समय उन्होंने अग्नि को प्राप्त किया ।
३. सूर्य को तरह अग्नि पृथिवी और अन्तरिक्ष को घारण किये
हुए हैं। साथ ही सत्य संत्र-द्वारा आकाश को धारण करते हैं।
विइवायु था सर्वाञ्च अग्नि ! पशुओं की प्रिय भूमि की रक्षा करो ओर
पशुओं के चरने की अयोग्य गुहा में जाओ।
४, जो पुरुष गुहास्थित अग्नि को जानता है और जो यज्ञ को .
धारयिता अग्नि के पास जाता हे तथा जो लोग यज्ञ का अनुष्ठान करते
हुए अग्नि की स्तुति करते हैं, ऐसे लोगों को अग्निदेव तुरत धन कू
ब्रात बता देते हैं।
५, जिन अग्नि ने ओषधियों में उनके गुण स्थापित किये हुँ औरं
मोतू-छप ओषधियों में उत्पद्यसान पुष्प, फल आदि निहित किये हैं,
मेघावी पुरुष जलमध्यस्थ और ज्ञानदाता उन्हीं विश्वायु अग्नि की,
गृह की तरह, पूजा करके कर्म कंरतें हें ॥
६८ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. हव्य-घारक अग्नि हव्य द्रव्य को मिलाकर आकाश में उपस्थित
करते हें तथा स्थावर-जंगम वस्तुओं और रात्रि को अपने तेज-द्वारा
प्रकाशित करले हैं। सारे देवों में अग्नि प्रकाशमान और स्थावर, जंगम
आदि में व्याप्त हैं।
२, अग्निदेव ! तुम्हारे सुखें काष्ठ से जलकर प्रकट होने
पर सारे यजमान तुम्हारे कर्म का अनुष्ठान करे हैं। तुम अमर
९६ हिन्दी-ऋग्वेद
हो। स्तोत्र-द्वारा तुम्हारी सेवा करके वे सब प्रकृत दवत्व प्राप्त
करते हँ।
३, आग्नि के यज्ञस्थल में आने पर उनकी स्तुति और यज्ञ किये
ज्ञाते हें। अग्नि बिइवायु हैं। सब यजमान अग्नि का यज्ञ करते हैं।
अग्निदेव ! जो तुम्हें हव्य देता है अथवा जो तुम्हारा कर्म करने
को सीखता हे, तुम उसके किये अनुष्ठान को जानकर उसे धन दो।
४. हे अग्नि ! तुम मन् के पुत्रों में देवों के आह्वानकारी रूप से
अवस्थान करते हो! तुम्हीं उनके धन के अधिपति हो। उन्होंने पुत्र
उत्पन्न करने के लिए अपने शरीर में शक्ति की इच्छा की थी अर्थात्
तुम्हारे अनुग्रह से उन्होंने पुत्र-प्राप्ति की थी। वे मोह का त्याग
' करके पुत्रों के साथ त्रिकाल तक जीवित रहें।
५, जिस प्रकार पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करता है, उसी
प्रकार यजमान लोग तुरत अग्नि की आज्ञा सुनते और अग्नि-द्वारा
आदिष्ट कार्यं करते हें। अनन्त-धनशाली अग्नि यजसावों के यज्ञ के
द्वार-छप धन को प्रदान करते हुँ। यज्ञ-रत गृह में अग्नि आसक्त हैं;
ओर, उन्होंने ही आकाश को नक्षत्र-युक्त किया था।
६९ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. शुक्लवर्ण अग्नि उषा-प्रेमी सुर्यं की तरह सर्व-पदार्थ-प्रकादाक
हैं। अग्नि, प्रकाशक सुर्यं की ज्योति की तरह, अपने तेज से द्यो और
पृथिवी को एक साथ परिपूर्ण करते हैं। हे अग्निदेव ! तुम प्रकट होकर
अपने कर्म-द्वारा सारे जगत् को परिव्याप्त करो। तुम देवों के पुत्र
होकर भी उनके पिता हो; क्योंकि पुत्र की तरह देवों के दूत हो और
पिता की तरह देवों को हुब्य देते हो। ।
२. सेदादी, निरहंकार और कर्माकर्म-ज्ञाता अग्नि, गो के स्तन
की तरह, सारा अन्त स्वादिष्ट करते हें। संसार में हितैषी पुरुष
हिन्दी-ऋग्वेद ९७
की तरह अग्नि यज्ञ में आहूत होकर और यज्ञस्थल में आकर प्रीति-
प्रदान करते हैं।
३. घर सें पुत्र की तरह उत्पन्न होकर अग्नि आनन्द प्रदान.
करते हैं तथा अश्व की तरह हर्षान्बित होकर युद्ध में शत्रुओं
को अतिक्रम करते हें। जब में मनुष्यों के साथ में समान-निवासी
देवो को बुलाता हूँ, तब तुम अग्नि! सबदेवों का देवत्व प्राप्त
करर ही।
४. शाक्षसादि तुम्हारे व्रत आदि को ध्वंस नहीं करते; क्योंकि
तुम उन ब्रतादि सें वर्तमान यजसानो को यज्ञ-फलरूप सुख प्रदान करते
हो। यदि राक्षसादि तुम्हारे ब्रत का नाश करें, तो अपने साथी नेता
मरुतों के साथ तुम उन बाधकगणों को भगा देते हो।
५. उषाः-प्रेसी सुर्ये की तरह अग्नि ज्योतिः-सम्पञ्च और निवास-
हेतु हैं। अग्नि का रूप संसार जानता हे। अग्नि उपासक को जानें।
अग्नि की किरण स्वयं हव्य वहन करके यज्ञ-ग॒ह॒ के द्वार पर फंलती
हें; तदनन्तर दर्शनीय आकाश सें जाती हे ॥
७० सूक्त
(देवता अग्नि)
१. जो शोभन दीप्ति से युक्त अग्नि ज्ञान के हारा प्रापणीय हें,
जो सारे देवों के कर्म ओर मनुष्यों के जन्मरूप कर्म के विषय समअ-
कर सारे कार्यो में व्याप्त हुं, बेसे अग्नि से हम प्रभूत अन्न माँगते हें ।
२. जो अग्नि जल, वन, स्थावर ओर जंगम के बीच अवस्थान करते
हैं, उन्हें यज्ञ-गुह और पर्वत के ऊपर लोग हवि प्रदान करते हैं । जेसे
प्रजावत्सल राजा प्रजा के हित का कार्थ करते हँ; बसे ही अमर अग्नि
हमारे हितकर कार्य का सम्पादन करे।
३. संत्रद्वारा जो यजमान अग्नि की यथेष्ट स्तुति करता हँ, उसे
रात्रि में प्रदीप्त अग्नि धन देते हें। हे सर्वज्ञाता अग्नि ! तुम देवों ओर
फा० ७
९८ हिन्दी-ऋग्वेद
मनुष्यों के जन्म जानते हो; इसलिए समस्त जीवों का
पालन करो ।
४. विभिन्न-स्वरूप होकर भी उषा ओर रात्रि अग्नि को वढ्न
करती हैं । स्थावर और जंगम पदार्थ यज्ञ-वेष्टिल अग्नि को वढ्न
करते हैं। देवों के आह्वानकारी वही अग्नि देव-पुजन-स्थान में बेठकर
और सारे यज्ञ कर्मों को सत्य-फल-सम्पन्न करके पित होते हैं।
५, अग्नि! हमारे काम में आने योग्य गौओं को उत्कृष्ट करो ॥
सारा संसार हमारे लिए ग्रहण योग्य उपासना-रूप धन ले आवे।
अनेक देव-स्थानों में मनुष्यलोग तुम्हारी विविध प्रकार की पुजा करते
तथा बढ़े पिता के समीप से पुत्र की तरह तुम्हारे पास से धन
प्राप्त करते हैं। |
६. साधक की तरह अग्नि धन अधिकृत करते हं। अग्नि धनु-
द्र की तरह शूर, शत्रु की तरह भयंकर और युद्ध-क्षेत्र में प्रज्वलित हैं।
७१ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. जैहे स्त्री स्वामी को प्रसञ्च करती हुँ, वेसे ही एक-स्थान-
वातनो ओर आकांक्षिणी भगिनी-ङपिणी अँगुलियाँ अभिलाषी अग्नि
को हव्य प्रदान-द्वारा प्रसन्न करती हैं। पहले उषा कृष्णवर्णा और
पीछे शुञ्रवर्णा होती हु, उन उषा की जैसे किरणें सेबा करती हैं,
बसे ही सारी अंगुलियाँ अग्नि की सेवा करती हैं।
२. हमारे अङ्किरा चास के पितरों ने मंत्र-द्वारा अग्नि की स्तुति
करके बळी और दृढाङ्ग पणि असुर को स्तुति-शब्द-द्वारा ही नष्ट
किया था तथा हमारे लिए महान् छुलोक का मार्ग दिया था। अनन्तर
उन्होंने सुखकर दिवस, आदित्य और पणि-द्वारा अपहृत गोओं को
पाया था।
हिन्दी-क्रग्वेद ९९
३. अद्धिरोबंशीयों ने यज्ञ-झप अग्नि को, धन की तरह, धारण
किया था। अनन्तर जिन यजमानों के पास धन है और जो अन्य-
विषयाभिलाष त्याग करके अग्नि को धारण करते एवं अग्नि की सेवा
में रत रहते हैं, वे हव्य के हारा देवों और मनुष्यों की श्रीवद्धि करके
अग्नि के सामने जाते हैं ।
४. सातरिश्वा या व्यान-वाथु के विलछोड़ित करने पर शुश्नवर्ण
होकर अग्नि समस्त यज्ञ-गह में प्रकट होते हैं उस समय जिस तरह
सित्र राजा प्रबल राजा के पास अपने आदमी को दूत-कमे में नियुक्त
करता हैं, उसी तरह भृगु ऋषि की तरह यज्ञे-सम्पादक यजमान
अग्नि को दूत-कर्म से नियोजित करता हैे।
५. जिस समय यजमान महान् और पालक देवता को हज्य-रूप
रस देता है, उस समय, अग्निदेव ! श्परशेन-कुशल राक्षस आदि तुम्हें
ह॒विर्वाहक जानकर भाग जाते हैं। वाणप्रक्षेपक अग्नि भागते हुए
राक्षसों के प्रति अपने रिपु-संहारी धनुष से दीप्तिशाली वाण फेंकते हें
तथा प्रकाशशाली अग्नि अपनी पुत्री उषा में अपना तेज स्थापित
करते हुँ।
६. अग्नि ! अपने यज्ञ-एह में, मर्यादा के साथ, जो यजमान
तुम्हें चारों तरफ़ प्रज्वलित करता हे; ओर, अनुदिन अभिलाष करके
तुम्हें अञ्न प्रदान करता है, हे द्विवर्हा या दो सध्यम-उत्तम स्थानों में
वद्धित अग्नि ! तुम उनका अन्न बद्धित करते हो। जो युद्धार्थो पुरुष को,
रथ के साथ, युद्ध में प्रेरण करता हूँ, उसे धन प्राप्त हो।
७. जिस प्रकार विशाल सात नदियाँ समुद्राभिसुख धावित होती
हुँ, उसी प्रकार हव्य का अन्न अग्नि को प्राप्त होता है। हमारी ज्ञातिवाले
हमारे अञ्च का भाग नहीं पाते अर्थात् हमारे पास प्रचुर धन नहीं
है; इसलिए हे अग्नि ! तुम प्रकृष्ट अज्ञ जानकर देवों को सूचित करो।
८. अग्नि का विशुद्ध और दीप्तिमान् तेज अन्न-प्राप्ति के लिए
मनुष्य-पालक या यजमान को व्याप्त हो। उसी तेज-द्वारा अग्नि गर्भ-
१०० हिन्दी-क्रग्वेद
निषिक्त वीर्य बलवान् प्रशस्य, युवक और शोभनकर्मा पुत्र उत्पन्न
करें तथा यज्ञ आदि कर्ख में प्रेरण करें ।
९. सन की तरह शीव्रगामी जो सूर्य स्वर्गीय पथ में अकेले जाते
हँ, बे तुरत ही विविध धन प्राप्त करते हैं! शोभन और सुबाहु
मित्र और वरुण हमारी गोओं के प्रीतिकर और अमृत-तुल्य दूध की
रक्षा करते हुए अवस्थान करें।
१०. हे अग्नि ! हमारी पैतृक मित्रता नष्ट नहीं करना; क्योंकि
लुम भूतदर्शी और वत्तंमान विषय-ज्ञाता हो। जैसे सुर्यं की किरणें
अन्तरिक्ष को ढक लेती हैं, बैसे ही जरा या बुढ़ापा हमारा विनाश
करता हे। विनाश-कारण जरा जिस प्रकार न आने पाये, वेसा करो।
७२ सुक्त
(देवता अग्नि)
१. ज्ञाता और नित्य अग्नि की स्तुति आरम्भ करो अथवा
नित्य ब्रह्मा के मंत्र अग्नि ग्रहण करते हूँ। अग्नि मनुष्यां के हितसाधक
घन हाथ सें धारण करते हैं। अग्नि स्तुति-कर्त्ताओं को अमृत या हिरण्य
प्रदान करते हृ। अग्नि ही सर्वोच्च धन के अधिपति हैं।
२. सारे असरण-धर्मा देवगण और मोह-रहित मरुद्गण, अनेक
कामना करने पर भी हमारे प्रिय और सर्वव्यापी अग्नि को नहीं पा सके ।
पेदल चलते-चलते थककर और अग्नि के प्रकाश को लक्ष्य कर
अन्त को वे लोग अग्नि के घर में उपस्थित हुए।
३. हे दीप्तिमान् अग्नि ! दीप्तिमान् सरुतों ने तीन वर्ष तक
तुम्हारी घृत से पूजा की थी। अनन्तर उन्हें यज्ञ में प्रयोग योग्य
नास और उत्कृष्ट असर-शरीर प्राप्त हुआ ।
४. यज्ञाह देवों ने विज्ञाल झुलोक और पृथिवी में विद्यमान रह-
कर रुद्रं या अग्नि के उपयुक्त स्तोत्र किया था। मरुतों ने इन्द्र के
साथ उत्तम स्थान में निहित अग्नि को समभकर उसे प्राप्त किया था।
हिन्दी-क्रग्वैद १०१
५. हे अग्निदेव ! देवता तुम्हें अच्छी तरह जानकर बैठ गये
और अपनी स्त्रियों के साथ सम्मुखस्थ जानुयुक्त अग्नि की पुजा
की । अनन्तर मित्र अग्नि को देखकर, अग्नि-द्वारा रक्षित, मित्र देवों ने
अग्नि के शरीर का शोषण कर यज्ञ किया । |
६. अग्नि ! तुम्हारे अन्दर निहित एकॉविशति निगढ़ पदों वा
यज्ञों को यजमानों ने जाना हे और उन्हीं से तुम्हारी पुजा करते हैं।
तुम भी यजमानों के प्रति उसी प्रकार स्नेह-युक्त होकर उनके पशु
और स्थावर-जंगम की रक्षा करो ।
७. अग्नि ! सारे जानने योग्य विषयों को जानकर प्रजाओं
के जीवन-धारण के लिए क्षुधा-निवृत्ति करो। आकाश और पृथिवी
पर जिस मार्ग से देवलोक जाते हैं, वह जानकर और आलस्य-रहित
होकर, दूत-रूप से, हव्य वहन करो।
८. शोभन-क्म-सस्प्चा विशाल सप्त नदियाँ युलोक से निकली
हैं। ये सारी नदियाँ अग्नि-द्वारा स्थापित हें। यज्ञज्ञाता अङ्गिरा
लोगों ने असुरो-द्वारा चुराये हुए गोधन का गमन-मार्ग तुमसे जाना
था। तुम्हारी कृपा से सरमा ने उनके पास से प्रचुर गोदुग्ध प्राप्त
किया था। उसके द्वारा मनुष्य की रक्षा होती हे।
९. आदित्यगण ने अमरत्व-सिद्धि के लिए उपाय करके पतन-
निरोध के लिए जो सारे कमं किये थे, अदिति-हरूपिणी जननी पृथ्बी
नें सारे जगत् के धारण के लिए उन महानुभाव पुत्रों के साथ जो
विशेष महत्त्व प्राप्त किया था, अग्निदेव ! तुमने हव्य भक्षण किया
था, यही सबका कारण हेँ। |
१०. इस अग्नि में यजमानों ने सुन्दर यज्ञ-सम्पत् स्थापित की थी
एवं यज्ञ के चक्षुःस्वरूप घत दिया था। अनन्तर देवता लोग आये।
यह देखकर अग्निदेव ! तुम्हारी समुज्ज्वल शिखा, वेगवती नदी की
तरह, सारी दिशाओं में फली ओर देवों ने भी उसे जानां ।
१०२ हिन्दी-क्रण्वेद
७३ सूक्त
(देवता अग्नि | छन्द त्रिष्टुप्)
१. पेतूक धन की तरह अग्नि अन्नदाता हें; शास्त्रज्ञ व्यक्ति के
शासन की तरह अग्नि नेता हुँ; उपविष्ट अतिथि की तरह अग्नि प्रीति-
पात्र हुँ; ओर, होता की तरह अग्नि यजमान का घर ्वाद्धत
करते हूं ।
२. प्रकाशमान सूर्य की तरह यथार्थदर्शी अग्नि अपने कार्य-द्वारा
समस्त दुःखों से रक्षा करते हें। यजमानों के प्रशंसित अग्नि प्रकृति
के स्वरूप की तरह परिवर्तन-रहित हें। अग्नि आत्मा की तरह सुख-
कर हें । एसे अग्नि यजमानों-द्रारा धारणीय हैं।
३. द्युतिमान् सूर्य की तरह अग्नि समस्त संसार को धारण करते
हें। अनुकूल सुहृइ-से सम्पन्न राजा की तरह अग्नि पृथिवी पर निवास
करते हैं! संसार अग्नि के सामने पितृ-ग॒ह में पुत्र की तरह बेठता
है। अग्नि पति-सेविता और अभिनन्दनीया स्त्री की तरह विशुद्ध हें।
४. हे अग्नि ! संसार उपद्रव-शून्य स्थान पर अपने घर में, अनवरत
काष्ठ से जळाकर, तुम्हारी सेवा करता हें। साथ ही अनेक यज्ञों
में अन्त भी प्रदान करता है। तुम विश्वायु या सर्वानव होकर हमें
धन दो।
५. अग्निदेव ! धनशाली यजमान अन्न प्राप्त करे। जो विद्वान्
तुम्हारी स्तुति करते और तुम्हें हव्य-दान करते हैं, वे दीर्घ आयु
प्राप्त करें । हम लड़ाई के मैदान में शत्रु का अन्न लाभ करें ॥
अनन्तर यज के लिए देवों का अंश देवों को अर्पण करें।
६- नित्य दुग्धश्ालिनी और तेजस्विनी गाये अग्नि की अभिलाषा
करके यज्ञस्थान में अग्नि को दुग्ध पान कराती हें। प्रबहमाना नदियाँ
अग्नि के पास अनुग्रह की याचना करके, पर्वत के पास दूर देश से
प्रवाहित होती हैं।
हिन्दी-व्दस्वेद १०३
७. है झुतिमाद अग्नि! यज्ञाधिकारी देवों ने तुम्हारे अनुग्रह
की याचना करके तुम्हारे ऊपर हव्य स्थापन किया हुँ । अनन्तर
भिन्न-भिन्न अनुष्ठान के लिए उषा और रात्रि को भिन्नरूपिणी किया
है। रात्रि को कृष्णवर्णं और उषा को अरुणवर्ण किया है।
८. तुम जो मनुष्यों को, अर्थे-लाभ के लिए, यज्ञ-कर्म में प्रेरित करते
हो--वे और हम धनी होंगे। तुमने आकाश, पृथिबी और अन्त-
रिक्ष को परिपूर्ण किया हृ। साथ ही सारे संसार को, छाया की तरह,
रक्षित करते हो।
९. अग्निदेव ! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित होकर हम अपने अइव |
से शत्रु के अइव का वध करेंगे। अपने योद्धाओं के द्वारा शत्रु के
योद्धाओं को और अपने वीरोाँद्वारा शत्रु फे बीरों का वध करेंगे।
हमारे विद्वान् पुत्र पतृक धन के स्वामी होकर सौ वर्ष जीवन का
भोग करें।
१०. हे मेधावी अग्नि ! हमारे सब स्तोत्र तुम्हारे मन और अन्तः-
करण को प्रिय हों। देवों के संभोग योग्य अन्न तुम्हारे अन्दर स्थापित
करके हम तुम्हारे दारिद्रय-विनाशी धन की रक्षा कर सकें।
७४ सुक्त
(१३ अडुवाक । दैवता आग्नि । यहाँ से ६३ सूक्त तक के+ऋषि
रहूयण् के पुत्र गोतम । छन्द त्रिष्टुप्)
१. जो अग्नि दूर रहकर भी हमारी स्तुति सुनले हैँ, यज्ञ
में आगमनशील उन अग्नि की हम स्तुति करते हैं।
२. जो अग्नि, वधकारिणी शतरुभूता प्रजाओं के बीच संगत होकर
हलिदनिकारी यजमान के लिए धन की रक्षा करते हँ, उन अग्नि की
हम स्तुति करते हैं। |
३. सारा लोक उत्पन्न होते ही अग्नि की स्तुति करे, अग्नि
शत्रु-हन्ता और युद्ध में शत्र-धन की जय करते हैं।
१०४ हिन्दी-ऋग्वेद
४. अग्नि ! जिस यजमान के यज्ञ-गृह में तुम देव-दूत होकर
उनके भोजन के लिए हव्य वहन करते और यज्ञ शोभित करते हो--
५. हे बल के पुत्र अङ्गिरा (अग्नि) ! उसी यजमान को सारे
मनुष्य शोभन-देव-संयुक्त, झोभन-हव्य-सम्पञ्न और शोभन-यज्ञयुक्त करते हुँ ॥
६. हे ज्योसिमंय अग्नि ! इस यज्ञ में, स्तुति ग्रहण करने के लिए
देवों को हमारे समीप ले आओ और भोजन करने के लिए हव्य
प्रदान करो।
७. हे अग्नि ! जिस समय तुम देवों के दूत बनकर जाते हो, उस
समय तुम्हारे गतिशाली रथ के अइव का शब्द नहीं सुनाई देता ।
८. जो पुरुष पहले निकृष्ट है, वह तुम्हें हव्य दान करके तुम्हारे
द्वारा रक्षित और अन्न-युक्त होकर लज्जा-रहित (ए३वर्यशाली) बनता हे ।
९. हे प्रकाशमान अग्नि ! जो यजमान देवों को हव्य प्रदान करता
है, उसे प्रभूत, दीप्त और वीर्यशाली धन दान करो ।
७५ सुक्त
(देवता अग्नि । छन्द गायत्री)
१. अग्निदेव ! मुख में हव्य ग्रहण करके देवों को अतीव प्रसञ्च
करो और हमारा अतिविद्याल स्तोत्र ग्रहण करो।
२. हे अङ्गिरा ऋषि के पुत्रों और मेधावियों में श्रेष्ठ! हम
तुम्हारे ग्रहणयोग्य और प्रसन्नता-दायक स्तोत्र सम्पादन करते हें॥
३. अग्नि ! मनुष्यों में तुम्हारा योग्य बन्धु कौन है? तुम्हारा
यज्ञ कौन कर सकता है? तुम कौन हो? कहाँ रहते हो ?
४. अग्नि ! तुम सबके बन्धु हो, तुम प्रिय मित्र हो । तुम मित्रों
के स्तुति-पात्र मित्र हो।
५. अग्नि! हमारे लिए सित्र और वरुण की अर्चना करो और
देवों की पूजा करो। विशाल यज्ञ का सम्पादन करो और अपने यज्ञ-
गृह सं गसन करो।
हिन्दी-ऋण्वेद १०५
७६ सूक्त
(देवता अभि । छन्द त्रिष्टुप् )
१. अग्नि! तुम्हारी सनस्तुष्टि करने का क्या उपाय हैं?
तुम्हारी आनन्ददायिनी स्तुति कसी हे? तुम्हारी क्षमता का पर्याप्त
यज्ञ कोन कर सकता हे ? कसी बुद्धि के द्वारा तुम्हें हव्य प्रदान किया
जाय ?
२. अग्नि! इस यज्ञ में आओ। देवों को बुलाकर बेठो। तुस
हमारे नेता बरो; क्योंकि कोई तुम्हारी हिसा नहीं कर सकता।
सारा आकाश और पृथिवी तुम्हारी रक्षा करें एवं तुम देवों की अत्यन्त
प्रस्न करने के लिए पूजा करो।
३. अग्नि ! सारे राक्षसों को दहन करो तथा हिसाओं से यज्ञ
की रक्षा करो । सोम-रक्षक इन्द्र को, उनके हरि नाम के दोनों अश्वो के
साथ, इस यज्ञ में ले आओ। हम सुफलदाता इन्द्र का आतिथ्य
प्रदर्शन करेंगे ।
४. जो अग्नि मुख-द्वारा हव्य वहन करते हुँ, उन्हें अपत्य आदि
फलों से युक्त स्तोत्र-द्रारा आह्वान करते हूँ। अग्नि ! तुम अन्य देवों
के साथ बैठो और हे यजनीय अग्नि ! तुम होता और पोता के कार्य
करो। तुम धन के नियामक और जन्मदाता होकर हमें जगाओ।
५. तुमने मेधावियों में मेधावी बनकर जेसे मेधावी मनु के यज्ञ
में हव्य-द्वारा देवों को पुजा की थी, वसे ही हे होम-निष्पादक सभ्य
अग्नि ! तुम इस यज्ञ में देवों की आनन्ददायक जुहू आलुक् से
पुजा करो ।
७७ सूक्त
(देवता अग्नि)
१. जो अग्नि अमर, सत्यवान् देवाह्वानकारी और यज्ञ-सम्पादक
हैं तथा जो मनुष्यों के बीच रहकर देवों को हवियुक्त करते हूँ, उन
१०६ हिन्दी-ऋग्वेद
अग्नि के हुम अनुरूप हव्य कैसे प्रदान करेंगे? तेजस्वी अग्नि की,
सब देवों के उपयुक्त, केसी स्तुति करेंगे ?
२. जो अग्नि यज्ञ सं अत्यन्त सुखकारी, यथार्थदशी और देवा-
ह्वानकारी हूँ, उन्हें स्तोत्र-द्वारा हमारे अभिमुख करो। जिस समय
अग्नि मनुष्यों के लिए देवों के पास जाते हे, उस समय वे देवों को जानते
और मन या नसस्कार-द्वारा पूजा करते हैं।
३. अग्नि यज्ञ-कर्ता हुँ, अग्नि संसार के उपसंहारक ओर जनयिता
हुँ। सखा की तरह अग्नि अलब्ध धन देते हें। देवाभिलाषी प्रजागण
उन दर्शनीय अग्नि के समीप जाकर अग्नि को ही यज्ञ का प्रथम देवता
मानकर स्तुति करते हैं।
४. अग्नि नेताओं के बीच उत्कृष्ट नेता और शत्रुओं के विनाश-
कारी हुँ। अग्नि हमारी स्तुति और अन्नयुक्त यज्ञ की अभिलाषा
करे तथा जो धनशाली और बलशाली यजमान लोग अन्न प्रदान करके
अग्नि के मननीय स्तोत्र की इच्छा करते हैं, अग्नि उन लोगों की स्तुति
की भी इच्छा करें।
५. यज्ञयुक्त और सर्वज्ञ अग्नि इसी प्रकार मेधावी गोतम आदि
श्रद्षियो-द्वारा स्तुत हुए थे। अग्नि ने भी उन्हें प्रकाशमान सोमरस
का पान और भोजन कराया था। हमारी सेवा जानकर अग्नि पुष्टि
प्राप्त करें।
७८ सूक्त
(देवता अग्नि । छुन्द् गायत्री)
१. हें उत्पन्नज्ञाता और सर्वद्रष्टा अग्नि ! गोतम-बंशीयों ने तुम्हारी
स्तुति की हे। धृतिमान् स्तोत्र-द्वारा हम तुम्हारी स्तुति करते हैं।
२. धनाकाडक्षी होकर गोतम जिन अग्नि की स्तुति-द्वारा सेवा
करते हे, उन्हीं की, गुण-प्रकाशक स्तोत्र-द्वारा, हम बार-बार स्तुति
करते हें। |
हिन्दी-ऋण्वेद १०७
३. अङ्झिरा की तरह सर्वापेक्षा अधिकतर अन्नदाता अग्नि को
हम बुलाते हें और शुतिमान् स्तोत्र-द्वारा स्तुति करते हें।
४. हे अग्तिदंव ! तुम दस्युओं, अनार्यो या शत्रुओं को स्थानं-अष्ट
करो। तुम सापेक्षा शत्रु-हन्ता हो । झुतिमान् स्तोत्र-द्वारा हम तुम्हारी
स्तुति करते हूँ।
५. हम एहुगरा-दंद.४ हं। हस अग्नि के लिए माधु्ययक्त वाक्य
का प्रयोग करते और शूतिमान् स्तोत्र-द्वारा स्तुति करते
७९ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द गायत्री, त्रिष्टुप् ओर उष्णिक् । प्रथम
तीन मंत्र विद्य द्रप अग्नि के विषय में )
१. सुदर्ण केशवाले अग्नि (विद्युत्-छप सं) हननशील मेघ को
कम्पित करते और वायु को तरह शीक्रगामी हैं। वे सुन्दर दीप्ति
से युक्त होकर सेघ से वारि-वर्षण करना जानते हुँ। उषा यह बात
नहीं जानती। उषा अन्नशाली, सरल और निजकार्य-परायण प्रजा की
तरह हैं:
२. अग्नि ! तुम्हारी सुन्दर और पतनशील किरण, मरुतों के
साथ, भेघ को ताडित करती हँ । कुष्णवर्ण और वर्षणशील मेघ गरजा
हैं। मेघ सुखकर और हास्य-थुक्त वुष्टि-बिन्दु के साथ आता हें।
पानी गिर रहा है, मघ गरज रहा है।
३. जिस समय अग्नि, वृष्टि-जल-द्वारा, संसार को पुष्ट करते हैं
तथा जल के व्यवहार का सरल उपाय (स्नान, पान आदि) दिखा
देते हँ, उस समय अर्यमा, मित्र, वरुण और समस्त दिग्गामी सरुद्गण
मघ के जलोत्पत्ति-स्थान का आच्छादन उद्घाटित कर देते हैं।
४. हे बल-पुत्र अग्नि! तुम प्रभूत गो-युक्त अन्न के मालिक
हो। हे सबंभूतञ्चाता ! हमें तुम बहुत धन दो।
१०८ हिन्दी-क्रण्वेद
५. दीप्तियुक्त, निवास-स्थानदाता और मेधावी अग्नि स्तोत्र-
हारा प्रशंसनीय हें। हे बहुमुख अग्नि! जिस प्रकार हमारे पास धन-
युक्त अन्न हो, उसी प्रकार दीप्ति प्रकाशित करो।
७००4
६. उज्ज्वल अग्नि ! दिन अथवा रात्रि सं स्वयं या प्रजा-द्वारा
राक्षसादि को बिताडित करो। हे तीक्ष्ण-मुख अग्नि! राक्षस को
दहन करो ।
७. अस्निदेव ! तुम सारे यज्ञों में स्तुति-भाजन हो। हमारी
गायत्री-द्वारा तुष्ट होकर, रक्षण-कार्य-दारा, हमें पालित करो।
८. अस्ति ! हमें दारिद््य-विनाशी, सबके स्वीकार योग्य और
सारे संग्रामों में घन दो। | |
९. अग्नि १ हमारे जीवन के लिए सुन्दर ज्ञानयुक्त, सुख-हेतु-
भूत ओर सारी आयु का पृष्टि-कारक धन प्रदान करो।
१०. है घनाभिलाषी योतम ! तीकण-ज्वालायुक्त अग्नि की विशुद्ध
स्तुति करो ।
११. अग्नि ! हमारे पास या दूर रहकर जो शत्रु हमारी हानि
करता हुँ, वह विनष्ट हो। तुम हमारा वढ्न करो ।
१२. सहत्राक्ष या असंख्य-ज्चाला-सम्पन्न और सर्वे-दर्शी अग्नि
राक्षसों को ताडित करते हूँ। हमारी ओर से स्तुत होकर देवों के
आह्वानकारी अग्नि उनकी स्तुति करते हैं।
७० सुत्त
(देवता इन्द्र)
१. हे बलशाली और वद्भधर इन्द्र! तुम्हारे इस हषकारी
सोसरस का पान करने पर स्तोता ने तुम्हारी वृद्धिकारिणी स्तुति
की थी। तुमने बल-द्वारा पृथिवी पर से अहि को ताडित किया था
तथा अपना प्रभुत्व या स्वराज्य प्रकट किया था । |
हिन्दी-ऋणग्वेद १०९
२. इन्द्रदेव ! सेचन-स्वभाव, हर्षकर और श्येन पक्षी-द्वारा
आवीत तथा अभिषुत सोमरस ने तुझ्हें प्रसञ्च किया था । वच्छिन् ! अपने
बल-द्वारा अन्तरीक्ष के पास से तुमने वृत्र का विनाश किया था
तथा अपना प्रभुत्व प्रकट किया था।
३. हे इन्द्र ! जाओ, शत्रुओं का सामना करो और उन्हें पराजित
करो। तुम्हारे वप्त्र का बंग कोई रोकनवाला नहीं है। तुम्हारा बल
पुरुष-विजयी हें। इसलिए तुम वृत्र का वध करो । वृक्र-द्वारा रोका
हुआ जल प्राप्त करो और अपना प्रभुत्व प्रकट करो।
४. इन्द्र ! तुमने भूलोक और यूलोक--दोनों लोकों में वृत्र का
वध किया हूँ। मरुतों से संयुक्त और जीवों के तृप्तिकर वृष्टि-जल
गिराकर अपना प्रभुत्व प्रकट करो ।
५. कुद्ध इन्द्र ने सामना करके कम्पसान वृत्र के उन्नत हनु-
प्रदेश पर प्रहार किया, वृष्टि का जल बहने दिया और अपना प्रभुत्व
प्रकट किया।
६. शतधाराओंवाले वज्त्र से इन्द्र ने वुत्रासुर के कपोल-देश पर आघात
किया। इन्द्र ने प्रसन्न होकर स्तोताओं के लिए अन्न को जुटाने की
इच्छा की ओर अपना प्रभुत्व प्रकट किया।
घ-वाहून ओर वज्त्रधर इन्द्र ! शत्रु लोग तुम्हारी क्षमता
की अवहेलना नहीं कर सकते; क्योंकि तुस सायावी हो, माया-हारा
तुमने सृग-रूप-धारी वृत्र का वध किया था और अपना प्रभुत्व प्रकट
किया था।
८. इन्द्र ! तुम्हारे वज्र नब्बं नदियों के ऊपर विस्तृत हुए थे।
इन्र । तुम्हारा वीर्यं यथष्ट हुं। तुम्हारी भुजाथं बहुबलधारिणी हैं।
अपना प्रभुत्व प्रकट करो ।
९, एक साथ हजार मनुष्यों ने इन्द्र की पुजा की थी। बीस मनुष्यों
११७ हिन्दी-ऋग्वेद .
(१६ ऋत्विक्, सस्त्रीक यजमान, सदस्य और श्षिता--२०) ने इन्द्र
की स्तुति की थी। सौ ऋषियों ने इन्द्र की बार-बार स्तुति की थी!
इरद्र के लिए हुव्य अज्ञ ऊपर रखा गया था। इन्द्र ने अपना प्रभुत्व
प्रकट किया था।
१०. इन्द्र ने अयने बल से वृत्र के बल का विनाश किया था।
पराभूत करनेवाले शस्त्र से उन्होंने बृच्र का शस्त्र विनष्ट किया था।
इन्द्र के पास असीम शक्ति हे; क्योंकि उन्होंने वृत्र का वध करके,
बृत्र-हारा रोका गया, जल लिगत किया था । इन्द्र ने अपना प्रभुत्व
प्रकट किया था। |
११. वत्त्रधारी इन्द्र ! तुम्हारे डर के मारे यह आकाश और
विवी कम्पित हुए थे; क्योंकि तुमने सरुतों से मिलकर वृत्र का
बध किया तथा अपना प्रभुत्व प्रकट किया था।
१२. अपने कम्पन या गर्जन से वृत्र इन्द्र को नहीं डरा सका। इन्र
के लोहमय और सहस्रधारायुक्त वस्न ने वृत्र को आकान्त किया
और इख ने अपना प्रभुत्व प्रकट किया।
१३. इन्द्र! जिस समय तुमने वृत्र पर प्रहार किया था,
उस ससय, तुम्हारे अहि के वध के लिए, झृतसंकल्प होने पर तुम्हारा
बल आकाश में व्याप्त हुआ था। तुसने अपना प्रभुत्व प्रकट
किया था ।
१४, वच्चघारी इन्द्र ! तुम्हारे गर्जन करने पर स्थावर और जंगस '
काँप जाते हैं। वच्ञ-निर्माता त्वष्टा भी तुम्हारे कोप-भय से कम्पित
हो जाते हुँ। तुमने अपना प्रभुत्व प्रकट किया है।
१५. सर्व-व्यापक इन्द्र को हम नहीं जान सकते। अत्यन्त दूर में
अवस्थित इन्द्र को अपने सामर्थ्य से कौन जान सकता है ? इन्द्र में देवों
ने धन, वीर्ये ओर बल स्थापित किया था। इन्द्र से अपना प्रभुत्व प्रकट
किया था ॥
हिन्दी-ऋणग्वेद १११
१६. अथर्वा नामक ऋषि, समस्त प्रजा के पितृ-भूत मनु और
अथर्वा के पुत्र दध्यङ ऋषि ने जितने यज्ञ किये, सबमें प्रयुक्त हुव्य,
अन्न और स्तोत्र, प्राचीन यज्ञों की तरह, इन्द्र को ही प्राप्त हुए थे।
पञ्चम अध्याय समाप्त
८१ सूक्त
(बष्ठ अध्याय । दैवता इन्द्र । छन्द पङ त्ति)
१. वृत्र-हन्ता इन्द्र मनुष्यों की स्तुति-द्वारा बल और हर्ष से
प्रवद्धित हुए थे। उन्हीं इन्द्र को हस महान् और क्षुद्र संग्रामों में बुलाते
हैं। इख हमारी संग्राम में रक्षा करं।
२. वीर इन्द्र / एकाकी होने पर भी तुम सेना-सदृश हो। तुस
प्रभूत शत्रुओं का धन दान कर देते हो। तुम क्षुद्र स्तोता को भी वर्धित
करते हो। सोसरसदाता यजमान को तुम धन प्रदान करते हो;
क्योंकि तुम्हारे पास अक्षय धन है।
३. जिस समय युद्ध होता है, उस समय शनुओं का बिजेता ही
धन प्राप्त करता है । इन्द्र रथ में शत्रुओं के गर्वनाशकारी अव
संयोजित करो। किसी का नाश करो, किसी को धन दो। इन्द्र ! हमें
तुम धनशाली करो।
४. यञ्ञ-द्वारा इन्द्र विशाल ओर भयंकर हैं और सोस-पान-द्वारा
इत्र ने अपना बल बढ़ाया है। इन्त्र द्खेनीय नासिका से युक्त तथा हरि
नाम के अश्यो से सम्पन्न हैं। इन्द्र ने हमारी सम्पद् के लिए बलिष्ठ
हाथों मं लोहमय वस्त्र धारण किया है।
५. अपने तेज से इख्न ने पृथिवी और अन्तरिक्ष को परिपूर्ण किया
है। धुलोक में चमकते नक्षत्र स्थापित किये हैं। इन्द्रदेव तुम्हारे समान
ने कोई हुआ, न होगा । ठुस विशेष रूप से सारे जगत् को धारण करो।
११३ हिन्दी-ऋग्वेद
६. जो पालक इन्र यजवान को मनुष्योपसोग्य अन्न प्रदान करते
हैं, वे हमें वेसा ही अन्न दें। इन्द्र ! तुम्हारे पास असंख्य धन है;
इसलिए हमारे लिए घन का विभाग कर दो, ताकि हम उसका
एक अंश प्राप्त करें।
७. सोम पान कर हुव्ट होने पर सरलकर्मा इन्द्र हमें गो-समह
देते हैं। इन्द्र ! हमें देने के लिए बहु-शत-संस्थक या अपरिमेय अन्न
अपने दोनों हाथों में ग्रहण करो। हमें तीक्षण बृद्धि से युक्त ओर
धन प्रदान करो।
८. शूर ! हमारे बल और धन के लिए हमारे साथ सोम-रस
पान करके तृप्त बनो। तुम्हें हम बहु-धन-शाली जानते ओर अपनी
अभिलाषा ज्ञात कराते हँ। तुस हमारी रक्षा करो।
९. इन्द्र ! ये तुम्हारे ही सब मनुष्य सबके ग्रहण योग्य में हुव्य
र्वाद्धत करते हैं। जो लोग हुव्य नहीं प्रदान करते, हे अखिलपति ! हे
इन्द्र ! उनका धन तुम जानते हो। उनका धन हमें दो।
८२ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द जगती ओर पङ क्ति)
१. धनशाली इन्द्र! पास आकर हमारी स्तुति सुनो। इस
ससय तुम पहले से भिन्न-प्रकृति मत होना। तुमने ही हमें प्रिय और
सत्य वाक्य से युक्त किया हूं। उसी वाक्य से हस तुमसे याचना करते
हें। इसलिए अपने दोनों अइव शीघ्र योजित करो।
२. तुम्हारा दिया हुआ भोजन करके यजमान लोग परितृप्त हुए
हैं एवं अतिशय रसास्वादन से अपना प्रिय शरीर कम्पित किया है । दीप्ति-
सान् सेधावियों ने अभिनव स्तुति-द्वारा तुम्हारी स्तुति की हें। इन्द्रदेव !
अपने दोनों अइव शीघ्र योजित करो।
३. मघवन् ! तुस सबको ङृपा-पूर्ण दृष्टि से देखते हो। हम
तुम्हारी स्तुरि करते हें । स्तुत होकर तथा स्तोताओं-हारा देय धन
हिन्दी-ऋग्वेद ११३
से पूरित रथ-पुक्त होकर उन यजमानों के पास जाओ, जो तुम्हारी
कामना करते हें। इन्द्र ! अपने दोनों घोड़े रथ में संयक्त करो।
४. जो रथ अभीष्ट वस्तु का बर्षेण करता हे, गाय देता तथा धान्य
ते मिश्रित (सोमरस से) पूर्ण पात्र देता है, इन्द्र! उसी रथ पर
चढ़ो। अपने घोड़े शीघ्र थोजित करो।
५. शतयज्ञकर्ता इन्द्र ! तुम्हारे रथ के दाहिने और बायें अइव
संयक्त हों । सोसपान से हुष्ट होकर लुम उस रथ-द्वारा अपनी प्रिय
पत्नी के पास जाओ । अपने घोड़े संयोजित करो । |
- तुम्हारे कंश-सम्पक्ष दोनों घोड़ों को मं स्तोत-द्वारा रथ में
संयोजित करता हूँ। अपनी दोनों भुजाओं में घोड़े को बाँधनेवाली
रश्मि धारण करके घर जाओ। इस अभिषुत तीक्ष्ण सोमरस ने तुम्हें
हृष्ट किया हुं। वज्त्रिन् ! तुम सोमपान से उत्पन्न तुष्टि से युक्त होकर
अपनी पत्नी के साथ भलीभाँति हर्ष प्राप्त करो ।
८२ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द जगती)
१. इन्द्र ! तुम्हारी रक्षा-द्वारा जो मनुष्य रक्षित हें, वह अइववाले
घर में रहकर सर्व-प्रथम गो प्राप्त करता हें। जैसे विशिष्ट ज्ञान-
दाता नदियाँ चारों ओर से समुद्र को परिपूर्ण करती हैं, वैसे ही तुम भी
अपने रक्षिल मनुष्य को यथेष्ट धन से परिपूर्ण करते हो ।
२. जैसे द्युतिमान् जल यज्ञ-पात्र में जाता है, वेले ही ऊपर रहने-
वाले देवता लोग यज्ञ-पात्र को देखते हैं ॥ उनकी दृष्टि, सूर्य-किरण की
तरह, व्यापक है । जेसे अनेक वर एक ही कन्या को ब्याहने की इच्छा
करते हैं, बसे ही देवता लोग सोम-पुर्ण और देवाभिलाषी पात्र को, उत्तर
वेदी के सम्मुख लाकर, चाहते हैं। ॒
३. इन्द्र! जो हव्य ओर धान्य यज्ञ-पात्र में तुम्हें समपित किया
गया हें, उसमें तुमने मंत्र-वचन संयुक्त किया हे। यजमान, युद्ध सें
फा०ण ८
११४ हिन्दी-त्रटग्वेद
न जाकर, तुम्हारे काम में लगा रहता एवं पुष्टि प्राप्त करता है; क्योंकि
सोमाभिषव-दाता बळ-लाभ करता ही हें ।
४. पहले अङ्किरा लोगों ने इन्द्र के लिए अन्त सम्पादित किया
था । अनन्तर उन्होंने अग्नि जलाकर सुन्दर योग-द्वारा इन्द्र की पुजा
की थी। यज्ञ-नेता अईङ्गिरोबंशीयों ने अश्व, गौ और अन्य पशुओं से
युक्त सारा धन प्राप्त किया था।
५. अथर्वा नास के ऋषि ने, पहले यज्ञ-द्वारा चुराई हुई गायों का
मार्ग प्रदशित किया था। अनच्चर ब्रत-पालक और कान्ति-विशिष्ठ
सुर्य-रूप इन्द्र आविर्भूत हुए थे । गोओं को अथर्वा ने प्राप्त किया।
कवि के पुत्र उदाना या भृगु ने इन्द्र की सहायता की थी। असुरों के
दमन के लिए उत्पन्न और असर इन्द्र की हम पुजा करते हैं ।
६. सुन्दर-फल-युक्त यज्ञ के लिए जिस समय कुश का छेदन किया
जाता हैं, उस समय स्तोत्र-सम्पादक होता झुतिसान् यज्ञ सें स्तोत्र उद्-
घोषित करता है। जिस समय सीम-निस्यन्दी प्रस्तर, शास्त्रीय स्तवन-
कारी स्तोता की तरह, शब्द करता है, उस समय इन्द्र प्रसन्न होते हैं।
८४ सूक्त
(देवता इन्द्र । अनुष्टुप् में ६ मंत्र, उष्णिक में ३, पङ कित में
३, गायत्री में ३, त्रिष्टुप् में ३, बहती में १ और सतोबृहती छुन्द्
में १ मन्न)
१. इन्द्र तुम्हारे लिए सोमरस तैयार हैं । हे बलिष्ठ और
शत्रु-दसन इन्द्र ! आओ। जेसे सुये किरण-द्वारा, अन्तरिक्ष को पूर्ण
करते हैँ, वसे ही प्रभूत शक्ति तुम्हें पूरित करे।
२. इन्द्र के दोनों हरिवास के घोड़े हिंसा-विरहित बलवाले
इन्द्र को वसिष्ठ आदि ऋषियों और मनुष्यों की स्तुति और यज्ञ
के समीप वहन करें।
हिन्दी-ऋग्वेद ११५
३. हे वृत्न-हन्ता इख्न ! रथ पर चढ़ो; क्योंकि तुम्हारे दोनों
घोड़े मंत्र-द्वारा रथ में हमारे हारा संयोजित किये गये हें। सोम-
चुआमेवाले प्रस्तर-द्वारा अपना सम हमारी ओर करो ।
४. इन्द्र ! तुम इस अतीच प्रशास्त, हर्ष-दायक या मादक और
अमर सोमरस का पान करो। यज्ञ-गृह सें यह दीप्तिमान् सोमधारा
तुम्हारी ओर बहती ह।
५. इन्द्र की तुरत पुंजा करो; उनकी स्तुति करो; अभिषुत सोम-
रस इन्द्र को प्रसन्न करे; प्रशंसनीय और बलवान् इन्द्र को प्रणाम करो।
६. इन्द्र ! जिस समय तुस रथ में अपने घोड़े जोत देते हो, उस
समय तुमसे बढ़कर रथी कोई नहीं रहता। तुम्हारे बराबर न तो कोई
बली है ओर न सुशोभन अइवोंवाला । |
७. जो इन्द्र केवल हव्य-दाता यजमान को हव्य प्रदान करते हैं,
वह समस्त संसार के शीघ्र स्वामी हो जाते हैं।
८. जो हव्य नहीं देता, उसे मण्डलाकार सर्प की तरह इन्द्र कब
पेरों से रोंदेंगे ? इन्द्र कब हमारी स्तुति सुनेंगे ?
९. इन्द्र ! जो अभिषुत सोम-द्वारा तुम्हारी सेवा करता है, उसे
तुम शीघ्र धन देते हो।
१०. योर बण गाये सुस्वादु एवं सब यज्ञों में व्याप्त मधुर सोमरसं
का पान करती हें। शोभा के लिए वे गाये अभीष्टदाता इख के साथ
गसन करके प्रसञ्च होती हैं। ये सब गाथें इख का राजत्व या स्वराज्य'
लक्ष्य कर अवस्थित हें।
११. इन्त्रदेव की स्पर्शाभिलाषिणी उक्त नाना वणे की गाये सोस
के साथ अपना दुग्ध पिलाती हैं। इन्द्र की प्यारी गाये शत्रुओं पर सर्वे-
शत्रु -संहाररी वस्त्र प्रेरित करती हें। थे गाथे इन्द्र का राजत्व लक्ष्य
कर अस्थान करती हैं।
१२. ये प्रकृष्ट-ज्ञान-युक्त गाये अपने वुग्ध-रूप अन्न-द्वारा इन्द्र के
बल की पुजा करती हैं। थे गायें युद्धकामी शत्रुओं को पहले से ही,
११६ हिन्दी-ऋग्वेद
परिज्ञान के लिए, इन्द्र के शात्रु-विनाझ आदि अनेक कार्यो को घोषित
करती हें। ये गाये इन्द्र का राजत्व लक्ष्य कर अवस्थित हुं।
१३. अप्रति्वट्टी इन्द्र ने दधीचि ऋषि को हड्डियों से वृत्र
आदि असुरों को नवगुण-मवलि था ८१० बार मारा था।
१४. पर्वत में छिपे हुए दधीचि के अइव-सस्तक को पाने की
इच्छा से इन्द्र ने उस मस्तक को शबणावति नाम के सरोवर में
प्राप्त किया\ |
१५. इस गसनश्ील चन्द्रमण्डल सें अन्तहित जो त्वष्टु-तेज या सूर्य-
तेज है, वह आवदित्य-रदिम ही हु--एसा जानो ।
१६. आज इन्द्र की गतिशील रथ-धुरी में बीये-युक्त, तेजोमय, दुःसह
क्रोध-सम्पन्न घोड़े को कौन संयोजित कर सकता है ? उन घोड़ों के मुख
में बाण आबद्ध है। कोन शत्रुओं के हृदयों में पाइ-क्षेप और मित्रों
को सुख प्रदान करते हुं--अर्थात् चे ही अइव, जो इन अहकों के
कार्यो की प्रशंसा करते हें। वे दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं।
१७. शन्ुओं के डर से कोन निकलेगा ? शत्रुओं के द्वारा कोन नष्ट
होता हे? समीपस्थ इन्द्र को कौन रक्षक-रूप से जानता हुँ? कोन
पुत्र के लिए, अपने लिए, धन के लिए, शरीर की रक्षा के लिए अथवा
परिजन की रक्षा के लिए इन्द्र के पास प्रार्थना करता हुँ?
१८. इन्द्र के लिए अग्नि की स्तुति कोन करता हें? वसन्त आदि
नित्य ऋतुओं को उपलक्ष्य कर पात्र-स्थित इव्यघृत-द्वारा कोन पजा
करता है? इन्द्र को छोड़कर अन्य कोन देवता किस यजमान को
तुरत प्रशंसनीय धन प्रदान करते हें? यज्ञ-निरत और देव-प्रसाद-सम्पन्न
कोत यजमान इन्द्र को अच्छी तरह जानता हे?
१९. हे बलिष्ठ देव इन्द्र ! स्तुति-परायण सनृष्य की तुम प्रशंसा
करो। है सघवन् ! तुम्हें छोड़कर और कोई सुखदाता नहीं है।
इसलिए में तुम्हारी स्तुति करता हूँ।
हिन्दी-त्रहावबेद ११७
२०. हे निवास-स्थान-दाता इन्द्र ! तुम्हारे भूतगण और सहायक
रूप शत्र॒गण या मरुद्गण हमारा कभी विनाश नहीं करें। हे मनुष्य-हितेणी
इन्द्र ! हम मंत्रद्रष्टा हैं; लुभ हमारे लिए घन ला दो।
८५ सुक्त
(१४ अनुवाक ¦ देवता मर दूगण् । छन्द त्रिष्दुप् और जगती)
१. गसन-वेला में मरुत् लोग, स्त्रियों की तरह, अपने शरीर को
सजाते हैँ; वे गतिशील रुद्र के पुत्र हें । उन्होंने हितकर कार्य-द्वारा
आकाश और पृथिबी को ाद्धत किया है । बीर और घर्षणशील भरद्
गण यज्ञ में सोमपान-द्वारा आनन्द प्राप्त करते हें।
२. ये मरुद्गण देवों-ट्रारा अभिषिक्त होकर महत्त्व प्राप्त कर
चुके हेँ। रुद्र पुत्रों ने आफाश मं स्थान प्राप्त किया हुं । पूजनीय इन्द्र
की पुजा करके तथा इन्द्र को वीयदशाली करके पृष्णी या पृथिवी के पुत्र
मरुतों ने एइवय प्राप्त किया था।
« यौ या पृथिवी के पुत्र मरुद्गण जब अलंकारों-द्वारा अपने को
शोभा-सम्पञ्च करते हें, तब दीप्त मरुद्गण अपन शरीर में उज्ज्वल
अलंकार धारण करते हें। वे सारे शत्रुओं का विनाश करते हु और
मरतों के मार्ग का अनुगभन करके दृष्टि होती हे।
४. सुन्दर यज्ञ से युक्त मरुद्गण आयुध के द्वारा विशेष रूप से
दीप्तिमान् होते हें। बे स्वयं स्थिर होकर पर्वत आदि को भी अपने
बल-द्वारा उत्पादित करते हैं जिस समय तुम छोग रथ में बिन्दु-
चिह्नित मग संयोजित करते हो, उस समय हे मरुद्गण ! तुम लोग
मन की तरह वेगवान् और वृष्टि-सेवन-कार्य सें नियुक्त होते हो ।
५. अञ्च के लिए संघ को वर्षणा प्ररण करके बिन्दुचिल्लित मृग
को रथ में लगाओ। उस ससय उज्ज्वल सूर्य के पास से वारि-धारा
छूटती है तथा जल से सारी भूमि भौंग जाती है ।
६. सरतो ! तुम्हारे वेगवान् और शीघ्रगामी घोड़े तुम्हें इस
११८ हिन्दी-ऋण्वेद
यज्ञ में ले आवें। तुम लोग शी घ-गन्ता हो--हाथ में घन लेकर आओ।
मरुतो ! बिछाये हुए कुझों पर बेठो और मधुर सोमरस का पान कर
तृप्त बनो।
७. सरुद्गण अपने बल पर बढ़ें हैं। अपनी महिमा के कारण स्वर्ग
में स्थान प्राप्त कर चुके हुँ। इसी प्रकार वास-स्थान विस्तीण कर
चुके हें। जिनके लिए विष्णु मनोरथदाता और आह्वादकर यज्ञ की
रक्षा करते हुँ, वे ही मरुत् लोग, पक्षियों की तरह, शीघ्र आकर इस
प्रसन्नता-दायक कुश पर बेठें।
८. श्रों, युद्धाथियों तथा कीत्ति या अन्न के प्रेमी पुरुषों की
तरह शीघ्रगामी सरुद्यण संग्राम में लिप्त हुए हैं। सारा विश्व उन
भरुतों से डरता है । वे नेता हैं एवं राजा की तरह उम्र-रूप हें।
९. शोभन-कर्सा त्वष्टा ने जो सुनिमित, सुवर्णमय और अनेक-
धारा-सम्पन्न वचर इन्द्र को दिया था, उसे ही इन्द्र ने लड़ाई में कार्य-
साधन करने के लिए लेकर जल-युक्त संघ या वृत्र को वध किया था
तथा वारि-धारा गिराई थी।
१०. सस्तो ने अपने बल पर कूप को ऊपर उठाकर पथनिरोधक
पर्वत को भिन्न किया था । झोभन-दानशील मरुतों ने वीणा बाजा
बजाकर तथा सोमपान से प्रसन्न होकर रमणीय घन दिया था।
११. मरुतों ने उन गोतम की ओर कूप को टेढा किया तथा पिपासित
गोतम ऋषि के लिए जल का सिचन किया । विलक्षण दीप्ति से
युक्त मरुत् लोग रक्षा के लिए आये एवं णीदनोपाय जल-द्वारा सेधारी
गोतम की तृप्ति की।
१२. मरुतो ! पृथिवी आदि तीनों लोकों में अपने स्तोताओं को
देने लायक्न जो तुम्हारे पास सुख हे, उसे तुम लोग हव्यदाता को प्रदान
करो । बह सब हमें दो। हे अभीष्टफलप्रद ! हमें बीर-पुत्र आदि से
युक्त घन दो ।
हिन्दी-ऋण्वेद ११९
८६ सूक्त
(देवता मरुदूगण । छन्द गायत्री)
१. है उज्ज्वल मरुद्गण ! अन्तरिक्ष से आकर तुम जिसके यज्ञ-
गृह में सोसयान करते हो, बह मनुष्य शोभन रक्षकों से युक्त होता है।
२. है यज्ञवाहक मरुद्गण ! यज्ञ-परायण यजमान की स्तुति अथवा
मेधावी का आह्वान सुनो ।
३. यजमान के ऋत्विक लोगों ने मसरुतों को, हव्य-प्रदान-
द्वारा उत्साहित किया है। वह यजमान नाना गौओंबाले गोष्ठ में
जाता है।
४. यज्ञ के दियों में वीर मरुतों के लिए यज्ञ में सोम तेयार
किया जाता हे एवं मख्तो की प्रसन्नता के लिए स्तोत्र पठित होता है।
५, सव-शत्रु-जता मरुदृगण स्तोता की स्तुति सुनें एवं स्तोता
अन्न प्राप्त करें।
६. सरुदुगण ! हम सर्वे-ज्ञाता मरुतो या तुम्हारे द्वारा रक्षित
होकर तुम्हें अनेक वर्षों से हष्य देते हें।
७, यजनीय मरुद्गण ! जिसका हव्य तुम ग्रहण करते हो, वह
सौभाग्यशाली हैं।
८. हे प्रकृत-बल-सम्पञ्च नेता मरुद्गण ! तुम्हारे स्तुति-तत्पर
और मंत्र उच्चारण करने के कारण परिश्रम से उत्पन्न स्वेद सम्पन्न
एवं अपने अभिलाषी स्तोताओं की अभिलाषा समभो।
९. सत्य-बल-सम्पञ्च मरुद्गण ! तुम उज्ज्वल माहात्म्य प्रकट करो
तथा उसके द्वारा राक्षस आदि को विनष्ट करो ।
१०. सार्वभौम अन्धकार को हटाओ; राक्षस आदि सब
भक्षकों को दूर करो; जो अभीष्ट ज्योति हमें चाहिए, उसे
प्रकाशित करो । |
१२० हिन्दी-क्रग्वेद
८७ सूक्त
(देवता मरुद्गण । छन्द जगती)
१. मरुद्गण शत्रु-्घातक, प्रकृष्ट-बल-सम्पन्न, जय-घोष-युक्त, सर्वो-
्क्ृष्ट, संघीभूत, अवशिष्ट (ऋजीष) -सोम-पायी, यजमानों-हारा सेवित
और मेघ आदि के नेता हैं। मरुद्गण आभरण-द्वारा सूर्य-किरणों
की तरह प्रकाशित हुए। |
२. सरुद्गण ! जिस ससय पक्षी की तरह किसी मार्ग से शीघ्र
दोड़कर पास के आकाशमण्डल में लुम लोग गतिशील मेघों को एकत्र
करते हो, उस समय सब मेघ तुम्हारे रथों में आसक्त होकर वारिवर्षण
करते हें; इसलिए तुम अपने पूजक के ऊपर मधु के समान स्वच्छ
जरू का सिचन करो।
३. संगल-विधायिनी-वृष्टि की तरह जिस समय मरत् लोग मेघों
को तैयार करते हें, उस समय सरुद्गण-द्वारा उत्क्षिप्त मेघों को निय-
मित हुए देखकर, पति-रहिता स्त्री की तरह पृथिवी काँपने लगती
हें। ऐसे विहरणशील, गलि-विशिष्ट और प्रदीप्वायुध मरुद्गण पर्वत
आदि को कम्पित करके अपनी महिमा प्रकट करते हें।
४. मरुद्गण स्वयमेव संचालित हेँ। श्वेत-बिन्दु-युक्त मृग सस्तो
का अश्व हूं। मरुत् लोग तरुण, वीर्यशाली और क्षमता-सम्पन्न हें।
मरुतो, तुम सत्यरूप हो, ऋण से मुक्त करते हो। तुम निन्दा-रहित
ओर जळवर्षण करनेवाले हो। तुस हमारे यज्ञ के रक्षक हो।
५. अपने पूर्वेजो-द्वारा उपदिष्ट होकर हम कहते हें कि सोम की
आहुति के साथ सस्तो को स्तुति-वाक्य प्राप्त होता है। मरुत्लोग,
वृत्र-वध-कार्य सें इन्द्र की स्तुति करते हुए उपस्थित थे और इस
तरह यज्ञ-योग्य नाम धारण किया था।
६. जीवों के उपभोग के लिए वे मरुद्गण दीप्तिमान् सूर्य की
किरणों के साथ वारि-बर्षण करना चाहते हँ। बे स्तुतिवाले ऋत्विकों
हिन्दी-ऋष्वेद १२१
के साथ आनन्द-दायक हुव्य का अक्षण करते हूँ। स्तुति-युक्त, वेगवान्
और निर्भीक मरुद्गण ने सर्वप्रिय मरुदृगण-सम्बन्ध-विशिष्ठ स्थान को
प्राप्त किया हूं।
८८ सूक्त
(देवता मरुद्गण । छन्द प्रस्तार, पंक्ति, विराद आदि)
१. मश्द्गण, तुस बिजली या दीप्ति से युक्त, शोभन गमनवाले,
शस्त्रशाली और आअइव-संघुइल सेघ या रथ पर आरोहण करके आओ ।
शोभनकर्मा इन्द्र ! प्रभूत अन्न के साथ, पक्षी की तरह हमारे पास आओ ।
२. मरुद्गण अरुण और पिद्कलवाले रथ-प्रेरक धोड़ों-हारा किस
स्तोता का कल्याण करने के लिए आते हें? सोने की तरह दीप्तः
मान् ओर शत्रु-नाशकारी तथा शस्त्रशाली मरुद्गण रथ-चक्-हारा भूमि
को पीडित करते हें।
३. मरुद्गण, एइवर्य-प्राप्ति के लिए तुम्हारे शरीर में शत्रुओं का
संहारक शस्त्र है। मरुद्गण वन, वृक्ष आदि की तरह यज्ञ को ऊपर
करते हें। सुजन्मा मरुद्गण, तुम्हारे लिए भ्रभूत-धन-शाली यजमान
लोग सोम पीसनेवाले पत्थर को घन-सम्पञ्च करते हैं।
४. जलाभिलाषी गोतमगण, तुम्हारे सुख के दिन आय हैं और
आकर जलनिष्पाद्य यज्ञ को झतिमान् किया हुँ। गोतमों ने स्तुति
के साथ हव्यदान करके जलपानाथे कूप को उठाया था।
५. सरुद्गण हिरण्मयचऋ-रथ पर आरूढ, लोहमय चक्र-धारा से
यक्त, इधर-उधर दौड़नेवाले और प्रबल शत्रु-हन्ता हैं । उन्हें देखकर
गोतम ऋषि ने जिस स्तोत्र का उच्चारण किया था, बह यही स्तुति हत
६. मरुद्गण, तुम लोगों में से प्रत्येक को योग्य स्तुति स्तव करती
है। ऋषियों की वाणी ने इस समय, अनायास, इन ऋचाओं से
तुम्हारी स्तुति की हे; क्योंकि तुम लोगों ने हमारे हाथ पर बहु-विध
अन्त स्थापित किया
१२२ | हिन्डी-ऋग्वेद
८९ सूरत
(देवता विश्वदेवगण । छन्द जगती, विराट त्रिष्टुप् आदि)
१. कल्याणवाही, आहसित, अप्रविएद्ध और शनत्रु-ताशक समस्त
यज्ञ चारों ओर से हमें प्राप्त हों था हमारे पास आवें । जो हसं न
छोड़कर प्रतिदिन हमारी रक्षा करते हैँ वे ही देवता सदा हमें
परिवरद्धित करें।
२. यजमान-प्रिय देवता लोग कल्याण-बाहुक अनुग्रह हमारे सामने
ले आवं और उनका दान भी हमारे साभने आवे। हम उन देवों
का अनुग्रह प्राप्त करं और बे हमारी आयु बढ़ावें ।
३. उन देवों को पूर्व के वेदात्मक बाक्य-द्वारा हम बुलाते हैं ।
भग, मित्र, अदिति, दक्ष, अस्रिध या मरद्गण, अर्यसा, वरुण, सोम
और अश्विद्वय को बुळाते हुँ। सौभाग्यशालिनी सरस्वती हमारे सुख
का सम्पादन कर।
४. हमारे पास वायुदेव कल्याण-वाहक भेषज ले आवे; माता
मेदिनी और पिता झुलोक भी ले आवबें। सोम च॒आनेवाले और सुख-
कर प्रस्तर भी उस औषध को ले आबें। ध्यान करने योग्य अश्विनी-
कुमार्य, तुम लोग हमारी याचना सुनो।
५. उस एइवर्यंशाली, स्थावर ओर जंगम के आधिपति और
यज्ञतोष इन्द्र को, अपनी रक्षा के लिए, हम बुळाते हैं। जैसे पुषा
हमारे धन की वृद्धि के लिए रक्षण-शील हैं, बेसे ही आहिसित पुषा हमारे
मंगल के लिए रक्षक हों।
६. अपरिसेय-स्तुति-पात्र इन्द्र और सर्वज्ञ पूषा हमें मंगल दें।
तृक्ष के पुत्र अरिष्टलेमि (कश्यप) या अहिलित रथनेसियुक्त गरुड़ तथा
बृहस्पति हमें मंगल प्रदान करं।
७. इवेतबिन्दु-चिल्वित अइववाले, पृश्नि (पृथियी या गौ) के
पुत्र, शोभन-गति-शाली, यज्ञगामी, अग्नि-जिह्वा पर अवस्थित, बुद्धि-
हिन्दी-ऋष्वेद १२३
शाली और सुर्य के समान प्रकाशशाली मरुत् देव हमारी रक्षा के लिए
यहाँ आवें ।
८. देवगण, हम कानों से मंगल-प्रद वाक्य सुनें, यजनीय देवगण,
हम आँखों से मंगलबाहक वस्तु देखें, हम दुढाङ्ग शरीर से सम्पन्न
होकर तुम्हारी स्तुति करके प्रजापति-द्वारा निर्दिष्ट आय प्राप्त करें ।
९. देवगण, झनुष्यों के लिए (आप लोगों के द्वारा) १०० वर्ष
की आयु ही कल्पित हुं । इसी बीच तुम लोग शरीर में बुढ़ापा उत्पन्न
करते हो और इसी बीच पुत्र लोग पिता हो जाते हैं। उस निर्दिष्ट
आयु के बीच हमें विनष्ट नहीं करना ।
१०. अदिति (अदीना वा अखण्डनीया पृथिवी या देवमाता) आकाश,
अन्तरिक्ष, माता, पिता और समस्त देव हें॥ अदिति पंचजन हैं और
अदिति जन्म और जन्म का कारण हैं।
९० सूक्त
(देवता बहुदेवता । छन्द गायत्री)
१. वरुण (निशाभिमानी देव) और मित्र (दिवाभिसानी देव)
उत्तम माग पर अकुटिल गति से हमें ले जायें तथा देवों के साथ समान
प्रेस से युक्त अयमा भी हसं ले जाथे ।
२. वे धन देते हें। वे सुढ्ता-शृव्य होकर अपने तेज-द्वारा सदा
अपने कार्य की रक्षा करते हैं।
३. बे अमरगण हमारे शत्रुओं का विनाश करके हम मर्त्यो को
सुखप्रदान करें ।
४. वन्दनीय इन्द्र, मरुदूगण, पूषा और भग देवगण उत्तम बल-
लाथ के लिए हमें पथ दिखाते ।
५, पूषन्, विष्णु और अरुदूगण, हमारा यज्ञ गो-प्रधान करो और
हमें विनाश-शून्य बनाओ।
१२४ हिन्दी-ऋग्वेद
६. यजमान के लिए समस्त वायु और नदियाँ सधु (या कर्मफल)
बर्षण करें। सारी ओषधियाँ भी माधुर्य-युक्त हों।
७. हमारी रात्रि और उषा मधुर या मधुर-फल-दाता हों । पृथ्वी
की. रज उत्तम फल्दायक हो । सबका रक्षक आकाश भी सुखदायक हो।
८. हमारे लिए समस्त वनस्पतियाँ सुखदायक हों। सूये सुखदाथक
हों। सारी गायं सुखदायक हों ।
९. भित्र, वरुण, अर्यमा, इन्द्र, बृहस्पति और विस्तीणं-पाद-क्षपी
विष्णु हमारे लिए सुखकर हों।
९१ घूक्त
(देवता साम । छन्द गायत्री, उष्णिक ओर त्रिष्टुप)
१. सोमदेव ! अपनी बुद्धि से हम तुम्हें अच्छी तरह जानते हैं।
तुम हमें सरल मार्ग से ले जाना। इन्द्र अर्थात् हे सोम, तुम्हारे द्वारा
लाये जाकर हमारे पितरों ने देवों के बीच रत्न प्राप्त किया था।
२. सोम, अपने यज्ञ के द्वारा शोभन यज्ञ से संयुक्त और अपने
घल-हारा शोभन बल से युक्त हो। तुम सर्वेज्ष हो । तुम अभीष्ट फल
के दर्षण से वर्षणकारी हो; और तुम महिमा में महान् यजमान
के अभिमत फल का प्रदर्शन करके, यजमान के द्वारा दियं गये अन्त
से तुम बहुल अन्न से सम्पन्न हो।
३. सोम (चन्द्र), वरुण राजा के सारे कार्य तुम्हारे ही हें। तुम्हारा
तेज विस्तीर्ण और गम्भीर हे । प्रिय बन्धु के समान तुस सबके संस्कारक
हो। अर्यमा की तरह तुम सबके बढेंक हो।
४. सोम, द्युलोक, पृथिवी, पर्वत, ओषधि और जल में तुम्हारा
जो तेज है, उसी तेज से युक्त होकर सुमना और ऋध-रहित राजन्
हमारा हव्य ग्रहण करो ।
हिन्दी-नषटग्वेद १२५
५. सोम, तुस सत्कर्म में वत्तंमान ब्राह्मण के अधिपति हो। तुम
राजा हो। तुस शोभन यज्ञ हो।
६. स्तुति-प्रिय और सारी ओषधियो के पालक सोम, यदि तुस
हमारे जीवमौषध की अभिलाषा करो, तो हम मृत्युरहित हो जायें ।
७. सोम, तुस वुद्ध और तरुण याजक को, उसके जीवन के उप”
योग योग्य धन देते हो।
८. हे राजा सोम, हमें दुःख देने के अभिलाषी लोगों से
बचाओ । तुम्हारे जेसे का मित्र कभी विनष्ट नहीं होता ।
९. सोम, तुम्हारे पास यजसानों के लिए सुखकर रक्षण हें, उनके
द्वारा हमारी रक्षा करो।
१०. सोम, तुम हमारा यह यज्ञ और स्तुति ग्रहण करके आओ
और हमें वद्धित करो ।
११. सोस, हम लोग स्तुति-ज्ञाता हूँ; स्तुति-द्वारा तुम्हें बद्धित करते
हुँ। सुखद होकर तुम आओ ।
. १२. सोस, तुम हमारे घन-वद्धक, रोग-हन्ता, घन-दाता, सम्पद्ठद्धक
और सुसित्रन्युक्त होओ ।
१३. सोम, जसे गाय सुन्दर तृण से तृप्त होती हे, जेसे मनुष्य अपने
घर में तृप्त होता हैँ उसी प्रकार तुस भी हमारे हृदय में तृप्त होकर
अवस्थान करो ।
१४. सोमदेव, जो मनुष्य बन्धुता के कारण तुम्हारी स्तुति करता
है, हे अतीत-ज्ञाला और निपुण सोम, तुम उस पर अनुग्रह करते हो।
१५ सोम, हमें अभिशाप या निन्दन से बचाओ। पाप से बचाओ
हमें सुख देकर हमारे हितेषी बनो । |
१६, सोम, तुम वर्दधित हो, तुम्हारी शक्ति चारों ओर से तुम्हें
प्राप्त हो। तुम हमारे अन्नदाता बनो ।
१७. अतीव मद से युक्त सोम, सारे लतावयवों द्वारा वद्धित हो।
शोभन अन्न से युक्त होकर तुम हमारे सखा बनो ।
१२६ हिन्दी-ऋग्वेद
१८, सोस, तुम झत्र-नाशक हो। तुसमे रस, यञ्ञान्त और वीर्य
संयुक्त हों। तुम बात होकर हमारे अमरत्व के लिए स्वर्ग में उत्कृष्ट
अन्च धारण करो। |
१९. यजमान लोग हव्य-द्रारा जो तुम्हारे तेज की पूजा करते हैं,
बह समस्त तेज हमारे यज्ञ को व्याप्त करे। धनवद्धक, पाप-त्राता,
बीर पुरुषों से युक्त और पुत्र-रक्षक सोम, तुम हमारे घर में आओ।
२०. जो सोमदेव को हव्य देता है, उसे सोम गो ओर शीध्रगामी
अदव देते हैँ; और, उसे लौकिक-कार्य-दक्ष, गृहकारये-परायण,
यज्ञानुव्ठानतत्पर माता द्वारा आदृत और पिसा का नाभ उज्ज्वल
करनेवाला पुत्र प्रदान करते हें!
२१. सोम, तुम युद्ध में अजय हो, सेना के बीच विजयी हो, स्वर्ग
के प्रापयिता हो । तुम वृष्टि-दाता, बल-रक्षक, यज्ञ में अवस्थापा, सुन्दर
निवास और पश से युक्त और जयशील हो। तुम्हें लक्ष्य कर हम
प्रफुल्ल हों।
२२. सोम, तुमने सारी ओषधियां, बृष्टि, अल और सारी गायें
बनाई हैं। तुमने इस व्यापक अन्तरिक्ष को विस्तृत किया हूँ और
ज्योति-द्ठारा उसका अन्धकार विवष्ठ किया है।
२३. बलशाली सोम, अपनी कान्तिसय बुद्धि-दारा हमें धन का अंश
प्रदान करो । कोई शत्रु तुम्हारी हिला न करे। लड़ाई करनेवाले
दोनों पक्षों सें तुम्हीं बलशाली हो। लड़ाई में हसं दुष्टता से बचाओ।
९२ सूक्त
(देवता उषा ओर अश्विय । छन्द जगती, उष्णिक्
ओर त्रिष्डुप्)
१. उषा देवताओं चे आलोक-द्वारा प्रकाश किया हे और वे अन्तरिक्ष
की पूर्व दिश्ञा में प्रकाश करते हें। जैसे अपने सारे शस्त्रं को योद्धा लोग
परिसाजित करते हैं, देसे ही अपनी दीप्ति के द्वारा संसार का संस्कार
हिन्दी-ऋष्वेद १२७
करके गमनशीला, दीप्तिमती और धातायें (उषा) प्रतिदिन गमन
करती हूँ ।
२. अरुण ¥शनु-रहिमयाँ (उषाये) उदित हुई; अनन्तर रथ में
जतन योग्य शुभ्रवर्ण रहिसयों को उषाओं ने रथ में लगाया एवं पूर्व
की तरह सारे प्राणियों को झान-युवल बनाया । इसके पश्चात दीप्तिमती
उषाओं ने ३वेतवणे सुर्य को आश्रित किया
३. नेतृ-स्थानीया उषापे उज्ज्वल अस्त्रधारी थोद्धाओं की तरह
हें और उद्योग-हारा ही दुर देशों तक को अपने तेज से व्याप्त
करती हें। वे शोभन-कर्स-कर्ता, सोमदाता और दक्षिणा-दाता यजसान
को सारा अन्न देती हैं।
४. नर्तकी की तरह उषायें अपने रूप को प्रकाशित करती
; और जेसे बोहन-काल में गाये अपना अधस्तन भाग प्रकट करती
हैं, उसी प्रकार उयायें भी अपना वक्ष प्रकट करती हैं । जैसे
गाये गोष्ठ में शीघ जाती हैं, उसी प्रकार उषाओं ने भी पुर्व दिशा
में जाकर समस्त भवनों को प्रकाश करके अन्धकार को
विमुक्त किया ।
५, पहुले उषा का उज्ज्वल तेज पूर्व दिशा में दिखाई देता है,
अनन्तर सारी दिल्लाओं में व्याप्त होता और अन्धकार को दूर करता
है! जसे पुरोहित पञ्च में आज्य-द्वारा यूप-काष्ठ को प्रकट करता है,
उसी प्रकार उषायं अपना रूप प्रकट करती हुँ । स्वर्गे-पुत्री उषायें दीप्तिमान्
सुर्यं की सेवा करती
. हुम रात्रि के अन्धकार को पार कर चुके हें। उषाओं ने सारे
प्राणियों के ज्ञान को प्रकाशित किया है। प्रकाशमयी उषायें प्रीति
प्राप्त करने के लिए अपनी दीप्ति के द्वारा मानो हँस रही हैं।
आलोक-विलसिताङ्गी उषा ने हमारे सुख के लिए अन्धकार का
विनाश किया है।
शे
१२८ हिन्दी-ऋग्वेद
७. दीप्तितती और सत्य बचनों की उत्पादयित्री आकाशन-पुत्री
(उबा) की गोतमवंजीय लोग स्तुति करते हैं। उष, तुम हमें पुत्र-पौत्र,
दास-परिजन, अइव और गो से युक्त अन्न दो।
८. हे उषे, हम यश, बीर (सहायक), दास और अइव से संयुक्त
धन प्राप्त करें । सुभगे, तुस सुन्दर यज्ञ सं स्तोत्र-द्ारा प्रीत होकर,
हमें अन्न देकर, बही यथेष्ट धन प्रकट करो ।
९. उज्ज्वल उषाये सारे भुवनों को प्रकाशित करके, आलोक-
द्वारा, पड्चिस दिशा में विस्तृत होकर, दीप्तिमती हो रही हैं। उषायें
सारे जीवों को अपने-अपने कार्यो में लगाने के लिए जगा देती हैं।
उषायें बुद्धिमान् लोगों की बातें सुनती हैं।
१०. जेसे व्याध-स्त्री उड़ती चिडिया का पक्ष काटकर हिसा करती
है, उसी प्रकार पुनः पुनः आविभूत, नित्य ओर एक-रूप-धारिणी
उषायें देवी अनुदिन सारे प्राणियों के जीवन का ह्रास करती हैं।
११, आकाश को, अन्धकार से हटाकर, सबके पास उषा जीवों-
हारा विदित होती हें। उषायं गमनकारिणी अथवा भगिनी रात्रि
को अन्तहित करती हें । प्रणयी (सूर्य) की स्त्री उषायें अनुदिन
मनुष्यों की आयु का ह्लास करके, विशेष रूप से, प्रकाशित होती हैं।
१२. जसे पशु-पालक पशुओं को चरता है, वेसे ही सुभगा और
घुजनीया उवाय अपना तेज विस्तृत करती हें और नदी की तरह विशाल
उषाये सारे जगत् को व्याप्त करती हें। उषाथें देवों के यज्ञ का अनुष्ठान
कराकर, सुर्य-रश्सि के साथ, दृष्ट होती हें। |
१३. अन्नयुक्त उष, हमें विचित्र धन प्रदान करो, जिसके द्वारा
हम पुत्रों ओर पोत्रों का पालन कर सकें ।
१४. गौ, अश्व ओर सत्य वचन से युक्त तथा दीप्तिमती उषे,
आज यहाँ हमारा घनयुक्त यज्ञ जैसे हो, वेसे प्रकाशित हो ।
१५. अच्नयुक्त उषे, आज अरुण-वर्ण घोड़े या गो योजित करो
और हुमारे लिए सारा सोभाग्य लाओ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२९
१६. शत्रु-मर्देक अशिवनीकुमारो, हमारे घर को गौ और रमणीय
धन से युक्त करने के लिए समान-मनोयोगी होकर अपने रथ को
हमारे घर की ओर ले चलो । | |
१७. अश्विद्वय, तुस लोगों ने आकाश से प्रशंसनीय ज्योति प्रेरित
की है। तुम हमारे लिए शक्तिशाली अञ्न ले आओ ।
१८. प्रकाशमान, आरोग्य-प्रद, छुवर्णे-रथ-युक्त एवं शत्रु-विजयी
अध्विदीकुमरों को, सोमपा कराने के लिए, उषाकाल में उनके घोड़े
जागकर यहाँ ले आयं।
९३ सूप्त
(देवता अग्नि ओर सोम । छन्द अनुष्डुप्, गायत्री, जगती और
त्रिष्ठुप् ) क्
१. अभीष्टवर्षी अग्नि और सोम, सेरे इस आह्वान को सुनो,
स्तुति ग्रहण करो ओर हव्य-दाता को सुख प्रदान करो।
२. अग्नि और सोम, जो तुम्हें स्तुति समर्पण करता है, उसे
बलवान् गो और सुन्दर अइव दान करो।
३. अग्नि और सोम, जो तुल लोगों को आहुति और हव्य प्रदान
करता है, बह पुत्र-पोत्रादि के साथ सारी वीयंझाली आय प्राप्त हो।.
४. अग्नि और सोम, तुमने जिस वीर्य के द्वारा पणि के पास से
गो-रूप अन्न, अपहूत किया था, जिस वीर्य के द्वारा वसथ के पुत्र
(वृत्र) का वध करके, सबके उपकार के लिए, एकमात्र ज्योतिःपृर्ण |
सूये को प्राप्त किया था, बह सब हमें विदित हैं।
५. अग्नि और सोम, समान-कर्म-सम्पन्न होकर, आकाश में, तुमने
इन उज्ज्वल नक्षत्र आदि को धारण किया हे, तुमने दोषाक्रान्त
नदियों को प्रकाशित दोष से मुक्त किया हूँ या संशोधित किया है।
६, अग्ति और सोम, तुमे से अग्नि को मातरिइवा (वायु)
आकाश से साथे हैं और सोम को अद्रि (पर्वत) के ऊपर से इपेन
फा० ९
१३० हिन्दी-त्रहर्वेद
पक्षी (बाज) बलू-पूर्वक लाया है। स्तोत्रों के द्वारा वरद्धित होकर,
. यज्ञ के लिए, तुम लोगों ने भूमि विस्तीण की हैं।
७. अग्नि और सोस, प्रदत्त अन्न भक्षण करो; हमारे ऊपर
अनुग्रह करो! अभीष्टवर्षी, हमारी सेवा ग्रहण करो । हमारे लिए
सुख-प्रद और रक्षण-युक्त बनो एवं यजमान का रोग और भय हटाओ।
८. अग्नि और सोस, जो यजसान देवता-परायण चित्त से हव्य-
द्वारा अग्नि ओर सोम की पुजा करता है, उसके ब्रत की रक्षा करो।
उसे पाप से बचाओ तथा उस यज्ञ-रत व्यक्ति को प्रभूत सुख दो।
९. अग्नि और सोस, तुस सारे देवों में प्रशंसनीय, समान-धन-
युक्त और एकत्र आह्वान-योग्य हो। तुम हमारी स्तुति सुनो।
१०. अग्नि और सोम, जो तुम्हें घत प्रदान करता हे, उसे प्रभूत
घन दो।
११, अग्नि और सोम, हमारा यह हव्य ग्रहण करो और एकत्र
आगमल करो । [
१२. अर्ति और सोम, हमारे अइवों की रक्षा करो। हमारी
क्षीर आदि हव्य की उत्पादिका गाये बद्ित हों। हम घनशालो हों;
हमें बल प्रदान करो। हमारा - यज्ञ धन-युक्त हो ।
९४ सूक्त
(१५ अतुवाक । देवता आग्नि । यहाँ से ९८ सूक्त तक के ऋषि
अङ्गिरा के पुत्र कुत्स । छन्द न्रिष्टुप और जगती)
१. हम पूजयीय ओर सर्वे-भूतज्ञ अग्नि की रथ की तरह, बुद्धि
द्वारा, इस स्तुति को प्रव्तुत करते हें। अग्नि की अर्चना से हमारी
बुद्धि उत्कृष्ट होती हुँ । हे अग्नि, तुम्हारे हमारे मित्र रहने पर हम
हसित नहीं होंग।
२. अग्न, जिसके लिए तुम यज्ञ करते हो, उसकी अभिलावा
पूर्ण होटी है और बह उत्पीडित न होकर निवास करता, महाशबित
हिन्दी-ऋग्वेद १३१
धारण करता और वात होता है। उसे कभी दरिद्रता नहीं सिलती।
हे अग्नि, तुम्हारे हमारे बन्धु होने पर हम हिलित नहीं होंगे।
३. अग्मि, हस तुम्हें अच्छी तरह प्रज्बदित कर सकें। तुम हमारा
यज्ञ साधन करो; क्योंकि तुमसं फेका हुआ हव्य देवता लोग खाते
हैं। दुम आदित्यो को ले आओ। उन्हें हम चाहते हें। अग्नि, तुम्हारे
मित्र होने पर हम हसित यहीं होंगे ।
अग्नि, हम इन्धन इकट्ठा करते हें। तुम्हें ज्ञात कराकर
हृव्य देते हुँ। हमारी आयुवृ द्धि के लिए तुस यश्च सम्पन्न करो।
अग्नि, तुम्हारे मित्र रहने पर हम हिसित नहीं होये ।
च॑ (अग्नि) की किरणें प्राणियों की रक्षा करती हुई विचरण
करती हैं। द्विपद और चतुष्पद जन्तु उत (अग्नि) की किरणों में
विचरण करते हैं। तुम विचित्र दीप्ति से युष्त और सारी वस्तुएं प्रदात.
करते हो। तुम उषा से भी महान् हो। अग्नि, तुम्हारे मित्र रहने परं
हम हसित नहीं होंगे । |
६. अग्नि, तुम अध्वय्, मुख्य होता, प्रशास्ता, पोता और जन्म
से ही पुरोहित हो। ऋत्विक् के सारे कार्यो से लुम अवगत हो।
इसलिए लुम यज्ञ सम्पूर्ण करो । अग्नि, तुम्हारे मित्र रहने पर हम
हिसित नहीं होंगे ।
७. अग्नि, तुस सुन्दर हो, तो भी सबके समान हो। तुम दूर-
स्थित हो, तो भी पास ही दोष्यसान हो। अग्निदेव, तुस रात के
अन्धकार को मदन करके प्रझादित होते हो। अग्नि, तुम्हारे सित्र
रहने पर हम हिंसित नहीं होंगे।
८, अग्नि के अङ्कभूत देव, सोम कु अनिषव करनेवाले यजमान
का रथ सबसे आथे करो। हमारा अभिशाप झधओं को परास्त करे।
हमारी यह स्तुति समझो और हमें प्रवृद्ध करो। अग्नि, तुम्हारे मित्र
रहने पर हम (हसित नहीं होंगे ।
९. सांघातिक अस्त्र-द्वारा तुम दुष्टों और बुद्धि-विहीनों का विनाश
१३२ हिन्दी-क्रर्वेद
करो। दूरवर्ती और निकटस्थ शत्रुओं का विनाश करो । अनन्तर अपने
स्लुलि-कर्ता यजमान के लिए सुगम माग कर दो। अग्नि, तुम्हारे
मित्र रहने पर हम हिसित नहीं होंगे।
१०, अग्नि, जिस समय ठुम दीप्यमान, लोहितवर्ण और वायुगति
दोनों घोड़ों को रथ में संयुक्त करते हो, उस समय तुम वृषभ की
तरह शब्द करते हो और बन के सारे व॒क्षों को धम्रछ॒प केतु (पताका) हारा
व्याप्त करते हो। अग्नि, तुम्हारे बन्धु होने पर हम हिलित नहीं होंगे।
११. तुम्हारे शब्द सुनकर चिड़ियाँ भी उड़ती हैं॥ जिस समय
तुम्हारी शिखायें तिनके जलाकर चारों दिशाओं में विस्तृत होती हैं,
उस समय सारा चन तुम्हारे ओर तुम्हारे रथ के लिए सुगम हो जाता
हैं। अग्नि, तुम्हारे सित्र होने पर हम हिसित नहीं होंगे।
१२. इस स्तोता को सित्र और बरुण धारण करें। अन्तरिक्षचारी
मरतो को क्रोध अत्यधिक होता है। हमें सुखी करो ओर इन महान्
सरुतो का मन प्रसन्न हो। अग्नि, तुम्हारे बन्धु रहने पर हम हिसित
नहीं होंगे।
१३. द्युतिसान् अग्नि, तुम सारे देवों के परम बन्धु हो। तुम
सुशोभव ओर यज्ञ के सारे धनों के लिवास-स्थान हो। तुम्हारे विस्तृत
यज्ञ-गृह सं हम अवस्थान करें । अग्मि, तुम्हारे बन्धु रहने पर हम
हसित नहीं होगे ।
१४. अपने स्थात पर प्रज्वलित सोमरस-द्वारा आहत होकर जिस
समय तुम एजित होते हो, उस समय तुस सुखकर उपभोग करते हो।
तुस हारे लिए सुखकर होकर इव्यदाला को रमणीय फल और थन
दान करो। अग्मि, तुम्हारे बन्धु रहते पर हम हसित नहीं होंगे।
१५. शोभन धन से यदत और अलण्डवीय अग्नि, सब यज्ञों में
वर्तमान जिस यजसात को तुन पाय से उद्धार करते और कल्याणवाह
बल प्रदान करते हो, वह समृद्ध होता है। हस भी तुम्हारे स्तोता हैं।
हस भी धृत्र-पोत्रादि के साथ तुम्हारे धन से सम्पन्न हों।
हिन्दी-ऋष्वेद १३३
१६. अग्निदेव, तुस सौभाग्य जानते हो! इस कार्य में तुम हमारी
आयु बढ़ाओ ! मित्र, बरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और आकाश हमारी
उस आयु की रक्षा करें।
षष्ठ अध्याय शमाप्त ॥
९५ सुक्त
(सप्तम अध्याय । देवता अग्नि । छन्द त्रिष्टुप् )
१. विभिन्न रूपों से संयुक्त दोनों समय (दिन ओर रात), शोभन
प्रयोजन के कारण, विचरण करते हें। दोनों, दोनों के वत्स की रक्षा
करते हैं। एक (रात्रि) के पास से सूर्यं अन्न प्राप्त करते और दूसरे
(दिन) के पास से शोभन दीप्ति से युक्त होकर प्रकाशित होते हैं।
२. दसों अंगुलियों इकटूठी होकर अनवरत काए्ठ-घर्षण करके
वायु के गर्भ-स्वरूप और सब भूतों में वर्तमान अग्नि को उत्पन्न करती
हुँ। यह अग्नि तीक्षण-तेजा, यशस्वी और सारे लोक में दीप्यमान
हें। इन अग्नि को सारे स्थानों में ले जाया जाता हे ।
३. इन अग्नि के तीन जन्म-स्थान हें--(१) समुद्र, (२)
आकाश और (३) अन्तरिक्ष । अग्नि ने (सुर्य-रूप से) ऋतुओं का
विभाग करके पृथिवी के सारे प्राणियों के हित के लिए पूर्व दिशा का
यथाक्रम निष्पादन किया हूँ अर्थात् सूर्य-काल (ऋतु) और दिक्--
दोनों को बनाया हू ।
४. जल, वन आदि में अर्न्ताहत अग्नि को तुमं से कौन जानता
है? पुत्र होकर भी विद्युदूप अग्नि अपनी माताओं (जल-रूपिणी)
को हुव्य-द्वारा जन्म दान करते हैं । महान् मेधावी और हव्य-युक्त
अग्नि अनेक जलों के गभ (सन्तान)-लूप हँ। सुर्ये-रूप अग्नि समुद्र
से निकलते हैं।
५, कुटिल (मेघ-जल के) पाश्वेवत्तों यशस्वी अग्नि ऊपर जलकर,
शोभन दीप्ति के साथ, प्रकाशित होकर बढ़ते हें । अग्नि के दीप्त या
१३४ हिन्दी-ऋषण्वेद
त्वष्टा के साथ उत्पन्न होने घर उभय (काष्ठ) भीत होते और सिह
या सहनशील के सामने आकर उसकी सेवा करते हैं।
६. उभय (काष्ठ या दिवारात्रि) सुन्दरी स्त्री की तरह उन
(अग्नि) की सेवा करते और बोलती हुई गौ की तरह, पास में
रहकर, उसको वत्स की तरह पालित करते हुँ। दक्षिण भाग में आवः
स्थित ऋत्विक् लोग हव्य-दारा जिस अग्नि का सेवन करते हैं, दह
सब बलों के बीच बलाधिपति हुए हैं।
७. अग्नि, छूर्यं की तरह, अपनी किरण-हूपिणी भुआओं को
बार-बार विस्तृत करते हैँ तथा बही भयंकर अग्नि उभघ (दिवारान्रि)
को अलंकृत करके निज-कर्म साधित करते हें। बे सारी चस्तुओं से
दीप्त ओर सारहूप रस अपर खींचते हुँ। बे माताओं (जलों) के पास
से आच्छाइक अभिनव रस बनाते हैं।
८. जिस समय अन्ति अन्तरिक्ष में गमनशील जल हारा संयुक्त
होकर दीप्त और उत्कृष्ट रूप धारण करते हें, उस समय वह मेधावी
और सर्वेलोक-घारक अग्नि (सारे जलों के) मूलभूत (अन्तरिक्ष को)
तेज द्वारा आच्छादित करते हें। उज्ज्वल अग्नि द्वारा विस्तरित वह दीप्ति
तेजःपुञ्ज हुई थी।
९. अग्नि, तुम महान् हो । सबको पराजित करनेवाला तुम्हारा दीप्यमान
और विस्तीज तेज अन्तरिक्ष को व्याप्त किये हुए है । अग्नि, हमारे द्वारा
प्रज्वलित होकर अपने अहिसितओर पालन-क्षमतेज-हारा हमारा पालन क रो।
१०. आकाशगामी जल-संघ को प्रवाहरूप में अग्निथुक्त करते
और उसी निर्यल जल-संघ-द्वारा पृथिवी के व्याप्त कर डालते हैं ।
अग्नि जठर में अन्न को घारण करते और इसी लिए (बुष्टिजात) अभितव
दास्य के वीच में निवास करते हैं।
११. विशुद्धकारी अग्नि, काछ्ठों-द्वारा वृद्धि प्राप्त कर हमें धन-
युक्त अञ्च देने के लिए दीव्तिसार अनो। भित्र, बरुण, अदिति,
सिन्धु, पृथिवी ओर आकाश हमारे उस अझ की पुजा करें।
हिन्डी-शग्बेद १३५
९६ सूक्त
(देवता अप्नि । छन्द॒ त्रिष्टुप्)
१. बल या काष्ठ-घर्षण-द्वारा उत्पन्न अग्नि तुरत ही, पुरातन
की तरह, सत्य ही सारे सेधावियों का यज्ञ ग्रहण करते हें। जल और
शब्द उस विद्युदूय अग्नि को मित्र जानते हैं। देवों ने उन घन-दाता
अग्नि को ठूत-्हप से नियुक्त किया था।
२. अग्नि ने अथु या सनु के प्राचीन और स्तुति-गर्भ मंत्र से
तुष्ट होकर मानवी प्रजा की सृष्टि की थी। उन्होंने आच्छादक तेज-
द्वारा आकाश और अन्तरिक्ष को व्याप्त किया है। देवों ने उन धन-
दाता अग्नि को दृत-रूप से नियुक्त किया था ।
३. मनुष्यो, स्वामी अग्नि के पास जाकर उनकी स्तुति करो।
वे देवों सें मुख्य यज्ञ-साधक हैं। वे हव्य-द्वारा आहूत और स्तोत्र-
द्वारा दुष्ट होते हैं। बे अन्न के पुत्र, प्रजा-पोषक और दानशील हैं ।
देवों ने उन धनद अग्नि को दूत नियुक्त किया था।
४. वे अन्तरिक्षस्थ अग्नि अनेक वरणीय पुष्टि प्रदान करते हें।
अग्नि स्व्-दाता, सर्वेलोक-रक्षक और द्यावा-पूथिवी के उत्पादक हेँ।
अग्नि हमारे पुत्र को अनुष्ठान-मार्म दिखा दें। देवों ने उन धन-प्रदाता
अग्नि को दूत बनाया था।
५. दिवारात्रि परस्पर रूपों का बार-बार परस्पर विनाश करके
भी ऐक्य भाव से एक ही शिशु (अग्नि) को पुष्ट करते हैं। ये
दीप्तिमान् अग्नि आकाश और पृथिवी में प्रभा विकसित करते हुँ
देवों ने उन घनद अग्नि को दूत नियुक्त किया था।
६ अग्नि धन-मूल, निवास-हेलु, अर्थ-दाता, यज्ञ-्केतु और उपासक
की अभिलाषा के सिद्धि-कर्ता हुँ। अमर देवों ने उन धन-दाता अग्नि
को दूत बनाया था ।
७. पहले और इस सम्य अग्नि सारे घनों का आवास-स्थान हुँ।
जो कुछ उत्पन्न हुआ है या होगा, उसके निवास-स्थान हैं। जो कुछ
१३६ हिन्दी-ऋष्वेद
है और भविष्यत् में जो अनेकानेक पदार्थ उत्पन्न होंगे, उनके रक्षक
हैं । देवों चे उन धनद अग्नि को दुत-रूप से नियुक्त किया हैं ।
` ८. धनदाता अग्वि अंगस धन का भाग हुसे दान करें। धनद
अग्नि स्थावर धनका अंश हमें दें। धनद अग्नि हमें बीरों से युक्त
अन्न दान करें। घनद अग्नि हमें दीर्घ आयु दान करें।
९, विशुद्ध कर्ता अग्नि, इस प्रकार काष्ठों से वृद्धि प्राप्त कर
तुम हमें धन-युवत अन्न देने के लिए प्रभा प्रकाशित करो । मित्र, वरुण,
अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश हमारे उस अच्च की पुजा करें।
९७ सुक्त
(देवता अग्नि । छन्द् गायत्री)
१. अग्नि, हसारे पाप नष्ट हों। हमारा धन प्रकाश करो।
हमारे पाप नष्ट हों ।
२. शोननीय क्षेत्र, शोभन मार्ग और घन के लिए तुम्हारी पुजा
करते हें। हमारे पाप विनष्ट हों।
३. इन स्तोताओं में जसे कुत्स उत्कृष्ट स्तोता हैं, उसी तरह हमारे
स्तोता भी उत्कष्ट हेँ। हमारे पाप नष्ट हों।
४. अग्नि, तुम्हारे स्तोता पुत्र-पौत्रादि प्राप्त करते हुँ; इसलिए हम
भी तुम्हारी स्तुति करके पुत्र-पौन्नादि लाभ करेगे । हमारे पाप नष्ट हों ।
५. झत्रु-विजयी अग्नि की दीप्तियाँ सर्वत्र जाती हें; इसलिए
हमारे पाप नष्ट हों।
६. अग्नि, तुम्हारा मुख (शिखा) चारों ओर हे। तुम हमारे रक्षक
` बनो। हमारे पाप चष्ठ हों।
७. सर्वतोसुख अग्नि, जसे चौका से नदी को पार किया जाता है,
देसे ही हमारे शत्रुओं से हमें पार करा दो। हमारे पाप नष्ट हों।
८. नद्दी-पार की तरह हमारे कल्याण के लिए तुम हमें शत्रु से पार
कराकर हमें पालन करो। हमारे पाप नष्ट हों ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १३७
९८ सूक्त हक ।
(देवता अग्नि | छुन्द् त्रिष्ठुप्)
१, हुम बेदवानर अग्नि के अनुग्रह में रहें। वो सारे भवनों-द्वारा
पुजनीय राजा हैं। इन दो काष्ठों से उत्पन्न होकर ही वेइवानर ने
संसार को देखा और सुय के साथ एकत्र गसन किया ।
२. सुर्थ-हप से आकाश में और गाहँपत्यादि-झप से पृथिवी सें
झग्नि वत्तेमान हें। अग्नि ने सारे झस्यों में रहकर, उन्हें पकाने के
लिए, उनमें प्रवेश किया हे। वे ही बलशाली वैहवानर अग्नि दिन और
रात्रि में हमें शत्रु से बचाव । -
३. वैश्वानर, तुम्हारे सम्बन्ध में यह यज्ञ सफल हो। हमें बहु-
मूल्य धन प्राप्त हों। मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश
हमारे उस धन को पुजा करें।
९९ सूक्त
(देवता अग्नि | छन्द आषत्रिष्टुप्)
१. हुम सर्वेभूतञ्च अग्नि को उद्देश्य कर सोम का अभिषव
करते हँ। जो हमारे प्रति शत्रु की तरह आचरण करते हें, उनका
' धव अग्नि दहन करें। जसे नौका से नदी पार की जाती हुँ, उसी तरह
वे हमें सारे दुःखों से पार करा दें। आग्ति हमें पापों से पार करा दें।
१०० सुत्त
(देवता इन्द्र । ऋषि ऋजाश्व, अम्बरीष, सहदेव, भयमान
सुराधा नामक वृषागिर के पुत्र । छन्द त्रिष्टुप् )
१. जो इन्द्र अभीष्टवर्षी, वीर्यशाली, दिव्य लोक और पथिवी
के सम्राट और वृष्टि-दाता तथा रणक्षेत्र में आह्वान के योग्य हैं,
सरुतों के साथ, हमारी रक्षा में तत्पर हों।
२. सुयं को तरह जिनकी गति, दूसरे के लिए, अप्राप्य है, जो
संग्राम में शत्रुहन्ता और रिपु-शोषक हैं और जो, अपने गमनशील
१३८ हिन्दी-त्रटग्वेद
सखा सर्तों के साथ, यथेष्ट परिमाण में अभीष्ट द्रव्य दान करते हूँ;
बे इन्द्र, मरुतों के साथ, हमारी रक्षा में तत्पर हों।
३. सूर्य-किरणों की तरह जिनकी सतेज और दुष्प्रापणीय किरणें
बृष्टि-जल का दोहन करके चारों ओर फेल जाती हैं, बे ही शच्चु-
पराजयी और अपने पौरुष से लब्ध-विजय इन्द्र, सरुतों के साथ हमारी
रक्षा मं तत्पर हों।
४. वे गसनझील लोगों में अत्यन्त शीघ्रगामी, अभीष्ट-दाताओं
सें प्रधान अभीष्ट-दाता और मित्रों में उसम भित्र होकर पूजनीयों में
विशेष पुजा-पात्र और स्तुति-पात्रों में श्रेष्ठ हुए हें। वे सस्तो के
साथ हमारे रक्षण में तत्पर हों।
५. इन्द्र, रुद्र-पुत्र मरुतों की सहायता से, बलशाली होकर,
सनुष्यों के संग्राम में शत्रुओं को परास्त करके तथा अपने सहवासी मरुतो
की अच्नोत्पादक वृष्टि भेजकर, मरुतों के साथ, हमारी रक्षा में तत्पर
बनो ।
६. शन्रु-हन्ता, संग्राम-कर्ता, सल्लोकाधिपति और बहुत लोकों-
हारा आहूत इन्द्र हम ऋषियों को आज सूय का आलोक या प्रकाश
भोग करने दें (और दात्रुओं को अन्धकार दे) और वे मरुतों के .
साथ, हमारी रक्षा में परायण हों । |
७. सहायक मरुत् संग्राम में इन्द्र को, शब्द-हारा, उत्तेजित करते
हैं। मनुष्य इन्द्र को घन-रक्षक बनावे । इन्द्र सर्वफल-दायी कर्मो के
ईश्वर हूँ। बे सरुतों के साथ, हमारे रक्षण-पराथण हों।
८. लड़ाई के सदान में, रक्षा और धन की प्राप्ति के लिए, नेता
लोग इन्द्र की शरण ग्रहण करते हें; क्योंकि, इन्द्र दृष्टि-प्रतिबन्धक
अन्धकार में आलोक प्रदान करते अथवा संग्राम में विजय देते हैं।
इन्द्र, मरुतों के साथ, हमारी रक्षा में पराथण हों।
९. इन्द्र बाम हस्त द्वारा हिसको को निवारण करते और दक्षिण
हस्त-ट्ठारा यजमान का हव्य ग्रहण करते हैं। वे स्तोत्र-ट्वारा स्तुत
हिन्दी-ऋष्वेद १३९
होकर धन प्रदान करते हें। इन्द्र, मरुतों के साथ, हमारी रक्षा सें
तत्पर हों।
१०. दे अपने सहायक मरुतों के साथ धन दान करते हुँ। आज
इन्द्र, अपने रथ-द्वारा, सारे मनुष्यों से परिचित हो रहे हैं। इन्द्र ने अपने
पराक्रम से, दृष्ट शत्रुओं को अभिभूत किया है। बे मरुतों के साथ,
हमारी रक्षा में तत्पर हों।
११. अनेक लोगों-हारा आहुत होकर बन्धुओं के संग मिलकर या जो
बन्धु नहीं हुँ, उनको साथ लेकर समर-क्षेत्र में इन्द्र जाते हैं तथा
उन शरणागत पुरुषों और उनके पुत्र-पौन्नों का जय-साधन करते हैं।
चे मर्तों के साथ हमारी रक्षा में तत्पर हों। म
१२. इन्द्र वप्प्र-धारी, दस्यु-हन्ता, भीम, उच्च, सहस्र-ज्ञान-युक्त,
बहु-स्तुति-भाजन और भहान् हैं। इन्द्र, सोम-रस की तरह, बल-द्वारा
पञ्च श्रेणी (चार वर्ण और पञ्चस वर्ण निषाद) के रक्षक हें। वे
मरुतों के साथ हमारे रक्षण-परायण हों। . |
१३. इन्द्र का वज्न शत्रुओं को रुलाता हं। इन्द्र शोभन जल-
दान करते हें। वे सूर्यं की तरह दीप्तिमान् हैं । बे गरजते हैं। वे
सासयिक फम सें रत रहते हें। धन और धन-दान इन्द्र की सेवा करते
है। मरुतों के साथ वे हमारी रक्षा में तत्पर हों ।.
१४. सारे बलों का उपमानभूत जिनका बल उभय (पृथिवी और
अन्तरिक्ष) लोकों का सदा, चारों ओर से, पालन करता हुँ, वे हमारे
यज्ञ से परितुष्ट होकर हमारे पापों से हमें पार करा दें। वे मरुतों के
साथ हमारी रक्षा सं तत्पर हों।
| १५. देव, सनुष्य या जऊ-समूह जिन देव (इन्द्र) के बल का अन्त
नहीं पाते, वे अपने बल-द्वारा पृथिदी और आकाश से भी अधिक
हो गये हुँ। वे सरुतों के साथ, हमारी रक्षा में परायण हों ।
१६. दौर्घावयय, अलङद्धारधारी, आकाशवासी और रोहितवणे
एवं श्यामवर्ण दोनों इन्द्र के घोड़े, ऋजाइव नामक राजषि को धन
१४० हिन्दी-ऋग्वेद
देने के लिए, अभीष्टदाता इन्द्र से युक्त, रथ का सम्मुख भाग धारण करके
प्रसच्च-वदन सनुष्य-सेना-हारा परिचित होते हें ।
_ १७. अभीष्ट-दाता इन्द्र, वृषागिर के पुत्र ऋजाइव, अम्बरीष,
सहदेव, भयमान और सुराधा तुम्हारी प्रीति के लिए तुम्हारा यह स्तोत्र
उच्चारण करते हें ।
` १८. इन्द्र ने, अनेक लोगों-हारा आहूत होकर और गतिशील मरुतों
से युक्त होकर, पृथिवी-निवासी दस्युओं या शत्रुओं और शिम्युओं या
_ राक्षसो को प्रहार करके, हननशील वष्त्र-द्वारा वध किया । अनन्तर इवेतवर्ण
मित्रों या अलंकार-द्वारा दीप्ताङ्ग मरुतों के साथ क्षेत्रों का भाग कर लिया ।
झेभन-वप्त्र-युक्त इन्द्र सुर्यं एवं जल-समूह को प्राप्त हुए ।
- १९. सब कालों में वर्तमान इन्द्र हमारे पक्ष से बोलें। हम भी
अकुडिलगति होकर अन्न भोग करें । मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु,
-पृथिवी और आकाश उन्हें पूजे ॥
१०१ सूक्त
(देवता इन्द्र । यहाँ से ११५ सूक्त तक के ऋषि अङ्गिरा के पुत्र
कुस्स । छन्द त्रिष्दुप ओर जगती)
` १. जिन इन्द्र ने ऋजिञवा राजा के साथ कुष्ण नाम के असुर की
' गर्भेवती स्त्रियों को निहत किया था, उन्हीं हृष्ट इन्द्र के उद्देश से,
अञ्च के साथ, स्तुति अपित करो । हम रक्षण पाने की इच्छा से. उन
अभोष्ट-दाता और दक्षिण हाथ सं वच्त्र-धारी इन्द्र को, मरुतों के साथ,
अपना सखा होने के लिए, आह्वान करते हेँ।
२. श्रवृद्ध क्रोध के साथ जिन इन्द्र ने विगत-भुज वृत्र या व्यंस
नामक असुर का वध किया था। जिन्होंने शम्बर और यज्ञ-रहित पि
~ का वध किया था और जिन्होंने दुर्जन शष्ण का ससल नाश किया
था, उन्हीं इन्द्र को, मरुतों के साथ, अपना सखा होने के लिए, हम
बुलाते हें।
हिन्दी-त्रश्वेद १४१
३. जिनके विपुल बल का यो ओर पृथिवी अनुधावन करती हे,
जिनके नियम से वरुण और सूर्य चलते हें और जिनके नियम के अनसार
नदियाँ प्रवाहित हैं, उन्हीं इन्द्र को, मर्तों के साथ, अपना सखा
होने के लिए, हम बुलाते हुँ। _
४. जो अइवों के अधिपति, गोपों के ईश, स्वतंत्र, स्तुति प्राप्त
कर जो सारे कर्मो में स्थिर और अभिषव-शून्य दुद्धेष शत्रुओं के हन्ता
हैं, उन्हीं इन्द्र को, मरुतों के साथ, अपना सखा होने के लिए, हुम
-बुळाते ह।
५. जो गतिशील और निशवास-सम्पन्न जीवों के अधिपति हें और
जिन्होंने अङ्गिरा आदि ब्राह्मणों के लिए पणि-द्वारा अपहूत गो का
सर्व-प्रथत। उद्धार किया था तथा जिन्होंने दस्युओं को निकृष्ट करके
वध किया था, उन्हीं इन्द्र को, मरतों के साथ, अपना बन्धु होने के
लिए, हम बुलाते हैं।
६. जो शत्रुओं और भीरओ के आह्वान योग्य हैं, जिन्हें समर से
भागनेवाले ओर समर सं विजयी, दोनों ही आह्वान करते हं तथा
जिन्हें सारे प्राणी, अपने-अपने कार्यों के सम्मुख, स्थापित करते
हैं, उन्हीं इन्द्र को, मरुतों के साथ, सखा होने के लिए, हम बुलाते हैं।
७. सुये-रूप आलोकसय इन्द्र सारे प्राणियों के घ्राण-स्वरूप रुद्र-
पुत्र मरुतों को ग्रहण कर उदित होते हैं और उन्हीं रुब्र-पुत्र मर्तों-
दारा वावय-वेग-्युक्त होकर विस्तारित होते हें। प्रख्यात इन्द्र को
स्तुति-लक्षण वाक्य पुजित करते हैं। उन्हीं इन्द्र को, सस्तो के साथ,
सखा होने के लिए, हस आह्वान करते हुँ ।
८. मच्त्संयुबत इन्द्र, तुम उत्कष्ट घर सं ही हृष्ट हो अथवा
सामान्य स्थात में ही हृष्ट हो हमारे यज्ञ में आगसन करो । सत्यथन
इन्र, तुम्हारे लिए उत्सुक होकर हम हव्य प्रदान करते हैं। |
९. शोभन बल से युक्त इन्द्र, हम तुम्हारे लिए उत्सुक होकर
सोल का अभिषव करते हुँ। तुम्हें स्तुति-द्वारा पाया जाता है।
१४२ हिन्वी-ऋग्वेद
` हम, तुम्हारे उद्देश से, हुव्य प्रदान करते हैं। अश्व-युक्त इख, सस्तो
के साथ दलबद्ध होकर इस यज्ञ-कुश पर बेठकर हुष्ट बनो । |
१०. इन्द्र, अपने घोड़ों के साथ प्रसन्न हो अपने दोनों शिघ्र, हन्
या जबड़े खोलो; सोमपान के लिए अपनी जिह्वा और उपजिह्वा खोलो ।
हे सुशिप्र वा सुनासिक इन्द्र, तुम्हें यहाँ घोड़े ले आवें। तुम हमारे
प्रति तुष्ट होकर हमारा हुव्य ग्रहण करो ।
११. जिन इन्द्र का, मरुतों के साथ, स्तोत्र है, उन शन्रु-हन्ता
इन्द्र-द्वारा रक्षित होकर तुम उनसे अञ्च प्राप्त करो। सित्र, वरुण,
अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश हमारे उस अन्न की पुजा करें।
१०२ सूक्त
(देवता इन्द्र )
१. तुम महान् हो। तुम्हारे उद्देश से में इस महती स्तुति को
सम्पादन करता हूँ; क्योंकि तुम्हारा अनुग्रह मेरी स्तुति पर निभेर करता
है। ऋत्विकों से सम्पत्ति और धन लाभ के लिए स्तुति बल-द्वार
उन शन्र-विजयी इन्द्र को हुष्ट किया हैं। |
२. सात नदियाँ इन्द्र की कीति धारण करती हें ॥ आकाश,
पृथ्वी और अन्तरिक्ष उनका दर्शनीय रूप धारण करते हुँ। इन्द्र, सुयं और
चन्द्र हमारे सामने, प्रकाश देने ओर हमारा विश्वास उत्पन्न करचे के
लिए, बार-बार एक के बाद एक विचरण करते हैं।
३. इन्द्र, अपने अन्तःकरण से हम तुम्हारी बहुत स्तुति करते हुँ ।
तुम्हारे जिस विजयी रथ को शत्रुओं के युद्ध में देखकर हम प्रसन्न होते
हैं, हमारे धव-लाभ के लिए उसी रथ को प्रेरण करो। मघवन्, हस
छुम्हारी कामना करते हें। हमें सुख दो।
४. तुम्हें सहायक पाकर हम अवरोधक झत्रुओं को परास्त करेंगे।
संग्राम सें हमारे अंश की रक्षा करो। मघयन्, हस सरलता से घन
पा सकें--ऐसा उपाय कर दो। शत्रुओं की शक्ति तोड़ दो।
हिन्दी-क्रस्वेद १४३
५. धनाधिएति, ये जो अपनी रक्षा के लिए तुम्हारी स्तुति करते
हैं और ठुम्हें बुलु हैं, वे नावा प्रकार के हैं। इनमें हमें ही, धन
देने के लिए, रथ पर चढ़ो। इन्द्र, तुम्हारा सब व्याकुलता-रहित
और अय-शील
६. तुम्हारी भुजायें, जय-द्वारा, गौ के लिए लाभकारी हैं या गौ
को जय करनेवाली हं। तुम्हारा ज्ञान असीम हृ। तुस श्रेष्ठ हो और
पुरोहितों के कार्यो में संकड़ों रक्षण-कार्य करते हो । इन्द्र युद्ध-कर्ता और
स्वतंत्र हैं। वे सारे भाणियों के बल के परिसाण-स्वरूप हैं। इसी
लिए घन-लाभार्थी मनुष्य इन्द्र को विविध प्रकार से बुलाते हैं।
७. इन्द्र, ठुम सनुष्य को जो अन्नदाता करते हो, बह शतसंख्यक
धन से भी अधिक हे अथवा उससे भी अधिक है वा सहस्रसंख्यक
धन से भी अधिक हुं । तुम परिमाण-रहित हो। हमारे स्तुति-वचनों
तुम्हें दीप्त किया हे। पुरन्दर, तुमने शत्रुओं को हनन किया है।
८, चर-रक्षक इन्द्र, तुम तिगुनी हुई रस्सी की तरह सारे प्राणियों
के बल के परिभाण-स्बरूप हो। तुम तीनों लोकों में तीन प्रकार (सूयं,
विद्युत् ओर अग्नि) के तेज हो । तुस इस संसार को चलाने में पुर्ण समर्थ
हो; क्योंकि, इन्द्र, तुम बहुत समय से, जन्मावधि, शन्रुशून्य हो ।
९, तुम देवों सें प्रथम हो। तुम संग्राम सें झत्रुअयी हो। हम
तुम्हें बुलाते हैं। बे इन्द्र हमारे युद्ध-योग्य, तेजस्वी और विभेद-कारी
रथ को संग्राम सें अन्य रथों के आगे कर दें ।
१०. तुम जय प्राप्त करते हो और विजित धन को छिपाकर रखते
नहीं। वनद इन्द्र, तुम उग्र हो। क्षुद्र और विशाल युद्ध में, रक्षा के
लिए, स्तोच-द्वारा हम तुम्हें तीज करते हुँ। इसलिए इन्द्र, हमें युद्ध के
- लिए आह्वान में उत्तेजित करो ।
११. सदा वर्तमान इग हमारे पक्ष से बोले । भी अकुटिल-गति
होकर अघ भोग कर। भित्र, बरुण, अदिति, सिन्ध, पथिबी और आकाल
उन्हें पूर्ण । |
१४४ हिन्दी-ऋग्वेद
१०३ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप्)
१. इन्द्र, पहले मेधावियों ने तुम्हारे इस प्रसिद्ध परम बल को
साक्षात् धारण किया था। इन्द्र की अन्ति-हप एक ज्योति पृथिवी पर
और इूदरी दुर्ग-रूण आकाश में हे। यद्ध सें दोनों पक्षों की ध्वजायें जैसे
मिळती हैं, उसी तरह उक्त उभय ज्योतियाँ संयुक्त होती हैं।
२. इन्द्र ने पृथिवी को धारण और विस्तृत किया है। इन्द्र ने बच्च-
द्वारा वृत्र का वधकर वृष्टि-जल बाह्र किया है। अहि को मारा है।
रोहिण नामक असुर का विदारण किया है। इख ने अपने कार्य-द्वारा
विगत-भुज वत्र का नाश किया है। पी 0
३. उन्होंने वप्त्र-स्वरूप अस्त्र लेकर वीर्य कार्य में उत्साह-पूर्ण होकर
दस्युओं के नगरों का विनाश करके विचरण किया था। वप्त्रधर इन्द्र,
हमारी स्तुति जानकर दस्युओं के प्रति अस्त्र निक्षेप करो । इन्द्र, आयो
का बल और यश बढ़ाओ।
४. वज्ञधर और अरिमर्दन इन्द्र, दस्युओं के विना के लिए निकलकर,
यश के लिए, जो बल धारण किया था, कीत्तेन-योग्य उस बल को धारण
कर धनवान् इन्द्र, स्तोता यजमानों के लिए मनुष्यों के युयों का, सु्थ-
रूप से, निष्पादन करते हुँ।
५. इन्द्र के इस प्रवृद्ध और विस्तीण वीर्य को देखो। उनकी शक्ति
वर श्रद्धा करो। उन्होंने गौ और अइव प्राप्त किया उन्होंने ओषधियों
जलो ओर वनों को प्राप्त किया । |
६, प्रभूत-कर्मा, श्रेष्ठ, अभीष्टदाता और सत्य-बल इस्र को
लक्ष्य कर हम सोस अभिषव करते हैं। जैसे पथ-निरोधक चोर पथिकों
के पास से धन छे लेता है, वैसे ही बीर इन्द्र धन का आदर करके यञ्ञ-
हीन सनुष्यो के पास से उस धत का भाग-कर यज्ञ-्पराथण मनष्यों के पास
ले जाते हैं।
हिन्दी-त्रटस्वेद १४५
७. इन्द्र, तुमने वह प्रसिद्ध वीर-कार्य किया था। उस निद्वित
अहि को वज्ज-द्ाश जागरित किया था। उस समय देव-रमणियों ने
तुम्हें हृष्ट देखकर हषे प्राप्त किया था। गतिशील मरुदगण और सारे
देवगण तुम्हें हृष्ट देखकर हृष्ट हुए थे।
८. इन्द्र, तुमने शुष्ण, पिश्रु, कुयद और वृत्र का वध किया है और
शम्बर के नगरों का विनाश किया था। अतएव मित्र, वरुण, अदिति,
सिन्धु, पूथिवी और आकाश हमारी उस प्राथित वस्तु को पुजित करें।
१०४ सूक्त
(देवता इन्द्र)
इन्द्र, तुम्हारे बेठने के लिए जो वेदी प्रस्तुत हुई हे, उस पर
शब्दायसान अइव की तरह बठो। अइवों को बाँधनेबाली रस्सियों को
छुड़ाकर अश्वो को सुक्ल कर दो। वे अइव, यज्ञ-काल आने पर, दिन-
रात, तुम्हें वहन करते हें ।
२. रक्षण के लिए ये मनुष्य इन्द्र के निकट आये हैं। इन्द्र उन्हें
तुरत, उसी समय, अनुष्ठान-मार्ग में जाने देते हँ। देवता लोग
दस्युओं का क्रोध विनष्ट करें और हमारे सुख-साधन-स्वरूप यज्ञ में
अनिष्ट-निवारक इन्द्र को आने दें।
३. कुयव नामक असुर दूसरे के धन का पता जानकर स्वर्यं अप-
हरण करता हे। वह जळ में रहकर स्वयं फनयुक्त जल को चुराता है।
कुयव की दो स्त्रियाँ उसी जल सें स्नान करती हैं। बे स्त्रियाँ शिफा नामक
नदी के गम्भीर निस्तल में विनष्ट हों ।
४. असु या उपद्रव के लिए इधर-उधर जानेवाला कुयव जल
के बीच रहता है। उसका निवास-स्थान गुप्त था। वह शूर, पूर्व-अपहत
जल के साथ, वृद्धि प्राप्त करता और वीप्स होता हे । अंजसी, कुलिशी
ओर वीर-पत्नी नाम की तीनों नदियाँ स्वकीय जल से उसे प्रीत
करके, जल-द्वार, उसे धारण करती हैं ।
फा? १०
१४६ हिन्दी-ऋग्वेद
५. वस्स-प्रिय गौ जैसे अपनी झाला या योष्ठ का पथ जानती है,
उसी प्रकार हमने भी उस असुर के धर को ओर गये हुए रास्ते
को देखा है। उस असुर के बार-बार किये गये उपद्रव से हमें बचाओ ।
जेसे कामुक धन का त्याग करता है, उसी प्रकार हमें नहीं छोड़ना ।
६. इन्द्र, हमें सुर्यं और जरू-ससूह के प्रति भक्ति-पुर्ण करो। जो
लोग, राप-शुत्पता के लिए, जीव-मात्र के प्रशंसनीय हैं, उनके प्रति भक्ति
पूर्ण करो। हमारी गर्भे-स्थित सन्तान को हिसित नहीं करना । हम
तुम्हारे महान् बल पर श्रद्धा करते हें ।
७. अन्तःकरण से हम तुम्हें जानते हैं। तुम्हारे उस बेल पर हसने
श्रद्धा की हैं। दुम अभीष्ट-दाला हो; हमें प्रभूत धन प्रदान करो।
इन्र तुस बहुत लोगों के हारा आहुत हो। हमें धन-विहीन घर में नहीं
रखना। भूखों को अन्न ओर जल दो।
८. इन्द्र, हमें नहीं मारचा। हमें नहीं छोड़ना। हमारे प्रिय भक्ष्य,
उपभोग आदि नहीं लेना । हे समर्थ धनपति इद, हमारे गर्भ-स्थित
अपत्यों को नष्ट वहीं करना । घुटने के बल चलनेवाले अपत्यों को नष्ट
नहीं करना ।
९, हमारे सामने आओ। लोयों ने तुम्हें सोम-्रिय बना डाला
है। सोम तैयार हें; इसे पान कर हृष्ट बनो। विस्तीर्णाङ्ग होकर
जठर में सोस-रस की वर्षा करो। जेले पिता पुत्र की बात सुनता
है, उसी प्रकार हमारे हारा आहूत होकर हमारी बातें सुनो ।
१०५ सूक्त
(देवता विश्वेदेवगण । इस सूक्त फे ओर १०६ सूक्त के ऋषि
आप्त्यत्रित । छन्द त्रिष्दुप, यवमध्या महाइहती और पंक्ति)
१, अलमथ अन्तरिक्ष सें वत्तेमाव चन्द्रमा, सुन्दर चन्द्रिका के साथ
आकाश में दौड़ते हें। सुवर्ण-नसिरहङिमियो, कूप में पतित हमारी इन्द्रियाँ
तुम्हारा पद नहीं जानतीं। द्यावा-पुथिवी, हमारे इस स्तोत्र को जानो।
ED nS फाटो, ४७
“ए हट्छ था
२. घयाभिलाषी निश्चय ही धव पाता है ॥ स्त्री पास ही पति
को पाती हे, सहवास करती हैं; और, गर्भ से सन्ताय उत्पन्न होती
है । घावा-पृथिवी, हमारे इस दुःख को जानो अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार
से रहित हमारे कष्ट को समझो ।
३. देवगण, हुसारे स्वर्गस्थ पुर्व पुरुष स्वयं से च्युत न हों; हम
कही सोम-पायी पितरों के सुख के लिए पुत्र से निराश न हों। थावा-
थिवी, सेरी यहु बात जाचो।
४. देवों में सर्व-प्रथम यज्ञाहँ अग्नि की में याचना करता हूं। वह
दृर्ल-रूप से मेरी याचना देवों को बताबं। अग्नि, तुम्हारी पहले की
वदाव्यता कहाँ गई? इस समय कोम नूतन पुरुष उसे धारण
करते हैं? हे. छावापृथिवी, मेरा यह विषय ज्यो ।
सुर्थ-द्रारा प्रकाशित इन तीनों लोकों में ये देववन्द रहते हैं।
हे देवगण, तुम्हारा सत्य कहाँ हे ओर असत्य कहां हे ? तुम्हारी प्राचीन
आहुति कहाँ हे? झावा-पूथिची, मेरा यह विषय समको ।
६. तुम्हारा सत्य-पालन कहाँ हे? वरुण की अनुग्रह-दृष्टि कहां
है ? महान् अयसा का वह मागे कहाँ है, जिसके द्वारा हम पाप-मति
व्यक्तियों का अतिक्रम कर सक? द्यावा-पृुथिबी, मेरी यह अवस्था या
दुःख जावो अर्थात् दुःख-महोदवि में पतित सेरे लिए ये सब वस्तुएँ
लुप्त-सी हो गई हें--इस बात के द्यावा-पृथिवी सपक्षो हैं ।
७. सं वही हूं जिसने प्राचीन समय में सोम अभिषुत होने पर कतिपय
स्तोत्र उच्चारण किये थ। जसे पिपासित मुग को व्याघ्र खा जाता
१41१३ ०
८. जसै दो सपत्नियाँ (सोते) दोनों ओर खड़ी होफर स्वामी को
सन्ताप दती है, बसे ही कुएं की दीवार मुझे सन्ताप दे रही हैं। जैसे
चूहा सूता काटता हे, हे शलऋतो, देसे ही तुम्हारे स्तोव्रा की--म भे
दुःख काटता है । द्यावा-पृथिवी, सेरी यह बल जाळो।
१४८ हिन्दी-ऋष्वेद
९. ये जो सूर्य की तात किरणे हैं, उसमें सेरी नाभि, मर्जात्मा या बास
स्थान है। यह बात आप्तमत्रित जानते हैं दथा कुएँ से निकलते
के लिए रहिम-समूह की स्तुति करते हैं। चावासूचिवी, सेश यह
विषय जानो । |
१०. बिशाल आकाश में ये जो अग्नि, बायु, तूर्ये, इद्र और विद्युत्
आदि पाँच अभीष्ट-दाता हैं, वे मेरे इस प्रशंसनीय स्तोत्र को शीघ्र देवों
के पास ले जाकर लोट आवें। दाबा-पुथिवी, मेरी यह बात जानो।
११. सर्वव्यापी आकाश सें सूयं की रश्मियाँ हैं। विशाल जल-
राजि पार करते समय, मार्ग में, टुर्थ-्रहिसियाँ अरष्यकुक्कुर या बूक को
निवारण करती हें। दावा-पृथिदी, सेरा यह विषय जानो ।
१२. देवगण, तुम्हारे भीतर वह चव्य, प्रशंसवीय ओर सुवाच्य बल
हे। उसके द्वारा वहनशील नदियाँ सदा जळ-संचालन करतीं और सूर्य
अपना सर्वदा विद्यमाव आलोक विस्तार करते हैत चावा-पुथिवी, येरा
यह विषय जानो ।
१३, अग्नि, देवों के साथ तुम्हारा वही प्रशंसनीय बन्धुत्व हे। तुम
अत्यन्त विद्वान् हो। मनु के यज्ञ की तरह हमारे यज्ञ में बंठकर देवों
का यज्ञ करो। द्यावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो।
१४. सनु के यज्ञ की तरह हमारे यज्ञ में बेठकर देवों के आह्वानकारी,
अतिशय विद्वान और देवों में मेधावी अग्निदेव देवों को हमारे हव्य
की ओर शास्त्रानुसार प्रेरण कर । घावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ।
१५. वरुण रक्षा-कार्थं करते हें। उच (वरुण) मागे-दर्शक के पास
हम याचना करते हें। अन्तःकरण से स्तोता बरुण को लक्ष्य कर मननीय
स्तुति का प्रचार करता हे। वही स्तुति-पात्र व्ण हमारे सत्प-
स्वरूप हों। चावा-पथिबी, पेरा यह विषय जानो ।
१६. यह जो सूर्य, आकाश सें, सर्व-सिद्ध पथ-स्वरूष हुँ, देवगण,
उन्हें तुम लोग नहीं लाँच सकते। सनुष्यगण, तुम लोय नहीं उन्हें
जानते। द्यावा-पृथिवी, सेरा यह विषय जानो ।
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१७. कुएँ जे गिरकर जित ने, रक्षा के लिए, देवों का आह्वान किया ।
बृहस्पति ने त्रित का पाप-रूष कुएँ से उद्धार करके उसका आह्वान सुना
या। दावा-पृथिची, मेरा यह विषय जासो। |
१८. अरुण-वर्ण बुक ने, एक समय, मुझे मार्ग सें जाते देखा था।
जैसे अपना कार्य करते-करते, पीठ पर वेदना होने पर, कोई उठ
खड़ा होता है, बसे ही मुझे देखकर वृक भी उठ खड़ा हुआ था। झावा-
पृथिवी, सेरा इह विषय जानो ।
१९. इस घोषणा-योग्य स्तोत्र के द्वारा इन्द्रको पाकर हस लोग,
श्ीरों के साथ मिलकर, समर में शत्रुओं को परास्त करेंगे। मित्र, वरुण,
अदिति, सिन्धु, पुथिवी और आकाश, हमारी यहु प्रार्थना पुजित करें।
१०६ सूक्त
(१६ अनुवाक ; दैवता विश्वेदेवगण । ऋषि झआप्त्यत्रित अथवा
अङ्गिरापुत्र कुत्स । छन्द त्रिष्ठुप और जगती)
१, रक्षा के लिए हम इन्द्र, मित्र, बरुण, अग्नि और मरुद्गण.
को बुलाते हैं। जसे संसार सें लोग रथ को दुर्गम पथ से उद्धार कर'
लाते हैं, बैसे ही दानशील और वास-गृह-दाता देवता लोग हमें, पापों
से उद्धार कर, पालन करें!
३. आदित्यगण; युद्ध में हमारी सहायता के लिए, तुस लोग आओ
आर युद्ध में हमारी विजय के कारण बनो। जैसे संसार सें लोग रथ
को दुर्गम पथ से उद्धार कर छाते हैं, वैसे ही दानशील और वास-गह-
शाता इंबगण, हम, थापों छे उद्धार कर, पालन करे ।
३, जिनकी स्तुति सुख-साध्य हैं, थे पितृगण हमारी रक्षा करें ।
देवों की पितू-रातृ-स्वरूपा और यञ्ञ-वद्धेयित्री ्यावा-पुथिवी हमारी
रक्षा कर! जते अंसार में जोग रथ को द्गस पथ से उद्धार कर लाते
इ, उसे ही दानशील और आास-गुह-दाता देवगण, हमें, पापों से उद्धार
कर, पालन करें|
१५० हिन्दी- ऋग्वेद
४. सनुहयो के प्रशंसनीय और अन्नदान अध्यि को इस समय हुम
जलाकर स्तुति करते हैं। वीर और विजयी पूषा के पास, सुखकर
स्तोत्र-द्वारा, याचना करते हैं। जैसे संसार में लोग रथ को दुर्गम पथ
से उद्धार कर लाते हैं, वेसे ही दानशील और वास-गृह-दाता देवगण,
हमें, पापों से उद्धार कर, पालन करे ।
५. बृहस्पतिदेद, हमें सदा सुख प्रदान करो । मनुष्यों के रोगों के
उपशम और भयों के दूरीकरण की जो उपकारिणी क्षमता तुमसें
है, उलकी भो हुम याचना करते हैं। जेसे संसार में लोग रथ को दुर्गम
पथ से उद्धार कर लाते हैं, वैसे ही दानशील ओर वास-यृहु-दाता देवगण,
हमें, पापों से उद्धार कर, पालन करें ॥ |
६. कूप में पतित कुत्स ऋषि ने, बचने के लिए, बुत्र-हन्ता और
शचीपति इन्द्र का आह्वान किया था। जैसे संसार में लोग रथ को दुर्गम
पथ से उद्धार करं लाते हँ, वैसे ही दानशील और वास-गृह-दाता देवगण
हमें पापों से उद्धार कर पालन करें।
७, देवों के साथ अदिति देवो हमारा पालन करें | सबके रक्षक
दीप्यमान सविता जागरूक होकर हमारी रक्षा करें। भित्र, वरुण, अदिति,
सिन्धु, पृथिवी और आकाश हमारी यह प्रार्थना पूजित करे ।
१०७ सूक्त
(देवता विश्वेदेवगण । छन्द त्रिष्टुप्)
१. हमारा यज्ञ देवों को सुखी करे। आदित्यगण, तुष्ट हों।
तुम्हारा अनुग्रह हमारी ओर प्रेरित हो और वही अनुग्रह दरिद्र सनुष्य
के लिए प्रसूत घन का कारण हो।
२. अङ्करा ऋषियों-द्वारा गाये गये मंत्रों से स्तुत होकर देव्रगण,
रक्षा के लिए, हमारे पास आवें । धन लेकर इन्द्र, प्राणवायु के साथ
मरुत् लोग तथा आदित्यों को लेकर अदिति हमें सुख प्रदान करें ।
हिन्दी- ऋग्वेद १५१
३. जिस अन्त के लिए हम याचना करते हैं, उसे इन्द्र, बरुण,
अग्नि, अर्येसा और सविता हमें दें। मित्र, वरुण, अदिति, सिन्ध, पृथिवी
और आकाश हमारे उस अन्न की पूजा करें।
१०८ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि)
१. इन्द्र और अग्नि, तुम लोयों के जिस अतीव विचित्र रथ ने
सारे भुवन को उज्ज्वल किया है, उसी रथ पर एक साथ बैठकर आओ;
अभिषुत सोस पान करो ।
२. इस बहुव्यापक और अपनी गुरुता से गम्भीर जो सारे भुवन
फा परिमाण हे, इन्द्र और अग्नि, तुम लोगों के पीने योग्य सोम बही
परिमाण हो; दुस रोगों की अभिलाषा अच्छी तरह पूर्ण करे ॥
हे. तुम लोगों ने अपना कल्याणयाही सास-द्य एकत्र किया
है। वृत्र-हन्तृ-हय, वृत्रवध के लिए, तुम लोग एक साथ हुए थे।
अभीष्ट-दाता इन्द्र और अग्नि, तुस लोग एकत्र होकर और बेठकर
अभिषिवत सोम, अपने उदरों में, सेचन करो ।
४. अग्नि के अच्छी तरह प्रज्वलित होने पर दोनों अध्वर्युओं ने
पात्र से घृत सेचन करके कुश विस्तार किया है। इन्द्र और अग्नि, चारों '
ओर अभिषुत तीब्र सोम-रस-द्वारा आङष्ट होकर, कृपा के लिए,
हमारी ओर आओ ।
५- इन्द्र और अग्नि, तुम लोगों ने जो कुछ वीर-कार्य किया है, जितने
रूप-विशिष्ट जोयों की सृष्टि की है, जो कुछ दर्षण किया हैं तथा
तुम लोगों का जो कुछ प्राचीन कल्याणकर बन्धुत्व है, वह सब ले
आकर अभिषुत सोम पीझो । | |
६. पहले ही कहा था कि, तुम दोनों को वरण करके तुम्हें सोम-
द्वारा प्रसन्न करूंगा, वही अकपट श्रद्धा देखकर आओ; अभिषुत सोस
पान करो। यह सोम हमारे ऋत्विकों की विशेष आहुति के योग्य ही ।
१5९. ` हिन्दी-ऋण्वेद
७. यज्ञ-पात्र इन्द्र और अग्नि, यदि अपने घर में प्रसन्न होकर
रहते हो, यदि पुजक वा राजा के प्रति तुष्ट होकर रहते हो, तो हे अभीष्ट-
दातृ-दय, इन सारे स्थानों से आकर अभिषुत सोम पान करो।
८. इन्द्र और अग्नि, यदि तुम लोग तुंश, दुह्य, अनु ओर पुरु-
गण के बीच रहते हो, तो हे अभीष्ट-दातू-्य, उन सब स्थानों से आकर
अभिषूत सोम पाव करो ।
९. इन्द्राग्नी, यदि तुम लोग निम्न पृथिवी, अन्तरिक्ष अथवा
आकाश में रहते हो, तो हे अभीष्ट-दातू-द्वय, उन सारे स्थानों से आकर
अभिषुत सोम पान करो।
१०. इन्द्राग्नी, तुम लोग यदि उच्च पृथिवी (आकाश), मध्य
पृथिदी (अन्तरिक्ष) अथवा निम्न पृथिवी पर अवस्थान करते हो, दो
हे अभीष्ट-दातु-इय, उत सब स्थानों से आकर अभिषुत सोस पान करो ॥
११. इन्द्र और अग्नि, यदि तुम आकाश, पृथ्वी, पर्व॑त, शस्य अथवा
जल सं अवस्थात करते हो, तो हे अभीष्ट-दात्-द्रय, उन सब स्थानों से
आकर अभिषुत सोम पान करो ।
१२. इन्द्र और अग्नि, सुर्य के उदित होने पर दीप्तिमान् अन्तरिक्ष
में यदि तुम लोग अपने तेज से हृष्ट होत हो, तो हे अभीष्ट-दातु-इय,
उन सारे स्थानों से आकर अभिषुत सोम पान करो ।
१३. इन्द्र और अग्नि, इस तरह अभिषुत सोस पान करके हमें समस्त
धन दान करो। सित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पूथिदी और आकाश
हमारे इस प्रार्थत धन की पूजा कर।
२०९ स्रुक्त |
(देवता, ऋषि और छन्दं पूर्ववत्)
१. इन्द्र और अग्नि, में धन की इच्छा करके तुम लोगों को
ज्ञाति वा बन्धु की तरह जानता हुँ । तुमने ही मुभे प्रकृष्ट बुद्धि दी.
हिन्दी-ऋग्वेद १५३
है; अन्य किसी ने भी नहीं। फलतः मेंने व्यान-निष्पन्न और अन्नेच्छा-
सुचक स्तुति, तुम्हें उद्देश कर, की हैं।
२. इन्द्र और आग्नि, तुस लोग अयोग्य जामाता अथवा इयालक
की अपेक्षा भी अधिक, बहुविध, धन दान करते हो--एसा सुना
है। इसलिए हे इन्द्र और अग्नि, तुम्हारे सोम-ध्रदान-काल में पठनीय
एक वया स्तोत्र निष्पादन करता हू ।
३. हम पुत्र-पौत्रादि-लूप रज्जु कभी न काटे--एसी प्राथना करके
और पितरों की तरह शक्तिशाली पुत्र आदि उत्पादन करके उत्पादन”
समर्थ यजमान इन्द्र और अग्नि की सुख-पुर्वक स्तुति करते हैं। शत्रु”
हिंसक इन्द्र और अग्नि स्तुति के पास उपस्थित रहते हें ।
४. इन्द्र और अग्नि, तुम्हारे लिए दीप्तिमती प्रार्थना की कामना
करके तुम्हारे हषं के लिए सोमरस का अभिषव करते हें। तुम अइव-
सम्पन्न शोभन-बाहु-युक्त और सुपाणि हो । तुम छोग शीघ्र आकर
उदकस्थ माधुयें-हारा हमारा सोम-रस संयुक्त करो ।
५. इन्द्र और अग्नि, स्तोताओं के बीच धन-विभाग में रत रहकर
वृत्र-हनन में अतीव बल-प्रकाश किया था--यह सुना है। सर्व-दशि-
द्वय, तुम लोग हमारे इस यज्ञ में कुश पर बेठकर तथा अभिषुत सोभन
पान करके हुष्ट बनो।
६. युद्ध के समय बुलाने पर तुम लोग आकर अपने महत्त्व-द्वारा
सारे सनुष्यों में बड़े बनो। पृथिवी, आकाश, नंदी और परवत आदि
की अपेक्षा बड़े बनो । इन्द्र ओर अग्नि, तुम अन्य सारे भुवनों की
अपेक्षा बड़े हो।
७. वञ्त्र-हस्त इन्र और अग्नि, धन ले आओ, हमें दो और कार्य-
द्वारा हमारी रक्षा करो । सुर्य की जिन रदिमियों के द्वारा हमारे पुर्व
पुरुष इकट्ठे हुए थे, वे ये ही हें!
८. वज्त्रहस्त पुरन्दर इन्द्र और अग्नि, हमें धनदान करो।
१५४ हिन्दी-ऋष्वेद
लड़ाई में हमें चाओ! सित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और
आकाश हमारी यह श्रार्थता पूजित क्रें।
११० सूवत
(देवता ऋभुगण । छन्द त्रिष्दुप और जगती)
१. ऋभृगण, पहले मेंने बार-बार यज्ञानुष्ठान किया है; इस समय
फिर करता हूँ एवं उसमें तुम्हारी प्रशंसा के लिए अत्यन्त मधुर स्तोत्र
पढ़ा जाता हूँ। यहाँ सारे देवों के लिए यह सोम-रस प्रस्तुत हुआ है।
स्वाहा शब्द के उच्चारण के साथ, अग्नि सें उस रस के अवित होने पर,
उसे पान कर तृप्त बनो।
२. ऋभुगण, तुम सेरे जाति-ञ्राता हो। जिस समय तुम लोगों
का ज्ञान अपरिपक्व था, उस पुर्वंतन समय में तुस लोगों ने उपभोग्य
सोसरस की इच्छा की थी। हे सुधन्वा के पुत्र, उस समय अपने कर्म
या तपस्या के महत्त्व-द्वारा तुम लोग हविर्दानशील सविता के घर
आये थे।
३. जिम समय तुम लोग प्रकाशमान सविता को अपने सीम-पान्
की इच्छा बता आये थे तथा त्वष्टा के बनाये उस एक सोम-पात्र के चार
दुकड़े किये थे, उस ससय सबिता ने तुम्हें अमरता प्रदान की थी।
४. ऋभुओं ने शीघ्र कर्मानुष्ठान किया था एवं ऋत्विकों के साथ
मिले थे; इसलिए मनुष्य होकर भी अमरत्व प्राप्य किया था। उस
समय सुधन्वा के पुत्र ऋभु लोग सूर्य की तरह दीप्तिमान् होकर, सांब-
त्सरिक यों में, हव्याधिकारी हुए।
५. ऋभुगण ने पाउवं-वर्तियों के स्तुति-पात्र होकर उत्कृष्ट सोम-
रस की आकांक्षा करके, और देवों में हव्य की कामना करके उसी प्रकार
तीक्ष्ण अस्त्र-द्वारा एक यज्ञ-पात्र को चार भागों में विभक्त किया
था, जिस प्रकार सान-दण्ड लेकर खेत मापा जाता है ।
हिन्डी-ऋणग्वेद १५५
छ हम अन्तरिक्ष के नेता ऋभुओं को पात्र-स्थित घृत अपित
करते एवं ज्ञान-द्वारा स्तुति करते हुँ। ऋभुओं ने एक सूर्य की तरह
क्षिप्रकारिता और दिव्य लोक का यज्ञाज्ष प्राप्त किया था।
७. नव-बलंशाली ऋभुं लोग हमारे रक्षक हैं। अन्न और वास-
गहुँ के दाता ऋभु लोग हमारे निवास-हेतु हैँ; इसलिए ऋशभुगण हमें
वरदान दें । ऋभु आदि देववृन्द, हम लोग तुम्हारी रक्षा प्राप्त कर,
अनुकूल दिन सें, अभिषव-विहीन शत्रुओं की सेना को परास्त करें ॥
८, ऋभुगण, तुमने चमड़े से गौ को आच्छादित किया था और
उस गौ के साथ बछड़े का फिर योग कर दिया था। सुधम्वा के पुत्र
और यज्ञ के नेता शोभन कर्मेद्वारा तुमने वृद्ध माता-पिता को फिर
युवा कर दिया था।
९. इन्द्र, ऋभुओं के साथ मिलकर अच्च-दान के समय हमें अन्न-
दान करते हो--विचिन्र धन-दान करते हो। मित्र, वरुण, अदिति,
सिन्धु, पृथिवी और आकाश हुसारे उस धन को पूजित करें ।
१११ सूक्त
(देवता आदि पूर्ववत्)
१. उत्तम-ञ्ञानशाली और शिल्पी ऋभुओं ने अश्विनीकुमारों के
लिए सुर्निमित रथ प्रस्तुत किया था और इन्द्र के वाहक हरि नाभ फे बलवान्
दोनों घोड़ों को बनाया था। ऋभुओं ने अपने माता-पिता को यौवन
और बछड़े को सहचरी गौ का दान किया था।
हमारे यज्ञ के लिए उज्ज्वल अन्न प्रस्तुत करो । हमारे यज्ञ
और बल के लिए सन्तान-हेतु-भूत अन्न प्रस्तुत करो, जिससे हस सारी
वीर सन्ततियों क्रे साथ आनन्द से रहें। हमारे बल के लिए एसा
ही अञ्न दो।
३. नेता ऋभुगण, हमारे लिए अन्न प्रस्तुत करो। हमारे रथ
के लिए धन तैयार करो । हमारे घोड़े के लिए अन्न प्रस्तुत करो । संसार
१५६ हिन्दी-ऋणष्वेद
हमारे जयशील घन की प्रतिदिन पुजा करे और हम संग्राम में, अपने च्रीच
उत्पन्न या अनुत्पन्न, शत्रुओं को परास्त कर सकें।
४. अपनी रक्षा के लिए महान् इन्द्र को तथा भभु, विभु, राज
और मरुतो को, सोम-पानार्थ, हम बुलाते हैं। मित्र, वरुण और अश्विनी
फुमारों को भी बुलाते हुँ। वे हमारे धन, यज्ञ, कर्म. और विजय को
सिद्ध कर द!
५. संग्राम के लिए हमें ऋभु धन दें। समर-विजयी वाज हमारी
रक्षा करें। मित्र, बरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश हमारी
यह प्रार्थना पूजित करें । | |
११२ सूक्त
(देवता अश्विद्वय) |
१. में अझ्विनीकुमारों को पहले बताने के लिए धावा-पृथिवी की
स्तुति. करता हूँ । अइ्वि-द्य के आने पर उनकी पुजा के लिए प्रदीप्त
और शोभन कान्ति से युक्त अग्नि की स्तुति करता हुँ। अधिवि-द्य,
तुम लोग संग्राम में अपना भाग पाने के लिए जिन सब उपायों के
साथ शंख बजाते हो, उन सब उपायों के साथ आओ ।
२. जैसे न्याय-वाक्यों से युक्त पण्डित के पास शिक्षा के लिए
खड़े होते हैं, हे अव्वि-हय, वैसे ही अन्य देवों में अनासक्त तोता
लोग, शोभन स्तुति के साथ, अनुग्रह-प्राप्ति की आशा में, छुम्हारे
रथ के पास खड़े होते हैं । अश्वि-द्रय, तुम लोग जिन इपायों के साथ
घज्ञ-सम्पादन के लिए सुमति लोगों की रक्षा करते हो, उन इपायों
के साथ, आओ ।
३. हे नेतृ-द्वय, घुम लोग म्वर्गीय-अमृत-लब्ध बल-द्वारा तीनो भुवनों
सें रहनेवाले मनुष्यों का शासन करने में समर्थं हो। जिन सब उपायों-
द्वारा तुमने प्रसव-रहित शत्रु की गोओं को दुग्धवती किया था, भश्वि-
इय, उन उपायों के साथ, आओ ॥
हिन्दी-ऋष्वेद १५७
४. चारों ओर विचरण करनेवाले बायु अपने पुत्र और हविमातृक
अग्नि के बलद्वारा युक्त होकर और शीध्रगासियों के बीच अतीव शीक्न-
गन्ता होकर जिन सारे उपायों-हारा सारे स्थानों में व्याप्त हुए हैं तथा
जिन सब उपायों-द्वारा कक्षीवान् ऋषि विशिष्ट-ज्ञान युक्त हुए थे,
उन उपायों के साथ, आओ ।
५. जिन उपायों से तुम लोगों ने अयुरों-द्वारा कूप सं फेके हुए ओर
पाश से बाँधे हुए रेभ नामक ऋषि को जल से बचाया था एवं
इसी प्रकार बन्दन चास के ऋषि को भी जल से बचाया था तथा जिन
उपायों-द्वारा अघुरों-द्वारा अन्धकार सं निःक्षिप्त आलोकेच्छु कण्द
ऋषि की रक्षा की थी, अश्वि-द्वय, उन उपायों के साथ, आओ ।
६. कूप में फॅंककर असुर लोग जिस समय अन्तक नाम के राजष की
हिंसा कर रहे थे, उस समय तुम लोगों ने जिन उपायों-द्वारा उनकी
रक्षा की थी, जिन सब व्यथा-शून्य नौका-रूप उपायों के द्वारा समुद्र
निमग्न तुग्न-पुत्र भुज्यु की रक्षा की थी और जिन सब उपायों-हारा
अवुरो-द्वारा पीडयमान कर्कन्धु ओर चय्य नाम के मनुष्यों की रक्षा
को थी, उनके साथ, आओ ।
७, जिन उपायों-हारा शुचन्ति नामक व्यक्ति को धनवान् और
झोभन-गृह-सम्पञ्च किया था, जिन उपायों-द्वारा असुरों-्ारा शतद्वार
नाम के घर में प्रक्षिप्त और अग्नि-द्वारा दह्यासान अत्रि के गात्र-दाही उत्ताप
को भी सुखकर किया था और जिन उपायों-द्वारा पृश्चिंगु और पुरुकुत्स
नामक व्यक्तियों की रक्षा की थी, अध्विद्यय, उनके साथ, आओ ।
८. अभीष्ट-वषिद्ठय, जिन सब कर्मो-द्वारा पंगु परावूज ऋषि
को गसन-ससर्थ किया था, अन्ध ऋजाइव को दृष्टि समर्थ किया था
और भग्नजानु श्रोण को गमन-समर्थ किया था तथा जित कार्यो-द्वारा
धुक से गृहीत वातिका नास की स्त्री-पक्षी को मुक्त किया था, अश्विद्यय,
उत्त उपायों से आओ । ` ३४५ ।
१५८ हिन्ती-बब्वेद
९. अजर अधिवनीकुमारहय, जिन उपायो- द्वारा अधुमयी नदी
को प्रवाहित किया था, जिन उपायों-हारा वसिष्ठ को प्रीत और कुत्स,
भृत्यं तथा नये नाम के ऋषियों की रक्षा को थी, अधिविद्वय, उनके
साथ आओ ॥
१०. जिन उपायों-हारा घनवती और जंधा दूटने के कारण चलने में
असमर्थ, अगस्त्य-पुरोहित खेल ऋषि की पत्नो, विश्यछा को बहुधन-
युक्त समर में जाने में समर्थ किया था तथा जिन उयायों-दवारा अहब
ऋषि के पुत्र और स्तोत्र-तत्पर वश ऋषि को रक्षा को थी, -उन्के साथ
आओ । म
११. दानशील अदिवद्य, जिन उपायों-हारा दीर्घतसा की उशिज
चासक स्त्री के पुत्र वणिक्-वृत्ति दीघश्रवा को संघ से जल दिया था
तथा उशिज् के पुत्र स्तोता कक्षीवान् की रक्षा की थी, उनके साथ आओ।
१२. जिन उपायों-दारा नदियों के तटों को जल-पुर्ण किया था,
अपने अइव-रहित रथ को, विजय के लिए, चलाया था तथा तुम्हारे
जिन उपायों से कण्बपुत्र त्रिशोक नामक ऋषि ने अपनी अपहत गो
का उद्धार किया था, अदिव्य, उन उपायों के साथ आओ।
१३. जिन उपायो-द्वारा दूरवर्ती सूर्य के पास, उन्हें ग्रहण के अन्ध-
कार से मुक्त करने के लिए जाते हो यथा क्षेत्रपति के कार्य में मान्धाता
रार्जाव की रक्षा की थी ओर जिव उपायों-द्वारा अञ्नदान कर भरद्वाज
ऋषि की रक्षा की थी, उनके साथ आओ । |
१४. जिन उपायों-हारा महान्, अतिथि-वत्सल और असुरों के डर
से जळ सें पेठ हुए दिवोदास को, शम्बर असुर के हनन-काल में, बचाया
था तथा जिन उपायों-द्वारा नगर-विनाश-रूप सुसर में पुरुकुत्स-पुत्र
सदस्यु ऋषि की रक्षा की थी, अदिवद्वय, उनके साथ आओ ।
१५. जिन उपायों-द्वारा पानरज़् और स्वुति-पाञ़र विखनःपुत्र वस्न की
रक्षा की थी, स्त्री पा जाने पर कलि मास के ऋषि की रक्षा की थी और
हिन्दी-ऋणग्वेद १५९
जिव उपायो-द्वारा अइब-शून्य पृथि नास के वेन राजि की रक्षा की
थी, अधश्विद्य, उनके साथ आओ ।
१६. येतुद्वय, जिन उपायों-द्वारा शत्रु, अग्नि और पहले मनु को
गमन-मार्ग दिखाने को इच्छा की थी और स्यूसरश्सि ऋषि के लिए
उनके शत्रु के अपर तीर चलाया था, अध्विद्वय, उन उपायों के साथ
आओ। ।
१७. जिन उपायों-हारा पठर्वा नास के रार्जाष शरीर-बल से संग्राम
में काष्ठ-युक्त अज्वलित अग्नि की तरह दीप्तिमान् हुए थे और जिन
उपायों हारा युद्ध-क्षेत्र में शर्यात राजा की रक्षा की थी, अध्विद्दय,
उन उपायों के साथ आओ ।
१८. अङ्गिरा, अझिविनीकुसारों की स्तुति करो। अश्विद्वय, जिन
उपायों से तुम लोग अन्तःकरण से प्रसन्न हुए थे, जिनसे पणि-द्वारा
अपहूत गो के प्रच्छन्न स्थान में सारे देवों से पहले गये थे और जिनसे
अन्न देकर श्र मनु की रक्षा की थी, अहिवद्वय, उन उपायों के साथ आओ ।
१९. जिन उपायों से विसद ऋषि को भार्या दी थी, जिनसे अरुण-
वर्णं गायं प्रदान को थीं और जिनसे पिजवन-पुत्र सुदास राजा को
उत्कृष्ट धन दिया था, अश्विद्ठय, उनके साथ आओ ।
२०. जिन उपायों से हव्य-दाता को सुख प्रदान करते हो, जिनसे
तुग्र-पुत्र भुज्यु और देवों के शासिता अधिगु की रक्षा की थी तथा
जिनसे ऋतस्तुभ ऋषि को सुखकर और पुष्टिकर अन्न दिया था,
उनके साथ आओ ।
२१. जिन उपायों-हारा सोमपाल कृशानु की, युद्ध में, रक्षा की थी,
जिनसे युवा पुरुकुत्ल के अईव को वेग प्रदान किया था और मधुमक्षि-
काओं को सधु दिया था, अश्विद्वय, उनके साथ आओ ।
` ३२. गौ की प्राप्ति के लिए जिन उपायों-द्वारा युद्ध-काल में मनुष्य
की रक्षा करते हो और जिनसे क्षेत्र और धन की प्राप्ति में सहायता
१६७ हिन्दी-ऋग्वेद
करते हो तथा जिन उपायों से मनुष्य या यजमान के रथों और अचवों
की रक्षा करते हो, अश्विद्वय, उन उपायों के साथ आओ ।
२३. शतक्रतु अहिवद्वय, जिन उपायों से अर्जुन अर्थात् इन्द्र के पुत्र
कुत्स, तुर्वीति और दधीति की रक्षा की थी तथा जिन उपायों-द्वारा
ध्वसन्ति और पुरुषन्ति नाम के ऋषियों को बचाया था, उन उपायों के
साथ आओ।
२४. अधश्विद्यय, हमारे वाक्य को विहित-कर्मे-युक्त करो; अभौीष्ट-
वर्षी दस्नहय, हमारी बुद्धि को बेद-ज्ञान-समर्थ करो। हम आलोक-
विहीन रात्रि के शेष-प्रहर में, रक्षा के लिए, तुम्हें बुलाते हें। हमारे
अन्न-लाभ में वृद्धि कर दो।
२५. अश्विनीकुमारद्वय, दिन और रात में हमें विनाश-रहित
सौभाग्य-द्वारा बचाओ । मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और
आकाश हमारी इस प्रार्थना को पुजित करें।
सप्तम अध्याय समाप्त ।
११३ सूक्त
(अष्टम अध्याय । देवता उषा ओर रात्रि हैं)
१. ज्योतियों में श्रेष्ठ यह ज्योति (उषा) आई हें। उषा की
विचित्र और जगत्प्रकाशक रहिम भी व्याप्त होकर प्रकाशित हुई है।
जसे रात्रि सविता-द्वारा प्रसुत हैं, वेसे ही रात्रि ने भी उषा की उत्पत्ति
लिए जन्म-स्थान की कल्पना की हे अर्थात् रात्रि सुर्यं की सन्तान
हुँ ओर उषा रात्रि की सन्तान हैं।
२. दीपष्तिसती शुश्रवर्णा सूर्य-माता उषा आई हैं। कृष्णवर्णा रात्रि
अपने स्थान को गई हैं। रात्रि और उबा दोनों ही सूर्य की बन्धुत्व-
सम्पन्ना और भरण-रहिता हें। एक दूसरे के पीछे आती हें और एक
दूसरे का. वर्ण-विनाश करती हैं।
हिन्दी-क्रस्वेद १६१
३. इन दोनों भगिनियों (उबा और रात्रि) का एक ही अनन्त
सञङ्चरण-मार्म दीप्तिमान् सुर्य-हारा आदिष्ट हे । वे दोनों एक के
पह्चात् एक उसी मार्ग पर विचरण करती हैं। सारे पदार्थो की उत्पाद-
यित्री रात्रि और उषा, विभिन्न रूप धारण करने पर भी, समानमनः-
सम्पन्ना हुँ। वे परस्पर को बाधा नहीं देतीं और कभी स्थिर होकर
अर्वस्थिति नहीं करतीं ।
४. हस प्रभा-संयुक्ता सूनूत-वाक्य-भेत्री विचित्रा उषा को जानते
हैं; उन्होंने हमारा द्वार खोल दिया हैं । उन्होंने सारे संसार को
आलोक-पुर्ण करके हमारे धन को प्रकाशित कर दिया है। उन्होंने
सारे भुवनों को प्रकाशित किया हे।
५. जो लोग टेढ़े होकर सोये थे, उनमें से किसी को भोग के लिए,
किसी को यञ्च के लिए और किसी को धन के लिए--सबको अपते-.
अपने कर्मों के लिए उषा ने जागरित किया हुँ। जो थोड़ा देख सकते
हें, उनकी विशेष रूप से दृष्टि के लिए उषा अन्धकार दूर करती हैं।
विस्तीर्णं उषा ने सारे भुवनों को प्रकाशित कर दिया है।
६. किसी को धन के लिए, किसी को अञ्च के लिए, किसी को
महायज्ञ के लिए और किसी को अभीष्ट-प्राप्ति के लिए उषा जगाती
हैं। उन्होंने बिविध जीविकाओं के प्रकाश के लिए सारे भुवनों को
प्रकाशित किया हैं।
७. वह £ म्या, शुक्वसना, आकाश-पुज्ी उषा
अन्धकार दूर करती हुई मनुष्यों के दृष्टिगोचर हुई हें। वह सारे
पाथिव घवो को अधीइवरी हैं। सुभगे, बुस आज यहाँ अन्धकार दूर
करो ।
८. पहले को उबाये जिस अन्तरिक्ष-मार्गे से गई हुँ, उसी से उषा
जाती हें और आगे अनन्त उपाये भी उसो पथ का अनुधावन करेंगी ।
उषा अन्धकार को दूर करके तथा प्राणियों को जाग्रत् करके मुतवतू
संज्ञा-श्न्य लोगों को चेतन्य प्रदान करती हें।
फा० ११
१६२ हिन्दो-प्रदग्वेद
९. उषा, तुसने होमार्थ अग्नि प्रज्वलित की है, सुर्य के आलोक
से अन्धकार को दूर कर दिया है और यज्ञरत मनुष्यों को अन्धकार
से सुक्त कर दिया है; इसलिए तुमने देवों का उपकारी कार्य किया है।
१०, कब से उषा उत्पन्न होती हैं और कब तक उत्पन्न होंगी ?
बत्तेसान उषा पूर्व की उषाओ का साग्रह अनुकरण करती हें और
आगामिनी उवाय इन दीष्तियती उदा का अनुधावन करेंगी ।
११. जित अमुष्यां ने अतीव प्राचीन समय में, आलोक प्रकाशित
करते हुए उषा को देखा था, वे इस समय नहीं हें। हम उषा को देखते
हैं; आगे जो लोग उषा को देखेंगे, वे आ रहे हैं।
१२. उवा दिट्ठी निञ्चादरों को दूर करती हैं, यज्ञ का पालन
करती हु, यज्ञ के लिए आविभूत होती हैं, सुख देती हें और सुनुत शब्द
प्रेरण करती हें। उषा कल्याण-वाहिनी हें और देवों का वाञ्छित
यज्ञ धारण करती हैँ। उषा, तुम उत्तम रूप से आज इस स्थान पर आलोक
प्रकाशित करो । |
१३. पहले उषा प्रतिदिन उदित होती थीं; आज भी धनवती
उषा इस जगत् को अन्धकार-मुक्त करती हें; इसी प्रकार आगे भी
दिन-दिन उदित होंगी; क्योंकि वे अजरा और अमरा होकर अपने
तेज से चिचरण करती हें।
१४. आकाश की विस्तृत दिशाओं को आलोक-पूर्ण तेज-द्वारा उषा
दीप्तिसान् करती हैं। उषा ने रात्रि के काले रूप को दूर किया है।
सोये हुए प्राणियों को जगाकर उषा अरुण अइववाले रथ से आ
रही हूँ
१५, उषा पोषक और वरणीय धन लाकर ओर सबको चैतन्य देकर
विचित्रे रहिम प्रकाशित करती हें। बह पहले की उषाओं की
उपसा-हपिणी हैँ ओर आहमासिनी प्रभावती उषाओ की प्रारस्भ-
स्वरूपिणी । वह किरण प्रकाश करती हूं
हिन्दी-ऋग्वेद १६३
१६, मनुष्यो, उठो; हमारा शरीर-संचालक जीवन आगया हे।
अन्धकार गया; आलोक आया। उषा ने सूर्य को जाने के लिए
मार्ग बना दिया है। उषा, जिस देश में अन्नदान करके धरद्धंच करती
हो, वहाँ हम जायेंगे। |
१७, स्तुति-वाहृक स्तोता प्रभावती उषा की स्तुति करके सुग्रथित
वेद-दाक्य उच्चारण करते हें। धनवती उषा, आज उस स्तोता का
अन्धकार नष्ट करो ओर उसे सन्तति-युक्त अर्थ दान करो ।
१८. जो यो-संयुक्त ओर सरद-वीर-सम्पन्न उषायं वायु की तरह
शीघ्र सुनृत स्तुति के समाप्त होने पर हव्यदाता समुष्य का अन्धकार
विनष्ट करती हैं, वे ही अश्व-दात्री उषायें सोमाभिषव-्कारी के प्रति
प्रसक्ष हों।
१९. उषा, तुम देवों की माता हो, अदिति की प्रतिस्पद्धिनी हो।
तुस यज्ञ का प्रकाश करो; विस्तीर्ण होकर किरणदान करो। हमारे
स्तोत्र की प्रशंसा करके हमारे ऊपर उदित हो । सबकी वरणीया
उषे, हमें जनपद में आविर्भूत करो ।
२०. उषाये जो कुछ विचित्र ओर ग्रहण-योग्य धन लाती हैं, वह
यज्ञ-सम्पादक स्तोता के कल्याण-स्वरूप है । मित्र, वरुण, अदिति,
सिन्धु, पृथिवी ओर आकाश हमारी इस प्रार्थना को पुजित कर।
११३ सूक्त
(देवता रुद्र । छन्द जगती और त्रिष्टुप्)
१. महात् कपर्दी या जटाधारी और वीरों के विाश-स्थान
रद्र को हम यह मननीय स्तुति अर्पण करते हें, ताकि द्विष और
चतुव्यद सुस्थ रहें ओर हमारे इस ग्राम सें सब लोग पुष्ट और रोप-
शस्य रहें ।
२. रप्र, तुस सुख्चो हो; हमें सुखी करो। तुम वीरों के विमाशक
हो। हुए नमस्कार के साथ तुम्हारी परिदर्या करते हें। पिता या
१६४ हिन्दी-ऋष्वेद
उत्पादक सन् ने जित रोगों से उपस और जिन भयो से उद्धार
पाया था; रुद्र, तुम्हारे उपदेश से हम भी वह पारवे । |
३. अभीष्द-दाता दद्र, तुम वीरों के क्षयकारी अथवा ऐद्वर्यशाली
सरुलो से युक्त हो । हम देव-यज्ञ-द्वारा तुम्हारा अनुग्रह प्राप्त करें।
हमारी सन्तानों के सुख की कामना करके उनके पास आओ । हम भी
प्रजा का हित देखकर तुम्हें हव्य देंगे ।
४, रक्षण के लिए हस दीप्तिमान्, यज्ञ-्साधक, कुटिलगति और
मेधावी रुद्र का आह्वान करते हैं। बह हमारे पास से अपना क्रोध दुर
करें। हम उनका अनुग्रह चाहते हैं । ॒
५. हम उन स्वर्गीय उत्कृष्ट बराह की तरह दढाङ्ग, अरुणवर्ण,
कपर्दी, दीप्तिमान् और उज्ज्वल रूप धर रुद्र को नमस्कार-द्वारा बुलाते
हैं। हाथ में वरणीय भषज धारण करके वे हमें सुख, वर्स और गृह
प्रदान करं।
६. सधु से भो अधिक मधुर यह स्तुति-वाक्य मरुतों के पिता रुद्र के
उद्देश से उच्चारित किया जाता हुँ । इससे स्तोता की वृद्धि होती हें।
सरण-रहित रुद्र, मनुष्यों का भोजन-छप अन्न हमें प्रदान करो। मुझे,
सेरे पुत्र को और पोत्र को सुख दान करे। |
७. रुद्र, हमसमें से बढ़े को नहीं मारना, बच्चे को नहीं सारना,
सन्तानोत्पादक युवक को वहीं मारना तथा गर्भस्थ शिशु को भी नहीं
सारना। हमारे पिता का वध नहीं करना, माता की हिसा नहीं करना
तथा हमारे प्रिय शरीर सं आघात नहीं करना ।
८. रुद्र, हमारे पुत्र, पोत्र, मनुष्य, गो और अइ३ को नहीं सारना।
रद्र, कुद्ध होकर हमारे बीरों को हसा नहीं करना; क्योंकि हव्य लेकर
हम सदा ही तुस्हें बुलाते हे।
९. जसे चरवाहे सायंकाल अपने स्वामी के पाल पशुओं को लौटा
देते हँ, रुद्र, वेसे ही में तुम्हारा स्तोत्र तुम्हें अर्पण करता हूँ । सस्तो
RA SRR
लिया युन्यु १६५
के पिता, हमें सुख दो । तुम्हारा अनुग्रह अत्यन्त सुखकर और कल्याण-
वाही हो। हम तुम्हारा रक्षण चाहते हूँ । |
१०. वीरों के विनाशक रुद्र, तुम्हारा गो-हनन-साधन ओर मनुष्य-
हुनन-साधन अस्त्र छुर रहे। हम तुम्हारा दिया सुख पाजें। हमें सुखी
करो। दीप्तिमान् र्र, हमारे पक्ष में कहना । तुम पृथिबी और अन्तरिक्ष
के अधिपति हौ । हमें सुख दो। |
११. हमने रक्षा-कामना करके कहा है। उन रुद्र देव को नमस्कार
है। मर्तों के साथ रुद्र हमारा आह्वान सुनें। मित्र, वरुण, अदिति,
सिन्धु, पृथिवी ओर आकाश हमारी इस प्रार्थना को पूजित करें।
११५ सूक्त
(देवता सूय)
१. विचित्र तेजःपुञज तथा सित्र, वरुण और अग्नि के चक्षु:-
स्वरूप सुर्य उदित हुए हें। उन्होंने द्यावा-पृथिबी और अन्तरिक्ष को
अपनी किरणों से परिपूर्ण किया हे। सुर्यं जंगस और स्थावर--दोनों
की आत्मा हैं । s
२. जसे पुरुष स्त्री का अनुगमन करता है, वेसे ही सूर्य भी दीप्तिमती
उषा के पीछे-पीछ आते हैं। इसी समय देवाभिलाषी मनुष्य बहु-युग-
प्रचलित यज्ञ-कर्म का विस्तार करते हे; सुफल के लिए कल्याण-कर्म
को सम्पन्न करते हे ।
३. सूर्ये के कल्याण-रूप हरि नाम के विचित्र घोड़े इस पथ से जाते
हैं। वे सबके स्तुति-भाजन हैं। हम उनको नमस्कार करते हैं। वे
आकाश के पुष्ठ-देश में उपस्थित हुए हें। वे घोड़े तुरत ही द्यावा-
पृथिवी--चारों दिशाओं का परिश्रमण कर डालते हूँ।
४. सूर्यदेव का ऐसा ही देवत्व और माहात्म्य है कि वे सनुष्यों
के कर्म समाप्त होने के पहले ही अपने विशाल किरण-जाल का
१६६ हिन्दी-ऋष्वेद
(उपसंहार कर डालते हैं। जिस समय सूर्यं अपने रथ से हरि नास के
घोड़ों को खोलते हें, उस समय सारे लोको सं रात्रि अन्थकार-हप
आवरण विस्तृत करती है ।
५. मित्र और वरुण को देखते के लिए आकाश के बीच सुप
अपना ज्योतिर्मय रूप प्रकाशित करते हैं। सूर्यं के हरि नाम के घोहे
एक ओर अपना अनन्त दीप्तिमान् बल धारण करते हुँ, दूसरी ओर
कृष्ण वर्ण अन्धकार करते हँ।
६. सूरये-किरणो, सूर्योदय होने पर आज हमें पाप से छुडाओ।
मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और आकाश हमारी इस प्रार्थना
को पुजित करें।
११६ सक्त
(१७ अनुवाक । दैवता अशिचिद्ठय । यहाँ से १२८ सूक्त तक के
ऋषि दीघतमा के अपत्य कचीवान्। छन्द पूववत् )
१. यज्ञ के लिए जिस प्रकार यजमान कुश का विस्तार करता
है तथा वायु मेघ को नाना दिशाओं में प्रेरित करती है, उसी प्रकार
में मासत्यदय या अध्विद्दय को प्रभल स्तोत्र प्रेरिस करता हूँ।
अध्विनीकुमारों ने शत्रु-सेना-द्वारा दुष्प्राप्य रथ-द्वारा युवक विमद राजि
की, स्वयंवर में प्राप्त, स्त्री को विमद के पास पहुँचा दिया था।
२. नासत्यद्वय, तुम लोग बलवान् और शीघ्रगामी अश्व-द्वारा
नीति और देवों के उत्साह से उत्साहित हुए थे। तुम्हारे रथ-वाहक
गदभ ने यस के प्रिय सहस्र य॒द्धों में जय-लाभ किया था।
३. जसे कोई “्रियमाण सनुष्य धन का त्याग करता है, वैसे ही
तुग्र नाभ के राजि ने बड़े कष्ट से अपने पुत्र भुज्यु को, सेना के
साथ, शत्रु-जय के रिए, नौफा-्वारा समुद्र (स्थित द्वीप) में भेजा ।
सध्य-समुद्र सं निमग्न भुज्यु को, अश्विद्वय, तुमने अपनी सौका-द्वारा
हिम्दी-ऋषणवेद १९७
उग्र के पास पहुचाया था। तुम्हारी नौका जल के ऊपर अन्तरिक्ष
में चलनेबाली और अप्रविष्ट जलबाली हे अर्थात् तुम्हारी मौका में जल
नहीं पठता ।
४. मासत्यद्य, तुमन शोष्रगासी शतचक्र-विशिष्ट और छः अदकों
से युक्त रथ-त्रय पर भुज्यू को बहन किया था। बह रथ तीन दिन,
तीन रात तक अडे सायर के जल-शूत्य प्रदेश में लाये थे । |
५. अदिव्य, तुस लोगों ने अवरम्बन-शून्य, भूप्रदेश-रहित,
ग्रहणीय झरला'दे-वस्मु-रस सागर में यह कार्य किया था। सौ
डाँड़ोंबाली नौका में भुज्यु को बैठाकर तुग्र के पास लाये थे। ६.
६. अश्विय, अदध्य अश्व के पति पेढु नाम के राजपि को तुमने
जो इवेतवर्ण अश्व दिया था, उस अश्व ने पेद का भित्यप्रति जय-हूप
मंगल साधन छिया था। तुम्हारा वह दात महान् और कीर्तनीग्र
हुआ था। पेढू का वह उत्तम अश्य हमारा सदा पुजनीय है।
७. नेतृद्वय, तुमने अङ्गिरा के कुल में उत्पन्न कक्षीवान् को
स्तुति करने पर, प्रचुर बुद्धि दी थी। सुरापात्र के आधार से जैसे सुरा
निकाली जाती है, यसे ही तुम्हारे सेचन-समर्थ अश्व के खर सते
तुमने शतकुस्भ सुरा का सिञ्चन किया था ।
तुमने हिस या जरू-द्वारा शतद्वार-पीड़ा-यंत्र-गृह सें फले हुए
अत्रि की, चारों ओर की, असुरों-हारा प्रज्यारित और दीष्यमान
अग्नि का निवारण किया था तथा अग्नि को अज्नयक्त और बल-प्रद
खाद्य दिया था। अश्विनीकुम्ारदय, अभि जो निस्नाभिसुख होकर
अन्धकारसय पीड़-यंत्र-गृह सें प्रक्षिप्त हुए थे, उन्हें तुमने संगियों के
साथ सुख से वहाँ से उठाया था
९. नासत्यदथ, तुम सरुभूसि में गोतम ऋषि के पास कप
उठा लाये थं ओर कूप का तल-भाग ऊपर तथा मुख-भाग नीचे किया
था। उस कूप से तुष्णाचुर गोतम के पान और सहस्र धन लाभ के
लिए जल निर्गत हुआ था।
१६८ हिन्दी-ऋग्वेद
१०. अधिवहय, जैसे शरीर का आवरण (कवच आदि) खोल फेंका
जातः है, वेसे ही तुमने जीर्ण च्यदन ऋषि की शरीरव्यापिनी जरा
खोल फेंकी थी। दख्द्वय, तुमने पुत्रादि-द्वारा परित्यक्त ऋषि के जीवन
को बढ़ाया था; अनन्तर उन्हें कन्याओं का पति बना दिया था।
११. नेता नासत्यद्ठय, तुम्हारा बह इष्ट बरणीय कार्य हमारे
लिए प्रशंसनीय और आराध्य है---जो तुमने जानकर गुप्त धन की
तरह छिपे उन बन्दन ऋषि को पिपासित पथिकों के द्रष्टव्य कूप से
निकाला था।
१२. नेतुद्य, जसे सेघ-गर्जच आसन्चवृष्टि प्रकटित करता है,
में धन-प्राप्ति के लिए, तुम्हारे उस उग्र कर्म को बेसे ही प्रकटित
करता हँ--जो अथर्वा के पुत्र दधीचि ऋषि ने घोड़े का मस्तक पहनकर
तुम्हें यह मधु-विद्या सिखाई थी।
१३. बहु-लोक-पालक नासत्यद्वय, तुम अभिमत-फल-दाता हो।
बुद्धिमती वश्चिमती नास की ऋषि-पुत्री ने पूजनीय स्तोत्र-द्वारा
तुम्हें बार-बार पुकारा था। जसे शिष्य शिक्षक की कथा सुनता है,
तुसने बेसे ही वश्रिमती का आह्वान सुना था । अश््विद्वय, पुत्राभिला-
षिणी नपुंसक-पतिका वश्रिती को तुमने हिरण्यहस्त नास का पुत्र
प्रदान किया था।
१४. नेता नासत्यद्ठय, तुमने बुक अथवा सूर्य के मुख से वरत्तिका
नामक पक्षी अथवा उषा को छुड़ाया था। हे बहुलोक-पालक, तुमने
स्तोत्र-तत्पर मेधावी को प्रकृत ज्ञान देखने दिया था ।
१५. खेल राजा की स्त्री विशइपला का एक पेर, युद्ध में, पक्षी की
पंख की तरह, कट गया था। अशिवद्वय, तुमने रातों रात, विइपला के
जाने के लि तथा शस्त्रु-व्पस्त घन-लाभ के लिए, उसे लोहमय जंघा
दे दी थी।
१६. जिन ऋजाइव रातवि ने अपनी बक्क (वक की स्त्री) को
खाने के लिए सो भेंडों को काट डाला था, उनको उनके पिता (वृषागिर)
हिन्दी-ऋग्वेद १६९
ने ऋद्ध होकर नेत्र-हीन कर दिया था। ऋजाइव के दोनों नेत्र किसी भी
वस्तु को देखने मं असमर्थ हो गये थे । भिषज-दक्ष नासत्यद्वय, तुमने
ऋजाइव की आँख अच्छी कर दीं।
१७. अध्विह्य, सारे देवों में तुम्हारे शीघ्रगामी घोड़ों के होने
से सूर्य-पुत्री सूर्या तुम्हारे द्वारा विजित हो गई और तुम्हारे रथ पर
आरोहण किया । घुड़दौड़ के जितानेवाले काष्ठ-खण्ड के पास तुम्हारे
घोड़ों के पहुँचने से सारे देवों ने हृदय के साथ इस कार्य का अनुमोदन
किया। नासत्यद्वय, तुमने सम्पत् प्राप्त की।
१८. अद्विद्वय, राजषि दिवोदास के, ह॒व्यान्न प्रदान कर तुम्हें
बुलाने पर तुम उनके घर गये थे । उस समय तुम्हारा सेव्य-रथ घन”
संयुक्त अन्न ले गया था। वृषभ और ग्राह उस रथ में युक्त हुए थे।
१९. नासत्यद्वय, तुम शोभन-बल-सम्पच्च और शोभन अपत्य और
वीर्यं से युक्त होकर तथा समान प्रीति-युक्त होकर महष जह्न की
सन्तानों के पास आये थे। सन्तानों ने हव्याचच प्रदान किया था तथा दैनिक
सोमाभिषव के प्रातःसवन आदि तीन भाग धारण किये थे।
२०. नासत्यद्ठय, तुम अजर हो। जिस समय जाहुष राजा शत्रुओं-
द्वारा चारों ओर से घेरे गये थे, उस समय अपने सर्व-भेदकारी रथ-
द्वारा रातो-रात उन्हें सुगम्य पथ से बाहर कर ले गये थे; और इात्रुओं-
हारा दुरारोह पर्वेतो पर गये थे। _
२१. अइिविद्वय, तुमने वश नाम के ऋषि की, एक दिन में हजार
शोभन धन पाने के लिए, रक्षा की थी। अभोीष्ट-वर्षक अध्विद्यय,
तुमने इन्द्र के साथ मिलकर पृथुश्रवा राजा के क्लेशदायक शत्रुओं को
सारा था।
२२. ऋचत्क के पुत्र शर नामक स्योता के पाने के लिए तुमने कृष
के नीचे से जल को ऊपर किया था । नासत्यद्वय, श्रान्तशयु नामक
ऋषि के लिए प्रसय-शून्य गो को, अपने कार्य्य द्वारा, दुग्धवती
बनाया था।
१७० हिम्दी-ऋणग्वेद
२३. नासत्यदय, कुष्ण-पुत्न ओर ऋजुता-सत्यर विश्वकाय नासक
ऋषि के तुम्हारी रक्षा की लालसा में; स्तुति करने पर अपने कार्यों-
द्वारा, तुमने, नष्ट पशु की तरह, उनके दिव्णापु नामक जिलष्ट पुत्र
को दिखा दिया था।
२४. अयुरों-दारा पाश से बद, कूप सें निक्षिप्त और शज्रुओं-हारा
आहत होकर रेभ नामक ऋषि के दस रात नो दिन जल में पड़े रहने
से व्यथा से सन्तप्त और जरू से विप्लुत होने पर तुमने उन्हें उसी प्रकार
कुएँ से निकाल लिया था, जिस प्रकार अध्वर्यु खुव से सोस निकारूता है ।
२५. अझ्विद्ठय, तुम्हारे पूर्व-क्त कार्यों का मेंने बर्णन किया । में शोभन
गौ ओर बीर से युक्त होकर इस राष्ट्र का अधिपति बनू । जैसे गृह-
स्वामी निष्कंटक घर सें प्रवेश करता है, में भी देसे ही नेत्रों से स्पष्ट
देखकर और दीर्घ आयु भोगकर बुढापा पाऊं ।
११७ सूक्त
(देवता अश्विद्दय)
१. अश्विय, तुम्हारे चिरन्तन होता तुम्हारे हर्ष के लिए मध्र
सोसरस के साथ तुम्हारी अर्चना करता हुँ । कुश के ऊपर हव्य स्थापित
किया हुआ हे; ऋहत्विको-डारा स्तुत ओर प्रस्तुत हुआ है । नासत्यद्वय,
अन्न ओर बरू लेकर पास आओ।
२. अडिविद्वय, मत की अपेक्षा भी वेगवान् और शोभन-अझ्व-युक्त
रथ सारे प्रजावर्ग के सामने जाता हे और जिस रथ से तुम लोग शुभ-
कर्मा लोगों के घर जाते हो, नेतृद्ठय, उसी पर हमारे घर पधारो।
३. नेतृद्वय, अभीष्ट-वर्षकटृय, तुमने झत्रुओं की हिसा करके
और क्लेशदायिसी दस्यु-माया का आनुपुविक निवारण करके पाँच
श्रेणियों (चार वर्ण और पञ्चम निषाद) द्वारा पूजित अत्रि ऋषि को
शतट्टार-यन्त्र-्गृह के पाप-तुषानल से, सन्तानादि के साथ, मुकत
किया था।
हिन्दी-क्रग्वेद १७१
४. नेतृदय, अभीष्ट-दर्षकठय, {दुर्दान्त दानरवोद्ारा जल हें
तिग्ढु रेश ऋषि को तुन लोगों ने निकालकर पीड़ित अश्व की तरह,
उनका विनष्ट अवयव, अपनो दवाओं से, ठीक किमा था। तुम्हारे पहले
के काम जीर्ण नहीं हुए।
५. दस्र अश्विद्वय, पृथिवी के ऊपर सुषुप्त तुष्य की तरह और
अन्धकार सं क्षय-प्राप्त सूर्यं के शोभनम दीप्तिमान् आभूषण की तरह
तथा दर्शनीय उस कूप सें प्रक्षिप्त बन्दन ऋषि को तुस लोगों ने
निकाला था।
६. नेता नासत्यहय, अङ्भिरोवंशीय कक्षीवान् में मनोनुकूल द्रव्य
की प्राप्ति की तरह तुम्हारा अनुष्ठान उद्घोषित करूँगा; क्योंकि
तुमने शीघ्र-गामी घोड़ों के खुरों से निकाले हुए मधु से संसार में
सेकड़ों घड़े पुरे कर दिये थे।
७, नेतृद्ठय, कृषण के पुत्र विश्वकाय के, तुम लोगों की स्तुति करने
पर, विनष्ट पुत्र विष्णापु को तुम लोग लाये थे। अ्जदिवद्ठय, कोढ़
होने के कारण बुढ़ापे तक पितृ-गृह् में अविवाहिता रहने पर घोषा नाम
की ब्रह्म-वादिनी स्त्री को, कोढ़ दूर कर, पति ध्रदान क्रिया था ।
८, अध्विद्वय, तुमने कुष्ठरोग-ग्रस्त श्याव या व्यामवर्ण ऋषि को
अच्छा कर दीप्तिसती स्त्री दी थी। आँखें न रहने से कत्रि वहीं चल सकले
थे; तुमने उन्हें आँखें दी थीं। अभीष्ठ-वर्षिहय, बहूरे नुषद-पुन्
को तुमने कान दिये थे; ये कार्य प्रशंसनीय हेँ।
९. ब्रहुनूप-धारी अशिवद्ठय, तुमने राज़धि पेद को शीघ्रगामी
अश्व दिया श्रा। वह घोड़ा हज़ारों तरह के घन देता श्रा। ब्रह
बलवान शत्रुओं-द्वारा अपराजेय, शत्नु-हन्ता, स्लुलि-पाचच और बिपङ् में
रक्षक था।
१०. दानवीर अश्विनीकुमारों, तुम्हारी ये बीर-कीतियाँ सबको
जाननी चाहिए । तुस चाखा-पृथिवी-छप वर्तमान हो । तुम्हारा
१७२ हिन्दी-ऋग्वेद
आह्वादकर घोषणीय मन्त्र निष्पक्न हुआ है । अदिवद्दय, जिस समय
अद्धिराकुल के यजमान तुम्हें बुलाते हैं, उस समय अन्न लेकर आओ तथा
मुझ यजमान को बल दो।
११. पोषक नासत्यद्वय, कुम्भ के पुत्र अगस्त्य ऋषि की स्तुति से
स्तुत होकर और मेघावी भरद्वाज ऋषि को अन्नदान कर तथा अगस्त्य-
द्वारा मंत्र-वाद्धित होकर तुमने विइपला को नीरोग किया था।
१२. आकाश-पुत्रहय, अभीष्टवषंक, काव्य (उशना) की स्तुति
सुनने के लिए कहाँ उसके घर की ओर जाते हौ? हिरण्यपर्ण कलश की
तरह कूप में गिरे रेभ ऋषि को तुमने दसवें दिन उबारा था ।
१३. अशिविद्वय, भेषज्यरूप कायं-द्वारा तुमने वृद्ध च्यवन ऋषि को
युदा किया था। नासत्यद्दय, सुर्य-पुत्री सूर्या, कान्ति के साथ, तुम्हारे
श्थ पर चढी थी ।
१४. दुःख-विदारक-इय, ठुग्र जैसे पहले स्तोत्र-द्वारा तुम्हारी स्तुति
करते थे, अनन्तर फिर भी उसी तरह तुम लोगों की अर्चना करते
थे; क्योंकि उनके पुत्र भुज्यु को तुम विक्षिप्त समुद्र से गमनशील नौका
और शीघ्रगति अइवद्वारा ले आये थे।
१५. अश्विद्वय, पिता तुग्र-द्वारा समुद्र में भेजे हुए और जल में
डूबते हुए भुज्यु ने, सरलता से समुद्र-पार होकर, तुम्हारा आह्वान
किया था । मनोवेग-सम्पञ्च अभीष्ठ-वर्षिहय, तुम लोग उत्कृष्ठ-
अइव-युक्त रथ पर भुज्यू को लाये थे।
१६. अश्विद्य, जिस समय तुम लोगों न॒ वृक के मुख से विका
नाम की चिड़िया को छुड़ाया था, उस समय उसने तुम्हारा आह्वान
किया था । तुम लोग जयशील रथ-द्वारा जाहुष को लेकर पर्वत-प्रदेश
चले गये थे। तुमने विष्वाङ असुर के पुत्र को विषयुक्त तीर-द्वारा
हत किया था।
१७. जब कि, ऋजाइव ने बुकी के लिए सो भेड़ों का वध किया था,
तब उनके कद्ध पिता ने उन्हें अन्धा बना दिया था। इसके अनन्तर
हिन्दी-त्रटरवेद १७३
तुमने उन्हें नेत्र प्रदान किया था। देखने के लिए तुम लोगों ने अन्ध को
द्वकं दिया था।
१८. उन अन्ध को चक्षु-द्वारा सुख देने की इच्छा से बुकी ने तुम्हें
आह्वान किया था--अश्विद्वय, अभीष्ट-वर्षिद्यय, नेतृहय, ऋजाइव ने,
तरुण जार की तरह, अभितव्ययी होकर एक सौ एक भेंड्रों को खण्ड-
खण्ड किया था। म
१९. अध्विद्य, तुम्हारा रक्षा-कार्य सुख का कारण है; हे स्तुति-
पात्र, तुमने रोगियों के अंगों को ठीक किया है; इसलिए प्रभूत-बुदधि-
शालिती घोषा ने, तुम्हें रोग-निवृत्ति के लिए बुलाया था। अभीष्टः
दातृद्ठय, अपने रक्षण-कार्यों के साथ आओ ।
२०. दस्रद्वय, शय् ऋषि के लिए तुमने कुशा, प्रसव-शव्या और
दुर्ध-रहिता गौ को दुग्ध-पुणे किया था। तुमने अपने कर्से-द्वारा पुरुमित्र
राजा की कुमारी को विसद ऋषि की स्त्री बनाया था ।
२१. अधिवद्वय, तुमने विद्वान् मनु या आये मनुष्य के लिए हल-
द्वारा खेत जुतवाकर, यव वपन कराकर, अञ्न के लिए वृष्टि-वर्षण
करके तथा वज्त्र-द्वारा दस्यु का वध करके उसके लिए विस्तीर्ण ज्योति
प्रकाश की ।
२२. अदिविद्ठय, तुमने अथर्वा ऋषि के पुत्र दधीचि ऋषि के स्कन्ध
पर अइव का मस्तक जोड़ दिया था। दधीचि ने भी सत्य-रक्षा कर त्वष्टा
या इन्द्र से प्राप्त मधुविद्या तुम्हें सिखाई थी। दस्रद्वय, वही बिद्या
तुम लोगों में प्रवर्ग-विद्या-रहस्य हुई थी।
२३. मंधावि-द्य, म सदा तुम्हारी कृपा के लिए प्रार्थना करता
हँ। तुम मेरे सारे कार्यो की रक्षा करते हो। नासत्यद्वय, हमें विशाल,
सन्तान-समेत और प्रशंसनीय धन दो ।
२४. दानशील और नेता अदिविद्ठय, तुमने वश्चिमती को हिरण्यहस्त
नाम का पुत्र दिया था। दानशील अश्विद्ठय, तुमने तीन भागों में
विभक्त श्याव ऋषि को जीवित किया था।
१७४ हिन्दी-ऋग्वेद
२५. अहिवद्वय, तुम्हारे इन प्राचीन कार्यों को पूर्वेज कह गये हैं।
अभीष्ट-दातृद्वय, हम भी तुम्हारी स्तुति करके वीर पुत्र आदि से
युक्त होकर यज्ञ को सम्पन्न करते है ।
११८ सूक्त
(देवता अश्विनीङुमारद्वय)
१. अध्विठ्॒य, शयेन पक्षी की तरह शीत्रपामी, सुखकर और
घन-युक्त तुम्हारा रथ हमारे सम्मुख आव । अभीष्ड-वर्षक-दय, तुम्हारा
बह रय सनुष्य के सन की तरह वेगवान्, तिबस्धुर या न्रिबन्धनाधार-
सूत ओर वायृ-वेगी है ।
२. अपने त्रिबन्धुर, त्रिकोण या तीनों लोकों सें वत्तमाव, त्रिचक्र
ओर शोभननाति रथ पर हमारे सम्मुख आओ । अधिवहय, हमारी
गायों को दुग्धवती करो। हमारे घोड़ों को प्रसन्न करो। हमारे वीर
पुत्र आदि को वरद्धित करो।
३. दस्रद्वय, अपने शीघ्रगामी और शोभन-यति रथ-हारा आकर
सेवा-परायण स्तोता का यह मंत्र सुनो । अश्विद्य, क्या पहले के
विद्वान् यह नहीं बोले थे कि, तुस स्तोताओं की दरिद्रता दुर करने के
लिए सर्वदा जाते हो?
४. अशिवद्वय, रथ में योजित, शीव्रगन्ता, उछलने में बहादुर
ओर इयेन पक्षो की तरह वेग-विशिष्ट तुम्हारे घोड़े तुम्हें लेकर आवें ।
चासत्यद्ठय, जल की तरह शीत्रगति अथवा आकाशचारी गुन्न की तरह
शीश्रगति वे घोड़े तुम्हें हव्यान्न के सामने ले आ रहे हे।
५. नेतृद्वय, प्रसन्न होकर सूर्य की युवती पुत्री तुम्हारे रथ पर
चढ़ी थी। तुम्हारे पुष्ठाङ्क, लम्फ-प्रदान-समर्थ, शी्रपासी और
दीप्तिमान् घोड़े तुम्हें हमारे घर की ओर ले आवें ।
६- अपने काये-दारा तुनसे बन्दन ऋषि को बचाया था। कास-
वर्षिहय, अपने कार्यद्वारा तुमने रेभ ऋषि के निकाला था ठुसने तुग्र-
हिन्दी-ऋग्वेद १७५
पुत्र भुज्यु को समुद्र से पार कराया था। च्यवन ऋषि को फिर युवक
बना दिया था।
७. अधिवहय, तुमने रोके हुए आत्रि की प्रदीष्स अग्नि-शिखा को
निवारित किया था और उन्हें रसबान् अश्च प्रदान किया था। स्तुति
ग्रहण करके तुमने अन्धकार में प्रविष्ट कग्व ऋषि को चक्षुप्रदान
किया था ।
८. अश्विद्वय, प्रा्थेता करने पर प्राचीन शय ऋषि की इुग्ष-
रहिता गौ को दुग्धवती किया था। तुमने वृक-रूप पाप से वत्तिका को
छुडाया था। तुमने विश्पछा की एक जंघा बना दी थी।
९. अधिवहय, तुमने पेदु राजा को इबेतवर्ण घोड़ा दिया था। बह
अइव इख-प्रदत्त, शत्र-हन्ता और संग्रास में शब्द करवेबाला था।
बह अरि-मर्देल, उग्र और सहस्र या अनेक प्रकार के धन देनेवाला था।
बह अश्व सेचन-ससर्थ ओर दृढाङ्ग था!
१०. नेतृद्य, शोभन-जन्मा अधिवदय, हुम धन-याचना करके रक्षा
के लिए तुम्हें बलाते हुँ। हमारी स्तुति ग्रहण करके तुम लोग बचशाली
रथ पर, हमें सुख देने के लिए, हमारे सम्मुख आओ ।
११. नासत्यद्य, समाय-प्रीति-सम्प्ण होकर तथा श्यय पक्षी अथवा
प्रशंसनीय गसमकारी अइव के मतन वेग की तरह हमारे निकट आओ।
अध्विद्वय, हृव्य लेकर हम नित्य उषा के उदय-काल में तुम्हें बुलाते हें॥
११९ सूक्त
(देवता अश्विद्वय)
` १. अदिव्य, जीवन धारण के लिए, अन्न के निमित्त, में तुम्हारे
रथ का आवाहन करता हुँ। वह रथ बहु-विधगति-विश्िष्ट, सन की
तरह शोत्रगाया, वेगवान् अइव से युक्त, यज्ञ-पात्र, सहल्रकेतु-पुक्त,
अतघन-युक्य, सुखकर और थयदाता हुँ। २
१७६ _ हिन्दौ-ऋग्वेद
२. उस रथ के गसन करने पर अधिवद्वय की प्रशंसा में हमारी
बुद्धि ऊपर उठ जाती है। हमारी स्तुतियाँ अध्विद्दय को प्राप्त हुई हँ।
में हव्य को स्वादिष्ठ करता हुँ। सहायक ऋत्विक लोग आते हेँ।
अश्विद्वय, सुर्य-पुत्री उर्जानी तुम्हारे रथ पर चढ़ी ह।
३. जिस समय यज्ञ-्परायण असंख्य जय-शील मनुष्य संग्राम में
धन के लिए परस्पर स्परद्धा करके एकत्र होते हैं, हे अश्विद्वय, उस समय
तुम्हारा रथ पृथ्वी पर आता हुआ मालूम पड़ता हे। उसी रथ पर
तुम लोग स्तोता के लिए श्रेष्ठ धन लाते हो ।
४. अभीष्ट वर्षकद्वरय, जो भुज्यु अपने घोड़ों के हारा लाये जाकर
समुद्र में निमज्जित हुए थे, उन्हें तुम लोग स्वयं अपने संयोजित
घोड़ों के द्वारा लाकर उनके पिता के पास उनके दूरस्थ घर में पहुँचा गये
थे। दिवोदास को भी जो तुम लोगों ने महान् रक्षण प्रदान किया था,
बह् हस जानते हैं । |
५. अहिविद्वय, तुम्हारे प्रशंसनीय दोनों घोड़े, तुम्हारे संयोजित
रथ को, उसकी सीसा--सुर्य--तक सारे देवों के पहले ही ले गये थे।
कुमारी सूर्या ने, इस प्रकार विजित होकर, मैत्रीभाव के कारण,
“दुस मेरे पति हो--कहकर तुम्हें पति बना लिया था।
६. तुमने रेभ ऋषि को, चारों ओर के उपद्रव से बचाया था।
तुसने अत्रि के लिए हिस-हारा अग्नि का निवारण किया था। तुमने
शत्रु की गो को दुर्ध दिया था। तुमये बन्दव ऋषि को दोघं
आयु-द्वारा वद्धित किया था।
७. जेसे पुराने रथ को शिल्पी नया कर देता है; हे निपुण दख्-
दय, उसी प्रकार तुमने भी वाद्धक्य-पीड़ित बन्दन को फिर युधा कर
दिया था। गर्भस्थ वामदेव के तुम्हारी स्तुति करने पर तुमने उन
मेधावी को गर्भ से जन्म दिया था। तुम्हारा यह रक्षण-कार्य इस
परिचर्या-परायण यजमान के लिए परिणत हो। |
हिन्दी-ऋष्वेद १७७
८. भुज्यु के पिता ने उनको छोड़ दिया था । भुज्यु ने दूर देश में
पीड़ित होने पर तुम्हारी कृपा के लिए प्रार्थना की। तुम उनके पास
गये । फलतः तुम्हारी शोभनीय गति और विचित्र रक्षण-कार्य सब
छोग सम्मुख पाने की इच्छा करते है।
९. तुम मधु-पुक्त हो । मधु-कासिनी उस सक्षिका ने तुम्हारी
स्तुति की है। उशिजूपुत्र में कक्षीवान् तुम्हें सोमपान में प्रसन्नता पाने
के लिए बुलाता हूँ। तुमने दधीचि ऋषि का सन तृप्त किया था।
उनके अइ्व-मस्तक ने तुम्हें सधुविद्या प्रदान की थी।
१०. अश्विद्यय, तुमने पेढु राजा को बहुजन-बाञ्छित और दात्रु-
पराजयी शुश्रवण अश्व दिया था । वह अइव युद्ध-रत, दीप्तिमान् युद्ध
में अपराजेय, सारे कार्यों सं संयोज्य और इन्द्र की तरह मनुष्य-
बिजयी ह।
१२० सूक्त
(देवता अश्विद्वय । छन्द गायत्री, कङुप्, काविराट उष्णिक्
कृति, विराट् आदि)
१. अदिवद्ठय, कौन-सी स्तुति तुम्हें प्रसक्ष कर सकती है? तुह
दोनों को कौन परितुष्ट कर सकता हुं? एक अज्ञानी जीव तुम्हारी
केसे सेवा कर सकता है?
२. अनभिज्ञ प्राणी इसी प्रकार उन दोनों सर्वज्ञो की परिचर्या के
उपायभूत मार्य की जिज्ञासा करता है । अझ्विनीकुमारों के सिवा सभी
अज्ञ हैं। शत्र-द्वारा आक्रसण-रहित अश्विद्ठय शीघ्र ही मनुष्य पर
अनुग्रह करते हें।
३. सर्वज्ञ, हम तुम्हारा आह्वान करते हैं तुम अभिज्ञ हो,
हमें मननीय स्तोत्र बताओ। बही में तुम्हारी कामना करके, हव्य-
प्रदान करते हुए, स्तुति करता हुँ 1
फा० १२
१७८ हिन्दी-ऋग्बेद
४. में तुम्हें ही जिज्ञासा करता हुँ; अपनी पक्व बुद्धि से जिज्ञासा
नहीं करता। दखद्रय, “ववद” शब्द के साथ अग्नि सें प्रदत्त, अद्भुत
ओर पुष्टिकर सोस-रस पान करो । हमें प्रौढ बल प्रदान करो ।
५. तुम्हारी जो स्तुति घोषायुत्र चुहस्ति और भृग-द्वारा उच्चारित
होकर सुशोभित हुई थी, उसी स्तुति-द्वारा बत्त्रबंशीयचऋषि में कक्षीवगन्
तुम्हारी अर्चना करता हूँ। इसलिए स्तुतिज्ञ मं अच्च-कामना में
सफळल-यत्न बन् ।
६. स्थलद्गति वा गति-रहित ऋषि अर्थात् अन्ध शहजाइव की
स्तुति. सुनो। शोभनीय क्सो के प्रतिपालक, उसने मेरी तरह स्तुति
करके चक्षुद्रय प्राप्त किया था। फ़रूतः मेरा मनोरथ भी पूर्ण करो ।
७. तुमने सहान् धनदान किया है तथा उसे फिर लुप्त कर डाला
है। गृहन्दावृद्वय, तुम हमारे रक्षक बनो। पापी बुक वा तस्कर से
हमारी रक्षा करो ।
८. किसी शत्रु के सामने हमें नहीं अर्पण करना । हमारे घर से
दुग्धवती याये, बछडों से अलग होकर, किसी अगम स्थानत को न
चली नथ ।
९. जो तुम्हें उद्देश्य कर स्तुति करता है, वह मित्रों की रक्षा के लिए
धन पाता हे। हमें अश्नयुक्त धन प्रदान करो तथा धेनु-युक्त अन्न दो।
१०. मेये अन्नदाता अश्विद्वव का अइव-रहित, परन्तु गसन-समर्थ,
रथ प्राप्त किया है। उसके द्वारा में अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त करने
की इच्छा करता हूँ।
११. घच-पू्णं रथ, सें सामन ही हूँ। मुझे समृद्ध करो। उस सुखकर
रथ को अशश््विद्वय, स्तोताओं के सोम-पान स्थान पर ले जाते हैं।
१२. में प्रातःकाल के स्वप्न से घृणा करता हूँ और जो धमी दूसरे
का प्रतिपालन नहीं करता, उसे भी घृणित समझता हुँ। दोनों शीध्र
नाझ को प्राप्त होते हैं।
हिन्दी-ऋण्वैद १७९
१२१ सूक्त
(१८ अनुवाक | देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप्)
१. सनुष्यों के पालन-कर्ता ओर गो-रूप धन के दाता इन्द्र कब
देवाभिलाषी अङ्गिरा लोगों की स्तुति सुनेगे ? जिस समय वे गहपति
यजमान के ऋत्विकों को सामने देखते हैं, उस समय वे यज्ञ सें यजनीय
होकर प्रभूत उत्साह से पूर्ण होते हैं।
२. उन्होंने स्थिर-रूप से आकाश को धारण किया है। वे असुरों
द्वारा अपहृत गायों के नेता हें । वे विस्तीर्ण प्रभा से युक्त होकर सारे
प्राणियों के द्वारा सेवनीय हैं और खाद्य के लिए जीवन-घारक वृष्टि-जल
प्रेरित करते हें। महान् सुयेरूप इन्द्र, अपनी पुत्री उषा के अनन्तर
उदित होते हैं। उन्होंने अश्व की स्त्री को गौ की साता किया था अथवा
घोड़ी से गाय उत्पन्न की थी।
३. वे अरुणवर्ण उषा को रंजित करके हमारा उच्चारित पुरातन
मंत्र सुर्ने। वे प्रतिदिन अईङ्किरा गोत्रवालों को अन्न देते हैं। उन्होंने
हननशील वस्त्र बनाया हे। वे मनुष्यों, चतुष्पदो और द्विपदों के हित
के लिए, दृढ़रूप से, आकाश धारण करते हैं।
४. इस सोमपान से हुष्ट होकर तुमने स्तुति-पात्र और पणिद्वारा
छिपाई हुई गोओं को यज्ञार्थ दान किया था । जिस समय त्रिलोक-श्रेष्ठ
इन्द्र युद्ध में रत होते हें, उस समय वे मनुष्यों के क्लेश-दाता पणि असुर
का द्वार, योओं के निकलने के लिए, खोल देते हैं ।
५. क्षिप्रकारी तुम्हारे लिए जगत् के पालक पिता चौ और साता
पृथिवी समृद्धिशाली ओर उत्पादन-शक्ति-युक्त दुग्ध लाये थे। जिस
समय उचने दुग्धवती गोओं का विशुद्ध धन-युक्त दुग्ध तुम्हारे सामने
रक्खा था, उस ससय तुमते पणि का द्वार खोल दिया था ।
६. इस समय इख प्रकट हुए हुँ। वे उषा के समीप में विद्यमान
सूर्यं की तरह दीप्तिमान् हुए हैं। ये शत्रु-विजयी इच्ध हमें मत्त
१८० हिन्दी ऋग्वेद
या प्रसन्न करें। हम भी हव्य अर्पण करके, स्तुति-भाजन सौम-रस को,
पात्र-द्वारा, यज्ञ-स्थान में सिञ्चत करके, उसी सोम-रस का पान करें।
७. जिस ससय सूर्थ-किरण-द्ठारा प्रकाशित सेघमाला जल-वषंण
करने को तैयार होती है, उस शल्य प्रेरक इन्द्र, यज्ञ के लिए, बृष्टि
के आवरण का बिवारण करते हैं । इन्द्र, जिस समय तुस सुर्ये-रूप
से कर्म के दिन में किरण दान करते हो, उस समय गाडीवान्, पशु-रक्षक
और क्षिप्रगामी अपने-अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करते हैं।
८. जिस समय ऋत्वि ह लोग तुम्हारे ४द्धेन के लिए मनोहर, प्रसच्च-
कर, बलदायक और हुम्हारे उपभोग्य सोम से, प्रस्तर-द्वरा, रस निकालें
उस समय हर्व-दायक सोम-रस के उपभोक्ता अपने हरि नाम के
दोनों घोड़ों को, दल-यज्ञ में, सोमपान कराओ। तुस युद्ध-निएुण हो?
हमारे धनापहारी शत्रु का दमन करो।
९. तुसने ऋभु-ढारा आकाश से लाये गये, शीघ्रगामी और लोह-
सय वस्त्र को त्वरित-गति शुष्ण असुर के प्रति फेंका था। बहुझोक-
पुजा-पात्र, उस ससय तुम, कुत्स ऋषि के लिए, शुष्ण को अनेकानेक
हननशील अस्त्रों-दारा मारते हुए घरते हो ।
१०. जिस समय सुर्यं अन्धकार के साथ संग्रास से मुक्त हुए, उस
ससय है वच्भवारित्, तुमने उसके सेघ-हूप शत्रु का विनाश कर दिया।
उस शुष्ण का जो बल सूर्यं को आच्छादित किये हुए था और सूर्य के
ऊपर ग्रथित हुआ था, उसे तुमने अग्न कर दिया था।
११. इन्द्र, महान् बली और सर्व-व्यावक दो और पृथिवी ने वृत्र-
वध-कार्य में तुम्हें उत्साहित किया था। तुमने उस सर्वत्र व्यापक ओर
श्रेष्ठ हार-युक्त बुत्र को महान् वचत्र से, प्रचहान जल में, फक
दिया था।
१२. इन्द्र, तुस वानवन्धन्धु हो । तुस जिन अइ्वों की रक्षा करते हो,
उन वायु-तुल्य, झोभन और वाहक अइचों पर चढ़ो। कवि के पुत्र
हन्वी-ऋरचैद १८१
उशना ने जो हर्थदायक वच्च तुम्हें दिया था, तुमने उसी ृत्र-ध्चंसक और
शत्रु-नाशक वस्त्र को तीक्ष्ण किया है। |
१३. सूय-रूप इन्द्र, हरि नामक अइवों को रोको। इन्द्र का एतश
भाम का घोड़ा रथ का चक्का खींचता है। तुम नौका-हारा नब्बे नदियों
के पार पहुंचकर वहाँ यज्ञ-विहीन अघुरों या अनायों से कर्चव्य कर्म
कराओ |
१४. बञ्जधर इन्द्र, तुस हमें इस दुर्दान्त दरिद्रता से बचाओ ;
समीप-वर्ती संग्राम में हमें पाप से बचाओ। उद्चत-कीत्ति और सत्य
के लिए हमें रथ, अइव, धन आदि दान करो ।
१५. धन के लिए पूजनीय इन्द्र, हमारे पास से अपना अनुग्रह नहीं
हटाना। हमें अन्न पृष्टि दे। मघवन्, तुस धनपति हो। हमें गौ दो।
हम तुम्हारी पूजा में तत्पर हैं। हम पुत्र, पौत्र आदि के साथ धन
प्राप्त करें।
अष्टम अध्याय समाप्त ॥
गयम आष्टक ससाष्त ॥
अष्टक रे
१२२ सक्त
७५
(देवता विश्वदेव । यहाँ से १२५ सूक्त तक ऋषि कचीवान् और
छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. कोघ-विरहित ऋत्विको, तुम लोग कर्स-फलदाता खदेव को
पालनशील और यज्ञ-साधन अग्नि अर्पण करो। में भी उन झलोक
के असुर (देव) और उनके अनुचर एवं स्वर्ग और पृथिवी के मध्यस्य-
वासी सरुटृगण की स्तुति करता हूँ । जैसे तृणीर-द्वारा शत्रुओं को निरस्त
किया जाता हैं, बेसे ही सद्र भी वीर मरतों के हारा शत्रु को
निरस्त करते हें।
२. जसे स्वामी के प्रथम आह्वान पर पत्नी शीघ्र आती हें, बसे ही
अहोरात्र-देवता नानाविध स्तुतियों-द्वारा स्तुत होकर हमारे प्रथम
आह्वान पर शीघ्र आवें। अरि-मर्देत सुर्य की तरह उषादेवी हिरण्यवर्ण
किरणों से युक्त होकर और विशाल रूप धारण कर सूर्य की शोभा
से शोभन हों ।
३. वसनयोग्य और सर्वतोगामी सूर्य हमारी प्रसन्नता बढ़ायें।
वारि-वर्षक वायु हमारा आनन्द बढ़ायें। इन्द्र और पर्वत (मेघ) हमारी
बुद्धि को बढ़ायें। विश्वेदेवगण, हमें यथेष्ट अन्न देने की चेष्टा करें ।
४. सें उशिज का पुत्र हुँ। ऋत्विको, मेरे लिए अन्न-भक्षक और
स्लुति-भाजन अइिविनीकुमारों को, संसार को प्रकाशित करनेवाली
उषा के समय, बुलाओ। जल के नप्ता अग्नि की स्तुति करो तथा मेरे
सदुश स्तोता सनुष्यों के मातृ-स्थानीय अहोरात्र-देवताओं की भी
स्तुति करो।
२८३
१८४ हिन्दी-ऋग्वेद
५. देवगण, में उशिज का पुत्र कक्षीवान् हुँ। मैं तुम्हारे सम्बन्ध
` में कहने योग्य स्तोत्र का, आह्वान के लिए, पाठ करता हुँ। अश्विहय
जेसे अपने शरीरगत शवेतवर्ण त्वचा-रोग के विनाश के लिए घोषा नामक
ब्रह्मवादिनी महिला ने तुम्हारी स्तुति की, बैसे ही में भी स्तुति
करता हुँ । देवो, फलदाता पुषा देव की भी स्तुति करता हूँ और अज्नि
सम्बन्धी धन की भी स्तुति करता हूं
६. भित्र और वरुण, मेरा आह्वान सुनो। यज्ञ-गह में समस्त
आह्वान सुगो। प्रसिद्ध धनशाली जलाभिमानी देव खेतों में जल बरसा.
कर हमारा आह्वान सुनें। म
७. मित्र और वरुण, में तुम्हारी स्तुति करता हूँ। जिस स्तोत्र मे
अज्न का नियमन होता है, वही स्तोत्र पढ़ा जाता हँ; इसलिए कक्षीवान
(ऋषि) को अपनी प्रसिद्ध गो दो। कक्षोवान् के प्रति प्रसन्न होकर प्रसिद्ध
और सुन्दर रथ से युक्त तुम लोग आओ तथा आकर मुझे पोषण करो।
८. में महान् धनवाले देवों के धन की स्तुति करता हूँ। हम मनुष्य
हैं; इसलिए शोभन पुत्र-पौत्र आदि से संयुक्त होकर हम इस घन
का संभोग करें। जो देव अङ्गिरा गोत्र में उत्पन्न कक्षीवान् के लिए अन्न
प्रदान करते हैं, अव और रथ देते हैं, उनकी स्तुति करता हू।
९. हे मित्र ओर बरुण, जो तुम्हारा द्रोही है, जो किसी तरह भौ
तुम्हारा द्रोह करता है, जो तुम्हारे लिए सोमरस का अभिषव नहीं
करता, बह अपने हृदय में यक्ष्मा रोग धारण करता है। जो व्यक्ति
यज्ञ करता ओर स्तुति-वचनों से सोमरस तयार करता है--
१०. वह व्यक्ति शान्त अश्व प्राप्त करता, मनुष्यों को परास्त करता
और समान मनुष्यों में अश्न के लिए प्रसिद्ध होता है। अतिथियों
को धन देता है और सारे युद्धो में हिसक मनुष्यों की ओर निःशङ्क होकर
सदा जाता हैं।
११. सर्वाधिपति, आनन्द-वरद्धक, तुभ मरण-रहित स्तोत्रकारी मनष्य .
के (अर्थात् मेरे) आह्वान को सुनो और आओ। तुम आकाशव्यापी हो।
हिन्दी-ऋणग्वेद थ्
तुम अन्य-रक्षक-रहित रथ से संयुक्त यजमान की समृद्धि के साधन हव्य
की प्रशंसा करना पसन्द करते हो।
१२. जिस यजमान के दसौं इन्द्रियों के बलदायक अन्न की प्राप्ति
के लिए हम आये हैं, उसे हमने मनुष्यों को विजय करनेवाला बल्छ
दिया--देवों ने ऐसा कहा। इन देवों का प्रकाशमान अख और घन
अत्यन्त शोभा पाता है। उत्तम यज्ञ में देवता लोग अन्न दान करें।
१३. इन्द्रियां दस प्रकार की हैं; इसलिए ऋत्विक् लोग, दस
अवयवों से युक्त अच्च धारण करके गमन करते हैं। हम बिइवदेवों की
स्तुति करते हँ। इष्टाइव और इष्टरदिम नाम के राजा शत्रुतारक
नेताओं (वरुणादि) का क्या कर सकते हैं।
१४. विश्वदेव हमें कर्णो में स्वर्ण, ग्रीवा में मणि पहननेवाले रूप-
वान् पुत्र प्रदान करें। श्रेष्ठ विइवदेवगण सद्योनिगेत स्तुति और हव्य
की आकांक्षा कर। |
१५. मशर्शार सजा के चार पुत्र और विजयी अयवस राजा के
तीन पुत्र मुझे बाधा देते हैं। मित्रावरुण, तुम्हारा अति विस्तृत और
शोभन दीप्तिशाली रथ सूर्य की तरह कान्ति प्राप्त किये हुए है।
१२३ सूक्त
(देवता उषा)
१. दक्षिणा या उषा का रथ अइव-संयुक्त हुआ । अमर देव लोग
उस रथ पर सवार हुए । कृष्णवर्ण अन्धकार से उत्थित, पुजनीय, विचित्र
गतिमती ओर मनुष्य के निवासस्थानों का रोग दूर करनेवाली उषा
उदित हुई ।
२. सब जीवों के पहले ही उषा जागी। उषा आज्नदायिनी, महती
झर संसार को सुख देनेवाली हं । बह युवती हे; बार-बार आविभूंत
होती हैं। अद्ध्वेस्थिता उषा देवी हमारे बुलाने पर पहले ही आती हुँ।
१८६ हिन््दी-ऋण्वेद
ge
३. सुजाता उषा देवी, तुस मनुष्यों की पालिका हो। तुम अभी
सनृष्णो को जो प्रकाशांश प्रदान करती हो, उसी को प्रदान कर
दानशील सविता या प्रेरक देब, सूर्य के आगमन के लिए, हमें पाप-
रहित कहकर स्वीकार करें ।
४. अहुनः या उषा प्रतिदिन नख भाव से हर एक घर की ओर जाती
है । भोगेच्छाशालिनी और घुतिमती प्रतिदिन आगमन करती और
हुव्यलप धन का श्रष्ठ भाग ग्रहण करती हैं।
५. सुनृता उषा, तुस भग या सूर्य की भगिनी और वरुण या प्रकाश
देव की सहजाता हो। तुम श्रेष्ठ हो। सब देवता तुम्हारी स्तुति करें।
इसके अनन्तर जो दुःख का उत्पादक हुँ, वह आवे। तुम्हारी सहायता
पाकर उसे रथ-द्वारा हम जोतेंगे।
६. सच्ची बातें कही जायें, प्रज्ञा प्रबुद्ध हो। अत्यन्त प्रकाशमान
आय प्रज्वलित हों, इससे विचित्र प्रभावती उषा अन्धकाराबुत स्पृहणीय
घन का आविष्कार करती हैं।
७. विलक्षण रूपवान् दोनों अहोरात्र-देवता व्यवधान-रहित होकर
चलते हें। एक जाते हें, एक आते हैं। पर्यायगामी दोनों देवताओं में
एक पदार्थों को छिपाते हूँ, दूसरे (उषा) अतीव दीप्तिमान् रथ-द्ारा
उसे प्रकाशित करते हें।
८. उषा देवी जेसी आज है, वैसी ही कल भी विशुद्ध है। ।
प्रतिदिन वह वरुण या सूर्य के अवस्थित-स्थान से तीस योजन आगे
अवस्थित होती है । एक-एक उषा उदय-काल में ही गसन-आयमनरूप
कार्य सम्पादित करती हैँ ।
९. उषा दिन के प्रथमांश के आगमन का काल जानती है। बह
स्वयं ही दीप्त और श्वेतवर्णं है। कृष्णवर्णं से उसकी उत्पत्ति हुई
हुँ । वह हूर्य-लोक में मिश्रित होती हुँ; किन्तु उसको हानि नहीं
पहुँचातो; प्रत्युत उत्तकी शोभा बढ़ाती हूँ ।
हिन्दी-व्रदग्वेद १८७
१०, देवि, कन्या की तरह अपने अंगों को विकसित करके तुस
दानपरायण ओर दीप्तिमान् सूर्यं के निकट जाओ । अनन्तर युवती
की तरह अतीव भ्रकाश-संम्पन्न होकर, कुछ हँसती हुई, सुर्य के सामने
अपना हुदय-देश उघारो।
११. जेसे माता-द्वारा देह के धो दिये जाने पर कन्या का रूप
उज्ज्वल हो जाता है, वैसे ही तुम भी होकर दर्शन के लिए अपने
शरीर को प्रकाशित करो। तुम कल्याणशीला हो। अन्धकार को द्र
कर दो। अन्य उबाये' तुम्हारे कार्य को नहीं व्याप्त करेंगी ।
१९, अझ्व और गो से सम्पन्न, सर्वकालीन और सुर्यरश्मियों के साथ
तमोनिवारण के लिए चेष्टा-विशिष्ट उषा-देवियाँ कल्याणकर नास
धारण करके जाती और आती हें ।
१३. उषा, ऋतु या सुर्यं की रश्मि का अनुधावन करती हुई हमें
कल्याणकारिणी प्रज्ञा प्रदान करो। हम तुम्हें बुलाते हैं। अन्धकार
दुर करो। हम हुविलक्षण धत से युक्त हुँ। हमारे पास धन हो।
१२४ सूक्त
(देवता उषा)
१. अग्नि के समिद्धमान होने पर उषा, अन्धकार का निवारण करती
हुई, सूर्योदय की तरह प्रभूत ज्योति फेलाती हूँ । हमारे व्यवहार के लिए
सविता द्विपद और एतुष्पद से संयुक्त धन देले हें।
२. उषा देव-सम्बन्धी ब्रतों में विघ्न नहीं करती, सनुष्यों की आयु
का ह्रास करती, अतीत और नित्य उषाओं के समान हुँ और आगा-
मिनी उषाओं की प्रयमा हे! उषा द्युति फैलाती हे।
३, उषा स्वननपुद्री हुं। बह प्रकाश-द्वारा आच्छादित होकर धीरे-
धीरे पूव दिशा की ओर दिखाई देती हुं । उषा मानो सूर्य का अभिप्राय
जावकर ही उनके मागे पर अच्छी तरह भ्रमण करती हैं। बह कभी
दिशाओं को नहीं मारती ।
१८७ हिन्दी
४. जैसे सूर्यं अपना वक्षःस्थल प्रकटित करते हैं और नोधा ऋषि
में जेसे अपनी प्रिय वस्तु का आविष्कार किया है, उसी प्रकार उषा
मे भी अपने को आविष्कृत किया हे। जैसे गृहिणी जागकर सबको जगाती
है, वेसे ही उषा भी मनुष्यों को जगाती है। अभिसारिकाओं के बीच
डबा सबसे अधिक आती ह।
५. विस्तृत आकाश के पूर्व भाग में उत्पन्न होकर उषा दिशाओं
को चेतना-्युक्त करती हुं। उषा पितु-स्थानीय स्वगे और पृथिवी के
अन्तराल में रहकर अपने तेज से देवों को परिपूर्ण करके विस्तृत और
विशिष्ट रूप से प्रख्यात हुई हैं।
६. इस तरह अत्यन्त विस्तृत होकर उषा सरलता से दशेन-निमित्त
मनष्यादि और देवादि में से किसी को भी नहीं छोड़ती। प्रकाशशालिनी
डवा विमल शरीर में क्रमशः स्पष्ट होकर छोटे या बड़े किसी से
भी नहीं हटती।
७. आत-हीना स्त्री जैसे पित्रादि के अभिमुख गमन करती हे
गतभत्त का जैसे धन-प्राप्ति के लिए घर आती है, उषा भी वसा
ही करती हँ । जैसे पत्नी पति की अभिलाषिणी होकर सुन्दर वस्त्र पहनती
हुई हास्य-द्वारा अपनी दन्त-राजि प्रकाशित करती है, उसी प्रकार उषा
भी करती ह।
८. भगिनी-रूपिणी रात्रि ने बडी बहुत (उषा) को अपर रात्रिः
रूप उत्पत्ति-त्थान प्रदान किया हें एवं उषा को जनाकर स्वयं चली
खाती हुँ। सूर्य-किरणों से अन्धकार हटाकर उषा विद्यद्राशि की
तरह जगत् को प्रकाशित करती हैं।
९. इव सब भयिनीभावापन्च प्राचीन उषाओं में पहली दूसरी
के पीछे प्रतिदिन गमन करती हैं। प्राचीस उषाओं की तरह नई उषा
सुदिन पेदा करती हुई हमें प्रभूत-घन-विदिष्ट करके प्रकाशित करे।
१०. घनवती उषा, हविर्दाताओं को जगाओ। पणिलोग न जागकरं
तिद्रा में पड़ें। धनझालिनी, धची यजमानों को समृद्धि दो।
हिन्दी-ऋग्बेद १८९
झुनृते, तुम सारे प्राणियों को क्षीण करती हुईं यजमान को
समृद्धि दो।
११. युवती उषा पूर्व दिशा से जाती हें। उसके रथ में सात अश्व
ज॒ते हें। वह दिन की सुचवा करके रूप-राहित अन्तरिक्ष में अन्धकार
का निवारण करतो हे। उसका आगमन होने पर घर-घर में आग
जलती ह।
१२. उषा, तुम्हारा उदय होन पर चिड़ियाँ अपने घोंसले से अपर
उड़ती हें। अन्न-प्राप्ति में आसक्त होकर मनुष्य ऊपर मुँह करके
जाते हें । देवि, देव-पूजन-गुह में अवस्थित हुव्य-दाता मनुष्य के लिए
प्रभूत धन ले आओ।
१३. स्तुति-पात्र उषाओ, सेरे सन्त्र-द्वारा तुम स्तुत हो । मेरी समृद्धि
की इच्छा करके हमें वर््धित करो। देवियो, तुम्हारी रक्षा प्राप्त करके
हम सहत्रसंश्यक् ओर शतसंख्यक धन प्राप्त करें ।
१२५ सूक्त
(देवता दान)
१. स्वनय राजा ने, प्रातःकाल आकर, रत्नादि रख दिये। कक्षीवान्
ने उठकर उन्हें ग्रहण किया। उस रत्वराजि-द्वारा प्रजा और आयु
की वृद्धि करके धन लाभ किया।
२. उन राजा के पास बहुल गो-धन हो। उनके पास बहुत सुवर्ण
और बहुत घोड़े हों। उन्हें इन्द्र बहुत अन्न दें। जेसे छोग रस्सी से पशु,
पक्षी आदि को बाँध देते हें, उसी तरह उन्होंने भी प्रातःकाल पेदल ही
आकर आगमनकारी को घन-द्वारा आबद्ध किया।
३. में यज्ञ के त्राता शोभनकर्मा को देखने को इच्छा करके,
सुसज्जित रथ पर चढ़कर, आज उपस्थित हुआ हुँ। दीप्तिशाली
मादक सोम के अभिषुत रस का पान करो। प्रभूत-वीर-पुत्रादि-विशिष्ट
को प्रिय ओर सत्य वाकय-द्वारा समृद्ध करो।
१९० हिन्दी-क्रस्वेद
४. दुश्धवती और कल्याणदायिनी गायें, यजमान और यज्ञ-
संकल्पकारी के पास जाकर, दुग्ध प्रदान करती हुँ। समृद्धि के कारणभूत
घुतधारा, तर्पणकारी और हितकारी पुरुषों के पास, चारों ओर से
उपस्थित होती हैं ।
५. जो व्यक्ति देवों को प्रसन्न करता है, बह स्वर्ग के पृष्ठदेश में
अवस्थान करता तथा देवों के बीच गसन करता है । प्रवहमान जल, उसके
पास, तेजोविशिष्ठ सार प्रदान करता हे। पृथिवी जस्य आदि से
सफल होकर उसे सन्तोष प्रदान करती है।
६- जो व्यक्ति दान देता है, उसी को ये सारी सणि-मुक्तादि वस्तुएं
श्राप्त होती हें। दानदाता के लिए घुलोक में सूर्य रहते हुँ । दान"
दाता ही जरा-मरण-शून्य स्थान प्राप्त करते हँ। दान देनेवाले दीर्घ
आयु प्राप्त करते हैं।
७. जो देवों को प्रसन्न रखता है, उसे दुःख और पाप नहीं मिलते;
झोभन-द्रताली स्तोता भी जराग्रस्त सहीं होते। देवों के प्रीति-
प्रदाता और स्तुतिकर्ता से भिन्न पुरुषों को पाप आश्रित करता हे। जो
देवों को प्रसन्न नहीं करते, उन्हें शोक प्राप्त होता है।
१२६ सूक्त
(१ से ५ मंत्र राजा भावयव्य के लिए हैं और इनके ऋषि कक्षी-
वान हैं। ६ठा मंत्र राजा की जी के लिए है और इसके ऋषि
उक्त राजा हैं। ७ वाँ संत्र लोमशा के पति के लिए है और इसके
ऋषि लोमशा हैं। छन्द १ से ५ तकत्रिष्टुप और अन्त के दो
अनुष्डुप् । )
१. सिन्धुनिवासी भावयव्य-पुत्र स्वनय के लिए, अपने बुद्धि-बल
से, बहुसंख्यक स्तोत्र सम्पादन (प्रणयत) करता हुँ। हिसा-विरहित
राजा ने कीर्ति-प्राप्ति की इच्छा से मेरे लिए हजार सोम-यज्ञों का
अनुष्ठान किया हैं। |
हिन्दीन्ऋग्येद १९१
२. असुर-राजा के ग्रहण के लिए सुकते याचना करने पर सैं
(कक्षीवायू) चे उनसे १०० निष्क {आभरण या ह्वर्णयाप), १००
घोड़े और १०० बेल रे लिय। स्वर्गलोक में राजा नित्य कीति-
विस्तार करय ।
३. स्वनथ-हारा भूरे रंग के अइवबाले दस रथ मेरे पास आये, जिन
पर बधुएँ आरूढ़ थीं। १०६० माये भी पीछे से आई । में (कक्षीवान्)
ने ग्रहण करने के पझ्चात् ही सब अपने पिता को दे दिया ।
४, हजार गायों के सामने, दसों रथों में चालीस (१-१ सें ४-४)
लोहितवर्ण अइव पंहित-बद्ध होकर चलने लगे। कक्षीवान् के अनुचर
उनके लिए घास आदि जुटाकर सदमत्त और स्वर्णाभरण-विशिष्ट एवं
सतत गमनशील अश्बों को मलने लगे।
५. बन्धुगण, पहले के दान का स्मरण करके तुम्हारे लिए तीन
और आठ--सब ग्यारह रथ मेंने ग्रहण किये हैं। बहुमूल्य गायों को
लिया है। प्रजाओं की तरह परस्पर-अनुराग-सम्पच्च होकर संकठा-
वन्न अङ्गिरा लोग कीर्सि प्राप्त करने की चेष्टा करें।
६. यह सम्भोग योग्य रयणी (रोमशा) अच्छी तरह आलिङ्गित होकर,
सुतवत्सा नकुली की तरह, चिरकाल तक रमण करती है । यह बहुरेतो-
युक्ता रमणी सुझे (स्बनय राजा के!) बहु बार भोग प्रदान करती है ।
७, पत्नी पति से कहती हे--मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह
स्पर्श करा । यह न जायना कि में कम शोमबाली अतः भोग
के योग्य नहीं हूँ । में गान्थारी मेषी की तरह लोमपूर्णा और
पूर्णावयवा हूं ।
१२७ सक्त
(९ अनुवाक । देवता अग्नि। यहाँ से १३९सूक्तों तक के ऋषि
दिवोदास के पुत्र प*च्छेद । छन्द अतिधृति ।)
१. विद्वान् विप्र था ब्राह्मण की तरह शञ्ावान्, बल के पुत्र-स्वरूप
सबके लिवास-भूमि-रूष और अत्यन्त दानशील अग्नि को में होता कहकर
१९२ हिन्वीन्त्रम्वेद
सस्मान-युबत करता हूँ। यज्ञ-निर्वाहकारी अग्नि उत्कृष्ठ-देव-पुजा-
समर्थ होकर चारों ओर फैली हुई घृत की दीप्ति का अनुसरण करके अपनी
शिखा-द्वारा उस घृत को स्वीकृत करते हैं।
२. मेधांवी शुक्रदीप्ति अग्निदेव, हम यजमान हैं। हम मनुष्यों
के उपकार के लिए मननशील और अत्यन्त अ्रसन्नता-दायक सन्त्र-द्वारा
अद्धिरा लोगों में महान् तुम्हें बुलाते हैं। सर्वतोगामी सुर्य की तरह्
तुम यजमानों के लिए देवों को बुलाते हो। केश की तरह विस्तृत ज्वाला-
विशिष्ट और अभोष्टवर्षी हो। यजमान लोग अभित फल पाने के
लिए तुम्हें प्रसञ्च करें ।
३. अग्निदेव अतीव दीप्ति से संयुक्त ज्वाला-द्वारा भली भाँति
दीप्यमान हैं। बे विद्रोहियों के छेदनार्थ परशु की तरह विनाश में
अमूल्य हैं। उनके साथ मिलने पर दृढ़ और स्थिर बस्तु भी जल की
सरह शीण हो जाती है। शत्रुओं का विनाश करनेवाला धनुधेर जैसे
नहीं भागता, वैसे ही अग्नि भी झत्रुओं को परास्त किये बिना नहीं मानते।
४. जसे विद्वान् पुरुष को द्रव्य दान किया जाता है, उसी प्रकार
अग्नि को सारवान् हव्य मन्त्रानुक्रम से प्रदान किया जाता हुँ। तेजो-
बिशिष्ट यज्ञादि-द्वारा अग्नि हमारी रक्षा के लिए स्वर्गादि प्रदान करते
हैं। यजमान भी रक्षार्थ, अग्नि को हव्य देते हें। यजभान के द्वारा प्रदत्त
हव्य में प्रवेश करके अग्नि, अपनी ज्योतिःशिखा-द्वारा, उसे बन की तरह
जला डालते हैं । अग्निदेव अपनी ज्योति-द्वारा अच्नादि का परिपाक
करते और तेज के द्वारा दृढ़ द्रव्य को विनष्ट करते हे ।
५. रात में अग्निदेव दिन से भी अधिक दर्शनीय हो जाते हैं। दिन
में अग्नि प्री आयु या तेजस्विता से शून्य रहते हैं। हम अग्नि के उद्देश्य
से वेदी के पास हुव्य दान करते हैं। जैसे पिता के पास पुत्र दृढ़ और
सुखकर गृह प्राप्त करता हुं, उसी प्रकार अग्नि भी अन्न ग्रहण करता
है। भवत और अभक्त को समझकर भी अग्नि दोनों की रक्षा करते
हें। हव्य-भक्षण करके अग्नि. अजर हो जाते हुँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १९३
६. सरुत् के बल की तरह स्तवनीय अग्नि यथेष्ट ध्वनि से युक्त
हें। कर्मकारिणी उर्वरा अर्थात् श्रेष्ठ भूमि पर अग्नि का यज्ञ करना
उचित है। सेना-विजय करने के लिए अग्नि का याग करता उचित
है। अग्नि हृव्य भक्षण करते हैं। वे सर्वत्र दानशील और यज्ञ की
पताका हैं। वे सर्वत्र पूजनीय हैं। यजमानों के लिए हर्षदाता और
प्रसन्न अग्नि के मार्ग की, निर्भय राजपथ की तरह, सुख-लाभ के लिए,
सब लोग सेवा करते हें।
७. श्रौत और स्मात्तं--उभय प्रकार के अगति का गुण कहनेवाले,
दीप्तिशाली, नसस्कार-प्रबीण और हव्यदाता भुगुगोत्रज मह॒षि लोग,
हवि देने के लिए, अरणि-द्वारा अग्नि का मन्यन करके स्तुति करते हैं।
प्रदीप्त अग्नि सारे धनों के अधीइवर हैं। अग्नि यज्ञवाले हें और भली-
भाँति प्रिय हव्य भोगनेवाले हें। अग्नि मेधावी हैं और वे अन्य देवताओं
को भी भाग देते हें।
८. सारे यजमानों के रक्षक, सारे मनृष्यों के एक से गृह-पालक,
सर्व-सम्मत-फल-विशिष्ट, स्तुति-बाहक और मनृष्य आदि के लिए
अतिथि की तरह पूज्य अग्नि को, भोग के लिए, हम बुलाते हें। जैसे
पुत्र लोग पिता के पास जाते हें, देसे ही हव्य के लिए ये सारे देवता
अग्नि के पास आते हैं। ऋत्विक् लोग भी देवों के यज्ञ-काल में अग्नि
को हव्य प्रदान करते हैं।
९, जैसे देवों के यजन के लिए धन पेदा होता है, उसी प्रकार हे
अग्नि, तुम भी देवों के यज्ञार्थं उत्पन्न होते हो। अपने बल से तुम शत्रुओं
के अभिभवकर्ता ओर अतीव तेजस्वी हो। तुम्हारा आनन्द अत्यन्त बल-
दाता है। तुम्हारा यज्ञ अत्यन्त फल-प्रद हे। हे अजर और हे भक्तों के
जरा-निवारक अग्नि, इसी लिए यजमान लोग, दूतों की तरह, तुम्हारी
पुजा करते हृ। |
१०. हे स्तोता लोगो हविवाले यजमान इन अग्नि के लिए सारी
वेदी-भूसि पर बार-बार गसन करते हु; इसलिए तुम्हारा स्तोत्र उस
फा० १३
१९४ हिन्दी-ऋषग्वेद
इज्य, शत्रु-पराभवकारी, प्रातःकाल में जागरणझील और पशु-दाता
अग्नि की प्रीति उत्पन्न करने में समर्थ हो। धनयान् के पास
जसे बन्दी स्तव करता हुँ, बेसे ही होता लोग पहले, देवों में श्रेष्ठ, अग्नि
की स्तुति करते हैं।
११. हे अग्नि, यद्यपि तुम्हें पास यें ही हम प्रदीप्त देखते हैं. तथापि
तुम देवों के साथ आहार करते हो। घुम अपने शोभन अच्तःकरण से
अपने अधीन के लिए अनुग्रह करके पूजनीय धन लाले हो। बलवान्
अग्निदेव, हमारे लिए यथेष्ट अईव प्रदान करो, जिससे हम पृथिवी को
देख और भोग सकें। मघवम् अग्नि, स्तोताओं के लिए वीर्यश्ाली घन
प्रदान करो। यथेष्ट बल-सम्पन्न होकर छूर व्यक्ति जैसे शत्रु-विनाश
करता हुँ, वेसे ही हमारे शत्रु का विनाश करो ॥
१२८ सुक्त
(अतिधृत छन्द)
१. देवों को बुलानेवाले और अतीव यज्ञशील ये अग्नि फल-
प्राधियों के और अपने व्रत या हुविभोजन के उद्देश्य से मनुष्य से ही उत्पन्न
होते हैं। सारे विषयों के कर्ता अग्निदेव बन्धुकामी और अग्नाभिलाषी
यजमान के धन-स्थानीय हैं। पृथिवी में सार-भूत वेदी पर, यज्ञ-स्थान में,
अहिसित, होम-निष्पादक तथा ऋत्विगवेष्टित अग्नि बैठे हें ।
२. हम लोग यज्ञानुष्ठान और घृत आदि से युक्त तथा सस्रता
से सम्पन्न स्तोत्र-द्वारा बहु हव्यवाले और देव-यज्ञ में साधक अग्नि की,
परितोष के साथ, सेवा करते हें। थे अग्नि हमारे हव्यरूप अन्न को
लेन में समर्थ होकर नाश को नहीं प्राप्त होंगे। मनु के लिए मातरिश्वा
ने अग्नि को, हूर से लाकर, प्रदीप्त किया था। इसी प्रकार, दूर से,
हमारी यज्ञशाला में अग्नि आवें।
३. सदा गाय या स्तुति किये जावेवाले, हविःसम्यच्ष, अभीष्ट-
फळदाता ओर सामर्थ्यशाली अग्नि शब्द करके जाते हुए तुरत पार्थिव वेदी
हिन्दी-ऋण्बेद १९५
के चारों ओर शब्द कश्के आते हैं। अग्निदेव स्तोत्र ग्रहुण करके
अग्रस्थावीय दिखा-हारा चारों ओर प्रकाशित हो रहे हे । उच्चस्थानीय
अग्नि उत्तम यज्ञ में तुरत आते हेँ।
४. झोभनकर्सा और पुरोहित अग्नि हर एक यजसान के घर
में नाइ-राहित यज्ञ को जान सकते हें। अग्नि कर्म-दारा यज्ञ जान
सकते हैं। वे कर्मों के विविध फलदाता बनकर यजमान के लिए अन्न
की इच्छा करते हैं। अग्नि हव्य आदि को प्रहण करते हैं; क्योंकि बे
घृत-भक्षी अतिथि के रूप में उत्पन्न हुए हैं। अग्नि के प्रवृद्ध होने
पर हव्यदाता विविध फल प्राप्त करते हें।
५. जेसे मरुतु लोग भक्षणीय द्रव्य को एक में मिलते है, इन अग्नि
को जसे भक्ष्य द्रव्य दिया जाता है, वैसे ही यजमान लोग कर्म-हारा अग्नि
की प्रबल शिखा में, तृप्ति के लिए, भक्षणीय द्रव्य मिलाते हैं। अपने
धन के अनुसार यजमान हुव्य दान करता है। जो पाप हमारा ह्रण
करता हुँ, उस हरणकारी दुःख और हिसक पाप से अग्नि हमें बचायें।
६. विश्वात्मक्, महान् और विरामरहित अग्नि जयं की तरह
दक्षिण हाथ सें धन रखते हें। उनका बह हाथ यज्ञकारी के लिए
इलथ होता है, खुला रहता हे । केवळ हवि पाने की आशा ते
अग्नि उसे नहीं छोड़ते। अग्निदेव, सारे हविःकामी देबों के लिए
तुम हवि बहन करते हो ॥ सब सुकृत पुरुषों के लिए अग्नि वरणीय घन
प्रदान करते ओर स्वर्ग का द्वार उन्मुक्त करते हे।
७. मनुष्य के पाप-निभितक यज्ञ सें अग्नि विशेष हितकारी
हैं। विजयी राजा की तरह यज्ञ-स्थल में अग्नि मनुष्य के पालक
ओर प्रिय हैं । यजमानों की यज्ञवेदी में रखे हव्य के लिए अग्नि आते
हैं। हसक यज्ञ-बाधक के भय से और उन महान् पापदेव की हिसा से
अग्निदेव हमारा उद्धार करें।
८. धनधारक, सर्वप्रिय, घुबुद्धितता और विरामरहित अग्नि
की, ऋत्विक् लोग स्तुति करते और उन्हें भली भाँति प्राप्त किये हुए
१९६ हिन्दी-ऋष्वेद
हें। हव्यवाही, प्राणियों के प्राण-रूप, सर्वप्रज्ञा-समन्वित, देवौं के बुलाने-
वाले, यजनीय और मेधावी अग्नि को ऋत्विकों ने अच्छी तरह प्राप्त
कर लिया हे। अर्थाभिलाषी होकर ऋत्विक लोग, अग्नि को हुव्य-
रूप अन्न देते की इच्छा करते हुए, आश्रय-आप्ति के लिए, रमणीय
और शब्दकारी अग्नि को प्राप्त हुए हैं।
१२९ सत्त
(देवता इन्द्र)
१. हर्ष-सस्पन्त यज्ञगामी इन्द्र, यज्ञ-लाभ के लिए रथ पर चहु-
कर जिस प्रभूत ज्ञान-युक्त यजमान के पास जाते हो और जिसे
धन और विद्या में उन्नत करते हो, उसे तुरत सफल-मनोरय और हब्य-
झाली कर दो। हर्ष-युक्त इन्द्र, हम पुरोहितों सें भी पुरोहित हैं;
हमारे स्तव करने पर तुम शीघ्रता से हमारी स्तुति ओर हव्य ग्रहण
करते हो।
२. इन्द्र, तुस युद्ध के नेता हो। तुम मरुतों के साथ प्रधान-प्रधान
य॒द्धों में स्पर्धा के साथ शत्रु-संहार में समर्थ हो। वीरों के साथ तुम
स्वयं संग्राम-सुख अनुभव करते हो। ऋत्विकों की स्तुति करने पर
तुस उन्हें अन्न दो। हमारी स्तुति सुनो । प्रार्थनापरायण ऋत्विक लोग
गसनशील अज्नवान इन्द्र को, अश्व की तरह, सेवा करते हैं।
३. इन्द्र, तुम शत्रुओं का नाश करनेवाले हो। वृष्टिपुर्ण त्वचारूप
संघ का भेदन करके जल गिराते हो ओर मर्त्यं की तरह गमनशील मेघ
को पकड़कर और उसे बूष्टि-राहित करके छोड़ देते हो। इन्द्र, तुम्हारे
इस कार्थं को हम तुमसे ओर झु यश्षोयक्त इद्र, अजाओं के सुखदागी मित्र
तथा बरुण से कहेंगे ।
४. ऋत्विको, अपने यञ्च सें हम इन्द्र को चाहते हैं) इन्द्र हमारे
सखा, सर्वे-यज्ञगामी, शत्रुओं के अभिभवकारी और हमारे सहायक हैं।
वे यज्ञ-विघ्सकारियों को पराभूत करते और मश्तों बे सम्मिलित
कको कार्तिक १९७
हैं। इन्द्र, तुझ हमारे पालन के लिए हमारी रक्षा करो। लड़ाई के
क्षेत्र में तुम्हारे विरुद्ध शत्रु नहीं खड़ा हो सकवा । तुम्हीं सारे शत्रुओं
का मिवारण करते हो।
प, उञ इन्द्र, अपने अकत यजमान के विरुद्धाचारी को, उद्र-
श्क्षणकार्य-रूप तेजोमय उपायों से, अवनत कर देते हो। जैसे तुम पहले
हमारे पूर्वजों को मार्ग दिखाकर ले गये थे, बसे ही हमें भी ले जाओ।
संसार तुम्हें निष्पाप जानता हं। इन्द्र, तुस जगत्पालक होकर मनुष्य
के सारे पापों को द्र करले हो। हमारे सामने यज्ञ-फल लाकर अनिष्ठों
का विनाश करो।
६. भव्य चन्द्र के लिए हम इस स्तोत्र को पढ़ते हुँ। चन्द्र, आग्रह के
साथ, हमारे कर्म के उद्देश्य से, राक्षस-विनाशी ओर बुलाने योग्य इन्द्र
की तरह आते हैं। दे स्वयं हमारे निन्दक दुर्बुद्धि के वध का उपाय
उद्भूत करके उसे दूर कर देंगे। चोर क्षुद्र जल की तरह अतीव निकृष्टता
से अधःपतित हो।
७. इन्द्र, हम स्तोत्र-द्वारा तुम्हारा गुण-कीलन करके तुम्हें भजते
हैं। धनवान् इन्द्र, हम सामर्थ्यवान्, रमणीय, सदा वर्तमान और पुत्र-
भृत्यादि-विशिष्ट धन का उपभोग करें। इन्द्र, तुम्हारी महिमा अज्लेय
हुँ। हम उत्तम स्तोत्र और अञ्न प्राप्त करें। हम यज्ञ-निष्पादक इन्द्र
को यज्ञाभिलाघ फल देनेवाले और यशोवर्डक आह्दान-द्वारा प्राप्त हों।
८. ऋत्विको, तुम्हारे ओर हमारे लिए इन्द्र यशस्कर आश्रयदान-
दारा दुर्बुद्धि लोगों के विनाशक संग्राम में प्रवृद्ध हों ओर उन्हें विदीणं
करें। हमारे भक्षक शत्रुओं चे हमारे विरुद्ध, हमारे नाश के लिए, जो
बेगवती सेना भेजी थी, बह सेना स्वयं हत हो गई है; हमारे पास
पहुंची भी नहीं; शत्रुओं के पास भी नहीं लोटी।
२. इन्द्र, राक्षस शून्य और पाप-रहित मागे से प्रचुर धन लेकर
हमारे पास आओ । इन्द्र, तुम दूर देश और निकट से आकर हमारे साथ
१९८ हिन्दी-ऋणग्वेद
मिलो । तुम दूर और निकट प्रदेश से, यज्ञ-निर्वाह कै लिए हसारी रक्षा
करो। यज्ञ-निर्वाह करके सदा हमें पालित करो।
१०. इन्द्र, जिस धन से हमारी आपदा का उद्धार हो सकता है, उसी
घन से हमारा उद्धार करो। तुस उग्ररूष हो। जेसी मित्र की महिमा
है, हमारी रक्षा के लिए तुम्हारी भी वसी ही महिमा हो। हे
बलवत्तम, हमारे रक्षक, त्राता ओर असर इन्द्र, किसी भी रथ पर चढु-
कर आओ । शत्रुनाशक इन्द्र, हमें छोड़कर सबको बाधा दो । शन्रु-
भक्षक, अतीव कुकर्मी शत्रु को बाधा दो।
११. शोभन स्तुति से युक्त इन्द्र, दुःख से हमें बचाओ; क्योंकि
तुम सदा दुष्टों को नीचा दिखाते हो। हमारी स्तुति से प्रसञ्च होकर
यज्ञ-विघ्नकारियों को दसन करो। तुम पाप-राक्षस के हन्ता और
हमारे समान बुद्धिमानों के रक्षक हो। जगच्निदास इन्द्र, इसी लिए
'परसेश्वर ने तुम्हें उत्पन्न किया है। निवास-प्रद इन्द्र, राक्षसों के विनाश
के लिए तुम्हारी उत्पत्ति हुई हैं।
१३० सूक्त
( देवता इन्द्र । त्रिष्टुप् ओर अत्यष्टि छन्द् । )
१. जसे यजञश्ाला में ऋत्विकों के पति यजमान हें और जेले नक्षत्रों
के पति चन्द्र अस्ताचल जाते हैं, वेसे ही तुम भी, पुरोवत्तो सोस की
तरह, स्वगे से हमारे पास आओ। जेसे पुत्र लोग अच्न-भक्षण के लिए
पिता को बुलाते हें, वेसे ही तुम्हें हम सोमाभिषव मे बुलाते हें। ऋत्विकों
के साथ ईव्य ग्रहण के लिए महान् इन्द्र को हम बुलाते हैं।
२. जते शोभनगति वृषभ पिपासित होकर कूप-जल कः पाव करता
हं, हे रमणीयणति इन्द्र, वैसे ही तृप्ति, पराक्रम, महत्त्व और आनन्दो-
त्पत्ति के लिए प्रस्तर-ह्वारा अभिषुत और जल-सिक्त अथवा दशापचित्र-
हारा शोधिद सोसरस पान करो। जेते हरि नामक अश्व सूर्य झो लाते
हैं, वेसे ही तुम्हारे अश््वगण प्रतिदिन तुम्हें खाये ।
हिन्दी-ऋष्वेद १९९
३. जेसे घिड़ियाँ दुर्णश स्थाय में अपने बच्चों की रक्षा करके उन्हें
प्राप्त करती वा बच्योंवाली होती है, बेले ही इन्द्र ने भी अत्यन्त गोपनीय
स्थाम सं स्थापित और अनन्त तथा महान् प्रस्तर-राशि सें परिवेष्टित
सोमरस को स्व से प्राप्त किया। अङ्गिरा लोगों में अग्रगण्य बच््रधारी
इन्द्र ने जेसे पहले, सोमपान की इच्छा से, गोशाला को प्राप्त किया था,
वैते ही सोमरस को भी पाथा। इन्द्र ने चारों ओर मेघावत और अन्न
के कारण जळ के द्वारों को खोलते हुए पृथिवी में चारों ओर अन्न
विस्तार किया ।
४. इन्द्र दोनों हाथों सें अच्छी तरह वप्त्र धारण करके, जैसे मंत्रों
द्वारा जल को तीक्ष्ण किया जाता हे, वेसे ही शत्रु के प्रति फेंकने के लिए
बस्त्र के तीक्ष्ण होने पर भी, उसे और भी तीक्ष्ण करते हैं;
वुत्र-विनाश के लिए और भी तीक्ष्ण करते हैं। इन्द्र, जैसे वृक्ष काटने-
वाले वक्ष को काटते हैं, बेले ही तुम अपनी शक्ति, तेज और शरीर-बल
से वद्धित होकर हमारे शत्रुओं का छेदन करते हो, मानों उन्हें कुठार
से काठते हो।
५. इन्द्र, तुमने, समुद्र की ओर गमन करने के लिए, रथ की
तरह, नदियों को अनायास बनाया हैँ। जेसे योद्धा रथ को बनाते हें,
वेसे ही तुमने भी बनाया है। जैसे सनु के लिये गायें सर्वार्थदाता हें और
जेसे समर्थे मनुष्य के लिये गायें सर्वद्ग्धप्रद हैँ, बेसे ही हमारी अभि-
सुखिनी नदियाँ एक ही प्रयोजन से जल-संग्रह करती हें।
६. जसे करमे-फुशल और धीर मनुष्य रथ बनाता है, चैसे ही धना-
भिलाषी मनुष्यों ने तुम्हारी यह स्तुति की हँ। उन्होंने अपने कल्याण
के लिए तुम्हें प्रस किया है। जेसे संसार में दिग्विजयी की प्रशंसा
की जाती हे, वेसे ही हे मेधावी और बुद्धष इन्द्र, उन्होंने तुम्हारी
प्रशंसा की हुँ। जैसे संग्राम सें अशय की प्रशंसा होती है, वैसे ही बल,
घनरक्षण और सारे मंगलों की प्राप्ति के लिए तुम्हारी प्रशंसा
होती है।
२०० हिन्दीनतरह्वेद
७. संग्राम-कार सें नृत्यकर्ता इन्द्र, तुमने हविश्रद और अभीष्टः
दाता दिवोदास राजा के लिए नब्बे नगरों को नष्ट किया था। नृत्यशील
इन्द्र, तुमने वचत्र द्वारा नष्ट किया था। उग्र इन्द्र, तुमने अतिथि-
सेवक दिवोदास राजा के लिए पर्वत से शम्बर असुर को नीचे पटका
था और दिवोदास राजा के लिए अपनी शक्ति से अगाध धन दिया था--
ओर क्या, समस्त धन दिया था।
८. युद्ध में इन्द्र आर्य यजमान की रक्षा करते हें। असंख्य बार
रक्षा करनेवाले इन्द्र सारे युद्धों में उसकी रक्षा करते हुँ। सुखकारी युद्ध
में उसकी रक्षा करते हें । इन्द्र मनुष्य के लिए ब्रत-शून्य व्यक्तियों का
शासन करते हें। इन्द्र ने कुष्ण नाम के असुर की काली त्वचा उखाडकर
उसका (अंशुमती नदी के तट पर) वध किया। इन्द्र ने उसे जला
डाला। इन्द्र ने सारे हिंसकों को जला डाला। उन्होंने समस्त निष्ठूर
व्यक्तियों को भस्मसात् किया।
९. सूर्य का रथ-चक्त ग्रहण करने पर इन्द्र के शरीर में बल
की वृद्धि हुई। इन्द्र ने उस चक्र को फेंका और अरुणवर्ण-रूप धारण
करके, शत्रुओं के पास जाते हुए, उनके वाक्य का हरण कर लिया।
तमोनिवारक इन्द्र ने उनके वाक्य का हरण कर लिया। वीरकर्मा इन्द्र,
उझना की रक्षा के लिए, जैसे तुम दूरस्थित स्वर्ग से आये थे, बैसे
ही हमारे समस्त सुख-साधन धन के साथ हमारे पास शीघ्र आओ ।
दूसरों के पास भी तुम इसी प्रकार आते हो। हमारे पास प्रतिदिन
आते हो।
१०. जल-वर्षक और नगर-विदारक इन्द्र, हमारे नये मन्त्र से .
संतुष्ट होकर विविध प्रकार की रक्षा और सुख देते हुए हमे
प्रतिपालित करो । हम दिवोदास के गोत्रज हैं; तुम्हारी स्तुति
करते हुँ। तुम दिन में सूर्य की तरह, हमारी स्तुति से प्रवृद्ध हो
जाओ ।
हिन्दी-ऋण्वैद २०१
९३९ उक्त
(देवता इन्द्र। छन्द अत्यष्टि |)
१. विशाल द्युलोक स्वयं इन्द्र के पास नत हुआ है। विस्तृता पृथिवी
वरणीय या स्वीकरणीय स्तुति-द्वारा इन्द्र के पास नत हुई हे। अन्न
के लिए यजमान लोग वरणीय हव्य-द्वारा नत हुए हें। सारे देवों ने
एक मत से इन्द्र को अग्रणी किया हे। मनुष्यों के सारे यज्ञ और
समुष्यों के सारे दान आदि इन्द्र के सुख के निमित्त हों।
२. इन्द्र, तुम्हारे पास अभिमत फल की प्राप्ति की आशा में प्रत्येक
सवन में यजमान लोग तुम्हें हव्य प्रदान करते है। तुम सबके लिए समान
हो। स्वग-प्राप्ति के लिए केवल तुम्हें ही हव्य दिया जाता है। जैसे
नदी पार होने के समय नौका खड़ी की जाती है, बैसे ही हम सेना के
आग तुम्हें खड़ा करते हैं । यज्ञ-द्वारा मनुष्य इन्द्र की ही चिन्ता करते
हैं। मनुष्य स्तुति-द्वारा इन्द्र की चिन्ता करता है '
३. इन्द्र, तुम्हारे सेवक और निष्पाप यजमान सस्त्रीक तुम्हारी
तृप्ति की इच्छा से, बहुसंश्यक गोधन की प्राप्ति के लिए, बहुत हव्य
दान करते हुए तुम्हारे उद्देश्य से यज्ञ-विस्तार करते हैं। वे गोधन चाहते
हैं और स्वर्ग-गमन के लिए उत्सुक हैं। तुम उनको अभीष्ट प्रदान करो।
इन्द्र, तुम अभीष्ट-वर्षक हो। तुमने अपने सहजन्मा और चिर-सहचर
वस्त्र का आविष्कार किया हुं ।
४. इन्द्र, मनुष्य तुम्हारी महिमा जानते हैँ। तुमने जिन शत्रं
की संवत्सर पर्यन्त खाई या परिखा आदि से दृढ़ीकृत नगरियों को
नष्ट किया था, उन्हें पराजित कर विनष्ट किया था--वह कथा मनष्य
जानते हँ। दलपति इन्द्र, तुमने यज्ञ-विधातक मनुष्य का शासन किया
था। तुमन असुरों की विशाल पृथ्वी और जलराशि को सरलता से
जीता था। ओर अझञ्चादि को प्राप्त किया था
५. इन्द्र, सोमपान कर प्रसन्न होने पर मनोरथ-दाता बनो।
१०३ हिन्दी-ऋणष्वेद
घुस यजमानों की रक्षा किया करते हो; अपने बन्धुताकासी यजमानों
की रक्षा किया करते हो; इसलिए दे, तुम्हारी वृद्धि के निमित्त अपने
यज्ञों में बार-बार सोस प्रदान करते हैं। युद्ध-सुख के भोग के लिए तुमने
सिहनाद किया था। यजमान लोग तुमसे नाना प्रकार की भोग्य वस्तु
पाते हैँ; बिजय-द्वारा प्राप्त अन्न की इच्छा करते हुए तुम्हारे पास
आते ह ।
६. इन्द्र, तुम हमारे प्रातःकालीन यज्ञ को आश्रित करोगे क्या?
इन्द्र, आह्वान-मंत्र-द्वारा प्रदत्त, पुजा के लिए, हव्य को जावो। आह्वान
मंत्र-ह्ारा आहुत होकर सुख-भोग के स्थान पर उपस्थित हो जाओ।
बज्त्रयुक्त इन्द्र, निन्दकों के विनाश के लिए अभीष्टवर्षी होकर जागो।
इन्द्र, में मेधावी और नया सनुष्य हूँ; में असाधारण स्तुतिवाला हुँ;
मेरा मनोहर स्तोत्र सुनो।
७. अनेक गृण-विशिष्ट इन्द्र, हे श्र, तुमने हमारी स्तुति से
वृद्धि पाई हें और हमारे प्रति संतुष्ट हो। जो व्यक्ति हमारे प्रति
शत्रुता का आचरण करता हें और जो हमें दुःख पहुँचाना चाहता है,
उसे वजञ्ञ-द्वारा विनष्ट करो । हे सुनने के लिए उत्कण्ठित इन्द्र, सुनो।
मागे में थके-माँदे व्यक्ति को जो दुर्बुद्धि मनुष्य पीड़ा पहुँचाते हैं, उस
प्रकार के सारे दुर्मति मनुष्य हमारे पास से दूर हो जायँ।
१३२ सूक्त |.
(देवता इन्द्र । छन्द अत्यष्टि ।)
१. हे सुख-संयुक्द इन्द्र, तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर हम प्रबल
बाहिनी से सम्पच्च शत्रुओं को परास्त करेंगे । प्रहार के लिए प्रस्तुत
शत्रु पर प्रहार करेंगे। इन्द्र, पू्वे-घन-संयुक्त यह यज्ञ निकटवत्ती है;
इसलिए आज हुविर्दाता यजसान के उत्साह के लिए कथा कहो। इन्द्र
तुम युद्धजयी हो। तुम्हारे उद्देश्य से हम हव्य' लाते हैं। लुम युद्ध-
विजेत हो ।
हिन्दी-ऋणष्वेद २० है
२. शत्रु वध के लिए इधर-उधर दौड्नेवाले वीर पुरुषों के स्वर्गे-
साधन तथा कंपटादि-रह्ित सार्गे-स्वरूप संग्राम के आगे इन्द्र, प्रालःकाल
में जाये हुए याज्चिको के, शत्रुओं का नाश करते हैं। सर्वज्ञ की तरह
इन्द्र की अवनत-मस्तक होकर स्तुति करना सबका कत्तव्य है। इन्दर,
तुम्हारा दिया धन केवल हमारे ही लिए हो। तुम भद्र हो, तुम्हारा
दिया धन स्थिर हो।
३. इन्द्र, पूर्वे की तरह इस समय भी अतीव दीप्त और प्रसिद्ध
हुव्य-रूप अन्न तुम्हारा ही है। तुम यज्ञ के निवास-स्थान-स्वरूप हो ।
जिस जन्न-हारा ऋत्विक लोग स्थान सुशोभित करते हैं, वह अन्न तुम्हारा
ही है । तुम जल की वृष्टि करते हो जिसे संसार आकाश और पृथ्वी के
बीच सूर्ये-किरण-द्वारा देख सकता हुँ । इन्द्र जल की गवेषणा में तत्पर
हेँ। वे अपने बन्धु यजमानों के लिए फल देते हें । वे जलवर्षण के
प्रकार को जानते हेँ।
इन्द्र, पुर्वे काल की तरह तुम्हारा कर्म इस समय भी सबकी
प्रशंसा के योग्य है। तुमने अड्धिरा लोगों के लिए बृष्टि की थी।
तुमने अपहत गो-धत्र का उद्धार करके उन लोगों को दिया था। इन्द्र,
तुम उक्त ऋषियों को तरह आर्यो के लिए युद्ध करते और विजयी बनते
हो। जो अभिषव करते हु, उनके लिए यज्ञ-विघ्नकारियों को अवनत
करते हो। जो यज्ञ-विघ्नकारी रोष प्रकाशित करते हुँ, उन्हें अवनत
करो ।
५. शूर इन्द्र, कर्मे-द्वारा मनुष्यों के विषय सं यथार्थ विचार
करते हें; इसलिए अस्नाभिलाषी यजमानगण अभिमत धन प्राप्त
करके शत्रुओं का विनाश करते हँ। वे अन्नाभिलाषी होकर बिशेष रूप
से यज्ञ करते हें। इन्द्र के उद्देश्य से प्रदत्त अन्न पुत्रादि प्राप्ति का कारण
हें। अपनी शक्ति से शत्रु के निवारण के लिए ल.ग इद्र की पुजा करते
हैं। यज्ञकारी लोग इन्द्र के पास वास-स्थान प्राप्त करते हैं, मानों
याज्ञिक लोग देवों के पास ही रहते हैं।
१० हिन्दौ-ऋष्वेक
६. है इन्द्र और पर्वत या मेघ के अभिमानी देव, तुम दोनों अग्रगासी
होकर, जो शत्रु हमारे विरोध में सेना-संग्रह करते हें, उन सबको विनष्ट
करो। वच्छ-प्रहार-हारा उन सबको विनष्ट करो। यह बज्न अत्यन्त
दूरगामी शत्रु का भी विनाश करने की इच्छा करता और अलि गहुन-
स्थान पर भी व्याप्त होता है । शूर इन्द्र, तुम हमारे सारे शत्रुओं को
श्रिविथ उपायों-द्वारा विदीणं करते हो । हात्रु-विदारक वस्न विविध
उपायों से शत्रुओं को विदीर्ण करता हें।
१२३ सूक्त
(देवता इन्द्र | छन्द त्रिष्टुप् , अनुष्टुप् , गायत्री, धृति शर अत्यष्टि)
१, में आकाश और पृथिवी, दोनों को, यज्ञ-द्वारा पवित्र करता
हूं। में इन्द्र के विरोधियों की पृथिवी के अच्छी तरह दग्ध करता
हूँ । जिस-किसी स्थान पर शत्रुगण एकत्र हुए, वहीं मारे गये । अच्छी तरह
विनष्ट होकर बे इसशान में चारों ओर पड़ गये।
२. शत्रु-भक्षक इन्द्र, शत्रुओं की सेना के सिर एरावत के पैरों
से कुचल दो। उसके पद महा विस्तीणे हें।
३. मघवन् इन्द्र, इस हिसावती सेना का बल चूर्ण कर दो और
उसे कुत्सित अथवा महान् श्मशान में फेंक दो।
४. इन्द्र, इस तरह तुमने त्रिगुणित पचास सेनाओं का नाश किया है।
तुम्हारे इस कायें को लोग बहुत पसन्द करते हें। तुम्हारे लिए यह कारये
सामान्य हें ।
५. इन्द्र, कुछ रक्तवर्ण, अति भयंकर और शब्दकारी पिशाचो या
अनार्यो का विनाश करो ओर समस्त राक्षसों या अनायों को समाप्त करो ।
६. इन्द्र, तुम विशाल मेघ को, निम्न मुख करके, विदीणे करो।
हमारी बात सुनो ! मेघ-युक्त इन्द्र, जेसे धान्य न होने से डर के मारे
पृथिवी शोक करती हैं, बैसे ही स्वगं भी शोक करता है । मेघ-
संपन्न इन्द्र, पृथिवी ओर स्वर्ग का भय दीप्त अग्नि की सुत्त की
हिन्दी-ऋग्वेद ०७
तरह है। इन्र, तुम महाबली हो; इसलिए तुम अत्यन्त कूर वधोपाय
का आश्रय करते आ रहे हो । यजसानों का विनाश नहीं कर सकते ॥
तुम शूर हो। जीवगण तुम्हारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकते ॥
तुम इक्कीस अनुचरों से युक्त हो ।
७. इन्द्र, अभिषव करनेवाला यजसान गृह प्राप्त करता है। सोम-
यज्ञ करनेवाला चारों ओर के शत्रुओं का विनाश करता है। देव-शत्रुओं
का सी बिनाश करता हे। अन्नवाला और शत्रु के आक्रमण से शून्य
अभिषवकर्ता अपरिसित धन प्राप्त करता है। इन्द्र, सोमयाजक यजमान
चतुदिक् उत्पन्न ओर अति समृद्ध धन प्रदान करता है।
१३४ सूक्त
(२० अनुवाक । देवता वायु)
१. वायुदेव, शीघ्रगामी और बलवान् अश्व तुम्हें, अन्न के उद्देश्य
से ओर देवों के बीच प्रथम, सोमपान के लिए, इस यज्ञ में ले आयं ।
हमारी प्रिय, सत्य ओर उच्च स्तुति अच्छी तरह तुम्हारे गुण की
व्याख्या करती हे। वह तुम्हें अभिमत हो। यज्ञ के हव्य की स्वीकृति
और हमें अभीष्ट देने के लिए नियुत नामक अइवों से युक्त रथ पर
आओ ।
२. वायु, मादकतोत्यादक, हषंजनक, सम्यक् प्रस्तुत, उज्ज्वल और
सन्त्र-द्वारा हूयसान सोसबिन्दु तुम्हारे सामने जाकर हर्ष उत्पन्न करें;
क्योंकि क्मे-कुशल, प्रीति-युक्त, निरन्तर सहगामी नियुत, तुम्हारा
उत्साह देखकर, हव्य ग्रहण के लिए, तुम्हें यज्ञभूसि में लाने के लिए मिलले
हैं। बुद्धिमान् यजमान लोग तुम्हारे पास आकर मनोगत भाव व्यक्त
करते हैं।
३. भारवहून के लिए वायु लोहितवर्ण अहव योजित करते हें।
चाय् अरुणवर्ण अइव योजित करते हें। वायु अजिरवर्ण या गसनशील
असच योजित करते हैं; क्योंकि, ये भारवहन में अत्यन्त समर्थ हैं।
१०३ हिन्वी-ऋग्वेद
जैसे थोड़ी निद्रा में आई स्त्री को उसका प्रेमी जगा देता है, उसी
तरह तुम भी बहुयज्ञ-प्रयोधित यजमान को जगाते हो। तुम आकाश
और पृथ्वी को प्रकाशित करते हो। उया को स्थापित करते हो। हव्य
ग्रहण के लिए उषा को स्थापित करते हो।
४. दीप्तियुक्त उषायें, दूर देश में, तुम्हारे ही लिए, घरों को
ढकनेवाली किरणों से कल्याणकर बस्त्र का बिस्तार करती हैं; नई
किरणों से बिचित्र वस्त्र का विस्तार करती हें। अमृत बरसानेवाली
गाये तुम्हारे ही लिए समस्त धन-दान करती हें। तुमने वर्षा और नदियों
के उत्पादन के लिए अन्तरिक्ष से मरुतों को उत्पादित किया हे ।
५. दीप्त, शुद्ध, उग्र और प्रवाहश्याळी सोस, तुम्हारे आनन्द के
लिए आहवनीय अग्नि के पास जाता हे ऑर जलभारवाहक मेघ की'
आकांक्षा करता है । वायु, यजमान लोग, अत्यन्त भीत और क्षीणकाय
होकर चोरों के हटाने के लिए तुम्हारी पुजा करते हें। हमारे धामिक
होने से हमारी सारे महाभूतो से रक्षा करो। हमारी, धर्मे-संयुक्त होने के
कारण, असुरों से रक्षा करो ।
६. वायु, तुमसे पहले किसी ने सोसपान नहीं किया हे। ठुम्हीं पहले
हसारे इस सोमपान को करने के योग्य हो; अभिषुत सोमपान करने
योग्य हो। तुस हवनकर्ता और निष्याप लीगों का हव्य स्वीकार करते
हो। सारी गाये तुम्हारे लिए दूध देती हैं ओर तुम्हारे लिए घी भी
देती हूं।
१३५ सक्त
(देवता वाय । छुन्द अत्यष्टि |)
१. नियुत अशववाले वायु, तुम कितने ही नियुतों पर चढ़कर,
अपने लिए प्रस्तुत हव्य के भक्षण के लिए, हमारे बिछाये कुद्यों पर आओ।
असंख्य नियुतों पर चढ़कर आओ। तुम नियुतवाले हो। तुम्हारे पहले
हिन्दी-ऋणग्वेद १०७
पान करने के लिये अन्य देवता चुप हैं। अभिषुत मधुर सोम तुम्हारे
आनन्द के लिए हूं, यज्ञ-सिडि के लिए हूँ ।
२. बायु, तुम्हारे लिए, पत्थर से परिशोधित और आकांक्षणीय
तथा तेजः-सस्पञ्च सोम अपने पात्र सें जाता हे; शुक्र तेज से संयुक्त
होकर तुम्हारे पास जाता है। मनुष्य लोग देवों के मध्य तुम्हारे लिए
यही सुन्दर सोस प्रदान करते हैँ। वायु, तुस हमारे लिए नियुत अइवों
को जोतो और प्रस्थान करो। हमारे ऊषर अनुग्रह कर और प्रसन्न होकर
प्रस्थान करो ।
३. वायु, दुम सेकड़ों ओर हज्जरों नियुतों पर सवार होकर
अभिसत-सिद्धि और हव्य भक्षण के लिए हसारे यज्ञ में उपस्थित हो॥
यही तुम्हारा भाग हे; यह सूर्य के तेज से तेजस्वी है। ऋत्विक् के
हाथ का सोम तेयार है। वायु, पवित्र सोम तैयार है। |
४. हमारी रक्षा के लिए, हमारे सुगृहीत अन्न-भक्षण के निमित्त
और हमारे ह्य की सेवा के लिए, हे यायु, नियुत से युक्त रथ तुम दोनों
(इन्द्र और वायु) को ले आये। तुस दोनों मधुर सोमरस पात करो ॥
पहले पान करना ही तुम लोगों के लिए ठीक हे। वायु, मनोहर धन के
साथ आओ। इख भी धन फे साथ आयें। |
५. हे इसर और बायु, हमारे स्तोत्र आदि तुम लोगों के यज्ञ में
आने के लिए प्रेरित करते हुँ । जसे शीघ्रगासी अश्व को परिमाजित
किया जाता हैं, देसे ही कलस से छाये हुए सोम को ऋत्विक् लोग
परिसाजित करते हैं। अध्वर्युओं का सोसपात करो। हमारी रक्षा के
लिए यज्ञ में आओ। तुम दोनों अन्नदाता हो; इसलिए हमारे प्रति
प्रसञ्च होकर, आनन्द के लिए, पत्थर के टुकड़े से अभिषुत सोमपान
करो ।
६. हमारे इस यज्ञ-कार्य मं अभिषुत ओर अध्वर्युओ-द्वारा गृहीत
सोम निश्चय ही तुम्हीं दोनों का हे। यह दीप्त सोस निश्चय ही तुम
लोगों का हुं। यह यथेष्ट सोस निश्चय ही तुम्हारे लिए बढ़े सोम्राधार
३०८ हिन्दी-ऋणग्वेद
कुश में परिष्कृत हुआ है। तुम्हारा सोम अछिन्न लोगों को लांघकर
प्रचुर परिसाण में जाता हैं।
७. वायु, तुम निद्रालु यजमानों के अतिकम करके उस गृह में जाओ,
जिस गृह में प्रस्तर का शब्द होता हें। इन्द्र भी उसी गृह में जायें।
जिस गृह में प्रिय और सत्य स्तुति का उच्चारण होता है, जिस
घर सं घृत जाता हे, उसी यज्ञस्थान में मोट नियुत घोड़ों के साथ
जाओ। इन्द्र, वहीं जाओ।
८. है इन्द्र और वायु, तुम इस यज्ञ में मधु के समान उस आहुति
को धारण करो, जिसके लिए विजेता यजमान पर्वत आदि प्रदेशों में
जाते हूं। हमारे विजेता लोग यज्ञ के निर्वाह के लिए समर्थ हों।
इन्द्र ओर वायु, गाये एक साथ दूध देती है ओर यव से बनाया हव्य
तैयार होता है। ये गाये न तो कम हों, न नष्ट हों । |
९. वायु, थे जो तुम्हारे बलशाली, जवान बेलों के समान और
अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट घोड़े हैं, वे तुम्हें स्वगे और पृथ्वी में ले जाते हैं;
ये अन्तरिक्ष में भी देर नहीं करते; ये बहुत शीघगामी हैं; इनकी
गति नहीं रुकती । सूर्य-किरणों की तरह इनकी गति का रोकना
कठिन हुँ।
९२६ सूक्त
(देवता मित्रावरुण । छन्द अत्यष्टि और त्रिष्टुप् ।)
१. ऋत्विकृगण, चिरन्तन सित्रावरु्ण को लक्ष्य कर प्रशंसनीय
और प्रवृद्ध सेवा करो। उन्हें हव्य देवे में कृत-निश्चय बनो । मित्रा-
वरुण यजसानों को सुख देने में कारण हूं। वे स्वादिष्ठ हव्य का भक्षण
करते हैं। वे सम्राट् हैँ। उनके लिए घृत गृहीत होता है । प्रतियज्ञ में
उनको स्तुति होती है। उनकी शक्ति का कोई उल्लंघन नहीं कर
सकता । उनके देवत्व सें किसी को सन्देह नहीं होता।
हिच्दी-5हग्वेद २०९
२. श्रेष्ठ उषा विस्तृत यज्ञ की ओर जाती है--ऐसा देखा गया।
शीघ्रयामी सूर्य का पथ व्याप्त हुआ। सूर्य-किरणों में मनुष्य की आँखें
खुलों। मित्र, अर्थमा और बरुण के उज्ज्वल गृह प्रकाश से परिपुर्ण
हुए; इसलिए तुम दोनों प्रशंसनीय और बहुत अश्न धारण करो।
प्रशंसनीय ओर प्रभूत अन्न धारण करो।
३. यजमान ने ज्योतिष्मती, सम्पूर्ण-लक्षणा और स्वर्ग-प्रदायिनी
वेदी तेयार की। तुम लोग सदा जागरूक रहकर और प्रतिदिन वहाँ
उपस्थित होकर तेअ और बळ प्राप्त करो। तुम लोग अदिति के पुत्र और
सर्वे-प्रकार दान के कर्ता हो। मित्र और वरुण लोगों को अच्छे
व्यापार में लगाते हूं। अर्थमा भी ऐसा करते हेत
४. सित्र और वरुण के लिए यह सोम प्रसच्तता-दायक हो। वे दोनों
नीचे मुंह करके इसे पान करें। दीप्यमान सोम देवों की सेवा के उपयुक्त
हैं। सारे देवगण अतीव प्रसन्न होकर इसे पियें। प्रकाशशाली
मित्र और वरुण, हम जैसी प्रार्थना करते हैं, वैसा ही करो। तुम
लोग सत्यवादी हो; हस जिसके लिए प्रार्थना करते हे, उसे
क्री ।
५. जो व्यक्ति मित्र ओर बरुण की सेवा करता है, उसे तुम पाप से
बचाओ। द्वेष-शून्य और हब्यदाता मनुष्य को सारे पापों से बचाओ।
उस सरल-स्वभाव व्यक्ति को, उसके व्रत को लक्ष्यकर, अर्यमा रक्षा
करते हैं। वह यजसान संत्र-द्वारा मित्रावरुण का ब्रत ग्रहण करता
और स्तोत्र-द्वारा उसकी रक्षा करता हैं।
६. में प्रकाशशाली और महान् सूर्य को नमस्कार करता हूँ।
पृथ्वी, आकाश, सित्र, वरुण और रुद्र को भी नमस्कार करता हूँ।
ये सब अभीष्ट फल और सुख के दाता हें। इन्द्र, अग्नि, दीप्तिमान् अर्यमा
ओर भग की स्तुति करो । हम बहुत दिनों जीकर निश्चयात्मिका बुद्धि
से घिरे रहेंगे। इसी प्रकार सोस-ट्वारा हम रक्षित होंगे ।
फा० १४
२१० । हिन्वी-ऋग्वेद
७. हमने इन्द्र को प्राप्त किया है। हमारे ऊपर सरुदृगण इषा
करते हुँ। देवता लोग हमें उचावें। इन्द्र, अग्नि, मित्र और वरुण हमारे
लिए सुखदाता हों। हम अन्न से संयुक्त होकर उसी सुख का
भोग करे ।
रथस अध्याय ससाष्त।
१३७ सूक्त
(दूसरा अध्याय । दैवता मित्रावरुण । छन्द अतिशकरी)
` १. हम पत्थर के टुकड़े से सोम चुआते हुँ। सित्रावरण, आओ ।॥
दूध-सिला और तृप्ति करनेवाला सोम तैयार है। यह सोम तृप्ति
देनेवाला है। तुम राजा, स्वर्गवासी और हमारे रक्षक हो। हमारे यज्ञ
में आओ। तुम्हारे ही लिए यह सोम दूध के साथ सिलाया गया
है। इूघ-मिलाया सोम विशुद्ध होता है।
२. सित्रावरुण, आओ । यह तरल सोमरस दही के साथ मिलाया
हुआ है। अभिषुत सोमरस दही के साथ मिलाया गया है।
उषा के उदय-काल में ही हो अथवा सूर्ये-किरणों के साथ ही
हो--तुम्हारे लिए सोम अभिषुत हे। यह सुन्दर सोमरस मित्र
ओर वरुण के पान के लिए हे--यज्ञ-स्थल में उनके पीने के
लिए है। |
३. तुम्हारे लिए बहुत रसवाले सोम को, दुग्धवती गाय की तरह,
पत्थर के टुकड़ों से वे दुहते हें। वे प्रस्तर-खण्ड-द्वारा सोम को
दुहते हें। तुम हमारे रक्षक हो। सोम-पान के लिए हमारे सामवे
हमारे पास तुम आओ। सित्र और वरुण, नेताओं ने तुम्हारे
लिए सोम चुआया हं--अच्छी तरह पीने के लिए अभिषव
किया है। |
हिन्दी-ऋग्वैद म २११
१३८ सूक्त
(देवता पूषा । छन्द अत्यष्टि)
१. अनेक झनुष्यों-दारा पूजित एषा (सूर्य) देव की शक्ति की
महिना सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करती है। कोई उसे मारना नहीं चाहता ।
पवा के स्तोत्र की विथान्ति नहीं है। में सुख पाने की इच्छा से
पुषा को पुजा करता हूँ। वह तुरन्त सहारा देते और उत्पन्न करते
हैं। पूषा यज्ञवाले हें। बे सारे मनुष्यों के मन के साथ सिल
जाते हुँ।
२. जैसे शीघ्रगामी घोड़े की प्रशंसा होती है, बैसे ही, हे पूषन्,
भंत्रों-द्वारा में तुम्हारी प्रशंसा करता हू । युद्ध में जाने के लिए तुम्हारी
प्रशंसा करता हूँ। ऊट की तरह तुम हमें युद्ध सें पार करते हो।
तुम सुख उत्पन्न करनेवाले देवता हो और में मनुष्य हूँ; मंत्री पाने
के लिए में तुम्हें बुळाता हूँ । मेरे बुलावे को शक्तिमान् करो और
संग्रास में मुझे विजयी बनाओ।
३- पूषन्, तुम्हारी मित्रता प्राप्त करके विशेष धज्ञ-द्रारा
तुम्हें प्रसञ्च करते हुए स्तोत्र-परायण यजमान तुम्हारे हारा रक्षित
होकर नाना प्रकार के भोग भोगते हें। नया सहारा पाकर तुम्हारे
पास असंख्य धन चाहते हें। बहुतों के हारा स्तवनीय पूषा, हमारा
अनादर न करके हमारे सामने आओ और युद्ध-काल में हमारे
अग्रगासी बनो ।
४. अज वाहनवाले पूषन्, हमारे लाभ के सम्बन्ध सं अनादर
न कर और दानशोल होकर हमारे पास आओ। अजाइव पूषन्,
हय अन्न चाहते हैं । हमारे पास आओ । झत्ु-हन्ता पूषा, मंत्र-पाठ करते
हुए हम तुम्हारे चारों ओर रहें। बष्टिदाता पूषा, हुम कभी न तो
उन्दारा अपसाच करते ओर न तुम्हारो मित्रता का कभी अपलाप
करते हे।
२१२ हिन्दी-ऋषग्वेद
१३९ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । छन्द त्रिष्टुप्, बहती, अस्यष्टि आदि)
१. सेते भक्ति के साथ, सामने अग्नि की स्थापना की हूं।
अग्नि की स्वर्गीय शक्ति की में प्रश्ंता करता हूं । इन्द्र और वाय
की प्रशंसा करता हूँ। चूँकि पृथिव्री की दीप्तिमान् नाभि या यज्ञ-
स्थान को लक्ष्य कर नई अर्थकरी स्तुति बनाई गई हु, इसलिए
अग्नि उसे सुनें। पइचात् जैसे हमारे सिया-कर्स अन्यान्य देवों के
पास जाते हें, बंसे ही इसर और वायु के पास भी जायं।
२. कर्म-कुशल मित्र और वरण, अपनी झक्ति-द्वारा सूर्य के
पास से जो विनाशी जल पाते हो, बह हमें यथेष्ट परिमाण में देते
हो; इसलिए हम क्रिया, कर्म, ज्ञान और सोमरस में आसक्त
इन्द्रियों की सहायता से, यज्ञशाला सें, तुम लोगों का ज्योतिर्भय
रूप देखें ।
३. अदिवनीकुसारो, स्तुति-द्वारा तुम्हें अपना देवता बचाने की
इच्छा से यजमान लोग श्लोक सुनाते तथा हव्य लेकर तुम्हारे सामने
जाते हैं। सर्वधन-सम्पञ्च अदिबद्दय, बे लोग तुम्हारी कृपा से सब
तरह के धनधान्य ओर अन्न प्राप्त करते हैं। तुम्हारे सोने के रथ
की नेसियाँ मधु गिराती हैं। उसी रथ पर हुव्य ग्रहण करो।
४. दत्य, तुम्हारे सन की बात सब जानते हुँ। तुम स्वर्ग में
जाना चाहते हो। तुम्हारे सारथि लोग स्वर्ग-पथ में रथ योजित करते
हें। निराळम्ब होते हुए भी अइवगण रथ को नष्ट नहीं करते।
अश्विय, बन्यर या बन्धनाधारभूत वस्ठ से पवत हिरण्यमय रथ पर
हम तुम्हें बंठाते हं। तुस लोग सरल साग से स्वग को जाते हो।
तुम लोग झत्रुओं को परास्त करते और विशषरूप से वृष्टि की
व्यवस्था करते हो ।
छिन्दी-ऋष्वेद २१३
७. हमारे क्रिया-कर्मे ही तुम्हारा धन हैं। हमारे क्रिया-कर्म के
लिए दिव-रात अभोष्ट प्रदान करो। न तो तुम्हारा दान बन्द हो
और न हमारा ।
. अभीष्ट-वर्षक इन्र, अभीष्ट-वर्षी के पान के लिए यह सोस
अभिषुत हुआ है। यह प्रस्तर-खण्ड द्वारा अभिषुत हुआ है। सोम
श्वेत पर उत्पन्न हुआ हैं। बह तुम्हारे लिए अभिषुत हुआ है। विविध
विचित्र लामों के लिए यथास्थान प्रदत्त सोम तुम्हारी तृप्ति का
साधन करे। स्तुति-योग्य, हम तुम्हारी स्तुति करते हुँ। आओ,
हमारे ऊपर प्रसन्न होकर आओो।
७. अग्नि, हम तुम्हारी स्तुति करते हुँ। हमारी स्तुति सुतो।
दीप्यमान और यज्ञ-योग्य देवों के पास यजमान की बात कहना;
क्योंकि देवों ने अङ्गिरा लोगों को प्रसिद्ध घेनु दी थी। अर्थमा देवों
के साथ, सर्वोत्पादक अग्नि के लिए, उस धेनु का दोहन करते हुँ
और वह जानते हँ कि, वह धेनु हमारे साथ समवेत हैँ।
हे मरुतो, तुम्हारा नित्य और प्रसिद्ध बल हमें पराभूत न
करे। हमारा धन कस न हो! हमारा नगर क्षीण न हो। तुम्हारा
जो कुछ नूतन, विचित्र, सनुष्य-दुलंभ और शब्द करनेवाला हैँ, बह
युग-युग में हमारा हो। जो थव शत्रु लोग नष्ट नहीं कर सकते,
बह हमारा हो। तुम जो दुलभ धनको धारण करते हो, वह हमारा
हो। जिस धन को शत्रु नहीं नष्ट कर पाते, वह हमारा ही हो।
९. प्राचीन दधीचि, अञ्चिरा, प्रियम्नंघ कण्व, अत्रि और मन मेरे
जन्म की बात जानते हैं। य पूर्वं काल के ऋषि और मन् मेरे
पुर्व-पुरुषों को जानते हुँ; क्योंकि, महधियों में बे दीर्घायु हें और मेरे
जीवन के साथ उनका सम्बन्ध हुँ। वे महान् हें; इसलिए उनकी
स्तुतिं तथा नमस्कार करता हू ।
१०. होता लोग यज्ञ करें, हव्य की इच्छा करनेवाले देवता रमणीय
सोम ग्रहण करे । स्वयं इच्छा करके बृहस्पति प्रभूत और रमणीय सोम-
२१४ हिन्दी-ऋणग्वेद
द्वारा योग करते हैं। हमने सुद्र देश में प्रस्तर-खण्ड की ध्वनि सुनी ।
सुकतु यजसान स्वयं जल धारण करते हैं। वह बहु लिवास-योग्य घर
धारण करते हें ।
११. जो देवता स्वगं में ११ हें, पृथिवी के ऊपर ११ हें--जब
अन्तरिक्ष सें रहते हँ, तब भी ११ रहते हैं, वे अपनी सहिमा से, यज्ञ की
सेवा करते हें ॥
१४० सूक्त
(२१ अनुवाक । देवता अग्नि। यहाँ से १६४ सूक्त तक के ऋषि
उक्थ्य के पुत्र दीघेतमा । छन्द त्रिष्टुप् )
१. अध्वय्ं, बेदी पर बेठे हुए, अपने प्रिय थास उत्तर वेदी
प्र, प्रीति-सम्पन्न ओर प्रकाशशील अग्नि के लिए तुम अच्चवान् स्थान
या बेदी तैयार करो । उस पवित्र ज्योति से संयुक्त, दीप्त-वर्ण और
अन्धकार-विनाशी स्थान के ऊपर, दस्त्र की तरह, सवोहर कुशा को.
बिछाओ ।
२. हिन्सा या दो कापठों के मन्थन-इएरा उत्पन्न अग्नि आज्य,
पुरोडाच और सोम नास के तीन अन्वों को सम्मुख लाकर खाते
हैं। अग्नि के हारा भक्षित धन-धान्यादि, संवत्सर के बीच, फिर बढ़
जाते हें। अभीष्टवर्षी अग्नि, एक ही रूप धारण कर, मुख ओर
ज़िल्ला की सहायता से बढ़ते हें। अग्नि दूसरे प्रकार का रूप घारण
करके, सबको दूर करके, वन-बृक्षों को जलाते हैं।
३. अग्नि के दोनों काष्ठ चलते हं। कुष्णबण होकर दोनों ही
एक ही झार्घ करते हें और शिशु अग्नि को प्राप्त होते हें। शिक्ष की
शिखारूपिणी जिह्वा पूर्वाभिमुखिनी हे। यह अन्धकार को दूर करते
हें। ज्ीक्र उत्पन्न होते हें। धीरे-धीरे काष्ठ-चूर्णो सें मिलते हें। बहुत
प्रयत्न से इनकी रक्षा करनी होती है। यह रक्षक को समृद्धि देते हें ।
(हन्दी-ऋणष्वेद २१५
४. अग्नि कौ शिखाएँ लघुगति, कुष्णमार्गी या शीघशारिणी,
झस्थिर-चिता, गमनशीला, कम्पन-शीला, वायुचारिता, व्याप्तिः
संयुक्ता, सोक्षप्रदा और मनस्वी यजसान की उपयोगिनी हूँ।
५. जिस ससय अग्नि गर्जन करके इवास फेंककर बार-बार विस्तीणं,
पृथिवी को छूकर, शब्द करते हे, उस ससय अग्नि के सारे स्फुल्लिंग,
एक साथ, चारों ओर जाते हैं। वे अन्धकार का विनाश कर चारों
ओर जाते और कृष्णवर्ण मार्ग में उज्ज्वल रूप प्रकाशित करते हें ।
६. अग्नि पीले औषछों को भूषित करके, उत्तके बीच, उतरते हैं ।
जैसे वृषभ गायों की ओर दोड़ता हुं, वसे ही, शब्द करते हुए, अरि
फड्ते हें। ऋमशः अधिक तेजस्वी होकर अपने शरीर को प्रकाशित
करते हुँ। दुद्धष रूप धारण करके अग्रेकर पशु की तरह सींग
घुने हें।
७, अग्नि कभी खिपकर, कभी बिराट होकर ओषधों को व्याप्त
करते हैं, मानों यजमान का अभिप्राय जानकर ही अपनी असि-
प्राय जाननेवाली शिखा को आश्रित करते हें। शिखायें, फिर बढ़-
कर, याग-योष्य अग्नि को व्याप्त करती हें एवं सब मिलकर पृथिवी
और स्वर्ग का अपूव रूप विस्तृत करती हें।
८. दीर्षस्थानीय और आगे स्थित शिखायें अग्नि का आलिङ्गन
कररती हैं; म॒तप्राय होने पर भी अग्नि का आगमन जानकर ऊध्व,
मुख होकर, ऊपर उठती हु । अग्नि, शिखाओ का बढ़ाया छुड़ाकर
उन्हें उत्कृष्ट सास्य ओर अखण्ड जीवन प्रदान करते हुए गर्जन्न
करते आते हें।
९. पृथिवी साता के ऊपर के ढक्कन या तृण-गुल्स आदि को चाटते=
चाटते अस्ति प्रभूत शब्द-कर्ता प्राणियों के साथ वेग से गमन करते
हैं। पाइ-विशिष्ट पशुओं को आहार देते हें। अग्नि सदा चाटते हुँ
ओर क्रमशः जिस मार्ग से जाते हे, उसे काला करते जाते हैं ।
२१६ हिन्दी-ऋणष्वेद
१०. अग्नि, तुस अभीष्टवर्षी और दाचशील होकर इवास फेकले
हुए हमारे धनाढ्य गृह में दीप्त झो? शिक्ष-बुद्धि छोड़कर, युद्ध
ससय सें वर्स की तरह, बार-बार शत्रुओं को दूर करके जल उठो।
११. अर्वि, यह जो काठ के ऊपर सावधानी से हुव्य रखा गया
है, बह तुम्हारी सनोऽनुकूल प्रिय बस्तु से थी प्रिय हो। तुम्हारे शरीर
की शिखा से जो निर्मल और दीप्ततेज निकलता है, उसके साथ तुस
हमें रत्न प्रदान करो।
१२. अग्नि, हमारे घर या यजमान और रथ के लिए सुदृढ़ डाँड
या ऋत्विक् और पाद या मंत्र से संयुक्त नोका या यज्ञ प्रदान करो।
वह हमारे बीरों, धनवाहकों और अन्य लोगों की रक्षा करेगा ओर
हमें सुख से रखेगा ।
१३. अग्नि, हमारे ऋ मंत्रों के लिए उत्साह बढ़ाओ। द्यावा-
पृथिवी और स्वयंगासिनी नदियाँ हमें गो और शस्य प्रदान करके
उत्साह वद्धित करें। असणवर्ण उषाये सदा पाने योग्य सुन्दर अन्व
आदि दें।
१४१ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द त्रिष्टुप्)
१. प्रकाशमान अर्ति का दर्शनीय तेज, सचमुच, इसी प्रकार
लोग शरीर के लिए धारण करते हँ। वह तेज शरीर बल या
अरणि-मन्यन से उत्पन्न हुआ हैँ। अग्नि के तेज का आश्रय करके
सेरा ज्ञान अपनी अभीष्ठ-सिद्धि कर सकता हुई इसलिए अग्नि के
लिए स्तुति और हुब्य अपंग किया जाता है।
२. प्रथम अन्त-साधक शरीरी और नित्य अग्नि रहते हैं, द्वितीय
कल्याणवाहिनी सप्त-मातृकाओं में रहते हु, तृतीय इस अभीष्द-
वर्षी के दोहन के लिए रहते हें। परस्पर संश्लिष्ट दस दिशायें दसौं
दिशाओं में पुजदीय अग्नि को उत्पन्न करती हें।
हिन्दौ-ऋग्वेद २१७
३. चूँकि महायज्ञ के मूल से सिद्धि करनेवाले ऋत्विक् बल-
प्रयोग या अरणि-सन्थन-ट्वारा अग्नि को उत्पन्न करते हें, अनादि काल
से अच्छी तरह फैलाने के लिए गुहास्थित अग्नि को वायु चालन
करते हैं,
४. अग्नि की उत्कृष्टता की प्राप्ति के लिए अग्नि का निर्माण
किया जाता है, आहार के लिए वाञ्छित लतायें अग्नि की शिखाओं
(दाँतों) पर चढ़ जाती हैं और अध्वर्यु तथा यजमान दोनों ही अग्नि
की उत्पत्ति के लिए चेष्टा करते हँ; इसलिए पवित्र अग्निदेव, यज-
मानों के लिए अनुग्रह करते हुए, युवा हुए।
५. मातुरूपिणी दिशाओं के बीच अग्नि, हिसा-रहित होकर,
बढ़े हैँ; इस समय प्रदीप्त होकर उन्हीं के सध्य बैठते हैं। स्थापन-
समय में, पहले, जो सब औषध प्रक्षिप्त हुए थे, उनके ऊपर अग्नि
चढ़ गये थे। इस समय अभिनव और निकृष्ट औषधों के प्रति
दौड़ते हैं।
६. हवि का सम्पर्क करनेवाले यजमान, दुलोक-निवासियों को
प्रसन्नता के लिए, होम-सम्पादक अग्नि का वरण करते और राजा
की तरह उनका आराधन करते हैं। अग्वि बहुतों के स्तुति-योग्य
और विइव-रूप हैं। वे यज्ञ-सम्पन्न और बलशाली हँ। वे देवों और
स्तुति-योग्य मत्ये घजमानों--दोनों के लिए अन्न को कामना
करते हैं ।.
७. जैसे बकवादी विदूषक आदि बडी सरलता से हंसा देते हें, वैसे
ही वायु-द्वारा परिचालित यजनीय अग्नि चारों ओर व्याप्त होते
हैं। अग्नि दहन-कर्ता हँ, उनका जन्म पवित्र है, उनका मागें क्ृष्णवर्ण
है और उनके मार्ग में कुछ भी स्थिरता नहीं हैं। इसी लिए उनके
सार्ग में अन्तरिक्ष स्थित हैं।
८. रस्सी में बंधे रथ को तरह अपने चञ्चल अंग को सहायता
से अग्नि स्वग को जाते हैं। उनका सागं एक बारगौ ही कृष्णवर्ण हे, वे
३१८ हिन्वी-ऋग्वेद
झाठ जलातै हैं। बीर की तरह अग्नि फे उद्दीप्त तेज के सामने से
चिड्याँ भाग जाती हें।
९. अरिनदेव तुम्हारी सहायता से वरुण अपना ब्रत धारण करते,
मित्र अन्धकार नाझ करते ओर अया दानशील होते हें। जसे रथ
का पहिया डाँडो को व्याप्त करके रहता है, उसी प्रकार अग्नि ने थज्ञ-
कार्य-दारा विइवात्मक, सर्वव्यापी और सबके पराभवकारी होकर
जन्म ग्रहण किया हूँ ।
१०. युवा अग्नि, जो तुस्हारी स्तुति करते और तुम्हारे लिए
अभिवव करते हें, तुम उनका रमणीय हव्य लेकर देवों के पास
विस्तार करते हो । हे तरुण, सहाधन और बल-पुत्र, तुम स्तबनीय और
ह॒विर्भोज्ता हो। स्तुति-काळ में हस राजा को तरह तुम्हें स्थापित
करते हें ।
१. अग्नि, तुम जैसे हमें अत्यन्त प्रयोजनीय और उपास्य घन देते
हो, वेते ही उत्साही, जन-प्रिय और विद्याध्ययन में चतुर पुत्र दो।
जेते अग्नि अपनी किरणों को विस्तृत करते हुँ, बसे ही अपने जन्माई
बार (आकाश और पथिकी) का विस्तार करते हँ । हमारे यज्ञ में यज्ञ-
कर्ता अग्नि देवों की स्तुति का विस्तार करते हं
१२. अग्निदेव प्रकाशशील, दुतगामी अइव से संयुक्त, होता, आनन्द-
चय; सोने के रथवाले, अप्रतिहतशबित ओर प्रसञ्च-स्वभाव हुँ। क्या
बे हमार? बुळाना सुनेंगे ? वे क्या हमें सिद्धिदाता कर्मद्वारा अनायास
क्य ओर अभिवादित स्वर्ग की ओर ले जायेंगे ?
१३. हव्य-प्रदान आदि कर्म और पूजा-सावझ सन्त्र-द्ारा हमने
अग्नि की स्तुति की है। अग्नि अच्छी तरह दीप्ति से युक्त हुए हैं।
सारे उपस्थित लोग ओर हम, जेसे सूर्य मघ का शब्द उत्पक्ष करते हैं।
बसे ही अग्नि को लक्ष्य कर स्तुति करते हैं ।
हिन्दी-ऋण्वेद | ११९
१४२ सूक्त
(दैवता आप्ती । छन्द त्रिष्दुप् और जगती)
१. हे सभिद्ध नाम के अग्नि, जो यजसान सुकू ऊचा किये हुए हुँ,
उसके लिए आज तुम देवों को बुलाओ। जिस हव्यदाता यजसान ने
होम का अभिषव किया है, उसकी भलाई के लिए पूर्वकालीन यज्ञ
विस्तार करो ।
२. तनूनपात् नास के अग्नि, मेरे समान जो हुव्यदाता और मेधावी
यजमान तुम्हारी स्तुति करता है, उसके घृत और मध से संयुक्त
यज्ञ में आकर यज्ञ-्समाप्ति-पर्यन्त रहो ।
३. देवों में स्वच्छ, पवित्र, अद्भुत, झुतिमान् और यज्ञन्सम्पादक
नाराझंस नामक अग्नि चुलोक से आकर हमारे यज्ञ को मकु
से मिश्रित कर । |
४, अग्नि, तुम्हारा नाम ईलित है। तुम विचित्र और प्रिय इन्द्र
को यहाँ ले आओ। सुजिह्ल, दुम्हारे लिए सं स्तोत्र-पाठ करता हूँ ।
५. खक धारण करनेवाले ऋत्विक् लोग इस यज्ञ में अग्नि-हूप कुश
को फैलाते हुए इन्द्र के लिए विस्तीर्णे ओर सुख-साधक गृह बनाते
हेँ। इस घर में देवता लोग सदा गमनागसन करग।
, अग्विरूप, यज्ञ का हार खोल दो। देवों के आने के लिए यज्ञ-
हार खोल दो। ये द्वार यज्ञ-वर्दक, यशन्शोधक बहुत लोगों के लिए
इलाध्य और परस्पर असंलग्न हूँ।
७. सबके स्वति-पात्र, परस्पर सन्निहित, सुन्दर, महान्, यञ्च- निर्माता
और अग्निरूप रात और उषा स्वयं आकर विस्तृत कुशों के ऊपर
बेठ ।
८, देवों की उन्मादक शिक्षा से युक्त, सदा स्तुतिशील यजसानों
के मित्र, अग्तिख्प दिव्य दोनों होता हमारे इस सिद्धिप्रद और
स्वर्गस्पर्शी यज्ञ का अनुष्ठान करें। |
२२० हिन्दी-ऋ ग्वेद
९. शुद्ध, देवों की मध्यस्था, होम-सम्पादिका भारती (स्वर्गस्थ
वाक्), इला (पृथिवीस्थ वाक्) और सरस्वती (अन्तरिक्षस्थ वाक्) ~.
ये अग्नि की तीनों म॒तियाँ यज्ञ के उपयुक्त होकर कुशों पर बंठें।
१०. त्वष्टा हमारे मित्र हें। वे स्वयं, अच्छी तरह, हमारी पुष्टि
और समृद्धि के लिए, मेघ के नाभिस्थित, व्याप्त अद्भुत और असंख्य
प्राणियों की भलाई करनेबाला जल बरसाथं।
११. हे अग्निरूप वनस्पति, इच्छानुसार ऋत्विकों को भेजकर,
स्वयं देवों का यज्ञ करो! झुतिमान् और संधावान् अग्नि देवों के बीच
हव्य भेजं ।
१२. उषा और सस्तो से युक्त विश्वदेवगण, वायु और गायत्री-
शरीर इन्द्र को लक्ष्य कर, हव्य देने के लिए, अग्निरूप स्वाहा शब्द का
उच्चारण करो।
१३. इन्व्र, हमारा स्वाहाकार-यूक्त हव्य खाने के लिए आओ।
ऋत्विक् लोग यज्ञ सं तुम्हें बुलाते ह ।
१४२ सूक्त
(देवता अग्नि। छन्द त्रिष्टुपृ ओर जगती)
१. अग्नि बल के पूत्र, जर के नप्ता, यजमान के प्रियतम और होम
के सम्पादक हें । वे यथासमय, धन के साथ वेदी पर बैठते हें। उनके
लिए में यह नया और शुभफळवद्धेक यज्ञ आरम्भ करता और स्तुति-
पाठ करता हूं।
२. परस आकाश-देश में उत्पन्न होकर अग्नि सबसे पहरे मात-
रिवा या वायु के पास प्रकट हुए। अनन्तर इन्धन-द्वारा अग्नि
बढ़े और प्रबल कर्म-हारा उनकी दौप्ति से द्यावापृथिवी प्रदीप्त
हुई ।
हिन्दी-ऋग्वेद २२१
३. अग्नि की दीप्ति से सबका नाश नहीं होता । सुदृश्य अग्नि के
सारे स्फुलिङ्गा चारों ओर प्रकाशमान और विलक्षण बलशाली हैं।
रात्रि का अन्धकार नष्ट करके सदा जाग्रतू और अजर, अग्नि-शिखायें
कभी नहीं कांपतीं ।
४. भृगुवंशोत्यन्त यजसानों ने अपने सामने जीवों के बल के
लिए उत्तर बंदी पर जिन संवर्धनशाली अग्नि को स्थापित किया है,
अपने घर में ले जाकर उनकी स्तुति करो। अग्नि प्रधान हें और
वरुण की तरह सारे धनों के ईश्वर हें।
५. जैसे वायु के शब्द, पराक्रमी राजा की सेना ओर यलोक में
उत्पन्न वचत्र का कोई निवारण नहीं कर सकता, उसी प्रकार जिन
अग्नि का कोई निवारण नहीं कर सकता, वे ही अग्नि, बीरों की तरह,
तीखे दाँतों से शत्रुओं का भक्षण ओर विनाश तथा वनों का दहन
करते हँ।
६. अग्निदेव बार-बार हमारे उक्त स्तोत्र को सुनने की इच्छा करे ।
घनशाली अग्नि, धन-द्वारा बार-बार हमारी इच्छा पुरी करें। यज्ञ-
प्रवत्तंक अग्नि, यज्ञ-लाभ के लिए, हमें बार-बार प्रेरित करें--सें एसी
स्तुति-द्वारा सुदृश्य अग्नि की स्तुति करता हूं ।
७. तुम्हारे यञ्च-निर्वाहक और प्रदीप्त अग्नि को, मित्र की तरह,
जलाकर विभूषित किया जाता हु। अच्छी तरह चमकती ज्वालावाले
अग्नि यज्ञस्थल मं प्रदीप्त होकर हमारी विशुद्ध यज्ञ-विषयक बुद्धि
को प्रबुद्ध करते हेत
८. अग्निदेव, हमारे ऊपर अनुग्रह करके सदा अवहित, माङ्गलिक
और सुखकर आश्रय देकर, हमारी रक्षा करो। सर्वंजलवाञछ्नीय
अग्नि, उत्पन्न होकर तुम हिसा-रहित अजेय और एकनिष्ठ भाव से
हमारी रक्षा भली भाँति करो ।
देकर हिन्वी-ऋग्वेद
१९४४ सक्त
(देवता अग्नि । छुन्द् जगती)
१. बहुदर्शी होता, अपनी उच्च ओर शोभन बुद्धि के बल से अग्नि
की सेवा करते के लिए जा रहे हें ओर प्रदक्षिण करके खक धारण
कर रहे हें। य स्रक् अग्नि में प्रथम आहुति देते हैं ।
३. सूर्यकिरणों सें चारों ओर फली जल-धारा, उनकी उत्पत्ति
के स्थान सूर्य-लोक में फिर नई होकर उत्पन्न होती हे। जिस समय
जिसकी गोद में आदर के साथ अग्नि रहते हुँ उसी समय लोग अमृत-
सय जल पीते एवं अग्नि, विद्युत् अग्नि के रूप मं, मिलते हैँ ।
३. समान अवस्यावाले होता और अध्वर्यू, एक ही प्रयोजन की
सिद्धि के लिए, परस्पर सहायता देकर अग्नि के शरीर में अपना-अपना
काये सस्पादित करते हें। अनन्तर जेसे सूर्य अपनो फिरणं फेलाते
हैँ अथवा सारथि रूगाम ग्रहण करता है, वसे ही आहवनीय अग्नि
हमारी दी हुई घृत-धारा ग्रहण करते हें।
४. समान अवस्थावाले, एक यज्ञ सें वत्तंमन और एक कारय में
नियुक्त दोनों मनुष्य जिन अग्नि की, दिन-रात, पुजा करते हैं, वे
अग्नि चाहे बढ़े हों, चाहे युदा, उच दोनों मनुष्यों का हव्य भक्षण करते
हुए अजर हुए हे,
५. दसो अंगुलियाँ, आपस में अलय होकर, उन प्रकाशशाली
अग्नि को प्रसन्न करती हें। हम मनुष्य हुँ; अपनी रक्षा के लिए
अग्नि को बुलाते हें। जैसे घनुष से वाण निकलता हैं, बसे ही
अग्नि भी स्फुलिङ्गः भेजते हेँ। चारों ओर अवस्थित यजसानों की नई
स्तुति को अग्निदेव धारण करते हें।
६० अग्नि, पशु-रक्षकों की तरह, तुम अपनी शक्ति से स्वर्गीय
ओर पृथिवीस्थ लोगों के ईश्वर हो; इसलिए महती एश्वयंवती,
हिरण्सयी संगल-शब्द-कारिणो शुञ्रवर्णा और प्रसन्या द्यावापृथिवी
ठुम्हारे यज्ञ सं अतो ह।
हिन्दी-ऋणष्वेद २३३
७. अग्नि, तुस हुय्य का उदभोय करो; अपना स्तोत्र चुनने की इच्छा
क्रो । हे स्तुत्य, अन्नवान् और यज्ञ के लिए उत्पस्न तथा यञ्चशाली
अग्नि, तुम सारे जगत् के अनुकूल, सबके दशंगीय, आनन्दोत्पादक और
यथेष्ट-अन्व-शाली व्यक्ति की भाँति सबके आश्रयस्थान हो।
(देवता अग्नि । छन्द निष्डुप् और जगती)
१. अग्नि से पूछो। वे ही ज्ञाता हें, बे ही गये हैं, उन्हीं को चैत्य
है, वे ही यान हैं, बे ही शीव्रगन्ता हँ, उन्हीं के पास शासन-योग्यता है,
अभीष्ट वस्तु भी उन्हीं के पास है। वे ही अन्त, बल और बलवान के
पालक हैं।
२. अग्नि को ही सारा संसार जानना चाहता हे; यह जिज्ञासा
अन्याय-पूर्ण नहीं हँ। धीर व्यक्ति अपने मन में जो स्थिर करता
है, उसके पूर्व ओर पर की बात नहीं सह सकता । इसी लिए दस्भ-विहीन
मनुष्य अग्नि का आश्रय प्राप्त करता है।
३. सब जुहू अग्नि को लक्ष्य कर जाते हैं। स्तुतियाँ भी अग्नि
के लिए ही हें। अग्नि मेरी समस्त स्तुतियाँ सुनते हैं। बह बहुतों
के प्रवर्तक, तारयिता और यज्ञ के साधन हें। उनकी रक्षा-शाक्ति
छिद्रशून्य है। वह शिशु की तरह शान्त और यज्ञ के अनुष्ठाता हें।
४. जभी यजसान अग्नि को उत्पन्न करने की चेष्टा करता है, तभी
अग्नि प्रकट होते हैं। उत्पन्न होकर ही तुरंत योजनीय वस्तु के साथ
मिल जाते हें। अग्नि का आनन्द-वद्धक कमे भ्रान्त यजसान के सन्तोष
के लिए अभीष्ट फल देता है।
५. अन्वेषण-परायण और प्राप्तव्य वन के गामी अग्नि त्वचा की
.तरह इन्धन के बीच स्थापित हुए हें। विद्वान्, यज्ञ ज्ञाता ओर यथार्थ-
वादी अग्ति ने समुष्यों को विशेष करके यज्ञानुष्ठान के सभय, ज्ञान
प्रदान किया हुँ ।
३३४ हिन्दी-ऋग्वेद
१४६ सूक्त
(देवता अग्नि | छन्द निष्डुप्)
पिता-माता की गोद में अवस्थित, सवन-त्रय-रूप सस्तक-त्रय
से युक्त, सप्त छुन्दोरूप सप्त रहिझियों से यक्त और विकलता-झन्य
अग्नि की स्तुति करो। सर्वत्रगासी, अविचलित, प्रकाशमान और
अभीष्टवर्षक अग्नि का तेज चारों ओर व्याप्त हो रहा है ।
२. फल-दाता अग्नि, अपनी महिमा से, दावा-पृथिवी को व्याप्त
किये हुए हैं। अजर और पुज्य अग्निदेव हमारी रक्षा करके अव-
स्थित हैं। वह॒ व्यापक पृथिवी के सानुप्रदेश या वेदी पर अपने
पेर फैलाते हैं। उनकी उज्ज्वल ज्योति अन्तरिक्ष को चाटती हे ।
३- सेवा-कार्य में चतुर दो (यजमान और उसकी पत्नी के स्वरूप)
गाय एक बछड़ (अग्नि) के सामने जाती हें। बह निन्दनीय विषय
से शून्य मार्ग का निर्माण और सब तरह की बुद्धि या प्रज्ञा, अधिक
मात्रा में, धारण करती हें।
४. विद्वान् और मेधावी लोग अज्ञेय अग्नि को अपने स्थान पर
स्थापित करते हैं; बुद्धि-बल से, नाना उपायों से, उनकी रक्षा करते हैं।
यज्ञ-फल का भोग करने की इच्छा से फलदाता अग्नि की श्रवा
करते हं । उनके पास, सुर्यरूप मे, अग्नि प्रकट होते हें।
५. अग्नि चाहते हैं कि उन्हें सब दिशाओं के निवासी देख सकें।
वे सदा जयशील और स्तुति-योग्य हैं। वे शुद्ध ओर महान्--सबके
जीवन-स्वरूप हें। धनवान् ओर सबके दर्शनीय अग्नि, अनेक स्थानों में,
शिशु-समाव यजमानो के लिए पिता के समान रक्षक ओर पालनकर्ता हैं
१४७ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द् त्रिष्ट्प्)
१. अग्नि, तुम्हारी उज्ज्वल और शोषक शिखायें कैसे अन्न के
साथ आयु प्रदान करती हूं, जिससे पुत्र, पोत्र आदि के लिए अन्न
हिन्दी-ऋष्वेद २२५
और आयु प्राप्त कर यजमान लोग याज्ञिक साम-गायत कर
सकते हुँ ?
२. हे युवा ओर अन्नवान् अग्नि, मेरी अत्यन्त पुष्य ओर अच्छी
तरह सम्पादित स्तुति ग्रहण करो। कोई तुम्हारी हिसा करता और
कोई तुम्हारी पूजा करता है। में तो तुम्हारा उपासक हूँ । में तुम्हारी
पुजा करता हूं । |
३. अग्नि, तुम्हारी जिन प्रसिद्ध और पालक रहिमयों ने (ममता
के पुत्र और अन्धे दीर्घतमा को) अन्धत्व से बचाया था, उन सुख-
कर शिखाओं की सर्वेप्रज्ञायुक्त तुम रक्षा करो। विनाशच्छ शत्रुगण
हिला न करने पायें। |
४. अग्निदेव, जो हमारे लिए पाप चाहते है, स्वथं दान नहीं करते,
मानसिक ओर वाचनिक दो प्रकार के मंत्रों-्ारा हमारी निन्दा करते
हैं, उन्ह एक मानस मंत्र गुरभार हो और वे दुर्वाक्य-द्वारा अपना ही
शरीर नष्ट करे।
५. बल के पुत्र अग्नि, जो मनुष्य जान-बझकर दोनों तरह के
मंत्रों से मनुष्य की निन्दा करता है, में विनय करता हूँ, हे स्तूयमान
अग्नि, उसके हाथ से मेरी रक्षा करो । हमें पाप में मत फेंको ।
१४८ सूक्त
(देवता अस्ति | छन्द त्रिष्टुप्)
१. वायु ने काठ के भीतर घुसकर विविधरूपश्ञाली, सारे देवों
के कार्य में निपुण और देवों केर बुलानेवाले अग्नि को बढ़ाधा । पहले
देवों ने अग्नि को विलक्षण प्रकाझवाले सूर्यं की तरह मनुष्यों ओर
ऋत्विकों की यज्ञ-सिद्धि के लिए स्थापित किया था ।
२. अग्नि को सन्तोषदायक हव्य देने से ही शत्रु लोग मुझे नष्ट
नहीं कर सकेगे। अग्नि भेरे-द्वारा प्रदत्त स्तोत्र आदि के अभिलावी
फा० १५
२२६ हिन्दी-ऋः्वेद
हूँ । जितत समय स्तोता अग्नि की स्तुति करते हँ, उस समय सारे देवता
उनके दिये हुए हव्य को ग्रहण करते हँ। -
३. याज्ञिक लोग जिन अग्नि को नित्य अग्नि-गृह में ले जाते और
स्तुति के साथ स्थापित करते हें, उन्हीं अग्नि को ऋत्विकों ने श्षीज्न-
गासी और रथ-निबद्ध अइव की तरह यज्ञ के लिए बनाया।
४. विनाशक अग्नि सब प्रकार के वक्षों को अपनी शिखाओं
या दाँतों से नष्ट करके विशित में चित्र-विचित्र शोभा प्राप्त करते
हैं। इसके अनन्तर जैसे धर्नुरद्धारी के पास से वेग के साथ तीर
जाता है, वसे ही प्रतिदिन वायु शिखा के अनुकूल होकर बहते हेत
५. अरणि के गर्भे में अवस्थित जिन अग्नि को शत्रु या अन्य हिसक
दुःख नहीं दे सकते, अन्धा भी जिनका माहात्म्य ही नष्ट कर सकता,
उन्हीं की अविचल भक्तिवाले यजमान विशेष रूप से तृप्ति दे
करके रक्षा करते हें।
१४९ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द॒ विराट)
१. महाधन के स्वामी अग्नि अभीष्ट प्रदान करते हुए हमारे
देव-पुजन के सामने जा रहे हैं। प्रभुओं के भी प्रभू अग्नि बेद
का आश्रय करते हे । प्रस्तर-हस्त यजमान लोग आगत अग्नि की
सेवा करते हें।
२. मनुष्यों की तरह जो अग्नि दावा पृथिवी के भौ उत्पादक हैं,
वे यशःशाली होकर वर्तमान हें एवं उन्हीं से जीव लोग सृष्टि
का आस्वादन प्राप्त करते हें। उन्होंने गर्भाशय में पेठकर सारे जीवों
की सूष्टि की हुँ।
३. अग्निदेव मेधावी हें, वे अस्तरिक्ष-निहारी वायु की तरह
विभिन्न स्थानों में जाते हें। उन्होंने दस सुन्दर वेदियों को प्रदीप्त
किया है। नाचारूप अग्नि सूर्य को तरह सुशोभित होते हँ ।
हिन्दी-ऋणग्वेद २२७
४, द्विजन्मा अग्नि बीप्ययाव लोकत्रय का प्रकाश करते और
वारे रञ्जवात्सक संसार का भी प्रकाश करते हे। थे देवों के
आह्कान-कर्ता हँ । जहाँ जरू संगृहीत होता है, बहाँ अग्नि वर्तमान हुँ ।
५. जो अग्नि द्विजन्मा हे, वे ही होता हैं; वे ही हव्य-प्राप्ति की
अभिलाषा से सारा वरणीय धन धारण करते हँ। जो मनुष्य अग्नि
को हव्य देता है, वह उत्तम पुत्र प्राप्त करता हुँ ।
१५० सूक्त
(देवता अग्नि | छुन्द् उष्णिक् )
१. हे अग्निदेव, में हव्य दान करता हूँ, इसलिए तुम्हारे पास बहु-
विध प्रार्थनायें करता हूँ । अग्निदेव, में तुम्हारा ही सेवक हूँ। अग्नि-
देव, महान् स्वामी के घर में जेसे सेवक हैं, वसे ही तुम्हारे पास
में हूं ।
` २ अग्निदेव, जो धनी मनुष्य तुम्हें स्वामी नहीं मानता,
उत्तमरूप हुवन के लिए दक्षिणा नहीं देवा एवं जो व्यक्ति देवों
की स्तुति नहीं करता, उत देवशून्य दोनों व्यक्तियों को घन नहं देना ।
३. है मेधावी अग्नि, जो मनुष्य तुम्हारा यज्ञ करता है, बह
स्वर्ग में चन्द्रमा की तरह सबका आमन्ददाता होता है; प्रधानों
में भी प्रधान होता हं। इसलिए हव विशेषतः तुम्हारे हो सेवक होंगे।
१५१ सूक्त
(देवता मित्रावरुण । छन्द जगती)
१. गोवनाभिलाषी और स्वाध्याय-सध्पन्न बजसानों ने गोधन की
प्राप्ति ओर मनुष्यों की रक्षा के लिए मित्र कौ तरह प्रिय और यजनीव
जिन अग्नि को अन्तरिक्ष-भव जल के मध्य में कर्म-हारा उत्पन्न किया
है, उनके बल और शब्द से द्यावा-पृथिवी कम्पित होती है।
२२८ | हिन्दी-ऋग्वेद
२. चूँकि सित्रवत् ऋत्विकों ने तुम्हारे लिए अभौष्टदायी और
अपने कर्म में समर्थ सोहरस धारण किया है, इसलिए पूजक के घर
आओ । तुम अभीष्टवर्षी हो। दुस गृहपति का आह्वान सुनो।
३. अभीष्ट-वर्षक मित्रावरुण, मनुष्य लोग महाबलकी प्राप्ति के
लिए द्यावा-पृथिवी से तुम्हारे प्रशंसनीय जन्म का कीर्तन करते
हैं; क्योंकि तुम यजमान के यज्ञकलरूप मनोरथ को दते हो तथा स्तुति
ओर हुव्ययुक्त यज्ञ ग्रहण करते हो।
४. हे पर्याप्त-बलशाली मित्रावरुण, जो यज्ञभूमि तुम्हारे लिए
प्रियतर हे, वह उत्तम रूप से सजाई गई है । हे सत्यवादी मित्रावरुण,
तुम हमारे महान् यज्ञ की प्रशंसा करो। दुग्ध आदि के द्वारा शरीर
में बलदान के लिए समर्थ धेन् की तरह तुम दोनों विशाल यलोक के
अग्र-भाग में देवों के आनन्दोत्पादन में समर्थ हो और विविध स्थानों
में आरम्भ किये कर्म का उपभोग करते हो।
५. सित्रावरुण, तुम अपनी महिना से जिन गायों को वरणीय
प्रदेश में ले जाते हो, उन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता । वे दूध
देती और गोज्ञाला में लोट आती हें। चौरधारी मनुष्यों की तरह
बे गाये प्रातःकाल और सायंकाल को उपरिस्थित सुर्यं की ओर देखकर
चीत्कार करती हें ।
६. सित्रावरुण, तुम जिस यज्ञ में यज्ञभूमि को सम्मान-युक् करते
हो, उसमें केश की तरह अग्नि की शिखा यज्ञ के लिए तुम्हारी पुजा
करती है। दुम निम्त-मुख से बृष्टि प्रदान करो और हमारे कमं को
सम्पन्न करो। तुम्हीं मेधावी यजमान की मनोहर स्तुति के
स्वामी हो ।
७. जो सेधावी, होननिष्पादक और सनोहर यज्ञों के साधन
से संयुक्त यजमान यज्ञ फे लिए तुम्हारे उद्देश्य से स्तुति करते हुए,
हव्य प्रदान करता है, उसी बृद्धिशाली यजमान के लिए गसन करो।
हिन्दी-क्ररवेद २२९
यज्ञ की कामना करो। हमारे ऊपर अनुग्रह करने की अभिलाषा से
हुमारी स्तुति स्वीकार करो।
८. हे सत्यवादी मित्रावरुण, जसे इन्द्रिय का प्रयोग करने के लिए
पहले मन का प्रयोग करना होता है, बैसे ही यजमात लोग अन्य देवों
के पहले गव्य-द्वार। तुम्हारा पूजन करते हैँ। आसक्त चित्त से यजमान
लोग तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम मन में दर्ष न करके हमारे समृद्ध
कार्य में उपस्थित होओ ।
९. मित्रावरुण, तुम धन-विशिष्ट अन्न धारण करो, हमें धनयुक्त
अन्व प्रदान करो । वह बहुत हे ओर तुम्हारे बद्धि-बछ से रक्षित हेँ।
दिन एवं रात्रि को तुम्हारा देवत्व नहीं मिला है । नदियों ने भौ तुम्हारा
देवत्व नहीं प्राप्त किया, और न पणियों ने ही। पणियों ने तुम्हारा
दान भी नहीं पाया।
१५२ सूक्त
(देवता मित्रावरुण । छन्द त्रिष्टुप्)
१. हे स्थूल सित्र और वरुण, तुम तेजोरूप वस्त्र धारण करो।
तुम्हारी सृष्टि सुन्दर और दोषशून्य हे। तुम सारे असत्य का विनाश
करो और सत्य के साथ युक्त होओ।
२. मित्र और वरुण--दोनों ही कर्म का अनुष्ठान करते हं।
दोनों सत्यवादी संत्रित्व-निपुण, कवियों के स्तवनीय और शत्र-हिसक
हैं। वे प्रचण्ड रूप से, चतुर्गुण अस्त्रों से संयूक्त होकर त्रिग्ण अस्त्रों से
युक्तों का विनाश करते हे । उनके प्रभाव से देव-निन्दक पहले ही जीण
हो जाते हें।
३. सित्रावरुण, पद-संयुक्त मनुष्यों के आगे पदशून्या उषा आती
हें--यह जो तुम्हारा ही कर्म हुँ, यह कौन जानता है ? तुम्हारे या
दिवारात्रि के पुत्र सूर्य सत्य की पुत्ति और असत्य का विनाश
करके सारे संसार का भार वहन करते हें।
२३० हिन्दी-ऋग्वेद
४. हम देखते हुँ कि, उषा के जार सूर्य क्रमागत चलते ही है...
कभी भी बैठते नहीं। विस्तृत तेज से आच्छादित सूर्य मित्रावरुण के
प्रियपात्र हुँ ।
५. आदित्य के न तो अइब हें” न लगाम; परन्तु बे शीध्-गसन-
शीळ और अतीव-इब्दकर्त्ता हैं। दे करमशः ही ऊपर चढ़ते हैं।
संसार इन सब अचिन्तनीय और विशाल कर्मों को सित्र और वरुण
के मानकर उनकी स्तुति और सेवा करता है ।
६. प्रीति-प्रदायक गायें विशाल कर्म-प्रिय ममता के पुत्र को
(मुझे) अपने स्तन से उत्पन्न दूध से प्रसन्न करें। वे यज्ञानष्ठानों
को जानकर यज्ञ में बचे अन्त को मुख-द्वारा खाने के लिए माँगें
ओर सित्रावरण की सेवा करके यज्ञ को अखण्डित रूप से
सम्पूणं करें।
७. देव सित्रावदण, में रक्षा के लिए नमस्कार और स्तोत्र करते
हुए तुम्हार हव्य-सेत्रन के लिए उद्योग करूँगा। हमारा महान् कर्म
युद्ध के समय शत्रुओं को परास्त कर सके। स्वर्गीय वृष्टि हमारा
उद्धार करे।
१५३ सूक्त
(देवता मित्रावरुण । छन्द् त्रिष्टुप्)
१, है घृतत्रावी (जलवर्षक) और महान् भिन्नावरुण, चूँकि
हमारे अध्व लोग अपने कार्य से तुम्हारा पोषण करते हें; इसलिए
हुम समाद-प्रीति युक्त होकर हव्य, घृत और नमस्कार-द्वारा तुम्हारी
पूजा करते हे;
२. हे मित्रावदण, तुम्हारे उद्देश्य से केवल यज्ञ का प्रस्ताव या
यज्ञ ही नहीं है; किन्तु उसके द्वारा में तुम्हारा तेज प्राप्त करता हुँ ।
निस समय सुधी होता तुम्हारे उद्देश्य से यज्ञ करने के लिए आते
हे, उस ससय, है असीष्टवर्षक, वे सुख प्राप्त करते हँ।
हिन्दी-ऋग्वेद २३१
३. सित्रावरुण, रातहव्य नाम के राजा के मनुष्य यजसान के
होता की तरह यज्ञ में सेवा-हारा तुम्हें प्रसञ्च करने पर राजा की
धेनु जैले दुग्धवती हुई थी, बसे ही तुम्हारे यज्ञ में जो यजमान हव्य
देता है, उसकी गार्थे भी बहुत दूथवाली होकर आनन्द बढ़ायें ।
४. सित्र और वरुण, दिव्य धेनुएँ, अन्त और जल तुम्हारे भक्त
यजमानों के लिए तुम्हें प्रसन्त करें। हमारे यजमान के दूर्व-पालक
अग्नि दानशील हों और तुम क्षीरवर्षिणी घेन् का दूध पीओ।
१५४ सूक्त
(देवता विष्णु । छन्द त्रिष्टुप्)
१. में विष्णु के बीर-कार्य का शोध ही कोर्न करेगा । उन्होंने
वामनावतार में तीनों लोकों को सापा था। उन्होंने ऊपर के सत्य-
लोक को स्तम्भित किया था। उन्होंने तीन बार पाद-क्षप किया था ।
संसार उनकी बहुत स्तुति करता हुँ । |
२. चूँकि विष्णु के तीन पाद-क्षेप में सारा संसार रहता है इसलिए
भयंकर, हिल, गिरिशायी और वन्य जानवर की तरह संसार विष्णु
के विक्रम की प्रशंसा करता हूँ।
३. उन्मत्त प्रदेश में रहतेवाले, अभीष्ट्वर्षक और सब लोकों में
प्रशंसित विष्णु को महाबल और स्तोत्र आश्रित करें । उन्होंने अकेले
ही एकत्र अवस्थित और अति विस्तीणे नियत लोक-त्रय को तीन
बार के पद-कमण-हारा मापा था ।
४. जिन विष्णु का ह्वास-हीन, अमृतपुर्ण और त्रिसंख्यक पढ”
क्षेप अन्न-द्वारा मनुष्यों को हर्ष देता है, जिन विष्णु ने अकेले.
ही घातु-त्रय, पृथिवो, लोक ओर समस्त भुवनों को धारण कर
रखा हें ।
५. देवाकांक्षी मनुष्य जिस प्रिय मार्ग को प्राप्त करके दृष्ट
२३२ हिन्दी-ऋग्वेद
होते हँ, में भी उसी को प्राप्त कहूँ। उत पराक्षमणी विष्णु के परस
पद में मधुर (अमृत आदि का) क्षरण है। विष्णु वस्तुतः बन्धु हैं।
६. जिन सब स्थानों में उन्मत शङ्कवरली ओर शीघ्रगामी यायें
हैं, उन्हीं सब स्थानों में तुम दोनों के जाने के लिए में विष्णु की
प्रार्थना करता हूँ । इन सब स्थानों में बहुत लोगों के स्तवनीय और
अभीष्टवर्षक विष्णु का परम पद यथेष्ट स्फूर्ति प्राप्त करता हूँ।
१५५ सुक्त
(देवता इन्द्र और विष्णु । छन्द जगती)
१. अध्वय्यंगण, तुम स्तुतिप्रिय और महाबीर इख और विष्णु
के लिए पीने योग्य सोमरस तैयार करो। वे दोनों दुद्धष और
महिमावाले हें। दे मेघ के ऊपर इस तरह अमण करते हें, मानों
सुशिक्षित अइव के ऊपर अ्मण करते हैं । |
२. इन्द्र और विष्णु, तुम लोग दुष्ट-पद हो, इसलिए यज्ञ में
बचे हुए सोम पीतेवाले यजसान तुम्हारे दीष्तिपूणे आगमन की
प्रशंसा करते हें। तुम लोग मनुष्यों के लिए, शत्रु-विसर्दक अग्नि से
प्रदातव्य अन्त सदा प्रेरित करते हो।
३. सारी प्रसिद्ध आहुतियाँ इन्द्र के महान् पोरुष को बढ़ाती हैँ ।
इन्द्र सबकी मातृभूता द्यावा-पृथिबी के रेत, तेज और उपभोग
के लिए वही शक्ति प्रदान करते हें। पुत्र का नास निकृष्ट या निम्न हे
और पिता का नाम उत्कृष्ट या उच्च हुँ। यलोक के दीप्तिमान् प्रदेश
में तृतीय नाम या पोत्र का नाम है अथवा वह चूलोक में रहनेवाले
इन्द्र और विष्णु के अधीन है।
४. हम सबके स्वासी, पालक, शत्रु -रहित और तरुण विष्णु के
पौरुष की स्तुति करते हुँ। विष्णु ने प्रशंसनीय लोक की रक्षा के
लिए तीन बार पाद-विक्षप-द्वारा सारे पाथिव लोकों की विस्तृत
रूप से प्रदक्षिणा को हुँ।
हिन्दी-क्ररसबेद २३३
५. सतुष्ययण कौत्तंत करते हुए स्वर्गदर्शी विष्णु कै दो पादन
क्षेप प्राप्त करते हैं। उनके तीसरे पाद-क्षेप को सनुष्य नहीं पा सकते;
आकाश में उड़नेवाले पक्षो या मरुत भी नहीं प्राप्त कर सकते ।
६. विष्णु ने गति-विशेष द्वारा विविध स्वभावशाली कार कै
९४ अंशों को चक्र की तरह वृत्ताकार परिचालित कर रखा है । विष्णु
बिज्ञाल स्तुति से युक्त और स्तुति-इारा जानने योग्य हें । बे
नित्य, तरुण और अकुमार हैं। व युद्ध में या आह्वान पर जाते हूं।
१५६ सूक्त
(देवता विष्णु । छन्द जगती)
१. विष्णुदेव, मित्र की तरह तुम हमारे सुखदाता, घ॒ताहुति-
भाजन, प्रकृत अन्नवान्, रक्षाशील और पृथव्यापी बनो। विद्वान्
जमाननद्वारा तुम्हारा स्तोत्र बार-बार कहने योग्य हं ओर तुम्हारा
यज्ञ हविवाले यजसान का आराधनीय हुँ ।
२. जो व्यक्ति प्राचीन मधावी, नित्य नवीन और स्वयं उत्पन्न
या जगन्मादनशीला स्त्रीवाले विष्णु को हुव्य प्रदान करता हुँ; जो
महानुभाव विष्णु की पूजनीय आदि कथा कहते हैँ; वे ही समीप स्थान
पाते हैं ।
३. स्तोताओ, प्राचीन यज्ञ के गर्भेभूत विष्णु को जेसा जानते
हो, बैसे ही स्तोत्र आदि के द्वारा उनको प्रसञ्च करो । दिष्णु का नाम
जानकर कीर्तन करो । विष्णु, तुम महानुभाव हो, तुम्हारी बुद्धि की
हम उपासना करते हूं।
४. राजा वरुण और अझ्वियीकुसार ऋऋहत्विकयृकत यजमान के
यज्ञ-्झूप विष्ण की सेवा करते हँ। अहिदनीकुमार और विष्णु मित्र
होकर उत्तम ओर दिनञ्च बल धारण करते और संघ का आच्छादन
हुटाते हूँ।
२३४ हिन्दी-ऋणग्वेद
५. जो स्वर्गीय और अतिशय शोभवकर्सा विष्णु शोभनकर्मा इन्द
के साथ मिलकर आते हैं, उन्हीं मेधावी तीनों लोक में पराकमशाली
विष्णु ने आनेवाले यजमान को प्रसन्न किया है और यजमान को
यश्ञ-भाग दिया है ।
१५७ मुक्त |
(२२ अनुवाक | देवता अशिवद्वय ¦ छन्द जगती और त्रिष्टुप्)
१. भूमि के ऊपर अग्नि जागे, सूर्य उपे । विराट उषा तेज-द्वारा
सबको आह्वादित करके अन्धकार को दूर करती हूँ । हे अश्विनीकुमारो,
आने के लिए अपना रथ तैयार करो । सारे संसार को अपने-अपने कर्मों
में सबिता देवता नियुक्त करें।
२. अशिवद्वय, जिस समय तुम लोग वृष्टिदाता रथ को तैयार
करते हो, उस समय मधुर जल-द्वारा हमारा बल बढ़ाओ। हमारे
आदसियों को अन्म-हारा प्रसन्न करो। हम वीर संग्राम में धन प्राप्त
क्रे ।
३. अझिवनीकुमारों का तीन पहियोंबाला, मधुयुक्त, तज्ञ घोड़ों
से संयुक्त, प्रझंसित, तीन बन्धनोंवाळा धन-पुर्ण ओर सर्व-सोभाग्य-
सम्पन्न रथ हमारे सामने आये और हमारे द्विपद (पूत्र आदि) तथा
चतुष्पद (गौ आदि) को सुख दे ।
४. अश्विनीकुमारों, तुम दोनों हमें बल प्रदान करो। अपनी
मधुमती कषा-हारा हमें प्रसन्न करो। हमारी आयु बढ़ाओ, पाप दूर
करो, हेषियों का विनाश करो और सारे कर्मों में हुमारे साथी बनो ।
५. अश्विद्वय, तुम दोनों गसनशील गौओं और सारे संसार के
प्राणियों में अन्तःस्थित गर्भो की रक्षा करो । अभौीष्टवर्षकद्वय, अग्नि,
जल ओर वनस्पतियों को प्रर्बात्तत करो।
६. अश्विद्वय, लुम दोनों ओबध-ज्ञान-द्वारा वेद्य और रथवाहक
अइवो-दारा रथवान् हुए हो। तुम्हारा बल बहुत अधिक हे; इसलिए
हिन्दी-ऋणष्वेद २३५
हे उग्र अशिवद्वय, तुम्हें जो आसक्त चित्त से हव्य प्रदान करता
है, उसको रक्षा करो।
द्वितीय अध्याय समाप्त ।
१५८ सूक्त ु
(तृतीय अध्याय । देवता अश्विद्वय । छन्द त्रिष्डुप् और अनुष्टुप् ।)
१. हे अभीष्टवर्षक, निवासदाता, पापहन्ता, बहुज्ञानी, स्तुति-द्वारा
बर्ढेमान और पूजित अश्विनीकुमारो, हमें अभीष्ट फल दो; क्योंकि
उचयपुत्र दीर्घतमा तुम्हारी प्रार्थना करता है और तुम प्रशंसनीय रीति
ते आश्रय प्रदान करते हो।
२. निवासप्रद अहिवनीकुमारो, तुम्हारे इस अनुग्रह के सामने
कौन तुम्हें ह्य प्रदान कर सकता है ? अपने यज्ञीय स्थान पर हमारी
स्तुति सुनकर अन्न के साथ तुम लोग बहुत धन देना चाहते हो। शरीर-
पुष्टिकरी, शब्दायमाना और बहुत दूधवाली गायें प्रदान करो ! यजमानो
की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए तुम लोग कृत-संकत्प होकर विचरण
करते हो ।
३. अदिबनीकुमारो, तुम्हारे उद्धार-कुशल और अइवयुद्त रथ के,
ुग्रपृत्र भुज्यु के लिए बल-प्रयोग द्वारा उत्तीर्ण होने पर वह समुद्र
में स्थित हुआ था। अतएव जैसे युद्धजेता वीर द्रुतगामी अइवन्द्रारा
अपने घर में आता है, वैसे ही हम तुम्हारे आश्रय के लिए शरणागत
हुए हैं। |
४, अझ्विनीकुमारो, तुम्हारी स्तुति दीर्घतमा की रक्षा करे।
प्रतिदिन घसनेवाले अहोरात्र हमें शीर्ण न करें। दस बार प्रज्वलित
अग्नि मुझे जला न सके; क्योंकि तुम्हारे आश्रित यह व्यक्ति पाशबद्ध
होकर पृथिवी पर लेट रहा हेँ।
२३६ हिन्दी-ऋग्वेद
५. सातुखूप नदी-जल मुझे डुबो न दे। गर्भदासी या अनायों ने इन
संकुलिताङ्कः वृद्ध को नीचे मुंह कर फेंक दिया है। त्रैतन ने इनका
सिर काडा था। दास ने स्वयं हुदय-देश और अंज-द्रय पर आघात
किया था।
६: समता के पुत्र दीर्घतसा दसवें काल के बीतने पर जीर्ण
हुए थे! जो सब लोग कर्म-फल पाने की इच्छा करते हैं, वे अपने
नेता और सारथि हुँ। |
१५९ सुक्त
(देवता द्यावा-प्रथिवी । छन्द जगती ।)
१. यज्ञ-वद्धक, महान् और यज्ञकार्यं में चैतन्यकारी द्यावा-पृथिवी
की मे, विशेष रूप से स्तुति करता हँ। यजमान उनके पृत्र-स्वरूप हेँ।
उनके कमें सुन्दर हैं । अनुग्रह करते हुए वे यजमानों को वरणीय
धन प्रदान करते हें। |
२. मेने आह्वान-मंत्र-द्वारा निद्रोह और पितृस्थानीय झुलोक
के उदार और सदय मन को जाना हें। मातूस्थानीय पृथिवी के मन
को भी जाना है। पिता-माता ( द्यावा-्पृथिदी) अपनी शक्ति से पुत्रों
की भली भाँति रक्षा करते हुए बहुत और विस्तीणं अमृत देते हँ।
_ ३. तुम्हारी सन्तान, सुकर्मा और सुदर्शन प्रजाये तुम्हारे पहले के
अनुग्रह् को स्मरण करके तुम्हें महान् और माता कहकर जानते हँ । पुत्र-
स्वरूप स्थावर और जंगम पदार्थ द्यावा-पृथिवी के अतिरिक्त और किसी
को नहीं जानते । तुम उनकी रक्षा का अबाध स्थान प्रदान करते हो।
४. द्यावा-पृथिवी सहोदरा भगिनी और एक स्थान पर रहनेवाले
जोड़े हें। वे प्रज्ञा-युक्त और चैतन्यकारी हे । किरणें उनका विभाग
करती हुँ। अपने कार्य में निरत और सुप्रकाशित रश्मियाँ द्योतमान
अन्तरिक्ष के बीच नये-नये सुत फैलाती हे ।
. हिन्दी-ऋग्वेद २३७
५. आज हम सविता देवता की अनुमति के अनुसार उस वरणीय
धन को चाहते हैं। हमारे ऊपर द्यावा-पृथिवी अनुग्रह करके गुह आदि
और शत-शत गोओं से यक्त धन दें।
१६० सूक्त
(देवता द्यावा-प्रथिवी । छन्द जगती ।)
१. द्यावा-पृथिवी संसार के लिए सुखदायिनी, यज्ञवती, जल उत्पन्न
करने के लिए चेष्टा-सम्पन्ना, सुजाता और अपने कार्य में निपुणा
हैं। द्योतमान और शुचि सूर्यं द्यावा-पुथिवी के बीच, अपने कार्य से,
सदा गसन करते हें।
२. विशाल, विस्तीणं और परस्पर-वियुक्त माता-पिता (द्यावा-
पृथिवी) प्राणियों की रक्षा करते हैं। शरीरियों के मंगल के लिए ही
द्यावा-पृथिवी मानों सचेष्ट हें; क्योंकि पिता सारे पदार्थो को
रूप प्रदान करते हें ।
पिता-माता (द्यावा-पुथिवी) के पुत्र सूर्यं हें । ब धीर और
फलदाता हैं। अपनी बृद्धि से व सारे भूतों को प्रकाशित करते हें ॥
बे शक्लवरणं धेनु (पृथिवी) ओर सेचन-कार्य में समर्थ वृष (झुलोक)
को भी प्रकाशित करते हें। बे द्युलोक से निर्मल दूध ढुहते हैं ।
४. बे देवों में देवतम और करमियों में कर्मश्रेष्ठ हैं । उन्होंने
सर्व-सुखदाता द्यावा-पृथिवी को प्रकट किया है और प्राणियों के सुख
के लिए द्यावा-पृथिवी को विभक्त करते हुँ। उन्होंने सुदृढ़ शङ्क या खूँढे
में इन्हें स्थिर कर रखा हें। ह
५, द्यावा-प्थिवी, हम तुम्हारी स्तुति करते हु। तुम महान् हो,
हमें प्रभूत अन्न और बल प्रदान करो, जिससे हम सदा पुत्र आदि प्रजा
का विस्तार करें। हमारे शरीर में प्रशंसनीय बल की वृद्धि
कर दो ।
२३४ हिन्दी-ऋष्वेद
१६१ सूक्त
(दैवता ऋसु । छन्द जगती ।)
१. जो हमारे पास आये हैं, वे क्या हमसे ज्येष्ठ हें या छोटे?
ये क्या देवों के दूत-कार्य के लिए आये हैं। इन्हें क्या कहना होगा ?
इन्हें कैसे पहुचानेंगे साता अग्नि, हम चमस की निन्दा नहीं करेंगे;
क्योंकि वह महाकुल में उत्पन्न है। उस काष्ठमय चसस की स्मृति
की हस व्याख्या करेंगे । |
२. अग्नि ने कहा--सुधन्बा के पुत्र, एक चसस को चार
बनाओ--देवों ने यह बात कहकर सुझे भेजा है। में तुम्हें कहने
आया हूँ । तुम लोग यह कार्य कर सकते हो और एसा करने पर
तुम लोग देवों के साथ यज्ञांशभागी बनोगे ।
३. अग्निदेव, देवों ने अपने दूत अग्नि के प्रति जो-जो कार्य
बताये हैं, उनमें से अश्व बनाना होगा, रथ का निर्माण करता होगा,
गौ का सृजन करना होगा अथवा माता-पिता को फिर तरुण करना
होगा ? श्रातृवर, तुम्हारे उन सब कार्यों को करके अन्त में कर्म-फल
के लिए तुम्हारे पास आयेंगे।
४, ऋभगण, वह कार्यं करके तुसने पुछा कि जो दूत हमारे
पास आया था, वह कहाँ गया ? जिस समय त्वष्टा या ब्रह्माने चसस
के चार दुकड़ देखे, उसी समय वह स्त्रियों सें छिप यया।
५, जिस ससय त्वष्डा ने कहा कि जिन्होंने देवों के पानपात्र
चमस का अपान किया हैँ, उनका वध करना होगा, उस समय से
ऋहभुगण ने सोस तैयार होने पर दूसरा नास ग्रहण किया और
कन्या या उनकी नाता ने उसी ताम से पुकारकर उन्हें प्रसन्न किया।
६. इख ने अपने अश्वों को सजाया, अश्विनीकुसारों ने रथ
तैयार किया और बृहस्पति ने विश्वरूपा यौ को स्वीकार किया । इसलिए
हिल्दी-ऋणेद २३९
हे ऋभु, विभु और बाज, तुम देवों के पास गमन करो। है पुण्यकर्ता
लोग, तुम यज्ञ-भाग ग्रहण करो।
७. हे सुधन्वा के पुत्रो, तुमने आश्चर्यजनक कौशल से मृत घेवु
के शरीर से चसड़ा लेकर उससे धेन उत्पन्न को, जो पिता-माता
बढे थे, उन्हें फिर युवा किया ओर एक अइव से अन्य अश्व उत्पन्न
किया इसलिए रथ तैयार करके देवों के सामने जाओ।
८. देवो, तुमने कहा था, है सुधन्वा के पुत्रो, तुम लोग यही सोम"
रस पान करो अथवा मुञ्ज-्तुण से शोषित सोसरस पान करो।
यदि इन दोनों में तुम्हारी इच्छा न हो, तो तीसरे (सायं) सवन में
सोमरस पीकर अत्यन्त तुप्त हो जाओ।”
९. ऋभुओं में से एक ने कहा, “जल ही सबसे श्रेष्ठ है,” एक
ने अग्नि को श्रेष्ठ बताया और तीसरे ने पृथ्वी को। सश्ची बात
कहकर ही उन्होंने चारों चमसों को तैयार किया।
१०. एक लोहितवर्ण जल या रक्त बाहर भूमि पर रखते हैं, दुसरे
छुरे से कटे सांस को रखते हें और तीसरे सांस से मल आदि अलग करते
हें। किस प्रकार पिता-साता (यजसाच-दस्पती) पुत्रों (नऋहभुओं)
का उपकार कर सकते हैं?
११, प्रभूत वीप्तिशाली ऋहमुओ, तुम नेता हो। प्राणियों के भले
के लिए तुम ऊंचे स्थान पर ब्रीहि, यव आदि तूण उत्पन्न करते और
सत्कर्म करने की इच्छा से नीच के प्रदेश सें जल उत्पन्न करते हो।
सुर्यमंडल में अब तक तुम निहित थे; इस समय वेसा नहीं करचा।
अपना कार्ये सिद्ध करो ?
_ १२, ऋभुओ, जिस सभय तुम जलधर में भूतों को सिलाकर चारों
ओर जाते हो, उस समय संसार के पिता-माता कहाँ रहते हें ? जो
लोग तुम्हार? हाथ पकड़कर रोकते हैं, उन्हें नीचा दिखाओ । जो बचन-
द्वारा तुम्हें रोकता है, उसकी अत्संसा करो।
१४० हित्दी-क्ररवेद
१३. ऋभुओ, तुम सूर्य-मंडल में सोकर सूर्य से पूछते हो कि “हे
सुर्य, किसने हमारे कर्म को जगाया। सूर्य कहते हैं, “वायु ने तुम्हें
जगाया। वर्ष बीत चला, इस समय फिर तुम लोग संसार को
प्रकाशित करो।
१४. बल के नप्ता ऋभुओ, तुम्हारे दर्शन की इच्छा से मरुत्
झलोक से आ रहे हैं; अग्नि पृथ्वी से आते हैं; बायु, आकाश से
आते हैं; और वरुण समुद्र-जल के साथ आते हें।
१६२ सूक्त
(देवता अश्व । छन्द जगती ओर त्रिष्टुप् ।)
१. चूँकि हम यज्ञ में देवजात ओर द्वुतगति अइव के वीर कर्म
का कीत्तंन करते हैं, इसलिए मित्र, वरुण, अर्यमा, आयु, इन्द्र, ऋभुक्षा
ओर वायु हमारी निन्दा न कर।
२. सुन्दर स्वर्णाभरण से विभूषित अश्व के सामने ऋत्विक् लोग
उत्से के लिए छाग पकड़कर ले जाते हें। विविध वर्ण के छाग
शब्द करते हुए सामने जाते हें। वह इन्द्र ओर पूषा का प्रिय
अन्न हो। |.
३. सब देवों के लिए उपयुक्त छाग पूषा के ही अंश में पड़ता
है। उसे शीध्रयासी अइव के साथ सामने लाया जाता है। अतएव
स्वष्टा देवता के सुन्दर भोजन के लिए अश्व के साथ इस छाग से
सुखादय पूरोडाश तैयार किया जाय।
४. जब ऋत्विक् लोग देवों के लिए प्राप्त करने योग्य अश्व
को समय-समय पर तीन बार अग्नि के पास ले जाते हें तब पूषा
के प्रथम भाग का छाग देवों के यज्ञ की बात का प्रचार करके आगे
जाता हुं। |
५. हेता (देवों को बुलानेवाले), अध्वर्यु (यज्ञ-नेता)
आवया (हव्यदाता), अग्निसिद्ध (अर्वि-प्रज्वलन-कर्ता), ग्रावप्राभ
हिन्दी-ऋग्वेद २४१
(प्रस्तर-द्वारा सोघरस निकाळनेवाले), शंस्ता (नियमानुसार कर्म का
अनुष्ठान करनेवारे) और ब्रह्मा (सब यज्ञ-कार्यो के प्रधान सम्पादक)
प्रसिद्ध, अलंकृत और सुन्दर यज्ञ-्वारा नदियों को पुर्ण करें ।
६. जो यूप के योग्य वृक्ष काटते हँ, जो यूप वृक्ष ढोते हें, जो
अइब को बाँधने के यूय के लिए काष्ठ-सण्डप आदि तैयार करते
हें, जो अश्व के लिए पाक-पात्र का संग्रह करते हैं, हमारा संकल्प भी
उन्हीं का हो।
७. हमारा सनोरथ स्वयं सिद्ध हो । मनोहर-पृष्ठ-विशिष्ठ अइव,
देवों की आशा-पुति के लिए, आवे । देवों की पुष्टि के लिए हम
उसे अच्छी तरह बाधेग। संधावी ऋत्विक् लोग आनन्दित हों।
८. जिस रस्सी से घोड़े की गदेन बाँधी जाती है, जिससे उसके
पेर बाँधे जाते हें, जिस रस्सी से उसका सिर बाँधा जाता है, वे
सब रस्सियाँ और अइव के मुख सें डाली जानेवाली घासे देवों के
पास आरवे।
९. अइव का जो कच्चा ही मांस सक्खी खाती है, काटने या साफ़
करने के समथ हथियार में जो लग जाता है ओर छेदक के हाथों
तथा तखों में जो लग जाता है, बह सब देवों के पास जाय।
१०. उदर का जो अजीण अंश बाहर हो जाता हे ओर अपक्व
सांस का जो लेशमात्र रहता है, उसे छेदक निर्दोष करे और पवित्र
सांस देवों के लिए उपयोगी करके पकावे।
११. अश्व, आग में पकाते समय तुम्हारे शरीर से जो रस
निकलता ओर जो अंश शूल सं आबद्ध रहता है, बह मिट्टी में गिरकर
तिनकों में मिल न जाय। देवता लोग लालायित हुए है, उन्हें सारा
हवि प्रदान किया जाय।
१२. जो लोग चारों ओर से अश्व का पकना देखते हुँ, जो कहते हें
कि गन्ध मनोहर है, देवों को दो; तथा जो मांस-भिक्षा को अपेक्षा
करते हं, उनका संकल्प हमार ही हो।
फ़ा० १६
२४२ हिन्दी-ऋष“्वेद
१३. सांस-्पाचन की परीक्षा के लिए जो काष्ठभान लगाया
जाता है, जिन पात्रों में रस रक्षित होता हे, जिन आच्छादनो से गर्मी
रहती है, जिस वेतस-शाखा से अइव का अवयव पहले चिह्नित किया
जाता है और जिस क्षारिका से, चिह्नानुसार अवयव काटे जाते हुँ,
सो सब अइव का मांस प्रस्तुत करते हैं।
१४. जहाँ अइव गया था, जहाँ बैठा था, जहाँ लेटा था, जिससे उसके
पैर बाँधे गये थे, जो उसने पिया था तथा जो घास उसने खाई
थी, सो सब देवों के पास जाय।
१५. अइवगण, धमगन्ध अग्नि तुमसे शब्द न करा सकें, अतीव
अग्नि-संयोग से प्रतप्त सुगन्धित साँड़ कम्पित न हो। यज्ञ के लिए
अभिप्रेत और हवन के लिए लाया हुआ, सम्मुख में प्रदत्त और वषद्कार-
हारा शोभित अइव देवत! ग्रहण करें।
१६. जिस आच्छादन योग्य वस्त्र से अइब को आच्छादित किया
जाता है, उसको जो सोते के गहने दिये जाते हैं, जिससे उसका
सिर और पैर बाँधे जाते हें, सो सब देवों के लिए प्रिय हे। ऋत्विक्
लोग देवों को यह सब प्रदान करते हें।
१७. अइ्व, जोर. से नासाध्वनि करते हुए गमन करने पर चाबुक
के आघात अथवा ऐड के आयात से जो व्यथा उत्पन्न हुई थो, सो
सब व्यथा में उसी प्रकार मंत्र-द्वारा आहुति में देता हूं, जैसे
खुक-द्वारा हृव्य दिया जाता हैं।
१८, देवों के बत्यु-स्वरूप अइव की जो बराल की टेढ़ी चोंतीस
हडिडियाँ हैं, उन्हें काटने के लिए खड्ग जाता है। हे अश्वच्छेदक, एसा
करता, जिससे अंग विच्छुन्न न हो जायं। शब्द करके ओर देख-देखकर
एक-एक हिस्सा काढो ।
१९. ऋतु ही तेजःपुञज अश्व का एकमात्र विकाशक हें। उन्हें दो
दिन-रात धारण करते हूँ। अइव, तुम्हारे शरीर के जिन अवयवों को,
हिन्दी-ऋष्वेद २४३
पथाससथ काटता हँ, उनका पिण्ड बनाकर अग्नि को प्रदान
करता हूँ ।
२०. अइव, तुस जिस समय देवों के पास जाते हो, उस सभय
तुम्हारी प्रिय देह तुम्हें क्लेश न दे । तुम्हारे शरीर में खड्ग अधिक क्षत
न करे। यास-लोलूघ और अनभिज्ञ छेदक अस्त्र-द्वारा विभिन्न अंगों
को छोड़कर तुम्हारा गात्र बुथा न काट ।
२१. अदब, तुम न तो मरते हो और न संसार तुम्हारी हिसा
करता है। तुम उत्तम मागं से देवों के पास जाते हो। इन्द्र के हरि
ताम के दोनों घोड़े और सस्तो के पृषती नाम के दोनों वाहन तुम्हारे
रथ में जोते जायेगे । अश्विनीकुमारों के वाहन रासभ के बदले, तुम्हारे
रथ में, कोई शी ध्रगामी अइव ओता जायया ।
२२. यह अश्व, हमें गो और अइ्वव से युक्त तथा संसार-रक्षक
धन प्रदान करे; हमें पुत्र प्रदान करे। तेजस्वी अश्व, हमें पाप से
बचाओ। हविर्भृत अश्व, हमें शारीरिक बल प्रदान करो।
१६३ सूक्त
(देवता अश्च । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. अइव, तुम्हारा सहान् जन्म सबकी स्तुति के योग्य हे । अन्तरिक्ष
या जल से प्रथम उत्पन्न होकर, यजसान के अनुग्रह के लिए, महान्
शब्द करते हो । इयेन पक्षी के पक्ष की तरह तुम्हें पक्ष हैं तथा हरिण
के पद की तरह तुम्हें पेर हैं ।
२० यस या अग्नि ने अइव दिया था, त्रित या वायु ने उसे रथ
में जोडा। रथ पर पहले इन्र चढ़े और गन्धर्वो या सोसों ने उसकी
लगाम को धारण किया । वसुओं ने सूर्यं से अइव को बनाया ।
३. अह्व, तुस यम, आदित्य ओर गोपनीय ब्रतधारी त्रित हो।
तुम सोम के साथ मिलित हो। पुरोहित लोग कहते हे कि द्युलोक मं
तुम्हारे तीन बन्धन-स्थान हें।
२४४ हिच्दी-ऋणग्वेद
४. अइव, झुछोक में तुम्हारे तीन बन्धन (वसुगण, सूयं और
दुस्थान) हैं। जरू या पृथिवी में तुम्हारे तीन बन्धन (अन्न, स्थान
और बीज) हें। अन्तरिक्ष में ठुम्हारे तीन बन्धन (मेघ, विद्युत् और
स्तनित) हे। तुम्हीं वरण हो। पुरातत्त्वविदों ने जिन सब स्थानों में
तुम्हारे परस जन्म का निर्देश किया हुँ, वह तुम हमें बताते हो ।
५. अदव, मेने देखा हु ये सब स्थान तुम्हारे अंग-शोधक हें।
जिस समय तुम यज्ञांश का भोजन करते हो, उस समय तुम्हारा पद-
चिह्न यहाँ पड़ता है । तुम्हारी जो फलप्रद बल्गा (लगाम) सत्यभूत यज्ञ
की रक्षा करती है, उसे भी यहाँ देखा हे ।
६. अइव, दूर से ही मन के द्वारा मेने तुम्हारे शरीर को पहचाना
है। तुम नीचे से, अन्तरिक्ष-मार्ग में सूर्य में जाते हो। मेने देखा हे,
तुम्हारा सिर धूलि-शूव्य, सुखकर, मागे से शश्र गति से क्रमशः ऊपर
उठता हें ।
७, में देखता हूँ, तुम्हारा उत्कृष्ट रूप पृथिवी पर चारों ओर
अन्न के लिए आता हे। अश्व, जिस समय मनुष्य भोग लेकर तुम्हारे
पास जाता है, उस समय तुम ग्रास-योग्य तुण आदि का भक्षण करते हो।
८. अइव, तुम्हारे पीछे-पीछे अश्व जाता है, मनुष्य तुम्हारे पीछे
जाता है, स्त्रियों का सोभाग्य तुम्हारे पीछे जाता हे । दूसरे अइवों ने
तुम्हारा अनुगमन करके मैत्री प्राप्त की हु। देव लोग तुम्हारे बीर-कमं
की प्रशंसा करते हैं।
९२. अइद का सिर सोने का है ओर उसके पेर लोहे के तथा वेग-
शली हें। वेग के सम्बन्ध में तो इन्द्र भी निकृष्ट हें। देवगण अश्व के
हव्य-भक्षण के लिए आते हँ। पहले इन्द्र ही यहाँ बेठ हैं।
१०. जिस समय अइ स्वर्गीय पथ से जाता हुँ, उस समय वह
निविइ-जघन-विशिष्ट होता हँ । पतली कमरवाले, विक्रमशाली ओर
स्वर्गीय अइवगण दल के दल हंसों की तरह पंक्ति-बद्ध होकर उसके
साथ जाते हें।
हिन्दीनक्ररवेद २४५
११. अइव, तुम्हारा शरोर शी घ्रयामी है, तुम्हारा चित्त भी वायु
कौ तरह शी त्रगन्ता है । तुम्हारे केसर नाना स्थानों में नाना भावों में
अवस्थित तथा जंगल में विविध स्थानों में भ्रमण करते हैं।
१२. वह द्रतगामी अश्व आसक्त चित्त से देवों का ध्यान करते
हुए वध-स्थान में जाता है। उसके मित्र छाय को उसके आगे-आगे
ले जाया जाता है। कवि स्तोता पीछे-पीछे जाते हँ।
१३. द्रतगासी अश्व, पिता और माता को प्राप्त करने के लिए
उत्कृष्ट ओर एक निवास-योग्य स्थान पर गमन करता हे । अश्व, आज
खूब प्रसन्न होकर देवों के पास जाओ, ताकि हव्यदाता वरणीय धन
प्राप्त करे ।
१६४ सूक्त
देवता १ से ४१ तक के विश्वेदेवगण, ४२ के प्रथमाद्ध के वाक् और
द्रितीयाद्ध के अप् , ४३ के प्रथमाड के शक रूप ओर ठितीयाद्ध के
साम, ४४ के अग्नि, सये और वायु, ४५ के वाक , ४६ से ४७ तक
के सूये, ४८ के संवत्सररूप काल, ४९ की सरस्वती, ५० के साध्याय
५१ क अग्नि और ५२ के सूय ।)
१. सबके सेवनीय ओर जगत्पालक होता या सूर्य के मध्यम खाता
या वायु संत्र व्याप्त हें। उनके तीसरे भ्राता या अग्नि आहुति धारण
करते हैं। भाइयों के बीच सात किरणों से युक्त बिइपति को देखा गया।
२. सूर्य के एकचक्र रथ में सात घोड़े जोते गये हें। एक ही अश्व
सात नामों से रथ ढोता हें। चक्र की तीन नाभियाँ हें। बे न तो कभी
शिथिल होतीं हें न जीणे । सारा संसार उनका आश्रय करता है।
३. जो सात, सप्त-चक्र रथ का, अधिष्ठान करते हँ, वे ही सात
अश्व हैं; ब ही इस रथ को ढोते हें। सात भगिनियाँ (किरणें) इस रथ
के सामने आती हूँ। इसमें सात गायं (किरणें या स्वर) हें।
२४६ हिन्दी“ ग्वेद
४. प्रथम उत्पन्न को किसने देखा था--जिस समय अस्थि-रहिता
(प्रकृति) ने अस्थि-युक्त (संसार) को धारण किया ? पृथिवी से प्राण
और रक्त उत्पन्न हुए; परन्तु आत्मा कहाँ से उत्पन्न हुई? विद्वात् के
पास कौन इस विषय की जिज्ञासा करने जायया ?
५. में अनाड़ी हुँ; कुछ समक में न आने से पूछ रहा हूँ। ये सब
संदिग्ध बातें देवों के पास भी रहस्यमयी हें। एक वर्षं के गोवत्स या
सूयं के देष्टन के लिए मेथावियों ने जो सात सूत या सात सोम-यज्ञ
प्रस्तुत किये, वे क्या हें?
६. में अज्ञाती हूँ । कुछ न जानकर ही ज्ञानियों के पास जानने को
इच्छा से पूछता हूँ । जिन्होंने इन छः लोकों को रोक रक्खा है, जो
जन्म-रहित रूप से निवास करते हें, वे क्या एक हें?
७. गमनशील और सुन्दर आदित्य का स्वरूप अतीव निगूढ है।
वो सबके मस्तक-स्वरूप हँ। उन्को किरणे दूध दुहतीं तथा अति विज्ञाल
तेज से युक्त होकर उसी प्रकार पुनः जलपान करती हें। जो यह सब
कथायें जानते हें, वे कहें।
८, माता (पृथिवो) वृष्टि के लिए पिता या चुलोक में स्थित
आदित्य को अतुष्ठान-द्वारा पुजती हैं। इसके पहले ही पिता भीतर-ही-
भीतर, उसके साथ संगत हुए थे गर्भ-धारण की इच्छा से माता गर्भ-
रस से निबिद्ध हुई थी। अनेक प्रकार के शस्य उत्पन्न करने के लिए
आपस में बातचीत भी की थी ।
९. पिता (चुलोक) अभिलाष-पुरण में समर्थ पृथिवी का भार
वहन करने में नियुक्त थे । गर्भभूत जलराशि मेघमाला के बीच थी।
दत्स या वृष्टि जल ने शब्द किया और तीन (मेघ, वायु और किरण)
के योग से विश्व-रूपिणी गो (पृथिवी) हुई अर्थात् पृथिवी शस्याच्छा-
दिता हुई।
१०. एकमात्र आदित्य तीत साता (पृथिवी, अन्तरिक्ष और आकाश)
और तीच पिता (अग्नि, वायू और सुर्य) को धारण करते हुए ऊपर
हिन्दी-ऋष्वेद २४७
अवस्थित हैं, उन्हें थकावट नहीं आती । घुलोक की पीठ पर देवता
लोग सूर्य के सम्बन्ध में बातचीत करते हँ। उस बातचीत को कोई
नहीं जानता; परन्तु उसमें सबकी बातें रहती हें।
११. सत्यात्मक आदित्य का, बारह अरों (राशियों) से युक्त
चक्र स्वर्ग के चारों ओर बार-बार भ्रमण करता और कभो पुराना
नहीं होता है। अग्नि, इस चक में पुत्र-स्वरूप सात सौ बीस (३६०
दिन और ३६० रात्रियाँ) निवास करते हैं।
१२. पाँच परो (ऋतुओं) और बारह रूपों (महीनों) से संयुक्त
आदित्य जिस समय झुलोक के पूर्वाद्ध में रहते हैं, उस समय उन्हें
कोई-कोई पुरीषी या जलदाता कहते हें। दुसरे कोई-कोई छः अरों
(ऋतुओं ) और सात चक्रों (रश्सियो) से संयुक्त रथ पर द्योतमान
सूर्य को आपत कहते हे--जब कि, वे झूलोक के दूसरे आधे में
रहते हुँ।
१३. नियत परिवत्तेमान पाँच ऋतुओं या अरों (खूँठों) से युक्त `
चक्र पर सारे भुवन विलीन हें। उसका अक्ष प्रभूत भार-वहन में नहीं
थकता। उसकी नाभि सदा समान रहती है--कभी शीण नहीं होती ।
१४. समान नेमि से संयुक्त ओर अजीर्ण काळ-चक निरन्तर घूस.
रहा है। एक साथ दस (पंच लोक-पाल और निषाद, ब्राह्मण आदि
पंच वर्ण) ऊपर मिलकर पृथिवी को धारण करते हैं। सूर्य का नेत्र-
रूप मण्डल बृष्टि-जल से छिप गया--सारे प्राणी और जयत् भौ
उसमें विलीन हुए ।
१५. आदित्य की सहजात ऋतुओं में सातवीं (अधिक मासबाली)
ऋतु अकेली हुँ । अन्य छः ऋतुएँ जोड़ी हें, गमनशील हुँ और देवों सें
उत्पन्न हैं। ये ऋतुएँ सबकी इष्ट, स्थान-भेद से पृथक्-पृथक् स्थापित
और रूप-भेद से विविध आक्ृतियों से संयुक्त हें। वे अपने अधिष्ठाता
के लिए बार-बार घूमती हूँ)
२४८ हिन्दी-ऋ“्वेद
१६. किरणें स्त्री होकर भी पुरुष हें । जिनके आँखें हुँ, वे ही यह
देख सकते हुँ; जिनकी इष्टि मोदी है, वे नहीं। जो पुत्र मेधावी हुँ,
वे ही यह समझ सकते हें। जो ये सब बातें समझ सकते हैं; वे ही
पिता के पिता हैं।
१७. वत्स, यजमान या अग्नि का पिछला भाग सासने के पैर से
और सम्मुख-भाग पीछे के पेर से धारण करते हुए यो, आदित्य-रह्मि
या आहुति ऊपर की ओर जाती हैं। वह कहाँ जाती है ? किसके लिए
आधे रास्ते से लोट आये ? कहाँ प्रसव करती है? दल के बीच प्रसव
नहीं करती ।
१८. जो अधःस्थित (अग्नि) लोक-पालक की ऊदुध्वेस्थित (सुर्य)
के साथ और अद्ध्वंस्थित को अधःस्थित के साथ उपासना करते हुँ,
वे ही मेधावी की तरह आचरण करते हें। किसने ये सब बातें
कही हें? कहाँ से यह अलौकिक मन उत्पन्न हुआ है ?
१९. जिन्हें विद्वान् लोग अधोमुख कहते हैं, उन्हीं को ऊद्ध्वंमुख
भी कहते हे और जिन्हें ऊद्ध्वंमुख कहते हें, उन्हें अधोमुख भौ कहते
हैं। सोम, तुमने और इन्द्र ने जो मण्डलट्टय बनाया है, बह युग-युक्त
अइव आदि की तरह विश्व का भार वहन करता हे।
२०. दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) मित्रता के साथ एक
वक्ष या शरीर सं रहते हैं। उनमें एक (जीवात्सा) स्वाद पिप्पल का
भक्षण करता और दूसरा (परमात्मा) कुछ भी भक्षण (भोग) नहीं
करता, केवल द्रष्टा हे।
२१. जिनमें (सुर्येहप मण्डल सें) सुन्दर गति रश्मियाँ, कत्तंव्य-
ज्ञान से अमृत का अंश लेकर सदा जाती हैं और जो धीर भाव से सारे
सुवनों की रक्षा करते हैं, मेरी अपरिपक्व बुद्धि होने पर भी मझे
उन्होंने, स्थापित किया ।
२२. जिस (आदित्य) वृक्ष पर जलमग्राही किरणे रात को बेठतीं
और संसार के ऊपर प्रातःकाल दीप्ति प्रकट करती हैं; विद्वान्
हिन्दी-ऋहग्बेद ३४९
लोग उनका फल प्रापणीय बताते हें। जो व्यक्ति पिता (सूर्य या परः
मात्मा) को नहीं जानता, वह इस फल को नहीं प्राप्त करता ।
२३. जो पृथिवी पर अर्ति का स्थान जानते हैं, जो जानते हँ कि,
देवों ने, अन्तरिक्ष से, वायु को उत्पन्न किया हे तथा जो ऊद्ध्व॑ंतन
प्रदेश में आदित्य का स्थान जानते हैं, वे अमृतत्व पाते हैं।
२४. उन्होंने गायत्री छन्द-द्वारा पुजन-मंत्र की सृष्टि की, अर्चना-
मंत्र-दारा साम को बनाया, निष्टुप्-द्वारा बूच-तृच-रूष वाक् का निर्माण
किया, द्विपाद और चतुष्पाद वचन के द्वारा अनुवाक-रचना की तथा
अक्षर-्योजना-उ्रारा सातो छन्दों की रचना कौ ।
२५. जगती छुन्द-द्वारा उन्होंने यलोक में वृष्टि को स्तम्भित कर
रखा है, रथन्तर साम या सुर्य-सम्बन्धीय मंत्र में सुर्यं को देखा है।
पण्डित लोग कहते हूँ कि गायत्री के तीन चरण हैँ; इसलिए गायत्री
माहात्म्य और ओजस्विता में अन्य सबको लाँघ जाती है।
२६. में इस ढुग्धवती गो को बुलाता हुँ । दूध दुहने में निपुण व्यक्ति
उसे बृहता है। हमारे सोम के श्रेष्ठ भाग को सविता ग्रहण करें;
क्योंकि उससे उनका तेज प्रवृद्ध होगा। इसलिए में उन्हें बुलाता हूँ ।
२७. धनशाली धेनु वत्स के लिए सन ही मन व्यग्र होकर “हम्बा”
करती हुई आती हें। यह अझ्विनीकुमारों के लिए दूध दे और महा-
सोभाग्य-लाभ के लिए प्रवृद्ध हो।
२८. धेनु नेत्र बन्द किये बछुड के लिए “हम्बा” शब्द करती है।
बछड़े का मस्तक चाटने के लिए हिस्बा” रव करती हे। बछड़े के
ओठों पर गाज या फेन देखकर धेनु “हस्बा” रब करती तथा यथेष्ट
दूध पिलाकर उसे परिपुष्ट करती हे। |
२९. बछडा धेनु के चारों ओर घूमकर अव्यक्त शब्द करता हें
और योचर-भूमि पर गाय 'हम्बा” करती है। धेनु पश्चु-ज्ञान-हारा
मनुष्यों को लज्जित करती है और द्योतमान होकर अपना रूप प्रकट
करती हुँ।
२५० हिन्दी-ऋग्वेद
३०. चञ्चल, इवास-प्रदवासशील और अपनी कार्य-सिद्धि में व्यचर
जीव सोकर घर में अविचल भाव से अबस्थित हुआ। सत्यं के साथ
उत्पन्न मत्यं का अमर जीव स्वधा भक्षण करता हुआ सदा विहरण
करता हें।
३१. में इन रक्षक और प्रसच्च आदित्य को अन्तरिक्ष में आते-जाते
देखता हुँ । सर्वत्रगामिती और सहगामिनी किरण-माला से आच्छा-
दित होकर भुवतों में बार-बार आते-जाते हैं ।
३२. जिसने गर्भ किया है, वह भौ डका तत्व नहीं जानता।
जिसने उसको देखा हे, बह उसके पास भी लुप्त है। मातृ-योनि के
बीच वेष्टित होकर वह गर्भे बहुत सन्तादवान् होता और पाप-लिप्त
होता है।
३३. स्वर्ग मेरा पालक और जनक हें, पृथिवी की नाभि मेरा मित्र
है ओर यह विस्तृत पृथिवी मेरी माता है । उच्च पात्र-हुय (आकाश
और पृथिवी) के बीच योनि (अन्तरिक्ष) हे। वहाँ पिता (द्यु) इूर-
स्थिता (पृथिवी) का गर्भ उत्पादन करता हैं।
३४. में तुमसे पूछता हूँ, पृथिवी का अन्त कहाँ है ? में तुमसे पूछता
हँ, संसार की नाभि (उत्पत्ति-स्थान) कहाँ है ? में तुमसे पुछता हूं,
सेचन-समर्थं अइव का रेत क्या है ? में तुमसे पुछता हुँ, समस्त वाक्यों
का परम स्थान कहाँ हु?
३५. यह वेद ही पृथिवी का अन्त है, यह यज्ञ ही संसार को नाभि
है, यह सोस ही सेचन-समर्थ अइव का रेत है और यह ब्रह्मा या ऋत्विक्
वाक्य का परम स्थान हुँ।
३६. सात किरणं आथे वर्षं तक गर्भ धारण या वष्टि को उत्पन्न
करके तथा संसार में रेत:-स्वरूप या वृष्टि-दान द्वारा जयन् का सार”
भूत होकर विष्णु या आदित्य के कार्य में नियुक्त हें। दे ज्ञाता और
सर्वतोगमसी हुँ। वे प्रज्ञाद्वारा भीतर-ही-भीतर सारे जयत् को
व्याप्त किये हुए हु;
हिन्दी-ऋणग्वेद २५१
३७. में यह हूँ कि नहीं--भें पढी जानता; क्योंकि में मृढ-चित्त
हुँ, अच्छो तरह आबद्ध होकर विक्षिप्तचित्त रहता हूं । जिस समय ज्ञान
का प्रथम उन्मेष होता हें उसी समय में वाक्य का अर्थ हमभ
सकता हूं ।
३८. नित्य अनित्य के साथ एक स्थान पर रहता हुँ; अन्नमय
शरीर प्राप्त कर बह कभी अधोदेश और कभी ऊद्ध्वंदेश में जाता है ।
वे सदा एक साथ रहते हें, इस संसार में सर्वत्र एक साथ जाते हें;
परलोक में भी सब स्थानों पर एक साथ जाते हें। संसार इनमें एक
को (अनित्य को) पहचान सकता हु--दूसरे (आत्मा) को नहीं।
३९. सारे देवता सहाकाश के समान मन्त्राक्षरों पर उपवेशन किये
हुए हें--इस बात को जो नहीं जानता, वह ऋचा से क्या करेगा ?
इस बात को जो जानता हे, बह सुख से रहता है ।
४०. अहननीया गो ! शोभन शस्य, तृण आदि का भक्षण करो और
यथेष्ट दुग्धवत्ती बनो । ऐसा करने पर हम भी प्रभूत धनवाले हो जायंगे ।
सदा तृण चरो और सर्वत्र घूमते हुए निर्मल जल का पान करो।
४१. भेघनिनाद-रूपिणी और अन्तरिक्ष-विहारिणी वाक्, वष्टि-जल
की सृष्टि करते हुए, शब्द करती है । वह कभी एकपदी, कभी द्विपदी,
कभी चतुष्पदी, कभी अष्टपदी और कभी नवपदी होती हँ । कभी-
कभी तो सहस्राक्षर-परिमिता होकर, अन्तरिक्ष के ऊपर स्थित होकर
शब्द करती है।
४२. उसके पास से सारे मेघ वर्षा करते है, उसी से चारों दिशाओं
में आश्रित भूतों की रक्षा होती है। उसी से जल उत्पन्न होता और
जल से सारे जीव प्राण धारण करते हैं।
४३. मेने पास ही सुखे गोबर से उत्पन्न घूम को देखा। चारों
दिशाओं में व्याप्त निकृष्ट धूम के बाद अग्नि को देखा। वीर या
ऋत्विक् लोग शुक्ल-वणं वृष या फलदाता सोम का पाक करते हें।
उनका यही प्रथम अनुष्ठान हैं।
२५२ _ हिन्दी-ऋग्वेद
४४. केश-यक्त तीन व्यक्ति (अग्नि, आदित्य, वायु) वर्ष के बीच,
यथासमय भूमि का परिदर्शन करते हैं। उनमें एक जन पृथिवी का
क्षौर कर्म करते हें, दूसरे अपने कार्य-द्वारा परिदर्शंन करते हें और
तीसरे का रूप नहीं देखा जाता, केवल गति देखी जाती हे ।
` ४५. वाक चार प्रकार की है। मेधावी योगी उसे जानते हँ । उसमें
तीन गृहा में निहित हैं, प्रकट नहीं हें। चोथे प्रकार की वाक् मनुष्य
बोलते हुँ!
४६. मेधावी लोग इन आदित्य को इन्द्र, मित्र, वरुण तौर अग्नि
कहा करते हँ। ये स्वर्गीय, पक्षवाले (गरुड) और सुन्दर गमनवाले
हें। ये एक हुं, तो भी इन्हें अनेक कहा गया हें। इन्हें अग्नि, यम
ओर मातरिइवा कहा जाता ह।
४७. सुन्दर गतिवाली और जल-हारिणी सूर्यकिरणे कृष्णवर्णं और
नियत-गति मेघ को जलपूर्ण करते हुए युलोक में गमन करती हें। वह
बृष्टि के स्थान से तीचे आती हें और पृथिवी को जल से अच्छो तरह
भिगोती हृ।
४८. बारह परिधियाँ (राशियाँ), एक चन्द्र (वर्ष) ओर तीन
नाभियां हें। यह बात कोन जानता हें? इस चन्द्र (वर्ष) में तीन सो
साठ अर या खुंट हैं।
४९. सरस्वती, तुम्हारे शरीर में रहनेवाला जो गुण संसार के सुख
का कारण है, जिससे सारे वरणोय धनी की रक्षा करती हो, जो
गुण बहुरत्तों का आधार है, जो समस्त धन प्राप्त किये हुए हे
और जो कल्याणवाही है, इस समय हमारे पान के लिए उसे
प्रकट करो ।
५०. देवों वा यजमानों ने यज्ञ या अग्नि-दारा यज्ञ किया है;
क्योंकि वही प्रथम धमे हें। वह माहात्म्य आकाश में एकत्र हैं, जहाँ
पहले से ही साधनीय देवता हैं।
हिन्दीनत्रग्बेद ३५३
५१. जल एक ही तरह का हे; कभी ऊपर और कभी नीचे जाता-
आता हुँ । प्रसच्चता-दाता मेघ भूमि के प्रसन्न करते हैं। अग्नि
झलोक को प्रसन्न करते हृ।
५२. सुयंदेव स्वर्गीय सुन्दर गतिवाले, गमनशील, प्रकाण्ड, जल के
गर्भोत्पादक और ओषधियो के प्रकाशक हँ। वे बृष्टिद्वारा जलाशय
को तृप्त और नदी को पालित करते हें। रक्षा के लिए उन्हें बुलाता
हे ।
१६५ सूक्त
. (२३ अनुवाक। दैवता इन्द्र । यहाँ से १९१ सूक्तो तक के
ऋषि अगस्त्य । छन्द त्रिष्टुप्, । इस सुत्ते म इन्द्र, मस्त ओर
अगस्त्य की बातचीत है । इसके तीसरे, पाचवे, सातवें ओर नवें
पत्र मस्त के वचन हैं; इसलिए उनके ऋषि मरुत् हैं। तीन के
ऋषि अगस्त्य है । अवशिष्ट के ऋषि इन्द्र हैं |)
१. (इन्द्र) समानवथस्क ओर एक स्थान-निवासी मरुत लोग
सर्वसाधारण की दुज्ञेय शोभा से युक्त होकर पृथिवी पर सिङचन करते
हैं। मन में क्या सोचकर वे किस देश से आय हुँ? आकर जलवर्षीय-
गण धन-लाभ की इच्छा से क्या बल की अचना करते हें?
२. तरुणवयस्क मरुद्गण किसका हव्य ग्रहण करते हें? वे अन्त-
रिक्षचारी श्येन पक्षी की तरह हैं। यज्ञ में उन्हे कौन हटा सकता है?
केसे महा-स्तोत्र-द्रारा हम उन्हें आनन्दित करें ?
३. (मरुद्गण) हे साधुपालक और पूज्य इन्द्र, तुम अकेले कहाँ
जा रहे हो ? तुम क्या एसे ही हो? हमारे साथ मिलकर तुमने ठीक
ही पुछा है । हरि-वाहन, हमारे लिए जो वक्तव्य है वह मीठे वचनो
से कहो।
४. (इन्द्र) सारा हव्य मेरा हैं; सारी स्तुतियाँ मेरे लिए सुखकर
हैँ; प्रस्तुत सोस मेरा हे। मेरा मज़बूत बज्तर फेंके जाने पर अव्यर्थ
२५४ हिन्दी-ऋग्वेद
होता है। यजमान लोग मेरी ही प्रार्थना करते हैं, ऋड -संत्र मुझे ही
चाहते हें! ये हरि नाम के दोनों घोड़े हृव्य-छाभ के लिए मुझे ढोते है।
५. (मरुद्गण) इसी लिए हम महातेज से अपने शरीर को अलंकृत
करके, निकटवर्ती और बली अश्वो से युक्त होकर, यज्ञस्थान में जाने
के लिए शीघ्र ही तैयार हुए हैं! तुम रेत या बल के साथ हमारे
साथ ही रहो।
६. (इन्द्र) सरतो, अहि या बुत्रासुर के वध के समय सेरे साथ
रहने का तुम्हारा ढंग कहाँ था? में उच्च बलिष्ठ महात्म्यवाछा हूँ;
इसलिए मेने सारे शत्रुओं को बधन्द्वारा परास्त किया है।
७. (मरुद्गण) अभीष्ट-बर्षी इन्द्र, हम समव पौरववाले हुँ।
हमारे साथ मिलकर तुसने बहुत कुछ किया है। बलूवत्तम इन्द्र, हमने
सी बहुत काम किया हँ । हम मरत हे; इसलिए कार्य-द्वारा हम वृष्ट
आदि की कामता करते हूँ।
८. (इन्द्र) मरुतो, मेन क्रोध के समथ विशाल पराक्रमी बनकर
अपने बाहुबल से वत्र को पराजित किया है। में वज्रबाहु हूँ। में
मनुष्य के लिए सबकी प्रसञ्चता-दायक सुन्दर वृष्टि किया करता हूँ।
९. (मरुद्गण) इन्द्र, तुम्हारा सभी कुछ उत्तम है। तुम्हारे समान
कोई देवता विद्वान् नहीं हें। अतीव बलशाली इन्द्र, तुमने जो कत्तेब्य-
कर्मों को किया है, उन्हें न तो कोई पहले कर सका, न आगे कर
सकता है।
१०. (इख्न) में अकेला हुँ। मेरा ही बल सर्वत्र व्याप्त हो; में
जो चाहूँ, तुरन्त कर डालू; क्योंकि, मरुतो, में उग्र और विद्वान् हूं
एवं जिन धौ का मुझे पता है, उनका में ही अधीश्वर हूं ।
११. सरतो, इस सम्बन्ध में तुमने सेरा जो प्रसिद्ध स्तोत्र किया
हँ, वह सुखे आनन्दित करता हुं । में अभीष्ट फलदाता, एरवर्थश्ञाली,
विभिन्न ख्पोंवाला और तुम्हारा योग्य सित्र हुँ।
हिन्दी-ऋणष्वेद बण
१२. सरतो, तुम सोचे के रंग के हो । बेरे लिए प्रसन्न होकर दूरस्थ
कोति और अक्त धारण करते हुए मुझे अच्छी तरह से प्रकाश ओर तेज-
हारा आच्छादित किया हे। मुझे आच्छादित करो ।
१३. (अगस्त्य) मर्तो, कोन मनुष्य तुम्हारी पूजा करता है ? तुस
सबके मित्र हो । तुम यजमान के सामने आओ। अर्तो, तुम मनोहर
धनं की प्राप्ति के उपाय-भूत बनो ओर सत्य कर्म को जानो ॥
१४, मरुतो, स्तोत्र-दारा परिचरण-समर्थ, स्तुति-कुशल और मास्य
ऋत्विक् की बुद्धि, तुम्हारी सेवा के लिए हमारे सामने आती है।
मरुतो, में मेधावी हूँ। मेरे सामने आओ। तुम्हारे प्रसिद्ध कर्म को
लक्ष्य कर स्तोता तुम्हारा पुजन करता हे।
१५. मरुतो, यह स्तोत्र और यह स्तुति माननीय और प्रसन्नता-
दायक है अथवा मान्य मान्द्यं कवि की है। यह शरीर-पुष्टि के लिए
तुम्हारे पास जाती हैँ । हम अन्न, बल और दीर्घ आयु अथवा जय,
शील और दान पायं।
तृतीय अध्याय समाप्त ॥
१६६ सूक्त
(चतुथे अध्याय । देवता मस्दूयण। ऋषिं अगस्त्य । छन्द् चिष्टुप्।)
१. फलवर्षक यज्ञ के सुसम्पादद के लिए, मरुतों के शीक्ष आकर
उपस्थित होने के लिए, उनके प्रसिद्ध पूर्वतन महात्म्य को कहता
हैं। हे विशाल ध्वनि से युक्त और सब कार्यो सें समर्थ मरुद्गण, तुम्हारे
यज्ञत्थल में जाने के लिए प्रस्तुत होने पर जैसे समिधा तेज से
आवृत होती है, वसे ही तुम लोग युद्ध में जाते के लिए प्रभूत बळ
धारण करो।
३५६ हिन्दी-ऋग्वेद
२. औरस पुत्र की तरह प्रिय-मधुर हव्य धारण करके घषणकारी
सरुद्गण, प्रसन्न चित्त से, यज्ञ सं क्रीड्डा करते है।विनीत यजमान
की रक्षा के लिए रुद्रगण मिलते हैं। उनके बल उनके अधीन हुँ;
बे कभी यजमान को क्लेश नहीं देते।
३. जिस हविर्दाता यजमान की आहुति से प्रसन्न होकर स्व -रक्षक,
असर और सुखोत्पादक मरुद्गण यथेष्ट धन देते हें, उसी यजमान के
हितकारी सखा की तरह तुम लोग समस्त संसार को अच्छी तरह
सींचते हो । |
४. मरुतो, तुम्हारे अश्वगण अपने बल से सारे संसार का भ्रमण
करते हें; वे अपने ही रथ से युक्त होकर जाते ह । तुम्हारी यात्रा अत्यन्त
आइचर्यमयी हँ । हथियार उठाने पर जैसे लोग संसार में डरते हे,
बैसे ही सारे भुवन और अट्टालिका, तुम्हारे यात्रा-काल में,
डरती हे।
५. मरुतों का गमन अत्यन्त प्रदीप्त ह । वे जिस समय गिरि-गह्वरों
को ध्वनित करते हे अथवा मनुष्यों के हित के लिए अन्तरिक्ष के
ऊपरी भाग में चढते हे, उस समय उनके पथ के सारे वीरुध,
डर के मारे व्याकुल हो जाते और रथाछढ़ा स्त्री की तरह ओषधियां
एक स्थान से दूसरे स्थान पर चली जाती हे।
६. उग्र मरतो, सुबुद्धि के साथ, तुम लोग अहिसक होकर हमें
सुबुद्धि प्रदान करो । जिस समय तुम्हारी क्षेपणशील ओर दन्त-विशिषट
विद्युत् दश्ञंन करती हुँ, उस समय सुलक्षित हेति(अस्त्र-विशेष) की
तरह, पशुओं को नष्ट करती हे।
७. जिनका दान अविरत हे, जिनका धन अंश-रहित है, जिनका
शत्रु-बध पर्याप्त हे ओर जिनकी स्तुति सुगीत है, वे मरुद्गण, सोम
के पाने के लिए, स्तुति गाते हें; क्योंकि वे ही लोग इन्द्र की प्रथम
बीर-कीत्ति जानते हें।
हिन्दी-ऋण्वेद २५७
८. सरतो, तुमने जिस व्यक्ति को कुटिल-स्वभाव पाप से बचाया
है, हे उग्र और बलवान् मरुद्गण, तुमने जिस मनुष्य को पुत्रादि-
पुष्टि-ताधन-हारा निन्दा से बचाया है, उसे असंख्य योग्य वस्तुओं
द्वारा प्रतिपालित करो । |
९, सरतो, सारे कल्याणवाही पदार्थ तुम्हारे रथ पर स्थापित हैं।
तुम्हारे स्कन्थदेश में परस्पर स्पर्डावाले आयुध हुँ। तुम्हारे लिए
विश्चाम-स्थान पर खाद्य तयार है। तुम्हारे सारे चक्र अक्ष के पास
घूमते है। |
_ १०. मनुष्यों की हितकारिणी भुजाओं पर मरुद्गण अनन्त कल्याण-
साधक द्रव्य धारण करते हैं, वक्षःस्थल में कान्तियुक्त और सुन्दर-
रूप-संयुक्त सोने के आभूषण धारण करते हे। स्कन्धदेश में इवेत-वर्ण
की माला धारण करते हें। वच्च-सदृश आयुध पर क्षुर धारण करते
हैं। जसे पक्षी पक्ष धारण करते हैं, वेसे ही मरुतलोग श्री धारण
करते हैं।
११. जो मरुदूगण महान्, सहिसान्वित, विभूतिमान् और आकाशस्थ
नक्षत्रों की तरह दूर में प्रकाशित है, जो प्रसन्न हें, जिनकी जीभ सुन्दर
है, जिनके मुख से शब्द होता है, जो इन्द्र के सहायक हें और जो
स्तुति-युक्त हैं, बे हमारे यज्ञ-स्थल में आायें।
१२. सुजात मरुद्गण, तुम्हारा माहात्म्य प्रसिद्ध है और तुम्हारा
दान अदिति के ब्रत की तरह अविच्छिन्न है । तुम जिस पुण्यात्मा यज-
मान को दान देते हो, उसके प्रति इन्र कुटिलता नहीं करते।
१३. मरुदूगण, तुम्हारी मित्रता प्रसिद्ध और चिरस्थायिनी है।
अमर होकर तुम लोग हमारी स्तुति की भली भाँति रक्षा करते हो।
अनुग्रह-पुवेक+ सनुष्यों की स्तुति की रक्षा करते हुए, उनके साथ
मिलकर तथा उनका नेतृत्व स्वीकार कर कर्मे-हारा सब जान
जाते हो । |
फा० १७.
२५८ हिन्दी-ऋष्वेद
१४. वेगवान् सस्तो, तुम्हारे महान् आगसन पर हम दीर्घ कमं-
यज्ञ को डत करते हैं । उसके द्वारा युद्ध में मनुष्य विजयी होता है।
इन सब थज्ञों-हारा में तुम्हारा शुभागसन प्राप्त कर सकं ।
१५. सरुतो, कवि मान्य मान्दयं का यह स्तोम तुम्हारे लिए हुँ;
यह स्तुति ठुम्हारे लिए है; इच्छानुसार उसकी शरीर-पुष्टि के लिए
तुम्हारे पास आती है । हम भी अन्न, बल और दीर्घायु पराप्त करें।
१६७ हूक्त
(देवता प्रथम संत्र के इन्द्र; अवशिष्ट के मरुत । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, तुम हज़ारों तरह से रक्षा करो। तुम्हारी रक्षायें हमारे
पास आयें । हरि नामक अइववाले इन्द्र, तुम्हारे पास हजार तरह के
प्रशंसनीय अन्न हैं; वे हमें प्राथ्त हों। इन्द्र, तुम्हारे पास हजार
तरह का धन है। हमारी तृप्ति के लिए बे हमें प्राप्त हों। हजार
चोपाये हमें प्राप्त हों ।
२. आश्रय देने के लिए मरुद्गण हमारे पास आयें। सुबुद्धि मरुद्गण
प्रशत्यतस और महादीप्ति-संयुक्त धन के साथ हसारे पास आयें;
क्योंकि उनके नियुत् नाम के उत्कृष्ट अस्व समुद्र के उस पार भी
धव धारण करते हैं।
३. सुव्यवस्थित, जल-वर्षंक ओर सुवर्ण-वर्ण विद्युत् मेघमाला की
तरह अथवा निगढ़ स्थान सं अवस्थित मनुष्य की भार्या की तरह
अथवा कही गई यज्ञीय वाणी की तरह इन मरुतों के साथ मिलती है।
४, साधारण स्त्री की तरह आलिगन-परायण बिजली के साथ
श्रवण, अतिगसनशील और उत्कष्ट सरुद्गण मिलते हैँ। भयंकर
सरुद्गण द्यावा-पृथिवी को चहों हटाते। देवता लोग सेत्री के कारण
उनकी समृद्धि कः साधन करते हें।
५. असुर (मरुतो) की अपनी पत्नी रोदसी या बिजली आलुलायित
केश ओर अनुरक्त मन से मरुतों के संगम के लिए उनकी सेवा करती
हिन्दी-ऋ ग्वेक २५९
है। जैसे सूर्या अहिवनीकुमारों के रथ पर चढ़ती हैं, बैसे ही प्रदीप्तावयवा
रोइसी चंचल सर्तों के रथ पर चढ़कर शीघ्र आती है।
६. यज्ञ आरम्भ होने पर बृष्टि दान के लिए तरुण बयस्क तरुणी
रोदसी को रथ पर बेठाते हें। बलवती रोदसी नियमानरूप
उनके साथ मिलती हें । उसी समय अचेन-मंत्र-युक्त हव्यदाता
और सोमाभिववकारी थजमान सरुतों की सेवा करते हुए स्तव-पाठ
करता हैं।
चे
७. मरुतों की महिमा सबकी प्रशंसनीय और असोध है। में
उसका वर्णन करता हूँ । उनकी रोदसी वर्षणाभिलाषिणी अहंकारिणी
और अविनश्वरा हैं। यह सौभाग्यशालिनी और उत्पत्तिशील प्रजा को
धारण करती हे ।
८, मित्र, वरुण और अर्यसा इस यज्ञ को निन्दा से बचाते और
उसके अयोग्य पदार्थ का विनाश करते हें। मरुतो, तुम्हारे जल देवे
का समय जब आता ह, तब व मंघों के बीच संचित जल की
वर्षा करते ह ।
९. मरुतो, हमारे बीच किसी ने भी, अत्यन्त दुर से भी, तुम्हारे
बल का अन्त नहीं पाया है। दूसरों को परास्त करनेवाले बल के
हारा बढकर जलराशि की तरह अपनी शक्तिसे शत्रओं को
विजित करते है ।
१०. आज हम इन्द्र के प्रियतम होंगे, यज्ञ में उनकी महिमा गायेंगे।
हमने पहले इन्द्र का माहात्म्य गाया था और प्रतिदिन गाते है।
इसलिए महान् इन्द्र हारे लिए मनुक्ल हों। |
११. मर्तो, कवि सान्दयं को यह स्तुति तुम्हारे लिए हे । इच्छा
नुसार उसको शरीर-पुष्टि के लिए तुम्हारे पास आती है । हम भौ अन्न,
बल ओर दीर्घाय पण्यं ।
२६० हिन्दी-ऋग्वेद
१६८ सक्त
(देवता मरुदूगण । छन्द त्रिष्टुप् और जग ती)
. १. मरुतो, सारे यज्ञो में ही तुम्हारा समान आग्रह है । अपने सारे
कर्मो को देवों के पास ले जाने के लिए धारण करते हो; इसलिए
द्यावा-पृथिवी की भली भाँति रक्षा करने के लिए उत्कृष्ट स्तोत्र-
द्वारा तुम्हें अपनी ओर आव के लिए बुछाता हू ।
२. स्वयं उत्पन्न, स्वाधीन बल और कस्पनशील सरुदूगण मानो मतिः
मानू होकर अन्न और स्वर्ग के लिए प्रकट होते हैं। असंख्य और
प्रशंसनीय धेनु जेसे दूध देती हे, वेसे ही, जल-तरंग के समान वे उपस्थित
होकर जल-दान करते हें।
सुसंस्कृत शाखावाली सोसलता, अभिषुत और पीत होकर, जैसे
हृदय के बीच परिचारिका की तरह कार्य करती है, वैसे ही ध्यान किये
जाने पर मरुद्गण भी करते हें। उनके अंश-देश में, स्त्री की तरह,
यायुध-विज्ञेष आलिगन करता हें । मरुतों के हाथ में हस्तत्राण और
क्तेन हे ।
४. परस्पर मिले हुए मरदगण अनायास स्वर्ग से आते हैं। अमर
मरुतो, अपने ही वाक्यों से हमारा उत्साह बढ़ाओ । निष्पाप, अनेक यज्ञों
में प्रादुर्भूत ओर प्रदीप्त मरुद्गण दृढ़ पर्वंतों को भी कम्पित कर देते हैं।
५. आयुध-विज्ञेब या भुज-लक्ष्मी से सुशोभित मरुद्गण, जैसे जीभ
दोनों जबड़ों को चालित करती हे, वेते ही तुम्हारे बीच रहकर कोन
तुम्हें परिचालित करता हुँ । तुस लोग स्वयं परिचालित होते हो। जैसे
जलवर्षी सेघ परिचालित होता है, जैसे दिन में मेघ चालित हीता है,
वसे ही बहुरुरेच्छ यजमान, अञ्ञ-प्राप्ति के लिए, तुम्हें परिचालित
करता हे ।
६. सरतो, जिस जल के लिए तुस आते हो, उस विशाल वृष्टि-
जल का आदि और अन्त कहां है ? श्षिथिल तूण की तरह जिस समय
हिन्दी-त्ररबेद २६१
तुम जलराशि को गिराते हो, उस समय वज्नद्वारा दौष्तिमान मेघ को
विदीणं करते हो ।
७. मरुतो, जसा तुम्हारा घन हे, वैसा ही दान भी है। दान के
सम्बन्ध में तुम्हारे सहायक इन्द्र हें। उसमें सुख और दीप्ति हें । उसका
फल परिपक्व हें । उससे कृषि-कार्य का भी मंगल होता है। वह दाता
की दक्षिणा की तरह शीघ्र फलदाता हुँ । वह असूर्ये की जयशील शक्ति
की तरह हैं ।
८. जिस समय वश्च मेघ-सम्भूत शब्द उच्चारित करते हें, उस समय
उनसे क्षरणशील जल परिचालित होता है । जिस समय मरुद्गण पृथिवी
पर जल सेचन करते हैं, उस समय विद्युद् निम्नमुख पृथिवी पर प्रकट
होती हैँ । [
९. परिनि ने महासंग्राम के लिए प्रदीप्त गमन-्यक्त मरुदगण को
प्रसव किया हैं । समान खूपवाले मरुतों ने जल उत्पन्न किया है। इसके
पश्चात् संसार ने अभिलषित अन्न आदि प्राप्त किया हू ।
. १०. सरतो, कवि मान्य मान्दर्थे का यह स्तोत्र तुम्हारे लिए हुँ;
यह स्तुति तुम्हारे लिए हूं। अपने शरीर की पुष्टि के लिए तुम्हारे
पास आता हूं । हम भी अन्न, बल और दीर्घायु प्राप्त करें।
१६९ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द् त्रिष्टुप् और विराट )
१. इन्द्र, तुम निश्चय ही महान् हो; क्योंकि तुम रक्षक ओर महान्
मरतो का परित्याग नहीं करते। हे मरतों के विघाता, तुस हमारे प्रति
कृपा करके हमें सुख प्रदान करो । वह सुख प्रियतम है ।
२. इन्द्र, सब सनुष्योंवाले, मनुष्यों के लिए जल-सिचन करनेवाले
और विद्वान् मरुद्गण तुम्हारे साथ मिले । मरुतों की सेना, सुख के
उपायभूत युद्ध म, जय-प्राप्ति के लिए सदा प्रसन्न हुई हुँ।
२६२ हिन्दी-क्रर्वेद
३. इन्द्र, तुम्हारा प्रसिद्ध वञ्चायुध-विशेष (ऋष्टि) हमारे लिए,
मेघ के पास जाता है। अरुद्गण चिर-सञ्चित जल गिरा रहे हे।
विस्तृत यज्ञ के लिए अग्नि प्रदीप्त हुए हैं। जेसे जल होप को धारण
करता हैँ, वैसे ही अग्नि हव्य धारण करते हें।
४. इन्द्र, तुम अपने दान-योग्य धन का दान करो । तुस दाता हो।
हम लोग प्रचुर दक्षिणा-उारा तुम्हें प्रसञ्च करेंगे। तुम वायु या जीभ
बरदाता हो। स्तोता लोग तुम्हारी स्तुति करना चाहते हैं। मधुर
दुध के लिए जैसे लोग स्त्री के स्तन को पुष्ट करते हे, वेसे ही हम भी
तुम्हें अन्न आदि के द्वारा पुष्ट करते हे ।
५. इन्द्र, तुम्हारा धन अत्यन्त प्रीति-दाता और यजभान का यज्ञ-
निर्वाहकारी हूँ । जो मरुद्गण पहले ही यज्ञ सें जाने के लिए तैयार हो
जाते है, वे ही हमें सुखी करें।
६. इन्द्र, तुस जरू-सेचक हो। पुरुषःर्थी और विश्ञाल मेघ के सामने
जाओ अन्तरिक्ष प्रदेश मे रहकर चेष्टा करो । युद्ध-क्षेत्र में शत्रुओं के
पराक्रम की तरह मरुतो के विस्तीणं पद्~-अश्वगण--मेघों पर आक
मण करते हुं ।
७. इन्द्र, भयंकर, कृष्णवर्ण ओर गमनशील मरुतों के आने का
शब्द सुनाई देता हें । जेसे अधम शत्र का विनाश किया जाता हे, बैसे
ही मनुष्यों की रक्षा के लिए मरुद्गण प्रहरण-द्वारा सेना-बल-संयुक्त
शत्रुओं का विनाश करते हँ।
८. इन्द्र, सारे प्राणी तुमसे ही उत्पन्न हुए हें। मरुतो
के साथ, अपने सम्मान के लिए, तुम दुःख-नाशिका और
जल-धारिणी मेघ-पंदित को विदीर्ण करो। देव, स्तूयसान देवगण
तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम हमें अन्न, बल और दीर्घाय
प्रदान करो । |
हिन्दी-ऋ वेद २६३
१७० सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि प्रथम, ठृतीय ओर चतुर्थ ऋचाओं के इन्द्र
आर शेष के अगस्त्य । छुन्द् निष्टुप् ओर बृहती |)
१. (इन्द्र) आज या कल कुछ नहीं हे। अद्भुत कार्य की
बात कौन कह सकता है ? अन्य सनुष्यो का मन अत्यन्त चञ्चल होता
है--जो अच्छी तरह पढ़ा जाता है, वह भी भूल जाता है।
२. (अगस्त्य) इन्द्र, तुम क्या मुझे मारना चाहते हो मरुद्गण
तुम्हारे जाता हैं। उनके साथ अच्छी तरह यज्ञभाग भोगो। युद्ध
काल में हमें नहीं विनष्ट करना ।
३. (इन्द्र) आता अगस्त्य, भित्र होकर तुम क्यो हमें अनादुत कर
रहे हो ? हम निइचय ही तुम्हारे मन की बात जानते हे। तुम हमें नहीं
देना चाहते।
४. ऋत्विकृगण, तुम वेदी को सजाओ और सामने अग्नि को
प्रज्वलित करो। अनन्तर उसस तुम और हम अमृत के सुचक यज्ञ
को करेंगे ।
५. (अगस्त्य) हे घन के अधिपति, हे मित्रों के सित्रपति, तुम
ईश्वर हो, तुम सबके आश्रय-स्वरूप हो। तुस मरुतों से कहो कि हमारा
यज्ञ सम्पन्न हुआ हुँ । तुस यथासमय मपित हव्य भक्षण करो।
१७१ सूक्त
(देवता मरुद्गण । छन्द त्रिष्टुप् )
१. मरुतो, में नमस्कार ओर स्तुति करता हुआ तुम्हारे पास आता
हुँ । हे वेगवान् मरुतो, तुम्हारी दया चाहता हूँ। मरुतो, स्तुति-द्वार/
आनन्दित चित्त से क्रोध छोड़ो और रथ से अश्व छोड़ो अर्थात् ठहरने
की कृपा करो। |
२६४ हिन्दी-ऋग्वेद
` २, सस्तो, तुम्हारे इस स्तोम सें अन्न है। दैवगण, यह स्तोम,
तुम्हारे उद्देश्य से हृदय से सम्पादित हुआ हँ; कृपा करके इसे सन में
- रखिए्। सादर इसे स्वीकार करते हुए आओ। तुम हव्य-हप अन्न के
वद्धयिता हो ।
३. मरुद्गण, स्तुत होकर हमें सुखी करो । इन्द्र, स्तुत होकर हमें
सर्वापेक्षा सुखी करें। सस्तो, हम लोग जितने दिन जियें, वे सब दिन
उत्कृष्ट, स्पृहणीय और भोगऱ्योग्य हों।
४. सरतो, हम इस बलवान् इख के पास से डर के मारे भागते
हुए काँपने लगे । तुम्हारे लिए जिस हव्य को संस्कृत किया था, उसे दूर
कर दिया। हमें सुखी करो।
५. इन्द्र, तुम बल-स्वरूप हो । तुम्हारे माननीय अनुग्रह से किरणं,
प्रतिदिन उषा के उदयकाल में प्राणियों को चेतन्य देती हें। अभीष्ट-
वर्षी, उग्र बल-प्रदायी और पुरातन इन्द्र, तुम उम्र मरुतों के साथ
अन्न धारण करो।
६. इन्द्र, प्रभूत बलशाली मरुतों की रक्षा करो । उनके प्रति निष्कोध
बनो । मरुद्गण उत्तम प्रजावाले हें। उनके साथ शत्रुओं के विनाशक
बनो ओर हमारी रक्षा करो। हम अन्न, बल और दीर्घायु प्राप्त करें।
१७२ सूक्त
` (देवता इन्द्र | छन्द त्रिष्डुप् )
१. मरतो, यज्ञ में तुम्हारा आगमन विचित्र हो। दानशील और
उत्कृष्ट दीप्तिवाले मरुतो, तुम्हारा आगमन हमारी रक्षा करे।
२. दानशील सरतो, तुम्हारे दीप्यमान ओर प्राणिवधकुशल अस्त्र
हमारे पास से दुर हों। तुम जिस अहम नाम के रथ को फेंकते हो,
दह भी हमारे पास से दूर हो
३. दाता मरुतो, तिनके के समान नीच होने पर भी मेरी प्रजाओं
को बचाना! हमें उन्नत करो, ताकि हम बच जायेँ।
हिन्दीनऋग्वेद ३६५
१७३ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् )
१. इन्द्र, उद्गाता सामवेद का इस प्रकार आकाशव्यापी गाव
गाता है कि तुम समक सको। हम उस वर्धमान और स्वगं-प्रदाता
स्तोत्र की पुजा करते हें। स्वर्गीय इन्द्र, दुग्वती और "हिसा-शून्या
गाये जैसे कुशासन पर बंठने के समय तुम्हारी सेवा करती हूँ, बसे ही
में भी पुजा करता हूं।
२. हुव्यदाता यजमान, हथ्य-प्रदाता अध्वर्यु आदि के साथ अपने
दिये हव्य-द्वारा इन्द्र को पुजा करते हें। पिपासित मृग की तरह
इन्र, व्रत वेग से यज्ञ-स्थल में उपस्थित होंगे । उग्र इन्द्र, स्तोत्राभिलाषी
देवों की स्तुति करते हुए मत्यं होता, स्त्री-पुरुष, यज्ञ-सम्पादन करते हैं ।
३. होम-सम्पादक अग्नि परिमित गार्हपत्यादि स्थान में चारों
ओर व्याप्त हें तथा शरत्काल के और पृथिवी के गर्भस्थानीय अन्न
को ग्रहण करते हँ। अश्व की तरह शब्द करके, वृषभ की तरह शब्द
करके, अच्च लेकर, आकाश ओर पृथिवी के बीच दूत-स्वरूप बात"
चीत करते हें। |
४. हम इन्द्र के उद्देश्य से अत्यन्त व्यापक हव्य प्रदान करंगे।
देवाभिलाषी यजमान दढ् स्तोत्र करते हुँ। दर्शनीय तेजवाले अझ्विनी-
कुमारों की तरह जानने योग्य और रथ पर अबस्थित इन्द्र हमारे
स्तोत्र का सेवन कर । |
५. हें होता, जो इन्द्र अनन्त बलवाले, शौय्यवान्, बलवान् रथ पर
स्थित, सामने के योद्धाओं में श्रेष्ठ योद्धा, दज्च आदिवाले और मेघ
आदि के विनाशक हे, उनकी स्तुति करो
६. इन्द्र, अपनी महिमा से कसं-निष्ठ यजमानों को स्वर्गं आदि
फल देने में समर्थ हे । द्यावा-प् थिवी उनकी कक्षा की पुत्ति के लिए
पर्याप्त नहीं हे। जसे अन्तरिक्ष पृथिवी को वेष्टित कर रहता हैं,
३६६ हिन्दी-ऋणग्वेद
बैसे ही दे भी अपनी प्रतिभा से तीनों लोकों को व्याप्त करते हैँ। जैसे
बृषभ अनायास शूंग धारण करता है, बैसे ही अन्नवान् इन्द्र भी स्वगं
को अनायास धारण करते हैं।
७. शुर इन्द्र, युद्ध-भूसि में साधुओं के बलप्रद और उत्तम-सार्ग-हूप
हो । मदद्गण तुम्हें स्वामी कहकर आनन्दित होत हूँ। वे तुम्हारे परिजन
हैं। तुम्हारे आनन्द के लिए सब लोग समान आनन्दित होकर तुम्हें
अलंकृत करने की चेष्टा कर रहे हैं।
८. यदि अन्दरिक्ष-स्थिठ और प्रकाशमान जल प्रजाओं के लिए
तुम्हें सुखी करे, यदि सारे स्तोत्र आदि तुम्हें प्रसन्न करे और यदि तुम
बुष्टि-प्रदान आदि कर्म-द्वारा स्तोताओं की कासना करो, तो तुम्हारा
सवन सुखकर हो ।
९. प्रभु इन्द्र, जैसे हम तुम्हारे मित्र हो सक और स्तुति-द्वारा
राजाओं की तरह तुम्हारे पास से अभीष्ट प्राप्त कर सकें, वेसा
करो। इन्द्रदेव, हमारे स्तुति-काल में उपस्थित होकर शौघ्षता के
साथ हमारा यज्ञ उक्त स्तुति के साथ ले जाओ।
१०. जैसे मनुष्यों में प्रतिस्पर्धी व्यक्तियों को स्तुति द्वारा सदय
किया जाता हैं वेसे ही हम भी इन्द्र को करेंगे। इन्द्र केवल हमारे
ही होंगे। जसे योग्य शासक नगरपति को हितेषी लोग पुजा करते
हुँ, बसे ही हमारे बीच अवस्थानाभिलाषी अध्वर्य् छोय, हव्य आदि
द्वारा, इन्द्र की पुजा करते हे।
११. उसी प्रकार यज्ञपरायण व्यक्ति यज्ञ-द्वारा इन्द्र की वृद्धि करता
हुँ ओर कुटिल्गति व्यक्ति मन ही सन सदा चिन्ता-परायण रहता है,
जिस प्रकार दीर्थ-मार्ग में सम्मुखस्थित जल तुरत लोगों को प्रसन्न
करता और दीर्घ-पथ का जल तृषाते व्यक्ति को निराश करता है ।
१२. इन्द्र, युद्ध-वेला में मरुतों के साथ तुस हमें नहीं छोड़ना;
क्योंकि हे बलवान् इन्द्र, तुम्हारे लिए यज्ञ का भाग स्वतंत्र है। हमारी
हिन्दी-ऋण्वेद २६७
कल-्तमन्वित स्तुति महान्, हविष्मान् और जलदाता भरुतों की बन्दना
करती है ।
१३. इन्द्र, यह स्तोम तुम्हारा ही है। हरिवाहन, इस स्तुति-द्वारा
तुम हमारा देव-पूजन-ागे जान लो ओर अनायास जाने के लिए
हमारे पास पधारो ।
१७४ सुक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् )
१. इन्द्र, तुम संसार और सारे देवों के राजा हो । तुम मनुष्यों
की रक्षा करो। असुर, तुम हमारी रक्षा करो । असुर, तुम हमारी
रक्षा करो । तुम साधुओं के पालक, धनवान् और हमारे उद्धार-कर्ता
हो। तुम सत्य और बल-प्रदाता हो। तुमने अपने तेज से सबको ढक
लिया हे ।
२. इन्द्र, जिस समय तुमने संवत्सर-पर्यन्त दृढ़ीकृत सात पुरियों
को भिन्न किया था, उस समय प्रजाओ को संयत-वाक्य करके अनायासं
दसन किया था। अनवच्य इन्द्र, तुमने गतिशील जल दिया था। तुमने
तरुण-वयस्क पुरुकुत्स राजा के लिए बृत्र का वध किया था।
३. इन्द्र, तुम राक्षसों की सारी नगरियों को जाते और वहाँ
से, हे पुरुहूत, अनुचरों के साथ स्वर्ग में जाते हो। वहाँ अशोषक
और ज्ञीक्रकारी अग्निको सिह की तरह बचाते हो जिससे वह अपने
गुह में अपना कत्तव्य पुरा कर सके। |
४. इन्द्र, तुम्हारे शत्रु या मेघ वच्च की महिमा से तुम्हारी प्रशंसा
करते हुए अपने जन्मस्थान में शीघ्र शयन करे। जब तुस अस्त्र लेकर
जाते हो, तब नीचे जल गिराते और हुरियों के अपर चढते हो!
अपनी शक्ति से तुम शस्य आदि बढ़ाते हो। |
५. इन्द्र, तुम जिस यश्च में कुत्स ऋषि की कामना करते हो,
उसमें अपने वशीभूत, सरलगामी और वायु के समान बेगशाली अइवों
२६८ हिन्दी-ऋग्वेद
को परिचालित करते हो । उसके लिए सूर्यं - रथचक्र को पास ले आयें और
दच राहु इन्द्र संग्रामकर्ता शत्रुओं के सामने आयें।
. ६. हरिवाहन इन, तुमने, स्तोत्र-द्वारा प्रवद्ध होकर, दान-रहित
और यजमानों के विघ्नकारी लोगों का विनाश किया है। जिन्होंने
तुम्हें आश्रयदाता रूप से देखा है और जो हव्य प्रदान के लिए मिलित
हुए हें, वे तुमसे संतान प्राप्त करते हे ।
७. इन्द्र, पुजनीय अन्न की प्राप्ति के लिए कवि तुम्हारी स्तुति
करते हुँ। तुमने पृथिवी को दास की शय्या बना दिया हुँ। इन्द्र ने
तोन भूमियों के दान-हारा विधित्र कार्य किया है। एवं दुर्योणि राजा
के लिए कुयवाच का वघ किया हुँ ।
८ इन्द्र, नये ऋषिगण तुम्हारे सनातन प्रसिद्ध वीर कर्म की स्तुति
करते हें। तुमने अनेक हिसको को, संग्राम-निवारण के लिए, विनष्ट
किया है । तुसन देवशून्य विपक्ष नगरों को भिश्च किया हे और देवरहित
शत्र का अस्त्र नत किया हें ।
इस, तुम शत्रुओं में हुड़कम्प पदा करनेवाले हो। इसी लिए
तुम प्रवहमाना सौरा नाम की नदी की तरह तरंग-युक्त जरू पृथिवी
पर गिराते हो। हे शूर, जिस समय तुम समुद्र को परिपुर्ण करते
हो, उस समय तुमने तुर्वसु और यढु के मंगल के लिए उनका पालन
किया ह।
१०. इन्द्र, तुम सदा हमारे रक्षक-श्रेष्ठ बनो और प्रजाओं का पालन
करो! हमारे सन्यों को बल दो, जिससे हम अन्न, बल और दीघं
आयु प्राप्त कर सक ।
१७५ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द बृहती, त्रिष्टुप् और अनुष्टुप्)
१. हरिवाहन इन्द्र, हर्षंकर, अभीष्टवर्षी, आहहादकारी, अच-
वान्, असीस दाववाले और महानुभाव सोम जिस प्रकार पात्र में
_ हवी २६३
स्थापित किया जाता हे; उसी प्रकार तुम भी होकर और पान कर
धारण करो और अतीव प्रसन्न बनो। :
२. इन्द्र, हर्षकर, अभीष्टवर्षी, तर्पयिता, वरणीय, सहायवान्,
शत्र-सैन्य-विनाशंक और अविनाशी सोम तुम्हें प्राप्त हो।
` ३. इन्द्र, तुम शूर और वाता हो, में मनुष्य हूं । मेरा मनोरथ ण
करो। तुस सहायवान् हो। जैसे अग्नि अपनी ज्वाला से पात्र को
जलाता है, बसे ही तुम ब्रत-रहित दस्यू को जलाओ ।
. ४, मेधावी इन्द्र, तुम ईश्वर हो। अपनी सामर्थ्य से तुमने सूर्य
के दो चक्रों मं से एक का हरण कर लिया । शृष्ण का वध करने के लिए
कर्त न-साधन वज्त्र लेकर वायु के समान वेगवाले अश्व के साथ आओ।
` प, इन्द्र, तुम्हारी प्रसन्नता सर्वापेक्षा बल-संयक्त हे । तुम्हारा यज्ञ
सर्वापेक्षा अन्नवान् हं । हे अचंक-अइव-दाता इन्द्र, अपने वृत्रघाती और
घनदायी तथा कतु का समर्थन करो । |
६. इन्द्र, तुम पुराने स्तोताओं के प्रति, तृषा के पास जल की तरह
हुए थे; इसलिए हम बार-बार तुम्हारी स्तुति करते हुँ, जिससे
अन्न, बल और दीर्घायु प्राप्त कर। |
१७६ सूक्त
(दैवता इन्द्र । छन्द् त्रिष्ठुप ।)
१. है सोम, धन-लाभ के लिए इख को आनन्दित करो । अभीष्टः
दर्षी इन्द्र के बीच प्रवेश करो। प्रसन्न होकर शत्रुओं का विनाश करते
हुए क्रमशः व्याप्त होते हो; इसलिए किसी शत्रु को पास में नहीं
आने देते। म
२. इन्द्र, सनृष्यों के अद्वितीय अधीश्वर हैं। धे यथारीति यव
(जौ) की तरह हमारा अभीष्ट सार्थक करते हँ।
३. जिन इन्द्र के हाथों में पंच क्षिति अर्थात् ब्राह्मणादि चार
२७० हिन्दी-ऋग्वेद
वर्ण और निषाद का सर्वप्रकार अन्न हे, वही इन्द्र, जो हमारा द्रोह
करता है, उसे दिव्य वच्च की तरह विष्ट करें।
४. इन्द्र, जो लोग सोम का अभिषव नहीं करते और जिनका
विनाश करना दुःसाध्य है, उनका वध करो; क्योंकि वे तुम्हारे सुख
के कारण नहीं हें। उनका धन हमें दो। तुम्हारा स्तोता ही घन प्राप्त
करता हुँ ।
५. हे सोम, जिन स्तोत्र और हवि के द्विविध कसं करनेवाले यजमान
के पुजा-साधक संत्र सं तुस सदा अवस्थिति करते हो, उसकी तुम
रक्षा करो । हे सोम, इन्द्र के युद्ध में अन्न के लिए अच्चवान् इन्द्र की
रक्षा करो।
६. इन्द्र, तुम प्राचीन स्तोताओं के प्रति, तुवां के पास जल की
तरह कृपाल हुए थे; इसलिए हम बार-बार तुम्हारी सुखकर और प्रसिद्ध
स्तुति करते है, ताकि हम अन्न, बल और दीर्घायु प्राप्त करें।
१७७ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द बृहती, त्रिष्टुप् और अनुष्ठुप् ।)
१. मनुष्यों के प्रीति-दायक, सबके इच्छित-वर्षक, मनुष्यों के स्वामी
ओर बहुतों के द्वारा आहुत इन्द्र हमारे पास आयें। इन्द्र, हमारी स्तुति
ग्रहण कर दोनों तरुण अइवों को रथ में जोतकर, हव्य ग्रहण करने
और रक्षा के लिए हमारे सासने आओ।
२. इन्द्र, तुम्हारे जो तरुण, उत्तम, मंत्र-द्वारा रथ में योजनीय,
चर्षक और रथ से युक्त घोड़े हें, उन पर चढी ओर उनके साथ हमारे
सामते आओ।
३. इन्द्र, तुस अभीष्टदषंक रथ पर चढ़ो; क्योंकि तुम्हारे लिए
सतोरथय दाता सोम तयार हे--मधुर घृत आदि भी तैयार हे । अभीषट-
वर्षक इन्द्र, अभीष्टदाता दोनों हरि नास के घोडी को जोतकर यजन
सान के ऊपर झपा करने के लिए वेगवान् रथ से हमारे सासने आओ।.
हिन्दी-ऋषग्वेद ३७१
४. इन्द्र, देवों के उद्देश्य से यह यल जाता है। यह यज्ञीय पशु,
ये संत्र, यह प्रस्तुत सोस और यह बिछाया हुआ छुद्य तुम्हारे लिए
तैयार है । तुम जल्दी आओ, बेंठो, सोम पिओ और यज्ञ-स्थल में हरि
घोड़ों को छोड़ो ।
५. इन्द्र हमारे द्वारा अच्छी तरह स्तुत होकर माननीय स्तोता के
मंत्र को उपलक्ष्य करके हमारे सामने आओ ३ हम, स्तुति करते हुए,
तुम्हारा आश्रय प्राप्त कर अवायास वासन्स्थान प्राप्त करये । साथ
ही अन्न, बल ओर दीघ आयु भी लाभ करेंग ।
१७८ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्ठुप् )
१. इन्द्र, जिस समृद्धि के द्वारा तुम स्तोताओं की रक्षा करते
हो, वह सर्वत्र प्रसिद्ध हो। तुम हमें महान् करने की अभिलाषा को
नष्ट न करो । तुम्हारे लिए जो वस्तु प्राप्तव्य और भोग्य हे, बह
सब हम प्राप्त करें।
२. परस्पर भगिनी-स्वरूप अहोरात्र अपने जन्मस्थान में जो वृष्टिः
रूप कर्म करते हे, राजा इन्द्र बह हमारा कर्म नष्ट न करें। बल का
कारण हव्य इन्द्र के लिए ब्याप्त होता हे। इन्द्र हमें मंत्री ओर अज्ञ
प्रदात कर ।
३. विक्रसशाली इन्द्र, युद्धननेता मरुतों के साथ युद्ध में जय-लाभ
करते हुए अमुग्रहार्थी स्तोता का आह्वान सुनते हुँ। जिस समय स्वयं
स्तुति-वाक्य को वरण करने की इच्छा करते हैं, उस समय हथ्यदाता
यजमान के पास रथ ले जाते हैं ।
४. उत्तम धन के लाभ की इच्छा से यजमाननद्वारा दिया हुआ
अन्न, प्रचुर परिमाण सें, भक्षण करते तथा सहायताचालि यजमान के
झत्रुओं को पराजित करते हैं ! विभिन्न आह्वानो की ध्वनियों से युक्त युद्ध
३७३ हिन्दी-ऋणग्वेद
में सत्यपालक इन्द्र यजमान के कर्म की प्रसिद्धि करते हुए हथ्य को
ह्वीकार करते हुँ।
५. इन्द्र, तुम्हारी सहायता लेकर हम उन द्ात्रुओं का वध करेंगे,
जो अपने को अवध्य समझते हैं। तुम हमारे ञाता हो। तुम हमारे
धन के वरद्धेक बनो, ताकि हम अन्न, बल और दीर्घ आयु प्राप्त करें।
१७९ सक्त
(इस सूक्त में अगस्त्य, उनकी खरी (लोपामुद्रा) और शिष्य में
सस्भोग-विषयक कथोपकथन है; इसलिए सम्भोग ही इसका देवता
दै । छन्द त्रिष्टुप् और बहती)
१. (लोपामुद्रा) अगस्त्य, अनेक वर्षो से में दिन-रात बढापा
लानेवाली उषाओं में तुम्हारी सेवा करके श्रान्त हुई हूं। जरा शरीर
के सोन्दर्य का नाश करता है। इस समय पुरुष स्त्री के पास
क्ष्या गसन करे !
२. अगस्त्य, जो प्राचीन और सत्य-रक्षक ऋषि लोग देवताओं के
साथ सच्ची बात कहते थे, उन्होंने भी रेत का स्खलन किया हूँ; परन्तु
उन्ह भी अन्त नहीं मिला । पुरुष स्त्री के साथ गमन करे ।
३. (अगस्त्य) हम लोग वथा नहीं श्रान्त हुए; क्योंकि देवता
लोग रक्षा करते हें । हम सारे भोगों का उपभोग कर सकते हैं। यदि
हम दोनों चाहे, तो इस संसार सें हम सैकड़ों भोगों के साधन प्राप्त
कर सकते हुँ।
४. यद्यपि में जय और संयम में नियुक्त हूँ; तथापि इसी कारण
या किसी भी कारण, मुझे काम-भाव हो गया है। सेचन करनेवाली
लोपामुद्रा पति के साथ संगत हो। अधीरा स्त्री धीर और सहाप्राण
पुरुष का उपभोग करे।
५, (शिष्य) हृदय सं पीत इस सोम से में आन्तरिक प्रार्थना
करता हूँ कि सोम मुभे सुखी करे। मनुष्य बहुत कासनावाला होता है।
हिन्दी-ऋणष्वेद ` २७३
६. उग्र ऋषि अगस्त्य ने अनेक उपायों का उद्भावन करके
बहुत पुत्रों ओर बळ को इच्छा करके, कास और तप, दोनों वरणीय
वस्तुओं कः पालन किया था । अगस्त्य ने देवों के पास सत्य आशीर्वाद
प्राप्त किया था।
१८० सूक्त
(२४ अनुवाक । देवता अश्विद्ठय । न्द् त्रिष्टुप् ।)
१. अदिवनीकुभारो, जिस समय तुम्हारे शोभनगति . घोड़े तुम्हें
लेकर अभिमत प्रदेश में जाते हें, उस समथ तुम्हारे हिरप्यसय रथ की
नेमि अभिमत प्रदान करती हैं; इसलिए तुम उषाकाल में सोसपान
करते हुए यज्ञ मं आ भिलो।
२. सर्वस्तुत्य अदिव्य, जिस समय तुम्हारी भगिनी-स्थानीय उषा
प्रस्तुत होती है, हे मधुपायी अविवद्य, जिस समय अन्न और बल के
लिए यजमान तुम्हारी स्तुति करता हे, उस समय तुम्हारा सतत-गन्ता
बिचित्र गति-शील, मनृष्य-हितषी और विशिष्ट रूप से पुजनीय रथ
निस्ताभिमुख जाता हु ।
३. अदिविद्वय, तुमने गायों में दुग्ध स्थापित किया है। तुमने गायों
के अधोदेश में पूर्ववर्ती पक्व दुग्ध स्थापित किया हे । सत्यरूप अदिवद्वय,
वन-वक्षावली के बीच चोर की तरह सदा जागरूक विशुद्ध-त्वभाव
और हविवाला यजमान हविवाले यज्ञ में तुम्हारी स्तुति करता है।
४. अधिवद्वय, तुमने सहायता की इच्छावाले अत्रि मुनि के लिए
दीप्त दुग्ध और घुत को जल-प्रवाह की तरह किया था; इसलिए हे
नराकार अध्विद्वय, तुम्हारे लिए अग्नि सं यज्ञ किया जाता है । निम्त-
देश में रथ-चक्र की तरह सोमरस तुम्हारे लिए आता है ।
५. अध्विनीकुमारो, बूढ़े तुग्र राजा के पुत्र की तरह में स्तुति-द्वारा
अभिमत लाभ के लिए तुम्हें यज्ञ-देश में ले आऊँगा। तुम्हारी महिसा
फा० १८
२७४ हिन्दी-ऋणग्वेद
से झःवपूथियी परस्पर सिली हैं। यजवीय अधिवद्वय, यह जराजीणं
ऋषि पापमुक्त होकर दीर्घ जीवन लाभकरं। ०
६. शोभन दानवाले अध्विद्ृण, जिस समय तुस नियुत नाम के घोड़ों
को जोतते हो, उस समय अन्न से पृथिवी को भर देते हो; इसलिए
बायु की तरहस्तोताशोघ पुय दोनों को तृप्त और व्याप्त करे । उत्तम
कल वाले व्यक्ति की तरह स्तोता अपने सहस्व के लिए अञ्न स्वीकार
करते है।
७ हस भी तुम्हारे स्तोता और सत्यप्नतिज्ञ होकर विभिन्न स्तव
करते हे । द्रोग-कलश स्थापित हुआ है । हे स्दुतिपान्र और अभीष्टवर्षी
अदिदनीकुमारो, देवों के पास सोसपाच करो ।
८. अविनीकुमारो, कसे निर्वाइक लोगों में श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि ग्रीष्म
कें दुःख निवारक स्त्रोत की प्राप्ति के लिए, शब्द उत्पच करनेवाले
शैंडेख आदि की तरह, हजार स्तुतियों-द्वारा तुम्हें प्रतिदिन जगाते हैं।
९. अंडिवनीकुमारो, चुस रथ की महिमा से यज्ञ धारण करो । गति-
शील अहिदमीकुसारो, यजमान के होता की तरह तुम गमनागमन
करी। स्तोतांओं को बल दो, उत्तम घोड़े दो। फलतः है नासत्यहय,
हम घन प्राप्त करेंगे।
१०. अहिवद्ठय, तुम्हारे स्तुतिपात्र, नवे आकाशविहारी अभग्न
चक्रवाले रथ की प्राप्ति के लिए स्तोत्र-द्वारा उसे बुलाते हुँ, जिससे हुम
अज्ञे, बेल ओर दीर्घायु प्राप्त कर सकेँ ।
१८१ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. प्रियतम अश्विद्वय, तुम कबं अन्न और घन को ऊपर के देश
में ले जाओगे कि यज्ञ समाप्त करने की इच्छा करते हुए जरू को
नीचे गिराया जा सकेगा ? हे भनघारी के और मनुष्यों के आश्रयवाता
अशिवद्वय, इस यज्ञ में तुम्हारी ही प्रशंसा की जाती है।
हिन्दी-त्रशवेद २७५
२. अचिवद्वय, तुम्हारे दीप्लिशाली, वृष्टिमान करनेवाले, वायु की
तरह वेगदाले, स्पर्यीय गतिशील) मन की तरह वेगवान् युवां और झोभन
पृष्ठवश्ले अश्व तुम्हें इस यज्ञ में ले आयें।
३. हे ऊंचे स्थान के योग्य और रथासोन अध्विहवय, भूमिं को
तरह अत्यन्त बिस्तृत, उत्तम बन्धुरवाले, वर्षणसमर्थ, मन की तरह
चेगवाले, अहंकारी ओर यजवीयं रंथ को यज्ञ में ले आइए।
४. अध्विद्वय, तुमने सुर्यं और च्रे के रूप से जन्म ग्रहण किया
थे । तुम पाप-शून्य हो। तुम्हारे शरीर-सोन्वयं ओर नांम-महिसा के
कारण में बार-बार तुम्हारी स्तुति करता हूँ। तुंसमें एंक यज्ञ-प्रेवर्तक
होकर संसार को धारण करते हें और दूसरे घुलोक के पुत्रन्छय होकर
विविध रश्मियों को धारण करते हुए संसार को धारण किये हुए हैं।
५. अहिवद्टय, तुममें से एक का श्रेष्ठ और पीतवर्ण रथ इच्छो
नुसार हमारे यज्ञ-गुहूँ सं जाय और दुंसरें कें हरि नास के अइवों
को मनुष्य लोग सथन-निष्पादित खाय ओर स्तुति से प्रसन्न करें।
६. अश्विद्वय, तुम्हारे बीच एक जन मेधों को विज्ञौणं करते हँ।
बे इन्द्र की तरह शत्रुओं को निकालते हुए हव्य की अभिलाषी से, बहुत
अँझ-दाव के लिए जाते हँ। हूसरें के शमन के लिए यजभावं लोग हव्य-
हारा उन्हें प्रस करते हें। उनके द्वारा भेजी हुई ब्यापक और तट-
लंघिनी नदियाँ हमारे पासं आती हैं।
_ ७ विधाता अश्विद्वय, तुम्हारी स्थिरता की प्राप्ति के लिए अत्य
स्थिर संतुतियाँ बनाई जाती हँ । वह तीन तरह से ठुम्हारे पास जाती
है। तुम प्रशंसितं होकर याचंसान यजसान की रक्षा करो। जाकर या
खड़े होकर उसका आह्वान सुनो ।
८. अध्विदय, तुम्हारी प्रदीप्त स्तुति कुशत्रय-युक्त वज्ञ-्ाधन-
द्वारा यजमानों को प्रसन्न करे। अभीष्ट-्बरषद्दय, तुम्हारा मेघ जल-
वर्षण करते हुए जरू-सेचन की तरह मनुष्यों को धैव देकर प्रसन्न करे।
२७६ हिन्दी-ऋग्वेद
९, अदिवद्वय, पषा की तरह बहुग्रश्ञा्ाली और हविष्यान् यजमान,
अग्नि और उषा की तरह तुम्हारी स्तुति करता है। जिस समय पुजा-
परायण स्तोता स्तुति करता है, उस समय यजमान भी स्तुति करता
है, जिससे हम अञ्च, बल और दीर्घ आयु प्राप्त कर सकें ।
१८२ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. सनीषी क्रत्विको, हमारी एसी धारणा हो रही हे कि अध्विनी-
कुमारों का अभीष्टववीं रथ उपस्थित है। उसके आगे जाकर उनकी
प्रतीक्ष करो। वे पृण्यात्याओं के कर्म को करते हें। वे स्तुतियोग्य हुँ।
उन्होंने विइपला का भला किया था। वे स्वग के नप्ता हें। उनका
कमं शत्चि हे।
२. अश्विद्टवय, तुम अवश्य ही इन्द्रश्ेष्ठ, स्तुति-योग्य, सर्त्भेण्ठ,
शत्रु नाशक, उत्कृष्टकर्सचारी, रथवान् और रथियों में उत्तम हो। तुम
मधूपूर्ण हो। तुम चारों ओर सन्नद्ध रथ को ले जाते हो। उसी रथ
पर कृपा करके हव्यदाता के पास जाओ।
३. अध्विद्यय, यहाँ क्या करते हो? यहाँ क्यों हो? हव्य-शन्य
जो कोई व्यक्ति पुजनीय हुआ हो, उसे परास्त करो । पणि या अथाज्ञिक
का प्राण वाश करी । से मेधावी की ओर तुम्हारी स्तुति का अभिलाषी
हे। मुर ज्योति दो।
४. अश्विद्वय, जो कुत्ते की तरह जघन्य शब्द करते हुए हमारे
विनाश के लिए आते हें, उन्हें चष्ट करो। वे लड़ाई करना चाहते
हें, उन्हें मार डालो। उन्हें मारने का उपाय तुम जानते हो। जो
तुम्हारी स्तुति करता है, उसकी प्रत्येक कथा को रत्नवती करो।
नासत्यद्वय, तुस दोतों सेरी स्तुति की रक्षा करो।
` ५. अदिविद्वय, ठुग्र राजा के पुत्र के लिए तुमने समुद्र-जळ में प्रसिद्ध,
दृढ़ और पक्ष-विशिष्ट नोक बनाई थी। देवों में दुखने ही अनुग्रह
हिन्दी-ऋहग्वेद २७७
करके नौका-हारा उसको निकाला था। अनायास आकर तुमने महा-
समुद्र से उसका उद्धार किया था।
६. जल के बीच, निम्नभुख गिराया हुआ तुग्रपुत्र अवलम्बनरहित
अन्धकार के बीच अतीव पीड़ित हुआ था । अशिवद्वय की प्रेरित जल
के बीच प्रविष्ट चार नौकायें उसे सिली थीं।
७. तुग्रपुत्र ने याचमान होकर जल के मध्य जिस निश्चल वृक्ष का
आलिंगन किया था, वह वृक्ष क्या है? अडिवद्वय, तुमने उसे सुरक्षित
उठाकर विपुल कीत्ति प्राप्त की है ।
८. नराकर अङ्विद्वय, तुम्हारे एजकों ने जो स्तव किया है,
उसे तुम ग्रहण करो । अश्विद्वय, आज यज्ञ के सोस-यर्ग-सम्पादक
स्तोत्र मं ब्रती बनो, जिससे हम अन्न, बल ओर धन प्राप्त करें ।
१८३ खूक्त
(देवता अश्विऽय । छन्द् त्रिष्टुप ।)
१. अभीष्टवर्घी अझ्विद्वय, जो रथ मन की अपेक्षा भी वेगज्ञाली
है, जिसमें तीन सारथि-स्थान और तीन चक्र हैं, जो अभीष्टवर्षी और
धातुत्रय-विशिष्ट हे, जिस रथ पर चढ़कर जैसे पक्षी पक्षों के
बल जाता है, बसे ही तुम सुकृतकारी के घर जाते हो, उसी रथ को
तयार करो ।
२. अश्विनीकुमारो, तुम संकल्पवान् होकर हव्य के लिए जिस रथ
पर चढते हो, वही तुम्हारा भली भाँति आवर्त्तनकारी रथ, देवयजन
भूमि के सामने, जाता है। तुम्हारे शरीर की हितकारी स्तुति तुम्हारे
साथ मिले। तुम झुलोक की पुत्री उषा के साथ सिलो।
३. अशिवद्वय, जो रथ हृविवाले यजमान के कमें का लक्ष्य करके
जाता है, हे नराकार नासत्यद्ठय, तुम जिस रथ से यज्ञ-शाला जाने
की इच्छा करते हो, उसी अच्छी तरह आवरतेनकारी रथ पर चढ़कर
यजमान के पुत्र ओर अपने हित को प्राप्ति के लिए यज्ञ-गृह में जाओ ।
२७८ हिन्दी-ऋष्येद
४. अश्विय, तुम्हारी कृपा से बुक ओर बुकी सुझे न रगडें। सुभ
छोड़कर दूसरे को दान नहीं करना? अश्विवीकुमारो, यही तुम्हारा
हुव्य-भाग है, यही तुम्हारी स्तुति है, यही तुम्हारे लिए सोमरस का
पात्र है।
७५. अश्विद्वय, जेसे मार्ग जानने के लिए, पथिक पथ-प्रदर्शक को
बुलाता है, वेसे ही गौतम, पुरुमीड़ और अत्रि हव्य ग्रहण, करके तृथ्त्
करने के लिए तुम्हें बुलाते हैं। अइिविद्टय, मेरे आह्वान के पास आओ।
६- अश्विद्वय, तुम्हारे अनुग्रह से हम अन्धकार के पार चले जायेंगे।
तुम्हारे उद्देश्य से यह स्तुति बनाई गई है । देवों के गन्तव्य-पथ यज्ञ
में आओ। वैसा होने पर हम अञ्न, बल और दीर्घ आयु प्राप्त कर
सकेंगे ।
चतुर्थ अध्याय समाप्त ।
१८४ सूक्त
(पंचम अध्याय । देवता अशिवद्वय । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. अन्धकार का विनाश करने के लिए उषा के आने पर हम आज
के प्रश में और दुसरे दिन के यज्ञ में तुम्हें बुलाते हैँ। अश्वनीकुभारो,
तुम असत्यशून्य और छुलोक के नेता हो । तुम जहाँ-कहीं रहो, स्तोता
आये ऋग्वेदीय मंत्र-हारा, विशिष्ट दानञ्चील यजमान के लिए, तुम्हारी
स्तुति करता हूँ ॥ | |
२. अभीष्टवर्षी अध्विनीकुमारों, सोमरस से बलवान् होकर तुम
हमारी तृप्ति करो और पणियों का समूल नाश करो। हे नेत्य, तुम्हें
सामने लाने के लिए हम जो तुय्ति-प्रद स्तुति करते हैं, उसे सुनो;
क्योंकि तुस लोग स्तुति के अन्वेषक और सञ्चय करनेवाले हो ।
हिन्दी-हुग्वेद २७९
३. वासत्यह्ठय, है सूर्य-चस्-र्पी अहिवनीकुमारो, ` कल्याणप्राप्ति
के लिए, तीर की तरह, शीघगासी होकर सूर्यतनया को ले जाओ।
पूर्व युग की तरह यज्ञ-काल में सम्पादित स्तुति महान् वरण की तुष्टि
के लिए ठुस्ह स्तुति करती हुँ।
४. मधुपात्रवाले अश्विनीकुमारो, तुम कवि मान्य की स्तुति अंगी-
कार करो। तुम्हारा दान हमारे उद्देश्य से प्रदत्त हो.। झुभ-फळ-प्रदाता
अश्विनीकुमारो, अन्न को इच्छा से और वीर्यशाली यजसान के हित के
लिए मतुष्य या पुरोहित तुम्हारे साथ हुबंयुक्त हों ।
५. अच्चवान् अश्विनीकुमारो, तुम्हारे लिए हव्य के साथ यह पाप”
बिनाश स्तोत्र रचित हुआ हँ । अश्विवीकुनारो, अगस्त्य के प्रति सन्तुष्ट
होकर यजमान के पुत्रादि ओर अपने सुख-भोग के लिए यज्ञ-भूमि में
आगमन करो।
६. अश्विनीकुमारो, तुम्हारी कृषा से हम अन्धकार को पार कर
जायेंगे। तुम्हारे उद्देश्य से यह स्तव रक्षित हुआ है। देवों के गन्तव्य
पथ से यज्ञ में आओ, ताकि हम अश्न, बल और दीर्घ आयु प्राप्त करें।
१८५ सूक्त
(देवता दयावा-प्रथिवी । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. कविगण, दु और पूथिवी सें पहले कौन उत्पन्न हुआ हुँ
पीछे कौन उत्पन्न हुआ है, किसलिए उत्पन्न हुए हें, यह बात कोन
जानता हुँ ? वे दूसरे के ऊपर विर्भर होकर सारे संसार को धारण
करते हुँ और दिन तथा रात्रि की तरह चक्रवत् परिर्वात्तत होते
रहते हँ।
२. पाद-रहित और अविवल यावा-पृथिवी पादवक्त तथा सचल
गर्भस्थित प्राणियों को, माता-पिता की गोद में पुत्र की तरह, धारण
करते हुँ । हे थाया-पृथिवी, हमें महापाप से बन्राओ ।
२८० हिन्दी-ऋण्वेद
३. हम अदिति से . पापरहित, अक्षीण, हिसा-रहित, अश्चयुक्त
और स्वर्गतुल्य धन के लिए प्रार्थना करते हैं। द्यावा-पृथिवी, स्तोता
यजमान के लिए, वही धन उत्पन्न करते हो। हे द्यावा-पृथिवी, हमें
महापाप से बचाओ!
४. हम प्रकाशमान दिल और रात्रि के उभयविध धन के लिए
` दुःख-रहित और अन्न-द्वारा तृप्तिकारी यावा पृथिवी का अनुगमन कर
सक । हे झावापृथिवी, हमें महापाप से बचाओ ।
५. परस्पर संसक्त, सदा तरुण, समान सीमा से संयुक्त, भगिनी-
भूत और बन्धु-सदुश द्यावा-पूथिब्ी माता-पिता के कोड़स्थित और
प्रणियों के नाभि-स्वरूप, जल का घ्राण करते हुए, हमं महापाप से
बच, ये ।
६. देवों की प्रसन्नता के लिए में विस्तीर्ण निवासभूत, महानुभाव
और शस्यादि-समुत्यादक द्यावा-पृथिवी को यज्ञ के लिए बुलाता हूँ।
इनका रूप आइच्य-जनक है और ये जल धारण करते हें। द्यावा-
पृथिवी, हमें सहापाप से बचाओ।
७. महान्, पृथु, अनेक आकारों से विशिष्ट और अनन्त द्यावा-
पृथिवी की यज्ञस्थल में में नमस्कार मंत्र-द्वारा, स्तुति करता हू। हे
सौभाग्यवती और उद्धार-कुशला आवा-पृथिवी, तुम संसार को धारण
करो और हमें महापाप से बचाओ।
८. हम देवों के पास जो सदा अपराध करते हैं, बन्धु और जामाता
के प्रति जो सब अपराध करते हँ, हमारा वह यज्ञ उन सब पापों को
दुर करे।
९. स्तुति-योग्य और मनुष्यों के हितकर द्यावा-पृथिवी मुझे, आश्रय-
प्रदान करे । आश्षयदाता द्यावानयुथिवी आश्रय देने के लिए मेरे साथ
मिलें। देवो, हम तुम्हारे स्तोता हैं; अन्न-द्वारा तुम्हें तृप्त करते हुए
प्रचुर दास के लिए प्रचुर अन्न चाहते हैं।
हिन्दी-ऋण्वेद २८१
१०. में बुद्धिमान् हँ। झावा-पृथिवी के उद्देश्य से चारों दिशाओं
में प्रकाश के लिए मेने अत्युत्तम स्तोत्र किया है। माता-पिता निन्दनीय
पाप से हमें बचायें तथा हमें सदा पास में रखकर तृप्तिकर वस्तुः
हारा पालित कर ।
११. हे माता और हे पिता, तुम्हारे लिए इस यज्ञ में मैन जो.
स्तोत्र पढ़े हैं, उन्हें सार्थक करो। द्यावा-पृथिवी, आश्वय-दानन्द्वारा तुम
स्तोताओ के समीपवर्ती बनो, ताकि हम अन्न, बल और दीघं आयु
प्राप्त करे ।
१८६ सूक्त
(देवता विश्वेदेवगण । छुन्द् त्रिष्टुप्)
१. अग्नि ओर सविता हमारी स्तुतियों के कारण भूस्थानीय दैदों
के साथ यज्ञ-स्थल में आयें । युवकगण, हमारे यज्ञ में इच्छापुर्वक आकर
सारे जगत् की तरह हमें भी प्रसन्न करो।
२. शत्रुओं के आक्रमणकर्सा मित्र, वरुण और अयमा ये सब समान
प्रीति-युक्त होकर आगमन करें। हमारे सब वर्धयिता हों और शत्रुओं
को परास्त करके, जिस प्रकार हम अन्नहीन न हों, ऐसा करे ।
३. देवगण, में क्षिप्रकारी और तुम्हारी तरह प्रीति-युक्त होकर
तुम्हारे श्रेष्ठ अतिथि (अग्नि) की स्तुति-मन्त्रो-द्वारा स्तुति करता हूँ।
उत्तम कीतिवाले सुरि वरुण हमारे ही हों। वरुण शत्रुओं के प्रति हुंकार
करते हुए अन्न-हारा हमं परियुण कर।
४. देवो, दिन-रात नमस्कार करते हुए, पाप-विजय के लिए,
दुर्धवती धेनु की तरह तुम्हारे पास उपस्थित होते हैं। हम यथासमय
अधः स्थान से एकमात्र उत्पन्न नाना रूप खाद्य द्रव्य मिश्रित करके
लाये हुँ।
५. अहिबुध्न नामक अन्तरिक्षचारी देव हमें सुख द। सिन्धु, वस्स
की तरह, हमें प्रसन्न करें। हम जल के नप्ता अग्निदेव स्तुति करते _
हुए प्राप्त हुए हैं। मन की तरह वेगशाली मेघ उन्हें ले जाते हें।
४८२ हिन्दी-ऋबेद
६. त्वष्टा हमारे सामने आयें। यज्ञ के कारण त्वष्टा स्तोताओं
के साथ समान-प्रीति-स्म्पञ्च हों। अतीव विशाल, बृत्नरधातक और
भवुष्यों के अभीष्ट-पुरक इन्द्र हमारे यशंस्थल में आयें।
७. जैसे गायें बछुडों को चाटती हें, बेसे ही अःवतुल्य हमारा भन
तरण इन्द्र कौ स्तुति करता है । जैसे स्थियाँ पति को प्राप्त करू सन्तान-
बाली होती है, वैसे ही हमारी स्तुति, अतिशय यशोयुषत इन्द्र को
प्राप्त कर फल उत्पन्न करती हूँ।
८. अतीव बलशाली, दमाय-मीदि-्युष्ल, पुषत् नाम के अइव से
सम्पन्न, अवनतस्वभाव और शझत्रूनभक्षक मददूगण, मेत्रीवाले ऋषियों
की तरह, चावानपृथिवी के पास से एकत्र हमारे इस यज्ञ में आयें ।
९. सस्तो की महिमा प्रसिद्ध हैं; क्योंकि वे स्तुति का प्रयोग
जानते हैं। अनन्तर, जैसे प्रकाश संसार को व्याप्त करता हे, बसे ही
सुदिन में अन्धकार-विनाशक मरुतो की वृष्टि-पद सेना सारे अनुर्वर
देशों को उत्पादिका शक्ति से सम्पन्न करती हुँ।
१०. ऋत्विको, हमारी रक्षा के लिए अश्विनीकुमारों ओर पुषा
कौ स्तुति करो। द्वेष-्शून्य विष्णु, वायु ओर इन्र (ऋभुक्षा) नाम के
स्वतंत्र बल-विशिष्ट देव्रों की स्तुति क्रो। सुख के लिए में सारे देवों
को सामने लाऊँगा।
११, यजनीय देवो, तुम्हारी प्रसिद्ध ज्योति हमारे लिए प्राणदाता
और विवास-स्थान बने । तुम्हारी अन्चवती ज्योति देवों को प्रकाशित
करे, ताकि हुम अन्न, बल और दीर्घ आव् प्राप्त कर सकें ।
१८७ स्क्त
(देवता पितु। छन्द गायत्री और अनुष्ठुप्।)
१. में क्षिप्रकारी होफर विशाल, सबके धारक जोर बलात्मक
पितु (अन्न) की स्तुति करता हूँ। उनकी ही शक्ति से त्रितदेव या
इन्द्र ने बृत्र की सम्धियाँ काटकर उसका वव किया था ।
हिन्दी-ऋष्वेद १८३
२- हे स्वाडु पितु, हे मधुर पितु, हुम तुम्हारी सेवा करते हैं।
लुम हमारी रक्षा करो।
३. हे पितु, तुस मंगलमय हो। कल्याणवाही आश्रग्रदान-ह्वारा
हमारे पास आकर, हमें सुख दो। हसारे लिए तुम्हारा रस अप्रिय न
हो। तुम हमारे लिए मित्र ओर अद्वितीय सुखकर बनो ।
४. पितु, जसे बायु अन्तरिक्ष का आश्रय किये हुए हैं, बेसे ही
तुम्हारा रस सारे संसार के अनुकूल व्याप्त है।
५. स्वादुतम पितु, जो लोग तुम्हारी प्रार्थना करते हैं, वे भोक्ता
हें। पितु, तुम्हारी कृपा से वे तुम्हें दान देते हैत तुम्हारे रस का
आस्वादन करनेवालों की गर्दन ऊँची या मजबत होती है।
६. पितु, महान् देवों चे तुसमें ही मत निहित किया है। पितु,
तुम्हारी चार बुद्धि ओर आश्रयद्धारा ही अहि का वध किया
गया था ।
७. जिस समय मेघ प्रसिद्ध जल को लाते हें, उस समय हे
मधुर पितु, हमारे सम्पूर्ण भोजन के लिए पास आचा।
८, हम यथेष्ट जल और यव आदि ओषधियों को खाते
हें, इसलिए हे शरीर, तुम स्थूल बनो ।
९. सोम, तुम्हारे यव आदि और दुग्ध आदि से मिथित अंश का
हम भक्षण करते हुँ। इसलिए हे शरीर, तुम स्थूल बनो ।
१०. हे करम्भ ओषधि या «सत्तुपिण्ड, तुम स्थूलता-सम्पादक,
रोग-निवारक और इन्ब्रियोद्दीपक बनो। हे शरीर, तुम स्थूल
बनो । |
११. पितु, गायों के पास जैसे हव्य गृहीत होता हूँ, बैसे ही
तुम्हारे पास स्तुति-द्वारा हम रस ग्रहण करते हैं। यह रस देवों को ही
नहीं, हमें भी हृष्ट करता हुँ ।
३८४ हिन्दी-ऋग्वेद
१८८ सूक्त
(दैवता आप्ती । छन्द गायत्री ।)
१, आप्ति, ऋत्विकों-हारा भळी भाँति आज समिद्ध नामक अग्नि
सुशोभित होते हैं। हे सहत्रजित् देव, तुम कवि और दूत हो। तुस
भली भाँति हश््य वहन करो
२. पुजनीय तनूनपात् नामक अग्नि हज़ार प्रकारों से अन्न धारण
करके यजमान के लिए मधुर रस से युक्त द्रव्य में मिलते हैं। |
३. हे इड्य नामक अग्नि, तुस हमारे हारा आहूत होकर हमारे
लिए यज्ञभागी देवों को बुलाओ । अग्नि, तुम असीम अन्न के दाता हो।
ॐ, सहस्र वीरोंवाले और पूर्वाभिमुख में अग्र भाग से युक्त जिस
अग्निरूप कुश पर आदित्य लोग बेठे हे, उसे ऋत्विक लोग, मंत्र के
प्रभाव से, आच्छादित करते हे ।
५. यञ्चशाला का विराद्, सम्राट्, विभु, प्रभु, बहु ओर भूयान्
(अग्निरूप) द्वारा जल गिराता हे ।
६. दीष्त आभरण से युक्त और सुन्दर-रूप-संयुक्त अग्निरूप
दिवा-रात्रि, अतीव शोभाशाली होकर विराजित होते हैं। बे यहाँ बेठें।
७. यह अत्युसम और प्रियभाषी अर्निरूप दव होता तथा दिव्य
कवि-हय हमारे यज्ञ में उपस्थित हों।
८. हे अस्तिरूपिणी भारती, सरस्वती और इला, म तुम सबको
बुलाता हुँ। जसे में सम्पत्तिशाली हो सक्, वसा करो।
. ९. अग्निरूष त्वष्टा रूप देने सं समर्थ हें। वह सारे पशुओं का
रूप व्यक्त करते हु। त्वष्टा, हमें बहुत पशु दो ।
१०. हे अग्निरूप वनस्पति, तुम देवों का पशु रूप अन्न उत्पन्न
करो। अग्नि सब हव्यों को स्वादिष्ठ कर।
११. देवों के अग्रगामी अग्नि गायत्रो छन्द से लक्षत हुआ करते
हैं। स्वाहा देने के समय वे प्रदीप्त होते हें।
हिन्दी-ऋेद २८५
१८९ सूक्त
(देवता अग्नि। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. दीप्तिविशिष्ट अग्नि, तुस सब प्रकार के ज्ञान जानते हो; इस-
लिए हमें सुसागे पर, धन की ओर ले जाओ। तुस कुटिल पाप को
हमारे पास से ले जाओ। हम बार-बार तुम्हें प्रणाम करते हें।
२. अग्नि, तुम नये हो। स्तुति के कारण हमें तुम सारे दुगॅम
पापों से मुक्त करो। हमारा नगर अतीव प्रशस्त हो। हमारी भूमि
प्रशस्त हो। तुम हमारे पुत्रों ओर अपत्यों को सुख प्रदान करो।
३. अग्नि, तुम हमारे पास से सब रोग दूर करो। जो अग्निहोत्र
नहीं करते या जो हमारे विद्रोही हैं, उन्हें भी हटाओ देव, तुम हमें
शोभन फल देने के लिए सारे मरण-रहित देवों के साथ यज्ञशाला में
आओ ।
४. अग्नि, तुम सतत आश्रय-दान-द्वारा हमें पालित करो। हमारे
प्रिय यज्ञ-गृह में चारों ओर दीप्ति-युक्त बनो । युवक अग्नि, में तुम्हारा
स्तोता हँ। मुझे न आज भय उत्पन्न हो और च कभी पीछे ।
५. अग्नि, हमें अञ्नग्रासी, हिसक और शभनाशक शत्रु के हाथ
में नहीं समर्पण करना। हमें दन्त-विशिष्ट और दंशक सर्प आदि के
हाथ सें नहीं सोंपना; दन्त-शून्य श्वंगादिवाले पशुओं को नहीं सोंपना।
बलिष्ठ अग्नि, हिसक और राक्षस आदि के हाथ भी हमें नहीं
सोंपना।
. ६. यज्ञोत्पन्न अग्निदेव, तुस वरणीय हो। शरीर पुष्टि के लिए
स्तुति करते हुए लोग तुम्हें प्राप्त करके सारे हिसक और निन्दक
व्यक्तियों के हाथों से अपने को बचाते हेँ। अग्नि, जो सामने कुटिल
आचरण करते हैं, ऐसे दुष्ट का तुम दमन करो।
७. यजनीय अग्नि, तुम यज्ञ करनेवाले और न करनेवाले लोगों
. को जानकर यञ्चकर्ता की ही कामना करो। आक्रमणकारी ` अग्नि,
२८६ हिन्दी-ऋग्वेद
पवित्रताभिदाषी यजमान जैसे ऋत्विकों के लिए शिक्षणीय है, उसी
प्रकार ठुम भी, यथासमय, यजसान के शिक्षणीय हो।
८. संत्र-पुत्र और दोन्रुनादक इंच अग्निं के लिए ये सारे स्तोत्र
बनाय गय हु । हँस इन अतीब्द्रिय-प्रंकाशक संत्रों-दार! संहेल्त धर्म प्राप्त
करग। हुँस् अन्न, बले और दीर्घे आय प्राप्तं कर सके ।
१९० सूक्त
(देवतां बृहस्पति । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. होतां, अभीष्डवर्षी सिष्टजिङ्ग और स्तुतियोग्य बहस्पति कौ
पुजा-साधक मंत्रो-ट्रारा वद्धित कॅरो। वे स्तोता को नहीं स्यागते।
दीप्तियुक्तं और स्टूयसान बहँस्पति को गाधा-पांठंक देवगण और
संतुष्यण स्तुति सुनाते हेँ।
२- वर्षा ऋतु-सस्बन्धिनी स्तुतियाँ सृजन-कत् -रूप बृहस्पति के
पए जाती हैं । वे देवाभिलाषियों को फल देते हैं। वे सारे विश्व
कों व्यक्त करते हे ! वें स्वर्गव्यापी भातरिइँवा की तरह वरणीय फल
उत्पन्न करके यज्ञ के लिए सम्भूत हुए हैं।
३. जैसे सूर्य किरणे प्रकाशित करने की चेष्टा करते है, बेले ही
बृहस्पति, यजमानों की स्तुति, अन्न, दान ओर मंत्रों के स्वीकार के
लिए चेष्टा करते है । राक्षसों और शत्रुओं से शून्य बृहस्पति की शक्ति
से दिवसकालीन सुर्य भयंकर जन्तु की तरह बलशाली होकर घूमते हे।
४. भूलोक और द्युलोक में बृहस्पति की कीति व्याप्त होती है।
बृहस्पति सूर्यं की तरह पूजित हव्य धारण करते हैं। वे प्राणियों में
चतन्य प्रदान करते ओर फल देते हें। बृहस्पति का अधयुध शिकारी
पुरुषी के आयुध की तरह है। उनका आयुध मायावियों के सामने
प्रतिदिन दोड़ता हे।
५. बृहस्पति, जो पापी लोग कल्याणवाही बृहस्पति को बूढ़ा बैल
हिन्दी-त्रग्वेद २८७
जानते हँ, उन्हें तुझ वरणीय घन नहीं देना । बुहस्पतिदेव, जो सोस-
यज्ञ करता हुँ, उस पर तुम अवस्य कृपा रखते हो।
६. बृहस्पति, तुम सुखगामी और सखाद्य-विशिष्ट यजमान के मागे
ङ्प ओर दुष्टहन्ता राजा के बन्धु हो। जो हमारी निन्दा करते हैं
उनके सुरक्षित होने पर भी, उन्हें रक्षा-शून्य करो ।
७. जसे मनुष्य राजा से मिलता है, तटद्वयर्वात्तती नदी जैसे
समुद्र में मिलती हूँ, बसे ही सारी स्तुतियाँ बृहस्पति में मिलती हे।
वे विद्वान् हें। आकाशचारी पक्षी की तरह बृहस्पति-हूप से जल और
तट, दोनों को देखते हुँ। अथवा वृष्टिकांमी अभिज्ञ बृहस्पति, मध्य में
स्थित होकर तट ओर जल दोनों को उत्पन्न करते हें ।
८. इसी रूप से बृहस्पति महान्, बलवान, अंभीष्टंदर्षी, दौप्कि
मन् होकर और बहुतों के उपकारं के लिएं उत्पन्न हुए हें। उनका
सतव करने पर वे हमें बीर-विशिष्ट करें, ताकि हुम अन्न, बल और
दीर्घं आयु प्राप्त कर सक ।
१९१ सूक्त
(देवता जल, दृष्ण और सूयं । छन्द त्रिष्टुप् और महापंक्ति ।)
२. अल्य विषवाले, महा विषबाले, जलीय अल्प दिषवाले, दो
प्रकार के, जलचर और स्थलचर, दाहक प्राणी तथा अदृश्य प्राणी मुभे
विष-द्वारा अच्छी तरह लिप्त किये हुए हें।
२. जो ओषध खाता हुँ, वह अदृश्य विषधर प्राणी को विनष्ट
करता हे और प्रत्यावर्तन काल में उसे विनष्ट करता है। विनाश के
समय नाश करता और पिस्ते जाने के समय पिसता हे ।
३. शर, कुशर, दर्भे, सेये, मञ्ज, वीरण आदि घासीं में छिपे
विवषरगणं मिलकर शु लिप्त करते हे।
४, जिस समय गाद गोष्ठ में बडो रहती हें, जिस समय हरिण,
8८८ हिन्दी-ऋग्वेद
अपने-अपने स्थानों पर, विश्राम करते हैं और जिस समय मनुष्य निद्रा
में रहता है, उस समय अदृश्य विषधर मुझ लिप्त किये हुए हुँ।
५. तस्कर की तरह उन सबको रात को देखा जाता हृ। वे
_झवृश्य होने पर भी, सारे संसार को देखते हँ; इसलिए मनुष्य साव-
धान हो जायं ।
६. स्वर्ग पिता, पृथिवी माता, सोम आता और अदिति भगिनी
हुँ । अदृष्ट-ससदर्शी लोग, तुम लोग अपने-अपने स्थान पर रहो और
ब्रयासुख गमन करो ।
७. जो विषधर स्कन्धवाले हें, जो अंगवाले (सर्प) हें, जो सुची-
बाले (वझ्चिकादि) हैं, जो अतीद विषधर हैं, बैसे अदृष्ट विषधरगण
का यहाँ क्या काम है ? तुम सब लोग हमारे पास से चले जाओ।
८. पूर्वं दिशा में सूर्यं उगते है, बे सारे संसार को देखते ओर
अदृष्ट विषधरों का विनाश करते हैं। वे मारे अदृष्टो ओर यातुधानी
(राक्षसी वा महोरगौ) का विनाश करते हैं।
९. सुर्य, बड़ी संख्या में, विषों का विनाश करते हुए, उदित होते
हैं। सवेदर्शी और अदृध्यों के विनाशक आदित्य जीवों के मंगल के
लिए उदित होते हैं।
१०. झौण्डिक के घर में चर्मसय सुरापात्र की तरह में सूर्यमण्डल
सें विष फेकता हूं । जैसे पूजनीय सूर्यदेव प्राण-त्याय नहीं करते,
बैसे ही हम भी प्राण-त्याग नहीं करते। अश्व-हारा चालित होकर
सूर्यदेव दूरस्थित विष को दूर करते हं। विष, मधुविद्या तुम्हे अमृत
सें परिणत कर देती हुँ।
११. जैसे क्षुद्र शकुन्तिका पक्षी ने तुम्हारा विष खाकर उगल
दिया है, जैसे उसने प्राण-त्याग नहीं किया, बेसे ही हम भी प्राण”
त्याग नहीं करेंगे । अइव-द्वारा परिचालित होकर सूर्यदेव दूरस्थित बिष
को दूर करते हूं। विष, मधुविद्या तुम्हें अमृत में परिणत करती. हुँ ।
हिन्दी-क्रग्वेद २८९
१२. अग्नि की सातों जिह्लाओं में से प्रत्येक में इवेत, लोहित ओर
कृष्ण आदि तीन वर्ण अथवा २१ प्रकार के पक्षी विषको पुष्टि का
विनाश करते हुँ। वे कभी नहीं मरते; बसे ही हम भी प्राय-त्याग
नहीं करते । अश्व-द्वारा परिचालित होकर सूर्य दुरस्थित विष का अप-
नयन करते हैं। विष, मव॒ विद्या तुम्हें अमृत में परिणत करती है।
१३. में सारी चिष-चाहक निल्यानबे नदियों के नसों का कीतंन
करता हैँ । अइव-द्वारा चालित होकर सुययदेव दुर-स्थित दिष का अपनो-
दन करते हुँ। विष, मधुविद्या तुझे अमृत बना देगी।
१४. असे स्त्रियाँ घड़े सें जल ले जाती हे, हे देह, बसे ही
२१ भयूरियाँ (पक्षो) ओर साल नदियाँ तुम्हारा विष दुर कर।
१५. देह, यह छोटा-सा नकुल तुम्हारा विष दूर करे। यदि न
करे, तो में इस फुत्सित जन्तु को लोष्टू-द्वारा मार डालूंगा। मेरे
शरीर से विष दुर हो ओर दूर देश में चला जाय।
१६. परवत से आकर, उस समय, नकुल ने कहा-- वृश्चिक का
विष रस-शून्य है। हे वृश्चिक, तुम्हारा विष रसशून्य हैं।
प्रथस मंडल यसमाप्द ।
१ सूक्त
(२ अष्टक । २ मंडल । १ अनुवाक । दैवता अग्नि ।
ऋषि गृत्समद । छन्द जगती ) |
१. मनुष्यों के स्वामी अग्निदेव, यज्ञ-दित सें तुम उत्पन्न होओ ।
सर्वदः दीप्तिशाली होकर उत्पन्न होओ । पवित्र होकर उत्पन्न होओ ।
जल से उत्पन्न होओ। पाषाण से उत्पन्न होआो। वन से उत्पन्न
होम । ओषधि से उत्पन्न होओ । |
२. अग्निदेव, होता, पोता, ऋत्विक और वेष्टा आदि का कार्य
तुम्हारा ही कमे है । तुम अग्नीध हो। जिस ससय तुम यज्ञ की इच्छा
फा० १९
२ ९० हिल्दी-ऋणग्वेद
करते हो, उस समय प्रशास्ता का कर्म भी तुम्हारा ही है। तुम्हीं
अध्वर्य और ब्रह्म नाम के ऋषि हो। हमारे घर में तुम ही
गृहपति हो।
३. अग्निदेव, तुम साथुओं का सनोरथ पुणे करते हो; इसलिए
तुम्हीं विष्णु हो, तुम बहुतों के स्तुतिपात्र हो; तुम नसस्कार के योग्य
हो। धनवान् स्तुति के अधिपति, तुम मन्त्रों के स्वामी हो, तुस विविध
पदार्थों की सृष्टि करते और विभिन्न बुद्धियों में रहते हो।
४. अग्नि, तुम घतब्रत हो; इसलिए तुम राजा वरुण हो। तुम
शत्रुओं के विनाझक और स्तुति-पोग्य हो; इसलिए हुम भिश्च हो। तुम
साधुओं के रक्षक हो; इसलिए हुम अर्यमा हो। अर्यसा का दान सर्वे-
व्यापी हँ । तुम अंश (सुर्य) हो । अग्निदेव, तुस हमारे यज्ञ में फल-
दान करो ।
५. अग्निदेव, तुस त्वष्टा हो। तुम अपने सेवक के चीर्थूप हो।
सारी स्तुतियां तुम्हारी ही हँ । तुस्हारा तेज हितकारी है। तुम हमारे
बन्धु हो। तुम शीघ्र उत्साहित करते हो और हमें उत्तम अइवयुक्त
'धन देते हो । तुम्हारे पास बहुत धन है । तुम मनुष्यों के बल हो।
६. अग्नि, तुस महान् आकाश के असुर रुद्र हो। तुम भरुतों के
बलस्वरूप हो । तुस अन्न के ईश्वर हो । तुम सुख के आधार-स्वरूप हो ।
लोहित-वर्ण ओर वायु-सदूश अश्व पर जाते हो। तुस पूष हो, तुस
स्वयं पा करके परिचालक मनुष्यों की रक्षा करते हो।
७. अग्नि, अर्लकारकारी यजसान के लिए तुम स्वर्गंदाता हो।
तुस प्रकाशसात सूर्यं और रत्नों के आधार स्वरूप हो। नृपति, लुम
भजनीय धनदाता हो। यज्ञ-गहु में जो यजमान तुम्हारी सेवा करता
है, उसकी तुम रक्षा करले हो १
८. अग्नि, लोग अपने-अपने घर में तुम्हें प्राप्त करते और तुम्हें
विभूषित करते हें! तुम सवुष्यो के पालक, दीप्तिमान् और हमारे
हिन्दी-ऋणग्वेद २९१
प्रति अनुग्रह-सम्पन्न हो । तुम्हारी सेवा अत्युत्तम है। तुस सारे
ह॒व्यों के ईश्वर हो। तुल हजारों, सैकड़ों और दसों फल देते हो।
९. अग्नि, यज्ञ-ह्व/रा लोग तुम्हें तृप्त करते हे; क्योंकि तुम पिता
हो। दुम्हारा आातूत्व प्राप्त करने के लिए लोग कर्म-हारा तुम्हें तृप्त
करते है ॥ तुम भी उनका शरीर प्रदीप्त कर देते हो । जो तुम्हारी सेवा
करता है, तुम उसके पुत्र हो। ठुम सखा, शुभकर्ता और इात्रु-निवारक
होकर रक्षा करो।
१०. अग्नि, ठुस ऋभ हो। तुम प्रत्यक्ष स्तुति-योग्य हो। तुम सर्वत्र
विक्त घन और अज्ञ के स्वामी हो। तुम अतीव उज्ज्वल हो।
अंबकार के विना के लिए तुम धीरे-धीरे काष्ठ आदि का दहन करते
दो। तुम भली भाँति यज्ञ का निर्वाह और उसके फल का विस्तार
करते हो ।
११. अग्निदेव, तुम हव्यदाता के लिए अदिति हो। तुम होत्रा और
भारती हो। स्वुति-द्वारा तुस वृद्धि प्राप्त करो। तुम सो वर्षों की
भूमि हो। तुस दान में समर्थ हो। हे घन-पालक, तुम वृत्रहन्ता और
सरस्वती हो।
१२. अग्निदेव, अच्छी तरह पुष्ट होने पर तुम्हीं उत्तम अन्न हो।
तुम्हारे स्पृहणीय ओर उत्तम वर्ण में एश्वर्य रहता है। तुम्हीं अन्न,
त्राता, बृहत्, धन, बहुल और सर्वत्र विस्तीर्ण हो।
१३. अग्निदेव, आदित्यो ने तुम्हें मुख दिया है । हे कबि, पवित्र
देवताओं ने तुम्हें जीभ दी हैं। दान के समय एकत्र देदता यज्ञ में
तुम्हारी अपक्षा करत ओर तुम्हें ही आहति रूप में दिया हुआ हव्य
भक्षण करते हँ ।
१४. अग्निदेव, सारे असर और दोष-रहित देवगण तुम्हारे सख
मं, आहुतिरूप में, प्रद हथि का भक्षण करते हैं। सर्त्यगण भी तुस्हारे
इरा अन्नादि का आस्वाद पाते हूँ । तुस लता आदि के गर्भ (उत्ताप)-
रूप हो। पवित्र होकर तुमने जन्य ग्रहण किया हुँ । HN
२९२ हिन्दी-ऋग्वेद
१५. अग्निदेव, बल-दारा दुभ प्रसिद्ध देवों के साथ सिलो और उनसे
पृथक् होओ। सुजात देव, तुभ उनसे बलिष्ठ बनो; क्योंकि दुम्हारी
ही महिमा से यह यज्ञ-स्थित अन्न शब्दायलान धावा-पृथिवी के बीच
व्याप्त होता है ।
१६. अस्ति, जो मेधावी स्तोताओं को गौऔर अश्व आदि दान
का चक्कु ~
७ कूः
हमें श्रेष्ठ स्थान में ले चलो । हम बीरों से युक्त
र् he]
(देवता अग्नि । छन्द जगती ।)
१. अग्निदेव दीप्तिमान्, शोभन-अन्न-सम्पन्न, स्व्ेदाता उद्दीप्त,
होम-निव्पादक और बलप्रदाता हूँ। उन सर्वंभूतञ्ञ अग्नि को यज्ञद्वरा
वड्धित करो ओर यज्ञ तथा विस्तृत स्टुलि-ड़ारा पुजा करो।
२. अग्निदेव, जैसे दिन में गाये बड़े की इच्छा करती हे, बसे
ही तुम्हें यजमान लोग दिन और रात्रि में चाहते हेँ। अनेक के सान-
नीय अग्निदेव, तुन संघत होकर थुलोक में व्याप्त हो। मनुष्यों के यज्ञो
में सदा रहते हो। रात में प्रदीप्त होते हो।
३. अग्नि सुदर्शन, आवा-पृथिवी के ईश्वर, धन-पुर्ण रथ के सदृश,
दीष्तवर्ण, ज्वाला-स्वरूप, कार्यसाधक और यज्ञभूमि में प्रशासित हैं।
देवता लोग उन्हीं अग्नि को संसार के मूल देश में स्थापित करते हुँ।
४. अग्निदेव, अन्तरिक्ष वृष्टि-जल-दाता, चन्द्रमा की तरह दीप्ति-
विशिष्ट, अन्तरिक्षपाली ज्वाळा-्वाशा लोगों को चैसन्य देनेवाले, जल
की तरह रक्षक और सबकी जनयित्री ्ादा-पृथिवी को व्याप्त करनेवाले
हैं। उन्हीं अग्नि को उस विशद गृह सें स्थापित किया गया हैं।
प, होम-निष्पादक होकर अस्निदेव सारे यज्ञों को व्याप्त करें।
मानवों ने हव्य और स्तुति-द्वार! उन्हें अलंकृत किया है। दाहक-शिखा-
_ हिन्दो-त्रग्वेद २९३
ति
युक्त अग्नि वर्धे घान औषधियों के बीच जलकर, जेते नक्षत्र आकाश मे
चमकते है, वैसे ही, दावान्पूथिवी को प्रकाशित करते हैं।
६. अग्निदेव, हमारे मंगल के लिए कऋसायत और वादित धन देते
हुए तुम प्रज्वलित होकर प्रकाशित होओ। अग्नि, चावा-पृथिदी में हमें
फल दो। मनष्यों-हारा प्रदत्त हव्य देवों के भक्षण के लिए लाया जाय ।
७. अग्नि, हमें यथऽ्ड गो, अइव आदि तथा सहस्त-संख्यक पुत्र,
पौत्र आदि दो। कीति के लिए अन्न दो और अन्न का हार खोलो ।
उत्कृष्ट यज्ञ-द्वारः द्यावा-पृथिवी को हमारे अनुकुल करो। आदित्य की
तरह उबायें तुम्हे प्रकाशित करती हैं ।
८. रमणीय उषा में अग्नि प्रज्वलित होकर, सूयं की तरह, उज्ज्वल
किरणों में देदीप्यमान होते हें । मनुष्यों के होमसाधक, स्तुति-द्वारा
स्तुयधान, उत्तम यज्ञवाले और प्रजाओं के स्वामी अग्नि
यजभान के पास, प्रिय अतिथि की तरह, आते हें ।
९. अग्नि, तुम यथेष्ट द्ुतिबाले हो। देवों के पूर्ववर्ती मनुष्यों
की स्तुति तुम्हें आप्यायित करती हँ । दूधवाली गाय की तरह यह
स्तुति यज्ञस्थित स्तोता की तरह स्वयं अपरिमित और विविध प्रकार
धन प्रदान करती है। |
१०. अग्नि, हम तुम्हारे लिए अञ्न और अइव से यथेष्ट साम्यं प्राप्त
करके सबको लाँच जायेंगे ओर इससे, हमारी अनन्त और दूसरों के
लिए अप्राप्य धनराशि सूर्य की तरह, पाँच वणों (चार वर्ण ओर
पंचम निषाद) के ऊपर दीप्तिमान् होगी । |
११. शत्रु-पराजेता अग्नि, तुम हमारी स्तुति के योग्य हो। हमारा
स्तोत्र श्रवण करो। सुजन्मा स्तोता लोग तुम्हारे ही उद्देश्य से स्तुति
करते हें। अग्नि, रस और पुत्र की प्राप्ति के लिए हव्य-विशिष्ट
यजमान के यागगह में दीष्यसाव और यजवीय अग्नि की पुजा की
जाती है ।
२९४ _ हिन्वी-शटग्वेद
१२. सर्वभूतज्ञ अग्नि, स्तोता और मेधावी बजमाब--हुम दोनों
सुख-प्राति के लिए तुम्हारे ही होंगे। हमारे निवास-हेतु, अतिशय
आह्कादप्रद, प्रभूत और पुत्र-प्रपोत्र आदि से युक्त धन दो।
१३. अग्नि, जो मेधावी लोग स्तोताओं को मो और आइव आदि
धन प्रदान करते हुँ, उन्हें तथा हमें श्रेष्ठ स्थान में ले चरो । वीर-पुकत
होकर हम यज्ञ में बृहत् संत्र का उच्चारण करेगे ।
र् सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द् त्रिष्टप और जगती)
१. वेदौ पर निहित समिद्ध नामक अग्नि सारे गुह के सामने अव-
स्थित हैँ। होम-विष्पादक, विशुद्धताकारी, प्राचीन, प्रजा-संघुक्त,
योतमान और पुजा-योग्य अग्नि देवों की पुजा करें ।
२. नराशंस नामक अग्नि, सुन्दर ज्वाला से युक्त होकर, अपनी
सहिमा से, प्रत्येक आहइुति-स्थल और प्रकाशमान तीनों लोकों को
व्यक्त करते हुए, घी बरसाने की इच्छा से, हव्य स्निग्ध करके, यज्ञ
के सामने देवों को प्रकाशित करें ।
३. इलित या इला नामक अग्निदेव, हम पर प्रसन्न चित्त से,
यागकर्म के योग्य होकर, आज, हमारे लिए, मनुष्यों के पूर्ववर्ती होकर
देवों का यज्ञ करो। मरुतों ओर अच्युत इन्द्र का सम्वोधन करो।
ऋत्विको, कुश पर बैठे हुए इन्र का यज्ञ करो।
४, दोतमान कुश-स्वरूप अग्नि, हमारे धन-लाभ के लिए, इस
देकी पर अच्छी तरह विस्तृत हो जाओ । तुम सदा बढ़नेवाले और बीर-
प्रदाता हो । वसुओ, विश्वदेवी, यज्ञ-योग्य आदित्यो, तुम घी-लयाये
कु फर बटो ।
५. हे योतमान, ढारन्हप अग्नि, तुम खुल जाओ । तुम महान्
हो। लोग नमस्कार करते हुए तुम्हारे लिए हवन करते और सरलता
हिन्दी-ऋषणवेद ३९५
से तुम्हारे पास जाते हैं। तुस व्यापक, ऑहिसनीय, वौर-विशिष्ट,
यशोयुक्त और वर्णनीय रूप के सम्पादक हो। तुम भळी भाँति प्रसिद्ध
होओ !
६. हमें अच्छे कर्म-फल देनेवाली अग्नि-हूप उबाथे रात्रि को दयन-
चतुरा दो रमणियों की तरह, सहायता के लिए, परस्पर जाते-आते,
यज्ञ का रूप बनाने के लिए, परस्पर अनुकूल होकर बड़े तन्तु का वयन
करती हँ। वे अतीद फलदाता और जल-युक्त हैँ ।
७. अग्निरूप दिव्य दो होता पहले ही यज्ञ के योग्य हुँ। वे सर्वा-
पेक्षा विद्वान् ओर विशाल शरीर से संयुक्त हैं। बे मत्र-द्वारा अच्छी
तरह पूजा करते ओर यथासमय देवों के लिए यज्ञ करते हुँ। बे पृथिवी
की नाभिरूपिणी उत्तर-वेदी के गाहुपत्थ आदि तीन अग्नियों के प्रति
गमन करते हूँ। |
८. हमारे यज्ञ की निष्पादिका अग्तिरूप सरस्वती, इला और
सर्वव्यापिका भारती, थे तीनों देवियां यागयृह का आश्रय करके, हव्य-
लाभ के लिए, निर्वोषरूप से, हमारे यज्ञ का पालन करे ।
९. अग्नि-स्वरूप त्वष्टा की दया से हमारे पिशंग वर्ण, यज्ञकर्ता,
अन्नदाता, क्षिप्रकर्ता, देवाभिळाषी और वीर पुत्र उत्पन्न हो।
त्वष्टा हमें कुल-रक्षक संतान दें। देवों का अन्न हमारे पास आवे।
१०. वनस्पति-छप अग्नि हमारे कर्म जानकर हमारे पास हैं। विशेष
कर्म -दारा अग्नि भली भाँति हव्य पकाते हैं। दिव्य शमिता नास के
अग्नि वीन प्रकार से अच्छी तरह सिदत हव्य को जानकर उसे देवों
फे निकट ले जायें।
११. में अग्नि सं घी डालता हूँ । घत ही उनकी जन्मभूमि, आश्रय-
स्यान और दीप्ति है। अभीष्टवर्षी अग्नि, हव्य देवें के समय देवों को
बुलाकर उनकी प्रस्ता उत्पादन करो और अग्वि-रूप स्वाहाकार
में प्रदत्त हव्य ले जाओ ।
२९६ . हिन्दी-ऋग्वेद
४ सुक्त
(देवता अग्नि । क्रषि सग के अपत्य सोमाहुति । छन्द त्रिष्टुप् ।)
ee)
शक
१. यजसायो, मे तुम्हारे छिए अतीव दीप्तियुधल, निष्पाप, यजसानों
ज्ञाता ओर मनुष्यों से देवों तक के धारणकर्ता हैत
२. भूगुओं ने अग्नि की सेवा करके उन्हें जल के निवास-स्थान,
अन्तरिक्ष और माचवों की संतानों के बीच स्थापित किया था।
शी घगामी अश्ववाले और देवों के स्वामी अग्नि हमारे समस्त विरोधी
प्राणियों को पराभूत करें।
३. स्वर्ग जाते समय देवों ने, सित्र की तरह, अग्नि को मनुष्यों
के बोच स्थापित किया था। वे अग्नि हव्यदाता यजसान के लिए, उसके
योग्य गृह में स्थापित होकर, अपनी अभिलाषा करनेवाली रात्रियों
में दीप्त होते हे।
४. अपने शरीर की पुष्टि करने के सदृश अग्नि के शरीर की पुष्टि
करता भी रमणीय हें। जिस समय अग्नि चारों ओर फलते और
काष्ठ को भस्म करते हैं, उस ससय उनका शरीर अत्यन्त सुन्दर हो
जाता हे। जैसे रथ का अश्व बार-बार पूंछ कंपाता है, वैसे ही अरिन
भी काठों पर अपनी शिखा कंपाते हे।
५. सेरे सहयोगी स्तोता लोग अग्नि के महत्त्व की स्तुति करते
हे, वे आग्रही ऋत्विकों के पास अपना रूप प्रकाशित करते हें। अग्नि
रमणीय हव्य के लिए विचित्र किरणसाला से प्रकाशित होते हैं।
अग्नि वृद्ध होकर भी बार-बार उसो क्षण युदा हो सकते हुँ।
६. तृषालुर की तरह जो अग्नि वनों को द्ध करते हें, जल की
तरह इधर-उधर जाते हैँ; रथवाहक आअइव की तरह शब्द करते हैं,
वे कृष्ण-सार्ग ओर तापक होवे पर भी नभोमण्डलबाले शुलोक की
तरह शोभन हैं।
| हिन्दी-ऋग्वेद ४९७
७. जो अग्नि विश्व को व्याप्त करते हैं, जो अग्नि विस्तृत पृथिवी
पर बढ़ते है, जो अग्नि रक्षक-रहित पशु की तरह अपनी इच्छा से
गमन कर विचरण करते हुं, वही दीप्तिमान् अग्नि सूखे वृक्ष आदि को
जलाकर, व्यथाकारी कंटक आदि को इूरकर, अच्छी तरह रसाश्वादन
करते हें ।
८. अग्निदेव, तुने पहले, प्रथम सवन सें, जो रक्षा की थी, उसे
हम आज भी स्मरण करके तृतीय सबन मं मनोहर स्तोत्रों का उच्चारण
करते हैं। अग्नि, तुम हमें वीर-विशिष्ट करो । तुम हमें महान् कीत्ति-
सात् करो। हमे सुन्दर अपत्य और धन दो ।
९, अग्नि, गृत्समद-वंशीय ऋषि लोग तुम्हें रक्षक मकर, खुंद
का पाठ करते हुए, गुहा में अवस्थित उत्कृष्ट स्थान पर वतेसान धन-
विशेष प्राप्त करेगे । वे उत्तम पुत्र आदि को प्राप्त कर शत्रुओं को
परास्त करेंगे । मेधावी ओर स्तुतिकारी यजसानों को बहुत अधिक
और प्रसिद्ध धन दो ।
५ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि सामाहुति । छन्द अनुष्टुप्)
१. होता, चेतन्यदाता ओर पिता अग्नि यिलरों की रक्षा के लिए
उत्पन्न हुए। हम भी हव्य-युक्त होकर अतीव पूजनीय, जीतने ओर
रक्षा करने योग्य धन प्राप्त करने में समर्थ होंगे ।
२. यज्ञ-नेता अग्नि में सात रश्सियाँ विस्तृत हुँ। देवों के पोता के
समान, अग्नि मनुष्यों के पोता की तरह, यज्ञ के अष्टस स्थानीय होकर
व्याप्त होत हैं। |
३. अथवा इस यज्ञ में ऋत्विकगण जो हव्यादि धारण करते, जो
संत्र आदि पढ़ते हैं, सो सब अग्निदेव जानते हूँ!
_ ४. पवित्र प्रशास्ता अग्मि पृण्यक्रतु के साथ उत्पन्न हुए ह्ँ । जैसे लोग
फल तोड़ने के लिए एक डाल से दूसरी डाल पर जाते हैं, बसे ही यजनान,
कै९&
अग्नि के यश को अवश्य फलदाता समझकर, एक के अनन्तर दूसरा
झनृष्ठान करता हुँ ।
पू. जो अँगुलियाँ इस कार्य में लगी रहती हैं, वे इन नेष्टा अग्नि
के लिए घेनु-स्वरूष हुँ और इनकी सेवा करती हैं तथा अग्निरूप
होकर इनके गार्हपत्य आदि तीन उत्कृष्ट रूपों की सेवा करती है।
६. जिस समय जुहू सातृ-हपिणी वेदी के पास भगिनी के समान
घृत-पूर्ण करके रक्खा जाता है, उस समय जैसे बृष्दि में यव पुष्ट होता
है, बैसे ही अध्वर्युरूप अग्नि भी हुष्ट होते हँ।
७. ये त्रटत्विक-छप अग्नि अपने कर्मे के लिए ऋत्विक का कर्म
करते हुँ। हम भी, उसके अनन्तर ही, स्तोम, यज्ञ ओर हव्य प्रदान
करेंगे।
८. अग्नि, तुम्हारी महिमा जाचनेवाला यजमान जेसे सारे देवों
की भली भाँति तृप्ति कर सके, बैसा करो। हम जिस यज्ञ को करेंगे,
वह भी, अग्नि, तुम्हारा ही हुँ ।
६ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि सोमाहुति । छन्द् गायत्री) |
१. अग्नि, तुम मेरी इस समिधा और आहुति का उपभोग करो;
सेरी यह स्तुति सुनो।
२. अग्नि, हम इस आहुति के द्वारा तुम्हारी सेवा करेंगे। बलपुत्र,
विस्तीणं-यज्ञशाळी और सुजन्मा अग्नि, इस स्तुति से तुम्हें हम प्रसन्न
करेगे ।
३. घनद अग्नि, लुम स्तुति के योग्य ओर यज्ञ के अभिलाषी
हो। हम तुम्हारे सेवक हें। स्तुति-द्वारा तुम्हारी सेवा करगे ।
४. अग्नि, तुम धनवान्, विद्वान और धनद हो। उठो और
हमारे शत्रुओ को दुर करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद २९९
५. वही अग्नि, हमारे लिए, अन्तरिक्ष से वृष्टि प्रदान करते हें।
वे हमें महान् बल ओर अचन्त प्रकार के अन्न वें।
६. तरुणतम देव-दूतत, अतिशय यजनीय अग्नि, मेने तुम्हारी स्तुति
की हैं; इसलिए आओ। में तुम्हारा पूजक हूँ और तुम्हारा प्रश्नय
चाहता हूं । ॒
७. मेधावी अग्नि, तुम मनुष्यों के हृदय को पहचानते
हो; तुम उभयरूप जन्म जानते हो। तुम संसार और बन्धुओं के दूत"
रूप हो ।
८. अग्नि, तुस विद्वान् हो। हमारी मनःकासना पुर्ण करो।
तुम चेतन्यवाले हो। यथाक्रम तुम देवों का यज्ञ करो और कुञ्च के
ऊपर बेठो।
७ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि सोमाइुति । छन्द॒ गायत्री)
१. हे तरुणतम, भरणकर्ता और व्याप्त अग्नि, अतिशय प्रञंस-
वीय, दीप्तिमान् और बहुजन-वाईञ्छत धन ले आओ ।
२. अग्नि, सनुष्यों या देवों की शत्रुता हमें पराभूत न करे।
हमें दोनों प्रकार के शत्रुओं से बचाओ।
३. अग्नि, जल की धारा की तरह हम सारे शत्रुओं को स्वथं ही
लाँघ जायंगे ।
४. अग्नि, तुम शुद्ध, पवित्रकर्ता ओर वन्दनीय हो। घृत-द्वारा
आहूत होकर तुम अत्यन्त दीप्त हुए हो।
५. भरणकर्ता अर्ति, तुस हमारे हो। तुम बन्ध्या गो, वृष और
गभिणी मौ-हारा आहत हुए हो।
६. जिनका अन्त समिधा हुँ, जिनमें घत सिक्त होता है, वे ही
पुरातन, होमनिष्पादक, वरणीय और बल के पुत्र अग्नि अतीव
रमणीय हें।
३०० हिन्दी-ऋग्वेद
८ सू
(देवता अग्नि । ऋषि गृत्समद । छन्द गायत्री और अनुष्टप् )
१. होता, अच्नाभिलाषी पुरुष की तरह प्रभूत यशवाले और
अभीष्टदाता अख्नि के अइवों की स्तुति करो। ॒
२. सुनता, अजर ओर मनोहर गतिवाले अग्नि हविर्दाता यज-
सान के शत्रु -वाश के लिए आहुत हुए हे।
३. सुन्दर ज्वालावाले जो अग्नि गृह में आते हुए दिन-रात स्तुत
होते हैं, उनका व्रत कभी नहीं क्षीण होता।
४. जैसे किरण-लूप सूर्य प्रकाशित होते हैं, विचित्र अग्नि भी
अजर शिखाओं-ट्वार चारों ओर प्रकाशित होकर बसे ही
रश्मियों-दारा सुशोभित होते हें ।
५. शत्रुओं के विनाशक और स्वयं सुशोभित अग्नि के लिए
सारे ऋङ मन्त्र प्रयुक्त होते हुँ। अग्नि ने सारी शोभायें धारण की हैं।
हमने अग्नि, इन्द्र, सोम और अन्य देवों का प्रश्रय प्राप्त
किया हूँ । हमारा कोई अनिष्ट नहीं कर सकता। हम शत्रओ को
जीतेंगे ।
पंचम अध्याय समाप्त ।
९ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता अग्नि। छन्द् त्रिष्टप)
१. अग्नि देवों के होता, विद्वान् , प्रज्वलित, दीप्तिमान्, प्रकृष्ट-
बलशाली, अप्रतिहत, अनुग्रह-विशिष्ट, निवासदाता, सबके भरण-
कर्ता ओर विशुद्ध शिखावाले हे। होता के भवन में अग्नि अच्छी
तरह बठें ।
हिन्दी-ऋग्वेद ३०१
२. अभीष्ट-वर्षक अग्नि, लुन हमारे हूल बनो । हमें आपद् से
बचाओ! हमें धन दो। प्रमाद-शूत्य और दीप्तिशाली होकर हमारे
और हमारे पुत्रों के रक्षक बनो। अग्नि, जागो।
३. अग्नि, हम तुम्हारे उत्तम जन्मस्थान में तुम्हारी सेवा करेंगे।
जिस स्थान से तुम उद्गत हुए हो, उसकी भी पूजा करेंगे। वहाँ तुम्हारे
प्रज्वलित होने पर अध्वर्यु लोग तुम्हें लक्ष्य कर ह॒व्य प्रदान करते हैँ।
४. अग्निदेव, याज्ञिकों में तुम श्रेष्ठ हो। हृव्य-द्वारा तुम यज्ञ करो ।
तत्पर होकर तुम देवों के पास हमारे दिये जाने योग्य अन्न की प्रशंसा
करो। तुम धर्मों में उत्कृष्ट धन के अधिपति हो। तुम हमारे प्रदीप्त
स्तोत्र को जानो ।
५. दर्शनीय अग्नि, तुस प्रतिदिन उत्पन्न होते हो। तुम्हारा दिव्य
और पाथिव धन नण्द नहीं होता। फलतः तुम स्तोत्रकर्ता यजमान
को अन्न-युक्त करो। उसे सुन्दर अपत्यवाले धन का स्वामी बनाओ ।
६. अग्निदेव, तुप्च अपने दल के साथ हमारे प्रति अनुग्रह करो ।
तुम दोनों के याजक, सर्वापेक्षा उत्तम यज्ञकर्ता, देवों के रक्षक और
हमारे पालक हो। कोई तुम्हारी हिला नहीं कर सकता। धन और
कान्ति से युक्त होकर तुस चारों ओर ददीप्यसान बचो।
१० सक्त.
(देवता अग्नि । छन्द त्रिष्दुप )
१. अग्नि सबसे प्रथम होतव्य ओर पिता के समान हें। अग्नि
मनुष्यों द्वारा यज्ञ-स्थान में प्रज्वालित हुए हें। बह दीप्ति-पूर्ण, सरण-
रहित, विभिन्न-प्रज्ञा-पुक्त, अस्तवान्, बलवान् और सबके सेवनीय हैं ।
२. अमर, विशिष्ट प्रश्ञावाले, विचित्र दीप्ति-यक्त अग्नि मेरे सब
स्तुति-युषत आह्वान सुननें। दो लाल घोड़े अग्नि का रथ वहन करते हें।
वे विविध स्थातों सें जाते हें।
३०२ हिन्दी-ऋग्वेद
३. अध्वर्य लोयों ने ऊध्वेसुख अरणि या काष्ठ में प्रेरित अग्नि को
उत्पन्न किया हे । अस्ति विविध ओषधियों सें गर्भरूप से अवस्थित हेँ।
रात में उत्तस-ज्चाचवान् अग्नि, महादीप्लि-युक्त होकर बास करते हूँ।
उन्हें अन्धकार नहीं छिपा सकता।
४. सारे भुवनो के अधिष्ठाता, सहाम्, सर्वेत्रगामी, शरीरवातू,
प्रवृद्ध हव्य-हारा व्याप्त, बलवान् और सबके दृश्यमान अग्नि की हम
हव्य-घृत के द्वारा पूजा करते हें।
५. सर्वव्यापी और यज्ञ के अभिमुख आने की इच्छा करते हुए
अग्नि को घूत-द्वारा हम सिक्त करते हैं। वे शान्त चित्त से उस घृत
को ग्रहण करें। मनुष्यों के भजनीय और इलाघनीय वर्णबाले अग्नि के
पुर्ण प्रज्वलित होने पर उन्हें कोई छ् नहीं सकता।
६. अपने तेजीबल से शत्रुओं को पराजित करने के समय, हे अग्नि,
तुम हमारी सम्भोग-योग्य स्तुति को जानो। तुम्हारा आश्रय पाकर हम
सन् की तरह स्तोत्र करते हैं। उन बहुल-मधुस्पर्शी ओर धन-प्रद अग्नि
का जह और स्तुति-द्वारा में आह्वान् करता हूँ ॥
११ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप्)
१. इन्द्र, तुभ सेरी स्तुति सुवो। तिरस्कार नहीं करना। हम
तुम्हारे धव-दान के पात्र हें। नदी की तरह प्रवाहशाली यह हव्य
यजमान के लिए धनेच्छा करता हैं। यह तुम्हें बात कर।
२. शूर इख, तुमने जो जल बरसाया था, वृत्र ने उसी प्रभूत
जल पर आक्रमण किया था। तुमने उस जल को छोड़ दिया था।
उस दस्यु या दास (वृत्र) ने अपने को अमर समभा था। स्तुति-द्वारा
बद्धित होकर उसको तुमने नीचे पटक दिया ।
३. श्र इन्द्र, जिस सुखकर या रुद्रकृत ऋड मंत्र और स्तोत्र की
तुम इच्छा करते हो ओर जिससे दुम्हें आपच्द लिलता है, बहु
हिल्दी-ऋण्देद ३० हे
सब शुञ्ष और दीप्यमान स्तुति, यज्ञ के प्रति, तुम्हारे लिए प्रुत
होती हे।
४. इन्द्र, स्तोत्र-हारा हम तुम्हारा सुखकर बल बढित करते
तथा तुम्हारे हाथों में दीप्त बज्न अर्पण करते हें। बद्धित और तेजोयुक्त
होकर तुम दास लोगों को, झूर्य-लूप आयुध-द्वारा, पराभूत करते हो।
५. शूर इन्द्र, गुहा में अवस्थित, अप्रकाइय, लूक्कायित, तिरोहित
और जल में अवस्थित जिस वृत्र ने अपनी शक्ति से अन्तरिक्ष
और झुलोक को विस्मित किया था, उसको वज्र-द्वारा तुमवे विनष्द
किया था।
३. इन्द्र, हस तुम्हारी प्राचीन महत्कीतियों की स्तुति करते हैं
तथा तुम्हारे आधुनिक कतकर्मो की स्तुति करते हैं। तुम्हारे दोनों
हाथों में दीप्यमान बज्न को स्तुति करते हैं| तुम सूर्यात्मा हो। तुम्हारे
वताका-स्वरूप हरि नाम के अइवों की हम स्तुति करते हें।
७. इन्र, तुम्हारे शीक्षणामी दोनों घोड़े जलवर्षी सेघध्वनि करते हैं।
समतल पृथिवी मंघ-गर्जन सुनकर प्रसन्न हुई । मेघ ने भी इधर-उधर
घूमंकर शोभा प्राप्त की ।
८. प्रमाद-शूम्य संघ अन्तरिक्ष में आया और सात-भत जल के
साथ इधर-उधर घूमने लगा। मरुतों ने अत्यन्त दूर अन्तरिक्ष में
अवस्थित शब्द को यदत करते हए, इन्द-ट्रारा प्रेरित उस शब्द
को चारों ओर फेला दिया ।
९. बली इन्द्र ने इधर-उधर संचारी मेघ सें अवस्थित मायावी
वृत्र को सार गिराया। जलवर्षक इन्द्र के वस्त्र के व्यापक शब्द से
भय पाकर द्यावा-पृथिदी कम्पित हुई ।
१०. जिस समय सनुष्यों के हितकारी इख ने मनुष्यों के शत्र वत्र
के विनाश की इच्छा की थी, उस समय अभीष्ठ-वर्षक इन्द्र का अच्तर
बार-बार गजेन करने लगा । इन्द्र ने अभिषुत सोसपान करके स्यावी
दानव को सारी माया को निपातित कर दिया था ।
8०४ हिन्दी-ऋणग्वेद
११. इन्द्र, तुम अभिषुत सोस पान करो। सददाता सोमरस तुम्हें
आामोदित करे। सोसरस तुम्हारे उदर की पुति कर्के तुम्हें प्रसन्न
करे। इस प्रकार उदर-पुरक सोमरस इन्द्र को तृप्त करे।
१२. इन्द्र हम सेथाबी है। हम तुम्हारे अन्दर स्थान पावंगे।
कर्म फल की कामना से हम तुम्हारी सेवा करके यज्ञ करेंगे। तुम्हारा आश्रय
पाने की इच्छा से हम तुम्हारी प्रशंसा का ध्यान करते हें, ताकि हम
इसी क्षण तुम्हारे धवदान के पात्र हो सके ।
१३. इन्द्र, तुम्हारे आश्रय-लाभ की इच्छा से जो तुम्हारा हव्य वरद्धित
करते हैँ, हम भी उन्हीं की तरह तुम्हारे अधीन हो जायेँ। झुतिसान्
इन्द्र, हम जिस थव की इच्छा करते हैं, तुम हमें सर्वापेक्षा बलवान्
और वीर-पुत्र-युक्त बही चन दो।
१४, इन्द्र, तुम हमें गृह दो, बन्धु दो और महापुरुषों की तरह वीर्य.
दो, प्रसक्ष-चित्त बायुगण अतीव आनन्दित होकर आगे लाया हुआ सोम
पान करें।
१५. इन्द्र, जिन मठतों के सहायक होने पर तुम हृष्ट होते हो, वे
शीघ्र सोमपान करें। तुम भी अपने को दृढ़ करके तृप्तिकर सोम
पान करो। शत्रुवाशक इन्र, बलवान् और पुजतीय सरुतों के साथ
तुम युद्ध में हमें बात करो--यूलोक को भी वद्धित करो ।
१६. अनिष्ट-निवारक इन्द्र, तुम सुख-प्रद हो। जो पुरुष उक्थ-द्वारा
लुस्हारी सेवा करता है, वह शीघ्र ही महान् हो जाता है । जो कुश बिछा-
कर तुम्हारी सेवा करते हें, वे तुम्हारा आश्रय प्राप्तकर गृह
के साथ अन्न प्राप्त करते है ।
१७. झर इख, तुम उग्र त्रिकद दिन-विशषों में अत्यन्त हृष्ट होकर
सोसयान करो । अनन्तर प्रसन्न होकर ओर अपनी दाढ़ी-मँछ में लगे
सोम को काड़कर सोसपान केलिए हरि वासक घोड़े पर चढ़कर
आओ ।
हिल्दी-आउवेद ३०५
१८. इन्द्र, जिस बल के द्वारा तुमने दनु के पुत्र वत्र को
अर्गनाभि कीट की तरह विनष्ट किया था, वही बल धारण करो ।
आये के लिए तुसने ज्योति दी है। दस्यू तुम्हारे विरोधी हैं।
१९. इन्द्र, जिन रोगों ने तुम्हारा आश्रय प्राप्त करके सारे गर्व-
कारी मनुष्यों को अतिकम किया है और बर्यभाव-हारा इस्यु का
अतिकम किया हैं, हम उनको भजते है। तुमने त्रित के बन्धुत्व
के लिए त्वष्टा के पुत्र बिइदरूय का वध किया है। हमारे लिए भी
बसा ही करो ।
२०. इन हृष्ट ओर सुतवान् त्रित-द्वारा दर्धित होकर इन्द्र ने
अर्बुद का विनाश किया थ?। जैसे सूर्य रथ-चक्र चलाते है, वैसे ही इन्द्र
ने अंगिरा लोगों की सहायता प्राप्त करके वच्च को घुसाया था और
बल को विनण्ट किया था।
२१. इन्द्र, तुम्हारी जो धनवती दक्षिणा स्तोता का मवोरथ पुरा
करती हुँ, उसे हमें दो । तुम भजनीय हो। हमें छोड़कर और किसी
को भी नहीं देदा। हस पुत्र-पोत्रन्युक्त होकर इस यज्ञ में प्रभूत
स्तुति करेंगे ।
१२ सूक्त
( देवता इन्द्र छन्द् च्रिष्दुप् )
१. मनुष्यो या असुरो, जो प्रकाशित हैं, जिन्होंने जन्म के साथ
ही देवों में प्रधान और मनुष्यों में अग्रणी होकर वीरकर्म द्वारा सारे
देवों को विभूषित किया था, जिनके झरीर-बल से चावा-पृथिवी भीत
हुई थी ओर जो सहती सेना के नायक थे, बे ही इन्र हे।
२. मनुष्यों या अधुरो, जिन्होंने व्यथित पृथिवी को दृढ़ किया है,
जिन्होंते प्रकुपित पर्वतों को नियमित किया है, जिन्होंते प्रकाण्ड अन्तरिक्ष
को बनाया है और जिन्होंने घुलोक को निस्तब्ध किया है, वे ही इच हे ।
फा० २०
३०९ हिन्दी-ऋग्वेद
३. मनुष्यो या असुरो, जिन्होंने बुत्र का विनाश करके सात
नदियों को प्रवाहित किया है, जिन्होंने बल असुर्द्धारा रोकी हुई गायों
का उद्धार किया था, जो दो मेघों के बीच से अग्नि को उत्पन्न करते
हें और जो समर-भूमि सें शत्रुओं का नाश करते हैं, वे ही इन्द्र हैं।
४, सनुष्यो या असुरो, जिन्होंने समस्त विश्व का निर्माण किया
है, जिन्होंने दासों को निकृष्ट और गूढ़ स्थान में स्थापित किया है,
जो लक्ष्य जीतकर व्याथ की तरह शत्रु के सारे धन को ग्रहुण करते हे,
बे ही इन्द्र हैं ।
५. सनृष्यो या असुरो, जिन भर्वकर देव के सम्बन्ध में लोग
जिज्ञासा करते हे, बे कहाँ हैं? जिनके विषय सं लोग बोलते हैं
कि थे नहीं हैं और जो शासक की तरह शत्रुओं का सारा घन विनष्द
करते हैं। विश्वास करो, वे ही इन हैं।
६. मनुष्यो या असुरो, जो समृद्ध धन प्रदान करते हैं, जो दरिव्र
याचक और स्तोता को धन देते हें और जो शोभन हनु या केहुनीवाले
होकर सोमामियव-कर्त और हाथों सं पत्थरवाले यजसान के रक्षक
हैं, बे ही इद्ध हें।
७. सनुष्यो या असुरो, घोड़े, गाये, गाँव और रथ जिनकी आज्ञा
के अधीन हें, जो सुर्यं और उषा को उत्पन्न करते हैं ओर जो जल
प्रेरित करते हैं, वे ही इन्द्र हैं।
८. सतुष्यो या असुरो, दो सेनादल परस्पर मिलने पर जिन्हें
बुलाते है, उत्तम-अधम दोनों प्रकार के शत्रु जिन्हें बलले हैं ओर
एक ही तरह के रथों पर बेठे हुए दो. मनुष्य जिन्हें नाना प्रकार से
बुलाते हैं, बे ही इन्द्र हे।
९. मनुष्यों या असुरो, जिनके न रहने से कोई विजयी नहीं हो सकता,
युद्धकाल सं, रक्षा के लिए जिन्हें लोग बुलाते हैं, जो सारे संसार के
प्रतिनिधि हे और जो क्षय-रहित पर्वतादि को भी नष्ट करते हैं, बे
ही इन्द्र ह। |
हिन्दी-ऋष्वेद 8०७
१०. सनुष्यो या असुरो, जिन्होंने दज्च-दारा अनेक भहापापी अपुजको
का विनाश किया है, जो गर्वकारी मनुष्य को सिद्धि प्रदान करते हैं और
जो दस्युओ के हन्ता हैं, बे ही इन्र हें।
११. सनुष्यो या असुरो, जिन्होंने पर्वत में छिपे झम्बर असुर को
चालीस वर्षे खोजकर प्राप्त किया था ओर जिन्होंने बढू-प्रकाशक
अहि नाम के सोय हुए दैत्य का विनाश किया था, वे ही इन्द्र हैं।
१२. मनुष्यो या असुरो, जो सप्त वर्ण या वराह, स्वपत, विद्युत्,
शहः, धूपि, स्वापि, गृहमेध आदि सात रश्सियोंवाड़े, अभीष्टवर्षी
और बलबान् हैं, जिन्होंने सात नदियों को प्रवाहित किया है और
जिन्होंने वञ्च-बाहु होकर स्वर्ग जाने को तैयार रोहिण को विवष्द
किया था, वे ही इन हें।
१३. मनुष्यों या असुरो, द्यावा-पृथिवी उन्हें प्रणाम करती हुँ । उनके
बल के सामने पर्वत कापते हैं और जो सोसपान-कर्सा, वृढ़ांग, वस्न-
बाहु और वद्त्रयुक्त हैं, वे ही इन्र हैं।
१४. मनुष्यो, जो सोसाभिषवर्कर्ता यजसान की रक्षा करते
हैं, जो पुरोडाश आदि पकानेदाले, स्तोता और स्तुतिपाठक यजमान
की रक्षा करते हैं और जिनक बद्धक स्तोत्र, सोस और हमारा अन्न
है, दे ही ड्ब्द्र हुँ । ।
१५. इन्द्र, दुर्घेषे होकर सोमालियव-कर्सा और पाककारी
यजमान को अन्न प्रदान करते हो, इसलिए तुम्हीं सत्य हो। हम
प्रिय और वीर पुत्र-पौत्र आदि से युक्त होकर चिरकाल तक
तुम्हारे स्तोत्र का पाठ करेंगे ।
१३ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् और जगती ।)
१. वर्षा-ऋतु सोम की माता है । उत्पन्न होकर सोम जल सं बढ़ता
है; इसलिए उसी में प्रवेश करता हुँ। जो सोमलता जल की सार-
३०८ हिन्दी -ऋणग्वेद
भूत होकर वृद्धि को प्राप्त होती है, बह् अभिषव के उपयुक्त है। उसी
सोमलता का पीयूष इन्द्र का हुव्य है।
२. परस्पर सिली हुई उदक-वाहिनी नदियाँ चारों ओर बहु रही हैं
ओर सारे जलों के आश्रयभूत समुद्र को भोजन प्रदान करती हैं।
निम्नयामी जल का गन्तव्य मागे एक ही है। इद्र, तुमने पहले ये
सब काम किये हे; इसलिए तुम स्ठुति-्योग्य हो।
३. एक यजमान जो दान करता है, दूसरा उसका अनुवाद करता
हूँ। एक जल पशुहिसा करके, हिसाकर्ता बनकर, जाता है, दूसरा
सारे बुरे कों का शोधन करता है । इन्द्र, तुमने पहले ये सब कसं (किये
हैँ; इसलिए तुम स्वुतियान्र हो।
४. इन्द्र, जेसे गृहस्थ लोग अभ्यागत अतिथि को प्रचुर धन देते
हें, वैसे ही तुम्हारा दिया धन प्रजाओं में विभव, होकर रहता है।
लोग पिता-द्वारा दिया भोजन दांतों से खात है । इन्द्र, तुमने पहले थे सब
कार्य किये हैँ; इसलिए स्तुति-योग्य हो ।
५. इन्द्र, तुमने आकाश के लिए पृथिवी को दर्शनीय किया है।
तुमने प्रवाहित नदियों का मार्ग गसन-योग्य किया हुँ । वृत्र-हन्ता इन्द्र
जसे चळ के हारा अशन को तृप्त करते हो, बसे ही स्तोता लोग स्तोत्र-
द्वारा तुम्हें तृप्त करते हें । |
६. इन्द्र, तुस भोजन और वद्धमान धन देते हो और आघ काण्ड
से शुष्क और सधुर रसबाले शस्य आदि का दोहन करते हो। सेवक
यजमान को तुम धन देते हो। संसार सें तुस अद्वितीय हो। इन्द्र, तुम
"दुति-योग्य हो ।
७. इन्द्र, कर्स-द्वारा तुमने खेत में फूल और फलजाली ओषधि की
रक्षा की हँ । प्रकाशमान सूर्य की नाना प्रकार की ज्योति उत्पन्न की
हुँ । तुमने महान होकर चारों ओर महान् प्राणियों को उत्पन्न किया
हं । तुम स्तुति-पात हरो ।
हिन्दो-ऋग्वेद ३०९
८. बहु-कर्म-कर्ता इन्द्र, तुसने हव्यप्राष्ति और दावों के विनादा
के उद्देशश से नृमर के पुत्र सहवसु का विनाश करने के लिए
बलवती धारा का निर्मेल मुख-प्रदेश इसको दिया था। तुम स्तुति-
योग्य हो ।
९. इन्द्र, तुम एक हौ। तुम्हारे सुख के लिए दस सौ घोड़े
हैं। तुमने दधोति हृषि के लिए रज्जु रहित दस्युं का विनाश
किया था। तुम सबके प्राष्य हो; इसलिए स्तुति-
योग्य हो । |
१०. सारो नदियाँ इन्द्र की शक्ति का अनुवर्तन करती हैं। यजमान
लोग इन्द्र को अन्न प्रदान करते हें और सब लोग कर्मकर्त्ता इन्द्र के
लिए धन धारण करते हें। तुमने विशाल दु, पृथ्वी, दिन-रात्रि, जल
और ओषधि नामके छः स्थानों को निश्चित किया हैं । पंचजन के पालक
हो। इख, तुम सबके स्तुति-पात्र हो।
११. तुम्हारा वीर्यं सबके लिए इलाघनीय हे। तुमने एक कर्म-
द्वारा शत्रुओं का धन प्राप्त किया हुँ । तुमने बलिष्ठ जातुष्ठिर
को अन्न दिया है। चूँकि थे सब कार्य तुमने किये है;
इसलिए तुम सबके स्तुति-पात्र हो ।
१२. इन्द्र, सरलता से प्रवाहशील जल के पार जाने के लिए
तुमने तुर्वीति और वय्य को मागे दे दिया था। तुमने अन्धे और पंशु,
पराबृज को तल से उद्धार करके अपने को कीत्तशाली बनाया है;
इसलिए तुम स्तुति-योग्य हो।
१३. निवास-दाता इन्द्र, हमें भोग के लिए धन दो। तुम्हारा बह
धन प्रभूत, वासथोग्य और विचित्र हे। हम प्रतिदिन उस धन के
भोग की इच्छा करते हें। हम उत्तम पुत्र-पोत्र प्राप्त करके इस
यज्ञ में प्रभत स्तोत्र का पाठ करगे ।
३१० हन्दी-ऋष्वेद
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप्)
१. अध्वयंगण, इन्द्र के लिए सोस ले आओ। चमस के द्वारा
मादक अन्न अग्नि में फेंको। बीर इन्द्र सदा सोमपान के अभिलावी
रहते हँ। अभीष्टवर्षी इन्द्र के लिए सोम प्रदान करो? इन्र उसे
चाहते हें ।
२. अध्वर्युगण, जिन इन्द्र ने जल को आच्छादित करनेवाले वृत्र
का वञ्रद्वारा वृक्ष की तरह विनाश किया हें, उन्हीं सोनाभिलाषी
इन्र के लिए सोम ले आओ । इन्द्रदेव सोमपान के उपयुक्त पाच हें।
३. अध्वर्यूगण, जिन इन्द्र ने दुभीक का विनाश किया था, जिन्होंने
बल असुर-दारा अवरुद्ध गायों का उद्धार करके उसे विनष्ट किया
था, उन्हीं इन्द्र के लिए, जैसे वायु अन्तरिक्ष में व्याप्त है, देसे ही,
सोम को सर्वत्र व्याप्त करो । जैसे जीर्ण को वस्त्र के द्वारा आच्छा-
दित किया जाता है, बेसे ही सोम-द्रारा इन्द्र को आच्छादित करो।
४. अध्वर्युगण, जिन इन्द्र ने निन्नानबे बाहु दिखानेवाले उरण
का विना किया था तथा अबंद को अधोमुख करके विनष्ट किया
था, सोम तैयार होने पर उन्हीं इन्द्र को प्रसन्न करो ।
५. अध्वर्यृगण, जिन इद्र ने सरलता से अइब का विनाश किया
था, जिन्होंने अशोषणीय शृष्ण को स्कन्धहीन करके मार डाला था,
जिन्होंने पिप्रु, नमुखि और रघिकता का विनाश किया था, उन्हीं इन्द्र
के लिए अन्न प्रदान करो।
६. अध्वर्यूगण, जिन इन्द्र ने प्रस्तर के सदृश वच्छा-हारा शम्बर
की अतीव प्राचीन नगरियों को छिन्न-भिन्न किया था, जिन्होंने दर्ची
के सो हजार पुत्रों को भूमिशायी किया था, उन्हीं इन्द्र के लिए सोम
ले आओो।
७. अध्वयुंगण, जिन इत्रुहुम्ता इन्द्र ने भूमि को योद मंसो
हिन्दी-क्रर्वेद ३११
हजार असुरौं को मार गिराया था, जिन इन्द्र ने कुत्स, आयु और
अतिथिण्व के प्रतिदृच्दियों का वघ किया था, उनके लिए सोम ले आओ ।
८, नेता अध्वर्युगण, तुस जो चाहते हो, बह इन्द्र को सोम प्रदान
करने पर तुरत मिल जायया। प्रसिद्ध इन्द्र के लिए हस्त-ट्टारा शोषित
सोस ले आओ । है याज्ञिकगण, इन्द्र के लिए बह प्रदान करो ।
९. अध्वयूंगण, इन्द्र के लिए सुखकर सोम दैयार करो। संभोग-
योग्य जल में शोधित सोस ऊपर ले आओ । इन्दर प्रसन्न होकर तुम्हारे
हाथों से तैयार किया हुआ सोम चाहते हुँ। इन्द्र के लिए तुम लोग
सदकारक सोम प्रदान करो।
१०. अध्वर्यूगण, गाय का अधोदेश जसे दुग्ध से पुर्ण रहता है,
बसे ही इन फरू-प्रदाता इन्द्र को सोम-ट्ठारा पुर्ण करो। सोम का
गूढ़ स्वभाव में जानता हूँ ॥ यजनीय इख सोमप्रद यजमान को अच्छी
तरह जानते हुँ।
११. अध्वय गण, इन्द्रदेव, स्वर्ग, पृथिवी और अन्तरिक्ष के घन
के राजा हैं। जसे यव (जौ) से धान्य रखने का स्थान पूर्ण किया
जाता है, बेले ही सोम-द्वारा इन्द्र को पूर्ण करो । वह कार्य तुम लोगों
के द्वारा पूर्ण हो।
१२. निवास-प्रद इन्द्र, हमें भोग के लिए घन प्रदान करो। तुम्हारा
वह धन प्रभूत, वास-धोग्य और विचित्र है। हम प्रतिदिन उसी घन
को भोग करने की इच्छा करते हुँ। इस उत्तम पुत्र-पौत्र प्राप्त करके
इस यज्ञ में प्रभूत स्तोत्र का पाठ करेंगे ॥
२५ सूप्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप्)
१. से बलवान् हूँ। सत्य-संकल्प इन्द्र की यथार्थ और भहती
` कोखियो का वणन करता हें। इन्द्र में त्रिकद यज्ञ में सोमयान किया
हे । सोमजन्य प्रसन्नता होने पर इन्द्र ने अहि का वघ किया।
३१२ हिन्दी-ऋणष्वेद
२. आकाश में इन्द्र ने झुलोक को रोक रक्खा है। थावा-पृयिवी
और अन्तरिक्ष को अपने तेज से पूर्ण किया है। विस्तीणं पृथिवी को
धारण किया हूँ और उसे प्रसिद्ध किया हुँ। सोमजन्य हुर्ष उत्पन्न होने
पर इन्द्र नें यहु सब काम किया था।
३. यज्ञ-गृह की तरह इन्द्र ने माप करके, सारे संसार कौ पुर्वाभि-
मुख करके बनाया है। उन्होंने वज्ञ-द्वारा नदी के निकलतेवाले दरवाचों
को खोल दिया। उन्होंने अनायास ही दीर्घं काल लक जाने योग्य
मार्गो से सदियों को प्रेरित किया था। सोसजन्य हर्ष उत्पन्न होने पर
इन्द्र ने यह सब काम किया था।
४. जो अघुर दभीति ऋषि को उनके नगर के बाहर छे जा रहे
थे, मार्ग में उपस्थित होकर इच ने उनके सारे आयुधो को दीप्यमान
अग्नि सं दग्ध कर डाला । अनन्तर दभीति को अनेक गाये, घोड़े और
रथ दिये। सोमजन्य हर्ष के उत्पन्न होने पर इख ने यह सब काम
किया था।
५. उन इन्र ने दूति, इरावती या परुष्णी नामक महानदी को,
पार जाने के लिए, शान्त किया था। नदी के पार जाने में असमर्थ
लोगों को निरापद पार किया था। वे नदी पार होकर धन को लक्ष्य करके
गये थे। सोमजन्य हषं उत्पन्न होते पर इन्द्र ने यह सब काम किया था ।
६, अपनी सहिमा से इन्द्र ने सिन्धु को उत्तर-वाहिनी किया है।
वेगवती सेना के द्वारा, दुर्बल सेना को भिन्न करके वच्ऋनद्वारा उषा के
रथ को चूर्ण किया था। सोमजन्थ हर्ष उत्पन्न होने पर इन्द्र ने यह
सब काम किया था!
७. अपने व्याह के लिए आई हुई कन्याओं का भागना जानकर
परावृज ऋषि सबके सासने ही उठकर खड़े हो गये। पंग होने पर
भी कत्याओं के प्रति दौड; चक्षुहीन होने पर भी उन्हें देखा; क्योंकि
स्तुति से प्रसत्त होकर इन्द्र ने उन्हें पैर ओर आँखें दे दी थीं। सोमजत्य
हषं होने पर इन्र ने यह सब किया था।
हिन्दीन्त्रम्बैद ३१३
८. अङ्किरा लोगों की स्तुति करने पर इख नै बल को विदीर्ण
किया था । पर्वत के सुदृढ़ द्वार को खोला था। इनकी कृत्रिस रुकावट
को भी हुटाया था। सोमजन्य हर्ष उत्पन्न होने पर इन्द्र ने यह सब
कास किया था।
९. इन्द्र, तुमने चुमुरि और घुनि नाम के असुरों को दीर्घ तिब्र
में प्रसिद्ध करके विनष्ट किया था। दभीति नासक राजषि की रक्षा
को थी । उनके वेत्रधारी दोवारिक ने भी झत्रुका हिरण्य प्राप्त किया
था । सोमजन्य हषं उत्पन्न होने पर इन्द्र ने यह सब काम किया था।
१०. इन्द्र, तुम्हारी जो धनवती दक्षिणा स्तुतिकारी का सनोरथ
पुरा करती हे, वही दक्षिणा तुम हमें प्रदान करो । तुस भजनीय हो,
हमें छोड़कर और किसी को नहीं देना। हुम पुत्र-पौत्रों से युक्त होकर
इस यज्ञ सं प्रभूत स्तुति करेंगे ।
१६ सूक्त
(देवता इन्द्र | छन्द त्रिष्टुप् और जगती )
१. तुम्हारे उपकार के लिए देवों में ज्येष्ठतम इन्र के लिए
दीप्यसान अग्नि सें हम हृव्य प्रदान करते हँ। अनन्तर उनकी मनोहर
स्तुति करते हें। अपनी रक्षा के लिए स्वयं जरा-रहित, सारे संसार
को जरा देनेवाले, सोमसिक्त, सनातन और तरुण-वयस्क इन्द्र को हम
बुलाते हूँ ।
२. विराट् इन्द्र के बिना संसार नहीं हे । जिन इख में साही
आाक्तियां हे, वही इन्द्र उदर में सोमरस धारण करते हैं। उनके शरीर
सं बल और तेज हूं । उनके हाथ में बच्चा और मस्तक में ज्ञान है।
३. इन्द्र, जब कि तुम शौीघ्रगासी अइब पर चढ़कर अनेक योजन
जाते हो, तब द्यावा-पृथिवी लुम्हारे बल को पराजित नहीं कर सकतीं ।
समुद्र ओर पर्वत तुम्हारे रथ का परिभव नहीं कर सकते । कोई सौ
व्यक्ति तुम्हारे बल का परिभव नहीं कर सकता ।
३१४ हिन्दीन्ऋणग्वेद
४. सब लोग यजनीय, शत्रु नाशक, अनीष्टवर्षी और सदा सज्जित
इख का यज्ञ करते हैँ। तुम सोमदाता और विद्वान् हो। इन्द्र के लिए
हुम भी यज्ञ करो। इन्द्र, अभीष्टवर्षी और दीप्यमान अग्नि के साथ
छोमपान करो ।
५. अभीष्टवर्षी और मादक सोमरस अनुष्ठातरओं के लिए उत्तेजक
होकर बलप्रद, अज्न-विशिष्द और अभीष्टवर्षी इन्द्र के पाने के लिए
ज्ञातः हूँ । सोसरसप्रद अध्यंद्वय ओर अभीष्टदर्षी अभिषद-प्रस्तर अभीष्ठ-
वर्घी सोम का, तुम्हारे लिए अभिषवण करते हैं। तुम भी अभीष्ट-
वर्षी हो ।
६. अभीष्ठवर्षी इन्द्र, तुम्हारे वस्त्र , रथ हरिमास के अश्व और
तुम्हारे सारे हथियार अभीऽट्वर्षी हैँ। तुम भी मादक और अभीष्ट-
वर्षी सोम के अधिकारी हो। इन्द्र, अभीष्टवर्षो सोम से तुम भी
तुप्द बनो ।
७. तुम शत्रुदाशक हो । तुम संग्रास में स्तोत्राभिलाषी और नौका
की तरह उद्धारक हो। यज्ञ-काल में में स्तोत्र करते-करते तुम्हारे
पात जाता हूँ 1 इन्द्र, हमारे इस स्तुतिवाकय को अच्छी तरह -
नानो, हम कप की तरह दावाधार इन्र को सिक्त करेंगे ।
८. जेसे तृण खाकर तृप्त गाय वत्स को लोटाती हे, वैसे ही हे
इन्द्र, हमें अनिष्ट से पहले ही छोटा दो। शतक्रतु, जैले पत्नियां युवा
को व्याप्त करती हें, बसे ही हम सुन्दर स्तोत्र-द्वारा एक बार तुम्हें
व्याप्त करेंगे । |
९. इन्द्र, तुम्हारी जो धनदती दक्षिणा सतोता को सारे मनोरथ
प्रदान करती है, वह दक्षिणा दुस हमें प्रदाद करो । हुम भजमीय हो।
हुमें छोड़कर अन्य को नहों देवा। हम पुत्र-पोत्र-युक्त होकर इस
यज्ञ ' में प्रभूत स्तुति करगे ।
हिन्दी-ऋष्वेद ३१५
१७ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् और जगती ।)
स्तोदाजो, तुम छोग अद्धिरा लोगों को तरह नई स्तुति-द्वारा
इन्द्र की उपासना करो; क्योंकि इन्द्र का झोषक तेज पूर्वकाल की
तरह उदित होता हे। सोमजनित हर्ष के उत्पन्न होने पर इन्द्र ने
बृत्र-द्वारा आक्रान्त सारी मेघराशि को उद्घाटित किया था।
२. जिन इन्द्र ने बल का प्रकाश करके प्रथम सोसपान के लिए
अपनी महिसा को बढ़ाया हं और जिन दात्र॒हन्ता इन्द्र ने यद्धकाल में
अपने शरीर को सुरक्षित रखा था, वे ही इन्द्र प्रसन्न हों । उन्होंने
अपनी महिमा से अपने मस्तक पर यलोक को धारण किया था।
३. ईन्द्र, तुसन अपना महावीय प्रकट किया हें; क्योंकि स्तोत्र-
द्वारा प्रसन्न होकर तुमने शत्रु-विनाशक बल प्रकट किया है। तुम्हारे
रथस्थित हरि नामक अइवों के हारा स्वस्थान से विच्यत होकर अनिष्ठ-
कारी लोगों में से कुछ दल बाॉँधकर और कुछ अलग-अलग होकर
भाग गये हें ।
४. बहुत अच्नवाले इन्द्र अपने बल से सारे भवनों को अभिभत
करके और अपने को सबका अधिपति करके बड्धित हुए हैं। अनन्तर
संसार के वाहक इन्द्र ने द्यावा-पृथिवी को व्याप्त किया है। इन्द्र ने
दुःस्थित तमोराशि को चारों ओर फकते हुए संसार को व्याप्त किया है।
५. इन्द्र ने इधर-उधर घमनेवाले पवंतों को अपने बल से अचल
किया हुँ । मेघ-स्थित जलराशि को तीचे गिराया हुँ । उन्होंने संसार-
धारयित्री पृथिवी को अपने बल से धारण किया है और बढ्धि-बल
से द्युलोक को पतन से बचाया हूँ ।
६- इन्द्र, इसे संसार के लिए पर्याप्त हुए हैं। वे सबके रक्षक हँ।
उन्होंने सारे जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञान-बंल से अपने हाथों संतार
को निर्माण किया है । विविधेन्कोतिमान् इन्द्र ने इस ज्ञान से क्रिवि
३१६ हिन्दी-ऋष्वेद
को बज्न द्वारा मारते हुए पृथिवी पर लेटकर रहने के लिए बाधित
किया था।
७. इर, जैसे आमरण माता-पिता के साथ रहनेवाली पुत्री अपने
पितु-कुल से ही अंश के लिए प्रार्थना करती है, बैसे ही में तुम्हारे पास
घन की याचना करता हँ। उस घन को तुम सबके पास प्रकट करो,
उस धन को सापो और उसे सम्पादित करो। मेरे शरीर के भोगने
योग्य घन दो । इस धन से स्तोताओं को सम्मानित करो ।
८. इन्द्र, तुम पालक हो। हम तुम्हें बलाते हें। तुम कर्म और
भ्न के दाता हो। नाना प्रकार से आश्रय प्रदान कर तुम हमें बचाओ ।
अभीष्टवर्षी इत, तुम हमें अत्यन्त धनशाली करो।
९. इन्द्र, तुम्हारी जो धनवती दक्षिणा स्तोता को सारे मनोरथ
प्रदान करती है, वही दक्षिणा तुम हमें दो। तुम भजनीय हो। हमें
छोड़कर अन्य किसी को नहीं देना। हम पुत्र-पोत्र से संयूक्त होकर इस
यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे ।
१८ सूक्त
(देवता इन्द्र | छन्द त्रिष्टुप् )
१. स्तु्तियोग्य और विशुद्ध यज्ञ प्रातःकाल प्रारम्भ हुआ है।
इस यज्ञ सं चार पत्थर, तीन प्रकार के स्वर, सात प्रकार के छन्द और
दस प्रकार के पात्र हुँ। यह मनुष्यों के लिए हितकर और स्वर्ग-प्रदाता
ह। यह मनोहर स्तुति और होम आदि के द्वारा प्रसिद्ध होगा।
२. यह यज्ञ इन इन्द्र के लिए प्रथम, द्वितीय और तृतीय सदन में
यथेष्ठ हुआ । यह मातवों के लिए शुभ फल ले आता हुँ । दूसरे ऋत्विक्
लोग भी दूसरे सिद्ध वाक्यों का गर्भ उत्पन्न करते हे। अभीष्टवर्षी
ओर जयशील यज्ञ अन्य देवों के साथ मिलित होता हुँ।
३. इन्द्र के रथ सं नये स्तोत्रों के द्वारा शीघ्र जाने के लिए
हिन्दी-ऋष्वेद ३१७
हरिनाम के अइवों को जोड़ा जाता है। इस यज्ञ में अनेक मेघावी
स्तोता हैं । दूसरे यजमान लोग तुम्हें अच्छी तरह तृप्त नहीं कर सकते ४
४. इन्द्र, तुम बुलाये जाकर दो, चार, छः, आठ अथवा इस हरि
नामक घोड़ों के द्वारा सोसपान के लिए आओ। शोधन धतवाले इन्दर,
यह सोम तुम्हारे लिए प्रस्तुत हुआ है। तुम उसे नष्ठ नहीं करना ।
५, इन्द्र, तु उत्तम गतिवाले बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ
अथवा सत्तर घोड़ों के द्वारा हमारे सासने सोसपान के लिए आओ ।
६. इन्द्र, अस्सी, नब्बे अथवा सौ अइ्वों के द्वारा ढोये जाकर
हमारे सामने आओ; क्योंकि इन्द्र तुम्हारे लिए तुम्हारे आनन्द के
लिए पात्र में सोम रखा हुआ हुँ।
७. इन्द्र, मेरी स्तुति के सामने आओ। जगद्व्यापी दोनों अइवों
को रथ के अग्रभाग में संयोजित करो! बहु-संस्यक यजमान तुम्हें
बुलाते हु । शुर, तुम इस यज्ञ मं हुष्ट होओ ।
८, इन्द्र के साथ सेरी मंत्री वियुक्त न हो। इच्ध की यह दक्षिणा
हमें अभिमत फल प्रदान करे। हम इन्द्र के प्रशंसतीय और आफद् को
हटावेवाले दोनों हाथों के पास अवस्थिति करते हे। प्रत्येक युद्ध सें
हम विजयी बसे ।
९. इन्द्र, तुम्हारी जो धनदती दक्षिणा स्तोता के मनोरथ पुर्ण
करती है, बही दक्षिणा हमें प्रदान करो । तुम भजनीय हो । हमें छोड़कर
दूसरे को दक्षिणा नहीं देना। हम पुत्र-पौत्र-युक्त होकर इस यज्ञ में
प्रभूत स्तुति करेंगे ।
१९ सूक्त
_ (देवता इन्द्र । छन्द् त्रिष्टुपू। )
१. सोमाभिषवकर्ता मनीषी यजमान का मादक अन्न, आनन्द के
लिए, इन्द्र भक्षण कर । इस प्राचीन अन्न सें बद्धंमान होकर इन्द्र इसमें
निवास करते हूँ । इन्द्र के स्तोत्राभिलाषी ऋत्विक भी इसमें निवास कर
चुके हुँ।
३१८ हिन्दौ-्ऋग्देद
२. इस मदकर सोस से आनन्द-निमग्स होकर इन्द्र ने हाथों में
बज्न धारण करके जल के आवरक अहि का छेदन किया था। उस ससय
प्रसञ्नतादायक जल-राशि, जेसे पक्षिगण पुष्करिणी के सामने जाते
है, बेसे ही समुद्र के सामने जाने लगी ।
३. अहिहन्ता और पूजनीय इन्द्र ने जल-प्रवाह को समुद्र के सामने
प्रेरित किया। उन्होंने समुद्र को उत्पन्न करके गायें प्राप्त कीं तथा
तेजोबल से दिवसों को प्रकाशित किया।
४. इन्द्र ने हव्यदाता मनुष्य को यजमान के लिए बहुसंख्यक उत्कृष्ट
धन दान किया। वृत्र का विनाश किया। सूर्य की प्राप्ति के लिए
स्तोताओं में बिरोध उपस्थित होने पर इन्र आश्रयदाता हुए थे।
५- इन्द्र की स्तुति करने पर प्रकाशमाव इन्द्र सोसाभिषवकर्ता सनृष्य
एतश के छिए सुर्यं को लाये थे; क्योंकि जैसे पिता पुत्र को धन प्रदान
करता है, वैसे ही यज्ञकाल में एतश ने इनर को प्रच्छ और अभूल्य
सोम प्रदान किया था।
६- अपने सारथि रार्जाष कुत्स के लिए दीप्तियुक्त इद्ध ने झुष्ण,
अझुष और कुयव को वञ्चीभूत किया था और दिवोदास के लिए श्ञस्बर
के निश्चानबे नगरों को भर्न किया था।
७. इन्द्र, अञ्च की अभिलाषा से हम तुम्हें बलवान् करके तुम्हारी
स्तुति करते ह । तुम्हे ग्राप्त करके हम सप्तपदी सख्यता का लाभ करें।
देवशून्य पीयु के विरोध सें तुस बज्न फेंको ।
८. बलिष्ठ इन्द्र, जेसे गमवाभिलाषी पथिक मार्ग साफ़ करता
है, बेसे हो गृत्समदगण तुम्हारे लिए मनोरम स्तुति की रचना करते
हैं। तुम सर्वापक्षा नूतन हो। तुम्हारे स्तोत्राभिलाषी गृत्समदगण अन्न,
बल, गुह और सुख प्राप्त करें।
९. इन्द्र, तुम्हारी जो घनवती दक्षिणा स्तोता के सारे मनोरथ
पुर्ण करती हूं, वही दक्षिणा हसे दो। भजनीय तुम हो। हमें छोड़-
हिन्दी-त्रग्वेद
कर अन्य किसी को नहीं देना । हम पुत्र और पौन्न से युक्त
इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे।
२० सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द् त्रिष्टुप |)
१. इन्द्र, जिस प्रकार अज्लाभिरावी व्यक्ति रथ तैयार करता
है, उसी प्रकार हम भी हुम्हारे लिए अन्न तैयार करते हैं। तुम ह्मे
अच्छी तरह जानते हो। हम स्तुति हारा तुम्हें दीप्यसान करते हे
हम तुम्हारे जसे पुरुष से सुख माँगते हे ।
२. इन्द्र, तुस हमारा पालन करते हुए हमारी रक्षा करो । जो
तुम्हें चाहते हँ, उनकी, तुस शत्रुओं से, रक्षा करते हो। तुम हव्यदाता
यजमान के ईश्वर और उसके शत्रु को बूर करनेवाले हो। हव्य दवारा
जो तुम्हारी सेवा करता हँ, उसके लिए तुम यह सब कर्म करते हो ।
३- हम यज्ञ-कार्य करते हें। तरुण वयस्क, आइह्कान-्योग्य, मित्र
तुल्य ओर सुखदाता इख हमारी रक्षा करें। जो स्तोत्र का उच्चारण
करता हँ, क्रिया का समाधात करता है, हव्य का पाक करता
हें और स्तुति करता है, उसे आश्रय देकर इन्द्र कर्म के पार हे
जाते है ।
४. में उन्हीं इन्द्र की स्तुति करता हूँ, उन्हीं की प्रशंसा करता हूँ ॥
उनके स्तोता पहले वाढत हुए थे और उन्होंने शत्रुओं का विनाश किया
था। इन्द्र के निकट प्रार्थना करने पर इन स्तोजाभिलाषी नये यजमान
की धनेच्छा को पुणं करते हे ।
५. अंगिरा लोगों के मंत्रों-हारा प्रसन्न होकर इन्द्र ने उन्हें गाय
लाने का माय दिखा दिया था और उनकी स्तुति भी पूर्ण को यी॥
स्तोताओं की स्तुति करते पर इन्द्र ने, सुर्य के हारा उषाका अपहरण
करके, अइन के प्राचीव नगरों को विनष्ट किया था।
हिन्दी-ऋण्वेद
कर अन्य किसी को नहीं देवा हन पुत्र और पीन से युक्त
इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे।
२० सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. इन्द्र, जिस प्रकार अन्नाभिलाषी व्यक्ति रथ तैयार करता
हुँ, उसी प्रकार हस भी तुम्हारे लिए अन्न तैयार करते हें । तुम हमें
अच्छी तरह जानते हो। हम स्तुति हारा तुम्हें दीप्यमान करते हुँ
हम तुम्हारे जेसे पुरुष से सुख मांगते हे।
२. इन्द्र, दुस हमारा पालन करते हुए हमारी रक्षा करो । जो
तुम्हें चाहते है, उनकी, तुम शत्रुओं से, रक्षा करते हो। तुस हव्यदाता
यजमान के ईश्वर और उसके शत्रु को दूर करनेवाले हो। हव्य दवारा
जो तुम्हारी सेवा करता हुँ, उसके लिए तुम यह सब कर्म करते हो
३. हम यज्ञ-कार्य करते हें । तरुण वयस्क, आह्वात-योग्य, मित्र-
तुल्य ओर सुखदाता इन्र हमारी रक्षा करें। जो स्तोत्र का उच्चारण
करता हुं, क्रिया का समाधान करता है, हब्य का पाक करता
हैं और स्तुति करता हुँ, उसे आश्रय देकर इन्द्र कर्म के पार ळे
जाते हे
४. में उन्हीं इन्द्र की स्तुति करता हूँ, उन्हीं की प्रशंसा करता हे ॥
उनके स्तोता पहले बात हुए थे और उन्होंने शत्रुओं का विता किया
या। इन्द्र के निकट प्रार्थना करने पर इन्द्र स्तोजाभिलाषी नये यजमान
की घनेच्छा को पुणं करते हें।
५. अंगिरा लोगों के मंत्रोंद्वारा प्रसन्न होकर इन्द्र ने उन्हें गाये
लाने का मागे दिखा दिया था और उनकी स्तुति भी पूर्ण की थी।
स्तोताओं की स्तुति करते पर इन्द्र ने, सुर्य के द्वारा उषा कषा अपहरण
करके, अइम के प्राचीन नगरौ को दितष्ट किया था।
बैब०
६. सुतिसान्, कीतिमान् और अतीव दर्शनीय इन्द्र, सनुष्य के लिए
छुदा तैयार रहते हुं। क्षत्र हुन्ता और बलवान् इन्द्र संसार के अनिष्ट"
कर्ता दास का प्रिय मस्तक नीचे फंकते हें।
७. वृत्रहन्ता और पुरवाशन इन्द्र ने कृष्णजन्मा दाससेना का
विनाश किया है। मनु के लिए पृथिवी और जल की सृष्टि की है। बह
यजमान का उच्चासिलाघ पुरण करें।
८. स्तोताओं ने जलू-प्राप्लि के लिए उन इन्द्र के लिए सदा बल-
बद्धक अन्न प्रदान किया है। जिस समय इन्द्र के हाथ में वच्च दिया गया,
उस ससय उन्होंने उसके द्वारा दस्युओं का हनन करके उनकी
लोहसयी पुरी को ध्वस्त किया था।
९. इन्द्र, तुम्हारी धनवती दक्षिणा स्तोता के सारे मनोरथ
पुणं करती हैं। उसी दक्षिणा को हमें दो। तुम भजनीय हो। हमें
अतिक्रम करके अन्य किसी को नहीं देना । पुत्र और पोत्र से युक्त
होकर हम इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे ।
२१ सूक्त
(देवता इन्द्र | छन्द त्रिष्टुप् ग्र जगती)
१. धनजयी, स्वर्गजयी, सदाजयी, मनुष्यजयी, उर्वरा भूमिजयी,
अइवजयो, गोजयी, जलजयी--भतएब सर्वजयी और यजनीय इन्द्र
को लक्ष्य करके वांछपीय सोस ले आओ ।
२. सबके पराजय-करत्ता, विमर्दक, भोक्ता, अजेय, सर्वसह, पूर्ण-
ग्रीव, सर्वविधाता, सर्वबोढ़ा, दूसरों के लिए दुद्धंष और सर्वदा जयशीछ
इन्द्र को लक्ष्य करके नजः शब्द का उच्चारण करते हुए स्तुति करो।
३. बहुतों के पराजयकर्त्ता, लोगों के भजनीय, बलवानों के विजेता,
शत्रु निवारक, योद्धा, हुर्षकर-सोम-सिक्त, श्त्रुहिसक, झत्रओं के अभिभव-
कर्ता और प्रजापालक इन्र के उत्कष्ट वौर-कर्म की सब स्तुति
करते हुँ ।
हिन्दी-क्रग्वेद ३२१
४. डदुलवागरार? अभीष्टवर्षी, हिसको के हन्ता, गंभीर,
दर्शवीय, कर्म सं अपराजय, समृद्ध लोगों के उत्ताहदाता, जत्रऔ के
कर्तवकारी, दुढाङ्ग, जगद्व्यापी और सुन्दर-यज्ञ-विदिष्ट इस ने उषा
से सुर्थ को उत्पन्न किया हे ।
५. इन्द्र के स्तोता, इच्राभिलाषी और मनीषी अद्धिरा लोगों
ते यज्ञ-द्वारा जळ-प्रेरक इन्द्र के पास चुराई हुई गायों का मागे जाना।
अनन्तर रक्षा के अभिलाषी इन्द्र के स्तोता अद्धिरा लोगों ने स्तोत्र
और पूजा के द्वारा योधन प्राप्त किया ।
६. इन्द्र, हमें उत्तम धन दो। हमें निपुणता की प्रसिद्धि दो। हमें
सोभाग्य दो। हमारा धन बढ़ा दो। हमारे शरीर की रक्षा करो। बातों
में मीठापन दो । दिन को सुदिन करो।
२२ सूत
(देवता इन्द्र | छन्द अनुष्टुष् अत्यष्टि और शक्वरी)
पुजनौथ, बहुबलशाली और तृप्तिकर इन्द्र ने जेसी पहले इच्छा
की थी, बसे हो त्रक्र को थव सिलाथा। अभिषत सोस दिष्ण के
साथ पान करे । सहन् सोम ने तेजस्वी इन्द्र को महान् कार्य की
सिद्धि के लिए प्रसञ्च किया था। सत्य और दौष्यसाब सोम सत्य और
प्रकाझमान इन्द्र को व्याप्त करे। 6
२. दीप्तिशान इन्द्र ने अपने बल से यृदध-दवारा किबि को जीता
था। अपने तेज से इन्द्र ने झावा-पृथिवी को चारों ओर से पूर्ण किया
था। वे सोस के बल से बहुत बढ़े हुँ। इन्द्र ने एक भाग अपने पेट में
धारण करके अन्य भाग को देवों को प्रदाव किया। सत्य और दीप्यमान
सोस सत्य ओर द्योत्माव इन्द्र को व्याप्त करे
३. इन्द्र, हुन यज्ञ के साथ सबल उत्पन्न हुए हो। तुम सब ले जाने
की इच्छा करते हो। तुमने पराक्रम के साथ बढ़कर हिसको को जीता
है । दुस सत्य ओर अतत के विचारक हो। तुस स्तोता को कर्मसाधक
फा० २१
३२२ हिन्दी-ऋणग्वेद
और वाञ्छनीय धन दो। सत्य और चोतयाद सोम सत्य और प्रकाश-
सान इन्द्र को व्याप्त करे।
४. इन्द्र, दुम सबको नचानेदाले हो। तुमने जो पूर्वकाल में मनुष्यों
के हितकर कर्म को किया था, वह चुरोक में इलाघनीय हुआ है । अपने
पराक्रम से तुमने देव (बृत्र) की प्राणरीहस करके उसके द्वारा जल को
बहा दिया था। इन्र ने अपने बल से बुत्र या अदेव को परास्त किया।
शतक्रतु बल और अञ्न जाचें।
२३ सूक्त
(३ अनुवाक । देवता ब्रह्मणस्पति । छन्द निष्टुप् ओर जगती)
१. हे ब्रह्मणस्पति, तुम देवों मं गणपति ओर कवियों में कवि
हो। तुम्हारा अच्च सर्वोच्च और उपमान-भूय हैं। तुम प्रशंसनीय लोगों
सं राजा और मंत्रों के स्वामी हो। हुम तुम्हें बुलाते हैं। तुस हमारी
स्तुति सुनकर आश्रय प्रदान करने के लिए यज्ञगृह में बैठो । |
२. असुरहन्ता ओर प्रकृष्ट झानी बृहस्पति, देवों ने तुम्हारा यज्ञीय
भाग प्राप्त किया हे। जैसे ज्योति-द्वारा एजनीय सूर्ये किरण उत्पन्न
करते हें, वेले ही तुम सब संत्र उत्पन्न करो । |
३. बृहस्पति, चारों तरफ़ से निन्दकों और अन्धकारो को दूर
करके, लुम ज्योतिर्मान् यज्ञ-्प्रापक, भयानक, झत्रुहुसक, राक्षसनाञक,
सेघ-भेदक और स्वर्यप्रदायक रथ में चढ़े हो।
४. बृहस्पति, जो तुम्हें हव्य देता है, उसे तुम सन्मार्ण सें छे जाते
हो। उसे बचाते हो। उसे पाप नहीं रुगता। तुम्हारा ऐसा माहात्म्य
हूँ कि तुस मंत्र-देषियों के सन्तापक और क्रोधो के हिंसक हो।
५. सुरक्षक ब्रह्मजस्पति, जिसकी तुम रक्षा करते हो उसे कोई दुःख
कष्ट नहीं दे सकता, पाप उसे कष्ट नहीं दे सकता । शत्रु लोग उसे
किसी तरह मार नहीं सकते, ठग उसे सता नहीं सफले । उसके लिए
तुम सारे हिसकों को दुर कर दो।
हिन्दी-ऋग्वेद २३
` ६. बृहस्पति, तुन हमारे रक्षक, सन्सार्गदाता और थिलक्षण हो।
तुम्हारे यज्ञ के लिए स्तोच्न-दाश हम स्तुति करते हैं। जो हमारे प्रति
कुटिल अत्वरण करता हे, उसकी दुबंद्धि वेगबती होकर उसे शीघ्र
विलष्ट करे।
७. बृहस्पति, जो गरवोत्मित्त और सवंप्राली व्यक्ति हमारे सासने
आकर हमारी हसा करता हें, उसे सम्मार्गे से हटा दो। और यज्ञ के
लिए हमारा पथ सुगम कर दो।
८. बृहस्पति, तुस सबको उपद्गव से बचाओ। दुस हमारे पोत्र
आदि का पालन करो। हमारे लिए सौठे वचन बोलो ओर हमारे प्रति
प्रसन्न होओ। हम तुम्ह बुळाते हे। तुम देव-निन्दकों का विनाश करो।
दुन् द्धि लोग उत्कृष्ट सुख न पायें।
९. ब्रह्मयस्पति, तुम्हारे द्वारा बद्धित होने पर मनष्यों के पास से
हम स्पृहणीय धन प्राप्त करें । दुर या पास हमारे जो शत्र हमें पराजित
करते हु, उन यज्ञहोन शत्रुओं को विनष्ट करो ।
१०. बृहस्पति, तुम सनोरथ के पुरयित और पवित्र हो। तुम्हारी
सहायता पाकर उत्कृष्ट अन्न प्राप्त करेंगे। जो दुष्ट हमें पराजित
करना चाहता हं, वह हमारा अधिपति च हो। हम उत्कृष्ट स्तुति-
द्वारा पुण्यवान् होकर उच्चति करें ।
११. ब्रह्मणस्पति, तुम्हारे दात की उपमा नहीं हे। तुम अभीष्ड-
वर्षी हो। युद्ध में जाकर तुम शत्रुओं को सन्ताप देते और उन्हें विनष्द
करते हो। तुम्हारा पराक्रम सत्य हे। तुम ऋण का परिशोध करते
हो। तुम उग्र हो और मदोन्मत्त व्यक्तियों का इसन करते हो।
१२. जो व्यक्ति देवशून्य मन से हुयारी हिंसा करता है और जो
उग्र आत्सानिमानी हमारा वथ करने की इच्छा करता है, हे बृहस्पति,
उसका आयुध हमें न छु सके। इय देसे बलवान् और दुष्ट शत्रु का
क्रोध नाश करने में सपथ हों।
३२४ हिन्दी-ऋग्वेद
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१३. युद्ध-काल में बृहस्पति आह्वान-योग्य और नभस्कार-पूर्वक
उपासना-योग्य हें। वे युद्ध में जाते हँ। सब प्रकार का धन देते हैं।
सबके स्वामी बृहस्पति विजिगीषादाली सादी हसक सेनाओं को रथ
की तरह, निहत और विध्वस्त करते हुँ।
१४. बृहस्पति, अतीव तीक्ष्ण और सन्तापक हेति आयुध से
राक्षसों को सन्तप्त करो। इन्हीं राक्षसों न, तुम्हारे पराक्रम के प्रभूत
होने पर भी, तुम्हारी निन्दा की थी; पूर्वकाल में तुम्हारा जो प्रशंस-
नीय वीर्यं था, इस समय उसका आविष्कार करो ओर उसके द्वारा
निन्दकों का विताश करो।
१५, यज्ञजात बृहस्पति, जिस धन की आर्ये लोग पुजा करते हे,
जो दीप्ति और यज्ञवाला धन लोगों में शोभा पाता हे, जो धन अपने
तेज से दीप्तिवाला हैं, वही विचित्र धन या ब्रह्माचर्यं तेज हमें दो।
१६. बृहस्पति, जो चोर द्रोह करने में प्रसन्न होते हें, जो शत्र हें,
जो दूसरे का धन चाहते हँ, जो अपने मन से सर्वांशतः देवों का
बहिष्कार करने की इच्छा करते हें ओर जो राक्षसनाशक साम-स्तुति
नहीं जानते, उनके हाथ में हमें नहीं देना।
१७. बृहस्पति, त्वष्टा ने तुम्हें सर्वश्रेष्ठ उत्पन्न किया हँ; इसलिए
तुम सारे सामों के उच्चारण-कर्त्ता हो। यज्ञ आरम्भ करने पर ब्रह्मण-
स्पति उसका सारा ऋण स्वीकार करते और ऋण का परिशोध करते
हूँ। वे द्रोहकारी का विनाज करते हें।
१८. अङ्क्रोवंशीय बृहस्पति, पर्वतों ने गायों को छिपाया था।
तुम्हारी सम्पद् के लिए जिस समय वह उद्घादित हुआ और वुमन
गायों को बाहर किया, उस ससय इनर को सहायक पाकर तुमने वृत्र-
द्वारा आक्रान्त जलाधारभूत जल-राशि को नीचे किया था।
. १९, ब्रह्मणस्पति; तुम इस संसार के नियामक हो। इस सुक्त को
जानो। हमारी तन्ततियों को प्रसन्न करो। देवता लोग जिसकी रक्षा
5
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मन्दीन्न्प्वद्
३२ १
मी
नि
३२५
७७
करते ह, “हे
य
ली भाँति कल्याणवाहक हैँ। हुम पुत्र और पोत्रवाले
होकर इ से
भ
ज्ञ त स्तुति करंगे।
जज अध्याय ससाष्त ॥
२४ सूक्त
(सप्तम अध्याय । देवता ब्रह्मणस्पति। छन्द॒ त्रिष्टुप् ओर जगती ।)
१. ब्रह्मणस्पति, तुम सारे संसार के स्वामी हो। हमारे द्वारा
भली भाँति की गई स्तुति को ग्रहण करो। हम तुम्हारी, इस नवीन
और बृहत् स्तुति के द्वारा, सेवा करते हें। हमें अभिमत फल प्रदान
करो; क्योंकि, बृहस्पति, हम तुम्हारे बन्धु ह। हमारा स्तोता तुम्हारी
स्तुति करता हृ।
२. बृहस्पति, अपनी सामथ्यं से, तुमने तिरस्करणीयों का तिरः
स्कार किया था, ऋध-परवश होकर शस्बर को विदीर्ण किवा था,
निश्चल जल को चालित किया था और गोधनपुर्ण पर्वत में प्रवेश
किया था।
३. देव-श्रेष्ठ देव बृहस्पति के कार्य से सुदृढ़ पर्वत शिथिल हुआ
था और स्थिर वक्ष भग्न हुआ था। उन्होंने गायों का उद्धार किया था।
मंत्र दारा बलासुर को भिन्न किया था। अन्धकार को अदृश्य किया
था। आदित्य को प्रकट किया था।
४. बृहस्पति ने पत्थर की तरह दृढ़ मुखबाले, मधुर जल से
पूर्ण और निम्न अवनत जिस सेघ का, बळ-प्रयोग हारा, वध किया था,
उसका आदित्य-किरणों वे जलपान किया था और उन्होंने ही जलधारा”
सय दृष्टि का सचन किया था।
५, ऋत्विको, तुम्हारे ही लिए बृहस्पति के सनातन ओर विचित्र
प्रज्ञान ने महीवे-महीन और सालनाल होतवाली वर्षा का द्वार
३२६ हिन्दी-ऋग्वेद
उद्घाटित किया था। बृहस्पति ने ऐसे प्रज्ञानों को मंत्र-विषयक किया था।
चेष्टा करके द्यावा-पुथिवी परस्पर सुख बढ़ाती हैँ।
६. विज्ञ अङ्गिरा लोगों ने, चारों ओर खोजते हुए, पणियों के
दुगे में छिपाये हुए परमधन को प्राप्त किया था। साया का दर्शन
करके वे जिस स्थान से गये थे, फिर वहीं गये ।
७. सत्यवादी और सर्वज्ञाता अङ्गिरा रोग साया का दशन करके
पुनः प्रधान मार्ग से उसी ओर गये। उन्होंने हाथों से जलाये अग्नि
को पर्वत पर फंका। पहले वे ध्बंसक अग्नि बहाँ नहीं थे।
८. बृहस्पति वाण-क्षेपक और सत्यरूप ज्यावाके हँ। वे जो चाहते
हँ, धनुष के द्वारा प्राप्त कर लेते हैं। जिस वाण को बे फेंकते हुँ,
बह कार्य-साथन सें कुशल हु । वे वाण दर्शनार्थ उत्पन्न हुए हुँ। कर्ण ही
उनका उत्पत्ति-स्थान हें।
९. ब्रह्मणस्पति पुरोहित हँ । वे सारे पदार्थों को पृथक् और एकत्र
करते हैं । सव उनकी स्तुति करते. हैं। वे युद्ध में प्रकट होते हें।
सर्वदर्शी बृहस्पति जिस समय अन्न ओर धन धारण करते हें, उस समय
अनायास सुर्यं उगते हे।
१०. बृष्टिदाता बृहस्पति का धन चारों ओर व्याप्त, प्रापणीय,
घ्रभूत और उत्तम है। कमनीय और अन्नवान् बृहस्पति ने यह सारा
घ्न दान किया हे । दोनों प्रकार के मनुष्य (यजमान ओर स्तोता)
ध्यानावस्थित चित्त से इस धन का उपभोग करते हूँ ।
११. चारों ओर व्याप्त और स्तवनीय ब्रह्मणस्पति अतीव और
महान् बली, दोनों प्रकार के स्तोताओं की, अपने शक्ति से, रक्षा
करते हे। दानादि गृणवाले बृहस्पति देवों के प्रतिनिधि रूप से
सर्वत्र अत्यन्त विख्यात हें। इसी लिए वे सारे प्राणियों के स्वामी भी
हुए हेँ।
१२. इन्द्र और ब्रह्मणस्पति, तुम धनवान् हो। सारा सत्य तुम्हारा
ही हँ। तुम्हारे ब्रत को जल नहीं मार सकता जसे रथ में जुते हुए
हिन्दी -ऋहुभ्वेद ३२७
घोड़े खाद्य के सामने दौड़ते हैं, देसे ही तुम भी हमारे हव्य के लिए
दौडो ।
१३. ब्रह्मणस्पति के वेगवान् घोड़े हमारा स्तोत्र सनते हैं। मेधावी
और सभ्य अध्यर्य, मनोरम स्तोच-ट्रारा, हव्य प्रदान करते हैं। परा,
ऋषियों के दमनकारी ब्रह्मणस्पति हमारे पास इच्छानुसार ऋण
स्वीकार करते हु। अझवान् ब्रह्मणस्पति यूद्ध में हव्य ग्रहण करें ।
१४. जिस समय ब्रह्मणस्पति किसी महान् कमं में प्रवृत्त होते
हैं, उस समय उनका मंत्र उनकी अभिलाषा के अनुसार सफल होता
है । जिन्होंने गायों को बाहर किया है, उन्होंने यलोक के लिए उनका
भाग किया है । महान् स्रोत की तरह गाये, अपने बल से, अलग-अलग
गई हैं।
१५. ब्रह्मणस्पति, हुम सब समय उत्कृष्ट नियम और अन्नवाले
धन के अधिपति हों। तुस हमारे वीर पुत्र को पोत्र दो; क्योंकि तुम
सबके ईश्वर हो। हमारी स्तुति और अन्न को चाहो ।
१६. ब्रह्मणपति, तुस इस संसार के नियामक हो। तुम इस
सुदत को जानो। तुम हमारी सन्ततियों को प्रसन्न करो। देवता लोग
जिसकी रक्षा करते है, वह कल्याणवाही है । पुत्र और पोत्रवाले होकर
हम इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे ।
२५ सूक्त
(देवता ब्रह्मणस्पति । छन्द जगती)
१. अग्निको प्रज्वलित करके यजसान झत्रुओं की- हिसा कर सके ।
स्तोत्र पढ़ते और हृव्य दान करते हुए यजमान समृद्धि प्राप्त कर
सके। जिस यजमान को सखा कहकर ब्रह्मणस्पति ग्रहण करते हुँ, वह
पुत्र के पुत्र से भी अधिक जीवित रहता हैं ।
२. यजमान वीर पुत्रों के द्वारा शत्रुओं के वीर पुत्रों को मारे।
वह् गोधन के लिए विख्यात हुआ है और स्वयं सब समझ सकता हुं?
३२८ हिन्दी-ऋष्वेद
बृहस्पति जिस यजसान को सखा कहकर ग्रहण करते हैं, उसका पुत्र
और पोत्र भी समृद्धि प्राप्त करता हुँ । |
३. जैसे नदी तट को तोड़ती हैं, साँड़ जैसे बलों को पराजित
करता हुँ, बैसे ही बृहस्पति की सेवा करनेवाला यजसान अपनी शक्ति
से शत्रुओं को पराभूत करता हे। जैसे अग्नि-शिखा का निवारण नहीं
किया जाता, बैसे ही बर ह्ाणस्पति जिस यजसान को सखा कहकर ग्रहण
करते है, उसका भी निवारण नहीं किया जा सकता ।
४ जिस यजमान को बृहस्पति सखा कहकर ग्रहण करते हैँ, उसके
पास, अप्रतिहत निर्झरिणी होकर, स्वर्गीय जल आता हैं। परिचर्या-
कारियों में भी बही सबसे पहले गोधन प्राप्त करता है। उसका बल
अनिवार्य हुँ । बहु बळ-द्वारा शत्रुओं का विनाश करता हे।
५, जिस यजमान को सखा रूप से ब्रह्मणस्पति ग्रहण करते हे,
उसकी ओर सारी नदियां प्रवाहित होती हे। बह सदा नानाविध सुख
का उपभोग करता हें । बह सौभाग्यशाली है। बह देवों-हारा प्रदत्त
सुख तथा समृद्धि पाता हुँ ।
२६ सूक्त
(दैवता ब्रह्मणस्पति । छन्द जगती।)
१. ब्ह्मयस्पति का सरल स्तोता शत्रुओं का विनाश कर डाले।
देदाकांक्षी अदेवाकांक्षी को परायूत कर डाले । जो बृहस्पति को अच्छी
तरह तुष्त करता है, बह युद्ध में दुर्धषं शत्रुओं का विनाश करता हे।
वज्ञपरायण अरयाज्ञिक के धन का उपभोग कर सके ।
२. बीर, तुम ब्ह्मजस्पति की स्तुति करो। अभिमानी शत्रुओं के
विरुद्ध यात्रा करो। दात्रुओं के साथ संग्राम में सन को दुढु करो।
ब्रह्मणस्पति के लिए हव्य तैयार करो । बैसा करने पर तुम उत्तम धन
पाओगे। हम ब्रह्मणस्पति के पास से रक्षा चाहते हें ।
हिन्दी-ऋणष्वेद ३२९
३. जो यजमान श्रद्धावान् होकर देवों के पिता ब्रह्मणस्पति की
ह॒व्य-दारा परिचर्या करत? हुँ, बह अपने सत्ष्य और आत्मीय, अपने
पुत्र ओर अन्यान्य परिचारको के साथ अच्च और धन प्राप्त करता हूँ।
४. जो ब्रह्मणस्पति की परिचर्या घृतन्युक्त हव्य से करता हे, उसे
ब्रह्मयस्पति प्राचीन सरल मार्ग से ले जाते हें । उसे वे पाप, झन
और दरिद्रता से बचाते हूँ। आश्चयंख्य ब्रह्मजस्पति उसका महा
उपकार करते हुँ।
२७ सूक्त
( देवता आदिस्ययण् । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. में जुहु-द्वारा, सर्वदा शोभन आदित्यों को लक्ष्य कर घृत-
स्राविणी स्तुति अर्पण करता हूं । मित्र, अर्यसा, सग, बहुव्यापक वरण,
दक्ष और अंश मेरी स्तुति सुनें ।
२. दीप्तिमान्, बृष्टिपुत, अनुग्रहपरायण, अनिव्दनीय, हिसा-
रहित और एकविध कर्षकर्ता मित्र, अर्यमा और वरुणनामक आदित्य
आज मेरे इस स्तोत्र का उपभोग करे ।
३. महान्, गंभीर, दुर्देमनीय, दसवकारी और बहुदुष्टिवाले आदित्य-
गण प्राणियों का अन्तःकरण देखते हें । दूर-देश-स्थित पदार्थ भी आदित्यो
के पास तिकट हें ।
४. आदित्यगण स्थावर और जंगल को अवस्थापित करते ओर
सारे भुवनों की रक्षा करते हें। वे बहुयज्ञवाले और असूर्य अथवा
प्राण के हेतुभूत जल की रक्षा करते हें। वे सत्यबाले और ऋषण-
प्रिशोधक हें।
५. आदित्यगण, हम तुम्हारा आश्वय प्राप्त करें। भय आने पर
तुम्हारा आश्रय सुख प्रदान करता हु । हे अर्घसा, मित्र और वरुण,
तुम्हारा अनुसरण करके में गड्डो की तरह पापों को दुर कर दूं।
६. अर्यमा, मित्र और बरुण, तुम्हारा मार्ग सुगम, कण्टक-रहित
छ ३७ हिन्दी- ऋग्वेद
भौर सुन्दर है। आदित्यगथ, उसी मार्ग से तुस हमें ले जाओ, मीठे
वचन बोलो और अदिवाशी सुख दो।
७. राजमाता अदिति शत्रुओं को लाँघकर हमें दूसरे देश सें ले
जायें। अथेमा हमें सुगम मार्ग सें ले जायें। हम इहुकीर-्युश्द और
अहिसक होकर सित्र और वरुण का सुख प्राप्त करे ।
८. थे पृथिवी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग तथा सत्य, जन और सत्य
लोक्में को धारण करते हैं। इनके यज्ञ में तीन ब्रत (तीन सबन) हैं।
आदित्यगण, यज्ञ द्वारा तुम्हारी महिमा श्रेष्ठ हुई हुँ । अर्यमा, मित्र
और वरुण तुम्हारा वह महत्त्व सुन्दर हूं ।
९. स्वर्णालङ्कार-भूषित, दप्तिसान्, वृष्टिपूत, निद्रारहित,
अनिमेषनयन, हिसारहित और सबके स्तुतियोग्य आदित्यगण सरल-
स्वभाव संसार के लिए तील प्रकार (अग्नि, वायु और सूर्य) के स्वर्गीय
तेज धारण करते हैं। |
१०- असुर वरुण, तुम देवता हो या मनुष्य, सबके राजा हो।
हमें सौ वर्ष देखने दो, ताकि हुम पूर्वजों की उपभुक्त आयु को प्राप्त
कर सक।
११. वास-्रदाता आदित्यो, हम न तो दाहिने जानते, न बायें
जानते, न सामने जानते और न पीछे जानते हं । में अपरिपक्व-बृद्धि
ओर अतीव कातर हूँ । मुके तुम ले जाओगे, तो में निर्भय ज्योति को
प्राप्त करूंगा ।
१२. यज्ञ के नायक और राजा आदित्यों को जो हुब्य प्रदान
करता हूँ, उनका नित्य अनुग्रह जिसकी पुष्टि करता हुँ, वही व्यक्ति
धनवान्, विख्यात, वदाम्य ओर प्रशंसित होकर तथा रथ वर खढुकर
यज्ञस्थल में जाता हूं ।
१३. वह दीप्तिमान्, हिसा-रहित, प्रचुर-अन्नशाली और सुपुत्रबान्
होकर उत्तम शस्यवाले जल के पास निवास करता है। जो आदित्यों
हिन्दी-ऋशग्वेद ३३१
का अनुसरण करता है, उसका दूर या निकट का शत्रु वब नहीं कर
सकता ।
१४. अदिति, सित्र, वरुण, हम यदि तुम्हारे पास कोई अपराय
करें, तो कृपा कर उसका मार्जन कर डालो । इन्द्र, हुम विस्ती
और निर्भय ज्योति प्राप्त कर सकें। अन्बकारमयी रजनी हमें छिपा
न सके ।
१५. जो आदित्यों का अनुसरण करता है, उसकी द्यावा-पृथिवी
एकत्र होकर पुष्टि करती हें। वह सौभाग्यशाली है और स्वर्गीय
जल प्राप्त करके समृद्धि पाता है। युद्धकाल में बह शत्रुओं को पराजित
करके अपने ओर शत्रु के निवास-स्थान पर जाता हैं । संसार का आधा
भाग ही उसका बंगल-जनक है।
१६. पूजनीय आदित्यगण, द्रोहकारियों के लिए तुम्हारी जो
माया बनाई गई हुँ और जो पाशा शत्रुओं के लिए ग्रथित हुआ हुँ,
हम उनको अश्वारोही पुरुष की तरह अनायास लाँघ जायें। हम
हिसाशून्य होकर परम सुख में निवास करें।
१७. वरुण, मुझ किसी धनी और प्रभूत-दानशील व्यक्ति के पास
जाति की वरिद्रता की बात न कहनी पड़े । राजन्, मुखे आवश्यक
घन का अभाव च हो । हम पुत्र और पोत्रवाले होकर इस यज्ञ में
प्रभूत स्तुति करेंगे ।
२८ सूक्त .
(देवता वरुण । छुन्द् त्रिष्टुप् ।)' |
१. काव ओर स्वयं सुशोभित ब्रदण के लिए यह हृव्य है। बे
अपनी महिमा के द्वारा सारे भूतों को पराजित करते हुँ। प्रकाशमान
स्वामी वरुण यजमान को प्रसन्नता प्रदान करते हें। सें उनकी स्तुति की
प्रार्थना करता हूँ । क्
३३२ हिन्दी-ऋग्वेद
२. वरुण, हम अली भाँति तुम्हारी स्तुति, ध्यान और परिचर्या
करके सोभाग्यशाली हो सके। किरणऱ-्युक्ता उषा के आने पर अग्नि की
तरह हस प्रतिदिन ठुम्हारी स्तुति करके प्रकाशमान हों ।
३. विश्वनायक वरुण, तुम कितने ही वीरोंचाले हो, बहुत लोग
तुम्हारी स्तुति करते हेँ। हम तुम्हारे घर में निवास कर सकें। हिसा-
धन्य और दीप्तिमान् अदिति के पुत्रो, तुम हमारी मैत्री के लिए
हमारे अपराध को सिटा दो।
४. विशव-घारक और अदिति वरुण ने अच्छी तरह जल की
सृष्टि की है। वरुण की महिमा से नदियाँ प्रवाहित होती हें। ये कभी
विश्राम नहीं करतीं, लौटती भी नहीं। ये पक्षियों की तरह वेग के
साथ पृथिवी पर जाती हें।
५. वरुण, मेरे पाप ने म्झे रस्सी की तरह बाँध रखा है; मुझे
छुड़ओ । हम तुम्हारी जलपूर्णं नदी प्राप्त करें। बुनने के समय
हमारा तन्तु कभी टूटने न पावे। असमय सें यज्ञ की मात्रा कभी विफल
न हो।
६. वरुण, मेरे पास से भय को दूर कर दो। हे सम्राट और सत्य-
वान् मुझ पर कृपा करो। जेसे रस्सी से बछड को छुड़ाया जाता है,
वसे ही पाप से मुझे बचाओ; क्योंकि तुमसे अलग होकर कोई एक
पल के लिए भी आधिपत्य नहीं कर सकता।
७. असुर वरुण, तुम्हारे यज्ञ में अपराध करनेवालों को जो आयुध
मारते हैं, वे हमें न मारे। हम प्रकाश से निर्वासित न हों। हमारे
जीवन के लिए हिसक को हटाओ ।
८. हे बहुस्थाचोत्पन्न वरुण, हम भूत, वत्तंभान और भविष्यत् समयों
में तुम्हारे लिए नमस्कार करेंगे; क्योंकि हे अहिसनीय वरुण, पर्वत
की तरह तुमसे सारे अच्युत कर्म आश्रित हैं।
९. वरुण, पुर्वजों ने जो ऋण किया था, उसका परिशोध करो ।
इस समय में जो ऋण करता हूँ, उसका भी परिशोध करो; ताकि
हिन्दी ऋग्वेद ३३३
दरण, मुझे दूसरे का उपाजित धन भोग छरने की आवइयकता न
हो । ऋण के कारण ऋणकर्ता के लिए मानो अनेक उवाओ का उदय
। नहीं हुआ । वरुण, हुम उन सारी उघाओं सें जीवित रहें, ऐसी
आज्ञा करो ।
१०. राजा वरुण, सं भौर हूँ। मुझसे जो बन्ध लोग स्वव्न की
भयंकर बाते कहते हु, उनते मुझे बचाओ! तस्कर या बक मे चारन
चाहता हैं। उससे सक बचाओ।
११. वरुण, मुझ किसी धनी और प्रभूत-दानशील व्यक्ति के पास
जाति की दरिद्रता की बात न कहनी पड़े। राजन्, मुझे आवश्यक
घच का अभाव न हो। हस पुत्र और पोत्रबाले होकर इस यज्ञ सें
प्रभूत स्तुति करेगे ।
२९ सूक्त
(देवता विश्वेदेव । छन्द त्रिष्टुप् |)
२. हे ब्रतकारी, शीघ्र गमनशील और सबके प्रार्थनीय आदित्यो,
गुप्तप्रसदिनी स्त्री के गर्भ की तरह मेरा अपराध दूर देश में फेंक दो ।
मित्र और वरुण, तुम्हारे संगल-कार्य को में जानकर, रक्षा के लिए,
तुम्हें बलाता हूं । तुस हमारी स्तुति बुनो ।
२. देवगण, तुम्हीं अनुग्राहक और बल हो। तुम द्वेषियों को हमारे
पास से अलग करी । शन्नु-हिसक, शत्रुओं को पराजित करो। वर्तमान
और भविष्यत् में हमें सुखी करो।
३. देवगण, अब और पीछे तुम्हारा कौन कार्य हम सिद्ध कर
सकेंगे ? बसु और सनातन प्राप्तव्य कावे-द्वारा हस तुम्हारा कौन कार्य
सिद्ध कर सकगे ? भित्रावरण, अदिति, इन्द्र और मरुद्गण, तुम हमारा
मंगल करो ।
४. देवगण, तुम्हीं हमारे बन्धु हो। हम तुम्हारी प्रार्थना करते
हैं। कृया करो । हमारे यज्ञ में आने में तुम्हारा रथ सन्द-गति न हो ।
तुम्हारे समान बन्चु पाकर हस श्रान्त न हों ।
EES हिन्दी-ऋग्वेद
५. देवगण, तुम लोगों के बीच एक मनुष्य होकर मेने अनेक बिध
पाप नष्ट कर डाले। जेसे पिता कुमार्गयासी पुत्र को उपदेश देता हैं,
वैसे तुमने मुझे उपदेश दिया है। देवो, दारे पाश और पाप दुर हों।
जेसे व्याध बच्च के सामने पक्षी को मारता हे, वेसे ही मुझे नहीं मारना।
६. पुजनीय देवो, आज हमारे सामने आओ में डरकर तुम्हारे
हृदयावस्थित आश्रय को प्राप्त कछ । देवो, बुक के हाथ से मारे जाने
से हमें बचाओ । पूजनीयो, जो हमें आपद् में फंक देता हे, उसके हाथ
से हसं बचाओ ।
७. वरुण, मुझे किसी घनी ओर प्रभूत-दानशील व्यक्ति से अपनी
जाति को दरिद्रता की बात न कहनी पड़े। राजन्, सुझे नियमित था
आवश्यक धन का अभाव न हो। हम पुत्र ओर पोत्रवाले होकर इस
यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेंगे ।
३० सूक्त
(देवता १--५ तक के इन्द्र, ६ के सोम ओर इन्द्र, ७ के इन्द्र,
८ के सरस्वती ओर इन्द्र, ९ के ब्रहस्पति, १० के
इन्द्र और ११ मंत्र के मरुद्गण।
छन्द जगती और निष्डुप्।)
१. वृष्टिकारी, झतिमान्, सबके प्रेरक और वृत्र-चाहक इख के
यज्ञ के लिए कभी जल नहीं सकता, उसका स्रोत प्रतिदिन चला
करता हें । कभी उसकी पहली सृष्टि हुई थी?
२. जिस व्यक्ति ने वृत्र को अघ प्रदान किया था, उसकी बात
माता अदिति ने इन्द्र से कह दी थी। इन्द्र की इच्छा के अनुसार
नदियाँ अपना साये बनाती हुई प्रतिदिन समुद्र की ओर जाती हैं।
३. चूंकि अन्तरिक्ष में उठकर वृत्र ने सारे पदार्थो को घेर डाला
था; इसलिए इन्द्र चे उसके ऊपर वजा फॅका। बुष्टि-प्रद मेघ से
हिन्दी -ऋग्वेद ३३५
आच्छादित होकर दुच्च इन्द्र के सामने कीड़ा था। उसी समय
तीक्ण्ायुयथारी इन्द्र ने उसको पराजित किया था।
, वृहस्पति, बच के समान दीप्त अस्त्र से वृक-द्रारा असुर के
पुत्रों को छेदो । इन्द्र, जैसे प्राचीन समय में तुमने शक्ति-द्वारा शत्रुओं
को जीला था, उसी प्रकार इस समय हमारे झत्रुओं का विनाश करो ।
५. इन्द्र, तुम ऊपर रहते हो। स्तोताओं के स्तव करने पर तुमने
जिसके द्वारा शात्रु का विनाश किया था, वही पत्थर की तरह कठिन
वपत्र द्युलोक से 'निम्चाभिमुख फ्रेंको। जिससे हम लोग यथेष्ट पुत्र,
पोत्र ओर योधन प्राप्त कर सके, बसी ही हमें तुम समृद्धि दो।
६. इन्त्र ओर सोल, जिसकी तुम हिता करते हो, उस द्वेषी को
उन्मूलिय करो। यजमानों को झत्रओं के विरुद्ध प्रेरित करो। इच्ध
ओर सोम, तुम मेरी रक्षा करो। इस भय-स्थान में भय-शून्य स्थान
बनाओ ।
७. इन्द्र मुझे क्लेश न दें, शान्त न करें, आलसी न बनावें। हम
कभी यह न कहें कि सोमाभिषब न करो। इन्द्र नेरी अभिलाषा पूर्ण
करते, अभीष्ट दान करते, यज्ञ को जानते और गो-तसूह लेकर
अचिववकर्त्ता मि उपस्थित होते हैं।
८. सरस्वती, दुन हमें बचाओ। मरुतों के साथ इकद्ठे होकर
दृढ्वापुरवेंक शत्रुओं को जीतो। इन्द्र ने श्राभिलानी और स्पर्दावान्
शण्डिको के प्रधान (शण्डायके) को मारा था।
९. बृहस्पति, जो अन्लहित देश में छिपकर हमारा प्राण-नाद करने
का असिलाबी हुँ, उसे खोजकर तीखे हथियार से छेदो। आयुध ते
हमारे शत्रुओं को जीतो । राजा बृहस्पति, ब्रोहकारियो के विरुद्ध प्राण-
नाइक वज्र चारों ओर फेको।
१०. झुर इन्द्र, हमारे झन्रु-ह्न्ता बीरों के साथ अपने सम्पादनीय
वीर-कार्या को सम्पन्न करो। हमारे शत्र बहुत दिलों से गर्वपुर्ण हो
रहे हु । उनका दिनाश कर उनका धन हमें दो ।
३३६ हिन्दी-नहृश्वेद
११. वहतो, हुम सुख की अभिलावा से स्तुति और नसस्कार-
द्वारा तुल्हारे दंव और पाहुभूंत तथा एकत्र बल की स्तुति करते हे,
ताकि उसके हारा हस प्रतिदिन बीर अपत्यवाले होकर प्रशंसनीय धन
का उपयोग कर सक ।
३१ सूक्त
(देवता विश्वेदेव । छन्द शिष्टुप् ओर जगती ।)
१. जि ससय हमारा रथ अझ्याभिलाघी, मदमत्त ओर बन-
निषण्ण पक्षियों को तरह विवास-स्थान से दूसरे स्थान को जाता हे,
उस समय हे वित्र और वरुण, दुस लोग आदित्य, रुप्र और वसुओं के
साथ सिलकर उसकी रक्षा करते हो।
२. समाच प्रीदिवाले देवो, इस समय हमारे रथ की रक्षा करो।
वह अञ्च खोजने के लिए देश में गया हुँ। इस रथ में जोते हुए घोड़े
कदस से मार्ग तय करते ओर विस्तीणें भूमि के उन्नत प्रदेश पर आधात
करते
३. अथवा-«सर्वेदर्शी इन्द्र मरुतों के पराक्रम से उक्त कर्म सम्पन्न
करके, स्वर्गेलोक से आते हुए, हिसा-शून्य आश्रय के द्वारा महाधन और
अन्न-प्राप्ति के 'छए हमारे रथ के अनुकूल हों।
४. अथव--संसार के सेवनीय वे त्वष्टा देव, देवपत्मियों के
साथ, भीतियुक्त होकर हमारे रथ को चलावे । इला, महादीप्तिमान्
भग, दावा-पृथिदी, बहुधी पूवा और सूर्या के स्वामी दोनों अहिवनी-
कुमार हमारा थह रथ चलायें।
५. अथवा--पसिद्ध, चुतिनती, सुभगा, परस्पर-दर्शिनी ओर जीवों
की ग्रेरयित्रो उवा और रात्रि हमारा रथ चलाये। हे आकाश ओर
थवी, तुझ दोनों की, नय स्तोत्र से स्तुति करता हूँ। स्थावर ब्रीहि
आदि अन्न देता हँ। ओषधि, सोस और पशु--पेरे तीन प्रकार के
अञ्च हे ।
हिन्दी-रहच्देद ३३७
&. देवगण, दुय हमारी स्तुति की इच्छा करो। हम तुम्हारी
स्तुति करने की इच्छा करते हँ। अन्तरिक्ष-्जात अहि देवता (अहि-
बूँष्न्य), दूर्यं (अज एकपात्), त्रित, उसनिवात इच (न्हभूक्षा) और
सबिता हमें अझ प्रदान करे? शीघ्रगामी जरू-नप्ता (अग्नि) हमारी
स्तुति हे प्रसन्न हों =
७. यञनीय विश्वदेदगण, हम तुम्हारी स्तुति करने की इच्छा
1 तुम सर्वायेक्षा स्दुद्ि-्दग्य हो। अन्न और बल के अभिलाषी
मनुष्यों ने तुम्हारे लिए स्वुति बनाई हुँ । रथ के अश्व की तरह तुम्हारा
३२ सुक्त
(देवता १ के द्यावाप्रथवी, २-३ के इन्द्र, ४-५ की राका,
६--७ की सिनीवाली और ८ की छः देवियाँ ।
छन्द अनुष्टुप् और जगती |)
१. छाबा-पृथिवी, जो स्तोता यज्ञ और तुम्हें प्रसन्न करने की
इच्छा करता हँ, उसके तुम आश्रयदाता होओ। तुम्हारा अच्च सर्वा-
पेक्षा उत्कृष्ट है। सभी द्यावा-पृथिवी की स्तुति करते हँ । अञ्चकामी
होकर में महास्तोच्र-द्वारा तुम्हारा स्तद करूंगा ।
२. इन्द्र, शत्रु की गृष्ठ साथा हमें दिन या रात में सारते न
पाये । हमें कष्ठ-दात्री शत्रुसेना के बढ में नहीं करना । हमारी सत्री
नहीं घ ड़ाना । हृदय में हमारे दुख को आकांक्षा करके हमारी मित्रता
की स्मृति करवा । तुम्हारे पास हम यही कामना करते हैं।
३. इन्द्र, प्रसन्न चित्त से सुखकरी, दुग्ववती, मोदी ओर मजबूत
गाथ को ले आना। इन्द्र, तुम्हें सब बुलाते हुँ। तुम बहुत जोर
चलते हो। तुम द्र॒वभायी हो। में दिन-रात तुम्हारी स्तुति करता हूं।
४. में उत्कृष्ट स्वोत्र-दारा आद्वान-योग्य राका वा पुणिया रात्रि
देवी को बुलाता हूं । वे सुभग हें, हमारा आह्वान दुनें। वे स्वयं
नर
फा० २२
३३८ हिन्दी-ऋतबेद
हमारा अभिप्राय जानकर अच्छेद्य सुची के दवारा हारे कर्म को बने।
बे अक्रान्त बहुध नवान और बीर्यवात् पुत्र प्रदान कैर ।
५. राका देवी, तुम जिल सुन्दर अनुग्रह से हृव्यदाता को धन देती
हो, आज प्रसन्न चित्त से उसी अनुग्रह के साथ पधारो। शोभन-
भाग्यवती, हज़ारों प्रकार से तुम हमारी पुष्टि करती हो ॥
६- हे स्यूल-जाता सिनीवाली ! (अमावास्या), तुम देवों की भगिनी
ही । प्रदत्त हृव्य की सेवा करो । हमें अपत्ये दो ।
७. सिवीवाली (अमावस्या वा देवपत्नी) सुबाहु, सुन्दर अँगुलियों-
वाली, सुप्रसविनी और बहुप्रसवित्री हें। उन्हीं लोक-रक्षिका देवी को
लक्ष्य करके हव्य दो।
८. जो गृद्ध, कुहू अथवा देवपत्नी हु, जो सिनीवाली, राका
और सरस्वती हैं, उन्हें में बुलाता हूँ। में आश्रय के लिए इराणी
मर सुख के लिए वरुणानी को बुळाता हूं ।
३३ सूक्त
(४ अबुवाक । देवता रुद्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. मरुतों के पिता रुद्र, तुम्हारा दिया हुआ सुख हमारे पास
आये। सुर्य-दशन से हमें अलग नहीं करवा। हमारे वीर पुत्र
शत्रुओं को पराजित करें। इद्र, हम पुत्रों और पोत्रों में अनेक हो
जायें ।
२. रुद्र, हम तुम्हासी दी हुई सुखकारी ओषधि के द्वारा सौ
वर्ष जीवित रहें । हमारे शत्रु औं का विवाह करो, हमारा पाप सर्वाशतः
दुर कर दो। सर्वंशरीरव्यापी व्याधि को भी दूर करो ।
३. रुद्र, ऐद्रवर्य में तुम सबसे श्रेष्ठ हो। हे बञ्माहु, प्रवृद्धो
में तुम अतीव प्रवृद्ध हो । हमें पाप के उस पार ले चलो, हमारे पास
पाप न आने पाये ।
हिन्दी-त्वेद ३३९
४. अभीष्टवर्धी इग, दुख अन्याय्य नसस्कार, अध्याध्य स्तुति अथवा
विसदृश देवों के सत्य आह्वान-द्वारा तुम्हें ऋद्ध न करे । हमारे पुत्रों
को ओबवधि-दारा परिपुष्ट करो। सेव युना है, तुम बैचों में
सर्वश्रेष्ठ हो ।
५. जो रब्रदेव हृव्य के साथ आह्वान-दारा आहूत होते हे, उनका,
स्तोन्रन्दारा, में कोव दूर कहूँगा । कोसलोदर, शोभन आह्वानवाले
वञ्च (पीत) बणे और घुनाधिक शुद्र हमें न मारें।
३. में प्राथना करता हूँ कि अभीष्टवर्षी और मरुत्वाले रद्र सुके
दीप्त अन्न-द्वारा तृप्त कर। जेसे धूप का सारा मनुष्य छाया को
आशित करता है, वेसे ही में भी पाप-शून्य होकर रुद्रदत्त सुख प्राप्त
करेगा । में रुद्र की परिचर्या करूंगा ।
७. रुद्र, तुम्हारा वह सुखदाता हाथ कहां हे, जिससे तुम दवा
तेयार करके सबको सुखी करते हो। अभीष्टवर्षी रुद्र, देव-याप के
विघातक होकर तुम म्े ज्ञीक्ष क्षसा करो।
८. वच्चुवर्ण, अभीष्टदर्षी ओर इदेत आसावाले रुद्र को लक्ष्य करके
अतीव महती स्तुति का हम उच्चारण करते हैँ। हे स्तोता, नमस्कार-दवार!
तेजस्वी रुद्र की पुजा करो। हम उनके उज्ज्वल नाम का संकीत्तेत
करते हे ।
९. दुढाङ्क, बहुरूप, उग्र और बन्नुबण सव दीप्त और हिरण्मय
अळंकार से सुशोभित होते हें। थद सारे भुवनों के अधिपति ओर
भर्ता हें। उनका बल अलय नहीं होता।
१०. पूजायोग्य रुद्र, तुम्र धनुर्वाणबारी हो । पजाह, तुम ताना
रुपोंवाले हो ओर तुमने पूजनीय निष्क को धारण किया हे। अर्चनाह,
तुम सारे व्यापक संसार की रक्षा करते हो। तुम्हारी अपेक्षा अधिक
नली कोई नहीं हे ।
११. हे स्तोता, विख्यात रथ पर चढ़, युवा, पशु की तरह भयंकर
ओर शत्रुओं के विनाइक तथा उग्र रुद्रकी स्तुति करो। उप्र,
३४० हिन्दी-ऋणग्वेद
स्तुति करने पर तुम हमें सुखी करते हो। तुम्हारी सेवा शत्रु का
विनाश करे ।
१२. जसे आशीर्वाद देते समय पिता को पुत्र ससस्कार करता
हँ, बसे ही हे रुद्र, तुम्हारे आने के समय हम तुम्हें बस्कार करते हैं ।
रुद्र, तुम बहुधनदाता और साधुओं के पालक हो। स्तुति करने पर
दुम हमं ओषधि देते हो।
१३. मरुतो, घुन्हारी जो निर्षेल ओषधि है, हे अभीष्टदर्षीगण
तुम्हारी जो ओषधि अतीव सुखदन्री हुँ, जिस ओषधि को हमारे पिता
सनु ने चुना था, वही सुखकर और भवहारक ओषधि हम चाहते हैं।
१४. रुद्र का हेलि-अआदुध हमें छोड़ दे। दीप्त इद्र की महती दुर्भति
भी हमें छोड़ दे। सेचन-समर्थ सुद्र, धनवान् यजमान के प्रति अपने
धनुष की ज्या शिथिल करो। हमारे पुत्रों और पोत्रों को सुखी करो ।
१५. अभौष्टवर्षी, बज्नुवर्ण, दीप्तिमान्, सर्वज्ञ और हमारा आह्वान
सुननेवाले रद्र, हमारे लिए लुन यहाँ एली विवेचना करो छि हमारे
प्रति कभी कद्ध न हो, हमें कभी विनष्ट न करो। हम पुत्र और
पोत्रवाले होकर इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति करेगें ।
२४ सूक्त
(देवता मसुदूगण । छन्द॒ जगती और द्रिष्ठुप् |)
१. जलधारा से सरत् लोग आकाश को छिपा लेते हें। उनका
बल दूसरे को पराजित करता हे। वे पश की तरह भयंकर हुँ। वे
बल-द्वारा संसार को व्याप्त कर लेते हें। वे बह्लि की तरह दीप्ति-
मान् और जरू से परिपुर्ण हें। वे अमणकर्त्ता मेघ को इधर-उधर
भेजकर जल को गिराते हैं।
२. सुवर्णहुदय मरुतो, चूँकि सेचन-समर्थ रुद्र ने पृश्चित के निर्म
उदर में तुम्हें उत्पन्न किया है; इसलिए, जैसे आकाश नक्षत्रों से सुझो-
भित होता हे, बैसे ही दुस भी अपने आभरण से सुशोभित होओ।
हिन्दी-आुपबेद २४१
तुम शत्रु-भक्षक और जलनप्रेरक हो । तुम बेधस्थ विद्युत् की तरह
शोमिद होओ ।
यद्ध में दुरंग झी तरह यरुदूगण विशाल भुवन को सिक्त
करते हुँ। वे घोड़े पर चढ़कर शब्दायभान मेघ के कान के पास से
होकर दूत वेग से जाते हैं। सस्तो) लुम हिरिण्य-हिरस्त्राणबाले और
समान-कोधवाले ही ३ तुल बुक आदि कम्पित करते हो । तुम पृषती
(बिन्दु-चिल्लित) मृग पर चढ़कर अन्न के लिए जाते हो।
४. मर्दगण वित्र की तरह, हव्ययुद्त यजमान के लिए, सर्वदा
समस्त जल ढोते हैं। वे दानशील, पजती-मृद अक्षय, अन्नदाले
और अझुटिलयामी अइव को तरह पथिकों के आय जाते हूँ।
५. हे समान-क्ोध और दीप्तिसान् आयुधवाले सरतो, जसे हंस
अपने निवास-स्याद पर जाता हे, बसे ही तुम भी महाजल स्रोतवाले
मेघों के साथ और धेनु-युक्ष होकर बिघ्न-शून्य मार्ग से, सधुर सोम-
रस से उत्पन्न हर्ष-ला के लिए आओ ।
६. हे समान-शोधवाले सरतो, जेसे तुस स्तोत्र से आते हो, बेचे
ही हमारे अभिषुत अञ्च के पास आओ । घोड़ी की तरह गाय का
अधोदेश पुष्ट करो और यजमान का यज्ञ अञ्चवाला करो ।
७. ससतो, तुस हमें अञ्ञ-युक्त पुत्र दो। वह, तुम्हारे आगमन के
समय, प्रतिदिन तुम्हारा गुण-कोत्तंच करेगा। तुम स्तोताओं को अन्न
दो। युद्ध-काल में स्तोता को दानशीलता, युद-कौशल, ज्ञान और अक्षय
तथा अतुल बल दो।
८. सरुतो के वक्षःस्थल सें दीप्त आभरण है। उनका दान सबके
लिए सुखकर हुँ। वे जिस समय रथ में घोड़े जोतते हुँ, उसी समय
जैसे धेनु बछडे को दुध देती हुँ बसे ही बे हव्यदाता यजमान के
लिए उसके गृह सें यथेष्ट अन्न देते हें।
९. सरतो जो मनुष्य बुझ की तरह हमसे शत्रुता करता हे,
हे वसुगण, उस हिंसक के हाथ से हस बचाओ। उसे ताप-प्रद चक्त-
३४२ हिन्दी-ऋग्वेद
द्वारा चारों ओर से हटाओ। दद्रमण, तुस उसके सारे अस्त्रो को दूर
फेंककर उसे विनष्ट करो।
१०. मरुतो, जिस ससय तुमने पृश्चि के अधोभाग का दोहन किया
या, उस ससय स्तोता के निन्दक की इत्या की थी और न्रित के शत्रुओं
का दघ किया था। अहिसदीय खब्रदुत्रो, उस समय तुम्हारी विचित्र
क्षमता को सबने जाना था।
११. महासुभग मरुतो, तुम सदा यज्ञ-स्थल में जाते हो। यथेब्ट
और प्रार्थनीय सोम के तैयार हो जाने पर हम तुम्हें बुलाते हें।
स्तुति-पाठक लक को उठाकर स्वर्ण-वर्ण और सर्व-श्रेष्ठ स्तुति-योग्य
मरुद्गण से प्रशंसनीय धन की याचना करते हूँ।
१२- स्वर्गगामी अङ्गिरोरूपी मरुतों ने प्रथम यज्ञ का वहन किया
था। उषा के आने पर सरुद्गण हमें यज्ञ आदि में प्रवृत्त करें। जैसे
उषा अरुणवर्ण किरण-जाल से क्ृष्णवर्णा रात्रि को हटाती हैं, बैसे ही
सरुद्गण विशाल, दीप्तिमान् ओर जल-ल्वावी ज्योति से अन्धकार को
दुर करते हैं।
१३. इद्रपुत्र मरुद्गण वीणा-विशेष और अरुणवर्ण अलंकार से
युक्त होकर जल के निवास-भूत मेघ में वात हुए हें। मरुद्गण सर्वत्र
प्रभाववाले बल से जल लाते हुए प्रसञ्तता-दायक और मनोहर सौन्दर्य
धारण करते है।
१४. मरुतों से वरणीय धन की याचना करते हुए अपनी रक्षा
के लिए स्तोत्र-दारा हम उनकी स्तुति करते हें ॥ अभीष्ठ-सिद्धि के
लिए चक्र-दारा त्रित उन सुख्य प्राण, अपान, समान, व्यान और
उदान शादि पाँच होताओं (मरुतों) को आर्वातत करते हें।
१५. सरुतो, तुम जिस आश्रय से आराधक यजमान को पाप से
बचाते हो, जिससे स्तोता को शत्रु के हाथ से सुक्ल करते हो, मरुतो,
तुम्हारा वही आश्रय हमारे सामने आये।
हिन्दी-ऋभ्वेद ३४३
३५ सूक्त
(दैवता अपां नपात् । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. में अज्ञ की इच्छा से इस स्तुति का उच्चारण करता हूँ।
शब्दकर्ता ओर झील्लगन्ता अवां नपात् (जल-पोत्र अग्नि) नाभ के देवता
हमें प्रचुर अन्न और सुन्दर रूप दे। में उनकी स्तुति करता हुँ। बे
स्तुति को पसन्द करते हैं ।
२. उनके लिए हम हृदय से सुरित इस संत्र का अच्छी तरह
उच्चारण करेंगे; बे उसे बार-बार जानें। स्वामी अपां नपात् ने शत्रु- '
क्षेपणकारी बल से समस्त भुवन को उत्पन्न किया है ।
३. कोई-कोई जल इकट्ठा होता हे, उसके साथ दूसरा मिलता है।
वे सब समुद्र के बड़वानल को प्रसन्न करते हैँ। विशुद्ध जल निर्म
और दीप्तिसान् अपां नपात् नासक देवता को चारों ओर घेरकर
रहता हे । |
४. दर्परहित युवती जल-संहति, युवा की तरह, अपां नपात् देवता
को अलंकृत और परिवेष्टित करती हे। इन्वन-रहित और घृत-पुत
अपां नपात् हमारे धनवाले अन्न की उत्पत्ति के लिए जल के बीच
निर्मल तेजोबल से दीप्त हें।
५. इला, सरस्वती और भारती नास की तीनों देवियाँ दुःख-
रहित अपां नयात् देवता के लिए अन्न धारण करती हैँ। दे जल के
बीच उत्पन्न पदार्थ के लिए प्रसारित होती हें। अपां नपात सबसे प्रथम
उत्पन्न जल के सारभूत सोम को पोते हें।
६. अपां नयात्-द्वारा अधिष्ठित समुद्र सें उच्चेःश्रवा नामक अश्व
का जन्म हे--इस वरणीय का जन्म हे। हे देव, तुम अपहर्ता हो।
हसक के संपक से स्तोताओं की रक्षा करो। दामशून्य और झूठे लोग
अपरिपक्व अथवा एरिपाक-्योग्य जल में रहकर भी इस अहिसनीय
देवता को नहीं प्राप्त होते ।
३४४ हिन्दीन्त्रग्वेद
किक मरे]
७. जो अपने घर में हें और जिनकी गाय को सरलता से ढुहा
जाता हूं, वे ही अपां नपात् देवता दृष्टि का जल बढ़ाते और उत्तम
अच भक्षण करते ह्ँ । वे जल बीच प्रबल होक यजलाव को थन्
देने के लिए भली भाँति दीप्दियुक्त होते हुँ।
८. जो अपां नपात् सत्यवान, सदा एक रूप से रहनेवारे और अति
विस्तीर्णं हैं, जो जरू के बीच पवित्र देवतेज के द्वारा प्रकाशित होते
हैं, दारे भूत उन्हीं की झाखायं हैँ। फल-फूल के साथ सारी ओषधियाँ
उन्हीं से उत्पन्न हैं।
९. अपां नपात् झुटिलगति मेघ के बीच स्वयं ऊर्ध्वं भाव हे
अवस्थित होने पर भी बिजली को पहनकर अन्तरिक्ष में चढ़े हैं।
सवत्र उनके उत्तम माहात्म्य का कीत्तंत करते हुए हिरण्यवर्णा नदियाँ
प्रवाहित होती हँ।
१०. वे हिरण्यरूप, हिरण्याकृति और हिरण्यवर्णं हुँ? वे हिर-
ण्यमय स्थाव के ऊपर बेठकर शोभा पाते हैं। हिरण्यदाता उन्हें अन्न
देते हें
११. अपां नपात् का रहिससमूहु-झप शरीर और नाम सुन्दर हैं।
य दोनों, गूढ़ होने पर भी, वृद्धि को प्राप्त होते हैं। युवती जलसंहति
उन हिरण्यवर्ण को अन्तरिक्ष में अली भाँति दीप्ति-युक्त करती हुँ;
क्योंकि जल ही उसका अन्न
१२. अपने मित्र और बहुत देवों के आदि अपां नपात् देवता की,
यज्ञ, हृव्य और नमस्कारनट्वारा, हम परिचर्या करेंगे! में उनके उन्नत
प्रदेश को सली भाँति अलंकृत करूँगा । में काष्ठ और अच्-ट्टारा उनको
धारण करता और मंत्रन्द्रारा उनकी स्तुति करता हूं।
१३. सेचन-समर्थं उन अपां नपात् ने इस सारे जल के बीच गर्भ
उत्पन्न किया है। बे ही कभी पुत्रझप होकर जल पीते हुँ। सारा जल
उन्हीं को चाटता हूँ। दीय्तियुक्त वे ही स्वर्गीय अग्नि इस पृथिवी पर
अन्य शरीर से व्याप्त हुँ।
हिन्दी ऋग्वेद ३४५७
१४. अपां नयात् उत्कृष्ठ स्थान में रहते हँ। दे तैजन्हारा प्रति-
दिन दीप्तियुक्त हूँ । महान् जल-समूहु उनके लिए अझ ढोते हुए सतत
गति-द्वारा उनको देष्टित किये हुए है ।
१५. अग्विदेव, तुस शोधनीय हो । पुत्र-्लाभ के लिए में तुम्हारे
पाल आया हुँ। यजसान के हित के लिए युरचित स्तुति लेकर आया
हूँ । समस्त देवगण जो कल्याण करते हे, बह सब हमारा हो। पुत्र और
पोत्रवाले होकर हम इस यज्ञ में प्रभूत स्तुति कर सक ।
३६ सूक्त
(देवता १ के इन्द्र और मधु, २ के मरुद्गण और माधव, ३ कै
त्वष्टा आर शुक्र, ४ के अग्नि आर झुचि, ० के इन्द्र
ओर नभ तथा ६ के नमस्य। छन्द् जगती |)
१. इन्द्र, तुम्हारे उद्देश्य से प्रेरित यह सोम गव्य और जल से युक्त
है। यज्ञ के नेता लोग इस सोन को ग्रस्तरखण्ड-द्वारा अभिवृत करके
मेष-लोममय दक्षापर्व-द्वारा इसे संस्कृत करते हें । इन्द्र, तुम सारे संसार
के ईश्वर हो। सारे देवों के प्रथन, स्वाहाकार सें अग्नि में प्रक्षिप्त
ओर दषद्कार-दारा त्यक्त सोम होता के पास से पान करो ।
२. यज्ञ के साथ संयुक्त, पयलीयोजित रथ पर अवस्थित, अपने
आयुध ते शोनित, आभरण-प्रिय, भरत दा रद्र के पुत्र और अन्तरिक्ष
के नता मर्तो, तुम कुश पर बेठकर पोता के पास ते सोसपान करो ।
३. शोभन आद्वानवाले देवो, तुस हमारे साथ आओ, कुश पर
बेठो और विहार करो । अनन्तर हैं ववष्टा, दुस देवों और देवपत्नियों
के शोधनीय दल के साथ अन्न की सेवा करके दप्ति प्राप्त करो ।
४. मेधावी अर्ति, इस यज्ञ में देवों को बुलाओ और उनके लिए
यज्ञ करो । देवों के अह्लगनकारी अग्नि, दुस हमारे हव्य के अभिलाषी
कफ
होकर गाहुपत्य आदि के तीचों स्थानों पर बैठो। होम के लिए उत्तर
३४६ हिन्दी-ऋश्वेद
वेदी पर लाये हुए सोम-छ्प मधु स्वीकार करी । अग्नीध्र के पास
छे सोमपाल करो और अपने अंश में तप्त होओ।
५. घनवान् इन्द्र, तुम प्राचीन हो। जिस सोम-हारा तुम्हारे
हाथ में शत्रु-विजयी सामर्थ्य और बल हैं, बही छुम्हारे लिए अभिषुत
ओर आहूत हुआ है । दुम दुष्त होकर ब्राह्मण ऋत्विक के पास से
सोसपाच करो ।
६. हे सित्रावरुण, तुम हमारे यञ्च की सेवा करो। होता बैठकर
चिरन्तनी स्तुति का उच्चारण करते हें। तुम हमारा आह्वान सुनो।
तुम शोभावाले हो। ऋत्विकों-दारा परिवेष्टित अन्न तुम्हारे सामने है।
इस मधुर सोमरस का, प्रशास्ता के पास से, पान करो।
चप्तस अध्याय समाप्त ।
२७ सक्त
(अष्टम अध्याय दैवता १--४ द्रविणोदा, ५ के अश्विद्वय और
६ के अग्नि छन्द जगती ।)
१. है द्रविणोदा वा धनप्रिय अग्नि, होतृ-कु त यज्ञ सें अन्न ग्रहण
करके प्रसन्न और हुष्ट बनो । अध्वर्यूगण, द्रविणोदा पूर्णाहुति चाहते
हें; इसलिए उनके लिए यह सोम प्रदान करो। सोसाभिलाषी
द्रबिणोदा अभीष्ट फल देनेवाले हे। व्रविणोदा, होता के यज्ञ में
ऋतुओं के साथ सोम पान करो ।
२. हमने पहले जिनको बुलाया है, इस समय भौ उन्हीं को
बुलाते हैँ । वे आह्वान-योग्य हैँ; क्योंकि वे दाता और सबके अधिपति
हैं । उनके लिए अध्वमृओं-दारा सोस-लूप सब् तैयार किया गया हँ।
द्रविणोदा, पोता के यज्ञ में ऋतुओं के साथ सोल पान करो ।
हिन्दी-ऋग्बेद ३४७
३. द्रविणोदा, तुस जिस अश्व पर जाते हो, बह तृप्त हो ।
बनस्पति, किसी की हिसा न करके दृढ़ होओ । घर्षणकारी, नेष्टा के
यज्ञ में आकर ऋभुओं के साथ सोस पान करो ।
४. दरविणोदा, जिन्होंने होता के यज्ञ में सोम पान किया है,
जो पिता के यज्ञ में हुष्ट हुए हे, जिन्होंने नेष्टा के यज्ञ में प्रदत्त
अन्न भक्षण किया हुँ, थे ही सुचर्ण-दाता तऋहल्विक के अशोधित और
मृत्यु-विवारक चतुर्थ सोस-पात्र का पान करें ।
५. अह्विदीकुमारो, जो रथ शीघ्गासी, तुम्हारा वाहन और
अभीष्ट स्थान पर तुम्हें उतार देनेवाला हे, आज उसी रथ को
इस यज्ञ में हमारे सासने योजित करो। हमारा हव्य सुस्वादु करो
और यहाँ आओ । अञ्चवाले अश्विद्वय, हमारा सोम पान करो ।
६. अग्निदेव, तुम समिधा, आहुति, लोगों के हितकर स्तोत्र
और सुन्दर स्तुति से युक्त होओ। तुम सबके आश्वय-दाता और
हमारे हव्य के अभिलाषी होओ। हमारा हव्य चाहनेवाले सारे
देवों को, ऋभुओं और विइवदेवों के साथ, सोम पान कराओ ।
३८ सूक्त
(देवता सविता । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. प्रकाशक और जगद्वाहक सविता वा सूर्य, प्रसत् के लिए
प्रतिदिन उदित होते हें। यही उनका कर्म है। वे स्तोताओं को
रत्न देते और सुन्दर यज्ञवाले यजमान को मंगलभागी बनाते हें ।
२. प्रलम्बबाहु और प्रकाशवाले सविता, विइव के आनन्द के
लिए, उदित होकर बाहु प्रसारित करते हैं। उनके कार्य के लिए
अतीच पवित्र जळ-ससू ह प्रवाहित होता है और वायु भी सर्वतोव्यापी
अन्तरिक्ष सें विहरण करता है ।
३. जाते-जाते जिस समय सविता शीघ्रगामी किरणों-हारा
विमुक्त होते हु, उस समय दे दिरन्तरगामी घथिक को भी विरत
३४८ हिन्दी-ऋग्वेद
करते हैं। जो शत्रु के विरुद्ध जाते हैं; सबिता उनकी जाने की
इच्छा को भी निवृत्त करते हैं । सविता के कर्म के अनन्तर रात्रि
का आगमन होता हे ।
४. वस्त्र बुननेवाली रमणी की तरह रात्रि पुनः आलोक को
भली भाँति वेष्टन करती हे! बुद्धिमान लोग जो कर्म करते हुँ, बह
करने सें समर्थ होने पर भी मध्य मार्ग में रख देती हें। विरास-
रहित ओर ऋतुविभाग-कर्ता प्रकाशक सविता जिस समय फिर
उदित होते हैं, उस समय लोग शय्या छोड़ते हैं ।
५. अर्ति के गृह में स्थित प्रभूत तेज यजमान फे भिन्न-भिन्न गृह
और समस्त अन्न में अधिष्ठित हुँ । माता उषा ने सविताद्धारा प्रेरित
प्रशापक यज्ञ का श्रेष्ठ भाग पुत्र अग्नि को दान किया है ।
६. स्वर्गीय सविता के ब्रत की समाप्ति होने पर जयाभिलाषी
राजा थुद्ध-यात्रा कर चुकने पर भी खोट आता हे । सारे जंगम
पदार्थ घर की अभिलाषा करते और सदा कार्य-रत व्यक्ति अपने
किये आधे कर्म को भी छोड़कर घर की ओर लोटता हुँ ।
७. सविता, अम्तरिक्ष में तुमने जो जल-भाग रख छोड़ा हुँ,
जलान्वेषणकर्ता लोग चारों ओर उसे पाते हें। तुमने पक्षियों के लिए
वृक्षों का विभाग किया है । कोई भी सविता के कार्य को हिंसा नहीं
कर सकता ।
८. सविता के अस्त होने पर सदा गमनझील वरुण सारे जंगम
पदार्थों को सुखकर, वाञ्छनीय और सुगम वासस्थान प्रदान करते हें।
जिस समय सविता सारे भूतो को स्थान-स्थान पर अलग-अलग कर
देते हे, उस समय पशु-पक्षिगण भी अपने-अपने स्थान को जाते हैँ ।
९२. इन्द्र जिसके ब्रत की हिसा नहीं करते, बरुण, मित्र, अधमा
और रुद्र सी हिसा नहीं करते, झत्रुगण भी हिंसा नहीं करते,
उन्हीं छुतिमान् सविता को कल्याण के लिए इस प्रकार मसस्कार-द्वारा
हम आह्वान करते हैं। |
हिन्दी-ऋष्वेद ३४९
१०. जिनकी स्तुति सारे मनुष्य करते हुँ, जो देवपत्नियों के
रक्षक हैं, वे ही सविता हमारी रक्षा करें । हम भजदीय, बहुप्रज्ञ और
ध्याव-योग्य सविता को बलवान करते हें। हस धन और पश् की
प्राप्ति के और संचय के सम्बन्ध में सबिता के प्रिय हों
११. सविता, तुमने हमें जो प्रसिद्ध और रसणीद थन प्रदान
किया हें, वह दुलोक, भूलोक और अन्तरिक्षलोक से हमारे पास
आथे । जो धन स्तोताओं के बंशजों के लिए शुभकर है, मे बहुत
बहुत स्दुति करता हूँ कि मुझे वही घन दो।
२९ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अइ्विद्ठय, शत्रु के प्रति प्रेरित प्रस्तर-खण्डद्वय की तरह
इत्र को बाधा दो । जैसे दो पक्षी वृक्ष पर आते हैं, वेसे ही तुम भी
यजसा के निकट आओ ३ संत्रोच्चारक ब्रह्मा नाम के ऋत्विक और
देश में दो दूतो की तरह तुम बहुतों के बुलाने योग्य हो ।
२. अश्विद्वय, प्रातःकाल जानेवाले दो रथियो की तरह तुझ
वीर हो, दो छायो की तरह यनज हो, दो स्त्रियों की तरह सुन्द
गारीरवाले हो, दम्पती को तरह संगत और सबके कसञ्चाता हो।
तुम दोनों भक्त के पास आओ ।
३. देवों में प्रथम अध्विद्वय, तुस पशु की दोनों सींगों वा अश्व
आदि के दोतों खुरों की तरह वेगवान् होकर हमारे वावन आओ ॥
शत्रु-हन्ता और स्वकमं-ससर्थं अशिवद्वय, जसे दिन में चत्रबाक-दस्पती
आते हैं अथवा जैसे दो रथी आते हँ, बैसे ही तुम हमारे सामने आओ ।
४. अशिवद्ठय, नौका की तरह तुम हमें पार उतार दो। रथ
के युग की तरह, रथचक्र के नाभि-फलक की तरह उसके पाइवस्थ
फलक की तरह और चक्र के बाह्यदेश के बल्य की तरह हमें पार
करो । दो कुक्करों की तरह तुम हमारे शरीर को हिंसा से बचाओ ।
दो वर्म की तरह तुम हमें जरा से बचाओ ।
३५० हिन्वी-म्वेद
५, अविवद्ण, वो वाथुओं की तरह अक्षय, दो नदियों की तरह
शीघ्रगामी और दो मंत्रों की तरह दर्शक हो । तुम हमारे सामने आओ।
तुस दोनों हाथों ओर पैरों तरह शरीर के सुखदाता हो । तुम
हमें श्रेष्ठ घन की ओर ले जाओ ।
६, अइ्चिद्वय, दोनों ओठों की तरह मसधुर-वाक्य का उच्चारण
करो, दोनों स्तनों की तरह हमारे जीबन धारण के लिए दूध पिलाओ,
दोनों नाकों की तरह हमारे शरीर के रक्षक होओ और दोनों कानों
की तरह हमारे श्रोता होओ ।
७. अहिविद्दय, दोनों हाथों की तरह हमें सामथ्ये प्रदान करो ।
छ्यावा-पृथिवी की तरह हमें जल दो । अद्वय, ये सब स्तुतियाँ
तुम्हें चाहती हें। तुम शान चढ़ावे के यंत्र के द्वारा तलवार की
तरह उन्हें तीक्ष्ण करो ।
८. अश्विद्वय, गृत्समद ऋषि ने तुम्हारी वृद्धि के लिए थे सब
स्तोत्र और मंत्र बनाये हें । तुम नेता और अतीव प्रीतिवाले हो ।
तुम्हारे पास थे सब स्लुतिथां पहुँचे । हम पुत्र ओर पोत्रबाले होकर
इस यज्ञ सं प्रभूत स्तुति कर ।
४० सुक्त
(देवता सोम और पूषा । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सोम और पृथ्वी, लुम धन, छुलोक और पृथ्वी के जनक
हो। जन्म के अनन्तर ही तुम सारे संसार के रक्षक हुए हो । देवों ते
दुब्हें अमरता का कारण बनाया हे ।
२. जन्मते ही दुतिसान् सोम और पूषा को देवों ने सेवा की
थी । ये दोनों अप्रिय अन्धकार का विनाश करते हे। इनके साथ
इन्द्रदेव तरुणी धनुओं के अधःप्रदेश में पक्व दुग्ध उत्पन्न करते हें।
३. अभीष्ठवर्षी सोस और पूषा, तुम संसार के विभाजक,
सप्तचक (सात ऋतु, सलमास लेकर) बाले संतार के लिए अविभाज्य,
हिन्दी-ऋग्वेद ३५१
सर्वत्र वर्तमान और पंचरदिम (याच ऋतु, हेमन्द और शील को
एक सें करके) वाले हो। इच्छा होते ही योजित रय हमारे सामने
प्रेरित करते हो ।
४. तुमसे एक जन (पुष) उच्चत झुलोक सें रहते हे। दूसरे
(सोन) ओषधि रूप से पृथ्वी और अन्द्र-लप से अन्तरिक्ष में रहते
हैं। तुम दोनों अनेक लोगों सें वरणीय, बहुकीलिंशाली हमारे भाग
का कारण और पझु-लप घत हम दो । |
५. सोव ओर पुषा, तुमे से एक (सोस) ने सारे थूतो को उत्पन्न
किया है। दूसरे (पूषा) सारे संसार का पर्यवेक्षण कर जाते है ।
सोम और पुषा, तुम हमारे कर्म की रक्षा करो। तुम्हारे द्वारा हम
सारी शत्रुसेना की जय कर डालें।
६. संसार को प्रसन्नता देनेवाले पुषा हमारे कर्म से तृप्ति प्राष्द
करें। धनपति सोस हमें धन दान करें । झुतिसती और इत्र-रहिता
अदिति हमारी रक्षा करे। हुस पुत्र और पोत्रवाले होकर इस यज्ञ
में प्रभूत स्तुति कर सक।
४१ सूक्त
देवता १-३ के इन्द्र और वायु, ४-5 के मित्रावरुण, ७-९ के
अश्विद्वय, १०-१२ के इन्द्र, १३-१५ के विशवदेवगश्, १६-१८
की सरस्वती और १६-२१ के द्यावा-प्रथिवी ।)
१. वायु, तुम्हारे पास जो हज़ार रथ हुँ, उनके हारा नियुत्गण
से युक्त होकर सोम पान के लिए आओ।
२. वायु, नियुत्गण से युक्त होकर आओ तुमने दीप्तिमान् सोम
ग्रहण किया हे। लोसासिषवकारी यजसान के घर में तुस जाते हो।
३, नेता इख और वायु, दुम आज तियुतृगण से युक्त होकर और
सोम के लिए आकर गथ्य-मिळा सोस पीओ।
३५४ हिल्दी-ऋणग्वेद
४. सिन्रावदण, तुब्हारे लिए थह सोस तयार हुआ है। सत्यवद्धक
घुस हारा आह्वान सुनो ॥
५. शञ्ुता-शून्य राजा सित्रावर्ण स्थिर, उत्कृष्ट और हज्ञार
स्लम्भोंबाले इस स्थान पर बेठ।
६. सञ्राद्, घता्चभोजी, अदिति-पुत्र ओर दाता सित्रावरुण सरल-
गति यजमान की सेवा करते हैं।
७. अदिवद्वय, चायत्यद्ठघ, खव्रद्वव, यज्ञ के नेता जो सोसपान करेंगे,
उसी सोल को धोर ओर अइव से युष करके तथा रथ पर लेकर आओ ।
८. धनदर्षी अदिव्य, दूरस्थित वा समीपवर्ती सन्दभावी सत्येरिपु
जिस धन को नहीं चुरा सकता, उसे ही हमें दो।
९. ज्ञाबाह अदिधद्वय, दुस हमारे पास नावाऊप ओर धन-प्रापक
धन ले आओ।
१०. इन्द्र अधिक और अभिभवकारी भय को दुर करते हुँ। बे
स्थिर प्रज्ञावान् हें।
११. यदि इन्द्र हमें सुखी करें, तो हमारे साथ पाप नहीं आधथेगा;
हुसारे सामने कल्याण उपस्थित होगा।
१२. प्रज्ञावान् और शत्रुजेता इन्द्र चारों ओर से हमें भय-झूस्य करें।
१३. विश्वदेवगण, यहाँ आओ । हमारा आह्वान सुनो और कुश
के ऊपर बेठो।
१४. विश्वदेवगण, तील़ मदवाला, रसशाली और हुर्षकर यह सोम
तुम्हारे छिए गृत्समदबंजीयों के पास हें । इस झोभन सोस का पान करो।
१५. जिन मरुतों में इन्द्र श्रेष्ठ हुँ, जिनके दाता पुषा हैं, बे ही
घरदगण हमारा आह्वान सुनें।
१६. सातुगण में श्रेष्ठ, नदियों में श्रेष्ठ और देवों में श्रेष्ठ सरस्वती
हम दरिद्र हे; हमें धनी करो!
१७- सरस्वती, घुम चुतियती हो । तुम्हारे आश्रय से अल्ल है। शुव-
होत्रों चें हुम सोम पात करके तृप्त होओ। देवी, तुल हमें पुत्र दो।
क्हन्दी-ऋष्वेद ३५३
१८. अक्नवती और जलदती सरस्वती, इस हक्य को स्वीकार करो । यह
सारनीय और देवों के लिए प्रिय हे। गृत्समद लोग इसे तुम्हें देते हैं।
१९. यज्ञ के सुख-तस्पादक छ वा-पृथिवी) तुम आओ । हम तुम्हारी
प्रार्थना करते हँ । हस हुव्य-दाहन अग्नि की भी प्रार्थना करते हेँ।
२०. छावा-पृथिवी स्वर्ग आदि के ताधक सोर देवों के ओर जानेवाली
हैं। हमारे इस यज्ञ को देवों के पास ले जायें।
२१. शब्दा-झृप्ण दावू, सोसपान के लिए थज्ञाहई देवगण
आज तुम्हारे पास बेठे।
४२ सूक्त
(देवता कपिञ्लरूपी इन्द्र | छन्द न्िष्डुप्।)
१. वारम्वार दाव्दायसान और भविष्यद्वक्ता कपिञ्जल जसे
कर्णधार मौका को परिचालित करता है, वेसे ही वाक्य को प्रेरित करता
हुं। शकुनि, तुम दश्वाण-टू्क होओ। किसी ओर से किसी
प्रकार की पराजय तुम्हारे पास न आये ।
२. शकुनि, तुम्हें शयेन पक्षी न सारे--गश्ड पक्षी भी न मारे।
दह बलवानू, बीर और धमुर्धारी होकर तुम्हें न प्राप्त करे। दक्षिण
दिश्वा में बार-बार शब्द करके और छुलंगरू-शंसी होकर हमारे लिए
प्रियवादी बनो ।
३. शकुनि, सुसंगल-युचक ओर प्रियवादी होकर घर की दक्षिण
दिज्ञा में बोलो, जिससे चोर और दुष्ट व्यक्ति हमारे ऊपर प्रभुत्व न
करे। पुत्र और पोत्रवाले होकर हम इद यज्ञ में प्रभूत स्तुति कर।
४३ सूक्त
(देवता कपिज्ञलरूपी इन्द्र । छन्द जगती, म्या, शाक्ररी और धष्टि |;
१. समय-समय पर अन्न की खोज करके स्तोताओों की तरह शकुनिः
गण प्रदक्षिण करके शब्द करें। जसे सामगावक लोग गायत्री: और
फा० २३
३५४ ईहिन्दी-ऋग्वेद
व्टूप् (दोनों सास) का उच्चारण करते हुँ, बैसे ही कपिञ्जल भी
दोनों वाकय उच्चारण करता ओर श्रोताओं को अनुरश्ध करता है।
२. झकुनि, जैसे उद्गीता साथ गान करते हु, बसे ही तुस भी
गाओ । यज्ञ में ब्रह्मपुत्र ऋत्विक् की तरह तुम शब्द करो । जेसे सेचन-
समर्थं अश्व अइवी फे पास जाकर शब्द करता है, बैसे ही तुम भी
करो । शकुनि, दुम सर्वत्र हमारे लिए संगल-सुचक और पुण्य-जनक
दाब्द करो ।
३. शकुनि, जिस समय तुम शब्द करते हो, उस समथ हमारे
लिए संगल-सुचना करते हो । जिस समय चुप रहकर सुभ बेठत हो, उस
समय हमारे प्रति शुप्रसञ्च रहते हो । उड़ने के समय तुस कर्करि (एक
बाजा) की तरह शब्द करते हो। हम पुत्र और पेत्रवाले होकर इस
यज्ञ में प्रभूत स्तुति करे।
द्वितीय मण्डल समाप्त ।
१ सूक्त
(२ अष्टक । ३ मण्डल । ८ अध्याय । १ अवुवाक् । दैवता
अग्नि । ऋषि विश्वामित्र | छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अग्निदेव, यज्ञ करने के लिए तुमने मुझे सोम का बाहक किया
है; इसलिए मुझे बलवान् करो। अग्नि, में प्रकाशमाव होकर, देवों
को लक्ष्य कर, अभिषवण के लिए, प्रस्तरखंड ग्रहण और स्तव करता
हुं । अग्नि, तुस मेरे शरीर की रक्षा करो।
२. अग्नि, हमने भली भाँति यज्ञ किया है । हमारी स्तुति बढित
हो। समिधा और हव्य-द्वारा लोग अस्वि की परिचर्या करे। लोक
से आकर देवों ने स्तोताओों को स्तोत्र सिखाया हं । स्तोतागण स्तवनीय
ओर प्रबृद्ध अग्यि की स्तुति करने की इच्छा करते है
हिन्दो-ऋग्बेद ५५
३. जो मेधावी, विशुद्ध-इछ-शाली और जन्म से ही उत्कृष्ट ब्न्घ्
है, जो चुलोक का सुख-विधान करते हैं, उन्हीं दर्शनीय अब्नि को
देवों ने, थज्ञ-कार्य के लिए, वहनशील नदियों के जल के वीच,
प्राप्त किया हुँ।
ड. शोधन धनवाले, शुक्ष और अपनी महिला से दीप्तिशाली
अग्नि के उत्पन्न होते ही उन्हें सात बदियों ने सेर्वद्धित किया था।
जेले अइवी नवजात शिक्षु के पास जाती है, बेसे ही नदियाँ नवजात
अर्ति के पास गई थीं। उत्पत्ति के साथ ही अग्नि को देवों ने दीप्तिमान्
क्या ।
५. शुश्नवर्ण तेज के द्वारा अन्तरिक्ष को व्याप्त करके अग्निदेव
यजमान को स्तुति-योग्य और पवित्र तेज के द्वारा परिशोधित करते तथा
दीप्ति का परिधान करके यजसान को अन्न और प्रभूव तथा सम्पुणे
सम्पत्ति देते हें ॥
६- अश्नि जल के चारों ओर जाते हें। बह जल अग्नि को नहीं
बुझातदा अथवा वह अग्नि-द्वारा नहीं सुखता। अन्तरिक्ष के अपत्य-
भूत अग्नि वस्त्र से आच्छादित नहीं हैं; तो भी, जल से वेष्टित होने के
कारण, नग्न भी नहीं हें । सचालन, नित्य; तरुण और एक स्थान से
उत्पन्न सात नदियाँ एक अग्नि का गर्भ धारण करती हे।
७. जल-बर्षण के अनन्तर जरु के गर्भ-स्वरूप और अन्तरिक्ष में पुञ्जी-
भूत वावावर्ण अग्वि की क्िरणें रहती हें। इस अग्नि खें जलरूप स्थूल
थेनुएँ सबकी प्रीति-दायिका होती हैं घुन्दर और महान् द्यावा-पृथिबी
दर्शनीय अग्नि के माता-पिता हें।
८. बल के पुत्र, सबके द्वारा तुम्हें धारण करने पर तुम उज्ज्वल
ओर देवबाल् किरण धारण करके प्रकाशित होओ। जिस समय अगिन
यजनःच के स्तोन्र-द्वार। बढ़ते हैं, उस ससय मधुर जलधारा गिरती है ।
९. जन्म के साथ ही अग्नि दे दिवा (अग्तरिज्ष) के अधस्वव जळ
[a
me ऊव कूट) n> भ बच जा रम जिन सस्य, Sonne दः चारि < दे. पुण्य, i
प्रदेश को जाना था और अयस्तव-तम्बन्धिवी धारा या दृष्टि और
३५६ हिन्दी-त्रर्बद
अन्तरिक्षचरी वजन को गिराया था! अग्ति) शुभकर्ता वायु आदि
बन्धुओ के लाथ, अवस्था करते आर अन्तरिक्ष के अपत्यभूद जल
के साथ गृहा में वर्तमान रहते हुँ । इन अग्ति को कोई नहीं पाता।
१०. अग्नि पिता (अच्चरिक्ष) और जनथिता का गर्भ धारण करते
हैं। एक अग्नि बहुदर वृद्धि को प्राप्त ओषधि का भक्षण करते हेँ।
सपत्नी और मनुष्यों की हितकारिणी दयावा-पृथिची अभीष्ठवर्षी अग्नि
के बन्धु हे। अग्नि, तुस चखावा-पृथिवी को अच्छी तरह बचाओ।
११. महान् अग्नि असम्बाध और विस्तीण अन्तरिक्ष में वित होते हैं;
क्योंकि बहु-अञ्चवान् जल उनको अच्छी तरह वाद्धित करता हे। जल के
जन्मस्थान अन्तरिक्ष में स्थित अग्नि भगिनी-स्थानीया नदियों के जल में
प्रशान्त वित्त से शयन करते हे।
१२. जो अग्निदेव समस्त संसार के जनक, जल के गर्भभूत, मनुष्यों
के सुरक्षक, महान्, शत्रुओं के आक्रसणकर्ता, संग्राम में अपनी महती
सेना के रक्षक, सबके दहांदीय और अपनी दीप्ति से प्रकाशमान हैं,
उन्होंने ही यजमान के लिए जल उत्पन्न किया हे।
१३. सौभाग्यशाली अरणि ने दशनीय, विविध रूपवान् तथा जल
और ओषधियो के गर्भेभूत अग्नि को उत्पन्न किया हुँ। सारे देवता
लोग भी स्तुति-्योष्य, प्रवृद्ध तथा सद्योजात अग्नि के पास स्तुति-
सम्पन्न होकर गये थे। उन्होंने अग्नि की परिचर्या भी की थी।
: १४, दीप्तिशाली बिजली की तरह सहाच सुर्यगण अगाध समुद्र
'के बीच अमृत का दोहन करके, गृहा की तरह, अपने भवन अन्तरिक्ष
में प्रवृद्ध और प्रभा-द्वारा प्रदीप्त अग्नि का आश्रय करते हैं।
१५. हुव्य-द्वारा में यजमान तुम्हारी स्तुति करता हूँ। धर्म-क्षेत्र में
बुद्धि पाने की इच्छा से तुम्हारे ताथ बन्धुत्व के लिए प्रार्थना करता
हँ। देवों के साथ मुक्त स्तोता के पश आदि की और मेरी, दुर्दम्य
तेज के द्वारा, रक्षा करो।
हिन्दी-ऋण्वेद ३५७
१६. सुनेता अग्नि, हम तुम्हारा आश्रय चाहते हैँ। हम समस्त धन
की प्राप्ति का कारणीभूव कर्म करते और हव्य प्रदान करते हँ । हम तुम्हे
वीयंशाली अन्त प्रदान करके अदेवों और अहितकारी शत्रु॒ओ को जीत
सके ।
१७. अग्नि, तुम देवों के स्तवनीय दूत हो। तुम सारे स्तोत्रों के
ज्ञाता हो। तुम मनुष्यों को उनके अपने-अपने गृह में वास देते हो।
तुम रथी हो । तुम देवों का कार्य -साधन करके उनके पीछे-पीछे जाते हो ।
१८. नित्य राजा अग्नि यज्ञ का साधन करके मनुष्यों के गृह में बैठते
हुँ। अग्नि सारे स्तोत्र जानते हैं। अग्ति का अंग घी के द्वारा दीप्ति-
युक्त है। विशाल अग्नि प्रकाशमान होते हैं।
१९. गसनेच्छु महान् अर्ति) संगलमयी मैत्री और महान् रक्षा के
साथ हमारे पास आओ और हमें बहुल, निरुषद्रव, शोभन स्तुतिवाला
और कीतिशाली धन दो।
२०. अग्नि, तुम पुराण पुरुष हो। तुम्हें लक्ष्य करके इन सब सनातन
और नवीन स्तोत्रों का हम पाठ करते हे! सर्व-भूतज्ञ अग्नि मनुष्यों के
बीच निहित हूँ। उन अभीष्टवर्षी अग्नि को लक्ष्य करके हमने यह सब
सवन किया हे ।
२१. सारे मनुष्यों में निहित और सर्व-भूतज्ञ अग्नि विद्वामित्र-द्वारा
अनवरत प्रदीप्त होते हें। हम उनका अनुग्रह प्राप्त करके यज्ञाहं अग्नि
का अभिलषणीय अनुग्रह प्राप्त करें।
२२. बलवान् ओर शोभन कमंवाले अग्नि, तुम सदा बिहार करते-
करते हमारे यज्ञ को देवों के पास ले जाओ। देवों के बुलानेवाले अग्नि,
हमें अन्न दो। अग्नि, हमें महान् घन दो।
२३. अग्नि, स्तोता को अनेक कर्खो के हेतुभूत और धेनुप्रदात्री
भूमि हमें दो। हमारे बंश का विस्तार करनेवाला और सन्तति-
जनयिता एक पुत्र उत्पन्न हो। अग्नि, हमारे प्रति दुम्हार।
अनुग्रह हो ।
३५८ . हिन्दी-त्रग्वेद
२ सखूत्ता
(देवता वेश्वानर अग्नि | छन्द॒ जगती ।)
१. हम यज्ञ-वद्धक वैश्वानर को लक्ष्य करके विशुद्ध धुत कौ तरह
प्रसञ्चता-दायक स्तुति करेगे । जैसे कुठार रथ का संस्कार करता हे,
वैसे ही मनुष्य और ऋत्विक् लोग देवों को बुलावेबाले गार्हपत्य और
साहवनीय, इन दो प्रकार के रूपोंवाले अग्नि का संस्कार करते हैं।
२. जन्म के साथ ही वे खावा-पृथिजी को प्रकाशित करते हें। वे
माता-पिता के अनुकूल पुत्र हुए थे! हव्यवाही, जरा-रहित,
अन्नदाता, अहिसित और प्रसाधन अग्नि मनुष्यों के अतिथि के
समान पुज्य हैं ।
३. ज्ञानी देवता लोग विपद् से उद्धार करनेवाले बल के द्वारा यज्ञ
में अग्नि को उत्पन्न करते हें। जैसे भारवाही अइव की स्तुति करता
हुँ, वैसे ही अन्नाभिलाषी होकर दीप्तिमान तेज के द्वारा प्रकाशमान
और महान् अग्नि की स्तुति करता हूँ।
४. में स्तुति-योग्य वैश्वानर के श्रेष्ठ, लज्जा-रहित और प्रशंसनीय
अन्न के अभिलाषी होकर भृगु-बंशियों के अभिलाषप्रद, अशिलषणीय,
प्रज्ञावान् और स्वर्गीय दीप्ति के द्वारा शोभावाले अग्नि का भजन
करता हूँ
५. सुख की प्राप्ति के लिए ऋत्विक् लोग कुश को फेलाकर और
लक को उठाकर अन्नदाता, अतीव प्रकाशक, सारे देवों के हितंषी,
दुःखनाशक ओर यजमानों के यञ्च-साधक अग्नि की स्तुति करते हैं।
६- पवित्र दीप्तिवाले और देवों को बुलानंवाले अग्नि, तुम्हारी
सेवा के अभिलाषी यजमान लोग यज्ञ में कुश फेलाकर तुम्हारे योग्य
याग-गृह की सेवा करते हें । उन्हें धन दो।
७. अग्नि ने ्ावा-पृथिवी और बिशाल आकाश को भी पुर्ण किया
था। यजसानों ने नवजात अग्नि को धारण किया था। सर्बत्र व्याप्त
हिन्दी“ मरवेद ३५९
और अददादा अग्नि, अश्व की तरह अन्न लाभ के लिए, लाये
जाते हुँ!
८. नेता और महान यज्ञ के दर्सक जो अग्नि देवों के सम्मुख
उपस्थित हुए थ, उन्हीं हुव्यदाता, शोभन यज्ञवाले, गृह के हितैषी और
सर्वभूतज्ञ अग्नि की पुजा और परिचर्या करो ।
९. अमर देवों ने अग्नि की इच्छा करके महान् और जगत्-व्यापी
अग्नि की पार्थिव, बैद्युतिक और सुर्थरूप तीन मूर्तियों को शोभित किया
था। उन्होंने तीनों मदियो में से जगतपालिका पाथिवर्पात्त को
मर्त्यलोक में रक्खा, शेज दो अन्तरिक्ष में बई ।
१०. धनाभिलाषी प्रजाओं ने अपने प्रभु मेधावी अग्नि को तलवार
की तरह तीखी करने के लिए संस्कृत किया था। थे उन्नत और निम्न
प्रदेशों को व्याप्त करके गमच करते और सारे भुवनों का गर्ने धारण
करते हैं ।
११. नवजात और अभीष्टवर्षी वैश्वानर अग्नि ताना स्थानों में सिह
को तरह गर्जन करक अनेक जठरों सें बात होते हैं। बे अत्यन्त तेजस्वी
और अभर हैं । वे यजमान को रमणीय वस्तु प्रदान करते हें।
१२. स्तोताओं-ट्वारा स्तुति किये जानेवारे वैश्वावर अग्नि चिरन्तन
की तरह अन्तरिक्ष की पी5--स्वर्ग>-पर चढते हुँ। प्राचीन ऋषियों
के सदुश यजमानो को घन देकर वे जागरूक होकर देवों के साधारण
माग पर, सूर्यूप से, ञ्जस्ण करते हैं ।
१३. बलवान्, यज्ञां, मेधावी, स्तुवियोग्य और चुलोक-वासी जिन
अग्नि को द्युलोक से लाकर वाय ने पृथ्वी पर स्थापित किया हें, हम
उन्हीं मावा यतिवाले, पिगलवर्ण किरण से युक्त और प्रकाशमान
अग्नि से नया घन चाहते हैँ ।
१४. प्रदीप्त, यज्ञ में गसनकारी, सारे पदार्थों के ज्ञानभूत, चुलोक
के पताका-स्वरूप, सूर्य में अवस्थित, उथाफाल में जागरूक, अन्नवान्
आर अहान् अग्नि की स्तोतर-ट्रारा याचना करतः हूँ ॥
३६० हिन्दी-ऋग्वेद
२१५. स्तुत्य, देवाह्वानकारी, स्वेदा, शुद्ध, अकुटिल, दाता, श्रेष्ठ,
बिइवदशंक, रथ की तरह नावा वर्णबाले, दशनीय रूपबाले और मनुष्यों के
सदा कल्याणकर्ता उच अग्निदेव के पास में धन की याचना करता हूँ।
(देवता वेश्वानर अग्नि | छन्द जगती ।)
१. मेधावी स्तोता लोग, सन्सार की प्राप्ति के लिए, बहु-बलशाली
वश्वानर को लक्ष्य कर यज्ञ में रमणीय स्तोत्रों का पाठ करते हैं।
अमर अग्नि हव्य प्रदान के द्वारा देवों की परिचर्या करते हैं। इसलिए
कोई सनातन यज्ञ को दूषित नहीं कर सकता।
२. दर्शनीय होता अग्नि, देवों के दूत होकर, धावा-पूथिवी के बीच
जाते हें । देवों-द्वारा प्रेरित धीमान् अग्नि यजमान के सामने स्थापित
और उपविष्ट होकर महान् यज्ञ-गूह को अलंकृत करते हैं।
३. मेधावी लोग यज्ञ के केतु-स्वझूप ओर यज्ञ के साधनभूत अग्नि
को अपने वीर कर्म-द्वारा पुजित करते हें। जिन अग्नि में स्तोता लोग
अपने-अपने करने योग्य कर्मो को अर्पण करते हूँ, उन्हीं अग्नि से
यजमान सुख की आशा करते हें।
४. यज्ञ के पिता, स्तोताओों के बलदाता, ऋष्विकों के झानहेतु
और यज्ञादि कर्मा के साधनभूत अग्नि पार्थिव और वद्यतादि रूप के
हारा द्यावा-पूथिवी में प्रवेश करते हुँ । अत्यन्त प्रिय और तेजस्वी अग्नि
यजसान-द्वारा स्तुत होते हें।
५. आह्वादक, आह्वःदजनक रथवाले, यिङ्गलबण, जल के बीच
निवास करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वत्र व्याप्त, शीघ्रगामी, बलशाली, भर्त
और दीय्तिदाले वश्वानर अग्नि को देवों ने इस लोक में स्थापित
किया हँ ।
६. जो यज्ञ-साथक देवों और ऋत्विकों के साथ कर्से- द्वारा यजः
सान के नानाविध यज्ञों का सम्पादन करते हें, जो वेता, शीघ्रयामी,
हिन्दी-ऋणष्वेद ३६१
दानशील और शत्रुओं के नाशक हें, बे ही अग्नि छावा-पृथिवी के बीच
जाते हें।
७. हम सुपुत्र ओर दीघे आयु प्राप्त करेंगे; इसलिए, है अग्नि,
तुम देवों की स्तुति करो। अक्न-द्वारा उन्हे प्रीत करो । हसारे धान्य
के लिए भली भाँति वृष्टि को संचालित करो। अन्न दान करो। दहा
जागरण-शील आग्नि, तुम महान् यजमान को अन्न दो; क्योंकि हु
सुकर्मा और देवों के प्रिय हो।
८. मनुष्यों के पति, महान् , अतियि-भूत, इ दि-नियन्ता, ऋत्विकों
के प्रिय, यज्ञ के ज्ञापक, वेगयुक्त और सर्वभूतज्ञ अग्नि की नेवा लोग
समृद्धि के लिए नमस्कार और स्तुति के द्वारा प्रशंसा करते है।
९. दीप्तिमान, स्तूयमान, कसतीय और सुन्दर रथवाले अग्नि
बल के द्वारा सारी प्रजा को ब्याप्त करते हें। हम अनेक के पालक
ओर गृह सें निवासी अग्नि के सारे क्सो को, सुन्दर स्तोत्र-द्वारा,
प्रकाशित करंग ।
१०, विज्ञ वेश्वानर, तुम जिस तेज के द्वारा सर्वज्ञ हुए हो, में
तुम्हारे उसी तेज का स्तव करता हूँ। जन्य के साथ ही तुम यावर
पृथिवी और सारे भुवनो को व्याप्त कर लेते हो। अग्नि, दुम
अपने सारे भूतों को व्याप्त करते हो ।
११. वेश्वानर के सन्तोषजनक कर्म से महान् धन होता हुँ;
क्योंकि वे सुन्दर यज्ञ आदि कर्म की इच्छा मे यजमानों को धन देते
हुँ। बे वीर्यशाली हेँ। माता-पिता द्ावा-पृथिवी की पुजा करते हुए
उत्पन्न हुए हू ॥
४ हक
(देवता आप्ती । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे समिद्ध अग्नि, अनुकूल मन से जागो। लुम अतीव गति-
झील तेज से युक्त होकर हमारे अपर धन के लिए अनुग्रह करो।
षर २ हिन्दी-ऋग्वेद
छोतमाव अग्नि, देवों को तुम यज्ञ में ले आओ । अग्नि, तुम देवों के
सखा हो । अनुकूल मन से मित्र देवों का यज्ञ करे।
२. वरुण, सित्र और अग्नि जिन तनूनपात नासक अग्नि का,
प्रतिदिन तीन बार करके, यज्ञ करते हुँ, वे ही हमारे इस जरू-कारण
यज्ञ को वृष्टि आदि फल दें।
३. देवों के आह्वानकारी अग्नि के पास सर्वजन-प्रिय स्तुति गमन
करे। इला, प्रसन्नता उत्पन्न करने के लिए, प्रधान, अतीव अभीष्टवर्षी
और वन्दनीय अग्नि के पास जायँ। यज्ञकर्म सें कुशल अग्नि, हमारे
दारा प्रेरित होकर यज्ञ करें।
४. अग्नि और बहिरूप अग्नि के लिए यज्ञ में एक उन्नत मार्ग
किया हुआ हैं। दीप्तियुक्त हव्य ऊपर जाता हैँ। दीप्तिमान् यज्ञ-गृह
के नाभिप्रदेश में होता उपविष्ट हँ। हम देवों के द्वारा व्याप्त कुश
को बिछायेंगे।
५. जल-ट्वारा संसार के प्रसन्नकर्ता देवता लोग सप्त यज्ञ में
जाते हें। वे अकपट चित्त से याचित होकर नररूपो यज्चजात (अग्नि-
रूप यञ्च-द्वार-द्वय) प्रत्यक्ष होकर हमारे इस यज्ञ में आयें ।
६. स्तूयसान अग्विख्य रात और दिन, परस्पर-संगत होकर
अथवा पृथक रूप से, सशरीर प्रकाशित होकर आयें। मित्र, वरुण
अथवा इन्द्र हमें जिस रूप से अनुगृहीत करते हें, तेजस्वी होकर, उसी
रूप को धारण करें।
७. में दिव्य और प्रधान अग्निरूष दोनों होताओं को प्रसन्न
करता हूँ । यज्ञाभिलाषी, सप्त और अञ्चवान् ऋत्विक् लोग हज्य-हारा
अग्नि को प्रसत्त करते हैं। ब्रत के रक्षक और दीप्तिशाली ऋत्विक
लोग प्रत्यक ब्रत में यज्ञरूप अग्नि को थह बात बोलते हैं।
८. भारती लोगों (सुर्य-सम्बन्धियों) के साथ अग्नि-हव भारती
आवें, देवों ओर मनुष्यों के साथ इला आयें, अग्नि भी आयें।॥
हिन्दी-ऋष्वेद ३६३
सारस्वतगणों (अन्तरिक्षस्थ बचनों) के साथ सरस्वती भी आयें। ये
तीनों देवियों आकर सम्मुखस्थ कुश पर बेठें।
९. अग्निरूप त्वष्ठा देव, जिससे वौर, कर्मकुशल, बलशाली, सोसा-
भिषव के लिए प्रस्वर-हस्त और देवाभिलाषी पुत्र उत्पन्न हो सके
सन्तुष्ट होकर तुम हमें वेसा ही त्राण-कुशछ ओर पुष्टिकारी वीर्य
प्रदान करो ।
१०. अग्निरूप वनस्पति, तुम देवों को पास ले आओ। पशु के
संस्कारक अग्नि (वनस्पति) देवों के लिए हव्य दें। वे ही यज्ञ-रूप
देवता लोगों को बुलानेवाले अग्नि यज्ञ करें; क्योंकि वे ही देवों का
जन्म जानते हें।
११. अग्नि, तुम दीप्ति-युक्त होकर इन्द्र और शीघ्रताकारी देवों
के साथ एक रथ पर हमारे सामने आओ । सुपुत्र-युक्ता अदिति हमारे
कुश पर बेंठें। नित्य देवगण अग्निरुप स्वाहाकारवाले होकर तृप्ति
प्राप्त करे ।
५ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द॒ त्रिष्ठुप।)
१. अग्नि उषा को जानते हैं। मेधावी अग्नि ज्ञानियों के मागे
पर जाने के लिए जागते हें। अत्यन्त तेजस्वी अग्नि देवाभिलाषी
व्यक्तियों के दवारा प्रदीप्त होकर अज्ञान का द्वार उद्घाटित करते हेँ।
२. पुज्य अग्नि स्तोताओं के स्तोत्र, वाक्य और मंत्र-द्वारा वृद्धि
पाते हैँ। देव-दूत अग्नि अनेक यज्ञों में दीप्ति प्राप्त करने की इच्छा
से प्रातःकाल प्रकाशित होते हें।
३. यजमानों के मित्र, यज्ञ के हारा अभिलाषा पूरी करनेवाले
और जल के पुत्र अग्नि मनुष्यों के बीच स्थापित हुए हैं। अग्नि
स्पृहणीय और यजनीय हँ । वे उन्नत स्थान पर बेठ हें। ज्ञानी अग्नि
स्तोताओं की स्तुति के योग्य हुए हुँ।
३६४ हिन्वी-ऋग्वेद
४. जिस समय अग्नि समिद्ध होते हं, उस समय मित्र बनते
हुँ। वे ही, मित्र होता और सर्वज्ञ वरुण हैं। वे ही, मित्र,
दानशील अध्वर्य और प्रेरक वायु हुँ। वे नदियों ओर पतों के
मित्र हैं
५. सुन्दर अग्नि सर्वव्याप्त पृथिवी के प्रिय स्थान की रक्षा करते
हैं। महान् अग्नि सुर्य के बिहर्ण-स्थान अन्तरिक्ष की रक्षा करते
है। अन्तरिक्ष के बीच सस्तो की रक्षा करते हैं। बे देवों के प्रस-
चता-कारक यज्ञ की रक्षा करते हें।
६. महान् और सारे ज्ञातव्यो के ज्ञाता अग्नि प्रशंसनीय और सुन्दर
जल उत्पन्न करते हुँ । अग्नि के निद्रित रहने पर भी उनका चर्म या
रूप दीप्तिमान् रहता हूँ। वे अग्नि सावधानी से उसकी रक्षा करते हें ।
७. दीप्तिमानू, विशेष रूप से स्तुत और स्वस्थान-प्रिय अग्नि
अधिरूढ़ हुए हें। दीप्तिशाली, शुद्ध, महान् और पवित्र अग्नि माता-
पिता द्यावापृथिवी को नवीनतर करते हुँ।
८. जन्म लेते ही अग्नि ओषधियों-द्वारा धृत होते हें। उस समय
पथ-प्रवाह्ति जल की तरह शोभित ओषधियाँ जल-द्वारा वर्धित होकर
फल देती हैं। माता-पिता द्यावा-पृथिवी के कोड़ में बढ़कर अग्नि हमारी
रक्षा करें।
९. हमारे द्वारा स्तुति और दीप्ति-द्वारा महान् अग्नि ने पृथिवी
की नाभि वा उत्तर वेदी पर स्थित होकर अन्तरिक्ष को प्रकाशित
किया हें । सबके मित्र और स्तुति-योग्य अरणि-प्रदीप्त अग्नि देवों के
दुत होकर यज्ञ में देवों को बुलायें ।
१०. जिस समय मातरिश्वा ने भूगुओं वा आदित्य-रश्मियों के
लिए गुहास्थित और हुव्य-वाहक अग्नि को प्रज्वलित किया था, उस
ससय तेजस्वियों में श्रेष्ठ महन् अग्नि ने तेज-ट्रारा स्वगे को स्तब्ध
किया था।
।हन्दी-ऋग्येद ३६५
११. अग्नि, तुम स्तोता को अनेक कर्मौ के हेतुभूत और घनु-
वदात्री ससि सदा प्रदान करो । हमारे बंध क बिस्तारक और सन्ततिः
जनयित एक पुत्र हो । हमारे प्रति तुम्हारा अनुब्वह हो ।
६ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द् त्रिष्टुप्)
१. यज्ञकर्ता लोग, तुम सोमाभिलायी हो । मंत्र-द्वारा प्रेरित होकर
तुम देदार्चन-साघक सुक ले आओ। जिसे आहवनीय अग्नि की
दक्षिण दिशा में ले जाया जाता है, जिसके अन्न है, जिसका अप्र भाग पुर्व
दिशा में हे और जो अग्नि के लिए अन्न धारण करता है, बही घृत-
युक्त खक जाता हें।
२, जन्म के साथ ही तुस द्याबा-पृथिवी को पूर्ण करो। याग-योग्य,
सहिमा-द्वारा तुम अन्तरिक्ष और पृथिवी से प्रकृष्टतर होओ ओर
तुम्हारे अंशभूत विशिष्ट अग्नि--सप्त जिह्लायं--पूजित हों।
३. अग्नि, तुम होता हो। जिस समय देवाभिलाषी और हव्य-
थकत मनुष्य तुम्हारे दीप्त तेज की स्तुति करते हु, उस समय अन्तरिक्ष,
पृथिवी और यज्ञाहे देवगण, यज्ञ-सम्पादन के लिए, तुम्हारी स्तुति
करते हेत
४. महात् और यजमानों के प्रिय अग्नि, झावा-पूथिवी के बीच,
सहिमावाले अपने स्थान पर, बैठे हैं। आक्सणशील, सपत्वीभूता,
जरारहिता, अहिलिता और क्षीरप्रसविनी झादः-पृथिदी अत्यन्त गमन-
शील अग्नि की गाये हैँ ।
५. अग्नि, तुम सर्वोत्कृष्ट हो। तुम्हारा कर्म महात् है। तुमने यज्ञ-
द्वारा द्यावा-पुथिवी को विस्तृत किया है। तुम हूत हो। अभीष्टवर्षी
अग्नि, उत्पन्न होने के साथ ही तुम यजमान के नेता बचो।
६. यतिमान् अग्नि, प्रशस्त केशवाले, रज्जुयुक्त ओर घृतस्रावी
रोहित नामक दोवों घोड़ों को यज्ञ के सम्मुख योजित करो।
३६६ हिन्दी-ऋष्वे द
अनन्तर तुम सारे देवों को बुलाओ॥ सर्वेभूतज्ञ, तुम उन्हें सुन्दर
यज्ञ-युदत्त करो ।
७. अग्नि, जिस सभय तुम चच में जळ का शोषण करते हो,
उस समय सूर्य से भी अधिक तुम्हारी दीप्ति होती हे। तुम भली
भाँति प्रकाशमाच पुरातन उषा के पीछे शोभित होते हो। स्तोता लोग
स्लुतियोग्य होता अग्वि की स्तुति करते हुँ।
८. विस्तीणं अन्तरिक्ष में जो देवगण हृष्ट हें, आकाश की दीप्ति
में जो सब देवता हैं, उस संज्ञक जो यजनीध पितर लोग भली भाँति
आहुत होकर आगमन करते हैं; रथी अग्नि के जो सब अइव हुँ---
९. अग्नि, उक्त सब देवों के साथ एक रथ अथवा नाना रथों पर
चढ़कर हमारे सामने आओ; क्योंकि तुम्हारे अश्वगण समर्थ हैं। ३३
देवों को, उनकी स्त्रियों के साथ, अच्च के लिए, ले आओ और सोस-
द्वारा हृष्ट करो ।
१०. विशाल द्यावा-पृथिवी, प्रत्येक यज्ञ में, समृद्धि के लिए, जिन
अग्नि की प्रशंसा करती हें, वे ही देवों के होता, सुरूपछ जल्वती
ओर सत्यस्वल्पा छावा-पूथिवी, यज्ञ की तरह, सत्य से उत्पन्न होता
अग्नि के अनुकूल हैं ।
११. अग्नि, तुम स्तोता को अनेक कर्मो के हेलुभूत और घनुदात्री
पसि सदा दो। हमारे वंश का विस्तारक और सन्ततिजवयिता एक
पुत्र दो । अग्नि, हमारे प्रति तुम्हारा अनुग्रह हो ।
अष्टस अध्याय समाप्त ।
द्वितीय अष्ठक समाप्त ॥
(३ मण्डल । १ अध्याय । १ अनुवाक । देवता अग्नि। ऋषि तृतीय
सण्डल के विश्वामित्र ओर उनके वंशोद्धब । यहाँखे
१२ सूक्त तक के ऋषि स्वयं विश्वामित्र । छन्द त्रिष्डुप् ।)
३चेत पृष्ठ्वाले और सबके धारक अग्नि की जो किरणें उत्तमता
के साथ उठती हें, वे मातू-पितु-ङषः घावा-पृथिवी की चारों दिशाओं में
प्रविष्ट होती हैं, सात नदियों में भी प्रविष्ट होती हे । चारों ओर वत्तं-
सान मातृ-पितू-भूता द्यावा-पृथिबी भली भांति फेली हें और अच्छी तरह
यज्ञ करने के लिए अग्नि को दीर्घजीवन प्रदान करती है ।
२. शुलोकवासी धेनु ही अभीष्टवर्षी अग्नि का अदव है । मधुर- `
जल-वाहिती और प्रकाझवती नदियों में अग्नि निवास करते हें ।
अग्नि, तुम ऋत या सत्य के गृह में रहना चाहते और अपनी ज्वाला देते
हो । अग्नि, एक गौ या मध्यसिकर वाक् तुम्हारी सेवा करती हे ।
३. धर्मों में श्रेष्ठ धन के स्वासी, ज्ञानदान और अधिपति अग्नि
सुख ते संयमनीय वड़वाओं में चढ़ गये । इवेत पृष्ठवाले और चारों
ओर प्रसृत अग्नि ने वड़बाओं को, सतत गसन करने के लिए, छोड़
दिया ।
४. बलकारिणी और प्रचहमाना नदियां अग्नि को धारण करती
हैं। वे महान, त्वष्टा के पुत्र, जरारहित और सारे संसार को धारण
करने के अभिलाषी हें । जसे पुरुष एक स्त्री के पास जाता हुँ, वेते
ही अग्नि जल के पास प्रदीप्य होकर धावा-पृथिकी सें प्रवेश करते हूँ ।
३५७
३६८ हिन्दी-ऋण्वेद
५. लौंग अभीष्डवर्षी और अहिसक अग्नि के आश्रय-जन्य सुख
की जानते और सहान् अग्नि की आशा में रत रहते हुँ। जिन मनुष्यों
के श्रेष्ठ स्तुति-हप वाक्य गणनीय होते हैं, वे चुलोक के दीप्तिकर्ता
और शोभन दीप्ति-युक्त होकर देदीप्यसान होते हैं ।
६. महान् से सी महाम् मातृ-पितु-स्थानीय द्यावा-पृथिवी के ज्ञान के
घदचात् ऊचे स्वर में की गई स्तुति से उत्पन्न सुख अग्नि के निकट
जाता है । जलसेचनकर्ता अग्नि रात्रि के चारों ओर व्याप्त स्वकीय तेज
स्तोता के पास भेजते हें ।
७, पाँच अध्वर्यु के साथ सात होता गमनशील अग्नि के प्रिय
स्थान की रक्षा करते हैं। सोमपान के लिए पूर्वं की ओर जानेवाले
अजर और सोम-रसवर्षी स्तोता लोग प्रसन्न होते हैं; क्योंकि देवता
छोग देव-तुल्य स्तोताओं के यज्ञ में जाते हें ।
८. देव्य-होत्-द्रय-स्वलूप दो मुख्य अग्नियों को में अलंकृत करता
हुँ। सात जन होता सोम-द्वारा प्रसन्न होते हैं । स्तोत्रकर्ता, यज्ञ-रक्षक
और दीप्तिशाली होता लोग अग्नि ही सत्य हैं,” ऐसा कहते हें ।
९. हे देदीप्यमाव और देवों को बुळानेवाले अग्नि, तुम महान् ,
सबको अतिक्रम करके रहनेवाले, सावा वर्णोवाले और अभीष्टवर्षक
हो । तुम्हारे लिए प्रभूत, अतीव विस्तृत और सर्वत्र व्याप्त ज्वालायें
बृष के ससान आचरण करती हें । तुम मावयिता और ज्ञानी हो ।
तुम पूज्य देवों और द्यावा-पृथिवी को इस कसे में बुलाते हो ।
१०. सतत गमनशील अग्नि, जिस उषाकाल में भली भाँति अन्न-
द्वारा यज्ञ प्रारम्भ किया जाता हे, जो उषाकाल शोभव-वाक्ययुक्त तथा
पक्षियों और मनुष्यों के शब्दों से युचिद्धित है, वही सब उषाकाल
तुम्हारे लिए धवधुकत होकर प्रकाशित होते हैं । हे अग्नि, अपनी बिशाल
महिम के कारण तुम यजमान के किये पाप का नाश करते हो ।
११. अग्नि, स्तोता को तुम अवेक कर्सो की कारणभूता और धेनु-
प्रदात्री भूमि अथवा गो-रूय देवता सदा प्रदान करो । हमें बंशविस्तारक
दर्दी -तहग्वेद ३६९
और सन्तति-जनयिता एक पुत्र हो । अग्निदेव, हमारे प्रति तुम्हारा
अनुग्रह हो ॥
८ सूक्त
(इस सूक्त के देवता यूप । ११ वीं ऋचा के छिन्न यूप के देवता
धूलभूत स्थाणु । ८ म के देवता विश्वदेव या यूप । छठी ऋचा
से लेकर सारी ऋचां के देवता विविध यूप। अवरिष्ट
ऋचां के देवता एक यूप । छन्द अनुष्टुप और त्रिष्टुप् |)
१. बनस्पतिदेव, देवों के अभिलाडी अध्वय लोग देव-सस्बन्धी
सधु-दरारा ठुम्हें सिवत करते हें। तुम चाहे उन्नत भाव से रहो अथवा
सातूनमूत पृथिवी की गोद में ही शयन करो, हमें धन दो ।
२. यूप, दुस समिद्ध अथवा आःहवनीय नामक अग्नि की पूर्व दिल्ला
सं रहकर अजर, सुन्दर और अपत्ययुक्ल अन्न देते हुए तथा हमारे पाप
को दूर करते हुए महती सस्पत्ति के लिए उन्नत होओ ।
३. बनस्पति, तुम पृथिरी के उत्तर यज्ञ-प्रदेश में उन्नत होओ ।
तुम दुःदर परिसाण से युक्त हो। यज्ञ-बिर्वाहक को अन्न दान करो ।
४. दृढ़ाड़, चुन्दर जिह्वावाला तथा जिह्वा से परिवेष्टित यूप
आता है । बह यूप ही, समस्त दनस्पतियों की अपेक्षा, उत्तम रूप से
उत्पन्न हे । ज्ञाची मेधादी लोग हृदय से देवों की इच्छा करके सुन्दर
ध्यान के साथ उसे उन्नत करते हैं ।
५. पृथिवी पर वृक्ष रूप से उत्पन्न यूप मनुष्यों के साथ यज्ञ सें
सुशोभित होकर दिनों को सुविन करता है । कर्सनिषठ और विद्वान्
अध्वयु लोग यथाबुद्धि उसी यूप को प्रक्षालन-द्वारा शुद्ध करते हैं ।
देवों के याजक और मेधावी होता वाकय वा मन्त्र का उच्चारण करते हें ।
६. यूपी, देवाभिलाषी और कर्मों के वायक अध्वर्यू आदि ने
तुम्हें गड्ढे नें फेक दिया है ! बनस्पति, कुठार ने तुम्हें काटा है। तुस
पए २४
३७० हिन्वी-ऋरबेद
दीप्तिमान् और काव्ठ-खण्डवाले हो । हमं आपत्य के साथ उत्तम
धन दो ।
७. जो फरसे से भूमि पर काट जाते हैं, जो ऋत्विकों-दारा
गडढे में फेंके जाते हें और जो यज्ञ के साधक हैं, वे ही सब यूप देवों
के पास हमारा हव्य ले जायें ।
८, सुन्दर नायक आदित्य, इब्न, वस्तु, आाणान्पूर्थिी और बिल्तीणं
अन्तरिक्ष, ये सब मिलकर यज्ञ की रक्षा करे और यज्ञ की ध्वजा यूप
को उन्नत करे ।
९, दीप्त वस्त्र से आच्छादित, हंस की तरह शणीपूर्वक गमन
करनेवाले और खण्ड-युक्त दय हसरे पास आये। मेघाबी अध्वर्यू आदि
के द्वारा यज्ञ की पूर्व दिशा में उच्चीयमान तथा दीप्तिशाली सारे यूप
देवों का मागे प्राप्त करते हँ ।
१०, स्वर्पवाले और मुक्तकण्टक यूप पृथिवी के शुद्धी पशुओं
की सींग की तरह भली भाँति दिखाई देते हें । यज्ञ में ऋत्विकों की
स्तुतियाँ सुननेदाले यूप युद्ध में हमारी रक्षा करें ।
११. हे छिन्नधूरू स्थाणु, इस तीखी धारवाले फरसे चे तुम्हें महान
सौभाग्य प्रदान किया है । दुम हजार शाखाओंचाले होकर भली भांति
उत्पन्न होओ । हम भी हजार शाखाओंबाले होकर भलो भाँति प्रादु-
भूत हों ।
९ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द त्रिष्टुप् ओर इहृती ।)
१. अग्नि) तुम जल के नप्ता, सुन्दर घनवाले, दीप्तिमानू, निर"
पद्रवी और संसार के प्राप्तव्य हो। हम तुम्हारे सित्रभूत मनुष्य हें।
अपनी रक्षा के लिए तुम्हें हम वरण करते हैं।
२. अग्नि, तुम सारे वनों की रक्षा करते हो। तुम मातृ-रूप
जल में पेठकर शान्त होओ । तुम्हारा शान्त भाव सदा नहीं सहा जाता;
इसलिए दुस दूर में रहकर भी हमारे काठ के बीच उत्पन्न होते हो।
हिन्दी-ऋष्वेद ३७१
३. अग्नि, स्तोता की अभिलाया को तुम विशेष रूप से बहन करने
गे इच्छा करते हल 11 तुस सन्तुष्ट रहते हो । तुम जिन १६ ऋत्विकों
के साथ मित्रता के साथ रहते हो, उनमें से कुछ विज्ञेष-रूप से होम
करने के लिए जाते हु; अवशिष्ट मनुष्य चारों ओर बँठते है ।
४. गृहा-स्थित सिह की तरह जल में छिपे हुए तथा शत्रुओं
और बहुसेनाओं को हरानेवाले अगवि को द्रोह-रहित और चिरन्तन
दिइ्वदेवों ने प्राप्त किया था।
५. जैसे स्वच्छन्दयायी पुत्र को पिता खींच रे आता है, वैसे ही
मातरिश्वा स्वेच्छा से छिपे हुए और मन्थचन-द्रारा प्राप्त अग्नि को देवों
के लिए लाये थे।.
६- मनुष्यों के हितेषी और सदा वर्ण अग्निदेव, अपनी महिमा से
तुम सारे दक्ष का विशेष रूप से पालन करते हो। इसलिए है हुव्यदाहन,
मनुष्यों चे तुम्हें देवों के लिए ग्रहण किया है ।
७. अग्नि, चूँकि सायंकाल में तुम्हारे समिद्ध होने पर तुम्हारे पास
सारे पशु बठते हैं; इसलिए तुम्हारा यह सुन्दर कर्म बालक की तरह
अज्ञ को भो फलप्रदान करके सन्तुष्ट करता हे ।
८. पवित्र दौप्तिवाले, काष्ठादि के बीच सोये हुए और सुकर्मा
अग्नि का होम करो । बहुब्याप्त, दूतस्वरूप, शी घरयासी, पुरातन,
स्तुतियोग्य और दोष्तिमान अग्नि की शौख्र पजा करो ।
९. तोन हजार तीन सौ उचतालीस देवों ने अग्नि की पूजा की
हैं, घुतन्द्वारा उन्हें सिक्त किया है और उनके लिए कुश विस्तृत किये
दूँ । पश्चात् उन्होंने अग्नि को होता भानकर कुशो के ऊपर बढाया है *
१० सूक्त
(देवता अग्नि । छुन्द् उष्णिक |)
१. अरिनदेव, ठुर प्रजाओं के अधिपति और दीप्तिमान् हो । तुम्हें
बुद्धिनन् मनुष्य उद्दीष्त करते हें
३७३ हिन्दी-ऋष्वेद
पै
२. अग्नि, ठुम होता और ऋइत्विक हो । यज्ञ में अध्वय तुम्हारी
स्तुति करते हैं। यज्ञ के रक्षक होकर अपने गृह (यज्ञशाला) में दीप्त होओ।
३. अग्निदेव, तुम जातवेदा (प्राप्त-बुद्धि) हो । तुम्हें जो यजमान
ससिन्धवकारी हव्य प्रदान करते हें, बहु चुवीद पुत्र प्राप्त करते और
पञ्षु, पूत्र आदि के द्वारा लमिड होते हैँ ।
४. यज्ञ के अ्रज्ञापक बही अहित दा
यजमान के लिए, देवों के साथ आय ।
५. ऋत्विको, सेधावी व्यक्तियों का तेज धारण करनेवाले, संसार
के विधाता और देवों को बुळायेजाले अग्नि को लक्ष्य करके तुम लोग
सहान् ओर प्राचीन ददथ का सस्पादन करो ।
६, महान् अन्न और घन के लिए अर्ति दर्शवीय हैं । जिउ वाइय
के द्वारा अग्नि प्रशंसनीय होते हे, हमारा वही ह्तुति-रूप वाकय उन्हें
वद्धित करे ।
७. अग्नि, तुम यज्ञ-कर्ताओ में श्रेष्ठ हो । यज्ञ में यजमातों के
लिए देवों का याय करो । अग्नि, तुन होता और पजमातों के ह्षदाता
हो । तुम झत्रुओं को हराकर शोभा पा रहे हो ।
८. पावक, तुम हमें कान्तिवाळ और शोभन झक्तिवाला घन
दो । स्तोताओों के कल्याण के लिए उनके पाल जाओ ।
९. अग्नि, हृव्यवाहुक, असर आर मंधन-रूप बळन्हार तुस वर्ड
सान हो । प्रबुद्ध मेधादी स्तोता कोग उुब्हें अली भाँति उद्दीप्त करते
११ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द गायत्री |)
१. अग्निदेव होता, पुरोहित और यज्ञ के बिशेष दष्टा हें । दे
यज्ञ को क्रमबद्ध जानते हँ ।
२. हुव्यवाहक, अमर, हव्याभिलाषी, देवों के दूत और अन्नप्रिय
अन्नि प्रज्ञावान् हो रहे हूँ ।
4 0074 2.
<
३७३
३. यज्ञ के क्रेतुल्वरकूप और श्राचीन अर्ति, प्रज्ञा के बल वे, सब कुछ
ज्ञानते हैं । इंन अध्नि का तेज अन्धकार का विनाश करता हुँ ।
४. बल के पुत्र, सबाल कहकर प्रसिद्ध तथा जातवेदः अगिन को
देवों ने हुव्यबाहक किया हु ।
५. सनध्यों के नेहा, शीघ्रकारी, रथ के समान और सदा नवीच
अग्नि की कोई हिसा नहीं कर सकता ।
३. सारी शत्रुन्सेना के बिजेता, शतन्रुओंब्दारा अवध्य और देवों के
पोषणकर्ता अग्नि, यथेष्ट मात्रा में, विविध अज्चों से युक्त हें ।
७. हव्यदाता ननुष्य हव्यवाह अग्बिन्ट्वारा सारे अन्न प्राप्त करता
है । ऐसा मदुष्य पवित्रकारक और दीप्ति-विश्विब्द अग्नि के पास से
गृह प्राप्त करता हैं ।
८, हस मेधावी और जातबेदा अस्ति के स्वोचों-दारा सभस्त
अन्िलक्ति घन प्रप्त कर दक ।
९. अग्रि, हम सारे अ'िलदणीय धन प्राष्त कर सकें। देवता
लोग तुम्हारे ही भीतर प्रविष्ट हुए हें ।
१२ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि । छन्द गायत्री ।)
१. हे इन्द्र ओर अर्ति, स्तुि-्ारा आहूत होकर दुम लोग
स्वर्गं से तैयार किये हुए और दरणीय इस सोस को लक्ष्य कर आओ ।
हमारी चदित के कारण आकर इस सोल का पान करो ।
२. इन्द्र और अग्नि, स्तोदा का सहायक, यज्ञ का साधक और इन्द्रियों
का ह्ष-वद्धेक सोम जाता हें । इस अभिषुत सोस का पान करो ।
३. यज्ञ के साधक सोम-्डारा प्रेरित होकर स्तोताओं के सुखदाता
इन्द्र और अग्नि की में सेवा करता हूँ । वे इस यज्ञ में सोसवान
करके तृप्त हो ।
र्त
र्र
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३७४ हिन्दी-ऋष्देद
४. में शत्रु-ताशक, वृत्र॒हन्त,, विजयी, अपराजित और प्रचुर
परिमाण में अन्न देनेवाले इन्द्र और अर्ति को बूलाता हुँ ।
५. हे इन्द्र और अग्नि, सन्त्र-शाली होकर लोग तुम्हारी पूजा करते
हुँ। स्तोत्र-ज्ञाता स्तोता लोग तुम्हारी अर्चना करते हें। अन्न-प्राप्ति
के लिए में तुम्हारी पूजा करता हुँ ।
६- इन्द्र और अग्नि, तुम लोगों ने एक ही बार की चेष्टा से
दासों के नव्ये नयरों को एक साथ कम्पित किया था ।
७. इन्द्र और अग्नि, स्तोता लोग यज्ञ के मागं का लक्ष्य करके
हमारे कर्म के चारों ओर आते हें ।
८. इख और अग्नि, तुम्हारा बल और अन्न तुम दोनों के वीच
में, एक साथ ही हुं। वृष्टि-प्रेरण-कायं तुम्हीं दोनों के बीच
निहित हुँ ।
९. इन्द्र ओर अग्नि, तुम स्वग के प्रकाशक हो ॥ तुम युद्ध में
सर्वत्र विभूषित होओ । तुम्हारी सामथ्ये उस युद्ध-विजय को भली
भाँति विदित करती हुँ ।
शसक्त
२ अनुवाक । देवता अग्नि । ऋषि १३-१४ सुक्त के विश्वासित्र
के पुत्र अपत्य । छन्द॒ अनुष्टुप् ।)
१. अध्वर्युओ, अग्निदेव को लक्ष्य करके यथेष्ट स्तुति करो । देवों
के साथ बह हमारे पास आयें । बाजक-अ्रेष्ठ अग्नि कुश पर बेठें ।
२. जिनके वश में द्यावा-प थिवी हें, जिनके बल की सेवा देवता
लोग करते हे, उनका संकल्प व्यर्थ नहीं होता ।
३. वे ही मेधावी अग्नि इन यजसालों के प्रवर्तक हें। वे य
प्रवर्तक हु । वे सबके प्रवर्तक हैं अग्नि कर्मफल और धन
दाता हें । तुम उन अग्नि की सेदा करो ।
“०.
द
कै
हिरदीन्क्रसवेद ३७५
४. वै अब्नि हमारे भोग के लिए अतीव सुखकर गृह प्रदान
करें! ससद्धि-यक्त पृथिवी आकाश ओर स्वर्गलोक का धन अग्नि के
पात से हमारे पास आथे ।
५. हतोता लोग दीप्तिसाळू, प्रतिक्षण नवीन, देवों के आह्वानकारी
और प्रजाओं के पालक अग्वि को श्रेष्ठ स्तुतिनद्वारा उद्दीपित
करते हैं ।
६. अस्विदेव, स्तोत्र-समय में हमारी रक्षा करो । तुम देवों के प्रधान
आह्वानकर्ता हो। सन्त्रोच्चारण-काल सें हमारी रक्षा करो। ठुम हजार
घनों के दाता हो। सरुत लोग तुम्हें वादित करते हैं । तुम हमारे सुख
की वृद्धि करो ।
७. अग्नि, तुस हमें पृत्र-युक्त, पृष्टिकारक, दीप्तिसान्, सामर्थ्यशाली,
अत्यधिक और अक्षय्य सहुस्नसंस्यक घन दो ।
१४ सक्त
~
(देवता अग्नि । छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. देवों के! बुलामेबाऊे, स्तोताओं के अनन्दव्धक, सत्यघ्रतिज्ञ,
पञ्चकारी, अतीव मेधा और संसार के विधाता अग्नि हमारे यज्ञ में
अवस्थान करते हुँ । उनका रथ तिसान् हैं उनकी शिखा उनका
केश हुँ। वे बल के पत्र हें। थे पृथिवी पर प्रमा को प्रकट
करते हुँ ।
२. यज्ञान् अग्नि, तुम्हें लक्ष्य करके नमस्कार करता हुँ । तुम
बलवान् और कर्मझायक हो । तुम्हें लक्ष्य करके नमस्कार किया
जाता है, उसे ग्रहण फरो । हे यजनीय, तुम विद्वान् हो; विद्वानों को
ले आओ । हमें आश्रय देने के लिए कुश पर बेठो ।
३- अन्न-तस्पादक उषा और रात्रि तुम्हें लक्ष्य करके जापे हें। अध्नि,
बायुमाग से तुस उनके सम्मुख जाओ; क्योंकि ऋत्विक् लोग हव्य-
३७६ हहत्वीन्त्रटरवेद
द्वारा पुरातन अग्नि को भली भाँति सिक्त करते हुँ। युगट्टय की तरह
परस्पर संतत उवा और रात्रि हमारे घर में बार-बार आकर रहें ।
४. बलवान् अग्नि, मित्र, वरुण और सारे देवता ठुम्हें लक्ष्य करके
स्तोत्र करते है; क्योंकि हे बल के पुत्र अग्नि, तुम्हीं सूर्यं या स्वामी हो ।
सनुष्यों की पथ-प्रदशेक किरणों को फैलाकर प्रचा में समानत स्थित हो ।
५. अग्नि, आज हाथ उठाकर हम ठुस्हं शोभन हव्य प्रदान करेंगे ।
तुम मेधावी हो। नमस्कार से प्रसन्न होकर तुम अपने सन सें यज्ञा-
भिलाष करते हुए प्रभूत स्तोत्रों-हारा देवों की पुजा करो!
६. बल के पुत्र अग्नि, तुम्हारे पास से होकर यजसान के पास
प्रभूत रक्षण जाता है; अच भी जाता हुँ । प्रिय बचव-हारा तुम हसे
अचल ओर सहत्न-संस्यक घन दो।
७. हे समर्थ, सर्वज्ञ और वीप्तिमान् अग्निदेव, हम मनुष्य हुँ । हम
तुम्हें उद्देश्य करके यज्ञ में यह जो हव्य देते हैं, हे असर; वह सब हुब्य
तुम आस्वादित करो और सारे यजमानो की रक्षा करने के लिए जाग-
रित होओ ।
१५ छत
(देवता अग्नि। १५ ओर १६ सृक्तो के ऋषि कतगोत्रोत्पन्न
उत्झील। छन्द त्रिष्डुप् ।)
१. अर्निदेव, विस्तीर्ण तेज के द्वारा तुम अतीव प्रकाशवान हो।
तुम शत्रुओं और रोग-रहित राक्षतों का दिवाश करो; अग्निदेव उत्कृष्ट,
सुखदाता, महान् और उत्तम आह्वानवाले हें। में उनके ही रक्षण में
रहेगा।
२. अग्निदेव, तुस उषा के प्रकट होने और सूर्य के उदित होने पर
हमारी रक्षा के लिए जागरित होशो । अग्निदेद, तुम स्वयम्भू हो। जँसे
पिता पुत्र को ग्रहण करता हुँ, बेले ही ठुम हमारे स्तोम को ग्रहण
करो ।
२७७
३. अभीष्ट-वर्षक अग्नि, तुन सतुण्यों के दर्शक हो । तुम अंधेरी
रात में अधिक दीष्तिमान् होते हो। हुम बहुत ज्याला बिस्तृत करते
हो। हे पिता, हसे कर्सफल प्रदान करो। हमारे पाप झा तिवारण
करो । युवक अग्नि, तुस हमें घनाभिलाषी करो ।
४. अग्नि, शत्रु लोग तुम्हें परास्त नहीं कर तकते। तुम अभीष्ट”
वर्षक हो । तुम सारी झन्रु-पुरी और धन जीत करके प्रदीप्त होओ। हे
सुप्रणोत और जातवेदा अग्नि, तुन महान्, आश्रयदाता और प्रथस
यज्ञ के निर्वाहक होओ।
५. हे जगज्जीणेंकर्ता अग्निदेव, तुस सुमेधा और दीप्तिनान् हो ।
देवों के लिए तुम सारे कर्यो को छिंद्र-रहित करो । अरिनदेव, तुम यहीं
ठहरकर रथ की तरह देवों को लक्ष्य करके हमारा हव्य वहन करो।
तुम ावा-पूथिवी को उत्तम रूप से युक्त करो ।
६. अभीष्टवर्षक अग्नि, तुम हमें वद्धित करो। हमें अन्न प्रदात
करो। है देव, सुन्दर दीप्ति-दारा तुस सुशोभित होकर देवों के साथ
हमारी द्यावा-पृथिवी को दोहन के योग्य बनाओ। मनुष्यों की दुर्बद्धि
हमारे पास न आये ।
अग्निदेव, तुन स्तोता को अनेक कर्मो की कारणोलूत और
धत-प्रदात्री भूमि सदा प्रदाच करो । हमें बंझ-वद्धक और सन्तति-जनक
एक पुत्र प्राप्त हो। अग्निदेव, हमारे अति तुम्हारा अदृग्रह हो।
१६ सूक्त
(दैवता अग्नि । छन्द बृहती ।)
१. अग्निदेद उत्तम सामर्थ्यवाले, भहातरेभाग्य के स्वासी, गौ आदि
डे युक्त, अयत्यवाले धन के अधिपति और वूत्रहन्ताओं के ईश्वर हैं।
२. नेता सरतो, सोसाव्यवद्धक अग्नि में सिलो। अग्नि में सुख-
बठंक धन हें। मरुद्गण सेनावाले संग्रास में शत्रुओं को परास्त करते
हुं। बे सदा ही शत्र ओं की हिसा करते हें ।
६७८ हिन्दी-ऋग्वेद
३. बहुचनशाली और अभीष्टववंक अग्नि, हमें तुम प्रभूत, प्रजायक्त
छव आरोग्य, बल और सावर्थ्यंदाला घन देकर तीक्ष्ण करो।
४. जो अग्नि संसार के कर्ता हैं, वे सारे संसार में अनुप्रविष्ठ
होते हें । भार को सहन करके अग्निदेवों के पास हव्य ले आते हैँ
अग्नि स्तोताओई के सामते आते हें, यज्ञचेताओं के स्तो में आहे हुँ
और मनुष्यों के युद्ध में आते हें ।
५. बल के पुत्र अग्नि, दुम हमें शत्रु ग्रस्त, वीर-शून्य, पशुहीन अथव
निन्दनीय नहीं करना । हमारे प्रति ट्रेष सत करो ।
६. सुभग अग्नि, तुम यज्ञ में प्रभूत और अपत्यशाली अन्न के
अघीइवर हो। हे महाधन, दुम हमें प्रभुत, सुखकर और धशोवद्धक
धन दो!
१७ सूक्त
(देवता अग्नि । १७-१८ सूक्तो के ऋषि विश्वामित्र के
अपत्य कृत । छन्द त्रिष्ठुप ।)
१. अग्नि वर्मवारक, ज्वालावाले केश से संयुक्त, सबके स्वीकरणीय
दीप्त-रूप, पवित्र और घुकतुहें। वे यज्ञ के आरम्भ सें क्रमशः प्रज्वलित
होकर देवों के यज्ञ के लिए घतादि-द्रारा सिक्त होते हैं
२. अग्निदेद, तुमने जैसे पृथिवी को हव्य दिया था; हे जातवेदा,
ठुम सर्वज्ञ हो; यलोक को जैसे हव्य प्रदान किया था, बसे ही हमारे
हृव्य के द्वारा देवों का यक्ष करो । मन् के यज्ञ की तरह हमारे इस यज्ञ
को पूर्ण करो ।
३. है जातवेदा, तुम्हारा अन्न आज्य, ओषधि और सोस कै रूप
से तीन प्रकार का हुं। है अग्नि, एकाह, अहीन और समगत नामक
तीन उबा देवतायें तुम्हारी माताये हैं। ठुझ उनके साथ देवों को हव्य
प्रदात करो । तुम विद्वान हो। तुम यजमान के सुख और कल्याण के
६ कारण बनो।
हिन्दी-ऋष्वेद ३७९
४. जातवेदा, हुम दीप्तिज्ञाली, वुदर्शन और स्तुति-्योग्य अग्नि
हो। हम तुम्हें वसस्कार करते हैं। देवों ने तुम्हें आसक्ति-शूच्य और
हव्य-वाहक दूत बनाया हुँ; अमृत की नाभि बनाया है ।
५. अग्निदेव, तुमसे प्रथम और विशेष यज्ञ-कर्ता जो होता मध्यस
और उत्तम नामक दो स्थानों पर, स्वा के साथ, बैठकर सुखी हुए
थे, हे सर्वज्ञ अग्नि, उनके धर्म को लक्ष्य करके विशेष रूप से यज्ञ करो ।
अनन्तर हे अग्नि, देवों की प्रसन्नता के लिए हमारे इस यज्ञ को धारण
करो । ॒
१८ सूक्त
(देवता अग्नि । छन्द् त्रिष्टुप् । )
१. अग्निदेव, अंसे मित्र मित्र के प्रति और माता-पिता पुत्र के प्रति
हितेषी होते हैं, बेसे ही हमारे सामने आने में प्रसक्ष होकर हितैषी बनो ।
मनुष्यों के द्रोही मनुष्य हु; इसलिए तुम विरुद्धाचारी शत्रुओं को भस्म-
सात् करो।
२. अग्निदेव, अभिभवकर्त्ता शत्रुओं को अली भाँति बाधा हो ३
जो सब शत्रु हव्य दान नहीं करते, उनकी अभिलाषा व्यर्थ कर दो।
निवास-दाता ओर सर्वज्ञ अग्नि, तुम चञङ्चल-चित्त मनुष्यों को सन्तप्त
करो। इसी लिए तुम्हारी किरणे अजर और बाघा-शन्य हों।
३. अग्नि, में धनाभिलाषी होकर तुम्हारे वेग और बल के लिए
समिधा और घृत के साथ हुव्य प्रदान करता हुँ। स्तोत्र-द्वारा तुम्हारी
स्तुति करके में जब तक रहूं, तब तक मुझे धन दो। इस स्तुति को
अपरिमित घन दान के लिए दीष्त करो!
४. बल के पुत्र अग्नि, तुम अपनी दीप्ति से दीप्तिसात् बनो।
स्तुत होकर तुम प्रशंसक विश्वामित्र के वंशघरों को धन-युदत करो,
प्रसूत अच्चदान करो तथा आरोग्य और अभय प्रदान करो । कर्सकारक
अग्नि, हुम लोग बार-बार तुम्हारे शरीर का परिमार्जन करेंगे ।
३८० हिन्दी-ऋष्वेद
५. दाता अग्नि, घनों में श्रेष्ठ धन प्रदान करो! जिस समय दुम
समिद्ध होओ, उसी समय बेला धन दो। भाव्यवान् स्तोता के गृह की
ओर अपनी रूपवती दोनों भुजाओं को, घन देवे के लिए,
पसारो !
२९ सूक्त
(देवतः अभि । १९२९ सूक्तों के ऋषि कुशिक के आपत्य
गाथी । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इदो के स्तोल., देधावी, सर्वज्ञ और अझूढ़ अग्नि को हम इस
धनज्ष में होत-झूप से स्वीकार करते हें। वे अग्नि सर्वापक्षा यज्ञ-परायण
होकर हमारे लिए देवों का यज्ञ करें। इन और अन्न के लिए बै हमारे
हव्य का ग्रहण करें।
२. अग्नि, में हुव्य-्युक्त, तेजस्वी, हब्यदाता और घृतसमन्वित
जूहू को तुम्हारे सामने प्रदान करता हूँ। देवों के बहुमावकर्त्ता अग्नि
हमारे दातव्य धन के साथ प्रदक्षिणा करके यज्ञ में सम्मिलित हों।
३० अग्ति, जिसकी तुम रक्षा करते हो, उसका मन अत्यन्त तेजस्वी
हो जाता है। उसे उत्तय अपत्यबाला धन प्रदान करो । फलदानेच्छुक
अग्नि, तुभ अतीव धनदाता हो। हम तुम्हारी महिमा से रक्षित होंगे
तथा तुम्हारी स्तुति करते हुए धनाधिपति होंगे।
४. झृतिझाव् अग्निदेव, यज्ञ-कर्ताओों ने तुमने प्रभूत दीप्ति प्रदान
की हे। अग्नि, चूँकि तुन यज्ञ में स्वर्गीय तेज की पूजा करते हो;
इसलिए देवों को बुलाओ ।
अग्तिदेव, चकि यज्ञ के लिए बे प्तिशाली ऋत्बिक् लोग
रते
यज्ञ में तुम्हें होता कहकर लिकत करते हें; इसलिए दुस हमारी रक्षा
के लिए जायो । हमारे पुत्रों को अधिक अन्न दो ।
हिन्दी-ऋषग्वैद १८१
२० सूक्त
(देवता अग्नि । छुन्द् त्रिष्टुप् । )
१. हृव्यवाहक उषा के अधिकार दुर करते समय अग्निदेव उषा;
अध्विनीकुमारों और दधिका (अश्वरूपी अग्नि) वामक देवता को ऋचा
के द्वारा बुलाते हुँ । सुन्दर दुतमान् ओर परस्पर निलित देवता लोग
हमारे यज्ञ की अभिलाषा करके उस ऋचा को सुने।
२, अग्निदेव, तुम्हारा अञ्न तीन प्रकार का हुँ; तुम्हारा स्थान
तीत प्रकार का हें। यज्ञ-सस्पादक अग्नि, देवों की उद्र-पुति ' करनेवाली
तुम्हारी तीन 'जह्वाये हु । तुम्हारे तीन प्रकार के शरीर देवों के द्वारा
अभिलषित हुँ। अप्रमत्त होकर तुस उन्हीं तीनों शरीरों के हारा हमारी
स्तुति की रक्षा करो।
३. हे द्युतिसान्, जातवेदा, मरण-शून्य और अज्ञवान् अग्नि, देवों
ने ठुम्हें अनेक प्रकार के तेज दिये हें। हे संसार के तृप्तिकर्ता और
प्राथित फलदाता अग्नि, मायावियो की जिन मायाओं को देवो मे उसे
प्रदान किया हे, बह सब तुसमें ही हैं ।
४. ऋतुकर्ता दु की तरह जो अग्निदेवों और मनुष्यों के नियन्ता
हैं, जो अग्नि सत्यकारी, वृत्रहन्ता, सनातन, सर्वज्ञ और झुतिमान्
“+
हें, चे स्तोता को, सारे पापों को लंघाकर, पार ले जय ।
५, में दधिका, अग्नि, देवी उषा, बृहस्पति, द्युतिसान् सबिता,
अदिव्य, भग, वसु, रुद्र और आदित्यो को इस यज्ञ सं बुलाता हूं।
२१ सूक्त
(देवता अभि । छन्द त्रिष्टुप्, अनुष्टुप् और बृहती |)
१, जातवेदा अग्नि, हमारे इस यज्ञ को देवों के पास समपित करो।
हमारे हुव्य का सेवन करो । है होता, बेठकर सबसे पहले मेद और
घुत के बिच्दुओं को भरी भाँति खाओ ।
३८२ हिन्दी-ऋग्बेद
२. पावक, इस साङ्ग यज्ञ में घुत से दो बिन्दु तुम्हारे और
देवों के पीने के लिए गिर रहे हें। इसलिए हसं श्रेष्ठ और
वरणीय धन दो ।
३. भजनीय अग्निदेव, तुस मेधावी हो। घृतल्ावी सब बिन्दु
तुम्हारे लिए हे । तुम ऋषि और श्रेष्ठ हो ॥ तुम प्रज्यलित होते हो ।
यज्ञ-पाळक दनो ।
४. हे सततगसतशील और शक्तिसान् अग्नि, तुम्हारे लिए सेदो-
रूप हव्य के सब बिन्दु हरित होते हें। कचि लोग तुम्हारी स्तुति
करते ह । महान् तेज के साथ आओ हे मेघादी, हमारे हव्य का
सेवन करो ।
५. अग्निदेव, हम अतीव सारन्युक्त सेद, पशु के मध्य भाग
से, उठःकर तुम्हें देंगे । निवासप्रद अग्नि, चमड़े के ऊपर जो सब बिन्दु
तुम्हारे लिए गिरते हैं, चे देवों में से प्रत्येक को विभाय करके दो ।
२२ सत्त
(देवता अग्नि । छन्द झनुष्डुपू ओर त्रिष्टुप् ।)
१. सोसामिलाषी इन्द्र ते जिच अस्ति मं अभिषुत सोन को अपने
उदर स रखा था, यंव ही अग्नि हे। हे सर्वज्ञ अग्नि, जो हव्य चाना-
रूपचाल और अइव की तरह वेगशाली हे, उसकी तुम सेवा करो ॥
सदार तुम्हारी स्तुति करता हुं ।
दजनीय अग्नि, तुम्हारा जो तेज झुलोक, पृथ्वी, ओषधियों केः
और जळ में हे, जिसके द्वारा तुमने अन्तरिक्ष को व्याप्त किया है,
वह तेज उज्ज्वल, समुद्र के समाच विशाल और मनुष्यों के लिए
दशेतीय हुँ ।
३. अग्नि, तुम थुलोक के जल के सामने जा रहे हो, प्राणात्मक
देवों को एकत्र करते हो सुर्य के ऊपर अवस्थित रोचन वान के लोक
ओर सूर्य के नीच जो जल हँ, उन दोनों को तुम्हीं प्रेरित करते हो ।
४. सिकता-संसिश्चित अग्नि, खोदाई करनेवाले हथियारों में
मलकर इस यञ्च का सेवन करें। द्रोह-रहित, रोगादिशुन्य ओर महानुँ
अञ्च हमें दान कर ।
डेट
५. अग्नि, तुमचे स्तोता को अनेक कर्मों की कारणभूत और धेनु-
प्रदात्री भूमि सदा दी । हमारे बंश का विस्तारक और लब्तति-जच-
चिता एक पुत्र हो ॥ अग्नि, हमारे प्रति तुम्हारा अनुग्रह हो ॥
२३ सक्त
(दिवता अग्नि | ऋषि भरत क पुत्र देवश्रवा आर देववात । छन्द
बहती आर डुप् |)
१. जो अग्नि मन्यन-द्वारा उत्पन्न, यजसान के घर में स्थापित,
भुवा, सर्वज्ञ, यज्ञ के प्रणेता, जातवेदा और महारण्य का विनाश करके
भी स्वयं अजर हुँ, थे ही अग्नि इस यज्ञ में अमृत धारण करते हूं ।
२. भरत के पुत्र देवश्चव। और देववात सुदक्ष और घनवान् अग्नि
को सत्यदन्ध्ारा उत्पन्न करते हें। अग्निदेव, तुम बहुत धन दे साथ
इसारी ओर देखो और प्रतिदिन हमारा अच्च ले आओ ।
३. दस अँगुलियो ने इन पुरातन आर कसवीय अग्नि को उत्पन्न
किया हुँ । है देवशवार अरणिरूप लाताओं के बीच सुजात और प्रिय
तथा देववातन्द्वारा उत्पादित अग्नि की स्तुति करो । वे ही अर लोगों
श 5
जन
2
हा
a
मे
PA
न १
MAH
४. अग्नि, सुदिन (अकाय-देव-युजा-दिन) की प्राप्ति के लिए गो-
रारणी उृध्दी के उत्कृष्ट स्थान सं ठुम्हें ह स्थापित करते हैं॥
इघहती (राजपुताने को सिकता में विनष्ट घगूघर
नदी), आया (कुरुक्षेत्रत्थ नदी) ओर सरस्वती (कुरुक्षेत्रीय सरस्वती
नदो) के तों पर रहदेवाले अबुष्यों के गृह सं पन-युक्च होकर
दाप्त होओ ।
8८४ हिन्दी-ऋष्वेद
५. अब्नि, तुम स्तोता को अवेक कर्मो के कारण और थेनुप्रदात्री
सि शदः प्रदान करो। हमें बंश-बिस्तारक ओर सन्तति-जनयिता
दुक पुत्र हो । अग्नि, इबारे ऊपर तुम्हारा अनुग्रह हो ।
२३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि २४-२४ के विश्वामित्र | छुब्द अनुष्टुप्
अर गायत्री)
१. अग्नि, तुम झत्रु-ेचा को पराभूत करो । बिद्मन्कर्ताओं
झो दुर कर दो । तुम्हें कोई जीत नहीं सकत । तुस शत्रुओं झो जीतन
कर यजमान को अन्न दो।
२. अग्नि, तुम यज्ञ में घ्रीतसान और असर हो 1 तुम्हें उत्तरवेदी
पर प्रज्वलित किया जाता हे । तुम हमारे यज्ञ की भली भाँति सेवा
करो ।
३. अग्नि, तुम अपने तेज से सदा जागरित हो। तुम बल के
पुत्र हो । में तुम्हें बुलाता हूं । सेरे इस कुश पर बंठो ॥
४. अस्ति, जो तुम्हारे पूजक हे, उनके यज्ञ में समस्त तेजस्वी
झर्नियों के साथ स्तुति की मर्यादा की रक्षा करो ।
५. अग्नि, ठुम हव्यदाता को वीर्ययुक्त और प्रभूत धन दो । हम
दुत्र-पोत्रवाले हूँ । हमें तीक्ष्ण करो ।
२५ सूक्त
(देवता चतुर्थ ऋचा के इन्द्र और अग्नि; शोष के अग्नि ।
छन्द विराट् ।)
१. अरिनदेव, तुम सर्वज्ञ, चित्रवान्, चुदेवता के पुत्र और पृथ्वी के
तनय हो । चेतनावान् अग्नि, तुम देवों के इस यज्ञ सें पृथक-एथद
यज्ञ करो ।
३८५
३. विद्वात् अव्नि सामथ्य प्रदान करते हुँ । अग्नि अपने को विभ-
वित करके देवों को अन्न प्रदान करते हें। हे बहुविधि अन्नवाले अग्नि,
हुमारे लिए देवों को इस यज्ञ सें ले आओ ।
३. सवज, जगत्पति, बहुदीप्ति-युक्त, बल और अन्नवाले अग्नि
संसार की माता, चुतिमती और बरण-शूच्या द्यावा-पृथिवी को प्रकाशित
करते ६
हरते न
{+ ९५ ८ है
त
४. अग्नि, तुस और इन्द्र यज्ञ की हिसा त करके अभिषव-प्रदाता
इस गृह में सोसपाच के लिए आओ ।
०. बे पुत्र, नित्य और सर्वज्ञ अग्नि, आश्रयदान-द्वारा तुल
जीवलोको को अलंकृत करते हुए जळ के स्थान अन्तरिक्ष में सुशोभित
होते हो
२६ इकत
(ऋषि ४,६, ८ ओर १० मन्त्रों की नदी, अवरिष्ट के विश्वामित्र |
छन्द अबुष्ट्प ओर त्रिष्टुप् ।)
१. हम कु!शक-्गोत्रोदूभूत हे । धन की अभिलाषा से हव्य को
संग्रह करते हुए भीतर ही भीतर बेइबावर अग्नि को जानकर स्तुति-
दारा उन्हें बुछाते हूं। वे सत्य के द्वारा अनुगत हैं; स्वे का विषय
जानते हूँ; पक्ष छा झल देते हुँ; उनके पात रथ है; वे यज्ञ में
आश्रय-प्राप्ति और यजमान के यज्ञ के लिए उन शत्र, वेशवा-
चर, सातारिइवा (विचयुवूप) ऋचायोग्य, यज्ञपलि, मेधावी, श्रोता,
अतिथि ओर क्षिप्रगासी अग्नि को हम बुलाते हें।
३. हिनहिनादेदाला घोड़े का बच्चा जेसे अपचो साता के द्वारा
दात होता हे, बैसे ही प्रतिदिन वैश्वानर अग्नि कौशिको के द्वारा
फा० २५
३८६ हिन्दी-ऋण्वेद
वरद्धित होते हैं। देवों में जागरूक अग्नि हमें उत्तन अश्व, उत्तम वी
और उत्तम घन प्रदान कर ।
४. अग्नि-हप अइदगण गसन करें; बली सस्तो के साथ मिलकर
पृषती (वाडव) वाहनों को संयुक्त करें। सबेज्ञ ओर ऑहसनीय मर-
दूगण अधिक जलूकाली और पर्वतसदुश संघ को कम्पित करते हूँ।
७५. मददृगण अग्नि के आशित और संसार के आकर्षक हें। उन्हीं
मरुतों के दीप्त और उच्च आश्रय के लिए हन् भली भाँति याचना करते
हैं। वर्षण-रूप-धारों, हरेषा (हिनहिनाना)-दाब्द-कारी और सिह के
समान गरजनेवाले मरुद्गण विशेषरूप से जल देते हें ।
६. दळ के दल और झुण्ड के झुण्ड स्तुतिमंत्रों-द्रारा अग्नि के तेज
और सरत् के बल की हम याचना करते हें । बिन्दु-चिह्लित अश्व (पृषती)
वाले और अक्षय घन-संयुक्त तथा धीर सरद्गण हव्य के उद्देश्य से
यज्ञ में जाते हें ।
में अग्नि या परब्रह्म जन्म से ही जातवेदा या परतत्तव-रूप
हैं। घृत या प्रकाश ही मेरा नेत्र है । मेरे मुख में अमृत हु । मेरे प्राण
त्रिविध (वायु-सुर्य-दीप्ति) हे। से अन्तरिक्ष को मापवेबाला हु। में
अक्षय उत्ताप हूँ। में हव्य-झ्प हृ।
८. अन्तःकरणन्द्रारा मनोहर ज्योति को भली भाँति जानकर अग्नि
ने अग्नि-वायु-सूर्य-रुप तीन पविन्न स्वरूपों से पुजनीय आत्मा को शुद्ध
किया हुँ । अग्नि ने अपने रझूपों-द्वारा अपने को अतीव रमणीय किया
था तथा दूसरे ही क्षण द्यावा-पूथिवी को देखा था ।
९, शत धारवाले त्रोत की तरह अविच्छिन्न प्रवाहवाले, विद्वान्
पालक, वाक्यों का मेल करानेवाले माता-पिता की गोद सं प्रसन्न और
सत्यवादी (विश्वामित्र के उपाध्याय वा अग्नि) को, हे यावा-पृथिवी,
तुम पुणे करो ।
हिन्दी- ऋग्वेद ३८७
२७ सूक्त ।
(देवता प्रथम ऋचा के ऋतु या अग्नि; शेष के अग्नि। ऋषि यहाँ
से ३२ सूक्त तक कं विश्वामित्र । छन्द गायत्री ।)
१, ऋतुओ, लुक् और हविवाले देवता, पशु, सास, अद्ध सास
आदि तुम्हारे यजमाच के लिए सुख की इच्छा करते हें और यजमान
हे प्राप्त करता ह ।
२. संधावी, यज्ञ-निर्वाहक, वेयवान् और धनवान् अग्नि की,
स्ठुति-वचतों के द्वारा, में पुजा करता हुँ ।
३. दीप्तिमान् अग्निदेव, हव्य तैयार करके तुम्हें हम यहीं रख
सकंग ओर पाप से उत्तीर्ण होगे ।
४. यज्ञ के ससय प्रज्वलित, ज्वालावाले केश से संयक्त, पावक
तया एजनीय अग्नि के पास हम अभिलषित फल की याचना करते हें।
५. प्रभूत तेजवाले, सरण-शून्य, घतश्ोधन-कर्ता और सम्यक
पुछित अग्नि यज्ञ का हव्य ले जायें ।
६. यत्ञAदघून-दाह्क ओर हुव्ययृश्त ऋत्विकों ने सक को संयत
करके आश्रय-प्राप्ति के लिए, एवं प्रकार स्तुति के इरा उन अग्नि को
अपने अभिसूल किया था।
७. हरम-'यण्पादक, अमर ओर द॒तिनान् अग्नि यज्ञ-कार्य में लोगों
को उत्तेजित करके यज्ञ-करायं की अभिज्ञता के सहयोग से अग्रगन्ता
होते हें ।
८, बलवान् अग्नि युद्ध में आगे स्थापित किये जाते हैं। यज्ञ-काल
में वे यथास्थान निक्षिप्त होते हें । वे मेघावी और यज्ञ-सस्पादक हुँ!
९. जो अग्नि कर्मद्रारा वरणीय हे, भूतो के गर्च-हप से अवस्थित
हुँ; पितृ-स्वरूप हूँ, उन्हीं अग्नि को दक्ष की पुत्री ( यज्ञ-नूसि) धारण
करती हँ।
३८८ ईहव्डी-जह न्दे
१०, बळ-सस्पादित अग्नि, तुस उत्क्ृष्ठ दीप्ति से युक्त, हव्या-
भिलाघी और वरणीय हो । तुम्हें दक्ष की तनया इला (वेदी-रूपा
भूमि) धारण करती हु
११. मेधावी भक्त लोग संसार के वियाचक और जल के प्रेरक
अग्नि को, यज्ञ के सम्पादन के लिए, अन्न-ह्वारा, भली भाँति उद्दीप्त
करते हुँ ।
१२. अन्न के नप्ता, अन्तरिक्ष के पास दीप्दियान और सर्वज्ञ
अग्नि की वा यज्ञ की में स्तुति करता हुँ।
१३. पूजनीय, नसस्कार-्योग्य, दशनीय और अभीष्टवर्षी अग्नि
अन्धकार को दूर करते हुए प्रज्वलित होते हैं।
१४, अभोष्दवर्षी ओर अइव की तरह देवों के हव्यचाहक अग्नि
प्रज्वलित होते हें। हविष्मान् अग्नि की में पुजा करता हूँ।
१५. अभीष्टवर्षी अग्नि, हम घृत आदि का सेचन करते हें, तुम
जल का सेचन करते हो । हस तुम्हें दीप्त करते हैं । ठुम दीप्तिमान्
और बृहत् हो ।
२८ सत्त
(देवता अग्नि । छन्द गायत्री, तुष्णिक्, त्रिष्टुप् और जगती |)
१. जातवेदा अग्नि, तुम्हारा स्तोत्र ही धन-प्रदायक हैं । प्रातः"
सवन में तुम हमारे पुरोडाश और इव्य की सेवा करो ।
२. युवतस अग्नि, तुम्हारे लिए पुरोडाश का पाक किया गया है;
उसे संस्कत किया गया हैं, तुस उसका सेवन करो ।
३. अग्नि, दिनान्त में सम्यक प्रदत्त पुरोडाश का भक्षण करो।
तुस बल के पुत्र हो, यज्ञ में निहित होओ ।
४, हे जातवेदा और मेधावी अर्ति, माध्यन्दिन सवन में पुरोडाश
का सेबन करो । घीर अध्बर्यू लोग यज्ञ में तुम्हारा भाग नष्ट नहीं
करते । तुम महान् हो ।
हिन्दी-ऋष्वेद ३८९
५. बल के पुत्र अग्नि, तृतीय सवन में दिये गये पुरोडाश की तुम
अभिलावा करों। अनन्तर अविनाशी, रत्नवान् और जागरणकारी
सोम को, स्तुति के साथ असर देवों के पास, स्थापित करो।
६. जातदेदा अग्नि) दिन के अन्त में तुम पुरोडाश-लप आहुति का
सेवन करो ।
२९ सूक्त
(देवता अग्नि। छन्द अनुष्टुप, , जगती ओर त्रिष्टुप् ।)
१. यही अश्नसन्यन और उत्पत्ति के साधन हें। संवार-रक्षक
अरणि को ले आओ । पहले को तरह हम अग्नि का सन्यन करेगे ।
२. गर्भिणी के गर्भे की तरह जातवेदा अग्नि काष्ठ (अरणि)-द्रय
में निहित हें । अपने कर्ष में जागरूक और हवि से युक्त अग्नि मनुष्यों
के प्रतिदिन पूजनीय हें ।
३. हे ज्ञानवान् अध्दय्ं, ऊदध्वबुख अरणि पर अधोमुख अरणि
रखो । सद्यो गर्भेयुक्त अरणि ने अभीय्टवर्षी अग्नि को उत्पन्न किया।
उसमें अग्नि का दाहकत्व था । उज्ज्वल तेज से युक्त इला के पुत्र अग्नि
अरणि में उत्पन्न हुए ।
४. जातवेदा अग्नि, हस ठुन्हें पृथ्वी के ऊपर, उत्तर वेदी के
नानि-स्थल सं, हव्य वहन करने के लिए स्थापित करते हें ।
५. नेता अध्वयूंगण, कवि, द्वेय-शून्य, प्रकृष्ट ज्ञानवान्, असर,
सुन्दर शरीरवाले अग्नि को सन्थन-द्वारा उत्पन्न करो । नेता अध्वर्युगण
यज्ञ के सुचक, प्रथम ओर सुखदाता अग्नि को कर्म के प्रारम्भ में उत्पन्न
करो ।
६. जिस समय हाथों से मन्थन किया जाता हें, उस समय काष्ठ
से अग्नि, अइव की तरह, सुशोभित होकर तथा दृतगामी अदिव्य
के विचित्र रथ की तरह शीघ्र गन्ता होकर शोभा धारण करते हें । कोई
३९० हिन्दीन्त्रटग्वेद
भी अग्नि का मार्ग नहीं रोक सकता । अग्नि चें तूण और उपल को
मस्म कर उस स्थान को छोड़ दिया।
७. उत्पन्न अग्नि भी सर्वज्ञ, अप्रतिहतगमन और कर्म-कुशलू
हैं; इसलिए मेधावी लोग उनकी स्तुति करते हुँ। बह कर्मे-फल प्रदान
करके शोभा प्राप्त करते हैं । देवता लोगों ने पुजनीय ओर सवज अर्ति
को यज्ञ में हृब्यवाहक किया था।
८. होस-निव्पादक अग्ति, अपने स्थान पर बैठो । तुम सर्वज्ञ हो।
यजमान को पुज्यलोक में स्थापित करो । तुम देवों के रक्षक हो । हव्य
के हारा देवों की पुजा करो । में यज्ञ करता हुँ; मुझे यथेष्ट अन्न
प्रदान करो ।
९. अध्वय गण, अभीष्ठवर्षी धूम उत्पन्न करो । तुम सबल होकर
युद्ध के सामने जाओ। अग्नि वीर-प्रधान ओर सेना-विजेता हँ।
इन्हीं की सहायता से देवों ने असुरों को परास्त किया था।
१०. अग्नि, ऋतु-काष्ठ (पलाइ-अश्वत्यादि)-वान् यह अरणि
तुम्हारा उत्पत्ति-स्थान हैं । इससे उत्पन्न होकर .तुस शोभा प्राप्त करो ।
उसे जानकर तुम बेठ जाओ । इससे उत्पन्न होकर तुम शोभा प्राप्त करो ।
तुम दह जानकर उपवेशन करो। हमारी स्तुति को वद्धित करो ।
११. गर्भस्य अग्नि को तनूनपात् कहा जाता हु । जिस समय अग्नि
प्रत्यक्ष होते हु, उस समय वह आसुर (असुर-हुन्ता अथवा अरणि-रूप-
काष्ठ-पुत्र) नराशंस (अग्नि-नाम) होते हं । जिस समय अन्तरिक्ष में
तेज का विकाश करते हें, उस समय मातरिश्व (अग्नि-ाम) होते हैं।
अग्नि के प्रसृत होते पर वायु की उत्पत्ति होती हुँ ।
१२. अग्नि, तुम मेधावी और मन्थन के द्वारा उत्पन्न हो । तुम्हें
अत्युक्म स्थान में स्थापित किया गया हे । हमारा यज्ञ निविघून करो
और देवाभिलाषी के लिए देवों की पुजा करो ।
१३. मर्त्यं ऋत्विक् छोगों ने अमर, अक्षय, दुठ-दन्त-विदिष्ट और
पाप-्तारक अग्नि को उत्पन्न किया हे । पुत्र-सन्ताच की तरह उत्पन्न
हिन्दीन्त्रर्बेद ३९१
अग्नि को लक्ष्य कर भगिती-स्वङप दस अंगलियाँ, परस्पर मिलकर,
एनन्द-ठूचक शब्द करती हैँ ।
१४. अग्नि सनातन हें । जिस समय सात सनृष्य उनका हवन
करते हैं, उस समय बे शोभा पाते हैं। जिस समय वे माता के
स्तन और ऋड़ पर शोना पाते है, उस समय देखने में वे सुन्दर मालम
पड़ते हूँ । वे प्रतिदिन सजग रहते हुँ; क्योंकि वे असुर के जठर से
उत्पन्न हुए हूं ।
१५. सरुतों के समान शच्रुओं के साथ युद्ध करनेवाले ओर ब्रह्मा
ते प्रथम उत्पन्न कशिक-गोत्रोत्यन्ष ऋषि लोग निश्चय ही वारा संसार
जानते हँ । अग्नि को लक्ष्य करके हव्य-युक्त स्तोत्र का पाठ करते हूँ ।
वे लोग अपने-अपने गृह में अग्नि को दीप्त करते हँ!
१६. होम-निष्पादक, विद्वान् और सर्वज्ञ अग्नि, इस प्रर्वातत
यज्ञ में तुम्हें हम वरण करते हुँ; इसलिए तुम इस यज्ञ में देवों को
हुव्य प्रदान करो । नित्य स्तव करो । सोम की बात को जानकर
उसके पास आओ ।
थस अध्याय समाष्त।
३० सूक्त
(द्वितीय अध्याय । ३ अनुवाक । दैवता इन्द्र । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, सोवाह ऋत्विक लोग तुम्हारी स्तुति करने की इच्छा
करते हें। सखा लोग तुम्हारे लिए सोस का अभिषवण करते हें; कुछ
हुव्य धारण करते हे; शत्रुओं की हसा को सहते हे । तुम्हारी अपक्षा
संसार में कोन अधिक प्रसिद्ध हे ?
२. हे हरिवर्णं अइदवाले इन्द्र, दूरस्थ स्थान भी तुम्हारे लिए दुर
नहीं हें। हरिवर्णं अइव से युक्त होकर शीघ्र आओ । तुस दृइचित्त
३९२ हिन्दी-ऋग्वेद
और अभोष्टवर्षी हो । षुस्हारे ही लिए यह सब सवन किया गया है।
अग्नि के समिद्ध होने पर, सोमाभिषव के लिए, प्रस्तर-खण्ड प्रयुक्त
हुए हं ।
३. अभीष्टवर्षी इन्द्र, तुम परम एंश्वर्यवाले हो । ठुस्हारा शिघ्र
(शिरस्त्राण) सुन्दर हे । तुल घतवान्, विजेता, महान् अरद्गणबाले,
संग्राम सें नानाविधि कर्म करनेवाले, शर्ताहसक और भयंकर
हो । संग्राम में बाधा प्राप्त करके मनुष्यों के प्रति तुमने जो वीर्य धारण
किया है, तुम्हारा वह वीर्य कहाँ हुँ?
४. इन्द्र, अकेले ही तुलने दृढमूल राक्षसों को उनके स्थानों से
गिराया हें । वुत्रादि को मारा हुँ । तुम्हारी आज्ञा से छावान्पूथिवी और
पर्वत अचल हैँ ।
५, इन्द्र, तुम बहुत लोगों के द्वारा आहुत और दीर्ययुक्त हो ।
अकेले ही तुमने वृत्र का बघ करके देवों को जो अभय वाक्य प्रदान किया
था, बह ठीक हें । मघवन्, तुम अपार द्यावान्यूथिवी को संयोजित
करते हो । तुम्हारी ऐसी महिमा प्रहयात हे ।
६. इन्द्र, तुम्हारा अइवदाला रथ शत्रु को लक्ष्य करके तिस्नमाग
से शी क्र आगमन कर । शत्रु को बध करते-करते तुम्हारा वप्त्र अघे ।
अपने सासने आनेवाले शत्रुओं का विनाश करो । भागनेवाले शत्रुओं
का बध करो । संसार को यज्ञ-युक्त करो । तुम्हारे अन्दर एसी सामथ्यं
निविष्ट हो ।
७. इन्द्र, तुम निरन्तर एइवर्यं को धारण करते हो । तुम जिस
मनुष्य को दान करते हो, वह पहले अप्राप्त यृह-सम्बन्धीय वझ, सुवर्ण
आदि धत प्राप्त करता है । अनेक लोकों से आहूत, घृत, हव्य आदि
से युक्त तुम्हार! अनुग्रह कल्याणवाही होता हुँ । तुम्हारी धन देते
की शक्ति असीम हुँ ।
८. अनेक लोकों से आहूत इन्र, तुस दानवीर के साथ वर्तंबान
हो । बाधक ओर गर्जनशील वत्र को हस्तहीच करके चूर्ण-विचूर्ण कर
हिन्दी-ऋष्वेद ३९३
डालते ही । इन्द्र, वद्धंसान और हिल्ल वृत्र को पाद-हीन करके तुमसे
बल से विनष्ट किया था।
९. इन्द्र, तुमने सहती, अनन्ता और चला पृथिदी को तमभावा-
पन्च करके उसके स्थाव सें निविवट किया था । अभीव्डवर्वक इख के,
युलोक और अन्तरिक्ष जैसे पतित न हो, इस प्रकार धारण किया है ।
इन्द्र, तुम्हारा प्रेरित जल पृथिदी पर आये ।
१०. इतर, अतीव हिक बल नास का गोव्रज अथवा गोष्ठनूत
सेघ वञ्ध-प्रहार के पहले ही डरकर दुकड़े-टूकड़े हो गया था । यो के
निकलने के लिए इन्द्र वे मार्ग घुग कर दिया था। रमणीय शब्दाय
मान जल अनेक लोकों से आहूत इख के सम्मुख आया था ।
११. अकेले इन्द्र ने ही पृथिवी और युलोक को परस्पर संगत और
धनयुक्त करके परिपूर्ण किया हे । शूर, तुम रथवाले हो। हमारे पास
रहने के अभिलाषी होकर योजित अइवों को अन्तरिक्ष से हमारे सामने
प्रेरित करो ।
१२. सूयं इन्द्र-द्वारा प्रेरित हें। दे अपने गसन के लिए प्रकाशित
दिशाओं का प्रतिदिन अनुसरण करते हुँ । जिल समय बहु अइब के द्वारा
अपना सार्ग-गमत समाप्त कर देते हें, तब हमें छोड़ देते हुं--यह भी
इन्द्र के ही लिए ।
१३. गसनशील रात्रि के पश्चात् उषा के गत होने पर सब लोक
महान् तथा विचित्र मूर्य-तेज का दर्शन करने की इच्छा करते हें। जिस
समय उवाकाल वियत हो जाता हैं, उत्त समय सब अग्निहोत्र आदि
कर्म को कत्तव्य समझते लगते हें। इन्द्र के कितने ही सत्कार्य हैं ।
१४, इन्द्र ने नदियों सें महान् तेजवाला जल स्थापित किया हे ।
इन्द्र ने जल से स्वादुतर दधि, घृत, क्षीर आदि, भोजन के लिए गौ में
संस्थापित किया हुं । नवप्रसूता गो दुग्ध धारण करके विद्रण
करती हुँ । |
३९४ | हिन्दीनऋग्वेद
१५. इस तुम दृढ बनो । शत्रुओं से मार्ग बन्द किया है। यज्ञ
शौर स्तुति करनेवाले तथा सखा लोगों को अभीष्ट फल प्रदान करो ।
शत्रुओं का वध करना उचित हुँ। बे धीरे-धीरे जाते और हथियार
फेकते हूं । वे हत्यारे ओर तुणीरवाले हें।
१६. इन्द्र, हस समीपस्थ शन्रुओ-द्रारा छोड़ा हुआ दच्तर-चाद
सुनते हँ । अतीव सन्ताप देनेबाली इन सब अशनियों को इन सब
शत्रुओं के सामने ही रखकर इनका विनाश करो; समूल छेदन करो;
विशेष रूप से बाधा दो; अभिभूत करो । इन्द्र, राक्षसोंका बघ करो;
पीछ यज्ञ सम्पन्न करो ।
१७. इन्द्र, राक्षय-कुल का समूल उन्मूलन करो। उनका मध्य
भाग छेदो; अग्रभाग विनष्ट करो। गमनशील राक्षस को दूर करो ।
यज्ञ-विद्देषी (ब्राह्मण-दत्रु) के प्रति सन्तायप्रद अस्त्र फेंको ।
१८. संसार के निर्वाहक इन्द्र, हमें अइव से युक्त करो । हमें अवि-
नाशी करो । तुस जब हमारे निकट रहोगे, तब हम महान् अन्न और
प्रभूत घन का भोग करके बड़े हो सकेंगे । हमें पुत्र, पौत्र आदि से
युक्त घन प्राप्त हो ।
१९. इन्द्र, हमारे लिए दीप्ति से युक्त धन ले आओ । तुम दान-
झील हो और हम तुम्हारे दान के पात्र हँ । हमारी अभिलाषा वड्वा-
नल की तरह बढ़ी हुई है । धनपति, हमारी अभिलाषा पूर्ण करो ।
२०. हमारी इस अभिलावा को गौ, अश्व और दीप्तिवाले घन
के द्वारा पुर्ण करो तथा उसके द्वारा हमें विख्यात करो । इन्द्र, स्वर्गादि
सुखाभिलाषी और कर्मकुशल कुरिकनन्दनों ने सन्त्रद्रारा तुम्हारा
स्तोत्र किया हे ।
२१. स्वर्याधिपति इन्द्र, मेघ को विदीर्ण करके हमें जल दो।
उपभोग के योग्य अन्न हमारे पास आये। अभीष्टवर्वक, तुस द्यलोक
को व्याप्त करके स्थित हो । सत्यदल सघवन्, हमें गो दो ।
हिन्दी-ऋणष्वेद ३९५
२२. इन्द्र, तुम अन्न प्राप्त करो । तुम युद्ध में उत्साह के द्वारा
प्रवद्ध, धनवान, प्रभत ऐश्वर्यवाले, नतन्थ्रेष्ठ, स्तुति-अवण-कर्त्ता
उग्र, यद्ध में झात्र-विनाशी और घन-विजेता हो। आश्रय-प्राष्ति के
लिए हम तुम्हें बुलाते हूँ ।
३१ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि इषीरथ के अपत्य कुशिक अथवा
विश्वासित्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. पुत्रहीन पिता रेतोधा जासाता को सम्मानयुक्त करते हुए
शास्त्र के अनुशासन के अनुसार पुत्री से उत्पन्न पौत्र (दौ हित्र) के पास
गया । अपुत्र पिता, पुत्री को गर्भ रहेगा, एसा विश्वास करके शरीर
धारण करता हूं । '
२. औरस पुत्र पुत्री को धन नहीं देता । वह पुत्री को उसके भर्ता
(पति) के रेतःसेचन का आधार बनाता है । यदि माता-पिता पुत्र और
कन्या, दोनों का ही उत्पादन करते है, तब उनमे से एक (पुत्र) उत्कृष्ट
क्रिया-कर्म का अधिकारी होता है और दूसरा (पुत्री) सम्मानयुक्त
होता हे
इन्द्र, तुम दीप्ति-युक्त हो । तुम्हारे यज्ञ के लिए ज्वाला-दवारा
कम्पमान अग्नि ने यथ्थेष्ट-पुत्ररूप रङ्मियों को उत्पन्न किया ह । इन
रहिमयों का जल-रूप गर्भ महान हुँ; ओषधि-रूप जन्म महान् हं। है
हयर, तुम्हारी सोमाहुति-द्वारा प्रयुक्त इन रश्मियों की प्रवृत्ति
सहती हें ।
४. विज्ञेता सरुदगण वत्र के साथ यद्ध करनेवाले इन्द्र के साथ
संगत हुए थे । सूर्य-संज्ञक महान् तेज तमोरूप बुत्र से निर्गत होता हूँ
इस बात को सरुतों ने जाना था । उषायें, इन्द्र को सूर्य ससक करके
उनके सामने गई थीं । अकेले इन्द्र सारी रङ्मियों के पति हुए थे!
३९६ हिन्दी-ऋग्वेद
५. घीसान् और मेधावी तात अङ्झिरा लोगों ने सुदृढ पर्वत पर
रोकी हुई गायों को खोज निकाला था । वे, पर्वत पर गाये हें, एसा
निश्चय करके जिस मार्ग से वहाँ गये थे, उसी मार्ग से लौट आये।
उन्होंने यज्ञ-साग सें सारी गायों को प्राप्त किया था। यह सब जानकर
इन्द्र, नमस्कार-हारा, अङ्गिरा लोगों की सम्भावना करके पर्वत पर
गये थे ।
६. जिस समय सरमा पर्वत के दूटे हुए द्वार पर पहुँची, उस समय
इन्द्र ने अपने कहे हुए यथेष्ट अन्न को, अव्याच्य सामग्रियों के साथ,
उसे दिया । अच्छे पैरोंबाली सरमा शब्द पहचानकर सामने जाते
हुए अक्षव्य गायों के पास पहुँच गई ।
७. अतीव मेधावी इन्द्र अङ्गिरा लोगों की मित्रताको इच्छा से
गये थे। पर्वत ने महायोद्धा के लिए अपने गर्भस्थ गोधन को बाहर
कर दिया । शत्र-हन्ता इख ने तरण सरुतों के साथ उन्हें प्राप्त किया ।
अङ्किरा ने तुरत उनकी पूजा की।
८. जो इख उत्तम पदार्थ के प्रतिनिधि हें, जो समर-भूमि में अग्र-
यासी हें, जो सब उत्पन्न पदार्थो को जानते हें, जिन्होंने शुष्ण का वध
किया था, वे ही दुरदर्शी और गोधन के अभिलाषी इद्ध, द्युलोक से
सम्मान करते हुए, हमें पाप से बचायें ।
९. भीतर ही भीतर गोधन की प्राप्ति की इच्छा करके, स्तोत्र के
द्वारा असरता प्राप्त करने की युक्ति करते हुए यज्ञ-कार्य में लगे थे ।
इनके इस यज्ञ में यथेष्ट उपवेशन हें । इन्होंने इस सत्यभूत
यज्ञ के द्वारा महीनों को अलग करने की इच्छा को थो ।
१०. अङ्किरा लोग अपने गोधन को लक्ष्य करके पहले के
उत्पन्न पूत्र की रक्षा के लिए दूध दुहुकर हुष्ट हुए थे । उनकी
आनन्दध्वनि द्यावा-पृथिवी सं व्याप्त हुई थी । पहले की ही तरह
वे संसार में अवस्थित हुए थे । गायों को रक्षा के लिए वीर पुरुष
को नियुक्त किया था ।
ईहन्दी-क्रस्वेद ३९७
११ सहायता के लिए, मरुतों के साथ, इन्द्र ने वृत्र का वध
किया था । वे ही पूजनीय और होम-योग्य हें । मरुतों के साथ
गायों का, यज्ञ के लिए, दान किया था । धृत-बुक्त-हुध्य-भारिणी,
प्रभूत-हव्य-दात्री और प्रशस्ता गौ ने इनके लिए स्वादुतर क्षीर
आदि दिया था।
२. अङ्किरा लोगों ने पालक इन्द्र के लिए महान् और दीप्ति-
मात् स्थान-संस्कार किया था । सुकर्म-शाली अद्धिरा लोगों ने इन्द्र के
उपयुक्त इस स्थान को विशेष रूप से दिखा दिया था। यज्ञ में बेठकर
उन लोगों ने जनयित्री द्यावा-पृथिवी को स्तम्भ-रूष अन्तरिक्षन्द्ारा
रोककर देगवान् इन्द्र को घुलोक में संस्थापित किया था ।
१३. द्यावा-पृथिवी के परस्पर विङ्लिष्ठ होने पर यदि महान् स्तुति
इन्द्रदेव को तत्क्षणात् वृद्धि-प्राप्त और धारण-क्षम करे, तो इन्द्र
के प्रति दोष-रहित स्तुति सङ्गत हो । फलतः इन्द्र का सारा बल
स्वभावसिद्ध हें ।
१४, इन्द्र, में तुम्हारी सहती मित्रता के लिए प्राथंता करता हूं ।
तुम्हारी शक्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ । तुम वृत्न-हच्ता हो । टुम्हारे
पास अनेक अहव वहन करने के लिए आते हुँ । लुम विद्वान् हो
हम तुम्हें सहत्सख्य, स्तोत्र और हुव्य प्रदान करेगे । इन्द्र, तुम हमारे
रक्षक हो, ऐसा जानना ।
१५. भली भाँति समकर इन्द्र ने मित्रों को महान् क्षेत्र और
यथेष्ट हिरण्य दान किया है । इसके अनन्तर उन्होंने उन लोगों को
गो आदि भी दान किया हे। वे दीप्तिमान् हें । उन्होंने नेता सरु-
दृगण के साथ सूयं, उषा, पृथिवी और अग्नि को उत्पन्न किया हूं ।
१६. झान्तसता इन इन्द्र वे विस्तीर्ण, परस्पर सङ्गत और संसार
के आनन्ददायक जल को उत्पन्न किया हुँ। वह माधुर्ययुक्त सोस-
हु को पवित्र (जल-परिष्कारक) अथवा अग्नि, सुर्यं और वथु के
३९८ हिन्दी-ऋष्वेद
दारा शोधित करके और सारे संसार को प्रसन्न करके दिन-रात
संसार को अपने व्यापार सें प्रेरित करता हे ।
१७. सूर्य की महिमा से सारे पदार्थो के घारण-कर्ता ओर यज्ञाहे
दिन-रात कमानुसार घूस रहे हें । ऋजणुगति, सित्र-भूत और कमनीय
मरुद्गण शत्रु को परास्त करने के लिए तुम्हारी शक्ति का अन्सरण
करने योग्य होते हुँ ।
१८, वृत्रहन्ता इन्द्र, तुस अविनायी, अभीष्टवर्षी और अन्नदाता
हो । हमारी प्रियतम स्तुति के स्वामी बनो । तुम महान हो। यज्ञ सें
तुम जाने के अभिलाषी हो । महान् आश्रय ओर कल्याण-वाहिनी
सत्री के लिए हमारे सामने आओ ।
१९. इन्द्र, तुस पुरातन हो। अङ्गिरा लोगों की तरह मं तुम्हारी
पूजा करता हूँ । मं तुम्हारी स्तुति करने के लिए अभिववता लाता हूँ ।
तुम देवरहित द्रोहियों को सार डालते हो । इन्द्र, हमें उपभोग के
योग्य धन दो ।
२०. इन्द्र, पवित्र जल चारों ओर फैला हे । हमारे लिए अविनाशी
जल-ससूह् के तीर को जल से पूर्ण करो । तुम रथवाले हो । हमें
झत्रु से बचाओ। हे शीघ्र गायों के विजेता करो ।
२१. वुत्रहन्ता और गायो के स्वामी इन्द्र हमें गो दाव करे ।
कुष्णों अथवा यज्ञ-विधातक असुरों को दीप्ति-युक्त तेज के द्वारा विनष्ट
करें । उन्होंने सत्यन्दचन से अङ्किरा लोगों को प्रियतम गायें दान
करके सारे दरारों को बन्द कर दिया था ।
२२. इन्द्र, तुम अन्न-लाभकर्ता, बुद्ध में उत्साहन्द्वारा प्रवद्ध घन-
वान् , प्रभूत-एश्वर्ययुक्त नेतृ-श्रेष्ठ स्तुति-्रदणकर्ता, उग्र, संग्रास में
वात्र-विताशकारी और घधनन्जता हो । अध्अव-प्राप्ति के लिए तुम्हें
बुलाता हूं ।
हिन्दी-क्रश्वेद ३९%
३२ सूक्त
(देवता इन्द्र | छुन्द् त्रिष्ढुप् ।)
१. सोसपति इद्र, इस माध्यन्दिन सथन के अदठर पर तुस सोम
पान क्षरों; क्योंकि यह तुम्हारा त्रिय हें । हे धनवान ओर ऋजीष
सोम से यक्त इख, दो घोड़ों को रथ से खोलकर और उनके
जदड़ों को घास से पूर्ण करके इस यज्ञ में उन्हें प्रसञ्च करो ।
२, इन्द्र, यव्यसंयुक्त ओर सन्यन-सस्पन्न नृतत सोम का पाच करो ३
तुम्हारे हुँ के लिए हम उसे दान करते हें । स्तोता मरुतों और
उद्रो के साथ जब तक तृप्ति न हो, तब तक सोमन्पात करो !
३, इन्द्र, जो सरुद्गण तुम्हारे झत्रु-शोषक तेज को बढ़ाते है,
वे ही मरुद्गण तुम्हारा बल वद्धिंत करते हँ; वे ही सरुद्गण स्तुति करके
तुम्हारी यढ-शक्ति को बढ़ाते हें । वप्त्रहस्त, शोभन-शिरस्त्राण-यृक्त
इन्द्र, साध्यन्दिन सदन में रुद्रों के साथ सोस-्पान करो ।
४. सरुद् लोग इन्द्र के सहायक हुए थे, वृत्र समझता था कि, सेरा
रहस्य कोई नहीं जानता । परन्तु मरुतों के द्वारा प्रेरित होकर इन्द्र ने
वृत्र का रहस्य जाना था। ये ही मरुदगण तुम्हारे लिए झीघ माधुयं
युक्त उत्साह-बाक्य बोले थे ।
५. इन्द्र, सनु के यज्ञ को तरह दुस मेरे इस यज्ञ का सेवन करते
हुए शाइवत बल के लिए सोस-पान करो । हर्यश्द, यज्ञ-्योग्य मस्तों
के साथ तुम आओ। गननद्यील नरतों के साथ अन्तरिक्ष से जळ
प्रेरित करो ।
६. इन्द्र, चूंकि तुम दीप्तिमान् जल के आवरणकर्ता हो, दीप्ति
शून्य और सोये हुए वृत्र को, युद्ध में, निहत किवा हुँ; इसलिए तुमने
यद्ध-ससय में अश्व की तरह जल को छोड़ दिया है ।
७. फलतः हुन हव्य-द्वारा प्रवृद्ध और सहान्, अजर और नित्य-
तरुण स्तोतव्य इन्द्र की पूजा करते हें । परिमाणशून्य, यावा-पृथिवी
यच्चाहं इन्द्र की सहिन को परिमित वहीं कर सकती ।
७6
८. सारै देवगण इश के कर्म--सुकृत और बहुतर यज्ञादि--
की इसा नहीं कर सकते । इन्द्रदेव भूलोक, यलोक और अन्तरिक्ष-
कोक को धारण किये हुए हैँ । उनका कर्म रमणीय हुँ । उन्होंने
सूर्यं और उषा को उत्पन्न किया हैँ ।
९. दोरात्म्य-ञून्य इन्द्र, तुम्हारी महिमा ही बास्तविक महिमा हे;
क्योकि तुम उत्पन्न होकर ही सोस-पाव करते हो । तुस बरूवान्
हो । स्वर्गादि लोक तुम्हारे तेज का निवारण नहीं कर सकते; दिन,
सास और वर्ष भी नहीं निवारण कर सकते ।
१०. इन्द्र, उत्पन्न होने के साथ ही तुमने सर्वोच्च स्वर्प्रदेश सें रहकर
तुरत आनन्दन्प्राप्ति के लिए सोम-पान किया था । जिस समय तुम
झादा-पृथिवी सं अमुप्रविष्ड हुए हो, उसी समय तुम प्राचीन सृष्टि
के विधाता हुए हो ।
११. इन्द्र, तुमसे अनेक उत्पन्न हुए हैं । जो अहि अपने को बलवान्
समझकर जल को परिदेष्टित किये था, उसी अहि को प्रबुद्ध होकर
तुमने विचष्ट किया हें । परन्तु जिस समय तुम पृथिवी को एक
कट सं छिपाकर अवस्थान करते हो, उस समय स्वगं तुम्हारी महिमा
की समानता नहीं कर सकता ।
१२. इन्द्र, हमारा यज्ञ तुम्हारी बृद्धि करतः हुँ । जिस कार्य में
सोम अभिवुत्त होता हँ, दह छुम्हारा प्रिय हे। हे वज्ञ-योग्य, यज्ञ के
लिए अपने यजमात की हुव रक्षा करो । अहि का विनाश करते के
लिए यह यज्ञ तुम्हारे दस्त्र को दृढ करे।
१३. पुरातन, मध्यतन और अधुनातन स्तोत्रन्द्रारा जो इन्र
वर्द्धित होते हैं, उन्हीं इन्द्र को यजसान, रक्षक यज्ञ के द्वारा, अपने
सामने ले आता हुँ; नये धन के लिए उन्हें आवतित करता हुँ ।
१४. जभी में पन-हो-्सच इख की स्तुति करचे कौ इच्छा करता
हैं, तभी स्तुति हूँ । में दूरवर्ती अशुभ दिन के पहले ही इनकी
स्तुति करता हूं । इन्द्र हमें दुःख के पारले जाये । इसी लिए दोतों
हिन्दी“क्रारवेद ४०१
हटों के रहनेवाले लोग जैसे नौकारोही को पकारते हें, बँसे ही
हमारे मात् -पितु-छुलों के लोग इन्द्र को पृकारते है ।
१५. इन्द्र का कलत पूण हुआ ह; पावाय स्वाहा ₹३३ का उच्चारण
हुआ है । जैसे जल-सेकता जल-पात्र में जल-सेक करता है, बसे ही में
सोम का सेचन करता हू । बुल्वादु सोम प्रदक्षिण करता हुआ इन्द्र के
सम्मुख, उचकी प्रसच्चदः के लिए, गसन करता हे ।
» छ
१६, बहुलोकाहुत इन्द्र, गम्भीर सिन्धु तुम्हारा निवारण नहीं कर
सकता । उसके चार ओर वर्तमान उपसागर तुम्हारा निवारण नहीं कर
सकता; क्योंकि बन्धुओं-दारा इस प्रकार प्राथित होकर तुमने अति
प्रबल गव्य उवं (बड़वासल या अवरोधक वच्च) का निवारण कर
डाला हूं ।
१७. इन्द्र, तुम अद्यन्राप 5, वृद्ध में उत्साह-दारा प्रवृद्ध, धनवान,
प्रभूत ऐववर्ष-सन्यञ्च नेत-श्ेष्ठ, स्तुति-श्रवणकर्त्त, उत्र, संग्रास में
<
दात्रुदिनाशी ओर धवजा हो। आश्रय-श्राध्दि के लिए हुम तुम्हें
~
बुलाते हूँ ।
३३ छूक्त
(यपि ४, ६, ८ और १० मन्त्रों को नदी, अवशिष्ट के
विश्वामित्र । छन्द अनुष्डुप् और चिष्दुप् |)
१. जळमरवाहबतो वियाह्ा (व्यश) और शुतुद्री (सतलज) चास कौ
दो नदियाँ पर्वत की योद से सागरसङ्कमामिलाषिणी होकर घोड़साल से
बिनुक्त घोड़ियों की तरह स्पर्धा करती हुई, दो गायों के समान
सुशोभित होकर वत्स लेहाभिलादिणी हो, गायों की तरह वेग से समुद्र
की तरफ़ जाती ह।
२. ददीद्वय, तुम्हें इन्द्र प्रेरित करते हैं । हुल उनकी प्रार्थना चुनती
हो। दो रथियों की तरह समुद्र की ओर जाती हो । तुम एक सार
F =
फा० २६
४०२ हिन्दी- ऋग्वेद
प्रवाहित होकर, तरङ्ग-ारा बंद्धित होकर, परस्पर आस-पाल जाती
हुई सुशोभित हो रही हो ।
सातृ-तुल्य दिन्थु चढी के पास उपस्थित हुआ हूं, सोभाग्य-
वती विषाक्ष के पास उपस्थित हुआ हूँ । ये दोनों दत्स को चाटन की
इच्छाबाली गायों की वरह एक स्थान की ओर जातो हें ।
४. हम (दोनों चिया) इस जल से धुऊकर देवकृत स्थान
जाती हें । हमारे गमत का उद्योग बन्न होवेबाळा नहीं है । किम
लिए यह विप्र हम दोनों नदियों को पुकारता है ।
५, जल्वती नदियो, सेरे (दिइवामित्र के) सोम-सम्पादक वचन
के लिए एक क्षण के लिए, गसन से विरत होओ। सें कुशिक का पुत्र हुँ;
प्रसन्नता के लिए सहूती स्तुतिकेद्वारा बदियों को, अपने उद्देश्य की
सिद्धि के लिए बुलाता हूं ।
६. नदियों के परिवेष्ठक वृत्र को मारकर दज्बाहु इन्र ने हम
दोनों नदियों को खोदा है । जगत्प्रेरक, सुहस्त और चतिमान् इच
ने हमें प्रेरित किया हे । इन्द्र की आज्ञा से हम प्रभूत होकर जाती हैं ।
७. इन्द्र ने जिस अहि (वृत्र) को विदीर्ण किया था, उनके उस
बीर कार्य का सदा कीर्तन करना चाहिए । इन्द्र ने चारोंओर आसीन
अवरोधक लोगों को दप्त्र से विनष्ट किया था। गमसनाभिलावी जल
आया था ।
हे स्तोता, तुम यह जो वाक्य-धोषणा करते हो, उसे नहीं
भूलता । भविष्यत् यज्ञ-दिन में सन्त्रशचला करके तुम हमारी सेवा
करो । हम (दोनों नदियाँ) तुम्हें नमस्कार करती हें । हमें पुरुष
की तरह प्रगल्भ नहीं करना ।
९. हे भगिनीभूत नदीठ्य, में (विश्वामित्र) स्तुति करता हूँ;
सुनो । में दूर देश से रथ ओर अश्व लेकर आहता हुँ । तुस निम्नस्थ
बनो, ताकि में पार हो जाऊं । चदीद्वय, खोतवत् जळ के साथ रथचत्र
के अवोदेश में गसन करो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४० ३
१०. स्दोता, हमने (दो बदियों ने) तुम्हारी सारी बातें सुर्ती ।
तुम दृर से आये हो; इसलिए रथ और इकद के साथ गमन करो ।
पुत्र को त्ववनप कराम के जिए माता और जैसे मनुष्य को
आलिङ्गन करने के लिए युवती स्त्री, अवमत होती हँ, बैसे ही हस
ही
भी हुन्हारे लिए अवतत होती हें ।
११. भदीदय, चूँकि भरद-छुलोत्यन्न तुम्हें पार करेंगे, चकि पार
जाते के इच्छ क भरतवंधीय लोग इन्द-द्वारा प्रेरित और तुम्हारे द्वारा
अनुज्ञात होकर पार होंगे , चूं (कि वे रोग पार होने की चेष्टा करते हें और
तुम्हारी अनुसति पा चुके है, इसलिए में (विश्वामित्र) सर्वत्र तुम्हारी
स्तुति करूंगा । दुस यज्षश्हं हो ।
१२, गोवनाभिलाषी भरतवंशीय लोग पार हो गये; ब्राह्मण
लोग नदियों की सुन्दर स्तुति करते हें । तुस अन्न-कारिणी और घन
समन्विता होकर छोटी-छोटी बदियों को तृप्त और परिपूर्ण करो तथा
शीघ्र गमम करो ।
१३. नदीद्वय, तुम्हारी तरङ्ग इस प्रकार प्रवाहित हो कि यृगकील
उसके ऊपर रहे; दुस लोग रञ्जु को नहीं छूना । पाप-चून्या, कल्याण-
कारिणी और अनिन्दनोया विपाशा और शुतुद्री इस समय न बढ़ें ।
३४ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द॒ नरिष्डुष् )
१. पुरभदी, महिमावाले और धवछ्यालो इच्ध ने शत्रुओं को मारते
हुए, तेज के हारा, दास को जीता हं । स्वोन्र-हारा आकृष्ट, बद्धित-
शरीर और बहु-अस्त्रधारी इछ ने द्यावा-यूधिवी को परिपूर्ण किया हे ।
इन्द्र, तुम पूजनीय और बलवान हो । छुम्हें अलंक्ृत करके,
स के लिए, तुम्हारी प्रेरित स्तुति का उच्चारण करता हुँ। तुम मनुष्यों
अर देवों के अप्रगासी हो ।
| डे
४०४ हिन्दी-ऋणग्वेद
हक
` ३. इन्द्र, तुम्हारा कर्म प्रसिद्ध है । तुमने वृत्र को रोका था।
शत्रुओं के आक्रमण-निवारक इन्द्र ने सायावियों का, विशेष रूप से,
वध किया था । झात्रुववासिळधो इन्द्र ने वन में छिपे स्कन्ब-होव शच का
विनाश किया है । उन्होंने राम्यों था रात्रियो की गायों को आविः
ष्कृुत किया हँ ।
४. स्वगंदाता इन्द्र ने दिन को उत्पन्न करके युद्धाभिलाषी अङ्गिरा
लोगों के साथ परकीय सेना का अभिभव करके परास्त किया हुँ ।
मनुष्य के लिए दिन के पताका-स्वरुप सूर्ये को प्रदीप्त किया था ।
महायुद्ध के लिए ज्योति प्रकट हुई ।
५, बहुत धन का ग्रहण करके बाधादात्री और वद्धेसान शत्रु-सेना के
बीच इन्द्र बेठे । स्तोता के लिए, उन्होंने, उषा को चेतन्य प्रदान किया
और उनके शुक्रवर्ण तेज को वर््धित किया ।
- ६. इन्द्र महान् हें । उपासक लोग उनके प्रभूत सर्को की
प्रशंसा करते हैं । बल-द्वारा वे बढवानों को चूर-बूर करते हें ।
पराभव-कर्त्ता ज्यासम्पन्न इन्द्र ने, माया-हारा, दस्युओं को चूर्ण
किया हू ।
' ७, देवों के पति और मालवो के वर-प्रदाता इख ने सहायड में
धन प्राप्त करके स्तोता को दान दिया। मेघावी स्तोता लोग यजघान
के घर में मन्त्रन्द्वारा इन्द्र की कीखि की प्रशंसा करते हँ ।
८. स्तोता लोग सबके जेता, वरणीय, जलप्रद, स्वर्ग और स्वर्गीय
जल के स्वामी इन्द्र के आनन्द में आनन्दित होते हैं । इन्र ने पृथिवी,
अन्तरिक्ष और स्वर्ण को दान कर दिया हुँ । |
९. इन्द्र ने अदघ का दान किया हैं, सूर्थे का दान किया है, अनेक
लोगों के उपभोग के योग्य गोधन दान किया हे, सुवर्णमय धन
दान किया है तथा दस्युओं का वध करके आर्यवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वेश्य जातियों) की रक्षा की हे ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४०५
१०. इन्द्र ने जओषधिप्रदान किया है, दिनदिया है, वनस्पति और
अन्तरिक्ष प्रदान किया है। उन्होंने मेघ को भिन्न किया हे, विरोधियों
का वध किया है, जो युद्ध करने सासने आये, उनका वध किया हुँ ।.
११. इन्द्र, तुम अन्न-प्राप्त-कर्ता हो, युद्ध में उत्साह-द्वारा प्रवृद्ध
हो। तुम धनवान् हो, प्रभूत-वेभव-सम्पन्न हो, नेतृश्रेष्ठ हो, स्तुति-श्रोता
हो, उग्र हो, संग्राम में अरि-भर्दन और धन-जेता हो। आश्रयप्राप्ति
के लिए हम तुम्हें बुलाते हूँ ।
३५ सूक्त
(देवता इन्द्र । छन्द् तरिष्ठुप)
१. इन्द्र, हरि नास के दोनों अश्व रथ में योजित किये जाते हूँ ।
जैसे वायु अपने नियुत नामक अइवों की प्रतीक्षा करते हँ, वेसे ही तुम
भी इन दोनों की कुछ क्षण प्रतीक्षा करके हमारे सामने आओ ।
हमारा दिया सोम पियो । हम स्वाहा शब्द का उच्चारण करके,
तुम्हारे आनन्द के लिए, सोम दान करते हुँ ।
२. अनेक छोकों में आहूत इन्द्र के शीघ्र गमन के लिए रथ के
अग्र भाग में दुतगामी अइवद्वय को हम संयोजित करते हें। विधिवत्
अनुष्ठित इस यज्ञ सें अश्वद्वय इन्र को ले आयें ।
३. अभीष्टदर्षक और अञ्नवान् इन्द्र, अपने वीर्यवान् और
शत्रुभयत्राता अश्वद्ठय को हमारे निकट ले आओ । तुम इस यजमान
की रक्षा करो । रक्तवर्ण हरि नास के अइवद्य को इस देव-यजन
स्थान में छोड़ दो । वे खावें । तुम समान रूपवाले उपयुक्त धान्य
अथवा भेजे हुए जो का भक्षण करो॥
४. इन्द्र, मन्त्रनद्वारा तुम्हारे अश्वद्वय योजित होते हँ तथा युद्ध भे
जिनकी समान प्रसिद्धि हे, उन्हीं दोनों अइवों को मन्त्र-द्वारा हम योजित
करते हैं । इन्द्र, तुम विद्वान् हो । तुम समझकर सुदृढ़ और सुखकर
रथ पर आरोहण करके सोम के पास आओ ।
४०९६ हिन्दी-ग्वेद
५. इन्द्र, दूसरे यजमान तुम्हारे वीर्यवान् और कमनीय पृष्ठो
वाले हुरिहय को आनन्दित करें हव अभिघत सोस के द्वारा, यथेष्ट रीति से,
तुम्हारी तृप्ति करेंगे । बुम अनेक यजमानों को अतिकण करके
शीघ्र आओ ।
६. यह सोम तुम्हारा है। इसके सामने आओ प्रस्न-वदन होकर
इस प्रभूत सोस का पान करी । इन्द्र, इस यज्ञ में कुश के ऊपर
बेठकर इस सोम को जठर में रखो ।
७. इन्द्र, तुम्हारे लिए कुश फैलाये गथ हें । सोम अभिषुत हुआ
है । तुम्हारे अश्वह्यय के भोजन के लिए धान्य तैयार हें । तुम्हारा
आसन कुश हूँ; अनेक लोग तुम्हारी स्तुति करते हुँ। तुम अभीष्टवर्षी
हो । तुम्हारे पास मरुत्सेना हुँ । तुम्हारे लिए हव्य बिस्तृत है ।
८, इन्द्र, तुम्हारे लिए अध्वर्यगण, प्रस्तर और जल ने इस सोम-
दुग्ध को मधुररस-विशिष्ट किया हे । दशनीय और विद्वान् इन्र, प्रसन्न
वदन से अपनी हितकर स्तुति को जान करके सोम-पान करो ।
९. इन, सोम-पान-प्मय में जिन सरुतों को तुम सम्भानान्वित
करते हो, युद्ध में जो तुम्हें बद्धित करते और तुम्हारे सहायक होते
हे, उन्हीं सब मरुतों के साथ सोमपानाभिलाषी होकर अग्नि की जिल्ला
दरा सोसपान करो ।
१०. यजनीय इन्द्र, स्वधा अथवा अग्नि की जिह्ला-हारा अभिषुत
सोमपान करो । शक्त, अध्वयुँ के हाथ से प्रदत्त सोम अथवा होता फे
भजनीय हव्य का सेवन करो ।
११. इन्द्र, तुम अन्न-प्रापक युद्ध में उत्साह-दवारा प्रवृद्ध हो । तुम
घनवान्, प्रभूत ऐश्वर्यवाले, नेतश्रेष्ठ, स्तुतिओता, उग्र, संग्राम में शत्रु-
हन्ता और घनजेता हो। आश्चय-प्राष्ति के लिए हुम हुम्हे
बुलाते हुँ ।
हिन्दी-ऋण्वेद ४०७
| ३६ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि केवल १० म ऋचा के अंगिरा के वंशज
घोर । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, घन-दान के लिए मरुतों के साथ सदा आकर विशेष रूप
से प्रस्तुत सोम को धारण करो । जो इन्द्र विशाल कर्म के कारण प्रसिद्ध
है, वे प्रत्येक सोमाभिषव में पुष्टिकर हुव्य-द्वारा वादित हुए हँ ।
२. पूर्व समय में इन्द्र को लक्ष्य करके सोम दिया गया था, जिससे
इन्द्र कालात्मक, दीप्त और महान् हुए हु । इन्द्र, तुम इस प्रदत्त सोम
को ग्रहण करो । स्वर्गादि फल देनेवाले और प्रस्तर-द्वारा अभिषुत
सोम का पान करो ।
३. इन्द्र पान करो और परिपुष्ट बनो। तुम्हारे लिए प्राचीन और
नवीन सोम अभिषुत हुआ है । इन्द्र, तुम स्तुति-योग्य हो । जैसे तुमने
प्राचीन सोम का पात किया था, वसे ही इस क्षण में नूतन सोम
का पात करो ।
४. जो इन्द्र अतीव शक्तिशाली हूँ, जो समर-भूमि में शत्रुओं
के विजेता हुँ, जो शत्रुओं के आह्वानकर्ता हैं, उन्हीं इन्द्र का उप्र
बल और दुर्धर्ष तेज सर्वत्र विस्तृत हो रहा है । जिस समय इ्थेइब
इन्द्र को सोमरस हृष्ट करता है, उस समय पृथिवी और स्वर्ग भी
इन्द्र को धारण नहीं कर सकते ।
५, बली, उग्र, अभीष्ट-वर्षक और दाता इन्र, वीर कीत्ति के!
लिए, प्रबुद्ध हुए हें, स्तोत्र के साथ मिल गये हं । इन्द्र की सब
गायों ने ढुग्धदायी होकर जन्म लिया है । इन्द्र का दान बहुत हे ।
६. जिस समय नदियाँ स्रोत का अनुकरण करके दूरस्थ समुद्र की
ओर जाती हे, उस समय रथों की भाँति जल भागता हें। ठीक इसी
भाँति वरणीय इन्द्र इस अन्तरिक्ष से अभिषुत लता-खण्ड-रूप अल्प
सोम की ओर दोड़ते टु ।
४०८ हिन्दी-ऋणग्वेद
७. समुद्र उङ्साभिला बिसी नदियाँ जैसे समुद्र को पूर्ण करती है,
वेसे ही अध्वर्यू लोग इन्द्र के लिए अभिषुत सोन का सम्पादन करते हुए
हस्त-द्वारा लता का दोहन करते और प्रस्तर-हारा धाशरूप मधुर सोस-
रस का शोधन करते हें ।
८. इन्द्र का उदर तालाब के समान सोम का आधार है ।
वह एक ही साथ अनेक यज्ञों को व्याप्त करते हें। इन्द्र ने प्रथम भक्ष-
णीय सोम आदि का भक्षण किया हु; अनन्तर बुत्र को निहत करके
देवों को भाग दे दिया हे ।
९. इन्द्र, शीघ्र धन दो । तुम्हारे इस धन को कोन रोक सकता
हैं! हम तुम्हें घनाधिपति जानते हैँ । तुम्हारे पास जो पूजनीय धन
हुँ, उसे हमें दो ।
१०. इन्द्र, ऋजीषी (उच्छिष्ट) सोसवाले इन्द्र, तुम सबके वरणीय
हो, हमें प्रभूत धन दो । जीने के लिए हमें सो वर्ष दो । सुन्दर
जबड़ोंवाले इन्द्र, हमें बहु वीर पुत्र दो ॥
११. इन्द्र, तुम अन्नप्रपपक यज्ञ में उत्साह-द्वारा प्रवृद्ध हो । तुम
घनान्, प्रभूत वेभदवाले, नेतूवर, स्तुति-श्रबण-कर्ता, प्रचण्ड, युद्ध में
दात्रु-नाइक और घन-विजेता हो। आश्रय पाने के लिए हुम तुम्हें
बुलाते हूँ ।
३७ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र | छन्द गायत्री और अलुष्टुप् ।)
१. इन्द्र, वृत्र-विनादक बल की प्राप्ति और शत्रु सेना के पराभव
के लिए तुम्हें हम प्रवत्तित करते हूँ ।
२. शतकतु इग्द्र, तुम्हारे मन ओर चक्ष को प्रसन्न करके स्तोता लोग
हमारे सामने तुस्हें प्रेरित करें ।
शतक्रतु इन्द्र, अभिमानी शन्नुओं के पराभवकर्ता युद्ध में हम
सारी स्तुतियों से तुम्हारा नासकीसंन करंग ।
हिन्दी-ऋहग्वेद ४०९
४. इन्द्र सबकी स्तुति के योग्य, असीम तेजवाले और मनुष्यों के
स्वामी हैं । हम उनकी स्तुति करते हें ।
५. इन्द्र, वृत्र का विनाश करने और युद्ध में धन-प्राप्ति के लिए
बहुतों द्वारा आहूत इन्द्र का हम आह्वान करते हें ।
६. शतक्रतु इन्द्र, य॒द्ध में तुम शत्रुओं के पराभव-कर्ता हो। हम,
बुत्र के विनाश के लिए, तुम्हारी प्रार्थना करते हैं ।
७. इन्द्र, जो धन, युद्ध, बीर-निचय और बल में हमारे अभिमानी
शत्रु हँ, उन्हें पराजित करो ।
८. शतकतु, हमारे आश्रय-लाभ के लिए अत्यन्त बलवान्, दीप्तिः
युक्त और स्वप्न-निवारक सोम पान करो ।
९. शतक्रतु, पञ्च जनों में जो सब इन्द्रियाँ हे, उनको हम तुम्हारी
ही समझते हें ।
१०. इन्द्र, प्रभूत अन्न तुम्हारे निकट जाय । दात्रुओं का दुघ
अन्न हमें प्रदान करो । हम तुम्हारे उत्कृष्ट बल को वह्धित करेंगे ।
११. दाक इन्द्र, निकट अथवा दूर देश से हमारे पास आओ ।
वस्त्रवान इन्द्र, तुम्हारा जो उत्कृष्ट स्थान हे, वहीं से इस यज्ञ सं.
आओ । |
३८ सूसा
(देवता इन्द्र और इन्द्रावरुण । ऋषि' विश्वामित्र-गोत्रीय प्रजापति
अथवा वाच-गोत्रीय प्रजापति अथवा विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. स्तोता, त्वष्टा की तरह, इन्द्र की स्तुति को जागरित करो ।
उत्कृष्ट, भारवाही और दुतगासी अइव की तरह कर्म में प्रवृत्त होकर
तथा इन्द्र के प्रिय कर्म के विषय पर चिन्ता कर में, मेधावान् होते हुए,
स्वर्गगत कवियों को देखने की इच्छा करता हूं ।
२, इन्द्र, कवियों के जन्म के सम्बन्ध में उन गुरओं से पूछो, जिन्होंने
मनःसंयस और पुण्य कार्य-हारा स्वर्ग का निर्माण किया था । इस समय
४१० हिन्दी-ऋग्वेद
इस यज्ञ में तुम्हारे लिए प्रणीत स्तुतियाँ वृद्धिड्रत होकर, सच की तरह,
बेग से जाती हु ।
३. इस भूलोक में, सर्वत्र, कवियों ने गूढ़ कसे का निधान करके
पृथिबी और स्वर्गे को, बलन्प्राप्ति के लिए, अछुत किया हुँ ।
उन्होंने भात्राओं या सूळतत्त्वों के द्वारा पृथिवी और स्वर्ग का परिमाण
किया है । उन्होंने २२८२२-ख लव, विस्तीर्णा और महती द्यावा-पृथियी
को सङ्गत किया हैं और द्यावा-पथिवी के बीच में, धारणार्थ, अन्तरिक्ष
को स्थापित किया हँ ।
४. सारे कवियों ने रथस्थित इन्द्र को विभूषित किया हँ ।
स्वभावतः दीष्विमान् इन्द्र दीप्ति से आच्छादित होकर स्थित हैं । अभीष्ट-
वर्षी और असुर इन्द्र की कीति अद्भूत हे । विश्वरूप धारण करके
वे अमृत में अवस्थित हूँ ।
. ५. अभीष्टवर्षक, सनातन और सर्वश्रेष्ठ इन्द्र ने जल-सृष्टि की है ।
इस प्रभूत जल ने उनकी पिपासा को रोका है । स्वर्ग के पौत्र-स्वरूप और
शोभायमान इन्द्र और वरुण झुतिमान् यज्ञकर्ता की स्तुति से लाभ-योग्य
हमारे लिए, धारण करते हें ।
६. राजा इन्द्र और वरुण, व्यापक और सम्पूर्ण सवन-त्रथ को
इस यज्ञ में अलंकृत करो । इन्द्र, तुम यज्ञ में गये थे; क्योंकि मेने
इस यज्ञ में वायु की तरह केश-विशिष्ट गन्धर्वो को देखा था।
७. जो यजमान लोग अभीष्टदाता इन्र के लिए गोओं के भोग-
योग्य हव्यं को शीघ्र दुहते हैं, जिनके अनेक नाभ हें, उन्होंने नवीन
' असुर-बल को घारण करते हुए तथा माया का विकाश करते हुए अपने-
अपने रूप को इन्द्र को समापित किया था ।
८. सुर्य की स्वणंसथी दीप्ति की कोई सीमा नहीं फर सकता ।
इस दीप्ति के जो आश्रय हैं, उत्तम स्तुति-द्वारा स्तुत होकर जैसे
साता सन्तान का आलिङ्गन करती हे, वसे ही सर्व-व्यापक यावा-
पृथिवी को आलिङ्कित करते हुँ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ४११
९. इन्द्र और वरुण, तुम दोनों प्राचीन स्तोता का कल्याण करो
अर्थात् उसको स्वर्गीय मझ्भल-रूप शेष दो । हमें चारों ओर से
बचाओ। इन्द्र की जीभ सबको अभय प्रदान करती है । इन्द्र स्थिर
हैँ । सारे मायावी लोग उनकी नानाविध कीत्तियाँ देखते हुं ।
१०. इन्द्र, तुम अन्न-लाभ-कर्ता यज्ञ में उत्साह-द्वारा प्रवृद्ध,
धनवान्, प्रभूत ऐश्वर्य से युक्त नेत श्रेष्ठ, स्तुति-अवण-कर्ता, उग्र, यद्ध
में शत्रु-संहारक ओर धन-विजेता हो। आश्रय-प्राप्ति के लिए हम
तुम्हें बुलाते हूँ ।
३९ सूक्त
(४ अनुवाक। देवता इन्द्र। ऋषि ३५ से ५३ सूक्त तक के
विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप् 1)
१. इन्द्र, तुम विशवपति हो । हृदय से उच्चारित और स्तोताओं*
द्वारा सम्पादित स्तोत्र तुम्हारे सामने जाता हैं। तुम्हें जगाकर
यज्ञ में जो स्तुति कही जाती है और जो मुझसे ही उत्पन्न हे, उसे
तुम जानो ।
२. इन्द्र, सूर्यं से भी पहले उत्पन्न जो स्तुति यज्ञ में उच्चारित
होकर तुम्हे जगाती हें, वह स्तुति कल्याणकारी शुश् वस्त्र धारण करके
हमारे पितरों के पास से ही आगत और सनातन हुँ ।
३. यमक-पुत्रों (अह्विनीकुमारों) की माता ने उन्हें उत्पन्न किया॥
उनकी प्रशंसा करने के लिए सेरी जीभ का अगला भाग नाच रहा हे ।
अन्धकार-नाशक दिन के आदि में आगत मिथुन (जोडा) अन्म के
साथ ही स्तुति में मिलता हूँ।
४. इन्द्र, हमारे जिन पितरों ने, गोघन के लिए, युद्ध किया था,
उनका प् थिवी पर, कोई भी निन्दक नहीं हे । महिमा और कीत्तिवाले
इन्द्र ने अज्छिरा लोगों को समिद्ध गोवन्द प्रदान किया था ॥
४१२ हिन्दी-ऋणग्वेद
५, नवश्व (अङ्गिरा लोगों) के सखा इन्द्र जिस समय घुटने के
ऊपर जोर देकर गोधन की खोज में गये थे, उस समय अङ्गिरा लोगों
के साथ अन्धकार में छिप सुर्थ को देख सके थे।
६. इन्द्र ने प्रथम दुग्धदायी धेनुओं पर मध् सिञ्चित किया;
पश्चात् चरण और खर से यक्त धन ले आये । उदारचेता इन्द्र ने गृहा-
सध्यस्थित, प्रच्छ और अन्तरिक्ष में छिप सायावी को दाहिने हाथ
से पकड़ा ।
७. रात्रि से ही उत्पन्न होकर इन्द्र ने ज्योति धारण की । हम
पाप से दूर भय-शृन्य स्थान में रहेंगे। हे सोमपा और सोम-पुष्ट इन्द्र,
बहुस्तोम-विनाशक और स्तोत्रकारी की इस स्तुति का सेवन करो।
८. यज्ञ के लिए सूर्य यावा-पृथिवी को प्रकाशित करं । हम प्रभूत
पाप से दुर रहंग। यसुओ, स्तुति-हारा तुम्हें अनुकूल किया जा
सकता हे। प्रभूत और समृद्ध धव को प्रभूत-दानन्शील मनुष्य को
प्रदान करो । |
९. इन्द्र, तुम अन्न-प्राप्ति-कर्ता युद्ध में उत्साह-द्वारा प्रवद,
धनवान्, प्रभत-ऐश्वर्य-सम्पन्न, नेतृश्रेष्ठ, स्तुति-श्रदण-कर्सः, उग्र,
संग्राम सें शत्रु-नारक और धन विजेता हो। आश्रय-प्राप्ति के लिए
हम तुम्हें बुलाते हैं ।
द्वितीय अध्याय समाप्त ।
४० सूक्त =
(वृतीय अध्याय । देवता इन्द्र | ऋषि विश्वामित्र । छन्द गायत्री ।)
१. हे इन्द्र, तुम अभोष्टपुरक हो। अभिषुत सोमपान के लिए
हम तुम्हें बुलाते हें । मदकारक और अन्नसिश्चित सोम का तुम _
पान करो । |
हिन्दी-ऽः्देद ४१३
२. हे बषुजनस्तुत इन्द्र, यह अभिषत सोम बृद्धिवद्धक है । इसे
पीने की अभिलाषा प्रकट करो और इस तुप्हिकारक सोल से जढर
का सिङचच करो ।
३. हे स्तूयमान, सरुत्पति इन्द्र, सस्पुणं यजनीय देवों के साथ
तुम हमारे इस हविवाले यज्ञ कां भली भाँति वढ्न करो अर्थात् हृविः
स्वीकार कर इस यज्ञ को पूर्ण करो । |
४, हे सत्पति इन्द्र, हमारे द्वारा प्रदत्त, आह्वादक, दीप्ल, अथि-
षत सोम तुम्हारे जठर-देश सें जा रहा हू । इसे धारण करो ।
५, हे इन्द्र, यह अभिषुत सोम सबके द्वारा बरणीय हुं । इसे
तुम अपने जठर में धारण करो । यह सब दीप्त सोमरस तुम्हारे साथ
झुलोक में रहता हू ।
६. है स्तुतिपात्र इन्द्र, मदकारक सोम की धारा सेतुन प्रसन्न
होते हो; अतः हमारे अभिषुत सोम का पान करो। तुम्हारे दवारा
वदित अन्न ही हम लोगों को प्राप्त होता हे ।
. ७- देवयाजको की चुतिमान् , क्षयरहित सोन आदि सम्पूर्ण हवि
' इन्द्र के अभिमुख जाती हुँ । सोमपान कर इन्द्र वर्द्धित होते हैं ।
८. हे वृत्रविदारक इन्द्र, निकटतम प्रदेश से या अत्यन्त दूर देश से
हमारी ओर आओ । हमारी इस स्तुति-वाणी का आकर ग्रहण करो।
९. हे इन्द्र, यद्यपि तुम अत्यन्त दुर देश, निकटतम प्रदेश और
सध्य भाग देश में आहत होते हो; तथापि सोसपान के लिए इस यज्ञ
में आओ ।
४१ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र । छन्द् गायत्री ।)
१, हे वस्त्रघर इख, होताओं के द्वारा आहूत होने पर हमारे पास
हमारे यज्ञ में, तुम, सोमपान के लिए हूरि दासक घोड़ों के साथ,
शीर आओ । |
४१४ हिन्दी-ऋग्वेद
२ हमारे यश्च में यथाससय ऋत्विक होता, तुम्हें बुछाने के लिए,
हुँ। कुश परस्पर सम्बद्ध करके बिद्या दिये गये हैँ । प्रातःसवन
में सोमाभिषव के लिए प्रस्तर सब भी परस्पर सम्बद्ध किये हुए हूँ;
अतः सोसपान के लिए आओ ।
३. हे स्लुलिलभ्य इन्द्र, हम तुम्हारी स्युलि करते हुँ; अतः इस
यज्ञीय कुश पर बेठो। हे शूर, हमारे द्वारा प्रदत्त इस पुरोडाशा का
भक्षण करो ॥
४. हे स्तुतिपात्र और वृत्रहन्ता इन्द्र, हमारे यज्ञ के तीनों सवनों
में किय यथे स्तोत्रं और उकथों (झस्त्रों) में रसण करो ।
५. यहान् सोमपायी और बलपति इन्द्र को स्तुतियाँ बसे ही चाटती
है, जेसे गोएं बछडे को चाटती हं।
६. हे इन्द्र, प्रभूत धव-दान के लिए सोम के हारा हुम शरीर को
प्रसञ्च करो; परन्तु मुझ स्तोता को निन्दित नहीं करना !
७. हे इन्द्र, हम तुम्हारी इच्छा करते हुए हवि से युक्त होकर
तुम्हारी स्तुति करते हे । हे सवके निराशयिता इन्द्र, तुस भी हवि के
स्वीकरणार्थ हमारी रक्षा करो ।
८ हे हरि-(अइव) प्रिय, हमसे दूर देश मे घोड़ों को रथ से
सत खोलो । हमारे निकट आओ । हे सोमवान् इन्द्र, इस यज्ञ में हुष्ट
बनो ।
९. है इन्द्र, श्रसजल से युक्त और लम्ब केशवाले घोड़े, बेठने
योग्य कु के सामने, तुम्हे सुखकर रथ पर हमारे पास ले आवें ।
४२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि विश्वामित्र । छन्द गायत्री ।)
१. हे इन्र, हमारे दुग्थमिश्चित अभिषुत सोमर के निकट आओ; ह
क्योंकि तुम्हारा अश्व-संयुक्त रथ हमारी कामना करता हे ।
हिन्दी-हएजेड ४१५
२. है इन्हे, इस सोल के निकट आओ । यह पत्थरों पर पीस
कर निकाला गया हु ओर कुशो पर रखा गया हु । इसका प्रचुर परि“
माण में रके शीघ्र तप्त होओ ।
३. इन्द्र के लिए उच्चारित हमारी थह स्तुति-दाणी इन्द्र को,
सोमपानार्थ बुलाने के लिए इस पज्ञ-देश से इख फे विकट जाय ।
४, स्तोत्रों और उकथों-द्वारा सोसपान के लिए यश्च में हम इसे
को बुलाते हुँ । बहुबार आहूत इन्द्र यज्ञ स॑ आयें।
५. हे शतकऋतु इन्द्र, तुम्हारे लिए सोम तैयार हुं, इसे जठर में
धारण करो । तुम अन्नधन हो ।
६. हे कवि, युद्ध में तुम शत्रुओं के अभिभव-कर्ता और धनजेता
हो । हम तुम्हें ऐसा ही जानते हैं; अतएव हम तुमसे धन की याचनी
करते हु ।
७. हे इन्द्र, हसरे इस यज्ञ में आकर गढ्य-मिश्चित तथा यव-
सिश्चित अभिषुत सोस का पान करो।
८, है इख, तुम्हारे पीने के लिए ही इस अभिषुत सोम को
हम तुम्हारे जठर में प्रेरित करते हैं। यह सोम तुम्हारे हृदय में
तृप्तिकर हो ।
हे पुरातन इन्द्र, हम कुशिक-वंशोत्पन्न तुम्हारे द्वारा रक्षित
होने की इच्छा करते हुए, अभिषुत सोसपाच के लिए स्तुति-वचनो-
द्वारा तुम्हें बुलाते हुँ।
४३ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि विश्वासित्र । छन्द त्रिष्टुप् ॥)
१. हे इन्र, जूएवाले रथ पर घढ्कर हुल इरे निकट आओ ॥
यह सोम प्राचीन काऊ से ही तुम्हारे उद्देश से प्रस्तुत हे तुन अपने
श्रियतम सखास्वरूप अश्ब को कुश के निकट खोलो। ये ऋत्विक
सासपान के लिए तुम्हें बुला रहे हें।
४१६ हिन्दी-ऋणग्वेद
२. है स्वाथी इन्द्र, तुम समस्त पुरातन प्रजा का अतिक्रमण करके
आओ । छोड़ों के साथ यहाँ आकर सोसपान करो, यही हुसारी
प्रार्थना हे। स्तोताओं के हारा प्रयुक्ष सख्या भिलाषिणी स्लुतियां तुम्हारा
आह्वान कर रही हें।
३. हे ब्ोतमास इन्द्र, हमारे अन्नवद्धक यज्ञ में, घोड़ों के साथ,
सुम शीघ्र आओ । घृतसहित अज्ञरूप हवि लेकर हुम सोमपान करने
के स्थान में तुम्हारा, स्टुति-द्वारा , प्रभूत आह्वान कर रहे हैं ।
४. हे इन्द्र, सेचमसभर्थ, सुन्दर धुरा और शोभत अंगवाले,
सखास्वरूप ये दोनों घोड़े ठुम्हें यज्ञभूमि सें रथ पर ले जाते हैं। भूँज
जौ से युदत यज्ञ की सेवा करते हुए सखा-स्वरूप इन्द्र हम स्तोताओं की
स्तुवियाँ घुने । |
५° हे इत्र, मुझे लोगों का रक्षक बनाओ। हे मधवन्, हे सोम-
चान् इन्द्र, मुझे सबका स्वामी बनाओ । मुझे अतीन्द्रियद्रष्टा (ऋषि)
बनाओ तथा अभिषुत सोम का पानकर्ता भ्बनाओ और सुभे अक्षय
घन प्रदान करो ।
६. हे इन्द्र, महान् और रथ में संयुक्त हरि नामक मत्त घोड़े तुम्हें
हमारे अभिमुख ले आयें। कासनाओं के वषक इख्न के अशव शत्रुओं
के विनाशक हुँ । इन्द्र के हाथों से संस्पृष्ट होने पर वे घोड़े आकाशः
सागं से अभिमुख आते हुए और दिशाओं को दविधा करते हुए गमन
करते हू । |
७. हे इन्द्र, तुम सोमामिलाषी हो । तुस अभीष्टफरूदायक, और
धस्तर-्ड्रारा अभिषु सोस का पान करो । सुपणंपक्षो तुम्हारे लिए
सोम को लाया है । सोमपानजन्य हर्ष के उत्पन्न होने पर तुम शत्रु-
भूत सनुष्यादि को पातित करते हो एवं सोमजन्य हर्ष के उत्पन्न होने
प्र तुम वर्षा-ऋतु में मंघों को अपाबृत करते हो ।
८. इन्द्र, तुस अच्च प्राप्त करो । तुम युद्ध में उत्साह के द्वारा प्रवद,
धनवान प्रभूत, ऐश्वर्यवाले, नेतृश्रष्ठ, स्दुलिश्रवण-कर्ता, उग्न, युद्ध में
हिन्दी-त्रदग्वेद ४१७
शन्रुविनाशी और धनविजेता हो। आश्चयञ्राष्ति के लिए हम तुम्हें
बुझाते हुँ ।
३३ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र । छन्द् ब्रहती ।)
१. हे इन्द्र, पत्थरों-हारा अभिषुत, प्रीदिवरद्धक, कमनौय सोम
तुम्हारे लिए हो। हरिनामक घोड़ों से युक्त, हुरिद्वर्ण रथ पर तुम
अधिष्ठान करो ओर हमारे अभिमुख आगमन करो ।
२. हे इन्द्र, सोसाभिलाषी होकर तुम उषा की अचना करते हो
तथा सोधाभिलायी होकर तुस सूर्य को भी प्रदीप्त करते हो। हे
हरिवासक घोड़ोंदाले, तुम विद्वान् हो, हमारे मनोभिलाष के ज्ञाता
हो तथा अभिमतफल प्रदान से तुम हमारी सम्पूर्ण सम्पत्ति को
परिर्वाद्धत करते हो ।
३. हरिद्वर्ण रहिसवाले झोक को तथा ओषधियों से हरिद्व्णवाली
पृथिवी के, इन्द्र ने धारण किया हुँ । हुरिद्वर्णवाली द्यावा-पृथिवी के
मध्य में अपने घोड़ों के लिए इस प्रभूत भोजन प्राप्त करते हें । इन्र
इसी द्यावा पृथिवी के अध्य में विचरण करते हुँ ।
४. कासनाओं के पूरक, हरिद्वणवाले इख जन्म ग्रहण करते ही
सम्पूणं दीप्विमान लोकों को प्रकाशित करते हु। हरि नामक घोड़ोंबाले
इन्द्र हाथों में हरिद्र्ण आयुध घारण करते हें तथा शत्रुओं का प्राण-
संहारक चस आरण करते हूं ।
५, इन्द्र ने कमनीय, शश्र, क्षीरादि के हारा व्याप्त होने के कारण
शुञ्च, वेगवान् ओर प्रस्तरों-दारा अभिषुत सोम को अपावत किया हुँ ।
पणियो-द्वारा अपहूत गौओं के! इन्द्र ने अश्वथुक्त होकर गुहा से
बाहर निकाला हूं ।
फा० २७
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४१८ हुन्दोनप्रटग्बेद
४५ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र । छन्द बृहती ।)
१. हे इस, सादद और सथूरों के रोमों (पुच्छों) के समान
रोमों से युश्त घोड़ों के साथ तुम इस यञ्च में आजो । जसे उड़ते पक्षी
को व्याधे फास रखते हँ, वेले कोई भी तुन्हारे मार्ग में प्रतिबन्धक
न हो । पदिक मरुभूमि को जैसे उल्झधित कर जाते हु, वसे
ही तुम भी इन सकेछ बाधाओं का अतिक्रमण करके हमारे यज्ञ में
शीघ्र आओ ।
२. इन्द्र वृत्रहन्ता हैँ। ये मेघों को विदीर्ण करके जल के प्रेरित
करते हुँ । इन्होंने शत्रुप्री को विदीर्णे किया हूं । इनर ने हमारे सम्मुख
दोनों घोड़ों को चलाने के लिए रथ पर आरोहण किया है । इन्द्र ने
बलवान शत्रुओं को नष्ट किया है ।
३. हे इन्द्र, साघु गोपगण जसे गौओ को यव आदि खाद्य-पदार्थों
ते पुष्ट करते हुँ, महायकाश समुद्र को जिस प्रकार तुम्र जल-द्वारा
पृष्ट करते हो, वैते ही यज्ञं करनेवाले इस यजसान को भी तुम अभिसत-
फल-प्रदान से सन्तुष्ट करो । घेनुगण जैसे तृणादि को और छोटी सरि-
ताएँ जैसे सहाजखाइय को प्राप्त झरती हँ, वैसे ही यज्ञीय सोम तुम्हें
प्राप्तं करता है ।
४, हे इन्द्र, जैसे व्यवंहारज्ञ पुत्र को पिता अपने धन का साग दे
देता है, बसे ही शत्रुओं को परास्त करनेवारूा, धनवान् पुत्र हमें दो ।
पके फलों के लिए जेते अङ. श (लग्गी) वृक्ष को चालित कर देता है,
वेते ही तुम हमारी इच्छा को पूर्ण करनेयारा धन दो ॥
५, हे इन्द्र, तुम धनवान हो, स्वर्ग के राजा हो, सुबचन हो और
प्रभूत सीविवाले हो । हे बहु-जनस्तुत, तुम अपने बल से बद्धमान होकर
हमारे लिए अतिशय शोबन अ्यवाठे होओ ।
हिन्दी-ऋणष्येद ४१९
४६ सर
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र ।)
१. हे इन्द्र, लुभ युद्ध करनेवाले अभिमत-फरूदाता, धनों के स्वामी
साँगर्थ्दवान्, नितान्त तरुण , चिरन्तन, शत्रुओं के पराजित-कर्ता, जरारहित,
दज्रयारी ओर तीनों लोकों में विश्रुत हो । तुम्हारा वीर्य महान् है ।
२. हे पृ जनीय उग्र इग्द्र, तुम यहान् हो । तुम अपने धन को पार
ले जाते हो। पराक्रम से शत्रुओं को तुस अभिभूत करते हो। तुस
सम्पूर्ण संसार के एकमात्र राजा हो। तुस शत्रुओं का संहार करों और
साधचरित जनों को स्थापित करो ।
३. दोप्यसान और सब प्रकार से अपरिमित, सोसवान् इन्द्रं पर्वतों
से भी श्रेष्ठ हँ, बळ में देवताओं से भी अधिक हैं, द्यावा-पथियी से
भी अधिक हें तथा विस्तीर्ण, महान् अन्तरिक्ष से भी श्रेष्ठ हुँ ।
हे इन्द्र, तुम महान् हो; अतएव गंभीर हो तथा स्वभावं से
ही शत्रुओं के लिए भयद्कर हो । तुम सर्वत्र व्याप्त हो, स्तोतांओं के
रक्षक हो । बदियाँ जेसे समुद्र के अभिमुख गसन करती हूं, वसे ही
यह पूर्वकालिक अभिषुतं सोम इच के अभिसुख गन करे ।
५. हे इन्द्र, साता जिस प्रकार गर्भधारण करती हु, उसी प्रकार
दयावा पृथिवी दुम्हारी काना से सोम को धारण करती हे। हे कामनाओं
के प्रक, उसी सोम को अध्यर्य लोग तुम्हारे लिए प्रेरित करते
हुँ और उले तुम्हारे पीने के लिए शुद्ध करले हैं ।
३७ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१, हे इन्द्र, तुझ जलवर्षक मरुत्वान् हो। रमणीय पुरोडाशादि रूप
अन्न से युवत सोम को तुम संग्राम के लिए ओर हषं के लिए पियो ।
लुम विशेष रूप से सोम संघात का जठर में सेक करो; क्याकि तुम
पूर्वकाल से हो अचिपुत सोमों के स्वामी हो ।
४२० इन्दी-5हग्बेद
२. हे शूर इन्र, तुम देवयणों से संगत, मश्द्गणों से युक्त, वत्र-
हन्ता और कर्षविषयज्ञाता हो । तुम सोबपान करो । इुमारे शत्रुओं को
मारो, हिसक जन्तुओं का अयनोदन करो और हमें सर्वत्र विर्भय करो ।
३. हे ऋतुपा इन्द्र, सखा-स्वरूप सरतो और देवों के साथ तुम
हमारे अभिषु सोस का पान करो । युद्ध में सहायता पाने के लिए
जिन मरुतों का तुमने सेवन---ग्रइण--क्षिया था और जिन मश्तों ने
तुम्हें स्वामी माना था, उन्हीं मण्तों ने तुम्हें संग्रा में झन्रुहलनादि-
रूप पराक्रमवान् किया था; तब तुमने वृत्र को सारा था।
४. हे मघवम्, हे अइववन् इन्द्र, जिन सस्तो ने, अहिहनन-कार्य में,
बलिदान-द्वारा, तुम्हें संर्वाद्धत किया था, जिन्होंने तुम्हें शम्बर-वध में
संजद्धित किया था और जिन्होंने गौओं के लिए पणि असुरों के साथ
युद्ध में संवद्धित किया था, जो मेधावी सरत् तुम्हें आज भी प्रसन्न
कर रहे हे, उन मरुदूगणों के साथ तुस सोम-पान करो ।
५. हे इन्द्र, तुम मरुद्गण युक्त, जलवर्षी, प्रोत्याहक, प्र भूतराब्द-
विशिष्ट, दिव्यै, शासनकर्ता, विश्व के अभिभविता, उग्र तथा बलप्रद
हो । हम नूतन आश्रय (रक्षा) लास के लिए तुम्हें बुलाते हें ।
४८ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वासित्र । छन्द् त्रिष्ठुप् ।)
१. जलवर्षेक, सथ्यःउत्पश्च, कमनीय इन्र हबिय्ंकत सोनरूय अन्न के
संग्रहकर्ता की रक्षा करें । प्रत्येक कार्य में सोमान की इच्छा होने
पर तुम देवताओं के पहुले गव्यभिश्चित साधु सोत का पान करो ।
२. हे इन्द्र, तुम जिस दिन उत्पन्न हुए थे, उसी दिन विपासित
होने पर तुमने पर्वतस्थ सोमलता के रए का पान किया था । तुम्हारे
महानु पिता कश्यप के (सूक्ति का) गृह में, तुम्हारी युवती भाला
अदिति ने, स्तव्यदान के पहले तुम्हारे मुंह में सोमरस का ही
'सञ्चच किया था ।
हन्दी-ऋणग्वेद ४२१
३. दुख ने माता से ग्रार्थयवुरःशर अञ्च की याचना की और उसके
ह्तन में क्षीररूप से स्थित दीप्त सोम को देखा । गृत्त (जत्रुहननाथ
देवताओं-हारा अभिकांक्षित इन्द्र) शत्रुओं को अपने स्थानों से उच्चा-
लित कर सर्वत्र विचरण करने लगे । बहु प्रकार से अद्भविक्षय
कर इन्द्र ने वृत्रहननादि बहुविध महान् कार्य किये ।
४. शत्रुओं के लिए भयङ्कर, शीघ्र अभिभवकर्ता ओर पराक्रम
घान् इन्द्र ने अपने शरीर को नाना प्रकार का बनाया । इन्द्र चे अपनी
सामर्थ्यं से त्वष्टः नामक असुर को पराजित कर चमसनस्थित सोम
को चुराकर पिया ।
५. इन्द्र, तुम अन्न प्राप्त करो । थुढ में उल्साह के हारा प्रवृद्ध
घनवान्, प्रभूत, ऐश्वर्यवाले, नेतृ श्रेष्ठ, स्तुतिश्ववणकर्ता, उग्र, युद्ध में
शत्रुविनाज्ञी और घनविजेता हो । आश्रयप्राप्ति के लिए हम तुम्हें
बुलाते हें ।
४९ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. हे स्तोता, महान् इन्द्र की स्तुति करो । इन्ब्रद्धारा रक्षित
होने पर सब मनुष्य यज्ञ में सोमपाच कर अभीष्ट प्राप्त करते हें ।
देवताओं और द्यावा-पृथिवी ने ब्रह्मा-हारा आधिपत्य के लिए नियुक्त
शोभन कर्मवारे तथा पापों के हन्ता इख को उत्पन्न किया ।
२. संग्राम में अपने तेज से राजमान, हरिनामक घोड़ों से
कत रथ पर स्थित, बल-युद्ध के नेता और संग्राम में सेनाओं को दो
भागों में विभक्त करनेवाले जिन इन्द्र को कोई भी अतिक्रान्त नहीं कर
सकता, दे ही इन्द्र सेनाओं के उत्कृष्ट स्वामी हें । वे युद्ध में शाशु-बल-
शोषक मएतों के साथ तीव्रवेग होकर शत्रुओं के प्राणों को नट
करते हुँ ।
४२२ हिन्वी-त्रदग्वेद
३. जैसे बलवान् अश्व शत्रुबल का सम्तरण करता हँ, बैसे ही
बलवान् इन्द्र संग्राम में शत्रुओं का उत्क्रण करते हैं। द्यावा-पृथियी
को व्याप्त कर इन धनवान् होते हुँ । यज्ञ में पृथदैव की तरह हपनीय
इन्द्र स्तुतिकर्ताओं के पिता हुँ । आहूत होकर कमनीय इन्द्र अन्च-
दाता होते हैं
४. इन्द्र द्युलोक तया अन्तरिक्ष के धारक हुँ । वे ऊद्थ्वंगामी रथ
की तरह वर्तमान हे। वे गसनशीऊ सझतों के द्वारा सहायवान् हे
रात्रि को आच्छादित करते हैं, सूर्य को उत्पन्न करते हें ओर भजनीय
कर्मफल-रूप अन्न का वेले ही विभाग करते हुं, जैसे धनी का वाक्य
धन-विभाग करता हुँ ।
५. इन्द्र, तुम अन्न प्राप्त करो । तुम युद्ध में उत्साह के हारा
प्रवृद्ध, धनवान्, प्रभूत एश्वर्घवाले, नरश्रेष्ठ, स्तुतिश्रवणकर्ता उप्र,
युद्ध में शत्रुविनाशी और धनविजेता हो । आश्रय-ग्राप्ति के लिए हम
तुम्हें बुलाते हें ।
५० सूस
(देवता इन्द्र ऋषि विश्वामित्र । छन्द॒ त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र यज्ञ में आकर स्वाहाकृत इस सोम का पान करें। जिस इन्द्र
का यह सोम हुँ, वे विध्यारियों के हिंसक, याजकों के,अभिमतफल-
वर्षक और मरुद्वान् हें। अतिशय व्यापक इन्द्र हम लोगों के द्वारा दिये
गये अन्न से तृप्त हों। हव्य इन्द्र की अभिलाषा पूर्ण करे ।
हें इन्द्र, तुम्हें यज्ञ में आने के लिए हम रथ की परिचारक-
अइवयुक्त करते हूँ । तुम पुरातन हो, घोड़ों के वेग का अनुगमन करते
हो । हे शोभन-हनु इन्दर, घोड़े तुम्हें यज्ञ में धारण करें । आकर तुम
इस कमनीय और सलीभाँति अभिषुत सोम का शीघ्र पान करो ।
३. स्तोताओं के असिनतफऊवर्षक और स्तुलिद्वारा प्रसञ्च करते
योग्य इन्द्र को स्तोत्र करनेवाले ऋत्विक् लोग श्रेष्ठत्व और चिरकालीन
हिन्ढी-म्युग्बेद ४२३
प्राप्ति कै छिए गव्यभिश्चित सोब-हारा घारण करते हुँ । हे सोझबाल्
इन्द्र, प्रमुदित होकर पुम सोमपान करो और स्तोताओ को
अर्निहोचादि कार्यसिद्धि के लिए बहुविध धेनु दो ।
४. हमारी इस अभिलाबा को गो, अइव और शौप्पियाले धम के
इतरा पूर्ण करो तथा उनके द्वारा हमें विश्यात फरो । इन्दर, स्वर्णादि-
दुदाभिलावी और कर्मकुशल कुशिकमन्दनों ने मन्त्र-ारा तुम्हारा
स्तोत्र किया हें ।
५. इन्द्र, तुम अञ्च प्राप्त करो । तुम युद्ध में उत्साह के द्वारा
प्रबुद्ध, धनवान्, प्रभूत-ऐश्वर्षबाले, नेतुथेऽ्ठ, स्लुतिथयणकत्त, उग्न, युद्ध
में शत्रुविनाशी और धनविजेता हो। आश्यन्प्राप्ति के लिए हुम
तुम्हें बुलाते हँ ।
62.
५१ सूक्त
(देवता इन्द। ऋषि विशवासित्र । छन्द॒ जगती,
गायत्री ओर त्रिष्टुप् ।) |
१ अभिमत फल प्रदान से मनुष्यों के धारक, धनवान् उक्थ-द्ारा
प्रशंसनीय, बल-धन आदि सम्पति से प्रतिक्षण वद्धंघान, स्तोताओं-इारा
बहुशः आहूत, सरणधमं रहित और शोभन स्लुतिदचन से प्रतिदिन स्तुय-
सान इन्द्र की प्रभूत स्तुलि-वचवों से सब प्रकार से स्तुति कौ जाय ।
` २ इच सो यज्ञ करनेवाले, जलवाले, मरुतों से युक्त, सम्पूर्ण
जगत् के नेता, अन्न के दाता, शन्नुपुरी के भेदक, युद्धार्थं शीघगन्ता,
मेघभेदन-द्वारा जल के प्रेरक, धन-प्रदाता, शत्रुओं के अभिभवकर्त्ता तथा
स्का के प्रदाता है । इख के निकट हुसारी स्तुतिवाणी सब प्रकार
से जाय ।
३. इन्द्र शत्रुओं के बऊसंहारक हें, संग्राम सें वे सबसे स्तुत
होते हुँ । वे निष्पाप स्तुतियों को सम्सानित करते हैं । अग्निहोत्रादि
करनेवाले यजमान के गृह में सोमपान कर वे अत्यन्त प्रसन्न होते हुँ ।
४२४ हिन्दी-ऋष्वेद
विश्वामित्र, मरुतों के साथ शचुओ के अभिभवकर्ता और शबुसहारक्
इन्द्र की स्तुति करो ।
४. हे इन्द्र, लुम मनुष्यों के नेता तथा वोर हो । राक्षसोंद्वारा
पीडित ऋत्विक स्तुतियों तथा उक्थो (शस्त्रों) “वारा तुम्हें अली भाँति
आचित करते हें। वत्रहनवादि कर्म करनेवाले इख् बल के लिए गमनो-
यम करते हें । एकमात्र पुरातन इन्द्र ही इस अज्ञ के इश्वर हैं;
अतः इन्द्र को नमस्कार हे ।
५. सनुष्यों में इन्द्र का अनुशासन नाना प्रकार का है । शासक
इन्द्र के लिए पृथिवी बहुत धन धारण करती है। इन्र की आशा से
दुलोक, ओषधियाँ, जल, मनुष्यों और बुक्ष उनके उपभोगयोग्य
धन की रक्षा करते हँ ।
६. हे अश्ववान् इन्द्र, तुम्हारे लिए स्तोत्रों और शास्त्रों को त्रहृत्विक
लोग यथार्थ ही धारण करते हं, तुम उनका ग्रहण करो । हे सबके
निवासयिता और सखिस्वरूप इन्द्र, तुम व्याप्त हो। यह अभिनव हुवि
तुम्हें दी गई है, इसे ग्रहण करो । स्तोताओं को अन्न दो ।
७. हे मरुतों से युक्त इन्द्र, शर्याति राजा के यज्ञ में जैसे तुमने
अभिषुत सोम का पान किया था, वसे ही इस यज्ञ सें सोम-पान करो ।
हे शुर, तुम्हारे निर्वाध निवासस्थान सं स्थिर और सुन्दर यज्ञ
करनेवाले मेधावी यजमान हुवि के द्वार! तुम्हारी परिचर्या करते हें ।
८. हे इन्द्र, सोस की कामना करते हुए तुम मित्र मरुतों के साथ
हमारे इस यज्ञ में अभिषुत सोम का पान करो । हे पुरुओ-द्वारा
आहूत इन्द्र, तुम्हारे जम्म-प्रहण करते ही सब देवताओं ने तुम्हें
सहासंग्रास के लिए भूषित किया था ।
९. हे मर्तों, जल के प्रेरणा से इन्द्र तुम्हारे मित्र होते हे ।
उन्हें तुमने प्रसन्न किया था। वुत्रविनाशक इन्द्र तुम्हारे साथ हवि
देनेवाले यजमान के गृह भें अभिषुत सोम का पान करें ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ड्श्५्
१०, है घन के स्वामी स्तूयमान इन्द्र, उद्देशानुक्म से बलन्द्वारा इस
अभिषुत सोम का शीघ्र पान करो ।
११. है इन्द्र, तुम्हारे लिए जो अञ्च्िश्रित सोम अभिषत हुआ
है, उसमें अपने शरीर को निमग्न करो । तुस सोमपान कै योग्य हो ।
तुम्हें बह सोम प्रसञ्च करे ।
१२. हे इन्द्र, वह सोस तुम्हारी दोनों कुक्षियों को व्याप्त करे,
स्तोत्रों के साथ वह तुम्हारे शरीर को व्याप्त करे। हे शुर, धन के
लिए वह तुम्हारी दोनों भुजाओं को भी व्याप्त करे ।
५२ सूचक
(देवता इन्द्र | ऋषि विश्वामित्र। छन्द त्रिष्टुप्,
गायत्री ओर जगती ।)
१. हे इन्द्र, भुने जौ से युक्त, दधिमिश्चित, सत्त से युक्त, सवनीय
पूरोडाश से युक्त और शस्त्रबाले हमारे सोम का प्रातःसवन में तुम
सेवन करो ।
२. हे इन्द्र, पक्व प्रोडाश का तुम सेवन करो। प्रोडाश के
भक्षण के लिए उद्यम करो । इन के योग्य यह प्रोडाश आदि हवि
तुम्हारे लिए गसन करती हूँ ।
३. हे इन्द्र, हमारे इसप्रोडाशका भक्षण करो । हमारी इस
श्रृतिलक्षणा वाणी का वेसे ही सेवन करो, जेसे स्त्री की सक्ति
करनेवाला कासी पुरुष युवती स्त्री का सेवन करता हें ।
४. हे पुराणकाल से प्रसिद्ध इन्द्र, हमारे इस पुरोडाश का प्रातःसवन
में सेवन करो, जिससे तुम्हारा कमं महान् हो ।
५. हे इन्द्र, साध्यन्दिन-सवन-सस्बन्धी भुन जौ के कमवीय प्रोडाश
का यहाँ आकर भक्षण करके संस्कृत करो। तुम्हारी परिचर्या करनेवाले,
स्तुति के लिए त्वरितगमन (व्यग्र), अतएव बृष की तरह इधर-उधर
४३६ हिम्वी-नहग्येद
वीडनेवारे, सतोता जब स्तुतिलक्षण वचनो से तुम्हारी स्तुति करते
हूँ, तभी तुम प्रोडाश आदि का भक्षण करते हो ।
३० हे बहुजनस्तुत इन्द्र, तृतीय सवन में हमारे भुने जौ का और
हुत पुरोडाश का भक्षण करो । हे कि, तुम नऋभुवारे तथा
बनयुक्त पुत्रवाले हो । हम लोग हवि लेकर स्तुतियों-डारा तुम्हारी
परिचर्या करते हूँ ।
७. है इन्द्र, तुस पूषा नामक देववाले हो । तुम्हारे लिए हम दही
निला सत्तू बनाते हुँ । तुम हरि नामक घोडेवाले हो । तुम्हारे
खाने के लिए हम भुना जौ तैयार करते हें । मरुतों के साथ हुम
पुरोडाश का भक्षण करो । है शूर, तुम वृत्रहन्ता हो, विद्वान् हो,
सोम पियो । |
८. अध्वयुओ, इन्र के लिए शीघ्र भुना जौ दो । यह नेतुतम
हैं । इन्हें पुरोडाश प्रदान करो। है शत्रुओं के अभिभवरर्ता इच्ध,
तुम्हें लक्ष्य कर प्रतिदिन की गई स्तुति तुम्हें सोमपान के लिए
उत्साहित करे ॥
५३ सूक्त
(१४ ऋचा के देवता इन्द्र और पर्वत, १५-१६ के वाग् ,
१७-२० के रथांग, अवशिष्ट के इन्द्र । ऋषि
विश्वासित्र। छन्द जगती आदि।)
१. है इन्द्र और पर्वत, महान् रथ पर मनोहर और सुन्दर पुत्र से
युक्त अन्न लाओ । हे द्योतमान, हमारे यज्ञ में तुम दोनों हव्य का
भक्षण करो । हव्य-द्वारा हुष्ट होकर हमारे स्तुतिलक्षण यचनों से बद्धित
होओ ।
२. है सघवन्, इस यज्ञ में कुछ काल तक तुस सुखपूर्वेक ठहरो ।
हमारे यज्ञ से चले मत जाओ । क्योंकि, सुन्दर अभिषुह सोम-द्वारा
हम शी घ ही तुम्हारा यजन करते हैँ । हे शक्तिसम्पत्न इन्द्र, मधुर यचनो-
हिल्दी-ऋष्वेद ४९७
द्वारा पुत्र जैसे पिता के वस्तरप्रान्त का ग्रहण करता हैं बसे ही हस
सुमधूर स्तुतियो-उ[रा तुम्हारे वस्त्रप्रान्त को गहीत करते हें । |
= ३. हे अध्वर्घ्ओ, हम दोनों स्तुति करेंगे । तुम हमें उत्तर दो!
हम दोनों इन्द्र के उद्देश्य से घ्रीति-युक्त स्तुति करते हैं । तुम यजमान
के कुश के ऊपर उपवेशन करो । इन्द्र के लिए, हम दोनों के द्वारा
किया गया उक्थ (शस्त्र) प्रशस्त हो।
"४, हे मघवन्, स्त्री ही गृह होती हे और स्त्री हो पुरुषों का
मिश्चगन्स्थान है । रथ सें युक्त होकर अइव तुम्हें उस गृह में ले
जाये । हम जब कभी तुम्हारे लिए सोम को अभिषुत करेंगे, तब
हसारे-द्वारा प्रहित, हृतस््वरूष अग्नि तुम्हारे निकट गसन करें ।
५. हे मघवन्, तुम स्वकीय गृहाभिमुख होओ अथवा हमारे इस
यज्ञ में आगमन करो । हे पोषक, दोनों स्थानों में तुम्हारा प्रयोजन
है; क्योंकि वहाँ गृह में स्त्री है और यहाँ सोन है। गृह-गमन के लिए तुम
महान् रथ के ऊपर अधिष्ठान करो अथवा छोेषारव करनेवाले घोड़ों को
रथ सै विशुक्त करो ।
६. हे इन्द्र, यहीं ठहरकर सोम-पान करो । सोम पीकर घर
जाना। तुम्हारे रमणीय गृह में सङ्कलकारिणी जाया और सुन्दर ध्वनि
है। गुह-गमन के लिए तुम महान् रथ के अपर अवस्थान करो अथवा
अश्व को रथ से विमुक्त करो--इसी यज्ञ में ठहरो ।
७. है इन्द्र, यज्ञ करनेवाले ये भोज सुदास राजा के याजक हुँ,
नाना रप हें अर्थात् अङ्गिरा मेघातिथि आदि हैं । देवों से भी बलवान्
इद्र के पूत्र बलवान् मरुत् मुझ विश्वासित्र के लिए, अश्वमेध में महनीय
धन देते हुए, अन्न को भली भाँति वद्धित करं ।
८. इन्द्र जिस रूप की कामना करते हँ, उस रूप के हो जाते
है । मायावी इन्द्र अपने शरीर को नानाविध बनाते हें। वे ऋतबान् होकर
भी अऋतु में सोसपान करते है । वे स्वकीय स्तुति-दरा आहत होकर,
स्वर्गलोक से मुहूर्त-्मध्य में तीनों सवनों में गमन करते हूँ ।
४२८ हिन्दीनत्रदुग्वेद
. अतिशय सामथ्यवानू, अतीछियाथद्रष्टा च्योतमान तेजों के
जनयिता तेजों-हारा आकृष्ट और अध्वर्यु आदि के उपदेष्टा विइवामित्र
ने जलवान् सिन्धू को निरुद्धवेग किया । पिजवन के पुत्र सुदास राजा को
जब विश्वामित्र ने यज्ञ कराया था, तब इन्द्र ने कुशिकयोत्रोत्पन्न
ऋषियों के साथ प्रिय व्यबहार किया था ।
१०. हे मेधावियो, हे असी खिदार्थजाड,को, है नेतृगण के उपदेशको,
हे कुशिक-पोत्रोत्पन्नो, है पुत्रों, यज्ञ में पत्थरों-द्वारा सोम के अभिषुत
होने पर तुम लोग स्तुतियों-्वारा देवताओं को प्रसन्न करते हुए
इलोक (मन्त्र) का भली भाँति उच्चारण करो, जसे हंस शब्दों का
भली भाँति उच्चारण करते हुँ । देवगण के साथ तुस लोग मधूर सोम
शस का पान करो ।
११. है कुशिकमोत्रोत्पन्नों, हे पत्रो, तुम लोग अइव के समीप
जाओ, अइव को उत्तेजित करो । घन के लिए सुदास के अश्व को छोड़
दो । राजा इस्टर ने विष्नकारक वत्र का पूर्व, पश्चिम और उत्तर
देश में वध किया हुँ । अतएव सुदास राजा पृथिवी के उत्तम स्थान
में यज्ञ कर ।
१२. हे कुशिक पूत्रो, हुम (विइवामित्र) ने द्यावा-प्थिवी-द्वारा इख
का स्तव किया है । स्तोता विश्वामित्र का यह इन्द्र-विषयक स्तोत्र
भरतकुल के मनुष्य की रक्षा करे ।
१३. विशवामित्र-वंज्ञीयों ने वप्त्रघर इख्न के लिए स्तोत्र किया
हुँ। इन्द्र हस लोगों को शोभन घन से युक्त करें ।
१४. हे इन्द्र, अनार्यो के निवासयोग्य देशों में कीकटसमूह के
मध्य में गोएँ तुम्हारे लिए क्या करेंगी ? वे सोम के साथ मिश्रित
होने के योग्य दुग्ध दान नहीं करतो हे । दुग्ध प्रदान-द्वारा बे पात्र
को भी दीप्त नहीं करती हु । हे धनवान् इन्द्र, उन गौओं को तुम
हमारे निकट लाओ और प्रमगन्द (अत्यन्त कुसीदिकुल) के धन का भी
आनयन करो । हे सेघवन्, नीच वंशवालों का धन हमें दो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ४२९
१५. अग्नि को प्रज्वलित करनेवाले ऋषि:यों-दारा सूर्य से लाकर
हम लोगों को दो गई, अजान को बाधित करनेबाली, रूप,
शब्द तथा सर्वेत्र सपणशीडा वाक् (वचन) आकाश में प्रभूत हाब्द
करती हैं । सुर्य को दुहिता वाग्देवता इन्द्र आदि देवताओं के निकढ
पत्थररहित अमृत रूप अन्न को विस्तृत्त करती हुँ ।
१६. गद्य-पद्य-हूप से सर्वत्र सपंणशीला वाग्देवता चारों वर्ण तथा
निषाद में जो अझ विद्यमान हूं, उससे अधिक अन्न हमें शीघ्र दे ।
दीर्घ आयुवाले जमदरिन आदि सुनियों ने जिस बचन को सूर्य से लाकर
हमें दिया हूं, पक्षों के निर्वाहक सूर्य की दुहिता, बह वाग्देवता हमारे
लिए नूत्न अन्न दान करे ।
१७. सुदास के यज्ञ में अदभूथ करने के उपरान्त यज्ञाला से
जाने की इच्छा करते हुए विश्वासित्र रयाङ्ग की स्तुति करते हुँ--
गोद्रय स्थिर होओ, अक्ष दृढ़ होओ । दण्ड जिससे विनष्ट नहीं हो,
युग जिससे बिनष्ट नहों हो, युग जिससे विज्ञीर्ण नहीं हो । पतनशील
कीलकट्टय के विज्ञीर्ग होने के पहले ही इन्द्र धारण करे। है अहिंसित
नेमिविशिष्ट रथ, तुम हम लोगों के अभिमुख आगमन करो ।
१८. हे इन्द्र, तुम हम लोगों के शरोर में बलदान करो, हमारे
बुषभों को बलदान करो और हमारे पुत्र पोत्रों को चिरजीवी होने
के लिए बलदान करो; क्योंकि तुम बलप्रद हो । |
१९. हे इन्द्र, रथ के खदिर-क्राष्ठ के सार को दृढ़ करो, रथ के
शीद्षाम के काठ को दृढ़ करो। हे हम लोगों के द्वारा दुढ़ीकृत अक्ष,
तुम दृढ़ होओ । हमारे गमनशील इस रथ से हमें फेंक नहीं देना ।
२०. वनस्पतियों-द्वारा निमित यह रथ हम लोगों को मत
व्यक्त करे, सत विनष्ट करे । जब तक हम लोग गुह न प्राप्त करें,
जब तक रथ चलता रहे और जब तक कि, अइव विमुक्त न हो
जाये, तब तक हस लोगों का मङ्गल हो । |
४३० हिन्दी-ऋण्वेद
२१. है श्र, है धनवान इच्च, हम लोग शत्रुओं के हिसक हे ।
हम लोगों को तुम प्रभूत और श्रेष्ठ आश्रय वान-द्वारा सन्तुष्ट करो |
जो हम लोगों से रेष करता है, यह भिकृष्ट होकर पतित हो । हम
लोग जिससे द्वेष करते है, उसे प्राणवायु परित्याग करे ।
२२. हे इन्द्र, जैसे कुठार को पाकर वृक्ष प्रतप्त होता है, वैसे ही
हमारे शत्रु प्रतप्त हों । शाल्मली पृष्प जैसे अनायास ही वन्तच्युत हो
जाता हुँ, वैसे ही हमारे शत्रुओं के अवयव विच्छिन्न हों। प्रहत, जलं
सावी स्थाली (हाँडो) पाककाल में जैसे फनोद्गीण करती हु, वसे ही
सेरी मन्त्रसाभथ्य॑ से प्रहत होकर शत्र मुख-दारा फनोद्गीणे कर ।
२३. वसिष्ठ के भृत्यों को विइवामित्र कंहते हैं--हे पुरुषों, अवसान
करनेवाले विइवामित्र की मन्त्र-सामर्थ्य को तुम लोग नहीं जानते हो ।
तपस्या का क्षय ने हो जाय, इसी लोभ से चुपचाप बेठ हुए को पशु
मानकर लेजा रहे हों। बलिष्ठ मेरे साथस्परद्धा करने के योग्य नहीं
हे, क्योंकि प्राज्ञ व्यक्ति सूखे व्यक्ति को उपहासास्पद नहीं करते
हें; अइव के सम्मुंख गर्देभ नहीं लाया जाता है।
२४. हे इन्द्र, भरतवंशीय (वसिष्ठ के साथ) अपगमन (पार्थक्य)
जानते है, गसन (एकता) नहीं जानते ह अर्थात् शिष्टो के साथ उनकी
संगति नहीं हें । संग्राम में सहज शत्र की तरह उन लोगों के प्रति वे
अइव प्रेरण करते हें और धनुर्घारण करते
५७३४ सूक्त
(५ अनुवाक । देवता विश्वदेवंगण | ऋषि विश्वामित्र के पुत्र
प्रजापति अथवा वाक् के पुच्र प्रजापति । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. महान् थंज्ञ में संत्थनन्हारा निष्पाधमान और स्तुति-योग्य
अग्नि के उद्देश्य से यह सुखकर स्तोत्र बारम्बार उच्चारित होता हुँ ॥
अस्ति गृह में विद्यमान होकर तथा तेजोविशिष्ठ होकर हुमारे इस
डिस्दी-मारण्देद ३३१
स्तोत्र को हुने । दिव्य तेज से (नरन्तर घुक्त होकर अग्नि हमारे इस
स्तोत्र को सुने ।
२, है स्तोता, सहूती दादा-पचिदी की साझथ्यं को जानते हुए तुम
उनकी अर्चना करो । घेरा सनोश्थ सम्पूर्ण भोग का इच्छुक हे, सर्वत्र
वर्तमान है। पूजाभिलायी देवगण सम्पूर्ण मनुष्यों फे यज्ञ सें झावान्पूथिवी
के स्तोत्र करने में मत्त होते हें ।
३. हे यावा-पथिवी, ठुम्हारा ऋत (अनशंसता) यथार्थ हो। तुम
हमारे महान् यज्ञ की समाप्ति के लिए समर्थ होओ। है अग्नि, झुळोकं
ओर पृथिवी को नमस्कार है । हबिलंक्षण अन्न से में परिचर्या करता
हैं, उत्तन धन की याचना करता हूँ !
४. हे सत्ययुदत यादा-पृथिवी, पुरातन सत्यवादी महूर्षियों ने तुमसे
हितकर अर्थ (अभिलषित) प्राप्त किया था । हे पृथिवी, युद्ध में
जाचेवाले शनुष्यगण तुम्हारे माहात्थ्य को जानकर तुम्हारी बन्दना
करते हूँ।
५, उस सत्यभूत अर्थ को कौन जानता हुँ ? कोच उस जाने
हुए अर्थ को वोरूता है ॥ फोम समीचीन पथ देवताओं फे निकट ले
जाता है । देवगण फे अघधःस्थाव अर्थात् झुळोकर्थित नक्षत्रादि देखे
जाते है । बे उत्कष्ट और दुर्शंघ व्रत में अवस्थिति करते हँ ।
६. कवि, मनुष्यों के द्रण्टा सुर्यं इस धावा-पृथियी को सर्वत्र देखते
हें । जल के उत्पत्ति-स्थान अन्तरिक्ष में हर्षकारिणी) रसवती ओर समान
कर्मो-हारा परस्पर एवयभाषापञ्ना द्यावान्पृथियी पक्षियों के घोसलों
को तरह पृथक्-पृथक् नामा स्थान को अधिकृत करती हूँ ।
७, परस्पर प्रीतिधुकत कसे "द्वारा एकसत्य प्राप्त, वियुदते होकर वतः
सान अविनाशिनी यादान्यूथिकी जागरणझील होकर अनवर अन्तरिक्ष में
नित्य तरुण अगितीद्य की तरह एक जाल्या से जायसांन होकर ठहरी
हुँ । बे दोनों आपस में इन्टर (दिथुन) पाय असिहित करती हूं ।
४१२ हिन्वी-ऋग्वेद
८. यह चावा-पृथिवी सम्पूर्णं भौतिक वस्तु को अवकाश-दान-द्ारा
_ विभक्त करतो हे। महान् सूर्य, इन्र आदि अथवा सरित्, समुद्र, परवत
भादि को धारण करके भी व्यथित नहीं होती हे । जङ्धामात्मक और
स्थावरात्मक जगत् केवल एक पृथिवी को ही प्राप्त करता हे । चञ्चल
पशु और पक्षिण मावा झप होकर ज्ावा-पृथिवी के सध्य में ही
अवस्थित होते हे ।
९, हे झो, तुम महान् हो, तुम सबका जनन करती हो और
पालन करती हो । तुम्हारी सनातमता, पूर्वकमागता और हुम लोगों का
जननत्व सब एक से हो उत्पन्न हुआ हे। यौ भगिनी होती है । हम
अभी उसका (भगिनीत्व का) स्सरण करते हूँ । द्युलोक में, विस्ती
ओर घिविक्त आकाश में तुम्हारी स्तुति करनेवाले देवता अपने वाहनों
के सहित स्थित हें । वहाँ ठहरकर वे स्तोत्र सुनते हें ।
१०. हे झावा-पृथिवी, तुम्हारे इस स्तोत्र का हम अच्छी तरह से
उच्चारण करते हैँ । सोम को उदर सें धारण करनेवाले, अस्मि
रूपी जिल्लावाले, भली भाँति दीप्यवान, नित्य तरुण, कबि, अपने-अपने
कर्म को प्रकट करवेबाले मित्र आदि देवता इस स्तोत्र को सुने ।
११. दानार्थं हिरण्य को हाथ में रखनेवाले, शोभनम वचनवाले
सविता यज्ञ के तीनों सवनों सं आकाश से आते हैं । हे सविता, तुम
स्तोतःश्रों के स्तोत्र को प्राप्त करो । इसके अनन्तर, सम्पूर्ण,
अभिलबित फल को हस लोगों के लिए प्रेरित करो ।
१२. शुन्दर जगत् के कर्ता, कल्याणपाणि, धनवान्, सत्यसङ्कल्प
श्वष्टदेव रक्षा के लिए हम लोगों को सम्पूर्ण अपेक्षित फल प्रदान करें ।
हे ऋभुओ, पूषा के सहित तुभ हस लोगों को धन प्रदान करके हृष्ट
करो । क्योंकि, सोसाभिषक के लिए प्रस्तर को उत्तोड़न करनेवाले
ऋत्विकों से यह यज्ञ किया हुँ।
१३. योतमान रथवाले, आयुधवान् दीप्लिसान्, शत्रुओं के विनाशक,
यज्ञ त्पल, सतत गमनशील, यज्ञाई भएुद्गण और वाग्देवता हमारे इस
हिन्दीन्क्रस्वेद ४३३
होच कौ सुने । है श्वरास्वित मरदगण, हुमें पुत्रविशिष्ड घन
दान करो ।
१४. धन का हेतुभूद यहु स्तोत्र और अर्चनीय शस्त्र, इस विस्तत
यज्ञ में, बहुकर्मा विष्णु के लिकड गसन करे ॥ सबकी जनयित्री और
रत्पर असडूगर्णा दिशाणें, जिस विष्णु को हसित नहीं करती
है, वह विष्णु उड यिक्रमी हैं । त्रिविक्रमावतार में एक ही पैर से उन्होंने
इम्पूर्ण अयत् को आक्रान्त किया था ।
१५, सकल-सासथ्य-तस्पञ्च इन्द्र ने दावा और पृथिवी दोनों को
सहिया“द्वारा पुणं किया है। इात्रुपुरी को विदीणं करनेवाले, वृत्र को
सारयेवाले और शत्रुओं को पराजित करनेबाली सेनावाले इन्द्र पशुओं
का संग्रह करके हुमें प्रजुर परिमाण सें पशुदान करें।
१६. हैं अश्वियीकुभारौ, तुम हम बन्धुओं की अभिलाषा की
जिज्ञासा करनेवाले हो, हुमारे पालक होओ। तुम दोनों का मिलन
कमनीय है । हे अच्विन्, हमारे लिए तुम उत्तम धन के देनेवाले. होओ।
तुम्हारा तिरस्कार कोई भी नहीं करता है। तुम्हें हम हवि देते हैं।
तुम शोभन कमे-द्रारा हमारा पालन करो।
१७. हे कवि देवगण, तुम्हारा बह प्रभूत कर्म मनोहर है, जिससे
दुस लोग इन्त्रलोक में देवत्व प्राप्त करते हो। हे बहुननाहुत इन्र,
तुम प्रियतम ऋणुओं के साथ सस्यभायापञ्च हो। तुस हमारी इस स्तुति
को, धनादिलाभ के लिए, स्वीकृत करो । |
१८. सवदा गमनशील सूर्य, देवमाता अदिति, यज्चाह देवगण और
हुसित कमं करनबाले वरण हस लोगों की रक्षा करें। वे हमारे माग
से पुत्रों फे अहित के को अथवा पतनकारक कर्म को दूर करें। हमारे
गृह को वे पशु आदि से तथा अपत्य से युक्त करें।
१९, अर्निहोत्र के लिए बहु देशों मे प्रयुत या विहित और देवताओं
के दृत अग्नि हैं । कर्मताथन की विगुणता से हम सापराथ हेँ। हमें अग्रि
[० २८
४३४ हिन्दी-ऋग्वेद
सर्वत्र निरपराध कहें। चावा-पृथिवी, जलसमूह, सुर्यं और नक्षत्रों-हारा
पूर्ण विद्ञाल अन्तरिक्ष हमारी स्तुति सुनें।
२०. अभिमत-फल-सेचक मदद्गण, अथियों को कामना को पूर्ण
करनेवाले निशचल पर्वत हविरज्न से प्रसन्न होकर हमारी स्तुति सुनें ।
अदिति अपने पुत्रों के साथ हमारी स्तुति युनें। मठ्दगण हमें कल्याण-
कर सुख दें। |
२१. हे अग्नि, हमारा मार्ग सदा सुख से जाने योग्य तथा अन्नवान्
हो। हे देवो, भधर जल से ओषधियो को संसिकल करो । हे अग्नि,
तुमसे मैत्री प्राप्त करवे पर हमारा घन विनष्ड नहीं हो। हस जिससे
धन के ओर प्रभूत अन्न के स्थान को प्राप्त करें।
२२. हे अग्नि, हवम-योग्य हवि का आस्वादन करो, हमारे अन्न
को भली भाँति प्रकाशित करो और उन अचलो को हमारे अभिमुख
करो। तुम संग्राम सें बाधा डालमेवाले सब शत्रुओं को जीतो और
प्रफुल्लित सझवाले होकर तुस हमारे सम्पुर्ण दिवसो को
प्रकाशित करो ।
५५ सुत्त
(देवता १ के वैश्वदेव, २--९ के अग्नि, १० के अहोरात्र, ११-१४
के द्यावा-प्रथिवी, १५ के यूनिशा, १६ के दिक् , १७-२२
के इन्द्र । ऋषि प्रजापति | छुभ्द् त्रिष्टुप॥ )
१. उदथकाल से प्राचीन उषा जब दग्च होती है, तब अविनाशी
आदित्य समुद्र से या आकाश में उदित होते हें। सूर्य के उदित होने
पर अग्निहोत्रादि के लिए तत्पर यजमान कर्म करते हु और शीघ्र ही
देवताओं के समीप उपस्थित होते हें। देवताओं का महान् बळ
एक ही हैं \ |
२. हे अग्नि, इस समय देवता हमें अच्छो तरह से मत हसित
करें । देव-पदवी को प्राप्त पुरातन पुरुष (पितर) हमें मत हिँसित
हिन्दी-ऋषण्वेद ४३५
करें । यज्ञ के प्रज्ञापक, पुरातन झावा-पृथिवी के मध्य सें उदित सूर्य हमें
मत हसित करे । देवताओं का महान् बल एक ही हे ।
३. है अग्नि, हमारी बहुविध अभिछाषाय विविध दिशा सं गमन
करती हुँ । अग्निष्टोभादि यज्ञ को लक्ष्य कर हम पुरातन स्तोत्र को दीप्त
करते हैं। यज्ञार्थे अग्नि के दीप्त होने पर हस सत्य बोलेंगे। देवताओं
का महान् बल एक ही हे ।
४. सर्वताधारण के राजा दीप्यमान अग्नि (या सोम) बहुत
देशों में अग्निहोत्र के लिए स्थापित होते हें। वे वेदी के ऊपर शयन
करते हँ। अरणि-काष्ठ या चमस के ऊपर विभक्त होते हें। द्यावा-
पृथिवी इनके माता-पिता हें, उनमें अन्य अर्थात् ब्रुलोक इन्हें वृष्टि आदि
के द्वारा पुष्ट करते हैं और अन्य माता वसुधा इन्हें केवल निवास देती
हें। देवताओं का सहान् बल एक ही हे। |
५. जीर्ण ओषधिथों मं वर्तमान तथा नव्य ओषधियों में गुणानुरूप
से स्थित अग्नि या सूर्य सद्योजात, पल्लवित ओषधियों के भभ्यन्तर
में वर्तमान हैं। ओषधियां बिना किसी पुरुष के रेतः-संयोग से अग्नि के
द्वारा गर्भवती होकर फल-पुष्प आदि को उत्पन्न करती हें। यह देवों का
एश्वर्य है। देवताओं का महान् बल एक ही हे ।
६. दोनों लोकों के निर्माता अथवा द्यावा-पृथिवीरूप माता-पिता
घाले सूर्ये पश्चिम दिश्ञा में, अस्तवेला मं, शयन करते हें; किन्तु उदय-
वेला में वे ही चावा-पृषिवी के पुत्र सूये अप्रतिबद्ध-गति होकर आकाश
में अकेले चलते हैं। यह सकल कर्म मित्र और वरुण का है। देवताओं
का महान् बल एक ही हू।
७, दोनों लोकों के निर्माता, यज्ञ के होता तथा यज्ञ में भली भाँति
राजमान अस्मि, आकाश में सुये रूप से विचरण करते हुं। वे सब कर्मों
के मूलभूत होकर भूमि सें निवास करते हें। रमणीय वचनवाले स्तोता
अच्छी तरह से रमणीय स्तोत्रों को करते हें। देवताओं का महात् बल
एक ही हूं।
४३६ हिन्दी-ऋणग्वेद
८, युद्ध करनेवाले श्र व्यक्ति के अभिमुख आनेवाली शत्र-सेना
जैसे पर(ङ मुख दील पड़ती है, बैसे ही समीप में वर्तमान अग्नि
के अभिमुत्न आनेबाला भूतजात पराङ मुख होता दीख पड़ता है। सबके
हारा ज्ञायमान अग्नि जल को शहिवित करनेवाली दीप्ति को मध्य में
धारण करते हें। देवताओं का महान् बल एक ही है ।
९. पालक और देवो के दूध अग्नि ओषधियो के मध्य सं अत्यन्त
व्याप्त होकर बर्ेमान हुँ। वे सूर्य के साथ द्यावा-पृथिवी के मध्य में
चलते हेँ। वानाविध रूपों को धारण करते हुए वे हस लोगों को विशेष
अनुग्रह-दृष्टि से देखें । देवताओं का महान् बल एक ही हैं ।
१०, व्याप्त, सबके रक्षक, प्रियतम और क्षयरहित तेज को धारण
करनेवाले अग्नि परम स्थान की रक्षा करते हें अथवा लोकधारक जल
को धारण करते हुए जल के स्थान अन्तरिक्ष की रक्षा करते हैं।
अग्नि उन सम्पुर्ण भूतजात को जानते हैं। देवताओं का महान् बल
एक ही है ।
११. सिथुवभत अहोरात्र चानाविध रूप धारण करते हैं। कृष्णवर्णा
तथा शुक्लवर्णा जो दोनों भयिनियाँ हें, उनके मध्य में एक अर्जुनवर्णा
या दीप्तिशालिनी हे ओर दूसरी कृष्णवर्णा हु। देवताओं का महान्
बल एक ही हु ।
१२. माता पृथिबी और दुहिता दयुलोकस्वरूप दोनों क्षीरदायथिनी
थेत जिस अन्तरिक्ष में परस्पर सङ्गत होकर अपने रस को एक दूसरी
को पिलाती है, जल के स्थाचभूत उस अन्तरिक्ष के मध्य में स्थित द्यावा-
पृथिवी की हम स्तुति करते हैं। देवताओं का महान् बल एक ही हृ।
` १३. शलोक प॒थिवी के पुत्र अग्नि को उदकधारारूप जिह्वा से
चाटते हें और सेघ-हारा ध्वनि करते हु। दर्पा घनु पृथिवी को जळू-
वाजत करके अपने ऊथःप्रदेश फो पुष्ट करती है । वह जलर्घाजत पृथिबी
सत्यभूत आदित्य के जल से वर्षाकाल में सिवत होती ह। देवताओं
का महान् बळ एक ही ह!
हिन्दी-ऋग्वेद ४३७
१४. पृथ्वी नानाविध शरीर को आच्छादित करती हैं। उन्नत
होकर वे तीनों लोकों को व्याप्त करनेवाले अथवा डेढ बर्ष की अवस्था-
वाले सूयं को चाटती हुई अवस्थान करती हें । सत्यभूत आदित्य के स्थान
को जानते हुए हम उनकी परिचर्या करते हँ । देवताओं का महान् बल
एक ही हे । |
१५. पदढय की तरह दर्शनीय अहोरात्र द्यावा-पृथिवी के मध्य में
स्थापित हेँ। उनके सध्य में एक गूढ़ और अन्य आविर्भेत हें । अहोरात्र
का परस्पर सिलन-पथ (काल) पुण्पकारी और अपुष्यकारी दोनों को
ही प्राप्त होता हे । देवताओं का महान् बल एक ही है।
१६. वृष्टिन्ट्वारा सबको प्रोणयित्री, शिशुरहिता, आकाश में वतं-
माना, अक्षीणरसा, क्षीरप्रसविणी युवती और सवंदा न्तनस्वरूपा दिश्यायें
(या मेघ) कम्पित हों। देवताओं का महान् बल एक ही हे ।
१७. जल के वर्षक पर्जेन्यरूप इन्द्र अन्य दिशाओं में सेघ-द्वारा प्रभूत
शब्द करते हें । वे अन्य दिशासमूह मे वारिवर्षण करते हें । वे जल या
शत्रु के क्षेपनवान् हें, सबके हारा भजनीय हें और सबके राजा हें।
देवताओं का महान् बल एक ही है।
१८, हे जनो, शूर इन्द्र के शोभन अशवों का हम शीघ ही प्रभूत
वर्णन करते हें । देवता भी इन्द्र के अइवों को जानते हैँ । दो-दो मासों
को मिलाने पर छः ऋतुएँ होती हें; फिर हेमन्त और शिशिर को मिला
देने पर पाँच ही ऋतुएँ होती हैँ । ये ही इन्द्र के अश्व हैँ । ये कालात्मक
इन्द्र का वहन करती हे । देवताओं का महान् बल एक ही है।
१९. अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक, नानाविध रूपविशिष्ट
स्वष्दुदेव बहुत प्रकार से प्रजाओं को उत्पन्न करते हे और उनका पोषण
करते हूँ। ये सम्पूर्ण भूवन त्वष्टा के है । देवताओं का महान् बल
एक्क ही है । |
२०, इन्द्र ने महती और परस्पर संगत द्याजा-पृथिवी को पझ-पक्षियों
से युक्त किया है। बह ावा-पृथिवी इन्द्र के तेज से अतिशय व्याप्त
४३८ हिन्दी-ऋग्वेद
है । समर्थ इन्द्र शत्रुओं को पराजित कर उनके धन को ग्रहण करने में
विख्यात हैं । देवताओं का महान् बल एक ही है ।
२१. विश्वधाता और हम लोगों के राजा इन्द्र इसप्थ्वी तथा अन्त-
रिक्ष में हितकारी मित्र को तरह निवास करते हें। वीर घरुद्गण संग्राम
के लिए इन्द्र के आगे जाते हें। वे इन्द्र के गह में निवास करते हैं।
देवताओं का महान् बल एक ही है ।
२२. हे पर्जन्यात्मक इन्द्र, ओषधियों ने तुमसे सिद्धि पाई हे, जल
तुमसे ही निःसृत हुआ हे और पृथ्वी तुम्हारे भोग के लिए धन
को धारण करती हुँ। हम लोग तुम्हारे सखा हुँ। हम लोग तुम्हारे
. घन के भागी हो सके । देवताओं का महान् बल एक ही हे ।
ततीय अध्याय समाष्त ।
५६ सक्त
(चतुर्थं अध्याय । देवतां विश्वदेवगण । ऋषि प्रजापति ।
छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. मायावीगण देवों की सृष्टि के अनन्तर होनेवाले, स्थिर और
प्रसिद्ध कर्मो को हिसित न करें, विद्वान् लोग भी न करें । द्रोह-रहित द्यावा-
पृथिवी प्रजागण के साथ उन्हें विधूनयक्त नहीं करें। अचल पर्वतों को |
कोई अवनत नहीं कर सकता है ।
२. एक स्थायी संवत्सर वसन्त आदि छः ऋतुओं को धारण करता
हैं । सत्यभूत और प्रवृद्ध आदित्यात्सक संवत्सर को रहिमयाँ प्राप्त करती
हैं। चञ्चल लोकत्रय ऊपर-ऊपर अवस्थित हें । स्वर्ग और अन्तरिक्ष
गुहा में निहित हुँ; एक पृथिवी ही दीख पड़ती हैं ।
३. ग्रीष्स, वर्षा और हेमन्त नामक तीन उरवाले, जलूवर्षक, नाना-
रूप, तीन ऊध (वसन्त, शरत्, हेमन्त) -विशिष्ऽ, बहु प्रकार, प्रजावान्,
हिन्दी-ऋष्वेद ४३९
उष्ण) वर्षा और शीतात्मक तीन गुणवाले तथा महत्त्ववान् संवत्सर आते
हैं। सेचन-ससर्थ संवत्सर सबके लिए उदक धारण करते हें।
४. संवत्सर इन सकल ओषधियो के समीप उनके पदस्वरूप जागरितं
हुआ है । में आदित्यों (चेदि मासों) का मनोहर नाम उच्चारण करता
हँ । युतिमात् और स्वतन्त्र पथन्द्वारा जानेवाला जल-समूह इस संवत्सर
को चार महीनों तक ब् ष्टिन्द्रारा प्रीत करता हे और आठ महीनों तक
छोड़ देता है ।
५, हे नदियों, त्रिगुणित चिसंख्यक स्थान देवों का निवासस्थान
है। तीनों लोकों फे निर्माता संवत्सर या सुर्य यज्ञ के सम्राट हुँ । जलन
वती अन्तरिक्षचारिणी इला, सरस्वती और भारती नामक तीन योषित्
यज्ञ के तीनों सबनों में आगमन करें ।
६. हे सबके प्रेरक आदित्य, झुलोक से आकर प्रतिदिन तीन बार.
रमणीय धन हम लोगों को प्रदान करो । हे हम लोगों के रक्षक आदित्य,
हस लोगों को दिन के मध्य में तीन बार अर्थात् तीनों सबनो में पशु, कनक,
रत्न ओर गोधन प्रदान करो । हे धिषणा, हम लोगों को जिससे धन
लाभ हो, बसा करो ।
७. सविता दिन में तीन बार हम लोगों को धन प्रदान करें । कल्यां”
णयामि, राजा, मित्रावदण, यावा-पृ्थिवी और अन्तरिक्ष आदि
देवता सविता देव की वदान्यता से अपेक्षित अर्थ की याचना करें ।
८. विनाश-रहित और झृतिमान् तीन उत्तम स्थान हैं । इन तीनों
स्थानों में कालात्मक संवत्सर के अग्नि, वायू और सूर्य नामक पुत्र शोभा
पाते हे । थज्ञवान् , शीघ्रगामी ओर अतिरस्कृत देवगण दिन में तीन
बार हमारे यज्ञ में आगमन करे ।
५७ सूक्त
(देवता विश्वगण । ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. विवेकबान इख सेरी देवता-विषयक स्तुति को इतस्तःः विहान
रिणी, एकाकिनी और रक्षक-विहीना धेनु की तरह अवगत करें।
४४ हिन्दी-ऋश्वेद
जिस स्तुतिरूपा धेनु हे तत्क्षण बहुत अपेक्षित फल दोहन किया जाता
हे, इन्द्र ओर अग्नि उस धेनू की प्रशंसा करें ।
२. इन्द्र, पूवा एवम् अभीष्टवर्षी कल्याणपाणि सित्ातवएथ प्रीत होकर
म्प्रति अन्तरिक्षशायी मेघ का अन्तरिक्ष से दोहन करते इे'। हे निवास-
प्रब विश्वदेवगण, तुम सब इस वेदि पर विहार करो, जिससे हुम लोगों
को तुम्हारे द्वारा प्रदत्त सुख प्राप्त हो ।
३. जो ओषवियाँ जलवर्षक इध्द की शक्ति की वाझछा करती
हें, वे ओषधियाँ बच्च होकर इन्द्र की गर्भाधान-दाक्ति को जानती
हैं। फलाभिलाधिणी, सबकी प्रीणयित्री ओबधियाँ नाना रूपधारी
ब्रीहि, यव, नीवारादि शस्यस्वरूय पुत्र के अभिमुख विवरण करती हुँ ।
४. यज्ञ न प्रस्तर धारण करके हम सुन्दर रूए-विशिष्श खाडल बियो
की स्तुति-लक्षण वचन-द्वारा स्तुलि करते हँ । हे अग्नि, तुम्हारी अतिशय
बरणीय, कमनीय और पुज्य दोप्तियाँ बनव्यों के लिए अद्ध्वेमुख होती है।
है अग्नि, तुम्हारी जो मधुमती और हा! ज्वाला
अत्यन्त व्याप्तिविशिष्ट होकर देवों के मध्य में आहुबार्थ प्रेरित होतो
हैं, उस जिह्वा से यजनीय देवों को हमारी रक्षा के लिए इस कर्म में
उपवेशित कराओ । उन देवों को हर्ष कर सोसपान कराओ ।
६. है द्युतिमान् अग्नि, नानारूपा और हम लोगों को छोड़कर अन्यत्र
न जानेवाली तुम्हारी जो अन् ग्रह बुद्धि है, वह हम लोगों को अपेक्षित
फल-प्रदान-द्वारा वर्धित करे, जैसे मेघ की धारा वनस्पतियों को वर्द्धित
करती हुँ । हे निवासप्रद जातवेदा, हम लोगों को उसी अनुग्रह बुद्धि का
प्रदान करो ओर सर्वजन-हितकारिणी शोभन बृद्धि को दो।
५८ खुस
(देवता अशिवद्व्य । ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्दुप ।)
१. प्रीणयित्री उषा पुरातन अग्नि के लिए कमवीय दुग्ध दोहन करती
हँ । उषापुत्र सुर्य उसके मध्य में विचरण करते हँ। शुत्नदीष्ति दिवस
हिन्दी-ऋषण्वेद ४४१
सबके प्रकाशक सूर्थे का वहन करता हुँ। उसकै पुर्वे ही अध्विद्वय छै
स्तोता जागरित होते हुँ ।
२. है अश्विद्वय, उत्तम रूप से रथ में युक्त अइवहय सत्यरूण
रथन्द्रारा तुम दोनों को यज्ञ में ले आने के लिए घहन करते हे ३
यश तुम्हारे लिए उन्मुख होते हुँ, जैसे माता-पिता को लक्ष्य कर
पुत्र जाते हैं। हम छोगों के निकट से पणियों की आसुरी बुद्धि को
विशेष रूप से नष्ट करो । हम लोग तुम्हारे लिए हवि प्रस्तुत करले
चै
हुँ । तुम दोनों आगमन करो ।
है अडिबद्ठय, सुन्दर चक्रविशिष्ठ रथ पर आरोहण करके और
उत्तम रूप से थोजित अइवो-द्वार। वाहित होकर तुम दोनों स्तुतिकारियों
के इस इलोक का श्रवण करो। हे अधिवद्वण, पुरातन सेषाविगण
क्या नहीं बोलते है, जो हुमारी बृत्तिह्वनि कै विरुद्ध तुन दोनों यस
करते हो ।
४. हे अश्विय, तुम दोनों हमारी स्तुति को अवगत करो और
अइवों के साथ यज्ञ में आगमन करो । सब स्तोता स्तुतिलक्षण दचनों से
तुस दोनों का आह्वान करते हें । बे मित्र की तरह दुग्धभिश्चित ओर हई-
कर हवि तुस दोनों को प्रदान करते हूँ'। सुर्यं उषा के आगे उदित होते
हें। इसलिए आगमन करो ।
५, हे अशिवद्ठय, नाना देशों को अपने तेज से तिरस्कृत करके
तुम दोनों देवयान पथन्त्रारा इस स्थल में आगमन करो । हे धनवान्
अदिवद्वय, तुम दोनों के लिए स्तोताओं का स्तोत्र उद्घोषित होता हुँ ॥
हे शत्रुओं के क्षणंकारक, तुम दोनों के लिए ये मदकारक सौम के पाञ्च
विशेष सञ्चित है।
६. हे अश्विय, तुम दोनों का पुरातन सख्य वाञ्छनीय है और
क्रह्याणकर हुँ । हे नेतृत्ठथ, तुम दोनों का धन जलह्लूकुलजा में है । तुम
दोनों के सुखकर सख्य को बारम्बार प्राप्त करके हम लोग मित्रभूत
४४२ हिन्दी-ऋणष्वेद
(तुम्हारे समान) हौतै हैं। हषकारक सोस के हारा तुम दोनों के साथ
हुम शीघ्र ही हृष्ट होते हे ।
७. शोभन सामर्थ्य से युक्त, नित्य तरुण, असत्यरहित एवम शोभन
फल के दाता हे अध्विद्वय, वायु और नियद्गण के साथ मिलकर अक्षीण
और सोसपायी तुम दोनों दिवस के शेष में सोम पान करो ।
८. है अश्विद्वय, प्रचुर हवि तुम लोगों के निकट गमन करती है ।
दोषरहित और कर्मकुशल स्तोता लोग स्तुतिलक्षण बचनों-हारा तुम
दोनों की परिचर्या करते हें । स्तोताओं-इारा आइष्ट जलप्रद रथ छावा-
पृथिवी के सध्य में सद्यः गसन करता हैँ ।
९. है अशिवद्वय, जो सोम अत्यन्त मधुर रस से मिश्रित हुआ है,
उसका पान करो। तुम लोगों का धनदानकारी रथ सोमाभिषव करने-
वाले यजमान के संस्कृत गुह में बारम्बार आगमन करता हे ।
५९ सूक्त
(देवता मित्र । ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप् 1)
१. स्तुत होने पर देवता सकल लोक को कृष्यादि कार्य में प्रवतत
करते हँ । वृष्टि-ह्वारा अच्च और यज्ञ को उत्पन्न करते हुए मित्र देवता
पृथ्वी और झुलोक दोनों का धारण करते हैं। कर्मवान् सनुष्यों को
चारों तरफ़ से मित्र देवता अनुग्रह दृष्टि से देखते हे । मित्र के उद्देश से
घृतविश्िष्ट हुव्य प्रदान करो ।
२. हे आदित्य, मित्र, यज्ञयुक्त होकर जो मनुष्य तुम्हें हविरन्न
प्रदान करता हे, वह अन्नवान् हो । तुम्हारे द्वारः रक्षित होकर बह
सनुष्य किसी से भी विनष्ट और अभिभूत नहीं होता हे । ठुम्डु जो हविः
देता है, उस पुरुष को दुर अथवा निकट से पाप छ यहीं सकता हूँ ।
. ३. हे मित्र, रोग-वमित होकर अन्नलाभ से हुष्ट होकर और
पृथिवी के विस्ती प्रदेश में सितजानु होकर हम सर्वत्रगामी आदित्य के
हिन्दी-ऋषग्वेद ४४३
द्रत (कर्म) के निकट अवस्थिति करते हैँ । हम लोगों के अपर आदित्य
अनुग्रह-बुद्धि करे ।
४. नमस्कारयोग्य, सुन्दर-मुख-विशिष्द, स्वामी, अत्यन्त बल”
विशिष्ट और सबके विधाता ये सूर्य प्रादुर्भूत हुए हे । ये यज्ञाह हें । इनके
अनुग्रह ओर कल्याणकर वात्सस्थ को हस यजमान प्राप्त कर सक ।
५. जो आदित्य महान् हें, जो सकल लोक के प्रवत्तेक हुँ, नमस्कार-
द्वारा उनकी उपासना करना उचित हुँ । बे स्तुति करनेवालों के प्रति
प्रसञ्चमुख होते हें । स्तुतियोग्य भित्र के लिए प्रीतिकर हव्य अग्नि में
अपित करो । |
६. वृष्टिद्वारा मनुष्यों के धारक मित्रदेव का अन्न ओर सबके
द्वारा भजनीय धन अतिशय कीतियुक्त हे ।
७. जिस मित्रदेव ने अपनी महिमा से द्युलोक को अभिभूत किया हैं,
उसी ने कौतियुक्त होकर पृथ्बी को प्रचुर अन्न-विशिष्ठा किया हूँ ।
८. निषाद को लेकर पाँचों वर्ण शत्रु जयक्षम ओर बलविशिष्ट मित्र
के उद्देश्य से हव्य प्रदान करते हें। सित्र अपने स्वरूप से समस्त देवगण
को धारण करते हें ।
९. देवों और मनुष्यों के मध्य में जो व्यक्ति कुशच्छेदन करता हे,
उसे मित्रदेव कल्याणकर अन्न प्रदान करते हे।
६० सूक्त
(देवता ऋभुगण । ऋषि विश्वामित्र । छन्द जगती ।)
१. हे त्रटभुगण, तुम लोगों के कर्म को सब कोई जानता हे । है
मनुष्यगण, तुम सब सुधन्वा के पुत्र हो । तुम लोग जिस सकल कमेनद्वारा
शत्रुपराभवोपयुक्त और तेजोविशिष्ट होकर यज्ञीय भाग को प्राप्त करते
हो, कामना-काल सें उस सकल कर्म को तुम लोग जान जाते हो ।
२. हे ऋभुओ, जिस शक्ति के द्वारा तुस लोगों ने चमस को विभक्त
किया था, जिस प्रज्ञाबल से गो-शरीर में चर्मयोजमा की थी और जिस
४४४ हिन्दी-क्रग्वेद
मनीषा के द्वारा इन्द्र के अश्वद्वण का निर्माण किया था, उन्हीं सकल कर्मों
द्वारा तुम लोगों ने यज्ञमागाहुँत्व देवत्व प्राप्त किया है ।
३. सनुष्यपुत्र ऋभगण में यागादि कर्म करके इन्द्र के सखित्व को
प्राप्त किया हे । पूर्व में सरणधर्खा होकर भौ वे इन्द्र के सखित्व से प्राण
धारण करते है। सुधग्वा के एर्ण-करदकारी पुत्रगण कर्मेबल और यज्ञादि
बल से व्याप्त होकर अमतत्व को प्राप्त हुए हु ।
४, है ऋभुगण, तुम लोग इन्द्र के साथ एक रथ पर आरोहण करके
सोमाभिषव के स्थान में गमन करो । पीछे सनृष्यों की स्तुतियों को ग्रहण
करो । हे अमृत-बलवाहक सुधन्वा के पुतो, तुम्हारे शोभन कर्मों की
इयत्ता कोई नहीं कर सकता हें । हे ऋभुओ, तुम्हारी सामर्थ्यं की इयत्ता
भी कोई नहीं कर सकता हुं ।
५. हे इन्द्र, तुम वाज (अन्न या ऋभुओं के आता) -विशिष्ट हो।
ऋणुओं के साथ तुम अच्छी तरह से जल-हारा सिक्त और अभिषुत
सोम को दोनों हाथों से ग्रहण करके पान करो । हे मधवन्, तुम स्तुति
द्वारा प्रेरित होकर यजमान के गुह में सुधन्दा के पुत्रों के साथ सोमपान
से हृष्ट होते हो ।
६. हे बहुस्तुत इन्द्र, ऋभु और वाज से युक्त होकर तथा इन्द्राणी
के साथ होकर हमारे इस तृतीय सवन मं आनन्दित होओ । हे इन्द्र,
तीनों सवनों में सोसपान के लिए य दिन तुम्हारे लिए नियत हुए हैं।
किन्तु देवों के ब्रत और मनुष्यों के कसो के साथ सकल दिन तुम्हारे
लिए नियत हुए हें।
७. हे इन्द्र, तुम स्तोताओं के अञ्चों का सम्पादन करते हुए बाज-
युक्त ऋभओं के साथ इस यज्ञ में स्तोताओं के स्तोत्रों के अभिमुख आग-
सन करो । मरुद्गण भी शतसंल्यक गमन कुशल अइवों के साथ यजमान
के सहस्र प्रकार से प्रणीत अध्वर के अभिमुख आगमन करें ।
हिन्दी-क्रस्वेद ४४५
६१ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि विश्वामित्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. है अन्नवती तथ घनवती उषा, प्रकृष्ट ज्ञपरदती होकर तुम स्तोत्र
करनेवाले स्तोतः के स्तोत्र का ग्रहण करो । हे सबके द्वारा वरणीय,
पुरातनी युवती की तरह शोभमाना और इहुररोत्रपली उषा, तुम यज्ञ
कर्स को लक्ष्य कर आगमन करो । |
२. हे मरणधम-रहिता, सुवर्णमय रथवाली उषा देवी, तुम प्रिय
सत्यरूप वचन का उच्चारण करनेवाली हो। तुम सूर्थ-किरण के
सम्बन्ध से शोभमाना होओ । प्रभूतबल युक्त जो अश्ग-वर्णं अव हूं,
वे सुखपूर्वंक रथ में योजित किये जा सकते हें । वे तुम्हें आवाहन करें ।
३. हे उषादेवी, तुम निखिल भूतजात के अभिमुख आगमनशीला,
मरणवर्म-रहिता और सूर्य को केतु-स्वरूपा हो । तुम आकाश में उच्चत
होकर रहती हो । हे नवतरा उषा, तुम एक मार्ग में विचरण करने की
इच्छा करती हुई आकाश में चलनेवाले सूर्य के रथाङ्ग की तरह पुमः-
पुनः उसी मार्ग में प्रवृत्त होओ ।
४. जो धनवती उषा वस्त्र की तरह विस्तीर्ण अन्धकार को क्षयित
करती हुई सुय की पत्नी होकर गमन करती हे, वही सोभाग्यबती और
सत्प्रकापंशालिनी उषा छुलोक ओर पृथ्वी के अवसान से प्रकाशित
होती है ।
५, हे स्तोताओ, तुम लोगों के अभिमुख उषादेवी शोभमाना होती
हे । तुम लोग नमस्कार-द्वारा उसकी शोभनस्तुति करो । स्तुति को धारण
करनेवाली उषा आकाश में ऊद्ध्वाभिमुख तेज को आश्रित करती है ।
रोचनश्ीला और रप्तणीयदर्शना उषा अतिशय दीप्त होती हे ।
६. जो उषा सत्यवती हुँ, उसे सब कोई झुलोक के तेजः प्रभाव से
जानते हें। धनवती उषा नानाविध रूप से युक्त होकर दावा-पथिवी को
व्याप्त करके रहती हे । हे अग्नि, ठुम्हारे अभिमुख आनेवाली, भासमाना
४४६ हिन्दी-ऋग्वेद
उषा देवी से हवि की याचना करनेवाले ठुम रसणीय धन को प्राप्त
करते हो ।
७. वृष्टि-द्वारा जल के प्रेरक आदित्य सत्यभूत दिवस के सूल में उषा
का प्रेरण करके विस्तीर्ण द्यावा-पुथिवी के मध्य में प्रवेश करते हें।
तदनन्तर महुती उषा मित्र और वरुण की प्रभास्वरूपा होकर सुवर्ण
की तरह अपनी प्रभा को अनेक देशों में प्रसारित करती हे ।
६२ सूक्त
( देवता १-३ के इन्द्रावरुण, ४--६ के बृहस्पति, ७--९ के पृषा,
१०-१२ के सविता, १३-१५ के साम ओर १६-१८ के
[वरुण । ऋषि विश्वामित्र, किसी-किसी के मत
से अन्तिम तीन ऋचा के ऋषिओं जमदग्नि ।
छुन्द् १-३ त्रिष्ठुप् ओर शेष गायत्री |)
१. हे मित्रावरुण, शत्रुओं-हारा अभिभन्यमान अतएव अ्रमणशीला
तुम्हारी ये प्रजाये जिससे तरुण वयस्क शत्रुओं-दारा हिसित न हों, तुम
लोगों का तादुश यहा और कहाँ हे, जिससे तुम लोग हम बन्धुओं के लिए
अन्न-सम्पादन करते हो।
२. हे इन्द्रावरुण, धन की इच्छा करनेवाले ये महान् यजमान रक्षा
या अञ्च के लिए तुम दोनों का सर्वदा आह्वाच करते हें। मझद्गण, झुलोक
और पृथिवी के साथ मिलित होकर तुम दोनों मेरी स्तुति सुनो ।
३. हे इन्द्रावर्ण, हम लोगों को वही असिलषित धन हो । हे मझ्द्-
गण, सर्वेकर्म-समर्थ पुत्र और पशुसंघ हम लोगों को हो। सबके हारा
भजनीय देव-पत्वियाँ श्रण- (गह) द्वारा हम लोगों की रक्षा कर । होत्रा
भारती (होत्रा अग्विषत्नी, भारती सूर्यपत्नी) उदार वचनों-द्वारा हम रोबो
का पालन कर ।
हिन्वी-ऋग्वेद
४, हे सब देयों के हितकर बृहस्पति, हम लोगों के पुरोडाश (हवि)
आदिका सेवन करो। तदनन्तर हुवि देनेवाले यजमान को तुम उत्तम
धनदो। |
हे ऋत्विको, तुम लोग यज्ञ-समूहु में अर्चनीघ स्तोतों-डारा
विशुद्ध बृहस्पति की परिवर्य करो । में शत्रओं-हारा अनसियवनीय बल
की याचना करता हू ।
६, मनुष्यों के लिए अभिसतफलवर्षक, विश्वरूप नामक गोवाहन से
/ भतिरस्करणीय ओर सवके द्वारा भजनीय बृहस्पति के निकट
अभिमत फल की याचना करता हूं ।
७, हे दीप्तिमान् पुषा, ये नवीनतम और झोभन स्तुतिरूप वचन
तुम्हारे लिए हु । इस स्तुति का उच्चारण हम लोग तुम्हारे लिए
करते हु ॥
८. हे पुषा, सेरी उस स्तुति को ग्रहण करो । स्त्रीकामी व्यक्ति जेसे
त्री के अभिमुख आगमन करता है, वेसे ही तुम इस हर्षकारिणी स्तुति
के अभिमुख आगमन करो ।
९. जो पुषा निखिल लोक को विशेष रूप से देखते हें और उसे देखते
हैं, वे ही पुषा हम लोगों के रक्षक हों ।
१०. जो सविता हम लोगों की बुद्धि को प्रेरित करता हुँ, सम्पूर्ण
श्रुतियों में प्रसिद्ध उस झोतमान जगत्लण्टा परमेइवर के संभजनीय पर-
ब्रह्मात्मक तेज का हम लोग ध्यान करते हे
११. हम लोग धनाभिलायी होकर स्तुति-द्वारा योतमाव सविता
से भजनीय धन के दान की याचना करले हं।
१२. कर्सनेता मेघावी अध्वर्यूगण बुद्धि-द्वारा प्रेरित होकर यजनीय
हवि ओर शोभन स्तोत्रो-ड्वारा सविता देवता की अचना करते हें ।
१३. पथज्ञ सोम जानेवालों को स्थान दिखाते हें। उपवेशनकारी
देवों के लिए संस्कृत वश-स्थान में गमन करते हें ।
है.
सँ
४८ हिन्दी-ऋण्वेद
१४. सीम हुम स्वौताऔं के लिए एवम् टविपदों, चतुष्पदो और
बशुओं के लिए रोगशुन्य अन्न प्रदान करे ।
१५. सोमदेव हुम रोगों के अज्ञ या आयु को बढ़ाते हुए और कर्म-
विधातक शत्रुओं को अभिभूत करते हुए हव लोगों के यज्ञस्थान में उप-
देशान करे ।
१६, हे शोधन कर्मकारी मिन्रावदण, हस लोगों के गोष्ठ को दुग्ध-
धुण करो। हुम छोयों के आवास-स्थान को मधूर रस से पुर्ण करो ।
१७. हे विशुदकर्मकारी मित्रावरुण, तुम दोनों बहुतों-दारा स्तुत
हो एवश् हविरन्म या स्तोत्र-द्वारा बद्धभान हो। दीं स्तुतियुक्त होकर
हुम लोग धन या बल के महत्व से विराजमान होओ ।
१८. हे सित्रावदण, लुम दोनों जमदग्वि नामक सहरईष-द्ारा अथवा
अग्नि को प्रज्वलित करनेवाले विश्वामित्र-द्वारा स्तुत होकर यज्ञ देश में
उपवेशन करो । दुस दोनों ही कर्मफल के वरद्धयिसा हो, सोमपान करो ।
तृतीय सण्डल समाप्त ।
रै सूक्त
(१ अनुवाक । ३ अष्टक । ४ मण्डल । ४ अध्याय । देवता अग्नि
२-४ ऋचा के देवता वरुण । ऋषि वामदेव । छन्द
अष्टि, अति शृति जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. हे अग्नि, ठुस दोतमान ओर शीघ्रगामी हो । स्वढावात् देवः
शण तुम्हें सबंदा ही युद्ध के लिए प्रेरित करते हुँ; अतएव यजसान लोग
ुम्हे स्पुदि-द्ारा प्रेरित करें । हे यजनीय अग्नि, तुम असर, चुतिमान् ओर
उत्कृष्ट ज्ञान-विशिष्ट हो । यज्ञ करनेवाले मनुष्यों के मध्य में आने के
लिए देवों ने तुम्हें उत्पन्न किया हे । तुम कर्माभिञ्च हो । समस्त यञ्चो में
उपस्थित रहुने के लिए देवों चे तुम्हें उत्पन्न किया हे ।
हल््दी-ऋण्वेद ४४९
२. है अग्नि, तुम्हारे आता वरुण हैँ। बे हव्यभाजन, यज्ञभोक्षता,
अतिशय प्रशंसनीय, उदकवान्, अदिति-पुत्र, जरूदाम-ठारा मनुष्यों के
धारक, सुबुद्धियुक्त और राजमान हूँ । तुम एसे बरुणदेव को स्तोताओं
के अभिमुख करी ।
३. हे सखिभूत दशनीय अग्नि, तुम अपने सखा वरण को हमारे
अभिमुख करो, जेसे गसनकुशल और रथ में युक्त अइवद्वय शी घगामी
चक्र को लक्ष्य देश के अभिमुख ले जाते हूं। हे अग्नि, तुम्हारी सहा-
यता से वरुण ने सुखकर हव्य लाभ किया है तथा तेजोबिशिष्ठ सरतो के
लिए भी सुखकर हुव्य लाभ किया हे । हे दीप्तिसान् अग्नि, तुम हमारे
ुत्र-पोत्रों को सुखी करो। हे दशनीय अग्नि, हुम लोगों का कल्याण
करो ।
४. हे अग्नि, तुम सम्पूर्ण पुरुषार्थ के साधनोपाय को जानते हो ।
हम लोगों के प्रति योतमान वरुण के कोध का अपनोदन करो । तुम सबकी
अपक्षा अधिक यालिक, हविर्षही और अतिशय दीप्तिसान् हो।
तुस हम लोगों को सब प्रकार के पापों से विशेष रूप से विमुक्त करो।
५, हे अग्नि, रक्षादानन्ट्रारा तुस हम लोगों के प्रत्यासन्न होओ ।
उषा के विनष्ट होने पर प्रातःकाल में अग्निहोत्रादि कार्य की सिद्धि के
लिए तुम हम लोगो के अत्यन्त निकटस्थ होजो । हस छोगों के लिए जो
घरुणकृत जलोदरादि रोग और पाप हैं, उनका विनाश करो । तुस यज-
प्रानों के लिए अत्यन्त फलप्रद हो । तुम इस सुखकर हवि का भक्षण
क्रो । हस तुम्हारा उत्तम रूप से आह्वान करते हुँ; हमारे बिकट आग-
पन करो ।
६. उत्तम रूप से भजनीय अग्निदेव का प्रशंसनीय अनुग्रह मनुष्यों
के लिए अत्यन्त भजनीय तथा स्पृहणीय होता हे, जेसे क्षोराभिलाषी देवों
के लिए गोओं का तेजोयुक्त, क्षरणशील और उष्ण दुग्ध स्पृहणीय होता
है और जैसे मनुष्यों के लिए पयस्विती गौ भजनीय होती हुँ ।
फ ० २९
हे रद ० पर
७. अग्निदेव का प्रसिद्ध, उत्तम ओर गथाथभूत अग्नि, बायु तथा
सुर्यात्मक तीन जन्म सबके दारा स्पृहणीय हं । अनन्त, आकाश में अपने
तेज-द्वारा परिवेष्टित, सबके शोधक, बीप्तियुक्त ओर अत्यन्त दीप्यमान
स्वामी अग्नि हमारे यज्ञ में आयमच कर ।
८. दुत, देवों के आह्वानकारी, सुवर्णमय रथोपेत, एवम् रमणीय
उवाळानयश्िष्ट अग्नि समस्त यञ्च को कायमा करते हैं । रोहिलाइव,
रूपवान् और सदा कार्सियुश्स अग्नि अञ्च-द्वारा समृद्ध गृह की तरह
रसणीय हूँ ।
९. अग्नि यज्ञ में विनियुक्त होते है । वे यज्ञ में प्रवृत्त सनुष्यो को
जानते हुँ । अध्वर्य गण महती रशमा-हारा उत्तर वेदि सें उसका प्रण-
यन करते हैं। यजमान के गृहो में अभीष्ट-साथन करते हुए वे निवास
करते हें। वे योतमान अग्नि थनियों के साथ एकत्र वास करते हैं ।
१०. स्तोताओ द्वारा भजनीय जो उत्कृष्ट रत्न अग्नि का हे,
उस रत्न को सर्वज्ञ अगिन हमारे अभिसु्ज प्रेरित करें। मरण-धर्म-
रहित समस्त देवों ने यक्ष के लिए अग्नि का उत्पादन किया है।
लोक उनके पालक और जनक हुँ । अध्वर्युगण घुतादि आहुतियों-
द्वारा यथार्थभूतर अग्नि क्रो सिञ्चित करते हेँ।
११. अग्नि ही श्रेष्ठ हें। वे यजमसानों के गृहों में ओर महाम्
अन्तरिक्ष के मूल स्थान सें उत्पन्न हुए हें। अग्नि पादरहित और
ज्ञिरोर्वाजत हैँ। वे शरीर के अन्तर्भाग का गोपन करके जलवर्षी
सेघ फे निलय में अपने को धूमाकार बनाते हे।
१२. हे अग्नि, तुम स्तुतियुक्त उदक के उत्वत्तिन्थान में संघ
क्के कुलायभूत (घोंसला) अन्तरिक्ष सें बतेसान हो । तेज तुम्हारे निकट
सर्वप्रथम उपस्थित होता हे । जो अग्नि स्पृहणीय, नित्य तरुण, कमनीय
और दीप्तिमान् हे, उन्हीं अग्नि के उद्देश से सपः होता स्तुति करते हे ।
१३. इस लोक में हमारे पितृपुरुषों (अङ्गिरा आदि) ने यज्ञ
करने के लिए अग्मि के अभिमुख गसच किया था। प्रकाश के लिए
हिन्दी-ऋग्वेद ४५१
उषादेवी का आह्वान करते हुए उन लोगों ने अग्नि-परियर्था के बल से
पर्ववविलान्तर्वती अन्धकार के मध्य से दोहवती धेनुओं को बाहर
किया था।
१४, उन लोगों ने पर्वत को विदीर्णे करते समय अग्नि की परि-
चर्या को थी । अन्य ऋषियों ने उनके कर्म का कीन सर्वत्र किया
था। उन्हें पशुओं को बचाने के उपाय ज्ञात थे । अभिमत फलप्रद अग्नि
का स्वतन करते हुए उन्होंने ज्योतिन्लाभ किया था, और बुद्धिबल
से यज्ञ किया था। |
१५. अङ्गिरा आदि कर्मा के नेता और अग्नि की कामनावाले थे ।
उन्होंने मन से गो-लाभ को इच्छा करके द्वारनिरोधक, दृढ़बद्ध, सुदृढ़,
गोओं के अवरोधक एवम् सर्वत; व्याप्त गोपूर्ण गोव्ठ-झूप पर्वत का
अग्निविषयक स्तुति-द्ठारा उद्घाटन किया था ।
१६. हे अग्नि, स्तोत्र करनेवाले अङ्गिरा आदि ने ही पहले-पहरू
जनती याक के सम्बन्धी स्तुतिसाधक शब्दों को जाना, पश्चात् वचन-
सम्बन्धी सत्ताईस छन्दों फो प्राप्त किया । अनन्तर इन्हें जाननेवाली
उषा का स्तवन किया एवम् सूर्य के तेज के साथ अरुणवर्णा उषा
प्रादुभूत हुई ।
१७. रात्रिकृत अन्धकार उषा-हारा प्रेरित होने पर विनष्ट हुआ ।
अन्तरिक्ष दीप्त हुआ । उवादेवी की प्रभा उद्यत हुई । मनुष्यों के सत्
ओर अतत् कर्मा का अवलोकन करते हुए सूर्यदेव महान् अजर पर्वत
के अपर आरूढ़ हुए ।
१८. सूर्योदय के अनन्तर अङ्गिरा आदि ने पणियों-द्वारा अपहूत
गोओं को जानकर पीछे को ओर से उन गोओं को अच्छी तरह से
देखा एयम् दीव्तियुक्स धन धारण किया । इनके समस्त गुहों में युज-
नीय देवगण आये । वदण-अनित उपद्रवों का निवारण करनेवाले हे सिन्न-
भूत अग्मि, जो तुम्हारी उपासना करता है, उसे सत्य फल लाभ हो।
४५२ हिन्दी-क्रग्वेद
१९. हे अग्नि, तुम अत्यन्त दीप्तिमान्, देवों के आह्वाता, विश्व-
पोषक और सर्वापक्षा यागशील हो। तुम्हारे उद्देश से हम स्तुति
करते हें। यजमान लोग तुम्हें आहुति देने के लिए गौओं के ऊध:-
प्रदेश से शुद्ध दुग्ध का दोहन नहीं करते हं और न सोमलता-पम्बन्धी
शोधित अञ्न को ही गृह में प्रक्षिप्त करते हँ। वे लोग केवल तुम्हारी
स्तुति करते हे । |
२०. अग्नि समस्त यज्ञाह देवों के पोषक हें। अग्नि सम्पूर्ण मनुष्यों
के लिए अतिथिवत् पुज्य हे । स्तोताओं के अन्नभोजी अग्नि स्तोताओं
के लिए सुवकर हों ।
२ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वामदैव। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. जो सरणधर्म-रहित अग्नि मनुष्यों के मध्य में सत्यवान् होकर
निहित हैं, जो दीप्तिमान् अग्नि इन्द्रादि देवताओं के मध्य में शत्रुओं
के पराभवकर्त्ता हे, वे ही अग्नि देवों के आह्वाता और सबकी
अपेक्षा अधिक यज्ञ करनेवाले हे। वे अपनी महिमा से प्रदीप्त होने
के लिए उत्तर वेदि पर स्थापित हुए हें एवम् हुवि-दहारा यजमाों
को स्वर्ग भेजने के लिए स्थापित हुए हे।
२. है बल पुत्र अग्ति, तुम आज हमारे इस कार्य में संस्कृत हुए
ही । है दर्शनीय अग्नि, तुम ऋजु, मांसल, दीप्तिमान् और बलवान्
अइवों को रथ में युवत करके जन्मदिशिष्ट देव और मनृष्यों के मध्य
में हुव्य पहुँचाने के लिए दुत बनकर जाते हो ।
. ३. है अग्नि, तुम सत्यभूत हो । में तुम्हारे रोहितवर्णवाले अइव-
द्य की स्तुति करता हूँ वे अइव सन की अपेक्षा भी अधिक वेगवान्
हैं, घे अझ और जल का क्षरण करते हूँ। तुम दीप्तिमान् अब्वद्यय को
रथ में युक्त करके देवों और मनुष्यों के मध्य सें प्रवेश करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ४५३
४. हे अग्नि, तुम्हारा अव उत्तम है, रथ उत्तम है और धन
भी उत्तम हुँ। इन सनष्यों के सध्य में शोभन हविवाले यजमान के
लए अर्यमा, वरुण, मित्र, इग्द्राबिष्णु, सर्दगण और अधिवहुय का
आनयन करो । |
५. हे बलवान् अग्नि, हमारा यह यज्ञ गोविशिष्ट, भेषविशिष्ट
और अश्वविशिष्ट हो । जो यज्ञ अध्वर्यू और यजमानविशिष्ट है, बह यज्ञ
सर्वदा अप्रधृष्य, हुविरन्च से युक्त तथा पुत्र-पौत्रवान् हो एवम् अविः
च्छिन्न अनुष्ठान से संयुक्ता, धनसम्पच्च, बहुत घनों का हेतुभत ओर उप:
देष्टाओं से युक्त हो । |
६. हे अग्नि, जो मनुष्य तुम्हारे लिए स्वेब (पसीने से) युक्त
होकर लकड़ियों को ढोता हूँ, जो तुम्हें प्राप्त करने की कामना से अपने
मस्तक को काष्ठभार से उत्तप्त करता है, उसे तुम धनवान् बनाते हो
और उसका पालन करते हो । जो कोई उसकी अनिष्ट-कामना करता
हुँ, उससे तुम उसकी रक्षा करो ।
अग्नि, अन्न की इच्छा करने पर जो कोई तुम्हें देने के लिए
हविरञ्च धारण करता हे, जो तुम्हें हुर्षकर सोम प्रदान करता है, जो
अतिथि-रूप से तुम्हारा उत्तर वेदि पर प्रणयन करता है और जो
व्यक्ति देवत्व की इच्छा करके तुम्हें गृह में समिद्ध करता है, उसका
पुत्र धर्मपथ में निश्चल और औओदार्थविशिष्ट हो ।
८. हे अग्नि, जो मनुष्य रात्रिकाल में और जो व्यक्ति उषाकाल
में तुम्हारी स्तुति करता हे एवम् जो यजमान प्रिय हव्य से युक्त होकर
तुम्हें प्रसञ्ञ करता है, तुम अपने गृह में मुवर्ण-निमित सज्ञा (काठी)
विशिष्ट अइव की तरह विचरण करते हुए उस यजमान की दरिद्रता
से रक्षा करो ।
९. अग्नि) तुम असर हो । जो यजमान तुम्हारे लिए हव्य प्रदान
करता हैं, जो तुम्हारे लिए सुकू को संयत करता है, जो तुम्हारी
४५ हिन्दी-ऋणग्वेद
परिचर्या करता हुँ, बह स्तोत्र करनेवाला यजमान धन-शृन्य न हो,
हिसको का आहनन उसका स्पर्श न करे।
१०. है अग्नि, तुम आनन्दयुवत्त और दीप्तिमान हो । तुम जिस
तुष्य का सुसम्पादित और हिसा-रहित अन्न भक्षण करते हो, हे युव-
तम, वह होता निश्चय ही प्रीत होता है। अग्नि के परिचर्याकारी जो
पजमान यञ्च के व्यित हैं, हम उन्हीं के होंगे ।
११. अइवपालक जिस तरह से अश्वो के कान्स एवम् दुह पृष्छों
को पथक् कर सकते हें, उसी तरह विद्वान् अग्नि पाप और पुण्य को
पृथक् कर । हे अग्निदेव, हम लोगों को सुन्दर पुत्र से युक्त धन दो ।
तुम दाता को धन दो ओर अदाता के समीप से उसकी रक्षा करो।
१२. हे अग्नि, मनुष्यों के गृहों में निवास करनेवाले अतिरस्कृत
देवों ने तुम मेधावी को होता होने के लिए कहा है। हे अग्नि, तुम
मेधावी हो, यज्ञस्यामी हो; अतएव तुम अपने चञ्चल तेज से दर्शनीय
और अद्भूत देवों को देखो ।
१३. हे दीप्तिमान् युतम अग्नि, तुम मनुष्यों की अभिलाषा के
पूरक एवम् उत्तर वेदि पर प्रणयन के योग्य हो। जो यजमान तुम्हारे
लिए सोमाभिषव करता है, तुम्हारी परिचर्या करता है और तुम्हारा
स्तवन करता है, उसकी रक्षा के लिए तुम उसे प्रभूत, आह्वादकर तथा
उत्तम धन दो ।
१४. हे अग्नि, जिस लिए हम लोग तुम्हारी कामना से हाथ,
पेर और शरीर द्वारा कार्य करते हैँ, उसी लिए यज्ञरत और शोभनकर्मा
अङ्गिरा आदि ने बाहुनद्वारा काष्ठ मन्यन करके तुम सत्यभूत को
उत्पन्न किया है, जेसे शिल्पिगण रथ निर्माण करते हैं ।
१५. हस सात व्यक्ति (वामदेव और छः अङ्गिरा) प्रथम मेधावी
हैं। हम लोगों ने माता उषा के समीप से अग्नि के परिचारको या
रदिमियों को उत्पन्न किया हे । हस द्योतमान आदित्य के पुत्र अङिरा हें ।
हम दीप्तिमान् होकर उदक-विशिष्ट पर्वत का या मेघ का भेदन करेंगे ।
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१६. है अग्नि, हम लोगों के श्रेष्ठ, पुरातन और सत्पभत यज्ञ
में रत मिंतृपुशपों ने दीप्तस्थाव तथा तेज प्राप्त किशा था। उन्होंने
उक्थो का उच्चारण करके अन्धकार को विनष्ट किया था तथा पणियों-
हारा अपहत अर्णवर्णा यौओं झो या उषा को प्रकाशित किया था।
१७. सुन्दर यसादि काय में रत दीप्तियुक्त तथा देवाभिलाषी स्तोता
धौंकपी-द्वारा निर्भल लोहे छी तरह अपने इनष्य जन्म को यागादि कार्य-
हारा निर्मल करते हुँ । वे अग्नि को दीप्त तथा इन्द्र को प्रवृद्ध करते हँ।
धारों ओर उपवेशन करके उन्होंने महान् गो-सभूह को प्राप्त किया था ।
१८. हे तेजस्वी अग्नि, जिस तरह अन्न-विशिष्ट गृह में पशु-पमह
रहता हैं, वसे ही अद्धिरा आदि देवों के गो-समूहु के निकट हैं। उनके
हारा लाई गई गौओं से प्रजा समर्थ हुई थी। आर्थ-अपत्य वद्धन-समर्थ
और भनुष्य पोषण-सभर्थ हुए थे।
१९. हे अग्नि, हम तुम्हारी परिचर्या करते हे, जिससे हम शोभन
` कर्षवारे होते हुँ । तमोनिवारिका उषा सकल तेज धारण करती है।
वह पूर्ण रूप से आह्वादकर अस्ति को बहुधा धारण करती है । तुम
योतशान हो । हम हुम्हारे मनोहर तेज की परिचर्या करते हैं।
२०. हे विधाता अग्नि, तुम मेधावी हो। हुन तुम्हारे उद्देश्य से इस
सम्पूण उक्थ का उच्चारण करते हूं, तुम इसका सेवन करो । तुम उद्दीप्त
होकर हमें विशेष रूप से घनवाव् करो। तुम बहुतों-द्वारा वरणीय
हो। तुब हुम लोगों को महान् धन प्रदान करो
३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे यजसामो, यज्ञ के अविपलि, देवों के आह्वाता, द्यावा-
पृथिवी के जञ्चदाता, सुवर्ण की तरहु प्रभाषाले और शत्रुओं को रुळाने-
वाळे सद्रात्सक अस्नि की, अपनी रक्षा के छिए वज्न-ञुण मृत्यु के पूर्व ही
सेवा करो ।
४५६ हिन्दी-ऋग्वेद
२. है अग्नि, पतिकामिनी एवम् सुवस्त्राच्छादिता जाया जिस तरह
पति के लिए स्थान प्रस्तुत करती है, उसी तरह हम लोग भी उत्तर
वेदिरूप प्रदेश प्रस्तुत करते है, यही तुम्हारा स्थान है । है सुकर्मा अग्नि,
तुम तेज-द्वारा परिवृत होकर हम लोगों के अभिमुख उपवेशन करो।
यह सकल स्तुति तुम्हारे अभिनुख उपवेशन करे।
३. है स्तोत्ता, स्तोत्र-क्षबण-परायण, अप्रमत्त, मतुष्यों के ठ्रष्टा,
सुखकर और अमर अग्निदेव के उद्देश्य से स्तोत्र और शस्त्र का पाठ
करो । प्रस्तर की तरह सोमाभिषवकारी यजमान अग्ति की स्तुति
करते हुँ ।
४. है अग्नि, हम लोगों के इस कर्म के तुम देवता हीओ। है
सत्यज्ञ अग्नि, तुम सुकर्मा हो । तुम्हें हमारा स्तोत्र अवगत हो । उम्माद-
कारक तुम्हारे स्तोत्र कब उच्चारित होंगे ? हमारे गृह में तुम्हारे साथ
कब सखाभाव होगा ?
५. हे अग्नि, घरुण के निकट तुम हम लोगों की पापजन्य तिन्दा
क्यों करते हो ? अथवा सूर्य के निकट क्यों निन्दा करते हो ? हुम लोगों
का क्या अपराध है? अभिमत फलदाता मित्र और पृथिवी को तुमने
क्यों कहा ? अथवा अर्यमा और भग नामक देवों से ही तुमने
क्यों कहा ?
६. हे अग्नि, जब तुम यज्ञ सें वद्धंसान होते हो, तब उस कथाको
क्यों कहते हो ? प्रकृष्ट बलयुक्त, शुभप्रद, सवंत्रगासी, सत्य के नेता
बायु से वह कथा क्यों कहते हो ? पृथिवी से क्यों कहते हो ? हे अग्नि,
पापी मनुष्यों को सारनेवाले रुद्रदेव से वह कथा क्यों कहते हो ?
७. हे अग्नि, महान् एवम् पुष्टिप्रद पुषा से वह पाप-कथा क्यों कहते
हो ? यज्ञभाजन, हविःप्रद रुद्र से वह क्यों कहते हो ? बहुस्तुति-भाजन
दिष्णु से पाप की कथा क्यों कहते हो ? बृहत् संवत्सर अथवा निर्ऋति
से वह कथा क्यों कहते हो ?
हिन्दी-ऋष्वेद ४५७
८. हे अग्नि, सत्यभूत ससद्गण से वह कथा (सेरा अपराध) क्यों
कहते हो ? पूछे जाने पर महान् सूर्यं से वह कथा क्यों कहते हो ?
देवी अदिति से ओर त्वरितगमन वायु से क्यों कहते हो? हे सर्वज्ञ
जातवेदा, तुस झुलोक के कार्य का साधन करो
९, हे अग्नि, हुम सत्यभूत यज्ञ के साथ नित्य सम्बद्ध दुग्ध की
याचना गौओं के निकट करते हं। आपक्व होकर भी वह गो मधर और
पक्व दुग्ध धारण करती है । बह कृष्णवर्णा होकर भी झुञ्ज, पुष्टिकारक
और प्राणवारक दुग्ध-दारा सनष्यों का पोषण करतो हुँ ।
१०. अभिमत फलवर्षक और श्रेष्ठ अग्नि सत्यभूत और घुष्टिकर
दुग्ध-द्वारा सिक्त होते हें। अश्नद अग्नि एकत्र अवस्थिति करके सर्वत्र
तेज-द्वारा विचरण करते हँ। जलवईक सूर्य अन्तरिक्ष था मेघ से
पथोदोहन करते हें । |
११. सेधातिथि आदि ने यज्ञ-द्वारा गो-निरोधक पर्वत को विदीर्ण
करके फेंक दिया था, और गोओं के साथ मिले थे। कर्मो के नता उन
अङ्झिरोगण ने सुखपूर्वक उषा को प्राप्त किया था। तदनन्तर सुर्यदेव
मन्थन-द्वारा अग्नि के उत्पन्न होने पर उदित हुए ।
१२. हे अग्नि, मरण-रहिता, विघ्नशून्या ओर मधुर जलपुक्ता
देवी नदियाँ यज्ञ-द्वारा प्रेरित होकर जाने के लिए प्रोत्साहित अश्व की
तरह संदा प्रवाहित होती हें ।
१३. हे अग्नि, जो कोई हमारी हिसा करता है, उसके यज्ञ में तुस
कभी न जाना । किसी दुष्ट बुद्धिवाले प्रतिवासी (पड़ोसी) के
यज्ञ में न जाना । हमें छोड़कर दूसरे बन्धु के यज्ञ में न जाना।
तुम कुटिलचित त्राता के ऋण (हवि) की कामना न करना । हम लोग
भी मित्र या शत्रु-द्वारा प्रदत्त धन का भोग नहीं करेंगे । केवल तुम्हारे
ही द्वारा प्रदत्त धन का भोग करेंगे ।
१४, हे सुयज्ञ अग्नि, तुस हम लोगों के रक्षक हो । तुम हव्य-द्वारा
प्रीत होकर आश्रय दान-द्रारा हमारी रक्षा करो। तुम हम लोगों को
४५८ ४६३०८ ६” मुटु प्र
प्रदीप्त करो । हम लोगों के बढ़ पाप का तुम विमाश करो एड्स
भहान और वद्धसान राक्षस का विनाश करो।
१५. हे अग्नि, हमारे इस अर्चनीय शास्त्र-ट्रारा तुम प्रीतमना
होओ । हे शूर, हमारे इस स्तोत्र-सहित अञ्च का ग्रहण करो । हे हवि-
रञ्च के गृहीता अग्नि, मन्त्रों का सेवन करो। देवों के उद्देश से प्रयुक्त
स्तुति तुम्हें संवद्ित करे ।
१६. हे विधातः अग्मि, तुम कर्म विषय को जानेदाले और उत्कृष्ट
द्रष्टा हो। हम प्राज्ञ लोग तुम्हारे उद्देश्य से फक्प्रापक, गृढ़, अतिशय
वक्तव्य और हम कवियों-हारा ग्रथि इस समस्त वाकय फा स्तो और
शास्त्रों के साथ उच्चारण करते हुँ।
० सूक्त
(देवता रक्षोदाग्नि। ऋषि वामदेच। छन्द त्रिष्ट्प्।)
१. हे अग्नि, तुम अपने तेजःपुञ्ज को विस्तारित करो, जैसे
व्याच अपने जाल को विस्तारित करता हें। जसे अमात्य के साथ राजा
हाथी के ऊपर गमन करता है, वैसे ही लुम भयशून्य तेजःसमह के साथ
गमन करो । तुम शीघगामिनी सेता का अनुगमन करके शत्रु -सेन्य को
हसित करो ओर शत्रुओं को नष्ट करो । अत्यन्त तीक्ष्ण तेज-द्वारा तुम
राक्षसों का भदन करो
२. हे अग्नि, तुम्हारी जनणकारिणी और शी घ्रगामिवी रहिझयाँ
सर्वत्र प्रसूत होती हैं । तुम अत्यन्त दीप्तिमान् हो । अभिभवलपर्थ
तेजोराशि-द्वारा तुम शत्रुओं को दर्थ करो। शत्रु तुम्हें निरुद्ध नहीं
कर सकते हें। तुम जुह-द्वारा तापप्रद तथा पतनशील विस्फुलिङ्गा को और
उल्का (तेजःपुञ्ज) को सर्वत्र दिकीणं करो ।
३. हे अग्नि, तुम अतिशय वेयवान् हो । शत्रुओं को बाधा देवेवाली
रश्मियों को तुन शत्रुओं के प्रति प्रेरित करो । कोई तुम्हारी हिसा नहीं
कर सकता हु । जो कोई दुर से हस लोगों को अनिष्ट-कासना
हिन्दी-ऋभ्वेद ४५९
करता है अथवा जो निकट से अनिष्ट करने की इच्छा करता है, तुस
उसके निकट से इस सकल प्रजा की रक्षा करो । हम लोग तुम्हारे
हैं । जिससे कोई शत्रु हम छोगों को पराभूत न कर सके ।
४, हे तीक्षण ज्वालाबिशिष्ट अग्नि, उठो, राक्षसों को मारते के
लिए प्रस्तुत होओ । शत्रुओं के ऊपर ज्वालाजाल का विस्तार करो ।
तेजोराशि-हारा शत्रुओं को भली भाँति दग्ध करो । हे समिद्ध अग्नि, जो
व्यक्त हमारे साथ शत्रुता करता है, उस व्यक्ति को शुष्क काष्ठ की
तरह तुम दग्ध कर दो।
५. हे अग्नि, तुम राक्षसों को मारने के लिए उद्यत होओ । हमसे
जितने अधिक बलवान् हें, उन सबको एक-एक करके सारो । अपने
देव-सम्बन्धी तेज को आविष्कृत करो । प्राणियों को क्लेश देनेवालों
के दृढ़ धनुष को ज्या-शून्य करो और पूर्व में पराजित अथवा
अपराजित शत्रुओं को विनष्ट करो ।
६. युवतम अग्नि, तुम गमनशील और प्रधान हो । जो कोई
तुम्हारे लिए स्तुति प्रेरित करता हे, वह पुरुष तुम्हारे अनुग्रह को
प्राप्त करता है । तुम यज्ञस्वामी हो । तुम उसके लिए समस्त शोभन
दिनों को, धनो को और रत्नों को ग्रहण करो । तुम उसके गृह के
अभिमुख द्योतित होओ ।
७, हे अग्नि, जो व्यक्ति नित्य सद्धुल्पित ह॒व्य-दारा अथवा उक्थ
मन्त्र द्वारा तुम्हें प्रीत करने की इच्छा करता है, वह पुरुष सोभाग्य
वान् और सुदाता हो । वह कठिनता से लाभ करने के योग्य अपनी
सौ वर्षो की आयु को प्राप्त करे । उस यजमान के लिए सब दिन
शोभन हों । वह यज्ञफल-साधन-ससर्थ हो ।
८. हे अग्नि, हम तुम्हारी अनुग्रह-बुद्धि की पूजा करते हैं ।
तुम्हारे उद्देश से उच्चारित वाकय प्रतिध्वनित होकर तुम्हारी स्तुति
करें । हम लोग पुत्र-पौत्रादि के साथ उत्तम रथ और उत्तम अइवों से
४६७ हिन्दी-त्रदग्वेद
युक्त होकर तुम्हारी परिचर्या करेंगे । तुम हुम लोगों के लिए प्रति-
दिन धन धारण करो ।
९. हे अग्नि, तुम अर्हानश प्रदीप्त होते हो । इस लोक में पुरुष
तुम्हारे समीप तुम्हारी परिचर्या प्रतिदिन करते हैँ । हम भी गत्रुओं
के धन को आत्मसात् करके अपने गृह में पृत्र-पौत्रों के साथ विहार
करते हुए प्रसच्नतापूर्वक तुम्हारी परिचर्या करते हूँ ।
१०. है अग्नि, जो पुरुष सुन्दर अश्वयुक्त होकर यागयोग्य धन-
विशिष्ट होकर और ब्लीहि आदि धन से संयुक्त रथ के साथ तुम्हारे समीप
गमन करता हू ॥ उस पुरुष के तुम रक्षक होओ । जो पुरुष अनुक्रम
से अतिथियोग्य पूजा तुम्हें प्रदान करता है, उसके तुम सखा होओ ।
११, हे होता, युवतम और प्रज्ञावान् अग्नि, स्तोत्र-द्वारा जो
बन्धुता उत्पन्न हुई है, उसके द्वारा हम महान् राक्षसरूप शत्रुओं को
भग्न करें । यह स्तोत्रात्मक वचन पिता गोतम के निकट से हमारे
समीप आया है। तुम शत्रुओं के विनाशक हो । तुम हमारे स्तुति-वचन
को जानो ।
१२. हे सर्वज्ञ अग्नि, तुम्हारी रश्सियाँ सतत जागरूक, सबदा
गमनशील सुखान्वित, आळस्य-रहित, अहिसित, अश्रान्त, परस्पर सङ्गत
और रक्षणक्षम हें। वे इस स्थान पर उपवेशन करके हमारी
रक्षा करे ।
१३. हे अग्नि, रक्षा करनेवाली तुम्हारी इन रझ्मियों ने कृपा करके
मसता के पुत्र चक्षुहीन दीर्घतमा की शाप से रक्षा को थी । तुस सर्वे-
प्रज्ञावान् हो । तुम आदरपूर्वक उन रहिसयों का पालन करते हो।
तुम्हारे शत्रु तुम्हें विनष्ड करने की इच्छा करके भी तुम्हारा विनाश
नहीं कर सकते हें ।
१४. हे अग्नि, तुम्हारा गमन लज्जाशून्य है । हम स्तोता तुम्हारे
अनुग्रह से समान धनवाले होकर तुम्हारे द्वारा रक्षित हों । तुम्हारी
प्रेरणा से अच्च लाभ करे । हे सत्यविस्तारक ओर पाप-नाशक, निकटस्थ
हिन्दी-ऋणग्वेद ४६१
या दुरस्थ शत्रुओं को विवष्ठ करो तथा अनुक्रम से समस्त कार्य
(इस सुक्त में प्रतिपादित) करो ।
१५९ है अग्नि, इस प्रदीप्त स्तुति-द्वारा हम तुम्हारी परिचर्या
करे । हमारे इस स्तोत्र को प्रतिगुहीत करो । स्ठुलिबिहीन राक्षसो
को भस्मसात् करो । है मित्रों के पूजनीय अग्नि, शत्रु और निन्दको
के परिवाद से हमारी रक्षा करो ।
चतुर्थ अध्याय समाप्त।
५ सूक्त
(पञ्चम अध्याय । देवता वैश्वानर अग्नि । ऋषि वामदेव ।
छन्द त्रिष्टुपू ॥)
१, समान रूप से प्रीतियुक्त होकर हम यजमान वेश्वानर नामक
अभीष्टवर्षी, एवम् महान् दीप्तियुक्त अग्नि को किस प्रकार से हव्य
प्रदान करे ? स्तम्भ जिस तरह से छादन (छप्पर) को धारण करता
है, उसी तरह से वे सम्पूर्ण अतएव बुइत् शरीर-हारा चुलोक का धारण
करते हें ।
२. हे होताओ, जो अग्निदेव हव्ययूकत होकर मरणशील और परि>
पक्व बृद्धिबिशिष्ट हम यजमानों को धन दान करते हुँ, उनकी निन्दा
सत करो । वे मेधावी, अमर और प्रज्ञावान् हें । वे वश्वानर, नेतु-
श्रेष्ठ एवम् महान् हें ।
३. मध्यम और उत्तम रूप स्थानद्वय को परिव्याप्त करनेवाले,
तीक्ष्ण तेजोविशिष्ट, प्रभूत सारवान् अभीष्टवर्षी और धनवान अग्नि
अत्यन्त गुप्त गोपद की तरह रहस्य हें । वे ज्ञातव्य हँ। महान्
स्तोत्र को विशेष रूप से जानकर विद्वान हमें कहें ।
४६२ हिन्दी" ऋग्वेद
४. विद्वान् मित्र और बरुण के प्रिय एवस स्थिर तेज को जो
देषी हिसिस करता है, उसे सुन्दर धवविश्विष्द और तीक्ष्णइन्त अग्नि
अत्यन्त सन्तापकर तेज-द्वारा दग्ध करें ।
५. चातुरहिता) विपथगानिनी योषित् की तरह तथा पत्तिविष्देषिणी
दुष्टाचारिणी स्त्री की तरह यज्ञविहीन, अग्निविदेषी, सत्यरहित तथा
सत्यवचनशून्य पापी नरकस्थान को उत्पन्न करता हे ।
६- हे शोधक अग्नि, हम तुम्हारे कर्म का परित्याग नहीं करते
है । क्षुद्र व्यक्ति को जैसे गुद भार दिया जाता है, उसी तरह तुम हमें
प्रभूत धन दान करो। वह धन शत्रुघर्वक,अन्नयुक्त, दूसरों के द्वारा
अनवगाहनीय महान् स्पशेनयोग्य एवम् सात प्रकार (सात ग्रास्य पशु
ओर सात वन्य पशु) का हूं ।
७. यह सुयोग्य एवम् सबके प्रति समान शोधयित्री स्तुति उपयुक्त
पूजाविधि के साथ बेइवानर के निकट शीघ्र गमन करे । बह
बेइवानर के आरोहणकारी दीप्त मण्डल पृथ्वी के निकट से अचल
झुलोक के ऊपर विचरण करने के लिए पूर्व दिशा में आरोपित
हुई हे
८. लोग कहते हें कि दोग्धागण जल की तरह जिस दुग्ध का
दोहन करते है, उस दुग्ध को वेश्वानर गुहा में छिपा रखते हैं । वे
विस्तीण पृथिवी के प्रिय एवम् श्रेष्ठ स्थान की रक्षा करते हुँ । मेरे
इस वाक्य के अतिरिक्त और क्या वक्तव्य हो सकता है ?
९. क्षीसप्रसविणी गौ अग्निहोत्रादि कर्म में जिनकी सेवा करती
है, जो अन्तरिक्ष में अत्यन्त दीप्तिमान् हैं, जो गृहा में निहित हैं, जो
शीघ्र स्पन्दसान हैं और जो ज्ञीघ्र ग्सनकारी हे, वे महान् और पूज्य
हँ । सुर्थ मण्डळात्मक वेदबातर को हम जानते हँ ।
.. १०. इसके अनन्धर पिता-मातास्वरूप द्ावा-पृथिवी केमध्य में व्याप्त
होकर दीप्तिमान् वेश्वानर गो के अघःप्रदेश में निगूढ़ रमणीय दुश्य को
मुख द्वारा पान करने के लिए प्रबोषित हों। अभीष्टवर्षी, दीप्त और
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प्रय वेइवानर की जह्वा माता गो के ऊधअदेशरूप उत्कृष्ट स्थान
से पान करने की इच्छा से वर्तमान है ।
११. हम यजमान पूछे जाने पर वसस्कारपूर्यक सत्य बोलते है ।
हे जातवेदा, तुम्हारी स्सुवि-द्वारा यदि हम इस धन को प्राप्त करे,
तो हुम्हीं इस धन के स्वामी होओ । तुम सम्पूर्ण घन के स्वामी
होओ । पृथ्वी सें जितने धन हुँ और झुलोक में जितने धच हुँ, उन
धनों के तुम स्वामी हो
१२. इस धन का साधनभूत धन क्या है ? इसका हितकर
धम क्या हुं ? हे जातवेदा, तुम जानते हो, हमें कहो । इस धन
की प्राप्ति के लिए जो मार्ग हुँ, उसका गढ़ और उत्कृष्ट उपाय
हमसे कहो ? हम जिससे गन्तव्य स्थान को निन्दित होकर न
प्राप्त करं ।
१३. पूर्वं आदि सीमा क्या हँ ? पदार्थ ज्ञान क्या है ? और
रमणीय पदार्थसमूह क्या है ? शीघगामी अश्व जिस तरह से संग्राम
के अभिमुख गमन करता हुँ, उसी तरह हम इन्हें अधिगत करेंगे ।
युतिमती, मरणरहिता और आदित्य की पत्नी प्रसवित्री उषा किस समय
हम लोगों के लिए प्रकाशित होकर व्याप्त होंगी ?
१४, हे अग्नि, अन्नरहित, उक्थ मन्त्र ओर आरोपणीय अल्पाक्षर
वचन-ट्वारा अतृप्त मनुष्य अभी इस लोक में तुम्हें क्या कहता
है ? अर्थात् हुर्विविह्दीच वावय-द्वारा कुछ लाभ नहीं हो सकता हे ।
हुविरादि साधन से हीन जन दुःख प्राप्त करते हे ।
१५. समद, अभष्टवर्षी और निवासप्रद अग्नि का तेजःसम्ह,
यञ्चगृह म, दीप्त होता हं । यजमान के मङ्गल के लिए बे दीप्त तेज
का परिधान करते हैं; इसलिए उसका रूप रमणीय है । बे अनेक
यजमाचों-द्रारा स्दुल होकर तित होते हुँ, जैसे अइव आदि धनर से
राजा झोतित होता हे ।
छ ६४ हिन्दी-ऋणग्वेद
( देवता अग्नि । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे यज्ञहोता अग्नि, तुम श्रेष्ठ याज्ञिक हो । तुम हथ लोगों से
ङदध्वं स्थान में अवस्थिति करो। तुम सम्पूर्ण शत्रुओं के धन को जीतो ।
लुन स्तोताओं की स्तुति को प्रर्वाद्धध करो ।
२. प्रगल्भ, होमनिष्पादक, हर्षयिता और प्रक्कष्ट ज्ञानविशिष्द
अग्निदेव यज्ञ में प्रजाओं के मध्य सं स्थापित होते हें । बे उदित
झुयं की तरह ऊद्ध्वेमुल होते हैं, और स्तम्भ की तरह चुलोक
के ऊपर धूम को धारण करते हँ ।
३. संयत और पुरातन जुहू धृतपूर्ण हुआ है । यज्ञ को दीघं
करनेवाले अध्वयूंगण प्रदक्षिण करते हें । नवजात यूप उन्नत
होता है । आक्रमणकारी और सुवीप्त कुठार पशुओं के निकट गसन
करता हुँ ।
४, कुश के विस्तृत होने पर और अग्नि समिद्ध होने पर अध्वयुँ,
दोनों को प्रीत करने के लिए उत्थित होते हैं । होमनिष्पादक और
पुरातन अग्नि अल्प हव्य को भी बहुत कर देते हैं तथा पशु-
धालकों की तरह पशुओं के चारों तरफ़ तीन बार गसन करते हें ।
५. होता, हर्षदाता, मिष्टभाषी और यज्ञवान् अग्नि परि-
मितगति होकर पशुओं के चारों तरफ गमन करते हुँ । अग्नि का
दीप्तिसमूह अश्व की तरह चारों तरफ़ धावित होता है । अग्नि जब
प्रदीप्त होते हैं तब समस्त भूतजात भीत होते हैं ।
६. हे सुन्दर ज्वालाविदिष्ट अग्नि, तुम भीतिजनक हो और
सर्वत्र व्याप्त हो । तुम्हारी मनोहर और कल्याणी मति अच्छी तरह से
दृष्टि होती है । रात्रि अन्धकार-्वार? तुम्हारी दीप्ति को निवारित
नहीं कर सकती हे । राक्षस आदि तुम्हारे शरीर में पाप को नहीं
रख सकते हे । |
ह्व्दी-्ऋहग्वेद ४६५
७, है वृष्ट को उत्पन्न करनेवाले बैश्वानर, तुम्हारा दान (या दीप्ति )
किसी के द्वारा निवारित नहीं हो सकतः। यातापिता-स्वरूप चावए-पृथिवी
जिसे प्रेषित करने में शीघ्र सम्थ नहीं होती है, बे घुतप्त और शोधक
व्य में सखा की तरह दीप्तिमान् होते है
८. मनुष्यों की दसों अँगुलियाँ स्त्री की तरह जिन अस्ति को
उत्पन्न करती हुँ, वे अग्नि उबाकाल सें बुध्यमान, हव्यभाजी,
दीप्तिमान्, सुन्दर-बदन और तीक्ष्ण कुठार की तरह शत्ररूपी राक्षसों
के हन्ता हूँ ।
९. हे अग्नि, तुम्हारे वे अश्व हमारे यज्ञ के अभिमुख आहूत होते
हें । उतकी चालिका से फेन चिर्गत होता है । बे लोहितवणं, अकुटिल,
दुन्दरगामी, दीप्तिमान्, युवा, सुगठित और दर्शनीय हे ।
०. है अग्नि, हुस्हारी बे शत्रुओं को अभिभूत करनेवाली, गसन-
शीळ, दीप्ति और पूजवीय रह्मियाँ, सझ्तों की तरह अत्यन्त ध्वनि
करती हैं, जब वे अइम की तरह गन्तव्य स्थान में जाती हैं।
११. हे समिद्ध अग्नि, तुम्हारे लिए हम लोगों चे स्तोत्र किया
है । होता उक्थ (शल्ब्ररूप स्तोत्र) का उच्चारण करते हें। यजमान
तुम्हारा यजन करते हैं । अतएव दुस हम लोगों को धन दो । सनष्यों
के प्रशंसनीय होता अग्न को पूजा करने के लिए ऋत्विक आदि
पशु आदि धन को कायना से उपविष्ट हुए हैं ।
७ हूर .
(देवता अग्नि। ऋषि वामदेव । छन्द जगती, अनुष्टुप् और त्रिष्ठुप् )
१. अप्नवान् आदि भृगुवंशीयों ने वत के सध्य सें दावाग्नि-रूप से
दशनीय एवम् समस्त लोक के ईश्वर अग्नि को प्रदीप्त किया था ।
वे होता, याझिकश्चेष्ठ, स्ठुतिसाजन और देवश्रेष्ठ अग्नि यज्ञकारियों-द्रार!
संस्थापित हुए हुँ ।
फा? ३०
४६६ हिन्दी-ऋग्वेद
२. है अग्नि, तुस दीप्तिमान् और सनुष्यो-द्वारा स्तुवियोग्य ही ॥
तुम्हारी दीप्ति कब प्रसूत होगी ? सत्यै लोग तुम्हें ग्रहण करते हुँ ।
३. सायारहित, विज्ञ, नक्षत्र-परिवूत घुलोक की तरह और समस्त
यज्ञ के वृद्धिकारक अग्नि के दर्शन करके ऋत्विकू आदि प्रत्येक यश्षगृहु
में उनका ग्रहण करते हें ।
४. जो अग्नि प्रजाओं को अभिभूत करते है, उन्हीं शी घरयासी, :
यजमान के दूत, केतु-त्वलप और दीप्तिसान् अग्नि का आनयन
समस्त प्रजाओं के लिए सनुष्यगण करते हें ।
५. उन होता और विद्वान् अग्नि को अध्वय आदि मनुष्यों ने
यथास्थान पर उपविष्ट कराया है। वे रमणीय, पवित्र दीप्तिविशिष्ठ,
याज्ञिकश्रेष्ठ और सप्त-तेजोयक्त हें ।
६. मातृ-स्वरूप जळसमूह में और वृक्षसम्ह में विद्यमान, कमनीय,
दाह-भय से प्राणियो-द्वारा असेवित, बिचित्र, गुहा में निहित, सुविज्ञ और
सर्वत्र हव्यग्राही उन अग्नि को अध्वर्यु आदि भनुष्यों ने उपदिष्ट
कराया हुँ ।
७. देवगण निद्रा से विसुवत होकर अर्थात् उषाकाल में जल के
स्थान-स्वरूप सम्पूर्ण यज्ञ में जिन अग्नि को स्तोत्र आदि के हाश प्रसन्न
करते हे, वे महान् एवम् सत्यवान् अग्नि नमस्कारपूर्वंक दत्त हव्य को
ग्रहण करके सदा यजमासक्कत यज्ञ को अवगत करें-~-जानें ।
८. हे अग्नि, तुम विद्वान् हो । तुम यज्ञ के दूत-कार्य को जानते
हो । इन दोनों ्ावा-पृथिबी के मध्य में अवस्थित अन्तरिक्ष को तुम
भली-भाँति जानते हो । ठुम पुरातन हो । तुम अल्प हुव्य को
बहुत कर देते हो । तुस विद्वान्, श्रेष्ठ और देवों के दुत हो । तुम
देवताओं को हवि देने के लिए स्वर्ग के आरोहणयोग्य स्थान में
जाते हो ।
. ९ हे अग्नि, तुम दीप्तिभान् हो । तुम्हारा गसनमार्ग कुष्णवर्ण
है । तुम्हारी दीप्ति पुरोदतिनी है । तुम्हारा सञ्चरणक्षील तेज सम्पूर्ण
हिन्दी-ऋषग्वेद ४६७
तेजस पदार्थों के मध्य में श्रेष्ठ है । तुम्हें न पाकर यजमात लोग
तुम्हारी उत्पत्ति के कारण-स्वरूप काष्ठ को धारण करते हैं । उत्पन्न
होकर तुम तुरत ही यजमान के दूत होते हो ।
१०, अरणिमन्थन के अनन्तर उत्पन्न अग्नि का तेज ऋत्विक आदि
के द्वारा दृष्ट होता हे । जब अग्निशिखा को लक्ष्य करके वायु बहती है
तब अग्नि दुक्ष-संघ में तीक्ष्ण ज्वाला को संयुक्त कर देते हैं
ओर स्थिर अन्नलूप काष्ठ आदि को तेज के द्वारा विखण्डित करते
हुँ अर्थात् भक्षण करते हैं ।
११. अग्नि क्षिप्रगासी रश्सिसमूह-द्वारा अन्नलप काष्ठ आदि को
शीघ्र दग्ध करते हें। महान् अग्नि अपने को क्षिप्रगासी दूत बनाते
हें। वे कष्ठसमुह को विशेष रूप से दग्ध करके वायु के बल के
साथ सङ्गत होते हें । घुड़सवार जैसे अइव को बलवान् करता हुँ,
वैसे ही गमनशील अग्नि अपनी रश्मि को बलवान् करते और
प्रेरित करते हैं ।
८ सत्त
(देवता अग्नि । ऋषि वामदेव । छुन्द गायत्री ।)
१. हे अग्नि, तुम सब धन के स्वामी अथवा सर्वबिद्, देवताओं को
हव्य पहुँचाने वाले, सरणधमे-रहित, अतिशय यजनशील और देवदूत हो।
हम स्तुति-द्वारा तुम्हें वद्धित करते हें ।
२. अग्नि यजमानों के अभीष्टफल-साथक धन के दान को जानते
हैं । चे महान् हुँ । वे देवलोक के आरोहण-स्थात को जानते हैं ।
चे इन्द्रादि देवताओं को यज्ञ में बुलाये ।
३. वे द्युतिमान् हें । इन्द्रादि देवताओं को यजमानों-द्वारा कम-
पूर्वक नमस्कार करना जानते हँ । वे यज्ञगृह सें यज्ञाभिलाषी यजमान
को अभीष्ट धन दान करते हें ।
४६८ हिन्दी-ऋणग्वेद
४, अग्नि होता हैत थे दृत-कर्म को जान करके और स्वर्ग के
आरोहण-योग्य स्थान को जान करके दायाऱ्यूरदी के मध्य में
गसन करते हूँ ।
५. जो हव्य दान देकर अग्नि को प्रसञ्च करता हुँ, जो उन्हें बित
करता है और जो यजमाव उन्हें काष्ठ-द्वारा प्रदीप्त करतः है, उसी
यजमान की तरह हम भी आचरण कर ।
६. जो यजसाम अग्नि की परिचर्या करते हैं, वे अग्नि का सम्भजन
करके धन-द्वारा विख्यात होते हें और पुत्र-पोत्र आदि के द्वारा भौ
विख्यात होते हे ।
७, ऋत्विक आदि के द्वारा अभिलषित धन हम यजमातों के
निकट प्रतिदिन आगमन करे ॥ अन्न हम लोगों को (यज्ञकाष में)
प्रेरित करें ।
८. अग्नि सेधावी हैँ । थे बल-हार। मनुष्यों के विनाशयोग्य
पाप को विशेष रूप से विनष्ट कर् ।
९ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. हे अग्नि, तुम हम लोगों को सुखी करो । तुम महान् हो ।
तुम देवों की कामना करनेवाले हो । तुम यजमान के निकट कुश
पर बैठने के लिए आयसन करते हो ।
२. राक्षसों आदि-द्वारा अहिसनीय अग्नि भनुष्यलोक में प्रकर्ष
छप से गसन करते हुँ । वे मुत्युविर्धाजत हैं । वे समस्त देवों के
दूत हों ।
३. यज्ञगृह में ऋत्विक् आदि के द्वारा नीयमान होकर अग्नि
यज्ञों में स्तुतियोग्य होते हैं । अथवा पोता होकर यज्च-गृह में प्रवेश
करते हुँ । |
दती
निन्दी“त्रर्वैद ४६९
४. अथवा यज्ञ सं अग्नि देवपत्ती या अध्वर्यु होते हैं। अथवा यज्ञ-
गृह में वे गृहपति होते हैं। अथवा ब्रह्मा नामक ऋत्विक होकर उपवेशन
करते हे ।
५. हे अग्नि, तुम यज्ञाभिलाषी मनुष्यों के हव्य की कामना करते
हो । तुम अध्वर्युं आदि के सब कर्मो को जाननेवाले ब्रह्मा हो ।
तुम यज्ञकर्मो के अविकल उपद्रष्टा या सदस्य हो ।
६. हे अग्नि, तुम हव्य बहन करने के लिए जिस यजमान के
यज्ञ को सेवा करते हो, उसके दौत्य कार्य को भी तुम कामना
करते हो ।
७. है अङ्गिरा अग्नि, तुम हमारे यज्ञ की सेवा करो, हमारे हव्य
का सेवन करो और हमारे आह्वान-कारक स्तोत्र का श्रवण करो ।
८. हे अग्नि, तुम जिस रथ-द्वारा समस्त दिशा मं गसन करवे
हवि देनेवाले यजमान की रक्षा करते हो, तुम्हारा वही ऑआहिसनीय
रथ मुझ यजमान के चारों तरफ़ व्याप्त हो ।
१० सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि वामदेव । छन्द पदपंक्ति, उष्णिक आदि ।)
१. हे अग्नि, आज हम ऋत्विग्गण, इन्द्रादि-प्रापक स्तुति-दवारा
तुम्हें वरद्धित करते हैं । अइव जैसे सवार का वहन करता है, उसी तरह
तुस हव्यवाहक हो । तुस यज्ञकर्ता को तरह उपकारक हो । तुम भज-
नीय हो और अतिशय प्रिय हो ।
२. हे अग्नि, तुम इसी समय हमारे भजनीय, प्रबुद्ध, अभीष्टफल-
साधक, सत्यभूत और महान् यज्ञ के नेता हो ।
३. हे अग्नि, तुम ज्योतिर्मान् सूर्यं को तरह समस्त तेज से युक्त
और शोभन अन्तःकरणवाले हो। हुम हम लोगों के अचेनीय स्तोत्र-
हारा नीत होओ, और हम लोगों के अभिमुख आगस्त करो ।
४७० हिन्दी-ऋग्वेद
४. है अग्नि, आज हम ऋत्विक वचनों-द्वारा स्तुति करके तुम्हें
हुव्य दान करेंगे। सूर्य की रश्मि की तरह तुम्हारी शोधक ज्वाला
शब्द करती है। अथवा मेघ की तरह तुम्हारी ज्वाला शब्द करती है।
५. हे अग्नि, तुम्हारी प्रियतम दीप्ति अहनिश अलङ्कार की तरह
पदार्थों को आश्रयित करने के लिए उनके समीप शोभा पाती है।
६- हे अन्नवान् अग्नि, तुम्हारी सूत शोषित घृत की तरह पापरहित
हुँ । तुम्हारा शुद्ध एवं रमणीय तेज अलङ्कार की तरह दीप्त होता है ।
७. हे सत्यवान् अग्नि, तुम यजमानों-हारा निर्मित हो; तथापि
चिरन्तन हो । तुम यजमानों के पाप को निइचय ही दूर कर देते हो।
८. हे अग्नि, तुम चतिमान् हो । तुम्हारे प्रति जो हम लोगों का
सख्य ओर ख्रातुभाव हैं, वह मङ्कलजनक हो । वह सखित्व और
अआतुकाय देवों के स्थान सें और सम्पूर्ण यज्ञ में हम लोगों का
नाभिबन्धन हो ।
११ सूक्त `
(२ अनुवाक । देवता अग्नि । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे बलवान् अग्नि, तुम्हारा भजनीय तेज सूर्य के समीपभूत
दिवस में चारों तरफ़ दीप्तिमान् होता हे । तुम्हारा सुन्दर और
दशनीय तेज रात्रि में भी दिखाई देता हे । तुम रूपवान् हो ।
तुम्हारे उद्देश से स्निग्ध और दर्शनीय अन्न बहुत होता है ।
२. हे बहुजन्सा अग्नि, तुम यज्ञकारियों-द्वारा स्तुत होकर स्तुति-
कारी यजमान के लिए पुण्य लोक के द्वार को विमुक्त करो । हे
सुन्दर तेजोविशिष्ट अग्नि, देवों के साथ यजमान को तुम जो धन
देते हो, हमें भी वही प्रभूत और अभिलषित धन दो।
३. हे अग्नि, हविवेंहन और देवतानयन आदि अग्नि-सस्बन्थी कार्य
तुमसे ही उत्पन्न हुए हें, स्तुतिरूप वचन तुमसे ही उत्पन्न हुए हैं और
आराघनयोग्य उक्थ तुमसे ही उत्पन्न हुए हें । सत्यकर्मा और हव्यदाता
हिन्दी-ऋणष्वेद ४७१
घजमान के लिए वी्ययुक्त रूप और घन भी तुमसे ही उत्पन्न
हुए हैं ।
४. हे अस्ति, बलवान्, हव्पवाहक, महान् यज्ञकारी और सत्यबल-
विशिष्ट पुत्र तुमसे ही उत्पन्न हुए हूँ । देवों-द्वारा प्रेरित सुखप्रद धन
तुमसे ही उत्पन्न होता है और शीघ्रगामी, गतिविशिष्ट तथा देगदान्
अइव तुमसे ही उत्पन्न हुआ है ।
५. हे असर अग्नि, देवाभिलाषी मनुष्य स्तुति-द्वारा तुम्हारी परिचर्या
करते है । तुम देवों में आदिदेव हो । तुम प्रकाशवान् हो । तुम्हारो
जिह्वा देवों को हृष्ट करनेवाली हुँ । तुम पापों को पृथक् करनेवाले
हो और राक्षसों को दमन करने की इच्छावाले हो । तुम गृहपति
और प्रगल्भ हो ।
६, है बलपुत्र अग्नि, तुम रात्रिकाल में मद्भाललनतक और द्युतिमान्
होकर हमारे कल्याण के लिए सेवा करते हो । जिस कारण तुम
यजमानों का विशेष रूप से पालन करते हो, उसी से तुम हम लोगों
के निकट से असति को दूर करो । हम लोगों के निकट से पाप को
दूर करो और हमारे निकट से समस्त दुर्मति को दुर करो ।
१२ सूक्त
( देवता अग्नि । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे अग्नि, जो यजमान सुकू को संयत करके तुम्हें प्रदीप्त
करता हुँ, जो व्यक्ति तुम्हें प्रतिदिन तीनों सबनों में हविरन्न देता है,
हे जातवेदा, वह व्यक्ति तुम्हारे तुप्तिकर (इन्धन-दान आदि) कार्य-
द्वारा तुम्हारे प्रसहमाव तेज को जानकर घन-द्वारा शत्रुओं का पराभूत
करता हं। २
२. है अग्नि, जो तुम्हारे लिए होमसाधन काष्ठ का आहरण'
करता है, हे महान् अग्नि, जो व्यक्ति काष्ठ के अन्वेषण में श्रान्त होकर
तुम्हारे तेज की परिचर्या करता हे और रान्रिकाल तथा दिवाकाल में
४७२ हिन्दी-ऋणग्वेद
जो तुम्हें प्रदीप्त करता है, वह यजमान प्रजा और पशुओं हारा पृष्ट
चय
होकर शत्रुओं को बित्ष्ट करता है और धन लाभ करता हें ।
घन के स्वामी हुँ । युवत और अञ्चयात् अग्नि परिचर्षा करनेवाले
यजमान को रमणीय धन से संयक्त करें ।
४. हे युवतम अग्नि, यद्यपि तुम्हारे परिचारको के भध्य में हुम अज्ञा-
मवश कुछ पाप करते हैं; तथापि तुम पृथ्वी के निकट हमें सम्पूर्ण
रूप से निष्पाप कर दो । हे अग्नि, सर्वत्र विद्यमान हमारे पापों को
तुम शिथिल करो। |
५. हे अग्नि, हुम तुम्हारे सखा हुँ । हमने इखादि देवों के निकट
अथवा मनुष्यों के निकट जो पाप किया हुँ, उस महान् और बिस्तृत
पाप से हम कभी भी विघ्न न पायें। तुम हमारे पुत्र और पोत्र
को पाप-रूप उपद्रवो से शान्ति और सुकृतजनित सुख दो ।
६. हे पूजाह और निवासथिता अग्नि, तुमने जिस तरह पदबद्ध
गौरी गौ को विमुक्त किया था, उसी तरह हम लोगों को पाप से
विमुक्त करो। हे अग्नि, हमारी आयु तुम्हारे द्वारा प्रवृद्ध हुँ, तुम इसे
ओर प्रवृद्ध करो ।
१३ सूक्त
(देवता अग्नि अथवा जिस सन्त्र में जिस देवता का
नामोल्लेख,है।ऋषि वामदेव। छन्द त्रिष्टुप ।)
१. शोभन मनवाले अग्नि तमोनिवारिणी उषा के घन प्रकाशकाल के
पूर्व ही प्रवृद्ध होते हें । हे अश्विद्ठय, तुम यजमान के गृह में गमन करो।
ऋत्विक् आदि के प्रेरक सूर्यदेव अपने तेज के साथ उषाकाल में प्रादुर्भूत
होते हें ।
२. सवितादेव उन्मुख किरण को विकासित करते हँ । रहिमियां
जब सूर्य को झुलोक में आरूढ़ कराती हुँ तब वरुण, मित्र और
हिन्दी-ऋच्वेद ४७३
अन्यान्य देवगण अपने-अपने कर्यो का अनुगमन करते हुँ, जैले बळूदान्
बषभ गौओ की काला करके धूलि विकी्ण करता हुआ गौओ का
अनुगमन करता हें ।
३. सृष्टि करनेवाले देवों ने संसार के कार्य का परित्याग ब
करके सर्वतोभाव से अन्धकार को दुर करने के लिए जिस सूर्य को
सृष्ट किया था, उस समस्त प्राणिसमूह के विज्ञाता सूर्य का धारण महान
हरिवाझक सप्ताइव करते हु ।
४. हे चृतिमान् सूर्य, तुस जगिङहुक रस को ग्रहण करने के लिए
तन्तुस्वरूप रहिमससूह को विस्तारित करते हो, कृष्णवर्णा रारि
को तिरोहित करते हो और अत्यन्त वहनसमर्थ अश्वो-दारा गसन करते
हो । कम्पनयुक्त सूर्यं की रश्सियाँ अन्तरिक्ष के मध्य में स्थित चस-
सदृश अन्धकार को दूर कर । |
५. अदूरवर्ती अर्थात् प्रत्यक्ष उपलभ्यसान सूर्ये को कोई भी बाँध नह
सकता । अधोमुख सूर्य किसी प्रकार भी हिसित नहीं होते हैं ।
घे किस बल से अद्ध्वेसुख आतण करते हैं ? झुलोक सं समवेत स्तर्भ-
स्वरूप सुर्य स्वर्गं का पालन करते हें । इसे किसने देखा हुँ ?
अर्थात् इस तत्त्व को कोई भी नहीं जानता ।
१४ सूक्त
(देवता अग्नि अथवा जिस मन्त्र में जिस देवता का नामोल्लेख
है । ऋषि वासदेव । छन्द् त्रिष्टुप्।)
१. जातवेदा अग्नि के तेज से दीप्यमाना उषा प्रवृद्ध हुई हें ।
हे प्रभूत गमनशाली अशिवद्वय, तुस दोनों रथ-द्वारा हमारे यज्ञ के
अभिमुख आगमन करो ।
२. सबिता देवता समस्त भुवन को आलोकयुकत करके उन्मुख
किरण का आश्रय लेते हुँ। सबको विशेष रूप से देखनेवाले
४७४ हिन्दी-ऋग्वेद
सूयं ने अपनी किरणों से झावा-पृथिवी और अन्तरिक्ष को परिपूर्ण
किया हूँ ।
३. धनधारिणी, अरुणवर्णा, ज्योतिःशालिनी महती, रदिमवि चित्रिता
और विदुषी उषा आई हुँ । प्राणियों को जागृत करके उषादेवी
सुयोजित रथ-द्वारा सुख-प्राप्ति के लिए गसन करती हे ।
४. हे अधिवद्वय, उषा के प्रकाशित होने पर अत्यन्त वहनक्षम और
गमनशील अइव तुम्हें इस यज्ञ में ले आथे । हे अभीष्टवर्षिद्यय, यह
सोम तुम्हारे लिए हुँ । इस यज्ञ में सोम पान करके हुष्ट होओ ।
५. अहूरवत्तो अर्थात् प्रत्यक्ष उपलभ्यमान सूर्यं को कोई भी
बाँध नहीं सकता हुँ । अधोमुख सूर्यं किसी प्रकार भी हिंसित नहीं
होते हैं । ये किस बल से ऊद्ध्वंसुख भ्रमण करते हें? दोक में
समवेत स्तम्भस्वरूप सूर्य स्वगं का पालन करते हँ। इसे किसे
देखा है ? अर्थात् इस तत्त्व को कोई भी नहीं जानता ।
१५ सुक्त
(दवता १-६ के अग्नि, ७ और ८ के सोमक राजा, ९ और
१० के अशिवद्वय । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. होम-निष्पादक देवों के मध्य में दीप्त और यज्ञा अग्नि
हमारे यज्ञ में शीघ्रगामी अश्व कौ तरह लाये जाते हें ।
२. अग्नि देवों के लिए अन्न धारण करके प्रतिदिन तीन बार
रथो की तरह यज्ञ में परिगमन करते हें ।
३. अञ्च के पालक मेधावी अग्नि हवि देनेवाले यजमान को
रमणीय धन देकर हवि को चारों तरफ़ से व्याप्त करते हैं ।
४, जो अग्नि देवता के पुत्र सञ्चय के लिए पर्व दिशा में स्थित
होते हैं और उत्तर वेदी पर समिद्ध होते हें, बे शन-वाशकारी
अग्निं दीप्तियुक्त हों ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४७५
५. स्तुति करनेवाले वीर मनुष्य तीक्ष्ण तेजवाले, अभीष्टवर्षी और
गमनशील अग्नि के ऊपर आधिपत्य का विस्तार करें।
६. यजसान लोग अइव की तरह ह॒व्यवाही, दुलोक के पत्रभत
सूयं की तरह दीप्तिमान् और सम्भजनीय अग्नि की प्रतिदिन
बारम्बार परिचर्या करे ।
७. सहदेव के पुत्र सोमक राजा ने जब हमें इन दोनों अइवों को
देने को बात कही थी तब हम उनके निकट जाकर अइबों को
प्राप्त करके आये हें ।
८, सहदेव के पुत्र सोमक राजा के निकट से उसी दिन उन
पूजनीय और प्रयत अइवों को हमने ग्रहण किया था ।
९. हे कान्तिमान् अझ्विनीकुमारो, तुम दोनों के तृप्तिकारक सह-
देव के पुत्र सोमक राजा सौ वर्ष की आयुवाले हों ।
१०. हे कान्तिमान् अइिवनीकुमारो, तुम दोनों सहदेव के पृत्र सोमक
राजा को दीर्घायु करो ।
१६ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. ऋजीषी अर्थात् सोमवान् और सत्यवान् इन्द्र हमारे निकट
आगमन करे । इनके अइव हमारे निकट आगमन करे । हम यजमान
इन्द्र के उद्देश से सारविशिष्ट अन्नरूप सोम का अभिषव करेंगे। वे
स्तुत होकर हम रोगों के अभीष्ट को सिद्ध करें ।
२. हे शत्रुओं को अभिमत करनेवाले इन्द्र, इस माध्यन्दिन के सवन
में तुम हम लोगों को विमुक्त करो, जैसे गन्तव्य मार्ग के अन्त में मनुष्य
घोड़ों को छोड़ देता है। जिससे इस सवन में हम तुम्हें हृष्ट करें ।
हे इन्द्र, तुम सर्वेविद् हो ओर असुरों के हिसक हो । यजमान लोग
उशना की तरह तुम्हारे लिए मनोहर उदथ का उच्चारण करते हें।
४७६ हिन्दी-ऋष्वेद
३. कवि जिस प्रकार से गूढ़ अर्थ का सम्पादन करते हुँ, उसी प्रकार
अभीष्टवर्षी इन्द्र कार्यों का सम्पादन करते हुँ। जब सेचन योग्य सोम
का अधिक परिमाण में पान करके इन्द्र हुष्ट होते हें तब चुलोक से
सप्त-संख्यक रहिसयों को सचमुच उत्पन्न कर देते हें । स्तूयसान रहिमयाँ
दिन में भी मनुष्यों के ज्ञान का सम्पादन करती हें ।
४. जब प्रभूत एवम् ज्योतिःस्वरूप द्युलोक रश्मियो द्वारा अच्छी तरह
से दशनीय होता हुँ तब देवगण उस स्वर्ग सं निवास करने के लिए
दौप्तियुक्त होते है । नेतृश्रेष्ठ सुर्यं ने आगमन करके मनुष्यों को अच्छी
तरह से देखने के लिए घनीभूत अन्धकार के! नष्ट कर दिया हे ।
५. ऋजीषी अर्थात् सोमविशिष्ट इन्द्र अमित महिमा धारण करते
हैँ । वे अपनी महिमा के बल से झावा ओर पृथिवी दोनों को परिपुणं
करते हें। इन्द्र ने समस्त भुवनों को अभिभूत किया है। इन्द्र की
महिमा समस्त भुवनों से अधिक हे ।
६. इन्द्र सम्पूर्ण मनुष्यों के हितकर वृष्टि आदि कार्य को जानते
हैँ । उन्होंने अभिलाषकारी और सित्रभूत सरुतों के लिए जलवर्षण किया
था । जिन मरुतों ने वचनरूप ध्वनि से पर्वतों को विदीणं किया था,
उन मरुतों ने इन्द्र की अभिलाषा करके योपुणं गोशाला का आच्छादन
किया है ।
७. है इन्द्र, तुम्हारे लोकपालक वचन ने जलावरक संघको
प्रेरित किया था । चेतनावती भूमि तुमसे संगत हुई थी । हे शुर और
वर्षणशील इन्द्र, तुम अपने बल से लोकपालक होकर समुद्र-सम्बन्धी
और आकाशस्थित जल को प्रेरित करो ।
८. हे बहुजनाहूत इन्र, जब तुमने वृष्टि जळ को लक्ष्य करके मेघ
को विदीणं किया था तब तुम्हारे लिए पहले ही सरमा (देवों की कुतिया)
ने पणियों-हारा अपहत गौओं को प्रकाशित किया था । अद्धिराओं-
द्वारा स्तूयमान होकर तुम हम लोगों को प्रभूत अन्न प्रदान करते हो
और हम लोगों का आदर करते हो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४७७
९. हे धनवान् इन्द्र, मनुष्य तुम्ह सम्मानित करते हैँ । तुमने धन
प्रदान करने के लिए कुत्स के अभिमुख गसन किया था। याचना
करने पर शत्रुओं के उपद्रवों से आश्रयदान-द्वारा तुमने उनकी रक्षा
की थी । कपटी ऋत्विकों के कार्यों को अपनी अनुज्ञा से जानकर तुमने
कुत्स के धन-लोभी शत्रु को युद्ध में विनष्ट किया था ।
१०, हे इन्द्र, तुमने सन में शत्रुओं को मारने का संकल्प करके
कुत्स के गृह में आगमन किया था । कुत्स भी तुम्हारे साथ मैत्री करने
के लिए अतिशय आग्रहवान् हुआ था तब तुम दोनों अपने स्थान सें
उपविष्ट हुए थे । तुम्हारी सत्यदशिती भार्या शची तुम दोनों का समान
रूप देखकर संशयान्वित हुई थी ।
११. जिस दिन प्राज्ञ कुत्स ग्रहणीय अन्न की तरह ऋजुगामी अइव-
इय को अपने रथ में युक्त करके आपत्ति से निस्तीर्ण होने में समर्थ
हुए थे, उस दिन हे इन्द्र, तुमने कुत्स की रक्षा करने की इच्छा से
उसके साथ एक रथ पर गसन किया था। तुम झत्रुनाशक और वायु
के सदृश घोड़ों के अधिपति हो ।
१२. हे इन्द्र, तुमने कुत्स के लिए सुखरहित शुष्ण का वघ किया
था । दिवस के पूर्व भाग सं तुमने कुयव नामवाले असुर को मारा
था । बहुत परिजनों से आवृत होकर तुमने उसी समय बज्न-द्वारा
शत्रुओं को भी विनष्ट किया था। तुमने संग्राम में सूर्ये के चक्र को
छिन्न कर दिया था।
१३. हे इन्द्र, तुमने पिप्रु नामक असुर को तथा प्रवृद्ध मृगय नामक
असुर को विनष्ठ किया था। तुमने विदीथ के पुत्र ऋजिश्वा को
बन्दी बताया था। तुमने पचास हजार कृष्णवर्ण राक्षसों को मारा
था। जरा जिस तरह से रूप को विनष्ट करती है, उसी तरह से तुमने
शम्बर के नगरों को विनष्ट किया था ।
१४, हे इन्द्र, तुम मरण-रहित हो । जब तुस सुय के निकट अपदा
शरीर धारण करते हो तब तुस्हारा रूप प्रकाशित होता हे । सुर्य के
४७८ हिन्दी-ऋग्वेद
समीप सबका रूप मलिन हो जाता हैँ; किन्तु इन का रूप और
भासमान होता है । हे इन्द्र, तुम मृगविद्येष की तरह गत्रुओं
को दग्ध करके आयुध धारण करते हो ओर सिह की तरह भयंकर
होते हो।
१५. राक्षस-जनित भय को निवारित करने के लिए इन्द्र की
कामना करनेवाले और धन की इच्छा करनेवाले स्तोता लोग युद्ध-
सदृश यज्ञ में इन्द्र से अन्न की याचना करते हुँ, उक्यो-द्वारा उनकी
स्तुति करते हैं और उनके निकट गमन करते है। इन्द्र उस समय
स्तोताओं के लिए आवासस्थान की तरह होते हैं और रमणीय तथा
दर्शनीय लक्ष्मी की तरह होते हें।
६, जिन इन्द्र ने मनुष्यों के हितकर बहुतेरे प्रसिद्ध कार्य किये हें,
जो स्पृहणीय धनविश्विष्ठ हे, जो हमारे सदृश स्तोता के लिए ग्रहणीय
अन्न को शीघ्र लाते हें, हे यजमानो, हम स्तोता लोग उन इन्द्र का
शोभन आह्वान तुम्हारे लिए करते हैं।
१७. हे शूर इन्द्र, मनुष्यों के किसी भी युद्ध मं अगर हम लोगों
के मध्य में तीक्ष्ण अशनिपात हो अथवा शत्रुओं के साथ अगर हम लोगों
काघोरतरयद्ध हो, तब हे स्वामिन्, तुम हम लोगों के शरीर की रक्षा
करना ।
१८, हे इन्द्र, तुस वामदेव के यज्ञकारे के रक्षक होओ। तुम
हसा-रहित हो । तुम युद्ध सं हम लोगों के सुहृद् होओ । तुम मसति-
सान् हो । हम लोग तुम्हारे निकट गमन करें। तुम सर्वेदा स्तोत्र-
कारियों के प्रशंसक होओ ।
१९. हे धनवान् इन्द्र, हस शत्रओं को जीतने के लिए समस्त यद्ध
में तुम्हारी अभिलाषा करते हँ। धनी जिस तरह धन-द्वारा दीप्त
होता है, हम भी उसी तरह हब्ययुक्त होकर पुत्र-पौत्रादि परिजनों के
साथ दीप्त हों और शत्रुओं को अभिभूत करके रात्रि तथा सम्पुर्ण
संवस्सरों सं तुम्हारी स्तुति कर
हिन्दी-ऋणग्वेद “४७९
२०. इन्द्र के साथ हम लोगों की मैत्री जिस कार्य से वियुक्त न
हो, तेजस्वी और शरीर-पालक इन्र जिससे हम लोगों के रक्षक हों,
हुम लोग उसी प्रकार का आचरण करेंगे। दीप्त रथ-निर्माता जिस
तरह रथ का निर्माण करले हें, उसी तरह हम लोग भी अभीष्टवर्षी
तथा नित्य तरुण इन्द्र के लिए स्तोत्र की रचना करते हैं।
२१. हे इन्द्र, तुम पूर्ववली ऋषियों-हारा स्तुत होकर तथा हम लोगों-
द्वारा स्तूयमान होकर जसे जल नदी को पुर्ण करता हुँ, उसी तरह
स्तोताओं के अञ्न को प्रवृद्ध करते हो। हे हरिविशिष्ट इन्द्र, हम
तुम्हारे उद्देश्य से अभिनव स्तोत्र करते हे। जिससे हम लोग रथवानू
होकर स्तुति-द्वारा सदा तुम्हारी सेवा करते रहें।
१७ सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे इन्द्र, दुम महान् हो। महत्त्व से युक्त होकर पृथ्वी नै
तुम्हारे बल का अनुमोदन किया था एवम् युलोक ने भी तुम्हारे बल का
अनुमोदन किया था। लोकों को आवृत करनेवाले वृत्र नामक असुर
को तुमने बल-द्वारा मारा था। वृत्र ने जिन नदियों को ग्रस्त किया
था, तुमने उन नदियों को विमुक्त कर दिया था ।
२. हे इन्द्र, तुम दीप्तिमान् हो । तुम्हारे जन्म होने पर झुलोक
तुम्हारे कोप-भय से कस्पित हुआ था, पथ्वी कस्पित हुई थी और वृद्धि
प्रदान के लिए बृहत् मंघसमूह तुम्हारे द्वारा आबद्ध हुआ था ॥
इन मेघों ने प्राणियों की पियासा को विलष्ट करके मरुभूमि में जळ-
प्रेरण किया था।
३. शत्रुओं के अभिभवकरत्ता इन्द्र ने तेज:प्रकाशन करके और
बलपूर्वक वप्त्र का प्रेरण करके पर्वतों को विदीर्ण किया था । सोस-
पान से हुष्ट होकर इन्द्र ने बज्र-द्वारा वृत्र को विसष्ट किया था ।
बुन्न के विनष्ट होये पर जल आवरणरहित होकर वेग से आने लगा था ।
७८० हिन्दी-ऋण्वेद
४. है इख, तुस अतिशय स्तुत्य, उत्तम वज्त्रबिश्िष्ट, स्वर्गस्थात्त
से अच्युत अर्थात् विवाशरहित और महिसावाब हो। तुम्हें थि
घुतिमान् प्रजापति ने उत्पन्न किया था, वे अपने को सुन्दर पुत्रवान्
मानते थे। इन्द्र के जनयिता प्रजापति का कर्म अत्यन्त झोभन
हुआ था ।
५. सम्पूर्णं प्रजाओं के राजा, बहुजवाहुत और देवों के मध्य में एक-
सात्र प्रधान इन्द्र शजुजनित भय को विनष्ट करते है । घुतिमान् और
धनवान् बन्धु इन्द्र के उश से सचमुच समस्त यजमान स्तुति
करते हुँ ।
६. सम्पूणं सोम सचमुच इन्द्र के ही हें। ये मदकारक सोम महान्
इन्द्र के लिए सचमुच हर्षकारक हें । हे इन्र, तुम धनपति हो, केबल
धनपति ही नहीं; बल्कि सम्पुर्ण पशुओं के भी पति हो । हे इन्द्र, घन
के लिए लुभ सचसुच समस्त प्रजाओं को धारण करते हो ।
७. हे धनवान् इन्द्र, पहले ही उत्पन्न होकर लुभने वृत्रभीत होकर
सम्पुण प्रजाओं को धारण किया था । तुमने उदकवान् देश के उद्देश्य
से जलनिरोधक वृत्रासुर को छिन्न किया था।
८. अनेक शत्रुओं के हन्ता, अत्यन्त दुर्धषं शत्रुओं के प्रेरक, महान्,
विनाशरहित, अभीष्टवर्षी और शोभन वज्ञविशिष्ट इन्द्र की स्तुति हम
लोग करते हें । जिन इन्द्र ने वृत्र नामक असुर को मारा था, जो अन्न-
दाता और शोभन धन से युक्त हुँ तथा जो धन दान करते हें, हम उनकी
स्तुति करते हुँ ।
९. जो धनवान् इन्द्र संग्राम में अद्वितीय सुचे जाते हँ, वे मिलित और
विस्तृत शनु-सेना को बिनष्ट करते हँ । वे जो अन्न यजमान को देते हें,
उसी अञ्च को धारण भी करते हें। इन्द्र के साथ हम लोगों की मैत्री
प्रिय हो ।
१०. शन्नुबिजयी और शर्नहसक होकर इन्द्र सत्र प्रख्यात हँ ।
इन्द्र शत्रुओं के समीप से पशुओं को छीन लाते हे। इन्द्र जब सचमत्र
हिन्दी-ऋणग्वेद ४८१
कोप करते यावर और जंगम-हूप समस्त जगत इन्द्र से डरने
लगता हुँ !
जिल धवयात् इन्द्र ने अदुरों को जीता था, झत्रओं के रस-
णीय बल को जीता था, अश्वसमूहु को जीता थर दया अनेक शज्रुसेनांओं
को जीता था, वे सामथ्यवान् वेतृश्रेष्ठ ध्तोताओं-दारा ह्तुत होकर
पशुओं के विभाजर तथा थन के धारक हों।
१२. इन्द्र अपश्षी जननी के सथीव किसना बल प्राप्त करते हें और"
पिता के समीव किक्षया बल प्राप्त करते हैं। जिय इख् ने अपने विता
प्रजापति के समीप से इस दृश्थमाव जगत् को उत्प किया था तथा उन्हीं
प्रजापति के सभीवष से जगत् को मुहुर्महु: बल प्रदान किया था, वे इन्द्र
गर्जनश्ञील मेध-हारा प्रेरित बायु की तरह आहूत होते हैं।
१३. धनवान इख किसी एक धवश्न्य व्यक्ति को धनपुर्ण करते
हैं अर्थात् कोई पुरुष इन्द्र की स्ठुति करके घवसमृढ हुआ है। वन्न
यक्ष्त अन्तरिक्ष की तरह झत्रुविदाशक इ सथू पाप को विचष्ट करते
हैं और स्तोहा को धन प्रदान करते हे।
१४, इन चे सूर्थ के आयुध को प्रोरत किया था और बुद्ध के
लिए जानेबाले एतश को निवारित किया था। कुटिल-गति और
कुष्णबर्ज संघ ने तेजं के चलभूतं और जल के स्थाव-स्वरूप अन्तरिक्ष
में स्थित इख को अधिविज्ष किया था।
१५. जैले रा व्रक्ाल में वजवान खोस-द्वारा अग्नि को अभिषिक्त
करते हें । |
१६. हम मेधावी स्तोता यौओों की अभिलाषा करते हैं, अइवों की
अभिलाषा करते हुँ, अच्च की असिळादा करते हँ और स्त्री की अभि-
षा करते हं । हम लखिता के लिए कश्ममा-पुरक, भाषाप्रद और
सवदा रक्षक इन्द्र को, लोग जेसे कूद में जलपात्र को अवनभित करते
हुँ, उसी तरह अवनमित करेगे ।
पर? २१
न
2
४८२ ,हिन्दी-क्रग्बेद
१७. है इस, तुस आप्त हो। रक्षक रूप से सबको देखते
हुए तुम हुयारे रक्षक होओ ॥ दुम सोमयोग्य बजमानों के
अधिद्रष्द! और सुखग्तिा हो । प्रजापति के समान एुम्हारी ख्याति
हु । तुम पालक हो और पालको के अध्य सं श्रेष्ठ हो। तुम
पितरों के स्रष्टा हो। तुम स्वर्गाभिलाषी स्तोताई के
अन्नप्रद होओ ।
१८. हे इन्द्र, हम तुम्हारी मैत्री की अभिलाषा करते हें। तुस
हमारे रक्षक होओ । तुम स्टुत होते हो, घुम हयारे सखा होओ।
तुम स्तोताओों को अज्ञ दाम करी । हे इंच, हुम बाधायुक्त होकर
भी स्वुलि-झूप कर्म-दहारा पुजा करके तुम्हारा आह्वान
करते हें ।
१९. जब इग्द्र हम लोगों के द्वारा स्तुत होते हें तथ बे आफैले ही
अनेक अभियन्ता शत्रु को मार डालते हुं । जिस इन्द्र की शरण में
वर्तमान स्तोता का निवारण न देवगण करले हँ और न मवृण्यंगण
करते है, उस इन्द्र का स्तोता प्रिय होता है ।
२०. विविध शब्दबान, रासस्य ्रजाओं के धारक, श्ञम्रुरहित और
धनवान इन्त्र इस प्रकार स्तुत होकर हज लोगों फे सस्यस्य अभि,
को सम्पादित करे । हे इछ, लु समस्त उस्वधारियो के राजा हो।
स्तोता जिस यहिमायुझ्त यश फो प्राप्त करदा है, वाह यश दुल अधिक
परिमाण सें हम लोगों फो दो।
२१. हे इन्द्र, तुम पूर्ववर्ती ऋषियों-दारा स्तुत होकर सथा हस
लोगों के द्वारा स्तुयमाम होकर असे जल सदी को पुर्ण करता हु
उस्ती तरह स्तोताओं के अन्न को प्रवद्ध करते हो। हे ह।रविल्लिण्ड
इन्द्र, हुम तुम्हारे उद्दशय से अभिनय स्यो करते हँ, जिससे
हुम लोग रथवान् होकर स्तुसि-द्वारा सदा हुम्हारी सेवा
करते रहें ।
हिन्दी-ऋग्वेद ४८३
१८ सूक्त
(इस सूक में इन्द्र, अदिति ओर वामदेव का कथोपकथन है; अतएत्र
ये ही तीनों देवता और ऋषि हैं । छन्द् त्रिष्दुप् |)
१, इन्द्र कहते हुल यह योनियिरषसणङूप सायं अनादि और
दपर लब्ध है । इसी बोनिसार्ग से सम्पूर्ण ऐन और सनुध्य उत्पन्न हुए
हें; अतएव तुस गर्थे में प्रबुद्ध होकर इसी सा द्वारा उत्पन्न होओ ।
सादा का सत्यु क Iलएू सत काथ कर ।
२. वामदेव कहते हँ-- हस इस योनिमा हारा नहीं निर्णत होंगे ।
पह मार्ग अत्यन्त दुस है । हल पाइवभेद करके निर्गत होंगे । इसरों के
दारा अकरणीय बहुतेरे काये हमें करने हैं। हसे एक के साथ यद्ध
रना हुँ । हमं एक के साथ वाद-विवाद करना हू ।
३. इच्ध कहते हें--“ हमारी साता सर जायगी; तथापि हस
पुरातन सागं का अनुधावन नहीं करेगे, शीघ्र बहिर्गत होंगे।” (इन्द्र
ने जो यथेच्छाचरण किया था, उसी को वामदेव कहते हैं) इन्द्र ने
अभिषवक्षारी त्वष्टा के गृह में सोमाभियव-फरूक-द्वारा अभिएुत सोम
का पाच बकूपूर्वक किया था, वह सोध बहुत धत-द्रारा कत था।
अदिति ने इन्द्र को अनेक झालों ओर अनेक जंबव्सरों तक
गर्भ सें बहुत दिनों दक रहकर इख ने अदिति को कलेश दिया था)”
इन्द्र के ऊपर किये गय आक्षप को छुवकर अदिति कहती हु"
“हे वामदेव, जो उत्पन्न हुए हें ओर जो देवादि उत्पन्न होंगे, उनके
साथ इन्द्र की तुलना नहीं हो सकती हुँ ।
५, “गह्वरखूय सुतिका-गृह में उत्पन्न इन्द्र को निन्दनीय सायकर
हि
साच उन्हु अव्य स
605
स् (यय था। जनन्त उत्पन्न ह्रोते ही
इन्द्र अपने तेज को धारण करके उत्यित हुए थे और द्यावा-पुथिवी को
परिपुर्ण किया था।
४८४ हिन्दी-आगबेद
६... अ-छ-ळा शब्द करती हुई थे जलवती नदिया इस के म
को प्रकट करने के लिए हर्षपूर्वक बहुविध शब्द करती हुई बहती
इन्द्र के माहात्म्य का इूचफ हैं । सेरे पुत्र इच ने ही उदक
रक सेघ को थिदीण करके जल को प्रवरतित किया था ।
. ७. वत्रवध से हट्टाहाााहए पाप को प्राप्त करनेवाले इन्द्र
को निवित् बया कहती है ? जल फेन रूप से इन्द्र के पाय को धारण
करता हुँ । मेरे पुत्र इस्र ने सहानू घज ले वृत्र का दथ किया था |
अनन्तर इन नदियों को दिसुष्ट किया था)”
८. वासदेव कहते हं-- हुम्हारी युवती माता अदिति ये प्रमत्त होकर
तुम्हारा प्रसव किया था । कुषवा नास की राक्षसी ने प्रमत्त होकर
तुम्हें ग्रास बनाया था। हे इन्द्र, उत्पन्न होने पर तुस्हें जरसमूह ने
प्रमत्त होकर सुखी किया था । इन्द्र प्रभत्त होकर अपने वीर्य के प्रभाव
से सुतिका-गुह में राक्षसी को मारने के लिए उत्थित हुए थे।
९. हे धनवान् इन्द्र, व्यंस नामक राक्षस ने प्रमत्त होकर तुम्हारे
हनुइय (चिबुक के अधोभाग) को विद्ध करके अपहूत किया था। हे
इन्द्र, इसके अनन्तर अधिक बलवान् होकर दुमने व्यंस राक्षस के सिर
को वज्तन-द्वारा पीस डाला था ।
१०. “सङृत्त्रसृता (एक ऽः व्ययी हुई) यौ जैसे वत्स प्रसव करती
है, उसी तरह इन्द्र की माता अदिति अपनी इच्छा से सञ्चरण करने
के लिए इन्द्र को प्रसव करती छ । इख अवस्था में बुद्ध, अभू बल
शालो, अनभिभवनीय, अभौष्टवर्षी, प्रेरक, अनभिभूत, स्वर्यं यस्मक्षस
ओर झरीराभिराची हु ।
११. “इन्द्र की मातर अदिति ने महान् इन्द्र से पूछा, हे मेरे पुत्र
इसर, अग्नि आदि देव तुम्हें त्याग रहे हु इन्द्र ने विष्णु से कहा,
है सखा विष्णु, तुम यदि वृत्र को सारने की इच्छा करते हो, तो
अत्यन्त पराक्रमशाली होओ ४
हिन्दी-ऋण्वेद ४८५
१२. हि इन्द्र, तुम्हारे अतिरिक किस देव ये भाता को विधवा
किया था ! तुम जिस समय सो रहे थे अथवा जाग रहे थे; उस समय
क्सने तुम्हें सारना चाहा था? कौन देवता सुख देने में तुम्हारी
अपेक्षा अधिक हैँ ? किए कारण तुमने पिता के दोनों चरणों को
पकड़कर उनका वध किया था?
१३. हमने जीदनोपाय के अथाव में छुत्ते की अँतडी को पकाकर
खाया था! हमने देवों के मध्य में इन्द्र के अलिरिव अन्य देव को
सुखदायक नहीं पाया) हसने अपनी सार्या को रसहीघमात् (असस्मानित)
होते देखा । इसके अनन्तर इन्द्र हमारे लिए मधुर जल लाये ।?
यञ्च अध्याय सम ८: ॥
१९ सूक्त
(पृष्ठ अध्याय । देवता इन्द्र | ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. हे वच्यात् इन्द्र, इस यज्ञ में शोभन आह्वान से युक्त तथा
रक्षक निखिल देवगण और दोनों घावा-पूथियी बत्रवघ के लिए एक-मात्र
तुम्हारा ही सम्भजन करती हें। तुम स्तूयमान, महान् भुणोत्कर्ष से
प्रवृद्ध ओर दशनीय हो ।
२. हे इन्द्र, वुद्ध पिता जैले युवा पुत्र को प्रेरित करते है, उसी
तरह देवगण तुम्हें असुर-वध के लिए प्रेरित करते हें। हे इन्द्र, तुम
सत्य विकास-स्वरूप हो । तब से तुम समस्त लोकों के अधीरवर हुए हो ।
जल को लक्ष्य करके परिशायन करनेवाले बुत्रासुर का तुमने वध किया
था । सबको प्रसन्न करनेवाली नदियों का तुसने खनन किया था।
३. हे इन्द्र, तुमने भोग में अतप्त, शिथिलाङ्ग, दुविज्ञान, अज्ञान-
भावापञ्च, सुप्त और सपणशील जल को आच्छादित करके सोवेबाले
बृत्र को पोणमासी सं वजा-दारा मारा था।
४८६ हिन्दी-ऋग्वेद
४. बायु जैसे बल-हाशा जल को क्षोसित करती है, उसी तरह
प्रमेश्वर्यवानू इ बरू-ट्वारा अन्तरिक्ष को क्लीणजर करके पीस
डालते हुँ। बळाभिलाबी इन्द्र दृढ़ शेघ को भग्न करते हैँ और पतों
के पक्षों को छिल्ल करते है!
५. है इन्द्र, आशाय जिस तरह पु के निकट गसन करती हें, उसी
तरह भर्तों ने तुम्हारे निकट गशन फिया था; जेसे दत्र को आर के
लिए तुम्हारे साथ वेगवान् रथ गया था । तुमने विसरणशील नदियों
को वारिपूर्ण किया था; सेघ को अग्न किया था और बृत्र-द्वारा आवृत
जरू को प्रेरित क्या था।
क
६. है इन्द्र, तुमने सहली तथा सबको प्रीति देगेदाळी ओर तुर्वीति
तथा वयय राजा के लिए अभीष्ट फल देनेवाली भमि को अन्न से अचल
किया था तथा जल से रमणीय किया था अर्थात् पृथ्वी को तुमने अन्न-
जल से समृद्ध किया था । हे इन्द्र, तुमने जल को सुतरणीय (सुगमता
से तरने के योग्य) बना दिया था ।
७. इन्द्र ने शर्जाहिसक सेना की तरह तध्ध्वंसिनी, जलयुब्ता तथा
अहजनथित्री नदियों को भलीन्याँति पूर्ण किया हें । इस ने जलशून्य
देशों को वृष्टि-द्वारा पूर्ण किया है तथा पिपासित पथिकों को पूर्ण किया
हँ । इन्द्र ने दस्युओं की अधिकृता, ्रसव-लबुला गोओं को दुहा था ।
८. वृत्रासुर को मारकर इन्टर रे हशिज्ा-हारा आच्छादित अले
उषाओं को तथा संवत्सरो को यिमयल किया था । एवं दुज-हार! निरुद्ध
जल को भी विमुक्त किया था । इन्द्र ये संघ के चारों तरफ़ वर्तमान
तथा वुत्र-द्रारा वध्यण-ण नदियों को पृथ्वी के ऊपर बहुने के लिए
बिसुक्ष्त किया था ।
९. हे हरि नामक घोड़ावाले इन्द्र, तुमने उपजिह्विका-(कीटविशेष)
द्वारा भक्ष्यमान अंपू-पुत्र को बल्मीक (दीमक) स्थान से बाहर
किया था । बाहर किये जाते समय वह अयू-पुत्र यद्यापि अन्धा था,
हिन्दी-ऋग्वेद ` ४८७
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तथापि उसने ६ रह से देखा था। उसके जपजिह्िक-
हारा छिन्न अङ्ग इन्एन्हारा संयुझ्ल हुए थ ।
१०. हुँ राजशाज जाच इन्द्र, तुम सर्वंदेसा हो। दर्षणयोग्य और
स्वयं सश्च भनुष्णों के दण्टिसस्बन्धी कथो को दुमने जिस प्रकार से
किया था, बासदेव उन एकल पुरातन कों का उल्लेख करते हँ ॥
११. हे इन्द्र, तुम पुर्दवर्ती आबियो-द्वारा स्तुत होकर तथा हम
लोगों के हारा स्तूयसान होकर जेसे जळ नदी को पुर्ण करता है, उसी
तरह स्तोताओं के अञ्च को प्रदद्ध करते त हो। है हरिविशिष्ड इन्द्र, हम
९० सुरत
(देवता इन्द्र | ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. अभीष्टप्रद और तेजस्वी हस्त, हम लोगों को आश्रय प्रदान
करने के लिए दूर से आयं; हम लोगों को आश्रय प्रदान करने के
लिए निकट से आगमन कर । वे संग्राम में संगत होने पर शत्रुओं का
वध करते हैं । बे दप्प्रबाहु, झनुष्यों के पालक और तेजस्वी मरुतों
से युक्त हें ।
२. हम लोगों के अभिकुख ब्र आश्रय ओर घन प्रदान करने
के लिए हम लोगों के निकट अश्यो के साथ आय । वत्त्रवान्, धन-
शालो और भहाव् इन्द्र युद्ध थें उपस्थित होने पर हमारे इस यज्ञ में
उपस्थित हों ।
३. हे इन्द्र, तुम हम लोगों को पुरःसर करके हमारे इस क्ियमाण
यज्ञ का सम्भजन करो ३ हे बप्त्रवर, हम तुम्हारे स्तोत्ता हें । व्याध जिस
तरह से मूणों का शिकार करता है, उदी तरह से हम तुम्हारे हारा धन
लाश के लिए युद्ध में जय लाभ करें ।
४८८ _ हिन्दी-ऋग्वेद
४. हे अञ्चवान् इन्द्र, तुम प्रसक्ष मन से हम लोगों के समीप आग-
मन करो और हमारी कामना करके उत्तम रूप से अभिषुत, सम्भृत
और मादक सोमरस का पान करो एवम् माध्यन्दिन सवन सं उदीयमान
स्तोत्र के साथ सोस पान करके हुष्ड होओ ।
प, जो पके फलबाले वक्ष की तरह एवम् आयुधकुशल विजयी व्यक्ति
की तरह हें और जो नूतन ऋषियों-हरा विविध प्रकार से स्तुयसान
होते है, उन पुरुहुत इख के उद्देश से हम स्तुति करते हें। जैसे
स्त्रेण मनुष्य स्त्री की प्रशंसा करता हुँ ।
६. जो पर्वत की तरह प्रबद्ध और महान् हैँ, जो तेजस्वी हें और
जो झत्रुओं को अभिभूत करने के लिए सनातम काल सें उत्पन्न हुए हैं,
वे इन्द्रजल-द्वारा पुर्ण जलपात्र को तरह तेजःपूर्णं बृहत् बज्न का आदर
करते हें ।
७. हे इन्द्र, तुम्हारे जन्म से (उस्पन्न-मात्र से) ही कोई निवारक
नहीं रहा, यज्ञादि कर्म के लिए तुम्हारे द्वारा प्रदत्त घन का नाशक कोई
नहीं रहा । है बलशाली, तेजस्वी, पुरुहत, तुम अभीष्ठवर्षी हो । तुम हम
लोगों को घन दो ।
८. हे इन्र, तुम प्रजाओं के धन और गृह का पर्यवेक्षण करते हो
और निरोधक असुरों से गौओ के समूह को उन्मुक्त करते हो। हे इन्द्र,
तुम शिक्षा के विषय में प्रजाओं के नेता या शासक हो और युद्ध में
प्रहार करनेवाले हो । तुम प्रभूत धनराशि के प्रापक होओ ।
९, अतिशय प्राज्ञ इन्द्र किस प्रज्ञाबर से विश्वृत होते हें ? महान्
इन्द्र जिस प्रज्ञाबल से मुहुम्हः कर्मससूह का सम्पादन करते हैं (उसी
के द्वारा विश्वुत हँ) । वे यजमानों के बहुल पाप को विनष्ट करते
हुँ और स्तोताओं को धन दान करते ह ।
१०. है इन्द्र, तुम हम रोगों को हिला मत करो; बल्कि हम लोगों
के पोषक होओ । हे इन्द्र, तुम्हारा जो प्रभूत धन हव्यदाता को दान
देने के लिए हें, बह धव लाकर हमें दो। हम तुम्हारा स्तव
Cee दै ee he
हिन्दी-ऋणष्बेद ४८९
। करते हैं। इस नृतन दाचयोष्य जार प्रशस्त उक्थ न हम तुम्हारा
रश करते हुँ ।
aN
विशेष रूप से के
१ १. हे इन्द, तु थ् > (| ज्यों द्वार स्जुंत होदार हाथा ह्म
लोगों के द्वारा स्तूयमान होकर जेते जल गदी को पूर्ण करता हैं, उसी
तरह स्तोताओं के अञ्च को प्रबुद्ध करते हो । हें हरिबिशिष्ड इन्द्र, इभ
तुम्हरे उद्वेश से अभिनव स्तोत्र करते हैं, जिससे इम छोय रथान्
होकर स्तुति द्र संदा तुम्हारी सेवा करते रहे ।
२१ सूक्त
{देवता इन्द्र। ऋषि दामदेव। छन्द् तरिष्डुष् |)
१, जिनका बल प्रभूत है । जो सूर्य की तरह अभिभवसयर्थं बल का
पोषण करते हँ, वे हम लोगों के समीप रक्षा के लिए आएँ । परान
कमवान् और प्रबुद्ध इन्द्र हमारे साथ हुष्ड हों ।
२. हे स्तोताओ, यज्ञाह संखाट् की तरह जिनका' अभिभवकारक
तथा त्राणकारक कर्म एत्रु-उस्दन्वियी प्रजाओं को असिचत करता हैं, उच
प्रभतवशा तथा अतिशय धनशाली इन्र के बलभूत वेता मझुतों की
तुम लोग इस यज्ञ में स्तुति करो ।
३. इन्द्र हम लोगों को आश्रय देने के लिए मरुतों के साथ स्वर्ग"
लोक से, भूलोक से, अन्तरिक्ष लोक से, जल से, आहित्यलोक से, दुर
देश से और जल के स्थानभूत मेघलोक से यहाँ आये ।
४. जो स्थूल एवम् महान् घन के अधिएति हैं, जो आणरूप बल-
द्वारा झत्रु-सेना को जीतते हैं, जो प्रगल्भ हैं और जो स्वोताओं को
श्रेष्ठ धन दान करते हैं, यज्ञ-स्थल में हम उन इन्द्र के उद्देश्य से स्तुति
करते हें ।
५, जो निखिल लोकों का स्तम्भन करके यज्ञार्थं गर्जेनशील बचन
को उत्पन्न करते हैं और हव्य प्राप्त करके वृष्टि-ट्वारा अन्न दान करते
४९० हिन्दी-क्रग्वेद
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९, जब इन्द्र का स्तात के आसलाबी, बजवाल फे गढ भ॑ ।यवास-
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छारी, स्सोत्ता, ₹ (त क साइत, इन्द्र के ।नबाट) उपगत होते हैँ, तब ३
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इन्द आय । दे युद्ध सं हुन लोगो की सहायता झरे । बै यजसालों के
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रीता हूँ । उका कोष दुस्तर हूँ ।
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७. जणदुससए अजायात के पुत्र एकल अधीष्टः र इन्र का बल स्तोत्र"
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फार यजलान का सवा करता ह। बह बळ सचमच यजसानों के
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अरण के लिए गुशारूष हुदघ यें उत्पन्न होला है, यजनामों के
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गृह और कर्य से सचझुया अवस्था करता
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का बल यजसागों दार सदा पालन करता छूँ।
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८. इन्द्र बं सघ के टार को आवाचृत्त किया था और जल के वेग
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को फहरणए-्आारः परिएर्ण किया था; अतएव जब सुकर्गा यजमान
इन्द्र को अझ दान करते हैं, तब वे गौर मुग और गवयभृग प्राप्त
करते हुँ !
९" हे इन्द्र, तुम्हारा झःणाणकारश हस्तह॒य सत्कर्म का अनष्ठान
ए हुस्तद्य यजसान को घन दान करता है । हे
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इन्द्र, तुस्हार। (त्य त कया हूं ? क्यों तुय हुम लोगों को हुष्ट नहीं करते
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को धन देने के लिए हुब्ठ नहीं होते हो ।
१०. इस प्रकार स्तुत होकर सत्यवान्, घनेइवर और वत्रहन्ता
इन्द्र यजञयानो को धन देते हुँ । है बहुत्तुत, हम लोगों की स्तति
लिए तुम हसं धग दो । जिसे हय दिव्य अन्न का भक्षण कर सकें |
११. हे इन्द्र, तुण पु्वंयसी नटषियों-दारा स्तुत होकर तथा हस
गे के दारा ह्टृदसान होकर जैसे जल नदी को पुर्ण करता है, उसी
तरह स्तोताओं के अञ्न को बढ करते हो । हे हश्विहिष्ट इन्द्र, हम
हेन्दी-त्रहर्वेद ४९१.
तुम्हारे उद्देश्य से अभिनव स्तोत्र करते हुँ, जिससे हुए लोग रथवाणू
होकर स्तुति-उरा सदा तुम्हारी सेवा करते रहें ।
२२ सुत
१, सहान् बलवान् इन्द्र हय लोयों के हुनिरक्न फा सेवम कर्ते हूँ ॥
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हुँ । इन्द्र हव्य, स्तोम, शोण और उक्थ की स्वीकार क
वे धनवान हैं। बे वजा घारण करके बल से युवत होकर आण
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२. अभीष्टवर्षी इन्द्र दोनों बाहुओं से वृष्टिकारो चतुघरराबिशष्ट
दञ्ज को शत्रुओं के ऊपर फेकले हे। वे उघ, नतृश्चष्ठ आर कसबान्
होकर आच्छाइनकारिणी परुष्णी नदी को आश लिए से
करते हैँ। इन्द्र ने परुष्णी के भिन्न-भिन्न प्रदेश को सखि दे
संवत किया था ।
३. जो दीप्तिमान्, जो दातुश्रेष्ठ और जो उत्पन्न होते ही प्रभूल
अन्न तथा सहाबल से यस्त हुए थे, वे दोनों दाइुओं में कासयणान वस्न
धारण करके बल-दारा झुलोक और भूलोक को प्रदृश्यित करते थे ।
४. महान इन्द्र के जन्म होने पर समस्त पबत, अनेक समुद्र
सालोक और पथियी उनके भय से कम्पित हुई थी ॥ बलवान् इन्द्र बलि
शील सूर्य के माता-पिता थावा-पृथिवी को घारण करते हूँ। इख-नद्वारा
प्रेरित होकर वाशु मनुष्य की तरह शब्द करती
५, हे इन्द्र, दुस महान् हो, तुम्हारा कर
सवन में स्तुतियोम्य हो । हे प्रगरभ, शूर, इन्द्र, ठुमच सम्ब्नुज लोक को
चारण करके भर्षणशोल दज्य-हारा यरूपूर्वक अहि को 'वलष्ड
किया था ।
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६. हे अधिक बलशाली इन, तुम्हारे वे सकळ कर्म लिइदय ही
सत्य हे। हे इन्द्र, ठुघ अभीष्टवर्षी हो ! ठुम्हारे भय से गोएँ अपने
४९२ हिन्दी-त्रटग्वेद
ऊथःप्रदेशों में क्षीर की रक्षा करती हे । हे हर्षणशील, नदियाँ तुम्हारे
भय से वेगपूर्वक प्रवाहित होती हुँ।
७. है हरिवान् इन्द्र, जब तुमने वृत्र-हारा बद्ध इन नदियों
को दोधेकालिक बन्धन के अनन्तर प्रवाहित होने के लिए मुक्त किया
था, तब उसी समय वे प्रसिद्ध दुतिमती नदियाँ तुम्हारे द्वारा रक्षित
होने के लिए तुम्हारा स्तवन करती थीं ।
८. हुषेजनक सोम निष्पीडित हुआ हुँ, स्पन्दमाव होकर यह
तुम्हारे निकट आगमन करे । शीघ्रणामी आरोही गमनशील अइव की
दृढ़ बल्ग (लगाम) धारण करके जैसे अइव को प्रेरित करता है, उसी तरह
लुम दीष्तिमान् स्तोता की स्तुति को हमारे निकट प्रेरित करो ।
९, हे सहनशील इन्द्र, तुम सवद शत्रुओं को अभिनव करनेवाला,
प्रवृद्ध और प्रशस्त बल हम लोगों को दो ॥ वघयोग्य शत्रुओं को हमारे
बशोथूत करो । हिसक मनुष्यों के अस्त्रों को नष्ट करो ।
१०, है इन्द्र, तुस हम लोगों की स्तुति श्रवण करो । हम लोगों को
विविध प्रकार का अन्न दो। हमारे लिए समस्त बुद्धि प्रेरित करो ।
हमारे लिए लुम गोदाता होओ । |
११. है इन्द्र, तुभ पुर्वेवर्ती ऋषियों-हारा स्तुत होकर तथा हम
लोगों के द्वारा स्तूयमान होकर जेसे जल नदी को पूर्ण करता हे, उसी
तरह स्तोताओं के अच्च को प्रवृद्ध करते हो । हे हरिविशिष्ट इन्द्र, हम
तुम्हारे उद्देश से अभिनव स्तोत्र करते हें, जिससे हम लोग रथवान्
होकर स्तुति-द्वारा सदा तुम्हारी सेवा करते रहे ।
. २३ घृक्त
(देवता इन्द्र अथवा ८, ९, १० के देवता ऋत । ऋषि वामदेव ।
छुन्द् त्रिष्डुप्।)
१. हम लोगों की स्तुति महान् इन्द्र को किस प्रकार से वर्दधित
करेगी ? वे किस होता के यज्ञ में प्रीत होकर आगमन करते हें ? महान्
हिन्दी-ऋष्वेद ४९३
इख सोमरस का आस्वादन करते हुए तथा अञ्च छी कावा और पेश
करते हुए किस यञ को देने के लिए प्रदीप्त धन को धारण
करते हु ।
२. कोव बीर इन्द्र के साथ सोझपान करने पाता हँ ? कोन व्यक्ति
इन्द्र के अनग्रह को प्राप्त करता है ? कब इनके बिचित्र भन वितरित
होंगे ? कब य स्तोता यजमाव को वद्धिंत क्षरने के लिए रक्षायुक्त
होंगे ?
३. हे इख, परमंइवर्य से युवत होकर तुभ होता की कथा को
व्योकर श्रवण करते हो ? स्तोत्रों को सुनकर स्तुति करनेवाले होता
की रक्षण-कथा को क्योंकर जानते हो ? इच के परातन दान कोल
हे? वे दान इन्द्र को स्तोताओं को अधिलाया के पूरक क्यों
कहते हैं ?
४, जो यजमान पीड़ायुक्त होकर इख की स्तुति करते हैँ और
यज्ञ-द्वारा दीप्तियुक्त होते हँ, बे किस प्रकार से इन्द्र-ञम्बन्धी धच
प्राप्त करते हें ? जब झुतिसात् इन्द्र हव्य ग्रहण करके हमारे ऊपर
घ्रसञ्च होते हे, तब बे हमारी स्तुति को विद्य जप से ज्ञात
करते हुँ ।
५. छोतसाव इच्ध उषा के प्रारम्भ में (भास य) कस प्रकार
और कब सपुष्यों के बन्धुत्व को सेवा करते हु / जो होता इन्द्र के
' उद्देश से सुयोग तथा कमनीय हव्य को विस्तारत करते ह
के प्रति कब ओर किस प्रकार ले अपन बन्धुत्व को इन्द्र प्रकाशित
करते हु ?
६, हे इच, हव यजसान तुम्हारे झतुषरध्थवकारी सख्य को स्तोताओं
के निकट किस प्रकार से भरो भाँति कहेंगे ? कब हस हुम्हारे
आतत्व का प्रचार करेंगे ? सुदर्शव इन्र का उद्योग स्तोताओं के
कल्याण के लिए होता है । सूर्य की तरह गतिशील इन्द्र का जतिझय
दर्शनीय शरीर सबके हारा अभिलषित हूं ।
हिन्दी-ऋग्वेद
४९४
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कारी ऋत्विकू-दाश तीक्ष्णीकृत अर्थात् सोमपान करने से उत्साहवान्
हथा अभीष्टवर्यी इन्द्र का यश्नगुहु में आह्वान करती है ।
९. कोई बहुत पुण्य-द्वारा अल्प धव प्राप्त करता है, फिर ऋता
के निकट यसन करके हमने विक्रय नहीं किया है! कहकर अवशिष्ट
मूल्य की प्रार्थना करता है ॥ विझेता बहुत दिया है! कहकर अल्प
मूल्य का अतिकम वहीं करता है। चाहे समर्थ होओे या असमर्थ,
में जो वचय हुआ है, वही रहेगा ।
१०. कोम हारे इसर को दस धेजुओं-हाश खरीदेग ? जब इन्र
शत्रुओं का बन करेंगे तब इन्द्र को फिर सुझ देना ।
११. हैं इद, घुस पुवंदर्ती ऋषियों-द्वारा स्तुत होकर तथा हम
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| २५ सूक्त
(दवता इन्द्र | ऋषि वामदव । छन्द् त्रिष्टुप् |)
रै. आज कान समुष्य हितकर, देवतामिछावी, कामयमान व्यक्ति
इन्द्र क साथ अत्री चाहदा है ? सोसाभिइयकारी, कौन व्यदित अग्नि
के प्ज्वलित होने पर सहम् तथा पारगाती आश्रय लाभ के लिए
इन्द्र का स्तव करता है ?
रे. कज वजनाब स्तुदि-बायय-दारा सोसाई इन्द्र के निकट अपनत
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होता हूँ ? कोन इन्द्र की स्वुतिकाशया करता है? कौन इचा-द्वारा
प्रदत्त पोज को धारण करता हे? कोल इद्र के साहःव्य को इच्छा
करता हूँ ? फोन इन्र फे साथ मैत्री की इच्छा करता हे? कोच इन्द्र
के आतृत्व की इच्छा करता है ? कोल आन्तदक्षी इन्र से पशियन्प्रा्थया
हिन्दी-ऋणग्वेद ४९७
३. आज कौन यजमान इन्र आदि देवताओं की रक्षा के लिए
प्राथंगा करता हैं? कोन आदित्य, अदिति तथा उदक की प्रार्थना
करता है । अश्विद्वय, इन्द्र और अग्नि स्तुति से प्रसञ्च होकर किस
पजमान के अभियृत सोस का यथेच्छ पान करते हुँ ?
४, जो यजमान कहते हैं कि सेता मनुष्यों के बन्धु एवम्
नेताओं के मध्य में श्रेष्ठ येता इन्द्र 'के लिए सोसाभिषव करेंगे, उन
यजमानों को हबिभेर्ता अग्नि सुख प्रदान करे तथा चिर काल से उदित
सुर्यं को देखें ।
५. अल्प अथवा अधिक शत्र उन्न थजमावों को हसित न करें ।
जो यजसान इन्र के लिए सीमाभिषव करते हें। इन्द्र-माता अदिति उन
यजमानो को अधिक सुख प्रदान करं । शोभन यज्ञ याग करनेवाले यजमान '
इन्द्र के प्रिय हों । जो इन्द्र की स्तुति-कामना करते हैं, वे इच्ध के
प्रिय हों । जो इन्द्र के निकट साधुभाव से गसन करते हें, वे इन्द्र के
प्रिय हों। सोमवानू यजमान इन्द्र के प्रिय हों ।
६. जो व्यक्ति इन्द्र के निर्फट गमन करता हे और सोमाभिषव
करता हे उसके पाककार्यं को शीघ्र अभिनवकारी तथा विक्रान्त इन्द्र
स्वीकार करते हैं । जो यजमान सोसाभिषव नहीं करता हँ, उसके
लिए इन्द्र व्याप्त नहीं होते हुँ, सखा नहीं होते हैं और बन्धु भी
नहीं होते हें । जो व्यक्ति इन के निकट गसन नहीं करता हे और
उनकी स्तुति नहीं करता हँ, इः उसकी हिंसा करते हें ।
७. अभिषुत सोसपायी इख संत्म भियव-कर्म-रहित, धनवान् और
लोभी बमियों के साथ मेत्री संस्थापित नहीं करते हैं ॥ वे उनके
निरर्थक धन को उद्धरित करते हुँ ओर नष्ट करते हैं बे सोमा-
भिषवकारी तथा हव्यपाककारी यमसान के असाधारण बन्धु होते हुँ ।
८. उत्कृष्ट तथा निकृष्ट व्यक्ति इन्द्र का आह्वान करते हैं एवम्
मध्यम व्यक्ति भी इन्द्र का हो आह्वान करते हें । चलनेवाले लोग
इन्द्र का आह्वान करते हँ सथा उपविष्ट लोग भी इन्द्र का ही आह्वान
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४९८ _हिन्दी-त्रहग्वेद
करते हं । गृहवासी लोग इण्द्र का आह्वान करते हैं तथा युद्ध करनेवाले
भो इस का ही आह्वान करते हैँ ।अज्न की इच्छा करनेबाले लोग भी
इन्द्र का ही आदान करते हुँ ।
२६ सूक्त
(प्रथम तीन सन्त्रो-द्वारा वामदेव ने इन्द्र रूप से आत्मा की
स्तुति की है अथवा इन्द्र ने ही आत्मा को स्तुति की है; अतएव
वामदेव के वाक्य के पक्ष में ऋषि वामदेव, देवता इन्द्र अथवा इन्द्र
के वाक्य के पक्ष में ऋषि इन्द्र देवता परमात्मा । अवशिष्ट ऋचाओं
के ऋषि वामदेव । सुपशोत्मक देवता परब्रह्म । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. हस प्रजापति हे, हम सबके प्रेरक सपिता हैं, हम ही दीर्घ-
तमा के पुत्र नेधानी कक्षीवान् त्रद्ृषि हैं, हमने ही अर्जुनीपुत्र
कुत्स को सळी भाँति अळङ्कुत किया था, हम ही उशना पासफ कवि
है । हे मनुष्यो, हमें अच्छी तरह से देखो ।
२. हमने आये को पृथिवी-दान किया या । हमने हष्यदाता
मनुष्य को सस्य की अभिवृद्धि के लिए बृष्टि-दाच किया था ।
हमने शब्दाययान जल का आमयन किया था । देवगण हमारे सङुल्प
का अनुगमन करते हें । |
३. हमने सोसपान से सत्त होकर! शम्बर के ९९ नगरों को एक
काळ में ही ध्वस्त किया था । जिस सपय हम यज्ञ में अतिथियों के
अभिगन्ता राजषिं दिवोदास का पालन कार रहे थे, उस समय हमने
दिवोदास को सो नगर निवास करने के लिए दिये थे ।
४. हे मरुदूगण, श्येन पक्षी पक्षियों के मध्य में प्रधान हो । अन्य
इयेवों की अपेक्षा शीघगासी श्येन प्रधान हो । जिस लिए फि देवों-
दारा सेवित सोसरूप हृव्य को मनुष्यों के सिए स्वर्गलोक से चकरहित
रथ-द्वारा सुपण छाया था ।
५. जब भयभीत होकर शयेन पक्षो चुलोक से सोस लाया था तब
बह विस्तीणं अन्तरिक्ष मार्ग में मन को तरह वेगयुक्त होकर उड़ा
हिन्दी-ऋणष्वेद ४९९
था। एवम् सोममय सथुर अञ्च के साथ वह शीघ्र गया था; और सोम
लाने के कारण सुपर्ण ने इस लोक में यशोजाभ किया था ।
६. देवों के साथ होकर ऋजुगाणी और प्रशंसित-गमन इयेन
पक्षी मे दूर से सोम को धारण करके एवम् स्तुतियोग्य तथा मदकर
सोस को उञ्चत झुरोक से ग्रहण करके दृढभाव से उसका आवयन
किया था।
७. येम पक्षी ने सहख ओर अयुत संख्यक यज्ञ के साथ सोम को
ग्रहण करके उस अज् का आनयन किया था । उस सोस के लाये
जाने पर बहुकर्मविशिष्ट प्राज्ञ इन्द्र ने सोम-सम्बन्धी हर्ष के उत्पन्न
होमे पर् मूढ़ शत्रुओं का यथ किया था ।
२७ सूत्ती
(देवता श्येन । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. गर्भ में विद्यमान होकर ही हम (वामदेव) ने इन्र आवि
समस्त देवों के जन्म को यथाकम से जाना था । अर्थात् परमात्मा
के समीप से सब देव उत्पन्न हुए हैं । बहुतेरे छोहमय शरीरो ने हमारा
पालन किया था। अभी हम इयेन की तरह स्थित होकर आवरुण-
रहित आत्मा को जानते हुए शरीर से नियत होते हूँ ।
२. उस गर्भ ने हमारा पर्याप्तरूप से अपहरण नहीं फिया था अर्थात्
गर्भ में निवास करते समय हमें सोह नहीं हुआ था । हमने गसस्थ
हुःख को तीक्ष्ण वी द्वारा अर्थात् ज्ञानसामथ्ये से पराभूत किया था।
सबके प्रेरक परमात्मा ने गर्भस्थित शत्रुओं का वध किया था और
बद्धेमान होकर गर्भ में क्लेशकारक वायु को अतिक्रान्त किया था।
३. सोमाहरणकाल में जब इयेन ने थुजोक से अधोसुल होकर
शब्द किया था, जब सोमपालों ने इयेन के निकट से सोम छोन लिया
था, जव शारप्रक्षेपक सोमपाल कृशानु ने मनोवेग से जाने की इच्छा करके
५०७ हिस्दी-ऋग्वेद
धनुष की केटि पर प्रत्यञ्चा चढ़ाई थी और श्येन के प्रति शरक्षेपण
किया था तब श्येन ने सोम का आनयन किया था ।
४, अशिवद्य ने जिस प्रकार सामर्थ्यवान् इख्रविश्ष्टि देश से
सूज्दनासक राजा का अपहरण किया था, उसी प्रकार ऋजुगामी
इयेन ने इच्धरक्षित महान् घुलोक से सोस का आहरण किया था।
उस समय युद्ध में कृशानु के अस्त्रों से विदध होने पर उस गमनशोल
पक्षी का एक मध्यस्थित तथा पतमशोर पक्ष थिर पड़ा था।
५, इस समय विक्रमवान् इन्द्र शुभ पात्रस्थित, गव्यसिश्चित,
तप्तिकर, सारसभर्वित एवम् अध्यर्युओं-दवारा प्रदत्त सोम लक्षण अन्न का
और मधुर सोमरस का हर्ष के लिए पहले ही पान करें ।
२८ सृक्त
(देवता इन्द्र और सोम। ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे सोम, इन्द्र के साथ तुम्हारी मंत्री होने पर इन्द्र ने
तुम्हारी सहायता से मनुष्यों के लिए सरणशील जल को प्रवाहित किया
था, वृत्र का वघ किया था, सर्पणशील जलको प्रेरित किया था और बृत्र-
द्वारा तिरोहित जल-द्वार को उद्घाटित किया था ।
२. हे सोम, इन्र ने तुम्हारी सहायता से क्षण-भर में प्रेरक सूर्थ
के रथ के ऊपर स्थित बुहत् अन्तरिक्ष में वतमान हिचऋ रथ के एक
चक्र को बलपूर्वक तोड़ डाला था । प्रभूत ब्रोहकारी सूर्य के सर्वतोगामी
चक्र को इन्द्र ने अपहत किया था ।
३. हे सोम, तुम्हारे पान से बलवान इन्द्र ने मध्याह्वकाल के पहले
ही संग्राम में शत्रुओं को मार डाला था और अग्नि ने भी कितने
शत्रु को जला डाला था । किसी काथ से रक्षाशम्य दुर्गंभ स्थान से
जानेवाले व्यक्ति को जैसे चोर मार डालता है, उसी तरह इन्द्र ने बहु
सहस्र सेनाको का वध किया हे।
हिन्दी -ऋग्वेद ५०१
४. हे इन्द्र, तुस इन दस्य॒ओं को सकल सद्गुणों से रहित करते हो।
तुम कर्म हीन मनुष्यों (दासों) को इत (निन्दित) बनाते हो ।
हे इद्र और सोम, तुस दोनों शत्रुओं को बाधा दो और उनका
बध करो । उन्हें मारने के लिए लोगों से पूजा ग्रहण करो ।
५. हे सोम, तुम और इन्द्र ने महान् अश्वसमूह और गोसमूह को
दान किया था एवम् पणियों-द्वारा आच्छादित गोषृन्द और भूमि को
बल-द्वारा बिमक्त किया था । है धनयुक्त इन्द्र और सोम, तुम
दोनों शत्रुओं के हिसक हो। तुम दोनों ने इस प्रकार से जो कुछ किया
है, वह सत्य हूँ ।
२९ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे इन्द्र, तुम स्तुत हौकर हम छोगों को रक्षित करने के
लिए हम लोगों के अज्नयुवत अनेक यज्ञों में अशवों के साथ
आगमन करो । तुम मोदमान, स्वामी, स्तोत्रों-हारां स्तुंयझान और सत्य-
धन हो।
२. मनुष्यों के हितकारी तथा सर्ववेत्ता इन्द्र सोमाभिषवकारियों-द्वारा
आहुत होकर यज्ञ के उद्देश से आगमन करें। वे सुन्दर अशवों से युक्त
है, वे निर्भय हैं, वे सोमाभिषवकारियों-हरा स्तुत होते हें एवम् वीर
भरुतों के साथ हुष्ट होते हें ।
३. हे स्तोता, तुम इन्द्र के कर्णद्यय में इन्द्र को बली करने के लिए
भोर सब दिशाओं में अतिशय हृष्ठ करने फे लिए स्तोत्रों को सुनाऔ ।
सोमरस से सित बलवान् इन्द्र हम लोगों के घन के लिए झोभन तीथों
को भयरहित करे ॥
४. वजबाहु इन्द्र अपने वशीभूत सहस्रसंस्यक तथा शतसंख्यक
शीघ्रगामी अईवों को रथवहुन प्रदेश में संस्थापितं करते हें एवम् रक्षा
|]
दे $ fpr हयात
५० हन्द -यहुष्बद
करने के लिए याचक, मेधावी आह्लावकारी और स्तवकारी यजमान
के निकंट गसन करते हें ।
५. हे घनवान् इन्द्र, हुम लोग तुम्हारे स्तोता हँ। हम लोग
तुम्हारे द्वारा रक्षित है, मेधावी और स्लुतिकारी हूँ । तुम
दीप्तिविशिष्ट, स्ठुतियोग्य और अच्नविशिष्ट हो। धचदस-काल सें
हम लोग तुम्हारा सम्भजन फर सक ।
३० सूक्त
(देवता इन्द्र | नवम के देवता उषा ओर इन्द्र । ऋषि वामदेव ।
छुन्द् गायत्री और अनुष्टुप ।)
१. हे वत्रनाशक इन्द्र, लोक में तुम्हारी अपेक्षा कोई भी उत्कृ-
ष्टतर नहीं है, तुम्हारी अपेक्षा कोई भी प्रश्स्यतर नहीं हे । हे इनदर,
तुम जिस तरह लोक में प्रसिद्ध हो, उस तरह कोई भी नहीं हु।
२. सर्वत्र व्याप्त चक्र जिस तरह शकट का अनुवर्तन करता हे,
उसो तरह प्रजायण तुम्हारा अनुवर्तन करते हे। हे इन्द्र, तुम सचमुच
महान् और गुण-द्वारा प्रख्यात हो ।
३. जयाभिलाषी सब देवों ने बलरूप से तुम्हारी सहायता प्राप्त
करके असुरों के साथ युद्ध किया था। जिस लिए कि तुमने अहनिश
शत्रुओं का वध किया था।
४. हे इन्द्र, जिस युद्ध में तुमने युद्धकारी कुत्स एवम् उसके सहा-
यर्की के लिए सूर्यं के रथचक्र को अपहत किया था ।
५. हे इन्द्र, जिस युद्ध में तुमने एकाकी होकर देवों के वाधक
सकल राक्षसों के साथ युद्ध किया था तथा उन हिसकों का बध
किया था।
र
६. है इन्द्र, जिस संग्राम में तुमने एतश ऋषि के लिए सूर्य की
हिसा की थी, उस समय युद्ध कर्मे-दारा तुमने एतश की रक्षा की थी ।
हिन्दी-ऋप्येद ५०३
७. है आवरक अन्धकार के हनमकर्ता धंगवान इन्द्र, उसके बाद
कया तुम अत्यन्त छोषवान् हुए थे ? इस अच्दोरिक्ष में और दिवस में
तुमने दातु पुत्र घुत्र का वर्ण किया था।
८, हे इन्र, तुमने बल को इस प्रकार से ससथ्ययक्त किया था।
तुमने हननामिलाषिणी तथा द्युलोक की दुहिता उषा का वघ किया।
९. हे महान् इन्द्र, तुभे द्यलोक की दुहिता तथा पुजनीया उषा
को सम्पिष्ट किया था।
१०. अभीष्टवर्षी इन्द्र ने जब उषा फे झकट को भग्न किया था
तब उषा भोत हो करफे दख-दारा अग्न शकट के ऊपर से अवतीर्ण
हुई थी ।
११. इन्द्र-द्वारा विचूणित उषा देवी फा शकट विपाशा नदी के
तीर पर गिर पड़ा । शकट के टूट जाने पर उषादेवी दूर देश में अप-
सुत हो गई ।
१२. हे इन्द्र, तुमने सम्पुर्ण जलों तथा तिष्ठमानानंदी को पृथ्वी के
ऊपर बुद्धिबळ से सर्वत्र संस्थापित किया था ॥
१३. हे इन्र, तुम वर्षणकारी हो । जिस समय सुमने शण्ण के
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तगरौ को उल्णिप्ट किया था, उस समय तुमने उसके घन को लदा था।
१४. हे इन्द्र, तुमने कुलितर के पुत्र दास शम्बर(को बृहत् पर्वत
के ऊपर निम्नमुख करके मारा था।
१५. हे इन्द्र, चक्र के चएुदिक स्थित शंकु (हिसक )।की तरह वाच
नामक दास फे चर्ठादिक स्थित पञ्चशत-संख्यक और संहख-संख्यक
अनुचरों को तुमने विशष रूप से सारा था।
१६. शतकर्मा इन्द्र ने अय के पुत्र परावृत्त फो स्तोत्रशभागी किया
था।
१७. ययाति के शाप से अनभिषिक्त प्रसिद्ध राजा यढु और उुर्वेश
को शचीपति धिद्वान् इन्द्र ये अभिषेक-पोग्य बनाया था ।
५०४ हिन्दी-ऋणग्वेद
१८. हे इन्द्र, तुमने तत्क्षण सरयू नदी के पार में रहनेवाले आये-
त्वाभिमानी अर्ण और खित्ररथ नासक राजा का वघ किया था ।
१९, हे वृत्रहन्ता, तुमने बन्धुजं-डारा त्यक्त अन्ध और पंगु को
अनुनीत किया था अर्थात् उनके अन्धत्व ओर पंगुत्व को विनष्ट किया
था । तुम्हारे द्वारा प्रत सुख को अतिक्रमण करने में कोई भी समर्थ
नहीं हो सकता हे ।
२०. इन्द्र ने हव्धदाता यजमान दिवोदास को शम्बर के पाषाण-
निमित शतसंख्यक नगर दिये ।
२१. इन्द्र ने दशीति के लिए अपनी शक्ति से विशत-सहुस्र-सं
राक्षसों को हनन-सध्धव आयुथों के द्वारा सुला दिया था
२२. हे इन्द्र; तुमने इन समस्त शत्रुओं को प्रच्युत किया
हे । हे झत्रुओं के हिंसक इन्द्र, तुम गौओं के पालक हो । तुम सम्पुर्ण
यजमानों के लिए समान रूप से प्रख्यात हो ।
२३. हे इन्द्र, जिस लिए तुमने अपने बल को सामथ्योपित किया हे;
उसी लिए आज भौ कोई व्यक्ति उसकी हिसा नहीं कर सकता हे ।
२४. हे शक्रुविनाशक इन्द्र, अर्थमादेव तुम्हें वह सनोहर धन दान
करे, दन्तहीन पुषा वह मनोहर धन दान करे और भग वह मनोहर धन
दान करे ।
३१ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. सवेल्ला वद्धेनान, पूजनीय और सित्रभूत इन्द्र किस तर्पण दारा
हमारे अभिश्चुख आगमन करेंगे ? किस प्रज्ञायुक्त श्रेष्ठ कर्म-दारा हम
लोगों के आभिमुख आगमन करेंगे।
२. हे इन्द्र, पुजनीय, सस्यभूत और हर्षकर सोसरसौं के मध्य में
कोन सोखरस शन्रुजों के घन को विदष्ठ करवे के लिए ठुम्हु हृष्ट
करेगा ?
हिन्दी-ऋग्वेद ५०५
'३. है इन्द्र, तुम सखा-स्वरूप स्तोताओं के रक्षक हो । तुम बहुत
प्रकार की रक्षा के साथ हमारे अभिमुख आगशन करो ।
४. हे इन्द्र, हम लोग तुम्हारे उपगन्ता हैं। लुम हम सनृष्यों की
स्तुति से प्रसन्न होकर हमारे निकट वृत्ताकार चक्र की तरह प्रत्यागत
होओ ।
५. है इन्द्र, तुम यस्च के प्रचण-प्रदेश में अपने स्यान को जानकर
आगमन करते हो । हे इन्द्र, हम सुर्य के साथ लुम्हारा सम्भजन
करते हुँ ।
६. हे इन्द्र, तुम्हारे लिए सम्पादित स्तुति और कर्म जब हम
लोगों के द्वारा अनुभन्यसान होते है तब चे पहले तुम्हारे होते हें और
उसके बाद सूर्य के होते हें ।
७, हे कर्मपालक इन्द्र, तुम्हें लोग धनवान्, स्तोताओं के अभीष्ट-
प्रद ओर दीप्तिमान कहते हें ।
८. हे इन्द्र, तुम क्षणभर में ही स्तुतिकारी तथा सोमाभिषवकारी
यजमान को बहुत धन प्रदान करते हो।
९. हे इन्द्र, बाधक राक्षस आदि तुम्हारे शतपरिमित धन का
निवारण नहीं कर सकते हें । शत्रुओं की हसा करनेवाले तुम्हारे बल
का निवारण वे नहीं कर सकते हें। |
१०. है इन्द्र, तुम्हारी शतसंख्यक रक्षा हम लोगों की रक्षा करे।
तुम्हारी सहस्रसंख्यक रक्षा हस लोगों की रक्षा करे। तुम्हारा समस्त
अभिगमन हम लोगों की रक्षा करे ।
११. हे इन्द्र, इस यज्ञ में तुम हम यजमानों को सखा, अविनाशी
तया दीप्तियुकत धन का भागी बनाओ ।
१२. हे इन्द्र, तुम प्रतिदिन हम लोगों को महान् धन-द्वारा
रक्षा करो और समस्त रक्षा-द्वारा रक्षा करो ।
१३. हे इन्द्र, तुम शुर की तरह नूतन रक्षा-द्वारा हम लोगों के
लिए गोविशिष्ट गोब्रज (गौओं के निवासस्थान) का उद्धार करो ।
५०६ हिन्दी-ऋग्वेद
१४. है इच, हम लोगों का झतरुधर्षक, दीप्तिमान्, विनाशरहित,
गोयुकत और अइवयुक्त रथ सर्वत्र गमन करे । उस रथ फे साथ हम
लोगों की रक्षा करो । |
१५. हे सबके प्रेरक आदित्य, तुमने जिस प्रकार से सेचन-सम्थं
युलोक को ऊपर में स्थापित किया हँ, उसी प्रकार से देवों के मध्य में
हम लोगों के यश को उत्कृष्ट करो ।
३२ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. हे झत्रहिसक इन्द्र, तुम शीघ्र ही हम लोगों के निकट आगमन
करो । तुम महान् हो। महान् रक्षा के साथ तुम हमारे निकट आगः
सन करो ।
२. हे पुजनीय इन्द्र, तुस भ्रमणशील और हम लोगों के अभीष्ट-दाता
हो। चित्रकर्मयुक्त प्रजा फो तुम रक्षा के लिए धन दान करते हो।
३. हे इन्द्र, जो यजमान तुम्हारे साथ संगत होते हे, उन थोड़े
से भी यजमानों के साथ तुम उत्प्लवमान तथा वरद्धसान शत्रुओं को अपने `
बल से विनष्ठ करते हो ।
४. हे इन्द्र, हम यजमान तुमसे संगत हुए हें। हम अधिक परिः
भाण में तुम्हारी स्तुति करते हें। तुम हम सबकी विशेष रूप से रक्षा
करो । .
५. हे वज्रधर, तुम मनोहर, अनिन्दित और शत्रुओं के हारा
अप्रहाषत अर्थात् अनाक्रमणीय रक्षाओं के साथ हुमारे. निकट आगमन
करो ।
६. हे इन्र, हम तुम्हारे सदश गोयुक्त देवता के सखा हँ। घभूत
अन्न के लिए तुम्हारे साथ संयुक्त होते हूँ ।
७. हे इन्द्र, जिस कारण तुम ही एक गोयुक्त अन्न के स्वामी हो;
इसलिए तुम हमें प्रभूत अन्न दान करो ।
ट, है स्तुतियोग्य इन्द्र, जब तुम स्तुत होकर स्तोताओं को धन
दान करने को इच्छा करते हो तब कोई भी उसे अन्यथा नहीं कर
सकता है ।
९. है इन्द्र, तुम्हें लक्ष्य करके गोतम नासवाले ऋषि घन और
प्रभूत अन्न के लिए स्तुति वाकय-हारा तुम्हारी स्तुति करते हैं ॥
१०. है इन्द्र, सोमपान से हृष्ट होकरके तुम क्षेपक असुरों
के सम्पुर्ण नगरों में अभिगमन करके उन्ह भग्न कर देते हो। हे इन,
हम स्तोता तुम्हारे उसी वीथ का कीर्तेन करते हें ॥
११. है इन्द्र, तुम स्तुतियोग्य हो । तुमने जिन बलों को प्रदर्शित
किया है, हे इन्द्र, प्राश्गण सोमाभिषय होने पर तुम्हारे उन्हीं बल का
संकीर्तन करते हें ।
१२. हे इन्द्र, स्वोव्रवाहक गोतमगण तुम्हे स्तोत्र-दवारा वद्धित करते
हें । तुम इन्हें पुत्र पौत्रयुक्त अञ्च दान करो ।
१३. हे इख, यद्यपि तुम सब यजसानों के साधारण देवता हो
तथापि हम स्तोता तुम्हारा आह्वान करते हें। `
४. हे बिवासप्रद इन्द्र, तुम हम यजमानों के अभिमुख आगमन
करो। हे सोमपा, तुम सोमरूप अन्न-द्वारा हुष्ट होओ ।
१५. हे इन्द्र, हम तुम्हारे स्तोता हें । हमारा स्तोत्र तुम्हें हमारे
निकट ले आये । तुम अइवद्वय को हमारे अभिमुख परिवर्तित करो ॥
१६. हे इन्द्र, तुम हमारे पुरोडाश रूप अञ्न का भक्षण करो । स्त्री-
कामी पुरुष जैसे स्त्रियों के वचन फो सेवा करता हे, उसी तरह तुम
हमारे स्तुतिवाक्य का सेवन करो ।
१७. हम स्तोता इन्द्र के निकट शिक्षित, शीघ्रगामी तथा सह्रसंख्यक
अइवों की याचना करते हें एवम् शतर्सख्यक सोस-कलश की याचना
करते हें अर्थात् अपरिमित कलशधाले यज्ञ की याचना करते हुँ ।
१८. हे इन्द्र, हुम तुम्हारी शतसंस्थक और सहखसंश्यक गौओं को
अपने अभिमुख करते हें। हम लोगों का घन तुम्हारे निकट से आये ।
७०८ हिन्दी-त्रग्वेद
१९. हे इन्द्र, हम तुम्हारे समीप से दश कुस्भ-परिसित सुवर्ण धारण
करते हें। हे शत्र-हसक इन्र, तुम सहस्नप्रद होते हो ।
२०. हे इन्द्र, तुभ बहुप्रद हो । तुम हम लोगों को बहुत धन दान
करो । अल्प धन सत दो । ठुम बहुत धन हम लोगों के लिए लाओ;
क्योंकि तुम हम लोगों को प्रभूत धन देने की इच्छा करते हो।
२१. हे वत्राहसक विजानत इन्द्र, तुम बहुप्रद रूप से बहुतेरे यज-
सानों के निकट विख्यात हो । तुम हम लोगों को धन का भागी करो ।
२२. हे प्राज्ञ इन्द्र, हम तुम्हारे पिद्कलवणं अवद्य को प्रशंसा करते
हैं । हे गोप्रद, घुम स्तोताओं का विनाश नहीं करते हो। तुम इस अश्व-
दय-दारा हमारी गोजों को विनष्ट न करना ।
२३. हे इन्द्र, दृढ़, नव और क्षद्र दुमाख्य स्थान में स्थित कमनीय
शाल-भड्जिका-हय (पुललिका) की तरह तुम्हारे पिद्गलवर्ण दोनों
घोड़ यज्ञ में शोभा पाते हुँ।
२४. हे इन्द्र, हम जब वषभयक्त रथ-्वारा गमन कर अथवा जब
पद-हारा गमन करें, तब तुम्हारे अहिसक तथा पिड़ुलवर्ण अइवद्वय
हमारे मंगलकारी
षष्ठ अध्याय समाप्त।
३३ सुक्त
(सप्तम अध्याय । ४ अनुवाक | देवता ऋसुगण् । ऋषि वामदेव ।
छन्द त्रिषडुप् ।)
१. हम यजमान ऋभुओं के निकट दूत की तरह स्तुतिवाक्य प्रेरित
करते हुँ। हम उनके निकट सोम-उपस्तरण के लिए पथोथुक्त धेनु की
याचना करते हु । ऋहभूंगण वायु के समान गसन करनेवाले हें । वे जगत्
के उपकार-जनक कर्म को करनेवाले हँ। वे वेग से जानेचाले घोड़ों-
द्वारा अन्तरिक्ष को क्षणमात्र में परिव्याप्त करते हुँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ५०९
|, २. जब ऋभुओं ने माता-पिता को परिचर्या द्वारा युवा किया था
` एवम् चमस-निर्माणादि अन्य कार्य करके वे अलंकृत हुए थे तब इन्द्रादि
देवों के साथ उन्होंने उसी समय सख्य लाभ किया था। धीर ऋभुगण
प्रकृष्ट मनस्वी हे । वे यजसानों के लिए पुष्टि धारण करते हूँ ।
३. ऋभुओं ने यपकाष्ठ की तरह जीर्ण और शयनशील माता-
पिता को नित्य तरुण किया था । वाज विभु ओर ऋभ इन्द्र फे साथ
सोम पान करके हम रोगों के यज्ञ की रक्षा कर ।
४. ऋभुओं ने संवत्सर-पर्थन्त मृतक गौ का पालन किया था ॥
ऋभुओं चे उस गो के सांस को संवत्सर-पर्थन्त अवयवधुक्ष्त किया था
एवम् संवत्सर-पर्यन्त उसके शरीर के सोन्दयं की रक्षा की थी। इन
सकल-कार्यो-द्रारा उन्होंने देवत्व प्राप्त किया था।
५. ज्येष्ठ ऋभु ने कहा, “एक चमस को दो करेंगे ।” उसके अवरज
विभु ने कहा, तीन करेंगे ।? उसके कनिष्ठ वाज ने कहा, “चार
प्रकार से करंगे ।” हे ऋभुओ, तुम्हारे गुरु त्वष्टा ने इस चतुष्करण-रूप
तुम्हारे वचन को अङ्गीकार किया था
६. सनुृष्य-रूय ऋभुओं ने सत्य कहा था; क्योंकि उन्होंने जसा कहा,
वेसा किया था। इसके अनन्तर वे शहृभुगण तृतीय सबनगत स्वधा के
भागी हुए थे । दिवस की तरह दीप्तिमान् चार चमसों को देखकर
वष्टा ने उसकी कामना की थी--उसे अङ्गीकार किया था ।
७, अगोपनीय सुय के गृह में जब ऋभुगण आद्रा से लेकर वृष्ट-
कारक बारह नक्षत्रों तक अतिथिरूप से (सस्कृत होकर) सुखपूर्वक निवास
करते हँ तब वे वृष्टि-ट्रारा खेतों को शस्य-सण्यच्च करते और नदियों
को प्रेरित करते हँ । जलविहीन स्थान में ओषधियाँ उत्पन्न होती हँ;
और नीचे की तरफ़ जल जमा होता हं ।
हे ऋभुओ, जिन्होंने सुचक और चक्रविशिष्ट रथ का निर्माण
किया था, जिन्होंने विश्व की प्रेरधित्री और बहुरूपा धनु को उत्पन्न
4१०. हिन्दी-ऋण्वेद
किया था, वे सुकर्मा, सुन्दर, अन्नयुकत्त और सुहस्त ऋभु हम छोगों के
धन का निष्पादन करे।
९. इन्द्र आदि देवों ने वरप्रदान-रूप कर्मे-हारा एवम् प्रसञ्च अन्त:
करण-हारा देदीप्यमान होकर इन ऋणभुओं के अइव, रथ आदि निर्माण
रूप कर्म को स्वीकार किया था। शोभन व्यापारवाले कनिष्ठ बाज सब
देवों के सम्बन्धी हुए, ज्येष्ठ ऋभु इन्द्र के सम्बन्धी हुए और मध्यम विभु
वरुण के सम्बन्धी हुए ।
१०. हे ऋभुओ, जिन्होंने अइवद्वय को प्रज्ञा तथा स्तुसि-द्वारा
हृष्ट किया था, जिन्होंने उस अइवद्वय को इन्द्र के लिए शुयोजमान किया
था, वही ऋभ्गण हम लोगों को मंगलाकांक्षी मित्र की तरहू धन, पुष्टि
गो आदि धन तथा सुख दान कर ॥
११. चमस आदि निर्माण के अनन्तर तृतीय सवन में देवों ने तुम
लोगों को सोमपान तथा तदुत्पन्न हषं प्रदान किया था। तपोयुक्त
व्यक्ति को छोड़कर दूसरे के सखा देवगण नहीं होते हे। हे ऋभुओ
इस तृतीय सवन में तुस निश्चय ही हम लोगों को धनन दान करो ।
३४ सुक्त
(देवता क्रभुगण् । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे ऋभ्, विभु, बाज और इन्द्र, रत्न दान करने के लिए तुम
लोग हमारे इस यज्ञ में आओ; क्योंकि अभी दिन में वाकूदेवी तुम लोगों
को सोमासिषव-सम्बन्धी प्रीति दान करती है । इसलिए सोमजनित हर्ष
तुस लोगों के साथ संगत हो।
२. हे अच्-द्वारा शोभमान ऋभृगण, पहले तुम लोगों का जन्म
सनुष्यो में हुआ था, अब देवत्वप्राप्ति को जान करके तुस लोग देवों
के साथ हृष्ट होओ । हर्षकर सोम और स्तुति हुम लोगों के लिए एकत्र
हुए हें। तुम लोग हमारे लिए पुत्र-पोत्र-विशिष्ट घन प्रेरित करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ५११
३. है ऋभुओ, तुस लोगों के लिए यह यज्ञ किया गया है । मनुष्य
की तरह दीप्तिशाली होकर तुम लोग इसे धारण करो । सेवमान
सोम तुम लोगो के निकट रहता है । हे वाजगण, तुस लोग ही प्रथम
उपास्य हो । |
४, हे नेतृगण, तुम्हारे अनुग्रह से अभी इस तृतीय सवन में दान-
योग्य रत्न परिचर्याकारी, हव्यदाता यजमान के लिए हो। हे वाजगण,
हे ऋभुगण, तुम लोग पान करो । तृतीय सवच में हर्ष के लिए प्रभूत
सोम हम तुम लोगों के लिए दान करते हें । |
५, हे वाजो, हे ऋभुक्षाओ, तुम लोग नेता हो । सहान् धन की
स्तुति करते हुए तुम लोग हमारे निकट आगमन करो। दिवस की
समाप्ति में अर्थात् तृतीय सवन मं जैसे नव प्रसवा गौएँ गृह के प्रति
आगमन करती है, उसी तरह यह सोस रस का पान तुम लोगों के
निकट आगमन करता ह । |
६. है बलपुत्रो या बलवावो, स्तोत्र-द्वारा आहूत होकर तुम लोग
इस यज्ञ में आगमन करो । तुम लोग इन्द्र के साथ प्रीत होते] हो और
मेधावी हो; क्योंकि तुम लोग इन्द्र के सम्बन्धो हो । तुम लोग इन्द्र के
साथ रत्न दान करते हुए मधुर सोमरस का पान करो ।
७, हे इन्द्र, तुम रात्रयभिमानी वरुणदेव के साथ ससान-प्रीति-
युक्त होकर सोस पान करो । हे स्ठुतियोग्य इन्द्र, तुम सरुतों के साथ
संगत होकर सोसपान करो । प्रथम पानकारी ऋतुओं के साथ, देव-
पत्नियों के साथ और रत्न देनेवाले ऋतुओं फे साथ सोस पान करो ॥
८, हे ऋभुओ, आदित्यों के साथ संगत होकर तुम हुष्ट होओ,
पर्व में अचेमान देवविशेष के साथ संगत होकर तुम हृष्ट होओ, देवों
के हितकर सविता देव के साथ संगत होकर हुष्ट होओ और रत्न-
दाता चद्यभिमानी देवों के साथ संगत होकर हुष्ट होओ ।
९. हे ऋभुओ, जिन्होंने अश्विद्वय को रथनिर्साणादि कार्य-द्वारा
प्रीत किया था, जिन्होंने जीर्ण माता-पिता को युवा किया था, जिन्होंने
५१२ | हिन्दी-ऋणष्वेद
धेनु और अहव का निर्माण किया था, जिन्होंने देवों के लिए अंसच्रा कवच
निर्माण किया था, जिन्होंने ध्वद-पृपणिददी को पृथक् किया था, जो व्याप्त
एवम् नेता हें और जिन्होंने सुन्दर असत्य-प्राष्ति-ताधद रूप कार्य किया
था, वे प्रथम पानकारी हें।
१०, है ऋभुओ, जो गोविशिष्ठ, अज विशिष्ट, पुत्रपौत्रादिविशिष्ट
निवासयोग्य गृह आदि घरों से युक्त तथा बहुत अच्बाले धन को
धारण करते हें एवम् जो घन की प्रशंसा करते हैं, वे प्रथम पानकारी
ऋभुगण हृष्ट होकर हम लोगों को धन दान करें।
११. है ऋभुओ, तुम लोग चले न जाना । हम तुम छोगों को
अत्यन्त तुषित नहीं करेंगे । हे देवो (ऋभुओ), तुस लोग अनिन्दित
होकर रमणीय धन दान करने के लिए इस यज्ञ सें इन्द्र के साथ हृष्ट
होओ, मरुतो के साथ हृष्ट होओ और अव्यान्य दीप्तिमान् देवों के साथ
हृष्ट होओ । |
३५ सूक्त
(देवता ऋभुगण । ऋषि वासदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे बल के पुत्र, सुधन्वा के पुत्र, ऋभुओ, तुम सब इस तृतीय
सवन में आओ, अपगत सत होओ । इत सवम में सदकर सोम रत्न-
दाता इन्द्र के अवस्तर तुस लोगों के विकट गसन करे।
२. ऋछभुओं का रत्वदान इस तृतीय सवन में सेरे निकट आथे;
क्योंकि तुम लोगों ने शोभन हृस्त-्व्यापार-द्वारा ओर कर्म की इच्छा-
द्वारा एक चमस को चतुर्धा किया था एवम् अभिषृत सोसपान
किया था।
३. हे ऋभुओ, तुम लोगों ने चसस को चतुर्धा किया था एवम् कहा
था कि, हे सखा अग्नि, अनुग्रह करो ।” अग्नि ने तुस लोगों से कहा--
“हे बाजगण, हे ऋभुगण, लुस लोग कुशलहस्त हो। तुम लोग असर-
त्वपथ में अर्थात् स्वर्ग साग में गसन करो ।'”
हिन्दी-ऋण्वेद ५१३
४, जिस चमस को कौशल-पुर्वेक चार किया था, वह चमस किस
प्रकारका था? हे ऋत्विको, तुम लोग हर्ष के लिए सोमाभिषव करो ।
हे ऋभुओ, तुम लोग मधुर सोमरस का पान करो ।
५. हे रमणीय सोसवाले ऋभुओ, तुस लोगों ने कर्म-हारा माता-
पिता को युवा किया था, कर्म-दारा चमस को देवयान के योग्य चतुर्धा
किया था और कर्मे-हारा शोघगामी इन्द्र के वाहक अश्वद्य को
सस्पादित किया था ।
६. हे ऋभुओ, तुम लोग अञ्चवान् हो । जो यजमान तुस लोगों के
उद्देश से हर्ष के लिए दिवाबसान में तीव्र सोस का अभिषव करता हे,
हे फळवर्षी ऋभुओ, तुम लोग हृष्ट होकर उस यजमान के लिए बहु-
पुत्रपुक्त घन का सम्पादन करो।
७. हे हरिविशिष्ट इन्द्र, तुम प्रातःसवन सं अभिषुत सोसपान
करो । माध्यन्दिन सवन केवल तुम्हारा ही है । हे इन्द्र, तुमने शोभन
कर्म-ह्वारा जिसके साथ मंत्री की हुँ, उस रत्नदाता ऋशभुओं के साथ
तुम तृतीय सवन में पान करो ।
८. है ऋभओ, तुम लोग सुकर्म-द्वारा देवता हुए थे। हे बल के पुत्रो,
तुम लोग श्येन (गृड-विशेष) की तरह द्युलोक सें निषण्ण हो । तुम
लोग धनदान करो । हे सुधन्वा के पुत्रो, तुम लोग असर हुए थे ।
९. हे सुहस्त ऋभुओ, तुम लोग रमणीय सोमदानयुक्त
तृतीय सबन को झोभन कर्म की इच्छा से प्रयुक्त ओर प्रसाधित करते
हो, इसलिए तुस लोग हुष्ट इन्द्रियों के साथ अभियुत सोमपान करो ।
३६ सूक्त |
(देवता ऋभुगण । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् और जगती ।)
१. हे ऋभुओ, तुस लोगों का कर्म स्तुतियोग्य है । दुस लोगों.
द्वारा प्रद अश्विनीकुमार का न्रिचक् रथ अश्व के बिना ओर
प्रग्रह के बिना अन्तरिक्ष में परिञ्रमण करता हुँ। जिसके द्वारा तुम लोग
छा० ३३
५१४ हिन्डी-ग्ग्बेद
दावा-प॒थिवी का पोषण करते हो, वह रथनिसाण-रूप सहान् कषे लुम
लोगों के देवत्व को प्रख्यात करता हु ।
. है सुन्दरान्तःकरण ऋणुओ, तुम लोगों ने मानसिक ध्यान-द्वारा
सुवर्तेन चकऋवाला अकुटिल रथ निर्माण किया था । हे बाजगण ओर
हे ऋभगण, हम सोमपान के लिए दुम रोगों को आवेदित करते हुँ ।
३. हे बाजगण, हे ऋभुगण और हे विभुगण, तुम लोगों ने जो
वुद्ध और जीर्ण माता-पिता झो नित्य तरुण ओर एदा विचरणक्षम
किया था, तुम लोगों का बही माहास्म्य देवों के सध्य सें प्रख्यात हे ।
४. हे ऋभुओ, दुस लोगों ने एक चमस को चार भागों में
विभक्त किया था, कर्म-हारा यौ को दर्स से परियत किया था; अतएव
लुम लोगों ने देवों के बीच अमरत्व पाया ह । हे वाजगण, ऋभुगण,
तुम लोगों का यह कर्म प्रशांसा के योग्य है ।
५. वाजों के साथ विख्यात चेता ऋहभुओं ने जिस धन को उत्पन्न
किया था, प्रधान और प्रभूत वह अ्नविशिष्ट धन ऋभुओं के निकट
से हमारे निकट आये। यज्ञ में हभूओं-्ारा सम्पच्च रय विशेषरूप से
प्रशंसा के योग्य है । हे वीप्तिविहिष्ट ऋभुओ, तुस लोग जिसकी रक्षा
करते हो, वह दशेन-योग्य होता है
६. वाजि, विभु और ऋभु जिस पुरुष की रक्षा करते हँ, बह
बरूवाच् होकर रणकुशल होता है, वह ऋषि होकर स्तुतियुक्त होता
है, बह शर होकर शत्रुओं का प्रक्षेपक होता हे, बह युद्ध में उद्धष
होता है और बह धन, पुष्टि तथा पुत्र-पौदादि धारण करता हे ।
« है वाजगण, हे ऋभुगण, तुन लोण अत्युत्कृष्ट और दशनीय
रूप धारण करते हो । हम लोगों ने एुम्हारे लिए यह उचित स्तोत्र
रचा है । तुस लोग इसका सेवन करो। घुस लोग धीमान्, कृषि और
ज्ञानवान् हो । स्तोच-द्वारा हम तुम रोगों को आवेदित करते हुँ ।
८. हे ऋभओ, हमारी स्तुवि के लिए मनुष्यों की हितकारिणी
समस्त भोग्य वस्तुओं को जानकर एुस उनकी समाप्ति करो एवम्
हिन्दी-ऋष्वेद ५१५
हमारे लिए दोप्तिमान्, बलकारक और बजवान झत्रओं के शोषक
धन और अन्न का सम्पादन करो ।
९. है ऋभुओ, तुम लोग हमारे इस यज्ञ में प्रीत होकर पुत्र-
पौत्रादि का सम्पादन करो, इस यज्ञ में घन सम्पादन करो और इस
यज्ञ में भुत्यादि-यूवत यश-सम्पादन करो । हस लोग जिस अन्न के द्वारा
दूसरों का अतिक्रमण कर सकें, उस तरह का रमणीय अञ्च हुम लोगों
को दो।
३७ सूक्त
(देवता ऋभुगण । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् और अहुष्डुप् ।)
१. हे रसणीय ऋभुओ, तुम लोग जिस तरह से दिवसों को सुदिन
करने के लिए मनुष्यों के यज्ञ को धारण करते हो, हे वाजगण, हे
ऋभुगण, उसी तरह से तुम लोग देवमार्ग-द्वारा हमारे यज्ञ में आग-
मन करो ।
२, आज यह् सारे यज्ञ तुम्हारे हृदय ओर मन में प्रीतिदायक हों,
घृतमिश्चित पर्याप्त सोमरस तुम्हारे हृदय में गसन करे । चमसपूर्ण
अभिषुत सोमरस तुम्हारी कामना करता हे । वह प्रीत होकर तुम्हें
सुकर्म फे लिए हूष्ट करे । |
३. हे वाजिगण, हे ऋभुगण, जो लोग सवनत्रयोपत देवों के हितकर
सोम को तुम लोगों के उद्देश से धारण करते हुँ अथवा सोम को तुम
लोगों के उद्देश से घारण करते हें, उन समवेत प्रजाओं के मध्य में हस
ममु की तरह प्रभूत-दोष्तियुक्त होकर तुम्हारे उद्देश से सोम प्रदान
करते हूँ ।
४, हे ऋभुओ, तुम्हारे अइव मोटे हे, तुम्हारे रथ दीप्तिशाली हुँ,
दुस्हारा हनुद्वय रोहे को तरह सारवान हें । तुम अन्नवान् और शोभन
निष्क (दान) वाले हो। हे इन्द्र के पुत्रो ओर बल के पुत्रो, तुम
रोगों के हषं के लिए यह प्रथम सवन अनुष्ठित हुआ हे ।
५१६ हिन्दी-ऋणग्वेद
५. हे ऋभुओ, हम अत्यन्त वृद्धिशील धव का आह्वान करते हुँ,
संग्राम में अत्यन्त बलबान् रक्षक का आह्वान करते हैं और स्वेदा
दानशील, अश्ववान् तथा इन्द्रवान् या इच्चियवान् आपके गण का आह्वान
करते हें ।
६. ऋभुओ, तुम और इष जिस मनुष्य की रक्षा करते हो,
वही श्रेष्ठ होता है । वह कर्म-हारा धनभागी हो। वह यज्ञ में
अइवयुक्त हो ।
७. हे वाजिगण, हे ऋभुगण, हम लोगों को यक्षमाग प्रज्ञापित
करो । हे मेधावियो, तुम लोग स्तुत होने पर समस्त दिशाओ को
उत्तीर्ण करने क्री सामर्थ्यं को वितरित करो ।
८. हे वाजगण हे ऋभुगण, हे इन्द्र, हे अश्विद्वय, तुम लोग हम
स्तुति करनेवाले मनुष्यों के लिए धन-दाचार्थ प्रभूत धन और अश्व
के दान की आज्ञा करो ।
३८ सूक्त
(देवता प्रथम के द्यावा-प्रथिवी और अवशिष्ट के दधिका ।
ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे द्यावा-पुथिवी, दाता असदस्यु राजा ने तुम्हारे समीप से बहुत
धन पा करके याचक मनुष्यों को दिया था, तुमने उन्हें अइव और
पुत्र दिया था एवन् दस्युओं को मारने के लिए अभिभव-समर्थ उग्र
अस्त्र दिया था ।
२. गमनशील, अनेक शत्रुओ के निषेधक, समस्त मनुष्यों के रक्षक,
सुन्दर गामी, दीप्ति-बिशिष्ट, शीघ्रगामी एवस् बलवान् राजा की तरह
शत्रु-विनाशक दधिक्रा (अइवरूपी अग्नि) देव को तुस दोनों (झावा-
पृथिवी) धारण करती हो ।
३. सब मनुष्य हूष्ट होकर जिस दधिक्रा देव की स्तुति करते है,
वे निम्नासी जळ की तरह गसनशीळ संग्रासाभिलाषी शुर की तरह
हिन्दी-ऋण्वेद ५१७
पद-हारा दिशाओं के लङ घनाभिलाषी, रथगामी और वायु की तरह
शौघ्रगामी हे ।
४. जो संग्राम में एकत्रीभूत पदार्थो को निरुद्ध करते हुए अत्यन्त
भोगवासना से समस्त दिशाओं में गमन करते और वेग से विचरण
करते हें, जिनकी शक्ति आविर्भूत रहती हुँ, वे ज्ञातव्य कर्मों को
जानते हुए स्सुतिकारी यजमानों के शत्रुओं को तिरस्कृत करते हें ।
५. मनुष्य जेसे दस्त्राएहारक तस्कर को देखकर चीत्कार करता
हु, वैसे ही संग्राम में शत्रुगण दधिका देव को देखकर चीत्कार करते
हैं । पक्षिगण जिस प्रकार नीचे की ओर आनेवाले क्षुधात्तं शयेन पक्षी
को देखकर पलायन करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य अच्च और पशु-यूथ के
उद्देश से गमन करनेवाले दधिका देव को देखकर चीत्कार करते हूँ ।
६० वे असुर-सेनाओं में जाने की अभिलाषा करके रथपंक्तियों से
युक्त होकर गमन करते हैं । वे अळंडृत हुँ। वे मनुष्यों के हितकर
अइव की तरह शोभायमान हैं। वे मुखस्थित लोह-दण्ड या लगाम का
दंशन करते और अपने पदाघात से उद्भूत धूलि का लेहन
करते हँ ।
७. इस प्रकार का वह अश्व सहनशील, अन्नवान्, स्व-शरीरनद्वारा
समर में कार्य-साधन करता है । वह ऋजुगामी और वेगगामी है।
शत्रु-सेनाओं के मध्य में बह वेग से गमन करता हुँ । वह धूलि को
उठाकरके भ्रदेश के ऊपर विक्षिष्त करता है ।
८. युद्धाभिलाषी लोग दीय्तिभान् शब्दकारी वच्च की तरह
हिंसाकारी दधिक्रा देव से भीत होते हँ । जब वे चारों तरफ हजारों
के ऊपर प्रहार करते हैँ तब वे उत्तेजित होकर भीम और दुर्वार
हो जाते हैं ।
९. सवुष्यों की अभिलाषा के पूरक एवम् वेगवान् दधिक्रा देव
के अभिभवकारक वेग की स्तुति मनुष्यण करते और कहते हुँ कि
५१८ हिन्दी-ऋणग्वेद
शत्रुगण पराभूत होंगे। दषिक्रा देव सहस सेना के साथ गसन
करते हे ।
१०. सूर्य जिस प्रकार से तेज-द्वारा जल दान करते हं, उसी
तरह से दधिक्रा देव बल-उारा पञ्चक्कृष्टि (देव, मनुष्य, असुर, राक्षस
और पितृगण अथवा चारों वर्ण और विषाद) को विस्तृत करते
हैं । ज्ञत-सहस्रदाता, वेगवान् (दधिक्रा देव) हमारे स्लुतिवाक्य को
मधुर फल-्द्रारः संयोजित करे ।
३९ सूक्त
(देवता दधिक्रा । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ओर अनुष्डुप् ।)
१. हम लोग शी घयामी उसी दधिक्रा देव की शी घ स्तुति करेंगे।
द्यादा-पृथिवी के समीप से उनके सम्मुख घास विक्षेप करेंगे । तमो-
निवारिणी उषा देवी हमारी रक्षा करें एदम् समस्त दुरितों से हमें
पार करे । |
२. हम यज्ञ के सम्पादक हैँ । हम बहुतों-द्वारा वरणीय, महान्
और अभीषटवर्षी दधिक्रा देव की स्तुति करेंगे । हे मित्रावरुण, तुम दोनों
दीप्तिमान् अग्नि कौ तरह स्थित तथा ्राणकर्ता दधिका देव को मनुष्यों
के उपकार के लिए धारण करते हो ।
३. जो यजमान उषा के प्रकाशित होने पर अर्थात् प्रभात होने
पर और अग्नि के समिद्ध होते पर अश्वरूप दधिक्रा की स्तुति करते
हे, मित्र, वरुण और अदिति के साथ दधिक्रा देव उस यजमान को
निष्पाप करें ।
४. हस असाधक, बलसाधक, महान् और स्तोताओं के कल्याण-
कारक दधिक्रा के नास की स्तुति करते हें। कल्याण के लिए हम
वरुण, मित्र, अग्नि और बप्त्रबाहु इत्र का आह्वान करते हु ।
५. जो युद्ध के लिए उद्योग करते हु और जो यज्ञ आरम्भ करते
हे वे दोनों ही इन्द्र की तरह दधिक्रा का आह्वान करते हें । हे सित्रा-
हिन्दी-ऋण्वेद ५१९
वरुण, तुम मनुष्यों के प्रेरक अइवस्वरूप दधिक्रा को हमारे लिए धारण
करो ।
६- हम जयशील, व्यापक और वेगवान् दधिका देव की स्तति करते
है । वे हमारी चक्षु आदि इद्धियो को सुगन्ध-विशिष्ठ करें । बे
हमारी आयु को बढिह करें ।
४० सूक्त
(देवता द्धिक्रा | ऋषि वासदेव । छन्द निष्टुप् और जगती |)
१. हस वारम्वार दधिक्रा देव की स्तुति करेंगे । सम्पर्ण उषा
हमें कमं में प्रेरित करें। हम जरू, अग्नि, उषा, सुर्य, बृहस्पति और
अद्धिरा-गोत्रोत्पन्न जिष्णु की स्तुति करेंगे ।
२. गमनशीछ, भरणकुशल, गौओ के प्रेरक और परिचारको के
साथ निवास करनेवाले दधिक्रा देव अभिलषणीय उषाकाल में अन्न की
इच्छा कर । शझीघयासी, सत्यग्मनशीछ, वेगवान् और उत्प्लवन-द्वारा
गसनशील दधिका देव अन्न, बल और स्वर्ग उत्पादन करें ।
३. पक्षिगण जिस तरह से पक्षियों की गति का अनुसरण करते हुँ,
उसी तरह से सब वेगवान् लोग त्वरायुक्त और आकांक्षाबान् दधिक्रा
देव की गति का अनुसरण करते हुँ । इयेन पक्षी की तरह द्वतगामी
गर् त्राणकारो दधिक्रा के उस प्रदेश के चारों तरफ़ एकत्र होकर
अञ्च के लिए सब गसन करते हें ।
४. बह अश्व-रूप देव कण्ठप्रदेश में, कक्षप्रदेश में और मुखप्रदेश में
वद्ध होते हु एवम् बद्ध होकर पेदळ शीघ गमन करते हें । दधिका देव
अधिक बलवान् होकर यज्ञाभिमुख फुटिल मार्यो का अनुसरण करके
सर्वत्र गमन करते हुँ ।
५. हँस (आदित्य) दीप्त आकाश में अवस्थित रहते हँ । बसु
(बायु) अन्तरिक्ष संअवस्थिति करते ह। होता (वैदिफाग्नि) वेदीस्थळ पर
याहपत्मादि रूप से अवस्थिति करते हे एवम् अतिथिवत् पूज्य होकर
५२० हिन्दी-ऋग्वेद
गृह में (पाकादिसाधन रूप से) अवस्थिति करते हैं । ऋत (सत्य,
ब्रह्म, यक्ष) मनुष्यों के मध्य में अवस्थान करते हें, वरणीय स्थान में
अवस्थान करते हे, यज्ञस्थल में अवस्थान करते हें एवम् अन्तरिक्ष-स्थल में
अवस्थान करते हैं। वे जल में उत्पन्न हुए हैं, रह्ष्मियों में उत्पन्न हुए
है, सत्य में उत्पन्न हुए हैं और पर्वतों में उत्पन्न हुए हँ ।
३१ सूक्त
दिवता इन्द्र और वरुण । ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे इन्द्र, हे वरुण, अमरहोता अग्नि की तरह कोन हनिर्थुक्त
स्तोम (स्तोत्र) तुम दोनों का अनुग्रह लाभ करेगा ? हे इन्द्र, हे वरुण,
वह स्तोम (प्रशंसा) हम लोगों के द्वारा अभिहित होकर एवम् प्रज्ञो-
पेत और हविर्युक्त होकर तुम दोनों के हृदयङ्गम हो ।
₹ हे प्रसिद्ध इन्द्र और वरुणदेव, जो मनुष्य हविलक्षण अन्नवान्
होकर संख्या के लिए तुम दोनों से बन्धुत्व करता है, वह मनुष्य पाप-
नाश करता है, संग्राम में शत्रु का विनाश करता हे और महती रक्षा-
द्वारा प्रख्यात होता हे ।
३. हे प्रसिद्ध इन्द्र और वरुण, तुम दोनों देव हम स्तोत्र करनेवाले
मनुष्यों के लिए रमणीय धन देनेवाले होओ। यदि तुम दोनों परस्पर
(यजमान के) सखा हो और सख्य-कर्म के लिए अभिषुत सोस-द्वारा
अन्नवान् और हृष्ट हो, तो घन देनेवाले होओ ।
४. हे उग्र इद्र और वरुण, तुम दोनों इस शत्रु के ऊपर
दीप्त और अतिशय तेजोविशिष्ट वस्न प्रक्षेप करो । जो शत्रु हम
लोगों के द्वारा दुदमनीय, अत्यन्त अदाता और हिंसक है, उस शत्रु
के विरुद्ध तुम दोनों अभिभवकर बल का प्रयोग करो ।
५. हे इन्द्र और वरुण, वृषभ जिस तरह से धेनु को प्रीत करता हे,
उसी तरह से तुम दोनों स्तुतियों के प्रीणयिता होओ । तृष्णादि का भक्षण
हिन्दी-त्रटस्वेद् ५२१
करके सहस्रधारा महसी गो जिस तरह से दुग्ध दोहन करती हुँ, उसी
तरह से स्तुतिरूपा धेनु हम लोगों की अभिलाषा का दोहन करे ॥
हे इन्द्र और वरुण, तुम दोनों रात्रि में रक्षायुक्त होकर शत्रुओं
की हिसा करने के लिए अवस्थान करो, जिससे हम लोग पूत्र, पोत्र
और उर्वरा भूमि लाभ कर सकें एवम् चिर कालपर्यन्त सुर्य को देख
सकें अर्थात् चिरजीवी हों तथा सन्तानोत्पादन शक्ति प्राप्त कर सकें ।
. ७ हे इन्द्र और वरुण, हम लोग धेन्-लाभ की अभिलाषा से तुम
लोगों के निकट प्राचीन रक्षा की प्रार्थना करते हैं । तुम दोनों क्षमता-
शाली, बन्धृस्वरूप, शूर एवम् अतिशय पुज्य हो । हुम लोग तुम
दोनों के निकट सुखदाथक पिता की तरह सख्य ओर स्नेह की प्रार्थना
करते हु ।
८. है शोभन फल के देनेवाले देवद्वय, योद्धा जिस तरह से संग्राम
की कामना करता हें, उसी तरह से हम लोगों की रत्नाभिलाषिणीं
स्तुतियां तुम दोनों की कामना करती हुई रक्षा-लाभ के लिए तुम दोनों
के निकट गमन करती हें । दध्यादि-द्वारा शोभन करने के लिए जैसे
गौएँ सोम के निकट रहती हैँ, बेसे ही हमारी आन्तरिक स्तुतियाँ इन्द्र
और वरुण के निकट गमन करती हँ । |
९. धन-लाभ के लिए जसे सेवक धनियों के निकट गमन करते हुँ,
उसी तरह हमारी स्तुतियाँ सम्पत्ति-लाभ की इच्छा से इन्द्र और वरुण
के निकट गमन कर । भिक्षुक स्त्रियों की तरह अन्न की भिक्षा माँगते
हुए इन्द्र के निकट गमन करें ।
१०. हम लोग बिना प्रयत्न के अश्वसमूह, रथ-समूह, पुष्टि एवम्
अविचल धन के स्वामी होंगे । वे दोनों देव गमन-शील हों एवम् नूतन
रक्षा के साथ हुम लोगों के अभिमुख अच और धन नियुक्त करे ।
११. हे महान् इन्द्र और वरुण, तुम दोनों महान्, रक्षा के साथ
आगमन करो । जिस अञ्चप्रापक युद्ध में शत्रुसेना के आयुध क्रीडा करते
हें, उस युद्ध में हम लोग तुम दोनों के अनुग्रह से जय-लाभ कर सकें।
५२३ हनदी-ऋः्वेद
8२ सूक्त |
(देवतां १-६ ऋचाओं के पुरुकुरस-तनय राजषि त्रसदस्यु ।
धव रिष्ट के इन्द्र और वरण। ऋषित्रसदस्यु। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हम क्षत्रिय-जात्युत्पन्न (अतिशय बलवान्) और सम्पूणं शनुथ्यों
के अधीश हैं। हमारा राज्य दो प्रकार का हैं। सम्पुर्ण देवगण जेसे
हमारे है, वसे ही सारी प्रजा भी हमारी ही हैं। हम रूपवान् और
अन्तिकस्थ वरुण हे। देवगण हमारे यज्ञ की सेवा करते हूं। हम
सनुव्य के भी राजा हूँ।
२. हम राजा वरुण हें। देवगण हमारे लिए ही असुर-विघातक
श्रेष्ठ बल धारण करते हें। हम रूपवान् और अन्तिकस्थ वरुण हें ।
देवगण हमारे यज्ञ की सेबा करते हें हम मनुष्य के भी राजाहें।
३. हम इन्द्र और वरुण हें। महत्ता के कारण विस्तीण, दुरव-
गाहा, सुरूपा, द्यादएपृथिबी हम ही हैं। हम विद्वान् हं। हम सकल
भूतजात को प्रजापति की तरह प्रेरित करते हें। हम द्यावा-पृथिवी
को धारण करते हु।
४. हमने ही सिञ्चमान जल का सेचन किया हु, उदक या आदित्य
के स्थानभूत द्युलोक का धारण किया हु अथवा आकाश में आदित्य
का धारण किया है । जल के निमित्त से हम अदिति-पुत्र ऋतावा (यज्ञ-
वात्) हुए हें। हमने व्याप्त आकाश को तीन प्रकार से प्रथित किया
हँ अर्थात् परमेश्वर ने हमारे लिए ही क्षिति आदि तीन लोकों को
बनाया हुँ ।
५. सुन्दर अइवदाले और संग्रामेच्छ, नेता हमारा ही अनुगमन करते
हैं। वे सब वृत होकर युद्ध के लिए संग्राम में हमारा ही आह्वान
करते हें । हम धनवान् इन्द्र होकर युद्ध करते हें। हम अभिभव करने-
बाले बल से युक्त हें । हम संग्राम में धूलि उत्त्यित करते हें।
६० हमने उन सकल कार्यो को किया हुँ । हम अप्रतिहत-दैवबल
हिन्दी-ऋणग्वेद ५२३
से युक्त है । कोई भी हमारा निवारण नहीं कर सकता । जब सोमरस
हमें हृष्ट करता है एवम् उक्थ-समूह हमें हृष्ट करता हे, तब अपार
और उभय द्यावा-पृथिवी चलित हो जाती हें ।
७. है वरुण, तुम्हारे कर्म को सकल भूतजात जानता हुँ । हे स्तोता,
बरुण के लिए बोलो अर्थात् वरुण की स्तुति करो। हे इन्दर, तुमने
वैरियों का वघ किया हँ--यह तुम्हारी प्रसिद्धि हं । हे इन्द्र, तुमने
आच्छन्न नदियों को उन्मुक्त किया हैं ।
८. दुर्गह के पुत्र पुरुकुत्स के बन्दी होने पर इस देश या पृथिवी
के पाछयिता सर्प्ताष हुए थे। उन्होंने इन्द्र और वरुण के अनुग्रह से
पुरुकुत्स की स्त्री के लिए यज्ञ करके त्रसदस्यु को लाभ किया था।
त्रसदस्यु इन्द्र की तरह शत्रु-विनाशक और अरद्धदेव देवताओं के समीप
में वर्तमान या देवताओं के अर्दधंभूत इन्द्र कौ तरह थे।
९. हे इन्र ओर वरुण, ऋषि-द्वारा प्रेरित होनें पर पुरुकुत्स की
पत्नी ने तुम दोनों को हुव्य और स्तुति-द्वारा प्रसक्ष किया था।
अनन्तर तुम दोनों ने उसे शत्रनाशक अद्ध देव राजा प्रसदस्यु को
दान दिया था।
१०. हम लोग तुम दोनों को स्तुति करके धन-द्वारा परितृप्त
होंगे । देवगण हव्य-द्वारा तृप्त हों और गौएँतणादि-द्वारा परितृप्त हों।
हे इन्द्र और बरुण, तुम दोनों विश्व के हन्ता हो। तुम दोनों हुम लोगों
को सदा अहिंतित धन दान करो ।
४३ सूक्त
(देवता अश्विद्ठय । ऋषि सुहोत्र के पुत्र पुरुमीह्ण और अजमीह्न ।
छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१, यज्ञाह देवों के मध्य में कौन देव इसे सुनेंगे ? कौन देव इस
बन्दनशील स्तोत्र का सेवन करेंगे ? देवताओं के मध्य किस देव फे
५२४ | हिन्दी-ऋभ्वेद
हृदय में हम इस प्रियतरा, झोतमाना, ह॒व्ययुक्ता शोभन स्तुति को
सुनावे अर्थात् अशिवद्वय के अतिरिक्त स्तुति के स्वामी कौन देव होंगे ?
` २. कौन देवता हम लोगों को सुखी करेंगे ? कौन देयता हमारे
यज्ञ में सबकी अपेक्षा अधिक आगमन करते हें? देवों के मध्य में कोन
देवता हम लोगों को सबकी अपेक्षा अधिक सुखी करते हें? इस तरह
उपर्यक्त गणों से विशिष्ट अश्विद्ठय ही हँ । कोन रथ वेगवान् अश्वयक्त
और शीघ्रगामी है, जिसका सूर्य की पुत्री न सम्भजन किया था?
३. रात्रि के व्यतीत होने पर इन्द्र जिस तरह से अपनी शक्ति
प्रदशित करते हँ, हे गमनशील अधिविद्वय तुम दोनों भी उसी तरह
से अभिषवण-काल में गमन करो । तुम दोनों ने युलोक से आगमन
किया है । तुम दोनों दिव्य और झोभन गति से विशिष्ट हो ॥ तुम दोनों
के कर्मो के मध्य में कोन कमं सर्वापक्षा श्रेष्ठ हे ? |
- ४. कौन स्तुति तुम दोनों के समान हो सकती हें ? किस स्तुति-
हारा आहूयमान होने पर तुम दोनों हमारे निकट आगमन करोगे ?
कौन तुम दोनों के महान कोध का सहन कर सकता हें? हे मधुर
जल के सृष्टिकर्ता एवम् शत्रु-विनाशक अश्विद्ठय, तुस दोनों हम लोगों
को आश्चय-दान-द्वारा रक्षित करो। |
५. हे अशिवद्वय, तुम दोनों का रथ द्युलोक के चारों तरफ विस्तृत
भाव से गमन करता हु । वह समुद्र से तुम दोनों के अभिमुख गमन
करता है । तुम दोनों के लिए पके जौ के साथ सोमरस संयोजित हुआ
है । हे मधुर जल के सृष्टिकर्ता, शत्रु-विनाशक अश्विद्ठय, अध्वर्युगण
मधुर दुग्ध के साथ सोमरस को मिश्रित कर रहे हें ।
६. मेघ या उदक रस-द्वारा तुस दोनों के अइवों का सेचन हुआ
हुँ । पक्षिसद्श अश्वगण दीप्ति-हारा दीप्यमान होकर गमन करते हूँ ।
जिस रथ-द्वारा तुम दोनों सूर्या के पालयिता हुए थे, तुम दोनों का वह
शी घरगामी रथ प्रसिद्ध हे ।
हिन्दी-ऋणष्वेद ५१५
७ है अश्विद्ठय, इस यज्ञ में तुम दोनों समान मनवाले अर्थात्
सदृश हो । हस स्तुति-द्वारा तुम दोनों को संयुक्त करते हें। वह शोभन
स्तुति हम लोगों के लिए फलवती हो । हे रमणीय अन्नवाले अधिविहय,
तुम दोनों स्तोता की रक्षा करो । हे नासत्यद्वय, हमारी अभिलाषा तुम
दोनों के निकट जान से पूर्ण होती हे ।
४४ सूक्त |
(देवता अश्विऽय । ऋषि पुरुमीह ओर अजमीह । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अश्विनीकुमारो, हम आज तुम्हारे विख्यात वेगवाले और
गोसंगत या गोप्रद रथ का आह्वान करते हें। बह रथ सूर्या को धारण
करता है । उसके निवासाधारभूत (बेठने को जगह का) काष्ठ बंधुर
हुँ । वह रथ स्लुतिवाहक, प्रभूत ओर धनवान हे ।
हे आदित्य या द्युलोक के पुत्रस्थानीय अदिवनीकुमारो, तुम
दोनों देवता हो । तुम दोनों कर्मे-द्वारा प्रसिद्ध शोभा का सम्भोग करते
हो । तुस दोनों के शरीर को सोमरस प्राप्त करता हे । महान् अश्व
(या स्तुतियाँ) तुम दोनों के रथ का वहन करते हें।
३. कोन सोमदाता यजमान, आज, रक्षा के लिए, सोमपान के लिए,
यज्ञ की पुति के लिए अथवा सम्भजन के लिए तुम दोनों की स्तुति
करता हे ? हे अश्विद्वय, कौन नमस्कार करनेवाला तुम दोनों को यज्ञ
के प्रति आर्यातत करता हैं । |:
` ४. हे नासत्यद्वय, तुम दोनों बहुविध हो। इस यज्ञ सं हिरण्मय
रथ-द्वारा तुम दोनों आओ । मधुर सोमरस का पात करो एवम् परि-
चर्या करनेवाले को अर्थात् हमें रमणीय धन दान करो। | '
शोभन आवतंनवाले हिरण्मय रथ-हारा तुम दोनों घुलोक या
पृथिवी से हमारे अभिमुख आगमन करते हो 1 तुम दोनों की. इच्छा
करनेवाले दूसरे यजमान तुम दोनों को नहीं रोक रखें; अतएव हमने
पुवं में ही स्तुति आपत को ह ।
५३६ ` हिन्वी-ऋम्वेद
६, हे दस्य, तुम लोग हम दोनों (पुरुमीह्न और अजमीहछ्ल)
को ग्षीन्न ही बहुपुत्रयुक्त प्रभूत धन दान करो । हे अदिवद्दय, पुरुमीक्ध
के ऋत्विकों ने तुम दोनों को स्तोत्र-द्वारा प्राप्त किया हे एवम्
अजमील्ल के ऋत्विकों की स्तुति भी उसी के साथ संगत हुई हुँ ।
७. अश्विद्वय, इस यज्ञ में तुम दोनों ससान सनवाले हो अर्थात्
सदृक्ष हो । हम जिस स्तुति-द्वारा तुस दोनों को संयुक्त करते हे, बहु
शोभन स्तुति हम लोगों के लिए फलबती हो। हे रमणीय अज्नवाले
अव्विवद्वय, तुम दोनों स्तोता की रक्षा करो। हे नासत्यद्दय, हमारी
अभिलाषा तुम दोनों के निकट जाने से पुर्ण होती हे ।
४५ सुक्त
( देवता अशिवद्वय | ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. दीप्तिमान् आदित्य उदित होते हें। हे अशि्वद्वय, तुम
दोनों का रथ चारों तरफ़ गमन करता हुँ । वह द्युतिमान् आदित्य के
साथ समुच्छूत प्रदेश में मिलित होता हे इस रथ के ऊपरी भाग सें
मिथुनीभूत त्रिविध (अशन, पान, खाइ) अन्न है एवम् सोमरसपुर्ण
चर्ममय पात्र चतुर्थ रूप में शोभा पाता है।
२. उषा के आरम्भ-काल में तुम दोनों का त्रिविधान्नवात्, सोम-
` -रसोपेत, अइवयुक्त रथ चारों तरफ़ व्याप्त अन्धकार को दुर करता
हुआ और सूर्य की तरह दीप्त तेज को विस्तारित करता हुआ उन्मुख
होकर गमन करता हे ।
३. सोमपान करने योग्य मुखन्द्रारा तुम दोनों सोमरस का पान
करो । सोमरस के लाभ के लिए प्रिय रथ की योजना करो एवम् यज"
सान के गृह सें आगमन करो । गसनमार्ग फो सोम-द्रारा प्रीत करो ।
तुस दोनों सोमपूर्ण चसेसय पात्र धारण करो ।
४. तुम दोनों के पास शी घगामी, माधुययुक्त, द्रोहरहित, हिरण्मय,
(रमणीय) पक्षविशिष्ट, बहनशोल, उघाकार में जागरणकारी, जलप्रेरक,
हिन्दी-ऋषग्वेद ५२७
हर्षयुवत, एवम् सोसस्पर्शी अइव हैँ, जिसके द्वारा तुम लोग हम लोगो
के सवनों में आगमन करते हो, जैसे मधुमक्षिका सधु के समीप गसन
करती हुँ ।
५, जब कर्म करनेवाले अध्यर्युगण अभिमंत्रित जळ से हस्त शोधन
करते हुए, प्रस्तर-खण्ड-दरारा मधुयुक्त सोम अभिषव करते हे, तब यज्ञ
के साधनभूत सोमवान् याहपत्यादि अग्नि एकत्र निवासकारी अडिवद्वय
की प्रत्यह स्तुति करते हँ । |
६. समीप में निपतित होनेवाली रहिमियाँ दिवस-द्वारा अन्धकार को
ध्वंस करती हुई सूर्ये की तरह दीप्त तेज को विस्तारित करती हुँ।
सुये अशवयोजना करके गमन करते हु । हे अश्विद्वय, तुम दोनों सोम-
रस के साथ उगका अनुगमन करके समस्त पथ प्रज्ञापित करो ।
७. हे अहिविनीकुमारो, यज्ञ करनेवाले हम तुम दोनों की स्तुति
करते हँ । तुस दोनों का सुन्दर अश्वयुक्त, नित्य तरुण जो रथ हुँ एवम्
जिस रथ-हारा तुम दोनों क्षण सात्र में लोकत्रय का परिभ्रमण करते
हो, उसी रथ-हारा तुस दोनों हव्य-युक्ल, शीघ्र अतिवाही एवम् भोगः
प्रद यज्ञ में आगमन करो ।
३६ सूक्त
(५ अनुवाक । देवता प्रथम ऋचा के चायु, अवशिष्ट के इन्द्र ओर
वायु । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. हे वायु, स्वगे-प्रापक यज्ञ में तुस सर्वप्रथम अभिषत सोनरस
का पान करो; क्योंकि तुम पूर्वपा हो ।
२, हे वायु, तुम नियुहान् हो और इन्द्र तुम्हारे सारथि हैं। तुम
अपरिमित कामना को पुर्ण करने के लिए आगमन करो । तुम अभिषुत
सोम का पान करो।
३. है इन्द्र ओर यायु, दुम बोनों को सहस्संख्यक अइव
त्वरायुष्त होकर सोमपान के लिए फे आर्य ।
५३८ हिन्दी-ऋग्वेद
४, है इख और वायु, तुम दोनों हिरण्मय निवासाधार काष्ठ से
युक्त युलोकस्पर्शी और शोभन यज्ञशाली रथ पर आरोहण करो ।
५. हे इन्द्र और वायु, तुम दोनों प्रभूत बलसम्पञ्च रथ-द्वारा हुव्य-
दाता यजमान के निकट आगमन करो एवम् उसी लिए इस यज्ञ में
आगमन करो ।
६. है इन्द्र और बायु, यह सोम अभिषुत हुआ है, तुम दोनों देवों
के साथ ससान प्रीतियुक्त होकर हव्यदाता यजसान की यज्ञशाला में
उसका पान करो । |
७. हे इन्द्र और वायु, इस यज्ञ सें तुम दोनों का आगमन हो।
इस यज्ञ में तुम लोगों के सोमपान के लिए अइव विमुक्त हों।
९७ द्रूक्त
(देवता इन्द्र ओर वायु । ऋषि वामदेव । छन्द अनुष्टप |)
१. हे वायु, ब्रतचर्यादि के द्वारा दीप्त (पवित्र) होकर हम
घुलोक जाने की अभिलाषा से तुम्हारे लिए मधुर सोमरस का प्रथम आन-
थन करते हूँ । है वायुदेव, तुम स्पृहणीय हो । लुम अपने नियुद् (अव)
बाहन-द्वारा सोसपान के लिए आगसन करो ।
२. है वायु, तुम और इन्द्र इस गृहीत सोस के पानयोग्य हो, तुम
दोनों ही सोम को प्राप्त करते हो; क्योंकि जल जिस तरह से गतं की
ओर गमन करता हे, उसी तरह से सकल सोमरस तुस दोनों के अभि-
सुख गसन करते हें।
३. हे वायु, तुम इन्द्र हो। तुम दोनों बळ के स्वामी हो। तुम
दोनों पराक्रमशाली और नियुद्गण से युक्त हो। तुम दोनों एक ही
रथ पर आरोहण करके हम लोगों को आश्रय प्रदान करने के लिए और
सोमपान करने के लिए यहाँ आओ ।
४. हे नेता तथा यज्ञवाहक इन्द्र और वायु, तुम दोनों के पास जो
हिन्दी-ऋग्वेद ५२९
बहुतेरे लोगों-हारा स्पृहणीय नियुद्गण हें, वे हमें दे दो । हम तुम _ |
दोनों को हवि देनेवाले यजमान हुँ ।
ट सक्त
(देवता वायु । ऋषि वामदेव |)
१. हे वायु, शत्रुओं के प्रकस्पक राजा की तरह तुम पुषं में ही .
दुसरे के वारा अपीत सोम का पान करो एवम् स्तोताओं के धन का
सम्पादन करो । हे वायु, तुस सोसपान के लिए आह्वादकर रथ-हारा
आगमन करो ।
२. हे वायु तुम अभिशस्ति का निःशंष नियोग करते हो। तुम
नियुदूगण से युक्त हो ओर इन्द्र तुम्हारे सारथि हें। हे वायु, तुम
सोमपान के लिए अद्भादकर रथ-द्वारा आगमन करो ।
३. हे वायु, कृष्णवर्ण, वसुओं की धात्री, विइवरूपा द्यावा-पुथिवी
तुम्हारा अनुगमन करती हुँ । हे वायु, तुम सोमपान के लिए आह्वादकर
रथ-्ट्रारा आगसन करो ।
४, हे वायु, मन की तरह वेगवान्, परस्पर संयुक्त, नव-नंवति-
संख्यक (९९) अइव तुम्हारा आनयन करते हे। है वायु, तुम सोमपान
के लिए आह्लादकर रथ-द्वारा आगमन करो ।
५. हे वायु, तुम शतसंख्यक पोषणीय अइवों को रथ में योजित
करो अथवा सहु्रसं्यक अश्वो को रथ में योजित करो । उनसे युक्त
होकर तुम्हारा रथ वेगपुर्वेक आथ ।
४९ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर बृहस्पति । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री ।)
१. है इन्द्र और बृहस्पति, तुस दोनों के सुंह में हुम इस प्रिय सोम-
रूप हुति का प्रक्षेप करते हैं। हम तुस दोनों को उक्थ (शस्त्र) और
मदजमक सोमरस प्रदान करते हं।
फा० ३४
५३० हिन्दी-ऋग्वेद
२. हे इन्द्र और बृहस्पति, तुम दोनों के मूह में पान के लिए
और हर्ष के लिए यह मनोहर सोम भली भाँति से दिया जाता है।
३. है सोमपा इन्द्र और बृहस्पति, तुम दोनों सोमपान के लिए
हमारे यज्ञ-गृह में आगसन करो।
४. है इन्द्र और बृहस्पति, तुम दोनों हमें शतसंख्यक गोयुष्त और
सहरखसंख्यक अश्वयुक्त धन्न दान करो ।
५. है इन्द्र और बृहस्पति, सोम के अभिषुत होने पर हम स्तुतिः
द्वारा तुम दोनों का सोसपान के लिए आह्वान करते हैं ।
६, है इन्द्र और बृहस्पति, तुम दोनों हव्यदाता यजमान के गृह में
सोसपान करो ओर उसके गृह में निवास करके हृष्ट होओ ।
५० सूक्त
(देवता १-६ ऋचाओं के बृहस्पति, १०-११ के इन्द्र और
बृहस्पति । ऋषि वामदेव । छन्द॒ जगती और त्रिष्टुप् ।)
१, वेद या यज्ञ के पालयिता बृहस्पति देव ने बलपूर्वक पृथिवी की
दसौं दिशाओं को स्तम्भित किया था। वे शब्द-द्वारा तीनों स्थानों में
वर्तमान हें । उन आह्भादक जिल्वाविशिष्ट बृहस्पति देव को पुरातन,
चुतिमान् सेधावियों ने पुरोभाग में स्थापित किया है।
२ है प्रभूत प्रावात् बृहस्पति, जिनकी गति शत्रुओं को केपाने-
वाली हुँ, जो तुम्हें हृष्ट करते हें और जो तुम्हारी स्तुति करते हूँ,
उनके लिए तुम फलप्रद, वद्धेनशील और अहिसित होते हो एवम् तुम
उनके विस्तीर्णे यज्ञ की रक्षा करते हो।
२ हे बृहस्पति, जो अत्यन्त दुरवर्ती स्वर्गंनामक उत्कृष्ट स्थान हुँ,
उस स्थान से तुम्हारे अदव यज्ञ में आगमन करके निषण्ण होते हें। खात
कूप के चारों तरफ़ से जैसे जलल्राव होता है, उसी तरह से तुम्हारे
चारों तरफ स्तुतियों के साथ प्रस्तर-द्वारा अभिषुद सोम मधुर रस
का सिञ्चन करता हैं।
हिन्दी-ऋणग्वेद ५३१
४, सन्त्राभिमानी बृहस्पतिदेव जब महान् आदित्य के निरतिशय
आकाश में प्रथम जायमान हुए थे तब सप्त छन्दोमय मुख-विशिष्ट
होकर और बहुप्रकार से सम्भूत होकर तथा शव्दयुक्त एवम् गमनशील
तेजोविशिष्ठ होकर उन्होंने अन्धकार का नाश किया था।
५. बृहस्पति ने दीप्तियुक्त और स्तुतिशाळी अङ्गिरागण के साथ
शब्दद्वारा बल नामक असुर को विनष्ट किया था । उन्होंने शब्द करके
भोगप्रदात्री और हव्यप्रेरिका गोओं को बाहर किया था।
हम लोग इस प्रकार से पालक, सबेदेवता स्वरूप और अभी
ष्टवर्षी बृहस्पति की यज्ञ-द्वारा, हव्य-द्वारा और स्तुति-द्वारा, परिचर्या
करेंगे । हे बृहस्पति, हस लोग जिससे सुपुत्रवान्, बीयशालो और घन
के स्वामी हो सक ।
७ जो बृहस्पति (पुरोहित) को सुन्दर रूप से पोषण करता हे
एवम् उन्हें प्रथम हव्यग्राही कहकर उनकी स्तुति करता हें और नमस्कार
करता है, वह राजा अपने वीर्य-द्वारा शत्रुओं के बल को अभिभूत करके
अवस्थित करता हू ।
८. जिस राजा के निकट ब्रह्मा (ब्रह्मणस्पति) प्रथम गसन करते
हे, वह सुतप्त होकर अपने गूह में निवास करता है। पृथिवी उसके लिए
सब काल सें फर प्रसव करती हे । प्रजागण स्वयम् उसके निकट अवनत
रहते ह ।
९, जो राजा रक्षणकुदाळ और धनरहित ब्राह्मण य। बृहस्पति को
धन दान करता हे, वह अप्रतिहत रूप से शत्रुओं ओर प्रजाओं का घन
जीतता है एवम् महान् होता हूँ । देवगण उसी को रक्षा करते हूँ।
१०, हे बृहस्पति, तुम और इन्द्र इस यज्ञ में हृष्ट होकर यजसानों
को धन दान करो। सर्वव्यापक सोम तुम दोतों के शरीर में प्रवेश करे।
तुम दोनों हम लोगों को पुत्र-पौत्रादियुक्त धन दान करो।
११. हे बृहस्पति अ.र इन्द्र, तुम दोनों हम लोगों को वद्धित करो।
हम लोगों के प्रति तुम दोनों का अनुग्रह एक समय में ही प्रयुक्त हो।
५३२ हिन्दी-्ऋग्वेद
तुस दोनों हम लोगों के यज्ञ की रक्षा करो, हमारी स्तुति से जागरित होओ
और स्तोताओं के शत्रओं के साथ यदध करो । |
स्वत अध्याय समाप्त |
५१ सूक्त
( अष्टम अध्याय । देवता उषा | ऋषि वामदेव । छन्द त्रिष्ठुप ।)
१. हम लोगों के द्वारा स्तुति, सर्वेश्रसिद्ध, अत्यन्त प्रभूत्र और
कान्तिशाली तेज पूर्व दिशा से अन्धकार के मध्य से उत्थित होता है।
आदित्य-दुहिता और दीप्तिसती उषा यजमानों के गसन-कार्य में सच-
मच सामर्थ्ययक्ता हों ।
२. यज्ञ-खात के यूपकाष्ठ की तरह शोभमाना होकर विचित्रा उषा
पुं दिज्ञा को व्याप्त कर अवस्थिति करती हैं। वे बाधाजनक अन्ध-
कार के द्वार का उद्घाटन करके एयम् दीप्त और पवित्र हो करके प्रका-
शित होती ह।
३. आज तमोनिवारिका और धनवती उषा भोज्यवाता यजमान
को सोमादि धन प्रदान करने के लिए उत्साहित करती हें। अत्यन्त
गाठ अन्धकार के मध्य में बनियों की तरह अदातुगण अप्रबृद्धभाव
से निद्रित हों ।
४. हे द्योतमान उषाओ, जिस रथ-द्वारा तुम लोगों न सप्तछन्दोः
युक्त मुखवाले नवग्व और दशग्व अद्धिराओं को घनशाली रूप से
प्रदीप्त किया था, हे धनवती उषाओ, तुस लोगों का वही पुरातन अथवा
नतन रथ आज इस यज्ञ-गुह सं बहु बार आगमन करे ।
` प, हे द्युतिसती उषाओ, तुस लोग निद्रित दविपदों और चतुष्पंदों
को अर्थात् सनष्यों और गोओं आदि को अपने-अपने गसन आदि कार्यों
हिन्दी-ऋग्वेद ५३३
में प्रबोधित करके यज्ञ में गसनकारी अश्वो के हारा भवनों का क्षण-
सात्र में परिक्षमण करो॥
६. जिन उषा के लिए ऋभओं ने चमस आदि का निर्माण किया
था, वे पुरातन उषा कहाँ हें? दीप्त, नित्य नूतन, समान रूपविशिष्ट
उषायें जब दीप्ति प्रकाश करती हें तब वे विज्ञात नहीं होती हैं अर्थात्
धे सब दिनों में एक रूप-सदृश रहती हँ, इसलिए ये पुरातन और
“थे नतन उषा हैं, इस तरह से वे पहचानी नहीं जा सकती हैं ।
७. यज्ञकर्तागण जिन उषाओं का उक्यथों-द्वारा स्तुति करके एवम्
स्तोत्रों और शस्त्रों-द्वारा उच्चारण करके शीघ धन-लाभ करते हे, वे
ही कल्याणकारिणी उषायें पुरातन काल से ही अभिगमन करके धन
दान करें घे यज्ञ के लिए उत्पन्न हुई हुँ और सत्य फल प्रदान
करती हूँ ।
८. एकरूप-विशिष्ट और समान विख्यात उषाये पूर्व दिशा में
एक-मात्र अन्तरिक्ष देश से स्त्र विचरण करती हें। द्युतिमती उषायें
धज्ञ-गुंह को प्रबेधित करके जलसुष्टिकारिणी रश्मियों को तरह स्तुत
होती हूँ । |
९. उषाये समान, एकरूपविशिष्ट, अपरिमित वर्णयुक्त, दीप्त,
शुद्ध और कान्तिपुर्ण शरीर-द्वारा दीप्तियुक्त हें। वे अत्यन्त महान् अन्ध-
कार का गोपन करके विचरण करती हुँ ।
१०, हे घोतमान आदित्य की दुहिताओ, तुम हम लोगों को पुत्रः
पौत्रादि से यक्त धन दान करो । हे देवियो, हम लोग सुख लाभ के लिए
तुम लोगों को प्रतिबोधित करते हे, जिससे हम लोग पुत्र-पोत्रादि से
यक्त घन फे पति हो सकें ।
११. हे द्योतमान आदित्य की दुहिताओ, हम लोग यज्ञ फे प्रज्ञा-
पक हुँ । तुम्हारे निकट हम लोग प्रार्थना करते हँ, जिससे लोगों के
मध्य में हम लोग कौति और अन्न के स्वामी हो सके । झुलोक
और द्युतिमती पृथिवी वह यश धारण करें।
५३४ हिन्दी-ऋषग्वेद
५२ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि वामदेव। छन्द गायत्री |)
१. वह आदित्य-दुहिता उषा दुष्ट होती हे । बह स्तुत है और
प्राणियों की नेत्री हे एवम् सुन्दर फलों की उत्पादयित्री हे । वह भगिनौ-
स्वरूपा रात्रि के पर्यवसानकाल में अन्धकार का विनाश करती है।
२. अइव की तरह मनोहरा, दीप्तिमती, रश्सियों की माता और
यज्ञवती उषा अदिवद्वय के साथ स्तूयमाना हो अर्थात् अश्विद्य से
बन्धुत्व करे ।
३. तुम अध्विवद्वय की बन्धु और रदिमयों की माता हो। हे उषा,
तुम धन की ईश्वरी हो । |
४. है युनृता (सत्यवचन) उषा, तुम शत्रुओं को पृथक् कर दो,
तुम सज्ञा दान करो । हम स्तुतियों-द्वारा तुम्हें प्रबोधित करते है।
५. स्तुतियोग्य रहिम्रयां दृष्ट होती हें। उबा ने जगत् को वर्षा
की धारा कौ तरह महान् तेज से परिपूर्ण किया है । |
६, हे कान्तिमती उषा, तुम जगत् को तेज-द्वारा परिपूणं करो,
तेज-हारा अन्धकार को दूर करो उसके अनन्तर नियमानुसार हवि-
लक्षण अन्न की रक्षा करो । |
७. हे उषा, तुम दौष्त तेजोथुकत होकर रहिम-द्वारा युलोक
को एवम् विस्तीर्ण और प्रिय अन्तरिक्ष को व्याप्त करो ।
५३ सूक्त
(देवता सविता। ऋषि वामदेव । छन्द॒ जगती और सावित्री |)
१. हम लोग असुर (बलवान्) और बृद्धिमान् प्रेरक सविता देव
के उस वरणीय एवम् पुज्य घन की प्रार्थना करते हैं, जिसे थे यज-
मान हुव्यदाता को स्वेच्छापूर्वक देते हैं। महान् सबिता हुम लोगों को
वह धन सब दिनों में दें ।
हिन्वी-ऋभ्वेद ६३५
२. झुलोक एवम् समस्त छोक के धारक, प्रजाओं को प्रकाश,
बृष्टि, आदि के हारा पालन करनेवाले कवि सविता देव हिरण्मय कवच
परिधान करते हें। विचक्षण सविता प्रख्यात होकर भी जगत को
तेज-दारा परिपूर्ण करते हैँ और स्तुतियोग्य प्रभूत सुख उत्पादन
करते हु ।
३. सवितादेव तेज-द्वारा यलोक और पृथिवीलोक को परि-
पूर्ण करते हें एवम् अपने कार्य की प्रशंसा करते हैं। वे प्रतिदिन जगत्
को अपने-अपने कार्य में स्थापन करते हु और प्रेरण करते हें। वे
सजनकाय के लिए बाहु को प्रसारित करते हे ।
४. सवितादेव अहिसित होकर भवनों को प्रदौप्त करते हैं और
व्रतों की रक्षा करते हैँ। वे भुवनस्थ प्रजाओं के लिए बाहु प्रसारण
करते है। धृतव्रत सबितादेव महान् जगत् के ईश्वर हूँ।
५. सवितादेव महिमा-्द्रारां परिभवै करते हुए अन्तरिक्षत्रय
(वायु, विद्युत् और वरुण नामक लोकत्रैयै अं अन्तरिक्ष के भेद हैं) को
ब्याप्त करते हुँ। वे लोकत्रय को ध्योप्ते करते हैं। थे दीप्तिमान
अग्नि, वायु और आदित्य को व्याप्त करते हें। वे तीन चुलोक (इच,
प्रजापति और सत्य नामक लोकत्रय) को व्याप्त करते हैं। वे तीन
पृथिडियों को व्याष्त करते हें॥ वे तीन ब्रतों-(ग्रीष्म, वर्षा और हिम)
द्वारा हम लोगों का अनुग्रहपुर्वक पालन करें।
६. जिनके पास प्रभूत धन है, जो कर्मों का प्रसव करते हुँ, जो.
सबके लिए गन्तव्य हुँ एबम् जो स्थावर और जंगम दोनों को वश में
रखते हुँ, वे सबितादेव हम लोगों के पापक्षय के लिए हम लोगों को
लोकत्रयस्थित सुख दान करें ।
७. सवितादेव ऋतुओं के साथ आगमनं करें। हस लोगों के गृह
को वर्धित करें हम लोगों को पुत्र-पौत्रादि युक्त अन्न दान करें।
वे दिन और रात्रि दोनों में हम लोगों के प्रति प्रीत हों। बे हम रोगों
को अपत्ययुक्ल धन दात कर ।
५३६ | .... हिन््दी-ऋण्वेक
५३ शुक्त
(देवता सविता ऋषि वामदेव । छन्द सावित्री और त्रिष्टुप् |)
१, सवितादेव प्रादुर्भत हुए हें। हम ञ्ची ही उनकी वन्दना करेंगे ।
वे इस समय और तृतीय सवन में होताओं-दारा स्तुत हों। जो मानवों
को रत्न दान करते हँ, वे सवितादेव हम लोगों को इस यज्ञ में श्रेष्ठ
धन दान करें ।
२. तुम पहले यज्ञाहंदेवों के लिए अमरत्व के साधनभूत सोम
उत्कृष्टतम भाग को उत्पन्न करो । हे सविता, उसके अनन्तर तुम हव्य-
दाता को प्रकाशित करो एवम् पिता, पुत्र और पात्रादि कम से
मनुष्यों को जीवन दान करो।
३. हे सचितादेव, अज्ञाततावश अथवा दुर्बल वा बलशाली लोगों
के प्रमादवश अथवा एश्वर्य के गवं से या परिजन के गर्व से तुम्हारे
प्रति अथवा देव या मनुष्यों के प्रति हमने जो अपराध किया है, इस
यज्ञ सें तुम हमें उससे निष्पाप करो ।
४, सवितादेव का वह कमं हिसायोग्य नहीं हे; क्योंकि वे विश्व
भूवन धारण करते हैं। वे सुन्दर अंगुलिविशिष्ट होकर पृथिवी को
विस्तीर्ण होने के लिए प्रेरित करते हें एवम् झुलोक को भी विस्तीर्ण
होने के लिए प्रेरित करते हें। सवितादेव का यह कम सचमुच
अबध्य हँ । |
५. हे सविता, परमैरवर्यवान् इन्द्र हम लोगों के मध्य में पुजनीय
हू । तुम हम लोगों को महान् पर्वतों की अपेक्षा भी उन्नत करो । इन
सम्पूण यजमानों को गृहविशिष्ट निवास (ग्राम, नगर आदि) प्रदान
करो। वे सब गमनकाल में जिससे तुम्हारे द्वारा नियत हों और
तुम्हारी आज्ञा के अनुसार अवस्थिति करं ।
६. है सविता, जो यजमान तुम्हारे उद्देश से प्रतिदिन तीन बार
सौभाग्यजनक सोम का अभिषव करता हैं, इन्द्र, द्यावा-पृथिवी,
हिन्दी-ऋग्येद ५३७
जलविशिष्ट सिन्धु, देवता और आदित्यों के साथ अदिति, उस यज-
मान को और हमें सुख दान करें ।
५५ सुत्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि वामदेव । छन्द गायत्री और त्रिष्टुप् ।)
१, हे वसुओ, तुम लोगों के मध्य भें कौन त्राणकर्ता हे? कौन
दुःखों का निवारक हूँ ? हे अखण्डनीया दावा-पृथियी हम लोगो की रक्षा
करो । हे वरुण, हे मित्र, तुम दोनों अभिभवकर मनुष्यों से हस लोगों
की रक्षा करो। हे देवो, यज्ञ मे, तुम लोगों के मध्य में कोन देव धन
दान करता हुं ?
२, जो देव स्तोताओं को पुरातन स्थान प्रदान करते हे, जो दुःखों
के अभिश्रयिता हं, जो अमूढ़ हे और जो अन्धकार का विनाश करते
हैं, वही देव विधाता (सम्पुर्ण फल के कर्ता) हें और नित्य अभीष्टफल
प्रदान करते हुँ। वे. सत्यकर्मविशिष्ट और दर्शनीय होकर शोभा पाते
ह् । |
३. सबके हारा गन्तव्य देवमाता अदिति, सिन्ध और स्वस्ति
(सुख से निवास करनेवाली) देवी की हुम मन्त्र-द्वारा सखिता के
लिए स्तुति करते हें, जिससे द्यावा-पूथिवी हम लोगों को विशेष रूप
से पालन करें, उसी के लिए स्तुति करते हेँ। उषा और अहोरात्राः
भिमानी देव हम लोगों के अभिमत का सम्पादन करे ।
४. अर्यमा और वरुणदेव ने यज्ञमा्ग ज्ञापित कर दिया हे । हविः
लक्षण अन्न के पति अग्नि ने सुखकर मार्ग दिखा दिया हें । इन्द्र और
विष्णु सुन्दर रूप से स्तुत होकर हम लोगों को पुत्र-पोत्रादि युक्त और
बलयुक्त रमणीय सुख दान कर ।
५, इन्द्र के सखा पर्वेस, सददगण तथा भगदेव से हुम रक्षा की
याञ्चा करते हे। स्वामी वरुणदेव जन-सम्बन्धियों के पाप से हमारी
रक्षा करं ओर मित्रदेव मित्रभाव से हम लोगों को रक्षा करं।
५३८ हिन्दी-क्रदग्वेद
६. हे शावा-पृथिवीरूप देवीद्वय, जेसे धनाभिलाषी व्यक्ति समुद्र
कै मध्य में जाने के लिए समुद्र की स्तुति करता हुँ, उसी तरह हम भी
अभिलकित कार्यलाभ के लिए अहिबुध्न्य नामक देवता के साथ तुम
गैनों की स्तुति करते हँ॥ बे देवगण दीप्त ध्वनियुक्त नदियों को अपा-
बुत करें ।
७. देवमाता अदिति देवी अन्य देवों के साथ हम लोगों का पालन
करें । त्राता इन्द्र अप्रमत्त होकर हम लोगों का पालन करें। मित्रं
बरुण और अग्नि के सोमादिरूष समुच्छित अन्न की हम लोग हिसा नहीं
कर सकते हैँ; किन्तु अनुष्ठाचों के द्वारा संवाद्धित कर सकते हँ) .
८ अग्नि धन के ईश्वर ह और महान् सोभाग्य के ईश्वर हु; अत,
एव वे हम लोगों को धत और सौभाग्य प्रदान कर ।
९. हे घनवतौ, है प्रिय सत्यरूप वचन की अभिमानिनौ और है
अन्नवती उषा, हम लोगों को तुम बहुत रमणीय धन दास करो।
१०, जिस धन के साथ सविता, भग, वरुण, मित्र, अर्यमा ओर
इन्द्र आगन करते हे, उस धन को वे सब हमें दें ।
५६ सूक्त
(देवता दयावा-प्रथिवी । ऋषि वामदेव । छन्द् गायत्री ओर त्रिष्ठुप् ॥
१, महती और श्रेष्ठा द्यावा-पुथिवी इस यज्ञ मे दीप्तिकर सन्त
और सोमादि से युक्त होकर दीप्तिविशिष्ट हों । जिस लिए कि सेच
कारी पर्जेत्य विस्तीर्ण और महती द्यावा-पृथिवी को स्थापित करते हुए
प्रथसान और गमनशील मरुतों के साथ सर्वत्र शब्द करते हँ।
यजनयोग्य, अहिसक, अभीष्टवर्षी, सत्यश्षौल, प्रोहरहित, दैवौं
के उत्पादक ,और यों के निर्वाहक यावा-पूथिवी रूप दैवीद्रय यष्टव्य
देवों के साथ दीप्तिकर मन्त्रों या हविर्लक्षण अच्चो से युक्त हौं ।
३. जिन्होंने इस द्यावा-पृथिवी को उत्पन्न किया है; जिन धीमान्
ने विस्तीर्ण, अविचला सुरूपा और आघाररहिता द्यावा-पूथिवी को
हिन्दी-ऋग्वेद ६३९
सम्यपूप से कुशल कर्मे-हारा परिचालित किया है, वे ही भुवनो के
मध्य में शोभनकर्मा हं।
४, हे ठावा-पृथिवी, तुम दोनों हम लोगों के लिए अन्न दान की
अभिलाषिणी और परस्पर सङ्भता हो। विस्तीर्णा, व्याप्ता एवम्
थागयोग्या होकर तुम दोनों हमें पत्नीयुक्त महान् गृह दो एवम् हम लोगों
की रक्षा करो । हम लोग कर्मबल-द्वारा रथ और दास लाभ करें ।
५. हे झुतिमती द्यावा-पृथिवी, हम लोग तुम दोनों के उद्देश से महान्
स्तोत्र का सम्पादन करेंगे । तुम दोनों विशुद्ध हो । हम लोग प्रशंसा
करने के लिए तुम्हारे निकट गमन करते हँ ॥
६. है देवियो, तुम दोनों अपनी सूर्तियों और बल-द्वारा परस्पर प्रत्येक
को शोधित करके शोभमाना होओ एवम् सर्वदा यज्ञ वहन करो ।
७, हे महती द्यावा-पूथिवी, तुम दोनों सित्रभूत स्तोता के अभिमत का
साधन करो एवम् अन्न को विभक्त और पूर्ण करके यज्ञ के चतुदिक्
उपविष्ट होओ ।
५७ सूक्त
(देवता प्रथम तीन ऋचाओं के त्वेत्रपति, चतुथं के शुन, पञ्चम ओर
अष्टम के शुनासीर तथा षष्ठ ओर सप्तम की सीता । ऋषि
वामदेव । छन्द उष्णिक्, अनुष्टुप और त्रिष्टुप् ।)
१. हम यजमान बन्धुसदृदा क्षेत्रपति देव के साथ क्षेत्र अय करेंगे। वे
हम लोगों की गौओं और अद्ववों को पुष्टि प्रदान करें । वे देव हम
लोगों को उक्त प्रकार से दातव्य धन देकर सुखी करे ।
२. है क्षेत्रपति, घेनु जिस तरह से दुर्धदान करती हे, उसी तरह
से तुम मधुस्रावी, सुपवित्र, घूततुल्य और माधुर्ययुक्त प्रभूत जल दान
करो । यज्ञ के या उदर के स्वामी हस लोगों को सुखी करें ।
३. ब्रीहि और प्रियंगू आदि ओषधियाँ हम लोगों के लिए
मधुयुक्त हों। तीनों युलोक, जलसमुह और अन्तरिक्ष हम लोगों
५४० हिन्दी-ऋग्वेद
के लिए मधुयुक्त हौं । क्षेत्रपति हम लोगों के लिए मधुयुक हों। हम
लोग शत्रओं-द्वारा आहसित होकर उनका अनुसरण करें। |
४. बलोवर्दगण सुख का वहन कर। मनृष्यगण सुखपूवक कृषि-
कार्य करें । लाङ्गल सुखपूर्वक कर्षण करे । प्रग्रहसमूह सुखपुर्वेक
बद्ध हों । प्रतोद सुख प्रेरण करें ।
५, हे शुन, हे सीर, तुम दोनों हमारी इस स्तुति का सेवन करो
तुम दोनों ने झुळोक में जिस जल को सुष्ट किया हे, उसी के द्वारा
इस पथिवी को सिक्त करो ॥ | '
६. हे सौभाग्ययती सीता, तुम अभिमुखी होओो। हम
तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम हम छोगों को सुन्दर घन प्रदान करो
और सुन्दर फल दो । इसी से हम तुम्हारी वन्दना करते हूँ ।
७. इन्द्रदेव सीताधार काष्ठ को ग्रहण करें । पूषा उस सीता को
नियमित करें। वे उदकवती दा संवत्सर के उत्तर संवत्सर में सस्य
दोहन करें । | |
८. फाल (भूमिविदारक काष्ठ) सुख-पूर्वक भूमिकर्षण करे ॥
रक्षकगण बलीवर्दो के साथ अभिगमन करें। पजन्य मधुर जळन्द्रारा
पृथिवी को सिक्त करें । हे शुन, सीर (इन््र-वायु या वायु-आदित्य)
हम लोगों को सुख प्रदान करो
५८ सूक्त
(देवता अग्नि, सूय, जल, गो अथवा घृत । ऋषि वामदेव । छन्द
जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. समुद्र (अग्नि, अन्तरिक्ष, आदित्य अथवा गौओं के ऊधःप्रदेश)
से मधुमान् अन उद्भूत होती हे। मनुष्य किरण-ट्रारा अमतत्व प्राप्त
करते हैं । घूत का जो गोपनीय नाम हुँ, वह देवों की जिह्वा और
असत की नाभि हें ।
हिन्दी-ऋग्वेद ५४१
२. हम यजमान घृत की प्रशंसा करते हुँ। इस यज्ञ में
तमस्कार-द्वारा उसे घरण करते हूं। परिबद्ध देश इस स्तव का श्रवण
कुरें । वेदचतुष्टय रूप शद्भविशिष्ठ गौरदर्ण देव इस जगत् का निर्वाह
कषरते हैं । |
` ४. इस यज्ञात्मक अग्तिके चार श्शुङ्ग हें अर्थात शुद्धस्थानीय
चार देव हें। इसे सवनस्वरूप तीत पाद हैं । ब्रह्मोदन एवम्
प्रबग्य-स्वरूप दो सस्तक हैं । छन्दःस्वरूप सात हाथ हें । ये अभोष्टवर्षी
हें । थे मंत्र, कल्प एवम् ब्राह्मण-द्वारा तीन प्रकार से बद्ध हें ।
ये अत्यन्त शब्द करते हु। वे महान् देव मर्त्यो के सध्य में
प्रवेश. करते हू । |
४, प्राणियों ने गोओं के मध्य में तीन प्रकार के दीप्त पदार्थों
(क्षीर, दधि और घृत) को छिपकर रखा था। देवों ने
उन्हें प्राप्त किया था। इन्द्र ने एक क्षीर को उत्पन्न किया
था । सुयंन भी एक को उत्पन्न किया था । देवों ने कान्तिमान् अग्नि
या गमनशील वायु को निकट से अन्न-द्वारा ओर एक पदार्थ घृत को
निष्पञ्च किया था ।
` षुः अपरिमित गतिविश्ञिष्ट यह जल हृदयङ्गम अन्तरिक्ष से अधो-
देश में निपतित होता हुँ । प्रतिबन्धकारी शत्र उसे नहीं देख सकता
है । उस सकल घृतधारा को हस देख सकते हैं । इसके मध्य में
अग्नि को भौ देख सकते हें ।
६. घृत की धारा प्रीतिप्रद नदी की तरह क्षरित होती हें । यह
सकल जल हुदयमध्यगत चित्त के हारा पूत होता है । घुत की असि
प्रवाहित होती है । जैसे व्याधा के निकट से मुग पलायित होता है ।
७, नदी का जल जेसे निम्नदेश की तरफ शीघ्र गमन करता हैं,
बैसे ही वायु की तरह वेगशालिनी होकर महती घृत-धारा द्रुत वेग से
गमन करती हे । यह घुत-राशि परिधि भेद करके ऊम-द्वारा वाढत
होती है, जैसे गर्ववान् अश्व गमन करता है ।
५४२ हिन्दी-ऋणग्वेद
८. कल्याणी और हास्यवदना स्त्री जेसे एकचित्त होकर पति के
प्रति आसक्त होती है, उसरी तरह घुतधारा अग्नि के प्रति गमन करती
है वह सम्यगूप से दीप्तिप्रब होकर सर्वत्र व्याप्त होती है । जातवेदा
प्रीत होकर इस सकल धारा की कामना करते हैं ।
९. कन्या (अनू ढा बालिका) जिस तरह से पति के निकट जाने के
लिए वेश-विव्यास करती है, हम देखते है, यह सकल घृतधारा उसी
तरह से करती है। जिस त्थल में सोम अभिषुत होता है अथवा जिसके
स्थल में यज्ञ विस्तीर्ण होता है, उसी को लक्ष्य कर वह धारा गमन
करती हे ।
१०. हे हमारे ऋत्विकों, गोओं के निकट गमन करो, उनकी
शोभन स्तुति करो । हम यजमानो के लिए बह स्तुति योग्य धन धारण
करे) हमारे इस यज्ञ को देवों के निकट ले जायें। घृत की घारा मधुर
आव से गनन करती है ।
११. तुम्हारा तेज समुद्र के मध्य सं वड़वाग्नि रूप से, अन्तरिक्ष के
सध्य में सूर्यमण्डल रूप से हुदय-मध्य सें बेइवानर रूप से, अन्न में आहार
रूप से, जलसमूह में विद्युत रूप से और संग्राम में शोर्याग्नि रूप से
अवस्थित है । समस्त भूतजात उसके अधिशित हैं । उसमें जो घत
रूप रस स्थापित हुआ हुँ, उस अधुर रस को हम् आप्त. करते हुँ ।
चतुर्थ अण्डल समाप्त |
१ सूक्त
(३ अष्टक। ५ सेडल। ८ अध्याय । ६ अडुवाक ।
देवता अग्नि। ऋषि अत्रिवंशीय बुध
ओर गविष्ठिर । छन्द् त्रिष्टुप् )
१. धेनु की तरह आगसनकारिणी उषा के उपस्थित होने पर
अग्नि अध्दयुंओं के काष्ठ-द्वारा प्रबुद्ध होते हैं उनका शिखासमूह
हिन्दी-ऋग्वेद ५४४
महान् है एवम् शाखा-विस्तारकारी वृक्ष की तरह वह अव्तरिक्षाभिमुख
प्रसुत होता हूं ।
२, होता अग्नि देवों के यजन के लिए भ्रबुद्ध होते हैँ । अग्नि
प्रातःकाल में प्रसन्न सन से ऊरद्धर्वाभिमुख उत्यित होते हें ॥ समिद्ध
झग्ति का दीप्तियानू बळ दृष्ट होता है । इस तरह के महान् देव
भ्नन्चकार से मुकय होते हैं ।
इ, जब अग्नि सङ्घात्सक जगत् के रज्जुरूप अन्धकार को ग्रहण
करते है, तब वे प्रदीप्त हो करके दीप्त रङ्सि-द्वारा जगत् को प्रकाशित
कृरते हैं । इसके अनन्तर वे प्रवृद्धा और अज्ञाभिदाषिणी घतन्धारा
के साथ युकत्र होते हें एवस् उन्नत होकर ऊपरी भाग में विस्तृत उस
घृतधारा को जुहनद्वारा पीते हे ।
४, प्राणियों का चक्षु जिस तरह से सुर्यं के अभिमुख सब्चरण
करता है, उसी तरह से यजसानों का मानस अग्नि के अभिमुख
सञ्चरण करता है। जब विरूपा द्यावा-पुथिवी उषा के साथ अग्नि को
उत्पन्न करती हुँ, तब प्रकृष्ट वर्ण (श्वेत) से युक्त होकर वाजी स्वरूप
अग्नि प्रातःकाल में उत्पन्न होते हें ।
५. उत्पादनीय अग्नि उदय काल में प्राढुर्भत होते हें और दीप्लिः
युक्त होकर बन्धुभूत वनससूह में स्थापित होते हें। इसके अनन्तर बै
रमणीय सात ज्वाला (शिखा) धारण करके होता और यागयोग्य होकर
प्रत्येक गृह में उपवेशन करते हुँ ।
६, होता और यष्टव्य हो करके अग्नि भाता पृथिवी की गोद में
आज्य आदि से सुगन्धयुदत वेदीरूप स्थान पर उपविष्ट होते हँ । बे
पुत्र, कवि, बहुस्थान-विशिष्ट यज्ञवान् और सबके धारक हूँ । यजमानो
के मध्य में समिद्ध होकर रहते हें।
७, जो द्यावपृथिवी को उदक-द्वारा विस्तारित करते हें, उन मेधावी,
यज्ञकलसाधक और होता अग्नि की स्तुलि-्द्ारा यजमानगण शोध
५४४ हिन्दी-ऋण्वेद
स्तुति करते हैं। यजमानणण अज्नजात् अग्ति को, घव-दारा, नित्य
परिचर्या करते हुँ।
८. संमार्जचीय अग्नि अपने स्थान में पूजित होते हुँ । वेदान्त
(प्रशान्त) सचा हैं। कविगण उनकी स्तुति करते हु । वे हम लोगों
के लिए अतिथि की तरह पुज्य और सुखकर हु । उभकी अपरिमित
शिखायें हे । वे अभीष्टवर्षी और प्रसिद्ध बल्शाली हूँ । हे अग्नि,
तुम अपने से अतिरिक्ष अन्य सब लोगों को बलन्द्वारा परिभूत
करते हो ।
९. हे अग्नि, तुम यज्ञ को प्राप्त कर जिसके निकट चारुतम रूप से
आदिर्भूत होते हो, उसके निकट से दुम श्षीघ्र ही दूसरों को अतिक्रान्त
करके गमन करते हो। दुः स्ठुतियोग्य, दीष्तिकर एवम् विशिष्ट
दीप्तिभान् हो} तुम प्राणियों के प्रिय ओर मनुष्यों के अतिथि
(पूज्य) हो ।
१०. हे युवतस अग्नि, समुध्ययण निकट से और दूर से तुम्हारी
पूजा करते हें। जो तुम्हारी अधिक स्तुति करता है, तुम उसी की
स्तुति ग्रहण करते हो । है अग्मि, तुम्हारे द्वारा प्रदत्त सुख बृहत्,
सहान् और स्तुतियोग्य है ।
११. हे दीप्तिसाल् अग्नि, तुम आज दीप्तिमान् और समीचीन
प्रान्तयुक्त रथ पर देवों के साथ आरोहण करो । तुम्हें पथ अवगत है ।
प्रभूत अन्तारिक्ष प्रदेश से होकर तुम देवों को हव्य भक्षण के लिए इस
स्थान में छे आते हो ।
१२. हम अत्रिवंशी लोग मेधावी, पवित्र, अभीष्टवर्षी और युवा
अग्नि के उद्देश से वन्दनायोग्य स्तोत्र का उच्चारण करते हैं।
गविष्ठिर ऋषि आकाश में दीध्यमाद, विस्तीर्ण गतिविशिष्ट,
आदित्य के अग्मि के उह्देश से नमस्कारयुक्ष् स्तोत्र का उच्चारण
करते हुँ ।
म ५४५
२ शुदत
(देवता अग्नि । ऋषि अन्रिपुत्र कुमार अथवा जरपुत्र बृश
अथवा दोनों । छुन्दुशक्करी ओर त्रिप्डुप् ।)
१. कुमार को उत्पन्न दरमेवाळी यौवनवती साता ने साग में
सञ्चरण करनेवाले कुमार को रथचक्ष-हारा निहत देखकर गुडासध्य में
धारण किया उसके जबक को नहीं दिया । लोग उसे हिसित रूप में नहीं
देख सके; किन्तु अरणिस्थान में स्थापित होने पर उसे फिर देख सके ।
२. (उत्पाद्यमान होने के कारण यहाँ कुमार शब्द से अग्नि का
व्यवहारे है) हे शुबती, तुम पिशायी होकर किस कुमार को धारण
करती हो ? पुजनीय अरणि ने इसे उत्पन्न किया है । अनेक संवत्सर-
पर्यन्त अरणि-सम्बन्धी गर्भ बद्धित हुआ था। इसके अनन्तर माता
अरणि ने जिस पुत्र को उत्पन्न किया था, उसे हमने देखा था ।
३. हमने समीपवर्ती प्रदेश से हिरण्यदन्त (हिरण्य सदृश ज्वाला-
युवत), प्रवीप्त वर्ण और आपुवध्यानीय ज्वाला निर्माण करनेवाले
अग्नि को देखा था । हम (वश) ने उन्हें सर्वतोव्याप्त और अविनाशी
स्तोत्र प्रदान किया है । जो इन्द्र (परमेश्वर्ययुक्त अग्नि) को नहीं
मानते है और जो उनकी स्तुवि यहीं करते है, वे हमारा क्या कर सँग ?
४. हम (वृश) नेगोससूह की तरह क्षेत्र में विगृड़भाव से सञ्चरण
करमेचाले एवम अनेक प्रकार से स्वयम् शोभमान अग्नि को देखा हे।
पिशाची के आक्रमण-कालवाली सिर्बोध ज्याला को वे ग्रहण नहीँ करते
हें। अग्नि पुतर्वार प्राढुर्भुत होते हे एउण् उसकी वृद्धा ज्वाला युबती
होती है ।
५. कौत हमारे राष्ट्र को गौओं के साथ नियुक्त करता है ?
उनके साथ कया रक्षक नहीं था ? जो हमारे राष्ट्रसमूह् पर आक्रमण
करता हुँ, बह् विनृष्द हो। अग्नि हम लोगों की अभिलाषा को जानते
हैं, बे हस लोगों के पशुओं के निकट गसन करते हें।
फा० ३५
५४६ हिन्दी-ऋग्वेद
६. प्राणियों के स्वामी और लोगों के आवासभूत अग्नि को शन्गण
मर्त्यो के सध्य में छिपाकर रखते हैं। अभिगोत्रोत्पज्ञ बश का स्तोत्र
उन्हें मुक्त करे। निन्द लोग निन्दनीय हों ।
७. है अग्नि, तुमचे अत्यन्त बद्ध शुनःशेप ऋषि को सहस्र यूप से
मुक्त किया था; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा स्तव किया था । हे होता
ओर विद्वान् अग्नि, तुम इस वेदी पर उपवेशन करो । इस तरह हम
लोगों को सकल पाल से मुक्त करो ।
८. है अग्नि, तुम जब कठ होते हो तब हमारे निकट से
अपगत होते हो । देवों के ब्रतयाळक इन्द्र ने हमसे यह कहा था। चे
विद्वान् हे, उन्होंने तुम्हें देखा है । हे अग्नि, उनके हारा अनुशिष्ठ
होकर हम तुम्हारे निकट आगमन करते हें ।
९. अग्नि महान् तेज-द्वारा विशेष रीति से दीप्त होते हें । थे
अपनी महिमा के बल से सकल पदार्थो को प्रकट (प्रकाशित) करते
हैं । अग्निदेव प्रवृद्ध होकर इुःखजनक आसुरी माया को पराभूत
करते हूँ। राक्षसों को विवष्ट करने के लिए वे श्युङ्ख (ज्वाला) को
तीक्ष्ण करते हें ।
१०. अग्नि की शब्द करनेवाली ज्वाला तीक्ष्ण आयुध की तरह
राक्षसो को विनष्ट करने के लिए झुलोक में प्रादुर्भूत होती है ।
हषे के उत्पन्न होने पर अग्नि का क्रोध या दीप्तिसमूह राक्षसों को पीड़ा
देता है । बाधा देनेवाली आसुरी सेना उन्हें बाधा नहीं दे सकती ।
११. हे बहुभाव-प्राप्त अग्नि, हम तुम्हारे स्तोता हैं। घीर और
कर्मेकुशल व्यक्ति जिस तरह से रथ निर्माण करता हुँ, उसी तरह से
हम तुम्हारे लिए इस स्तोत्र का निर्माण करते है । हे अग्निदेव, यदि
ठुम इस स्तोम को ग्रहण करो तो हम बहु व्याप्त जय-छाभ करें।
१२. बहु ज्वाला विशिष्ट, अभीष्टवर्षी तथा बरद्धमान अग्वि निष्कण्टक
भाव से शत्रुओं के घन का संग्रह करसे हैं । इस बात को देवों ने
हिन्दी-ऋण्वेद ५४७
अग्नि से कहा था कि वे यज्ञ करनेवाले मनुष्यों को सुख दान करें एवम्
हव्य देगेयाले ममुष्यों (यजमानो) को भी सुख दान करें ?
(दैवता अग्नि। ऋषि आजिबंशीय वशुअत । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. है अग्नि, हुस उत्पञ्च होते ही बर्ण (अन्धकार के निवारक
रात्बाभिषादो देव) होते हो । समिद्ध होकर पुस मित्र (हितकारी)
होते हो ॥ समस्त देवगण तब तुम्हारा अनुवर्तन करते हैँ । हे बळ-
पुत्र, तुम हब्यदाता यजमान के इन्द्र हो ।
२. है अग्नि, तुम कन्याओं के सम्बन्ध में अर्यसा (सबके नियासक )
होते हो । हे हज्यवान् अग्नि, तुस गोपनीय नाम (चैश्वाचर) धारण
करते हो ॥ जब तुम दम्पती को एक मनवाले बना देते हो तब दे
तुम्हें बन्धु की तरह गव्यन्द्वारा सिक्त करते हैं ।
३. है अग्नि, तुम्हारे आश्रय के लिए मरुद्गण अन्तरिक्ष का मार्जन
करते हैं। हे रुद्र, तुम्हारे लिए बैद्युत लक्षण, अति विचित्र और मनोहर
जो विष्णु (व्यायनशीळ देव) का अगम्य पद (अन्तरिक्ष) हुँ, वह
स्थापित हुआ है ॥ उसके हारा तुम उदक के गुह्य नास का पालन
करो ।
४. हे अग्निदेव, तुम्हारो समृद्धि के द्वारा इन्द्रादि देवपण दर्शनीय
होते है । बे देवगण तुम्हारे प्रसि अत्यन्त प्रीति घारण करके अमृत का
स्पश करते हु। ऋष्किगण फलाभिछाषी यजमान के लिए हव्य बितरण
करते हुए होता अग्नि की परिचर्या करते हें
५, हे अग्नि, तुमसे भिन्न कोई अम्य होता नहीं हुँ, यज्ञकारी
नहीं हु ओर कोई पुरातन भी नहीं है । हे अच्चवान्, भविष्यत्काल
में भी तुम्हारी अपेक्षा कोई स्तुतियोग्य नहीं होगा । हे देव, तुम
जिस ऋत्विकू के अतिथि होते हो, वह यज्ञ-द्वारा शत्र मनुष्यों को
विनष्द करता हुँ ।
५४८ हिन्दी-ऋग्वेद
६- है अग्नि, हम तुम्हारे द्वारा र्षित होकर दशाज्रुओं को पौड़ा-
. दान करेंगे । हुम घनाभिलाषी है। हुम लोग तुम्हें हृष्य-द्वारा प्रवुद्ध
करते हैं। हम लोग युद्ध में जयन्छाभ करें और प्रतिदिन यज्ञ में बल्न
प्राप्त कर । हे बल्पृन, हम लोग धन के साथ पृत्र-लाभ करें ।
७. जो मनुष्य हम लोगों के प्रति अपराध या पाप करता है, उस
पापकारी व्यक्ति के प्रति अग्नि पापाचरण करें--उसे पापी बनायें ।
है विद्वान् अग्नि, जो हम लोगों को अपराध और पाप-द्वारा बाधा
देता हुँ, उस पापकारी को विनष्ट करो ।
८. है देव, पुरातन यजमान तुम्हें देवों का बुत बनाकर उषा-
काल मे यज्ञ करते हुँ। हे अग्नि, हव्य संग्रह होने के अनन्तर तुम युति-
मान् होकर भी निवासप्रद मनुष्यों-द्वारा समिद्ध होकर गमन करते हो।
९. है बळपृत्र, ठुम पिता हो। जो विद्वान् पृत्र तुम्हारे लिए हव्य
वहन करता हैं, तु उसे पार कर देते हो ओर उसे पाप से पृथक् करते
हो । हे विद्वान् अग्नि, कब तुस हम लोगों को देखोगे ? हे यज्ञ के
प्रेरक कब तुम हुम लोगों को सन्मार्ग में प्रेरित करोगे ? :
१०. हे निवासप्रद अग्नि, तु पालक हो । तुम उस हवि का सेवन
करते हो जो तुम्हारे नाम की वन्दना करके दिया गया हें। यजमान
उससे पुत्र धारण करता है। यजभान के बहुत हव्य की अभिलाषा
करनेवाले और वधमान अग्नि बलयुबत होकर सुख-दान करते हं ।
११. हे स्वामी, हे युवतम अग्नि, तुम स्तोता को अनुगृहीत करने
के लिए समस्त दुरितों (विध्न) से पार कर देते हो। तस्करगण दिखाई
देने लगते हें। अपरिज्ञात चिह्वूचाले शनरुभूत मनुष्य हमारे हारा वर्जित
लिये जाते हे ।
१२. ये स्तोन तुम्हारे अभिमुख गसन करते हुँ अथवा हम निवा-
तप्रद अग्नि के निकट उस याचमान अपराध का उच्चारण करते हें।
अग्नि हमारी स्तुति-द्वारा वद्धित होकर हमें निन्दकों अथवा हिसको के
हाथ में न सौंपें ।
हिन्दी -क्ररवेद ५४९
3 सुदत
(देवता अग्नि। ऋषि चसुश्र॒त । छन्द शिष्टुप् |)
९. हे भनसभूह के स्वामी अग्नि, हम तुम्हारे उद्देश से यज्ञ में स्तुति
क्रते हैं । हे राजा, हम अज्ञाभिलाषी हें। तुम्हारी अनुकूलता से हम
अन्न लाभ करें और मनुष्य-सेना को अभिभूत कर ।
२. हव्यवाहक अश्नि जरारहित होकर हस लोगों के पालक हों।
हम लोगों के निकट वे सर्वव्याप्त दीप्यसान और दशेवीय हों । है
अग्नि, तुम शोभन गाहंपत्ययुक्त अज्ञ को भली भाँति से प्रकाशित करो
अथवा प्रदान करो । तुघ हस लोगों को प्रचुर परिशाण में अन्न-प्रदान
करो ।
३. हे ऋत्विको, तुम लोग मनुष्यों के स्वामी, मेधावी, विशुद्ध,
दूसरों को शुद्ध करमेवाले, घृतपृष्ठ, होमनिष्पादक और सर्वविद् अग्नि
को धारण करो । अग्निदेव देवों के मध्य में संग्रहणीय घन को हस
लोगों के लिए सम्भक्त करते हें ।
४, हे अग्नि, इला (वेदीभूमि) के साथ समान प्रीतियुक्त होकर
और सूर्य की रश्सियो-द्वारा यतमान होकर तुम (स्तुति की) सेवा करो
हे जातवेदा, हस लोगों के काष्ठ (समिध्) की सेवा करो । हव्य भोजन
करने के लिए देवों का आह्वान करो और हव्य वहन करो ।
५. तुम पर्याप्त, दान्तमना और गुहामत अतिथि की तरह पूज्य
होकर हम लोगों के इस यज्ञ सें आगमन करो । हे विद्वान् अग्नि,
तुम समस्त शत्रुओं को विनष्ट करो और झत्रुताचरण करनेवालों का
धन अपहरण करो ।
६. हे अग्नि, तुम अपने यजमानादिरूप पुत्र को अन्न-दान करते
हो और आघधुध-द्रारा दस्युओं को विनष्ट करते हो । हे बलपुत्र, जिस
कारण तुम देवों को तृप्त करते हो, उसी कारण से हे नेतृश्रेष्ठ अग्नि,
तुम हम लोगों की संग्राम में रक्षा करो ।
५५७ हिन्दी-ऋष्येद
७. है अग्नि, ह लोग शस्तरन्द्ारा तुभ्हारी परिचर्या करेंगे ॥
हम लोग हव्यन्द्वारा तुम्हारी परिचर्षा करेंगे । हे शोधक, तथा हे कल्याण-
कर-दीप्तिविशिष्ट अग्नि, तुम हम लोगो को सबके हारा वरणीय धन
दो । हम लोगों को समस्त धन प्रदान करो ।
८. हैं अग्नि, हम छोगों के यज्ञ की सेवा करो । हे बलपृत्र, हे
क्षिति आदि तीनों स्थानों मं रहनेवाले अग्नि, तुम हव्य की सेवा करो ।
हुम लोग देवों के मध्य सें सुकर्मकारी होंगे । तुम हस रोगों की
वाचिकादि भेद से तीन प्रकार के सर्ववरणीय सुख-द्वारा अथवा नितल-
विशिष्ट गृह-द्वारा रक्षा करो ।
९. हे जातवेदा, नाविक नोका-हारा जिस तरह से नदी पार
करता है, उसी तरह से हुम हम लोगों को समस्त ठुःसह दुरितों से
पार करो । हे अग्नि; अत्रि की तरह हुम लोगों के स्तोत्रोंद्ारा स्तुत
होकर तुम हम लोगों के शरीररक्षक रूप से अवगत होओ ॥ |
१०. हे अग्नि, हम मरणशील हुँ और तुम असर हो । हम स्तुति-
युक्त हृदय से स्तव करके तुम्हारा पुनः-पुनः आह्वान करते हँ। हे
जातवेदा, हुम रोगों को सन्तानदान करो। हम जिससे सन्ततियों के
अविच्छेद से अमरत्व लाभ कर सकें ।
११. हे जातवेदा अग्नि, तुम जिस सुकर्मकृत यजसान के प्रति
सुखकर अनुग्रह करते हो, वह यजमान अश्वयुक्त, पुत्रयूषत, वीयंयुक्त
9)
और गोयुक्त होकर अक्षय धनन्लाम करता हुँ ॥
५खूक्त
(देवता आप्री । ऋषि बसुश्रत। छन्द गायत्री ।)
१. हे ऋत्विको, जातवेदा, दीप्तिमान् और सुसमिद्ध नामक
अग्नि के लिए तुम प्रभूत घृत से हवन करो ।
२. नराशंस (मनुष्यों के द्वारा शंसनीय) नामक अग्नि इस यज्ञ को
प्रदीप्त करें वे अहिसनीय, मेधावी एवम् हस्त-विशिष्ड हँ ॥
हिन्दी-ऋण्वेद ५५१
. ३. हे अग्मि, तुम स्तुत हो। हम रोगों को रक्षा के रिए विचित्र
एवम् प्रिय इन्द्र को सुखकर रथ-द्वारा इस यञ्च में लाओ ।
४. हे बह, तुस कम्बल को तरह मदुभाव से विस्तृत होओ ।
स्तोता लोग स्तुति करते हुँ । हे दीप्त, तुम हुम रोगों के लिए धन-
प्रद होऔ ।
५. हे सुगभन-साधिका यञ्चद्ठार की अभिमानिनी देवियों, तुम सब
विमुक्त होओ ओर हम लोगों की रक्षा के रिए यञ्च को सम्पूर्ण करो ।
६. सुरूपा, अञ्चवरद्ध॑ यित्री, सहती और यज्ञ या उदक की निर्मात्री
रात्रि तथा उषा देवी की हस लोग स्तुति करते हु ।
७. हे अग्नि-आदित्य से सथृद्भूत होतृहय, तुम दोनों सपुत होकर
DN ON
वायुपथ से गमन करते हो। हम यजमानों के इस यज्ञ में आगमन करो ।
८. इला, सरस्वती और सही नामक तीनों देवियाँ सुख उत्पन्न
करें। वे हिसाशन्य होकर हम यजमानो के इस यज्ञ में आगमन करें ।
९. हे त्यष्द्देव, तुम सुखकर होकर इस यज्ञ में आगमन करो ।
तुस पोषक रूप में व्याप्त हो सब यज्ञो में तुम हम रोगों की उत्कृष्ट
रूप से रक्षा करो ।
१०. है वनस्पति (यूपाभिमानी देव), तुम जिस स्थान में देवों के
गुप्त दाम को जानते हो, उस स्थान सें हव्य प्रेरित करो ।
११. यह हव्य अग्नि और वरुण को स्वाहा (आहुत) रूप से प्रदत्त
` हुँ, इन्द्र और सस्तो को स्वाहा रूप से प्रदत्त हूं तथा देवों को स्वाहा
रूप से प्रदत्त है। |
६ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसुश्रुत । छन्द पंक्ति |)
. १. जो निवासप्रद हैं, जो सबके लिए गृह की तरह आश्रयभूत हें
और जिन्हें गौएँ, शी घगामी घोड़े तथा नित्य प्रवृत्त हव्य देनेवाले
५५२ हिन्दी-ऋग्वेद
यजवान प्रच करते हँ, हुम उन्न अग्नि की स्घुति करते हैं। है अग्नि,
स्तोताओं के लिए अन्न आहरण करो ॥
२. जो अस्मि निवासप्रद रूप से स्तुत होते है, जिनके निकट गौएँ
होमार्थं समागत होती हँ, हुतगामी घोड़े समागत होते हैं और सत्कु-
लोत्यच्च मेधावी समागत होते है, वे ही अग्नि हैं । हे अग्नि, स्तोताओं के
लिए अन्न आहरण करो ।
३. सबके कर्मों के दर्शक अग्नि यजमानों को अश्युक्त पुत्र प्रदान
करते हँ । अग्नि प्रीत होकर सर्वत्र व्याप्त और सबके द्वारा वरणीय
धन देने के लिए गमन करते हैं। हे अग्नि, स्तोताओं फे लिए अज्ञ
आहरण करो ।
४. है अग्निदेव, तुस दीप्तिभान् और जरारहित हो। पुम्हैँ 'हम
सर्वतोभाव से प्रदीप्तं करते है । तुम्हारी वह स्तुतियोग्य वीप्ति घुलोक में
दीप्त होती है । है अग्नि, स्तोताओं के लिए यंचे आहरणे करौ ।
५. हे दीप्ति-समूह के स्वामी, आह्वादके, शन्ुंओं कै विनाशक,
प्रजांपालक और हव्यवाह अग्नि, तुम दीप्त हो। छुम्हारे उद्देश से
सन्त्रों के साथ हव्य हुत होता हुँ । हे अग्नि, स्तोताओं के लिए अन्न
आहरण करो ।
६. ये लोकिकाग्नि गार्हपत्यादि अग्नि में समस्त वरणीय या अपे-
क्षित थन का पोषण करते हैं। ये प्रीतिदान करते हँ, ये चारों तरफ
ब्याप्त होते हैं और ये अनवरत अन्न की इच्छा करते हैं। हे अग्नि,
स्तोताओं के लिए अन्न आहरण करो ।
७. है अग्नि, तुम्हारी वे रश्यियाँ अत्यन्त अधिक अध्चयुक्त होकर
वद्धित हों । वे रश्सियाँ पतन के हारा लुरयुक्त गोसमूह की इच्छा
करें अर्थात् होम की आकांक्षा करें। हे अग्नि, स्तोताओं के लिए अच्च
आहरण करो ।
८, है अग्नि, हम सब तुम्हारे स्तोता हैँ। तुम हम लोगों को नृतन
गृहयुक्त अञ्च दान करो । हम लोग जिससे दुम्हारी प्रत्येक यज्ञ-गृह में
नि ७०००, फः शु हन ५
{ हमद ७५३
अर्चना करके तुम्हें दुत रूप से लाभ कर सकें | है अस्मि, स्तोताओं के
लिए अन्न आहरण करो ।
९. हे आज्वादक अण्य, तुम घृतपुर्ण बर्वीह्वण को मुख में ग्रहण करते
हो। हे बल के पारयिता, तुम यज्ञ में हम लोगों को फल-दवारा पूर्ण
करो । है अग्मि, स्तोताओं फे लिए अश्च आहरण करो ।
१०. इस प्रकार से लोग अनुयझ्त अग्नि के निकट स्तुति और यक्ष
के साथ गनन करते है और उन्हें स्थापित करते हुँ) वे हम लोगों को
शोभन पुत्रजपौत्रादि और वेगवान् अश्व दान करें। है अग्नि, स्तोताओं
के लिए अञ्च आहरण करी ।
७ सस
(देवता अग्नि । ऋषि इष । छन्द अनुष्टुप् ओर पंक्ति |)
१. हे सखिसूत ऋष्विको, तुम यजमाधों के लिए अत्यन्त प्रवृद्ध,
बल के पुत्र और बलशाली अग्नि के उद्देश से अर्चना योग्य अन्न और
स्तुति प्रदान करो ।
२. जिन्हें प्राप्त करके ऋत्विग्गण प्रीत होते है, गञ्चगृह में पज
करके जिन्हें प्रदीप्त करते है एदस् जिनके लिए जन्तुओ का उत्पादन
करते हुँ वे अग्नि कहाँ
३. जब हम अण्नि को अज्ञ प्रदान करते हें ओर जब वे हम
मनुष्यों के हव्य को सेवा करते हु, तब वे चोतमाद अन्न की सामर्थ्ये
से उदक-ग्राहक रश्मि को ग्रहण करते हुँ।
. जब पावक और जरारहित अग्नि वनस्पतियों को दग्ध करते हैं,
तब वे रात्रिकाळ में भी दूर स्थित व्यदित को प्रज्ञापित करते हें ।
५, अग्नि की परिचर्षा के कार्य में क्यरित घ॒तों को अध्व आदि
ज्वालाओं फे मध्य में प्रक्षिप्त करते हु । पुत्र जिस तरह से पिता के अंक
में आरोहण करता हैं, उसी तरह से घृतधारा इन अग्वि के ऊपर आरो-
हुण करती हुँ ।
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ने
७४ हिन्दी-त्रडग्वेद
६. थजमान अग्नि को जानते हँ । अग्नि अनेक हारा स्पृहणीय,
झबके धारक अग्लो के आस्वादक और यजमायो के निवासप्रद हुँ ।
७. अग्नि तृगच्छेइक पशुओं की तरह निर्जल एवम् तृणकाण्ठपूर्ण
प्रदेश को छिन्न करते हे। वे युदजश्यथ बिशिष्ट; उज्ज्वलदन्त, महान्
और अप्रतिहत बल-सम्पन्ष हें ।
6. जिनके निकट छोय अत्रि की तरह गमन करते हें, जो कुठार
कौ तरह वृक्षादि का विनाश करते हैं, वे अग्नि दीप्त हैं। जो अन्न
ग्रहण करते हूँ और जो जगत् के उपकारक हुँ, माता अरणि ने उन्हीं
अग्नि का प्रसव किया था।
९. हे हव्यभोजी अग्नि, तुम सबके धारक हो। हम लोगों की
हतुतियों से तुम्हें सुख हो । तुम स्तोताओं को धन दान करो, अन्न दान
करो और अन्तःकरण दान करो ।
१०. हे अग्नि, इसी प्रकार से दूसरों के द्वारा अकृत्य स्तोत्रो के
उच्चारणकारी ऋषि तुमसे पशु ग्रहण करते हे। जो अग्नि को हव्य दान
नहीं करता है, उस दस्यु को अत्रि पुनः-पुनः अभिभूत करें और विरो-
धियों को पुनः-पुन अभिभूत करें ।
८ सुत्त
(देवता अग्नि । ऋषि इष । छन्द जगती ।)
१. हे बलकर्ता अग्नि, तुम पुरातन हो । पुरातन यज्ञक्रारी आश्रय
लाभ के लिए तुम्हें भली भाँति से प्रदीप्त करते हैँ। तुम अत्यन्त
प्रीतिदायक, यापयोग्य, बहु अन्न-विशिष्ठ, गृहपति और वरणीय हो ।
२, हे अग्नि, यजमानो ने तुम्हें गृहस्वामी के रूप से स्थापित किया
हैं । तुम अतिथि की तरह पुज्य हो । तुम पुरातन, दीप्तशिखाविशिष्ट
प्रभूत केतुविशिष्ट, बहुरूप, धनदाता, सुखप्रद, सुरक्षक और जीर्ण वक्षो
के ध्वंसकारी हो ।
हिन्दी-त्रटग्वेद ५५७
३. है सुन्दर धनविशिष्ट अग्नि, मनृष्यगण हुम्हारी स्तुति करते
हुँ । तुम होसविद्, विवेचक, रत्तदाताओं के मध्य से श्रेष्ठ, गृहास्थित,
सबके दर्शन योग्य, प्रभूत ध्वनियुक्त यञ्चकारी और घुतग्राहक हो ।
४. हे अग्नि, तुम सबके धारक हो । हम लोग बहुत प्रकार के स्तोत्र
और नमस्कार-द्वारा स्तुति करके तुम्हारे निकट उपस्थित होते हेँ। तुम
हम लोगों को धन प्रदान करके प्रीत करो । है अङ्गिरा के पुत्र अग्निदेव,
तुस भली भाँति से प्रदीप्त होकर शिखाओं के साथ यजमानों के अच्च-
दारा प्रीत होओ ।
५. हे अग्नि, तुम बहुरूपयुकल होकर समस्त यजसानों को पुरा-
काल की तरह अञ्न दान करते हो । हे बहुस्जुत, तुम अपने बल से ही
बहुत अन्नों के स्वामी होते हो। तुम दीप्तिमान् हो ॥ तुम्हारी दीप्ति
दूसरों के द्वारा अधुष्य हे ।
६ हे युवतभ अग्नि, तुम सम्यग्ूप से प्रदीप्त हो । देवों ने तुम्हें
हव्यवाहक किया था। देवों और मनुष्यों ने प्रभूत वेगशाली, घुत-
योनि और आहुत अग्नि को बृद्धिप्रेरक, दीप्त और चक्षुः स्थानीय बनाकर
धारण किया था।
७. है अग्नि, घृत-द्वारा आहूत करके पुरातन तथा सुखाभिलाषी
थजमात तुम्हें सुन्दर काष्ठों-द्वारा प्रदीप्त करते हें। तुम वद्धित होकर
औषधियों द्वारा सिक्त होकर और पाथिव अन्नों को व्यक्त करके अव-
स्थिति करते हो । [
अषडस अध्याय समाप्त ॥
तृतीय अष्टक समाप्त ॥
चोथा अष्टक
९ सूक्त
(५ मण्डल । १ अध्याय । १ अनुवाक । देवता अभि । ऋषि अश्नि
के अपत्य गय । छन्द पङ ,क्ति ओर अनुष्डुप)
९. हे अग्नि, तुम दीप्यमान देव हो । होमसाधक द्रव्य से यक्त होकर
सर्त्यलोग तुम्हारी स्तुति करते हें। तुम चराचर भूतजात को जानते हो ।
हुम तुम्हारी स्तुति करते हँ। तुम हवन-साधन हव्य का, निरन्तर, वहन
करते हो ॥ |
२. निखळ यज्ञ जिन अग्नि फे साथ गमन करते हुँ, यजमान की प्रभूत
कौति के सम्पादक हव्य जिन अग्नि को प्राप्त करते हें, वह अग्नि हृव्य-
दाता ओर कुशच्छेदक यजमान के यज्ञ के लिए देवों के आह्वाता होते हे ।
३. आहारादि के पाक-हारा सनृष्यों के पोषक और यज्ञ-शोभाकारी
अग्नि को अरणिद्वय नव शिशु की तरह उत्पन्न करते हैं ।
४. हे अग्नि, कुटिलयति सर्प या वक्रगति अइव के दिश की तरह तुम
कषटपुर्वक धारण करने के योग्य हो । तृणमध्य में परित्यक्त पशु जिस तरह
से तृण भक्षण करता है, उसी तरह से तुम समग्र वन के दाहक होते हो ।
५, धूमवान् अग्नि की शिखायें शोभन रूप से सर्वत्र व्याप्त होती है ।
तीनों स्थानों में व्याप्त अग्नि अपनी ज्वाला को स्वयमेव अन्तरिक्ष में
उपवद्धित करते हँ, जैसे सस्त्रादि के द्वारा कर्मकार अग्नि को संवर््धित
करते हे । अग्नि कर्मकार-द्वारा सन्धुक्षित अग्नि की तरह अपने को
तीक्षण करते हे ।
५५७
५५८ हिन्दी-ऋग्वेद
६. है अग्नि, तुम सबके मित्र-स्वरूप हो । तुम्हारी रक्षा-द्वारा और
तुम्हारा स्तव करके हम शत्रुभृत मनुष्यों के पाप साधन कम्मों से उत्तीर्ण
हों । तुम्हारी रक्षा ओर तुम्हारे स्तोत्रों के वारा हम याहयाभ्यन्तर शत्रुओं
से उत्तीर्ण हों ॥
७. हे अग्नि, तुम बलवान् और ह॒थ्यवाहक हो । तुम हम लोगो
के निकट प्रसिद्ध धन आहरण करो। हम लोगों के शत्रुओं को पराभूत
करके हस लोगों का पोषण करो ॥ अज्न प्रदान करो और युद्ध में हम
लोगों की समृद्धि का विधान करो ।
१० शक्त
(देवता अग्नि । ऋषि गाय | छन्द ४-७ पंक्ति |)
१. हे अग्नि, तुम हम लोगों के लिए अत्युत्कृष्ट (कठक-मुकुटादिरूप)
धन आहरण करो । तुम अप्रतिहत-गति हो । तुम हम लोगों को सर्वत्र
व्याप्त धन से युक्त करो और अन्न-लाथ के लिए हम लोगों के पथ का
आविष्कार करो ।
२. हे अग्नि, तुम सबके मध्य में आश्चयंभूत हो । तुम हस लोगों
के यज्ञादि व्यापार से प्रसन्न होकर के हम लोगों के लिए बल या धनका
दान करो। तुम्हारा बल अपुरो को विनष्ट करनेवाला हृ। तुम
सुयं को तरह यज्ञ-कार्य का सम्पादन करो ।
३. हे अग्नि, प्रसिद्ध स्तवकारी मनुष्यगण तुम्हारी स्तुति करके उत्कृष्ठ
(यो आदि) घच लाभ करते हें। हम भी तुम्हारी स्तुति करते हे।
हम लोगों के लिए धन और पुष्टि का वर्धन करो ।
४. हे आनन्ददायक अग्नि, जो लोग सुन्दर रप से तुम्हारी स्तुति
करते हे, वे अश्वधव लाभ करते हँ ओर बलशाली होकर अपने बळ से
शत्रुओ को विनष्ट करले हुं एवम् स्वर्ग से भो बड़ी सुंकीति लाभ करते
हे। गय ऋषि से तुम्हें स्वयं जागरित किया हे ।
हिन्दी-ऋगेद ५५९
५, हे अग्नि, तुम्हारी अत्यन्त प्रगहभ और वीष्तिसती रहिसयाँ सर्वश्र
व्याप्त विद्युत् को तरह, शब्दायभान रथ की तरह और अञ्चा्थियों की
तरह स्त्र गसच करती हुँ। (इससे अजुदि-दिखपछ अभिलाष व्यक्त
हुआ हँ 1)
६. है अग्नि, तुम शीघ ही हम रोगों की रक्षा करो और धन-दा
स्तुति करके पूर्ण-यनोरथ हों ।
७. हे अङ्गिरा, पुरातन सह्यो ने तुम्हारी स्तुति की है ओर इस
समय के मह॒षि भी तुम्हारी स्तुति कर रहे हें। धन महान् व्यक्तियों को
भी अभिभूत करमेवाला हे, बहू घन हुसारे लिए राओ हे देवों के
आह्वानकारी, हस तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम हमें स्तुति सामर्थ्य प्रदान
करो एवम् युद्ध में हमारी समृद्धि का विधान करो ।
११ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अत्रि के अपत्य सुतम्भर | छन्द जगती ।)
१. लोगों के रक्षक, सदा प्रबुद्ध ओर सबके द्वारा उलाघनीय बलवाले
अग्नि लोगों के बूतन कल्याण के लिए उत्पन्न हुए हैं। घुत-द्वारा प्रज्वलित
होने पर तेजोयुक्त ओर शुद्ध अग्नि ऋत्विकों के लिए दयुतिमान होकर
प्रकाशित होते हें। |
२. अग्नि यज्ञ के केतुस्वरूष हँ अर्थात् प्रज्ञापक हेँ। अग्नि यजमानों-
द्वारा पुरस्कृत होते हें--पुरोभाम में स्थापित होते हे। अग्नि इन्द्रादि
देवों के समकक्ष हैं। ऋत्विकों ने तीन स्थानों में अग्नि को समिद्ध किया
था। झोभनकर्मा ओर देवों के आह्वामकारी अग्नि उस कुशयुक्त स्थान पर
यज्ञ के लिए प्रतिष्ठित हुए थे।
३- हे अग्नि, तुम जननीस्वरूप अरणिद्वय से, निविघ्न होकर, जन्म
ग्रहण करते हो। तुम पवित्र, कवि और मेधावी हो। तुस यजमानों से
उदित होते हो। पुवं सहषियो ने घृत-द्वारा तुम्हें वद्धित किया था।
१६० हिल्दी-आप्वेद
कक च
है हव्यवाहक, दुस्हारा अन्तरिक्षव्यापी धूम केएुस्वरूप हु--सुम्हाश
पज्ञापक या अनुमायक्त हुँ।
४, सब पुरुषायों के साधक अग्नि हमारे यज्ञ भे आयन करे । भनुष्य
तियृह् में अश्वि-संस्थापण करते हुँ । हव्यवाह अग्नि देवों के दुस-स्वरूप
हुँ। यज्ञसम्पादक बहकर लोग अग्नि का सभ्भजन करते हेँ।
५. हे अग्नि, तुम्हारे उद्देश्य से,यह सुमधुर राइइ प्रदुक्द होता है। यहु
ति तुम्हारे हृदय में घुस उत्पन्न करे। गहाचदियाँ जिस तरह से ससद
प्यं और सबळ करती हें, उसी तरह से स्पुतियाँ लुम्हें पर्ण और सबल
६. हे अग्नि, तुम गृहामध्य में निगुढ़ होकर और बन (दक्ष) का आश्रय
ग्रहण करके अवस्थाय करते हो। अङ्किराओं ने तुम्हें प्राप्त (आविष्कृत)
किया हूँ। है अद्धिरशा, तुम विशेष बल के साथ मथित होने पर उत्पन्न
होते हो; इसी लिए सब तुम्हें बलपुत्र कहते हैं।
९२ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि सुतम्भर । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अध्य सामथ्यातिशय से सहान्, याग-योग्य ओर जर-वर्षण्फारी,
असुर (बलवान्) और अभीष्टवर्षी हें। यज्ञ में, अग्नि के मुख में हुत
परम पवित्र घुस की तरह हमारी स्वुलियाँ अग्यि के लिए प्रीतिकर हों।
२. है अस्ति, हम यह स्तुति करते है, तुम इसे जानो एवस इसका
पनुसोदन करो तथा प्रचुर वारिबर्षण के लिए अनुकूल होओ। हम बल-
पूर्वक यज्ञ में घिब्मोत्पादक काय महीं करते हें और न अवैध वैदिक कार्य
में प्रवृत्त होते हुँ। तुम दीप्तिमान् हो, कामनाओं के पुरक हो। हम तुम्हारी
ही सँचुति करते हें।
३. है जलवर्षणकारी अग्नि, तुम स्तुति-योग्य हो। हस लोगों के किस
सत्य-काय-द्वारा तुम हम लोगों की स्तुति के ज्ञाता होओगे? ऋणओं
(वसन्त आदि) के रक्षाफर्ता और दी्तिसाल अग्नि हमें जातें। ह्म
(हन्दी-ऋण्चे ५६१
शर्नि के सम्भजनकर्सा हूं। अपने पशु आदि धत्त के स्वामी अग्नि को
हुम नहीं जानते हैं ।
४, है अग्नि, कौन शत्रुओं का सन्पनफारी हुँ? कौन लोकरक्षक है?
कोन दीप्तिमान् ओर वानशीर हुँ? कौन रपरो का आश्रयदाता
हँ? अथवा कोन अभिशापादि-झप दुष्ट वचन का उत्साहदाता है?
अर्थात् अःग-ऽस्ठग्भी कोई पुरुष इस दरह का नहीं है।
५, है अग्नि, सबंत्र व्याप्त तुम्हारे थे बन्युगण पूर्व में तुम्हारी उपासना
के त्याग से असुखी हुए थे, पश्चात् तुम्हारी आराधना करके फिर
सौभग्यशालो हुए। हम सरल आवरण करते हुँ; फिर भौ जो हमें,
अधाधुभाव से, कुटिलाचारी कहुता हे, बह हमारा श्र स्वयम अपना
अनिष्ठ उत्पादन करता हु।
६. है अग्नि, दुद डीराम आए अभीष्यररफ हो । जो हृदय से तुम्हारी
स्तुति करता है और तुम्हारे लिए यज्ञ-रक्षा करता है, उस यजमान
का गृह विस्तीण होता है ॥ जो भली भाँति से तुम्हारी परिचर्या
करता हँ, उच्च शनृष्य को कामनाओं को सिद्ध करनेवाला पुत्र
एत हृता हु ।
१३ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि सुतम्भर । छन्द गायंत्री ।)
अग्नि, हुम तुम्हारी पूजा करके आह्वान करते हैं एवम् स्तुति
करके हम लोग अपनी रक्षा के लिए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं।
२. आज हम लोग घनार्थी होकर दीप्तिमान् और आकातास्पक्षी
भूग्ति की पुदयार्थ-साधक स्तुति का पाठ करते हैं।
' जो अग्वि भजुष्यों के सध्य में अवस्थान करके देवों का आह्वान
करते हुं, दे अग्नि हम लोगों की स्तुतिषों को प्रहण कर एवं सञ्चीय द्रव्य
जात को देंबों के समक्ष वहन करें।
फ़ा० ३६
५६२ | हिन्दी-ऋष्वेद
४. हे अग्नि, तुम सवेदा प्रीत हो। तुम होता और लोगों-द्रारा वरणीय
होकर स्थल (पथ्) होते हो। तुम्हें प्राप्त कर यजसान यज्ञ सम्पादन
करते ह।
५. है अग्नि, तुम अन्नदाता और स्तुतियोग्य हो। मेधावी स्तोता
समुचित स्तुति-द्वारा तुम्हें सरवात करते हूं। तुस हम रोगों को उत्कष्ट
बल प्रदान करो।
६. हे अग्नि, नेमि जिस तरह से चक्र के अरों (कोर्लो) को वेष्टित
करती है, उसी तरह से तुम देवों को व्याप्त करते हो। तुम हम लोगों को
नाना प्रकार का धन प्रदान करो।
१४ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि सुतम्भर । छन्द गायत्री ।)
१. हे यजमान, तुस असर अग्नि को स्तोच-दवारा प्रबोधित करो । अग्नि
के प्रदीप्त होने पर वे देवों-समक्ष हम लोगों फे लिए हव्य वहन करेंगे।
२. मनुष्यगण दीप्तिमान्, असर ओर मनुष्यों के मध्य में परमाराध्य
अग्नि की, यज्ञस्थल में, स्तुति करते हुँ॥
३. यज्ञस्थल में बहुतेरे स्तोता घृत्तसिक्त सरुक् के सहित, देवों के निकट
हव्य बहुनाथे, दीप्तिमान् अग्नि की स्तुति करते हुँ।
४. अरणि-मन्धन से उत्पन्न अग्मि अपने तेजःप्रभाव से अन्धकार को
और यज्ञविघातक दस्युओ को विनष्द कर प्रवीप्त होते हें। गौ, अग्नि
और सुर्य अग्नि से ही उत्पन्न हुए हूत
५. हे मनुष्यो, तुम उस शाची ओर आराष्य अग्मि की पुजा करो,
जो ऊध्वं भाग सें घृताहुति-हाश प्रबीष्त होसे हें। अग्नि हमारे इस
साह्वान को सुनें और जानें।
६- ऋत्विग्गण घत और स्तोम-हारा स्टुत्यभिलाषी और ध्यातगस्य
देवों के साथ स्वेदर्शी अग्नि को स्वाद करते हें।
_ हिन्दी-ऋग्वेद ५६३
१५ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अङ्गिरा के अपत्य धरुण । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हविस्वडूप घृत से अग्नि प्रसन्न होते हैँ। बे बलवान्, सुखस्वरूप,
घन के अधिपति, हविर्वाहक गृहदाता, विधाता, आन्तदर्शी, स्तुतियोग्य,
यशस्वी और ष्ठ हुँ। ऐसे अग्नि के लिए हम स्तुति प्रणयन करते हुँ'।
२. जो यजमान शुलोक के धारक, यज्ञस्थळ में आसीन, नेता देवों को
ऋत्विकों-हारा प्राप्त करते हें, वे यजमान यज्चधारक, सत्यस्वरूप अग्नि
की, यञ्च के लिए उत्तम स्थान में अर्थात् उत्तम वेदी पर, स्तोत्र द्वारा,
धारण करते हेँ।
३. जो यजमान मुख्य अग्नि के लिए राक्षसों-द्वारा दुष्प्राप्य हृविस्वरूप
अन्न प्रदान करते हैं, वे यजसान निष्पाप कलेवर होते हें। नवजात अग्नि
कद्ध सिंह की तरह संगत शत्रुओं को दूर करें। सर्वत्र वर्तमान शत्रु मुभे
छोड़कर दूर में अवस्थिति करें।
४. सवत्र प्रख्यात अग्नि जननी की तरह निखिल जन को धारण करते
है। धारण करचे के लिए और दर्शन देने के लिए सब कोई उनकी प्रार्थना
करते हूँ। जब वे धार्यमाण होते हैं, तब वे सब अन्न को जीणे कर देते है।
नावारप होकर अग्नि सर्वभूतजात का परिगमन करते हेँ।
५. हे युतिमान् अग्नि, पृथु कामनाओं के पुरक और धनधारक हविळक्षण
अन्न तुम्हारे सम्पूर्णं बल को रक्षा करे। तस्कर जिस तरह से गुहामध्य
सं छिपाकर अपहृत धन की रक्षा करता है, उसी तरह तुम प्रचुर धन-
लाभ के लिए सन्मार्ग को प्रकाशित करो और अत्रि सुनि को प्रीत करो।
१६ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अत्रि के पुत्र पुरु । छन्द पङ क्ति और अनुष्टुप् । ‹
१ सनुष्यणण जिन सखिभूत अग्नि की, प्रकृष्ट स्लुलियों-दवारा, स्तुति
करके पुरोभाग में स्थापित करते हुँ, उन झतिमात् अस्ति को महान्
हविळंक्षण अन्न दिया जाता हुँ
५६४ हिन्दी-ऋग्वेद
२. जो अग्नि देवों कै लिए हव्य बहन करते है, जो बाहुबल की चृति
से युक्त हैं, वे अग्नि यजमासों के लिए देवों का आह्वान करते हँ, वे सूर्य
की तरह मनुष्यों को विशेष रूप से वरणीय धन प्रदान करते हें।
३. सब ऋत्विक् हृव्य ओर स्वोत्र-द्वारा जिन बहुशब्दविशिष्ट स्वासी
अग्नि सें बल का आधान, अळी भाँति से, करते हैं, हस लोग उन्हीं प्रवृद्ध
तेजवाले ओर धनवान् अग्नि की स्तुति करते हुँ। हम लोग उनके साथ
मित्रता करते हुँ।
४. हे अग्नि, हम यजसानो को तुम सबके दवारा स्पृहणीय बल प्रदान
करो। द्यावा-पृथिवी ने सूर्य की तरह श्रवणीय अग्नि को परिगृहीत
किया हुँ।
५, हे अग्नि, हम यजमान तुम्हारी स्तुति करते हें। तुम शीघ्र ही
हमारे यज्ञ में आओ ओर हमारे लिए वरणोय धय का सम्पादन करो।
हम यजमान स्तोता तुम्हारे लिए स्तुति करते हूँ। हुम लोगों को तुम
युद्ध में समृद्धियुकत करो। |
१७ सूक्त
(देवता अग्नि ऋषि पुर । छन्द पड क्ति ओर अनुष्ट॒प् ।)
१, हे देव, ऋत्विग्गण अयने तेज से प्रवृद्ध अग्नि को, स्तोत्रों-द्वारा
तृप्त करने के लिए, आहूत करते हुँ। मनुष्य स्तोता यज्ञकाल में रक्षा के
लिए अग्नि की स्तुति करते हें।
२. है धर्मविशिष्ठ स्तोता, तुम्हारा यश श्रेष्ठ है। दुम अकृष्ट बृद्धि-
द्वारा उन्हीं अग्नि की, वचन से, स्तुति करते हो, जिन्हें दुःख वहीं है, जिनका
तेज विचित्र है और जो स्तुति-योग्य है।
३. जो अस्ति जगद्रक्षण समर्थ बल से और स्तुति से युक्त हुँ, जो
आदित्य की तरह झुतिमात् हैं, जिन अग्नि की प्रभा से जगद् व्याप्त है,
जिन अग्नि को बृहती दीप्ति प्रकाशित होती है, उन्हीं अग्नि को प्रभा ऐ
मादित्य प्रभावान् होते हुं ।
हिन्दी-त्दग्दैद ५६५
४, सुन्दर सतिवाले ऋत्विक् दर्शनीय अग्नि का यज्ञ (पूजा) करके
धन और रथ प्राप्त करते हँ। यज्ञार्थ आहूत होनेवाले अग्नि उत्पन्न होते
ही, सम्पूर्णं प्रजा-द्वारा, स्तुत होते हँ॥
५. हे अग्नि, हम लोगों को शीघ्र ही वही वरणीय धन दान करो,
जिस घन को स्तोता लोग तुम्हारी स्तुति करके प्राप्त करते हुँ । हे बलपुत्र,
हमें अभिलषित अन्न प्रदान करो, हम लोगों की रक्षा करो । हस मंगल-
कारक पशु आदि की याचना तुमसे करते हुँ। हे अग्नि, तुम संग्राम सें
हुम लोगों को समृद्धि के लिए, उपस्थित रहो ।
१८ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अत्रि के अपत्य द्वित ।
छन्द् अनुष्टुप् और पङ क्ति। )
१. अग्नि बहुप्रिय है, यजमानों के लिए धनदाता हें ओर यजमानो
के गृह में अभिगमन करते हें । इस तरह के अग्नि प्रातःकाल में स्तुत
होते हैं अमरणशील अग्नि यजमानों के मध्य में स्थित निखिल हुव्य
की कासना करते हें। . |
२. है अग्नि, अत्रिपुत्र द्वित ऋषि विशुद्ध हव्य वहन करते हँ, तुम
उन्हें अपना बल प्रदान करो; क्योंकि वे सब काल में तुम्हारे लिए सोम-
रस का आनयन करते हें ओर तुम्हारी स्तुति करते हें। |
३. हे अग्नि, हे अशवदाता, घुम दीर्घपसन-दीप्तिवाले हो । धनिकों
के लिए हुम तुम्हारा आह्वान, स्त्रोत्र-ट्वारा, करते हैं, जिससे धनिकों
का रथ झत्रुओं-द्रारा अहिसिंत होकर युद्ध में गसन करे ।
४. जिन ऋत्विकों-हारा नानाविध यज्ञ-विषयक कार्य सम्पादन होता
है, जो मुख (उच्चारण) द्वारा स्तोत्रों की रक्षा करते हे, उन ऋत्विकों-
द्वारा, यजमानों के स्वर्गप्रापक यज्ञ में, विस्तीण कुशों के ऊपर अन्न
स्थापित होता हैं। |
५६६ हिन्दी-ऋणग्वेद
५. है अमर अग्नि, तुम्हारी स्तुति के अनन्तर जो धनदाता मुझे
पचास अदव प्रदान करते हँ, तुम उन धनिक मनुष्यों को दीप्तिशील
परिचारकयुक्त महान् अन्न प्रदान करो ।
१९ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि अत्रि के अपत्य वत्रि। छन्द॒ गायत्री
ओर अनुष्डुप् ।)
१. जो अग्नि माता पृथिवी के समीप स्थित होकर पदार्थजात को
देखते हैं, वे ही अग्नि वद्धि ऋषि की अशोभन दशा को जानें ओर उनके
हुव्य को ग्रहण कर उसका अपनोदन कर ।
२. तुम्हारे प्रभाव को जानकर जो लोग, यज्ञ के लिए, सदा तुम्हारा
आह्वान करते हें तथा जो लोग हवि और स्तोत्र के द्वारा तुम्हारे बल
की रक्षा करते हें, वे शजुओं-हारा अशक्य (दुर्येस्य) पुरी में प्रवेश
करते हैं ।
३. महान् स्तोत्र करनेवाले, अन्नाभिलाषी, सुवर्णालङ्कार को कण्ठ
में धारण करनेवाले, जायमान (उत्पन्नशील) मनुष्य (ऋत्विगादि)
स्तोत्र-द्वारा, अन्तरिक्षवर्ती वैद्युत अस्ति के दीप्तिमानू बल को वषित
करते हैं ।
४. पयोमिश्चित हव्य की तरह जिन अग्नि के जठर में अच्च है अर्थात्
जी हृव्य जठर हैं, जो स्वयम् शत्रुओं-द्ारा अहिसित होकर सदा शत्रुओं
के हिंसक हैं, द्यावा-पृथिवी के सहायभूत वे ही अग्नि दुग्ध की तरह कस-
नीय और निर्दोष होकर हमारे स्तोत्र को सुने ।
५. हे प्रदीप्त अग्नि, तुम अपने हारा किये गये भस्म से वन में कीड़ा
करते हो । प्रेरक वायु-द्वारा भलो भाँति से ज्ञायमान होकर तुम हमारे
अभिमुख होओ। तुम्हारी शत्रुबाशक ज्वालायें हम यजमानों के निकट
सुकोमल हों ।
हिम्दी-ऋण्वेद ५६७
२० कत
(देवता अग्नि । ऋषि आत्रि के अपत्य प्रयस्वत् । छन्द॒ अनुष्टुप्
ओर पड क्ति)
१. हे अग्नि, हे अत्यन्त अञ्चप्रद, हम लोगो द्वारा प्रदत्त जो हवि-
स्वरूप अन्न तुम्हारा अभिमत है, हम लोगों की स्तुतियों के साथ उसी
हुव्य धन को तुम देवों के निकट ले जाओ।
२. हे अग्नि, जो व्यक्ति पशु आदि घन से समृद्ध होकर तुम्हें हव्य
प्रदान नहीं करता हु, बह अस या बल से अत्यन्त हौन होता है। जो
व्यक्ति वेद-भिञ्च अन्य कर्म करता हुँ, वह असुर तुम्हारा विरोध-भाजन
होता है और तुम्हारे द्वारा हिसित होता है ।
३. है अग्नि, तुम देवों के आह्वाता और बल के साधयिता हो।
हम लोग प्रयस्वत् (अञ्चवान्) तुम्हारा वरण करते हे। यज्ञ में हम श्रेष्ठ
अग्नि की, स्तुति रूप वचन से, स्तवन करते हें ।
४. हे बलवान् अग्नि, प्रतिदिन जिससे हम तुम्हारी रक्षा प्राप्त करें,
वैसा करो। हे सुकलु, हस लोग जिससे धन लाभ कर सकें और यज्ञ
कर सक, वेसा करो । हम लोग जिससे यौओं को प्राप्त करें और वीर
पुत्रों को प्राप्त कर सुखी हों, बैसा करो ।
२१ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि अत्रि के अपत्य सस ।
छन्द् आनुष्टुप् ओर पंक्ति ।) |
१. हे रिन, सम् की तरह हम तुम्हें स्थापित और संदीप्त करते
हें। हे अद्धारात्मक अग्नि, देवाभिलाषी मनुष्य यजसानों के लिए तुम
देवों का यजन करो ।
२. हे अग्नि, स्तोतरों-दारा सुप्रीत होकर तुस मनुष्यों के लिए दीप्त
होते हो। है सुजात, घृतयुक्तान्न, हब्घ-विशिष्ट पात्र तुम्हें निरन्तर प्राप्त
करता हुँ । ॥
६६८ हिः्दी-चहप्वेद
HS
३. है ऋान्तदर्शी अग्नि, प्रसञ्च हो करके सब देवों चे तुम्हें दूत
बनाया था; इसी लिए परिचर्या करनेवाले यजमान तुश्शारा (अम्तिदेव
का), यज्ञ में देवौ को बुलाने के लिए, थजन करते हैं।
४. हे दीप्तिशील अग्नि, मनृष्य छोय देवयज्च के लिए हुण्हारी
स्तुति करते हेँ। हवि-द्वाश प्रबुद्ध होकर तुम दीप्त होओो। घुम सत्यभत
सस ऋषि के स्वर्गसाधव यज्ञस्थल में देवकूप से ठहुरो।
२२ सुस्त
(देवता अग्नि। ऋषि अत्रि के अपत्य विश्वसामा । छन्द
अनुष्टुप ओर पंक्ति |) |
१. हे विश्वतामा ऋषि, तुम अन्नि की तरह शोधक दीव्तिवाले उन
अग्नि की अर्चना करो, जो यज्ञ में सब घ्टट्विको-हारा स्तुत्य हैं, देवों
के आह्वाता हैं और जो अत्यन्त स्तवनीय हुँ।
२. हे यजमानो, तुस संब जातवेदा, दूतिधान् और थञ्चपारक अग्नि
को धारण करो--संस्थापित करो, जिससे आज देवों के प्रिय, घञ्ञसाधन
और हम लोगों के द्वारा प्रंदत हव्य अग्नि को प्राप्त करे ।
३. हे दीप्तिशील अग्नि, तुम्हारा हृदय ज्ञानशस्पछ हैं। तुम्हारे निष
हम लोग रक्षा के लिए उपस्थित होते ह। हम ननुष्य सम्भजमगीय अल्लि
को तृप्त करने के लिए स्तवन करते है।
४, हे बलपुत्र अग्वि, ठुम हमारे इस परिचरण स्यम को जायो।
हे सुन्दर हन्-नासिकावाले, हे गृहपति, आजि के पुत्र स्तो्ो-दारा तुम्हे
वाढत करते है और बचनों-हारा अछंछुल करते
२३ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि अन्रि के आपत्य युस्न । छुन्द् अनुष्टुप्
ओर पंक्ति |)
१, है अग्नि) तुम मुझ झुम्म क लिए एक बलशाली घ्र
विजेता पुत्र प्रदान करो। जो (न स्तोत्र से युक्त होकर संग्राम सें निखिल
शत्रुओं को अभिभूत केरे ।
हिन्दी-ऋण्वेद ५६९
ळे Ns
र, है घलंवेग् ईरित, तुम सराभूत, अद्भुत और गोयुक्त अञ्च के
दाता हो। तुम इस तरह का एक पुत्र प्रदान करो, जो सेनाओं का
झभिभूत करने में ससर्थ हो।
३. है अग्नि, तुस देवों के आह्वाता और सबके प्रियकर हो । समन
प्रीतिवाले और कुशच्छेद करनेवाले निखिल ऋत्विक यञ्चगह सें बहुविध
वरणीय धन की याचना करते हें।
४. हे अग्नि, लोकप्रसिद्ध विश्वर्वाधिणि ऋषि शज्ञओं के हिसक बल
को धारण करें। हे युतिमान्, तुस हमारे गृह में धनयक्ष्त प्रकाश करो।
हे पापशीवक अग्नि, तुस दीप्तियुबत और यशोगुक्त होकर दीष्यसान
होओ ।
२३ सूक्त
(देवता अग्नि । बन्धु, सुबन्धु, शुटवन्दु ओर विप्रन्धु क्रम से
चारों छदाओं के ऋषि । ये गोपायन एवम् लोपायन
नाम्न से प्रसिद्ध । छन्द चार द्विपदा से विराट ।
१-२. हे अग्नि, तुस सस्भजनीण, रक्षक और सुखकर हो। तुम' हमारे
निकटतम होभो। हे ग॒हद'ता और अञ्चदाता, तुम हम लोगों के प्रति
अनुकूल होकर अतिशय दीय्तिशील पश्स्वरूप धन हम लोगों को प्रदान
करो । |
३-४. हे अग्नि, तुम हम लोगों को जानो। हम लोगों के आह्वान
को अवण करो। समस्त पापत्वारियों से हम रोगों की रक्षा करो।
हे अपने तेज से प्रदीप्त अग्नि, इस रोग सुख के लिए ओर पुत्र के
लिए तुमसे याचना करले ह।
२५ सूत
(देवता अग्नि । ऋषि छनि के अपत्य वसुयु । छन्द अनुष्ठुप् ।)
१. हे वसुयु ऋषियों, रक्षा के लिए दुभ लोग अग्नि झा स्तवस
करो। अग्निहोत्र के लिए यजझानों के घर में रहनेदाले अग्नि हुआ लोगों
६७७ हिन्दी-त्रहवेद
कौ कामता पुर्ण करे। ऋषियों के पुत्र (अरणि-सन्धत से उत्पन्न) सत्यवान
अग्नि हम लोगों की शत्रओ से रक्षा कर।
२. पुर्ववर्ती महषियों और देवों ने जिन अग्नि को सन्दीप्त किया
था, जो अग्नि सोदनजिह्ल (हव्य ग्रहण करके जिमकी जिह्वा मुदित होती
हुँ), शोभन दीप्ति से युक्त, अतिशय एयावान् और देवों के आह्वाता है,
वे अग्नि सत्यंप्रतिज्ञ हँ।
३. हे स्तुतियों-डारा स्तूयमान और वरणीय अग्नि, तुम हम लोगों
के अतिशय प्रशस्य और अत्यन्त श्रेष्ठ परिचरणात्मक कर्म से और शस्त्र
(स्तोत्र) से प्रसन्न होकर हम लोगों को घन प्रदान करो।
जो अग्नि देवों के मध्य में देवता-रूप से प्रकाशित होते हैं, जो
सनुष्यों के वीच आहवनीय रूप से प्रविष्ट होते हें और जो हम लोगों
के यज्ञों में देवता के लिए, हव्य वहन करते हें, हे यजमानो, स्तुतियों-
द्वारा तुम लोग उन अग्नि की परिचर्या करो। |
५. हुवि देनेवाले यजमानों को अग्नि एक एसा पुत्र प्रदान करे;
जो बहुविध अन्नों से युक्त, बहुत स्तोत्रवाला, उत्तम, शत्रओं-्वारा
हसित ओर अपने कर्म से पिता-पितामह आदि के यश को प्रख्यात
करनजाला हो।
अग्नि हम लोगों को उस तरह का पुत्र दें, जो सत्य का पालने
करनेवाला हो और अपने परिजनों के साथ, युद्ध में, शत्रुओं को पराभत
करनेवाला हो एवम् द्रुत वेगवाला और शत्रओं को जीतनेवाला घोड़ा
भी द्।
जो श्रेष्ठतम स्तोत्र है, वह अग्नि के लिए ही किया जाता हु
हें देजोधन अग्नि, हम लोगों को बहुत घन प्रदान करो; क्योंकि तुम्हारे
समीय से ही महान् धन उत्पन्न हुए हैं और निखिल अन्न भी तुमसे हो
उत्पन्न हुए हें।
८. हे अग्नि, तुम्हारी शिखायें दीप्तिमती हे। तुम सोमलतापेषक'
हिन्दी-ऋणग्वेद ५७१
पु
पत्थर की तरह महान् कहे जाते हो। तुम युतिमान् हो। तुम्हारा
शब्द मेघगर्जन की तरह द्युतिमान् व्याप्त होता हुँ।
९. हम (वसुयुगण) इस प्रकार से बलवान् अग्नि का स्तवन करते
हैं। शोभनकर्मा अग्नि हम लोगों को निखिल शत्रुओं से उत्तीर्ण करें, जैसे
नोका-हारा नदी पार की जाती हुँ।
२६ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि वसुयु। छन्द् गायत्री ।)
१. हे शोधक और यूतिमान् अग्नि, तुम अपनी दीप्ति से और देवों
को प्रहृष्ट करनेवाली जिल्वा से, यज्ञ में देवों का आनयन करो और
उनका यजन करो।
२. है घृतोत्पन्न और हे बहुविध रहिमदाले अग्नि, तुम सर्वद्रष्टा
हो। हम लोग तुमसे याचना करते हुँ कि हव्य भक्षण के लिए तुम देवों '
का वहन करो।
३. हे क्रान्तदर्शी (ज्ञानसम्पन्न) अग्नि, तुम हव्य-भक्षणशील, दीप्तिः
भान् और महान् हो। हम लोग तुम्हें यज्ञस्थल में सन्दीप्त करते हे।
४. हे अग्नि, सब देवों के साथ तुम हव्यदाता यजमान के यज्ञ में
उपस्थित होओ। तुम देवों के आह्वानकारी हो। हम लोग तुमसे प्रार्थना
करते हुँ।
५. हे अग्नि, अभिषव (यज्ञस्तान) करनेवाले यजमान फो तुम
शोभन बल प्रदान करो एवम् देवों के साथ कुश पर उपवेशन करो ।
६. हे सहख्रों को जीतनेवाले अग्मि, हृवि-द्वारा प्रज्वलित होकर,
प्रशस्यसान होकर और देवों के दूत होकर तुम हम लोगों के यञ्चकर्म का
पोषण करते हो।
७. हे यजमानो, तुम लोग अग्नि को संस्थापित करो। वे भूतजात
को जाननेवाले, यज्ञ के प्रापक, युवतम द्युतिमान् और ऋत्विक्
(यष्टा) हुँ ॥
) ५. MN 8
९७ हिन्दी-ऋत
८, प्रकाशमान स्तोताओं-दारा प्रदत्त हविर आज देवों कै निकट
निरग्तर गमन करे ' है क्रस्विक तुम अग्नि के उपवेशनाथं (बेठने के
लिए) कुश विस्तृत करो--बिछाओ।
९, सरदृगण, देवभिषक् अधिवद्वय, सुर्यं, वरुण आदि देव अपने
परिजनों के साथ कुश पर उपवेशम फरें।
२७ सूक्त
(देवता अग्नि। देवता ६ के अग्नि और इन्द्र । ऋषि अत्रि अथवा
त्रिवृष्ण के अपत्य त्र्यर्ण, पुरुकुत्स के अपत्य त्रसदस्यु ओर
भरत के अपत्य अश्वमेध । छन्द त्रिष्दुप और अनुष्टुप् ।
१. है मनुष्यों के नेता अग्नि, तुम साधुओं के पालक, ज्ञानसम्पन्न)
बलवान् और घनवान् हो। त्रिवृष्ण के पुत्र व्यसण सामक राजर्षि ने
शकट-संयुत दो वृषभ और दस सहस्रे सुवर्ण मुझे प्रदान करके श्याति-
लाभ किया था अर्थात् उसी दान के कारण सब लोगों ने उन्हें जाना
था।
२. जिस भ्यरुण ने मुझे सौ सुवर्ण, बीस गौएँ और रथ से युक्त
भार वहन करनेवाले दो घोड़े दिये थे, हे वेश्वानर अग्नि, हम लोगों के
द्वारा स्तुत होकर और ह॒वि-द्वारा वद्धमान होकर तुम उस ध्यरुण को
सुख प्रदान करो। |
३. हे अग्नि, हम बहुत सन्तानवालों की स्तुति से प्रसन्न होकर ध्यर्ण
ने जेसे हमें कहा था, “यह ग्रहण करें, यह ग्रहण करे।” हे स्तुतियोग्य
अग्नि, वैसे ही तुम्हारी स्तुतिकामना करनेवाले त्रसदस्यु ने भी हमसे
प्रार्थना की थी कि “यह ग्रहण करें, यह ग्रहण करें ४:
४. हे अग्नि, जब कोई भिक्षाभिळाषी, तुम्हारी स्तुति कै साथि,
घनदाता राजषि अश्वमेध के निकट जाकर कहता हे कि “हमें धन दो”,
तब वे उस याचक को धन देते हैं। हे अग्नि, यज्ञ की इच्छा करनेवाले
अइवमेध को तुम यज्ञ करने की बुद्धि प्रदान करो।
हिन्दी-त्रटवेद ५७३
५. राजषि अध्वसेध-हारा प्रदत्त, अभिलाषाओं के पुरक सी बलों
ने हमें प्रमुदित किया है। हे अग्नि, दही, ससू और दूध आदि तीन
द्रव्यों से मिश्चित सोम की तरह वे बेल तुम्हारी प्रीति के लिए हों।
६. हे इन्द्र और अग्नि, तुम दोनों याचकों के लिए, अपरिमित घन
के दाता राजषि अइवमेध को अन्तरिक्ष-स्थित सुये की तरह, शोभन बळ
के साथ (दीप्तिमान् ); महान् ओर जरारहित (अक्षय) धन प्रदान करो।
२८ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अत्रिगोत्रोत्पञ्ना विश्ववारा । छन्द् त्रिष्टुप्
अनुष्टुप् ओर गायत्री |)
१, भली भाँति से दीप्त अग्नि द्युतिमान् अन्तरिक्ष में तेज को
प्रकाशित करते हुँ ओर उषा के अभिमुख विस्तृत होकर विशेष शोभा
पाते हँ। इन्द्र आदि देवों का स्तवन करती हुई और पुरोडाश आदि से
थुक्त सुकू को लेकर विइववारा पुर्व को ओर मुंह करके अग्नि के अभिमुख
गमन करती हे। |
२, हे अग्नि, तुम भली भाँति से प्रज्वलित होकर उदक के उपर
प्रभुत्व करते हो ओर हुब्यदाता यजमान-द्वारा, मद्भलाथे, सेवित होते
हो। तुम जिस यजमान के निकट गमन करते हो, बह पशु आदि समस्त
धन को धारण करता हे। हे अग्नि, तुम्हारे आतिथ्य-योग्य हृव्य को वह
धजमान तुम्हारे सम्मुख स्थापित करता है।
३. हें अग्नि, तुम हम लोगों के प्रभूत एइवयं के लिए ओर शोभन
धन के लिए शत्रुओं को दसन करो। तुम्हारे धन या तेज उत्कृष्ट
हों। है अग्नि, तुस दाम्पत्य कार्य को, अच्छी तरह से, सुनियसित करो
आर शत्रुओं के तेज को आक्रान्त करो।
४, हे अग्नि, जब तुम प्रज्वलित और दीप्तिमान् होते हो, तब हम
यजमान तुम्हारी दीप्ति का स्तवन करते हुँ। तुस कामनाओं के पुरक,
धनवान् और यज्ञस्थल में भली भाँति से दीप्त होते हो।
५७४ हिन्दी-ऋग्वेद
५. हे अग्नि, है पजमावों-द्वारा आहूत, हे शोभन यञ्ञवाले, भली
भांति से दीप्त होकर तुस इन्द्र आदि देवों का यजन करो; क्योंकि
तुस हव्य का बहन करते ही।
६. हे ऋत्विको, तुम लोग हमारे यज्ञ में प्रवृत्त होकर हुव्यवाहक
अग्नि में हवन करो और उनका परिचरण तथा सम्भजन करो एवम्
देवों के निकट हव्यवहनार्थ उचका वरण करो।
२९ सूक्त
: (देवता इन्द्र एवम् नवम ऋक् के प्रथम चरण के उशना । ऋषि
शक्तिगोत्रोत्पन्ना गौरिवीति । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. मन्-सम्बन्धी यज्ञ में जो तीन तेज हँ तथा अन्तरिक्ष में उत्पन्न
होनेवाले जो रोचमास वायु, अग्नि और सूर्यात्मक तेज हैं, उनको सस्तो
ने धारण किया हैं। हे इच, शुद्ध बलवाले मर्दूगण तुम्हारी स्तुति करते
है'। तुम बुद्धिमान् हो, इन मरुतो को देखो ।
२. जब सस्तो ने अभिषुत सोमरस के पान से तृप्त इन्द्र की स्तुति
की, तब इस्त ने वञ्च ग्रहण किया ओर वृत्र को सारा एवम् वृत्रनिरुद्ध
महान् जल-राशि को, स्वेच्छानुसार से, बहने के लिए मुक्त किया।
३. हे बृहत् मखतो, दुम सब और इन्द्र भळी भाँति से हमारे इस
अभियुत सोमरस का पान करो। तुम लोगों के द्वारा यह सोमात्मक
हव्य पिया जाय, जिससे मनुष्य यजमान गोओं को प्राप्त करे। इस
सोमरस को पीकर इन्द्र ने वृत्र को मारा था।
४, सोमपान के अनन्तर इन्द्र ने द्यावा-पृथिवी को निइचल क्रिया था।
गमनशील होकर इन्द्र ने मुगवत् पलायमान दुत्र को भयभीत किया था।
दनुपुत्र (वृत्र) छिप रहा था और भय से इवास छे रहा था। इन्र ने
उसे आच्छाइनविहीन करके सारा था।
५, हे धनवान इच तुम्हारे इस कर्ष से बल्ल आदि निखिल देवों ने
हहन्दी ५७५
हुम्हें अनुक्रम से सोमरस, पान के लिए, दिया था। तुमने एतश के लिए
सम्मुखवर्ती सुये के अइवों का गतिरोध किया था।
६. जब घनवान् इन्र ने बज्च-हारा शम्बर के ९९ नगरीं को एक
काल में ही विनष्ट किया था, तब मस्तो ने संग्रामभूमि में ही इन्द्र की
स्तुति, ब्रिष्दुपू छन्द में, की थी। इस तरह से मरुतों के अन्त्रो-द्वारा सुल
होने पर दीप्त इन्द्र ने अम्बर असुर को पीडित किया था।
७. इन्द्र के सित्रभूत अग्नि ने भित्र इख के कारय के लिए सौ सहिषों
को शध ही पकाया था। परभैरवर्ययुषत इन्दर ने वृत्र को मारने के लिए
अनु-सस्बन्धी तीन पात्रों में स्थित सोमरस को एक काल में ही
पिया था।
८, है इस, जब तुमने तीन सो सहिषों कै सांत का भक्षण किया
था, धनवान् होकर जब तुसते तीन पात्रों में स्थित सोसरस का पान
किया था, जब तुमने बच का वध किया था, लब सब देवों ने युद्ध के
लिए सोमपान से पुर्ण इन्द्र का आह्वान किया था, जैसे स्वामी वास का
_क्षाह्वान करते हू।
९ है इन्र, तुम और कत्रि (उशाना) जव अभिभवनवशील एवस
ब्रुतगामी अइवों के साथ कुत्स के गृह में उपस्थित हुए थे, तब तुमने
शत्रुओं को हिंसित करके कुत्स और देवों के साथ एक रथ पर आउढु
हुए थे। हे इन्द्र, शुण्ण नामक असुर को तुमने ही मारा है।
१०, है इन्द्र, पहले ही तुमने सुर्य के दो चककों में से एक चक्के को
पृथक् किया था एवम् दूसरे एक चक्के को तुमने धन-लाभ के लिए कुत्स
को दिया था। तुमने शब्द-रहति अयुरों को हतबद्धि करके वच्च-दारा सग्राम
में मारा था।
११. है इन्द्र, गोरिवीति ऋषि के स्तोत्र तुम्हें वद्धित करें। तुमने
व्रिदथिपुत्र ऋजिश्वा के लिए पिप्र नामक असुर को वशीभूत किया था।
ऋजिश्वा नामवाले किसी ऋषि ने तुम्हारी सखिता के लिए पुरोशश
५७६ हिन्वी-ग्बेद
आदि कौ पक्षाकर हुम्हैँ अधियुख किया था। तुसने ऋजिशा के सो
का पान किया था।
१२. नो महीनों में समाप्त होनेबाले और दस महीनों में समाप्त
होनेवाले यज्ञ को करनेवाले शङ्करा लोग सोमाभिषव करके अर्चनीय
स्तोत्रों-द्रारा इनर की स्तुति करते हैं। स्तुति करनेवाले अङ्गिरा लोगों
ने अपुरों-द्रारा आच्छादित गो-समूह को उन्मुक्त किया था।
१३. हे धनवान इन्द, तुमने जिस बीर्य (पराक्रम) को प्रकट किया
था, हम उसको जानते हुए भी किस प्रकार से तुम्हारे लिए प्रकट करें-.-
क्योंकर स्तवन करें ? हे बलवान् इन्द्र, तुस जिस नूतन वीर्य (पराक्रम)
को प्रक करोगे, हम यज्ञ में तुम्हारे उस वीर्य का कोन करेंगे।
१४, हे इन्र, तुम शत्रुओं-डारा इड्यं हो। तुमने अपने प्रकृत बल
से प्रत्यक्ष दृश्यमान बहुतेरे भुवनजाव को किया हे। हे वज्जधर, शत्रुओं
को शीघ्र ही विनष्ट करते हुए तुम जो कुछ करते हो, तुम्हारे उस बल
या कर्म का निवारण कोई भी नहीं कर सकता हे।
१५. हे अतिशय बलवाम् इन्र, हम लोगों ने आज तुम्हारे लिए जिन
नूतन स्तोत्रों को रचा हे, हम छोगों-हारा विहित उन सकल स्तोग्रों को
तुम ग्रहण करो। हम धीमान्, शोभन कर्भ करनेवाले ओर घनाभिळाषौ
हुँ। इन भजनीय स्तोत्रों को हम बस्त्र ओर रथ की तरह तुम्हें अपित
करते हू ।
३० छस
(देवता इन्द्र ओर कहीं छण्म राजा। ऋषि बच्चु। छन्द दिष्टुप्॥)
१. बच्धधर, बहुतों-दारा आहूत इन्द्रदान योग्य धन के साथ सोमा-
सिबद करनेवाले यजमान की इच्छा करते हुए, रक्षा के लिए यजमान
के गृह सें जाते हें। वे पराकरसी इख कहाँ बिध्यमान हुँ? अपने दोनों
घाड़ो-दारा जाक्षष्द घुखकर रथ पर जानेवाफे इख को किसने देखा हू
हिन्दी-ऋणवेद ५७७
२. हमने इन के अन्तहित और उग्न स्थान को देखा है। अन्वेषण
करते हुए हम आधारभूत इन्द्र के स्थान में गये हैं। हमने अन्य विद्वानों
से भी इख के सम्बन्ध सें पुछा है। पुछे जाने पर यज्ञ के नेता और दाना
भिलाबियों ने हमें कहा कि हस लोगों ने इन्द्र को प्राप्त किया है ।
३. हे इन्द्र, तुमने जिन कार्यों को किया है, सोमाभिषव करने पर
हम स्तोता उनका वर्णन करते हे। तुमने भी हमारे लिए जिन कर्मों का
सेवन किया है, उन कर्मों को इसके पहले नहीं जाननेवाले लोग जानें।
जो लोग जानते हैं, वे नहीं जाननेवालो को सुनावें। सब सेनाओं से युक्त
होकर धनवान् इन्द्र अब पर आरोहण कर उन जाननेवाले और सुनने-
वाले के पास गमन करे। |
. ४. हे इन्दर, उत्पन्न होते ही तुमने सब शत्रुओं को जीतने के लिए
चित्त को स्थिर (वृढ़संकल्प) किया था। हे इन्द्र, अकेले ही तुमने बहुतेरे
राक्षसों से युद्ध करने के लिए गमन किया था। गौओं के आवरक पर्वत
को तुमने बल द्वारा विदीर्ण किया था। तुमने क्षीरदायिनी गोओं
के समूह को प्राप्त किया था।
५. हे इन्द्र, तुम सर्व-प्रधान ओर उत्कृष्ठतम हो। दूर से ही श्रतणीय
नाम को धारण करके जब तुम उत्पन्न हुए थे, तब अग्नि आदि देवता
इन्द्र से भयभीत हुए थे। वृत्र-द्वारा पालित सकल उदक को इद्ध ने
व्यीभूत किया था ।
६- ये स्तुतिपाठ करनेवाले सुखी मरुदूगण स्तोत्र-द्वारा सुख उत्पन्न
करते हँ। हे इन्द्र, ये तुम्हारा ही स्तवन करते हे ओर सोमलक्षण अञ्न
प्रदान करते हैं। जो वत्र समस्त जलराशि को आच्छन्न करके निद्रित था,
अपनी शक्ति-ट्वारा इन्द्र ने उस कपटी और देवों को बाधा पहुँचानेवाले
वृत्र को अभिभूत किया था। 1
७. हे धनवान् इन्द, हम लोग तुम्हारा स्तवन करते हें। तुस देव-
पीडक वृत्र को वच्ञ-द्वारा पीडति करो । तुमने जन्म से ही शत्रुओं का
फा० ३७
५७८ हिन्दी-ऋग्वेद
संहार किया है। हे इन्द्र, इस युद्ध में तुम हमारे सुख के लिए दास नमुचि
के सिर को चूर्ण करो।
८. हे इन्द्र, तुमने शब्द करनेवाले और भ्रमण-शील मेघ की तरहु,
दास नमुचि असुर के मस्तक को चूर्ण करके हमारे साथ मंत्री की थी।
उस समय मस्तों के प्रभाव से झावापूथिवी चक्र की तरह घूमने लगी
थी ॥
९. दास नमुचि ने स्त्रियों को गुद्धसाधन (सेना) बनाया था। असुर
की बह स्त्री-सेना मेरा क्या कर लेगी? इस तरह सोचकर इन्द्र ने उन
तेनाओं के मध्य से उस असुर की दो प्रेयसी स्त्रियों को, अपने घर में रख
लिया और नमुचि से लड़ने के लिए प्रस्थान किया।
१०. जब गौएँ बछड़ों से विमुख हुई थीं, तब उस समय वे नमुचि-
द्वारा अपहृत गोएँ इधर-उधर सर्वत्र भटक रही थीं। बभ्र ऋषि-द्वारा
अभिषुत सोम से जब इन्द्र प्रहृष्ट हुए, तब समर्थ मरुतों के साथ इन्द्र ने
बन्नु की गौओं को बछड़ों के साथ मिला दिया। |
११. जब बश्च के अभिषुत सोस ने इन्र को प्रहृष्ट किया, तब
कामनाओं के पुरक इन्द्र चे, संग्राम में, महान् शब्द किया। पुरन्दर
(नगर-विनाशक) इन्द्र ने सोम-पान किया ओर बभ्रु को फिर से दुग्ध
देनेवाली गोएं दीं। |
१२. हे अग्नि, ऋणञ्चय राजा के ककर रुशम देशवासियों ने मुके
चार सहत्न गौएँ देकर कल्याण-कारक कर्म किया था। नेताओं के बीच
श्रेष्ठ नेता ऋणञ्चय राजा-द्वारा प्रदत्त गोरूप रत्यों को मेने ग्रहण
किया हैं।
१३. हे अग्नि, क्रणञ्चय राजा के ककर रुशम देशवासियों ने मुझे
अलंकार और आच्छादन आदि से सुसज्जित गृह तथा हजार गोएं दी हैं।
रात्रि के बीतने पर अर्थात् उषाकाल मं सरस सोम ने इन्द्र को प्रसक्त किया
था। (गोओं को पाकर बन्नु ने तुरन्त ही इन्द्र को सोमरस पिलाया
था) ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ७५७९
१४, इशम देश के राजा ऋणज्चय के समीप में ही संबंत्र गमन
रनेवाली रात्रि जीत गई। बुलाये जाने पर बभु ऋषि ने वेगवानु घोड़े
की तरह चार सहस्र शीघ्रगामिनी गोओं को प्राप्त किया।
१५. हे अग्नि, इसने रुदाम देशवासियों से चार सहस्न गएं प्राप्त की
हैं। हम मेधावी हैं। यज्ञ के लिए महावीर की तरह सन्तप्त हिरण्मय कलश
को, हमने एशभ देशवासियों से दूध दुहुने के लिए, ग्रहण किया है।
३१ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि अत्रि के अपत्य अवस्यु । छन्द् त्रिष्टुप)
१. धनवान् इन्द्र जिस रथ पर अघिए्ठान करते हैं, उस रथ का
संचालन भी करते हूँ। गोपालक जिस तरह से पशुओं के समूह को प्रेरित
करते हैं, उसी तरह से इन्द्र शुसेनाओं केर प्रेरित करते हें । शत्रुओं-दारा
अहिसित ओर देव-थेष्ठ इन्द्र शत्रुओं के घन की कामना करते हुए गमन
करते हें।
२. है हरिमामक अइववाले) तुम हम लोगों के अभिमुख भळी भाँति
से गमन करो; किन्तु हम लोगों के प्रति हीनमनोरथ--उदासीन--मत
होओ। हे बहुविध धनवाले इन्द्र, तुम हस लोगों का सेवन करो। हे
इन्द्र, दूसरी कोई भी बस्तु तुमसे श्रेष्ठ नहीं है। अपत्मीकों को तुम स्त्री
प्रदान करते हो।
३. जब सुर्य का तेज उषा के तेज से बढ़ जाता है, तब इन्द्र यजमानो
को निखिल धन प्रदान करते हैं। वे निवारक पवेत के मध्य से बुग्धवायिनी
निरद्ध गोओं को मुक्त करते हें और तेज-द्वारा संवरणशील (सर्वत्र व्याप्त)
अन्धकार को दुर करते हुँ।
४. हे बहुजनाहुत इन्द्र, ऋभुओं ने तुम्हारे रथ को घोड़ों से संयुक्त
होने के योग्य बचाया हुँ, त्वष्डः वे तुम्हारे बज्न को द्युतिमान् किया हे।
रन्द्र को पूजा करनेवाले अद्धिश लोगों ने अथवा सश्तों ते बत्रब फे
लिए स्तोत्रों-हारा, इन्द्र को संघद्धित किया है।
५८० हिन्दी-ऋण्वेद ।
५, है इन्द्र, तुम अभिलाषाओ के पुरक हो। सेचनससर्थ भरुतों ने
जब तुम्हारी स्तुति की थी, तब सोमाभिषव करनेवाले पत्थर भी प्रसन्न
होकर संगत हुए थे। इन्द्र-द्वारा प्रेषित होने पर अश्वहीन ओर रथहीन
सरुतों ने अभिगमन करके शत्रुओं को अभिभूत किया था।
६. है इन्द्र, हम तुम्हारे पुरातन तथा नूतन कर्मो का स्तवन करते
हैं। हे धनवान् इन्द्र, तुमने जिन कार्यो को किया हे, हम उसे कहते हें।
हे वच्नधर इन्द्र, तुम द्यावा-पूथिवी को वशीभूत करके मनुष्यों के लिए
विचित्र जल धारण करते हो।
७. हे दर्शनीय तथा बुद्धिमान् इन्द्र, वृत्र को मार करके तुमने जो
अपने बल को इस लोक में प्रकाशित किया हुँ, वह तुम्हारा ही कर्म है।
तुमने शुष्ण असुर की युवती को. ग्रहण किया हैं। हे इन्प्र, युद्धस्थल में
जाकर तुमने असुरों को विनष्ट किया है।
हे इसर, नदी के तीर में प्रवृद्ध होकर अर्थात् अवस्थान करके
यदु और तुर्वेश राजाओं को तुमने बनस्पतियों को बढ़ानेवाळा जल दिया
है। हे इनर, कुत्स के प्रति आक्रमण करनेवाले भयानक शुष्ण को मारकर
तुमने कुत्स को अपने गुह में पहुंचा दिया था। तब उशना (भार्गव) ओर
देवों ने तुम दोनों का सम्भजन किया था।
९, हे इन्द्र ओर कुत्स, एक रथ पर आरूढ तुम दोनों को अशवगण
यजमानों के निकट आनयन करें। तुम दोनों ने शुष्ण को उसके आवासभूत
जल से दूर किया था। तुम दोनों ने धनवान् यजमानों के हृदय से अज्ञान-
रूप अन्धकार को दुर किया था ।
१०. विद्वान् अवस्यु नामक ऋषि ने वायु की तरह वेगवान् और
रथ में भली भाँति से युक्त करने के योग्य अश्वो को प्राप्त किया है। हे
इन्द्र, अवस्यु के मित्रभूत सकल स्तोताओं ने, स्तोत्रो द्वारा, तुम्हारे बल
को संवर्द्धित किया हें।
११. पूर्व मं जब एतश ऋषि के साथ सुर्य का संग्राम हुआ था, तब
इन्द्र ने सूर्ये के वेगवान् रथ की गति को अवरुद्ध किया था। इन्दर ने पूर्व
हिन्दी-त्रटन्वेद rR
में द्विचक्र रथ के एक चक्र को हरण किया था। उसी चक्रद्वारा इन
शत्रुओं को विनष्ट करते हे। हम लोगों को पुरस्कृत करके इन्द्र हम लोगों
के यज्ञ का सम्भजन करें।
१२. हे मनुष्यो, तुम लोगों को देखने के लिए इन्र सोमाभिषव
करनेवाले मित्रस्वलूप यजमानो की इच्छा करते हुए आये हँ। अध्वरयुगण
जिस पत्थर का प्रेरण करते है, वह सोमाभिषव करनेवाला पत्थर शब्द
करता हुआ वेदी के ऊपर आरोहण करता है।
१३. हे इन्द्र, हे अमरणशील, जो मनुष्य तुम्हारी कामना करता है
और शीघ्रतापूर्वक तुम्हारी अभिलाषा करता है, उस मरणशील मनुष्य
का कोई अनर्थ नहीं हो। तुम यजमानो का सम्भजन करो--उनके प्रति
प्रसन्न होगो। जिन मनुष्यों के मध्य में हम लोग स्तोता हें, वे सब तुम्हररे
हों। हे इन्र, तुम उन मनृष्यों को बल प्रदान करो।
२२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि अत्रि के अपत्य गातु। छन्द् त्रिष्टुप् |)
१. हे इन्द्र, तुमने बरसनेवाले मेघ को विदीर्ण किया है और मेघस्थ
जल के निर्गमन द्वार को विसृष्ट किया है--बनाया है। हे इन्द्र, तुमने
प्रभूत मेघ को उद्घाटित करके जल बरसाया है एवम् दवुपुत्र वृत्र का
संहार किया हें।
२. हें वज्त्रवान् इन्द्र, तुम वर्षाकाल में निएद्ध मेघों को बन्धनमुक्त
करो। तुम मेघ को बलसम्पन्च करो। हे उग्र, जल सें शयन करनेवाले
वृत्र को तुमने मारा हे और अपने बल को प्रख्यात किया है अर्थात् वृत्रवध
के अनन्तर इन्द्र लोगों के मध्य प्रख्यात होते हं ।
३. अप्रतिद्वन्ढ्ठी एकमात्र इन्द्र ने हवि प्रभूत मृग की तरह शीघ्रगामी
उस वृत्र के आयुधों को अपने बल-द्रारा विनष्ट किया। उस समय वृत्र
के शरीर से दुसरा अतिशय बलवान् असुर प्रादुर्भंत हुआ।
५८२ हिन्दी-ऋग्वेद
४. वर्षणशील मेघ के ऊपर प्रहार करमेवाले वप्त्रधर इन्द्र ने वच्च-
द्वारा बलवान् शुष्ण को मारा था। शुष्ण बत्रासुर के क्रोध से उत्पन्न
होकर अन्धकार में विचरण करता था और सेचन-समर्थ मेघ की रक्षा
करता था। बह सम्पूर्ण प्राणियों के अन्न को स्वयम् खाकर प्रमुदित
होता था।
५. हे इन्द, हे बलवान, मादक सोमरस के पान से हुष्ट होकर तुमने
अन्धकार में निमग्न युद्धाभिलाषी वृत्र को जाना था। अपने को मर्महीन
(अवध्य) समझनेवाले वृत्र के प्राणस्थान को तुमने उसके कार्यो-द्वारा
जाना था।
६. वृत्र सुखकर उदक के साय जल सें शयन करता हुआ अन्धकार में
वर्धमान हो रहा था। अभिशत सोमपान से हुष्ट होकर अभिराषाओं के
पुरक इन्द्र चे वज को ऊपर उठाकर उसे मारा था।
७. जब इन्द्र ने उस प्रभूत दानव वृत्र के प्रति विजयी वज्र को
उठाया था, जब वस्त्र के द्वारा उसके ऊपर प्रहार किया था, तब सब
प्राणियों के बीच उसे नीच बनाया था ।
८. उप्र इन्द्र ने महान्, गसनशील मेघ को घेरकर शयन करनेवाले,
जळ-रक्षक, शत्रुओं के संहारक और सबको आच्छादित करनेवाले वृत्र
को ग्रहण किया और उसके अनन्तर संग्राम में पाद-रहित परिसाण-रहित
और जुम्भाभिभूत वृत्र को अपने प्रभूत वञा-द्वारा मली भाँति से मारा।
९. इन्द्र के शीषक बल का निवारण कोन कर सकता है ? फिसी
के ठारा भी अप्रतीयमान इन्द्र अकेले हो शत्रुओं के घन को हुरण करते है।
शुतिमात् द्यावा-यूथिवी वेगवान् इन्र के बल से भीत होकर शीघ्र ही
इलायसान होती हुँ ।
१०, स्वयम् घार्यमाण और चुतिमान् खुलोक इन्द्र के लिए नीचभाव
से गमन करता हूं । भूमि अभिलाषिणी स्त्री की तरह इन्द्र के लिए आत्म-
समर्पण करती हूँ । जब इन्द्र अपने समस्त बल को प्रजाओं के मध्य में
हिन्दी-ऋणग्वेद ५८३
स्थापित करते हँ, तब मनृष्ययण अनुक्रम से, बलवान् इन्द्र के लिए
नमस्कार करते हे । ।
११. हे इन्द्र, हमने ऋषियों से सुना हे कि तुम मनुष्यों के मध्य मे
मुख्य हो, सज्जनों के पालक हो, पञ्चजन मनुष्यों के हित के लिए उत्पन्न
हुए हो और यशोयुक्त हो । दिन-रात स्तुति करनेवाली और अपनी
अभिलाषाओं को कहनेवाली हमारी सन्तान स्तुतियोग्य इन्द्र को
प्राप्त करे ।
१२. हे इन्द्र, हमने सुना है कि तुम समय-समय पर जन्तुओ को
प्रेरित करते हो और स्तोताओं को धन प्रदान करते हो, यह झूठ ही
मालम पड़ता हँ । हे इन्द्र, जो स्तोता तुममे अपनी अभिलाषा स्थापित
करते है, तुम्हारे वे महान् सखा तुमसे क्या प्राप्त करते हुँ ? |
प्रथम अध्याय समाप्त ।
३३ सूक्त
(द्वितीय अध्याय। ३ अनुवाक । देवता इन्द्र ऋषि प्रजापति के
अपत्य सम्बरण । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हम सम्बरण ऋषि अत्यन्त दुर्बल हैं। हम महाबलवान् इन्द्र के
लिए प्रभूत स्तोत्र करते हें, जिससे हमारी तरह के मनुष्य बलवान् हों ।
संग्राम में अन्न लाभ के लिए स्तुत होने पर इन्द्र स्तोताओं के साथ हमारे
(सम्बरण के) प्रति अनुग्रह प्रदर्शन करें ।
२. हे अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाले इन्द्र, तुम हम लोगों का
ध्यान करते हुए एवम् जो स्तोत्र तुम्हें प्रीति उत्पन्न करे, उन स्तोशों-हारा
रथ में जुते हुए घोड़ों की लगाम को ग्रहण करते हो। है मघवा, इस
तरह से तुम हमारे शत्रुओं को पराभूत करो ।
३. है तेजोविशिष्ट इन्द्र, ओ मनुष्य तुम्हारे भक्तों से भिन्न हे और
जो तुम्हारे साथ नहीं रहता है, ब्रह्मकर्म से हीन होने के कारण वह
“५८४ हिन्दी-ऋग्वेद
मनुष्य तुम्हारा नहीं हे । हे वजाधारी इन्द्र, इसलिए तुम हमारे यज्ञ में
आने के लिए उस रथ पर आरोहण करो, जिस रथ का सञ्चालन तुम
स्वयम् करते हो ।
४. हे इन्द्र, तुम्हारे स्वविषयक अनेक स्तोत्र हुँ; इसी लिए तुम
उर्वरा भूमि के ऊपर जल वर्षण करने के लिए वृष्टि-निरोधकारकों का
संहार करते हो। तुम कामनाओं के पुरक हो। सुम सूर्य के अपने
स्थान में बृष्टि प्रतिबन्धकारक दासों के साथ युद्ध करके, उनके नाम
तक को नष्ट कर देते हो ।
५. हे इन्द्र, हम लोग जी ऋत्विक् यजमान आदि हैं, वे सब तुम्हारे
हैँ । यज्ञ करके हम लोग तुम्हारे बल को वित करते हुँ और होम करने
के लिए तुम्हारे निकट उपस्थित होते हैं। हे इन्द्र, तुम्हारा बल सर्व-
व्यापी हुँ। तुम्हारे अनुग्रह से युद्ध-क्षेत्र में भग की तरह प्रशंसनीय
(चारु) विश्वस्त भृत्य आदि हमारे निकट आवें ॥
६. हे इन्द्र, तुम्हारा बल पुजनीय है । तुम सर्वव्यापी और अमरण-
शील हो । अपने तेज से तुम जगत् को आच्छादित करके इवेतवर्ण का
प्रभूत धन हम लोगों को दो । हम लोग प्रभूत घनवाले दाता के दान की
स्तुति करते हें ।
७. है शूर इन्द्र, हम लोग तुम्हारी स्तुति करते हैं और यजन करते
हैं। रक्षा-द्वार/ तुम हम लोगों का पालन करो । संग्राम में तुम अपने
आच्छादक रूप को प्रदान करके हमारे अभिषुत सोमरस के द्वारा सन्तुष्ट
होओ।
८. गिरिक्षित-गोत्रोत्पञ्च पुरुकुत्स के पुत्र त्रसदस्यु हिरण्यवान् और
प्रेरक हु। उन्होंने हमें जो दस अश्व प्रदान किये थे, वे शश्नवर्णवालले
दसो अश्व हमें बहन करें। रथनियोजनादि कार्यो-द्रारा हम शीघ्र ही
गसन करे ।
९. मस्ताइव के पुत्र विदथ ने हमारे लिए जिन रक्तवर्ण और श्रेष्ठ
(शीत्रगामी) अइवों को प्रदान किया था, वे हमें वहन करें। उन्होंने
हिन्दी-ऋटग्वेद ५८५.
हम पुज्य को सहस्र परिसित धन दिया हे और अपने शरीर का अलंकार
प्रदान किया हैं ।
१०. लक्ष्मण के पुत्र ध्वन्य ने हमें जो दीप्तिमान् और कर्मक्षम
अइव प्रदान किया था, वह हमें बहन करे। गोएँ जेसे, गोचरण-स्थान.
(गोष्ठ) को प्राप्त करती हैं, उसी तरह से उनके (ध्वन्य) द्वारा प्रदत्त
महान् धन सम्बरण ऋषि के गृह सें उपस्थित हो।
३४ सुक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि सम्बरण । छन्द॒ जगती और त्रिष्ठुप ।)
१. जिनके शत्रु उत्पन्न नहीं हुए हें ओर जो शत्रुओं का विनाश करते
हैँ, उन्हें अक्षीण, स्वगप्रद और अपरिमित हव्य प्राप्त करते हँ । हे ऋत्विको,
उन्हीं इन्द्र के लिए तुम लोग पुरोडाश आदि का पाक करो और
अपने उचित कर्म को धारण करो। इन्द्र स्तोत्रवाहक हें और बहुस्तुव
हें । |
२. इन्द्र ने सोमरस-द्वारा अपने जठर को परिपुणं किया था और
मधुर सोमपान से प्रमुदित हुए थे, अब कि मुगनामक असुर को मारने
की इच्छा करके उन्होंने अपरिमित तेजवाले महान् वप्त्र को ऊपर उठाया
था। |
३. जो यजमान इन्द्र के लिए अहनिश सोमाभिषव करते हैं, वे
झुतिमान् होते हुँ। जो यजमान यज्ञ नहीं करते हुँ; लेकिन धर्म-सन्तति
की कामना करते हँ और शोभवीय अळंकार आदि धारण करते हुँ तथा.
धनवान् होकर कुर्सित पुरुषों का साहाय्य करते हुँ, समर्थ इन्द्र उन्हें छोड़
देते हेँ। म
४. समर्थ इन्द्र के जिस यष्टा ने माता-पिता और भ्राता का वघ
किया हुँ, उस यष्टा के निकट से भी इन्द्र दूर नहीं जाते हैं और उसके
दारा प्रदत्त हव्य की कामना भी करते हें। शासक और धनाधिपति इन्द्र
पाप से भी विचलित नहीं होते हें।
५८६ हिन्दी-ऋण्वेद
५. शत्रुओं को मारने के लिए इन्द्र पाँच या दस सहायकों कौ
कामना नहीं करते हें। जो सोमाभिषव नहीं करता हूँ और बन्धुओं का
पौषण नहीं करता है, उसके साथ इन्द्र संगति नहीं करते हैं। शत्रुओं के
कम्पक इन्द्र उसे बाधा पहुँचाते हे और उसका वध करते हूँ। इन्द्र यज्ञ
करनेवाले यजमानों के गोष्ठ को गोविशिष्ट करते हें।
६. संग्राम में शत्रुओं को क्षीण करनेवाले इन्द्र रथचक्र को वेगवान्
करते हुँ। सोमाभिषव नहीं करनेवाले यजमान से वे दुर रहते हें और
सोमाभिषव करनेवाले यजमान को वरद्धित करते हुँ। विश्वशिक्षक ओर
भयजनक स्वामी इन्द्र यथेच्छ दासकर्म करनेवाले को अपने वश में लाते हुँ ।
७, इन्द्र बनियों (लोभियों) की तरह धन चुराने के लिए गमन
करते है और मनुष्यों की शोभा को बढ़ानेवाले उस धन को तथा बहु-
विघ अन्य धन को लाकर यजन करनेवाले यजमानों को देते हें अर्थात्
यज्ञ नहीं करनेवालों का धन यज्ञ करनेवालों को देते हें। जो व्यक्ति इन्दर
के बल को कद्ध करता है अर्थात् बली इन्द्र को कोपयुक्त करता है, वह
व्यक्ति महाविपद् में स्थापित होता हे।
८. शोभन धनवाले और बृहत् साहाय्यवाले दो व्यक्ति जब शोभन
गौओं के लिए परस्पर प्रतिइन्ट्री होते हें, तब ऐसा जानकर इन्द्र यज्ञ
करनेवाले यजमान की सहायता करते हेँ। मेघों को कंपानेवाले इन्द्र
उस यज्ञकारी यजमान को गोसमूह प्रदान करते हुँ।
९. है अङ्कनादि गुणविशिष्ट इन्द्र, हम अपरिमित धन के दाता,
अग्निवेश के पुत्र प्रसिद्ध शत्रिनामक राजि की स्तुति करते हुँ । वे
उपमानभूत और प्रख्यात हँ। जलराशि उन्हें अच्छी तरह से सन्तुष्ट करे।
उनका धन बलवान् और वीप्तिसान् हो ।
, ३५ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि अङ्गिरा के अपत्य प्रमुवसु । छन्द अनुष्टुप् |)
१. हे इन्द्र, तुम्हारा जो अतिशय साधक कर्म (प्रज्ञा) है, वह हम
लोगों की रक्षा के लिए हो। तुम्हारा कर्म सब मनुष्यों को अभिएव
हिन्दी-ऋष्वेद ५८७
करनेवाला है, शुद्ध है और संग्राम में दूसरों के द्वारा
अनभिभवनीय हें। |
२. हे इन्द्र, चार वर्णों में जो तुम्हारा रक्षाकार्य है, हे श्र, तीन
लोकों में जो तुम्हारा रक्षाकार्य विद्यमान हे और जो पञ्चजन-सम्बन्धी
तुम्हारा रक्षाकार्य हे, उस समस्त रक्षाकार्ये को तुम हम लोगों के लिए
भली भाँति से आहरण करो।
३. है इन्द्र, तुम अभिमत फल के निरतिशय साधक, वृष्टिकर्ता और
शीतर शत्रुसंहारक हो। हे इन्द्र, तुम्हारा रक्षणकार्य वरणीय है। हम
उसका आह्वान करते हूँ। तुभ सर्वव्यापी मरुतों के साथ मिलित हीकर
प्रदान करो। | हि
४. हे इन्द्र, तुम अभीष्ट फलवर्षक हो। यजमानो को धन देने के
लिए तुमने जन्म ग्रहण किया है। तुम्हारा बल फल वर्षण करता हुँ।
तुम्हारा मन स्वभाव से ही बलवान् हुँ और विरोधियों का दमनकारी
है। हे इन्द्र, तुम्हारा पौरुष संघविनाशक है । |
५. हे इन्द्र, तुस वत्त्रधारी हो। तुम्हारा रथ सर्वत्र अप्रतिहतगति
ते गमन करता हूं। तुस सौ यज्ञों के अनुष्ठानकर्ता हो और बल के
अचिपति हो। जो मनुष्य तुम्हारे प्रति श्रुता का आवरण करता हे, तुम
उसके विरुद्ध यात्रा करते हो।
६- है शत्रुओं के हन्ता इन्द्र, यज्ञ करनेवाले मनुष्य संग्राम में तुम्हारा
ही आह्वान करते हें; क्योंकि तुम उद्यतायुध और बहुत प्रजा के मध्य
घें पुरातन हो।
७. है इन्द्र, तुम हमारे रथ. की रक्षा करो। यह रथ संग्राम में सब
प्रकार के घन की इच्छा करता है, अनुचरों के साथ गमन करता है,
दुनिवार्य है और रणसंकुल है।
८. है इन्द्र, हुमारे निकट तुम आत्मीय होकर आओ । अपनी उत्कृष्ट
बुद्धिद्वारा हमारे रथ की रक्षा करो । तुम निरतिशय बलशाली और
५८८ हिन्दी-ऋग्वेद
दीप्तिमान् हो। तुम्हारे अनुग्रह से हम वरणीय धन या कौत्ति तुममें
स्थापित करते हँ। तुम झुतिमान् हो। हम तुम्हारी स्तुति करते हें
३६ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि अङ्गिरा के अपत्य प्रभुवसु । छन्द त्रिष्टुप्
ओर जगती ।)
१. इन्द्र हमारे यज्ञ में आगमन करें। जो देव धन के लिए जानते
हैं, वे किस तरह के हें? इन्द्र धन के दाता हँ अथवा स्वभाव से ही
दानी हैं। धनुष के साथ गमन करनेवाले धानुष्क की तरह साहसपर्ण
शमन करनेवाले और अत्यन्त तृषित इन्द्र अभिषुत सोमपान करें।
२. है अश्वद्य-सम्पन्न शुर इन्द्र, हम लोगों के द्वारा दिया गया
सोमरस पर्वतशिखर की तरह तुम्हारे संहारक हनुप्रदेश में आरोहण
करे। हे राजमान इन्द्र, तृण-द्वारा जैसे घोड़े तृप्त होते हैं, उसी तरह से
हुम तुम्हें स्तुतियों-द्वारा प्रीत करते हैं। हे इन्द्र, तुम बहुस्तुत हो।
३. हे बहुस्तुत, हे वज्रवान् इन्द्र, भूमि में वर्तमान चक की तरह
हमारा हृदय दारिद्रय-भय से काँप रहा है। हे सर्वदा वरद्धमान इख, स्तोता
पुरुवसु ऋषि शीघ्र ही बहुलता से तुम्हारी स्तुति करते हें। तुम रथा-
घिरूढ़ हो।
४. हे इन्द्र, प्रभूत फल को भोगनेवाले स्तोता अभिषव करनेवाले
पत्थर की तरह तुम्हारी स्तुति करते हें। हे धनवान् और हरिनामक
अइ्ववाले इन्द्र, तुम वासहस्त से धन दान करते हो और दक्षिण हस्त से
भी धन दान करते हो। तुम हमें विफलमनोरथ मत करो।
५. हे इन्द्र, तुस अभिलाषाओं के पुरक हो। अभीष्टवर्षी दावा
पृथिवी तुम्हें संबद्धित करें। तुम वर्षणकारी हो। घोड़े तुम्हें यज्ञस्थल
में वहन करते हें। हे शोभन हनुवाछे, हे वप्त्रधर इन्द्र, तुम्हारा रथ
कल्याणवर्षी हे । संग्राम में तुम हम लोगों की रक्षा करो।
६. हे इन्द्र के सहायक मरुतो, अश्ववान् भुतरथ राजा ने हमें लोहित
वर्णवाले दो अश्व और तीन सौ धेनुरूप धन दिया था। नित्य तरुण उस
हिन्दी-त्रहवेद ५८९
श्ुतरथ राजा के लिए सकल प्रजा परिचर्या-सम्पन्न होकर प्रणाम
करती ह। | |
३७ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि अत्रि। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. यथाविधि आहूत अग्नि में हव्य प्रदान करने से अग्नि ,प्रदीष्त
होकर सुर्येरशिस के साथ आहूयमान होते हैं। जो यजमान “इन्द्र के
लिए होम करो” यह कहता हुँ, उस यजमान के लिए उषा अहिंसित
होती हुं । | |
२. अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले और कुश को विस्तृत करनेवाले
यजमान सम्भजन करते हृं। पाषाणोत्तोलनपुर्वक जिन्होंने सोमरस
निःसृत किया हं, वे स्तुति करते हैं। जिस अध्वर्य के पाषाण से सुमधुर
शब्द होता हूँ, बह अध्वय् हुव्य लेकर नदी से अवगाहन करते हे।
३. पत्नी पति को इच्छा करती हुई यज्ञ सें उसका अनगमन करती
हँ। इन्द्र इसी प्रकार से अगुगामिनी महिषी का आनयन करते हूँ । इन्द्र
का रथ हम लोगों के निकट प्रचुर धन वहन करे । वह अधिक शब्द
करता हु । वह चारों तरफ़ सहस्र धन निःक्षेप करे।
४. जिनके यज्ञ सं इन्र दुग्धमिशरित मदजनक सोमरस पान करते
है, वे राजा कभी व्यथित नहीं होते हैं। वे राजा अनुचरों के साथ
सवेत्र गमन करते हे, शत्रुओं का संहार करते हं, प्रजाओं की रक्षा
करते हैं ओर सुख-सम्भोग से युक्त होकर इन्द्र की स्तुति का पोषण
करते हुं ।
५. जो इन्द्र को अभिषुत सोम प्रदान करता हे, वह बन्धुबाम्धवों
का पोषण करता हे, चह प्राप्त धन की रक्षा करने और अप्राप्त धन
की प्राप्ति में समर्थ होता ह । वह वर्तमान तथा नियत अहोरात्र को
जीतता हुँ । वह सूर्य और अग्नि दोनों का ही प्रियपात्र होता है ॥
७५९० . | हिन्दी-ऋणग्वेद
सक २८
(देवता इन्द्र | ऋषि अत्रि। छन्द अनुष्टुप 1)
१. हे इन्द्र, तुमने बहुत कर्म किया हैँ तुम प्रभूत धेम का सहाल्
दान करते हो । हे सर्वेदर्की, हे शोभन धनवाले, हुल हम लोगों को महान्
घन प्रदान करो।
२. है महाबलशाली हिरण्यवर्णे इन, यद्यपि तुस सुप्रसिद्ध प्रचुर अञ्च
के अधिपति हो; तथापि यह अत्यन्त बूरूभ रूप से सवत्र कीलित
होता हूँ ।
३. है वज्रधर इन्द्र, पुजनीय एवम् दिख्यात कर्मवाले सरुद्गण
तुम्हारे बलस्वरूप हुँ। तुम और वे (इन्च-मण्ल) दोनों ही पृथ्वी के
ऊपर स्वेच्छाबिहारी होकर शासन करते हो ।
४. हे वृत्रहन्ता इन्द्र, हम लोग तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम
हुम लोगो को किसी क्षमताशाली का घन लाकर देते हो; क्योंकि तुम
हम लोगों को धनाढ्य करते के अभिलाधी हो।
` ५ हे सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र, तुम्हारे अभिगमन से हम शीघ्र ही
समृद्ध हों। हे इन्द्र, तुम्हारे सुख में हम अंशभाणी हों। है शूर, तुम्हारे
द्वारा हम सुरक्षित हों।
३९ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि अत्रि | छन्द अनुष्टुप ओर पंक्ति)
१. हे इन्द्र, है वज्रधर, तुम्हारा उप अत्यन्द विखित्र है। देने के लिए
तुम्हारे पास जो महामूल्य धन हे, हे धनवान इख, उसे तुम हम रोगों
को; दोनों हाथों से, प्रदान करो ।
२, है इज, जिस अन्न को तुम श्रेष्ठ समभते हो, बह अन्न हम लोगों
को प्रदान करो। हम तुम्हारे उस श्रेष्ठ अन्न फे दानपात्र हों ।
हिन्दी-ऋग्वेद ५९१
हे इन्र, तुम्हारा मन दान देने के लिए विश्वुत और महान् है ॥
हे वज्रधर, तुम हम रोगों को सारपान् अच्च प्रदान करने के लिए आदर
प्रदशित करते हो।
४. इन्द्र हविलेक्षण धन से युक्त हैं। वे तुम लोगों के अत्यन्त पूजनीय
है। वे मनुष्यों के अधिपति हूँ। स्तोता लोग प्राचीन स्तोत्रों-द्वारा प्रशंसा
करने के लिए उनकी सेवा करते हे।
५. इन्द्र के लिए ही यह काव्य, वाकय और उक्थ उच्चरित हुआ है। .
वे स्तोत्रवाहक हूं। अत्रिपुत्र उनके निकट में ही स्तोत्रों को उच्चस्वर'
से उच्चारित करते ओर उहीपित्त करते है।
४० सूक्त
(देवता, प्रथम ४ ऋक के इन्द्र, ५ के सूये और अवरिष्ट ४ आक
के अन्नि। ऋषि अत्रि । छन्द अनुष्टुप और त्रिष्टुप् ।)
१. है इन्द्र, तुम हम लोगों के यज्ञ में आओ । हे सोम के स्वामी
इन्द्र, आकर पत्थरों-ट्रारा अभिषुत सोस का पान करो । हे फलवर्षक,
हे शत्रुओं के अतिशय हुन्ता, फलवर्षी मश्तों के साथ तुम सोमपा
करो ।
२. अभिषवसाधन पाषाण वर्षणकारी है। सोभपान-जनित हर्ष
वर्षणकारी है। यह अभिषुत सोम वर्षणकारी है। हे फलवर्षक, हे शत्रुओं
के अतिशय हन्ता, फळवर्षी मरुतों के साथ तुस सोमपान करो।
३. घज्रधर इन्द्र, तुम सोमरस के सेचनकर्ता ओर अभीष्डवर्षी हो ॥
हम विचित्र रक्षा के लिए तुम्हारा आह्वान करते हुँ। हे फलवर्षक, हे
शत्रुओं के अतिशय हन्ता, फवलर्षी मरुतों के साथ तुम सोमषान करो ।
४, इन्द्र ऋजीषी (सोमरस की सिट्ठीवाले) और वञ्चघर हें। इन्द्र
अभीष्टवषी, शत्रु-संहारकर्ता, बलवान्, सबके ईइवर, वृत्रहन्ता और सोम-
पानकर्ता हूँ । इस तरह के इन्र घोड़ों को रथ सें युक्त करके हम लोगों
के अभिमुख आदे ओर माध्यन्दिन सवन में सोसपान से हुष्ट हों।
५९३ हिन्दी-ऋग्वेद
५. है सूर्य (प्रेरक देव), स्वर्भानु नामक असुर ने जब तुस््हें अन्धकार
से आच्छन्न कर लिया था, तब उस समय सकल भवन उसी तरह से
दील रहा था, जैसे वहाँवाले सब लोग अपने-अपने स्थान को नहीं जान
रहे हे और मूढ़ हैं।
` < है इद्र, जब तुमने सूर्य के अधोदेश में वर्तमान, स्वर्भानु असुर
की दयुतिमान माया को दूर में ही अपसारित किया था, तब ब्रतविधातक
अन्धकार-द्वारा समाच्छन्न सुर्यं को अत्रि ने चार ऋचाओं-द्वारा प्रकाशित
किया था।
७. (सुर्यवाक्य--) हे अत्रि, ऐसी अवस्थावाले हम तुम्हारे हें।
अन्न की इच्छा से द्रोह करनेवाले असुर भयजनक अन्धकार-द्वारा हमें
नहीँ निगल जार्य; अतः तुम और वरुण दोनों हमारी रक्षा करो।
तुम हमारे मित्र और सत्यपालक हो।
८. उस समय ऋत्विक् अत्रि ने सूर्यं को उपदेश दिया, प्रस्तरखण्डों
का घर्षण करके इन्र के लिए सोमाभिषव किया, स्तोत्रोद्वारा देवी की
पुजा की और मन्त्र-प्रभाव से अन्तरिक्ष में सूर्ये के चक्षु को संस्थापित
किया। उस समय उन्होंने स्वर्भानु की समस्त माया को दुर में अपसारित
किया ।
९, असुर स्वर्भानु ने जिस सुर्य को अन्धकार-हारा आच्छन्न किया
था, अत्रिपुत्र ने अवशेष में उन्हें मुक्त किया। दूसरे कोई समर्थ नहीं हुए ।
४९ सूक्त
(देवता विश्वेदेव । ऋषि अत्रि के अपत्य भौम । छन्द जगती,
विराट् ओर त्रिष्टुप् ।)
१. हे सित्रावदण देव, तुम दोनों के यज्ञ करने की इच्छा करनेवाला
कौन यजमान समर्थ होता हँ ? तुम दोनों स्वर्ग, पृथिवी ओर अन्तरिक्ष
के किस स्थाम में रहकर हम लोगो की रक्षा करते हो ओर ह॒व्यदाता
यजसान को पशु तथा धन प्रदान करते हो । |
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२. हे सित्र, वरुण, अर्यमा, आयु, इन्दर, ऋभुक्षा और मरुद्गण, तुस
सब देव हमारे शोभन ओर पापर्वाजत स्तोत्र का सेवन करो। तुम सब
इद्र फे साथ प्रीयमाण होकर पुजा ग्रहण करो।
३. हे अझिविमीकुसारो, तुम दोनों दसगकारी हो। हम तुम्हारे रथ को
वायृतेग-द्वाश वेगवान् करने के लिए तुम दोनों का आह्वान करते हूँ।
हे ऋत्विको, तुम लोग छृतिसानू ओर प्राणापहारक खबर के लिए स्तोत्र और
हव्य का सम्पादन करो ।
४. मेधावी लोग जिनका आह्वान करते हें, जो यज्ञ का सेबन करते
हे, शत्रुओं का विनाश करते हुँ और स्वर्गीय हे, बे (वायु, अग्नि, पषा)
क्षिति आदि तीनों स्थानों में आणसान होकर सूर्य के साथ तुल्यरूप से
प्रीति उत्पन्न करते हेँ। ये सकल विश्वरक्षक देव यज्ञस्थल में शीघ्र आग-
मन करे जैसे वेगवान् अइव संग्राम सें वेग से प्रभावित होते हँ।
५, हे सरुतो, तुम लोग अइवसहित धन का सम्पादन करी। स्तोता
लोग गो, अश्व आदि घन लाभ के लिए और प्राप्त धन की रक्षा के
लिए तुब लोगों की स्तुति करते हुं। उशिजपुत्र कक्षीवान् के होता
अत्रि गमनशील अइवों-ट्वारा सुखी हों। जो घोड़े वेगवान् और तुम्हारे हें।
६. हे हमारे ऋत्विको, तुस लोग दुतिमान्, कामनाओं के विशेष-
प्रक या विप्रवत् पुज्य और स्लुतियोग्य अथवा फलप्रदाता वायुदेव को
यञ्च में जामे के लिए अर्चनीय स्तोत्रोधारा रथाधिङ्ड़ करो । गमनबती,
यज्ञ ग्रहणकारिणी, झपवती और प्रशंसवीय देवपलियाँ हमारे यज्ञ में
आगमन करे । | |
७, हे शहोराक्रासिदादी देवो, तुम दोनों महान् हो । वन्दनीय
स्वर्गस्थ देवों के साथ हम तुम दोनों को सुखदायक ओर ज्ञापक मन्नों
के साथ हव्य प्रदान करते हैं। हे देवो, तुम दोनों सब कर्मजात को जानकर
यजमान के यञ्चासिमुख आगमन करो।
८. तुम सब बहुत लोगों के पोषक और यज्ञ के नेता हो। स्तोत्र
आदि के हारा अथवा हवि देकर हम तुम्हारी स्तुति, धन-लाभ के लिए
का० 34
५९४ हिन्दी-5ग्वेद
करते हें। चास्लुपति त्वष्टा की हम स्तुति करते हैं। धन देनेवाली और
अन्यान्य देवों के साथ गमन करचैवाली या आनन्दित होनेबाली धिषणा
(वाणी) को हम स्तुति करते हैं। वनस्पतियों और ओषधियों की हम
स्तुति करते हैँ ।
९. वीरों की तरह जगत् के संस्थापक मेघ, विस्तृत दान के विषय
में, हम लोगों के प्रति अनुकल हों । वे स्तुतियोग्य, आप्त्य, यजनीय,
मनुष्यों के हितकारी और हस लोगों की स्तुति से सदा प्रसञ्च होकर हम
लोगों को समृद्ध करे ।
१०. हम वर्षेणकारी, अन्तरिक्ष (मेघ) के गर्भस्थानीय जल के रक्षक
वैद्युत् अग्मि की, पापवजित शोधन स्तोत्रो-द्वारा, स्तुति करते हुँ । अग्नि
तीन स्थानों में व्याप्त और त्रिविध हें। मेरे गसनकाल में अग्नि सुख-
कर रहिमयों द्वारा मेरे ऊपर कूद नहीं होते हें; किन्तु प्रदीप्त ज्वाला
घारण कर वे जंगलों को जलाते हे ।
११. हम अत्रिगोतरोत्पन्न किस प्रकार से महान् रुद्रपुत्न सरतों की
स्तुति करें ? सर्वविद् भगदेव को, धन-लाभ के लिए, कौन-सा स्तोत्र
कहें । जलदेवता, ओषधियाँ, शुदेदता, बन और वक्ष जिनके केशस्वरूप
है, वे पर्वत हम लोगों की रक्षा करें ।
१२. बल अथवा अन्न के अधिपति और आकाशचारी वायू हमारी
स्तुतियों को सुनें । चगर की तरह उज्ज्वल, बड़े पर्यत के चतुर्दिक् सरण-
शील वारिधारा हमारी वाणी सुने ।
१३. हे सहात् मखतो, तुम छोग शीघ ही स्तोत्रों को जानो। है
दर्शनीयो, तुम्हारी स्तुति करनेवाले हम लोग श्रेष्ठ हृव्य धारण करके
तुम्हारी स्तुति करते है। मरुद्गण अनुकूल भाव से आगमन करके, क्षोभ-
द्वारा अभिभूत मनुष्य बँ रियों को अस्त्रो-द्वारा भार करके, हम लोगों के
निकट उपस्थित हों ।
हिन्दी-ऋग्वेद ५९५
१४. हम देव-सस्बन्धी और पृथ्वी-सम्बन्धी जन्म तथा जलू-लाभ
करने के लिए सुन्दर यज्ञवाले सस्तो की स्तुति करते हे । हमारी स्तुतियाँ
वद्धसान हों। प्रीतिदायक स्वर्गे समृद्धि-सस्पञ्च हों। मश्तों-द्वारा
प्रिपुग्ट नदियाँ जलपुर्ण हों ॥
१५. हम सदा स्तुति करते हुँ। जो उपग्रवों का निवारण करके हम
लोगों की रक्षा करने में समर्थ होती हे, बह सबकी निर्मात्री, पुज्या भूमि
हम लोगों की स्तुति को ग्रहण करे। प्रशस्त बचनवाले मेधावी स्तोताओं
के प्रति वह प्रसञ्च हो और अनुकूल हस्त होकर हम छोगों को कल्याण
प्रदान करे। |
१६. हम लोग किस प्रकार से दानशील सरुतो का समुचित स्तवन
करें ? किस प्रकार वर्तमान स्तोत्र-्वारा मरुतों के योग्य उपासना करें ?
वर्तमान स्तोत्र-द्वारा मरुतों का स्तवन कंसे सम्भव हे? अहिवध्न्य देव
हम लोगों का अविष्ट नहीं करें; शत्रुओं को विनष्ट करें ।
१७. हे देयो, सनुष्य यजमान सन्तान के लिए और पशुओं के लिए
शीश्र ही तुम लोगो की उपासना करते हुँं। हे देवो, मनुष्य लोग
तुम्हारी उपासना करते हेँ। इस यज्ञ सें नित्रहेति देवता कल्याणकर
अन्न-हवारा हमारे शरीर का पोषण करें और जरा दुर करें ।
१८. हे चुतिमानू बसुओ, हस लोग तुम्हारी उस सुसति धेनु से बल-
कारक और हुदय-पोषक अन्न लाभ करें। वह दानशीला और
सुखदायिनी देवी हम लोगों के सुख के लिए शीघ्र आगमन करे ।
१९, गोसंघ की निर्मात्री इड़ा और उर्वशी नदियों के साथ हम लोगों
के प्रति अनुकूल हों । निरतिशय दीप्तिशालिनी उर्वशी हम लोगों के यज्ञ
आदि कार्य की प्रशंसा करके यजमावों को दढीप्तिद्वारा समाच्छादित
करके उपस्थित हो ।
२०, पोषक ऊर्जण्य राजा का देवसंघ हस लोगों का सेदन करे।
५९६ हिन्दी-नटथ्येद
२ सती
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि भीम । छन्द र ष्टुप् |)
१. प्रदत्त हृव्य के साथ हम लोगों का निरतिशय सुखदायक स्तोत्र
वरुण, मित्र, भग और आदित्य के निकट उपस्थित हो । जो प्राण आदि
पञ्च वाय के साधक है, जो दिविध वर्ण के अन्तरिक्ष में अवस्थान करते
है, जिनकी गति अप्रलिहत है, जो प्राणदाता और सुखसस्पादक हैं, वे
वायु हम लोगों का स्तोत्र श्रवण कर ।
२. हमारे हृदयंगम और सुखकर स्तोत्र को अदिति देवता ग्रहण करें,
जैसे जननी अपने पुत्र को ग्रहण करती है। अहोरादधिमारी देव मित्र
और वरुण के उद्देश से हम मनोहर, आनन्ददायक और देवग्राह्म स्तोत्र
(सन्त्रजात) प्रदान करते हें।
३. है ऋत्विको, तुस लोग अतिजय कन्तदर्शी और पुरोवर्ती अरि
अथवा सविता को उद्दीप्त करो--प्रनुदित करो। मधुर सोमरस और
घृत-द्वारा इन्हें अभिषिइस करो--तुप्त करो। वे सविता देव हम लोगों
को शुद्ध, हितकर तथा आह्वादक हिरण्य प्रदान करे ।
४. हे इन्द्र, तुम हम लोगों को प्रसन्न मन से गोएँ प्रदान करते हो ।
हे अश्वद्॒य-सम्पन्न इन्द्र, तुम हम रोगों को मेधावी पुत्र अथवा ऋत्विक्,
कल्याण, देवताओं के हितकर अन्न और यज्ञीय देवों का अनुग्रह प्रदान
करते हो ।
५. भगदेव, घचस्वामी सबिता) वृत्रहन्ता इद्र, भली भाँति से घन
के विजेता ऋभुक्षा, बाज और पुरन्धि आदि समस्त अमर श्रीघ ही हम
लोगों के यज्ञ में उपस्थित होकर हस लोगों की रक्षा करें ।
. हस यजमान सदहान् इन्र के कार्यों का वर्णन करते हैं। थे युद्ध
से कभी पलायघान नहीं होते हुँ । बे जयनशील और जरारहित हैं।
हे इन्द, ठम्हारे पराक्रम को किसी पुरातम पुरुष ने नहीं याया है, उनके
हिन्दी-ऋणग्वेद ५९७
पीछे होनेवालों ने भी नहीं पाया हैँ । और क्या, फिस्ती नवीन ने
भी तुम्हारे पराक्रम को नहीं पाथा हुँ ।
७. हे अन्तरात्मा, दुस अतिशय श्रेष्ठ और रमणीय धनदाता
बृहस्पति (सन्त्रपति) की स्तुति करो । वे हृदिलंक्षण घन के विभागकर्ता
हे । वे स्तोत्रकर्ता यजसान को सहान् सुख प्रदान करते हें। आह्वान करने-
वाले यजमान के निकट बे प्रभूत धन लेकर आगमन करते है।
८, हे बृहस्पति, तुम्हारे द्वारा रक्षित होने पर अनुष्य लोग ऑहसित,
घनान् और सुन्दर पुत्रों से युवत होते हुँ । तुम्हारे द्वारा अनुगृहीत होकर
जो कोई धनवान् अइव, गो और वस्त्र दान करता हुँ, बह धनलाभ करे ।
९. हे बहस्पति, जो स्ठुतिध्रतिपाइक हम लोगों को नहीं दान देकर
स्वयं उपभोग करता हँ, जो व्रत धारण नहीं करता है, जो मन्त्रविद्वेषी
है, उसके धन को तुम नष्ट करो । सन्तति-सम्पच्च होकर; यद्यपि बह
सनुष्य लोक में बद्धेसान हो रहा है; तथापि तुम उसे सूर्य से पृथक् करो
अर्थात् अन्धकार में रक्खो ।
१०. हे मरुतो, जो यजमान देव-यज्ञ में राक्षसीं को बुलाता हे अर्थात्
अनुष्ठान को आसुरी बमा देता हे, अन्न, अश्व, कृषि आदि के द्वारा उत्पन्न
भोग के लिए, जो अपने को क्लेश देता (घर्माक्त करता) है और जो
तुम्हारी स्तुति करनेवाले की निन्दा करता हुँ, उस यजसाच को
चक्बिहीन रथ-द्वारा तुम लोग अन्धकार में निमग्न कर देले हो ।
११. हे आत्मा, तुस रुद्रदेव की स्तुति करो, जिनके वाग और
धनुष सुन्दर हे--विरोधियों के नाशक है। जो समस्त ओषधों के ईश्वर
है, उन्हीं सब्र का यजन करो और महात् कल्याण के लिए झुतिमान्
और बलवान् या प्राणदाता रुद्र की परिचर्या करो।
१२. दान्त सशबाले और चसस-अइवन्रय-यो आदि के निर्माण में
कुशलहृस्त ऋभृगण, वषणकारी इन्र की पत्वी गंगा आदि नदियाँ, विभु-
द्वारा कुत सरस्वती नदी ओर दीप्तियती राका आदि अभीएउदडी तथा
दीप्त हैं। ये हम छोयो को घन प्रदान करें।
५९८ हिन्दी-हहम्वेद
१३. महान् और शोभन रक्षक इन्द्र या पर्जेप्य कै लिए हस अतिशय
स्तुत्य और सद्योजात स्तुति प्रदान करते है । इन्द्र वर्षणकारी हे ।
वे कन्यारूप पृथ्वी के हित के लिए नदियों का रूप-विधान करते हे और
हम लोगों कौ जल प्रदान करते हें ॥
उ स्तोतताओ, तुम्हारी शोभव स्तुति यर्जमझील और शब्दकारी
उद्कस्वासी पर्जन्य के पास पहुँचती हुँ । वे मेघों को धारण करते हे और
वारि वर्षण करके खावा-पुथिवी को वैद्युतालोक से आजोफित करके गमन
करते हू ।
१५. हसारे द्वारा सम्पादित स्तौज रुद्र के सरुण पुत्र मरतों के अभि
खं भली भाँति से उपस्थित हो । हे सन, धनेच्छा हम लोगों को निरन्तर
उत्तेजित करती हँ । विविध (पृषत्) वर्ण के अश्व पर आरोहण करके,
जौ यज्ञ में गसन करते हुँ, उनकी स्तुति करो।
१६. घन के लिए हमारे हारा विहित यह स्तोत्र पृथ्वी, स्वर्ग, वक्ष
ओर ओषचियों के निकट गमन करे। हुमारे लिए सब देथों का सुन्दर
आह्वान हो । माता पृथ्वी हम लोगों को दुर्मति में मत स्थापित करे ।
१७. हे देवो, हम लोग निरन्तर निविधुम सहा सुख का भोग करें ।
१८. हम लोग अश्विय की उस रक्षा को प्राप्त करें, जिसका पहले
किसी ने भी अनुभव नहीं किया है, जो आनन्ददायक तथा सुख-सम्पच्च
हुं । हे अमरणशील अश्विनीकुमारो, तुम दोनों हम लोगों को ऐश्वर्य
वौर पुत्रं और समस्त सौभाग्य प्रदान करो ।
४२ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि अत्रि । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. दुतगाभिनी नदियाँ ऑहिलित होकर (कोई अनिष्ट नहीं उत्पन्न
करके) मधुर रस के साथ हम लोगों के विकट आगमन करें। विशेष
प्रीति उत्पन्न करनेवाले स्तोता महान् घन लाभ के लिए आनन्ददायक सप्त
महानदियों का आह्वान करें॥ |
हिन्दी-ऋणग्वेद ५९९
२. हम अन्म-लाभ के लिए शोभन स्याव और हृष्य-जारश हिसारहित
धावा-पृथिवी को प्रस करने की इच्छा करते है। प्रियवबन, शोभनहस्त
और यशोयुक्त मात-पित-स्थरूप सम्पुर्ण संग्राम या यज्ञ में
हँस लोगों की रक्षा करें।
३. हे अध्वर्युओ, तुम लोग मधुर आज्य आदि हव्य प्रस्तुत करो और
बहू रमणीय तथा दीप्त सोस सर्वप्रथम वायु को अपित करो । है वायु,
तुम होता की तरह इस सोम को अन्य देवों से पहले पियो। है
वायुदेव, यह सथुर सोमरस तुम्हारे हर्ष के लिए देले हूँ ।
४. ऋत्विकों की सोमपेषक्क बसों अँगलियाँ और सोधरस-निस्सारण
पटू दोनों बाहु पाषाण ग्रहण करते हैं । कुशलाडः ग॒ऊुय॑क्त ऋत्विफ
आनन्दित होकर सधुर सोम से शैलूण रस दोहन करते हें एवम् सोम से
निर्मल रस निःसृत होता हे ।
५. है इन्द्र, तुम्हारी सेवा के लिए, वत्रवधादि कार्य के लिए, बल
के लिए और महान् हर्ष के लिए सोमरस समपित किया जाता है। है
इन्द्र, इसलिए हम लोग तुम्हारा आह्वान करते हैं। तुम प्रिय, सुशिक्षित
और विनस्र अश्वद्टय को रथ में युक्त करके हम लोगों के निकट आगमन
करो।
६. हें अग्नि, तुम हुम लोगों के साथ प्रीयभाण होकर सघर सोम-
पान से प्रहुष्ट होने के लिए देवगन्तव्य मार्ग-डारा गुना देवी को हम
लोगों के निकट लाओ। वह बलशालिनी देवी सर्वत्र गसन करे और
समस्त यज्ञ को जाने। स्तोत्र के साथ उस देवी को हव्य समपित हो।
७. मेधावी अध्वर्युओं ने अग्नि फे ऊपर हव्यपात्र स्थापित किया
हे, जेसे पिता की गोद में प्रियतमं पुत्र हो। मालूम पडता है जैसे स्थल-
काथ पशु को वे सब अश्नि-द्वारा दरथ कर रहे हें।
८. हम लोगों का यह पूजनीय, महान् और सुखदाथक स्तो
३वद्दय को इस स्थान में आह्वान करने के लिए दूत की तरह गमन
करे। हे सुखदायक अश्विद्वय, तुम दोनों एक रथ पर आरोहण क्षरक्े
६०० हिन्दी-ऋणग्वेद
अर्पित सोम के निकट भारवाहक कील की तरह आगमन करो। जसै
बिना कीलवाली नामि से रथ का निर्वहण नहीं होता हे, उसी तरह
से बिना तुम्हारे सोमयाग का निर्वाह नहीं होता हे ।
९. हम (ऋषि) बलवान् और वेगधुर्वक गमन करनेवाले पुषा तथा
वायुदेव की स्तुति करते हुँ। ये दोनों देव धन और अन्न के लिए लोगों
की बुद्धि को प्रेरित करें अथवा जो देव संग्राम के प्रेरक है, वे धनप्रदान
करे ।
१०. हे उत्पन्न मात्र को जाननेवाले अग्नि, हम लोगों के द्वारा
आहूयसान होकर तुस विविध (इन्द्र, बरुण आदि) नामधारी और
विभिन्ञाकृति निखिल मरुतों का यज्ञ में वहन करते हो। हे मरतो, तुम
सब रक्षा के साथ यजसान के यज्ञ में, शोभन फलवाली स्तुति में और
पुजा में उपस्थित होओ ।
११, हम लोर्गो द्वारा यष्टव्य सरस्वती झितमान द्युलोक से यज्ञ"
स्थल में आगमन करे तथा महान् मेघ से आगमन करे। हमारी स्तुति
से प्रसन्न होकर वह स्वेच्छापुर्वक हमारे सम्पुर्ण सुखकर स्तोत्रों को
सुने ।
१२. बलवान, पुष्टिकारक और स्निग्धाड़ बृहस्पति को यज्ञगृह
सें स्थापित करो। वे गृह में मध्य के अवस्थित होकर सर्वेत्र प्रभा विस्तृत
करते हें। वे हिरण्यवर्ण और दीप्तिमान् हूँ। हम लोग उनकी पुजा
करते हं।
१३. अग्नि सबको धारण करते हें। बे अत्यन्त दीप्तिशाली, अभीष्ट”
वर्षी तथा शिखा और ओषधि समूह-द्वारा आच्छादित हुँ। बे अप्रति-
हतगति और त्रिविध श्युद्भाविशिष्टि (लोहित, शुक्ल ओर कृष्णवर्णे की
ज्वालाओं से व्याप्त) हँ। वे वर्षणकारी और अन्नदाता हें। हम लोग
उनका आह्वान करते हँ। वे सम्पूण रक्षा के साथ आगमन कर ।
१४. यजसान के होता, ह॒व्यपात्रधारी ऋत्विग्गण जननीस्वरूप पृथिवी
के उज्ज्वल और अत्युत्कृष्ट स्थान (उत्तर वेदी) पर गमन करते हुँ।
हिन्द -ऋणग्वेद ६०१
जीवनबुद्धि के लिए जसे लोग शिश् के अद्धों का घर्षण करते हुँ, उसी
तरह वे नवजात कोमलप्रकृति अग्नि का पोषण, स्लुतियों के साथ हव्य
प्रदान करकं, करते हृ।
१५. है अग्नि, तुम बुहत्स्वरूष हो। धर्म-कार्य-दारा जीर्ण होकर
स्त्री-पुरुष (दम्पति) एक साथ ही तुम्हें प्रभूत अन्न प्रदान करते हँ॥
देवगण हमारे हारा भली भाँति से आहूत हों। जननी-स्वरूप पृथिवी
हमारे प्रति विरुद्ध बद्धि नहीं धारण करें।
१६. हे देवो, हम रोग निर्मर्याद और बाधा-शन्य सुख प्राप्त करें।
१७. हम लोग अशिवद्वय की उस रक्षा को प्राप्त करें, जिसका पहले
किसी ने भी अनुभव नहों किया हे, जो आनन्ददायक तथा सुख-सम्पञ्च
है। हे अमरणशील अश्विनीकुमारो, तुम दोनों हम लोगों को एश्वर्य,
बीर्य, पुत्र और समस्त सोभाग्य प्रदान करो।
३४ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि कश्यप के अपत्य अवत्सार ।)
१. प्राचीन यजमानगण, हमारे पुर्वेवर्ती लोग, समस्त प्राणी और
आधुनिक लोग जिस तरह से इन्द्र की स्तुति करके पुर्णमनोरथ हुए हे,
हें अन्तरात्मा, उसी तरह से तुम भी उनकी स्तुति करके पुर्णसमोरथ
होओ। वे देवों के मध्य में ज्येष्ठ, कुशासीन, सर्वज्ञ, हम लोगों के सस्मुख-
वर्ती, बलशाली, वेगवान् ओर जयशील हें। इस तरह को स्तुति-द्वरा
तुम उन्हें संर्वाद्धत करो।
२. हे इन्द्र, तुम स्वर्ग में प्रभा विस्तारित करते हो। अवषंणकारी
मेघ के मध्य मं जो सुन्दर जलराशि हु, उसे मनुष्यों के हित के लिए
समस्त दिशाओं में प्रेरित करते हो। वृष्टि आदि सुन्दर कर्म-ट्वारा तुस
मनुष्यों की रक्षा करो। प्राणियों का वध तुम मत करो। शत्रुओं
की साया का तुम अतिकम करते हो। तुम्हारा नाम सत्यलोक सें
विद्यमान हे।
६०२ हिन्वी-ऋग्वेद
३. अग्नि नित्य, फलसाधक और विश्वधारक हव्य को सतत बहुन
करते हुँ। अग्नि अप्रतिहतगलि, होयमिर्वाहक और बल-विधायक हें। बे |
विशेषतः कुश के ऊपर होकर गसन करते हें। फलवर्षणकारी, शिशु,
वरण, जरारहित और ओषधियों के मध्य में स्थितं हें।
४. इन यजसावो के लिए यज्ञ को बढानेवाली थे सुर्थ की किरणें
परस्परं भली भाँति से सँयुक्त होकर यज्ञभूमि में गसन करने की अभि-
लाया से अवतीणं होती हुँ। वेगपूर्वक गमन करनेवाली ओर सबका
नियत करनेवाली इन समस्त किरणों-द्रारा आदित्य जलराशि को
निस्न-देश सें प्रेरण करते हें।
५. हे अग्नि, तुम्हारा स्तोत्र अत्यन्त मनोहर हु । जब निःसृत सोमरस
काष्ठमय पात्र में गहीसं होता है एवम् तुम उस सोभरस को ग्रहण करके
मनोहर स्तोत्र को सुनकर उल्लसित होते हो, तब उपासको के मध्य में
तुम्हारी विशेष शोभा होती ह। हे जीवनदाता, यज्ञ में तुम रक्षण करने-
वाली शिखा को सर्वत्र बद्धित करो।
६. यह वैश्वदेवी जिस प्रकार दुष्ट होती है, उसी प्रकार बण भी
होती हं। साधक दीप्ति के साथ वह जल के मध्य में अपना रूप या
स्तुति घारण करती ह। वे देवता हम लोगों के हारा पुज्य प्रभूत धन,
सहावेग, असंख्य वीर्यशाली पुत्र और अक्षय्य बल प्रदान करें।
७. यह सर्वेदर्शी, अग्रगामी सूर्य असुरों के साथ युद्धाभिलांषौ होकर
पत्नी उषा के समभिव्याहार के लिए साहसपुर्वक अग्रसर होते हैं। धन
इन्हीं के अधीन हैं। वे हम रोगों को उज्ज्वल और सर्वत्र रक्षाकारी गृह
तथा पुर्ण सुख प्रदान करें।
८. हे देवश्चेष्ठ सूर्य या अग्नि, यजमान तुम्हारे निकट गसन करते
हैं। तुम उदयादि लक्षण-द्वारा परिहात होते हो। ऋषि लोग तुम्हारा
स्तथव करते हुँ, जिससे तुम्हारा नाम बडित होता हें। वे जिध विषय की
कामना करते हे, कार्य-हारा उसे प्राप्त करले हें। एवम् जो अपनी
इच्छा से पुआ करते हें, बे प्रदूर पुरस्कार प्राप्त करते हें।
हिन्दी-ऋष्वेद ६०३
९. हुम लोगों के इन समस्त स्तोत्रों के मध्य में प्रधान स्तोत्र समुद्र-
तुल्य सुर्य के निकट उपस्थित हो। यज्ञ-गृह में जो उनका स्तोत्र बिस्तीणे
होता है, वह नष्ट नहीं होता हे। जिस स्थान में (स्तोताओं के गृह में)
पवित्र सूर्य के प्रति चित समर्पित होता हे, वहाँ उपासकों का हृदयगत
अभिलाष विफल नहीं होता हे।
१०, वह सविता देव सबके द्वारा स्तुत्य हें--सबकी कासनाओं के
पुरक हैं। उनके निकट से हम क्षत्र, सनस, अवद, यजत, सि और
अवत्सार नामक ऋषि ज्ञानियों-हारा भोगयोग्य बलवान् अञ्च को चिन्ता-
द्वारा पूर्ण करते हैं। |
११. विइववार, यजत और मायी ऋषि का सोमरस-जनित मद
प्रशंसनीय-गमन इयेन पक्षी की तरह शीघ्रगामी हुँ, अदिति की तरह
ववस्तृत और कक्षापुरक है। वे सोमपान करने के लिए परस्पर प्रार्थना करते
हें और प्रचुर पान करके अतिरिक्त मत्तता लाभ करते हुं।
१२. सदापुण, यजत, बाहुवुक्त, श्रुतवित् और तर्य ऋषि तुम लोगों
के साथ मिलित होकर शन्रु-संहार करें। वे ऋषि इहलोक और परलोक
दोनों लोकों की सकल श्रेष्ठ कामना लाभ कर दीप्तिसान् हों; क्योंकि
वे सुमिश्चित हृव्य या स्तोत्र-द्ारा विशवदेवों की उपासना करते हुँ।
१३. यजमान अवत्सार के यज्ञ में सुतम्भर ऋषि सुन्दर फलों के
पालयिता होते हें। समस्त यज्ञ-कार्य को ऊदृध्वे में उच्चीत करते हूँ। गौय
सुन्दर रसयुक्त दुग्ध प्रदान करती हँ। यह दुग्ध वितरित होता है। इस
ऋम से घोषणा करके अपत्सार निद्रा-परित्याग-पूर्वक अध्ययन करते हूँ।
१४, जो देव सर्वदा गृह में जागरित रहते हें, ऋचायें उनको कामना
करती हैं। जो देव सदा जागरूक रहते हैं, साम (स्तोत्र आदि) उम्हें
प्राप्त करता है। जो देव सर्वदा जागरित रहुते हैं, उनसे यह अभिषुत
सोम कहें कि “हमें स्वीकार करें। हे अग्नि, हम तुम्हारे नियत स्थान
में सहवास करे ।”
६०४ हिन्दी-ऋग्वेद
१५, अग्निदेव सर्वदा गृह में जागरित रहते हें, ह चाये उनकी कामना
करती हैँ। अग्निदेव सदा जागरूक रहते हँ, साम (स्तोत्र आदि) उन्हें
प्राप्त करदा है। अग्निदेव सर्वदा जागरित रहते हैं, उनसे यह अभिषुत
सोम कहे कि “हमें स्वीकार करें। है अग्नि, हम तुम्हारे नियत स्थान
में सहवास करें ।” म
४५ सूक्त
(४ अनुवाक । देवता विश्वदेवगण। ऋषि सदापण। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अङ्झिराओं की स्तुतियों से इन्द्र ने स्वर्ग से वस्न निक्षेप करके
` एणियों-हारा अपहृत निगढ़ धेनुओं का पुनरुद्धार किया था। आगामिनी
उषा की रहिमियाँ सर्वत्र व्याप्त होती हैं। पुञजीभूत अन्धकार (निशा)
को विनष्ट करके सूयं उदित होते हें। मनुष्यों के गृहद्वारों को उन्होंने
उन्मुक्त किया हेँ।
२. पदार्थ (घट-पट आदि) जिस प्रकार से भिन्न-भिन्न रूप (नील-
पीत आदि) प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार से सूर्य अपनी दीप्ति
विस्तारित करते हैं । किरण-जाल की जननी उषा सूर्ये के आगमन की
उत्प्रेक्षा करके विस्तृत अन्तरिक्ष से अवतीर्ण होती हें। तट को विध्वंस
करनेवाली नदियाँ प्रवहमान वारिराशि के साथ प्रवाहित होती हें।
गृह में स्थापित सुघटित स्तम्भ की तरह स्वर्ग सुदृढ़ भाव से अवस्थान
करता है। |
३. महान् स्तोत्रों के उत्पादक प्राचीनों की तरह अब तक हम स्तुति
करते हँ, तब तक मेघ के गर्भ में स्थित वारि-राशि हमारे ऊपर पतित
होती है। मेघ से जल पतित होता हें। आकाश अपने कार्यं का साधन
करता है। सर्वत्र परिचर्या करनेवाले अङ्झिरा लोग कर्खानुष्ठान-द्वारा
नितान्त परिश्रान्त होते हुँ।
४. हे इन्द्र, हे अग्नि, हम परित्राण के लिए देवों के हारा सेवनीय
उत्कृष्ट स्तोत्रं से तुम दोनों का आह्वान करते हें। भली भांति से यज्ञ
हिन्दी-ऋण्वेद ६०५
करनेवाले मरुतों की तरह कर्मेतत्पर-परिचरण करनेवाले ज्ञानी लोग)
स्तोत्र-द्वारा, तुम दोनों की उपासना करते हुँ।
५. इस यज्ञ-दिन में शीघ्र आगसन करो। हम लोग शोभन कसे
करनेवाले होते हैं। विशेष रूप से शत्रुओं की हिसा करते हँ। प्रच्छन्न
शत्रुओं को दूर करते हूँ और यजमानो के अभिमुख शीघ्र गसन करते
ह
६ हे सित्रो, आओ। हम लोग स्तोत्रपाठ करें। जिसके द्वारा अपहत
घेनुओं का गोष्ठ उद्घाटित हुआ था। जिसके द्वारा सनु ने हनुविहीन
त्रु को जीता था। जिसके द्वारा वणिक् की तरह बहु-फलाकांक्षी
कक्षीवान् ने जल की इच्छा से वन में जाकर जळ-लाभ किया था।
७, इस यज्ञ में ऋत्विकों के हस्त-द्वारा संचालित पावाण-खण्ड से
शब्द उत्त्थित होता है, जिसके द्वारा नवग्वों ओर दशग्वो ने इख की
पुजा की थी। यज्ञ में उपस्थित होकर सरमा ने गौओं को प्राप्त किया
था और अङ्किराओं के सकल स्तवादि कर्म सफल हुए थे। |
८. इस पूजनीय उषा के उदयकाल में जब अङ्गिरा लोग प्राप्त
घेनुओं के साथ मिलित हुए थे, तब उस उत्कष्ट यज्चशाला में उपयुक्त
दुग्धल्राव होने लगा; बर्योँकि सत्य मागे से सरमा ने गोओं को देख
पाया था।
९, सात अश्वो के अधिपति सूर्य हम लोगों के सम्मुख उपस्थित हों
क्योंकि उन्हें आयाससाध्य पथ-ह्वारा एक सुदुरवर्ती गन्तव्य स्थान सें
उपस्थित होना होगा। वे शयेन पक्षी की तरह शीघ्रगामी होकर प्रदत्त हच्य
के. उद्देश से अवतरण करते हैं। वे स्थिर-पौवन तथा दूरदर्शी देव निज
रदिस के मध्य में अवस्थान करके प्रभा विस्तारित करते हैं।
१०. उज्ज्वल वारिराशि के ऊपर सूर्यं आरोहण करते हूँ। जब वे
कान्तपृष्ठवाले अश्वों को रथ सें युक्त करते हे, तब उन्हें धीमान् यजसाल,
जैसे जल के ऊपर नाव हो, उसी तरह से आनयन करते हैं। वारिराशि
उनके आदेश को श्रवण करके अवनत होती हे।
६०६ हिन्दी-ऋग्वेद
११. है देवो, हम जल के लिए तुम लोगों के सर्वदायक स्तोत्र
का पाठ करते हें। नवग्वगण ने जिसके हारा दशमासन्साध्य यज्ञ का
सम्पादन किया था। जिस स्तोत्र-पाठ से हम लोग देवों के हारा रक्षणीय
हों और पाप की सीमा का अतिक्रमण कर ।
४६ सुक्त
(देवता प्रथम ६ ऋक के विश्वदेवगण ओर सप्तम तथा अष्टम के
देवपरनी । ऋषि प्रतिक्षत्र । छन्द॒ जगती और त्रिष्टुप्।)
१. सर्वज्ञ प्रतिक्षत्र ने यज्ञभार में अपने को शकट में अइव की तरह
नियोजित किया है। हम होता अथवा अध्वर्यू उस अलौकिक रक्षाविधायक
भार को वहन करते हें। इस भारवहन से हम छुटकारा पाने की इच्छा
नहीं करते हें। यह भार बारम्बार हमारे प्रति समपित हो, ऐसी कामना
भी हम नहीं करते हे। मार्गाभिज्ञ, अन्तर्यामी देव पुरोगामी होकर सरल
पथ-द्वारा मनुष्यों को ले जायें।
२. हे अग्नि, इन्द्र वरुण और भिन्न आदि देवो, तुम सब हमें बल
प्रदान करो। विष्णु और मर्त बल प्रदान करे। यासत्यद्दय, रुद्र, देव-
पल्तियाँ, पुषा, भग और सरस्वती हम लोगों की पुजा से प्रस हों।
३. हम रक्षा के लिए इन्द्र, अग्नि, मित्र, वरुण, अदिति, आदित्य,
खावा-पृथिवी, मरुद्गण, पर्यंत, जल, विष्णु, पुषा, ब्रह्मणस्पति और
सविता का आह्वान करते हें।
विष्णु अथवा अहिसाकारी वायु अथवा धनदाता सोम हम लोगों
को सुख प्रदान कर। ऋभुगण, अश्विद्वय, त्वष्टा और विभु हुम लोगो
को एश्वय प्रदान करने के लिए अनुकूल हों।
५ पूजनीय तथा स्वर्गलोक में बर्तमान मरुद्गण कुश के ऊपर
उपवेशन करने के लिए हम लोगों के निकट आगमन करें। बृहस्पति,
पुषा, वरुण, सित्र ओर अरथेसा हम, लोगों को सम्पुर्ण गृह-सम्बन्धी सुख
प्रदान करें।
हिन्दी-ऋष्वेद ६०७
६. शोभन स्तुतिवाले पर्वत और दानशीला नदियाँ हम लोगों की
रक्षा करे । धनदाता भगदेव अच्च और रक्षा के साथ आगम्मम करें। सर्वत्र
ब्याप्त होनेवाली देवमाता अदिति हमारे स्तोत्र या आह्वान को श्रवण
क्रे ।
७. इन्द्र आदि देवों की पत्नियाँ हम लोगों के स्तोत्र की कामना करके
हम लोगों की रक्षा करें। वे हम लोगों की इस तरह से रक्षा करें,
जिससे हस लोग बलवान् पुत्र तथा प्रभूत अच्च लाभ करे। देवियो, तुस
सब्र पृथिवी पर रहो या अन्तरिक्ष सें उदकद्रत (कर्म) सें निरत रहो;
परन्तु हम लोग तुम्हारा सुन्दर आह्वान करते हें। तुम सब हम लोगों को
सुख प्रदान करो।
८. देवियाँ, देवपत्नियाँ हव्य भक्षण करें। इन्द्राणी, अग्नायी, दीप्तिसती
अश्विती, रोदसी, वरुणाती आदि प्रत्येक हम लोगों की स्तुति को
श्रवण करे। देबियाँ हव्य भक्षण करें। देवपत्वियों के मध्य में जो ऋतुओं
की अधिष्ठात्री देवी हूँ, वे स्तोत्र श्रवण करें और हव्य भक्षण करें ।
द्वितीय अध्याय समाप्त ।
Cn tainiainninss:]
89 सुत्त
(तृतीय अध्याय। देवता विश्वदेवगण। ऋषि प्रतिरथ। छन्द त्रिष्टुप्।)
१, परिचर्याकारिणी, नित्य तरुणी, पुजनीया और पूजिता उपा आहूत
होकर शक्तिमती जननी की तरह कन्या-स्वरूप पृथिवी का चेतन्य विधान
करती हूँ, साचवों के कार्य को प्रवतत करती हुँ और द्युलोक से रक्षाकरी
देवों के साथ यज्ञगृह में आगमच करती हें ।
२. असीस और सबव्यापिनी रश्सियाँ प्रकाशनरूप अपने कर्तव्य
का सम्पादन करके, अमर सूर्यमण्डल के साथ एकत्र उपवेशन करफे
द्यावा-पृथिवी और अन्तरिक्ष सें परितः गसन करती हेँ।
६०८ हिच्दी-ऋग्वेद
३. उदक अथवा कासनाओं के सेचक, देवों के आनन्द-विध'यक,
दीप्तिभान् और द्रुतगामी रथ ने जनक-स्वख्य पूर्व दिशा में प्रवेश किया
था। पश्चात् स्वर्ग के सध्य में निहित विभिन्नवर्ण और सर्वव्यापी सूर्य
अन्तरिक्ष के उभय प्रान्त में अग्रसर हुए थे और जगत् की रक्षा की थी।
४. अपनी कल्याण-कामना करके चार ऋत्विक सूर्य को हवि-द्वारा
धारण करते हूँ। दसों दिशायें निज गर्भेजात आदित्य को दैनिक गति के
लिए प्रेरित करती हैं। आदित्य की, शीत, ग्रीष्म और वर्षा के भेद से,
त्रिविध रदिमयाँ अन्तरिक्ष की सीमा में हुतवेग से परिञ्चसण करती हें।
५. है ऋत्विको, यह पुरोभाग में दृश्यमान शरीर-मण्डल अतिशय
स्तवनीय हु। इसी मण्डल से नवियाँ प्रबाहित होली हैं। जलराशि इसमें
अवस्थान करती हे। अन्तरिक्ष से अन्य युग्मभूत समान बल अहोरात्र
इसी से उत्पन्न हुए हैं। वे इसे धारण करते हुँ।
६. इसी सूर्य के लिए यजमान स्तोत्र और यज्ञ का विस्तार करते
हैं। इसी पुत्रस्वरूप सूर्य के लिए मातायें (उषा या विशार्ये) तेजोरूप
वस्त्र बुनती हूँ। वर्षणकारी सूर्य के सम्पर्क से हृष्ट होकर पत्नीस्वरूप
रश्सियाँ आकाश-मार्ग होकर हम लोगों के निकट उपस्थित हों।
७. हे सित्र और वरुण, इस स्तोत्र को ग्रहण करो। हे अग्नि, हम
लोगों के मिश्च (विशुद्ध) सुख के लिए इस स्तोत्र को ग्रहण करो। हम
लोग स्थिति और प्रतिष्ठा लाभ करें। हम दीप्तिमान्, शक्तिमान् और
सबके आअयभूत सूर्य को नसस्कार करते हुँ।
४८ सुक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि अत्रि के अपत्य प्रतिभानु।
छुन्दू जगती ।)
१. सबके प्रिय और पूजनीय उस बंद्युल तेज की कब हम पूजा
~
करेंगे ? जो स्वाधीन बल है और जिसके सब अञ्च अपने हूँ। जब आच्छाइन-
हिन्दी-ऋण्वेद ६०९
कारिणी या सेव्यमाना आग्नेय शक्ति प्रज्ञादती होकर परिसेय अन्तरिक्ष
में मेघ के ऊपर वृष्टिजल को विस्तारित करती है।
२. ऋत्विकों-दारा प्राप्त करने योग्य ज्ञान को ये उषायें बिस्तारित
करती हुँ क्या! एक प्रकार की आवरक दीप्ति-द्वारा सम्पुर्ण जगत को
व्याप्त करती हूं। देवाभिलाषी लोग निवृत्त (व्यतीत) और आगामिनी
उषाओं को त्यागकर वर्तमान उषा के द्वारा अपनी बडि को बहित
करते हूं ॥
३. अहोरात्र में निष्पञ्च सोभ-हारा हुष्ट होकर इन्द्र सायावी चत्र
के लिए दीघ वप्र को दीप्त करते है। इन्द्रात्मक आदित्य की शतसंख्यक
रश्सियाँ दिवसों को भळी भाँति से निवतित और प्रतित करके अपने
गृह आकाश में विचरण करती हुँ।
४. परशु को तरह अग्नि को उस स्वाभाविक जाति को हम देखते
हँ। रूपवान् आदित्य के रश्मिसमृह का कीर्तन हस भोग के लिए करते
हैं। वह देव (आदित्य) सहायक होकर यज्ञस्थर में आह्वानकारी यजमान
को अन्नपुर्ण गृह तथा रत्न प्रदान करते हुँ।
५. रमणीय तेज से आण्छादित होकर अग्नि अन्यकार और शत्रुओं
को विनष्ठ करते हँ तथा चारों तरफ़ ज्वाला को विस्तारित करके जिह्ना-
दारा घृतादि को प्राप्त करते हें। पुरुषस्व-द्वारा कामनाओं के पुरक
अग्नि को हम नहीं जानते हें; क्योंकि ये महान् भजनीय सबिता देव
वरणीय धन प्रदान करते हूं ।
४९ सक्तं
देवता विश्वदेवगण । ऋषि अन्रि के अपत्य प्रतिप्रभ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अभी हम तुस यजमानों के लिए सविता और भगदेव के समीप
उपस्थित होते हुँ। वे मनुष्य यजसामों को घन प्रदात करते हँ। हे
नेतुस्वरूप बहुभोगकर्ता अश्विष्ठय, तुस दोनों से झेत्री की कासना करके
हुम प्रतिदिन तुस दोनों की उपस्थिति-प्रार्थवा करते ही
फा० ३९
६१० हिन्दी-ऋग्वेद
२. हे अन्तरात्मा, शत्रुओं फे निवारक सविता का प्रत्यागसन जानकर
सदतो- द्वारा उनकी परिलर्या करो। वे मनुष्यों को श्रेष्ठ धन दान करते
हें। नमस्कार अथवा हविविशेष से उनका स्तवन करो।
३. पोषक, भजमीय तथा अखण्डनीय अग्नि जिल्ला-दारा वरणीय काष्ठ
को दहन करते हुँ अथवा वरणीय अक्ष यजमान को प्रदान करते हैं । सूर्य
तेज को आच्छादित करते हें। इन्ज्र, विष्णु, वरण, मित्र और अग्नि आदि
दर्शनीय देव शोभन (याग-दानादिविशिष्ट) दिवस को उत्पन्न करते हुँ।
४, किसी के द्वारा भी अतिरस्कृत सबिता देव हस छोगों को
अभिमत धन प्रदान करें। उस धन को देने के लिए स्पन्दनश्ील नदियाँ
गमन करें। इसी लिए हम यज्ञ के होता स्तोत्र-पाठ करते हूँ। हम
बहुविध धन के स्वामी हों, अन्न ओर बल से रमणीय हों ।
५. जिन यजमानो ने बसुओं को (यज्ञ में निवास करनेवाले देवों को)
गमनशीळ अन्न दिया हे और जिन्होंने मित्र तथा वर्ण के लिए स्तोत्र-
पाठ किया हं, उन्हें महान् तेज प्राप्त हो। हे देवो, उन्हें दीर्घतर
सुख प्रदान करो। हम यस्वा-पृथिबी की रक्षा प्राप्त कर हूष्ट हों ।
५० सुत्त
(देवता विश्वदेवगण | ऋषि अत्रि के अपत्य स्वति । छन्द
अनुष्टुप् और पंक्ति |)
१. सम्पूर्ण मनुष्य सविता देव से सखिता की प्रार्थना करते हँ । सम्पूर्ण
मनुष्य उनसे घन चाहले हैं। उनके अनुग्रह से सब लोग, पुष्टि के लिए,
“पर्याप्त धन प्राप्त करते हे।
२. हे नेता, हे देव, तुम्हारे उपासक हम यजसान तथा इन्द्रावि
के उपासक होता प्रभूलि तुम्हारे ही हें। हम और वे दोनों ही धनयुक्त
हों। हम लोगों की कामना सिद्ध हो।
३. इसलिए इस यज्ञ में हम ऋत्विज्ञों के, अतिथि की तरह, पुज्य
देवों की परिचर्या करो। इसलिए इस यज्ञ में हविः प्रदान करके देव-
हिन्दी-जदुग्वेद ६११
पत्नियों की परिधर्या करो। हे देवो, पृथक्कर्ता देवसमूह या सविता
दुर मार्ग सें बर्तमान समस्त देरियों को या अन्य झत्रुओं को दूर करें।
४. जिस यज्ञ में यज्ञ को यहन करनेवाला, यूपयोग्य पशु युप के निकट
उपस्थित होता हुँ, उस यज्ञ में सविता यजमान को कुशल तथा धीर
सत्री की तरह गृह, पुत्र, भृत्यादि और धन प्रदान करते हैं।
५. हे नेता, हे सविता देव, तुम्हारा यहु धनवान् और सबको पालन
करनेवाला रथ हम लोगों का कल्याण करे। हम सब स्तुतियोग्य सविता
के स्तोता हैं। हम धन के लिए, सुख के लिए तथा अविनष्ट होने के लिए
उनकी स्तुति करते हे एवम् हम सविता देव के स्तोता. उनकी स्तुति
करते हैं।
५१ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि स्वस्ति । छन्द गायत्री, जगती,
त्रिष्टुप् ओर अनुष्टुप् ।)
१. हे अग्नि, तुम सोमपान के लिए इन्द्र आदि सम्पुर्ण रक्षक देवों
के साथ हव्य देनेवाले हम यजमानों के समीप आओ।
२ हे सत्यस्तुतिवाले अथवा अबाध्य कर्म करनेवाले देवो, हे सत्य
को धारण करमेवाजो, तुम सब हमारे यज्ञ में आगसन करो और अग्नि
को जिह्वा-द्वारा आज्य अथवा सोमरस आदि का पान करो।
३. हे मेधाविन् अथवा दिविध कासनाओं के पुरक सम्भजनीय अग्नि,
प्रातःकाल सें आनेवाले मेघावी देवों के साथ तुम सोमपान के लिए आगन
करो । |
४. यह पुरोभाग में बर्तमान सोम अभिषवण फलक-द्वारा अभिषुत
हुआ है और पात्र में पुर्ण किया गया है। यह इख और वायु के लिए
प्रिय है। हे इन्द्र ओर वायु) इस सोमरस को पीने के लिए आगमन
करो ।
६१२ हिम्दी-ऽषटग्वेद
५. हे वायु, हुवि देनेवाले यजमान के लिए घीयसाण होकर ठु सोम-
पान करने के लिए आएन करो। आकर के असिषुत सोसरूप अन्न का
सक्षण करो ।
६. हे वायु, ठुम और इन्द्र इस अभिषुत सोल को पान करने के
योग्य हो; इसी लिए अहिसक होकर तुभ दोनों इस सोमरस का सेवन
करो और सोमात्मक अझ के उद्देश से आगमन करो। |
७, इन्द्र तथा चायु के लिए दधिसिश्चित सोम अभिषुत हुआ हे"...
सम्पादित हुआ है। हे इन्द्र और वायु, निस्नगासिनी नदियों की तरह
बहु सोम तुम दोनों के अभिसुख गमन करता हे।
८. हे अग्नि, तुस सम्पुर्ण ढेढों के साथ मिलकर तथा अश्विद्ठय और
उषा के साथ समान प्रीति स्थापित करके आगमन करो। यज्ञ में जैसे
अत्रि रमण करते हे, बैसे ही तुम भी अभिषुत सोम में रमण करो।
९. है अग्नि, तुम मित्र, बरुण, सोम तथा विष्णु के साथ मिलकर
आगमन करो। यज्ञ में जैसे अत्रि रमण करते हें, वैसे ही तुस भी अभिषुत
सोम में रमण करो।
१०. हे अग्नि, तुम आदित्य, बसुगण, इन्द्र ओर वायु के साथ मिलकर
आगमन करो। यज्ञ में जसे अत्रि रमण करते हैं, बसे ही तुम भी अभियुत
सोस में रमण करो।
११. हम लोगों के लिए अश्विद्वय अविनइवर कल्याण करें, भभ
कल्याण करें तथा देदी अदिति कल्याण करें । बलवान् अथवा सत्यश्शील
और शत्रु-संहारक अथवा बलदाता पुषा हम लोगों का मङ्गल करें। शोभन
ज्ञानविशिष्टि द्यावा-पृथिबी हम लोगों का सङ्कल करें ।
१२. कल्याण के लिए हम लोग वायु का स्तवन करते हैं ओर सोभ
का भी स्तवन करते हुँ। सोम निखिल लोक के पालक हैं। सब देवों के
साथ सन्त्रपालक बृहस्पति की स्तुति कल्याण के लिए करते हैं। अदिति
के पुत्र देगवण अथवा अरुणादि हादश देव हम लोगों के लिए कल्याण-
कर हों।
हिन्दी-ऋग्वेद ६१३
१३. इस यज्ञ दिन में सम्पूर्ण देव हस लोगो के लिए कल्याण करें
और रक्षा कर। मनुष्यों के नेता और गूहदाता अग्नि हम लोगों के लिए
कल्याण करें और रक्षा करें। दीप्तिमान् ऋभुशण भी हम लोगों के
कल्याण की रक्षा करें। रुद्रदेव हम लोगों के कल्याण को, पाप से, रक्षा
करें।
१४. हे अहोरात्र जियानी मित्र और वर्ण देव, तुम दोलों मंगल करो।
हे हितमा! भमातिवी धनवती देवी, कल्याण करो। इन्द्र और अग्नि
दोनों ही हुम लोगों का कल्याण करें। हे अदिति देदी; हुम हम लोगों
का कल्याण करो ।
१५. सुर्यं ओर चन्र जिस तरह से निरालम्ब मागे में राक्षतादि के
उपद्रव के बिना सञ्चरण करते हुँ, उसी तरह से हम लोग भी मार्ग
में सुखपूर्वेक विचरण करें। प्रबास में चिरकार हो जाने से भी अत्रुद्ध
और स्मरण करनेवाले बन्धुओं से हम सिलित हों ।
५२ सूक्त
(देवता मर्दूगर। ऋषि अत्रि के अपत्य श्यावाश्व |
छुन्द अनुष्टुप ओर पंक्ति |)
१. हे श्यावाइव ऋषि, तुम धीरता से . [विन््योग्य सरतो की अर्चना
करो। यागयोग्य मरुद्गण प्रतिदिन हविळक्षण अहिसक अञ्च को प्राप्त
करके प्रमुदित होते हैं ।
२. वे अविचलित बल के सखा हें, वे धीर हैं, वे मार्ग में परिश्रमण
करते हु और स्वेच्छापु्ंक हमारे पुत्र-भृत्यादि की रक्षा करते हें।
३. स्पन्दनशील ओर जलवर्षक सरुद्गण रात्रि को अतिकम करके
गमन करते हे। जिस लिए वे इस प्रकार के हुँ; इसी लिए हम अभी
सस्तो के घुलोक और भूमि में वर्तमान तेज की स्तुति करते हैं।
४. है होताओ, तुस लोग धीरतापुर्वक मरुतों को किस लिए स्तवन
६१४ हिन्दी-ऋण्वेद
और हव्य प्रदान करते हो ? इसी लिए फि दे सम्पूर्ण मरणशील मनुष्यों
को सब काल में हिसकों से बचाते ट्ट।
५. हे होताओ, जो पुजनीय, सुन्दर दानविशिष्ट, कर्म के नेता और
अधिक बलघाले हैं, ऐसे यागयोग्य युतियाग् मरुतों को यज्ञसावन हव्य
प्रदान करो ।
६. दृष्टि के तेता महान् मरुद्गण रोचमान आभरण-विशेष से तथा
आयुध-विशेष से शोभित होते हें। झेघभेदन के लिए वे आशुष-विशेष
को प्रक्षिप्त करते है । विद्युत् शब्द करनेवाली जलराशि की तरह सस्तो
का अनुगमन करतौ हैं । झयुतिसान् मरुतों की दीप्ति स्वयम् निःसृत
होती है।
७, जो पृथ्वी-सम्बन्धी सरुदूगण हैं, और वद्धेमाव होते हैं, जो महान्
अन्तरिक्ष में वद्धमान होते हँ, वे नदियों के बल (धारा) में तथा महान्
झलोक के मध्य से वढि प्राप्त करें। इस प्रकार वृष्टि के लिए सत्र
वद्धेभान मरुत् मेघभेदन के लिए आयध-विशेष को प्रक्षिप्त करते हें ।
८. हे स्तोताओ, मरुतों के उत्कृष्ट बल की स्तुति करो। चह बल
अत्यन्त प्रबुद्ध तथा सत्यमूल हे। वृष्टि के नेता मरुद्गण, गमनशील होकर
सबकी रक्षा-बद्धि से, जल के लिए, स्वयं परिश्रान्त होते हँ ।
९. मरुद्गण परुऽणी नामक नदी में वर्तेमान रहते हैँ और सबको शुद्ध
करनेवाली दीप्ति-द्वारा अपने को आच्छादित करले हूँ। वे अपने रथचत्र
के द्वारा या बल के द्वारा भेघ अथवा पर्वत को विदीर्ण करते हूँ ।
१०. जो मरुद्गण हम लोगों के अभिमुख मागे से गमन करते हे, जो
सर्वत्र गमन करते हें, जो गिरि-कन्दराओं में गमन करते हुँ ओर जो
अनुकूल मार्गगामी हैँ, वे उपयुक्त यारों नामवाले मरुदूणण विस्तृत होकर
हमारे लिए यज्ञ वहन करते हे ।
११. अभिसत वृष्ट्यादि के नेता जगत् का अतिशय बहन करते हूँ।
स्वयं सम्मिलित करनेवाले जगत् का अतिशय बहन करते हूँ । दूर देश
हिन्दी-क्रग्वेद ६१५
अन्तरिक्ष में वे ग्रह, तारा, मेघ आदि को धारण करते हें। इस प्रकार
से उनके रूप नानाबिधि और दर्शनीय होते हें ।
१२. छन्द-द्वारा स्तुति करनेवाले और जल की इच्छा करनेवाले स्तोत'
लोगों ने मरुतों की स्तुति की थी तथा तृषित गोतम के पानार्थं कूप का
आनयन किया था । उनमें कुछ मरुतों ने अदृश्य तस्कर की तरह स्थित
होकर हमारी रक्षा की थी तथा कितने ही प्राण रूप से दृश्यमान होकर
शरीर का बल साधन किया था ।
१३. हे श्यावाश्व ऋषि, जो मरुद्गण दर्शनीय विद्यइरूपी आयध हे
विद्योतमान, मेधावी और सबके विधाता हें, उन मरुदूगण की, रमणीय
स्तुति से, तुस परियर्या करो ।
१४. हे ऋषि, तुम ह॒विर्दानि तथा स्तुति के साथ मरुतों के निकट
आदित्य की तरह उपस्थित होओ । हे बल-द्वारा पराभूत करनेवाले मरुतो
तुस लोग द्युलोक से अथवा अन्य दोनों लोकों से हमारे यज्ञ में आगमन
करो । हभ सब तुम्हारी स्तुति करते
१५. स्तोता शीघ्रता से मझ्तों की स्तुति करके अन्य देवों की अभि-
प्राप्ति-कामना नहीं करसे हँ । स्तोता ज्ञानसम्पन्न, शीघ्र गमन में प्रसिद्ध
तथा फलदाता मरुतों से अभिमत दाम प्राप्त करते हूँ ।
१६. जिन प्रेरक मरुतों ने हमें अपने बन्धुओं के अन्वेषण में यह वचन
कहा था। उन्होंने य॒देबता अथवा पृहिनवर्ण गौ को माता बताया था
और अश्ववान् अथवा गसनवान् रुद्र को अपना पिता बताया था, वे.
समर्थं हुँ ।
१७. सप्त-सप्त-सङ् रुयक सवेसमर्थं मरुदृगण एक-एक होकर हमें
शतसंश््यक गौ-अश्व आदि दें। इनके द्वारा प्रदत्त गोसमूहात्मक प्रसिद्ध
धन को हम यसुनातीर में प्राप्त करें। उनके हारा प्रदत्तअहद-
सभूहात्मक धन को प्राप्त करें ॥
६१६ हिन्दी-त्रहावेद
५३ सूक्त
(देवता मरुद्गण । ऋषि अत्रि के अपत्य श्यावाश्व । छन्द कङुभ्,
बहती, गायत्री, अनुष्टुप् और उष्णिक् ।)
१. कौन पुरुष मरुतों की उत्पत्ति को जानता है ? कौन पहले सस्तो
के सुख में वर्तमान था ? जब उन्होंने पृथ्वी को रथ में युक्त किया था,
तब इनके बल-रक्षक सुख को कौन जानता था ?
२. ये मरुद्गण रथ पर उपविष्ट हुए हे, यह किसने सुना है अथवा
इनकी रथध्दनि को किसने सुना है ? यह किस प्रकार गमन करते हें, यह
कौन जानता है ? अथवा देव आदि किस प्रकार इसका अनुगमन करें ?
किस दानशील के लिए बन्धुभूत वर्षक मरुद्गण, बहुत अन्न के साथ,
अबत्तीणं होंगे ?
३. सोमपान-जनित हर्ष के लिए दुतिमान् अइवों पर आरोहण करके
जो भरुत् हमारे निकट आये थे, उन्होंने कहा था--वे नेता, भतुष्यों के
हितकर्ता और भृत्ति-हीन हें। उस प्रकार हम लोगों को स्थित देखकर
उन्होंने कहा कि हे ऋषि, स्तवन करो ।
. ४. है सरुतो, जो दीप्ति तुम लोगों के आभरण के आश्रयभूत हुँ, जो
आयुधों में हे जो माला-विशेष में है, जो उरोभूषण में है और जो
हस्त-पतदस्थित कटक में हैं एवम् जो दीप्ति रथ तथा धनुष में
विद्यमान है उन समस्त दीप्तियों की हस बंदचा करते हुँ ।
५. हे शीघ्र दान देनेवाले मरुतो, बृष्टि की सर्वत्र गमनशील दीप्ति
` कौ तरह तुम लोगों के दुइयमान रथ को देखकर हम प्रमुदित होते हे
और स्तुति करते हैं ।
६. नेता तथा शोभन दानवाले मरुद्गण हवि देमेवाले यजमान के
लिए अन्तरिक्ष से जलधारक मेघ को बरसाते हैं। वे छावा-पृथिवी के
लिए मेघ को विसुकत करते हैँ। इसके अनन्तर वृष्ठिग्रद मरत् सर्वत्र
गमनशील उदक के साथ व्याप्त होते हें।
हिन्दी-ऋहरचेद ६१७
७, निभिद्यसात सेघ से निःसृत जलराडि उदक के साथ अन्तरिक्ष में
प्रसारित होती है, जैसे दुग्ध सिचन करनेवाली नवप्रसुता गौ हो । मार्ग
सें जाने के लिए विभुक्त शीघ्रगामी अइव की तरह नदियाँ महावेग से
पधावित होती ह ।
« हें मरुतो, तुम लोग थुलोक से, अन्तरिक्ष से अथवा इसी लोक
से आगमन करो । दूर देश झलोक इत्यादि में अवस्थान नहीं करो ।
९. हे मरुतो, रसा, अनितभा और कुभा नास की नदियां एवम् सर्वत्र
गमनशील सिन्धु (समुद्र) तुम रोगों को नहीं रोकं । जलमथी सरय् तुम
लोगों को निएद्ध नहीं करे । हम सब तुम्हारे आगमन-जनित सुख प्राप्त करें ॥
१०, तुस लोगो के प्रेरक नूतन रथ के बल पर और दीप्त मझद्गण
का हम स्तवन करते हुँ । बृष्टि मरतों का अनुगमन करती है अथवा वष्टि*
प्रद मरुद्गण संत्र गसन करते हें। ।
११. हे मरुतो, हम शोभन स्तुति और हविः प्रदानादि लक्षण काय
द्वारा तुम्हारे बल को, अविवक्षित गण का और सप्त-सप्त समुदायात्मक
गण का अनुसरण करते हें ।
१२. आज के दिन किस हव्य देनेवाले यजमान के निकट, प्रकृष्ट
रथ-द्वारा, मरुद्गण गमन करेंगे ?
१३. जिस दयायुक्त हृदय से तुम लोग पुत्र और पोत्र को अक्षीण
घान्यबीज बहु बार प्रदान करते हो, उसी चित्त से हम लोगों को भौ बह
धान्यबीज प्रदान करो । क्योकि हम लोग तुम्हारे निकट सर्वान्नोपेत अथवा
आयुर्युषत तथा सोभाग्यात्मक धन की याचना करते हँ ।
१४. हे मरुतो, हम लोग कल्याण-द्रारा पाप को परित्याग करके
निन्दक शत्रुओं को जीते । तुम्हारे हारा बृष्टि के प्रेरित होने पर हम सुख,
पाप-निवारकं उदक और गोयुक्त ओषध प्राप्त करें ।
१५. हे पुजित और नेता मरुतो, तुम लोग जिसकी रक्षा करते हो,
बह् देवो-द्वारा अनुगृहीत और शोभम पुत्र-पोत्रादि से पृक्त होता हैं । हम
लोग उसी व्यक्ति को तरह हों; बोकि हन लोग तुम्हारे ही हें।
६१८ हिन्दी-ऋण्वेद
१६. है ऋषि, स्तुति करनेवाले इस यजसान के यज्ञ में तुम दाता
सरुद्गण की स्तुति करो । तृणादि भक्षण करने के लिए गमन करने-
वाली गौओं की तरह मरुद्गण आनन्दित होते हँ । पुरातन बन्धु की तरह
गसनशील मरुतों का आह्वान करो । स्तवन की इच्छ करनेवाले मरुतों
की, वचन-द्वारा, स्तुति करो ।
५३ सुक्त
(देवता मरुद्गण । ऋषि श्यावाश्व । छन्द त्रिष्दुप ओर जगती |)
१. सरुत्सम्बन्धी बल के लिए इस क्रियमाण स्तुति को प्रेषित करो
अर्थात् मरतों के बल की प्रशंसा करो । वे स्वयं तेजोविशिष्ट पर्वतों को
विदीर्ण करनेवाले, धर्मशोषक, चलोक से आगत और घुतिमान् अन्नवाले
हें। इन्हे प्रचुर अन्न प्रदान करो ।
२. है मरुतो, तुम्हारे गण प्रादुर्भूत होते हुँ । वे दीप्तिमान्
जगद्रक्षण!थं जलाभिलाषी, अन्न के वद्धयिता, गमन करने के लिए अइवों
को रथ में युक्त करनेवाले संत्र गमनशील और विद्युत् के साथ
सम्मिलित होनेवाले हु । उसी समय त्रित (मेघ या मरुद्गण) शब्द करते
हैँ और चर्तादक् गमन करनेवाली जलराशि भूमि पर पतित होती हें ।
३. द्युतिसान् तेजवाले, वृष्टि आदि के नेता, आयुध से युक्त
(पत्थर रूप आयुधवाले), प्रदीप्त, पर्वत अथवा मेघ को बिदीण
करनेवाले, बारम्बार उदक-दाता, वज्ञक्षेपक, एकत्र शब्द करनेवाले,
उद्धतबल, मरुद्गण बृष्टि के लिए प्रादुर्भूत होते हें।
४. है रुट्रपुत्र मरुतो, तुम लोग अहोरात्र को प्रवतित करो। हे
सर्वेसमर्थ, तुम लोग अन्तरिक्ष तथा लोकों को विक्षिप्त करो । हे कम्पन-
कारी, तुस लोग समुद्रगर्भस्थ नौका की तरह मेघों को कस्पित करो। तुम
लोग शत्रुओं के नगरों को विध्वस्त करों। हे मरुतो, हिसा मत करो ।
५. है मरुतो, सूर्यं जिस तरह से बहुत दूर तक अपनी दीप्ति को
बिस्तारित करते हु अथवा देवों के अश्व जिस तरह से गमन में दीर्घता
हिन्दी-ऋग्वेद ६१९
को विस्तारित करते हैँ, उसी तरह से तुम्हारे सुप्रसिद्ध वीर्य और महिमा
को स्तोता लोग दूर तक विस्तारित करते हैं।
६. हे वृष्टि के विधाता मरुतो, तुम लोग उदकवान् मेघ को ताड़ित
करते हो । तुम्हारा बल शोभमान होता है । हे परस्पर समान प्रीतिवाले
मरुतो, नयन जिस तरह से मार्गप्रदर्शन में नायक होता है, उसी तरह से
तुन लोग हमें सुगम मार्ग-द्वारा धनादि के समीप ले जाओ ।
७. हे मर्तो, तुम लोग जिस मन्त्र-व्रष्टा ब्राह्मण या राजा को सत्कर्म
में प्रेरित करते हो, बह दूसरों के द्वारा न पराभूत होता हे और न हिंसित
होता है । वह न कभी क्षीण होता है, न पीड़ित होता है और न कोई
बाधा प्राप्त करता है। उसका धन और उसकी रक्षा कभी नष्ट नहीं
होती हुं ।
८. नियत्संज्ञक अइवों से युक्त, संघात्मक पदार्थों के विइलेषयिता
(मिलित पदार्थो को पृथक् करनेवाले), नराकार अथवा नेता अथवा
ग्रामजेता मनुष्य की तरह ओर आदित्य की तरह दीप्त सरुद्गण उदकवान्
होते हें । जब वे अधिपति होते हें, तब कूपादि निम्न प्रदेश को अथवा
मेघ को जलपुर्ण करते हें और शब्दायमान होकर सुमधुर तथा सारभूते
जल से पृथ्वी को सिचित करते हें।
९. यह पृथ्बी मरुतों के लिए विस्तीर्ण प्रदेशबाली होती हे अर्थात्
सम्पूर्ण पृथ्वी मस्तो की हे। द्युलोक भी मरुतों के संचारण के लिए
विस्तीणं होता है। अन्तरिक्षस्थित मार्ग मर्तों के गमन के लिए
विस्तीणं होता हैं । मण्तों के लिए ही मेघ या पर्वत शीघ्र वर्षक
होते हैं ।
१०. है महाबलवाले सबके नेता मरुतो तथा हे द्युलोक के नेता,
तुम लोग सूर्य के उदित होने पर सोमपान के लिए हुष्ट होते हो, उस
समय तुस लोगों के अश्व गमनकार्य में शिथिल नहीं होते हें। तुस लोग
भी तीनों लोकों के सम्पूर्ण मार्ग को पार करते हो ।
६२० रा हिन्दौ-ःषट'वेद
११. हे भरतो, तुम लोगों के स्कन्धप्रदेश में आयू! शोभमान होते
हुँ । पैरों में कटक, वक्षःस्थल में हार और रथ के ऊपर शोभमान दीप्ति
हुँ । तुम लोगों के हस्तद्वय में अग्निदीप्त रदिमियां हुँ और मस्तक पर
विस्तीर्ण हिरण्मयी पगड़ी हे । |
. १२. हे मरतो, जब तुम लोग गसव करते हो, तब अप्रतिहत दीप्ति-
झाळी स्वर्ग और समुज्ज्डल वारिराशि विचलित हो जाती है। जब तुम
लोग हमारे द्वारा प्रदत हुव्य को खाकर बलशाली होते हो और उज्ज्वल
भाव से दीप्ति प्रकाशित करते हो एवम् जब तुम लोग उदकवर्षण की
अभिलाषा प्रकट करते हो, तब तुम लोग भीषण रूप से गर्जना करते हो ।
१३. हे विविध बुद्धिदाले मरुतो, हस लोग रथाधिपति हें। हम
लोग तुम्हारे द्वारा प्रदत्त अन्नवान् धन के स्वामी हों। तुम्हारे द्वारा
प्रदत्त धन कभी नष्ट नहीं होता हे, जेते आकाश से सुर्यं कभी नहीं बिलग
होते हैँ। हे सरतो, हम लोगों को अपरिमित धन-हारा आनन्दित करो ।
'. १४, हे मरुतो, तुम लोग धन और स्पृहणीय पुत्र-भूत्यादि प्रदान करो।
हे मरुतो, तुम लोग सोमसहित विप्र की रक्षा करो । हे मर्तो, तुम लोग
इयावाइव को धन और अन्न प्रदान करो। वे देवों का यजन करते हुँ।
हे मरुतो, तुम लोग राजा को सुखयक्त करो। |
१५. हे सद्यः रक्षणशील मरुतो, तुम लोगों से हम धन की याचना
करते हें। सुर्य जिस तरह से अपनी रहिम को दूर तक विस्तारित करते
हुँ, उसी तरह से हम भी अपने पुत्र-भृत्यादि को उसी धन से विस्तारित
करें। हे मरुतो, तुम लोग हमारे इस स्तोत्र की कामना करो, जिससे
हम सौ हेमन्त अतिक्रमण करे अर्थात् सौ वर्ष जीवित रहें ।
| ५५ सूक्त |
(देवता मरुद्गण । ऋषि श्यावाश्व । छन्द त्रिष्दुप और जगती |)
. १. अतिश्व यष्टव्य और दीप्त आयुधवाले सरवृगण यौवन रूप
प्रभूत अन्न धारण करते हुँ । वे वक्षःस्थल पर हार धारण करते हू । सुख-
हिन्दी-ऋणग्वेद ६२१
पूर्वक नियमन योग्य (वियीत) तथा शीध्यमायी अश्व उन्हें बहन करते हें।
शोभत भाव से अथवा उदक के प्रति गसन करनेवाले सरुतों के रथ सबके
पइचात् गमन करते हें । |
२. हे मरुतो, तुभ रोग जेसः जानते हो अर्थात् जो उचित समझते
हो, वैसी सामर्थ्यं स्वयम् धारण करते हो--तुस्हारी सामथ्यं अप्रतिंबद्ध
है। है मरुतो, तुम लोग बहान ओर वीं होकर शोभमान होओ;
अन्तरिक्ष को बल-द्वारा व्याप्त करो । शोभमान भाव से अथवा उदक के
प्रति गसन करनेवाले सरुतों के रथ सबके पइचात् गसन करते हे ।
३, महान् सरुदूगण एक साथ हो उत्पन्न हुए हें और एक साथ हो वर्षक
होते है वे अतिशय शोभा के लिए सर्वत्र वर्द्धसान हुए हैं। सूर्य-रहिम
की तरह वे यागादि कार्य के मेता तथा शोभासम्पन्न हे। शोसमानभाव
से अथवा उदक के प्रति गसन करनेवाले मरुतों के रथ सबके पश्चात्
गमन करते हु । |
४. हे सस्तो, तुम लोगों की महत्ता स्तवनीय है। तुस लोगों का
झप सूर्यं की तरह दशनीय हैं। हमारे मोक्ष में अर्थात् स्वर्ग प्राप्ति के
विषय में तुम लोग हमारे सहायक होओ। शोभमावभाव से अथवा
उदक के प्रति गमन करनेवाले मरुतों के रथ सबके पचात गनन करते हे ॥
५. हे मर्तो, तुस लोग अन्तरिक्ष से वृष्टि को प्रेरित करो। है
जलसम्पच्च, तुम लोग वर्षण करो । हे दर्शनीयो अथवा शत्रुसंहारको,
तुम्हारे प्रीणयिता (सन्तुष्ट करनेवाले) सेघ कभी भी शुष्क नहीं होते हें ॥
शोभसानभाव से अथवा उदक के प्रति गनन करनेवाले मस्तों के रथ
सबके पश्चात् गमन करते हूँ ।
६. हे भएतो, जब तुस लोग रथ के अग्र भाग में पृषती (मरुतों के
घोड़े का नाम अथवा पृषद्वणंवाली घोड़ी) अश्व को युक्त करते हो, तब
हिरण्य वर्गवाले कवच को उतार देते हो । तुम लोग सब संग्रामों में विजय
प्राप्त करते हो। शोभमानभाव से अथवा उदक के प्रति गसन करने-
बाले सरुतो के रथ सबके पश्चात् गमन करते हें ।
६२२ हिन्दी-ऋणग्वेद
७. हे मरुतो, पर्बत तथा नदियाँ तुम लोगों के लिए प्रतिरोधक नहीं
हों। तुम लोग जिस किसी यज्ञादि स्थान में जाने के लिए संकल्प करते
हो, वहाँ जाते ही हो ॥ बृष्टि के लिए तुम लोग द्यावा-पथिवी में व्याप्त
होते हो। शोचमानभाव से अथवा उदक के प्रति गसन करनेवाले
सरुतों के रथ सबके पश्चात् गमन करते है ।
८, हे मरुतो, जो यागादि कार्य पूर्ण में अनुष्ठित हुआ हे और जो
अभी हो रहा हं, हे बसुओ, जो कुछ सन्त्रगीत होता हैँ तथा जो कुछ
स्तोत्रपाठ होता है, तुम लोग वह सब जानो। शोभनभाव से अथवा
उदक के प्रति गमन करनेवाले मरुतों के रथ सबके पश्चात् गमन
करते हूँ ।
९. हे मश्तो, तुम लोग हमें सुखी करो। हम लोगों के द्वारा किसी
अनिष्ट कार्य के हो जाने से, जो तुम्हें कोप उत्पन्न हुआ हुँ, उससे हम
लोगों को बाधा मत पहुंचाओ । हम लोगों को अत्यन्त सुख प्रदान करो ।
स्तुति को अवगत करके हम लोगों के साथ मंत्री करो। शोभनभाव से
अथवा उदक के प्रति गसन करनेवाले मर्तों के रथ सबके पश्चात्
गमन करते हं ।
१०, हे मर्तो, तुम लोग हमें एश्वर्य के अभिमुख ले जाओ । हम
लोगों के स्तोत्र से प्रसन्न होकर हम लोगों को पाप से उन्मुक्त करो । हे
यजनीय मरुतो, तुम लोग हुम रोगों के द्वारा प्रदत्त हृष्य ग्रहण करो,
जिससे हुम लोग बहुविध धन के अधिपति हों ।
५६ सूक्त
(देवता सरुदूगण। ऋषि श्यावाश्व । छन्द बहती ।)
१. हे अग्नि, रोचमान आभरणों से युक्त और शत्रु को पराभूत
करनेवाले अथवा यज्ञ के प्रति उत्साहित होनेबाले मरुतों का आह्वान
करो । आज यज्ञदिन सें दीप्तिमान् स्वर्ग से हम लोगों के अभिमुख आने
के लिए मरुतौ का आह्वा करते हैं ।
हिन्दी-नटग्वेद ६२३
२. हे अग्नि, जिस प्रकार से तुस मरतो को अत्यन्त घुजित जानते
हो--उनका आदर करते हो, उसी प्रकार सेवे हम लोगो के विकट
उपकारक-भाव से आगमन करे । जो तुम्हारे आह्लान-अ्रवण मात्र से ही
आगमन करते हे, उन भयंकर दर्झनवाले सस्तों को हव्य प्रदान-हारा
वादित करो ।
३. पृथ्वी पर अधिष्ठित मनुष्य दूसरे व्यक्तिनद्वारा अभिभूत होने पर
जैसे अपने प्रबल स्वामी के निकट गसन करता हैं, उसी प्रकार मरुत्सेना
उल्लासित होकर हम लोगों के निकट आगमन करती हँ । हे सस्तो, तुम
लोग अग्नि की तरह कर्मक्षम ओर भीषण की तरह दुर्धषं हो ।
४, दुद्धंण (कठिनता से हिसनीय) अश्व की तरह जो मरुद्गण अपने
बल से बिना आयास के ही शत्रुओं को विनष्ट करते हें, वे गमन-द्वारा
ाब्दायमान, व्याप्त और संसार को पुणं करनेवाले जळ से युक्त मेघ को
जल के लिए प्रेरित करते हे ।
५. हे मरुतो, तुम लोग उत्त्ित होओ । हम लोग स्तोत्र-द्वारा वर्धित,
वारिराशि की तरह समृद्धिशाली, बलसम्पच्च ओर अपुर्व मरुतों का (स्तोत्र-
द्वारा) आह्वान करते हुं । |
६, हे सरतो, तुम लोग रथ में अरुषो (रोचमान वड़वा) को युक्त
करो। रथसमूह सं रोहित वर्ण अश्व को युक्त करो । भारवहन के लिए
शीघ्र गसनवाले हरिद्रय को युक्त करो। जो चहनकार्य में सुदृढ़ हें,
उन्हें भारवहन के लिए युक्त करो ।
७. है मरुतो, रथ में नियोजित, दीप्तिमान् प्रभूत ध्वनिकारी ओर
दर्शनीय वह अइव तुम रोगों की यात्रा के सम्बन्ध सें विलम्बोत्पादच नहीं
करे। रथ में नियुक्त उस अइव को तुम लोग इस प्रकार से प्रेरित करो,
जिससे वह विलम्बोत्पादन नहीं करे ।
८. हम लोग मरुदूगण के उस अञ्नपूर्ण रथ का आह्वान करते हँ, जिस
रथ के ऊपर सुरमणीय जल को धारण करके मरुतों के साथ रोदसी (इद्र
६२४ हिन्दी-ऋ वेद
की पत्नी अथवा मतों की साता या वायुपत्वनी, साध्यमिका देवी)
अबस्थित हँ ।
९, है समरतो, हम तुम लोगों के उस रथ का आह्वान करते हें, जो
शीभाकारी, दीप्तियान् और स्टुततत-शेग्ण हैं। जिसके मध्य में सुजाता,
सोभाग्यश्ालियों सीहङूषी सस्तो के साथ पुजित्त होती
“५७ हू
(५ अडुवाक । देवता मरुद्गण । ऋषि श्यावाश्व |
' छन्दृत्निष्हुप् और जगती |)
१. हे परस्पर सदयचित्त, सुवर्णमय रथारुढ़, इन्द्र के अनुचर खद्रपुत्रो,
तुम लोग सुगम्य यज्ञ में आगमन करो । हम तुम लोगों के उद्देश्य से यह
स्सोत्रयाठ करते हे । तुम लोग तुवा और जलाभिलाषी गोतम के
विकट जिस प्रकार स्वग से जल लाये थे, उसी प्रकार हम लोगों
के निकट भी आगमन करो ।
२. हे सुबुद्धि मरुतो, तुम लोगों को भक्षयसाधन आयुध, छुरिका,
उत्कृष्ट घनुर्वाण, तुजीर और अष्ठ अइव तथा रथ हुँ । तुम लोग अस्त्र-
द्वारा सुसज्ज्जित होओ । हे पृहिनिपुत्रो, हम लोगों के हहवाप-विध याय
आगमन करो ।
३. हे सस्तो, तुम लोग अन्तरिक्ष में मेघों को विक्षिप्त करो, हव्य-
दाता को घन प्रदान करो । तुम लोगों के आगसन-भय से वन विकम्पित
होते हँ। हे पृर्निपुत्रो, हे कोपनश्ील बलबारो, जब तुस लोग जल के
लिए अपने पुषती अश्व को रथ में युक्त करते हो, तब पथ्वी के ऊपर कोप
प्रकाशित करते हो ।
४. सर्दूगण दीप्तिमान्, वृष्टिशोधक, यमज की तरह तुल्यरूप,
दर्शनीव-मूति, श्यामवर्णं और अशणवर्ण, अइवो के अधिपति, निष्पाप
ओर अत्रुक्षयकारी हे । वे बिस्तृत आकाश की तरह निस्तीर्ण हे।
हिन्दी-त्रहवेद ६२७
५. प्रभूत वारि वर्षणकारी, आवरणधारी, दानशील, उज्ज्वलमूति,
अक्षय घधनसस्पन्च, सुजन्सा, वक्षःस्थल पर हार धारण करनेवाले और
पुजनीय मरुद्गण युलोक से आगसन करके अमरण-साधक उदक (अमृत)
प्राप्त करते
६. है मरुतो, तुम लोगों के स्कन्ध देश में आरअ-दिशेय, बाहुद्य में
शत्रवाशक बल, शिरोदेश से सुबर्णभय पगड़ी, रथ के ऊपर आयध
प्रभृति और अंगों मं शोभा अवस्थित है ।
७. हे सश्तो, तुम लोग हम लोगों को बहुत गो, अइव, रथ, प्रशस्त
पुत्र और हिरण्य के साथ अन्न प्रदान करो । हे रुद्रपुत्रों, तुम लोग हम
ल.गों की समृद्धि को वद्धित करो । हम तुम लोगों की स्वर्गीय रक्षा का
भोग करं । |
८. हे भहतो, तुम लोग हम लोगों के प्रति अनुकूल होओ । तुम लोग
नेता, अठुल ऐश्वर्यशाली, अविनइवर, वारिवर्षक, सत्य फल से प्रसिद्ध,
ज्ञामसभ्प्च तरुण, प्रचुर स्तुतियुक्त और प्रभूत दर्षणकारी हो।
५८ सूत
(देवता मरुदूगण । ऋषि श्यावाश्व । छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. आज यज्ञ दिन सं हम दीप्तियान् ओर स्तुतियोग्य मर्तों का स्तवन
करते हुँ। मरुदृगण शीघ्रगामी अरबों के अधिपति, बलपूर्वक सर्वत्र गति-
शीळ, जल के अधिपति ओर निज प्रभा-द्वारा प्रभान्वित हुँ ॥ [
२. है होता, तुम दीप्तिमान् बलशाली बल्य-मण्डित-हस्त, कम्पन-
विधायक, ज्ञानसप्पन्च और धनदाता ससतों की पुजा करो । जो सुखदाता
है, जिनका महत्त्व अपरिमित हुँ, जो अतुल ऐश्वय-सम्पन्च नेता हुँ, उन
मरुतों की चन्दना करो। , : आओ
३. जो विइवव्यापी मरुद्गण वृष्टि प्रेरित करते हुँ, वे जलवाहक.
सहदूशण अभी हुम लोगों के निकट उपस्थित हों । हे तरुण और ज्ञास-
प्[० ४०
६२६ हिन्दी-ऋण्वेद
सम्पन्न सरुतो, तुम लोगों के लिए जो अग्नि प्रज्वलित हुआ है, उसी
के द्वारा तुम लोग प्रीति लाभ करो । |
४. हे पूजनीय मर्तो, तुस लोग यजमान को अथवा राजा को एक
पुत्र प्रदान करो, जो दीप्तिमान्, शत्रुसंहारक और बिम्द-द्वारा निर्मित हो।
हे मरुतो, तुम लोगों से ही अपने भुजबलनद्वारा शजुहस्ता, शत्रुओं
के प्रति बाहुप्रेरक और असंख्य अइवों के अधिपति पुत्र उत्पन्न होते हें।
५, रथ के शद्धः (कील) की तरह तुम लोग एक साथ ही उत्पन्न हुए
हो ! दिवसों की तरह परस्पर समान हो । पुिन के पुत्र समान रूप से
ही उत्पन्न हुए हँ, कोई भी दीप्ति के विषय में निकृष्ट नहीं हेँ। वेगगामी
मरुद्गण स्वतः प्रवृत होकर भली भाँति से वारिवर्षण करते हे ।
६. हे मरुतो, जब तुभ लोग पृषती अश्व-द्वारा आकृष्ट दृढ़चऋ रथ
पर आरोहण करके आगमन करते हो, तब वारिराशि पतित होती है, बन
भग्न होते हें और सूर्य-किरण से सम्पुक्त वारिवर्षणकारी पर्जन्य अधोमुख
होकर बृष्टि के लिए शब्द करते हे।
७. सरुतों के आगमन से पृथ्वी उर्बरता प्राप्त करती है। पति जिस
तरह से भार्या का गर्भ उत्पादन करते हैं, उसी तरह मरुद्गण पृथ्वी के
ऊपर गर्भेस्थानीय सलिल स्थापित करते हूँ । रुद्र के पुत्र शीघ्रगामी अबवों
को रथ के अग्रभाग में युक्त करके वृष्टि उत्पन्न करते हुँ ।
“८. है मरुतो, तुम लोग हमारे प्रति अनुकूल होओ । तुम लोग नेता,
विपुल एश्वर्य शाली, अविनइवर, वारिवर्षक, सत्य फल से प्रसिद्ध, ज्ञान-
सम्पन्न, तरुण, प्रचुर स्तुतियुषत और प्रभूत वर्षणकारी हो।
क् ५९ सूक्त
(देवता मरुद्गण । ऋषि श्यावाश्व । छन्द जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. हे मरुतो, कल्याण के लिए हव्यदाता होता तुम लोगों का स्तवन
भली भांति से करते है । हे होता, तुम दयुतिमान दुदेव का स्तवन करो।
हें आत्मा, हम पृथ्वी का स्तवन करते हुँ। मरुद्गण सबेव्यापिती बृष्टि को.
हिन्दी-त्रहुग्वेद ६२७
पातित करते हुँ। वे अन्तरिक्ष में सर्वत्र सञ्चरण करते हे और मेघों के
साथ अपने तेज को प्रकाशित करते हे ।
२. प्राणियों से पूर्ण नौका जेसे जल मध्य में कम्पित होकर गमन
करती हूँ, वेसे ही मरुतों के भय से पृथिवी कम्पित होती है । बे दूर से
ही दृश्यमान होने पर भी गति-द्वारा परिज्ञात होते हें। नेता मरुद्गण
द्यावा-पृथिवी के मध्य में अधिक हुव्य भक्षण के लिए चेष्टा करते हे।
३. हे मरुतो, तुम लोग शोभा के लिए गोशूुड्रः की तरह उत्कृष्ट
शिरोभूषण धारण करते हो। दिवस के नेता सुर्य जिस प्रकार से निज
रहिस विकीर्ण करते हे, उसी तरह तुम लोग वृष्टि के लिए सर्वप्रकाशक
तेज धारण करते हो । तुम लोग अइवो की तरह वेगवान् और मनोहर
हो । हे चेता मरुतो, यजमान आदि जैसे यज्ञादि कार्य को जानते हें, वैसे
ही तुम लोग भी जानते हो ।
४. हे मरुतो, तुम सब पुजनीय हो । तुम लोगों की पुजा कौन कर
सकता हे ? कोन तुम लोगों के स्तोत्र-पाठ में समर्थ हो सकता है ? कौन
तुम लोगों के वीरत्व को घोषणा कर सकता है ? क्योंकि तुम लोगों के
द्वारा दृष्टिपात होने से भूमि किरण की तरह कम्पित होने लगती है ।
५, अशवो को तरह वेगगामी, दीप्तिमान् ससान बन्धवाले भरुदगण
वीरों की तरह युद्ध-काय में व्याप्त हें। समृद्धि-सम्पन्न मनुष्यों की तरह
नेता मरुद्गण अत्यन्त शक्तिशाली होकर, वृष्टि-द्रारा, सूर्य के चक्ष को
आवृत करते हू । '
६. मरुतो के मध्य में कोई भी किसी की अपेक्षा, ज्येष्ठ या कनिष्ठ
नहीं हें । शत्रुसंहारक मरुतों के मध्य में कोई भी मध्यम नहीं हैं। सब
तेजोविशेष से वद्धंमान हें। हे सुजन्मा, मानवों के हितकारी, पृश्निपुत्र
मरुतो, तुम लोग द्युलोक से हम लोगों के अभिमुख आगमन करो ।
७. हे मरुतो, तुम लोग पंक्तिबद्ध होकर उड़नेवाले पक्षी की तरह
बलपूर्वक विस्तीर्णं और समुन्नत नभोमंडळ के उपरि भाग में होकर अन्तरिक्ष
६२८ हिन्दी-ऋग्वेद
हि
पर्यन्त गमन करते हो। तुम्हारे अश्न मेघ से वृष्टि पातित करते
हे--यह देव और मनुष्य दोनों ही जानते हे ।
८. द्यावा-पृथिवी हम लोगों की पुष्टि के लिए बृष्टि उत्पादन करे।
निरतिशय दानशीला उषा हम लोगों के कल्याण के लिए यत्न करे ।
है ऋषि, ये स्द्रपुत्र तुम्हारे सतज से ॥ररस् होफर स्वर्गीय व् ष्टि-वर्षेण करें।
६० सूक्त
(देवता अग्नि और मश्दूगण । ऋषि श्यावाश्व । छन्द॒ जगती
और त्रिष्टुप् ।)
१. हम इयावाहव ऋषि स्तोत्र द्वारा रक्षाकारी अग्नि की स्तृति करते
हें। वे अभो यज्ञ में उपस्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक उस स्तोत्र को जानें।
जैसे रथ अभिमत स्थान को प्राप्त करता है, उसी तरह से हम
अन्नाभिलाषी स्तोत्रों-द्वारा अपने अभीष्ट का सम्पादन करते हे।.
प्रदक्षिणा करके हम मरुतो के स्तोत्र को बाद्धत कर ।
२. हे उद्यतायुध रुद्रपुत्र मरुतो, तुम लोग प्रसिद्ध अश्वो-द्वारा आक्नष्ट,
शोभन तथा अक्षसमन्दित रथ पर आरूढ़ होकर गमन करो । जब
तुम लोग रथाधिरूढ़ होते हो, तब वन तुम्हारे भय से कम्पित होते हैं।
हे सरतो तुम लोगो के द्वारा भयंकर शब्द किये जाने पर अत्यन्त
वर्धमान पर्वत भी भौत हो जाते हे और अन्तरिक्ष के उन्नत या विस्तृत
प्रदेश भी कम्पित हो जाते हे। हे मरुतो, तुम सब आयुधवान् हो । जब
तुम लोग क्रीड़ा करते हो, तब उदक की तरह प्रधावित होते हो ॥
४. विवाह के योग्य धनवान् युवा जिस प्रकार घुवर्णेशय-अळंकार
तथा उदक के द्वारा अपने शरीर को भूषित करता हुँ, उसी प्रकार सवे-
श्रेष्ठ, बलशाली मरुद्गण रथ के ऊपर समवेत होकर अपने शरीर की
शोभा के लिए तेज धारण करते हे।
५. ये मरुदगण एक साथ ही उत्पन्न हुए हें अथवा समान बलवाले हुँ।
परस्पर ज्येष्ठ और कनिष्ठ भाव से यजित हैं। ये मरुद्गण परस्पर भातृ-
हिन्दी-ऋण्वेद ६२९
भाव से सौभाग्य के लिए वर्दभान होते हैँ। नित्य तरण तथा सत्कमं के
अनुष्ठानकारी मरो के पिता र्र और जननी-स्वरूपा दोहनयोग्या पृद्दित
(गो-देवता) मरुतों के लिए शोधन दिन उत्पन्न करें।
६. हे सोभाग्यशाली मरुतो, तुम लोग उत्तम (उत्कृष्ट) द्युलोक में,
मध्यम झुलोक में अथवा अघोद्युलोक में वर्तमान होते हो। हे रुद्रो, उन
स्थानों (तीनों चुलोकों) से हम लोगों के लिए आगमन करो। है
अग्नि, हम आज जो हृयि प्रदान करते हे, उसे तुम जानो ।
७. हे सर्वेज्ञ मरुतो, तुम लोग और अग्नि लोक के उत्कृष्टतर उपरि
प्रदेश में अवस्थान करते हो । तुम लोग हमारे स्तवन और हव्य से प्रसन्न
होकर शत्रुओं को कम्पित तथा विनष्ट करो और अभिषव करनेवाले यज-
मानों को अभिलषित धन प्रदान करो ।
८. हे वैश्वानर अग्नि, पुरातन ज्बाल-पुञ्ज से युक्त होकर तुम शोभ-
मान, पूजनीय, गणभाव का आश्रय (समवेत) करनेवाले, पवित्रता-
विधायक, प्रीतिदायक और दीर्घजीदी मझ॑तों के साथ सोमपान करो ।
६१ सूक्त
(देवता मरुद्गण, तरन्त राजा की भार्या शशीयसी, पुरुमीह,
तरन्त ओर रथवीति । ऋषि श्यावाश्व । छन्द् गायत्री, अनुष्टुप्
ओर बृहती ।)
१. हे श्रेष्ठतम नेताओ, तु लोग कौन हो ? दूर देश अर्थात् अन्त-
रिक्ष से तुम लोग एक-एक करके उपस्थित होओ ।
२. है मरुतो, तुम लोगों के अश्व कहाँ हें ? लगाम कहाँ है? शीघ्र
गसन में समर्थ होते हो ? किस प्रकार का गसन हु ? आइवों के पृष्ठ देश
पर आस्तरण और नासिकाद्वय में बन्धनरज्जु लक्षित होते हैं।
३. अशतरों के जथन देश में शीज्र गसन के लिए कशा (कोड़ा) घात
होता हूँ । पुत्रोत्पादच (संगम) काल में जसे रमणियां उद्द्वव को विवृत
६३० ` हिन्दी-ऋभ्वेद
करती हँ, उसी प्रकार नेता सए्दूगण अश्यों फो, उर्ट्य विवृत करने के
लिए बाध्य करते हुँ।
४, हे वीरो, शत्रुसेहारको, हे मनुष्यों के लिए कल्याण करनेवालो
हे शोभन जन्सवालो, मरुत्पुत्रो, तुम लोग अख्नितप्त ताच की तरह प्रदीप्त
दुष्ट होते हो । ॒
५, शयावाइव (हम) ने जिसकी स्तुति की हे, जिसने बीर तरन्त को
भुजपइश से बद्ध किया हँ, वही तरन्त महिषी शशीयसी हमें अश्व, गौ
और इातमेषात्मक पशुयूथ प्रदान करती हूँ ।
द. जो पुरुष देवों को आराधना और धनदान नहीं करता हँ, उस
पुरुष की अपेक्षा स्त्री शशीयसी सर्वाश में श्रेष्ठ हुँ।
७. वह शशीयसी व्यथित (ताडित-उपेक्षित) को जानती हुँ, तृष्णां
को. जानती हे और धनाभिलाषी को जानती हुँ अर्थात् कृपावश हो अभि-
मत घन प्रदान करती हे । वह देवों के प्रीत्यर्थ प्रदान-बुद्धि करती हूँ अर्थात्
देवों के प्रति अपने चित्त को समर्पित करती हं। |
८. शशीयसी के अर्द्धाङ्गभूत पुरुष तरन्त की स्तुति करके भी हम
बोलते हं कि उनका समुचित स्तव नहीं हुआ हु; क्योंकि वे दान के
विषय मं सब समय मं एक रूप हूं ।
९ यौवनवती शशीयसी ने सुदित मन से श्यावाइव को (हमें) पथ
प्रदशित किया था। उसके द्वारा प्रदत्त लोहित वर्णवाले दोनों अश्व हमें
यदास्वी, विज्ञ, पुरुमीह्व के निकट वहन करते हूं अर्थात् सज्जित रथ
पर बैठाकर उसने ही हमें पुरुमीह्ण के घर तक पहुँचा दिया था ।
१०. विददरुव के पुत्र पुरुभीक्ल ने भी हमें तरन्त की ही तरह शत
धन् और सहासूल्यवान् धन आदि प्रदान किया था ।
१ १. जो सरुद्यण शीघ्रगामी अइवों पर आरूढ होकर हर्ष विधायक
सोमरस को पान करते हुए इस स्थान में आयल हुए थे, वे मरुद्गण इस
स्थान पर विविध स्तव धारण करते हें।
१२. जिन मरुतों की पान्ति से द्यावा-पृथिदी व्याप्त होती है। अपर
हिन्दी-ऋणग्वेद ६३९१
शलोक में रोचसान आदित्य की तरह वे मरुदगण रथ के ऊपर विशेष
दीप्त होते हू ।
१३. वे मण्द्गण नित्य तरुण, दीप्त रथ विशिष्ट, अनिन्द्य, शोभन
रूप से गमन करनेवाले और अप्रदिहतणति हें।
१४. जलवर्षेणार्थ उत्पन्न अथवा यज्ञ में प्रादुर्भूत, शत्रुओं के कम्पक
और निष्पाप मरुदगण जिस स्थान पर हुष्ट हुए थे, भरुतों के उस स्थान
को कौन व्यक्ति जानता है ?
१५. है स्तवाभिलाषी सण्तो, जो मनुष्य यजसान इस प्रकार स्तुतिः
कर्म-द्वारा तुम लोगों को प्रसन्न करता है, उसे तुम लोग अभिमत स्वर्गावि
स्थान प्रदर्शित करते हो । यज्ञ में आहत होने पर तुम लोग उस आह्वान
को श्रवण करते हो ।
१६. है गत्रुसंहारक, पुजनीय, विविध धनशाली मरुतो, तुम लोग
हम लोगों को अभिवाञ्छित धन प्रदान करो ।
१७. हे रात्रिदेवी, तुम हमारे निकट से रथवीति के निकट इस
मरत्स्तुति को प्रापित करो । यह स्तुति मरुतों के लिए की गई है। हे
देवी, रथी जिस प्रकार से रथ के ऊपर विविध वस्तु रख करके गन्तव्य
स्थान पर उसे ले जाता हुँ, उसी प्रकार तुम हमारे इस सकल स्तव का
वहन करो ।
१८. हे रात्रि देवी, सोम यज्ञ सम्पन्न होने पर रथवीति को तुम यह
कहना कि तुम्हारी पुत्री के प्रति हमारी कामना कम नहीं हुई हे ।
१९. वे धनवान् रथवीति गोमती के तीर में निवास करते हुँ और
हिमवान् पर्वत के प्रान्त में उनका गृह अवस्थित है ।
६२ सूक्त
(देवता मित्र और वरण । ऋषि अत्रि के अपर््य श्रतविद् ।
छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. हम तुम लोगों के आवासभूत, उदक-द्वारा आच्छादित, शाइवश्च
और सत्यभूत सूर्यमण्डल का दशेन करते हें। उस स्थान में अवस्थित
६३२ हिन्दी-ऋग्वेद
अश्वों को स्तोता लोग मुक्त करते हें। उस मण्डल में सहर-संख्यक
रश्सियाँ अवस्थिति करती हुँ। तेजोवान् अग्नि आदि शरीरवान् देवों के
मध्य में हमने सूर्य के उस श्रेष्ठ सण्डल को देखा हूँ ।
२. हे मित्र और वरुण, तुम दोनों का यह माहात्म्य अत्यन्त प्रशस्त
है, जिसके द्वारा निरन्तर परिभ्रनणकारी सूर्ये दैनिक गति से सम्बद्ध
स्थावर जलराशि को दुहते हँ। तुम लोग स्वयं भ्रमणकारी सूर्य की
प्रीतिदायक दीप्ति को वद्धित करते हो। तुम दोनों का एक मात्र रथ
अनुक्रस से परिभ्रमण करता हें ।
३. हे मित्र और वरुण, स्तोता लोग तुम्हारे अनुग्रह से राजपद प्राप्त
करते हँ । तुस दोनों अपनी सामर्थ्य से द्यावा-पुथिवी को धारण करके अव-
स्थित हो। हे शीघ्र दानकर्ताओ, तुम लोग ओषधियों और घेनुओं को
वद्धिंत करो एवम् वृष्टिवर्षण करो।
४, हे मित्र और वरुण, तुम दोनों के अव रथ में भली भांति से
युक्त होकर तुम दोनों को बहन करे। सारथि के द्वारा नियन्त्रित होकर
अनुवतेन करें। जल का रूप (मूतिमान् जल) तुम दोनों का अनुसरण
करता हुँ । तुम दोनों के अनुग्रह से पुरातन नदियाँ प्रवाहित होती हैं ।
५, हे अन्नवान् तथा बलसम्पञ्च भित्र ओर वरुण, तुम दोनों विश्रुत
शरीर-दीप्ति को बद्धित करते हो। यज्ञ जेसे मन्त्र-द्वारा रक्षित होता है,
उसी प्रकार तुम दोनों भी पृथ्वी का पालन करो। तुम दोनों यज्ञ-भूमि
के मध्यस्थित रथ पर आरोहण करो ।
६. हे सित्र और वरुण, तुम दोनों यज्ञ-भूसि में जिस यजमान की रक्षा
करते हो, शोभन स्तुति करनेवाले उस यजमान के प्रति तुस दोनों दान-
शीळ होमो और उसकी रक्षा करो । तुम दोनों राजा मौर क्रोधविहीव
होकर धन एवम् सहन स्तम्भसमन्वित सोध (मंजिलवाला मकान) धारण
करते हो ।
७. इनका रथ हिरण्यय है और कीलकादि भी हिरण्मय ही है । यह
रथ विद्युत की तरह अन्तरिक्ष में शोभा पाता हँ । हम लोग कल्याणकर
हिन्दी-ऋणग्वेद ६३३
स्थान में अथवा यपर्याष्ट-समन्वित यज्ञ-भप्ति में रथ के ऊपर, सोमरस
स्थापन करे ।
८, है मित्र और वरुण, तुम लोग उषाकाल में सूर्थे के उदित होने
पर लोटकील-समान्वित सुवर्णमय रथ पर यज्ञ में जाने के लिए आरोहण
करो एवम् अदिति अर्थात् अखण्डनीय भूमि ओर दिति अर्थात् खण्डित
प्रजा का अवलोकन करो ।
९, हे दानशील तथा विशवरक्षक मित्र और वरुण, जो सुख व्याघात-
रहित, अछिल्ल और बहुतम है, उस सुख को तुम दोनों धारण करले
हो। उसी सुख से हम लोगों की रक्षा करो । हम लोग अभिलक्षित घन
लाभ करें और शत्रु विजयी हों ।
ततीय अध्याय समाप्त ।
६३ सूक्त
(चतुर्थ अध्याय । देवता सित्रावरण । ऋषि अत्रि के अपत्य
अचनाना । छन्द॒ जगती |)
१. हे उदक के रक्षक सत्य धर्मेबाले भित्र और वरुण, तुम दोनों हमारे
यज्ञ में आने के लिए निरतिशय आकाश में रथ के ऊपर अधिरोहण करते
हो। हे मित्र और वरुण, इस यज्ञ में तुस दोनों जिस यजसान की रक्षा
करते हो, उस यजमान के लिए मेघ चुलोक से सुमधुर वारिवर्षण
करता हे।
२. हे स्वर्ग के द्रष्टा मित्र और वरुण, इस यज्ञ में राजमान होकर
तुम दोनों भूवन का शासन करते हो। हम लोग तुम दोनों के निकट
दृष्टिकप धन तथा स्वर्ग की प्राथना करते हैं। तुम दोनों की विस्तृत
रहिमयाँ छावा-पूथिबी के मध्य सें विचरण करती हूँ ।
६३४ हिन्दी-ऋग्वेद
३. हे मित्र और वरुण, तुम दोनों अत्यन्त राजमान, उद्यतबल, वारि-
वर्षक, द्ावा-पुथिवी के पति और सर्वद्रष्टा हो । तुम दोनों महानुभाव
विचित्र मेघों के साथ स्तुति श्रवण करने के लिए आगमन करो।
पश्चात् वृष्टिविधायक पर्जन्य की सामर्थ्य-द्वारा द्युलोक से दृष्टि पातित.
क्रो ।
४. हे मित्र और वरुण, जब तुम दोनों के अस्त्रभूत ज्योतिर्मय सूर्य
अन्तरिक्ष सें परिञ्रसण करते हें, तब तुम दोनों की माया (सामर्थ्य)
स्वर्ग में आश्वित (प्रकटित) होती हुँ । तुम दोनों झलोक में सेघ और
वृष्टि-द्वारा सूर्यं की रक्षा करते हो। हे पर्जन्य देव, मित्र और
बरुण, द्वारा प्रेरित होने पर तुम्हारे द्वारा सुमवुर वारिबिन्दु पतित
होता हे ।
५. हे सित्र और वरुण, वीर जिस प्रकार से युद्ध के लिए अपने रथ
को सज्जित करता है, उसी प्रकार मरुद्गण तुस दोनों के अनुग्रह से वृष्टि
के लिए सुखकर रथ को सज्जित करते हें। वारिवर्षण करने के लिए मरु-
दूगण विभिन्न लोक में सञ्चरण करते हें। हे राजमान देवो, तुम
दोनों मरुतों के साथ झलोक से हम लोगों के ऊपर वारिवर्षण
करो ।
६- हें मित्र और वरुण, तुस दोनों के अनुग्रह से ही मेघ अच्चसाधक,
प्रभाव्यङजक और विचित्र गर्जन शब्द करता हे। सरुद्गण अपनी
प्रज्ञा के बल से मेघों की रक्षा, भली भाँति से करते हैं। उनके
साथ तुम दोनों अउणवर्ण तथा निष्पाप आकाश से बृष्टि पातितं
करते हो ।
७. हे विद्वान् मित्र और वरुण, तुम दोनों जगत् फे उपकारक
दृष्ट्यादि कार्य-द्वारा यज्ञ की रक्षा करते हो। जल के वर्षक पर्जन्य की
प्रज्ञा-हारा उदक या यज्ञ से समस्त भूतजात को दीप्त करते हो। पुज्य
और वेगवान् सुर्य को दुलोक से धारण करो ।
. हिन्दी-ऋणग्वेदं ६३५
६४ सूक्त
(देवता मित्र ओर वरुण । ऋषि अचनाना।
छन्द आनुष्टुप् ओर पडि क्त |)
१. हे मित्र और वरुण, हम इंस मन्त्र से तुम दोनों का आह्वान करते
हैं। बाहुबल से गोयूथ के सञ्चालकद्वय की तरह दोनों शत्रुओं को अप-
सारित करो और स्वर्ण के पथ को प्रदर्शित करो ।
२. तुम दोनों प्रज्ञासम्पन्न हो । तुम दोनों हम स्तुतिकर्चा को अभि-
भत सुख प्रदान करो । हम शोभन हस्त-द्वारा स्तुति करते हें। तुम दोनों
द्वारा प्रदत्त स्तुति-योग्य सुख सब स्थान में व्याप्त हे ।
३. हम अभी गसन (संगति) प्राप्त करें। मित्रभूत अथवा मित्र-
हारा दशित मागं से हम गमन करें। अहिसक मित्र का प्रिय सुख हमें
गृह में प्राप्त हो।
४. हे मित्र और वरुण, हम तुम, दोनों की स्तुति करके इस प्रकार
घन धारण करेंगे कि धनिकों और स्तुतिकर्ताओं के घर में ईर्ष्या का
उदय होगा ।
५. हे मित्र, हे वरुण, तुम दोनों सुन्दर दीप्ति से युक्त होकर हमारे
यज्ञ में उपस्थित होओ । एश्वयंशाली यजमानों के गृह में एवम् तुम दोनों
के मित्रों के अर्थात् हमारे गृह में समृद्धि बढन करो ।
६. हे मित्र ओर वरुण, हमारी स्तुतियों के निमित्त तुम दोनों हमारे
लिए प्रचुर अन्न तथा बल धारण करते हो । तुम दोनों हमें अन्न, धन
और ,कल्याण विशेष रूप से प्रदान करो।
७. है अधिवॉयक मित्र और वरुण, उषाकाल में, सुन्दर. किरण से
युवत प्रातः सवन में, देव-बल-विशिष्ट गृह में तुम दोनों पुजनीय होते हो ।
उस गृह में हमारे द्वारा अभिषुत सोस का तुम दोनों अवलोकन करो ॥
तुम दोनों अर्चनाना के प्रति प्रस्त होकर गसन साधन अइवों पर आरो-
हण करके अभी आगमन करो । ॒
६३६ हिन्दी-ऋग्वेद
६५ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि आत्रि के अपत्य रातहव्य |
छुन्द् पंक्ति और अनुष्टुप् ।)
१. जो स्तोता देवों के मध्य में तुम दोनों की स्तुति जानता हे, वही
शोभनकमं (अनुष्ठान) करनेवाला हूँ । वह शोभनकर्मा स्तोता हमें
स्तुतिविषयक उपदेश दें, जिनकी स्तुति को सुन्दर सू्तिवाले मित्र और
बरुण, ग्रहण करते हें। |
२. प्रशस्त तेजवाले और ईइवरभूत मित्रावरुण दुर देश से आहूत होने
पर भी आह्वान श्रवण कर लेते हैं। यजमानों के स्वामी ओर यज्ञ के
वर्धयिता बे दोनों प्रत्येक स्तोता के कल्याण-विधानर्थं॑ विचरण करते
३. तुम दोनों पुरातन हो । हम तुम दोनों के निकट उपस्थित होकर
रक्षा के लिए स्तवन करते हँ । वेगवान् अइवों के अधिपति होकर हम
अन्नप्रदानार्थ तुम दोनों की स्तुति करते हँ । तुम दोनों शोभन ज्ञानवाले
हो । |
४. मित्रदेव पापी स्तोता को भी विशाल गृह में निवास करने का
उपाय बताते हं। हिंसक परिचारक के लिए भी मित्रदेव की शोभन
बृद्धि हु ।
५. हम यजमान दुःखनिवारक सित्रदेव की बिपुल रक्षा के लिए
अधिकारी हों । हम तुम्हारे द्वारा रक्षित और निष्पाप होकर हम सब
एक काल में ही वरुण के पुत्रस्वरूप हों।
६. है मित्र और वरुण, हम तुम दोनों की स्तुति करते हुँ । तुम दोनों
हमारे निकट आगमन करो। आकर समस्त अभिलषित वस्तु प्राप्त
कराओ । हस अज्गसस्पन्न हैं। हमारा परित्याग नहीं करना । ऋषियों
के अर्थात् हमारे पुत्रों का परित्याग नहीं करना । सुतसोम यज्ञ में हम
लोगों को रक्षा करना ।
हिन्दी-ऋग्वेद ६३७
६६ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण | ऋषि अत्रि के अपत्य
य॒जत । छन्द् अनुष्ठुप् ।)
१, हे स्तुतिविज्ञाता मनुष्य, तुम शोभनकर्म को करनेवाले और
दात्रुओं के हिंसक देव्य का आह्वान करो । उदकस्वरूप, हविरृक्षण,
अन्नवान् और पूजनीय वरुण को हव्य प्रदान करो ।
२. तुम दोनों का बल अहिसनीय और असुर-विघातक हे अर्थात्
तुम दोनों महान् बलवाले हो। सुर्य जिस प्रकार अन्तरिक्ष में दृश्यमान
होते है, उसी प्रकार मनुष्यों के मध्य में तुस दोनों का दर्शेनोय बल यज्ञ
में स्थापित होता हँ ।
३. है मित्र और वरुण, तुम दोनों रात हव्य की प्रक्रृष्ट स्तुति से शत्रु”
प्राभवकारी बल लाभ करके हम लोगों के इस रथ के. सम्मुख बहुत दूर
तक मार्गरक्षाथे गमन करते हो । तुम दोनों हम लोगों के द्वारा स्तुत
होते हो ।
४, हे स्तुतियोग्य ओर हे शुद्ध बलवाले देव्य, हस प्रवृद्धमान की
पुरक स्तुति से तुम दोनों अत्यन्त आइचर्यंभूत हो । तुम दोनों अनुकूल मन
से यजसानों के स्तोत्र को जानते हो ।
हे पृथिवी देवी, हम ऋषियों के प्रयोजन को सिद्ध
करने के लिए तुम्हारे ऊपर प्रभूत जल अवस्थित हे। गमनशील
देवदय निज गति विधि-द्वारा अति प्रचुर परिमाण में वारि-वषण
करते हुँ ।
६. हे दुरदर्शी मित्र और वरुण, हम और स्तोता लोग तुम दोनों
. का आह्वान, करते हैं । हम तुम्हारे सुविस्तीण और बहुतों-द्वारा गन्तव्य
अथवा बहुतों के द्वारा रक्षितव्य राज्य में गमन कर ।
६३८ य हिन्दी-ऋग्येद
६७ सूत्र
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि अत्रि के अपत्य यजत।
छन्द अङुष्टुप् ।)
१. हे यतिमान् अदिति पुत्र मित्र, वरुण और अर्यमा, तुम सब अभी
वर्तमान प्रकार से यजनीय बृहत् ओर अत्यन्त प्रवुद्ध बल धारण करते हो।
२. हे सित्र ओर बरुण, हे मनुष्यों के रक्षक तथा शत्रुसंहारक, जब
तुम लोग आनन्दजनक यज्ञभूमि सं आगसन करते हो, तब तुम लोग हमे
सुखी करते हो ।
३. सबेविद् मित्र, वरण, अर्यमा अपने-अपने पद (स्थान) के अनु-
रूप हमारे यज्ञ में संगत होते हें ओर हिसको से मनष्यों की रक्षा करते
हँ।
४, वे सत्यदर्शी, जलवर्षी और यज्ञरक्षक हैं। वे प्रत्येक यजसान
को सत्पथ प्रवशित करते हें ओर प्रचुर दान करते हँ। वे महानुभाव
वरुणादि पापी स्तोता को प्रभूत घन प्रदान करते हें ।
५, हे मित्र और वरुण, तुम दोनों के मध्य में सबके द्वारा स्तुतियों
से कोन अस्तुयसान हुँ ? अर्थात् दोनों ही स्तुतियोग्य हें। हम लोग
अल्प बृद्धि हें। हम लोग तुम्हारा स्तवन करते हँ । अत्रिगोत्रज लोग
तुम्हारा स्तवन करते हुँ ॥
६८ सूक्त
(देवता मित्र और वरण । ऋषि यजत । छन्द गायत्री |)
१. हे हमारे ऋत्विको, तुस लोग उच्च स्वर से मिअ और वरुण
का भली भाँति से स्तवन करो । है प्रभूत बलशाली मित्र और वरुण, तुम
दोनों इस महायज्ञ में उपस्थित होओ ।
२. जो मित्र और वरुण दोनों ही परस्परापक्षा सबके स्वाभी, जल के
उत्पादक, द्युतिमान् और देवों के मध्य में अतिशय स्तुत्य हें, हे ऋत्विजो,
तुस रोग उन दोनों की स्तुति करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ६३९
३. वे दोनों देव हम लोगों को पार्थिव घम तथा दिव्य धन दीतौं ही
देने में समर्थ हें हे मित्र और वरुणदेव, तुम दोनों का पूजनीय बळ देवों
के मध्य मं प्रसिद्ध है । हम लोग उसका स्तवन करते हूँ ।
४. उदक-द्वारा यज्ञ का स्पर्शन करके वे दोनों देव अन्वेषणकारी
प्रवद्ध यजमान को अथवा हेव्य को व्याप्त करते हैं । हे द्रोहरहित मित्रा-
वरुण देव, तुम दोनों प्रबुद्ध होते हो ।
५. जिन दोनों के द्वारा अन्तरिक्ष वर्षणकारी होता है, जो दोनों
अभिसत फल के प्रापक हुँ, वृष्टिप्रद होने से जो अञ्च के अधिपति हैं, ओर
जो दाता के प्रति अनुकूल हें, वे दोनों महानुभाव यज्ञ के लिए महान् रथ
पर अधिष्ठित होते हें ।
६९ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि अत्रि के अपत्य
उरुचक्रि। छन्द् त्रिष्टुपू ।)
१. हे वरुण, हे भित्र, तुस दोनों रोचमान तीन दुलोकों को धारण
करते हो, तीन अन्तरिक्ष लोकों को धारण करते हो ओर तीन भूलोकों को
धारण करते हो। तुम दोनों क्षत्रिय यजमान के अथवा इन्द्र के रूप और
कर्म की अविरत रक्षा करते हो। |
२. हे मित्र और वरुण, तुम दोनों की आज्ञा से गौएँ दुग्धवती होती
हें। स्यन्दनशील मेघ वा नदियाँ सुमधुर जळ प्रदान करती हुँ। तुम दोनों
के अनुग्रह से जलवर्षक भौर उदकधारक तथा झुतिमान अग्नि, वायु
और आदित्य नामक तीन देव पूथिबी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक के स्वामी
होकर प्रत्येक अधिष्ठित होते हुँ ।
३. प्रातःकाल सें ओर सूर्य के समृद्धि काल सं अर्थात् माध्यन्दिन
सवन में हम ऋषि देवों की चुतिमती जननी अदिति का आह्वान करते
हेँ। हे मित्र ओर वरुण, हम धन, पुत्र, पौत्र, अरिष्ट शान्ति और सुख
के लिए तुम दोनों का स्तवन, यज्ञ में, करते हें ।
६४० हिप्दी-ऋच्वेद
४. हे खुलोकोटरक् अदिति-पुत्रदय, तुम दोनों द्युलोक तथा भूलोक
के धारणकर्ता हो । हम तुम दोनों का स्तवन करते हँ । हे मित्र और वरुण,
- तुम्हारे कार्य स्थिर हुँ, उन कार्यो की हिसा इख आदि अमर देवगण भी
महीं कर सकते हें ।
७० सत्ती
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि उस्चक्रि | छन्द गायत्री |)
१. हे मित्र और वरुण, तुम दोनों का रक्षण-कार्यं निश्चय ही अत्यन्त
दीघेतर है । हे वरुण और मित्र, हम तुम दोनों की अमुग्रहबद्धि का सम्भ-
जन करें ।
२. हे द्रोहविवर्जित देवद्वय, हम तुस दोनों के निकट से भोजन के
लिए अञ्नलाभ करें। है रुद्रो, हम लोग तुम्हारे स्तोता हों। समृद्ध हों
अथवा तुम्हारे ही हों ।
३. हे रुद्ररूप देवट्टय, तुम दोनों रक्षा-द्ारा हमारी रक्षा करो। शोभन
त्राण-द्वारा पालन करो, अर्थात इष्ट की प्राप्ति हो, अनिष्ट का
निराकरण हो ओर अभिमत फल लाभ हो । हम अपने पुत्रों के साथ अथवा
अपने शरीर से ही शत्रुओं को हिसित कर ।
४. हे आइ्चर्य-जनक कर्म करनेवाले, हम अपने शरीर-द्वारा किसी के
पूजित (श्रेष्ठ) धन का भी उपभोग नहीं करते हें। हम तुम्हारे अनुग्रह
से समृद्ध हूँ--किसी के धन से शरीर पोषण भी नहीं करते हें। पुत्र
योचों के साथ भी हम दूसरे (तुम्हारे व्यतिरिक्त) के धन का उपभोग नहीं
करते हें। हमारे कुल मे कोई सो दूसरे के धन का उपभोग नहीं करता है ।
७१ सूक्त
(देवता मित्र और वस्ण । ऋषि बाहुघृक्त । छन्द गायत्री ।)
१. हे वरुण, हे मित्र, तुम दोनों शत्रुओं के प्रेरक और हन्ता हो ।
तुम दोनों हमारे इस हिसाथजित यज्ञ में आसन करो ।
हिम्दी-ऋग्देद ६४१
२. हे प्रकृष्ट ज्ञानयक्त सित्र और वरुण, तुम दोनों सबके स्वामी
होते हो । हे हमारे ईशवरद्वय, फल प्रदान-द्वारा हसारे कर्मों का तुम दोनों
पालन करो ।
३. हे सित्रादरण, तुस दोनों हमारे अभिषुत सोस के प्रति आगमन
करो । हम हवि देनेवाले है । हमारे इस सोम को पीने के लिए आगमन
क्रो।
७२ सूरत
(देवता मित्र और वरुण । छन्द बाहुबृक्त । ऋषि गायत्री )
१, हमारे गोत्रप्रवर्तक अत्रि की तरह हम लोग सन्त्र-द्वारा तुम
दोनों का आह्वान करते हँ। इसलिए मित्रावरुण सोमपान के लिए
कुश के ऊपर उपवेशन करे। |
मित्र और वरुण, जगद्धारक कर्म के द्वारा तुम दोनों के स्थान
विचलित नहीं होते हं। अर्थात् तुम दोनों स्थानच्युत नहीं होते हो।
ऋत्विक् लोग तुस दोनों को यज्ञ प्रदान करते हुँ। इसलिए मित्रावरुण
सोमपाच के लिए कुश के ऊपर उपवेशन कर।
. ३. हे मित्र और वरुण, तुम दोतों हमारे यज्ञ को अभिलाषपुर्वेक
ग्रहण करो और आकर सोसपान के लिए कुझ के ऊपर उपवेशन करो।
७३ सूक्त
(६ अनुवाक । देवता अश्विद्वय । ऋषि अत्रि के आपत्य पौर ।
छन्द अनुष्टुप् )
१. हे अगणित यज्ञ में भोजन करनेवाले, अहिवनीकुमारो, यद्यपि
इस सभय तुम दोनों अत्यन्त दुर देश झुलोक सं बतंमान हो, गसनशक्य
अन्तरिक्ष में वर्तमान हो अथवा बहुतेरे प्रदेश में बतेमान हो; तथापि उन
सब स्थानों से यहाँ आगमन करो।
२. हे अदियनीकुनारो, तुम दोनों बहुत यजमानों के उत्साहदाता,
विविध कर्मों के धारणकर्ता, वरणीय, अप्रतिहृतगति और अनिरुद्धकर्मा
` फॉ० ४१
६४२ हिन्दी-क्रर्वेद
हो। इस यज्ञ में हम दोनों के समीप उपस्थित होते हैं। प्रभूततम भोग
ओर रक्षा के लिए हम तुम दोनों का आह्वान करते हें।
३- है अश्विनीकुमारो, सुर्थ की सूति को प्रदीष्स करने के लिए
तुम दोनों ने रथ के एक दीप्तिमान् चक को नियमित किया ह। अपनी
सामथ्यं से मनुष्यों के अहोरात्रादि काल को निरूपित करने के लिए
अन्य चकऋ्रद्वारा (तीनों) लोकों में परिश्रमण करते हो।
४. हे व्यापक देवहय, हम जिस स्तोत्र-द्वारा तुम दोनों का स्तवन
करते हे, वह तुम दोनों का स्तोत्र इस पुरवासी के द्वारा सुसम्पादित हो।
हे पृथक् उत्पन्न तथा निष्पाप देवद्वय, तुम दोनों हमें प्रचुर परिमाण में
अन्न प्रदान करो।
५. हे अविवनीकुमारो, जब तुम दोनों की पत्नी सुर्या तुम दोनों के
सवेदा शी प्रगामी रथ पर आरोहण करती है, तब आरोचमान और दीप्त
आतप (दीप्तियाँ) तुम दोनों के चतुदिक् विस्तृत होते हैं।
६. हे नेता अश्विद्वय, हम लोगों के पिता अननि ने तुम दोनों कः स्तवन
करके जब अग्नि के उत्ताप को सुखसेव्य समझा था, तब उन्होंने अग्नि-
दाहोपशम रूप सुखहेतु कृतज्ञ चित्त से हुम दोनों के उपकार को स्मरण
किया था।
७. तुम दोनों का दृढ़, उच्चत, गसनशील, सतत विधूणित रथ यज्ञ
में प्रसिद्ध हें। हे नेता अढिबद्वय, तुम दोनों के ही कार्य-द्वारा हमारे पिता
अत्रि आवर्तमान होते हैँ अर्थात् तुम दोनों के कार्य-द्वारा उन्होंने परित्राण
पाया था।
८. है मधुर सोमरस के मिश्चयिता देवो, हम लोगों की पुष्टिकर
स्तुति तुम लोगों के ऊपर मधुर रस सिचन करती है। तुम लोग अन्तरिक्ष
की सीमा का अतिक्रमण करते हो। सुपक्व हव्य तुम दोनों का पोषण
करता हे। | |
९ है अश्विनीकुधारो, पुराविद्गण (पण्डित लोग) तुस दोनों को
हिन्दो-ऋग्वेद ६४३
जो सुखदाता कहते हँ, वह निश्चय ही सत्य हें। हमारे यज्ञ में सुखदानार्थे
आहूत होने पर दोनों अतिशय सुखदाता होओ।
१०. शिल्पी जिस प्रकार रथों को प्रस्तुत करता हुँ, उसी प्रकार
हम लोग अहिवह्य को संर्वाद्धत करने के लिए स्तुति प्रस्तुत करते हें।
वे स्तुतियाँ उन्हें प्रीतिकर हों।
७४ सूक्त
(देवता अश्विद्यय । ऋषि पौर । छन्द अनुष्टुप् |)
१. हे स्पुतिवन, धनवषणकारी देवद्वय, आज इस यज्ञदिन में तुम
दोनों चुलोक से आगसन करके भूमि पर ठहरो ओर उस स्तोत्र को श्रवण
करो, जिते तुम्हारे उद्देश से अत्रि सर्वदा पाठ करते हें।
२. वे दीप्तिमान् नासत्यद्रय कहाँ हे? आज इस यञज्ञदिन में बे
दुलोक के किस स्थान में श्रुत हो रहे हें? हे देवद्वय, तुम दोनों किस
यजमान के निकट आगमन करते हो ? कौन स्तोता तुम दोनों की स्तुतियों
का सहायक हे ?
३. हे अदिवनीकुमारो, तुम दोनों किस यजमान या यज्ञ के प्रति
गसन करते हो ? जाकर किसके साथ मिलित होते हो ? किसके अभिमुख-
वर्ती होमे के लिए रथ में अश्वयोजना करते हो? किसके स्तोत्र तुम
दोनों को प्रीत करते हुँ? हम लोग तुभ दोनों को पाने की कामना
करते हे ।
४. हे पौर-सस्बन्धी अधिवनीकुमारों, तुस दोनों पोर के निकट पौर
को अर्थात् वारिवाहक मेघ को प्रेरित करो। जङ्गल में व्याधगण जेसे
सिह को ताड़ित करते हं, बसे ही यज्ञकर सं व्याप्त पोर के निकट तुम
दोनों इसे ताड़ित करो।
५. तुस दोनों ने जराजीणं च्यवन के हेय, पुरातन, कुरूप को, कवच
की तरह विमोचित किया था। जब तुम दोनों ने उन्हें पुनर्शार यवा
किया था, तब उन्होंने सुरूपा कामिनी के द्वारा वाञ्छित मातत को
पाया था। |
६४४ हिन्दी-ऋग्वेद
६. हे अधिवहण, इस यज्ञस्थल में तुझ दोनों के स्तोता विद्यमान हैं।
हम लोग समृद्धि के लिए तुस दोनों के दूष्टिपथ में अवस्थान करें। आज
तुम लोग हमारा आह्वान श्रवण करो। तुम लोग अद्चकूप धन से धनवान्
हो। तुम लोग रक्षा के साथ यहाँ आगमन करो।
७. हे अन्नलूप घनवान् अशिवद्वय, असंख्य सत्यो के मध्य में कोन
व्यक्ति आज सर्वापेक्षा तुम दोनों को अधिक प्रसञ्च करता हे! हे ज्ञiनियों
द्वारा वन्दित अध्विद्दय, कोन ज्ञानी व्यक्ति तुम दोनों को सबपिक्षा अधिक
प्रसन्न करता हे अथवा कोन यजमान ही यज्ञ द्वारा तुम दोनों को अधिक
तृप्त करता हैं।
८, हे अध्विद्दय अन्य देवताओं के रथों के मध्य में सर्वापक्षा वेगगामी
और असंख्य शत्र-संहारी एवं सम्पूर्ण मनुष्य यजमानों द्वारा स्तुत तुम
दोनों का रथ हम लोगों की हित-कामना करके इस स्थान में आगमन
क्रे। |
९. हे मधुमान् अश्विद्ठय, तुम दोनों के लिए पुनः पुनः सम्पादित
स्तोत्र हम लोगों के लिए सुखोत्पादक हो। हँ बिशिष्ट ज्ञानसम्पच्च अशिवद्वय,
तुम दोनों शयेन पक्षी की तरह सर्वत्र गगनशोल अश्व पर आरूढ़ होकर
हम लोगों के अभिमुख आगमन करो।
१०. हे अध्विनीकुमारों, तुम दोनों जिस किसी स्थान में अवस्थान
करो; किन्तु हमारा यह आह्वान श्रवण करो। तुम दोनों के निकट गमन
करने की कामनावाला यह उत्कृष्ट हव्य तुम दोनों के निकड उपस्थित
हो।
७५ सूक्त
(देवता अश्विद्ठय । ऋषि अद् के अपत्य अवस्यु । छन्द पङ त्ति |)
१. हे अहिवनीकुमारो, तुम दोनों के स्लुतिकारी अवस्यु ऋषि तुस
दोनों के फलवर्षेणकारी और धनपूर्ण रथ को अलंकृत करते हुँ। हे
मधुविद्या को जाननेवालो, तुम दोनों हमारा आह्वान श्रवण करो।
हिन्दी-ऋग्वेद ६४५
हे अइिवद्वय, तुम दोनों सब यजमानों को अतिक्रमण करके इस
स्थान में आगमन करो, जिससे हम समस्त विरोधियों को पराभूत करें।
हे शत्रुसंहारक, सुदर्रमद-एथारूढ़, प्रशस्त-धनसम्पन्न, नदियों को वेग-
प्रवाहित करनेवालो एवम् रषुदिद्या-विहृःरद अश्विह्यय, तुम दोनों हमारा
आह्वान श्रवण करो।
३. हे अदिवद्वय, तुम दोनों हमारे लिए रत्न लेकर आगमन करो।
हे हिरण्य-रथाधिरूढ़, स्दुतियोग्य, अज्न-रूप धनवालो, यज्ञ में अधिष्ठान
करनेवालो एवम् मधुविद्या-विशारद अशिवद्वय, तुम दोनों हमारा आह्वान
अवण करो। |
४. हे धनवर्षणकारी अदिवद्वय, तुम दोनों के स्तोता का (मेरा)
स्तोत्र तुम दोनों के उद्देश से उच्चारित होता है। जुम दोनों का प्रसिद्ध,
मभत्तिमान यजमान एकाग्रचित्त होकर तुम दोनों को हव्य प्रदान करता:
है। हे सधुविद्या-विज्ञारद, तुम दोनों हमारा आह्वान वण करो।
, हे अश्विय, तुम दोनों विज्ञ मनवाले, रथाधिरूढ़, द्ृतगामी एवम्
स्तोव्र-श्रवणकर्ता हो। तुम दोनों शीघ्र ही अइव पर आरोहण करके
कपटतादिहीन च्यवन के निकट उपस्थित हुए थे। हे मधुविद्या-विशारद,
तुम दोनों हमारा आह्वान श्रवण करो ।
६. हे नेता अशिवद्ठय, तुम दोनों के सुशिक्षित, दुतगामी और विचित्र-
मूरति अइव सोमपान के लिए ऐश्वयं के साथ इस स्थान में तुम दोनों का
आनयन करें। हे मधुविद्या-विजशारद, तुम दोनों हमारा आह्वान श्रवण
क्रो।
७, हे अडिवद्वय, तुम दोनों इस स्थान में आगमन करो। है नासत्यद्वय,
तुम दोनों प्रतिकूल नहीं होना। हे अजेय प्रभु, तुम दोनों प्रच्छन्न प्रदेश
से हमारे यज्ञूह में आगमन करो। है मधुविद्या-विशारद, तुम दोनों हमारा
आह्वान श्रवण करो। | |
८. हे जल के अधिपति अजेय अदिव्य, इस यज्ञ भें तुम दोनों
६४६ हिन्दी-ऋग्वेद
स्तवकारी अवस्यु के लिए अनुग्रह प्रदशन करो। है मधुजिद्या-विशारद,
तुम दोनों हमारा आह्वान श्रवण करो।
९. उषा विकसित हुई हुं। समुज्ज्वल किरण-सम्पन्न अग्नि वेदी के
ऊपर संस्थापित हुए हें। हे धनवर्षणकारी, शत्रुसंहारक अईिवद्ठय, तुम
दोनों के अक्षय्य रथ में अइव युक्त हों। हे मधुविद्या-विशारद, तुम दोनों
हमारा आह्वान श्रवण करो।
७६ सूक्त
(देवता अशिविद्वय । ऋषि अत्रि के अपत्य भौम । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. उषाकाल में प्रब॒ध्यसान अग्नि दीप्ति होते हैं। मेधावी स्तोताओं
के देवाभिलाषी स्तोत्र उद्गीत होते हु। हे रथाषिपति अडिवद्वय, तुम दोनों
आज इस यज्ञस्थान में अवतीर्णं होकर इस सोमरसपुणं समृद्ध यज्ञ में
आगमन करो ।
२. हे अझ्विनीकुमारो, तुम दोनों संस्कृत यज्ञ की हिंसा नहीं करो;
किन्तु यज्ञ के समीप शीघ्र आगमन करके स्तुति-भाजन होतो। प्रातःकाल
मं रक्षा के साथ तुम दोनों आगमन करो, जिससे अन्नाभाव नहीं हो।
आकर हव्यदाता यजमान को सुखी करो।
३. तुम दोनों रात्रि के शेष में, गोदोहन-काळ में, प्रातःकाल में, सूर्य
जिस समय अत्यन्त प्रवृद्ध होते हें अर्थात् अपराह्कु काल में; सायाह्
सें, रात्रि में अथवा जिस किसी समय में सुखकर रक्षा के साथ आगमन
करो। अदिवनीकुमारों को छोड़कर दूसरे देव सोसपान के लिए प्रवत्त
नहीं होते ।
४. है अझिविनीकुमारो, यह उत्तर वेदी तुम दोनों का निवासयोग्य
प्राचीन स्थान है। ये समस्त गृह और आलय तुम दोनों के ही हें। तुन
दोनों वारिपूर्ण मेघ-दारा समाकीण अन्तरिक्ष से अञ्च और बल के साथ
हुम लोगों के निकट आगसन करो।
हिन्दी-त्रटस्वेद ६४७
_ ७. हम सब अध्विनीकुमार की श्रेष्ठ रक्षा तथा सुखदायक आगमन
के साथ सङ्गत हों। हे असरणशील देवद्वय, तुस दोनों हमें धन, सन्तति
और समस्त कल्याण प्रदान करो;
७७ सुक्त
(देवता अशिवद्वय । ऋषि भौम । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे ऋत्विको, अहिवहय प्रातःकाल में ही सब देवों से प्रथम ही
उपस्थित होते हँ, तुम सव उनका पजन करो। वे अभिकाङक्षी और
नहीं देनेवाले राक्षस प्रभूति के पूढे ही हव्य पान करते हूँ। अशिवद्वय
प्रातःकाल में यज्ञ का संभजन करते हें। पूर्वेकालीय ऋषिगण प्रातःकाल
में ही उनकी प्रशंसा करते हें।
२. हे हमारे पुरुषो, प्रातःकाल में ही तुम लोग अश्विनीकुमारों का
पुजन करो। उन्हें हव्य प्रदान करो। सायंकालीन हव्य देवों के निकट
जानेबाला नहीं होता हुँ । देवगण उसे स्वीकृत नहीं करते हें, वह हव्य
असेवनीय हो जाता हे । हमसे अन्य जो कोई सोम-द्वारा उनका यजन
करता है ओर हव्य-द्वारा उन्हें तृप्त करता हुँ; जो व्यक्ति हम लोगों से
और दूसरों से पहले उनका यजन करता हे, बह् व्यक्त देवों का
सम्भजनीय या संभाव्य (अभिमत) होता है।
३. हे अशिवद्ठय, तुम दोनों का हिरण्य-हारा आच्छादित, मनोहर
वर्ण, जलवर्षण करनेवाला मन की तरह वेगवाला, वायु के सदूश वेग-
पुर्ण और अन्न को धारण करनेवाला रथ आगमन करता हे। उस रथ
के द्वारा तुम दोनों सम्पूर्ण दुर्गम मार्गों का अतिक्रमण करते हो।
४. जो यजमान हविविभाग होनेवाले यज्ञ में अध्विनीकुमारों को
विपुल अञ्न या हव्य प्रदान करता है, वह यजमान कर्म-द्वारा अपने पुत्र
का पालन करता है। जो अग्नि को उद्दीप्त नहीं करते हें अर्थात् अयष्टा
हें, उनकी सदा हिंसा करहे हें ।
६४८ न्दी-ऋग्वेद
५. हम सब अश्विवीकुमार को श्रेष्ठ रक्षा तथा सुखदायक आगमन
के साथ संगत हों। हे अमरणशील देवद्वय, तुस दोनों हमें धन, सन्तति
और समस्त कल्याण प्रदान करो।
७८ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । ऋषि अत्रि के अपत्य सप्तवधि । छन्द् उष्णिक
त्रिष्दुप् ओर अनुष्ट्प् ।)
१. हे अशिविनीकुसारो, इस यज्ञ में तुम दोनों आगमन करो। हे
नासत्यद्ृय, लुम दोनों स्पृहाइन्य मत होओ। जैसे हंसद्वघ निर्मल उदक
के प्रति आगमन करते हें, उसी प्रकार तुम दोनों अभिषत सोम के
प्रति आगमन करो ।
२. हे अश्विनीकुमारो, हरिण और गौर मुग जैसे घास का अनुधावन
करते हँ एवम् जेसे हंसद्वय निर्मल उदक के प्रति आगमन करते हँ, उसी
प्रकार तुम दोनों अभिषुत सोम के प्रति आगमन करो।
३. हे अन्न के निमित्त निवासप्रद अशिवद्ठय, तुम दोनों हमारे यज्ञ में
अभीष्ट सिद्धि के लिए आगमत करो। जैसे हंसद्ठय निर्मल उदक के
प्रति आगमन करते हुँ, उसी प्रकार तुम दोनों अभिषत सोम के प्रति
आगमन करो।
४. हे अश्विनीकुमारो, विनय करने पर स्त्री जेसे पति को प्रसन्न
करती हे, उसी प्रकार हम लोगों के पिता अत्रि ने तुम्हारी स्तुति करके
तुषाग्नि-कुण्ड से मुक्ति-लाभ किया था। तुम दोनों शयेन पक्षी के नवजात
वेग से सुखकर रथ-द्वारा हम लोगों की रक्षा के लिए आगमन करो।
५. हे वनस्पति-विनिमित पेटिके (काठ के बने बक्स), प्रसव करने
के लिए उद्यत रमणी की योनि की तरह तुम विवृत (विस्तृत) होओ
या फेल जाओ। खुले हुए बक्स की ओर संकेत है। तुम दोनों हमारा
आह्वान श्रवण करो। हम सप्तर्वाश्र ऋषि को मुक्त करो।
हिन्दी-ऋग्वेद ६४९
६. है अश्तिनीलुसारों, तुम दोनों भीत और निर्गमन कै लिए प्रार्थना
करनेवाले ऋषि सप्त्वात्न के लिए माया-हारा पेटिका (बदस) को संगत
और विभक्त करते हो ।
७. वायु जिस प्रकार सरोवर आदि को संचालित करती है, उसी
प्रकार तुम्हारा गर्भ संचालित हो। दस मास के अनन्तर गर्भस्थ जीव
निर्यत हो।
८. वायु, वन ओर समुद्र जिस प्रकार कम्पित होते हे, उसी प्रकार
दस मास-पर्येन्त गर्भस्थ जीव जरायु-बेषिटत होकर पतित हो।
९, दस मास-पर्यन्त जननी के जठर में अवस्थित जीव जीवित तथा
अक्षत रूप से जीविता जननी से उत्पन्न हो।
७९ सूक्त
(देवता उषा। ऋषि अत्रि के सत्यश्रवा । छन्द पंक्ति ।)
दीप्तिमती उषा, तुमने हम लोगों को असे पहले प्रबोधित किया
था, उसी प्रकार आज भी प्रचुर धन-प्राप्ति के लिए प्रबोधित करो।
हे शोभन प्रादुर्भाववाली अइवप्राप्ति के लिए लोग तुम्हारा स्तवन करते
हें । तुम वय्यपुत्र सत्यश्रवा क्वे प्रति अनुग्रह करो।
२. हे सूर्यतनया उषा, तुमने झुचद्रथ के पुत्र सुनीथि का अन्धकार
दुर किया था। हे शोभन प्रादुर्भावराली, अइवप्राप्ति के लिए लोग
तुम्हारा स्तवन करते हु। तुम वय्यपुत्र अतिशय बलवान् सत्यश्रवा का
तमो-निवारण करो ।
३. हे यलोक की इूहिता, तुम धन आहरण करनेवाली हो। तुस
आज हम लोगों का तमोनिवारण करो। हे सुजाता, अइवप्राप्ति के लिए
लोग तुम्हारा स्तवन करते हें। तुमने वय्यपुत्र अतिशय बलवान् सत्यश्रवा
का तमोनाश किया था।
४. है भकाशवती उषा, जो ऋत्विक् स्तोत्र-द्रारा तुम्हारा स्तवन
करते हें, वे ऐदवर्य-हारा समृद्धि-सम्पन्न ओर दानशील होते हें। हे धन-
शालिनी सुजाता उषा, लोग अइवलाभ के लिए तुम्हारा स्तवन करते हुं ।
६५० हिन्दी-ऋग्वेद
५. हे उषा, धन प्रदान करने के लिए तुम्हारे सम्मुख उपस्थित ये
उपासकगण अक्षय्य हुव्यरूप घन प्रदान करके हम लोगों के प्रति अनुकूल
हुए थे । हे शोभन उत्पन्नवाली, अइव-प्राप्ति के लिए लोग तुम्हारा स्तवन
करते हुँ। |
६. हे वनशालिनी उषादेवी, तुम यजमान स्तोताओं को वीर पुत्रादि
से युक्त अन्न प्रदान करो, जिससे वे धनवान् होकर हम लोगों को प्रचुर
परिमाण सें घन प्रदान करं। हे शोभन उत्पन्नवाली, अझ्वप्राप्ति के लिए
लोग ठुंम्हारा स्तवन करते हुँ। |
७. हे धनशालिनी उषा, जिस धनवान् ने हम लोगों को अइब और
धेनुओं से युक्त धन प्रदान. किया था, उस सम्पूर्ण यजमान को तुम धन
और प्रभूत अझ प्रदान करो। हे शोभन उत्पश्चबाली, अशवप्राप्ति के
लिए लोग तुम्हारा स्तवन करते हैं।
८. हे द्युलोक की दुहिता उषा, तुम सूर्य को शत्र रश्मि एवम्
प्रज्वलित अग्नि की प्रदीप्त ज्वाला के साथ हम लोगों के निकट अन्न
और धेनुओं का आनयन करो। हे शोभन उत्पन्नवाली, अश्वप्राप्ति के
लिए लोग तुम्हारा स्तवन करते हेश २
९, हे चुलोक की दुहिता उषा, तुम विभात (प्रकाश) उत्पादन करो।
हम लोगों के प्रति विलम्ब नहीं करना। राजा चोर या शत्र को
जिस प्रकार सन्तप्त करते हें, उसी प्रकार सूर्य तुम्हें रश्मि-द्वारा सन्तप्त
नहीं करें। हे शोभन उत्पन्नवाली, अइवप्राप्ति के लिए लोग तुम्हारा स्तवन
करते हें ।
१०. हे उषा, जो प्राथित हुआ है और जो प्राथित नहीं हुआ है, बह
सब हमें प्रदान करने में तुम समर्थ हो। हे दीप्तिमती, तुम स्तोताओं
का तमोनाह करती हो और उनकी हिसा नहीं करती हो। हे
शोभन उत्पन्न वाली, अश्वप्राप्ति के लिए लोग तुम्हारा स्तवन
करते हें ।
हिन्दी-ऋष्वेद ६५१
८० सुकत
(देवता उषा । ऋषि सत्यश्रवा । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. दीप्तिमान् रथ पर आख्ढु, सर्वव्यापिनी, पञ्च सें भली भाँति से
पूजित, अरुणवर्ण, सुर्य की पुरोवतिनी ओर दीप्तिमती उषा का स्तवन
ऋत्विक लोग स्तोत्रो-द्वारा करते हुँ ।
२. दर्शनीय उषः प्रसुप्त जनों को प्रबोधित करती हें और मागो
को सुगम करके विस्तृत (प्रभूत) रथ पर आरोहण करती हैं एवम् सूर्य
के पुरोभाग सें गसन करती हूँ। महती ओर विश्वव्यापिनी उषा दिवस
के आरम्भ में दीप्ति विस्तार करती हें ।
३. रथ में अरुण वर्ण के बलीवर्दो को युक्त करके वे अक्षीण घनो
को अविचलित करती हें। दीप्तिमती, बहुस्तुता और सबके द्वारा वरणीया
उषा मार्गों को प्रकाशित करके शोभमान या प्रकाशित होती हेँ।
४. प्रथम और मध्यम स्थान में अर्थात् ऊढं और मध्य अन्तरिक्ष में
अवस्थिति करके उवा अपनी मूर्ति को पुर्वे दिशा में प्रकटित करती हूँ।
विशेष इवेतवर्णवाली उषा अभी ब्रह्मा"ड को प्रबोषित करके आदित्य के
मार्ग का अली भाँति से अनुधावन करती हूं। वे दिशाओं की हिसा नह
करती हें; बल्कि दिशाओं को प्रकाशित करती हें।
५. सुन्दर अलंकार मे युक्त रमणी की तरह अपने शरीर को प्रका-
शित करती हुई और स्नान कर चुकनेषाली की तरह उषा हम लोगों के
पुरोभाग में पूर्व की ओर उदित होती हें। ध॒रोक की दुहिता उषा द्रेषक
अन्धकार को बाधित करके तेज के साथ आगमन करती हुँ।
६. यलोक की दुहिता उषा पक्चिमाभिमुखी होकर कल्याणकारक
वेश धारण करनेवाली रमणी की तरह अपने रूप को प्रेरित करती हुँ।
वह हव्य देनेवाले यजमान को वरणीय धन प्रदान करती हूँ। नित्य यौदन
वाली उषा पुर्वं की तरह अपनी दीप्ति प्रकाशित करती हूं।
६५२ हिन्दी-ऋग्वेद
८९ सूक्त
(देवता सविता | ऋषि अत्रि के अपत्य श्यावाश्व । छन्द॒ जगती |)
१. ऋत्विक यजसान लोग अपने सन को सब कर्मो में लगाते हुँ।
मेधावी, महान् और स्तुतियोग्य सविता की आज्ञा से यज्ञकार्य में निविष्ट
होते हें। वे होताओं के कार्यो को जानकर उन्हें यज्ञकायं में प्रेरित करते
हँ। सविता देव की स्तुति अत्यन्त प्रभूत हे अर्थात् उनकी महिमा स्तुति
के अयोचर हुँ ।
२. मेधावी सविता स्वयं सम्पूर्ण रूप धारण करते हुँ। वे मनुष्यों
तथा पश॒ओं के गमनादि-विषयक कल्याण को जानते हें। सबके प्रेरक
वरणीय सविता देव स्वर्ग को प्रकाशित करते हँ। वे उषा के उदित होने
के पश्चात् प्रकाशित होते हें।
३. अग्नि आदि अन्यान्य देवगण झुतिमान् सविता का अनुगमन करके
महिमा ओर बल प्राप्त करते हे अर्थात् सूर्यं के उदित होने पर ही
अर्नि-होत्रादि कार्यं होता हें। जो सविता देव अपने माहात्म्य
से प॒थिव्यादि लोकको परिच्छिन्न करते हें, वे शोभमान होकर
विराजमान हें।
४. हे सविता, रोचमान तीनों लोकों में तुम गमन करते हो और सूर्य
की किरणों से मिलित होते हो, तुम रात्रि के उभय पाइवं होकर गमन
करते हो। है सविता देव, तुम जगद्धारक कर्म द्वारा मित्र नामक देव
होते हो।
५. हें सविता देव, अकेले तुम ही सब (लौकिक) या वैदिक कर्मों
के अनुशासन में समर्थ हो। हे देव, गमन-द्वारा तुस पुषा (पोषक) होओ।
तुम समस्त भूवनजात को धारण करने में समर्थ हो। हे सविता देव,
३यावाइव ऋषि तुम्हारा स्तवन करते हू ।
हिन्दी-ऋग्वेद ६५३
८२ सूक्त
(देवता सविता । ऋषि अत्रि के अपत्य श्यावाश्व ।
छन्द अनुष्टुपू और गायत्री ।)
१. हम लोग सविता देव से प्रसिद्ध और ओगयोग्य धन के लिए
प्रार्थना करते हें। सविता देव के अनुग्रह से हम अय के निकट से श्रेष्ठ,
सर्व-भोगप्रद ओर शत्रसंहारक धन लाभ करें।
२. सविता के स्वयम् असाधारण, सर्वप्रिय और राजमान ए३वर्थ को
कोई असुर आदि भी नष्ट नहीं कर सकता हें।
वह सविता ओर भजनीय भग देव हम इव्यदाता को रमणीय
धन प्रदान करते हं। हम उस भजनीय भगदेव से रमणीय धन की
याचना करते हूं। i
४. हे सविता देव, आज यज्ञ-दिन में तुम हम लोगों को पुत्रादि से
युक्त सौभाग्य (घन) प्रदान करो एवम हम लोगों के दुस्वप्नजनित
दारिद्रय को दूर करो।
५. हे सविता देव, तुम हम लोगों के समस्त अमङ्गल को दूर करो
एवम् प्रजा, पशु ओर गृहादिरूप कल्याण को हम लोगों के अभिमुख
प्रेरित करो।
(६ हम अनुष्ठान करनेवाले प्रेरक सविता देव को आज्ञा से अखण्ड-
नीया देवी (भूमि) अदिति के निकट निरपराधी हों। हम सम्पुर्ण रसणीय
या वाङ्िछत धन धारण कर।
७, आज हम लोग इस यञ्ञ-दिन में, सुक्तों (स्तोत्रों) के हारा सवे-
देवस्वरूप, अनुष्ठाताओं फे पालक और सत्य शासक या रक्षक सविता
देव का संभजन अथवा उपासन! करते हेँ।
¢. जो सविता देव भली भाँति से ध्यान करने के योग्य हें था
सुन्दर कर्सवाले हैं। जो अप्रमत्त होकर दिन और रात के पुरोभाग में
६५४ हिन्दी-ऋणष्वेद
गमन करते है, उन सविता देव का हम इस यज्ञ-दिन में, सुक्तो के द्वारा
संभजन अथवा उपासना करते हें।
९. जो सविता देव समस्त उत्पन्न प्राणियों के निकट यश सुनाते हुँ
अर्थात् सबिता देव के यश को सब घुनते हैं, जो सब प्राणियों को प्रेरित
करते हँ, उन सबिता देव का इस यज्ञ-दिन में हम सुबतो के द्वारा संभजन
अथवा उपासना करते हुँ।
८३ सूक्त
(देवता पर्जन्य । ऋषि अत्रि के अपत्य भोम ।
छन्द जगती, अनुष्डुपू और त्रिष्टुप् )
१. हे स्तोता, तुम बलवान् पर्जन्य देव के अभिमुखबर्ती होकर उनकी
प्राथना करो। स्तुतिवचनों से उनका स्तवन करो। हृविळेक्षण अच्च से
उनकी परिचर्या करो। जलवर्षक, दानशील, गर्जेनकारो पर्जन्य वृष्टिपात-
दारा ओषधियो को यर्भयुक्त करते हूँ ।
२. पर्जन्य वृक्षों को नष्ट करते हें, राक्षसों का वध करते हुँ और
महान् वध-हारा समग्र भुवन को भय प्रदर्शित करते हुँ। गरजनेवाले
पर्जन्य पापियों का संहार करते हुँ; अतएव निरपराधी भी वर्षण करनेवाले
पर्जन्य के निकट से भीत होकर पलायमान हो जाते हैं।
३. रथी जिस प्रकार से कशाघात-द्वारा अइवों को उत्तेजित करके
योद्धाओं को आविष्कृत करते हे, उसी प्रकार पर्जन्य भी सेघों को प्रेरित
करके वारिदर्षक मेघों को प्रकटित करते हुँ। जब तक पर्जन्य जलद-समूह
को अन्तरिक्ष में व्याप्त करते हैं, तब तक सिह की तरह गरजनेवारे मेघ
का शब्द दूर में ही उत्पन्न होता हैं ।
४. जब तक पर्जन्य दृष्टिद्वारा पृथिवी की रक्षा करते हे, तब तक
वृष्टि के लिए हवा बहती रहती है, चारों तरफ़ बिजलियाँ चमकती
रहती हैं, ओषधियाँ बढ़ती रहती हे, अन्तरिक्ष बित होता रहता है
ओर सम्पूर्ण भूवन की हितसाधना में पृथिवी समर्थ होती रहती हे।
हिन्दी-ऋग्बेद दपष्
५. हे पर्जन्य, तुम्हारे ही कर्म से पृथिवी अवयत होती हें, तुम्हारे
ही कर्म से पाद-युक्त या खुरबिशिज्ट पशुसमूह पुष्ट होते हें या गसग
करते हैं। तुम्हारे ही कर्म से ओषधियाँ दिविध वर्ण धारण करती हुँ:
तुम हम लोगों को महान् सुख प्रदान करो।
६. हे मरुतो, तुम लोग अन्तरिक्ष से हम लोगों के लिए बृष्टि प्रदान
करो। वर्षणकारी ओर सबव्यापी मेघ की उदक धारा को झरित करो
(बर्साओ) । हे पर्जन्य, तुम जलसेचन करके गर्जनशील मेघ के साथ हम
लोगों के अभिमुख आगमन करो। तुस वारिदर्धक और हम लोगों के
पालक हो।
७. पृथिवी के ऊपर तुम शब्द करो--गर्जेच करो, उदक द्वारा
ओषधियों को गर्भ-धारण कराओ, वारिपुर्ण रथ-द्वारा अन्तरिक्ष सें
परिश्रमण करो, उदकधारक मेघ को बृष्टि के लिए आकृष्ट करो या
दिसुक्तबन्धन करो, उस बन्धन को अधोमुख करो, उन्नत और निम्नतम
प्रदेश को समतल करो। अर्थात् सब उदकपुणं हो।
८. हे पजन्य, तुम कोशस्थानीय (जल-भाण्डार) सहान् मेघ को
ऊद्ध्बं भाग में उत्तोलित करो एवम् वहाँ से उसे नीचे की ओर क्षारित
करो अर्थात् वारिवर्षण कराओ। अप्रतिहत वेगशालिनी नदियां पूर्वाभिमुख
या पुरोभाग में प्रवाहित हों। जलू-द्वारा दयावा-पृथियी को बिलिन (आइ)
करो। गौओं के लिए पानयोग्य सुन्दर जळ प्रचुर मात्रा में हो।
९. हे पन्य, जब तुम गम्भीर गर्जन करके पापिष्ठ मेधों को विदीणे
करते हो, तब यह सम्पूर्ण विशव और भूमि में अधिष्ठित चराचरात्मक
पदार्थ हृष्ट होते हें अर्थात् बृष्टि होने से सम्पूण जगत् प्रसन्न होता हु।
१०. हे पर्जन्य, तुमने बृष्टि की है। अभी दृष्टि संहारण करो।
तुमने मरुभूमियों को सुगम्य बनाने के लिए जलयुषल किया ह। मनुष्यों के
भोग के लिए ओषवियों को उत्पन्न किया है। प्रजाओं के समीप से तुमने
स्तुतियाँ प्राप्त की हूँ।
६५६ हेन्दी-त्रट
टे सूक्त
(देवता एथ्वी । ऋषि अत्रि के पुत्र भास । छन्द अवुष्ट॒प् ।)
१. हे पृथियी (हे मध्य स्थान की देवी), तुस यहाँ अन्तरिक्ष १
दर्यतों या भेघों के भेदन को धारण करती हो। तुम बलझालिनी औः
श्रेष्ठ हो; क्योंकि तुम माहत्म्य-द्रःरा पृथियी को प्रसञ्च करती हो ।
२. हे विविध प्रकार से गमन करवेयाली पृथिवी देवी, स्तोता लो
गलनशील स्तोत्रों-दारा तुम्हारा स्तवन करते हूँ। हे अर्जुनी (शुभ्रवण
या गसनझीले) तुम शब्द करवेबाले अश्व की तरह जलपुणं मेघ को
प्रक्षिप्त करते हो।
३. हे पृथिवी, जब की बिद्योतमान अन्तरिक्ष से तुम्हारे सम्बन्धी
मेघ दृष्टि पालित करते हे, तब तुस दृढ़ भूमि के साथ वनस्पतियों को
धारण करती हो अथवा बनस्पतियो को दृढ़ करके धारण करती हो।
८५ सूक्त
(देवता वरुण । ऋषि अत्रि । छन्द त्रिष्टुप )) |
१. हे अक्रि, तुम भली भाँति से राजसान, सर्वत्र विश्ुत (प्रसिद्ध)
और उपद्रवो के निवारक वरुण देव के लिए प्रभूत, दुरवगाह (बहुत अर्थ
से युक्त) और प्रिय स्तोत्र का उच्चारण करो। पशु-हन्ता जिस प्रकार
से निहत पशुओं के चर्म को विस्तृत करता है, उसी प्रकार वे सूर्य फे
आस्तरणार्थ अन्तरिक्ष को विस्तारित करते हैँ।
२. वरुणदेव व॒क्षों के उपरिभाग में अन्तरिक्ष को विस्तारित करते
' हैं। अश्वो में बल, गोओं में दुग्ध और हृदय में संकल्प विस्तारित करते
हें। वे जल में अग्नि, अन्तरिक्ष में सुर्यं और पर्वतों पर सोमलता स्थापित
करते हँ।
३. वएणदेव स्वर्ग, पृथिवी और अन्तरिक्ष के हित के लिए मेघ के
निस्न-भाय को सछिद्र करते हूँ। बृष्टि जिस प्रकार से यव आदि शबइय
हिन्दी-ऋग्वेद न ५७
को सिक्ष्त करती हुँ, उसी प्रकार अखिल भुवन के अधिपति बरुणदेव
समग्र भूमि को आई करते हेँ।
४, वसुणदेव जब वृष्टिरूप दुग्ध की कामना करते हुँ, तब वे पृथिवी,
अन्तरिक्ष और स्वर्ग को आई करते हुं। अनन्तर पर्वतससूह वारिदों के
द्वारा शिखरों को आवृत करते हें। मरुदूगण अपने बल से उल्लसित
होकर मेघों को शिथिल करते हूं।
५. हम प्रसिद्ध अघुरहन्ता वरुणदेव की इस महती प्रज्ञा की घोषणा
करते हु। जो वरणदेव अन्तरिक्ष में अवस्थित होकर मानदण्ड की तरह
ूर्य-द्वारा पृथिवी और अन्तरिक्ष को परिच्छिन्न करते हुँ।
६. प्रकृष्ट ज्ञानसम्पन्न और द्यतिसान् वरुणदेव की सर्वप्रसिद्ध महती
प्रज्ञा की हिसा (खण्डन) कोई नहीं कर सकता है। जल-सेचनकारिणी
श्र नदियाँ वारि-द्वारा एकमात्र समुद्र को भौ पूर्ण नहीं कर सकती हें।
यह वरुण का महान् कमं हे।
७. हे वरुण, यदि हम लोग कभी किसी दाता, मित्र, वयस्य,
भ्राता, पड़ोसी अथवा मुक के प्रति कोई अपराध करें, तो उन अपराधों
का विनाश करो।
८, हे वरुणदेव, चूतकीड़ा-दारा प्रवञ्चनाकारी पाशक्रीड़क की तरह
यदि हम लोग ज्ञानपुर्वक या अज्ञानपुर्वक कोई अपराध करें, तो तुम शिथिल
बन्धन की तरह उन्हें मुक्त करो। है देव, अनन्तर हम तुम्हारे प्रियपात्र
हों।
॒ ८६ सूक्त
( देवता इन्द्र और अग्नि । ऋषि अत्रि ।
छन्द अनुष्टुप् और विराद् |)
१. है इन्द्र और अग्नि, तुम दोनों संग्राम में सत्यं की रक्षा करो।
वे शत्र-सम्बन्धी दतिसान् धन को अतिशय भिन्न करते हें। वे प्रतिवादियों
के वाक्य का खण्डन करते हें और शत्रुओं के वाक्य की तरह तीनों स्थानों
से बर्तेमान रहते है।
फान ४२
६५८ हिन्दी-ऋगेद
२. जो इन्द्र और अग्नि संग्राम में अनभिभवनीय हें, जो संग्राम में
या अन्न के विषय में स्तवनीय हु और जो पञ्चश्रेणी के मनुष्यों की रक्षा
करते हू, उन दोनों महानुभावों का हम लोग स्तवन करते हें।
३. इन दोनों का बल शत्रुओं को पराभूत करमेवाला हैं। जब ये होतों
देव एक रथ पर आख्ढु होकर धेनुओं के उद्धारार्थ और वृत्र के विनाशार्थ
गमन करते हं, तब इन दोनों धनवानों के हाथों में तीक्ष्ण बज्र विराजमान
रहता हे।
४. हे गमनशील, धन के अधिपति, सर्वज्ञ तथा निरतिशय वन्दनीय
इन्द्र और अग्नि, युद्ध में रथ प्रेरित करने के लिए हम लोग तुम दोनों
का आह्वान करते हृ।
५. हे अहिसनीय देवद्वय, हम लोग अइव लाभ के लिए त॒म दोनों
का स्तवन करते हूं। तुम दोनों मनुष्यों की तरह सवेदा वरद्धमान होते
हो एवम् आदित्यद्वय की तरह दीप्तिमान् हो।
६- पत्थरों-द्वारा पिसे हुए सोमरस की तरह बलकारक हव्य सम्प्रति
प्रदत्त हुआ ह। तुम दोनों ज्ञानियो को अन्न प्रदान करो। स्तवकारियों
को प्रभूत धन और अच्च प्रदान करो।
८७ सूक्त
( देवता मरुद्गण । ऋषि अत्रि के अपत्य एवयामरुत् ।
छन्द जगती ।)
१. एवया ऋषि के वचन-निष्पञ्न स्तोत्र मरुतों के साथ विष्ण के
निकट उपस्थित हों एवम् वे ही स्तोत्र बलशाली, पूजनीय, शोभनालंकृत,
शक्तिसम्पन्न, स्तुतिप्रिय, सेघसञ्चालनकारी और द्रुतगामी मरुतों के
निकट उपस्थित हों। | |
२. जो महान् इन्द्र के सहित प्रादुर्भूत हुए हैं, जो घञ्ञ-गमन-विषयक
ज्ञान के साथ प्रादुर्भूत हुए हे, उन सस्तो का एवयामरुत् स्तवन करते
हें। हे मरतो, तुम लोगों का बल अभिमत फल दान से महान् हे और
अतभिभवनीय हुँ । तुम लोग पर्वत की तरह अटल हो।
हिन्दी-ऋग्वेद ६५९
३. जो दीप्त और स्वच्छन्दतया विस्तीर्ण स्वगं से आह्वान श्रवण
करते हँ, अपने गृह में अवस्थिति करने पर जिन्हें चालित करने में कोई
समर्थं नहीं है, जो अपनी दीप्ति-द्वारा दीप्तिसान् हँ, जो अग्नि की तरह
नदियों को सञ्चालित करते हूँ एवयाससत् स्तुति-द्वारा उनकी उपासना
करते हैं।
४. सस्तो के स्वेच्छानुसार गमन करनेवाले अइव जब रथ में युक्त
होते हें, तब एवयामरुत् उनके लिए अपेक्षा करते हुँ। सर्वव्यापी मरुद्गण
महान् तथा सर्वसाधारण स्थान अन्तरिक्ष से नित हुए हँ। परस्पर स्पर्द्धा-
कारी, बलशाली ओर सुखदाता मरुद्गण निर्गत हुए हें ।
५. हे मरुतो, तुम लोग स्वाधीनतेजा, स्थिरदीप्ति, स्वर्याभरणभूषित
और अन्नदाता हो। तुम लोग जिस शब्द से शत्रुओं को अभिभूत करके
अपना कार्यसाधन करते हो, वह प्रबल वारिवषंणकारी, दीप्त, विस्तृत
और प्रबुद्ध ध्वनि एवयासरुत् को कम्पित न करे।
६- है समधिक बलशाली मर्तो, तुम लोगों की महिमा अपार है,
निरवधि है। तुम लोगों की शक्ति एवयासरुत् की रक्षा करे। नियमयुक्ति
यज्ञ के सन्दशेन-विषय में तुम लोग ही नियामक हो। तुम लोग प्रज्वलित
अग्नि के सदृश दीप्त हो। निन्दकों से तुस लोग हमारी रक्षा करो।
७. हे पूजनीय और अग्नि की तरह प्रभूत दीप्तिशाली स्त्रपुत्रो,
एवयामरुत् की रक्षा करो। अन्तरिक्ष-सम्बन्धी दीर्घ और विस्तीर्ण गृह
सस्तो के द्वारा विख्यात होता है। निष्पाप मरुदूगण गसनकाळ में प्रभूत
शक्ति प्रकाशित करते हें।
' ८. हे विद्वेषहीन मरतो, तुम लोग हमारे स्तोत्र के सन्निहित होओ
एवं स्तवनकारी एवयामरुत् का आह्वान श्रवण करो। हे इन्द्र के साथ
एकत्र यज्ञभाग प्राप्त करनेवाले सरतो, योद्धा लोग जिस प्रकार से शत्रुओं
को अपसारित करते हैं, उसी प्रकार तुम कोष हमारे गूढ़ शत्रुओं को
दूर करो।
३६० हिन्दी-ऋग्वेद
९. हे यजनयोग्य सस्तो, तुम लोग हमारे यज्ञ सँ आगमन करो,
जिससे यह यज्ञ सुसम्पन्न हो। तुम लोग रजोर्वाजत या निविधन हो।
हमारा आह्वान श्रवण करो । है प्रकृष्ट ज्ञान-सस्पन्न मरुतो, अत्यन्त बद्धे मान
विन्ध्यादि पर्वत को तरह अन्तरिक्ष में अवस्थान करके तुम लोग निन्दकों
का शासन करते हो।
पञ्चस सण्डल समाप्त ॥
१ सूक्त
(षष्ठ मण्डल । ४ अष्टक । ४ अध्याय । १ अनुवाक | देवता
अस्नि। ऋषि बृहस्पति के अपत्य भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. हे अग्नि, तुम देवताओं के मध्य में प्रकृष्टतम हो। देवताओं का
सन तुमं सम्बद्ध है। हे दर्शनीय, इस यज्ञ में तुम्हीं देवों के आह्वान
करनेवाले होते हो। हे अभीष्टवर्षी, समस्त बलशाली शत्रुओ को पराभूत
करने के लिए तुम हमें अनिवार्य बळ प्रदान करो।
२. हे अग्नि, तुम अतिशय यज्ञकर्ता ओर होमनिष्पादक हो। तुम
हव्य ग्रहण करके स्तुतियोग्य होते हो। तुम वेदी रूप स्थान पर उपवेशन
करो। धर्सानुष्ठानकारी ऋत्विक् लोग महान् धन प्राप्त करने की आशा
से देवों के मध्य में प्रथम ही तुम्हारा अनुसरण करते हूँ।
३ हे अग्नि, तुम दीप्तिमान्, दशनीय, महान् हव्यभोजी और सम्पुणे
काल में दीप्तिमान् हो। तुम बसुओं के मार्ग से अर्थात् अन्तरिक्ष से
गसन करते हो। धनाभिलाषी यजमान तुम्हारा अनुसरण करते हेँ।
४. अन्नाभिलाषी होकर यजमान लोग स्तोत्र के साथ दीप्तिमान्
अग्नि के आहचनीय स्थान में गमन करते हे ओर अप्रतिहत भाव से अथवा
अबाध्य रूप से प्रचुर अन्न प्राप्त करते हें। हे अग्नि, दर्शन होने पर बे
स्तुतियों से आनन्दित होते हें ओर तुम्हारे यागयोग्य नामों को धारण
करते हुं--जातवेदा, वेश्वानर इत्यादि नामों का संकीर्तन करते हें।
हिन्दी-ऋणग्वेद ६६१
५, है अग्नि, मनृष्यगण तुम्हें वेदी के ऊपर वद्धित करते हें। तुम
यजमानों के पशु ओर अपश् रूप दोनों प्रकार के धन को वद्धित करते
हो। अध्वर्युं आदि भी उभय विध धन प्राप्त करने के लिए तुम्हें बद्धित
करते हैं। है दुःखविनाशक अग्नि, तुम स्तुतिभाजन होकर मनुष्यों के
रक्षक और पितृ-मात्-स्यानीय हो।
६. पूजनीय, अभीष्टवर्षी, प्रजाओं के मध्य में होमनिष्पादक, मोहप्रद
और अतिशय यजनीय अग्नि वेदी के ऊपर उपदिष्ट होते हेँ। हे अग्नि,
तुम गृह में प्रज्वलित होते हो । हम लोग जानु को अवनत करके, स्तोत्र
के साथ, तुम्हारे निकट उपस्थित होते हें।
७, हे अग्नि, तुम स्तुतियोग्य हो । हम शोभन बद्धिवाले,
सुखाभिलाषी और तुम्हारी कामना करनेवाले हँ। हम तुम्हारा स्तवन
करते हँ। हे अग्नि, तुम दीप्यमान हो। महान् रोचमान मार्ग से अर्थात्
आदित्य मार्ग से तुम हम स्तोताओं को स्वर्ग पहुंचाओ ।
८. नित्यस्वरूप ऋत्विक् यजमान आदि के स्वामी, ज्ञानसम्पन्न,
शत्रुविनाशक, कामनाओं के पुरक, स्तोता मनुष्यों के प्राप्तव्य, अन्नविधायक,
शुद्धता-सस्पादक, धनाथियों के द्वारा यष्टव्य और दीप्यमान अग्नि का
हुम लोग स्तवन करते हं।
९, हे अग्नि, जो यजमान तुम्हारा यजन करता हुँ, जो स्तवन करता
हँ, जो यजमान प्रज्वलित इन्धन कै साथ तुम्हें हव्य प्रदान करता है,
जो स्तुति के साथ तुम्हें आहुति प्रदान करता है, वह यजमान तुम्हारे
द्वारा रक्षित होता है और समस्त अभिलषित धम प्राप्त करता हुँ।
१०, हें अग्नि, तुम महान् हो। हम नमस्कार, ईधन और हव्य के
द्वारा तुम्हारी परिचर्या करते हैं। हे बलपुत्र, हम लोग स्तोत्र और शस्त्र
के साथ वेदी के ऊपर तुम्हारी अर्चना करते हे। हुम लोग तुम्हारा शोभन
अनुग्रह प्राप्त करने के लिए यत्न करते हुँ। हम लोग सफल हों।
६६२ हिन्दी-ऋग्वेद
११. हे अग्नि, दीप्ति-हारा तुमने थ्ावा-पथिवी को विस्तृत किया
है। तुम परित्राणकर्ता और स्तुति-द्वारा पुजनीय हो। तुम प्रचुर अन्न और
विशिष्ट धन के साथ हम छोगों के निकट भली भाँति से दीप्त होओ।
१२. हे धनवान् अग्नि, मनुष्यों से युक्त अर्थात् पुत्र-पौत्रादि से युक्त
धन तुम हमें प्रदान करो। हमारे पुत्र-पौत्रो को प्रभूत पशु प्रदान करो।
कामनाओं के पुरक और. पापरहित पर्याप्त अन्न तथा सौभाग्य हमें प्राप्त
हो।
१३. हे दीप्तिमान् अग्नि, हम तुम्हारे निकट से गो-अशवादिरूप बहु-
विध घन प्राप्त करें। तुम धनवान् हो। हे सर्वेवरणीय अग्नि, तुम शोभन
हो। तुममें बहुविध धन निहित हें ।
चतुर्थ अध्याय समाप्त ।
सत्त
(पञ्चम अध्याय | देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द अनुष्टुप्
आर शक्वरी |)
१. हे अग्नि, लुभ मित्र देव की तरह शुष्क काष्ठ के द्वारा हनि के
ऊपर अभिपतित होते हो; अतएव हे सर्वदर्शी, धन-सस्पन्न अग्नि, तुम
अन्न और पुष्टि-द्वारा हम लोगों को वद्धित करो ।
२. हे अग्नि, मनुष्यगण हव्यसाधन हव्य और स्तुति के द्वारा तुम्हारी
अर्चना करते हें । हिसावर्जित, जल के प्रेरक अथवा लोगों में अभिगमन
करनेवाले, सर्वद्रष्टा सूर्यदेव तुम्हारा अभिगमन करते हँ ।
३. हे अग्नि, समान प्रीति धारण करनेवाले ऋत्विक् लोग तुम्हें
समिद्ध अर्थात् प्रज्वलित करते हें। तुम यज्ञ के प्रज्ञापक हो । मनु के
अपत्य यजमान लोग सुखामिलाषी होकर यज्ञ में तुम्हारा आह्वान करते
हँ,
हिन्दी-ऋग्वेद ६६३
४. है अग्नि, तुम दानशील हो, जो मरणशील पजमान यज्ञ-कर्म में
रत होकर तुम्हारा स्तवन करता हं, वह समृद्धिशाली हो । हे अग्नि, तुम
दीव्तियुक्त हो । बह यजमान तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर भीषण पाप की
तरह शत्रुओं को पराभूत करे ।
५. हे अग्नि, जो मनुष्य काष्ठ-द्वारा तुम्हारी मन्त्र-संस्कृत आहुति को
व्याप्त (पुष्ट) करता हुँ, वह मनुष्य पुत्र-पौत्रादि से युक्त गृह में सौ वर्षों
तक आयु का भोग करता हुँ ।
६- हैं अग्नि, तुम दीप्तिशाली हो । तुम्हारा श्र वर्ण का धूम अन्त-
रिक्ष में विस्तृत होता है और मेघरूप में परिणत होता है । हे पादक (शुद्धि
विधायक), तुम स्तोत्र-द्वारा प्रसन्न होकर सूर्य की तरह दीप्ति-द्वारा रुचि-
मान् होते हो। |
७. हे अग्नि, तुम प्रजाओं के स्तुतिभाजन हो; क्योंकि तुम अतिथि
की तरह हम लोगों के प्रिय हो। नगर में वतमान हितोपदेष्टा वृद्ध की
तरह तुम आश्रययोग्य हो एवम् पुत्र की तरह पालनीय हो ।
८. हे अग्नि, अरणिसन्थन रूप कर्म से तुम्हारी विद्यमानता प्रकाशित
होती है । अश्व जिस प्रकार से अपने आरोही का वहन करता है, उसी
प्रकार तुम हव्य वहन करो। तुम वायु की तरह सर्वत्र गमन करते
हो । तुम अञ्न ओर गृह प्रदान करो । तुम शिशु और अइव की तरह
कुटिलगामी हो ।
९. हे अग्नि, तृण आदि चरने के लिए विसृष्ट (छोड़ा गया) पशु
जिस प्रकार सम्पूर्ण तृण भक्षण कर लेता हे, उसी प्रकार तुम प्रौढ़ काष्ठों
को क्षण सात्र में भक्षण कर लेते हो हे अविनश्वर अग्नि, तुम दीप्ति-
झाली हो । तुम्हारी दिखायें अरण्यों को छिन्न कर देती हें।
१०. है अग्नि, तुस .यज्ञाभिलाषो यजमानों के गृह में होता रूप से
प्रविष्ट होते हो । हे मनुष्यों के पालक अग्नि, तुम हन लोगों का समृद्धि-
विधान करो । हे अंगार-रूप अग्नि, तुम हमारे हव्य को स्थोकार करी |
६६४ हिन्दी-ऋणग्वेद
११. है अनुकूल दीप्तिवाले, देव-दानवादि गुणयुक्त और झावा-पृथिवी
में वर्तमान अग्निदेद, तुम देवों के निकट हम लोगों की स्तुति का उच्चा-
रण करो । हम स्तोताओं को शोभन निवास-युक्त सुख में ले जाओ ।
हस लोग शत्रुओं, पापों और कष्टों का अतिक्रमण करे । हम लोग जन्मा-
न्तर में कृतपापों से मुक्त हों। है अग्नि, तुम्हारी रक्षा के द्वारा हम शत्रु
आदि से उद्धार पार्ये ।
३ सूक्त
( देता अभि । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् । )
१. हे अग्नि, वह यजमान चिरकालपर्यन्त जीवन धारण करे, जौ
यजमान यज्ञ का पालन करता है और यज्ञ के निमित्त उत्पन्न हुआ है ।
वरुण और मित्र के साथ समान प्रीति धारण करके, तेज-द्वारा तुम पाप
से जिसकी रक्षा करते हो, वह देवाभिलाषी यजमान तुम्हारी विस्तीणं
ज्योति प्राप्त करता हुं ।
२. वरणीय धन से समदिमान् अग्नि के लिए जो यजमान हव्य प्रदान
करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञ के द्वारा यज्ञवान् अर्थात् सफल-यञ्ञ होता है ।
तथा कच्छु चान्द्रायणादि कर्म-हारा शान्त होता है यानी अग्नि कर्म-द्वारा
बह सम्पूर्ण फल प्राप्त करता हुँ । वह यजमान यशस्वी पुत्रों के अभाव को
भी नहीं प्राप्त करता हूँ । उसे पाप तथा अनर्थक गर्वे नहीं छुते ।
३. सुयं के समान अग्नि का दशेन पापरहित हे । हे अग्नि,
तुम्हारी प्रज्वलित ज्वाला भयंकर है और सर्वत्र गमन करती हँ । अग्नि-
देव रात्रि में शब्दायमान धेनु की तरह विस्तृत होते हें। सबके आवास-
भूत अर्थात् निवासप्रद और अरण्यजात अग्नि पर्वत के अग्र भाग में रम-
णीय होते हें ।
४, अग्नि का मागे तीक्ष्ण हें। इनका रूप अत्यन्त दीप्तिमान् है।
अग्नि अइव की तरह मुख-द्वारा तृणादि को प्राप्त करते हुँ। कुठार जेसे
अपनी धार को काष्ठ पर प्रक्षिप्त करता है, उसी प्रकार अग्नि अपनी
हिन्दी-ऋण्वेद ६६५
ज्वाला को तर गुल्म आदि पर प्रक्षिप्त करते हँ । स्वर्णकार जैसे सुवर्ण आदि
को द्रवीभूत करता है, उसी प्रकार अग्नि सम्पूर्ण दन को द्रवित करते है
अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु को अग्नि भस्मीभूतं कर डालते हुँ । |
५. वाण चलानेवाला जैसे लक्ष्य के अभिमुख वाण चलाता है, बैसे
ही अग्नि अपनी ज्वाला को प्रक्षिप्त करते हैं। कुठार आदि को चळाने-
याला जैसे कुठार आदि की घार को तीक्ष्ण करता है वेसे ही अग्नि भी
अपनी ज्वाला को फंकते ससय तीक्ष्ण करते हुं। वृक्ष के ऊपर निवास
` करनेवाले और लघुपतन-समर्थ पाद-विशिष्ठ पक्षी की तरह विचित्रगति
अग्नि रात्रि का अतिक्रमग करते हुँ अर्थात् धीरे-धीरे अन्धकार का विनाश
` क्रते हूं ।
६. वे अग्नि स्तवनीय सूर्य की तरह दीप्त ज्वाला को आच्छादित
करते हें। सबके अनुकूल प्रकाश को विस्तारित करके वे तेज-द्वारा
अत्यन्त शब्द करते हँ । असनि रात्रि सं शोभित होकर सनष्यों को दिवस
की तरह अपने-अपने कार्यों में लगाते हँ। अमरणशील और सुन्दर
अग्नि चुतिमान् तेज-द्वारा अपनी किरणों को नेताओं के लिए प्रेरित करते
हुँ। अथवा सुन्दर अग्नि दिन में देवों को हवि के संयुक्त करते हे ।
७. दीप्तिमान् सूर्यं की तरह रश्मि विस्तीणं करनेवाले जिस अग्नि
का महान् शब्द हुआ हे, वे अभीष्टवर्षी और दीप्त अग्नि ओषधियों के
(जलाने योग्य) मध्य में अत्यन्त शब्द करते हैं । जो दीप्त और गमनशील
तथा इतस्ततः ऊद्धं गामी तेज-द्वारा गसन करते हूँ, बे अग्नि हमारे शत्रुओं
को दमन करते हुए शोभनपति-सम्पन्न स्वर्ग और पृथिवी को घन-द्वारा पूणे
करते है । |
८, जो अग्नि अश की तरह स्वयमेव यज्यमान अर्चनीय दीप्ति के साथ
गसन करते हे, वे अग्नि अपने तेज के हारा विद्युत् को तरह चमकते
हुँ। जो अग्नि मरुतों के बल को स्वल्प करते हे, बे निरतिशय दीय्ति-
झाली, सुर्य की. तरह प्रदीप्त ओर वेगसम्पञ्च अग्नि प्रकाशसान होते हूं ।
६६६ हिन्दी-ऋग्वेद
४ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
: १. हे देवों के आह्वान करनेवाले बलपुत्र अग्नि, जिस प्रकार प्रजा-
पति (यजमान) के यज्ञ में तुमने हव्य-द्वारा देवों का यजन किया था, उसी
प्रकार हम लोगों के इस यज्ञ में आज यजनीय इन्द्रादि देवों को अपने
समान समककर तुम उनका शीध्र यजन करो । म
२. जो दिन के प्रकाशक हें, जो सूर्यं की तरह अत्यन्त दीप्तिमान् हैं,
जो सबके बोधगम्य हैं, जो सबके जीवनभूत हैं, अविनशवर हैं, अतिथि
हैं, जातवेदा हुँ और जो मनुष्यों के मध्य में उषाकाल में प्रबुद्ध होते है,
थे अग्नि हम लोगों को वन्दनीय (उत्कृष्ट) धन प्रदान करे ।
३. स्तोता लोग अभी जिन अग्नि के महान् कर्म की स्तुति करते हे,
बे सूयं की तरह शुश्रवर्ण अग्नि अपने तेज को आच्छादित करते हुँ।
जरारहित और पवित्र बनानेवाले अग्नि दीप्ति-द्वारा सब पदार्थों को प्रका-
शित करते हें और व्यापनशील राक्षसादि को तथा पुरातन मगरों की हिसा
करते हुँ ।
४. हे सबके प्रेरक अग्नि, तुम वन्दनीय हो । अग्नि हुव्य के ऊपर
आसीन होकर स्वभावतः ही उपासकों को गुह और अन्न प्रदान करते हें।
हे अन्नप्रदायक अग्नि, तुम हम लोगो को अन्न प्रदान करो तथा राजा की
तरह हमारे शत्रुओं को जीतो एवम् उपद्रव-शून्य हमारे अग्न्यागार में
निवास करो ।
५. जो अग्नि अन्धकार के निवारक हं, जो अपने तेज को तीक्षण
करते हे, जो हवि का भक्षण करते हे ओर जो वायु की तरह सब पर
शासन करते हूँ, ये अग्नि रात्रि का अतिक्रमण करते हँ अर्थात् रात्रि के
अन्धकार का विनाश करते हे। हे अग्नि, हम तुम्हारे प्रसाद से उस
व्यक्ति को जोते, जो ठुम्हें हव्य प्रदान नहीं करता हुँ । तुम अश्व की
तरह वेगयामी होकर हमारे आक्रमण करनेवाले शत्रुओं को विनष्ट करो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ः ९६७
६. हे अग्नि, तुम द्यावा-पृथिवी को विशेष रूप से आच्छादित करते
हो जैसे सूर्यं देव अपनी दीप्तिमान् और पूजनीय किरणों से द्यावा-पृथिदी
को आच्छादित करते हें। अपने पथ से गसन करनेवाले सूर्य की तरह
विचित्र अग्नि अन्धकारों को दूर करते हें ।
७. है अग्नि, तुम अत्यन्त स्तवनीय, पुजाह मौर दीप्तियुक्त हो।
हम लोग तुम्हारा सम्भजन करते हँ; इसलिए तुम हमारे महान् स्तोत्र का
श्रवण करो । हे अग्नि, नेता रूप ऋत्विक लोग तुम्हें हविलेक्षण धन से
सन्तुष्ट करते हुँ । तुम बल में वायु के सदृश और इन्द्र की तरह देव-
स्वरूप हो।
८. हे अग्नि, तुम शीघ ही वृक से रहित मार्ग-द्वारा हम रोगों को
निविध्न-पुर्वक ऐश्वर्य के समीप ले जाओ । पाप से हम लोगों का उद्धार
करो । तुम स्तोताओं को जो सुख प्रदान करते हो, वही सुख हमें प्रदान
करो । हम लोग शोभन सन्तति-सम्पन्न होकर सौ वर्ष पर्यन्त सुख-भोग
करों । |
५ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे अग्नि, हम स्तोत्रों-द्वारा तुम्हारा आह्वान करते हे । तुम बल-
पुत्र, नित्य तरुण, प्रशस्त स्तुति-द्वारा स्तववीय, अतिशय युवा, धरकृष्ट
ज्ञानवाले, बहुस्तुत और द्रोह-रहित हो । इस प्रकार के अग्नि स्तोताओं
को अभिलषित धन प्रदान करते हें ।
२. हे बहु-ज्दाला-दिशिष्ट देवों के आह्वान करनेवाले अग्नि, याग-
योग्य यजमान तुममें हव्य रूप धस को अहनिश समर्पित करते हूँ। देवों
ने जिस प्रकार सम्पूर्ण जीवों को पृथिवी पर स्थापित किया था, उसी प्रकार
अग्नि में सम्पूर्ण धन को रखा था ।
३. हे अग्नि, तुम प्राचीन तथा परिदृश्यमान प्रजाओं में सर्वतोभाव
से अदस्थान करते हो एवम् अपने कार्य-ट्वारा यजसानों को वाञ्छित धन
६६८ हिन्दी-क्रग्वेव
प्रदान करते हो । है ज्ञानी जातवेदा, अतएव तुम परिचर्याकारी यज-
सान को निरन्तर धन प्रदान करो ।
` ४. हे अनकल दीप्तिवाले अग्नि, जो शत्र अर तहित देश भें वर्तमान
होकर हम लोगों को बाधित करता है और जो नत्र अभ्यन्तरवर्ती होकर
हुम लोगों को बाधित करता हुँ, उत दोनों प्रकार के शत्रुओं को तुम अपने
तेज-हारा दग्ध करो । तुम्ह/रा तेज जरारहित वृष्टि-हेतुभूत और असा-
धारण हुं। _
५. हे बलपुत्र अग्नि, जो यजमान यज्ञ-द्वार। तुम्हारी परिचय करता
हैं, जो इन्धन शस्त्र और अर्चनीय स्तोत्रो-द्ारा तुम्हारी परिचर्या करता हुँ,
हे असर अग्नि, बह यजमान मनुष्यों के मध्य में प्रकृष्ट ज्ञान से यक्त
होता हुँ और धन तथा द्युतिमान् अन्न से अतिशय शोभित होता है। _
६. है अग्नि, तुम जिस कार्य के लिए प्रेषित हुए हो, उस कार्य को
शीक्र ही करो। तुम बलवान् हो; अतएव दूसरों को अभिभूत करनेवाले
बल से शत्रुओं को विनष्ट करो । स्तुतिरूप वचन से जो स्तोता तुम्हारा
स्तवन करता हैँ, उस स्तोता के उच्चारित स्तोत्र का तुम सेवन करो।
अग्नि, द्युतिमान् तेज से युक्त हें ।
७. है अग्नि, तुम्हारी रक्षा-द्वारा हम अभिलवित फल प्राप्त करें।
हे घनाधिपति, हम शोभन पुत्र आदि से युक्त धन प्राप्त करें। अन्नाभि-
लाषी होकर हम तुम्हारे द्वारा प्रदत्त अन्न लाभ करें। हे जरारहित
अग्नि, हुम तुम्हारे अजर और झुतिमान् यश का लाभ करें ।
६ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. स्तुति के योग्य, बलपुत्र अग्नि के निकट अञ्न की अभिलाषा
करनेवाले यजमान (स्तोता) नवीन यज्ञ से युक्त होकर गसन करते हँ ।
अग्नि वन को दग्ध करनेवाले, कुष्णवर्त्मा, उवेतवर्ण, कमनीय, होता और
स्वर्गीय हुँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ६६९
२. अग्नि इवेतवर्ण, शब्दकारी, अन्तरिक्ष में वर्तमान, अजर और
अत्यन्त शब्दकारी मरुतों के साथ मिलित एवम् युवतम हें। अग्नि पावक
और सुमहान् हूँ। वे असंख्य स्थूल काष्ठों को भक्षण करके अनुगमन
करते हूँ ।
३. है विशुद्ध अग्नि, तुम्हारी प्रदीप्त शिखायें पवन-द्वारा सञ्चालित
होकर बहुत काष्ठों को भक्षण करती हें और सर्वत्र व्याप्त होती हैँ।
प्रदीप्त अग्नि से सम्भूत नवोत्पन्न रश्मियाँ घर्षणकारी दीप्ति-द्वारा वनों
को मज्जित करती हुई दग्ध करती हैं।
४, हे दीप्तिसम्पन्न अग्नि, तुम्हारी जो सम्पुर्ण झुञ्र रहिमयां पृथिवी
के केशस्थानीय ओषधियों को दग्ध करती है, वे विमुक्त अइवों की तरह
इतस्ततः गमन करती हैं । तुम्हारी भ्रमणशील शिखायें विचित्र रूप पृथ्वी
के अपर स्थित उन्नत प्रदेश पर आरोहण करके अभी विराजित
होती हुं ।
५. वर्षणकारी अग्नि की शिखायें बारम्बार निर्गत होती हे। जैसे,
धेन्ओं के लिए यद्ध करनेवाले इन्द्र के द्वारा प्रयक्त वजर बारम्बार निर्गत
होता है । वीरों के पोरुष (बन्धन) की तरह अग्नि की शिखा दुःसह,
दुनिवार हे। भयंकर अग्नि वनों को दग्ध करते हृ।
६. हे अग्नि, तुम प्रबल ओर उत्तेजक रङ्मि-द्ठारा पृथिवी के गन्तव्य
स्थानों को दीप्ति-हारा आच्छन्न करो । तुम सम्पूर्ण विपत्तियों को दूर
करो एवम् अपने तेजः प्रभाव से स्पर्द्धा-कारियों को अभिभूत करके शत्रुओं
को विनष्ट करो । | |
७. हे विचित्र अद्भूत बल-सम्पन्न, आनन्द-दायक अग्नि, हम लोग,
- आह्लादक स्वोत्रो-द्वारा तुम्हारा स्तवन करते हें । तुम अद्भुत, अत्यद्भुत
यशस्कर, अञ्नप्रद, अञ्नदायक और पुत्र-पौत्रादि समन्वित विपुल ऐद्वर्य
प्रदान करो।
६७० हिन्दी-ऋग्वेद
७ सूक्त
(देवता वेश्वानर अग्नि। ऋषि भरद्वाज । छन्द जगती ओर त्रिष्टुप् ।)
१. वेश्वानर अग्नि स्वर्ग के शिरोभूत, भूमि सं गमम करनेवाले,
यज्ञ के लिए उत्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, भली भाँति से राजमान, यजमानों के
अतिथिस्वरूप, मुखस्वरूप (अग्नि-लक्षण मुख से ही देवयण भोजन करते हे)
और रक्षाविधायक हें । देवों, स्तोताओं या क्रत्विको ने अग्निको
उत्पन्न किया हे ।
२. स्तोता लोग यज्ञ के बन्धक, धन के स्थान ओर हव्य के आश्र-
थस्वरूप अग्नि का, भली भाँति से, स्तवन करते हें। देवगण यज्ञीय
ब्रव्यों के बहनकारी और यज्ञ के केतुस्वरूप वेशवाबर अग्नि को उत्पन्न
करते है ।
३. हे अग्नि, हवीरूप अन्न से यक्त पुरुष तुम्हारे समीप से ही ज्ञान-
बान् होता है। बीर लोग तुम्हारे समीप से ही शत्रुओं को अभिभूत
करनेवाले होते हे। इसलिए हे दीप्तिशाली वेश्वानर, तुम हम लोगों
गे वाञ्छित धन प्रदान करो
` ४. हे असरणशील अग्नि, तुम पुत्र की तरह अरणिद्वय से उत्पन्न
हुए हो। समस्त देवगण तुम्हारा स्तवन करते हुँ। हे वेशवानर, जब तुम
पालक दावा-प॒थिवी के मध्य में दीप्यमान होते हो, तब यजमान लोग
तुम्हरे यज्ञकायें-हारा अमरत्व लाभ करते है । |
५, हे बइवावर, तुम्हारे उम प्रसिद्ध महान् कर्मो में कोई भी बाधा
उपस्थित नहीं कर सकता हे । पित्-मात-स्वरूप द्यावा-पृ थ्चित्री के कोड़भत
अन्तरिक्ष-मार्गं में उत्पन्न होकर तुमने दिवसों के प्रज्ञायक सूर्य को अन्त"
रिक्ष-पथ में संस्थापित किया हू
६. वेशवानर के वारिप्रज्ञापक तेज-द्वारा चुलोक के उच्चत स्थल (नक्षत्र
आदि अथवा मेघ) निर्मित हुए हं। वेश्वानर के शिरःस्थान (मेघरूप में
परिणत धूम) में वारिराशि अवस्थाव करती हें एवं उससे सात नदियाँ
हिन्दी-ऋणग्वेद ६७१
शाखा की तरह उद्भूत होती हु! अर्थात् आहुति-द्वाग सम्पूर्ण जगत्
अग्नि से उत्पन्न होता हे।
७. शोभन कर्म करनेवाले जिन वेइवानर अग्नि ने उदक अथवा लोकों
का निर्माण किया था, ज्ञान-सम्पन्न होकर जिन्होंने चुलोक के दीप्तिमान्
नक्षत्रों को सुष्ट किया था और जिन्होंने समस्त भूत-जात को चतुदिक्
प्राप्त किया था, वे अजेय, पालक और वारिरक्षक अग्नि विराजमान
होते हैं ॥
| ८ सूक्त
न
(देवता वश्वानर अग्नि । ऋषि भरद्वाज ।
छुन्द् जगती ओर त्रिष्टुप् ।)
१. हम लोग सर्वव्यापी, वारिवर्षक और दोप्तिम/न् जातवेदा के बल
के लिए इस यज्ञ में भली भाँति से स्तवन करते हँ। वेशवानर अग्नि के
अभिमुख नवीन, निर्मेह और शोभन स्तोत्र सोमरस की तरह निर्गत
होता है ।
२. सत्कर्मपालक बैशवानर उत्कृष्ट आकाश में जायमान होकर लौकिक
तथा बैदिक दोनों कमों की रक्षा करते हें और अन्तरिक्ष का परिमाण
करते हुँ। शोभन कर्म करनेवाले वैश्वानर अपने तेजों से चुलोक का
स्पर्शन करते हूँ ।
३. सबके मित्रभूत और महान् आइचर्यभूत वेश्वानर ने दावा-
पृथिवी को अपने-अपने स्थान पर विशेष रूप से स्तस्भित किया है । तेज-
द्वारा उन्होंने अन्धकार को अर्न्ताहित किया हे । आधारभूत चावा-पृथिबी
को उन्होंने पशुचसे की तरह विस्तृत किया हे। बेशवानर अग्नि समस्त
वीर्य धारण करते हैं ।
४, सहान् सस्तो ने अन्तरिक्ष के मध्य में अग्नि को धारण किया था
और मनुष्यों ने पुजनीय स्वामी कहकर इनकी स्तुति की थी । देवों के
६७६ हिन्वी-ऋरदेड
दूत या वेगवान् मातरिइवा (वायु) दूर देश-स्थित सूर्यमण्डल से वैश्वानर
क्ञग्नि को इस लोक में लाये हे।
५, हे अग्नि, तुम यागयोग्य हो। तुम्हारे उद्देश्य से जो नवीन स्तोत्र
का उच्चारण करते हूँ, उन्हें तुम धन ओर यशस्वी पुत्र प्रदान करो । हे
जरारहित और हे राजभान अग्नि, तुस अपने तेज-द्वारा शत्रु को उसी
प्रकार निपातित करो, जेसे वज्र वृक्ष को निपातित करता हे।
६- हे अग्नि, हम लोग हविलेक्षण धन से युक्त हूँ । हमें तुम अन-
पहार्य, अक्षय और सुवीर्यं धन प्रदान करो । हे वेशवानर अग्नि, हम तुम्हारे
हारा रक्षित होकर शत-सहस्र प्रकार अन्न लाभ करें ।.
७. है तीनों लोकों में वर्तमान यागाह अग्नि, किसी क्रे द्वारा भी अहि-
सित ओर रक्षाकारी बल-द्वारा तुम हम स्तोताओं की रक्षा करो।हे
वैश्वानर अग्नि, तुम हुम हुव्यदाताओं के बल की रक्षा करो। हम
लोग तुम्हारा स्तवन करते हें, तुम हमें प्रवाद्धत करो । .
९ सुकत
(देवता वेश्वानर अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द निष्डुप्।)
१. कृष्णवर्ण रात्रि और शुक्लवर्ण दिवस अपनी-अपनी ज्ञातव्य प्रवत्ति-
द्वारा सम्पूर्णे जगत को रञ्जित करके नियत परिवर्तित होते हे । बेइवा-
चर अग्नि राजा की तरह प्रकाशित होकर दीप्ति-द्वारा तमोनाश करते हँ।
२. हम तम्तु (सुत्र) अथवा ओतु (तिरश्चीन सुत्र) नहीं जानते हें
एवम् सतत चेष्टा-द्रारा जो वस्त्र वयन किया जाता हे, वह भी हमें कुछ
अवगत नहीं हुँ। इस लोक में अवस्थित पिता-द्वारा उपदिष्ट होकर
किसका पुत्र अन्य जगत् के वक्तव्य वाक्यों को बोलने में समर्थ होता है ?
३. एक मात्र बैशवानर ही तन्तु एवम् ओतु को जानते हैं। वे समय-
ससय पर वक्तव्यों को कहते हें। वारिरक्षक और भूलोक में संचरण
करनेवाले अग्नि अन्तरिक्ष में सूर्यरूप से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते
हुए इन परिवृश्यसान भूतों को अवगत करते हें। 5
हिन्दी-ऋग्वेद ६७३
४. ये वेश्वानर अग्नि आदि होता हँ । हे मनृष्यो, तुम लोग अग्नि
का भजन करो। असरणशील अग्नि मरणशील शरीर में जाठर रूप से
वर्तमान रहते हें। निश्चल, सर्वव्यापी, अक्षय अग्नि शरीर, धारण-पुर्वक
उत्पन्न और वर्धमान होते हे।
५, सन की अपेक्षा भी अतिशय वेगवान् (वेश्वानर की) निइचल
ज्योति सुख के पथों को प्रदर्शित करने के लिए जंगम-जीवों सें अन्तविहित
रहती हुँ। सम्पूर्ण देवगण एकमत और समान-प्रज्ञ होकर सम्मान के
साथ, प्रधान कर्म-कर्तो वेशवानर के अभिमुखवर्तो होते हैं ।
६, तुम्हारे गुण को श्रवण करने के लिए हमारे कर्णद्रय और तुम्हारे
रूप को देखने के लिए हमारे चक्षु धावित होते हैँ। हृदय-कमल में जो
ज्योति (बुद्धि) निहित हे, बह भी तुम्हारे स्वरूप को अवगत करने कें
लिए समुत्सुक होती हे । दूरस्थ-विषयक चिन्ता से युक्त हमारा हृदय
तुम्हारे अभिमुख धावित होता हे। हम वेशवानर के किस प्रकार के
स्वरूप का वर्णन कर । अथवा किस रूप में उन्हें हृदय में धारण करें ।
७. हे वेश्वानर, सम्पुण देवगण तुम्हें नमस्कार करते हें । तुम
अन्धकार में अवस्थिते हो। वेश्वानर अपनी रक्षा-द्वारा हम लोगों की
रक्षा करें । अमर अग्नि अपनी रक्षा हारा हम लोगों की रक्षा करें ।
१० सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द विराद और त्रिष्टुप् ।)
१. हे यजमाचो, तुम लोग इस प्रवर्तेतान, विध्न-रहित यज्ञ में स्तवनीय,
स्वर्गोदूभव और सब प्रकार से दोष-विवजित अग्नि को, स्तोन्न-द्वारा,
सम्मुख मे स्थापित करो; क्योंकि जातवेदा यज्ञ में हम लोगों का समृद्धि-
विधान करते हैं।
२. है दीप्तिमाचू बहुज्वाला-विशिष्ठ, देवों के आह्वानकर्त्ता अग्नि,
अपने अवयवभूत अन्य अग्नियों के साथ समिद्धमान होकर तुम मतुष्य
फा० ४३
६७४ हिन्दी-ऋग्वेद
स्तोता के इस स्तोत्र का श्रवण करो। स्तोता लोग समता की तरह
अग्नि के उद्देश्य से मनोहर स्तोत्र को घृत की तरह अपित करते हुँ ।
३. जो यजमान स्तोत्र के साथ अग्नि में हव्य प्रदान करता हे, वह
मनुष्यो के सध्य में अग्नि-द्वारा समृद्धि लाथ करता हे । विचित्र दीप्तिवाले
अग्नि, विचित्र या आइवर्यभूत रक्षा के द्वारा उस यजमान को गो-युक्त
गोष्ठ के भोग का अधिकारी बनाते हूँ।
४. प्रादुर्भूत होफर कृष्णवर्त्मा अग्नि ने दूर से ही दूरयसान दीप्ति-द्वारा
विस्तीणं द्यावा-पृथिवी को पूर्ण किया हूँ । वह पावक अग्नि रात्रि के सघन
अन्धकार को अपनी दीप्ति-द्वारा नष्ट करते हैं और परिदृश्यमान होते हैं ।
५. हे अग्नि, हम लोग ह॒विर्क्षण धन से युक्त हें। हमें तुम शीक्र
ही बहुत अन्न और रक्षा के साथ विचित्र धन प्रदान करो । घन, अन्न और
उत्कृष्ट वीर्य-द्वारा अन्य सनुष्यों को जो पराजित कर सके एसा पुत्र हमें
प्रदान करो ।
६. हे अग्नि, बैठकर जो हव्ययुक्त यजमान तुम्हारे लिए हवन
करता हे, तुम हृव्याभिलाषी होकर उस यज्ञ-साधन अञ्न को स्वीकार करो ।
भरद्राज-वंशीयों के निर्दोष स्तोत्र को ग्रहण करो। उनके प्रति
अनुग्रह करो, जिससे वे नाना प्रकार का अन्न प्राप्त कर सक ।
७. हे अग्नि, शत्रुओं को विलीन करो । हम लोगों के अन्न को
बद्धित करो। हम लोग झोभन पुत्र-पोत्रादि से युक्त होकर शत हेमन्त-
पर्यन्त सुख भोग कर सक ।
११ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज्ञ । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. हे देवों के आह्वानकारी तथा यजन करनेवालों में श्रेष्ठ, हम लोग
तुम्हारी प्रार्थना करते हैँ तुम अभी हम लोगों के इस आरब्ध यज्ञ में
शत्रबाधक मरुतों का यजन करो। तुम मित्र, वरुण, चासत्यदय ओर
द्यावा-पूृथिवी को हुमारे यज्ञ के लिए लाओ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ६७५
२. हे अग्नि, तुम अतिशय स्तवनीय, हम लोगों के प्रति द्रोह-रहित
और दानादि गुण से युक्त हो । हे अस्ति, तुम हव्य बहन करनेबाले हो ।
तुम शृद्धि-विधायक ओर देवों के मुख-स्वरूप ज्वाला के द्वारा अपने शरीर
का यजन करो ।
३. हे अग्नि, धनाभिलाषिणी स्तुति तुम्हारी कामना करती है;
क्योंकि तुम्हारे प्रादुर्भाव से इन्द्रादि देवों के यजन सं यजमान समर्थ होते
हैं। ऋषियों के मध्य सं अंगिरा स्तुति के अतिशय प्रेरयिता हं ओर मेधावी
भरद्वाज यज्ञ सें हर्षेकारक स्तोत्र का उच्चारण करते हें।
४, बुद्धिमान् और दीप्तिमान् अग्नि भली भाँति से शोभा पाते हे ।
हे अग्नि, तुम विस्तृत द्यावा-पृथिवी का हव्य-द्वारा पुजन करो । तुम
दोभन हव्य सम्पन्न हो । मनुष्य यजमान झी तरह अग्नि को, हवि देनेवाले
ऋत्विकू-यजमान आदि हुब्य-द्वारा, तृप्त करते हें।
५. जब अग्नि के समीप हव्य के साथ कुश आनीत होता है एवम्
दोषर्वाजित घृतपुर्ण सुक् कुश के ऊपर रखा जाता हे, तब भूमि के ऊपर
अग्नि के लिए आधारभूत वेदि रचित होती हूँ। सुर्यं जिस प्रकार से
तेजोराशि को समवेत करते हें, उसी प्रकार यजमान का यज्ञ-कार्य समा-
श्रित होता ह।
६- हे बहुज्वाला-विशिष्ट देवों के आह्वानकर्ता अग्नि, तुम दीप्ति-
शाली अन्य अग्नियों के साथ प्रदीप्त होकर हम लोगों को धन प्रदान
करो। हे बलपुत्र, हम लोग हवि-द्वारा तुम्हें आच्छादित करते हें। शाबर
तुह्य पाप से हम लोग मुक्त हों ।
१२ सूक्त
(देवता अग्नि ऋषि भरदाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. देवों फे आह्वानकारी और यज्ञ के अधिपति अग्नि द्यावा-पूथिवी
का यजन करने के लिए यजमान के गृह में अवस्थित होते हें। यज्ञ-
सम्पन्न, बलपुत्र अग्नि दूर से ही दीप्ति के द्वारा सम्पूर्ण जगत् को सूर्य
की तरह प्रकाशित करते हें ।
६७६ हिन्दी-ऋणग्वेद
२. है थागाह, दीप्तिसम्पन्न अग्नि, दुम बुद्धि-सम्पन्च हो। सम्पूर्ण
यजमान तुमसें आग्रहपूजेक प्रचुर हव्य समर्पण करते हैँ। तुस त्रिभुवन
में अवस्थित होकर मनष्यदत्त उत्कृष्ट हव्य को देवों के निकट वहन करने
कै लिए सूर्य की तरह वेगशाली होओ ।
३, जिनकी सर्वव्यापिनी और अतिशय तेजस्विनी ज्वाला वन में दीप्त
होती है, वे प्रवद्धमान अग्नि सूर्य की तरह अन्तरिक्ष मार्ग में विराजमान
होते हें । सबके कल्याण-विधायक वायु की तरह अक्षय और अनिवार्य
ओषधियों के मध्य सं वेगपूर्वक गसन करते हुँ और अपनी दीप्ति.
द्वारा सम्पुर्ण जगत् को प्रबुद्ध करते हैं । म
४. जातवेदा. अग्नि याजको के सुखदायक स्तोत्र की तरह हम
लोगों के स्तोत्र-द्वारा हमारे यज्ञ-गृह में स्तुत होते हें। यजमान लोग
द्रुेमभोजी, अरण्याश्रयकारी और वत्सों के पिता वृषभ की तरह क्षिप्र-
कर्मकारी अग्नि का स्तवन करते हें । |
५. जब अग्नि अनायास ही वनों को भस्म करके पृथ्वी के अपर
विस्तृत होते हे, तब स्तोता लोग इस रोक में अग्नि की शिखाओं का
स्तवन करते हे। अप्रतिहत भाव से विचरण करनेवाले और चोर की
तरह द्रतगमन करनेवाले अग्नि मरुभूमि के ऊपर विराजित होते हैं ।
६. हे शीघ्र गमन करनेवाले अग्नि, तुम समस्त अग्नियों के साथ
प्रज्वलित होकर हम लोगों की निन्दा से रक्षा करो । तुम हम लोगों को
धन प्रदान करो । दुःखदायक शत्रु-सँन्य को दूर करो । हम लोग शोभन
पुत्र-पोत्र से युक्त होकर शत हेमन्त अर्थात् सौ वर्षपर्यन्त सुख भोग करें।
१३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे शोभन धनवाले अरिन, विविध प्रकार के धन तुमसे ही
उत्पन्न हुए हें। जैसे वृक्ष से विविध प्रकार की शाखाय उत्पन्न होती
8। तुमसे पशुसमूह शीध्र ही उत्पन्न होता हँ । संग्रास में शन्नुओं को
LM
+हल्56 -ऋष्वेद ६७७
जीतने के लिए बरू भी तुमसे ही उत्पन्न होता है। अन्तरिक्ष की बृष्टि
तुमसे ही उत्पन्न होती हूँ; अतएव तुम सबके स्तवनीय हो ।
. २. हे अग्नि, तुम संभजनीय हो । तुम हमें रमणीय धन प्रदान करो।
हे दर्शनीय-दीप्ति, तुम सर्वव्यापी वायु की तरह सर्वत्र अवस्थिति करो
हे दीप्तिमान् अग्नि, तुम मित्र की तरह प्रचुर यज्ञ और पर्याप्त वाञ्छित
धन प्रदान करो.।
, हैं प्रकृष्ट ज्ञान-सम्प् और यज्ञ के लिए समुद्भूत अग्नि, तुम
वारिपुत्र वैद्यताग्नि के साथ संगत होकर धन के लिए जिस व्यक्ति को
प्रेरित करते हो, बह साधुओं का रक्षाकारी और बृद्धिमान् व्यक्ति बल-द्वारा
शत्रुओं का संहार करता हे एवम् पणिकी शक्ति का अपहरण करता है।
४, हे बलपुत्र और द्यतिसान् अग्नि, जो यजमान स्तुति, उपासन!
भौर यज्ञ-द्वारा यज्ञभूमि सं तुम्हारी तीक्षण दीप्ति को आकृष्ट करता हैं;
बह मनुष्य समस्त प्राचुर्यं और धान्य धारण करता है एवं धनसम्पई
होता है ।
५. हे बलपुत्र अग्नि, तुम हम लोगों के पोषणार्थ, शत्रुओं से लाकर:
उत्कृष्ट पुत्रों के साथ शोभन अन्न प्रदान करो । विद्वेषपूर्ण शत्रुओं से बल:
द्वारा जो पशु-सम्बन्धी दध्यादि अन्न तुम आहरण करते हो, बह प्रचुर
परिमाण में हसे प्रदान करो ।
६. हे बलपुत्र अग्नि, तुम बलशाली हो। तुम हम लोगों के उप-
देष्टा होओ । हम लोगों को अन्न के साथ पुत्र और पोत्र प्रदान करो ।
हम स्तुतियों के द्वारा पुण -मनोरथ हों। हम लोग झोभन पुत्र-पोत्रों के
साथ शत हेमन्त अर्थात् सो वर्ष पर्यन्त सुख भोग करं ।
१४ सूक्त
(देवता अग्नि ऋषि भरद्वाज । छन्द शक्करी और त्रिष्टुप् |)
१. जो मनुष्य स्तोत्र के साथ अग्नि की परिचर्या करता है और
धागादि कार्यं करता हुँ, वह मनुष्यों के मध्य में शीघ्र ही प्रधान होकर
६७८ हिन्दी-ऋणग्वेद
प्रकाशमान होता है। अपने पुत्र आदि की रक्षा के लिए वह शत्रुओं के
समीप से प्रचुर अन्न प्राप्त करता हँ ।
२. एकमात्र अग्नि ही प्रकृष्ट ज्ञान से युक्त हे और दूसरा कोई भी
नहीं है । वे यज्ञ-कार्य के अतिशय निर्वाहक और सर्वेद्रष्टा हैं। यजमानों
के पुत्र आदि (ऋत्विग्गण) यज्ञ में अग्नि को देवों के आह्वानकर्तता कह-
कर स्तवन करते हें । '
३. है अग्नि, शत्रुओं का धन उनके निकट से पृथक् होकर तुम्हारे
स्तोताओं की रक्षा करते के लिए परस्पर स्पर्द्धा करते हुँ। शत्रुविजयी
तुम्हारे स्तोता लोग तुम्हारा यज्ञ करके ब्नतविरोधियों को पराभूत करने
की इच्छा करते हें ।
४. अग्नि स्तोताओं को सुन्दर कार्य करनेवाला, शत्रुविजयी और
साधुजनोचित कार्यो का पालन करनेवाला पुत्र प्रदान करते हे, जिसे देख-
कर ही शत्रुगण उसके बल से भीत होकर कम्पित होने लगते हैं ।
५, जिस मनुष्य का हव्यरूप धन यज्ञ में राक्षसो के द्वारा अनावृत
(निविघ्न) होता है और अन्यान्य यजसानों के हारा असंभक्त होता हे,
बलशाली और ज्ञानसम्पन्न अग्निदेव उस यजमान की निग्दको से रक्षा करते हे।
६. हे अनुकूल दीप्तिवाले, वानादिगुणयुक्त और द्यावा-पृथिदी में
वर्तमान अग्निदेव, तुम देवों के निकट हम लोगों की स्तुति का उच्चारण
करो। हम स्तोताओं को शोभन निवास-युक्त सुख में ले जाओ । हम
लोग शत्रुओं, पापों और कष्टों का अतिक्रमण करें। हम लोग जन्मान्तर
में कृत पापों से मुक्त हों। हे अग्नि, हम तुम्हारी रक्षा के द्वारा शत्रओं
से उद्धार पादें। १
१५ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि अङ्गिरा के पुत्र वीतहव्य अथवा भरद्वाज
छन्द् जगती, शक्करी, अतिशकरी, अनुष्टुप् , बृहती और निष्टुप् ।)
१, हे वीतहव्य अथवा भरद्वाज ऋषि, तुम उषाका में प्रबुद्ध, लोक-
रक्षक और जन्म से ही अथवा स्वभाव से ही शुद्ध या निर्मल अतिथिरूप
हिन्दी-ऋहग्वेद ६७९
अग्नि को प्रसञ्च करो। अग्नि सब समय में घुलोक से अवतीर्णे होते हुँ
और अक्षय हव्य भक्षण करते हें।
२. हे अद्भुत अग्नि, तुम अरणि के मध्य में निहित, स्तुतिवाही और
ऊर्ध्वं ज्वालावाले हो। तुम्हें भुग लोग (सहाव) गृह में सखा को तरह
स्थापित करते हैं। वीतहव्य अथवा भरद्वाज प्रतिदिन उत्कृष्ट स्तोत्र"
द्वारा तुम्हारी पुजा करते हैं। तुम उनके प्रति प्रसन्न होओ।
३. हे अग्नि, जो यागादि के अनुष्ठान में निपुण हे, उसे तुम समृद्ध
बनाते हो और दूरस्थ तथा ससीपस्थ शत्रु से उसकी रक्षा करते हो। है
महान् अग्नि, तुम सनुष्यों के मध्य में भरद्वाज को धन और गृह प्रदान
करो । |
४. है वीतहव्य, तुम झोभन स्तुति-द्वारा हुव्यवाहक, दीप्तिमान्,
अतिथिवत् पुजनीय; स्वर्गप्रदर्शक मनु के यज्ञ में देयों का आह्वान करनेवाले
यज्ञसस्पादक, मेधावी और ओजस्वी दकता अग्निदेव को प्रसन्न करो।
५. जैसे उषा प्रकाश से शोभित होती हे, वेसे ही जो पृथिवी के
उपर पवित्रताकारक और चेतवाविधायक दीच्ति के द्वारा विराजित होते
हें, जो संग्राम में शत्रृसंहार-कारक वीर के सदृश एतश ऋषि की सहायता
करने के लिए शीघ्र प्रदीप्त हुए थे और जो सर्वभक्षणशील तथा क्षयरहित
हें हे वीतहव्य, उन्हें तुम प्रसन्न करो।
६. हे हमारे स्तोताओ, अत्यन्त प्रिय और अतिथि की तरह पूजनीय
अग्नि का इंधन-हारा तुम लोग निरन्तर पुजन करो। देवों के मध्य में
दानादिगुणसस्पञ्च अग्नि ईंधन ग्रहण करते हें और हम लोगों का पुजन
ग्रहण करते हुँ; इसलिए अविनशवर अग्नि के सम्मुख होकर स्तोत्र-द्वारा
उनकी पुजा करो।
७, हम समिध से प्रदीप्त अग्नि को, स्तुति-द्वारा, प्रसन्न करते हें।
स्वतः शुद्ध, पवित्रता-विधायक और निश्चल अग्नि को हम यज्ञ में स्थापित
करते हैं। ज्ञान-सम्पन्न देवों को बुलानेवाले, सबके द्वारा वरणीय, सदा-
शायसम्पन्न, सर्वदर्शी और सर्व-भूतञ्च अगिङ्ग का हम सुखकर स्तोत्र
६८० हिन्दी-ऋग्वेद
से सम्भजन करते हँ अथवा अग्नि के निकट धन के लिए प्राथना
करते हें।
८. हे अग्नि, देवता और मनुष्य तुमको दूत बनाते हँ। तुम अमरण-
शील, प्रत्येक समय में हव्य बहन करनेवाले, पालक और स्तवनीय हो।
वे दोनों (वीतहव्य और भरद्वाज) जागरणशील, व्याप्त और प्रजाओं
के पालक अग्नि को, नमस्कार-द्वारा अथवा हव्य-द्वारा, स्थापित करते हैं।.
९. हे अग्नि, तुम देवों ओर मनुष्यों को विशेष प्रकार से अलंकृत
करके और यज्ञ में देवों का दूत हो करके द्यावा-पृथिवी में सञ्चरण करते
हो। हम लोग शोभन स्तुति-द्वारा और यज्ञ-द्वारा तुम्हारा सम्भजन
करते हुँ; अतएव तुम त्रिभूवनवर्ती होकर हमारे लिए सुख-विधान
करो।
१०. हम अल्पबुद्धिवाले सर्वज्ञ, शोभनाद्ध, मनोज्ञमूति और गमनः
शील अग्निदेव का परिचरण करते हेँ। ज्ञातव्य वस्तुओं को जाननेवाले
अग्नि देवों का यजन करें और देवों के मध्य में हमारे हव्य को प्रचारित
करः । ॒
११. हे शोर्षसम्पञ्च अग्नि, तुम दूरदर्शी हो। जो पुरुष तुम्हारा स्तवन
करता हे, तुम उसकी रक्षा करते हो और उसका मनोरथ पुर्ण करते हो।
जो यज्ञसम्पादन करता हे और जो हव्य उत्क्षप (प्रदान) करता हुँ,
उसको तुम बल ओर धन से पूर्ण करते हो।
१२. हे अग्नि, तुम शत्रुओं से हम लोगों की रक्षा करो। हे बल-
सम्पन्न अग्नि, तुम हम लोगों का पाप से परित्राण करो। तुम्हारे समीप
हम लोगों-द्वारा प्रदत्त निर्दोष हव्य उपस्थित हो। तुम्हारे द्वारा प्रदत्त
सहस्र प्रकार का धन हमारे समीप उपस्थित हो।
१३. देवों को बुलानेवाले, वीप्तिसान् अग्नि गृह के अधिपति और
सर्वज्ञ हे; अतएव चे सम्पूर्ण प्राणियों को जानते हुँ। जो अग्नि देवों और
मनुष्यों के मध्य में अतिशय यज्ञकारी हैं, वे सत्य-सम्पन्न अग्नि उत्तम
रूप से यज्ञ करें ।
हिन्दी-ऋष्वेद ६८१
१४. हे यज्ञनिष्पादक और शोधक दीप्तिवाले अग्नि, इस समय जो
प्रजमान का कत्तव्य हूं, उसकी तुम कामना करो। तुम देवों का यजन
करनेवाले हो, अतएव तुस यज्ञ में देवों का यजन करो। हे युवतम्त अग्नि,
तुम अपने माहात्म्य से सर्वेव्यापी हो। आज तुम्हारे लिए जो हव्य प्रदान
करते हे, उसे तुस स्वीकार करो।
१५. हे अग्नि, वेदी के ऊपर यथाविधि स्थापित हव्य को देखो।
यजमान ने तुम्हें ्यावा-पुथिवी सें यज्ञ के लिए स्थापित किया है। है एश्वर्य
सम्पन्न अग्नि, तुस संग्राम सं हम लोगों की रक्षा करो, जिससे हम
समस्त पाप से परित्राण पावें।
१६. हे शोभन शिखासम्पज् अग्नि, तुस समस्त देवों के सहित सर्वा-
ग्रगप्य होकर ऊर्णा (कम्बल) युक्त, कुलाय सदुश और घतसंयुक्त उत्तर
वेदी पर अवस्थान करो। हव्यदाता यजमान के यज्ञ को समुदित रूप
से देवों के निकट ले जाओ ।
१७. कर्म का विधान करनेवाले ऋत्विक् लोग अथर्वा ऋषि की
तरह अग्नि का मन्थन करते थे। देवता से निर्गत होकर इतस्ततः
पलायसान और बुद्धिमान् अग्नि को रात्रि के अन्धकारों से आनयन
करते थ।
१८. हे अग्नि, देवाभिलावी यजमान के कल्याण को अविनइवर
करने के लिए तुस यज्ञ में मथ्यमान होकर प्रादुर्भूत होओ। यज्ञवद्धक
ओर अमरणशील देवों का आनयन करो। अनन्तर, देवों के निकट
हमारे यज्ञ को पहुंचा दो। |
' १९, हे यज्ञपालक अग्नि, प्राणियों के मध्य में हम लोग ही तुम्हें
इंधन-हारा महान् बनाते हैं। अतएव हस लोगों के गाहपत्य अर्नि-पुत्र,
पशु और धनादि द्वारा सम्पुणता लाभ करें । तीक्षण तेज-द्वारा तुम हम
लोगों को योजित करो ।
६८२ हिन्दी-ऋग्वेद
१६ सूक्त
(२ अनुवाक | देवता अप्रि । ऋषि भरद्वाज । छन्द गायत्री,
अदुष्टुप् और त्रिष्टुप ))
१. हे अग्नि, तुम सम्पूर्ण यज्ञ के होमनिष्पादक हो अथवा देवों के
आह्वानकर्सा हो। तुम मन्-सम्बन्धी मनुष्य के यज्ञ में देवों-दारा होतकार्य
में नियुक्त हो।
२. है अग्नि, तुम हम लोगों के यज्ञ में मदकारक ज्वाला-द्वारा महान्
देवों का यजन करो। इन्द्रादि देवों का आनयन करो और उन्हें हव्य
प्रदान करो।
३. हे विधाता, हे शोभन कर्म करनेवाले दानादि गुणविशिष्ट अग्नि,
तुम दशपूर्णमासादि यज्ञ में महान् और क्षुद्र मार्यो को वेग-द्वारा जानते
हो; अतः यज्ञमाग से भ्रष्ट यजमान को पुनः सन्सार्याधिरुह करो।
४. हे अग्नि, दुष्यन्ततनय भरत हव्यदाता ऋत्विकों के साथ सुख
के उद्देश्य से तुम्हारा स्तवन करते हुँ। तुमसे इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट
का निवारण होता हें। स्तवन के उपरान्त तुम्हारा यजन करते हें। तुम
यागयोग्य हो ।
५. हे अग्नि, सोमाभिषवकारी राजा दिवोदास को तुमने जिस
प्रकार से बहुविध रमणीय धन प्रदान किया था, उसी प्रकार से हव्य
प्रदान करनेवाले भरद्वाज ऋषि को बहुविध रमणीय घन प्रदान करो।
६. है अग्नि, तुम अमरणशील और दुत हो। मेघावी भरद्वाज ऋषि
की शोभन स्तुति श्रवण कर तुम हमारे यज्ञ में देवों को ले आओ।
७, हे दयुतिमान अग्नि, सुन्दर चिन्ता करनेवाले मनुष्य देवों को तृप्त
करने के लिए यज्ञ में तुम्हारा स्तवन करते हें अथवा तुमसे याचना
करते हें।
८. हे अग्नि, हम तुम्हारे दर्शनीय तेज का पुजन भली भाँति से करते
हैं ओर तुम्हारे शोभन दानशील कार्य का भी पुजन करते हुँ। अकेळे
हिन्दी-ऋणग्वेद ६८३
हम ही नहीं; किन्तु दूसरे यजसान लोग भी तुम्हारे अनुग्रह से सफला"
भिलाष होकर तुम्हारे यज्ञ या कार्य का सेवन करते हूँ।
९. हे अग्नि, होतुकार्य में मन् ने तुम्हें नियुक्त किया हे। तुम ज्वाला-
रूप मुख-द्वारा हव्य वहन करनेवाले और अतिशय विद्वान् हो। तुस
यलोक-सम्वन्धिनी प्रजाओं (देवों) का यजन करो।
१०. हे अग्नि, तुस हव्य अक्षण करने के लिए आगमन करो ओर
देवों के समीप हव्य बहन करने के लिए, स्तुति-भाजन होकर होता रूप
से कुश के ऊपर उपवेशन करो।
११. हे अङ्गार रूप अग्नि, हम लोग काष्ठ ओर आज्य-द्वारा तुम्हें
प्रवद्धित करते हैं; इसलिए हे युवतम अग्नि, तुम अत्यन्त दीप्तिमान्
होओ।
१२. हे द्युतिमान् अग्नि, तुम हस लोगों को विस्तीणं, प्रशंसनीय और
सहान् धन प्रदान करो।
१३. हे अग्नि, सस्तक की भाँति संसार के धारक पुष्करपत्र के
ऊपर अरणिद्टय के मध्य से तुम्हें अथर्वा ऋषि ने उत्पन्न किया हे।
१४. हे अग्नि, अथर्वा के पुत्र दध्यङ ऋषि ने तुम्हें समुज्ज्वलित किया
था। तुम आवरणकारी शत्रुओं के हुननकर्ता और असुरों के नगर विना-
शक हो।
१५. हे अग्नि, पाथ्य बुषा नास के किसी ऋषि ने तुम्हें समुहीपित
किया हुँ । तुम दस्युहन्ता ओर प्रत्येक युद्ध में धन के जेता हो। |
१६. हे अग्नि, तुम यहाँ आगमन करो; क्योंकि हम तुम्हारे लिए
जिस प्रकार का स्तोत्र उच्चारित करते हें, उसे तुम श्रवण करो। यहाँ
आकर तुम इन सोमरसों-हारा वद्धंसान होओ।
१७. हे अग्नि, तुम्हारा अनुग्रहात्मक अन्तःकरण जिस देश में और
जिस यजमान में वर्तमान होता हे, वह श्रेष्ठ बल और अन्न धारण करता
है तुम उसी यजमान में अपना स्थान बनाते हो।
६८४ हिन्दी-ऋग्वेद
१८. है अग्नि, तुम्हारा दीप्तिपुञ्ज नेत्र-विघातक नहीं हो, वह सदा
हमें दशनसमर्थ बनावे। हे कतिपय यजमानो के गृहप्रदाता, तुम हुम
यजमानों कै द्वारा विहित परिचरण को ग्रहण करो।
१९, स्तुतियों के द्वारा हम लोग अग्नि का अभिगसन करते हूँ।
अरिन हवि के स्वामी, दिवोदास राजा के शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले
सर्वज्ञ और यजमानों के पालक हूँ।
२०. अग्नि अपनी महिमा के हारा हम लोगों को सम्पूर्ण पाथिव घन
(भूतजात) प्रचुर परिणाम में प्रदान करें। अग्नि अपने तेज से शत्रुओं
था काएठों के विनाशक, शत्रओं के द्वारा अजेय और किसी के भौ द्वारा
अहिसित हुँ।
२१. हे अग्नि, तुम प्राचीनवत् नवीन दीप्ति-हारा इस विस्तीणं
अन्तरिक्ष को विस्तारित करते हो।
२२. हे मित्रभूत ऋत्विग्गण, तुस लोग शत्रुहन्ता और विधातास्वरूप
भरिन का स्तोत्र गान करो एवम् यज्ञसाधन हव्य प्रदान करो।
२३. वह अग्नि हमारे यज्ञ में कुशों के ऊपर उपवेशन करें, जो अग्नि
देवों के आह्वाता, अतिशय बृद्धिमान्, मनुष्य-सस्वन्धी यज्ञकाल में देवों
के दुत और हव्य के वाहक हें। |
२४. हे गृहप्रदाता अग्नि, तुम इस यज्ञ में प्रसिद्ध, राजमान, सुन्दर
कर्म करनेवाले मित्रावरुण, अदितिपुत्र, मरुद्गण ओर द्यावा-पृथियी का
यजन करो।
२५. हे बलपुत्र अग्नि, तुस मरणरहित हो। तुम्हारी प्रशस्त दीप्ति
मनुष्य यजमानों को अन्न प्रदान करती हे।
२९. है अग्नि, आज हवि देनेवाले यजमान परिचरण कर्म-द्वारा
तुम्हारा संभजन करके अतिशय प्रशंसनीय और शोभन धनवाले हों।
बह् मनुष्य तुम्हारी स्तुति का सर्वदा स्तोता हो।
२७, हे अग्नि, तुम्हारे स्तोता लोग तुम्हारे द्वारा रक्षित होते हुँ, वे
हिन्दी-ऋष्वेद ६८५
सब अभिलाषी होकर सम्पूर्ण आयु और अन्न प्राप्त करते हैँ। वे आक्रमण-
कारी शत्रुओं को पराजित और विनष्ट करते हूँ।
२८. अग्नि अपने तीक्ष्ण तेज के द्वारा सब वस्तुओं के भोजनकर्ता,
राक्षसों के संहारकर्ता और हम लोगों के धन-प्रदाता हैं।
२९. हे जातवेदा अग्नि, तुम शोभन पुत्र-पोत्रादि से युक्त भन आहुरण
करो। हे शोभन कर्म करनेवाले तुम राक्षसों का विनाश करो।
३०: हे जातवेदा, तुभ पाप से हम लोगों की रक्षा करो। हे स्तुति-
रूपमन्त्रों के कर्ता अग्नि, तुम विद्ेषकारियों से हमारी रक्षा करो।
३१. हे अग्नि, जो मनुष्य दुष्ट अभिप्राय से हम लोगों को मारने के
लिए आयुध प्रदर्शित करता हे अर्थात् आयुध-द्वारा हमारी (हिसा करता
है, उस मनुष्य से और पाप से तुम हमारी रक्षा करो।
३२. हे द्युतिमान् अग्नि, जो मनुष्य हम लोगों को मारने को इच्छा
करता है, उस दुष्कर्मकारी मनुष्य को तुस ज्वाला-द्वारा परिबाधित करो।
३३. हे शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले अग्नि, तुम हमें अर्थात् भरद्वाज
ऋषि को विस्तीगे (विपुल) सुख अथवा गुह् प्रदान करो और वरणीय
धन भी दो।
३४. भली भाँति से दीप्त; अतएव शुक्लवर्ण ओर हृबि-द्वारा आहूत
अग्नि स्तुति से स्तूयमान होकर हवि की इच्छा करते हें। अग्नि शत्रुओं
का अथवा अन्धकार का विनाश करें। |
३५. माता पृथिवी की गर्भस्थानीय और क्षरणरहित वेदी पर
अग्नि विद्यतिमान् होते .हेँ और हवि-द्वारा दुलोक के पालक अग्नि
यज्ञ की उत्तर वेदी पर उपविष्ट होकर शत्रुओं का विनाश करते हें।
३६. हे सर्वदर्शी जातवेदा, तुम पुत्र-पात्रों के साथ उस अच्च का
आनयन करो, जो अन्न द्युलोक सें देवों के मध्य में प्रशस्त अन्न होकर
शोभमान हो।
३७. हे बरू-द्रारा उत्पद्यमान अग्नि, तुम्हारा दर्शन अत्यन्त रमणीय
६८६ हिन्दी-ऋग्येद
हे। हवीरूप अन्न लेकर हम लोग तुम्हारे समीप स्तोत्रों का उच्चारण
करते हुँ।
३८. हे अग्नि, तुम्हारा तेज सुवर्ण की तरह रोचमान हु और तुम
दीप्तिसम्पञ्च हो। हम लोग तुम्हारी शरण में उसी तरह प्राप्त होते हे
जैसे कि धर्मार्त पुरुष छाया का आश्रय ग्रहण करता हे।
३९. अग्नि प्रचण्ड बलशाली धानुष्क की तरह वाणों-द्वारा शत्रुओं
के हस्ता हे और तीक्ष्ण शुङ्ग घुषभ की तरह हें। हे अग्नि तुमने त्रिपुरासुर
के तीनों पुरों को भग्त किया हे।
४०. अध्वर्यु लोग अरणिमन्यन से उत्पन्न जिस सद्योजात अग्नि को
पुत्र की तरह हाथ में यानी अभिमुख धारण करते हें, उस हुव्य-भक्षक
और मनुष्यों के शोभन यज्ञ के निष्पादक अग्नि का हे ऋत्विकृगण तुम
लोग परिचरण करो
४१. हे अध्वर्यृगण, तुम लोग देवों के भक्षणार्थं आहवनीय अग्नि में
प्रक्षेप करो। अग्नि चतिमान् और धनों के ज्ञाता हं। अग्नि अपने आहव
चोय स्थान सं उपवेशन करे।
४२. हे अध्वर्येओ, प्रादुर्भंत, अतिथि को तरह प्रिय ओर गृहस्वामी
अग्नि को ज्ञानप्रदायक और सुखकर आहवनीय अग्नि में संस्थापित
करो ।
४३. हे चूतिमान् अग्नि, तुम उन समस्त सुशील अइवों को अपने
रथ में युक्ष करो, जो तुम्हें यज्ञ के प्रति पर्याप्त रूप से वहन करते हेत
४४. हे अग्नि, तुम हमारे अभिमुख आगमन करो। हुव्य-भोजन
और सोमपान करने के लिए तुम देवों का आनयन करो।
४५. हे हृव्यवाहक अग्नि, तुम अत्यन्त ऊद्ध्वेतेज होकर दीप्यमान
होओ। हे जरारहित अग्नि, तुम अजस्र द्युतिमान् तेज से प्रकाशित होओ।
तुम पहले उद्दीप्त होओ ओर पश्चात् अपने तेज से सम्पुर्ण जगत् को
प्रकाशित करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ६८७
४६. हवि से युक्त जो यजमान हविलेक्षण अन्न-द्वारा जिस किसी
देवता की परिचर्या करता हं, उस यज्ञ में भी अग्नि स्तुत होते हे अर्थात्
अग्नि की पुजा सब यज्ञों में होती हे। अग्नि द्यावा-पुृथिवी सें वर्तमान
देवों के आह्वानकर्ता और सत्य रूप हुवि-द्वारा यष्टव्य हुँ । यजमान लोग
बद्धाञ्जलि होकर नमस्कार-पुर्वेक ऐसे अरि की परिचर्या करें।
४७, है अग्ति, हम तुम्हें संस्कृत ऋकरूप हुव्य प्रदान करते हें।
अर्थात् ऋचा को ही हव्य बनाकर प्रदान करते हुँ। ऋक्स्वरूप
वह हवि तुम्हारे भक्षण के लिए संचनसमर्थ वृषभ और गोरूप में
परिणत हो।
४८, जिस बलवान् अग्नि ने यज्ञविरोधक राक्षसों का संहार किया
है, जिस अग्नि ने असुरो के समीप से घन आहरण किया है, उस वुत्रहुन्ता
प्रधान अग्नि को देवगण उहीप्त करते हे।
पच्चस अध्याय समाप्त ॥
१७ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज ।
छुन्द त्रिष्टुप् और द्विपदा |)
१. हे युद्चतायुध या प्रचण्ड बलशाली इन्द्र, अङ्किराओं-द्रारा स्तूयमान
होकर तुमने सोमपान करने के लिए पणियों-द्वारा अपहृत गोओं को
प्रकाशित किया था। तुस सोमपात करो। हे शत्रुओं के विनाशक दप्ञ्रघर
इन्द्र, बल से युक्त होकर तुमने सम्पूर्ण झत्रुओं का विनाश किया है ।
२. हे रसविहीन सोम के पानकर्सा इन्द्र, तुम शत्रुओं से त्राण करने-
वाले, शोभन कपोलचाले और स्तोताओं की कामना के प्रक हो। तुस
इस सोसरस का पान करो। हे इन्द्र, तुस वज्यधर, पर्वतों या मेघों के
विदारक ओर अइवों के संयोजक हो। तुस हम लोगों के विचित्र अन्न को
प्रकाशित करो। | |
६८८ हिन्दी-ऋग्वेद
३. हे इच्ध, तुमने जैसे प्राचीन सोमरस पान किया था, वैसे ही हमारे
इस सोमरस को पियो। यह सोमरस तुम्हें प्रसन्न करे। हमारे स्तोत्र को
सुनो और स्तुतियो-द्वारा वद्धमान होओ। सूयं को आविष्कृत करो। हम
लोगों को अन्न भोजन कराओ। हमारे शत्रुओं का विनाश करो और
पणियों-द्वारा अपहत गोओं को प्रकाशित करो।
४, हे अन्नवान् इन्द्र, तुम दीप्तिसान् हो। यह पिया गया मादक सोम-
रस तुम्हें अतिशय [सिचित करे। हे इन्द्र, यह मदकारक सोमरस तुम्हें
अतिशय हृषित करे। तुम महान्, निखिल गुणवान्, प्रवृद्ध, विभववान्
और शत्रुओं को पराभूत करनेवाले हो।
५. हे इन्द्र, सोमरस से मोदमान होकर तुमने दृढ़ अन्धकार का
भेदच किया है और सूर्यं तथा उषा को अपने-अपने स्थान पर निवेशित
किया है । तुमने अपने स्थान से अविचलित अर्थात् विनाश-रहित, स्थिर
पर्वत को विदीणं किया है, जिस पर्वत के चारों तरफ़ पणियों-द्रारा अपहुत
गौएँ वर्तमान थों।
६. हे इन्द्र, तुमने अपनी बुद्धि, कार्य और सॉसर्थ्य के द्वारा अपरिपक्व
गोओं को परिणत दुग्ध प्रदान किया हे अर्थात् अकाल में ही गौओं को
क्षोरदायिनी बनाया हे। हे इन्द्र, तुमने गोओं को बाहर आने के लिए
पाषाणादि के दृढ़ द्वारों को उद्घाटित किया है। अङ्चिराओ के साथ
सिलित होकर तुमने गोओं को गोष्ठ से उन्मुक्त किया था।
७. हे इनर, तुमने महान् कर्म-द्रारा सिस्तीर्ण पृथिवी को विशेष
प्रकार से पूर्ण किया है। हे इस, ठुम महान् हो। तुमने महान् झुलोक
को धारण किया है, जिससे वह निपतित न हो जाय। तुमने पोषण करने
के लिए द्यावा-पृथिवी को धारण किया हे। देवता लोग यावा-पृथिची के
पुत्र हैं। द्यावा-पृथिवी पुरातन, यज्ञ अथवा उदक का निर्माण करनेवाली
और महान् हें।
८. हे इख, जब कि, दूत्रासुर-संग्राम के लिए देवगण चले थे,
तब सम्पुर्ण देवों ने एक तुम्हें ही संग्राम के लिए अगुआ बनाया था।
हिन्दी-ऋग्वेद ६८९
तुम अत्यन्त बलशाली हो। तुमने सझतों के संग्राम में इन्र को साहाय्य
दिया था।
९. विपुल अन्चवाले इद्र ने जब कि सोने (मरने) के लिए आक्रमण-
कारी वृत्र का वध किया था, तब हे इन्द्र, तुम्हारे कोध ओर वजय के
भय से चलोक अवसन्न हो गया था।
१०. हे अत्यन्त बलशाली इन्द्र देवशिल्पी त्वष्टा ने तुम्हारे लिए
सहस्र धारावाले ओर सो पर्व (गाँठ) वाले वजय का निर्माण किया था।
हे नीरस सोमपान करनेवाले इन्र, उसी वजा-हारा तुमने नियताभिलाष,
उद्धत-प्रकृति और शब्दायसान वुत्रःसुर को चूर्ण किया था।
११, हे इन्द्र, सम्पूर्णं मरुदगण ससान प्रीतिभाजन होकर स्तोत्र-दारा
तुम्हें बद्धित करते हें और तुम्हारे निमित्त पुषा तथा विष्णुदेव शतसंख्यक
महिषों का पाक करते हैं। तीन पात्रों को पुणं करने के लिए मदकारक
और वुत्रविनाशक सोम धावित होता है अर्थात् पुषा और विष्ण सोमपात्र
को पर्ण करें। सोमपान करने के बाद वुत्र-विनाश में इन्द्र समर्थ
होते हु । ॒
१२. हे इन्द्र, तुमने वुत्र-द्रारा समाच्छादित स्वतः स्थित नदियों
के जल को उन्मुक्त किया था, जिससे नदियाँ प्रवाहित हुई । तुमने उदक
तरङ्ग को उन्मुक्त किया है। हे इन्द्र, तुमने उन नदियों को निभ्न माग
से प्रवाहित किया हे। तुमने वेगयुक्त उदक को समद्र में पहुंचाया है ।
१३. हे इन्द्र, इस प्रकार से तुम सम्पुर्ण कार्यों के करनेवाले, ऐ३व्य-
शाली, महान् ओजस्वी, अजर, बलदाता, शोभन मरुतों से सहायता पाने-
वाले, अस्त्रधारी और वप्त्रधर हो। हम लोगों का नवीन स्तोत्र तुम्हें
प्रवतत करे, जिससे हम लोगों की रक्षा हो।
१४. हे इन्द्र, तुम हम लोगों को बल, पुष्टि, अन्न ओर धन के लिए
धारण करो। हम लोग झक्तिसम्पन्न और मेधावी हैं। हे इच, हम
भरद्वाज को परिचारकों से युक्त करो। तुम्हारी स्तुति करनेवाले पुत्र-'
पौत्रो को करो। हे इन्द्र, तुम आवेवाले दिवस में हमारी रक्षा करो।
फा० ४४
६९० हिन्दी-ऋग्वेद
१५. इस स्तुति के द्वारा हम लोग चतिमाम् इच्ध-द्वारा प्रदत्त अन्न-
लाभ करें। हम लोग शोभन पुत्र-पौत्रो से युक्त होकर सो वष पर्यन्त
प्रमुदित हों।
१८ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे भरद्वाज, तुम अनभिभूत तेजवाले, शत्रुओं की हिंसा करनेवाले,
अधृष्य और बहुतों के द्वारा आहुत इन्द्र का स्तवन करो। तुस इन स्तोत्रों-
द्वारा अनभिभूत, ओजस्वी, शत्रविजयी और मनुष्यों के अभीष्ट-पूरक
इन्द्र को संर्वाद्धत करो।
२. इन्द्र संग्राम में रेणुओं के उत्थापक, मुख्य, घळवाम्, योद्धा, दाता,
युद्ध में संलग्न, सहानुभूति-सस्पन्च, बृष्टि-द्वारा बहुतों के उपकारक, शब्द-
विधायक, तीनों सवनों में सोमपान करनेवाले और मनु की सम्तानों की
रक्षा करनेवाले हें। क्
३. हे इन्द्र, तुम कर्मविहीन मनुष्यों को शीघ्र ही वशीभूत करो।
अकेले तुमने ही कर्मातुष्ठानकारी आर्यो को पुत्र-दासादि प्रदान किया
था। हे इद्ध, तुममें इस प्रकार की पुर्वोक्त सामर्थ्य है अथवा नहीं? तुम
समय-समय पर अपने वीर्य का विशेष परिचय प्रदान करो।
४. तथापि हे बलवान् इन्द्र, तुम संसार के बहुत यज्ञों में प्रादुभंत
हुए हो और हमारे शत्रुओं का विनाश किया हं। तुमसे प्रचण्ड और प्रवृद्ध
बल है हम एसा समझते हें। तुम ओजस्वी, समृद्धिसम्पञ्न, शत्रुओं-द्वारा
अजेय तथा जयशील शत्रुओं के निधनकर्ता हो।
५. हे अविचलित पर्वतादि के संजालनकर्त्ता ओर मनोज्ञदर्शन इन्द्र,
हम रोगों का चिरकालानुवर्ती सख्य चिरस्थायी हो। तुमचे स्तवकारी
अङ्किराओं के साथ अस्त्रनिक्षेष करनेवाले बल नामक असुर का वध
किया था एवं उसके नगरौं और नगरों के द्वारो को उद्घाटित
किया था।
हिन्दी-ऋग्वेद ६९१
६. ओजस्वी ओर स्तोताओं की सामर्थ्य को करनेवाले इन्द्र महान्
संग्राम में स्तोताओं या स्तुतियों-हारा आहूत होते हूँ। पुत्र, लाभ के लिए
इन्द्र आहत होते हें। वजाधारी इख संग्राम में विशेष रूप से वन्दनीय
होते हुँ।
७, इन्द्र ने विनाशरहित और झत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बल”
द्वारा मनुष्यों के जन्म को अतिशय प्राप्त किया हे । इन्द्र यश-द्वारा
समान स्थानवाले होते हें और नेतृतम इन्र घन तथा सामथ्यं के द्वारा |
समान स्थानवाले होते हें।
८. जो इन्द्र संग्राम में कभी भी कर्सव्-विसूढ़ नहीं होते हे, जो कभी
भी वृथा वस्तुओं को उत्पन्न नहीं करते हैं; किन्तु जो प्रख्यात नामवाले
हे, दही इन्द्र शत्रुओं के नगरौं को विनष्ट करने के लिए और शत्रुओं को
मारने के लिए शीघ्र ही कार्यरत होते हें। हे इन्द्र, तुसने चुमुरि, धुनि,
पिप्रु, शम्बर और शुष्ण नामक असुरो को विनष्ट किया हे।
९, हे इन्द्र, तुम ऊद्ध्यंगामी और शत्रुओं के संहारकर्ता हो। तुम
स्तवनीय बल से युक्त होकर शत्रुओं को मारने के लिए अपने रथ पर
आरोहण करो। दक्षिण हस्त में अघले अस्त्र बजय को धारण करो। हे
बहु-धनवाले इन्द्र, तुस जाकर आसुरी माया को विशेष प्रकार से उच्छिन्न
करो।
१०. हे इन्द्र, अग्नि जिस प्रकार से नीरस वृक्षों को दग्ध करते हुँ,
उसी प्रकार तुम्हारा वज्य शत्रुओं को नष्ट करता हें। तुम वज्य की तरह
भयंकर हो। तुम वज्र-द्वारा राक्षसो को अतिशय अस्मसात् करो। इन्द्र
ने अनभिभूत और महान् वप्त्-ह्वारा शत्रुओं को अग्न किया हृ। इन्द्र
संग्राम सें शब्द करते हें और समस्त दुरितों का भेदन करते हँ।
११. हे बहुधन-सम्पञ्च, बहुतों के द्वारा आहूत, बलपृत्र इन्द्र, कोई
भी असुर तुम्हें बल से पृथक् करने में समर्थ नहीं हो सकता हे। धन से
युक्त होकर तुस असंख्य बलशाडी वाहनों के द्वारा हमारे अभिमुख आग-
सन करो ।
६९२ हिन्दी-ऋग्वेद
.. १२, बहुत धनवाले या बहुत यशवाले, शत्रुओं के निहन्ता और
प्रवर्घमान इन्द्र की महिमा छादः-एथिबी से भी महान् है। बहुत बुद्धिवाले
और शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले इन्द्र का कोई शत्रु नहीं हू, कोई
प्रतिनिधि नहीं है और न कोई आश्रय हे।
१३. हे इन्द्र, तुम्हारा बह् कर्म प्रकाशित होता हे । तुमने शुष्ण नामक
राक्षस से कुत्स को और शत्रुओं के समीप से आयु तथा दिवोदास की
रक्षा की थी। तुमने हम अतिथिग्व को शम्बर के समीप से बहुत धन
प्रदान किया था। है इन्द्र, तुमने विजयी वज्त्र-द्वारा शम्बर को सार करके
पृथिवी सं वर्तमान शीघ्र गमन करनेवाले दिवोदास को विपद् से
बचाया था।
१४, हे दुतिमान् इन्द्र, सम्पुर्णं स्तोता लोग अभी सेघ को विनष्ट
करने के लिए अर्थात् बृष्टि प्रदान करने के लिए तुम्हारा स्तवन कर रहे
हैं। तुम सम्पूणं मेधावियों में श्रेष्ठ हो। स्तोताओं फे स्तवन से प्रसन्न
होकर तुम दारिद्रयादि से पीड़ित यजमानों और उनके पुत्रों को धन
प्रदात करते हो।
१५, हे इन्द्र, ययावा-पृथिबी और अमरदेद तुम्हारे बल को स्वीकार
करते हूँ। हे बहुत कार्य के करनेवाले इन्द्र, तुस असम्पादित कार्यों का
अनुष्ठान करो ओर उसके अनन्तर यज्ञ में नवीनतर स्तोत्र को उत्पन्न
करो ॥
१९ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. राजा की तरह स्तोता मनुष्यों की कामनाओं के पुरक प्रभूत
इख आगमन करें। दोनों लोकों के ऊपर पराक्रम को विस्तारित करने-
बाले और शत्रओं-द्रारा अहिसनीय इन्द्र हम लोगों के निकट वीरत्व
प्रकाशित करने के लिए वरद्धित होते हें। इन्द्र विस्तीण शरीरवाले और
प्रख्यात गुणवाले हूँ। वे यजमानों-द्वारा भली भाँति से परिचित होते हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ६९३
२. इन्द्र उत्पन्न होते ही अत्यधिक वद्धेमान होते हें। हमारी स्तुति
दान के लिए इन्द्र को धारण करती हे। इन्द्र महान्, गमनशील, जरा-
रहित, युवा और शरत्रुओं-दवारा अनभिभूत होनेवाले बल से वद्धमान हैं।
३. है इन्द्र, तुम अन्नदान करने के लिए हम लोगों के अभिमुख अपने
विस्तीर्ण, कार्यकर्ता और अतिशय दानशील हाथों को करो। हे इन्द्र, तुम
शान्त सनवाले हो। पशुपालक जिस प्रकार से पशुओं के समूह को संचारित
करता है, उसी प्रकार लुम संग्रास में हम लोगों को संचारित करो।
४, हम स्तोता लोग अन्नाभिलाषी होकर इस यज्ञ सें समर्थ सहायक
भरुतों के साथ शत्रनिहन्ता प्रसिद्ध इन्द्र का स्तवन करते हें। हे इन्द्र,
तुम्हारे पुरातन स्तोता की तरह हम लोग भी अनिन्द्य, पापरहित और
अहिसित हों ।
५. जिस तरह नदियाँ प्रवाहित होकर समुद्र में निपतित होती हे,
उसी प्रकार स्तोताओं का हितकर धन इन्द्र के प्रति गसन करता है। इन्दर
धन से कर्म करनेवाले, वाञ्छित घन के स्वामी और सोमरस-द्वारा प्रवद्ध-
मान हें।
६. है पराक्रमशाली इन्द्र, तुम हम लोगों को प्रकृष्टतम बल प्रदान
करो। हे शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले इन्द्र, तुम हम लोगों को असह्य
और अतिशय ओजस्वी दीप्ति प्रदान करो। हे अइववाले इन्द्र, तुम हम
लोगों को सेचन-समर्थ, द्युतिमान् और मनुष्यों के भोग्य के लिए कल्पित
सम्पूर्ण धन प्रदान करो ।
७. हे इन्द्र, तुम हम लोगों को शत्रू-सेनाओं को अभिभूत करनेवाला
और हसित हर्ष प्रदान करो। तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर हम लोग
जयशील हों। पुत्र-पोत्र के लाभ के निमित्त हम लोग उसी हर्ष से तुम्हारा
स्तवन करें ।
८. हे इद्र, तुम हम लोगों को अभिलाषपुरक सेनारूप बल प्रदान
करो। वह (बल) धन का पालक, प्रवृद्ध और शोभन बल हो। हे इच,
६९४ हिन्दीन-त्रग्वेद
तुम्हारी रक्षा-द्वारा हम संग्राम में जिस बल से आत्मीय तथा अपरिचित
शत्रुओं का वध कर सकें।
९. है इन्द्र, तुम्हारा अभीष्टवर्षी बल पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और
पुर्व की ओर से हमारे अभिमुख आगमन करे। वह प्रत्येक दिशा होकर
हमारे निकट आगमन करे। तुम हम छोगों को सब प्रकार के साथ धन
प्रदान करो ।
१०. है इन्द्र, परिचारकों से युक्त और तव्य यश के साथ हम लोग
श्रेष्ठ धन का उपभोग, तुम्हारी रक्षा के द्वारा, करते हें। हे राजमान
इन्र, तुम पार्थिव और दिव्य घन के अधिपति हो; अतएव तुम हम लोगों
को महान्, असीम एवम् गुणयुक्त रत्न प्रदान करो।
११. हम लोग अभिनव रक्षा के लिए इस यज्ञ में प्रसिद्ध इख का
आह्वान करते हैं। वे मरतों के साथ युक्त, अभीष्टवर्षी, समृद्ध, शत्रुओं
के द्वारा अकुत्सित (अकदर्य), दीप्तिमान्, शासनकारी, लोक का अभि-
भव करनेवाले, प्रचण्ड और बलप्रद हू ।
१२. हे वज््रधर, हम जिन मनुष्यों के मध्य में वर्तमान हें, उन मनुष्यों
से अपने को अधिक माननेवाले व्यक्ति को तुम वशीभूत करो। हम लोग
अभी इस लोक में युद्ध के समय में एवम् पुत्र, पशु और उदक लाभ के
निमित्त तुम्हारा आह्वान करते हें।
१३. हे बहुजनाहुत इन्द्र, हम लोग इन स्तोत्र रूप सखिकमं के द्वारा
तुम्हारे साथ समुदित शत्रुओं का संहार करें और उनकी अपेक्षा प्रबल
हों। हे पराक्रमवान् इन्द्र, हम लोग तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर महान्
घन से प्रसन्न हों।
२० सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे बलपुत्र इन्द्र, सूर्य जिस प्रकार से अपनी दीप्ति-द्रारा पृथिवी
को आक्रान्त करते हे उसी प्रकार संग्राम में शत्रुओं को आक्रान्त करनेवाला
हिम्दी-ऋग्वेद ६९५
पुत्रहप धन तुम हमें प्रदान करो। बह् सहस्र प्रकार फे धन का भर्ता,
शस्यपुर्ण भूमि का अधिपति और शत्रुओं का निहन्ता हो।
२. हे इन्द्र, स्तोताओं ने स्तोत्र-द्वारा सूर्य की तरह तुममें सचम्च
समस्त बरू आपत किया था। हे नीरस सोमपान करनेवाले इन्द्र, तुमने
विष्णु के साथ युक्त होकर बल-द्वारा वारिनिरोधक आदि वृत्र का वध
किया था।
३. जब इन्द्र ने सम्पूर्ण इत्रु-पुरियों के विदारक बज् को प्राप्त किया,
तब वे मधुर सोसरस के स्वामी हुए। इन्द्र हिसकों की हिसा करनेवाले
अतिहाय ओजस्वी, बलवान्, अन्न देनेवाले ओर प्रबुद्ध तेजवाले हँ।
४. हे इन्र, युद्ध में बहुत अन्न प्रदान करनेवाले और तुम्हारी सहा-
थता करनेवाले मेधावी कुत्स से भीत होकर शतसंख्यक सेनाओं के साय
पणि नामक असुर ने पलायन किया था। इन्द्र ने बलशाली शुष्ण नामक
असुर की कपटता को आयुध-द्वारा नष्ट करके उसके समस्त अन्न को
अपहृत किया था।
५. वज्य के पतित होने से जब शुष्ण ने प्राण त्याग किया, तब
सहान् द्रोही शुष्ण का सम्पूर्णं बल नष्ट हो गया। इन्द्र ने सूर्य का संभजन
करने के लिए सारथीभूत कुत्स को अपने रथ को विस्तृत करने के लिए
कहा ।
६. इन्द्र ने प्राणियों को उपद्रुत करनेवाले नमुचि नामक
असुर के मस्तक को चूर्ण किया एवम् सप के पुत्र निद्रित नमी ऋषि को
रक्षा करके उन्हें पशु आदि धन तथा अन्न से युक्त किया। उस समय
शयेन पक्षी ने इन्द्र के लिए मदकर सोम का आमयन किया था।
७. हे वज्यधर इन्द्र, तुमने तुरन्त सायावाले पिप्रु नामक असुर
के दृढ़ दुर्यो को बल-द्वारा विदीर्ण किया था। हे शोभन दात-सम्पन्न इन्द्र,
तुमने हुव्यरूप धन प्रदान करनेवाले राजष ऋजिइवा को अप्रतिबाष
धन प्रदान किया था।
६९६ हिन्दी-ऋग्वेद
८, अभिलणित सुख-प्रदाता इन्द्र ने वेतसु, दशोणि, तुतुजि, तुग्र और
इभ नामक असुरों को राजा द्योतत के निकट सर्वदा गमन करने के लिए
उसी तरह वशीभूत किया था, जैसे कि माता के निकट गमन करने में
पुत्र बशीभूत होते हें। |
९, शत्रओं-हारा नहीं निरस्त होनेवाले इत्र हाथ में शत्रुओं को
मारनेवाले अपने आयुध को धारण करते हुए स्पर्द्धाकारी वृत्रादि शत्रुओं
को विनाश करते है। श्र जिस प्रकार से रथ पर आरोहण करता हैं, उसी
प्रकार वे अपने अइवों पर आरोहण करते हँ। बचन-मात्र से पूजित
होकर वे दोनों घोड़े महान् इन्द्र का बहन करें।
१०. हे इन्द्र, तुम्हारी रक्षा के द्वारा हम स्तोता लोग नवीन धन के
लिए सम्भजन करते हें। मनुष्य स्तोता लोग इस प्रकार से युक्त यज्ञों के
द्वारा तुम्हारी स्तुलि करते है कि यज्ञविद्वेषी प्रंजाओं की हिसा करते हुए
पुरुकुत्स राजा को धन प्रदान करते हँ। हे इन्त्र, तुमने शरत् नामक असुर
की सात पुरियों को वज्य-द्वारा विदीर्ण किया है।
११. हे इन्द्र, घनाभिलाषी होकर तुम कविपुत्र उशना के लिए
प्राचीन उपकारक हुए थे अर्थात् स्तोताओं के वद्धक हुए थे तुमने नववास्त्व
नामक असुर का वध किया ओर क्षमताशाली पिता उशना के निकट
उसके देय पुत्र को समापित किया ।
१२. हे इन्द्र, तुम शत्रुओं को कंपानेवाले हो। तुमने धुनि नामक
' असुर-द्वारा निरुद्ध जल को नदी की तरह प्रवहणशील बनाया था अर्थात्
धुनि का हनन करके निरुद्ध जलराशि को बहाया था। हे वीर इन्द्र, जब
तुम समुद्र का अतिक्रमण करके उत्तीणे होते हो, तब समुद्र के पार में
वर्तमान तुर्वश और यढु को समुद्र पार कराते हो।
१३. हे इन्द्र, संग्राम मं उस तरह के सब कार्य तुम्हारे ही हं। धुनी
और चुसुरी नामक असुरों को तुमने संग्राम में सुलाया है अर्थात् मार
डाला हैँ। है इन्द्र, इसके अनन्तर हव्यपाक करनेवाले, इंधन के भर्ता
हिन्दी-ऋहभ्वेद ६९७
और तुम्हारे निमित सोमाभिषव करनेवाले राजषि दभीति ने हुवीरूप
अन्न से तुम्हें प्रदीप्त किया हूँ ।
२१ सूक्त
(देवता इन्द्र नवम ओर एकादश ऋचा के विश्वरेवगण देवता ।
ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. है श्र इन्द्र, बहुत कार्य की अभिलाषा करनेवाले, स्तोता भरद्वाज
की प्रशंसनीय स्तुतियाँ तुम्हारा आह्वान करती हें। इन्द्र रथ पर स्थित,
ज्ञरारहित ओर नवीनतर हें। श्रेष्ठ विभूति (हविलेक्षण धन) इद्र
का अनुगमन करती हे।
२. जो सब जानते हँ अथवा जो सबके हारा जाने जाते हैं, जो
स्तुतियों-द्वारा घ्रापणीय हैं और जो यज्ञ-द्वारा प्रवद्धमान होते हैं, उन
इन्द्र का हम स्तवन करते हूँ। बहुत प्रज्ञावाले इन्द्र का माहात्म्य द्यावा-
पृथिवी का अतिक्रमण करता है।
३. इन्द्र ने ही वृत्त-द्वारा विस्तीर्णं और अप्रज्ञात (अप्रकाशित ) अन्ध-
कार को सुये-द्वारा प्रकाशित किया था। हे बलवान् इन्द्र, तुम अमरणशील
हो। मनुष्यगण तुम्हारे स्वर्गं नामक स्थान का (वहाँ रहनेवालों देवों
का) सर्वदा यजन करना चाहते हें। वे किसी प्राणी की हिसा नहीं करते।
४. जिन इन्द्र ने उन वृत्र-चधादि प्रसिद्ध कार्यों को किया हे, वे अभी
कहाँ वर्तमान हैं, किस देश और किन प्रजाओं के सध्य में वर्तमान हुँ
(अतिशय विभूति के कारण यह विश्वय किया जा सकता है कि वे
कहाँ हें।) हे इन्द्र, किस तरह का यज्ञ तुम्हारे चित्त के लिए सुखकर होता
हुँ? तुम्हारा वरण करने मे किस तरह का मन्त्र समर्थ होता हें? तुम्हारा
बरण करने में जो समर्थ होता हें, वह कौन हे?
५. हे बहुत कार्यो के करनेवाले इन्द्र, पुर्वकालोत्पन्न पुरातन अङ्गिरा
आदि आजकल की तरह कार्य करते हुए तुम्हारे स्तोता हुए थे। मध्यः
६९८ हिन्दी-त्रहरबेद
कालीय और नवीन (आजकलवाले) भी तुम्हारे स्तोता हुए हैं; अतएव
हे बहुजनाहुत इन्द्र, तुम मुझ अर्वाचीन की स्तुति को समझो (सुनो) ।
६. हे शूर और मन्त्र-्वारा प्रापणीय इन्द्र, अर्वाचीन मनुष्यगण, उक्त
गुणों से युक्त, तुम्हारी अर्चना करते हँ। तुम्हारे प्राचीन और उत्कृष्ट
सहान् कार्यो को स्तुति रूप वचनों में बाधते हें। तुम्हारे जिन कार्यों को
हम लोग जानते हैं, उन्हीं से हम लोग तुम्हारी अचना करते हें। तुम
सहान् हो।
७. है इन्द्र, राक्षसों का बळ तुम्हारे अभिमुख प्रतिष्ठित है। तुम भी
उस प्रावुर्भूत महान् बल के अभिमुख स्थिर होओ। हे शत्रुओं के घर्षक
इन्द्र, स्थिर होकर तुम अपने बजा-द्वारा उस बल फा अपनोदन करो।
तुम्हारा बस्त्र पुरातन, योजनीय और नित्य सहायक हैं ।
८. हे स्तोताओं के धारक वीर इन्द्र, तुम हमारे स्तोत्र को शीघ्र
सुनो। हम इदानीन्तन (आधुनिक) और स्तोत्र करने की इच्छा रखनेवाले
हें। हे इन्द्र, यज्ञ में तुम शोभन आह्वानवाले होकर पूर्वकाल में अङ्चिराओं
के चिरकाल तक बन्धु हुए थे। इसलिए तुम हमारे स्तोत्र को सुनो।
९. हे भरद्वाज, तुम अभी हम लोगों की तृप्ति और रक्षा के लिए
राज्याभिसानी वरुण, दिनाभिमानी सित्र, इन्द्र, मरुद्गण, पूषा, सर्वव्यापी
विष्णु, बहु कर्मकारी अग्नि, सबके प्रेरक सविता, ओषधियों के अभिमानी
देव और पर्वतों को स्तुति के अभिमुख करो। |
१०. हे बहुत शक्तिवाले अतिशय यजनीय इन्द्र, ये स्तोता लोग अर्चनीय
स्तोत्रों के द्वारा तुम्हारा स्तवन करते हें। हे अमरणशील इन्द्र, स्तूयमान
होकर तुम स्तुति करनेवाले मेरे स्तोत्र को सुनो; क्योंकि तुम्हारे सदृश
दूसरे देव नहीं हें।.
११. हे बळपुत्र इन्द्र, तुम सर्वञ्च हो। तुम सम्पुर्ण यजनीय देवों के
साथ शीघ्र ही मेरे स्तुतिरूप वचन के अभिमुख आगमन करो। जो देव
अग्नि-जिद्व हे, जो यज्ञ में भोजन करते हें और जिन्होंने राजबि मनु
हिन्दी-ऋणग्वेद ६९९
को, शत्रुओं को नष्ट करने के लिए, दस्युओं के अपर किया है, उन्हीं के
साथ आगमन करो।
१२. हे इन्द्र, तुम मार्गे-निर्माता और विद्वान् हो। तुस सुखपुवंक
जाने योग्य मार्ग में तथा दुःख से जाने योग्य मागे में हम लोगों के अग्रसर
होओ। श्रमरहित, महान् और बाहक श्रेष्ठ जो तुम्हारे अइव हूँ, उनके
द्वारा हे इन्द्र, तुम हम लोगों के लिए अन्न आहरण करो ।
२२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१, जो इन्द्र प्रजाओं की आपत्तियों में एकमात्र आह्वान करने के
योग्य हैं। जो स्तोताओं के प्रति आगमन करते हुँ। जो अभीष्टवर्षक,
बलवान्, सत्यवादी, शत्रुपीड़क, बहुप्रज्ञ और अभिभवकर्त्ता हूँ उन इन्द्र का
स्तुतियों-द्वारा स्तवन करते हें।
२. पुरातन, नौ महीनों में यज्ञ करनेवाले, सप्त-संस्यक मेधावी, हमारे
पिता अङ्गिरा आदि ने इन्द्र को बलवान् अथवा अन्नवान् करते हुए
स्तुतियों-द्वारा उनका स्तवन किया था। इन्द्र गमनशील, शत्रुओं के हिसक,
पर्वतों पर अवस्थिति करनेवाले और अनुल्लंघनीय शासन हेँ।
३ बहुत पुत्र-पौत्रों से युक्त, परिचारकों के साथ ओर पशुओं के
साथ हम लोग इन्द्र के निकट अविच्छिन्न, अक्षय और सुखदायक धन की
प्रार्थना करते हँ। हे अइवो के अधिपति, तुम हम लोगों को सुखी करने
के लिए वह धन आहरण करो।
४, हे इन्द्र, जब पूर्वकाल में तुम्हारे स्तोताओं ने सुख-लाभ किया
था, तब हस लोगों को भी वह सुख बताओ। हे बुद्धंषं, शत्रु-विजयी,
ऐश्वयंशाली, बहुजनाहुत इन्द्र, तुम असुरों के मारनेवाले हो। तुम्हारे
लिए यज्ञ में कौन भाग और कौन हव्य कम्पित हुआ है ?
५. यागादि लक्षण कर्म से युक्त और गुणवाचक स्तुति करनेवाले
थजमान वज्य धारण करनेवाले और रथ पर अवस्थिति करनेवाले इनर
Woe हिन्दी-ऋग्वेद
की अर्चना करते हैं। इन्द्र बहुतों के ग्रहण करनेवाले (आश्रयदाता) बहुत
कर्म करनेवाले और बल के दाता हैं। वह यजमान सुख प्राप्त करता हे
और शत्रु के अभिमुख गमन करता हैं।
६. हे निज बल से बलवान् इन्द्र, तुमने मन को तरह गमन करनेवाले
और बहुत पर्व (गाँठ) वाले वज्य से माया-द्वारा प्रवृद्ध उस वृत्र को चूर्ण
किया था। हे शोभन तेजवाले महान् इन्द्र, तुमने धषक, वप्त्र-द्वारा नाशः
रहित, अशिथिल और दृढ़ पुरियों को भग्न किया था।
७, है इन्द्र, हम चिरन्तन ऋषियों की तरह नवीन स्तुतियों के द्वारा
तुम्हें (तुम्हारे गौरव को) विस्तारित करते हुँ। तुम अतिशय बलवान्
और प्राचीन हो। अपरिमाण और शोभन वहनकारी इन्द्र हम लोगों की
समस्त विघ्नों से, रक्षा करे।
८, है इन्द्र, घुम साधू-द्रोही राक्षसों के लिए द्यावा-पृथिवी और
अन्तरिक्षस्थित स्थानों को सन्तप्त करते हो। हे कामनाओं के वर्षक इन्द्र,
तुम अपनी दीप्ति-द्वारा सबंत्र विद्यमान उन राक्षसों को भस्मोभूत करो।
ब्राह्मणट्वेषी राक्षसों को दग्ध करने के लिए पृथिवी और अन्तरिक्ष
को दीप्त करो । |
९, हे दीप्य-दशेन इन्द्र, तुस स्वर्गीय तथा पार्थिव जन के ईश्वर होते
हो। हे अतिशय स्तवनीय इन्द्र, तुम दक्षिण हस्त में वज्य धारण करते
हो और असुरों की माया को उच्छिन्न करते हो।
१०. है इन्द्र, तुम हम लोगों को महान्, अहिसित, संगच्छमान और
कल्याणयुक्त सम्पत्ति प्रदान करो, जिससे शात्रुगण वर्षण करने में समर्थ
न हों। हे बञ््रथर इन्द्र, जिस कल्याण के द्वारा तुमने कर्महीन मनुष्यों
को कर्मयुक्त बनाया था और मनुष्य-सम्बन्धी शत्रुओं को शोभन हिसा
से युक्त किया था। क्
११. है बहुजनाहुत, विधाता, अतिशय यजनीय इन्द्र, तुम सबके द्वारा
सम्भजनीय अएवो के द्वारा हमारे निकट आगमन करो। जिन अदझवों का
हिन्दी-ऋग्वेद ७०१
निवारण देव या असुर कोई भी नहीं करते हु; उन अइवों के साथ तुस
शीघ्र ही हमारे अभिमुख आगमन करो।
२३ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भेरद्वाज । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. हे इन्द्र, सोम के अभिषुत होने पर और महान् स्तोत्र के उच्चार्य-
माण होने पर एवम् शास्त्र (वैदिक स्तुति) विहित होने पर तुम रथ
से अपने अइव को संयुक्त करते हो। हे धनवान् इन्द्र, तुभ दोनों हाथों में
बज्न धारण करके रथ में योजित अश्वद्वय के साथ आगमन करते हो।
२. हे इन्द्र, तुम स्वर्ग में श्रों-दारा। सम्भजनीय संग्राम में उपस्थित
होकर अभिषवकारी यजमान की रक्षा करते हो एवस् निर्भीक होकर
धामिक तथा सन्त्रस्त यजमान के विध्तकारी दस्युओं को वशीभूत करते
हो। |
३. इन्द्र अभिषूत सोम के पानकर्चा होते हें। भीषण इन्द्र स्तवकारी
को (निरापद) माग से ले जाते हैं। इन्द्र यज्ञ करने में दक्ष तथा सोमा-
भिषव करनेवाले यजमान को स्थान प्रदान करते हें एवम् स्तोत्र करनेवाले
को धन प्रदान करते हें।
४. इन्द्र अपने अइवद्वय के साथ हुदथस्थानीय तीनों सबनों में गमन
करते हुँ। इन्द्र वपत्र धारण करनेवाले, अभिषुत सोम के पान करनेवाले,
गोदाता, मनुष्यों के हित के लिए बहु पुत्रोपेत पुत्र प्रदान करनेवाले और
स्तवकारी रजमान के स्तोत्र को श्रवण करनेवाले तथा स्वीकार करने-
बाले हें।
५. जो पुरातन इन्र हम लोगों के लिए पोषणादि कमं करते है,
उन्हीं इन्द्र के अभिलषित स्तोत्र का हम लोग उच्चारण करते हैं। सोमा-
भिषुत होने पर हम लोग इन्द्र का स्तवन करते हें। उक्थों का उच्चारण
करते हुए हस लोग इन्द्र को हृविळक्षण अन्न उस प्रकार से देते हूँ, जिससे
उनका बढेन हो।
७०२ हिन्दी-ऋणग्वेद
६- हे इन्द्र, जिस लिए तुमने स्तोत्रों को स्वयं बढ़ाया है; अतः हम
लोग उस तरह के स्तोत्रों का, तुम्हारे उद्देश्य से, बुद्धिपुर्वक, उच्चारण
करते हैँ । (हमारे स्तोत्र जिस प्रकार से वद्धमान हों, तुमने वैसा ही किया
हुँ) । हे अभिषुत-सोमपान-कर्ता इन्द्र, तुम्हारे उद्देश्य से सोमाभिषव होने
पर तुम्हारे उद्देश्य से निरतिशय सुखदायक, कमनीय और हवि से युक्त
स्तोत्रों का उच्चारण करते हे।
७. है इन्र, प्रमुदित होकर तुम हम लोगों के पुरोडाद को स्वीकार
करो। दही आदि से संस्कृत सोमरस को शीघ्र पिथो। सोमपान करने
के लिए यजमान-सम्बन्धी कुशों पर बैठो। तदनन्तर तुम्हारी इच्छा करनेवारे
यजसान के स्थान को विस्तीर्ण करो।
८. हे उद्यतायुध इन्द्र, तुम अपनी इच्छा के अनुसार प्रमुदित होओ।
यह सोम रस तुम्हें प्राप्त हो। हे बहुजनाहत इच, हमारे स्तोत्र तुम्हें प्राप्त
हों। यह स्तुति हम लोगों की रक्षा के लिए तुम्हें नियुक्त (प्रवृत्त) करें।
९. हे स्तोताओ, सोमाभिषव होने पर तुम लोग दाता इन्र को,
सोमरस-द्वारा, यथाभिलाषपुर्ण करो। इन्द्र के लिए वह (सोम) बहुत
परिमाण में हो, जिससे वह हम लोगों का पोषण करें। इन्द्र अभिवर्षण-
शील यजमान की तृप्ति (सुख) में बाधा नहीं देते हें।
१०. सोमाभिषव होने पर हथीरूप धनवाले और यजमान के ईदवर
इन्द्र स्तोता के सन्मां-प्रदर्शक ओर वरणीय घन-प्रदाता जैसे हों, बैसा ही
जानकर भरद्वाज ऋषि ने स्तुति की।
२४ सूक्त
(३ अबुवाक । दैवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्दः त्रिष्टुप् ।)
१. सोमवान् यज्ञ सं इन्द्र का सोमपान-जनित हषं यजमान की काम-
नाओं का पुरक हो ओर वैदिकोपासना-सहित स्तोत्र अभिलाषवर्षक हो।
अभिषुत सोसरस पान करनेवाले, नीरस सोम का भी त्याग नहीं करने-
हिन्दी-क्रस्वेद ७०३
वाले धनवान् इन्द्र स्तुतिकारको की स्तुतियों-हारा अर्चनीय होते हे।
द्यलोकनिवासी और स्तुतियों के अधिपति इन्द्र रक्षक होते हें।
२. शत्रुओं के हिसक, विक्रमवान्, मनुष्यों के हितकर्ता, विवेकशील,
हम लोगों के स्तोत्र को सुननेवाले स्तोताओं के अतिशय रक्षक, गहप्रदाता,
स्तोताओ-द्ारा प्रशंसवीय, स्तोताओं के धारक यज्ञ में स्तूयमान होने पर
हम लोगों को अन्न प्रदान करते हें।
३. हे विक्रान्त इन्द्र, चऋय के अक्ष की तरह (रथ-सम्बन्धी अक्ष
जैसे पहियों से बाहर हो जाता है) तुम्हारी बृहत् सहिसा दावा-पृथिवी
को अतिक्रान्त करती हे। हे बहुजनाहुत, वक्ष की शाखाओं की तरह
तुम्हारा रक्षण-कार्यं वर्धमान होता हेँ।
४. हे बहुकर्मा इन्द्र, तुम प्रज्ञावान् हो। तुम्हारी शबितयां (अथवा
कर्म) उसी तरह से सर्वेत्र विचरण करती हें, जैसे घेनुओं के भाग सर्वत्र
सञ्चारी होते हे। हे शोभन दानवाले इन्द्र, बछड़ों की डोरियों की तरह
तुम्हारी शक्तियाँ स्वयम् अनिरुद्ध होकर बहुत झत्रुओं को बन्धन युक्त
करती हें।
५. इन्द्र आज एक काम करते हें, तो दूसरे दिन इससे कुछ
विलक्षण हौ कार्य करते हें। वे पुनः-पुनः सत् ओर असत् कार्यो का
अनुष्ठान करते हूँ। इन्द्र, मित्र, वरुण, पुषा, सबिता इस यज्ञ में हम
लोगों की कामनाओं के पुरक हों ।
६. है इन्द्र, तुम्हारे समीप से शस्त्र और हवि के दवारा स्तोता लोग
कामनाओं को प्राप्त करते हुँ, जैसे पर्वत के उपरिभाग से जल प्राप्त होता
हे। हे स्तुतियों हारा वन्दनीय इन्द्र, अइवगण जैसे वेगपुर्वक संग्राम में
उपस्थित होते हे, वेसे ही स्तुति करनेवाले अन्नाभिलाषी भरद्वाज आदि
स्तुतियों के साथ तुम्हारे निकट गमन करते हें।
७. संवत्सर और मास आदि जिस इन्द्र को वृद्ध नहीं बना सकते हुँ;
दिवस जिस इन्द्र को अल्प (दुर्बल) नहीं बना सकते हें, उस प्रवद्धंमान
७०४ हिन्दी-त्रदग्वेद
इन्द्र का शरीर हम लोगों की स्तुतियों और स्तोत्रो-द्वारा स्तूयसान होकर
प्रवृद्ध हो।
८, हम लोगों की स्तुति-द्वारा स्तूयमान इन्द्र दृढ़गात्र, संग्राम में
अविचलित और दस्युओं (कर्मविवर्जितों) हारा उत्साहित तथा प्रेरित
यजमान के वशीभूत नहीं होते हैं। अर्थात् यद्यपि स्तोता बहुत गुणवाले
हैं; तथापि इन्द्र दस्यु-सहित स्तोता के वशीभूत नहीं होते हे। महान् पवत
भी इन्द्र के लिए सुगम हें और अगाध स्थान भी इन्द्र के लिए विषयी-
भूत हूँ।
९. हे बलवान् और सोमपामकर्ता इन्द्र, तुस किसी के द्वारा भी अन-
बगाहनीय उदार चित्त से हम लोगों को अन्न और बल प्रदान करो।
हे इन्द्र, तुम दिन-रात हम लोगों की रक्षा के लिए तत्पर रहो। |
१०. हे इन्र, तुम संग्राम में स्तुति-कर्ता की रक्षा के लिए उनका
सेवन करो। निकटस्थ या दूरस्थ शत्रुओं से उनकी रक्षा करो। गृह में
अथवा कानन में रिपुओं से उनकी रक्षा करो। शोभन पुत्रवाले होकर
हस लोग सो वर्षा तक प्रमुदित हों। |
२५ सुक्त
(देवता इन्द्र ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. हे बलवान् इन्द्र, तुम संग्राम में हम लोगों का, अधम, उत्तम
और मध्यम सब प्रकार की रक्षा-हारा, भली भाँति से, पालन करो।
हे भीषण इन्द्र, तुम महान् हो। तुम हम लोगों को सोज्य साधन अन्नों
से युत करो।
२. हे इन्द्र, तुम हमारी स्तुतियों से झत्रुसेनाओं को नष्ट करनेवाली
हमारी सेना की रक्षा करते हुए संग्राम सं विद्यमान शत्रु के कोप को नष्ट
करो। यज्ञादि कार्य करनेवाले यजमान के लिए तुम कार्यो को विनष्ट
करनेवाले सम्पुर्ण प्रजाओं को स्तुतियों-द्वारा विनष्ट करो।
हिन्दी-त्रहवेद ७०५
३. है इन्र, ज्ञातिहप निकटस्थ अथवा दूर देशस्थित जो शत्रु हमारे
अभिमुली न होकर हिंसा के लिए उद्यत होते हे, उन दोनों प्रकार के
शत्रुओं के बल को तुम नष्ट करो। इनके वी्यो को नष्ट करो और इन्हे
पराझ्मुख करो ।
४. है इन्द्र, तुम्हारे द्वारा अवृगृहीत वीर अपने शरीर से शत्रुबीरों
को बिनष्ट करता हे । जब कि बे दोनों परस्पर विरोधी, शोभित
शरीर से संग्राम में प्रवृत्त होते हुँ। जब कि बे पुत्र, पौत्र, धेनु, जल
और उर्वरा (उपजाऊ भूमि ) के लिए हल्ला मचाते हुए घिवाद
करते हँ ।
५. हे इन्द्र, विक्रान्त जन, झत्रनिहन्ता, बिजयी और युद्ध में प्रकुपित
योद्धा तुम्हारे साथ युद्ध करने सं समर्थ नहीं होता है। हे इन्दर, इनके
मध्य में कोई भी तुम्हारा प्रतिद्वद्टी नहीं है। तुम इन व्यक्तियों की अपेक्षा
श्रेष्ठ हो।
६. महान् शत्रुओं का निरोध करने के लिए अथवा परिचारकों से
युक्त गृह के लिए जो दो व्यक्ति परस्पर युद्ध करते हँ, उन दोनों
के मध्य में बही जन, धन-लाभ करता हुँ, जिसके यज्ञ में ऋत्विक् लोग
इन्द्र का हवन करते हें।
७, हे इन्द्र, तुम्हारे पुरुष (स्तोता) जब कम्पित हों, तब दुम उनके
पालक होओ। उनके रक्षक होओ । हे इन्दर, हमारे जो नेतृतम पुरुष
तुम्हें प्राप्त करनेवाले होते हे, तुम उनके त्राता होओ। हे इन्द्र, जिन
स्तोताओं वे हमें पुरोभाग में स्थापित किया है, तुम उनके त्राता होओ ।
८, हे इन्र, तुम महान् हो । शत्रु-वध के लिए तुसमे समस्त शक्ति
अपित हुई हे । हे यजनीय इन्द्र, युद्ध में समस्त देवों ने तुम्हें शत्रुओं को
अभिभूत करनेवाला बल और विशवधारक बल प्रदान किया था ।
९, हे इन्द्र, इस प्रकार से स्तुत होकर तुम संग्राम में हम लोगों को
शत्रुओं को मारचे के लिए प्रोत्साहित करो और प्रेरित करो । तुम हम
लोगों के लिए हिसा करनेवाली असुर-सेता को बच्चीभूत करो। हे इन्द्र,
फा[० ४५
७०६ हिन्दी-ऋणग्वेद
तुम्हारी स्तुति करनेवाले हम भरद्वाज अन्न के साथ अवश्य ही निवास
प्राप्त करें।
२६ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि भरद्वाज । छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१, हे इन्द्र, हम स्तोता लोग अन्न-लाभ करने के लिए सोमरस के
द्वारा तुम्हारा सिचन करते हुए तुम्हारा आह्वान करते हैँ । तुम हम लोगों
के आह्वान को श्रवण करो। जब सनुष्यगण युद्ध के लिए गमन करेंगे,
तब तुस हम लोगों की भली भाँति से रक्षा करना ।
२. हे इन्र, सबके द्वारा प्रापणीय ओर महान् अन्न-लाभ करने के
लिए बाजिनी-पुत्र भरद्वाज अवान् होकर तुम्हारा स्तवन करते हे। हे
इन्द्र, तुम सज्जनों के पालक और दुर्जेनों के विघातक हो । उपद्रुत होने
पर भरद्वाज तुम्हारा आह्वान करते हूँ। वे मुष्टिबल-द्वारा शत्रुओं को
विनष्ट करनेवाले हें। जब वे गौओं के लिए युद्ध करते हैं, तब तुम्हारे
ऊपर निर्भर रहते हें। ।
३. हे इन्द्र, अन्न-लाभ करने के लिए तुम भार्गव ऋषि को प्रेरित करो।
हव्यदाता कुत्स के लिए तुमने शुब्णासुर का छेदन किया था । तुमने अति-
थिग्व (दिवोदास) को सुखी करने के लिए शस्बरासुर का शिरच्छेदन
किया था । वह अपने को मर्महीन (दुर्भ) समझता था।
४. हे इन्द्र, तुमने वृषभ नामक राजा को युद्ध-साधन महान् रथ
प्रदान किया था । जब बे शत्रु औं के साथ दस दिनों तक युद्ध कर रहे
थे, तब तुमने उनकी रक्षा की थी। वेतसु राजा के सहायभूत होकर
तुमने तुग्रासुर को मारा था। तुमने स्तवकर्ता तुजि राजा की समृद्धि को
बढ़ाया था।
५. हे इख, तुम शत्रनिहन्ता हो। तुसन प्रशंसनीय कार्यों का
संपादन किया हे; क्योंकि हे वीर इन्द्र, तुमने शत-शत और सहस्र-सहस्र
शम्बर-सेनाओं को विदीर्ण किया हं । तुमने पर्वत से निर्णत, यज्ञादि
हिन्दी-ऋ/वेद ७०७
कार्यों के विधातक शम्बरासुर का वध किया है । विचित्र रक्षा-द्वारा तुमने
दिवोदास को रक्षा की हें ।
६. हे इन्द्र, अद्धापुर्वंक अनुष्ठित कार्यो-द्वारा और सोमरस-द्वारा
मोदमान होकर तुमने दभीति राजा के लिए चुसुरि नामक असुर का बध
किया था । है इन्द्र, तुमने पिठीनस् को रजि नामक कच्या या राज्य प्रदान
किया था। तुमने बुद्धि से साठ हज़ार योद्धाओं को एक काल में ही
विनए्ट किया था ।
७. हे बीरो के साथी बलवत्तम इन्द्र, तुम त्रिभुवनों के रक्षक और
आत्रुविजयी हो । स्तोता लोग तुम्हारे द्वारा प्रदत सुख और बल की
स्तुति करते हैँ । है इन्द्र, हम भरद्वाज तुम्हारे द्वारा प्रदत्त उत्कृष्ट सुख
और बल को अपने स्तोताओं के साथ प्राप्त करें ।
८. है पूजनीय इन्द्र, हम लोग तुम्हारे मित्रभूत और स्तोता हुँ । धन-
लाभार्थं किये गये इन स्तोत्रों-द्रारा हम लोग तुम्हारे निरतिशय प्रीति-
भाजन हों । प्रातर्देन के पुत्र हमारे राजा क्षत्र श्री शत्रुओं का बध और
घन-लाभ करके सबसे उत्कृष्ट हों ।
२७ शक्त
(देवता इन्द्र । अष्टम ऋचा के देवता दान । ऋषि भरद्वाज । छन्द
ष्टुप् |)
१. सोसरस से प्रसन्न होकर इन्र ने क्या किया ? इस सोमरस को
पात करके क्या किया ? इस सोसरस के साय संत्री करके उन्होंने क्या
किया ? पुरातन और आधूनिक स्तोताओं ने सोमगृह में तुमसे क्या प्राप्त
किया ? |
२, सोमपान से प्रमुदित होकर इन्द्र ने सुन्दर (शोधन) कायों को
किया था। सोपान करके उन्होंने सुन्दर कर्म किया था। इसके साथ
उन्होंने शुभ कार्य किया था। हे इन्द्र पुरातन तथा इदावीन्तन स्लोताओं
मे सोमगह सें तुमसे शुभ कर्स को प्राप्त किया था ।
७०८ हिन्दी-ऋग्वेद
३. है धनवान् इर, तुम्हारे तुल्य दूसरे की महिमा हमें अवगत नहीं
है । तुम्हारे तुल्य घनिकत्व और धन भी हमें अवगत बहीं। हे इन्र
तुम्हारी तरह सामथ्ये कोई भी नहीं दिखा सकता है ।
४. हे इन्द्र, तुमने जिस बीर्य-द्वारा वरशिख नामक असुर के पुत्रों का
संहार किया था, तुम्हारा वह वीर्य हम लोगों के द्वारा अवगत नहीं है ।
हे इनर, बल-पुवक निक्षिप्त तुम्हारे वप्त्र के शब्द से ही बलिष्ठलम बर:
शिख के पुत्र विदीण हुए थे।
५. इन्द्र ने चायमान राजा के अभ्यवर्ती नामक पुत्र को अभिलषित
घन देते हुए वरशिख नामक असुर के पुत्रों का संहार किया था। हरियू-
पिया नामक नदी या नगरी के पुर्व भाग में अवस्थित वरशिख के गोत्रोत्पन्न
बूचीवान् के पुत्रों का इन्द्र ने वध किया था । तब अपर भाग में अवस्थित
वरशिख के श्रेष्ठ पुत्र भय से विदीर्ण हुए थे ।
६. है वहुजनाहुल इच्ध, युद्ध में तुम्हें जीत (मार) कर अन्न अथवा
यश प्राप्त कर एसी कामना करनेवाले, यञ्च-पात्रों का भञ्जन करनेवाले
और कवच धारण करनेवाले बरशिख के एक सो तीस पुत्र यव्यावती
(हरियूषिया) के निकट आगमन करके एक काल में ही विनष्ट
हुए थे ।
७. जिनके रोचमान, शोभन तुणासिलाषी पुनः-पुनः घास का
आस्वादन करनेवाले अइवगण द्यावा-पृथिवी के मध्य भाग में विचरण करते
हँ। वे इच्र, सुञ्जय नामक राजा के निकट तुवंश (राजा) को समर्पित
करते हे और देववाक-वंशोत्पन्न अभ्यवर्ती राजा के निकट वरशिख
के पुत्रों को बश्ीभूत किया था ।
हे अग्नि, अतिशय धन देनेवाले और राजसुय यज्ञ करनेवाले
चयमान के पुत्र राजा अभ्यवर्त्ती ने हमें (भरद्वाज को) स्त्रियों से यक्त
रथ और बीस गोएँ दी थीं। पृथु के वंशधर राजा अभ्यवर्ती की यह
दक्षिणा किसी के भी द्वारा अविनाशनीय हे ।
हिन्दी-हऋप्वेद ७०९
२८ सूक्त
(देवता गो किन्तु द्वितीय तथा अष्टम ऋचा के कुछ अंश के
इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द अनुष्टुप और त्रिष्टुप् |)
१, गोएँ हमारे घर आवं और हमारा कल्याण करें । बे हमारे गोष्ठ
में उपवेशन करें और हमारे ऊपर प्रसन्न हों। इस गोण्ड में नाना वर्ण-
वाळी गौएँ सन्तति सम्पन्न होकर उपाकाल में इन्द्र के लिए दुग्ध प्रदान
करें ।
२. इख यज्ञ करनेवाले और स्तुति करनेवाले को अपेक्षित घन
प्रदान करते हुँ । वे उन्हें सर्वदा धन प्रदान करते हें। और उनके स्वकीय
धन को कभी भी नहीं लेते हैं । वे निरन्तर उनके धन को बढ़ाते हें और
उन इच्रभिलाषी को शत्रुओं के द्वारा दुभेद्य स्थान में स्थापित करते हें ।
३. गौएँ हमारे समीप से नष्ट नहीं हों। चोर हमारी गौओं को
नहीं चुरावें। शत्रुओं का शस्त्र हमारी गोओं पर पतित नहीं हों। गो-
स्वामी यजमान जिन गोओं से इन्द्रादि का यजन करते हँ और जिन गौओं
को इद्र के लिए प्रदान' करते हें उन गोओं के साथ वे चिरकाल तक
संगत हों । 9
४. रेणुओं के उद्भेदक और युद्धार्थं आगमन करनेवाले अश्व उन्हें .
(गौओं को ) नहीं प्राप्त करें। वे गोएँ विशसनादि संस्कार को नहीं प्राप्त
करें। यागशील मनुष्य की गोएं निर्भय और स्वाधीन भाव से विचरण
करती हँ।
५. गोएँ हमारे लिए धन हों । इन्द्र हमें गौएँ प्रदान करें। गोएँ हव्य-
श्रेष्ठ सोमरस का भक्षण प्रदान करें। हे मनुष्यो, ये गौएं ही इन्र होता
हैं, श्रद्धायुक्त सन से हुम जिनकी कामना करते हुँ।
६. है गोओ, तुम हमं पुष्ट करो । तुस क्षीण और अमंगल अंग को
सुन्दर बनाओ। हे कल्याण-घुषत बचनवाली गौओ, हमारे घर को कल्याण-
युक्त करो अर्थात् गौओं से युक्त करो । है गोओ, याग-सभा में तुम्हारा
महान् अन्न ही कीतित होता हैं।
७१० हिन्दी-ऋग्वेद
७. है गोओ, तुम सन्तानयवत होओ । शोभन तृण का भक्षण करो
और सुख से प्राप्त करने योग्य तड़ाथादि क( सिर्मल जल पान करो।
तुम्हारा शासक चोर नहीं हो और व्याघ्रादि तुम्हारा ईश्वर नहीं हो अर्थात्
हिसक जन्तु तुम्हारे ऊपर आक्रमण नहीं करें। कालात्मक परमेश्वर का
आयुष तुमसे दूर रहे।
८. हे इन्द्र, तुम्हारे बलाधान के निमित्त गौओं की पुष्टि प्राथित हो
एवम् गोओं के गर्भाधानकारी वृषभों का बल प्राथित हो अर्थात गौओं
के पुष्ट (सन्तुष्ट) होने पर तत्सम्बन्धी क्षे.रादि-द्वारा इन्द्र आप्यायित
(सन्तुष्ट) होते हैँ।
षष्ठ अध्याय समाप्त ॥
२९ सूक्त
(सप्तम अध्याय । देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |
१. हे यजमानो, तुम्हारे नेतू-स्वरूप ऋत्विक लोग सखि-भाव से
' इन्द्र की परिचर्या करते हें। वे महान् स्तोत्रों का उच्चारण करते हें और
उनकी बुद्धि शोभन तथा अमुग्रहात्मिका हे; क्योंकि वस्त्रपाणि इन्द्र महान्
घन प्रदान करते हैं; इसलिए रमणीय और महान् इन्द्र की पुजा, रक्षा
के लिए, करो
२. जिस इन्द्र के हाथ में मनुष्यों के हितकर धन सञ्चित हैं, जो
रथ पर चढ्नेवाले इन्द्र सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ होते हैं, जिनके विशाल
बाहुओं में रश्सियाँ नियमित हे, जिन इन्द्र को सेचन करनेवाले (बलिष्ठ)
और रथ में युक्त अश्वगण वहन करते हें, हम उन इन्द्र का स्तवन करते
हेँ।
३. हे इन्र, ऐश्वयंलाभ के लिए भरद्वाज तुम्हारे चरणों में परि.
चरण समर्पित करते हे। तुस बल-द्वारा शत्रुओं को पराजित करते हो,
हिन्दी-त्रषवेद ७११
वञ्त्र धारण करते हो। और श्रोताओं के! घन देनेवाले हो। है नेता
इन्द्र, तुम सबके दशेनाथ प्रशस्त और सतत-गसनशील रूप धारण
करके सुर्य की तरह परिश्रमणशील होते हो ।
४. सोम के अभिषुत होने पर वह भली भाँति मिश्रित हुआ है, जिसके
अभिषुत होने पर पाकयोग्य पुरोडाशादि पकाया जाता है। भने जौ हवि
के लिए संस्कृत होते हेँ। हविलेक्षण अन्न के कर्ता ऋत्विक् लोग स्तोत्रों
के द्वारा इन्द्र का स्तवन करते ह। ज्ञास्त्रों का उच्चारण करते हुए वे
देवता के निकटस्थ होते हे ।
५. है इन्द्र, तुम्हारे बल का अवसान नहीं हे अर्थात् तुम्हारे बल को
हम लोग नहीं जानते । द्यावा-पृथिवी जिस महान् बल से भीत होती है,
गोपाल जैसे जरू-ट्टारा गोओं को तृप्त करता हे, उसी प्रकार स्तोता
शीघ्र ही तृप्तिकारक हुव्य-द्वारा भली भाँति यज्ञ करके तुम्हें तृप्त
करते हे ।
६. हरित नासावाले महेन्द्र इस प्रकार से सुखपुर्वेक आह्वान करने
के योग्य होते हैं। इन्द्र स्वयं उपस्थित अथवा अनुपस्थित हों; किन्तु
स्तोताओ को धन प्रदान करते हे। इस प्रकार से प्रादुर्भत होकर उत्कृष्ट-
तर बलवाले इन्द्र बहुतेरे बुच्रादि राक्षसों को तथा शत्रुओं को
मारते हैं ।
३० युक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. वृत्रवधादि बीरकार्य करने के लिए इन्द्र पुनः प्रवृद्ध हुए हुँ । मुख्य
(श्रेष्ठ) और जरारहिय इन्द्र स्तोताओं को धन प्रदान करे इन्द्र द्यावा-
पृथिवी का अतिक्रमण करते हे। इन्द्र का आधा भाग ही द्यावा-पृथिवी
के बराबर है अर्थात् प्रतिनिधि है।
२. अभी हम इन्द्र के बल का स्तवन करते हे। वह बल असुरों के
हनन में कुशल है । इन्द्र जिन कर्मों को धारण करते हँ, उनकी हिंसा
कोई भी नहीं करता । वे प्रतिदिन वृत्रावृत सूर्य को दर्शनीय बनाते हे।
शोभन कर्म करनेवाले इन्द्र ने भुवनों को विस्तीर्ण किया है ।
३. है इन्द्र, पहुले की तरह आज भी तुम्हारा नदी-सम्बन्धी कार्य
विद्यमान हुँ । नदियों को बहने के लिए तुसने माणं बनाया है। भोज-
नार्थं उपविष्ट मनुष्यों की तरह पर्वतगण तुम्हारी आज्ञा से निश्वल भाव
से उपविष्ट हँ। हे झोभन कर्म करनेवाले इन्द्र, सम्पुर्ण लोक तुम्हारे
द्वारा स्थिर हुए हे। |
४. हे इन्द्र, तुम्हारे सदृश अन्य देव नहीं हें, यह एकदम सत्य है।
तुम्हारे सदृश कोई दूसरा मनुष्य भी नहीं हें। तुमसे अधिक न कोई
देब हैं, न मनुष्य, घह जो कहा जाता हे, सो एकदस सत्य हुँ।
वारिरारि को आवृत करके सोनेवाले मेघ का तुमने वध किया था।
घारिराशि को समुद्र सं पतित होने के लिए तुमने मुक्त किया था।
५, हे इन्द्र, वृत्र से आवृत जल को सर्वत्र प्रवाहित होते के लिए तुमने
सुक्त किया था । तुमने मेघ के दृढ़ बन्धन को छिन्न किया था । तुम सूर्य
शुलोक ओर उषा को एक काल में ही प्रकाशित करके जगतु-सम्बन्धी
प्रजाओं के राजा होओ ।
२१ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि सुहोत्र । छन्द॒ शक्करी और त्रिष्टुप् ।)
१. हे धन के पालक इन्द्र, लुम धन के प्रधान स्वामी हो। हे इख,
तुम अपने बाहुद्वय में प्रजाओं को धारण करते हो अर्थात् सम्पुर्ण जगत्
तुम्हारी आज्ञा का अनुवर्ती हुँ । मनुष्यगण विविध प्रकार से तुम्हारा
स्तवन पुत्र, शत्रु विजयी पोत्र और बृष्टि के लिए करते हे।
२. हे इन्र, तुम्हारे भय से व्यापक और अन्तरिक्षोदभव उदक
पतनयोग्य महीं होने पर भी मेघ द्वारा बरसाये आते हें। हे इन्द्र, तुम्हारे
आगमन से च्यावापृथिवी, पर्वत, वृक्ष और सम्पूर्ण स्थावर प्राणिजात भीत
होते हें ।
हिन्दी-ऋग्वेद ओज ७१३:
३. है इन्र, कुत्स के साथ प्रबल शुष्ण के विरुद्ध तुमने युद्ध किया
था अर्थात् कुत्स के साहाय्यार्थं तुमने शुष्ण के साथ युद्ध किया था।
संग्राम में तुमने कुयव का वध किया था । संग्राम में तुमने सूयं के रथचऋ
का हरण किया था। तब से सूयं का रथ ही एक चक्र का हो गया हे ॥
` पापकारी राक्षसों को तुमने मारा था । |
४. हे इन्द्र, तुमने दस्यु शम्बरासुर के सौ नगरों को उच्छिन्न किया
था। है प्रज्ञावान् तथा अभिषुत सोम-द्वारा कीत इख, उस समय तुमने
सोमाभिषव करनेवाले दिवोदास को परज्ञापूर्वक धन प्रदान किया था तथा
स्तुति करनेवाले भरद्वाज को धन प्रदान किया था।
५. है अवध्य भटवाले तथा विपुल धनबाले इन्द्र, तुस महान् संग्राम
के लिए अपने भयंकर रथ पर आरोहण करो । है प्रक्कष्ट मार्गवाले इख,
तुम रक्षा के साथ हमारे अभिमुख आगमन करो । हे विख्यात इ,
प्रजाओं के मध्य में हमें प्रख्यात करो ॥
२२ सूक्त
(दैवता इन्द्र | ऋषि सुहोत्र । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. हसने महान्, विविध शत्रुओं को मारनेवाले, बलवान् वेगेसम्पन्न
विशेष प्रकार से स्तुतियोग्य बच्चधारी और प्रवुद्ध इन्द्र के लिए, मुख-
द्वारा, अपुर्व, सुविस्तीर्ण और सुखदायक स्तोत्रों को पढ़ा है।
२. इन्द्र ने मेधावी अद्धिराओं के लिए जननीस्वरूप स्वर्ग और
पृथिवी को सूर्य-द्वारा प्रकाशित किया था एवम् अद्धिराओं-द्वारा
स्तूयमान होकर पवेतों को चूर्ण किया था इन्द्र ने शोभन ध्यानशील
स्तोता अद्धिराओं-द्वारा बारम्बार प्राथित होने पर धेनुओं के बन्धन
को मुक्त किया था ।
३, बहुत कर्म करनेवाले इन्द्र ने हवन करनेवाले, स्तुति करनेबाले
और संकुचित-जानु अद्धिराओं के साथ मिलित होकर धेनुओं के लिए
७१४ हिन्दी-क्रग्बेद
शत्रुओं को पराजित किया था । मित्रभूत, मेधावी अङ्गिराओं के साथ
सित्राभिलाषी और दूरदर्शी होकर इन ने असुरपुरियो करे भग्न किया था।
४. हे कामनाओं के पुरक, है स्तुति-द्वारा संभजनीय इन्द्र, तुम महान्
अञ्च, महान् बल और बहुत वत्सवती युवती बड़वा के साथ अपने स्तुति-
कर्ता को मनुष्यों के मध्य में सुखी करने के लिए उनके अभिमुख आगमन
करते हो ।
५. हिंसकों के अभिभवकर्ता इन्द्र सदा उद्यत बल-द्वारा सतत गमन-
शील तेज से युक्त होकर सूर्यं के दक्षिणायन होने पर जल को मुक्त
करते हँ । इस प्रकार विसृष्ट बारिराशि उस क्षोभशून्य समुद्र में प्रति-
दिन पतित होती हे, जिससे वारिराशि का पुनः प्रत्याबतेन नहीं होता।
२३ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि शुनहोत्र । छन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. हे अभीष्टवर्षक इन्द्र, तुम हम लोगों को बलवत्तम, स्तुतियों-द्वारा
स्तवनकर्ता, शोभनयज्ञ-कर्ता और हव्य प्रदान करनेवाला एक पुत्र प्रदान
करो । वह पुत्र उत्कृष्ट अब पर आरूठ़ होकर संग्राम में शोभन अद्वों
ओर प्रतिकूलताचारी शत्रुओं को पराभूत करे ।
२. हे इन्द्र, विविध स्तुतिरूप वचनवाले मनुष्यगण, युद्ध में रक्षा
के लिए, तुम्हारा आह्वान करते हैं। तुमने मेधावी अद्धिराओं के साथ
पणियों का संहार किया था । तुम्हारा संभजन करनेवाला पुरुष तुम्हारे
द्वारा रक्षित होकर अन्न-लाभ करता हे ।
३. है शूर इन्द्र, तुम दस्युओं अथवा आर्यों दोनों प्रकार के शत्रुओं
का संहार करते हो। हे नेतृश्रेष्ठ, जैसे काष्ठछेदक कुठारादि से वृक्षों
को छिन्न कर देता हे उसी प्रकार तुम संग्राम में भली भांति प्रयुक्त अस्त्रो
द्वारा शत्रुओं का विदारण करते हो ।
४. हे इन्द्र, तुस सर्वेत्र गमन करनेवाले हो । तुम श्रेष्ठ रक्षा के हारा
हम लोगों की समृद्धि के वर्क तथा मित्र होओ । कुछ पुरुषों से युक्त
हिन्दी-ऋग्वेद ७१५
संग्राम सें युद्ध करनेवाले हम लोग धन-लाभ के लिए तुम्हारा आह्वान
करते है ।
५. है इन्द्र, इस समय में तथा दूसरे समय में तुम निश्चय ही हमारे
होओ। हम लोगो की अवस्था के अनुसार सुख-प्रदाता होओ। इस
प्रकार से स्तुति करनेवाले हम लोग गौओं के संभजन करनेवाले होकर
तुम्हारे झुतिमान् सुख में अवस्थान करें । तुम महान् हो ॥
२४ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि शुनहोत्र । छन्द् त्रिष्टुप )
१. हे इन्द्र, तुममें असंख्य स्तोत्र संगत होते हैं। तुमसे स्तोताओं की
पर्याप्त प्रशंसा निर्गेत होती है । पुर्व काल में और इस समय में भी ऋषियों
को स्तोत्र, उपासना और मन्त्र इन्द्र कौ पुजा के विषय सें परस्पर स्पर्ड्ध
करते हे ।
२. हम लोग सर्वदा इन्द्र को प्रसन्न करते हँ। वे बहुजनाहुत, बहुतों
के हारा प्रबोधित, महान्, अद्वितीय एवम् यजमानों-द्वारा भली भाँति
स्तुत हैं । हम लोग महान् लाभ करने के लिए रथ की तरह इन्द्र के प्रति
अनुरक्त होकर सर्वदा उनका स्तवन करें। |
३. समृद्धि-विधायक स्तोत्र इन्द्र के अभिमुख गमन करे। कर्म और
स्तुतियाँ इन्द्र को बाधित नहीं करतीं। शत सहस्र-स्तव-कारी स्तुतिभाजन
इन्द्र की स्तुति करके प्रीति उत्पन्न करते हँ ।
४, इस यज्ञ-दिन में स्तोत्र की तरह पूजा के साथ प्रदत्त होने के लिए
इसर के निमित्त मिश्रित सोमरस प्रस्तुत हुआ हुँ । मरुदेश के अभिमुख
गमन करनेवाला जल जिस प्रकार प्राणियों का पोषण करता है, उसी
प्रकार हव्य के साथ स्तोत्र उन्हें बद्धित करें ।
` "५. सर्वत्र गन्ता इन्र महान् संग्राम में हम लोगों के रक्षक और
समृद्धिविधायक जिससे हों; अतः स्तोताओं का स्तोत्र आग्रह के साथ
इन्द्र के प्रति उक्त होता हे ।
१
७१६ हिन्दी-ऋग्वेद
२५ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि नर । छन्द त्रिष्टुप |)
९. हे इन्द्र, तुम रथाधिरूढ़ के निकट हमारे स्तोत्र कब उपस्थित होंगे?
कब तुम मुझ स्तोत्र करनेवाले को सहस्र पुरुषों के गो-समूह या पुत्र प्रदान
करोगे ? कब तुम मुझ स्तोता के स्तोत्र को धन-द्वारा पुरस्कृत करोगे?
कब तुम अग्नि-होत्रादि कार्य को अन्न से रमणीय बनाओगे ?
२. है इन्द्र, कब तुम हमारे पुरुषों के साथ शत्रुओं के पुरुषों को
: तथा हमारे पुत्रों के साथ शत्रुओं के पुत्रों को मिलित कराओगे ? (युद्ध
में इस तरह का संश्लेषण कब होगा ?) हमारे लिए तुम कब संग्राम में
जय प्राप्त करोगे ? कब तुम गमनशील शत्रुओं से क्षीर, दघि और घृतादि
धारण करनेवाली गोओं को जीतोगे ? हे इन्द्र, कब तुम हम लोगों को
व्याप्त धन प्रदान करोगे ?
३. है बलवत्तम इन्द्र, कब तुम स्तोता को विविध अन्न प्रदान करोगे ?
कब तुम अपने में यज्ञ और स्तोत्र को युक्त करोगे ? कब तुम स्तोत्रों को
गोदायक करोगे ?
४. हे इन्द्र, तुम गोदायक, अइवों-द्वारा आह्वादित करनेवाला और
बल-द्वारा प्रसिद्ध अन्न हम स्तुति करनेवाले भरद्वाज-पुत्रों को प्रदान करो।
तुम अन्नों को तथा सुगमता से दोहन योग्य गोओं को परिपुष्ट करो। वे
गोएं जिससे शोभन दीप्तिवाली हों, बेसा तुम करो ।
५. है इन्द्र, तुम हमारे शत्रु को अन्य प्रकार से (जीवन के विपरीत
अर्थात् मरणपथ से) युक्त करो। है इन्द्र, तुम शक्तिमान्, वीर और
शत्रु-निहन्ता हो, इस प्रकार से हम लोग तुम्हारा स्तवन करते हैं। हे
इन्द्र, तुस विशुद्ध वस्तुओं के प्रदानकर्ता हो। हम तुम्हारे स्तोत्र के
उच्चारण करने में विरत नहीं हों। है प्राञ्च इन्द्र, तुम अङ्गिराओं को
अञ्न-द्वारा तृप्त (प्रसन्न) करो। |
हिन्दी-ऋग्वेद ७१७
३६ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि नर । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. हे इन्द्र, तुम्हारा सोसपानजनित हर्ष निइचय ही सब लोगों कै
लिए हितकर होता हं । त्रिभुवन सें अवस्थित तुम्हारा धन-समूह सचमुच
सब लोगों के लिए हितकर है । तुम सचमुच अन्नदाता हो। देवों के
सध्य में तुम बल धारण करते हो ।
२. यजमान विशेष प्रकार से इन्द्र के बल की पुजा करते हँ । वीरत्व-
प्राप्ति के लिए अथवा वीरकर्म करने के लिए यजमान इन्द्र को पुरोभाग
सें धारण करते हें। अविच्छिन्न शत्र-श्रेणी के निरोधकः, हिसाकारी
और आक्रमणकारी इन्द्र वृत्र (शत्रु) का संहार करेंगे; अतः यजसान
उनकी परिचर्या करते हूँ।
३. संगत होकर मरुद्गण इन्द्र का सेवन करते हें एवम् वीर्य, बल
ओर रथ में नियोज्यमान अइव भी इन्द्र का सेवन करते हैं। नदियाँ जिस
प्रकार समुद्र में प्रविष्ट होती हे, उसी प्रकार उपासना (उक्थ, शस्त्र )
रूप बलवाली स्तुतियाँ विश्वव्यापी इन्द्र के साथ संगत होती है ।
४. है इन्द्र, स्तूयमान होने पर तुम बहुतों के अन्नदायक और गृह-
प्रदायक धन की धारा को प्रवाहित करो। तुम सम्पूर्ण प्राणी के उत्कष्ट
अधिपति और सम्पुर्ण भूतजात के असाधारण अधीश्वर हो।
५. हे इन्द्र, तुस श्रोतव्य स्तोत्रों को शीघ्र सुनो। हम लोगों की
परिचर्या की कामना करके सुर्य की तरह शत्रुओं के धन को जीतो ।
तुम बल-सम्पञ्च हो । प्रत्येक काल में स्तूयमान और हव्यरूप अन्न-द्वारा
भली भाँति से ज्ञायमाव होकर हमारे निकट पहले की ही तरह (असः
धारण) रहो ।
२७ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि भरद्वाज । छुन्द् त्रिष्टुप ।)
१. हे उद्यतायुध इन्द्र, तुम्हारे रथ में युक्त अश्व हमारे सम्मुख तुम्हारे
विश्ववन्ददीय रथ को लावें। गुणवान् स्तोता भरद्वाज ऋषि तुम्हारा
७१८ हिन्दी-ऋग्वेद क्
आह्वान करते हैं। अभी तुम्हारे साथ हृष्ट होकर हम लोग
बडित हों।
२. हरितवर्ण सोमरस हमारे यज्ञ में प्रवाहित (गसनकर्ता) होता
है और पूयमान (पवित्र) होकर कलशस ऋजुभाव से गमन करता हे।
पुरातन, दीप्तिसन्पन्न और सदकारक सोसरस के अधिपति इक्र हमारे
सोमरस का पान करें।
३. चतुदिक् गमन करनेवाले, रथ में युक्त ओर सरलतापुर्वक गमन
करनेवाले अइवगण सुदढ़चऋ रथ पर अवस्थित बलशाली इन्द्र को हमारे
अभिमुख लावे । अभूतमय सोमलक्षण हवि वायु से नष्ट (शुष्क) नहीं
हों। अर्थात् सोमरस के बिगड़ने के पहले ही इन्द्र सोम को पी जायें ।
४. निरतिशय बलशाली और बहुविधि कार्य करनेवाले इन्द्र हवि-
स्वरुप धनवाले व्यक्तियों के सध्य में यजमान को दक्षिणा प्रदान करते
हे। हे वप्त्रधर, तुम दक्षिणा-द्वारा पाप नाश करो। हे शत्रृविजयी,
` तुम बेसी दक्षिणा प्रेरित करो, जिससे धन-राशि और स्तुतिकर्ता पुत्र
हमें प्राप्त हो ।
५, इन्द्र श्रेष्ठ अन्न अथवा बल के दाता हों। अत्यधिक तेजोयुक्त
इच हम लोगों की स्तुति-द्वारा बात हों। शत्रुओं को सतानेबाले इन्द्र
आवरक शत्रु का संहार करे । प्रेरक इन्द्र वेयवान् होकर हम लोगों को
समस्त धन प्रदान कर ।
३८ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि भरद्वाज । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१, आइचर्थतस इन्द्र हुम लोगों के पानपात्र से सोमरस पात करें । दे
महान् और दीव्तिमान् आह्वान (स्तुति) को स्वीकार करे। दानशील इन्र.
धामिक यजमान के यज्ञ में अतिशय स्तुत्य परिचरण और हव्य ग्रहण कर ।
_ २. इन्द्र के कर्णयुगल दुर देश से भी स्तोत्र अवण करने के लिए आते
हें। स्तोता उच्च स्वर से स्तोत्र-पाठ करते है। इसर का आह्वान करचे-
बाली यह स्तुति स्वयं प्रेरित होकर इन्र को हमारे अभिमुख लावे ।
हिन्दी-ऋण्वेद ७१९
३. हे इन्र, तुम प्राचीन ओर क्षयरहित हो। हम उत्कृष्टतम स्तुति
और ह॒व्य-द्वारा तुम्हारा स्तवन करते हैँ; इसी लिए इन्द्र में हव्यरूप अन्न
और स्तोत्र निहित हे । महान् स्त्रोत्र अधिक वर्दधमान होता है।
४. जिन इन्द्र को यज्ञ ओर सोमरस बद्धित करते हें, जिन इन्द्र को
हव्य, स्तुति, उपासना और पूजा बद्धित करती हे, दिन और रात्रि की गति
जिन्हें बात करती हूँ एवम् जिन्हें सास, संवत्सर और दिन बद्ित
करते हैं ।
५, हे मेधावी इन्द्र, तुम इस प्रकार से प्रादुर्भत, समृद्ध, बलशाली
ओर प्रचण्ड हो। हम लोग आज धन, कीति, रक्षा ओर शत्रुविनाश के
लिए तुम्हारी परिचर्या करते हें।
३९ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरढाज । छुन्द् निष्डुप्।)
१. इन्द्र, तुम हमारे उस सोस को पियो, जो सदकारक पराक्रम”
कर्ता, स्वर्गीय, विज्ञ-सम्मत फलदाता प्रसिद्ध और सेवनीय है। देव,
तुम हमें यो-प्रमुख अन्न दो ।
२. इन्हीं इन्द्र ने पर्वत के बीच गुप्त रीति से रक्खी गायों के उद्धार
के लिए यज्ञ-कर्ता अङ्गिरा लोगों के साथ होकर और उनके सत्प-रूप
स्तोत्र-द्वारा उत्तेजित होकर दुर्भेद्य पर्वत को भिन्न और ताइना-हारा पणियों
को अभिभूत किया था ।
३. इन्द्र, इस सोम ने दीप्ति-शून्य रात्रि, दिन और वषं--सबको
प्रदीप्त किया था। प्राचीन समय में देवों ने इस सोम को दिल का केतु-
स्वरूप स्थापित किया था। इसी सामने अपनी दीप्ति से उषाओं को
प्रकाशित किया था ।
४. इन्हीं इन्द्र ने सूर्य-रूप से प्रकाशित होकर प्रकाश-शृन्य भुवनों को
प्रकाशित किया था और सर्वत्र गतिशील दीप्ति-द्वारा उषाओं का अन्धकार
तष्ट किया था । मनुष्यों के अभीष्ट फलदाता ये इन्दर स्तोत्र-द्वारा नियोजित
७३० हिन्दी-ऋणग्वेद
होनेवाले अईवो-द्वारा आक्नष्ट और धनपुर्ण रथ पर आरूढ
होकर गये थे ।
५, हे पुरातन और प्रकाशमान इरद्र, तुम स्तुति किये जाने पर घन
देने योग्य स्तोता को प्रचुर धन दो । हुम स्तोता को जल, ओषधि, विष-
शून्य वृक्षायलली, धेनु, अश्व और मनुष्य प्रदान करो ।
४० सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, तुम्हारे मद-वर्दन के लिए जो सोम अभिषुत हुआ हुँ,
उसे पाच करो । अपने मित्र-भूत दोनों अइवों को रथ में जोतो और
इसके पीछे रथ में उन्हें छोड़ दो । स्तोताओं के बीच बैठकर हमारे द्वारा
किये गये स्तोत्रों के उच्चारण में योग दो । स्तोता यजमान को अन्न दो ।
२. हे महेन्द्र, तुमने उल्लास और वीरता प्रकट करने के लिए जन्म
लेते ही जैसे सोमपान किया था, उसी तरह सोमपान करो । तुम्हारे
लिए सोस तैयार करने के लिए गाये, ऋत्विकू, जल ओर पाषाण इकटूठे
होते है ।
३. इन्द्र, आग प्रज्वलित और सोमरस अभिषुत हुआ है । ढोने सें
शक्तिशाली तुम्हारे अश्व इस यज्ञ में ले आवें । हम तुम्हारी ओर चित्त
लगाकर तुम्हें बुला रहे हँ । तुम हमारी विश्ञाल समृद्धि के लिए आओ।
४. इच्द्र, तुम सोमपान के लिए कई बार यज्ञ में उपस्थित हुए हो ।
इसलिए इस समय सोसपान की इच्छा से महान् अन्तःकरण के साथ इल
यज्ञ में आओ। हमारे स्तोत्रों को सुनो । तुम्हारी देह की पुष्टि के लिए
यजमान तुम्हें सोसरूप अच्च प्रदात करे ।
५. इन्द्र, तुम इरस्थित स्वर्ग, किसी अन्य स्थान वा अपने गृह में
अथवा कहीं हो; स्तुति-पात्र ओर अश्वो के अधिपति तुम सरुतों के साथ
प्रसस होकर हमारी रक्षा करने के लिए हमारे यञ्च की रक्षा करो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ७२१
४१ सू्त
(देवता इन्द्र ऋषि मर्द्वाज । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१, इन्द्र तुम कोध-शून्य होकर हमारे यज्ञ में आओ; क्योंकि तुम्हरे
लिए पवित्र सोसरस अभिषुत हुआ हँ । वप्त्रधर, जैसे गाये गोशाला में
जाती हैं, वैसे ही सोमरस कलश में पेठ रहा हैं । इसलिए इन्द्र, तुम आओ।
तुम यञ्च-योग्य देवों सें प्रधान हो ।
२. इन्द्र, तुम जिस सुनिसित और सुविस्तृत जीभ से सदा सोमपान
करते हो उसी जीभ से हमारे सोमरस का पात करो। सोमरस लेकर
ऋत्विक् तुम्हारे सामने खड़ा हैं। इन्द्र, शत्रुओं की गोओं को भआत्म-
सातू करने के लिए अभिलाषी तुम्हारा बच्च शत्रुओं का संहार करे।
३. द्रवीभूत, अभीष्टवर्षी ओर विविध-मूति यह सोम मनोरथवर्षक
इन्द्र के लिए सुसंस्कृत हुआ हे। हे अइवों के अधिपति सबके शासक और
प्रचण्ड बलशाली इद्ध, बहुत दिनों से, जिसके ऊपर तुमने प्रभुत्व किया
हुँ और जो तुम्हारे लिए अञ्ञरूप माना गया हे, वही तुम इस सोमरस
का पान करो ।
४. इन्द्र, अभिषुत सोम अनभिषुत सोम से श्रेष्ठतर हे ओर विचार-
शाली तुम्हारे लिए अधिक प्रसञ्षताकारक हु । शत्रु विजयी इन्द्र, तुम
यञ्च-साधन इस सोम के पास आओ । ओर इसके द्वारा अपनो सारी शक्तियों
सम्पूर्ण करो ।
५. इन्द्र, हम तुम्हें बुलाते है। तुम हमारे सामने आओ। हमारा
यह सोम तुम्हारे शरीर के लिए पर्याप्त हो। शतक्रतु इन्द्र, अभिषुत सोम-
पान के द्वारा उल्लासित होओ और युद्ध में सब लोगों से हमें चारों ओर
से रक्षित करो ।
४२ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भरद्वाज । छन्द अनुष्टुप् ओर बृहती ।)
१. ऋत्विकों, इन्द्र को सोमरस दो; क्योंकि वे पिपासु, सर्वज्ञाता,
सर्वगामी, यज्ञ में अधिष्ठाता, यज्ञ के नायक ओर सबके अग्रगामी हूँ।
फा० ४६
७२२ | हिन्दी-ऋणग्चेद
२. ऋत्विको, तुम सोमरस के साथ, अतिशय सोमरस-पानकारी
इन्द्र के पास उपस्थित होओ । अभिषुत सोमरस से भरे हुए पात्र के साथ
बलशाली इन्द्र के सम्मुख आओ ॥
३. ऋत्विको, अभिषत और दीप्त सोमरस के साथ इन्द्र के पास उप-
स्थित होओ । मेधावी इनर तुम्हारा अभिप्राय जानते हैं और शन्नु-संहार
के साथ वह तुम्हारे मनो रथ को पुर्ण करते हैं ।
४. ऋत्विक्, एकमात्र इन्द्र को ही सोम-रूप अन्न का अभिषुत रस
दो। इन्द्र हमारे सारे उत्साही और जीते जानेब्राले रिपुओं के द्वेष से
हमारी सदा रक्षा करे।
४३ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि भरद्वाज । छन्द॒ उष्णिक |)
१. इन्द्र, जिस सोमरस-पान के उल्लास में तुमने, दिवोदास के लिए,
शम्बर को वश किया था, बही सोमरस तुम्हारे लिए अभिषुत हुआ हुँ ।
इसलिए इसे तुम पान करो ।
२. इन्द्र, जब सोम का मादक रस, प्रातः, मध्याह्ल ओर सायं की पुजा
में अभिषुत होता हे, तब तुम इसे धारण करते हो। यही सोमरस तुम्हारे
लिए अभिषुत हुआ है। इसे पान करो।
३. इन्द्र, जिस सोस के मादक रस का पान करके तुमने पर्वत कै
बीच, अच्छी तरह से बंधी हुई गायों को छुड़ाया था, वही सोमरस तुम्हारे
लिए अभिषत हे इसे पान करो।
४. इन्द्र, जिस सोमरूप अञ्च के रस-पान से उल्लसित होकर तुम
असाधारण बल को घारण करते हो, वही सोमरस तुम्हारे लिए अभि-
षृत हुआ हे। इसे पाव करो।
हिस्दी-त्रहबेद ७२३
४४ सूक्त
(४ अबुवाक । देवता इन्द्र | ऋषि बृहस्पति के पुत्र शायु ।
छन्द् विराट् ओर त्रिष्टुप, |)
१, हे धनशाली और सोमरूप अन्न के रक्षक इन्र, जो सोम अतिशय
धनशाली है और जो दीप्त यश के द्वारा समुज्ज्वल है, वही सोस अभि-
षुत होकर तुम्हें उल्लसित करता है ।
२. हे विपुल-सुखकारी और सोमरूप अन्न के रक्षाकारी इन, जो
सोम तुम्हारा प्रसन्नता-कारक और तुम्हारे स्तोताओं का ऐश्वर्य-विधायक
हुं, वही सोम अभिषुत होकर तुम्हें उल्लसित करता है ।
३. हे सोमरूप अञ्न के रक्षक, इन्द्र, जिस सोस के पान से प्रवृद्ध-
बल होकर, अपने रक्षक मरुतों के साथ, रिपु-विनाश करते हो, बही सोम
अभिषुत होकर तुम्हें उल्लसित करता हू।
४. यजमानो, हम तुम्हारे लिए उन इन्द्र की स्तुति करते हैं, जो
भक्तों के कृपाळू, बल के स्वामी, विश्वजेता, यागादि क्रियाओं के नायक
और श्रेष्ठ दाता तथा सव-दर्शक हें ।
५. हमारी स्तुतियों द्वारा इन्द्र का जो इत्रु-घनन्हरण करनेवाला बल
बद्धित होता हे, उसी बरू की परिचर्या स्वगेंदेव और पृथ्वी-देवी
करती हैं ।
६. स्तोताओ, इन्द्र के लिए अपना स्तोत्र बिस्तृत करो; क्योंकि
मेधावी व्यक्ति की भांति तुम्हारी रक्षा इन्द्र के साथ हे ।
७. जो यजमान यज्ञादि कार्य में दक्ष हे, उसकी बातें इन्द्र जानते
हैं। सित्र ओर नवीनतर सोस का पान करनेवाले इन्द्र स्तोताओं को
श्रेष्ठ धन प्रदान करते हे। हव्य-रूपी अन्न भोजन करनेवाले बह इन्द्र
प्रवृद्ध और पृथ्वी को कंपामेवाले अश्वो के साथ स्तोताओं की रक्षा की.
इच्छा से आकर उनकी रक्षा करते हें ।
८, यज्ञमागे में सर्वेदर्शी सोम पिया गया हुँ। ऋत्विक लोग उसी
सोम को, इन्र का चित्त आकृष्द करने के लिए प्रदर्शित करते हे ।
७२४ हिन्दी-ऋहग्वेद
शन्नुजेता और विशाल देह धारण करनेवाले बही इन्द्र हमारे स्तव से प्रसन्न
होकर हमारे सामने प्रकट हों।
९, इन्द्र, तुम हमें अतीव दीप्ति से युक्त बल दो। अपने उपासकों
के असंख्य शत्रुओं को दूर करो । अपनी बृद्धि से हमें यथेष्ट अन्न दो ।
धन का भोग करने के लिए हमारी रक्षा करो ।
१०. धनशाली इन्द्र, तुम्हारे लिए ही हम हव्य दे रहे हे। अइवों
के स्वामी इन्द्र, हमारे प्रतिकूल नहीं होना । मनुष्यों के बीच हम तुम्हारे
सिवा किसी को अपना मित्र नहीं देखते । इन्र, यदि तुम्हारे अन्दर यह.
गुण नहीं रहता, तो तुम्हें प्राचीन लोग “धनद” क्यों कहते ?
११. अभीष्ड-वर्घी इन्द्र, तुम हमें कार्य-विनाशक राक्षसादिकों के
पास नहीं छोड़ना । तुम धनयुक्त हो । तुम्हारे बन्धुत्व के ऊपर अव-
लम्बित होकर हम कोई विघ्न न पावें। मनुष्यों के बीच तुम्हारे लिए अनेक
प्रकार के विघ्न उत्पन्न किये जाते हेँ। जो अभिषवकर्ता नहीं हे, उनका
संहार करो और जो तुम्हें हव्य नहीं देते, उनका विनाश करो ।
१२. गर्जन करनेवाले पर्जन्य जैसे मेघ उत्पन्न करते हैं, वसे ही इन्दर
स्तोताओं को देने के लिए अइव और गायें उत्पन्न करते हँ । इन्द्र, तुस
स्तोताओं के प्राचीन रक्षक हो। तुम्हें हव्य न देकर धनी लोग
तुम्हारे प्रति अन्यथा आचरण न कर।
१३. ऋत्विको, तुस इन्हीं महेख को अभिषुत सोम अपित करो;
क्योंकि ये ही सोम के स्वामी हें। यही इन्र स्तोता ऋषियों के प्राचीन
और नवीन स्तोत्रों के द्वारा परिरवद्धित हुए हें ।
१४, ज्ञानी ओर अबाध प्रभाव इन्र ने इसी सोस फा पान कर ओर
उल्लसित होकर असंख्य प्रतिकूल आचरण करनेवाले शत्रुओं का बिनाश
किया है ।
१५, इन्द्र इस अभिषुत सोम का पान करें ओर इससे उल्लसित होकर
वज्त्र-द्वारा वृत्र का संहार करें। गृहदाता, स्तोतुरक्षक और यजमान-पालक
वह इन्द्र दुर देश से भी हमारे यज्ञ में आबें।
हिन्दी-ऋण्वेद ७२५
१६. इन्द्र के पीने के योग्य और प्रिय यह सोम-रूप अमृत इन्द्र के
द्वारा इस प्रकार पिया जाय कि वे उल्लसित होकर हमारे ऊपर
अनुग्रह करे ओर हमारे शत्रुओं तथा पाप को हमसे दूर करें।
१७. शौर्यशाली इन्दर, इस सोम के पान से प्रसन्न होकर हमारे
आत्मीय और अवात्मीय प्रतिकूलाचरण-कर्ता शत्रुओं का विनाश करो।
इन्द्र, हमारे सामने आये हुए अस्त्र छोड़नेवाले शत्रु-सैन्यों को पराझमुख
और उच्छिन्न करो।
१८. इन्द्र, हमारे इस सारे संग्राम में अतुल धन हमें सुलभ करो।
जय-प्राप्ति में हमें समर्थ बनाओ। वर्षा, पुत्र और पोत्र के द्वारा हमें
समृद्ध करो। |
, १९. इन्द्र, तुम्हारे अभीष्ट-वर्षक, स्वेच्छा के अनुसार रथ में नियुक्त,
अंभीष्ट-दाता रथ के ढोनेवाले, वारिवर्षक, किरणों-द्वारा संयुक्त, दुतगामी,
हमारे सामने आनेवाले, नित्य तरुण, वय्पर-वाहक और शोभन रूप से
योजित अश्व बहुत नशा करनेवाले सोम को पीने के लिए तुम्हें ले आवं।
२०. अभीष्टवर्षी इन्द्र, तुम्हारे जल-वर्षक और तरुण अइव जल का
सेवन करनेवाली समुव्र-तरङ्भों के समान उल्लसित होकर तुम्हारे रथ
में जृते हे। तुम तरुण और काम-वर्षक हो। ऋत्विक् लोग तुम्हें पाषाण- _
द्वारा अभिषुत सोमरस अपंण करते हें।
२१. इन्द्र, तुम स्वगं के सेवनकर्सा, पृथ्वी के वर्षण-कर्ता, नदियों
के पुरण-कर्ता ओर एकत्र समवेत स्थावर और जङ्गम विशब-भूतों के
अभीष्ठ-कर्ता हो। अभीष्ट-प्रदायक इन्द्र, तुम श्रेष्ठ सेचनकारी हो।
तुम्हारे लिए सधु की तरह पीने योग्य साठा सोमरस बढ़ रहा है।
२२. इस दीप्तिभान् सोम ने मित्र इन्र के साथ जल लेकर बल-
पुवेक पणि की स्तुति की थी। इसी सोम ने गोरूप धन को चुरातेवारे
हे षियों की माया और असत्रों को व्यर्थ किया था।
२३. इसी सोम ने उषाओं के पति-स्वरूप सूर्य को शोभा-सम्पन्न
. किया था। इसी सोम ने सूर्य-मण्डल में दीप्ति स्थापित की थी। इसी
७२६ हिन्दी-त्रास्बेद
सोम ने दीप्ति-संयुक्त तीनों भुवनों के बीच स्वर्ग सें गृढ़ भाव से अवस्थित
त्रिविध अमुतों को प्राप्त किया था।
२४. इसी सोम ने स्वर्गं और पृथ्वी को अपने-अपने स्थानों पर
संस्थापित किया था। इसी सोस ने सप्तरश्मि रथ को योजित किया था।
इसी सोम ने स्वेच्छानुसार गौओं के बीच परिणत दुग्ध के दस थन्त्रों के
कप को या बहुधारा-विशिष्ट प्रवण को स्थापित किया था।
४५ सूक्त
(देवता दस मन्त्रों के इन्द्र और अवशिष्ट के बृहस्पति । ऋषि
बृहस्पति के पुत्र शंयु । छन्द अनुष्टुप ओर गायत्री |)
१. जो उत्कृष्ट नीति-द्वारा तुर्वेश और यढु को दुर देश से लाये थे,
वहीं तरुण इन्द्र हमारे मित्र बनें।
२. जो व्यक्ति इन्द्र की स्तुति नहीं करता, उसे भी इन्द्र अन्न प्रदान
करते है। इन्द्र सन्धर-गति अश्व पर चढ़कर इात्रुओं के बीच निहित
सम्पत्ति को जीतते हें।
३. इन्द्र की नीतियाँ उत्कृष्ट और महान् हँ। उनकी स्तुतियाँ भी
नाना प्रकार की हैं। उनकी रक्षा का कथन कभी क्षीण नहीं होता।
४. बन्धुओ, मन्त्र-द्वारा आह्वान के योग्य उन्हीं इन्द्र की पुजा करो
और उन्हीं की स्तुति करों; क्योंकि बही हमें वस्तुतः प्रकृष्ट बुद्धि प्रदान
करते हैं।
५. वृत्र-विनाशंक इन्द्र, तुम एक वा दो स्तोताओं के रक्षक हो।
तुम्हीं हमारे जैसे लोगो के रक्षक हो।
६. इन्द्र, हमारे पास से विद्वेषियों को दूर करो और स्तोताओं को
समृद्धि दो। इन्द्र, तुम शोभनं पुत्र-पौत्र आदि देनेवाले हो; इसलिए मनुष्य
तुम्हारी स्तुति करते हेँ।
७. में स्तोत्र के बल से मित्र, महान् मन्त्र-द्वारा आह्वान के योग्य
और स्तुति-पांत्र इन्द्र को, धेनु की तरह अभीष्ट दृहने के लिए, बुलाता हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद | ७२७
८. वीर्यवान् और शत्रू-सेना को पराजित करनेवाले इन्द्र के दोनों
हाथों में दिव्य और पार्थिव धन हुँ--एऐसा ऋषि लोग बराबर कहा
करते है ॥
` ९. हे बद्बधारक और यञ्चपति इस्टर, तुम शत्रुओं के दृढ़ नगरों को
निर्मूल करते हो। हे सर्वोच्चत इन्दर, तुम शत्रुओं की माथाओं को विनष्ट
करते हो।
१०. हे सत्यस्वभाव, सोमपायी और अन्नरक्षक् इन्द्र, हुम, अन्नाभिलाषी
होकर, ऐसे गुणों से संयुक्त तुम्हें ही बुराते हें।
११. इन्द्र, तुम पहले आह्वान के योग्य थे और इस समय शत्रुओं
के बीच रखे हुए घन की प्राप्ति के लिए आहुत होते हो। हम तुम्हें बलाते
हुँ। तुम हमारा आह्वान सुनो।
१२. इन्द्र, हमारे स्तोत्र को सुनकर तुम्हारे प्रसन्न होने पर तुम्हारी
कृपा से हम अश्वो के हारा शत्रुओं के अश्व, उत्कृष्ट अन्न और गूढ़ घन
को जीतने में समर्थ हों।
१३. वीर और स्तुति-पात्र इन्र, तुम शत्रुओं के बीच निहित घन
की प्राप्ति के लिए युद्ध में शत्रुओं को जीतने में समर्थ हुए हो।
१४. रिपुञजय इन्द्र, तुम्हारी गति अतिशय वेग से संयुक्त हुँ। उसी
गति के द्वारा शत्र की जय करने के लिए हमारा रथ चलाओ।
१५. जयशील और रथि-श्रेष्ठ इन्द्र, तुम हमारे झत्र-विजयी रथ
के द्वारा शत्रओं के द्वारा निहित धन को जीतो।
१६. जो सर्वदर्शी और वर्षणशील हें, जिन्होंने एक-एक मनुष्यों के
घिपति-छूप से अन्म धारण किया हें, उन्हीं इन्द्र की स्तुति करो।
१७. इन्द्र, तुम रक्षा के कारण सुखदाता और मित्र हो। हमारी
स्तुति पर तुमने प्राचीन समय में बन्धुता प्रकट की थो। इस समय हमें
सुखी करो।
१८. वञ्चघरं इन्द्र, तुम राक्षसों के नाश के लिएं अपने हाथों सें
वञ्च धारण करते हो और स्पर्द्धावालों को भली भाँति पराजित करते हो।
७२६ हिन्दी-ऋण्वेद'
सोम ने दीप्ति-संयुक्त तीनों भुवनों के बीच स्वगे में गृढ भाष से अवस्थित
त्रिविध अमृतों को प्राप्त किया था।
२४. इसी सोम ने स्वर्ग और पृथ्वी को अपने-अपने स्थानों पर
संस्थापित किया था। इसी सोम ने सप्तरश्मि रथ को योजित किया था।
इसी सोम ने स्वेच्छानुसार गोओं के बीच परिणत दुग्ध के दस थन्त्रों के
कप को या बहुधारा-विशिष्ट प्रवण को स्थापित किया था।
४५ सूक्त
(देवता दस मन्त्रों के इन्द्र और अवरिष्ट के बृहस्पति | ऋषि
बृहस्पति के पुत्र शांयु । छन्द अनुष्टुप और गायत्री |)
१. जो उत्कृष्ट नीति-द्वारा तुवेश और यढु को दुर देश से लाये थे,
वही तरण इन्द्र हमारे मित्र बनें।
२. जो व्यक्ति इन्द्र की स्तुति नहीं करता, उसे भी इन्द्र अन्न प्रदान
करते हुँ। इन्द्र सन्थर-गति अइव पर चढ़कर शत्रुओं के बीच निहित
सम्पत्ति को जीतते हे।
३. इन्द्र की नीतियाँ उत्कृष्ट और महान् हैं। उनकी स्तुतियाँ भी
नना प्रकार की हैं। उनकी रक्षा का कथन कभी क्षीण नहीं होता।
४, बन्धुओ, मन्त्र-ट्रारा आह्वान के योग्य उन्हीं इन्द्र की पुजा करो
और उन्हीं की स्तुति करो; क्योंकि वही हमें वस्तुतः प्रकृष्ट बुद्धि प्रदान
करते हैं।
५. वुत्र-विनाशंक इन्द्र, तुम एक वा दो स्तोताओं के रक्षक हो।
तुम्हीं हमारे जैसे लोगों के रक्षक हो।
६. इन्द्र, हमारे पास से विद्वेषियों को दुर करो और स्तोताओं को
समृद्धि दो। इन्द्र, तुम शोभन पुत्र-पौत्र आदि देनेवाले हो; इसलिए मनुष्य
तुम्हारी स्तुति करते हें।
७. में स्तोत्र के बल से भिन्न, महान् मन्त्र-द्वारा आह्वान के योग्य
औरं स्तुति-पात्र इन्द्र को, धेनु की तरह अभीष्ट दूहुने के लिए, बुराता हूँ।
हिन्दी-क्रग्वेद ७२७
८. वीर्यवान् और शत्र-सेना को पराजित करनेवाले इन्द्र के दोनों
हाथों में दिव्य और पार्थिव धन हे--ऐसा ऋषि लोग बराबर कहा
करते हे ।
. ९, हे वद्धधारक और यज्ञपति इन्दर, तुम शत्रुओं के दृढ नगरों को
निर्मूल करते हो। हे सर्वोच्चित इन्द्र, तुम शत्रओं की साथाओं को विनष्ट
करते हो।
१०. है सत्यस्वभाव, सोमपायी और अन्नरक्षक इन्द्र, हम, अन्नाभिलाषी
होकर, एसे गुणों से संयुक्त तुम्हें ही बुलाते हें।
११- इन्द्र, तुम पहले आह्वान के योग्य थे और इस समय शत्रुओं
के बीच रखे हुए धन की प्राप्ति के लिए आहुत होते हो। हम तुम्हें बुलाते
हैं। तुम हमारा आह्वान सुनो।
१२. इन्द्र, हमारे स्तोत्र को सुनकर तुम्हारे प्रसन्न होने पर तुम्हारी
कृपा से हम अश्यो के द्वारा शत्रुओं के अव, उत्कृष्ट अन्न और गढ़ धन
को जीतने में समर्थ हों।
१३. वीर ओर स्तुति-पात्र इन्द्र, तुम शत्रुओं के बीच निहित घन
की प्राप्ति के लिए युद्ध में शत्रुओं को जीतने में समर्थ हुए हो।
१४. रिपुञ्जय इन्द्र, तुम्हारी गति अतिशय वेग से संयुक्तं हुँ। उसी
गति के द्वारा शत्र की जय करने के लिए हमारा रथ चलाओ।
१५. जयशील और रथि-श्रेष्ठ इन्द्र, तुम हमारे शत्र-विजयी रथ
के द्वारा शत्रओं के द्वारा निहित धन को जीतो।
१६, जो सर्वेदर्शी और वर्षणशील हे, जिन्होंने एक-एक मनुष्यों के
अधिपति-रूप से अन्म धारण किया हुँ, उन्हीं इन्द्र की स्तुति करो।
१७. इन्द्र, तुम रक्षा के कारण सुखदाता और मित्र हो। हमारी
स्तुति पर तुमने प्राचीन समय में बन्धुता प्रकट की थी। इस समय हमें
सुखी करो।
१८. वज्चधर इन्द्र, तुम राक्षसों के नाश के लिए अपने हाथों में
वज धारण करते हो और स्पद्धावालों को भली भाँति पराजित करते हो।
७२८ हिन्दी-ऋग्वेव
१९, जो धनद, मित्र, स्तोताओं के उत्साहदाता और मन्त्रों के हारा
आह्वान के योग्य हे, उन्हीं प्राचीन इन्द्र को में आह्वान करता हूं।
२०. जो स्तुति-द्वारा वन्दनीय और अप्रतिहत गति हैँ, वही एकमात्र
इन्द्र ही सारे पार्थिव घनों के ऊपर एकाधिपत्य करते हुँ। |
२१. हे गोओं के अधिपति, तुम बड़वा लोगों के साथ आकर अच,
असंख्य अइवों और धेनुओं से भली भाँति हमारे मनोरथ को पुरा करो।
२२. स्तोताओं, जैसे घास गो के लिए सुखावह होती है, वैसे ही
सोमरस के तैयार होने पर इन्द्र का सुखदायक स्तोत्र भी बहुसंख्यक लोगों
के द्वारा वन्दनीय होता हे। रिपुऊजय इन्द्र के पास एकत्र होकर गान करो।
२३. गृह-प्रदाता इन्द्र जिस समय हमारा स्तोत्र सुनते हें, उस समय
वे धेनुओं के साथ अन्न प्रदान करने में विरत नहीं होते ।
२४. दस्युओं के वधकर्ता इन्द्र कुवित्स की असंख्य धेनुओंवाली गोशाला
में गये और उन्होंने अपने बुद्धि-बल से हमारे लिए उस निगूढ गो-बृन्द
को प्रकट किया। क्
२५. बहुविध को के अनुष्ठाता इन्द्र, जेसे गाये बार-बार बछड़ों
के सामने जाती हें, वेसे ही हमारी ये सारी स्तुतियाँ बार-बार तुम्हारी
ओर जाती हूं। ह
२६. इन्द्र, तुम्हारे बन्धुत्व का विनाश नहीं होता। वीर, तुम गौ
चाहनेवाले को गौ ओर घोड़ा चाहनेवाले को घोड़ा देते हो।
२७. इन्द्र, सहाधन के लिए प्रदत्त सोमरस का पान करके अपने को
परितुप्त करो। तुम अपने उपासक को निन्दक के हाथ नहीं सोपते।
२८, स्तुति द्वारा वन्दनीय इन्द्र, जेसे दूध देनेवाली गाये बछड़ों के
पास जाती हें, वैसे ही बार-बार सोमरस के अभिषृत होने पर हमारी ये
स्तुतियाँ, बड़े वेग से, तुम्हारी ओर जाती हैं।
२९. यज्ञ-मण्डप में हव्यरूप अन्न के साथ दिये गये असंख्य स्तोताओं
के स्तोत्र, असंख्य शत्रुओं के नाशक तुम्हें, बलशाली करे।
हिन्दी-ऋग्वेद ७६९
३०. इन्द्र, अतीव उच्चति-कारक हमारे स्तोत्र तुम्हारे पास जायें।
हमें, महाधन की प्राप्ति के लिए, प्रेरित करो।
३१. गङ्गा के ऊंचे तटों की तरह प्राणियों के बीच ऊँचे स्थान पर
बुबु ने अधिष्ठान किया था।
३२. में धनार्थी हूँ। बबुने मुझे वायु-वेग के समान वदान्यता के
सप्थ एक हजार गायं तुरत दी थीं।
३३. हम सब लोग स्तुति करके हज़ार गायें देनेवाले, विद्वान् और
हज़ारों स्तोत्रों के पात्र उन्हीं बूब की सदा प्रशंसा करते हुँ।
३६ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि शांयु । छन्द बहती और सतोबृहती |)
१, हम स्तोता हैं। अन्न-प्राप्ति के लिए तुम्हें बुलाते हँ। तुम साधुओं
के रक्षक हो; इसलिए अइवों से युक्त संग्राम में शत्रुओं को जीतने के लिए
चे तुम्हें ही बुलाते हु!
२. विचित्र-वच्त्र-पाणि वज्ची, जैसे तुम युद्ध में विजयी पुरुष को यथेष्ठ
अज्ञ देते हो, वैसे ही तुम हमारे स्तव से प्रसन्न होकर हमें यथेष्ट गो और
रथ वहन करने में पट॒ अइव दो; तुम शत्रु-वाशक और प्रतापी हो।
३. जो प्रबल शत्रुओं के निधन-कर्त्ता और सवंदर्शी हे, उन्हीं इन्द्र को
हम बुळाते हें। सहरू-शेक, अतुलधन-सम्पन्न और सत्पालक इन्द्र, रण-स्थल
में तुम हमें समृद्धि दो।
४. इख, जैसा ऋचा ये वणन मिलता हे, वैसा ही तुम्हारा रूप है।
तुम तुमुल युद्ध में, वृषभ की तरह, अत्यन्त क्रोध के साथ हमारे शत्रुओं
पर आक्रमण करो। जिससे हम सन्तति, जल और सूर्य का दरशन (अथवा
बहुत समय तक भोग) कर सकें, उसके लिए तुम रण-भूमि में हमारे रक्षक
बनो।
५. शोभन हनु (केहुँनी) वाले और अद्भुत-वप्त्रपाणि इन्र, जिस
७३० हिन्दी-ऋणग्वेद
अञ्च से तुम स्वर्ग और पृथ्वी का पोषण करते हो, हमारे पास वही
प्रकृष्टतम, अत्यन्त बळू-वद्धक और पुष्टिसाधक अन्न ले आओ।
६. दीप्तिशाली इन्द्र, तुम हमारी रक्षा करोगे; इसलिए तुम्हें हम
बुळाते हैं। तुम देवों में सबसे बली और शत्रु-जयी हो। गुहदाता इन्दर,
तुम समस्त राक्षसों को अलग करो और हमें शत्रुओं के ऊपर विजय दो।
७. इन्द्र, मनुष्यों में जो कुछ अल और धन है ओर पाँचो वर्णो में
जो अन्न हु, सो संब सारे महान् बल के साथ, हमें दो।
८. ऐद्वर्यशाली इन्द्र, शत्रुओं के साथ युद्ध प्रारम्भ होने पर हुम उन्हें
युद्ध में जीत सके, इसके लिए तुम हमें तक्षु, द्राह्य ओर पुरु का सारा
बल दे देना।
९. इन्द्र, हव्यरूप धन से युक्त मनुष्यों कोओऔर मुझे एक ऐसा
घर दो, जो लकड़ी, इंट और पत्थर का बना हुआ हो और जिसमें शीत,
ताप ओर ग्रोष्न न सतावें तथा जो घर समृद्ध और आच्छादक हो।
शत्रुओं के सारे दीप्तियुक्त आयुधों को दूर करो।
१०. ऐश्वयंशाली इन्द्र, जिन्होंने हमारी गायें अपहृत करने के लिए
हमारे ऊपर शत्रुवत् आक्रमण किया था अथवा जिन्होंने धृष्टता के
साथ हमें उत्पीडित किया था, उनसे (हमारे स्तोत्रों से प्रसं होकर)
हमारी रक्षा करने के लिए हमारे पास आओ।
११. इन्द्र, इस समय हमे धन दो। जिस समय पक्ष-युक्त, तीक्ष्णा
और दीप्त शत्रुओं के वाण आकाश से गिरते हे, उस समय जो हमारी
रक्षा करते हैं, उनकी रक्षा तुम समर-भूमि में करना।
१२. शत्रुओं के सामने जिस समय बीर लोग अपनी देह को दिखाते
और पैतृक स्थानों का परित्याग करते हें, उस समय तुम हमें और हमारी
सन्तानों को शरीर-रक्षा के लिए, गुप्त रूप से, कवच देना और शत्रुओं
को दूर करना।
१३. महायुद्ध का समारोह हो? पर तुंम विकट माग से हमारे अइवों
६हन्दी-कभ्वेव ७३३
को, कुटिल प्रान्त से जासेवाले, हृतगति और आसिषार्थी इयेन की
तरह, भेजना।
१४. यद्यपि डर के मारे घोड़े जोर से हिनहिनाते हैं, तथापि निम्न
गामिनी नदियों की तरह, वें ही वेगगामी और दृढसंयत घोड़े, आमि-
षार्थी पक्षियों की तरह, धेनु-प्राप्ति के लिए, प्रवृत्त संग्राम में, बार-बार
दाढ़ते हेँ।
४७ सूक्त
(पाँच मन्त्रों के साम, वीसबें के प्रथम पादं के देवगण, वितीय
देवता की एथ्वी, तृतीय के बृहस्पति ओर चतुथे पादं के इन्द्रं ।
बीस से चौबीस तक सूस्जय-पुत्र प्रस्तोक छन्धीस से तीन मन्त्रों के
रथ, उनतीस से एकतीस के दुन्दुभि ओर शेष मन्त्रों के इन्द्र ।
षि अरद्वाज के पुत्र गग । छन्द त्रिष्टुप्, अनुष्टुप, गायत्री
बहती और जगती ।)
१. यह अभिषूत सोम सुस्वादु, मधुर, तीब्र और रसवान हे। इसका
इन्द्र पान कर लेते हे, तब संग्राम में उनके सासने कोई नहीं ठहर
सरकता ॥
२. इस यज्ञ में पीने पर एसे ही सोम ने अत्यन्त हषं प्रदान किया
था। वृत्र के विनाश के समय इन्द्र ने इसे पीकर प्रसन्नता प्राप्त की थी।
इसने शम्बर की नित्याने पुरियों का विनाश किया था।
३. पीने पर यह सोमरस मेरे वाक्य की स्फूतिं को बढ़ाता है। यह
अभिलषितं बुद्धि को प्रदान करता है। इसी सुबुद्धि सोम ने स्वर्ग, पृथ्वी,
दिन-रात्रि, जल और ओषधि आदि छः अवस्थाओं की सृष्टि की हुं ।
भूतगण में कोई भी इससे दूर नहीं ठहर सकता ।
४. फलतः इसी सोमरस ने पृथ्वी का विस्तार और स्वये की दृढ़ता
की है। इसी सोमरस ने ओषधि, जल और धेनु नामक तीन उत्कृष्ट
आधारों में रस दिया था। यही विस्तृत अन्तरिक्ष को धारण किये हुए है ॥
हु” ns
७११
५. निर्मल आकाश में स्थित उषा फे पहले यही सोम विचित्र दर्शन
सुर्य-ज्योति को प्रकट करता हुँ, वारिवर्षी और बलशाली यह सोमरस
ही मरुतों के साथ सुबृढ़ स्तम्भ-द्वारा स्वर्गं को धारण किये हुए है।
६ खीर इन्दर, धन-प्राप्ति के लिए आरस्भ किये गये संग्रास में तुम:
शत्रु संहार करो। साहस के साथ कलस-स्थित सोमरस का पान करों।
मध्याह्न के यज्ञ में तुम बहुत सोम पान करो। है धन-पात्र, हमें धन दो।
७. इन्द्र, मार्यरक्षक की तरह तुम अग्रगामी होकर हमारे प्रति
दृष्टि रखना और हमारे सामने श्रेष्ठ घन ले आना। तुम भली भाँति हमें
दु:ख और शत्रु से बचाओ और उत्कृष्ट नेता होकर हमें अभिलषित धन
में ले जाओ। |
८, इन्द्र, तुम ज्ञानी हो। हमें विस्तीणे लोक मे--सुखमय और भय.
शून्य आलोक में भी--निविघ्न ले जाना। तुम प्राचीन हो। हम तुम्हारे
मनोज्ञ और बृहत् बाहुओं के ऊपर रक्षा के लिए आश्रित हूँ।
९, धनाढ्य इन्द्र, तुम हमें अपने पराक्रमी अश्वों के पीछे विस्तृत रथ
पर चढ़ाओ । विविध अझों के बीच तुम हमारे लिए प्रकृष्टतम अन्न हे
आओ। सघवन् कोई भी धनी धन में हमें न लाँघ सफे।
१०. इन्द्र, सुम मुझे सुखी करो। मेरी जीवन-वृद्धि करने में प्रसन्न
होओ। लौहमय खड्ग की घार की तरह मेरी बृद्धि फो तेज करो। तुम्हें
प्रसन्न करने कै लिए इस समय जो फुछ में कह रहा हूँ, सो सब ग्रहण
करो॥ देवगण मेरी रक्षा करें।
११. जो शत्रुओं से रक्षा करते और मनोरथ पूर्ण करते हैं, जो अना-
थास आह्धान-योग्य, शौर्यशाली और सभी कामों में समर्थ हें, मे उन्हीं
बहुलोक-वन्दनीय इन्द्र को, प्रत्येक यज्ञ में, बुलाता हूँ। धनवान् इनदर हमे
समृद्धि दें ॥
१२. शोभन रक्षा करनेवाले और घनशाली इन्द्र रक्षा-द्वारा हमें सुख
देते हें। बही सर्वज्ञ इन्द्र हमारे शत्रुओं का वध करके हमें निर्भय करते
हुँ। उनकी प्रसन्नता से हम अतीव वीर्य-शाली बसें।
हिन्दी-ऋग्वेद ७३३
१३. हम उन्हीं योगाह इन्द्र के अनुग्रह, बुद्धि और कल्याणवाही
प्रीति के पात्र बनें। रक्षक और धनी बही इन्द्र विद्वेषियों को बहुत दुर
ले जायं।
१४. इन्द्र, स्तोताओं की स्तुति, उपासना, विशाल घन और प्रचुर
अभिषुत सोमरस, निम्न देश-प्रवण जलराशि को तरह, तुम्हारी ओर जाते
हैं। वप्त्रथर इन्द्र, तुम जल, दूध और सोमरस भलो भाँति मिलाते हो।
१५. भली भाँति कोन मनुष्य इन्द्र की स्तुति, प्रसन्नता और यज्ञ
करने में समर्थ हे ? धनशाली इन्द्र प्रतिदिन अपनी उम्र शक्ति को जानते
हें। जैसे पथिक अपने पेरों को कभी आगे ओर कभी पीछे करता है, बैसे
ही इन्द्र अपने बुद्धि-बल से स्तोता को कभी परवर्ती और कभी अग्नवर्ती
करते है ॥
१६, प्रबल शत्रु का दमन करके और स्तोताओं का स्थान सदा परि-
वरतेन करके इन्द्र, अपनी वीरता के लिए, प्रसिद्धि प्राप्त करते हें। उद्धत
व्यक्तियों के द्वेषी और स्वर्गीय तथा पार्थिव धनों के अधिपति इन्द्र अपने
सेवकों को, रक्षा के लिए, बार-बार बुलाते हे ।
१७. इन्द्र पूर्वतन प्रशस्त कर्मा के अनुष्ठाताओं की मित्रता त्याग
देते हे और उनसे द्वेष करके उनको अपेक्षा निकृष्ट व्यक्तियों के साथ
मित्रता करते हें । अथवा अपनी उपासना से रहित व्यक्तियों को छोड़कर
परिचारको के साथ अनेक वर्ष रहते हें।
१८. सारे देवों के प्रतिनिधि इन्द्र तीन प्रकार की मूतियाँ धारण करते
हे और इन रूपों को धारण कर वे अलग-अलग प्रकट होते हैं। बे माया"
द्वारा अनेक रूप धारण करके यजमानों के पास उपस्थित होते है; क्योंकि
इन्द्र के रथ में हज़ार घोड़े जोते जाते हे ।
१९, रथ में इन्द्र ही घोड़े जोतकर त्रिभुवनों के अनेक स्थानों में
प्रकट होते हें। दूसरा कौन व्यक्ति प्रतिदिन उपस्थित स्तोताओं के बीच
जाकर शत्रुओं से उचकी रक्षा करता है ?
७३४ हिन्दी-ऋग्वेद
फ नेक
२०. देवो, हुम गगन घुमते-छूमते उस देश में आ पहुंचे हें, जहाँ गाये
नहीं हें। विस्तृत पृथ्वी वस्युओं को आश्रय देली हे। बृहस्पति, तुम
धेनुओं के अनुसन्धान में हमें परिचालित करो । इन्द्र, इस तरह से पथ-
अष्ट अपने उपासक को मागे दो।
२१. इन्द्र अन्तरिक्षस्थित गृह से सुर्ये-छप से प्रकट होकर दिन का
अपराद्धं प्रकाशित करने के लिए प्रतिदिन, समान रीति से रात्रि को दूर
करते हे। “उदवज्ञ नामक देश में शम्बर और यर्चो नाम के दो
धनार्थी दासों का वर्षक इन्द्र ने संहार किया था।
२२. इद्र, प्रस्तोक ने तुम्हारे स्तोताओं को (हमें) सोने से भरे
दस कोश और दस घोड़े प्रदान किये थे। अतिथिग्व ने शम्बर को जीतकर
जो धन प्राप्त किया था, उसी धन को हमने दिवोदास से पाया है ।
२३. मेंने दिवोदास़ के पास से दस घोड़े, दस सोने के कोश, कपड़े,
यथेष्ट अञ्न और दस हिरण्य पिण्ड पाये हैँ ।
२४. मेरे भाई अइवत्त्य ने पाय को घोड़ों के साथ दस रथ और अथर्व-
गोत्रीय ऋषियों को एक सौ गाये प्रदान कीं ।
२५. भरद्वाज के पुत्र ने सबकी भलाई के लिए जो ये सब एश्वर्य
ग्रहण किये थे, सुञजथपुत्र ने उनकी पुजा की थी ।
२६. वनस्पति-निमित रथ, तुम्हारे सब अवयव दृढ़ हों। तुम हमारे
रक्षक ओर मित्र बनो । तुम प्रतापी बीरों से युक्त होओ। तुम गोचमं
द्वारा बाँध गये हो। हमें सुदृढ़ करो । तुम्हारे ऊपर आरूढ रथी अनायास
ही संग्राम में शत्रुओं को जीतने में समर्थ हो।
२७. ऋत्विको, तुम हस्य से रथ का यज्ञ करो । यह रथ स्वर्ग और
पृथ्वी के सारांश से बना है, वनस्पतियों के स्थिरांश से घटित है, जल के
वेग की तरह वेगवान् हे, गोचर्म द्वारा हका हुआ तथा वच्च की तरह हुँ ।
२८. हे दिव्य रथ, हमारे यज्ञ में प्रसन्न होकर हव्य ग्रहण करो;
क्योंकि तुम इन्द्र के बज्ञस्वरूप, सरुतो के अग्नवर्ती, मित्र के गर्भ और
वरुण की नाभि हो।
हिन्दी-त्रहवेद ७३५
२९. हे युद्ध-वृुभि, अपने शब्द से स्वर्ग और धरणी को परिपूर्ण
क्रो--स्थावर ओर जंगम इस बात को जानें। तुम इस्ध और अन्य देवों
के साथ होकर हमारे रिपुओं को दूर फेक दो ।
३०. दुन्दुभि, हमारे शत्रुओं को रुलाओ हमें बल दो। इतने जोर
से बजो कि डुद्धषं शत्रुओं को दुःख मिले। दुन्दुभि, जो हमारा अनिष्द
करके आतन्दित होते हें, उन्हें दूर हटाओ। तुम इख की मृष्टिका-सी हो;
इसलिए हमें दृढता दो ।
३१. इन्द्र, हमारी सारी गायों को रोककर हमारे पास ले आओ।
सबके पास घोषणा करने के लिए दुन्दुभि नियत उच्च रब करता हे।
हमारे सेनानी घोड़ों पर चढ़कर इकटूठ हुए हैं। इर, हमारे रथारूढ़ सेनिक
और सेनाय युद्ध में विजयी बे ।
सप्तम अध्याय समाप्त
४८ सूक्त
(अष्टम अध्याय । देवता प्रथम दस ऋकों के अग्नि, ग्यारह से
पन्द्रह तक मरुदूगण, सोलह से उन्नीस तक पूषन, घीस से इकीस
तक प्रश्न और बाईसवं| मन्त्र के पश्न, गग अथवा एथिवी।
ऋषि बृहस्पति के पुत्र शंयु। छन्द बहती, महाबहती, अनुष्टुप्
सतोद्रहती, जगती, ककुप्, उष्णिक् , गायत्री, पुरउष्णिक् ,
अनुष्टुप् आदि हैं ।)
१. स्तोताओ, तुम प्रत्येक यज्ञ में स्तोत्र-द्वारा शक्तिमान् अस्ति की
बार-बार स्तुति करो । हम उन असर, सवं-प्रष्टा ओर सित्र को तरह अनु-
कूल अग्निदेव की प्रशंसा करते हु ।
२. हम शक्ति-पुत्र की प्रशंसा करते हें; क्योंकि वे वस्तुतः हमसे
प्रसन्न हँ । हव्य वहन करनेवाले अग्नि को हम हव्य प्रदान करते ह। वे
संग्राम में हमारे रक्षक और समृद्धि-विधायक हों। बे हमारे पुत्रों को
रक्षा करें ।
७३९ हिन्दी-त्रटग्वेद
३ हे अग्नि, आप ईप्सित फलों के देनेवाले जरारनित, महान और
बीप्ति से विभाषित हैं । हे दीप्ताग्नि, अविड्छि्च तेज से दीप्यसान्
आप अपनी दीष्ति-द्वारा हमें भी प्रकाशित कीजिए ।
४, अग्नि, तुम महान् देवों का यज्ञ किया करते हो; इसलिए हमारे
यज्ञ में सदा देवों का यज्ञ करो। हमारी रक्षा के लिए अपनी बुद्धि और
काय से देवों को हमारे सामने ले आओ । तुम हमें हव्य-रूप अञ्न दो और
ध्वयं इसे स्वीकार करो । |
५, तुम यज्ञ के गर्भ हो, तुम्हें सोम में मिलाने के लिए जल (वस-
तीवरी), अभिषव-पाषाण और अरणि-क्राष्ठ पुष्ट करते हैं । तुम
ऋत्विकों-हारा बल-पुर्वक मथे जाकर पृथ्वी के अत्युन्नत स्थान में (देव-
यजन-देश में) प्रादुर्भूत होओ ।
६. जो अग्नि दीष्ति-द्वारा स्वर्गं और पृथिवी को पूर्ण करते हँ, जो
धुएँ के साथ आकाश में उठते हें, बही दीप्तिमान् और अभीष्ट-वर्षी अग्नि
अँधेरी रात का तम नष्ट करते देखे जाते हें । दोष्तिमान् और अभीष्ट-
बर्षी वें ही अग्नि रात्रियों के ऊपर अधिष्ठान करते हँ ।
७, देव, देवों में कनिष्ठ और प्रदीप्त अग्नि, तुम हमारे भ्राता भारद्वाज-
द्वारा समिध्यमान होकर हमें धन देते हुए निर्मल और प्रबल दीप्ति के
साथ प्रज्वलित होओ । प्रदीष्त अग्नि, तुम प्रज्वलित होओ ।
८. अग्नि, तुस सारे मनुष्यों के गृहपति हो। में तुम्हें सो हेमन्तों
तक प्रज्वलित करता हूँ । तुम मुझे सेकड़ों रक्षाओं-द्वारा पाप से बचाओ,
जो तुम्हारे स्तोताओं को अञ्न देते ह, उन्हें भी बचाओ ।
९. गृहदाता विचित्र अग्नि, तुम हमारे पास रक्षक के साथ धन भेजो;
क्योंकि तुम्हीं सारे धनों के प्रेरक हो। शीघ्र ही हमारी सन्तानों को
प्रतिष्ठित करो ।
१०. अग्नि, समवेत और हिसा-रहित रक्षा के हारा हमारे पुत्र-
पौत्र का पालन करो । हमारे यहाँ से तुम देवों का कोष और मनुष्यों का
बिद्वेष हटाओ ।
गहुन्दी-ऋहग्वेद ॒ ७३७
११. बन्धुगण, नये स्तोत्रों के साथ तुम दूध देनेवाली गाय के पास
आओ। इसके पश्चात् उसे इस प्रकार छुड़ाओ, जिससे उसकी कोई हानि
त होने पावे ।
१२. जो सहिष्णु, स्वाधीनतेजा, मरुतों को अमरण-हेतु पयोरूप अन्न
देती हे, जो वेग मरतों के सुख-साधन में तत्पर है और जो वृष्टि-जल के
साथ सुख वर्षण करके अन्तरिक्ष मागे में घूमती है, उस धेनु के पास
आओ । |
१३. मरुतो, भरद्वाज के लिए विशेष दूध देनेवाळी गाय और सभी
के खाने के लिए यथेष्ट अन्न इन दो सुखों का दोहन करो ।
१४. मरुतो, तुम इन्द्र के महान् कर्मों के अनुष्ठाता हो, वरुण की
तरह बुद्धिमान् हो, अयंमा के समान स्तुति-पात्र हो, बिष्णु के समान
दानशील हो। घच के लिए में तुम्हारी स्तुति करता हें।
१५. सरुदूगण संकड़ों-हजारों तरह के धन हमें एक ही समय
दे। इसके लिए में उच्च शब्दकारी हूँ अप्रतिहत-प्रभाव और पुष्टिकारक
मरुतों के दीप्त बल की स्तुति करता हूँ । वे ही मरुद्गण हमारे पास गूढ़
धन प्रकट करें ओर समस्त धन सुलभ करें । ।
१६. है पुषन् तुम शीघ्र मेरे पास आओ। दीप्तिमान् देव भीषण
आक्रमण करनेवाले शत्रुओं को पीड़ा पहुँचाओ । में भी तुम्हारे कान के
पास आकर गुण-गान करता हूं ।
१७. पूषन् तुम कोओं (सन्तानो) के आश्रय-भूत वनस्पति को (मुझे)
नष्ठ नहीं करना। मेरे तिन्दको को पूर्णतः नष्ट कर दो। जेसे ब्याध
चिड़ियों को फंसाने के लिए जाल फैलाता है, वैसे शत्रु लोग, किसी तरह
भी, मुझे नहीं बाँध सके।
१८. पुषन् दधिपुर्ण और निरिछद्र चर्म की तरह तुम्हारी मित्रता
सदा अविच्छिन्न रहे । ।
१९. पुषन् तुम मनुष्यों को अतिक्रम करके अवस्थित हो। धन में
देवों के बराबर हो। इसलिए संग्राम में हमारी ओर अनुकूल दृष्टि
फा० ४७ |
७३८ हिन्दी-ऋण्वेद
रखना । प्राचीन समय में तुमने झमुष्यों की जसे रक्षा की थी, बेसे ही
इस समय हमारी रक्षा करो।
२०, कम्पनकारी और भलो भाँति स्तुति-पात्र सरुतो, तुम्हारी जो
प्रशस्त बाणी देवों और यजमानों को बाञ्छि घन देती हैं, बही सदय
और सूनृत्त बाणी हमारी पथ-पर्दरशिका बने ।
२१. जिन सरुतों के सारे काय दीप्तिमान् सूर्थ की तरह सहसा आकाश
में व्याप्त होते हं, वे ही मर्दूगण दीप्त, शन्रु-बिजयी, पुजनीय और
शत्रुनाशक बल धारण करते हुँ। शन्नु-वाशक बल सर्वापेक्षा प्रशस्त
होता हँ ।
२२. एक ही बार स्वर्ग उत्पन्न हुआ और एक ही बार पृथिवी । एक
ही बार पृष्णि (पृहिन) या मरुतों की माता गाय से दूध दुहा गया हे ।
इनके समय और कुछ उत्पन्न नहीं हुआ ।
४९ सृक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि भरद्वाज के पुत्र ऋजिश्वा ।
छुन्द् शक्करी और त्रिष्टुप ।)
१. में नये स्तोत्रों के द्वारा देवों ओर स्तोताओं के सुखाभिलाषी
सित्र ओर वरुण की स्तुति करता हँ। अतीब बलो मित्र, वरण और
अग्नि इस यज्ञ में आवें और हमारे स्तोत्र सुने ।
२, जो अग्नि प्रत्येक व्यक्ति के यज्ञ में पुजा-पात्र हे, जो कार्य करके
हंकार नहीं करते, जो स्वर्ग और पृथिबी नामक दो कन्याओं के स्वामी
हुँ, जो स्तोता के पुत्र-भूस शक्ति-पुत्र हुँ ओर जो यज्ञ के प्रबीप्त केतु-रूप
है, में उन्हीं अग्नि का यज्ञ करते के लिए यजसान को उत्तेजित
करता हूं ।
३. दीप्तिसात् सूर्य की थिभिन्न-रूपिणी दो कन्याये (दिन और रात्रि)
हैं। इनमें एक नक्षत्र-समूह और एक सूर्य के द्वारा समुज्ज्यळ हुँ । पर-
हिन्दी-ऋणष्वेद ७३९
स्पर-विरोधी, पृथक् रूप से संचरण-शील, पढबित्रता-विधायक और
हमारे स्तुति-भाजत ये दोनों हमारा स्तोत्र सुनकर प्रसन्न हों।
४. हमारी महती स्तुवि सहाधन-सस्पञ्च, अखिल छोकों के
वन्दनीय और रथ के पुरक वायु के सामने उपस्थित हों। हे सम्यकू
यज्ञ-पात्र, समुज्ज्यल रथ पर आख्ढु, जुते हुए अइवो के अधिपति और
दुरदर्शी भश्य् , तुम भेघाबी स्थोता को धन के द्वारा संबर्द्धित करो।
५. जो रथ सोचने के साथ अइव से जुत जाता है, अश्विनीकुमारों
का बही समुज्ज्बल रथ दीप्ति-द्वारा मेरी देह को आच्छादित करे। नेता
अश्विनीकुमारों, रथ पर चढ़कर, अपने स्तोता का मनोरथ पुर्ण करने
के लिए उसके घर जाना।
६. वर्षा करनेवाले पच्य और बायु, अन्तरिक्ष से ठुम प्राप्त जल
भेजो । ज्ञान-सम्पक्न, स्तोत्र सुननेवाले ओर संसार-स्थापक सयतो,
जिसके स्तोत्र से तुम प्रसन्न होते हो, उसके सारे प्राणियों को समृद्ध
करते हो ।
७, पविश्नता-कारिणी, ममोहरा, विचित्र-गसना और बीर-पत्यौ
सरस्वती, हमारे यागादि कर्मों का निर्वाह करें। वे देव-पह्नियों के साथ
प्रसञ्च होकर स्तोता को छब-रहित, शीत ओर वायु के लिए दुद्ध॑ंष गृह
और सुख प्रदान करें ।
८. स्तोता, वाञ्छित फल के वह में आकर सारे मार्ग के अधि-
पति पुजनीय पूषा के पास, स्तोत्र के साथ, उपस्थित होओ । बे हमें
सोचे की सींगयाली गायें दे । पवा हमारे सारे कार्य पूर्ण करे ।
९, देवों को बुलानेबाले और दीप्तिमान् अग्नि त्वष्ठा का यक्ष करें।
त्वष्टा सबके आदि विभाजक, प्रसिद्ध अञ्नदाता, शोभन-पाणि, दान-
झळ महान् गुहस्थों के यजनीय और अनायास आह्वान के योग्य हैँ ।
१०. स्तोतए दिन में इन सारे स्तोत्रों के द्वारा भुवद्न-पाजक रद्र
को बस करो और रायि सें उद्र फी संवद्धया करो ।
७४० हिन्दी-ऋग्वेद
११. नित्य तरुण, ज्ञान-सम्पञ्च और पुजनीय मरुद्गण, जहाँ यज-
मान स्तोत्र करता हँ, वहाँ आओ । नेताओ, तुम इसी प्रकार समृद्ध
होकर और चलनेबाळी रहिमयों की तरह व्याप्त होकर वृष्टि-द्वारा विरल
पादप वनों को तृप्त करो ।
१२. जसे पशु-पालक गोयूथ को शीघ परिचालित करता है, बैसे
ही पराक्रान्त, बली और द्रुतगामी मरुतों के पास शी घ स्तोत्र प्रेरित करो।
जैसे अन्तरिक्ष नक्षत्र-मण्डल-द्वारा संह्लिष्ट है, वैसे ही वे ही मरुद्गण
मेघाबी स्तोतः के सुश्राव्य स्तोत्न-द्वारा अपनी देह को संदिलष्ट करें ।
१३. जिन विष्णु ने उपद्रुत मनु के लिए त्रिपाद पराक्रम के द्वारा
पार्थिव लोकों को नाप डाला था, वही तुम्हारे द्वारा प्रदत्त गृह में निवास
करे ओर हम धन, देह ओर पुत्र-द्वारा अनुभव करें ।
१४. हमारे मन्त्रो-द्वारा स्तूयमान अहिर्बुध्न, पर्वत और सविता हमें
जल के साथ अन्न दें। दानशीरं विइवदेवगण हमें ओषधि के साथ वही
अन्न दें । सुबुद्धिदेव भग हमें घन के लिए प्रेरित करे । म
१५. विश्वदेवगण, तुम हमें रथ-युक्त और असंख्य अनुचरों के
साथ अनेक पुत्रों से युक्त यज्ञ का साधन-भूत गृह और अक्षय्य अन्न प्रदान
करो, जिसके द्वारा हम स्परद्धा करके शत्रुओं और देवशून्य सेन्यों को
पराजित करेंगे और देव-भक्तों को आश्रय प्रदान करने सें समर्थ होंगे।
५० सूक्त
(पञ्चम अन्नुवाक। देवता नाना । ऋषि ऋजिश्वा । छन्द त्रिष्टुप् |)
१, देवो, में सुख के लिए स्तोत्र के साथ अदिति, वरुण, मित्र,
अग्नि, झत्रुहन्ता और सेव्य, अर्यमा, सविता, भग और समस्त रक्षक
देवों को बुखाते हुँ।
९. दीय्तिसम्पन्न सूर्य, दक्ष से सम्भूत झोभन-दीप्तिशाली देवों को
हमारे अनुकूल करो । द्विजन्सा (स्वर्ग और पृथिवी से उत्पन्न) देवगण
पश-प्रिय, सत्यवादी, धन-सम्पन्न, यागाह और अग्नि-जिह्व होते हैँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ७४१
३. स्वर्गे और पृथ्वी तुम अधिक बल दो। व्वर्ग और पृथ्वी
हमारी स्वतन्त्रता के लिए विशाल गृह हमें दो। ऐसा उपाय करो कि
हमारे पास अतुल एइवये हो जाय । सदय देव-द्वय, हमारे घर से पाप को
हुडाओ ।
४ गृह्-दाता और अजेय रुद्र पुत्रगण इस समय बुलाये जाकर हमारे
पास आव । य महान् ओर क्रुद्ध क्लेश के समय हमें सहायता देगे; इस
लिए हम मरुतों को बुलाते हैं ।
५. जिल सरतों के साथ दीप्तिमान् स्वगे और पृथ्वी संहिलष्ट हुँ,
जिन मरुतों की सेवा, धन के द्वारा, स्तोताओं को समद्ध करनेवाले
पुषा करते हँ, ऐसे तुम, मरुते, जिस समय हमारा आह्वान सुनकर आते
हो, उस समय तुम्हारे विभिन्न मार्गों में अवस्थित प्राणी काँप जाते हुँ ।
६ स्तोता, अभिनव स्तुति-द्ठारा स्तुति-पात्र वीर इन्द्र की स्तुति
करो । इस प्रकार स्तुति किये जाने पर इन्द्र हमारा आह्वान सुनें; हमें
प्रभृत अन्न दे ।
७. वारि-राशि तुम मानव-हितेषी हो; इसलिए हमारे पुत्र-पौत्रों कै
लिए अनिष्ट-घातक और रक्षक अन्न प्रदान करो। तुम सारे उपद्रवों
को शान्त और विब्ुरितत करो । तुम माताओं की अपेक्षा श्रेष्ठ चिकित्सक
हो। तुम स्थावर-जंगम-रूप संसार के उत्पादक हो ।
८. जो उषा-मुख की तरह यजमान के पास अभिलषित धन प्रकट
करते हे, वे ही रक्षक, हिरण्य-पाणि और पूजनीय सविता हमारे पास
आवं ।
९. झक्ति-पुत्र अग्नि, हमारे यज्ञ में आज देवों को ले आओ। मै
सदा तुम्हारी उदारता का अनुभव करूँ। देव, तुम्हारी रक्षा के कारण
में शोभन पुत्र-पौत्र आदि से युक्त बमं ।
१०. हे प्राज्ञ अझ्विनीकुमारो, तुम शीघ्र परिचर्यावाले मेरे स्तोत्र
के पास आओ । जसे अन्धकार से तुमने अत्रि ऋषि को छुड़ाया था, वैसे
ही हमें भी छुड़ाओ। नतृद्वय तुम हमें युद्ध-दुःख से बचाओ ।
७४२ हहद ३, ३
११. देवो, तुभ हमें दीप्सि-एश्ट, बलकारी, पुत्रादि-सण्पच्च और
सुप्रसिद्ध घन प्रदान करो । स्वर्गीय (आदित्यगण), पार्थिव (वसुगण),
गोजास (पृश्नि-पुत्र अरुद्गण) और जलजात (इद्रगण), हमारे सनो-
रथ को पूर्ण कर सुखी करो।
१२. इद्र, सरस्वती, विष्णु, गाय, ऽभुक्षा, वाज और विधाता-
समान-रूप से प्रसन्न होकर हमें सुखी करें । पर्जम्य ओर वायु हमारे अञ्न
को बढ़ायें ।
१३. प्रसिद्ठ देव सथिता, भग और वारि-राशि के पोत्र दानशील
अग्नि हमारी रक्षा करे। देवों और देय-स्थ्रियों के साथ समान-रूप से
प्रसन्न हुए त्वष्टा, देवों के साथ समान-प्रसन्न स्वगं तथा समुद्रों के साथ
समान-प्रसन्न पूथिबी हमारी रक्षा कर ।
१४. अहिर्बुध्न, अज-एक-पाद, पृथिवी ओर समुद हमारे स्तोत्र सुनें।
यश के समृद्धिकर्ता, हमारे द्वारा, आहूत और स्तुत, मन्त-प्रतिपाद्य
ओर मेघावी ऋषियों-द्ाश स्तूयमान बिइवदेवगण हमारी रक्षा करें ।
१५. भरट्वाज-गोत्रीय मेरे पुग्न इसी प्रकार के पुजा-साएक स्तोत्र-
द्वारा देखें की स्तुति करते हँ । यजाह देयो, तुम हव्य-दवारा हुत, गुहदाता
और अजेय हो । तुम देव-पत्नियों के साथ नियत पुजित होते हो ।
५१ सुत्त
(देवता नाना। ऋषि ऋजिश्वा | छन्द उष्णिक , अनुष्टुप
. ओर त्रिष्ठुप)
१. सूये की प्रसिद्ध, प्रकाशक, बिस्तृत तथा मित्र और वरुण की प्रिय,
अप्रतिहत, निर्मल और सनोहर दीप्ति प्रकाशित होकर अन्तरिक्ष में
भूषण की तरह शोभा पा रही है ।
२. जो तीतो ज्ञातव्य भवनों को जानते हँ, जो ज्ञानशाली हे और
दबों के दुर्जय जन्म को जानते हैं, वही सूर्य मनुष्यों के सस् और असत्
ह् नकद ७४ ३
कमो का परिदर्शन करते हें और स्वामी होकर मानों के अनुकूल सनो-
रथ को पुणं करते हें ।
३. में यज्ञ-रक्षक और शोभन-जन्मा अविति, भिन्न, वरुण, अर्थमा
और भग की स्तुति करता हूँ । जिनके कार्य अप्रतिहताह, जो धसशाली
और संसार की पवित्र करमेयाली हें, उनके यश का में कीर्तन करता हूं ।
४. हे हिसकों को फॅकनेयाले, साधुओं के पालक, अबाव-प्रभाव, शक्ति-
मान् आधीइवर, शोभद-गह-दाला, नित्य तरुण, अतीव ए३वर्षशाली
स्वर्ग के रेता अदिवि-पुच्रो) में अदिति की शरण लेता हूं; क्य'कि वह
मेरी परियर्या चाहती है
५. हे पिता स्वर्ग, साता पृथिवी, आता अग्नि और बसुओ, तुम हमें
सुखी करो । हे अदिति के पुत्रो और अदिति, इकदठे होकर तुम हमें
अधिक सुख वो ।
६. यागयोग्य देवो, तुम हमें बुक और बुकी (अरण्य-कुक्कुर और
कुक्करी अथवा दस्यु और उसकी पत्नी) के हाथ में नहीं जाने देना ।
तुम हमारी देह, बल ओर वाकय के संचालक हो ।
७. देवो, हम तुम्हारे ही हें । हम दूसरे के पापी क्लेश का अनुभव
न करें । बसुओ, जिसका तुम निषेध करते हो, उसका अनुष्ठान हम स
करे । विइवदेवगण, तुम विश्व के अधिपति हो; इसलिए ऐसा उपाय
करो कि शत्रु अपनी देह का अनिष्ट कर डाले ।
८. नमस्कार सबसे बड़ी वस्तु हे; इसलिए में नमस्कार करता
हूँ । नमस्कार ही स्वर्ग और पृथिवी को धारण करता हुँ; इसलिए में
देवों को नमस्कार करता छुँ । देवता लोग नमस्कार के बशीभूत हें;
इसलिए में नसस्कार-द्वारा किये हुए पापों का प्रायश्बित्त करता हूँ ।
९. यज्ञ-पाल देवो, में नमस्कार के साथ तुम लोगों के पाल्न प्रणत
हो रहा हूँ; क्योंकि तुम यज्ञ के नेता, विशुद्ध बल से युक्त, देव-यजन-
गृह के निवासी, अजेय, बहुदर्शी, अधिनायक और महान् हो ।
७४४ हिन्दी-ऋग्वेद
१०. वे अच्छी तरह से दीप्ति-सम्पन्न हुँ। वे ही हमारै सारे पापों
का नाश करें। वरण, मित्र और अग्नि शोभन बलवाले, सत्यकर्मा और
स्तोत्र-निरत व्यक्तियों के एकान्त पक्षपाती हें ।
११. इन्द्र, पृथिवी, पुषा, भग, अदिति और पञ्चजन (देव, गन्धर्च
आदि) हमारी बास-भूमि को वादित करें। वे हमारे सुखदाता, अन्नदाता,
सत्पथ-प्रदर्शक, शोभन रक्षा करनेवाले और आश्रयदाता हों ।
१२. देवो, भरद्वाज-गोत्रीय यह स्तोता शीघ्र ही एक स्वर्गीय निवास
(वा दीप्तिमान् गृह) प्राप्त करे; क्योंकि वह तुम्हारी कृषा चाहता हे ।
हृव्यदाता ऋषि, अन्य यजमानों के साथ, धनार्थी होकर देवों की स्तुति
करते हेँ।
१३. अग्नि, तुम कुटिल, पापी और दुष्ट शन्नु को दूर करो। हे साधुओं
के रक्षक, हमें सुख दो ।
१४. हे सोम, हमारे ये अभिषव पोषण तुम्हारी मित्रता चाहते हें ।
तुम भोअन-निपुण पणि का संहार करो; क्योंकि बह वास्तविक दस्यू है।
१५. इन्द्रादि देवो, तुम दान-शील और दीप्ति-शाली हो । मार्ग में
हुम हमारे रक्षक और सुख-दाता बनो ।
१६. हम उस पवित्र और सरल मार्ग में आगये हे, जिसमें जाने पर
शत्रु का परिहार और धन का लाभ होता है ॥
५२ सूक्त
(देवता नाना । ऋषि ऋजिश्वा । छन्द त्रिष्टुप्, गायत्री ओर जगती |)
१. सें इरे (क्रजिशवा के यज्ञ को) स्वर्गीय अथवा देवों के उपयुक्त
नहीं समझता । यह मेरे द्वारा अनुष्ठित यज्ञ अथवा दुसरों द्वारा सम्पा-
दित यज्ञ की तुलना करेगा, यह भी नहीं समझता । इसलिए सारे महान्
वर्षत उसको (अतियाज ऋषि को) पीड़ित करें। अतियाज फे ऋत्विक्
भी अत्यन्त दीनता प्राप्त करें । |
हिन्दी-ऋग्वेद ७४५
२. मरुतो, जो व्यक्ति तुमको हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ समझता है और
मेरे किये स्तोत्र की निन्दा करता हँ, सारी शक्तियाँ उसका अनिष्टकारिणी
बनें और स्वर्ग उस ब्राह्मण-देषी को दग्ध करे । हा
३. सोम, लोग तुम्हें क्यों सन्त्र-रक्षक कहते हें? और, क्यों तुम्हें
निन्दा से हमें उद्धार करनेवःला बताया जाता है ? शत्रुओं द्वारा हमारे
निन्दित होने पर तुस क्यों निरपेक्ष भाव से देखते रहते हो ? ब्राह्मण-
विद्देषी के प्रति अपना सन्तापक आयध फेंको
४. आविर्भूत उषायें भेरी रक्षा करें । सारी स्फीत नदियाँ मेरी रक्षा
करे । निइचर पर्वत मेरी रक्षा करें । देव-यजन-काल में यज्ञ में
उपस्थित पितर ओर देवता मेरी रक्षा करें ।
५. हम सदा स्वतन्त्र-चित्त हों । हम सदा उदयोन्मुख सूर्य के दशन
करें । देवों के पास हमारा हव्य ढोनेवाले यज्ञ के अधिष्ठाता और महे-
इवर्यशाली अग्नि हमें उक्त प्रकार से बनावे ।
६. इन्द्र और वारि-राशि के द्वारा स्फीत सरस्वती नदी, रक्षा कै
साथ, हमारे पास आवें । ओषधियों के साथ पर्जन्य हमारे लिए सुख-दाता
हों । पिता की तरह अग्नि अनायास स्तुत्य और आह्वान-योग्य हों ।
७. विइवदेवगण, आओ, मेरे आह्वान को सुनो और बिछे हुए कुशों
पर बठो ।
८. देवो, जो व्यक्ति घृत में मिले हव्य के दवारा तुम्हारी सेवा करता
है, उसके पास तुम सब आओ । |
९. जो अमर के पुत्र हें, वही विइवदेवगण हमारा स्तोत्र सुनें और
हमें सुख दें ।
१०. यज्ञ के समृद्धिकारी और यथासमय स्तोत्र-अवणकारी विहवः
देवगण, अच्छी तरह से अपने-अपने उपयुक्त दुग्ध ग्रहण करो ।
११. मरुतों के साथ इन्द्र, त्वष्टा के साथ मित्र और अयसा हमारे
स्तोत्र और समस्त हव्य को ग्रहण कर ।
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७४ ८ बर घए
१२. देवों को बुलानेवाले अग्नि, देवों में जो महायोण्य हे, उन्हें
झानकर उनकी मर्यादा के अनुसार हमारी इस थज्ञ-क्रिया का सम्पादन
करो ।
१३. बिङवदेवगण, तुम अन्तरिक्ष, भूलोक बा स्वर्ग में रहते हो ।
हमारा आह्वान सुनो । अग्मि-रुप जिल्ला-हारा या किसी सी प्रकार से
हमारे इस यज्ञ को ग्रहण करो । सब लोग इन बिछे कुशों पर बैठकर
ओर सीम-रस पान कर उल्लसित होओ ।
१४. यज्ञाहे विइवदेवगण, स्वर्ग, पूथिजी और जल-राशि के पौत्र
अग्नि हसारे स्तोत्र को सुर्ने । देवो, जो स्तोत्र तुम्हें अग्राह्य है, उसका
हम उच्चारण न करे । हम तुम्हारे निकटस्थ होकर और सुख प्राप्त कर
उल्लसित हों ।
१५. पृथिवी, स्वयं अथवा अन्तरिक्ष में प्रादुर्भूत, महान् ओर संहारक
शक्ति से युक्त देवगण दिन-रात हमें और हमारी सन्सलियों को अन्न दें ।
१६. अग्नि और पर्जन्य, हमारे यज्ञ-कार्य की रक्षा करो । तुम अना-
यास आह्वान के योग्य हो; इसलिए इस यज्ञ में हमारा स्तोत्र सुनो ।
तुमं से एक व्यक्ति अञ्न देते हें और दूसरे गर्भ उत्पन्न करते हैं । इस-
लिए तुम हमें सन्ति के साथ अझ्न दो ।
१७. पूजनीय विहबदेवगज, आज हमारे इस यज्ञ में, कुश बिछने पर,
अग्नि प्रज्वलित होने पर और मेरे स्तोओरोच्चारण और नमस्कार के साथ
तुम्हारी सेवा करने पर हृव्य-हारा तुम तृप्ति प्राप्त करो ।
५३ सूक्त
(देवता पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द॒ अनुष्टुप और गायत्री |)
१. मार्ग-पति पूषन्, कर्मानुष्ठान और अन्न-लास के लिए रण-स्थल
में रथ की तरह हम तुम्हें अपने अभिमुख करले हूं ।
२. पषन्, हमारे यहाँ सान्य-हितेषी, धन-दान सें मुक्तहस्त् और
बिशुद्ध दादवाला एक गृहस्थ भेजो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ७४७
३. दीप्ति-सम्पन्न पुषन्; कृपय को दान देने के लिए उत्तेजित करो
और उसके हृदय को कोमल करो ।
४. प्रचण्ड-बलशाली पुषन्, अन्न-लाभ के लिए सारे पथ परिष्कृत
करो । विध्नकारी चोर आदि का संहार करो ओर हमारे अनुष्ठानों को
सफल करो ।
५. ज्ञानी पुषन्, सुक्ष्म लोहाग्रदण्ड (आरा) से पणियों या लुब्धको
का हृदय विद्ध करो और उन्हें हमारे वश में करो ।
६. पुषन्, सुक्ष्म लोहाग्रदण्ड (प्रतोद या आरा) से पणि या चोर
का हृदय चीरो। उसके हृदय में सद्भावन। भरो ओर उसे मेरे वश में
करो ।
७. ज्ञानी पुषन्, घोरों के हुदयों को रेखाङ्झित करो । उनके ह॒ृदयों
की कठोरता को भली भाँति कम करो और उन्हें हमारे वश में करो ।
८. दीप्ति-सम्पन्न पुषन्, तुम अञ्न-प्रेरक प्रतोद धारण करो और
उसके द्वारा सारे लोभी व्यक्तियों का हृदय रेखाङ्कित करो एवम् उसकी
कठोरता झिथिल करो ।
९. दीप्तिश्ञाली पूषन्, तुम जिस अस्त्र से धेनुं और पशुओं को
परिचालित करते हो, तुम्हारे उसी अस्त्र से हम उपकार की प्रार्थना
करते हुँ । |
१०. पुषन्, हमारे उपभोग के लिए हमारे याग-कर्म को यो, अइव,
अन्न ओर परिचारकों का उत्पादन करो ।
५४ सूक्त
(देवता पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द गायत्री |)
१. पूषन्, तुम हमें एक ऐसे विलक्षण व्यक्ति से मिलाओ, जो हमें
वस्तुतः पथ-प्रदर्शन करावेगा और जो हमारे अपहृत द्रव्य को मिला देगा ।
२. हम पूषा की कृपा से ऐसे व्यक्ति से मिले, जो सारे गृह में दिखा-
देगा और कहेगा कि ये ही तुम्हारे खोये हुए पशु हें।
७४८ हिन्दी-ऋग्वेद
३. पूषा का आयुध-चक्र विनष्ट नहीं होता । इस चक्र का कोश हीन
नहीं होता ओर इसकी धार कुण्ठित नहीं होती ।
४. जो व्यक्ति हव्य-द्वारा पुषा की सेवा करता है, उसका पुषा जरा
भी अपकार नहीं करते और प्रधानतः वही व्यक्ति धन पाता भी है।
५. रक्षा के लिए हमारी गायों का पुषा अनुसरण करें। वे हमारे
अइवों की रक्षा करें। वे हमें अन्न दें ।
६. पूषन्, रक्षा के लिए सोस का अभिषव करनेवाले यजमान की
गायों का अनुसरण करो और स्तोत्र उच्चारण करनेवाली हमारी गायों
का भी अनुसरण करो ।
७. पुषन्, हमारा गोधन नष्ट न करने पावे। यह व्याप्रादि-द्वारा
निहित न होने पावे । यह कुएँ में न गिरे । इसलिए तुम अहिसित धेनओं
कै साथ सायंकाल आओ ।
८, हमारे स्तोत्रों को सुननेवाले, दारिद्रय-नाहक, अविनष्ट-धन और
सारे संसार के अधिपति पुषा के पास हम धन की प्रार्थना करते हुँ।
९. पुषन्, जब तक हम तुम्हारी उपासना में लगे रहते हैं, तब तक
हम कभी मारे न जायें । इस समय हम तुम्हारी स्तुति करके बैसे ही हों ।
१०, पुषा अपने दाहिने हाथ से हमारे गोधन को विपथगामी होने
से बचावें। बे हमारे नष्ट गोधन को फिर ले आवें ।
५५ सुक्त
(देवता पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द गायत्री ।)
१. हे दीप्ति-सम्पन्न प्रजापतिपुत्र पुषन्, तुम्हारा स्तोता मेरे पास
आवे । हुम दोनों मिलें । तुम हमारे यज्ञ के नेता बनो ।
२. हम अपने रथि-श्रेष्ठ, चूडावान् (कपर्दी), अतुल एश्वर्य के अधि-
पति और अपने मित्र पुषा के पास घन की प्रार्थना करते है ।
३. दीप्ति-शाली पूषन् तुम धन के प्रवाह हो, धन की राशि हो और
छाग ही तुम्हारे आशव का कार्य करता हुँ । तुम प्रत्येक स्तोता के मित्र हो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ७४९
४. आज हम उन्हीं छाग वाहन और अन्नयुक्त सूर्यं वा पषा की स्तुति
करते हैं, जिन्हें लोग भगिनी या उषा का प्रणयी अथवा जार कहते हैं।
५. रात्रि-रूपिणी माता के पति पुषा की हम स्तुति करते हें। अपनी
भगिनी (उषा) के जार पूषा (सूर्य) हमारा स्तोत्र सुने । इन्द्र के सहो-
दर पुषा हमारे मित्र हों ।
६. रथ मं नियुक्त छागगण स्तोताओं के आश्रय पूषा का रथ ढोते
हुए उन्हें यहाँ ले आवें । |
५६ सुक्त
(देवता पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द गायत्री और अनुष्टुप् |)
१. जो पुषा को घी-सिले जो के सत्त का भोगी कहकर उनकी स्तुति
करता हें, उसे अन्य देवों की स्तुति नहीं करनी पड़ती ।
२. रथि-श्रेष्ठ, साधुओं के रक्षक ओर सुप्रसिद्ध देव इन्द्र अपने मित्र
पुषा की सहायता से शत्रु-संहार करते हें।
३. चालक और रथि-श्रेष्ठ पुष! सूर्य के हिरणमय रथ का चक्र नियत
परिचालित करते हैं। |
४. हे बहुलोक-वन्दनीय, मनोहर-मरति ओर ज्ञानी पुषन्, रोज हस
जिस धन को लक्ष्य करके तुम्हारी स्तुति करते हैं, उसी बांच्छित धन को
हमें प्रदान करो ।
५. गोकामी इन समस्त मनुष्यों को गो-लाभ कराओ। पूषन्, तुमने
दूर देश में भी प्रसिद्धि पाई हे ।
६. पूषन्, हम आज और कल के यज्ञों के सम्पादन के लिए तुम्हारी
उसी रक्षा को चाहते हेँ। वह रक्षा पाप से दुर ओर धन के पास है ।
५७ सूक्त
(देवता इन्द्र और पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द गायत्री )
१. हे इन्द्र और पुषन्, अपने मंगल के लिए आज हुम तुम्हारी मित्रता
और अन्न की प्राप्ति के लिए तुम्हें बुलाते हुँ ।
७५० हिन्दी-ऋणग्वेद
२. तुसमें से एक (इन्द्र) पात्र-स्थिव अभियुत सोम का पान करने
के लिए जाते हें और दूसरे (पुषा) जो का सत् खाने की इच्छा करते
हैँ
३. एक के वाहन छाग हें ओर दूसरे के वाहन स्थूल-काय दो अश्व
हँ । दूसरे (इन्द्र) इन्हीं दोनों अइवों के साथ वृत्रासुर का संहार करते है ।
` ४, जिस समय अतिशय दर्षक इन्द्र सहावृष्टि करते हें उस समय
इनके सहायक पुषा होते हें ।
५. हम वृक्ष की सुदृढ़ शाखा की तरह पूषा ओर इन्द्र की कृपा-बृद्धि
फे ऊपर निर्भर रहते हैं ।
६. जैसे सारथि रश्मि (लगाम) खींचता है, वैसे ही हम भी, अपने
प्रहूष्ट कल्याण के लिए, पुषा और इख को अपने पास खींचते हुँ ।
५८ सुत्त
(देवता पूषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द जगती ओर त्रिष्टुप् |)
१. पुषन्, तुम्हारा यह रूप (दिन) शुक्लवर्ण है और अन्य रूप (रात्रि)
केवल यजनीय हे । इस प्रकार दित और रात्रि के रूप विभिन्न प्रकार के
हैं। तुम सूयं की तरह प्रकाशमान हो; क्योंकि तुम अभी दाता हो और
सब प्रकार के ज्ञान धारण करते हो।- इस समय तुम्हारा कल्याणवाही
दान प्रकाशित हो ।
२. जो छाग-वाहन और पश-पालक हें, जिनका गह अझ से परिपुर्ण
है, जो स्तोताओं के प्रीतिदाता हुँ, जो अखिल भुदतों के ऊपर स्थापित |
हें, वही देव (पुषा) सूर्यरूप से सारे प्राणियों को प्रकाशित करके ओर
अपने हाथ से आरा उठाकर नभोसण्डल में जाते हे ।
३. पूषन् तुम्हारी जो सारी हिरणमयी नोकायें समुद्र-मध्यस्थित
अन्तरिक्ष में चलती हे, उनके द्वारा तुम सूर्य फा दूत-कार्य करते हो ।
तुम हृव्यरूप अन्न चाहते हो । स्तोता लोग तुम्हें स्वेच्छा से दिये पशु
आदि के द्वारा बशीभत करते हे ।
हिन्दी-ऋग्येद ७५१
४. पूषा स्वगं और पृथिवी के शोभन बन्धु हुँ, अन्न के अधिपति हुँ,
ऐह्थर्यशाली हुँ, सनोशुर-मर्ति हे। वे बलशाली, स्वेच्छा से दिये पश्न
आदि के द्वारा प्रस्ता के योग्य और शोभन गमन-कर्ता हु । उन्हें देवों
ते सूर्य की स्त्री के पास भेजा था। |
५९ सक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि । ऋषि भरद्वाज । छन्द॒ अनुष्टुप
ओर बृहती ।)
१. इन्द्र और अग्नि, तुमने जो वीरता प्रकट की हें, उसी वीरता का
बखान हम, सोमरस के अभिषुत होने पर, बड़े आग्रह के साथ करते हैं।
देवद्वेष्टा असुर तुम्हारे द्वारा मारे गये हे ओर तुम लोग अक्षत हो ।
२. इन्द्र ओर अग्नि, तुम लोगों को जो जन्स-साहात्म्य प्रतिपादित
होता हँ, वह सब यथार्थ ओर अतीव प्रशस्य हे । तुम दोनों के एक ही
पिता हें । तुम यमज भाई हो ओर तुम्हारी साता सर्वत्र विद्यमान हैं ।
३. इन्द्र और अग्नि, जैसे दृतगामी दोनों अश्व अक्षणीय घास की
ओर जाते हे, तुस भो उसी तरह, सोमरस के अभिषुत होने पर, एक
साय जाते हो । अपनी रक्षा के लिए आज हम बञ्चधर और दानादि
गुण से युक्त इन्द्र और अग्नि को इस यज्ञ में बुळाते ह ।
४. यज्ञ के समृद्धिदाता इन्द्र ओर अग्नि, तुम्हारा स्तोत्र प्रसिद्ध है ।
जो व्यक्ति सोमरस के अधिषुत होने पर प्रेम-रहित स्तोत्र द्वारा, कुत्सित
झप से, तुम्हारी स्तुति करता हे, उसका दिया सोम तुम नहीं छूते।
५. दीप्ति-सम्पन्न इस और अण्नि, जिस समय लुममें से सुर्यात्मक
इन्द्र ताना प्रकार का गमन करनेवाले अंशवो को जोतकर, अग्नि के
साथ एक रथ पर चढ़कर, जाते हें, उस समय कोन मनुष्य तुम्हारे इस
कार्य का विचार करेगा या जानेगा ? (कोई भी नहीं)
६. हें इन्द्र और अग्नि, पाद-रहित यही उषा प्राणियों के शिरोदेश
को उत्तेजित करके और उनकी जिह्वाओं से उच्च शब्द कराकर
७५२ “हुन्दी-ऋग्वेद
' वादसम्पन्च और निद्रित जीवों की अभिमुख वत्तिमी हो रही हें और
इसी प्रकार तीस पद (मुहत्ते) अतिक्रम करती हँ ।
७. इन्द्र और अग्नि, योद्धा लोग दोनों हाथों से धनुष फैलाते हैं।
इस महासंग्राम सं, गोओं के अनुसन्धान के समय, हमें नहीं छोड़ना ।
८. इन्द्र और आग्नि, हनन-परायण और आक्रमण-कर्ता शत्र हमें
पीड़ित कर रहे हं । उन्हें तुम दूर करो ओर उन्हें सुर्यन्दशन से भी
वञ्चित करो (विनष्ट करो) ।
९, इन्द्र ओर अश्नि, तुम लोग दिव्य और पार्थिब--सारे धनों के
अधिपति हो; इसलिए इस यज्ञ में हमें जीवन-पोषक सारे धन दो ।
१०. स्तोत्र-द्वारा आकर्षशीय इन्द्र और अग्नि, हमारे इस सोमरस
का पान करने के लिए आओ; क्योंकि तुम लोग स्तोत्रों और उपासनाओं
से युक्त आह्वान सुनते हो ।
६० सूक्त
(देवता इन्द्र और अग्नि ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्ठुप् , गायत्री,
बृहती और अनुष्टुप् ।)
१. जो विशाल धन के स्वामी हें, जो बलात् शत्रुहन्ता हें और जो
अन्नाभिलाषी इन्द्र ओर अग्नि की सेवा करते हे, बे शत्र-संहार और
अञ्च-लाभ करते हें । |
२. इन्द्र ओर अग्नि, तुमने अपहूत धेनुओं, वारि-राझि, सुर्यं और
उषा के लिए युद्ध किया था । इन्द्र, तुमने दिशाओं, सूर्य, उषाओं, विचित्र
जल ओर गौओ को संसार के साथ योजित किया है । हे अश्वो के अधि-
पति अग्नि, तुमने भी एसे कार्य किये हें ।
३. है वृत्र-हन्ता इन्द्र ओर अग्नि, तुम हमारे हव्याच-द्वारा परिपृष्ट
होने के लिए शत्रु-माशक बळ के साथ हमारे सामने आओ । इन्द्र और
अग्नि, तुम लग अनिन्य ओर अत्युत्कृष्ट घन के साथ हमारे पास आचि-
भूत होओ ।
हिन्दी-ऋण्वेद ७५३
४. प्राचीन समय में ऋषियों-दारा जिनके सारे वीर-कार्य कीत्तित
हुए हे, में उन्हीं इन्द्र ओर अग्नि को बुलाता हुँ । वे स्तोताओं की हिसा
नहीं करते ।
५. हम प्रचण्ड-बलशाली, शत्रृहन्ता इन्द्र और अग्नि को बुलाते हँ।
बे हमें एसे युद्ध में कृतकार्यं करके सुखी बचाबें।
६. साधुओं के रक्षक इन्द्र और अग्नि, घर्मकों और अधामिकों-
द्वारा कृत समस्त उपद्रवो का निवारण करते हें। उन्होंने सारे विद्वेषियों
का संहार किया हुँ ।
७. इन्द्र और अग्नि, ये स्तोता तुम्हारी स्तुति करते हे। हे सुखदाता
इन्र और अग्नि, तुम इस अभिषुत सोम को पियो ।
८. नेता इन्द्र और अग्नि, बहु-लोग-वाङछनीय और हव्यदाता के
लिए उत्पन्न जो तुम्हारे घोडे है, उन सब पर चढ़कर आओ ।
९. नेता इन्द्र और अग्नि, इस सवन में अभिषुत सोमरस का पान
करने के लिए आओ । |
१०. स्तोता, जो अग्नि अपनी शिखा-द्वारा समस्त वनों को ढक लेते
हें और ज्वाला-रूप जिह्वाद्वारा उन्हें काले कर देते है, तुम उन्हीं अग्नि
की स्तुति करो ।
११. जो मनुष्य प्रज्वलित अग्नि मं इन्द्र के लिए सुखकर हव्य प्रदान
करते हैं, इन्द्र उन्हीं ब्यक्ति के दीप्ति-सम्पञ्च अन्न के लिए कल्याणकर
वारि-वर्षण करते हं ।
१२. इन्द्र और आग्नि, हमें बलकर अन्न दो ओर हमारे हव्य को _
बलवान् करने के लिए हमें वेगवान् अइव दो ।
१३. हे इन्द्र और अग्नि, होम-द्वारा तुम्हें अनुकूल करने के लिए से
तुम दोनों को बुलाता हूँ । हव्य-द्वारा तुरत तृप्ति करने के लिए में तुम
दोनों को बुलाता हूं । तुम दोनों अन्न और धन को देनेवाले हो; हैस-
लिए में अन्न-लाभ के लिए दोनों को बुलाता हूं ।
फ[० ४८
७५४ हिन्दी-ऋणग्वेद
१४. इन्द्र ओर अग्नि, तुम गोओं, अश्वो और बिपुल घन के साथ
हमारे सामने आओ । हम मित्रता के लिए सित्रभूत, दानादि गुणों से
युक्त और सुख-प्रदाता इन्द्र और अग्नि का आह्वान करते हें।
१५. इन्द्र और अग्नि, तुम सोस का अभिषव करनेवाले यजमान
का आह्वान सुनो । हव्य की इच्छा करो, आओ ओर मधुर सोमरस का
पान करो ।
६१ सूक्त
(देवता सरस्वती । ऋषि भरद्वाज । छन्द जगती त्रिष्टुप्
ओर गायत्री ।)
१. इन्हीं सरस्वती देवी ने हुच्यदाता बध्यश्व को वेगवान् तथा ऋण-
मोचक दिवोदास नास का एक पुत्र दिया है । उन्होंने बहुल आत्म-तपंक
तथा दान-विमुख पणि का संस्कार किया । सरस्वति, तुम्हारे ये दान बहुत
महान् हैं ।
२. ये सरस्वती (नदी) मृणाल-खननकारी की तरह प्रबल और
वेगवान् तरंगों के साथ पर्वततटों को भग्न करती हें। रक्षा के लिए हम
स्तुति और यज्ञ द्वारा दोनों तटों का विनाश करनेवाली सरस्वती की परि-
चर्या करते हूँ ।
३. सरस्वति, तुसने देव-निन्दकों का वध किया है और सर्वव्यापी
वसय वा त्वष्टा के पुत्र का संहार किया हे अथवा तुम्हारी सहायता से
इन्द्र ने संहार किया हं । अन्न-सम्पञ्चा सरस्वति, तुमने मनुष्यों
को भूमि-प्रदान किया है ओर उनके लिए घारि-वर्षण भी किया है ।
४. दानशालिनी, अस्ञ-यृक्ता ओर स्तोताओं की रक्षाकारिणी सर
स्वती अञ्न द्वारा थळी भांति हमारी तृप्ति करे ।
५. देवी सरस्वति, जो व्यक्ति इन्द्र की तरह तुम्हारी स्तुति करता
हुँ,$ैवही व्यक्ति जिस समय घन-प्राप्ति के लिए युद्ध में प्रवृत्त होता है,
उस समय उसको तुम रक्षा करना ।
हिन्दी-ऋग्वेद ७५५
६. अञ्च-ज्ञालिनी सरस्वति, संग्राम में हमारी रक्षा करता और पूषा
की तरह हमारे भोग्य के लिए धन प्रदान करना ।
७. भीषण, हिरण्मय रथ पर आरूढ़ और शत्रुघातिनी वही सरस्वती
हमारे मनोहर स्तोत्र की इच्छा करें। .
८, सरस्वती का अपरिमित, अकुटिल, दीप्त और अप्रतिहत-गति
जलवर्षक वेग, प्रचण्ड शब्द करता, विचरण करता ह।
९. नियत भ्रमणकारी सूर्य जेसे दिन को ले आते हे, बेसे ही बे
सरस्वती हमारे सारे शत्रुओं को पराजित करें ओर अपनी अन्यान्य जल-
मयी भागिनियों को हमारे पास ले आवें ।
१०. सप्तनदी-रूपिणी, सप्त भगिनी-संयुता, प्राचीन ऋषियों-द्वारा
सेविता ओर हमारी प्रियतमा सरस्वती देवी सदा हमारी स्तुति-पात्री हों ।
११. पृथिवी ओर स्वर्गे के विस्तीणं प्रदेशों को जिन्होंने अपनी दीप्ति
से पुणं किया हुँ, वही सरस्वती देवी निन्दको से हमारी रक्षा करें ।
१२. त्रिलोक-व्यापिनी, गंगा आदि सप्त नदियों से युक्ता, चारों
वणा और निषाद की समृद्धि-विधायिनी सरस्वती देवी प्रतियुद्ध में लोगों
के आह्वान योग्य होती हें ।
~ १३. जो माहात्म्य ओर कीति-हरा देवों में प्रसिद्ध हे, जो नदियों में
सबसे वेगवती हे और श्रेष्ठता के कारण जो अतीव गुण-शालिनी हं, बही
सरस्वती देवी ज्ञानी स्तोता की स्तुति-पात्रा होती हे ।
१४. सरस्वती, हमें प्रशस्त धन में ले जाओ । हमें हीन नहीं करो ।
अधिक जल-द्वारा हमें उत्पीडित नहीं करना । तुम हमारा बन्धत्व और
गृह् स्वीकार करो । हम तुम्हारे पास से निकृष्ट स्थान में न जायें ।
अष्टम अध्याय समाप्त
चतुर्थं अष्टक समाप्त
५. अदरक
६२ सूक्त
& मण्डल । १ अध्याय | ६ अनुवाक ।
(देवता अश्वि-द्वय । ऋषि भरद्वाज । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. जो क्षणमात्र में शत्रुओं को हुराते हुँ और प्रभात में पृथिवी-
पयन्त प्रभूत अन्धकार दूर करते हँ, उन्हीं झुलोक के नेता और भुवनो
के ईश्वर अहिवनीकुमारों की में स्तुति करता हूँ और मन्त्र द्वारा स्तुति
करता हुआ उन्हें बुलाता हूँ ।
२. अझ्विनीकुमार यज्ञ की ओर आते हुए, निर्मेल तेजोबळ से, रथ
कौ दीप्ति प्रकट करते हैं और असीम रूप से तेजों का निर्माण करते हुए
जल के लिए अइवों को, मरुदेश को लॅघाकर, ले गये ।
३. अदिवद्रय, उग्र तुम लोग उस असमृद्ध गृह में जाते हो। इस
प्रकार वाञ्छनीय और मन के समान वेगवान् अश्वो-द्वारा स्तोताओं को
स्वर्ग ले जाओ । हव्य-दाता मनुष्य के हसक को दीघं निद्रा में सुला दो ।
४. अध्विदय अहव जोतते हुए सुन्दर अन्न, पुष्टि और रस का वहन
करते हुए अभिनव स्तोता की मनोज्ञ स्तुति के समीप आवें । बे युवक हुँ।
होता, द्रोह-रहित और प्राचीन अग्नि उनका याग करे ।
५. जो स्तुतिकारी (इस्त्र-स्तोता) ओर स्तोत्रकर्ता व्यक्ति को सुखी
करते हैं ओर स्तुति-कर्तता को बहुविधि दान देते हे, उन्हीं रुचिर, बहु-
कर्मा, प्राचीन और दर्शनीय अश्विद्वय की, नई स्तुति से, में परिचर्या
करता हुँ ।
७५७
७९८ हिन्दी-ऋग्वेद
६. तुमने तुग्र के पुत्र भुज्यु को नौका-रहित हो जाने पर धूलि-रहित
मार्ग में रथ-युक्त और गमनशील अइवों-द्वारा जल के उत्पत्ति-स्थान समुद्र
के जल से बाहर किया था। |
७. रथारोही अधश्विनीकुमारों, विजयी रथ के द्वारा मार्ग में स्थित
पर्वत का विनाश करो। तुम कास-वर्षी हो। पुत्राथिनी का आह्वान
सुनो । स्तोताओं का मनोरथ पूर्णं करते हो। तुम स्तोता की निवत्त-
प्रसवा गाय को दुग्धशालिनी करो । इस प्रकार सुबुद्धशाली होकर सर्व-
त्रगामी बनो ।
८. प्राचीन द्यावा-पृ्थिवी आदित्यो, असुओ ओर रुब्रपुत्रो, अश्वि-
इय के परिचारक मनुष्यों के प्रति देवताओं का जो महान् कोध हे उस
तापकारी कध को राक्षस-पति को मारने के काम में लाओ ।
९. जो व्यक्ति लोकों के राजा इन अइ्विनीकुमारों की यथासमय
परिचर्या करता है, उसे मित्र और वरुण ज(भते हें। वह व्यक्ति महा-
बली राक्षस के विरुद्ध अस्त्र फंकता है । वह अभिद्रोहात्मक मनुष्यों के
घचनानुसार अस्त्र-क्षेप करता है।
१०. अश्विद्वय, तुम उत्तम चक्र, दीप्ति ओर सारथिवाले रथ पर
चढ़कर सन्तान देने के लिए हमारे घर में आओ और ऋध छोड़ते हुए
मनुष्यों के विघ्न-कर्ताओं के मस्तक छिञ्च करो ।
११. अध्विद्दय, उत्कृष्ट, मध्यम ओर साधारण घोड़ों के साथ हमारे
सामने आओ । दृढ़ और गोओं से भरी गोशाला का दरवाजा खोलो ।
मै स्तुति करता हूं । मुझे विचित्र घन दो ।
६३ सूक्त
(देवता अश््विट्ठय । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अनेकाहुत और मनोहर अश्विनीकुमार जहाँ ठहरते हें, वहाँ हव्य"
युक्त पञ्चदशादि स्तोम दूत की तरह उन्हें प्राप्त करे ॥ इसी स्तोम ने
हिन्दौ-ऋग्वेद ७५९
अहिवद्रय को मेरी ओर घुमाया था । अहिवद्य, स्तोता की स्तुति पर तुम
प्रसञ्न होते हो ।
२, अधिवहय, हमारे आह्वान के अनुसार भली भाँति गमन करो ।
स्तुति किये जाने पर सोस पान करो । शत्रु से हमारे घर को बचाओ
पास या दूर का शत्रु हमारे घर को नष्ट न करने पावे ।
३. सोम का बिस्तृत अभिषव, तुम्हारे लिए, प्रस्तुत किया गया है ।
मुदूतम कुश बिछाये गये हें। तुम्हारी कामना से होता हाथ जोड़कर
तुम्हारी स्तुति करता हे । पत्थरों ने तुम्हें व्याप्त करके सोम रस प्रकट
किया हुं ।
४. तुम्हारे यज्ञ के लिए अग्नि ऊपर उठते, यज्ञ में जाते तथा हव्य
और घृतवाले बनते हें। जो स्तोता अध्विद्दय का स्तोत्र--युक्त करता
है, बही बहुकर्मा ओर अतीव उद्युक्त-मना होता है ।
५. अनेकों के रक्षक अध्विद्दय, सूर्य-पुत्री तुम्हारे बहुरक्षक रथ को
सुशोभित करने के लिए अधिष्ठित हुई थी । तुम देवों की इसी जन्म की
प्रज्ञा से प्राज्ञ नेता ओर नृत्यशाली बनो ।
६. इस दशनीय कांति-द्वारा तुम सूर्या की शोभा के लिए पुष्टि
प्राप्त करो । शोभा के लिए तुम्हारे घोड़े भली भ'ति अनुगमन करते हें।
स्तवनीय अश्विद्वय, भली भाँति की गई स्तुतियाँ तुम्हें व्याप्त करें । `
७. अहिवनीकुमारो, गतिशील ओर ढोने में अत्यन्त चतुर घोड़े तुम्हें
अन्न की ओर ले आवे । मन की तरह वेगशाली तुम्हारा रथ सम्पर्क के
योग्य और अभिलषणीय प्रभूत अन्न के लिए छोड़ा गया है ।
८. बहु-पालक अश्विनीकुमारो, तुम्हारे पास बहुत धन हैँ; इसलिए
हमारे लिए प्रीति-करी और दूसरे स्थान पर न जानेवाली धेनू तथा अन्न
दो । मादयिता अहिविद्वय, तुम्हारे लिए स्तोता हैं, स्तुतियां हें और
जो तुम्हारे दान के उद्देश्य से जाते हे, वे सोमरस भी हें।
९. पुण्य की सरल गति और शीघ्रगामिनी दो बड़वायें मेरे पास हैं;
समीढ़ की सौ गाये मेरे पास हे । पेरुक के पक्व अन्न भी मेरे पास हें ।
७६० हिन्दी-ऋग्वेद
शान्त नाम के राजा ने अध्विद्वय के स्तोताओं को हिरण्ययुक्त और
सुदुश्य दस रथ या अश्व दिये और उनके अनुरूप ही शत्रु-नाशक तथा दर्श-
नीय पुरुष भी दिये थे।
१०. नासत्यद्वय, तुम्हारे स्तोता को पुरुपन्था नाम के राजा संकड़ों
और हजारों अश्व देते हुँ । बीर अश्विद्वय, घह स्तोता भरद्वाज को भी
शीघ्र दें। बहुकमंशाली अश्विनीकुमारो, राक्षस विनष्ट हों ।
११. अशिवद्वय, में, विद्वान् व्यक्तियों के साथ, तुम्हारे सुखद धन
से परिवेष्टित बनूँ।
६४ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. दीप्तिमती और शुक्लवर्ण उषायें, शोभा के लिए, जल-लहरी
की तरह, उत्थित होती हें। समस्त स्थानों को उषा सुपथवाले और
सरलता से जाने योग्य बनाती हें। धनवती उषा प्रशस्ता और
समृद्धिमती हे ।
२. उषादेवी, तुम कल्याणी की तरह दिखाई दे रही हो और
विस्तृत होकर शोभा पा रही हो। तुम्हारी दीप्तिमती किरणं शोभा
पा रही हें। तुम्हारी दीप्तिमती किरणें अन्तरिक्ष में उठ रही हैँ। तुम
तेजों में शोभमाना ओर दीप्यमाना होकर रूप प्रकाश कर रही हो ।
३. लोहित-वणं ओर दीप्तिमान् रङ्मियाँ सुभगा, विस्तीणे और
प्रथमा उषा देवता को वहन करती हें। जेसे शस्त्र फंकने में निपुण वीर
शत्रु को दूर करता हुँ, बैसे ही उषा अन्धकार को दूर करती हें तथा शीघ्र
गामी सेनापति की तरह अन्धकार को रोकती हैं ।
४. पर्वत और वायुरहित प्रदेश तुम्हारे लिए सुपथ और सुगम हें।
हे स्वप्रकाश-युक्ता, तुम अन्तरिक्ष को पार कर डालती हो। विशाल
रथवाली और सुदृश्य द्युलोक-दुहिता, हमें अभिलषणीय धन दो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ७६१
५. उषा देवी मुझे धन दो । तुम अप्रतिगत होकर प्रीति-पुर्वेक अश्च
द्वारा धन ढोती हो । हे द्युलोकपुत्री तुम दीप्तमती हो । प्रथम आह्वान
में पूजनीया हो । इसलिए तुस दर्शवीया होओ ।
६- उषादेवी तुम्हारे प्रकट होने पर चिड़ियाँ घोसलों से निकलती
हुँ और अन्न के उपार्जक मनुष्य सोकर उठते हें । समीप में वर्तमान हव्यः
दाता मनुष्य को यथेष्ट धन देती हो ।
६५ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि भरद्वाज। छन्द त्रिष्टुप् |)
१. जो उषा दीप्तिमान् किरणों से युक्त होकर रात्रि में तेजःपदार्थ
(नक्षत्रादि) और अन्धकार को तिरस्कृत करती दिखाई देती हुँ, बही
झुलोकोत्पन्ना पुत्री उषा हमारे लिए अन्धकार दूर करके प्रजागण को
प्रकाशित करती हें ।
२. कान्तियुक्त रथवाली उषादेवी उसी समय बहत् यज्ञ का प्रथम
चरण सम्पादित करके लाल रंग के घोड़ों से विस्तृत रूप से गमन करती
हँ । वे विचित्र रूप से शोभा पाती हे और रात्रि के अन्धकार को भली
भांति दूर हटाती ह।
३. उषादेवियो, तुम हव्यदाता मनुष्य को कीत्ति, बल, अन्न ओर
रस दान करती हो । तुम धनशालिनी ओर गमनशीला हो । आज परि-
चर्या करनेवाले को पुत्र-पौत्र आदि से युक्त अञ्न और धन दो।
४. उषा देवियो, तुम्हारी परिचर्या करनेवाले के लिए इस समय
धन हुँ । इस समय वीर हव्यदाता के लिए तुम्हारे पास घन हें । इस समय
राज्ञ स्तोता के लिए तुम्हारे पास धन हे जिस विप्र में उकूथ नामक सन्त्र
है, एसे मेरे समान व्यक्ति को, पहले की तरह, वही धन दो । .
५. गिरितट-प्रिय उषादेवी, अद्धिरा लोगों ने तुम्हारी कृपा से
पुरत ही गायों को छोड़ दिया था ओर पूजनीय स्तोत्र-द्वारा अन्धकार का
विनाश किया था । नेता अङ्गिरा लोगों की स्तुति सत्यफलचती हुई थी ।
७६२ हिन्दी-ऋग्वेद
६. द्युलोक-पुत्री उषा, प्राचीन लोगों की तरह हमारे लिए अन्धकार
दूर करो । धनशालिनी उषा, भरद्वाज की तरह स्तुति करनेवाले मुझे
पुत्र-पौत्र आदि से युक्त धन दो । हमें अनेकों के गन्तव्य अन्न वो ।
६६ सूक्त
(दैवता मरु द्गण । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. मरुतों के समान, स्थिर पदाथो में भी स्थिर प्रीतिकर और गति-
परायण रूप, विद्वान् स्तोता के निकट, शीघ प्रकट हो। वह अन्तरिक्ष
में एक बार शुक्लवर्ण जल क्षरण करता और मर्त्यलोक में अन्य पदार्थ
दोहन करने के लिए बढ़ता है।
२. जो धनी अग्नि के समान दीप्त होते हे, जो इच्छानुसार द्विगण
और त्रिगुण बढ़ते हुँ, उन मरुतों के रथ धूलि-शून्य और सुवर्णालङ्कार-
बाले हें वे ही मरुत् धन और बरू के साथ प्रादुर्भूत होते हें ।
३. सेचनकारी रुद्र कै जो मरुद्गण पुत्र हें और जिनको धारण-कर्ता
अन्तरिक्ष घारण करने में समर्थ हे, उन्हीं महान् मरुतों की मासा (पृश्नि)
महती है । वह मासा मनुष्योत्पत्ति के लिए गर्भ या जल धारण
करती हे ।
४. जो स्तोताओं के पास यान पर नहीं जाते; परन्तु उनके अन्तःकरण
में रहकर पापों को विनष्ट करते हें, जो दीप्तिमान् हुँ, जो स्तोताओं की
अभिलाषा के अनुसार जळ दूह लेते हे, जो दीप्तियुक्त होकर अपने को
प्रकाशित करते हें और भूमि को सींचते हें ।
५. जिनको उद्देश्य करके इस समय समीपवती स्तोता मसत्संज्ञक
शस्त्र का उच्चारण करते हुए शीघ्र मनोरथ प्राप्त करते है, जो अपहरण-
कर्ता, गमनशील और महत्त्वयक्त हैं, उन्हीं उग्र मरुतों को इस समय दान-
कर्ता यजमान ्रोध-शून्य करता हँ ।
६. वे उग्र और बलशाली हें। वे घर्षण करनेवाली सेना को सुरू
पिणी आवा-पृथिवी के सहित योजित करते हे। इनकी रोदसी
हिन्दी-ऋग्वेद ७६३
(माध्यमिकी वाकू) स्वदीप्ति से संयुक्त है। इन बलवान् सरुतों में
दीप्ति नहीं हे ।
७. सस्तो, तुम्हारा रथ पाप-रहित हो । सारथि न होकर भी स्तोता
जिसे चलाता हुँ, वही रथ अइव-रहित होकर भी, भोजन-शून्य और पाहा
रहित होकर भी, जळ-प्रेरक और अभीष्टप्रद होकर आवा-पूथिवी और
अन्तरिक्ष में गमन करता हे ।
८. सरतो, तुम लोग संग्राम में जिसकी रक्षा करते हो, उसका कोई
प्रेरक नहीं होता और न उसकी कोई हिसा ही होती है । तुम पुत्र, पोत्र,
गौ ओर जळ के संचरण में जिसकी रक्षा करते हो, वह संग्राम में शत्रुओं
के गो-समह को विदीर्ण करता है। |
९. अग्नि, जो बल-द्वारा शत्रुओं का बल दबा देते हे, जिन महान्
मरुतो से पुथिवी कापती है, उन्हीं शब्दकर्ता शीघ्र बलवान् मरुतों को
दर्शनीय अन्न दो ।
१०. सरवृगण यज्ञ की तरह प्रकाशमान हँ । जो शीघ्रगामी अग्निः
शिखा की तरह दीप्तिमान और पूजनीय हैं, वे शत्रुओं के प्रकम्पक
व्यक्तियों की तरह वीर, दीप्त शरीर से युक्त और अनभिभूत हैं।
११. में उन्हीं वर्धमान और दीप्तिमान्, खड्ग से युक्त रुद्रपुत्र
मरुतों की स्तोत्र-द्वारा परिचर्या करता हूँ । स्तोता की निर्मल स्तुतियाँ
उग्र होकर मेघ की तरह मरुतों के बल की बराबरी करती हुँ ।
६७ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि अरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सारे विइव में श्रेष्ठ मित्र और वरुण, तुम्हें में स्तुति-द्वारा बद्धित
करता हूँ । तुम दोनों विषम और यन्तु-श्रेष्ठ हो। रज्जु की तरह अपनी
भुजाओं-ट्वारा तुम मनुष्यों को संयत करते हो
२. प्रिय मित्र और वरुण, हमारी यही स्तुति तुम्हें प्रच्छादित करती
है । हव्य के साथ तुम्हारे पास यही स्तुति जाती हे और तुम्हारे यज्ञ की
७६४ हिरदी-त्ररवेद
ओर जाती है। है सुन्दर दानवाले मिश्र और वरुण, हमें शीत आदि
का निवारक और अनभिभूत गृह दो ।
३. प्रिय सित्र और वरुण, अन्न ओर स्तौत्र-द्वारा अछूत होकर आओ ॥
जैसे कर्म-नियुकत कर्म-हारा अञ्चार्थी व्यक्तियों को संयत करता हे, वैसे
ही तुम भी अपनी महिमा-द्वारा करो ।
४, जो अइव की तरह बली, पवित्र स्तोत्र से युक्त और सस्यरूप
हुँ, उन्हीं गर्भभूत मित्र और वरुण को अदिति ने धारण किया था । जन्म
लेने के साथ ही जो महान् से भी महान् ओर हिसक मनुष्य के घातक
हुए, उन्हें अदिति ने धारण किया था ।
५. परस्पर प्रीतियुकत होकर समस्त देवों ने, तुम्हारी महिमा का
कीत्तेन करते हुए, बल घारण किया हँ । तुम लोग विस्तीर्ण द्यावापृथिवी
को परिभूत करते हो । तुम्हारी रश्मि आहसित और अगृढु हे ।
६. तुम प्रतिदिन बल धारण करते हो । अन्तरिक्ष के उन्नत प्रदेश
(मेघ अथवा सुर्य) को खूंटे की तरह दृढ़ रूप से धारण करो । तुम्हारे
द्वारा वृढ़ीकृत मेघ अन्तरिक्ष में व्याप्त होता हं और विश्वदेव (सुर्य)
मनुष्य के हव्य से तृप्त होकर भूमि और झुलोक में व्याप्त होते हें ।
७. सोम-द्वारा उदर पुर्ण करने के लिए तुम लोग प्राज्ञ व्यक्ति को |
धारण करते हो । हे विइवजिन्वा मित्र ओर वरुण, जिस समय ऋत्विक्
लोग यज्ञ-गृह पुर्ण करते हु और तुम जल भेजते हो, उस समय युवतियाँ
(नदियाँ अथवा दिशाय) धूलि से नहीं भरतीं; परञ्च अशुष्क और
अवात होकर विभूति धारण करती हूँ ।
८. सेधावी व्यक्ति तुमसे सदा वदन-द्वारा इस जल की याचना करता
है। हे घृताच्चयूक्त मित्र ओर वरुण, जसे तुम्हारा अभिगन्ता यज्ञ में साया-
रहित होता हँ, बसे ही तुम्हारी महिमा हो । हव्यदाता का पाप विनष्ट
करो ।
९. मित्र ओर वरुण, जो लोग स्पर्धा करके तुम्हारे द्वारा विहित
और तुम्हारे प्रिय कमं में विघ्न करते हे, जो देवता और मनुष्य स्तोत्र-
हिन्दी-ऋग्वेद ७६५
रहित हुँ, जो कर्मशील होकर भी यज्ञ-सम्पत्न नहीं है और जो पुत्र-प
नहीं हुँ, उन्हें विनष्ट करो ।
१०, जिस समय मेधावी लोग स्तुति का उच्चारण करते हें, कोई-
कोई स्तुति करते हुए सुक्तपाठ करते हैं, ओर जब हम, तुम्हें लक्ष्यकर,
सत्य मन्त्रों का पाठ करते हे, उस समय तुम लोग सहिसान्वित होकर
देवों के साथ नहीं चला जाना ।
११, रक्षक वरुण ओर मित्र, जिस समय स्तुतियाँ उच्चारित होती
हैँ और जब सरळगामी, घर्षक तथा अभीष्टवर्घी सोन को यज्ञ में संयुक्त
किया जाता है, उस समय गृह-दान के लिए तुम्हारे आने पर तुम्हारा
दातव्य गुह अविछिन्न होता हँ, यह सत्य है ।.
६८ सूक्त
(देवता इन्द्र और वरुण । ऋषि भरद्वाज । छन्द निष्टुप् |)
१. महान् इख और वरुण, भनु की तरह कुश-विस्तारक यजमान
के अन्न और सुख के लिए जो यज्ञ आरम्भ होता है, आज, तुम लोगों के
लिए, वही क्षिप्र यज्ञ ऋत्विकों-द्वारा प्रवृत्त किया गया हँ ।
२. तुम श्रेष्ठ हो, यज्ञ में धन देनेवाले हो और वीरों में अतीव बळ-
वात् हो। दाताओं में श्रेष्ठ दाता तथा बहु-बलशाली सत्य के द्वारा
शत्रुओं के हिसक और सब प्रकार की सेनाओंवारे हो ।
३. स्तुति, बल और सुख के द्वारा स्तुत इन्द्र और वरुण को स्तुति
क्रो । उनसे से एक (इन्द्र) वृत्र का वध करते हें, दूसरे प्रजा में युक्त
(वरण) उपद्रवों से रक्षा करने के लिए बलशाली होते हें ।
४, इन्द्र और वरुण, मनुष्यों में पुरुष और स्त्री एवम् समस्त देव”
गण स्वतः उद्यत होकर जब तुम्हें स्तुति-द्वारा वद्धित करते हें, तब महि-
सान्वित होकर तुम लोग उनके प्रभु बनो । विस्तीणे द्यावापृथिवी, ठुम
इनके प्रभु बनो ।
७६६ हिन्दी-ऋण्वेद
५. इन्द्र और वरण, जो यजमान तुम्हें स्वयं हबि देता है, वह
सुन्दर दानवाला धनवान् और यज्ञशाली होता हें। बही दाता, जय-
प्राप्त अन्न के साथ, झात्रु के हाथ से उद्धार पाता तथा धन और सम्पत्ति-
धाली पुत्र प्राप्त करता हूँ ॥
६. देव, इख और वरुण, तुम हृव्यदाता को घनातुगामी ओर बहु"
अज्नशाली जो धन देते हो और जो शत्रु-कुत अयश को दूर करता है, वही
भन हमें सिरे॥
७. इन्द्र और वरण, हम तुम्हारे स्तोता हें। जो धन सुरक्षित है
और जिसके रक्षक देवगण है, वही घन हम स्तोता को हो। हमारा बल
संग्राम में शत्रुओं को दबानेवाला और हिंसक होकर तुरत उनके यश को
तिरस्कृत करे ॥
८. इन्द्र और बरुण, तुम लोग स्तुत होकर सुअन्न के लिए हमें शीघ्र
धन दो। देवो, तुम लोग महान् हो। हम इस प्रकार तुम्हारे बल
की स्तुति करते हूँ । हम नौका-द्वारा जल की तरह पापों को पार
कर सक ।
९. जो वरुण महिमान्वित, महाकर्मा, ्रज्ञा-युक्त, तेजःसम्पच्च और
अजर हूँ, जो विस्तीर्ण द्यावापूथिदी को विभासित करते हे, उन्हीं सञ्ाद्
और विराट् वरुण को लक्ष्य कर आज मनोहर ओर सब प्रकार से
विशालस्तोत्र पढ़ो ।
१०. इन्द्र और वरुण, तुम सोम का पान करनेवाले हो; इसलिए
इस मादक और अभिषुत सोम का पान करो। हे घूत-ब्रत मित्र और
वरुण, देवों के पान के लिए तुम्हारा रथ यज्ञ की ओर आता है ।
११. हे कामवर्षी इन्द्र और बरुण, तुम अतीव मधुर और सनोरथ-
वर्षक सोम का पान करो। तुम्हारे लिए हसने इस सोम-रूप अञ्न को
ढाला है; इसलिए इसमें बैठकर इस यज्ञ में सोमपान से मत्त होओ ।
हिन्दी-क्रग्वेद ७६७
६९ सूक्त
(देवता इन्द्र और विष्णु । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. इन्द्र और विष्णु, तुम्हें लक्ष्य कर स्तोत्र और हवि में प्रेरित
करता हूं । इस कर्म के समाप्त होने पर तुस लोग यज्ञ की सेवा करो ।
उपद्रव-शून्य मागे-द्वारा हमें पार करते हो। तुम हमें धन दो ।
इन्द्र और विष्णु, तुम स्तुतियों के जनक हो । तुम कलस-स्वरूप
और सोम के निधान-भूत हो। कहे जानेवाले स्तोत्र तुम्हें प्राप्त हों ॥
स्तोताओ-द्वारा गीयमान स्तोत्र तुम्हें प्राप्त हों ।
३. इन्द्र और विष्णु, तुम सोमों के अधिपति हो। धन देते हुए
तुम सोम के अभिसुख आओ।॥ स्वोताओं के स्तोत्र, उक्यों के साथ,
तुम्हें तेज-हारा वद्धित करें।
४. इन्द्र ओर विष्णु, हिसाकारियों को हरानेवाले और एकत्र भत्त
अइवगण तुम्हें वहन करें। स्तोताओं के सारे स्तोत्रों का तुम सेवन करो ॥
मेरे स्तोत्रों और बचनों को भी सुनो ।
५. इन्द्र और विष्णु, सोम का मद या हर्ष उत्पन्न होने पर तुम लोग
विस्तृत रूप से परिक्रमा करते हो। तुमने अन्तरिक्ष को विस्तृत किया है ।
तुमने लोकों को हमारे जीने के लिए प्रसिद्ध किया हे । तुम्हारे ये सब
कमं प्रशंसा के योग्य हें ।
६. घृत ओर अन्न से युक्त इन्द्र और विष्णु, तुम सोम से बढ़ते
हो ओर सोम के अग्र भाग का भक्षण करते हो । नमस्कार के साथ यज-
सान लोग तुम्हें हव्य देते हे। तुम हमं धन दो। तुम लोग समुद्र की
तरह हो । तुम सोम की खान और कलस के रूप हो
° दहनीय इन्द्र ओर विष्णु, तुम इस मदकारी सोम को पियो
अर उदर भरो । तुम्हारे पास मदकर सोस-रूप अन्न आय । मेरा स्तोत्र
और आह्वान सुनो ।
७६८ हिन्दी-ऋग्वेद
८. इन्द्र और विष्णु, तुम विजयी हो; कभी पराजित नहीं होते।
तुम दोनों में से कोई भी पराजित होनेवाला नहीं है । तुसने जिस वस्तु
के लिए असुरों के साथ स्पर्धा की हे, वह यद्यपि त्रिधा (लोक, बेद और
बचन के रूपों में) स्थित और असंख्य है, तथापि तुमने अपने विक्रम से
उसे प्राप्त किया हे ।
७० सूत्ती
(देवता द्यावापृथिवी | ऋषि भरद्वाज । छन्द् जगती |)
१. हे द्यावापृथिवी, तुम जलवती, भूतों के आश्रय-स्थल, विस्तीर्णा
प्रसिद्धा, जलदोहन-कर्त्री, सुरूपा, वरुण के धारण-द्वारा पृथक् रूप से
धारिता, नित्या और बहुकर्मा हो ।
२. असंगता, बहुधारावती, जळवती और शुचिकर्मा द्यावापृथिवी
सुकती व्यक्ति को तुम, जल देती हो। हे द्यावापृथिवी, तुम भुवन की
राज्ञी हो । तुम मनुष्यों का हितंषी वीर्य हमें दान दो । |
३. सर्व-निवासभूता द्यावा-पृथिवी, जो मनुष्य तुम्हें, सरल गमन के
लिए, यह देता हू, वह सिद्ध-मनोरथ होता और अपत्यों के साथ बढ़ता
है । कर्मो के ऊपर तुम्हारे द्वारा सिक्तरेत नाना रूप हे और वह समान-
कर्मा उत्पन्न होता हे।
द्यावा-पृथिबी जल-द्वारा ढकी हुई हें और और जल का आश्रय
करती हे। वे जल से ओत प्रोत हे, जलवर्षाविधायिनी और विस्तृता है,
प्रसिद्धा और यज्ञ सं पुरस्कृता हे। यज्ञ के लिए विद्वान् उनसे सुख की
याचना करता हे ।
५. जल का क्षरण करनेवाली, जल दूहनेवाली, उदककर्मा देवी तथा
हमे यज्ञ, धन, महान् यश, अञ्न ओर वीर्ये देमेवाली द्यावा-पथिवी हमें
मधु से सींचे। _ ॒
६. पिता द्युलोक और माता पृथिवी, हमें अन्न दो । संसार को
जाननेवाली, सुकर्मा परस्पर रममाण और सबको सुख देनेवाली द्यावा-
पृथिवी हमें पुत्रादि बल और घन दो।.
हिन्दी-ऋग्वेद ७६९
७१ उक्त
(देवता सविता । ऋषि भरद्वाज । छन्द जगती और त्रिष्टुप् |)
१. बही सुक्कत सविता देवता दान के लिए हिरण्मय बाहुओं को
ऊपर उठाते हें। विशाल, तरुण और विद्वात् सबिता, संसार की रक्षा
के लिए दोनों जलमय बाहुओं को प्रेरित करते हें।
२. हस उत्हों सविता के प्रसव-कर्म और प्रशस्त धन दान के विषय
में समर्थ हों। सविता, तुम सारे द्विपदों और चतुष्पदों की स्थिति ओर
प्रसव (उत्पत्ति) में समर्थ हो ।
३. सबिता, तुम आज अहिसित और सुखाबह तेज के द्वारा हमारे
घरों की रक्षा करो । तुस हिरण्यबाक् हो । नया सुख दो और हमारी
रक्षा करो। हमारा अहित करनेवाला व्यक्ति प्रभुत्व न करने पावे ।
४. शान्तसनः, हिरण्य-हस्त, हिरण्मय हन् (जबडा) वाले, यश के
योग्य ओर मनोहर बचनवाले बही सविता देव रात्रि के अन्त सें उठं।
वे हव्यदाता के लिए, यथेष्ट अन्न प्रेरित करे ।
५. सबिता, अधिवक्ता की तरह हिरण्मय और शोभनांश, दोनों
बाहुओं को उठावं । दे पृथिवी से द्युलोक के उन्नत प्रदेश में चढ़ते हें ।
गतिशील, जो कुछ महान् वस्तुएं हें, सबको वे प्रसन्न करते हें ।
६. सबिता, आज हमें धन दो । कल हमें धन देना। प्रतिदिन
हमें धन देना । हे देव, तुम निवास-भूत प्रचुर धन के दाता हो; इस-
लिए हम इसी स्तुति के द्वारा धन प्राप्त करेगे ।
७२ सुत्व
(देवता इन्द्र और सोम। ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. इन्द्र ओर सोम, तुम्हारी महिमा महान् हे । तुमने महान् और.
मुख्य भूतों को बनाया है । तुमने सुर्य और जल को प्राप्त किया है । तुमने
सारे अन्धकारो और निन्दकों का दध किया हें ।
२. इन्र और सोम, तुस उषा को प्रकाशित करो और सूर्य को
फा० ४९
७७० हिन्दी-हग्वेद
ज्योति के साथ ऊपर उठाओ तथा अन्तरिक्ष के द्वारा युलोक को स्तम्भित
करो । माता पृथिवी को प्रसिद्ध करो ।
३. इन्द्र और सोम, जल को रोकनेवाले अहि (सारक) वृत्र का वध
करो । झुलोक ने तुम्हें संबित किया था। नदी के जल को प्रेरित करो।
जल-द्वारा समुद्र को पूर्ण करो ।
४. इन्द्र और सोध, तुमने गायों के लिए अपक्व अन्तदेश में पक्व
दुग्ध रबखा हें । नाना वर्ण गोओं के बीच तुमने अबद्ध और शुक्ल वर्ण
दुग्ध धारण किया हे ।
५, इन्द्र और सोम, तुस लोग तारक, सन्सान-युक्त ओर श्रवण-
योग्य थन हमें शीघ्र दो । उग्र इन्द्र और सोम, मनुष्यों के लिए हितकर
और शत्रुसेना को हुरानेवाले बल को तुम वद्धित करो ।
७३ सूक्त
(देवता बृहस्पति । ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्टुप |)
१. जिन बृहस्पति ने पर्वत को तोड़ा था, जो सबसे प्रथम उत्पन्न
हुए थे, जो सत्य-रूप, अङ्झिरा और यज्ञ-पात्र हैं, जो दोनों लोकों सें भली
भति जाते हें, जो प्रदीप्त स्थान में रहते हें और जो हम लोगो के पालक
हैं, वही बृहस्पति, वर्षक होकर द्यावापृथिवी में गर्जन करते हुँ ।
२. जो बृहस्पति यज्ञ में स्तोता को स्थान वेते हें, वही वुत्रों या आव-
रक अन्धकारों को विनष्ट करते, युद्ध में शत्रुओं को जीतते, देषियों को
अभिभूत करते और असुर-पुरियों को अच्छी तरह छित्न-भिश्न करते हेँ।
३. इन्हीं बृहस्पति देव ने असुरों का धन और गौओ के साथ गोचरों
को जीता था । अप्रलियत होकर यज्ञ-कर्म-द्वारा, भोग करने की इच्छा
करके, बृहस्पति स्वर्ग के शत्र का, अर्घेना-साधन सन्य-द्वारा, यघ करते हें ।
७४ सूक्त
(देवता साम और रुद्र । | ऋषि भरद्वाज । छन्द त्रिष्ढुप् ।)
१. सोस और सुद्र, तुम हमें असुर-सस्बन्धी बल दो। सारे
यश तुम्हें प्रतिग्ह में अच्छी तरह व्याप्त करे । तुम सप्तरत्न धारण
हिन्दी-ऋग्वेद ७७१
करते हो; इसलिए हमारे लिए तुम सुखकर होओ और द्विपदों और
चतुष्पदों के लिए भी कल्याणवाही बनो ।
२. सोस और रुद्र, जो रोग हमारे घर में पेठा है, उसी संक्रामक
रोग को विदुर करो। ऐसी बाधा दो, जिससे दरिद्रता पराङ मुखी
हो । हमारे पास सुखाबह अन्न हो।
३. सोभ ओर रुद्र, हमारे शरीर के लिए सब प्रसिद्ध औषध धारण
करो । हमारे किये पाप, जो शरीर सें निबद्ध हे, उसे शिथिल करो"
हमसे हटा दो ।
४. सोम और खर, तुम्हारे पास दीप्त धनुष और तीक्ष्ण शर हे ।
तुम लोग सुन्दर सुख देते हो । ज्ञोभन स्तोत्र की अभिलाषा करते हुए हमें
इस संसार में खूब सुखी करो । तुम हमें बरुण के पाश से छुड़ाओ और
हमारी रक्षा करो ।
७५ सूक्त
(देवता प्रथम मन्त्र के वम, द्वितीय के धनु, दृतीय को ज्या,
चतुर्थ की अरत्नी, पञ्चस के इषुधि, षष्ठ के पूवोद्ध के सारथि और
उत्तराद्धे की रश्मि, सप्तम के अश्व, अष्टम के रथ, नवम के
रथगोपगण, दशम के स्तोता, पिता, साम्य, द्यावा, एथ्वी और
पूषा, एकादश ओर दवादश के इषु, त्रयोदश के प्रतोद, चतुदेश के
हस्तन्न, पञ्चदश और पोडश के इषु, सप्तदश की युद्धमूमि,
ब्रह्मण॒स्पति और अदित, अष्टादशा के कवच, साम ओर वरुण
तथा ङनविंश के देवगण ओर ब्रह्म। ऋषि भरहाज-पुत्र पायु।
छुन्द अनुष्टुप्, पङक्ति ओर त्रिष्टुप् ।)
१. युद्ध छिड़ जाने पर यह राजा जिस समय लौहमय कवच पहन
कर जाता है, उस समय मालूम पड़ता है कि यह साक्षात् मेध हे।
राजन् अविद्ध शरीर रहकर जय ग्राप्त करो। वर्म (कवच) की वह
महिमा तुम्हारी रक्षा करे ।
७७२ हिन्दी-ऋग्वेद
२, हम धनुष के द्वारा शत्रुओं की गायों को जीतेंगे, बुद्ध जीतेंगे और
मदोन्मत्त शत्रु-सेना का वघ करेंगे। शत्रु की अभिलाषा धनुष नष्ट करे।
हम इस धनुष से समस्त दिशाओं में स्थित शत्रुओं को जीतेंगे।
३. धनुष की यह ज्या, युद्ध-बेला में, युद्ध से पार ले जाने की
इच्छा करके मानो प्रिय वचन बोलने के लिए ही धनुर्धारी के कान के
पास आती हे। जैसे स्त्री प्रिय पति का आलिङ्गन करके बात करती है,
बसे ही यह ज्या भी वाण का आलिङ्कन करके ही शब्द करती हे ।
४. वे दोनों धनुस्कोटियाँ, अन्यमनस्का स्त्री की तरह, आचरण करके
शत्रु के ऊपर आक्रमण करते समय माता की तरह पुत्र-तुल्य राजा की
रक्षा करें ओर अपने कार्य को भली भाँति जानकर जाते हुए इस राजा के
देषियों का वध कर गत्रुओ को छेद डालें ।
५. यह तुणीर अनेक वाणों का पिता हें। कितने ही वाण इसके
पुत्र हे । वाण निकालने के समय यह तूणीर “त्रिइवा” शब्द करता है।
यह योद्धा के पुष्ठ-देश में निबद्ध रहकर युद्ध-काल में वाणों का प्रसव
करता हुआ सारी सेना को जीत डालता हे।
६. सुन्दर सारथि रथ में अवस्थाय करके आग के घोड़ों को, जहाँ
इच्छा होती हें, वहाँ, ले जाता है । रस्सियाँ अश्वो के कण्ठ तक फैल
कर ओर अइवों के पीछे फेलकर सारथि के मन के अनुकूल नियुक्त होती
हें। रस्सियों की महिमा बखानो ।
७. अश्व टापों से धूलि उड़ाते हुए और रथ के साथ सवेग जाते
हुए हिनहिनाते हें तथा पलायन न करके हिंसक शत्रुओं को टापों से
पीटते हें ।
८, जेसे हव्य अग्नि को बढ़ाता हे, वेसे ही इस राजा के रथ-द्वारा होया
जानेवाला धन इसे बद्धित करे । रथ पर इस राजा फे अस्त्र, कवच आदि
रहते हें। हम सदा प्रसन्न-चित्त से उस सुखावह रथ के पास जाते हें।
९. रथ के रक्षक शत्रुओं के सुस्वादु अन्न को नष्ट करके अपने पक्ष
के लोगों को अन्न दान करते हें। विपत्ति के समय इनका आश्रय लिया
हिन्दी-ऋणग्वेद ७७३
जाता है। ये शक्तिमान्, गम्भीर, विचित्र सेता से युक्त, वाण-बल-
सम्पन्न अहिसक, वीर, महान् और अनेक शत्रुओं को जीतने में समर्थ हूँ ।
१०. हे ब्राह्मणो, पितरो और यज्ञ-वर्ड्धक सोम-सम्पादक, तुम हमारी
रक्षा करो। पापशूत्या द्यावापृथिवी हमारे लिए सुखकारी हों। पूषा
हमें पाप से बचाव । हमारा पापी शत्रु प्रभुत्व न करने पावे ।
११. वाण शोभन पंख धारण करता है। इसका दाँत मुग-शूंग
हुँ। यह ज्या अथवा गोचमं (ताँत) से अच्छी तरह बद्ध हैं। यह प्रेरित
होकर पतित होता हूँ । जहाँ नेता लोग एकत्र वा पृथक् रूप से विचरण
करते हैँ, वहाँ बाण हमें शरण दे।
१२. वाण, हमें परिर्वाद्धत करो। हमारा शरीर पाषाण की तरह हो।
सोम हमारे पक्ष पर बोले। अदिति सुख दे।
१३. कशा (चाबुक), प्रकृष्ट ज्ञानी सारथि लोग तुम्हारे द्वारा
भइवों के उर और जघन में मारते हूँ। संग्राम में तुम अइवों को
प्रेरित करो।
१४. हस्तघ्न (ज्या के आघात से हाथ को बचाने के लिए बंधा
हुआ चमे) ज्या के आघात का निवारण करता हुआ सर्प की तरह शरीर
के द्वारा प्रकोष्ठ (जान् से मणिबन्ध तक) को परिवेष्टित करता हुँ,
सारे ज्ञातव्य विषयों को जानता हे ओर पोरुषश्ाली होकर चारों ओर
से रक्षा करता हे !
१५. जौ विषाक्त हुँ, जिसका अग्रभाग हिंसक हे और जिसका मुख
लौहमय है, उसी पर्जन्य से उत्पन्न विशाल वाण-देवता को नमस्कार।
१६. सन्त्र-द्वारा तेज किये गये ओर हिसा-निपुण वाण, हुम छोड़े
लाकर गिरो, जाओ और शत्रुओं को भिलो। किसी भी शत्रु को जीते जी
नहीं छोड़ना । |
१७. मुण्डित कुमारों की तरह जिस युद्ध में वाण गिरते हुँ, उसमें
हमें ब्र द्मणस्पति सदा सुख दें, अदिति सुख दे।
७७४ हिन्दी-ऋण्वेद
१८. राजन्, तुम्हारै शरीर के मर्मस्थानों को कवच से आच्छादित
कर रहा हूँ। सोम राजा तुम्हें अमृत-द्वारा आच्छादित करें, वरुण तुम्हें
श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ सुख दें। तुम्हारे विजयी होने पर देवगण हर्ष मनावें।
१९. जो कुटम्बी हमारे प्रति प्रस्न नहीं और जो अलग रहुकर
हमारे वध की इच्छा करता है, उसे सारे देवगण मारे। हमारे लिए तो
मन्त्र ही वाण-निवारक कवच हैं।
षष्ठ सण्डठ संसाप्ल
सुकत ९
(समम मणडल । १ अनुवाक । देवता अग्नि । ऋषि
वसिष्ठ । छुन्द् विराट् और न्निष्टरप् ।)
१. नेता ऋत्विक लोग प्रशस्त, दूरस्थित, गहपति और गतिशील
अग्नि को दो काष्ठों से हस्तगति और अंगुलियों के द्वारा, उत्पन्न करते हँ। |
२. जो अग्नि गृह सें नित्य पुजनीय थे, उन्हीं सुद्इय अग्नि को,
सब प्रकार के भयों से बचाने के लिए, बसिष्ठगण ने गृह में रक्खा था।
३. तरुणतम अग्नि, भली भाँति समृद्ध होकर, सतत ज्वाला के साथ,
हमारे आगे प्रद्ीप्द होओ। तुम्हारे पास बहुत अन्न जाता हुँ।
४. सुजन्मा नेता या ऋत्विक लोग जिन अग्नि के पास बेठते हें,
वहू लोकिक अग्नियों से अधिक दीप्तिमान्, कल्याणवाही, सुत्र-पौत्र-प्रद
मौर विशेष रूप से दीप्ति प्राप्त करनेवाले हैं ।
५, अभिभवनिपुण अग्नि, हिसक शत्रु जिसमें बाधा न दे सके, एसी
कल्याणकर, पुत्र-पोत्र-प्रद और सुन्दर सन्तति से युक्त धन, स्तोत्र सुनकर,
हमें दो।
६. हव्ययुक्ता युवती जुहु कुशल अग्नि के पास दिव-रात आती हे।
स्वकीय दीप्ति धनाभिलाषी होकर उसके निकट आती हे।
हिन्दी-ऋण्वेद ७७५
७. अग्नि, जिस तेज से तुस कठोर-शब्द-कर्ता राक्षस को जलाते
हो, उसी तेज के बल से सारे शत्रुओं को जलाओ। उपताप दूर करके
रोग को नष्ट करो।
८. हे श्रेष्ठ, शुञ्च, दीप्त और पावक अग्नि, जो तुम्हें समिद्ध करते
हँ, उन्हीं के समान हमारे इस स्तोत्र से भी प्रसन्न होकर इस यज्ञ सें
ठहुरो।
९. अग्नि, जो पितु-हितेषी और (कमे-नेता) मनुष्यों ये तुम्हारे तेज
को अमेक देशों सं विभक्त किया हं, उन्हीं के समान हमारे इस स्तोत्र से
प्रसक्त होकर इस यज्ञ में ठहुरो।
१०. जो मनुष्य मेरे श्रेष्ठ कर्म की स्तुति करते हुँ, वही बीर नेता
संग्रामों मं सारी आसुरी माया को दबा दें।
११. अग्नि, हम शृत्य शह में नहीं रहेंगे; दूसरे के घर में भी नहीं
रहेंगे । गुह के हितैषी अरिनदेव, हम पुत्र-शूत्य और वीर-रहित हें। तुम्हारी
परिचर्या करते हुए हम प्रजा से सम्पन्न घर में रहें।
१२. जिस यज्ञाअय गृह में अशववाले अग्नि नित्य जाते हें, हमें बही,
नौकर आदि से युक्त, सुन्दर सन्तानवाले तथा औरसजात पुत्र के द्वारा
बद्धंसान गृह दो ।
१३. हमें अग्रीतिकर राक्षस से बबाओ। अदाता और पापी हिंसक
से बचाओ हस तुम्हारी सहायता से सेना के अभिलाषी व्यक्ति को
पराजित करेंगे ।
१४. बलवान्, दढद्दस्त, प्रभूत अन्नवाला हमारा पुत्र क्षय-रहित स्तोत्र
द्वारा जिस अग्नि की सेवा करता हे, बही अग्नि दूसरे के अग्नि को आवि-
भूत करें।
१५. जो यज्ञकर्ता प्रबोधक को हिसा ओर पाप से बचाते हैं औरः
जिनकी सेवा कुलीन वीरगण करते हें, वही अग्नि हं।
१६, जिन्हें समृद्ध और हविष्मान् व्यक्ति भली भाँति दीष्त करता
७७६ हिन्दी-त्रहवेद
है और यज्ञ में जिनकी परिकमा होता (देवों को बुलानेवाला) करता
है, वे ही ये अग्नि अनेक देशों में बुलाये जाते हँ।
१७. अग्निदेव, धनपति होकर हम तुम्हें लक्ष्य करके नित्य स्तोत्र
और उक्थ-द्वारा यज्ञ में प्रभूत हव्य देंगे।
१८. अग्नि, देवताओं के पास तुम सदा इस अतीव कमनीय हव्य
को ले जाओ और गमन करो। प्रत्येक देवता हमारे इस शोभन हव्य की
इच्छा करता हे।
१९. अग्नि, हमें निस्सन्तान नहीं करना। खराब कपड़े नहीं देना।
हमें कुबुद्धि नहीं देना। हमें भूख नहीं देना। हमें राक्षस के हाथ में नहीं
देना। हे सत्यवान् अग्नि, हमें न घर में मारना, न वन में।
२०. अग्नि, हमारा अन्न विशेष रूप से शोधित करना। देव, याज्ञिकों
को अन्न देना। हम दोनों (स्तोता और यजमान) तुम्हारे दान में रहें।
सुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
२१. अग्नि, तुस सुन्दर आह्वानवाले और रमणीय-दर्शन हो।
शोभन दीप्ति के साथ प्रदीप्त होओ। सहायक बनो ओर औरस पुत्र को
नहीं जलाओ। हमारा मनुष्यों का हितैषी पुत्र नष्ट न होने पावे।
२२. अग्नि) तुम सहायक होओ; और ऋत्विकों द्वारा समिद्ध
अर्निगण को कहो कि वे सुख के साथ हमारा भरण करें। बल के पुत्र
अग्नि, तुम्हारी दुर्बुद्धि भ्रम से भी हमें व्याप्त न करे ।
२३. सुतेजा और देवात्सा अग्नि, जो मनुष्य तुम्हें हव्य देता है, वही
धनी होता हें। जिसके पास धनाभिलाषी स्तोता जानने की इच्छा से
जाता हे, वही अग्निदेव यजमान की रक्षा करते हे।
२४. अग्नि, तुम हमारे महान् कल्याणवाले कार्य को जानते हो।
बल के पुत्र, हम तुम्हारे स्तोता हें। जिससे हम अक्षय, पूर्णाय और
कल्याणकर पुत्र-पोत्र आदि से सम्पन्न होकर प्रसन्न हो सकें, ऐसा महान्
धन हमें दो ।
हिन्दी-त्ररग्बेउ ७७७
२५. अग्निदेव, हमारे अन्न का भली भाँति शोधन करो । देव, तुम
याज्षिकों को अञ्च दो। हम दोनों (स्तोता ओर यजमान) तुम्हारे दान में
रहें। तुम हमें सदा कल्याण-दहारा पालन करो ।
प्रथम अध्याय समाप्त
२ सूक्त
(द्वितीय अध्याय । देवता आप्री । ऋषि वसिष्ठ ।
. छन्द ष्टुप् )
१. अग्नि आज हमारी समिधा को ग्रहण करो। यज्ञ के योग्य धुर्आ
देते हुए अतीव दीप्त होओ। तप्त ज्वालान्माला से अन्तरिक्ष का तट”
. प्रदेश स्पर्श करो और सूर्य की किरणों के साथ मिलित होओ।
२. जो सुकर्मा, शचि और कमं के धारक देवगण सौमिक और
हविःसंस्थादि, दोनों का भक्षण करते हैं, उनके बीच हम स्तोत्र-द्वारा
. जनीय और नर-प्रशस्य अग्नि की महिमा की स्तुति करते हें ।
३. यजमानो, तुम स्तुतियोग्य, असुर (बली), सुदक्ष, द्यावापृथिवी
के बीच दूत, सत्यवक्ता, मनुष्य की तरह मनु-द्वारा समिद्ध अग्निदेव को
सदा पुजा करो।
४. सेवाभिलाषी लोग घुटने टेककर पात्र पूर्ण करते हुए अग्नि को
हव्य के साथ बहिदान करते हें। अध्वर्युओ, घृत पृष्ठ और स्थूल बिन्दु
से युक्त बहि हवन करते हुए उसे प्रदान करो।
५. सुकर्मा, देवाभिलाषी और रथेच्छुक लोगों ने यज्ञ में द्वार का
आश्रय किया है। जैसे गायें बछड़ों को चाटती हैं, वेसे ही चाटनेवाले
और पूर्वाभिलाषी (जुहु और उपभुति) को अध्वयुंगण नदी की तरह यज्ञ
भें सिक्त करते हें ।
७७८ हिन्दी-ऋणवेद
६. युवती, दिव्या, महती, कुशों पर बंडी हुई, बह-स्तुता, धनवती
और यज्ञार्हा अहोरात्रि, कामदुघा धेनु की तरह, कल्याण के लिए, हमे
आश्रय करें ।
७. है विप्र और जातधन तथा मनुष्यों के यज्ञ में कर्मकर्ता, यज्ञ
करने के लिए में तुम्हारी स्तुति करता हूँ। स्तुति हो जाने पर हमारे
अकुटिल यज्ञ को देवाभिमुख करो। देवों के बीच विद्यमान वरणीय धन
का विभाग कर दो।
८. भारतीगण (सूर्य-सम्बन्धियों) के साथ भारती (अग्नि) आबें।
देवों ओर मनुष्यों के साथ इला (अग्नि) भी आवें। सारस्वतो (अन्त-
रिक्षस्थ यचनों) के साथ सरस्वती आवें। ये. तीनों देवियां आकर इन
कुशों पर बेठें।
९, अग्निरुप त्वष्टा देव, जिससे वीर, कर्मकुशर, बलशाली, सोमा-
भिषब के लिए प्रस्तर-हस्त ओर देवाभिलाषी पुत्र उत्पन्न हो सके, तुम
सन्तुष्ट होकर हमें बसा ही रक्षा-कुशल और पुष्टिकारी वीर्य प्रदान
करो। |
१०. अग्विरूप वनस्पति, देवों को पास ले आओ। पशु के संस्कारक
अग्नि वनस्पति देवों के लिए हव्य दें। बे ही यज्ञ-रूप देवता लोगों को
बुखानेवाले अग्नि यज्ञ करें; क्योंकि वे ही देवों का जन्म जानते हुँ ।
११. अग्नि, तुम दीप्तिशाली होकर इन्द्र और शीघ्ताकारी देवों के
साथ एक रथ: पर हमारे सामने आओ। सुपुत्र-युक्ता अदिति हमारे कुश
पर बैठें । नित्य देवगण अग्नि-रूप स्वाहाकारवाछे होकर तृप्ति प्राप्त
करे ॥
३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. देयो, जो अग्नि मनुष्यों में स्थिर भाव से रहते हुँ, जो यज्ञयात्,
तापक, तेजःशाली, घृतान्न-सम्पन्न और शोधक हूँ, जो याशिको में
हिन्दी-त्ररवेद (७७९
श्रेष्ठ हैं और अन्य अग्नि-समूह के साथ सिलित होते हैं, उन्हीं अग्निदेद
को यज्ञ में तुम दूत बनाओ।
२. जिस समय अश्व की तरह घास का भक्षण और शब्द करते हुए
महान् निरोध के साथ दुक्षों में दारु-रूप अग्नि अवस्थित रहते हुँ, उस
समय उनकी दीप्ति प्रवाहित होती है। इसके अनन्तर, अग्निदेव,
तुम्हारा मार्ग काला (धुआँवाला) हो जाता है।
३. अग्नि, नवजात ओर वर्षक तुम्हारी जो अजर ज्वाला समिद्ध
होकर ऊपर उठती हे, उसका रोचक धूम झुलोक में जाता हे। अग्निदेव,
दृत होकर तुम देवों को प्राप्त होते हो ।
४. अग्नि, जिस समय तुम दाँतों (ज्वालाओं) से काष्ठादि अच्चों
का भक्षण करते हो, उस समय तुम्हारा तेज पृथिवी में सिल जाता है।
सेना की तरह विमुक्त होकर तुम्हारी ज्वाला जाती हें। अग्निदेव, अपनी
ज्वाला से जौ की तरह काष्ठ आदि का भक्षण करते हो ।
५, तरुण अतिथि की तरह पुज्य अग्नि की, उनके स्थान पर, रात
और दिन में, पुजा करते हुए मनुष्य सदागामी अश्व की तरह अग्नि को
सेवा करते हें। आहूत और अभीष्टवर्षी अग्नि की शिखा प्रदीप्त होती हे ।
६. सुन्दर तेजवाले अग्नि, जिस समय तुम सूर्य की तरह समीप में
दीप्ति पाते हो, उस समय तुम्हारा रूप दर्शनीय हो जाता हे। अन्तरिक्ष
से तुम्हारा तेज बिजली की तरह निकलता हे। दर्शनीय सुर्यं को तरह
ही तुम भी स्वयं अपना प्रकाश करते हो।
७. अग्नि, जैसे हम लोग गव्य और घुत-युक्त हव्य के द्वारा तुम्हें
स्वाहा दान करते हें, अग्नि, तुम भी वैसे ही, असीम तेजोबळ के साथ,
अपरिमित लोहमय अथवा सुवर्णमय पुरियो-हारा, हमारी रक्षा करवा।
८. बल के पुन्न और जातधन अग्नि, तुम दानशील हो, तुम्हारी जो
शिखायें हे और जिन वाक्यो-द्वारा पुत्रवात् प्रजागण की तुस रक्षा
करते हो, इन दोनों से हमारी रक्षा करो। प्रशस्त ओर हुव्य-दाता
स्तोताओं की रक्षा करो।
७८० हिन्दी-ऋणग्वेद
९. जिस समय विशुद्ध अग्नि अपने शरीर द्वारा कृपा-परवश और
रोचक होकर तीक्ष्ण फरसे की तरह काष्ठ से निकलते हैं, उस सभय बे
यज्ञ के योग्य होते हैं। सुन्दर, सुकृती ओर शोधक अग्नि मातृ-रूप दो
काष्ठों से उत्पन्न हुए हें।
१०. अग्नि, हमें यही सुन्दर धन दो । हम याज्ञिक और विशुद्धान्तः-
करण पुत्र प्राप्त कर सकें। सारा धन उद्गाताओ ओर स्तोताओं का हो।
तुम सदा हमें कल्याण-कार्य के द्वारा पालन करो।
७ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हविवालो, तुम शुक्र और दीप्त अग्नि को शुद्ध हव्य और स्तुति
प्रदान करो। अग्नि देवों और मनुष्यों के समस्त पदाथा के बीच प्रज्ञा-
हारा गमन करते हैं।
२, दो काष्ठों (अरणि-हय) से, तरणतम होकर, अग्नि उत्पन्न
हुए हुँ; इसलिए वही मेधावी अग्नि तरुण बर्ने। वीप्तशिख अग्नि वनों
को जलाते और क्षणमात्र में ही यथेष्ट अन्न का भक्षण कर डालते हैं।
३. मनुष्य जिन शुत्ष अग्नि को मुख्य स्थान में परिग्रहण करते हुँ
और जो पुरुषों-ट्रारा गृहीत वस्तु की सेवा करते हे, वही मनुष्यों के लिए
शत्रुओं की दुःसेव्य रूप से दीप्ति पाते हें ।
४. कवि, प्रकाशक और असर अग्नि अकवि मनुष्यों के बीच निहित
हैं। अग्नि, हम तुम्हारे लिए सदा सुबृद्धि रहेंगे। हमें नहीं मारना ।
५. अग्नि ने प्रज्ञा-द्वारा देवों को तारा हुँ; इसलिए वे देखो के
स्थान पर बेठते हें। ओषधियां, वृक्ष, धारक और गर्भ में वर्तमान अग्नि
का धारण करते हु; पृथ्वी भी अग्नि को धारण करती है ।
६- अग्नि अधिक अमृत देने में समर्थ हें; सुन्दर अमृत देने में समर्थ
हुँ । बली अग्नि, हम पुत्रादि से शून्य होकर नहीं बंठें; रूप-रहित होकर
न बेठं; सेवा-शून्य होकर भी नहीं बेठे ।
हिन्दी-ऋष्वेद ७८१
७. ऋण-रहित व्यक्ति के पास यथेष्ट धन रहता है; इसलिए हम
नित्य धन के पति होंगे। अग्नि, हमारी सन्तान अन्यज्ञात (अनौरस)
न हो। मूखे का मागं नहीं जानना ।
८, अन्यजात (दत्तक पुत्र) पुत्र सुखावह होने पर भी उसे पुत्र
कहकर ग्रहण नहीं किया जा सकता या नहीं समझा जा सकता; क्योंकि
वह फिर अपने ही स्थान पर जा पहुंचता हुं। इसलिए अञ्नवान्, झत्रुहन्ता
और नवजात शिशु हमें प्राप्त हो।
९. अग्नि, तुम हमें हिसक से बचाओ। बली अग्नि, तुस हमें पाप
से बचाओ। निर्दोष अन्न तुम्हारे पास जाय। अभिरूषणीय हज्ञारों प्रकार
के धन हमें प्राप्त हों।
१०. अग्नि, हमें यही सुन्दर धन दो। हम यज्ञ-सेवी ओर विशुद्धान्तः-
करण पुत्र प्राप्त करें। सारा धन उद्गाताओं और स्तोताओं का हो। तुम
लोग सदा हमें कल्याण-काय के द्वारा पालन करो।
५ सूक्त
(देवता वश्वानर अग्नि। ऋषि वसिष्ठ । छन्द् त्रिष्टुप् |)
१, जो वेइवानर अग्नि यज्ञ में जागे हुए सारे देवों के साथ बढ़ते
हँ, उन्हीं प्रवृद्ध और अन्तरिक्ष तथा पुथिवी पर गतिशील अग्नि को लक्ष्य
कर स्तुति करो।
२. जो नदियों के नेता, जलवर्षक और पूजित अग्नि अन्तरिक्ष और
पृथिवी पर निकले हैं, वही वेशवानर नामक अग्नि ह॒व्य-द्वारा वद्धित होकर
मनष्य-प्रजा के सामने शोभा पाते हं।
३. वैइवानर अग्नि, जिस समय तुम पुरु के पास दीप्त होकर उनके
शत्रु की पुरी को विदीणं कर प्रज्वलित हुए थे, उस समय तुम्हारे डर
ते असितवर्ण प्रजा, परस्पर अससान होकर, भोजन छोड़कर आई थी।
४, बैद्वातर अग्नि, अन्तरिक्ष, पृथिबी और झुलोक तुम्हारे लिए
७८३ हिन्दी-भ्दण्बेद
प्रीतिजनक कर्म करते हैं। तुम सतत प्रकाश-द्वारा विभासित होकर अपनी
दीप्ति से द्ावापृधियी को विस्तृत करते हो।
प्. वैइवानर अग्नि, तुम मनुष्यों के स्वामी, धनों के नेता और उषा
सथा दिन के महान् केतुस्वरूप हो। अशवगज फासना करके तुम्हारी
सेवा करते हे । पाप-नाशक ओर घृत-युबत वाकय तुम्हारी सेवा करते हे।
६. मित्रों के पुजयिता अग्नि, घसुओं से तुममें बल स्थापित किया है;
तुम्हारे कर्म की सेवा की हुं । आये (कर्म-निष्ठ) के लिए अधिक तेज
उत्पन्न करते हुए वस्युओं (अनार्यो) को उनके स्थानों से बाहर निकाल
दिया हे।
७. तुम दूरस्थ अन्तरिक्ष मं सुर्य-रूप से प्रकट होकर वायु की तरह
सबसे पहुले सदा सोमपान करते हो। जातधन अग्नि, जळ उत्पन्न करते
हुए अपत्य की तरह पालनीय व्यक्ति को अभिलाषाय देते हुए विद्युद्रप से
गजेन करते हो।
८. सबके वरणीय अग्निदेव, जिस अन्न के द्वारा धन की रक्षा करते
हो ओर हुव्यदाता मनुष्य के विस्तृत यश की रक्षा करते हो, हमें तुम वही
दीप्तिमान् अञ्न दो।
९. अग्नि, हस हविर्दाताओं को प्रभूत अच, धन और श्रवणीय बल
दो। वेशवानर अग्नि, तुम रुद्रों और वन्नु के साथ हमें महान् सुख दो।
६ सूक्त
(देवता वेश्वानर अग्नि ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. में पुरियों के भेदको की वन्दना करता हूँ । वन्दन करके सम्राट,
असुर, बीर और मनुष्यों की स्तुति के योग्य तथा बलवान् इन्द्र की तरह
उन्हीं वेईवानर की स्तुति और कर्मों का कीर्तन करता हूँ।
२. अग्निदेव प्राज्ञ, प्रज्ञापक, पर्वतधारी, दीप्तिशाली, सुखदाता और
्ावापूथिवी के राजा हूँ। देवगण उन्हीं अग्नि को प्रसञ्च करते हैं। में
हिन्दी-ऋग्वेद ७८३
पुरी-बिदारक अग्नि के प्राचीन ओर महान् कर्मो की, स्तुतिद्वारा, कीति
गाता हूं ।
३. अग्नि पञ्च-शूऱ्य, जस्पक, हिसित-घचन, थद्धा-रहित, वृद्धि-शुन्य
और यशे-रहित पणिनायक वस्युओं को विदुरित करे। अग्नि मुख्य होकर
अन्य यज्ञ-शुन््यों फो हेय बनावें।
४. नेतृतम अग्नि ने अग्रकाशसान अन्धकार में निसग्न प्रजा को
प्रसञ्च करते हुए प्रज्ञाद्वारा प्रजा को सरळ-गामिनी किया था। सें उन्हीं
घनाधिपति, असत ओर योद्धाओं का दसन करनेवाले अग्नि की स्तुति
करता हूं ।
५. जिन्होंने आसुरी विद्या को आयुध से हीन किया है और जिन्होंने
सुर्यपत्वी उषा की सूष्टि की हे, उन्हीं अग्नि ने प्रजा को बल-द्वारा रोककर
नहुष राजा को करदाता बनाया था।
६. सारे मनुष्य, सुख के लिए, जिनको कृपा पाने के अर्थ हव्य के
साथ उपस्थित होते हें, वही देशवानर अग्नि पितू-मात्-तुल्य द्यावापृथिवी
के बीच स्थित अन्तरिक्ष में आये हें।
७. वश्वानर अग्नि सूर्यं के उदय होने पर अन्तरिक्ष के अन्धकार
को लेते हें। अग्नि निम्नस्थ अन्तरिक्ष का अन्धकार ग्रहण करते हे। बे
पर समुद्र से, यलोक से ओर पृथिवी से अन्धकार ग्रहण करते हुँ।
७ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अग्निदेव, तुम राक्षसादिकों के अभिभविता और अहव की तरह
वेगशाली हो। अग्नि, तुम विद्वान् हो। हमारे यज्ञ के दुत बनो। तुम
स्वयं देवों में “दग्धद्रुम” कहकर विख्यात हो।
२. अग्नि, तुम स्तुति-योग्य हो और देवों के साथ तुम्हारी मित्रता
हे। तुम अपने तेजोबळ से पृथिवी के तटप्रदेश (तृणगुल्मादि) को
७८४ हिन्दी-ऋग्वेद
शब्दायमान करते हुए अपनी ज्वालाओं से सारे वन को जलाकर अपने
सार्ग-द्वारा आओ ।
३. तरुणतम अग्नि, जिस समय तुम सुन्दर सुखबाले होकर उत्पन्न
होते हो, उस समय यज्ञ किया जाता और कुश रबखा जाता है। स्तुति- |
योग्य अग्नि और होता तृप्त होते हें और सबके लिए स्वीकरणीय मातृ-
भूत द्यावापृथिवी बुलाई जाती हें।
४. विद्वान् लोग यज्ञ में नेता, अग्नि को तुरत उत्पन्न करते हें। जो:
इनका हव्य वहन करते हे, वही विश्वपति, मादक, मधु-वचन और यज्ञवान्
अग्नि मनुष्यों के घरों में निहित हें |
५. जिन अग्नि को घुलोक और पृथिवी बद्धित करती है और जिन
विइव-स्वीकरणीव अग्नि का होता यज्ञ करता हुँ, वही हृव्यवाहक, ब्र ह्या
ओर सबके धारक अग्नि द्युलोक से आकर मनुष्यों के घरों में बेठे
हुए हैं ।
६- जिन मनुष्यों ने यथेष्ट मन्त्र-संस्कार किया हैं, जो श्रवणेच्छु होकर
वद्धित करते हें और जिन्होंने सत्यभूत अग्नि को प्रदीप्त किया है, वे अन्न-
द्वारा सारे पोष्य बुन्द को द्वित करते हें।
७. बल के पुत्र अग्नि, तुम वसुओं के पति हो। वसिष्ठगण तुम्हारे
स्तोता हैं। तुम स्तोता और हविष्मान् को अन्न-द्वारा शीघ्र व्याप्त करो।
हमें सदा स्वस्तिः द्वारा पालन करो ।
८ सूत्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसि । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. जिन अग्नि का रूप घृत से आहूत होतः है ऑर हृव्य के साथ
बाधा-्युक्त होकर जिनकी स्तुति नेता लोग करते हैं, वही राजा और
स्वामी अग्नि स्तुति के साथ समिद्ध होते हें। उषा के आगे अग्नि दीप्त
होते हैं ।
२. यही होता, मादक और विशाल अग्नि मनुष्यों-ट्वारा महान् गिने
हिन्दी-ऋग्वेद ७८५
जाते हैं। अग्नि दीप्ति फैलाते हैं। यह कृष्णमार्ग अग्नि पृथिवी पर सध
होकर ओब'विथो-द्वार! परिवर्दधित होते हैं ।
३. अग्नि, तुम किस हृबि-द्वारा हमारी स्तुति को व्याप्त करोगे ?
स्तूयमान होकर तुस कोन स्वथा प्राप्त करोगे ? शोभन दानबाडे अग्निदेव,
हस कब दुस्तर समीचीन धन के पति और विभागकारी होंगे?
४. जिस समय ये अग्नि सूर्यं की तरह विशाल प्रधापशाली होकर
प्रकाश पाते हें, उस समय चे भरत (यजमान) द्वारा प्रसिद्ध होते हुँ।
जिन्होंने युद्धों में पुर को अभिभूत किया है, बही दीप्यसान और देवों फे
अतिथि अग्नि प्रज्वलित हुए ।
५. अग्नि, तुम्हें यथेष्ट हव्य प्रद हुआ है। सारे सेजों के लिए
प्रसन्न होओ और स्तोता का स्तोत्र सुनो। सुजन्सा अग्नि, स्तूयमान होकर
स्वयं शरीर बद्धित करो।
६, सौ गौओं के बिभागकारी और हजार गीओं से संयुक्त तथा बिद्या
और कर्म से सहा वसिष्ठ ने इस स्तोत्र को अग्नि के लिए उत्पन्न
किया हुँ ।
` बल-पुत्र अग्नि, तुम वसुओं के पति हो। बसिष्ठगण तुम्हारे
स्तोता हू । तुम स्तोता ओर हविष्मान् को अन्न-द्वारा शीघ्र व्याप्त करो ।
हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
९ स्क्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. अग्नि सब प्राणियों के जार, होता, मदयिता, प्राज्ञतस और
शोधक हुँ। वह उषा के बीच जागे हें। वहू देवों और मनुष्यों की प्रज्ञा
धारण करते हुँ। देवों सं हव्य ओर पुष्पात्माओं में धतत धारण करते
हे!
२. जिन अग्नि ने पणियों का द्वार खोला था, वही सुकृती हैं । बे
हमारे लिए बहु-क्षीर-युरत और अर्चनीय गायों का हुरण करते हुँ । थे
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देवों को बुलानेवाले, भदयिता और शान्तमना हँ। अग्नि रान्नि ओर यज-
माम का अन्धकार दूर करते देखे जाते हें।
३. अस्, प्राश (कथि), अदीन, दीप्तिमान्, शोभन गृह से युक्त,
मिश्र, अलिणि और हमारे म्गल-विधायक अग्नि, विशिष्ट दीप्ति से युक्त
होकर, उषा के मुख में शोभा पाते ओर सिल के गर्भ-्एप से उत्पन्न
होकर ओषाधियों में प्रदेश करते ह।
४, अग्नि, लूम मनुष्यों के यश-फाल में स्ठुति-्योग्य हो। जातधन
अर्ति युद्ध में सङ्भस होकर दीप्ति पाते हैं। बे दर्शनीय तेज-हारा शोभा
पाते हैं। स्तुलियाँ समिद्ध अग्नि को प्रतिबोधित करती हुँ।
५, अग्नि, घुम देवों के सामने दूत-कायं के लिए जाओ। संघ के
साय स्तोताओं को नहीं मारना। हमें रत्न देने कै लिए तुम सरस्वती,
सरबगण, अश्षिवद्ठय, जल आदि सारे देवों का यज्ञ करते हो।
६. अग्नि, वसिष्ठ तुम्हें समिद्ध करते हें। तुम कठोर-भाषी राक्षसों
को मारो। जातवेद अग्नि, अनेक स्तोत्रों से देवों को स्तुति करो। तुम
हमें सदा स्थस्ति-द्वारा पालन करो।
९० सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. उषा फे जार सूर्य की तरह अग्नि विस्तीर्ण तेज का आश्रय ग्रहण |
करते हैँ । अत्यन्त दीप्तिमान्, काम-वर्षी, हव्य-प्रेरक और शुद्ध अग्नि
कर्मो फो प्रेरित करके दीप्ति-द्वारा प्रकाश पाते हें। अग्नि अभि-
लाषियों को जगाते हें ।
२. दिन में अग्नि उषा के आग ही सुय की तरह शोभा पाते हे ।
यज्ञ का बिस्तार करते हुए ऋत्विकृगण मननीय स्तोत्रों का पाठ करते
हूं। घिद्टान्, दूत, देवों फे पास गसनकर्ता और दात-श्रप्ठ अग्निदेव
प्राणियों को द्रघीभूत करते हैँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ७८७
३. देवाभिराषी, घन-याचक और गतिशील स्तुति-रूप वाक्य अग्नि
के सामने जाते है । बे अग्नि दर्शनीय, सुरूप, सुन्दर-गसंनकारी, हव्य-
वाहक और मनुष्यों के स्वामी हें । क्
४. अग्नि, तुस बसुओं के साथ मिलकर हमारे लिए इन्द्र का आह्वान
करो; सद्रो के साथ संगत होकर महान् दद्र का आह्वान करो; आदित्यों
के साथ मिलकर विश्व-हितेषी अदिति को बुलाओ और स्तुत्य अङ्गिरा
लोगों के साथ मिलकर सबके वरणीय बृहस्पति को बुलाओ ।
५. अभिलाषी मनुष्य स्तुत्य, होता और तरुणतम अर्ति की यज्ञ में
स्तुति करते हे। अग्नि रात्रिवाले हें। बहु देवों के यज्ञ फे लिए हव्य-
दाता के तन्द्रा-शुन्य दूत हुए थे ।
११ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टप् ।)
१. अग्नि, तुस यज्ञ के प्रज्ञापक होकर महान् हो, तुम्हारे बिना देव
लोग मत्त नहीं होते। तुम सारे देवों के साथ रथ-युक्त होकर आओ
और कुशो पर, मुख्य होता बनकर, बैठो ।
२. अग्नि, तुम गमनशील हो ॥ हविर्दाता मनुष्य तुमसे सदा दौत्य-
कार्य के लिए प्रार्थना करते हं । जिस यजमान के कुश्चों पर तुस देवों के
साथ बैठते हो, उसके दिन शोभन होते हें ।
३. अग्नि, ऋत्विक लोग दिन में तीन बार हुव्यदाता मनुष्य के लिए
सुम्हारे बीच हृव्य फंकते हें। समु की तरह तुम इस यज्ञ में
दूत होकर यज्ञ करो और हमें शत्रुओं से बचाओ ।
४. अग्नि महान् यज्ञ फे स्वामी हें; अग्नि सारे संस्कृति हव्यों के
पति हे। वसु लोग इनके कर्स की सेवा करते हें ओर देवों ने अग्नि को
हुव्यवाहक बनाया हे ।
५, अग्नि, हव्य का भक्षण करने के लिए देवों को बुजाओ। इस
७८८ हिथ्दी-परग्येष
यज्ञ में इन्द्र आदि देवों को प्रमत्त करो । इस यज्ञ को यलोक में, देवों के
पास, ले जाओ । सदा तुम स्वस्ति-द्वारा हारा पालन करो ॥
१२ झू
(देवता अग्नि । ऋषि वसिए । छन्द त्िष्ठुप |)
१. जो अपने गृह मे समिद्ध होकर दीप्ति पाते हू, उन्हीं तरुणतम,
विस्तीणे, द्ावापृथियी के मध्य से स्थित, विचित्र शिस्यावाले, सुन्दर रूप
सें आहूत और सर्वत्र जानेवाले अग्नि के पास हम नमस्कार के साथ गमन
करते हे ।
२. जातधन अग्नि अपनी महिमा हारा सारे पापों का अभिभव करते
हें। वे यज्ञ-गृह में स्तुत होते हें । वे हमें पाप ओर निन्दित कर्म से
बचावें । हम उनकी स्तुति ओर यज्ञ करते हू ।
३. अग्नि, तुम्हीं मित्र ओर वरुण हो। वरिप्ठवंशोय स्ठुति-द्वारा
तुम्हें बद्धित करते हुँ। तुमसं विद्यमान धन सुलभ हो । तुम सदा हमें
स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
१२ सूक्त
(देवता अग्नि वेश्वानर । ऋषि वसिए । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. सबके उद्दीपक, फर्स के धारक और अमुर-वदिघातक अग्नि को
लक्ष्य कर स्तोत्र और फर्म करो । में प्रसन्न होकर मनोरथ-द!ता वेश्वा-
मर अग्नि को लक्ष्य कर यज्ञ में, हव्य के साथ, स्तुति करता हूं ।
२. अग्नि, तुमने दीप्ति-द्वारा दीप्त और उत्पन्न होकर यावापृथिवी
को पुर्ण किया हैं जातधन बेश्वानर, अपनी सहिमा-द्वारा तुमने देवों को
शत्रुओं से मुक्त किया हे ।
३. अग्नि, तुम सुर्य-रूप से उत्पन्न हो, स्वामी हो, सर्वत्र गमनशील
हो । जसे गोपालक पशुओं का सन्दर्शन करता हुँ, बेसे ही तुम जिस समय
भूतों का सन््दर्शन करते हो, उस समय स्तोअ-रूप फल प्राप्त करो । सदा
पुस हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ७८९
१४ सूक्त
(दैवता अग्नि। ऋषि वसिष्ठ । छन्द बृहती और ऋ्रिष्ठुप् |)
१. हम हवियाले है हम समिधा-हारा जातवेदा अग्नि की सेवा
करते हँ । देव-स्तुति-द्वारा हम अग्नि की सेवा करेंगे। हव्य-द्वारा शुख
दीप्ति अग्नि की सेवा करेंगे।
२. अग्नि, समिधा-हारा हम तुम्हारी सेवा करेंगे। है थजनीय, हुम
स्तुति-द्वारा तुम्हारी सेवा करेंगे। हे कल्याणमयी ज्वालावाले अग्नि,
हम हुव्य-द्वारा तुम्हारी सेवा करेंगे । _
३. अग्नि, तुम हृव्य (वषट्कृति) का सेवन करते हुए देवों के संग
हमारे यज्ञ में आओ तुम प्रकाशमान हो; हम तुम्हारे सेवक बनें. ।
तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
१५ सूक्त |
(देवता आन । ऋषि वसिष्ठ । छन्द गायत्री |):
१. जो अग्नि हमारे समीपतप बन्धु हँ, उन्हीं के पास में बेठनेबाले
और मनोरथवर्षक अग्नि के लिए, उनके मुख में, ऋत्विको, हव्य दो।
२. प्राज्ञ, गह-पालक और नित्य तरुण अग्नि पञ्चजनों (चार वणो
और निषाद) फे सामने घर-घर बठते हू ।
३. येही अग्नि हमारे मन्त्री हें। बाधा से सारे धन की रक्षा करे ।
हुमें पाप से बचाओ ।
४. हम द्लोक के, इयेत पक्षी की तरह शीघ्रगासी अग्ति को उद्देश-
कर नया मन्त्र उत्पन्न करते हें । वे हमें घहुत धन दें।
५. यज्ञ के अग्रभाग में दीप्यमान अग्यि की वीप्तियाँ पुत्रबाम् मनुष्य
के घन की तरह मेत्रों को स्पृहणीय होती हूं ।
६. याज्ञिफों के उत्तम हव्य-वाहक अग्नि इस हुव्य को अभिलाषा
करें ओर हमारी स्तुति की सेषा करें ।
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७. हे समीप जाने योग्य, विश्व-पति और यजमाणों -हारा बलाये
गय अग्निदेव, तुम प्रकाशमान और सुवीर हो । हमने तुम्हें स्थापित किया
हँ ।
८. तुम दिन-रात प्रदीप्त होओ। इससे हम शोभय अग्निवाले
होंगे । हमें चाहते हुए तुम सुवीर (सुन्दर स्तोत्रबाले) यनो ।
९, अग्नि, प्रतापी यजमान कर्म-द्वारा, घन-लाभ के लिए, तुम्हारे
पास जाते हैं ।
१०. शुञ्र शिखावाले, असर, स्वयंशुद्ध, शोषक और स्तुति-योष्य
अग्नि, राक्षसों को बाधा दो।
११. बर के पुत्र, तुम जगदीइवर होकर हमें धन दो! अंग देवता
भी वरणीय धन वान करे ।
१२, अरित, घुम पुन्र-पौज्रादि से युक्त अन्न दो। सथिता देव भी
वरणीय धन दे। भग ओर अदिति भी दे ।
१३. अग्नि, हमें पाप से बचाओ । अजर देव, तुस हिसकों को
अत्यस्ह तापक तेज-द्वारा जलाओ ।
१४, हुम बुद्धंषे हो । इस समय तुस हमारे मनुष्यों की रक्षा के लिए
महान् खौह से निमित शतगुणपुरी बनाओ (ताकि लॉहु-नगरी सें छात्र
हमें भ भार सकें )।
१५. अहिसनीय रात्रि को अथवा अन्धकार को हटानंवाले अग्नि,
तुम हमें पाप हे और पाप-कामी व्यक्ति से दिम-रात बचाओ ।
१६ सूक्त
(देवता असि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द बहती ओर सती बहती |)
१. तुम्हारे लिएं बरू के पुत्र, प्रिय विद्व॑त्थेष्ठ, ्रतिशील सुन्दर यज्ञ-
वाले, सबके दूत और नित्य अग्नि को, इस स्तोत्र के द्वारा, में बुलाता हुँ ।
२. अग्नि रखिकर और सथके पालक हैं। बे दोनों अश्वो को रथ
में जोतते हूं । ये देवों क प्रति अत्यन्त द्रुत-गमन करते हें। बे सुस्दर
हिन्दी-ऋण्वेद ७९१
रूप से आहूत सुम्दर स्तुत्तियाले, यजबीय और सुपार्मा हैं । बसिल्ठयशियो
का घन अग्नि के पास जाय ।
३. अथीष्टकारी और बुलाये जायेयाले इन अग्नि का तेज ऊपर उठ
रहा हें । रुचिकर ओर आकाश छूनेयाले थुएँ उठ रहे हैँ । सनष्य अग्नि
को जला रहे हे ।
४. बड़-पुत्र अग्नि, तुम थशः-सालो हो। हम तुम्हें दूत बनाते हुँ ।
हव्य-भक्षण के लिए देवों को बुलाओ ॥ जिस समय तुम्हारी हम याचना
करते है, उस समय मनुष्यों के भोय-योग्य घय हमें दो ।
५. विश्य-सानवीय अग्नि, तुम हमारे यज्ञ में गृह-पति हो । तुस होता,
पोता और प्रकृष्ट-वुद्धि हो । वरणीय हव्य का यज्ञ करो ओर भक्षण करो।
६. सुन्दरफर्मा अग्नि, तुम यजमान फो रत्न वो। तुम रत्म-वाता
हो। हमारे यज्ञ में सबको तेज बनाओ। जो होता बढ़ता है, उसे
बढ़ाओ
७. सुन्वर रूप से आहुत अग्नि, तुम्हारे स्तोता प्रिय हों। जो
घनवान् दाता लोग यर-रामुद 77 और गो-समह दान करतेहें, बे भी प्रिय हों।
८. जिन घरों में घृतहस्ता, अन्न-रूपा और हविलेक्षणा देवी पूर्णा
होकर उठी हे, उसको, हे बलवान् अग्नि, द्रोहियों और मिन्दकों से
बचाओ हमें बहुत समय तक स्तुति-योग्य सुख वो ।
९. अग्नि, तुस एव्य-बाहुक और विद्वान् हो। मोदयित्री ओर मुख-
स्थिता जिछ्ला-द्वारा हमें धन वो । हुम हव्य वाले हें। हव्यवाता को कर्म
में प्रेरित करो ।
१०. तरुणतम अग्नि, जो यजमान महान् यश की इच्छा से साधक-
रूप और अददास्मक हर्य दान करते हैं, उन्हें पाप से बचाओ और सो
नगरियो-द्वारा पालन करो ।
११. धनवाता अग्निदेव तुम्हारे हबिःपूर्ण खुक् वा चमस फी इच्छा
करते हे । सोम-द्वारा घुम पात्र सिद्ध करो, सोमदान करो । अत्र
अण्निदेब तुम्हें वहन करते हें ।
७९२ हिन्दी-ऋष्वेद
१३. देवो, तुमने उत्तम-बुद्धि अग्मि को यज्ञ-बाहुक और होता बनाया
है। वे अग्नि परिवयाकारी हुण्यदाता जन को शोभन वीर्यवाला और
रमणीय षन दें ।
१७ सूक्ता
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अग्नि, शीभन समिधा के हारा समिद्ध होओ । अध्वर्यु भली भाँति
कुश पेलावे ।
१, वैब-कामी ट्वारों को आश्रित करो और यज्ञाभिलावी देवों को इस
यज्ञ में बुलाओ ।
३. जासघम अग्नि, दें फे सासने जाओ । हव्प-द्वारा देवों फा यज्ञ
करो और देशों को शोभन यज्ञवाले करो ।
४, जासथन अग्नि, अमर देवों को सुन्दर यज्ञ से युक्त करो । हव्य
सि यज्ञ करो और स्तोत्र से प्रसन्न करो ।
५. है सुबुद्धि अग्नि, समस्त बरणोय धन हमें दान करो । हमारे
आशीर्वाद आज सत्य हों ।
६. अग्नि, तुम बल-पुत्र हो । तुम्हें उन्हीं देवों ने हव्यवाहक बनाया
हत
७. तुभ प्रकाशमान हो । तुम्हें हम हवि देंगे । तुझ महान् और पास
जाने योग्य हो । हमें रत्न (घन) दान करो ।
१८ सूक्त
(२ अनुवाक । दैवता इन्द्र किन्तु २२-२ मन्त्रों के
सुदास। ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, हमारे पितरों ने, स्तुति करते हुए, तुमसे ही सारे समीहर'
धर्मों को प्राप्त किया हूँ । तुमसे ही गाये सरलता से दोहन में समर्थ होती
हुँ । तुमसे भइब है, पैदाशिलाजी ब्यफ्ति को तुम प्रभूत धन देते हो ।
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भ्टुग्दद ७९३
` इन्द्र, पत्नयो फे साथ राजा फॉ तरह तुस दीप्ति के साथ रहते
हो । इन्द्र, तुम विद्वान और क्रान्त-हर्मा (कबि) होकर स्तोताओं को
रूप दान करो ओर गो तथा अइ्य-द्वारा रक्षा करो । हम तुम्हारी कामना
करते हूँ । धन के लिए तुम हमें संस्कृत करो ।
३. इन्द्र, इस यज्ञ की स्पद्धमान और रमणीय स्तुतियाँ तुम्हारे पास
जाती हूँ । तुम्हारा धन हमारी ओर आवे । तुम्हारी कृपा प्राप्त कर हम
सुखी होंगे । | |
४. बढ़िया घासवाली गोशाला की गाय की घरह घुम्हें दहने की
इच्छा से यसिष्ठ वत्स-रूप स्तोत्र बनाते हे । समस्त संसार घुम्हें ही गायों
का पति कहता हूँ । इन्द्र, हमारी सुन्दर स्तुति के पास आओ ।
५. स्तवनीथ इन्द्र, तुमने परुष्णी नदी के जल के विकट-धार होनें
पर भी, सुदास राजा के लिए जल को तलस्पशं और पार करने के योग्य
` घना दिया था । स्तोता के लिए नदियों के तरंगायित और रोकनेवाले
शाप को तुमने बूर किया था ।
६. याज्ञिक और पुरोदाता तुर्वश नाम कै एक राजा थे । जल में मत्स्य
की तरह बंधे रहने पर भी भुगुओं ओर द्रुह्य ओं ने धन के लिए सुदास ओर
तुवंश का साक्षात्कार करा दिया । इन दोनों व्याप्ति-परायणों में एक
(तुवेश) का इन्द्र से वध किया और अन्य (सुदास) को तार दिया ।
७. हुव्यों के पाचक, कल्याण-सुख, तपस्या से अप्रवृद्ध, विषाण-हस्त
(वीक्षित) और मंगलकारी व्यक्ति इन्द्र की स्तुति करते हें। सोमपान
से मत्त होकर इन्द्र आर्य की गाये हिसको से छुड़ा लाये थे। स्वयं गायों
को प्राप्त किया था और युद्ध करफे उन गो-सस्कर रिपुओं को सारा था ।
८. दुष्ट-माणस और मन्दमति शत्रुओं ने परुष्णी नवी को खोवते हुए
उसके तटों को गिरा दिया था । इन्द्र की कृपा से सुवास विइय-व्यापक हो
गये थे । चयमान का पुत्र कबि, पालिप्त पशु की तरह, सुबास-द्वारा सुला
दिया गया अर्यात् मार दिया गया ।
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रछ ९४ हन्द -य्दग्यद्
९, इन्द्र-प्वारा परुष्णी के तट ठीक कर विये जाने पर उसका जल
गन्तव्य स्थान की ओर, नदी में चला गया--इधर-उधर नहीं गया ।
सुदास राजा का घोड़ा भी अपने गन्तव्य स्थान को चला गया । सुदास के
लिए इन्द्र ने मनुष्यों में सन्ततियाले और बकवादी शत्रुओं को, उनकी
सन्ततियों के साथ, वश में किया था।
१०. जेसे चरवाहों के बिना गाये जो की ओर जाती हैं, वेसे ही माता-
द्वारा भेजे गये और एकत्र मरुद्गण, अपनी पूर्व की प्रतिज्ञा फे अनुसार, मित्र
इन्द्र की ओर गये । मरुतों के नियुत् (घोड़े) भी प्रसञ्च होकर गये ।
११. कीत्ति अजित करने के लिए राजा सुदास ने थो प्रदेशों के २१
मनुष्यों का वध कर डाला था । जैसे यवक अध्यर्द दह-पछ में कुश काटता
हे, वैसे ही वह राजा शत्रुओं को फाटता हुँ । यीर इन्द्र मे सुदास की
सहायता के लिए मरुतों को उत्पन्न किया था।
१२. इसके सिवा वज्जबाहु इन्द्र ने भुत, कवष, सुद्ध और दुह्य नामक
व्यक्तियों को पानी में डुबो दिया था । उस समय जिन रोगों मे उनकी
इच्छा करके उनकी स्तुति की थी, वे सखा माने गये और मित्र बन गये ।
१३. अपनी शक्ति से इन्द्र ने उक्त शुत आदि की सुब्ढ समस्त मग-
रियों को ओर सात प्रकार के रक्षा-साधनों को तुरत विवी्ण किया था ।
अनु के पुत्र के गृह को तृत्सु को दे दिया था। इन, हम दुष्ट वचनवाले
ममुष्य को जीत सके--इन्, एसी कृपा फरो।
१४. अनु ओर घ्ुह्य, की गोओ को घाहनेवारे छियासठ हजार छिया-
सठ सम्यन्धियों को, सेवाभिलाषी सुदास फे लिए, सारा गया था । यह सब
कार्य इत्र की श्रता के सुचक हें ।
१५ दुष्ट सित्रोंवाले ये अनाडी तृत्षुलोग इन्द्र के सामने युद्ध-भूमि में
उतरने पर पलायन करने पर उद्यत होने पर निम्नगामी जळ की तरह
दौड़े थे; परन्तु बाधा प्राप्त होनें पर उन छोगों ने सारी भोग्य बस्तुएं
सुदास को वे दी थीं ।
हिन्वी-््येद ७९५
१६. यीय-शाजी सुदास के हिंसक, इख-शब्प, हब्यदाता और उत्साही
झनुण्यों को एस ने धराशायी किया था। इन्द्र ने कोषियो के क्रोध को
चौपट छिया या। मार्ग में आते हुए सुवास फे शम् ने पडायन-पय का आय
लिया था ।
१७. इन्द्र ने उस समय दरिद्र सुदास के द्वारा एक कार्य कराया था ॥
प्रबल एए को छाण-द्वारा भरवाया था । सुई से यपादि का कोना काट
दिया था । सारा धन सुदास राजा को प्रदान किया था ।
१८. इन्द्र, तुम्हारे अधिकांश शत्र वशी हो गये हें। मनस्वी भेद
(नास्तिक) को वश में करो । जो तुम्हारी स्तुति करता हे, भेद उसी
का अहित करता हूँ। इसके बिरोध में तेज योद्धा को उत्साहित
करो (भेजो) । इसे वज्य से मारी।
१९. इस युद्ध में इन्द्र ने भेद का वध किया था। यमुना ने इन्द्र को
सन्तुष्ट किया था । तृत्सुओं ने भी उन्हें सन्तुष्ट किया था । अज, दिग
और यक्ष नामक जनपदों ने इन्द्र को, अइवों के सिर, उपहार में दिये थे ।
२० इन्द्र, तुम्हारी प्राचीन कृपार्ये ओर धन, उषा फे समान, वर्णन
करने योग्य नहीं हे । तुम्हारी नई कृपाय और घन भी वर्षनातीत हैँ । तुमने
मन्यमान के पुत्र देवक का वध किया था । स्वयं विशाल शैल-खण्ड से शम्बर
का वध किया था।
२१. इन्द्र, अनेक राक्षस जिनके वध की इच्छा करते हें, उन्हीं
पराशर, वसिष्ठ आदि ऋषियों ने, तुम्हारी इच्छा फरफे, अपने गृह की
ओर जाते हुए, तुम्हारी स्तुति की थो । ये तुम्हारा सरण नहीं भूले; क्योंकि
तुम उनका पालन नहीं भूजे, जिससे उनके दिन सदा सुन्दर रहते हें ।
२२. देवों में श्रेष्ठ इन्द्र, देववान् राजा के पी और पिजवन के
पुत्र राजा सुवास की वो सो गौओ और दो रथों को मेने, इन्द्र की स्तुति
करफे, पाया हुं । जसे होता यज्ञ-गृह में जाता हे, बेसे ही मे भी गमन
करता ठू ।
७९६ : हिन्दी-ऋणग्वेद
२३. पिजवनपुत्र सुदास राजा के श्रद्धा, दान आदि से युक्त, सोने
के अलंकारों से सम्पन्न, दुर्गति के अवसर पर सरल-गामी और पृथिवी-
स्थित चार घोड़े पुत्र की तरह पालनीय बसिष्ठ को पुत्र के अन्न यों यश
के लिए ढोते हें ।
४४, जिन सुदास का यश द्यावापृथिवी के बीच अवस्थित है और
जो दातृ-श्रेष्ठ श्रेष्ठ-व्यक्ति को घन दान करते हें, उनको स्तुति, सातौं
लोक, इन्द्र की तरह, करते हुँ। नदियों ने युद्ध में युध्यामधि नाम के शत्र
का विनाश किया था ॥
२५. नेता मरुतो, यह सुदास राजा के पिता (पिजवन) हँ । दियो-
बास अथवा पिजवन को ही तरह सुदास की भी सेवा करो। सुदास
(दिवोदास-पुत्र) के घर की रक्षा करो । सुदास का बल अविनाशी ओर्
भश्ञिथ्त रहे |,
१९ सुक्त
(देवता इन्द्र ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. जो इन्द्र तीखी सींगवाले बेल की तरह भयंकर होकर अकेले ही
सारे शत्रुओं को स्थान-च्युत करते हें और जो हव्य-शून्य रोगों के घर
को ले लेत है, वे ही इन्द्र अतीव सोमाभिषव-कर्त्ता को धनदान करें ।
२. इन्र, जिस समय छुमने अजुनी के पुत्र कुत्स को धन देकर दास,
शुष्ण और कुयव को वशीभूत किया था, उस समय शरीर से शुश्रषमाण
होकर युद्ध में कुत्स की रक्षा की थी।
३. हे धर्षक इन्द्र, हव्यदाता सुदास को वज्र के द्वारा सारी रक्षाओं
के साथ बचाओ । भूमिलाभ के लिए युद्ध में पुरुकुत्स फे पुत्र त्रसबस्यु
मौर पुर की रक्षा करो।
४. नेताओं की स्तुति के योग्य इन्द्र, सरुतों के साथ यद्ध में तुसने
अनेक वृत्रों (शत्रुओं) को मारा था। हरि अइव से युवत इख, बभीति
के लिए तुमने दस्यु, चुमुरि ओर घुनि का बघ किया हुँ ॥
हिन्दी-त्रद्ण्वेद ७९७
५. वज्जहस्त इख, तुममे इतना बल है कि तुमने शाम्बराशुर की
निन्यानब नगरियों को छिन्न-विच्छिन्ष कर डाला था। अपन निवास के लिए
सौवीं पुरी को अधिकृत कर रखा हूँ । वृत्र ओर नमुचि का यघ फिया है ॥
` ६, इन्द्र, हुव्यदाता यजमान सुदास के लिए तुम्हारी सम्पत्तियाँ सना“
तन हुई । बहुझर्भा इन्द्र, तुम कामवर्षी हो, तुम्हारे लिए में दो अभिलाषा”
दाता अइवाँ को रथ में जोतता हूँ तुम बलिष्ठ हो। तुम्हारे पास
स्तोत्र जायं ।
७. बल और अश्ववाले इख, तुम्हारे इस यज्ञ में हम वरदान ओर
पाप के भागी न बनें । हमें बाधा-झून्य रक्षा से बचाओ, ताकि हम
स्तोताओ में प्रिय हों ।
८. घनपति इन्द्र, तुम्हारे यज्ञ में हम स्तोत्-नेता, सखा और प्रिय
होकर घर म प्रसन्न हों । अति'थ-यत्सल सुदास को सुख देते हुए तुबंश
और यादव (यदुवशी) को वशीभूत करो ।
९. धनवान् इन्द्र, तुम्हारे यज्ञ के हमीं नेता ओर उक्थ फा (मंत्रों
के) उच्चारण करनेवाले हें। आज उकथों का उच्चरण करते हैं
और तुम्हारे हव्य के द्रा पणियों (अदाता वणिकों) को भी घन देते हूँ ॥
हमें सस्य रूप से स्वीकार करो ।
१०. नेत्-श्रेष्ठ इन्र, नेताओं की स्तुतियों ने तुम्हें पूजनीय हव्यदान
करके हमारी ओर फर दिया हूँ । युद्ध में इन्हीं नेताओं का तुम कल्याण
करो और इनके सखा, शुर तथा रक्षक बनो ।
११. वीर इन्द्र, आज तुम स्तूयमान और स्तोत्रवाले होकर शरीर से
घात होओ । हमें अन्न और घर दो । तुम सदा स्वस्ति-द्वारा हमारी रक्षा
क्रो ।
द्वितीय अध्याय समाप्त ॥
७९८ हिन्दी-ऋणग्वेद
२० सुख
(तृतीय अध्याय । देवता इन्द्र | ऋषि वसिष्ठ | छन्द त्रिप्डुप ।)
१. बली और ओजस्वी इन्द्र बीयं (प्रकाश) के लिए उत्पन्न हुए हे।
सनुष्य के जिस हितकारी कार्य को करने की इच्छा इन्द्र फरते हे, उसे
अवश्य ही करते हैं । तरुण और रक्षा के लिए यज्ञ-गृह को जानेबाले इन्द्र
महापाप से हमें बचावें ।
२. वद्धमान होकर इन्द्र वृत्र का वध करते हें । वे वीर हैं। वे शीघ्र
ही शरण देकर स्तोता की रक्षा करते हें। उन्होंने सुदास राजा के लिए
प्रदेश का निर्माण किया है । वे यजमान को लक्ष्य कर बार-बार घन
देते है ।
३. इन्द्र योद्धा, निष्पक्ष, युद्धकर्ता, कलह-तत्पर, श्र ओर स्वभावतः
बहुतों का अभिभव करनेवाले है ॥ वे शत्रुओं के लिए अजेय ओर उत्तम
बलवाले हुँ । इन्द्र ने ही शत्रु-सेना को बाधा दी हुँ। जो लोग शत्रुता
करते हें, उनका वध इच्ध ही करते हें।
४. बहुधनशाली इन्द्र, तुमने अपने बल और महिमा से ावापृथिवी,
दोनों को परिपूर्ण किया है । अइववाले इन्द्र, शत्रुओं के ऊपर य्य फॅकते
हुए यज्ञ में सोमरस-द्वारा सेवित होते हें।
५. युद्ध के लिए पिता (कश्यप) ने कामवर्षी इन्द्र को उत्पन्न किया
है । नारी ने समुण्य-हितेदी उन इन्द्र को उत्पन्न किया है । इन्द्र मनुष्यों
के सेनापति होकर स्वामी बनते हूँ । इन्द्र ईश्वर, शत्रुहन्ता, भौओं के
अन्वेषक और शत्रुओं के पराभवकारी हें ।
६. जो व्यदित इन्द्र के शत्र-विनाशी सन की सेवा करता है, वह कभी
भी स्थान-ञ्जष्ट नहीं होता, कभी क्षीण नहीं होता जो जन इन्र की
स्तुति करता हे, यज्ञोत्पन्न और यज्ञ-रक्षक इन्द्र उसे धन दें ।
७. विचित्र इन्द्र, पूर्ववर्ती पिता या ज्येष्ट भाता परवर्ती को जो
दान करता हे ओर जो धन कनिष्ठ से ज्येष्ठ प्राप्त करता है तथा जो घन
£) छह,
त ८: CRN
४७०५८ is ७९९
पिता से अमृत को हरण, पुत्र प्राप्त कर, दुर देश जाता हे, इन तीनों
तरह फे घनों को हमारे लिए ले आओ।
८. खज्ग्रधर इन्द्र, ठुम्हें जो प्रिय सखा हव्य देता है, वह तुम्हारे
दान में ही अबस्थित रहे । हम, अहिसक होकर, तुम्हारी दया प्राप्त करले
हुए सबसे अधिफ अञ्नवान् होकर मनुष्यों फे रक्षणशीरू गृह में रह सकें
९, धनर इन्द्र, तुम्हारे लिए बरस फर यह सोभ रो रहा हें ॥
स्तोता तुम्हारी स्तुति करता हु । शक्र, में तुम्हारा स्तोता हूँ । हमें घस
की अभिलापा हुई हु । इसलिए तुम शीघ हुम लोगों को वासयोग्ग्र
घन दो।
१०, इन्द्र, अपने दिये हुए अन्न को भोगन के लिए हमें धारण
करो । जो हब्यदाता स्वयमेब हव्य प्रदान करते हे, उन्हें धारण करो ।
अतीव प्रशंसा-योग्य स्तुति-कायं में हमारी शक्ति हो । में तुम्हारा स्तोता
हुं । तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन फरो |
२१ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसिप्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. दीप्त ओर गब्य-मिथित सोम अभिषुत हुआ हुँ। ये इस
स्वभावतः इसमें संगत होते हें । हर्यश्व, तुम्हें हम यज्ञ के द्वारा प्रबोधित
छरंग । सोमजात मत्तता फे समय हमारे स्तोत्र को समझो ।
२. यजमान यज्ञ में जाते और कुश फलाते हुँ। यज्ञ-स्थान में पत्थर
दुद्धेषे शब्द करते हँ । अन्नवान्, दूर तक शाब्द करनेवाले, ऋत्विकों-द्वारा
संगत तथा वर्षक प्रस्तरगह से गृहीत होते हें ।
३. हे शूर इन्द्र, तुमने वत्र-द्वारा आक्रान्त बहुत जल भेजा था। तुम्हारे
ही कारण नदियाँ, रथियों को तरह, निकलती हें। तुमसे डर के मारे
सारा विश्व कापता हे।
४. इन्द्र ने मनुष्यों के सारे हितषार कार्यो फो जानकर तथा आयुधों
से भयंकर होकर असुरों को व्याप्त किया था ओर उनके सारे नगरों को
éoe हिन्दी-्डग्देद
कस्पित किया था। उन्होंने प्रसन्न, महिरान्वित ओर बप््रहस्त होकर
इनका दध किया था।
५. इन्द्र, राक्षस हमें न मारे । बलि-श्रेष्ठ इन्द्र, प्रजा से हमें राक्षस
अलग न करे । स्वाभी इन्द्र विषम जन्तु को मारने में उत्साहाभ्वित होते
हैं। शिशनदेव (अब्रह्मचारी) हमारे यज्ञ में विध्च न डाले ।
६. इन्द्र, कं द्वारा पृथिवी के सारे जीवों को अभिभूत करते हो ।
संसार तुम्हारी महिमा को व्याप्त नहीं कर सकता । तुमने अपने बाहु-बल
से वृत्र का वध किया है । युद्ध से शत्रु तुम्हारा पार नहीं पा सके ।
७. इन्द्र, प्राचीन देवगण ने भी बल और शत्र वध में इन्द्र के बल
से अपने बल को कम समझा था । शत्रुओं को पराजित फरफे इन्द्र भक्तों
को धन देते हें। अन्न-प्राप्ति के लिए स्तोता इन्द्र को बुलाते हूँ ।
८. इन्द्र, तुभ ईशान व इश्वर हो। रक्षा के लिए स्तोता तुम्हें
बुलाते हैं। बहुत्राता इन्द्र, तुम हमारे यथेष्ट धन के रक्षक हुए थे।
तुम्हारे समान हमारा जो हिसक हो, उसका निबारण करो।
९, इन्द्र, स्तुति-द्वारा हम तुम्हें वद्धित करते हुए सदा तुम्हारे सखा
हों। अपनी महिमा के ठ्वारा तुम सबके तारक हो । तुम्हारे रक्षण से,
आर्य स्तोता, संग्राम में आये हुए अनार्यो के बल की हिसा करें ।
१०. इन्द्र, तुम हमें धारण करो, ताकि हम तुम्हारे दिये अन्न का
भोग कर सक । जो हव्यदाता स्वयं हव्य प्रदान करते है, उन्हें भी धारण
करो । में तुम्हारा स्तोता हूं। अतीव प्रशंसा-योग्य स्सुति-कर्म में मेरी
शक्ति हो । तुम हमें सदा स्थस्ति-द्वारा पालन करो ।
२२ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि वसिष्ठ । छन्द विराट और त्रिष्टुप् ।)
१. इच, सोस पान करो। वहु सोम तुम्हें मत्त करे । हरि नाममा
अदववाले इन्दर, रस्सी-द्वारा संपत अश्व की तरह अभिषवकर्ता के दोनों
हाथों में परिगृहीत पत्थर ने इस सोम का अभिषव किया है ।
हिन्दी-त्रहग्वेव ८०१
२. हरि नाम के अशववाले और प्रभूत-धनी इख, तुम्हारा जो उपयुक्त
और सम्यक् प्रस्तुत सोम हूं और जिसके द्वारा तुमने वृत्र आदि का वध
किया हं, वही सोम तुम्हें भ्त करे।
३. इन्द्र, तुम्हारी स्दुत्ति-स्वरूपिणी जो बात वसिष्ठ कहते हें, उन
वसिष्ठ की (मेरी) इस बात को तुम जानो और यज्ञ में इन स्तुतियों की
सेवा करो ।
४. इम्द्र, मेने सोमपान किया हैं। तुम मेरे इस पत्थर की पुकार
सुनो । स्तोता विप्र की स्तुति जानो । यह जो में सेवा करता हूं, वहु सब,
सहायक होकर, बृद्धिस्थ करो ।
५. इन्द्र, तुम रिपुञ्जय हो । में तुम्हारा बल जानता हूँ । में तुम्हारी
स्तुति करना दही छोड़ सकता । में सदा तुम्हारे यशस्वी नाम का उच्चारण
करूंगा ।
६- इन्द्र, मनुष्यों में तुम्हारे अनेक सवन हें । मनीषी स्तोता तुम्हारा
ही अत्यन्त आह्वान करता हूँ । अपने को हमसे दूर नहीं रखना ।
७. श्र इन्द्र, तुम्हारे ही लिए यह सब सवन है; तुम्हारे ही लिए
यह वरद्धक स्तोत्र करता हूँ । तुम सब तरह से मनुष्यों के आह्वान के योग्य
हो।
८. दशनीय इन्द्र, स्तुति करने पर तुम्हारी महिमा को कौन नहीं
तुरत प्राप्त करेगा ? कौन नहीं तुम्हारा धन प्राप्त करेगा ?
९. जितने प्राचीन ऋषि हो गये हें ओर जितने नवीन हैं, सभी
तुम्हारे लिए स्तोत्र उत्पन्न करते हु। हमारे लिए तुम्हारा सस्य मंगल-
सय हो । तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पाळव करो ।
२२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्ठुप ।)
१. अन्न की इच्छा से सारे स्तोत्र कहे गये हु । वसिष्ठ, तुम भी यज्ञ
में इन्द्र की स्तुति करो। बळ-द्वारा उन्होंने सारे लोकों को व्याप्त किग्रा
फा० ५१
८०२ हिन्दी-त्रहरवेद
था। से उनके पास जाने की इच्छा करता छुँ । वे मेरे स्तुति-वचन का
श्रवण करे ।
२. जिस समय ओषधियाँ बढ़ती हें, उस ससश देवों के लिए प्रिय
शब्द कहे जाते हं। मनुष्यों में कोई भी तुम्हारी आयु नहीं जान सकता ।
हमें सारै पापों फे पार ले जाओ ।
३. में हरि नास के दोनों अइबों के हारा इन्द्र के गोप्रापक रथ को
जोतसा हूं । इन्त्र स्तोत्रों की सेवा करते हुँ। सब लोग उनकी उपासना
करते हैँ । उन्होंने अपनी महिमा से अावापृथिवी को बाधित किया हे ।
इन्द्र ने शत्रुओं के दलों का नाश किया हु ।
४. इन्द्र, अप्रसूता गाय की तरह जल बढ़े। तुम्हारे स्तोसा जळ
ब्याप्त करें । जसे घायु नियुत (अश्व) के पास आता हुँ, बेसे ही तुम
सेरे निकट आओ । कर्से-द्वारा तुम अन्न प्रदान करो ।
५. इन्द्र, मदकारी सोम तुम्हें मत्त करे । स्तोता को बलवान् और
बहुधनवान् पुत्र दान करो । श्र, देवों में तुम्हें अकेले मनुष्यों के प्रति
अनुकम्पा प्रदर्शित करते हो । इस यज्ञ में प्रमत्त होओ ।
६. वसिष्ठ लोग इसी प्रकार अर्चनीय स्तोत्र-ट्रारा वज्बाहु अभी
ष्टवर्षी इन्द्र की पुजा करते हैं । स्तुत होकर थे हमें वीर ओर गौ से
युक्त धन दें । तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
२४ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वसिष्ठ । छन्द् त्रिष्टुप् |)
१. तुम्हारे गृह के लिए स्थान किया गया हुँ । घुएहुत इन्द्र, मरुतों
के साथ वहाँ आओ । जेसे तुस हमारे रक्षक हुए हो, जसे तुम हमारी
बृद्धि के लिए हुए हो, बसे ही धन दो । हुमारे सोम के द्वारा सत्त होओ।
२, इन्द्र, तुम दोनों स्थानों में पूज्य हो । हमने तुम्हारे मन को ग्रहण
किया हूँ । सोम का हुमने अभिषव किया हुँ । हमने सधु को पात्र में
हिन्दी-ऋण्वेद ८०३
परिषिक्त किया हूँ । मध्यम स्वर में कही जानेवाळी यह सुसमाप्त स्तुति
बार-बार इन्द्र को आह्वान करके उच्चारित होती हँ ।
इन्द्र, तुम हमारे इस यज्ञ भें सोझपाय के लिए स्वर्ग और अन्त-
रिक्ष से आओ; और, आनन्द के लिए, हमारे पास, अईवगण स्तोत्र की
ओर ले जायें ।
४. हरि अइव और शोभन हनुपाले इन्द्र, तुम सब प्रकार की रक्षाओं
के साथ बृद्ध सस्ता के संग शत्रुओं को मारते हुए हमें अभीष्टवर्षी तथा
बलवान् पुत्र वेले हुए एवम् स्वोप्र-सेया करते हुए, हमारी ओर आओ ।
५. रथ के घोड़े की तरह यह यलफर्सा मन्त्र महान् और ओजस्वी
इन्द्र को लक्ष्य कर स्थापित हुआ है । इन्द्र, स्तोता तुमसे धन सांगता हुँ ।
तुम हमें आकाश के स्वग की तरह श्रीमान् पुत्र प्रदान करो ।
६. इक्र, इस प्रकार तुम हमें वरणीय घन से परिपुर्ण करो । हम
तुम्हारा महान् अनग्रह प्राप्त करेंगे । हम हृव्यवाले हें। हमें वीर पुत्रवाला
अश्च दो । तुम हमें सदा स्वस्ति द्वारा पालन करो ।
२५ सक्त
(दैवता इन्द्र | ऋषि चसिष्ठ। छुन्द् निष्टुप ।)
१. ओजस्वी इन्द्र, सुख महान् ओर अनुष्यह्समी हो । पुम्हारी
सेनायं समान हे--एसा अभिमान कर जब युद्ध किया जाता हुँ, सब तुम्हारा
हस्त-स्थित वस्त्र हमारे त्राण के लिए पतित हो । तुम्हारा सर्वतोगामी
मन विचलित न हो ।
२. इन्द्र, युद्ध में जो मनुष्य हमारे सामने आकर हमारा अभिभव
करते हे, वे ही शत्रुओं का विनाश करते हँ । जो हमारी निन्दा फरने की
इच्छा करते हे, उनकी कथा दूर कर दो । हमारे लिए सम्पत्तियां लाओ।
३, उष्णीष (चावर) बाले इन्द्र, सुझ सुदास के लिए तुम्हारी संकडों
रक्षायें हों। तुम्हारी सँकड़ों अभिलाषा और धन मेरे हों। हिसक के
८०४ हिन्दी-त्रदवेद
हिसा-साधन हथियारों को विनष्ट करो। हमारे लिए दीप्त यश और
रत्न दो ।
४. इन्द्र, मं तुम्हारे समान व्यक्षित के कर्म में नियुक्त हूँ । तुम्हारे
समान रक्षक व्यक्ति के दान में नियुक्त हूँ । बलवान् ओर ओजस्वी इन्द्र,
सारे दिन हमारे लिए स्थान बनाओ । हरिवाले इन्द्र, हमारी हिसा नहीं
करना ।
५. हम हर्थेशव इन्द्र के लिए सुखकर स्तोत्र कहते हुए और इन्द्र से
देव-प्रेरित बल की याचना करते हुए, सारे दुर्गो को लाँघकर) बल प्राप्त
करगे । हम हविवाले हूँ। हमें वीर पुत्रबाला अन्न दो। तुस हमें सदा
स्वस्ति (कल्याण) द्वारा पालन करो ।
२६ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. जो सोम घनाधिपति इन्द्र के लिए अभिषुत नहीं हें, उससे तृप्ति
नहीं होती। अभिषुत होने पर भी स्तोत्र-हीन सोम तृप्तिकर नहीं होता।
हम रोगों का जो उकथ इन्द्र की सेवा करता हं और राजा जिसे श्रवण
करता हुँ, उसी नवीन उकूथ का पाठ, इन्द्र फे लिए, में करता हूं ।
२. प्रत्येक उकूथ-स्तुति-पाठ-का में सोम धनवान् इन्द्र को तुप्त
करता हे । प्रत्येक स्तोत्रपाठ-काल में अभियुत सोम इन्द्र को तृप्त करता
हूँ । जेसे पुत्र पिता को बुळाता है, वेसे ही, रक्षा के लिए, परस्पर
मिलित ओर समान उत्साहवाले ऋत्विक् लोग इन्द्र को बुलाते हँ।
३. सोम के अभिषुत होने पर स्तोता लोग जिन सब कर्मो की बातें
कहते हं, उस सारे कर्मों को, प्राचीन काल में, इन्द्र ये किया था। इस
समथ अन्य कर्म भी करते हैं। जैसे पति पत्नी का परिमार्जन करता है,
वसे ही समवृत्ति और सहायक-झूम्य इच्ध ने शत्रु-नगरियों का परिमार्जन
(संशोधन) किया था।
४, परस्पर मिली इन्द्र की अनेक रक्षायें हं--ऋत्विकों ने इन्द्र
के बारे में ऐसा कहा हूँ। यह भी सुना जाता है कि इन्द्र पूजनीय धच
हिन्दी-क्रग्वेद ८०५
फो देनेवाले और आपद् से उद्धार करनेवाले हैं। उनकी कृपा से ह्मे
प्रीतिप्रद कल्याण आश्रित करे।
५, रक्षा के लिए और प्रजा के अभीष्ट-वषण के लिए सोमाभिषव
में वसिष्ठ इन्द्र की ऐसी स्तुति करते हैं। इन्द्र, हमें नाना प्रकार के अन्न
दो। सुम हमें सदा स्वति-द्वारा पालन करो।
२७ सूक्त
(दैवता इन्द्र | ऋषि वासिप्ठ । छन्द तरिषट्रप् |)
१. जिस समय युद्ध की तेयारी के कार्य किये जाते हें, उस समय
लोग युद्ध में इन्द्र को बुलाते हैँ । इख, तुम मनुष्यों के लिए धनदाता
और बलाभिलाषी होकर हमें गो-पुर्ण गोष्ठ में ले जाओ।
२. पुरुहत इन्द्र, तुम्हारे पास जो बल है, उसे स्तोताओं को दो।
इन्द्र, सुमने सुदृढ़ पुरियों को छिन्न-भिन्न किया है; इसलिए, प्रज्ञा का
प्रकाश करते हुए, छिपाये धन को प्रकट कर दो।
रै. इन्द्र जङ्गम जगत् और मनुष्यों के राजा हें। पृथिवी में तरह-
तरह के जो धन हैं, उनके भी राजा इन्द्र ही हें। इन्त्र हग्यदाता को
धन देते हँ। वही इन्द्र हमारे द्वारा स्तुत होकर हमारे सामने धन
भेजे ।
४. धनी ऑर दानी इन्र को हमने, सरुतों के साथ, बुलाया है;
इसलिए वह हमारी रक्षा के लिए शीघ्र अन्न भेजें। ये इन्द्र ही सखाओं
को जो सम्पुर्ण और सर्वव्यापी दान करते हँ, वही मनुष्यों के लिए मनोहर
धन दूहता हुँ।
५. इन्द्र, घन-य्राप्ति के लिए शीघ्र हमें घन दो । पुज्य स्तुति-द्वारा
हम तुम्हारे मन को खींच छोंगे। तुम गौ, अइव, रथ और घनवाले हो।
तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
८०६ िरी-ह्वेद
२८ सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
. इन्द्र, तुम जानकर हमारे स्तोत्र की ओर आओ। तुम्हारे घोड़े
हमारे सासने जोते जायं। सबके हर्षकारी इन्द्र, यद्यपि अलग-अलग
सारे मनुष्य तुम्हें बुलाते हँ, तथापि तुम हमारा ही आह्वान सुनते हो।
२. बली इन्द्र, जिस समय घुस ऋषियों के स्तोत्रों की रक्षा करते
हो, उस समथ तुम्हारी महिमा स्तोता को व्याप्त करे। ओजस्वी इन्दर,
जिस समय हाथ में वज्य धारण करते हो, उस ससय कस-द्वारा भयद्धुर
होकर शात्रुओं के लिए दुद्गंष हो जाते हो।
३. इन्द्र, तुम्हारे उपदेश के अनुसार जो लोग बार-बार ससव करते
हुँ, उन्हें घुलोक और भूलोक में सुप्रतिष्ठित करते हो। तुम महाबल और
महाधन के लिए उत्पन्न हुए हो; इसलिए जो तुम्हारे उद्देश्य से यज्ञ
करता हूँ, वहु अयाज्ञिकों को मारने मे समर्थ होता हैं ।
४. इन्द्र, दुष्ट सित्रभूत मनुष्य आते हें। उनसे धन लेकर इन सारे
दिनों में हुम दान करो। पाप-घातक और बुद्धिमान् वरुण हमारे सम्बन्ध
में जो पाप देख पाथं, उसे दो तरह से छड़ायें।
५. जिन इन्द्र ने हमें भली भाँति आराध्य महाधन दिया है और जो
स्तोता के स्तोत्र-कायं की रक्षा करते हें, उस घनी इन्द्र की हम स्तुति
करते हें। तुम हमें सदा स्वति-हारा पालन करो।
२९ सूक्त
(देवता इन्ट्र। ऋषि चासिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप्)
१. इन्द्र, तुम्हारे लिए यह सोम अभिषुत हुआ है। हरि अइववाले
(ख, उस सोम की सेवा के लिए तुरत आओ। भली भाँति अभिषुत
पार सोम का पान करो। इन्द्र, हस याचना करते है, हमें घन दो।
२. हे ब्रह्मन् और वीर इन्द्र, स्तोअ-कार्ये का सेवन करते हुए अइ्वों
हिन्दी-ऋणग्वेद ८०७
पर सवार होकर शी प्र हमारी ओर आओ। इस यज में ही अली भाँति
प्रसञ्च होओ। हमारे इन स्तोत्रों को सुनो।
३. इन्द्र, हम जो सुक्तों-दारा तुम्हारी स्तुति करते हे, उससे कैसी
अलंकृति (शोभा) होती है ? हस कब तुम्हारी प्रसन्नता उत्पन्न करें?
तुम्हारी अभिलाषा से ही में सारी स्तुति करता हुँ; इसलिए, हे इन्द्र,
मेरी ये स्तुतियाँ सुनो।
४, इन्द्र, तुमने जिन सब ऋषषिषों की स्तुति सुनी हे, वे प्राचीन ऋषि
लोग मनुष्यों के हितेषी थे। फलतः में तुम्हारा बार-बार आह्वान करता
ह। इन्द्र, पिता की तरह तुस हमारे हितेषी हो।
५. जिन इन्द्र ने हुमें भली भाँति आराध्य महाधन दिया है और जो
स्तोता के स्तोत्रकार्य की रक्षा करते हँ, उम घनी इन्द्र की हम स्तुति
करते हे। तुम हमें सदा स्वति-ठारा पालन करो।
३० सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. बली और ज्योतिष्मान् इन्द्र, बल के साथ हमारे पास आओ।
हमारे घन फे बद्धक बनो। सुवप्त्रओर नृपति इन्द्र, महाबली होओ और
शत्रुमारक महापुरुषत्य प्राप्त करो।
२. इन्द्र, तुम आह्वान के योग्य हो। महाफोलाहल के समय शरीर-
रक्षा के लिए और सूर्य को पाने के लिए लोग तुम्हें बुलाते हें। सब
मनुष्यों मं तुम्हीं सेना के योग्य हो। सुहन्त नाम के वज्च्र-द्वारा शत्रुओं को
हमारे अधिकार में करो।
३. इन्द्र, जब दिन अच्छे होते हैं, जब तुम अपने को युद्ध के समीष-
वत्ती जानते हो, तब होताग्नि, हमें उत्तम घन देने के लिए, देवों को
बुलाते हुए, इस यज्ञ में बेठते हें।
४. इन्द्र, हम तुम्हारे हैं। जो तुम्हें पूजनीय हव्य देते हुए स्तुषि
करते है, वे भी तुम्हारे ही हें। उस्हें श्रेष्ठ गृह बो। वे सुसमृद्ध होकर
बूढ़े होने पादें।
८०८ हिन्दी-ब्दण्बेद
५. जिन इन्त्र ने हमें भली भाँति आराध्य महाधन दिया है और
जो स्तोता के स्तोत्र-कायं की रक्षा करते हुँ, उन्हीं धनी इन्त्र को हम
स्तुति करते हें। तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
३९ सूक्त
(देवता इन्द्र । | ऋषि वसिष्ठ। छन्द विराट् , गायत्री और त्रिष्ुप।)
१. सखा लोग, तुम रोग हर्येश्व और सोमपायी इख के लिए मदकर
स्तोत्र गाओ।
२. शोभन-दानी और सत्यधन इन्र के लिए जेसे स्तोता दीप्त
स्तोत्र पाठ करता है, वैसे ही तुम भी करो; हम भी करेंगे।
३. इन्द्र, तुम हमारे लिए अन्नाभिलाषी होओ। सौ यज्ञ करनेवाले
इन्द्र, तुम हमारे लिए गो-कामी होओ। है वास-वाता इन्द्र, तुम हिरण्य-
दाता होओ।
४, अभीष्ट-वर्षक इन््र, तुम्हारी इच्छा करके हम विशैष रूप से
स्तुति करते हें। वासप्रद इन्द्र, तुम शीघ्र हमारी स्तुति का अवघारण
क्रो।
५. आर्ये इन्द्र, जो कठोर वचन बोलता है जो निन्दा करता है
और जो दान नहीं करता, उसके वश में हमें नहीं करना। मेरा स्तोत्र
तुम्हारे ही पास जाय।
६. वृत्रघातक इन्द्र, तुस हमारे कवच हो । तुम सर्वत्र प्रसिद्ध हो।
तुम सम्मुख युद्ध करनेवाले हो। तुम्हारी सहायता से में वत्रु-वध
करूँगा ।
७. अन्नवाली द्यावापृथिवी को जिन इन्द्र के बल का लोहा मानना
है, वह तुम इन्द्र, महान् हुए हो ।
८, इन्द्र, तुम्हारी सहचरी, तेजोयुक्ता ओर स्तोतू-सस्पत्ना स्तुति तुम्हें
चारों ओर से ग्रहण करे ।
po. VU
१०:४६ “०२,४८०; ४६ ८०९
७
९. तुम स्वर्ग के पास स्थित और दर्शनीय हौ। हमारे सब सोम
तुम्हारे उद्देश से उद्यत हँ। सती प्रजा तुम्हें नमस्कार करती हे ।
१०. मेरे पुरुषो, तुम महाधन के बद्धक हो। महान् इच्च्र फे उद्देश
से सोम बनाओ। प्रकृष्ट-बुद्धि को लक्ष्य कर प्रहृष्ट स्तुति करो। प्रजाओं
के अभिलाषापुरक तुम उन लोगों फे अभिमुख आगमन करो, जो तुम्हें
हुव्य-द्वारा पूर्ण करते हें ।
११. जो इन्द्र अतीव व्यापक ओर महान् हे, उन्हें लक्ष्य कर मेधावी
लोग स्तुति और हव्य का उत्पादन फरते हे। उन इन्र के क्षत आदि
कर्मो को धीर लोग हिंसित नहीं कर सकते।
१२. सब प्रकार से सारे जगत् फे ईश्वर ओर अबाधित क्रोध इश्क
की सारी स्लुतियाँ शत्रुओं को दबाने फे लिए हें। इसलिए हे स्तोह्ता,
इन्द्र की स्तुति के लिए बन्धुओं को उत्साहित करो।
३२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसिष्ठ । छन्द् ब्रहती, सतोबृहती,
द्विपदा विराट ।)
१. इन्द्र, हमसे दूर ये यजमानगण भी तुम्हारे साथ रमण न करें।
तुम दुर रहने पर भी हमारे यज्ञ में आओ। यहाँ आकर श्रवण करो।
२. जैसे मधु पर मधुमक्षिका बैठती हे, बैसे ही स्तोता लोग, तुम्हारे
लिए, सोम के तयार होने पर, बेठते हें। जेसे रथ पर पर रक्खा जाता
हे, बसे ही धनकामी स्तोता लोग इन्द्र पर स्तुति समर्पण करते हें।
३. जैसे पुत्र पिता को बुलाता हँ, वैसे ही में, धनाभिलाषी होकर,
सुन्दर दानघाले इन्द्र को बुलाता हुँ।
४. दही मिले ये सोम इन्द्र के लिए प्रस्तुत हुए हे। हे वज्नहस्त इन्र,
आनन्द के लिए उस सोम-पान के निमित्त, अइव फे साथ, यज्ञ-मण्डप की
ओर आओ।
५. याचना सुनने के कर्णवाले इन्द्र के पास हम धन की याचना
८१० हिन्दी-ऋग्वैद
करते हुँ। वे हमारे वादय को सुने, वावय मिष्फल न करें। जो इन्द्र,
याचना करते ही, तुरत सैकड़ों और सहलो दान करते हें, उन दाना"
भिलाषी इन्द्र को कोई सना न करे।
६. वृत्रघातक इन्द्र, जो तुम्हारे लिए गंभीर सोस का अभिषव करता
और तुम्हारा अनुगमच दारता हुँ, वह वीर हँ। उसके बिरुद्ध कोई कुछ
नहीं बोल सकता । वह परिचारको के द्वारा घिरा रहता हँ।
७. हे धनवान् इन्द्र, तुम हुव्यदाताओं के उपद्रव-निवारक वर्म बनो।
उत्साही शत्रुओं का विनाश करो। तुमने जिस शत्रु का विनाश किया
है, उसका धन हुम वाँट लें। तुम्हें कोई विनष्ट वहीं कर सकता। तुभ
हमारे लिए धन ले आओ।
८. मेरे पुरुषो, वप्त्रधर ओर सोमपाता इन्द्र के लिए सोम का अभि-
षव करो। इन्द्र की तृप्ति के लिए पचाये जाने योग्य पुरोडाश आदि
पकाओ और किये जाने योग्य कार्य का सम्पादन करो। यजमान को
सुख वेते हुए इन्द्र हव्य को पुणे करते हूँ।
९. सोमवाले यज्ञ का विनाश नहीं करना । उत्साही बनो। महान्
और रिपुघातक इन्द्र को लक्ष्य करके, धन-प्राप्ति के लिए, कर्म करो।
क्षिप्र-कर्ता व्यक्ति ही विजय करता, निवास करता और पुष्ट होता है।
कुत्सित कर्म-कर्ता के देवता नहीं हें।
१०. सुन्दर दानवाले व्यक्ति का रथ कोई दूर पर नहीं फॅंक सकता
और उसे कोई रोक भी नहीं सकता। जिसके रक्षक इन्र और भमरए्द्गण
है, बह गौओंवाले गोष्ठ में जाता है।
११. इन्द्र, तुम जिस मनुष्य के रक्षक बनोगे, वह स्तोज-दवारा तुम्हें
छली करते हुए अन्न प्राप्त करेगा। शुर, हमारे रथ के रक्षक होओ;
हमारे पुत्रादि के भी रक्षक होओ।
१२. जो हरिवाले इन्द्र सोमवाले यजमान को बल देते हे, उसे शत्रु
नहीं मार सकते। विजयी व्यक्षित की तरह इन्द्र का भाग संभी देवों से
बंढ़ा-चढ़ा है ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ८११
iF
१३. देवों में से इन्द्र को ही अनल्प, सुविहित और शोधन स्तोत्र
अर्पण करो। जो व्यक्ति कर्मामुष्ठान-दएरा इन्द्र फे चित्त को आकृष्ट
कर सकता हँ, उसके पास अनेकानेक बन्धन नहीं जाते।
१४. इन्द्र, तुम जिसे व्याप्त करते हो, उसे कौन दबा सकता हे?
घनी इन्द्र, तुम्हारे प्रति श्रद्धा-पुक्त होकर जो हुविवाला होता है, वह
युलोक और दिवस में घन पाता है।
१५. इन्द्र, तुम धनी हो। जो तुम्हें प्रिय धन देते है, उन्हें रण-भूमि
में भेजो। हयंश्व इन्द्र, हम तुम्हारे उपयेशनसार, स्तोताओ के साथ सारे
पापों के पार जायेंगे।
१६. इन्द्र, पृथिवीस्थ (अधम) धन तुम्हारा ही है। अन्तरिक्षस्य
(मध्यम) धन तुम्हारी ही है । तुम सारे उत्तम धनों के कर्ता हो--यह
बात सच्ची है। गौ के सम्बन्ध में तुम्हें कोई भी नहीं हटा सकता।
१७. इन्द्र, तुम संसार के धनदाता हो। ये सब जो युद्ध होते हे,
उनमें भी आप धनद कहकर प्रसिद्ध हें। पुरुहृत, इन्द्र, रक्षा के लिए, ये
सब पार्थिव मनुष्य तुमसे अन्न की भिक्षा चाहते हें।
१८. इन्द्र, तुम जितने धन के ईश्वर हो, उतने के हम भी स्वामी बनें ।
धनद, में स्तोता की रक्षा करूँगा। पाप के लिए मे घन नहीं दूंगा ।
१९. जिस किसी भी स्थान मं विद्यमान पुजक पुरुष को लक्ष्य कर
प्रतिदिन दान करूंगा । इन्द्र, तुम्हरे बिना त तो हमारा कोई बन्धु हुँ, न
प्रशंसनीय पिता हुँ।
२०. क्षिप्रकमे-कारी व्यक्ति ही महान् कमं के बल से अञ्न का भोग
करता है। जसे विश्वकर्मा (बढ़ई) उत्तम काष्ठवाले चक्र को नवाता हैं,
बसे ही स्तुति-द्वारा पुरुहृत इन्द्र को में नवाऊंगा।
२१. मनुष्य दुष्ट स्तुति से घन लाभ नहीं कर सकता। हिसक के
पास घन नहीं जाता। धनवान इन्द्र, यलोक और दिन में मेरे समान
मनुष्य के प्रति जो कुछ तुम्हारा दातव्य है, उसे सुन्दर कर्मचाला व्यवित
ही पा संकता हुँ ।
८१२ हिन्दी-ऋग्वेद
२२. वीर इन्द्र, तुम इस जङ्गम पदार्थ के स्वामी हो। तुस स्थावर
पदार्थों के ईश्वर और सर्वदशेक हो। हम न दोही गई गाय की तरह
तुम्हारी स्तुति करते हँ।
२३. धनी इन्द्र, तुम्हारे समान न तो पृथिवी में कोई जन्मा, न
जन्मे। हम अइव, अन्न और गौ घाहते हें । तुम्हें बुलाते हुँ।
२४. इन्द्र, तुम ज्येष्ठ हो और में कनिष्ठ हूं। मेरे लिए उस धन
को ले आओ। बहुत दिनों से तुम प्रभूत-धनी हो और प्रत्येक युद्ध में
हूव्य-लाभ के योग्य हो ।
२५. मघवन्, शत्रुओं को पराङमुख करके हटाओ। हमारे लिए
धन को सुलभ करो। युद्ध में हमारे रक्षक बनो । हम तुम्हारे सखा हें।
हमारे वद्धेक बनो।
२६ इन्द्र, हमारे लिए प्रज्ञान ले आओ । जैसे पिता पुत्र को देता
हँ, बैसे ही तुम हमें धन दो। हम यज्ञ के जीव हैं। हम प्रतिदिन सुर्यं को
प्राप्त करे ।
२७. इन्द्र, अज्ञात-गति, हिंसक, दुराराध्य और अशुभ शत्रु हमें
आक्रमण न करें। शूर, हम तुम्हारे निकट नम्न होकर अनेक कार्यो में
उत्तीर्ण होंगे ।
२३ सूक्त
(देवता १-९ के वसिष्ठ-पुत्रगण । ऋषि १-९ मन्त्रों के वसिष्ठ । शैष
मन्त्रों के दैवता वसिष्ठ ओर ऋषि वसिष्ठ-पुत्रगण । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. शवेतवरणे और कमं-पुरक वसिष्ठ-पुत्रगण अपने शिर फे दक्षिण
भाग में चूड़ा धारण करनेवारे हैं। बै हमें प्रसञ्च करते हुँ; क्योंकि यज्ञ
से उठते हुए में सबको कहता हुँ कि, वसिष्ठ-पुत्रगण मुझसे पुर न
जायें ।
२. वयत् के पुत्र पाशद्युस्न का दूर से ही तिरस्कार करके चमस-स्थित
सोम का पान करते हुए इन्द्र को वसिष्ठ-पुत्रगण ले आये थे। इन्द्र ने भी
हिन्दी-ऋग्वेद ८१३
वयत् के पुत्र पाशयुम्न को छोड़कर सोमाभिषव करनेवाले वसिष्ठो
को वरण किया था ।
३. इसी प्रकार वक्षिष्ठ-पुत्रों ने अनायास ही नदी (सिन्धु) को पार
किया था। इसी प्रकार भद नास के शत्रु का भी इन्होंने बिनाश किया
था। वसिष्ठपुत्रो, इसी प्रकार प्रसिद्ध “दाशराज्चयुद्ध' में तुम्हारे ही मन्त्र-
बल से इन्द्र ने सुदास राजा की रक्षा की थी।
४. मनुष्यो, तुम्हारे स्तोत्र (ब्रह्म) से पितरों की तस्ति होती हूँ ।
में रथ की घरी को चलाता हूँ। तुम क्षीण नहीं होना । चसिष्ठगण,
तुमने शववरी ऋचाओं ओर श्रेष्ठ शब्द-हारा इन्द्र का बल पाया
था।
५. ज्ञात-तृष्ण राजाओं-द्वारा घिरे हुए और दुष्टि-याचक वसिष्ठ
पुत्रों ने दस राजाओं के साथ संग्राम में, सुय को तरह, इन्द्र को ऊपर
उठाया था। स्तोता बलिष्ठ का स्तोत्र इन्द्र ने सुना था और तृत्सु राजाओं
के लिए विस्तृत लोक दिया था।
६. गो-प्ररक दण्डों की तरह (तृत्सुओं के) भरतगण शत्रुओं के
बीच ससीम और अल्पसंख्यक थे। अनन्तर बसिष्ठ ऋषि भरतों के
पुरोहित हुए और तृत्सुओं की प्रजा बढ्न लगी।
७. अग्नि, बायु और सूर्य ही संसार में जल देते हें। उनमें आदित्य
आदि तीन श्रेष्ठ आय-प्रजा हेँ। दीप्तिमान् वे तीनों उषा का वयन करते
हँ। वसिष्ठ लोग उन सबको जानते हृ।
८. वसिष्ठ-पुत्रो, तुम्हारी महिमा (वा स्तोम) सुर्य की ज्योति की
तरह प्रकाशित होती है। तुम्हारी महिमा समुद्र की तरह गम्भीर हु।
घायु-वेग के समान तुम्हारे स्तोत्र का कोई दूसरा अनुगमन नहीं कर
सकता।
९, वे बसिऽ्ठगण (वसिष्ठ) ज्ञाव-द्वारा तिरोहित सहनन शाखाओं-
वाले संसार में विचरण करने लगे। वे सरवं-नियन्ता (यम) द्वारा विस्तृत
घस्त्र (विइव-प्रबाह्) को बुनते हुए मातृ-रूप से अप्सरा के निकट गय।
८१४ हिन्दी ऋग्वेद
~
१०. बसिष्ठ, विद्युत् की तरह (देह धारण करने के लिए) अपनी
ज्योति का परित्याग करते हुए तुम्हें मित्र और वरुण ने देखा था। उस
समय तुम्हारा एक जन्म हुआ। इसके अतिरिवत वश्सस्थान से अगस्त्य
भी तुम्हें ले आये थे।
११. और, हे वसिष्ठ, तुम मित्र और वरुण के पुत्र हो। हे ब्रह्ान्,
तुम उर्वशी के मन से उत्पन्न हो। उस समय मित्र ओर वरुण का वीर्य-
स्खलन हुआ था। विश्वदेवगण ने दैव्य स्तोत्र-द्वारा पुष्कर के बीच तुम्हें
धारण किया था।
१२. प्रकृष्ट ज्ञानवाले बसिष्ठ दोनों लोकों को (पथिवी और स्वर्ग
को) जानकर सहस्रदान वा सेट साले हुए थे। सर्व-नियन्ता (यस)
द्वारा निस्तीर्ण वस्त्र (धंदार-प्रणाशु) फो बुनने की इच्छा से वसिष्ठ
उर्वशी से उत्पन्न हुए थ।
१३. यज्ञ में दीक्षित मित्र और वरुण ने, स्तुति-द्वारा प्राथित होकर
कुम्भ (वसतीवर कलस) के बीच एक साथ ही रेतः-स्खलन किया था।
अनन्तर मान (अगस्त्य) उत्पन्न हुए। लोग कहते हैं कि ऋषि वसिष्ठ
उसी कुम्भ से जन्मे थे ।
१४. तृत्सुओ, तुम्हारे पास वसिष्ठ आ रहे हूँ। प्रसन्नचित्त से तुम
इनकी पुजा करो। वसिष्ठ अग्रवर्ती होकर उकूथ और सोम फे वारण-
कर्ता तथा प्रस्तर से अभिषव करनेवाले (अध्वर्यु) फो घारण करते और
कत्तेव्य भी बताते हे।
३४ सूक्त
(३ अनुवाक । देवता दिश्वदेवणण् । ऋषि वसिष्ठ । छन्द् द्विपदा
विराट ओर त्रिष्टु५ |)
१. दीप्त और अभीष्ठप्रद स्वुति, देगशाली और सुसंस्कृत रथ की
तरह, हमारे पास से देवों के पास जाय।
२. क्षरण-शील जल स्वर्ग और पुथिदी की उत्पत्ति जानता है। जल
स्तुति सुनता हूँ।
हिन्दी-मय्बेव ८१५
र्
i
३. बिस्तीण जल इन्द्र फो आप्यायित करता हुँ। उपद्रव उठने पर
उग्र श्र लोग इन्द्र की ही स्तुति करते हूँ ।
४, इन्द्र के आएन फे लिए अश्यों को रथ के आगे जोलो। इन्द्र
बचद्धधर और सोने के हाथवाले हेँ।
५. सनुष्यो, यञ फे साधने गसन करो। मन्ता की तरह स्वयमेव
यज्ञमाग पर जाओो।
६. मेरे पुरुषो, ग्राम में स््वयभेय जाओ। लोगों झे लिए प्रज्ञापक और
पापों के नाशक यज्ञ करो।
७. इस यज्ञ फे बल से ही सूर्थ उगते है। जसे पथिवी जीबो को ढोती
हँ, बसे ही यज्ञ भी भार वहन करता हु।
८. हे अग्नि, अहिसा आदि विषयों से युक्त पसार बनोगण पूर्ण
करते हुए में देवों को बुलाता हूँ और उसके लिए फर्म करता हूँ।
९. सनुष्यो, देवों को लक्ष्य करके दीप्त कमं करो। देवों के लिए
स्तुति करो। |
१०. ओजस्वी और अनेक आँखोधाले वरुण नदियों फे जल को
देखते हे । |
११. वरुण राष्ट्रों के राजा और नदियों के रूप हुं। उनका बळ
अप्रतिहत और सवत्रगामी हें।
१२. देवो, सारी प्रजा में हमारी रक्षा करो। निन्दा करने फो इच्छा-
वाले शत्रु को दीप्ति-शून्य करो।
१३. शत्रुओं के अमंगल-जनक आयुध चारों ओर हुट जायें। देवो,
शरीर का पाप हमसे अलग करो।
१४. हव्यभोजी अग्नि हमारे धमस्कार-हारा प्रियतम होकर हमारी
रक्षा करे। हुम अग्नि के लिए स्तुति करते हैं।
१५. देवों के सहचर अग्नि को सखा पनाओ। वे हमारे लिए मङ्गल?
कर हों।
८१६ हिन्दी-ऋण्वेद
१६. सेघों के घातक, नदी-स्थान (जल) में बेठ हुए और जल से
छत्पन्न अग्नि की स्तोत्र-द्वारा स्तुति की जाती हे ।
१७. अहिबुध्न्य (अग्नि) हमें हिसक के हाथ में समर्पण नहीं करें।
याज्ञिक का यज्ञ क्षीण न हो।
१८. देवता लोग हमारे लोगों के लिए अञ्च धारण करते हुं। धन
कै लिए उत्साही शत्र सर जायें ।
१९. जेसे सूर्ये सारे भुवनों को तप्त करते हें, बैसे ही महासेनावाले
शजा लोग देवों के बल से शत्रुओं को ताप देते हे।
२०. जिस समय देव-स्त्रियाँ हमारे सामने आती हँ, उस समय
उत्तम हाथवाले त्वष्टा हमें वीर पुत्र प्रदान कर।
२१. त्वष्टा हमारे स्तोत्रों की सेवा करते हें। पर्याप्त-बुद्धि त्वष्टा
हमारे घनाभिलाषी हों।
२२. दान-निपुण देव-पत्नियाँ हमारा मनोरथ हमें प्रदान करे। दावा-
पृथिवी और घरुण-पत्नी भी श्रवण करें। कल्याणकर और दान-शील
ह्वष्टा, उपद्रव-निवारिणी देव-स्त्रियों के साथ, हमारे लिए शरण्य हों।
२३. हमारे उस धन का पालन परवेतगण करें। सारे जल भी हमारे
उस धन का पालन करे। दान-परायणा देव-पत्नियाँ भी उसका पोषण
करे । ओषवियाँ और छुलोक भी पालन करे। वनस्पतियों के साथ अन्तरिक्ष
भी उसका पालन करें। द्यावापृथिवी हमारी रक्षा करें।
२४. हम धारणीय धन के आश्रय होंगे । विस्तृत द्यावापृथिवी उसका
अनुमोदन करं। दीप्ति के आधार इन्द्र और सखा वरुण भी
उसका समर्थन करें। पराजय करनेवाले मरुद्गण भी अनुमोदन करं।
२५. इन्द्र, वरुण, मित्र, अग्नि, जल, ओषधियाँ और वृक्ष भी, हमारे
लिए, इस स्तोत्र का सेवन करं। मरुतों के पास निवास कर हम सुख
से रहेंगे । तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
पनत नर in मु
माफ स प द् ८ १ |
३५ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्ट्रप् ।)
१. इन्द्र और अग्नि, हमारे लिए रक्षण-द्वारा शान्तिप्रद होओ। इन्द्र
और वरण, यजमान ने हज्य प्रदान किया हँ। तुम लोग हमारे लिए
शान्तिप्रद होओ। इन्द्र और सोम हमारे लिए शान्ति ओर कल्याण
देनेवाले हों। इन्द्र ओर पूषा हमारे लिए शान्ति और सुख दें।
२. भग देवता हमारे लिए झान्ति दें। हमारे लिए नराशंस शान्ति-
प्रद हों। हमारे लिए पुरन्धि शान्तिप्रद हों। सारे धन हमारे लिए श्मन्ति-
प्रद हों। उत्तम और यम-पुक्त सत्य का वचन हमारे लिए शान्ति
दे। बहु बार आविर्भूत अर्यमा हमारे लिए ज्ञान्तिदाता हों।
३. धाता हमारे लिए शान्ति दें। धर्त्ता वदण हमारे लिए शान्ति
दें। अन्न के साथ पृथिवी हमारे लिए शान्ति दे। महती थावापृथिवी हमारे
लिए शान्ति दें। पर्वत हमारे लिए शान्ति दें। देवों की सारी उत्तम
स्तुतियाँ हमें शान्ति दें।
४. ज्वाला-मुख अग्नि हमारे लिए शान्ति दें। मित्र ओर वरुण हमें
शान्ति दें। अश्विनीकुमार हमें शान्ति दें। पुण्यात्माओं के पुण्यकर्म हमें
शान्ति दें । गति-शील वायु भी हमारी शान्ति के लिए बहें।
५. प्रथम आह्वान में दादाप्दित्री हमारे लिए शान्ति दें। दशनार्थ
अन्तरिक्ष हमारे लिए शान्ति दे। ओषधियाँ और वृक्ष हमें शान्ति दें।
विजय-परायण लोकपति इन्द्र भी हमें शान्ति दें।
६. बसुओं के साथ इन्द्रदेव हमें शान्ति दें। आवित्यों के साथ शोभन
स्तुतिवाले वरुण हमें शान्ति दें। रुद्रणण के लिए र॒ुद्रदेव हमें शान्ति दें ।
देव-स्त्रियों के साथ त्वष्टा हमें शान्ति दें। यज्ञ हमारा स्तोत्र सुने ।
७. सोम हमें शान्ति दे। स्तोत्र हमें शान्ति दे। पत्थर हमें शान्त
दे। यज्ञ हमें शान्ति दे! यूपों का माप हमें शान्ति दें। ओषधियां हमे
शान्ति दें। वेदी हमें शान्ति दे।
फा० ५२
८१८ हिन्दी-ऋग्वेद
fn
८. विस्तीर्ण-तेजा सूर्य हमारी शान्ति के लिए उदित हों। चारों
महादिशायें हमें शान्ति दें। स्थिर पर्वत हमें शान्ति दें। नादयां हमं शान्ति
वें। जल हमें शाम्ति दे।
९. कर्म-द्वारा अदिति हमें शान्ति दें। क्षोभन स्तुलिवाले भसद्गण
हमें शान्ति दें। विष्णु हमें शान्ति दें। पुषा हमें शान्ति दें। अन्तरिक्ष
हमें शान्ति दे। बाय हमें शान्ति दे।
१०. रक्षण करते हुए सविता हमें शान्ति दें। अन्धकार-घिनाशिनी
उषायें हमें शान्ति दें। हमारी प्रजा के लिए पर्जन्य शाभ्ति दें। क्षेत्रपति
शम्भु हमें शान्ति दे ।
११. प्रकाशमान विश्वदेवगण हमें शान्ति बे। कर्म के साथ सरस्वती
हमें यज्ञ-सेवक शान्ति दें। दान-निपुण हमें शान्ति दें। भूलोक, घुलोफ
और अन्तरिक्ष लोक में उत्पन्न प्राणी हम शान्ति दें।
१२. सत्य-पालक देवता हमें शान्ति बें। अएवगण हमें शान्ति दें।
गाये हमारे लिए सुखददात्री हों। सुकमं-कर्ता और सुन्दर हाथवाले
श्रभुगण हमें शान्ति दे। स्तोत्र करने पर हमारे पितर भी हमारे लिए
शान्ति दें।
१३. अज-एकपाव देव हर्स शान्ति दें। अहिर्बुध्न्य देव हमें शान्ति दें।
समुद्र हमें शान्ति दे। उपद्रव शान्ति करनेवाले “अपां नपात्” देव हमें
शान्ति दे। देव-पालिका पश्न हमें शाम्त दें।
१४. हम यह नया स्तोत्र बनाते हँ। आदित्यगण, रुद्रणण और
बसुगण इसका सेवन करें। झूरोक, पृथिवी और पृश्नि से उत्पञ्च तथा अन्य
भी जितने यज्ञीय हैं, सब हमारा आह्वान सुनें।
१५. यज्ञयोग्य बेबी, यजनीय मन् प्रजापति और यजनीय असर
सत्यज्ञ जो देवगण हूँ, बे हमें आज बहुकीततिवाला पुन्न प्रदान करें ।
तुस सदा हमें कल्याण हारा पालन करो।
तृतीय अध्याय समाप्त
८२०
७. प्रसञ्च ओर वेगवान् सह्यृगण हमारे यज्ञ-कर्स और पुत्र की रक्षा
क्रें । व्याप्त ओर विचरमेवाली वाग्देवता (सरस्वतीदेबी) हमं छोड़कर
दूसरे को न देखें । भरुत् ओर वाकू हमारा धन नियत रहने पर भी उसे
बढ़ावें ।
८. तुम असीम और महती पृथिवी को बुलाओ । यज्ञ-योग्य वीर पूषा
को बुलाओ । हमारे कर्म-रक्षक भग देवता को बुल(ओ। दान-निपुण
और प्राचीन (ऋभुओं में से एक) बाजदेव को यज्ञ में बुलाओ ।
९, मरुतो, हमारा यह इलोक (स्तोत्र) तुम्हारे सामने जाय । आश्रय-
दाता और गर्भपाळक विष्णु के निकट भी जाय । वे स्तोता को पुत्र और
अञ्च दें । तुम हमें सदा कल्याण (स्वस्ति) द्वारा पालन करो ।
३७ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द नरिष्टुप् ।)
१. चिस्तृत तेज के आधार ऋभुओ (बाजो), वाहक, प्रश्वस्थ और
अहिसक रथ तुम्हें ढोवे। सुन्दर जढडोंबाले ऋभुओ, यज्ञ में आनन्द के
लिए दूध, दही और सतत् में मिले सोमरस-द्वार उदर-पुत्ति करो ।
२. स्वगदर्शी ऋभुओ, तुस लोग हविष्मान् लोगों के लिए अहिसक
(चोरों आदि से न चुराया जानेवाला) रत्न धारण करो । अनन्तर बल-
वान् होकर यज्ञ सं सोमपान करो । कुपा-द्वारा हमें विशेष रूप से धन दो ।
३. धनी इन्द्र, तुम विशेष ओर अल्प धन फे दान के समय घन का
सेवन करते हो । तुम्हारी दोनों बाहें धन से पुर्ण हैं। घन-प्राप्ति में
तुम्हारा वचन बाधक नहीं होता ।
४. इन्व्र, तुस असाधारण-यशत, ऋतभुओं के ईश्वर और साधक हो ।
दुसरे की तरह तुम स्तोता के घर में आओ । हरि अइववाले इन्द्र, आज
हस (वसिष्ठ) हव्य प्रदान करके तुम्हारा स्तोत्र करते हैं ।
५. हये, तुम हमारी स्तुति-द्वारा व्याप्त होते हो; इसलिए हव्य
देनेवाले यजमान के लिए प्रवण धन के दाता हो । इन्द्र, लुस हमें कब
धन दोगे ? आज तुम्हारे योग्य रक्षण से इस प्रतिपालित होंगे ।
हिन्दी-ऋग्वेद ८२१
६. तुम कब हमारे स्तोत्र-छप वाक्य को समभझोगे ? तुम इस समय
हमें निवास दे रहे हो । बली और वेगशाली अश्व हमारी स्तुति से बीर
पुत्र से युक्त धन और अन्न हमारे गृह में ले आवें ।
७. प्रकाशमाना निति (भूमि) जिन इन्द्र को, अधिपति बनाने के
लिए, व्याप्त करती हैं, सुन्दर अन्नवाले वर्ष जिन इन्द्र को व्याप्त करते हैं
और जिन इन्द्र को मनुष्य स्तोता अपने गृह में ले जाते हें, वही त्रिलोक-
धारी इन्द्र अन्न को जीण करनेवाला बल प्राप्त करते हुँ ।
८. सविता देवता, तुम्हारे यहाँ से प्रशंसा-योग्य घन हमारे पास
आवे । पर्वत (इन्द्रसखा मेघ) के धन देने पर हमारे पास घन आवे ।
सर्व-रक्षक स्वर्गीय इन्द्र सदा रक्षक-रूप से हमारा सेवन करं। देवो,
सुम सदा स्वस्ति-द्वारा हमें पालन करो ।
३८ सूक्त
(देवता सविता । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. जिस सुवणमयी प्रभा का आश्रय सविता (सुर्य) करते हें, उसी
को उदित करते हें । सविता मनुष्यों के लिए स्तुत्य हें । अनेक धनोंचारे
सविता स्तोताओं को मनोहर धन देते हें।
२, सवितादेव, उदित होओ। हे हिरण्यबाहु, विस्तृत और प्रसिद्ध
प्रभा देते हुए और मनुष्यों के भोग-योग्य धन नेताओं को देते हुए यज्ञ
प्रारम्भ हुआ । तुम हमारा स्तोत्र सुनो ।
३. सवितादेव हमारे द्वारा स्तु हों ॥ जिन सविता देव की स्तुति
समस्त देव करते हें, वह पूजनीय सविता हमारा स्तोम (स्तोत्र) और अन्न
धारण करें। सब प्रकार के रक्षा-कार्य-द्वारा स्तोताओं का पालन करें ।
४. सविता देवता को अनुमति के अनुसार अदिति वेवी स्तुति करती
हें, वर्ण आदि देवता सबिता की स्तुति करते हें तथा मित्र आदि और
समान प्रीतिवाले अयमा उनकी स्तुति करते हुँ ।
fo cree
८९ २ 3४५: नर पा मत]
५. दान-निपुणं और भक्त यजधान, आपस में सिएकर, छलोक और
भूलोक के मित्र सविता की सेवा करते हैं । अहिबुँध्न्य हमारा स्तोत्र सुनें ॥
मुख्य धेनुओं-द्वारा वाग्देवी भी हमारा पालन करें ।
६. अजा-रक्षक सविता, उपारी प्रार्थना के अनुसार, अपना मनोहर
धन दें। ओजस्वी स्तोता हमारी रक्षा के लिए भग मास के देयता फो
बार-बार बुलाते हैं। असमर्थ स्तोता रत्न साँगता हुँ ।
७. यज्ञ-कालीन हुभारे स्तोत्रों में मित-द्रथ, सित-मार्ग और जोभन
अञ्नवारे वाजी नाम के देवगण हमारे लिए सुख-प्रद हों । ये वाजीदेव-
गण अदाता (चोर), हन्ता और राक्षसों को मारते हुए सारे पुराने रोगों
को हमसे अलग करें ॥
८. बाजी देवगण, तुम लोग मेघावी, अमर और सत्य-ज्ञाता होकर
धन के निमित्त-भूत सारे युद्धो में हमारा पालन करो । इस सोम को पियो
और प्रमत्त होओ। अनन्तर तृप्त होकर देवयान-मार्ग से जाओ ।
२९ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. अग्नि ऊपर उठकर स्तोता की शोभन स्तुति का आश्रय करें ।
सबको बुढ़ापा देनेवाली उषा देवी पुर्वाभिमुखी होकर यज्ञ में गमन करे ।
आदर से युक्त पत्नी और यजमान, रथियों की तरह, यज्ञ-सार्ग का आश्रय
करसे हें । हमारा भेजा हुआ होता यज्ञ करता हें।
२. इन यजमानों का अन्न-युक्त्त कुश पाया जाता है । इस समय प्रजा-
पालक और बड्वाव।ले वायु और पूषा, प्रजा के मंगल कै लिए, रात्रि की
उषा के पहले का आह्वान सुनकर अन्तरिक्ष में आवें ।
३. इस यज्ञ में वसुगण पृथिवी पर रमण करें । विस्तीर्ण अन्तरिक्ष
में स्थितं और दीप्यमान मरुदुगण सेवित हीते हैं। हे प्रभूतगामी वसुओ
औरं मरुतो, अपना गन्तव्य पथ हमारी ओर करो । हमारा दूत तुम छोगों
के पास गया हूँ। उसका आह्वान सुनना ।
हिन्दी-क्रग्वेत ८२३
४. प्रख्यात, यजनीय और रक्षक विश्वदेदशशण यज्ञ-स्थान में आते
हुँ। अग्नि, हमारे यज्ञ में हमारे अभिलाषी देवों फे लिए यज्ञ करो ।
भग, अध्विदीउुमारंं और इसर की शीघ्र पुजा करी ।
५. अग्नि, तुस द्युलोक से स्दुति-योग्य भित्र, यरुण, इन्द्र, अग्नि,
अयंमा, अदिति और विष्णु को हारे यज्ञ में बुलाओ। पृथिवी से भी
बुलाओ । सरस्वती और मरुद्गण हुष्ट हो।
६. हंस यजनीय देवों के लिए स्तुति कै साथ हव्य प्रदान करते हूं ।
अग्नि हमारी अभिलाषा के प्रतियन््टक न होकर यज्ञ को व्याप्त फरते हैं ।
देवो, तुम ग्राह्म और सदा संभजनीय घन दो । आज हम संहायक देवों
से मिलेंगे ।
७. बसिष्ठों के द्वारा आज शावापृथिवी भली भाँति स्तुत हुए । यज्ञ
सै युवत वरुण, इन्द्र और अग्नि भी स्तुत हुए । आह्वादकारी देवगण
हमें पुजनीय ओर सर्वोत्तम अन्न प्रदान करें। तुम हमें सदा स्वस्ति द्वारा
पालन करो ।
४० सूक्त
(देवता विश््वदेवगण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. देवो, तुम्हारा चिल द्वारा सम्पादनीय सुख हमारे पास आवे ।
हम वेगवान् देवों के लिए स्तोत्र करते हें। इस सभय जो घन सविता
भेजेंगे, हम रत्नदाले सबिता के उसी धन को ग्रहण करेंगे।
२. मित्र, वरुण ओर आावापृथियी हमें वही प्रसिद्ध घन दें। इन्द्र
आर अर्यमा हमें प्रकाशमान स्तोताओं-द्वारा सेवित धन दें। वायु और
भंग हमारे लिए जिस धन की योजना करते हुँ, देबी अदिति उसी षन
को हमें दें ।
३. पुत् नासक अइयवारे मरुतो, जिस मनुष्य की तुम रक्षा करते
हो, वही ओजस्वी और अळवःम् ही । अग्नि और सरस्वती आदि देवगण
८२४ हिन्वी-ऋग्वेद
यजमान को प्रवत्तित करते हुँ। इस यजमान फे धन का कोई विघातक
नहीं हँ ।
४. यज्ञ के प्रापक ये वरुण, मित्र और अर्यमा सबकी शक्ति से युक्त
हँ । ये हमारा यज्ञ-कर्स धारण करते हें ॥ न रोकी गई ओर प्रकाशमाना
अदिति शोभन आह्वानवाली हँ । जिससे हमें बाधा न हो, इस प्रकार
पाप से हमें ये सब देव बचार्वे ।
५. अन्य देवगण यज्ञ मं हव्य-द्वारा प्रापणीय और अभीष्टदाता विष्णु
के अंश-रूप हें। रुद्र अपनी महिमा प्रदान करें। अश्विनीकुमारो, तुम
हमारे हव्यवाले गृह में आओ ।
६. सबकी वरणीया सरस्वती और दान-निपुणा देवपत्नियां जो धन
हमें देती हें, उसमें, हे दीप्तिवाले पुषन्, बाधा नहीं देना । सुखप्रद और
गतिशील देवगण हुम पालन करें । सर्वत्रगामी वायु वृष्टि का जल प्रदान
करः ।
७. आज देवों के द्वारा यावापथिवी भली भाँति स्तुत हुई । यज्ञवाले
वरुण, इन्द्र और अग्नि भी स्तुत हुए । आह्वादकारी देवगण हमें पुजनीय
और सर्वोत्तम अन्न प्रदान करे । तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
४१ सूक्त
( यह भग-सत्त है। देवता म ऋक के इन्द्रादि, २ य--५ म के
भग और ७ म की उपा। ऋषिवसिष्ठ। छन्द जगती
ओर त्रिष्टुप् ।)
१. हम प्रातःकाल अग्नि, इन्द्र मित्र और वरुण को बुलाते हैं तथा
घ्रातःकाल अर्विनीकुमारों की स्तुति करते हें। प्रातःकाल भग, पूषा,
ग्रह्मणस्पति, सोम और रुद्र की स्तुति करते हूँ ।
२. जो संसार के धारक, जय-शील और उग्र अदिति के पुत्र हैं,
उन्हीं भगदेवता को हम प्रातःकाल बुलाते हैँ। दरिद्र स्तोता ओर धमी
[त moment १ न पेटले रँ
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राजा दोनों ही भग देवता की स्तुति करते हुए “मुझे भोग-योग्य धन दो”
की याचना करते है ।
३. भग, तुम उत्तम नेता हो। भग, तुम सत्य घन हो। हमें तुम
अभिलषित वस्तु प्रदान करके हमारी स्तुति सफल करो । भग, तुम हमें
गौ और अर्व-द्वारा प्रर्बाद्धित करो। भग, हम पुत्रादि-द्वारा मनुष्यवानू
बनेंगे ।
४. हम इस समय भगवान् (तुम्हारे) हों, दिन के प्रारम्भ और
मध्य में भी भगवान् हों। धनी भग देव, सुर्योदय के समय हम इन्द्र आदि
का अनुग्रह प्राप्त कर ।
५. देवो, भग ही भगवान् हों । हम भग के अनुग्रह से ही भगवान्
हों। भग, सब लोग तुम्हें बार-बार बुळाते हें । भग, तुम इस यज्ञ में
हमारे अग्रगामी बनो ।
६. शुद्ध स्थान के लिए दधिक्रावा की तरह उषा देवता हमारे यस में
आवें । वेगशाली अइवों.के रथ की तरह उषा देवता धनदाता भगदेव
को हमारे सामने ले आवें ।
७. सारे गुणों से प्रवृद्ध और भजनीय उषा देवता अइच, गौ और
वीर पुरुष से युक्त होकर तथा जल-सेचन करके सदा हमारे रात्रि-जात
अन्धकार को नाझ कर । तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
४२ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि चसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. स्तोता (व्राह्मण) अंगिरा लोग सवत्र व्याप्त हों । पर्जन्य हमारे
स्तोत्र की अभिलाषा विशेष रूप से कर । प्रसञ्चता-दायिका नदियां जल-
सेचन करते हुए गमन करें । आदर-सम्पञ्चा पत्नी और यजमान यज्ञ के
रूप की योजना करें ।
२. अग्नि, तुम्हारा चिर-आप्स पथ सुगम हो। जो इयाम और
लोहित वर्ण के अश्व यज्ञ-गृह मं तु#हारे समान वीर को ले जाते हुए शोभा
८३९ | हिन्दी-ऋणग्वेद
i]
पाते हँ, उन्हें रण में योजित करो ! में यज्ञ-गृह में बैठकर देवों को
शुलाता हुँ ।
३. देवो, नमस्कारवाले थे स्तोता तुम्हारे यज्ञ का भली भाँति पुजन
करते हें । हमारे समीप में रहनेवाळा होता सर्वोत्तम है। यजमान,
देवों का यज्ञ भली भाँति करो। बहुत तेजवाछे, तुम भूमि को आवतित
क्रो ।
४, सबके अतिथि अग्नि जिस समय वीर और घनी के गृह में सुख
से सोये हुए देखे जाते हैं और जिस समय अग्नि घर में भली भाँति
निहित होकर प्रसन्न होते हे, उस समय वह समीपरवत्तिनी प्रजा को वर
णीय धन देते हुँ ।
५. अग्नि, हमारे इस थज्ञ की सेवा करो। इन्र और भरतों फे
बीच हमें यशस्वी बनाओ । रात्रि ओर उषा फे काल में कुशों पर बैठो।
` यंज्ञाभिलाषी मित्र और वरुण की इस यज्ञ में पुजा करो !
६. धन-कामी होकर वसिएठ ने, इसी प्रकार, बेल-पुत्र अग्नि की, बहु-
रूपवाले धन की प्राप्ति के लिए, स्तुति की थी । अग्नि हमें अझ, बल
और घन दें। तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालनं करो ।
४२३ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. वृक्ष-शाखा की तरह जिन मेधावियों के स्तोत्र सब ओर जाते
हें, वे ही देव-कामी यज्ञ में नमस्कार (वा स्तुति) द्वारा तुम्हें पाने के लिए,
विशेष रूप से, स्तुति करते हैँ । वे द्यावापृथिवी की भी स्तुति करते हैं।
२. शीघ्र-गांमी अइ की तरह इस यज्ञ में जाओ। समान सन से
तुंभ घी बहानेवाली स्त्रुकू को उठाओ । यज्ञ के लिए बढ़िया कुश बिछाओ।
अग्नि, तुम्हारी देवकामी किरणं ऊर्द्ध व-सुख रहें ।
३. विशेष रूप से प्रतिपालनीप पुत्र जैसे माता की गोद में बेठते हें,
वैसे हो देवंगण यज्ञ के उन्नत स्थान पर विराजेँ । अग्नि, जैह तुम्हारी
पु न
गुट ee ४०२०० थु Ces रि" 2 म रँ
(५०४८ ६००4५ ४०४५ न
यजनीय ज्वाला को भरी भांति शंख । युद्ध में तुम हमारे शत्रुओं की
सहायता नहीं करना ।
४. यजनीय देवगण जल की बूहने योग्य घारा को बरसाते हुए यथेष्ट
रूप से हमारी सेवा को स्वीकार करें। देवो, आज घनों में जो पुज्य धन
हैं, वह आवे । एक सन होकर तुम भी आओ ।
५. अग्नि, इसी प्रकार तुम प्रजा में से हमं घन दो ॥ बजी अग्नि,
तुम्हारे द्वारा हम छोड़ न जाकर नित्य-युक्त धन के साथ सत ओर अंहि-
सित हों । तुम सदा हुये स्वस्ति-द्वारा पालन करो ॥
४४ सूक्त
(देवता दधिक्रा । ऋषि वसिप्ठ । छन्द जगती और त्रिप्टुप ।)
१. तुम्हारी रक्षा फे लिए पहले में दधिक्रा (अईवासिमावी) देव को
बुळाता हूं । इसके पचात अश्वि-द्वय, उषा, समिद्ध अग्नि और भंग
देवता का आह्वान करता हु । इन्द्र, विष्णु, पुषा, ब्रह्मणस्पति, आदित्य-
गण, द्यावापृथिवी, जल-देदता और सूर्य को बुलाता हूँ ।
२. यज्ञ के प्रारम्भ में हुम स्तोत्र-द्रारा दधिक्रा देवता को प्रबोधित
ओर प्रवत्तित करते हुए और इलादेवी (हृवीरूपा देवो) को
स्थापित करते हुए शोभन आह्वान से सम्पन्न मेधावी अधिव-द्वय को
बुलाते हे ।
३. दधिक्रा को प्रबोधित करके में अग्नि, उषा, सूर्य ओर वाग्देवता
(वा भूमि) की स्तुति करता हुँ । में अभिभानियों के विभागकारी वरुण
कै महान् पिद्धल वर्ण अइव की स्तुति करते! हु १ वे सय देवगण सारे पापों
को मुझसे अलग कर ॥
४. अइवों में मुख्य, शींघ्रभामी और गति-शील दघिक्रा ज्ञातव्य को
भली भाँति नकर उषा, सूर्ये, आदित्यगण, वसुगण ओर अंगिरा
लोगों के साथ सहमत हीकर स्वयं रथ के अग्र भाग मं लगते हुं ।
८२८ हिन्दी-ऋग्वेद
७५ सूक्त
(देवता सविता । ऋषि वसिष्ठ । छन्द तरिष्ट्प् |)
१. रत्न-युक्त, अपने तेज से अन्तरिक्ष के पुरक और अपने अइवों-
द्वारा ढोये जाते हुए सविता देव मनुष्य के लिए हितकर प्रभूत घन, हाथ में
धारण करते हुए, प्राणियों को अपने स्थान में धारण और अपने कर्म
में प्रेरित करते हुए आवे ।
२. दान के लिए प्रसारित और विशाल हिरण्मय बाहओं द्वारा सविता
अन्तरिक्ष के अन्त को व्याप्त कर । आज हम सविता की उसी महिमा
की स्तुति करते हैं। सूयं भी सविता (सूयं की तीक्ष्ण शक्तिदेव)
को कर्मच्छा दे ॥
३. तेजस्वी और धनाधिपति सविता देव ही समारे लिए धन भेजें ।
घह बहु विस्तीणे रूप को धारण करते हुए हमें मनुष्यों के भोग-योग्य
धन दें ।
४. ये स्त्रोत्र-रूप वचन (वा प्रजाये) उत्तम जिह्वावाले, घन-सम्पन्न
और सुन्दर हाथवाले सविता देवता की स्तुति करते हुँ। वे हमें विचित्र
ओर विशाल अन्न दें। तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो ॥
४६ सूक्त
(देवता रुद्र । ऋषि वसिष्ठ । छन्द जगती ओर त्रिष्टप ।)
१. दृढ़-धनुष्क, शीघ्रगामी वाणवाले, अन्नवाले, किसी के लिए भी
अजेय तथा सबके बिजेता और तीक्ष्ण अस्त्र बनानेवाले रुद्र की स्तुति करो ।
बे सुनें ।
२. पूथिवीस्थ और स्वर्गस्थ मनुष्य के एरवर्थ-द्वारा उन्हें जाना जा
सकता हुँ । सुद्र, तुम्हारा स्तोत्र करनेवाली (हमारी) प्रजा का पालन
करते हुए हमारे घर में जाओ । हमें रोग नहीं देना ।
हिन्दी-ऋग्वेद ८२९
३. रुद्र, अन्तरिक्ष से छोडी गई जो तुम्हारी बिजली पृथिवी रप
विचरण करती हे, वह हमें छोड़ दे । हे स्वपिवात स्त्र, तुम्हारे पास
हजारों ओषधियाँ हें। हमारे पुत्र या पोत्र की हिसा नहीं करना ।
४. रुद्र, न हमें मारना न छोड़ना । तुम क्रोध करने पर जो बन्धन
करते हो, उसमें हम न रहें। प्राणियों के प्रशस्य यज्ञ का हमें भागी
बनाओ । तुम सदा हसं स्वस्ति-दहारा पालन करो ।
४७ सूक्त
(देवता अप् (जल) । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टप ।)
१. हे अपदेवता, देवेच्छुक अध्वर्युओ के द्वारा इन्द्र के लिए पीने
योग्य और भूमि-समुत्पन्त जो तुम लोगों का सोमरस पहले संस्कृत किया
गया हँ, उसी शुद्ध, निष्पाप, बुष्टि-जल-सेचनकारी ओर रस से युक्त सोम-
रस का हम भी सेवन करेंगे ।
२. श्वी घ-गति “अपां नपात्” (अग्नि) देवता तुम्हारे उस रसवत्तम
सोमरस का पालन करं । वसुओं के साथ इन्द्र जिसमें मत्त होते हे, तुम्हारे
उसी सोमरस को हम देवाभलाषी होकर आज प्राप्त करेगे ।
३. अनेक पावन रूपोंयाले और लोगों में हुर्षोत्पादक तथा प्रकाशमान
जल-देवता देवों के स्थानों में प्रवेश करते हैं । वे इन्द्र के यज्ञावि कर्मा
की हिसा नहीं करते। अध्वर्युओ, तुस सिन्धु आदि के लिए घृत-युफ्त
हव्य का होम करो ।
४, सुर्य, किरणों द्वारा, जिन जों का विस्तार करते हैं और जिनके
लिए इन्द्र ने गमनीय पथ को विदीणं किया हँ, हे सिन्धुगण, वे ही तुम
लोग हमारा घन धारण करो । तुम सदा हमें स्वस्ति द्वारा पालन करो ॥
४८ सरक्त
(देवता ऋभु। ऋषि वसिष्ठ । छन्द् त्रिष्टुप |)
१. नेता और धनवान् ऋभुओ, हमारे सोमपान से तुस मत्त होओओ ।
तुम लोग जा रहे हो । तुम्हारे कमे-कर्ता और समर्थ अइव हमारे अभि-
मुख होकर मनुष्यों के लिए हितकर रथ आवत्तित करें ।
00 हिस्वी-म्ययदे
२. हम तुम्हारे हारा विभु (प्रथित) हैं। हुम लोग समर्थ हौ । हम
तुम्हारी सहायता से समर्थ होकर पुम्हारे बल द्वारा शत्रुओं को दबाबेंगे।
वाज नाम के ऋछभु युद्ध में हमारी रक्षा करें। इन्र को सहायक पाकर हम
बुन्न के हाथ से बय जायेंगे ।
३. हमारी अनेक शत्रु-ऐेणओं को उखु ओर ऋभुगण आयुध-द्वारा
पराजित करते हँ । युद्ध होने पर वे सारे शत्रुओं को मारते हूँ। विभ्वा,
ऋभुक्षा और वाज नास के तीनों ऋभु और आय इच्ध-सन्धन द्वारा शत्रु-
बल को विनष्ट करेंगे ।
४. प्रकाशक ऋभुओ, घुम आज हमें धन दो। है समस्त ऋभुओ,
प्रसञ्ञ होकर तुम हमारे रक्षक होओ । प्रशस्य ऋभुगण हमें अन्न प्रदान
करें । तुम सदा हमें स्वस्ति (कल्याण) द्वारा पालन करी ।
४९ सूक्त
(देवता अप् । ऋषि वसिष्ठ । छन्द् त्रिष्टुप |)
१. जिन जलों सें समुद्र ज्येष्ठ हूं, घे सदा गसन-शील और झोधक
जलसमुह (अपु देवता) अन्तरिक्ष के बीच से जाते हूँ। वस््धर और
अभौष्टवर्षक इन्द्र ने जिनको छोड़ दिया था, वे अपदेवता यहाँ हमारी
रक्षा करं ।
२. जो जल अन्तरिक्ष में उत्पन्न होते हँ, जो नदी आदि में प्रवाहित
होते हूँ, जो खोदकर निकाले जाते हें ओर जो स्वयं उत्पन्न होकर समुद्र
की ओर जाते हु, वे ही दीप्ति से युक्त और पवित्र (देवी-स्वरूप) जळ
हमारी रक्षा करे ॥
३. जिनके स्वामी वरुणदेव जल-समूह में सत्य ओर सिथ्या के साक्षी
होकर मध्यम लोक सें जाते हें, वे ही रस गिरानेवाली, प्रकाश से युक्त
और शोधिका जल-देवियाँ हमारी रक्षा करे ।
४. जिनसे राजा वरुण निवास करते हु, जिनमें सोम रहता हे, जिनमें
हेन्दी-ऋण्वेद ८२१
अन्न पाकर विश्व-देवगण प्रमत्त होते हें और जिनसें वैश्वानर पेठते हुँ,
वे ही प्रकाशक जल (अपू देवता) हुमारी रक्षा करें।
५० सूक्त
(देवता प्रथम के मित्र आर वरुण, द्वितीय के अग्नि, तृतीय के
वैश्वानर ओर चतुथं की नदी । ऋषि वसिप्ठ । छन्द
जगती, शकरी और अतिजगती ।)
१. मित्र और वरुण, इस झोक में तुम हमारी रक्षा करो । स्थान-
कारी और विशेष वद्धमान विष हमारी ओर न आवे । अजका (कान
चित् स्तनाक्कलि) मामक रोग की तरह दुर्वशेन विष बितष्ठ हो ॥ छद्य-
यामी सपे हमें पद-ध्वन्ति से न पहचान सफे ।
२. जो बन्दन नाम का विष नाना जन्मों में वृक्षादि के ग्रन्थि-स्थाम
में उत्पन्न होता है और जो विष जानु (घुटना) और गुल्फ (पादसप्रन्थि)
को फुला देता हुँ, बीप्तिमान् अग्निदेव, हमारे इस मनुष्य से उस विष
को दूर करो । छद्मगामी सर्प पवध्वनि-द्वारा हमें जानने न पावे ।
३. जो विष शाल्मळी (वा वक्षःस्थान) में होता हैं और जो नदी-
जल में ओषधियों से उत्पन्न होता हे, विइवदेवगण, उस विष को हमसे
हूर कर दो । छद्यगासी सपं पद-ध्वनि-हारा हमें जानने न पावे ।
४. जो नदियाँ प्रबल (वा प्रवण) देश में जाती हँ, जो निम्न बेश
सें जाती हूँ, जो उच्चत देश में जाती हें, जो जल-युक्त और जलू-शून्य
होकर संसार को आप्यायित (तृप्त) करती हुँ । वे सारी प्रकाशक नदियां
हमारे शिपद नामक रोग का निवारण करके कल्याणकारिणी बनें | थे
चदियाँ अहिसक हों ।
५१ सूक्त
(देवता आदित्य । ऋषि वसिध्ठ | छन्द निष्टुप् |)
१. हम आदित्यों के रक्षण-द्वारा नवीन और सुखकर गृह प्राप्त करें ॥
क्षिप्रकारी आदित्यगण हमारे स्तोत्र सुनकर इस यज्ञ-फर्ता को निरपराष
और अवरिग्र कर वें ।
८३९ _ हिन्दी-ऋग्वेद
२. आदित्यगण, अदिति, अत्यन्त सरल-स्वभाव मित्र, वरुण और
अर्थमा प्रम हों । भुवन-रक्षक देवगण हमारे रक्षक हों। वे आज हमारी
रक्षा के लिए सोमपान करं ।
३. हमने समस्त आदित्यगण (१२), समस्त मरुदूगण (४९),
समस्त देवगण (३३३३), समस्त ऋभुगण (३), इन, अग्नि और
अझ्विनीकुमारों की स्तुति की । तुम सदा हमे स्वस्ति द्वारा पालन करो ।
५२ सूक्त
(देवता आदित्य । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. हम आदित्यो के आत्मीय हँ; हम अखण्डनीय हों । देवों में हे
वसुओ, मनुष्यों की तुम रक्षा करो । मित्र और वरुण, तुम्हारा भजन करते
हुए हम घन का उपभोग करेगो द्यादापृथिदी, हम भूति (शक्ति) वाले हों।
२. मित्र ओर वरुण (मित्र = उषा ओर सूर्य की चालक शक्ति का
देवता, वरुण = आकाश का देवता) आदि आदित्यरण हमारे पुत्र और
पोत्र को सुख दें दूसरे का किया पाप हम न भोगे । जिस कर्म को करने
पर तुस नाश करते हो, वसुओ, हम वह कर्म न करें।
३. क्षिप्रकारी अंगिरा लोगों ने सविता के पास याचना करके सविता
के जिस रमणीय धन को व्याप्त किया था, उसी धन को यञ्ञशील
महान् पिता (प्रजापति) ओर सारे देवगण, समान मन से हमें दें।
५३ सूक्त
(देवता यावाएथिवी । ऋषि चसिप्ठ । छुन्द त्रिष्टुप् )
१. जिन विशाल और देवों की जननी द्यावापृथिवी (दयौ वा द्यावा =
देवलोक और पृथिवी = भूमि की देवी) को स्तोताओं ने, स्तुति करते हुए,
आगे स्थापित किया था, सें उन्हीं यजनीया ओर महती यावापृथिवी की,
ऋर्विकों के दाधा-सहित होकर, यज्ञ और नमस्कार के साथ, स्तुति
करता हुँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ८३३
२. स्तोवाओ, तुम लोग नई स्तुतियों-द्वारा पूर्व-ज्ञाता और मातू-
पितृ-भता द्ादा-एथिदी को यज्ञ-स्थान के अग्रभाग में स्थापित करो ।
हादा-पृरिदी, अपना महान् और वरणीय धन देने के लिए, देवों के साथ,
हमारे पास आओ ।
३. आाश्-पूछ्, तुम्हारे पास शोभन हवि देनेवाले यजमान के लिए
देने योग्य बहुत रमणीय घन है । धन में जो धन अक्षय हो, उसे ही हमें
देना । तुम हमें सदा कल्याण (स्वस्ति) के साथ पालन करो।
५९ सूक्त
(देवता वास्तोष्पति । | ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुपू)
१. हे वास्तोष्पति (गृह-पालक देव), तुम हमें जगाओ । हमारे घर
को नीरोग करो । हम जो धन माँग, वह दो । हमारे पुत्र, पोत्र आवि
द्विपदों और गो, अइव आदि चतुष्पदों को सुखी करो ।
२. वास्तोष्पति, तुम हमारे ओर हमारे धन के वद्धंथिता होओ ।
सोम की तरह आह्वादक देव, तुम्हारे सखा होने पर हम गोओं और
अइवोंबाले और जरारहित होंग । जेसे पिता पुत्र का पालन करता हूँ, बसे
ही तुम हमारा पालन करो ।
रे. वास्तोष्पति, हम तुम्हारा सुखकर, रमणीय और घमवान् स्थान
प्राप्त करे। तुम हमारे प्राप्त ओर अप्राप्त वरणीय धन की रक्षा करी
ओर हमें स्वस्ति के साथ सदा पालन करो ।
५५ सूक्त
(देवता वास्तोष्पति और इन्द्र । ऋषि वसिष्ठ । छन्द गायत्री
अनुण्टुप और ब्रहती ।)
१. वास्तोष्पति, तुम रोग-नाशक हो। सब प्रकार के झप में पठ
क्र हमारे सखा और सुखकर बनो ।
८३४ हिन्दी-ऋग्वेद
२. हे शवेतवर्ण और किसी-किसी अंश में पिगलवर्ण तथा सरमा
(देव-कुक्कुरी) के ही बंशोद्भूत वास्तोष्पति, जिस समय हुम दाँत निका-
लते हो, उस समय हमारे पास, आहार के समय, ओ्ठ-प्रान्द में, आयुध
की तरह दाँत विशेष शोभा पाते हैं इस समय तुम सुख से सोको ।
{ 3९ आत ष्टी ।
तुम स्तेन (चोर) और तस्कर (डकंत) के पास जाओ । इन्द्र फे स्तोता
के पास क्या जाते हो ? हमें क्यों बाधा देते हो ? सुख से सोओ ।
४. तुम सुअर को फाड़ो ओर सुअर तुम्हें फाड़ । इन्द्र फे स्तोताओं
फे पास क्या जाते हो ? हमें क्यों बाधा देते हो ? अच्छी तरह से सोओ।
तुम्हारी माता सोवे । तुम्हारे पिता सोवें। कुक्कुर (तुम) सोओ।
वृहस्वासी सोवे । बन्धु लोग भी सोव । चारों ओर के ये मनुष्य भी सोव ।
६. जो व्यक्ति यहाँ हे, जो विचरण करता हुँ, जो हमें देखता हें,
एसे सबकी आंखें हम फोड़ देंगे । जैसे यहु हम्य॑ (कोठा) निश्चल है, वसे
ही वे भी हो जायेंगे ।
७. जो सहस्नश्युंगों वा किरणोंवाले वृषभ (सुर्य) समुद्र से ऊपर
उठ हुँ, उन विजेता की सहायता से हम सारे मनुष्यों को सुला वेगे ।
८. जो स्त्रियाँ आँगन में सोनेदाली हैं, जो वाहन पर सोनेवाली हैं,
जो तल्प (बिस्तरे) पर सोनवाली ह और जो पुण्य-गन्धा हैं, ऐसी सब
स्त्रियों को हम सुला दंग ।
५६ सूक्त |
(४ अनुवाक । देवता मरुत् । ऋषि वसिष्ठ। छन्द द्विपदा, विराट
और ऋिष्टुप ) |
१. कान्तियुक्त नेता, सभानगृह-निवासी, महादेव फे पुत्र, मनुष्य-
हितैषी और सुन्दर अइवयाले ये रुद्र-पुत्रगण कौन हुं ?
२. इनकी उत्पत्ति कोई नहीं जानता । ये ही परस्पर अपनी जन्म-
कथा जानते हें ।
हिन्दी-ऋग्वेद ८३५
३. स्वयं ही घूमते हुए ये परस्पर मिलते हुँ। वायु के समान देग-
शाली शयेन (बाज) पक्षी की तरह ये परस्पर स्पर्डधा (होड़) करते हूँ ।
४. शास्भ्ज्ञ सनुष्य इन श्वेतवर्ण जीवों (अस्तो) को जानते हैं ।
महती पुश्ति (मरुतों की माता) मे इन्हें अन्तरिक्ष में वारण कर रक्खा हे ।
५. बह् बुद्धि-मरुतों के अनुग्रह से, सदा शत्रुओं को हरानेवाली, धन
की पुष्टि देनेवाली और वीर पुत्रवाली है ।
६. मरुत लोग (जल-वायु के देवता और रुद्र के अनुचर) जानेवाले
स्थानों को सबसे अधिक जाते हँ । वे अलंकार-द्वारा सबसे अधिक शोभा
पाते हें । वे कान्तिपुर्ण और ओजस्वी हैं ।
७. तुम्हारा तेज उग्र है और बल स्थिर। मरुद्गण ब्द्धिमान् हों ।
८. तुम्हारा बल सर्वत्र शोभित है । तुम्हारा चित्त कोध-शील है ।
प्राभव करनेवाले और बलवान् मरुतों का वेग, स्तोता को तरह, बहु-
विघ-शब्दकारी हुं ।
९. मरतो, हमारे पास से पुराने हथियार अलग करो। तुम्हारी
कूर बुद्धि हमें व्याप्त न करे ।
१०. तुम क्षिप्रकर्ता हो । तुम्हारे प्रिय नाम को हम पुकारते हँ । प्रिय
सरुदूगण इससे सन्तुष्ट होते हुँ ।
११. सरुद्गण सुन्दर आयुधवाले, गतिशील और सुन्दर अळंकारवाले
हैं। चे हमारे शरीर को सजाते हें ।
१२. मरतो, तुम शुद्ध हो । शुद्ध हव्य तुम्हारे लिए हो। सुम शुद्ध
हो। तुम्हारे लिए हम शुद्ध यज्ञ करते हैं । जरूस्पर्शी मरुद्गण सत्य से सत्य
को प्राप्त हुए हें । झरुदूगण शुद्ध हैं, उनका जन्म शुद्ध हैं और वे अन्य को
शुद्ध करते हें ।
१३. मरुतो, तुम्हारे कन्धों पर खादि (एक प्रकार का अळंकार वा
वल्य) स्थित हे, उत्तम रुक्म (हार) तुम्हारे हृदय-स्थल में है । जसे
वर्षा के साथ बिजली शोभा पाती हैं, वेसे ही जल-प्रदान के समय आयुध
(सेघगर्जन) द्वारा तुम शोभा पाते हो ।
८३६ हिन्दी-ऋग्वेद
१४. मरुतो, तुम्हारा अन्तरिक्ष में उत्पन्न तेज विशेष रूप से गसन
करता हे । तुम विशेष रूप से यजनीय हो। जळ-वृद्धि करो । मरुतो,
तुम सहन संख्यावाले, गृहोत्पन्न ओर यृहम्रेण्यों-दारा दस इस भाग का
आश्रय करो ।
१५. मरुतो, तुम अन्नवाले मेधावी के हव्य से युक्त स्तोत्र को जानते
हो; इसलिए शोभन पुत्रवाले को शीघ्र धन दो । उस धन को शत्रु नहीं
नष्ट कर सकता ।
१६. मरुद्गण सततयामी अश्व की तरहसुन्दर गमनवाले हें । उत्सव-
दर्शक मनुष्यों की तरह शोभन हैं और गृह-स्थित शिशुओं की तरह
सुन्दर हँ। वे कीड़ा-परायण वत्सों की तरह हैं और जल के
धारक हैं।
१७. हमारे लिए घन देते हुए और अपनी महिमा से सुन्दर द्यावा-
पृथिवी को पुर्ण करते हुए मरुदूगण हमें सुखी करें । मरुतो, मनुष्य-नाशक
तुम्हारा आयुध हमारे पाप से दूर रहे सुख से हमारे अभिमुख होओ ।
१८. होतृ-गृह में बैठा हुआ होता तुम्हारे सर्वत्रगामी दान-कार्य की
प्रशंसा करके तुस लोगों को भली भाँति बार-बार बुलाता हुँ । कामवर्षक
मरुतो, जो होता कार्य-निष्ठ यजसान का रक्षक है, वह मायाझून्य होकर
स्तोत्रो-द्वारा तुम्हारी स्तुति करता है ।
_ १९. ये सरुदृगण यज्ञ में क्षिप्रकारी यजमान को प्रसञ्च करते हें। ये
बळ-द्वारा बलवान् लोगों को नीचे करते हैं । ये हिसक से स्तोता की रक्षा
करते हें । परन्तु जो हव्य नहीं देता, उसका महान् अप्रिय करते हें ।
२०. ये धनी और दरिद्र--दोनों को उत्तेजित करते हें। जसा कि
देवगण अथवा बन्धुगण चाहते हे--काम-वर्षक मरुतो, तुम अन्धकार
नष्ट करो और हमें यथेष्ट पुत्र और पोत्र प्रदान करो ।
२१. तुम्हारे दान से हम बाहर न हों। रथवाले मरुतो, धन-दान
के समय हमें पीछे नहीं फेंकना । अभिलषणीय धनों में हसं भागो बनाना ।
हिन्दी-प्रद्ग्वेद ८३७
कामवर्षक सरुतो, तुम्हारा जो सुजात धन हँ, उसका भी हमें भागी
बनाना ।
२२. जिस समय विक्रस-जाली मनुष्य अनेक ओषधियों और मनुष्यों
को जीतने के लिए ऋद्ध होते हं, उस समय रद्र-पुत्र मरुतो, संग्राम में
शत्रु के निकट से हमारे रक्षक बनना ।
२३. मरुतो, हमारे पूर्वेजनों के लिए तुमने अनेक कार्य किये हैं ।
तुम्हारे पहले के जो सब काम प्रशसित होते हं, उन्हें भी तुसने किया हे।
युद्ध सं तुम्हारी सहायता से ओजस्वी व्यक्ति शत्रुओं को पराजित करता
हुं । तुम्हारी ही सहायता से स्तोता अञ्न भोग करता हूँ ।
२४. भरुतो, हमारा वीर पुत्र बली हो । वह असुर (प्रज्ञावान् पुत्र)
शत्रुओं का विधारक हो । उस पुत्र के द्वारा हम सुन्दर निवास फे लिए
शत्रुओं का विनाश करेंगे । तुम्हारे हुम आत्मीय स्थान में रहेंगे ।
२५. इन्द्र, बरुण, मित्र, अग्नि, जल, ओषधि और वृक्ष हमारे स्तोत्र
का आश्रय करे । मरुतों की गोद में हम सुख से रहेंगे । तुम सदा हमें
स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
५७ सूक्त
(देवता मरुद्गण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. यजनीय मरुतो, मत्त स्तोता लोग यज्ञ-समय में, बल फे साथ,
तुम्हारे नाम की स्तुति करते हँ। मरुदृगण विस्तृत द्यावापृथिवी को कम्पित
करते हें । वे मेघों से जल बरसाते हँ और ओजस्वी होकर सर्वत्र जाते हँ ।
२. मरुद्गण स्तोता को खोजते हें। यजमान का मनोरथ पूर्ण
करते हें। तुम लोग प्रसन्न होकर हमारे यज्ञ में, सोमपान के लिए, कुश
पर बेठो।
३. सरुद्गण जितना दान करते हुँ, उतना और कोई नहीं करता ।
ये हार, आयुध और झरीर की शोभा से शोभित होते हें । द्यावापृथिवी
a A ey ar अ कि जता
<ः ३ < ९₹०००:६००.१, ०८ ६
का प्रकाश करनेवाले और व्याप्त-प्रकाश मरद्गण शोभा कै लिए पमान-
रूप आभरण प्रकट करते हुँ ।
४. मरुतो, तुम्हारा प्रसिद्ध आयुध हमसे हूर रहे । यद्यपि हम मनुष्य
होने के कारण तुम्हारे पास अपराध करते है, तो भी, हे यजनीय मरुतो,
तुम्हारे उस आयुध में न पड़े । तुम्हारी जो बुद्धि सबसे अधिक अन्न देने-
वाली हुँ, वह हमारी हो।
५. हमारे यज्ञ-कार्य में मरुद्गण रमण करें । वे अनिन्दित, दीप्ति-
युक्त ओर शोधक हैं। यजनीय मरुतो, कृपा करके अथवा सुन्दर स्तुति
के कारण, हमें विशेष रूप से पालन करो । अन्न के द्वारा पोषण के लिए
हमे प्रवद्वत करो ।
६. स्तुत होकर मरुद्गण हवि का भक्षण करें। ये नेता एँ और सारे
जलों के साथ वर्त॑सान हैं। मरुतो, हमारी सन्तान के लिए जळ दो ।
हव्यदाता को सत्य और प्रिय धन दो ।
७. स्तुत होकर मरुद्गण सारे रक्षणों फे साथ यस में स्तोता के सामने
आवे । ये स्वयं स्तोताओं को शत-संस्या (पुत्रादि) से युवत करके बढ़ाते
हें तुम सदा हमें स्वस्ति-ट्वारा पालन करो ॥
५८ सूस
(देवता मरत् । । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. स्तोताओ, तुम सदावर्षक मरुद्बुन्द की पुजा करो। ये देवताओं
के स्थान (स्वर्ग) में सबसे बुद्धिमान् हैं । अपनी महिमा से ये दावाएथिवी
फो भग्न करते हैं । भूमि और अन्तरिक्ष से स्वर्ग फो व्याप्त करते है ।
२. हे भीम, प्रवृद्धि-बुद्धि और गमनशील मरुतो, तुम्हारा जन्म दीप्त
रुद्र से हुआ ह । मरुदूगण तेज और बल से प्रभावशाली हुए हैँ । तुम्हारे
गमन मं सूर्य को देखनेवाला सारा प्राणि-जयत् डरता
३: तुम हव्य-युक्त की बहुत अन्न दो। हमारे सुन्दर स्तोत्र का अवश्य
हिन्दी-ऋणष्वेद ८३९
सेवन करो । साण्ण्गण जिस मार्ग को प्राप्त होते हुँ, वह प्राणियों को नहीं
विनष्ट फरता। वे हमें अभिलषणीय रक्षण-द्वारा प्रर्वाद्धत झरें ।
४. मरुतो, तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर स्तोता शत संख्या से युक्त
घनवाला होता हुँ । तुम्हारे दारा रक्षित होकर स्तोता आक्रमण-कर्ता,
शत्रुओं को दबानेवाला और सहरू घनवाला होता है । तुम्हारे द्वारा रक्षित
होकर वह सम्राट् और शत्रु-बाशफ होता हँ । हे कम्पक, तुम्हारा दिया
हुआ बहु धन बहुत बढ़े ।
५. कास-वर्षक मरुतों की में सेवा करता हूँ । घे फिर कई बार हमारे
अभिमुख हों । जिस प्रकट वा अप्रकट पाप से मरुद्गण छुद्ध होते हे, उसे
मरुतो की स्तुति करके हम भो देंगे ।
६. हमने धनी मरतों की उस झोभन-स्तुति को इस सुक्त में किया है।
मरुद्गण उस सुकत का सेवन करे । अभौष्ट-वर्षक मरतो, तुम दूर से ही
शत्रुओं को अलग करो । घुस हमें सबा स्वस्ति-द्वारा पान करो ।
है ए् स्
(देवता मरुद्गण । अन्तिम मन्त्र के देवता रुद्र । ऋषि वसिष्ठ ।
छन्द बहती, सतोवहती, त्रिप्टूप, गायत्री और अनुप्टुप् |)
१. हे देवो, भय से स्तोता को बचाओ। अग्नि, वरुण, मित्र, अयमा ओर
मरुतो, तुम जिसे सन्मार्ग पर ले जाते हो, उसे सुख दो ।
२. देवो, तुम्हारे रक्षण से तुम्हारे प्रिय दिन में जो यज्ञ करता हे, जो
शत्रु को आक्रान्त करता है, जो तुम्हें दूसरे स्थान में न जाने देने के हिए
तुम्हें बहुत हव्य देता है, वह अपने निवास को बढ़ता है ।
३. में वसिष्ठ तुम लोगों में जो अवर (भन्द) हैं, उन्हें छोड़कर' स्तुति
नहीं करता । महतो, आज सोसाभिझाषी होकर और तुम सब मिलकर
हमारे सोम के अभिषुत होगे पर पान करो ।
४. नेताओ, जिसे तुम अभिर्लाषत प्रदान करते हो, उसे तुम्हारी रक्षा
युद्ध में बचाती हैँ । तुम्हारी नई कृपा-बद्धि हमारे सामने आवे । सोम-
हि
पानाभिलाषिथो, तुम शीघ्र आओ ।
८४० हिन्दी-क्रग्वेव
५. मरुतो, तुम्हारा धन परस्पर मिला हुआ हुँ। सोमरूप हवि
भक्षण करने के लिए अच्छी तरह आओ । मरतो, तुम्हें में यह हवि देता
हैं; इसलिए तुम अन्यत्र नहीं जाना ।
६. मरुतो, तुम हमारे कुशों पर बठो । अभिलषणीय घन देने के
लिए हमारे पास आओ । मरुतो, तुम लोग अहिंसक होकर इस यज्ञ में
सदकर सोमरूप हव्य पर स्वाहा कहकर प्रमत्त होओ ।
७. अन्तहित मरुतो, अपने अंगों को अलंकारों से अलंकृत करके
नीलवर्णं हंसों की तरह आओ । मेरे यज्ञ में आनन्दित और रमणीय मनुष्यों
की तरह विशव-व्याप्त मरुदूगण मेरे चारों ओर बेठं ।
८. प्रशंसनीय मर्तो, अशोभन क्रोध करके जो तिरस्क्कत मनुष्य हमारे
चित्त का विनाश करना चाहता है, वह पाप-द्रोही वरुणदेव के पाश से हमें
बाँधना चाहता हे । उसे तुम लोग अतीव तापक आयुध से विनष्ट करो ।
९. शत्रुतापक, यही तुम्हारा हव्य हे । तुम शत्रू-भक्षक हो । अपनी
रक्षा-द्वारा हवि का सेवन करो ।
१०. मरुतो, तुम गृह में भी शोभनदाता हो। रक्षा के साथ
आओ । जाओ नहीं ।
११. हे स्वयं प्रवृद्ध और कऋान्तदर्शो तथा सूर्यवणं मरुतो, में यज्ञ की
कल्पना करता हूँ ।
१२. हम सुगन्धि (प्रसारित-पुष्य-कोति) और पुष्टिवद्धेक ( जगद्-
बीज वा अणिमादिशक्तिवरद्धन) त्रुयम्बक (ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पिता
वा आदिकारण) की पुजा वा यज्ञ करते हैं । रुद्रदेव उर्वारकफल (बदरी-
फल ) की तरह हमें मृत्यु-बन्धन (संसार) से मुक्त करो और अमृत (चिर-
जीवन वा स्वर्ग) से मत मुक्त करो ।
चतृथं अध्याय समाप्त ॥
प्रथम खण्ड समाप्त ॥
हिन्दी-ऋग्येद ८४१
६० सूक्त
५ अष्टक । ७ मण्डल । ५ अध्याय। ४ अनुवाक ।
(देवता प्रथम ऋचा के सूये और शेष के मित्र तथा वरुण ।
ऋषि वसिष्ठ | छुन्द त्रिष्टुप् ।)
१. है सूयं (सब के प्रेरक) देव, उदित होकर तुम आज, अनुष्ठान-
काल में, हमें पापरहित करो । हे अदिति (अदीन देव) हम देखो के बीच,
मित्र ओर वरुण के पास, यथार्थ हों । अर्यमन् (दाता), तुम्हारी स्तुति
करके हम तुम्हारे प्रिय हों ।
२. मित्र और वरुण, यह वही मनुष्यों के दर्शक सूर्य अन्तरिक्ष में
जाते हुए खावा-पृथिवी को लक्ष्य कर उदिस होते हँ। सूर्य सारे स्थावर
और जंगम संसार के पोषक हूँ। बे मनुष्यों के पुण्य और पाप को
देखते हें ।
३. मित्र और वरुण, सूर्य ने अन्तरिक्ष में सात हरिव वर्ण के अइ्यों
को रथ मे जोता । वे सातो जलदाता होकर सूर्य को ले जाते हैँ। जसे
गोपालक गो-समूह को भली भाँति देखता हुँ, बैसे ही सुर्य उदित होकर
संसार के स्थानों ओर प्राणियों को देखते हें। वे तुम दोनों की कामना
करते हूं ।
४. मित्र और वरुण, लुम दोनों के लिए अञ्च और मधुर प्रोडाशादि
थे। सुर्य वीप्त अन्तरिक्ष में चढ्ते हें समान प्रीतिवाले मित्र, अर्थमा,
वरुण आदि सूर्य के लिए मार्गे प्रस्तुत करते हँ ।
५. ये मित्र, वरुण और अर्यमा यथेष्ट पाप के नाइक हें । ये सुखकर,
अहिसक ओर अदिति के पुत्र हैं । ये यज्ञ-गृह में बढ़ते हैं ।
६. आदित्य, मित्र और वरुण दबाने योग्य नहीं हें । ये अज्ञानी को
ज्ञानवान् बनाते हं । ये उत्तम ज्ञानवारे और कर्मानुष्ठानवाले के पास
जाकर, दुष्कृत का विनाश करते हुए, हमें सुभार्म पर ले जाते है ।
८४२ हिन्दी-क्रग्वेद
७. ये नितिमेष होकर शुलोक और पृथिवी के अज्ञानी को कर्म में
ले जाते है। इनके सामर्थ्य से अत्यन्त निम्न देश में भी नदी का तल
होता है । ये हमें इस व्यापक करे के पार ले जायें।
८. अर्थमा, मित्र और वरुण जो रक्षण से युक्त और स्तुत्य सुख
हुव्घदाता को देते हे वही सुख पुत्र और पौत्र के लिए धारण करते हुए
हम शीघ्रकारी देवों के लिए कोधजनक कार्य न करें।
९. जो हमारा द्वेषी यज्ञ-वेदी पर कार्य करते हुए देवों की स्तुति नहीं
करता, बह वरुण-द्वारा मारा जाकर विनष्ट हो जाय । अर्यमा हमें राक्षसादि
से अलग रफ्खें । मनोरथ-पूरथिता मित्र और वरुण, मुझ हव्यदाता को
विस्तीर्ण स्थान दो ।
१०. इन भित्रादि की संगति निगूढ़ और दीप्त हूँ । थे घिगढ़ वल-
द्वारा हमारे ट्रेषियों को पराजित करते हैं। अभिमतदाता भित्रादि देवो,
तुम्हारे डर से हमारे विरोधी काँपते हु । अपने बल की महिमा से हमें
सुखी बनाओ।
११. जो यअसान अन्न और उत्तम धन देने के लिए तुम्हारे स्तोत्र
में अपनी शोभन बुद्धि को नियुक्त करता हे, उस स्तोता का स्तोत्र मघवा
लोग (दानी अयमा आदि) आशित करते और उसके लिए सुन्दर घास
बनाते हें ।
१२. मित्र और वषण, तुम दोनों के यज्ञ में यह स्तुति की गई है ।
इसकी सेवा करके हमारी सारी तुरम्त जिपत्तियों को दूर करते हुए हमें
पार लगाओ । तुम हमें सदा स्वरित-द्वारा पालन करो ।
६९ सूक्त
(देवता मित्र ओर वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप्, |)
१. मित्र और वरुण, तुम प्रकाशमान हो । तुम्हारे नेत्र-छप और
झोभनरूपवाे सूर्य तेज का विस्तार करते हुए आकाश में उठते हैं।
सूयेदेव सारे भुवतों अथवा भूतों (प्राणियों) को देखते हें । वे मनुष्यों
के बीच प्रवृत्त स्तोत्र को जानते हुँ ।
हिन्दी-त्रग्वेद् ८४३
२. मित्र और वरण, दह याज्ञिक, विग्र (प्रसिद्ध ब्राह्मण) और चिर
श्रोता वसिष्ठ तुस दोनों के लिए मननीय स्तुति करते हैं । तुस दोनों शोभन
कर्मवाले हो । वसिष्ठ के स्तोत्र की रक्षा करले हो। तुम बहुत वर्षों से
धसिष्ठ फे फर्म को पुरण करते आ रहे हो।
३. मित्र ओर वरुण, तुमने विस्तृत पथियी को परिक्रमा की हुं और
गुणों तथा स्वरूप से विशाल छुलोक की भी प्रदक्षिणा कर डाली हें।
हे शोभनवाता, तुम ओबधियों ओर प्रजा फे लिए रूप धारण करते
हो। तुम निर्मिमेष आव से सम्मार्गेगासी का पालन करते हो ।
४. ऋषि, तुम मित्र और वरुण के तेज की स्तुति करो । अपनी
महिमा से मित्र ओर वरुण का बल द्यावा-पूथिबी को अलग-अलग
रक्खे हुए हे । यज्ञ न करनेवालों के महीम पुत्र से रहित होकर बीतें। यश-
बुद्धि पुरुष-बल बढ़ायें ।
५, हे प्राज्ञ, व्यापक ओर मनोरथवर्षी मित्र और वरण) तुम्हारी
स्तुति मं आइचयं, यज्ञ ओर पुजा कुछ भी नहीं दिखाई देता । द्रोही लोग
भनुष्यों की मिथ्या स्तुति का सेवम करते हें। हुम दोनों के हारा किये
जाते हुए रहस्यमय स्तोत्र अज्ञान के लिए त हों ।
६. मित्र ओर वरुण, नमस्कार-द्वारा तुम्हारे यश फी पुजा करता
हँ । मित्र ओर वरुण, में बाधा-सम्पञ्च होकर तुम दोनों को बुलाता हूँ ॥
तुम्हारी सेवा के लिए नये स्तोत्र बनायें जाये । मेरे द्वारा इकट्ठा किया
हुआ स्तोत्र तुम्हें प्रसक्ष करे ।
७. मित्र और वरण, तुम दोनों के यश भें यहु ₹ठुति की गई हे । इसकी
सेवा करके हमारी सारी दुरन्त विपत्तियों को इूर करते हुए हुम पार
छगाओ । तुस हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो ॥
६२ सूक्त
(देवता मित्र ओर वरुण । ऋषि बसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सूर्य अत्यधिक ओर प्रभूत तेज का ऊदूर्वमुल होकर आश्रय करें ॥
वे मनुष्यों के सभी जनों का आश्रय करें। ये दिम में रुचिकर होकर
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एकरूप दिखाई देते हैँ। थें सबके कर्ता, कृत और प्रजापति-दारा
सेज होते हैं ।
. २. सूर्य, तुम स्तोत्रों-द्वारा हरिव् वर्ण और गमनशील अश्वोसे, दूर्व
मुख होकर, प्रत्येक फे सम्मुख गमन करो । तुम मित्र, वरुण, अर्यमा
और अग्नि के पास हमें निरपराध कहना ।
३. दुःख को रोकनेवाले और सत्यवान् वरुण, मित्र और अग्नि
हमें सह्र-संश्थक धन दें । वे प्रसञ्चता-दायक हें । हमें स्तुत्य और पूजनीय
यस्तु दें । हमारे द्वारा स्तुति किये जाने पर हमारी अभिलाषा पुर्ण करे।
४. हे यावा-पूथिदी, अदिति और महान् हमारी रक्षा करो। हम
सुन्दर जन्मवाले हुँ । तुम्हें हम जानते हें। हम वरुण, वाय॒ और नेताओं
(मनुष्यों) के प्रियतम मित्र के क्रोध में न पड़ ।
५, मित्र और वरुण, अपनी बाँहें पसारो । हमारे जीवन के लिए
हमारी गोमागे-भूमि को जल-द्वारा सिक्त करो । मनुष्यों के बीच हमें
विख्यात करो । तुस लोग नित्य तरुण हो । हमारा यह आह्वान सुनो ।
६. मित्र, वरुण और अर्यमा, हमारे लिए और पुत्र के लिए धन
प्रदान करो। हमारे लिए सभी गन्तव्य स्थान सुगम और सुपथ हों ।
तुम हमें सदा स्वस्ति-द्ठारा पालन करो।
«रे सूक्त
(देवता साढ़े चार मन्त्रों के सूये और शेष के मित्र तथा वरुण |
ऋषि वसिष्ठ। छन्द त्रिष्टुप् |)
१. शोभन-भाग्य, सर्वेवर्शक, सभी भनुष्यों के लिए साधारण, मित्र
और वरुण के नेत्र-स्वरूप सथा प्रकाशमान सूर्य उग रहे हें सुर्य चमड़े
को तरह अन्धकार को संवेष्टित करते हें ।
२. मनुष्यों के उत्पादक, महान्, सबके सूचक और जलप्रव यह सूर्य
सबके एक मात्र चक्र को परिवर्तित करने की इच्छा करके उगते हे। रथ
मे नियुक्त हरिद् वर्ण अइव सूर्य को ढोते हे ।
हिन्दी-ऋग्वेद ८४५
३. अतीव प्रकाशमान ये सुर्यं स्तोताओं कै स्तोत्रो को
सुनने में प्रमत्त होकर उषाओं के बीच उगते हैं । ये हमें अभिलषित पदार्थ
देते हैं। ये सबके लिए समान हें। अपने तेज को संकुचित नहीं करते ॥
४, थे दूरगामी, त्राता और दीप्तिमान् सुयं शोभन और बहु-तेजः
सम्पन्न होकर अन्तरिक्ष में उदित होते हें। जीवगण निश्चय ही सुय से
उत्पन्न होकर कत्तव्य-कम करते हुँ ।
५. अमर देवों ने जहाँ इन सूर्य के लिए माग बनाया था, वह मागे
गति-परायण गृद्ध की तरह अन्तरिक्ष का अनुगमन करता हे । मित्र और
वरुण, सुर्योदय होने पर प्रातःसवन में नमस्कार और हव्य-द्वारा तुम्हारी
हम सेवा करंग ।
६. मित्र, वरुण ओर अर्यमा हमारे लिए और पुत्र के लिए धन दं ।
हमारे सारे गन्तव्य सुगम और सुपथ हों। तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा
पालन करो ।
६४ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण । ऋष वसिष्ठ। छन्द त्रिष्टुप ।)
१. मित्र और वरुण, तुम लोग दुलोक और पथिवो मं जल के स्वामी
हो । तुम्हारे द्वारा प्रेरित मेघ जल को रूप देता हें । मित्र, सुजन्मा अर्थमा,
राजा और बली वरुण हमारे हव्य को आश्रित करें ।
२. तुम लोग राजा, महायज्ञ के रक्षक, सिन्धुपति (नदी-पालक)
और क्षत्रिय (वीर) हो। हमारे सामन पधारो । हे शीघ्रदानी मित्र
और वरुण, अन्तरिक्ष से हमें अञ्न ओर बृष्टि भेजो ।
३. मित्र, वरुण और अर्यमा हमें उत्तम मार्ग-हारा, जब चाहें, छे
जायं । अयमा सुन्दर दाता के पास हमारी कथा कहें। तुम्हारे द्वारा
रक्षित होकर हम अन्नन्द्वारा, पुत्र-पौत्रादि के साथ, प्रमत्त हों ।
४. मित्र ओर वरुण, जिसने मन के द्वारा तुम्हारे इस रथ का निर्माण
किया हु, जो उच्च कमें करता हें ओर जो यज्ञ में तुम्हें धारण करता हे--
८४६ हिन्दी-व्रदग्येद
तुम लोग राजा हो, उसे जल-द्वारा सिक्त करो और उसे सुन्दर निवास
प्रदान कर तुप्त करो ।
५. मित्र और वरुण, तुम्हारे और बायु के लिए, दीप्त सोम की
तरह, यह सोम बनाया गया हैं । हमारे कर्म में प्रवेश करो, स्तुति को जाचो
और हमें सदा स्वस्दि-हा पालन करी ।
६५ सूक्त
(देवता मित्र ओर वरण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्ठुप))
१. हे मित्र और शुद्ध-बल वरुण, सुय के उगने पर तुम दोनों को, सुक्त-
द्वारा, मं आह्वान करता हुँ। इन दोनों का बल अक्षय ओर प्रचुर हूं ।
संग्राम होने पर दोनों विजयी होते हु।
२. वे दोनों देव देवों में असुर (बली) हें। वे आर्य (सबके ईश्वर)
हैं। वे हमारी प्रजा को प्रवुद्ध करे । मित्र और वरुण, हम तुम दोनों को
व्याप्त करेंगे। तुम्हारी व्यापकता भें हमें द्यावापथियी दिन-रात
आप्यायित करेंगे ॥
३. मित्र और वरुण बहुत पाश (बन्धन) वाले हुँ। वे यज्ञ-शन्य
व्यक्ति (अनुत) के लिए सेतु की तरह बन्धनकारी हुँ। वे शत्रुओं के
लिए दुरतिकम हैं। मित्र और वरुण, जैसे नौका-द्वारा जल को पार किया
जाता ह, वेसे ही हम तुम्हारे यज्ञ-मार्ग में पाप से पार पायेंगे ।
४, सित्र और वरुण हमारे हव्य की सेवा के लिए आव । अन्न के
साथ जल-द्वारा हमारे गोचर-स्थान को सिक्त कर । तुम्हें इस संसार में
उत्कृष्ट हव्य कोन देगा ? तुम संसार के लिए स्वर्गीय और रमणीय
जल दो।
५. मित्र और वरुण, तुम्हारे और वायु के लिए, दीप्त सोम की तरह,
यह सोम बनाया गया हूं। हमारे कर्म में प्रवेश करो, स्तुति को जानो
झर हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो ।
हिन्दी-ऋष्येद ८४७
६६ सस
(देवता ४ से १३ तक के आदित्य, १४ से १६ तक के सूर्य ओर
आदि तथा अन्त क तोन-तीन मन्त्रों के मित्र ओर वरुण ।
ऋषि वसिष्ठ। छुन्द् गायत्री, प्रगाथ, पुरउष्णिक्, , बृहती,
सतो; हती आदि |)
१. बारम्बार आवर्भूंत मित्र और वरुण का सुखकर और अन्नवान्
स्तोम गमन छरे ।
२. शोभन बलवाफे, बल फे रक्षक और प्रकृत तेजवाले मित्र और
वरुण को बल के लिए बेथों ने धारण किया था।
३. वे मित्र और वरुण गृह ओर शरीर के पालक हें। मित्र और
वरुण, तुम छोग स्तोताओं के कर्मरूप स्तोग्रों को सफल करो ।
४. सूर्योदय होने पर आज, हमारे लिए, अपेक्षित धन को पाप-नाशक
मित्र, सविता, अर्यमा और भग प्रेरित करं ।
५. शोभन-दान-परायण, सुम लोग हमारे पाप को दूर करो । तुम्हारा
आगमन होने पर वह निवास सुरक्षित हो ।
६. मित्र आदि और अदिति अहिसक ब्रत वा कमे के ईश्वर हें; बे
महाधन के भी ईश्वर हैं ।
७. सुर्योदय होने पर मित्र, रुण और झत्रु-भक्षक अर्यमा को में
स्तुति करूंगा ।
८. हित-रसणीय धन के साथ यह स्तुति हमारे अहिसनीय बल के
लिए हो ।
९. वरुण और मित्र, ऋत्विकों के साथ हम तुम्हारे स्तोता होंगे ॥
हम अश्न ओर जल भी धारण फरेंगे।
१०. मित्रादि, महान् सूर्य की तरह दीप्त, अग्नि-जिह्ल और यज्ञ-
घद्धक है । वे परिभवकारक कर्मे-हाशा व्याप्त स्थानों को देते हें।
११. जिन्होंने वर्ष, मास, दिन, यज्ञ, रात्रि और मन्त्र की रचना की
८४८ हिन्दी-ऋग्वेद
हूँ, उन मित्र, वरुण और अर्थमा ने, शोभलाव होकर, दूसरों के लिए अप्राप्त
बल पाया था ।
१२. आज सुर्योदय होने पर, झुदत-द्वारा, तुमसे उस धन की याचना
करेंगे, जिसे जल के नेता मित्र, वरुण और अर्यमा धारण करते हुँ ।
१३. नेताओ, तुम लोग यज्ञवान्, यञ्च के लिए उत्पन्न, यज्ञ-वर्द्धक,
भयानक और यञ्ञ-हीन के देषी हो । तुम्हारे सुखतम घन के लिए जो
अन्य ऋत्विक् हुँ, वे और हस अधिकारी होंगे ।
१४, वह दर्शनीय मण्डल अन्तरिक्ष के समीप उदित होता हैं । झीघि-
गामी ओर हरितवर्ण अश्व सबके भली भांति देखने के लिए उस मण्डल
को धारण करते हँ ।
१५, मस्तक के भी अस्तक (सबके मस्तक), स्थावर-जंगभ फे पति
और रथारोही सुर्य को, संसार के कल्याण के लिए, सात गति-परायण
हरितगण (अश्व) सारे संसार के समीप ले जाते हें ।
१६. वह चक्षुः-स्वरूप (सबका प्रकाश), देव-हितषी ओर निर्मल
सुर्थ-मण्डल उदित हो रहा है । हम सौ वर्ष देखें ओर सो वर्ष जीये ।
१७. वरुण, तुम ओर मित्र अहिसनीय और द्युतिमान् हो | हमारे
स्तोत्रों के द्वारा सोमपान के लिएं आओ ।
१८. मित्र, तुम ओर बरुण द्रोहरहित हो। तुम दुलोक से आओ
ओर शन्न हसक होकर सोमपान करो ।
१९. मित्र और वरुण यज्ञ-वेता हें । आहुति को सेवा करके आओ ।
घज्ञ-वद्धक सोम-पाव करो ।
९७ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हे दोनों ऋत्विगृ-यजमान-स्वामियों, हम हुव्य-युक्त स्तोत्र के साथ
तुम्हारे रथ की स्तुति करने के लिए जाते हँ। स्तुति-योग्य अहिवती-
कुमारो, जेते पुत्र पिता मो जगाता हे, वैसे ही यह रथ, तुम्हारे दूत की
हिन्द 02 ga ञे
गल्दया ८४९
तरह, लोगों को जगाता हु उसी रथ को अपने सामने आने के लिए मे
बोलता हूँ ।
२. हमारे द्वारा समिद्ध होकर अग्नि दीप्त होते हें। तब अन्धकार
के सारे प्रदेश भी लोग देखते हैं। प्रज्ञापक सुर्य युरोक-दुहिता (उषा)
की पूर्व दिशा में, शोभा के लिए, उत्पन्न होकर जाने जाते हें ।
३. है नासत्य- (सत्य-छूप) द्वय) सुन्दर होता और स्तुति-वक्ता स्तोम-
द्वारा हम तुम्हारी सेवा करते ट्र। फलतः तुम लोग पुर्व मार्ग से
जल-ज्ञाता और घनयुक्त रथ पर चढ़कर हमारे सामने आओ ।
४. हे रक्षक ओर मधुर सोम के योग्य अश्विद्वय, में सोम के अभि-
षुत होने पर, तुम्हारी इच्छा से, धवाभिलाषी होकर तुम्हारी स्तुति करता
हैं; इसलिए आज तुम्हारे प्रवृद्ध अश्वगण तुम्हें ले आर्वे । हमारे द्वारा
अभिषुत ओर मधुर सोम का पान करो ।
५. अश्विनी-देव-द्वय, तुम हमारी धनाभिलाषिणी, सरला और आह-
सिका बुद्धि को लाभ के योग्य करो। संग्राम में भी हमारी सारी बुद्धि
की रक्षा करो । शचीपति (कर्मस्वामी) अश्विद्वय, कर्मे-द्वारा हमें धन
प्रदान करो ।
६. अश्विद्वय, इन कर्मों मं हमारी रक्षा करो । हमारा वीर्य क्षीण
न होने योग्य और पुत्रोत्पादन मं समर्थ हो । तुम्हारी कृपा से पुत्र और
पौत्रों को अभिमत घन देकर ओर सुन्दर धनवाले होकर हम देव-लाभ-कर
यज्ञ मं आयें ।
७. सधु-प्रिय अहिदनीकुसारो, सखा के लिए पुरोगामी दूत को तरह
हमारा संकल्पित यह सोम निधि-स्वरूप तुम्हारे सामने रकखा हुआ हु ।
इसलिए क्रोधशन्य चित्त से हमारे सामने आओ । सनुष्य-खुप प्रजा में
वर्तमान हव्य भक्षण करो ।
८. सबके पोषक अशिवद्ठय) तुभ दोनों का मिलन होने पर तुम्हारा
रथ बहने [ली सात नदियों को पार कर आता ह । सुजन्सा ओर देव-
फाए १४
८५० हिन्दी-ऋणग्वेद
सम्पन्न जो तुम्हारे अश्व रथ को लेकर शीघ्र चलनेवाले तुम्हें ढोते हुँ,
वे कभी नहीं थकते ।
९. तुम लोग कहीं भी आसक्त नहीं होते। जो घ्नी धन के लिए
देने योग्य हुव्य को देता हँ, जो सखा को सच्चे बचनों से प्रवद्धित करता
हें तथा जो गो, अश्व और घन देता हूँ, बेसों के लिए तुम जोग हुए हो।
१०. लुम आज हमारा आह्वान सुनो। नित्य-तरुण अधिवद्वय, हृव्य-
वाले गृह में आओ। रत्वदान करो। स्तोता को बद्धित करो। तुम हमें
सदा स्वास्ति-हारा पालन करो ।
६८ सूक्त
दवता अशिवद्वय | ऋषि वसिष्ठ । छन्द विराट् ओर त्रिष्टुप |)
१. हे दीप्त और अइववाले अश्विद्वय, आओ। तुम नत्रु-हुन्ता हो।
जो तुम्हें चाहता हे, उसकी स्तुति की सेवा करो। हमारे प्रस्तुत हव्य
का भक्षण करो।
२. अश्विद्वय, तुम्हारे लिए मदकर अन्न (सोम) प्रस्तुत हें। हमारी
हवि का भक्षण करने के लिए शीघ्र आओ। हमारे शत्रु का आह्वान
न सुनकर हमारा आह्वान सुनो ।
३. सूर्या के साथ रथ पर रहनेवाले हे अश्विनीकुमारो, मन की तरह
वेगशाली और असीम रक्षण से युक्त तुम्हारा रथ हमारे लिए प्राथित
होकर और सारे लोकों को तिरस्कृत करके हमारे यज्ञ में आता है।
४. जिस समय में तुम्हें देवता बनाने की इच्छा करता हूँ और जिस
समय तुम्हारे लिए सोम का अभिषव करनेवाला यह पत्थर उच्च शब्द
करता हं, उस समय हे सुन्दर, तुम्हें वित्र (मेघावी यजमान) हव्य-द्वारा
आवत्तित करता है।
५. तुम्हारा जो यापनीय (चित्र = भोज्य) धन हुँ, उसे हमें दो।
जो प्रिय होकर तुम्हारे दिये हुए सुख को धारण करते हैं, उन अत्रि से
सहिष्वद् (ऋषीस) को अलग करो।
Le To
पक लन ८५१
६. अश्विनीकुमारो, तुम्हारी स्तुति करनेवाले जीर्ण हृव्यदाता च्यवन
ऋषि के लिए जो रूप मृत्यु से लाकर तुमने दिया था, वह उनके प्रति
गया था ॥
७. (भुज्यु के) दुष्ट-बुद्धि मित्रों ने जो भुज्यु को समुद्र के बीच
छोड़ दिया था, घुम लोगों ने उन्हें पार किया था। भुज्यु ने तुम छोगों
को कामना की थी और कभी विरुद्धल्वरण नहीं किया था।
८. जिस समय वुक ऋषि क्षीण हो रहे थे, उस समय अध्विद्नय,
तुस छोगों ने कमं और सामथ्यं-द्वारा उन्हें धन दिया था। पुकारे जाकर
शयु ऋषि की बात तुम लोगों ने सुनी थी। जैसे नदी जल से पूर्ण करती
हँ, बेसे ही वृद्धा गाय को तुम लोगों ने दुग्ध से पूर्ण किया था ।
९. वह् स्तोता (वसिष्ठ) शोभन-मति होकर, उषा के पहले जाग-
कर, सुकतों-द्वारा स्तुति करता है । उसे अन्नख्वारा वञ्चित करो, ढुग्ध-द्वारा
वद्धित करो ओर उसकी गौ को वद्धित करो। तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा
पालन करो । '
६९ सूक्त
(देवता अशिविट्ठय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिप्टुप् |)
१. तरय अझ्वो से युक्त होकर तुम्हारा रथ आवे। वह द्यावा-पृथिवी
को वाधा देनेवाला और हिरण्मय हैे। उसके चक्र में जल हूँ। बह रथ की
नेमि (डंडों) के द्वारा दीप्तिमानु, अज्ञवाहुक और यजमानो का स्वामी
(नेता) हुँ ।
२. बह् रथ पंचभूतों (सारे प्राणियों) को प्रसिद्ध करवेवाला तीन
बन्धुरो (सारथियों के बेठने के तीन उच्च और निम्न काठ के स्थानों)
ओर स्तुति से युक्त है। अध्विद्वय, तुन छोग चाहे जिस किसी स्थान में
जाने फी इच्छा करके इस रथ पर देवाभिलापी पुजा के पास यमन
ककरो ।
८५९ हिन्दी-क्रग्येव
३. सुन्दर अइव और अन्न के साथ तुम लोग हारै सामने आओ।
दस्द्वय (शत्रु-नशाक), तुम मधुभान् निधि (सोम) का पान करो। तुम
लोगों का रथ सूर्था के साथ गमन करते हुए चक्र के हारा युलोक तक
के प्रदेशों को, शीघ्र गमन के कारण, पीड़ित करता हुँ ।
४. रात में स्त्री सूर्थ-पुत्री तुम्हारे रथ को घेरती है। जिस समय
तुम देवाभिलाषी को कमं-द्वारा रक्षित छरते हो, उस समय रक्षण के
लिए दीप्त अन्न तुम्हारे यहाँ जाता हूँ।
५. रथवाले अध्विद्रय, वह रथ तेजों को ढक लेता ओर अइव के
साथ मार्ग में गमन करता हु। अश्विष्ठय, उषा (प्रातःकाल) होने पर
हमारे इस यज्ञ में उस रथ से, पापों के शन ओर सुखों की प्राप्ति के
लिए, उपस्थित होओ । |
६. नेतृ-द्वय, मृगी की तरह विशेष रूप से दीप्यसान सोम को पीने
की इच्छा करके आज हमारे सवमों में आओ। अनेक यज्ञों में यजभान
तुम्हें स्तुति-द्वारा बुलाते हें। इसलिए अन्य देवाभिलाषी तुम्हें दान न
करने पावें ।
७. अइ्विद्वय, तुम लोगों ने समुद्र में निमग्न भुज्यु को अक्षत, अशान्त
और शीघ्रगामी अइवों ओर कार्य-द्वारा, पार करते हुए, जल से निकाला
था।
८. तुम लोग आज हमारा आह्वान सुबो। सदा तएण अधिवद्वय,
हृथ्यवाले घर में आओ, रत्न-दान करो और स्तोता को द्वित करो।
तुम सवा हमें स्वस्ति-ट्ठारा पालन करो।
७० सूत
(देवता अरिवद्वय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द॒ त्रिष्टुप् ।)
१. सबके वरणीय अश्विनीकुमारो, हमारी यश्चन-येदी पर आओ।
पृथिवो पर तुम्हारा यही स्थान कहा जाता हैं। जिस अहव पर तुम लोग
बेठते हो, बह सुखकर पीठवाला अहव तुम्हारे ही पास में रहे।
हिन्दी-त्रटग्वेद ८५२३
२. अतीव अन्नवाझी वह सुन्दर स्तुति तुम लोगों की सेवा करती
है। घर्म (घाम = धूष) मनुष्य के यझ-गृह में तप रहा हूँ। वह तुम्हें मिलता
हे। वह घाम सरितों ओर समुद्रों को पृष्टि-द्वारा भरता हू। जसे रथम
अइव जोते जाते हैँ, वेसे ही तुम्हें यज्ञ में जोता जाता हैँ ।
३. अशिबद्ठय, तुम लोग चुलोक से आकर विशाल ओषधियों और
प्रजाओं के बीच में जो स्थान अधिकृत करते हो, पर्वत के मस्तक पर
बेठते हुए, अन्नदाता को बही स्थान दो।
४, देव्य, तुम लोग ऋषियों-दारा दिये ओषधि और जळ को
व्याप्त करते हो; इसलिए हमारी ओषधि (चरु-पुरोडाश आदि) और
जल (सोमरस) की कामना करो। हमें बहुत रत्न देते हुए तुमने पहले
के दम्पतियों को आकृष्ट किया था।
५. अहिवद्वय, सुनकर तुम लोगों ने ऋषियों फे अनेक कर्मो का
अभिदर्शन किया हुँ। इसलिए यजमान के यज्ञ मं आओ। हुमारे लिए
तुम्हारा अत्यन्त अन्न-पुर्ण अनुग्रह हो।
६. नासत्यद्वय, जो यजमान हव्ययुषत, कृतस्तोत्र और मनुष्यों के
साथ मिलता हुँ, उसी वरणीय वसिष्ठ के पास आओ। ये सारे मन्त्र तुम्हीं
लोगों के लिए स्तुत होते हं।
७. अडिवद्वय, तुम्हारे लिए यही स्ठुति और यही वचन हुआ। काम-
खर्षक-द्वय, इस शोभन स्तुति को सेवा करो। ये सारे कर्म, तुम्हारी कामना
करते हुए, सङ्गत हों। तुम सदा हमें स्वति-द्वारा पालित करो।
७१ सूक्त
(देवता अरिवद्ठय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. अपनी भगिनी उषा के पास से रात स्वयमेव हट जाती हे।
कृष्ण-वर्णा रात्रि अरुष (दिय अथवा सूर्य) के लिए मार्ग प्रदान करती
है । फलतः हे अइव-घन ओर योधन अइिविद्दय, तुम लोगों को हम बुलाते
हैं। तुम लोग दिम-रात हमारे पास से हिसको को दूर करो।
८५४ हिन्दी-:एग्वेद
२. अरिवष्टय, हुविर्दाता के जिए रयन्द्रारा रमणीय पदार्थ लाते
हुए तुम लोग आओ। अन्न फी दरिद्रता और रोग हमसे दूर करो। है
मधुमान अदिव्य, छुन हमें दिन-रात बचाओ ।
३. तुम्हारे रथ में अनायास जोते गये और काअदाता अश्व तुम्हें
छे आवें। अध्विदय, रहिपवाले और घन से युएत रथ झो, तुम लोग,
जलदाता अशवों के द्वारा, ढोयो ।
४, यजसान-पालको, तुम रोयो का वाहफ जो रथ तीन वन्धुरो
(सारथियों के बेठमे-उठये के तीन स्थानों) से युक्त, धनवान, दिन फे
प्रति गमन करनेवाल! ओर व्यापक होकर जानेवाला हे, उसी रथ पर
तुम हमारे पास आओ।
५. तुमने च्यवन ऋषि का बुढापा छुडाया था, पढु मामक राजा
के लिए युद्ध में शीघ्रगामी अव भेजा था, अत्रि को पाप और अन्धकार
से पार किया था ओर जाहुष को आष्ठ-राज्य में पुनः स्थापित किया था।
८ अहिवद्ठय, तुम्हारे लिए यही स्तुति और यही दचन हुआ । काम-
घर्षेक-ढय, इस शोभन स्तुति की सेवा करों। ये सारे कर्म, तुम्हारी कामना
करते हुए, सङ्गत हों। तुम सदा हमें स्वति-द्वारां पारित करो ।
७२ सूर
(देवता अशिविद्ठय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द ष्टुप् ।)
१. नासत्यद्वय, तुम रोग गो, अश्व और घन से युक्त रथ पर आओ।
अनेक स्तुतियाँ तुम्हारी सेवा करती हूँ। तुभ लोग अभिलषणीय शोभा
और शरीरद्वारां दीप्यमान होओ।
२. नासंत्यद्वंय, तुम लोग देवों के साथ समान प्रीति से युपत होकर
और रथ पर चढ़कर हमारे पास आओ। तुम्हारे साथ हमारा बन्धुत्व
पूर्वजों के समय से ही चला आता है। तुम्हारे और हमारे एक हौ बन्धू
( = पितामह) हैँ। उनका धन भी एक ही हैं ।
TT ८५५
र पु < पु रट, | | ®
३. अवश्दिय को स्तुतियाँ भली भाँति जगाती हुँ । बन्धस्थानीय
सारे कर्म प्रकाशमान उपा को जगाते हें। मेधावी वसिष्ठ स्तुति से
द्यावा-पृथिदी की परिचर्या करके नासत्यद्ठय के अभिमुख स्तुति करते हैं।
४. अश्विद्य, यदि उषधायें अन्धकार दूर करे, तो स्तोता विशेष रूप
से तुम्हारा स्तोत्र करेंगे। सविता देवता ऊद्ध्वं तेज का आश्रय करते
हें। समिधा के हारा अग्निदेव भी भली भाँति स्तुत होते हैं।
५. नासत्यदय, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर से आओ। पञ्च
श्रेणियों (ब्राहाणादि चार वर्ण और निषाद) का हित करनेवाली
सम्पत्ति से भी आओ। लुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
७३ सूक्ते
(देवता अश्विय । ऋषि चसिप्ठं । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. देवाभिलाबी होकर, स्तोत्र करते हुए, हम अज्ञान के पार जायेंगे।
हे बहुकर्मा, प्रभूततम, पू्वेजात और अमर्त्ये अश्वित्वय, तुम्हें स्तोता
बुलाता हूं ।
२. तुम्हारा प्रिय मनुष्य होता यहाँ बैठा हे। नासत्यद्वय, जो तुम्हारा
यज्ञ और वन्वन करता हे, उसका मधुर सोमरस, पास में ठहरकर;
भक्षण करो । अन्नवान् होकर यज्ञ में तुम्हें बुलाता हें।
३. हम महान् स्तोता हे। हम आायमनशील देवों के लिए यङ्ग को
बढ़ाते हैं। कामवर्षक-हय, इस सुन्दर स्तुति की सेवा करो। में वसिष्ठ,
शीघ्रगामी दूत की तरह, तुम्हारे पास प्रेरित होकर, स्तोत्र-द्वारा स्तुति
करते हुए प्रबोधित हुआ हुँ ।
४. वे दोनों हव्यवाहक, राक्षस-जादाक, पुष्टाङ्ग और बुढु-पाणि हुँ।
वे हमारी प्रजा के पास उपस्थित हों। तुम मदकरं अन्न के साथ सख्त
होओ। हमारों हिसा नहीं करना । सङ्कल के साथ आऑओ।
५. नासत्यद्वय, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं से आओ)
८५६ हिन्दी-ऋग्वेद
पञ्च श्रेणियों (ब्राह्मणादि चार वर्ण और निषाद) का हित करनेवाली
सम्पत्ति से भी आओ। तम सदा हमें-स्वस्ति द्वारा पालन करो।
७४ सूक्त
(देवता अशिवद्वय । ऋषि वसिष्ठ । छन्द वृहती और सतोबृहती ।
१. निवासप्रद अशिवद्वय, ये स्वर्गेकासी लोग तुम्हें बुलाते हैँं। कर्म-
धनद्वय, रक्षा के लिए में वसिष्ठ भी तुम्हें बुलाता हैं। कारण, तुम प्रत्येक
प्रजा के पास जाते हो।
२. अश्विद्वय, तुम लोग जो चित्र (भोज्य) धन धारण करते हो,
स्तोता के पास उसे प्रेरित करो। समान-मन होकर अपना रथ हमारे
सामने प्रेरित करो। सोम-सम्बन्धी मधुर रस को पियो। |
३. अदिवद्वय, आओ, पास मं ठहरो ओर सधु (सोमरस) का पान
करो। अभीष्टवषंक और धनङ्जय तुम जल का दोहन करो। हमें नहीं
मारना । आओ ।
_ ४, तुम्हारे जो अइव हव्यदाता के गह में तुम्हें धारण करते हुए जाते
हें, उन्हीं शीघ्रगामी अइवों की सहायता से हमारी कामना करके आओ।
५, अश्विद्ठय, गमनकर्तता स्तोता लोग प्रभूत अन्न का आश्रय करते
हे। तुम हमें अविचल यश और गृह दो। नासत्यद्वय, हम मघदान्
(घनी) हें।
६. जो दूसरे का धन न ग्रहण कर ओर मनुष्यों के बीच मनुष्य-
रक्षक होकर, रथ की सरह, तुम्हारे पास जाते हँ, बे अपने बल से वद्धित
होते और रहने के सुन्दर स्थान में जाते हूँ ।
७५ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि वसिष्ठ । छन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. उषा ने अन्तरिक्ष में प्रादुर्भूत होकर प्रकाश किया। अपने तेज
के बल से व अपनी महिमा को प्रकट करते हुए आईं। उन्होंने अप्रिय
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र क हर ८. ४०. पिक ७६.३६ न < प \9
शत्रु ओर अन्धकार को दूर किया। प्राणियों के व्यववहार फे लिए सबसे
गन्तव्य पथ को प्रकाशित किया।
२. आज हमारे महासुख की प्राप्ति के लिए जागो। उषा, महायोभाग्य
प्रदान करो । विचित्र यश से युक्त धन हमारे लिए घारण करो। मनुष्य”
डिस्क रि देवी, मनुष्यों को अञ्नवान् पुत्र दो।
३. दशेतीय उषा की ये सब प्रयुद्ध, विचित्र और अविनाशी किरणं,
देवों का व्रत उत्पादन करती हुई ओर सारे अन्तरिक्ष को पुण करती
हुई, आती और विविध प्रकार से फॅलती हे।
४. यह वही झुलोक की दुहिता और भवनों की पालिका उषा
प्राणियों के अभिज्ञानों को देखकर और दूसरे भी उद्योग करके पञ्ख
श्रेणियों (चार वणं और निषाद) के पास तुरत जाती हुँ।
५. अञ्चती, सुर्यगुहिणी, विचित्र घन (रश्मि) वाली उषा धन और
देव-घन की स्वामिनी हुई हें। ऋषियों के द्वारा स्तुता, बढापा देनेवाली
और धनवाली उषा यजमान-द्वारा स्तूयमान होकर प्रभात करती हूं।
६. जो दीप्तिवाली उषा को ले जाते हें, बही विचित्र और झोभन
अश्व दिखाई दे रहे हैं। ये उषा विप्तमती होकर अनेक छूपोंचाले रथ
से सर्वत्र जाती हँ। बे अपने परिचारक को रत्न देती हेत
७. सत्यरूपा, महती और यजनीया उषा देवी सत्य, महान् ओर
यजनीय देवों के साथ अत्यन्त स्थिर अन्धकार का भेदन करती हूँ। गौओं
के चरने के लिए प्रकाश देती हुँ। गाये उषा की कामना करती हैं।
८. उषा, हमें गो, वीर और अइव से युवत धन दो। हमें बहुत
अन्न दो। पुरुषों के बीच हमारे यज्ञ की निन्दा नहीं करना। तुम हमें
सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो।,
७६ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि वसिप्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सबके नेता सविता ऊदृध्वंदेश में अविनाशी और सबके लिए हितैषी
ज्योति का आश्रय करते हें। बह देवों के कर्मो के लिए प्रकट हुए हँ।
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देवों की नेत्र-स्वरूषिणी होकर उषा ने सारे सूत्रमों को प्रकट
किया है।
२. में हिता-रहित और सेज-द्वारा सुसंस्कृत देव-यान-पथ को देख
चुका हैं। उषा का केतु (भ्रज्ञापक तेज) पूर्व दिशा में था। हमारे अभि-
मुख होकर उषा उन्नत प्रदेश से आती हैं।
३. उषा, तुम्हारा जो तेज सूर्योदय के पहले ही उदित होता है और
जिंस तेज के गुण से तुम कुलटा की तरह न होकर पति-समोप-गामिनौ
रसणी की तरह देखी जाती हो, वही सब तुम्हारा तेज प्रभत है।
४. जी अङ्किरोगण सत्यवान्, कविं और प्राचीन समय कै पालक
हैं; जिन्होंने गढ़ तेज प्राप्त किया है और जिन्होंने सत्य-स्तुति होकर अन्तरं
के बल से उषा को प्रादुर्भूत किया हुँ, वे हौ देवों फे साथ एवात्र प्रभत
हुए थे।
५. वे साधारण गोओं के लिए सङ्गत होकर एक्ष-युद्धि हुए थे।
क्या उन लोगों ने परस्पर यस्न नहीं किया था ? थे देवों के कों की हिसा
महीं करते। हिंसा-शुन्य और वाँसप्रद तेज के द्वारा जातै हुँ।
६. सुभगा उषा, प्रातःकाल जगे हुए स्तोता यंसिष्ठगण स्तौज-हारों
तुम्हारी स्तुति करते हुँ। सुम गौओं की ध्रापिका आर अज्ञ-पालिका हो।
हमारे लिए प्रभात करो। सुजन्मा उषा, तुभ प्रथम स्तुत हो।
७. यहूं उषा स्तोता की स्तुतियों की नेत्री है। यह अन्धकार को दुर
कर और संपेत्रें प्रसिद्ध घन हमें देकर वसिष्ठों-हारा स्तुत होती है। तु
सबा हमें स्वप्ति-द्वारा पालन करो।
७७ सूक्त
(देवता उपा | ऋषि वसिष्ठ । छन्द ष्टुप् |
१. तरुणी पत्नी की सरह उषा सारे जीवों को, संचरण के लिए,
प्रेरित करते हुए सूर्य के पास हौ वीप्ति पाती हुँ। अग्नि भनुष्यों के
समिन्धन के योग्य हुए हैं। अग्नि अन्धकारं-नाशक सेज का प्रकादा
करते हुँ ।
िस्दी-नकदेरा ८५९
२. सारे संसार की अभिमुखी और सर्वच प्रसिद्धा उषा उदित हुईं।
तेजोमय वसन धारण करके वर्दधित हुई । हिरण्यवण, दर्शनीय और तेज
से युक्त वार्ब्यी की भादा और दिनों को मेत्री उवा शोभा पा रहा हैं।
३. देवों के नेत्र स्थानीय तेज का बहन करनेबाली, सुभगा, अपनी
किरणों से प्रकाशिता, विचित्र धनवाली और संसार फे सम्बन्ध में प्रवृद्धा
उषा सुदर्शन अश्व को इवेतवर्ण करते दिखाई दे रही हूं।
४. उषा, हमारे पास तुम बननीय (विचित्र) धनवाली होकर और
हमारे शत्रु को दूर करके विभासित होओ। हमारी विस्तृत योचर-भपि को
भय-रहित करो। द्वेषियों को अलग करी । शत्रुओं का घन ले आओ।
घनवाली उषा, स्तोता के पास घन भेजो।
५. उषादेवी, हमारी आयु बढ़ाते हुए, भ्रष्ठ किरणों के साथ, हमारे
लिए प्रकाशित होओ। सबकी वरणीया (स्वीकरणीया) उषा, हमें लक्ष्य
करके गौ और अश्य से युक्त धन घारण करते हुए, प्रकाशित दीओ ॥
६. हे द्युलोक की पुत्री और सुजन्मा उषा, वसिष्ठ लोग स्तुति-द्रारा
तुम्हें घद्धित करते हें। तुम हमें रमणीय और सहान् धन वो। तुम हमें
सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करी।
७८ सूक्त
(देवता उपा । ऋषि वसिष्ठ। छन्द त्रिष्ठु५ |)
१. प्रथम उत्पन्न फेतु देख जाते है। इनकी व्यञ्जक रदिमर्याँ ऊदर्ध्व-
भँख होकर सवैत्र आश्रयं करती हैं। उषादेवी, हमारे सामने आये हुए,
विशाल और ज्योतिष्क रथ-द्वारा हमारे लिए रमणीय धन ढोओ।
२. समिद्ध होकर अग्नि सर्वत्र बढ़ते हैं। मेघाधी लोग स्तुति-द्वारा
उंषा कौ स्तुतिं करते हुए प्रवद्ध होते हुँ। उषादेवी भी ज्योति-द्रारा
सारे अन्यकारों और पापों को रोकते हुए जाती हं ।
३. ये सब प्रभात-कारिणी और तेजःप्रदायिनी उषायें पुष दिशा में
&६७ हिम्ही-न्हग्बेक
धसी जाती हँ। इन्होंने सुब्यें, अग्नि और यज्ञ को प्रादुर्भूत किया, जिससे
नीचगामी और अप्रिय अन्धकार छुर हुआ।
४, यलोक की पुत्री और घनवती उषा जानी गई हे। सभी लोग
प्रभातकारिणी उषा को देखते हुँ । बे अन्नवाले रथ पर चढ़ी हें। सुयोजित
झश्व इस रथ को ले जाते हैं।
५. उषा, हम ओर हमारे सुमना तथा धनवान् लोग आज तुम्हें
जगाते हुँ । उषाओ, तुम लोग प्रशात-कारिणी होकर संसार को स्निग्ध
करो। तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
७९ सूक्त
(देवता उषा । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सनुष्यों की हितेषिणी उषा अन्धकार का विनाश करती है, षड्च-
श्रेणियों के मनुष्यों को जगाती हैँ और उत्तम तेजबाली किरणों-द्वारा
सुर्यं का आश्रय करती हें। सूर्यं भी तेज से सावापथियी को आवत
करते हें।
२. उषायें अन्तरिक्ष-प्रदेश में तेज व्यक्त करती हें ओर परस्पर
मिलकर, प्रजा की तरह, तमोनाश फे लिए, चेष्टा करती हँ । उषा,
तुम्हारी किरणं अन्धकार का विनाश करती हें। सुर्यं की भुजाओं की तरह
बे ज्योति प्रदान करती हें।
३. सबसे बढ़कर स्वामिनी और धनवती उषा प्रादुर्भूत हुई। उन्होंने
सबके कल्याण के लिए असन उत्पन्न किया हुँ । स्वर्ग की पुत्री ओर सबसे
उत्तम अङ्गिरा (गतिशीला अथवा अज्िरोगोन्रोत्पन्ना) उषा देवी सुकृति
फे लिए घन धारण करती हें।
४. उषा, तुमने प्राचीन स्तोताओं को जितना घन यिया हें,
उतना हमें भी दो। वृषभ (प्रवृद्ध स्तोत्र) के शब्द से तुम्हें प्राणी जानते
हँ । प्राणियों-्ारा गोहरण के समय तुमने दृढ़ पर्वत का द्वार
खोला था।
हिन्दी न ¢ ६ १
५. धन के लिए स्तोताओं को और हमारे सामने सतत (सच्चे)
क्वाय को प्रेरित करते हुए, तमोविनाशिनी होकर, हमारे दान के लिए
अपनी बुद्धि को स्थिर करो । तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
८० सूक्त
(देवता उपा। ऋषि वसिप्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. मेधावी (विप्र) बसिष्ठगण ने स्तोत्र ओर स्तव फे द्वारा उषा
देवी को, सभी लोगो से पहले, जगाया था। उषा समान प्रान्तवाली,
द्यावा-पृथिवी को आवृत करती और प्राणियों को प्रकाशित करती हें ३
२. यह बही उषा हे, जो नवयोवन धारण करके ओर तेज-द्वारा
निगूढ़ अन्धकार को विनष्ट करके जागती हें। लज्जाहीना युवती की तरह
यह् सूर्य के सम्मुख आगमन करती और सूर्य, यज्ञ तथा अग्नि को सूचित
करती हैं ।
३. अनेक अशवों और गोओंवाली तथा स्तुत्य उषायें सदा अन्धकार
दूर करती हैं। वे जल दृहती और सर्वत्र बढ़ती हें। तुम सदा हमें स्वस्ति-
द्वारा पालन करो।
पञ्चम अध्याय समाप्त ॥
८१ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता उषा ऋषि वसिष्ठ । छन्द बृहती और
सतो बहती ।)
१. झुलोक वा सुर्य की पुत्री और अन्धकार-नाशिनी उषा आती
हुई देखी जाती हूँ। सबके देखने के लिए वह रात्रि के घोर अन्धकार को
दुर करती हू ओर मनुष्यों की नेत्री होकर तेज का विकास करती हें।
२. सुये किरणों को एक साथ फेंकते हें। सूर्य प्रकट होकर ग्रह-
नक्षत्रादिकों को प्रकाशशाली करते हें। उषा, तुम्हारा और सूर्य का
प्रकाश होने पर हुम अन्न के साथ मिलें वा अश्न को प्राप्त करें।
८६२ हिन्वी-ऋग्वेद
३. युलोक-पुत्री उषा, हम ीध्फर्मो होकर तुम्हें जगावेंगे। धद-
शालिनी उषा, तुम अभिलषणीय बहुत धन का बहन करती हो। पजमान
छै लिए रत्न और सुख का वहन करती हो।
४. महती देवी, तुम अन्धकार का नाश करनेवाली और सहिमा-
बाली हो। तुम सारे जगत् का प्रबोधन ओर उसे दर्शन के योग्य
करती हो। तुम रत्नवाली हो। तुमसे हम याचना करते हैं। जैसे पुत्र
साता के लिए प्रिय होता है, वेसे ही हम तुम्हारे होंगे ।
५. उषा, जो घन अत्यन्त दुर के स्थान में विख्यात है, वही विचित्र
घन ले आओ । थुलोक दुहिता, तुम्हारे पास मनुष्यों के छिए भोज्य
जो अञ्न है, वह दो। हम भी भोग करेंगे।
६. उषा, स्तोताओं को अमर, निवास-प्रद और प्रसिद्ध यश दो ॥
हमें अनेक गौओं से युक्त अन्न दो। यजमान की प्रोरिका ओर सत्य
बचनवाली उषा शत्रुओं को दूर कर ।
८९ सूक्त
(देवता इन्द्र और वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द॒ जगती।)
१. इन्द्र और वरुण, तुम हमारे परिचारक के लिए, यज्ञ-कर्मार्थे
` महागृह दो। जो झात्रु बहुत समय तक यज्ञकर्ता को मारता हूँ, युद्ध में
हम उसी दुर्बद्धि शत्रु को जीतेंगे ॥
२. इन्द्र और वरुण, तुम महान् हो और महाधनवाले हो। तुमस से
एक (वरुण)/सस्राद् हे और दूसरे (इन्द्र) स्वयं विराजमान हूँ। फास-
घर्षक-द्वय, उत्तम आकाश में विश्वदेबो ने तुम्हें तेज प्रदान किया था--
साथ ही बल भी प्रवान किया था ।
३, इन्द्र और वरुण, तुम छोगों ने बरू-द्वारा जल का द्वार (वृष्टि)
उद्घाटित किया था। तुमने सबके प्रेरक सूर्य को आकाश में यमन कराया
था। इस सायी (प्रजोत्पादक) सोम के पान से आनन्द होने पर सुम छोष
सुखी नदियों को जळ से पुर्ण करो ओर कर्मो को भी पुर्ण करो।
हिन्दी -त्राग्वेद ८६३
४. इन्द्र और वरुण, स्तोता लोग, युद्धस्थल में, शत्रु -सेना के बीच,
रक्षा के लिए ओर संकुचितजान् अद्धिरा लोग रक्षण के लिए, तुम्हें ही
बुलाते है। तुम रोग दिव्य और पार्थिद--दोजों घनों के ईश्वर और
अनायास मुलाने योग्य हो। हम स्तोता तुम्हें बुलाते हें।
५, इन्द्र और वरुण, तुम लोगों में संसार के सारे प्राणियों का
निर्माण किया है। तुम लोगो में से मङ्गल के लिए एक (वरुण) की
परिचर्या मित्र करते हुँ ओर दूसरे (इन्द्र) भयतों फे साथ तेजस्वी होकर
शोभन अलंकार प्राप्त करते हैं।
६. महान् धन की प्राप्ति के लिए, इन्द्र और वरुण के प्रकाशनाथे,
शीघ्र बल प्राप्त हो जाता है। इन दोनों का यह बल मित्य और असा-
धारण है। इनमें से एक जन (वरुण) हिसाकारी का अपघात करले
हैं और दूसरे (इन्द्र) अल्प उपायों से ही अनेक शत्रुओं को बाधित
करते हुँ।
७. इन्द्र और बरुण देवो, तुम जिस मनुष्य के यज्ञ में गमन करसे
हो, जिसकी कामना करते हो, उसके पास बाधा नहीं जा सकती, पाप
नहीं जा सकता, दुष्कमे नहीं जा सकता और किसी भी कारण से उसके
पास सन्ताप भी नहीं जा सकता ।
८. नेता इन्द्र और वरुण, यदि मुझसे प्रसन्न हो, तो दिव्य रक्षा के
साथ मेरे सामने आओ। स्तोत्र श्रवण करो। तुम लोगों के सखित्व
(मित्रता) और बन्धुत्व (फुटुम्बत्व) सुख के साधक हुँ। हमें वोतों दो ।
९. शत्रु-कर्शक तेजवारे इन्द्र और वरुण, प्रत्येक संग्राम में हमारे
अग्रणी योद्धा बनो। तुम्हें प्राचीन और आधुनिक--वोनों प्रकार के नेता
ही युद्ध में और पुत्र, पौत्र आवि की प्राप्ति में बुळाते हूँ।
१०. इन्द्र, वरुण, भित्र और अर्यमा हमें प्रकाशमान धन ओर
महान् विस्तीर्ण गृह प्रदान करे। यज्ञ-वद्धिका अदिति का तेज हमारे लिए
हसक हो । हम सविता देवता की स्तुति करेग।
८६४ हिन्दी-ऋष्वेद
८३ सूक्त
(देवता इन्द्र और वस्ण। ऋषि वसिष्ठ छन्द जगती!)
१. नेता इन्द्र और वरुण, तुम्हारी मित्रता देखकर, गो-प्राप्ति की
इच्छा से, मोटे परशु (घास काठदे का हथियार) वाले यजमान पुर्व
दिशा को ओर गये। तुम लोग दास, वृत्र ओर सुदास-शत्र आयंगण को
मार डालो और सुदास राजा फे लिए, रक्षण के साथ, आओ।
२. जहाँ मनुष्य ध्वजा उठाकर युद्धार्थ मिलते हु, जिस युद्ध में कुछ
भी अनुकूल नहीं होता और जिसमें प्राणी स्वर्ग-दर्शन करते हुँ, उस युद्ध
सें, हे इख और वरुण, हमारे पक्षपात की बातें कहना।
हे. इन्द्र और वरुण, पृथिवी के सारे अन्न संनिकों-हारा विनष्ट होकर
दिखाई देते हें। सैनिकों का कोलाहल झुलोक में फेल रहा है। मेरी सेना
के सारे शत्रु मेरे पास आये हुए हें। हे हनन-श्रवणकारी इन्द्र और वरुण,
रक्षण के साथ, हमारे पास आओ।
४. इन्र ओर वरुण, आयुध-द्वारा अप्राप्त भेद नामक शत्रु को मारते
हुए तुम लोगों ने सुदास राजा की रक्षा की थी ओर तुत्सुओं के स्तोत्रों को
सुना था। युद्ध-काल में तृत्सुओं का पौरीहित्य सफल हुआ था।
५. इन्द्र ओर वरुण, मुझ चारों ओर से शत्रुओ के हथियार घेर
रहे हैं और हिसको के बीच मुझे शत्रु बाधा दे रहे हें। तुम लोग दोनों
(दिव्य और पार्थिव) प्रकार के धनों के स्वामी हो; इसलिए युद्ध के
दिनों में हमारी रक्षा करो।
६. युद्ध-काल में दोनों (सुदास और तृत्सु) प्रकार के लोग घन-प्राप्ति
के लिए इन्द्र और वरुण को बलाते हें। इस यद्ध में दस राजाओ द्वारा
प्रपीड़ित सुदास को, तृत्सुओं के साथ, घुसने बचाया था।
७. इन्द्र और वरुण, दस यज्ञ-हीन राजा परस्पर मिलकर भौ सुदास
राजा पर प्रहार करने में समर्थ नहीं हुए। हृव्य-युवत यज्ञ में नेताओं
फा स्तोत्र सफल हुआ हैं । इनके यज्ञ सें समस्त देवता आविर्भूत हुए थे।
हिन्दी ऋष्येद ८६५
८. जहाँ निर्मेल, जटावाले और कर्मठ तृत्सुगण (वसिष्ठ-हिव्य)
भन्न और स्तुति के साथ परिचर्या किया करते हें, उसी देश में दस राजाओं
द्वारा चारों ओर से घरे हुए सुदास को, है इन्द्र भोर वरुण, तुम लोगों
ने बल प्रवान किया था।
९, इन्त्र और वरुण, तुममें से एक (इन्द्र) युद्ध में वृत्रों का नाश
करते है और दूसरे (वरुण) व्रत वा कर्म की रक्षा करते हे। अभीष्ट-
वर्षक-ह्य, सुन्दर स्तुति-द्वारा तुम्हें हम बुलाते हँ। तुम हमें सुख दो ।
१०. इम्त्र, वरण, सित्र भोर अर्यसा हुमें प्रकाशमान धन और महान्
विस्तीर्णे गृह प्रदान करें। यश-वद्धिका अदिति का पैज हुमारे लिए
अहिसक हो । हुम सबिता देवता की स्तुति करते हूं ।
८४ सूक्त
(देवता इन्द्र और वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. इख और वरुण, इस यज्ञ में, में तुम्हें, हव्य और स्तोत्र-द्वारा,
आर्वात्तत करता हूँ। हाथों में धृत नाना रूपोंबाली जुहू स्वयं हुम लोगों
की ओर जाती हें।
२. इन्द्र और वरुण, तुम्हारा स्वर्गरूप विशाल राष्ट्र वृष्टि-व्वारा
सबको प्रसन्न करता है। तुम लोग रज्जुशन्य और बाधक उपायों से पापी
को बाँधो। वरुण का क्रोध हम लोगो की रक्षा करके गमन करै । इन्द्र
भी स्थान को विस्तृत करें।
३. इन्द्र ओर वरुण, हमारे गृह कै यज्ञ को मनोरम करो। स्तोताओं
के स्तोभ को उत्तम करो। वेवों-ठारा प्रेरित घन हमारे पास आवे ।
झभिलषणीय रक्षा-द्वारा घे हमें बद्धित कर।
४. इन्र और वरुण हुमें सबके लिए वरणीय मिवास-स्थान और
बहुत सप्तवाला घन बो। जो आदित्य (वरुण) असल्य का विभाश करते
हूँ, वही शूर लोगों हो अपरिमित धन देते हुँ ।
फा० ५५
८६६ हिन्दी-ऋ ग्वेद
५. भेरी यह स्तुति इस्र और वदण को व्याप्त करे। मेरी की हु
स्तुति, पुत्र और पोत्र के सम्बन्ध में, हमारी रक्षा फरे। हम सुन्दर
रत्मवाले होकर मञ्च पाऊँंगे। तुम सदा हम स्वास्त-द्वारा पालन करो।
८५ रक्त
(देवता इन्द्र ओर वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्डुप्।)
इन्द्र और वरुण, तुम रोगों के लिए अग्नि में सोम को आहुति
फरते हुए दोप्तमती उषा की तरह बीप्ताकू ओर राक्षस-दूग्पा स्तुति का
में शोधन करता हुं। बे युद्ध उपस्थित होने पर यात्रा करते समय हमें
बचावें।
२. परस्पर स्परद्धावाले युद्ध में हमसे शत्रु स्परद्धी करते हे। जिस युद्ध
में ध्वजा के ऊपर आयुध गिरते हूं, उसमें, है इन्द्र ओर वर्ण, घुम छोय
हिंसक आयुध-द्वारा पराङमुख और विविध गतियोंवाले शत्रुओं का
नाश करो ।
३. सारे सोम स्वायत्त यशवाले और द्योतमान होकर गृहों में इन्र
और वर्ण देवों को घारण करते हैँ ॥ उनमें से एक (वरुण) प्रजागण
को अलग-अलग करके धारण करपे हैं और दूसरे (इन्द्र) बूसरो-
हारा अप्रतिहत शत्रुओं का बिनाश करते
४. आदित्यो (अधिति-पुत्रो ), तुम लोग बलशाली हो। जो नमस्कार
के साथ तुम्हारी सेवा करता हैं, घट्दो श्लोभन फर्मवाळा होता यञज्ञ-ज्ञाता
हो। जो हृव्यवाला ब्यक्ति, तृप्ति के लिए, तुम्हें आर्वात्तत करता हुँ, बहु
अन्नवान् होकर प्राप्तव्य फल को पाता है।
५. भेरी यह स्तुति इन्द्र और वरण को ब्याप्त करे। भेरी की हुई
स्तुति, पुत्र और पोत्र के बारे में, मेरी रक्षा करे । सुन्दर रत्यवाले
होकर हुम यज्ञ पावेंगें। तुम हमें सदा स्वस्तिद्वारा पाछम करो।
हिन्दी-मदस्वेद ८६७
८३ सूस
(देवता वर छ । ऋषि वसिष्ठ । छन्द जिष्टुप |)
१. महिमा सै वरुण का जन्म घीर वा स्थिर हुआ है । इन्होंने विशाल
छावा-पृथिवी को स्थापित कर रक्खा है। इन्होंने आफाश और वर्शनीय
नक्षत्र को दो बार प्रेरित किया है। इन्होंने भूमि को विस्तृत किया है।
२. कया में अपने शरीर के साथ अथवा वरुण के साथ रहूंगा? कब
वरुण के पास ठहरूँगा ? बया वरण कोधन-्यून्य होकर मेरे हव्य की सेवा
करेंगे ? में सुन्दर सतवाला होकर कय सुखप्रद बघण को देख पाऊँगा ?
३. यण्ण, देखने को इच्छा करके में उस पाप की बात तुमसे
पुछुगा। सं पिपिध अरनों के लिए विद्वानों के पास गया हूँ । सभी छदि
(आम्तवशों ) मुझे एक-समान बोल चुके हुँ कि “ये वरुण तुमसे फुद्ध
हुए है ।”
४. वरुण, मेने ऐसा क्या अपराध किया हे कि तुम मेरे सित्र स्तोता
को मारने की इण्छा करते हो? बुद्धेर्ष तेजस्वी बरुण, मुझसे एसा (पाप)
कहो कि में क्षिग्रकारी होकर, नमस्कार के साथ, प्रायध्चित्त करके
तुम्हारे पास गसन करू।
५. बरुण, हुसारे फितृत्रयागत प्रोह को छुडाथो। हमसे अपने शरीर
से जो कुछ दिया है, उसे थी उद्घओ। राजा बयण, पश्न चुराकर
प्रायश्यिस-छप पशु को घास आदि खिलाफर सृप्स फरनेवाले बोर की
कतरह और रस्सी से बंधे बछड़े फी तरह मुझे पाप से छुडाओ ।
६. वह पाप अपने दोष से नहीं होता। वह भ्रम, क्रोध, सूत-कीड़ा
अथवा अज्ञान आदि दैव-गति के कारण होता है। कमिष्ठ (अल्पञ्च
पुरुष) को ज्येष्ठ (ईश्वर) भी कुपथ में ले जाते हुँ। स्वप्न में भी दंव-
शति से पाप उत्पञ्च हो जाते हुँ।
७, काम-बर्णी और पोषक घंदण को, पाप-शून्य होकर, में, दास फी
८६८ हिन्दी-ऋग्वेद
तरह, यथेष्ट रूप से सेवा करूँगा । हम अज्ञानी हैं; स्वामी वरण हमें
ज्ञान दें। ज्ञानी वरुण स्तोता को धन के छिए प्रेरित कर।
८. अन्नवान् बरुण, तुम्हारे लिए बनाया हुआ यह सूकत-कण स्तोत्र
तुम्हारे हृदय में भली भाँति निहित हो। छाभ हमारे लिए मङ्गलमय
हो; क्षेम (घन-रक्षा) हमारे लिए मङ्कळमय हो। तुम हमें सदा स्वस्ति-
द्वारा पालन करो।
८७ सूक्त
(देवता वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. इन्हीं वरणवेव ने सूर्य के लिए अन्तरिक्ष में सार्मप्रदान किया.
था। वरुण ने नदियों को अन्तरिक्ष में उत्पन्न जल प्रदान किया था।
अइव जैसे घोड़ी के प्रति वौड़ता है, वैसे ही शीघ्र जाने की इच्छा करके
वरुण अथवा सुर्य ने विशाल रात्रियों को दिन से अलग किया था।
२. वरुण, तुम्हारा वायु जगत् की आत्मा है। वह जल को चारो
ओर भेजता है । घास देने पर जैसे पशु अवान् (भारवाही) होता
है, वैसे ही संसार का भरण करनेवाला वायु अन्नवान् होता है। महती
और बड़ी द्यावा-पुथिवी के बीच के तुम्हारे सारे स्थान लोकप्रिय हे।
३. वरुण के सारे अनुचरो की गति प्रशंसनीय है। थे सुन्दर रूपोंबाली
धावा-पृथिवी को भज्जी भाँति देखते हैं। मे कर्मी, यश-धीर ओर प्राश
कषियो के स्तोत्रों को भी घारों ओर से देखते हैं।
४. में मेघावी ऋत्विक् हैं। वदण ने मुझसे कहा था कि पुथिबी
अथवा वाक फे इक्कीस (डर, कण्ठ और शिर में गायश्यादि सात-सोत
छन्दोंबाले) नाम है। विद्वात् और मेधावी यदण मे योग्य अन्तेवासी
(छात्र) को उपदेश देकर, उत्तम स्थान सें, इन सब गोपनीय बालों को
भी बताया है ।
५, इन वरुण के भीतर तीन (डसम, सध्यम और अघम) प्रकार
. के खुलोक हे । इनमें तीन (डसम, मध्यम और अघम) प्रकार छी भूमियाँ
हिन्दी-ऋणग्वेद ८६९
झौर छः (छः ऋतुएँ) प्रकार की दशायें भी हैं। वरण राजा ने स्वर्ण के
भूले की तरह सूर्य को, वीप्ति के लिए निर्माण किया हे ।
६. सूर्य की तरह वीप्स वरुण से समुद्र को स्थापित किया हुँ।
घरण जाल-बिन्दु को तरह झुर, गौर मुग की तरह बली, गम्भीर स्तोत्र
वाले, जरू के रचयिता, दुःख से पार पानेयारे बर से युक्त और संसार
के समस्त विद्यमान पदार्थो के राजा हुँ।
७. अपराध करने पर भी वरुण वया करते हूँ । अबीन (घनी) बरुण
के कर्मों को हम यथाक्रम समृद्ध करके उनके पास अपराध-दाम्य हों। तुम
सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
८८ सूक्त .
[(िषता वरुण । ऋषि षसिष्ड । छुन्द् त्रिष्टुप ।)
१. यसिष्ठ, तुम कामवर्षक बरुण को उद्देश्य करके स्वयं शुद्ध और
प्रियतम स्सुति करो। बसण यजनीय, घहु-घनयान् और“अभीष्ट-वर्षी और
विशार हैँ। वरुण सूर्य को हमारे अभिमुख करते हुँ।
२. इस समय मै शीघ्र वरण का सुन्दर दर्शन करके अग्नि की
फ्वाछाओं की स्तुति करता हें। जब वरुण सुखकर पाषाण में अवस्थित
इस सोम को अधिक मात्रा में पीते हें, उस समय दर्शन के लिए मू
प्रशस्त रूप (शरीर) देले हुँ।
३. जिस समय में और वरण, दोनों नाव पर चढ़े थे, जिस समय
समुत्र के बोच में माब को, भली भाँति, प्रेरित किया था, जिस समय
खल कै अपर गति-परायण माव पर हम थे, उस समय शोभा कै लिए
बौका-रूपी फूले पर हमने सुख से फ्रीड़ा की थी।
४. मेधावी बरुण ने (सूर्यात्म-रूप से) दिन और रात्रि का विस्तार
करके बिनों के बीच सुन्दर दिन में वसिष्ठ को (मुझे) नौका पर चढ़ाया
था। वरुण मे रक्षणों के द्वारा यसिष्ठ को सुकर्मा किया या ।
८७७ हिम्दी-ऋ्वेद
प्. वरुण, हम रोगों की पुरानी मैत्री कहां हुई थी? पूर्व ससय सं
हम छोगों में जो हिसए-शूम्य मित्रता हुई थी, हम रोग उसी को निहते
है। अप्नवान् वरुण, तुम्हारे महान्, प्राणियों के घिभेवक और हज़ार
द्रखाजोवाछै गृह में में जाऊँगा।
६. वरुण, जो षसिष्ठ नित्य धन्धु (औरस पुत्र) हैं, जिग्होंगे पूर्ण
समय में प्रिय होकर तुम्हारे प्रति अपराध किया था, यह इस सए तुम्हारे
सखा हों। पजनीय वरुण, हुम तुम्हारे आत्मीय हँ; इसलिए पघाप-गुझत
होकर हम भोग न भोगने पार्वे। तुम मेधावी हो; स्तोताओ को वरणीय
गृह प्रदान करो।
७. इन सब नित्य भूमियों में निवास करते हुए हम तुम्हारा स्तोत्र
करते हैं। वरुण हमारा बन्धन छुड़ावें। हम अखण्डनीय पृथिवी के पास
से वरुण की रक्षा का भोग करें । हमें तुम सदा स्वस्ति-द्वारा पालन
करो।
८९ सूक्त
_ (देवता वरुण । ऋषि वसिष्ठ । छन्द गायत्री ओर जगती |)
१. राजा वरुण, तुम्हारे मिट्टी के भकान को में न पाऊ (सोने का
घर पाऊं) । शोभम-घन वरुण, मुभे सुखी करो, दया करो।
२. आयुधवाले वरुण, में कापता हुआ, बायु-घाजित बादल की तरह,
जाता हूँ । शोभन-धन वरण, म् भे सुखी करो, दया करो।
३. धनी और निर्मल बरुण, दीनता वा असमर्थता के कारण श्रोत,
समातं आदिं अवुष्ठायों की मैंने प्रतिकूलता की है । सुधन वरुण, मुझे
सुखी करो, वया करो ।
४. समुद्र-अछ में रहकर भी मुझ स्तोता को पिपासा लग गई
(ब्योफि समुद्र का जल पीने योग्य नहीं होता) । सुधन वरुण, भुभो सुखी
करो, दया करो ।
५. यएण, हुम मनुष्य हैं; इसलिए देवों का जो हमने अपकार फिय।
हुँ और अज्ञानता के कारण तुम्हारे जिस कारं में एममे शस्तावधानी की
हूँ, उन सब पापों (अपराधों) के कारण हुमें नहीं सारणा।
९० सूर
(६ अनुवाक ! देवता वायु । ऋषि वसिष्ठ । छन्द ्िष्टुप ।)
१. वायु, तुम बीर हो। शुद्ध, मधूर
अध्वर्युगण तुम्हारे उहेश से प्रेरित करसे हैं
र्थ मे ओतो, सामने आओ और आनन्द के
भाग का भक्षण करो।
२. बायु, तुम ही ईश्वर हो। जो यजमान तुम्हें उत्तम आहुति देता
हूँ और सोमपायी वरुण, जो तुम्हें पवित्र सोम प्रदान करता हँ, असे मनुष्यों
में सुस प्रधान बनाओ। यह सर्बत्र प्रख्यात होकर प्राप्तव्य धन प्राप्त करता
है
३ इस दाजा-पृथिवी से जिस वायु को, धन के लिए, उत्पन्न किया है
और प्रकाशमाना स्तुति, धन फे लिए, जिन यायुदेव को घारण करती है,
इस समय बह वायु, अपने अइवों-द्वारा, सेवित होते हूँ ।
४, पाप-दूग्या उषायें सुदिनों की कारण-भूता होकर अन्सार नष्ट
करती हुँ । दीप्यमाना होकर उन्होंने विस्तीणं ज्योति प्राप्त की है। अङ्िरा
लोगों ने गोरूप घन प्राप्त किया था। अङ्गिरा लोगों का प्राचीन जल ने
अनुसरण किया था।
५. इन्द्र और वायु यजमान लोग यथार्थ मन से मननीय स्तोत्र-द्रारा
दीप्यमान होकर अपने कर्म-द्वारा वीरों-द्वारा प्रापणीय रथ फा अपने-
अपने यज्ञ में बहन करते हुँ, तुम लोग ईश्वर हो। सारे अन्न तुम्हारी सेवा
करते हूं ।
६. इन्द्र और वायु, जो दामता-दाली जब हमें गौ, अध) नियास-
प्रद घन और हिरण्य कै साथ सुख प्रदान करते हुँ, दे ही दातायण युद्ध में
एरी और अभिपतत सोस फो
धुम भियुवृगण (अइवों) को
छिए अभिषु सोमरस के
८७२ हिन्दी-ऋण्वेद
अइव और वीरों की सहायता से व्याप्त जीवन (आयु) को जीत
रेते हुँ।
७. अश्व की तरह हविर्वाहक, अन्ञप्रार्थी और बसेच्छु बसिष्ठगण
उत्तम रक्षा के लिए छत्तम स्तुति-दारा इन्द्र और बायु को बुलाते हूँ।
तुम सदा हमें स्वस्ति-हाशा पालन करो।
९१ सूक्त
(देवता वायु ऋषि वसिष्ठ । छन्द दिष्टरप |)
९. प्राचीन समय सें जो प्रवुद्ध स्तोता लोग वायुदेव के लिए किये
गये अनेक स्तोत्रों के कारण प्रशस्य हुए थे, उम्होंने विपद्ग्रस्त मनुष्यों के
उद्धार के लिए, बायु को हवि वेने के निमित्त, सूर्य के साथ उषा को एकत्र
ठहराया था। .
२. इन्द्र और वायु, घुम कामयमाम बूत और रक्षक हो। लुम लोण
हिसा नहीं करना । महीनों और वर्षो रक्षा करना। सुम्दर स्तुति तुम्हारे
पास जाकर सुख और प्रशंसनीय तथा सुखभ्य घन की माघमा करती है।
१. सुबद्धि और अपने अइ्यों कै लिए आश्रयणीय ।्यैर्तवर्ण बायु
प्रचुर अञ्नवाले और धम-युद्ध व्यक्तियों को आशित करते हें। बै व्यक्ति
भी समाम-ममा होकर वाय फे निमित्त यश करने कै लिए माना प्रकार
से अवस्थित हुए हुँ। उन्होंने सुस्वर सन्तति के कारण-भूस कार्यों को
किया था।
४. जब तक तुम्हारै शरीर का वेग हे, जब तक बल है और जब तक
नेता लोग जञान-बल से प्रकाशमान रहते हे, सब तक है विशुद्ध सोम को
पीनेबाले है इंद्र और वायु, घुम लोग हमारे विशुद्ध सोम फा पान करो
और इन कुशों पर बैठो।
५, इद्र और वायु, तुम लोग अभिलषणीय स्तोताबारै हो। अपने
अइवों को एक रथ में जोतो। तुम लोग सामने भाओ। इस मधुर सोम
हिन्दी- शुदि ८७३
का अग्रभाग तुम लोगों के लिए लाया गया है। पीने के अनन्तर तुम छोग
प्रसन्न होकर हमें पापों से छुड़ाओ।
६. इस और धायु, जौ तुम्हारै अहव शत-संश्यक होकर छुम्हारी
सेवा करते हुँ और जो सबके वरणीय अश्य सहलसंस्यप होकर तुम्हारी
सेवा करते हैँ, उन्हीं शोभन घन देनेवाले अइवों के साथ हमारे सामने
आये ।
७. अश्व की तरह हविर्वाहक, अश्प्रार्थी और बलेरछ घसिष्ठगण,
उत्तम रक्षण के लिए उत्तम स्तुति-द्वारा, इन्द्र और बायु को बुछाते हैं ॥
तुम सवा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
९२ सूक्त
(देवता वायु । ऋषि वसिष्ठ । छन्द भिष्टुप् ।)
१. पवित्र सोम को पीमेवारे वायु, हमारे समीप आओ। है सबके
वरणीय, तुम्हारे सब अश्व हजार हें। वायु, सुम जिस सोम कै प्रथम पान
के अधिकारी हो, वही मदकर सोम पात्र में तुम्हारे लिए रषखा हुआ है ॥
२. क्षिप्रकारी और सोम का अभिषव करनेवाले अध्वर्यु ने इन्र और
बायु के पीने के लिए यञ्च में सोम रखा है। इन और वायु, देवाभिलाषी
अध्वर्युओं ने कर्मे-द्वारा तुप्हारे लिए इस यज्ञ में सोम का अग्न भाग प्रस्तुत
किया हे।
३. बायु, गृह में अवस्थित हव्यदासा कै सम्मुख यज्ञ कै लिए जिन नियुतो
(अश्वो) के साथ जाते हो, उन्हीं अइयों के साथ आओ। हमें सुन्दर
भन्नवारा घन वो। वीर पुत्र तथा गौ और अइव से युक्स बेभव वी ।
४. झो स्तोता इन्प्र और वायु की तृप्ति करते हें, वे देव-युक्त हुँ;
इसलिए बे शत्रुओं फे विनाशक हें। उन्हीं की सहायता से हुम शत्रु-विनादा
में समर्थ हों। उन्हीं अपने स्तोताओं द्वारा युद्ध में हम शत्रुओं का पराभव
कर सके।
Pe त्ती
५. यायु, शतसंएणा और सहसा संश्याधाले अपने भइवों के साथ
हारे हिसा-शन््य यज्ञ फे समीप आगमन करो। इस यज्ञ में सौम पीकर
प्रम होओ। तुम सदा स्वस्ति-हारा हें पालम करो।
९३ सूक्त
(दिवता इन्द्र ओर आग्नि । ऋष वसिष्ठ । छन्द दिष्ट्रप् ।)
१. पृत्रष्म हम और अग्मि, शुद्ध और नवोत्पञ्च सेरा स्तोत्र आज
हेवन करो। लुम लोग सुख से बुझाने योग्य हो। तुम वोनों को बार-बार
बुलाता हुँ। यजमान तुम्हारी अभिलाषा करता हुँ। उसे शीघ्र अन्न
प्रदान करो।
२. इख और अग्नि, तुम लोग भरी भाति भजन के योग्य हो। तुम
बल की तरह शत्रुओं के भञ्जक बनो। तुम लोग एक साथ प्रवृद्ध बल-
हारा वद्धसान तथा प्रचुर धन और अन्न के ईइवर हो। तुम स्थूल और
हतु-शिमादक अछ हमें वो।
३. जौ हविवाले और कपाभिरावी मेघावी (विप्र) लोग अनुष्ठान-
हारा यक्ष को प्राप्त करते है, वे ही मेता छोग--जैसे अहव यद्ध-भमि को
व्याप्त करते हें बैसे ही--इख और अग्नि के कर्मों को व्याप्त करके उन्हें
धार-घार बुलाते हुँ।
४. इम्प्र और अग्नि, कृपाप्रार्थी विप्र यशबाले और प्रथम उपभीग्य
घन कै छिए स्तुति-दारा तुम्हारा स्तवन करता है। बृश्रघ्न और सुन्दर
आयुधवाले इख और अग्मि, नये और देने योग्य घन के हारा हमें
प्रवद्धित करो।
५. विझारू, परस्पर युद्ध करती हुई, स्पर्दा करमेवाली तथा युद्ध में
प्रयत्मं करती हुई वोनों शत्रु-सेनाओं को, अपने तेज-द्रारा, सदा बिष्ट
करो। सोमाभिषवकर्ता और वेवाभिलाषी थजमान की सहायता से यक्ष
में रेवाभिलाष न करनेवाले व्यषित का विनाश करो।
हौ (न / ६७
हा 83 Ee १7 म ६५५ पछ ६
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६. इन्द्र और अर्ग, सुन्दर सन थे लिए हजारी एफ सोघाणिषव-
फर्म से आगन करी। तुम लोग हमें छोड़कर दसरे को नहीं जानते ही;
इसलिए मं तुम्हें प्रधुर अझ्न-द्रारा आवत्तित फरला हूं ।
७. अग्नि, तुम इस अख-द्वारा समिद्ध होकर सित, इन्द्र और
सित्र को कही कि सह॒ हमाए। रक्षणीय हुँ । हम लोगों ने जो अपराध किया
है, उससे हमारी रक्षा करो। अर्गसा और यदिति भी हमारे उत अपराध
को हटायें ।
८. अग्नि, शीघ्र इस यश का याश्च करते हेए हम एक साथ ही
तुम्हारा अञ्ज प्राप्त बार । इन्द्र, विष्णु और सर्द्गण हने छोड़फर दुसरे
गे स् देखे । तुम हमें सदा ध्यस्टि-ाएर पालन करो।
९४ सूक्त
(देवता इन्द्र और अग्नि । ऋषि वसिष्ठ । छम्द् गायत्री
ओर अलुष्ट्र५ ।)
१. एन्र और अग्नि, जैसे मेघ से वर्षा होती हुँ, यंसे ही इस स्तोता
से यह प्रधान स्तुति उत्पन्न हुई है|
२. इख और अग्नि, स्तोता का आह्वान सुनो। उसकी स्थुति का भोग
करो। तुम छोग ईश्वर हो। अनुष्ठित कर्म की पूर्ति करो।
३. नेता दछ और अग्ति, हमें हीनभाव, पराभव और निन्दा छे
लिए परवश नहीं करना ।
४. रक्षाभिलाषी होकर हम विशाल हृव्य, सुन्दर स्तुति और करम«
युक्त वाक्य, इख और अग्नि के पास भेजते हैँ।
प, रक्षण के लिए मेधावी लोग उन दोनों इन्र और अग्नि की इस
प्रकार स्तुति करते हैं। समान बाधा पाये हुए लोग भी अश्ष-प्राप्ति के
लिए स्तुति करते हे।
६- स्तोत्र के इच्छुक, अश्ववान् और घनाभिलाषी होकर हम यज्ञ
की प्राप्ति कै छिए तुम दोनों को, स्तुति-द्वारा, बुखायें।
८७६ हिन्दी-प्रटग्वेद
७. इख और अग्नि, तुम मनुष्यों (शत्रुओं) को आविर्भत करते हो।
हमारे लिए तुम, अञ्न के साथ, आओ । कठोर बचनयाला व्यक्ति हमारा
प्रभु म हो।
८. इन्द्र और अग्नि, हमें किसी भी शत्रु को हिसा न मिले। हमें
सुख वो।
९. इन्द्र और अग्नि, हम जो तुम्हारे पास गो, हिरण्य और स्वर्ण
से युक्त धन की याचना करते हैं, उसका हम भोग कर सके।
१०. सोम के अभिषुत होने पर कर्म-नेता लोग सेवाभिलाषी होकर
इत्तम अइखाले इन्द्र और अग्नि का बार-बार आह्वान करते हुँ।
११. सबसे बढ़कर पृत्र-हम्ता और अतीव आनस्व-सग्न इस और
ग्मि की, हम, सकथ (शस्त्र नाम की स्तुति) और स्तोत्र तथा अम्य
इसवॉ-द्वारा परिखर्या करते हुँ।
१२. इन्त्र और अग्नि, तुम लौग वृष्ट घारणा और दुष्ट ज्ञानषालै
तथा बलवान् और अपहरण करनेवाले ममुष्य को आयुध-द्वाश, घड़े की
तरह, फोड़ो ।
९५ सूक्त
(देवता सरस्वती । ऋषि वसिष्ठ । छुन्द् श्रिष्टुप् |)
१. यह सरस्वती लोह-निर्भित पुरी की तरह बारयित्री होकर धारण
जल के साथ प्रधावित होती है । वह अपनी महिमा द्वारा अन्य सारी
श्रहनेवाली जल-रूपिणी नवियों को बाधा देते हुए सारथि की तरह जाती
हैं।
९. मधियों में विशुम्रा, पर्वत सै छेकर समुद्र शक जानेवाळी और
अकेली सरस्वती मे महुष राजा की प्रार्थना को भामा। उन्होंने
भुषनस्थ प्रचुर धन प्रदान करके महुष के लिए (हजार बर्षौ के लिए)
घी ओर दूध दृहा था अर्थात् नहुष को दिया था।
३. सनुष्यों की भलाई के छिए वर्षा करने में समर्थ और शिशु
(प्रादुर्भाव के समय में छोट) सरस्वान् (मध्यमस्थान वायु) यश के योग्य
हिन्दी-ऋषण्वेद ८७७
घोषित (सध्यम-स्थान-वर्ती जल-समूह) के बीच बढ़े थे। वह हविष्मान्
यजमानों फो बली पुत्र देते हु और लाभ के लिए उनके शरीर का संस्कार
करते हूं ।
४. शोभन-धना सरस्वती प्रसन्न होकर हमारे इस यज्ञ में स्तुति
सुर्से। पूजनीय देवता लोग घुटने ढेककर सरस्वती के निकट जाते हुँ।
सरस्वती नित्य घनवाली और अपने सखा छोयो के लिए अत्यन्त
दयावती हूं ।
५, सरस्वती हुम इस हुव्य का हुवन करते हुए नसस्कार-द्वारा
तुम्हारे पास से धन प्राप्त करेंगे। हमारी स्तुति की सेवा करो। हम लोग
तुम्हारे अतीव प्रिय घर में अवस्थिति करते हुए आश्रय-भूत वृक्ष की तरह
तुम्हारे साथ मिलेंगे।
६. सुधना सरस्वती, तुम्हारे लिए यह बसिष्ठ (स्तोता) यज्ञ का
द्वार खोलता हे। शुञ्र-वर्णा देबी, बढो और स्तोता को अन्न दो। तुम
सवा हमें स्वस्सि-द्वारा पालन करो।
९६ सुक्त
(देवता १-३ तक सरस्वती और शेष के सरस्वान् । ऋषि वासिष्ठ ।
छुन्द बहती, सतोबृहती, प्रस्तार-पङ्कि ओर गायत्री ।)
- वसिष्ठ, तुम नदियों मं बलवती सरस्वती के लिए बृहत् स्तोत्र
गाओ। द्यावा-पूथिवी में वर्तमान सरस्वती की ही, निर्दोष स्तोत्रो द्वारा
पुजा करो ।
२. शुभ्रवर्णा सरस्वती, तुम्हारी महिमा-द्रारा मनुष्य विव्य और
पार्थिव दोनों प्रकार का अन्न प्राप्त करता हुँ। तुम रक्षिका होकर हमें
यानो । मरुतों की सखी होकर तुम हुविर्वाताओं के पास घन भेजो।
३. कल्याण-कारिणी सरस्वती केवल कल्याण कर। सुन्दर-गमसा
और अस्वती होकर हमारी प्रज्ञा उत्पन्न करे। जमदग्नि ऋषि की तरह
सेरे स्तव करने पर तुम वसिष्ठ के उपयुक्त स्तोत्र प्राप्त करो।
८७८ हिन्वी-त्रदग्बेद
४, हम स्थी ओर पुत्र के अभिलावी तथा सुन्दर दनवाले स्तोता
हु १ हुस शश्सवान् देवता फी स्तुति फरते हूँ
५. सरस्वान्, तुम्हारे जो जल-संघ रसवात् योर वृष्टि-जरू देनेवाले
हैं उन्हीं के द्वारा हमारे रक्षक होओ।
६. एतु सरस्बाच् दैत के स्तनवन् रसाघार को हम प्राप्त हों। बहु
मत, +] Lan न श re ep Mage + गर rn 90] /भ| Tu ir ry कन
सरस्वान् , सबक दशरथ ठ उस प्रज्ञा! और अश्च शाप्त करें।
९७ सूक्त
(देवता प्रथम के इन, तृतीय छोर नवम के इन्द्र तथा जद्दाणसपति,
दशस के इन्द्र और बृहस्पति तथा श्रचशिष्ट के बृहस्पति हैं।
पर्शप वांसप्ठ । छन्द॒ त्रिष्डुप् ।)
९. जिस पश्न में बेधाणिल्ानी नेता छोष मस होते हैं, पुथिची फे
नेताओं के जिद वञ्च में सारे सबन (सोम) इन के लिए अभिषत होले
हैं, उसी यज्ञ में, हृष्ट होने के लिए, शुलोक से इन्द्र प्रथम आगमन करें
ओर यमद-पण्ययंण अशववण भौ आर्छ।
२, सखा लोग, हूम देयों की रक्षा के छिए प्रार्थना करते हैं। बृहस्पति
हमारे हुज्य को स्वीकार करें। जैसे दूर वेश से धन के आकर पिला पुन
को देता हूँ, बैसे ही वृहस्पति हमें दशम फरते हैं। जैसे हम कास-वर्षक
बृहस्पति के तिकठ अपराधी च होने पाये, घेते ही करो।
३. ज्येष्ठ और सुन्दर सुखवाले उच अहाणस्पति की, नमस्कार
झोर हन्व-द्वारा, में स्तुति करता हूँ । जो पेव-( स्तोतु) कृत अन्त्र के
राजा है, देवाई इळोक उन्हीं सहान इच की सेवा करो ।
४. यही प्रियलम ब्रह्मणस्पति हमारे स्थान (वेदी) पर बेठे। बह्
सबके वरणीय हैं; हसारी धन और शोभन बीर्य फी जो अभिलळापा है,
उसे ब्रह्मणस्पति पुणं करें। हुए उपद्रो से युक्त हैं। वह हमें अहिसित
करके पार करें।
८ एक पने क" ए
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५. प्रथम उत्पन्न हुए अमर देवगण हमें वही यथेष्ट और पुजा-साधन
अन्न वें। हम शुद्ध स्तोत्रवाले, गृहियों के मञ्च-्योग्य और अप्रतिगत बृह
स्पत्ति को बुखाते हँ।
६. सुखकर, रुचिकर, वहनशीलछ और आदित्य की तरह अ्योधिवाछे
अश्वगण उन्हीं बृहस्पति को बहुन फरें। बृहस्पति फे पास बल और
निवास फे लिए गृह है।
७. बृहस्पति पवित्र हें; उनके जने वाहन हैं। थे सबके शोधक
है। बे हित और रमणीय वायवाके है। वे गमनशील, स्वग-भोए्ता,
दर्शनीय और उत्तम निवासवाले हैं। थे स्तोताओं को सबसे अधिक अझ्न
देते हँ ।
८. बुहुस्पति देव की जननी देखी धावापुथियी अपनी महिमा फे योर
से बृहस्पति को बद्धित करें। सखा लोग, बर्दधत्ीय बृहस्पति को बद्धित
करो। वे प्रचुर अञ्न फे लिए जळ-राशि को तरळ और स्नान के योग्य
घनाते हैं।
९, ब्र ढाणस्पति, तुण्हारी और वप्त्रचाले इन्द्र के लिए म॑ने मन्ज-रूष
सुन्दर स्तुति की। तुम दोनों हमारे अनुष्ठान फी रक्षा छरो। अनेक
स्लुलियां सुनो। हम तुम्हारे संभबत हूँ। हमारी आव्रमणशील दात्रु-पेना
घिमष्ट करो ।
१०. बृहस्पति, तुम ओर इन्द्र--दोनों पाथिच और स्वर्गीय घन के
एबामी हो। इसलिए स्तोता को धन देते हो। तुम हमें सदा स्वस्ति-द्वारा
पालन करो।
९८ सूप्त
(देवता इन्द्र घोर बृहस्पति । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अध्वर्युओ, सनुष्यों सं श्रेष्ठ इख्ज के लिए रुखिकर और अभिषुत
सोस का हवन करो। गोर सुग की अपेक्षा भी जल्दी दूरस्थित और
पीसे योग्य सोस को जानकर, सोम का अभिषव करनेवाले यजमान को
शोजते हुए बराबर आया करते हूँ।
éés हिन्दी-ऋग्वेद
२. इस, पूर्य समय में जिस शोभन अञ्न (सोम) को तुभ धारण
करते थे, इस समय भी प्रतिदिम उसी सोम को पीने की इच्छा करो।
बुश, हृदय और मन से हमारी इच्छा करते हुए, सम्मुख लाये गये,
सोम का पास करो।
हे, इस, जन्म लेने के साथ ही तुमने, बल के लिए, सोमपान किया
था। तुम्हारी माता अदिति ने तुम्हारी महिमा बताई हुँ। तुमने विस्तृत
अन्तरिक्ष को अपने तेज सै पुर्ण किया हे। युद्ध से देवों के लिए तुमने धन
उत्पन्न किया है।
४, इन्त्र, जिस समय प्रभूत और अभिमान से युक्त शत्रुओं के साथ
हमारा युद्ध कराओगे, उस समय उन हिंसक शत्रुओं को हाथों से ही हम
पराजित करेंगे। यदि तुम सण्तों के साथ स्वयं ही युद्ध करोगे, तब
सुन्दर अन्न के कारण उस संग्राम को तुम्हारी सहायता से हम जीत
खेंगे।
५. में इत्र के पुराने कर्मों को कहता हूँ। इन्द्र ने जो नया कर्म किया
हैँ, उसे भी में कहूँगा। इन्द्र से आसुरी माया को परास्त किया हुँ, इस-
लिए केवल इस के लिए ही सोम है, अर्थात् सोम से इन्द्र का असाधारण _
सम्बन्ध हुँ ।
३. इन्त्र, पशुओं (प्राणियों) के लिए हितकर यह जो विश्व चारो.
भोर अवस्थित है और जिसे तुम सूर्य के तेज से देखते हो, सो सथ
पुम्हारा ही है। अकेले ही तुम समस्त गोओं के स्वामी हो। सुम्हारे दिये
हुए घन का हुम भोग करते है।
७. बृहस्पति, तुम और इखछ---दोमो ही पाथिव और स्वगीय धम
के स्वामी हो। तुम दोनों स्तोघ्रकर्सा स्तोला को घन वेते हो। घुम हमें .
सदा स्वस्ति द्वारा पालन करो ।
हिम्दी-ऋहग्वेद ८८१
९९ श्त
(देवता ४-६ तक के इन्द्र और विष्णु तथा शेष के विष्णु ।
षि वसिष्ठ । छन्द॒ त्रिषु पृं ।)
१. विष्णु, तुम शब्द-स्पर्शादि पञ्चतन्मात्राओं से अतीत शरीर से
(त्रिविक्रम वा वामन अवतार फे समय) बढ़ने पर कोई तुम्हारी महिमा
नहीं जान सवता । हुम झुम्हारे दोनों लोकों (पथिवी से अन्तरिक्ष तक)
को जानते हँ। किन्तु तुम ही, हे देव, परम लोक को जानते हो।
२, विण्णुदेव, जी पृथिवी में हो चुके हें ओर जो जन्म लेंगे, उनमें
से कोई भी तुम्हारी महिमा का अन्त नहीं पा सकता। दशनीय और
बिराट युलोक को तुमचे ऊपर धारण कर रबखा हें। सुमने पृथिबी की
पुर्व दिशा को धारण कर रक्खा हू।
३, यावा-पूथिवी, तुम स्तोता मनुष्य को दान करने की इच्छा से
अञ्चबाळी, धेनुवाली और सुन्दर जोवाळी हुई हो। विष्णु, थावा-पृथिवी
को तुमने विविध प्रकार से नीचे-ऊपर धारण कर रक्खा है। सर्वत्रस्थित
पवेत द्वारा तुमने उस परथिवी को धारण कर रकखा हे।
४. इन्द्र ओर विष्णु, सुर्य, अग्नि ओर उषा को उत्पन्न करफे तुमने
यजमान फे लिए विशाल स्वगे का निर्माण किया हे। नेताओ, घूमने बुष-
झिप्र नाम के वास को माया को सग्रास में विनष्ट किया हुँ।
५, इन्द्र और विष्णु, तुमने शम्बर की ९९ और दृढ़ पुरियों को नष्ट
किया हुँ । तुमने बाचि नाम के असुर के सो और हज़ार वीरों को (ताकि
थे फिर सामने खड़े न हो सके) वष्ट किया हे।
६. यहु महती स्तुति बृहृत्, विस्ती, विक्रम से युक्त और बलवान्
इन्द्र सथा विष्णु को बढ़ावेगी। विष्णु ओर इन्द्र, यञ्चस्थल में तुम छोगों
को स्तोत्र प्रदान किया हूं। युद्ध मं तुम हमारा अन्न बढ़ाना।
७. विष्णु, तुम्हारे लिए यज्ञ में मुख से मेने वषट्कार किया हूँ। शिपि-
विष्ट (तेजयाले) विष्णु, हमारे उस हव्य का आश्रय करो । हमारी शोभन
इतुसि ओर वाक्य तुम्हें बढ़े । तुम सदा स्वस्ति-द्वारा हमें पालन करो।
फा० ५६
८८२ हिन्दी-पग्वेद
१०० प्क्त
(देवता विष्णु | ऋषि वसिप्ठ । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. जो मनुष्य बहुतों के कीर्तन-योग्य बिष्णु को हव्य प्रदान करता
हैं, जो एक साथ कहे स्तरों से पुजा करता है और मनुष्यों के हितैयी
बिष्णु की सेवा करता है, बही मनुष्य घन की इच्छा करके उसे शीघ्र
प्राप्त करता हूँ।
२. सनोरथ-पुरक विष्णु, सबके लिए हितकारक और दोष-र हित
अनुग्रह हमें प्रदान करो। जिससे भली भाँति पाने योग्य, अनेक अश्वोंवाले
और बहुतों के लिए आह्वावक घन प्राप्त किया जाय, ऐसा करो।
३. इन बिष्णुदेव ने सो किरणों से युक्त पृथिवी पर अपनी महिमा
से तीन बार चरण-क्षेप किया अर्याद् ६दिप्यादि तीनों लोकों को (चासन
बतार में) घेर डाला। वृद्ध से वृद्ध विष्णु हमारे स्वामी हों। प्रवुद्
विष्णु का रूप वीप्ति-युक्ल हूँ।
४. इस पृथिवी को मनुष्य फे निवास के लिए देने की इच्छा करके
इन विष्णु ने पृथिवी को पदक्रमण किया था। इन विष्णु के स्तोता निश्चळ
होते है। सुजन्मा बिष्णु ने विस्तृत निवास-स्थान बनाया था।
५. शिपिविष्ट बिष्णु, आज हम स्तुतियों फे स्वामी और ज्ञातव्य
विषयों को जानकर तुम्हारे उस प्रसिद्ध नास फा कीर्तन करेंगे। तुम
प्रबृद्ध हो और हम अवृद्ध हे, तो भी तुम्हारी स्तुति करेंगे; क्योंकि तुम
रज (रेक) के पार में रहते हो। क्
६ विष्णु, सें जो “शिपिविष्ट” (संयत-रश्मि) नाम कहता है, उसे |
प्रख्यापित (अस्वीकार) करना क्या तुम्हें उचित है ? युद्ध में तुमने अन्य
प्रकार का रूप घारण किया है। हमारे पास से अपना शरीर नहीं छिदाओ।
७ विष्णु, तुम्हारे लिए मुख से में वषट्कार करता हूँ; इसलिए,
है शिपिषिष्ठ, सेरे उस हव्य का आश्रय करो। मेरी सुन्दर स्तुति और
घाक्य तुम्हें वद्धित करें। तुम सदा हमें स्वस्ति-द्वारा पालन करो।
पष्ठ अध्याय समाप्त
हिन्दी-ऋणग्वेद ८८३
(सप्तम अध्याय ! देवता पर्जन्य । ऋषि अग्निपुत्र कुमार अथवा
वसिष्ठ । छन्द त्रिष्ठुप । शौनक _श्रषिका मत है कि स्नान
करके, उपवास करके ओर पूवे-युख होकर इस सूक्त का
ओर इसके अगले सूक्त का जप करने पर पाँच रातों के
पश्चात् निश्चय ह्वी वृष्टि होगी ।)
१. अग्र भाग में ओङ्कार (वा बिजली) घाले ऋक्, यजुः और साम
नाम के (अथवा द्रुत, विलम्बित और मध्यम नाम के) जो तीन प्रकार
के वाक्य (वा भेघ-ष्वनि) जल को दूहते हैँ, उन्हीं वाक्यों वा ध्यनियों
को कहो । पजन्य ही सहवासी विद्युदग्नि को उत्पन्न करते हुए और
भोषधियों (वा धान्यों) का गर्भे उत्पन्न करले हुए, शीघ्र ही उत्पन्न
होकर, वृषभ की तरह (वा वर्षक होकर), शब्द करते हैं।
२. जो ओषधियों और जल के वद्धक हैं, जो सारे संसार के ईइवर
हे, वह पजेन्यदेव तीन प्रकार की भूमियों से युक्त गृह और सुख दें। यह
तीन ऋतुओं (सुय की ज्योति वसन्त में प्रातः, ग्रीष्म में मध्याल्ल और
शरद् में अपराह्ण में विशेष प्रकाशक होती है) में वर्तमान सुन्दर गमन-
वाली ज्योति हमें वो।
३. पर्जन्य का एक रूप॒निवृत्तप्रसवा गौ को तरह हे ओर दूसरा
रूप जल-वर्षक हुँ। ये इच्छानुसार अपने शरीर फो बनाते हैं। माता
(पृथिवी) पिता (शुलोक) से पय (दूध) खेती है, जिससे द्युलोक (पिता)
और प्राणिवग (पुत्र), दोनों वाद्धित होते हें।
४. जिनमें सभी भुवन (प्राणी) अवस्थित हैं, जिनमें थुलोक आदि
तीनों छोक अवस्थित हैं, जिनसे जळ तीन प्रकार (पूर्व, पश्चिम और
वीचे) से निकलता है और जिन पर्जन्य के चारों ओर उपसेखन करले-
वारे तीन प्रकार (पुर्व, पश्चिम और अपर) के सेघ जळ बरसाते है, वे ही
पर्जन्यदेय हूँ ॥
८८४ दिन्दी-न्टम्वेद
५. स्वयं प्रकाश पर्जन्य के लिए यह स्तोध किया जाता है। वे स्तोत्र
ग्रहण करें। बह उनके लिए हुददय-प्राही हो। हमारे लिए सुखकर बृ
गिरे। जिनके रक्षक पर्जन्य हुँ, वे जोवजिया सुफलवती हों।
६. वृषभ की तरह वे पर्जन्य अनेक ओषधियों के लिए रेत (जल)
के धारक हूँ। स्थावर ओर जङ्गम की देह (आत्मा) पर्जन्य में ही रहती
हु। पजन्य का दिया हुआ जल सौ दर्ज तक जोने के छिए मेरी रक्षा
करो। तुम हमें सदा स्थस्ति-हारा पालन करो।
१०२ सूक्त
(देवता पजन्य | ऋषि वसिप्ठ । छन्द गायत्री |)
१. स्तोताओ, अन्तरिक्ष के पुत्र और सेचक पन्य फे लिए स्तोत्र
गाओ ।
२. जो पर्जन्यदेव ओषधियों, यौओं, वड़वाओं (अश्दजातियों) और
स्त्रियों के लिए गर्भ उत्पन्न करते हें---
३. उन्हीं के लिए देवों के मुख-रूप अग्नि में अत्यन्त रसवान् हृव्य
का हुवन करो। वे हमारे लिए नियत अञ्न दें।
१०२ सूक्त
(देवता मण्ड्क । ऋषि वसिष्ठ । छन्द त्रिष्ठुए अर अनुष्टुप् ।)
बृष्टि की इच्छा से वसिष्ठ न पजन्य की स्तुति की थी
ओर मण्डूकों ने अनुमोदन । मण्डूकों को अन-
मोदक जानकर वसिष्ठ ने उनकी ही स्तुति
इस सूक्त में की है।)
१. एक वर्ष का ब्रत करनेवाले स्तोता की तरह वर्ष भर तफ सोये
हुए रहकर मण्ड्क (मेढ़क) पजन्य (मेघ-चिशेष) के लिए प्रसन्नता-
कारक वावय कहते हुं।
हिन्दी-ऋग्नेद ८८५
२. सुखै चमड़े की तरह सरोबरों में सोये हुए सण्डको के पार
जिस समय स्वर्गीय जल आता हुँ, उस समय बछड़ावाली घेन की तरह
सण्ड्फों का कल-कल शब्द होता है।
३. वर्षा-काल के आने पर जिस समय पर्जन्य अभिलाषी और पिपासु
सेढकों को चल से सींचते है, उस समय जैसे पुत्र “अक्खल” शब्द करले
हुए पिता के पास जाता है, वेसे ही एक मेढक दूसरे के पास जाता है।
४. जल गिरने पर जिस समय दो जातियों के मण्डक प्रसन्न होते हुँ
और जिस समय पर्जन्य-द्वारा सींचे जाकर लम्बी छलाँगें भरते हुए भरे
रंग के मेढक हरित वर्ण के मेढ़क के साथ शब्द करते हुँ, उस समय एक
सण्ड्क दुसरे पर अनुग्रह करता है।
५. शिष्य-गुरु की तरह जिस समय इन मेढको में एक ठूसरे की
ध्वनि का अनुकरण करता हे और जिस समय हे मण्डुकगण, तुस रोग
सुन्दर शब्दवाले होकर जल फे ऊपर छलांगें भरते हुए शब्द करते हो,
उस समय तुम्हारे शरीर फे सारे जोड़ ठीक हो जाते है।
मेढफों में किसी की ध्वनि गो की तरह है और किसी की
बकरे की तरहू। कोई धूश्रवर्ण का हुँ कोई हरे रंग फा। नाम तो सबका
एक हे; किन्तु रूप नाना प्रकार फे हुँ। ये अनेक देशों सें, ध्वनि करसे
हुए, प्रकट होते हें।
७. मण्डूको, अतिरात्र नाम के सोम-पज्ञ में स्तोताओं की तरह
वृस समय भरे हुए सरोवर में चारों ओर शब्द करते हुए (जिस बिन
खूब वृष्टि होती हे, उस दिम) चारों ओर रहो।
८. सोम से युवत और वार्षिक स्तुति करनेवाले स्तोताओं की तरह
धे मेढक शब्द करते हैं। प्रवर्गधारी ऋहत्विकों की तरह घाम से आइई-
शरीर और बिर में छिपे हुए कुछ मण्डुक इस समय, वष्टि में, प्रकट
होते ह
९. नेता मण्डूक देवी नियम की रक्षा करते हँ, वे बारह महीनों की'
८८६ हिन्दी-आाप्येश
ऋतुओं को नष्ट नहीं करते। वर्ष पुरा होने पर, वर्षा-ऋतु के आने पर,
ग्रीष्म के ताप से पीडित मण्डुक गडढों में बन्धन से छूटले हें।
१०. धेनु की तरह शब्द करनेवाले मण्डक हमें धन दें। बकरे कौ
तरह शब्द करनेवाले मेढक हमें धन वे। भूरे रंग (धृञ्रवर्ण) मण्डुक
हमें धन दें। हरे रंग के मण्डक हमें धन दें। हजार वनस्पतिणों की
उत्पादक वर्षा-ऋतु में मण्ड्कगण असीस गायें देते हुए हमारी आयु
बढ़ावे ।
१०४ सूक्त
(देवता ९, १२ ओर १३ के सोम, ११ के “देव”, ८ ओर १६
के इन्द्र, १७ के प्रावा, १८ के मरुत्, १० और १४ के अग्नि, १९
से २३ तक इन्द्र, २३ के पू्वोद्ध में घसिष्ठ की प्रार्थना और
अपराद्ध के प्रथिवी और अन्तरिक्ष शंष मन्त्रों के राक्तसनाशक
इन्द्र भर सोम। ऋषि वसिष्ठ । छन्द जगती, त्रिष्डुपू और
अनुष्टुप् ।)
१. इन्द्र और सोए, तुम राक्षसों को दुःख दो और मारो। अभीष्ट-
वर्षक-तुय, अन्धकार में बढ़ते हुए राक्षसों को नीच कर दो। अज्ञानी
शाक्षसों को विमुख करके हिंसित करो, जलाओ, मार फेंको और दूर कर
बो। भक्षक राक्षसों को जर्जर करके फेंक दो।
२. इन्द्र और सोम, अनर्थ प्रशंसक और आक्रामक राक्षस को शीघ्र
ही दबा दो। तुम्हारे तेज से सपे हुए राक्षस को, अग्नि में फेंके गये
“शरु” की तरह, विरूप्त करो। ब्राह्मणों फे द्वेषी, मांस-भक्षक, घोर नेत्र
तथा कठोर-वक्सा राक्षस के प्रति जेसे सदा द्वेष रहे, वैसे करो।
३. इस्प्र और सोम, दृष्कर्मी राक्षसों को, यारक सध्यस्थल में
निरबलम्य अन्धकार में, फेककर मारो, ताकि वहाँ से एक भी राक्षस फिर
ऊपर न उठ सके। तुम्हारा वह प्रसिद्ध कोधवाळा बल दबाने में
समर्थं हो।
हिन्दी त्दी-त्न्देद् ८८७
इ. इन्द्र और सोस, अन्तरिक्ष से घातक आयुध उत्पन्न करो। अनर्थ-
कारी फे लिए इस पृथिवी से घातक आयुध उत्पन्न करो। मेघ से बहू
संतापक वज्य उत्पन्न करो, जिससे वद्ध राक्षस फो नष्ट किया है।
५, इन्द्र और सोम, अन्तरिक से चारों ओर आयुध भेजो। अग्नि
ते संतप्त, तापक प्रहारवाखे, अजर और पत्थर फे विकार-भूत घातक
अस्त्रों से राक्षसों के पाइ्व स्थानों को फाड़ो। चे राक्षस चुपचाप भाग
जायं ।
६. इम्द्र और सोम, बगल फो बाँधनेवाली रस्सी जैसे घोड़े को
बघती हँ, वैसे ही यह मनोहर स्तुति ठुम्हें प्राप्त हो। तुम बली हो।
स्मरण-दाफित के बल में इस स्तोच को प्रेरित करता हूँ। जैसे राजा लोग
धन से पुरण करते हुँ, वैसे ही तुस लोग इन स्तोत्रों को फलबाले करो।
७. इस और सोम, शीघ्रगामी अइव की सहायता से अभिगमन
करो। द्रोही और भञ्जक राक्षसो को मारो। पापी राक्षस को सुख म्
हो; क्योंकि ब्रोह-यक्त होकर यह राक्षस हमें कभी न कभी मार
सकता है ।
८. विशुद्ध मन ने रहनवाले मुझे जो राक्षस झूठी बार्तोगला बनाता
हुँ, हे इन्द्र, वह असत्यवाबी राक्षस, मुट्ठी में बाँधे हुए जल की तरह,
अस्तित्व-शून्य हो जाय ।
९. सत्यवादी मुझे जो अपने स्वार्थ फे लिए राड्छित करसे हें एवम्
कल्याण-पृत्ति मुझे ओ बली होकर दोषी बनाते हैं, उन्हें साम साँप के
ऊपर गिरा दें अथवा उन्हें पाप-देवता की गोद में फेंक दें।
१०. अग्नि, जो राक्षस हमारे अन्न का सार विनष्ट करने की इच्छा
करता है और जो अइबों, गोओं और सन्तानों का सार नष्ट करने की
इख्छा करता हुँ, यह शत्रु, चोर और घनापहा :. «ता पावे, थह अपने
रीर और सम्तान के साथ नष्ट हो जाय।
११. बह राक्षस शरीर और सन्तान से रहित हो। तीनों व्यापक,
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लोकों फे नीचे वह चला जाय। जो राक्षस हमें दिन और रात मारने की
इच्छा करता हैं, हे बेबो, उसका यश सुख जाय।
१२. विद्वान् को यह विदित है कि सत्य और असत्य घचन परस्पर
प्रतिस्पर्धा करते हुँ। उनमें जो सत्य और सरलतम हूँ, उसी का पालन
सोस करते हुँ ओर असत्य की हिसा करते हुँ॥
१३. सोमदेव पापी और बल-्यक्त भिथ्यावावी को नहीं छोड़ते,
मार देते हैँ। वह राक्षस को मारते हें और असत्यवादी को भी मारते हेँ।
बै मारे जाकर इन्द्र फे बन्धन में रहते हैं ।
१४. यद्यपि में असत्य देवोंवाला हँ अथवा यद्यपि भैं यृथा देवों के
निकट जाता हूं, तो भी हे घनी अग्नि, क्यों मेरे प्रति कुद्ध होते हो।
मिथ्यावादी लोग तुम्हारी हिसा को विशेष रूप से प्राप्त करें।
१५. यदि में (वसिष्ठ) राक्षस हूँ अथवा यदि में पुरुष की आयु मष्ट
करता हुँ, तो में अभी मर जाऊं अथवा मुझे जो वथा राक्षस कहकर
सम्बोधन करता हे, उसकै दस वीर पुत्र (सारा परिवार) नष्ट हो जायें।
१६. जो राक्षस मुझ अराक्षस को राक्षस” कहकर सम्बोधन करता
है और जो राक्षस अपने को “शुद्ध” समझता हे, उसे महान् आयुध-द्वारा
इन्द्र विनष्ट करे। बह सारे प्राणियों में अथम होकर पतित हो।
१७. जो राक्षसी रात्रि-समय ट्रोहिणी होकर उल्लू की तरह अपने
शरीर को छिपाकर चलती है, वह निम्नमुखी होकर अनन्त यत्तं में पतित
हो जाय। अभिषव-शब्दों से पत्थर भी राक्षसों को विनष्ट करें।
१८. मर्तो, तुम लोग प्रजा में विविध रीतियों से निवास करो।
जो राक्षस पक्षी होकर रात्रि में आते हें और जो प्रवीप यज्ञ में हिसा
करते हे, उन्हें चाहो, पकड़ो और चूणं करो।
१९. इस, अन्ति से वस्र प्रेरित करो। घनी इख, सोम-तारा
तीक्ष्ण यजमाच को संस्कृत करो। ग्रन्थि-युक्त बज्-द्वारा पूर्य, पश्चिम,
दक्षिण ओर उत्तर से राक्षसों को विनष्ट करो।
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हन्द ८२९,
२०. ये राक्षस कुक्कुरो के साथ शारहे-हाटते आसे हैं। जो राक्षस
धारने फी इच्छा से अहिसनीय इस की हिसा करने कौ इच्छा करते हुँ,
उन कपटियो को मारने के लिए इख्न वस्त्र को तेज कर रहे हैं। इन्ग्
शीघ्र राक्षसों के लिए बस्न फेके ।
२१. इख हिसकों के भी हिंसक हुँ। असे फरता वभ को काटला
है और जेसे भुद्गर बत्तेनों को फोड़ता है, वैसे ही इस, हुव्य-सन्यनकर्ता
भौर अभिमुख-आगमन-कर्ता के लिए, राक्षसों का विमाश करते हुए भा
रहे हुँ।
२२. इन्ग्र, उलकों फे साथ जो राक्षस हिंसा करते हुँ, उन्हें चिनष्ट
करो। जो क्षुद्र ऊलूक-रूप से हिंसा करते हें, उम्हें विभष्ठ करो। जो
कुषकुर, चक्रवाक, बाज (इयेन) और गुध्ररूपों से हिसा करते हुँ, उन्ह
है इख, पाषाण के समान वस्परद्वारा मार डाछो।
२३. हमें राक्षस म घेरने पार्वे। बुःख देनेवाले राक्षसो फे जोड़े हूर
हों। ये राक्षस “यह कया, यह क्या” कहते हुए घूमसे हैं। पृथिवी हमें
अन्तरिक्ष फे पाप से रक्षा फरे, अन्तरिक्ष हमें स्वर्गीय पाप से बचाये।
२४. इन्त, पुरुष-राक्षस का विनाश करी और जो राक्षसी माया-हारा
हिसा करती हूँ, उसे भी घिनष्ट करो। मारना ही जिम राक्षसीं का खेल
हुँ, वे कबन्ध (छिल्न-प्रीव) होकर विनष्ट हों। वे उदय-शीर सुर्यं देखने
मे पारवे ।
२५. सोम, तुम और इन्द्र प्रत्येक को देखो और विविध प्रकार सै
दैखो। जागो और राक्षसों के लिए वज्य-रूप आयुध फ्रेंको॥
सप्तम मण्डल समाप्त ॥
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९0 हि न्वन्या
१ सूक्त
(अष्टस मण्डल । ५ अ्रष्टक। ७ अध्याय। १ श्रपुवाक।
देवता इन्द्र | ऋषि कण्वगोत्रीय मेध्यातिथि और मेधातिथि । प्रथम
की दो ऋचाओों के घोर-पुत्र अनन्तर साता कण्व की मित्रता
प्राप्त किये हुए प्रगाथ नामक ३० से ३३ तक के असङ्ग नामक
राजपुत्र और ३४ अन्त्र के असङ्ग की आया ओर अङ्गिरा की
केन्या शश्वती । छन्द बहती, सतोबृहदती और त्रिष्टुप् |)
१. सखा स्तोताओ, इम्त के सिवा दूसरे की स्तुति महीं करना।
हिसित सत होना। सोमाभिषव होने पर एकत्र होकर अभीष्ट-वर्षा इन्द्र
की स्तुति करो। बार-बार उक्थ उच्चारण करना।
२. वृषभ की तरह शत्रुओं के हिंसक, अजर वृषभ की सरह मनुष्यों
कै विजेता, शत्रुओं के द्वेष्टा, स्तोताओं के भजनीय, विव्य और पार्थिव
धनवाछे और दाताओं में श्रेष्ठ इम्प्र की स्तुति करो।
३. इन्त्र यद्यपि रक्षा के लिए ये मनुष्य अलग-अलग तुम्हारी स्तुति
करते हुँ, तो भी हमारा यह स्तोत्र ही सदा तुम्हारा वर्धक हो।
४. धनी इन्त्र, तुम्हारे विद्वान् स्तोता शत्रुओं में विकम्प उत्पन्न करते
हुए सदा ही आपद से उत्तीर्ण होते हें। हमारे निकट आओ। तृप्ति के
लिए बहुरूपीवाले और निकटस्थित अझ्ञ हमें प्रदान करो। |
५. वज्त्री इनदर, तुम्हें महामूल्य में भी में नहीं बेच सकता। यप्त्रहस्त,
हजार और दस हजार में भी तुम्हें नहीं बेंच सकता। असीम घन के लिए
भी नहीं बेच सकता।
६. इन्द्र, तुम मेरे पिता से भी अधिक धनी हो। न भागनेयाले मेरे
भाई से भी तुम अधिक धनी हो। निवासी इन्द्र, मेरी माता ओर तुम
समाम होकर मुझे व्यापक धन के लिए पुजित करो।
७. इन्द्र तुम कहाँ गये हो? कहाँ हो? तुम्हारा भन नाना दिशाओं
~
हिम्दी-ऋणग्वेद ८९१
में रहता है। युद्ध-कुशल और युद्धकारी पुरन्दर, आओ। गाता तुम्हारी
स्तुति करते हुं।
८. इन इन्त्र के लिए गाने योग्य गान करो । पुरन्दर (शज्ञत्र-पुरी-भेवफ)
इन्द्र सबके लिए संभजनीय हैं। जिन ऋचाओं से कण्व-पुत्रों के यज्ञ में
धर्त्री होकर इन्द्र गये थे और जिन ऋचाओं से शत्रुओं की पुरियों को
मष्ट किया था, उन्हीं ऋचाओं से गाने योग्य गान गाओ।
९. इन्द्र, तुम्हारे जो दस योजन चळमेवाले सौ और हजार घोड़े है,
वे सींचनेवाले शीघ्रगामी हैं। इन्हीं अश्यों की सहायता से शीघ्र आओ।
१०. आज दूध देनेवाली, प्रशंसनीय वेयबाली और अनायास तुही
जानेवाली गाय (धेनु-स्वरूप इन्द्र) की में स्तुति करता हुँ । इसके अति-
रिक्त बहुत धाराओंवाली वाञ्छनीया वृष्टि के स्वरूप यथेष्टकर्सा इन्द्र
की में स्तुति करता हूं।
११. जिस समय सुयं ने “एतश” नाम के राजष को कष्ट दिया
था, उस समय वक्रगामी और वायु-वेग से चरूनेवाले दोनों अए्यो ने
अर्जुन-पुत्र कुत्स ऋषि को ढोया था। ग्रहुधिधकर्मा इनत्न भी किरण-धारक
और अहिसित सुर्यं को, छय्म-वेश से, आक्रमण करने गये थे।
१२. जो इन्द्र (संघटन-सन्धान) द्रव्य के बिना ही, गर्दन से इषिर
निकलने के पहरू ही, जोड़ों को जोड़ वेते हे, वही धनी--बहु-धनी---
इत्र विछिष्ठ का पुनः संस्कार कर देते हुं।
१३. इन्द्र, तुम्हारी दया से हम नीच न होने पार्वे; दुःखी न हों।
क्षीण वनों की तरह हम पुत्र-पौत्रादि से शून्य न हों। वष्यधर इन्द्र, हमें
सरे जला न सकें । घर में रहते हुए हम तुम्हारी स्तुति करसे हूं।
१४. वुत्र-घातक, शीघ्रता-रहित ओर उग्रता-शान्य होकर हस धीरि-
धीरे तुम्हारी स्तुति फरेंगे।
बीर, एक बार यथेष्ट घन के साथ हुम तुम्हारे लिए सुन्दर स्तोत्र
कहेंगे ।
८९९ हिन्दी-ऋणग्वेद
१५. यदि इन्द्र हमारा स्तोत्र सुनें, तो, उसी समय, हमारे सोम उन्हें
प्रसन्न कर सकते है । यह सोम वक्र भाव से स्थित “वल्ञापत्षित्त” हे पवित्र
किये गये हें और “एक घन” आदि जलों के द्वारा वढेमान हुए हैं; इस
लिए सब सोम शीघ्र मदकारी हो गये हैं ।
१६. इन्द्र, अपने सेवक स्तोता की, अम्यों के साथ की जाती स्तृति
की ओर आज शीघ्र आओ। अन्य हविवालों का स्तोत्र तुम्हारे पास जाय।
इस समय से भी तुम्हारी सुन्दर स्तुति की इच्छा करता हूँ।
१७. अध्वर्यओ, पत्थरों से सोम का अभिषव करो और इसे जल
में धोओ। गोचर्म की तरह मेघों के द्वारा शरीर ढककर मरुद्गण नदियों
के लिए जल दुहते हूत
१८. इन्द्र, पृथिवी, अन्तरिक्ष अथवा विशाल प्रकाशित प्रदेश से आङ
घेरी इस विस्तृत स्तुति-द्वारा बद्धित होऔ | सुयज्ञ इन, हमारे यहाँ
उत्पन्न मनृष्यों को अभिलषित फल पै पूर्ण करो।
१९. अध्वर्युओ, इख्न के लिए तुम सबसे अधिक मदकर सोम प्रस्तुत
करो। एख सारी क्रियाओं-द्वारा प्रसन्नता-दायक और अज्याभिलाषी यज-
साम को वर्धितत करो।
२०. इन्द्र, सबनों (यज्ञों) में सोम प्रस्तुत करते और स्तुति तथा
सदा प्रार्थना करते हुए में तुम्हें कुद्ध न करूं। तुम भरणकर्ता और सिह
की तरह भयंकर हो। संसार में ऐसा कौन हुँ, जो तुमसे याचना नहीं
फरता ?
२१. उग्र बलवाले इन्द्र, मद उत्पन्न करनेवाले स्तोता-द्वारा प्रस्तुत
सदकर सोस का पान करें। सोमपान से हर्ष उत्पन्न होने पर इन्द्र हमें
शत्रु-जेता ओर गर्व-ध्वंसक पुत्र देते हे।
२२. इन्द्रदेव सुख-जनक यज्ञ मे हव्य देनेवाले यजमान कै लिए बहु-
घरणीय धन देते हैं। बही सोमाभिषव-कर्ता और स्तोता को धन देते
हैं। वे सारे कार्यों में उद्यत और स्तोताओं के प्रशस्य हैं।
हिन्दी-ऋणग्वेव ८९२३
२३. इन्द्र, आओ । देय, तुम दर्शनीय धन-द्वारा हृष्ट होओ। एकत्र
पीत सोम-हारा अपना विस्तीर्ण और बृद्ध उदर, सरोबर फी तरह, पूर्ण
करो ।
२४. इन्द्र, शत-संख्यक ओर सइ -संस्यक अश्व, सोमपान के लिए,
हिरण्मय (स्वणसय) रथ पर इन्द्र को बहून करें । वे अश्व इच्च से
युक्त और केशवाले हुं।
२५. श्येत-पष्ठ और मप्र वर्णवाले अइव मधुर स्तुति फे योग्य सोम
को पीने के लिए हिरण्मय रथ से इन्द्र फो ले जायें।
२६. स्तुचि-योज्य इन्द्र, प्रथम सोम-पाता की तरह इस अभिषुत सोभ
फा पान करो। यह परिष्कृत ओर रसवबाला हें। यह आसव (सोम)
सदफारक ओर शोभन हु। यह मत्तता के लिए ही सम्पन्न किया
शया हूँ।
२७. जो इन्द्र अपने कर्म-ड्रारा अफेले सबको परास्त करते हें ओर
जो कमं से विशार, उग्र और शिरस्त्राण (शिप्र) बाले हे, बही इन्द्र आवें ।
बह पथक् न हों। बह हमारे स्तोत्र के सामने आगमन कर। हमें छोड़ें
नहीं ।
२८. इन्द्र, तुमने शुष्ण असुर फे संचरणशील निवासस्थान को वस्छ
छै चूर्ण कर डाला था। तुम स्तोता और यज्ञ कर्ता फे द्वारा आह्वान
के योग्य हो। दीप्तिमान् होकर तुमने शुष्ण का अनुगमन किया था।
२९. सुयादिय होने पर तुम मेरे सारे स्तोत्रों को आर्वत्तित करो।
दिन के मध्य सें मेरी स्तुति को आर्वात्तत करो। दिन के अन्त में मेरे
स्तोत्र को आर्वात्तत करो। रात में भी मेरी स्तुति को आवक्तित करो।
३०, मेध्यातिथि, बार-बार मेरी (रार्जाम आस<्भ की) स्तुति करो ।
मेरी प्रशंसा करो। धनवानों में हम (आसद्ध लोग) सबसे अधिक धन
देनेवाले हे मेरी शक्ति (वीयं) से दूसरे के अइव बनाये गये हें। मेरा
पथ उत्कृष्ट है, मेरा आयुध उत्कृष्ट हे ।
[न्दी Ss De]
८९४ छुन्द ८ न्यू
३१. आहार के अन्त में श्रद्धा-युक्त होकर मेंने तुम्हारे रथ को जोता
था । में मनोरम दाच करना जानता हुँ। से यदुयशोत्पन्न और पशु
बाला हूं ।
३२. जिन्होंने (आसङ्ग ने), हिरण्मय घर्सास्तरण के साथ, गतिशील
धत मुझे (मेध्यातिथि को) प्रदान किया था, वह शब्द करनेबाछि रथ
से युक्त होकर शत्रुओं के सारे धन को जीत डाले ।
३३. अग्नि, प्लषोग के पुत्र भासङ्क दस हजार गायों का दान करने
से दान में सारे दाताओं को लांघ गये। अनन्तर सेचन-समर्थ और दीप्य-
मान् सारे पशु, सरोवर से नल की तरह, (आसङ् से) निकल गये थे।
३४. आसङ्ग के आगे (गुह्या देश सं) “स्थूल” देखा जाता है। वह
अस्थि (हड्डी) से रहित, विशाल और नीचे की ओर लम्बायसान हु।
आसङ्ग की शश्वती नास की स्त्री ने उसे देखकर कहा, आर्य, खूब उत्तम
भोग-साधक वस्तु को तुम धारण करते हो।
२ सूक्त
(दैवता इन्द्र । ऋषि कण्वगोत्रीय मेघातिथि और अङ्गिरागोत्रीय
प्रियमेध । छन्द॒ अनुष्टुप् ओर गायत्री |)
१. वासयिता इन्द्र, इस अभिषुत सोम का पान करो। तुम्हारा उदर
पुणे हो। अकुतोभय इन्द्र, तुम्हें हुम सोम देंगे।
२. ेताओं-द्रारा धोया गया और सस्त्र-द्वारा अभिषुत तथा मेष-
छोम से परिपुत सोम, नदी में नहाये हुए अश्य की तरह, शोभा पा
रहा हुँ।
३. इन्त्र हमने जो की तरह उष सोम तुम्हारे लिए, क्षीर आवि में
सिलाफर, स्वादिष्ठ बनाया है। इसलिए हे इन्द्र, इस यज्ञ में वेसा सोम
पीने के लिए से तुम्हें बुलाता हूं।
४. देवों और मनुष्यों के बीच इन्द्र ही समस्त सोम के पान के अधिकारी.
हँ । अभिषुत सोम पीनेवाले इन्र ही सब प्रकार के अन्नों से युक्त हुँ।
हिन्वी-त्रटग्वेद ८९५
५. जिन विस्तृत व्यापक इन्द्र को प्रदीप्त सोम अप्रसन्न नहीं करता,
ढुलेभ आश्रयण द्रव्य (क्षीरादि) घाला सोम जिन्हें अप्रसन्न नहीं करता
तथा तृप्ति करनेवाले अन्य पुरोछाझादि जिन्हें अप्रसन्न नहीं करते, उन
एुन््र की हम स्तुति करते हुँ।
६. जाल आदि से रोके गये मृग को जेसे व्याच खोजते हँ, उसी
प्रकार हमसे दूसरे जो ऋत्विक् और यजसान आदि संस्कृत सोम-हारा
इन्द्र फा अन्वेषण करते हैँ ओर जो स्तुतियों से, छुत्सित रूप रे, इन्द्र के
पास जाते हें, वे उनको नहीं पाते ।
७. अभिषुत सोम को पीनेवाले इन्द्रदेव के लिए तीन प्रकार (सबन-
श्रय) फे सोम यञ्ञ-गुह में बनाया जाय।
८. ऋत्विकों का एकमात्र भरण करनेवाले यज्ञ में तीन प्रकार के
कोश (सोम प्रस्तुत करने के कलश) सोम का क्षरण (श्रवण) करते
हैं। तीनों चमस (सवन-त्रय के) भी सोम-पूर्ण हें।
९. सोम, तुम पवित्र और अनेक पात्रों में अवस्थित हो और बीच
से क्षीर तथा दषि-द्वारा सिश्चित हो। तुस वीर इन्र को सबसे अधिक
प्रसत्त करो।
१०. इन्दर, तुम्हारे ये सोम तीब्र हुँ। हमारे अभिषुत और दीप्त मिक्षण
द्रव्य (क्षीरादि) तुम्हारी कामना (याचना) करते हेँ।
११. इख, उन सोमों और सिश्रण प्रव्य को मिलाओ। पुरोडाश
भर सोम को मिलाओ। उससे में तुम्हें धनवान् सुन्ँ ।
१२. जेसे सुरा के पीये जाने पर दुष्ट मत्तता सुरापायी को प्रमस
करने फे लिए उसके अन्तःकरण में युद्ध करती है, वसे ही, हे इख, पिये
हुए सोस हूदयों में युद्ध करते हुँ। जसे दूध से भरे हुए गाय के स्तन की
लोग रक्षा करते हूँ, इन्द्र, तुम सोम-पूणं हो; स्तोता लोग उसी तरह
तुम्हारी रक्षा करते हूँ ।
१३. हयद्ब, तुभ धनी हो। ठुम्हारा स्तोता धनी हो। तुम्हारी तरह
घनी और प्रसिद्ध पुरुष का स्तोता प्रभु होता है ।
८९६ हिन्दी-त्रहग्वेव
१४, इन्द्र ह्तुति-रद्धित के शत्रु हुँ। बहु गाया जाता हुआ उकूथ जान
सकते हुँ। इस समय गामे योग्य गान गाया जाता हु।
१५. दुख, तुम वधिक रिपु कै हाथ में मुझे नहीं छोड़ना। अभिषय
करनेवाले के हाथ में नहीं छोइना। शक्तिमान् इन्द्र, तुम अपने कर्मबल
से हुमें घन देना।
१६. इन्त्र, हुम तुम्हारे सखा हैं। तुम्हारी कामना करते हैं। हमारा
प्रयोजन तुम्हारा स्तोत्र करना ही है। हम तुम्हारी स्तुति करते हैं। कण्व
गोत्रीय उश्य-द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हुँ।
१७. वस्त्री इन्द्र, तुम कर्मवान् हो। तुम्हारे अभिनव यज्ञ में से
दूसरा स्तोत्र नहीं उच्चारण करता; केवल तुम्हारे स्तोत्र को ही में
जानता छुँ।
१८, सोमाभिषव करनेवाले यजमान की इच्छा देवता लोग सदा
करते है। सोथे हुए मनुष्य की वहु इच्छा नहीं करते। देवता लोग आलस्य
शून्य होकर भदकर सोस प्राप्त करते हैं।
१९, इन्द्र, अञ्न फे साथ हमारे सामने उत्तम रीति से आओ। जैसे
युवती भार्या पाने पर गुणी व्यक्ति उसके ऊपर करुद्ध नहीं होते, वेसे ही,
इन्द्र, तुम हमारे प्रति ऋद्ध नहीं होना ।
२०, बुःसहनीय इन्द्र, आज हमारे पास आओ । बुलाये जाने पर
कुत्सित जामाता के समान सन्ध्याकाल नहीं करना।
२१. हम इन वीर इन्द्र को बहुत धन देनेवाळी कल्याणकारिणी अनु-
प्रह-बुद्धि को जानते हैं। तीनों लोको में आविर्भूत इन्द्र को हुम जानते हें।
२२, अध्वर्यू, कण्वयोत्रीय स्तोता लोग इन्द्र के लिए शीघ्र सोम का
हवन करें। अति बली और प्रभूत रक्षावाले इन्द्र की अपेक्षा अधिक
यशस्वी को हुम नहीं जानते ।
२३. अभिषव करनेवाले अध्वर्थू, वीर, शक्तिशाली ओर मानव-हितषी
इन्द्र के लिए मुख्य रूप से सोम प्रदान करो । वे सोम का पान करें।
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२४. जो सुखकर स्तोपाओं को अच्छी तरह जानते हँ, वही इन्द्र
होत्रादि को ओर स्तोतागण को बहुत अइवोंवाला और गोओंचाला
अन्न दं।
२५. अभिषवकारियो, तुम लोग मस्त करने योग्य, वीर और श्र
इन्द्र के लिए स्तुति-योग्य सोम बो।
२६. सोमपान में परायण ओर वृत्रहन्ता इन्द्र आवें। हम दूर न जायें।
बहु-रक्षावाले इन्द्र शत्रुओं को तिरस्कृत फरें।
२७. स्तोत्रवाले और सुखावह दोनों अइव इस यज्ञ में स्तुति-द्वारा
विश्रुत और आश्वय-योग्य सखा इन्द्र को ले आवे ।
२८. शिरस्त्राण, ऋषि और झक्तिवाले इन्र, यह स्वादिष्ठ सोम
है। तुम आओ। सारे सोम मिश्रण ब्रव्य (क्षीरादि) में मिश्रित हुए हें।
आओ । तुम प्रसन्नता-प्रिय हो। स्तोता तुम्हारी स्तुति करता हैं।
२९. इन्द्र, वद्धन-परायण स्तोता लोग ओर सारे स्तोत्र, महान् धन
झौर बल की प्राप्ति के लिए, तुम्हें बढ़ाते हैं।
३०. स्लुतियों-द्वारा बहनीय इन्द्र तुम्हारे लिए जो स्तोत्र और उकथ
हैँ, वे सब मिलकर तुम्हारे बर को धारण करते हें ।
३१. इन्द्र, बहुकर्मा, एक और घज्यपाणि हुँ। बे सदा से शत्रुओं के
लिए अजेय हूँ। व स्तोता को बल देते हेँ।
३२. इन्द्र ने दाहिने हाथ से वृत्र का बध किया टुँ। ब अनेक स्थानों
में बहुबार बुलाये गये हें। वे माना प्रकार की क्रियओं-द्वार। महान् हँ।
३३. सारी प्रजा जिम इन्द्र के अधीन है और जिन इन्र में अच्युत
बल ओर अभिनय हें, बही इन्द्र यजमानो फे अनुमोदक हों ।
३४. इन्द्र ने ये सारे काम किये हैं। वे सर्वत्र विश्वुत है, बे हुविवालों
के अन्नदाता हें।
३५. प्रष्टरगरोल इन्द्र, जिस गमनशील और गवाभिलाषी स्तोता को
ध्पकवम्द्धि शत्र के हाथ से बचाले हूँ, बह् स्तोता स्वामी होकर धन का
बाहक होता हू ।
० ५७
८९८ हिन्दी-ऋग्वेद
३६. अश्व की सहायता से धनी इन्र जाने योग्य स्थान पर
जाते हे। बे शूर हैं। बे नेता मण्तों की सहायता से उत्रासुर का वघ
करते ह्। वे अपने सेवक यजमान फे रक्षक और उत्य-स्वरुप हूँ ।
३७. प्रियमेध, ऋषि, इन्द्र फे लिए, उनमें मन लगाकर, यज्ञ करो ।
सोम पाने पर इन्द्र प्रसन्न होते हैं। उनका हर्ष निष्फल नहीं होता।
३८. कण्व-पुत्रो, तुम साधु के रक्षक, अन्नाभिलाषी, नाना-देशगामी,
वेगवान् और गेय-यशा इन्द्र की स्तुति करो ।
३९. पद-चिह्व न रहने पर भी सखा और सुकर्मा दुख ने नेता देवों
को फिर गाये दी थीं। देवों ने अभिळषित पदार्थ को इन्द्र से पाया था।
४०, बज्चो इन्द्र, मेष-रूप से सामने जाते हुए तुसने इस प्रकार
स्तुति करनेवाले कण्वपुत्र मेष्यातिथि को प्राप्त किया था।
४१. विभिन्दु (नामक राजा), तुम दाता हो। तुमने मुझे चालीस
हजार धन दिया है । अनन्तर आठ हजार दान दिया हे ।
४२. प्रख्यात, जल-वद्धक और प्राणि-रचयिता स्तोता के प्रति अनुन
ग्रह-शील द्यावा-पुथिवी को, धनोत्पत्ति के लिए, मेंने स्तुति को हूँ।
३ सूक्त
(देवता पाकस्थान राजा २१-२४ तक के क्योंकि इन मन्त्रों में
कुर्यान के पुत्र पाकस्थान राजा की स्तुति की गइ है; शेष के
इन्द्र । ऋष कण्वगोत्रीय मेध्यातिथि | छन्द हती, सतोबृहती,
अनुष्टुप् और गायत्री ।)
१. इन्द्र, हमारे रस्तबान् ओर दुर्घ-युक्त अभिषुत सोम को पीकर
तृप्त होओ। तुम हमारे साथ में मत्त होने योग्य हो। बन्धु होकर हमें
वरद्धित करने के लिए तुम प्रवृद्ध होओ। तुम्हारी बुद्धि हवारी रक्षा
करे ।
२. तुम्हारी कृपा-बृद्धि में हम हवियाले हों । शत्रु के लिए हमें नहीं
मारना । अनेक रक्षणों से हमें बचाओ। हमें सदा सुखी करो।
हिन्दी-ऋग्वेद ८९९,
बष्ठु-घनबान् इन्द्र, सेरी ये स्तुति-रूप बा
अग्निदेव के समाम तेजस्वी और बिशुद्ध विद्वान् तुरूहु
भर
तुम्हें वद्धित करें।
गे स्तुति करते हुँ।
४, इन्द्र सहख ऋषियों से बल प्राप्त फरके विस्तोण हुए हैं। इनकी
यथार्थ प्रख्यात महिमा और दछ, यज्ञ भें, थिप्नों के राज्य स, स्तुत
होते हुँ ।
५. यज्ञ के प्रारस्भ इन्द्र को बुळाते हे और यज्ञ को समाप्ति
में भी इन्द्र को जुलाते दुँ। हम मस होकर, घन-प्राप्ति के लिए, इन को
बुलाते हूं ।
६. अपने बल की महिमा से इन्द्र वे थावा-पृथिवी को विस्तारित
किया है । इन्द्र ने सूर्य को दीप्त किया हु। सारे भुवन इच्ध-द्वारा नियमित
हें। सोम भी इन्हीं इन्द्र में नियमित हें।
७. इन्द्र, स्तोता लोग, सभी देवों से पहले सोम पान के लिए, स्तोत्र
द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हैं। समीचीन ऋभृगण भको भाँति तुम्हारी
ही स्तुति करते हूँ। इन्द्र तुम प्राचीन हो। स्रों ने तुम्हारी ही स्तुति
की ह
८. अभिषुत सोम के पीने से सारे शरीर में शत्तता चढ़ने पर इन्त्र
इस यजमान का ही बीर्य और बल बढ़ाते हैं। प्राचीन समय के समान
ही आज मनुष्यगण इन्द्र के उन्हीं गणों की स्तुति करते हू
न्द्र, तुम शोभन बौयंबाले हो। प्रथम लाभ के लिए तुमसे में
उत्तम अन्न की मांग करता हु। जिसके द्वारा कर्म-रहित लोगों से हितकर
धन लेकर तुमने भृगु को दिया ह ओर जिसके द्वारा प्रस्कण्व की तुमने
रक्षा की हूं, उशी बीर्य ओर अस को मे मांगता हूं ।
तुम्हरा वही बल सचोरथ-पुरक हुँ । तुम्हारी महिमा व्यापमीय नहीं हे ।
इस महिमा का अनुधावन पृथिवी करती है।
११, इन्द्र, जिस शोभन नीर्यवाले घन को में तुमसे माँग रहा हूं,
९०० हिन्दी-क्रग्वेव
वह धन दो। भजनाभिलाषी ओर हुबिवाले यजमान को सर्वप्रथम धन
दो। प्रात्रीन इस्र, इसके अनन्तर स्तोता को देना।
१२. इन्द्र, स्तोत्र-भजत-कारी जिस घन सै तुसने राजा पुरु के पुत्र
की रक्षा की थी, घही धन यजमान को दो। जसे रुशम, श्यावक
मौर कृप यासक राजषिथों को तुमने रक्षा फो हु, वैसे सभो हूविवाले
यजमानो की रक्षा करो।
१३. सन्तत गसन फकरनेवालो स्ठुलियों का प्रेरक कोन अभिनव
मनुष्य इन्द्र की स्तुति करने की शबित रखता हूँ? सुखलभ्य इन्द्र को
स्तुति करनेबाले लोग इन्द्र की इखिय ओर महिमा फो नहीं प्राप्त कर
सकते ।
१४. इन्द्र, तुम देवता हो। कोत स्सोता तुम्हारे लिए यज्ञ-सम्पादना-
भिछाष की शक्ति रखता हुँ! कोन मेधावी ऋषि तुम्हारी स्तुति को
वहन कर सकता है ? इन्द्र, स्तोता के बुलाने णर तुम कब असे हो ?
स्तोता कै पास कब आते हो ?
१५. प्रसिङ॒ और अवीव सघुर वाक्य तथा स्तोता, दाजु-बिजयी,
धन-भाक्, अक्षय रक्षावाले ओर अञ्चाभिलाषी रथ की तरह, कहे
जाते हें ।
१६. इण्बों की तरह भगुओं ने सूर्य-किरणों के समान ध्यात और
व्याप्त इ्प्र को व्याप्त किया था। प्रियमेध नास के मनुष्यों ने इन्द्र की
पुजा करते हुए स्तोत्र-प्वारा इन्द्र को ही पुजा की थी।
१७. वृत्र का भली भाँति बघ करनेवाठे इन्द्र, अपने हरि-द्वय को
रथ में जोतो। धनी इन, तुम उग्र हो। दर्शनीय मसतों के साथ सोम-
पान के लिए दूर देश से हमारे अभिमुख आओ ।
१८. इन्द्र, कर्म-्कर्ता और सेधाबी ये यजमान थज्ञ-सेवव के लिए
तुम्हारी हो स्तुति करते हुँ। धनी आर स्तुतिपात्र इन्र, कामी पुरुष के
समान हुमारा आह्वान सुनो ।
हिन्दीन्म्डग्येद ९०१
१९. इन्द्र, सहाधनुप् के द्वारा तुमने वन्न का वध किया है। मायादी
भर्बुद और मृगय का तुमने विनाश किया हूँ। पर्वेत से गौओं को
निफाला हूं ।
२०. इन्द्र, जब तुमने अन्तरिक्ष से महान् आर हनन-शील वृत्र को
हुदा दिया था, सब बल का प्रकाश किया था। उस समय सारे अग्नि,
सुर्य और इस्र फे सेवनीय सोमरस भी प्रदीप्त हुए थे
२१. इन्प्र ओर मरुतों ने मुझे जो दिया था, कुस्यान फे पुत्र पाक-
स्थामा मे भी मुझे वही विया था। बह धन सारे घनों के बीच स्वर्ग में
जाते हुए और प्रभा-युयत सूयं के समान शोभा पाता हुँ।
२२. पाकस्थामा ने मुझे छोहित-बर्ण, सुन्दर-वहन-प्रदेश, बन्धन-
इज्ज-पुरक और नाना प्रकार कै धनों का प्रापफ अश्व दिया था।
३. उस अश्व कै दस प्रतिनिधि अइव मभे ढोते हं। इसी प्रकार
झखो ने तुग्र-पुत्र भुज्यू को होया था।
२४, पाकस्थामा अपने पिता के उपयुक्त पुत्र हैं। वे निदाइदाता
तथा स्पष्ट रूप से बल देनेवाले हु । वे शत्रुओं के हिसक ओर रिपुओं के
भोजिता हूं। लोहित-वर्ण अइव देनेवाले पाकस्थामा की में स्तुति
करता हूं ।
४ सूक्त
( दैवता १९-२१ के कुरङ्गदान, १०-१८ के पूपा अथवा इन्द्र और
शेष के इन्द्र हैं। ऋषि देवातिथि । हन्द उष्णिक्, बृहती अ
सताबृहता ।)
१. इत्र, यद्यपि लुभ पूवं, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण देशों के
श्हनेवारे स्तोदाओं-द्वारा वुझाये जाते हो; तथापि आनक राजा के पुत्र
के लिए स्तोताओं-हारा तुम प्रेरित हो जाते हो। तुर्पेश के लिए भी
स्तोताओ-द्वारा प्रेरित हो जाते हो।
९०३ हिन्दी-त्रग्वेद
२. इन्द्र, यद्यपि तुम सम, समश, श्यादक और छुप नासक राजाओं
के साथ प्रमत हुआ करते हो; तथापि स्तोत्र-वाहक कण्व लोग तुम्हे स्तोत्र
प्रदान करते हें; आओ।
३. जैसे गोर मुग तप्णालें होकर जल-पूर्ण और तृण-शून्य स्थान को
जान जाता है, वैसे ही, हे इन्द्र, सखित्व प्राप्त हो जाने पर घुम हमारे
सम्मुख शीघ्र आओ। हुम कण्ब-पुत्र दै। हमारे साथ एकत्र सोम पान
करो।
४. धनवान् इन्द्र, सोम अभिषव-कर्त्ता को धन देने के लिए तुम्हे
प्रमत्त करे। तुमने सोमपान किया है। यह सोम अभिववज-पालूफ (चमस)
द्वारा अभिषुत किया गया है; इसलिए यह अतीव प्रशस्य हे। इसी के
लिए तुमने महान् बल को धारण कर रक्खा हे।
५, अपने वीर-कमं के द्वारा इन्द्र ने शत्रुओं को दबाया ह। उन्होंने
बल के द्वारा परकीय क्रोध को नष्ट किया हूँ । महान् इन्द्र, सारे युद्धच्छु
शत्रुओं को तुमने युक्ष की तरह निइछल किया हूँ ।
६. इन्द्र, जो तुम्हारा स्तोत्र करता हुँ, वह सहख-संप्यक बज्यायुप
(वोर) प्राप्त करता है और जो नमस्कार द्वारा हुव्य प्रदान करता हैँ,
बह शोभन वीर्यवाला और इत्रुघातक पुत्र प्राप्त करता है।
७. इन्द्र, तुम उग्र हो। तुम्हारी मित्रता प्राप्त करके हम नहीं छरेंगे,
थकेंगे भी नहीं। तुम अभीष्ट-बषक हो। तुम्हारे सारे महान् कर्मा को
प्रकाशित करना ठीक है। हमने तुर्मश और यढु को देखा हू ।
८. काम-वर्षक इन्द्र ने अपनी बाई कमर से सारे प्राणियों को
आच्छादित किया हूँ । हविर्दाता इद्र का क्रोध नहीं उत्पन्न करता। मघु-
मक्षिका से उत्पन्न मधुद्वारा संस्पृष्ठ और प्रसन्नता-दाता सोम के सम्मुख
शीघ्र आओ। उस सोम के पास जाओ और उसे पिपो।
९. इन्द्र, तुम्हारा सखा हौ अइवबाला, रथवाला, गोवाला और
रुपवाला है। वह सदा शीघ्र धन प्राप्त करता है और सबके लिए
आह्लाद-जनक होकर सभा में जाता हे।
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१०. ऋश्य मामक सग की तरह तुम पात्र में लाये गये सोम के
सम्मुख आओ और इच्छापुसार पान करो। धनवान् इन्द्र, तुम प्रतिदिन
निम्नमुख वृष्टि को गिराते हुए अतीव तेजस्थी बल को धारण करो।
११. अध्वर्यू, इन्द्र सोम पीने की इच्छा करते है। तुम सोम का
अभिषव करो। दोनों हरण अश्च आज जोते गये हूँ। वृत्रघ्न आये हैं।
१२. इन्द्र, जिसके सोम से तुम सन्तुष्ट होते हो, बह हव्पदाता स्वयं
ही उस बात को जास सकता हुं। तुम्हारे योग्य सोमपात्र में सींचा गया
हुं। आओ, उसके पास जाओ और उसे पियो।
१३. अध्वर्षुओ, इन्द्र रथ पर हुँ। उनके जिए सोम प्रस्तुत करो।
अभिषव के लिए चप पर स्थापित मल पत्थर के ऊपर पत्थर यजमान
के लिए यञ्च-निष्पाइक सोम का अभिषव करते हुए चारों ओर शोभा पा
रहे हे।
१४. हमारे कम में अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाले और सींचने में
समर्थ हरि नाम फे दोनों अशय इन्द्र को ले आयें। इन्द्र, यज्ञ-सेवी और
गतिशील दोनों अश्व तुम्हें सवनों के समीष ले जायें ।
१५, मंत्री की प्राप्ति के लिए हुम बहु घनयाले पुषा का सरण करते
हैं। शक, अनेवों द्वारा आहूत और पाप-विमोचक पूषन्; अपनी बुद्धि के
द्वारा घन की प्राप्ति और छात्रु-विनादा के लिए हमें समर्थ करते की इच्छा
करो ।
१६. (नाई की) बाँह में रहनेबाले झूरे की तरह हमें तीक्ष्ण-बद्धि
फरो। हे पाप-विमोचक, हमें धम वो। लुम्हारा गोधन हमारे लिए सुलभ
हो। तुम मनुष्य के लिए यह धन भेजा करसे हो।
१७. पुषन्, में तुम्हें प्रसाधित करते की इच्छा करता हूँ। वीप्तिमात्
पूषन्, तुम्हारी स्तुति करने फी इच्छा करता हूँ। अन्य देयों की स्तुति
करने की में इच्छा मंहीं करता; क्योंकि वे असुखकर हैं। निवास-प्रव,
स्तोता और साम-मन्त्र-युक्त पज्र (कक्षीवान्) को अभिलषित धन वो।
९०४ हिन्दी-ऋग्वेद
१८. दीप्तिबाले और अमर पुषन्, किसी समय हमारी गाये घरमे
के लिए लोठती हें। हमारा गो-रूप धन निस्य हो। पुस हमारे रक्षक
और मङ्कलकर होओ। अञ्न-दान कै लिए महान् होओ ।
१९. कुरुङ्ग नाम के वीष्त और सौभाग्यवान् राजा की
के लिए यज्ञ और दान में सनुष्यों के बीच हमने प्रचुर झैँ
युक्त धन को प्राप्त किया था।
२०. कण्ब-पुत्र और हविवाले मेधातिथि तथा उनके स्तोताओं-हारा
भजन के योग्य तथा दीप्ति पाये हुए प्रियमेध नाम के ऋषियो-द्रारा
सेवित एवम् अतीव पवित्र साठ हज़ार गोओं को में (देवातिथि) ने सबके
अन्त म प्राप्त कया ।
२१. मेरे धन पाने पर युक्षों ने भी हर्ष-ध्वमि की थी फि इन्होंने
प्रशंसनीय गोधन और अइवधन प्राप्त किया है।
त्यर्ग-प्राप्ति
सप्तम अध्याय समाप्त ॥
५ सूक्त
(अष्टम अध्याय । देवता अ्श्वि-द्वय। अन्त की पाँच आधी
ऋचाओं के कशु क्योंकि इन ऋचाओं में कशु नामक राजा क दान
की कथा है।. ऋषि कण्वगोत्रीय ब्रह्मातिथि। छुन्द् गायत्री
बृहती और अनुष्टुप् ।)
१. दुर से ही निकट में घिद्यमाव दिखाई देनेवाली और वीप्स रूप-
वाली उषा जिस सभय सारे पदार्था को श्वेत-बर्ण कर देती हें, उस समय
दीप्ति को अनेक प्रकार से बिस्तारित करती हें। (अश्वि्ठय, मन्त्रों को
सुनने के लिए तुम भी प्रादर्भत होओ।)
२. दर्शनीय अश्विह्यय, तुम लोग नेताओं के समान हो। इच्छा-मात्र
से ही अश्यो सें जोते हुए ओर प्रचुर अन्न से युक्त रथ से तुम लोग उषा
के साथ मिलो!
दी-ऋुग्वैद् १०
१. अञ्च-युक्त और घन-सम्पन्न अश्विद्वय, अपले लिए घमाये गये
्तोत्रों को देखो। जैसे दुत स्वामी के वचन के लिए प्रार्थना करता है,
बैसे ही हम तुम्हारे वादय के लिए प्रार्थना करते हैं।
४. तुम बहुतों के प्रिय, अनेकों के आनन्य-दएदा और बहु धनवाछै
हो। हम कण्वगोत्रज हुँ। हुम अपनी रक्षा के लिए अधिधिव्वय की प्रार्थना
करते हे ।
५. तुम लोग पूज्य हो। सबसे अधिक अन्न दैनेवाले हो। शोधन
घन के स्वामी हो। तुम लोग सङ्गल-प्रद और हव्यवाता के गृह में जाया
करते हो ।
६- जो ह॒व्यदाता सुन्दर देवतावाला है, उसके लिए घुम लोग उत्तम
यश से युक्त और अविनाशी गोचर-भूमि को जल के द्वारा सिक्स करो।
७. अध्विद्दय, अशवो पर चढ़कर अत्यन्त शीघ्र हमारे स्तोत्र कौ ओर
झाओ। इन भइवों की गति प्रशंसनीय है। |
८. अश्विय, तीन दिन और हीन रात सारे वीप्ति-युक्त स्थानों
पर अइव-साहाय्य से दूर से गसन करो।
९. तुम लोग प्रभात-समय में स्तुति फे योग्य हो। हमारे लिए गौ
से युक्त अञ्च और सम्भोग के योग्य धन दो। इन सबके भोग के लिए
सागं दो।
१०. अश्वि-द्वय, हमारे लिए गौ, पुत्र, सुन्दर रथ और अइव से युक्स
घन ले आओ।
११. शोभन पदार्थो के स्वामी, दर्शनीय, हिरण्मय और मार्ग से
युक्त अशिवद्वय, प्रवृद्ध होकर सोममय मधु का पान करो।
१२. अन्न और घन से युक्त अदिवद्दय, हम धनी हैं। हमें चारों ओर
विस्तृत और अहिसनीय गृह प्रदान करो।
१३. तुम लोग मनुष्य के स्तोत्र की रक्षा करो। शीघ्र आओ।
. हुसरे के पास नहीं जामा।
foes Cp सो जक
ध् छ द् इह? 464 8० मच ५७ ६4
१४, स्तुति-योग्य अझ्विद्ठय, तुम हमारा दिया हुआ सबकर, मनोहर
ओर मधुर सोम-भाग का पान करो ।
१५. हमारे लिए सौ ओर हजार प्रकार के एवम् अनेक निवासों से
युक्त तथा सबका धारण करने में समर्थ घन ले आओ।
१६. नेतृ-द्वय, मनीषी लोग अनेक बेशो में तुम्हें बलाते हैं। अइ्िबिद्दय,
बाहक अइव को सहायता से आओ।
१७. हव्य-सम्पन्न्न ओर पर्याप्त कार्य करनेवाले मनुष्य कुश तोडते
हुए तुम्हें बुलाते हें।
१८. अश्विद्वय, हमारा यह स्तोत्र (मन्त्र) सर्वापेक्षा अधिक तुम
रोगों का बाहक होकर तुम्हारा समीपवर्ती हो।
१९. अइिवद्वय, जो मधु-पूर्ण चर्स-पात्र मध्यस्थान में रक्खा हुआ हे,
उससे मधु पान करो।
२०. अन्न से युक्त और धनवान् अइिविद्वय, हमारे पशु, पुत्र और
गोओं के लिए उस रथ से प्रबुद्ध अन्न अनायास ले आओ।
२१. प्रभात-काल में जानने योग्य अश्विद्वय, स्वर्गीय और वाञ्छनीय
जल, हमारे लिए, द्वार से ही सिञ्चित करो।
२२. नेता अश्विय, समुद्र में फेंके जाने पर तुग्र-पुत्र भुज्यु ने स्तुति-
द्वारा कब तुम लोगों की सेवा की थी कि तुम्हारा रथ अइवों के साथ
गया था।
२३. नासत्यष्ठुय, प्रासाद (हम्य) के नीचे असुरों-द्वारा बांधे गये
कण्व को तुम लोगों ने नाना प्रकार की रक्षा प्रदान की थी ।
२४. वषण-परायण और घन से युक्त अश्विदय, जिस समय तुस
छोगों को बुलाता हूं, उस समय उसी अभिनव और प्रशस्य रक्षण के
साथ आओ।
२५. अश्विय, तुस लोगों ने जैसे कण्व, प्रियमेध, उपस्तुत और
स्तोता अत्रि की रक्षा को थो, वेसे ही हमारी रक्षा करो।
हिन्दी-ऋग्वेद ९०७
२६. घन के लिए अंश, गौओं के लिए अगस्त्य और अन्न कै लिए
सौभार की जैसे तुमने रक्षा की थी, बसे ही हमारी रक्षा करो।
२७. वर्षणशील और घन-सम्पन्च अशध्विद्यय, स्तुति करते हुए हम
“एतना” अथवा इससे भी अधिक धन की याचना करते हु
२८. अध्विन््टय, सुचर्ण-निमित सारथि-स्थानवाले और सुवर्णमय
प्रग्रह (लगाम) वाले रथ पर अवस्थान करो।
२९. अश्विद्वय, तुम्हारे प्रापणीय रथ की ईषा (लाङ्गल-दण्ड)
सोने की हें, अक्ष (चक्र-मण्डल) सोने के हें और दोनों चक्र सोने
के है ।
३०. अन्न और धनवाले अशिवद्ठय, इस रथ पर दूर देश से भी आओ।
हमारी इस शोभन स्तुति के पास गमम करो।
३१, अभ्र अद्विवद्वय, वासों की अनेक नगरियों को भरन करते हुए
तुम लोग दूर देश से अन्न ले आओ।
३२. अनेकों के मित्र और सत्य-स्वभाव अधिषद्वय, हमारे पास अन्न
फे साथ आगमन करो। यश के साथ आगमम करो और धन के साथ
आगसन करो।
३३. अधियद्द॒य, स्तिग्ध रूपवारे और पक्षियों की तरह शी पघ्रगामी
अहव तुम्हें सुन्दर यज्ञवाज़े मनुष्य के पास ले जायं ।
३४, जो रथ अश्व के साथ वर्तमान हे और स्सोताओं के द्वारा
प्रशंसित है, तुम्हारा बह रथ सेन्यन्समूह को बाधा नहीं देता ।
३५. सन के समान वेगवान् अश्विद्वय, क्षिप्त पदवाले ओर अश्वो से
युवत हिरण्मय रथ पर चढ़कर आओ ।
३६. वर्षण करनेवाले धन से युक्त अश्विद्वय, तुम लोग सदा जाग-
रूक और अन्वेषणनीय सोम पीनेवाले हो। बही तुम लोग हमें अन्न दो।
३७. अधिवद्वय, तुम लोग अभिनव और सम्भजनीय धन को जानो।
चेदि-वंशीय कश नाम के राजा ने जेसे सो ऊँट और दस हजार यायं दी
थीं; सो सब जानो ।
९०८ हिन्दी-त्रग्वेव
३८. जिन कशु राजा ने मेरी सेवा के लिए सोने के समान चमफने-
घारे दस राजाओं को दिया था, उन फशु के परों के नीचे सारी प्रजा
रहती है ।
३९. जिस मार्ग से ये चेदि-वंशीय जाते हँ, उससे दूसरा कोई नहों
जा सकता। कशु की अपेक्षा अधिकतर वान-परायण और विद्वान् व्यक्ति
स्तोता के लिए दान नहीं करता।
६ सूत्त
(२ अनुवाक । दैवता इन्द्र । शेष की तीन ऋचाओं के तिरिन्दिर
क्योंकि इन ऋचाओं में परशु नाम के राजा के पुत्र तिरिन्दिर के
दान की प्रशंसा की गई है । ऋषि चत्स । छन्द गायत्री ।)
१. जो इन्र पर्जन्य के समान बल में महान् हँ, बह पुत्रतुल्य स्तोता
के स्तोत्र-द्वारा वर्धित होते हें।
२. जिस समय आकाश को पूर्ण करनेवाले अएव यज्ञ की प्रजा इन्त्
को वहुम करते हुँ, उस समय विद्वान् लोग यज्ञ फे प्रापक स्तोत्र-प्रारा
स्तुति करते हुँ।
३. कण्वों ने स्तोत्रत्वारा इन्द्र को यज्ञ-साधक बनाया हुँ; इसी लिए
रोग इन्द्र को आता कहते हूँ।
४. जैसे चादियाँ समुद्र को प्रणाम करती हूँ, वैसे ही समस्त मानव-
प्रजा इन्द्र के क्रोध के भय से इख को स्वयं प्रणाम करती है।
५, जिस बल के द्वारा इख च्ाया-पुथिवी को चसड़े की तरह भली
भाँति रखते है, वह बल दीप्त हुआ था।
६. इन्द्र ने काँपते हुए वृत्र के मस्तक को सौ धारोंवाले और
पराक्रमशाली वज्र के द्वारा छेद डाला।
७. स्तोताओं के आगे हम लोग, अग्नि की दीप्ति की तरह, दीप्यमान
इन स्तोत्रो को बार-बार कहेंगे।
हिन्दी-ऋग्वेद ९०९
८. गुहा में वर्तेमान जो स्तुतियाँ स्वयमेव इन्द्र के पास जाकर दीप्त
होती हे, उन्हें कण्व लोग सोम की धारा से युक्त करें।
९. इन्द्र, हम यौ ओर अइव से युक्त घन प्राप्त करें और दूसरों के
पहले ही, ज्ञान के लिए, अन्न प्राप्त करें।
१०. मेने ही पिता ओर सत्य रूप इन्द्र की कृपा प्राप्त की हुँ। में
सूयं के समान प्रकाशित हुआ हूँ।
११. कण्व की तरह मे नित्य स्तोच-द्वारा वाक्यों को अलंकृत करता
हैं। उस स्तोत्र-द्वारा इसर बळ प्राप्त करते हें।
१२. इन्द्र, जोतुम्हारी स्तुतिनहीं करते और जो ऋषि (सन्त्र-्रष्टा)
तुम्हारी स्तुति करते हें, इन दोनों के बीच मेरी स्तुति भली भाँति स्तुत
होकर वृद्धि प्राप्त करे ।
१३. जिस सभय इन्द्र के क्रोध ने वृत्र को टुकड़े-टुकड़े करते हुए शब्द
किया था, उस समय इन्द्र ने समुद्र के प्रति वृष्टिजल भेजा था।
१४. इन्द्र, तुमने दस्यु शुष्ण के प्रति धारण करने योग्य वज्य्र का
आघात किया था। उग्र इन्द्र, तुम अभीष्टवर्षो हो।
१५. द्युलोक इन्द्र को बल-द्वारा व्याप्त नहीं कर सकते, अन्तरिक्ष
बस्त्रधर इन्द्र को नहीं व्याप्त कर सकते और भूलोक भी इन्द्र को नहीं
व्याप्त कर सकते।
१६. इन्द्र, जिस वत्र ने तुम्हारे महान् जल को अन्तरिक्ष में रोककर
ध्याप्त कर रक्खा था, उस वृत्र को तुमने गति-परायण जल के बीच
सारा था ।
१७. जिस वृत्र ने महती और सङ्गता छावार्पाथवी को दक रखा
था, इन्द्र, उसे तुमने अनादि और अनन्त सरण-लक्षण अन्धकार में घुसा
दिया ।
१८. ओजस्वी इन्द्र, जो यति अद्धिरोगण तुम्हारी स्तुति करते हुँ
और जो भृग् लोग तुम्हारी स्तुति करते हु, उन सबमें मेरा स्तोत्र सुनो।
१९. इन्द्र ये यञ्च-वद्धिका गाये घी और दूध देती हुँ।
९१० हिन्दी-ऋग्वेद
२०. इन्द्र, इन प्रसव करनेवाली गायों ने मुख से तुम्हारे द्वारा प्रदत्त
अञ्च का भक्षण करके सुर्यं के चारों ओर जरू की तरह गर्भ धारण
किया था।
२१. बलाधीश इन्द्र, उक्डन्द्वार कण्व लोग तुम्हें बाद्धत करते हैं
अभिषुत सोमों ने तुम्हें वद्धित किया था।
२२. वज्ञवान् इन्द्र, तुम्हारे पथ-प्रदशेक बनने पर उत्तम स्तुति और
प्रवृद्ध यज्ञ किया जाता हूं ।
२३. इन्द्र, हमारे लिए महान् और गो-युक्त अञ्न की रक्षा करने ओर
वीर्यवान् पुत्र आदि दान करने की इच्छा करो ।
२४. इन्द्र, नहुष राजा की प्रजाओं के सामने शीघगामी ओर अश्व
से युक्त जो बल तुमने प्रदान किया हुँ, हमें उसे दो ।
२५, इन्द्र, तुस प्राज्ञ हो। इस समय निकट से दशनीय गोशाला को
पुणें करो और हमें सुखी करो ।
२६. इन ब्र, बळ के समान आचरण करो। मनुष्यों के राजा बनो।
बल-ट्वारा तुम महान् और अपराजेय हो ।
२७, इन्द्र, तुम बहुत व्यापक हो। हुविवाले लोग, सोम-द्वारा तुम्हें
तृप्त करने के लिए, तुम्हारे पास आकर, स्तुति करते हें।
२८, पत्तों के प्रान्त में, नदियों के सङ्गस-स्थल पर, यञ्ञ-फ्रिया करने
पर मेधावी इन्द्र जन्म ग्रहण करते हे।
२९. सर्वव्यापक इन्द्र, जो संसार में विहार करते हें, बही विद्वान्
इन्द्र ऊवूध्वे-लोक से निम्न मुख से समुद्र को देखते ह।
३०, छुरोक के ऊपर जिस समय इन्द्र वीप्ति प्राप्त करते हूँ, उसी समय
प्राचीन जलू-दाता इग्प्र की निवासप्रद ज्योति का लोग दर्शन करते हे।
३१. इन्द्र, समस्त कण्वगण तुम्हारी बुद्धि ओर बल को बढ़ाते हें।
हे श्रेष्ठ बळी, वे तुम्हारे वीर-कर्म का भी वद्धन करते हे ।
३२. इन्द्र, तुस हमारी इस सुन्दर स्तुति को सेवा करी। हमें भली
भाँति बचाओ। हमारी बुद्धि को प्रबद्धित करो ।
हिन्वी-ऋम्येव ९११
३३. प्रवृद्ध और घजाधर इन्द्र, हम मेधावी हैं। जीवन फे निमित्त
तुम्हारे लिए हमने स्तोत्र किया था।
३४. कण्ष लोग स्तुति करते हँ। निम्नाभिभुख गसनशील जलो की
तरह रमणी स्तुति स्वयं इन्द्र की सेवा के उपयुक्त हो जाती है।
३५. जसे नदियां समुद्र को बढ़ाती हैँ, बेसे ही सन्त्र इन्द्र को बढ़ासे
हँ। इर अजर हँ। उनके कोप का निवारण कोई नहीं कर सकता।
३६. इन्द्र, सुन्दर रथ पर चढ़कर दूर वेश से हमारे पास आओ।
अभिषुत सोम का पान करो।
३७. सबकी अपेक्षा अधिक झत्रु-संहारक इन्द्र, जो छोग कुश काठले
हें, वे अन्न-प्राप्ति के लिए तुम्हें बुछाते हें।
३८. इन्द्र, जसे रथ-चक्र अइव का अनुगमन करते हे, वैसे ही द्यावा-
पृथिवी तुम्हारा अनुगमन करती है। अभिषुत सोम भी तुम्हारा भमुवर्तम
करते हे।
३९. इग्प्र, शर्यणादेश (कुरुक्षेत्र फे समीप) के तड़ाग के पास समस्त
ऋत्विकों के द्वारा आरब्ध यज्ञ में तृप्त होओ। सेवक को स्तुति प्ले
आनन्द छो।
४०' प्रवृद्ध, काम-वर्षक, वष्य्रवान्, अतीव सोम-पाता ओर वत्रष्म
इन्द्र धुलोक के पास बोलते हैं।
४१. दुख, तुम पूर्वोत्पन्ष ऋषि हो। अद्वितीय बल-हारा तुम सारे
देवों के स्वामी हुए हो। तुम बार-बार घन दो।
४२. प्रशस्त पृष्ठवाले सो अध्व, हमारे अभिषुत सोम और अन्न कै
लिए, तुम्हें ले आवें ।
४३. उक्थ (मन्त्र) द्वारा कण्व लोग पूर्वजों द्वारा कुत ओर मघुर
जल की घद्धयित्री पाग-फ्रिया को अढ़ाबे।
४४, देवगण विशेष कूप से महान् हूँ। उनके बीच इन्द्र को ही, मनुष्य
लोग, धनेच्छु होकर, रक्षण के लिए, यरण करते हूँ ।
९१९ हिन्दी-प्रद्ग्वेद
४५. अनेकों द्वारा स्तुत इन्द्र, यञ्च-प्रिय ऋषियों-द्वारा स्तुत दो
इव, सोम पान के लिए, तुम्हें हमारे सामने ले आचें।
४६. यवृओं में परशु के पुत्र तिरिन्दिर फे निकट सो और सहस्र धन
मैंने ग्रहण किये हें ।
४७. तिरिन्दिर राजाओं नें पजा और साम फो तीन सो अश्व और
इस सो गार्ये दी थीं।
४८. तिरिन्दिर राजा ने, उन्नत होकर, घार स्वर्ण-भारों से युक्त
ऊटों को देते हुए यदुओं को दास रूप से देते हुए कोत के द्वारा स्व
को व्याप्त किया था।
७ सुक्त
(देवता मर्दूगण । ऋषि कण्वगोत्रीय वत्स । छन्द गायत्री |)
१. मरुतो, जिस समय विद्वान् व्यक्ति तीनों सवनों में (सोम-रुप)
प्रशस्त अन्न (अग्नि में) फंकते हु, उस समय तुम लोग पर्वतों में वीप्ति
पाते हो।
२. बलाभिलाषी और शोभन मरुतो, जिस समय तुम लोग रथ को
क्इव-द्वारा जोतते हो, उस समय पदेत भी चलने (काँपने) लगते हें।
३. शब्दकर्ता और पिन के पुत्र मरुदूगण (वायु के चालक
धैवता) वायुओं के द्वारा मंघादि को ऊपर उठाते और वृद्धिकर अन्न
धान करते हूं ।
४. जिस समय मरुद्गण, वायुओं के साथ, जाते हैं, उस समय बे
धर्षा गिराते और पर्वतों को कंपाते हैं ।
५. घुम्हारे रथ के लिए पर्वतो की गति नियत हूँ। नदियाँ रक्षा और
महान् बल के लिए, तुम्हारे गमन के अर्थ, नियत हे ।
६. हुम तुम्हें, रात्रि को रक्षा के लिए बुळाते हें, दिन में भी तुम्हें
घुलाते हे ओर यज्ञ आरम्भ होने पर तुम्हें बुलाते है।
हिन्दी-ऋग्वेद ९१३
७. वे ही अरुण वर्णवाले, आइचर्य-भूत (विचित्र) और शब्दकर्ता
शरुट्गण रथ के द्वारा लोक कै अपर, अग्र भाग से, जाते हैं ।
८. जो मदद्गज सूर्यं के गमन के लिए किरणयुषत मागे का सूजन
करते हँ, जे तेज के हारा अवस्थिति करते हें ।
९. मर्तो, मेरे इस वाकय का आश्रयण करो। हे महान् मर्तो, इस
स्तोत्र का आश्रय करो। मेरे इस आह्वान की सेवा करो।
१०, पृदिनयों ने (मरुतों को माताओं ने) बज्ग्री इन्द्र के लिए
मधुर सोमरस को उत्स (निर), कबन्ध (जल) और अद्रि (मेघ)--
इन तीन सरीवरों से दृटा था।
११. मणो, जिस समय अपने सुखाभिलाष के लिए हुम स्वगे से
तुम्हें बुलाते है, उस समय शीघ्र ही हमारे पास आओ।
१२. सुन्दर दान में परायण और महातेजस्वी सद्र-पुत्रो, तुम लोग
पत्ष-गह में मदकर सोम पीने पर उत्तम ज्ञान से युक्त हो जाते हो।
१३. मरुतो, स्वर्गे से हमारे लिए मद-ख्रावी, बहु-निवासरदाता और
सबका भरण करने में समर्थं धन छे आओ।
१४. शुक्र मरुतो, जिस समय तुम रोग पर्वत के ऊपर अपना यान
ले जाते हो, उस समय अभिषुत सोम के बल से प्रमत्त होते हो।
१५. स्तोता स्तोत्रों-के द्वारा अहिसनीय मयतों के पास अपने सुख
के लिए भिक्षा मांगता हेत
१६. मरुत् रोग अक्षीण मेघ का दोहन करते हुए, जल-बिन्दु की
तरह, यृष्टि-दारा द्ावा-पुथिवी को अळी भाँति व्याप्त करते हुँ।
१७. पू्िन के पुत्र भरत् लोग शाब्द करते हुए अपर जाते हें। रथ-
दारा ऊपर जाते हें । वायु-द्रारा ऊपर जाते हु। मन्त्र-द्वारा अपर
जाते ६1
१८. जिस रक्षण के द्वारा यदू ओर तुर्वेश की तुम लोगों ने रक्षा की
थी ओर जिसके द्वारा धनाभिलायी कण्व को रक्षा की है, धन के लिए हम
उसका ही ध्यान करते हें।
फा० ५४
९१४ हिन्दी-क्ग्चव
१९. उत्तम दान वेनेयाले मर्तो, घत के समान शरीर को पुष्ट
करनेवाले इस अन्न को, कण्व गनोतन्स्वोन के समान, वषित
करो।
२०. सस्तो, तुम इज-एशादण हो। तुम्हारे लिए कुश काट गय हें
इस समय तुम लोग कहां सत्त हो रहे हो ? कोन स्तोता तुम्हारी सेवा
करता हे?
२१. हे प्रवृत्त-यज्ञ मर्तो, तुम लोग जो पूर्व ही दूसरों फे द्वारा
किये गये स्तोत्रों से यज्ञ-सम्बन्धी अपने बलों को प्रसन्न करते हो, वह
ठीक नहीं हे।
२२. उन मरुतों ने ओषधियो के साथ जल को मिलाया था, द्यावा-
पृथिवी को उनके स्थानों पर अवस्थित किया था और सूर्य को स्थापित
किया था। उन्होंने यत्र के प्रत्येक अङ्ग को काटने के लिए वच्च धारण
किया था।
२३. अराजक और वीर्य के समान बल बढ़ानेवाले मरुदगण ने पर्वत
की तरह वृत्र को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था।
२४. मरुद्गण ने योद्धा त्रित के बल की रक्षा को थी, त्रित के कर्म
की रक्षा की थी और वृत्र-वध के लिए इन्द्र की रक्षा की थी।॥
२५. आयध-हस्त, दीप्तिमान् और शोभन मरुत् लोग, शोभा के लिए
मस्तक पर सोने का शिरस्त्राण (शिफ्र) धारण किया था।
२६. मरुतो, स्तोताओं की इच्छा करके अभीष्टवर्षी रथ के बीच
दूर देश से तुम लोग आये थे। उस समय युलोकवर्सी जनता के समान
पृथिवी के प्राणी भी वेग से कांप गये थे।
२७. देवता लोग (मरुत् लोग) यञ्च के दान के लिए सोने के परों-
वाले अश्वो पर चढ़कर आवें।
२८. इन मरुतों के रथ पर जिस समय श्वेत बिन्दुओंवाली मृगी
और शीघ्रगामी रोहित मुग प्राप्त होते हैं, उस समय शोभन मरंदुगण
जाते और जल प्रवाहित होता हें ।
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२९. नेता मएुद्गण शोभन सोमचाले और यञ्ञ-गुह से संयुक्त हूँ।
वे ऋजी का देश के शर्यणा नामक सरोवर (कूरकषेत्र के निकटस्थ) में
रथच को निम्ममुख करके जाते हुँ।
३०. सरतो, कब तुस लोग इस प्रकार से आह्वान करनेवाले और
घाचक मेघावी (विप्र) स्तोता के पास सुख-हेतु धन के साथ आओगे ?
३१. तुम लोग स्तुति से प्रसन्न होते हो। तुस लोगों ने इन्द्र का कब
परित्याग किया था? तुम्हारी मित्रता के लिए किसने प्रार्थना की थी ?
३२. कण्वगण, वज्य्रहस्त और सोने फे तक्षण करनेवाले आयुध
(काष्ठादि को चिकना करनेवाले यन्त्र) से युवत सस्ता फे साथ अग्नि की
स्तुति करो।
३३. में वर्षक, यजनीय ओर विचित्र बलवाले मरुतों को, सुख-लभ्य
धन के लिए, आर्वात्तत (र्घाणत या द्रवीभूत) करता हूं।
३४. सारे गिरि पीडित वा आघात-प्राप्त ओर बाधा-प्राप्त होने पर
भी अपने स्थान से अष्ट नहीं होते। पर्वत (मेघ) भी नियत ही
रहते हें ।
३५. बहुदूर-व्यापक गमन करनेवाले अश्व आकाशन-मागे से जाते हुए
भरुतों को ले आते हैं। वे स्तोता को अन्न देते हें ।
३६. तेजोबर से अग्निदेव ने, स्तवनीय सूर्य की तरह, सबके मुख्य
होकर जन्म ग्रहण किया है। मस्दूगण दीप्ति-बल से नाना स्थानों में
रहते हूं ।
८ सूक्त
(देवता अश्विद्यय | ऋषि कण्वगोत्रज सध्वंसाख्य । छन्द अुष्टुप् ।)
१, अहिवद्वय, तुम लोग दर्शनीय हो। तुम्हारा रथ सोने का हू। सारे
रक्षणों के साथ आगमन करो। सोममय मधू का पान करो।
२. अहिवद्वय, तुम लोग भोषता हो, हिरण्मय शरीरवाले हो, ऋन्त-
फर्मा (कथि) हो और प्रशस्त ज्ञानवाले हो। सूर्यं के समान भासमान
रथ पर चढ़कर अवश्य हमारे पास आओ।
९१६ हिन्दी-ऋग्वेद
३. अश्विद्यय, निर्दोष स्तुति-द्वारा अन्तरिक्ष से सनृष्य-लोक की ओर
आओ ओर कण्ववंशीयों के यज्ञ में अभिषुत सोम का पान करो।
४. कथ्य ऋषि के पुत्र इस यज्ञ में तुम्हारे लिए सोमसय मधु का
अभिषव करते हुँ; इसलिए हे अश्विद्वय, इस लोक के प्रति प्रसन्न होफर
लुम लोग युलोक और अन्तरिक्ष से आओ।
५. अश्विद्ठय, सोसपान के लिए हमारे स्वुतिवाले इस वञ्च में आओ।
वर्धेक, कवि और नेता अश्विद्ठय, अपनी बुद्धि और कर्म से स्तोता को
वृद्धि दो।
६. नेता अश्विद्वय, प्राचीन समय में ऋषियों ने जब तुम्हें, रक्षा के
लिए, बुलाया, तब तुम आये थे। इसलिए मेरी इस सुन्दर स्तुति के
पास आओ।
७. सूथ के ज्ञाता अहिवद्वय, तुम लोग दुळोक और अन्तरिक्ष से हमारे
पास आओ। स्तोता के प्रति प्रकृष्ट ज्ञानवाले अश्विद्यय, बुद्धि के साथ
तुम आओ। आह्वान सुननेवाले, अदिवद्दय, स्तोत्र के साथ तुम
आओ ।
८. मुझसे अतिरिक्त दूसरा कौन स्तोत्र-द्वारा अडिवद्वय की उपासना
कर सफता हूँ ? कण्व के पुत्र वत्स ऋषि स्तुति-द्वारा तुम्हें वद्धित करते
है।
९. अश्विद्ठय, इस यञ्च में स्तोता (विप्र) ने रक्षण के लिए स्तुति-
द्वारा तुम्हें बुलाया हँ। हे निष्पाप और शत्रु-घातकों में श्रेष्ठ अध्विद्दय,
तुम हमारे लिए सुखदाता होओ।
१०. धन और अञ्च से युवत अशिवद्वय, योषित् (सूर्या) तुम्हारे रथ
पर चढ़ी थो। अझ्विट्ठय, तुम लोग समस्त अभिलषित पदार्थ प्राप्त
करो ।
११. अश्विद्ठ य, तुम लोग जिन लोकों में हो, वहाँ से अनेक रूपोवाले
रथ पर चढ़कर आओ। काव्य (कवि के पुत्र) और कवि (मेघावी) वत्स
ऋषि ने मधुसय वाक्य का उच्चारण किया हैँ ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९१७
१२. बहु-मद-यृष्त, धन-दाता और जगद्वाहक अश्विद्ठय, मेरे इस
स्तोत्र की प्रशंसा करो ।
३. अश्विद्वव, हमारे लिए अलज्जाकारक सारा धन दो। हमें प्रजो-
त्पादन-रूप कर्मवाले करो। हमें निन्दको के वशीभूत नहीं करना।
१४. सत्य स्वभाव अधिदनीकुमारो, तुम चाहे दूर रहो अथवा पास
में रहो, चाहे जिस स्थान में रहो, सहल्ल रूपोंवाले रथ से आगमन करो।
१५. नःसत्यनद्व जिन वत्स ऋषि ने स्तुति-द्वारा तुम्हें वरद्धित किया
हुँ, उनके लिए सहस्र रूपोंबाला और घी चुलानेवाला अन्न दो।
१६. अश्विद्यय, उन स्तोता के लिए तुम घृत-धारा से युक्त और
बलिष्ठ अन्न प्रदान करो। दानाधिपतियो, इन्होंने तुम लोगों के सुख
के लिए स्तुति की थी। यह अपने लिए घन की इच्छा करते हुँ।
१७. रिपु-भक्षक और बहुत हवि के खानेवाले नेता अश्विद्वय, तुम
लोग हमारी स्तुति की ओर आओ और हमें शोभन सम्पदा से युक्त करो
तथा पाथिव पदार्थ प्रदान करो।
१८. प्रियमेध नामक ऋषियों ने देवों के आह्वान के समय तम्हें
सारे संरक्षणों के साथ, बुलाया था। तुस लोग यज्ञ में शोभा पाओ।
१९, सुखदाता, आरोग्यप्रद ओर स्तुति-योग्य अश्विद्वय, जिन वत्स
ऋषि ने स्तुति-द्वारा तुम्हें बाद्धित किया है, उनके सामने आओ।
२०. जिन संरक्षणों से तुमने कण्य, मेधातिथि, वश, दशब्रज और
गोशर्य की तुमने रक्षा फो थी, नेता अझ्विद्वय, उनके द्वारा हमारी रक्षा
करो । |
२१. नेता अशिवद्य, जिन रक्षणों से प्राप्तव्य धन के लिए, तुमने
त्रसदस्यु की रक्षा की थी, उन्हीं के द्वारा हमें, अञ्न-लाभ के लिए, भली
भाँति बचाओ।
२२. बहु-रक्षक और शत्रु-नाशकों में श्रेष्ठ अशिवद्वय, दोष-शून्य
स्तोत्र ओर वाक्य तुम्हें वाद्धित करें। हमारे लिए तुम लोग बहु-विध
अभिलषणीय होओ।
९१८ हिन्दी-त्रटग्वेद
२३. अश्विद्व॥ का तीन चछोंचाला रथ अदृश्य (गहा में) रहफर
पीछे प्रकट होता हुँ। फ्रान्तदर्शी अश्विद्वव, यज्ञ के फारण-भूत रथ के
हारा हमारे सामने आओ।
. सक्त
(देवता अ्रश्चिट्टय । ऋषि शशकण । छन्द गायत्री, बहती,
ककुप, त्रिप्टुप , विराट , जगती और अनुष्टुप् ।)
१. अइ्विद्वय, वत्स ऋषि को रक्षा के लिए तुम लोग अवश्य ही गये
थे। इन ऋषि को बाधा-शुन्य और विस्तीर्ण गृह प्रदान करो। उनके
झकश्नुओं को दूर कर दो।
२. अहिवद्ृय, जो घन अन्तरिक्ष ओर स्वर्ग में वर्तमान हु और जो
पञ्चश्रेणी (चार वर्ण ओर निषाद) में हुँ, वही धब प्रदान करो ।
३. अश्विद्दय, जिन विप्र (मेघावी स्तोता) ने तुम लोगों फे कर्मों
(स्तेवाओं) फा बार-बार अनुष्ठान किया हैं, उन्हें जानो। फलतः कण्व-
पुत्रों के कामों को समको ।
४, अद्षिष्टय) तुम्हारा धर्म (हवि का याशिक कडाहा) स्तोत्र-द्वारा
आई किया जाता हैँ। अज और धनयारे अइिवद्वय, जिस सोस के हारा
तुमने बच को जॉन था, यह भधुमान् सोम यही है ।
५. विषिध-कर्मा अश्विद्वय, जल, यबस्पति और ओषधियों (लतादि)
में जो तुमने भेषज किया हें, उसके द्वारा हमारी रक्षा करो।
६. सत्य-स्वभाव देवो, लुम रोगों ने जगत् का परिपोषण किया हुँ
आर सबको नीरोग बनाया है। स्तुति से वत्स ऋषि तुम्हें नहीं प्राप्त
करते। तुम लोग हुविवालों के पास जाते हो।
७. यत्स ऋषि (इस सुक्त फे वक्ता) ने उत्तम बुद्धि फे द्वारा अहिवद्वय
के स्तोत्र को जानां था। यत्स (में) ने अतीव भधुर सोम और घर्मे
(हर्विवशेष) को, अथर्वा द्वारा मथित अग्नि में फेंका था ।
कु... a, ress Be (१)
हरीष ९१९
८, अड्विद्वय, तुम लोग शीघ्रयाली रथ पर चढ़ो। मेरे थे स्तोत्र
सुर्य की तरह तेजस्वी तुम्हारे साधने जाते हुँ। म
९. सत्यस्वभाव अश्विद्य, आज सन्त्रो-द्वारा तुम्हें हम जैसे ले आते
है और जेसे वाणी (स्तोत्र) के द्वारः तुम्हें हम ले आते है, वैसे ही कण्वपुत्र
के (मेरे) स्तोत्रों को जानो ।
१०. अश्विद्वय, कक्षीवान् ऋषि ने जैसे तुम्हें बुलाया था और जैसे
व्यश्व तथा दीघतमा ऋषियों ने एवम् बेन राजा के पुत्र पृथी ने जैसे
यञ्च-गृह में तुम्हें बुछाया था, दैसे हो में स्तुति करता हूँ मेरे इस स्तोत्र
को जानो ।
११. अदिवद्वय, तुम लोग गुह-पालक होकर आओ। तुम लोग अतीब
पोषक हो। तुम संसार और शरीर के पालक होओ। पुत्र ओर पोत्र के
गृह में आओ ।
१२. अश्विद्य, यदि तुम लोग इन्द्र के साथ एक रथ पर जाते हो,
यदि वायु के साथ एफ स्थानवासी हो, यदि अदिति के पुत्र ऋतु आहि
के साथ प्रसन्न हो और यदि विष्णु फे पाद-क्षेप के साथ तीनों लोकों में
अवस्थान करते हो, सो आओ।
१३. जिस समय सें संग्राम के लिए अश्विद्दय को बुलाता हूँ, उस
समय वे आरे । शत्रुओं के मारने में अश्विद्वय का जो विजयी रक्षण हुँ,
बही श्रेष्ठ हुं ।
१४. अध्विद्य, ये हष्य तुम्हारे लिए बनाये गये हें। तुम लोग अवश्य
भाओ । यह सोम तुर्व और यड में बत्तेमान है। यह तुम्हारे लिए संस्कृत
हे और कण्व-पुत्रो को दिया गया हु ।
१५. नासत्य (सत्य-स्वभाव) अश्विद्वय, दुर अथवा निकट में जो भेषज
हुँ, उसके साथ, हे प्रकृष्ट ज्ञानवाले अहिवद्॑य, बिद के समाम वस्स को
भी गहू प्रदान करो।
९२० ईहुन्दी-नद्येद
१६. अव्विद्यय-सम्बन्धी और प्रकाशमान स्तीच के साथ में जागा
हैँ । युतिमती उषा, मेरी स्तुति से अन्धकार दुर करो ओर मनुष्यों को
घन दो।
१७. देवी, सुन्दर-नेत्रा और महती उषा, अश्विद्ठय फो जगाओ
और वर्डित करो। हे सेळाइवासः, अझिविद्वय को सतत प्रबोधित करो।
उनके आनन्द के लिए बृहद अन्न (सोम) प्रस्तुत हुआ है।
१८. उषा, जिस समथ तुम दीप्ति के साथ जाती हो, उस समय
सूर्य के समान शोभा पाती हो। उस समय अश्विद्वय फा यह रथ मनुष्यों
के पोषणीय यज्ञ-गृह में आता है।
९. जिस समय पीत-वर्ण सोघलूता को गाय फे स्तन की तरह इूहा
जाता हं ओर जिस समय देव-फामी लोक स्तुति करते हैं, उस समय,
है अशिवद्वय, रक्षा करो।
२०. प्रकृष्ट ज्ञानवाले अशिवद्वय, तुस लोग घन के लिए हमारी रक्षा
करो। बल के लिए रक्षा करो। मनुष्यों के उपभोग्य सुख फे लिए तथा
समृद्धि के लिए हमारी रक्षा करो।
२१. अश्विद्वय, यदि तुम लोग पित्-लुल्य यलोक को गोद में, कर्म
कै साथ, बठे हो और यदि, प्रशंसनीय होकर, सुख के साथ, निवास करते
हो, तो हमारे पास आओ।
१० सूक्त
(देवता अश्चिद्ठय । ऋषि कश्व-पुत्र प्रगाथः। छन्द् ब्रहती, जिप्टप
अनुष्टुप् आर सूतोटडती ।)
१. अश्विद्ठय, जिस लोक में प्रशस्त यज्ञ-गुह हुँ, यदि उस लोक में
रहते हो, यदि उस युलोक के दीप्तिमान् प्रदेश में रहते हो और यदि
अन्तरिक्ष में निमित गृह में रहते हो, तो इन सब स्थानों से आओ।
२. अशिवद्वय, तुम लोगों ने जसे मन् (प्रजापति यजसान) के लिए
यज्ञ को सिक्त किया था, बैसे हो कण्व-पुत्र के यज्ञ को जानो। मे बृहस्पति,
हिन्दी-ऋष्वेद ९२१
समस्त देवों, इन्द्र, विष्णु और शीघ्रगामी अइवौंवाले अहिवद्य कौ
बुलाता हूँ ।
३. अदिव्य शोभमकर्मा हैं। वे हमारे हविष्य के स्वीकार के लिए
प्रकट हुए हुँ। में उन्हें बुलाता हूँ। अश्विद्ठय का सख्य देवों में उत्कृष्ठ
और सहज-लभ्य है।
४. जिन अध्विमीकुमारों के ऊपर ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ प्रभु होते
हैं और स्तोतृ-शन्य देश में भी जिनके स्तोता हँ, वे हिसा-रहित यज्ञ के
प्रकृष्ट ज्ञाता हैं। वे स्वधा (बलकारण स्तुति) के साथ सोममय मधु का
पान करें।
६. अज्ञ और धनवाले अश्विद्ठय, इस समय तुम लोग पूर्व विशा
अथवा पश्चिम दिशा में हो अथवा ब्रह्म, अनु, तुर्वेश ओर यढु के पास
हो, मै तुम्हें बुलाता हूँ; मेरे पास आओ।
६. बहुत हवि का भक्षण करनेवाले अश्विद्वय, यदि अन्तरिक्ष में जा
रहे हो, यदि छावाएथिदी के अभिमुख जा रहे हो और यदि तेजोबल से
रथ पर बेठ रहे हो, तो इन सभी स्थानों से आओ।
११ सूक्त
(देवता अग्नि | ऋषि वत्स । छन्द गायत्री ओर त्रिष्टुप् |)
१. अग्निदेव, मनुष्यों में तुम कर्म-रक्षक हो; इसलिए यज्ञ में तुंग
स्तुत्य हो ।
२. शन्नु-पराजय-कारी अग्नि, तुम यज्ञ में प्रशस्य हो और यज्ञों ६
सेता हो।
३. उत्पन्न पदार्थो के ज्ञाता (जात-बेदा) अग्नि, हमारे शत्रुओं को
अलग करो। अग्नि, तुम देव-ट्रेयी शत्रु-सन्य को अलग करो।
४. जातवेदा अग्नि, समीपस्थ रहने पर भी तुम शत्रु के यज्ञ की कभी
कामना महीं करते।
हिन्दी-प्दन्वेद
नव पर
५. हम चिप्र हें और तुम अमर जातवेदा (उताज्-वस्त-ज ) हो।
हम तुम्हारा विस्तृत स्तोत्र करेंगे।
६- हम विप्र और मनुष्य हेँ। हम विप्र (मेघावी) अग्निदेव को, ह्व्य
के द्वारा प्रसन्न करने फे लिए, अपनी रक्षा के निमित्त, स्तृतिलद्वारा
बुलाते हें।
७. अग्नि, उत्तम वासस्थान से भी वत्स ऋषि तुम्हारे मन को खींजते
हैं। उनकी स्तुति धुम्हारी कामना करती है।
८. तुम अनेक देशों में समान रूप से द्रष्टा हो। फलतः सारी प्रजा
के तुम स्वामी हो। युद्ध में तुम्हें हम बुलाया करते है ।
९. अच्चाभिलाषी होकर युद्ध में, रक्षा के लिए, हम अग्नि को बुलाते
हैं। संग्राम में अग्नि विचित्र धन से युक्त होते हैं।
१०. अग्नि, तुम यज्ञ में पूज्य और प्राचीन हो। तुम चिरकाल से
होता और स्तुत्य हो। यज्ञ में बंठते हो। अपने शरीर को हवि से तृप्त
करो। हुमं भी सौभाग्य प्रदान करो।
अष्टम अध्याय समाप्त ।
पञ्चम अष्टक ससाप्त।
६ आष्टक
९२ सूत
(८ मण्डल । १ अध्याय । २ अनुवाक । दैवता इन्द्र ।
ऋषि कण्वगोत्रीय पवत । छन्द उष्णिक् |)
१. इन्द्र, तुम अत्यन्त सोम का पान करनेवाले हो। बलवानों में
श्रेष्ठ इन्द्र, सोमपान-जनिध मद से प्रसन्न होकर तुम अपने कार्यो को
भली भाँति जानते हो। घुम जैसे सोम-जन्य मद से राक्षसों को मारते
हो, वेसे ही मद से युक्त होने पर तुमसे हुम याचना करते हूँ।
२. तुमने सोम के जिस प्रकार के मद से युक्त होकर अंगिरोषोब्रीय
अध्रिगु को और अन्धकार-विनाशक तथा सबके नेता छूर्य को बचाया
था ओर जैसे मद से युक्त होकर तुमने समुद्र (वा अन्तरिक्ष) को बचाया
भा, बैसे ही मद से सम्पन्न होने पर हम तुमसे (धन की) याचना
रसे हें।
३. जैसे सोमपान-जन्य मद फे कारण (रथी के) रथ फे समान
प्रचुर वष्टि-अल को तुम समुद्र की ओर भेजते हो, तुम्हारे बैसे ही मद
` से युक्त होने पर हम, यागपथ की प्राप्ति फे लिए, याचना करते हें।
४. बच्ची इन्द्र, जिस स्तोत्र से स्तुत होकर तुम अपने बल से तुरत
हमारा मनोरथ पूर्ण करते हो, असीष्ट-प्राप्ति के लिए धृत कै समान उसी
पवित्र स्तोत्र को जानो (ग्रहण करो) ।
५. स्तुति-द्वारा आराथनीय इन्द्र, इस स्तोत्र को ग्रहण करो। वह स्तोत्र
समुद्र के समान बढ्ता है । इन्द्र, उस स्तोत्र से तुम सारी रक्षाओं के साथ
हमें कल्याण देते हो।
९२२
९२४ हिन्दी-ऋण्वेद
६. दूर दैश से आकर इन्दर ने हमारी मैत्री के लिए धन दिया है।
इन्द्र, घुलोक से वृष्टि के समान हमारे घन का विस्तार करते हुए तुम
हुमे श्रेय देने की इच्छा करते हो।
७. जब इन्द्र सबके प्रेरफ आदित्य के समान द्यावापृथिवी को वृष्टि
आदि से बढ़ाते है, तब इष्द्र की पताकायें और इन्द्र के हाथों में अवस्थित
ब्ध हमें कल्याण देते हें।
८. प्रवृद्ध और अनुष्ठाताओं के रक्षक इन्द्र, जिस समय तुमने सहस्र-
संख्यक वृत्र आदि असुरों का वध किया, उसके अनन्तर ही तुम्हारा
महान् बल भलो भाँति बढ़ा।
९. जेसे आग (दावानल) बनों को जलाती हूँ, वैसे ही इन्द्र सूर्य
की किरणों के द्वारा बाधक शत्रु को जलाते हुँ। शत्रुओं को दबानेवाले
हुस््र भली भाँति बढ़ते हँ।
१०. भेरी यह स्तुति तुम्हारे पास जाती है। बह स्तुति घसम्त आदिं
में किये जाने योग्य यज्ञ-कार्यवाली, अतीव अभिनव, पुजक और बहुत ही
प्रसञ्चताकारक है।
११. स्तोता इन्द्र के यज्ञ का कर्ता है। यह इख्न के पान के लिए
अनुषङ्गी सोम को "दशापदित्र” से पवित्र करता हैँ। षह स्तोत्र-दवारा
इन्त्र को वद्धित करता है और स्तोत्रो से इन्द्र के गणों की सीमां
बांधता हें।
१२. मित्र स्तोता के लिए दाता इन्त्र ने गुण-गान करनेवाले अभिषव-
कर्ता के वाक्य की तरह धन-वान के लिए अपने शरीर को बढ़ा लिया।
यह स्लुत वाक्य इन्द्र के गुणों की सीमा करता हे।
१३. विप्र अथवा मेधावी और स्तोत्र-वाहक मनुष्य जिन इन्द्र को
भली भाँति प्रमत्त करते हें, इन इन्द्र के मुख में घृत के समान यज्ञ का
हव्य सिक्त करूंगा ।
१४. अदिति ने स्वर्यं शोभमान (स्वराट्) इन्द्र के लिए, रक्षा के
निमित्त, अनेकों के द्वारा प्रशसित सत्य-सम्बन्धी स्तोत्र को उत्पन्न किया।
हिन्दी-ऋग्वेद ९२५
१५. यज्ञ-बाहुक ऋत्विक लोग रक्षा और प्रशंसा के लिए इन्र की
स्तुति करते हँ। देव इन्र, इस समय विविध-कर्मा हरि नामक दोनों
अशव, यज्ञ में जो हे, उसके लिए तुम्हें वहन करते हैं।
१६. है इन्द्र, विष्णु, आप्तत्रित (रार्जाष) अथवा मरुतों के आने प्र
दूसरों के यज्ञ में उनके साथ सोम पीकर प्रमत्त होते हो, तथापि हमारै
सोम से भली भाँति प्रमत्त होओ। |
१७. इन्द्र, यद्यपि दूर देश मे द्रवशील सोमपान से प्रमत्त होते हो,
तथापि हमारा सोम प्रस्तुत होने पर उसके साथ भली भाँति रमण करो।
१८. सत्यपालक इन्द्र, तुम सोमाभिपव-कर्स यजमान के वद्धेक
हो। तुम जिस यजमान के उकथ मन्त्र से प्रसन्न होते हो, उसके सोम से
पस्त होओ।
१९. ऋत्विको, तुम्हारे रक्षण के लिए जिन इन्द्र की में स्तुति करता
हैं, उन्हीं इन्द्र को मेरी स्तुतियाँ, शीघ्र भजन और यज्ञ के लिए, व्याप्त
कर् । |
२०. हव्य, स्तुति ओर सोम-द्वारा यज्ञ में लाने योग्य और सबसे
अधिक सोम पान करनेवाले इन्द्र को स्तोता लोग बात और व्याप्त
करते हैं। | |
२१. इन्द्र का धन-प्रदान प्रचुर हे, इन्द्र की कीत्ति बहुत है। बे
हुव्यदाता यजमान के लिए सारा धन व्याप्त करते हुँ। '
२२. पृत्र-वध के लिए देवों ने इन्द्र को (स्वामि-रूप से) धारण
किया था। समीचीन बल के लिए स्तुति-वचन इन्द्र का स्तव करते हँ।
२३. महिमा में महान् और आह्वान सुननेवाले इख की स्तोत्र-द्वारा
झोर पुजा-मन्त्र-द्वारा, समीचीन बल की प्राप्ति के लिए, बार-बार स्तुति
करते हुँ। | ह
२४. जिन वज्यधर इन्द्र को द्ादापणिदी और अन्तरिक्ष अपने पास
से अलग नहीं कर सकते, उन्हीं इन्द्र के बल से बल लेने के लिए संसार
प्रदीप्त होता हे।
९३६ हिन्दी-ऋग्वेद
२५. इम््र, जिस समय युद्ध में देवों ने तुम्हें सम्मुख धारण किया
था, उसी समय कमनीय हरि नामक अइवों ने तुम्हें बहन किया था। |
२६. वज्यधर इन्द्र, जिस समय तुमने जळ को रोकनेवाले वृत्र को
बल के द्वारा मारा था, उसी समय फमनीय हरि तुम्हें छे आये थे।
२७. जिस समय तुम्हारे (अनुज) विष्णु ने अपने तीन पेरों से तीनों
लोकों को (वामनावतार में) नापा था, उसी समय तुम्हें दोनों कमनीय
हरि फे आये थे।
२८. इन्द्र, जब तुम्हारे दोनों कमनीय हरि प्रतिदिन बढ़ें थे, उसके
बाद ही तुम्हारे द्वारा सारा संसार नियमित होता हे।
२९. इन्द्र, जिस समय तुम्हारी सरुदूरूप प्रजा सारे भूतो को नियमित
करती हु, उसी समय तुम सारे संसार को नियमित करते हो।
३०. इन्द्र, जिस समय इन निर्सल-ज्योति सूर्यं को तुम चुलोक में
स्थापित करते हो, उसी समय तुम सारा संसार नियमित करते हो।
३१. इन्द्र, जसे लोग संसार में अपने बन्धु को उच्च स्थान में छे
जाते हैँ, बसे ही मेधावी स्तोता इस प्रसन्नता-दायक सुन्दर स्तुति को,
परिचर्य्या के साथ, यज्ञ में तुम्हारे पास ले जाता हूँ।
३२. यज्ञ में इन्द्र के तेज के प्रीत होने पर एकत्र स्तोता लोग जिस
समय उत्तम रोति से स्तुति करते हे, उस समय इन्द्र, नाभि-स्वरूप यज्ञ
के अभिषव-स्थान (वेदी) पर धन दो।
३३. इन्द्र, उत्तम वीयं, उत्तम गो ओर उत्तम अव से युक्त धन
हमे दो। मेने प्रथम ही ज्ञान-लाभ के लिए होता की तरह यज्ञ में स्तव
किया था।
१२ सूक्त
(३ अनुवाक । देवता इन्द्र । ऋषि कण्वगोत्रीय नारद् |
छुन्द् उष्णिक् ।)
१. सोम के प्रस्तुत होने पर इन्द्र यज्ञ-कर्ता और स्तोता को पवित्र
करते हूँ। इन्द्र ही वद्धंक बल की प्राप्ति के लिए महान् हुए हेँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९२७
२. इन्द्र प्रथम विस्तीर्य व्योम (विशेष रक्षक) देवसदन (स्वर्ग)
में यजसानों के यद्धफ हें। बह प्रारम्भ किये हुए कर्म के समापक हुं।
अतीव यश से युक्त जरू-प्राप्ति के लिए वृत्र को जीतते हैं।
३. बलवान् इन्द्र को में बल-प्राप्ति-कर युद्ध में बुलाता हैँ। इन्र,
घन के अभिलषित होने पर तुम बद्धंन के लिए हमारे सखा होओ।
४. स्तुतियो-द्वारा भजनीय इन्र, तुम्हारे लिए सोमाभिषय-कर्ता
यजमान की दी हुई आहुति जाती है। मत्त होकर तुम उस यज्ञ में विराजो ।
५. इन्द्र सोमाभिषय-कर्ता जिस धन की तुमसे प्रत्याशा करते हैं,
पह घन तुस अवश्य मुझे दो। विचित्र ओर स्वग-प्रापक धन भी हमारे
लिए ले आओ।
६. इन्द्र, विशेषदर्शी स्तोता जिस सभय तुम्हारे लिए शत्रुओं की
पराजय-समर्थ स्तुति करता है और जब सकल वाक्य तुमको प्रसन्न करते
हें, तब शाखा के समान सारे गुण तुम पर आरोहण करते हैं।
७. इन्द्र, पहले के समान स्तोत्र उत्पन्न करो और स्तोता का आह्वान
सुनो । जिसी समय सोम के द्वारा प्रमत्त होते हो, उसी समय शोभन कार्य
करनेवाले यजमान के लिए फल देते हो।
८. इन्द्र के सत्य वचन निम्नगामी जल के समान विहार करते हें।
स्वर्ग-पति इन्द्र इस स्तुति के द्वारा कीत्तित होते हें।
९, वशवाले एक इन्द्र ही मनुष्यों के पालक कहे गये हें। वही तुम
इन्द्र स्तोत्र-द्वारा वर्डेको और रक्षणेच्छुओं के साथ सोमाभिषव में
रमण करो । ह
१०. स्तोता, तुम विद्वान् और विख्यात इन्द्र की स्तुति करो। इस
के शत्रुजेता दोनों अश्व नमस्कार और ह॒विवाले यजमान के घर में
जाते हूँ।
११. तुम्हारी बृद्धि महाफल-दायिका हु। तुस स्निग्ध हो। शीष्र-
गामी अश्व फे साथ यज्ञ सं आगनन करो; क्योंकि उस यज्ञ में ही
तुम्हें सुख हैं।
श आप
ए
७
१२. श्रेष्ठ, बली और साधु-रक्षक इन्द्र, हम स्तुति करते हैँ; हमें
ध्न दो। स्तोताओं को अविनाशी और व्यापक अज्ञ वा यश दो।
१३. इन्द्र, सुर्योदय होने पर में तुम्हें बुझाता हुँ; दिन के मध्य भाग
दें तुम्हें बुलाता हूं। प्रसन्न होकर गतिशील अइों के साथ आओ ।
१४. इन्त्र, ज्ञीत्र आओ और सोम जहाँ है, वहाँ शीश्र जाओ।
धुग्ध-सिश्चित अभिषुत सोम से प्रीत होओ। अनन्तर से जैसा जानता हु,
वैसे ही पुर्वे-कृत विस्तृत यज्ञ की निध्यञ्च करो।
१५. है शक्र और वृत्रघ्न, यदि तुम दूर देश में हो, यदि समीप में
ही, यदि अन्तरिक्ष में हो, तथापि उन सब स्थानों से आकर और सोम-
धान करके रक्षक होओ।
१६. हमारी स्तुतियाँ इन्द्र को वद्धित करें। अभिषोत्र सोम इन्द्र को
घात करें। हविष्मान् मनुष्य इन्द्र के प्रति रत हुए हूँ।
१७. मेधावी और रक्षाभिळाषी उन इन्द्र को ही तृप्त कर आहुतियों
द्वारा वद्धित करते हैं। पृथिवी के समस्त प्राणी इन्द्र को वृक्ष-शाखा की
क्षरह वद्धित करते हें।
१८. “बत्रिक्रुक” नामक यज्ञ में देवों ने चेउन्य-दाता इन्द्र का मान
किया था; हमारी स्तुतियाँ उन्हें सदा बद्धक इख्न को वद्धित करें।
१९. इन्द्र, तुम्हारे स्तोता अनुकलकर्मा होकर समय-समय पर
छकथों का उच्चारण करते हैं तुम अद्भुत, शुद्ध ओर पादक (दूसरों को
धवित्र करनेवाले) होने से स्तुत होते हो।
२०, जिनेके लिए विशिष्ट ज्ञानवाले व्यक्ति स्तोत्र उच्चारण करते
हूँ, वे ही रुद्र-पुत्र भरुदूगण अपने प्राचीन स्थानों में हे।
२१. इन्द्र, यदि तुम सुभे मंत्री प्रदान करो ओर इस सोम-रूप अन्न
का पान करो, तो हम सारे शत्रुओं का अतिक्रमण कर सकते हूँ।
२२. स्तुति-पात्र इन्द्र, कब तुम्हारा स्तोता अत्यन्त सुखी होगा?
हुम कब हमें गो, अश्व और निवास-योग्य वन दोय ?
हिन्दी-ऋषण्वेद ९२९
२३. अजर इन्द्र, भलो भांति स्तुत और कास-वर्षक हरि नामक
दोनों अइव तुम्हारा रथ हमारे पास ले आजें। तुम अतीब मद से युक्त
हो; हम तुम्हारे पास याचना करते हूँ।
२४. महान् ओर अनेकों द्वारा स्तुत उन्हीं इन्द्र से तृप्तिकर आहु-
लियौं के द्वारा हम याचना करते है। बे प्रसन्नता-दायक कुशझों पर बेठे।
अनन्तर द्विविध (सोम और पुरोडाश) हुव्य स्वीकार करें।
२५, बहुतों-द्वारा स्तुत इन्द्र, तुम ऋषियों-द्वारा स्तुत हो । अपने
रक्षणों फे द्वारा हमें वद्धित करो और हमारे सामने श्रवृद्ध अन्न दान
करो।
२६. वज्यधर इन्द्र, इस प्रकार तुम स्तोता के रक्षक हो। सत्यभूत,
तुम्हारे स्तोत्र से युक्त तुम्हारे प्रस्तता-दायक कर्म को में प्राप्त करता हूँ ।
२७. इन्द्र, प्रसिद्ध, प्रसञ्ञ ओर विस्तीर्णं धनवाले दोनों अइवों को
रथ में जोत करके इस यज्ञ भें, सोमपान के लिए, आओ।
२८. तुम्हारे जो रुद्र-पुत्र मरुद्गण हें, वे आश्रय-योग्य इस यज्ञ में
आवें और सरुतों से युक्त प्रजाये भी हमारे हव्य के पास आव।
२९. इन्द्र की ये हिसक मस्त आदि प्रजाये घुलोक में जिस स्थान सं
हैं, उसकी सेवा (आश्रय) करते हें। हम लोग जसे धन प्राप्त फर सकें,
इस प्रकार यज्ञ के नाभिप्रदेश (उत्तर वेदी) पर रहते हें।
३०. प्राचीन यज्ञ-गृह में यज्ञ आरम्भ होने पर ये इन्द्र व्रष्टव्य फल
के लिए यज्ञ को क्रम-बद्ध देखकर यज्ञ को सम्पादित करते हैं।
३१. इन्द्र, तुम्हारा यह रथ मनोरथ-पुरक है, तुम्हारे ये दोनों घोड़े
काम-वषंक हूँ। शत-क्रतु (बहु-कर्सा) इन्द्र, तुम अभीष्टवर्षी हो ओर
तुम्हारा आह्वान भी ईप्सित-फल-दाता हूँ।
३२. अभिषव करनेवाला पत्थर अभीष्ठ-वर्षी हे, मत्तता सनोरथ-
दायिनी हे । यह अभिषुत सोम भी काम-वर्षक हे। जिस यज्ञ को तुम प्राप्त
फा० ५९
९३० हिन्दी-भदम्चेद
फरते हो, वह भी अभिलषित-वर्षक हे। तुम्हारा आह्वान ईप्सित-फल-
दाता हूं ।
३३. वज्यधर, तुम अभीष्ट-घर्षक हो। में हुवि का सेवम-कर्ता हूँ।
में नानाविध स्तुतियों-हारा तुम्हें दुलाता हूँ। तुम अपने लिए की गई
स्तुति को ग्रहण करते हो ए पुस्हारा आह्वान अभोष्ट-दाता है!
१४ सक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि कएव-गोत्रीय गोसूक्ति और अश्वसूक्ति |
छुन्द् गायत्री ।)
१. इन्द्र, जेसे तुम्हीं केवल घनाधिपति हो, वैसे ही यदि सै भी ए३वर्य-
युक्त हो जाऊं, तो भेरा स्तोता गो-युकत हो जाय।
२. शक्तिमान् इन्द्र, यदि तुम्हारी कृपा से में गोपति हो जाऊ, तो इस
स्तोता को दान देने की इच्छा करूंगा और प्राथित घन दूंगा।
३. इन्द्र, तुम्हारी सत्यप्रिय और वद्धंक स्तुति-रूप घेन् सोमाभिषव-
कर्ता को गो और अइव देती है ।
४. इन्द्र, लुम स्तुत होकर घन-वान करने की इच्छा करते हो। उस
समय तुम्हारे घन का निवारक देवता वा मनुष्य नहीं हुँ।
५. यक्ष ने इन्द्र को वद्धित किया है। इसलिए कि इन्द्र ने घलोक में
मेघ को सुलाते हुए पृथिवी को बृष्टि-दान से सुस्थिर किया हूँ ।
६. इन्द्र, तुम वर्धन-शील ओर शज्रुओं के सारे घनों के जेता हो।
हम तुम्हारी रक्षा प्राप्त करेगे ।
७. सोस-अन्य मत्तता के होने पर इन्द्र ने वीप्तिमान् अन्तरिक्ष को
याद्वत किया है; क्योंकि उन्होंने बली मेघ को भिन्न किया हुँ।
८, इन्द्र न गुहा मे छिपाई हुई गायों को प्रकट करके ऑङ्किरा लोगों को
प्रदान किया था और याये चुरानेवाले पणियों के नेता “बळ” असुर को
अधोमुख किया था।
RR. क सत
(हुन्न ९३१
>
९, इन्द्र मे घुलोक के नको को बझ-गुपत और दृढ़ किया था।
नक्षत्रों को उनके स्थानों से कोई गिरा नहीं सकता ।
१०, इन्द्र, समुद्र को तरङ्गं के समान तुम्हारी स्तुलियाँ शीघ्र गसन
करती हुँ। तुम्हारी प्रमतता विशेष रूप से दीप्ति प्राप्त करती हु।
११. इन्द्र, तुम स्तोत्र-द्वारा घद्धंनीय हो और उकथ (शस्त्र मासक
१२. फेशवाले हरि नाम के दोनों अश्व सोमपान के लिए शोभन
वानवाले इन्द्र को यज्ञ में ले आते हें।
१३. इन्द्र, जिस समय तुमने सारे शत्रुओं (असुरो) को जीता
था, उस समय जल के फेन फे द्वारा ही नमूचि के सिर को छिल्न
किया था।
१४. तुम साया के द्वारा सर्वत्र फेलनेवाले हो। तुमने धुलोक में
चढ़ने की इच्छा करनेवाले शत्रुओं (दस्मुओं) को निम्नाभिमुख प्रेरित
किया था।
१५. इन्द्र, सोपान करने से उत्कृष्टतर होते हुए तुमने सोमाभिषव
से हीन जम-समुदाय को, परस्पर बिरोध कराकर, विनष्ट किया था।
१५ शूकत्
रि र थु हि
(देवता इन्द्र । ऋषि गोसूक्ति ओर अश्वसुक्ति । छन्द उष्णिक् |)
१, अनेकों के द्वारा बुळाय गये और अनेकों के दवारा स्तब किये गये
उन्हीं इख की स्तुति करो। दचनों के हारा महान् इख की परिचर्य्या
करो ।
२, दोनों स्थानों में इन्द्र का पुजनीय महाबल द्यावापृथिवी को धारण
करता है। वह शीघ्रगामी भेघ ओर गमनशील जल को बीर्य-द्वारा
धारण करते हैं ।
MN ORE. ,
१३२ ३9-९९. 7 5
३. अनेकों के द्वारा स्तुत इन्द्र, तुम शोभा पाते हो। जीतने ओर
सुनने योग्य धन को स्वायीव करने के लिए तुम अफेले ही वृत्र आदि का
वध करते हो।
४. वञ्जचधर इन्दर, तुण्हारे एवं को हम प्रशंसा करते हैं। वह मतोरथ-
पुरक) संग्राम में शत्रुओं के लिए ८0 बन्द, स्थान विधाता और हरि
नामक अइवों के द्वारा सेवनीय हे ।
५. इन्द्र जिस सद (हुईं) के द्वारा (“आयु” ओर “मन्” के लिए
सुर्थ आदि ज्योतिषों को तुमने प्रकाशित किया था, उसी हर्ष से प्रसन्न
होकर तुम प्रयृद्ध यञ्च के कर्ता हुए हो।
६. इन, प्राचीन समय के समान आज भी उकथ मन्त्रों का उच्चारण
करनेवाले तुम्हारे उस बळ की प्रशंसा करते हुँ। जिस जल के स्वामी
पजन्य हैं, उसको तुम प्रतिदिन स्वाधीन करो ।
७. इन्द्र, स्तुति तुम्हारे उस महान् वीर्यं को भीर तुम्हारा बल
तुम्हारे कमं ओर वरणीय वस्न को तीक्ष्ण करते हुँ।
८, इन्द्र, शुद्दोक तुम्हारे बल को बढ़ाता हुँ, पृथिवी तुम्हारे यश को
वद्धित करती हुँ । अन्तरिक्ष और मेघ तुम्हें प्रसन्न करते है।
९. इन्द्र महान् और निवास-फारण विष्णु, मित्र और घरुण तुम्हारी
स्तुति करते हूं। अर्दूगण तुम्हारी मत्तता के अनन्तर मत्त होते हें।
१०. तुम वर्षक ओर देवों में सर्वापेक्षा दाता हो। तुम सुन्दर पुत्रावि
के साथ सारा धन धारण करते हो।
११. बहु-स्तुत इन्द्र तुम अकेले ही महान् शत्रुओं का विनाश करते
हो। इन्द्र को अपेक्षा कोई भी अधिकतर कर्म (वृत्र-वघादि) नहीं कर
सकता ।
१२. इसे, जिय युद्ध में तुम रक्षा के लिए स्तोत्र द्वारा माना प्रकार
से स्तुत होते हो, उसी युद्ध में हमारे स्तोताओं-द्वारा आहूत होकर शत्रु-
बल को जीतो ।
हिन्दी-ऋण्वेद ९३३
१३. स्तोता, हमारे महान् गह के लिए पर्याप्त और परिष्याप्त रूप
(इच्द्रगुण-जात ) को स्तुलि-हारा व्याप्त करते हुए कर्ष-पालक (शचीपति)
दुन्द्र की, जीतने योग्य धन के छिए, स्तुति करो।
१६ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि इरिन्विठि । छन्द गायत्री ।)
१. मनुष्यों के सम्राद इख की स्तुति करो। इन्द्र स्तुति-दवारा स्तुत्य,
नेता, शत्रुओं फे अभिभवकर्सा और सर्वापेक्षा दाता हुँ
२. जैसे जरू-तरङ्गं समुद्र में शोभा पाती हँ, वेसे ही उक्थ और
सुनने योग्य हविष्मान् अञ्न इन्द्र में शोभा पाते हैं।
३. सें शोभन स्तुति-द्वारा, घन-प्राप्ति कै लिए, उन इन्द्र की सेवा
करता हूं । इन्द्र प्रशस्ततम देवों में शोभा पाते हैं। संग्राम में महान् कार्य
फरते हुँ। थे बली हे।
४. इन्द्र का सब महान्, गम्भीर, घिस्तीणं, शत्रु-तारक और शूरों के
यद्ध मे प्रसन्नता-युक्त हेँ।
५. घन-लाभ होने पर उन्हीं इन्द्र को, पक्षपात के लिए, स्तोता लोग
बुळाते हैँ । जिनके इन्द्र हँ, यह् जय प्राप्त करते हूँ।
६. बलकर स्तोत्रों-डारा उन इस फो ही ईहबर' बनाया जाता हु ।
कर्म-द्वारा मनष्य उन्हें ईश्वर बनाते हैं। इन्द्र ही धन फे कर्ता होते हुँ ।
इन्द्र सबसे अधिक, ऋषि, बहुतों द्वारा आहूत हैं। वे महान् कार्यों
(वत्र-वघादि) के द्वारा महान् हें।
८. चे इन्द्र स्तोत्र और आह्वान फे योग्य हैं। य साधु, शत्रुओं को
अवसाद देनेवाले, बहुकर्मा और एक होने पर भी शत्रुओं के अभि-
भविता हें।
९, व्रष्ट और मनुष्य इन्द्र को पुजा-साधक (यजुर्वेदीय) अन्त्रो-द्वारा
घद्धित करते है, गेय (सासवेदीय) मन्त्रो-द्वारा बन्चित करते हें और उकूथ
९३४ हिन्दी-ऋग्वेद
या गायत्री आदि छन्दों से युक्त शस्त्र-रूप (ऋग्येदीय) मन्त्र द्वारा
वञ्चित करते हुँ।
१०. इन्द्र प्रशंसनीय धन के प्रापक, युद्ध में ज्योति के प्रकाशक और
आयुध-द्वारा शत्रुओं के लिए अभिभवकर हुँ ।
११. इन्द्र प्रषिता और बहुतों द्वारा बुलाये गये हुँ। इन्द्र हमें शत्रुओं
से नौका-हारा निर्विघ्न पार लगावें।
१२. इन्द्र, तुम हमें बल-द्ारा धन प्रदान करो। हमारे लिए मागे
प्रदान करो। हमारे सम्मुख सुख प्रवान करो ।
१७ सूर
(देवता इन्द्र । ऋषि हरिन्धिठि । छन्द गायत्री, बहती
ओर सतोबृहती ।)
१. इम्प्र, आओ। तुम्हारे लिए सोम अभिषुत हुआ है। इस सोम
को पियो। मेरे इस फुश के ऊपर बेठो।
२. इन, भन्तरो-द्वारा योजित और फेशवाले हरि नास के अहव तुम्हें
ले आवे । तुम इस यज्ञ में आकर हमारे स्तो फो सुनो।
३. इन्त्र, हम स्तोता' (ब्राह्मण) हैं। तुम्हें योग्य स्तोतर-द्वारा बुलाते
हैं। हुम सोम से युक्त और अभिषुत सोमवारे हैं। हम सोमपाता हस्त
को ब॒लाते हें।
४. इन्द्र, हम अभिषुत सोमवाणे हूँ। हमारे सामने आओ। हमारी
सुन्दर स्तुतियों को जानो। शोभन शिरस्त्राणवाले इन, अन्न (सोम)
भक्षण या पांस करो।
५. इन्द्र, तुम्हारे दाहिने और बायें उदर को में सोम पुरण करता
हुँ। वह सोम तुम्हारे गात्रों को व्याप्त करें। सुर सोम को जीभ से
ग्रहणं करों ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ९३५
६. इन्द्र, सुन्दर दानवाले तुम्हारे शरीर के लिए यह माधुर्य से युक्त
सोम स्वादिष्ठ हो। यह सोम तुम्हारे हुदय के लिए सुख-जमक हो।
७. विशेष द्रष्टा (लोकपति) इन्द्र, स्त्री के समान संवृत (ढका
हुआ) होकर यह सोम तुम्हारे पास जाय।
८. विस्तृत कन्धाबाले, स्थूल उवरवाले ओर सुम्दर भुजावाले इन्द्र
अश्न-रूष सोम की मत्तता होने पर वृत्र आदि शत्रुओं का विनाश
करते हे।
९. इन्द्र, बल फे कारण तुम सारे संसार के स्वामी होकर हमारे
आगे गसन करो। वृत्रघ्न इन्द्र, तुस शत्रुओं का वघ करो।
१०. जिससे तुम सोम का अभिषव करनेवाले यजमान को धन देते
हो, वह तुम्हारा अंकुश (आकर्षण करनेवाला आयुध) दीर्घ हो।
११. इन्द्र, तुम्हारे लिए यह सोम वेदी पर बिछे हुए कुश विशेष
रूप से शोधित किया हुआ हुँ। इस समय इस सोम के सम्मुख आओ।
शीघ्र पास जाओ और पियो।
१२. शक्तिशाली गौओंवाले और प्रसिद्ध पुजावाले इन्र, तुम्हारे
सुख कै लिए सोम अभिषुत हुआ हे। हे आखण्डल (शत्र-खण्डयिता),
उत्कृष्ट स्लुतियों के द्वारा तुम आहूत होते हो।
१३. हे शद्भव॒षा नामक ऋषि के पुत्र इन्द्र, तुम्हारा जो उत्तम रक्षक
कुण्डपायी यज्ञ (जिसमें कुण्ड में सोम पिया जाता है) है, उसमें ऋषियों
ने मन लगाया हूँ।
१४, गृहपति इन्द्र, गृहाधार स्तम्भ सुदृढ़ हो। हम सोम-सम्पादक
हैं। हमारे कण्धे मं रक्षा-समर्थ बल हो। क्षरण-शील सोमवाले और
अनेक पुरियों को तोड़नेवाले इन्द्र ऋषियों के मित्र हों।
१५. सर्प के समान उच्च शिरवाले, याग-योग्य और गो-प्रापक इन्द्र
अकेले होकर भी अनेक शत्रुओं को अभिभूत करते हें। स्तोता मरण-शील
और व्यापक इन्द्र को सोमपान के लिए हमारे सम्मुख ले आते हुँ।
९३६ हिन्दी-ऋणष्येद
१८ सूक्त
(देवता अष्टम के अरिवद्वय, नवम के अग्नि, सूर्य और वायु तथा
अवशिष्ट के आदित्य | ऋषि इरिन्विठि छन्द उष्णिक् |)
१. इस समय आदित्यों फे निकट मनुष्य अपुण सुख की याचना
करे। |
२. इन आदित्यों के मार्ग दूसरों फे द्वारा नहीं गसन किये गये
और अहिसित हुं। फलतः बे पालक मागे सुख-वद्धक हे।
३. हम जिस विस्तीणं सुख को याचना करते हं, उसी सुख को सविता,
भग, मित्र, वरुण ओर अयंभा हमें प्रदान करो।
४. देवो, अहिसित-पोषक और बहुतों द्वारा प्रीयमाणा अदिति, प्राज्ञ
और सुखदाता देवों के साथ सुन्दर रूप से आगमन फरो।
५. अदिति के वे सित्रादि पुत्रगण द्वेषियों को पृथक करना जानते
हुं। विस्तीर्ण कर्म-कर्ता ओर रक्षक लोग हमें पाप से अलग करना
जानते हें।
६. दिन में हमारे पशुओं की रक्षा अदिति (अखण्डनीया देवमाता)
करे, सदा एक-सी रहनेवाली अदिति रात्रि में भी हमारे पशुओं की रक्षा
करे। सदा वद्धनशील रक्षण-द्वारा हमें पाप से बचावें।
७. स्तुतियोग्य वे अदिति रक्षा के साथ दिन में हमारे पास आवें।
वे शान्तिदाता सुख दें। वे बाधकों को दूर करं ।
८. प्रख्यात देव-भिषक अश्विनीकुमार हमें सुख दें। हमसे पाप को
हुटावें। शत्रुओं को दूर करें।
९. नाना गाहुपत्य आदि अग्नियों के द्वारा अग्निवेव हमारे रोग की
शान्ति करें। सुखदाता होकर सूये तपें। पाप-ताप-शून्य होकर वायु बहें।
शत्रुओं को दूर करे।
हिन्दी-ऋणग्वेद ९२७
१०, आदित्यगण, हमसे रोग को दूर करो। शत्रुओं को भी दूर करो।
दुर्गति को दूर करो। आदित्यगण हमें पापों से दूर रख।
११. आदित्यो, हमसे हिसक को अलग करो। दुर्बुद्धि को हमसे दूर
करो। सर्वज्ञ आदित्यो, शत्रुओं को हमसे पृथक् करो ।
१२. शोभन-दान आदित्यो, तुम लोगों का जो सुख पापी स्तोता को
भी पाप से मुक्त करता है, उसे ही हमें दो । |
१३. जो कोई मनुष्य हमें राक्षस-भाव से मारना चाहता है, बह
अपने ही कार्यों से हिसित हो जाय। बह मनुष्य दूर हो।
१४. जो ढुष्कीचि मनुष्य हमें मारनेवाला और कपटी हूँ, उसे पाप
व्याप्त करे ।
१५. निवास-दाता आदित्यो, तुम परिपकव-ज्ञान हो; इसलिए कपटी
और अकपटी--दोनों प्रकार के मनुष्यों को तुम जानते हो ।
१६. हम पर्वतीय और जलीय सुख का भजन करते हें । दावापृथिवी,
पाप को हुमसे दूर देश में प्रेरित करो । |
१७. वास-दाता आदित्यो, अपनी सुन्दर और सुखद नौका में हमें
सारे पापों से पार कराओ।
१८. आदित्यो, तुम शोभन तेजवाले हो। हमारे पुत्र, पौत्र और
जीवन के लिए दीर्घतम (खूब लम्बी) आयु दो ।
१९. आदित्यो, हमारा किया हुआ यज्ञ तुम्हारे पास ही वर्तमान हे ।
तुम हमें सुखी करो। तुम्हारा बंधुत्व प्राप्त करके हम सदा तुम्हारे ही
रहेंगे। |
२०. मरुतों के पालक इन्द्र, अश्विद्वय, मित्र और बरुणदेव के निकट
प्रौढ और शीत, आतप आदि के निवारक गृह को मङ्गल के लिए, हम
मांगते हैं । |
२१. मित्र, अर्यसा, वरुण और मरुद्गण, तुम लोग हिसा-शून्य,
पुत्रादि-युक्त और स्तुत्य हो। शीत, आतप और वर्षा से निवारण करने-
बाला घर हमें दो।
HNN, seis
९३८ दीचे
२२. आदित्यो, जो मनुष्य अरणासन्न अथवा मृत्यु फे बन्धु हुँ, उनके
जीने के लिए उनकी आयु को बढ़ाओ।
१९ सूक्त
(देवता २६-२७ का त्रसदस्यु राजा का दान; ३४-३५ के आदित्य,
अवरिष्ट के अग्नि । ऋषि कण्व-गात्रीय सोभरि । छन्द ककुप्,
सतोकृहती, ड्विपदा, विराट्, उष्णिक् और पङ्ति |)
१. स्तोता, प्रख्यात अग्नि की स्तुति करो। अग्नि स्वर्ग में हवि छे
जानेबाले हैं। ऋत्विक् लोग स्थामी अश्निदेव के पास जाते हैँ और देवों
को पुरोडाशादि देते हें ॥
२. मेधावी सोभरि, प्रभूत दानी, विचित्र-तेजस्वी, सोम साध्य, इस
यज्ञ के नियन्ता और पुरातन अग्नि की, यज्ञ करने फे लिए, स्तुति
करो ।
३. अग्नि, तुम याज्ञिको में श्रेष्ठ, देवों में अतिशय दलादिगुण-पुक्त,
होता, अमर ओर इस यज्ञ के सुन्दर कर्ता हो । हम तुम्हारा भजन
करते हुँ । |
४. अन्न के प्रदाता, शोभन-धन, सुन्दर प्रकाशक ओर प्रशस्य तेजवाले
अग्नि की म स्तुति करता हूं। वे हमारे लिए द्योतमान देव-यश में मित्र
और परुण के सुख को लक्ष्य करके और जल देवता के सुख के लिए
यज्ञ करे ।
५. जो मनुष्य समिधा (पलाश आदि इन्धन) से अग्नि की परिचयाँ
करता हुँ, जो आहुति (आज्य आदि से) अग्नि कौ परिचर्या करता छुँ,
जो वेदाध्ययन (श्रह्ययज्ञ) से परिचर्या करता है और जो ज्योतिष्टोम आदि
सुन्दर यज्ञों से युक्त होकर नमस्कार (चरु-पुरोडाश आदि) से अग्नि की
परिचर्या करता ह~
६. उसके ही व्यापक अश्व वेगवान् होते हैं, उसी का यहा सबसे अधिक
होता है तथा उसे देव-कृत और मनुष्य-विहित्त पाप नहीं व्याप्त करते।
७, है बल के पुत्र और हवि आदि अखो के पति, हम तुम्हारे गाह"
पत्यादि अग्नि-समह के द्वारा शोभन अग्नियाले होंगे। शोभन वीरों से
युक्त होकर तुम हमारी इच्छा करो ।
८. प्रशंसक अतिथि फे सभान अग्नि स्तोत्ताओं फे हितेषी ओर रथ
के समान फल-वाता हें। अग्नि, तुभे समीचीन रक्षण हे। तुस घन के
राजा हो ।
९. झोभन-घन अग्नि, जो मनुष्य यज्ञवाला हे, बह सत्य फलवाला
हो। बह इलाघमीय हो और स्तोत्रों के द्वारा सम्भजन-परायण हो ।
१०. अग्नि, जिस यजभान के यज्ञ-निष्पादन के लिए तुम ऊपर हो
रहते हो, वह निधास-शील वीरों से (पुत्रादि से) युक्त होकर सारें कार्यों
फो सिद्ध कर डालता है। वह अइवों-द्रारा की गई घिजय फो भोगता
है। वह मेधाचियों और शूरों के साथ सम्भजन-शीळ होता है ।
११. संसार के स्वीकरणीय और रूपवान् (दीप्तिमान्) अग्नि जिस
थजसान के गृह में स्तोत्र और अन्न को धारण करते हुँ, उसके हुव्य देवों
को प्राप्त करते हैं ।
१२. बल के पुत्र और वासद अग्नि, मेघावी स्तोता फे दान मे क्षिप्त-
कर्ता अभिज्ञाता फे वचन को देवों के नीचे और मनुष्यों के ऊपर करो।
१३. जो यजमान हुव्यदान और नमस्कार द्वारा शोभन बलवाले
अग्नि की परिचर्या करता है अथवा क्षिप्रगामी तेजवाले अग्नि की परिचर्या
करता है, वह समृद्ध होता है।
१४. जो मनुष्य इन अग्नि के शरीशावयदों (गाहेपत्यादि) से अख-
ण्डनीय अग्नि की, समिधा के द्वारा, परिचर्या करता है, वहं कों के हारा
सौभाग्यवान् होकर धोतमाच यश के हारा, जळ के समान, सारे मनुष्यों
को छाँघ जातां है।
१५. अग्नि, जो धनगुह में राक्षस आदि को अभिभूत करता हें और
पाप-बुद्धि मनुष्य के क्रोध को दबाता हुं, वही धन ले आओ।
९४७० हिन्दी-ऋणग्वेद
१६. अग्नि के जिस तेज के द्वारा वरुण, मित्र और अर्यमा ज्योति
प्रदान करते हैं तथा अश्विनीकुमार और भग देवता जिसके द्वारा प्रकाश
प्रदा व करते है, हम बरू के हारा सबसे अधिक स्तोञज्ञ होकर और इन्त
के द्वारा रक्षित होकर, अग्निदेव, तुम्हारे उसी तेज की परिचर्या करते हँ॥
१७. हे भेवावी और गृतिमान् अग्नि, जो मेघावी ऋत्विक् मनुष्यों
के साक्षि-स्वरूप और सुन्दर कर्मचाले तुम्हें घारण करते हुँ, वे ही उत्तम
ध्यानवाले होते है ।
१८. शोभन-धन अग्नि, वे ही यजमान तुम्हारे लिए वेवी प्रस्तुत करते
हैँ, आहुति देते हे, च्योतमानव (सौत्य) दिन में सोमाभिषव करने के लिए
उद्योग करते हँ, वे ही बल के द्वारा ययष्ट घन प्राप्त करते हुं और बे
ही तुममं अभिलाषा पाते ह
आहत अग्नि हमारे लिए कल्याणकर हों । शोभन-घन अग्नि,
हुम्हारा दान हमारे लिए कल्याणकर हो। यज्ञ कल्याणकारी हो।
स्तुतियाँ कल्याणमयो हों ।
२०. संग्राम में सन कल्याणवाहक बने । इस मन फे द्वारा तुम संग्राम
में शत्रुओं को परास्त करो। अभिभव करनेवाले शत्रुओं के स्थिर और
प्रभूत बल को पराजित करो । अभिगमन साधक स्तोत्रों के द्वारा हम
लुम्हारा भजन करेंगे ।
२१. प्रजापति के द्वारा आहित (स्थापित) अग्नि की में पुजा करता
हुँ । वह सबसे अधिक यज्ञ करनेवाले, हव्य-वाहइक तथा ईश्वर हें और
ऐवो के हारा दूत बनाकर भेजे गये हे ।
२२. तीक्ष्ण लपटोवाले, चिर तरुण और शोभित अग्नि को लक्ष्य
कर' हवीरूप अन्न का गाना गाओ । प्रिय और सत्य वचनों से स्तुत तथा
घत-हारा आहूत होकर स्तोता को शोभन वीयं दान करते हें ।
२३. घृत के द्वारा आहूत अग्नि जिस समय ऊपर और नीचे शाब्य
करते हँ, उस समय असुर (बली) सुर्यं के समान अपने रूप को प्रकाशित
करते हे ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९४१
२४, सन् प्रजापति के द्वारा स्थापित और प्रकाशक जौ अग्नि सुगंधि
मख के द्वारा देवों के पास हव्य को भेजते हं, वे ही सुन्दर यज्ञवाले, देवों
को बुलानेवाले, दीप्तिमान् और असर अग्नि धन की परिघर्या
करते हू।
२५. बल के पुत्र, घृतहुत ओर अनुकूल वीप्तिवाले अग्नि, में मरण-
घर्मा हूँ; तुम्हारी उपासना से में तुम्हारे समान अमर हो जाऊें।
२६. वासक अग्नि, भिथ्यापवाद (हिसा) के लिए तुमको में तिरस्कृत
नहीं करेगा । पाप के लिए तुम्हें नहीं तिरस्कृत करूंगा । मेरा स्तोता
अयुक्त बचनों के द्वारा तुम्हारी अवहेलना नहीं करेगा । सम्भजनीय अग्नि,
सेरा दुर्बुद्धि शत्रु न हो । वह पाप-वृद्धि-द्वारा सुरे बाधा न दे ।
२७. जैसे पुत्र पिता के लिए करता है, वेसे ही पोषण-कर्त्ता अग्नि,
यज्ञ-गृह में देवों के लिए हमारा हव्य प्रेरित करते हे ।
२८. वासक इन्प्र, निकट-वर्ती रक्षण के द्वारा में मनुष्य सवा तुम्हारी
प्रसन्नता की सेवा करूं।
२९. अग्नि, तुम्हारे परिचरण के द्वारा में तुम्हारा भजन करूंगा ॥
हुव्य-दान के द्वारा ओर प्रशंसा के द्वारा तुम्हारा भजन करूंगा । वासक
अग्नि, तुम प्रकृष्टबृद्धि हो । लोग तुम्हें भेरा रक्षक कहते है ॥ अग्नि,
दान फे लिए प्रसन्न होओ।
३०. अग्नि, तुम जिस यजमान की मंत्री करते हो, वह तुम्हारी वीर
और अन्नपुर्ण रक्षा के द्वारा बढ़ता हू ।
३१. सोस से सिञ्चित, त्रवशील, नीड़वान्, शब्दायसान, बसन्ताधि
ऋतुओं में उत्पन्न और दीप्तिशाली अग्नि, तुम्हारे लिए सोम गृहीत होता
हू । तुम विशाल उषाओ के मित्र हो। राशिका में तुम सारी वस्तुओं
को प्रकाशित करले हो ।
३२ रक्षण के लिए हम सोभरि लोग अग्नि को प्राप्त हुए हुँ । अग्नि,
बहु-तेजस्वी, सुन्दर रूप से आनेवाले सस्रादू और त्रसदस्थ-द्वारा स्तुत हुँ ॥
९४२ हिन्दी-ऋग्वेद
३३. अग्नि, अन्य अग्नि (ग्यत्यादि) वृक्ष की शाखा के सशाम
तुम्हारे पास रहते हे । मनुष्यों में में, तुम्हारे बर, स्तुति-द्वार। बढ़ाते हुए
अन्य स्तोत्राओं के समान यश को प्राप्त करूंगा ।
३४. द्रोह-शन्प ओर उत्तम दानवाले आदित्यो हवियाले, सभी छोगों
के बीच जिसे तुम पार छ जाते हो, बह फल प्राप्य करता है
३५. सोफा-संयुष् ओर शत्रुओं के अभिभविता आदित्यो, मनष्यों
में घातक शत्रुओं को पराजित करो। वरुण, भित्र और अर्थमा, ये ही
तुम्हारे यज्ञ के नेता होंगे ।
३६. पुरुकुत्स के पुत्र असवस्थु ने मुझे पचास बन्धु दिये हें। वे
बड़े दानी, आयं (स्वासी) और स्तोताओं के पालक हूं ।
३७, सुन्दर निवासवालो नदी फे तट पर इयामवणं बलों के नेता
ओर पुज्य घन दान के योग्य २१० गायों के पति भसदस्यु ने घन और
वस्त्र आदि दिये थे ॥
२० सुक्त
(देवता मरुदूगण । ऋषि साभरि । छन्द ककुप् और बृहती ।)
१. प्रस्थानवाले सरुदूगण, आगमन करो। हमं नहीं आारना।
समान-तेजस्फ होकर दृढ़ पर्वतों को भी कम्पित करते हो। हमें छोड़कर
अन्यत्र नहीं रहना ॥। |
२. प्रकाशमान निवासवाछे सद्रपुत्रो (मरुतो), सुन्दर दीप्तिवाले रथ-
नेमि (चक्र फे डंडों) के रथ से आगमन करो । सबके अभिलबणीय मरतो,
सोभरि की (मेरी) अभिलाषा करते हुए, अन्न के साथ, आज हमारे यज्ञ
मे आओ ।
३. हम कर्मवान् विष्णु ओर अभिलूषणीय जळ के सेचक रुद्रपुत्र मदतो
के उग्र बल फो जानते हुँ ।
४. सुन्दर आयुष और दीप्तिवाले मरतो, तुम लोग जिस समय कम्पन
करते हो, उस समय सारे द्वीप पतित हो जाते हें, स्थावर (वृक्षादि).
हिन्दो-म्दम्बेद ९४३
पदार्थ दुख प्राप्त रफते हैं, झावापूथिवी काँप जाते हैं, गभनशील जळ
बहुता है ।
५. मस्तो, तुम्हारे संग्राम में जाते समय न गिरनेबाले मेघ और
वनस्पति आदि बार-बार शब्द करते हे, पृथिवी कांपती है ।
६. मरुतो, तुम्हारे बल के गसन के लिए झुलोक विशाल अन्तरिक्ष
को छोड़कर ऊपर भाग गया हु । प्रचुर बलवाले और नेता मरुद्गण
अपने शरीर में दीप्त आभरण धारण करते हूँ ।
७, प्रदीप्त, बलवान्, वर्षणरूप, अकुटिल और नेता मरुदूगण हवी
रूप ,अञ्न के लिए महती शोभा धारण करते हे ।
८. सोभरि आदि ऋषियों के शब्द-द्वारा हिरण्मय श्थ के मध्य देश में
सरुतो की वीणा प्रकट हो रही हे । गोमातृक, शोभन-जन्मा और महानु"
भाव सथ्द्गण हमारे अन्न, भोग ओर प्रीति के लिए प्रवृत्त हों ।
९, सोम-वर्ष के अध्वर्युओ, वृष्टिदाता मरुतों के बल के लिए हृव्य रे
आओ । एस बल के द्वारा वे सेचन करनेवाले और उत्तम यमनवाले होते है ।
१०. नेता मरुवूगण सेचन-समर्थ, अश्व से युक्त, वृष्टिदाता के रूप
से संयुक्त और वर्षक नाभि से सम्पन्न रथ पर, हुव्य के पास, इयेन पक्षी
के समान अनायास आगमन कर ॥
११. मरतों का अभिव्यञ्जक आभरण एक ही प्रकार का है । प्रदीप्त
सुबणंमय हार उनके हुदय-देश में विराज रहा हुँ। बाहुओं मं आयुध
अतीव प्रकाशित होते हैं।
१२. उग्र, वर्षक और उग्र बाहुओंवाले मरुद्गण अपने शरीर के
रक्षण के लिए यत्न नहीं करते (आवश्यकता ही नहीं हे) ॥ मरतो, तुम्हारे
रथ पर आयुघ और धनुष सुदृढ़ हैं। इसी लिए युद्ध-क्षेत्र में, सेना-
सुख पर, तुम्हारी ही विजय होती हे !
१३. जल फे समान सर्वत्र विस्तीणं और दीप्त बहु-संख्यक मरुतों का
ताम एक होकर भी, पेतूक दीघें स्थायी अञ्न के समाच, भोग के लिए,
यथेष्ट होता ह् ।
९४४ हिन्दी-ऋग्वेद
१४. उन मरुतों की वग्दना करो । उनके लिए स्तुति करो । आस-
स्वामी के हीन सेवक के समान हुम रूम्पनोतपादक सझतों के हीन सेवक
हैं। उनका दान महिमा से युक्स हु ।
१५. मरुतो, तुम्हारा रक्षण पाकर स्तोता बीते हुए दिनों में सुभग
हुआ था । जो स्तोता है, वह अवश्य ही तुम्हारा है ।
१६. नेता ससुतो, हुव्य-भक्षण के लिए जिस हविष्मान् यजमान
के हव्य फे पास जाते हो, हे कम्पक मरुतो, यह तुम्हारे धृतिमान् अन्न
और अन्न-सम्भोग के द्वारा तुम्हारे सुख को चारों ओर व्याप्त करता है ।
१७, सब्र-पुत्र, असुर (वृष्टि जल अथवा बल) के कर्ता और नित्य
तरुण मरुद्गण जिस प्रकार अन्तरिक्ष से आकर हमारी कामना करें,
यह स्तोत्र वेसा ही हो।
१८. जो सुन्दर दानवाले यजमान मरुतों की पुजा करते हे और जो
इन सेचन-कर्ताओं को हव्य-द्वारा पुजित करते हें, हम इन दोनों प्रकार के
लोगों में समान हैं हमारे लिए अतीव धनप्रद चित्त से आकर मिलो ॥
१९. सोभरि, नित्य तरुण, अतीव वृष्टि-दाता और पावक मरुदू-
गण का अतीव अभिनव वाक्यो-द्वारा, सुन्दर रूप से, उसी प्रकार स्तव करो,
जिस प्रकार कृषक अपने बलों की स्तुति करता है ।
२०. सारे युद्धों में योद्धा लोगों के आह्वान करने पर मरुद्गण अभि-
भवकर्ता होते हें आह्वान के योग्य मल्ल के समान सम्प्रति आह्लादकर,
बर्षक तथा अतीव यशस्वी मरुतों की, शोभन वाक्यों फे द्वारा स्तुति करो।
२१. समान-तेजस्क मरुतो, एक जाति होने के कारण समान बन्धु
होकर गाये चारों ओर आपस में लेहन करती--चाटती--हें ।
२२. हे नत्तक और वक्षःस्थल में उज्ज्वल आभरण पहननेवाले मरुतो,
मनुष्य भी तुम्हारे बन्धुत्व के लिए जाता है; इसलिए हमारे पक्ष से बात
करो । सदा घारणीय यज्ञ में तुम्हारा बन्धुत्व सवेदा ही रहता है ॥
२३. सुन्दर दानवाले, गमनशील और सखा मरुतो, मरुत्सम्बन्धी
(अर्थात् अपना) औषध ले आओ । |
हिन्दी-ऋग्वेद | ९४५
२४. सस्तो, जिससे तुम समुद्र को रक्षा करते हो, जिससे
यजमान के शत्रु की (हसा करते हो और जिससे तृष्णज (गोतम) को
कूप प्रदान किया था, हे सुखोत्यादक और शत्रु-शन्य मरुतो, उसी सब
प्रकार का कल्याण करनेचाली रक्षा के द्वारा हमारे लिए सुख उत्पन्न करो।
२५. सुन्दर यज्ञवाले सस्तो, सिन्धु नद, चिनाव, समुद्र और पर्वत
में जो ओषध हे--
२६. तुम वह सब ओषध पहचामकर हमारी शरीर की चिकित्सा के
लिए ले जाओ। सरतो, हमम से जिस प्रकार रोगी के रोय की शान्ति
हो, उसी प्र कार बाधित अंग को जोड़ो (पुरा करो) ।
अथस अध्याय समाप्त ॥
२१ सूक्त
(द्वितीय अध्याय । ४ अनुवाक। देवता इन्द्र। अन्त की दो ऋचाओं
का चित्र राजा का दान । ऋषि कण्वपुत्र सोभरि ।
छुन्द् ककुप् ओर बृहती।)
१. अपूर्वं इन्द्र, हम तुम्हें गुणो मनुष्य के समान सोस से पोषण करके
रक्षा-प्राप्ति की कामना से संग्राम में विविध-रूप-धारी तुम्हें बुलाते हुँ ।
२. इन्द्र, अग्निष्टोम आदि यज्ञों की रक्षा के लिए हम तुम्हारे
पास जाते हे । इन्द्र शत्रुओं के अभिभवकर्ता, तरुण और उग्र हँ। वह हमारे
अभिमुख आवें । हम तुम्हारे सखा हें। इन्द्र, तुम भजनीय और रक्षक
हो । हम तुम्हें वरण करते हैं ।
३. अश्वपति, गोपालक, उर्वर-भूमि-स्वामी और सोसपति इन्द्र, आओ
और सोमपान करो ।
४. हम विप्र बन्धु-हीन हँ । तुम बन्धुवाले हो । हम तुमसे बन्धुता
करेगे । काम-वर्षक इन्द्र, तुम्हारे जो शारीरिक तेज हें, उनके साथ सोम-
पान के लिए आओ ।
फा ६०
९४६ हिन्बी-त्रद्ग्बेव
५. इन्द्र, दुग्धादि मिश्चि, मदफर आर स्वर्ग लाभ के कारण
तुम्हारे सोम में हम पक्षियों के सदृश रहकर तुम्हारी ही स्तुति करते हैं ।
६, इन्द्र, इस स्तोत्र के साथ तुम्हारे सामने तुम्हारी ही स्तुति करेंगे।
तुम बार-बार क्यों चिन्ता करते हो ? हरि अग्रयोंचारे इच्छ, हमें पुत्र-
पशु आदि की अभिलाषा हैं । तुम धनादि के दाता हो। हमारे कर्म
तुम्हारे ही पास हें ।
७. इन्द्र, तुम्हारे रक्षण में हम नये ही रहेगे। पप्त्रधर इन्र, पहले
हुम तुम्हें सर्वत्र व्याप्त नहीं जानते थे इस समय तुम्हें जानते हें ।
८. बली इन्द्र, हस तुम्हारी संत्री जानते हें। तुम्हारा भोज्य भी
जानते हूँ । बप्त्रो इन्द्र, हम तुमसे भेजी और भोज्य (घन) सांगते
हे। सबको निवास देनेवाले और सुन्दर शिरस्त्राणवाले इन्द्र, गो आदि
से युक्त सारे घनों में हमं तीक्ष्ण करो ।
९. मित्र ऋत्विको ओर यजसानो, जो इन्द्र, पुर्व समय में, यह सारा
घन हमारे लिए रे आय थे, उन्हीं इन्द्र की, तुम्हारी रक्षा के लिए, में स्तुति
करता हूं ॥
१०. हरितवणं अशववाले, सज्जनों के पति, शत्रुओं फो दबानेवाले
इन्द्र की स्तुति वही मनुष्य करता हुँ, जो तुप्स होता हं । वे धनी इन्द्र
सो गायें और सौ अश्व हम स्तोताओं के लिए लाये थे ।
११. अभीष्सित फरूवाता इन्प्र, तुम्हें सहायक पाकर गोयुफ्स मनुष्यों
के साथ संग्राम में अतीव झुठ शत्रु को हम नियारित करेगे ।
१२. बहुतों के द्वारा बुलाने योग्य इन्द्र, हम संग्राम में हिसकों को
जीतेंगे । हम पाप-बुद्धियों को हरावेंगे। सरुतों की सहायता से हम वृत्र
का बघ करेंगे। हुम अपने कर्म बढ़ादेंगे। इन्द्र, हमारे सारे कर्मो की
रक्षा करो ।
१३. इन्द्र, जन्म-काल से ही तुस शभू-शून्य हो ओर चिर फाल से
बन्धु-हीन हो। जो मंत्री तुम घाहते हो, उसे केवल युद्ध-द्वारा प्राप्त
करते हो ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९४७
१४, इन्द्र, बन्धुता के लिए केवल धनी (अयाशिक) मनुष्य को
घर्यो नहीं आश्चित करते ? इसलिए कि अयाज्ञिक मनुष्य सुरा (सद्य)
पान करके प्रमत्त होते और तुम्हारी हिसा करते हैँ । जिस समय तुम
स्तोता को अपना समझकर घन आदि देते हो, उस समय वह तुम्हें पिता
समभाकर बुलाता है । |
१५. इन्द्र, तुम्हारे समान देवता के बन्धुत्व से बञ्चित होकर हम
सोमाभिषय-शून्य न होमे पावें। सोमाभिषव होने पर हल एकत्र उपवेशन
करेंगे ।
१६. गोदाता इन्द्र, हम तुम्हारे है। हम घन-शुन्य न होने पावें ।
हम दूसरे के पास से धन न ग्रहण करें। तुम स्वामी हो । हमारे पास
तुम दृढ धन दो । तुम्हारे दान की कोई हिंसा नहीं कर सकता ।
१७. में हव्यदाता हूँ । क्या इन्द्र ने मुझे (सोभरि को) यह दान दिया
हैं ? अथवा झोभन-घवा सरस्वती ने दिया है ? अथवा हे चित्र (चित्र
राजा नामक यजभान), तुमने ही दिया है ?
१८. जैसे मेघ वृष्टि-द्वारा पृथिवी को प्रसन्न करता है, वैसे ही सरस्वती
नदी के तीर पर रहुनेवाले अन्य राजाओं को सहस्र और अयुत (दश-
सहस्र) धन देकर चित्र राजा उन्हे प्रसन्न करते है ।
२२ सुत्त
(देवता अश्विद्वय । ऋषि कण्व-पुत्र सोभरि । छन्द् ककुपू,
बृहती और अनुष्टुप्)
१. अदिवद्वय, तुम सुन्दर आह्वानवाले और स्तूयमान सार्यवाले हो।
सूर्या को वरण करने फे लिए तुम लोग जिस रथ पर चढ़े थे, आज, रक्षा
के लिए, उसी दर्शनीय रथ को बुलाता हूँ ।
२. सोभरि, कल्याणयाहिनी स्तुतियों के द्वारा इस रथ की स्तुति
फरो । यह रथ प्राचीन स्तोताओं का पोषक, युद्ध में शोभन आह्लान-
हँ”) ०५ rE
९४८ Cae एम
वाला, बहुतों के द्वारा अभिलपणीय, यबका रक्षक, सग्रास में अग्रगामी,
सबका भजमीध, शत्रुओं का बिदेदी ओर पार-रहित हूं
किक
३. शत्रओं के विसेता, प्रकारमान और ह॒व्यदाता यजमान के गहपति
be]
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श
अश्विद्वय, इस कर्म में रक्षा के लिए दमस्कार-द्वारा हम तुम्हें अपने अभि-
मुख करेंगे ।
४. अश्विद्वय, तुम्हारे रथ का एक चक्र स्वर्गलोक तक जाता हैँ और
दसरा तुम्हारे साथ जाता हैं । सारे कार्यो के प्रेरक और जलपति अदिवनी-
कुमारो, तुम्हारी मंगलमयी बुद्धि, घेन् के समान, हमारे पास आवे ।
५. अध्विद्वय, तीन प्रकार फे सारथि-स्थानोंबाला ओर सोने का
लगासवाला तुम्हारा प्रसिद्ध रथ आावापुथिवी को अपन प्रकाश से अलंकृत
,करता हें। नासत्यद्दय तुम लोग पूर्योक्त रथ से आओ।
६. अश्विद्वय, यलोक (स्वग) में स्थित प्राचीन जल को मन् के
लिए देकर तुमने लाङ्गल (हुल) से यव (जो) की खतो की थी या
मनुष्यों को कृषि-कार्य की शिक्षा दी थी। जल-पालक अविद्य, आज
सुन्दर स्तुति द्वारा हम तुम्हारी स्तुति करते हें ।
७. अञ्न और घनवाले अदिवद्वय, यज्ञ-माग से हमारे पास आओ।
धन को सेचन अथवा दान करनेवाले अश्विद्य, इसी मार्ग से तुमने
त्रसदस्यु के पुत्र तुक्षि को प्रचुर घन देकर तुप्त किया था।
८. नेता और वर्षणशील घनवाले अश्विद्वय, तुम्हारे लिए पत्यरों
से यह सोम अभिषुत हुआ हूँ। सोम-पान के लिए आओ ओर हुव्य-
प्रदाता के घर सं सोम पियो।
९, वर्षणशील घनवाले अश्विद्वय, सोने के लगाम आदि से सम्पन्न,
आयुधों के कोश और रमणशील रथ पर चढ़ो।
१०. जिन रक्षणों से तुमने पकूथ राजा की रक्षा की थी, जिनसे
ध्िगु राजा को रक्षा की थी और जिनसे बन्न राजा को सोमपान द्वारा
प्रसस्त किया था, उन्हीं रक्षणों के साथ बहुत ही शीघ्र हुमारे पास आओ
और रोगी की चिकित्सा करो।
हिन्दी-त्रद्ग्वेद ९४९
११. हम स्वकम में शी घ्रताकारी और मेधावी हैँ! अध्विद्यय, तुम
लोग युद्ध में शत्रु-बध के लिए शीफघ्रकर्ता हो। दिन के इस प्रातःकाल
में स्तुति हारा हम तुम्हें ब॒लाते हें।
१२. वर्षणशीऊ अश्विद्य, विविध-रूप, समस्त देवों के द्वारा बरणीय
मेरे इस आह्वान के अधिसुख, उन सारी रक्षाओं के साथ आओ। तुम
लोग हवि के अभिलाषी, अतीव धनद और युद्ध में अनेक शत्रुओं के
अभिभविता हो। जिन रक्षणो से तुमने कूप को वद्धित किया है, उनके
साथ पधारो।
१३. उन अच्विद्ठय को इस प्रातःकाल में अभिवादन करता हुआ
झे उनकी स्तुति करता हूँ। उन्हीं दोनों के पास स्तोत्र-द्वारा धनादि की
याचन। करता हूँ।
१४. वे जल-पालक और युद्ध में स्तुयमान मार्ग हैं। रात्रि, उषःकाल
और दिन में सदा हम अश्विद्य को बुलाते हुँ। अन्न और धन अध्विद्दय,
शत्रु के हाथ में हमें नहीं देना।
१५. अविद्य, तुम सेचन-शील हो। में सुख के योग्य हूँ। प्रातः-
काल में मेरे लिए रथ से सुख ले आओ। में सोभरि हूँ। अपने पिता के
समान ही तुम्हें बुलाता हूं।
१६. मन के समान शीघ्रगामी, धन-वर्षक, शत्रु-नाशक और अनेकों
के रक्षक अश्विद्वय, शीघ-गामिनी ओर विविधा रक्षाओं के साथ, हमारी
रक्षा के लिए, पास में आओ।
१७. अझ्विद्वय, तुम अतीव सोपवाता, नेता और वशेनीय हो।
हुमारे यञ्ञ-माग को अस्व, गो और सुवर्णे से युक्त करके, आओ।
१८. जिसका दान सुन्दर हें, जिसका वीर्य सुन्दर हे, जिसका सुन्दर
रूप सबके लिए वरणीय हे ओर जिसे बली पुरुष भी अभिभूत नहीं कर
सकता, एसा ही घन हम धारण करते हुँ। अन्न और धन (बलयुक्त धनी)
अविद्य, तुम्हारा आगमन होने पर हम सारा धन प्राप्त करेंगे ।
९५० हिन्दी-क्रम्वेद
२३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि व्यश्च के पुत्र विश्वमना । छन्द उप्णिक् ।)
१. शत्रुओं के विरुद्ध गनत करनेवाले अग्नि हैं। उन्हीं की स्तुति
करो। जिनका घूम-जार चारों ओर झँलता हें, जिनकी दीप्ति को कोई
पकड़ नहीं सफता और जो जात-प्रल हैं, उन अग्नि को पूजा करो।
२. सर्भार्थ-वर्शक “एरयशका” ऋषि, सात्सरय-शून्य यजमान के लिए
रथादि के दाता अग्नि की, वाक्य-द्वारा, स्तुति करो ।
३. शात्ुओं फे बाधक और ऋघाओं-्रारा अनीय अग्नि जिनके
भश्च ओर सोमरस को ग्रहण करते हे, घे धम प्राप्त करते हें।
४. अतीव दोप्तिमान्, ताप-दाता, दण्ड-सम्पच्न, शोभन दीप्तिवाले
और यणसानों के आश्रित अग्नि का राज-शभ्य तथा अभिवव तेज उठ
रहा है। |
५. शोभनयज्ञ अग्नि, सामने विशाल दीप्ति से दीपनशील और
स्तुयमात तुम थोतमाना ज्याला के साथ उठो।
६. अग्नि, तुम हव्य-वाहक दूत हो; इसलिए देवों को हव्य देते हुए
सुन्दर स्तोत्र फे साथ जाओ।
७. मनुष्यों के होम-सम्पादक और पुरातन अग्नि को में बुलाता
हँ । इस सुक्त-रूप वचन-द्वारां उन अग्नि को में प्रशंसा करता हूँ।
तुम्हारे ही लिए उन अग्नि की में स्तुति करता हूं ।
८. बहुविध प्रज्ञावाले, मित्र और तुप्त अग्नि की कृपा से यज्ञ और
सामर्थ्यं से यज्ञवाछे यजमान कौ मनःकामना पूर्ण होती ह
९. यज्ञामिलाषियो, यज्ञ के साधन और यज्ञवाले अग्नि की, हृष्यवारे
यज्ञ में, स्तुति-वाक्य-द्वारा, सेवा करो ।
१०. हमारे नियत यज्ञ अङ्गिरावाले अग्नि के अभिमुख जायं। ये
मनुष्यों में होम-निष्पादक और अतीव ग्रशस्वी हूँ।
£ ए फ गकल ४२, ९८३
११. अजर अग्नि, तुम्हारी दीप्पयान और महान् रश्मियाँ काम-
बर्षक होकर अश्व के समान बल प्रकट करती हैं।
१२. अघ-पति अग्नि, हमारे लिए तुस शोभन वीर्यवाला घन दो।
हमारे पुत्र और पोत्र के पास जो धम हुँ, उसे युद्ध-काल में बचाओ।
१३. मनुध्य-रक्षक ओर तीक्ष्ण अग्नि प्रसन्न होकर जभी मनुष्य
के गृह में अवस्थित होते है, तभी वह॒ सारे राक्षसों को विनष्ट
करते हैं ।
१४. हे बीर और पघन॒व्य-इहऊुक अग्नि, हमारे नये स्तोत्र को सुनकर
मायावी राक्षो को तापक तेज के हारा जरूाओ।
१५. जो मनुष्य हृष्यदाता ऋतिविकों के द्वारा अग्नि को हुव्य प्रदान
करता है, उसको मनुष्य-दात्रु माया-हारा सी वशा में महीं कर सकता।
१६. अपने को धन का वर्षक बनाने की इच्छा से व्यव नामक
ऋषि ने तुम्हें प्रस्त किया था; क्योंकि तुम धनद हो। हस भी महात् घन
फे लिए उन अग्नि को जलाते हूं ।
१७. यज्ञशील और जातप्रज् काव्य (कविपुत्र = उना ऋषि) ने
मनु के घर में तुम्हें होता के रूप से बैठाया था।
१८. अग्नि, समस्त देवों ने मिलकर तुम्हें ही दूत नियुक्त किया था।
देव अग्नि, तुम देवों में मुख्य हो। तुम उसी समय यज्ञ-योग्य हो गये थे।
१९, अमर, पवित्र, धञ्ज-मार्यं और तेजस्वी इन अग्नि को वीर वा
समर्थं मनुष्य ने दूत बनाया था।
२०. सुक ग्रहण करके हम सुन्दर वीप्तिवाले, शुञ्रवण, तेजस्वी,
मनुष्यों के लिए स्तवमीय और अजर अग्नि को हम बुळाते हैं ।
२१. जो मनुष्य हष्प-दाता ऋत्विकों के द्वारा अग्नि को आहुति देता
हे, वह प्रचुर पोषक और वीर पुत्र, पोत्र आदि से युक्त अन्न प्राप्त
करता है ।
२२. देवों में मुखय, जात-प्रज्ञ और प्राचीन अग्नि के पास हव्य-युक्त
स्नुक् नमस्कार के साथ अग्नि के पास आता हूँ ।
९५२ हिन्दी-त्रदग्वेद
२३. व्यश्व के समान स्तुति-द्वारा प्रशस्यतम, पुज्यतम ओर श्र
दीप्ति से युक्त अग्नि की, हम, परिचर्या करते हें।
२४. व्यश्व-पुत्र विश्वमा ऋषि, स्थिलयप नामक ऋषि के
समान तुम यजमान के गृह में उत्पन्न ओर विशाल अस्त्रि की, स्तोत्र द्वारा,
पुजा करो।
२५. मेवावी (विश्र) यजमान मनुष्यों के अतिथि ओर वनस्पति के
पुत्र तथा प्राचीन अग्नि की, रक्षण के लिए, स्तुति करते हूं
२६. अग्नि, समस्त प्रधान स्तोताओं के साममे तुम कुश के ऊपर
बठो . तुम स्तुति के योग्य हो। मनुष्य-प्रदत्त हव्य को स्वीकार करो।
२७. अग्नि, वरणीय प्रचुर धन हमें दो। बहुतों द्वारा अभिलषणीय
तथा सुन्दर बीयवाले पुत्र, पौत्र आदि फे साथ, कीत्ति से युक्त, धन
हमें दो।
२८. तुम वरणीय, बासदाता और युवक हो। जो सुन्दर साम-गान
करते हुँ, उनको लक्ष्य करके सदा धन आदि भेजो।
२९. अग्नि तुम अतिशय दाता हो। पशु से युक्त अन्न ओर महाधन
के बोच देने योग्य धन हमें प्रदान करो ।
०. अग्नि, तुम देवो में यशस्वी हो; इसलिए तुस सत्यवान्, भली
भांति विराजमान ओर पवित्र बल से युक्त मित्र ओर बरुण को इस कर्म
में ले आओ।
२४ सूक्त
(देवता इन्द्र । श्रन्तिम तीन मन्त्रों के देवता सुपाम राजा के पुत्र
वरु का दान । ऋषि व्यश्व-पुत्र वयश्व । छन्द उष्णिक् ।)
१. मित्र ऋत्विको, वज्ञघर इन्द्र के लिए हम इस स्तोत्र को करेंगे ।
तुम लोगों क लिए संग्रामों में आयुधों के नता और शत्रओ के धर्षक
इन्द्र के लिए में स्तुति करूंगा ।
हिन्दी-ऋग्देद ९५३
२. इन्द्र, तुम बल के द्वारा विख्यात हो। वृत्रासुर का वध करने के
कारण तुम वृत्र-हन्ता हुए हो। तुम श्र हो। घन-द्वारा धनवान व्यक्ति
को अधिक घन देते हो।
३. इन्द्र, तुम हमारे द्वारा स्तुत किये जाने पर नानाविध अल्लो से
युक्त धन हमें प्रदान करो। अइववाले इन्द्र, तुम विर्गेमन-समय में ही
शत्रुओं के वासदाता और दाता होते हो।
४. इन्द्र, हमारे लिए तुम धन प्रकाशित करो। झन्रु-दारक, स्तूयमान
होकर तुम धृष्ट मन के साथ वही धन हमें दो।
५. अश्ववाले इन्द्र, गोओं के खोजने के समय तुम्हारे प्रति योद्धा
लोग तुम्हारा बाँया और दहिन हाथ नहीं हटा सकते। प्रतिरोधक वृत्र
आदि भौ तुम्हारे हाथों को नहीं हटा सकते--तुम अबाधित हो।
६. वउप्रधर इन्द्र, स्तुति-वचनों के द्वारा तुम्हें में प्राप्त होता हूँ।
इसी प्रकार से लोग गौओं के साथ गोष्ठ को प्राप्त होते हँ।
७. इन्द्र, तुम वृत्रादि के सवं-श्रेष्ठ विनाशक हो। हे उग्र, वासदाता
और नेता इन्द्र, विइवसना नामक ऋषि के सारे स्तोत्रों में उपस्थित
होना।
८. वृत्रघ्न, शर और अनेकों के द्वारा बुलाय जाने योग्य इन्द्र,
नवीन, स्पृहणीय ओर सुखादि का साधक घन हम प्राप्त करेंगे।
९. सबको नचानेवाले इन्द्र, तुम्हारे बल को शत्रु लोग नहीं दबा .
सकते । बहुतों के द्वारा बुलाय गये इन्द्र, हव्यदाता को जो तुम दान करते
हो, उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता।
१०. अत्यन्त पूजनीय और नेताओं में श्रेष्ठ इन्द्र, महान् धन के
लाभ के लिए अपने उदर को सोम-द्वारा सींचो। धनी इन्द्र, धन-प्राप्ति के
लिए तुम सुदृढ शात्रु-पुरियों को विनष्ट करो।
११. वप्त्री और घनी इन्द्र, हुम लोगों ने तुमसे पहले अन्य देवों के
निकट आशाय की थीं; (परन्तु निष्फल) । इस समय तुम हमें धन और
रक्षण दो।
९९४ हिष्दी-ऋग्येव
१२, मचानेचारे और स्तोत्र-पात्र इस, अन्न-प्रफाशक यश और बल
हे लिए तुम्हारे सिवा अन्य किसी फो नहीं जानता डू ।
१३. इन्द्र के लिए ही तुम सोम-सिचन करो (सोम चुआओ) । इन्द्र
होममय मधु (रस) पियें। वह अपने महत्व और अन्न के साथ घनादि
भेजते हैं।
१४. अइवों के अधिपति इन्द्र की में स्तुति करूँ। थे अपना वद्धक
छल दूसरे को देते हं। स्तोता व्यश्व ऋषि के पुत्र की (मेरी) स्तुति
सुनो ।
१५. इन्द्र, प्राचीन समय में तुमसे अधिक घनी, समथ, आशयदाता
और स्तुति-युक्त कोई नहीं उत्पन्न हुआ।
१६. ऋत्विक्, तुम मदकर सोम-रूप अन्न के अतीव मदकर अंश
(सोसरस) का, इन्द्र के लिए, सेचन करो। इन वीर ओर सदा वद्धनझील
इर की ही लोग स्तुति करते हें।
१७. हरि नामक अश्यौं के स्वामी इन्द्र, तुम्हारी पहले की की गई
स्तुलियों को कोई बल अथवा धन के कारण नहीं लाँघ सकता ।
१८. अन्नाभिलाषी होकर हम, जिन यज्ञों मे ऋर्विकगण प्रमत्त नहीं
होते, उन्हीं यज्ञों के द्वारा, वर्शनीय अश्नपति इन्द्र को बुलाते हैं।
१९. मित्रभूत ऋत्विको, तुम शीघ्र आओ। हुम स्तुति-योग्य नेता
इन्द्र की स्तुति करेंगे। यहु इन्द्र अकेले ही सारी शत्रु-सेना को अभिभूत
करते है।
२०. ऋषत्विको, जो इन्द्र स्तुति को नहीं रोकते, स्तुति की अभिलाषा
करते हूं, उन्हीं दीप्तिशाली इन्द्र के लिए घूत और मधु से भी स्वादु और
अत्यन्त मौठा सचन कहो।
२१. जिन इन्त्र के बीर-कर्म असीम हैं, जिनके घन को शश्र नहीं पा
सकते और जिनका दान, ज्योति (अन्तरिक्ष) के सभाय, सारे स्तोताओं
को व्याप्त करता हें--
हिन्दी-ऋग्वेद ९५५
२२. उन्हीं न मारने योग्य, बली और स्तोताओं के हारा नियन्त्रित
इन्द्र की, व्यच ऋषि के समान, स्तुति करो। स्थामी इन्द्र हथ्यदाता को
प्रशस्त गृह देते हैं।
२३. व्यशव के पुत्र विद्वमना, मनुष्य के दसवें प्राण इन्द्र हुँ; इसलिए
अभिनव, विद्वान् तथा सदा नमस्कार के योग्य इन्द्र की स्तुति करो।
२४. जसै आदित्य प्रतिदिन पक्षियों का उड़ना जानते हैं, वसै ही,
हे बज1हुस्त इन्द्र, तुम विऋतियों (राक्षसो) का गमन समते हो।
२५. अतीव वशंनीय इन्द्र, कर्म निष्ठ यजमान के लिए हमें अपना
आश्रय दो। कुत्स नामक रार्जाष के लिए तुमने दो प्रकार से शत्रुओं का
वघ किया हें। हमें बही रक्षा दो।
२६. अतीव दर्शनीय इन्द्रे, तुम स्तुति-योग्य हो। देने के लिए तुमसे
हम धन की याचना करते हुँं। तुभ हमारी सारी झत्रु-सेना के अभिभव-
कर्ता हो।
२७. जो इन्द्र राक्षस-विहित पाप से मुक्त करते हैं और जो सिन्धु
आदि सातौं नदियों के तट पर वर्तमान यजमानों के पास घन भेजते हैं,
वही तुम, हे बहु-धनी इन्द्र, असुर शत्रु के वध के लिए अस्त्र नीचे करो।
२८, खथ राजा, अपने “पितर” सुषामा राजा के लिए प्राचीन समय
में जैसे तुमने यायकों को धम विया था, वेसे हो इस समय व्यश्वो (हम
लोगों) को दो। शोभन घनवाली और अञ्नवाली उषा, तुम भी धन वो।
२९. मनुष्यों के हितैषी और सोमवाले यजमान (वरु) की दक्षिणा
सोम से युक्त व्यश्व-पुत्रों (हम लोगों) के पास आवे। सौ और हजार
स्थूल धन हमारे पास आवें।
३०. उषादैवी, जो तुमसे पूछते हें कि “बर कहां रहते हैं”, वे अप-
जिज्ञासु हैं। यदि तुमसे कोई पूछे कि “कहाँ”, तो सबके आश्रघ-स्थछ
आर छत्र-निवारक यह वरु राजा गोमती के तट पर रहते है--एसा
कहना ।
९५६ हिन्दी-ऋणग्वेद
४५ सूत्त
देवता १०-१२ तक दिश्वदेदगछ, अवरिष्ट के मित्र ओर
बरुण | व्यश्व के पुत्र वयश्य (विश्वमना) ऋप। छन्द्
उष्णिक् ओर उष्णिग्गमा
१. समस्त संसार के रक्षक सित्र और वरुण, देवों में तुम भजनीय
हो। हथि:-प्रदाद के लिए तुम यजमान का आश्रय करो। व्यश्व, यज्ञवान्
और विशुद्ध बलवाले मित्र और वरुण का यज्ञ करो।
२. शोभन-कर्मा जो मित्र और वरुण धन और रथवाले हूँ, वे बहुत
समय से छुन्दर-अन्म! और अदिति के पुत्र तथा धृत-बत हे
सहूती और सत्यवती अदिति ने सर्वधनशाली और तेजस्वी उन्हीं
मित्र तथा वरुण को असर-हनन-बछ के लिए उत्पन्न फिया हैं।
४. महान्, सम्राट, बली (असुर) और सत्यवान् मित्र और वरुण
महान् यज्ञ का प्रकाशन करते हें।
५. महान् बल फे पोत्र, बेग के पुत्र, सुकर्मा और प्रचुर धन वेन वाले
मित्र और वरुण अन्न के निवास-स्थान में रहते हें।
६. मित्र और वरुण, तुम लोग धन तथा दिव्य और पृथिवी पर
उत्पन्न अन्न देते हो । जलवती यष्टि तुम्हारे पास रहे।
७. मित्र और वरुण, तुम सत्यवान्, सम्राट और हव्य-प्रिय हो।
तुम लोग प्रसन्न करने के लिए देवों को उसी प्रकार देखते हो, जिस
प्रकार गो-यूय को वृषभ देखता हे।
८. सत्यवान् और सुन्दर-फर्सा मित्र और वरुण साम्राज्य के लिए
बेठें। घृत-ब्रत और बली (क्षत्रिय) मित्र और वयण बल (क्षत्र) को
व्याप्त करें।
९. नेत्र होने के प्रथम ही प्राणियों को जाननेवाले, सबके प्रेरक और
चिरन्तन मित्र तथा वरुण दुःसह तेजोबल से शोभित हुए।
१०. अदिति देवी हमारी रक्षा कर। अश्विद्ठय रक्षा करें। अत्यन्त
वेगशाली मरुदूगण रक्षा कर।
pape Carraro
हेन्दी-पदम्वेद ९५७
११. शोभन दानवाले मरतो, तुम लोग अहिसित हो। तुम लोग
दिन-रात हमारी नोका की रक्षा करो। हम तुम्हारे पालन से इकदूछे
होंगे ।
१२. हम अहिसित होकर हिसा-शून्य सुदाता विष्णु की स्तुति करेंगे।
अकेले ही गुद्ध-कर्ता विष्णु, तुम स्तोताओ को धन देनेवाले हो। जिसने
यज्ञ प्रारम्भ किया हें, उसकी स्तुति सुनो।
१३. हम श्रेष्ठ, सबके रक्षक और वरणीय घन आशित करते हैं।
वित्र, वरुण और अर्यंसा इस धन को रक्षा करते हैं।
१४. हमारे धन की रक्षा पजन्य (मेघ) करे; मरुद्गण ओर अश्विद्वय
भी रक्षा करें; इन्द्र, विष्णु ओर समस्त अभीष्टवर्षक देवता सिलकर
रक्षा करें।
१५. वे देव पुज्य और नेता हैं। जैसे वेगशाली जल वृक्ष को उखाड़
फंकता हैं, बसे ही वे देव शी प्रगासी होकर जिस किसी भी शत्रु के प्रति-
कूल होकर उसका बिनाश कर डालते हेँ।
१६. लोकपति मित्र बहु-संस्यक प्रधान द्रव्यों को, अपने तेज से,
इसी प्रकार देखते हें। मित्र और वरुण सं से हम तुम्हारे लिए मित्र के
ब्रत को करते हूँ।
१७. हम साम्राज्य-सम्पन्न वरुण के गृह को प्राप्त करंगे। अतीव
प्रसिद्ध मित्र के ब्रत को भी प्राप्त करेंगे ।
१८. जो मित्र स्वर्ग और संसार के अन्त को, अपनी रश्मि से, प्रका
शित करते हें, अपनी महिमा से इन दोनों को पुर्ण भी करते हूँ।
१९. सुन्दर वीयंवाले मित्र और वरुण प्रकाशक आदित्य के स्थान
(आकाश) में अपनी ज्योति को विस्तृत करते हें। पश्चात् अग्नि
के समान शुक्रवण ओर सबके द्वारा आहूत होकर अचस्थान करते हेँ।
२०. स्तोता, विस्तृत गृहुवाले यज्ञ में मित्रावरुण की स्तुति करो
घरुण पशु-युषत अन्न के ईश्वर हें और महाप्रसञ्चताकारक अन्न देने में भो
समर्थ हे। |
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९५८ ६हुच्द।-तुण्त
२१, में भित्र और वरुण के उस तेज ओर दथावापुथिवी को दिन-रात
स्तुति करता हूँ। बरुण, सदा हमें दाता (दान) के अभिमुख करो ।
२२. उक्ष-गोत्र भें उत्पन्न और सुषासा के पुत्र बर राजा के दान में
प्रवृत्त होगे पर सारख्गासी, रजत के समान आर आइबों से युक्त रथ
हमको मिला था। सुषासा के पुत्र का रथ शत्रुओं फे जीवन और एइवथे
आदि का हरण करता हुं।
२३. हरित-बर्ण अब्बों के संघ में शत्रुओं के जिए अतीव बाधक तथा
कुशल व्यवितयों में मनुष्यों फे वाहक दो अद्रव, वर राजा-द्वारा, हमारे
लिए श्षीघ्र प्रदत्त हों।
२४. अभिनव स्तुति-द्वारा स्तब करते हुए शोभन रज्जुवाछे, कशा
(चाबुक) वाले, सन्तोषक और शीघ्-गसन दो (सुषामा के पुत्र बर के)
क्षदवों को में प्राप्त करूं।
२६ सूक्त
(देवता अश्यिद्यय । २०-२४ तक के वायु । ऋषि अङ्गिरोगोत्रीय
व्यश्व के पुत्र वेयश्य वा विश्वसना । छन्द गायत्री,
अनुष्टुप् ओर उष्णिक् |)
१, अहिसित-बल, वर्धक ओर घनशालो अदिवद्वय, तुम्हारे बल की
कोई हिसा नहीं कर सकता। स्तोताओं के बीच एुम्हारे एकत्र और शी घ+
गसन के लिए रथ को बुलाता हूं ।
२. सत्य-स्वरूष, अभिराष-प्रद ओर धनशाली अहिवद्वय, सुषमा
राजा के लिए महाधन देने के निमित्त तुम लोग जैसे आते थे, बसे ही
रक्षा के साथ आगमन करो। वरु, तुम इस बात फो कहो ।
३. अन्न, धन और बहुत अन्नवाले अश्विवद्वय, आज प्रातःकाल होने
पर तुम्हें हम हव्य-द्वारा बुलायेंगे ।
४, नेता अश्विद्वय, सबसे अधिक ढोनेवाळा और तुम्हारा प्रसिद्ध
रथ आगमन फरे। क्षिप्र-स्तोता फो ए३वर्य प्रदान करने के लिए उसके
सारे स्तोत्नों को जानो।
हिल्दी-ऋणग्वेद ९५९
५. अभिलाया-दाता और धनी अध्विद्वय, कुटिल कार्य-कर्ता शत्रुओं
को सामने उपस्थित जानो। तुम लोग रुद्र हो। हेषी शक्रओं को क्लेझ
प्रदान करो।
६. सबके दर्शनीय, कर्म-प्रीतिकर, सदकर कान्तिवाले ओर जल-पोषक
अधिवद्वय, तुम लोग शीघ्रगामी अइवों के द्वारा समस्त यज्ञ के प्रति आग-
सन करो ।
७. अझ्विद्ठय, विशव-पालक घन के साथ हमारे यज्ञ में आओ। तुम
लोग धनी, शूर ओर अजेय हो ।
८. इन्द्र और नासत्यद्वय (अश्विद्वय), तुम लोग अतीव सेव्यसाम
होकर मेरे यञ्च सं आज, देवों के साथ, आओ।
९. अपने लिए धन-वान की प्राप्ति की इच्छा से हम व्यएव के समाम
तुम्हें बुळाते हूँ । मेधावियो, कृपा करके यहाँ पघारो।
१०, ऋषि, अश्विद्वय की स्तुति करो। अनेक बार तुम्हारा आह्वाम
सुनते हुए अश्विद्वय समीपवर्ती शत्रु और पणियों को मारे ।
११. नेताओ, वेयशव का आह्वान सुनो। मेरे आह्वान को समझो ॥
बरुण, मित्र और अयंमा सवा मिले हुए हैं।
१२. स्तवनौय ओर अभिलाषप्रद अश्विद्वय, तुम लोग स्तोताओं को
जो देते हो और उनके लिए जो ले आते हो, वह प्रतिदिन मुझे दो।
१३. जेसे वधू वस्त्र से ढकी रहती है, बसे ही जो मनष्य यज्ञ से
आवृत्त (परिवृत) रहता है, उसकी परिचर्या (देख-रेख) करते हुए
अधश्विद्यय उसका सङ्कल करते हैं।
१४, अझ्विद्ठय, अतीव व्यापक और नेताओं के पान-योग्य सोस का
दान करना जो मनुष्य जानता हे, वैसे (ज्ञाता) मुझे पाने की इच्छा
करके तुम मेरे गृह मं पधारो।
| १५. अभिराष-प्रद और धनी अश्विद्वय, नेताओं फे पीने के योग्य
सोम के लिए हमारे घर पधारो। झनर-द्रोही शर के समान (व्याध शर
९६० हिन्दीलइग्वेद
से मुगवाले ईप्सित प्रदेश को प्राप्त करता हैं) स्तुति-वास्य-द्वारा यञ्च-
समाप्ति कर दो।
१६. सबके नेता अधिवद्वय, स्तोत्रों सें से स्तोम (सतुति-दिशेष)
तुम्हारे परस जाकर तुम्हें बलावे आर प्रसक्त करे ।
१७. अश्विद्ठय, यलोक के (नीचे) ऽस समुद्र में यदि तुम प्रमत्त
होओ अथवा अन्न चाहनेवाले यजमान के गृह में यदि मत्त होओ, तो,
अमरद्वय, हमारा यह स्तोत्र सुनो।
१८. नदियों में से स्पन्दन-शील और हिरण्य-मार्या इवेतयावरी
(इवेत-जला होकर बहमेवाळी) नाम की नदी स्तुति-द्वारा तुम्हारे पास
जाती है अथवा तुम्हारे रथ को ढोती हूं ।
१९. सुन्दर गमनवाले अझ्विद्वय, सुन्दर कीत्तिवालो, इवेतवर्णा और
पुष्टि-कारिणी इवेतयावरी नदी को प्रवाहित करो।
२०, वायु, रथ ढोनेवाले दोनों अइयों को योजित करो। वासदाता
वायु, पोषण के योग्य अश्विद्ठय को संग्राम में मिलाओ। वायु, अनन्तर
हमारे सदकर सोम का पान करो ओर तीनों सवनों में आओ।
२१. यञ्चपति, त्वष्टा (ब्रह्मा) के जामाता और विचित्र-कर्मा वायु,
घुम्हारा पालन हम प्राप्त कर सक ।
२२. हम त्वष्टा के जामाता और समर्थ वायु के समीप, सोम अभि-
बव करके, धन मांगते हैं। धन दान से हम धनी होंगे।
२३. वायु, द्युलोक मे कल्याण ले जाओ। अञ्च से युक्त रथ चलाओ।
लुम महान् हो। सोट पाश्वोवाले अइवों को अपने रथ में जोतो।
२४, वायु, तुम अतीच सुन्दर रूपवाले हो। तुम्हारे सारे अङ्क महिमा
से व्याप्त हूँ। सोमाभिषव के लिए पत्थर के समान यज्ञो में हम तुम्हें
बुलाते हुँ ।
२५. वायुदेव, देवों में तुम मुख्य हो। अन्तःकरण से प्रसन्न होकर
हमें अन्न, जल और कम प्रदान करो।
हिन्दी-ऋणग्वेद ९६१
२७ सूक्त
(देवता विश्वदेदशण । ऋषि विवस्वान् के पुत्र मनु। छन्द्
अयुच् बृहती, युच् बहती और सतोबृहती |)
१. इस स्तोत्रात्मक यज्ञ में अग्नि, सोमाभिषव के लिए प्रस्तर और
कुश अग्रभाग मं स्थापित हुए हैं। मरुद्गण, ब्रह्मगस्ददि और अन्य देवों
से, स्तुति-द्वारा, रक्षण की प्राप्ति के लिए, मे याचना करता हूँ ।
२. अग्नि, हमारे यज्ञ में पशु के निकट आते हो, इस पृथिवी (यज्ञ-
शाला) और वनस्पति के समीप आते हो और प्रातःकाल तथा रात्रि में
सोमाभिषव फे लिए प्रस्तर के निकट आते हो। सवेज्ञाता विइव-देवगण
हमारे कर्मो के रक्षक होओ।
३. प्राचीन यज्ञ अग्नि ओर अन्य देवों के पास, उत्तमता के साथ,
गमन करे एवम् आदित्यों, धृत-ब्रत वरुण ओर तेजस्वी मरुतों के निकट
भी गमन करे।
४. बहुधनशाली ओर झत्र-नाझक विश्वदेवगण सन् के वर्धन के लिए
हों। सर्वज्ञाता देवो, अहिसित पालन के साथ हमें बाधा-रहित गृह प्रदान
करो ।
५ विश्वदेबो, स्तोत्रों में समान-मना और परस्पर सङ्गत होकर,
बचन ओर ऋचा के साथ, आज के यज्ञ-दिन में हमारे निकट आओ।
मरुतो ओर सहत्वपुश अदिति देवी, हमारे उस गृह में विराजो।
६. सरतो, अपने प्रिय अश्वो को इस यज्ञ में भेजो अथवा अशवों से
युक्त होकर आओ। मित्र, हव्य के लिए पधारो। इन्द्र, वरुण और युद्ध
में शन्रु-वध के लिए क्षिप्रकर्ता तथा नेता आदित्ययण हमारे कुशो पर
खेठें।
७. वरुण, सन् फे समान हस (मनुवंशीय) सोमाभिषव करके और
अग्नि को समिद्ध करके, हवि को स्थापित ओर कुश का छेदन करते हुए,
तुम्हें बुलाते हूँ।
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८. मरदगण, विष्णु, अदिव्य और पुषा, सेरी स्तुति फे साथ यज्ञ
में पधारो। देवों के बीज प्रयम इन्द्र भी आवें। इच्घाभिजाषी स्तोता
लोग इनर को वृत्रहा कहते हैं।
९. प्रोह-श्ून्य देवो, हमें बाघा-शून्य गृह प्रदान करो। वासदाता
देवो, दूर अथवा समीप के देश से आकर कोई कभी वरणीय गृह की
[हिसा नहीं करता ।
१०. शघ्रु-भक्षक देवो, तुसमे स्वजातिभाव और बन्धुभाव हैं । प्रथम
अभ्युदय और नवीन धन फे लिए शीघ्र और उत्तमता से हमें कहो।
११. सर्वंधनवान् देयो, में अन्न की कामना करता हूँ। इसी समय
किसी से न की गई स्तुति को में, अभी तुम्हारे रमणीय धन फी प्राप्ति
फे लिए, करता हू ।
१२. सुन्दर स्तुतिथाले मरुतो, तुम लोगों में ऊद्ध्यंगारी और सबके
सेवनीय सविता (सबको कार्य में लगानेचाले) जब उगते हुँ, उस समय
मनुष्य, पशु और पक्षी अपने-अपने कार्यो में लग जाते हुँ ।
१३. हम प्रकाशक स्तुति के द्वारा स्तव फरते हुए तुम लोगो में से
दिव्य देवता को, कर्म-रक्षण के लिए, बुझाते हुँ। अभीष्सित की प्राप्ति
के लिए दीप्तिमान् देवता को बुलाते हुँ। अन्न-लाभ के लिए दिव्य देवता
को बुझाते हे।
१४. समान-कोधी विइवदेवगण सनु के (सेरे) लिए धनादि दान के
निमित्त एक साथ प्रयुक्त हों। आज और दूसरे दिन--सब दिनों में मेरे
लिए और मेरे पुत्र के लिए वरणीय (रुम्भजनीय) घन फे दाता हों।
१५. अहिसनीय देयो, स्तोत्र के आधार यज्ञ में तुम्हारी खूब स्तुति
करता छुँ । वरुण और मित्र, तुम्हारे शरीर के लिए जो हवि घारण करता
हँ, उसे शत्रुओं की हिसा बाधा नहीं देती।
१६. देवो, जो मनुष्य वरणीय घन के लिए तुम्हें हव्य देता हे,
बह अपना गृह बढ़ाता, अच बढ़ाता, यज्ञ के द्वारा प्रजा (पुत्रादि) से
सम्पन्न होता है और सबके द्वारा अहिसित होकर समृद्ध होता हुँ॥
हिन्दी-ऋणष्वेद ९६३
१७. यह् युद्ध के बिना भी घन प्राप्त करता हुँ, सुम्दर गमनवाले
अइवों से मार्ग को अतिकम करता हु तथा वित्र, वर्ण ओर अर्थमा मिलित
ओर समान दान से यूपत होकर उसकी रक्षा करते हैं।
१८. देयो, अगम्य और दुर्गस्य पथ को सुगम करो। यह अशनि
(आयुथ) किसी की हिसा न फरके बिविष्ट हो जाये।
१९. बल-ग्रय देवो, सूर्य फे उदित होने पर आज घुस फल्याणबाहक
गृह को धारण करो। सारे धनों से युबत देवो, सार्थंकाळ धारण करो,
प्रात:-काल धारण करो और मध्याह्न काळ में मनु के लिए घन धारण
रो ॥
२०. प्राज्ञ (असुर) देवो, यज्ञ के प्रति तुम्हारे लाभ के लिए हुचि
देनेयाले और यज्ञगामी यजसान को यदि तुम लोग गृह प्रदान करते हो,
तो हे वासदाला और सव-धन-संयुषत देवो, हम तुम्हारे उसी मंगलकर
गृह् में तुम्हारी पुजा करेंगे।
२१, सर्व-घम-सम्यन्न देखो, आज सुर्योवय होने पर, मध्याह्न में और
सायंकाळ में हव्यदाता ओर प्रकृष्ट ज्ञानी मनु ऋषि के (मेरे)
लिए जो रमणीय धन तुम लोग धारण करते हो----
२२. दीप्तिमान् देवो, तुम्हारे पुत्रों के समान हम बहुत छोगों के
भोग के योग्य उसी धन को प्राप्त करेंगे। आदित्यो, यज्ञ करते हुए हम
इस घन के हारा अतीव धनादुबता प्राप्त करेंगे।
२८ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि मनु । छन्द गायत्री और
१. जो तेतीस देवता कुशो पर बेठे थे, वे हमें समभ और बार-बार
हमें धन दें।
२. वरुण, मित्र और अर्यसा सुन्दर हव्य देनेवाले वजमानों कै साथ
मिलकर और देवपत्नियों के सहित, चानाविध बषद्कारो (हि, वौषट्
आदि शब्दों) के दारा बुलाएं गये हैं।
९६४ हिन्दी-म्टम्वेद
३. वे वरुणादि देव, अपने सारे अनुचरों के साथ, सम्मुख, पीछे,
ऊपर और नीचे हमारे रक्षक हों।
४. देवता लोग जेसी इच्छा करते हैं, वेसा ही होता ऐ। देवों की
कामना को कोई विनष्ट नहीं कर सकता। अदाता समुष्य (यदि बहु
हथि देने लगे) की भी कोई हसा नहीं कर सकता।
५. (इन्द्र के अंश-रूप) सात सस्तो के सात प्रकार के आदुध हूं,
सात प्रकार के आभरण हूँ और सात प्रकार की दीप्तियां हू ।
२९ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण | ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप वा वेवखत |
छन्द द्विपदा और विराट् |)
१. बञ्रुवर्ण (पीले रंग के), सवयं, रात्रियों के नेता, युबक और
एकाकी सोमदेव हिरण्मय आभरण को प्रकाशित करते हुँ ।
२. देवों में दीप्यमान, मेघावी ओर अकेले अग्नि अपना स्थान प्राप्त
करते हें ।
३. देवों के बीच निश्चल स्थान में वर्तमान त्यण्टा हाथों में लोहमय
कुठार को धारण करते हे।
४. इन्द्र अकेले हस्त-निहित वज/ धारण करते और वृत्रादि फा
नाश करते हैं।
५. सुखावह भिषक्, पवित्र और उग्र यद्र हाथों में तीखा आयुध
रखते हूं।
६. एक (पुषा) मागे को रक्षा करते हूँ। वे चोर के समान सारे
धनों को जानते हूँ।
७. एक (विष्णु) बहुतों की स्तुति के योग्य हैं। उन्होंने तीन पैरों
से तीनों लोकों का प्रकमण किया। इससे देवता लोग प्रसन्न हुए ।
८ वो (अझ्विद्वय) एक स्त्री (सूर्या) के साथ, वो प्रवासी पुरुषों
के समान, रहते और अइव-द्वारा संचरण करते हूँ।
हिन्दी-ऋणष्वेद ९६५
९--१०., अपनी कान्ति के परस्पर उपमेय दो (मित्र और वरुण)
अतीव दीव्तिशाली और धुतरूप हवियाले हुँ। वे द्युलोक के स्थान का
निर्माण करते हूं। स्तोता! लोग महान् साम-मन्त्र का उच्चारण करके
सुर्यं को दीप्त करते हु।
३० सूक्त
(देवता विश्वद््वगण । ऋषि वैवस्वत सनु । छन्द पुर उष्णिक्
वृहती ओर अनुष्डुप् ।
१. देवो, तम लोगों में कोई बालक नहीं है, कोई कुमार नहीं हे।
हुम सब महान् हो।
२. शत्र-भक्षक ओर मन् के (मेरे) यज्ञाह देवो, तुम लोग तेतीस
हो। इसी प्रकार तुम लोग स्तुत हुए हो। |
३. तुम लोग हमें राक्षसों से बचाओ और धनादि देकर हमारी रक्षा
करो। हमसे तुम लोग भली भाँति बोलो। देवो, पिता मनु से आय हुए
भार्ग से हमें भ्रष्ट नहीं करना; दूरस्थित मार्ग से भी भ्रष्ट नहीं करना।
४. देवो और यज्ञोत्पन्न अग्नि, तुम सब लोग हो। तुम सब यहाँ
ठहुरो। अनन्तर समत्र प्रख्यात सुख) गौ और अइव हमें दान करो ।
२१ सूक्त
(५ अनुवाक । देवता; १-४ ऋचाओं के यज्ञ आनन्तर यज्ञ-
प्रशंसा । ऋषि वेवस्वत मनु। छन्द अनुष्टुप् , पंक्ति
ओर गायत्री ।)
१. जो यजमान यज्ञ करता है, जो पुनः यज्ञ करता है, ह सोम का
अभिषव और परोडाशादि का पाक करता है और इन्द्र के स्तोत्र की बार-
बार कामना करता हृ।
२. जो पजमान इन्द्र को पुरोडाश और दुध-मिला सोम प्रदान करता
हुँ, निश्चय ही पाप से उसे इन्द्र बचाते हूँ।
छू द् प्र हि कु दः च ल के व कतार षच
FRE, toa) NE
CR BE
३. देष-प्रेशित और प्रकाशमान रथ उसी यजमाम का हो आता है
और वह उसके हारा शत्रु की बाधाओं को नष्ट करके समद होता हें।
४. पुत्रादि-युष्त, दिनाश-शन््य और घनुन्सहिति अञ्न प्रतिदिन इस
यजमान के गृह में प्राप्त किया जा सकता ६ ।
५. देवो, जो दम्पती एक सन से अभिषव करते हैं, दश्ापवित्र-हारा
सोम का शोधन करते हें ओर सिश्रण द्रव्य (क्षीरादि) के द्वारा सोस
को मिलाते हें--
.. ६ वे भोजन फे योण्य अन्न आदि प्राप्त करते ह ओर मिलकर
यज्ञ में आते हैं। वे अन्न के लिए कहीं नहीं जाते ।
७. वे दम्पती इन्द्रादि देवों फा अपलाप नहीं करते--तुम्हारी
शोभन बुद्धि को नहीं ढकते। महान् अञ्न फे द्वारा तुम्हारी परिचर्या
करते हें।
८. वे पृत्रवाले हुं--कुमार (पोडशवर्षीय) पुत्रबाले हुँ। वे स्वर्ण-
विभूषित होकर पूणं आयु प्राप्त करते हुँ।
९. प्रिय यज्ञवाले इन दम्पती की स्तुति देवों की कामना करती हे
वे देवों को सुखप्रद आझ्न प्रदान करते हुँ। वे उपयुपत घन हूँ। वे अमरत्व
या सन्तति के लाभ के लिए रोमश (पुरुषन्द्रिय) और ऊध (स्त्री की
जननेन्द्रिय) का संयोग करते हें। वे देवों की सेवा करते है ।
१०. हम पर्यंत फे सुख (स्थिरता आदि) और नदी के सुख (जप
आदि) को प्रार्थना करते हैं। देवों फे साथ विष्णु के सुख को भो हम
प्राथना करते हें।
११. धनों के वाता, भजनीय और सबके पोषक पुषा रक्षा फे साथ
आये । उनके आने पर विस्तृत मार्ग हमारे लिए मद्भालकर हो।
१२. शत्रुओं के द्वारा न दबने योग्य और प्रकाशक पुषा के सारे
स्तोता श्रद्धा से पर्याप्त स्तुति से युक्त होते हें। आदित्यों का दान पाप-
शुन्य होता हे ।
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१३. मित्र, वरुण और अर्यमा अंसे हमारे रक्षक है, वैसे ही सारे यज्ञ-
मार्ग भी सुगम हों।
१४. देयो, तुम लोगों के मुख्य और दीप्तिभान् अग्नि की, धन की
प्राप्ति के लिए) स्तुति-वचन फे द्वारा, स्तुति करता हूं । तुम्हारे परिचर्या-
कर्ता मनुष्य अनेक लोगों के प्रिय होते हें। वे यज्ञसाधक मित्र के समान
अग्नि फी स्तुति करते हे ।
१५. वेववान् व्यक्ति का रथ उसी तरह शीघ्र दुर्ग में प्रवेश करता
हे, जिस तरह श्र किसी सेना फे मध्य में घसता है। जो यजमान देवो
फे मन की स्तुति-द्वारा पुजा करने की इच्छा करता हे, वह यज्ञ-शुन््प को
हराता ह।
१६. यजसान, तुस विनष्ट नहीं होगे। सोसाभिषवकारी, तुम विनष्ट
नहीं होगे। देवाभिलाषी, तुम नहीं विनष्ट होगे। जो यजमान देवों के,
सन की ही पुजा करना चाहता हे, वह यज्ञ-रहितों को हराता है।
१७. जो यजमान देवों फे मन का यज्ञ करने की इच्छा करता हुँ,
उसे कर्म-द्वारा कोई व्याप्त नहीं कर सकता। वह कभी भी अपने स्थान
से अलग नहीं होता। यह पुत्रादि से भी पथक नहीं होता। जो यजमान
देवों फे मन की, स्तुति के द्वारा, पुजा करने की इच्छा करता है, वह यज्ञ-
शन्यों को अभिभूत करता हे।
१८. जो यजमान देवों के मन फा यज्ञ करने की इच्छा करता हे,
उसे सुन्दर घीर्ययाला पुत्र उत्पन्न होता हे, अइ्यों से युक्त धन भी उसे
होता है। जो यजमान देवों के मन की, स्तुति के द्वारा, पुजा करने की
इच्छा करता है, बह यञ्च-शन्यो को अभिभूत करता हेत
द्वितीय अध्याय समाप्त॥ .
९६८ हिन्दी-ऋणग्वेद
३२ सूक्त
(वृतीय अध्याय देवता इन्द्र । ऋषि कण्वगोत्रीय मेधातिथि |
छुन्द् गायत्री ।)
१. कण्वगण, इन्द्र की गाथा के द्वारा इन्द्र के मत्त होने पर तुम
लोग “ऋजीष” सोम के कर्मो को कोत्तित करो।
२. जल प्रेरित करते हुए उग्न इन्द्र ने सविन्द, अनशनि, पिश, दास
और अहोशुव का वध किया था ।
३. इन्द्र, मेघ के आबरक स्थान फो छेदो ! इस बवीर-कर्म का सम्पा-
दन करो ।
४. स्तोताओ, जसे मेघ से जल को प्रार्थना की जाती हें, वसे ही
शत्रुओं के दमन-कर्ता और शोभन जबड़ेवाले इन्त्र से तुम्हारी स्तुति सुनने
और तुम्हारी रक्षा की प्रार्थना करता हूँ ।
५. शुर, तुम प्रसन्न होकर शत्रु मगरी कै समान सोम के योग्य
स्तोताओं के लिए गो और अश्व के रहने के द्वार खोलते हो ।
६. इन्द्र, यदि मेरे अभिषुत सोम अथवा स्तोत्र में अनुरक्त हो और
यदि मुझे अन्न देते हो तो दुर देश से, अञ्न के साथ, पास आओ ।
७. स्तुति-योग्य इन्द्र, हम तुम्हारे स्तोता हैँ हे सोमपायी, तुम हमें
प्रसन्न करते हो ।
८. घनो इन्द्र, प्रसन्न होकर तुम हमें अक्षय्य अञ्न दो । तुम्हारे पास
प्रचुर धन हँ। |
९. तुम हमे गो, अइन और हिरण्य से सम्पन्न करो। हुम अप्न-
युक्त हों ।
१०. संसार की रक्षा के लिए इन्द्र भुजाओं को पसारले ओर पालन
के लिए साधु-कार्य करते हें । वे महान् उक्थवाले हुँ। हम इख को
बुलाते हुँ ।
९६९
११. जो इन्द्र संग्राम में बहुकर्मा होते और अनन्तर शत्रु-वध करते
हुँ, जो इन्द्र वत्र-हन्ता हैँ और स्तोताओं के लिए बहुधनवान् होते हे"
१२. वे ही शक्र (शक्त = इन्द्र) हमें शक्तिशाली करें । इन्द्र दानी हैं
और पे सारी रक्षायों के द्वारा हमारे छिद्रों को परिपुर्ण करते हुँ ।
१३. जो इन्द्र धन के रक्षक, सर्वोत्तम, शोभन पारवाले और सोम
भिषव-कारी के सखा हुँ, उन्हीं इन्द्र के लिए स्तुति करो ।
१४. इन्द्र आनेवाले, युद्भ-क्षेत्र सें अविचल, अन्न फे बिजेता और
बल-पुर्वक प्रचुर धन के ईइवर हें ।
१५. इन्द्र के शोभन कार्यों का कोई नियामक नहीं हे। इन्द्र दाता
नहीं हें, यह कोई नहीं कहता ।
१६. सोमाभिषवकारी और सोमपायी ब्राह्मणों (स्तोताओं) के पा
ऋण (देव-ऋण ) नहीं है । प्रचुर धनवाला ही सोमपान कर सकता है ।
१७ स्तुत्य इन्द्र के लिए गान करो । स्तुत्य इन्र के लिए स्तोत्र
उच्चारण करो । स्तुत्य इन्द्र के लिए स्तोत्रों को बनाओ ।
१८. स्तुत्य और बली इन्द्र न सैकड़ों और हजारों शत्रुओं को विदा
रित क्या हुँ। वे शत्रओं के द्वारा अनाच्छादित हें । वे यज्ञकारी के
वद्धेक हें ।
१९. आह्वान फे योग्य इन्द्र, मनुष्यों के हव्य के निकट विचरण करो
और अभिषुत सोम पियो ।
२०. इन्र, गाय के बदले में खरीदे गये और जल से प्रस्तुत किये
गये अपने इस सोम का पान करो।
२१. इन्द्र, कोध के साथ अभिषव करनेवाले ओर अनुपयुक्त स्थान
मं अभिषव करनेवाले को लांघकर चले आओ। हमारे हारा प्रदत्त इस
झभिषत सोम का पान करो।
२२. इन्द्र, हमारी स्तुति को तुमने देखा अथवा समका हे। तुम दुर
देश से हमारे आगे, पीछे और पाइ में आओ । तुम गन्धर्वो, पितरों,
देवों, असुरों और राक्षसों (पञ्चजनों) को लांघकर पधारो ।
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११. जो इन्द्र संग्राम में बहुकर्या होते और अनन्तर झत्रु-चघ करते
हुँ, जो इन्द्र वृत्रहन्ता है और स्तोताओं के लिए बहुधनवान् होते हें--
१२. वे ही शक्र (शक्त = इन्द्र) हमें शक्तिशाली करें । इन्द्र दानी हैं
और वे सारी रक्षाओ के द्वारा हमारे छिद्रों को परिपुर्ण करते है ।
१३. जो इन्द्र घन के रक्षक, सर्वोत्तम, शोभन पारवाले और सोमा-
भिषव-कारी के सखा हूं, उन्हीं इन्द्र के लिए स्तुति करो ।
१४. इन्द्र आनेवाले, युद्ध-क्षेत्र में अविचल, अन्न के विजेता और
बल-पूर्वक प्रचुर धन के ईश्वर हें ।
१५. इन्द्र के शोभन कार्यों का कोई नियामक नहीं हे। इन्द्र दाता
नहीं हें, यह कोई नहीं कहता ।
१६. सोमाभिषवकारी और सोमपायी ब्राह्मणों (स्तोताओं) के पास
ऋण (देव-ऋण) नहीं हे । प्रचुर धनवाला ही सोमपान कर सकता है ॥
१७ स्तुत्य इन्द्र फे लिए गान करो। स्तुत्य इन्द्र के लिए स्तोत्र
उच्चारण करो । स्तुत्य इन्द्र के लिए स्तोत्रों को बनाओ ।
१८. स्तुत्य और बली इन्द्र न सेकड़ों और हज़ारों शत्रुओं को विद
रित किया हूँ । वे झत्रुओं के द्वारा अनाच्छादित हें। वे यज्ञकारी के
वद्धक हें ।
१९. आह्वान के योग्य इन्द्र, मनुष्यों के हव्य के निकट विचरण करो
और अभिषुत सोम पियो ।
२०. इन्द्र, गाय के बदले में खरीदे गये और जल से प्रस्तुत किये
गये अपने इस सोम का पान करो।
२१. इन्द्र, क्रोध के साथ अभिषव करनेवाले और अनुपयुक्त स्थान
में अभिषव करनेवाले को लांघकर चले आओ । हमारे द्वारा प्रदत्त इस
अभिषु सोम का पान करो।
२२. इन्द्र, हमारी स्तुति को तुमने देखा अथवा समझा हे । तुम घुर
देश से हमारे आगे, पीछे और पाइर्व में आाओ। तुम गन्धर्वो, पितरों,
देवों, असुरों और राक्षसों (पञ्चजनों) को लांघकर पधारो।
न र ताली
NE
९७०
२३. सूयं जैसे किरणों को देते हं, बसे हौ घन दो । जँसे नीची
भूमि में जल मिलता है, बैसे ही मेरी स्तुतियाँ तुम्हारे साथ मिलें ।
२४. अध्यर्युओ, सुन्दर शिरस्त्राण अथवा जबड़ेवाले और वीर इन््र
के लिए शीघ्र सोम का सेचन करो । सोमपान के लिए इन्द्र को यलाओ ।
२५. जिन्होंने जल के लिए मेघ को भिन्न किया हे, जिन्होंने अन्त-
रिक्ष से जल को नीचे भेजा हे और जिन्होंने गोओं को पक्व दुग्ध प्रदान
किया है, वही इन हें ॥
२६. दीप्ति-समान इन्द्र ने य॒त्र, ओर्णनाभ और जअहीशुव का वध
किया है । इन्द्र ने तुषार-जल से मेघ को फोड़ा है ।
२७. उदगाताओ, उम्र, निष्ठर, अभिभवकर्सा और बरू-पुर्यक हरण-
कर्ता इन्द्र फे लिए देवों की प्रसन्नता से प्राप्त स्तोत्र गाओ ॥
२८. सोम को मत्तता उत्पन्न होने पर इन्द्र देयों फे पास सारे कर्मों
को सूचित करते हूं ।
२९. वे एक साथ ही प्रमत्त और हिरण्य केशवाले वोनो हरि नाम के
ह्यइव इस यज्ञ में सोम रूप अन्न के अभिमुख इन्द्र को ले आवें।
३०. अनेकों के द्वारा स्तुल इन्द्र, प्रियमेघ-हारा स्लुत अधिवद्वय, सोम-
पान के लिए, तुम्हें हमारे अभिमुख छे आयें।
३२ सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि कण्वगोत्रीय प्रियमेध । छन्द् बहती, गायत्री
ओर अनुष्टुप ।)
१. बृत्रध्न इन्र, हम लोगों ने सोमाभिषय किया हैं जल के समान
हम ठुम्हारे सामने आते हैं। पवित्र सोम के प्रसृत होने पर कुश-विस्तार
किये हुए स्तोता लोग तुम्हारी उपासना करते हँ ।
निवास-दाता इन्द्र, अभिषुत सोम फे निर्गत होने पर उक्थवाले
भेता लोग स्तोत्र करते हें। सोम के पिपासु होकर, बैल के समान शब्द
करते हुए, यज्ञ-स्थान में इन्द्र कब आयेंगे ?
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३. शञओों फे दमनकारी इख, कण्वों के लिए सहर्र-संश्यक अश्न
दो। घनी और विशेष द्रष्टा इन्द्र, हम धृष्ट, पिशंग (पीले) रूपवारे और
गोमान् अश्न की याचना करते हें ।
४. भेध्यातिथि, सोमपान करो। जो हरि नामक अइवों को रथ से
जोतते हैं, जो सोम में सहायक हे, जो वष्प्रधर हें और जिनका रथ सोने
का है, सोम-जन्य मत्तता होने पर उन्हीं इन्द्र की स्तुति करो।
५. जिनका बायाँ हाथ सुन्दर है, दाहिना हाथ सुन्दर है, जो ईश्वर,
सुन्दर-प्रस और सहस्नों के कर्ता हैं, जो यहुधनझाली हूँ, जो पुरी को
तोड़ते हुँ और जो यज्ञ में स्थिर ह, उन्हीं इन्द्र की स्तुति करी।
६. जो शत्रुओं फे घर्षक हुँ, जो शत्रुओं के द्वारा अश्नच्छादित हैं,
युद्ध मं जिनके आशित हुआ जाता है, जो प्रचुर घनवाले हैं, जो सोमपायी
हैं और जो बहुतों के द्वारा स्तुत हें वे इन्द्र स्वकमें में समर्थ यजमान के
लिए दुग्धदायिनी गौ के समान हैं। उन इन्द्र की स्तुति करो।
७. जो इन्द्र सुन्दर जबड़ेवाले हे, जो सोम-द्वारा परितप्त हें और जो
बल से पुरी का भेदन करते हुँ, सोमाभिषव होने पर ऋत्विकों के साथ
सोमपायी उन इन्द्र को फोन जानता हुँ? कोन उनके लिए अञ्न
धारण करता हे ?
८. जैसे शत्रुओं की खोज करनेवाला हाथी मद-जल धारण करता
है, वैसे ही इन्द्र यज्ञ में चरणशील मत्तता धारण करते हँ। इन्र, तुम्हें
कोई नियमित महीं कर सकता। सोमाभिषव को ओर पधारो। महान्
लुम बल फे द्वारा सर्वत्र विचरण करते हो।
९, इन्द्र फे उग्र होने पर शत्रु छोग उन्हें आच्छादित नहीं कर सकते ॥
वे अचल हे। वे युद्ध फे लिए शस्त्रो-द्वारा अलंकृत हें। धनी इन्द्र यदि
स्तोता का आह्वान सुनते हे, तब अन्यत्र नहीं जाते, केवल वहीं आते हे।
१०, उग्न इन्द्र तुम सचमुख ऐसे ही मतोरथ-वर्षक हो। तुम कास-
वर्षको के हारा आकृष्ट हो और हमारे शत्रुओं के छारा अनाच्छादित
हो। तुम अशीष्ट-वर्षक कहकर विख्यात हो। तुम दूर और समीप में
अभीष्टदर्षी कहकर विख्यात हो।
११. घनी इन्द्र, तुम्हारी घोड़े की रस्सियाँ (लगाम) अभीष्टवर्षक
हँ; तुम्हारी, सोने की कशा (चाबुक) अभीष्टवर्षक हें, तुम्हारे दोनों
अइव अभीष्टवाता हँ और हे शतऋतु इन्ब्र+, तुम अभोष्ट-वर्षक हो।
१२. कास-वर्षक इन्द्र, तुम्हारा सोमाभिषव करनेवाला अभीष्ट
बर्षक होकर सोम फा अभिषव करे। सरल-गामी इन्द्र, धन दो। इन्दर,
अइ्वों के अभिमुख स्थित और बर्षक तुम्हारे लिए जल में सोम का अभि-
षव करनेवाले ने सोम को धारण किया था।
१३. श्रेष्ठ बली इख, सोम-रूप मधु फे पान के लिए आओ। बिना
आये धनी और सुकृती इन्द्र स्तुति, स्तोत्र और उक्थ नहीं सुनते।
१४. वृत्रघ्न और बहुप्रज्ञ इन्द्र, तुम रथस्थ और ईश्वर हो। रथ में
जोते हुए अश्व दूसरों के यज्ञों का तिरस्कार करके तुम्हें हमारे यज्ञ में
ले आवें।
१५ महामह (महापुञ्य) इन्द्र, आज हमारे समीप के सोम को
धारण करो। वीप्त सोम फे पीनेवाले इन्द्र, सुम्हारी मत्तता के लिए
हमारे यज्ञ कल्याणवाही हों।
१६. वीर इन्द्र हमारे नेता हुँ। वे मेरे, तुम्हारे और दूसरे के शासन
में प्रसन्न नहीं होते।
१७. (मेध्यातिथि के धनदाता प्रायोग जिस समय पुरुष से स्त्री
हुए थे, उस समय) इन्द्र ने ही कहा था कि स्त्री के मन का शासन
करना असम्भव हँ। स्त्री की बुद्धि छोटी होती हे।”
. १८. सोम के अभिमुख जानेवाले दोनों अइव इन्र के रथ कोले
जाते हें। इसी प्रकार अभीष्ट-वर्षक इन्द्र का रथ अश्वो की दृष्टि से
श्रेष्ठ हे।
१९. (इन्द्र ने कहा) प्रायोगि, तुम नीच देखा करो, ऊपर नहीं।
(स्त्रियों का यही घमं हे।) पेरों को संकुचित रक्खो (मिलाये रक्खो) ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९७३
(इस प्रकार कपड़े पहनो कि) तुम्हारे कश (ओष्ठ-प्रान्त) और प्लक
(नारी-कटि का निम्न भाग) को कोई देखने नहीं पावे। यह सब इसलिए
फरो कि तुम स्तोता होकर भी स्त्री हुए हो॥
३४ सूक्त
(दैवता इन्द्र। ऋषि कण्वगोत्रीय नीपातिथि। छन्द अनुष्टुप्
शक
बाते
ओर गायत्री ।)
१. इन्द्र, अइयों के साथ तुम कण्यों की सुन्दर स्तृति के अभिमुख
आओ । इन्द्र द्युलोक का शासन करते हुं। दीप्त हविवाले इन्द्र, तुम
हुलोक में जाओ। |
२. इस यज्ञ में सोमवान् अभिषव-प्रस्तर शब्द करते हुए, ध्वनि के
साथ, तुम्हें दान करे। इन्द्र, दुळोक का शासन करते हें। दीप्त हुव्यवाले
इन्र, तुम द्युलोक मं जाओ।
३. इस यज्ञ मं अभिषव-पाषाण सोमलता को उसी प्रकार कंपाता
हे, जिस प्रकार तेंदुआ भेड़ को कंपाता हुं। इन्द्र दुलोक का शासन करते
हुँ। दीप्त हृव्यवाले इन्द्र, तुम द्युलोक में जाओ।
४. रक्षण और अञ्न-प्राप्ति के लिए कण्व लोग इन्द्र को इस यज्ञ में
बुझाते हें। इन्त्र द्युलोक का शासन करते ह। दीप्त हव्यवाले इन्द्र, तुम
बुलोक में जाओ।
५. फामवर्षक वायु को जैसे प्रथम सोमरस प्रदान किया जाता है,
घैसे ही में तुम्हें अभिषुत सोम प्रदान करूंगा। इन्द्र द्युलोक का शासन
करते हैँ । दीप्त हुव्यवाले इन्द्र, लुम यूलोक में जाओ।
६. स्वर्ग के कुदुम्बी इन्द्र, तुम हमारे पास आओ। सारे संसार के
रक्षक इन्द्र, हमारे रक्षण के लिए आओ। इन्द्र, झुलोक का शासन करते
हें । दीप्त हव्यवाले इन्द्र, तुम द्युलोक में जाओ।
७. महामति, सहस्र रक्षावाले ओर प्रचुर घनी इन्द्र, हमारे पास
रे
बे हिन्दी-एग्देद
आओ। इन्र थुलोक का शासन करते हैं। दीप्त ह॒व्यवाले इख, तुम
शुलोक
जाओो। ,
इन्द्र, देवों में स्तुत्य ओर मनुष्यों फे द्वारा गृह में स्थापित होता
अग्नि तुम्हें बहून कर। इन्द्र, दुलोक का शासन करदे ६१ दीप्त हुव्यवाले
इन्द्र, तुम घुलोक में जाओ।
९. जैसे श्येन पक्षी (बाज) अपने दोनों पंसखों को ढोता हुँ, बैसे ही
मदस्रावी अइवद्दय तुम्हें बहन करें। इन्त्र थुलोक फा शासन करते हूँ।
दीप्त हुव्यवाछे इन्ग्र, तुम थुलोक में जाओ।
१०. स्वामी इख्र, सुभ चारों तरफ से आओ। तुम्हें पीने के लिए
में सोम का स्वाहा करता हूँ। इन्द्र युलोक फा शासन करते हें। दीप्त
हव्यवाले इन्द्र, तुम थुलोक में जाओ।
११. उकथों का पाठ होने पर तुम इस यज्ञ में हमारे समीप आओ
ओर हमें प्रसन्न करो। इन्र शुलोक का शासन करते हैं। वीप्त हव्यवाछे
इस्प्र, तुम घुलोक में जाओ।
१२. पुष्ट अश्ववाले इन्ग्र, पुष्ट और समान रूपयाले अइवों के साथ
आओ। इनर घुलोक का शासन करते हूँ। दीप्त हव्ययाले इन्द्र, तुम
शुळोक में जाओ।
१३. तुम पर्वत से आाओ। तुम उअन्तरिक्ष-प्रदेश से आओ। इन्ग्र
दयलोक का शासन करते हे। दोप्त हुव्यवाले इन्द्र, तुम थुलोक में
जाओ।
१४. शूर इन्त्र, तुम हमें सहस्र गाये ओर अश्व दो। इख घुलोक का
शासन करते हें। दीप्त हूव्यवाले इन्द्र, तुम युछोक में जाओ।
१५. इन्द्र, हमें सहस्र, ददा सहर ओर सो अभीष्ट दान करो। इन्द्र
यलोक का शासन करते हूं। वीप्त हव्यवाळे इन्द्र, तुम युलोक में जाओ।
१६, हम धन के द्वारा सुशोभित होते हुँ। सहस्र इंश्यक हम ओर
नेला इन्द्र बलवान् अश्व-पशु ग्रहण करते हँ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ९७५,
१७. सरलगामो) वायु फे समान वेगवाले, रुचिकर और अल्प-आछ्रे
अइव सूयं फे समान कान्ति पाते हैं।
१८. जिस रामय पारावत ने रथचको को गतिशील बनानेवाले हुल
अशवो को प्रदान किया था, उस समय सें वन के मध्य में था॥
३५ सूक्त
(देवता अश्विद्ठय । ऋषि कण्वगोत्रीय श्यावाशव। छुन्द्
ज्योति, पंक्ति ओर महाबृहती ।)
१. अश्विद्ठय, तुभ लोग अग्नि, इन्द्र, वरुण, विष्णु, आदित्यगण,
सुद्रगण और वसुगण के साथ और उषा तथा सूर्य के साथ मिलकर
सोम-पान करो।
२. बली अश्विय, तुम लोग सारी प्रजा, घ्राणि-ससुदाय, यलोक,
पृथिवी और पर्वत फे साथ तथा 'उषा और सुर्य के साथ मिलकर सोम
का पान फरो।
३. अश्विद्वय, तुम लोग इस यज्ञ सें भक्षणकर्ता तेंतीस देवों, मरुतों
और भुगुओ के साथ तथा उषा और सुर्य से सिलकर सोम-पान
करो ।
४. देव अश्विद्ठय, तुम लोग यज्ञ का सेवन करो। मेरे आह्वान को
समभो। इस यज्ञ में सारे सवनों को प्राप्त करो। उषा ओर सूर्य के
साथ मिलकर हमारा अन्न ग्रहण करो।
५. देव अङ्विद्वय, जैसे युबक कन्याओं की बुलाहट को सेवित करले
है, वेसे ही तुम लोग इस यज्ञ में स्तोस को सेवा करो। इस यज्ञ में स्तोम
की सेवा करो। इस यज्ञ में सारे सवनों को प्राप्त करो। उषा और सूर्ये
के साथ मिलकर हमारा सोम-रूप अन्न ग्रहण करो।
६. देव अझ्वद्ठय, हमारी स्तुति का सेवन करो। यज्ञ की सेवा करो ॥
इस यज्ञ में सारे सचनों को प्राप्त करो। उषा और सुय के साथ मिलकर
हमारा अञ्च ग्रहण करो।
९७६ हिन्दी-ऋष्येद
७. जैसे दो हारिद्रव पक्षी (शुक अथवा हारीत?) जल पर गिरते हैं,
वेसे ही तुम लोग अभिषुत सोम की ओर गरी । दो सेंसों के समान सोम
को जानो। उषा ओर सुर्य के साथ मिळफर त्रिमागों झं जाओ।
८. अझ्विद्वय, दो हुस्यों और दो पथिको के समान अभिषुत सोम फे
अभिमख आओ और दो भैयो के समान गम को समझो। उषा और
सुर्य के साथ मिलकर त्रिशार्ग में गमन करो ।
९ अङ्विद्वय, तुम लोग दो इन पक्षियों के सान अभिषुत सोम की
ओर आओ और दो भेंसों के समान सोम को जानो। उषा ओर सुय॑ के
साथ मिलकर त्रिमार्म में गसन करो ।
१०. अध्विदय, सोमपान करो। तुप्त होओ। आओ सन्तान दो।
घन दो। उषा और सूर्य के साथ मिलकर हुमें बल दो।
११. अश्विद्वय, तुम शत्रुओं को जीतो। स्तोताओं की प्रशंसा और
रक्षा करो। सन्तान दो। धन दो। उषा और सूर्य के साथ मिलकर हमें
बल दो।
१२. अङिविद्वय, तुम लोग शत्रु का विनाश करो। मंत्रो से युक्त होकर
गमन करो। सन्तान दो। धन दो। उपा और सूर्य के राथ मिलकर हमे
बल दो।
१३. अङ्चिद्वय, तुम लोग मित्र, वरुण, धर्म आर सस्तो से युक्त हो।
तुम लोग स्तोता के आह्वान की ओर जाओ और उषा, सुर्य और आदित्यो
के सहित जाओ।
१४. अदिवद्वय, तुम लोग अङद्भिरा, विष्णु ओर मरुतों फे साथ स्तोता
के आह्वान की ओर जाओ तथा उषा, सुय ओर आदित्यों के साथ जाओ।
१५. अश्विद्वय, तुस लोग ऋहभ्, काम-वर्षक वाज ओर सस्तो के साथ
स्तोता फे आह्वान को ओर जाओ ओर उषा, सुर्यं तथा आदित्यों के साथ
रासन करो ।
१६. अझ्विद्ठय, तुम लोग स्तो, और कर्म को जीतो। राक्षसों का
हिन्दी-क्रग्बेद ९७७
शासन और वध करो। उषा और सुर्य के साथ अभिषव-कर्ता के सोम
का पान करो ।
१७. अश्विद्वय, तुम लोग क्षत्र (बल) और योद्धाओं को जीतो।
राक्षसों का शासन ओर वध करो। उषा और सुर्थ के साथ सोमाभिषव-
कारी का सोमपान करो।
१८. अझ्विद्वय, धेनु ओर विशों (वेश्यो) को जीतो, राक्षसों का
शासन ओर बध करो। उषा और सूर्य के साथ सोम के अभिषव-कर्ता का
सोमपान करो ।
१९. अधिवद्वय, तुम लोग शत्रुओं का गर्व खे करनेवाले हो, तुम
लोग जैसे अत्रि की स्तुति को सुनते थ, वसे ही श्यावाइच की (मेरी)
मुख्य स्तुति सुनो। उषा ओर सुय के साथ मिलकर प्रातःकाऊ के यज्ञ में
सोमपान करो।
२०. अझ्विद्वय, इयावाइब की सुन्दर स्तुति को, आभरण के ससान,
ग्रहण करो । उषा ओर सूर्य के साथ मिलकर प्रातःकाल के यज्ञ में सोमपान
करो ।
२१. अशि्विद्ठय; अश्व-रज्जु (लगाम) के समान इयावाइव के यज्ञा-
भिमुख गमन करो। उषा और सुर्य के साथ मिलकर प्रातःकाल के यज्ञ में
सोमपान करो ।
२२. अझ्विद्वय, अपना रथ हमारे सामने ले आओ, सोमरूप मधु का
पान करो, यज्ञ में आगमन करो ओर सोम के अभिमुख आगमन करो।
रक्षाभिलाषी होकर में तुम्हें बुलाता हूँ । हव्यदाता को (मुझे) रत्न दान
करो ।
२३. अदिवद्वय, तुम लोग नेता हो। मुझ हवनशील के इस किये जाते
हुए नमोवावय-युक्त यज्ञ में सोसपान के लिए आओ। सोम के अभिमुख
आओ। मं रक्षाभिलाषी होकर तुम्हें बुलाता हूँ। हुव्यदाता को रत्न दान
करो ।
फा« ६२
९७८ हिन्दी-ऋ ग्येद
२ न अज यद फ म् ०90 हि नु = ५००७ ष्य ET ed रोस तिल र
२४, देव अशिवष्वय, तुम लागे ॐ ii नत जार स्थाइ सा से तृप्त
प्राप्त करो। यज्ञ लें आजो। सोम के जाजमर, आओ म रक्षाचिलाषी
ry पार सिक ~ in om पा ~ ठः स्म् व्यद द् ता क् ye ee कक tr दो
होकर तुम्हें मुळाता हुँ । तुम हब्यदाता को रत्न दो ।
(देवता इन्द्र | छाप श्यावाश्व । छन्द सकरी आर महापंत्ति ।)
१. बहुकर्मा (शतक्रतु) इन्द्र, सोस का अभिषव करनेवाले और
कुश-घिस्तार करनेदाले यजमान के तुम रक्षक हो। सत्पति (सञ्जनों के
स्वामी) और मरुतों से युक्त इन्द्र, देवों न तुम्हारे लिए जो सोम का भाग
निश्चित किया हुं, सारी झत्र-सेना ओर प्रचुर वेग को अभिभूत करके
और जरू-सध्य में जेता होकर मत होने के लिए उस सोम-भाग को
पियो।
२. धनी इख) स्तोता फी रक्षा करो। सोम-पान के द्वारा अपनी भी
रक्षा करो। सत्पति और मतों से युक्त बहुकर्मा इन्द्र, देवों न तुम्हारे लिए
जो सोम-भाग कल्पित किया हे, सारी सेना और बहुवेग को अभिभूत करके
और जरू-मध्य में विजेता होकर मत्त होने के लिए उस सोम-भाग को
पियो ।
३. अन्न-द्वारा देवों की रक्षा करते हो और अपने को बल फे द्वारा
बचाते हो। सस्पति और मरुतों से वक्त बहुकर्मा इन्द्र, देवों ने पुम्हारे
लिए जो सोम भाग निश्चित किया हूँ, सारी सेना ओर बहुवेग को दबाकर
और जल के बीच विजयी होकर मत्त होने के लिए उस सोम-भाग को
पियो ।
४, तुम यलोक और पृथिवी फे जनक हो। सत्पति और सस्तो से
युक्स बहुकर्मा इन्द्र, तुम्हारे लिए देवों ने जो सोम-भाग निश्चित किया
हे, सारी शत्र-सेना और बहुवेग को अभिभूत करके तथा जल-मध्य में विजयी
होकर मत्त होगे के लिए उसी सोम-भाग को पियो ।
ठिन्दी-म्दस्बेद ९७९
५. तुम अश्वो और गोओं के जनक (पिता) हो। सत्पति और
मरतो से युक्त बहुकर्मा इन्द्र, तुम्हारे लिए देवों ने जो सोम-भाग परिकल्पित
किया ए, सारा शन्नु-सेना और बहुदेग को अभिभूत करके तथा जळ-मध्य
में दिज्यो होकर मक्त होने के लिए उसी सोम-भाग को पियो ।
६. पचतदाले इन्द्र, अत्रि लोगो (हस लोगों) का सोम पूजित करो ।
सत्पात ओर सस्तो से युक्त बहुकर्मा इन्द्र देवों ने तुम्हारे लिए जो सोम-
भाग परिकाल्पत किया हे, समस्त शत्रु-सेना और बहुवेग को दबाकर तथा
जलसध्य सं बिजेता बनकर मत्त होने के लिए उसी सोम-भाग को पियो ।
इन्द्र, तुमनं जसे यज्ञ-कर्ता अञि ऋषि को स्तुति सुनी थी, वेसे
ही सोमाभिषव-कर्तता रयावाइव की (सेरी) स्तुति सुनो। अकेले ही तुमने
युद्ध में स्तोत्रों को वद्धित करते हुए त्रसदस्यु को बचाया था ।
३७ सुक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि श्यावाश्व । छन्द अतिजगती और महापंक्ति ))
१. यज्ञपति इन्द्र, युद्ध मं तुम सारे रक्षणों से इस स्तोत्र (ब्राह्मण)
की रक्षा करो। सोमाभिषव की भी रक्षा करना। अनिन्द्य वज्री और
वृत्रघ्न इन्र, माध्यन्दिन सवन का सोम पिथो।
२. कर्मपति (शचीपति) ओर उम्र इन्द्र, शन्रु-सेनाओं को अभिभूत
करके सारी रक्षाओं फे द्वारा स्तोत्र (ब्राह्मण) की रक्षा करो। अनिन्दनीय
(प्रशंसनीय), वज्यधर और वृत्रहन्ता इन्द्र, साध्यन्दिन सवन का सोस
पियो ।
३. यज्ञपति इन्द्र, तुम इस भुवन के एकमात्र राजा होकर और सारी
रक्षाओं से युक्त होकर शोभा पाते हो। अनिन्दनीय वज्रधर और बुत्रघ्न
छुर, माध्यन्दिन सवन का सोस पिथो।
४, यज्ञपति इन्द्र, समान रूप से अवस्थित इस छोक-हय को सुम्हीं
अलग करले हो। अनिन्दनीय, वज्प्रथर और वृत्रघ्न इन्द्र, माध्यन्दिन सवन
का सोस पियो।
अदी-फ़ ०३
९८० हिन्दी-ऋग्वेद
५. यज्ञपति (शचीपति) इन्द्र, सारी रक्षाओं से युक्त होकर समस्त
संसार, मङ्गल ओर प्रयोग फे ईश्वर हो । अनिन्दनो र वृत्रघ्न
न्द्र, माध्यन्दिन सवन फा सोभ पियो ।
६. यज्ञपति इन्द्र, सारी रक्षाओं से यूयत होकर संसार के बल के लिए
होते हो--आशितों की रक्षा करते हो। तुम्हारो रक्षा कोई नहीं करता।
अनिन्दनीय, वष्ची और वृत्रघ्न, माध्यन्दिय सवन का सोस पियो ।
७. इन्द्र, तुमने जैसे यज्ञ-कर्ता अत्रि की स्तुति सुनी थी, वैसे ही
(मुझ) स्तोता श्यावाश्व को स्तुति सुनो। तुमने अकेले ही युद्ध में स्तोत्रो
को वाद्धत करके त्रसदस्यु को रक्षा को थी।
३८ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि । कपि श्यावाश्व । छन्द गायत्री ।)
१. इन्द्र ओर अग्नि, तुम लोग शुद्ध और ऋत्विक हो। यद्धों और
कर्मो में मुझ यजमान को स्तुति को जानो।
२. इन्द्र और अग्नि, तुम लोग झटू-एसफ, रथ के द्वारा गमनशील,
बत्रध्न और अपराजित हो। तुम मुझ जानो।
३. इन्द्र और अग्नि, यज्ञ के नेताओं ने तुम्हारे लिए, पाषाण के द्वारा,
इस मदकर मध् (सोम) फा दोहन किया हूं। लुम मुझे जानो।
४. एक साथ हो स्तुत्य ओर नेता इन्द्र तथा अग्नि, यज्ञ की सेवा
करो। यज्ञ फे लिए अभिषत सोम की ओर आओ।
५. इन्द्र और अग्नि, तुम लोग नेता हो। तुम लोग जिसके द्वारा
हव्य का वहन करते हो, उसी सवन की सेवा फरो । यहाँ आओ ।
६, नेता इन्द्र ओर अग्नि, तुम लोग इस गाघत्र-मायं की सुन्दर स्तुति
की सेवा करो। आओ।
७. धन-विजयी इन्द्र और अग्नि, तुम लोग प्रात:काल देवों के साथ
'मेमपान के लिए आओ ।
(हुन्वी-नहन्देद ९८१
८. इख और अग्नि, सोमपान के लिए तुम लोग सोस का अभिषव
करनेवाले श्यावाश फे ऋत्विकों का आह्वान सुनो।
९. इन्द्र और अग्नि, जेसे प्राज्ञों ने तुम्हें बुलाया है, बेसे ही में, रक्षा
और सोमपान के लिए, तुम्हें ब॒लाता हूँ ।
१०. जिनके लिए साम-गान किया जाता हें, सें उन्हीं स्तुतिवाले इन्द्र
और अग्नि के पास रक्षण की प्रार्थना करता हूं ।
३९ सूक्त
(देवता आग्नि । ऋषि कण्वगोत्रीय नाभाक । छन्द महापंक्ति ।)
१. ऋफ मन्त्रों फे योग्य अग्नि की सें स्तुति करता हुँ। यज्ञ के लिए
स्तुति-द्वारा में अग्नि को स्तुति करता हूँ। हमारे यज्ञ में अग्नि हव्य-द्वारा
देवों की पुजा करें। कवि अग्नि स्वर्ग और पृथिवी के बीच दूत-कर्म करते
_हेँ। अग्नि सारे शत्रुओं को मारे ।
२. अग्नि, नवीन स्तोत्रों के द्वारा हमारे अङ्को में जो शत्रुओं की
(भावी) हिसा है, उसे जलाना। हव्यदाताओं के शत्रुओं को जछाओ।
अभिगमनवाले सारे मुटु शत्रु यहाँ से चले जायं। अग्नि सारे शत्रुओं को
सार।
३. अग्नि, तुम्हारे मुंह में सुखकर घत के समान स्तोत्र का होस करता
हूँ । देवों में तुम हमारी स्तुति को जानों। तुम प्राचीन हो, सुखकर हो
और देवों के दूत हो। अग्नि सारे शत्रुओ को मारे ।
४, स्तोता लोग जो-जो अन्न माँगते हैं, अग्नि वद्ठी-बही अन्न प्रदान करते
हँ । अग्नि अन्न के हारा बुलाये जाकर यजसानों को शान्तिकर और विषयो
पभोग-जन्य सुख देते ह सारे देवों के आह्वानों में रहते हं। अग्नि
सारे शत्रुओं को मार ।
प्, वे अग्नि अभिभवकारक वाना प्रकार फे कर्मो के हारा जाने
जाते हे । वे सारे देवों के होता हैं। वे पशुओं से घरे गये हें। बे शत्रुओं
के सम्मुख गभन करते हुँ। अग्नि सारे शत्रुओं को मारे।
टु डट न र Fe FS न
CTE CEE
७७9
६. अग्नि देयों का जन्म जानते (१ आईन छंगष्यों ते शोपनीय को
जानते हूँ । अग्नि घनद हैं। थे अभिवश हृष्यदीरा अली साति जाइत
ह्वीकर धन का द्वार उद्घाटित छरते हें। अजय घारे शत्रुओं फो मारें।
७. अग्नि देवों में रहते है। ये याइ प्रजागण मे रहते हुँ असे भूमि
सारै संसार का पोषण करती है, वसे ही वे स्वप सारे कार्यो दा
पोषण करते हे। अग्नि देवों में यज्ञन्थीग्प हुँ। थे सरे दात्रुओं को
मारें।
८. अग्नि सात सतृण्यों (सिन्धु आदि सात नदियों के लट-यासियौं)
बाले और सारी नदियों में आश्रित हें। वे तीन स्थानो (स्यौ, प्शयी
और अन्तरिक्ष) वाले हुँ। अग्नि मे यौदनाइव के पुत्र मान्धातः के लिए
सर्यापेक्षा अधिक दस्य-हनन किया हुँ। थे यज्ों में मुझ हु। अग्नि
समस्त शत्रुओं को मारे।
९, कवि (क्रान्तवर्शी) अग्नि दया आदि तीन प्रकार फे तीन स्थानों में
रहते हैं। अग्नि दुत, प्राज्ञ और अलकृत होकर इस यज्ञ में तेतीस देवी
की यज्ञ करें। हमारी अभिलाषा पूर्ण फरें। अग्नि सारे शत्रुओं को
सारें।
१०. प्राचीन अग्नि, तुम अकेले ही हो; परन्तु मन्यो और दैयों के
ईइवर हो। सुम सेतु-स्वरूप 911 तुम्हारे चारों ओर जल जाता हुत
अग्नि सारे शत्रुओं को भारें।
४० सूक्त
(देवता इन्द्र ओर अग्नि। ऋषि नाभाक । छन्द शवरो,
त्रिष्टुप् आर महापक्ति |)
१. इन्द्र और अग्नि, शत्रुओं को हुराते हुए हमें धन दो। जेसे अग्नि
यायु-द्वारा बन को अभिभूत करते हूं, बेसे ही हम भी उस घन की रुष्टापदा
से दृढ़ शत्रु-बल को दबादेग। इन्द्र और अग्नि सारे शत्रुओं को मारें।
हिन्दी-ऋग्वेद ९८३
२. इन्र और अर्ति) इभ तुमसे धन की याचना नहीं करते। सबसे
बली और नेताऔं के बता इन फा ही यञ्च करते हैं। इन्द्र अभी अइव
पर 'चएकर अन्न-प्राप्ति के लिए आते हैं और कभी यज्ञ-प्राप्ति के लिए
आते हें! इन्द्र और अग्नि सारे शत्रुओं को मारें।
३. वे प्रसिद्ध इत्र और अग्नि युद्ध के मध्यस्थेल में निवास करते हें।
नेताओ, कवि (आन्वकर्मी) द्वारा पुछे जाने पर तुम्हीं लोग मित्रता
चाहनेयाले यजमान के कृत कस को व्याप्त करते हो। इन्द्र और अग्नि
सारे शत्रुओं की हसा करें।
४. यज्ञ और स्तुति के हारा नाभाकवाले इन्द्र और अग्नि की पूजा
करो। इन्द्र और अग्नि में थह सारा संसार विद्यमान है। इन्हीं इन्द्र और
अग्नि की गोद में महती सही और चुलोक घन को धारण करते हैं। इन्द्र
और अग्नि सारे शत्रुओं को मारें।
प्. नाभाक के समान ऋषि इन्द्र और अग्नि के लिए स्तुति प्रेरित
करते हैं। ये इन्र और अग्नि सप्त भूलवाले हैँ और अवरुद्ध द्वारवारे
समुद्र को तेज के द्वारा आच्छादित करते हैं। इन्द्र बल-द्वारा ईश्वर हेँ।
इन्द्र और अग्नि सारे शत्रुओं को मारे ।
६. इन्द्र, प्राचीन मनुष्य जैसे लता की शाखा को काटता हे, बेसे
ही तुम सारे शत्रुओं को फाटो। दास सालक शत्रु के बल का विनाश करो।
हम इन्द्र की कुप! से रास के उस संगृहीत धन का विभाग कर लेंगे।
द्र और अग्नि सारै शत्रु को मारे।
७. ये जो सब मनष्य घन और स्तुति के द्वारा इन्द्र और अग्नि को
बुखाते है, उनमें ससँन्य हम अपने मनुष्यों की सहायता से शत्रुओं को
हरावेंगे और स्तुतिवाले झन्नु को ग्रहण करेंगे।
८. जो श्वेतवर्णं (सास्विक) इन्द्र और अग्नि नीचे से दीप्ति-द्वारा
थो के ऊपर जाते हे, उन्हीं के लिए हवि का वहन करते हुए यजमान
कर्मानुष्ठान करसे हैं। उन्होंने ही प्रणयात सिन्धु आदि नदियों को बन्धन
से भुक्त किया था। इन्द्र और अग्नि सारे शत्रु को मारे।
९८४ हिन्दी-त्रहरबेद
९. हरि नामक अश्ववाले, वजाधघर और प्रेरक इन्द्र, तुम प्रीतिकर,
बीर और धनी हो। तुम्हारे लिए उपमान की अनेक वस्तुएं हे। तुम्हारी
अनेक प्राचीन प्रशस्तियाँ भी हें। ये प्रशस्तियाँ हमारी बुद्धि को सिद्ध
करें। इन्द्र और अग्नि शत्रुओं को मारें।
१०. स्तोताओ, दीप्त, धन-पात्र और ऋभू-मंत्र के योग्य इन्द्र को
उत्तम स्तुति-द्वारा संस्कृत करो। जो इन्द्र शुष्म नामक असुर के अपत्यों
को मारते हें, वही स्वर्गीय जल को जीतते हैं। इन्द्र ओर अग्नि सारे शत्रुओं
को सारे। द
११. स्तोताओ, सुन्दर यज्ञवाले, अविनाशी, घनी और याग-योग्य
इन्द्र को स्तुति-द्वारा संस्कृत करो। जो इन्द्र यज्ञ के अभिमुख जाते हैं, वे
शुष्म के अण्डों (अपत्यों) को सारते और स्वर्गीय जल को जीतते हैं।
इन्द्र और अग्नि सारे शत्रुओं को सार।
१२. मेने पिता मान्धाता और अङ्गिरा के समान इन्द्र और अग्नि
के लिए नवीन स्तुतियों का पाठ किया हे। वे तीन पर्वों (कोठों) वाले
गृह-द्वारा हमारा पालन करें। हम धनाधिपति होंगे ।
४१ सूक्त
(देवता वरुण । ऋषि नाभाक। छन्द महापंत्ति |)
१. स्तोता, प्रचुर घन की प्राप्ति के लिए, इन वरुण ओर अतिशय
विद्वान् मरुतों के निमित्त स्तुति करो। कर्म-हारा वरुण मनुष्यों के पशु
की गोओं के समान रक्षा करते हे। व सारे शत्रुओं को मारं।
२. योग्य स्तुति के द्वारा में उन वरुण की स्तुति करता हुँ। स्तोत्रों
के द्वारा पितरों की स्तुति करता हूँ। नाभाक ऋषि की स्तुतियों के द्वारा
स्तुति करता हूँ। वे नदियों के पास उद्गत होते हें। उनकी सात बहनें
हुँ। वे मध्यम हँ। थे सारे शत्रुओं को सारं।
. ३. वरुण रात्रियों का आछिद्य करते हें। वे दर्शनीय हैं। वे ऊपर
गमन करते हुए माया वा कर्म के द्वारा सारे संसार को धारण करते हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ९८५
उनके कर्माभिलाषी मनुष्य तीन उषाओं (प्रातः, माध्यन्दिन और सायम्)
को वर्द्धित करते हें। वे सारे शत्रुओं फो मारें।
४. जो वरुण पृथिवी के ऊपर दिशाओ को धारण करते हैं, वे दर्शनीय
निर्माता हैं। प्राचीन स्थान (स्वर्ग) और जहाँ हस विचरण करते हें--
इन दोनों स्थानों के स्वामी वरुण हूँ। वही ईश्वर होकर हमारी गौओं
की रक्षा करते हैं। बे सारे शत्रुओं को मारें।
५. जो वरुण भुवनों के धारक ओर रहिमयों के अन्तहित तथा गृहा
में निहित नामों को जानते हैं, बे ही वरुण प्राज्ञ होकर अनेक कवि-
कर्मों (काव्यो) का, चुलोक के समान, पोषण करते हुँ। बे सारे शत्रुओं
को मारे।
६. सारे कवि-कमं, चक्र की नाभि के समान, जिन वरुण का आश्रय
किये हुए हे, उन्हीं स्थान-त्रयवाले वरुण की शीघ्र परिचर्या करो। जैसे
गोशाला में गो जाती है, वैसे ही हमें हराने के लिए, युद्ध के निमित्त, शत्रु
लोग अइव को जोतते हैं। वे सारे शत्रुओं को मारें।
७. वरुण सारी दिशाओं को व्याप्त किये हुए हैं। बे शत्रुओं के चारों
ओर फेले हुए नगरों का विनाश करते हें। वरुण के रथ के सम्मुख सारे
देवता कर्मानुष्ठान करते हें। बे सारे शत्रुओं को सारें।
८. समुद्र-स्वरूप वह वरुण अन्तहित होकर शीघ्र ही आदित्य के
समान स्वर्गारोहण करते ओर चारों दिशाओं में प्रजा को दान देते ह।
वे धुतिमान् पद के द्वारा माया का विनाश करते ओर स्वय-गसन करते
हें। वे सारे शत्रुओं को मारें।
९. अन्तरिक्ष में रहनेवाले जिन वरुण के शुञ्रवणे और विलक्षण तीन
तेज तीनों भुवनों में प्रसिद्ध हैं, उन वरुण का स्थान अविचल है। बे सातों
सिन्धू आदि नदियों के अधीइवर हें। ब सारे शत्रुओं को भार।
१०. जो दिन में अपनी किरणों को शुञ्र बर्ण ओर रात सें कृष्ण-वर्णे
करते हँ, उन्हीं बरुण ने अपने कर्म के लिए झुलोक और अन्तरिक्ष लोक का
निर्माण किया हुँ। जैसे आदित्य झुलोक को धारण करते हैं, बैसे ही वरुण
९८६ हिन्वी-क्ररवेद
ने अन्तरिक्ष कै द्वारा झावापूथियी को धारण किष्षा है। थे सारे शत्रुओं
को मारें।
(देवता १-३ के वरुण और शेष के अश्विद्यय । ऋषि अचेनाना वा
नाभाक । झन्द् ब्रिष्टुप् और अनुष्टुप् ।)
१. सर्वज्ञ और बली (असुर) वरुण ने द्युलोक को रोक रक्खा था,
पृथिवी के विस्तार का परिमाण किया था ओर सारे भुवनों के सस्नादू
होकर आसीन हुए थे। बरुण के ऐसे अनेक कार्य हें।
२. स्तोता, इस प्रकार बृहत् वरुण की वन्दना करो। अमृत के रक्षण
और प्राज्ञ (घोर) वरुण को नमस्कार करो। बरुण हमें लीन तल्लो का
मकान दें। हभ उनकी योद में वर्तमान हें। दावा-पृथिवी हमारी रक्षा करे।
३ दिव्य वरुण, कर्सानृष्ठान करनेवाले सेरे कमे, प्रज्ञान ओर बरू को
तीक्षण करो। जिसके द्वारा हम सारे दुष्कर्मा को लाँच सके, ऐसी सरलता
से पार जानेबाली नौका पर हम चढ़ेंगे।
४, सत्यस्वरूप अदिविद्दय, प्राज्ञ ऋत्विक् (विघ्र) ओर अभिषव के
समस्त पाषाण, सोमपान के लिए, अपने-अपने कार्यो-ट्वारा तुम्हारे अभिमुख
जाते हे। अडिबद्वय सारे शत्रुओं की हिसा करें।
५. नासत्य अझ्विद्ठय, प्राज्ञ अत्रि ने जसे स्तुति-हारा, सोमपाल के लिए,
तुम्हें बुलाया था, वैसे ही में बुछाता हुँ । अध्विद्यय सारे शत्रुओ को भारं।
६. नासत्यद्ठय, सेधावियो ने जसे सोमपान के लिए तुस्हें बुलाया था,
बैसे ही में भो, रक्षा के लिए, बुलाता हूँ। अश्यिद्यय सारे शत्रुओं को मारे।
३३ सूक्त
(६ अनुवाक । देवता अग्नि । ऋषि अङ्गिरा के पुत्र विरूप ।
छन्द गायत्री ।)
१. हमारे ये स्तोता अग्नि के लिए स्तुति करते हें। अग्नि मेधावी और
विधाता हैं। वे कभी यजमान की हिसा नहीं करते ।
हिन्दी-ऋण्वेद | ९८७
२. जातधन और विश्येष दर्शक अग्नि तुम दान देनेवाले हो; इसलिए
तुम्हारे लिए सुन्दर स्तुति उत्पञ्च करता हुँ।
३. अग्नि तुम्हारी तीखी ज्वालायें आरोचमान पशुओं के समान दाँतों
के द्वारा अरण्य का भक्षण करती है।
४. हरणशील, वाय॒-प्रेरित और घूम-ध्वैज सारे अग्नि अन्तरिक्ष में
अलग अलग जाते हें।
५. पृथक्-पृथक् समिद्ध ये अग्नि, होताओं के द्वारा, उषा कै केतु के
समान दिखाई दे रहे है।
६. जातप्रज्ञ अग्नि जिस समय पृथिवी पर शुष्क काष्ठ का आश्रय
करते हैं, उस समय अग्नि के प्रस्थान-्काळ में धूलियाँ काली हो
जाती हँ ।
७. अग्नि औषधियों को अन्न समझकर और उन्हें खाकर शान्त नहीं
होते वे तरुण ओषधियों के प्रति जाते ह।
८, अग्नि जिह्वा के इरा वनस्पतियों को नवाकर अथवा भक्षण कर
तेज के द्वारा प्रज्वलित होकर वन में शोभा पाते है।
९. अग्नि जल के बीच में तुम्हारे प्रवेश का स्थान है। तुम ओषधियों
को रोकते और पुनः उन्हीं के गर्भ में जन्म ग्रहण करते हो।
१०. अग्नि, धुत-द्वारा आहूत जूह (लुक्) के मुँह को दुम चाठते हो।
तुम्हारी शिखा शोभा पाती हुँ ।
११. जो हव्य भक्षणीय है और जिनका अन्न अभिलषणीय हे, उन्हीं
सोम-पृष्ठ और अंभीष्ड-विधाता अग्नि की हमें, स्वोत्र-द्वारा, परिचर्या
करते हुँ
१२. देवों को बुरानेवाले और वरणीय-प्रज्ञ अग्नि, नमस्कार और
समिधा प्रदान करके तुमसे हम याचना करते हेँ।
१३. शुद्ध और आहूत अग्नि, हम तुम्हें भृगु और मतु के समान
बलाते हें ।
९८८ छिन्दी-ऋग्वेद
१४, अग्नि, तुख विप्र, साधु और सखा हो। तुम विप्र, साधु और
सखा अग्नि की सहायता से दीप्त होते हो।
१५. अग्नि, तुम हव्यदाता मेधावी को सहरू-संख्यक धन और वीर
पुत्रादि से पृष्त अन्न दो।
१६. यजमातों फे आलु-भूत, बल के द्वारा उत्पादित, रोहित नामक
अश्यवाले और शद्ध-कर्खा अग्नि, हमारे स्तोत्र का आश्रय करो।
१७. अग्नि, हमारी स्लुलियाँ तुम्हारे पास जा रही हैं। इसी प्रकार
गये उत्सुक होकर और बोलते हुए, बछड़ों के लिए, गोशाला में
जाती हु
१८. अग्नि, तुम अङ्गिरा लोगों में श्रेष्ठ हो। सारी प्रजाये अभिलषित
सिद्धि के लिए तुम्हारे प्रति आसक्त होती हैं।
१९. सनीषी, प्राज्ञ और मेघावी लोग, अन्न-प्राप्ति के लिए, अग्नि
को प्रसन्न करते हँ।
२०. अग्नि, तुस बलवान्, हव्यवाहक, होता और प्रसिद्ध हो। जो
स्तोतः गृह में यज्ञ का विस्तार करते हुँ, वे तुम्हारा स्तव करते हें।
२१. अग्नि, तुम प्रभू और सर्वत्र सभी प्रजा के लिए समदर्शी हो;
इसलिए हम तुम्हें संग्राम में बुलाते हे।
२२. धृत-हारा आहत होकर अग्नि शोभा पाते हें। जो अग्नि हमारे
आह्वान को सुनते हु, उनकी स्तुति करो।
२३. अश्न, तुम जातधन, शन्रु-हिसक ओर हमारा आह्वान सुनने-
बाले हो; इसलिए तुम्हें हम बुलाते हैं।
२४. मनुष्यों के ईश्वर, महान् और कर्मो के अध्यक्ष इन अग्नि की
सें स्तुति करता हूँ। ब सुनें । |
२५. सवेत्रगामी बलवाले, शक्तिशाली और मनुष्यों के समान हितकर
अग्नि को, अइव के समान, हस बली करेंगे ।
२६. अग्नि, तुम हिसकों को मारकर और राक्षसों को जलाकर तीक्ष्ण
तेज के द्वारा दीप्त होओ।
हिन्दी-ऋचग्वेद ९८९
२७. अङ्गिरा लोगों में श्रेष्ठ अग्नि, मनुष्य लोग तुम्हें मनु के समान
दीप्त करते है। तुम मनुष्य के समान मेरी स्तुति को समझो।
२८, अग्नि, तुम स्वर्गीय और अन्तरिक्षजन्य बल के द्वारा सहसा
उत्पन्न किये गये हो। तुम्हें स्तुति-द्वारा हम बुलाते हुँ।
२९. ये सब लोग और सारी प्रजा तुम्हें खाने के लिए पृथक्-पृथक्
हवीरूप अन्न देते हँ।
३०. अग्नि, तुम्हारे ही लिए हस सुकृती और सर्वदर्शी होकर सारे
दुर्गम स्थानों को पार करेंगे ।
३१. अग्नि प्रसन्न, बहु-प्रिय, यज्ञ में शयनशील और पचित्र दीप्ति से
युक्त है। हम हुर्षयुक्त स्तोत्र से उनसे याचना करते हैं।
३२. अग्नि, तुम दीप्ति-रोचक हो। सूर्य के समान तुम किरणों के
द्वारा बल का विस्तार करते हुए अन्धकार का विनाश करते हो।
३३. बली अग्नि, तुम्हारा जो दान-योग्य और वरणीय धन हुँ, बह्
क्षीण नहीं होता। उसे हम तुमसे मागते हे ।
४३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अङ्गिरा के पुत्र विरूप | छन्द गायत्री ।)
१. ऋत्विको, अतिथि के समान अग्नि की, ह॒व्य-द्वारा, परिचर्या
करो। हुव्य-द्वारा जगाओ, अग्नि में आहुति गिराओ।
२. अग्नि, हमारे स्तोत्र का सेबन करो। इस मनोहर स्तोत्र-द्वारा
बढ़ो। हमारे सुकत की कामना करो।
३. देवों के दूत ओर हव्यवाहक अग्नि को में सम्मुख स्थापित करता
हँ। उनकी स्तुति करता हूं । बे यज्ञ में देवों को बुलाबें।
४. दीप्त अग्नि, तुम्हारे प्रज्वलित होने पर तुम्हारी महती और
उज्ज्वल ज्वालाय ऊपर उठती है।
७. अभिलाषी अग्नि, हमारी घी देनेवाली स्रृक् तुम्हारे पास जायें।
तुम हमारे हव्य का सेवन करो ।
९९० हिन्दी-ऋग्वेद
६. में प्रसन्न होता, ऋत्विक, विलक्षण-दीप्ति और दीप्ति-धन
(विभावसु) अग्मि की स्तुति करता हुँ । वे मेरी स्तुति को सुनें।
७. अग्नि प्राचीन, होता, स्ठुतियोग्य, प्रीत, कवि, कार्यकर्ता और
यज्ञ में आशित हैं। उनकी में स्तुति करता हूं ।
८. अङ्गिरा लोगों सें श्रेष्ठ अग्नि, ऋमशः इन हच्यों का सेवन करो।
समय-समय पर यज्ञ को सुसम्पन्न करो ।
९. भजनशील और उज्ज्वल दीप्तिवाले अग्नि, तुम समिद्ध (प्रज्वलित)
होते ही देव जन को जानकर इस यज्ञ में ले आओ।
१०, अग्नि, मेधावी, होता, व्रोह-शून्य, धम-ध्वज, विभावसु और यज्ञ
के पताका-रूप हें। उनसे हम अभीष्ट साँगते हेँ।
११. बल के द्वारा उत्पादित अग्निदेव, हम हिसकों की रक्षा करो।
शत्रुओं को फाड़ो।
१२. क्रान्तकर्मा अग्नि प्राचीन ओर मनोरभ स्तोत्र के द्वारा अपने
शरीर को सुशोभित करके विप्र के साथ बढ़ते हें।
१३. अन्न के पुत्र ओर पवित्र दीप्तिवाले अग्नि को इस हिसा-शुन्य
यज्ञ में बुळाता हूं ।
१४. सित्रों के पुजनीय अग्नि, तुम देवों के सङ्ग उज्ज्वल तेज के साथ,
यज्ञ में बेठो।
१५. जो मनुष्य अपने गृह में, धन-प्राप्ति के लिए, अग्नि की परि-
चर्या करता हे, उसे अग्नि धन देते हैं। .
१६. देवों के मस्तक, छुलोक के ककुद् (वृषस्कन्ध की खूंटी) और
पृथिवी के पति थे। अग्नि जल के वीर्यस्वरूप प्राणियों को प्रसन्न करते हैं।
१७. अग्नि, तुम्हारी निर्मल, शुश्षवर्ण और दीप्त प्रभाये तुम्हारे तेज
को प्रेरित करती हे।
१८. अग्नि, तुस स्वगं के स्वामी हो; वरणीय और दान-योग्य धन
के ईश्वर हो। में तुम्हारा स्तोता हुँ। सुख के छिए में ठुम्हारा स्तोता
बनूँ। |
हिन्दौ-ऋग्वेद ९९१
१९. अग्नि, मनीषी लोग तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम्हें ही कर्भ के
हारा प्रस्न करते हूँ। हमारी स्तुतियाँ तुम्हें बद्धित करें।
२०. अग्नि, तुम हिसा-शून्य, बली, देवों के दूत और स्तोता हो। हम
सदा तुम्हारी मेत्री के लिए प्रार्थना करते हैं।
२१. अग्नि अतीव शुद्ध-कर्मा, पवित्र, मेधावी और कवि हैं। बे
पवित्र ओर आहूत होकर शोभा पाते हैं।
२२. अग्नि, मेरे कर्म और स्तुतियाँ सदा तुम्हें बात करें। हमारे
अन्धुत्व-कर्म को तुम सदा समझो।
२३. अग्नि, यदि में बहुधन हो जाऊं; तो भी तुझ तुम ही रहोगे
अर में में ही रहेगा । तुम्हारे आशीर्वाद सत्य हों।
२४, अग्नि, तुम वासप्रद, धनपति और दीप्तिधन हो। हम तुम्हारा
असुग्रह पावें।
२५. अग्नि, तुस धृतकर्मा हो। मेरी शब्दवाली स्तुतियाँ उसी प्रकार
तुम्हारे लिए गसन करती हैं, जिस प्रकार वदियाँ समुद्र की ओर
जाती हें। |
२६. अग्नि तरुण, लोकपति, कवि, सर्वभक्षक ओर बहुकर्मा हें। उन्हें
स्तोत्र के द्वारा में सुशोभित करता हूँ।
२७. यज्ञ के नेता, तीखी उवालावाले और बलवान् अग्नि के लिए
हम स्तोत्रों के द्वारा स्तुतिं करने की इच्छा करते हैं।
२८. शोधक और भजनीय अग्नि, हमारा स्तोता तुममें आसक्त हो।
भरिन, उसे सुखी करो।
२९. अग्नि, तुम धीर हो, हव्यदान के लिए बेठे हुए मेघावी के समान
तुस सदा जागरूक होकर अन्तरिक्ष सें प्रदीप्त होते हो।
३०, वासदाता और कवि अग्नि, पापियों और हिसकों के हाथों से
हमें बचाकर हमारी आयु को बढ़ाओ।
९९१ हिन्दी-ऋग्वेद
४५ सुत्त
(देवता इन्द्र ऋषि कण्वगोत्रीय त्रिशोक । छन्द गायत्री ।)
१, जो ऋषि भली भाँति अग्नि को प्रदीप्त करते हु, जिनके मित्र
तरुण इन्द्र हें, वे परस्पर मिलकर कुश बिछाते ह्।
२. इत ऋषियों की समिधा महती हे। इनका स्तोत्र प्रचुर हे। इनका
स्वरूप (यज्ञ) महान् हे। युवा इन्द्र इनके सखा हें।
३. कौन अयोद्धा व्यक्ति शत्रुओं के द्वारा वेष्टित होकर और अपने
बळ से बलवान होकर शत्रुओं को नीचा दिखाता हें?
४, उत्पन्न होकर इन्द्र ने वाण धारण किया ओर अपनी माता से
पछा कि “संसार में कौन कौन उग्र बळ्वाले हे?”
५. बलवती माता न उत्तर दिया, “जो ठुमसे शत्रुता करना चाहता
है, वह पर्वत में दर्शनीय गज के समान युद्ध करता हैं।
६. धनी इन्द्र, तुम हमारी स्तुति को सुनो। स्तोता तुम्हारे पास जो
चाहता हे, उसे वह देते हो। तुम जिसे दृढ़ करते हो, वह दृढ़ होता है।
७. युद्धकर्ता इन्द्र जिस समय सुन्दर अश्व की इच्छा से युद्ध में जाते
हँ, उस समय वे रथियों में प्रधान रथी होते हें।
८. वज्मधर इन्द्र, जिससे सारी अभिकांक्षिणी प्रजा वृद्धि को प्राप्त
हो, इस प्रकार तुस प्रवृद्ध होओ। हमारे लिए सबसे अधिक अञ्नवाले बनो ।
९. जिन इन्द्र की हिसा हिसक (धूत्तं) नहीं कर सकते, वे ही इन्र
हमें अभीष्ट देने के लिए सामन सुन्दर रथ स्थापित करें।
१०. इन्द्र, हम तुम्हारे शत्रुओं के निकट उपस्थित नहीं हों। जिस
समय तुम प्रचुर गोवाछे होओ, उस समय अभीष्ट प्रदान करनेवाले तुम्हारे
ही पास हम उपस्थित हों।
११. वञग्रधर इन्द्र, धीरे-धीरे जाते हुए हम अइववाले, बहुत धन से
युक्त, विलक्षण ओर उपद्रववाले होंगे ।
१२, इन्द्र, यजमान तुम्हारे स्तोताओं के लिए प्रतिदिन सौ ओर
सहस, उत्तम ओर प्रिय बस्तु देता है ।
हिन्दी-ः्ग्वेद ९९३
१३. इन्द्र, तुम्हें हम धनञ्जय, पराक्रमशाली शत्रुओं के मंथनकर्ता,
धनापहारक ओर गृह के समान उपद्रव से रक्षक जानते हँ।
१४. कवि और धर्षक इन्द्र, तुम दणिक् हो। तुम्हारे पास जिस समय
हुम अभीष्ट को प्रार्थना करते हे, उस समय सोम तुम्हें मस्त करे। तुम
ककुद् (वृषभस्कन्ध का ऊपरी भाग) वा उत्तम हो।
१५. इन्द्र, जो मनुष्य धनी होकर दान नहीं करता ओर धनदाता
तुमसे ईर्ष्या करता है, उसका धन हमारे लिए ले आओ।
१६. इन्द्र, जैसे लोग घास लाकर पशु को देखते हे, चेसे ही हमारे
ये सखा सोमाभिषव करके तुम्हें देखते ह।
१७. इन्द्र, तुम बहरे नहीं हो। तुम्हारा कान सुननेवाला है; इसलिए
रक्षण के लिए हम इस यज्ञ में तुम्हें दुर से बलाते हे।
१८. इन्द्र, हमारे इस आह्वान को सुनो और अपने बल को झन्नुओं के
लिए दुःसह करो। तुम हमारे समीपतम बन्धु बनो। .
१९, इन्द्र, जब हम दरिद्रता के द्वारा पीडित होकर तुम्हारे पास
जायेंगे और तुम्हारी स्तुति करेगे, तब हमें गोदान करने के लिए जागना।
२०. बलपति, हम क्षीण होकर, दण्ड के समान, तुम्हें प्राप्त करेंगे।
यज्ञ मं हम तुम्हारी कामना करग।
२१. प्रचुर-धनी और दानशील इन्द्र के लिए स्तोत्र पाठ करो। युद्ध
में उन्हें कोई नहीं हरा सकता।
२२. बली इन्द्र, सोम के अभिषुत होने पर उसी अभिषुत सोस को,
पान के लिए, तुम्हें देता हुँ। तुप्त होओ। मदकर सोम का पान करो।
२३. इन्द्र, मूढ़ मनुष्य, रक्षाभिलाषी होकर, तुम्हें न मारे। वे तुम्हें
हुँसे नहीं । ब्राह्मणद्वेषियों का कभी आश्रय नहीं करना। -
२४, इन्द्र, इस यज्ञ में महाधन की प्राप्ति के लिए मनुष्य दुग्धादि से
मिले सोमपान से मत्त हों। गौरमुग जैसे सरोवर में जल पीता हुँ, बेसे ही
हुम सोभपान करी।
फा० ६३
९९४ हिन्दी-ऋणग्वेद
२५, वृत्रघ्न इन्द्र, तुमने दुर देश में जो नया और पुराना धन प्रेरित
किया हू, उसे यज्ञ में बताओ ।
२६, इन्द्र, तुमने रुद्र ऋषि के अभिषत सोम का पान किया है और
सहल्ननाहु नामक शत्रु का नाश भी किया हुँ। उस ससय इन्द्र का बीर्य
अतीव दीप्त हुआ था।
२७, तुर्वेश और यडु नामक राजाओं के प्रसिद्ध कर्म को तुमने सच्चा
समक्कर उनके लिए युद्ध में अह्ववाय्य को व्याप्त किया था।
२८. स्तोताओ, तुम्हारे पुत्रादि के तारक, दाभु-विसर्दक, गोविशिष्ट,
अन्नदाता ओर साधारण इन्द्र की में स्तुति करता हूं ।
२९. जल-वद्धंक और महान् इन्त्र की, धन देने के लिए, सोमाभिषव
होने पर, उकूथों के उच्चारणकाल में, स्तुति करता हूँ।
३०. जिन इन्द्र ने जल-नि्गेमन के लिए द्वार-रूप और विस्तृत मेघ
को, त्रिशोक ऋषि के लिए, विच्छिन्न किया था, उन्होंने ही जल-गति
के लिए मार्ग बनाया था ।
३१. इन्दर, प्रसत्त होकर जो तुम धारण करते हो, जो पुजते हो, जो दान
करते हो, सो सब हमारे लिए क्यों नहीं करते? हमें सुखी करो ।
३९. इन्द्र, तुम्हारे समान थोड़ा भी कर्म करने पर मनुष्य पृथिवी
में प्रसिद्ध हो जाता है। तुम्हारा मन मेरे प्रति गमन करे ।
३३. इन्द्र, तुम जिनके द्वारा हमें सुखी करते हो, वे तुम्हारी प्रसिद्धियां
ओर स्तुतियाँ तुम्हारी हों।
३४. इन्द्र, एक अपराध करने पर हमें नहीं मारना, दो-तीन अथवा
बहुत अपराध करने पर भी हमें नहीं मारना ।
३५. इन्द्र, तुम्हारे ससान उग्र, शत्रुओं को मारनेवाले, पापियों फे
विनाशक और शत्रुओं की हिंसा को सहनेवाले देवता से में निर्भय होॐं।
३६. प्रचुर घनवाले इन्द्र, तुम्हारे सखा की समृद्धि की बात को निवे-
दित करता हूँ, उसके पुत्र की कथा को निवेदित करता हूँ। तुम्हारा मन
मुझसे फिर न जाय।
हिन्दी-ऋग्वेद ९९५
३७. मनुष्यो, इन्त्र के अतिरिक्त कौन अद्वेष्टा सखा, प्रश्न करने के
पूर्व हो, सखा को कह सकता हुँ कि सेमे किसको मारा है? कोन हमसे
डरकर भागेगा ?
३८. अभीष्टदाता इन्द्र, अभिषुत होने पर सोस, एवार नामक व्यक्ति
को बहुधन न देकर, धूतं फे समान, तुम्हारे पास आता हुँ । नीचे मुंह करके
देवता लोग निकल गये।
३९. सुन्दर रथवाले और संत्र के हारा जोते जानेवाले इन दोनों हरि
नामक अश्वो को में आकृष्ट करता हूँ। तुम ब्राह्मणों को ही यह घन
देते हो। |
४०, इन्द्र, तुम सारे शत्रुओं को फाडो, हिंसा करो, संग्राम को बन्द
करो ओर अभिछषणीय धन ले आओ।
४१. ईन्द्र, दृढ़ स्थान पर तुमने जो धन रक्खा है, स्थिर स्थान में जो
धन रक्खा है और सन्दिग्ध स्थान में जो धन रक्खा है, वह अभिलषणीय
धन ले आओ।
४२. इन्द्र, लोगों को अभिज्ञता में तुम्हारे द्वारा दिया गया जो धन है,
उस अभिलषणीय धन को ले आओ।
तृतीय अध्याय समाप्त ।
४६ सूक्त
(चतुथ अध्याय । देवता, २१-२४ तक कनीत के पुत्र प्रथुश्रवा का
दान, २५-२८ ओर ३२ के वायु, शेष के इन्द्र। ऋषि अश्वपुत्र
वश । छन्द ककुपू , गायत्री, बृहती, अनुष्डुप्, सतोबृहती, बिराट
जगती, पंड क्ति, उष्णिक आदि ।)
१. बहु-घनी और कर्म-प्रापक इन्द्र, तुम्हारे समान पुरुष के ही हम
आत्मीय हैं। तुम हरि नाम के अश्वो के अधिष्ठाता हो।
२. वन इन्द्र, तुम्हें हस अज्दाता जानते हैं। धददाता भी जानते हूँ।
९९६ हिन्दी-ऋहग्वेद
३. असीम रक्षणों और बहु कर्मोवाले इन्द, तुम्हारी महिमा को स्तोता
लोग स्तुति-द्वारा गाते हुँ।
. ४. द्रोह-शुन्य भददूगण जिसकी रक्षा करते हूँ और अर्थमा तथा मित्र
जिसकी रक्षा करसे हुँ, वही मनुष्य सुन्दर यज्ञवाला होता हैं।
५, आदित्य-हारा अनुगुहीत यजसान गौ और अइववाला होकर तथा
शुन्दर वीये से युक्त सदा बढ़ता है। बहू बहु-संख्यक और अभिलषणीय
धन के द्वारा बढ़ता है।
` ६, बल का प्रयोग करनेवाले, निर्भय तथा सबके स्वामी उन प्रख्यात
इन्द्र के पास हम धन की याचना करते हें।
७ सर्वेत्रगामी, निर्भय और सहायक मर्प्रूप सेना इन्द्र की ही हे।
गतिपरायण हरि अइव हर्ष फे लिए यहुधन-दाता इख को अभिषुत सोम
के निकट ले आवें।
८. इन्द्र, तुम्हारा जो मद वरणीय है, जिसके द्वारा संग्राम में तुम
शत्रुओं का अतीव वध करते हो, जिसके द्वारा शत्रु के पास से धन ग्रहण
करते हो और संग्राम में जिसके द्वारा पार हुआ जाता है--
९, सर्वे-वरेण्य, युद्ध में दुर्धर्षं शत्रुओं के पारयासी, सर्वत्र विश्यात,
सवपिक्षा बली और वास-प्रदाता इन्द्र, अपने उसी मद (हर्ष के साथ)
हमारे यज्ञ में आओ। हस गोयुक्त गोष्ठ में जायेंगे।
१०. महाधनी इन्द्र, ग्रोप्राप्ति, अशवलाभ और रथ-संप्राष्ति की हमारी
इच्छा होने पर पहले की ही तरह हमें वह सब देना।
११. शुर इन्द्र, सचमुच में तुम्हारे धन की सीमा नहीं जानता। घनी
और वज्री इन्र, हमें शीघ्र धन दो। अञ्ञ-द्वारा हमारे कर्म की रक्षा करो ।
१२. जो इन्द्र दर्शनीय हें, जिनके मित्र ऋत्विक् लोग हँ, जो बहुतों के
हारा स्तुत है, वे संसार फे सारे प्राणियों को जानते हैं, सारे मनुष्य हव्य
ग्रहण करके सदा उन्हीं बलवान् इन्द्र को बुराते हैँ।
१३. वे ही प्रचुर धनवाले, सघवा और वृद्रहुन्ता इन्द्र युद्धक्षेत्र में
हमारे रक्षक और अग्रवती हों।
९९७
१४, स्तोताओ, तुस लोगों के हित के लिए सोन-जात मत्तता उत्पन्न
होने पर वीर, शत्रुओं की अवनति करनेवाले, विशिष्ट प्रज्ञावाले, सर्वत्र
प्रसिद्ध और शक्तिशाली इख की, तुम्हारी जेसी वादय-स्फूरि हो, उसके
अनुकूल, महती स्तुत्ि-हारा, स्तुति करो। |
१५. इक्र, तुस मेरे शरीर के लिए इसी समय धनदाता बनो। संग्रामों
सें अच्चवान् घन के दाता बनो। बहुतों हारा आहूत इन्र, पुत्रीं को घन दो।
१६, सारे धर्मों के अधिपति और बाधक तथा धुद्ध-कम्पन-कर््ता शत्रुओं
की हरानेवाले इन्द्र की स्तुति करो। घह शीघ्र घन-कान करेंगे।
१७. इन्द्र, तुस महान् हो। में तुम्हारे आगसन की कामना करता हूँ।
तुम गमनशील हो, सम्पु्णगामी और सेचक हो। यज्ञ और स्तुति-द्वारा हम
तुम्हारा स्तव करते हैं। तुम मरुतो के नेता हो। सारे मनुष्यों के ईइवर
हो। नमस्कार और स्तुति-द्वारा तुम्हारा गुण-गान करता हूँ।
१८. जो सरत् मेघों के प्राचीन और बलकर जल के साथ जाते है, उन्हीं
घहुत ध्वनिवाले मरुतों के लिए हम यज्ञ करेंगे और उस यज्ञ में महाध्वनि-
बाले सरुद्गण जो सुख दे सकेंगे, उसे हम प्राप्त करेंगे।
१९. तुम दुष्ट्ुद्धियों के विनाशक हो। तुम्हारे समीप हम याचना
करते हुँ। अतीव बली इन्द्र, हमारे लिए योग्य धन ले आओ। तुम्हारी
बुद्धि सदा धन-प्रेरण में तत्पर रहती हँ । देव, उत्तम धन ले आओ ।
२०. दाता, उग्र, विचित्र, प्रिय, सत्यवक्ता, शत्रु-्यराभवकर्ता और
सबके स्वामी इन्द्र, शत्रु को हुरानेवाले, भोग योग्य तथा प्रवृद्ध धन संग्राम
में हमें देना।
२१. अइव के पुत्र जिन व ने कच्या के पुत्र (कानीत) पृथुश्रवा
शजा से प्रातःकाल धन प्राप्त किया था; इसलिए देय-रहित वश के
पुर्ण धत ग्रहण कर लेने के कारण, वश यहाँ आरवे। .
२२. (आकर वश ने कहा) “मेने साठ सह और अयुत (दश
सहुत्न) अर्तो को प्राप्त किया हुँ। बीस सौ ऊँटों को पाया है। काले रंग
९९८ हिन्दी-कम्बेद
की दस सौ घोडियों को पाया है। तीन स्थानों में श्र रङवाली दस
सहस्न यायों को पाया हें।”
२३. दस कृष्णवर्ण अइव रथ-नेसि (रथ-चक्र का प्रान्त वा परिधि)
वहुन करते है। बे अतीव बेग और बलवाे तथा सन्थन-कर्खा हैं।
२४, उत्कृष्ट घनवाले कऱ्यापुत्र पृथु्यया का यही दान हैं। उन्होंने
सोने का रथ दिया हे; बे अत्तीव दाता और प्राज्ञ हें। उन्होंने अत्यन्त
प्रवृद्ध कीत्ति प्राप्त की हूँ ।
२५, वायु, महान् धन और पूजनीय बल के लिए हमारे समीप आओ।
तुम प्रचुर धन देनेवाले हो। हम तुम्हारी स्तुति करते हें। तुम महान् धन
के दाता हो। तुम्हारे आने के साथ ही हम तुम्हारी स्तुति करते हें।
२६. सोमपाता, दीप्त और पवित्र सोम के पानकर्सा वायु जो
पृथुश्रवा अइबो के साथ आते हे, गृह में निवास करते हुँ और त्रिगुणित
सप्तसप्ति गायों के साथ जाते हु, घे ही एुम्हें सोम देने के लिए सोम
संयुक्त हुए हें और अभिषव-कर्त्ताओं के साथ मिले हूँ।
२७, जो पृथुश्रवा मेरे लिए ये गौ, अइय आदि देने के लिए हे”
ऐसा विचार कर प्रसन्न हुए थे, उन शोभनकर्मा राजा पथुश्चवा ने अपने
कर्साध्यक्ष अष्ट्व, अक्ष, नहुष ओर सुकृत्व को आज्ञा दी।
२८. वायु, जो उचथ्य और वपु नाम के राजाओं से भी अधिक
साञ्नाज्य करते हें, उन घृत के सभान शुद्ध राजा ने घोड़ों, ऊँटों और
कुत्तों की पीठ से जो अन्न प्रेरित किया हुँ, यह यही है। यह ठुम्हारा ही
अनुग्रह् हुँ ।
२९. इस समय धनादि का प्रेरण करनेवाले उन राजा के अनुग्रह
से सेचन करनेवाले अहव के समान साठ हजार प्रिय गायों को भी मने
पाया।
३०. जेसे गायें अपने झुण्ड मं जाती हें, वेसे ही पृथुश्रवा के दिये
हुए बल मेरे समीप आते हैं।
हिन्दी-ऋणग्वेद ९९१
११. जिस समय अट वन के लिए भेजे गये थे, उस समय वे एक
सौ ऊँट हमारे लिए लाये थे। इबेतवणं गायों के बीच बीस सौ गें
लाये ।
३२. में विप्र हुँ। में गौ और अइव का रक्षक हुँ। बलब॒थ नामक
दास के समीप से मेंने सौ गौ और अइव पाये थे। वायु, थे सब लोग
तुम्हारे ही हैं। ये इन्द्र और देवों के द्वारा रक्षित होकर आनन्दित
होते हुँ।
३३. इस समय वह स्वर्ण के आभरणों से विभूषित, पुजनीय और
राजा प॒थुश्रवा के दान के साथ दी गई कन्या को अव के पुत्र वद के
सामने ले आ रहे हैं।
४७ सूक्त
(देवता आदित्य । ऋषि आपूत्यत्रित । छन्द महापङः क्ति ।)
१. मित्र और वरुण, हवि देनेवाले यजमान के लिए जो तुम्हारा रक्षण
है, वह महान् है । शत्रु के हाथ से जिस यजमान को बचाते हो, उसे पाप
नहीं छू सकता। तुम लोगों की रक्षा करने पर उपद्रव नहीं रहता । तुम्हारा
रक्षण शोभन हे।
२. आदित्यो, तुम लोग दुःख-निवारण को जानते हो। जसे चिड़ियाँ
अपने बच्चों पर पंख फैलाती हैं, वैसे ही तुम हमें सुख दो। तुम लोगों
की रक्षा होने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारा रक्षण शोभन रक्षण है।
३. पक्षियों के पक्ष के समान ठुस लोगों के पास जो सुख है, उसे
हमें प्रदान करो। सर्वेधनी आदित्यो, समस्त गृह के उपयुक्त घन तुमसे
हम मागते हैं। तुम्हारे रक्षण करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी
रक्षा सुरक्षा हे ।
४. उत्तम-चेता आदित्यगण जिसके लिए गृह और जीवन के उपयुक्त
अन्न प्रदान करते है, उसके लिए ये सारे मनुष्यों के धन के स्वामी हो जाते
है। तुम्हारी रक्षा में उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा शोभन-रक्षा है।
१००० हिन्दी-ऋग्वेव
५. रथ ढोनेवाले अव जैसे दुर्गम प्रदेशों का परित्याग कर देते हुँ,
बसे ही हम पाप का परित्याग कर देंगे। हम इन्द्र का सुख और आदित्य
का रक्षण प्राप्त करेंगे। तुम्हारी रक्षा होने पर उपद्रव नहों रहता । तुम्हारी
रक्षा सुरक्षा हे।
६. क्लेश के द्वारा ही मनुष्य तुम्हारा धन प्राप्त करते हें। देवो,
तुम लोग शीघ्र गमनवाले हो। तुम लोग जिस यजमान को प्राप्त करते
हो, वह अधिक धन प्राप्त करता है। तुम्हारी रक्षा होने पर उपद्रव नहीं
रहता। तुम्हारी रक्षा सुरक्षा है।
७. आदित्यो, जिसे तुम विस्तृत सुख प्रदान करते हो, वह व्यक्ति
टेढ़ा होने पर भी ऋध से निर्विघ्न रहता है। उसके पास अपरिहायं दुःख
भी नहीं जाता। तुम्हारी रक्षा होने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा
ही सुरक्षा हे।
८. आदित्यो, हम तुम्हारे आश्रय में ही रहेंगे। इसी प्रकार योद्धा
लोग कवच के आश्रय में रहते हें। तुम हमें महान् अनिष्ट और अल्प
अनिष्ट से बचाओ। तुम्हारी रक्षा होने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी
रक्षा ही सुरक्षा है। |
९, अदिति हमारी रक्षा करे; अदिति हमें सुख प्रदान करें। वे
घनवती हैँ और मित्र, वरुण तथा अर्यमा की माता हें। तुम्हारी रक्षा करने
पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है ।
१०. आदित्यो, तुम लोग हमें शरण के योग्य, सेवन के योग्य,
रोगशून्य, त्रिगुण-युक्त और गृह के योग्य सुख प्रदान करो। तुम्हारी रक्षा
करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है।
११. आदित्यो, जैसे मनुष्य तट से नीचे के पदार्थो को देखता है,
वैसे ही तुम ऊपर से नीचे स्थित हमें देखो। जैसे अश्व को अच्छे घाट पर
ले जाया जाता हुँ, वैसे ही हमें सन्मार्ग से ले जाओ । तुम्हारी रक्षा करने पर
उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही. सुरक्षा है ।
हिन्दी-ऋग्वेद १००९
१२. आदित्यो, इस संसार में हमारे हिसक और बली व्यक्ति को
सुख न हो। गौओं, गायों और अन्नाभिलाषी वीर को सुख प्राप्त हो।
तुम्हारी रक्षा करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है।
१३. आदित्यदेवो, जो पाप प्रकट हुआ हुँ और जो पाप छिपा हुआ हुँ, |
उनमें से मुझ आप्त्यत्रित को एक भी न हो। इन पापों को दूर रखो ।
तुम्हारी रक्षा करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है।
१४. स्वगं की पुत्री उषा, हमारी गायों में जो दुष्ट स्वप्न (पीड़ा) है
और हमारा जो दुःस्वप्न है, हे विभावरी, वह सब आप्त्यत्रित के लिए
दूर कर दो। तुम्हारी रक्षा करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा
ही सुरक्षा है।
१५. स्वगं की पुत्री उषा, स्वणेकार अथवा सालाकार मे जो दुःस्वप्न
हुँ, वह आप्त्यत्रित के पास से दूर हो। तुम्हारी रक्षा करने पर दुःस्वप्न
नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है।
१६. स्वप्न में अन्न (मधु, पायस आदि भोज्य) पाने पर आप्त्यत्रित
से, दुःस्वप्न से उत्पन्न कष्ट को दूर करो। तुम्हारी रक्षा होने पर उपद्रव
नहीं होता । तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है ।
१७. जैसे यज्ञ में दान के लिए पशु के हृदय, खुर, सींग आदि सब
कमानुसार विछुप्त अथवा दत्त होते हे, जैसे ऋण को. क्रमशः दिया जाता
है, बैसे ही हम आपृत्यत्रित के सारे दुःस्वप्न क्रमशः दूर करेगे।
१८. आज हम जीतेंगे, आज हम सुख प्राप्त करेंगे, आज हम पाप-
झून्य होंगे । उषादेवी, हम हुःस्वप्न से डर गये हँ; इसलिए बह भय दूर
हो । तुम्हारी रक्षा करने पर उपद्रव नहीं रहता। तुम्हारी रक्षा ही सुरक्षा है।
४८ सुत्त
(देवता सोम। ऋषि प्रगाथ कण्वपुत्र । छन्द त्रिष्टुप् ओर जगती |)
१. में सुन्दर प्रज्ञा, अध्ययन और कर्म से युक्त हूँ। में अतीव पूजित
और स्वादु अन्न का आस्वाद ग्रहण कर सकूँ। विइवदेवगण और मनुष्य
इस अन्न को मनोहर कहकर इसको प्राप्त करते हैं।
३००४ हिनदी-त्रहवेद
२. सोम, तुम हृदय वा यज्ञागार के बीच में गमन करते हो। तुम
अदिति हो। तुम देवों के कोष को अलग करते हो। इन्दु (सोम), इनदर
की मैत्री प्राप्त करके तुम उसी प्रकार शी क्र आकर हमारे धन का बहन करो,
जिस प्रकार अइव भार वहनं करता हेत
३. अमर सोम, हम तुम्हें पीकर अमर होंगे। पश्चात् यतिमान् स्वर्ग
में जायेंगे और देवों को जानेंगे। हमारा शत्रु वया करेगा ? में मनुष्य हूँ; -
सेरा हिंसक क्ष्या करेगा?
४. सोम, जैसे पिता पुत्र के लिए सुखकर होता है, वैसे ही पीने पर
तुम हृदय के लिए सुखकर होओ । अनेकों हारा प्रशंसित सोम, तुम बुद्धि,
मान् हो। हम लोगों के जीवन के लिए आयु को बढ़ाओ।
५. पिये जाने पर, कीत्तिकर ओर रक्षणेच्छु सोम मुझे बैसे ही
प्रत्येक अज्भः से कर्म में बाँधे, जेसे पशु रथ की गाँठो में जतते हुँ। सोम
शुझे चरित्र-ञ्रष्ठता से बचावे। मुझे व्याधि से अलग करे।
६. सोम, पिये जाने पर, सथित अग्नि के समान, मुझे दीप्त करो,
मुझ विशेष रूप से देखो और मुझे अत्यन्त घनी करो। सोम, इस समय
में तुम्हारे हषं के लिए स्तुति करता हूँ; इसलिए तुम धनी होकर पुष्टि
प्राप्त करो।
७. इच्छुक सन से पेतृक धन के समान अभिषुत सोम का हम पान
करेगे । राजा सोम, तुम हमारी आयु बढ़ाओ। इसी प्रकार सूर्य दिनों को
घंढाते है ।
८, राजा सोम, अविनाश के लिए हमें सुखी करो। हम ब्रतवाले हें;
हुम तुम्हारे ही हैं। तुम हमें जानो। इन्द्र, हमारा शत्रु वद्धित होकर जा
रहा है। कध भी जा रहा हे। इस दोनों के दण्ड से हमारा उद्धार करो।
९. सोस, तुम हमारे शरीर के रक्षक हो। तुम कर्म के नेताओं के
ष्टा हो। इसी लिए तुम सब अङ्धों में बैठते हो। यद्यपि हम तुम्हारे
कर्मो में विघ्न करते हैँ, तो भी, हे देव, तुम उत्कृष्ट अञ्चवाले और उत्तम
सखा होकर हमें सुखी करो।
हिन्दी-ऋण्वेद १००३
१०. सीम, तुस उदर में व्यथा नहीं उत्पन्न करमा। तुम सखा हो।
में तुम्हारे सङ्ग भिलूंगा। पिये जाने पर सोम मुझे नहीं मारे। हरि
अइवोंवाले इन्द्र, यह जो सोम मुझमें निहित हुआ हे; उसी के लिए चिर”
काळ तक जठर में रहने की प्रार्थना करता हूँ ।
११. असाध्य और सुदृढ़ पौडाय दुर हों। ये सब पीड़ायें बलवती
होकर हमें भली भाँति कस्पित करती हूँ। महान् सोम हमारे पास
आया है। इसका पान करने से आयु बढ़ती हे। हस मानव हें। हम इसके
पास जायेंगे ।
१२. पितरो, पिये जाने पर जो सोम अमर होकर हम मर्त्यो के
हृदय में पेठा है, हव्य-द्वारा हम उसी सोम की सेवा करेगे । इस सोम
की सुबुद्धि और कृपा में हम रहेँगे ।
१३. सोम, तुस पितरों के साथ मिलकर झावापूथियी को विस्तृत
करते हो। सोम हयि के द्वारा हम तुम्हारी सेवा करेंगे। हुम धनपति
होंगे ।
१४. आता देवो, हमसे मीठे बचन बोलो। स्वप्त हमें बश्षीभूह नहीं
करे। निन्दक हमारी बिन्दा न करें। हुम सदा सोस के प्रिय हों, ताकि
सुन्दर स्तोत्रवाले होकर स्तोत्र का उच्चारण करें।
१५. सोम, तुम चारों ओर से हमारे अन्नदाता हो । तुम स्वर्गदाता
और सबदर्शी हो। तुम प्रवेश करो। सोम, दुध प्रसन्नता के साथ, रक्षण
को लेकर, पीछे ओर सासन हमें ब्चाओ। |
४९ सूक्त
(७ अनुवाक । देवता अभि । ऋषि प्रगाथपुत्र भगे । छन्द बृहती
ओर सतोबृहती ।)
१. अग्नि, अन्य अग्निगण के साथ आओ तुम्हें होता जानकर हम
वरण करते हैं। अध्यर्युओं के हारा नियता और हविवाली यजनीय
श्रेष्ठ तुम्हें कुश पर बेठाकर अलंकृत करे।
१७०४ हिस्वी-ऋर्वेद
२ बल के पुत्र और अङ्गिरा लोगों में अन्यतम अग्नि, यज्ञ में तुम्हे
प्राप्त करने के लिए स्रुक् जाती है। अन्न-रक्षक बल फे पुत्र, प्रदीप
जवालावाले और प्राचीन अग्नि की हम यज्ञ में स्तुति करते हैं।
३. अग्नि, तुम कवि (मेघावी), फलों फे विधाता, पावक, होता और
होम-सम्पादक हो। दीप्त अग्नि, तुम आमोदनीय और सर्वोच्च यजनीय
हो। यज्ञ में विप्र लोग झनन-मन्छ-द्वारा तुम्हारा स्तोत्र करते है।
४. युवतम और नित्य अग्नि, में ब्रोह-झून्य हूँ। देवता लोग मेरी
कामना करते हें। हवि भक्षण फे लिए उन्हें यहाँ ले भाओ। घासदाता
अग्नि, सुन्दर रीति से निहित अन्न के समीप जाओ। स्तुति-द्वारा निहित
होकर प्रस होभी।
५, अग्नि, तुस रक्षक, सत्य-स्वरूप, कबि और सर्वतः विस्तृत हो।
समिध्यमान और दीप्त अग्नि, विप्र स्तोता लोग तुम्हारी परिचर्या करते हेँ।
६, अतीव पवित्र अग्मि, दीप्त होओ और प्रदीप्त करो। प्रजा और
स्तोता के लिए सुख प्रदान करो। तुम महान् हो। मेरे स्तोता लोग देव-
प्रदत्त सुख प्राप्त करे। वे शत्रु-जेता और सुन्दर अग्नि से युक्त हों।
७, अग्नि ओर मित्रों के पुजक, पृथिवी के सुखे काठ को तुम जैसे
जलाते हो, वैसे ही हमारे प्रोही और हमारी दुर्बुद्धि घाहनेवाले को
जलाओ । -
८. अग्नि, हमें हिसक और बली मनुष्य के वश में सत करना। हमारे
अनिष्ट चाहनेवाले के बश में हमें नहीं करना। युवतम अग्नि, अहिसक,
उद्धारक और सुखकर रक्षणों से हमारी रक्षा करो।
९. अग्नि, हमें एक ऋक् के द्वारा बचाओ। हमें द्वितीय ऋक् के
दारा बचाओ। बली अग्नि, हमें तीन ऋकों के द्वारा बचाओ। वासदाता
अग्नि, हमें चार चाक्यों के द्वारा बचाओ। .
_ १०. सारे राक्षसों और अदाता से हमें बचाओ। युद्ध में हमारी
रक्षा करो। तुम निकटवर्ती और बन्नु हो। यज्ञ और समृद्धि के लिए
हुम तुम्हें प्राप्त करेगे ।
I) हु ७ ०
११. शोधक अग्नि, हमें अन्न-वद्धेक और प्रशंसनीय धन प्रदान करो ।
समीपवर्ती ओर धनदाता अग्नि, हमें सुनीति के हारा अनेकों-हाश
स्पृहणीय और अतीव कीर्तिकर घन दो।
१२. जिस धन के द्वारा हम युद्ध में क्षिप्रकारी शत्रु और अस्त्रः
क्षेपकों के हाथों से उद्धार पाकर उन्हें मारेगे, उसे हमें दो। तुम प्रश्ञा-हारा
वासदाला हो। हुमें वद्धित करो। अञ्न के द्वारा वदत करो । हमारे घन
दैनेवाले कर्मों को सुसम्पन्न करो।
१३. वृषभ के समान अपने श्युंग (ज्वाला) को वरद्धित करते हुए
अग्नि मस्तक कपा रहे हैं। अग्नि के हन् (ज्वाला) तीक्ष्ण हें; कोई
उनका निवारण नहीं कर सकता। अग्नि के दाँत उत्तम हैं। वे बल
के पुत्र हें ।
१४, वृष्टिदाता अग्नि, तुम बढ़ते हो; इसलिए तुम्हारे दाँत (ज्वाला)
का कोई निवारण नहीं कर सकता। अग्नि, तुम होता हो। तुम हमारे
हव्य का भली भाँति हवन करो। हमें वरणीय बहुधन दान करो ।
१५. अग्नि, सातृरूप घन में बत्तेमान अरणि-द्वय में तुस रहते हो।
मनुष्य तुम्हें भली भाँति वद्धित करते हँ । पीछे तुम आलस्यशून्य होकर
हव्यदाता के हुव्य को देवों के निकट ले जाओ । अनन्तर देवों के बीच
शोभा पाओ ।
१६. अग्नि, तुम्हारी स्तुति सात होता करते हैं । तुम अभिमतदाता
और प्रवृद्ध हो। तुम तापक तेज के द्वारा मेघ को फाड़ते हो। अग्नि,
हमें अतिक्रम करके आगे जाओ।
१७. स्तोताओ, तुम्हारे लिए हम अग्नि का ही आह्वान करते हैं।
हमने कुश को छिन्न किया है और हव्य का विधान किया हे। अर्ति कमे-
धारक अनेक लोकों में वर्तमान और सारे यजमानों के होता हैं ।
१८. अग्नि, उत्तम साम (रथन्तर आदि से युक्त) और सुखवाछे
यज्ञ में यजमान, प्रज्ञा से युक्त मनुष्य के साथ, तुम्हारी स्तुति करता हुँ।
१००६ डि ही ..57 कै:
“र
~
अग्नि, हमारी रक्षा के लिए, अपनी इच्छा से, निकटवर्ती ओर नाना-
पघारी अज्ञ ले आओ।
१९. देव ओर स्तुत्य अग्नि, तुस प्रजा के पालक और राक्षसों के
सन्तापक हो। तुम यजमान के गृह-रक्षक हो। उसे तुम कभी नहीं छोड़ते।
तुम महान् हो। तुम घुलोक फे पाता हो। तुस यजमान के गृह में सदा
घतमान हो ।
२०. दीप्तधन अग्नि, हमारे अन्दर राक्षस आदि प्रविष्ट न हों।
घातुधान रोगों की न प्रविष्ट हो। दरिद्रता, हिंसक और बली राक्षसो
को बहुत दूर रखना।
५० सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि प्रगाथपुत्र भगे । छन्द बृहती और सतोबृहती ।)
१. इन्द्र, हमारे स्तोन्न-झप आर आास्त्रात्मक वाक्यों को सुने । हमारे
सहगामी कस से युक्त होकर धनी और बली इन सोमपान के लिए
आवें ।
२. झावापृथिवी ने उन शोभन और वृष्टिदाता इन्द्र का संस्कार
किया था। उन इन्द्र का बल के लिए संस्कार किया था । इसी लिए,
है इन्द्र, तुम उपमान देवों में मुख्य होकर वेदी पर बेठो । तुम्हारा
मन सोमाभिलाषी है ।
३. प्रचुर-घनी इन्द्र, तुम जठर में अभिषुत सोम का सिचन करो ।
हरि अइवोंवाले इन, तुम्हें हम युद्ध में शत्रुओं का पराजेता, न दबाने योग्य
और दूसरों को दबानेवाला जानते हैं।
४. घनी इन्द्र, तुम वस्तुतः अहिसित हो । जिस प्रकार हम कर्म फे
द्वारा फल की कामना कर सकें, बेसा ही हो । शिरस्त्राणवाले दज्घर
इत्र, तुम्हारे रक्षण में हम अन्न का सेवन करेंगे ओर शीघ्र ही शत्रुओं को
पराजित करेंगे ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १००७
५, यज्ञपति इन्द्र, सारी रक्षाओ के साथ अभिमत फल प्रदान करो।
शूर, तुम यशस्वी और धन-आपक हो। भाग्य के समान हम तुम्हारी
सेवा करते हें ।
३. इन्द्र, तुम अइवों फे पोषक, गौओ की संख्या बढ़ानेवाले, सोने के
शरीरवाले ओर निकर स्वरूप हो। हम लोगों के लिए तुम जो दान करने
की कामना करते हो, उसकी कोई हिंसा नहीं कर सकता । फलतः में जो
याचना करता हुँ, उसे ले आओ ।
७, इन्द्र, तुम आओ । धन-दान के लिए अपने सेवक को भजनीय
धन दो। में गौ चाहता हूँ। मुझे गो दो। में अश्व चाहता हूँ। मुखे
भइव दो ।
८, इन्र, तुम अनेक सौ और अनेक सहस्र गोओं का समूह दाता
यजमान को देते हो। नगर-भेदक इन्द्र का, रक्षण के लिए स्तव करते
हुए विविध बचनों से युक्त होकर हम उन्हें अपनी ओर ले आवेगे ।
९. शतक्रतु, अपराजेय कोधवाले और संग्राम में अहंकारी इन्द्र, जो
बुद्धि-हीन वा बुद्धिमान् तुम्हारी स्तुति करता हुँ, तुम्हारी कृपा से बहु
आनन्दित होता हैं ।
१०. उग्रबाहु, वधकर्त्ता ओर पुरी-भेदक इन्द्र यदि मेरा आह्वान
सुनें, तो हुम धन की अभिलाषा से धनपति और बहुकर्मा इन्र को स्तोत्र
द्वारा बुलावेंगे। |
११. अब्रह्मचारी हम इन्द्र को नहीं मानते। धन-शूत्य और अग्नि-
रहित हम इन्द्र को नहीं जानते। फलतः इस समय हम, सोमाभिषव होने
पर उन वर्षक के लिए इकट्ठे होकर उन्हें अपना मित्र बना लेंगे ।
१२. उग्र और युद्ध मे शत्रुओं के विजेता इन्द्र को हम युक्त करेंगे ।
उनकी स्तुति ऋण के समान अवश्य फल देनेवाली है । थे अहसनीय,
रथपति इन्द्र अनेक अश्वो मे वेगवान् अश्व को पहचानते हूँ । बे दाता
हे। ब अनेक यजमानों में हमें प्राप्त हुए हैं ।
१७०८ हिन्दी-ऋग्वेद
१३. जिस हिसक से हम भय पाते हं, उससे हमें अभय करो।
भवन्, तुम समर्थ हो। हमें अभय प्रदान करने के लिए रक्षक पुरुषों के
हारा शत्रुओं ओर हिसको को विनष्ट करो ।
१४. धनस्वामी तुम्हीं मधाधन के, सेवक के गृह के बद्धक हो।
भघवा ओर स्तुलि-पात्र इन्द्र, ऐसे तुमको हम, सोमाभिषव करके
बलाते ह।
१५. यह इन्द्र सबके ज्ञाता, वृत्रहन्ता पर पालक और वरणीय हैं ।
बे इन्द्र हमारे पुत्र की रक्षा करें । बे चरमयुत्र की रक्षा करें और
मध्यम पुत्र को रक्षा करें। वे हमारे पीछे और सामने दोनों दिशाओं में
रक्षा कर ।
१६. इन्द्र, तुस हमें आगे, पीछे, नीचे, ऊपर--चारों ओर से रक्षा
करो। इन्द्र हमारे यहाँ से देव-भय दूर करो और असुर आयध भी
दुर करो।
१७. इन्र, आज-कल, ओर परसों हमारी रक्षा करना। साधु-रक्षक
इन्द्र, हम तुम्हारे स्तोता हें। सारा दिन हमारी रक्षा करना।
१८. ये धनी, वीर और प्रचुरधनी इन्द्र, वीरत्व के लिए, सबके साथ
मिलते हे । शतक्रलु इन्द्र, वह तुम्हारी अभिलाषप्रद दोषों भुजायें वञ्च
ग्रहण करें।
५१ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि कण्वपुत्र प्रगाथ । छन्द॒ पङ क्ति ओर बहती |)
१. इन्द्र सेवा करते हैं; इसलिए उनको लक्ष्यकर स्तुति करो।
लोग सोस-प्रिय इन्द्र के प्रचुर अन्न को उक्थ मन्त्रों के द्वारा वद्धित करते
हैं। इन्द्र का दान कल्याणकारक है।
२. असहाय, असम देवों में मुख्य और अविनाशी इन्द्र पुरातन प्रजा
को अतिक्रम करके बढ़ते हें! इन्र का दान कल्याणवाहक हे।
हिन्वी-क्रग्वेव १००९
३. शीध्रदाता इन्द्र अप्रेरित अव की सहायता से भोग करने की
इच्छा करते हें। इन्द्र, तुम सामथ्यंदाता हो। तुम्हारा महत्त्व स्तुत्य है।
इसर का दान कल्याणकर हुँ।
४. इन्द्र, आओ। हम तुम्हारी उत्साहवर्धक और उत्कृष्ट स्तुति करते
हैं। सबसे बरी इन्र, इन स्तुति के द्वारा अन्नेच्छु स्तोता का मङ्गल करने
की इच्छा करते हो। इद्र का दान कल्याणकर हे।
५, इन्द्र, तुम्हारा मन अतीव धृष्ट हे। मदकर सोम के प्रदान-द्वारा
सेवा करनेवाले और नमस्कार-द्वारा विभूषित करनेवाले यजमान को
असीम फल देते हो। इख का दात कल्याणकर हे।
६. इन्द्र, तुम स्तुति-द्वारा परिच्छिन्न होकर हमें उसी प्रकार देख
रहे हो, जिस प्रकार मनुष्य कूप का दर्शन करता हे। इद्ध प्रस्न
होकर सोमवाले यजमान के योग्य बन्धु होते हैं। इन्द्र का दान
सहाकल्याणकर हुँ ।
७. इन्द्र, तुम्हारे बीयं ओर तुम्हारी प्रज्ञा का अनुधावन करते
हुए सारे देवगण वीर्य ओर प्रज्ञा को धारण करते हँ । इन्द्र, प्रसिद्ध गायों
अथवा वचनों के स्वामी हो। बहुतों द्वारा स्तुत इन्द्र, तुम्हारा दान
कल्याणवाहक है ।
८. इन्द्र, तुम्हारे उस उपमान बल की, यज्ञ के लिए, में स्तुति
करता. हूँ । गझपति, बल के द्वारा तुमने वृत्र का वध किया है। इन्द्र
का दान कल्याणकर हैं ।
९. प्रेमवाली रमणी जैसे रूपाभिळाषी पुरुष को वशीभूत करती है.
` बैसे ही इन्द्र मनुष्यों को वशीभूत करते हैं । मनुष्य संवत्सर आदि के
काल को प्राप्त करते हँ। इन्द्र ही उसे बता देते हैं। इन्र का दान
कल्याणकर हे। |
१०. इन्द्र, अनेक पझुओंवारे जो यजमान तुम्हारे दिये सुख का भोग
करते हें, वे तुम्हारे उत्पन्न बल को प्रभूत रूप से बद्धित करते हूं, तुम्हें
फ[० ६४
१०१० हिन्दी-शहभ्येद
वर्धित करते हैं, तुम्हारी प्रज्ञा को बाद्धत करते हूँ। इन्द्र का दान
कल्याणकर हें ।
११. इन्द्र, जब तक घन त मिले, तब तक हम मिलित रहे । ब्रध्न,
वज्री और श्र इन्द्र, अदाता व्यक्ति भी तुम्हारे दान को प्रशंसा करेगा।
इन्द्र का दान कल्याणकर हुँ ।
१२. हम लोग निइचय ही इख् की सस्य स्तुति करेंगे । असत्य स्तुति
नहीं करेंगे। इन्द्र यज्ञ-पराझ मुख लोगों का बध, बड़ी संख्या में करते
हें। बे अभिषव करनेवाले को प्रभूत ज्योति प्रदान करते हें। इन्द्र का
दान कल्याणकर हे ।
५२ सूक्त
(देवता इन्द्र | अन्तिम ऋचा के देवता देवगण । ऋषि कण्व के पत्र
प्रगाथ । छन्द अनुष्टुप् , त्िषटुपृ/ और गायत्री |)
१. इन्द्र मुख्य हें वे पुजनीयों के कर्मों से कान्त हैं । वे आते हें।
देवों के बीच पिता सन् ने ही इन्द्र को पाने के उपायों को प्राप्त
किया था।
२. सोमाभिषव में लग हुए पत्थरो ने स्वर्ग के निर्माता इन्द्र को नहीं
छोड़ा था । उकथों और स्तोत्रों का उच्चारण करना चाहिए ।
३. विद्वान् इन्द्र मे अङ्गिरा लोगों के लिए गोओं को प्रकट किया था।
इन्द्र के उस पुरुषत्व की में स्तुति करता हूं ।
४, पहले की तरह इस समय भी इन्द्र कवियों के वर्द्धक हें। वे
होता के कार्य-निर्वाहक हैं। वे सुखकर और पुजनीय सोम के हवन"
समय में हमारी रक्षा के लिए जायं ।
५, इन्द्र, स्वाहा देवी के पति अग्नि के लिए यज्ञ-कर्ता तुम्हारी ही
कीति का गान करते हैं । शीघ्र घन-दाच के लिए स्तोता लोग इन्द्र की
स्तुति करते हें ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १०११
६. सारे वीरय और सारे कतंव्य-कर्म्म इन्द्र में वर्तमान हूँ । स्तोता
छोग इन्द्र को अध्वर (अहिसक) कहते हें ।
७. जिस समय चारो वर्ण और निषाद इन्द्र के लिए स्तुति करते हैं,
उस समय इन्द्र अपनी महिमा से शत्रुओं का वध करते हैं। स्वामी (आयं)
इन््र स्तोता की पुजा के निवास-स्थान हुँ।
८, इन्द्र तुमने उन सब पुरुषत्व-पूर्ण कार्यों को किया है; इसलिए
यह ठुस्हारी स्तुति की जाती है। चक्र के मार्ग की रक्षा करो ।
९. वर्षक इन्द्र के दिये हुए नानाविध अन्न पा जाने पर सब लोग
जीवन के लिए नाना प्रकार के कर्म करते हैं। पशुओं की ही तरह वे
यव (जो) ग्रहण करते हे।
१०. हम स्तोता और रक्षणाभिलाषी हैं। ऋत्विको, तुम्हारे साथ
हुम सरुतों से युक्त इन्द्र के वरद्धंन के लिए अन्न के स्वामी होंगे ।
११. इन्र, तुम यज्ञ के समय में उत्पन्न और तेजस्वी हो । ज्र
इन्द्र, मन्त्रों के द्वारा हम सचमुच तुम्हारी स्तुति करेगे । तुम्हारे साहाय्य
से हम जय-लाभ करेंगे । |
१२. जल सेचन करनेवाले और भयंकर मेघ अथवा सरत् तथा युद्ध
के आह्वान पर आनन्द से युक्त जो वृत्रघ्न इन्द्र स्तोता और झस्त्र-पाठक
यजसान के निकट वेग से आगमन करते हुँ, वे भी हमारी रक्षा करें।
देवों में इन्द्र ही ज्येष्ठ हैं ।
५३ मुक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि प्रगाथ । छन्द गायत्री ।)
१. इन्द्र, तुम्हें स्तुतियाँ भली भाँति प्रमत्त करें। बच्ची इन्द्र, धन
प्रदान करो । स्तुति-विद्वेषियों का विनाश करो।
२. लोभी और यज्ञ-घन-शू्य लोगों को पैर से रगड़ डालो। तुम
सहान् हो। तुम्हारा कोई प्रति-दन्द्ी नहीं है ।
१०१२ हिन्दी-ऋग्वेद
` ३. तुम अभिषत सोम के ईइवर होयत सोम के भी तुम
ईइबर हो । जनता के तुम राजा हो।
४. इन्द्र, आओ । मनुष्यों के लिए यज्ञ-गृह को शब्द से पुर्ण करते
हुए, स्वर्ग से आओ । तुम वृष्टि-द्वारा धप्यायूथियी को परिपूर्ण करते हो ।
५, तुमने स्तोताओं के लिए पर्व (टुकड़े) वाले सौ प्रकार के जल-
वाले और असीस (सहस्र) जजूवाले मेघ को, स्तोताओं के लिए, तुमने
विदीर्ण किया है ।
६. सोम के अभिषुत होने पर हम दिन-रात तुम्हारा आह्वान करते
हैं। हमारी अभिलाषा पूर्ण करो।
७, वे वृष्टिदाता, नित्य तरुण, विज्ञाल कंधावाले और किसी से
नीचा न देखनेवाले इन्द्र कहाँ हें ? कौन स्तोता उनकी स्तुति करता है ?
८, वृष्टिदाता इन्द्र, प्रसन्न होकर, आते हं । कोत यजमान इन्द्र की
स्तुति करना जानता है ?
९. यजमान का दिया हुआ दान तुम्हारी सेवा करता है । बृत्रध्न
इख, शस्त्र-मन्त्र पढ़ने के समय सुन्दर बीयेवाले स्तोत्र तुम्हारी सेवा करते
हुँ। तुम कँसे हो ? युद्ध में तुम्हारा कौन निकटवर्सी होता है ?
. १०. मनुष्यों के बीच में तुम्हारे लिए सोमाभिषव करता हूँ । उसके
पास आओ । शीघ्रगामी होओ ओर उसका पान करो ।
११. यह प्रिय सोम तट तृणवाले पुष्कर (कुरुक्षेत्रस्य), सुषोमा
(सोहान नदी) ओर आर्जी की या (पिपासा =व्यास नदी) के तीर
में तुम्हें अधिक प्रमत्त करता है ।
१२. हमारे धन और झात्रुविनाशिनी मसता के लिए आज तुम उसी
मनोहर सोस का पान करो । इन्र, शीघ्र सोमपात्र की ओर जाओ।
५४ सूः
(देवता इन्द्र | ऋषि प्रगाथ । छन्द गायत्री ।)
१. इन्द्र, तुम्हें लोण पूर्व, पश्चिम, उत्ता और निम्न दिशाओं में
बुखाते हँ; इसलिए अइवों की सहायता से शीक्ष आओ।
हिम्दी-ऋण्वेद | १०१३
२. तुम झुलोक के अभृत चुलानेवाले स्थान पर प्रमत्त होते हो ।
तुम भूलोक में प्रम होते हो । तुम अन्न के अपादान अन्तरिक्ष में प्रमत्त
होते हो ।
३. इन्द्र, तुम्हें में स्तुति के द्वारा बुलाता हूं। तुम महान् और
यथेष्ट हो । सोमपाव और भोग के लिए तुम्हें में गाय की तरह
बुलाता हूँ |
४. रथ सं जोते हुए अइव तुम्हारी महिमा और तुम्हारे तेज को ले
आवें ।
५. इन्द्र, तुम वाक्य और स्तुति-द्वारा स्तुत होते हो। तुम महान् उग्र
और एइवर्यकर्सा हो। आकर सोम पियो ।
६. हम अभिषुत सोम और अन्नवाले होकर तुम्हें, अपने कुश पर बंठने
के लिए बुलाते हुँ ।
७. इन्द्र, तुम अनेक यजमानो के लिए साधारण हो; इसलिए हम
तुम्हें बुलाते हैँ ।
८. पत्थर से सोभीय मधु को अध्वर्यु लोग अभिषुत करते हे । प्रसन्न
होकर तुम उसे पियो ।
९. इन्द्र, तुम स्वामी हो। तुम सारै स्तोताओं को, अतिकम करके
देखो । शीघ्र आओ। हमें महा अन्न प्रदान करो।
१०. इन्द्र हिरण्यवर्णं गोओं के राजा हैं। बे हमारे राजा हों ।
देवो, इन्द्र हसित न हों । |
११. सें गोओं के ऊपर घारित, विशाल, विस्तृत, आह्लादकर ओर
निर्मल हिरण्य को स्वीकृत करता हूं ।
१२. में अरक्षित और दुखी हूँ । मेरे मनुष्य असीम धन से धनी हों।
देवों के प्रसन्न होने पर यश की प्राप्ति होती हूँ ।
१०१४ हिन्दी-ऋग्वेद
... ७५ युक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि प्रगाथ के पुत्र कलि । छन्द बृहती, सतोबहती
अर अनुष्टुप । )
१. ऋत्विको, वेगशाली अइवों की सहायता से जो धन-दान करते हे,
उन्हीं इन्द्र के लिए साम-गान करके तुम लोग बाधा-युक्त होकर उनकी
परिचर्या करो। जैसे लोग हितैषी ओर कुटुस्ब-पोषक व्यक्ति को बुलाते
है, में भी अभिषत सोमवाले यज्ञ में उन इन्द्र को बुलाता हूँ।
२. दुद्गंर्ष शत्रु लोग सुन्दर जबड़ेवाले इन्द्र को बाधा नहीं दे सकते।
स्थिर देवगण भी इन्द्र का निवारण नहीं कर सकते । सनुष्यगण भी
निवारण नहीं कर सकते। इन्द्र सोमोत्पन्न आनन्द की प्राप्ति के लिए
प्रशंसक और सोसाभिषवकर्ता को दान देते हूँ।
३. जो इन्द्र (शक्र) परिचर्या के योग्य, अइवविद्या-कुशल, अद्भुत,
हिरण्मय, आइचर्यभूत और बुत्रघ्न हँ, इन्द्र अनेक गोसमूहों को अपादूत
करके कंपाते हुँ ---
४. जो भूमि पर स्थापित और संगृहीत धनों को यजमान के लिए
ऊपर उठाते हं, बही वज्यधर, उत्तम हन् (जबड़े) वाले और हरित वर्ण
अइववाले इन्द्र जो इच्छा करते हैं, उसे ही कर्मे-द्वारा सिद्ध कर
डाएते हें ।
५. बहुतों के द्वारा स्तुत और वीर इन्द्र, पहले के ससान स्तोताओं
के समीप जो तुमने कामना की थी, उसे हम तुम्हें तुरत प्रदान करते हे।
वह चाहे यज्ञ रहा हो, उक्थ रहा हो अथवा वाक्य रहा हो, तुम्हें हम
दे रहे हें ।
` ६. बहु-स्तुत, वञ्जधर, स्वर्ग-सम्पन्न और सोमपाता इन्द्र, सोमाभिषव
होने पर मद-युक्त होओ। तुम्हीं सोमाभिषव-कर्ता के लिए सबसे अधिक
कमनीय धन के दाता बनो।
हिन्दी-त्रग्वेद १०१५
७. हम अभी और कल इन्द्र को सोम से प्रसञ्च करेंगे। उन्हीं के
लिए इस युद्ध में अभिषुत सोम को ले आओ। स्तोत्र सुनने पर वे
आवें ।
८. यद्चपि चोर सबका निवारक और पथिकों का विनाशक है, तो
भी इन्द्र फे कार्थ में व्याघात नहीं कर सकता। इख, तुम प्रसन्न होकर
आओ । इन्द्र विचित्र क्स के बल से विशेष रूप से आओो।
९. कौन-सा ऐसा पुरुषत्व है, जिसे इन्द्र मे नहीं किया है ? एसा कौन-
सा इन्द्र का पौरुष हुँ, जिसे नहीं सुना गया हुँ ? इन्द्र का बुत्रवध तो
उनके जन्म आदि से ही सुना जा रहा हे।
१०. इन्द्र का महाबल कब अधर्षक हुआ था । इन्द्र का वध्य कब
अवध्य रहा? इन्द्र सारे सुदखोरों, दिन गिननेवालों (पारलौकिक दिनों
से शून्यो) और वणिकों को ताइन आदि के द्वारा दबाते हुँ।
११. वृत्रध्न, वज्ाघर और बहु-स्तुत इन्द्र भति (वेतन) के समान
तुम्हारे ही लिए हम लोग अभिनव स्तोत्र प्रदान करते हैं।
१२. बहुकर्मा इन्द्र, अनेक आशायें तुमरे ही निहित हैं, रक्षायें भी
तुममें ही हँ। स्तोता लोग तुम्हें बुलाते हे। फलतः इन्द्र, शत्रु के सारे
सवनों को लांघकर हमारे सवन में आओ। महाबली इन्द्र, हमारे आह्वान
को सुनो ।
१३. इन्द्र, हम तुम्हारे ही हैं, हम तुम्हारे स्तोता हुए हं। बहु-स्दुत
इनदर, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई सुखप्रद नहीं हुं । |
१४. इन्द्र, तुम हमें इस दारिद्रय, इस क्षुघा ओर इस निन्दा के हाथ
से मक्त करो। हमारे लिए तुम रक्षण और विचित्र कर्म के द्वारा अभि-
लषित पदारथ प्रदान करो । ॒
१५. तुम्हारे ही लिए सोम अभिषुत हो। कलि ऋषि के पुत्रो, मत
इरो। ये राक्षस आदि दूर जा रहे हैं। ये स्वयं दूर भाग रहे हैँ ।
१०१९ हिन्दी-ऋग्वेद
५६ सूक्त
देवता आदित्यगण। ऋषि समद नामक महामीन के पुत्र मत्स्य वा
मित्र ओर वरण के पुत्र मान्य अथवा जालबद्ध अनेक मत्स्य |
छुन्द् गायत्री |)
१. अभिमत फल की प्राप्ति अथवा जाल से निकलने के लिए सुख-
दाता और जाति के क्षत्रिय आदित्यों से हम रक्षण की याचना
करते हे । .
२. मित्र, वरुण, अर्यमा और आदित्यगण दुःसह कार्यं को जानते हुँ;
इसलिए वे हमें पाप से (रोग से) पार कर दें।
३. आदित्यों के पास विचित्र और स्तुति-योग्य घन है। बह घन
हुव्यदाता यजमान के लिए हुं।
४. वरुण आदि देवो, तुम महान् हो। हव्यदाता के प्रति तुम्हारी
रक्षा महती हे। फलतः हम तुम्हारी रक्षा की प्रार्थना करते हें।
५. आदित्यो, हम (मत्स्य) अभी (जाल-बद्ध होने पर भी) जीवित
हें। इस समय हमारे सामने आओ। आह्वान सुननेवालो, मृत्यु के पहले
आना ।
६. श्रान्त अभिषव-कर्ता यजमान के लिए तुम्हारे पास जो वरणीय
धन हुँ, जो गृह हें, उनसे हम लोगों को प्रसन्न करके हमसे अच्छी
बातें कहो ।
७. देवो, पापी के पास महापाप है ओर पाप-शून्य व्यक्ति के पास
रमणीय कल्याण हुँ। पाप-शून्य आदित्यो, हमारा अभिमत सिद्ध करो।
८. यह् इन्द्र जार से हमें न बाँधे । महान् कर्म के लिए हमें जाल
से छोड़ दें। इन्द्र विश्रुत और सबके बश-कर्ता हें ।
९, देवो, तुम हमें छोड़ो। हमें बचाने की इच्छा करके हिंसक
शत्रुओं के जाल से हमें नहीं बाधा देना।
हिन्दी-त्रहवेद -१०१७
१०, देवी अदिति, तुम महती और सुखदात्री हो। अभिलषित फल
की प्राप्ति के लिए में तुम्हारी स्तुति करता हुँ। म
११. अदिति, चारों ओर से हमें बचाओ। क्षीण और उग्र पुत्रवाले
जल में हिंसक का जाल हमारे पुत्र को नहीं मारे।
१२. विस्तृत गसनवाली और गुरुतर अदित, पुत्र के जीवन के लिए
तुम हम पाप-शून्यों को जीवित रक्खो। |
१३. सबके शिरोमणि, मनुष्यों के लिए अहिसक, सुन्दर कौत्तिवाले
और प्रोह-शन्य होकर जो हमारे कमे की रक्षा करते हे”
१४. आदित्यो, वही तुम हिसको के पास से, पकड़े गये चोर के ससान,
हमारी रक्षा करो।
१५. आदित्यो, यह जाल हमारी हिसा करने में असमर्थ होकर दुर
हो। हमारी दुर्बुद्धि भी दूर हो।
१६. सुन्दर दानवाले आदित्यो, तुम्हारे रक्षणों से हम पहले के
समान इस समय भी नानाविध भोगों का उपभोग करेंगे । |
१७. प्रकृष्ट ज्ञानवाले देवो, जो पापी शत्र बार-बार हमारी ओर
जाता हुँ, हमारे जीवन के लिए उसे अलग करो।
१८. आदित्यो, बन्धन जैसे बद्ध पुरुष को छोड़ता है, वैसे ही तुम्हारे
अनग्रह से जो जाल हमें छोडता है, बह स्तुत्य और भजनीय हैं।
१९. आदित्यो, तुम्हारे समान हमारा वेग नहीं है। यह वेग हमें
सुक्त करने में समर्थ है । तुम हमें सुखी करो।
२०. आदित्यो, विवस्वान् के आयुध के समान यह कृत्रिम जाल पहले
और इस समय हस जीर्ण व्यवितयों को न मारे।
२१. आदित्यो, ट्रेषियों का विनाश करो। पापियों का विनाश करो ।
जाल का विनाश करो। सर्वव्यापक पाप का विनाश करो।
चतुथं अध्याय समाप्त ।
१०१४ डिन्वी-इग्षेशः
५७ सूक्त
(पञ्चस अध्याय। देवता इन्द्र, शेष ६ ऋकों के त्रृत्त
ओर अश्वमेध की दानस्तुति। ऋषि अङ्गरोगोत्रोत्पन्न
_ प्रियमेध । छन्द अनुष्ट१॥)
१. अतीव बली और सत्पति इन्द्र, तुम बहुकर्मा और हिसकों के
अभिभवकारी हो। रक्षण और सुख के लिए, रथ के समान, हम तुम्हें
आर्वात्तत करते हैं ।
२. प्रचुर बलवाले, अतीव प्राज्ञ, बहुकर्मा और पूजनीय इन्द्र, विइव-
व्यापक महत्तव के द्वारा तुमने अगत् को आपुरित किया हुँ।
३. तुम महान् हो! तुम्हारी महिमा के द्वारा पृथिवी में व्याप्त
हिरण्मय वज्य को तुम्हारे दोनों हाथ ग्रहण करते हैं।
४, में समस्त झत्रुओं के प्रति जानेवाले और दुर्दमनीय बल के पति
इन्द्र को, तुम लोगों (मरुतों की) सेनाओं के साथ और रथ के गमन
के साथ, बुलाता हुँ। |
५. नेता लोग रक्षण के लिए, जिन्हें युद्ध में विविध प्रकार से बुरूते
हैँ, उन्हीं सर्वदा वद्धेसान इन्द्र को सहायता के निमित्त आगमन के लिए
बुलाता हूँ । |
६. असीम शरीरवाले, स्तुति-द्वारा परिमित, सुन्दर, धन से सम्पन्न,
घन-समुदाय के स्वामी ओर उग्र इन्द्र को में बुलाता हूँ ।
७. जो नेता हँ और जो यज्ञ-मुखस्थित तथा क्रमबद्ध स्तुति सुनने में
समर्थ हँ, उन्हीं इन्द्र को मे, महान् धन की प्राप्ति के लिए, सोमपान
के निमित्त, बुखाता हूं।
८. बली इन्द्र, मनुष्य तुम्हारे सख्य को नहीं ब्याप्त कर सकता;
बह तुम्हारे बल को भी नहीं व्याप्त कर (घेर) सकता।
९. बज्नघर, हम तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर जल में स्नान करने के
हिन्दी-ऋग्वेद १०१९
लिए और सूर्य को देखने के लिए तुम्हारी सहायता सै संग्राम में सहान्
धन प्राप्त करेंगे । |
१० स्तुति-द्वारा अत्यन्त प्रसिद्ध इन्र, में बहुत स्तुति करनेवाला हुँ।
लिस प्रकार तुस हमें युद्ध सें बचाओ, उसी प्रकार के यज्ञ के द्वारा ह्म
तुमसे याचना करते हँ--स्तुति-द्वारा तुम्हारी याचना करते हुँ।
११. वज्यघर इन्द्र, तुम्हारा सख्य स्वादिष्ठ हुँ, तुम्हारा धनादि का
सृजन भी स्वाइु हैं और तुम्हारा यज्ञ विस्तार के योग्य है।
१२. हमारे पुत्र के लिए यथेष्ट धन दो। हमारे पोत्र के लिए यथेष्ट
धन दो ओर हमारे निवास के लिए प्रचुर धन दो तथा हमारे जीवन के
लिए अभिलषित पदार्थ प्रदान करो। म
१३. इन्द्र, हम तुमसे सनुष्य की भलाई के लिए प्रार्थना करते हे
गाय की भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं और रथ के लिए सुन्दर मार्ग
की प्राथना करते हैं। यज्ञ की प्रार्थना करते हें।
१४, सोमोत्पन्न हर्ष के कारण, सुन्दर उपभोग के योग्य धन से
युक्त होकर, छः नेताओं में से दो-दो हमारे पास आते हैं।
१५. इन्द्रोत नामक राजपुत्र से दो सरल-गामी अइवों को मैंने पाया
है। ऋक्ष के पुत्र से दो हरित-वर्ण अइवों को मैंने लिया है। अइवमेध
के पुत्र से मेने रोहित-वर्ण दो अइवों को पाया है।
१६. मेने अतिथिग्व के पुत्र (इन्द्रोत) से सुन्दर रथवाले अश्वो को
पाया हे । ऋक्ष के पुत्र से मैंने सुन्दर लगामवाले अइवों को ग्रहण किया
है । अश्वमेध के पुत्र से मैंने सुन्दर अइवों को ग्रहण किया है।
१७. अतिथिग्व के पुत्र और शुद्धकर्मा इन्द्रोत से घोड़ियोंवाले छः घोड़ों
को) ऋक्षपुत्र ओर अइवसेध पुत्रों के दिये हुए अइवों के साथ, मेने
ग्रहण किया हे।
१८. दीष्तिवाली, वर्षक अइवों से युक्त और सुन्दर लगासोंवाली
घोडियाँ भी इन घोड़ों में हें। र
१०२० हिन्दी-ऋग्वेद
१९. हे अन्नदाता छः राजाओ, निन्दक मनुष्य भी तुम्हारे प्रति
निन्दा का आरोप नहीं करते।
५८ सूक्त
(देवता वरुण, ११ वीं ऋचा के आधे के विश्वदेवगण और आधे
के वरुण। ऋषि प्रियमेध | छन्द उष्णिक् , गायत्री, पङ क्ति
ओर अनुष्टुप् ।) |
१. अध्वर्थुओ, जो बीरों के लिए हर्ष उत्पन्न करते हैं, उन्हीं इन्द्र
के लिए तुम छोग तीन स्तोभों (स्तम्भनों) से युक्त अन्न का संग्रह करो।
यञ्च-भोग के लिए प्रज्ञा से युक्त कर्म के द्वारा इन्द्र तुम्हारा सत्कार
करते हुं।
२. उवाओं के उत्पादक, नदियों के शब्द-जनक और अवध्य. गौओं
के पति इन्द्र को बुठाओ। यजमान दुग्धदात्री गौ से उत्पन्न अन्न की इच्छा
करता हूँ ।
३. देवों के जन्मस्थान और आदित्य के रुचिकर प्रदेश (द्युलोक)
में जो जा सकती हुँ और जिनके दूध से कप पूर्ण होता है, बे गाये तीनों
सवनों में इन्द्र के सोम को मिश्रित करती हे
४. इन्द्र गौओं के स्वामी, यज्ञ के पुत्र और साधुओं के पालक हैं।
इन्द्र जिस प्रकार यज्ञ के गन्तव्य स्थान को जानें, उस प्रकार स्तुति
बन्धनों से उनकी पुजा करो। |
५. हरि नास के अइव, दीप्तियुकत होकर, कुश के ऊपर इन्द्र को
छोड़ो। हम कुश-स्थित इन्द्र की स्तुति करगे।
इन्द्र जिस समय चारों ओर से समीप में वर्तमान मधु (सोमरस)
को प्राप्त करते हे, उस समय गाये वज्1 . इन्द्र के लिए सोस में मिलाने
के उपयुक्त मधु (दुग्ध आदि) का वितरण वा दोहन करती हैं।
७. जिस समय इन्द्र और मे सूर्य के गृह में जाते है, उस समय
सखा आदित्य के इक्कीस स्थानों (द्वादश मास, पाँच ऋतुएँ, तीन लोक
और एक आदित्य) में मधुर सोमरस का पान करके हम मिलें।
हिन्दी-ऋग्वेद १०२१
` ८. अध्वपुँओ) तुम लोग इन्द्र की पुजा करो। विज्ञेष रूप से पुजा
करो। प्रियमेव-वंशीयो, जैसे पुर-विदारक की पुजा पुत्न लोग करते हुँ,
बेसे ही इन्द्र की पुजा करो।
१ जुफाऊ बाजा भयंकर रीति से घहरा रहा है। गोधा (हस्तध्न
नाम का बाजा) चारों ओर शब्द करता है। पिज्जल वर्ण की ज्या
शब्द कर रही है। इसलिए इन्द्र के उद्देश्य से स्तुति करो।
१०. जिल समय शञ्जयर्ण और सुन्दर दोहनवाली नदियां अतीव
प्रवृद्ध होती हें, उस समय इन्द्र के पान के लिए अतीव प्रवृद्ध सोम को
ले आओ।
११. इन्द्र ने सोम का पान किया, अग्नि ने भी पान किया! विश्व-
देवगण तृप्त हुए। इस गृह में बरुण निवास करें। बछड़वाली गाये जसे
बछड़े के लिए शब्द करती हें, बैसे ही उकथ वरुण की स्तुति करते हें।
१२. वरुण (जलाभिमानी देव), तुस सुदेव हो। जैसे किरणे सुर्य
के अभिमुख धावित होती हुँ, बैसे ही तुम्हारे तालु पर गङ्गा आदि सातों
नदियां अनुक्षण क्षरित होती हैं। |
१३. जो इन्द्र विविधगामी और रथ में सम्बद्ध अइवों को हविर्दाता
यजमान के पास जाने को छोड़ देते हे, जो इन्द्र उपसा के स्थल हैं और
जिनके लिए सभी मार्ग दे देते हैं, वही इन्र यज्ञगमन के समय में
सबके नेता होते हें।
१४. शक्र (इन्द्र) युद्ध में निरोधक शत्रुओं को लाँघकर जाते हें
सारे देषी शत्रुओं को अतिक्रम करके जाते हैं। कमनीय और उत्कृष्ट इन्द्र
वावय-द्वारा ताइन करके मेघ को फाड़ते हें। |
१५. अल्प-शरीर कुमार के समान यह इन्द्र नये रथ पर अधिष्ठान
करते हैं। माता-पिता के सामने इन्द्र महान् मृग के समान हैं। बहुकर्मा
इन्द्र मेघ को दृष्टि की ओर करते हैं।
१६. सुन्दर हनुवाले और रथ के स्वासी इन्द्र, स्वच्छन्द-गन्ता, दीप्त,
धहुपाद, हिरण्मय ओर निष्पाप रथ पर चढ़ो। अनन्तर हम दोनों मिलेंगे।
१०२२ हिन्दी-ऋणग्वेद
१७. इस प्रकार दीप्त और विराजमान इन्द्र की अशवान् लोग सेवा
करते हे। अनन्तर जिस समय गमन और हव्यदान के लिए स्तुतियाँ इन्द्र
को आवत्तित करती हुँ, उस समय सुस्थापित घन प्राप्त होता हे।
१८. प्रियसेध-वंश्ीयों ने इन्द्र आदि के प्राचीन स्थानों को प्राप्त
किया हुँ । प्रियमेघों ने मुख्य प्रदान के लिए कुशक फॅलाया हु और हुब्य-
स्थापन किया हूं ।
५९ सुत्त
(ऽ अनुवाक । देवता इन्द्रदेव । ऋषि पुरुहन्मा । छन्द उष्णिक् ,
अनुष्टुप् , बृहती, सतोबृहती और पुरउष्णिक् ।)
१. जो मनुष्यों के राजा हँ, जो रथ पर जाते हैं, जिनके गमन में
कोई बाधक नहीं हो सकता और जो सारी सेना के उद्धारक हे, उन्हें
ज्येष्ठ और वृत्रघ्न इन्द्र की में स्तुति करता हू ।
२. पुरुहन्मा, तुम अपने रक्षण के लिए इन्द्र को अळंकृत करो।
तुम्हारे पालक इन्द्र का स्वभाव दो प्रकार का हे--उग्र और अनुग्र । इन्द्र
हाथ में दर्शनीय बज्न को घारण करते हें। बह् बज्य आकाश में दिखाई
देनेवाले सूर्य के समान हुँ।
३. स्वेदा बुद्धिशील, सबके स्तुत्य, महान् और अन्यों के अभिभविता
इन्द्र को जो यज्ञ के द्वारा अनुकूल करते हँ, उनके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति
कमं के द्वारा नहीं व्याप्त कर सकते।
४. दूसरों के लिए असहनीय+ उग्र और ान्रु-सेना के विजेता इन्द्र की
में स्तुति करता हूँ। इन्द्र के जन्म लेने पर विशाला और अत्यन्त वेगवाली
गायों ने उनकी स्तुति की थी। सारे झुलोकों और पृथिवियों नें भी स्तुति
की थी।
५. इन्द्र, यदि सौ द्युलोक हो जायें, तो भी तुम्हारा परिमाण नहीं
कर सकते; यदि सो पृथिवियाँ हो जायं, तो भी तुम्हें नहीं माप सकतीं;
यदि सूयं सौ हो जायं, तो भी तुम्हें प्रकाशित नहीं कर सकते। इस लोक
हिन्दी-ऋ्वेद १०२३
में जो कुछ जन्मा हुँ, वह ओर द्यावापृथिवी तुम्हारी सीमा नहीं कर
सकते । |
६. अभिलाषदाता, अतीव बळी, धनी और बब्प्री इनद, महान् बल
के द्वारा तुमने बल को व्याप्त किया है। हमारी गायों के निमित्त विविध
रक्षणों के द्वारा हमारी रक्षा करो। ह
७. दीर्घायु इन्द्र, जो व्यक्ति श्वेतवर्ण अध्यद्वय को रथ में जोतता
है, उसी के लिए इन्द्र हरिद्दय जोतते हैं। वेव-शून्य व्यक्ति सारा अञ्न
नहीं पाता।
८, ऋत्विको, महान् तुम लोग उन पूज्य इन्द्र की, दान के लिए,
मिलकर पुजा करो। जल-प्राप्ति के लिए इन्द्र को बुलाना चाहिए । निम्न
स्थल की प्राप्ति के लिए भी इन्द्र को बुलाना चाहिए। संग्राम में भी
इन्द्र को बुलाना चाहिए।
९. वासदाता और शूर इन्द्र, तुम हमें महान् घन की प्राप्ति कै
लिए उठाओ। शूर और धनी इन्द्र, महान धन और महती कीत्ति देने
के लिए उद्योग करो।
१०. इन्द्र, तुम यज्ञाभिलाषी हो। ओ तुम्हारी निन्दा करता है,
उसका धन अपहृत करके तुम प्रसन्न होते हो। प्रचुर-धन इन्त, हमारी
रक्षा के लिए तुम हमें दोनों जाँघों के बीच छिपा लो। शत्रुओं को मारो।
अस्त्र के द्वारा दास को मार डालो।
११. इन्द्र, तुम्हारे सखा पर्वत अन्यरूप-घारक, अमानुष, यज्ञ-शून्य
और वेब-हेषी व्यक्ति को स्वर्ग से नीचे फेंकते हें। वे दस्यु को भृत्य
के हाथ में भेजते हें।
१२. बली इन्द्र, हमें देने के लिए भूने यव वा जौ के समान गौओं को
हाथ से ग्रहण करो। तुम हमारी अभिलाषा करते हो। और भी अभिलाषा
करके ओर भी ग्रहण करो।
१३. मित्रो, इन्त्र-सस्बन्धी और कर्म करने की इच्छा करो। हम
१०३३४ | हिन्दी-त्रहवेद
` हिंसक इन्द्र की कसे स्तुति करेंगे? इन्द्र शत्रुओं के भक्षक और प्रेरक हुँ।
थें कभी भी अवनत नहीं होते।
१४, सबके पुजनीय इन्द्र, अनेक ऋषि और हव्यदाता तुम्हारी स्तुति
` करते हैं। हिंसक इन्द्र, तुम एक-एक करके अनेक प्रकार से, स्तोताओं को
अनेक वत्स देते हो।
१५ ये ही धनी इन्र तीन हिसकों से युद्ध में जीती हुई गायों और
बछड़ों को कान पकड़कर हमारे पास ले आर्वे। इसी प्रकार पीने के लिए
स्वामी बकरी को कान पकड़कर ले आता हुँ।
६० सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि सुदिति ओर पुरुमीद् । छन्द गायत्री, बहती
ओर सतोबृहती ।)
१, दान-शुन्य अनेक व्यक्तियों से लब्ध महाधन के द्वारा तुम हमें
पालित करो। शत्रुओं के हाथ से भी हमें बचाओ।
२. प्रिय-जन्मा अग्नि, पुरुष-सम्बन्धी क्रोध तुम्हें नहीं बाधा दे सकता ।
तुम रात्रिवाले हो (रात में अग्नि विशष तेजस्वी होते हैं) ।
` ३. बल के पुत्र और प्रशस्य तेजवाले अग्नि, तुम सारे देवों के साथ
सबके लिए वरणीय धन हमें दो।
४, अग्नि, जिस हविर्दाता का तुम पालन करते हो, उस व्यक्ति को
अदाता और धनी व्यक्ति नहीं पृथक् करते।
५. मेधावी अग्नि, तुम जिस व्यक्ति को धन-लाभ के लिए यज्ञ प्रेरित
करते हो, वह तुम्हारी रक्षा के कारण गो-संयुक्त होता हृ।
६. अग्नि, तुम हव्यदाता मनुष्य के लिए बहु-चीरयुक््त धन प्रदान
करो । वासयोग्य धन के अभिमुख हमें प्रेरित करो।
७, जात-धन अग्नि, हमारी रक्षा करो। अनिष्ट चाहनेबाले और
हिसा-सत्ति मनुष्य के हाथ में हमें वहीं समपित करना।
हिन्दी-ऋग्वेद १०२५
८, अग्नि, तुम योतमान हो । कोई भी देव-शृत्य व्यक्ति तुम्हें धन-
दान से अलग नहीं कर सकता।
९. बल के पुत्र, सखा और निवासप्रद अग्नि, हम स्तोता हैं। तुम हमें
सहाधन प्रदान करो।
१०. हारी स्तुतियाँ भक्षण (दहन) करनेवाली शिखाओंवाले
और दशमीय अग्नि की ओर जायं। सारे यज्ञ रक्षा के लिए
हविर्घुक्त होकर प्रचुर धनवाले और अनेकों के द्वारा स्तुत अग्नि की
ओर जायं ।
११, सारी स्तुतियाँ बल के पुत्र, जातधन ओर वरणीय (स्वीकरणीय) -
अग्नि की ओर जाथे । अग्नि अमर ओर मनुष्यों में रहनेबाले हें। अग्नि
दो प्रकार के हं--मनुष्यों में होम-सम्पादक और मदकारी हूँ। |
१२. यजमानो, तुम्हारे देव-यज्ञ के लिए अग्नि की में स्तुति करता
हँ । यज्ञ के प्रारम्भ होने पर में अग्नि की स्तुति करता हूँ। कर्म-काल में
अग्नि की प्रथम स्तुति करता हूँ। बन्धुत्व आने पर अग्नि की स्तुति करता
हुं ।कषेत्र-प्राप्ति होने पर अग्नि की स्तुति करता हूँ।
१३. अग्नि के हम सखा हुँ और अग्नि स्वीकरणीय धन के ईश्वर
हँ। वे हमें अञ्न दें। पुत्र और पोत्र के लिए उन निवास-दाता ओर
अद्भ-पालक अग्नि से हम प्रचुर धन की याचना करते हैं।
` १४. पुरुमीढ़, रक्षा के लिए तुम मन्त्र-द्वारा अग्नि की स्तुति करो)
उनकी ज्वाला दाहक हुं। घन के लिए अग्नि की स्तुति करो। अन्य
यजसान भी उनको स्तुति करते हुँ। सुदिति के लिए गृह की याचना,
करो ।
१५. शत्रओ को पृथक् होने के लिए हम अग्नि की स्तुति करते हुँ।
सुख और अभय के लिए हम अग्नि की स्तुति करते हूँ। सारी प्रजा सं
अग्नि राजा के समान हूँ। वे ऋषियों के लिए वासदाता और आह्वान
के योग्य हें । हि 2
फा० ६५
१०२६ हिन्बी-क्ररबेद
(देवता अग्नि । ऋषि प्रगाथ के पुत्र हयंत । छन्द गायत्री ।)
१. अव्वयुओ, तुम शीघ्र हव्य प्रस्तुत करो। अग्नि आय हँ । अध्वर्यु
फिर यज्ञ का सेवन करते हें। अध्वर्यु हव्य देना जानते हूँ।
२. अग्नि के साथ यजमान की मंत्री हे। वह संस्थापक होता और
तीखी ज्वालावाले अग्नि के पास बेठते हूं ॥
३. यजमान की मनोरथ-सिद्धि के लिए वे अपने प्रज्ञा-यल से उन रुब्र
(दुःख-घातक) अग्नि को सम्मुख स्थापित करने की इच्छा करते हे ।
दे जिह्वा (स्तुति) परा अग्नि को ग्रहण करते हूं।
४. अन्नदाता अग्नि सबको लाँघकर रहते हूँ। वे अन्तरिक्ष को
लांघकर रहते हे। वे अपनी ज्वाला के द्वारा मेघ का वध करते हृ॥
बे जल के ऊपर चढ़े हूँ।
५. बत्स के समान चंचल और श्वेतवणे अग्नि इस संसार में निरोधक
को नहीं प्राप्त करते है। वे स्तोता की कामना करते हुँ।
६. इत अग्नि का माहात्म्य-युक्त अइव-सम्पञ्च प्रकाण्ड योजन
ह--रथ की रस्सी हे ।
७. शब्दाली सिन्धु नद के घाट पर सात ऋत्विक् जल का दोहन
करते हें। इनमें दो प्रस्थाता अध्वर्यू अन्य पाँच (यजमान, ब्रह्मा, होता,
अग्निषश्न और स्तोता) को प्रयुक्त करते हूँ।
८. सेवक यजमान की दस अंगुलियों के द्वारा याचित होकर इन्द्र ने
आकाश में मेघ से तीन प्रकार की किरणों के द्वारा जरू-बर्षण कराया ।
९. तीन वर्ण (लोहित, शुबल और कुष्ण) वाले तथा वेगवान् अग्नि
अपनी शिखा के साथ यश में जाते हे। होम-सम्पादक अध्वर्यु लोग मधु
के द्वारा मधु (आज्य आदि) के द्वारा उनका पुजन करते हुँ।
१०. महावीर, ऊपर चक्र से युष्ल) दीप्ति-तस्पन्न, निम्यमुख द्वारवाजे,
हिन्दी-त्ररवेद १०२७
अक्षीण और रक्षक आग्नि के अपर, अवनत होकर, अध्वर्यू उन्हें सिक्त
करते हु । |
११, आदर से युक्त अध्वर्युगण निकटगासी होकर रक्षक अग्नि के
विसर्जेन के समय विशाल पात्र (उपयसनीपात्र) में मधु-सिचन करते हे।
१२. गौओ, मन्त्र के द्वारा हृहने योग्य बहुत दूध की आवश्यकता
होने पर तुम लोग रक्षक (महावीर) अगिन के पास जाओ। अग्नि के
दोनों कण सोने और चाँदी के हँ।
१३. अध्वर्युओो, दूध दहे जाने पर द्यावापृथिवी पर आश्वित और
सिश्रणयोग्य दूध का सिचन करो। अनन्तर बकरी के दूध में अग्नि को
स्थापित करो।
१४. उन्होंने (गओं ने) अपने निवासदाता अग्नि को जाना है।
जैसे वत्स अपनी माता से मिलते है, वैसे ही गायें अपने बन्धुओं के साथ
मिलती हु।
१५. शिखा (ज्वाला) के द्वारा भक्षक अग्नि का अन्न अग्नि और
इन्र का पोषण करता ओर अन्तरिक्ष (अन्तरिक्ष) का उपकार करता
है। इन्द्र ओर अग्नि को सारा अन्न दो ।
१६, गसनशील वायू और चंचल चरणों से युक्त माध्यमिकी वाक्
(वचन) से सूर्य की सात किरणों के द्वारा बद्धित अन्न और रस को अध्वर्यु
ग्रहण करता है।
१७. भित्र ओर बर्ण, सूर्योदय होसे पर तूर्यं सोम को स्वीकार
करते हूँ! ब हमारे (आहुरों के) लिए हितकर भेषज हेँ।
८. हूयत उप का जो स्यान हुव्य स्थापन के लिए उपयक्त है,
से अग्यि अपनी शिखा के द्वारा चुलोक को व्याप्त करते हें ।
६२ हूः
(देवता अश्विद्वय । ऋषि सप्तबश्नि । छुन्द् गायत्री)
१. अशियदूय, में यज्ञतनरूण्यः हू । सेरे लिए उदित होओ । रथ को
जोतो। तुम्हारी रक्षा हमारी समीपर्वा्तनी हो।
१०२८ हिन्दी-ऋग्वेद
` २. अध्विद्वप, निमेष से भी अधिक वेगवान् रथ से आओ। तुम्हारी
रक्षा हमारी समीपर्वात्तनी हो ।
३. अश्विद्वय, (अग्नि में फेके हुए) अत्रि के लिए हिम (जल) से
धर्म (अग्नि-दहुन) का निवारण करो। तुम्हारी रक्षा हमारी समोपर्वात्तिनी
हो।
४. तुम लोग कहाँ हो? कहाँ जाते हो? शयेन पक्षो के समान कहाँ
गिरते हो ? तुम्हारी रक्षा हमारी समीपर्वाचनी हो।
५. तुझ किस समय, किस स्थान पर, आज हमारे इस आह्वान को
सुनोगे, यह हम नहीं जानते ? तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
६. यथासमय अत्यन्त आह्वान के योग्य में अश्विद्य के पास जाता
` हूँ। उनके निकट स्थित बन्धुओं के पास भौ में जाता हू। तुम्हारा रक्षण
हमारे पास आवे।
७. अश्विद्वय, तुम लोगों ने अन्नि के लिए (जलने से बचन के लिए)
रक्षक गृह का निर्माण किया था। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
`` ८, अइ्विद्वय, मनोहर स्तोता अत्रि के लिए अग्नि को जलाने से अलग
करो। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
. ९, महष सप्तर्बाध् ने तुम्हारी स्तुति से अग्नि को धारा (ज्वाला)
को, मञ्जूषा (पेटिका = बाकूस) में से स्वयं बाहर निकालकर, उसी
सें, सुला (पेठा) दिया था। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
१०. वुष्टिदाता और धनी अधिवद्वय, यहाँ आओ ओर हमारा
आह्वान सुनो। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
११, अश्विद्वय, अतीव बद्ध के समान तुम्हें क्यों बार-बार बुलाना
पड़ता है? तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे ।
. १४. अध्विद्दय, तुम दोनों का उत्पत्ति-स्थान एक हे; तुम्हारे बन्धु
भी एक समान हुँ। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे। |
. -१३.' अदिव्य, तुम्हारा रथ द्यावापृथिवी ओर सारे लोकों में घूमता
हूँ। तुम्हारी रक्षा हमारी समीपर्वात्तनी हो। {3 2
हिन्दी-ऋग्वेद १०२९
१४, अश्विद्वय, अर्पारमित (सहुख) गौओं और अइवों के. साथ
हमारे पास आओ। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
.. १५. अश्विद्वय, सहस्र गौओं और अइवों से हमारा निवारण नहीं
करना (अर्थात् हमें ये सब देना)। तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
१६, अश्विद्य, उषा शुक्लवर्णं की हुँ। वे यज्ञवाली और ज्योति
का निर्माण करनेवाली हँ। दुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
१७. जसे फरसावाला व्यक्ति वृक्ष काटता हैं, वैसे ही अतीव दीप्ति-
मान् सुर्य अन्धकार का निवारण करते हैं। में अश्विद्वय को बलाता
हुँ । तुम्हारा रक्षण हमारे पास आवे।
१८. धर्षक सप्तर्वाध्र, तुस काले पेटक (बाकस) में बन्द थे। पीछे
उसे तुमने नगर के समान जला दिया था। तुम्हारा रक्षण हमारे पास
झावे । FR
क् ६३ सूक्त
(देवता अग्नि । शेष की तीन ऋचाओं के अतवो की
दानस्तुति है । ऋषि गोपवन | छन्द अनुष्टुप् और गायत्री ।)
१, ऋत्विकों और यजमानो, तुस लोग अज्ञाभिलाषी हो। सारी
प्रजा के अतिथि और बहुतों के प्रिय अग्नि की स्तुति के द्वारा सेवा
करो। में तुम्हारे सुख के लिए मननीय स्तोत्र के द्वारा गृढ़ बचन का
उच्चारण करता हूं।
२. जिन अग्नि के लिए घी का होस किया जाता हं और जिनको द्रव्य
का दाव करते हुए स्तुति द्वारा प्रशंसा की जाती हे”
३. जो स्तोता के प्रशंसक और जात-धन हँ तथा जो यज्ञ में दिये
हवि को यलोक में प्रेरित करते हं--
जिनकी ज्वालाओं ने ऋक्षपुत्र ओर महान् श्रुतर्वा को बढित
किया है, उन पापियों के नाशक और सनुष्यों के हितकर अस्मि के पास,
में उपस्थित हुआ हूं । |
१०३० हिन्दी-ऋणष्वेद
५. अग्नि असर हँ, जात-घन हें और स्तवनीय हें। वे अन्धकार को
दूर करते है । उनका घत के द्वारा हवन किया जाता हे।
६. बाधावाले लोग यज्ञ करते और स्रुक् संयत करते हुए हव्य के द्वारा
उनकी स्तुति करते हैँ।
७. दृष्ट, शोीभन-जन्सा, बुद्धिसान् और दर्शनीय अग्नि, हम तुम्हारी
यह स्तुति करते हँ।
८. अग्नि, वह स्तुति अतीव सुखावह, अधिक अञ्चवाली और तुम्हारे
लिए प्रिय हो। उसके द्वारा तुम भली भाँति स्तुत होकर बढो ।
९. बह स्तुति प्रचुर अज्नवाली है। युद्ध में वह अन्न के ऊपर यथेष्ट
अञ्च धारण करे।
१०. जो अग्नि बल के द्वारा शत्रु के जल्न और स्तुत्य घन की हिसा
करते ह, उन्हीं प्रदीप्त और रथादि के पुरक अग्नि की, गतिपरायण अश्व
के समान तथा सत्पति इन्द्र के सदुश, मनुष्य लोग सेवा करते हैं ।
' ११. अग्नि, गोपवन नामक ऋषि की स्तुति से तुम अन्नदाता हुए
थे। तुम सर्वत्र जानेवाले और शोधक हो। तुम गोपवन के आह्वान को
सुनो । |
१२. बाधा-संयुक्त होने पर भी लोग, अन्न-प्राप्ति के लिए, तुम्हारी
स्तुति करते हुँ। तुम युद्ध में जायो।
१३. में (ऋषि) बुलाये जाने पर, शत्रु-गर्व-ध्वंसक और ऋ्ष-पश्न
श्रुतर्वा राजा के दिये हुए लोमवाले चार अइवों के ऊंचे और लोमवाले
पस्तर्को को में हाथों से धो रहा हूँ।
१४. अतीव अन्नवाले श्रुतर्वा राजा के चार अश्व ब्रुतगामी और
उत्तम रथवाले होकर, उसी प्रकार अन्न को ढोते हुँ, जिस प्रकार अश्विद्वय
की भेजी हुई चार नावों ने तुग्र-पुत्र भुज्यु का बहन किया था।
१५. हे महानदी परुष्णी (रावी), हे जल, में तुमसे सच्चा कहता हूँ
कि सबसे बली इन श्रुतर्वा राजा से अधिक अइवों का दान कोई भी
पनुष्य सही कर सकता।
हिन्दी-ऋग्वेद १०३१
६४ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि अङ्गिरा के पुत्र विरूप । छन्द गायत्री |)
१. अग्नि, सारथि के समान तुम देवों को बुलाने मे कुशल घोड़ों को
रथ में जोतो। तुम होता हो। प्रधान होकर तुम बेठो।
२. देव, तुम देवताओं के यहाँ हमें “विद्ठस्भेष्ठ” कहकर हमारे बरणीय
घनो को देवों के पास भेजो।
३. तरुणतभ, बल के पुत्र और आहूत अग्नि, तुम सत्यवाले और
यज्ञ-योग्य हो।
४. यहु अग्नि सौ और हजार तरह के अन्नों के स्वामी, शिरः-संयुक्त,
कवि (मेधावी) और धनपति हैं।
५. गमनशीरू अग्नि, जेसे ऋभू लोग रथ-नेमि को ले आते हुँ, वैसे .
ही तुम भी एकत्र आहूत देवों के साथ अतीच निकटवर्ती यज्ञ को ले
आजो।
६, विशिष्ट रूपवाले ऋषि, तुम नित्य वाक्य के द्वारा तृप्त और'
` अभीष्टवर्षी अग्नि की स्तुति करो।
७. गायों के लिए हम विशाल चक्षुवाले अग्नि की ज्वाला के द्वारा
किस पणि का वघ करेंगे?
८. हम देवों के परिचारक हुँ। जैसे दूध देनेवाली गायों को नहीं
छोड़ा जाता और गाय अपने छोटे बच्चे को नहीं छोड़ती, बैसे ही अग्मि
हमें न छोड़ें।
९. जैसे समुद्र की तरङ्ग नौका को बाधा देती हे, बैसे ही बन्नुओं की
दुष्ट बुद्धि हमें बाधा न दे।
१०. अग्निदेव, मनुष्य बल-प्राप्ति के लिए तुम्हारे निमित्त नमस्कार
करते हें। तुम बल के द्वारा शत्र्संहार करो।
११. अग्नि, हमें गाये खोजने के लिए प्रचुर धन दो। तुम समद्धिकत्ता
हो। हमें समद्ध करो।
१०३२ हिन्दी-क्रस्वेद
१२. भारवाहक व्यक्ति के समान तुम हमें इस संग्राम में नहीं छोड़ना ।
` शत्रुओं के द्वारा धन छिन्न हो रहा है । उसे हमारे लिए जीतो।
१३. अग्नि, ये बाधायें स्तुति-विहीन के लिए भय उत्पन्न करें। तुम
हमारे .बरू से युक्त वेग को वर्द्धित करो।
१४. नसस्कारवाले अथवा यज्ञ-य॒क्त जिस व्यक्ति का कर्म सेवा
` करता हुँ, उसी के पास विशेषतया अग्नि जाते हूँ।
१५. शत्रु-सेना से अलग हमारी सेनाओं को अभिमुखीन करो।
जिनके बीच में हूँ, उनकी रक्षा करो।
१६. अग्नि, तुम पालक हो। पहले के समान इस समय तुम्हारे
रक्षण को हम जानते हैं। अब तुम्हारे सुख की हम याचना करते हूँ।
६५ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि कण्वगोत्रीय कुरुसुलि । छन्द गांयत्री ।)
१. में झत्रुच्छेदन के लिए प्राज्ञ इन्द्र को बुलाता हुँ। वे अपने बल
ते सबके स्वामी और मरतोंवाले हें।
` २. इन इन्द्र ने, भरुतों के साथ, सौ पर्यो (जोड़ों) वाले बग्ग से वृत्र
का शिर काटा था। |
३. इन्द्र ने बढ़कर और मरुतों से मिलकर वृत्र को विदीर्ण किया
या। उन्होंने अन्तरिक्ष को जल बनाया था।
४. जिन्होंने मरुतों से युक्त होकर, सोसपान के लिए, स्वगे को जीता
था, वे ही य इन्द्र ह।
५. इन्द्र मरुतों से युक्त, ऋजीष (तृतीय सवन में पुनः अभिषुत सोम
का शेष भाग) वाले, सोम-संयुक्त, ओजस्वी और महान् हैं। हम स्तुति-
द्वारा उन्हें बुलाते हुँ।
मरुतों से युक्त इन्द्र को हम, सोमपान के लिए, प्राचीन स्तोत्र
के द्वारा बलाते हु। ह 4
हिन्दो-काज्बेद १०३३
७. फल-वषक,) अनकों द्वारा आहूत और शतक्रतु इन्द्र, भरुतों के
साथ तुम इस यज्ञ में सोमपान करो। |
८. वज्भधर इद) तुम्हारे और मरतों के लिए सोम अभिषुत हुआ
है। उक्थ मन्त्रों का उच्चारण करनेवाले व्यक्ति भक्ति के साथ तुम्हें
बलाते
९. इन्द्र, तुम सस्तो के मित्र हो। तुम हमारे स्वगं देनेवाले यज्ञ सें
अभिषुत सोम का पान करो और बल के द्वारा वजय को तेज करो।
१०. अभिषवण-फलकों (चमुओं) पर अभिषुत सोम को पीते हुए
बल के साथ खड़े होकर दोनों जबड़ों को कंपाओ।
११. तुम शत्रुओं का विनाश करनेवाले हो। उसी समय दावापथिदी,
दोनों हो तुम्हारी कल्पना करते हं, जिस समय तुस दस्युओं का विनाश
करते हो।
१२. आठ और नौ दिशाओं (चार दिशायें, चार कोण और आदित्य)
मं यज्ञ-स्पशं करनेवाली स्तुति भी इन्द्र से कम है। में उसी स्तुति को
करता हूँ।
६६ सूक्त
(देवता इन्ट्र। ऋषि कुस्सुति । छन्द गायत्री, बहती
और सतोबृहती ।)
१. जन्म लेते ही बहुकमें-शाली होकर इन्द्र ने अपनी माता से पुछा,
उग्र कोन हु और प्रसिद्ध कौन हे?”
२. शवसी (बलवती माता) ने उसी समय कहा-- पुन्न, ऊर्णनाभ,
अहीशुव आदि अनेक हँ । उनका निस्तार करना उपयुक्त हे ।”
., ३. वृत्रघ्न इन्द्र ने रथ-चक्र की लकड़ियों (अरों) के समान एक साथ
ही रस्सी से उन्हें खींचा और दस्युओं का हनन करके प्रवृद्ध हुए।
४. इन्द्र ने एक साथ ही सोम से पुर्ण तीस कमनीय पात्रों को पी
डाला।
१०३४ हिन्वी-ऋ ग्येद
५. इन्द्र ने मूल-शून्य अन्तरिक्ष में ब्राह्मणों के वद्धेन के लिए चारों
झर से मेघ को मारा।
६. सनृष्यों के लिए परिपक्व अन्न का निर्माण करते हुए इन्द्र ने
विराट् शर को लेकर मेघ को छेदा था।
७ इन्द्र, तुम्हारा एकमात्र वाण सौ अग्र भागों से युक्त और सहस्र
पात्रों से संयुक्त हे । तुम इसी वाण को सहायक बनाते हो।
८, स्तोताओं+ पुत्रों और स्थ्रियों के भक्षण के लिए उसी बाण के
द्वारा यथेष्ट घन ले आओ। जन्म के साथ ही तुम प्रभूत और स्थिर
हो ।
९. इख, तुमने ये सब अतीव प्रवृद्ध और चारों ओर फैले हुए पर्वतों
को बनाया हे। बुद्धि में उन्हें स्थिर भाव से धारण करो।
१०. इन्त, तुम्हारा जो सब जल हे, उसे बिष्णु (आदित्य) प्रदान
करते हूँ। विष्णु आकाश में अमण करनेवाले (बहु-गति) और तुम्हारे
हारा प्रेरित हें। इन्द्र ने सौ महिषों (पशुओं), क्षीर-पक्व अन्न और जल
घुरानेवाले मेघ (वराह) को भी दिया।
११. तुम्हारा धनुष बहुत वाण फॅकनेवाला, सुर्निमित और सुखावह
हैं । तुम्हारा बाण सोने का है । तुम्हारी दोनों भुजायें रमणीय,
मर्मभेदक, सुसंस्कृत और यज्ञवर््धक है।
६७ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि कुरुसुति । छन्द॒ गायत्री और बृहती ।)
१. शूर इन्द्र, पुरोडावा नास के अन्न को स्वीकार कर सौ और सहस
याये हमें दो।
२. इन्द्र, तुम हमें गाय, अव और ते दो ' साथ ही मनोहर और
हिरण्मय अळंकार भी दो। |
३. शत्रुओं को रगड़नेवाले और वासदाता इनद, तुम्हीं सुने जाते हो।
तुम हमें बहु-संस्यक कर्णाभरण प्रदान करो।
हिन्दी-ऋग्वेद १०३५
४. शुर इन्द्र, तुम्हारे सिवा अन्य वद्धंक नहीं है। तुम्हारी अपेक्षा
संग्राम में दूसरा कोई सम्भक्त नहीं हे--कोई उत्तम दाता भी नहीं
है। तुम्हारे सिवा ऋत्विकों का कोई नेता भी नहीं है।
५. इन्द्र किसी का तिरस्कार नहीं करते। इन्द्र किसी से हार नहीं
सकते। वे संसार को देखते और सुनते हें।
६. इन्द्र का वध मनुष्य नहीं कर सकते। वे क्रोध को मन में स्यान
नहीं देते। निन्दा के पूर्व ही निन्दा को स्थान नहीं देते।
७, क्षिप्रकारी, वृत्रघ्म ओर सोमपाता इन्द्र का उदर सेदक के कमे
हारा ही पूर्ण हैं।
८. इन्द्र, तुमसे सारे धन सद्भत हैं। सोमपाता इन्द्र, तुममं समस्त
सौभाग्य संगत हे । सुन्दर दान सदा कुटिलता से शून्य हुआ करता हे।
९, सेरा सन यव (जौ), गौ, सुवणं और अश्व का अभिलाषी होकार
तुम्हारे ही पास जाता है।
१०, इन्द्र, में तुम्हारी आशा से ही हाथों में दात्र (खेत काटने का
हथियार) धारण करता हूँ। पहुले काटे हुए अथवा पुवं संगुहीत जो की
मुष्टि से आशा को पुर्ण करो।
६८ सूक्त
(देवता सोम । ऋषि कस्तु । छन्द गायत्री ओर अदुष्टुप् 0
१. ये सोमकर्ता हैं। कोई इनका ग्रहण नहीं कर सकता। ये
विश्वजित् और उद्भिद् नामक सोम-यज्ञों के निष्पादक हँ। ये ऋषि
(ज्ञानी), मेघावी और काव्य (स्तोत्र) के द्वारा स्तुत्य हें।
२. जो नग्न हँ, उसे सोम ढंकते हें। जो रोगी हें, उसे नीरोग करते
हैं। यह सन्नद्ध रहने पर भी दर्शन करते हँ, यह पंगु होकर भी गसन
करते हें ।
` ३. सोम, तुम शरीर को कुश करनेवाले अन्य कृतों (राक्षसो) के
अप्रिय कार्यो से रक्षा करते हो।
१०३६ हिन्दी-ऋग्वेद
४. है ऋजीष (तृतीय सवन में अभिषुत सोम का शेष भाग) वाले
सोम, तुम प्रज्ञा और बल के द्वारा झुलोक और पृथिवी के यहाँ से हमारे
शत्रु के कार्य को पृथक करो।
५. यदि घनेच्छु लोग धनी के पास जाते हुँ, तो दाता का दान
मिलता और भिक्षुक की अभिलाषा भली भाँति पूर्ण होती हे।
६. जिस समय पुराना धन प्राप्त किया जाता है, उस समय यज्ञा-
भिलाषी को प्रेरित किया जाता हुँ। तभी दीर्घ जीवन प्राप्त किया
जाता हुं।
सोम, तुम हमारे हृदय में सुन्दर, सुखकर, यज्ञ-सम्पादक, निश्चल
कोर मङ्गलकर हो।
८. सोम, तुम हमें चंचलाङ्ग नहीं करना। राजन्, हमें डराना नहीं।
हमारे हृदय में प्रकाश के द्वारा वध नहीं करना।
९. तुम्हारे गृह में देवों की दुबूंद्धि न प्रवेश करे। राजन्, शत्रुओं को
दूर करो। सोमरस का सेचन करनेवाले हिसको को मारो।
६९ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि नोधा के पुत्र एकद । छन्द् गायत्री
ओर तरिष्टुप्\ ।)
१. इन्द्र, तुम्हारे सिवा अन्य सुखदाता को मै बहुमान नहीं प्रदान
करता हूं; इसलिए हे शतक्रतो, सुख दो।
२. जिन अहिसक इन्द्र ने पहले हमें अन्न-प्राप्ति के लिए बचाया था,
वे हमें सदा सुखी करें।
३. इन्द्र, तुम आराधक को प्रवत्तित करो। तुम अभिषव-कर्ता के
रक्षक हो। फलतः हमें बहुधन दो।
४. इन्द्र, तुम हमारे पीछे खड़े रथ की रक्षा करो। वच्ञ्धर इन्द्र,
उसे सामनं ले आओ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०३७
५, शत्र-हन्ता इन्द्र, इस समय तुम क्यों चुप हो? हमारे रथ को
मुख्य करो। हमारा अन्नाभिलाषी अन्न तुम्हारे पास है।
६, इन्द्र, हमारे अन्नाभिलाबी रथ की रक्षा करो। तुम्हारा क्या
कर्तव्य हु ? हमें संग्राम में सब तरह से विजयी बनाओ ।
७. इन्द्र, दृढ़ होओ। तुम नगर के ससान हो। सङ्कलमयी स्तुति-
क्रिया यथासमय तुम्हारे पास जाती हृ। तुम यज्ञ-सम्पादक हो।
८. निन्दा-पात्र व्यक्ति हमारे पास उपस्थित न हो। बिशाल दिशाओं
में निहित धन हमारा हो। शत्रु विनष्ट हों। |
९, इन्द्र, तुमने जिस समय यज्ञ-सम्बन्धी चतुर्थ नाम धारण किया,
उसी समय हमने उसकी कामना की। तुस हमारे रक्षक हो। तुम्हीं हमारा
पालन करते हो।
१०. अमर देवो, एकयु ऋषि तुम्हें ओर तुम्हारी पत्तियों को
बद्धित और तृप्त करते हें। हमारे लिए प्रचुर धव दो। कर्म-धन इन्द्र
प्रातःकाल ही आगमनं करें। |
७० सूक्त
(९ अनुवाक । देवता इन्द्र । ऋषि कणवगोत्रीय कुसीदी ।
छुन्द् गायत्री |)
१. इन्द्र, तुम महान् हस्त (हाथ) वाले हो। तुम हमें देन के लिए
शब्दवान् (स्तुत्य), विचित्र और ग्रहण के योग्य धन दक्षिण हाथ में
धारण करो।
२. इन्द्र, हम तुम्हें जानते हें। तुम बहुकर्सा, बहुंदाता, बहुधनी ओर
बहुरक्षावाले हो।
' ` ३. शर इन्दर, तुम्हारे दानेच्छ होने पर देव ओर मनुष्य, भयंकर वृषभ
के समान, तुम्हें बाधा नहीं पहुँचा सकते ।
४, मनुष्यो, आओ और इन्द्र की स्तुति करो। बह स्वयं दीप्यमान
घनं के स्वामी हुँ। अन्य धनी के समान वे धन के द्वारा बाधा न दें।.
१०३८ हिन्दी-ऋ*ग्वेद
५. इख, तुम्हारी स्तुति की प्रशंसा करे ओर तदनुरूस गान करें।
वे सामवेदीय स्तोत्र का श्रवण करें। धन-युवत्त होकर हमारे ऊपर अनुग्रह
करे ।
६. इन्द्र, हमारे लिए आगमन करो। वोनों हाथों से दान करो। हमें
घन से अलग नहीं करना।
७, इन्द्र, तुम घन के पास जाओ। शज्ुजेता इन्र, जो मनुष्यों में
अदाता (दानझून्य) है, उसका घन ले आओ ।
८. इन्द्र, जो धन ब्राह्मणों (विप्रो) के द्वारा भजनीय (आश्रयणीय)
है और जो धन तुम्हारा हँ, उसे माँगन पर हमें दो ।
९, इन्द्र, तुम्हारा अन्न हमारे पास शीघ्र आवे । वह अन्न सबके लिए
प्रसञ्चतादायक हँ । नानाविध लालसाओं से युक्त होकर हमारे स्तोता लोग
शीक्ष ही तुम्हारी स्तुति करते हें ।
` पञ्चस अध्याय समाप्त ॥
७१ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता इन्द्र । ऋषि कण्वपुत्र कुसीदी ।
छुन्द् गायत्री ।)
१. वृत्रघ्न ईन्द्र, यज्ञ के सदकर सोम के लिए दुर और समीप के
स्थानों से आओ ।
२, शीघ्र मद (मझा) करमेवाला सोस अभिषुत हुआ है॥ आओ,
पियो और सस होकर उसकी सेवा करो।
३. सोम-रूप अज्ञ के द्वारा सत होओ। बह शत्रु को दुर करनेवाले
ऋध के लिए यथेष्ट हो। तुम्हारे हृदय में सोम सुखकर हो।
४, शात्रु-शून्य इन्द, शीघ्र आओ; क्योंकि तुम झूलोकस्थ देवों से
प्रकाशमान समीपस्य यज्ञ में उक्थ मस्त्रों के द्वारा बुलाय जा रहे हो।
हिन्दी-त्रकवेद १०३९
५, इन्द्र, यह सोम पत्थर से प्रस्तुत किया गया है। गह क्षीरादि के
द्वारा मिलाया जाकर तुम्हारे आनम्द के लिए अग्नि सें हुत हो रहा है।
६, इस्त्र, सेरा आह्वान सुतो। हमारे द्वारा अभिषुत और गव्य-
मिथित सोम पियो और विविध प्रकार की तृप्ति प्राप्त करो ।
७. इन्द्र, जो अभिषुत सोम चमस और चम् नाम के पात्रों में है, उसे
पियो। तुम ईइवर हो; इसलिए पियो।
८. जल में चन्रमा के समान चम् में जो सोस दिखाई दे रहा है,
तुम ईश्वर हो; इसलिए उसे पियो।
९. शयन पक्षौ का रूप धारण करके गायत्री जो अन्तरिक्षस्य सोमः
रक्षक गन्धर्वो को तिरस्कृत करते हुए दोनों सबनों सें सोस ले आई थी,
इन, तुम ईश्वर हो, उसे पियो।
७१ सूक्त ॒
(देवता विश्वदेवगण । ऋषि कुसीदी । छन्द गायत्री ।)
१. देवो, हम अपने पालन के लिए तुम्हारी काम-वर्षिणी महारक्षा
की प्राप्ति के निमित्त प्रार्थना करते हे।
२. देवो बरुण, मित्र और अर्यमा सदा हमारे सहायक हों। बे झोभन
स्तुतिवाले और हमारे वर्धक हों।
३. सत्य-नेता देवो, नौका के द्वारा जल के समान हमें विज्ञाल और
अनन्त शत्रुसेना के पार ले जाओ।
४, अर्यमा हमारे पास भजनीय धन हो। वरुण, प्रशंसनीय धन हमारे
यहाँ हो। हम भजनीय (व्यवहार के उपयुक्त) धन के लिए प्रार्थना
करते हँ।
५, प्रकृष्ट झानवाले और इत्रु-्भक्षक देवो, तुम भजनीय घन के
स्वामी हो। आदित्यो, पाप-सम्बन्धी जो हे, बह हमारे पास आवे।
६. सुन्दर दानवाले देवो, हम चाहे घर में, चाहे मार्ग में, हृव्य-बद्धेव
के लिए तुम्हें हो बुलाते हे।
१०४० हिल्दी-ऋण्वेद
. ७. इन्द्र, विष्णु, भरतो और अइिविद्ठय, समान जातिवालों में हमारे
ही पास आओ । ु
८. सुन्दर दान-शील देवो, आने के पश्चात्, हम पहले तुम सब लोगों
को प्रकट करेंगे और अनन्तर मातु-गर्भ से तुस लोगों के दो-दो करके जन्म
छेने के कारण तूममें जो बन्धुत्व है, उसे भी प्रकाशित करेंगे।
९, तुम दानशील हो। तुसमं इन्द्र श्रेष्ठ हे। तुम दीप्ति से युक्त
हो। तुम लोग यज्ञ में रहो। अनन्तर से तुम्हारा स्तव करता हूं।
७३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि कवि के पुन्न उशना । छन्द गायत्री ।)
.. १, प्रियतम अतिथि और मित्र के समान प्रिय तथा रथ के समान .
धन-वाहक, अग्नि की, तुम्हारे लिए, में स्तुति करता हूँ। |
२, देवों ने जिन अग्नि को, प्रकृष्ट ज्ञानवाले पुरुष के समान, मनुष्यों
में दो प्रकार से (द्यावा और पृथिवी सं) स्थापित किया है, उनकी में
स्तुति करता हू।
३. तरुणतम अग्नि, हविर्दाता के मनुष्यों का पालन करो। स्तृति
सुनो और स्वयं ही हमारी सन्तान की रक्षा करो।
४. अङ्गिरा (गतिशील) बल के पुत्र और देव अग्नि, तुम सबके
बरणीय (स्वीकार के योग्य) और शत्रुओं के सासने जानेवाले हो। कैसे
स्तोत्र से में तुम्हारी स्तुति करूं ?
५. बल-पुत्र अग्नि, केसे यजमान के मन के अनुकूल हुम तुम्हें हुब्य
देंगे ? कब इस नमस्कार का सें उच्चारण करूंगा?
६, तुम्हीं, हमारे लिए, हमारी सारी स्तुतियों को उत्तम गृह, धन
ओर अन्नवाली करो। |
७, दम्पती-रूप (गाहपत्य) अग्नि, तुम इस समय किसके कर्स को
प्रसञ्च (सफल) करते हो? तुम्हारी स्तुतियाँ धन देनेवाली हें।
हिल्दी-ऋग्वेद | १०४१
८. अपने घर सं यजमान लोग सुन्दर बुद्धिवाले, सुकृती युद्ध में अग्न-
गामी और बली अग्नि. की पूजा करते हँ। ॒
९. अग्नि, जो व्यक्ति साधक रक्षण के साथ अपने गृह में रहता है,
जिसे कोई मार नहीं सकता और जो शत्रु को मारता है, बही सुन्दर पुत्र-
पौत्र से युक्त होकर बढ़ता हैं। i
७४ सुक्त हौ नु
(देवता अश्विदयय। ऋषि आङ्गिरस कृष्ण । छन्द गायत्री ।)
१. नासत्य अशिविद्वय, तुम दोनों मेरा आह्वान सुनकर, मदकर सोम-
पान के लिए, मेरे यज्ञ मं आओ ।
२. अशिवद्वय, मदकर सोम के पान के लिए सेरे स्तोत्र को सुनो।
सेरा आह्वान सुनो।
३. है अन्न और धनवाले अशिवद्वय, सदकर सोम-पान के लिए यह
कुष्ण ऋषि (में) तुम्हें बुलाता हृ।
४. नेताओ, स्तोत्र-परायण और स्तोता कृष्ण का आह्वान, मदकर
सोमपान के लिए, सुनो। पी
५ नेताओं, भदकर सोसपात के लिए मेधावी स्तोता कृष्ण को
अहिसचीय गृह प्रदान करो। noe व वह
६. अशिवद्वय, इसी प्रकार स्तोता और हृष्यदाता के गह में, मदकर
सोमपान के लिए, आओो। हु का
७, वर्षक और धनी अदिवदय, सदकर सोमयाव के लिए दृढाङ्ग रथ
में रासभ (अश्व) को जोतो। . |
अधिवद्वण, तीच बन्चुरो (फळकों) और तीन कोवांवाळे रथ पर,
सदकर सोमपान के लिए, आगसन करो। . |
९, नासत्य-द्रय, मदकर सोमपान के लिए मेरे स्तुति-बचनों की ओर
तुम शीश आओ । 6
फा० ६९
१०४१ हिन्दी-ऋष्वेद
७५ सुत्त
(देवता अश्विद्वय । ऋषि कृष्ण के पुत्र विश्वक । छन्द जगती ।)
१. दर्शनोय और वेद्य अश्विद्वय, तुब दोनों सुखकर हो। तुम लोग
दक्ष के स्तुति-समय में उपस्थित थे। सन्तान के लिए तुम्हें विश्वक (में)
बुलाता हूँ। हमारा (ऋषि और स्तोताओं का) बन्धुत्व अलग नहीं करना ।
लग।स से अश्वो को छुड़ाओ।
२. अदिवद्ठय, विमना नाम के ऋषि ने पुर्व काल में तुम्हारी कंसे
स्तुति की थी कि विमना को धन-प्राप्ति के लिए तुमने अपने मन को
निश्चित किया था? वैसे तुमको विइवक बुलाता है। हमारा बन्वृत्व
वियुक्त न हो। लगाम से अइवों को छुड़ाओ।
३. अनेकों के पालक अहिवद्वय, विष्णुवापु (मेरे पुन्न) की उत्कृष्ट
धन की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए तुमने धन-वृद्धि प्रदान किया है।
बैसे तुम्हें, सन्तान के लिए, विश्वक बुलाता है । हमारा सखित्व अलग नहीं
करना। लगाम से अइवों को छोड़ो।
४, अह्िवद्वय, बीर, घन-भोवता, अभिषुत सोम से युक्त और दूरस्थ
विष्णुवापु को हम बुलाते हें। पिता (मेरे) समान ही विष्णुवापु की
स्तुति भी अतीव सुस्वादु ह। हमारे सर्य को पथक् मत करो।
५. अविदद्वय, सत्य के द्वारा सुर्यं अपनी किरणों को (सायंकाल सें)
एकत्र करते हें। अनन्तर सत्य के शडग (किरण-समूह) को (प्रातःकाल)
विशेष रूप से विस्तारित करते हैं। सचमुच वह (सुर्य = सविता) सेना-
वाले शत्रु को परास्त करते हे। सत्य के द्वारा हमारा बन्धुत्व वियुक्त
त हो। लगाम से अइवों को छुड़ाओ।
७६ सूक्त
(देवता अशिवद्ठय । ऋषि वसिष्ठ के पुत्र द्युस्नीक, अङ्गिरा के पुत्र
प्रियमेध अथवा क्ष्ण । छन्द बृहती और सतोबृहती ।)
१. अश्विद्ठय, दयूम्नीक ऋषि तुम्हारा स्तोता हुँ। वर्षा-ऋतु में कुंओं
की तरह तुम आओ । चेताओ, यह स्तोता झुतिमान् यज्ञ में अभिषुत और
हिन्दी-ऋग्वेद १०४३
सदकर सोम का प्रेमी है। फलतः जैसे गौर मृग तड़ाग आदि का जल
पीते हूँ, बसे ही अभिषुत सोस का पान करो।
२. अदिव्य, रसवान् और चूनेवाला सोम पिओ। नेताओ, यज्ञ में
बैठो। मनुष्य के गृह में प्रमत्त होकर तुम लोग, हव्य के साथ, सोम का
पान करो।
३. अडिबद्रय, यजमान तुम्हें सारी रक्षाओं के साथ, बुरा रहे हैँ।
जिस यजमान ने कुशों को बिछाया है, उसी के द्वारा सदा सेदित हवि के
लिए तुम लोग प्रातःकाल ही घर में आओ।
४. अझ्विद्वय, रसवान् सोम का पान करो। अनन्तर सुन्दर कुशों
पर बेठो। तत्पश्चात् प्रवृद्ध होकर उसी प्रकार हमारी स्तुति की ओर
आओ, जिस प्रकार दो गोर मृग तड़ाग आदि की ओर जाते हें।
५. अहिवद्वय, तुम लोग रिनग्ध रूपवाले अइवो के साथ इस समय आओ ।
दर्शनीय और सुवर्णमय रथवाले, जल के पालक और यज्ञ के बद्धक
अधिवद्वय, सोमपान करो ।
६. अशिवद्वय, हम स्तोता और ब्राह्माण हैं। हम अन्न-लाभ के लिए
तुम्हें बुलाते हे। तुम सुन्दर गसनवाले और विविध-कर्मा हो। हमारी
स्तुति के द्वारा बुलाये जाकर शीघ्र आओ।
७७ सूक्त
(दवता इन्द्र । ऋषि गोतम नोधा। छन्द बृहती ।)
१. जेसे दिन में, गोशाला में, गायं अपने बछड़ों को बुलाती हे, वैसे
ही रशेनीय, झत्र-नाशक, दुःख दूर करनेवाले ओर सोमपान के द्वारा
प्रमत्त इन्द्र को, स्तुति के द्वारा, हम बलाते हैं।
२. इन्द्र दीप्ति के निदास-स्थास, स्वर्ग-वासी, उत्तम दानवाले, पर्वत
के समान बल के द्वारा ढके हुए ओर अनेकों के पालक इन्द्र से शब्दकारी
पुत्रादि, सौ और सहस्र धन तथा गो से युक्त अन्न की हम शीघ्र याचना
करते हें
१०४४ हिन्दी-ऋग्वेद `
` ३. इन्द्र, विराट् और सुदृढ पर्वत भी तुम्हें बाधा नहीं पहुँचा सकते।
भरे जैसे स्तोता को जो धन देने की इच्छा करते हो, उसे कोई नहीं विनष्ट
कर सकता। द
४. इन्द्र, फर्म और बल के द्वारा तुम शत्रुओं के विनाशक हो। तुम
अपने कर्म और बल के द्वारा सारी वस्तुओं को जीतते हो। देवों का
पुजक यह स्तोता, अपनी रक्षा के लिए, तुममें अपने को रूगाता हूँ। गौतम
लोगों ने तुम्हें आविर्भत किया हे।
५. इन्द्र, यलोक पर्यन्त प्रदेश से भी तुम प्रधान हो। पार्थिव लोक
(रजोलोक) तुम्हें नहीं व्याप्त कर सकता। तुम हमारा अन्न ले जाने की
इच्छा करो।
६. धनी इन्द्र, हव्य-दाता को जो धन तुम देते हो, उसमें कोई
बाधक नहों है। तुम घन-प्रेरक और अतीव वान-शील होकर धन-प्रोप्ति
के लिए हमारे उचथ्य के स्तोत्र को जानो।
७८ सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि चमे ओर पुरुमेध । छन्द अनुष्टुप
ओर बृहती ।)
१. सरुतो, इन्द्र के लिए पाप-विनाशक और विशाळ गान करो।
पञ्ञवद्धंक विइवदेवों ने झुतिमान् इन्द्र के लिए इस गान के द्वारा दीप्त
और सदा जागरूक ज्योति (सूये) को उत्पन्न किया। |
स्तोत्र-शून्य लोगों के विनाशक इन्द्र ने शत्रु की हिसा को दूर
किया था। अनन्तर इन्द्र प्रकाशक ओर यशस्वी हुए थे। विशाल दीप्ति
और सस्तो से युक्त इन्द्र, देवों ने तुम्हारी मंत्री के लिए तुम्हें स्वीकृत
किया था।
३. मरुतो, इन्द्र महान् हँ। उनके लिए स्तोत्र का उच्चारण करो।
बन्नष्न और शतक्रलु इन्द्र ने सो सन्धियोवाले बज्य्र से वृत्र का वध
किया था।
हिन्दी-ऋग्वेद १०४५
` ` ४. शत्रु-वघ के लिए प्रस्तुत इन्द्र, तुम्हारे पास बहुत अन्न है। तुम
सुदृढ़ चित्त से हमें वह अन्न दो। इन्द्र, हमारे मात-हप जल वेग से विविध,
भूमियों की ओर जायें। जल को रोकनेवाले वृत्र का नाझ करो। स्वर्ग को
(वा प्राणियों को) जीतो।
_ ५ अपुवं धनी इन्द्र, दृत्र-वध के लिए जिस समय तुम प्रकट इए
उस समय तुमने पृथिवी को दुढ़ किया और यलोक को रोका। |
६. उस समय तुम्हारे लिए यज्ञ उत्पन्न हुआ और प्रस्तादायके
मन्त्र उत्पन्न हुए। उस समय तुमने समस्त उत्पन्न और उत्पन्न होनेवाले
संसार को अभिभूत किया।
. ७. इन्द्र, उस समय तुमने अपक्व दूधवाली गायों में पक्व दुध उत्पन्न
किया और दुलोक में सुर्य को चढ़ाया। साम-सन्त्रों के द्वारा प्रवर्ग सोम
के समान शोभन स्तुतियों से इन्द्र को बढ़ाओ। स्तुति-भोगी इन्द्र के लिए
हषेदाता ओर विशाल साम का यान करो ।
७९ शुक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वृमेध और पुरुमेध । छन्द सतौरहती |)
१. सारे युद्धों में बुलाने योग्य इन्द्र हमारे स्तोत्र का आश्रय करें।
तीनों सवनों की सेवा करो। वे वृत्रघ्न हें। उनकी ज्या (प्रत्यञ्चा)
अविनाशी है। वे स्तुति के द्वारा सामने करने योग्य हैं।
२. इन्द्र, तुम सबके मुख्य धन-प्रद हो, तुम सत्य हो। तुम स्तौताओं
को ऐश्वर्यशाली करो। तुम बहुत धनवाले और बल के पुत्र हो। तुम्
महान् हो। तुम्हारे योग्य धन का हम आश्रय करते हैं।
३. स्तुत्य इनर तुम्हारे लिए हम जो यथार्थ स्तोत्र करते हैं, हर्य,
उसमें तुम युक्त होओ और उसकी सेवा करो। तुम्हारे लिए हम जितने
स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं, उनकी भी सेवा करो |
४, धनी इन्द्र, तुम सत्य हो। तुमने किसी से भी न दबकर अनेक
राक्षसों का नाश किया हूँ। इन्द्र, जैसे हुव्यदाता के पास धन पहुँचे,
वेसा करो।
१०४६ हिन्दी-ऋ्येद
५. बलाधिपति इन्द्र, तुम अभिषुत सोमवाले होकर यशस्वी बने हो।
तुमने अकेले ही किसी के द्वारा न जाने योग्य और न जीतने योग्य राक्षसों
को, मनुष्यों के रक्षक वण्यर के द्वारा मारा हुँ।
६. बली (असुर) इन्द्र, तुम उत्तम ज्ञानवाले हो। तुम्हारे ही समीप
हम पैतृक धन के भाग के समान धन को याचना करते हें। इन्द्र,
तुम्हारी कीत्ति के समान तुम्हारा गह यलोक सें, विशाल रूप से,
अवस्थित हृ। तुम्हारे सारे सुख हमें व्याप्त करें!
८० सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि अपाला (अत्रि की पुत्री) । छन्द पङ्ति
ओर अनुष्टुप् ।)
१. जल की ओर स्वान के लिए जाते समय कन्या (अपाला = में)
ने इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए (अपने चर्म-रोग-विनाश के निमित्त) माग
में सोम को प्राप्त किया। में उस सोम को घर ले आवे फे समय सोम
से कहा--* इन्द्र के लिए तुम्हें में अभिषुत करती हूं--समर्थ इन्द्र के लिए
तुम्हें अभिषुत करती हूँ।”
२. इन्द्र, तुम वीर, अतीव दीप्तिमान् और प्रत्येक गृह में जानेवाले
हो। भूने हुए जौ (यव) के सत्तू पुरोडाशादि तथा उक्थ स्तुति से युक्त
एवम् (मेरे) दाँतों के द्वारा अभिषत सोम का पान करो!
३. इन्द्र, तुम्हें हम जानने की इच्छा करती हँ। इस समय तुम्हें हम
नहीं प्राप्त होती हें। सोम, इन्द्र के लिए पहले धीरे-धीरे, पीछे ज्ञोर से
(दाँतों से) बहो।
४. वह इन्द्र हमें (अपाला और स्तोता लोगों को) अथवा पूजार्थ
अपाला के लिए बहुवचन समर्थ बनावें। हमें बहुरंस्यक करें। थे हमें
अनेक बार धनी करें। हम पति के द्वारा छोड़ी जाकर यहाँ आई हें। हम
इन्द्र के साथ मिलेंगी ।
हिन्दी-ऋणष्वेद १०४७
५. इन्द्र, मेरे पिता का मस्तक (केश-रहित) और खेत तथा मेरे
उदर के पास के स्थान (गुद्योख्रिय)--इन तीनों स्थानों को उत्पादक
बनाओ।
६. हमारे पिता का जो ऊसर खेत है तथा मेरे शरीर (गोपनीय
इन्द्रिय) और पिता का मस्तक (चर्म्मरोग के कारण लोम-शूच्य हुँ) --
इन तीनों स्थानों को उर्वर और रोम-युक्त करो।
७. शतसंख्यकयज्ञवाले इन्द्र ने अपने रथ के बड़े छिद्र, शकट के
(कुछ छोटे छिद्र) और युग (जोड़) के छोटे छिद्र को निष्कर्षण (अपनयन)
के द्वारा शोधन करके अपाला को सूर्य के समान, दर्म-युक्त किया था।
८१ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि अतकक्ष वा सुकक्ष | छन्द अनुष्टुप्
ओर गायत्री |)
१. ऋत्विको, अपने सोम-पाता इन्द्र की विशेष रूप से स्तुति करो।
वे सबके पराभवकर्ता, शत-याज्ञिक और मनुष्यों को सवपिक्षा अधिक
धन देनेवाले हुँ ।
२. तुम लोग बहुतों के द्वारा आहुत, अनेकों के द्वारा स्तुत, गानयोग्य
ओर सनातन कहकर प्रसिद्ध देव को इन्द्र कहना।
३. इन्द्र ही हमारे महान् धन के दाता, महान् अन्न के प्रदाता और
सबको नचानेवाले हू। महान् इन्द्र हमारे सम्मुख आकर हमें घन दें।
४. सुन्दर शिरस्त्राणवाले इन्द्र ने होता और निपुण ऋषि के जो से
मिले और घूनेवाले सोम को भली भाँति पिया था।
५. सोम-पान के लिए तुम लोग इन्द्र की विशेष रूप से पुजा करो।
सोम ही इन्द्र को वद्धित करता ह।
६. प्रकाशमान इन्द्र सोस के मदकर रस को पीकर बल के द्वारा सारे
भुवनों को दवाते हैं। “ ;“
१०४८ हिन्दी-ऋणग्वेद
७, सबको वबानेयाले और तुम्हारे सारे स्तोत्रों में विस्तृत इन्द्र को
ही, रक्षण के लिए, सामने बुलाओ ।
८. इन्द्र शत्रुओं को मारनेवाले सत्, राक्षसों के द्वारा अगम्य, अहि-
सित, सोम-पाता और सबके नेता हूँ। इनके कर्म में कोई बाधा नहीं
दे सकता। |
. ९, स्तुति के द्वारा सम्बोधन के योग्य इन्द्र, तुम विद्वान् हो। शत्रओं
से लेकर हमें बहु बार धन दो। शत्रु-धन के द्वारा हमारी रक्षा करो।
_ १०. इन्द्र, इस द्युलोक से ही सो और सहस्र बलों तथा अन्न से युक्त
होकर हमारे समीप आओ।
११. समर्थ इन्द्र, हम कर्मवाले हुँ। युद्ध-विजय के लिए हम कर्म
करेंगे । पर्वत-विदारक और वज्यधर इन्द्र, हम युद्ध में अशवों के द्वारा जय
लाभ करगे । ॒
१२. जसे गोपाल तृणों के द्वारा गायों को सन्तुष्ट करता हुँ, वसे ही
है बहुकर्मा इन्द्र, तुम्हें चारों ओर से उकथ स्तोत्र के द्वारा हम सन्तुष्ट
` कैरेरा ।
१३. शतक्रतु इन्द्र, सारा संसार अभिलाषी हे। वज्रधर इन्द्र, हम
भी घनादि अभिलाषाओं को प्राप्त करंगे।
१४. बल के पुत्र इन्द्र, अभिलाषा के कारण कातर शब्दवाखे मनुष्य
तुमको ही आश्रित करते हें; इसलिए हे इन्द्र, कोई भी देव तुम्हें नहीं
लाँघ सकते।
१५. अभिलाषा-दाता इन्द्र, तुम सबकी अपेक्षा घन-दाता हो। तुम
भयंकर शत्रु को दूर करनेवाले और अनेकों का धारण करने में समर्थ
हो। तुम कमं के द्वारा हमें पालन करो।
. १६. बहुविघ-कर्मा इन्द्र, जिस सबसे अधिक यशस्वी सोम को, पुर्वे-
काल में, तुम्हारे लिए, हमने अभिषुत किया था, उसके द्वारा प्रमत्त होकर
शस समय एमें प्रमत्ते करो।
हिन्दी-ऋणग्वेद १०४९
१७. इन्द्र, तुम्हारी प्रमत्तता नाना प्रकार की कीत्तियों से युक्त है।
वह हमारे द्वारा अभिषुत सोम सबसे अधिक पाप-्नाशक और बल-दाता हुँ ।
१८. वञाधर, यथार्थकर्मा, सोमपाता और दर्शनीय इच्ध, सारे मनुष्यों
में जो तुम्हारा दिया हुआ घन है, उसे ही हम जानते हें।
१९. मत्त इन्द्र के लिए हमारे स्तुति-वचन अभिषुत सोम की स्तुति
करें। स्तोता लोग पूजनीय सोम की पूजा करे। |
.. २०. जिन इन्द्र में सारी कान्तियाँ अवस्थित है और जिनमें सात
_ होत्रक, सोम-प्रदान के लिए, प्रसन्न होते हे, उन्हीं इन्द्र को, सोमाभिषव
होने पर, हम बलते हू ।
२१. देवो, तुम लोगों ने त्रिकद्रक (ज्योति, गो और आयु) के लिए
ज्ञान-साधक यज्ञ का विस्तार किया था। हमारे स्तुति-वाक्य उसी यज्ञ को
' बद्धित कर।
२२. जैसे नदियाँ समग्र में जाती हुँ, सारे सोम तुमसें प्रविष्ट हों।
-इुन्दरहें कोई तुर नहीं लांघ सकता।.
३. सनोरथ-पुरक और जागरणशील इन्द्र, तुम अपनी महिमा से
सोमपान में व्याप्त हुए हो। वह सोम तुम्हारे उदर में पठता हूँ।
२४, वृत्रघ्न इन्द्र, तुम्हारे उदर के लिए सोम पर्याप्त हो। चुनेवाला
सोम तुम्हारे शरीर में यथेष्ट हो।
२५, अतकक्ष . (में) अइवमप्राप्ति के लिए, अतीव गान करता हूँ॥
इन्द्र के गृह कें लिए खूब गाता हं।
२६, इन्द्र, सोमांभिषव होने पर, पान के लिए, तुम पर्याप्त हो।
समर्थं इन्दर, तुम्हीं धनद हो। तुम्हारे लिए सोस पर्याप्त हो।
२७. बञ्घर इन्द्र, हमारे स्तुति-वाक्य, दूर रहने पर भी, तुम्हें व्याप्त
करें। हम स्तोता हैं। तुम्हारे पास से हम प्रचुर धन प्राप्त करग।
. २८ इख, तुम बीरों की ही इच्छा करते हो। तुम घूर और पैयेवाले
हो। तुम्हारे मन की आराधना सबको करनी चाहिए।
१०५० हिन्दी-ऋ'ग्वेद
२९. बहु-घनी इन्द्र, सारे यजमान तुम्हारे दान को धारण करते हुँ।
इन्द्र, तुम मेरे सहायक बनो।
३०. अन्चपति इन्द्र, तुम तन्द्रा-युक्त ब्राह्मण स्तोता के समान नहीं
होना। अभिषत और क्षीरादि से युक्त सोम के पान से हृष्ट होना।
३१. इन्द्र, आयुध फंकनेवाले सुर (राक्षस) रात्रि-काल में हमें
नियन्त्रित न करें। तुम्हारी सहायता से हम उनका विनाश करेंगे। |
. ३२. इन्द्र, तुम्हारी सहायता प्राप्त करके हम शत्रुओं को दूर करेगे।
सुम हमारे हो और हम तुम्हारे हें।
३३. इन्द्र, तुम्हारी अभिलाषा करके तथा बार-बार तुम्हारी स्तुति
करके तुम्हारे बन्धु-स्वरूप स्तोता लोग तुम्हारी सेवा करते हे।
८२ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि सुकक्ष । छुन्द् गायत्री ।)
१. सुवीयं (सूर्यात्मक) इन्द्र, प्रसिद्ध धनवाले, सनोरथ-पूरक, मनुष्य
हितैषी कर्मवाले और उदार यजमान के चारों ओर उदित होते हो।
२. जिन्होंने बाहु-अल से ९९ पुरियों को (दिवोदास के लिए) विनष्ट
किया और जिन वृत्रहन्ता इन्द्र ने मेघ का वघ किया था...
३. वे ही कल्याणकारी ओर बन्धु इन्द्र, हमारे लिए अइव, गो और
जो से युक्त घन को, यथेष्ट दूधवाली गाय के समान, दुहे ।
४. वृत्रघ्न और सूर्ये इन्द्र, आज जो पदार्थ हे, उनमें सामने प्रकट
हुए हो। इस प्रकार सारा संसार तुम्हारे वश में हुआ हे।
५. प्रवृद्ध और सत्पति इन्द्र, यदि तुम अपने को अमर मानते हो,
तो ठीक ही हे।
६. दूर अथवा निकटवर्ती प्रदेश में जो सब सोम अभिषुत होते हें,
इन्द्र, तुम उनके सामने जाते हो। ॒
७. हम महान् वृत्र के वघ के लिए उन इन्द्र को ही बली करेंगे।
घन-वर्षक इन्द्र, अभिलाषादाता हो। . |
हिन्दी-ऋणग्वेद १०५१
` <. थे इन्द्र धनवान् के लिए प्रजापति के हारा सृष्ट हुए हे । वे
सबकी अपेक्षा ओजस्वी, सोमपान के लिए स्थापित, अतीव कीर्तिज्ञाली,
स्तुतिवाले और सोम-योग्य हुँ। .
९. स्तुति-वचनों के द्वारा वजय के समान तेज, बली, अपराजित,
महान् और अहिंसित इन्द्र घन आदि की वहन करने की इच्छा करते हें।
१०. स्तुति-योग्य इन्द्र, घनी इन्द्र, यदि तुम हमारी इच्छा करते हो,
तो तुम स्तुत होकर दुर्गम स्थान में भी हमारे लिए सुगम पथ कर दो।
११. इन्द्र, आज भौ तुम्हारे बल और तुम्हारे राज्य की कोई हिसा
नहीं करता। देवता भी हिसा नहीं करते और संग्राम क्षिप्रकारी बीर
भी तुम्हारी हिसा नहीं करता।
१२. शोभन जबड़ोंवाले इग, छावापृथिबी--दोनों देवी तुम्हारे च
रोकने योग्य बल की पूजा करती हैं।
१३. तुम काली और लाल गायों में प्रकाशमान दूध देते हो।
१४. जिस समय सारे देवता वृत्रासुर के तेज से भाग गये थे और
वे मृग-रूपी वृत्र से भीत हुए थे--
१५. उस समय मेरे इन्द्रदेव वृत्र के हन्ता हुए थे। अजातरात्रु और
वत्रध्न इन्द्र ने अपने पौरुष का प्रयोग किया था। |
१६, ऋत्विको, प्रख्यात, वृत्रघ्न और बली इन्द्र की स्तुति करके सें
तुम्हारे लिए यथेष्ट दान दूंगा ।
१७. अनेक नामोवाले और बहुतों के द्वारा स्तुत इन्द्र, जब कि
तुम प्रत्येक सोमपान में उपस्थित हुए हो। तब हम गौ चाहनेवाली बुद्धिवाले
होंगे । |
१८. वृत्र-हन्ता और अनेक झभिषवों से युक्त इन्द्र, हमारे मनोरथ
को समझें । शक्र (युद्ध में शतन्रु-वध समर्थ इन्द्र) हमारी स्तुति को सुने ।
१९. अभीष्ट-वर्षक इन्र, तुम किस आश्रय अथवा सेवा के दवारा हमें
प्रभत्त करोगे? किस सेवा के द्वारा स्तोताओं को घन दोगे ?
१०५३ हिन्दी-ऋष्वेद
. ३०. अभीष्टवर्षक, सेचक, वत्रध्न और मस्तोंवाले इन्द्र किसके यज्ञ
भें, सोमपान के लिए, ऋत्विकों के साथ, विहार करते हे? . ..
२१. तुम मत्त होकर हमें सहस्र-संख्यक घन दो। तुम अपने को
हुव्यदाता नियन्ता समझो।
२२. यह सब जल-युक्त (नऋहजीष-रूप) सोम अभिषुत हुआ है । इन्द्र
पान करें--इसी इच्छा से सारा सोम इन्द्र फे पास जाता है। पीने पर
सोम प्रसन्नता देता हे सोम (ऋजीष-रूप) जल के पास जाता हू। . -
२३. यज्ञ में वद्धंफ और यज्ञ-कर्ता सात होता यज्ञ और दिन के अन्त
में तेजस्वी होकर इन्द्र का विसर्जन करते हें ॥
` - १४. प्रख्यात इन्द्र के साथ प्रमत्त और सुवर्ण-केशवाले हरि नामक
अश्व, हितकर अञ्न की ओर, इन्द्र को ले जायें।
, २५. प्रकाशमान धनवाले अग्नि, तुम्हारे लिए यह सोम अभिषुत हुआ
हू। तुम्हारे लिए यह सोभ अभिषुत हुआ हुं--कुश भी बिछाया हुआ
ह; इसलिए स्तोताओं के सोमपान के लिए इन्द्र को बुलाओ। ..
२६. ऋत्विग्-यजमानो, इन्द्र को हवि देनेवाले तुम्हारे लिए इन्त
ोप्यमान बल भेजें--रत्न भेजे । स्तोताओं के लिए भी इन्द्र बल-रत्मादि
प्रेरित करे। तुम इन्द्र की पुजा करो।
२७. शतक्रतु (शतप्रज्ञ) इन्द्र, तुम्हारे लिए वीयंवान् सोम और
समस्त स्तोत्रों का में सम्पादन करता हूँ । इन्द्र, स्तोताओं को सुखी करो।
२८. इन्द्र, यदि तुम हमें सुखी करना चाहो, तो हे शतक्रतु, तुम हमें
कल्याण दो, अन्न दो और बल दो।
२९. इन्द्र, यदि तुम हमें सुखी करना चाहते हो, तो हे शतक्रतु, हमारे
लिए सारे मङ्गल ले आओ। 9
' ३०. इन्द्र, तुम हमें सुखी करने की इच्छा करते हो; इसलिए, हे
श्रेष्ठ असुर-घातक, हम अभिषुत-सोम-युक्त होकर तुम्हें बलाते है।
३१. सोमपति इन्द्र, हरि अइवों की सवारी से हमारे अभिषत सोम
के पास आओ--हमारे अभिषत सोम के पास आओ।
हिदी-ऋग्वेद १०५३
३२. श्रेष्ठ, वुंत्रध्न और शतक्रतु इन्र दो प्रकार से जाने जाते हैं।
इसलिए, बही तुम, हरियों की सवारी से हमारे. अभिषत सोम के पास
आओ) २
३३. वृत्रघ्न इन्द्र, तुम इस सोम के पान कर्ता हो; इसलिए हुरियों के
साथ अभिषत सोम के पांस आओ।
३४. इन्द्र अन्त के दाता और अमर 'ऋहभुदेव को (अझत-प्राप्ति के लिए)
हमें दें। बलवान् इन्द्र वाज नामक उनके आता को भी हमे दें ॥
. ८३ सूक्त
(१० अनुवाक । देवता मरुद्गण । ऋषि बिन्दु अथवा पूतद्चष।
छन्द गायत्री ।) ॒
१, घनी मरुतों की माता गौ अपने पुत्र मरुतों को सोम पान क्रांती
है। वह गौ अन्नाभिलाषिणी, सस्तो को रथ सें लगानेवाळी ओर
पुजनीया हू ।
२. सारे देवगण गो की गोद में वत्तेसान रहकर अपन-अपन ब्रत को
धारण करते हैं। सुर्य और चन्द्रमा भी, सारे लोकों के प्रकाशन के लिए
इसके समीप रहते ह। .
__ ३. हमारे सर्वेत्रगामी स्तोता लोग संदा सोम-पान के लिए मरुतों की
स्तुति करतेहे। ..
४, यह सोम अभिषुत हुआ हँ। स्वभावत प्रदीप्त मरुद्गण ओर
अदिविद्वय इसके अंश का पान करें।
५. मित्र, अर्यमा और वरुण “दशापचित्र” के द्वारा शोषित तीन स्थानों
(द्रोण, कलशाधवनीय और पूतभृत् ) में स्थापित तथा जतवाले सोम का
पान करें।
` ६; इन्द्र प्रातःकाल में, होता के समान, अभिषुत और गव्य (क्षीरादि)
से युक्त सोम की सेवा की प्रशंसा करते हें। .
१०५४ हिन्दी-क्रग्वेद
७, प्राज्ञ मरुद्गण, सलिल के सदृश, टेढ़ी गतिवाले होकर, कब प्रदीप्त
होंगे ? शत्रुहन्ता मरुद्गण, शुद्ध-घल होकर, कब हमारे यज्ञ में आवेगे ?
८. मर्तो, तुस लोग महान् हो और दर्शनीय तेजवाले हो। तुम
शतिमान् हो। में कब तुम्हारा पालन पाऊंगा ?
९. जिन मरुतों ने सारी पार्थिव वस्तुओं और द्युलोक की ज्योतियों को
सर्वत्र विस्तारित किया हे, सोम-पान के लिए, उन्हीं को में बुलाता हूं ।
१०. मर्तो, तुम्हारा बल पबित्र हे। तुम अतीव युतिमान् हो। इस
सोम के पान के लिए तुम्हें शीघ्र बुलाता हूं । |
११. जिन्होंने द्यावापृथिवी को स्तब्ध किया हूं उन्हीं को इस सोम
के पान के लिए, में बुलाता हूं ।
१२. चारों ओर विस्तृत, पर्वत पर स्थित और जल-वर्षक सस्तो को,
इस सोम के पान के लिए, में बुलाता हुँ।
८४ सत्ती
(दिवता इन्द्र। ऋषि आङ्गिरस तिरश्ची। छन्द अनुष्टुप् ।)
१, स्तुति-पात्र इन्द्र, सोमाभिषब होने पर हमारे स्तुति-बचन, रथवाले
वीर के समान, तुम्हारी ओर स्थित होते हें। जसे गाथे बछड़ों को देखकर
शाब्द करती हे, बैसे ही हमारे स्तोत्र तुम्हारी स्तुति करते हँ।
२. स्तुत्य इन्द्र, पात्रों में दिये जाते हुए और अभिषुत सोम तुम्हारे
पास आवें। इस सोम-भाग को शीघ्र पियो। इन्द्र, चारों दिशाओं में
तुम्हारे लिए चरु-पुरोडाश आदि रफखे हुए हें।
३. इन्द्र, इयेस-रूपिणी गायत्री के हारा झुलोक से लाये गये और
अभिषुत सोस का पान, हर्ष के लिए, सरलता से, करो; क्योंकि तुस
सब मरुतों और देवों के स्वामी हो।
४, जो तिरश्ची (में) हवि के द्वारा तुम्हारी पुजा करता है, उसका
आह्वान सुनो। तुम सुपुत्र ओर गौ झआदिवाले धन के प्रदान से हमें पूर्ण
क्ररो। तुम श्रेष्ठ देव हो। |
हिन्दी-ऋग्वेद १०५५
५, जिस यजमान ने नवीन और सदकर वाक्य, तुम्हारे लिए, उत्पन्न
किया है, उसके लिए तुम प्राचीन, सत्ययुक्त, प्रबुद्ध और सबके हृदयग्राही
रक्षण-कार्य को करो। `
` ६. जिन इन्द्र ने हमारी स्तुति और उकथ (शस्त्र) को वित किया
है, उन्हीं की हम स्तुति करते हें। हम इन इन के अनेक पौरुषों को सम्भोग
करने की इच्छा से उनका भजन करेंगे ।
७. ऋषियो, शी घ्र आओ। हम शुद्ध साम-गान और शुद्ध उक्थ मन्त्री
के द्वारा (वृत्र-वध-जन्य ब्रह्महत्या से) विशुद्ध इन्द्र की स्तुति करेंगे । दशा-
पवित्र के द्वारा शोधित सोम वरद्धित इन्द्र को हुष्ट करें।
८. इन्द्र, तुम शुद्ध हो। आओ। परिशुद्ध रक्षणों और मरुतों के साथ
आओ । तुम शुद्ध हो। हमें घन स्थावित करो। तुम शुद्ध हो; सोम-योग्य
हो; मच होओ।
९, इन्द्र, तुम शुद्ध हो। हमें धन दो। तुम शुद्ध हो। हव्यदाता को
रत्न दो तुम शुद्ध हो। वृत्रादि शत्रुओं का वध करते हो। तुम शुद्ध हो।
हमें अन्न देने की इच्छा करते हो।
८५ सुक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि मरुतों के पुत्र दु तान अथवा तिरश्ची ।
छुन्द् त्रिष्टुप् |)
१. इन्द्र के डर के मारे उषायें अपनी गति को चढ़ाये हुई हें। सारी
रात्रिया, इन्द्र के लिए, आगामिनी रात्रि में सुन्दर वाबयवाली होती हें।
इन्द्र के लिए सर्वत्र व्याप्त और मातृ-रूप गङ्गा आदि सात नदियाँ मनुष्यों
के पार जाने के लिए सरलता से पार-्योग्य होती हैं।
२. असहाय होकर भी इन्द्र ने, अस्त्रों के द्वारा, एकत्र हुए इक्कीस
पर्वेत-तटों को तोड़ा था। अभिलाषा-दाता और घवृद्ध इन्द्र ने जो कार्य
किये, उन्हें मनुष्य अथवा देवता नहीं कर सकते।
१०५६ हिन्दी-ऋग्वेद
३. इख का वज्र लोहे का बना हुआ है। वह वज्य उनके हाथ में
संबद्ध है; इसलिए उनके हाथ में बहुत बल हैं। युद्ध-गमन-समय में इन्द्र
के मस्तक में शिरस्त्राण आदि रहते हें। इन्द्र की आज्ञा सुनने के लिए
सब उनके समीप आते हृ।
४. इन्द्र में तुम्हें पज्ञाहों में भी यज्ञ-्योग्य समभाता हूँ। तुम्हें में पर्वतों
का भेदक समझता हूँ। तुम्हें में सेन््यों का पताका समझता हूँ। तुम्हें से
मनुष्यों का अभिमत-फल-दाता समभता हूँ।
. ५. इन्द्र, तुम जिस समय दोनों बाहुओं से शत्रुओं का गर्व चूर्ण करते
हो, जिस समय वत्रवध के लिए बज्न धारण करते हो, जिस समय मेघ
और जल शब्द करते है, उस सभय चारों ओर से इन्द्र के पास जाते हुए
स्तोता लोग इन्द्र की सेवा करते हँ।
जिन इन्द्र ने इन प्राणियों को उत्पन्न किया और जिनके पीछे सारी
वस्तुएँ उत्पन्न हुई, स्तुति-द्वारा उन्हीं इन्द्र को हस मित्र बनावेंग और
नमस्कार के द्वारा काम-दाता इन्द्र को अपने सामने करगे ।
७. इन्द्र, जो बिइवदेव तुम्हारे सखा हुए थे, उन्होंने वुत्रासुर के श्वास
से डरकर भागते हुए तुम्हें छोड़ दिया था। मण्तों के साथ तुम्हारी मैत्री
हुई। अनन्तर छुमने सारी झन्नु-सेमा को जीता।
८, इन्द्र, ६३ सरतों ने, एकन्न गो-यूथ के समान, तुम्हें वरद्धित किया
था। इसी लिए वे जनीय हुए थे। हस उन्हीं इन्द्र के पास जायंगे। इन्र,
हंमें भजनीय अन्न दो। हम भौ तुम्हें शत्र-घातक बल देये ।
९, दुख, तुम्हारे हथियार सेज हैं; तुम्हारी सेना मस्त है। सुम्हारे
बज का विश्द्धावरण कीन कर सकता हे ? हे सोमवाले इन्द्र, चक्र के दवारा
आयुथ-शुन्य ओर देव-द्रोह्टी असुरों को दूर कर दो।.
१०. स्तोता, पशु-प्राप्ति के लिए महान्, उग्र, प्रवृद्ध और कल्याणमय
इन्द्र की सुन्दर स्तुति करो। स्तुतिषाच इन्द्र के लिए अनेक स्तुलियाँ करो।
पुत्र के लिए इद्ध प्रचुर घम भेजें।
हिन्दी-ऋ“ वेव १०५७
११. सत्तरों के द्वारा प्राप्त और महान् इन्द्र के लिए, नदी को पार
करनेवाली नौका के समान, स्तुति करो । बहु-प्रसिद्ध और प्रसन्नता-दायक
इन्द्र धन दें। पुत्र के लिए इन्द्र बहुत धन दें।
१२, इन्द्र जो चाहते हे, बह करो। सुन्दर स्तुति का वाचन करो।
स्तोत्र के हारा इन्द्र की सेवा करो। स्तोता, अलंकृत होओ। दरिद्रता के
कारण मत रोओ। इन्द्र को अपनी स्तुति सुनाओ। इन्द्र तुम्हें बहुत
धन देंगे।
१३, दस सहुस्न सेनाओं के साथ शीघ जानेवाला कृष्ण नाम का
असुर अंशुभती नदी के किनारे रहता था। बुद्धि के द्वारा इन्द्र ने उस शब्द
फेरनेवाले असुर को प्राप्त किया। पीछे इन्द्र ने, मनुष्यों के हित के लिए,
कृष्णासुर की हिसक सेना का वध कर डाला।
१४, इस्द्र ने कहा-- द्रुतगामी कृष्ण को सेने देखा है। वह अंशुमती
नदी के तट पर, गूढ़ स्थान में, विस्तृत प्रदेश में, विचरण करता ओर
सूर्य के समान अवस्थान करता है। अभिलाषा-दाता सस्तो, में चाहता हूँ
कि तुम लोग युद्ध करो और युद्ध में उसका संहार करो।
१५, ब्रुतगासी कृष्ण अंशुमती नदी के पास दीप्तिमान् होकर, शरीर
धारण करता हूँ। इच्द ने बृहस्पति की सहायता से, देव-शून्य और आने-
वाला सेना का बध, कुष्ण के साथ, कर डाला।
१६. इन्द्र, तुमने ही बह कार्य किया है। जन्म के साथ ही तुम ह
शात्रु-शुन्य कृष्ण, वृत्र, नमुचि, शम्बर, शुष्ण, पणि आदि सात ठान्नु के
शत्रु हुए थे। तुम अन्धकारमयी द्यावापृथिवी को प्राप्त हुए हो। तुमने
ससतो के साथ, भुवनों के लिए, आनन्द के! धारण किया है।
१७. इख, तुमने बह कार्य किया है। वज्प्रधर इन, संग्राम में कुशल
होकर तुमने वच्च के द्वारा शुष्ण के अनुपम बल को नष्ट किया है। तुमने
ही आयुधों के द्वारा शुष्ण को, कुत्स राजषि के लिए, निम्नमुख करके
घार डाला है । अपने फर्म के द्वारा तुमने गो-प्राप्ति की हे । त
फा० ६७
१०५८ हिल्बी-ऋग्वेद
१८. इन्द्र तुमने ही वह कार्य किया है। मनोरथ-प्रद इज, सुस ममुष्यों
को उपद्रव के विनाशक हो; इसलिए तुम प्रवृद्ध हुए थे। तुमने रोकी गई
सिन्धु आदि नदियों को बहने के लिए जाने दिया था। अनन्तर दासों के
अधिकृत जल को तुमने जीत लिया था।
१९. वेही इन्द्र शोभन प्रज्ञाबाले हें वे अभिषुत सोम के पान के लिए
आनन्दित हैं। इन्द्र के क्रोध को कोई नहीं सह सकता। दिन के समान
इन्द्र धनी हैं। वे असहाय होकर भी मनुष्यों के कार्य-कर्ता हँ । बे वृत्रघ्न
हैं। वे सारे शन्रु-सेन्यों के विनाशक हैं।
२०. इन्द्र वृत्रघ्न हुँ। वे मनुष्यों के पोषक हें। वे आह्वान के योग्य
हें। हुम शोभन स्तुति से उन्हें अपने यज्ञ में बुळाते हें। वे हमारे विशेष
रक्षक, धनवान्, आदर फे साथ बोलनेवाले तथा अन्न और कीत्ति के
बाता हें।
२१. वृत्रघ्न इन्द्र महान् हूँ। जम्म के साथ इन्द्र सबके लिए बुलाने
योग्य हो गये। वे मनुष्यों के लिए अनेक हितकर कार्य करते हुए, पिये
गये सोम के समान, सखाओं के आह्वान के योग्य हुए थे।
८६ सूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि रेभ। छन्द अति ज्ञगती, बृहती, त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, तुम सुखवाले हो । तुस जो असुरों के पास से भोग कै
योग्य धन ले आये हो, घनी इन्त्र, उससे स्तोता को बाद्धत करो । स्तोता
कुश बिछाये हुए हैं।
२. इन्द्र, तुम जो गौ, अश्व और अविनाशी धन को धारण किये
हुए हो, सो सब सोमाभिषव और दक्षिणावाले यजमात को दो | यज्ञ-
घिहीन पणि को नहीं देना ।
३. देवाभिलाष-शून्य तथा ब्रत-रहित जो व्यक्ति स्वप्न के बश होकर
निद्रित होता है, वह अपनी गति (कर्म) के द्वारा ही अपने पोष्य घन का
विनाश करे, उसे कमं-शुन्य स्थान में रखो ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १०५९
४, शात्रु-हम्ता और बुत्रध्न इख, तुम दुर देश सें रहो अथवा समीप
के देश में, इस भूलोक से चुलोक को जाते हुए केशवाले हरि अइवो के
समान तुम्हें, इस स्तोत्र के द्वारा, अभिषुत सोमवाला यजमान यज्ञ में छे
आता हे ।
५. इन्द्र, यदि तुम स्वर्ग के दीप्त स्थान में हो, यदि ससुव्र के बीच
में किसी स्थान पर हो, यदि पृथ्वी के किसी स्थान में हो अथवा अन्तरिक्ष
में हो, (जहाँ कहीं भी हो, हमारे यज्ञ में) हे वुत्रघ्न, आओ .
६. सोमपा और बलपति इन्द्र, सोमाभिषव होने पर बहुत धन और
सुन्दर वावथ से युक्त तथा बल-साधक अन्न के द्वारा हमें आनन्दित करो ।
७. इन्द्र, हमें नहीं छोड़ना। तुम हमारे साथ एकत्र सोमपान से
प्रसस होओ । तुम हमें अपने रक्षण में रखो । तुम्हीं हमारे बन्धु हो ।
तुम हमें नहीं छोड़ना ।
८. इस, हमारे साथ, सदकर सोम फे पान के लिए, सोमाभिषव
होने पर बेठो ॥ धनी इन्द्र, स्तोता को महती रक्षा प्रदान करो।
सोमाभिषव होने पर हमारे साथ बेठो।
९. वज्यधर इन्द्र, देवता लोग तुम्हें नहीं व्याप्त कर सकते--मनुष्य
भी नहीं व्याप्त कर सकते। अपने बल के द्वारा समस्त भूतों को तुम
अभिभूत किये हुए हो । देवता तुम्हें नहीं व्याप्त कर सकते ।
१०. सारी सेना, परस्पर मिलकर शत्रुओं के विजेता और नेता
इन्द्र को आयुध आदि के द्वारा तेज करती हुँ। स्तोता लोग अपने भ्रका-
शान के लिए यज्ञ में सूर्यझूप इन की सूष्टि करते हें। कमं के द्वारा
बलिष्ठ ओर शत्रुओं के सामने विनाशक, उग्र, ओजस्वी, प्रवृद्ध और
वेगवान् इन्द्र की धन के लिए स्तोता लोग स्तुति करते हें।
११. सोमपान के लिए रेभ नामक ऋषियों ने इन्द्र की भली भाँति
स्तुति की थी। जब लोग स्वर के पालक इन्द्र की वद्धन के लिए स्तुति
करते हे, तब व्रतधारी इन्द्र बल और पाऊन के द्वारा भिलित होते हें।
१०६० हिन्वी-अऋग्वेव
१२. कइथपणोगरीय रेस लोग, नेसि फे समान, देखने के साथ ही
इन्द्र को नमस्कार करते हें। मेधावी (विप्र) लोग मेष (भेड़ के समान
उपकारी) इन्द्र का, स्तोत्र के द्वारा, नमस्कार कणसे है । स्तोताओ,
तुम् लोग झोमव वीष्तिवाले और द्रोइ-शन्य हो । क्षिप्रकारी तुस लोग
इन्द्र के कानों के पास पुजा-युक्त मन्त्रों से इन्द्र की स्तुति करो ।
१३. उस उग्र, धमी, यथार्थतः बल धारण करनेवाले ओर शत्रुओं
के द्वारा न रोके जाने योग्य इन्द्र को में बुलाता हुँ । पुज्यतम और यज्ञ-
पोग्य इन्द्र हमारी स्तुतियों के द्वारा यज्ञाभिशुख हों । बजाधर इख हमारे
धन के लिए सारे मार्गो को सुपथ बनावे ।
१४, बलिष्ठ और शत्रुहनन-समर्थ (शक्र) इन्द्र, शम्बर की इन सब
थुरियों को, बल के द्वारा, विनष्ट करने के लिए, ज्ञाता होते हो वज्रधर
इन्द्र, तुम्हारे डर से सारे भूत ओर द्याबापृथिवी कापती हें।
१५. बली और विविध-रूप इन्द्र, तुम्हारा प्रशंसनीय सत्य भेरी रक्षा
करे। वज्री इम्द्र, नाविक के द्वारा जल के समान अनेक पापों से हमें
पार करो । राजा इन्द्र, बिविध-हप और अभिलषणीय घन, हमारे सामने,
कब प्रदान करोगे ?
षष्ठ अध्याय समाप्त ॥
८७ सूक्त
(सप्तम अध्याय । देवता इन्द्र ऋषि अङ्गिरोगोत्रीय नृमेध । छन्द
क् ककुप्, पुर उष्णिक् और उष्णिद् ।)
१. उद्गाताओ, मेधावी, विशाळ, क्मे-कर्सा, विद्वान् और स्तोत्रा-
सिलाषी इख्न के लिए बृहत् स्तोत्र का गान करो ।
` २. इन्द्र, तुम शत्रुओं को दबानेवाले हो। तुमने आदित्य को तेज
के द्वारा प्रदीप्त किया हुँ । तुस विश्वकर्ता, सर्वदेव और सर्वाधिक हो ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०६१
३. इद्र, ज्योति के द्वारा तुम आदित्य के प्रकाशक हो । तुम स्वर्ग
को प्रकाशित करते हुए गये थे। देवों ने तुम्हारी मैत्री के लिए प्रयत्न
किया था।
४, इन्द्र, तुम प्रियतम और महान व्यक्तियों के विजेता हो । बुम्हारा
कोई गोपन नहीं कर सकता। तुझ पर्वत के समान चारों ओर व्यापक
और स्वपे के स्वामी हो। हमारे पास आओो।
५. सत्य-स्वरूप और सोमपाता इन्द्र, तुमने अवःपृथिबी को अभिभूत
किया है; इसलिए तुम अभिषव करनेवाले के बद्धक और स्वर्याधिपति हो।
६. इन्द्र, तुम अनेक शत्रु-पुरियों के भेदक हो। तुम दस्यु-घातक,
मनुष्य के वद्धंक और स्वर्ण के पति हो ।
७. स्तुत्य इन्द्र, जैसे कोड़ा के लिए लोग जल में अपने पास के
व्यक्तियों पर जल फेंक करते है, वेसे ही हम आज तुम्हारे लिए महान्
और कमनीय स्तोम (मन्त्र) प्राप्त करते हें।
८. वशाधर और शूर इन्द्र, जैसे नदियां जल-स्थान को बढ़ाती हुँ,
वैसे ही स्तोत्रों के द्वारा प्रवृद्ध तुम्हें स्तोता लोग प्रतिदिन बद्धित करते हुँ ।
९. गतिपरायण इन्द्र के महान् युगों (जोड़ों) से थुक्त विज्ञाल रथ
में इन्र के वाहक और कहने के साथ ही जुट जानेवाले हरि नामक
दोनों अइवों को, स्तोत्र के द्वारा स्तोता लोग जोतते हैं ।
१०. बहुकर्मा, प्रवीण, वीरयेशाली और सेना को जीतनेबाले इच,
तुम हमें बल और धन दी ।
११. निवास-दाता और बहुकर्सा इन्र, तुस हमारे पिता के सदृश
पालक और माता के समान धारक बनो । अनन्तर हुम तुम्हारे सुख की
याचना करेंगे ।
१२. बली, अनेक फे द्वारा आहूत और बहुकर्मा इन्र, बल की अभि-
लाघा करनेवाले तुम्हारी में स्तुति करता हूँ । तुम हमें सुन्दर यी्दसंयुक्त
धन दी ।
१०६१ हिन्दी-ऋषग्वेश
८८ सुक्त
( देवता इन्द्र | ऋषि नृमेध । छन्द अयुक, वृहती
ओर युक सतोबृहती ।)
१. वज्रधर इन्द्र, हवि से भरण करनेवाले नेताओं ने तुम्हें आज
और कल सोसपान कराया है। तुस इस यज्ञ में हम स्तोअ-बाहकों का
स्तोत्र सुनो और हमारे गृह में पधारो ।
२. सुन्दर चादरवाले, अइववाले और स्तुतिवाले इन्द्र, परिचारक
लोग तुम्हारे लिए सोमाभिषव करते हुँ। तुम पीकर मत्त होओ। हम
तुम्हारे पास प्रार्थना करते हुँ। सोधाभिषव होने पर तुम्हारे अञ्न उपसेय
और प्रशस्य हों ।
३. जैसे आश्रित किरणें सूये का अजन करती हैं, वैसे ही तुम इन्द्र
के सारे घनों का भजन करो । इन्द्र बल के द्वारा उत्पन्न और उत्पन्न होने-
वाले धनों के जनक हें। हम उन धों को पैतृक भाग के समान धारण
करेंगे
४. पाप-रहित व्यक्ति के लिए जो दान-शील और घनद हें, उन्हीं
इन्द्र की स्तुति करो; क्योंकि इन्द्र का दान कल्याणवाहक है । इन्द्र अपने
सन को अभोष्ट प्रदान के लिए प्रेरित करके परिचारक की इच्छा को
बाधा नहीं वेते ।
५. इन्द्र, तुम युद्ध में सारी सेनाओं को दबाते हो। शत्रु-बाधक
इन्द्र तुम दैत्यों के नाशक, उनके जनक शत्रुओं के हिसक और बाघकों
के बाधक हो ।
६. इन्द्र, जैसे माता शिशु का अनुगमन करती है, बैसे ही तुम्हारे
बल को हिंसा करनेवाले शत्रु का अनुगमन धावापूथिदी करती हैं । तुम
वृत्र का वघ करते हो; इसलिए सारी युद्धकारिणी सेना तुम्हारे क्रोध
के लिए खिन्न होती है ।
७. अजर, शत्रु-प्रेरक, किसी से न भेजे गये, बेगवान्, जेता, गन्ता,
रथिश्रेष्ठ, आहिसक और जल-वद्धेक इख को, रक्षण के लिए, आगे करो ।
'दुन्दो-तारवेद १०६३
८. शभु फे संस्कर्ता, दूसरों फे द्वारा असंस्कृत, बलकृत, बहुरक्षण-
दारे, शत-यज्ञबाले, साधारण घनाच्छादफ और घनः-प्रेरक इन्द्र को, रक्षण
के लिए, हुम बुलाते हें ।
८९ सूक्त
(देवता इन्द्र । १०-११ के वाक् । ऋषि भृगुगोत्रीय नेम ।
छन्द जगती, अनुष्टुप् और त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, पुत्र के साथ में शत्रु को जीतने फे लिए, तुम्हारे आगे-
आगे जाता हूँ । सारे देवता मेरे पीछे-पीछे जाते हें। तुम शत्र-धन का
अंग मुझे देते हो; इसलिए सेरे साथ पुरुषार्थ करो ।
२. तुम्हारे लिए पहले में मदकर सोभरूप अन्न (भक्षण) देता हूँ ।
तुम्हारे हृदय में अभिषु सोम निहित हो । तुम मेरे दक्षिण भाग में मित्र:
रूप होकर अवस्थित होओ । पश्चात् हुम दोनों अनेक असुरों का वघ
करेगे ।
३. युद्धेच्छुको, यदि इन्द्र की सत्ता सच्ची हो, तो इन्द्र के लिए सत्य-
रूप सोम का उच्चारण करो । भार्गव नेम ऋषि कामत है कि इन्द्र
नाम का कोई नहीं है । इन्द्र को किसी ने देखा हे ? फलतः हम किसकी
स्तुति करं ?
४. स्तोता नेम, यह में तुम्हारे पास आगया हूँ । मुझे देखो में सारे
संसार को, महिमा के द्वारा, दबाता हुँ । सत्य यज्ञ के द्रष्टा मुझे वद्धित
करते हें। में विदारण-परायण हुँ । में सारे भुंवनों को विदीर्ण करता हूँ ।
५. जिस समय यज्ञाभिलाषियों ने कमनीय अन्तरिक्ष की पीठ पर
अकेले बैठे हुए मुझे चढ़ाया था, उस समय उन लोगों के मन ने ही मेरे
हुदय में उसर दिया था कि पुत्र-युक्त प्रिय मेरे लिए रो रहे हें।
६. घनी इन्द्र, यज्ञ में सोमाभिषव करनेवालों के लिए तुमने जो कुछ
किया है, वह सब कहने योग्य है । परावत् नाम के शत्रु का जो धन है,
उसे तुमने ऋषिमित्र शरभ के लिए, यथेष्ट रूप में, प्रकट किया था ।
१०६४ हिन्दी-ऋग्वेद
७. जो शत्रु इस समय दौड़ रहा हुँ--पृथक् नहीं ठहरता और जौ
तुम्हें नहीं ढकता, उसके सर्म-स्थान सें इन्द्र ने वज्ञपात किया है ।
८. सन के समान वेगवान् और गसनशील सुपणं (गरुड) लौहमय
नगर के पार गये । अमन्तर स्वगं सें जाकर इन्द्र के लिए सोम ले आये ॥
९. जो यज्या समुद्र के बीच सोता है और जो जल में ढका हुआ है,
उसी बर्गर के लिए संग्राम में आगे जानेवाले शत्रु (आत्म-बलि-झूप) उप-
हार धारण करते हें ।
१० राष्ट्री (प्रदीपक) और देवों को आनन्द-सग्स करनेवाला घाकय
जिस समय अज्ञानियों को ज्ञान देते हुए यज्ञ में बेठता हे, उस समय चारों
ओर के लिए अश्न और जल का दोहन करता है । उस (माध्यमिकी वाक्)
में जो श्रेष्ठ हँ, बह कहाँ जाता है ?
११. देवता लोग जिस दीप्तिमान् वागुदेवी को उत्पन्न करते हुँ, उसे
ही सभी प्रकार के पशु भी बोलते हुँ। धह हर्ष बैनेवाली वाक, अन्न
और रस देनेवाली धेनु के समान हमसे स्तुत होकर, हमारे पास आव ।
१२. भित्र विष्णु, तुम अत्यन्त पाद-विक्षेष करो । द्युलोक, तुम
वजय के गमन के लिए अवकाश प्रदान करो । तुम और में वृत्र का वध
करूंगा और नदियों को (समुद्र की ओर) ले जाऊंगा। नदियां इस की
आज्ञा के अनुसार गसन करें।
९० सूक्त
(देवता मित्र ओर वरुण । ५ के शेषांश के और ६ के आदित्य
७-८ के अश्विदय, ९-१० के वायु, ११-१२ के सथ, १३ के उषा
१४ के पथमान और १५-१६ के गो । ऋषि भशुगोत्रीय जमदग्नि ।
छन्द् त्रिष्दुप , गायत्री और परासतोग्रहती ।
१. जो मनुष्य हविःप्रदाता यजसान के लिए, अभिमत की सिद्धि के
लिए, मित्र और बरुण का सम्बोधन करता हुँ, बह सचमुच इस प्रकार
यज्ञ के लिए हुषि का संस्कार करता हे ।
हिन्दी-क्रसवेष १०६५
२. अतीव वद्वित-बल महादर्शव, नेता, दीप्तिमान् तथा अती विद्वन्
धष मित्र और वरुण, दोनों बाहुओं के समान, सूरय-किरणों के साथ,
कर्म प्राप्त करते है ।
३. भित्र और वरुण, जो गमनशील यजमान हुम्हारे सामने जाता है,
धह देवों का दूत होता हें। उसका मस्तक सुवण-मण्डित होता हे और
धह मदकर सोम प्राप्त करता हैं ।
४, जो शत्रु बार-बार पुछने पर भी आनन्दित नहीं होता, जो धार”
बार बुलाने पर भी आनन्दित नहीं होता और जो कथोपकथन पर भी
आनन्दित नहीं होता, उसके युद्ध से हमें आज बचाओ, उसके बाहुओं
से हमें बचाओ ।
५. यज्ञ-धन, मित्र के लिए सेवनीय और यज्ञगहोत्पन्न स्तोत्र का
गान करो । अयमा के लिए गाओ । वरुण के लिए प्रसन्चता-दायक गान
करो। मित्र आवि तीन राजाओं के लिए गाओ । |
६. अरुणबर्ण, जयसाधन और वासप्रद पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा
आकाश (द्युलोक) आदि तीनों के लिए देवता लोग एक पुत्र (सुय) को
प्रेरित करते हें। अहिसित.और अमर देवगण मनुष्यों के स्थान देखते हुँ॥
७. सत्य-प्रणेता अश्विद्ठय, मेरे उच्चारित और दीप्त वाक्यों और
फर्मो के लिए आओ । हृव्य-भक्षण के लिए जाओ ।
८. अन्न ओर घनवारे, अश्विय, तुम लोगों का राक्षस-शून्य जो दान
है, उसको जिस समय हस मांगेंगे, उस समय सुस लोग जमदग्नि के द्वारी
स्तुत होकर तथा पुषे मुख और स्तुति-धरद्धक नेता होकर आना ।
९. वायु, तुम हमारी सुन्दर स्तुति से स्वर्ग-स्पर्शी यज्ञ में आना ।
पवित्र (घुत, वेद-मन्त्र, कुश आदि) के बीच आश्रित यह गुम्न सोम
तुम्हारे लिए नियत हुआ था।
१०. नियुत् अश्योवाले वायु, अध्वयु सरलतम मागं से जाता हे ।
बह तुम्हारे भक्षण के लिए हवि छे जाता हे। हमारे लिए दोनों प्रकार
के (शुद्ध और दुग्ध-मिश्चित) सोम का पान करो ॥
१०६६ हिन्दी-ऋएवेद
११. सुर्य, सचमुच तुम महान् हो, आदित्य, तुम महान् हो, यह बात
ची हूं । तुम महान् हो, तुम्हारी महिमा स्तुत होती है। देव, तुम
महान् हो, यह बात सच्ची हे ॥
१२. तुम सुनने में महान् हो, यह बात सच्ची हुँ । देवों में, तुम
भहिमा के द्वारा महान् हो, यह बात सध्य हे। तुम शत्रु-विनाशक हो
और तुस देवों के हितोपदेशक हो। तुम्हारा तेज महान् और अहि-
समीय हूं ।
१३. यह जो निम्नमुखी, स्तुतिमती, रूपथती और प्रकादायती उषा,
सुर्य-प्रभाष के द्वारा, उत्पादित हुई है, वह ब्रह्माण्ड की बहु-स्थानीच दसों
दिशाओं में आती हुई, चित्रा गाय के समान, देखी जाती है ।
१४. तीन प्रजाये अतिक्रमण करके ,चली गई थीं। अन्य प्रजाये पुज-
नीय अग्नि के चारों ओर आशित हुई थीं । भुवनों में आदित्य महान्
होकर अवस्थित हुए थे। पवमान (वायु) दिशाओं में घुस गये ।
१५. जो गो रष्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की भगिनी
और दुग्ध का निवास-स्थान है, मनुष्यो, उस निरपराध और अबीन
(अदिति) गो-देवी का वध नहीं करना। मेने इस बात को बुद्धिमान्
मनुष्य से कहा था।
१६. वाक्य-दात्री। वचन उच्चारण करनेवाली, सारे वाक्यों के
साथ उपस्थित, प्रकाशमाना ओर देवता के लिए म्े जाननेवाली गो-देवी
को छोटी बुद्धि का मनुष्य ही परिर्वाजत करता हँ ।
९१ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि आगव प्रयोग, बृहस्पतिपुत्र अग्नि
वा सह के पुत्र गृहपति यविष्ठ । छन्द गायत्री |)
१. प्रकाशमान अग्नि, तुम कवि (क्रान्तकर्मा), गहपालक और
नित्य तरुण हो। तुम हुव्यदाता यजमान को महान् अन्न देते हो ।
२. विशिष्ट दीप्तिवाले अग्नि, तुम ज्ञाता होकर हमारे वावय से
देवों को ले आओ । हम स्तुति और परिचर्या करते हैं ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १०६७
३. युधतम अग्नि, तुम अतीव धनप्रेरक हो, तुम्हें सहायक पाकर
हम, अन्न-लाभ के लिए, शत्रुओं को दबावेंगे।
४. में समुप्र-मघ्यर्थिद और शुद्ध अग्नि को, औवे भृगु और अप्नवान
के समान, बुलाता हैं ।
५. यायु के समान ध्वनिवाले, मेध के समात क्रन्दन करनेवाले, कवि,
बली और समुद्रशायी अग्नि की में बुलाता हूँ ।
६. सूर्य के प्रसव के समान और भग देवता के भोग के समान समुद्र
शायी अग्नि को में बुलाता हूँ ।
७, अधिसनीय, (अध्वर) लोगों के बन्धु, बली, वद्धंभान और बहु-
तस अग्नि की ओर ऋष्बिकों, तुम जाओ ।
८. यही अग्नि हुमारे कत्तव्य को बनाते हैँ। हम अग्नि के प्रज्ञान
से यशस्वी होंगे ।
९, देयों फे बीच अग्नि ही मनुष्यों की सारी सम्पदायें प्राप्तं करते
हुं। अग्नि, अन्न के साथ; हमारे पास आबें।
१०. स्तोता, सारे होताओं मे अधिक यशस्वी और यज्ञ में प्रधान
अग्नि की, इस यज्ञ में, सतुति करो ।
११. देवों फे बीच प्रधान भौर अतिशय विद्वान् अग्नि याज्ञिको के
गृह् में प्रदीप्त होते हुँ । पवित्र दीप्तिवाले और शयन करनेवाले अहिन
की स्तुति करो।
१२. मेधावी स्तोता, अइव के समान भोग-योग्य, बली और मित्र
के समान शत्रु-निधन-कारी अग्नि की स्तुति करो ।
१३. अग्नि, यजमान के लिए स्तुतियाँ, भगिनियों के समान, तुम्हारे
गुण गाते हुए तुम्हारी सेवा करती हेँ। तुम्हें वायु के समीप स्थापित भी
करती हे।
१४. जिन अग्नि के तीन छिपे और च बंधे हुए कुश हें, उन अग्नि में
छल भी स्थान पाता हे ।
१०६८ हिन्दी-ऋग्वेद
१५. अभीष्ठ-वर्षक और प्रकाशमान अग्नि का स्थान सुरक्षित और
भोग्य हे । उनकी दृष्टि भी, सुर्ये के समान मंगलमयी हू ।
१६. अग्निदेव, दीप्ति-साधक घी के निधान (आगार) केद्वारा
तृप्त होकर ज्वाला के द्वारा देवों को बुलाओ और यज्ञ करो ।
१७. अंगिरा अग्नि, कवि, अमर, हव्यदाता और प्रसिद्ध अग्नि को,
(ुमको ) देवों ने, माताओं के समान; उत्पन्न किया हे।
१८. कवि अग्नि, तुम प्रकृष्टबद्धि, वरणीय दूत और वेवों के हव्य-
बाहक हो । तुम्हारे चारों ओर देवता लोग बठते हं । |
१९. अग्नि, मेरे (ऋषि के) पास गाय नहीं हु, काठ को काटनवाला
फरसा भी नहीं हुँ । यह सब में तुमको दे चुका ।
२०. युवकतस अग्नि, तुम्हारे लिए जब में कोई कोई कार्य करता
हँ, तब तुम अपरशु-छिन्न काष्ठों की ही सेवा करते हो।
२१. जिन काठों को तुम्हारी ज्वाला जलाती हे और जिनको तुम्हारी
जीभ (ज्वाला) लाँघकर जाती हँ, बह सब काठ घी के समान हों ।
२२. मनुष्य काठ के द्वारा अग्नि को जलाते हुए मन के द्वारा कर्म
का आचरण करता है और ऋत्विकों के द्वारा अग्नि को समिद्ध करता हे
९२ सूक्त
(देवता मरुद्गण और अग्नि ऋषि सोभरि । छन्द सतोबृहती
ककुप् , गायत्री, अनुष्टुप् और बृहती ।)
१. जिन अग्नि में सारे कर्मो का, यजमानों के द्वारा, आधान होता
है, अतिशय मार्गज्ञाता बही अग्नि प्रकट हुए । आर्यो के बद्धक अग्नि के
सम्यक प्रादुर्भृत होने पर हमारी स्तुतियाँ अग्नि के पास जाती हें ।
२. दिवोदास के द्वारा आहूत अग्नि माता पृथ्वी के सामने देवों के
लिए हव्यवहन करने में प्रवृत्त नहीं हुए; क्योंकि दिवोदास ने बल-
पुर्बेक अग्नि का आह्वान किया था; इसलिए अग्नि स्वर्ग के
पास ही रहे ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०६९
३. कत्तेव्य-परायण मनुष्यों के यहाँ अन्य मनुष्य काँपतै हैं। फलतः
है मनुष्यो, तुम इस समय सहस्र धनों के दाता अग्नि की, यज्ञ सें कत्तव्य
फर्म के द्वारा, स्वयं सेवा करो।
४. निवास-दाता अग्नि, धन-वान के लिए तुम जिसे शिक्षित करते
हो ओर जो मनुष्य तुम्हें हव्य देता है, वह मनुष्य मन्त्र-प्रशंसक और स्वथं
सहरू-पोषक पुत्र को प्राप्त करता हुँ । .
५. बहुत धनवाले अग्नि, जो तुम्हारे लिए हव्य देता है, बह
बुढ़ शत्रु--नगर में स्थित अन्न को, अइव की सहायता से, नष्ट करता
हँ--वह वद्धित अञ्च को धारण करता हे। हम भी देव-स्वरूष तुम्हारे
लिए हव्य देते हुए तुममें स्थित सब प्रकार के धन को धारण करेगे ।
६. जो अग्नि देवों को बुलानेवाले और आनन्दमय हैं और जो
मनुष्यों को अन्न देते हें, उन्हीं अग्नि के लिए सदकर सोम के प्रथम पान्न
जाते है ।
७. दर्शनीय और लोकपालक अग्नि, सुन्दर दानवाले और देवाभि-
लाषी यजमान, रथ-वाहक अश्व के समान, स्तुति के द्वारा तुम्हारी
परिचर्या करते हैँ, वही तुस हमारे पुत्रों और पौत्रों के लिए धनियों का
दान दो ।
८. स्तोताओ, तुम सब्व-श्रेष्ठदाता, यज्ञवाले, सत्यवाले, विशाल
और प्रदीप्त तेजबाले अग्नि के लिए स्तोत्र पढ़ी ॥
९, धनी और अझवाले अग्नि सन्दीप्त, वीर के समान प्रताप से
युक्त और बुलाये जाने पर यशस्कर अन्न प्रदान करते हें। उनकी अभि-
नव अनुग्रह-ब॒द्धि, अन्न के साथ, अनेक बार हमारे पास आवे ।
१०, स्तोता, प्रियों में प्रितम, अतिथि और रथों के नियामक अग्नि
की स्तुति करो ।
. ११. ज्ञानी और यज्ञ-योग्य जो अग्नि उदित और श्रुत जिस धन को
थार्वात्तत करते हुँ और कर्म-द्वारा थुद्धेच्छुक जिन अग्नि की ज्वाला निम्न
मुखगामी समुद्र-तरंग के समान दुस्तर हूँ, उन्हीं अग्नि की स्तुति करो ।
१ ०७० हिन्बी- कन्या
१२. बासभ्रद, अतिथि, बहु-स्तुत, देवों के उत्तम आह्लाभकर्ता और
सुन्दर यज्ञवाले अग्नि हमारे लिए किसी के द्वारा रोके न जाये ।
१३. वासप्रद अग्नि, जो मनुष्य स्तुति के द्वारा और सुखाबह अन्-
गामिता से तुम्हारी सेवा करते हैं, थे मारे न जायें। सुन्दर यज्ञवाले
और ह॒व्यदाता स्तोवा भी, दूत-कर्म के लिए, तुम्हारी स्तुति करता हू ।
१४. अग्नि, तुम सणझतों के प्रिय हो । हमारे यज्ञ-कर्म में, सोमपान
के लिए, मरुतों के साथ आओ । सोभरि की (मेरी) शोभन स्तुति के पास
आओ । सोम पीकर सत होओ ।
भेप्टम सफ्डल़ समाप्त ।
१ सूक्त
(बालखिल्यसुकत । देवता इन्द्र । ऋषि कण्व के पुत्र प्रस्कण्व |
छन्द् अथुक् और युक् बहती ।)
१, इस प्रकार सुन्दर धनवाले इन्द्र को सामने करके पुजो, जिससे
में घन प्राप्त कर सकें। इस घनी--बहुत घनवाले हें। बे स्तोताओं
को हजार-हजार धन देते हें।
२. इन्द्र गवं के साथ जाते हें--मानो वे सौ सेनाओं के स्वाभी हें।
वे हृव्यदाता के लिए वुत्र-वध करते हुँ। इन्र अनेकों के पालक हूँ।
उनके लिए दिया गया सोमरस पर्वत के सोमरस के समान प्रसन्न
करता हे।
३. स्तुत्य इन्द्र, जो सब सोम मदकारी है, वह सब तुम्हारे लिए
अभिषुत हुआ हे। ब्त्रत्रर शुर, इस समय घन के लिए जल अपने वास"
स्थान सरोवर को भरता हु।
४. तुस सोम के निष्पाप, रक्षक, स्वर्गदाता और मधुरतम रस का
पान करो; क्योंकि प्रमत्त होने पर तुम स्वयं सगर्वं होते और “क्षुद्रा”
नाम की दाजी के ससान हमें अभिलषित दान करते हो।
हिन्दी-ऋण्वेद ६०७१
५. अज्ञवाले इन्द्र, कण्वो के लिए तुमने जो प्रसञ्चता-दायक दान दिया
है, बही वान स्तोम (स्तोत्र) को मीठा करता हे। अभिषव करनेवालों
के बुलाने पर अश्व के समान तुम उसी स्तोम की ओर शीघ्र आओ।
६. इस समय हुम विभूति और अक्षय्य धन से युक्त तथा उग्र और
घीर इन्द्र के पास, नमस्कार के साथ, जायेंगे। बञ्जी इन्द्र जेसे जलवाला
कुआं जल-सिचन करता हूँ, वैसे ही सारे स्तोत्र तुम्हें सिष्त करते हें।
७. इस समय जहाँ भी हो, यज्ञ में अथवा पृथिवी में हो, बहीं से,
है उग्र ओर महामति इन्द्र, तुम उग्र और शीघ्रगामी अश्व के साथ, हमारे
धञ्ञ में आओ।
८. तुम्हारे हरि अश्व वायु के समान शीघ्रगामी और शत्रु-जेता हैं।
उनकी सहायता से तुम मनुष्यों के पास जाते हो और सारे पदार्थो को
देखने के लिए संसार में जाया करले हो।
९. इन्द्र, तुम्हारा गो से संयुक्त इतना धन मांगता हुँ। धनी इन्छ,
कुमन मेध्यातिथि और नीपातिथि की, धन के सम्बन्ध में, रक्षा की थी।
१०. धनी इस, तुमने कण्व, त्रसवस्यु, पक्थ, दशषजा, गोश् और
ऋजिश्वा को गौ ओर हिरण्यवाला धन दिया था।
सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि पुष्टिशु । छन्द् अयुक, बहती और युक
सतोबद्दती ।)
१. घन-प्राप्ति के लिए बिख्यात और सुन्दर धनवाछे शक्र (इन्र)
की पुजा करो। वे अभिषवकर्ता और स्तोता को हज्ञार-हुज्ञार कमनीय
घन देते हें। |
२० इनके अस्त्र सो हूँ। ये इन्द्र के अन्न से उत्पन्न हें। जिस समय
अभिषुत सोम इनको प्रमत्त करता हे, उस समय ये पर्वत के समान खाद्य
देनेवाले होकर धनियों को प्रसन्न करते हुँ।
8०७४ हिन्दी-त्रहावेद
३. जिस समय अभिषुत सोम ने प्रिय इन्द्र को प्रमत्त किया, उस
शमय, है इन्द, हव्यदाता के लिए, गायो की तरह, यज्ञ में जल रखा
शया |
४. ऋषत्विको, तुम्हारे रक्षण के लिए सारे कमं निष्पाप भौर बुलाये
जञानेवाले इन्द्र के लिए मधु गिराते हैं। बासदाता इन्द्र, सोस लाया जाकर,
स्तोत्र-समय में, तुम्हारे सामने रक्खा जाता है। |
हमारे सुन्दर यज्ञवाले सोम से प्रेरित होकर इन्द्र अइव के समान
जा रहे हूँ। स्वादवाले इन्द्र, तुम्हारे स्तोता इस सोम फो सुस्वादु बना
रहे हे। तुम पुरु-पुत्र के बुलाबे को प्रसन्न करो।
६. वीर, उग्र, व्याप्त, धन के हारा प्रसञ्चता-दायक और महाधन
के विभूति-रूप इन्द्र की हम स्तुति करते हें। वज्धधर इन्द्र, जलवाले कुएँ
के समाम, सदा व्यापक धन के साथ, हव्यदाता के मंगल के लिए सोम-
पान करो।
७, दर्शेजीय और महामति इन्द्र, तुम दूर देश में हो, पृथिवी पर रहो
अथवा स्थग सं, दर्शनीय हरियों को रथ में जोतकर आओ ।
८. तुम्हारे जो रथ-वाहक अश्व हैं, वे अहिसित और वायुवेग को
पुरा करनेवाले हूँ। इन्हीं की सहायता से तुमने दस्युओं को मारा है।
हुसन मनु को (मानव आर्यो को) विख्यात किया हु और सारे पदार्थों
को व्याप्त किया हैँ। |
९. हर और निबासदाता इन्द्र, तुम्हारे “इतने” और नये घन की
बात विदित हूँ। तुमने इसी प्रकार घन के लिए एतश और दशब्नज से
युक्त दश को बचाया हे। ॒
१०. धनी और बच्ची इद्र, तुमले पबित्र यज्ञ सें कवि, शत्रुनाश के
भभिलाषी वोघनीथ ओर गोशयै को जिस प्रकार बचाया था, उसी प्रकार
अइवों की सहायता से हमारी भी रक्षा करो।
हिन्दी-ऋहग्वेद १०७३
३ सूक्त
दिवता इन्द्र ऋषि श्र्टिगु। छन्द अथुक बृहती और युक
सतोइहती ।) |
१. इन्द्र, तुमने जैसे सांबरणि (सार्वाण) मनु के लिए अभिषुत सोम
का पान किया था, घनी इन्द्र, पुष्ट और शी घ्रगासी गो से युक्त मेध्यातिथि,
भोर नीपातिथि के लिए जैसे सोमपान किया था वैसे ही आज भी करो।
२. पार्षद्वाण ऋषि ने वृद्ध और सोये हुए प्रस्कण्व को ऊपर बैठाया
था; दस्युओं के लिए वृकस्वरूप ऋषि को अपने द्वारा रक्षित करके
तुमदे हज़ार गोओं की रक्षा की थी ।
३. जिनसे उकथों के द्वारा प्राप्त किया जाता हुँ, जो ऋषि-द्वारा
प्रेरित होकर सबके ज्ञाता है और जो रक्षाभिलाषी हैं, उन्हीं इन्द्र के सामने,
सेवा के लिए, नई स्तूति का उच्चारण करो।
४. जिनके लिए उत्तम स्थान में सात शीषों (सात भवनों वा
व्याहृतियों) और तीन स्थानों (लोकों) से युक्त पूजा-मन्त्र पढ़ा जाता है,
उन्होंने इस व्यापक भुवन को शब्दयुकत किया और बल उत्पन्न किया। .
५. जो इन्द्र हमारे धनदाता हैं, उन्हीं को हम बुलते हैं। हम उनकी
अभिनव अनुग्रह-बुद्धि को जानते हें। हम गोयुक्त गोशाला में जा सके।
६. वासदाता, स्तृत्य और धनी इन्द्र, तुम जिसे, प्रतिज्ञा करके, दान
देले हो, बह धन की पुष्टि को प्राप्त करता है। तुम ऐसे हो; इसलिए
हम अभिषुत सोमवाले होकर तुम्हें बुलाते हैं।
७. इन्द्र, तुम कभी सूष्टि-विहीन नहीं होते। हव्यदाता के साथ
मिलो। तुम देवता हो। तुम्हारा दान बार-बार समीप आकर मिलित
होता हेत
८. 'जग्होंने बलात् अस्त्र-प्रयोग करके शुष्ण का विनाश करते हुए
कुँ को पुणे किया था, जिन्होंने शलोक को प्रसिद्ध करते हुए रोका था,
जिन्होंने पाथिव रूप में होकर सारे पदार्थों को उत्पन्न किया था+-
फा० ६८
१०७४ हिन्दी-ऋग्वेद
९. जिनके धन-रक्षक और स्तोता सारे आये और दास (आर्यीक्ृत
भनायें ? ) हैं और जो आर्यं तथा श्वेतवर्ण पवीरु के सम्मुख आते हुँ, वे
ही धनद इन्द्र तुम्हारे साथ सिलतै हूँ ।
१०. क्षिप्रकारी विप्र लोग मधु-युक्त और घृतस्रावी पुजा-मन्त्र का
उच्चारण करते हैं। इसके लिए धन प्रसिद्ध होता है, पुरुषोचित बल प्रसिद्ध
हुआ है और अभिषुत सोम प्रसिद्ध हो रहा है।
० सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि आयु। छन्द अयुक. बृहती ओर युक. बृहती ।)
१. इन्द्र, तुमने जैसे पहले विवस्थान् सन् के सोम का पान किया था,
जैसे त्रित के मन की रक्षा की थी, आयु के (मेरे) साथ जैसे प्रमत्त
हुए थे--
२. मातरिश्वा (वायु) देवता के पृषध्र (दघि-मिश्चित घृत) के
अभिषव का आरम्भ करने पर तुम जेसे प्रमत्त होते हो और सम्बद्ध तथा
दीप्तिबाले दशशिप्र एवम् दशोण्य के सोस का पान किया करते हो---
३. जो केवल उक्थ को धारण करते हें, जो ढीठ होकर सोमपान
करते हे, जिनके लिए, बन्धुत्व के कर्तव्य के निमित विष्णु ने तीन बार
पद-निक्षप किया था।
. ४. वेग और सो यज्ञोंवाले इन्द्र, तुम जिसके यज्ञ में स्तुति की इच्छा
करते हो--इन सब कर्मो और गुणोंचाले लुम इन्द्र को हम अझ्चाभिलाषी
होकर उसी प्रकार बुलाते हुँ, जिस प्रकार गाये दुहनेवाला गौओ को
बुलाता है ।
५. वे हमारे पिता हुँ और दाता हैं। वे महान्, उग्र और ऐश्वर्थकर्सा
हुँ। उग्र, धनी और अत्यन्त धनी इन्द्र हमें गौ ओर अइव प्रदान करे।
६. इन्द्र, तुम जिसे दान देने की इच्छा करते हो, बह घन पुष्टि
प्राप्त करता है। धनाभिलाषी होकर धन के पति और बहु यज्ञों के कर्ता
इन्द्र को, स्तोत्र के द्वारा बुलाते हैं।
हिप्वी-ऋग्वेद १०७५
७. तुम कभी-कभी चस में पड़ जाते हो। तुम दोनों प्रकार के प्राणियों
की रक्षा करते हो। क्षिप्रकर्ता आदित्य, तुम्हारा सुखकर आह्वान अमर
झूलोक में अवस्थान करता हूँ।
८. स्तुत्य, दाता और धनी इन्र, तुम हम दाता को दान करो।
'धासदाता इन्द्र, तुमने जेसे कण्व ऋषि का आह्वान सुना था, वैसे हमारे
बाक्य, स्तुति और आह्वान सुनो।
९, इन्द्र फे लिए प्राचीन स्तोत्र का पाठ करो और स्तोत्र का
उच्चारण करो। यज्ञ की पूर्वकालीन और विशाळ स्तुति का उच्चारण
करो और स्तोता की मेघा को बढ़ाओ।
१०. इन्द्र प्रभूत धन का प्रेरण करते हें। उन्होंने द्यावापूथिबी को
प्रेरित किया है, सूयं को प्रेरित किया है और इवेतवणे तथा शुद्ध पदार्थों
को प्रेरित किया हे। गव्य (दुग्ध आदि) से मिले सोम चे इन्द्र को भली
भाँति प्रमत्त किया था। |
५ सुत्त
(देवता इन्द्र । ऋषि मेध्य । छन्द अयुक ब्रहती और युक.
सतोबृहती ।)
१. तुम घनियों के किए उपमेय, अभीष्ट-वर्षको में ज्येष्ठ, सबके चाहने
योग्य, आत्रुपुरविदारी, घनश और स्वामी हो। धनी इन्द्र, धन के लिए में
तुम्हारी याचना करता हूँ।
२. जिन्होंने प्रतिदिन वरद्धमान होकर आयु, कुत्स और अतिथि की
रक्षा की थी, उन्हीं हरि नामक अइवोंवाले और बहुकर्मा इन्द्र को अझा-
भिलाषी होकर हम बुलाते हें।
३. दूरस्थ देश में जो सोम लोगों में अभिषुत होता है और जो समीप
में अभिषुत होता है, उन सब सोमों का रस हमारा अभिषव-प्रस्तर पिसकर
बाहर करे।
१०७६ हिन्दी-ऋण्वेद
४. तुम जहाँ सोमपान करके तृप्त होते हो, वहाँ सारै शत्रुऔं का विनाश
और पराजय करते हो। सारा धन उपभोग्य हो। शिष्टो में सोम तुम्हारे
लिए मदकर हूं ।
५. इन्द्र, तुम अतीव कल्याणकर ओर अतीच बन्धु हो। तुम परिमित
मेधा और कल्याणकर, अभीष्टप्रद तथा बन्धृ-स्वरूष रक्षण-कार्य के साथ
समीप के स्थान में आओ।
६. युद्ध में क्षिप्रकारी, साधुओं के पालक और सारे लोकों के अधीइवर
इन्द्र को प्रजागण में पूजनीय करो। जो कर्मो के द्वारा सुफल देते हूँ, ये
ही उक्थों का उच्चारण करनेवाले सतत यज्ञ-सम्पादन करे।
७ तुम्हारे पास जो सर्वश्रेष्ठ है, उसे हमें दो। रक्षण के लिए हम
तुम्हारे ही होंगे। युद्ध-ससथ में भी तुम्हारे ही होंग। हम स्तुति और
आह्वान के द्वारा तुम्हारा भजन करते हुए स्तुति-पाठ करेगे ।
८. हरि अइवोंवाले इन, अन्न, अश्व ओर गौ का इच्छुक होकर में
तुम्हारा स्तोत्र करता और तुम्हारी रक्षा प्राप्त कर युद्ध में जाता हूं।
भय फे समय तुम्हें ही शत्रुओं के बीच स्थापित करता हूं ।
६ सूक्त
(देवता इन्द्र । ३-४ मन्त्रों में अन्य देवों की भी स्तुति है। ऋषि
मातरिश्वा । छन्द॒ अथुक् बृहती ओर युक सतोब्रहती ।)
१, इन्त्र, स्तोता लोग स्तोत्र-द्वारा तुम्हारे इस पराक्रम की प्रशांसा
करते हूँ। उन्होंने स्तुति करके बल प्राप्त किया था। नागरिकों ने कर्मे-द्वारा
घी चलानेबाले इन्द्र को व्याप्त किया था।
२. इन्द्र, जिनके सोमाभिषव में तुम प्रमत्त होते हो, वे उत्तम कर्म
के द्वारा तुम्हें व्याप्त करते है। जेसे तुम संदर्त और कुश के अपर प्रसस्त
हुए थे, बसे ही हमारे ऊपर प्रसञ्च होओ।
सारे देव, समान रूप से प्रसञ्च होकर, हमारे सामने ओर समीप
हिन्दी-ऋग्वेद १०७७
वधारे। रक्षा के लिए वसु और रुद्र लोग आवें। मरत् लोग आह्वान
सुने ।
४. पुषा, विष्णु, सरस्वती, गङ्का आदि सात नदियाँ, जल, वायु,
पर्यंत और वनस्पति मेरे यज्ञ की रक्षा करे॥ पृथिवी आह्वान सुने ।
. ५, श्रेष्ठ घनी, वृत्रघ्न और भजनीय इन्द्र, तुम्हारा जो धन है, उस
घन के साथ, प्रमत्त होकर समृद्धि और दान के लिए बढ़ो।
६. युद्धपति, सुकृती और नरेश, तुस हमें युद्ध में ले जाओ। सुन
जाता है कि देवता लोग स्तोत्र और यज्ञ के समय, भक्षण के लिए
मिलते हें।
७. आये इन्द्र के पास अनेक आशीर्वाद और मतुष्यों की आयु है।
धनी इन्द्र, हमें व्याप्त करो और वृद्धि कर अन्न का दान करो।
८. इन्द्र, स्तुति-दहारा हम तुम्हारी सेवा करेंगे। बहुकर्मा इन्द्र, तुम
हमारे हो। इन्द्र, प्रस्कण्व के लिए तुम प्रचुर, स्थूल और प्रवृद्ध धन
देते हो। ॒ |
S सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि कृषि। छन्द गायत्री और अनुष्टुप् ।)
१. हमने इन्द्र के अनन्त कार्य जाने हें। दस्युओं के लिए व्याघ्र-रूप
इन्द्र, तुम्हारा धन हमारे सामने आ रहा है।
२. जैसे आकाश में तारागण शोभित हो रहे हे, बसे ही सौ-सो वृष
शोभित होते हें। वे अपनी महिमा से द्युलोक को स्तब्ध करते हुँ।
३. शतवेणु, शतइवा, शलम्लात चर्म, शतबल्बजस्तुक और चार सौ
अरुषी हें ।
४. कण्वयोत्रीयो, तुम लोग सारे अञ्नों में विचरण करते हुए और
झषवो के समान बार-बार जाते हुए सुन्दर वेववाले हुए हो।
५. संख्या में सात (सप्त व्याहुतियों) वाले और दूसरे के लिए अधिक
इन्द्र के लिए महान् अन्न प्रक्षिप्त होता हू। शयामवर्ण मागे को लाँघने पर
बह नेत्रों के द्वारा देखा जाता हु।
१०७८ हिन्दी-ऋण्वेद
€ सत्त
देवता इन्द्र; अन्त के अग्नि और सूय। ऋषि प्ृषभ्र । छन्द
गायत्री और पङ.क्ति।)
१. दस्युओ के लिए व्याघ्र इन्द्र, तुम्हारा प्रवृद्ध धन देखा गया हे।
भुम्हारी सेना द्युलोक के समान विस्तृत हे।
२. दस्युओं के लिए तुम व्याघ्र हो। अपने नित्य घन से मुझे दस
हजार दो । .
३. मुझे एक सो गदभ, एक सौ भेड़ और एक सौ दास वो।
४. अइवदल फे समान वह प्रकट धन, शुद्ध-बुद्धि व्यक्तियों के लिए
उनके पास जाता हु।
५. अग्नि विदित हुए हैं। बे ज्ञानी, सुन्दर रथवाले ओर हव्यवाहूक
हुं, वे शुद्ध किरण के द्वारा गतिपरायण और बिराट होकर शोभा पाते
हैं। स्वर्ग में सु भी शोभा पाते हुँ।
९ सक्त
a
(देवता अश्विद्वय । ऋषि मेध्य । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. सत्यरूप अदिवद्वय, प्राचीन काल में बनाये हुए रथ पर चढ़कर
पञ्च में पघारो। तुम लोग यजनीय और दिव्य हो। अपने कर्म-बल से तुम
रोग तृतीय सघन का पान करते हो।
२. देवों की संख्या तेतीस है । वे सत्यस्वरूप हैं। थे यज्ञ के सम्मुख
दिखाई वेते हूँ। दीप्तिमान् अग्निवाले अश्विद्यय, तुम मेरे हो। इस यक्ष
में आकर सोमपान करो।
३. अडिवद्वय, तुम छोग घुलोक, भूलोक और अन्तरिक्षलोक के लिए
अभीष्ट-वर्षक हो। तुम्हारे लिए मेने स्तुति की है। जो लोग हजारौं
स्तुतियाँ करते हैं और जो लोग गो-पञ्च में प्रवृत्त होते हैं, सोम-पान के लिए
उन सबके पास उपस्थित होओ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०७९
४. अदिवद्वय, तुम्हारा यह भाग रक्खा हुआ हु । तुम्हारी यही स्तुति
है। तुम लोग आओ। हमारे लिए मधुर सोस का पान करो। हव्यदाता
को कर्म-हारा बचाओ। |
१० सूरत
(देवता प्रथम के ऋत्विक; शेष के अग्नि । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. सहुदय ऋत्विकों ने जिसकी तरह-तरह की कल्पना करके इस
घश का सम्पादन किया है और जो स्तोत्र का उच्चारण न करने पर भी
स्तोता माना जाता है, उसके सम्बन्ध में यजमान की क्या अभिज्ञता हे?
२. एक अग्नि अनेक प्रकार से समिद्ध हुए हें। एक सूर्य सारे विश्व
में अनेक हुए हें और एक उषा उन सबको प्रकाशित करती हूं। यह एक ही
सब हुए हें।
३. ज्योति, केतु (घूम-पताका) और चक्र-भयवाले तथा सुखकर,
र्थस्वरूप और बैठने योग्य अग्नि को, अत्यधिक सोम पीने के लिए, इस
यज्ञ में बुलाता हूँ । उनके साथ मिलन होने पर विचित्र धन की प्राप्ति
होती हे।
११ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर वरुण । ऋषि सुपण । छुन्द् जगती ।)
१. इन्द्र और वरुण, में महायज्ञ के सोमाभिषव में तुम्हें बुलाता हूँ ।
यही तुम्हारा भाग है। इसको ग्रहण करो। प्रत्येक यज्ञ में सारे सोमों का.
पोषण करो। सोमाभिषव-कर्ता यजसान को दान दो।
२. इन्द्र और वरुण ठहरे हुए हें। वे अन्तरिक्ष के उस पार के मागे
पर जाते हैँ। कोई भी देव-शून्य व्यक्ति उनका शत्रु नहीं हो सकता!
उनकी कृपा से सुसम्पन्न ओषधि ओर जल महततव प्राप्त करते हें।
३. इन्द्र और वरुण, यह बात सच्ची है कि सात वाणियाँ तुम्हारे
लिए कुश ऋषि के सोम-प्रवाह को दूह्ती हेँ। तुम लोग शुस-कर्सा के पालक
१०८० हिन्दी-ऋणग्वेद
हो । जो अहिसित व्यक्ति तुम्हारे कर्म हारा पालन करता है, उसी ह॒ब्यदाता
का हुव्य-हारा पालन करो।
४. घी चुलानेवाली, यथेष्ट दान देनेवाली और कमनीय सात भगिनियाँ
पज्ञ-गह में बहुत दानवाली हुई हुँ। इन्द्र और बरुण जो तुम्हारे लिए घी
चुलाती हे, उनके लिए यज्ञ धारण करो और यजमान को दान करो।
५. दीप्तिशील इन्द्र और वरुण के पास महासौभाग्य की प्राप्ति के
लिए सच्ची महिमा का हम कीर्तन करेंगे। हम घी को चुलाते हैं। इन्द्र
झर वरुण शुभ कार्यों के पति हुँ। बे २१ कार्यों के द्वारा हमारी रक्षा
क्रें ।
६. इन्द्र और वरुण, तुम रोगों ने पहले ऋषियों को जो बुद्धि, वाक्य,
स्तुति और श्रुत को प्रदान किया हूँ, सो सब हम, घीर और यज्ञ में लगे
रहकर, तप के द्वारा देखेंगे।
७. इख और वरुण, जिस धन की वृद्धि से मन की तृप्ति होती हुँ,
गर्व नहीं होता, उसे ही यजमान को प्रदान करो। हमें प्रजा, पुष्टि और
भृति दो। हम दीर्घायु हो सकें, इसके लिए हमारी आयु को बचाओ।
बालखिल्य-सुक्त समाप्त ।
१ सूक्त
(नवम मण्डल । १ अनुवाक । देवता पवमान साम । ऋषि
विश्वमित्रगोत्रोत्पन्न मधुच्छन्दा । छन्द गायत्री |)
१. सोम, इन्द्र के पान के लिए तुम अभिषुत होकर स्वादुतम और
अतीव मदकर धारा से क्षरित होओ।
२. राक्षसों के विनाशक और सबके दशक सोम लोहे से पिसे जाकर
और ३२ सेरवाले कलस से युक्त होकर अभिषवण-स्थान में बेठते हें।
३. सोम तुम प्रचुर दान करो, सारे पदार्थों को दान करो और विशेष
रूप से वुत्र का वघ करो। घनी शत्रुओं का धन हमें दो।
दिन्ही-9हुव्ेद १०८१
` तुस महान् हो। देवों के यज्ञ की ओर, अज्ञ के साथ, जाओ। बळ
और अन्न दो। [7 पर फिका
` ५, इन्दु, हम तुम्हारी सेवा करते हैं; अतिदिन यही हमारा काम है।
६. सुय की पुत्री श्रद्धा तुम्हारे क्षरणशील रस को विस्तत और नित्य
दशा पवित्र के द्वारा पवित्र करती हैं। |
७, अभिषव (सोम चुलाने) के समय यज्ञ में भगितियों के समान
दश-अंगुलि-रूपिणी स्त्रियाँ उस सोम को सबसे पहले ग्रहण करती हें।
८. अंगुलियाँ उसी सोम को प्रेरित करती हुँ। यह सोमात्मक मध तीन
स्थानों में (द्रोण-कलस; आघवनीय और पृतभृत् में) रहता है और
` शत्रुओं की प्रतिबन्धकता करता है। 5 |
९. म मारने योग्य गाये इस बाळक सोम को, इन्दर के पान के लिए,
दूध के द्वारा संस्कृत करती हैं। HS
१०. शुर इन्द्र, इस सोमपान से भ्त होकर सारे शत्रुओं का विनाश
करते ओर यजमानों को बन देते हें। |
| २ सूरत
(देवता पवमान सोम । ऋषि मेधातिथि । छन्द गायत्री ।)
१. सोम, तुम देव्रकामी होकर वेग और पवित्र भाव के साथ, गिरो।
अभौष्ट-वर्षक इन्द्र, तुम सोम के बीच पैठ जाओ।
२. सोम, तुम महान्, अभीष्टवर्षक, अतीव यशस्वी और घारक हो।
तुम जल को प्रेरित करो। अपने स्थान पर बैठो। |
अभिषुत ओर अभिलाषा-दाता सोम की थार प्रिय मधु को
दहती हु । शोभनकर्मा सोम जल का आच्छादन करते हुँ।
४. जिस समय तुम गव्य के द्वारा आच्छादित होते हो, उस समय
है महात् सोम, तुम्हारे सामने क्षरणशीळ महान् जल जाता हे। |
५. सोम से रस उत्पन्न होता हुँ। सोम स्वगे का धारण करते, संसार
को रोके रहते, हमारी अभिलाषा करते ओर जल के बीच संस्कृत
होते हं।
१०८४ हिन्दी-ऋण्वेद
६. अभीष्टवर्षक, हरितवर्ण, महान् और मित्र के सभान दर्शनीय सोम
शण्द करते और सूर्य के साथ प्रदीप्त होते हूँ।
७. इन्दु, जिन स्लुतियों से मतता के लिए तुम अलंकृत होते हो, वे ही
कर्मेच्छा-सम्बन्धी स्तुतियाँ तुम्हारे बल के प्रताप से संशोधित होती हे।
८. तुम्हारी प्रशंसायें महती हैं। तुमने शत्रुओं को रगड़नेवाले यज-
सान के लिए उत्तम लोक की सृष्टि की हुँ। हम तुम्हारे पास मत्तता की
थाचना करते हे ।
९, इन्दु (सोम), इन्द्र के अभिलाषी होकर, वर्षक मेघ के समान)
भधुर घारा से हमारे सामने गिरो।
१०. इन्दु, तुम यज्ञ की पुरानी आत्मा हो। तुम गौ, पुत्र, अन्न और
अइब प्रदान करो।
३ सुक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि शुनःशेफ । छन्द गायत्री ।)
१. ये अमर सोम द्रोण-कलस के सामने बैठने के लिए पक्षी के
समान जाते हँ।
२. अंयुलि के द्वारा अभिषुत ये सोम क्षरित और अभिषुत होकर
जाते हेँ।
३. यज्ञाभिलाषी स्तोता छोग क्षरणशील इन सोमदेव को अइव के
समान युद्ध के लिए अलंकृत करते हुँ।
४. क्षरणशील ये बौर सोम अपने चल से गमनकर्ता के समान
सारे घनों को बॉटने की इच्छा करते हुँ।
“५, क्षरणशीर ये सोम रथ की इच्छा करते हँ, ममोरथ पुर्ण करते
हैं ओर शब्द करते हें।
६. मेघावियों के द्वारा इस सोम फे स्तुति करने पर ये सोम हुव्य-
दाता को रत्न-दान करते हुए जल के बीच पेठते हें।
७. क्षरणशील ये सोम शब्द करके और सारे छोकों को हराकर
स्वर्गं को जते हें।
हिन्दी-नहृग्वेद १०८३
८. क्षरणशील ये सोम सुन्दर, पाज्ञिक और अहिसित होकर सारै
लोकों को पराभूत करते हुए स्वे में जाते हैं।
९. हरितवर्णं ये सोमदेव प्राचीन अन्म से देवों के लिए अभिषुतत
होकर दशापवित्र सें रहने के लिए जाते हें।
१०. यह बहुफर्मा सोम ही उत्पन्न होने के साथ ही अन्न को उत्पन्न
क्वरके और अभिषुत होकर धारा के रूप में क्षरित होते हुँ।
४ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि अङ्गिरोगोत्रीय हिरणस्तूप ।
छुन्द गायत्री |)
१. महान् अश्न और पवमान सोम, भजन करो, जय करो भर पश्चात्
हमारे मङ्गल का विधान करो।
२. सोम ज्योति दो, स्वगं का दान करो और सारे सौभाग्य का दान
करो। अनन्तर हमारे लिए सङ्कल करो।
३. सोस, बल और कर्म का दान करो, हिंसकों का वध करो। अनन्तर
हमारे लिए कल्याण करो।
४. सोम का अभिषव करनेवालो तुम लोग इन्द्र के पान के लिए सोम
का अभिषव कर। अनन्तर हमारा कल्याण करो।
५. सोम, अपने कार्य और रक्षण के द्वारा हमें सूर्य की प्राप्ति कराओ। _
अनन्तर हमारा कल्याण करो।
६. तुम्हारे कर्म और रक्षण के द्वारा हम चिरकाल तर्क सुर्ये का दर्शन
करेंगे। अनन्तर हमारा कल्याण करो।
७. शोभन अस्त्रवाले सोम, तुम स्वर्ग और पृथिवी पर वादित धन दो ॥
अनन्तर हमारा कल्याण करो।
८, लड़ाइयों में तुम स्वयं आहूत नहीं होते। तुम शत्रुओं को हराते
हो! घन दान करो। अनन्तर हमारा कल्याण करो।
१०८४ हिन्दी-ऋग्वेद
९. क्षरणशील सोम, यजमान छोग रक्षण के लिए, तुम्हें यज्ञ में
वादित करते हें। अनन्तर हमारा कल्याण करो।
१०. इन्द्र, तुम हमें नाना प्रकार के अश्वोंवाले और सर्वगासी धन दो।
अनन्तर हमारा कल्याण करो।
देवता आप्री । ऋषि कश्यपगोट्रीय असित और देवल। छन्द
अनुष्टुप् और गायत्री ।)
` १. भली भाँति दीप्त, सबके पति और काम-वषंक पवमान सोम शब्द
करके और देवों को प्रसन्न करके विराजित होते हें।
` २. जल-पौत्र पवमान (क्षरणशील= गिरनेवाले) सोम उद्नत
प्रदेश में तीक्ष्ण होकर और अन्तरिक्ष में प्रदीप्त होकर जाते हें।
३. स्तुत्य, अभीष्टदाता और दीप्तिमान् पवमान सोम मधू-धारा
के साथ तेजोबल से विराजित होते हैं।
४. हरित-वर्णं सोमदेव यज्ञ में पुर्वाग्र में कुश-विस्तार करते हुए
तेजोबल से गमन करते हें।
५. हिरण्मयी द्वार-देवियाँ पवमान सोम के साथ स्तुत होकर विराट
दिशाओं में चढती हें।
६. इस समय पवमान सोम सुन्दर-रूपा, बहती, महती और दर्शनीया
दिवारात्रि की कामना करते हेँ। |
७. मनुष्यों के दर्शक और देवों के होता दोनों देवों को में बुलाता
हुँ। पवमान सोम दीप्त (इन्द्र) और अभोष्टदर्षक हेँ।
८. भारती, सरस्वती ओर महती इड़ा नाम की तीन सुन्दरी देवियाँ
हमारे इस सोम-यज्ञ में पघारें।
९, अग्रजात, प्रजापालक और अग्रगामी त्वष्टा को में बुलाता हूँ।
हरित-घणे पवमान सोम देवेन्द्र, काम-वर्षक और प्रजापति हूं ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०८५
१०. पवमान सोम, हरित-वर्ण हिरण्यवर्ण, दीप्तिमान् और सहस्र
शाखाओंयाले वनस्पति को मधुर धारा फे द्वारा संस्कृत करो। |
११. विश्ववेवगण वयु, बृहस्पति, सूर्यं, अग्नि ओर इन्त्र, तुम सब
मिलकर सोम के स्वाहा शब्द के पास आओ।
६ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि कश्यपगोत्रीय आसत और देवल |
छुन्द् गायत्री |)
१. सोम, तुम अभीष्टदर्घक और देवाभिलाषी हो। तुस हमारी कामना
करते हो। तुस हमारी रक्षा करो ओर दशापवित्र में मधुर धारा से गिरो।
२. सोम, तुम स्वामी हो; इसलिए मदकर सोम का वर्षण करो।
बली अश्व प्रदान करो
३. अभिषुत होकर उस पुरातन और मदकर रस को. दशापवित्र में
प्रेरित करो। बल और अञ्च का प्रेरण करो।
४. जसे जल निम्न दिशा की ओर जाता हें, वसे ही द्रुतगति और
क्षरणशील सोम इन्द्र का अनुसरण करता और उन्हें व्याप्त करता है।
५, वश-अंगुलि-रूप स्त्रियाँ दशापवित्र को लाँघकर बन में क्रीडा
करनेवाले बलवान् अश्व के समान जिस सोम की सेवा करती हें-- _
६. पान करने पर देवों के मत्त होने के लिए अभिषुत और अभीष्ट
वर्षक उसी सोभ के रस में, युद्ध फे लिए गव्य मिलाओ। |
इन्द्र के लिए अभिषुत सोमदेव धारा के रूप में क्षरित होते हु;
क्योंकि इन्द्र इनका रस आप्यायित करता हू।
८. यज्ञ की आत्मा और अभिषुत सोम पजमानों को अभीष्ट देते
हुए वेग से गिरते हें और अपना पुराना कवित्व (कान्तर्वाशत्व) की भी
रक्षा करते हूं। 0
९. सदकर सोम, इन्द्र की अभिलाषा से उनके पान के लिए क्षरित
होकर यज्ञ-शाला में शब्द करो।
१०८६ हिन्दी-ऋण्वेद
७ सूक्त
(देवता पदसान सोम | ऋषि असित अथवा देवल । छन्द गायत्री ।)
१. शोभन श्रीवाले और इख का सम्बन्ध जाननेवाले सोम कमे
में, यज्ञ-सार्ग में, बनाये जाते हैं।
२. सोम हव्यों में स्तुत्य हव्य है। सोम महान् अल में निमज्जित होते
है। उन्ही सोम को श्रेष्ठ धारायें गिरती है।
३. अभीष्टवर्षक, सत्य, हिसा-शून्य और प्रधान सोम यज्ञ-गह को
ओर जल से थुषत शब्द करते हे। |
४. जिस समय कचि सोम धन की ग्रहण करते हुए काव्य (स्तोत्र)
को जानते हे, उस समय स्वर्गे में इन्द्र बळ का प्रकाश करते हूँ।
५. जिस समय कर्मकर्ता इस सोम को प्रेरित करते हुँ, उस समय
पवमान सोम, राजा के समान, यञ्च-विध्वक्कर्ता मनुष्यों की ओर जाते हैं।
६. हुरित-वणं और प्रिय सोम जल में मिथित होकर मेष के लोमों
(बालों) पर बेठते और शब्द करते हुए स्तुति की सेवा करते हैं।
७. जो सोम के इस कर्म से प्रसन्न होता है, ह वायु, इन्द्र और
आश्विद्वय को मद के साथ प्राप्त करता हे।
८. जिन यजमानों के सोमों की तरंगे मित्र, वरुण ओर भगदेव की
ओर गिरती हँ, वे सोम को जानते हुए सुख प्राप्त करते हूँ ।
९, द्यावापुथिदी, मदकर सोम-रूप अन्न की प्राप्ति के लिए हमें अन्न,
धन और पशु आवि दो।
८ सुक्त |
(देवता पवमान साम । ऋष असित अथवा देवल । छन्द गायत्री |)
१. ये सोम इन इन्द्र के बीर्य को बढ़ाते हुए उनके अभिलषणीय और
प्रीतिकर रस का वर्षण करते हें।
२. वे सोम अभिषुत होते हे, चमस में स्थित होते हें और वायु तथा
अध्विद्यय के पास जाते हैं। वायु आदि हमें सुन्दर वीर्य दें ॥
हिन्दी-ऋग्वेद १०८७
३. सोभ, तुम अभिषुत और मनोज्ञ होकर इन्द्र की आराधना के लिए
यज्ञ-स्थान में बठो और इख को प्रेरित करो।
४. सोम, दसों अंगुलियाँ तुम्हारी सेवा करती हैं। सात होता तुम्हें
प्रसञ्च करते हू और मेधावी लोग तुम्हें प्रमत्त करते हैं।
५. तुम मेष-लोम और जल में बताये जाते हो। देवों की सतता के
लिए हम तुम्हें दही आदि में सिला देंगे।
६. अभिषुत, कलस में अली भाँति सिक्त, दीप्तियुक्त और हरितवर्ण
सोम, वस्त्र के समान, दही आदि को आच्छादित करता हे।
७. सोम, हम धनी हे। तुम हमारे सामने क्षरित होओ। सारे शत्रुओं
का विनाश करो। मित्र इन्द्र को प्राप्त करो।
८. सोम, द्युलोक से तुम पृथिवी के ऊपर वर्षा करो। धन को उत्पन्न
करो और यद्ध में हमें वास-स्थान दो।
९, सोम, तुम नेताओं के दशेंक और सर्वज्ञ हो। इन्द्र के पान करने
पर हम तुम्हारा पान करते हैँ। हम सन्तान और अन्न प्राप्त करें।
९ सुत्त
(देवता पवमान साम । ऋषि असित अथवा देवल । छन्द गायत्री ।)
१. मेधावी और कान्तदर्शी सोभ अभिषवण-प्रस्तर के ऊपर निहित
और अभिषुत होकर धुलोक के अतीव प्रिय पक्षियों के पास जाते हूँ ॥
२. तुम अपने निवास-भूत अद्रोही और स्तोता मनुष्य के लिए पर्याप्त |
हो। अञन्नवाली धारा के साथ आओ।
३. उत्पन्न, पवित्र और महान् वे सोम-रूप पुत्र महती, यज्ञ-वद्ध यित्री,
जनयित्री और माता दावापूथिवी को प्रदीप्त करते हें।
४. नदियों ने जिन अक्षीण और मुख्य सोम को वद्धित कि” हे, वेही
सोम अंगुलि-द्वारा निहित होकर द्रोह-शून्य सातौं नदियों को प्रसन्न
करते हुँ ।
१०८८ हिन्दी-त्रहदेद
५. इख) तुम्हारे कर्म में उन अंगुलियों ये अधहिसित और वत्तेगान
सोम को महान् कर्भ के लिए धारण किया
६. वाइक और अमर देवों के तप्तिदाता सोम सातौं नदियों का दर्शन
करते हूं। वे कूप-रूप से पूर्ण होकर नदियों को तृप्त करते हैं।
७. पुरुष सोम, कल्पनीय दिनों में हमारी रक्षा करो। पवमान सोम,
जिन् राक्षसों के साथ यद्ध किया जाना चाहिए, उन्हें विनष्ट करो। |
८, सोम, तुम नये और स्तुत्य सुकत के छिए घ ही यज्ञ-पथ से
भाओ और पहले की तरह दीप्ति का प्रकाश करो। |
९. शोधनकालीन सोम, तुम पुत्रवान् महान् अन्न, गो और अश्व हमें
दान करते हो। दान करो और इथें भनोरथ दो।
१० सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि असित अथवा देवल। छन्द गायत्री)
१. रथ ओर अश्व के समान शव्द करनेवाले सोम, अञ्न की इच्छा
करते हुए, यजमान के धन के लिए आये हैं। |
२. रथ के समान सोम यज्ञ की ओर जाते हैं। जैसे भार-वाहक भुजाओं
पर भार को धारण करता हुँ, बैसे ही ऋत्विक् खोग बाहु के द्वारा उन्हं
धारण करते हें। . |
३. जेसे स्तुति से राजा सन्तुष्ट होते हु और जैसे सात होताओं के
दारा यज्ञ संस्कृत होता हुँ; बैसे ही गव्य के द्वारा सोम संस्कृत होता है।
४. अभिषुत सोम सहती स्तुति के द्वारा अभिषुत होकर, मत्त करने
कै लिए धारा-रूप से जाते हैं। |
५. इन्द्र के मद-गोष्ठ-झूप, उषा के भाग्य के उत्पादक तथा गिरनेवाले
सोम शब्द करते हँ।
स्तोता, प्राचीन, अभीष्टवर्षक और सोम का भक्षण करनेवाले
सनुष्य यञ्ञ के द्वार को उद्घाटन करते हुँ ।
हिन्दी -ऋ्वेद १०८९
७. उत्तम सात बन्धुओं के समान और सोम के स्थान का एकमात्र
व्रण करनेवाले सात होता यज्ञ में बेठते हैं।
८. में यज्ञ की नाभि सोस को अपने नाभि-देश में ग्रहण करता हूँ।
चक्षु सूर्यं में सङ्गत होता हे । में कवि सोम के प्रभावको पूर्ण करता हूं।
९. गमन-परायण और दीप्त इन्द्र हृदय में निहित अपने प्रिय पदार्थ
सोम को नेत्र से देख सकते हें।
११ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि असित अथवा देवल । छन्द गायत्री |)
१. नेताओ, यह क्षरणशील सोम देवों का यज्ञ करना चाहता है।
हुसके लिए गाओ।
२. सोम, अथर्वा ऋषियों ने तुम्हारे दोप्तिवाले और देवाभिलाषी
रस को इन्द्र के लिए गोदुग्ध में संस्कृत किया है। | |
३. राजन्, तुम हमारी गाय के लिए सरलता से गिरो। पुत्र
आदि के लिए भी सुख से गिरो। अइव के लिए सरलता से गिरो। ओषधियों
के छिए सुख से गिरी। म
४. स्तोताओ, तुम लोग पिङ्गलवर्ण, स्वबलरूप, अरुणवर्ण और स्वगं
को छूनेवाले सोम के लिए शीघ्र गाथा का उच्चारण करो। |
५. ऋत्विको, हाथ के अभिषव-पराषाण-द्वारा अभिषुत सोम को
पवित्र करो। मदकर सोम में गोदुग्ध डालो।
६. नसस्कार के साथ सोम के पास जाओ। उससे दही सिलाओ
इन्त्र के लिए सोम दो।
७. सोम, तुम झत्रुविनाशक हो। तुम विचक्षण और देवों के सनोरथ-
पुरक हो। तुम हमारी गाय के लिए सरलता से क्षरित होओ।
८. सोम, तुम मन के ज्ञाता और सन के ईश्वर हो। तुम पात्रों में
इसलिए सींचे जाते हो कि तुम्हें पीकर इच प्रमत्त होंगे।
फ[० ६९
१०९० हिन्दी-ऋग्वेद
९. भींगे हुए और गिरते हुए सोम, इस के साथ तुम हमें सुन्दर
बीर्य से युक्त धन दो।
१५ सुकत
(देवता पचमान साम । ऋषि आसत अथवा देवल । छन्द गायत्री ।)
१. अभिषुत और अतीव मधुर सोम इन्द्र के लिए यज्ञ-गृहू में प्रस्तुत
हो रहा हे।
२. जैसे गाये बछड़ों के सासने बोलती हे, वैसे ही मेधावी लोग सोम-
पान के लिए इन्द्र के पास शब्द करते हें।
३. मदस्रावी सोम नदी-तरङ्कः (वसतीवरी) के यहाँ रहते हैं। विद्वान
सोस माध्यमिकी वाक् (वचन) में आश्रय पाते हें।
४. सुन्दर-प्रज्ञ, छान्तकर्मा और सुक्ष्मदर्शक सोम अन्तरिक्ष के नाभि-
स्वरूप मेषलोम में पुजिस होते हूँ।
प. जो सोम कुम्भ में है और दशापवित्र के बीच जो निहित हे, उस
अपने अंश में सोभदेव प्रवेश करते हें।
६. सोम मदस्रावी मेघ को प्रसन्न करते हुए अन्तरिक्ष के रोकनेवाले
स्थान (दशापवित्रे) शब्द करते हें।
७. सदा स्तोत्रबाले और अमृत को दूहनेवाले बनस्पति (सोम)
मनुष्यों के लिए एक दिन कर्म के बीच प्रसन्नता से रहते हें ।
८. कवि सोम अन्तरिक्ष से भेजे जाकर मेघावियों की धारा के रूप
से प्रिय स्थान में जाते हें।
९. पवमान (क्षरणशील) सोम, तुम हमें बहुदीप्तिवाले और सुन्दर
गहवारे धन दो।
सप्त्न अध्याय समाप्त ॥
हिन्दी-ऋग्वेद १०९१
१२ सूक्त
(अष्टम अध्याय | देवता साम । ऋषि असित अथवा देवल ।
छन्द गायत्री ।)
१. असीम धाराओंवाले और पवित्र सोम दशापवित्र को लॉघकर,
बायु ओर इन्द्र के पान के लिए संस्कृत पात्र में जाते हैँ ।
२. रक्षाभिलाषियो, तुम लोग पवित्र विप्र और देवों के पान के लिए
अभिषुत सोम के लिए गमन करो। |
३. बहु-बल-दाता और स्तूयमान सोम यज्ञ-सिद्धि और अन्न-लाभ के
लिए क्षरित होते हें ।
४. सोम, हमारे अञ्न-लाभ के लिए दीप्तिमती और सुन्दर बीयें-
वाली तथा महती रस-घारा बरसाओ।
५. वह अभिषृत सोम देव हमें सहस्र-संस्यक धन और सुवीये दें ।
६. संग्राम में भेजे गये अश्व के समान प्रेरकों के द्वारा प्रेरित होकर
शीघ्रगामी सोम, अन्न-प्राप्ति के लिए, दशापवित्र को लाँघकर, जा
रहे हे ।
७. जैसे गायें बोलती हुई बछड़ों को तरफ जाती हुं, बसे ही सोम
भी शब्द करके पात्र की ओर जाते हें। ऋत्विक् लोग हाथ पर सोम
धारण करते हू।
८. सोम इख के लिए प्रिय और मदकर हुँ । पवमान सोम, तुम
शब्द करके सारे शत्रुओं का विनाश करो ।
९, पवमान सोम, तुम अदाताओं के {हइ और सर्ददर्शक हो।
यञ्च-स्थल में बैठो ।
१४ सूक्त
(देवता साम | ऋषि असित अथवा देवल | छन्द गायत्री |)
१. नदी-तरंग (बसतीबरी जल-रस) में आश्रित और कबि सोम
® भन,
| के लिए अधिछषणोय शब्द का उच्चारण करके शिर रहे हूँ ।
१०९१ हिन्दी-त्रशवेद
२. पाँच देशों के परस्पर मित्र मनुष्य कर्म की अभिलाषा सै जिस
समय धारक सोम को स्तुति-द्वारा अलंकृत करते हे--
३, उस समय, सोम के गोदुग्ध मं मिलाय जाने पर, सारे देवगण
बलवान सोम-रस सें प्रमत्त होते हें ।
४. दशापचित्र के बस्त्र के द्वार को छोड़कर सोस अधोदेश में वौड़ते
हें। इस यज्ञ में मित्र इन्द्र के लिए संगत होते है ।
५, जेसे जवान घोड़े को साफू किया जाता हे, वैसे ही सोम, गव्य
में अपने को मिलाते हुए परिचर्यावाले के पात्रों (अंगुलियों) के ॥(रा,
माजित होते हें ।
६. अंगुलि-हारा अभिषुत सोम गव्य (दही आदि) में मिलने के लिए
उसके सामने जाते और शब्द करते हुँ । में सोम की प्राप्त करूंगा ।
७ परिमार्जन करती हुई अंगुलियाँ अज्नपति सोम के साथ मिलती
हें। वे बली सोम की पीठ पर चढ़ गईं।
८. सोम, तुम सारे स्वर्गीय और पार्थिव धनों को ग्रहण करते हुए
हमारी इच्छा करके जाओ ।
१५ सुक्त
(देवता सोम । ऋषि असित वा देवल। छन्द गायत्री ।)
१. यह विक्रान्त सोम, अंगुरि-द्वारा अभिषत होकर, कर्म-बल के
द्वारा शीघ्रगामी रथ की सहायता से इन्द्र के बनाये स्वर्ण में जाले हैँ ।
२. जिस विशाल यज्ञ में देवता लोग रहते हैं, उसी यज्ञ में सोम
बहुत कर्मो को इच्छा करते
३. यह सोम हदिर्धान सें स्थापित और तदनन्तर नीत होकर आह-
वनीय देश में जिस समय ह॒व्यवर्ती ओर सोसवाले मार्ग में दिये जाते हैं,
'उस समय अध्वर्यु लोग भी प्राप्त होते हैं ।
% ये सोम सींग (ऊँचे के हिस्से) को फंपाते हुँ। उनके सींग
हिन्दी-ऋग्वेद १०९३
दलपति साँड के तेज है। थे बल के हारा हमारे लिए घन को घअ
रते हें।
५. ये वेगवान् और शुज्र अंशों से युत सोम बहनेवाले सारै रखों
के पति होकर जाते हैँ।
€. ये सोम आचछादन करनेवाले और पीडित राक्षसों को अपने
पर्वं (अंश) के द्वारा लाँघकर उन्हें जानते हें ।
७. मनुष्य इन माजेनीय सोम को द्रोण-कलस में छान रहेहं।
सोम बहुत रस देनेवाले हें।
८. दस अँगुलियाँ और सात ऋत्विक शोभन आयुध ओर मादक सोम
को परिमाजित करते हें ।
१६ सूक्त
(देवता साम। ऋषि असित वा देवल । छन्द गायत्री!) .
१. सोम अभिषव करनेवाले द्यावापृथिवी के बीच शत्रु को हरानेवाली
भत्तता के लिए उत्पन्न किया जाकर तुम अश्व फे समान जाते हो ।
२. हम बल के नेता, जल के आच्छादक, अन्न के साथ वर्तमान और
गौओं के प्रसवण सोम में कमं के द्वारा अंगुलियों को मिलाते हें ।
३. शत्रुओं के द्वारा अप्राप्त, अन्तरिक्ष में वर्तमान और दूसरों के
द्वारा अपराजेय सोम को दशा पवित्र सें फंको और इन्द्र के पान के लिए
इसे शोधित करो । |
४, स्तुति के द्वारा पवित्र पदार्थो में से (एक) सोम दशापवित्र
सें जाते और अनन्तर कमं-बल से प्रोण-कलस में बेठते हैं ।
५. इन्द्र, नमस्कार से युक्त स्तोता के साथ सोस बली होकर महा“
यद्ध फे लिए तुम्हारे पास जाता ह।
६. मेष-लोसवारे वस्त्र में शोषित और सारी शोभाओं से युक्त
' सोम, गो-प्राप्ति के लिए चीर के समान वत्तमान हृ।
१०९४ हिन्दी-ऋण्वेद
७. अन्तरिक्ष-प्रदेश में अवस्थित जल जसे नीचे गिरता है, वैसे ही
बलकारक ओर अभिषत सोम की आप्यायित करनेवाली धारा दशापचित्र
में गिरती है ।
८. सोम, मनुष्यों में तुम स्तोता की रक्षा करते हो । वस्त्र के हारा
शोषित होकर तुम मेष-लोस के प्रति जाते हो ।
१७ सूक्त
(दिवता साम । ऋषि असित वा देवल । छन्द गायत्री |)
१. जेसे नदियाँ निम्न देश की ओर जाती हें, बसे ही शत्रु-विघातक,
शीघ्रगामी और व्याप्त सोम प्रोण-कलस की ओर जाते हें ।
२. जैसे वर्षा पृथिवी पर गिरती हें, वेसे ही अभिषुत सोम इन्द्र की
प्राप्ति के लिए गिरते हें ।
३. अतीव प्रवृद्धि और मदकर सोम, राक्षसों का विनाश करते हुए,
देवाभिलाषी होकर दशापवित्र में जाते हें।
४. सोम कलस में जाते हं । बे इशापविन्र में सिकल होते हें और
उक्थ सन्त्रों के द्वारा वद्धित होते हैं।
५, सोम, तुम तीनों लोकों को लांघकर और ऊपर चढ़कर स्वर्ग
को प्रकाशित करते हो और गतिपरायण हो । सूर्य को प्रेरित करते हो ।
६. मेघावी स्तोता लोग अभिषव-दिवस में परिचारक ओर सोम के
प्रिय होकर सोम की स्तुति करते हें।
७. सोम, नेता मेघावी लोग अन्नाभिलाषी होकर कर्म-द्वारा यञ्च
के लिए अन्नवाले तुम्हें ही शोधित करते हें।
८. सोम, तुम मधुर घारा की ओर प्रवाहित होमो, तीब्र होकर
अभिषव-स्थान में बेठो और मनोहर होकर यज्ञ सें पान के लिए बेठो ।
१८ सूक्त
(देवता साम । ऋषि असित चा देवल | छन्द गायघी !)
१. यही सोम दश्यापवित्र में गिरते हैँ। यही सोम सवस-काल में
प्रस्तर पर अवस्थित हें। सोम, तुम मादक पदार्थो में सबके धारक हो ।
हिन्दी-ऋग्वेद १०९५
२. सोम, तुम मेधावी और कवि हो। तुम अन्न से उत्पन्न मधुर
रस दो । मादक पदार्थों में तुम सबके धारक हो ।
३. समान प्रीतिवाले होकर सारे देवता तुम्हारा पान करते हैं ।
मादक पदार्थो के बीच तुम सबके धाता हो ।
४. सोम सारे वरणीय घधनों को स्तोता के हाथ में देते हें। तुम
सारे मादक पदार्थो में सबके धाता हो।
५. एक शिशु को दो माताओं के समान तुम महती द्यावापथिवी का
दोहन करते हो ।
६. वे अन्न के हारा तुरत यावापृथिवी को व्याप्त करते हें। तुम
मादक पदार्थो सें सबके धारक हो । |
७. ये सोम बली हु। शोधित होने के समय वे कलस के ब्रीच.
शब्द करते हँ ।
१९ सूक्त
(देवता साम | ऋषि असित वा देवल । छन्द गायत्री ।)
१. जो कुछ स्तुत्य, पार्थिव और स्वर्गीय विचित्र धन हुँ, शोधित होने
के समय तुम हमारे लिए बह ले आओ।
२. सोम, तुम ओर इन्द्र सबके स्वामी, गौओं के पालक और ईश्वर
हो । तुम हमारे कर्म को वर््धित करो ।
३. अभिलाषदाता सोम शोधित होकर, मनुष्यों में शब्द करके
और हरित-वर्ण होकर जिछे हुए कुश पर, अपने स्थान पर, बेठते हैँ ।
४. पुत्र-झप सोम की मातु-रूपिणी वसतीवरी (आदि), सोम-द्वारा
पीत होकर, मनोरयदाता सोम की सारवत्ता की कामना करती हे ।
५. सिलाये जाने के समय सोम सोमामिलाषिणी वसतीवरी (आदि)
फो गभे उत्पन्न करते हुँ। सोस इन जलों से दीप्त दुग्ध का दोहन
करते हुं ।
१०९६ हिन्दी-ऋग्वेद
६. पवमान सोम, जो हमारा अभिमत दूरस्थ है, उसे पास में करो।
शत्रुओं में भय उत्पन्न करो॥ उनके घन को जानो ।
. ७. सोम चाहे तुम दूर हो वा समीप, शत्रु के वर्षक बल का विनाश
करो। उसके शोषक तेज का विनाश करो ।
२० सुत्त
(देवता साम । ऋषि असित वा देवल। छन्द गायत्री ।)
१. कवि सोस, देवों के पान के लिए मेष-लोगों के द्वारा जाते हें ।
शत्रुओं के अभिभव-कर्ता सोम सारे हिसको को नष्ट करते हें ।
२. वही पवमान सोम स्तोताओं को गोयूक्त सहरू-संख्यक अन्न प्रवात
करते हें।
३. सोम, तुम अपने सन से सारा धन देते हो । सोम, बही तुम हमें
अन्न प्रदान करो ।
४. सोम, तुम महती कीति को प्रेरित करो । हव्यदाता को निश्चित
धन दो। स्तोताओं को अन्न दो।
५. सोम, तुम सुन्दर कर्मवाले हो। पवित्र (शोधित) होकर तुम
राजा के समान हमारी स्तुति को स्वीकार करो। तुम अद्भुत और
वाहक हो ।
६. बही सोम वाहक और अन्तरिक्ष में वत्तंमान है। धे हाथों के
द्वारा कठिनता से रगड़े. जाकर पात्र में स्थित होते हें।
७. सोम, तुम क्रोड़ा-परायण और दानेच्छुक हो । स्तोता को सुन्दर
वीयं देकर, दान के समान, दशापवित्र में जाते हो !
२१ सूक्त
(देवता साम । ऋषि असित वा देवल । छन्द॒ गायत्री ।)
१. भिगोनेवाले, दीप्त, अभिभव करनेवाले, सदफर और लोक-पालक
सोम इन्द्र की ओर जाते हें ।
हिन्दो-ऋग्वेद १०९७
२. ये सोम अभिषव का विशेष आश्रय करते हें। सबके साथ मिलते
हँ। अभिभव करनेवाले को घन प्रदान करते हैं। स्तोता को अन्न
देते हें ।
३. सरलता से क्रीडा करनेवाले सोम वसतीवरी में गिरते हुए एक-
भात्र प्रोण-कलस में क्षरित होते हुँ।
४. ये सोम संशोधित होकर रथ में योजित अइवों के समान, सारे
परणीय घनों को व्याप्त करते हुँ ।
५. सोम, इस यजमान की नाना प्रकार की कामनायें प्ण करने के
लिए उसे धन दो। यह यजमान दान देते समय हमें (ऋत्विकों को)
चुपचाप दान करता हे।
६. जेसे ऋभु रथवाहक और प्रशस्य सारथि को प्रज्ञा प्रदान करते
ह, बसे ही तुम लोग, हे सोम, इस यजमान को प्रज्ञा दो। जल से दीप्स
होकर गिरो। ॒
७. ये सोम यज्ञ की इच्छा करते हुँ। अच्चवात् सोमों ने निवास-
स्थान बनाया। बली सोम ने यजमान की बुद्धि को प्रेरित किया।
२२ सूक्त
(देवता साम । ऋषि असित वा देवल । छन्द गायत्री |)
१. सोम बनाये जाकर दशापवित्र के पास शीघ्र जाते हें, जिस
प्रकार यद्ध प्रेरित अश्व और रथ।
२. सोम महान् वायु, मेध ओर अग्नि-शिखा के समान सब व्याप्त
करते हू ।
३. ये सोम शुद्ध, प्राज्ञ और दधि-दुकत होकर प्रज्ञा-बल से हमें
व्याप्त करते हूँ ।
४. ये सब सोम शोधित और असर हूँ। ये जाते समय और मार्ग
में लोकों में अमण करते समय नहीं यकते।
१०९६ हिन्दी-आप्येश
५. ये सब सोम द्याक्रापूथिबी की पीठों पर माता प्रकार से विचरण
करके व्याप्त होते हैं। ये उत्तम द्युलोक में भी व्याप्त होते हें।
६. जल यज्ञ-विस्तारक और उत्तम सोम को व्याप्त करता हुँ। सोम
कै द्वारा इस कार्य को उत्तम बना लिया जाता हँ।
७. सोम, तुम पणियों (असुरों) के पास से गो-हितकर घन को
धारण करते हो। जिस प्रकार यज्ञ विस्तृत हो, ऐसा शब्द करो।
२२ सूक्त
(देवता साम । ऋषि असित वा देवल । छन्द गायत्री ।)
१. मधूर सद शी थारा से शीघ्रगामी सोम स्तोत्र-ससय में सृष्ट
होते हं।
२. कोई पुराने अश्व (सोम) नये पद का अनुसरण करते और सूर्य
को दीप्त करते हें।
३. शोधित सोम, जो इव्यदात नहीं हूँ, उसका गृह हमें दे दो। हमें
प्रजा से युक्त धन दो।
४. गति-शील सोम मदकर रस को क्षरित करते और मधुस्रावी की
(असिश्रित) रस को भी क्षरित करते हें।
५. संसार के धारक सोम इन्द्रिय-बरद्धक रस को धारण करते हुए
उत्तम वीर से युक्त और हिंसा से बचानवाले हुए ह।
सोम, तुम यज्ञ के योग्य हो। तुम इन्द्र और अन्थान्थ देवों के लिए
शिरते हो और हमें अन्न-दान करने की इच्छा करते हो।
७. मदकर पदार्थो में अत्यन्त मदकर इस सोम का पान करके अपरा-
जेय इन्द्र ने शत्रुओं को मारा था। वे अब भी मार रहे हैं
२४ सूक्त
(देवता सोम । ऋषि असित चा देवल । छन्द गायत्री |)
१. शोषित और दोप्त होकर सोम जाते हुँ और मिश्रित होकर
जल (वसतीवरी) में मजित होते हूँ।
हिन्दी-ऋग्येद १०९९
२. गसनशील सोम निम्नाभिमुखगासी जल के समान जाते हें और
अनन्तर इन्द्र को व्याप्त करते है ।
३. शोधित सोम, मनुष्य तुम्हें जहाँ से ले जाते हैं, तुम वहीं छे
इन्द्र के पान के लिए जाते हो।
४. सोम, तुम मनुष्यों के लिए सदकर हो। शत्रु औं को दबानेवाले
इन्द्र के लिए सोम, तुम क्षरित होओ।
५. सोम, तुम जिस समय प्रस्तर के दवारा अभिषुत होकर दशापविन्न
की ओर जाते हो, उस समय इन्द्र के उदर के लिए पर्याप्त होते हो।
६. सर्वापेक्षा वृत्रघ्न इन्द्र, क्षरित होओ। तुस उकथ मन्त्र के द्वारा
स्तुत्य, शुद्ध, शोधक और अद्भुत हो।
७. अभिषुत और मवकर सोम शुद्ध और झोधक कहे जाते हूँ। बे
देवों को प्रसन्न करनेवाले और शत्रुओं के विनाशक हैं।
२५ सूक्त
(२ अनुवाक दैवता पवमान सोम । ऋषि अगस्त्य के पुत्र ढ् च्युत ।
छन्द गायत्री |)
१. पाप-हर्ता सोम, तुम बल-साधक और मदकर हो। तुम देवों,
भरुतों और वायु के पान के लिए क्षरित होओ।
२. शोधनकालीन सोम, हमारे कर्म से धृत होकर शब्द करते हुए
अपने स्थान में प्रवेश करो। कर्म-द्वारा वायु सें प्रवेश करो। |
३. ये सोम अपने स्थान में अधिष्ठित, काम-वर्षक, कान्त, प्रज्ञ, प्रिय,
वत्रध्न और अतीव देवाभिलाषी होकर शोषित होते हैं।
४. शोधित और कमनीय सोम सारे रूपों में प्रवेश करते हुए, जहाँ
देवता रहते हैं, यहाँ जाते ह।
५. शोभन सोम शब्द करते हुए क्षरित होते हैं। निकटवर्ती इनर के
पास जाकर प्रज्ञा से युक्त होले हें।
६. सर्वापेक्षा मदकर और कवि सोम, पूजनीय इख के स्थान को
११०७ हिन्दी-ऋण्वेद
प्राप्त करने के लिए दशापबित्र को लाँघकर धारा के रूप में प्रवाहित
होओ ॥
२६ सूक्त
(दैवता साम। ऋषि दृढ्च्युत ऋषि के पुत्र इध्मवाह । छन्द
गायत्री ।)
१. पृथिवी की गोद में उस वेगवान् सोम को मेधावी लोग अङ्क लि
और स्तुति के द्वारा माजित करते हत
२, स्तुतियाँ बहुधाराओंवारे, अक्षीण, दीप्त और स्वर्गे के धारक
सोम की स्तुति करती हैं।
३. सवके धारक, बहु-कर्म-कारी, सबके विधाता और शुद्ध सोम को
प्रज्ञा के द्वारा लोग स्वर्ग के प्रति प्रेरित करते हु ।
४. सोम पात्र में अवस्थित, स्तुति-पति और ऑहिंसनीय हें। परिचर्या-
कारी ऋत्विक् वोनों हाथों की अंगुलियों से सोम को प्रेरित करते हुँ।
५. अँगुलियाँ उन हरित-बर्ण सोम को उप्चत प्रदेश में प्रेरित करती
हूँ। थे कमनीय और बहु-दशेक हं।
६. शोधक सोम, तुम्हें ऋत्विक् लोग इन्द्र के लिए प्रेरित करते
हैँ। तुम स्तुति के द्वारा बद्धित, दीप्त और मदकर हो। .
२७ सूक्त
(देवता पवमान साम | ऋषि अङ्गिरा के पुत्र मेध । छन्द
गायत्री ।) |
१. ये सोम कवि और चारों ओर से स्तुत हें। ये वशापचित्र को
लाँघकर जाते हें । ये शोधित होकर शत्रुविनाश करते हेँ।
२. सोम सबके जेता और बलकारक हें। इन्द्र और बायु के लिए
इन्हें दशापवित्र में सिक्त किया जाता हुँ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ११०१
३. ये सोम मनुष्यों (ऋत्विकों) के द्वारा वावा प्रकारों से रखे जाले
है। सोम झुलोक के सिर हें। थें मनोहर पात्र में अवस्थित हें । थें
अभिषुत और सवंज्ञ हें।
४. यें सोम शोधित होकर शब्द करते हें । ये हमारी गौ और
हिरण्य की इच्छा करते ह। ये वीप्त, महाशत्रु-जेता और स्वयं आहिस-
तीय हँ।
५, यें शोधक सोम, सूर्य के द्वारा पवित्र द्युलोक में परित्यक्त होते
है। सोम अतीव मदकर हूं।
६. ये बलवान् सोम अन्तरिक्ष (दश्ञापवित्र) में जाते हें । ये काम-
वर्षक, हरित-वरणे, पवित्र-कर्ता और दीप्त हैं। ये इन्द्र की और जाते हूँ ।
- २८ मुक्त क्
(देवता साम । ऋषि प्रियमेध । छन्द गायत्री ।)
१. ये सोम गमनशील, पात्र में स्थापित, सर्वज्ञ और सबके स्वामी
है। ये मेषलोम पर दोड़ते हुँ।
२. ये सोम देवों के लिए अभिषुत होकर उनके सारे शरीरों में प्रवेश
पाने के लिए दशापबित्र में जाते हें। |
३. ये अमर वुत्र्न और देवाभिलाषी सोम अपने स्थान में शोभा
प्राप्त करते हे। |
४. ये अभिलाषा-दाता, शब्दकर्सा और अंगुलियों के द्वारा घुत सोम
द्रोण-कलस की ओर जाते हूं।
|’
५. शोधनकालीन, सबके द्रष्टा और सर्वज्ञ सोम सुर्यं ओर समस्त
तेजःपदाथो को शोधित करते हू।
६. ये _शोधनकालिक सोम बलवान् और ऑहिसनीय हूँ। य देवों
के रक्षक और पापियों के घातक हूं ।
११०१ हिन्दी-ऋग्वेद
२९ सुक्त
(देवता साम । ऋषि अङ्गिरा के पुत्र नृमेध । छन्द गायत्री ।)
१. वर्षक, अभिषुत और देवों के ऊपर प्रभाव डालने की इच्छावाले
इन सोम की धारा क्षरित होती हैत
२. स्तोता, विधाता और कर्मकर्ता अध्वर्यु लोग दीप्तिमान्, प्रवृद्ध,
स्तुत्य और सर्पण-स्वभाव सोम को माजित करते हैँ।
३. प्रभूत घनवाले सोम, शोधन-समय में तुम्हारे बे सब तेज शोभन
होते हैं; इसलिए तुम समुद्र के समान और स्तुत्य द्रोण-कलस को पूर्ण
करो।
४. सोम, सारे धनों को जीतते हुए घारा-प्रवाह से गिरो और सारे
शत्रुओं को एक साथ दूर देश सं भेज दो।
५. सोम, जो दान नहीं करते, उनसे और अन्यान्य निन्दकों की
_ भिन्दा से हमारी रक्षा करो। ताकि हम मुक्त हो सक ।
६. सोम, तुम धारा-रूप से क्षरित होओ। पृथिवीस्थ और स्वर्गीय
धन तथा वीप्तिमान् बल को छे आओ।
३० सुक्त
(देवता साम । ऋषि अङ्गिरा के पुत्र बिन्दु | छन्द गायत्री ।)
१.'बली इन सोम की घार अनायास दशापवित्र में गिर रही हे ।
झोधन-समय में ये अपनी ध्वनि को प्रेरित करते हें।
२, ये सोम, अभिषवकारियों के द्वारा प्रेरित होकर, शोधन समय
से शब्द करते हुए इन्द्र-सम्बन्धी शब्द प्रेरित करते हें।
३. सोस, तुम धारा-रूप से क्षरित होओ । उससे मनुष्यों के अभिः
भवकर, वीरवान् और अनेकों के द्वारा अभिलषणीय बल प्राप्त हो।
शोधन-काल में ये सोम घारा-रूप से द्रोण-कलश में जाने के
लिए दश्ञापवित्र को लाकर क्षरित होते ह।
हिन्दौ-ऋश्वेद ११०३
५. सोम, तुम जल (वसतीवरी) में सबसे अधिक सधुर और हरित-
वर्ण (हरे रंग के) हो। इन्र के पान के लिए तुम्हें पत्थर से पीद्या
ज्ञाता हुँ ।
६. ऋत्विको, तुम लोग अत्यन्त मधुर रसवाले, मनोहर और मदकर
सोम को हमारे बलार्थे, इन्द्र के पान के लिए, अभिषु करो।
३१ सूक्त
(देवता साम । ऋषि रहुगण के पुत्र गोतम । छन्द गायत्री )
१. उत्तम कर्मवाले और शोधनकालीन सोम जा रहे हुँ। बे हमें
प्रज्ञापक धन दे रहे हें।
२. सोम, तुम अल्लो के स्वामी हो। तुम द्यावापृथिवी के प्रकाशक
धन के वद्धंक होओ।
३. सारे वायु तुम्हारे लिए तृप्तिकर होते हँ; नदियाँ तुम्हारे
लिए जाती हें। बे तुम्हारी महिमा को बढ़ावे।
४. सोम, तुम वायु और जळ के द्वारा प्रवृद्ध होओ। वर्षक बळ
तुममं चारों ओर से सिले। तुम संग्राम में अन्न के प्रापक होओ ।
५. पिद्धलबणं सोम, गो-समूह तुम्हारे लिए घृत और अक्षीण दुग्ध
दोहन करता हे। तुम उनच्चत प्रदेश में अवस्थित हो।
६. भुवत के पति सोम, हम तुम्हारे बन्धुत्व की कासना करते हूँ।
धुम उत्तम आयुधवाले हो।
३२ सूक्त
(देवता साम । ऋषि आत्रय श्यावाश्यव । छन्द् गायत्री ।)
१. सोस मदस्रावी और अभिषुत होकर यज्ञ में हव्यदाता के अन्न कै
लिए जाते हुँ। |
२. इन्द्र के पान के छिए इन हरित-वर्ण सोस को न्रित ऋषि की
अँगुलियाँ पत्थर से प्रेरित करती हुँ।
११०४ हिन्दी-ऋग्वेद
३. जैसे हँस जल में प्रवेश करता हे, वसे ही सोम सारे स्तोताओं के
बम को वश में करते हैँ ये सोम गव्य के द्वारा स्निग्ध होते हुँ।
४. सोम, तुम पज्ञ-स्थान को आश्रय करते हुए, मिश्रित होकर, मृग.
के समान, ्यायापूथिवी को देखते हो।
५, जैसे रमणी जार की स्तुति करती हे, बेसे ही, हे सोम, शब्द
तुम्हारी स्तुति करते हे। वे सोम, मित्र के समान, अपने हितार्थं
गन्तव्य स्थान को जाते हं ।
सोम, हस हविवाले और मुझ स्तोता के लिए दीप्तिशाली भन्न
प्रदान करो। धन मेधा ओर कोत्ति दो। |
२३ सूक्त
(देवता साम । ऋषि त्रित । छन्दू गायत्री |)
१. सेधाबी सोम पात्रों के प्रति, जल-तरंग के समान, जाते हुँ, वृद्ध.
मुग जसे वन में जाते हें, बसे ही सोम जाते हेत
२. पिद्गलू-वर्णं और दीप्त सोम, गोमान् अन्न प्रदान करते हुए,
घारा-रूप से द्रोण-कलश में भरते हें।
३, अभिषुत सोम इन्द्र, वायु, घरण, मरुदृगण और विष्णु के प्रति
बसन करते हं। |
४, ऋक् आदि तीन वाक्य (स्तुतियां) उच्चारित हो रहे हुँ। दूष _
देने के लिए गाये शब्द कर रही हे। हरित-वर्ण सोम शब्द करते हुए
नमन करते हे। |
५, स्तोताओं (ब्राह्मणों) के द्वारा प्रेरित, यज्ञ की मातु-स्वरूपा कौर
महती स्तुतियाँ उच्चारित हो रही हूँ और झुलोक के शिशु-समान सोम
दाजित हो रहे हैं।
६. सोम, धन-सम्बन्धी चारों समुद्रों (अर्थात् चारों समुद्रों से वेष्दित
निखिल भूमण्डल के स्वामित्व) को चारों दिशाओं से हमारे पास छे आओ
भोर असीम अभिलाषाओं को भी ले आओ। |
हिन्दी-ऋणग्वेद ११०५,
३४ सूक्त
(देवता सास । ऋषि मित्र । छन्द गायत्री |)
१, अभिषुत सोम प्रेरित होकर धारा-रूप से दशापबित्र में जाते हुँ
भौर सुदृढ़ शच्ुओं-पुरियों को भी ढीली करते हे।
२. अभिषुत सोम इक्र, वायु, वरुण, मरुद्गण और विष्णु के अभिमुख
जाते हैं।
३. अव्वर्यु लोग, रस के सेचक और नियत सोम को वर्षक प्रस्तर के
हारा अभिषुत करते हुँ। वे कर्म-बळ से सोम-रूप दुग्ध को दृहते हैं।
४, त्रित ऋषि का सदकर सोस उनके लिए और इन्द्र के पान के लिएं
शुद्ध हो रहा है। वे हरित-वर्ण सोम अपने रूप से प्राप्त हुए हुँ।
५. पुश्नि के पुत्र मरुदूगण यञ्ाश्रय, होससाधक और रमणीय सोस
का दोहन करते हें।
६. अकुटिल स्तुतियां उच्चारित होकर सोम के साथ मिल रही हूँ।
सोम भी शब्द करते हुए प्रीतिकर स्तुतियों की कामना करते हें।
२५ सूक्त
(देवता सोम । ऋषि अङ्गिरा के पुत्र प्रभूवसु । छन्द् गायत्री ।)
१. प्रवाह-शील सोम, तुम धारा-रूप से हमारे चारों ओर क्षरित
होओ। विस्तीर्ण घन और प्रकाशमान यज्ञ हमें दो।
२. जलनप्रेरक और शत्रुओं को कंपानेवाले सोम, अपने बल से तुम
हमारे धन के धारक होओ। '
३. बीर सोम, तुम्हारे बल से हम संग्रामाभिलाषी शत्रुओं को हराबेंगे।
हमारे सामने स्वीकार के योग्य धन भेजो।
४, यजमानों का आश्रय करने की इच्छा से अन्नदाता, सर्वदर्शी तथा
कर्म और आयुध को जलनेवाले सोम अन्न प्रेरित करते हुँ।
५. में स्तुति-वचनों से उन्हीं सोम की स्तुति करता हूँ, जो गो-पालक
हैं। हम स्तुति-प्रेरक और पवित्र सोम को बासित करेंगे।
फ० ७० *
११०६ हिन्दी-त्रग्वेद
६. सारे मनुष्य कर्मपति, एदित्र और प्रभूत घनवाले सोम के कर्म
में सन लगाते हें।
२६ सूक्त
(देवता सोम । ऋषि प्रभूवसु । छन्द गायत्री ।)
१. रथ में जोते गये अशय के समान दोनों चमुओ (सुको) में अभिषत
सोम दशापधित्र में बनाये गये वेगवान् सोम युद्ध में विचरण करते हुँ।
२. सोस, तुम वाहक, जागरूक और देवाभिलाषी हो। तुम मधुस्राबी
वशापवित्र को लाँघकर क्षरित होओ।
३. प्राचीन क्षरणशील सोम, तुम हमारे दिव्य स्थानों को प्रकाशित
करो और हमें यज्ञ तथा बल के लिए प्रेरित करो।
४. यज्ञाभिलाषी ऋत्विकों के द्वारा अलंकृत और उनके हाथो से
परिमाजित सोम मेषलोममय वशापवित्र में शोधित होते हें।
५, बह अभिषुत सोम हुविर्वाता को द्युलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष
के सारे धनों को दें।
६. बलाधिपति सोम, तुम स्तोताओ के लिए अश्व, गो और वीरपुत्र
के अभिलाषी होकर स्वयंपुष्ठ पर चढ़ो।
३७ सूक्त
(देवता साम । ऋषि रहूगण । छन्द गायत्री ।)
१. इन्द्र आवि फे पान के लिए अभिषुत सोम काम-वर्षक, राक्षस-
माहाक और देव-कासी होकर दशापयित्र में जाते हें।
२. बह सोम सबके दर्शक, हरित-वर्ण ओर सबके धारक होकर दशा-
पबित्र में जाते हे। अनन्तर शब्द करते हुए प्रोण-कलश में जाते हें ।
३. वेगशालो, स्वे के दीप्ति-प्रद और क्षरणशील सोम राक्षस-विनाशक
होकर मेषलोममय वशापवित्र को लांघकर जा रहे हैं।
४. उन सोम ने त्रित ऋषि के उन्नत यज्ञ में पवित्र होकर अपने
प्रवृद्ध तेओों से सुर्य को प्रकाशित किया।
हिन्दी-त्रहर्वेद ११०७
ध्, जैसे अश्व युद्ध-भूमि में जाता हँ, बेसे ही वृत्रघ्न, अभिलाषादाता
अभिषुत अहिसनीय सोम कलश में जाते हैं।
६. वे महान्, भींगे हुए, कवि के द्वारा प्रेरित सोम, इन्द्र के लिए
द्रोण-झलश में जाते हुँ।
३८ सूक्त
(देवता साम | ऋष रहूगण । छन्द गायत्री ।)
१. वे सोम अभिलाष-प्रद और रथस्वभाच (गति-परायण) होकर
यजमान को बहुत अन्न देने के लिए भेषलोमों से दशापवित्र से होकर द्रोण-
करूस में जाते हूँ।
२. इन्द्र के पान के लिए नित ऋषि की अँगुलियाँ इन क्लेदबाले और
हुरित-बर्ण सोम को पत्थर से पीस रही हैं।
३. दस हरित-वर्ण मेंगुलियाँ, कर्माभिलाषिणी होकर, इन सोम को
झाजित करती हें। इनकी सहायता से इख्न के मद के लिए सोम
शोधित होते हैं ।
४, ये सोम मानव-प्रजा के बीच इयेन पक्षी के समान, बेठते हैं।
जैसे उपपत्नी के पास जार जाता हैं, बैसे ही सोम जाते हूँ।
५. सोम के ये मादक रस सारे पदार्थ को देखते हें। बे सोम स्बर्ग
के पुत्र हें। दीप्त सोम दश्ञापवित्र में प्रवेश करते हुँ।
६. पान के लिए अभिषुत, हुरितवर्ण और सबके धारक सोम शब्द
करते हुए अपने प्रिय स्थान (द्रोण-करश में) जाते हूँ।
३९ सूक्त
(देवता सोम ऋषि आङ्गिरस इहन्मति। छन्द गायत्री ।)
१. महामति सोम, देवों के प्रियतम शरीर से युक्त होकर शीघ
शसन करो। “देवता छोय जहाँ हुँ उसी बिशा को जावा हूँ'--एसा.
सोम कह रहे हूँ।
११०८ हिन्दी-ऋणग्वेद
२. असंस्कृत स्थान वा यजमान को संस्कृत कहते हुए और याज्ञिक
को अन्न देते हुए अन्तरिक्ष से, हे सोम, बृष्टि करो।
३. अभिषुत सोम दीप्ति धारण करके ओर सारे पदार्थों को देख
और दीप्ल करके बळ से शीघ्र दशापदित्र में जाते हुँ ।
४. ये सोम दशापवित्र में सिचित होकर जल-तरङ्ग से क्षरित होते
हेँ। ये स्वर्ग फे ऊपर शीघ गमम करते हें।
५, दूर और पास के देवों की सेवा के लिए अभिषुत सोध, इन्द्र के
लिए, सध के समाम सिवित होते हैं।
६. भळी भाँति मिले हुए स्तोता स्तुति करते हे। वे हरित-वर्ण सोम
को, पत्थर की सहायता से, प्रेरित करते हें। अतएव देवो, यज्ञस्थान में
बैठो।
४० सूक्त
(देवता साम । ऋषि बृहन्मति । छन्द गायत्री ।)
१. क्षरणशील और सर्वदर्शक सोम सारे हिसकों को लाँघ गये। उन
भेधावी सोम को स्तुति-द्वारा सब अलंकृत करते हेँ।
२, अरुण-वर्ण (कष्ण-लोहित ? ) सोम द्रोण-कलश में जा रहे हैं।
अनन्तर अभिलाषा-दाता और अभिषुत होकर इन्द्र के पास जाते हुँ और
निश्चित स्थान सें बेठते हें।
३. हे इन्द्र (दीप्त) सोम, तुम अभिषुत होकर हमारे लिए शीघ्र महान्
और बहुत धन, चारों ओर से, दो।
४. क्षरणशील और दीप्त सोम, तुस बहुविध अञ्न ले आओ और सहस्र-
संख्यक अन्न प्रदान करो।
५, सोम, तुम हमारे स्तोताओं के लिए पवित्र और अभिषुत होकर
सुपुत्रबाला धन ले आओ और स्तोता की स्तुति को वद्धित करो।
६. सोम, तुम शोधन-समय में हमारे लिए द्यावापृथिवी में परिवद्ध
धन ले आओ। वर्षक इन्द्र (सोस), हमें स्तुत्य धन दो।
हिन्दी-ऋग्वेद ११०९
४१ सक्त
(दैवता साम । ऋषि कण्वगोत्रीय मेध्यातिथि। छन्द गायत्री ।)
१. जो अभिषुत सोस, जल के ससान, शी घ्र दीप्तियक्त और गतिशील
होकर काले चसडवालो को सारफर भिचरम करते हुँ, उन सोमों की स्तुति
करो।
२. ब्रत-शून्य ओर दुष्टसति को दवाकर हम सुन्दर सोम की राक्षस”
बन्धन और राक्षस-हूननवाली इच्छा की स्तुति करेंगे ।
३. अभिषव-समय में बली सोस की दीप्तियाँ अन्तरिक्ष सें विचरण
करती हें। बृष्टि के समान सोम का शब्द सुनाई देता हे ।
४. सोम, तुम अभिषुत होकर गो, अश्व और बल से युक्त महान्न
हमारे सामने प्रेरित करो।
५. सर्वदर्शक सोम, तुम प्रवाहित होओ। जैसे सूर्य अपनी किरणों से
दिनों को पुर्ण करते हें, वेसे ही तुम द्यावापृथिवी को पुर्ण करो।
६. सोम, हमारी सुखकरी धारा के द्वारा चारों ओर वेसे ही पुर्ण करो;
जैसे नदियाँ भूमण्डल को पुरित करती हें।
४२ सूक्त
(देवता साम । ऋषि मेध्यातिथि । छन्द गायत्री |)
१. ये हरित-वर्ण सोम झुलोक-सम्बन्धी नक्षत्रादि और अन्तरिक्ष में
सूर्यं को उत्पन्न करके अधोगामी जलों से ढक कर जाते हुँ।
२. ये सोम प्राचीन स्तोत्र से युक्त ओर अभिषुत होकर देवों के
लिए धारा-रूप से गिरते हैँ ।
३. बद्धमान अन्न की शीघ्र प्राप्ति के लिए असंर्पात-बेग सोच
क्षरित होते है ।
४. पुराण रसवाले सोत दझापविन्न में होते ओर शब्द करते हुए
देवों को प्रादुर्भूत करते हूँ ।
१११० हिन्वी-ऋग्वेक्
५. ये सोम अभिषव-समय में सारे स्वीकरणीय नौं और यज्ञ-
बद्धक देवों फे सामने जाते हैं।
६. सोम, तुम अभिषत होकर हमें गो, अश्व, वीर और संग्राम से
बुद्ध घन तथा बहुत अञ्न दो ।
४२ सूक्त
(देवता साम । ऋषि मेध्यातिथि। छन्द गायत्री |)
१. जो सोम निरन्तर गमनयाले अश्व के समान देवों फे मद के लिए
गव्य-द्वारा निश्चित होते हैँ ओर जो कमनीय हें, हम उन्हीं सोस को स्तुति-
द्वारा प्रसत्त करेंगे ।
२. रक्षणाभिलाषिणी स्तुतियाँ, पहले के समान, इन्द्र के पान के लिए
इन सोम को दीप्त करती हु।
३. मेघावी सेध्यातिथि के लिए, शोधन-समय में, कमनीय सोम
श्तुतियों के द्वारा अलेकुत होकर कलश की ओर जाते हैँ ।
४. क्षरणशील (पवमान), शोधनकालीन अथवा अभिषबकालिक
इन्द (सोम), हमें उत्तम दीप्तिवाले और बहु-श्री-सम्पन्न घन दो ।
५. संग्रासगासी अश्व के ससान जो सोम दशापवित्र में शब्द करते
हैं, वे जब वेवाभिलाषी होते हें, तब अत्यन्त (ध्वनि) करते हें ।
६. सोम, हमें अन्न देने और स्तोता मेध्यातिथि को (मुझे) बढ़ाने
के लिए प्रवाहित होओ । सोम, सुन्दर बीर्यवाला पुत्र भौ दो ॥
अष्दस अध्याय समाप्त ।
ष्ठ अष्टक सभाप्ल ।
४४ सत्त
(९ सण्डल। १ अध्याय । २ अनुवाक। दैवता पवमान सोम ।
ऋषि अयास्य । छुन्द गायत्री ।)
१. सोम, हमारे महान् धन के लिए आते हो। तुम्हारी तरङ्ग को
धारण करके अयास्ण ऋषि देवों की ओर, पुजन के लिए, जाते हुँ।
२. मेधावी स्तोता ने ऋान्तकर्मा सोम की स्तुति की और उन्हें यज्ञ
में नियुक्त किया। सोम की धारा दूर देश तक बिस्तृत होती है।
३. जागरणशील और विचक्षण सोम अभिषुत होकर देवों के लिए
चारों ओर जाते हें। ये दशापवित्र की ओर जाते हेँ।
४. सोम, कुशवाले ऋत्विक् तुम्हारी परिचर्या करते हँ। हमारे लिए
तुम अन्न की इच्छा करते हुए और हिसा-शून्य यज्ञ को सुचारु-रूप से
करते हुए क्षरित होओ।
५. उन सोम को मेधावी लोग वायु और भग देवता के लिए प्रेरित
करते हें। सोम सदा बढ़नेवाले हुँ। बे हमें देवों के पास स्थित धन दें।
६. सोम, तुम कर्मो के प्रापक और पुण्य लोकों के अतीव मागे-ज्ञाता
हो, तुम आज हमें धन-लाभ के लिए महान् अन्न और बल को जीतो।
४५ सक्त
(देवता साम । ऋषि आयास्य । छन्द् गायत्री ।)
१. सोम, तुम नेताओं के दर्शक हो। तुम देवों के आयमन वा यज्ञ
के लिए इन्द्र के पान मद और सुख के लिए क्षरित होओ।
२. सोम, तुम हमारा दूत-कर्म करो। इन्द्र के लिए तुझ पिये जाते
हो। तुम हमारे लिए श्रेष्ठ घन, देखो के यहाँ से, रे आओ।
११११
१११२ हिन्दी (नन्द्याय
३. सोम, मद के लिए रक्त-वर्ण ठुम्हें हम दुग्ध आदि सै संस्कृत करते
हुँ। तुम घन के निमित्त, हमारे लिए, दरवाजा खोल दो।
४. जैसे अशव गसन-समय में रथ की धुरा को लांघ जाता हुँ, बैसे ही
सोम दशाएवित्र को जाँचकर देवों के बीच जाता हैत
५. दशापविश्र को लाँघकर जिस समय सोम जल फे बीच कीड़ा
करने लगे, उस समय प्रिय बन्धु स्तोता एक स्वर से उनकी स्तुति और
बचनों के द्वारा उनका गुण-कीर्तच करने लगे।
६. सोम, तुम उस धारा के साथ गिरो। जिस धारा का पान करने
पर विचक्षण स्तोता को तुम झोभन वीयं देते हो।
४६ सूक्त
(देवता साम । ऋषि अयास्य । छुन्द् गायत्री ।)
१. अभिषय-प्रस्तरों से प्रवृद्ध सोम यज्ञ के लिए उसी प्रकार क्षरित
होते हं, जैसे कार्य-परायण अश्व क्षरित होते हैं (अथवा पर्वत पर उत्पन्न
गौर क्षरणशील सोम, कार्य-पट् अइवों के समान, यज्ञ के लिए, बनाये
जाते ह ।
२. पिता-द्वारा अकृता कन्या जैसे स्वामी के पास जाती हैं, वैसे ही
सोम बायु के पास जाते हे।
३. थे सब उज्ज्वल और अन्नवान् सोम प्रस्तर-फलक-द्य पर अभि-
षृत होकर यज्ञ-द्वारा इन्द्र को प्रसन्न करते हें।
४. शोभन हाथोंवाले ऋत्विको (पुरोहितो), शीघ्र आओ। मथानी
(मथनेवारे दण्ड) के साथ शुक्रू-वर्ण सोम को ग्रहण करो। मदकर सोम
को दूध आदि से संस्कृत वा सुस्वादु करो।
. ५. दाश्रू-घन को जीतनेवाले सोम, तुम अभीष्ट मार्ग के प्रापक हो।
तुम हमें महान् घन देनेवाले हो। क्षरित होओ।
` ६. इन्द्र के लिए दसों अॅंगुलियाँ शोधनीय, क्षरणशील ओर मदकर
सोम को दशापवित्र सें शोधित करती हूं ।
हिन्दी-ऋग्वेद १११३
४७ सुक्त
(देवता पवमान सोम । क्रषि थृगु-पुत्र कथि। छन्द गायत्री |)
१. शोभन अभिषवादि क्रिया से य सोम महान् देवों के प्रति प्रबुद्ध
हुए। ये आनन्द के मारे वृषभ (साँड़) के समान शब्द करते हुँ।
२. इन सोम के असुर-नाशक कर्मो को हमने किया है। बली सोम
ऋणपरिशोध भी करते हें।
३. जब इन्द्र का मन्त्र प्रादुर्भूत होता है, तभी इन्द्र फे लिए प्रियरस,
बली ओर यज्ञ के समान अवध्य सोम हमारे लिए असीम घन के दाता
होते हुँ।
४, यदि क्राम्तकर्मा सोम अंगुलियों से झोषित किये जाते हुँ, तो ये
स्वयं मेघावी के लिए कामधारक इन्द्र से रमणीय धन देने की इच्छा
करते हें।
सोम, घुम संग्रामों सें शत्रुओं को जीतनेवालों को उसी प्रकार धन
देते हो, जिस प्रकार समर-भूमि में जानेवाले अइवों को घास दिया
जाता हुँ। | |
४८ सुक्त
(देवता पचमान साम | ऋषि श्चृशु-पुत्र कवि | छन्द गायत्री ।)
१. सोम, प्रकाण्ड द्युलोक के एक स्थानवासियों में स्थित, धन के
धारक और कल्याण के धारक तुमसे शोभन अनुष्ठान करके हम धन को
याचना करते हेँ।
२. सोस, पराक्रमी शत्रुओं के विनाशक, प्रशंसा के योग्य, पुजनीय-
कर्मा, आनन्ददाता और अनेक शत्नु-पुरियों के घातक तुमसे हम धन
सांगते हें।
३. शोभम कर्मवाले सोम, धन के लिए तुम राजा हो; इसी लिए इयेन .
(बाज) तुम्हें सरलता से स्वर्ग से ले आया था।
हिन्दी-पऋ्व
९ यज्ञ के संरक्षक और स्वगंस्थ सभी देवों के लिए
समान सोम को स्वर्ग से शयेन ले आया था।
५. कर्मो के सूक्ष्मदर्शक, यजमानो के सनोरथन-दाता और अपने बल
का प्रयोग करनेवाले सोम अपन प्रशंसनीय महत्त्व को प्राप्त करते हुँ ।
४९ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि शूगु-पुत्र कवि । छन्द् गायत्री ।)
१. सोम, थुलोक से हमारे लिए चारों ओर बृष्टि करो। दुलोक से
जलतरङ्ग ले आओ। अक्षय अन्न का महाभाण्डार उपस्थित करो।
२. सोम, तुम उस धारा से क्षरित होओ, जिस धारा से शत्रु देशोत्पन्न
गायं इस लोक में हमारे गृह में आती हें।
३. सोम, तुम यज्ञों में अतीव देवाभिलाषी हो। हमारे लिए तुम
घुव-धारा से क्षरित होओ॥
४. सोम, तुम हमारे अन्न के लिए कुशमय (अथवा अव्यय) दशापवित्र
को धारा-रूप से प्राप्त करो। तुम्हारी गमन-ध्वनि को देवता लोग
सुने । |
५, राक्षसो को मारते हुए ओर अपनी दीप्ति को पहले को तरह
प्रदीप्त करते हुए य क्षरणशील सोम प्रवाहित होते हुँ।
५० सुक्त
(देवता पवमान सास । ऋषि आङ्गिरस उतथ्य | छन्द गायत्री !)
१. सोम, समुद्र-तरङ्भ के वेग के समान तुम्हारा वेग हो रहा हूँ।
जेसे धनुष से छोड़ा हुआ वाण शब्द करता हँ, बसे ही तुम शब्द करो ।
२. जिस समय तुस उन्नत और एुणमय दश्ापवित्र में जाते हो, उस
समय तुम्हारी उत्पत्ति होने पर यज्ञ ईभिलायो, यराथान के मुख से तीन
प्रकार के (ऋक्, यजु, सोम के) वाक्य (नकल हुँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १११५
३. देवों के प्रिय, हरित-वर्ण, पत्थरों से अभिषुत (निष्पीड़ित) और
मधुर रस चुलानेवाले सोस को ऋत्विक लोग भेष के लोम के अपर
रखते हें।
४. अतीव प्रमलकारी और क्रान्तकर्मा सोम, पूजनीय इख के उदर
में पेठने के लिए दशापवित्र को लाँघकर उनके सामने क्षरित होओ।
५. अत्यन्त प्रमत्त करनेवाले सोम, सुस्वादु करनेवाले दूध आदि से
मिश्रित होकर तुस इन्द्र के पान के लिए क्षरित होओ।
५१ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋष उतथ्य । छन्द गायत्री |)
१. पुरोहित, पत्थरों से अभिषुत (पीसे गये) सोम को दशापवित्र
पर ढाल दो। इन्त्र के पान के लिए इसे शोषित करो।
२. पुरहितो (अध्वयुंओ), अत्यन्त मधुर, थुलोक के अमृत और
श्रेष्ठ सोम को वज्रधर इन्द्र के लिए प्रस्तुत करो।
३. मदकर और क्षरणशील तुम्हारे अन्न (खाद्य द्रव्य) को ये इन्द्रादि
देवता और मरुद्गण व्याप्त करते हैँ।
४. सोम, अभिषुत होकर, देवों को प्रवद्ध कर अभिलाषाओं को बरसा-
कर तुम शीघ्र मद और रक्षण के लिए स्तोता के पास जाते हो।
५. विचक्षण सोम, तुम अभिषुत होकर दशापबित्र की ओर जाओ
और हमारे अन्न तथा कोत की रक्षा करो।
५२ सुक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि उतथ्य । छुन्द् गायत्री |)
१. दोप्त और धन वेनेवाले सोम अञ्च के साथ हमारे बल को बढ़ाओ ।
सोम, अभिषत होकर दशापवित्र सें णिरो।
२. सोम, देवों को प्रस्न करनेवाली तुम्हारी घारायें विस्तृत होकर
पुराने भागों से मेषलोम से दशापवित्र में जाती ह ।
१११६ हिन्दी-ऋग्वेद
३. सोम, जो चरु के समान खाद्य हे, उसे हमें दो। जो देने की वस्तु
है, उसे हमें दो। प्रहार करने पर तुम बहते हो; इसलिए हे सोम,
पत्थरों के प्रहार से निकलो ।
४, बहुतों के द्वारा बुलाये गये सोम, जिन शत्रुओं का बल युद्ध के
लिए हमें बुलाता है, उन शत्रुओं के बल को दूर करो।
५. सोम, तुस धन देनेवाले हो। हमारी रक्षा करने के लिए तुम अपनी
निर्मल धाराओं से प्रवाहित होओ।
५३ सुक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि कश्यप-गोत्रीय अवत्सार ।
छन्द गायत्री ।)
१. प्रस्तर से उत्पन्न सोम, राक्षसों को मारनेवाले तुम्हारे वेग वा
वेज उन्नत हुए हैं। स्पर्डा करनेवाली जो शत्रुसेनायें हमें बाधा देती हें,
उन्हें रोको। |
२. तुम अपने बल से शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ हो। में निर्भय
हृदय से रथ पर शत्रुओं के द्वारा निहित धन के लिए तुम्हारी स्तुति
करता हूं।
३. सोम, क्षरणशील तुम्हारे तेज को दुर्बुडि राक्षस नहीं सह सकता ।
जो तुम्हारे साथ युद्ध करना चाहता हे, उसे विनष्ट करो।
४. मद चुलानेवारे, हरितवर्ण, बली और मदकर सोम को ऋत्विक्
लोग इन्द्र के लिए वसतीवरी नामक जल में डालते हे।
५४ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि अवत्सार । छन्द गायत्री ।)
१. कवि लोग इन सोम के प्राचीन, प्रकाशमान, वीप्त, असीस, कमें-
फलदाता और अ्रवणशील रस को दूहते हें।
२. ये सोस, सूर्य के समान, सारे संसार को देखते हें। ये तीस दिन
रात को ओर जाते हें। ये स्वर्ग से लेकर सातो नदियों को घरे हुए हुं।
हिन्दी-क्रग्वेद १११७
३. शोधित किये जाते हुए ये सोअ, सूर्यदेव के समान, सारे भुवर्नो
के ऊपर रहते हुँ।
४. सोम, इन्द्राभिलाषी और शोषित तुम हमारे यज्ञ के लिए गोयुक्त
अञ्न चारों ओर गिराओ।
५५ सुक्त
(देवता पवमान साम । ऋष अवत्सार । छन्द गायत्री ।)
१. सोस, तुम हमारे लिए प्रचुर यव (जौ), अञ्न के साथ, दो और
सारे सोभाग्यशाली धन भी दो।
२. सोम, अन्नरूप तुम्हारे स्तोत्र और प्रादुर्भाव को हमने कहा।
अब तुम हमारे प्रसञ्चतादायक कुश पर बैठो।
३. सोम, तुम हमारे गो और अइव के दाता हो। तुम अल्प दिनों में
ही अन्न के साथ क्षरित होओ ।
४. सोम, तुम अपरिमित शत्रुओं के जेता हो। तुम्हें कोई जीत नहीं
क्षकता । तुम स्वथं शत्रुओं को निहत करते हो। क्षरित होओ।
५६ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि अवत्सार । छन्द् गायत्री ।)
१. क्षिप्रकारी और देवकामी सोम दक्षापवित्र में जाकर और राक्षसो
को नष्ट कर हमें प्रचुर अन्न देते हे ।
२. जब सोम की कर्माभिलाषी सौ धारायें इन्द्र का बन्धुत्व प्राप्त
करती है, तब सोम हमें अन्न प्रदान करते हें। |
३. सोम, जसे कन्या प्रिय (जार) को बुलाती हे, देसे ही दसो अंग-
लियाँ शब्द करते हुए हमारे घन-लाभ और इन्द्र के लिए सोम को शोधित
करती हें ।
४. सोम, प्रिय-रस तुम इन्द्र ओर विष्णु के लिए क्षरित होओ। कर्मों
के नेताओं ओर स्तुतिकर्त्ताओं को पाप से छुड़ाओ।
१११८ हिन्दी-ऋणग्वेद
५७ सूक्त
(देवता पचमान साम । ऋषि कश्यप-गोत्रीय अवत्सार।
छुन्द् गायत्री |)
१. जैसे यलोक की वर्षा-धारा प्रजा को असीम अन्न देती है, बैसे हो
सोम, तुम्हारी निःसङ्धः धारा हमें अपरिमित अन्न प्रदान करती हूँ।
२. हरित-वर्ण सोम देवों के सारे प्रिय कार्यो की ओर देखते हुए
अपने आयुधों को राक्षसों की ओर फेंकते हुए यज्ञ में आते हें।
३. सुकृती सोम मनुष्यों (ऋत्विकों) के हारा शोधित होकर और
राजा तथा इयेन पक्षी के समान निर्भय होकर बसतीबरी-जरू में
बैठते हें।
४, सोम, तुम क्षरित होते-होते स्वर्ग ओर पृथिवी के सारे धनों को
हमारे लिए ले आओ।॥
५८ सुत्त
(देवता पवमान साम । ऋषि अवत्सार । छन्द॒ गायत्री ।)
१. देवों के हुर्षदाता सोम स्तोताओं का उद्धार करते हुए क्षरित होते
हैं। अभिषृत और देव अन्नरूप सोम की धारा गिरती हे। हृषेदाता सोम
क्षरित होते हें ।
२. सोम की घन-प्रख्नण करमंवारी और प्रकाशमाना धारा मनुष्य
की रक्षा करना जानती हूं हुर्षदाता सोम स्तोताओं को तारते हुए
भिरते है ।
३. ध्वस्त और पुरुषन्ति नामक राजाओं से हमने सहस्र-सहस्न धन
ग्रहण किये है। आनन्दकर सोम स्तोताओं को तारते हुए बहते हैं।
४. ध्यस्र और पुरुषन्ति राजाओं से हमने तीस हजार घस्न्नों को
पाया हँ । स्तोताओं को तारते हुए हुर्षकर सोम गिरते हुँ।
हिन्दी-ऋण्बेद १११९
५९ सूती
(देवता पचमान सोम । ऋषि अवत्सार। छन्द गायत्री ।)
१. सोम, तुभ यो, अइब, संसार और रमणीय धन के जेता ही
क्षरित होओ। पुत्रादि से युक्त रमणीय थन, हमारे लिए, ले आओ।
२. सोम, तुम वत्तदीवरी-जल से बहो, किरणों से बहो, ओषधियों से
बहो ओर पत्थरों से बहो।
३. क्षरणशील और कान्तकर्मा सोम, राक्षसों कें किये सारे उपद्रवो
को दूर करो। इस कुश पर बेठो।
४, वहसान सोम, तुम यजमान को सब कुछ प्रदान करो। उत्पन्न
होते ही तुम पुजनीय होते हो। तुम सारे शत्रुओं को तेज़ से दबाते हो।
६० सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि अवत्सार । छन्द॒ गायत्री और पुरू
उष्णिक् |)
१. सुक्ष्मवशेक, सह्र-घक्ष और संस्क्रियमाण सोम की, गायत्री”
साम-मन्त्र से, स्तोताओ, स्तुति करो। |
२. सोम, बहुदशन, बहुभरण और अभिषुत तुमको ऋत्विक् लोग
सेषलोम से छानते हूँ।
३. क्षरणशील सोम मेषलोम से होकर गिरते और प्रोण-कलश की
ओर जाते हुए इन्द्र के हृदय में बठते हं ।
४, बहुदर्शी सोम, इन्द्र के आराधन के लिए तुम भली भाँति क्षरित्र
होओ। हमारे लिए पुत्रादि से युक्त धन दो।
६९ सूक्त
(३ अनुवाक । देवता पवमान साम । ऋषि आङ्गिरस अमद्दीयु ।
न्द् गायत्री |)
१. इन्द्र के पान के लिए उस रस से बहो, जिसने संग्राम सें नित्यानबे
शत्रु-पुरियों को नष्ट किया हू।
१११० हिन्दी-ऋग्वेद
२. उस सासरस ने एक ही दिन में शस्बर नामक शज्रुपुरियों के
स्थामी को सत्यकर्मा दिवोदास राजा के बश में कर दिया था। अनन्तर
सोसरस ने दिवोदास के शत्रु तुबेश और यदु राजाओं को भी बश में कर
दिया था।
३. सोम, तुम अइव देनेवाले हो। तुम अश्व, गौ और हिरण्य से युक्त
धन को बितरित करो।
४, सोम, क्षरणशील और दशापवित्र को आद्रै करनेवाले तुमसे हम,
मित्रता के लिए, प्रार्थना करते हुँ।
५, सोम, तुम्हारी जो तरंगे दशापवित्र के चारों ओर गिरती हैं,
उनसे हमे सुख दो।
६. सोम, तुस समस्त विश्व के प्रभु हो। अभिषुत और शोधित तुम
हमारे लिए धन और पुत्रादि-युक्त अन्न ले आओ।
७. सोस को माताये नदियाँ हे। उन सोम की दस अंगुलियाँ मरती
हँ। बे सोम अदिति-पुत्रों के साथ मिलते हेँ।
८, अभिषुत सोम दशापवित्र में इन्द्र के साथ और बायु तथा सूर्य-
किरणों के साथ मिलते हें।
९, सोम, तुम मधुर-रस, कल्याणरूप और अभिषुत हो। घुम भग,
बायु, पुषा, मित्र और वरुण के लिए क्षरित होओ।
१०. तुम्हारे अन्न का जन्म थुलोक में हुँ और तुम्हारा प्रवृद्ध सुख
सथा प्रचुर अन्न भूमि पर हे।
११. इन सोम की सहायता से हम मनुष्यों के सारे अन्नों को उपा-
जित करते हैं ओर भाग करने की इच्छा होने पर भाग कर लेंगे।
` १२. सोम, तुम अन्न-दाता हो। अभिषु तुस ` हमारे यजसीय इन्द्र,
वरुण ओर सस्तो के लिए क्षरित होओ।
. १३, सली भाँति उत्पन्न, बसतीवरी-द्वारा प्रेरित, शत्रु-भञ्जक और
दष आदि से परिष्कृत सोम के पास इन्द्र आदि देवता जाते हें।
हिन्दी-ऋग्वेद ११२१
१४, जो सोस हस्त कै लिए हृदयग्राही है, उन्हें ही हमारी स्तुतियां
माताये बच्चों को चाहती हूँ।
१५. सोम, हमारी गौ के लिए सुख दो। प्रभूत अञ्न दो। स्वच्छ जल
बढ़ाओ ।
क्षरित होते-होते सोम ने वंशवाचर नामक ज्योति को, यलोक
फे चित्र का विस्तार करने के लिए, बजा के समान उत्पल किया
१७, दीप्यमान सोय, क्षरणशील तुम्हारा राक्षस-मन्य और घदकर
सोम-रस सेषलोस को ओर जाता हूँ ।
१८. पवमान सोस, तुम्हारा प्रबुद्ध और दीप्तिशाली रस क्षरित होकर
और सारे ब्रह्मांड (ज्योतिःपुञज) को, व्याप्त करके, दृष्टिगो
करता हुँ ।
१९. सोम, तुम्हारा जो रस देवकामी, राक्षस-हन्ता, प्र।र्थनीय और
मदकर है, उस रस से, अन्न के साथ, क्षरित होओ ।
२०. सोम, तुमभे शत्रु वृत्र का वध किया है । तुम प्रतिदिन संग्राम का
आश्रय करते हो। तुम यो और अव देनेवाले हो ।
२१. सोम, तुम सुस्वादु दूध आदि के साथ मिलकर, इयेन पक्षी के
समान, शी जाकर अपने स्थान को ग्रहण करो और सुशोभित होओ।
२२. जिस समय बुत्राखुर ने जलभाण्डार को रोक रक्खा था, उस
ससघ, बत्रन्चण सें तुमने इन्द्र की रक्षा की थो। वही तुम इस समय
क्षरित होभी।
२३. सेचक और क्षरणशीरू सोस, कल्याणनपुत्र हम आङ्गिरस असहीयु
आदि शगुओ के घन को जीतें। हमारी स्तुतियो को बद्धित करो।
२४. तुससे क्षरित होकर हुम शत्रुओं का वित्राश कर डालें। हमारे
कर्मी में तुम सतक रहूना।
२५. हसक दान्ुओं ओर अदाताओं को मारते हुए तथा इन्र के
स्थान को प्राप्त करते हुए अरित होले हो।
फा० ७१
११२२ हिन्दी-ऋणग्वेद
२६. पदसाय सोम, हमारे लिए महत् धन छै आओ और शन्नुऔं
को सारो । पुत्रादि-एफ्त कीस भी हमें दो।
२७. सोम, जिस समय तुम शोषित होते-होते हमें धन देने की इच्छा
करते हो और जिस समय तुम खाद्य देने को इच्छा करते हो, उस समय
सैकडौं शत्र भी तुम्हें नहीं सार सकते।
२८. सोम, अभिषुत और सेलक तुम देशों में हमें यशस्वी करो ओर
सारे शत्रुओं को सारो।
२९. सोम, इस यज्ञ में हमें तुम्हारा बन्धुत्व प्राप्त करने पर और
तुम्हारे श्रेष्ठ अन्न से पुष्टि पा जाने पर हम युद्धेच्छ शत्रुओं को मारेंगे।
३०. सोम, तुम्हारे जो शत्रुओं के लिए भयंकर, तीखे और इजच्ु-बणकारी
हथियार हैं, उनको रखनेवाले शत्रु की निन्दा से (पराजय रूप अयश)
- हमारी रक्षा करो।
९
६२ सुक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि थृगुगात्रीय जमदग्नि । छुन्द् गायत्री ।)
१. सोम सारे सौभाग्य हमें देंगे; इसी लिए वह दशापचित्र के पास
शीघ्र-शीघ्र उत्पन्न किये जाते है।
२. बली सोम अनेक पापों को भली भाँति नष्ट करते हुए तथा
हमारे पुत्र और अइ्वों को सुखी करते हुए दशापवित्र के पास उत्पन्न
किये जाते हँ।
३. हमारी गो और हमारे लिए घन और अज्न देते हुए सोम हमारी
स्तुति की ओर आते हुँ।
४. सोम, पर्वत से उत्पन्न, मद के छिए अभिषुत और जल (वसती-
वरी) में प्रवुद्ध हें। जैसे इयेन पक्षी वेग से आकर अपने स्थान को प्राप्त
करता हुँ, वैसे ही ये सोम भी अपने स्थान पर बेठते हूँ।
५. देवों के द्वारा प्रथत ओर शोभन अन्न को गाये दूध आदि से
हेन्दी-ऋण्वेद ११२३
स्वादिष्ठ बनाते ह । यह सोम ऋत्विकों के द्वारा अभिषुत और वसतीवरी
में शोषित हुए हुँ।
६. अनन्तर अमुष्ठाता ऋष्विक, थञ्ञस्थर में इन सदकर सोभ के
रस फो, अभरत्व पाने के लिए, अइव के समान सुशोभित करते हुँ।
७. सोम, तुम्हारी मधुर रस ओर चुलानेवाली घाराणें, रक्षग के लिए,
बनाई गई हँ; उनके साथ लुभ दशापवित्र में बेडो।
८. सोम, अभिषुत तुम मेषलोस से निकलकर और इन्द्र के पान के
लिए पात्रों में से अपने स्थान पर जाकर क्षरित होओ ।
९. सोम, तुम स्वादिष्ठ ओर हमारे अभिलषित धन के प्रापक हो।
तुम अङ्गिरा की सन्तानों के लिए घृत और दुग्ध बरसो।
१०. सुक्षस-दशक, पात्रों में स्थित और क्षरणञ्ील सोम, जल में उत्पन्न
महान् अन्न को प्रेरित करके सबके द्वारा जाने जाते हैं।
११, यह जो सोस हुँ, वे धन-वर्षक, बुष-कर्मा, राक्षसों के हुन्ता
और क्षरणशील हूं। ये हविर्दाता यजमान को धन देते हें।
१२. सोम, तुम प्रचुर, गौओ और अइवों से युक्त, सबके हर्षदाता
और बहुतों के द्वारा अभिकषणीय घन को बरसो।
१३. अनेक स्तुतियोंचाले और कार्यक्षम सोम मनुष्यों के द्वारा शोषित
ऐकर सिञ्चित होते हूँ । ।
१४. सोम असीस रक्षण, बहुषन, संसार के निर्माता, ऋान्तकर्सा और
सदकर ऐँ। ये इन्द्र के लिए क्षरित होते हूँ ।
१५, जैसे पक्षी अपने घोसले में जाता हु, बसे ही प्रादुर्भत और
स्तोभ से स्सुत सोम इस यज्ञ में अपने स्थान में, इन्द्र के लिए, स्थित होते हूँ।
१६. ऋत्विकों के द्वारा अभिषुत (निष्पीड़ित) और क्षरणशील सोम
यसो में, अपने स्थान में, युद्ध के समान बैठने के लिए जाते हें।
१७. तीन पृष्ठां (अभिषबणों), तीन स्थानों (वेदों) और छन्दः-
स्वरूप सात रस्सियों से युक्त ऋषियों के यज्ञ-रूपी रथ में सोम को
ऋ/्विक् लोग, देवों के प्रस जाने के लिए, जोतते ह।
११२४ हिन्दी-ऋष्वेद
१८, सोम का निष्पीडन (अभिषवण) करनेवाले, धन-स्रष्टा, बसी
ओर वेगशाली सोमरूप झइव को यज्ञ-रूपी संग्राम में जाने के लिए सज्जित
करो ।
१९. अभिषु सोम कलस को और जाते हुए और सारी सम्पदाओं
को हमें देते हुए गौओं में शर के समान, निःशडू होकर, रहते हें।
२०. सोम, तुम्हारे मधुर रस फो, स्तोता लोग, इन्द्रादि के मद के
लिए, दुहते हैं।
२१. ऋत्विको, देवताओं के लिए जिनका नास प्रिय है और जो
अतीव मधुर हैं, उन सोम को इन्द्र आदि के लिए दश्ापचित्र सें रक्खो।
२२, ऋस्विक् लोग स्तुतिबाले सोम को, महान् अन्न के लिए,
अतीच मदकर रस की धारा से बनते हें ।
२३. सोम, शोधित तुम भक्षण के लिए गो-सम्बन्धी धर्मों (दुध
झादिको) को प्राप्त करते हो। अन्नदान करते हुए क्षरित होओ।
२४. सोम, में जमदग्नि तुम्हारी स्तुति करता हूँ। तुम हमें गोयुक्त
झर सर्वत्र प्रशसित अन्न दो।
२५, सोम, तुम मुख्य हो। पुजनीय रक्षणों के साथ हेसारी स्ठुतियों
पर बरसो। तारे स्तुति-छप वषयो पर भी बरसो।
२६, सोस, तुम विश्व-कम्पक हो। हारे बचनों को ग्रहण करते
हुए तुस आकाश से वारिवषण करो।
२७, कवि सोम, तुम्हारी महिमा से ये भुवन स्थित हूं। सारी नदियाँ
हुम्हारा ही आज्ञापालन करती हुँ। |
२८, सोम, आकाश की वारि-घारा के समान तुम्हरी धारा शुक्लवर्ण
ओर बिछाये हुए बश्ञापयित्र की ओर जाती हें।
२९. नऋत्विको, उग्र, बल-करण, धनपति ओर धन देवेचाले सोम को
इन्द्र के लिए प्रस्तुत करो।
हिन्दी-ऋणग्वेद ११२५
३०. सत्य, कान्तकर्मा और क्षरणशील सोम हमारे स्तोत्र में शोभन
वीर्यं देते हुए दशापबित्र पर बैठते हुँ।
६३ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि कश्यपगोत्रीय निधव। छन्द् गायत्री ।)
१. सोम, तुम बहु-संख्यक और शोभन-वीर्ष धव क्षरित करो और
हमें अन्न दो।
२. सोम, तुम अतीव मादक हो। तुम इन्द्र के लिए अञ्न, बल और
देते हो। तुम चमसों में बेठते हो।
३. जो सोस इन्द्र, विष्णु ओर वायु के लिए अभिषुत होकर द्रोण-
कलस में जाते हैं, वे मधुर रसवाले हँ।
४, पिड़लवर्ण और क्षिप्रकारी सोम जल की धारा से बनाये जाते
हुँ। सोम राक्षसों की ओर जाते हुँ।
५. इन्द्र को बढ़ाते हुए, जल लाते हुए सब प्रकार से अथवा सोमरसं
को हमारे लिए मंगलजनक करते हुए और कृषणों का विनाश करते हुएु
सोम जाते हूँ।
६. पिद्गल-वर्णं और अभिषुत सोम इन्द्र की ओर से अपने स्थान को
जाते हँ ।
७. सोम, मनुष्यों के उपयोगी जल को बरसाते हुए तुमने अपनी धारा
(तेज) से सूर्य को प्रकाशित किया था। उसी धारा से बहो।
८. क्षरणशील सोम मनुष्य के लिए और अन्तरिक्ष सें गति के लिए
सुर्य के अइव को जोतते हे।
९. सोम इन्द्र का नाम कहते हुए दसौं दिज्ञाओं में जाने के लिए सुये
के अइव को जोतते हें।
१०. स्वोताओ, तुम लोग वायु और इन्द्र के लिए अभिषुत और मदकर
सोम को अभिषव देश से लेकर मेषलोस पर सिदित करो।
११२६ हिन्दी-ऋण्वेद
११. क्षरणशील सोष, जिस धन का शिवाश्च हिंसक श्रु नहीं कर
सकता, ऐसे शत्रुओं के लिए दुर्लभ अब हमें पो।
१२. तुम हमें बहु-संख्यक और गौ तथा अश्व से युवत धन दो और
बल तथा अन्न हमें शो।
१३. सूर्येव के समान दीप्ति्ाली और पत्थरों से अभिषुत सोम
ब्रोण-कलश में रस घारण फरफे क्षरित होते हैं।
१४. अभियुल ओर दीप्त सोख श्रेष्ठ यजसानों के गहों में गोयुक्त
अन्न, जरू-पारा-रूप से, यरसते हूं।
१५. बज्त्रधर इन्द्र के लिए निष्पीड़ित सोम दषि-संस्कृत होकर और
बशापवित्र में जाकर क्षरित होते हूँ ।
१६. सोम, तुम्हारा जो रस अतीव अधुर हे, उस देव-कास रस को
हमारे घन के लिए वशापविश्र में बहाओ।
१७. हरित-वर्ण, बली, मदकर और क्षरणशील सोम को ऋत्विक लोग
इन्द्र के लिए बसतीवरी-जल में शोधित करते हुँ।
१८. सोम, तुम सुवर्ण, अश्व और पुत्रादि से युक्त घन को हसं दितरित
करो। पशुओं से युक्त अन्न ले आजो।
१९. युद्ध-सलय के समान इस सभय घुद्ध-फाम, अतीव सघुर सोम को,
घश्ञापचित्र में, मेषलोम के ऊपर, अस्विको, घुस सौंचो ।
२०, रक्षाभिलाषी और मेधावी ऋत्विक् अंगुलियों के द्वारा मार्जनीय
और कान्त-कर्सा जिन सोम को शोधित करते है, वह पेचक सोम शब्द
करते हुए थिरते हें।
२१. सोमदेव, मेधावी ऋस्विझ फाम-बर्षक और प्रेरक सोम फो
अंगुलियों और बुद्धि से जलू-धारा के द्वारा भेजते हें।
२२. दीप्तिमान् सोप, क्षरित होओ। तुम्हारा सदकर रस आसकत
इन्द्र के पास जाय। धारक रस के साथ तुस वायु को प्राप्त करो।
. २३: क्षरणशीर सो, तुम शत्रुओं फे घन को, सथाँशतः नष्ट फरले
हो। प्रिय होकर घुस कलश में प्रदेश करो ॥
४४०८(-ह्यदू १९२७
२४. सोम, भदकर और शत्रु औँ को मारनेवाले तुम हमें बुद्धि देते
हुए गिरते हो। तुम देव-हेषी राक्षस-वर्ग को अपदस्थ करो।
२५. उज्ज्वल, दीप्त और क्षरणशील सोम सारे स्तृति-बचनों को
सुनते हुए ऋत्विकों के द्वारा उत्पादित होते हें।
२६. स्षिप्रगासो, शोभन, पवमान, दीप्त और सारे शत्रुओं को सारने-
वाले सोस उत्पादित होते हैं।
२७. क्षरणशीळ सोम यलोक और पृथिवी के उन्नत देश में, यज्ञ-स्थान
में, उत्पन्न किये आते हँ।
२८. सुकर्मा सोम, धारा-रूप से बहुकर तुम सारे शत्रुओं और राक्षसों
को सारो।
२९. सोम, राक्षसों को मारते हुए और शब्द करते हुए हमें दीप्तिमान्
और श्रेष्ठ बल दो।
३०. दीप्त सोम, आकाश और पृथिवी में उत्पन्न सारे स्वीकरणीय
धन हमें दो। |
६४ सूक्त
(देवता पवमान सोस । ऋषि मरीचि-पुत्र कश्यप । छन्द् गायत्री ।)
१. सोस, तुम दर्षक और दीप्तिमान् हो। सोमदेव, तुम्हारा कार्य
वर्षण करमा हँ । सोम, तुम मनुष्यों और देवों के उपयोगी कसों को धारण
करते हो ।
२. काम-वर्षक सोम, तुम्हारा बल वर्षणशील हें, तुम्हारा विभाग भी
वर्षणशील है और तुम्हारा रस भी बर्षणशील हैं। सचमुच तुस सब तरह
से वर्षा करनेवाले हो।
३. सोम, तुम अइव के समान शब्द करते हो। तुम हमें पशु और
अहव दो। घन-प्राप्ति के लिए दरवाज़ा खोलो।
४. बली, उज्ज्वल और वेगवान् सोम की सूष्टि, गौओं, अइवों और
पुत्रों की प्राप्ति की इच्छा से, की गई हूँ।
११२८ हिन्दी-ऋष्वेद
५. याज्ञिक लोग सोम को सुशोभित और दोनों हाथों से परिमाजित
करते हुँ । सोम भेषलोस पर बहते छुँ ।
६. सोम हुनि देनेवाले के लिए झुलोक, पृथिवी और अन्तरिक्ष में उत्पन्न
सारे थन बरसें। ॒
७. विश्वदर्शक और क्षरणशील, तुम्हारी धारायें सूर्य की किरणों के
समान प्रकाशमाना और इस समय निर्मित हो रही हैं।
८. सोम, रसशाली हुम संकेत वा ध्यान करके अन्तरिक्ष से हमें सारे
रूप वितरित करो और नाना धन भी हमें दो।
९, सोम, जब तुम्हारा रस, सुयंदेव के समान, दशापवित्र पर चढ़ता
है, तब तुस उसी मार्ग में प्रेरित होकर शब्द करते हो |
१०, प्रश्ञापक और देवों के प्रिय सोम कान्तकर्सा स्तोताओं की स्तुति
से क्षरिस होते है। सोम उसी प्रकार तरङ्ग चलाते हुँ, जिस प्रकार रथी
अइब को चलाता है।
११. सोम, तुम्हारी जो तरङ्क देवाभिलाषी है, वह दशापवित्र पर
क्षरित होती हुं ।
१२, सोम, तुम अतीव देवाभिलाषी और सदकर हो। इन्र फे पान
के लिए हमारे दशापवित्र पर क्षरित होओ।
१३. सोम, ऋत्विकों के द्वारा संशोधित होकर घुम हमारे अञ्न फे
लिए क्षरित होओ। तुस रुचिकर अञ्च के साथ गौओं की ओर जाओ।
१४. स्तुत्य और हरित-वर्ण सोम, तुम दूध के साथ बनाये जाते हो।
बोधित होकर तुम यजमान को घन और अन्न दो।
१५. सोम, दीप्तिमान्, यजमानों के छारा लाये गये और यज्ञ के लिए
संशोधित किये गये तुस इन्द्र के पास जाओ।
१६. वेगशाली सोम अन्तरिक्ष के प्रति प्रेरित होकर और अंगुलि के
हारा सीले जाकर उत्पादित किये जाते हें।
१७. शोधित और गलिपरायण सोल सरलता से आकाश की ओर
जाते हैं । ये अरपात्र की ओर जाते हें।
हिन्दी-क्रश्वेद ११२९
१८. सौम, तुम हमारी अभिलाषा करनेवाले हो। बल के हारा हमारे
सारे घरों की रक्षा करो। हमारे पुत्र के समान गृह की रक्षा करो।
१९. सोम, जब वहनशील अइव शब्द करता है और स्तोताओं के
द्वारा यज्ञ में स्थान (स्तोत्र-्रवण) के लिए आता है, तब बहुं अइवख्य
सोम जल में (वसतीवरी में) स्थित होता है।
२०. जब वेगशाली सोम यज्ञ के हिरण्मय स्थान पर बैठनै हूँ, तब
स्तोत्र-शून्यों के यज्ञ में नहीं जाते
२१. कमनीय स्तोता सोम की स्तुति करते हैं और सुबुद्धि सनुष्य सोम
का यजन करते हे दुर्बुद्धि मनुष्य नरक में निमज्जत होते ह ।
२२. सोम, तुम बहुत ही मधुर हो। यज्ञ-स्थान सें बेठने के लिए इन्द
और मरुतों के लिए क्षरित होओ।
२३. सोम, क्षरणशील तुम्हे प्राज्ञ और कर्म-कर्ता स्तोता लोग अलंकृत
करते हुँ । तुम्हें मनुष्य भली भाँति शोषित करते हूँ। | ®
२४. ऋान्तकर्मा सोम, क्षरणशील तुम्हारे रस को मित्र, अर्यमा, बरुण
और मित्र सभी पीते हं।
२५. प्रदीप्त सोभ, क्षरणशील तुम ज्ञान-पूत और बहुतों का भरण
करनेवाला वचन प्रेरित करते हो।
२६. दीप्त सोम क्षरणशील तुम हज़ारों का भरण करनेवाला और
यज्ञाभिलाषी वचन, हमारे लिए, ले आओ।
२७. बहुतों के द्वारा बुलाये गये सोम, क्षरणशील तुस इस यज्ञ में
स्तोताओं कें प्रिय होकर द्रोण-कलश में पेठो।
२८. उज्ज्वल और प्रकाशमान दीप्ति तथा घारों ओर शब्द करनेवाली
धारा से युक्त होकर सोम दुध में मिलाय जाते हूँ।
२९. जैसे योद्धा लोग रण-भि में पेठते ही आक्रमण करते हे, वेसे ही
बली, स्तोताओं के द्वारा, प्रेरित और संगत सोस यज्ञ-रूप युद्ध मं आक्रशण
करते हु।
E res 2१,
११३० RR
३०. सोम, घान्स और सुन्दर वीर्यवाले तुम संगत होते हुए दर्शन के
लिए युझोक से श्रवाहित होओ।
घथय अध्याय समाप्त ।
६५ सूक्त
(दितीय अध्याय । देवता पवसान साम । ऋषि वरुण-पत्र भृगु
आथवा भृगु-पत्र जमदञि। छन्द् गायत्री |)
१. अंगुलि रूप, परस्पर बन्धु-भूत और कार्य-कुशल स्थ्रियाँ तुम्हारे
अभिषव को इच्छा करके सुन्दर वीर्यवाले, सारे संसार के स्वामी, महान्
और अपने पति सोस के क्षरणशील होने की इच्छा करती हैं।
२. दशापवित्र से शोधित, तेज के द्वारा दीप्त सोम, देवों के
पास से निखिल धन हमें दो ।
३. पवमान सोम, देवों की परिचर्या के लिए शोभन स्तुतिवाली वर्षा
करो। हमारे अन्न के जिए वर्षा करो।
४. सोम, तुम अभीष्ट-फल-वर्षक हो। पवमान सोम, शोभन कर्स-
घाले हम किरणों के द्वारा तेजस्वी तुम्हें हम यज्ञ में बुलाते हें।
. ५. तुम्हारे धनुष आदि आयुध शोभन हें। देवों को प्रमत्त करते हुए
हुम हमें शोभन चीर्थेयाले पुत्र दो। चमसों में बहनेवाले सोस, हमारे यज्ञ
सं आओ ।
६. सोम, तुम बाहुओं के द्वारा संशोधित किये और वसतीवरी-जल से
सींचे जाते हो। उस समय दुस काष्ठ-पात्र में निहित होकर अपने स्थान में
गमम करते ह ।
| स्तोलाओ, व्यश्व ऋषि के समान दशापवित्र में संस्कृत, महिमा-
न्विठ और अनेक स्तोत्रं से एफ्त सोभ के लिए गाओ।
हिल्दी-हछ्वेद ११३१
८. अध्ययुंजी, शन्रु-निवारण-समर्थं, मधुर रस दैनेवालै, हरित-वर्ण
और दीप्तिमान् सोम को पत्थरों से, इन्दर के पान के लिए, अभिषुत करो ॥
९. सोम, बलशाली, सारे शनरु-घवों के नेता तुम्हारे सख्य का हम
संभजन करते हूँ।
१०. अभोष्ट-फल-वर्दक सोम, घारा-रूप से ब्रोण-कल्श में आओ
आकर इन्द्र ओर मरुतों के लिए मदकर होओ। सोम, तुम आत्म-बल से
युक्त होकर स्तोताओं को धन देते हुए मादयिता होओ।
११. पवसान सोम, द्यावापूथिवी के घारक, स्वर्ग के इष्टा, देवों के
दर्शनीय और बली तुम्हें में युद्-भूमि में भेज रहा हूँ।
१२. सोम, तुम हमारी अँगुलियो के हारा उत्पन्न (निर्गत), अभिषुत
ओर हरित-वर्ण हो द्रोण-कलश्च में आओ। अपने मित्र इन्द्र को संग्राम में
भेजो ।
१३. सोम, दीपनशील तुम बिइव-प्रकाशक हो। हमें प्रचुर अन्न दो।
पवमान सोम हमारे लिए स्वर्ग-सार्ग के सुचक होओो।
१४. क्षरणशील सोस, अभिषव-काळ सें बल से युक्त तुम्हारी,
घाराओं-वाले द्रोण-कलश में, स्तोताओं के द्वारा, स्तुति होती है । अनन्तर
तुभ इन्द्र के पान के लिए आओ और चभसों में पैठो।
१५. सोम, तुम्हारे मदकर और क्षिप्र मद-दाता रस को पत्थरों से
अध्वयूं आदि दुहते हैं। पापियों के घातक होकर तुम क्षरित होओ।
१६. मनुष्यों के यज्ञ करने पर राजा सोम आफाश-मार्ग से द्रोण-
कलश के प्रति जाने के लिए स्तुत हो रहे हैं।
१७. क्षरणशील सोम, हमारी रक्षा के लिए हमें सैकड़ों और सहस्नों
गौओं से युक्त, गौ आदि के लिए पुष्टिकर, शोभन अशवों से सम्पन्न और
स्तुत्य घनदान करो।
१८. सोम, तुम देवों के यान के लिए अभिषुत हो। शत्र-हनन-ससर्थ
बल और सर्वत्र प्रकाश के लिए रूप भी हमें दो।
१९. सोम, जैसे इयेन पक्षी शब्द करते हुए अपने घोंसले में आता है,
वैसे ही क्षरणशील और दीप्तिसानू सोम शब्द करते हुए दशापचित्र से
ब्रोण-कलद में जाते हें।
२०, बसतीवरी नामक जरू के संभवत सोम इन्द्र, यायु, वरुण,विष्णु
और अन्यान्य देवों के लिए बहते हूँ ।
२१. सोम, तुम हमारे पुत्र को अन्न देते हुए सर्वत्र सहस्र-संख्यक धन
हमें दो।
२२. जो सोम दूर अथवा समीप के देश में इन्द्र के लिए अभिषुत
हुए हुँ और जो कुरुक्षेत्र के निकट शर्येणावत् नामक सरोवर में अभिषुत
हुए हे, वे हमें अभिमत फल दें।
२३. जो सोम आर्जीक (देश वा व्यास नदी? ) में अभिषुत हुए हें,
जो कुत्व (कर्मनिष्ठ) देश, सरस्वती नदी के तट पर और पंजचन (पंजाब
थ चार वर्ण और निषाद) में प्रस्तुत हुए हें, वे हमें अभीष्ट प्रदान करें।
२४. वे सारे अभिषुत, दीप्त चमसों में क्षरणशील सोम, आकाश से
घृष्टि और शोभनवीर्यवाले पुत्र तथा धन आदि हमें दें।
२५. देवाभिलाषी, हरितवर्ण, गोचर्स के ऊपर प्रेरित और जमदग्नि
ऋषि के द्वारा स्तुत सोम पात्र में जाते हें।
२६. जैसे जल में ले जाकर अइवों को साजित किया जाता हे, वैसे
ही दीप्त, अन्नप्नेरक और क्षीर आदि में सिलाये जाकर सोम वसतीवरी में
पुरोहितों के द्वारा माजित किये जाते हुँ।
२७. सोसाभिषव हो जाने पर ऋस्विक लोग इन्द्रादि देवों के लिए
तुम्हें पत्थरों से प्रेरित करते हें। तुम अभिषुत होकर, प्रदीप्त धारा से,
द्रोण-करूश में आओ ।
२८. सोम, तुम्हारे सुखकर, वनादि-प्रापक, शत्रुओं से रक्षक ओर
बहुतों के हारा अभिलषणीय बल को हम याज्ञिक, आज के यज्ञ में, भजते हें।
२९. सोम, मदकर, स्वीकरणीय, मेधावी, बृद्धिशाली, स्तुति-युषत
स्बे-रक्षक ओर अनेकों के द्वारा स्पृहणीय तुम्हारा भजन हम करते हैं
हिन्दी-ऋष्वेद ११३३
३०, शाभन-पञ्च सोम, हप तुम्हारे धन का आश्रय करते हैं। हमारे
पुओं में तुम भन और सुन्दर ज्ञाय दो। हम सबे-रक्षक और बहुतों के
हारा अभिलषित तुम्हारा आश्रय करते हैं।
६६ झूक्त
(देवता अधि ओर पवसान। ऋषि शत बैख्ानस । छन्द गायत्री
ओर अनुण्टुप्।)
१. सुक्ष्मदशेक सोम, तुम सखा ओर स्तोतव्य हो। हय तुम्हारे सखा
है। हमारे लिए सारे कर्मा और स्तोत्रों को लक्ष्य कर अरित हो ।
२. पवमान सोम, तुम्हारे जो दो डेढ़े पसे (व किरण और सोमरस)
हे, उनसे तुम सारे संसार के स्वामी होते हो ।
३. शोधित ओर कान्तकर्सा सोस, तुम्हारा तेज (वा पत्र) चारों ओर
है। उससे दुम वसन्त आदि ऋतुओं में सर्वत्र सुशोभित होते हो।
४. सोम, तुम हमारे सखा हो। हमारे सारे स्तोत्रों की ओर ध्यान
देकर, हम मित्रों के रक्षण के लिए, अन्न देने को आओ। |
५. तेजस्वी तुम्हारी सर्वत्र ज्वलनशील और पुजनोय किरणं पृथिवी
पर जल का विस्तार करती हूँ।
६. ये गंगा आदि सात नदियाँ तुम्हारी आज्ञा का अनुगमन करती
हैं। तुम्हारे लिए ही गाये, दुग्ध आदि देवे को, दोड़ती हैं। |
७. सोम, तुम इन्द्र के लिए मदकर और हमारे द्वारा अभिषुत हो।
दशापचित्र से निकलकर ट्रोण-कलश सें जाओ। हमें प्रचुर धन दो ।
८. सोस, स्तुति करते हुए सात होत्रफ लोगों ने देवों के सेवक यजसाब
के यज्ञ में मेत्रावी ओर क्षरणशील तुख्हारी स्तुति को।
९, सोम, अँगुलियाँ शीघ्र बनें, शब्दचाले और सेषलोम से बनाये
दशापवित्र पर तुम्हें तब गारती (शोधित करती) हु, जब तुस शब्द करते
हुए वसतीवरी नामक जल से सिचित होते हो।
११३४ हिम्दी-ऋग्बेद
१०. ऋान्तपज्ञ और अन्नवान् सोम, जैसे, अइत्र अन्न छाने के लिए
दौडते ह, वैसे ही यजमानों फे अन्न की कामना करनेवाली तुम्हारी घाराएँ
यौड़ती हैं।
११. सघुर रस बरसानेवाले प्रोग-कलश को लक्ष्य करके सेषलोपसय
दश्चापवित्र पर पुरोहितों के द्वारा सोम बनाये जाते हे । हमारी अेंगुलियाँ
सोमो के शोधन की इच्छा करती हें।
१२. जेसे दुग्ध देकर मनुष्यों को आनन्द देनेवाली घेनुएँ और नव-
प्रसुता गायं अपने गोष्ठ को जाती हे, वेसे ही क्षरणशील सोम अपने संगसन-
स्थान द्रोण-कळञ्च की ओर जाते है सोम यज्ञ-स्थान की ओर जाते हेँ।
१३. सोम, जब तुम दुग्ध आवि में मिलाये जाते हो, तब हमारे यज्ञ
के लिए क्षरणशील जल (वसतीवरी) जाता है।
१४. पुजाभिलाषी और तुम्हारे बन्धु-कर्म में स्थित हम तुम्हारे रक्षण
सें हुं और तुम्हारे बन्धुत्व की कामना करते हूँ।
१५. सोम, अङ्गिरा लोगों की गाये खोजनेवाले, महान् और अनुष्य-
दर्शक इन्द्र के लिए बहो तथा इन्द्र के उदर में पेठो।
१६. सोम, तुम महान् हो। तुम देवों फे आनन्ददाता ओर प्रशंसनीय
हो। सोम, उग्र बलवालों में भी तेजस्वी हो। शत्रुओं के साथ युद्ध करते
हुए उनके धन को तुमने जीता।
१७. सोम बलियों में बली, श्र में शूर ओर यशां में दहान् दाता हैं।
१८. सोम, तुम सुन्दर वीर्यवारे हो। तुम यज्ञों के प्रेरक हो। हमें
झन दो। पुत्र दो। तुम्हारी मैत्री के लिए हम तुम्हारा आश्रय करते हैँ।
दात्रु-घाधा को दुर करने के लिए हम तुम्हारा आश्रय करते हेँ।
१९. पवमान सोम, तुम हमारे जीवन की रक्षा करते हो। हमें अझ-
रस और अन्न वो। राक्षसों को हमसे दुर ही नष्ट करो।
२०, चारों बर्ण और निषाद के हितेपी, ऋषि, पवित्र, पुरोहित और
सहायशत्बी अग्नि से हम धवादि की याचन? करते हुँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ११३५
२१. अग्नि, शोभनकर्या तुम हमें बुध्दर बल्बाह हैज रो! पुत्र औं
शो आदि भी दो।
२२. पवमान सोन शत्रुओं का अतिक्रम करते हँ। ये त्वोधाऔ की
शोभन स्तुति को प्राप्त करते हूँ। वे सूर्यं के समाव तबके ब्नीद
भी हें।
२३. मनुष्यों के हारा बार-बार झोध्यमान सोस देवों के पास निरन्तर
जाते है। वे आनन्दप्रद अञ्नवाले हुँ। वे हूवि के लिए हिैषी हूं। घे
सबके द्रष्टा हुँ।
२४, क्षरणशीछ सोस ने काले अन्धकार को नष्ट करते हुए, दुर,
सर्वत्र व्यापक, दीप्तिमान् और इवेतवर्ण तेज उत्पन्न किया।
२५. बार-बार अन्धकार का विनाश करनेवाले, हरित-वर्ण, व्यापक
तेजवाले और क्षरणशील सोम की आइनन्ददायिदी, शीघ्रकारिणी आ
धहनशील धारयं दशापवित्र से निकल रही हें।
२६. पवमान सोम, अतीव रथवाले, निर्मलतम यशवाले) हरिह
घारावान् और सस्तो की सहातया से युत हैं। अपनी किरणों छे चारै
विश्व को व्याप्त करते हे।
२७. पवसान, अञ्चदाता और स्तोता को सुन्दर वीयं से युय पुत्र देखे
हुए सोम अपनी किरणों से सारे संसार को व्याप्त करते हँ।
२८. क्षरणशील सोस मेषलोस्य पवित्र को लाँघ कर क्षरित हुए ।
पवित्र से शुद्ध होकर सोस इन्द्र के पेट में पं5।
२९. किरण-रूप सोम योचर्म के ऊपर पत्थरों के साथ कीड़ा करते हुँ!
मद के लिए सोम ने इन्द्र फो बुलाया।
३०. क्षरणशीळ सोम, शलोक से इयेम-छपिणी गायत्री से जाये गये
और यशोगुक्त सोभ, रस-रूप अन्न तुम्हारे पास है। उद्वे हमें, चिर
जीवन के लिए, आनन्दित करो।
६७ सूक्त
(यता पवमान साम । ऋषि बाहस्पत्य भरद्वाज, मारीच कश्यप
श्हूगण गेतस, भोम आत्रि, गाधिन दिश्वामिद्र, भार्गव जमदग्नि
रावर्शा् वासिष्ठ, आङ्गिरस पवित्र ; छुन्द् गायत्री, पुर उष्णिक्
म ओर अनुष्टुप् ।)
१. क्षरणशील सोभ, तुम अतीव सदकर, अत्यन्त ओजस्वी, हिंसा-
शून्य थश्ञ में अभिषव-घारा की इच्छा करवेवाले और स्तोताऔं को धन
ऐनेवाले हो। द्रोण-कलश में घारा-खूप से गिरो।
२. कर्म-निष्ठ पुरुहितों को तुम प्रमत्त करनेवाले हो। उन्हें धन देले
हुए यज्ञ के धारक, प्राज्ञ ओर क्षभिषृत तुम अज के साथ इन्द्र के लिए
अतीव प्रसत्तकर बनो।
३. पवमान सोम, पत्थरों से कूटे जाफर तुम शब्द करते हुए कलश
की ओर जाओ और दोप्तियुक्त तथा शत्रुशोषक बल भी प्राप्त करो।
४. पत्थरों से कूटे जाकर सोम भेषलोसमय पवित्र से निकलकर जाते
है और हरित-घर्ण, सोम अन्न से कहते हैं कि, “में तुम्हारे साथ इन्द्र को
बुलाता हूं।”
५. सोम, जब घुम सेष लोमसय पवित्र (दशापवित्र) से निकलते हो,
हबं हृविरूप अन्न, सोभाग्य (घन) ओर गोयुक्त बल प्राप्त करते हो ।
६. पात्रों सं गिरनेबाले सोम, हमारे लिए सो गाये, सह अइब ओर
धन दो।
७, सेषलोसधय पवित्र से मिकलकर कलश की ओर अनेक घाराओं
पे गिरते हुए ओर शीघ्र मदकारी सोम चमस आदि को व्याप्त करते हुए
अपनी गति से इन्द्र को परिब्याष्त करते हें।
सोम सबसे उच्चत हूं। वे पूर्वजों फे द्वारा अभिषुत सोम संग
इन्द्र क छिए कलश में जाते हैं ओर इन्द्र के लिए क्षरित होते हैं।
हिप्दी-ऋग्वेद ११३७
९, कायं करने के लिए इधर-उधर जानेवाली अँगुलियाँ मदकर रस को
गिरानेबाले, यागादि कसै के प्रेरक और क्षरणशील सोसत को प्रेरित करती
हुँ। स्तोता लोग स्तोत्र के हारा इनकी भली भाँलि स्तुति करते हुँ।
१०. पूषा देवता का वाहन अज (बकरा) अथवा अइव है। पृथा
देवता हमारी सारी यात्राओं में रक्षक रहें। बे हमें कमनीय स्त्री
(कन्या) दें।
११. कपर्दी (कल्याण मुकुटवाले) पुषा के लिए हमारे सोम, मादक
घृत के समान, क्षरित होते हे। बे हमें कमनीय स्त्री (कन्या ) दें।
१२. सर्वत्र दीप्तिमान् पुष्, तुम्हारे लिए अभिषुत सोम, शुद्ध घृत के
समाग क्षरित होते हँ।
१३. सोम, लुम स्तोताओं के स्तोत्र के जनक हो। तुम व्रोण-कलश को
प्राप्त करो। देवों के लिए तुम रत्न आदि के दाता हो।
१४. अभिषुत सोम उसी प्रकार शब्द करते हुए द्रोण-कलश की ओर
जाते हू, जैसे श्येन पक्षी (बाज) अपने घोंसळे को जाता है।
१५. सोम तुम्हारा अभिषुत रस, उर्वन्नगन्ता, इयेन पक्षी के समान
चमसो में फलता हुँ।
१६. सोम, तुम अतीव मधुर रसवाले और मादक हो। इन्द्र को प्रसन्न
करने फे लिए आओ।
१७. अञ्चवान् और अभिषुत सोम को देवों के लिए ऋत्विक् लोग देते
हैं। थे सोम रथ के समान शत्रुओं की सम्पत्ति का हरण करनेवाले हूँ।
१८, अतीव सदकर, दीप्त ओर अभिषुत सोस ने सोमरस के पान के
लिए वायु को बनाया। | |
१९. सोम, तुम पत्थरों से अभिषुत होकर स्तोता को शोभन शक्तिवाले
धन आदि देते हुए दशापवित्र की ओर जाते हो। _
२०. पत्थरों से फभिषुत और सबके द्वारा स्तुत सोम राक्षसों के बधिक
हो। भेषलोनमय दशापवित्र को छाँघकर वे प्रोणकलक सें जाते हैं।
फा० ७२
११३८ हिन्दी-ऋग्वेव
2002
२१. क्षरणशीर सोस, जो भय दूर ९
है, उसे भळी भाँति बिनष्ट करो।
२२. सबके प्रष्ट) क्षरणशील और दशपचिज फे द्वारा शोषित सोम
हमें पवित्र करें।
२३. क्षरणशील अग्नि, तुम्हारी जो तेज के बीच में शुद्धिकर सामथ्ये
हँ, उससे हमारे पुत्रादि बद्धक शरीर को पबित्र करो।
२४. अग्नि, तुम्हारा जो शोधक और सुर्य आदि के तेज से युक्त तेज हे,
उससे हमें पवित्र करो। सोमासिषव से हमें पविन्न करो।
२५. सबके प्रेरक और प्रकाशमान सोस, तुम अपने पाप-शोधक तेज
और अभिषव से चारों ओर से मुझे पवित्र करो।
हे, जो पाए में हं और जो यहां
२६. देव, सबके प्रेरक और क्षरणशील अग्नि, घुम वृद्धतम और
सामथ्यंबाले तीन (अग्नि, वायु और सूर्य के) शरीरों से शुद्ध करो।
२७. इन्द्रादि देव मुझे पवित्र कर। वसु देवता हमें अपने कर्मों से
पवित्र करे। सब देवता मुझे पवित्र करे। जात-वृद्धि अग्मि, मुझ पवित्र
करो ।
२८. सोम हमें भली भाँति बढ़ाओ । अपनी सारी किरणों से दो को
उत्तम हविरूप सोमरस दो।
२९. सोस, सबको प्रसन्न करनेवाले, शब्द करनेवाले, तरुण, आहुतियों
फे झारा वर्धमीय और क्षरणशील हँ । नमस्कार करते हुए उनके पास
हुम जाते
३०. सवके आक्रमणकारी शत्रु का परशु नष्ट हो। दीप्यमान सोस,
हमारे लिए क्षरित होओ। सबके हन्ता उस धात्रु को मारो।
३१. जो मनुष्य पवमान सोम देवता के ऋषियों के द्वारा सम्पादित
बेदरसरूप सार (सुफ्त-समूह) को पढ़ता है, बह एसे पाप-शुन्य अन्न का
भक्षण करता हुँ, जिससे वायुदेव पवित्र कर चुके हु।
३२. जो ब्राह्मण पवमान सोम देवता के ऋषियों के द्वारा सम्पादित
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सुम्न ११३९
वेदरसझूप सार (एएल-पूट्) फो पढ़ता है, उसके लिए सरस्वती (वाग-
देवता) स्मयं क्र) पूव और सदकर सोल का दोहन करती हैं।
६८ सूः
(४ अजुवाक। देवता पवमान सास । ऋषि अलम्दन-पुत्र चस्सप्रि ।
छन्द् जगती आर त्रिष्ठुपू।)
१. आनन्दवायिमो गोओं के ससान मादक सोम इन्ब्र के रिए क्षरित
होते हुं। ' हुम्या” शब्द फरतो हुई और कुलो पर बेठी हुई दुग्धदात्री गायें
घारों ओर दहृनेवाले और शुद्ध सोमरस को, इस्र के लिए, धारण करती हैं।
शब्ब करते और स्तोताओं को मुख्य स्तुतियों को सुनते हुए हरित-
धर्ण सोम ऊपर चढ़नेबाली ओषषियों (लताओं) को फलसंयुक्ता करके
हवादिष्ठ करते और मेषलोममय दशापविन्न से होकर बड़े वेग से बहते हैँ ।
धे राक्षसों को मारते हे। अनन्तर सोमबेव यजसानों को श्रेष्ठ धन देते हूँ।
३. सोम ने साथ रहुनेवाली य्वापूथिदी को बनाधा। उन्हें बद्धनशीछ
और सासथ्यवाली करने के लिए सोम ने अपने रस से सींचा। महती और
असीम चायापृषियी को ज्ञात कराकर और चारो ओर जाते हुए सोम ने
अविनाशी बळ प्राप्त किया।
४. प्राज्ञ सोम द्यावापृथिवी में विचरण करते हुए और अन्तरिक्ष के
जल को भेजते हुए अञ्न फे साथ, अपने स्थान (उत्तर बेदी) को आप्यायित
रते हँ। अनन्तर ऋत्विकों के हारा सोम जो में (जो के सत्तू में) मिलाय
जाते हूँ। वे अंगुरियों का समागम पाते और प्राणियों की रक्षा करते हें।
५. प्रवृद्ध मन से कार्य-युशल सोम पृथिवी पर जन्म ग्रहण करते हैं।
सोम यञ्च में स्तुत्य हें । वे देखो फे ररा नियम से रक्खे गये ह--सूर्ये-रूप
से अवस्थित हुँ । युवा सोम और सूर्य उत्पत्तिकाल में विशेष रूप से जन्म
रहण करते हें। उनमें एक गुहा में संस्थापित हें; दूसरे प्रकाशित होते हैँ।
६. विद्वान् लोग मदकर सोमरस का स्वरूप जानते हें। सोम-रूप अन्न
को (प्राण-दाय्रितो शक्ति फो) गायत्री-रूप पक्षो बुर--थुलोक से लाया
११४० पिग्दी-आऋग्बेद
था। वैसे भली भाँति बद्धणान, किरण-रूप, देवकामी, चारों ओर जानेवाछै
और स्तुत्य सोम को ऋत्विक लोग वश्नतीवरी-जल में परिमाजित करते हैं।
७. सोम, दोर्यो हाथों से उत्पन्न, ऋषियों के हारा पात्र में निहित और
अभिषुत तुम्हें दस अँंगुलियाँ स्तुलियों और कर्सो के द्वारा भेषडोमसय पवित्र
(चलनी) पर परिसाजिव करती हँ॥ देवों को बुलानेवाले कर्म-निष्ठ
ऋत्विकों के द्वारा गृह में संगहीत तुम स्तोताओं को अन्न देते हो।
८. पात्रो में चारों ओर जाते हुए, देवों के द्वारा अभिलषित और शोभन
स्थानवाल़े सोम को मनोगत स्तुतियाँ स्तोत्र करती हें। मदकर रसवाले
सोम, बससीवरी-अळ के साथ, आकाश से प्रोण-कलक्षा में गिरते हुँ। शत्रु-
घन को जीतनेवाले और असर सोम बचन को प्रेरित करते हुँ।
९. सोम खुलोक से समस्त जल दिलाते हें। फिर वे दशापवित्र में
शोधित होकर कलश सें जाते हुं। वे पत्थरों, बसतीवरी जल और दुग्ध
आदि से अळंकृत होते है। अनन्तर अभिषुत ओर शोषित सोम प्रिय और
श्रेष्ठ घम स्तोताओं को देते हुँ।
१०. सोम, दाता तुन परिषिव होकर मानाविध अन्न हमें दो। हेष-
शुन्य चाबापृथिबी को हम पुकारते हु, देवो, हमें बोर पुत्र से युक्त धन दी ।
६९ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि आंगिरस हिरण्यस्तृप | छन्द जगती
ओर त्रिष्टुप् |)
१, असे धनुष पर वाण रक्स जाता है, वैसे ही हम पदमान-रूप इन्द्र
में मननीय स्तुति को रखते ह। जैसे बछड़ा गोरूप माता फे पयोधर
स्तन के साथ सुष्ट हुआ हुँ, बैसे ही इन्द्र के अद के लिए हम सोम को बनाते
हू। जैसे दुग्धदायिती धेनु बछड़े के आगे दूध देने को जाती हे, बैसे ही
' स्तोताओ के आगे इन्द्र आते है। इन्र के कर्मों में सोस दिया जाता है।
२. इन्द्र के लिए स्तोला लोग स्तुति करते हेत इन्द्र के लिए झदक"
सोस का सिचन किया जाता हु (सोम में जो का सत् मिलाया जाता हूँ ) ।
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ुन्दीन्ड्येए ११४१
मकर रसवाली सीम बारा इन्द्र के मुख में डाली जाती है। गृहादि में
अली भाँति विस्तृत, मदकर रखवारे, क्षरणशील और गति-परायण सोम
बैसे ही मेषलोममय पित्र में जाते हैं, जैसे सुचतुर योद्धाओं का बाण फेंका
जाकर शीघ्र ही नियत स्थान को पहुँच जाता है।
३. जिस वसतीयरी-जल में सोम शोषित व मिश्चित किये जाते हैं,
धह उनकी स्त्री के तुल्य हू । उसी वधू से मिलने के लिए सोल भैषचर्स पर
क्षरित होते हे। सत्यरूप यज्ञ में जाफर सोम अदीन पृथिवी पर उत्पन्न
(अपत्य-रूप) ओषधियों को अग्रभाग में यजमान के लिए कलथुक्त करते
हैं। हरित-वर्ण, सबके यजजीय और गुहां में संगृहीत सोस शत्रुओं को लाँच
जाते है। सर्वत्र व्यापक के समान सोस शनु-बछ को न्यून करके अपने तेज
धै शोभित होते हुँ।
४. वर्षक सोम शब्द करते हुँ। जैसे देवता फे संस्कृत स्थान पर देवी
लाती हुँ, बेसे ही सोम के पीछे गायें जाती हैं। सोम श्वेतवर्ण और सेषलोस-
प्रय पवित्र को छांघते हैं। सोम उज्ज्वल कवचच के समान दुग्ध आदि के
द्वारा अपने शरीर को ढकते हें ।
६. अमर और हरित-वर्ण सोम जरू से शोधित होते समय स्वयं शुक्र
षयो-घस्त्र से चारों ओर आच्छादित होते हैं। सोम ने शलोक की पीठ पर
रहनेयाले सूर्य को, पाप-नाशक शोधन के लिए, चुलोक में स्थापित किया।
सबके शोधन के लिए दयावापृथिवी के ऊपर आदित्य तेज को स्थापित किया।
६. सुवीर्यं आवित्य की सर्वे-व्यापक किरणों के समान सर्वत्र बहुनेजाले,
मदकर, शत्र-घातक चमसों में व्याप्त और बनाये जानेवाले सोम सुतो से
बने विस्तृत वस्त्रों के साथ चारों ओर जाते हुँ। वे इन्द्र को छोड़कर अन्य
देव के लिए नहीं क्षरित्त होते।
ऋत्विकों के द्वारा अभिषत और भवकर सीम स्तुत्य इच को उसी
रह प्राप्त करते हैं, जिस तरह नदियाँ समुद्र को जाती हैत सोम हमारे
गह मे पुत्रादि और गवादि को सुख दो। सोम, हने अझ और पुत्रादि दो।
११४२
८. सोम, हमें बसु, हिरण्य, अशव,) गो, जो और शोभन वीर्य से युक्त
घन दो। सोम, तुम मेरे पितरों के भी पिता हो; इसलिए तुम मेरे युलोक
के उस्चत प्रदेश (स्वर्गादि) पर स्थित कर्म-मिष्ठ और हविरूप अन्न के
कर्ता पितर हो।
९. जसे इन्र के रथ संग्राम में जाते हें, वेसे ही हमारे शोधित सोम
आश्चय-स्थर इन्द्र की ओर आते हुँ। पत्थरों से अभिषुत सोम मेषलोमभय
पबित्र को छाँघते हें और हरित-बर्ण सोम बुढ़ापे को भरकर (तरुण होकर)
बृष्टि को भेजने को (बरसने को) जाते हैं।
१०. सोम, तुम महान् इन्त्र के लिए क्षरित होओ। तुम इस को सुख
बेनेवाले, अनिन्द्य और झन्रुओं को हरानेवाले हो। मुझ स्तोता को आछुम्दक
धन दो। छावापुथिबी, उत्तम धनों से हमारी रक्षा करो ।
७० सुर
(देवता पवमान सोम। ऋषि विश्वामित्रगोत्रज रेणु । छन्द
जगती ओर त्रिष्टुप् |)
१. प्राचीन यज्ञ में स्थित सोम के लिए इक्कीस गाये क्षीर दुहतो हुँ
(उत्पन्न करती हूँ) । जब यज्ञों के द्वारा सोम वद्धित किये गये, तब उन्होंने
चार सुन्दर जलों (वसतीवरी आदि) को परिशोधन के लिए बसाया।
२. यञ्ञकर्सा यजमानों के द्वारा सुन्दर जल माँगने पर सोम ने द्ावा-
पृथिवी को जल से पूर्ण किया। सोम अपनी महिमा से अतीव दीप्त जल
फो ढकते हें। हृविर्युक्त होकर ऋत्विक् लोग प्रकाशमान सोम के स्थान को
जानते हें।
३. सोम की प्रज्ञापक, असर और अहिसनीय किरणे स्थावर-जङ्कम
की रक्षा करें। उन्हों किरणों के द्वारा सोम बल और देव-योग्य अन्न देते
है। अभिषव के अनन्तर ही राजा सोन को मनीष स्तुतियाँ प्राप्त करती हुँ।
४. शोभन कर्मवाली दस अंगुलियों से शोधित होकर सोम लोकों के
निरीक्षण के लिए अन्तरिक्षश्थ मध्यमा वाग् में रहते हें। मनुष्यद्षक और
[
हिन्दी-हहग्वेद ११४३
क्षरणशील सोम सुन्दर जल के बरसने के लिए, यज्ञादि की रक्षा करते हुए,
अन्तरिक्ष से मनुष्यों और देणों को बेखते हे
५. इन्द्र के बल के लिए पश्चित्र-दारा शोधित और द्यावापृथिवी के बीच
मे वर्तमान सोम चारों ओर जाते हैं। जैसे बीर शत्रुओं फो वाणों से मारता
है, बैसे ही सोम दुःखद अशुरों को बार-बार ललकारते हुए शोषक बल से
ुर्ब्ध असुरों को मारते हु
६. सातु-भूत दायाए बो को बार-बार देखते हुए ओर शब्द करते
हुए सोम उसी प्रपार सवत्र जाते हुँ, जिस प्रकार बछड़ा गाय को देखकर
शब्द करते हुए जात; ठ ओर सर्दूगण शब्द करते हुए जाते हँ। जो जरू
मनुष्यों का कस्यगकारफ हे, उस मुख्य जळू को जानते हुए शोभनकर्मा
और क्षरणशोल जोम, अपने स्तोत्र के लिए, मुझे छोड़कर, किस मनुष्य
का वरण करेंगे?
७. शत्रुओं के लिए भयंकर, जरू-वर्षक, सबके दर्शक और क्षरणशील
सोम अपने बर की इच्छा से दो हरितवर्ण की सींगों (धाराओं ) को तेज
करते हुए शब्द करते हु । अनन्तर सोम अपने स्थान द्रोण-कलश में बेठते
हैं। सोम के शोधक मेषचर्म ओर गोचर हूँ।
८. पात्र में स्थित, अपने शरीर का शोधन करते हुए, पवित्र और
हरितवर्ण सोम उन्नत होकर देघबलोममय पक्षापवित्र में रक्खे जाते हूँ । अनन्तर
मित्र, वदण और दायु के लिए पर्याप्त जल, दघि तथा दुग्ध से भिश्चित और
मदकर सोम शोभगकर्मा ऋष्विकों के इरा प्रदत्त होते हैं।
९. सोग, तुम जल-वर्षक हो। देवों के पान के लिए क्षरित होओ।
सोम, तुम इन्र के प्रियकर पात्र में पंठो। हमें पीड़ा देने के पहुले ही दुर्गम
शाक्षसों के हाथों से हमें बदाओ। मार्गश्ाता पुरुष सार्गे-जिज्ञासु को जैसे
मार्ग बता देता हुँ, पैसे ही यज्ञमार्गज्ञाता तुम हमें यञ्ञ-पथ बताकर रक्षा
करो।
१०. जैसे भेजा गया घोड़ा युद्ध-मभि को जाता है, वैसे ही ऋष्विकों
रा प्रेरित होकर तुम द्रोण-कलश में जाओ। अनन्तर, हे से।म, इन्द्र
प्र
ध
११४४ हिन्दी-ऋग्वेद
के जठर को सींचो। जैसे नाविक नौकाओं से मनुष्यों कौ नदी यार कराले
हें, बसे ही सब जानमेबाले तुम हमें पापों के पार ले जाओ। शूर के समान
शत्रुओं को मारते हुए निन्दक शत्रु से हमें बचाओ।
७१ सुर
देवता पवमान साम । ऋषि विश्वामित्रगात्रीय ऋषभ । छन्द जगती
ओर निष्टुपू |)
१. यज्ञ में ऋत्विकों को दक्षिणा दी जाती है। बलवान् सोम ट्रोण-
कलश में पैठ रहे हें। जागरणशील सोभ द्रोही राक्षसों से स्तोताओ को
बचाते ह। सोम आकाश को जल-घारक घबाते हैं । घावापुथिवी के
अन्धकार-विमाश के लिए सोम सूर्य को द्युलोक में सुदृढ़ किये हुए हैं।
२. शत्रुइन्ता योद्धा के समान बलवान् सोम शब्द करते हए जाते हैं।
सोम अपने असुर-बाधक बल को प्रकट करते हँ। सोम बुढापा छोड़ रहे हें ।
पीने का द्रव्य होकर सोम संस्कृत व्रोण-कलश में जा रहे है। भेषलोममय
पवित्र सें अपने गतिपरायण रूप को स्थापित कर रहे हूँ।
३. पत्थरों और बाहुओं से अभिषुत सोम पात्रों में जाते हैं। सोम वृष
के समान आश्वरण करते हँ। स्तोत्र से स्तुत होकर अन्तरिक्ष में सर्वत्र जाते
हुए सोम प्रसन्न होते हें। थे पात्रों में जाते हुँ। स्तुत होकर वे स्तोताओं
को धन देते हें । जल से शोषित होते हें। देवों को जिस यज्ञ में हवि दिया
जाता हूँ, उसमें पूजित होते ह्।
४. मदकर सोम दीप्त यलोक मं रहयेबाले, मेघो के वरद्धक और शत्र-
पुर के नारक इन्द्र को सींचते हें। इचि फो भक्षण करनेवाली गाये अपने
सम्नत स्तम में स्थित दुग्ध को, अपनी महिमा के द्वारा, इन्ब्र को देती हैं।
५. बाहुओं की दस अंगुलियाँ यज्ञ-देश में सोस को वसे ही भेज रही हुँ,
जैसे रथ को भेजा जाता है । गाय का दूध भी उसी समय जाता हुँ, जिस समथ
मननीय स्तोत्रबाले इस सोम के स्थान को बनाते
हिन्दी-ऋण्येद ११४५
६. जैसे शयेन पक्षी अपने घोाँसलै को जाता है, वैते ही प्रकाशभाव और
पवमान सोम अपने कर्मे-हारा नि्भित और सुबर्णमय गृह को जाते हैं ।
स्सोता लोग यज्ञ में प्रिय सोस की स्तुति करते हँ। बजनीय सोम, अ
समान, देवों के पास जाते हूं।
७. सोभन, कान्तप्रज्ञ और जल से विशेष रूप से धिक्त सीप पचित्रता
से कलश में जाते इ। सोम वृषभ (गः ३रथपूर) हुँ । वे तीनों सबनों थे
रहुनेवाले (त्रिपृष्ठ) हू । वे स्तुति को लक्ष्य करके शब्द करते हुँ। दे
नाना पात्रों सं आते-जाते हैं। वे अनेक उणाओं में शव्द करते हुए सुझो-
भित होते हे
८. शत्र-निवारक सोम-किरण अपने रूप को प्रदीप्त करती ह
यद्ध-भमि में रहती है । वह युद्ध में शत्रुओं को मारती है। वह जलदाता है
बह हवीरूप अन्न के साथ देव-भक्त फे पास जाती है। बह स्तुति से मिलती
है। जिन वाक्यों से स्तोता पशुओं से प्रार्थना करते हुँ, उनसे सोम मिलित
होता हैं ।
९. जैसे सांड गायों को देखकर बोलता हे, वेसे ही स्ठुतियाँ सुमकर
सोम शाब्द करते हँ । वे सूर्य-रूप से यलोक में रहते हैं। सोम शलोकोत्पन्न
और शोभनगमन हूँ। दे पुथिवी को देखते हुँ। सोभ परिज्ञान से प्रजा-
गण को देखते हूं
७२ सूर
(देवता पतमान साम । ऋषि आङ्गिरस हरिमन्त । छन्द जगती ॥)
१. ऋत्विक लोग हरितवर्ण सोम का शोधन करते है । घोड़े के समान
सोम की योजना की जाती हं। कलश सें अवस्थित सोम दूध में मिलाय
जाते हें। जब सोम शब्द करते हुँ, तब स्तोता लोग स्तुति करते हु। अनन्तर
बहु-स्तोत्रयुक्स स्तोता के प्रिय सोम घन देते हैँ।
२. विद्वान स्तोता लोग उत्त समय एक साथ ही मंत्र पढ़ते है, जिस
समय इन्द्र फे जठर में ऋत्विकू लोग सोम का दोहन करते हूं और जिस
११४९ पजय
५,
पी
प़मय शोधन एरा कर्मनेशा अभिलषणीय और गदकर सोम का,
शस अँगुलियो से, अभिषब करसे हैँ।
8. देवों को प्रस करने फे लिए फलश आदि में जानेवाले सोम
एघ आदि फो लक्ष्य कर जाते हैं॥ उस ससय सोम सूर्थ-पुत्री उषा फे
शेष्ठ शब्द का तिरस्कार फरते हत स्तोता सोम फे लिए पर्याप्त स्तोत्र
है। सोम दोगों घाएुओों से उत्पन्न, परस्पर मिलित और इघर-
उधर आनेबाली अंगूछियों से मिलते हुँ।
४. पवसान गुणवाले इन्द्र, कर्मनेताओं के द्वारा शोधित, पत्थरों
से अशिषुत, वेयों फे £ सक्रकर्सा, गोपति, प्राचीन, पात्रों में बहनेवाले,
बहुझमेंदाम, यनुण्यों के थज्ञ-साथक और दशापविश्र से शुद्ध सोम अपनी
धारा ते, यज सं, पात्रों में, तुस्हारे लिए, गिरते हे
५. इन्द्र, फर्सेदा्याणो फी भुजाओं से प्रेरित और अभिषुत सोम
तुम्हारे यछ फे जिए आते हे। आयन्तर, तुम सोसवान करके, कर्मा को
पुर्ण करते हो! तुम यज्ञ में दात्रुओं को अली भाँति विजित करते हो।
जैले पी बक्ष पर बेठता है, बैसे ही हरितवर्ण सोम अभिषवण-फलक
णर बंठते हुँ
६. ऋन्तकर्मा और चनीषी ऋत्विक शब्द करनेवाले और घान्तदशञी
सोस का अशिणव करते छू । अनन्तर पुनः उत्पासशील गायें और मननीय
en टि है ॥ ११५१ na १ अति विलिन VA सट कु eT भ र wh hn च्ल र hn
स्वुतियाँ, एक साथ होकर, सत्यक्षएण यञ्च के सदन उत्तर बेदी पर इन
सोस से मिलती हैं।
७. महान थुरोक के धारक, पृथिवी की नाभि--उच्नत स्थान-~उत्तर
बेदी प्र--7हुत्विक्तों के हणा निहित, बहनेथाले जलसंघ के बीच सिक्त,
एन्द्र के पाउ उर, फासवर्यक आर व्यापक घनवाले सोम, मद्धाल के
साथ, इन्द्र के माइयिता होकर मन से, सुख के लिए, क्षरित होते हैं।
८. सुन्दर कर्मवाऊ़े सोन, पाथिय शरीरधारी मनुष्यों के लिए, शीघ
गिरो। तुम्हारे तीनों सबन करनेवाले स्तोता को घन आदि दो। हमारे
हिन्दी-पाप्वैद ११४७
गृह फे पुत्रों और धर्मों को हमसे अलग नहीं करो! घुस नानाविध सुवण
आदि सम्पदा को प्राप्त करें।
९. क्षरणशील सोम, हमें अनेकानेक, अश्व-सहित, हजार दानों सै
युक्त, पशु आदि से समन्बित और सुवर्ण से संवलित धन दो। सोम हमें
बहुत दूध देनेवाली गायों से युक्त धन दो। क्षरणशीरू सोस, हुसारे
स्तोत्र को सुनने फे लिए, जाओ ।
७२ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि आङ्गिरस पवित्र छन्द जगती ।)
१. यज्ञ के ओण्ठप्रान्त अभिषववाले सोम की किरणं ऊपर उठती हु।
पञ्च के उस्पत्ति-स्थास से सोमरस ऊपर उठते हें। घलबान् सोम तीनों
लोकों को मनुष्य आदि के संचरण के योग्य बनाते हैं। सत्यभूत सोम की,
नौका के समान, चार स्थालियाँ (आदित्य, आग्रयण, कृथ्य और ध्रुव
आदि चार याज्ञिक हाड़ियाँ वा थालियाँ) सुकृती यजमान की, अभिमत-
फलदान-द्वारा, पुजा करती हुँ।
२. प्रधान ऋत्विक् आपस में मिलकर, सोम फो भली भाँति अभि-
घृत कहते हें । स्वर्गादि फल की कामना करनेवाले ऋत्विक् लोग बहुनेवाळे
जल में सोम को भेजते हें। पूजनीय स्तोत्र करते हुए स्तोताओं ने इन्द्र
के प्रिय घाम को, मदकर सोम की घाराओं से, याद्वत किया।
३. शोधक शक्ति से युक्त सोए की किरणें माध्यमिकी वाक् के
पास येठती हें अर्थात् अन्तरिक्ष में रहती हैं। उनके पिता सोम प्रकाशन-
फर्म की रक्षा करते हुँ। अपने तेज से आच्छादक सोम अपनी रहिमयों
ते महान् अन्तरिक्ष को व्याप्त करते हैं। ऋत्विक् लोग सबके घारक
अल में सोम का प्रारम्भ कर सकते हैं।
Dd
४. सहस्र धाराओंवाले अन्तरिक्ष में वर्तमान सोम किरणें नीथे
स्थित एथिवी फो बृष्टि से युक्त करती हैं। लोक के उक्षत देश में
११४४ हिल्दी-ऋणग्वेद
बतेमान, सधु जीभवाली, परस्पर सङ्गरहित कल्याणकर किरणे शीघ्रयासी
रहती हुं--कभी पलक भी नहीं गिरातीं (दुष्ड-वाश के लिए सदा जायी
रहती हँ) । इस प्रकार स्थान-स्थान पर रहकर किरणें पापियो को बाधा
५. सोस की जो किरणें झाधापृथिवी से अधिक प्रादुर्भूत हुई है, थे
ऋत्विकों के द्वारा की जाती स्तुति से प्रदीप्त होकर और कमं-शून्यों को
भली भाँति नष्ट कर इख के लिए काले चमड़ेवाले राक्षस को, ज्ञान-
हारा, विस्तृत भूलोक और झुलोक से दुर हटाती हैं।
६. स्तुति-नियत और क्षिप्रकारी सोमरहिमयाँ प्राचीनं अन्तरिक्ष से
एक साथ प्रादुर्भूत हुईं। नेत्रशून्य, असाधुदर्शी, देवस्तुति-विर्वाजतत और
पापी नर उन रदिसयों (किरणों) का त्याग कर देते हें। पापी मनुष्य
पत्य सागं से नहीं तरते।
_ ७. क्ाम्तकर्मा और मतीषी ऋष्विक् लोग अनेक धाराओंवाले तथा
विस्तृत पवित्र में वर्तमान सोम कौ माध्यमिकी वाक् की स्तुति करले है,
जो मरतो की सावा (वाक्क) की स्तुति करते हे, उनके वचन का आश्रयण
रुद्रपुत्र मरुत् करते हैं। वे आगसनशील, द्रोह-शूच्य दूसरों के हारा
अहिसनीय, शोभन-गति सुदर्शन और कर्सनेत! हे ।
४. सत्यरूप यज्ञ के रक्षक और शोभनकर्मा सोम से कोई दस्भ नहीं
कर सकता। सोस अग्नि, बायु और सूर्य आदि के रूप तीन पचित्रो को
अपने सें धारण करते हैँ। विद्वान् सोम सारे भुवमो को देखते हुए कर्म-
भ्रष्ठों को नीचे मुंह करके मारते है।
९. सस्यभूत यज्ञ के विस्तारक और मेषलोससय पवित्र में विस्तृत
सोम वरुण की जीभ के आगे (वसतीवरी में) रहते हैं। कर्म-मिष्ठ लोग
ही उत सोम को प्राप्त करते हँ। कर्मशून्य फे लिए यह बात असम्भव
हे। कर्मशूस्य नरक में जाला है।
पछ स्वन
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१३५३ प । 1 र् ४९
७9 भक्त
(देवता पवमान साम | ऋषि दीघतमा के पुत्र कक्षीवाव्। छुन
जगती ओर त्रिष्दुबू ।)
१. बसहोदरी-अरू में उत्पन्न होकर सोम, झिझु के समान, नीचे
मुंह करके रोते हुँ। बली अइव के समान गमनशील सोस स्वर्गलोक का
आश्रय लेना चाहते हँ। गोओं और ओषधियो के रस के साथ सोम
द्युलोक से पृथिबीलोक पर आना चाहते हैँ । वैसे सोम से हम धनादि-
युक्त गृह, शोभन स्तुति के साथ, घाँगते हें ।
२. युलोक के स्तस्भ, धारक, संत्र विस्तृत और पात्रों में पूर्ण सोम
की किरणे चारों ओर जाती हैं। सोम महती घादापथिवी को अपनी
क्षमता के द्वारा योजित करे। सोम ने परस्पर मिलित द्यावापृथिवी को
धारण किया। कऋान्तदर्शी सोम स्तोताओं को अन्न दें।
३. यज्ञ में आनेवाले इन्द्र के लिए संस्कृत सोमरस यथेष्ट सधुर रस
वाला खाद्य होता हें। इन्द्रादि का पृथिवी-मार्ग भी विस्तीर्ण हुँ। इख
इस पृथिवी पर बरसनेवाली वर्षा के ईइवर है। गोओं के हितैषी जल
वर्षेक और यज्ञ-मेता इन्त्र इस यज्ञ सें जाते हुए स्तुत्य होते हैं।
४. सोम आकाशरूप आदित्य सै घृत और दुग्ध को इूहते हें। सोम
यज्ञ को नामि हैं। उनसे ही अमृत और जल उत्पन्न होते हें। सुन्दर दाता
यजमान सोम परस्पर मिलकर इन सोम को प्रसन्न करते हैं। सर्व-रक्षक
सोम-किरणं पृथिवी पर उपयोगी वर्षण करती हें।
५ ,जल सें ऋत्विकों के द्वारा सिलाये जाने पर सोम शब्द करते हैं।
सोम अपने देव-पालक शरीर को पात्रो में प्रवाहित करते हें। पृथिवी की
ओषधियों में सोम, अपनी किरणों से, गर्भ धारण करते हें। उस गर्भ से
हम बुःख-विदारक पुत्र ओर पोत्र का धारण करते है।
६. अनेक धाराओंवाले, स्वर्ग हें घर्तशान, परस्पर सिलित और
प्रजावाली सोमकिरणें पृथिदी पर गिरती हुँ। वे चार सोय-किरणें झुलोक
११५० हिन्दी-ऋग्वेद
के नीचे सोम के द्वारा स्थापित हैं! बे जल-वर्षक होकर देवों को हबि
देती है और ओषधियों में अमृत देती हूं ।
७. सोम पात्रों का रूप शुज्ष कर देते हँ। काम-सेचक और बली
(असुर) सोम स्तोताओ को बहुत धत देते हैं। सोम अपनी प्रज्ञा के द्वारा
प्रकृष्ट कर्म को प्राप्त करते है ॥ अन्धरिक्ष के जलवान् भेघ को वे जब-
घर्षण के लिए फाड़ते हें ॥
८, सोम इबेत और गोरल से युक्त द्रोणकलश को, अष््व के समान,
लाँघते हं। देवाभिलाषी ऋस्विक लोग सोम के लिए स्तुति प्रेरित करते
हुँ। सोम बहुत चलनेबाले कक्षीवान् ऋषि के लिए पशु देते हैं।
९. शोधित सोम, जल में सिश्चित होकर तुम्हारा रस मेषलोससय
दापविनत्न की ओर जाता है। मादक-भरेष्ठ सोम, ऋन्तकर्सा ऋत्विकों
के द्वारा शोषित होकर इन्द्र के पान के लिए प्रिय रसवाले बनो।
७५ सूक्त
७
(देवता पवमान सोम । ऋषि भागव कवि । छन्द जगती |)
१. अन्न के लिए सोम उपयोगी हें। संसार के प्रिय ओर गसनशील
जल के चारों ओर सोस क्षरित होते हें। जल में महात् सोम बढ़ते ह।
महान सोस महान् सुर्यं के रथ के ऊपर चढ़ गये। सोम सबके द्रष्टा हूँ ।
२. सत्यरूप यज्ञ के प्रघात सोम प्रियकर ओर मदकर रस गिराते
हें। सोम शब्द करनेवाले, कर्मपालक और अवध्य हैं। घुलोक के दीपक
सोम का अभिषव होले पर पुत्र (यजमात) एक ऐसा नाम धारण करता
है, जिसे उसके माता-पिता नहीं जानते।
३. वीघ्तिमान् ओर ऋत्विकों के द्वारा घुवर्णसय अभिषवण-चमे पर
रखे गये सोम का, यज्ञ का दोहन करनेवाले ऋत्विक् लोग, अभिषव करते
ह्। सोम कलश में शब्द करते हूँ। तीन सवनोबाले सोल यज्ञ-दिन में
प्रातःकाल शोभा पाते हु।
हिन्दी--ग्वेद ११५१
४. पत्थरों से अभिषुत, अन्न के हितैपी और शुद्ध सोम घावा
पृथिवी को प्रकाशित करके मेषलोवलय पचित्र की जोर जाते हैं। जक
निशित और सदकर सोद की धारा अनुदित पवित्र पर प्रवाहित होली है ।
५. सोम, कल्याण के लिए तुम चारों ओर जाओ। कर्स-लिष्डा के
द्वारा शोधित होकर तुम क्षीर आदि में निलो। बदनवाले, शत्र-हम्दा,
अभियुत और महान् सोम प्रशस्थ घल देनेवाले इसर को हुमाई दाल शेजें ॥
द्वितीय अध्याय सम्माष्य §
७९ सुकत
(तृतीय अध्याय । देवता पवमान साम । ऋषि झशुगेत्रीय
कवि । छन्द जगती ।)
१. सोम सबके धारक हें । वे अन्तरिक्ष (अन्तरिक्षस्थ दशापवित्र)
से क्षरित होते हे। सोम शोधनीय, रस-रूप देखो के बल, वद्धक-हह्विकों
छे द्वारा स्तुत्य, हरितवर्ण और प्राणियों के द्वारा बनाये जानेवाले हें।
बसतीवरी में घोड़े के ससान वे अपने वेग को करते हैं।
२. वीर पुरुष के समान सोम दोनों हाथों में अस्त्र धारण करते हुँ।
. गायों के खोजने के समय स्वर्ग की इच्छा करनेवाले सोम, यजमाचों के
लिए, रथवाछे हुए थे। इन्द्र के बल का प्रेरण करनेवाले सोम कर्मेच्छु
सेधाचियों के दारा भेजे जाकर दूध आदि में मिलाये जाते हें।
३. क्षरणशील सोम, बाद्धष्ण होकर इन्द्र के पेट में प्रचर धारा से
` पेठो। जैसे बिजली मेघ का दोहन करती हुं, देसे ही तुस अपने कसो के
दवारा द्यावापृथिवी का दोहन करके हमें बहुत अन्न देते हो।
४, बिश्व के राजा सोम क्षरित होते हें। सर्वदर्शक्ष और सत्यभूत सोय
था इन्द्र का कमे ऋषियों से भी श्रेष्ठ हु। सोम चे इन्द्र के कर्म की इच्छा
की । सोम सुय की क्षपक किरणों से शोषित होते हें। सोम के कर्म को
कवि लोग नहीं व्याप्त कर सकते। सोम हमारी स्तुलियों के पालक हुँ ।
११५४६ हिन्दी-क्रग्बेव
५, वोम, जैले गोसमह हे वाँड़ जाता है, वैसे ही तुम वर्षक शब्दकर्ता
होकर और अन्तरिक्ष नें अवस्थित रहकर द्रोण-कलश में जाते हो। मादकतम
होकर तुम इन्द्र के लिए क्षरित होते हो। बुणसे रक्षित होकर हम युद्ध में
विजयी होंगे ।
७७ सूक्त
(देवता पवमान सास | ऋषि कवि। छन्द जगती।)
१, इन्द्र के बज, बीजों के बोचेवाले और मधुर रसवाले सोम द्रोण-
कलश सें शब्द करते हुँ। उनकी धाराये फलों को दुहनेवाली, जल वा
रस को दरसावेवालो, और शब्द करनेवाली हुँ। दुधवाली गायों के समान
थे जा रही हूं।
२. प्राचीन सोम क्षरित होते हे। अपनी माता के हारा भेजा जाकर
इयेन पक्षी घुलोक से उन सोम को ले आया था। वे ही मधुर रसवाले सोस
तीसरे लोक को अलग करते हैं। कृशानु वासक धनुर्धारी के बाण-पात
से डरकर सोम, उद्विग्न, भाव से, मधुर रस के साथ मिश्रित होते हँ।
३. दर्शनीय स्त्रियों के समान रमणीय, हवि का सेवन करनेवाले,
प्रत्वीन तथा आधुनिक सोम महान् गोवाले मुझे, अन्न-छाभ के लिए,
प्राप्त करं।
४. बहुतों के द्वारा स्तुत, उत्तर वेदी सें वर्तमान और क्षरणशील सोस
सनोयोगपुर्वक हमारे सारनेवाले शत्रुओं को समझकर मारें। वे ओष
धियों थें गर्भ धारण करते हैं। दे बहुत दुध देनेवाली गायों की ओर
जाये हं।
५. सबके कर्ता, कर्मठ, रसात्मक, आहिसनीय और वरुण के ससान
महान् सोय इधर-उधर विचरण करते हुँ। विपत्ति आने पर सबके सित्र
और भजनीय सोस क्षरित किये जाते हुँ। जैसे अइव घोडियों के झुंड में
जाता इं, बैसे ही वर्षक सोन शब्द करते हुए क्षरित होते हँ।
हिन्दी-ऋग्वेद ११५३
७८ सूक्त
(देवता पचमान सास । ऋषि कवि । छन्द जगती ) |
१. शोभायमान सोम शब्द करते हुए ओर अर को आच्छादित करते
हुए स्तुति की ओर जाते हुँ। सोम का जो असार भाग हें, उसे मेषलोमसय
दशापवित्र रख लेता है। शुद्ध होकर सोम देवों के संस्कृत स्थान को
जाते हें।
२. सोम, तुम्हें, इन्द्र के लिए, ऋत्विक लोग ढालते हें। यजसातों के
एरा बात होकर मेधावी दुम जळ में मिलाये जाते हो। तुम्हें गिरने के
लिए अनेक मार्ग (छिद्र) हैं। प्रस्तर-फलकों पर अवस्थित तुम्हारी असंख्य
और हरित-बर्ण किरणं हुँ। | है
३. अन्तरिक्ष-स्थित अप्सरायें यज्ञ के बीच में बेठकर पात्रों में स्थित
मेधावी सोम को क्षरित करती हुँ। इन क्षरणशील और कोठे के समान
सुखकर यज्ञ-गृह को चेतनशील करनेवाले सोम को अप्सरायें बढ़ाती हुँ ।
स्तोता लोग सोम से हासहीन सुख मागते हे। | ॒
४. क्षरणश्ञील सोम गायों, रथ, सुवर्ण, सुख, जल और अपरिमित
धन के जेता हें। मदकर, स्वादुतम, रसात्मक, अश्णवणे ओर सुखकर्ता
रोम को, पान के लिए, दोनों न बनाया ह।
५. सोम, तुम पूर्वोयस समस्त वस्तुओं को हमारे लिए यथार्थ करते
हो। शोषित होकर क्षरित होते हो, जो शत्रु दूर वा समीप हुँ, उसे मारो
और विस्तीर्ण मार्ग को हमारे लिए अभय करो। न
७९ छूक
(देवता पवमान साम । ऋष कवि। छन्द जगती ।)
१, प्रभतदीप्ति यज्ञ में सोम स्वयं हमारे पास आवें। सोस क्षरणशील
और हरित-वर्ण हैं। हमारे अन्न के नाशक नष्ट हो जायें। शत्रु भी चष्ट
हो जायें। हमारे कर्मों को देवता लोग ग्रहण कर ।
फा० ७३
११५४ हिन्दी-ऋग्वेद
२. मद-स्रावी सोम हमारे पात आवें। धन भी आवे। सोस को कृपा
से हम बलवान् शत्रुओं का भी सामना कर सकें। किसी भी प्रबल सनुष्य
की बाधा को तिरस्कार करके हम सदा धन प्राप्त करें।
३. सोम अपने और हमारे शत्रुओं के हसक हूँ। जैसे मरभूमि में
पिपासा लगी रहती हूँ, बैसे ही दुम भी उक्त दोनों प्रकार के शत्रुओं के
पीछे लगे रहते हो। क्षश्णशील सोम, उन्हें नष्ट करो।
४. सोम, तुम्हारा परम अंश यलोक में है। वहाँ से तुम्हारे अंश
पृथिवी के उन्नत प्रदेश (पर्वत) पर गिरे और वहाँ वृक्ष हो गये। पत्थरों
से कूटे जाकर तुम्हें मेघावी लोग हाथों से गोचसं पर, जल में, दूहते हुँ ॥
५. सोस, प्रधान-प्रधान पुरोहित लोग तुम्हारे सुन्दर ओर सुरूप रस
को चुलाते हें। सोम, हमारे निन्दक शत्रु को नष्ट करो। अपना बलकर,
प्रियकर और सदकर रस प्रकट करो।
८० सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि भरद्वाजगोत्रीय वसुनामा | छन्द
जगती |).
१. यजमानों के दर्शक और अभिषुत सोम की धारा क्षरित होतो हे।
सोम यज्ञ के द्वारा देवों का पुजन करते हुँ। आकाशवासी बृहस्पति अथवा
स्तोता के शब्द वा मन्त्र से वे चसकते हुँ। समुद्र के समान पृथिवी को
सवन व्याप्त करते हँ।
२. अञ्चत्ाले सोम, न मारने योग्य स्वुवि-वाक्य तुम्हारी स्तुति करते
हें। सोने की भुजा से संस्कृत स्थान को दीप्त होकर तुस जाले हो। सोम,
हुविवाले यजमानों की आय और महतो कोति को तुम बढ़ाते हुए, इन
के लिए, क्षरित होते हो। तुम वर्षक और सदकर हो
३. यजमान की अश्च-प्राप्ति के लिए सोम इन्द्र के पेट में गिरते हें।
अत्यन्त मदकर, बलकर रसबाले और सुसंगल सोम सारे भूतो को विस्तारित
हिन्दी-ऋणग्वेद ११५५
करते हुँ। यज्ञवेदी पर कड़ा करनेवाले, हरितवर्ण, गतिशील और बर्षक
सोम गिर रहे हु!
४. मनुष्य और उनकी दसों अँगुलियाँ इन्द्रादि के लिए अतिशय
सधुर और बहुधाराओंवाले सोम को दुहती हे। सोम, मनुष्यों के द्वारा
व्िचोड़े गये और पत्थरों से अभिषुत तुम अपरिमित धन के जेता होकर
देवों के लिए प्रवाहित होमो ।
५. सुन्दर हायोंवारे व्यबिद की बसों अंगुलियाँ पत्थरों से जल में
संधर रसवाऐे और कामनाओं के दर्षक सोस को दूहती हेँ। सोस, इन्द्र
को मत करके समुग्र-्तरङ्क' के समान क्षरित होकर अन्य देव-संघ को
जाते हो |
८१ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि भरद्वाज वसुनामा । छन्द॒ जगती
ओर त्रिष्टुप॥)
१. शोषित सोम की सुरूव' तरंगे उस समय इन्द्र के पेट में जाती हुँ,
जिस समय अभिषुत सोस गाय के दघि में सिलाये जाकर यजनान का
मनोरथ पूर्ण करने के लिए शूर इन्द्र को प्रमत्त करते हूं।
२. जैसे रथवाहक अश्व वेग से जाता है, बैसे ही सोम कलश में जाते
हैं। काम-वर्षक और द्युलोक तथा पृथिबी में उत्पन्न लोगों को जाननेवाले
सोम देवों के प्रसञ्चता-कारक हूं।
३. सोम, शोधित सोस, दुम हमें गवादिरूप धन दो। दीप्त सोम,
तुम धनी हो। महान् घन के दाता होओ। अन्न-धारक सोन, में तुम्हार!
सेवक हूँ । कष्ट करके मेरे लिए कल्याण दो। हमें दिये जानेवाले धन को
हुमसे दुर मत करो।
४. सुन्दर दाता पुषा, पवमान सोम, भित्र, वरुण, बृहस्पति, सख्त
बायु, अदिवद्वय, त्वष्टा, सविता और सुरूपिणी सरस्वती आवि देवता,
एक साथ, हमारे यज्ञ में पवर ॥
११५६ ह्न्वी-म्दग्येद
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५, स्दे-व्णावियी छाव्ापृथिवी, अघा, अविश, विधवा, समुष्यो के
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८] भय, (नश छ सन्तारक्ष साग पयदबदन णाइ रज सास का
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आश्वय कर् ।
८२ छूकत
(देवता पवमान सोम । ऋषि वझुनामा । छन्द जगती और
त्रिष्टुप् । )
१, शोभय, घर्षक और हारित-दणे सोस का अभिषव किया गया।
वे राजा के समान दर्शवीय होकर और जल को लक्ष्य कर, रस निरयोडने
के समय, शब्द करते हे। अनन्तर शोधित होकर सोस उसी प्रकार (भेष-
लोमसय) दशापवित्र की ओर जाते हैं, जिस प्रकार अपने स्थान को बाज
पक्षी जाता हूँ! सोम जलीय स्थान के लिए क्षरित होते हैं।
२. सोम, तुम ऋान्तकर्मा हो । यज्ञ करने की इच्छा से तुम पुजनीय
पवित्र को प्राप्त होते हो। प्रक्षालित होकर, अश्व के समान, तुम युद्ध
की ओर जाते हो । सोम, हमारे पायों का विनाश करके हमें सुखी करो ।
जल सें सिञ्चित होकर तुम पवित्र की ओर जाते हो ।
३. बिशाल पसोंबाले जिन सोस के पिता मेघ हे, वे सोम पृथिवी
की नाभि (यञ्च) में, पत्थर पर, निवास करते हुँ। अंगुलियाँ, जलँ के
पास, दुग्ध आदि ले जाती हू । रयणीय यज्ञ में सोम पत्थर से मिलले है ।
४. पृथिवी के पुत्र सोम, तुम्हारी जो स्तुति में करता हूँ, उसे छुनो ।
जसे स्त्री पुरुष को सुख प्रदान करती हे, वैसे ही तुम भी यजसान को सुख
देते हो । हमारी स्तुति में विचरण करो । हमारे जीवन के लिए तुस जी
रहे हो। सोभ, तुम स्तुत्य हो । हमारे झत्रु-बल के लिए बराबर
सावधान रहना ।
५, सोय, जेजे तुस प्राचीन स्तोताओं के लिए शत-सहरू-संख्यक
धन के दाता हुए थ, वैसे ही इस समय भी अभिनव अभ्युदय के लिए
क्षरित होओ । तुम्हारे कर्म को करने के लिए तुमसे जल मिलता है ।
हिल्दी-अटप्लेद ११५७
८२ खुव
(देवता एवमान सोम । ऋषि अङ्गिरोगोत्रीय पवित्र । छन्द जगती ।)
®
१. झन्त्रों के रवास सोस, तुम्हारा झोधक जंग (बा तेज) संत्र
विस्तृत हुआ हुँ । तुम्हारा जो पाच करता हुँ, उसके सारे अंगों में, प्रभु
होकर, तुम विस्तृत हो जाते हो । ब्रत आदि से जितका शरीर तपाया हुआ
और परिपक्व नहीं हे, बह तुम्हारे सर्वत्र विस्तृत झोधक अंग को नहीं
ग्रहण वा धारण कर सकला । जिसका शरीर परिपक्व हुं ओर जो यज्ञ-
कर्ता हुँ, वे ही दुष्हारे शोषक अंग को धारण कर सकते हैँ ।
२. शत्र -तापक सोम का शोधक अंग (वा तेज) चुलोक के उन्नत
स्थान में विस्तृत हं । सोम को प्रदीप्त किरणें नाना प्रकार से रहती हू ।
पृथिवी पर सोम का शीघगासी रस पवित्र यजमान की रक्षा करता हे।
अनन्तर वह स्वर्ग के उन्नत प्रदेश में, देव-गमनेच्छावाली बुद्धि से, आश्रित
होता हे ।
३. मुख्य और सूर्यात्मक सोम दीप्ति पाते हैँ । सोस अभिशेष करने-
वाले हूं सोम जल के द्वारा प्राणियों को अन्न देते हैं) ज्ञानी सोस की
प्रज्ञा से अग्नि आदि संसार को बनाते हँ । सोम की प्रज्ञा से मनुष्य-दशेक
देवों ने ओषधियों सें गर्भ धारण किया।
४, जलधारक आदित्य सोम के स्थान की रक्षा करते हुँ। सोम
देवों के जन्मों की रक्षा करते हे। सहान् सोख हमारे शत्र को पाश
में बाँधते हे। सोम एशुओं के स्वामी हुँ । पुग्यकर्ता ही इसके सधु रस
को ग्रहण कर सकते हूँ ।
५, जलवान् सोस, जल में मिलकर महान् और दिव्य यज्ञगृह की
रक्षा करते हो सोस, तुम राजा हो । पवित्र रथवाले होकर तुम युद्ध
सें जाते हो । अलील-गसन तुम, भहान् अन्न को जीतसे हो ।
११५८ हिन्दी-ऋष्वेद
८४ सूक्तं
(देवता पवमान सोम | ऋषि वाकपुत्र प्रजापति । छन्द॒ जगती ।)
१, सोम, तुम देनो के मदकर, युक्ष्मवर्शक और जलवाता हो । इन्द्र
वर्ण और वायु के लिए क्षरित होओ। हमें अविनाशी धन दो । बिस्तृत
पृथिवी पर मुझे देवों का भक्त कहो ।
२. जो सोम सारे भुवनों में ब्याप्त हुँ, वे उन लोगों की चारों ओर
से रक्षा करते हुँ । सोम यज्ञ को फल-समन्बिल और असुरों से मुक्त करके
यज्ञ का बसे ही आश्रय करते हं, जसे सुर्य संसार को प्रकाशवान् ओर
तमोमुवत करके उसी का सेवन करते हुँ ।
३. देवों के सुख फे लिए रश्मियों से ओषधियों में सोम को स्थापित
किया जाता हुँ । सोस देवाभिलाषी, शत्रु-धन-जेता और देव-संघ तथा
इन्द्र को प्रमत्त करनेवाले हैं। अभिघत होकर सोम प्रदीप्त धारा से
ब्रहते हुं ।
४. गमनशील, प्रतिगामी और प्रातःकाल-कृत स्तोत्र को प्रेरित करते
हुए सहस्र जिह्वाओं से क्षरित होते है । वायु-प्रेरित सोम क्षरगशील रस
को ऊपर उठाते हूँ ।
५. दुग्घ-वरद्धेक सोस को गाये अपने दूध से सित करचेको खड़ी हें ।
सोस, स्तुतियों के द्वारा सब कुछ देते हं। कर्मठ, रसरूप, मेधावी,
कान्तप्रज्ञ, अश्नवाले ओर शत्रु-धन जेता सोम कर्म के द्वारा क्षरित होते हँ ।
८५ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि सागेव वेन। छन्द जगती और
त्रिष्टुप् |)
१. सोम, भली भांति अभिषुत होकर तुम इन्द्र के लिए घारों ओर
जाओ और रस गिराओ । राक्षस के साथ रोग दूर हो। तुम्हारे रस
को पीकर पापी लोग प्रमत्त वा आनन्दित न होने पाें। इस यज्ञ में
तुम्हारा रस घन से युक्त हो ।
हिन्दी-ऋण्वेद ११५९
३. क्षरणशील सोम, हमें समरभूमि सें भेजो । तुम निपुण हो । तुम
देवों के प्रियकर मादक हो । हुम तुस्हारी स्तुति करते हें। शत्रुओ को
मारो। हमारे लिए आओ इन्द्र, हमारे शत्रुओं के विनष्ट करो ।
३. क्षरणशील सोम, ऑहसित और माइकतस होकर तुम क्षरित
होते हो । तुभ स्वं साम होकर इन्द्र के अन्न हो। इस विश्व के
राजा सोस का स्तोता लोग स्तोत्र करते और यश गाते हैं ।
४. सहस्र-विध-नेत्र, असीत्र धाराओं से युक्त, आइवर्यकर और
महान् सोम इन्द्र के लिए अभिलषित मथ को क्षारित करते हें। सोम,
तुम हमारे छिए क्षेत्र और जल को जीतकर पबित्र की ओर जाओ । सोम,
तुम सेचक हो । हमारा साग विस्तृत करो।
५. सोम, शब्द करते हुए और कलश में वत्तेमान तुम गोदुग्ध में
मिश्चित किये जाते हो । मेष लोसमय दशापवित्र के पास जाते हो । सोम,
तुम शोधित और अकव के समान भजनीय होकर इःद्र के उदर में भली
भाँति क्षरित होते हो।
६. सोम, तुम स्वादु हो। दिघ्यजन्मा देवों के लिए ओर झोभन-
नामा इन्द्र के लिए क्षरित होओ । मधुमान और अन्यों के द्वारा अहिस-
नीय होकर तुम मित्र, वरुण, वायु और बृहस्पति के लिए क्षरित होओ ।
७. अध्वर्युओं की दस अँगुलियाँ अइब के समान गतिशील सोस को
कलस में शोधित करती हे । विप्रों के बीच स्तोता लोग स्तुतियाँ भेजते
हे। क्षरणशील सोम जाते हूँ । शोभन स्तुतिवाले इन्द्र मं मदकर सोस
प्रविष्ट होते हूँ ।
८. सोम, क्षरणशील तुस सुन्दर वीर्य, दो कोश, भूमिखण्ड ओर
विशाल गुह हमें दो । हमारे कर्मो के द्वेषियों को स्वामी मत बनाओ ।
तुम्हारी कृपा से हम महान् धन को जीते ।
९. दुरदर्शी और वर्षका सोम यलोक में थे। उन्होंने घुलोक के नक्षत्र
आदि को सुशोभित किया। कान्तप्रक्ष और राजा सोम दशापदित्र को
११६० हिन्दी-ऋणग्वेद
लाँचकर जाते हुँ। शब्द करते हुए नर-दर्शक सोम यलोक के अमृत को
यिराते हुँ ।
१०. सधुर बचनवाले वेन लोग, अलग-अलग, यज्ञ के दुःखही स्थान
में सोमाभियव करते हूँ। वे लोग सेवता, उन्नत स्थान में वत्तंमान, जल
में बरद्धमान और रस-रूप सोम को समुद्र के समान प्रवृद्ध ब्रोण-कलश
में, जल, तरंग से सींचते है । बे मधुरस सोम को दशापवित्र में सींचते
हुँ ।
११. झुलोक में स्थित, शोभन पत्तोंवाले और गिरनेवाले सोम का,
हमारी स्तुतियाँ, स्तोत्र करती हुँ । शिशु के समान संस्कार के योग्य, शब्द-
कर्ता, सुवर्णमय, पक्षिवत् और हविर्धान में स्थित सोम को स्तुतियां प्राप्त
करती हूं ।
१२. किरण-धारक (गन्धवे-सुयं) सोम सूर्य के सारे रूपों को देखते
हुए चुलोक में रहते हें। सोम-स्थित सूर्य शुञ्र तेज के द्वारा चमकते हूँ ॥
प्रदीप्त सूर्यं द्यावापृथिवी को शोभित करते हैं ।
८६ सूक्त
(५ अनुवाक । देवता पवमान साम । ऋषि १-१० तक आकृष्ट और
माष, ११-२० तक सिकता और निवावरी, २१-३० तक प्रि और
अज, ३१-४० तक आकृष्ट ओर माष, ४१-४५ तक आत्रि
ओर ४६-४८ तक गत्समद्। छन्द जगती ।)
` १. क्षरणशील सोम, मनोवेग के समान तुम्हारा व्यापक और सद-
कर रस घोड़ियों के बछड़ों कौ तरह दोड़ रहा हुँ । रस झुलोकोत्पन्न है ।
सुन्दर पत्तोंवाळा, मधुरता-युक्त, अतीव मदकर और दीप्तरस द्रोण-कलश
से जा रहा हुँ।
सोस, तुम्हारा मदकर और व्याप्त रस अइव के समान बनाया
जाता हू । सधुर, प्रवृद्ध और क्षरणश्ील सोम वज्ञी इन्द्र की ओर उसी
प्रकार जा रहे हें, जिस प्रकार दृधवाली गाय बछडे के पास जाती हूँ ।
हिन्दी-ऋणग्वेद ११६१
३. सोम, तुम अश्व के समान भेजे गये संग्राम में जाओ । सर्ववेत्ता
सोम, खुलोक से मेघ-विर्माता के पास जाओ । वर्षक सोम धारक इन्ब्
के लिए मेषलोसमय दशा पवित्र में शोधित होते हे ।
४. सोम, व्याप्त, अनोवेगवान्, दिव्य, शुत्य पथ से गिर्वेवाली
और दुग्ध से युक्त तुम्हारी धारायें धारक द्रोण-कलश में जाती है ॥
तुम्हें बनानेवाले ऋषि लोग तुम्हें अभिषुत करते हे। तुम्हारी धार को
कलश के बीच, ऋषि लोग, कर देते हें ।
५. सर्वद्रष्टा सोम, तुम प्रभ् हो । तुम्हारी महान् किरणें सारे देवः
शरीरों को प्रकाशित करती हँ । सोस, तुम व्यापक हो । तुम धारक रस
का प्रस्रवण करते हो । तुस विश्व के स्वामी होकर शोभित होते हो ।
६. क्षरणशील, अविचलित और विद्यमान सोम की प्रज्ञापक किरणें
इधर-उधर जाती हें। जब दशापवित्र सें हरितवर्ण सोम शोषित होते
हैं, तब निवासशील सोम अपने स्थान (ड्रोण-कलश) सें बेठते हैं ।
७. यज्ञ फे प्रज्ञापक और शोभन-यज्ञ सोम क्षरित होते हैं। सोस
देवों के संस्कृत स्थान के पास जाते हें। अभितधार होकर वे द्रोण-कलस
में जाते हे। सेक्ता सोम शब्द करते हुए पवित्र को लांघकर नीचे
जाते हैं ।
८, जैसे नदियाँ समग्र में जाती है । बसे रे
हूँ । जल में आश्रित होकर पबित्र में जाले और उच्चत बश्ाएविन्र से
रहते हें । वे पृथिबी की माशि (यक्ष) सें
के धारक हें ।
९, सोम घलीक के उद्भव स्थान को दब्दायमान कर रहे हैं। सोच्न
अपनी घारक-शक्ति से यो सौर पृथिवी को धारण करते हु। धोम इन्द्र
की सैत्री के लिए दशापवित्र में शोधित होते मीर कलश में बेठते हूँ ।
१०. यज्ञ-प्रकाशक सोम देवों के प्रिय मौर अघुर रस को प्रवाहित
करते हँ । देवों के रक्षक, सबके उत्पादक और प्रचुर बनी सोच झावा-
११६९ हिन्दी-त्रधाबेद
बिक ha
पुथिवी के बीच में रखे स्मणीय घन को स्तोताओं को देते ह । शाइकतम
सोन इन्द्र के वर्धक और रसन्रूप हूं ।
११. गतिशील) यलो फे स्वामी, शतधार, दूरदर्शी, हरितवर्ण
और रुख रूप सोम देवों के सित्र यज्ञ में, शब्द करते हुए, कलश में जाते
हुँ। सोम जवणश्षील दशापवित्र के छिद्रों में शोणित और वर्षक हूँ ।
१२. सोम स्पन्द्यशील जल फे आगे जाते हुँ । श्रेष्ठ सोस साध्यमिकी
धाक के आगे जाते हें। वे किरणों में जाते हुँ । वे बल-लाभ के
लिए यद्ध का सेवन करते हे । सुन्दर आयुधवाले और वर्षक सोम अभि-
एवफर्याओं के द्वारा शोषित होते है ।
१३. स्वोधवाल् , शोध्यवान और प्रेरित सोम, पक्षी के समान, रस के
साथ दझायवित्र में शीघ्र ही जाते ह। कान्द प्रश इन्द्र, तुम्हारे के
और बुद्धि से दादाउनियो के बीच में पल सोम प्रवाहित होते हुँ ।
१४. स्वर्गेत्यर्शी और तेजोझप कव को पहुनमेवाले सोम यजनीय
और अन्तरिक्ष के पुरक हँ । सोस जल मिश्रित होकर और नये स्वर्ग को
उत्पन्न करके जल के हारा बहते ह । बे जल के पिता और प्राचीन इन्द्र
की परियर्या करले हु ।
१५. सोम इन्द्र के प्रबेश के लिए महान् सुख देते हैँ। सोम ने इन्द्र
के तेजस्वी शरीर को पहले ही प्राप्त किया था। सोन का स्थान उत्तम
बेदी पर है । सोस दै दप्त होकर इन्द्र सारे संग्रामो में जाते
२६. सोम इन्द्र के पेट में जाते हैँ । इन्द्र-शित्र सोम इन्द्र के आधार"
भूत हवय को नहीं कष्ट देते। जैसे युवतियाँ पुरुषों से मिलती हूँ,
वेसे ही सोम जळ में सिते हु सोम सो छिदोंदाले सार्य से कलश में
जातं ह ॥
१७. सोमः दुश्ह्ाश व्यान घरमेवाले, सदकर सोम और स्तुति की
इच्छा करसेद।छे स्तोता लोग निवास-्यीच्य यज्ञ-गहों में घूमते हुँ । बशी-
एतमना स्सदा लोग सोम की स्युति करते और यायं सोम को दूध से
सती हुँ ।
6
2
हिन्दी-ऋणग्वेद ११६३
१८. दीप्त सोम, हमें संगृहीत, प्रवृद्ध और ह्वास-शून्ध अन्न दो । वह
अज्ञ बेरोक-टोक तीन पवनों सें शब्दवान्, आश्वयसाण) मधुरता-युइल और
शोभन सामर्थ्यवाला पुत्र देता हुँ। |
१९. स्तोताओं के काम-वर्षक, दूरदर्षी, सुर्य के बरक और जल-कर्त्ा
सोम कलश में घुसने की इच्छा करते हुँ । सोम इन्द्र के हृदय में पैठते हें ॥
२०. प्राचीन, मेधावी और पुरोहितों के द्वारा नियमित सोम, अध्वर्युओं
के द्वारा शोधित होकर कलश में जाने के लिए शब्द करले हें। इन्द्र
और वायु की मित्रता के लिए और तीनों स्थानों में बिस्तृत यजसान के
लिए जल उत्पन्न करनेवाले सोम अधुर रस चुला रहे हैँ ।
२१. सोम प्रातःकार को नाना प्रकार से शोभित करते हें। बे
बसतीवरी-जरू में समृद्ध होते हुँ। सोम लोक-करत्ता हैं। वे इक्कीस
(गायों वा ऋत्विकों-द्वारा) ढुहे जाते हे । मदकर सोम, हृदय में जाने
के लिए अलो भाँति क्षरित होते हँ ।
२२. सोम, देवों के उदर में गिरो। दीप्त सोस, तुम कलश में
बनाये जाते हो । सोम इन्र के पेट में जाकर शब्द करते हूँ । वे ऋत्विकों
के द्वारा हुत हुँ। सोम ने सूर्य को प्रादुर्भूत किया ।
२३. इन्द्र के उदर में पेठने के लिए पत्थरों से अभिषुत होकर तुस
दशापवित्र में क्षरित होते हो। दूरदर्शी सोम, तुम मनुष्यों के अनुग्रह
ते दर्शक होते हो । सोम, अंगिरा लोगों के लिए तुमने गौओं को छिपाने-
वाले पर्वत को अलग किया था।
२४. सोम, क्षरणश्चील तुम्हारा, सुकर्मा और मेधावी स्तोता लोग,
र्षाभिलाषी होकर, स्तोत्र करते हैं। सभी स्तुतियों से अलंकृत तुम्हें
ह्ुलोक से सुन्दर पंखोंबाला इयेन पक्षी ले आया ।
२५. प्रीतिकर सप्त गायत्री आदि छन्द मेषलोममय दशापचित्र पर
` तुम हरितवर्णं को क्षरित कर प्राप्त करते हें। क्वान्तकर्मा, तुम्हें
अन्तरिक्ष के जल में महान् आयुवाले लोग प्रेरित करते हैं ।
११६४ हिन्दी-त्ररबेद
२६. दीप्त सोल याज्िक यजसाव के लिए झत्रओं को हर कर और
सुन्दर मार्ग बमाकर कलश में जाते हँ । सुन्दर ओर कऋन्तकर्सा सोम,
अश्व के समान क्रीड़ा करते हुए और अपने रूप को रससय करते हुए सेष-
लोसमय दशा पबित्र में जाते हें ।
२७. परस्पर संगत, शतधार और सोम का आश्रय करनेवाली सूर्य
की किरणें हरि (इन्द्र वा सोस) के पास जाती हैं। अँगुलियाँ किरणों
में ढफे ओर चुलोक में स्थित सोप का शोधन करती हूँ ।
२८. सोम, तुम्हारे दिव्य तेज से सब प्राणी उत्पन्न हुए हें। तुम
सारे संघार के स्वामी हो। यह संसार तुम्हारे अबीन हुँ। तुम मूख्य
हो । तुम सबके धारक हो ।
२९. सोम, तुम द्रवात्मक और संसार के ज्ञाता हो। तुम्हीं इन
पाँचों दिशाओं (आकाश और चार दिशाओं) के धारक हो । तुम चुलोक
और पथिबी को धारण किये हुए हो। तुम्हारी किरणों को सूर्य
प्रफल्ल करते हूँ ।
३०. सोम, तुम देशों के लिए संसार व रस के धारक दशापवित्र में
शोधित किये जाते हो। अभिलाषी और मुख्य पुरोहित तुम्हारा ग्रहण
करते हैं। तुम्हारे लिए सारे प्राणी अपने को अपित करते हुँ ।
३१. सोम मेषलोमसथ दशापदित्र सें जाते हें। हरितवर्णं और
सेचक तोम जल में बोलते हँ । ध्यान करनेवाले और सीस की अभिलाषा
करमेवाली स्तुतियाँ शिशु के समान ओर शब्दवान् सोम का गुण-गाव
करती
३२. सूर्य-किरणों से सोम, तीनों सवनों से यज्ञ-विस्तार करते हुए,
अपने को परिवेष्टित करते हें । सबके ज्ञाता और प्राणियों के पति सोस
संस्कृत पात्र में जाते हैं ।
३३. जल-पति और स्वर्गे-स्वामी सोम संस्कृत किये जाते हैं। वे
यञ्ञ-पथ से शब्द करते हुए जाते हें। असीस धाराओंवाले सोम वेताओं
हिप्दी-ऋग्वेद ११६५
के हारा पात्रों में सिञ्चित होते हें । सोभ शोषित, शब्दकर्ता और पास
जाने वाले
३४. सोस, छुन बहुत रस भेजते हो। सूर्य के समान ही तुझ
पुज्य हो। सेबछोममय पात्र में जाते हो । अनेको के हारा शोधित और
ऋषत्विकों तथा पत्थरों के द्वारा अभिषुत होकर तुझ विराट् संग्रास और
ने के हित के लिए जाते हो।
२५. क्षरणशील सोथ, लुम अज्ञ और बलवाले हो। जैसे इयेन
(बाज) पक्षी घोसले सें. जाता हे, बैले ही तुम कलश में जाते
हो । इन्द्र के लिए मदकर और सद-कारक रस अभिघत हुआ है। तुम,
द्युलोक के स्तम्भ और दुरदर्शी हो।
३६. नवीन उत्पन्न, जेता, विद्वान, जल के पिता, जल के धारक,
स्वर्गोत्पन्न ओर नर-दर्शक सोम के पास, शिश के समान, गङ्गा आदि
सात झःतू-स्थारीया नदियाँ जाती हूँ।
३७. सोम, हरितवर्ण, सबके स्वामी और घोड़ियों को रथ में जोतने-
वाले तुम इन सारे भुवनों में गति-विधि करते हो । घोडियाँ मधुर घृत,
दीप्त दुग्ध और जल ले आवें। तुम्हारे कर्म सें मनुष्य रहें ।
३८, सोम, घुम सारे भुवनों में भनुष्यों के दशक हो। जलवर्षक,
तुम विविध गलियोंवाले हो । गौ आदि से युक्त, सुवर्णमय धन हमें दो ३
हुम सब द्रव्यों से युक्त होकर संसार में जी सके । |
३९. सोम, दुस गो, धन और सुवज को लेवाले और जळू के धारक
हो । सोस, क्षरित होओ । दुम सुन्दर बीयवाले हो। तुम सर्वझ हों ।
स्तोता लोग स्तोत्र-द्वारा तुम्हारी उपासना करते हँ ।
४०. मधुर सोमरस अभिषदन्काल में, मननीय स्तोत्र का उत्यापन
करते हें । महन् सोम, जल सें मिलकर कलश में जाते हें। सोम का
रथ दशापवित्र हं । सोम युद्ध में जाते है। असीम-गति सोन हुमारे लिए
सहान् अन्न को जीतते है ।
११६६ हिन्दी-ऋभ्वेद
४१, संबके पत्ता सोध दिव-रात प्रजा और सुन्दर भरणवाली सारी
स्ठुतियो को प्रेरित करते हे । दीप्त सोम, तुम इन्द्र से हमारे लिए प्रजा
पे युक्त अञ्न और घर भरनेवाला धन, इन्द्र-द्वारा पिये जाकर, साँगो ।
४२. इरित-वर्ण, रमणीय और सदकर सोम प्रातःकाल स्तोताओं
के ज्ञान और स्तुतियों से जान जाते हैँ। भनष्य और देवता के हारा
प्रशंधित घन यजमान को देनेवाले और सत्य तथा स्वर्ग के जीवों को अपने
४३. ऋत्विक लोग गो-दुग्ध सें सोम को सिलाते हें, विविध प्रकार से
मिलाते हे। भली भाँति सिलाते हुँ । देवता लोग बलका सोम का आस्वाद
लेते हुँ और सोम को मधुर गव्य में सिलाते हैं। जिस समय रस ऊपर
उठता है, उस समय सोस नीचे गिरते है सोम सेचक हुँ। जैसे लोग
पशु को स्नान के लिए जल में ले जाते हैं, वैसे ही सुवर्ण-भरणधारी
पुरोहित लोग सोम को जल में ले जाते हुँ।
४४. ऋत्विको, मेधावी और क्षरणशील सोस के लिए गाओ ॥
महती वर्षा धारा के समान रस-रूप अञ्च को लाँघकर सोम जाते हें । बे
सर्प के समत सोम अभिषवादि कर्म के दारा अपने चसड को छोड़ते हें ।
वर्षक और हरितवर्ण सोम कोड़ापरायण अइब फे समान दश्ापदित्र से
कलश में जाते हुँ ।
४५. अंग्रगन्ता, शोभन और जल य संस्कृत सोस की स्तुति की जाती
है । सोम दिनों को मापनेवाले हु । सोम हरित-वर्ण, जलधिश्रित, शोभन-
दर्शन, जर्वान् और घन प्रापक हं । उनका रथ ज्योतिर्मय हुँ । वे प्रवा-
हित होते हुँ । |
४६. सोन चुलोक के धारक और स्तम्भ हैं। मादक सोम अभिषु
किये जाते हैं । वे तीन धातुओं (द्रोग-कल्शा, आधदनीय और पुतनृत्)
वाले हैं सोन सारे भुवनो मं बिहार करते हूँ । जिस समय ऋत्बिकू-
लोग झ्वबान् सोत को स्तुति करते है, उस स
gs स vat ग्र पहत हुँ
एरहित छोग चाहते हुँ ।
चक्की
हिन्दी-क्ररबेद ११६७
४७. शोधन-काल में तुम्हारी चश्चरू धाराये शल पिषलोमों को
लॉघकर जाती हं। सोम, जिस समय तुम दो अभिषय-फलकों पर जल
में मिलाय जाते हो, उस समय चलाये जाकर हुन कलश भें बैठते हो ।
४८. सोध, तुम हमारी स्तुति को जामते हो। हमारे यज्ञ के लिए
क्षरित होओ । सेषलोममय दशायदित्र में प्रिय सथू (रस) शिशओं।
दीप्त सोम, सारे भक्षक राक्षसी को वि पे ॥ यज्ञ में सुपुत्रबारे हुए
महान् धन को याचना करेंगे और प्रचुर स्तोत्र का पाठ करेंगे ।
७७ रुबंत
(देवता पवमान साम । छाव काव्य के पुत्र उशना । छन्द ।त्रष्टुप |)
१. सोम, शीघ्र जाओ और द्रोण-कलश सें बंठो । बेताओं (सदष्यों)
के द्वारा शोधित होकर यजमान के लिए अन्न दो । अध्वर्यु लोग यश के
लिए बली सोस का इसी प्रकार माजंच करते हुँ, जिस प्रकार बली अश्य
का माजेन किया जाता हूँ ।
२. झोभन आयुधयाले, क्षरणशील, दिव्य, रा्द-यदावा, उपद्र
रक्षक, देवों के पालक, उत्पादक, सुबल, स्वर्य-स्सस्थ और पुचियी फे
धारक सोम क्षरित हो रहे हँ।
३. अतीन्द्रिय-द्रऽटा, मेधावी, आग्रगन्ता, सदष्यों के प्रशाशक आद
धीर उना ऋषि गायों के गुह्य और दुग्ध-भिश्चवित्त जल को प्राप्त करते हूं ॥
४. वर्षक इन्द्र, तुम्हारे लिए सधुर और वर्षक सोन पित्र में क्षरित
होते हैं बही सो और असीम घनो फे दाता, अगणित दाव-दाता, नित्य
और बली हुं । वे यज्ञ में रहते हू । र
५. अद्माभिलाघी और सेना-विजयो अइव के साब सोस गो-भिश्चित
उद्नो को लक्ष्य करके महान् और असर बळ के लिए, सेषलोल के छनन
से झोषित होकर, बदाय जाते हू ।
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६. बहुता छ हारा जाटूत आतर झाएट्यसातय सरा सिया के 1०२५ ०५१९
१९६८ हिन्दी-हग्वेद
झोज्य धनो को देते हुँ। इयेम-हारा लाये गये सोघ अन्न दो, धन बो
छर अझ्चन्रस की जोर जाओ ।
७. गविश्ील और अभिषुत सोम छोड़े हुए घोड़े के ससान पवित्र
की ओर दोड़ते हुँ। अपनी सींगों को तेज करके महिष और गवाभिलाषी
सोम-धारा ऊंचे स्थान से पात्र को ओर जाती है। पणियों के
निवासस्थान पर्वत के गुढ स्थान में वर्तमान गायों को इसी सोम-धारा
ने प्राप्त किया था । आकाश से शब्द करमेयाली, बिजली के सान यह
झोम-वारा, इन्द्र, तुम्हारे लिए क्षरित होती है ।
९, सोम, शोधित तुस खोये हुए घो-सभूह को प्राप्त करते हो । इन्द
के साथ ही रथ पर जाते हो। शीघ्रदाता सोम, तुम्हारी स्तुति की जाती
हूं । हमें महानू धव दो । अन्नवाले सोस, सब अञ्च तुम्हारा है ।
८८ एूकत
(देवता पवमान साम । ऋषि उशना । छन्द त्रिष्टुप्।)
१, इन्द्र तुम्हारे लिए ये सोम अभिषुत होते हैं। ये तुम्हारे लिए
क्षारित होते ह8। इन्हें पियो। दुम जिम सोध को बनाते हो, जिनको
स्वीकार करते हो, मद और सहायता के लिए उन्हें तुम पियो ।
२. सोस, रथ के समान, प्रचुर भार के वहन कश्नेवाले हैं। सोम महान्
हँ, रथ के समान ही लोग उनको योजित करते हुँ। सोम प्रभूत धन के
दाता ह । युद्धार्थी सोम को संग्राम में ले जाते हें।
३. सोख वायु के दिघुत् मामक अइवों के स्वामी है ओर वायु के समान
हौँ इष्ठ-पसन हुँ। थे अश्विद्वय के समान आह्वान सुनते ही आहे हें।
सोम धनी के सवान सबके प्रार्थनीय हैं। वे सूर्य के ससान वेगवाले हैं ।
४. इन्द्र के समान तुमने महान् कार्यो को किया है। सोम, घुम शत्रुओं
के हुन्दा और पुरियों के भेदनन्करी हो। अइव के समान अहियों के हन्ता
हो। दुम बारे शत्रुओं के हन्ता हो।
णाणाणाल < अ+नज-नछ
हिन्दी-नहग्देद ११६९
५. जैसे अग्नि वन में उत्पन्न होकर अपने बल को प्रकट करते हे, वेसे
ही सोम जल में उत्पन्न होकर वीर्य का प्रकाश करते है। युद्ध-कर्ता, बीर
के समान, शत्रु के पास भयंकर शब्द करनेवाले सोस प्रवृद्ध रस देते हैं।
६. जसे आकाश के मेघ से वर्षा होती है और जैले नदियाँ नीचे समुद्र
की ओर जाती हुँ, वैसे ही अभिषुत सोम मेषलोम का भतिक्रण करके कलवा
में जाते हुँ।
७. सोम, तुम बली हो। सरुतों के बल के समान क्षरित होओ। स्वर्ग
की शुन्दर प्रजा के समान (वायु के समाल) बहो। जल के समान हमारे
लिए सुसतिदाता होओ। तुम बहुरूप हो। सेनान्जेता इन्द्र के ससान तुम
बजनीय हो।
८, सीम, तुम वारक राजा हो। तुम्हारे कामों को में शीघ्र करता
हुँ। सोम, तुम्हारा तेज महान् और गम्भीर हे। तुम प्रिय मित्र के समान
शुद्ध हो। तुस अर्जमा देवता के समान पूजनीय हो।
८९ सूक्त
(दैवता पवमान सास । ऋषि उशना । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. जेसे आकाश से बृष्टि होती हे, बैसे ही यज्ञ-मायों से बोढ़ा सोम
प्रवाहित हो रहे हे। असीम धाराओवाले सोस हमारे पास अथवा बुलोक
के पास बेठते हूँ।
, २ दुग्ध देनेवाली गायों के राजा सोम हुँ । वे क्षीर सें सिल रहे हुँ ।
थे यज्ञ की सरल नौका मे चढते हं। इ्येन-द्रारा लगाये गये सोम जल में
बढ़ते हँ। घुलोक के पुत्र सोभ को पालक लोग दुहते हँ। अध्वर्यु भी
हते ह ।
३. शात्रूहिसक, जल-प्रेरक, हरित-वर्ण, रूपवान् और दुलोक के स्वामी
सोम को यजमान लोग व्याप्त करते ६। संग्रासों मं शूर ओर देवों में सुर्य
सोस पणियों के द्वारा अपहूत गायों को खोजने के लिए सम पुछ रहे हुँ
सोस को ही सहायता से सेवक इन्द्र संसार की रक्षा करते हु।
फा० ७४
११७० हिच्दी-प्रदस्वेव
४. मधुर पृष्ठवाले, भवादक, गव्ता और दर्शवीय सौभ को अनेक
चक्कोंवाले रथ में (यज्ञ में), अइ के समान, जोला जाता है। परस्पर
भगिनियों और बन्धुओं के समान अँगुलियाँ सोस का शोधन करती हुँ।
समान बन्धनवाले अध्वर्यु आदि सोभ को बळी करते हुँ ।
५, धो देनेबाली चार याये सोम की सेवा करती ह। भायें पके धारक
अन्तरिक्ष (एक ही स्थान) में बंडी हुई हैं। अन्न से शोधित कर्नेबाली के
अनेक और बड़ी गाय चारों ओर से सोम को घेरकर रहती हुँ।
६. सोम थुलोक के स्तम्भ और पृथिवी के धारक हूं। सारी प्रजा
उनके हाथ में हें। वे स्तुति करते हे । तुम्हारे लिए वे अश्ववाले हों ।
सोस मधुर रसवाले हें। वे इन्द्र के लिए अभिषुत होते हैं।
७. सोम, तुम बली और महान् हो। देवों ओर इन के पान के लिए
थुत्रध्न, तुम क्षारित होओ। तुम्हारी कृपा से दुख अतीव आज्वञाइक और
शोभन-बीर्य धन के स्वामी बन जायें।
९० सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि वासिष्ठ । छन्द त्रिष्टुपू।)
१. अध्वर्युओं के द्वारा प्रेरित ओर द्यावापृथिदी के उत्पादक सोस
रथ के ससान अन्न प्रदान करनेवाले हेँ। इन्द्र को पाकर, आयुधो को तेज
कर और सारे घनों को हाथों में धारण कर सोम हमें देने को प्रस्तुत हैं।
२. तीन सबनोंबाले, वर्षक और अन्दाता सोम को स्तोताओं की वाणी
शाब्दायसाच कर रही है। जलमिश्चित सोम, बरुण के समान, अरू के
आच्छादक हें और वे रत्न-दाता होकर स्तोताओं को धन देते है ॥
३. सोम, तुस शूरों के समुदायक और वीरोंबाले हो। सोम सामर्थ्य
बान्, विजेता, संभक्ता, तीक्ष्ण आयुधदाले, क्षिप्र और भमुर्द्धारी हाथवाले,
युद्ध में अजेथ ओर शत्रुओं को हरानेवाले हूँ।
४. सोम, तुम विस्तृत सागवाले हो। स्तोताओं के लिए अभय देते
हुए ओर द्यावापृथिबो को सङ्गत करते हुए क्षरित होओ। हमें प्रचुर अञ्न
हिन्दी-ऋण्वेद ११७१
लिए ठुम उषा, आदित्य और किरणों को प्राप्त करने की इच्छा से
शाब्द करत हो
५, क्षरणशील सोध, तुस बरुण, भित्र, विष्ण, बळी मत्, इन्र भौर
अन्य देवों के सद के लिए उन्हें तृप्त करो।
६. सोस, तुस यज्ञवाले हो। राजा के समान बल के द्वारा सारे पापों
को चण्ड करके क्रित होओ। दीप्त सोस, हमारे सुन्दर स्वोत्न फे लिए
हमें अश्न दो। कल्याण के हारा सदा हमारा पालव करो।
बृतीय अध्याय समाप्त ।
९१ सूक्त
(चतुथं अध्याय । दैवता पवमान साम । ऋषि मारीच,
कश्यप । छन्द् त्रिष्टुप् |)
१. जैसे युद्धभूभि सें अइव का अंगुलि से परिमाजेन किया जाता है,
वैसे ही शब्दायभान और क्षरणशील सोम का, कमे के द्वारा यज्ञ में सुजन
होता हुँ । सोम देवों के मन के अनुकूल, देवों में श्रेष्ठ और स्तुति बा भन
के अधिपति हैं। भगिती-स्वरूप दस अँगुलियाँ, यज्ञ-गृह के सम्मुख, ढोने-
वाले सोम को उन्नत देश--मेषलोममय दशापवित्र पर प्रेरित करती हूँ।
२. कबि (स्तोता) नहुष-बंशीयों के द्वारा अभिषुत, क्षरणशील और
देवों फे ससीपवती सोस यज्ञ में जाते हं। अमर सोम, कर्मनिष्ठ सनष्यों के
द्वारा, पवित्र अभिषवचर्मं, गोरस और जल के द्वारा बार-बार शोधित
होकर यज्ञ में जाते हैं।
३. कास-वर्षक, बार-बार शब्दायमान और क्षरणशील सोमवर्षक
इन्द्र के लिए शोभन और श्वेत गोरस के पास जाते हुँ । स्तोत्रबान्, स्तो प्रज्ञ
और सुवीर्य सोम हिसा-शून्य अनेक घागों से सुक्ष्म-छिद्र पबित्र को लॉघकर
द्रोण-कलश में जाते हु।
११७२ हिन्दी-ऋग्वेद
४. सोम, सुदृढ़ राक्षय-दुरियों को विवष्ट करो। इन्दु (सोम), पवित्र
में शोध्यमात (शोधन किये जाले हुए) घुस अश्न छै आओ। जो राक्षस
दूर बा समीप से आते हुँ, उनके स्वासी को तुम घातक हथियार से काट
डालो ।
५, सवके प्रार्थनीय सोम, प्राचीन काल के समान स्थित तुस मीन
सुक्त और शोभन स्तोत्रवाले मेरे भागों को पुराने करो अर्थात् मेरे लिए
कोई मार्ग चया व रहे। बहुकर्मा और शब्दायभान सोस, राक्षसो के लिए
असह्य, हिंसक और महन् जो तुम्हारे अंश हूं, उन्हें हम यज्ञ में
प्राप्त करें।
६. क्षरणशील (पषषसान) सोस, हमें जल, स्वर्ग, गोधन और अनेक
पुत्र-पौत्र दो । हमारे खेत का सङ्कल करो । सोस, अन्तरिक्ष में नक्षत्रों को
विस्तृत करो। हस चिरकाल तक सूर्य को देख सके। `
२ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि मरीचि-पुत्र कश्यप | छन्द त्रिष्टुप् ।)
१, शोध्यमान, पुरोहितों के द्वारा भेजे जाते और हरित-बर्ण सोम
वेसे ही सेषलोम के पबित्र (चलनी वा छनने) में, देवों के उपासन के लिए,
संचालित किये जाते है, जैसे यद्ध सें, शात्र-वध के लिए, रथ-संचालित किया
ज्ञाता है । शोध्यमान सोस इख का स्तोत्र प्राप्त करते हुँ। सोम प्रसञ्चकर
अन्न से देवों की सेवा करते हं।
२. मनुष्यों के दर्शक और ऋत सोम जल में मिलकर तथा अपने
स्थान पवित्र में फेलकर यश में उसी प्रकार जाते है, जिस प्रकार स्तोत्र
के लिए होता देवों के पास जाता है। अनन्सर सोम चमस आदि पात्रों में
जाते हें। सात मेधावी (भरद्वाज, कश्यप, गौतम, अनि, विइवासित्र, जमदग्नि
और वसिष्ठ) ऋषि सोम के पाङ जाते हैं।
३. शोभन-अज्ञ, सार्मज्न, सब देवों के ससीपी और पवसान (शोध्यः
हिन्दी-ऋष्वेद ११७३
मात) सोम अविनश्वर द्रोण-कलूश में जाते हैं। सारे कार्यों में रमणीय
और प्राज्ञ सोम निषाद आदि पाँच वणो का अनुगमन करते हें।
४. पुयमान (झोध्यसान) सोम, तुम्हारे ये प्रसिद्ध ३३ देवता अन्तहित
स्थान (स्वर्ग = घुलोक ) में रहते हैं। दस अँगुलियाँ उच्चत और मेषलोम
के पवित्र में जल के द्वारा तुम्हें शोधित करती हेँ।
५. पवसान सोम के जिस प्रसिद्ध स्थान पर स्तोता छोग, स्ठ॒ति के
लिए, एकत्र होते हे, उस सत्य स्थान को हम प्राप्त करें। सोम की जो
ज्तोति दिन के लिए प्रकाश प्रदान करती है, उसने सन् नामक राजषि की
उत्तम रूप से रक्षा की है। सोम ने अपने तेज को सर्ववाशक असुर के लिए
अभिगमनशील किया हे।
६. जेसे देवों को घुलानेवाले ऋत्विक पशुवाले के सदन (यज्ञगृह) में
जाते है और जेसे सत्यकर्मा राजा युद्ध-क्षेत्र में जाता है, बैसे ही पवमान
सोभ, गमनशील जल में महिष के सदृश रहकर, द्रोण-कलश सें जाते हैं।
९३ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि गोतम-वंशीय नोधा । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. एक साथ सिचन करनेवाली भगिनी-स्वरूप जो दस अँगुलियां
सोम का शोधन करती हैं, वे ही प्राज्ञ ओर देवों के हारा काम्यमान सोस
की प्रेरिका हूँ। हरितवर्ण सोस सूर्यं की पत्नियों (दिल्ञाओं) की ओर,
जाते हे। गतिशील अइव के समान स्थित सोम कलश सें जाते हें।
२. देवकामी, कासवर्षक ओर बरणीय सोम जल के द्वारा उसी प्रकार
धुत किये जाते हे, जिस प्रकार माताये शिशु का धारण करती हें। जैसे
पुरुष अपनी स्त्री के पास जाता हे, बेसे ही सोम अपने संस्कृत स्थान को
प्राप्त करते हुए, दुध आदि के साथ, द्रोण-कलश में जाते हूँ ।
३. सोम गाय के स्तन को आप्यायित करते हुँ । शोभनप्रज्ञ सोस
धाराओं के रूप में क्षरित होसे हें। चभसों में स्थित उन्नत सोम को गायें
११७४ हिन्दी-ऋणष्वेद
इवेत दुग्ध से उसी प्रकार आच्छादित करती है, जिस प्रकार घौत वस्त्र सै
कोई पदार्थं आच्छादित किया जाता हे।
४. पसान सोम, पात्रों सें शिरते-शिरते देवों के साथ कामयसान तुस
अश्व से युक्त धन दो। रथियों की इच्छा करनेवाले सोम की अभिलाषिणी
और बहुविध बुद्धि घन-दान के लिए हमारे सामने आवे।
५, सोम, हमारे लिए शीघ्र ही पुत्रादि-युक्ल धन वो। जल को सबके
लिए आह्लादक बनाओ! सोम, स्तोता की आय को बढ़ओ। सोम अपने
कर्म से सवन में, हमारे यज्ञ के प्रति, शीघ्र आव
९४ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि आङ्गिरस कण्व । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. जिस समय घोड़े के समान सोम अलंकृत होते हैं और जिस समय
सुर्य के समान सोम की किरणें उदित होती हैं, उस समय अँगुलियाँ स्पर्धा
करके सोम का शोधन करती हुँ। अनन्तर कवि सोम जल में मिलकर
उसी प्रकार कलहा में क्षरित होते हैं, जिस प्रकार पझुपोषण के लिए गोपाल
गोष्ठ में जाता हे ।
२. जल-घारक अन्तरिक्ष को सोस अपने तेज से दोनों ओर से आउ्छा-
दित करते हैं। स्थश्च सोम के लिए सारे भुवन विस्तृत हों। प्रसच्चता-
कारिणी और यज्ञ-विघायिनी स्तुतियाँ सोम को लक्ष्य करके यज्ञ-दिनों में
वैसे ही शब्द करती हे, जेसे दुग्वदायिनी गाये गोष्ठ में शब्द करती हैं।
३. बुद्धिमान् सोस जिस ससय स्तोत्रों की ओर जाते हैं, उस सपय
घीर पुरुष के रथ के समान वह सर्वत्र गति-जिघि करते हुँ। सोस देवों का
धन सनुष्य को देते हुँ। प्रदस धन की बुद्धि के लिए सोम की स्तुति की
जाती हुँ।
४. सम्पत्ति के लिए सोस अंशुओं (लता-प्रतान) से निकलते हैं।
स्तोताओं को सोम अन्न और आयु प्रदान करते हैं। सोम से सम्पत्ति
हिन्दी-ऋणग्वेद ११७५
प्राप्त करके स्तोता लोगों ने अमरत्व प्राप्त किया। सोम से युद्ध यथार्थ
होते हैं।
५. सोम, सम्पत्ति, बल, अशव, गौ आदि दो। भहान ज्योति का
विस्तार करो। इन्द्रादि देवों को दृप्त करो। सोल, तुम्हारे लिए सारे
राक्षस पराजेय हैं। क्षरणशील सोम, सारे शत्रुओं को मारो।
९५ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि कविन्पुत्र प्रस्कएव । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. चारो ओर अभिषत होनेवाले और हरित-बर्ण सोस शब्द करते
हुँ तथा झोधित होते-होते कलश के पेट में दैठले हें। मनृष्यों के द्वारा संघंत
सोम दुग्ध में मिश्रित होकर अपने रूप को प्रकट करते हें। इन सोम के
लिए, स्तोताओ, हवि के साथ मननीय स्तुति उत्पन्न करो।
२. जैसे नाविक नौका को चलाता हे, बैसे ही बनाये जानेबाले और
हरितवर्णं सोम सत्यरूप यज्ञ के उपयोगी बचत को प्रेरित करते हुँ।
दीप्यमान सोम इन्ब्रादि देवों के अन्तहित शरीरों को यज्ञ में उत्तम
वक्ता के लिए आविष्कृत करते हें।
३. स्तुति के लिए शीघ्रता करनेवाले ऋस्विक लोग, जलनतरद्ध
के समान, मन की स्वामिनी स्तुतियों को सोम के लिए प्रेरित करते हुँ।
सोस की पुजा करनेवाली स्तुतियां सोम के पास जाती हूँ। अभिलाषिणी
स्तुतियाँ अभिलाषी सोम सें प्रविष्ट होती हुँ।
४. अस्विक लोग सोम का शोधन करते हुए, सहिब के समान,
उच्चत देश में स्थित काम-वर्षक और अभिषव के लिए पत्थरों में स्थित
उन प्रसिदध सोम फो दूहते हें। कामयसान सोम को मननीय स्तुतियाँ सेवितं
करती हैं। तीन स्थालो में वर्तमान इख झत्रुमनिवाइक सोम को अन्तरिक्ष
में धारण करते हूँ ।
५. सोम, जैसे स्तोत्रन्प्ररक उपवब्ता नामक पुरोहित होता को
उत्साहित करता है, वैते ही स्थोधाओ के प्रशासन के लिए क्षरणशील तुम
११७६ हिन्दी-ऋग्वेद
बुद्धि को एर्टदगासिशुली करो। जब तुम इख के साथ यञ्ञ में
रहते हो, तब हम स्तोता सोभाव्यञ्ञाली हों और शोभन वीर्यवाले धन
के अधिपति हों ।
दे ` ७ यै ५
(देवता पवसान सोम । ऋषि दिवोदास के पुत्र प्रहदंन। छन्द
त्रिष्दुप ।)
१. सेनापति और शत्रु-बाथक सोब शज्रुओं की गायें पाने की इच्छा से
रथों के आगे युद्ध में जाते हैं। सोम की सेना प्रसन्न होती है। मित्र यजमानो
के लिए इन्द्र के आज्वञाव फो कल्याणकर बनाते हुए सोम उन दुग्ध आदि
को ग्रहण करते हैं, जिनके लिए इन्द्र शीघ्र आते हें।
२. अँगुछियाँ सोम की हरित-बर्ण किरण का अभिषब करती हैं। व्याप्त
रहने पर भी सोम अननुगत“रथ रूप दशापवित्र में ठहरते हुँ। इन्त्र के भित्र
और प्राज्ञ सोम पवित्र से शोभन स्तुतिवाले स्तोता के पास जाते हैं।
३. घोतमान सोम, तुम इन्द्र के पीने की वस्तु हो! हमारे देव ब्याप्त
यज्ञ में इन्द्र के महान् पान के लिए क्षरित होओ। तुम जल-कर्ता और
द्यावापृथिवी के अभिषेक्ता हो। विस्तृत अन्तरिक्ष से आगत और शोधित
तुम हमें घनादि प्रदान करो।
४. सोस, हमारे अपराजय, अविनाश और यज्ञ के लिए सामने आओ।
मेरे सारे मित्र स्तोता तुम्हारा रक्षण चाहते हैं। पवसान सोम, में भी
तुम्हारा रक्षण चाहता हुँ।
५. सोस क्षरित होते हें। सोम स्तुति, युलोक, पृथिची, अग्नि, प्रेरक
सुर्य, इन्द्र और विष्णु के जनक हें।
६. सोम देव-स्तोता पुरोहितों के ब्रह्मा, कवियों के शब्दविन्यासः :
कर्सा, मेघादियों के ऋषि, वन्य प्राणियों के महिष, पक्षियों के राजा और
अस्त्रो के स्वधिति नामक अस्त्र हे। शब्द करते हुए सोम पवित्र का अति-
क्रम करते हुँ।
हिन्दी-ऋण्वेद ११७७
७. पवमान सोम तरङ्ग यित नदी के तथान हुद्यङ्कल स्तुतिवाक्य
के प्रेरक हें। काम-वर्षक और गोश्ाता सोस अन्ताहुत वस्तुओं को देखते
हुए दुर्बलो के न रोकने योग्य बल पर अधिष्ठित रहते हुँ।
८. सोम, तुम मदकर, युद्ध में शन्रहुप्ता, अगच्य और असीम घल-युदत
हो। शत्रुओं के बल को अधिकृत करो । सोम, तुम प्राज्ञ हो। ठुम गायों को
प्रेरित करते हुए अपनी अंशु-्तरङ्क इन्द्र के प्रति भेजो !
९, सोम प्रसक्षता-दायक हें; र्णणीय हैं। उदके पास देव लोग जाते
हैं। अनेक घाराओंवाले, बहुबल और पात्रों में क्षर्णशील सोस इख के
सद के लिए व्रोग-कलश् में उसी घकार जाते है, जिस शकार लड ये बळी
अश्व जाता है।
१०. प्राचीन, धनाधिपति, जन्म के साथ जल में शोधित, अभिषव
प्रस्तर पर निष्यीड़ित, दोत्रुओ से रक्षक, प्राणियों के राज और कमं के
लिए क्षरणशील सोम यजघान को समीचीन आगे बताते हैं।
११. पवमान सोम, हमारे कर्यकुशल पूर्वजों ने, तुम्हारी सहायता
ते ही अग्मिष्टोसादि कर्भ किये थे। वेशबान् अइवों की सहायता के दवारा
लुम शत्रुओं को मारते हो। राक्षसों को हटाओ। हुन हमारे इन्द्र बसो-=
धन दो।
१२. प्राचीन काल में जेसे तुम राजा मत् के लिए अन्न-धारक हुए
. थे, शत्रुओं का संहार किया था और धन, पुरोडाश आदि से युक्त होकर
उनको थन-प्रदान करने के लिए आये थे, बसे हमें भी धन देने के लिए
पधारो, इन्द्र का आश्रय करो और उन्हें अस्त्र दो।
१३. सोम, तुम मदकर रसबाले और याझिक हो। जल में सिश्चित
होकर उच्चत मेषछोममथ पवित्र में क्षरित होओ। अतीव सदकर इन्द्र के
पीने योग्य और मादक सोस, जरूवाले द्रोणकलश में ठहरो।
अन्नकामी और अमेक घाराओंबाले हो। आकाश से वुड बरसाओ और
Meg pera
९ १७८, १
जळ हथा दुष्ध के साथ, हुसारे जीवम को बढ़ाते हुए, द्रोणकलश में
दिस होल ।
१५, एसे सौम स्तोत्रों से शोधित होते हैं। सोम गमनशील अइव के
ससात शचुऔ के पार जाते हुँ। वे अदीन यो के दूध के समान परिशुद्ध
हुँ। वै दिस्तौर्णं मार्ग के समान बबके आश्यणीय हुँ। वाहक अइव के समान
सोस स्तोत्रों के हाश नियन्त्रण सें आते हें।
१६. शोधन आयुधवाले और ऋत्विकों के द्वारा शोधित सोम अपनी
गुह्य ओर रमणीय मूर्ति को धारण करो। अइव के समान वर्तमान तुम
हमारी अन्ञाभिलाषा के लिए हमें अश्न दो। देव सोम, हमें आयु और
पशु दो।
१७. सरत् लोग, शिश के समान, प्रकट और सबके अभिलषणीय सोम
की शोधित करते है। वे वाहक सोम को सप्तसंस्यक गण के द्वारा अलंकृत
करते हे । ऋान्तकर्मा ओर कवि-कार्य के द्वारा कविशब्द-वाच्य सोम, शब्द
फरते हुए, स्तुति के साथ पवित्र को लाँघकर जाते हेत
१८. ऋषियों के समान सनवाले, सबको देखनेवाले, सूर्यं के संभक्त,
अनेक स्तुतियोंवाले, कवियों में शब्द-विन्यास-कर्ता और पूज्य सोम
युलोक में रहने की इच्छा करते हुए, स्तुत होते हुए और विराजमान
इन्द्र को प्रकाशित करते हँ।
१९. अभिषवण-फलकों पर वर्तमान, प्रशंसनीय, समर्थ, पात्रों में
विहरण करनेवाले, आधुधों का धारण करनेवाले, जलप्रेरक, अन्तरिक्ष का
सेवन करनेबारे और सहान् सोम चतुर्थचन्द्र-धाल का सेवम करते हैं।
२०. अकत यगुष्य के समान, अपने शरीर के शोधक, धनदान के
लिए देगवान् अइव के सान चरूनेवाले, वषभ के समान शब्द करनेवाले
आर पात्र नं जानवाऊ़े सोव, शब्द करते हुए, अभिषवण-फलकों घर
बंडे 51
२१. सोस, ऋत्विज्ञों के हारा शोषित होकर तुस क्षरित होओ। बार”
हिन्दी-ऋष्वेद ११७९
बार शब्द करते हुए सेषलोममय पात्र में जाओ। अभिषदण-फलको पर
क्रीड़ा करते हुए पात्रो में पैठो। तुम्हारा मदकर रस इन्र को प्रमत्त करे ॥
२२. सोस की महती धारायें बनाई जा रही हुँ। गोरस से मिश्रित
होकर सोम ट्रीण-कलकझ में गये। सोम गान करते में कुशल हैँ; इसलिए
गाते हुए विद्वान् सोम वैसे ही पात्रों सें जाते हे, जैसे लस्पट सन्ष्य अवने
मिश्र की स्त्री के पास जाता हैत
२३. शोध्यमान सोम, जैसे जार व्यभिदारिणी स्त्री के पास जाता है,
बैसे ही स्तोताओं के द्वारा अभिषुल और पात्रों में क्षरणशील सोम, तुभ
शत्रुओं का विनाश करते हुए आते हो। जैसे उड़नेवाला पक्षी वक्षों पर
बेठा करता हूँ, बैसे ही शोधित सोम कलश में बेठते हें।
२४. सोम, बच्चों के लिए दूध का दोहन करनेवाली स्त्री के समान
तुम्हारी यजमानों का घन दोहन करनेवाली और शोभन घाराओंबाली
दीप्तियाँ पात्रों में जाती हुँ । हरित-वर्ण, लाये गये और क्रखिको के द्वारा
बहुधा वरणीय सोभ बसतीवरी-जल में ओर देवकामी यजमानो के कलश
में बार-बार शब्द करते हैं।
९७ सूक्तं
(६ अनुवाक। देवता पवसान साम । ऋषि १-३ तक सैत्रावरुश्
घाशाष्ठ, ४-६ तक इन्द्रपुत्र प्रगति, ७-६ तक वृषगण, १०-१२ तक
मन्यु, १३-१५ तक उपमन्यु, १६-१८ तक व्याघ्रपाद्, १६-२१ तक
शक्ति, २२-२४ तक कर्णाश्नत, २५-२७ तक मलीक, २८-३० तक
वसुश्र (ये सब ऋषि वशिष्ठ गोत्रज है), ३१-३३ तक शक्ति-पुत्र
पराशर और शेष के आङ्गिरस कुत्स । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. प्रेरक सुवर्ण के द्वारा शोषित और प्रदीष्त-किरण सोम अपने रस
को देवों के पास भेजते हं । अभिषुत सोस शब्दायसान होकर पवित्र की ओर
उसी प्रकार जाते हैं, जिस प्रकार ऋत्विक यजमान फे पशुधाले और
सुलिमित यञ्ञ-गृह में जाते हेँ।
११८० हिन्दी-ऋणग्वेद
२. संग्राम के योग्य, आच्छादक ओर कल्याणकर तेज को धारण
करनेवाले, पुज्य, कवि, ऋत्विकों के बक्तव्यो के प्रशंसक, सर्व-द्रष्टा और
ज्ञागरणशील सोम, तुस यज्ञ में अभिषयण फलको पर बेठो ।
३. यशस्वियों में भी यशस्वी, पृथिवी पर उत्पन्न और प्रसन्नतादायक
सोम उच्च ओर मेबलोममय पवित्र में शोधित होते हँ। सोम शोधित
होकर तुम अन्तरिक्ष में शब्द करो। मंगलमय रक्षणों से हमारी रक्षा करो।
४. स्तोताओ, अली भाँति स्तुति करो और देवों की पुजा करो।
प्रचुर धन की प्राप्ति के लिए सोम को प्रेरित करो। स्वादुकर सोम
भेघलोसभय पवित्र में शोधित होते हें। देवाभिलाषी सोम कलश में बैठते हे।
५. देवों की सेत्री की प्राप्ति की इच्छा से अनेक धाराओंवाले सोम
कलश में क्षरित होते हैं। कर्स-निष्ठों के द्वारा स्तुत होकर सोम प्राचीन
धाम (झुलोक) में जाते हें। महान् सौभाग्य के लिए वे इन्द्र के पास
जाते हु।
६. हरित-वर्ण और शोधित सोम, स्तोत्र फरने पर तुम घन के लिए
वधारो। तुम्हारा मदकर रस, युद्ध के लिए, इन्द्र के पास जाय। देवों के
साथ रथ पर बैठकर आओ। तुम हमें कल्याण-वचनों से हमारी रक्षा
करो। |
७. उशना नामक कवि के समान काव्य (स्तोत्र) करते हुए इस संत्र
के कर्ता ऋषि इन्द्रादि देवों का जन्म भली भाँति जानते हें। प्रचुरकर्मा,
साधुसित्र, पवित्रता के उत्पादक और राज-दितवाले सोम, शब्द करते
हुए, पात्रों में जाते हें। |
८. हंसों के समान विचरण करनेवाले वृवगण नास के ऋषि लोग शत्रु"
बल-भीत होकर क्षिप्रघातक और शत्रुहन्ता सोम को लक्ष्य कर यज्ञ-गृह सें
जाते हुँ । मित्र-झूप स्तोता लोग स्तोत्र-्योग्य, दुद्धंथ और क्षरणशील सोम
को लक्ष्य करके वाद्य के साथ गान करते हें। |
९. सोम शीघगामी हूँ। बहुतो के द्वारा स्तुत्य और अनायास कीड़ा
करनेवाले सोस का अनुगअन दूसरे लोग नहीं कर सकते। तीक्षण-तेजस्वी
हिन्दी-ऋग्वेद ११८१
सोस अनेक्ष प्रकार के तेज प्रकट करते हुँ। अन्तरिक्ष में बर्तंवाव सोस दिन
में हरित-वर्ण के दिखाई देते हैं और रात में सरलगासी और प्रकाशयुक्त
दिखाई देते हे।
१०. क्षरणशील, बलवान् और गमनशील सोम इन्द्र के लिए बलकर
रस को भेजते हुए उनके मद के लिए क्षरित होते हैं। बे राक्षस-कुल को
मारते ह। वरणीय धन देनेवाले और बल के राजा सोच चारों ओर से
शत्रुओं का संहार करते हैं।
११. पत्थरों से अभिषुत और मदकारिणी धाराओं से देवों की पुजा
करनेवाले सोम मेषलोससय पवित्र का व्यवधान करके क्षरित होते हें।
इत्र की मेत्री को आश्रय करते हुए ओतवान और ददकर सोस इन्द्र के मद
के लिए क्षरित होते हैं। |
१२. यथाकाल प्रिय कों के करनेवाले, शोषित, कीड़ाशील और
अपने रस से इन्द्रादि देवों का पूजन करनेवाले दिव्य सोम क्षरित होते हें।
उन्हें उच्च और भेषलोभसथ पवित्र पर दस अँगुलियाँ भेजती हैं।
१३. जेपे गायों को देखकर लोहित-वर्ण वषय शब्द करता हे, वैसे ही
शब्द करते हुए सोम धावापूथिद्री को जाते इ । युद्ध में, इन्द्र के समान
ही, सोभ का शाब्द सब सुनते हें। सोन अपना परिचय सबको देते हुए शोर
से बोलते हूँ।
१४. सोम, तुस दुः्घ-पुक्त, क्षरणञ्चील और शब्द-कर्ता हो। दुम सधुर
रस को प्राप्त करते हो। सोम, जल से परिषिइत और शोषित तुम, अपनी
धारा को विस्तृत करके, इन्द्र के लिए जाते हो ।
१५. सदकर सोम, तुस जलग्राहो मेघ को, वृष्टि के लिए, घातक
आयुधो से निस््तगासी बनाते हुए, मद के लिए क्षरित होओ। शोभन,
इवेतवर्भ, पवित्र में अभिषिक्त और हमारी गाय की अभिलाषा करनेवाले
सोस, क्षरित होओ।
१६. दीप्त सो, तुम स्तोत्र से प्रसञ्च होकर ओर हमारे लिए वेदिक
मागो को सुगम कर विस्तृत द्रोण-करूक्ष में क्षरित होओ। घने लोहे के
११८२ ह्विन्दी-ब्ग्बेद
हथियार से दुष्ड राक्षसों को मारते हुए उन्नत और मेषलोमसय पवित्र में
धाराओं के साथ जाओ।
१७. सोम, धुलोकोत्पन्न, गमनशील, अन्नवाली, सुखदात्री और दाम
करनेवाली बृष्टि को बरसाओ। सोम _थिवी-स्थित वायु प्रेमपात्न पुत्र के
ससान हुँ। इन्हें खोजते-खोजवे आओ ।
१८. जैसे गाँ को सुरूझाकर अलग किया जाता है, बैसे ही मुभे
धापों ते अलग करो। सोम, तुम सुझे सरल मागे और बल दो। हरिस
बर्ण और पात्रों में निमित होकर वेगशाली अइव के समान शब्द करते हो।
देव, शत्रुनहसक तुम गृहवाले हो। मेरे पास आओ।
१९. तुम पर्याप्त सदवाले हो। देवों के यज्ञ में और सेषलोमभय
पवित्र में, धाराओं के साथ, जाओ। अनेक धाराओं से युक्त और सुन्दर
गन्ध से सम्पन्न होकर मनुष्यों के द्वारा क्रियमाण युद्ध में, अज्न-छाभ के लिए,
घारों ओर जाओ।
२०. जेसे रज्जु-रहित, रथ-शुन्य और अबद्ध अश्व, युद्ध में सज्जित
करके, शीघ्रता के साथ अपने लक्ष्य को जाते हैं, बैसे ही यज्ञ में निमित
ओर दीप्त सोम शीघ्र ही कलश की ओर जाते हुँ। देषो, आनेवाले सोन
को पान करने के लिए पास जाओ ।
२१. सोस, हमारे यज्ञ को लक्ष्य करके शुलोक से रस को चमसों में
गिराओ। सोस अभिलषित, प्रवृद्ध और बीर पुत्र तथा बलिष्ठ धन
हमें दें ।
२२. ज्यों ही अभिलषित स्तोता का बचन अन्तःकरण से निकलता है
ओर ज्यों ही अतीव चमत्कृत याज्ञिक द्रव्य, अनुष्ठान-काल सें, लाया जाता
हुँ; त्यों ही गो का दुध अभिलाषा के साथ सोम की ओर जाता हुँ और
उस समय सोद कलश में अवस्थित करते है। सोम सबके प्रेमपात्र स्वामी
के समान हुँ।
२३. बुलोकोत्पन्न, धम-दाताओं के भनोरथ-रक्षक और झोभन-बद्धि
हिच्दी-त्ररुबेद ११८३
सोम सत्य-छय इन्द्र के लिए अपने रस को थिराते हुँ। राजा सोध ताध
बल के धारक हूँ। दस अंगुलियाँ प्रचुर परियाण सें लोन प्रस्तुष करती हूँ |
२४, पविन्न में शोधित, मद्यों के दशक, देवों जोश झनष्यों के राजा
और घधन-पति--अस्तीम धन के स्वामी सोम दो और भवुष्यों में सुन्दर
ओर कल्याणकारी जल को धारण करते हू
२५. सोम, अंसे आव युद्ध में जाता है, बैले ही पणमावों के अन्न के
लिए और इख-बाथु के पान के लिए जाओ। तुस बहुविध और प्रय अझ
हुने दो। सोम, शोधित तुस हमारे छिए धमन्प्रापक हो।
२६. देवों के तर्पक, पात्रों में सिक्त, शोभन-बुद्धि, यजमान के यश
कर्ता, सबके स्वीकार्य, होताओं के समान छुलोस- त्यस इन्द्रादि की स्तुति
करनेवाले ओर अतीब मदकर सोस हमें वीर पुत्र और गृह प्रदान करे ।
२५. स्तुत्य सोस, तुम्हें देवता लोग पीते हूँ। देवों के द्वारा बिस्तृत
यज्ञ में, महान् भक्षण के लिए, देवों के पान के लिए क्षरित होओ । तुम्हारे
द्वारा भेजे जाकर हम अभर संग्राम में महाबली शनुओ को हुरादें। झोत
होकर तुम हमारे लिए दावापुथिवी को शोभन लिवासबाछी करो ।
२८. सोम, सिह के समान शत्रुओं के लिए भयंकर, सन से भी अधिक
वेशयारे ओर सोमाभिषव करनेयाले ऋष्विकों के द्वारा योजित तुल आ
फे समान शब्द करते हो। दीप्त सोम, जो मायं अतीव सरल हुं, उन्ही से
हुमारे लिए सन की प्रसन्नता उत्पन्न करो।
२९. सोम, देयों के लिए उत्पन्न होक्षर सोम की सो धारायें बचाई
जा रही हैं। कान्तदर्शी लोग सोय की बहुविध घाराओं को झोवित कर्ते
हूँ । सोम, हमारे पुत्रों के लिए शुलोक से गुप्त धन भेजो। लुम महान
धन फे अग्रगामी हो।
३०. जैसे दीप्त सुर्ख की दिन करनेवाली किरणें बनाई जाती हे, वंसे
ही सोम की धाराये बनाई जाती हैं। सोम घीर राजा और मित्र दु
फर्मकर्ता पुत्र जते पिता ओ नहीं हरता बेले हो सोस, दुय अजा कर परमस
सत करो।
2५
११८४ हित्दी-नहग्वेद
३१. सोल, जिल समय तुम जल से सेयलोससय पवित्र को लॉधकर
जाते हो, उस समय तुम्हारी मधुर धाराय बनाई जाती हैं। शोध्यमान
सोय, गोदुग्ध को लक्ष्य करके हुम क्षरित होते हो। उत्पन्न होकर तुम
अपने पुजनीय तेज के द्वारा आदित्य को भरपुर करते हो।
३२, अभिषुत सोम सत्यरूप यज्ञ के माग पर बार-बार शब्द करते
है। असर और शुक्लवर्ण सोम, तुम विशेष रूप से शोभित हो रहे हो।
स्तोताओं की बुद्धि के साथ शब्द का प्रेरण करसेवाले सोम, तुम मदकर
होकर इन्द्र के लिए क्षरित होते हो।
३३. सोस, देवों के यज्ञ में कर्म के हारा धाराओं को गिराते हुए तुस
झलोकोत्पच्च और शुन्दर पतनवाले हो। नीचे देखो। सोम, कलश की
ओर जाओ। शब्द करते हुए तुम प्रेरक सूर्य की कान्ति को प्राप्त करो।
३४, वहुनकर्ता यजसान तीनों वेदों की स्तुतियां करता है । षह यज्ञ-
धारक ओर दृढ़ सोम की कल्पाणकर स्तुति को प्रेरित करता हु। जसे
साँड़ गायों को ओर जाता हैं, वेसे ही अपने पति सोम को दुध में सिलाने
के लिए गायं सोल के पास जाती हूँ। अभिलाषी स्तोता लोग स्तुति के
लिए सोम के पास जाते हैं।
३५. प्रसन्नता देनेवाली गायं सोम की अभिलाषा करती हैं। मेधावी
स्तोता लोग स्तुति के द्वारा सोम को पूछते इ । गोरस के द्वारा सिक्त और
अभिषुत सो ऋत्विकों के हारा परिएरित किये जाते हें। तरिष्ट्ष् छन्दवाले
मंत्र सोस से मिलते हे
३६. सोस, पात्रों में परिविकत और शोधित होकर हमारे लिए
कत्याण-पूर्वक क्षरित होओ। महान् शब्द करसे हुए इन्द्र के पेट में पैठो।
स्तुत्ति-झप बचन को बद्धित करो। हमारे लिए अनेक स्तबों को विस्तत
करो ।
३७. जागरणशील, सत्य स्तोत्रों के ज्ञाता और शोषित सोम चमसों
बैठते है। परस्पर सिले हुए, अतीव अभिलाषी, यज्ञ के मेता और कल्याणः
णि पुरोहित लोग जिन सोन फो पबित्र में छते
हिन्दी-ऋण्वेद ११८५
३८. वह शोधित सोस इन्दर के पाल वैसे ही जाते है, जैसे वर्ष जाता है।
वे जञालापृःयदी को अपनी महिमा से पुरित करते है। सोल स्तेज से
अन्धकार को दूर करले हु। जिन मिय सोव की प्रियतम धाराएँ रक्षा
करती हें, वे कर्मचारी के वेतन फे ससान हमें शीघ्र घन दें।
३९. देवों के वर्क स्वयं वर्धमान, पित्र में शोषित और मतोरथों
के सेयक सोम अपने तेज से हमारी रक्षा करें। सोसपात के द्वारा पणियों
के दारा अपहूत गायों के पद-विल्वो को जानते हुए, सर्बज्ञ, सूर्य-ज्ञावा
(हमारे) पितर (अङ्गिरा लोग) पशुओं को लक्ष्य करके अन्धकाराबस
शिळासमूहों को सोस फे तेज से देखकर पशुओं को ले आयें।
४०. जल-वर्षक ओर राजा सोम विस्तृत ओर भुवन के जल के धारक
अन्तरिक्ष सें प्रजा का उत्पादन करते हुए सबको लाँच जाते है। काम-
घर्षक, अभिवृत और दीप्त सोम उच्च और मेषलोमसय पवित्र में यथेष्ट
बढ़ते है ।
४१. पुज्य सोम ने प्रवुर कार्य किये है। जल के गर्भ सोम ने देवों का
आश्रय किया। शोषित सोस चे इन्र के लिए बल धारण क्षिया। सोम ने
सूर्थ में पेज उत्पन्न किया।
४२. सोम, हमारे धन और अञ्न के जिए वायु को प्रमत्त करो। शोधित
होकर तुम भित्र और यरुण को तृप्त करते हो। सरतों के बल और
इन्द्रादि को हृष्ट करते हो। स्तुत्य सोम, घावापुथिवी को प्रमत्त करो।
हमें धन दो।
४३. उपद्रबो के घातक, वेगशाली राक्षस और हिसको के बाधक
सोस, क्षरित होओ। अपने रस को दूध में सिलाते हुए पात्रों सें जाते हो।
तुम इन्द्र के मित्र हो। सोन, हम तुम्हारे मित्र हाँ।
४४. सोस, मधुर भाण्डार को क्षरित करो। धन के वर्षक रस को
क्षरित करो। हमें बीर पुत्र दो। भजनीय अन्न भी दो। सोम शोधित
होकर तुम इख्न के लिए दचिकर होओ। हमारे लिए अन्तरिक्ष से धन दो।
झा० ७५ |
हल
४५. अभिषुत सोभ अपनी धारा से, बेयशाली अश्व के समान, जाने
बाले ह। जैसे प्रज्रमणजील मडी नीचे जाती हुँ, बसे ही सोस कलश को
जाते हे। झोषित सोल वक्षोत्यद्म कलस में बैठते हें। सोप जल और
दूध में सिलाथे जाते हैं।
४६. इन्द्र, अभिलायी तुम्हारे छिए प्राज्ञ और बेगशाली सोस चयसों
रत होते हें। सर्वदर्शी, रयबाले और यथार्थ बली सोम देवकाधी
यजयानों के लिए कामदाता के समान बनाये गये हुँ।
४७. पूर्वकालीन ओर अज्नरूप धारा से गिरते हुए सबका दोहन करमे-
वाली पृथिवी के रूपों को अपने सेज से ढकते हुए, शीत, आतप और वर्षा के
निवारक यज्ञ-गृह को बनाते हुए तथा जल में अवस्थिति करते हुए सोम,
स्तोत्र-ध्यनि करनेवाले होता के ससान, शब्द करते हुए थश्षों सें जाया
करते हें।
४८. अभिलषणीय देव, तुभ रथवाले हो। हमारे यज्ञ में अभिषवण-
फलको पर क्षरित होकर वसतीबरी-जल सें शीघ्र और चारों ओर क्षरित
होओ। स्वादिष्ठ, अधुर, याज्ञिक और सबके प्रेरक तुम, देवता के समान,
सत्य स्तोत्रवाले हो।
४९. स्तुत होते हुए दुस पान के लिए बाथ के शक जाओ। पचित्र
में शोधित होकर तुम पाव के लिए सिज और वश्ण के पास जाओ । सबके
नेता, वेगशाली और रथ पर रहमेदाले अङिदटय के पास जाजो। काम-
वर्षक ओर बच्त्रबाहु इन्द्र के पास भी जाओ।
५०. सोम, हमारे लिए तुम सुन्यर-्सुन्दर बस्त्र ले आओ। शोषित
होकर तुम हमें मधुर दुध देनेबाली और नवप्रसूता गाय दो। हमारे भरण
के लिए अह्लादक सोना हमें दो। स्तुत्य सोस, रथवाले अश्व भी हमें दो।
५१. सोद, पविन्न-दारा शोधित होकर तुम युलोकोत्पक्च धन हमें दो।
पृथिबी पर उत्पन्न धन भी हमें दो। हमें द्रव्य प्राप्त करने को शक्ति दो।
जमदग्नि ऋषि के समान ऋषि-पुत्रों का योग्य धन हर्ने दो।
हिन्दी-ऋण्वेद ११८७
५९. सोख, शोषित धारा के द्वारा ये सारे धन क्षरित करो। सोम,
सातसेवारे यजमानों के बसतीवरी-जल में जाओ। सबके ज्ञापक और
वायु के समान वेगशाली दुर्घ और अनेक यज्ञोंबाले इन्द्र भी सोम के पास
जाते हँ। सोम मुझे कर्सेलिष्ठ पुत्र दें। सोम, तुम्हारे द्वारा तप्त किये
गये इन्द्र ओर सूर्य भी पुत्र दें।
५३. सोम, सबके द्वारा तुम आश्रयणीय हो। हमारे शब्दतीर्थ (यज्ञ)
में इस धारा के द्वारा भली भाँति क्षरित होओ। पैसे फल पाने की इच्छा
करनेवाला वृक्ष को फेपाता है, बैसे ही शत्र-घातक सोम ने साठ हजार
घनों. को, शत्रु-जय के लिए, हमें दिया।
५४, वाण बरसाना और शत्रुओं को नीचे करता--सोम के ये दो
कर्म सुखावह हँ। ये दोनों कर्म अवव-युद्ध और इन्दर-युद्ध में शत्रु-संहारक
होते हँ। इन दोनों कमों से सोन ने शब्द करनेवाले शत्रुओं का वध किया।
सोम ने शत्रुओं को युद्ध से दूर किया। सोम, शत्रुओं को दूर करो। अग्नि-
होत्र न करनेवालों को भी दुर करो।
५५. सोस, भिगिनि, घायु और सूर्य नास के तीन विस्तृत पदित्रों को तुम
अळी भाँति प्राप्त करते हो। शोधित होते हुए तुम मेषलोमसय पवित्र
में जाते हो। तुम अजनीय हू।। दातव्य धन के दाता हो। सोम, सारे
धनियां से तुम धनी हो।
५६. सर्वञ्च, मेधावी ओर सारे संसार के स्वामी सोस क्षरित होते हैं।
यज्ञों म रस-कणों को भेजते हुए सोम मेषलोमसय पवित्र में दोनों ओर से
जाते हुँ।
५७, पुज्य और अहिसित देव लोग सोम का आस्वादन करते हे।
सोमास्वादन करनेवाले देवता सोम की धारा के पास शब्द करते हें। जैसे
घनाभिलाषी स्तोता लोग शब्द करते हुँ, बेसे ही कर्म-कुशल पुरोहित लोग
दस अँगुलियों से सोम को अरित करते है और जळ के द्वारा प्लोम-रूप को
मिश्चित करते हूं।
११८८ हिन्दी-ऋण्वेद
५८, पबित्र में संशोधित तुम्हारी सहायता से हुस युद्ध में अनेक
कर्तव्य कर्मों को करें। भिन्न, वदण, अदिति, सिन्धु, पुृणियी और शुछोक,
धन के द्वारा, हमारा खात कर। 54
९८ छूर
(देवता पवमान सोम । ऋषि बृषागिर राजा के पुत्र अम्बरीष और
भरद्वाज-पुत्र ऋजिश्वा । छन्द अनुष्टुप् ओर ९ हती ।)
१. सोस, बहुतो के द्वारा अभिलषणीय, अनेक पोषणों से युक्त, अनेक
यशवाला, महान् को भी पराजित करनेवाळा और बलप्रव पुत्र हमें दो।
२. रथ पर स्थित पुरुष जले कवच को धारण करता है, वेले ही निष्पी-
डित सोम सेषलोससय पवित्र पर क्षरित होते हुँ। स्तुत सोस काष्ठमय
कलश से चालित होकर घारा-ट्वारा क्षरित होते हँ।
३. निष्पीड़ित सोम, सद के लिए देवों के द्वारा प्रेरित होकर, सेष-
लोग के पवित्र में क्षरित होते हे। जैसे शोभन दीप्ति से सोम अन्तरिक्ष
में जाते हें, वैसे ही सबके मुख्य सोम दुग्ध आदि की इच्छा करके धारा
के साथ जाते हें ।
४. सोम, तुम अनेक मनुष्यों और हुचिरदाता यजमान के लिए धन
देते ही। सोस, तुस अनेक पुत्र-पौत्रों से शुक्त अनेक तंख्यक धन मुभे
देते हो ।
५. शन्रुघादक सोम, हस घछुम्हारे हों। वासक सोम, अनेकों द्वारा
अभिलषणीय ओर छुम्हारे द्वारा प्रदत्त धन और अञ्च के हम अत्यन्त ससीप-
तम हों। घन-स्वलूप सोम, हम सुख के अस्यन्त समीप हों।
६. कसं करने के लिए इधर-उधर जावनेवाली भगिवी-स्वरुपा दस
अँगुलियाँ यशस्वी, पत्थरों पर अभिषुत, इखप्रिय, सबके इरा अभिलूषित
और धारावले जिन सोम की दसतीवरी के हारा सेवा करती हैं, उनको
यजमान शक्लोधित करते हैं।
हिन्दी-ऋण्वेद ११८९
७. सबक कास्य, हरित-बर्ण और बच्च-बर्ण (पिङ्गल-वर्ण) सोन को
मेषलोस के द्वारा संशोधित किया जाता है। सोस, अयने सदकर रस के
साथ, सारे देवों के पास जाते हैं
८. तुम लोग सोस के दवारा रिव होकर बल-पाधन रस का पान
करो। सूर्यं के समान सबके अभिलषणीद सोम स्सोताओं को प्रचुर अन्न
देते है ।
९. मनु से उत्पन्न द्यावापृथिवी, एर्वतवासी योज ने यज्ञ में तुम दोनों
को बनाया। उच्च शब्दवाले यज्ञ में ऋत्विकों ने सोख का अभिषव किय।
१०. सोम, वृत्रघ्न इस फे पान के लिए पात्रों में सिञ्चित किये जाले
हो। ऋत्विकों को दक्षिणा देवाले ओर देवों के लिए हवि देने की इच्छा
से यज्ञ-गृह में बेठे हुए यजसान को फल देने के लिए तुम सींचे जाते हो ।
११. प्रतिदिन प्रातःकाल प्राचीन सोम पवित्र के अपर क्षरित होते
हैं। मूख “हुररिचत्” नाम के दस्यू लोग प्रातःकाल सोम के! देखकर
अन्तर्धान और द्रवीभूत हो गये ।
१२. सित्रो, प्राञ्च तुम और हम शोभित और बलकर तथा सुन्दर
गन्ध से युक्त सोम को पियें। हम बलिष्ठ सोभ का आश्रय करें।
९९ झूक्त्
(देवता पवमान साम । ऋषि काश्यप रेभ ओर सूनु । छन्द बृहती
शरोर अनुष्टुप् ।)
१. सबके कास्य और शत्रुओं को श्गइबेबाले सोम के लिए पौरुष
प्रकट करनेवाले धनुष पर ज्या (गुण) को चढ़ाया जाता है। पजार्थी
ऋत्विक् लोग मेघावी देवों के आगे असुर (बली) सोम के लिए शुकवर्ण
दशापबित्र (छवमा) फैलाते है ।
२. रात्रि के अनन्तर जल के दवारा अलंकुद होकर सोम अन्नों को
लक्ष्य करके जा रहे हुँ। सेवक यजमान की कर्षसाधिफा अँगुलियाँ हरिसबणं
११९० हिल्दी-ऋण्वेद
सोम को पात्र में जाने के लिए प्रेरित करती हैं। तभी सोम सासचों के
लिए जाते हें ।
३. जिस रस का इख पान करते हैं, सोस के उसी रस को हम
शुझोभित करते हैं। गमनशील स्तोता लोग पहले और इस समय सोमरस
को पीते हैं ।
४. उन शोधित सोम को प्राचीन गाथाओं के हारा स्तोता लोग स्दुत
करते हे। इधर-उधर जामेबाली अँगुलियाँ देवों को सोम-रूप हवि देने में
स्थे हुँ ।
५. जल से सिक्त और सर्वधारक सोध को यजसान सेषलोससय
पिर पर शोभित करते हैँ। मेधावी यजमान सोस की, दूत के ससान,
देवों की सुचना के लिए, प्रार्थना करते है
६. अतीव मदकर सोम, झोषित होकर, चमसों पर बेठते हें। जसे
साँड़ गाय में रेत देता है, वैसे ही सोम चससों पर रस देते हें। सोम कर्म
कै स्वामी हें। बे अभिषुत होते हें।
७. देवों के लिए अभिषुत और प्रकाशमान सोस को प्टत्विक लोग
शोधित करते हें। जब सोम प्रजा में धनवाता जाने जाते हुँ, तब महान्
जल में स्नान करते हें।
८. सोम, अभिषुत और सब्र विस्त होकर दुस ऋत्बिकों के इरा
छनने (पवित्र) में भली भाँति लाये जाते हो । अतीव सदकार तुस इन्द
के लिए चमसों पर बेठते हो ।
१०० झूत्ती
(देवता पवसान सोम । ऋषि रेम ओर सूनु । छन्द अनुष्टुप् |)
१. जैसे गायें प्रथम आयु में उत्पन्न बछड़े को चाटती हैं, बसे ही ब्रोह-
शून्य जल इन्द्र के प्रिय और सबके अभिलषशीय सोम के पास जाता हे ।
२. दीप्यमान सोम, शोधित होकर तुम दोनों लोकों में बढ़नेवाले
हिन्दी-क्रस्बेद ११९१
धत को हमारे लिए ले आओ। तुम यजसान के घर में रहकर हविर्षाता
धजमान के सारे धनों की रक्षा करते हो ।
३. सोम, तुम समोदेग के समान घाश को उसी प्रकार बनाओ, जिस
प्रकार मेघ बृष्टि को बबाता है। सोच, तुस पर्चिय और घुलोफोत्पश
धन देते ही ।
४, शत्रुजेता शूर का आशव जैसे युद्ध में दोड़ता हे, बसे ही तुम्हारी
भजनीय और वेगवाली धारा मेषलोममय पवित्र पर दोड़ती हे ।
५. ऋत्तवर्शी सोम, इला, सित्र और वरुण के पान के लिए अभिवुत्त
तुम हमारे ज्ञान और बल के लिए धारा से बड्दो ।
६. सोम, अत्यन्त अज्ञदात! और अभिष्टत तुस पबित्र में धारा से
भिरो। सोव, शुम इन्द्र, विष्णू और अन्य देवों के लिए मधुर बनो।
७. सोम, जैसे बछड़ों को गाये चाटती हे, वैसे ही हविर्धारक यज्ञ में
द्रोह-शूव्य और मातरूप जल हुरितवर्ण तुम्हें चाटता हृ।
८. सोम, दुभ महान् और श्रयणीघ अन्तरिक्ष को नानाविध क्षिरणों के
साथ जाते हो। वेगवान् तुम हदिर्दाता यजसान के गृह में रहकर सारे
अन्धकारां को नष्ट करते हो ।
९. महान् कर्षयाले सोम, तुम चावापृथिवी को धारण करते हो।
क्षरणशील सोम, महिमा से युक्त होकर तुम कंवच को धारण करसे हो।
चतुर्थं अध्याय समाप्त ।
११९२ हिन्दी-क्दग्बेव
९०१ सूक्त
(पञ्चम अध्याय | दैवता पवमान साम । ऋषि १-३ तक कै
श्यावाश्व के पुछ ञ्ध्रिए ४-६ तक के नहुष-पुत्र ययाति, ७-९
तक के सघु-पुत्र नहुष, १०---१२ तक के संवरण के पुत्र मडु और
१३-१६ तक के वाफ्पुत्र दिश्शातित्र चा प्रजापति । छुन्दू
गायत्री और भडुष्टुप्\)
१. सित्रो, अग्रेस्थित भक्षणीय (अन्न) सोम के अभिषत और
अत्यन्त मदकर रस के लिए लम्बी जीभवाले कुसे वा राक्षस को अलग
करो--थह चाटने न पावे ।
; अभिषुत और कर्मनिष्ठ सोम पाप-शोधक धारा से चारों ओर वैसे
ही क्षरित होते हे, जसे वेग से घोड़ा जाता है ।
३. ऋत्बिक लोग बुढेष और भजनीय सोम को, सारी लालसाओं की
इच्छा से, पत्थरों से अभिषुत करते ह।
४. अतीव मधुर, सदकर ओर अभिषुत सोम पवित्र में रहकर इख
के लिए पात्रों सें क्षरित होते हें। सोम, तुम्हारा सदकर रस इग्द्रादि के
पास जाय ।
५, सोम इन्र के लिए क्षरित होते हैँ--देवत्ता लीग ऐसा स्तोत्र करते
हँ। स्तुलियों के पालक, शब्दकारी और अपने बल के द्वारा संसार के
प्रभू सौम अतिथियों के हारा पुजा कौ अभिलाषा करते हैं ।
६. अनेक धाराओंवाले सोम क्षरित होते हैं। सोम से रस बहता है।
सोम स्तुतियों फे प्रेरक हूँ, धन के प्रभु हैं ओर इन्र के सखा हें।
७. पोषक, भजनीय और घन-कारण सोम, शोधित होकर गिरते हूँ॥
सारे प्राणियों के स्वामी सोस अपने तेज से द्यावापूथिबी को प्रकाशित
करते हुँ ।
८. सोम फे सद के लिए प्रिय गायें शब्द करती हुँ। शोषित सोम
रक्षण के लिए मार्य अना रहे हुँ।
हिन्दी--ग्वेद ११९३
९. सोम, तुम्हारा जो ओजए्बी और यसत्कार-पुज रत है, उसे क्षरित
करो। रस याँचों यणो के पाल रहता है। उस रस से हस धन प्राप्त करें।
१०, पथ-प्रदर्शक) देखो के खिन्न, अभियुत, पाप-शब्य, दौप्त, शोभनः
ध्यान और सर्वश सोम हुमारे लिए आ रहे है
११. गोचर्म पर उत्पन्न, पत्थरों से अली भाँति अभिषुत और धन
के प्रापक सोम चारों ओर शब्द करते हुँ।
१२. पवित्र में शोषित, सेधाबी, दि-शिक्षित, जल में सलील और
स्थिरता से वर्तमान सोम, सुर्य के समान, पात्रों में दानीय होते
शियुत और पीने योग्य सोम का सिड घोष कर्मविद्या
कुसे का विनाश करे। स्वोताओ, नञ्जता-शून्य उस कुत्ते को उसी प्रकार
मारो, जिस प्रकार भगुओं ने प्राचीन काल में सख वासक व्यक्ति का
घध किया था।
१४. जैसे रक्षक माता-पिता की बाहों में पुत्र कद पड़ता है, वैसे ही
देवों के मित्र सोम आच्छादक पवित्र में ढल पड़ते हें। जैसे जार व्यसि-
चारिणी स्त्री की प्राप्ति के लिए जाता हे, बसे ही सोस अपने स्थान कलश
में जाते हैं ।
१५. बल साधन वे सोम शक्तिमान् हें। सोम अपने लेज से धावा-
पृथिवी को आच्छादित करते ह। जसे विधाता पलमाव अपने गए में जाता
है, बैसे ही हरित-बर्ण सोध अपर कलश में सम्बद्ध होते
१६, सोम मेघदोमदय पवित्र से कलश में जाले हुं। गोम पर
धशब्दायभान, काम-वर्षक और हरितवर्ण सोस इच्ध के संस्कृत स्थान झो
जाते हु।
१०२ सूक्त
(देवता पवमान सोम। ऋषि आपत्य के पुत्र त्रित । छन्द उष्णिक् |)
१. यज्ञ-कर्ता ओर पूजनीय जल के पुत्र सोम यज्ञ-धारक रस को प्रेरित
करले हुए समस्त प्रिय दुखि को व्याप्त करते हुँ। सोम धावापृथिवी सें
रहते हें।
११९४ /ग्दी-शग्वेद
२. नित के यज्ञ में, हिडन स, वर्लेशात और पाषाण के समान
सुदृढ़ अभिववण-फझूक पर सोम गये। ऋत्विक् लोग यज्ञ-घारक सात
गायनी आदि छन्दों में प्रिय सोस की स्तुलि करते हैं।
३. सोस, शित के यज्ञ के तीनों सबतों में प्रधाहिंद होओ। सामगान
के समय दाता इन्र को रे आओ। बद्धियाव् स्तोता इन्द्र का योजक
स्तोत्र करता हु।
४, प्राइर्भव और कर्मधारक सोम का, शजमानों के एइवर्थ के लिए,
भावतरूप गंगा आदि सात नदियाँ वा सात छन्द सित करते हैं। सोम
धन के विश्ित ज्ञाता हृ।
का 0००
५. समरत शैह-शम्य देवता सोश के कर्स में मिलकर अभिजाषी होते
हैं। रमणशील देवता अभिषत सोम की सेवा करते हूँ।
६. बल्च-बरद्धक बसतीवरी-अल गे गर्भ-झप सोम को यज्ञ में, बशेंगार्थे,
उत्पन्न किया। सोम सबके कल्याणदाता, कऋान्तश्रज्ञ, पुज्य ओर बहुतों के
अभिलूषणीय हें।
७. परस्पर संगत, महान् और सत्य-यज्ञ की मातू-रूप दावापूथिबी
के पास सोस स्वयं आगमन करते हैं। याशिक पुरोहित लोग सोम को
अल सें मिलाते हें।
८. सोम, ज्ञात, दीप्त इन्द्रिय और अपने तेज से, शुलोक से अन्धकार”
समूह को नष्ट करो। तुस हिसा-शृव्य यज्ञ से, अपने सत्य-धारक रस को
प्रेरित करते हो।
१०३ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि आण्य नरित। छन्द उष्णिक् |)
१. त्रित, व पवित्र से शोधित, कर्मनवधाता और स्तीताओं फे साथ
प्रसन्नता-दायक सोन के लिए वैसे ही उद्यत वचन कहो, जैसे नौकर वेतन
पाता हे।
हिन्दी-ऋणग्वेद :. ११९५
२. गोदुर में मिश्रित सोम भेबलोमसय पवित्र में जाते हैं। हरिदवर्ण
सोम, शोषित होकर ब्रोण-कलश, आधवनीय ओर एतभृत् आदि तीन
स्थानों को बनाते हेँ।
३. सोम मेयळोनसय पबित्र से मधुर रस को चुलानेबाले द्रोग-कलछ
में अपमा रस भेजते हँ। सातों छन्द सोस की स्तुति करते हैं।
४. स्युतियों के नेता, सबके देय, हरित-वर्ण और शोधित सोम
अशिषवण-फलफों पर बैठते हे। अभिषव हो जाने पर इन्क्रादि सब
देवता अहिसनीय सोम के पास जाते हैं।
५. सोम, तुम इन्द्र के समान रथ पर चढ़कर देव-सेना के पास
जाओ। ऋत्विकों के हारा शोषित और अमर सोम स्तोताओं को धन
आदि देते हें।
६, अश्व के समान युद्धाभिलाषी दीप्यमान, देवों के लिए अभिषुत्,
पात्रों में ब्यापक और पबित्र से शोधित सोम चारों ओर दोड़ते हे।
१०४ सूक्त
(७ अडुवाक । दैवता पवमान साम । ऋषि कश्यप-पुत्र पंत और
नारद् । न्द् उष्णिक् |)
१. मित्र पुरोहितो, बेठो और शोधित सोम के लिए गाओ। अभि-
षुत सोम का यज्ञीय हवि आदि से, शोभा के लिए, वेसे ही अळंकृत करो,
जसे बच्चों को गहनों से माँ-बाप विभूषित करते हें।
२. ऋहत्विको, गृह-साधन, देवों के रक्षक, झद-कारण और अतीव
बली सोम को मातृ-रूप जल में वेसे ही मिलाओ, जैसे बछडे को गाय
से मिलाया जाता हूँ।
३. बल-साधन सोस को पवित्र में शोषित करो। सोम वेग, देवों के
पान तथा मित्र और वरुण के पान के लिए अतीव सुख देते हें।
४. सोम, हमें दान दिलाने के लिए धनदाता तुम्हें हमारी दाणी
स्जुत करती है। हम तुम्हारे आवरक रस को गोढुग्ध सें मिलते हैं।
११९६ हि्दी-ऋण्वेद्
५. मद के स्वामी सोम, तुम्हारा रूप दीव्य है। जैसे मित्र मित्र को
सच्चा माग बताता है, वैसे ही तुम हमारे मार्ग-ज्ञापक बनो।
६. सोम, हमारे साथ पुरानी मैत्री करो। उद्दण्ड, बाहर और भीतर
सायावालै तथा पेदू राक्षस को सारो और हमारे पाप को काटो ।
१०५ ह्ूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि ओर छन्द पूदवत् ।)
१. मित्र पुरोहितो, देवों के मद के लिए सोम की स्युति करो। जसे
शिशु को अलंकृत किया जाता है, वैसे ही गोदुग्ध और स्तुति आदि से
सोम को विभूषित किया जाता है।
२. सेना-रक्षक, मदकर, स्तुतियों के इरा अलंकृत और प्रेरित सोम
जल के द्वारा वैसे ही भिश्चित किये जाते हें, जैसे साता गो के हारा बछड़ा
मिलया जाता है।
३. सोम बल के साधक हें। वेग और देवों के भक्षण के लिए अभिषुत
सोम अत्यन्त मधुर होते हँ।
४. सुन्दर बलवाले सोस, अभिषुत होकर तुस यज्ञ-साधक तथा गौ
और अइव से युक्त घन ले आओ। में तुम्हारे रस फो दुग्ध आदि में
मिलता हू।
५. हमारे हरित-वर्ण पशुओं के स्वामी सोम, अत्यन्त वीष्त रूप से
युक्त और ऋत्विकों के द्वारा नियुक्त तुस हमारे लिए दीष्त किरणोंबाले
बनो ।
६. सोम, तुम हमसे पुरानी मंत्री करो। देव-शुत्य और पेद राक्षस
को हमसे अलग करो। सोस, शत्रुओं को हराते हुए बाघकों को ताडित
करो। बाह्य ओर आश्यन्तर की सायाओं से युक्त राक्षस को हमसे दुर
करो।
हिन्दी-ऋष्वेद ११९७
९०६ सूर्य
(देवता पवमान साम। ऋषि १-३ तक कै चहुःपुत्र अग्नि,
४-६ तक के सलुपुत्र चलछु, ७-९ तक के अप्सु-पृत्र मनु ओर
शेष के अग्नि । छन्द उष्णिक् |
१. शीघ्रज्ञाता, पात्रों में क्षरणशील, सर्वश्च हरित-वर्ण, अभिषत और
काम-सेचक सोम इन्द्र के पास जायें।
२. संग्राम के लिए आश्रयणीय और अभिषु शोम इन्द्र के लिए
क्षरित होते हें। जैसे संसार इख को जानता है, बैले ही जयशील इर
को सोम जानते हूं।
३. सोम का मद उत्पन्न होने पर इन्द्र सबके भजनीय और ग्रहणीय
धनुष को धारण करते हँ। अन्तरिक्ष में “अहि” के जेता इन्द्र वर्षक
धप्त्र को धारण करते हैं।
४. सोम, तुन जागरणशील हो। क्षरित होओ। सोम, इसर के किये
पात्रों में क्षरित होओ। दी्स-युशए, सर्वञ्च ओर शधु-्शोधक बल को
ले आओ ।
५, तुस सबके दशनीय, बहुता; यजसावों के सन्यार्गकर्ता और सबके
द्रष्टा सोम, तुस वर्षक और मद-कारण रस, इन्द्र के लिए क्षारित होऔ ।
६, सोम, अतीव साग-प्रदशक) देवों के लिए सधूर और शब्दायमाव
तुम अनेक मार्गी से कलश में जाओ।
७. सोम, देवों के भक्षण के लिए बल-पुर्वक धाराओं के द्वारा क्षरित्र
होओ। सोस, तुभ मदकर रसवाले हो। कलश पर बेठो।
८. तुम्हारा जल से बहुनेवाला रस इन्द्र को वद्धित करता हे । इन्द्रादि
देवता असर होने के लिए सुखकर तुम्हें पीते हैं ।
९. अभिषव किये जाते हुए और पृथिवी पर जल बरसानेवाले सोम,
वृष्टि से युदत दुलोकवाले ओर सर्वञ्च सोम, तुम हमारे लिए धन छे
भाओ।
११९८ हिन्दी-ऋग्बेद
१०. पवित्र, स्तोत्र के आगे शब्द करनेवाले और शोषित सोम अपनी
थारा से मेबलोसमय पवित्र में जाते हें।
११, बली, जल में कौडा करनेवाले और पवित्र को लाँघनेवाले सोम
को स्तोता लोग, स्तुति के द्वारा, बाद्धित करते हें। तीन सवनोंबाले सोम
की स्तुतियाँ स्तुति करती हुँ।
१२. जैसे अश्व युद्ध में प्रस्तुत किया जाता हुँ, बेले ही अन्नाभिलाषी
सोम को कलश में बनाया जाता है। शोषित सोम शब्द करते हुए पात्रों
में चूते हें। |
१३. इलाघनीय और हरितबर्ण सोम साधु वेग से कुटिल पवित्र को
छाँचकर जाते हैं। सोम स्तोताओं को पुत्र-युक्त यश दे रहे हें।
१४. सोम, देवाभिलाषी होकर तुम घारा से क्षरित होओो। तुम्हारी
सदकरी धारायें बनाई जाती हें। शब्दायमान सोम पवित्र की चारों ओर
जाते हुँ।
१०७ सूक्त
(दैवता एवमान साम । ऋषि भरडाज, कश्यप आदि सात। छन्द
बहती, सतोञ्टहती, विराट् , द्विपदा आदि |)
१, जो सोम देवों की उत्तम हथि, समुष्यों के हिसंषी ऑर अन्तरिक्ष
में जानेवाले हु, उन्हें पुरो हितों थे पत्थरों से अभिषुत किया। उन अभिषुत
सोस फो, ऋत्विको, तुन कर्म के अनन्तर जल से सींचो।
२. सोम, अहिसदीय सुगन्धि ओर शोधित सोस, तुस सेषलोमसय
पबित्र से क्षरित होओ। अभिषव हो जान पर दूध आदि और सत्तू में
सोस को सिलाते हुए हम जल में स्थित तुम्हें भजते हें।
३. अभिघुत देवों के तपंक, कर्ता, पात्रों में क्षरणशील और सबके
दरष्टा सोम, सबके दर्शेन के लिए, क्षरित होते हें।
४, सोम, शोधित होकर तुम बसतीवशी जल में मिलाकर धारा से
हिन्दी-ऋग्वेद ११९९
क्षरित होते हो। रत्यवाता घुस सत्य-यञ्ञ के स्थान में बैठते हो। दीप्त
सोम, तुम स्पन्दमशील और हिरण्मय हो ।
+ सदकर, बस्ता-कारक और दिव्य गोस्तन को दूहनेवारे सोम
प्राचीन स्थान अन्तरिक्ष सें बठते हैं। कर्मिष्ठ ऋत्विकों के इरा ग्
शो सित और सबके द्रष्टा सोच ब्रुतबेग से यज्ञ के अवलब्बन तथा यज्ञ
यजमान को अन्न देने के लिए जाते हैं ।
६. सोम, जागरणशील, प्रिय और झोधित घुम नेकलोमनय दिन
में क्षरित होते हो। तुम सेघायी और पितरों के मेता हुँ।। हमारे यज्ञ
को तुम अयने मधूर रस से संचो ।
७. मागदशक, कास-सेदक्ष, सबके प्रदर्शक, सेधाबी और सुक्ष्म-दद
सोम क्षरित होते हें। तुम कान्तप्रज्ञ और अतीय देदकामी ट्टो।
सं सूयं को प्रकट करते हौ ।
८, ऋत्विकों के द्वारा अभिषुत होकर सोम उच्च और मेघलोससय
पविन्न में जाते हैं। अपनी हरितवर्ण और सदकारिणी धारा से सोम
द्रोण-कलश में जाते हें
गोदुग्ध के साथ सोम मिम्मस्थ कलश में क्षरित होते है । अपने
शिक्षण के लिए सोम ढुग्धादि के साथ प्रबाहित होते है। जैसे जल समद्र
सं जाता हं, बसे ही संभजनीय और रस-हूप अन्न द्रोण-कलद में माता
है। मदकर सोम, मद के लिए, अभिषुत किये जाते हैं।
१०. पत्थरों से अभिषुद होकर दुय सेघकोअमय पवित्र का व्यदधान
करके क्षरित होते हो। हरित-बर्ण सोम अधिवधण फलको के ऊपर स्थित
कूद में वेसे ही पेठते है, जैसे मनुष्य नबर में दैठत है। क्ाष्ठ-निर्भित
पात्रों में तुम स्थान बनाते हो ।
११. अञ्चाभिलाषी सोम सुक्ष्म मेषलोभनथ पवित्र का व्यवधान करके
क्षरित होते हे । अमुमोदन के योग्य, पुरोहितों के द्वारा शोषित, मेधावी
के द्वारा अभिषुत और हरितवर्ण सोन देसे ही शोधित किये जाते हु,
जैसे लोग जयासिलायी अश्व को युद्ध में विभूषित करते हें।
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(५०० हु्व।-म्ण्यद
२२. सोल, देदौं के पान के लिए तुम बसे ही जळ से पुरित किये जाते
हो, जसे जल से समुद्र पूर्ण किया जाता है। मदकर और जागरणशील
लता के रस से रस चुळानेबारे व्रोण-कलश में जाते हो।
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हु। जैसे वेणञ्ाली भमष्य यड़ में रथ को प्रेरित
करते ह, बसे ही जल में दोनों हाथों की अँगलियाँ सोम फो प्रेरित
१४, गसनशील सोस अपना सदकर रस चारों ओर प्रवाहित करते
हैं। अन्तरिक्ष के अत्युञ्च पवित्र में विद्वान् सदकार और सबके प्रापक सोस
रस प्रवाहित करते हँ।
१५, शोधित, दिव्य और अतीव सत्य-राजा सोम कलश में, धारा
से क्षरित होते हूं। प्रेरिध और अत्यन्त सत्य सोम मित्र और बरुण के
रक्षण के लिए जाते हुँ ।
१६. कषेनिष्ठों के हारा मियत, स्पृहणीय, सूक्ष्मदर्शक, दिव्य, अन्त-
रिक्ष थे उत्पन्न ओर राजा सोम इन्र के लिए क्षरित होते हैं।
१७. सदकर ओर अभिषुत सोम इन्द्र कै लिए क्षरित होते हैं। अनेक
धारा ओर सोबर मेबजोसमय पवित्र को लॉवते हैं। पुरोहित लोग सोम
का शोधन कर रहे है।
१८. अभिषवण-फलकों पर शोध्यमान, स्तुति के उत्पादक और ऋानत-
प्रज्ञ सोस इन्द्रादि के पास जाते है। जल में शिलकर और कषठ-पात्रो में
बेठकर उत्क्ृष्टतर सोम दुग्ध आदि में सिलाये जाते हैं।
१९. सोस, तुम्हारी मैत्री में जै अनुदित रसण करता हूँ। पिगलवर्ण
सोम, तुम्हारे सित्र मुझे अनेक राक्षस, बाधा देते हैं। उन्हें मारो।
` २०. पिगलवर्ण सोम, तुम्हारी मंत्री के लिए में दिन-रात रमण करता
है। प्रदीप्त हम उज्ज्वल और परज स्थान में स्थित सुयंङप तुम्हें प्राप्त
करने की चेष्टा करते हँ। जैसे चिड़ियाँ बुध का अतिकम करती हे, बैसे
ही हम तुम्हारे निकट जाले में व्यक्त हूँ।
a
131 =
प्र
'हुन्द। ऊहुः १ २ © १
२१. शोभन अंगुलिवाले सोम, शोध्यमान तुम अन्तरिक्ष में (कलश
सं) शब्द भेजते हो। पवमान सोम, स्तोताओं को तुम पिङ्गलवर्ण और
बहुतों के द्वारा स्पृहणीय धन दो।
२२. सोम, वर्षक और जल में विभूषित तथा मेषलोम के पवित्र में
शोधित सोम जल में वा कलश में शब्द करते हें। सोम, दुग्ध में सिश्चित
होकर तुम संस्कृत स्थान में जाते हो।
२३. सोम, सारे स्तोत्रों को लक्ष्य करके अन्नलाभ के लिए क्षरित
होओ। सोम, देवों के सदकर और उनमें मुख्य तुम कलश को धरण
करते हो।
२४. सोम, तुम मर्त्यलोक और दिव्यलोक के प्रति धारक पदार्थो के
साथ क्षरित होओ। सूक्ष्मदर्शक सोम, मेधावी लोग स्तुतियों और अँगु-
लियो के द्वारा इवेतवर्ण तुम्हें प्रेरित करते हें।
२५. शोधित, सश्तों से युक्त, गमनशील, मदकर और इन्द्रिय-सेबित
सोम स्तुति ओर अन्न को लक्ष्य करके तथा अपनी धारा से पवित्र को
लाँघकर बनाय जाते हँ।
२६. जल में मिलकर और अभिषवकरत्ताओं के द्वारा प्रेरित सोम
कलश से जाते हे। दीप्ति का प्रकाश कर और क्षीर आदि को अपना रूप
बनाकर सोम इस समय स्तुति की इच्छा करते हेँ।
१०८ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि गौरवीति, शक्ति, उर, ऋजिश्वा
ऊदू ध्वसझा, कतयशा, ऋणञचय आदि। छुन्द् ककुप्, अयुक्
सतोड्टहती, गायत्री आदि |) |
१. सोम, तुम अतीव मधुर ओर मदकर होकर इन्द्र के लिए क्षरित
होओ । तुम अतीव पुत्रदाता, महान्, दीप्त और मदकारण हो
२. काम-वर्षक इन्द्र तुम्हें पीकर वषभ के समान आचरण करते हँ।
फा० ७९
१२०२ हिन्दी-ऋष्वेद
सबके दर्शक तुम्हारे पान से सुन्दर ज्ञानी होकर इन्द्र शत्रुओं के अन्न का
उसी भाँति अतिक्रमण करते हँ, जिस भाँति अइव युद्ध में जाता है। |
३. सोम, अतीव दीप्त देवों को लक्ष्य करके उनके असर होने के लिए
शीघ्र शब्द करते हो।
४. अभिनव मार्ग से यज्ञानुष्ठाता अङ्गिरा ने जिन सोम के द्वारा
पणियौं के द्वारा अपहूत गौओं का द्वार खोला था, जिन सोम के द्वारा
सारे मेधावियों ने अपहत गायों को प्राप्त किया था और जिन सोम के
द्वारा इन्द्रादि के सुख में यज्ञारम्भ होने पर सङ्गलजनक अमृत-जल के
अञ्नों को यजमानों ने प्राप्त किया था, बही सोम देवों के अमर होते के
लिए शब्द करते हैं।
५. मादकतस जल-संघात के समान क्रीडा करनेवाले और अभिषुत
सोम मेषलोम के पवित्र से कलश में, अपनी धारा से, गिरते हें।
६. जिन सोम ने गमनशील अन्तरिक्ष में स्थित मेघ के भीतर से
बलपूर्वक वृष्टि कराई थी, वही सोम गोओं ओर अइवों के समूह को व्याप्त
करते हें। शत्र-धर्षक सोम, कवचधारी शूर के समान असुरों को मारो।
७. अश्व के समान वेगशाली, स्तुत्य, अन्तरिक्ष के जल प्रेरक, तेज
के प्रेरक और जल-वर्षक सोम को ऋहत्विको, अभिषुत करो और सींचो ।
८. अनेक धाराओंवाले, कास-वर्षक, जलवद्धंक और प्रिय सोम को,
देवों के लिए, अभिषुत करो। जल से उत्पन्न, राजा, दिव्य, स्तुत्य और
महान् सोम जल से बढ़ते हें।
९, अन्नपति और स्तुत्य सोम, देवाभिलाषी होकर तुम दिव्य और
प्रचुर अन्न हमें दो। अन्तरिक्षस्थ मेघ को, वर्षा के लिए, फाड़ो।
१०. सुन्दर बलवाले सोम, अभिषबण-फलकों पर अभिषुत होकर
तुम राजा के समान सारी प्रजा के बाहक हो । पधारो। द्युलोक से जल
का गसन करो। गवाभिळाषी यजमान के कर्मो को पुरण करो।
११. सदकर, बहुधार, कास-वर्षक और सारे धनों के धारक सोम को
देवाभिदाषी ऋत्विक लोग दूहते हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२०३
१२. शब्द को उत्पन्न करनेवाले, अपने तेज से अन्धकार को दूर
करनेवाले, काज-वर्षक और अमर सोस को जाना जाता हे। मेधादियों के
द्वारा स्तुत सोम मिलाय जाते हुँ। तीनों सवनों में याज्ञिक कर्म सोम के
द्वारा ही धृत होते है।
३. धनों, गायों, अन्नों और सुमनुष्ययुक्त गृहों के लानेवाले सोम
त्विको-द्वारा अभिषुत होते हैं।
१४. उन्हीं सोम का अभिषव किया जाता हे, जिन्हें इन्द्र, मरुत,
अर्यमा और भग पीते हे तथा जिनके द्वारा हम मित्र, बरुण और इन्द्र को
अभिमुख करते हुं।
१५. सोम, ऋत्विकों के द्वारा संयत, सुन्दर आयुध से युक्त, अतीव
मधुर और मदकर होकर तुम इन्द्र के पान के लिए बहो ।
१६. सोस, जसे समुद्र में नदियाँ पेठती हैं, बसे ही मित्र, वरुण और
वायु के लिए सेवित, चुलोक के स्तम्भ, सर्वोत्तम और इन्र के हृदय-छप
तुस कलश में पेंठो।
१०६ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि इंश्वर-पुत्र अग्नि। छन्द द्विपद
विराट |)
१. सोम, तुम स्वाढु हो । इन्द्र, भित्र, पुषा और भग के लिए क्षरित
होओ
२. प्रज्ञान और बल के लिए अभिषुत तुम्हारे भाग का पान इन्द्र
सारे देव तुम्हारा पान कर।
३. सोम, तुम प्रदीप्त, दिव्य ओर देवों के पान के योग्य हो। अभरण
और महान् निवास के लिए क्षरित होओ।
४, सोम, तुम महान् रसों के प्रवाहक और सबके पालक हो। देवों के
शरीरों को लक्ष्य करके क्षरित होओ।
१२०४ हिन्दी-त्रट्ग्बेद
५. सोम, दीप्त होकर देवों के लिए क्षरित होऔ और द्यावापृषिवी
तथा प्रजा को दुख दो।
६. सोम, तुम दीप्त, पीने के योग्य (पातव्य) और घुलोक के धारक
हो। बली होकर सत्यभूत यज्ञ में कषरत हो।
७, सोम, तुम यशस्वी, शोभन धारावाले और प्राचीन हो। मेषलोमों
से होकर बहो। |
८, कर्मनिष्ठां के द्वारा नियत, जायमान, पुत, पवित्र से शोधित
प्रसन्न और सर्वज्ञ सोम हमें सारे धन दें।
९. देवों के वृद्धि-कर्ता सोम हमें प्रजा और सारे धन दें।
१०. सोम घोड़ों के समान तुम्हारा मार्जन किया जाता है। वेगशाली
तुम ज्ञान, बल ओर धन के लिए क्षरित होओ ।
११. अभिषवकर्ता लोग, मद के लिए, तुम्हारे रस को शोधित करते
हैं। वे महान् अन्न के लिए सोम का शोधन करते हें।
१२. जल के पुत्र, जायमान, हरितवर्ण और दीप्त सोम को, देवों
के लिए, ऋत्विक् लोग शोधित करते हें।
१३. कल्याणरूप और कन्तप्रज्ञ सोम जल के स्थान अन्तरिक्ष में,
सद और भजनीय धन के लिए, क्षरित होते हें।
१४. सोस इन्द्र के कल्याणकर शरीर का धारण करते हूँ। उसी
शरीर से इन्द्र ने सारे पापी राक्षसों को सारा।
१५. गोडुग्ध मे मिश्चित और पुरोहितों के द्वारा अभिषुत सोम का
पान सारे देवता करते हँ।
१६. अभिषुत और बहुधार! से युक्त सोम मेषलोम के लिए पवित्र
का व्यवधान करके चारों ओर क्षरित होते हँ।
१७. अनेक तेजों से युक्त, बली, जल से शोधित और गोदुग्ध में
सिश्चित सोम चारों ओर क्षरित होते हुँ।
१८. ऋत्विकों के द्वारा नियत और पात्रों के द्वारा अभिषुत सोम,
तुम कलश सं जाओ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १२०५
Fs,
१९. पवित्र का व्यवधान करके बली और अनेक धाराओं से युक्त
सोम इन्द्र के लिए बनाये जाते हँ।
२०. कामवर्षक इन्द्र को सत्तता के लिए ऋत्विक लोग सोम को
मधुर रस (गोरस) के साथ मिलाले हैं।
२१. सोम, जल में मिले और हरितवर्ण तुम्हें, देवों के पान और बल
के लिए, ऋत्विक् लोग शोधित कर रहे हैं।
२२. इन्द्र के लिए यह प्रथम सोमरस प्रस्तुत (अभिषुत) किया जाता
हुँ। यह जल को हिलाते और उसके साथ मिलते हैं।
११० सूवत
(देवता पवमान साम। ऋषि च्यरुण और त्रसदस्यु। छन्दः
अतुष्डुप् बृहती और विराद् |)
१. सोम, अञ्न-लाभ के लिए युद्ध में जाओ। तुम सहनशील हो।
शत्रुओं के पास जाओ। तुम हमारे ऋणों के परिशोधक हो। तुम शत्रुओं
को मारने के लिए जाते हो।
२. सोम, तुम अभिषुत हो। सोम, महान् सनुष्य-समूहबाले राज्य में
हम क्रमशः तुम्हारा स्तोत्र करते ह। अपने राज्य की रक्षा के लिए तुम
शत्रुओं को लक्ष्य करके जाते हो।
३. सोम, तुमने जल-घारक अन्तरिक्ष में, समर्थ बल से, सूर्य को
उत्पन्न किया है। तुम स्तोताओं को पशु देनेवाले हो। तुम्हारे पास अनेक
प्रकार के ज्ञान हें। तुम वेगशालो हो।
४. अमर सोम, तुमने सत्य और कल्याणभूत जल के धारक अन्तरिक्ष
में सुर्यं को, मनुष्यों के सामने करने को, उत्पन्न किया है। भजवशील तुम
संग्राम का लक्ष्य करके सदा जाया करते हो।
५. सोम, जसे कोई लोगों के जल पीने के लिए अक्षय्य जल से
पुर्ण तड़ाग खोदता है अथवा कोई दोनों हाथों की अञ्जलि से जल भरता
है, वेसे ही तुम अन्न देने के लिए पबित्र को छेद कर जाते हो।
१२०६ हिन्दी-ऋग्वेद
६. दिव्य और सबके प्रेरक सूर्य ने अभी अन्धकार भी नहीं हटाया,
तभी देखनेवाले और दिव्यलोकोत्पन्न “वसुरूच्” नाम के व्यक्तियों ने
अपने बन्धु सोम की स्तुति की।
७. सोम, मुख्य और कुश तोइ़नेवाले यजमानो ने महान् बल और
अञ्च के लिए तुमसे अपनी बडि को रक्खा। समर्थ सोम, हमें भी
वीर्यघ्राष्ति के लिए, यद्ध में भेजो।
. दुलोकस्थित देवों के पीने योग्य, प्राचीन, प्रशस्य और महान्
युलोक से सोम को अपने सम्मुख लोग दृहते हें। इन्द्र को लक्ष्य करके
उत्पन्न सोम की, स्तोता लोग, स्तुति करते हें।
९. सोम, जेसे वृषभ गोसमूह में आधिपत्य करता है, वैसे ही तुम
अपने बल से घुलोक, भूलोक और सारे प्राणियों पर राज्य करते हो।
१०. अनेक घाराओंवाले, असीस सामर्थ्यवाले, दीप्त और क्षरणशील
सोम मेबलोमसय पवित्र पर, शिश के समान, फ्रोड़ा करते-करते क्षरित
होते हूँ।
११. शोषित, मधुरता-युक्त, यज्ञवान, क्षरणशील, स्वादुकर, रसधारा-
संघ, अन्नदाता, धमप्रापक और आयुर्दाता सोम बहते हें।
१२. सोम, युद्धकामी शत्रुओं को हराते हुए, दुर्गम राक्षसों को मारते
हुए और शोभन आयुधवाले होकर रिपुविनाश करते हुए बहो।
१११ सूक्त
(देवता पवमान सास | ऋषि परुक्षेप-पुत्र अनानत। छन्द अत्यष्टि ।)
१. जैसे सूर्य अपनी किरणमाला से अन्धकार को नष्ट करते हैं, बैसे
ही शोधित सोम हरितवर्ण ओर शोभन धारा से सारे राक्षसों को नष्ट
करते हैं। अभिषुत सोम की धारा दीप्त होती हे। शोधित और हरितवर्णं
सोम रुचिकर होते हैं। सातौं छच्दोंवाली तथा रस हरणशील स्तुतियों और
तेजो से सोम सारे नक्षत्रों को व्याप्त करते हुँ
हिन्दी ऋग्वेद ' १२०७
२. सोम, तुझने पणियों के द्वारा अवहत गो-धन को प्राप्त किया था।
यज्ञ के धारक जल से यज्ञ-गृह में भली भाँति शोषित होते हो। जैसे दूर
देश से साम-ध्वनि सुनाई देती है, बैसे ही तुम्हारा शब्द सुना जाता है।
सोम के शब्द में कर्सेनिष्ठ यजमान रमण करते हें। शोभन सोम तीबों
लोकों के धारक जल और रुचिकर दीप्ति के साथ स्तोताओं को अन्न
प्रदान करते हे। |
३. ज्ञाता सोम पूर्व दिशा को जाते हें। सोम, तुम्हारा सबके लिए
वर्शतीय और दिव्य रथ सूर्य्य-किरणों में मिरूता है। पुरुषों के उच्चारित
स्तोत्र इन्द्र के पास जते हैं। वे स्तोत्र विजय के लिए इन्द्र को प्रसन्न
करते हैं। वजन भी इन्द्र के पास जाता है। जिस समय युद्ध-क्षेत्र में सोम
और इन्द्र शत्रुओं के द्वारा अजेय होते हें, उस समय उनकी स्तुति की
जाती हे।
११२ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि आङ्गिरस शिशु । छन्द पङ क्ति।)
१. हमारे क्स अनेक प्रकार के हैं। दूलरों के कमं भी अनेक प्रकार
के हें । शिल्पी काष्ठकार्य चाहता हे, वैद्य रोग को चाहता हे और ब्राह्मण
सोमामिषवकर्ता यजमान को चाहता हें। में सोम का प्रवाह चाहता
हुँ। सोस, इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
२. पुराने काठों, पक्षियों के पक्ष और (शान चढ़ाने के लिए) उज्ज्वल
शिलाओं से वाण बनाये जाते हैं। शिल्पी, वाण बेचने के लिए, स्वर्णबाले
धनी पुरुष को खोजते हूँ। में सोम का क्षरण खोजता हूं। फलतः, सोम,
इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
३. में स्तोता हूं, पुत्र भिषक (बा ब्रह्मा) हे और कन्या यव-भर्जन-
कारिणी है । हम सब भिन्न-भिन्न कर्म करते हें। जैसे गार्ये गोष्ठ सें
विचरण करती हैं, वैसे ही हम भी, धनकासी होकर, तुम्हारी (सोम की)
सेवा करते हें। सोभ, इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
१२०८ हिन्दी-ऋणग्वेद
४. सुन्दर वहन करनेवाले और कल्याणकर रथ की इच्छा घोडा
करता है, मर्म-सलिव (दरबारी) हास-परिहास की इच्छा करता हं और
पुरुषर्द्रिय रोमोंवाला भेद (दिघाभित्) की कामना करता हे। में सोम-
क्षरण चाहता हँ । सोम, इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
११३ सूक्त
(देवता पवमान साम । ऋषि मारीच कश्यप । छन्द पङ क्ति |)
१, कुरुक्षेत्र के पासवाले शर्यणावत् तड़ाग में स्थित सोम को इन्द्र पियें,
जिससे इन्द्र आत्मबली और महान् बीर्यवाले हों। इन्द्र के लिए, सोम,
क्षरित होओ ।
२. काम-सेचक और दिशाओं के स्वामी सोम, आर्जीक देश (व्यास
नदी के पास के प्रदेश) से आकर क्षरित होओ। पवित्र ओर सत्य स्तुति-
वाक्यों तथा श्रद्धा ओर पुण्य-कर्म के साथ तुम्हें अभिषुत किया गया हे ।
इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
३. सूर्य-पुत्री (श्रद्धा) सेघ के जल से प्रवृद्ध और महान् सोम को
स्वगं से ले आई। गन्धर्वो (बसु आदि) ने सोस को ग्रहण किया और
सोम सें रस दिया। सोम, इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
४. सत्यकर्मा सोम, अभिषयमाण राजन्, यज्ञस्वासी, इन्दु, यज्ञ, सत्य
और श्रद्धा का उच्चारण करते हुए ओर कर्मधारक यजधान से अलंकृत
होकर तुम सोम, इन्र के लिए क्षारित होओ।
५. यथार्थ बली ओर महान् सोम की क्षरणशील धारा क्षरित हो रही
है। रसवान् सोम कर रस बह रहा है। हरितचर्ण सोस, ब्राह्मण के द्वारा
शोषित होकर तुम इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
६. शोध्यमान सोम, तुम्हारे लिए सातो छन्दों में बनाई स्तुति का
उच्चारण करते हुए, पत्थर से तुम्हारा अभिषव करते हुए और उस
अभिषव से देवों का आनन्द उत्पन्न करते हुए ब्राह्मण जहाँ पूजित होता
हे, वहाँ क्षरित होओ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १२०९
७. सोस, जिस लोक में अखण्ड तेज है और जहाँ स्वर्गलोक है, उती
अमर और हासशून्य लोक में मुझे ले चलो। इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
८. जिस लोक भें वैवस्वत राजा हैं, जहाँ स्वर्ग का द्वार है और जहाँ
मन्दाकिनी आदि नदियाँ बहती है, उस लोक सें मुषे अमर करो। इन्द्र
के लिए क्षरित होओ।
९. जिस उत्तम लोक में (तीसरे लोक में) सूर्य की अभिलाषा के
अनुरूप फिरणे हे और जहाँ ज्योलिवारे मनुष्य रहते हे, उस लोक में मुझे
अमर करो। इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
१०, जिस लोक सें काम्यमान देवता और अवदय प्रार्थनीय इस्रादि
रहते है, जहाँ सारे कर्मों के मूल सूर्य का स्थान हे ओर जहाँ “स्वधा” के
साथ दिया गया अन्न तथा तृप्ति हुँ, वहाँ मुझे अमर करो। इच्ध के लिए
क्षरित होओ।
११. जिस लोक में आनन्द, आमोद, आह्वाद आदि हे और जहाँ
सारी कामनायें पूर्ण होती हें, वहाँ मुझे असर करो। इन्द्र के लिए क्षरित
होओ।
११४ सूक्त
(देवता पवमान सोम । ऋषि मारीच कश्यप । छन्द पड _क्ति।)
१. जिन शोध्यमान सोस के तेज का जो ब्राह्माण अनुगमन करता
है, उस अमर व्यक्ति को कल्याणकर पुत्र आदि से युक्त कहा जाता है
और जो सोम के मन के अनुकूल परिचर्या करता हैँ, बह भी ऐसा ही
सोभाग्यशाली कहा जाता है। इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
२. ऋषि (कश्यप), सन्त्र-रचयिताओं ने जिन स्तुति-वचनों की
रचना की है, उनका आश्रय करके अपने वाक्य की वृद्धि करो और योत
राजा को प्रणाम करो। सोम वनस्पतियों के पालक हें। इख्न के लिए
क्षरित होओो।
१२१७ हिन्दी-ऋग्वेद
३. सूर्यं कै आश्रय-स्थल जो सात दिशाय हैं (सोमवाली दिशा को
छोड़कर ), जो होमकर्ता सात पुरोहित हें और जो सात सूर्य हुँ (मात्तंण्ड
को छोड़कर), उनके साथ हमारी रक्षा करो। इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
४. राजा सोम, तुम्हारे लिए जिस हवनीय द्रव्य का पाक किया हुआ
है, उससे हमारी रक्षा करो। हु इमे मु. हे और हमारे बस्त्र का अपहरण
न करे। इन्द्र के लिए क्षरित होओ।
नयम मण्डल समाप्त।
१ सूक्त
(दशम मण्डल । १ अनुवाक | देवता अग्नि । ऋषि आपत्य त्रित ।
छन्द त्रिष्टुप् |)
१. महान् अग्नि उषःकाल में प्रज्वलित होकर ज्वाला-रूप से रहते
हैं। अग्नि अन्धकार से निकलकर अपने तेज से आहवनीय रूप में आते
हें। शोभन ज्वालावाले और कर्म के लिए उत्पन्न अग्नि अपने हिसक तेज
से सारे यज्ञ-गृहों को पूर्ण करते हें।
२. अग्नि, प्रादुर्भूत, कल्याणरूप, अरणिथों से भली भाँति मथित और
ओषधियो में वत्तंमान तुम द्यावापूथिबी के गर्भ हो। चित्रवर्ण और
ओषधियों के शिशु अग्नि, तुम अपन तेज से काले शत्रुओं को पराजित
करते हो। सातू-ल्प वनस्पतियों के लिए शब्द करते हुए तुम उत्पन्न
होते हो ।
३. उत्कृष्ट, विद्वान्, प्रादुर्भूत, महान् और व्यापक अग्नि मुझ त्रित
(ऋषि) का रक्षण करें। अग्नि का जल मुख से करके अर्थात् अग्नि से
जल की याचना करते-करते यज्ञकर्ता, समानमना होकर, अग्निपजा
करते हे। |
४. अग्नि, सारे संसार के धारक और उत्पादक वनस्पति अच्न-वर्धक
तुम्हें, अञ्च के लिए, सेवित करते हँ। तुम ओषधियों (वनस्पतियों) के
हिन्दी-त्रशवेद १२११
प्रति--शुष्क वनस्पतियों के प्रति, दाव-रूप होकर जाते हो। तुम मनुष्यों
और प्रजाओं में होप-निष्पादक हो।
५. देवों के आह्वाता, विविध रथवाले, सारे थज्ञों की पताका,
श्वेत-वर्ण सारे देवों के अधिपति, इन्द्र के पास जावेवाले और यजसानों के
पुज्य अग्नि का, सस्पत्ति-प्राप्ति के लिए, तुरत हम स्तोत्र करते हुँ।
६. दीप्यमान अग्नि, हिरण्य-सद्श तेजों और उनके शुक्ल आदि
रूपों को धारण करके, पृथिवी की नाभि (उत्तर बेदी) पर उत्पन्न होकर
शोभा धारण करके ओर आह्वनीय स्थान (पुर्व दिशा) में स्थापित होकर
इस यज्ञ मे इन्द्रादि की पुजा करो।
७, अग्नि, तुस सदा वैसे ही द्यावापृथिवी का विस्तार करते हो, जेसे
पुत्र माता-पिता का विस्तार करता हे। तरंणतम अग्नि, तुम अभिलाषी
व्यक्तियों को लक्ष्य करके जाओ। बल-पुत्र अग्नि, हमारे यज्ञ में इन्द्रादि को
ले आओ । [
२ सूक्त
(देवता, ऋषि ओर छन्द आदि पूववत् )
१, युबतम अग्नि, स्तोत्राभिलाषी देवों को प्रसन्न करो। देव-यज्ञ-
कालों के स्वामी अग्नि, यज्ञ-समयों को जान करके तुम इस यज्ञ में उनकी
पूजा करो। अग्नि, देवों के पुरोहितों के साथ पूजन करो। तुम होताओं में
श्रेष्ठ हो ।
२. अग्नि, तुम होता, पोता, मेघावी, सत्यनिष्ठ और धनव हो! हम
देवों को हवि दो। दीप्यमान ओर प्रशस्य अग्नि देव-पूजन करें।
३. हम देवों के वेदिक भागे पर जायें। हम जो क्म कर सकें, उसकी
भली भाँति समाप्ति कर सकें। ज्ञानी अग्नि देव-पूजा कर मनुष्यों के
होम-सम्पादक अग्नि यज्ञों और उनके कालों को करें।
४. देवो, हम अज्ञानी हँ। ज्ञानवान् आपके कर्मों को जानते हुए भी
१२१३ हिन्दी-ऋग्देद
हमने विळूप्त कर दिया। यह सब जाननेवाले अग्नि सारे कर्मों को पूर्ण
करे। यागयोग्य कालों से अग्निदेवों को कल्पित करते हें।
५. मनुष्य दुर्बल हेँ--उनका मन विशिष्ट ज्ञान से शून्य हे। वे जिस
बज्ञ-कर्म को नहीं जानते, उसको जाननेवाले, होम-निष्पादक और अतिशय
याज्ञिक अग्नि उस कम से यज्ञकालों मं देव-यजन करें ।
६. अग्नि सारे यज्ञों के प्रधान चित्र और पताका-स्वरूप तुम्हें ब्रह्मा
ने उत्पन्न किया । तुम दासादि से युक्त भूमि दो। स्पृहणीय, स्तुति सन्त्रादि
से युक्त और सर्वहितेषी अन्न देवों को दो।
७, अग्नि द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष--इन तीन लोकों ने तुम्हें पैदा
क्िया--शोभनजन्मा प्रजापति ने तुम्हें पैदा किया। अग्नि, तुम पितृमागं
के जानकार और समिध्यमान हो। दीप्तियुक्त होकर विराजते. हो ।
३३ सूक्त
(देवता, ऋषि ओर छन्द पूववत् |)
१. दीप्त अग्नि, तुम सबके स्वामी हो। हवि लेकर देवों के पास
जानेवाले, संदीप्त, शत्रुओं के लिए भयंकर, वनस्पतियों सें स्थित और
शोभन प्रसववाले अग्नि, यजमानों की धन-वद्धि के लिए सबके द्वारा देखे
जाते हें । सर्वज्ञ अग्नि विभासित होते हें। महान् तेज के द्वारा सायंकाल,
इवेतवर्ण दीप्ति से अन्धकार दूर करके, जाते हुँ।
२. पितुरूप आदित्य से उत्पन्न उषा को प्रकट करते हुए अग्नि कृष्णवर्ण
रात्रि को अपने तेज से अभिभूत करते हें। गमनशील अग्नि थुलोक के
निवासदाता अपने तेज से सूर्यं की दीप्ति को ऊपर रोककर शोभा
पाते हें।
३, कल्याणरूप और भजनीय उषा के हारा सेव्यमान अग्नि आये।
शत्रुओं के घातक अग्नि अपनी भगिनी उषा के पास जाते हँ। सुन्दर ज्ञान
झर दीप्त तेज के साथ वर्तमान अग्नि इबेतवर्ण के अपने निवारक तेज
के द्वारा कृष्णवर्ग अन्धकार को दूर कर रहते हैं।
हिन्दी-ऋग्वेद १२१३
४. महान् अग्नि की दीप्त किरणें जा रही हैं। थे किरणें स्तोताओं
को नहीं बाधा देतीं। मित्र, कल्याणरूप, भक्तों के सुखकर, स्तुत्य, काम”
वर्षक, महान् और शोभनमुख अग्नि की किरणे अन्धकार को नष्ट करके
आर तीक्ष्ण होकर, तर्पण के लिए देवों के पास जाती और प्रसिद्ध
होती हैं।
५. दीप्यमान, महान् और झोभन-दीप्ति अग्नि की किरणें, शब्द करते
हुए जाती हुँ । अग्नि अतीव प्रशस्त, तेजस्वितम, क्रीड़ाकारी और वृद्धतम
अपने तेज से चुलोक को व्याप्त करते हँ।
६. दृश्यमान आयुधवाले और देवों के प्रति गमन करनेवाले अग्नि
की शोषक ओर वायुयुक्त किरण शब्द कर रही हे। देवों में मुख्य, गन्ता,
व्यापक और महान् अग्नि प्राचीन, इवेतवणं और शब्दायमान तेज के
द्वारा प्रदीप्त होते हें। |
७. अग्नि, हमारे यज्ञ में महान् देवों को ले आओ। परस्पर-मिलित
द्यावापृथिवी के बीच में सुर्देछप से आनेवाले अग्नि, हमारे यज्ञ मे बैठो।
स्तोताओं के द्वारा सरलता से पाने योग्य और देगवानु अग्नि, शब्दायमाव
ओर वेगवान् घोड़ों के साथ हमारे यज्ञ में पधारो।
४ सत्त
(देवता, ऋषि, छन्द आदि पूर्ववत |)
१. अग्नि, तुम्हारे लिए में हवि देता हूं। तुम्हारे लिए मननीय स्तुति
उच्चारित करता हुँ। तुम सबके वन्दनीय हो। हमारे देवाह्वान सें तुस
झाते हो; इसलिए तुम्हें में हवि देता हूँ और स्तुति करता हूँ। प्राचीन
राजा अग्नि, सारे संसार के स्वामी अग्नि, तुम यज्ञाभिलावी मनुष्य के लिए
बसे ही धन दान करके सुखदाता हो, जेसे सरस्थल में जलदाता तलैया
सुखद है ।
२. तरुणतस अग्नि, जसै शीत से आत्तं घाय उष्ण गोष्ठ को जाती
है, बैसे ही फलप्राप्ति के लिए यजमान तुम्हारी सेवा करते हें। तुम देवों
१९९० हिन्दी-त्रर३ द्
और मानवों के दूत हो। महान्, तुस आदापृथवी के बीच में हवि लेकर
अन्तरिक्ष लोक में संचरण करते हो।
३. अग्नि, पुत्र के समान जयशील तुम्हें माता पृथिवी, पोषण करके
और सम्पर्क की इच्छा करके, धारण करती हें। अभिलाषी तुम अन्तरिक्ष
के प्रशस्त मार्ग से यज्ञ में जाते हो। याज्ञिकों से हवि लेकर तुम देवों के
दास जाने को इच्छा देसे ही करते हो, जैसे विमुक्स पशु गोष्ठ में जाने की
इच्छा करता हें ।
४, मूढ़ताशुन्य और चेतनावान् अग्नि, हस मूर्ख हें; इसलिए तुम्हारी
सहिमा को नहीं जानते। अग्नि, अपनी महिमा तुम्हीं जानते हो। अग्नि
बनस्पति के साथ रहते हं। अपनी जिह्वा के द्वारा ह॒विर्भक्षण करते हुए
अग्नि चरते हूँ। अग्नि प्रजावर्ण के अधिपति होकर आहुति का
आस्वादन करते हूं ।
५. नदीन अग्नि कहीं उत्पन्न होते हुँ--बे पुराने वनस्पतियो के
ऊपर रहते हं। पालक, धृमकेतु और श्वेतवर्ण अग्नि विपिन में निवास
करते हैं। स्नान के बिना शुद्ध अग्नि, प्यासे वषभ के समान, अरण्य के
जळ के पास जाते हें। मनुष्य लोग, समान-सना होकर, अग्नि को प्रसन्न
करते ह।
६, अग्नि, जेसे वनगामी और धृष्ट दो चोर वन में पथिक को रज्जु
से बांधकर खींचते हे, बैसे ही, हमारे दोनों हाथ, दसों अंगुलियों से, यज्ञ-
काष्ठ से अग्नि को सथते हें। तुम्हारे लिए में यह नई स्तुति करता हूँ।
इसे जानकर सबका प्रकाश करनेवाले अपने तेज से अपने को यज्ञ में
बेसे ही योजित करो, जैसे अध्वों से रथ को योजित किया जाता है।
७. ज्ञानी अग्नि, तुम्हारे लिए हमने यह यज्ञीय द्रव्य दिया
ओर नमस्कार भी किया। यह स्तुति सदा वर्धमाना हो। अग्नि,
हमारे पुत्र-पौत्रों की रक्षा करो। सावधान होकर हमारे अङ्गों की
रक्षा करो।
हिन्दी-ऋग्देद १२१५
(देवता, ऋषि और छन्द पूर्ववत् |)
१. अद्वितीय, समुद्रवत् आधार-स्वरूप, धनों के धारक और अनेक
प्रकार के जन्सवाले अग्नि हमारे अभिरूषित हदयों को जानते है। अग्नि
अन्तरिक्ष के पास वर्तमान होकर मेघ का सेवन करते हे। आग्नि, मेघ में
बर्तमान विद्युत् के पास जाओ।
२. आहुतियों के सेचक यजमान समान रूप से नील अग्नि को सन्त्र
से आच्छादित करते हुए बड़वावों (घोड़ियों) वाले हुए । मेधावी लोग
जल के वासस्थान अग्नि की रक्षा करते हें--स्तुतियों से आराधना करते
है। वे गूढ़ हृदय में अग्नि के प्रधान नामों की स्तुति करते हे।
३. सत्य और कर्म से युक्त द्यावापृथिवी अग्नि को धारण करते हैं।
ध्यावापृथिवी काल-परिमाण करके प्रशस्य अग्नि को बैसे ही उत्पन्न करते
हे, जेसे माता-पिता पुत्र को उत्पन्न करते हँ। सारे स्थावर, जङ्गम के
नाभिरूप, प्रधान और मेधावी अग्नि के विस्तारक बैइवानर नामक अग्नि
को मन से प्राप्त करते हुए हम यजन करते है।
४. यज्ञ के प्रवत्तंक, कामनाभिलाषी और प्राचीन यजमान भली भाँति
उत्पन्न अग्नि की, बल के लिए, सेवा करते हें। सारे संसार के आच्छादक
द्यावापृथिवी ने तीनों लोकों में, अग्नि, विद्युत् और सूर्य के रूप से स्थित
अग्नि को, मधु, घी, पुरोडाश आदि से, बद्धित किया।
५. स्तोताओं के द्वारा स्तुति किये जाते हुए और सबके जानकार
अग्नि ने शोभन सात भगिनीरूप शिखाओं को, मदकर यज्ञ से सरलता
पुर्वक सारे पदार्थों को देखने के लिए, ऊपर उठाया। प्राचीन समय में
उत्पन्न अग्नि न द्यावापुथिवी के बीच सें उन शिखाओं को नियमित किया ॥
यजमानों की इच्छा करनेवाले अग्नि ने पृथिवी को वृष्टि-स्वरूप रूप
प्रदान किया।
६. मेधावी लोगों वे सात सर्यादाओ (ब्रह्महत्या, सुरापान, चौय,
१२१६ हिन्दी-ऋणग्वेद
एरक पुनः पुनः पापाचरण, पाप करके न कहना आदि) को छोड़
दिया हें। इनमें से एक का करनेवाला भी पापी हु। पाप से मनुष्य को
रोकनेवाले अग्नि हुँ। अग्नि समीपवर्ती मनुष्य के स्थान में आदित्य
किरणों के विचरण मार्ग सें और जल के बीच में रहते हें।
अग्नि सूष्टि के पहले असत् (अव्यक्त) और सृष्टि होने पर सत
है, वे परमधाझ (कारणात्मा) में हें। वे आकाश पर सूर्यरूप से जन्मे
[ग्नि हमसे पहले उत्पन्न हुए है। वे यज्ञ के पहले अवस्थित थे। वे
वृषभ भी हैं ओर गाय भी--स्त्री-पुरुष--दोनों हें।
पञ्चम अध्याय समाप्त ।
६ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता अग्नि । ऋष आप्त्य त्रित । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. यं वे ही अग्नि हं, यज्ञ के समय जिनके रक्षणों से स्तोता अपने
गृह में बढ्ता हं । दीप्तिमान् अग्नि सुर्ये-किरणों से प्रशस्त तेज से युक्त
होकर सर्वत्र जाते हैं।
२. जो दीप्त अग्नि देवों के तेज से दीप्त होते हे, वे सत्यवान् और
जहिदित हु। अग्नि मित्र यजभान के लिए मित्रजनोचित कार्य करने के
लिए गमनशील घोड़े के समान अथक होकर यजमान के पास जाते हें।
३. अग्नि सारे यज्ञ के प्रभु हूँ। वे सर्वत्र जानेवाले हें। उषा के उदय-
काळ से ही हन के लिए यजसातों के प्रभृ हें। यजमान अग्नि में सन के
अनुकूल इवि फेकते हैं; इसलिए उनका रथ इत्रु-बल से अबध्य होता है।
४. अरव बल से वद्धित और स्तुति से सेबित होकर शीघ्रता के साथ
देवों फे पास जाते हैं। अस्ति स्तुत्य, देवों को बलानेवाले, प्रधान यज्ञकर्ता
ओर देवों के हारा नियुक्त हं। ये देवों को है वि देते ह् ।
. ऋत्विको, छुब भोगों के दाता और कम्पनशील उन अग्नि को,
इन्द्र के समान, स्हुतियो ओर हुवियो से, हमारे सम्मुख करो, जो देवों के
हिन्दी-ऋग्वेद १२१७
बुलानेबाले और ज्ञानी हँ और जिनका स्तोत्र भेधाबी स्तोता लोग आदर
के साथ करते हुँ। द अर
६- अग्नि, जेसे युद्ध में शीघ्र गसनकारी अइव जाते हे, बैसे ही तुममें
संसार के सारे धन मिलते हें। अग्नि, इन्द्र की रक्षा हमारे अभिमुख
करो । म
७. अग्नि, तुमने जन्म के साथ ही महत्व लाभ किया और स्थान ग्रहण
करने के साथ ही आहुति के योग्य हो गये। इसलिए तुम्हें देखने के साथ
देवता लोग तुम्हारे पास गये वा तुम्हारे प्रदीप्त होने के साथ यजसान
तुमे हवन करने लगे। उत्तम ऋत्विक् लोग तुमसे रक्षित होकर बढ़ने
लगे।
७ सूक्त |
(देवता अग्नि । ऋषि आपूत्य त्रित । छन्द त्रिष्टुप् )
१. दिव्य अग्नि, तुम द्यावापृथिवी से हमारे लिए सब तरह का अन्न
और कल्याण दो। दशनीय अग्नि, हम याज्ञिक हों। अपने अनेक प्रशंसनीय
रक्षणों से हमारी रक्षा करो।
२. अग्नि, तुम्हारे लिए ये स्तुतियाँ हमारे द्वारा कही गई हैं। गौओं
और अइवों के साथ तुमने हमारे लिए धन दिया है; इसलिए तुम्हारी
प्रशंसा की जाती हं। जब भनुष्य तुम्हारा दिया भोग्य धन प्राप्त करता
हँ, तब अपने तेज के द्वारा सबका आच्छादन करनेवाले, शोभन कर्मो के
लिए उत्पन्न होनेबाले ओर हमें धन देनेवाले अग्नि, तुम्हारी स्तुति की
जाती है ।
३. में अग्नि को ही पिता, बन्धु, आता और चिर सित्र मानता हुँ।
में महान् अग्नि के मुख का सेवन वैसे ही करता हूँ, जैसे बुलोक-स्थित
पुजनीय और प्रदीप्त सुयंमण्डल का कोई सेवन करता हैं।
४. अस्मि, हमारी की हुई ये स्वुत्तियाँ निष्पन्न हुई है। नित्य होता,
देवों के आह्वाता और हमारे यगृह में अबस्थित होकर घुस जिसकी
फा. ७७
१२१८ हिन्दी-ऋग्वेद
दको
(बेरी) रक्षा करते हो, वह (में) तुम्हारा साहिध्य प्राप्त करके याज्ञिक
बचे । में छोहिदबर्ण अइव और बहुत अन्न प्राप्त कलें, ताकि प्रदीप्त दियों में
हीमीय द्रष्य (हलि) ग्रप्त हो सके ।
५. दोह-युफ्त मित्र के ससान पोजनीय, प्रावीय ऋस्मिक और यज्ञ-
समापक अग्नि को यजसामों ने बाहुओं से उत्पन्न किया हे। मनुष्यों ने
देवों के आह्वान और यज्ञ के लिए अग्नि को ही निरूपित किया हें। :
६. दिव्य अग्नि, झुलोक में स्थित देवों का स्वयं यज्ञ करो। अपक्व और
निर्बोध मनुष्य तुम्हारे बिना क्या करेंगे ? सुजन्मा देव, जैसे तुमने समय-
समय पर देवों का यजन किया हं, वैसे ही अपना भी रोक ।
७. अग्नि, तुम हमें दुष्ट और अदुष्ट भयों से बचाओ अन्न के कर्ता
और दाता भी बयो। सुन्दर पुजनीय अग्नि, हवन करने की सामग्री हमें
दो। हमारे शरीर की रक्षा करो।
८ सूक्तं
(देवता अग्नि ओर इन्द्र । ऋषि ल्वष्टू-पुत्र त्रिरिरा। छन्द्
त्रिष्टुप् ।)
१. इस समय अग्नि बड़ी पताका लेकर द्ावापृथिवी में जाते हें।
देवों के बुलाने के समय अग्नि बृषभ के समान शब्द करते हैं। दुलोक के
अन्त वा समीप के प्रदेश में रहकर आग्नि व्याप्त करते हे । जल-भण्डार
अन्तरिक्ष में महान् विद्युत् होकर अग्नि बढ़ते हु।
२. खावापुयिबी के बीच कामों फे वषक और उन्नत तेजवाले अग्नि
प्रसन्न होते है। रात्रि और उषःकाल के वत्स और याज्ञिक कर्मवाले अग्नि
शब्द करते हुँ। अरिन यज्ञ में उत्साह-कर्मे करते हुए आह्वमीय आदि स्थानों
में रहर तथा देखो में मुख्य होकर जाते है ।
३. अग्नि सातृ-पितृ-उप द्यावाप्घिवी के मस्तक पर अपना तेज
विस्तत करते है। सुबीयबारे अग्वि के गतिपरायण तेज को याज्ञिक
लोग यज्ञ में धारण करदे हुँ। अग्नि के पदन पर शोजायमान, यज्ञ के
हिररी-क्रग्बेद १२१९,
स्थान में व्याप्त वि आदि से दुस्हारे शरीर की सेवा कवि
लाण क्ण्जे ट ॥
४. श्रशं तनीय अग्नि, घुम उ के पहले ही आ जाते हो । परस्थर
मिले दिय और रात्रि के दीप्तिकर्सा हो। अपने शरीर से आदित्य को
(छ करते हुए, यज्ञ के लिए, सात स्थानों में बेठते हो।
५. अग्नि यज्ञक तुम, चक्षु के ससान, प्रकाशक हो। तुम यज्ञ के रक्षक
हो। जिस समय तुम यज्ञ के लिए वरुण वा आदित्य होकर जाते हो, उस
समय तुज्हीं रक्षक होते हो। ज्ञानी अग्नि, तुम जल के. पौत्र हो। (जल से
मेघ ओर मेघ से विद्युत् वा अग्नि उत्पन्न होते हु) तुम जिस यजमान की
हुवि ग्रहण करते हो, उसके दूत होते हो ।
६. अग्नि, तुस जिरा अन्तरिक्ष मं कल्याणकर अश्वोवाले वायु के
साथ मिलते हो, उसमें तुम यज्ञ और जल के नेता होते हो। तुम शुद्धोक
में प्रधान और सबके भक्ता सूर्य को धारण करते हो। अग्नि, तुम अपनी
जिह्वा को हव्यवाहिका बनाते हो।
७. यज्ञ करके त्रित ऋषि ने प्रार्थना को कि, मेरी इच्छा हे कि, यज्ञ
में पिता का ध्यान करके मान विपत्तियों से रक्षा पाऊं। प्रार्थना के
कारण पिता-माता के पास सुन्दर वाक्य बोलकर त्रित युद्ध का अस्त्र
ले गथ ।
८. आपृत्य के पुत्र शित ने इन्द्र के द्वारा प्रेरित होकर और अपने
पिता के युद्धास्त्रों को लेकर युद्ध किया। सात रस्सियोंवाले “त्रिशिरा”
का उन्होंने वध किया और त्वष्टा के पुत्र (विश्वरूप) को गायों का भी.
हरण कर लिया।
९. साधुओं के स्वामी इन्द्र ने अभिमानी और व्यापक तेजबाले त्बष्टा
के पुत्र को विदीर्ण किया। उन्होंने गायों को बुलाते हुए त्वष्टा के पुत्र
दिइवरूप के तीन सिरों को काट डाला।
| ए we
१२२० हुग्दा-हहदेह्
(देवता जल। ऋषि अम्बरीष के पुत्र सिन्धुद्वीप वा त्वष्टा के पुत्र
त्रिशिरा । छन्द अनुष्ठुपू और गायत्री ।)
१. जल, तुस सुख के आधार हो। अझ्न-संचय कर दो। हमें भली
भाँति ज्ञान दो।
२. जल, जैसे मातायें बच्चों को दूध देती हें, वेसे ही तुम अपना
सुखकर रस हमें दो।
३. जल, तुम जिस पाप के विनाश के लिए हमें प्रसन्न करते हो, उसके
विनाश की इच्छा से हम तुम्हें मस्तक पर चढ़ाते हँ। जल, हमारी वंश-
बृद्धि करो।
४. दिव्य जल हमारे यज्ञ के लिए सुख-विधान करें। वे पानोपयोगी
हुए। बे उत्पन्न रोगों की शान्ति और अनुत्पञ्च रोगों को अलग करें ॥
हमारे मस्तक के ऊपर क्षरित हों।
५. अभिलषित वस्तुओं के ईइवर जल हें। वे ही मनुष्यों को निवास
देते हें । हम जल से, भेषज के लिए, प्रार्थना करते हैँ।
६. सोम कहते हँ कि, जल में औषध ओर संसार-सुखकर अग्नि
भी हँ।
७. जल, हमारी देह की रक्षा करनेवाले ओषध को पुष्ट करो) ताकि
हम बहुत दिनों तक सुयं का देख सकं ।
८. जल, मेरा जो कुछ दुष्कृत्य है अथवा जो कुछ मेने हिसा का
कार्य किया है वा अभिसंपात किया है वा झूठ बोला हूं, बह् सब,
दूर करो।
९, में आज जल में पेठा हूँ--इसके रस का पान किया हू। अग्नि,
चुन जल-युक्त होकर आओ । मुझे तेजस्वी बनाओ।
हिन्दी-ऋण्वेद १२२१
१ 6 श्त
(देवता और ऋषि यम ओर यमी । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. (यस और यसी वा दिन वा रात्रि सहोदर हे। यमी यस से कहती
हुँ--) विस्तृत समुद्र के मध्यद्वीष में आकर, इस निर्जन प्रदेश सें, सैं
तुम्हारा सहवास वा मिलन चाहती हुँ; क्योंकि (माता की) गर्भावस्था
से ही तुम मेरे साथी हो। विधाता ने मन ही मत समझा है कि, तुम्हारे
हरा मेरे गर्भे से जो पुत्र उत्पन्न होगा, बह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ
लाती होगा।
२. (यस का उत्तर)--थमी, तुम्हारा साथी यम तुझ्हारे साथ एसा
सम्पर्क नहीं चाहता; क्योंकि तुम सहोदरा भगिनी हो, अगन्तव्या हो।
यह निर्जन प्रदेश नहीं हे; क्योंकि महान् बली प्रजापति के झुलोक का
धारण करनेवाले वीर पुत्र (देवों के चर) सब देखते हँ।
३. (यसी का वचनम) यद्यपि सनष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषि
हूँ; तो भी देवता लोग इच्छा-पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हें। इसलिए
मेरी जेसी इच्छा होती हें, बसे ही तुम भी करो। पुत्रजन्मदाला पति के
समान मेरे शरीर में पठो--मेरा संभोग करो ।
४. (यम का उत्तर)--हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया। हम
सत्यवदता हैं। कभी मिथ्या कथन नहीं किया हूँ। अन्तरिक्ष में स्थित
गन्धबं वा जल के धारक आदित्य और अन्तरिक्ष सें हो रहनेवाली योषा
(सुर्य की स्त्री सरण्यू) हमारे माता-पिता हुँ। इसलिए हस सहोदर बन्धु
हैं। ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं।
७५. (यमी की उक्ति)--रूपकर्ता, शुभाशुभ-प्रेरक, सबत्मिक, दिव्य
और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दस्पति बना दिया है।
प्रजापति का कर्म कोई लप्त नहो कर सकता। हमारे इस सम्बन्ध दो
द्यावापृथियी भी जानते हु।
१२२२ हिन्दी-ऋणष्वेद
६. (यमी की उक्ति)--प्रथम दिन की (संगसन को) बात कोन
जानता है ? किसने उसे देखा हु? किसने उसका प्रकाश किया हं? सित्र
और वरुण का यह जो महान् धाम (अहोरात्र) हे, उसके बारे में, हे
सोक्षबन्धन-कर्ता यस, तुम क्या कहते हो ?
७. जसे एक शाय्या पर पत्वी पति के पास अपनी देह का उद्घाटन
करती हुँ, बसे ही तुम्हारे पास, यम, में अपने शरीर को प्रकाशित कर
बैती हँ। तुम मेरी अभिलाषा करो। आओ, एक स्थान पर दोनों शयन
करे। रथ के दोनों चकों के समान हम एक कार्य सें प्रवत्त हों।
८. (यम की उक्ति )--देवों के जो गुप्तचर हे, वे दिन-रात विचरण
करते हे--उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होतों। दुःखद यिनी यमी, शीघ्र
इसरे के पास जाओ और रथ के चक्को के समान उसके साथ एक कार्य
करो।
९. दिन-रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हुं, उसे यजमान दें,
सूर्यं का तेज यस के लिए उदित हो! परस्पर संबद्ध दिन झुंलोक और
भूछोक यम के बन्धु हे। यमी यम, आता के अतिरिक्त, अन्य पुरुष
को धारण करे।
१०. भविष्य में एसा युग आयमा, जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व-
बिहीन राता को पति बनाबेंगी। सुन्दरी, लुझे छोड़कर दूसरे को पति
बनाओ। बह जिस समय वोीर्य-सिंचन करेगा, उस समय उसे बाहुओं में
आलिङ्गित करना।
११. (यमी की उक्ति)--वह कंसा भ्राता हँ, जिसके रहते भगिनी
अनाथा हो जाय ओर दह भगिनी ही क्या है, जिसके रहते अता का
दुःख दूर न हो? स काम-म्च्छिता होकर न्या प्रकार से बोळ रही हूं,
यह बिचार करके मुझे अली भाँति भोगो।
१२. (यम की उक्ति )--यमी, में तुम्हारे शरीर से अपने शरीर को
मिलाना नहीं चाहता । जो जाता भगिनी का संभोग करता हुं, उसे लोग
हिन्दी-ऋेद १२२३
पापी कहते हैं। सुन्दरि, मुझे छोड़कर अन्य पुरुष के साथ आयोइ-आ[ल्वाई
करो। तुम्हारा भर्ता तुम्हारे साथ मेथुन करवा नहीं चाहता।
१३. (यमी का कथन )--हाय यम, तुम दुर्बल हो। तुम्हारे मन और
हृदय को में कुछ नहीं समझ सकती। जंसे रस्सी घोड़े को बाँघती है और
जैसे रता वक्ष का आलिङ्गन करती हें, वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हें अवायात्त
आलिङ्कित करती हे; परन्तु मुझे तुम नहीं चाहते हो।
१४. (यस का वचन) ---यमी, तुम भी अन्य पुरुष का ही भली भाँति
आलिङ्गन करो। जेसे लता मक्ष को वेष्टन करती हे, बैसे ही अन्य पुरुष तुस्हेँ '
आलिडिति करें। उसी का सन तुम हरण करो; बह भी तुम्हारे सन का
हरण करे। अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो--इसी में मंगल
होगा।
११ सूक्त
देवता अग्नि । ऋषि अङ्गि-पुत्र हविद्धोन। छन्द विष्टुप् और
जगती ।)
१. वर्षक, महान् और अहिसलीय अग्नि ने दर्षक यजसान के लिए
महान् दोहन के हारा आकाश से जलको दृहा। आदित्य अपनी बुद्धि
से सारे संसार को जानते हुँ। यज्ञीय अग्नि यज्ञ-योग्य ऋतुओं (कालों)
का पूजन करें।
२. अग्नि के गणों को कहनेबाली गन्धर्ण की स्त्री और जल से संस्कृत
आहुर्तिरपिणी स्त्री ने अग्नि को तृप्त किया। में ध्यानाबस्थित होकर
भली भाँति स्तुषि करता हूँ । अखण्डनीय अग्नि हमें यज्ञ के बीच बेठावे।
सारे यजमानों में मुख्य हारे ज्येष्ठ आता स्तुति करते हृ।
३. भजनीय, शव्दयाली और कीतिवाली उषा यजमान के लिए, आदित्य"
बाली होकर, तुरत निकलीं । उसी ससय, यज्ञ के लिए, अग्नि को उत्प
किया गया। जो यज्चाभिलायी हैं, उन्हीं के प्रति अग्नि प्रसन्न होते हैं।
अग्नि देवों को बुलाते हूं। |
१२२४ हिन्दी-ऋग्वेद
४, इ्येतपक्षी अग्नि-प्रेरित होकर महान्, सूक्ष्मदर्शक, न अधिक कम,
हू अधिक अधिक सोस को ले आया। जिस समय आर्य लोग सामने जाने
योग्य, बशेनीय और देवाह्वान-कर्ता अग्नि की प्रार्थना करते हैं, उस
समय यश-क्रिया उत्पन्न होती हे ।
५. पशुओं के लिए जैसे घास रुचिकर होती है, बैसे ही तुम सदा
रमणीय हो। अग्नि, मनष्यों के हवन से तुम भली भाँति यज्ञ सम्पन्न
करो। स्सोता का स्तोत्र सुनकर और हवीरूप अञ्न को प्राप्त करके तुस
अनेक वेबों के साथ जाते हो।
६. अग्नि, अपनी ज्वाला को मातृ-पितृ-हूप द्यावापृथिवी की ओर
वेसे ही प्रेरित करो, जैसे नक्षत्र आदि को जीणे करनेवाले आदित्य अपना
तेज चुलोक और भूलोक की ओर प्रेरित करते हैं। यज्ञाभिलाषी देवों के
लिए यज्ञकर्ता यजमान यज्ञ करने को तैयार है। बह हृदय से व्यग्र है ।
अग्नि स्तुति को बद्धित करने की इच्छा करते हें। प्रधान पुरोहित (ब्रह्मा)
भली भाँति कर्म सम्पन्न करने के लिए उत्सुक हैं। बे स्तोत्र को बढ़ाते
हैँ। ब्रह्मा लासक प्रधान पुरोहित सन ही सन आशंका करते हें कि, कदाचित्
कोई दोष घट जाय।
७. बर के पुत्र अग्ति, अनुग्रहशील तुम्हें यजमान स्तोत्रों और हवियों
से सेजित करता हें। वह यजसान प्रसिद्ध होत! है। वह अन्न देता हैं, घोड़े
उसका बहन करते हैं। बह दीप्तिशाली और बली है। वह अनुदिन सुखी
होता है।
८. यजबीय अग्नि, जिस समय हम ढेर की ढेर स्तुवियाँ यजनीय देवों
के लिए करते हूँ उस समय रमणीय बस्तुएँ हमें दो। यज्ञीय द्रव्य को ग्रहण
करनेबाले अग्मि, हुम इससे धन का भाग प्राप्त करे।
९. अग्मि, सारे देदों के यज्ञगृह में रहकर लुम हमारे वचन को सुतो ।
असर बरसानेबाले रथ को योजित करो। देवों के माता-पिता थावा-
पृथिवी को हमारे पास ले आओ। दुम यहीं रहो। देवों के पास से नहीं
जाना।
हिन्दी-क्रश्वेद १२२५
१२ दकत
(देवता अग्नि । ऋषि हविद्धीन । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. प्रधान भूत दावापृथिवी, यज्ञ के ससय सबके पहले, अग्नि का
आह्वान कर। अग्नि, यज्ञ के लिए, मनुष्यों को प्रेरित करके और अपन
ज्वाला को धारण करके, देवों के! बुलाने के लिए बैठें।
२. अग्नि दिव्य हँ। वे इन्द्रादि देवों के पास जाते हुए यज्ञ के साथ
हवि को ले आवें। अग्नि, देवों में मुख्य, सर्वज्ञ, धूसध्वज, समिधा के द्वारा
ऊद्ध्वेज्वलन, स्युत्य, आह्वाता, नित्य और यजणाजों के यज्ञ-कर्ता हैं।
३. अग्निदेव स्वयं जो जल उत्पन्न करते हे, उससे उद्भिज्ज उत्पन्न
होकर पृथिवी का रक्षण करते हें। सारे देवता तुम्हारे जल-दान की प्रशंसा
करते हैं। तुम्हारी श्वेत ज्वाला स्वर्ग के घृतरूप बृष्टि-वारि का दोहन
करते हूँ।
४. अग्नि, हमारे यज्ञ रूप कर्म को बढ़ाओ। वृष्टि-जल का वर्षण
करनेवाले द्यावापृथिवी, में तुम्हारी पुजा और स्तुति करता हुँ। यावा-
पृथिवी, मेरा स्तोत्र सुनो। जिस समय स्तोता लोग, यज्ञ के समय, स्तुति
करते हैं, उस समय वृष्टि-जल का वर्षण करके हशारी मलिनता को दूर
करो।
५. प्रदीप्त अग्नि ने बया हमारी स्तुति और हवि को ग्रहण किया है ?
बया हमने उपयुक्त पूजन किया हुँ? कोन जानता हुँ? जते मिन्र को
बुझाने पर वह आता हें, बेसे ही अग्ति भी आ सकते हैं। हमारी
यह स्तुति देवों के पास जाय। जो कुछ खाद्य हे, वह भौ देवता के पास
जाय।
६. अमर सूर्थ का अयराधदून्य और मधुर रसवाळा जल पृथिवी पर
नाना रूप का होता हँ। सुर्य यम के अपराध को क्षमा करते हुँ। महान्
अग्नि, क्षमाशील सूर्य की रक्षा करो।
१२२६ छेद मयुर
७. अग्नि के उपस्थित रहने पर यञ्च में देवता लोग प्रसन्न होते और
धजमान के वेदीरूप स्थान में अपने को स्थापित करते हें। देवों ने सूर्य में
तेज (दिनों को) स्थापित किया और चन्रमा में रातों को स्थापिता क्किया।
बढेंशान सुर्य और चन्द्र दीप्ति प्राप्त करते हैं।
८. जित ज्ञानहूप अग्नि के उपस्थित रहने पर देवता लोग अपना कार्य
सम्पादित करते हैं, उनका स्वरूप हम नहीं समझते । इस यज्ञ में मित्र,
अदिति और सूर्यं पाप-साशक अग्नि के पास हमें पाप-शून्य कहें।
९. अग्नि, सारे देवों के यह में रहकर तुस हमारे वचन को सुनो।
अमृत बरसानेवाले रथ को थोजित करो। देबों के माता-पिता शाबा-
पृथिवी को हमारे पास ले आओो। घुम यहीं रहो। देवों के पास से नहीं
जाना ।
१३ सूक्त
(देवता हृविद्धान नामक शकटद्वय। ऋषि विवस्वान् । छन्द जगती
आर त्रिष्टुपू |)
१. शकटद्वय, प्रायीस ससय में उत्पन्न मंत्र का उच्चारण करके और
सोमादि को लादकर पत्नीशीला के अन्त में तुम दोनों को ले जाता हूँ।
स्तोता को आहुति के समान मेरा स्तोत्रवाक्य देवों के पास जाय । जो देवता
व अमर पुत्र दिव्य धाम में रहते हैं, वे सब सुनें।
२. जब तुम जुड़बें के समान जाते हो, तब देव-पुजक मनुष्य तुम्हारे
ऊपर भरपुर होमद्रव्य झाइते हुँ। तुम लोग अपने स्थान पर जाकर रहो।
हमारे सोम के लिए शोभन स्थान ग्रहण करो।
२. यज्ञ के जो पाँच (वावा, सोम, पशु, पुरोडाश और घत) उपकरण
हँ, यथायोग्य उनको में रखता हूँ। यथानियम चार त्रिष्टुवादि छन्दों का
प्रयोग करता हूँ। ओडार का उच्चारण करके वत्तमान कार्य को सम्पन्न
करता हूँ। यज्ञ की नाभि-स्वरूप वेदी पर में सोम का संशोधन करता हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२२७
४. देवों में से किसे मृत्य-भवन में भेजा जाय? प्रजा में से किसे अमर
किया जाय? यज्ञकर्ता लोग अंत्र-पु्त यज्ञ का अस् ष्ठान करते हैं, जिससे
यम हमारे (यजमानों के) शारीर को भत्यु-मुख में नहीं भेजते ।
५. स्तोता लोग पितु-स्बरूप और प्रशंसनीय सोस के लिए सातों छन्दों
का उच्चारण करते हुँ । पुत्र-स्वरूष पुरोहित लोग स्तुति करते हुँ। दोनों
शकट, देव और मनुष्य, दोनों के लिए दीप्ति पाते हैं, कार्य करते हें और
देवों तथा भनुष्यों का पोषण करते हूँ ।
१४ सूक्त
(देवता पितृलोक, यम आदि । ऋषि ववस्वत यम । छन्द अनुष्टुप्
ब्रहती ओर त्रिष्टुप् |)
१. अन्तःकरणं व यजशान, तुम पितरों के स्वामी यम की, पुरोडाश
आदि फे द्वार परिचर्या करो। यम सत्कर्मानष्ठाताओं को सुख के देश में
ले जाते हे, वे अनेकों का मागे परिष्कृत करते हे ओर उनके पास ही सारा
सानव-ससुदाय जाता हुँ।
२. सबमें मुख्य यम हमारे शुभाशुभ को जानते हैं। यम के माग
का कोई विनाश महीं कर सकता। जिस पथ से हमारे पूर्वज गये हें, उसी
माग से अपने-अपने कर्मानुसार सारे जीव आयेंगे।
३. अपने सारथि (सातली) के प्रभु इन्द्र कव्यवारे पितरों की सहायता
से बढ़ते हें। थमं अङ्गिरा नामक पितरों की सहायता से बढ़ते हैं। ओर
बहस्पति ऋक्व नासक पितरों की सहायता से बढ़ते हैं। जो देवों को
संवद्धंता करते हैं और जिनकी संवद्धना देवता करते हँ, सो सब बढ़ते
` हुँ। कोई स्वाहा के हारा और कोई स्वधा के द्वारा प्रसन्न होते हैं।
४. यस, अङ्गिरा नामक पितरों के साथ इस विस्तृत यज्ञविद्येष में
आकर बैठो। „ऋत्विकों के मंत्र तुम्हें बुलावें। राजन्, इस हवि से संतुष्ट
होकर यजमान को प्रसन्न करो।
१२२८ हिन्दी-ऋष्वेद
५, यम, माना रूपोंबाले याज्ञिक आङ्गिरा लोगों के साथ पधारो और
इस यज्ञ में यजमान को प्रसञ्ञ करो। तुम्हारे विवस्वान् नामक पिता को
में इस यज्ञ में बुलाता हुँ। बह कुशों पर बेठकर यजमान को प्रसन्न करें।
६. अड्धिरा, अथर्वा और भृग् नामक पितृगण अभी-अभी पधारे हें ॥
वे सोम के अधिकारी हैँ। यज्ञ-्योग्य उन पितरों की अनुयह-बुद्धि मे हमा
रहें। हम उनकी प्रसञ्चता प्राप्त कर कल्याण-मार्गी बने ।
७. जहाँ हमारे प्राचीन पितामह आदि गये हे, उसी प्राचीन साग से,
हे (मृत) पितः, जाओ। स्वधा (असृताञ्च) से प्रहृष्ट-मना राजा यम तथा
वरुणदेव को देखो ।
८. पितः, उत्कृष्ठ स्वर्गं में अपने पितरों के साथ मिलो। साथ ही
अपने धर्मानुष्ठान के फल से भी मिलो । पाप को छोड़कर अस्त (ब्रियमान)
मामक ग्रह में पंठो ओर उज्ज्वल शरीर से मिलो ।
९. इसशानघाट पर स्थित पिशाचादिको, इस स्थान से चले जाओ,
हट जाओ, दुर होओ। पितरों ने इस मृत यजमान के लिए इस स्थान को
बनाया हैं। यह स्थान दिवसों, जल-इारा और रात्रि के द्वारा शोभित हे ।
यस ने इस स्थान को मृत व्यक्ति को दिया हुं।
१०, मृत पितः, चार आँखों और विचित्र बर्णवाले ये जो दो कुक्कुर
हें, इनके पास से शीघ्र चले जाओ। जो सुविज्ञ पितर यम के साथ सदा
आसोद के साथ रहते हें, उत्तम मग से उन्हीं के पास जाओ।
११: यस, तुम्हारे गृह के रक्षक, चार आँखोंवाले, मागे के रक्षक और
सनुष्यों के द्वारा प्रशंसनीय जो दो कुक्कुर हें, उससे इस मृत ब्यक्ति की
रक्षा करो। राजन्, इसे कल्याणभागी और मीरोगी करो।
१२. लम्बी ताकोंबाले, दूसरों का प्राण-भक्षण करके तुप्त होनेवाले,
मनुष्यों को लक्ष्य करके विचरण करनेषाले और बिस्तृत बलवाले जो दो
यस-बूत (कुवकुर) हँ, वे आज यहाँ हमें, सुर्य के दर्शन के लिए, समीचीन
प्राण दें।
हिन्दी-ऋग्वेद १२२९
१३. ऋत्विको, यम के लिए सोम प्रस्तुत करो। यस के लिए हवि का
हवन करो। जिस यज्ञ के दूत अग्नि हें और जिसे नाना द्रव्यो से समन्वित
किया गया है, बह यज्ञ बस की ओर जाता हुँ।
१४. ऋत्विको, तुम यम के लिए घृत से युक्त हवि का हवन करो और
यम की सेवा करो। देवों के बीच यम, हमारे दीर्घ जीवन के लिए, लम्बी
आयु दें।
१५. ऋत्विको, राजा यम के लिए अत्यन्त मिष्ट हवि का हवन करो।
हमसे पहले शोभन मार्ग बनानेवाले ऋत्विकों के लिए यह नमस्कार हँ।
१६. यमराज न्रिकट्ुक (ज्योति, गौ और आयु) नामक यज्ञ के अधि-
कारी हँ। यम छः स्थानों (द्युलोक, भूलोक, जल, उद्भिज्ज, उकं और
सुनृत) में रहते हें। वे बिराट संसार में विचरण करते हें। त्रिष्टुप्, गायत्री
आदि छन्दों सें यम की स्तुति की जाती हे।
१५ सूक्त
(देवता पिठ्लोक । ऋषि यमपुत्र शङ्ख । छन्द त्रिष्टुप् शौ
जगती ।) |
१. उत्तम, मध्यम ओर अधस आदि तीन श्रेणियों के पितर लोग हमारे
प्रति अनुग्रहयुकत होकर होमीय द्रव्य का ग्रहण करें। जो पितर हसक
होकर ओर हमारे धर्मानुष्ठान के प्रति दृष्टि रखकर हमारी प्राण-रक्षा
करने के लिए आये हैं, वे, यज्ञ-काल में, हमारी रक्षा करें।
२. जो पितर (पितामहादि) आगे और जो (कनिष्ठ भ्राता आदि)
पीछे मरे हें, जो पृथिवी पर आये हं, अथवा जो भाग्यशाली लोगों के बीच
हें, उन सबको आज यह नमस्कार है।
३. पितर लोग भली भाँति परिचित हैं, सेने उनको पाया है, इस यज्ञ
के सम्पादन का उपाय भी मंने पाया है। जो पितर कुशों पर बैठकर हव्य
के साथ सोमरस का ग्रहण करते हैं, वे सब पधारे हेत
४. कुशो पर बेठनेवाले पितरो, इस ससय हमें आश्रय दो। तुम लोगों
१२३० हिन्दी-ऋग्देद
के लिए ये सारे द्रब्य प्रस्तुत हैं, इनका भोग करो। इस समय आओ। हमारी
रक्षा करो और हमारा उत्तम सङ्कल फरो। हमें झल्याणभागी करो।
हमें अछल्याण और थाप से हूर करो।
५. कुशो के ऊपर ये सारे मनोहर द्रव्य रवखे हुए इ। इनका और
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सोमरस का भोग करने के लिए पितर लोग बुळाथे गये है। बे एघार, हमारी
स्तुति को ग्रहण करें, आह्वाद प्रकट करे और हमारी रक्षा कर।
६. वितरो, तुम लोग दक्षिण तरफ़ घुटने टेककर पृथिवी पर बेठते हुए
इस यज्ञ की प्रशंसा करो। हम मनुष्य हैं; इसलिए हमसे अपराध होना
संभव हे। परन्तु उसके लिए हमारी हिसा नहीं करना।
७. लोहित शिखा के पास बेठनेवाले इन दाताओं को धन दो। पितरो,
उनके पितरों को धन दो--उग्हें इस यज्ञ में उत्साहित करो।
८. जिन सोमयायी प्राचीन पितरों ने उत्तम परिच्छद का धारण
करके, यथानियम, सोस पान किया था, वे भी हवि की अभिलाषा करते
हे--णम भी कामना करते हें। उनके साथ यम सुखी होकर इन होसीय
द्रव्यो का यथेच्छ भोजन करते हें।
९, अग्नि, जो पितर हवन करना जानते थ और अनेक ऋचाओं की
रचना करके स्तोत्र प्रस्तुत करते थे ओर जो, अपने कर्म के प्रभाव से, इस
समय, देवत्व की प्राप्ति कर चुके हें, यदि वे शुधा-दुज्पावाले हों, तो उन्हें
लेकर हमारे पास आओ। वे विशेष परिचित हैं। वे यज्ञ में बेठते ह्। उन
पितरों के लिए यह उत्कृष्ट हबि हृ।
१०. हे अग्नि ! जो साधु-स्वभाव पितर लोग देवों के साथ, एकत्र
होकर, हवि का भक्षण और पान करते हे ओर इन्द्र के साथ एक रथ पर
चढ्ते है, उन सब देवाराधक, यज्ञ के अनुष्ठाता, प्राचीन तथा आधुनिक
पितरों के साथ आओ।
११. अग्नि के द्वारा स्वादित (अरिनव्वात्त नासक) पितरो, यहाँ आओ
ओर एक-एक कर सब लोग अपने-अपने आसन पर बेठो। अभिपुजित पितरो,
कुशों पर परसे हुए शुद्ध हनि का भक्षण करो। अनन्वर पुन्न-पौन् आदि ले
युदत धन हुमें दो।
१२. समस्त संसार के ज्ञाता अग्नि, हसने तुम्हारी स्तुति की हुँ।
तुमने हथि को सुगन्धि करके पितरों को दे दिया हु। पितर लोग स्वधाँ
के साथ दिय गय हुबि का भक्षण कर। देव, तुस भी परिश्रम से प्रस्तुत
किये गय हवि का भक्षण करो।
१३. ज्ञानी अग्नि, यहाँ जो पितर आये हे और जो नहीं आये हुँ,
जिम पितरों को हम जानते है और जिन्हें हस नहीं जानते हें, उन सबको
तुम जानते हो। पितरो, स्वघा के साथ इस सुसम्पन्न यञ्च का भोग करो।
१४, स्वयं प्रकाश अग्नि, जो पितर अग्नि से जलाये गये है ओर जो
नहीं जलाये गये हें, वे सब स्वर्ग में स्वघा (हवीरूप अश्न) के साथ
आनन्द करते हे। उनके साथ एकत्र होकर तुम हमारे पितरों के प्राणाधार
शरीर को, पथासिलाष, देव-शरीर बनाओ।
१६ सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि यम के पुत्र दमन । छन्द त्रिष्टुप् ओर
अनुष्डुप्।)
१. अग्नि, मृत को सर्वाशतः नहीं भस्म करना। इसे क्लेश नहीं देवा।
इसके शरीर (वा चर्म) को छिन्न-भिन्न नहीं करना। ज्ञानी अग्नि, जिस
समय तुम्हारी ज्वाला से इसका शरीर, भली भाँति, पकता हुँ, उसी समय
इसे पितरों के पास भेज देमा।
२. अग्नि, जिस समय इसके शरीर को भली भाँलि जरान, उसी
समय पितरों के पास इसे भेजना। यह जब दोबारा सजीवता प्राप्त
करेगा, तब देवों के वश में रहेगा ।
३. मत व्यक्ति, तम्हारा नेत्र सूयं के पास जाय ऑर इवास बायु
में । तुम अपने पुण्य-फल से आकाश आ दे पर जाओ । यदि जल मे
१२३२ हिन्दी-त्रहग्वेद
त का जो अंश जनन््म-रहित हं, सदा रहनेबाला हु, अग्नि,
हस उसी अंश को अयने ताप से उसप्स करो। तुम्हारी उज्ज्वलता,
तुम्हारी ज्वाला) उसे उत्तप्त करे। झानी अग्नि, तुम्हारी जो मंगलमयी
लिया हैं, उनके हारा इस व्यक्ति को पुण्यबान् छोगों के देश में खे
५, अग्नि, जो हुम्हारा शाहदि-स्बहप होकर यज्ञीय द्रव्य का भोजन
करता है, उसे पितरों के पास भेजो। इसका जो भाग अवशिष्ट है, बह
जीवन पाकर उठ जाय। ज्ञानी अग्नि, वहु फिर शरीर प्राप्त करे।
६. सृत व्यवित, तुम्हारे शरीर के जिस अंश को काक (कौबे) ने
पीड़ा पहुँचाई हें अथवा चींटी, साँप वा हिल्ल जीब ने जिस अंश को ब्यथा
दी है, उसे सर्बभुक अग्नि नीरोग (व्यथाशून्य) करें। तुम्हारे शरीर में
पेठ जानेबाले सोम भी उसे नीरोग करें।
७. सृत, तुम गोचर के साथ अग्नि-शिखा-स्वरूप कवच को धारण
करो। तस अपने सेद और मांस से आच्छादित होओ। एसा होने पर
बल-पुर्वेक और अहंकार के साथ तुम्हें जलाग को तयार हुए दुद्धं अग्नि
तुम्हारे सर्बाश् मे नहीं ब्याप्त हो सकते।
८. अग्नि, इस खमस को विचलित नहीं करना। यह सोमपायी
देयो को प्रसन्न करता है। देवों के पान करने के लिए जो चमस हे, उसे
देखकर असर देवता हृष्ट हो
९. सांच भोजनकर्सा (तीब्र) अस्ति को में दूर करता हूं। यह
अ्रद्धेय बस्तु का बहन करनेवाले हैं। जिन लोगो के राजा यस हुँ, उन्हों
क्वे पा अ । यहाँ भ एक अध्वि हे। यही विचार फे साथ देवों
के पार हदि ले जायें,
१०. मांसभोममकस
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हिन्दी-ःटग्वेद १२३३
उन्हें मै दुर करता हूँ। दूसरे ज्ञानी अग्नि को में, वितसें को यज्ञ देने के
लिए, ग्रहण करता हूँ । ये ही यज्ञ को लेकर परम धाम में गसन करें।
११, जो अग्नि श्राद्ध के द्रव्य का बढ्न करते और यज्ञ को जञ्चति
करते हूँ, ने देवों और पितरों की आराधना करते और उनके पास
होमीय द्रव्य ले जाते हें।
१२. अग्नि, में तुम्हें यत्न-पूर्यक स्थापित करता हुँ और यत्म-पूर्बक
ही तुम्हें प्रज्वलित करता हूँ। यज्ञाभिलाषी देवों और वितरों के पास
लुम यत्व-पुर्वेक, भक्षण के लिए, होमीय द्रव्य ले जाते हो ।
१३, अग्नि, तुमने जिसे जलाया है, उसे बुझाओ। यहाँ कुछ जल
हो मौर शाखा-प्रशाखाओंबाली दूब उत्पन्न हो। द
१४, पृथिवी, तुम शीतल हो। तुम पर कितने ही शीतल वनस्पति
हैं। तुम आह्वादिका हो। तुम पर अनेक आह्वादक बनस्पति हें। भे की
(मेढ़क की स्त्री) जिससे सन्तुष्ट हो--ऐसी वर्षा ले आओ। अग्नि को
सन्तुष्ट करो।
१७ सूक्त
(२ अनुवाक । देवता सरण्यू, पूषा, सरस्वती, साम आदि । ऋषि
यसपुत्र देवश्रवा। छन्द त्रिष्टुप् , अनुष्टुप् , बृहती आदि ।)
१. त्वष्टा नाम के देव अपनी कन्या सरण्यू का विवाह करनेवाले हैं;
इस उपलक्ष्य में सारा संसार आागया है। जिस समय यभ की साता का
विवाह हुआ, उस समय महान् विवस्वान् की स्त्री अदृष्ट हुई।
२, अमर सरण्यू को सनुष्यों के पास छिपाया गया। सरण्य के सदृश
एक स्त्री का निर्माण करके विवस्वान् को उसे दिया गया। उस समय
अइबरूपिणी सरण्यू ने भड्िबद्वय के गर्भे सें धारण किया और यसज
सन्तान को उत्पन्न किया।
३. ज्ञानी, संसार के रक्षक और अविनष्ट-पश पुषा तुम्हें यहाँ से
फा० ७८
१२३४ हिन्दी-्ग्बेद
उत्तव लोक में ले जाये । अग्निदेध सुण्हें देवों ओर पितरों के पास
ले जायं।
४. सारे संसार के जीवन पुषा तुम्हारे जीवन की रक्षा करें। वे
तुम्हारे गन्तव्य स्थान के अग्न भाग में हुँ।. वे तुम्हारी रक्षा करें। जहाँ
पुण्यवान् हुँ, जहाँ वे गये हें, उसी स्थान पर सबिता (पुषा) तुम्हें ले
जायें ।
५. पुषा सारी दिशाय जानते हँ। वे हमें उसी मागं से ले जायं
जिसमें कोई भय नहीं हे। वे कल्याणदाता हें। उनकी सति आरोक-
वेष्टित हे। उनके साथ सारे बीर पुरुष हें। बे हमें आनते हें। सावधान
होकर ये हमारे सामने आवबें।
६. सारे सार्गो से श्रेष्ठ मागे में पुषा ने दर्शन दिया हे। उन्होंने स्वर्ग
और मर्त्य के श्रेष्ठ पथ में दर्शन दिया है । पुषा की जो दो प्रेयसियाँ (झावा-
पृथिबी) हैं और जो एक साथ रहती हैं, उमको पुषादेव, विशेष समझ
करके, समोरंजन करते हैं।
७. जो देवों के उद्देश्य से यज्ञ करते हँ, वे सरस्वती की पूजा के लिए
आह्वान करते हे। जिस समय देवता का, बिस्तार के साथ, यज्ञ प्रारम्भ
हुआ, उस समय पुष्पात्माओं ने सरस्वती को बुलाया। सरस्वती दाता
की अभिलाषा पुरी करे।
८. सरस्वती, तुभ पितरों के साथ एक रथ पर जाओ। तुम उनके
साथ, आह्लुद-पुदेक, सारे यज्ञीय द्रव्य का भोग करो । आओ, इस यज्ञ भें
आदन्द करो । हूं नीरोग और अञ्न-दान करो।
९, सरस्वती, पितर लोग दक्षिण पाइवे में आकर ओर यज्ञस्थान सें
बिस्तीर्ण होकर तुम्हें बुलाते हें। तुम यज्ञकर्ता के लिए बहुमूल्य और
बिलक्षण अन्नराशि तथा प्रचुर अच्च उत्पन्न कर दो।
१०. जल मातू-स्वरूप हु। बह हमारा शोधन करे। जल घृत-प्रवाह
से प्रवाहित हो रहा है। उसी घृत के द्वारा बह हमारे मल को दूर करे।
हिल्दी-ऋष्वेद १२३५
जरू-छपी देवी सारै पापों को अपने खरोत में बहा ले जायें। जल में से हम
स्वच्छ और पवित्र होकर आते हें।
११, द्रव्य-कप सोमरस अतीव सुन्दर ओर दीप्तिन्शोल अंश से क्षरित
होते हुँ । इस स्थान पर और इसके पूर्वतन स्थान पर अर्थात् आधार पर
सोम क्षरित होते हें। हम सात हवन-कर्सा समान-रूप से आधार के
बीच में विहार करनेवाले उन द्रव्य-हूप सोभ का हुवन करते हैं।
१२. सोम, तुम्हाश जो द्रव्यात्मक रस क्षरित होता हे अथवा तुम्हारा
जो अंशु (खाल) पुरोहित फे हाथ से प्रस्तर-्फलक के पास गिरता हें
अथवा जो पबित्र फे ऊपर स्थापित हुआ है, उन सबका मन ही सन नमस्कार
करते हुए हम हवन करते हैं। |
१३. तुम्हारा जो रस बाहर हुआ है ओर जो तुम्हारा अंशु खक्
नामक पात्र के नीचे गिरा है, दोनों का बृहस्पतिदेव सेचन करें। इससे
हमें धन मिलेगा।
१४. वनस्पति दुग्ध के समान रस से परिपूर्ण हें। हमारा स्तोन्र--
वचन रसमय दुग्ध के सार रस से पुर्ण हुँ। इन तारे पदार्थों से हमारा
संस्कार करो।
१८ सूक्त
(देवता मृत्यु, धाता, त्वश, अग्निसंस्कार आदि । ऋषि यस-पुत्र
संकुसुक । छन्द जगती, गायत्री, पंक्ति, अनुष्ठुप् और त्रिष्ढुप्।)
१. मृत्युदेव, तुम उस मार्ग से जाओ, जो देवयान-माग से दूसरा
है। तुम नेत्रवाले हो और सब कुछ जानते हो। में तुम्हारे लिए कहता
हूँ। हमारे पुत्र, पौत्र आदि को नहीं मारचा। बीरों को भी नहीं मारना।
२. मृत व्यक्ति के सम्बन्धियो, पितृयाव (मृत्यु-मार्ग) को छोडो।
इससे दीर्घ जीवन प्राप्त होगा। यज्ञानुष्ठाता यजमानो, तुम पुत्र, पोत्र,
गौ आदि से युक्त होकर इस जन्म और पूर्व जन्म के पापों से. शून्य होकर
पवित्र बनो।
३. जीवित मनुष्य मृत व्यक्तियों के पास लोट आबें॥ आज हमारा
१२३६ ह्दी-्प्वेव
पितूमेघ-मज्ञ फल्याणकर हो। हम उत्तम रीत से नर्तन और कीड़न
के लिए समर्थ हों। हस दीर्घं आय् पावं।
४. पुन्न, पोत्र आदि की रक्षा फे लिए, मृत्यु के सासने, रोकने के
लिए, पाथाण का में व्यवधान करता हूँ, ताकि सरणसार्ग शीघ्र न आने
धावे। ये सेकडो बर्ष जीवित रहें! शिला-खण्ड से मृत्यु को दूर करो।
५, जैसे दिन पर दिन बीतते हुँ, ऋतु के पचात ऋतु बीतती हे और '
पूर्णकालीन पितरों के रहते आधुनिक पुत्र आवि नहीं मरते, बेसे ही हे
घाता, हमारे बंशजो की आयु स्थिर रकखो--अकाल मत्यु न होने पावे।
६, सुत व्यक्ति के पुत्रादिको, दाड़ंवय प्राप्त करते हुए, आयु में
भधिष्ठित रहो। ज्येष्ठ के पश्यात् कनिष्ठ के ऋस से तुम लोग कार्य में
अवस्थित रहो। शोभन-जन्मा त्वष्टादेव, तुम लोगों के साथ, इस कमं
में प्रवृत्त हुए तुम लोगों की आयु लम्बी करे।
७, ये सधबा और शोभन पतिवाली स्त्रियाँ घृताङजन के साथ अपने
घरों को जायें। अभ्-शून्य, मानस-रोग-रहित ओर शोभन धनवाली
होकर ये स्त्रियाँ सबसे आग घरों में जाथं।
८. शुत व्यक्ति की पत्नी, पुत्रादि के गुह का विचार करके, यहाँ
से उठो। यह तुम्हारा पति मरा हुआ है। इसके पास तुम (व्यर्थ) सोई
हुई हो। चलो; क्योंकि पाणिग्रहण और गर्भ धारण करानवाले पति के
साथ तुम स्त्री-कत्तव्य कर चुकी हो। तुमने इसके प्राण-गसन का निश्चय
कर लिया हँ; इसलिए घर लौट चलो।
९, अपनी प्रजा के रक्षण, तेज ओर बल के लिए में सृत व्यक्ति के
हाथ से धन् लेकर बोलता हूँ। मृत, दुम यहीं रहो। हल वीर पुत्रोंबाले
हों। हम सारे अभिसानी शत्रुओं को जीते ।
१०. मृत, मात्-स्वरूपिणी, विस्तीर्ण, सर्बव्यापिनी और सुखदाची पृथिवी
के पास जाओ। यह यौवन से युक्त स्त्री के ससान तुम्हारे लिए राशीकृत
मेषलोम के सदृश कोसल-स्पर्शा हें। तुमने दक्षिणा दी हे वा यज्ञ किया हे।
बह पृथिवी मृत्य के पास से अस्थि-रूष तुम्हारी रक्षा करें।
हिन्दी-ऋषग्वेद १२३७
११. पृथिवी, तुम इस भूत को उच्चत करके रक्खो। इसे पीड़ा नहीं
देना। इसके लिए शुफप्याएरिफा और सुप्रतिष्ठा होओ। जेसे माता पुत्र
को अञ्चल से ढंकती है, बसे ही, है भूमि, इस अस्थिख्य मूत को आउच्छा:
दित करो।
१२. इसके ऊपर स्तुपाकार होकर पृथिवी भली भाँति अवस्थिति
हों। सहस्र धूलियाँ इसके ऊपर अवस्थिति करे। बे इसके लिए घतपुर्ण
गह के समान हों। प्रतिदिन वे इसके आश्रय हों।
१३. अस्थित-कुम्भ, तुम्हारे ऊपर पृथिवी को उत्तस्थित करके रखता
हूँ। तुम्हारे ऊपर में लोष्ट्र अर्पण करता हूँ, ताकि तुम्हारे ऊपर मिट्टी
जाकर घुम्हें नष्ट न कर सके। इस स्थूणा (खुंटी) को पितर लोग धारण
करें । पितुपति यम यहाँ तुम्हारा वासस्थान कर दें।
१४. प्रजापति, जैसे वाण के मूल में पर्ण (पक्ष) लगाते हुँ, बले ही
प्रतिपुज्य संवत्सर-रूप दिन में मुझ संकुसुक ऋषि को सारै देवौ ने
रक्खा है। जैसे शीघ्रगामी अहव को रस्सी से रोका जाता है, वेते ही मेरी
पुज्य स्तुति को रक्खो।
षष्ठ अध्यापन समाप्त ।
१९ सूक्त
(सप्तम अध्याय । देवता गी । ऋषि यम पु्रसथित । छन्द्
गायत्री और अनुष्टुप्।)
१. गायो, तुम लोग हमारे पास आओ हमारे दिया दुसरे के पास
मत जाओ। धनवती गायो, हमें दुग्ध दान करके सेवित करो। बार-घार
धन देनेवाले अग्नि और सोम, तुम लोग हमें धन दो।
२. इन गायों को बार-बार हमारे सामने करो। इन्हें अपने बश सें
करो। इस भी इन्हें तुम्हारे वह में करें। अग्नि इन्हें उपयोगिती करें।
३. ये गायें बार-बार मेरे पास आवें। ये मेरे वश में होकर पुष्ट हों।
अग्नि, इन्हें मेरे पास रक्ख्रो। यह गोधन मेरे पात रहे।
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४, में गोसहित गोष्ठ की प्रार्थना करता हूँ । यौओ के गृह आने की
प्रार्थना करता हूँ । गोसम्मेलन की भी प्रार्थना करता हूँ। गोचरण को भौ
प्रार्थना करता हूँ। चरकर उनके घर आने की भी प्रार्थना करता हूँ॥
गोपाल की भी प्रार्थना करता हूँ।
५. जो गोपाल (गाये वरानेवाला) चारों ओर गायों की खोज करता
है, जो गायों को घर पर ले आता है और जो गाये चराता हे, पह कुशल”
पूर्वक घर पर लोट आवे ।
६. इन्द्र, तुम हारी ओर होओ। गायों को हमारी ओर करो। हमें
गाये दो। हम चिरञ्जीविनी गायों का दुग्ध भोगें।
७. देवो, मै तुम लोगों को प्रचुर अन्न, घृत और दुग्ध आदि निवेदित
कर देता छुँ। फलतः जो यज्ञ-योग्य देवता हैं, वे हमें गोधन दें।
८. चरवाहा, गायों को सेरे पास ले जाओ। गायो, तुम भी आाओ।
घरयाहा, गायों को लोटाओ। गायो, छौट आओ। सुक्तकर्सा ऋषि, सें
कहाँ से रौटाऊं ? हम कहाँ से लोटे? (उत्तर--) चारों दिशाओं से
गायों को लोटाओ। गायो, तुम भी इन दिशाओं से लौट आओ।
२० सूक्त
(देवता अग्नि। ऋषि प्रज्ञापति-पुत्र विमद्। छन्द विराट,
अनुष्टुप्, ष्टुप् आदि ।)
१. अग्नि, हमारे मन को शुभ करो--अपने स्तोत्र के योग्य करो।
२, हवि का भोग करनेवाले देवों में कनिष्ठ, अतीव युवक, सबके मित्र
और दुद्धषे अरिन की में स्तुति न करता हूं । बछड़े गोस्तन का आश्रय करके
प्राणं धारण करते हें।
३. कर्माधार और ज्वाला-छप अग्नि को स्तोता लोग वर्धित करते
हैं। अग्नि स्तोताओं को अभीष्ट फल देनेवाले हैं ।
४. अग्नि यजमानों के लिए आश्रयणीय हेँ। जिस समय अग्नि दोष्त
डकर ऊपर उठते हें, उस समय मेधावी अग्नि दुलो तक व्याप्त
कर लेते हे--मेघ को भी व्याप्त कर लेते हें।
हिन्दी-ऋग्वेद १२३९
५. यजमान के यज्ञ में हवि का सेवन करंभेवाले अग्नि, अनेक
ज्वाजाओं से युक्स होकर ऊपर उठते हें। अग्नि उत्तर बेदी को मापते
हुए सामने जाते हँ।
६. ये ही अग्नि सबके पालन के कारण हैं, यज्ञ भी बे ही हैं, पुरोडाइ
आदि भो हैं। अग्नि देवों को बुलाने के छिए जाते हैं।
७. जो अग्नि देवों ओ बुलानेवाले है, जिन्हें लोग पत्थर का पुत्र
कहते हें और जो यज्ञ के धारक है, उत्कृष्ट सुखं की प्राप्ति के लिए उन्हीं
अग्नि की सेवा करने की में अधिकूया करता हूँ ।
८. पुरोडाश आदि के द्वारा अग्नि का संवर्धन करनेवाले जो इमारे
पुत्र, पौत्रादि हैँ, वे संभोग-योग्य पशु आदि धन में बेठंगे, ऐसी हसं आशा.
करते हूँ।
९. अग्नि के जाने के लिए जो बृहत् रथ हे, वह कृष्ण-बर्ण, शुञ्रवर्ण,
सरल-गस्ता, रक्तबर्ण और बहुमूल्य वा कीत्तिशाली है। सुवर्ण के सदृश.
उज्ज्बल करके बिधाता ने उसे बनाया हूँ ।
१०. अग्नि, बल या वनस्पति के पुत्र हो। तुस असर घन से युक्त हो।
अपनी प्रकृष्ट बृद्धि की इच्छा करनेवाले विसद नाम के ऋषि ने तुम्हारे
लिए ये स्तोत्र कहे हं। तुम इन उत्कृष्ट स्तुतियों को प्राप्त करके विमद
को, अन्न, बल, शोभन निवास और जो कुछ देने योग्य हें, सो सबै
धन दो।
२१ सूक्त
(देवता ओर ऋषि पूदेवत् | छन्द आस्तार-पंक्ति--प्रत्येक मन्त्र
में पहले के दा चरण गायत्री ओर अन्त के दो चरण
जगता ।)
१. अयनो बनाई स्तुतियों से देवाह्वाता अग्नि को, बिस्तृत कुशंबाले यज्ञ
के लिए, हम वरण करते हें। अग्नि, लुम महान् हो। बनस्पतियों में रहने-
वाले और शोधक-दीप्ति ज्वाळा को विसद के लिए प्रेरित करो।
२. अग्नि, दीप्त और व्याप्द-घन यजमान तुम्हें सुशोभित करते हे ।
१२४० हिन्दी-त्रटग्वेद
क्षरणशील और सरलगवि आहुति, अग्निदेव, तुम्हारे पास तृप्ति के लिए
जातौ इं । बुम महान् हो।
३. यज्ञ फे थारक आस्विक लोग होस-पात्रों से बेसे ही तुम्हारी सेवा
करते हें, जैसे जल पृथिवी को सींचता हें । आग्नि, देवों के मद के लिए
तुस कृष्णयर्ण ज्वालाङपी और सारी शोभा को धारण करते हो। घुम
सहान् हो।
४. अभर और खली अग्नि, तुम जिस धन को थेष्ठ समभते हो,
उस विचित्र धन को, अश्च-लाभ के लिए, हमारे निमित्त ले आओ। लुम
समस्त देवों की शुप्ति के लिए धन ले आओ। तुम महान् हो।
५. अथर्बा ऋषि से अग्नि को उत्पन्न किया था। अग्नि सब प्रकार
के स्तोत्र फो जानते है। अग्मि, तुम देवाह्वाम के लिए यजमान फे बूत
हो। अग्मि यजसान के प्रिय हेँ। अग्नि, तुम कमनीय और महाम् हो।
६. अर्म, यज्ञ का आरम्भ होने पर ऋत्विक और यजमान तुम्हारी
स्तुति करते हँ । अग्नि, तुम हविर्दाता विमद के लिए सब प्रकार फे धन
वेते हो। इसलिए तुस महान् हो।
७. अग्नि, तृप्ति के लिए होता, रमणीय, आहुत से पूर्ण मुखबाले,
जाज्वल्यमान और व्यापक तेज के कारण ज्ञानी तुम्हें यजमान लोग यज्ञ
में नियमतः स्थापित करते हे। तुम सहान् हो।
८. अग्नि, तुम महान् हो। प्रदीप्त तेज से तुम प्रसिद्ध होते हो। तुम
समर-समय सें दापत वृष के समान शब्द करते हो। तुम भगिनी-सदृश
ओषधियों में बीज धारण करते हो। सोमादि का सद उत्पन्न होने पर
तुस सहान् होते हो।
२२ घूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विमद । छन्द॒ बृहती, त्रिष्दुप ओर अनुष्टुप् ।)
' १, इन्द्र जाल कहाँ प्रख्यात हे? आज वे, सित्र के सनान, किस
ध्यक्षित के पास हें? इन्द्र क्या ऋषियों के आश्रम वा किसी गुहा में
ह्युत किये जाते हुँ?
हिन्दी-ऋष्वेद १२४१
२. आज इस यश सं इन्द्र प्रख्यात दु। आज हम उनकी स्ठति करले
ह्। इन्द्र वज्पथर ओर स्तुत्य हैं। इन्र स्तोताओं सें मित्र फे समान,
साधारण रूप से, कीसि करनेवाले हैं।
३. जो इन्र बल-पति, अनन्तगुण और स्तोताओं के लिए महान् अन्न
के दाता हें, वे शत्रुओं को रणड़नेवाले बञ् के धारक हें। जैसे पिता प्रिय
पुत्र को रक्षा करता हैं, बंसे ही इन्द्र हमारी रक्षा करें।
४. वज्यधर इन्द्र, तुम ्योतमान हो वायुदेव से भी शीघ्र जानेवाले
ओर उचित मार्ग से जानेवाले अपने हरि नामक अइवो को रथ में जोतकर
ओर युद्ध-पथ को उत्पन्न करके सदा स्तुत होते हो।
५. इन्द्र, तुम स्वयं उन वायु-वेग-तुल्य और सरल-गामी भइवों को
चलाकर हमारे अभिमुख जाते हो। देवों में से कोई भी ऐसा नहीं है, जो
तुम्हारे इन दोनों घोड़ों का संचालन कर सके और इनके बल को
जान सफे।
६. इख और अग्नि, जिस समय तुम अपने स्थानों को जाने लगे, उस
समय भार्गव उशना ने तुससे सम्भाषण किया--तुस लोग किस प्रयोजन
से, इतनी बुर से हमारे यहाँ आये हो? (मेरे विचार से) तुम लोग चुलोक्क
ओर भूलोक से जो मेरे यहाँ आय हो, बह केवल तुम लोगों का अनुग्रह है।
७. इन्द्र हुसने इस यज्ञ की सामग्री प्रस्तुत की हं। तुम जब तक तुप्त
नहीं होओ, तब तक उसका भक्षण करो। हस तुमसे अन्न और उस्का
रक्षण चाहते हैं। तुमसे हम वैसा बल भी चाहते हँ, जिससे राक्षसों का
बिनाश हो सके।
८. हमारी चारों ओर यञ्ञ-शून्य दस्युदल हे। बह कुछ नहीं माता,
थृत्यादि कर्मों से शत्य हैं और उसकी प्रकृति आसुरी है। शत्रु-ताशक
इन्द्र, इस वस्यू-जाति का विनाश करो।
९, विक्रान्त इन्द्र, तुम शूर मरुतों के साथ हमारी रक्षा करो। तुमसे
रक्षित होकर हम शत्रु-विनाश में समर्थ हों। जसे समुप्य अपने स्वामी
ध फे लिए उसे चेष्टित करते हँ, बसे ही हन्हारे दिये प्रर पदार्थ
` स्तोसाओं को वेष्टित शले हुं ॥
१०. बञ्त्रधर इन्द्र, बच्च-बंध फे लिए लु
प्रेरित करते हो, जिय समय तुल स्तोता क
ऽति, सुन्दर स्तोत्र सुनसे हो।
११. शुर और बच्धवर इन्द्र, दाच करना ही तुम्हारा कर्म हे
क्षेत्र में बहुत शीघ्र दुष्दारा कर्म होता हैं। तुये भरतों के साथ शुष्ण के
सारे वंश का विसा कर डाला है ।
१२. श्र इन्द्र, हमारी ये सहती यासमायें बथा सं होने पा्वें। बद्ापर॑
इन्द्र, हमारी सारी छालसाएँ फलयती होकर सुखकरी हों।
१३. हमारे लिए तुस्हारा अनग्रहु हो ताकि हमारी हिसा नष्टो।
जसे लोग गाय के दूध आदि का भोग करते हँ, बैसे ही हुम तुम्हारे प्रसाद
का फल भोगें।
१४. देबों की क्रिया के द्वारा यह पृथिवी हुस्त-पाव-शन्या होकर चारों
ओर बढ़ी हं। पृथिवी की प्रदक्षिणा करफे और चारों ओर गमन करके
तुमने शुष्ण नामक असुर की हिसा की है।
१५. शूर इन्द्र, सोम का शीघ्र पान करो। इन्द्र, तुम घनी हो।
प्रशस्त होकर तुम हमारी हिंसा नहीं करना। तुम स्तोता यजमान की रक्षा
करना। हुम प्रचुर घेन से धनी बनाओ।
प्रसि यस्सो को उस सभं
ययो का, गक्षत्रयासी देवों के
उ
है
an
1
२३ सूक्त
(देवता ओर ऋषि पववत् । छन्द त्रिष्टुप् अभिसरणी (दो चरण
सं-द्स अक्षरों के और अन्त के दो बारह-बारह चरणों के)
तथा जगतो ।)
१. जो इन विविध कर्म-झुशल ओर हरितवर्ण अशवों को रथ में
जोतते हैं ओर जिनके दाहिने हाथ में वज्र है, हम उनकी पुजा करते हें।
सोम्पान के अनन्तर इन्द्र अपने शनभ (मूंछ, दाढ़ी) को हिलाकर और
हिल्दी-ऋण्वेद १३४
विस्तृत सेना तथा अन्न लेकर विपक्षियों का संहार करने के लिए ऊपर गये
वा प्रकट हुए। |
२. इन्द्र के हरितवर्ण दो अइवों नें बन में बढ़िया घास खाई है। इन
दोनों को लेकर और प्रचुर धन से धनी होकर इन्द्र ने वत्र कों नष्ट किया।
इन्द्र विराट्-शूस्, बलो, दीप्तिशाली और धन के अधिपति हें। में दस्वू
जाति का नाम तक नष्ट कर देना चाहता हूँ।
३. जिस समयं इन्द्र सुवर्णमय वस्त्र का धारण करते हैं, उस समय वह
उसी रथ पर, विद्वानों के साथ, चढ्ते हें, जो रथ हरितवर्णवाले दों अइवीं के
साथ जाता है। इन्द्र चिरप्रसिद्ध घनी और सर्वजन-विदित अंज्लराजिं के
स्वामी हँ।
४. जसे वृष्टि पशु-समूह को भिगोती हुँ, वैसे ही इन्द्र हरिंतवर्ण सोमरस
के द्वारा अपनी मूँछ-दाढ़ी को भिगोते हे। अनन्तर वह शोभन यज्ञ-गुह में
जाते हें और वहाँ जो मधुर सोमरस प्रस्तुत रहता हें, उसे पीकर अपनी
मूँछ-दाढ़ी को उसी प्रकार हिलाते हे, जिस प्रकार वायु वन को हिलाती हू ।
५. शत्रु लोग नाना प्रकार के वचन बोल रहे थे। इन्द्र ने अपने वचन से
उन्हें चुप करके शतसहस्र शत्रुओं का संहार कर डाला। जैसे पिता, अन्न
देकर, पुत्र को बलिष्ठ करता है, बेसे ही वह मनुष्यों को बलिष्ठ करते हूँ ।
हम इन्द्र की इन शक्तियों का बखान करते हें।
६. इश्द्र, विभदवंशीयों ने तुम्हें अंतीब प्रतिष्ठित जानकर तुम्हारे लिए
अतीच विलक्षण और अतीव विस्तृत स्तुति बनाई है। हम जानते हे कि
राजा इन्द्र की तृप्ति का साधन क्या हूँ। जैसे चरवाहा गो फो खाने का
लोभ दिखाकर उसे अपने पास बुराता हुँ, बैसे ही हम भी इन्द्र को बुलाते हैं ३
७. इस, तुम्हारे और विमंद ऋषि के साथ जो सब सत्री का बन्धन
हुँ, यह शिथिल न होले पावे। देव, जेसे जाता और भगिनी सं सन को
एकता है, वेसे ही तुम्हारे मन का ऐक्य हम जानते हैँ। हमारे साथ तुम्हारा
कर्याणकर' बन्धुत्व स्थिर रहे।
१९४४ हिन्दी-ऋगेद
२४ सत्त
(दवता इन्द्र और अशिवद्वय । ऋषि विमद । छन्द अनुष्टुप्
ओर आास्तारएङ क्ति |)
१. इन्द्र, प्रस्तर-फलकों के ऊपर रगड़ाजाकर यह मधुर सोमरस, तुम्हारे
लिए, तैयार है। पियो। प्रचुर धनवाले इन्द्र, हमें सहुल्ञ-संस्यक प्रचुर धन
दो। विमद के लिए तुम महान् हो।
२. इन्द्र, यज्ञीय सामग्री, स्तुति और होमीय वस्तु के एरा हम तुम्हारी
आराधना करते हुँ। तुम सारे कर्मो के प्रभु हो। सारे क सफल करते हो।
अतीव उत्तम ओर अभिलषित वस्तु हमें दो। विमद के लिए तुम महान् हो।
३. तुम विविध अभिलषित वस्तुओं के स्वामी हो। तुम उपासक को
उपासना-का्ं में प्रेरित करते हो। तुम स्तोताओं के रक्षक हो। तुम हमें
शत्रु के हाथों से और पाप से बचाओ।
४, कर्म-निष्ठ अदिवद्वय, तुम्हारा कार्य अद्भुत हें। तुम सत्यरूप हो।
जिस समय विमद ने तुम्हारी स्तुति की थी, उस समय काठों में घर्षण करके
और दोनों ने एकत्र होकर अरिन-मस्थन किया था--पृथक्-पृथक् नहीं ।
५, अश्विद्ठय, जिस समय दोनों अरणि (अग्नि-मन्थन-काष्ठ), तुम्हारे
हाथों से संचालित होकर, इकट्ठे हुए और अग्नि स्फुलिग बाहर करने लगे,
उस समय सारे देवता तुम्हारी प्रशंसा करने लगे। देवता लोग अझ्विद्ठय को
बोलने लग, “फिर एसा करना।”
६. अशिवद्वय, मेरा बाहर जाना प्रीतिकर हो। मेरा पुनरागमन भी
बेसा ही मधुर हो--मे जब जहाँ जाऊ, प्रीति प्राप्त करूें। दोनों देव, अपनी
दिव्यशक्ति के बल से हमें सभी विषयों में सन्तुष्ट करो।
२५ सुक्त
(देवता साम । ऋषि विमद । छन्द॒ आस्तार-पङि,क्त |)
९, सोस, हमारे सन को इस प्रकार उत्तम रूप से प्रेरित करो कि, वह
निपुण ओर कमंनिष्ठ हो। जेसे गाये घास में रत होती हें, बैसे ही स्तोता
लोग अञ्न के प्रति रत होते हें। विसद के लिए तुम मह् हो।
हिन्दी-ऋग्वेद क् १९४५ |
२. सोम, पुरोहित लोग स्तुति के द्वारा तुम्हारे चित्त का हरण करके
चारों ओर बेठते हँ। धन-प्राप्ति के लिए मेरे सन में नाना प्रकार की
कामनायें उत्पन्न होती हैं। बिमद के लिए दुम महान् हो
३. सोम, अपनी इस परिणत बृद्धि के द्वारा में तुम्हारे कार्य का परिसाण
करके देखता हूँ। जेसे पिता पुत्र के प्रति अनुकूल होता है, वैसे ही तुम हमारे
लिए होओ। शब्रु-संहार करके हमें सुखी करो। विम्द के लिए महान् हो।
४. सोख, जेसे कलश जल निकालने के लिए कुएँ के भीतर जाता है,
बेसे ही हमारे सारे स्तोत्र तुम्हारे लिए जाते हे। हमारी प्राण-रक्षा के लिए
इस यज्ञ को सुसम्पञ्च करो। जेसे जल-पिपासु तीर के पास पान-पात्र धारण
करता हुँ, बेसे ही तुम धारण करो। तुम महान् हो।
५. विविध-फलाभिलाषी सारे धीर व्यक्तियों ने अनेक प्रकार के
कार्य करके तुम्हारा परितोष किया हू; क्योंकि तुम महान् और मेधावी
हो। फलतः तुम गो ओर अइव से युक्त पशुशाला हमें दो। तुम
महान् हो।
६. सोम, हमारे पशुओं की रक्षा करो ओर नाना मूर्तियों में स्थित
विशाल भुबतों की रक्षा करो। हमारे प्राण-धारण के लिए सारे भुवनों
1 अन्वेषण करके जीवनोपाय ले आ देते हो। विमद के लिए तुम
महान् हो।
७. सोम, तुम सब प्रकार से हमारे लिए रक्षक होओ; क्योंकि तुस
दुद्धंष हो। राजा सोम, शत्रुओं को दूर कर दो। हमारा निन्दक हमारा
कुछ न करने पावे। विमद के लिए तुम महान् हो।
८. सोम, तुम्हारा कार्य अतीब सुन्दर है। दुभ हमें अन्न देने के लिए
सतक रहते हो। हमें भूमि देने के लिए तुम्हारे सदृश कोई नहीं हु । अनिष्ट-
कर्ताओ के हाथ से हमारी रक्षा करो। पाप से भी बचाओ। तुम महान् हो।
९. जिस ससय भयंकर युद्ध उपस्थित होता हे और अपनी सन्तानों का
उसमें बलिदान करना पड़ता हे और जिस समय योद्धा शत्रु चारों ओर से
हमें, युद्ध के लिए बुलाते हें, उस समय, हे सोम, तुम इन्द्र के सहायक होते हो,
हिन्दी-क्रश्वेद
१०. सोस सारे कार्यों मे क्षिप्रकारी हैं। वह सदकर और इन्द्र के तर्पक
हैं। सोम ने महामेधाची कक्षीवान् ऋषि की बुद्धि को बढ़ाया था। विमद
के लिए तुम महान् हो।
११. सोम मेधावी ओर ह॒विर्दाता यजसात को पशु-युक्त अन्न देते हुँ।
यही सोख सातो होताओं को श्रेष्ठ धन देते हें। सोम ने अंधे दीर्घतमा
ऋषि को नेत्र और छॅगड़े परावुण ऋषि को पैर दिये थे। विमद के लिए
झहान् हो।
२६ सूक्त
(देवता पूषा । ऋषि विमद । छन्द उष्णिक् ओर अनुष्टुप ।)
१. अतीव उत्कृष्ट स्तोत्र प्रस्तुत किये गय हें। उन सबका पुषादेब
के प्रति प्रयोग किया जाता है। वे श्रेष्ठ देव सदा रथ को जोतनेवाले
हूँ। वे आकर यजमान और उसकी पत्नी की रक्षा करें।
२. मेधावी यजसान पुषा (सूर्य) के मण्डल मे जो जल का भाण्डार हुँ,
उसे, यज्ञ के द्वारा, पृथिवी पर ले आवें। पुषादेव यजमान का स्तोत्र सुनते हें ॥
३. पूषादेव सोम के समान रस का सेचन करनेवाले हें। वे उत्तम
स्तोत्र सुनते हे। सुशोभित पूषा जल का सिचन करते हें। हमारे गोष्ठ में
भी जल का सिचन करते हे।
४, पुषादेव, हम मन ही मन तुम्हारा ध्यान करते हे। तुम हमारे
स्तोत्र की स्फूति कर दो। तुम्हारी सेवा के लिए पुरोहित लोग व्यस्त रहते हे।
५. पुषा यज्ञ के अर्द्ांश के भागी हे। वे रघ में घोड़े जोतकर जाते
हैं। वे मनुष्यों के परम हितंषी हें। वे बुद्धिशाली के बन्धु हें। वे
उसके शत्रुओं को दूर कर देते हु।
६, गर्भाधान करन में समर्थ और सुन्दर सूचि छागी और छाग आदि
पशुओं के प्रभु पुषा हें। वे ही मेषलोम फा वस्त्र (कम्बल) बुनते हे और
बे हो वस्त्र धो देते हैं।
हिग्दी-क्रस्वेध १२४७
७. प्रभु पूषा असच के अधिपति हँ--प्रभु दूषा सबके लिए पुष्टिकर
हूं। घ हो सम्पत्ति और वुद्ध पुषा कीड़ास्थल में अपनी मूँछ-दाढ़ी को
केपाने रूगे ।
८. पुषादेव, छाग तुम्हारे रथ की घरी का बहल करने लगे। तम
अनफ सलय पहले जनसे थे। तुन कभी भी अपने अधिकार से बंचित नहीं
हुए। सारे याचफको की मनःफासना पूर्ण करते हो।
९. ये ही महीयान् पुथादेव अपने बल के हारा हमारे रथ की रक्षा करें।
बे अस-बुद्धि करें। बे हमारे इस नि्ंत्रण के प्रति कर्णपात करें।
२७ सर
(देवता इन्द्र । ऋषि इन्द्र पुत्रु वसुक्क । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. (इन्द्र की उक्ति) --भक्त स्तोता, मेरा यह स्वभाव हुं कि, सोस”
यज्ञ के अनुष्ठाता यजमान को में अभिलवित फल देता हूँ । जो म्े होमीय
द्रव्य नहीं देला, वह सत्य को नष्ट करता है। जो चारों ओर पाप करता
फिरता हूँ, उसका में सर्वनाश करता हूँ।
२. (ऋषि का कथन )--जो लोग देवानुष्ठान नहीं करते और केवल
अपने उदर का पोषण करते हुँ--जिस समय ऐसे लोगों के साथ में युद्ध
करने जाता हूं, उस समय, इन्द्र, तुम्हारे लिए, पुरोहितों के साथ, स्थूलकाय
घृषभ का पाक करता हूँ। मं पन्द्रह तिथियों में से प्रत्येक तिथि को (अथवा
ज्रिबुत्पञ्चदशस्तोत्रों से युक्त माध्यन्दिन सवन को) सोसरस प्रस्तुत
करता हु ।
३. (इन्द्र की उक्ति)--मेंन एता किसी को भी नहीं देखा, जो थह
कहे कि, मेने देवशून्य ओर देवकर्मशून्य व्यक्तियों को संग्राम में मारा हेत
जिस समय युद्ध में जाकर में उनका संहार करता हूँ, उस समय सब उस
बीरत्व का, विस्तारित रूप से, वर्णन करते हे ।
४, जिस समय में अनजानते सहसा युद्ध में प्रवृत्त होता हें, उस समय
सारे ऋषि मुझ घर छेते हें। प्रजा के मंगल के लिए में सत्र विहार
१२५८ हिन्दी-चदग्दे
५. युद्ध न युझ्े निरुद्ध करनेवाला कोई नहीं है। णवि में चाह, तो
पर्वत भी मेरा निरोध नहीं कर सकें। जिस समय सें शब्द करता हें,
उस समय जिसका कान बबिर हैं, वह भी डर जाय अर्थात् उसके भी कर्ण-
कुहर में वह शब्द पहुँच जाय । और तो और, किरणमाली दु तक प्रतिदिन
कापते है।
६- में इन्द्र हूँ। मुझे जो लोग नहीं मानते, जो लोग देवों के लिए
प्रस्तुत सोमरस बलपूर्वक पी डालते हैं और जो बाहें भाजते हुए, हिसा
करने के लिए, आते है, उनको में धुएन्त देख लेता हुँ । में महान् हूँ; में सबका
मित्र हूं। जो लोग मेरी निन्दा करते हैं, उनके लिए मेरे बच्च का प्रहार
होता हं।
७. (ऋषि का कथन) ~--इन्दर, तुमने दर्शन दिया; वृष्टि भी बरसाई।
तुमने सुदीर्घं आयु प्राप्त की है। तुसने पहले भी शत्र-बिनाश किया था;
पश्चात् भो किया था। इन्द्र सारे विश्ब के अपर पार में हुँ; सर्वव्यापक
दावापुथिवी उनको नहीं साप सकते।
८, (इन्द्र की उब्ति)--अनेक गायें इकट्ठी होकर यब (जो) खा रही
हैं। में इन्द्र हूँ; स्वामी के समान में गायों की देख-भाल करता हुँ। में देखता
हैं कि, वह चरयाहों के साथ चर रही हैं। बुलाने के साथ ही बह गायें
अपने स्वामी के पास पहुँच गई। स्वामी ने गायों से प्रचुर दुध का दोहन
कर लिया हुँ ।
९. (ऋषि की व्यापक अनृसूति)--संसार में जो तृण खानेबाले हें,
बह् हम ही हैं। जो अन्न व यव खातेवाले मनुष्य हें, बह भी हम ही हूँ ।
बिस्तृत हृदयाकाश में जो अन्तर्यामी ब्रह्म है, बह में ही हूँ । हृदयाकाश सें
रहबैवाले इन्द्र अपने सेवक को चाहते हे । योग-शूम्य और अतीब विषयी
पुरुष को इन्द्र सन्मार्ग में ऊुगाते हु।
हिन्दी-त्रशवेद १२४९
१०. (इन्द्र का कथन)--में यहाँ जो कहता हु, वह सत्य हु---विइचय
जासो। द्विपद (मनुष्य) और चतुष्पद (पशु) -सबक्ी सृष्टि में करता हुँ,
जो व्यक्ति स्त्रियों के साथ पुरुष को युद्ध करने को भेजता हे, उसका धन;
बिना युद्ध के ही, हर कर में भवतों को दे देता हेत
११. जिस-किसी की भी अन्धी कन्या को कोन बुद्धिमान् आश्रय देगा ?
जो उसका वहन करता हुँ और जो उसका वरण करता हे, उसकी हिसा
कोन करेगा ?
१२. कितनी एसी स्त्रियाँ हें, जो केवल द्रव्य से ही प्रसन्न होकर स्त्री
चाहनेवाले पुरुष के अपर आसक्त होती हें। जो स्त्री भव्र व सभ्य हें, जिसका
शरीर सुसंगठित हुँ, वह अनेक पुरुषों सें से अपने मन के अनुकूल प्रिय पात्र
को पति स्वीकृत करती हैं |
१३. सुय्यदेव किरण के द्वारा प्रकाश का उद्गिरण करते हें, अपने
संडल में स्थित प्रकाश का ग्रास करते हें और अपने मस्तक को इकनेवाली
किरणों को लोगों के मस्तको पर फेंकते हुँ। ऊपर स्थित होकर वह अपने
पास सें प्रकाश फेकते हें और नोचे पृथिवी पर आलोक का विस्तार
करते हें। | i
१४. जेसे पत्र-हीन वृक्ष की छाया नहीं रहती, वैसे ही इन प्रकाण्ड
अर थदिवरणशीरल सूर्यं को छाया नहीं हे। चुलोकस्वरूप साता स्थिर
होकर बोलौ-- सूर्दसवरूप गर्भस्थ शिशु पृथक् होकर दुग्ध का पान करते
हूँ। यह (चुलोक-रूपिणी) गाय दूसरी गाय (अदिति) के बछड़े को,
प्रेस के साथ, घाटकर स्थापित करती है। इस गाय ने अपने स्तन को रखने
का स्थान कहाँ पाथा? क
१५. इन्द्र-रूप प्रजापति के शरीर से विश्वामित्र आदि सात ऋषि
उत्पन्न हुए। उनके उसरी शरीर से बालखितय आदि आठ उत्पन्न हुए।
पीछ से भयु आदि नो उत्पन्न हुए। अध््कारा आदि इस आगे से उतझ हुए ।
ये भोजन (गरज्ञांश का सक्षण) करनेवाले झुलोक के उन्नत प्रदेश की संबद्धा
करचे लगे।
फा० ७९
१२५० हिन्दी-ऋण्वेद
१६. दस अङ्िरा लोगों में एक पिङ्कारवर्णवाले (कपिल) हैं। उन्हें
यज्ञ की साधना के लिए प्रेरित किया गया। सन्तुष्ट होकर माता ने जळ
में गर्भाधाव किया।
१७. प्रजापति के पुत्र अज्धिश लोगों ने मोद-मोद मेष (अज) को
पाया। पाशा-क्रीडा-स्थान में पाश फेके गये। इनमें से दो प्रकाण्ड धनु
लेकर, मंत्रोप्वारण के द्वारा, अपने शरीर को शुद्ध करते-करते, जल के
बीच विचरण करने लगे।
१८, चीत्कार करनेवाले ओर नाना गति अङ्गिरा लोग प्रजापति से
उत्पन्न हुए । उनमें आधे लोग, प्रजापति के लिए, हवि का पाक करते हें और
आधे नहीं। इन बातों को सूर्यदेव ने मुझसे कहा है। काष्ठान्न और
घ॒तौदन अग्नि प्रजापति का भजन करते हें।
- १९. देखा, अनेक लोग दूर से आते हें। बे स्वयंसिद्ध आहार के
द्वारा प्राण को धारण करते हें । उनके प्रभु दो-दो व्यक्तियों को योजित
करते हें। उनकी अवस्था नई हें । वे तुरंत शत्र-संहार करते हूँ ।
२०. मेरा नाम प्रमर वा सारक हे । मेरे ये दो वृषभ योजित हुए
हैं। इनकी ताड़ना सत करो । इन्हें बार-बार सान्त्वना दो । इनका धन
जल सं नष्ट होता हूँ । जो बीर गायों का झोधन करना जानता हैँ, वह
ऊपर उठता हें।
२१. यह वञ्च प्रकाण्ड सूर्य-मंडल के नीचे, घोर वेग से, नीचे
गिरता हँ । इसके अनन्तर और भी स्थान है । जो स्तोता हे, वे अना-
यास उस स्थान का पार पा जाते हें।
२२. प्रत्येक वृक्ष (काष्ठ-निमित धनुष) के ऊपर गौ अर्थात् गौ के
स्तायु से निर्मित प्रत्यञ्चा शब्द करती हुँ । शन्रु-भक्षण-करी वाण निकलते
हें। इससे सारा संसार डरता है । सब लोग इन्द्र को सोम देते हें । ऋषि
भी उसकी शिक्षा प्राप्त करते हें।
२३. देवों के सृष्टि-काल में प्रथम मेघ देखे गये । इन्द्र ने मेध का
छेदन किया, जिससे जळ निकला । पर्जन्य, वायु और सूर्य--ये तीन
हिन्दी-ऋग्वेद १२५१
उद्भिज्जों का परिपाक करते हँ । वायु और सूये प्रीतिकर जल का वहन
करते हु ।
२४. सूर्य ही तुम्हारे (ऋषि के) प्राणाधार हैं। यज्ञ के समय सूर्थ
के उस प्रभाव का वर्णन और स्तवन करना। सुर्य ने स्वर्ग का प्रकाश
किया हुँ । सूर्य शोषण करते हैँं। वे परिष्कारक हैं बे अपनी गति का
कभी त्याग नहीं करते ।
२८ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि वसुक्र । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. (इन्द्र के पुत्र वसु को स्त्री कहती है)--इन्द्र के अतिरिक्त
सारे देवता हमारे यज्ञ में आये हें। केवल मेरे शवशुर इन्द्र नहीं आये ।
यदि वे आय रहते, तो भुना हुआ जो खाते और सोम पीते । आहारादि
करके पुनः अपने घर लोट जाते ।
२. (इन्द्र का कथन)--तीखी सींगवाले वृषभ के समान शब्द करते-
करते भें पृथिवी के उन्नत और विस्तीणं प्रदेश में रहता हुँ। जो मुझे भर
पेट सोम पीने को देता हे, मे उसकी रक्षा करता हूं ।
३. इन्द्र, अन्न-कामना से जिस समय तुम्हारे लिए हुवन किया जाता
हुँ, उस समय यजमान शी्र-शी घ्र प्रस्तर-फलकों पर मदकर सोम प्रस्तुत
करते हें । उसका तुम पान करते हो। यजमान वृषभ पकाते हूँ; तुम
उनका भक्षण करते हो ।
४. इन्द्र, तुम मेरी एसी सामर्थ्य कर दो कि, सेरी इच्छा होने पर
नदी का जल विपरीत दिशा में बहने लये, तिनका खानेवाला हरिण सिह
को पराङ् मुख करके उसके पीछ-पीछे दौड और शृगाल बराह को बन से
अगा दे।
५, से अपरिपक्व-बुद्धि हूं । तुम प्राचीन ओर बुद्धिमान् हो। मेरी
शक्ति कहाँ कि, में तुम्हारा स्तोत्र कर सकू। किन्तु समय-समय पर
तुस हमें उपदेश देते हो; इसलिए तुम्हारा स्तोत्र ऊछ-कुछ कर सकते हें ।
१२५२ (छहुल्दी-ऋग्वेद
६. (इन्द्र की उक्ति)--में प्राचीन हुँ । स्तोता लोग भेरी इस
प्रकार की स्तुति करते हें कि, मेरा कार्य-भार स्वर्ग से भी बड़ा है । में
एक ही साथ सहस्राधिक दात्रुओं को दुर्बल कर डालता हुँ । मेरे जन्मदाता
ने मेरा जन्म ही एसा किया हे कि, सेरा शत्रु कोई नहीं टिक सकता।
७. इन्द्र, देवता लोग मुझे तुम्हारे ही समान प्राचीन, प्रत्येक कर्म
वें शर और अभीष्ट फल के दाता समझते हुं। आह्वाद के साथ मेंने
बज्न के द्वारा वृत्र (असुर) का वथ किया हूं । मेंने अपनी महिसासे
दाता को गोधन दिया हुं ।
८. देवता लोग जाते हें। मेघ वध के लिए वच्च धारण करते हैं ।
जल गिरातते हुँ। मनुष्यों के लिए जल बरसाते हें । नदियों में उस
सुन्दर जल को रखते हं । बे जहाँ मेघ सं जल देखते हें, उसे जलाकर
जल निकाल देते हे ।
९. इन्द्र के चाहने पर शशक भी आते हुए सिह आदि का सामना
करता हुँ और दूर से एक लोष्ट्र (ढेला) फॅककर में पर्वत को भी तोड़
सकता हूं । क्षुद्र के बशा में महान् भी आ जाता हे ओर बछड़ा भी, बढ़-
कर, महोक्ष (साँड़) के साथ लडन को जाता हे
१०. जसे पिजड़ में बंधा सिह चारों ओर अपना पर रणड़ता हे, बसे
ही इथंन पक्षी अपना मख रगड़ने लगा | इनक की इच्छा होने पर यदि
सहर तुषातुर होता है, तो उसके लिए गोधा (गोह) भी पानी लेः
आता हे ।
११. जो यज्ञीय अञ्न के द्वारा अपना पोषण करते हु, उनके लिए
गोधा अनायास जल ले आ देता हुँ। वे सब प्रकार के रस से युक्त सोम
को पीते और शत्रुओं की देह तथा बल का विध्वंस कर देते हें ।
१२. जिन्होंने सोमरस का यज्ञ करके अपनी देह को पुष्ट किया हुँ,
वे "उत्तम कर्म के कर्सा” कहे जाकर सुकमं से युक्त होते हे । इन्द्र, तुझ
मनुष्यों के समान स्पष्ट वाक्य का उच्चारण करके हमारे लिए, अन्न छे
आते हो; क्योंकि दिव्य धाम में तुम्हारा दानवीर” नाम प्रसिद्ध है ।
हिन्दी-ऋ्वेद १२५३
१९ पूक्त
(देवता इन्द्र ऋषि वसुक्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. शीघ्रगामी अध्विदय, यह अतिशय निर्मल स्तोत्र तुम्हारे लिए
जाता हें । जसे पक्षी, भय के साथ, चारों ओर देखते-देखते अपने बच्चे
को वृक्ष के घोंसले में रखता है, बैसे ही मेंने यत्नपूर्वक इस स्तोत्र में प्रस्तुत
किया हुँ । कितने ही दिन मै इसी स्तोत्र से बुलाता हूँ और दे आकर
यज्ञ सम्पन्न करते हुँ। वे नेताओं के भी नेता हें। वे मनुष्य के हितेषी
हूं। थे रात्रि में सोम का भाग ग्रहण करते हें ।
९. इन्द्र, तुम नेताओं के भी नेता हो । आज प्रातःकाल और अन्यान्य
_प्रातःकालो में हम तुम्हारी स्तुति कर उत्तम बे । तुम्हारा स्तोत्र करके
त्रिशोक नामक ऋषि ने सौ मनुष्यों की सहायता पाई थी और कुत्स
नामक ऋषि तुम्हारे साथ एक रथ पर चढ़े थे।
३. इन्द्र किस प्रकार की मत्तता तुम्हं अतिशय प्रसच्ता-कारक हे ?
हुमारा स्तोत्र सुनकर महावेग से तुम यज्ञ-गृह के द्वार की ओर आओ । मै
कब उत्तम वाहन पाऊंगा ? तुम्हारी स्तुति से कब में अन्न और अर्थ
अपनी ओर खींच सकूँगा ? | |
४. इन्द्र, कब धन होगा ? किस स्तोत्र का पाठ करने पर तुम
सनुष्यों को अपने समान करोगे? कब आओगे ? कीत्तिशाली इन्द्र,
तुम यथार्थ बन्धु के समान सबका भरण-पोषण करते हो। स्तव करने
से ही तुम भरण-पोषण करते हो ।
"५ जेसे पति अपनी पत्नी की कामना पुर्ण करता है, बैसे ही जो
तुम्हारी कामना पुणं करता है (इच्छान्रूप यज्ञ करता है), उन्हें यथेष्ट धन
दो । क्योंकि तुस सुर्य के समान दाता हो । हे अनेक रूय-धारी, जो लोग
चिरप्रचरित स्तुति-वचनों का तुम्हारे लिए पाठ करते और अन्न देते हैं,
उन्हं धन दो ।
€. इन्द्र, प्राचीन समय में अतीव सुन्दर सृष्टि-प्रक्रिया के द्वारा विर-
चित यह जो चावापृथिवी हु) वे तुम्हारी साता के सदृश हुँ। जो घृत-
१२५४ हिन्दी-ऋणग्वेद
युक्त सोमरस प्रस्तुत किया गया हे, उसे पीकर प्रसन्न होओ। मधुर
रस से युक्त अन्न तुम्हारे लिए सुस्वादु हो ।
७. इन्द्र वस्तुतः धनदाता हुँ; इसलिए इन्द्र के लिए पात्र पूर्ण करके
सधुर सोमरस दो । इन्द्र पृथ्वी से भी बड़े हैं । वे भगुष्यों के हितेषी हें।
उनका कार्य और पौरुष विस्मयकर हँ ।
८. शोभन बलवाले इन्द्र ने शत्रु-सेना को घेर डाला । उत्कृष्ट शत्रु
सैनिक इन्द्र से मैत्री करने की चेष्टा करते हँ । इन्द्र, जेसे संसार के कल्याण
के लिए, बुद्धिमान् व्यक्ति के समान, लुम मुद्ध के लिए रथ पर् चढ़ा
करते हो, बंसे ही इस समय भी रथपर चढ़ो ।
३० सूक्त
(३ अनुवाक । देवता जल । ऋषि ईलूप-पुत्र कवष । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. मन के समान शीघ्र गति से सोमरस, यज्ञ-काळ सें देवों के लिए
जल की ओर जायं । मेरे अन्तःकरण, मित्र और बरुण के लिए विस्तृत
अञ्न (सोम-रूप) का पाक वा संशोधन करो ओर तीव्र वेगवाले उन इन्द्र
के लिए सुन्दर रचनावाली स्तुति करो ।
२. पुरोहितो, होमीय द्रव्य (हवि) फा आयोजन करो । तुम्हारे
लिए जल स्नेह-युषत हो । जल की ओर तत्परता के साथ जाओ । लोहित-
वर्ण पक्षी के समान यह जो सोम नीचे गिरता हें, है सुन्दर हाथोंवाले,
उसे तरंग के रूप में यथा स्थाम फंको ।
३. पुरोहिलो, जल के समुद्र में जाओ। "आपांगपात्” देवता को
होमीय द्रव्य के द्वारा पूजित करो । आज बे तुम्हें स्वच्छ जल की तरंग
प्रदान करें। उनके लिए सधुर सोम प्रस्तुत करो ।
४. जो काष्ठ-जल के भीतर जलते हे और यज्ञ-काल में विप्र लोग
जिसकी स्तुति करते है, वे ही आपांनपात् देवता एसा सुरस अल दें, जिसका
पान करके इन्द्र बलशाली होकर वीरता प्रकट करे ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२५४
७५. जिन जलों में सिलकर सोम अतीव विस्मयकर हो जाते हें, जैसे
पुरुष सुन्दरी युवतियों से मिलने पर आनन्दित होते हें, वैसे ही उन जलो
के साथ मिलने पर सोम आनन्दित होते हँ । पुरोहितो, ऐसे ही जल लाने
को जाओ । जल लाकर सेचन करने पर सोम-लता शोषित होती है ।
६. जिस समय कोई युदा पुरुष, प्रेम के साथ, प्रेम से पूर्ण युवतियों
की ओर जाते हुँ, उस समय जसे युवलियां उस युवा के प्रति अनुकूल होती
हे, वैसे ही जल सोम के प्रति अनुकल होते हें। पुरोहितों और उनके
स्तोत्रों से जलस्वरूप देवों का विशेष परिचय है। दोनों अपने-अपने कार्यो
की ओर वृष्टि रखते हं ।
७. जलगण, तुम्हारे रोके जाने पर जो तुम्हें निकलने के लिए मागे
देते है और जो तुम्हें विषम निरोध से छड़ाते हें, उन्हीं इन्द्र के प्रति
मध्-पूर्ण और देवों के लिए सत्तता-जनक तरंग प्रेरित करो ।
८. क्षरणशील जल, तुम्हारे लिए गर्भस्वरूय और मधुर रस से युक्त
जो प्रज्वण हुँ, उसकी मधुर तरंग को इन्द्र के पास प्रेरित करो । धनशाली
जल मेरा आह्वान सुनो । मेरे आह्वान में यज्ञ के लिए घृतदान किया जाता
हूँ और तुम्हारा स्तोत्र किया जाता हँ ।
९. जळ, तुम्हारी जो तरंग इस लोक और परलोक के लिए हितकर
होती हुँ, उसी मदकारक तरंग को इन्द्र के पान के लिए प्रेरित करो ।
ऐसी तरंग भेजो, जो सद क्षरण करे, जो कामना बढ़ावे, जिसकी उत्पत्ति
आकाश में हे और जो तीनों लोकों में विचरण करते हुए ऊपर उठ
जाती हुँ ।
१०. जो इन्द्र जल के लिए युद्ध करते है, उनकी आज्ञा से जल नाना
क्षाराओं में बार-बार गिरकर सोम के साथ मिलता है। जल संसार को
माता के सदृ ओर संसार की रक्षिका के समान हैं । वह सोम के साथ
मिलता है, वह आत्मीय हे । ऋषि, ऐसे जल की बन्दना करो ।
११. जल, देखो के यज्ञ के लिए हमारे यज्ञ-कार्य में सहायता करो ।
१२५६ हिन्दी ऋ!”वेद
घन-प्राव्ति के लिए हमारे पास पवित्रता प्रेरित करो । यज्ञानुष्ठान के
समय अपने दुग्ध-स्थान का द्वार खोलो । हमारे लिए सुखकर होओ ।
१२. जरू तुम धन के प्रभु-स्वरूप इस कल्याणमय यज्ञ को सम्पन्न
करो और अमृत ले आओ । धन ओर उत्तम सन्तानों के रक्षक होओ ।
स्तोता को सरस्वती घन दें । |
१३. मे देखता था कि, जरू, तुम आते समय घृत, दुग्ध ओर मधु ले
आते थे । पुरोहित लोग स्तुति के द्वारा तुमसे संभाषण करते थे।
उत्तम रूप से प्रस्तुत सोम को तुम इन्द्र को देते थे ।
१४, सब प्रकार का जल आ रहा हे। यह धन का आधार
और जीव के लिए हितप्रद हँ । पुरोहित बन्धुओ, जल की स्थापना
करो । जल बृष्टि के अधिष्ठाता देवता के चिरपरिचित हँ । यह सोमरस
के अनकूल ह । जल को कुश के ऊपर स्थापित करो ।
१५. तत्परता के साथ जल कुश की ओर आता हं । देखो, जल
देवों फे पास जाने के लिए यज्ञ-स्थान सं बठता हे। पुरोहितो, इन्द्र के
लिए सोम प्रस्तुत करो । इस समय जल आने पर तुम्हारी देव-पुजा
सुसाध्य हुई हें ।
३१ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि कवष । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१, हमारा स्तोत्र देवों के पास जाय। यज्ञ-देवता सारे शत्रुओं से हमे
बचावें । उन देवों के साथ हमारी मंत्री हो। हम सारे पापों से छूटे ॥
२. मनुष्य सब प्रकार के धन की कामना करे, सत्य-मार्ग से पुण्या-
नुष्ठान में प्रवृत्त हो, अपने कमं से कल्याणभागी बने और मन में सुख
प्राप्त करे ।
३. यज्ञ-कार्य का प्रारम्भ किया गया हुँ । सारे यज्ञीय द्रव्य, आवश्य-
कतानुसार छोटे-बड़े करके, रषखे गये हैं । वे द्रव्य सुदुश्य और रक्षण के
हिन्दी-ऋग्वेद १२५७
साधन हें। अभिषुत सोध का आस्वादन हमने किया हुँ। देदता लोग
स्वरूप से ही यह सब जाननेवाछे है ।
४. अविनाशी प्रजापति दाता का अन्तःकरण धारण करके कृपा करें।
यज्ञकर्ता को सविता-देव शुभ फूल दें। भग और अर्यमा स्तुति के द्वारा
प्रसञ्ञ होकर स्नेह-युक्त हों। शेष सुन्दर म॒त्ति सारे देवता यजमान के
लिए अनुकूल हों ।
५. स्तोता के पास स्तोत्र पाने की कामना से जिस समय देवता लोग,
कोलाहल करके, महावेग के साथ, आते हे, उस समय, प्रातःकाल के
समान हमारे लिए पृथिदी आलोकमयी हुई । सुखदाता नानाविध अन्न
हमारे पास आवें । |
. ६- हमारा स्तोत्र इस समय चिरपरिचित विशाल भाव धारण करके
सारे देवों के पास जाने के लिए विस्तृत होता है। हमारे इस यज्ञ में
समस्त देवता समान स्थान पर अधिकार करके नानाविध शुभ फल देले के
लिए आवें । इससे में बलशाली बनँगा ।
७. वह कोन वन और वह कोन वृक्ष है, जिससे उपादान लेकर इस
युलोक और भूलोक का निर्माण किया गया है ? प्राचीन दिन और उषा
जीणं हो गये हें; परन्तु द्यावापृथिदी परस्पर संयुक्त है, एक भाव में
स्थित हे, न जीं हें, न पुरातन ।
८. दुलोक और भूलोक ही अन्तिम नहीं हुँ; इनके ऊपर भी और
कुछ है । वह (ईश्वर) प्रजा का बनानेवाला और द्यावापृथिवी का धारण
करनेवाला हुँ । वह अन्न का प्रभु है। जिस समय सूर्य के घोड़ों ने सूर्य
का वहन करना प्रारम्भ नहीं किया था, उसी समय उसने अपने शरीर का
निर्माण किया था।
९. किरणधारी सूर्यदेव पृथिवी का अतिक्रम नहीं करते और बायु
धृष्टि को अतीव छिन्न-भिन्न नहीं करते। मित्र तथा वरुण, प्रकट होकर,
१२५८ हिन्दी-ऋग्वेद
घन के बीच उत्पन्न अग्नि के समान चारों ओर प्रकाश को विस्तारित
करते हूं ।
१०, रेतःसेक पाकर जेसे वृद्धा गाय प्रसव करती हं, बैसे ही अरणि
(अग्निसन्थन काष्ठ) अग्नि को उत्पन्न करती है। अरणि संसारका
क्लेश दूर करती है । जो अरणि की रक्षा करते हैं, उनको कष्ट नहीं
होता । अग्नि दोनों अरणियों के पुत्र हे--उन्होंन प्राचीन समय में अरणि-
स्वरुप माता-पिता से जन्म ग्रहण किया था । यह जो अरणि-स्वरूप गाय
है, वह शमी वृक्ष (शमी पर उत्पन्न अश्वत्थ वृक्ष) पर जन्म ग्रहण करती
` हैं। उसकी खोज की जाती हैं ।
११. कण्व ऋषि को नुसद का पुत्र कहा गया हे । अन्न-युक्त और
हयामवर्ण कण्व ने धन ग्रहण किया था । उन्हीं इयामवर्ण कण्व के लिए
अग्नि से अपने रोचक रूप को प्रकट किया था । अग्नि के लिए कण्व के
अतिरिक्त किसी ने भी वेसा यज्ञ नहीं किया था।
३२ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि कवष । छन्द जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. यज्ञ-कर्ता इन्द्र का ध्यान करता हँ । उसकी सेवा ग्रहण करने
कै लिए इन्द्र अपने अइवों को यज्ञ की ओर प्रेरित करते हें। हरि नाम
के दोनों अश्व विचित्र गति से आ रहे हें। प्रसन्न मन से यजसान उत्त-
सोत्तम सामग्री देता हं--इन्द्र भी उत्तम-उत्तम वर लेकर आ रहे हँ।
जिस समय इन्द्र सोमरस और आहारीय द्रव्य का आस्वादन पाते हुँ, उस
समय हमारे स्तोत्र और होसीय द्रव्य (हवि आदि) का ग्रहण करते हूँ ।
२. बहुतों के द्वारा स्तुत इन्द्र, तुम प्रकाश विस्तार करते-करते
विभिन्न स्वर्गीय धामों में विचरण करते हो । तुम ज्योति लेकर पृथिवी
पर आगमन छिया करते हो । तुम्हारे दो घोड़े तुम्हें जो यज्ञ में ढो ले आते
है, वे हमें धनी करें; क्योंकि हमारे पास धन नहीं है। घन के लिए ही
_ हस यहु सब प्रार्थना-वचन उच्चारित करते हे ।
हिन्दी-क्रग्वेद १२५९
३. अन्म ग्रहण करके पुत्र पिता से जो धन प्राप्त करता है, वह
अतीव चमत्कारी धन है। इन्द्र मुझे देने की कामना करें। मीठे बचनों
से पत्नी स्वामी को अपने पास बुलाती है । भली भाँति प्रस्तुत होकर
सोमरस उस पुरुषार्थ-युक्त के पास जाता है।
४. स्तुद्ि-झपिण गायं जिस स्थान पर मिलती हैं, उस स्थान को,
अपनी उज्ज्वल प्रभा के द्वारा, आलोकमय करो । स्तोत्रों की प्राचीन
और पूजनीय जो माता (गायत्री) है, उसके सात छन्द (सात महाव्या-
हृतियाँ) उसी स्थान पर हुँ ।
५. देवों के पास जो अश्नि जाते हुँ, वे तुम्हारी भलाई के लिए
दिखाई वेते हें । वे अकेले ही रुद्रों के साथ ज्ोघ्र अयने स्थान पर जाते
हँ। अमर देवतागण के बल का ह्लास होता हे; इसलिए बन्मु-बान्धों
सते युक्त होकर इन्र के लिए यज्ञीय मधु (सोम) ढाल दो। तब ये लोग
घर दंग ।
६. देवों के लिए जो पुण्यामष्ठान होता है, विद्वान् इसर उसकी रक्षा
करते हें । इन्द्र मे कहा है कि, अग्नि जल में मिग्ढ़-रूप से हें। अग्नि,
उसी उपदेश के अनुसार में तुम्हारे पास आया हूं ।
७. यदि कोई किसी माग को नहीं जानता, तो उसे जो व्यक्ति जानता
हें, उसी से उसे पूछता हुँ । ज्ञाता व्यक्ति से जानकर वह अभीष्ट स्थान
पर पहुँच सकता हुं । अभिज्ञ के कथनानुसार यदि तुम जल को खोजो,
तो जहाँ जल हँ, वहाँ पहुँच सकते हो ।
८. आज ही ये (गोवत्सरूप) अग्नि उत्पन्न हुए हें, कुछ दिनों से
क्रमशः वृद्धि प्राप्त कर रहे हैं, जननी का स्तन पी चुके हुँ। युवावस्था के
साथ ही बुढ़ापा आगया हे। बे सरलकर्मा, धनाढ्य और मनःप्रसाद-
सम्पन्न हुए हुँ ।
९. सर्वकला-परिपु्णं और स्तुतियों के श्रोता इन्द्र, तुम धन देते
हो । तुम्हारे लिए ये स्तुतियाँ रची गई हँ । पुजनीय स्तोतू-रूष धनवालो,
१२६० हिन्दी-ऋहग्बेद
तुम्हारे लिए इन्र दाता हों और जिस सोम को में हृदय सं धारण करता
हूँ, बे भी दाता हों ।
` सप्तस अध्याय समाप्त ॥
३३ सूक्त
(अष्टम अध्याय । देवता कुर श्रवण, मित्रातिथि आदि। ऋषि
ऐलूघ कवष । छन्द त्रिष्टुप् आदि ।)
१. जो देवता सबको कर्मो में लगाते हें, उन्होंने मुझे प्रेरित किया ।
सेने मार्ग में पुषा का वहन किया । विइवदेवों ने मुझ कवष की रक्षा
की । चारों ओर हल्ला मचा कि, दुर्दषं ऋषि आ रहे हें ।
` २. सपत्नियों के समान मेरी पँजरियाँ (पाइर्वास्थियाँ) मुझे दुःख
चेती हें । दुर्बद्धि मुझे क्लेश देती हुँ । में दीन, हीन और क्षीण हो रहा
हैं। पक्षी के समान मेर! मन चञ्चल हो रहा है ।
३. इन्द्र जसे चूहे स्नायु को खाते हैं, बसे तुम्हारा भकत होने पर भी
सेरी मनोव्यथा मुझे खा रही हे । घनी इन्द्र, एक बार हमारे ऊपर फुपा-
कटाक्ष करो । हमारे पित् तुल्य रक्षक बनो ।
४, सें कवष ऋषि हूँ । में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण राजा के पास
याचना करने गया था; क्योंकि वे श्रेष्ठ दाता हें।
५. मेरी दक्षिणा सहस्रसंख्या में दी जाती थी और सब उसकी
इलाघा करते थ । सेरे रथ पर चढ़ने पर तीन हरित-वर्ण घोड़े, भली भाँति
घहन करते थ ।
. ६. मेरे पिता की कौत्ति दृष्टान्त देने का स्थल थी । पिता का वचन,
सेवकों के निकट, रमणीय क्षेत्र के समान प्रसन्नता-कारक होता था ।
७, उपसश्चवस, तुम भित्रातिथि के पुत्र हो। मेरे पास आओ । में
मित्रातिथि का स्तोता हूँ । शोक मत करो । देने योग्य धन मुझे दो ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२६१
८. यदि में असर देवों और मरणशील मनुष्यों का स्वामी होता,
तो धनवान् मित्रातिथि अवश्य जीवित रहते । GE
९. एक सो प्राण रहने पर भी देवों के अभिप्राय के विरुद्ध कोई नहीं
जीवित रह सकता । इसी से हमारे सहचरों ले हमारा बियोग हुआ
करता हुँ ।
३३ सूक्त
(देवता अक्त (जुआ खेलने का पाशा वा कौड़ी अथवा बहेरै के
काठ की गोली) ओर यतकार (जुआड़ी)। ऋषि कवष । छब्द
| जगती और त्रिष्टुप |) ॥
१. बड़े-बड़े पासे जिस समय नक्रशे (पासा खेलने के स्थान ) के ऊपर
इधर-उधर चलते हे, उस समय उन्हें देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता हें ॥
सूजवान् पर्वत पर उत्पन्न उत्तम सोमलता का रस पीकर जैसे प्रसन्नता
होती हैं, वेसे ही बहेरे (वृक्ष) के काठ से बना अक्ष (पासा ) मेरे लिए
प्रीति-प्रद और उत्साह-दाता हुँ ।
२. मेरी यह रूपवती पत्नी कभी मुझसे उदासीन नहीं हुई, न कभी
मुझसे लज्जित हुई । वह पत्नी मेरी और मेरे बन्धुओं की विशेष सेवा-
शुशूषा करती थी। किन्तु केवल यासे के कारण मैंने उस परम अनुरागिणी
भार्या को छोड़ दिया । |
३. जो जुआड़ी (कितव) जुआ खेलता हँ, उसकी सास उसकी निन्दा
करती हुँ और उसकी स्त्री उसे छोड़ देती है | जुआड़ी किसी से कुछ
मांगता है, तो उसे कोई नहीं देता । जैसे बढ़े घोड़े को कोई नहीं खरी-
दता, वेसे ही जुआड़ी का कोई आदर नहीं करता ।
४. पासे का आकर्षण बड़ा कठिन हे। यदि किसी के धन के प्रति
अक्ष (पासे) की लोभ-दृष्टि हो जाय, तो पासेवाले की पत्नी व्यभिचा-
रिणी हो जाती हे । जुआड़ी के माता, पिता और सहोदर आता कहते
हे-- हम इसे नहीं जानते; जुआड्यो, इसे पकड़कर ले जाओ ।”
१२६२ हिन्दी-ऋग्वेद
प्. जिस समय में इच्छा करता हूँ कि, में अब नहीं पासा खेलूँगा,
उस समय साथी जुआड़ियों के पास से हट जाता हू। किन्तु नक्रशे पर पीले
पासों को देखकर नहीं ठहरा जाता । जैसे श्रष्टा नारी उपपति के पास
जाती हँ, बैसे ही में भी जुआड़ियों के घर जाता हूं ।
६. जुआड़ी अपनी छाती फुलाकर कूदता हुआ जुए के अड्डे पर आता
और कहता हैँ कि, “में जीतूंगा”। कभी-कभी पासा जुआड़ी की इच्छा
पुरी करता हे ओर कभी विपक्ष के जुआड़ी के लिए वह जो कुछ चाहता
है, वह सब भी कभी सिद्ध हो जाता हैं ।
७. किन्तु कभी-कभी वही पासा बेहाथ हो जाता हे--अंकुश के समान
चुभता है, वाण के सदृश छेदता है, छरे के समान काटता हे, तप्त
पदार्थ के समान संताप देता है । जो जुआड़ी विजयी होता हे, उसके लिए
पासा पुत्रजन्म के समान आनन्द-दाता होता हें, मधुरिमा से युक्त होता
है और मानो मीठे वचनों से सम्भाषण करता हें; किन्तु हारे हुए जुआड़ी
को तो प्रायः मार ही डालता हैं।
८. तिरेपन पासे नक्शे के ऊपर मिलकर विहार करते हे--मानो
सत्य-स्वरूप सुयंदेव संसार में विचरण करते हैं कोई कितना बड़ा उग्र
क्यों न हो; परन्तु पासा किसी के वदा में नहीं आ सकता । राजा तक
पासे को नमस्कार करते हे ।
९. पासे कभी नीचे उतरते हे ओर कभी ऊपर उठते हें। इनके
हाथ नहीं हे; परन्तु जिनके हाथ हें, वे इनसे हार खाते हें। ये श्री-
सम्पन्न हैं; जलते हुए अंगारे के समान ये नक्शे के ऊपर बेठे हुँ। ये छूने
में ठंढे हें; किन्तु हृदय को जलाते हूँ ।
१०. जुआड़ी को स्त्रो दीन-हीन वेश में यातना भोगती रहती हूं,
पुत्र कहाँ-कहाँ घूमा करता हं--एसा सोचकर जुआड़ी की माता व्याकुल
रहा करती हुँ । जो जुआड़ी को उधार देता है, यह इस संदेह में रहता
हें कि, “मेरा धन फिर मिलेगा वा नहीं ॥” जुआड़ी बेचारा दूसरे के घर
मं. रात काटा करता हुँ।
हिन्दी-ऋषग्वेद १२६३
११. अपनी स्त्री की दशा देखकर जुआड़ी का हृदय फटा करता हे ॥
अन्यान्य स्त्रियों का सौभाग्य और सुन्दर अट्टालिका देखकर जुआड़ी को
सन्ताप होता हैं । जो जुआड़ी प्रातःकाल घोड़े की सवारी कर आता है,
घही सन्ध्या-स्य, दरिद्र के समान जाड़े से बचने के लिए आग तापता
हँ--शरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता।«
१२. पासो, तुम्हारे दल में जो प्रधान, सेनापति वा राजा के समान
है, उसको में अपनी दसों अँगुलियाँ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। में सच्ची
बात कहता हूँ कि में तुम लोगों से अर्थ नहीं चाहता ॥
१३. जुआड़ी, कभी जुआ नहीं खेलना; खेती करना । कृषिसे जो
कुछ लाभ हो, उसी से सन्तुष्ट रहना--अपने को कताथ समझना । इसी
से स्त्री प्राप्त करोगे ओर अनेक गायें भी पाओगे। प्रभु सूर्यदेव वे मुझ
से ऐसा कहा हँ ।
१४. पासो (अक्षो), हमें बन्धु जानो; हमारा कल्याण करो ॥
हमारे ऊपर अपने दुद प्रभाव का प्रयोग नहीं करना । हमारा शत्रु ही
तुम्हारी कोप-दृष्टि में गिरे। दूसरे तुम में फंसे रहें ।
२५ सूक्त
(देवता विश्वदेवगण। अषि धनाक-पुत्र लूश। छन्द त्रिष्टुप
ओर, जगती |)
१. अग्नि जाग गये । उनके साथ इन्द्र ह । जिस समय प्रभात अन्ध-
कार को विदेश में भेजता हुँ, उस समय अग्नि, आलोक धारण करके
जलते हैँ । विशाल मृत्ति युलोक और भूलोक चंतत्य-युक्त हों। में
प्रार्थना करता हूँ कि, देवता आज हमें बचाव ।
२. हम प्रार्थना करते हें कि, द्यावापृथिवी हमारी रक्षा करे । जननी
के समान नदियाँ और कुरुक्षेत्र के निकटस्थ पर्वत हमारी रक्षा करें। सूर्य
और उषा से यही प्रार्थना हें कि, हस अपराधी न हों। जो सोम प्रस्तुत
किये जाते हैं वे हमारा मंगल करें।
१२६४ हिन्दी-ऋषग्वेद
३. छाया विकी हमारी माता के सम हम इन दोनों महान्
देवों के निकट निरपराधी रहें। वे हमें सुख के लिए बचावं। उषादेवी,
अधिकार का विनाश करके, हमारे पापों का मोचन करें। प्रदीप्त अग्नि
के पास हम कल्याण की भिक्षा करते हे ।
€, घनवती, सख्या और पाशों को दूर भगानेवाली उषा हमें उत्तम
धन दें। हम उसका भाग कर ले। हम दुष्टों के क्रोध से दूर रहें।
प्रज्णलित अग्नि से हुम कल्याण की भिक्षा चाहते हैं ।
५, जो उषायें, सुर्येनकिरणों के साथ सिलकर और आलोक का धारण
करके अन्धकार का विनाश करती हैं, वे हमें आज अञ्च दें! प्रज्वल्ति
अग्नि से हुम कल्याण की भिक्षा माँगते
` ६. रोग-शुन्य उबायें हमारे पास आवें । महान् प्रकाश से युक्त
अग्नि भी ऊपर उठे । हमारे पास आने के लिए अश्विद्वय भी क्षिप्रगामी
रथ सें अपने दोनों घोड़ों को ओते । प्रदीप्त अग्नि से हम कल्याण क
शिक्षा साँगते हँ । | क्
७, सुयेदेव, आज हमें अतीव उत्कृष्ट धन-भाग वितरित करो; क्योंकि
तुम कामना पुर्ण करनेदाले हो । हम वसे स्तोत्र पढ़ते हे, जिससे धन
उत्पन्न हो सके । प्रज्वलित अग्नि के पास हम कल्याण को सिक्षा
साँगते है ।
८, देवों के लिए मन ष्यगण जिस यज्ञ-कार्य का संकल्प करते हें, बही
वेरी श्री-बृद्धि करें । प्रति प्रभात में सुयदेष सारी वस्तुओं को स्पष्ट करके
झगते है । प्रज्वलित अग्नि से हम कल्याण को भिक्षा माँगते हूं
९, यज्ञ के लिए आज कुश बिछाया जाता हूं। सोम प्रस्तुत करने
के लिए दो पत्थर संयोजित किय जाते ह । इस समय, अभीष्ट को सिद्धि
के लिए, इष-शून्य देवों की शरण में जाना चाहिए । यजमाव, तु सब
अनुष्ठान करते हो; इसलिए आदित्यगण तुम्हें सुखी करें। प्रवीप्त अग्नि
से हम कल्याण की भीख मांगते हु ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२६५
१०. अग्नि, हमारा यज्ञानुष्ठान हो रहा है। इसमें देवता लोग ड्कढ्ठं
होकर अपमोद-अ ह्वद करते हैं। इस यज्ञ में प्रकाण्ड झुलोक में रहने,
वाले देवों को बुलाओ, सात होताओं को बुलाओ और इन्दर, मित्र वरुण,
तथा भग को ले आओ । धन-प्राप्ति के लिए में सबकी स्तुति करता हे ।
प्रज्वलित अग्नि से हम कल्याण की भिक्षा चाहते हुँ ।
११. प्रसिद्ध आदित्यो, तुम लोग आओ। इससे सारे विषयों में
श्री-बृद्धि होगी ही । हमारी श्री-वृद्धि के लिए सब एकत्र होकर यज्ञ की
रक्षा करे । बृहस्पति, पूषा, अश्विद्वय, भग और प्रज्वलित अर्ति के पास
हम कल्याण की भीख माँगते हुँ ।
१२. देवो, अपने यज्ञ की सकलता सम्पादित करो। हे आदित्यो,
घन से पूर्ण और राजथोग्य गृह हमें दो । हम अपने पशु, पुत्र-पौत्र और
परमायु आदि सारे विषयों में प्रज्वलित अग्नि के पास कल्याण चाहते हुँ!
१३. सारे मरुत् हमें सब प्रकार से बचावें। समस्त अग्नि प्रदीप्त
हों । निखिल देवगण, हमारी रक्षा के लिए पधारें सब प्रकार का अन्न
ओर सम्पत्ति हमें मिले । |
१४. देवो, जिसे तुस अन्न देकर बचाते हो, जिसका त्राण करते हो,
जिसे पाप-सुक्त करके श्री बृद्धि से सम्पन्न करते हो ओर जो तुम्हारे
आश्रय में रहकर भय का नाम तक नहीं जानता, देव-कार्य के लिए व्यग्न
होकर हम बसे ही व्यक्ति हों । |
२६ सूक्त
(देवता विश्वदेव | ऋषि लूश । छन्द् जगती ओर दिष्टुप_ |)
१, उषा, रात्रि, महती ओर सुसंघटित-शरीरा द्यावापृथिवी, वरण,
मित्र, अर्थमा, इन्द्र, मरुद्गण, पर्वतगण, जलगण और आदित्यगण को सै
यज्ञ में बुझाता हूँ । द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष ओर स्वर्ग को में बुलाता हूँ ।
' २, प्रशस्थ-चित्ता ओर यज्ञ की अधिष्ठातृ-स्वरूपा चावापृथिवी हमें
पाप से बचावं--झत्रु के हाथ से उबारें। दुष्ट आशयवाली - निऋति
फा० ८०
१२६६ हिन्दी-ऋणग्वेद
(सृत्यु-देवता) हमारे ऊपर आधिपत्य न करें॥ हम देवों से विशिष्ट रक्षा
की प्रार्थवा करते हू । |
३. घनी मित्र और वरुण की जननी अदितिदेवी हमें पापों से बचाव
हम सब प्रकार अविनाशी ज्योति प्राप्त करं । देवों से हम असाधारण रक्षा
की प्रार्थना करते हूँ ।
४. सोम-निष्पीड़न के लिए उपयोगी पत्थर, शब्द करते हुए राक्षसो
को दूर भगावे । दुःस्वप्न, मृत्यु-देवी ओर सारे शन्नुओं को दूर करे ।
हम आदित्यों और मरुतों से सुख पाव । देवों से हम असाधारण रक्षा की
भीख सांगते
५. इन्द्र आकर कुश के ऊपर बेठ । विशेष रूप से स्तुति-वाक्य उच्चा-
रित हों । ऋक और साम के द्वारा बृहस्पति अचंना करं । हम उत्तमोत्तम
और अभिलषणीय वस्तुओं को प्राप्त करके दीर्घजीवी हों । देवों के पास
विशिष्ट रक्षा की हम भिक्षा करते हें।
६. अधिवदण्ल, ऐसा करो कि, हमारा यज्ञ देवलोक को छ ले । यज्ञ
के सारे विघ्न दूर करो । हमारा सनोरथ सिद्ध करके सुखी करो । जिन
अग्नि में घृत की आहुति दी जाती हँ, उनको ज्वालाये देवों के प्रति प्रेरित
करो । देवों से हम साधारण रक्षा की प्राथना करते हें ।
७. जो सरुद्गण सबको शुद्ध करते हं, जो देखने में सुन्दर हें, जिनसे
कल्याण की उत्पत्ति होती हं, जो धन को बढ़ाते हे और जिनका नाम
लेने पर सन में आनन्द होता हैँ, उन्हें मे बुलाता हूँ । बिशिष्ट रूप से अन्न
की प्राप्ति के लिए में उनका ध्यान करता हूं । हम देवों से असाधारण
रक्षा की भिक्षा साँगते हें ।
८. जो सोम जल से मिलते हें, जिनसे प्राणी स्व्छव्दता पाते हैं,
जो देवों को परितृप्त करते हें, जिनका नाम छेने पर आनन्द होता हे, जो
यज्ञ की शोभा हें और जिनकी दीप्ति उत्कृष्ट ह, उनको हम धारण करते.
हैं और उनसे हम बल की याचता करते हँ । देवों से हम असाधारण
रक्षा की भिक्षा माँगते हु ।
हिन्दी-ऋग्वेद २२६७
९. हम और हमारे पुत्रगण दीर्घजीवी हों । हम अपराधी न हों । पुत्रादि
के साथ सोमरस का भाग करके हम पान करें। स्तुति-द्रोही सब प्रकार
के पापों से परिपुणं हों । देवों से हम विशिष्ट रक्षा की भिक्षा मांगते हे ।
१०. देवो, तुम लोग मनुष्यों से यज्ञ पाने के योग्य हो । सुनो ।
तुमसे हम जो मांगते हें, उसे दो । जिससे हम बली हों, ऐसा ज्ञान दो ।
घन, लीकबल ओर यश दो । देवों से हम असाधारण रक्षा की भिक्षा
मागते हु । | |
११. देवता लोग जैसे महान्, प्रकाण्ड और अविचलित हे, हम उनसे
वैसी ही विशिष्ट रक्षा की प्रार्थना करते हे । हम धन और लोकबल प्राप्त
करे । देवों से हम विशिष्ट रक्षा की भिक्षा मांगते हैं ।
१२. प्रज्वलित अग्नि से हम विशिष्ट सुख प्राप्त करें। भित्र और
वरुण के पास हम निरपराधी होकर कल्याण प्राप्त करें। सूर्य हमें सर्वोत्कृष्ट
शान्ति दे । देवों से हम विशिष्ट रक्षा की भिक्षा मांगते हें। |
१३. जो सब देवता सत्य-स्वभाव सूर्य, मित्र और वरुण के कार्यों में
उपस्थित रहते हैं, वे हमें सौभाग्य, लोकबल, गाय और पुण्यकर्म दें तथा
विविध प्रकार के धन भी दे।
१४. क्या पश्चिम, क्या पूर्व, क्या उत्तर और क्या दक्षियु--सुर्य-
देव हम सबको सर्वत्र श्री-बृद्धि दें। हमं दीर्घ परमाय प्रदान करें।
३७ सूत्त
(देवता सूये। ऋषि सूर्यपुत्र अभितपा। छन्द जगती और
त्रिष्टुप, 1)
१. पुरोहितो, जो सुर्य, मित्र और वरुण को देखते हें, जिनकी दीप्ति
अतीव उज्ज्वल हुँ, जो दुर से ही सारी वस्तुओं को देखते हें, जिन्होंने
देवों के बंश सं जन्म ग्रहण किया हं, जो सारी वस्तुओं को स्वच्छ कर देते
हैं और आकाश के पुत्र-स्वरूप हें, उन सूर्य को नमस्कार करो, पुजा करो
ओर स्तुति करो । [
१२६८ हिन्दी-ऋग्वेद
२. वही सत्य-बचन है, जितका अवलम्बन करके आकाश और दिन
बत्तेमान हुँ, सारा संसार और प्राणिबुन्द जिसपर आश्रित हू, जिसके
प्रभाव से प्रतिदिन जल प्रवाहित होता है ओर सुर्यं उयते हें। बे सत्य-
कचन मुझे सारे विषयों सें बचाव ।
३. सुर्देव जिस समथ तु वेगशाली घोड़े को रथ में जोतकर आकाश-
घाग से जाते हो, उस समय कोई भी देव-शून्य जीव तुम्हारे पास नहीं
आने पाता । तुम्हारी बह चिर-परिचित असाधारण ज्योति तुम्हारे साथ-
साथ जाती हे--उसी ज्योति के! धारण करके तुम उयते हो ।
४. सूर्थदेव, जिस ज्योति के द्वारा तुम अन्धकार को नष्ट करते हो
और जिस किरण के द्वारा सारे संसार को प्रकाशित करते हो, उसके द्वारा
तुम हमारी सारी दरिब्रता नष्ट करो । हमारा पाप, रोग ओर दुःख
दुर करो ।
५. सुर्थदेव तुम सरळ रूप से सारे संसार के क्रिपा-कलाप को रक्षा
करने के लिए प्रेरित हुए हो । तुम प्रातःकाल के होम से उदित होते हो ।
सुर्य, आज ह जिस समय तुम्हारे नाम का उच्चारण करते हे, उस
समय देवता लोग हमारे यञ्च को सफल कर । |
६. द्यावापृथिवी, जल, मरुत् ओर इन्प्र हमारा आह्वान सुने । सूर्य
की कृुपा-दूष्टि रहते हम दुःखभागी न हों। हुम दीघंजीवी होकर
वृद्धावस्था पर्यन्त सोभाग्यशाली रहे।
७, बन्धुओ के सत्कारकारी सुर्य, जेसे तुम दिन-दिन उगते हो, बसे
ही हम प्रतिदिन तुम्हारा, प्रशस्त मन और प्रशस्त चक्षु से, दर्शन करे; प्रत्यह
ही हम नीरोग शरीर से सन्तानों से घरे जाकर ओर तुम्हारे पास किसी
दोष से दोषी न होकर तुम्हारा दर्शन कर सकं । हुम चिरजीवी होकर
तुम्हारे दश की प्राप्ति कर सक ।
८, सर्वे-द्शेक सूर्य, तुस प्रकाण्ड ज्योति धारणं करो । तुम्हारी दीप्ति
उज्ज्वल हुँ--सबकी आँखों में लुम सुरूकर हो । जिस समय तुम्हारी बहु
हिन्दी-ऋणग्वेद १२६९
शूल आकाश के ऊपर चढ़ती हे, उस सन्य हम, प्रदीप्त शरीर के
साथ, नित्य उसका दर्शन करें ।
९. तुम्हारी जिस पताका के साथ-साथ सारा संसार प्रकाश पाता ह
और प्रतिरात्रि अन्धकारावृत होकर अन्तर्धान होता है, है पिज्धलवर्ण केश-
वाले सुर्य, तुम उसी उत्तम एताका को लेकर दिन-दिन उगो। हम भी
निर्दोष होकर उसका दर्शन पावें ।
१०. पुम्हारी दृष्टि हुमारा कल्याण करे । तुम्हारा दिद और किरण,
तुम्हारी शीलता और तुम्हारा उत्ताप कल्याणकर हो । हम घर में ही रहें
अथवा मार्ग पर यात्रा करें--बहु सदा कल्याणकर हो । सूर्य, हमें विविध
सम्पत्तियाँ दो । हि
११. देवो, हमारे अधिकार में जो द्विप और चतुष्पद हैं, उन सब
को तुम सुखी करो । सभी प्राणी आहार करें, पुष्ट और बलिष्ठ हों और
हमारे साथ वह सब अट्ट स्वाधीनता पावें ।
१२. धन-सम्पन्न देवो, कथा-द्वारा हो, मानसिक क्रिया-द्वारा हो,
देवों के पास जो कुछ अपराध का कार्य हम किया करते है, उसका पाप
जुम लोग उस व्यक्ति के ऊपर न्यस्त करो, जो व्यक्ति दान-धर्म से विमुख
हें और जो हमारा अनिष्ट किया करता है ।
३८ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि सुष्कवान इन्द्र । छन्द जगती |)
१. इन्द्र यह जो युद्ध हे, जिसमें य सिलता है और प्रहार पर प्रहार
चलता हूं, उसमें तुम वीर-मद से मस होकर उद्घोष करते हो
और शत्रुओं से जीती हुई गायों को सुरक्षित करते हो । युद्ध सें एक ओर
दीप्यमान वाण प्रबल शत्रुओं के ऊपर गिरते हुँ---इस व्यापार को देखकर
छोग हत-बुद्धि हो जाते हें ।
२. फलतः है इन्र, प्रचुर घन-धाव्य और गायों से हमारा घर भर
दो। शक्र, तुम्हारे विजयी होने पर हम तुम्हारे स्मेह के पात्र हों । हम
जिस धन की अभिलाषा करते हैं, बह हमें दो ।
१२७० हिन्दी-ऋग्वेद
: ३. बहुतों के द्वारा स्तुत इन्द्र, आर्थजाति का हो वा दासजाति का
हो, जो कोई भी देव-शून्य मनुष्य हमारे साथ युद्ध करवे की इच्छा करता
है, यह अनायास हमसे हार जाय। तुम्हारी कृत से हम उन्हें युद्ध में
हरावें ।
४. जिनकी पूजा अल्प शनुष्ण करते हूँ अथवा बहुत मनुष्य करते हें,
जो दुःसाध्य पृद्ध में विजयी होकर उत्तमोत्तम वस्तुओं को जीतते हं, जो
घुद्ध में स्मान करते है और जो सबके यहाँ प्रसिद्धया होते हँ) धन्य
पाने के लिए हम उन्हीं इन्द्र को अपने अनुकूल करते हैं ।
५. इन्द्र, तुम अपने भक्तों को उत्साह से युक्त करते हो। हमें कौन
उत्साहित करेगा ? हम जानते हे कि, तुम स्वयं अपना बन्धन-छेदन
करने में समर्थ हो । फलतः कुत्स के हाथ से हमें छुडाओ और पधारो ।
तुम्हारे समान व्यक्ति क्यों मुष्क-दय का बन्धन सहता हें ?
२९ सूक्त
(देवता अश्विद्वय । ऋषि कच्चीचान् को पुत्री ओर कोढ़ी घोषा
नामक ब्रह्मवादिनी खनी । छुन्द् जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. अश्विद्वय, तुम लोगों को सर्वत्र विहारी जो सुघटित रथ हैं और
जिस रथ को, उद्देश्य के लिए रात-दिन बुलाना यजमान के लिए कत्तव्य
है, हम उसी रथ का क्रमागत नाम लेते हें । जेसे पिता का नाम लेने में
आनन्द आता हँ, वैसे ही इस रथ का भी नाम लेने में ।
२. हमें मधुर वाक्य उच्चारण करने में प्रवृत्त करो । हमारा कर्म
सम्पन्न करो । विविध बुद्धियों का उदय कर दो--हम यही कामना करते
है। अझ्विद्वय, अतीव प्रशंसित धन का भाग हमें दो। जसे सोमरस
प्रीतिप्रद होता है, वैसे ही हमें भी यजमानों के पास प्रीतिप्रद कर दो ।
३. पित्-ग॒ह् में एक स्त्री (घोषा) वाक्य को प्राप्त कर रही थी,
तुम लोग उसके सोभाग्य-स्वरूप वर को ले आये। जिसे चलने की शक्ति
नहीं है अथवा जो अतीव नीच है, उसके तुम लोग आश्रय हो । तुम्हें
लोग अन्धे, दुर्बल और रोते हुए रोगो का चिकित्सक कहते ह ।
हिव्यी-शहस्वेद १२७१
४. जते कोई पुराने रथ को अथे रूप से बनाकर उसके हारा गति-
विधि करता हुँ, बैसे ही तुमने जरा-जीणं च्यवन ऋषि को युदा बना दिया
था । लुम लोगों ने ही ठुग्र-पुत्न को जल के ऊपर निरुषद्रव-हप से, बहन
करके तट पर लगा दिया था । यज्ञ के समय तुम दोनों के यह सव कार्य,
विशेष रूप से, वर्णन करने के योग्य हैं ।
५. तुम लोगों के उन सारे वीरत्व के कार्यों का, लोगों के पास, में
वर्णन करती हूं । इसके अतिरिक्त तुम दोनों ही अत्यन्त पट चिकित्सक
हो । इसी लिए, तुम्हारा आश्रय पाने की अभिलाषा से, में तुम्हारी
स्तुति करती हुँ । सत्यस्वरूप अशिवद्वय, में इस प्रकार से स्तुति करती हूं
कि, उसका विश्वास यजभान अवश्य करेगा
६. अश्विद्वय, में तुम दोनों को बुलाती हूँ, सुतो । जैसे पिता पुत्र
को शिक्षा देता हें, बेसे ही मुझे शिक्षा दो। मेरा कोई यथार्थ बन्धु नहीं
है, में ज्ञान-शून्य हूँ । मेरा कुट्म्ब नहीं हु, बुद्धि भी नहीं है । मेरी कोई
दुर्गति आने के पहले ही दूर करो।
७. पुर्शभत्र राजा की "शुग्द्ष्युव” दासक कन्या को तुस लोग
रथ पर चढ़ा ले गये थे और विमद के साथ उसका विवाह करा दिया था
वध्रिमती मे तुम लोगों को बुलाया था । उसकी बात सुनकर और उसकी
सव-वेदना को दूर करके सुख से प्रसव करा था।
८. कलि नाझ का जो स्तोता अत्यन्त वृद्ध हो यया था, तुम लोगों बे
उसे फिर यौवन से युक्त किया था । तुम लोगों ने ही बन्दन नामक व्यक्ति
को कुएँ के बीच से निकाला था। तुम लोगों ने ही लंगड़ी विशपला को
लोहे का चरण देकर उसे तुरत चलनेवाली बना दिया था।
९, अभीष्ट-फल-दाता अश्विय, जिस समय रेभ नामक व्यक्ति को
शत्रुओं ने मुत-प्राय करके गुहा के वी रख दिया था) उस समय तुम लोगों
ने ही उसे संकट से बचाया था। जिस समय अत्रि ऋषि, सात बन्धनों मे
बाधे जाकर, जरते अग्मिकुण्ड सें फेंके गये थे, उस समय तुम लोगों ने ही
उस अग्निकुण्ड को बुझाया था।
१२७२ हन्दी-ऋग्वेद
१०. अइ्विद्ठय, तुमने ही पेदु राजा को, निन्याञ्नवे घोड़ों के साथ,
एक उत्तम शुञ्रवर्ण घोड़ा दिया था। वह घोड़ा विचित्र तेजस्वी था,
उसे देखते ही सारी शत्रुसेना भाग जाती थी, वह मनुष्यों के लिए बहु-
मूल्य घन था। उसका नाम लेने पर आनन्द प्राप्त होता था ओर उसे
देखने पर सन में सुख होता था।
११. अक्षय राजाओ, तुझ दोनों का नाम कीर्तन करने से आनन्द
होता है। जिस समय तुम रास्ते में जाते हो, उस समय सब, चारों ओर
से, तुम्हारी स्तुति करते ह। यदि तुम दम्पति को अपने रथ के अगले भाग
में चढ़कर आश्रय दो, तो उन्हें कोई भी पाप, दुर्गति वा विपद नहीं
छुवे । |
२. अश्विद्ठय, ऋभ् नामक देवों न तुम्हारे लिए रथ प्रस्तुत किया
था। उस रथ के उदय होने पर आकाश की कन्या उषा प्रकट होती हं
और सूर्य से अतीव सुन्दर दिन तथा रात्रि जन्म लेती हुँ। उसो मन से
अधिक वेगवाले रथ पर बेठकर तुम लोग पधारो।
१३. अश्विद्रय, तुम लोग उसी रथ पर चढ़कर पर्वत की ओर जाने
वाले मार्ग पर गमन करो और शयु नामक मनुष्य की बूढ़ी गाय को फिर
दूघवांली बना दो। तुम्हारी एसी क्षमता हें कि, तेंदुए के मुँह में गिरे
वत्तिका (चटका) नामक पक्षी को तुसन उसके मुंह से निकालकर
उसका उद्धार किया था।
१४. जैसे भुग्-सन्ताने रथ बनाती हँ, वैसे ही, हे अश्विद्वय, तुम
लोगों के लिए यह रथ प्रस्तुत किया हें। जसे जामाता को कन्या देने के
परसय लोग उसे वस्त्राभूण से अलंकृत करके देते हें, बसे ही हमने
इस स्तोत्र को अलंकृत किया है। हमारे पुत्र-पोत्र सदा प्रतिष्ठित रहेँ।
४०
(दैवता अश्विद्वथ । ऋषि घोषा । छुन्द् जगती ।)
१. कर्मों के उपदेशक अश्विद्वय) तुम्हारा प्रकाण्ड रथ जिस सभय
प्रातःकाल जाता हुँ और प्रत्यक व्यित के पास धन बहुन करके ले जाता
हिन्दी-ऋग्वेद १२७३
हैं, उस समय अपन यज्ञ की सफलता के लिए कौन यजमाव उस उज्ज्वल
रथ का स्तोत्र करता हुँ ? तुम्हारा वह रथ कहाँ है ?
२. अदिवद्वय, तुम लोग दिन और रात में कहाँ जाते हो? कहाँ
समय जिताते हो? जैसे विधवा स्त्री, शयन-काल में, देवर (द्वितीय
वर? ) का और कामिनी अपने पति का समादर करती हुँ, बैसे ही यज्ञ
में समादर के साथ तुम्हें कोन बलाता है? |
३. दो बृद्ध राजाओं के समान तुम्हें जगाने के लिए प्रातःकाल स्तोत्र-
पाठ किया जाता है। यज्ञ पाने के लिए तुम लोग प्रतिदिन किसके घर में
जाते हो? किसका पाप नष्ट करते हो? कर्मों के उपदेशक अश्विद्य,
राजफुमारों के समान तुम दोनों किसके यज्ञ में जाते हो ?
४. जैसे व्याध शार्दूल की इच्छा करते हें, बैसे ही, यज्ञीय द्रव्य लेकर,
मं तुम्हें दिन-रात बुलाता हूँ। उपदेशक-द्य यथा-समय लोग तुस लोगों
के लिए होम किया करते हँ। तुम लोग भी लोगों के लिए अन्न ले आते
हो; क्योंकि तुम कल्याण के अधिपति हो।
५. अशि्विद्वय, उपदेशक-द्रय, में राजकुमारी घोषा हूँ। में चारों ओर
घूम-घूसकर तुम्हारी ही कथा कहती हूं, तुम्हीं लोगों के विषय की
जिज्ञासा करती हुँ । क्या दिन, कया रात, तुम लोग बराबर मेरे यहाँ रहते
हो। रथ-युक्त ओर अध्व-सम्पन्न मेरे भ्रातुष्पुत्र का दमन करते हो।
६. कवि-द्य, तुम दोनों रथपर चढ़े हुए हो। अडिवद्वय, तुम लोग
कुत्स के समान रथपर चढ़कर स्तोता के घर में जाते हो। तुम्हारा मधु
इतना अधिक हें कि, उसे मक्खियाँ मुंह में ग्रहण करती हँ। जेसे कोई
स्त्री व्यभिचार में रत रहती हैं, वेसे ही सक्खियाँ तुम्हारे मध् के। ग्रहण
करती हं। |
७. अझ्विद्वय, तुम भुज्यु नामक व्यक्ति को समुद्र से वचावा था।
तुमने वश राजा, अत्रि ओर उशना का उद्धार किया था। जो दाता हुँ,
बही तुम्हारा बन्धुत्व प्राप्त करता है। तुम्हारे आश्रय से जो सुख प्राप्त
होता हुँ, में उसकी कामता करता हूँ ।
१२७४ हिग्दी-ऋ ग्वेद
ho
८, अशि्विट्टय, तुथ लोगों ने ही कुश्च, शय, अपने परिचारक और
विधवा को बयाया था। यज्ञकर्सा के लिए तुम्हीं लोग मेघ को फाड्ते
हो, जिससे गतिशील द्वारवाला मेघ, शब्द करते हुए, बरसला है।
९. मं घोषा हैं। चारी-लक्षण प्राप्त करके सौभाग्यवली हुई हूँ । मेरे
विवाह के लिए वर आया हुं। लुमम बृष्टि बरसाई हुँ; इसलिए उसके
लिए शस्य आदि भी उत्पन्न हए हैं। हिम्दामभिमजी होकर नदियाँ इनकी
और बह रही हें । ये रोग-रहित हें। सब तरह का सुख भोगने के
योग्य इन्हें शक्ति हो गई हुँ॥
१०. अङ्चिद्ठय, जो लोग अपनी स्त्री की प्राण-रक्षा के लिए रोदन
तक करते हैं, स्त्रियों को यज्ञ-कार्य में नियुक्त करते हैं, उनका, अपनी बाँहों
से, बहुत देर तक आलिङ्गन करते हैँ और सन्तान उत्पन्न करके पितु-
यज्ञ से निथुक्त करते है, उनकी स्त्रियाँ सुख-पूर्वक आलिङ्गन करती हें।
११. अध्विहवय, उनका वैसा सुख में महीं जानती। युवक स्वामी
और युवती स्त्री के सहवास-सुख को मुझ भली भाँति समभा दो।
अडिबद्वय, भेरी एक-मात्र यही अभिलाषा हे कि, सँ स्त्री के प्रति अन् रक्त,
बलिष्ठ स्वामो के गृह में जाउँ ।
१२. अन्न और धनवाले अश्विद्यय, तुम दोनों मेरे प्रति सदय होओ।
सेरे सन की अभिलाषायें पुरी करो। तुम कल्याण करनेवाले हो। मेरे
रक्षक होओ। पति-गुह में जाकर हस पति के लिए प्रिय बनें।
१३. में तुम्हारी स्तुति करती हूँ; इसलिए तुम लोग मुझसे सन्तुष्ट
होकर मेरे पति के गूह में धन और सन्तति दो। कल्याण करनेवाले अश्वि-
य, मे जिस तीथं (तट) पर जल पीती हूं, उसे घुम सुविधा-जनक करो ।
सेरे पति-गृह में जाये के मार्ग में यदि जोई दुष्टाशय विध्व करे, तो उसे
नष्ट करना। |
१४. प्रिय-दर्दन और कल्याणकर्ता अश्विद्ठय, आजकल तुम कहाँ,
किसके घर में, आसोइ-प्रमोद करते हो? कोन तुम्हें बांधकर रखे हुए
है ? कित बुद्धिसान् यजमान के घर में तुम गय हो ?
हिन्दी-ऋरवेद १२७५
(देवता इन्द्र । ऋषि आङ्गिरस कष्ण । छन्द जगती ।)
१. अशिवद्वय, तुन दोनों के पास एक ही रथ हुँ, जिसे अनेक बुलाते
हँ, अनेक स्तुति करते है। वह रथ तीन चककों के अपर यज्ञों में जाता है ।
वह चारों ओर घूमते हुए यज्ञ को सुसम्पन्न करता हँ । प्रतिदिन प्रातःकाल
हुम सुन्दर स्तुति से उसी रथ को बुळाते हुँ।
२. सत्य-स्वरूप अहिवहृय, तुम्हारा जो रथ प्रातःकाल जोता जातः
हँ, प्रातःकाल चलता हँ और मधू ले जाता है, उसी रथ पर चढ़कर यज्ञ”
कर्ताओं के पास जाओ। तुम्हारी जो स्तुति करता हुँ, उसके होत्-युक्त
यज्ञ में भी जाओ ।
३. अदिवद्ठय, में सुहस्त हूँ। में हाथ में मधु लेकर अध्वर्यु का कार्ये
करता हुँ । मेरे पास पघारो अथवा, अग्निश्र नामक जो बली पुरोहित
दान करने को उद्यत है, उसके पास पधारो। यद्यपि तुम लोग किसी बुद्धि
मान् व्यक्ति के यज्ञ में जाते हो, तो भी, सधु-पान करने के लिए, मेरे
गुह् में पधारो।
४२ सत्ती
(देवता अश्विद्वय । ऋषि घोषा-पुत्र सुहस्त । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. जैसे वाण फ्रेंकनेवाला धनुद्धर अतीव सुन्दर वाण फेकता हे, बेसे
ही तुम, इन्द्र के लिए, क्रसागत स्तव करो। उनके लिए प्राञ्जल ओर
अलंकृत करके स्तुति का प्रयोग करो। विप्रो, तुम्हारे साथ जो स्पर्डा करता
है, ऐसे स्तुति-वचन का प्रयोग करो कि, वह पराजित हो जाय। स्तोता,
इन्द्र को सोम की ओर आकुष्ट करो ।
२. स्तोता, जैसे गाय को दूहकर लोग सपना प्रयोजन सिद्ध करते
हँ, वैसे ही भित्र-स्वकप इन्द्र से अपने प्रयोजन को सिद्ध करा लो। स्तुत्य
छुन््र को जगाओ। जैसे लोग धान्य-पुर्ण पात्र को नीचे करके उसका धान्य
१२७६ हिन्दी-्रग्देद
शिरा लेते हुँ, बसे ही बीर इन्द्र को; कामना-सिद्धि के लिए, अनुकूल
कर लो। म
. ३. इन्दर, तुम्हें लोग “भोज” (अभीष्ठ-दाता) क्यों कहते हँ ? तुम
बाता हो; इसी लिए यह नाम रक्खा गया हँ । मेने सुना हुँ कि, तुम लोगों
को तीक्ष्ण कर देते हो। मुझ तीक्ष्ण करो। इन्द्र, मेरी बुद्धि कर्म में निपुण
होी। मेरा ऐसा शुभ अदुष्ट करो कि, धन उपाजित किया जा सके।
४. इन्द्र, जिस समय लोग युद्ध में जाते हे, उस समय तुम्हारा नाम
छेते है। इन्द्र यजमान के सहायक होते हें। जो इन्द्र के लिए सोम नहीं
प्रस्तुत करता, उसके साथ इन्द्र मंत्री नहीं करना चाहते।
१, जो अन्नशाली व्यक्ति इन्द्र के लिए प्रथम सोमरस प्रस्तुत करता
हुँ और यो, अश्व आदि देनेवाले धनाढ्य के सदृश इन्द्र को उदारता के साथ
सोमरस देता है, उसके सहायक इख होते हें। उसके बलिष्ठ तथा अनेक
सेनाओंवाले शत्रुओं के रहने पर भी इन्द्र शत्रुओं को शीक्राति शीघ्र दुर
कर देते है। इन्द्र वुत्र का वध करते हें।
` ६. हमने जिन इन्द्र की स्तुति की है, वे धनी हुँ और उन्होंने हमारी
कामनाओं को पूर्ण किया हुँ । इन्द्र के पास से शत्रु दूर भागें। शत्रु-देश की
सम्पत्ति इन्द्र के हाथों मं आवे।
७. इन्द्र, असंख्य मनुष्य तुम्हें बुलाते हे। तुम्हारा जो भयाभक
घज्त्र है, उससे समीप के शत्रु को दूर कर दो। इन्द्र, मु झे जौ और गाय से
युक्त सम्पत्ति दो । अपने स्तोता की स्तुति को अन्नरत्न-प्रसविनी करो।
८. प्रखर सोमरस, अनेक धाराओं में, मधुर रस से बरसते हुए जिस
समय इन्द्र की देह में पठता हुँ, उस समय इन्द्र सोमरस-दाता का कभी
वारण नहीं करते, कभी नहीं कहते कि, और नहीं। अधिकन्तु सोम-
रस के प्रस्तुत-कर्ता को विशाल अभिलषित वस्तुएं प्रदान करते है।
९, जैसे जुआड़ी जिससे हारा हुआ हुँ, उसी को जुए के भड्डे पर
खोजकर हरा देता है, वैसे ही अनिष्ट-कर्तता को इन्द्र परास्त करते हुँ। जो
हिन्दी-ऋण्वेद १२७७
देवभक्त देवपूजा में धन-व्यय करने में कृपणता नहीं करता, धनी इन्द्र
उसे ही धनी करते हूं।
१०. गायों के द्वारा हम दुःख-दारिद्रच के पार जायें। अनेक के द्वारा
आहत इन्द्र, जो (यब) के द्वारा हम क्षुधा की निवत्ति कर सकें। हुस
राजाओं के साथ-साथ अग्रसर होकर, अपने बल के प्रभाव से, विशाल
सम्पत्ति को जीत सकें।
११. पापी शत्रु के हाथ से बृहस्पति हमें पश्चिम, उत्तर और
दक्षिण दिशाओं में बचावें। पूर्व-दिशा और मध्य भाग में इन्द्र हमारी
रक्षा कर। इन्द्र हमारे मित्र हे ओर हम इन्द्र के मित्र हें, वे हमारी
अभिलाषा को सिद्ध करें। |
४३ सूक्त
(४ अनुवाक | देवता और ऋषि पूर्ववत् । छन्द जगती और
त्रिष्डुप् |)
१. मेरी स्तुतियों ने, मिलकर उद्देश्यपूर्वक इन्द्र का गण-गान किया
हँ । स्तुतियाँ सब प्रकार के लाभ करा सकती हैं। जैसे स्त्रयां अपने स्वासी
का आलिङ्गन करती हु, बसे ही स्तुतियाँ उन श॒द्ध-स्वभाव इन्द्र का आश्रय
पाने के लिए उनका आलिङ्गन करती हें।
२. इन्द्र, तुम्हें छोड़कर सेरा मर अन्यत्र नहीं जाता । तुम्हारे ही
ऊपर मेंने अपनी अभिलाषा स्थापित रवखी हं । जेसे राजा अपने भवन सें
बेठता हुँ, वैसे ही तुम लोग कुशों के ऊपर बेठो। इस धुन्दर सोम हे
तुम्हारा पान-कार्य सम्पन्न हो।
३. दुर्गति और अन्नाभाव से बचाम के लिए इन्द्र हमारे चारों ओर
रहें। धनदाता इन्द्र सारी सभ्पत्तियों ओर धों के अधिपति हें। मनोरथ-
वर्षक और तेजस्वी इन्द्र के आदेश से ही गंगा आदि सात नदियाँ नीचे की
ओर बहकर कृषि की वृद्धि करती हूं । bh डक
१२७८ हिन्दी-ऋग्वेद
४, जैसे सुन्दर पत्रों के वृक्ष का आश्रय चिड़ियाँ करती हैं, वेसे ही
आनन्द-वर्षक और पात्र-स्थित सोस इन्द्र का आश्रय करते हँ । सोमरस के
तेज के द्वारा इन्र का मुख उज्ज्वल हो उठा। इन्द्र मनुष्यों को उत्कृष्ट
ज्योति दे ।
५. जुए के अड्डे पर जैसे जुआड़ी अपने विजेता को खोजकर परास्त
करता है, बैसे ही इन्द्र वृष्टि-रोधक सूर्यं को परास्त करते हू। इन्द्र,
धनाधिपति, कोई भी प्राचीन वा नवीन तुम्हारे वीरत्व के अनुसार कार्य
नहीं कर सकता।
६. धनद इन्द्र प्रत्येक मनुष्य में रहते हैँ। अभीष्टकारी इन्द्र सबके
स्तोत्र की तरफ़ ध्यान देते हें। जिसके सोम-यज्ञ में इन्द्र प्रीति प्राप्त करते
हैं, वे प्रखर सोमरस के द्वारा युद्धेच्छु शत्रुओं को परास्त करता हे।
७. जैसे जल नदी की ओर जाता है और जेसे छोटा-छोटा जल-प्रवाह
तड़ाग में जाता है, बैसे ही सोमरस इन्द्र में जाता हे। यज्ञ-स्थल में पंडित
लोग उसके तेज को वैसे ही बढ़ा देते हैं, जैसे स्वर्गीय जल-पात के साथ
वृष्टि जौ की खेती को बढ़ाती हैँ ।
८. जैसे एक बृष, ऋद्ध होकर, दूसरे की ओर दौड़ता है, बसे ही
न्द्र, मेघ के प्रति धावित होकर अपने आश्रित जल को बाहर करते हूँ।
जो व्यक्ति सोम-यज्ञ करता हँ, उदारता के साथ दान करता है और हवि
का संग्रह करता है, उसे धनी इन्द्र ज्योति देते हैं।
९, इग्द्र का वप्त्र तेज के साथ उदित हो। पुर्वकाल के समान ही इस
समय भी यज्ञ की कथा हो। स्वयं उज्ज्वल होकर इन्द्र, प्राञ्जळ आलोक
को धारण करके, शोभा-सम्पन्न हों। साध् पुरुषों के पालक इन्द्र, सुर्य के
समान, शुञ्रवणं दीप्ति से प्रदीप्त हों।
१०. गायों के द्वारा हम दुःख-दारिव्रच के पार जायें। अनेक के द्वारा
आहूत इन्द्र, जौ के द्वारा हम क्षुधा की निवृत्ति कर सकं। हम राजाओं
के साथ अग्रसर होकर; टापने बल के प्रभाव से, विशाल सम्पत्ति को
जीत सक ।
हिन्दी-ऋग्वेद १२७९
११. पापी शत्रु के हाथ से बृहस्पति हमें पश्चिम, उत्तर और दक्षिण
दिशाओं में बचाव । पूर्व दिशा और सध्य भाग में इन्द्र हमारी रक्षा करें।
व्र स्! _ रि पका हस Fo क्के रि ७३० ~
इन्द्र हमारे चित्र हू ओर हुम इसर के मित्र हे। वे हमारी अभिलाषा को
सिद्ध करें।
४४ शक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि आङ्गिरस कृष्ण । छन्द त्रिष्टुप् और जगती ।)
१. जो इन्द्र देखने में स्थूलकाय हें ओर जो अपने विपुल तथा दुर्धषं
बल के द्वारा सारे बलशाली पदार्थों को बल-हीन कर डालते हैं, वे धनी
इन्द्र रथ पर चढ़कर आमोद करने के लिए आदें।
२. नरपति इन्द्र, तुम्हारा रथ सुघटित है, तुम्हारे रथ के दोनों घोड़े
सुशिक्षित हे और तुम्हारे हाथ में वस्न हे । प्रभु इसर, ऐसी मूरति को
धारण करके, सरल मागे से, नीचे आओ। तुम्हारे पान के लिए सोमरस
प्रस्तुत हें । उषे पिलाकर हम तुम्हारा बल और भी बढ़ा देंगे ।
३. जो इन्द्र नेताओं के सेता हें, जिनके हाथ में वचत्र हुं, जो शत्रुओं
को बुबेख कर देते हँ, जो दुद्ध॑ष हुँ और जिनका क्रोध कभी वृथा नहीं जाता,
उन्हें, उनके वाहक बली घोड़े मिलकर, हमारे पास के आवें।
. ४. इन्द्र, जो सोमरस शरीर को पुष्ट करता हँ, जो कलश में मिल जाता
है और जो बल को संचारित करता है, उस सोस का सिचन अपने उदर
सें करो। मेरी बल-वृद्धि कर दो और हमें अपना आत्मीय बना लो; क्योंकि
तुम बुद्धिमानों के भी-वृद्धि करनेवाले प्रभु हो।
५. इन्द्र, में स्तोता हुँ; इसलिए सारी सम्पत्ति मेरे पास आवे।
उत्तमोत्तम कामनायें सिद्ध करने के लिए मेंने सोम का संचय करके यज्ञ
का आयोजन किया हैँ आओ। तुम सबके अधिपति हो। कुश के ऊपर
बैठो। तुम्हारे पान के लिए जो सोम-पात्र सज्जित हुए हे, किसी की ऐसी
शक्ति नहीं कि, वह उन्हें बलपुर्वक लेकर पिये।
१३८० हिन्दी-ऋषग्वेक
६. जो लोग प्राचीन समय से ही यज्ञ में देवों को निमन्त्रण देते थे,
उन्होंने बड़े-बड़े कार्यों का सम्पादन करके स्वयं सद्गति प्राप्त की है।
परन्तु जो यज्ञरूप नौका पर नहीं चढ़ सके, वे कुकर्मी है, ऋणी हैं ओर
नीच अवस्था में ही दब गये हैं।
७, इस समय में भी जो बसे दुर्बृद्धि हँ, वे भी अधोगामी हों। उनकी
कैसी दुर्गेति होगी--इसका ठीक नहीं। जो लोग पहले से ही यज्ञादि के
अवसर पर दान करते हें, वे ऐसे स्थान पर जाते हु, जहाँ अतीव चमत्कारिणी
भोग-सामग्री प्रस्तुत हु ।
८, जिस समय इद्र सोमपान करके मत्त होते हें, उस समय वे
सर्वेत्र-संचारी और कापते हुए मेघों को सुस्थिर करते हं, आकाश को
आन्दोलित कर डालते हे और बह घहराने लगता हे। जो आावापृथिवी
परस्पर संयक्त हुँ, उन्हें इन्द्र उसी अवस्था में रखते हे और उत्तम वचन
कहते हें ।
९. धनशाली इन्दर, तुम्हारे लिए में यह एक सुसंघटित अंकुश हाथ
सं रखता हूँ। इस अंकुशरूप स्तोत्र से हाथियों को, दण्ड देते हुए, तुभ
बश में करते हो। इस सोम-यज्ञ में आकर अपना स्थान ग्रहण करो। हमें
इस प्रज्ञ में सोसाग्यशाली करो।
१०, गायों के द्वारा हम दुःख-दारिद्र के पार जाएें। अनेकों के द्वारा
आहूत इन्द्र, जौ के द्वारा हम क्षुधा-निवृत्ति कर सकें। हम राजाओं के
साय अग्रसर होकर, अपने बल के प्रभाव से, विशाल सम्पत्ति को जीत
हक ।
११. पापी शत्रु के हाथ में हमें बृहस्पति पश्चिम, उत्तर ओर दक्षिण
दिशाओं सें बावे । पूर्व दिशा और मध्य भाग सें इन्र हमारी रक्षा
करें। इन्द्र हमारे मित्र हे और हुम उपके मित्र हुँ। वे हमारी अभिलाषा
फो सिद्ध करं ।
हिन्दी-क्ररबैद ११८१
४५ सुर
(दैवता अग्नि। ऋषि भलन्दन वत्सग्रि । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. अग्नि ने प्रथम आकाश में विदयुदूप से अन्म ग्रहण किया। उनका
द्वितीय जन्म “जातवेदा” (ज्ञाती) ताम से हम लोगों के बीच हुआ है।
उनका सोसरा जन्म जल के बीच में हुआ हु। मनुष्य-हितेषी अग्नि निरन्तर
प्रज्बलित हुँ। जो उत्तम ध्यान करता जानते हैं, वे उनको स्तुति
करते हुँ।
२. अग्नि, हम तुम्हारी तीन प्रकार की तीन मूर्तियों को जानते हैं।
अनेक स्थलों सें तुम्हारा जो स्थान हुँ, उसे भी जानते हैं। तुम्हारे लिगूढ़
नास को भी हम जानते है। जिस उत्पत्ति-स्थाच से तुम आये हो, उसे भी
हुम जानते हैं।
३. नर-हितेथी वरुणदेव ने तुम्हें समुद्र के बीच में, जल के भीतर,
जला रवस्य है। आकाश के स्तमस्वलूप जो सूर्य हैं, उसके बीच सें भी
तुम प्रज्वलित हो। तुस अपने तीसरे स्थान मेघलोक सें, वृष्टि-जल में,
रहते हो। प्रधान प्रधान देवता तुम्हारा तेज बढ़ाते हैं।
४, अग्नि का घोरतर शब्द हुआ--सानो आकाश में बज्यपात हो रहा
है । अग्नि पृथिवी को चाटते है, लता आदि का आछिद्धन करते हैं। यद्यपि
अग्नि अभी जन्मे है, तो भी विशेष रूप से प्रज्बलित और विस्तृत हुए
हैं। थावापृथिबी सें किरण-विस्तार करचे से अग्नि की शोभा हुई हुँ।
५. प्रभात के प्रथम भाग में अग्नि प्रज्वलित होते हँ, तो उनकी
कैसी शोभा होती है ! बे कितनी शोभा प्रकट करते हैँ! अग्नि अशेष
सम्पत्तियों के आधार-स्वरूप है । वे स्तोत्र-बचनों की स्फूति कर दैतै
है, सोधरस की रक्षा करते हूँ। अग्नि धन-स्वरूप हुँ, बे बल के पुत्र हे,
ये जल के बीच में रहते हैं।
द, ये समस्त पढायो को प्रकाशित करते हे। वे जल के भीतर
जन्म ग्रहण करते हैं। जम्न लेते ही उन्होंने घावापृषिवी को परिपुर्ण क्रिया ।
प्ा० ८६
१२८२ हिन्दी-ऋणग्वेद
जिस समय पाँच बर्णो ने घमुष्यों के अश्वि के लिए थश्च किया, उस समय
वे सुघटित मेघ की ओर जाकर और मेघ को फाइकर जल छे आये।
७. अध्मि हवि चाहते हैं। थे सबको पवित्र करते हुँ। वे चारौं
ओर जस्तै हें। बन में उत्कृष्टता है। थे स्वयं अपर हैं; परन्तु मारमेवाले
मनुष्यों थे रहते है। रखिकर रूप धारण करफे वे गति-विधि करते हें और
शुवरषर्ण आलोक के हार! आकाश को परिपणे करते ह।
८. अग्नि देखने में उपोसिमंय हुँ। उनकी दीप्ति महान् हैं। वे दुद
दीप्ति के साथ जाते-जाते झोभा-सस्प्च होते हं। आग्नि बसस्पसि-स्वरूष
अश्च पाकर अमर हुए। दिव्यलोक ने अग्नि को जन्म दिया है। दिव्यलोक
(द्यौ) की जन्मदान शक्ति केसी सुन्दर हे !
९. सङ्लमयी ज्यालावाले अभिनव अग्नि, जिस व्यक्ति ने आज
तुम्हारे लिए घृत-थुषस पिष्टक (पुरोडाश) प्रस्तुत किया हूँ, उस उत्कुष्ट
व्यक्षि को तुम उत्तम-उत्तम धन की ओर ले जाओ, उस देवभषत को
सुख-स्वाच्छन्ख की ओर ले जाओ।
१०. किसी समय उसभोत्तस अन्न के साथ किया-कलाप अनुष्ठित
थ्
होता हं, उसी समय तुम यजमान के अनुकुल होओ। वह सूर्य के पास
प्रिय हो, अग्नि के पास प्रिय हो। उसके जो पुत्र हे वा जो होगा, उसके
साथ बह झत्रु-संहार करे।
११. अग्नि, प्रतिदिन यजमान लोग ठुम्हारे लिए उत्तनोतम नाना
बस्तुएँ पूजा में देते हे। विद्वाम् देवों ने, तुम्हारे साथ एकत्र होकर, घन"
कामना को पूर्ण करने के लिए, गायों से भरे गोष्ठ-द्वार का उद्घाटन
किया था।
१२. मनुष्यों में जिनकी सुन्दर मूर्त्त हु ओर जो सोम की रक्षा करते
है, ऋषियों मे उन्हीं अग्नि की स्तुति की। द्रेष-शुन्य आदापूथिबी को
हस बुझाते हुँ। देवो, हमें लोकबल और धनबरू दो।
अष्टस अध्याय समाप्त ॥
सप्तम अष्टक समाप्त।
लक
३६ खक
(१० मण्डल । १ अध्याय । ४ अडुवाक । देवता अग्नि।
मृषि भालब्दुन वत्सप्रि । छन्दृ त्रिष्टुप् ।)
१, जो अग्नि झनृष्यों (वा विद्युद्रप से अन्तरिक्ष) में रहते हैं, जो
जल (वा कर्मों के समीप वेदी पर) में रहते हें और जो आकाश के ज्ञानी
हैं (क्योंकि आकाश में ही अग्नि का जन्म हुआ हे); वे गुणों के कारण
पुज्य होकर इस सभय यजमानों के होता हुए हैं। अग्नि, यज्ञ-बारक
होकर, वेदी पर रवखे गये हैं। बत्सप्रि, तुम उनकी पूजा करते हो। ये
तुम्हारे देह-रक्षक होकर तुम्हें अन्न और सम्पत्ति दे।
२. जल के बीच स्थित अग्नि को परिचारक ऋषियों ने, चोरों से
अपहत पशु के समान, खोजा। ऋषियों में अभिलाषी और पण्डित भूगु-
घंशीयों ने स्तुति करते-करते एकान्त स्थान में स्थित अग्नि को प्राप्त
किथा।
३. पाने की इच्छावाले विभवस्त के पुत्र त्रित ऋषि ने इच महान्
अग्नि को भूमि पर पाया। सुख के बद्धक और यजमान-गहों में उत्पन्न
तरण अग्नि स्वर्ग-फल के नाभि हुँ।
४, अभिलाषी ऋषियों ने सबकर, होता, आह्वनीय, यजनीय, यञ्च
के प्रापक, गतिशील, शोधक, ह॒विर्वाहुक और मनुष्यों में प्रजापति अग्नि
के स्तुतियों से प्रसञ्च किया।
५. स्तोता, तुम विजयी, महान् और मेधावियों के धारक अग्नि क्
स्तुति करो। सभी मनुष्य ज्ञानी, पुरियों के ध्वंतक। अरणि-ाथ, स्तुत्य,
१२८३
per omer
१ श् PA tT a
|
हरित लोमबाले, ज्वाला से युक्त और प्रीदिन्सोक अग्नि को हवि देकर
पने कस पा लेते 8॥
६. अग्नि की गाहंपत्य आदि तीन मूतियाँ हुँ। अग्नि यजमान-
गृहों को स्थिर फएयेवाले और ज्वालाओबाले हूँ। बे यज्ञ-गृह में अपनी
बेदी पर बेठते हु। अग्नि ग्रजा-द्ारा प्रद्स हुवि आदि लेकर यजसागों
के लिए दानेच्छक होकर तथा प्रजा के लिए शत्रुओं के दमन के साथ देवों
कै पास जाते है।
७. इस यजमान के पास अनेक अग्नि हैं, जो सब अजर, शत्रुओं के
शासक, पुजनीय ज्वालाओंवाले, शोधक, श्वेतवर्ण, क्षिप्रधर्मी, भरणशील,
बन में रहनेबाले और सोस के समान श्ीघ्रगासी हे।
८, जो अरिनि ज्वाला के दरारा कर्म को धारण करते हुं और जो
पृथिवी के रक्षण के लिए अनुग्नह-पुर्वक स्वोत्रो को धारण करते हैं, गति-
शोल मनुष्य उन दीप्त, शोधक, स्तवचीय, आह्काता और यजनीय अग्नि
को धारण करते हें।
९, ये वे ही अग्नि है, जिन्हें थावापुणियी ने जन्म दिया हैं, जिन्हें जल,
त्वष्टा ओर भूगुओं ने स्तोत्रादि साधनों से प्राप्त किया था, जो स्तुत्य
है और जिन्हें सातारिइवा (बायु) और अन्य देखो ने मनुष्यों के (वा मन्
के) यज्ञ को करने के लिए बनाया हें ।
१०, अस्ति, तुम हविर्याइक हो। देवों न तुम्हें धारण किया हुँ।
अभिलाषी मनुष्यों ने यज्ञ के लिए तुम्हें धारण किया हुँ। अग्नि, यज्ञ में
मुझ स्तोता को अन्न दो। अग्नि, देव-भषत यजमाय यश प्राप्त करता
हु
४७ सुत्त
(देवत पैंकुंए्ठ इन्द्र । ऋषि अङ्गिरस सप्तगु | छन्द जिष्टुप् ।)
१, अनेक धर्मों के सवाली इसे, बनाभिलाबी हम हुम्हारे दाहिने
हाथ को पकड़ते है। शूर इन्दर, तुम्हें हम अनेक गोओं के स्वामी जानते
हुँ। फलतः हमें विचित्र और वर्षक धय दो।
हिन्दी-ऋग्वेद १२८५
२. तुम्हें हम शोभन अस्त्र और शोभन रक्षणवाले, सुन्दर नेत्रवाले, चारों
सुरों को जल से परिपुर्ण करनेवाले, धन-धारक, बार-बार स्तुत्य और
दुःखों को निवारक जानते हैं। इन्र, तुम हमें विचित्र और वर्षक धन दो।
रे. इन्र, तुस हमें एुसि-परतणय, देव-अवत, महान्, विशञाल-्म्ति,
गम्भीर, सुप्रतिष्ठित, प्रसिद्धज्ञान, तेजस्वी, शत्रु-दसन-कर्त्ता, पुज्य ओर
घर्षक पुत्र-रूप धन दो।
४. इन्द, अञ्च पाये हुए, मेधावी, तारक, घन-पुरक, वद्धसान, शोभन-
बल, शनु-घातक, शत्नुपुररयों के भेदक, सत्यकर्मा, विचित्र और वर्ष
पुत्र-स्वरूण धन हमें दो ।
५. इख) अइव-युक्त, रथी, बीर-सम्पञ्च, असंख्य भौओं आदि से
युक्त, अन्नवान् कल्याणकारी सेवकों से युक्षत, विप्रो से वेष्टित, सबके
लिए सेवक, पूज्य और वर्षक पुत्र-स्वरूप धन हमें दौ।
६- सत्यकर्मा, शोभन-प्रत्ष और सन्त्र-स्वामी सुक सप्तगु के पास
स्तुति जाती है। में अद्धिरागोत्रोत्यन्न हुँ। नमस्कार के साथ देवों के
पास जाता हूँ। हमारे लिए पुज्य और वर्षक धन दो।
७. में जो सब सुन्दर भावों से युक्त स्तुतियाँ तैयार करता हूँ, उनका
अन्तःकरण से पाठ करता हूँ। ये स्तुतियाँ श्रोताओं के हृदय को छती
हैं। भोता लोग, दूत के समान, इन्द्र के निकट प्रार्थना करते हैं। हमें पुज्य
और बर्षेक धन दो।
८. में जो तुमसे सांगता हूँ, बह मुझे दो। मुझे एक ऐसा विज्ञाल
निवास-स्थान दो, जसा किसी के भी पास न हो। द्यावापृथिवी इस बात
का अनुमोदन करे। हुम पुज्य और वर्षक धन दो।
४८ सूरत
(देवता इन्द्र । ऋषि इन्द्र । छन्द जगती ओर त्रिष्छुप ।)
१. में हो घन का सुख्य- स्वामी हूँ। शत्र-घत को जोदवनेबाला भी
में ही हेँ। मुके ही मनुष्य बुलाते हैं। जैसे पुत्र पिता को धन देते हैं, वैसे
ही मे भी हविर्याता यजसाच को अन्न देता हूँ।
१२८६ हिन्दी-ऋ्वेद
२. मेंने दष्यड (आथवर्ण) ऋषि का शिर काट डाला था (श्योकि
दथ्यङ से इन्द्र के सना करने पर भी गोएनीय मधुविद्या को अध्यिद्वय को
घता दिया था) । कुएं में गिरे नित के उद्धार फे लिए सने मेघ में जल
दिया था। मेने शत्रुओं से घन लिया था। ग्रातरिश्वा के पुत्र दयीथि के
लिए बरसने की इच्छा से मैन जल-रक्षक भेघों को यारा था।
३. त्वष्टा ने मेरे लिए जोहे का वप्त बनाया था। मेरै लिए बेवता
लोग यज्ञ करते हेँ। मेरी सेना सूर्य के ही समान दुर्गेम्य हँ । वृत्र-घधादि
करने के कारण मेरै पास सब जाते हुँ।
४. जिस ससय यजमान मुझे स्तोत्र और सोम के द्वारा सुप्त करते
हुँ, उस समय में शत्रु के गौ, अश्व, हिरण्य और क्षीर आदि से युक्त पशुदल
को, आयुध से, जीतता छुँ और दाता यजमान के शमू-दिनाइ के लिए
अनेकानेक झस्त्रों को तेज करता छुँ।
५. में सब धर्मों का स्वामी हुँ। मेरे धन का कोई पराभव नहीं कर
सकता। मेरे भक्त कभी मृत्यु-पात्र नहीं होते अथवा में मृत्यु के सामने
कभी नीचा नहीं होता हैं। यजसानो, मनोऽभिलुषित धन मुझसे ही
माँगो। पुरुओ, मनुष्य लोग मेरी मैत्री नहीं नष्ट करे।
६. जो प्रबल निःश्वास करके, दो-दो करके, अस्त्रधारक इन्द्र के साथ
युद्ध करने को प्रस्तुत हुए थे और जो स्पर्ढा के साथ मुझ बुराते थे,
कठोर वाकय कहते हुए उन्हें मेन एसा आघात किया कि, वे मर गय।
थे नत हुए; में नत होने का नहीं।
७. एक शत्रु आवे, तो उसे भी हरा सकता हूं। दो आवे, तो उन्हें
भी हरा सकता हूं। यदि तीन ही आवे, तो मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं?
जैसे किसान, धान सरूने फे समय, अनायास ही पुराने धान्य-स्तम्भों को
मल डालता हे, बेसे ही निष्ठुर शत्रुओं को में मार डालता हूं ।
८, मैंने ही गुंगुओं के देश में, प्रजां के बीच, अतिथिग्व के पुत्र
दिवोदास को प्रतिष्ठित किया था। वह गुंगुओं के शत्रुओं का संहार करले
हुँ, विपत्ति का निवारण करते हे और अञ्न के समान उनका पालन करते
Fo, Pi acter
६ हुन्दी-दग्वेव १२८७
हैं। पर्णय और करञ्ज नास फे शत्रुओं के दघ ते युदत संगाच में में भली
भाँति विश्यात हुआ था।
९. शेरे स्तोता सबके लिए आश्रयणीय, अवान् और भोगदात।
हुँ। मेरे स्तोता को लोग गोदाता और सित्र भागते हें। में अपने स्तोता
की विजय के लिए, युद्ध में, आयुध ग्रहण करता हूँ। स्तोता को में स्तुत्य
कएता हूं ।
१०. बो में से एक सोम-यज्ञ करता है। पालक इन्द्र ने उसके लिए
बसा धारण करके उसे भ्ी-सम्पन्च बनाथा। तीक्ष्णदेजा सोम, यज्ञ-कर्ता
के साथ शत्रु युद्ध करसे को उद्चत हुआ; परन्तु अन्धकार के बीच बध
गया।
११. इख आदित्यं, वस्तुओं और रुद्रं (वा मरुतों) के स्थान को
नहीं नष्ट करते। मुझ अपराजित, आहसित और अनभिभूत को इन देवों
ने कल्याण और अन्न के लिए बनाया है।
४९ सूक्त
(देवता वेकुण्ठ इन्द्र । ऋषि इन्द्र । छन्द जगती और त्रिष्दुप)
१. स्तोता को सेने मुख्य धन दिया। यज्ञानुष्ठान मेरे लिए बद्धक हैँ।
अपने लिए यजमान के धन का प्रेरक में ही हँ। अयाजिक को सारे संग्रामों
में हराता हूँ।
२. स्वर्ग के देवता, भूचर और जलचर जन्तु भेरा नाम इन्द्र रक्खे
हुए हें। युद्ध में जाने के लिए में हरितवर्ण, पौरषशाली, विविधकर्मा
और लघुगामी अइवों को रथ में जोतता हूँ । धर्षक बज्न को, बल के लिए,
धारण करता हू ।
३. समे, उना ऋषि फे मङ्काल के लिए, अत्क मामक व्यक्ति को,
प्रहार के द्वारा, ताड़ित किया था। मेने रक्षा फे उपयोगी अनेक कार्य करके
कुर को बचाया था। शुष्ण के बघ के लिए सेने बा घारण किया था।
वस्युजाति का माम मेये आर्य नहीं रक्खा॥
१२८४ दिप्यी-नदम्बिद
४, सँगै पिता कै समा वेतसु नाम का देश कुल्स ऋषि के घश में कार
दिया था। तुग्र और स्सदिभ को भी फुस्स के वश में कर दिया था। में
घजमान को श्री-सम्पत्न कर देता हैँ। पुत्र समझकर उसे प्रिय वस्तु देता
हैं, जिससे बह दुर्शर्ष हो उठे।
प्. मेने उस समथ शुतर्या ऋषि के वश्च में सुगय असुर को कर दिया
था, जिस समय उन्होंने भेरी स्तुति की थी। सैने वेश को आयु के और
बड्गुभि फो सत्य के बद में कर दिया था।
६. वत्रवध के समान ही मेने नववास्त्व और बृहद्रथ का घध किया
था। उस समय ये दोनों वर्दमान और प्रसिद्ध हो रहे थे। इन्हें मेने
उज्ज्यल संसार से बाहुर निकाल दिया था।
७, शीघ्रगामी अब्वों के द्वारा होये जाकर में अपने तेज से सूर्य की
धारों ओर प्रदक्षिणा करता हुँ। जिस समय यजमान के सोमाभिषय के
लिए मुझे बुलाया जाता है, उस समय हथियारों से में मारने योग्य शत्रु
को दुर करता हूँ।
८, में सात शत्रु-पुरियों को ध्वस्त करनेवाला हूँ। में सबसे बढ़ा
बन्धन-कर्सा हूँ। बलौ जानकर मेंने तुर्वश और यढु को प्रसिद्ध किया है।
मैंने अन्य स्तोताओं को बलिष्ठ बनाया हे । मेने निन्यानबे नगरौं को
नष्ट किया है ।
९. से जल-वर्षक हँ। जो सात सिन्धू आदि नदियाँ, व्रवरूप से, पुणिवी
पर प्रवाहित हो रही हँ, उन सबको मेंने ही यथास्थान रक्खा है। में शोभन-
कर्मा हूँ। में ही जल-वितरण करता हुँ। युद्ध करके मैंने यज्ञकर्ता के लिए
मार्ग परिव्कृत कर दिया है।
१०. गायों के स्तन में मंने ऐसा स्पुहणीय, दीप्त और मधुर हुग्घ
रक्खा है, जैसा कोई भी देवता नहीं रख सकता। घह स्तन नदी के समानं
डूब का वहन करता है। सोम के साथ मिलाने पर दुग्ध बहुत ही सुखकर
हो जाता हूँ
हिष्दी-नहु्येव १२८९
११. ; से इग की रहिए )-नसुरः प्रशार इस अपने
प्रभाव से देवों ओर मनृष्यों को सोभाग्य-प्म्पन्न करते हुँ। इन्द्र के पास
धन ह; वं ही यथार्थ धनी हुँ। और अहवथुवत इन्र, दुभ्हारा
कायं तुम्हारे अधीन है। अतीच व्यस्त होकर महिषदा लोग तुस्हारे उन
कार्यों की प्रशंसा करते हुँ
५० झुर
(देवता ओर ऋषि पूर्ववत् । छन्द जगती, अभिसारिणी,
त्रिष्टुपू आदि ।)
१. स्तोता, तुम्हारे महान् सोम से इख प्रस्त होते हैँ। थे सबके
सेता और सबके सूष्टि-कर्ता हैं। उनकी पूजा करो। इख की आइन
जनक शक्ति, विपुल कीति और सुख-सम्पत्ति की सारा चुलो और
भनुजलोक प्रशंसा करता हे।
२. इन्द्र सबके स्तुत्य और सबके प्रभु हैं। थे घन्धु के समान सनष्य
के हितैषी हैं। मेरे समान मनुष्य को उनकी सदा सेवा करनी चाहिए।
बीर और साधु-पालक इन्द्र, सब प्रकार के बड़े कार्यों और बल-साध्य
व्यापार के समय तथा मेघ से दृष्टि-प्रतप्सि के लिए तुम्हारी स्युति कर्मी
घाहिए ।
३. इन्द्र, वे सौभाग्यशाली कौन हैं, जो तुमसे अञ्च, धन और सुखः
सम्पदा पाने के अधिकारी हें। वे कौन हें, जो तुम्हें असुर-बध-समर्थ बल
पाने के लिए सोमरस प्रेरित करते है। थे कौन है, जो अपनी उर्वरा कसि
में वृष्टि-जल और पौरष पाने के लिए सोसरस प्रदान करते हैं।
४, इन्द्र, यज्ञानुष्ठान के द्वारा तुस महान् हुए हो। सारे बच्षों सें
तुम यज्ञ-भाग पाने के अविकारी हो। घुम सारे ही गर्डौ में प्रधाव-प्रधाल
शत्रुओं फे ध्वंसक हुए हो। अखिल-गह्माप्ड-दशेश इत्र, घुम सर्ष-श्रेष्ठ
मन्त्र-रुष हो ॥
११९७ हिन्वी-ऋग्येद
५. तुझ सर्वश्रेष्ठ हो। यजमानों की रक्षा करो। समृष्य जानते हुँ
कि, तुम्हारे पास महती रक्षा प्राप्त की जाती है । लुम अजर होओ,
बढ़ी । ऐसा करो कि यह सोस-याग शीघ्र सम्पच्च हो।
६, बसी इख जिन सोस-यज्ञों को तुम धारण किये रहते हो, उनको
शीघ्र सम्पन्न करते हो। तुम्हारे पास आश्रय पामे फे लिए यह सोमपात्र,
थह सम्पत्ति, यह यञ्च, यह सत्त्र और यह पवित्र वाक्य उद्यत हैं।
७. मेधावी इख, स्तोध-लिरत स्तोता लोग नाना प्रकार का धन
पाने की इच्छा से एकत्र होकर तुम्हारे लिए सोम-यज्ञ करते है। बे, सोस-
रूप अञ्न प्रस्तुत होने के पश्चात् जिस तमय आमोद-आह्लाद प्रारम्भ होता
है, उस समय स्तुति-लूप साधन से सुख-लाभ के अविकारी हों।
५९ सूक्त
(देवता तथा ऋषि अर्नि आदि देव-वृन्द् । छन्द त्रिष्टुप् आदि |)
१. (अग्नि हुड्ियहुन-कार्य से उद्युक्त होकर जल में छिप गये थे।
उन्हीं के प्रति देवों की उक्षित)--अग्नि, तुम अतीव प्रकाण्ड और स्थूल
आच्छादन से वेष्टित होकर जल में पेठे थे। ज्ात-प्रज्ञ अग्नि, तुम्हारे
अनेक प्रकार के शरीर को एक देवता मे देखा ।
२. (अग्नि की उक्षित)--मुझभे किसने देखा था? वे कोन देवता
हें, जिन्होंचे मेरी नाना प्रकार की देह को देखा था? मित्र ओर वरुण,
भरिन की बह दीप्त और देवथान-साघन देह कहाँ है, कहो तो ?
३. (देवों की उक्ति) --ज्ञातप्रज्ञ अग्नि, जल और ओषधियों में
` तुस पठे हो। तुम्हें हम खोजते हें। विचित्र किरणोंबाले अग्नि, यम, तुम्हें
देखकर, पहचान गये। यम ने देखा कि, तुम अपने दस स्थानों (तीन भुवन,
अन्, व्यु, आदित्य, जल) ओषधि, वनस्पति और प्राणि-शरीर) से
भी अधिक दीप्व हो रहे हो।
४. (अग्नि की उक्ति )--वरुण, मेंहोता फे कार्य से भय पाकर चला
काया हुँ में चाहता हूँ कि देवता लोग अब होप-काय में नियुक्त न करें।
हिन्दी-ऋण्वेद १२९१
इसी लिए मेरी देह नाना स्थानों में गई है। (अग्नि) अब ऐसा कार्य
नहीं करमा चाइता।
(देयों को उवित)--अग्नि, आओ। सनष्य यज्ञाभिलाषी हुआ
हँ । बह् यज्ञ का सारा आयोजन कर चुका हे और हुम अन्धकार सें हो।
देवों से होमीय द्रव्य पाने की इच्छा से सरल मार्ग कर दो। प्रसक्-चेता
होकर हवि का बहन करो।
६- (अग्नि की उक्ति)--इेवो, जेसे रथी दूर मागे को जाता
हैं, बसे ही मेरे ज्येष्ठ तीव राता (भूपति, भुबनपति और भूतपति) इस
कार्य को करते हुए नष्ट हो गये। इसी डर से में दुर चला आया हुँ। जैसे
६वेत हरिण धनुर्द्धारी की ज्या से डरता हे, वैसे ही में डरता ह।
(देवों की उक्ति)--ज्ञातप्रज्ञ अग्नि, हुम तुम्हें जरारहित आय
देते हैं। इससे तुम नहीं मरोगे। कल्याण-मूर्ति अग्नि, प्रसन्न-चित्त होकर
देवों के पास यथाभाय हव्य ले जाओ।
(अग्नि की उक्ति)--देदो, यज्ञ का प्रथम हूविर्भाग (प्रयास)
और इष हविर्भाग (अनूयाज) तथा अतीव विपुल भाग मुझे दो।
जरू का सार भाग घत, ओषधि से उत्पन्न प्रधान भाग और दीर्घ आय दो।
९. (देवों का कथन) --अर्नि, प्रयाज, अनुयाज, बिपुल और अला-
धारण हविर्भाग तुम्हें सिलेगा। चे सारे यज्ञ भी तुम्हारे ही हों। चारों
दिशाय तुम्हारे पास अवनत हौं ।
4९ सूक्त
(देवता विशवदैवणण् । ऋषि अग्नि । छन्द त्रिष्टुप।)
१. विश्वदेव, तुमने मुझे होता के रूप में वरण किया है। सें यहाँ
बैठकर जो मन्त्र पढ़गा, उसे कह दो। मेरा भाग कौन है और तुम लोगों
का भाग कौन है, यह मुझे कह दो। जिस मा से तुम्हारे पास में होमीय
द्रव्य ले जाऊंगा, यह भी कहु दो।
९ Foe cre
१२९२ देइ
be
२. होता होकर में यज्ञ क्गा। इसी से येठा हुआ हूँ। सारे देवों
गीर मण्तों ने मुझे इस कार्य में नियुवत किया है। अझ्विद्ठय, तुम्हें प्रति
दिव अध्वर्थ् का कार्य करना होता हूँ। उज्ज्वल सोम स्तीतृ-रूप हो
इहे हुँ। तुम दोनों सोम पीते हो ।
३. होता को क्या करना होता हे ? होता यजमान के जिस द्रव्य का
हुवन करते हुँ, वह देवों को मिलता हें । प्रतिदिन और प्रतिमास होम
होता है। इस कायं में देवों मे अग्नि को हव्यबाहक नियुक्त किया हृ।
४, में (अग्नि) नै पलायन किया था। में अनेक प्रकार के कष्ट करता
था! मुझ देवों ने हव्य-याहन नियुक्त किया हँ । विद्वान् अग्नि हमारे यज्ञ
का आयोजन करते हैं। यज्ञ के पाँच मागे हें। उसमें तीन बार सोम का
निष्पीडन (सवन-त्रय) किया जाता हूँ और सात छन्दों में स्तव किया
जाता हें।
५. देवो, में तुम्हारी सेवा करता हूँ। इसलिए तुमसे प्रार्थना करता
हुँ कि मुझे अमर करो और सन्तान दो। में इन्द्र के वोनों हाथों में वजा
देता हूँ । तभी वह इन सारी शत्रु-सेनाओं को जीतते हें ।
६. तीन हजार तीन सौ उनतालीस देवताओं ने अग्नि की सेवा की
है। अग्नि को उन्होंने घृत से अभिषिष्त किया हूँ, उनके लिए कुश बिछा
दिया है और उन्हें होता के रूप में यज्ञ में बेठाया हु ।
५३ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि देवतागण । छन्द त्रिष्दुप और जगती।)
१. सन से जिम अग्नि की हम कामना करते थे, बह आगये हुं। अग्नि
यज्ञ को जानते है। बह अपने अङ्कों को सम्पूर्ण करते हें। उनके समान
कोई भी यज्ञकर्ता नहीं है । बे हमारा यजन करें। यजनीय देवों के मध्य
बे बेदी पर बैठे हुए हैं ।
२. अस्ति, होता और श्रेष्ठ यज्ञकर्ता हैं। वेदी पर बैठकर आहति
के योग्य हुए हूँ। अग्नि भली भाँति रक्खे हुए चरु, पुरोडाश आवि को
हिन्दी-ऋणग्वेद १२९३
चारों ओर से देख रहे हैं। इसलिए कि, आजुतिषान्न देवों का शीष यज्ञ
किया जाथ और स्तुत्य देवों की स्तुति की जाथ।
३. हम लोगों का देवागशन-रूपए यक्ष-कार्य है, उसे अग्नि सुसम्पञ्च
करें। यज्ञ की जो गढ़ जिल्ला (अग्नि) है, उसे हम पा चुके हैं । अग्नि
सुरभि होकर और दीघं आयु पाकर आये हुं। देवाह्ञाम-हूप यज्ञ को
अग्नि ने पूर्ण किया हूं ।
४. जिस वाक्ष्य का उच्चारण करने पर हुस अधुरों का पराभव कर
सकें, उस सर्वश्षष्ठ वाक्य का हस उच्चारण करें। अश्यभक्षक्, यश्चन्योग्य
ओर पञ्चजनो (देव मनृष्यादि को), हुम लोग हमारे होम-कार्य का
सेवन करो।
५. पञ्चजन (देवादि) मेरे होत्र का सेवन करें। हुब्य के लिए उत्पन्न
और यज्ञाई देवता मेरे होश का सेवन करें। पृथियी हमें पाप से बचादे।
अन्तरिक्ष हमें पाप से बचाने ।
६. अग्नि, यज्ञ विस्तार करते हुए इस लोक के दीप्ति-कर्ता सूर्य के
अनुगामी बमो (सुर्यभर्डल में पेठो)। सत्यर्म-हार। जिन ज्योहिमय
मार्गों (देवयानों) को प्राप्त किया जाता है, उनकी रक्षा करो । बे
अग्नि स्तोताओं का कार्य निर्दोष कर दें। अग्नि, तुम स्तबनीय बमो और
देवों को यज्ञाभिगाझी करो।
७. (यद्भायमयेञ्छ् देवता कहते हैँ)--सोल-योग्य देयो, रथ में
जोतने योग्य घोड़ों को रथ सें जोतो। घोड़े का लगाम साफ़ करो। घोड़ीं
को अलंकृत करो। आठ सारराथयों के बैठने योग्य रथों को, सूर्थ-रथ के
साथ, यज्ञ मे रे जाओ । इसी रथ से देवता अपने शौ छे जाते हुँ ।
८. अइसन्बती नाम की नदी बह रही हे। प्रस्तुत होकर इसे लॉघ
जाओ। भिन्न देवो, जो कुछ असुख था, उसे छोड़कर आर सदी पार
कर हम अन्न वादेश ।
९, स्वष्टा पात्र निर्माण करमा जानते हैं। उन्होंने देवों के लिए
अतीव सुदंर पान पात्र बनाये है। वे उत्तम लोहे से बनाये गये कुठार
११९४ हिन्दी-ऋग्वेद
को तेज कर रहे हुँ। उसी से ब्हामस्याति पान बनाने के योग्य का को
काठले है ।
१०. भेधावियों, जिन कुठारो से अभुत-पान के लिए (अमर होने के
लिए) पात्र बनाया करते हो, उन्हें भली भाँति तेज करो। पिद्यावों, तुम
ऐसा गोपनीय वास-स्थान बवाओ, जिससे देव असर हुए थे।
११. मृत गायों में से एक गाय को ऋभुओं ने रणखा और उसके मुख
में एक बछड़ा भी रक्खा। उनकी इच्छा देवता बनने की थी। इस
कार्य को सस्यन्न करने का उपाय उनका कुठार है। प्रतिदिन ऋभृगण
अपने योग्य उत्तमोत्तम स्तोत्र ग्रहण करते हैं। थे अवश्य शन्नुजयकर्ा हैं।
५४ सूक्त
(दैवता इन्द्र ऋषि वामदेवीय बृहदुक्थ । छन्द त्रिष्टुप।)
१. घनी इ, तुम्हारी महुती कोति का में वर्णन करता हूँ. जिस समय
झावापृथिवी ने डरकर तुम्हें बुलाया, उस समय तुमने देवों की रक्षा की,
इस्युदल का संहार किया और यजमान को बल प्रदान किया।
२, इस, तुसने अपने शारीर को बढ़ाकर और अपने सारे कार्यों की
घोषणा कर जिन सब बलसाध्य व्यापारों को सम्पन्न किया, वे सब माया
सात्र हुँ; तुम्हारे सारे युद्ध में माया भर है । इस समय तो तुम्हाश कोई
भी शत्र नहीं है। क्या पहले था? यह भी सम्भव नहीं।
३. इस, हमसे पहले किसी ऋषि मे तुम्हारी अखिल सहिमा का अन्त
थाया था। तुमने अपने ही शरीर से अपने माता-पिता को (द्यावापृथिवी
को) एक साथ उत्पन्न किया था।
४. लुन महान् हो। तुम्हारे चार असुर-बावक और अहिसिनीय शरीर
हैं। धनी इन्द्र, उन्हीं शरीरों से तुम अपन बड़े कार्यो को करते हो।
५, प्रकट ओर छिपी हुई--दोनों तरह की सम्पत्तियों को तुम
अधिकार में करते हो। इन्द्र, सेरी अभिलाषा पुरी करो। तुम स्वयं दान
करने की आजा करते हो ओर स्वयं दान देते हो।
हिन्दी-ऋणग्वेद १३९५
णे 00 हदि छ up चर fo [re ले
६. जिन्होंने ज्योतिमंय पदार्थो में ज्योति व्याप्त की है नौर जिल्होंगे
सधु देकर सोमरस आदि मधुर वस्तुओं की सृष्टि की है, उनके लिए बुहदुजण
eS
मंत्रों फे कर्ता ऋषि गे प्रिय और बलर स्तो किया थए।
५५ सूक्तं
(देवता, ऋषि, छन्द आदि पूवं इत् !)
व्र, तुम्हारा शरीर हूर हु। पराङ मुल होकर सनष्य उत्को
छिपाते ह। जिस समय थावापथिवी उसको अञ्न कै लिए बलाहे
है, उस समय तुम अपन पास की मेघराशि को प्रदीप्त करते हो बौर
पृथिवी से आकाश को ऊपर पकड़ रखते हो।
२. तुम्हारा विस्तृत स्थानों में ब्याप्त गुद शरीर (अन्तरिक्ष) अत्यन्त
प्रकाण्ड हु। उससे तुम भूत और भविष्य को उत्पन्न किया है। जिन
ज्योतिसंय वस्तुओं को उत्पन्न करने की इच्छा हुई, उससे सब प्राचीन
वस्तुएँ उत्पन्न हुई; उससे पञ्चजन (चारों वर्ण और निषाद) प्रसन्न हुए ।
३. इन्द्र (सुर्पात्मक) ने अपने शरीर (वा तेज) से छुलोक, भूलोक
आर अन्तरिक्ष को पुण किया। इन्द्र, समय-सयय पर पाँच जातियों (देव,
मनुष्य, पितर, असुर और राक्षत) और साथ तत्वों (सात
मरुदूगण, सात सुर्य-किरण, सात लोक आदि) को, अपने प्रदीप्त वावाविध
कार्यों के द्वारा, जारण करते हो। बह सब कार्य एक ही भाव से चलते हैं।
इस संजंध में मेरे तोस देवता (आठ बसु, एकादश खर) दादश आदित्य,
प्रजापति, बषदकार और विराट) इन्द्र की सहायता करते हूँ।
४. उषा, नक्षत्र आदि आलोकधारी पदाथों में तुमने सबसे पहले
आलोक दिया हूँ। जो पुष्ट है, उसको हुझने और भी पुण्ड किया है। लुम
ऊपर रहती हो; किन्छु निम्मस्थ मनुष्यों के साथ तुम्हारा बन्धुत्व है। यह
तुम्हारा महस्व और एक ही अफुष्ट-वलस्ब हू।
५. जित समय (कालात्मक) इन्द्र युबा रहे हैं, उस समय सब कार्य
करते हैं; उन द्रावक के भय से युद्ध में किएने ही शत्रु भागते हुँ; परन्तु
ii
९४९९ हिन्दी-म्डुग्वेध
शनेक काळों का युद्ध काल उनका ग्रास कर लेता है। उनकी शहश्यजणक
प्रसधा देखिए कि, थे कल जीवित थे, आज सर गये ।
$ एुक सुब्वर पक्षी (इखात्यूफ) आ रहा हूं। उसका बल अद्भुत
ए असनका हु। बह महान्, विक्रान्त, प्राचीन ओर बिना घोंसले
का है। वह जो करना चाहता है, बह अवश्य ही हो जाता हूँ । बह
अभिजुषणीय सम्पत्ति को जीतता और उसे स्सो्षाओं को दे डाळता हे
७० घप्ञथर इख मे मण्यों के साथ वर्षक बल को प्राप्त किया। सस्तो
के साथ इख ने वृष्टि बरसाई और घुत्र का वध करके पुृथियी को अभि,
षिइत किया। महान् इख) जिस समथ वे कार्य करते हैं, उस समय स्वयं
मयदूगण पुष्टि की उत्पत्ति के कार्य में लग जाते हे
८. मच्यो की सहायता से इख थे कर्म करते हैं ॥ उनका तेज सवंगन्ता
है। बे राक्षसों को भारते हुँ। उनका सन विश्व-व्यापी हु । वे क्षिप्र
विजयी हैँ। इन्र ने आफाद से आकर और सोम-पाव करके अपने शरीर
फो बढ़ाया ओर आयुध से असुरों (बस्युओं) को सार।
५६ सकत
(देवता विश्वदेवगण् । ऋषि वादेच-पुत्र वृह्ददुक्थ। छ प्
शोर जगती ।)
१, (आयने बृत पुत्र बाजी से ऋषि कहते है )--सुम्हारा एक अंश यह
अग्मि है। एक अंश यह वायु है। तुम्हारा तीसरा अंश ज्योतिर्भय आत्मा
है। इन तीन भंशों के द्वारा तुस अग्नि, बायु और सूर्य में पेठो। अपने
शरीर के प्रवेश के समय हुम झल्परण-्यूषस धारण करो ओर देडों में उन
सर्वश्रेष्ठ और पितृस्वरूप दुर्यं के भूमन में प्रिय होओ।
२. बाजी, पृचियी दुम्हारे शरीर को ग्रहण करती हैं । ये हमारे ए
प्रीधिजनक हों; तुम्हारा भो फह्याग कर दुय स्थाम-अण्ड स होकर,
(ति वारण करने के छिए, देवों और याफाशस्ण दुर्ये फे साथ अपची
आहसा को भिला दो।
हिन्दी-ऋग्वेद १२९७
३. पुत्र, तुम बल से बली और सुन्दर हो। जिस प्रकार तुमने उत्तम
स्तोत्र किया था, उसी प्रकार उत्तम स्वर्ग में जाओ। उत्तम धर्म का तुमने
अनुष्ठान किया है; इसलिए उत्तम फल पासो। उत्तम देवता और उत्तम
सुर्यं के साथ मिलो ।
४. हमारे पितर, देवता के समान, महिमा के अधिकारी हुए हें। उन्होंने
देवत्व प्राप्त करके देवों के साथ क्रिया-कलाप किया है। जो सब ज्योतिर्मय
पदार्थ दीप्ति पाते हैं, बे उनके साथ मिल गये हूँ; वे देवों के शरीर में
पैठ गये हँ!
५. अपनी शक्ति से वे पितर सारे ब्र ह्माण्ड को घूम चुके हैं। जिन सब
प्राचीन भुवनों में कोई नहीं जाता, वे वहाँ गये हैँ। अपने शरीर से उन्होंने
सारे भुवनों को आयत्त कर लिया हैं । प्रजावृन्द के प्रति नाना प्रकार से
अपना प्रभाव विस्तारित किया है ।
६. सुर्यं के पुत्र-छप देवों ते तृतीय कार्य (पुत्रोत्पत्ति-ङूष) के द्वारा
स्वर्गञ्ञाता व सर्वज्ञ और बली सुर्य को दो (प्रातः-सायं) प्रकार से स्थापित
किया हे। मेरे पितरों ने सन्तानोत्पत्ति करके सन्तानों के शरीर में पैतुक
बल स्थापित किया । वे चिरस्थायी बंश रख गये।
७. जैसे लोग नौका से जल को पार करते हु, जैसे स्थल पर पृथिवी
को भिन्न दिशा का अतिकम करते हँ और जेसे कल्याण के द्वारा सारी
विपदाओं से उद्धार होता हँ, बैसे ही बृहबुक्ध ऋषि ने, अपनी शक्ति से,
अपने मृत पुत्र को अग्नि आदि पार्थिव पदार्थो ओर सूर्यं भादि दूरवत्तीं
पदार्थो में सिला दिया ।
५७ ढूक्त
(देवता मन । ऋषि बन्छु, श्रतबन्धु ओर विप्रबन्धु आदि । छन्द
गायत्री ।)
१. इन्त्र, हुम सुपथ से कुपथ में न जायें। हम सोघयाले के गृह से हूर
में जायें। हमारे बीच शत्रु न आने पाय ॥
पः० ८२ ।
१२९८ हिन्दी-ऋगेद
२, जिन अग्नि से यज्ञ की सिद्धि होती हँ और जो, पुत्र-स्वरूप होकर,
देवों के पास तक विस्तृत हु, उन अग्नि का हुवन किया जाय और हम उन्हें
प्राप्त कर र।
३. मराशंस (पितर) के सम्बन्ध के सोम फे द्वारा हुम सन को बुलाते
हुँ। पितरों के स्तोत्र के द्वारा मन को बुळाले हैं।
४. (जाता सुबन्धु) तुम्हारा सन फिर आवे । कार्य करो, बल प्रकट
करो। जीवित रहो ओर सूर्य के दर्शन करो ।
५. हमारे पूर्व-पुरुष मन को फिरा दे और देवों को फिरा वें। हुम
प्राण ओर उसका सब कुछ आवुर्ष्किक प्राप्त करें ।
६, सोम, हुम देह में सन को धारण करते हैं। हुम सन्तति-युक्त होकर
तुम्हारे कार्य में सिले।
५८ सूक्त
(देवता मृत सुबन्धु का मन, प्राण आदि । ऋषि सुबन्धु के आता
बन्धु आदि । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. विवस्वान् के पुत्र यस के पास, दुर पर, तुम्हारा जो मन गया हुँ,
उसे हम लोटा लाते हें। तुम इस संसार में निवास के लिए जी रहे हो ।
२. तुम्हारा जो सन अत्यन्त दुर स्वग अथवा पृथिवी पर चला गया
है, उसे हम लोटा लाते हँ। तुम संसार में निवास के लिए जीते हो।
३, चारों ओर लृढ़क पड़नेवाला जो तुम्हारा मन अतीव दुरदर्शी देश
में गया है, उसे हम लौटाते हैं। तुम संसार में निवास के लिए जीते हो।
४, तुम्हारा मन जो चारों ओर अतीव दूरस्थ प्रदेश में चला गया हुँ,
उसको हम छोटाले हूँ। तुम संसार में निवास के लिए जीते हो।
५. तुम्हारा जो मन अतीव दूरवर्त्ती ओर जरू से परिपुर्ण समुद्र में गया
है, उसे हम लौटाते हैं। तुम संसार में निवास के लिए जीवित हो।
६. तुम्हारा जो मन खारों ओर विकीर्ण किरण-मंडळ में पेठा हु, उसे
हम लोटते हें। संसार में तम निवास के लिए बर्त॑सान हो ।
हिन्दी-त्रदग्व १२९९
७. तुम्हारा जो मन दूरस्य जल के भीतर व वक्षलतादि के मध्य में गया
है, उसे हम लौठाते हैं। संसार में निवास के लिए तुम विद्यमान हो।
८. तुम्हारा जो सन दूरवर्ती सूर्थ व उषा के बीच गया ह, उसे हम
लौटाते हु। संवार में निवास के लिए तुम विद्यमान हो।
९, तुम्हारा जो मन दूरस्थ पर्वतसालःओं के ऊपर चला गया है, उसे
हम लोटाते हे। संसार में निवास के लिए तुम वर्तमान हो।
१०. तुम्हारा जो मन इस समस्त विशव में अतीव दूर चला गया है,
उसे हम लौटाते हुँ। संसार में निवास के लिए तुम हो।
११. तुम्हारा जो मन दूर से भो दुर, उससे दूर, किसी स्थान पर चला
गया है, उसे हम लोटते हैं। संसार में निवास के लिए तुम जीते हो।
१२. तुम्हारा जो मन भूत व भविष्यत्--किसी दूर स्थान पर चला
गया हूँ, उसे हम लोटाते हैं। संसार में निवास के लिए लुम जीते हो।
५९ सूक्त
(देवता निक्रति, असुनीति आदि । ऋषि बन्धु आदि । छन्द
त्रिष्टुप्, पङ क्ति, मद्दापङ [क्ति आदि |)
१. जैसे कर्मकुशल सारथि के होने पर रथ पर चढ़ व्यक्ति सुख प्राप्त
करता हुँ, वैसे ही सुबन्धु की परमायु यौवन से युक्त होकर बढ़े। जिसकी
आय का ह्लास होता है, बह अपनी आयु की बुद्धि चाहता है। निन्दति
(पापदेवता) दूर हों।
२. एरगाःयुः-स्कूय सम्पत्ति पाने के लिए, साम-गान के साथ, हम अन्न
और भक्षणीय द्रव्य की राशि इकट्ठी करते हूँ। हमने नितर्सि की स्तुति
की है । बे सारै अम्नों के भोजन सें प्रीति प्राप्त करे और दूर देश जायं ।
३. बल के द्वारा हम शत्रुओं को हराबेगे। असे पृथ्वी के ऊपर आकाश
रहता है, वेते ही हम शत्रुओं के ऊपर स्थान प्राप्त करें। जैसे भेघ की गति
पर्वत के इरा रोकी जाती है, बसे ही हम शत्रु की गति को रोकं। हमारे
स्तोत्र को निहति सुनें ओर दूर चले जायं।
१३०० हिन्दी-प्प्ण्वेष
४. सोम, हमें मत्यु के हाथ में नहीं देना हम सूर्य का उदय देख सक ।
हमारी वृद्धावस्था दिन दिन सुख से बीते। निऋति दूर हों।
५. असुनीति (प्राण-मेत्री) देवी, हमारी ओर मन करो। हम जीवित
रहें; इसलिए हमें उत्कृष्ट परमायु प्रदान करो। जहाँ तक सुर्थ की दृष्टि
है, वहाँ तक हमें रहने दो। हम तुम्हें घी वेते हुँ, उससे अपना शरीर
पुष्ट करो।
६, असुनीति, हमें फिर नेत्र दो। फिर हमारे प्राण को हमारे पास
उपस्थित करो। हमें भोग करने दो। हुम चिरकाल तक सुर्योदय देख
सके। अनुमति, जिससे हारा विधाश न हो, इस प्रकार हमें
सुखी करो।
७. पुनः पृथिवी हमको प्राण दान करें। फिर झुलोक और अन्तरिक्ष
हुमें प्राण दें। सोम हमें फिर शरीर दें। पुषा हमें ऐसा हितकर वाक्य
प्रदान करें, जिससे हमारा कल्याण हो।
८. महती ओर मातृ-स्वरूपा द्यावापृथिवी सुबन्धु का कल्याण करें।
शुलोक और विस्तृत पृथिवी सारे अमद्भलों को दूर कर दें। सुबन्धु, थे
किसी भी प्रकार तुम्हारा अनिष्ट न कर सकें।
९. स्वर सें जो दो वा तीन औषध हुँ, (उनमे दो को अध्विनीकुमार
और तीन को सरस्वती व्यवहार में छाती हैं,) उनमें एक पृथिवी पर
विचरण करती है। (फलतः एक ही ओषध है)। सो सब सुबन्धु की
प्राण-रक्षा करे। शुलोक और बिस्तृत पृथिवी सारे अमंगलों को दूर कर
दे । सुबन्धु, किसी भी प्रकार से तुम्हारा अनिष्ट न कर सकें।
१०. इन्द्र, जो वृष उशीवर की पत्नी (वा ओषधि) का शकट ले
गया था, उसे प्रेरित करो । चुलोक और विस्तृत पृथिबी सारे अमंगलों
को दुर कर दे। सुबन्धु, किसी भी प्रकार से तुम्हारा अनिष्ट न
कर सके।
हिन्दी-ऋग्वेद १३०१
६० सूक्त
(देवता राजा असमाति आदि। ऋषि बन्धु आदि ! छन्द
गायत्री आदि |)
१. असमाति राजा का जनपद अतीव उज्ज्वल है। महान् लोग इस
देश की प्रशंसा करते हैं। नख होकर हम उस देश में गये । |
२. शत्र-संहार करनेवाले असमाति राजा की मूर्ति अत्यन्त प्रदीप्त
है। रथ पर चढ़ने पर जैसे अनेक अभिप्राय सिद्ध होते हैं, बैसे ही असमाति
राजा के पास जाने पर अनेक अभिलाष सिद्ध होते हैं। उन्होंने भजेरथ
राजा के वंश में जन्म लिया हुँ। वे झिष्ट-पालक हैं ।
३. वे हाथ सें तलवार धारण करे वा न करें। उनका एसा बल-वी्य
है कि, जैसे सिह भेंसों को मार गिराता है, वैसे ही बे मनुष्यों को गिरा
देते है ।
४. धनी और शत्र-संहारक इक्ष्वाकु राजा रक्षा-कार्य में नियुक्त हें।
पञ्च (चार वर्ण और निषाद) मनुष्य स्वग-सुख का भोग करें।
५. इन्द्र, जेसे सबके दर्शन के लिए तुमने आकाहा में सूर्य को रख
विया है, वैसे ही रथारूढ़ असमाति राजा का अनुगामी होन के लिए बीरों
को नियुक्त करो ।
६. राजन्, अगस्त्य के दौहित्रीं वा आनन्दी बन्धु आदि के लिए दो
लोहित घोड़ों को रथ में जोतो। जो सब व्यवसायी नितान्त कृषण हैं,
कभी दान नहीं करते, उन सबको हराओ।
७. जो अग्नि आथे है, थे माता, पिता और प्राणदाता औषध हैं।
सुबन्धु, तुम्हारा यही शरीर है। इसमें आकर पेो।
८. जैसे रथ धारण करचे के लिए रज्जु (पाश) से दोनों काष्ठों को
बाधते हे, वैसे ही अग्नि मे तुम्हारे मन को धारण कर रबखा है, ताकि तुस
जीवित और कल्याण-स्वछ्प बनो और तुम्हारी मृत्यू दुर हो।
१३०२ हिन्दी-ऋणवेद
९. जेसे यह विस्तीण पृथिवी विशाल-पिशाल वृक्षों को धारण किये
हए है, वैसे ही अग्नि ने तुम्हारे मन को धारण कर रक्खा हुँ, ताकि तुम
जीवित और कल्याण-स्वरूप रही और तुम्हारी मृत्यु दूर हो।
१०. विवस्वान् के पुत्र यघराज से मेचे सुबन्धु का सन अपहृत किया
है, इससे बे जीवित और क्षल्याण-स्वख्प होंगे और उनकी मृत्यु दुर होगी।
११. वायु शुलोक मे मीचे के लोक में बहते हूँ, सुर्य अपर से नीचे
तपते हैं। गाय का बध नीचे दूह जाता है। बेसे ही हे सुदन्षु, तुम्हारा
अकहल्याण नीचे गम करे।
१२. मेरा हाथ क्या ही सौभए्यशाली है । यह अत्यन्त सौभाग्य-
गाली है। यह सबके लिए भेषज है; इसके स्पश से कल्याण होता हत
६९ सूक्त
` (५ अनुवाक । दैवता विश्वदेव । ऋषि मनु-पुत्र नाभा नेदिष्ट |
छुन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. नाभा मेदिष्ट के साता, पिता, आता आवि, विषय-विभाग
क्रते समय, नाभा मेबिष्ट को भाग न देकर सुद्र की स्तुति करने लगे।
इससे नाभा नेदिष्ठ सप्र-स्तब करने को उद्यत होकर अङ्गिरा लोगों फे
यज्ञ में उपस्थित हुए और यज्ञ के छठे दिन में वे लोग जो भूल गये
थे, वह सब सात होताओं से कहकर यज्ञ समाप्त किया।
२. रुद्रदेव स्तोताओं को घन देने के लिए और झनुओं को नष्ट करने
के लिए उन्हें अस्त्रादि देते हुए वेदी पर जाकर वेठ गये। जसे मेघ जल
बरसात है, बैसे ही रुद्रदेव उपस्थित होकर, वक्तूता देते हुए, चारों ओर
अपनी क्षमता का प्रदर्शत करने लगे।
३. अइिविद्वय, में यज्ञ में प्रवृत्त हुआ हूँ। जो अध्वर्यु मेरै हाथ की
मेंगुलियां पकड़कर और विस्तृत हवि का संग्रह करके, तुम्हारा माय लेते
हुए, चरु पाक करता हूँ, उसी स्तोता अध्वर्यू का यज्ञीय उद्योग देखकर,
. सन के समान द्रुत वेग से, तुम लोग यज्ञ में जाते हो।
हिन्दी-क्रश्वेद १३०३
४. जिस सपण राजि का अन्धकार नष्ट होता है और प्रातःकाल
फी लाल आभा दिखाई देने लगती हुँ, उस समय, हे युलोक-पुत्र अदिवद्वय,
तुम्हें स बुलाता हूँ । तुम हमारे यज्ञ में पधारो। मेरा अन्न लो। दो ग्राहक
अइयो के समान उसे खाओ । हमारा अनिष्ट नहीं करना।
५. जो प्रजापति का वीर्य पुत्रोत्पादन सें समर्थ है, वह बढ़कर
निक्षला । प्रजापति ने मनुष्यों के हित के लिए रेत का त्याग किया। अपनी
सुन्दरी कन्या (उषा) के शरीर में ब्रह्मा वा प्रजापति ने उस शुक (वीर्य
प्रा रेत) का संफ फिया।
६. जिस समय पिता युवती कन्या (उषा) फे ऊपर पूर्वोदत रूप से
रतिकाभी हुए और दोनों का. संगमन हुआ, उस समय दोनों फे परस्पर-
संगसन से अल्प शुक्र का सेक हुआ। सुकर्म के आधार-स्दरूप एक उन्नत
स्थान में उस शुक्र का सेक हुआ।
७. जिस समय पिला ने अपनी क्या (उषा) के साथ संभोग किया,
उस समय पृथिवी के साथ सिलकर शुक्र का सेक किया। सुकुती देवों ने
इससे ब्रतरक्षक ब्रह्म (वास्तोष्यति वा शप्र) का निर्माण किया।
८. जैसे इन्द्र, नस् बघ-कार में, युद्ध में फेन फॅंकते हुए आये
थे, बसे ही मेरे पास से वास्तोष्पति ने प्रतिगमद किय। बे जिस पैर से
आये थे, उसी से लोट गये। ऑङ्करा लोगो ने मुझे दक्षिणा-स्वरूप जो
गाये दी थीं, उन्हें उन्होंने दूर किया। अवायाल ग्रहण-समर्थ होले पर भी
उन्होंने गायों को नहीं लिया।
९. प्रजा फे उत्पीडक और समाम अग्नि के दाहक राक्षस आदि
सहसा इस यज्ञ में नहीं आ सकते; क्योकि इस यज्ञ छी रक्षा रुद्र कर रहे
हुँ। रात को भी नग्न राक्षस यञ्चीय अग्नि के पास नहीं आ सकते। यज्ञ
के रक्षक अग्नि काठों को लेते हुए और अञ्च का वितरण करते हुए आवि"
भूत हुए और राक्षसों के साथ युद्ध सें प्रवृत्त हुए।
१०. मौ सास तक यज्ञानुष्ठान करते-करते अङ्गिरा लोग याये पाया
करते हें। उन्होंने कभनीय स्तुति की सहायता से, यज्ञ-्वदनों को कहतै-
१३०४ हिन्दी-ऋग्वेद
कहते, यज्ञ फी समाप्ति की। इहलोक और एरलोक, दोनों स्थानों में
बुद्धि श्राप्त फी और इच्च के पास गये। उन्होंने दक्षिगा-विहीन यज्ञ (सत्र
नामक यञ्च) करके अविनाशी फल प्राप्त किया
११, अङ्गिरा लोगों न जिस समय असूत के समान दूध देनेवारी
गायों के उज्ज्वल और पवित्र दूध को यज्ञ में दिया, उस समय सुन्दर
स्तोत्नों के द्वारा, नई सम्पदा के समान, अभिषिक्त वृष्टि-जल प्राप्त किया ।
१२. एसा कहा गया हुँ कि, इन्द्र यज्ञकर्ता का इतना स्नेह करते ह
कि, जिसका पशु सो गया है, उसके जानते या अनजानते ही, अतीव धनी,
कुशल ओर निष्पाप पशु को खोज देते है ।
१३. सुस्थिर इन्द्र जिस समय यहु-विस्तारक शुष्ण के निगूठ़ मम को
छोजकर उसे मारते हे अथवा नुषद के पुत्र को बिवीर्ण करते हें, उस समय :
उनके अनुचर, नाना प्रकार से, उन्हें घेरकर उनके साथ जासे हैं।
१४. जो देवता, स्वर्थे के समान, यश्-स्थान (कुश) में बैठते है,
अग्नि के तेज का माम 'भर्ग रखते हुँ। अग्नि फे एक तेज का माम
“जातवेदा” हैं । होम-निष्पादक अग्नि, तुम्हीं यज्ञ के होता हो। तुम्हीं,
अनुकूल होकर, हुमारे आह्वान को सुनते हो।
१५. इन्द्र, वे दो दीप्त-मृत्ति और रुद्रपुत्र अश्विद्वय मेरे स्तोत्र और
यज्ञ को ग्रहण करे। जसे वे मनु के यज्ञ में प्रसन्न होते हे, पैसे ही मेरे यज्ञ
में भी प्रसन्न हों। मेने कुश बिछाया है। प्रजा को धन वें और यज्ञ कै
ग्रहण करें।
१६. सर्वशष्ठ सोम की स्तुति, सब करते हूँ--हम भी करते हूँ ।
क्रिया-कुशल सोम स्वयं ही सेतु हें। वे जल को पार करते हैं। जैसे
शीघ्रगामी घोड़े चककों की परिषि को कंपाते हैं, वैसे ही कक्षीवान् और
अग्नि की भी कँपाते हैं।
१७. अग्नि यह लोक, परलोक--दोनों स्थानों के हितैषी है। बै
तारक और यज्ञ-कर्ता हँ। जब कि, अमृत के समान दूष वेनेवाली गाय.
दूध नहीं देती, तब उसे प्रसववती करके बे दुग्धदायिनी बनाते हुँ। मित्र,
हिन्दी-ऋग्वेद १३०६
वरण और अर्येसा को उत्तमोत्तम स्तोत्रं के हारा सन्यष्ट
जाता हुँ!
१८. स्वस्थ सूर्य, में तुम्हारा बन्धू नाभा नेदिएड हूँ । तुम्हारी स्तुति
करता हूं । मेरी इच्छा है कि, में गाये प्राप्त कें । घलोक (स्वर्ग) हमारा
ओर सूर्य का उत्तम उत्पत्त-स्थान हुँ सूर्थ से भेरा कितने पुरुष का अन्तर
ही ह?
१९. घुलोक ही मेरा उत्पत्ति-त्थान हे; यहीं में रहता है। सारे
देवता वा किरणं मेरे अपने है। मे सबका हँ। द्विज लोग सत्यरूप ब्रह्मा
से प्रथम उत्पन्न हुए हँ। पन्न-स्वरूपा गाय या भाध्यणिकी वाक् ने उत्पन्न
होकर यह सघ उत्पश्च किया।
२०, आनन्द के साथ जाकर अग्नि चारों और अपना स्थान ग्रहण
करते हं। यह उज्ज्वल, इस लोक और परलोक में सहायक और काठौं
को हरानेवाले हे । इनकी ज्वाला ऊपर उठती है। अग्नि स्तुत्य हैं।
अग्नि की माता अरणि इन सुस्थिर और सुखावहु अग्नि को शी
उत्पन्न करती हुँ ।
२१. उत्तमोत्तम स्तोत्र कहते-कहते मुझ नाभा नेदिष्ट को शान्ति
हो गई हे। मेरी स्तुतियाँ इर के पास गई हें। धनी अग्नि, सुनो। हमारे
इन इन्द्र का यज्ञ करो। में अश्वध्त वा अशवसेध यज्ञ करनेवाले (सनू)
का पुत्र हूँ। मेरी स्तुति से तुम बढ़ते हो।
२२. घज्जधर और नरेन्द्र इन्द्र, तुम जानो कि, हमने प्रचुर धन की
कामना की है। हम तुम्हारी स्तुति करते और तुम्हें हबि देते हँ। हमारी
रक्षा करो। हरि मास के दो घोड़ोंबाले इन्द्र, तुम्हारे पास जाक्षर हुम
अपराधी न हों। |
२३. दीप्त मृत्तिवाले मित्र और वरुण, गाय पाने की इच्छा से अझ्किरा
लोग यज्ञ करते थे। सर्घज्ञ नाभा वेदिष्ट स्तोत्राभिलाषी होकर उनके
निकट गया। में (नाभा नेदिष्ट) ने स्तोत्र किया और यज्ञ को समाप्त
किया। इसी लिए में उनका अत्यन्त प्रिय विप्र हुआ हूँ। |
१०६ स्ण्दी-्ऋग्वेज
२४. इस ससघ हम, गोधन पावे की इच्छा से, अनायास ही, स्तुति
करते इए अथश्ील बरुण के पास जाते है। शीघ्रगासी अइव उन वरुण का
र छुँ। असण, तुस नेधाची और अन्न देनेवाले हो ।
२५. मित्र ओर वरुण, अन्नवान् पुरोहित स्तुति करते हे। इसलिए कि,
तुम हमारे असि अनुकूल होगे। तुम्हारा बन्धुत्व अतीय हितकर हे । तुम्हारा
बन्धुत्व पाने पर सारे स्थानों में स्तोत्र-वाक्य उच्चारित होंगे। जसे खिर”
परिचित पथ सुखकर होता हैं, बसे ही तुम्हारा बन्धुत्व हमारी स्तुतियों को
सुखकर करे। |
२६. परम बन्धु वर्ण, देवों के साथ, उत्तमोत्तम स्तोत्र और नमस्कार
प्राप्त करके प्रवुद्ध हों। गाय के दूध की धारा उनके यज्ञ के लिए बहे।
२७. देवो, तुम्हीं यज्ञपान के अधिकारी हो। हमारी अली भाँति
श्क्षा के लिए, तुम सब मिलो। ऑङ्करा लोगो, उद्योगी होकर दुसने मुझे
अन्न दिया हे। तुम्हारा मोह विनष्ट हो गया है। इस समय तुम गोधन
प्राप्त करो।
्रयस अध्याय समाप्त ॥
६२ सूक्त
(द्वितीय अध्याय । देवता विश्वदेव आदि। ऋषि नागा नेदिष्ट।
छुन्द जगती आदि ।)
१, अङ्झिरा लोगो, तुम लोग यज्ञीय द्रव्य (हवि आदि) और दक्षिणा
से, एक साथ, इन्द्र का बन्धुत्व ओर असरत्व प्राप्त कर चुके हो। तुम्हारा
कल्याण हो। सुधी अङ्झिरोगण, इस सभय तुम मुझ सम्-पुत्र को ग्रहण
करो। में भली भाँति यज्ञ करूंगा । |
२. अद्धिरोगण, तुम लोग हमारे पितृ-सदृश हो। तुभ लोग अपहत
गाय को ले आये थे। तुम लोगों ने वर्ष भर यज्ञ करके “बल” नामक असुर
हिन्दी-ऋग्वेद १३०७.
को नष्ट किया था। तुम लोग दीर्घायु बनो। अङ्झिरौगण, इस समय तुम
मुझे मनु-पुत्र (मानव) को ग्रहण करौ। में भली भाँति यज्ञ कङँगा ।
३. तुम रोगों ने सत्यरूप यज्ञ के द्वारा थुलोक में शूर्ष को स्थापित
किया हूँ और सबकी बिर्मात्री पृथिवी के प्रसिद्ध किया है । तुम्हें सन्तति
हो। अङ्करोगण, इस समय तुम मुझ मानव को ग्रहण करो। में भली
भाँति यज्ञ करूँगा।
४. देवपुत्र ऋषियों (अज्िरा लोगो), यह नाभा नेदिष्ट तुम्हारे यज्ञ
सं कल्याणसय वचन कहता हु । सुची। तुम लोग शोभन ब्रह्म-तेज प्राप्त
करो। अईङ्किरोगण, इस ससय तुम मुझ मानव को ग्रहण करो। में भली
भांति यज्ञ करूंगा।
५. ये ऋषि लोग नाना-रूप हैं। अङ्गिरा लोग गम्भीर कर्मवारे हँ।
अङ्गिरा लोग अग्नि के पुत्र हैं। ये चारों ओर प्रादुर्भूत हुए हँ।
. जो बिविध रूप अङ्किरा लोग अग्नि के द्वारा बुलोक में चारों ओर
प्रादुर्भूत हुए, उनसे से किसी ने नौ मास तक और किसी मे दस मास तक
यज्ञ करने फे पश्चात् गोधन प्राप्त किया। देवों के साथ अवस्थित अङ्गिरा
लोगों में श्रेष्ठ अङ्गिरा मुझे घन देते हैं
७, कर्मकर्ता अङ्गिरा लोगों ते इख की सहायता प्राप्त करके अकवों
और गौओ से युदस गोष्ठ का उद्धार किथा। उनके कान लम्मे-लम्बे हुँ।
उन्होंने एक सहस्र गाये मुझे देकर देवों फे लिए यज्ञीय अहव दिया।
८. जल से सींचे हुए बीज के समान कर्मे-फल-युक्ष्त सार्वाण मत् बढ़ें।
मन्, इसी समय, सौ अश्व और सहस्र गायें अभी देने को प्रस्तुत हैं।
९. सन् के समान कोई भी दान देने में समर्थ नहीं है। स्वर्ग फे उच्च
प्रदेश के समान थे उन्नत भाव से अवस्थित हैँ। सार्वाग मत् का दान,
नदी फे समान, सर्वत्र विस्तृत हूँ।
१०. कल्याणकारक, गौओं से युक्त और दास के समान स्थित यदु
और तुर्व नामक राजि अनु के भोजन के लिए पशु देते हूँ।
, हिन्दी
१३०८ प्ण्जेद
00
११. मनु सहर गीऔं के दाता और मनुष्यों के नेता हैं। उनका कोई
अनिष्ट नहीं कर सकता। मन् की दक्षिणा सुर्यं के साथ तीनों लोकों भें
प्रसिद्ध हो। सार्वाण (सवर्ण-पुत्र) मन् की आयु देवता लोग बढ़ावें।
सारे कर्म करनेवाले हम अन्न प्राप्त करें।
६३ सूक्त
(देवता पथ्या ओर स्वस्ति । ऋषि प्लुति के पुत्र गय । छन्द् जगती
और त्रिष्टुप् |)
१. जो सब देवता दूर देश से आकर मनुष्यों के साथ मैत्री करते हुँ,
जो देवता, प्रसन्न किये जाकर, विवस्वान् के पुत्र मनु फी सन्तानों को धारण
करते हुँ और जो देवता नहुषपुत्र ययाति राजा के यज्ञ में उपविष्ड होते हैं,
चे घनादि-प्रदान फे द्वारा हमें सब्मान-शुरद कारे।
२. देवी, तुम्हारे सब नाम नमस्कार के योग्य, स्तुत्य और यज्ञ-योग्य
हैँ। जो देवता अदिति, जल व पृथिवी से उत्पन्न हुए हैं, वे तुस लोग मेरे
आह्वान को सुनो। |
३. सबको बनानेवाली पृथिवी जिन देवों के लिए अधुर दुग्ध बहाती
हैं ओर जिनके लिए मेघवान् और अविनाशी आकाश अभूत को धारण
करता है, उन सब अदिति-पुत्र देवों की स्तुति करो। इससे मंगल होया।
उनकी शक्ति प्रशंसनीय है। वे बृष्टि को ले आते हें। उनका कार्य अत्यन्त
सुन्दर हृ।
४. कर्मनिष्ठ मनुष्यों के बिना पलक गिराये दशंक ने देवता लोगों के
सेवन के लिए व्यापक अमृत्व प्राप्त फिया है। उनका रथ ज्योतिर्सय हे ।
उनके कार्य में विघ्न नहीं हे, वे निष्पाप हैं; लोगों के मंगल के लिए बे उन्नत
देश में रहते हैं।
५. अपने तेज से विराजमान और सुप्रवृद्ध जो देवता यज्ञ में आसे हुँ और
जो अहिसित होकर द्युलोक में रहते हें, उन सब महान् देवों और आदिति
का कल्याण के लिए नमस्कार और शोभन स्तुतियों से सेवन करो।
हिन्दी-ऋग्वेद १३०९
६. देवो, मुझे छोड़कर तुम लोगों की स्तुति कौन कर सकता हे?
ज्ञाता और सम्ताववाले देवो, जो यज्ञ पाप से बचाकर कल्याण देता है,
मुझ छोड़कर उस यज्ञ का आयोजन कौन कर सकता है?
७. अग्नि को प्रज्वलित करके सन् ने, श्रद्धावान् चित्त से, सात होताओं
के साथ, जिन देवों को उत्तम होमीय द्रव्य दिया है, वे सब देवता हमें अभय
वें, सुखी करें, हमें सर्वत्र सुभीता दे ओर कल्याण दें।
८. उत्तम ज्ञानी और सबके ज्ञाता देवता स्थावर संसार ओर जङ्कस
लोक के ईश्वर हें। बसे देवो, इस समय हमें अतीत और भविष्यत् पापी
से खचाकर कल्याण वो।
९, हम सब यजञों में इस्र को बुलाते हैं। उन्हें बुलाने में आनन्द आता है ।
हम देवों को बुलाते हुं। वे पाप से छुड़ाते हुँ। उनका कार्य सुन्दर है।
कल्याण और धन पाने की इच्छा से हुम अग्नि, मित्र, वरण, भग, झावा-
पृथिवी और झरुतों को बुलाते हुँ।
१०, मंगल के लिए हम झुलोक-लूपिणी नौका पर चढ़कर देवत्व
ग्राप्त करें। इस नौका पर चढ़ने से रक्षण का कोई भय नहीं रहता। बह
विस्तृत हो । इसपर चढ्ने से सुखी हुआ जाता हूँ। यह अक्षय है। इसका
संगठन सुदृढ़ है। इसका आचरण सुन्दर हूँ। यह निष्पाप और अवि”
तश्वर हुँ।
११. यजनीय देवो, रक्षा के लिए हमसे कहो। विनाशक दुर्गति सै
हमें बचाओ। सत्यरूष यज्ञ का आयोजन करके हुम तुम्हें बुलाते है।
सुनो, रक्षा करो ओर कल्याण दो।
१२. देवो, हमारे रोगों और सब प्रकार को पाप-बुद्धि को दूर करो।
हमें दान-शूग्य बुद्धि न हो। दुष्ट की दुर्बुद्धि को दूर करो। हमारे शनरुओं
को अत्यन्त दूर ले जाओ। हमें विशिष्ट सुख और कल्याण दो।
. १३. अदिति के पुत्र देवो, तुम जिसे उत्तम मागे दिखाप्तर और सारे
पापों से पार करके कल्याण में ले जाते हो, वैता कोई भी व्यक्ति भी”
कप वाक
नम Ne Re
१३१० छन्द -दरबिद
बृद्धि-शाली होता है। उसका कोई अनिष्ट नहीं होता। वह धर्म्म-कर्म्म
करता है। उसका वंश बढ्ता हैं।
१४. देवो, अन्न-प्राप्ति के लिए हुम लोग जिस रथ की रक्षा करते हो
ओर मर्तो, युद्ध के समय संचित घन की प्राप्ति के लिए तुम लोग जिस
रथ की रक्षा करते हो, इन्र, उसी प्रातःकाल युद्ध में जामेबाले रथ को
प्राप्त (वा भजन) करना चाहिए। उसे कोई ध्वस्त नहीं कर सकता।
उसी पर चढ़कर हुम कल्याण-भाजन हों।
१५. सुपथ और सरुस्थल दोनों, स्थानों में हमारा कल्याण हो । जळ
और युद्ध, दोनों में हमारा कल्याण हो। उस सेना के बीच हमारा कल्याण
हो, जहाँ अस्त्र-शस्त्र फेके जाते हूँ। पुत्रोत्पादक स्प्री-योनि में हमारा
कल्याण हो (अर्थात् गर्भ न गिरने पावे) । देवो, धन-लाभ फे लिए हमारा
संगल करो।
१६. जो पृथिवी साग जाने में मंगलमयी है, जो सर्वश्रेष्ठ धन से
परिपूर्ण हुँ ओर जो वरणीय यज्ञ-स्थान में उपस्थित है, बह गृह और
अरण्य, दोनों स्थानों में हमारी रक्षा करे। उसके रक्षक देवता लोग हें।
हुम सुख से पृथिवी पर निवास करें।
१७. देवो और अदिति, भ्राज्ञ प्लूति-पुत्र गय ने इस प्रकार से तुस
लोगों को संवद्धना को। देवों की प्रसन्नता से मनुष्य प्रभृत्व पाया करते हुँ।
पय चे देवों की स्तुति की।
६४ सूक्त
(देवता विश्वदेव | ऋषि गय । छन्द॒ जगती ओर त्रिष्टुप ।)
१, यज्ञ से देवता लोग हमार स्तोत्र सुनें। देवों में से किस देवला
का स्तोत्र, किस उपाय से, अली भाँति, हम बनावं ? कौन हमारे ऊपर
कृपा करेगे ? कोन सुख का विधान करेंगे ? हमारे रक्षण के लिए कौन
हमारे पास आवेग ?
हिल्दी-ऋग्वेद १३११
२. हमारे अन्तःकरण सें निहित प्रज्ञा अरिनहोत्र आदि करने की इच्छा
करती हे। प्रज्ञा देवों की इच्छा करती है। हमारी अभिलाषाधं देवों के
पास आती हें। उनके सिवा और कोई सुखदाता महां हे। इखाबि देवों
में हमारी अभिलाषायें नियत हैं।
३. धनदान के द्वारा पोषक और दूसरों के दवारा अगम्य पृषादेदसा
की, स्तुति के द्वारा, पूजा करो। देवों में प्रदीप्त अग्नि की स्तुति करो।
सुर्य, चन्र, यम, दिव्यलोकवासी त्रित, वायु, उषा, रात्रि और अध्विद्यय
का स्तो करो।
४, ज्ञानी अग्नि किस प्रकार अनेक स्तोदाओंयाले होते हैं और किस
स्तुति से सम्मान-युञ्त होते हें? झोभन स्तुति से बृहस्पति देवता बढ़ते
हें। अज एकपात् और अहिबुध्न्य नाम के देवता, हमारे आह्वान-काल मे)
सुरित स्सवों को सुने।
५, अविसदवर पृथिवी, सूर्यं के जन्म फे समय तुस मित्र और वरण
राजाओं की सेवा करती हो। विशाल रथ पर चढ़कर सुर्य धीरे-धीरे जाते
हँ। उनका जम्म नाना मूत्तयो में होता है। उनके अएह्वान-कर्ता सप्ता
हुँ।
६. इख के जो घोड़े स्वयं युद्ध के समय शन्ुओं से महान् धन छे आते
हे, जो यज्ञ फे समय सदा ही सहस्र धन देते हें और जो सुशिक्षित अशवों
के समान परिमित रूप से चरण-निक्षेप करते हैं, वे सब हमारा आह्वान
सुनें । निमंत्रण ग्रहण करने में वे कभी विरत नहीं होते । |
७. स्तोताओ, रथ-योजक वायु, यहुकर्मदर्ता इन्र और पूषा की
स्तुति करके अपनी मैत्री स्वीकार कराओ। वे सब एकमना और अनन्य”
मना होकर प्रभात-काल में यज्ञ में उपस्थित होते हैं।
८. सरस्वती, सरय्, सिन्धु आदि इवकीस प्रकाण्ड नदियाँ, वनस्पतियों,
पर्वतं, अग्नि, सोम-पालक कुशान् गन्धर्व, घाण-बालक गन्धर्यो, मक्षत्र,
हविःपात्र इद्र ओर स्ट्रों में प्रधान स्त्र को, यज्ञ में, रक्षा के लिए, हम
बुलाते हैं ।
oN Po लक
९६३१६ द्दश्य
९, सहती और घरङ्कशारिनी सरस्वती, सरय्, सिन्धु आदि, इवकीस
धदियाँ, रक्षण फे लिए आवें । जळ-प्रेरक, मातु-भूत ये सब देवियां घुत और
झषधु फे समान जलन्वान करे।
१०, सएद्दीप्ति देवमाता हमारा आह्वान सुर्ने। देवपिता त्वष्टा, अपने
पुत्र देवों और पेयपस्नियों के साथ, हमारा वचन सुर्ने। 'भुक्षा, इन्द्र,
बाज, रथपति भग और स्तुत्य मस्वृगण, स्तुति के लिए, हमारी रक्षा करें।
११. अन्न से भरे गृह के समान मरुत् लोग देखने में रमणीय हुँ। सद्र
पुत्र सस्तो की स्तुति कल्याण देनेवाली होती हैं। मनुष्यों मं हम गोधन
मे घमी होकर यशस्वी हों। देवो, सदा हम अन्न से मिलें।
१२, भरुवगण, देख, देववुन्द, दण और मित्र, जैसे गाय दूध से भरी
रहती हुँ, वैसे ही तुम लोगों से पाये हुए कमं का फर युसम्पञ्च करो । हमारे
स्तोत्र को सुनकर और रथ पर चढ़कर तुम लोग यज्ञ में आय हो
१३. सस्तो, तुम लोगों ते जेसे प्रथम अनेक बार हमारे बन्धुत्व की
रक्षा की हैं, बसे ही इस समय भी करो । हम जिस स्थान पर सर्व-प्रथम
बेदी बनाते हैं, वहाँ अदिति (वा पृथिवी) मनुष्यों के साथ हमें बन्धुर
प्रदान कर।
१४, सबको बनानेवाले, सहान् दीप्तिशील और यज्ञ-योग्य दावा-
थृथिवी जन्म के साथ ही इन्द्रावि को प्राप्त करते हे। द्यावापृथिवी नाना-
विध रक्षणों से देवों और ममुष्यों की रक्षा करते हुँ। पालक देवों के साथ
सिलकर शावापूणथिची जल को क्षरित करते हैं
१५, सहानों की पालिका, यथेष्ठ स्ठुरददाली, देरे का स्तोत्र करनेवाली
और सोमाभिषव के कारण महान् कही जानेवाली बाणी (वा मंत्र) सारे
स्जीकरणीय घन को व्याप्त करती है। स्तोता लोग स्तोत्रों से पैयों
को यश्षकामी बनाते हैं।
१६. ऋान्तप्रज्ञ, इहुस्युदि-्यस्यञ्च, यज्ञ-शाता, थनेच्छु और मेघावी
पय ऋषि ने प्रचुर धन-कामना करके इस प्रकार के उकथों (मंत्र-
विशेष) और स्ववों से देवों की स्तुति की।
हिन्दी-ऋग्वेद १३१३
१७. देवो और अदिति, ज्ञानी प्लुति-पुत्र गय ने इस प्रकार से तुम लोगों
की संवद्धना की। देवों की प्रसन्नता से मनुष्य प्रभुत्व प्राप्त करते है।
गय ने देवों की स्तुति की।
६५ सुत्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि वसुक्र-पुत्र वहुकरणं । छन्द जगती और
त्रिष्डुप् ।)
१. अग्नि, इन्र, वरुण, मित्र, अर्यमा, बायु, पुषा, सरस्वती, आदित्य-
गण, विष्णु, सरत्, महान्, स्वर्ग, सोऽ, रुद्र, अदिति और ब्रह्मणस्पति
मिलकर अपनी महिमा से अन्तरिक्ष को पूरित करते हुँ।
२. इन्द्र और अग्नि शिष्टों के रक्षक हैं। थे युद्ध फे समथ इकटठे होकर
अपनी शक्ति से शत्रुओं को भगर देते हे तथा प्रकाण्ड आकाश को अघने
तेज से भरते हूं। घृत-युक्ष सोमरत उनके बल को बढ़ा देता है।
३. महत्तम, अविचर और यज्ञ-वद्धंक देवता लोगों के लिए होने-
बाले यज्ञ में में स्तुति करता हूँ। जो सुन्दर मेघो से जल बरसाते हैं,
वे ही परम सखा देवता हमें घन देकर श्रेष्ठ करें।
४. उन्हीं देवों ने, अयनी शक्ति से, सबके नायक सूर्य, आकाशस्थ
ग्रहों, नक्षत्रों, धुलोक, भूलोक और पृथिवी को यथास्थान नियत कर
रक्वा हें। धनदाताओं के समान उत्तम दान करके थे देवता मनुष्यों को
बनाते हुँ। य मनुष्यों को धन देते ह; इसीलिए इनको स्तुति की
जाती ह।
५, सित्र और दाता वरुण को होमीय द्रब्य (हवि आदि) दो। थे
दोनों राजाओं के भी राजा हें; ये कभी असावधान नहीं होते, इनका
धाम भली भाँति धत.होकर अत्यन्त प्रकाश कर रहा ह। इनके पास,
याचक के समान, ्ावापूथिबी अवस्थित हैं।
६. जो गाय स्वयं पवित्र स्थान यज्ञ में आती है, बह दुध देते हुए यञ्च-
फा? ८३
१३१४ हिन्दी-ऋणग्वेद
कर्म को सम्पन्न करती है। मेरी इच्छा हु कि वह गाय दाता वरुण और
अन्यान्य देवों को होमीय द्रव्य दे और मुझ देव-सेवक की रक्षा करे॥
७. जो देवता अपने तेज से आकाश को परिपूर्ण करते हैं, अग्नि ही
जिनकी जीभ हैं ओर जो यज्ञ की घ॒द्धि करते हैं, वे अपना-अपना स्थान
समझ कर यज्ञ में बेठते हैं । बे आकाश को धारण करके अपने बल से
जल को निकालते हैं और यजनीथ हलि को अपने शरीर में रख लेते हुँ॥
८. दावापथिवी सर्ब-ब्यापषक हैं। ये सबके माता-पिता हें। सबसे
प्रथम उत्पन्न है। दोनों का स्थान एक ही है। दोनों ही यज्ञ-स्थान में निवास
करते हें। दोनों हो एकमना होकर उन पुजनीय बरुण को घुत-युक्त दूध
देते हे।
९. सेघ और वायु काअ-वर्षक हैं। थे जलवाले हैं। इन्द्र, वायु,
वरुण, मित्र, अडितिपुत्र देयों और अदिति को हम बुलाते हुँ। जो देवता
झुलोक, भूलोक ओर जल में उत्पन्न हुए हैं, उनको भी बुलाते हैं ।
१०. ऋभुओ, जो सोम, तुम्हारे मंगल के लिए देवों को बुलानेवाले
त्वष्टा और बायु के पास जाते हैँ और जो बृहस्पति तथा ज्ञानी और
धुत्रध्न इन्द्र के पास जाते हैं, उन्हीं इन्द्र को सन्तुष्ट करनेबाड़े सोम से हम
घन साँगते हु।
११. देवों ने अञ्च, गौ, अश्व, वक्ष, लता, पवेत और पुथिवी को उत्पन्न
किया है और सूर्य को आकाश में चढ़ाया हे। उनका दान अतीव शोभन
हुँ; उन्होंने पृथिवी पर उत्तमोत्तम कार्य किये हैं।
१२. अश्विद्वय, तुमने भुज्यु को विपत्ति से बचाया हे। बध्रिमती
नारक रमणी को एक पिङ्कालद्ण पुत्र दिया था, विभद ऋषि को सुन्दरी
भार्या दी थी और विश्वक #्रषि को विष्णाप्व नामक पुत्र दिया था।
१३. आयुधवाळी और मधुरा माध्यसिकी वाक्, आकाश-धारक
अज एकपात्, सिन्धु, आकाशीय जल, विइवदेब और अनेक कर्मो तथा ज्ञानों
ते संयुक्त सरस्वती मेरे बच्यो को सुनें ॥
हिन्दी-ऋगेद १३१५
१४. अनेक कर्मों और ज्ञानों से युक्त, मनुष्य के यज्ञ सें यजनीय, अमर,
सत्यज्ञाता, हवि का ग्रहण करनेवाले, यज्ञ सें मिलनेवाले और सब कुछ
जानमेवाले इन्द्रादि देवता हमारी स्तुविय और उत्तम तथा निवेदित
अञ्च को ग्रहण करे।
१५. बसिष्ठ-वंश सें उत्पन्न इस ऋषि ने अमर देषों की स्तुति की।
जो देवता सारे भुवनों में रहते हैं, वे आज हमें कीसिकर अन्न दें। देवो,
तुम हमें कल्याण के साथ बचाओ ।
६६यक्त `
(देवता, ऋषि, छन्द आदि पूर्ववत् |)
१. जो देवता प्रचुर अन्नवाले, आदित्य-तेज के कर्ता, प्रकृष्ट-ज्ञाती,
सर्वधनी, इन्द्रवाले, अमर और यज्ञ से प्रवृद्ध हें, उनको निर्विघ्न यज्ञ-
समाप्ति के लिए में बुलाता हूँ ।
२. इन्द्र के द्वारा कार्यो में प्रेरित और वरुण के द्वारा अनुमोदित होकर
जिन्होंने ज्योतिर्मय सूर्य के भति-पथ को परिपुर्ण किया हैं, उन्हीं झतर-
संहारक मश्तों के स्तोत्र का हम चिन्तन करते हँ। विद्वानों, इ्र-पुत्रों के
यज्ञ का आयोजन करो।
३. बसुओं के साथ इन्द्र हमारे गृह की रक्षा करें। आदवित्यों के साथ
अदिति हमें सुख दें। रुद्र-पुत्र मस्तों के साथ शद्रदेव हमें सुखी करें। पत्नी-
सहित त्वष्टा हमारा सुख बढ़ावें।
४. अदिति, आवापूथिवी, अहान् सत्य अग्नि, इपर, विष्णु, मस्त,
विशाल स्वर्ग, आदित्यगण, बसुगण, रुद्रगण और उत्तम दाता सूर्यं को
हम बुला रहे हे। ये हमारी रक्षा करें।
५. ज्ञानी समुद्र, कम-लिष्ठ वरुण, पूणा, सहिसावाले विष्णु, बायु,
अहदियद्वय, स्वीताओं को अन्न देयेयाले, ज्ञानी, पापियों के नाक ओर अमर
mn 900 iS ri शीन नर या A हँ नो,
देयतागण जीन तल्णोयाला गह हमें दो।
१३१६ हिन्दी-व्रदस्वेव
६. यज्ञ अभिर्छाषत फल दे॥ यज्ञीय देखता कामना पुरी कर । देवता,
छवि आदि जुटायेवारे, यज्ञाधिष्ठाजी उःयापुिची, पजन्य और स्तोता--
सभी हमारी कामना पूरी करें!
७. अञ्च पाने के लिए अभी्टदाता अग्बि और सोस का में स्तोत्र
करता हूँ। सारा संसार उन्हें दाता कहकर प्रशंसित करता है। उन दोनों
को ही पुरोडित लोग यज्ञ में पुआ देते हूँ। थे हमें दीन तल्लोंबाला
घर दें।
जो लयाळम में सदा तत्पर हे, जो बली हैँ, जो यज्ञ को
अकुत करते हुँ, जिनकी दीप्ति महान् है, जो यज्ञ में आते हे, जिन्हें अग्नि
बुखाते इ और जो सत्यपात्र हे, उन्हीं देवों ने, वृत्र-युद्ध के समय में, बृ ष्टि-
अल रखा।
९, अपने कार्य के द्वारा यातायृथिवी, जल, वनस्पति और पश्ञोप्योगा
उत्तमोत्तम द्रव्य बनाकर देवों ने अपने सेज से आकाश और स्वर्ग को
परिपूर्ण कर दिया। उन्होंने यज्ञ के साथ अपने को सिलाफर यज्ञ को
अकुत किया ।
१०. ऋभभों का हाथ सुम्दर हु; बे आकाश के धारक हु। याय और
भेघ का शब्द महान् होता हु । जल और वनस्पति हमारे स्तोज को बढ़ानें।
घनदाता भग ओर अर्यमा मेरे यज्ञ मे पधार ।
११. समत्र, नदी, भलिमय पृथिवी, आकाश, अज एकपात, गजेनशील
सेघ और अहिजुध्य्य मेरा आह्वान सुनं।
१२. देव, हम समु-सन्तान हैं। तुम्हें हम यश दे सके। हमारे सदा से
प्रचलित यज्ञ को तुम भली भाँति सम्पच्च करो। आदित्यो, रुद्रो और
बसुओ), तुम्हारी दान-शबित शोधन ह। स्तोत्रों को सुने।
१३. जो वो व्यक्ति देवों को बुलानेबाले हैं और जो सवेश्रेष्ठ पुरोहित
हें, उन अग्नि और आदित्य की हवि से सेवा करता हूं। सें निविघ्न यञ्च-
सार्य को जा रहा हूँ। हमारे पास रहनेवाले क्षेत्रपति (देवता) और
हिन्दी-क्रग्वेद १३१७
अमर देवों की, आश्रय देने के लिए, हम प्रार्थना करते हुँ। प्रार्थना पूरी
करने को वे सावधान रहते हुँ।
१४. वसिष्ठ के सयाच ही बलिष्ठ के बंशजों ने स्तुति की। उन्होंने
मङ्गल के लिए वसिष्ठ ऋषि के ससान देव-पुजा की। देवो, अपने मित्र
के समान आकर, सन्तुष्ट सत से अभीष्ट फल दो।
१५. बलिष्ठ-बंशोत्यश इन ऋषि ने असर देवों की स्तुति की है।
जो देवता अपने तेज से सारे भुवनो में रहते हें, वे आज हमें कीतिकर अन्न
दें। देवी, मङ्कार के लिए तुम हमारी रक्षा करो!
६७ सूक्त
(देवता वृहस्पति । ऋषि आइ्विरस अयास्य! छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. हमारे पितरों (अङ्करा लोगों) ने सात छन्दोंदाले विशाल स्तोत्र
की रचना की थी। उसकी सत्य से उत्पत्ति हुई। संसार के हितैषी अयास्य
ऋषि ने दुख की प्रशंसा करते हुए, एक पेर के स्तोत्र को बचाया।
२. अङ्गिरा लोगों ने यज्ञ के सुन्दर स्थात में जाना निश्चित किया।
बे सत्यवादी हें, उनके सन का भाव सरल है, वे स्वर्ग के पुत्र हें, थे
महःबली हें और बृद्धिमानों के समान आचरण करते हें।
३. हुंसों के समान ही बृहस्पति के सहायकों ने कोलाहल करना
प्रारम्भ किया। उनकी सहायता से बृहस्पति ने प्रस्तरमय हार को खोल
दिया। भीतर रोकी गई गायें चिल्लाने छगीं। थे उत्तम रूप से
स्तोत्र और उच्च: स्वर से गान करने लगे।
४, यायं नीचे एक एक हार फे हारा ओर ऊपर दो द्वारों के द्वारा
अन्धकार वा अधस के आलय-स्वरूप उस गुहा सें छिपाई गई थीं। अन्धकार
के बीच प्रकाश ले जाने की इच्छा से बृहस्पति ने तीनों दवारों को खोलकर
गायों को निकाल दिया।
५, रात को घुपसाव सोकर पुरी के पिछले भाग को तोड़ा और
समुद्र-तुल्थ उस गुहा के तीरों दवारो को सोल दिया (अथवा उवा, पूर्य
[oR कक] I. DO
१ वै १८ i जो,
और गाय को बाहर कर दिया) । प्रातःकाल उन्होंने पुजनीम सूर्य और
गाय को एक साथ देखा। उस समय बहू भेघ के समान बीर-हुङार
करते थे।
६. जिस बल ने गाय को रोका था, उसे इन्त्र (वा बृहस्पति) ने
अपनी हुद्धूशर से ही छिन्न कर डाला--सानों अस्त्र से ही उसे सारा हुँ।
मएतो के साथ मिळे की इच्छा से उन्होंने पाप को शलाया और गायों
को लिया।
७. अपने सत्यवादी, दीप्तिसान और धनदाता सहायकों के साथ
उन्होंने गायों को रोकनेवाले बल को विदीर्ण किया। वर्षक, जल लानेवाछे '
और प्रदीप्त-गसन मरुतों के साथ उन सामस्तोत्र के अघिपति ने गोधन
को अधिकृत किया।
८. मरुतों ने, सत्प-घता होकर, अपने कर्मो से गायों को प्राप्त करते
हुए, बृहस्पति को गोपति बनाने की इच्छा की। परस्पर सहायक अपने
मरुतों के साथ बृहस्पति ने गायों को बाहर किया।
९, अन्तरिक्ष में सिह के समान शब्द करनेवाले, कामों के वर्षक ओर
विजयी बृहस्पति को बढ़ानेबाले हस सरत् बीरों के संग्राम में मङ्गलझयी
स्तुलियों से उनका स्तोत्र करते हें।
१०. जिस समय यह बृहस्पति नामा रूप अन्न का सेबन करते हैं
ओर जिस समय अन्तरिक्ष पर चढ्से हुँ, उस समय घर्षक बृहस्पति की,
नाना दिशाओं में ज्योति धारण करनेवाले देवता, मुंड से, स्तुति
क्षरते हेँ।
११. देवी, अन्न-छाभ के लिए मेरी स्तुति को यथार्थ (सफल) करो।
अपने आश्रय से मेरी रक्षा करो। सारे शत्रु नष्ट हों। विश्य को प्रसञ्च
करनेवाले दावापूथिदी, हमारे वचन को सुनो।
१२. ईहवर (स्वामी) ओर महिमान्वित बहस्पति ने महाम जलकाले
मेच का मस्तक काट दिया। उन्होंने अल को रोकनेयाऱे शत को मार।
हिन्दी-ऋष्वेद १३१९
गङ्का आदि नदियों को समुद्र में सिलाया। झावापृथिवी, देवों के साथ
हमारी रक्षा करो।
६८ सूक्त
दिवता, ऋषि, छन्द आदि पूवत |)
१. जेसे जल-सेचक कृणक शस्य-क्षेत्र से पक्षियों को उड़ाते समय
शब्द करते हुँ, जैसे मेघों का गर्जन होता हे अथवा जैसे पर्वत से धक्का
लगने पर वा मेघ से गिरने पर तरङ शब्द करती हैं, बसे ही बहस्पति
की प्रशंसा-ध्वनि होने लगी ।
२. अङ्गिरा के पुत्र बृहस्पति गुहा में रहनेवाली गायों के पास सूर्य
का आलोक ले आये। भग देवता फे समान उनका तेज व्यापी हुआ।
जैसे मित्र दम्पति (स्त्री और पुरुष) का सिलन करा देते हुँ, बैसे ही
उन्होंने गायों को लोगों के साथ मिला दिया। बृहस्पति, जैसे युद्ध में घोड़े
को दौड़ाया जाता हँ, वेसे ही गायों को दौड़ाओ।
३. जैसे धान की कोठी (कुशल) से जौ (यव) बाहर किया जाता
हु, वैसे ही बुहस्पति नें गायों को पर्वत सेशीघ बाहर किया। गार्य मङ्गल"
रूप दुग्ध देनेवाली, सतत-गमन-शीला, स्पृहणीया, वर्ण-सनोहूरा और
प्ररांइनीय मूक्ति थीं।
४. गायों का उद्धार करके बृहस्पति ने सत्कर्म के आकर-स्थान
मध-बिन्दु को सिक्त किया अर्थात् यज्ञानुष्ठान को सुविधा कर दी।
बृहस्पति ऐसे दीप्ति-युक्त हुए, भानो आकाश से सूर्य उल्का को फेंक रहे
हों। उन्होंने प्रस्तर के आच्छाइम (ढकने) से गायों का उद्धार करके
उनके खुरों से धरातल को वैसे ही शिदीर्ण कराया, जसे मेघ, वृष्टि के
समय, पृथिवी को बिदीणे करते है
५. जैसे वायु जल से झैवार को हडाता है, वैसे ही बृहस्पति ने आकाश
से अन्धकार को दूर किया! जैसे वायु भेघों को छैलाता हैं, वसे ही बुहु-
सपति ने बिचार करदे “बल” के गोपन-स्थाय से गायों को निक्ाला।
१३२० पिन्द -हएप्येद
x
६. जिस ससय हिंसक “बल” का अस्त्र, बृहस्पति कै अग्निलुल्य प्रतप्त
और उज्ज्वल अस्त्रों के द्वारा, तोड़ दिया गया, उस समय बृहस्पति ने
गोधन पर अधिकार कर लिया। जैसे दाँतों के द्वारा मुह में डाले गये पदार्थ
का भक्षण जीभ करती हुँ, बसे ही पर्वत में गायें चुरानेवाले पणियों
के मारने पर बहस्पति ने गायों को प्राप्त किया।
७. जिस समय उस गहा में गाये शब्द करती थीं, उसी समय बृहस्पति
ने समझा कि, उसमें गाये बन्द हँ। जैसे पक्षी अंडा फोड़कर बच्चे को
निकारता हें, बेसे ही बह भी पर्वत से गायों को निकार छै आर्य ।
८. जैसे थोड़े जल में मत्स्य (व्याकुल) रहते हैं, बैसे ही बृहस्पत
ने पर्वत के बीच बंधी और मधुर के समान अभीष्ट गायों को देखा । जैसे
वस से सोमपात्र को निकाला जाता हुँ, बैसे ही बृहस्पति ने पर्वत सै गायों
को निकाला।
९. बहस्पति से गायों को देखने कै लिए उषा को प्राप्त किया।
उन्होंने सूर्य और अग्नि को पाकर उत्तम तेज से अन्धकार को नष्ठ किया।
गायों से घिरे हुए “बळ” के पर्वत से उन्होंने गायों का वेसे ही उद्धार किया,
जैसे अस्थि से मज्जा बाहर की जाती ह।
१०. जैसे हिम पद्म-पात्रों का हरण करता हूँ, घेसे ही बल” की
सारी गाये बृहस्पति के द्वारा अपहत हुई। एसा कर्म दूसरे के लिए
अकत्तंव्य ओर अनुकरणीय है। इस कायं से झूयं और चन्द्रमा उदित
होने लग ।
११. पालक देवों ने झुरोक को नक्षत्रों से बंसे ही अलंकृत किया,
जैसे इयामव्ण घोड़े को सुवर्णाभूषणों से विभूषित किया जाता है। उन्होंने
अन्धकार को रात्रि के लिए रकखा और ज्योति दिन के लिए। पर्वत को
फाड़कर बृहस्पति ने गोधन को प्राप्त किथा।
१२. जिन बृहस्पति ने अनेक ऋचाओं को कहा हैँ और जो अन्तरिक्ष-
वासी हो गये हें। उनको हमने नमस्कार किया। बृहस्पति हमें गाय,
घोडा, सन्तान, भूत्य और अन्न दं ।
हिन्दी-क्रग्वैद १३३१
६९ सूक्त
(६ अनुवाक । दैवता अस्नि। ऋषि बध्य्शधन्पुत्र सुसित्र | छुन्छ
जगती ओर त्रिष्टुप् |)
१. बध्दाइव ने जिन अग्नि को स्थापित किया बा, उनकी साख
दर्शनीय हो, उनकी प्रसञ्चता मङ्कलमयी हो और उनका यज्ञागमत झोभम
हो । जिस समय हम सुमित्र लोग अग्नि को स्थापित करते हैं, उस समय
अग्नि घृताहुति पाकर उद्दीप्त होते हैं और उनकी हुन स्तुति करते हैं।
२. बध्डाइच के अग्नि घृत के द्वारा ही बढे, घृत ही उनका आहार
हो और घृत ही उन्हें स्निग्ध करे या पुष्ट करे। घुताहुति पाकर अगिन
अत्यन्त विस्तृत होते हैं। घी देने पर अग्नि सूर्य के समान प्रदीप्त हो
जाते हुँ।
३. जैसे मन् तुम्हारी मूर्ति (किरणों) को प्रदीप्त करते हुँ, वैते ही
में भी तु्हें प्रदीप्त करता हूँ । यह रश्मिसंघ नया है। तुम थनी होकर
प्रदीप्त होओ। हमारे स्तोत्र को ग्रहण करो, शत्रु-सेना को विदीर्ण करो
और यहाँ अछ स्थापित करो।
४. बघ्याइच ने प्रथम तुम्हें प्रदीप्त किया था। तुम हमारे गृह और
देह की रक्षा करो। तुमने यह जो कुछ दिया हे, सबकी रक्षा करो ।
५. बघ्दाइव के अग्नि, प्रदीप्त होओ। रक्षक बनो। लोगो की हसा
२
करनेवाला तुम्हें पराजित न करने पावे। वीर के समान शत्र-धर्षक और
शत्रु-नाशक बनौ । बध्याइव के अग्नि के नामों को में (सुमित्र) कहता हूँ ।
६. अग्नि, पर्वत पर उत्पन्ष जो धन है, उसे तुमने दासों से जीतकर
आर्यों को दिया है। तुम दुष वीर के समान शत्रुओं को सारो। जो युद्ध
करने आते है, उनसे भिड़ो।
७. ये अग्नि दी्घ-तन्तु हैँ (इनका बंश विस्तृत हुँ) । ये प्राम दाता
हुँ। थे सहस्र स्थानों का आच्छादन करते हैं। शतसंख्यक सागो से जाते
११३१ पल्दी-आज्देस
हैं। य ग्रदीष्तों में महान प्रदीष्त हँ । प्रधान पुरोहित लोग इन्हें अलंकृत
ते है आन देश-भवस समित्र-शंशीयों के गह में प्रदीप्त होओ।
८, ज्ञानी अग्नि, तुम्हारी गाय को बहुत सरणखता से दूहा जाता है।
उसके वोहन में कोई विघ्य-बाथा नहीं है। वह सावधान होकर अमृत-रूप
बुध देती है। देव-भदत सुमित्रवंशीय प्रधान व्यक्ति, दक्षिणा-सम्पञ्च होकर,
छुम्हें प्रज्वलित करते हत
९, बध्याइव के अग्नि, अमर देवता तुम्हारी महिमा गाते हैं। जिस
समय मनुष्य लोग तुम्हारी महिमा जानने के लिए गये, उस समय तुमने
सबके नेता और बदित देवों के साथ कर्स विष्चक्तारकों को जीत डाला ।
१०. अग्नि, जेसे पिता पुत्र को गोद में लेकर उसका लालन-पालन
करता हुँ, वैसे ही मेरे पिता ने तुम्हारी सेवा की है। युवक अग्नि, तुमने
मेरे पिता से समिधा प्राप्त करके बाधक शत्रुओं को सारा था।
११. सोमरस प्रस्तुत करनेवालों फे साथ बध्याइव के अग्नि झत्रुओं
को सदा से जीवते आते हें। नाना तेजोंवाले अग्नि, तुमसे ध्यान देकर,
[हसक को जलाया हुँ। जो हिंसक अधिक बढ गये थे, उन्हें अग्नि ने मार
डाल?।
१२. बध्थाइव के अग्नि शत्र-हन्ता हुँ । ये सदा से प्रज्वलित हें । ये
नमस्कार के योग्य हूं। बध्याइव के अग्नि, हमारे विजातीय शत्रु ओर
बिजातीय हिसकों को हराओ।
७० सूक्त
(देवता आप्री । ऋषि सुमित्र । छन्द निष्टुप् ।)
१. अभ्मि, उस्तरवेदी पर की गई मेरी समिधा को ग्रहण करो और
घुतवाली झुक की अभिलाषा करो । सुप्रज्ञ अग्नि, पृथिवी के उच्चत प्रदेश
पर सुदिन के लिए देवयश से, ज्वालाओ के साथ, ऊपर उठो। -
२. देशों के अग्रगाशी और समुष्यों के द्वारा प्रशंसनीप अग्नि नासा
वर्योबाडे इया के साथ इस यश्च भें पधारें। अस्थन्त योग्य और देवों में
हिन्दी-ऋग्वेद १३२३
३. हविर्दाता यजमान सनातन अग्नि कौ, इत-कर्म के लिए, स्तुति
करते हैं। वाहक अइवों और सुन्दर रथ के साथ इन्द्रादि देवों को यङ्ग
में ले आओ। होता होकर दुम इस यज्ञ में बेठो।
४. देवों के द्वारा सेविस और टेढ़ग कुश विस्तृत हो--अत्यन्त लम्बा
हो । हमारा कुश सुरभि हो। बाह नामक अग्नि, प्रसक्नचित से हदि चाइने-
बाले इन्द्रादि देवों का पुजन करो।
५. द्वार-देवियो, आकाश के उच्चत स्थाम को छुओ वा उन्नत होओ।
पृथिवी के समान विस्तृत होओ। देवाभिलाषी और रथकामी होकर तुम
लोग अपनी महिमा से देवों के द्वारा अधिष्ठित और पिहार-प्ावद
रथ को धारण करो ।
६. प्रकाशमाना, युलोक की पुत्री और शोभन-रूपा उषा तथा रात्रि
यज्ञ-स्थान में बिराजें। अभिलाषिजी और झोभन-धन देवियो, तुम्हारे
विस्तृत और समीपस्थ स्थान में हवि की इच्छावाले देवता बठें।
७. जिस समय सोमाभिषज के लिए पत्थर उठाया जाता है, जिस
समय महान् अग्नि सशिद्ध होते ह और जिस समय देवों के प्रिय घाम
(हविर्धारक यज्ञ-पात्र) यज्ञ-स्थान में लाये जाते हैं, उस समय, हे पुरोहित,
ऋत्विक् और विद्वान् दो पुरुषो, इस यज्ञ में धन दो ।
८. हे इड़ा आदि तीन देवियों, इस उन्नत कुश्च पर बठो । तुम्हारे
लिए इसे हमने जिछाया हैं । इड़ा, प्रकाशमाना सरस्वती और दीप्त पद
से युक्त भारती मे जसे मन् के यज्ञ सें हवि का सेवन किया था, बसे
ही हमारे यज्ञ में भी भाँति रक्खे हुए हवि का सेवन करो।
९, ह्वष्टा देव, तुम मङ्भालमय रूप प्राप्त कर चुके हो। तुम अङ्गिरा
लोगों के सखा होओो। हे धनदाता, ठुम सुन्दर धनवाले हो। हवि की
इच्छा करके तुझ देवों का भाग जानकर उन्हें अञ्च दो ।
१०. वसस्पति से बने युपकाष्ठ, तुस जालकार हो । तुम रज्ज के
कद
हारा बाँधे जाकर देशों को अन्न दो । बमस्पतिदेव हदि का स्वाद लें और
१३३४ हिग्दी-ऋष्येद
हुक
हमारे दिये हुए हदि को देवों को दें। मेरे आह्वान की रक्षा शायापृष्दगी
कर् |
५)
0५
११. अन्, हमारे यज्ञ के लिए युलोक (स्वर्ग) और अन्तरिक्ष
(लावा) से इस, बर्ण और सित्र को छे आओ। यजनीय सब देवता
झल पर बैठे । अभर देवता स्वाहा शब्द से आनन्दित हों।
9१ सूक्त
(देवता अह्यज्ञान । ऋषि बृहस्पति । छन्द त्रिष्टुप और जगती ।)
१. वुहुस्पति (स्वात्यन्), बालक प्रथम पदाथों का नाम भर
(“दावा आदि) रखते हैँ; यह उनकी भाषा-शिक्षा का प्रथम सोपान है।
इनका जो उत्कृष्ट और निर्दोष ज्ञान (वेदार्ज्ञाम) गोपनीय है, वह
सरस्वती के प्रेम से प्रकट होता हू ।
२. जैसे सूप से सत्तू को परिष्छृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान्
लोग जुद्धि-बल से परिष्कृत भाषा को प्रस्तुत करते हैं। उस समय विद्वान्
लोग अपने अभ्युदय को जानते हैं। इनके बचन में मज्भलमयी लक्ष्मी
निवास करती हूं।
३. बुद्धिसान् लोग यज्ञ के हारा वचन (भाषा) का मार्ग पाते हुँ।
ध्हषियों के अन्तःकरण में जो वाक (भावा) थी, उसको उन्होंने प्राप्त
किया । उस वाणी (आजा) को लेकर उन्होंने सारे सनुष्यों को पढ़ाया।
सातो छन्द इसी भाषा में स्तुति करते हं ।
४. कोई-कोई समझकर वा देखकर भी भाया को नहीं समभते वा
देखते; कोई-कोई उसे सुमकर भी नहीं सुनते। किसी-किसी के पास
बत्देती स्वयं वैसे ही प्रकट होती हैं, जैसे संभोगाभिलाषी भार्या, सुन्दर
वस्त्र चारण करके, अपने स्वामी के पास अपने शरीर को प्रकाश करती
हुँ ।
५. विद्ठ्ाण्डछी सें किसी-किसी की यह प्रतिष्ठा हैं फि, बह उत्तम-
आजग्राही है और उसके बिना कोई कार्य नहीं हो सकता (एसे लोगों
हिन्दी-ऋण्वेद १३९५
के कारण दी वेवा्थ ज्ञान होता है) । कोई-कोई असार-्वाइय का अध्याक्ष
से छत & बास्तविक धन् नहीं 2 ““ अल्प निक, कायना थे ट
६. जो विद्वान् मित्र को छोड़ देता हु, उसकी बाणी से कोई फक नहीं
हें । वह जो कुछ सुनता हे, व्यर्थ ही सुनला हे। बह सत्कम का बाथ
जान सकता ।
७. जिन्हें आँखे हे, कान हें, एसे सखा (समान-झानी) सच के भाव
को (ज्ञान को ) प्रकाश करने में असाधारण होते हुँ। कोई-फोई मुख तक
जलबाले पुष्कर और कोई-कोई कटिपयप्त जलवाले तड़ाग के ससा
होते हे कोई-कोई स्नान करने के उपयूक्त गध्भीर छुद के सवाब होते हें ।
८. जिस समय अनेक सभान-झायी ब्राह्मण हुदथ दे समबोगरप वेदयो
के गुण-दोष-परीक्षण के लिए एकत्र होते हैं, उस सभय किसो-विस्सी
व्यक्तिको कुछ ज्ञान नहीं होता। कोई-कोई स्तोत्रज्न (ब्राह्मण)
त्दार्थ- ता दोफर विवरण करते हें ।
जो व्यक्ति इस लोक में वेदश्च ब्राह्मणों के और परलोकीय दे
के साथ (यज्ञादि में) कर्म नहीं करसे, जो न तो स्तोता (त्स्य,
न सोम-यज्ञ-कर्सा है, वे पापाश्चित लौकिक भाषा की शिक्षा के इर मुखे
व्यक्ति के समान, ऊाड्भल-बालक (हल जोतवेबाले) इनकर कुकर
खाना बुनते हु ।
१०. यश (सोम) सित्र के समान कार्य करता हे, यह सभा म
प्राधान्य प्रदान करता हँ । इसे प्राप्त कर सब प्रसन्न होते हैं; ब्याक यश
के बारा दुर्माम दूर होता है, अन्न-प्राप्ति होती हैं, बळ रजता हैं, चावा
प्रकार से उपकार होता हूँ ।
११. एक जब अनेक ऋतणाओं का स्तव करते हुए यज्ञानुण्डाद
सहायता करते हैं, दूसरे गायत्री छन्द में साम-गान करते है । ब्र हए बाचक
जो पुरोहित हैं, वे ज्ञात-विद्या (प्रायश्चित आदि) की व्याइया करते
है। अध्वर्थ् पुरोहित यज्ञ के विभिन्न काये करते
द्वितीय अध्याय समाप्त ।
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१३२६ हिन्दी-ऋग्वेद
७२ सूत
(तृतीय अध्याय | देवता देव। ऋषि लेकनामा के पुत्र बृहस्पति |
छन्द अनुष्टप् |)
१. हम देवों वा आदित्यों के जन्म को स्पष्ट रूप से कहते हैँ आगे
आनेवाले युग में देव-संघ, यज्ञामृष्ठास होने पर, स्तोता को देखेगा ।
२. आदि सृष्टि में ५ झुणस्पति (वा अदिति) चे कर्मकार के समान
देवों को उत्पन्न किया । असत् वा अविद्यमान (नाम-रूप-विहीन) से सत्
(नाम-झूप आदि) उत्पन्न हुआ ।
३. देवोत्पति के पुवं समय में असत् से सत् उत्पन्न हुआ । इसके
अनन्तर दिशाय उत्पन्न हुई और दिशाओं के अनन्तर वृक्ष उत्पन्न हुए ।
४. वृक्षों से पृथ्वी उत्पन्न हुई ओर पृथ्वी से दिशाय उत्पन्न हुई ।
अदिति से वक्ष उत्पन्न हुए और दक्ष से अदिति ।
५. दक्ष, तुम्हारी पुत्री अदिति ने देवों को जन्म दिया । देवता स्तुत्य
और अमर हूँ ।
६. देवता लोग इस सलिल में रहकर महोत्साह प्रकट करने लगे ।
वे सानो नाचने लगे । इससे दुःसह धरि उठी ।
७, सेघो के सधान देखो ने सारे संतार को उक छिया । आकाश में
सुर्य मिगूढ़ थे । देवों ने उन्हें प्रकाशित किया ।
८. अदिति के आठ पुत्र (मित्र, वरुण, धाता, अर्यचा, अंश, भग,
विवस्वान और आदित्य) इए, जिनसे से सात को लेकर बहु देवलोक में
गई और आठव सूर्थ को आकाश में छोड़ दिया ।
९. उसम युग में सात पुत्रों को लेकर अदिति चली गईं और जन्म
तथा मृत्यु के लिए सुर्थ को आकाश में रख दिया ।
(हुन्दो-म्दम्बेद १३३७
७३ सूक्त
(देवता मरुत । ऋषि शक्ति-पुत्र गौरवीति । छन्द निष्ट ।)
१, इन्द्र, जिस सभय गर्भ-वारयित्री इख्-माता ने इन्द्र को जन्म दिया,
उस समय मर्तो ने महानुभाव इन्द्र को यह कहकर प्रशंसित किया कि
तुभ बल और श्त्रु-विनाक्ष के लिए जन्मे हो; तुस बीर, स्तुत्य, ओजर
और अतीव अभिमानी हो ।
२- गमनशील अर्तो फे साथ दोहक इन्द्र के पास सेना बैठी हुई है ।
भरतों ने प्रचुर स्तोत्र के साथ इन्द्र को बदधिव किया । जैसे यायें विज्ञाल
गोष्ठ के बीच आच्छादित रहती हूँ ओर आच्छादन के दूर होते ही बाहर
निकलती हें, वसे गर्भ अर्थात् वृष्टि-जल व्यापक अन्धकार के बीच हे
बाहर निकला ।
३. इन्द्र, तुम्हारे चरण महान् हें। जिस समय तुम जाते हो, उज्च
समय ऋभु लोग वद्धित होते हैं। जो देवता हे, सो सब वर्धित होते हैँ
इन्द्र तुम एक सहस्र वक झो मुख में धारण करते हो । अहिवद्टय को फिरा
सकते हो ।
४. इन्द्र युद्ध की शीघ्रता होने पर भी दुम यज्ञ में आते हो । उत्त
समय तुम अहिवद्ठय के साथ मंत्री करते हो । हमारे लिए तुम अहुल्र घनों
को धारण करते हो । अध्विद्वय भी हमें धन देते हें ।
५. यज्ञ में आह्वादित होकर इन्द्र गतिशील मरुतों के साथ यजमान
को धन देते हूँ । इन्द्र ने यजभान के लिए दस्यु की माया को विनष्ट किया
उन्होंने वृष्टि बरसाई ओर अन्धकार को विनष्ट किया ।
६. इन्द्र सब शत्रुओं को समान रूप से नष्ट करते हूं । जैसे इन्होंने
उषा के शकट को नष्ट किया, वसे ही शत्रु को विध्वस्त किया । दीप्स,
सहन्, वुत्र-वधाभिलाषी और मित्र मरुतों के इन्द्र बृत्र-वध के लिए
गये । इन्द्र, शत्रुओं के सुग्दर-सुन्दर शरीरों को तुमने विध्वस्त किया ॥
१३२८ हिन्दी-ऋणग्वेद
७, इ्छ, तुश्हाश जन चाहनेवाले नसुखि को तुमने मार दिया ।
विघातक नमुचि नाघक असुर को, मनु (ऋणि) के पास, तुमने माया-
शूस्य कर दिया । देयो के बीज मनु (साथान्यतणा मनृण्य-मात्र) के लिए
चक्र
लुझये पथ प्रस्तुत कर दिये हैं। वे पथ ऐेम-लोक में जाने के लिए
८. इन्द्र, तुम इसे (संसार को) जल जा तेज से परिपुर्ण करते हो।
इस, घु सयके स्यामी हो । तुम हाथ में वज्र धारण करते हो । सारे
बेवतः बख्थारी तुम्हारी स्तुति करते हुँ । तुसने भेचों का मुँह नीचे कर
दिया हं)
९. जल के बीच इन्द्र का चक्र स्थापित हु। यह इस के लिए मध
का छेदन कर दे । इन्द्र, तुमने तृण-लता आदि में जो दूध था जल रक्खा
है, बह गायों के स्तन से अतीय शुर भूलि में निकलता है ।
१०. कुछ छोग कहते हु कि, इ फी उत्पत्ति अहव बा आदित्य से
हुए 81 परन्तु ने जानता हुँ कि, इन्र की उत्पत्ति बल से हुई है। इन्र
शेष से उत्पक्ष होकर शत्रुओं की दहुएसिरा्ों के ऊपर चढ़ गये। इस
कहाँ पे उत्पन हुए हैं, यह बात बढी जानते हे
११. गलगशील ओर भली भांति गिरनेबाली आदित्य किरणे इन्र के
यास ५० उप म्री ऋषि ही पक्षी हें, जिनकी प्रार्थना इन्द्र से थी ।
हुआ, यम्यकार को दूर ६ रो, नेत्र को आलोक से भर दो । हम पाइ से
बड़ हूँ, हुं उससे छुड़ाओ ।
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७७ सुक्त
(देवता, ऋषि, छन्द आदि पूर्ववत् ।)
१. यवदाय क लिए इन्र यज्ञ के हारा आक्कष्ट किये जाते हें। बे
देवों और झनुष्यों के द्वारा आक्ृष्ट होते हैं । बुद्ध में धन का उपार्जन
कःलंडाले घोड उन्हें आकृष्ट कर रहे है । जो यशस्वी व्यक्ति शत्र-रंहार
करते हु, दे इन्द्र को आकृष्ट कर रहे हू ।
(हुम्दी-म्हग्देद १३२९
३. अंगिरा लोगों के आहान-मिनाद ने आक्षाश को पूर्ण कर दिया ।
इस को और अन को चाहनेले देवों ने अनळाताओं को गावें दिखाने
फे लिए पुचिदी को प्राप्त किया। पुथिवी पर पणियों के हारा अवहृत
गायों को देखते हुए देवों ये अपने हित के लिए, आकाश में आदित्य के
ससान, अपने तेज से प्रकाश किया । ॒
३. यह अभर देयो की स्लुलि की जाती हैं। चे य फना उत्तसो-
सम वस्तुएं देते हूँ । बे हमारी स्तुल् और पञ्च को लिङ करते हुए अस
धारण धब दे । |
इसर, जो छोय शघुओ से गोषन छे लेला चाहते हें, वे तुम्हारी
ही स्तुति करते है । यह विद्यार पृथिवी एक बार उत्पन्न हुई हैं; परन्तु
अनेक सन्ताने (शस्य आदि) उत्पन्न करती हुँ। ये सहल धाराओं में
सम्पत्ति-रूप दुग्ध का दान करती हु। जो लोग इस पृथ्वी-बेनु को दुहुन
चाहते हु, चे भी इन्द्र की ही स्तुति करते हें। |
५. कर्भेनिष्ठ पुरोहितो, कभी भी अवनत न होनेवाले, शत्रुओं का
दहन करनेवाले, सहान् धमी, सुन्दर स्तुतिवाले और ममुष्य-हित के लिए
वपत्र धारण करनेवाले इन्द्र की शरण में रक्षा के लिए जाओ।
६. झत्रु-पुरी ध्वंसक इन्द्र ने जिस समय अत्यन्त प्रबुद्ध शत्रु का संहार
किया, उस समथ बुत्रघ्न होकर उन्होंने जल से पृथिवी को पूर्ण किया ।
उस समय सबसे समझा कि, इन्र अत्यन्त बली और क्षसताशाली हुँ ।
हम जो कुछ चाहते हैं, इन्द्र सबको पुर्ण करते हूँ ।
७५ सस
(देवता नदी । ऋषि प्रियमेध-पुत्र सिन्धुक्तित्। छन्द जगती ।)
१. जल, सेवक यजमान के गृह में तुम्हारी उत्तम महिमा को सें
कहा करता हूँ । नदियाँ, सात-सात करके तीन प्रकार (पृथिवी, आकाझ
और घुलोक) से चलीं। सबसे अधिक बहुवेबाली सिन्धु ही हैं ।
२. सिम्णु, जिस समय तुल शत्यशाली प्रदेश की ओर चली, उस
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१ रे ३ ७ हन्द i की येद
समय वरुण ने तुम्हारे बमन के लिए चिस्तुत पथ बना दिया । तुम भूमि
के ऊपर उत्तम साग से जाती ढो। तुम सब नदियों के ऊपर
विराजमान हो ।
३. पृथिवी से सिन्धु का शब्द उठकर आकाश को घहरा देता हे ॥
यह महावेग और दीप्त लहरों के सभ्य जाली हुं । जिस समय सिन्धु वृषभ
के समान प्रबल शब्द करती हुई आली हु, उस समव घिदित होता हु फि,
आकाश (वा मेघ) से घोर गर्जन-सर्जन के साथ वृष्टि हो रही हू ।
४, जेसे शिश के पास साता जाती हें और दुग्धवती गायें बछडे के
पास जाती हैं, बैसे ही शब्द करती हुई अन्य नदियाँ सिन्धु के पास जाती.
हें। जेसे युद्ध-कर्ता राजा सेना ले जाता हु, वसे ही तुम अपनी सहगा-
सिनी दो वदियों को लेकर आगे-आगे जाती हो ।
५. हे गंगा यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णी (रावी),
असिक्नी (चिनाब) के साथ मरुद्युधा (चिवाब और झेलम फे बीच की
वा चिनाब की पश्चिमवाली सरुवदेवय नाभ को सहायक नवी), वितस्ता
(झेलम), सुषोमा (सोहान) और आर्जीक्षीया (व्यास), तुम लोग पेरे
इस स्तोत्र का भाग कर लो ओर सुनो ।
६. सिन्धु, पहले तुम तुष्टासा (सिन्धु की पश्चिमी सहायक नवी)
के साथ चली । पुनः सुसत्तृ, रसा और उबेत्या (थ तीनों सिन्धु की पश्चिमी
सहायक नदियां हुँ) से मिलीं । तुम ऋमु (कुरंम) ओर गोमती (गोमळ)
को, कुभा (“काबुल नदी) और मेहतमू (सिन्धु की पश्चिमी सहायक
नदी) से मिळाती हो । इन नदियों के साथ तुम यहती हो ।
७. सिन्धु मदी सरल-गाःमिनी, इवेतवर्णा और प्रदीप्ता हुँ। सिन्ध
का वेगशाली जल चारों ओर जाता हु । मदियों स॑ से सबसे वेगवती
सिन्धु ही है । यह घोड़ी के समान अद्भुत हूँ और मोटी स्त्री के समान
दशनीया हे ।
८. सिन्धु शोभन आइवों, सुन्दर रय, सुन्दर वस्त्र, सुवर्णाभरण,
सुन्दर सज्जा, अन्न और पशुलोअयाली हूं । सिन्धु नित्यतरुणी और
हिन्दी-ऋग्वेद ` १३३१
तिनको (सीलमा) बाली है। सोभाग्यवती सिन्धु सधुवर्दधक पुष्पों से
आ्छादित हु ।
९. सिन्धु सुखकर और अश्ववाले रथ को जोतती है । उस रथ से
वह अञ्च दे। यज्ञ में सिन्धु के रथ की महिमा गाई जाती है। सिन्धु का
रथ अहिसित कीतिकर और महान् हुँ ।
७६ सूक्त
(देवता सोमासिषववाला प्रस्तर । ऋषि इरावान् के पुत्र जरत्कण ।
छन्द जगती ।)
१. पत्थरों, अन्नवाली उषा के आते ही तुम्हें में प्रस्तुत करता हूं ।
तुम सोम देकर इन्द्र, मरत् और द्यावापृथिवी को अनुकूल करो। ये
शावापूथिबी एक साथ हम लोगों सं से प्रत्येक के गुह में सेवा ग्रहण कर
शृहों को धन से पुणं कर दें।
२. हाथों से पकड़े जाने पर अभिषव-प्रस्तर घोड़े के समान हो जाता
है । श्रेष्ठ सोम को तुम प्रस्तुत करो । प्रस्तर से सोमाभिषव करनेवाला
यजमान शत्रुओं को हरानेवाला बल प्राप्त करता हँ । यह अइव देता हैं
जिससे यथेष्ट धन मिलता हुँ ।
३. जैसे प्राचीन समय में मन् के यज्ञ में सोमरस आया था, बसे ही
एस प्रस्तर फे द्वारा निष्पीड़ित सोम जल में प्रवेश करे। गायों को जल
में स्तान कराने, गुह-निर्माण-कार्य और घोड़ों को स्नान कराने
के समय, यज्ञ-्काळ में, इस अविनशवर सोमरस का आश्रय रिया
जाता हँ ।
४, पत्थरों, भञ्जक राक्षसो को विनष्ट करो। निति (पाप-
देवता) को दूर करो । दुबुंद्धि को हटाओ । सन्तानन्युक्त धन दो।
देवों को प्रसक्ष करनेवाले इलोक का सम्पादन करो ।
५. जो आकाश से भी तेजस्वी दा बली हुँ, जो सुधन्वा के पुत्र विभ्चा
सेमी शीघ्र-कर्मा हैं, जो वायु से भी सोधाभिषव में वेगशाली
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हैं और जो अग्नि से भी अधिक अलर हुँ, उन पत्थरों की, देवों की
प्रसञ्षला के (लिए, पुजा करो ।
६. यशस्वी स्तर हसरे लिए अभिषु सोन का रस सम्पादित करे ॥
वे स्तोत्र के साथ उज्ज्वल वाकय के हारा उज्ज्वल सोम-याग में हमे
स्थापित करे । मेता ऋत्विक लोग स्तोत्र-ध्वनि और परस्पर शीघ्रता
करते-करते कमनीय सोम-रस, सोम-यज्ञ मं दुहते हु ।
७. चालित होकर बे पत्थर सोम चुआते हें ॥ वे स्तोत्र की इच्छा
करते हुए, अग्नि के सेचन के लिए, सोम-रस दुहते हें। अभिषव-कारी
ऋत्विक् छोग मुख से शेष सोम का पान करके शुद्धि करते हुँ ।
८. नेताओ और पत्थरो, तुम शोभन अभियबं फे कर्ता होओ ॥
इन्द्र के लिए सोमाभियब करो । दिव्य झोक के लिए लुम जोम अद्भुत
सम्पत्ति उपस्थित करो । जो कुछ निवास-योग्य घन हुँ, उसे यजमान
को दो ।
७७ सूक्त
(देवता मस्त् | ऋषि शहुःःःीय स्पृमरश्मि। छन्द त्रिब्दुप और
जगती !)
१. स्तुति से प्रसञ्च होकर भरत लोग मेघ-नि्यत बारि-बिन्दु फे
समान बन बरसाले हं । हि से मुक्त यञ्च के समान संसार की उत्पत्ति
के कारण मरुत हुँ। सस्ता के महान् दल बी पुजा वास्तव में मेदे
नहीं की हे। शोभा के लिए भी मेंने स्तोत्र नहीं किया ।
२. मस्त् लोग पहले मनुष्य थे, पीछे, पुण्य के द्वारा, देवता बच
गये। एकत्र सेना भी मरुतों का पराभव नहीं कर सकती । हमने इनकी
स्तुति नहीं को; इसलिए ये शुलोझ के भस्त् अब भी दिखाई नहीं दिये
ओर आकऋषमणशील बढ़ ।
३. स्वर्ग और पृथिबी पर ये मरुत् स्वयं बढ़े हे। जेसे सुर्य मेघ से
हिन्दी-ऋग्वेद १३३३
निकलते हूं, वेसे ही मण्त् जहर हुए। थे वीर पुशयों के ससान स्तोत्रा-
सिलाषी होते हँ। शत्र-घातक मनुष्यों के समान ये दीप्त होते हैं।
४. सरतो, जिस समय तुम लोग परस्पर प्रतिधातक और बृष्टि-पःस
करते हो, उस समय पृथिवी न तो कातर होती और न दुर्बल ही होती
तुम्हें हथि दिया गया हुँ। तुझ लोग अन्नवाले व्यक्तियों के समान
एकत्र होकर आओ ।।
५. रस्सी से रथ म जोते घोड़े के समान तुम लोग गमनशील हो ।
तुम रोग प्रभात-कालीन आलोक के समाव प्रकाशवान् हुए हो। इयम
पक्षी के समान तुम लोग शत्रु को हुर करते हो और अपनी कीति स्वयं
उपाजित करते हो। पथिकों के समाव तुम लोग चारों ओर आकर
घर्ष घरसाते हो।
६. मर्तो, तुम लोग बहुत बुर से यथेष्ट गुप्त धन ले आते हो। घन
प्राप्त करके तुम लोग द्वेषी शत्रुओं को गुप्त रीति से दूर करते हो।
७. जो मनुष्य यज्ञ-समाप्ति होने पर यज्ञानुष्ठान करके मरुतों को
दान देता हे, उसे अन्न, धन और जन की प्राप्ति होती हुँ। बह देवों के
साथ सोमपाम करता हें।
८. मरुत् लोग यज्ञीय हें। वे यज्ञ के समय रक्षक हें। आकाश के
जल से अदिति सुख देती हुँ। वह क्षिप्रकारी रथ से आकर हमारी बुद्धि
फी रक्षा करें। यज्ञ में जाकर यथेष्ट हवि का भक्षण करते हैं।
७८ सूक्त
| _ ९
(दैवता, ऋषि ओर छन्द पूववत् ।)
_ १. स्तोत्र-परायण मेधावी स्तोताओं के ससान यज्ञ में मरत् लोग
शोभग ध्यानवाले हुँ। जसे देवों के तपंक यजमान कर्म में व्यस्त रहते हैं,
बैले ही वृष्टि-प्रदान आदि कों में सरत् लोग व्यापृत रहते हें। अच्त् लोग
शजाओं के समान पुअवीए, दशनीय और गृहस्वामी मनुष्यों के समान
निष्पाप और शोभित हुँ
१३३४ 'हुम्दी-आप्वेद
२. सरुत् लोग अग्मि के समान तेज से शोभित हैं। उनके वक्षस्थल
में स्वर्णालंकर शोभा पाते है। वे यायु के समान क्षिप्रगन्ता हुँ। ज्ञाता
ज्ञानियों के समान वे पूज्य हैं। सुन्दर नेत्रों और सुन्दर भुखवाके सोम
समान वे यज्ञ में जाते हैं।
३. मरुत् लोग (वायु के अभिनी देव) वाय के समान शतरओं कौ
फंपानेवाले और गतिशील हें। अश्यि की ज्वाला के समान शोभन मख-
याले हुँ। कवचधारी योद्धाओ के समान वे शौर्य कर्मवाले हे। पितरों के
यचन के समान दानी हुँ।
४. मरुत् लोग रथवक्र के डंडों के समान एक नासि (आश्रय व
अन्तरिक्ष) वाले हु। वे जयशील शूरों के समान दीप्तिशाली हैं! दानेच्छ
मनुष्यों के समान वे जल-सेचक हुँ। सुन्दर स्तोत्र करनेवालों के समान
वे सुशब्दवाले हैँ।
५. मरुत् लोग अइवों के समान श्रेष्ठ शी घ-यन्ता हें। घनवाले रथ-
स्वामियों के समान बे सुन्दर दानवाले हैं। वे नदियों फे समान नोचे जल
ले जानेवाले हें। वे अङ्गिरा लोगों के समान सापगाता हैं। नाना
रूपधारी हु।
६. वे जलदाता मेघों के समान नदी-निर्माता हँ ध्वंसक बज्र आदि
आयुधों के समान वे शत्रु-हन्ता हैं। वे वत्सल माताओं के बच्चों के समान
कीड़ा-परायण हुँ। बे महान् जनसंघ के समान गमन में दीप्तिशाली हैं।
७. उषा की किरणों के समान वे यज्ञाश्रयी हुँ। कल्याणकामी वरों
के समान वे आभरणों से सुशोभित होते हें। नदियों के समान वे गतिशील
हैं। उनके आयुध प्रदीप्त हैं। दूर मागबारे पथिकों फे समान वे अनेक
योजनाओं को अतिक्रम करले हें।
८. देव, सस्तो, स्लुतियों से वद्धित होकर हुम हम स्तोताओं को घनी
ओर शोभन रत्नवाले बनाओ। स्तोत्र के सहकारी स्तव को ग्रहण करो ।
हुम तुम सदा से रस्न-दान करते आय हो।
` हिन्दी-ऋग्वेद १३३५
७९ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वाजम्भर-पुत्र सप्ति। छन्द त्रिष्टुप् )
१. सरणशील मनुष्यों में अभर-स्वशाव अग्नि की महिमा को में
देखता हूँ। इनके दोनों जबड़े (हन्) नाला प्रकार के और परिपूर्ण कृति
के हूँ। ये दवण न करके काष्ठादि पदार्थों का भक्षण करते हेँ।
२. इनका मस्तक गुप्त स्थान में है। इनके नेत्र शिक्ष-भिन्न स्थानों
(सूर्षं और चन्द्रमा) में हूँ। ये चर्वण न करके ज्वाला से काठों को खाते
हुँ। मनुष्यों में यजयान हाथ उठाते और नमस्कार करते हुए इनके पास
आकर उनका आहार जुटते हैं।
३. थे अग्नि-रूपी बालक अपनी माता पृथिवी के ऊपर अग्रसर चलते-
चलते प्रकाण्ड-प्रकाणड लताओं का ग्रास करते हें--उनके छिपे मूल तक का
भक्षण करते हेँ। पृथिवी पर जो आकाश को छनेवाले वृक्ष हुँ, उन्हें ये
पके हुए अझ के ससान पकड़ लेते हँ। इनकी ज्वाला से वृक्ष जलते हें ।
४. हे द्यावापृथिवी, तुमसे में सच्ची बात कहता हूं कि, अरणियों
से उत्पन्न यह बालकए्य अग्नि अपने माता-पिता (दोनों अरणियों व
लड़कियों ) का भक्षण करते हें। में मनुष्य हुँ अतः देवता अग्नि का वर्तन
व विषय नहीं जानता हूँ) देशवानर, तुम विविध ज्ञानवाले हो ब प्रकृष्ट
ज्ञानवाले हो--यह में नहीं जान सकता।
५. जो यजमान अग्नि को शीघ्र अन्न देता है, गोघुत वा सोमरस से
आरि में हवन करता हें और जो काष्ठ आदि से इनकी पुष्टि करता हैं,
उसे अग्न अपरिक्षित ज्वालाओ से देखते हुँ। अर्नि, उसके प्रति तुम
हमारे प्रति अनुकूल रहते हो ।
६. अश्न, क्या तुमने देजों फे ऊपर क्रोध किया है ? ब जानकर सें
तुभ दाहक से पुछता हूं । कहीं कीड़ा करते हुए और क्रीड़ा न करते हुए
आर हरितबर्ण अग्नि अच, काष्ठ आदि को खाते समय उनको बेसे ही
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१३३६ ।इन्दी-्शरग्देद
ff 59 FE टि आध 0200 SR | sey Es, ; Rs oe ण तु प ड 7] ते भरि हिप Yt हे We कने | पु"
छिन्दी-छिन्दी बार डाले डु, जले खडग से यो को खण्ड-खण्ड किया
जाता हुँ ।
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७, वन सें प्रवृद्ध होकर अग्नि में सरल रज्जुओं फे द्वारा बाँध करके
कुछ द्रुसगासी जोड़ों को रथ में जोता ॥ अग्नि काष्ठ-स्वरण घना पाकर
और प्रबुद्ध होकर सबको चूर्ण करते हें । थे काष्ठ-खण्डों से बद्धित हैं।
८० सूक्त
थे ता ही न्र्प कको वै > a त्रि
(देवता अग्नि । ऋषि साचीक वेश्वानर । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. अग्नि गतिशील और यद्ध से शजुओं को जीतकर अन्न देनेवाला
अइव स्तोताओ को देते हुँ। व बीर और यञ्चग्रेगी पुत्र देते हँ । अग्नि,
यावापृथिवी को शोभामय करके विचरण करते हें। अग्नि स्त्री को बीर-
प्रसविनी करते हें ।
२. अग्नि-कार्य के लिए उपयोगी समित्काष्ठ कल्याणकर हो । अग्मि
अपने तेज से द्यावापृथिवी में पेठे हें । युद्ध में अग्नि अपने भक्त को स्वयं
सहायक होकर विजयी बनाते हैँ। अग्मि अनेक शत्रुओं को मारते हें ।
३. अग्नि ने प्रसिद्ध जरत्कर्ण नामक ऋषि की रक्षा ह्ली । अग्नि ने
जल से निकाल करके जरूथ नामक शत्र को जलाया या। आग्नि ने
प्रतप्त कुण्ड में पतित अत्रि का उद्धार किया था । अग्नि ने नमेघ ऋषि
को सन्तानवान् किया था ।
४, अग्नि ज्याला-रूप धन देते हु । जो ऋषि सहर गाणोंजाले हें,
उन्हें मन्त्रद्रष्टा पुत्र देते हुँ । यजपानों का दिया हुआ हवि अग्नि युलोक
में पहुँचाते हुं। अग्नि के पृथिवी पर बड़े-बड़े शरीर हें ।
५. प्रथम ऋषि लोग अन्त्रं के द्वारा अग्नि को बुलाते है। मनुष्य,
पंग्राम में शत्रु से बाधित होकर, जय के लिए पाते हे, आकाश
में उड़ते हुए पक्षी अग्नि को बुळाते हैं। सहल गायों से वेष्टित होकर
अग्नि जाते हुँ ॥
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९. मानवी प्रजा अग्नि की सालि फर्सी है । बहल-बंगीश लोग आहि
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(देवता विश्वकर्मा । ऋषि भुदन पुत्र विश्वक्मा । छन्द जिष्डुप्।)
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१. हमारे पिता और होता धिश्वकम प्रय तारे संसार का हवन
करके स्वयं भी अग्नि में पेठ गये। स्तोत्रादि के हाश स्वर्ग-घगम की कामता
करते हुए वे प्रथम सारे जगत् में अश्वि का आच्छादन करके पझ्चामु
समीप के भूतों के साथ स्वयं भी हुत हो गये बा अग्नि में पैड गये ।
२. सृष्टि-काल में विश्वकर्मा का आश्रय कया था ? कहाँ से और वसे
उन्होंने सुष्ठि-कार्य का प्रारम्भ किया ? बिद्ववदर्शक देव विशटकर्मा हे
किस स्थान पर रहकर पृथिवी को बनाकर आकाश को बनाया ?
३. विश्वकर्मा की आँखें, मुख, बाहे और चरण सभी ओर से हुँ
अपनी भुजाओं ओर पदों से प्रेरण करते बे दिव्य पुरव झामाभूमि को
उत्पन्न करते हें। वे एक हैं।
कोन वन और उस्म कौन-सा बक्ष है, जिससे सब्ठि-कर्साओं
ने झावापृथिबी को ब्माया ? विद्वानों अपने अन से पूछ देखो कि, किक
पदार्थ के ऊपर खड़े होकर ईश्व दारे दिइव का धारण करते हूँ!
५. यज्ञभाग-ग्राही विश्वकर्मा यज्ञ-काल में हमे उत्तम, अध्या आ
(र्
धारण शरीरों को बता दो! आद्थुवत तुम स्वयं यज्ञ करके अपने
शरीर पुष्ट करते हो ।
६. विश्वकर्मा, तुम दादा 0 थक में स्वयं यज्ञ करके अपने को पुह
किया फरते हो वा यज्ञीय हनि से प्रवृद्ध होकर दुस दयापथ्दी का
ह
१३३८ हिन्दी-ऋग्वेद
पुजन करो ! हुमारे यज्ञ-बिरोधी मुछित हों। इस यज्ञ में घनी विश्वकर्मा
एवर्गांदि के फल-दाता हों ।
७. इस यज्ञ में, आज, उस विश्वकर्मा को रक्षा के लिए इस बजाते
हैं। थे हमारे सारे हवनों का सेवन करें। वे हमारे रक्षण के लिए
सुखोत्पादक और साधु कर्मवाले हूं।
<२ सूक्त
(देवता, ऋषि और छन्द पूववत् ।)
१, शारीर के उत्पादयिता और असपल बीर बिश्वकर्मा ने प्रथम जल
को उत्पञ्च किया । पश्चात् जळ में इधर-उधर चळनेवाले द्यावापृथिवी
को सनाया । छावाएयिमी के प्राचीन और अन्त्य प्रदेशों को विश्वकर्मा
ने दृढ़ किया । तय द्यावापूर्थियी प्रसिद्ध हुई ।
२. विश्वकर्मा का मन बृहत् हुँ, बे स्वयं बृहत् हे, वे निर्माण करते
हुँ, बे सबेश्षेष्ठ हुं, बे सब कुछ देखते हें, सप्तषियो फे परवर्ती स्थानों को
देखते है। बहा बे अकेले हे। विद्वान् लोग एसा कहते हें। विद्वानों
की अभिलाषा अन्न के द्वारा पूर्ण होती हे ।
३. जो विश्वकर्मा हमारे पालक, उत्पादक, संसार के उत्पादक,
जो विशव के सारे थानों को जानते हे वा जो देवों के तेजःस्थानों को
जानते हुँ, जो देवों के नाम रखमेवाछे और जो एफ हें, सारे प्राणी उन्हीं
देक को प्राप्त करले हे वा उनके विषय के जिज्ञासु होते हें ।
४. स्थावर जंगमाहमक विश्व फे होने पर जिन ऋषियों मे प्राणियों
को नाया दा उनको नादि प्रदान किया, उन्हीं प्राचीन ऋषियों ने
स्तोताओं फे समान, धन-व्यय करके यज्ञानुष्ठान किया ।
५. बह झुलोफ, पृथिवी, असुरों और देखो फो अतिक्रम करे अव-
स्थित हें। झळ ने इदा कौन-सा गर्भ धारण किया है, जिसमें सभी इन्द्रादि
हेता रहुकर परस्पर मिलित देखते हुँ
हिन्दी-ऋणग्वैद १३३९
६. उन्हीं विश्वकर्मा को जल ने गर्भ में धारण किया हँ । गर्भ में
सारे देवता संगत होते हैं उस अज की नाभि में ब्रह्माण्ड हुँ । ब्रह्माण्ड
में सारे प्राणी रहते हूं ।
७. जिन विश्वकर्मा ने सारे प्राणियों को उत्पन्न किया है, उन्हें तुम
लोग नहीं जानते हो । तुम्हारा अन्तस्तल उन्हें समझते की शक्ति नहीं पाये
हुए हं । हिम-रुपी अज्ञान से आच्छत्त होकर लोग नाना प्रकार की
कल्पना करते हुँ । वे अपने लिए भोजन करते और स्तुतियाँ करके
स्वर्ग की प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हुं--ईइवर-तर्व का विचार नहीं
करते ।
८२ सूक्त
(देवता मन्यु । ऋषि तपःपुत्र मन्यु । छन्द जगती और त्रिष्टुप् ।)
१. वज्त्रसदृरा, घाणतुल्य और कोधाभिमानी देव मन्यु, जो यजमान
तुम्हारी पुजा करता हे, बह ओज और बल--दोनों को धारण करता है ।
तुम्हारी सहायता पाकर हम दास और आये शत्रुओं को हरावें । तुम बल
के कर्ता, बल-रूप और महान् बली हो ।
२. मन्यु ही इन्द्र हे, देवता हें, होता हैं, वरुण हें और जातप्रज्
अग्नि हैँ । सारी मानवी प्रजा मन्यु की स्तुति करती है । मन्यु, तुम
हमारे पिता से मिलकर हमारी रक्षा करो।
३. मन्यु, तुम महाबली हो । पधारो । मेरे पिता को सहायक बनाकर
शत्रुओं को ध्वस्त करो । तुस शत्रुओं के संहारक, दृत्रध्न और दस्युओं के
के हन्ता हो । हमारे लिए समस्त धन ले आओ ।
४. मन्यु, तुम दूसरों को हुरानेवाले हो । तुम स्वयम्भू, दीप्तिशील
शत्रु-जयकारी, चारों ओर देखनेवाले, शत्रुओं का आक्रमण सहनेदाले
और बली हो । हमारी सेनाओं को तेजस्विी बनाओ ।
` ५. उत्तम ज्ञानवाले मन्यु, में यज्ञ भाग का आयोजन नहीं कर
सका; इसलिए ठुस्ह पजा नहीं दे सका। लुम महान् हो; परन्तु तुम्हें
१३४७ सिन्दी-व्दम्चेद
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RSS ~ विन ३ ५)
_
सँ पुजा नही थे लक्षा ॥ घन्यु, इस प्रकार तुम्हारे यजन में शिथिलता
i गो ले
करके उद समय में लज्जा का अनुभव कर रहा हु । अपने गुण के अनुसार,
अपनी इच्छा से मुझे बल देमे को पधारों
मन्य, ले तुम्हारे पास पहुँचा हुँ ॥ तुम अनुकूल होकर मेरे पास
आकर अवतीर्णं होओ । तुम आक्रमण को सह सकते हो । सबके धारक
ही । वज्त्रधर सन्यु, मेरे पास बुद्धि प्राप्त होओ। मुझे आत्मीय समफ्तो।
ऐसा होने पर में दस्युओं का वघ कर सकता हूं ।
७. सेरे पास आओ । मेरे दक्षिण हाथ की ओर ठहरो । एसा होने
पर एम दोनों वुत्रों का विनाश कर सकगे । तुम्हारे लिए में मधुर और
उत्तय सोमरस का हुवन करता हूँ । हम दोनों सबसे प्रथम, एकान्त स्थान
में सोसपान करें ॥
८४ सूक्त
(ऋषि, देवता, छन्द पूर्ववत् |)
१. मन्यु, तुम्हारे साथ एक रथ पर चढ़कर तथा हुष्ट, घुष्ट और
तीक्ष्ण वाणवाले आयुधों को तेज कर और अग्नि के समाव तीक्ष्ण दाह-
वाले बनकर मरुत् आदि युद्ध-नेता छोग सहायता के लिए युद्ध में जायें ।
२. मन्य, अग्नि के समान प्रज्वलित होकर शच्ुओं को हुराओ ॥
सहनशील मन्यु, तुम्हें बुलाया गया है । संग्राय में हमारे सेनापति बनो ॥
शत्रुओं का बन करके उनका घन हमें दे दो । हुए बल देकर शत्रुओं को
सारो ।
३. झन्श, हमारा सायना करनेबाले शश फो हुराओ । काठते-काटते
और गारते-मारते शत्रुओं के सासने जाओ। तुम्हारे दुद्धष बल को कौन
बोझ लता है ? एकाकी भम्यु, ठुम शत्रुओं को वश में ले आते हो ।
४. सन्यु, तुम्हारी स्तुति की जाती हुँ । तुम अकेले हो । युद्ध के
लिए ग्रस्य गजष्य को तीक्ष्य करो । तुम्ह सहायक पाकर हमारी दी
कभी नष्ट नहीं होगी । जय-प्राग्ति के लिए हम प्रबळ सहुनाद करते हूं |
हिन्दी-व्रवेद २३५१
५. मन्यु, तुम इन्त्र के समान बिजेता हौ । तुम्हारे वयन में निन्दा
महीं रहती । इस यज्ञ में तुस हमारे विशिष्ठ रक्ष हनो । सहनशील
न्यु, तुष्हारा प्रिय स्तोत्र हु करते हुँ । दुम स्तोत्र पे शुद्ध होते छो
तुग्हं इम बलोत्पादक जानते हें ॥
६ बज्तुल्य और शबुयाशक अन्यु, शत्रु-बाश करना उुम्हादा
स्वभाव हु । शत्रु-पराभवशारी सन्य, तुम उत्कुष्ड देश को धारण झरते
हो । अन्यु, कर्ष के साथ तुम हमारे लिए युद्ध में स्निग्ध होओ तुम
बहुतों के द्वारा बुलाये गये हो ।
७. वरुण ओर सब्यु--दोगों ही हमें पाये गणे और छाये गए धन को
दें। शत्रु लोग भौर, पराजित और निलीन हों
८५ सूक्त
(७ अनुवाक । देवता साम आदि । ऋषि सूया । छन्द त्रिष्टुप।)
१. देवों मे लत्यरूप ब्रह्मा ने पुथिवी को आकाश में रोक रक्खा है।
सुर्थ ने द्युलोक को स्तम्भित कर रक्खा हँ । यज्ञाहुति के द्वारा देवता रहते
हैं। थुलोक में सोम अवस्थित है ।
२. सोम से ही इन्द्रादि बली होते हैँ । सोम से ही पूथिवी प्रकाण्ड
हुई हे। नक्षत्रों के पास सोम रक्खा गया हे ।
३. जित समय वनस्पद्धि-एपी सोम को पीसा जाता हुँ, उस समय
लोग समझते हूँ कि, उन्होंने सोम-पाय कर छिया । परन्तु ब्राह्माण लोग
जिसे प्रकृत सोम कहते हु, उसका कोई अयाशिक पान महीं कर सकता ।
४. सोम, स्तोता लोग छिपाने की व्यवस्था जानकर तुम्हें गुप्त रखते
हूं। तुम पाषाण का शब्द सुनते हो । पृथिवी का कोई मनृष्य तुम्हारा
पान नहीं कर सकता ।
५. देव सोम, तुम्हारा पान करने से तुम्हारी बुद्धि होली है--क्षय गहीं।
धायु सोम की बसे ही रक्षा करते हैं, जैसे महीने बर्ष की रक्षा करते हुँ ।
वोतो का स्वरूप एक-सा हूं ।
१६४३ हिन्दी-ऋग्वेद
६. सुर्थपुत्री के विवाह के समय रेंभी नाम की ऋचायें उसकी
खी हुई थीं। नाराशंसी नास की ऋचायें उसकी दासी हुई थीं। सुर्या
का अत्यन्त सुन्दर बस्त्र साम-पान के द्वारा परिष्कृत हुआ था ।
७. जिस समय सुर्या पति-गुह में गई उस समय चेतन्य-स्वरूप चादर
या । नेत्र ही उसका उबटन था । द्यावापृथिवी ही उसके कोश थे ।
८. स्तोत्र ही उसके रथ-चक के उंडे थे। कुटिर नामक छन्द रथ
का भीतरी भाग था । सुर्या के वर अश्विनीकुमार थे और अग्नि अग्न-
यासी दूत ।
९. सूर्या सन ही मन पति की कामना करती थी । जिस समय सूर्थ
ने सूर्या को प्रदान किया, उस समय सोम उसके साथ विवाह करने के
इच्छुक थे। परन्तु अदिविद्ठवय ही उसके बर स्वीकृत किये गये ।
१०, सुर्या पति के गुह सं गई । उसका मन ही उसका शकट था ॥
आकार ही ओढ़ना था। सूयं ओर चन्रमा उसके रथ-वाहक हुए ।
११. ऋक् और साम के द्वारा वर्णित दो वृषभ वा वृषभ-रूप सुर्थ-
धन्द्र उसके शकट को यहाँ से यहाँ ले जानेवाले हुए । सूर्या, वोनों फान
तुम्हारे दो रथ-चक्र हुए । रथ के चलने का मारग हुआ आकाइ।
१२. जाने के समय तुम्हारे दोनों रथ के पहिथ नेत्र हुए बा अत्यन्त
उज्ज्वल हुए । उस रथ में विस्तृत अक्ष (दोनों पहियों में लगा हुआ मोटा
इंडा) हुआ। पति-गृह में जाने के लिए सुर्या भवोरूप शकट पर चढी ॥
१३. पति-गृह में जाते समय सूर्यं ने सूर्या को जो चादर दिया था, बहु
आगे-आगे चला । मघा नक्षत्र के उदय-कार में चादर (उपढोकम) के
मंग-स्वरूप बिदाई में दी गई गायों को डंडे से हाका जाता हैँ और अर्जुनी
अर्थात् पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी भें उस चादर को रथ से ळे
जाया जाता है ।
१४. अडिवद्ठय, जिस समय तुम लोगों ने तीन पहियोंबाले रथ पर
चढ़कर और सूर्या फे विवाह की बात पुछकर उससे बिवाह किया था, उस
हिन्दी-ऋण्वेद १३४३
ससय सारे देवों न तुम्हारे कार्य का समर्थन किया और तुम्हारे पुन (पुषा)
ने तुम्हें वरण किया ।
१५. अश्विद्वय, जिस समय तुम लोग वर होकर सुर्या के पास गये,
उस सभय तुम्हारा चक्र कहाँ था ? सार्य की जिज्ञासा करने के समय तुम
लोग कहाँ खड़े थ?
१६. ब्राह्मण छोग जानते हैँ कि, ससयालुपार, चलनेचाले तुम्हारे
दो चक्र (सूर्ये-चम्द्ात्मक) प्रख्यात हुँ और एक गोपनीय चख्न (वर्ष) को
विद्वान् लोग सम भते हें ।
१७. सूर्या, देवगण, मित्र और वरुण प्राणियों के शुभचिन्तक हूँ ॥
उन्हें में नमस्कार करता हूं ।
१८. ये दोनों शिशु (सूयं और चन्द्र) अपनी शर्षित ते पूर्व-पश्चिम
में विचरण करते हें। ये कीड़ा करते हुए यज्ञ में जाते हें । इसमें से एक
चन्द्रमा संसार में ऋतु-व्यवस्था करते हुए अश्व को देखते हे ओर दुसरे
शुं ऋतु-विधान करते हुए बार-बार जन्म लेते हुँ (उदय-अस्त होले है) ।
१९. सूयं दिन के सुचक हूँ। प्रतिदिन नये होकर वे प्रातःकाछ
सामने आते हैं । आकर देवों को यज्ञ-भाग देने की व्यवस्था करते हुँ ॥
न्द्रमा चिर-जीवन देते हें ।
२०. सूर्था, तुम अपने पतिगुह में जाते समय शोभन पलाशन्बृक्ष
आर शाल्मली वृक्ष से निमित नानारूप, सुवर्ण वर्ष, उस्म और शोभय
चक्रवाले रथ पर चढ़ो। सुखकर ओर अमर स्थान में सोम के रिए जाओ ।
२१. विश्वावसु, यहाँ से उठो; क्योंकि इस कन्या का विबाह हो
शया । में नमस्कार और स्तोत्र के द्वारा विष्वावयु की स्तुति करता हूँ ।
यबि कोई दूसरी कन्या पितु-गृह में विवाह के योग्य हुई हो, तो उसके पाह
जाओ । बहो तुम्हारे भाग्य मे जन्मी है । उसकी बात जानो।
२२. विश्वावसु, यहाँ से उठो । नमस्कार फे द्वारा में तुम्हारी पुजा
करता हूँ । फिस बुहत् नितम्बवाळी कन्या के पास जाओ और उसे पत्नी
बनाकर पति से भिलाओ ।
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"स्टप, शायर शरीर सूर्यदेव ने जिस बन्धन से तुम्हें बाँधा था,
ङी वरुण के (सुनार औचिय होकर बरुण हो बॉधते है) पाश से सं
उछाल छुँ । जो सत्य का आधार है और जो सत्कर्म का निवास हें,
उसी स्थान पर तुम्हें जिबिध्य रूप से पति के साथ, स्थापित करता हूं ॥
२५. शक ना को णिसान्फाल से सडाता 81 दसरे स्थल से नहीं ॥
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शत मूह में इसे सरी स्याति स्थापित करता हुं । वर्षक इज, थह
सोभाग्यवती कोश सुदा हो ।
२६. तुम्हें हाथ में दारण वारके फा थंहाँ से ले आारय। अधियदय
शे अध न 5 पु Ce] कन i खि 1०1५ et णु |» nn
ठुम्ड रथ से ले जायं । 5 थ आकर गाहणा बना । थात क बश थे रहु-
कर भत्यादि का व्यजस्यापन करो ।
२७, इस गह में सन्ताय उत्प करके प्रसञ्च होओ । यहाँ सावधान
होकर कार्य करना । स्थामी के साथ अपने शरीर को सम्मिलित करो ॥
बृद्धायन्था सफ अपने गृह में प्रभश करो ।
८. पाय-देयता या) जोल और लो हित चण के होर हु । इस
स्त्री पर संबद्ध छुत्था को छोड़ा याता हैं तब इस नारी के जातीय लोग
बढु रहे हें। इसका पति सांसारिक बन्धन में हे ।
२९. सलिम वस्त्र का त्याग करो । ब्राह्मणों को धन वो । कृत्या
वली गई हुं । पत्नी पति भे सम्मिलित हो रही हु ।
३०. यदि पति मधू के वस्त्र से अपने शरीर को ढकने की चेष्टा
करता है, तो उसपर कृत्या का आक्रमण होता है ओर उज्ज्वल शरीर
भी भी-ञ्रष्ट हो जाता हुँ ।
३१. जो लोग बर से बघू को मिले ाह्टादजलक चादर को लेने
को आये थे, उन्हें झद-साग राही देवता उनके स्थान पर लोटा दें वा
विफल-प्रथास कर
हिन्दी-ऋग्वेद १३४५
३२. जी शत्रुता के लिए इस यम्यसी के पास आते हें, वे विनष्ट हों।
दम्पती सुविधा के द्वारा असुविधा को नष्ट कर दें। झत्र लोग दूर भाग
३. यह वधू शोभन झस्यायवाली हे। सभी आशीर्वादकर्ता आवें
और इसे देखें । इले स्वासी की णिययाची बनने का आशीर्वाद देकर सब
रोग अपने-अपने घर अले जाथे ।
३४. यह वस्त्र दुषित, अग्राहा, सलिन और विषथुक्त हैँ । यह
व्यवहार के थोष्य अटी हें । जो ब्राह्म सूर्या को जाने, वही यह वस्त्र
पा सकता हैं ।
३५. हूर्या की मूत केसी ह, देखो । इसका वस्त्र कहीं प्रथम फटा
हुँ। कहीं बीच सं फटा है ओर फहों चारों ओर फटा है । जो ब्रह्मा हें,
बे ही इसका संशोधन करते हें ।
३६. तुम्हारे सोभाग्य के लिए में तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ। मुझे
एति यकर तुम द उपाए में एहेँदमा--थही मेरी प्रार्थना हं । भग, अर्थमा
और पूषा न तुम्ह सक गह-घन चराने के लिए दिया हे।
३७. पुषा, जित मारी के भभ में पुरुष रज बोदा ह्; उसे तुत
कल्याणी बनाकर भेजो । कामिनी होकर बह अपना उरुन्वय विस्तारित
करेगी और हभ कासव होर उससे अपना इखिय प्रहार करेंगे ।
३८, अग्नि, ओढ़नी के साथ सूर्या फो पहले तुम्हारे ही पास ले जाया
जाला हु । जुम सम्तन-राहित बानिता को पति के हाथ संपते हो ।
३९. अग्नि मे पुनः खोन्दये ओर परभायु के साथ वनिता को दिया ।
इसका पति दोर्घायु होकर सो वर्ष जीवित रहुगा । |
४०, सोम ये सबसे प्रथम तुम्हें पत्ती-छप से प्राप्त किया । तुम्हारे
दूसरे पति गन्धवे हुए और तीसरे अग्नि । भनुष्य-बंधल तुम्हारे चौथ
लि हु।
४१, सोम ने उस स्त्री को पन्धन को दिया, गन्धे ने अरि को दिया
भोर अर्व चे घम-सम्तान-्सहित मुझे दिया ।
०८५
॥ ०
हा
१३४६ छ्िन्दी-ऋष्येद
४२. बर और वधू, लुम दोनों यहां रहो, पृथक नहों होना ।
मामा खाद्य भक्षण करना । अपने गुहु मे रहकर पुत्र-पोत्रों के साथ आसोद,
आह्लाद और कीड़ा करना ।
४३. ब्रह्मा वा प्रजापति हमें सन्तति दं और अयसा बढ़ाप तक हमें
साथ रबखें । वध् , तुम मंगलमयी होकर पति-गृह में ठहरगा । हमारे मनुष्यों
और पशुओं के लिए कल्याणकारिणी रहुना।
४४. तुम्हारा नेत्र निर्दोष हो । घुम पति फे लिए संगलमयी होओ ।
पशुओं के लिए मंगलकारिगी होओ। तुम्हारा मम प्रफुल्ल हो
और तुम्हारा सौन्दर्य श्र हो । तुम वीर-प्रसविनी ओर देवों की भक्ता
होओ । हमारे मनुष्यों और पशुओं के लिए कल्याणसयी होओ ।
४५, घर्षक इन्द्र, इस नारी को उसझ पुत्र और सोभाग्यवाली करो ।
इसके गर्भ में दस पुत्र स्थापित करो--पति को लेकर इसे ग्यारह व्यक्ति-
वारी बनाओ ।
४६. वधू, तुम सास, ससुर, मदद छोर देवरो की सम्राज्ी (महारानी)
बनो--सबके ऊपर प्रभुत्व करो ।
४७. सारे देवता हम दोनों फे हृदयों को मिला दे। जल, वायु,
घाता ओर सरस्वती हम दोनों को संयुक्त करं ।
तृतीय अध्याय समाप्तं ॥
८६ सूक्त
(चतुथं अध्याय । देवता ओर ऋषि इन्द्र, वृषाकपि, इन्द्राणी आदि
छुन्द् पञ्चपदा पड कि।)
१. में (इन्द्र) ने सोमाभिषव करने के लिए स्तोताओं को कहा या।
परन्तु उन्होंने इन्द्र की स्तुति नहीं की--वृषाकपि की हो स्तुति की ।
सोम-प्रवुद्ध यज्ञ में स्वामी वुषाकपि (इन्द्र-पुत्र) मेरे सखा होकर सोमपान
से हृष्ट हुए । तो भी में (इन्द्र) सबसे श्रेष्ठ हुँ ॥
हिन्बी-क्रस्वेद १३४७
२. इक, पुम अत्यन्त चालित होकर वृषाकषि के पास जाते हो।
तुम सोमपान के लिए नहीं जाते हो । इन्र सर्वश्रेष्ठ हूँ।
३. इन्द्र, वृषाकपि ने तुम्हारा क्या भला किया है कि, तुम उदार
होकर हरितवर्ण मुग पृषाकृषि को पुष्टिकर धन देले हो। इन्द्र
सर्धेश्षेष्ठ हें ।
४. इन्द्र, तुम जिस प्रिथ वृषाकपि की रक्षा करते हो, उसके कान को
वराहाशिझायी कुबकुर काट । इख सर्व-श्रेष्ठ हुँ।
५. (इन्द्राणी की उक्ति)--सेरे लिए यजभानों के प्रा कल्पित,
प्रिय जोर घृतयुक्त जो सामग्री रक्खी हुई थी, उसे बुषाकपि ने दूषित कर
दिया । सेरी इच्छा हुं कि में इसका सिर काट डाले । सै इस दष्ट-कर्मा
को सुख नहीं दे सकती । इन्र सर्वश्रेष्ठ हें ।
६, मुझसे बढ़कर कोई स्त्री सोभाग्यवली नहीं हे---सुपुत्रवाली भी
नहीं हैं । मुझसे बढ़कर कोई भी स्त्री पुरुष (स्वामी) के पास शरीर को
नहीं प्रफुल्ल कर सकती और न रति-समय में दोनों जाँघों को उठा ही
सकती हुँ ।
७. (वृषाकषि की उक्ति)--माता (इन्द्राणी) तुमने सुन्दर लाभ
किया हं । तुम्हारा अंग, जंघा मस्तक आदि आवश्यकतानुसार हो जायेंगे
प्रेमाछाप से कोकिलादि पक्षी के समान तुम पिता को प्रसञ्च करो । इसर
सर्य॑ श्रेष्ठ हे
(इन्द्र को उरदति)--उुन्दर भुजाओं, सुन्दर अँगुलियों, लम्बे
बालों ओर मोटी जॉघोंवाली तथा वीर-पत्नी इद्धाणी, तुम वृषाकपि पर
क्यों ऋद हो रही हो ? इन्र सर्वश्रेष्ठ हैं ।
९. (इन्द्राणी का कथन )--यह हिंसक पुषाक्षपि मुझे पति-एुश्न-
विहीना के समान समझता हैँ। परन्तु में पति-पुत्रबाली इन्द्र-पत्नी हूँ ।
सेरे सहायक मण्त रोग हैं। इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हुँ।
१३४८ हिन्दी-ऋण्वेद
१०. जिस घव हवन वा घुद्धहोता है, उस समय पति और पुत्रवाली
इन्द्राणी वहाँ जाती है । वे यज्ञ का विधान करनेवाली हँ--उनकी पुजा
सब लोग करते हैं। इग्द्र सर्वश्रेष्ठ हूँ ।
११. (इस को उक्ति)--सज स्त्रियों में मेने इन्द्राणी को सौभाग्य-
वाली सुना हैं । अन्दक्ष्य पुएषों के समान इन्द्राणी के पलि को बुढ़ापे में
पड़कर नहीं भरना पड़ता। इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हं । |
१२. इन्द्राणी, अपने हितेषी वृषाकपि के बिना में नहीं प्रसन्न रहता ।
बुबाकणि का ही प्रीतिकर द्रव्य (हवि आदि) देवों के पास जाता है । इन्द्र
सर्वश्रेष्ठ हें ।
१३. वषाकपि की स्त्री, तुस धनशालियी, उत्तम पुत्रबाली ओर
सुन्दरी पुत्र-बधू हो । तुम्हारे वृषो (साँडों) को इनर खा जायं। तुम्हारे
प्रिय और सुखकर हुबि का वे भक्षण करें । इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हुँ। |
`१४. (इख की उक्ति )~-मेरे लिए इन्द्राणी के द्वारा प्रेरित याज्ञिक
लोग पंब्रह-बीस सांड वा बेल पकाले हँ । उन्हें खाकर सं मोटा होता हूँ।
सेरी बोनों कुक्षियों को याज्ञिक लोग सोम से भरते हुँ। इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हुँ ।
१५. इन्द्र, जसे तीक्ष्णश्पुङ्ग वषभ गोवन्द में गर्जन करता हुआ रमता
हे, बैसे ही तुम भी मेरे साथ रमण करो । ठुम्हारे हदय के लिए दधि-
मन्थन, शब्द करता हुआ, कल्याणकर हो । भावाभिलाबिणी इन्द्राणी जिस
सोम का अभिषव करती हें, बह भी कल्याणकर हो । इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हें ।
१६. (इन्द्राणी की उक्ति) --इन्द्, बह ममुष्य मथु करने में नहीं
हर्रे हो सकता, जिसका पुरुषांग दोनों जघनों के बीच रूम्बायमान हे ।
वही समर्थ हो सकता है, जिसके बैठने पर लोसयुषत पुरुषांग बल प्रकाश
करता था फलता हे। इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हे ।
१७. (इन्द्र की उक्ति) -~बह मनुष्य मैथुन करने में समर्थ नहीं हो
सकता, जिसके बैठने पर लोम-युक्त पुरुषांग बल प्रकाश करता है।
वही समर्थं हो सकता है, जिसका पुरुषांग दोनों जघनों के बीच लस्बाय-
साम हुँ ।
(हन्दी-ऋग्वेद १३४९
१८. इन्द्र, वृधाफाप दूसरे का धन चुरानेवाले का अपने विषय में
भरा हुआ पाव । यह खड्ग, सुना (बध-त्थान), नया चरु और काठ
का शकट प्राप्त करे। इन्द्र सर्वश्रेष्ठ ह।
१९. म (इन्द्र) यजसानों को देखते हुए, आर्यो का अन्वेषण करते
हुए और शत्रुओं को दूर करते हुए यज्ञ में आता हूं । सोमाभिषव करने-
वाले और हवि पकानेवाले का सोम पीता हूं । बुद्धिमान् को देखता हूँ ।
इन्द्र सर्वेश्रेष्ठ हूँ ।
२०. जल-शून्य मरुदेश और काटने योग्य वन में कितने योजनों का
अन्तर है ? वुषाकपि, पास के गुहु में हो आश्रय ग्रहण करो । इन्द्र सर्द-
श्रष्ठ ह् |
२१. वृषाकपि, तुम फिर आओ । तुम्हारे लिए हम (इन्र और
इन्द्राणी ) उत्तमोत्तम कर्म करते हें । स्वप्न-नाशक सूर्य जसे अस्त होते
हैं, वेसे ही तुम भी घर में आओ । इद्र सर्वेश्रेष्ठ हे ।
२२. वृषाकषि और इन्र, ऊपर मुंह किय हुए तुम लोग सेरे गृह में
आओ । बहुभोग्ता और जन-हुषें-दाता मुग कहाँ गया ? इन्द्र सर्वश्रेष्ठ
ह् । |
२३. इन्द्र के द्वारा छोड़े गये बाण, मनु-पुत्री पर्शु ने बीस पुं को
उत्पन्न किया । जिस (पश) का उदर सोटा हुआ था, उसका कल्याण
हो । इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हें ।
८७ सूक्त
(देवता रत्तोप्न अग्नि । ऋषि भरहाज-पृत्र पायु । छन्द्
खनुष्ठुप आदि |) |
१. राक्षस-नाशाक, बली, यजमानो के मित्र और स्थूल अग्नि का.
घत से हवन करता हूँ । घर को जाता हूँ । ज्वालाओं को तेज करते हुए
अग्मि यजमातों के द्वारा प्रज्बालित होते ह। अग्नि हमें हसक राक्षसो
से दिन-रात बचाव ।
१ 3 प् छ | Sn Me अ
पण,“
२. जानी अग्नि, लौहन्दन्त (तीक्ष्ण-इन्त) होकर आपनी ज्वाला से
राक्षसों को जलाओ । आरक राक्षसो को ज्याला से मारो ! सांस-भक्षक
राक्षसों को फाट करफे मुंह में रख जो।
३. दोनों ओर फे दांतों से युक्स अग्नि, तुम राक्षसों के हिसक हो ।
दोनों ओर के याँतों झो तेज़ करते हुए उन्हें राक्षसो में बैठा वो । शोभा-
वान् अग्नि, अन्तरिक्षस्थ राक्षसो के पास जाओ और दांतों से राक्षसो
को पीस डालो ।
४. अग्नि, तुम यञ्च से और हमारी स्तुति से वाणों को नवाते हुए
और उनके अग्र भागों को दझा-संयुक्त करते हुए राक्षसों के हृदय को
छेरो । उनकी भुजाओं को रगड़ डालो ।
५. धनी अर्नि, राक्षसों के चमड़े को फाट डालो। हिंसक दजा
उन्हें तेज से मारे । राक्षसों के अंगों को फाडो । मांस-भक्षक बुक आदि
मांसाभिलाषी होकर इनक मांस खाय ।
६. ज्ञानी अग्नि, चाहे राक्षस खड़ा रहे, इधर-उधर घूसता रहे,
आकाश में रहे अथवा साग में जाय--जहाँ कहीं भी तुम उसे देखते हो,
तेज बाण फेक कर उसे छदो ।
७. झानी अग्नि, आऋपणकर्सा राक्षस फे हाथ से आक्रान्त व्यक्ति
को ऋष्टि (दो घारोंवाले खड्ग) से बचाओ । अग्नि, उज्ज्वल मति
धारण करके सबसे पहले अपक्व मांस खाचेवालों को भारो । थ पक्षी
उस राक्षस को खायं।
८. अग्नि, कहो, कौन राक्षस इस यज्ञ में विघ्च करता हुं। तशुण-
बम अग्नि, काष्ठ-द्वारा प्रज्वलित होकर तुम उस राक्षस को मारो ।
मनुष्यों के ऊपर तुम कृपामयी दृष्टि डालते हो । उसी दृष्टि से इस राक्षस
को मारो
९. अग्नि, तुम तीद्ण तेज से हमारे यज्ञ की रक्षा करो । उत्तभ
शह्सवारे अग्नि, इस यज्ञ को धन के अनुकूल करो । मनुष्यों के दर्शक
भ्रग्ति, तुम राक्षस-घातक हो । तुम्हें राक्षस न मारे ।
हिल्दी-ऋग्वेद १३५१
१०. सनुष्य-दशंकै अग्नि, मनुष्यों के हिप्तक राक्षस को देखो ।
उसके तीम सह्तकों को काटो । उसके पास के राक्षसों को भी शीघ्र मारो ।
उसके पेर को तीन प्रकार से काटो वा उसके तीन पैरों को काटो ।
११. ज्ञानी अश्म, राक्षस तुम्हारी रूपढों में तीन बार जाय। जो
राक्षप सत्य को असत्य से मारता हे, उसे अपने तेज से भस्म कर डालो ।
मुझे स्तोता के सामने ही इसे छिन्न-भिन्न कर डालो ।
१२. अग्नि, गरजनेवारे राक्षस पर अपना वह तेज फेंकी, जिससे
खुर के समान नखों से साधुओं के भंजक राक्षसों को देखते हो । सत्य को
असत्य से रयानेबारे राक्षत को, दध्णड अथर्या ऋषि के समान, अपने
तेज से भस्म कर डालो ।
१३. अग्नि, स्त्री-पुरु आपस में झगडा कर रहे हें। स्तोता लोग
आपस में कटु कथा कह रहे हैं। फलतः मन में कध उत्पन्न होने पर जो
घाण फेंका जाता है, उससे राक्षसो के हृदय को विद्ध करो; क्योंकि इन
सब कटु कथाओं को कहनेवाले राक्षस होते हें ।
१४. राक्षसों को तेज से भस्म करो । राक्षस को बल के हारा मारो ।
मारन योग्य राक्षसो को अपने तेज से मारो । मनुष्यों के प्राण लेनेवाले
राक्षसों को सारो ।
१५. आज अग्नि आदि देवता पापी राक्षस को नष्ट करें। हमारे
दुर्वाक्ण इस राक्षस के पास जायें। सिथ्यावादी राक्षस के ममं फे पास
याण जाय। विश्वव्यापी अग्नि के बन्धन में राक्षस गिरें।
१६. अग्नि, जो राक्षस मनुष्य के मांस का संग्रह करता है, जो अइव
आदि पशुओं फे मांस का संग्रह करता हे और जो अबध्य गौ का दूध चुरा
ले जाता हँ, एसे राक्षसों के मस्तक को, अपने बल से, छिन्न कर डालो ।
१७. एक वर्ष तक गाय का जो दूध संचित होता है, उस दूध का
पान राक्षस न करने पावे । सनुष्य-दर्शक अग्मि, जो राक्षस उस अमुत के
समान दूध को पीने की चेष्टा करता है, उसके आगे आते ही अपनी ज्वाला
से उसके मर्म को छिन्न-भिन्न कर डालो ।
१२५२ हिन्दौ-कश्वेद
१८. गायों के जिस दूध को राक्षस पीते हैं, बह उनके लिए विष
के समान हो जाय । उन दुष्टों को काटकर अदिति के पास उनका बलि-
दान कर दो । इन्हे सुर्यं उच्छिन्न कर डाले । तृण, लता आदि का जो
छोड़ने योग्य असार अंश हे, राक्षस उसका ही ग्रहण करें ।
१९. अग्नि, क्रमागत राक्षसों को मार डालो । राक्षस लोग युद्ध
में तुम्हें जीत न सके । कच्चा भांस खानेवाले राक्षसों को जड से विध्वस्त
कर डालो वे तुम्हारे दिव्य अस्त्रों से बचन न पावें ।
२०. अग्नि, तुम हमं पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण--चारों ओर से
बचाओ । तुम्हारी ज्वालायं अत्यन्त उज्ज्वल, अविनाशी ओर उत्तप्त
है। बे पापी राक्षसों को भस्म कर दें ।
२१. दीप्त अग्नि, तुम कार्थ-पद हो; इसलिए क्रिपा-कौशल से
हमें उत्तर, दक्षिण, पुवं और पश्चिम से बचाओ । सखा अग्नि, में तुम्हारा
मित्र हूं । तुम्हारे पास बुढ़ापा नहीं आता । मुझ दीर्घ जीवन ओर जरा
दो । तुम अमर हो । हम मरण-शील हें। हमारी रक्षा करो ।
२२. बल के पुत्र अग्नि, तुम पुरक, मेधावी, धर्षक और टेढ़े राक्षसो
को अनुदिन मारनवाले हो । तुम्हारा हम ध्यान करते हें ।
२३. अग्नि, भऽजक कसं करनेवाले राक्षसों को तुम व्यापक तेज
से जलाओ । तपते हुए खड्गो से भी उन्हें जलाओ ।
२४. स्त्री-पुरुष में कहाँ क्या हें, इस बात को देखते हुए घूमनेवाले
राक्षसों को जलाओ । मेधावी अग्नि, तुम्हें कोई मार नहीं सकता ॥
स्तुतियों से में तुम्हें स्तुत करता हूं । जागो ।
२५. अग्नि, अपने तेज से राक्षसों के तेज को चारों ओर नष्ट
कर दो। राक्षसों के बल-बीयय को नष्ट कर डालो ।
८८ सूक्त
(देवता अग्नि और सूये । ऋषि मूद्धन्वान् । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. पीने के योग्य, चिर नूतन और देवों के हारा सेवित सोमरस
स्वर्गस्थ और आकाशस्पर्शी अग्नि मं हुत किया गया हुँ । उसी के उत्पा-
हिन्दी-ऋग्वेद | १३५३
इन , परिपुरण ओर धारण के लिए देवता लोग सुखकर अग्नि को बद्धित
करते हे । |
२. अन्धकार भुवन का ग्रास करता है। उसमें भूवन अन्तर्धान
होता हँ । अग्नि के प्रकट होने पर सब प्रसन्न होते हँ । देवता, आकाश,
जल, वृक्ष आदि सभी सन्तुष्ट होते हुँ ।
३. यज्ञ-भाग-ग्राही देवों ने सझ प्रवृत्ति दी हे; इसलिए में अजर और
विशाल अग्नि की स्तुति करता हूं । अग्नि ने अपने तेज से पृथिवी और
आकाश के मध्यस्थ स्थान ओर यावापृथिबी को विस्तारित कर डाला।
४. जो वेशवानर अग्नि देवों के इरा सेवित और मुख्य होता हुए थं
और जिन्हें वर चाहमेवाले यजमान लोग घृत से युक्त करते हं, उन्हीं अग्नि
ने उड़नेवाले पक्षियों, गतिशील सर्प आदिको और स्थावर-जङ्गमात्सक
जगत् को शीघ्र उत्पन्न किया।
५. ज्ञाता अग्नि, जो तुम त्रिलोक के सिर पर; आदित्य के साथ,
रहते हो, उन तुमको हम सुन्दर स्तुतियों के द्वारा प्राप्त करते हं । तुम
दावापृथिवी के पुरक और यज्ञ-्योग्प्र हो । |
६. रात्रि-काल में अग्नि, सारे प्राणियों के सस्तक-स्वरूप होते हैं
और प्रातःकाल सूर्यरूप से उदित होते हें। इन्हें यज्ञ-सम्पादक देवों की
प्रज्ञा कहा जाता है । अग्नि विचार-पुर्वक सभी स्थानों मं शीघ्र-शीक्र
विचरण करते हें ।
७. जो अग्नि, विशेषरूप से प्रज्वलित होकर, सुन्दर मत्ति धारण
कर और आकाश में स्थान ग्रहण करके, दीप्ति के साथ, शोभा पाने
लगे, उन्हीं अग्नि में शरीररक्षक सारे देवता लोगों ने, सुक्त-पाठ करते
हुए, हवि प्रदान किया ।
८. प्रथम देवता लोग द्यावापृथिवी आदि वाक्यों का सन से निर”
पण करते हें । पश्चात् अग्नि को उत्पन्न करते हुं--हवि को भी प्रकट
करते हें । अग्नि देवों के यजनीय हेँ। वे शरीर-रक्षक हैं॥ उन अग्नि
को द्युलोक, पृथिवी और अन्तरिक्ष जानते हूँ ॥
१३५४ हिम्दी-ऋण्वेद
९. जिव अग्नि फो देवों ने उत्पन्न फिया और सर्वभेध नामक यज्ञ
में जिनमें सारी वस्तुओं का हवन किया जाता हें, वे ही अग्नि सरलू-गासी
होकर अपनी विशाल ज्याला के द्वारा आजापथियी को ताप देने लग ।
१०. खवापृधियी को परिपुर्ण करनेवाले अग्नि को देवलोक में देवों
ने आपनी शक्ति से, केवल स्तुति के द्वारा, उत्पन्न किया । उन सुखावह
अग्नि को उन्होंने दीन भावों (पृथिवी, अन्तरिक्ष और थौ) से बनाया ।
ये ही अग्नि ओषधि, ब्रीहि आदि सब वस्तुओं को परिणत अवस्था में ले
जाते है ।
११. यज्ञ-योग्य देवों ने जिस समय इन अग्नि ओर अदिति-पुत्र सूर्य
को आकाश में स्थापित किया, उद समय वे दोनों यग्म-छप होकर विच
रण करने लगे । उस समय सारे प्राणी उन्हें देख सके
१२. मनुष्य-हितेषी अग्नि को सारे संसार के लिए देयों से दिन की
पताकः सामा है । वे अग्नि विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभात को विस्तृत करते
हैं और जाते हुए अपनी ज्याला से सारे अन्धकार को विनष्ट करते हैं ।
१३. मेधावी और यज्ञ-योग्य देवों वे अजर सूर्यात्मक (वैश्वानर) अग्नि
को उत्पन्न किया । जिस ससय अग्नि स्थूल और विराट् होते है, उस समय
आकाश में दिर काल से विहरण-शील नक्षत्र को देवों फे सामने ही ये
निष्प्रभ कर डालते हँ ।
१४. सवेदा दीप्त, ऋन्सप्रज्ञ ओर विश्व-हितेषी अग्नि की, मन्त्रो
से हम, स्तुति करते हेँ। वैश्वानर अग्नि अपनी महिमा से ध्यावापृथिवी
को परिभूत करते हे । अग्मि नीघे-ऊपर तपते हुँ ।
१५. पितरों, देवों और मनुष्यों के दो मार्गो (देवयान और पितृयान)
को सेने सुना हें । यह सारा संसार अग्रसर होते-होते उन्हीं मार्गों को
प्राप्त करता हँ अर्थात् जो कोई माता-पिता के बीच जन्मा हुआ हुँ, उसके
लिए इन दोनों के अतिरिक्त कोई गति नहीं है ।
१६. जो सूर्य के अस्तक से उत्पन्न हुए है, जिन्हें स्तुतियों से परिपुष्ट
किया जाता हुं और जो अब विचरण करते हें, तब उन्हें द्यावापृथिवी
हिन्दी-ऋग्वेद १३५५
धारण करते है, वे रक्षक कभी अपने झर्म में शिथिलता नहीं करते--
वे दीप्त होते-होते सारे जगत् में सुख से रहते हें ।
१७. जिस समय पाथिय अग्नि और मध्यम अग्नि वा वायु आपस
में विवाद करते हैं कि, हम दोनों में यञ्च को कौन जानता है, उस समय
बन्धु ऋत्विक यञ करते है। परन्तु उनसे से कोई भी इस विवादका
निर्णय नहीं कर सकता ।
१८. पितरो, में तुम लोगों से तक-वितकं की बातें नहीं करता,
केवल भली भाँति जानने के लिए जिज्ञासा करता हूँ कि, अग्नि किसने हुँ,
सुर्य कितने हें, उषायें कितनी हें और जल-देवियाँ कितनी हुँ ।
१९. वायु, जब तक रातं उषा फे सह का ढकना नहीं हटा देती हैं,
तभी तक निम्नस्थ पाथिव अग्नि आकर यज्ञ के पास स्थान ग्रहण करते
हँ । व ही होता हें और वे ही स्तोता हें।
८९ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि विश्वामित्र-पुत्र रेणु । छन्द चिष्टुपृ।।)
१. स्तोता, नेताओं से श्रेष्ठ इन्द्र फी स्तुति करो । इन्द्र की महिमा
सबके तेज को अभिभूत कर देती हे। बे मनुष्यों को धारण करते है ।
उनको सहिसा समुद्र से भी अधिक हे--उनका तेज सारे संसार को परि-
पूर्ण करता है ।
२. वीयेशाली इन्द्र अपन समस्त तेज को वसे ही चारों ओर घुमाते
हें, असे रथी चक्र को घुभाता है । काला अन्धकार एक स्थायी और अदृश्य
सुष्टि फे समान हँ । इन्र अपनी ज्योति से उसे मष्ट करते हूं ।
३. स्तोता, भेरे साथ मिलकर उन इन्द्र के लिए एक ऐसे नये स्तोत्र
का उच्चारण करो, जो निकृष्ट न हो और जो द्यावापृथिवी में निरुपम हो ।
वें यज्ञ में उच्चारित स्तुतियों को पाने के लिए भी जेसे इच्छुक होते हे,
वेसे ही शत्रुओं को देखने के लिए भी व्यस्त होते हें। वे अनिष्ट के
लिए बन्धु को नहीं चाहते ।
१३५६ हिन्दी-ऋग्वेद
४. अकातर भाव से इन्द्र की स्तुति की गई हैँ । आकाश के मस्तक
से में जल लाया हूँ। जेसे घुरी के दारा चक्र चलता हें, वैसे ही इन्द्र
अपने कर्मो के द्वारा द्यावायूधिदी को रोके हुए हं ।
५. जिनका पान करने से मन में तेज उत्पन्न होता हे, जो शीघ्र
प्रहार करनेवाले हें, जो वीरता के साथ शत्रुओं को कंपाते हैं और जो
अस्त्र-शस्त्रधारी और गतिशील हँ, वे ही सोम वनों को बढ़ाते हैं; परन्तु
बढ़े हुए वन भी इन्द्र की बराबरी नहीं कर सकते और नइख के भाव
की लघूता ही कर सकते हें।
६. यावापृथिवी, सरुस्थळ, आकाश और पर्वत जिन इन्द्र की बराबरी
नहीं कर सकते, उनके लिए सोमरस क्षरित होता है । जिस समय शत्रुओं
के ऊपर इनका क्रोध होता हे, उस समय ये बढ़ता से मारते हें--स्थिर
पदार्थो को तोड़ डालते हें ।
७. जेसे फरसा बन को काटता हुँ, वैसे ही इन्द्र ने वृत्र का वध किया,
शत्रु-नगरी को ध्वस्त किया, वृष्टिजल से नदियों को मार्ग दिया और
कञ्चे घड़े के समान मेघ को भंग किया । इन्द्र ने अपने सहायक मरुतों
के साथ जल को हमारे सम्मुख किया । ङ
८. इन्द्र, तुम धीर हो । तुम स्तोताओं को ऋण-मुक्त करते हो,
जेसे खड्ग गाँठो को काटता हे, वैसे ही तुम स्तोताओं के उपद्रव को
नष्ट करते हो । जो सब मूर्ख व्यक्ति वरुण और मित्र के बन्धु के समान
धारक कर्म का विनाश करते हें, उनका वघ भी इन्द्र करते हैं ।
९. जो दुष्ट व्यक्ति मित्र, अयमा, वरुण और सस्तो से हेष करते
हें, वर्षक इन्द्र, उनका बघ करने के लिए तुम गन्ता वा शब्दकर्ला, वर्षक _
और प्रदीप्त बच्छ को तेज करो। |
१०. स्तरण, पृथिवी, जल, पर्वत आदि सब पर इख का आधिपत्य हँ ।
बली ओर बुद्धिमान् व्यक्तियों पर इन्द्र का ही आधिपत्य हें। नई वस्तुएं
पाने के लिए और प्राप्त वस्तुओं की रक्षा के लिए इन्द्र की प्रार्थना
करनी होती हे ।
हिन्दी-ऋग्वेद १३५७
११. रात्रि, दिन, आकाश, जलघारक सागर, विशाल वायु, पृथियी
की सीमा, नदी, मनुष्य आदि से इन्द्र बड़े हैं। इन्द्र सबका अतिक्रम किये
हुए हू ।
१२. इन्द्र, तुम्हारा आयुध दटन योग्य नहीं है । ज्योतिसंगी उवा की
पताका--किरण के समान तुम्हारा आयुध शत्रुओं के ऊपर थिरे। जैसे
आकाश से वस्र गिरकर वृक्षों को विध्वस्त करता हँ, बैसे ही तुम अनि-
ष्टकारी शत्रुओं को, अतीव उत्तप्त और गर्जनकारी अस्त्र से, छेदो ।
१३. उत्पञ्च होने के साथ इन्र के पीछे-पीछे मास, बन, चनस्यति
पवत और परस्पर संयुक्त थावापथिवी जाने लये ।
१४. इख, जिस अस्त्र (वा वाण) को फेंक कर तुलने पापी राक्षस
को काटा था, वह फेंकने योग्य कहाँ हे ? जैसे गोइस्था के स्थान में गाये
कटी जाती हें, वैसे ही तुम्हारे इस अस्त्र से निहत होकर सित्रद्वेषी राक्षस
लोग पृथिवी पर गिरकर (अनन्त निद्रा में) सो जाते हें ।
१५. जिन राक्षसो ने शत्रुता करते-करते और अत्यन्त पीड़ा पहुंदाते-
चाते हमें घर लिया, इन्द्र, बे गूढ़ अन्धकार सें गिर, उजियाली रात
भी उनके लिए अन्धकारसयी रजनी हो जाय ।
१६. यजमान तुम्हारे लिए अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं।
स्तोदा ऋषियों के मन्त्र तुम्हें आह्वादित करते हें। सब मिलकर तुम्हे
जो जुलाते हैं, उसे कहो । पुजकों के ऊपर प्रसन्न होकर उनके पास जाओ ।
१७. इन्र, तुम्हारे स्तोत्र हमारी रक्षा करते हे । हम नय-नय और
उत्तम स्तोत्र प्राप्त करें हुम विश्वामित्र की सन्तति हें । रक्षण के लिए
तुम्हारी स्तुति करते हू । हम नाना पदार्थ प्राप्त करें ।.
१८. उन स्थूरू-काय और धनी इन्द्र को हस बुलाते हैं। यृद्ध-समय
सें जिस समय अञ्च आदि बाँट जायेंगे, उस समय वही प्रधान रूप से
अध्यक्षता करते हैं। युद्ध में वे अपने पक्ष की रक्षा के लिए उम्र मत्ति
धारण करके शत्रुओं को मारते हैं, बुत्रो का वध करले हें और समस्त
घन जीतते हं ।
९३५८ हिन्दी-ऋग्वेद
९० सूक्त
(देवता पुरुष | ऋषि नारायण । छन्द अनुष्टुप् ओर ब्रिष्टुप्
१. बिराद पुरुष (ईइबर) सहस्र (अनन्त) शिरों, अनन्त चक्षओं
और अनन्त चरणोंवाले हं। वे भमि (जहाएय्ड-मोलफ) को चारों ओर
से ब्याप्त करके और उश-अंगुलि-परिमाण अधिक होकर अर्थात् ब्रह्माण्ड
से बाहुर भी व्याप्त होकर अवस्थित हूँ।
२. जो कुछ हुआ है और जो कुछ होने वाला है, सो सब ईइवर (पुरुष)
ही हैं। वे देवत्व के स्वामी हें; क्योंकि प्राणियों के भोग्य के निमित्त
अपनी कारणायस्था को छोड़कर जगदवस्था को प्राप्त करते हैं ।
३. यह सारा ब्रह्माण्ड उनकी महिमा है--बे तो स्वयं अपनी महिमा
से भी बड़े हें। इन पुरुष का एक पाद (अंश) ही यह ब्रह्माण्ड है--इनके
अविनाशी तीन पाद तो दिव्य-लोक में हँ ।
४. तीन पावोंबारे पुरष ऊपर (दिव्य-धाम सें) उठे और उनका
एक पाव यहाँ रहा । अनन्तर बे भोजन-सहित और भोजन-रहित (चेतन
और अचेतन) वस्तुओं में विविध-रूपों से व्याप्त हुए ।
५, उन आदिपुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड-देह) उत्पन्न हुआ और
श्ह्माण्ड-देह का आश्रय करके जीज-एप से पुरुष उत्पन्न हुए । व देव-
सनुष्याबि-रुप हुए । उन्होंने भूमि बनाई और जीवों के शरीर (पुरः)
बनाये ।
६. जिस समय पुरुष-रूप मानस हवि से देवों से मानसिक यज्ञ किया,
डस समय यज्ञ में वसन्त-रूप घुत हुआ, ग्री८८-स्वरूप काष्ठ हुआ और
शरद् हुव्य-रूप से कल्पित हुआ ।
७. जो सबसे प्रथम उत्पन्न हुए, उन्हीं (यज्ञ-साधक पुरुष) को
यश्ीय-पश्षु-रूप से मानस यज्ञ में दिया गया। उन पुरुष के द्वारा देयो,
साध्यो (प्रजापति आदि) और ऋषियों ने यज्ञ किया।
4 ४ rr दद हा i i क्ष
हिन्दी - आउदेव १३५९
८. जिस यज्ञ में सर्वात्मक पुउष का हवन होता है, उस मानस
यञ्च से दधि-मिश्रित घृत आदि उत्पन्न हुए। उससे वाय् देवतावाले बन्य
(हरिण आदि) ओर ग्रात्य (कुक्कुर आदि) पशु उत्पन्न हुए।
९. सर्थात्मक पुरुष के होम से युक्त उस यज्ञ से ऋक् और साम
उत्पन्न हुए । उससे गायत्री आदि छन्द उत्पन्न हुए और उसी से यजुः की
भी उत्पत्ति हुई।
१०. उस यज्ञ से अश्व और अन्य नीचे-ऊपर दातोंवाले पशु उत्पन्न
हुए। गौ, अज और मेष भी उत्पन्न हुए।
११. जो विराट् पुरुष उत्पञ्च किये गये, थे कितने प्रकारों से
उत्पन्न किये गये? इनके मुख, दो हाथ, दो उर और दो चरण कौन
हुए!
१२. इनका मुख ग्राह्मण हुआ, दोनों बाहुओं से क्षत्रिय बनाया
गया, दोनों उरुओं (अघनों) से वेश्य हुआ और परों से शूद्र उत्पन्न
हुआ ।
१३. पुरुष के मन से चन्द्रमा, नेत्र से सुर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि
तथा प्राण से वायु उत्पन्न हुए । | ॒
१४. पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष, शिर से थौ (स्वर्ग), चरणों से
भूमि, ओत्र से दिशायें आदि भुवन बनाये गय ।
१५. प्रजापति के प्राणादि-रूप देवों ने मानसिक यज्ञ के सम्पादन-
काल में जिस समय पुरुषझ्प पशु को बाँधा, उस समय सात परिधियाँ
(एष्टिक ओर आहबमीय की तीन और उत्तर वेदी की तीन वेदियां
सथा एक आवित्य-बेदी आदि सात परिधियाँ वा सात छन्द) बनाई गई
ओर इक्कीस (बारह मास, पाँच ऋतुएँ, तीन लोक ओर आदित्य) यज्ञीय
क्राष्ठ बा समिधायें बनाई गई ।
' १६. देवों ने यज्ञ (मानसिक संकल्प) के द्वारा जो यज्ञ किया वा
पुरुष का पुजन किया, उससे जगतूकूप विकारों के धारक ओर मुख्य धर्म
क»
हुए। जिम स्वर्ग में प्राचीन साध्य (देवजाति-विशेष) और देवता हँ,
उसे उपासक महा:मा लोग पाते हें ।
९९ सूक्त
(८ अनुवाक । देवता अग्नि | ऋषि चीतहव्य के पुत्र अरुण |
छुन्द् जगती आर त्रिष्टुप्। )
१. अग्नि, जागरणशील स्तोता लोग तुम्हारी स्तुति करते हें।
दानमना अग्नि उत्तरवेदी पर बेठकर अन्नलाभ के लिए सारे हवि के होता
होते हें। वे वरणीय, व्यापक, दीप्तिमान् और शोभन सखा हे। वे
सह्य की अभिलाषा करते हुए भली भाँति प्रज्वलित होते हें।
२, अग्मि सुशोभन और अतिथि हें। वे बजमानों के गहों और
वनों में रहते हें। अनुष्य-हितेधी अग्नि किसी को नहीं छोड़ते। वे प्रजा-
हितेषी हैं। ब समुष्यों---सारी प्रजा के गृह में रहते हैं।
३. अग्नि, तुम बलों से बली हो। दुम कम से कम शोभन-कर्मा
और कान्त कम से मेधायी हो। तुस सर्वज्ञ ओर धनों के स्थापक हो।
तुम अकेले रहते हो। खावापथिवी जिन घो का संबद्धेन करते हे, उनके
भी तुस स्वाभी हो।
४. यञ्ञवेदी के ऊपर यथासमय घृत-ुक्त विवास-स्थान बनाया जाता
हुँ। अग्नि, तुस उसे पहचान कर बैठो। तुम्हारी ज्वालाये प्रभात की
भाभा अथवा झुर्यं की किरणों के ससान विभल देखी जाती हें ।
५. तुम्हारी विचित्र शिखायें जल-वर्षक मेघ से निकलीं। बिजली
अथवा प्रभात को आगनत-्युचिका आभाओं के ससान देखी जाती हें।
उस सभय तुम सानो बन्धन से मुक्त होकर घन और काष्ठ को खोजते
हो। यह सब तुम्हारे मुख का अन्न हे। |
६. ओषधियाँ अग्नि को यथाससय गर्भ-स्वरूप धारण करती हे और
साता के ससान जल उन्हें जन्म देता है । बन-स्थित लतायें गर्भवती होकर
बराबर उन्हें एक भाव से जन्माती हें ।
हिन्दी-ऋणग्वेद १३६१
9. अग्नि) तुम वायु के द्वार! कम्पित होकर संचालित होते हो
दुम मुन्वर वमस्पतियों में पठकर रहते हो। अग्नि, जिस समय तुस
जलानं को तैयार होते हो, उस समय रथारूढ़ योद्धाओं के समान तुम्हारी
प्रबळ और अक्षप्य शिखायें, पृथक्-पृथक् होकर, बल का प्रकाश करती हैं।
८. अग्नि लोगों को मेधावी बनानेवाले, यज्ञ के सिद्धिदाता, होम-
निष्पादक, अतीव विराद् और ज्ञानी हे। हवि कस वा अधिक मात्रा में
दिया जाय, अग्नि को ही सदा उसे स्वीकार करना पड़ता है--अन्य किसी
को भी नहीं।
९. अग्नि, यजमान लोग, यज्ञ के समय तुम्हें पाने की अभिलाषा
करके होता के रूप से तुम्हें ही वरण करते हें। उस समय देवभक्त मनुष्य
रोग कुश का छेदन करके और हवि लाकर तुम्हारे लिए हवि देते हैं।
१०. अग्नि, यथासमय तुम्हें ही होता और पोता का कार्य करना
पड़ता है। यज्ञ-कर्ता के लिए तुम्हीं नेष्टा और अग्नि हो। तुम प्रशास्ता,
अध्यय और ब्रह्मा का कार्य करते हो। तुम हमारे गुह के गृहपति हो।
११. अग्नि, जो सनृष्य तुम्हें अमर जानकर समिधा और हवि देता
है, उसके तुम होता होते हो, उसके लिए तुम देवों के पास दूत-कर्म करते
हो, देवों को निमन्त्रित करते हो, यज्ञान्ष्ठान करते हो ओर अध्वर्यू का
कार्य करते हो। |
१२. अग्नि के लिए यह सारा ध्यान, वेद-वाक्य और स्तोत्र किये
जाते हें। ज्ञानी अग्नि वासक हुँ। अर्थाभिलाष से ये सारे स्तोत्र उनमें
जाकर मिलते हैं। श्री-वृद्धि करनेवाले अग्नि, इन स्तोत्रों की वृद्धि होन पर
सन्तुष्ट होते ह । |
१३. स्तोत्राभिलाषी उन प्रावीन अग्नि के लिए में अत्यन्त नतन
भौर सुन्दर स्तोत्र कहता हूँ। वे सुर्ने। जेसे प्रणय-परवशा स्त्री बढ़िया
कषड़े पहुनकर पति के हृदय-देश मे अपनी देह को सिलाती है, चेसे ही
में अग्नि हृदय कें मध्य-स्थान को छूता हूँ।
फा० ८६
१३६१ हिन्दी-त्रट«वेव
१४, जिन अग्निं में घोड़ों, बली वृषों और पौरुष-हीव मेषों को,
अइवसेध-यञ्ञ में, आहुति दी जाती हें, जो जरू पीते है, जिनके ऊपर
सोम रहता हूँ और जो यज्च!रय्ठाला हे, उन अग्ति के लिए हृदय से सें
कह्याण-करी स्तुति बनाता हू।
१५, जैसे शफ में घी रवखा जाता है और जेसे सस में सोमरस
रक्खा जाता हूं, बसे ही अग्नि, तुम्हारे मुँह में हवि, पुरोडाश आदि का
हुवन किया जाता है। तुम मुझे अन्न, अर्थ, उत्कुष्ट पुत्र, पौत्र आदि और
विपुल यश दो।
९२ सूक्त
(देवता नाना । ऋषि मनु-पुत्र शार्यात । छुन्द् जगती |)
१. देबो, यज्ञ-नेत्, सनुष्यों के स्वासी, होता, रात्रि के अतिथि और
विविध-दी प्ति-धनवाले अग्नि की सेवा करो। शुर्क काष्ठों को जलानेवाले
और हरे काठों में 2ढ़े जानेवाले, कासवर्षक, यज्ञ की पताका और यजनीय
अग्नि आकाश में सोते हुँ।
२. रक्षक ओर धर्म-धारक अग्नि को देवों ओर मनुष्यों ने यज्ञ-
साधक बनाया। वे महान् पुरोहित और झोभन वायु के पुत्र हँ। उषायें
उन्हें, सुं के समान, चूमती हें।
३. स्तुत्य अग्नि जो मार्ग दिखा देते हें, वही प्रकृत है! हम जिसका
हवन करते हें, उसका बे भोजन करें। जिस समय उनकी प्रबल शिखाय
दीप्तिशील हुई, उस समय देवों के लिए फंकी जाने लगीं ।
४. विस्तृत द्यौ, विस्तीणं वचन, व्याप्त अन्तरिक्ष, स्तुत्य और असीम
पूथिघी यज्ञीय अग्नि को नमस्कार करते हूँ। इन्द्र, मित्र, वरण, भग,
सविता आदि पवित्र बलवाले देवता आविर्भूत होते ह।
५. वेगशाली सरुतों की सहायता पाकर नदियां बहुली हैँ और
असीम भूमि को ढंकती हें। सर्वत्र विचरण करनेवाले इन्त्र सर्वत्र जाकर,
भरतों की सहायता से, आकाश में गरजते हुँ और महुविग से संसार में
जल बरसाते हूँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १३६३
६, जिस सभय सश्त् लोग कार््यारम्भ करते हैं, उस समय संसार
को खींच लेते हैं। वे आकाश के इयेन पक्षी ओर मेघ के आश्रय हें।
वरुण, मित्र, अयमा ओर अश्वारोही इन्द्र, अश्वारूढ सस्तो के साथ,
थे सारी बातें देखते हैं।
७. स्तोता लोग इन्द्र से रक्षण, सूर्य से दृष्टि-शक्ति और वर्षक इन्द्र
से पौरुष पाते हें। जो स्तोता उत्कृष्ट रूप से इन्द्र की पुजा प्रस्तुत करते
हे, वे यज्ञ-काल में, इन्द्र के वस्न को सहायक पाते हें। |
८, इन्द्र के डर से सूर्य भी अपने अइवों को चलाते ओर मागं सें जाने
के समय सबको प्रसन्न करते हें। उन इख से कौन नहीं डरता ? बे
भयानक और वारि-वर्षक हैं। बे आकाश में शब्द करते हैं । शत्रुओं को
हरानेवाली वप्त्रध्वनि उन्हीं के डर से प्रतिदिन प्रकट होती रहती है।
९. आज उन्हीं कर्म-कुशल और सब्र को नमस्कार तथा अनेक स्तोत्र
अपित करो। बे शत्रुओं का विनाश करते हे वे अश्वारूढ और उत्साही
मरतों की सहायता पाकर और आकाश से जल-सिचन करके मङ्कालजनक
होते है और अपनी कीत्तिं का विस्तार करते हुँ।
१०. बृहस्पति और सोमाभिलाषी अन्य देवताओं ने प्रजाबुन्द के
लिए अन्न का संचय किया है। अथर्वा ऋषि ने सबसे प्रथम यश के द्वारा
देवों को सन्तुष्ट किया। देवता लोग और भुग् वंशधर लोग बल प्रकट करके.
उस यज्ञ में गये और यज्ञ को जाना।
११. नराशंस नामक यज्ञ सं चार अग्नि स्थापित किय गये। बहु-
यृष्टि-वर्षक द्यावापृथिवी, यभ, अदिति, धनद त्वष्टा, ऋभु लोगो, यद्र
फी स्त्री, सरतों और विष्णु ने यज्ञ में स्तोत्र प्राप्त किया था। |
१२. अभिलाषी होकर हम लोग जो विशाल-विशञाल स्तोत्र करते
हँ, यज्ञ के समय आरए अहिबुंध्त्य बह् सब सुनें। आकाश में घूसने-
वारे सूर्य और इन्द्र, तुन लोग आकाश में रहकर अन्तःकरण से यही
स्तोत्र सुनो ।
१३९४ हिन्दी-फऋषग्वेद
१३. समस्त देवों के छ्तिषी ओर जल फे वंशज पुषादेव हमारे पशु
इत्यादि की रक्षा करें। यज्ञ के लिए बायु भी रक्षा करें। धन के लिए
आत्प-त्वरूण वाय की स्तुति करो। अश्विद्वय, तुम्हें बुलाने से कल्याण
w
|
होता ह । मार्ग मे जाने के लिए तुस वह स्तोत्र सुनो।
१४. सारी प्रजा को जो अभय देने के स्वामी हं, जो अपनी कौति
का स्वर्थं उपार्जन करते हुँ, उनकी हस स्तुति करते हैँ। देवपर्नियों के
साथ अविचल अदिति ओर रात्रि-पति चन्द्रमा की हस स्तुति करते ह।
वे मनुष्यों पर अनुग्रह करते हे।
१५. ज्येष्ठ अङ्गिरा ऋषि इस यज्ञ में स्तुति करते हैं। प्रस्तर ऊपर
उठकर यज्ञीय सोम को प्रस्तुत करते हैं। सोभ को पीकर बुद्धिशाली इन्द्र
मोटे हुए--उनका अस्त्र उत्तम दारि-बर्षण करणे लगा! "
९ ३ सूप्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि प्रथु-पुत्र ताम्ब | छन्द ब्रहती, अनुष्टुप्
आदि |)
१. द्यावापृथिवी, तुम लोग अतीव विस्तृत होओ। विज्ञाल-मत्ति
होकर तुम लोग, स्त्री के समान, हमारे गृह में आओ । इन रक्षणों से हमें
शत्रु से बचाओ । इन कार्यो के द्वारा हमें शत्र से भली भाति बचाओ ।
जो अमनुष्य सभी यज्ञों भं देखें की सेवा करता हं ओर जो अनेक
शास्त्रों का श्रोता सुखकर हूवि के द्वारा देवों की सेवा करता हुँ, (बही
प्रकृत पैव-सेबक है।)
३. देवता लोग सबके प्रभ् हु। उनका दान महान् हे। थे सञ्च प्रकार
के बलों से बली हू । वे सब यों के समय यज्ञ-भाग पाते
४, जिन रुद्र-पुत्रों की स्तुति करने पर मनुष्यों को सुख मिलता हूं
वे अर्थेमा, मित्र, स्थश्च वरण और भग अमृत फे राजा, स्तुत्य और पुष्टि-
कर्ता हूँ ।
हिन्दी-त्रश्वेद १३६५
५. जिस सभ्य अहिबंव्त्य जल के साथ एकत्र होकर बठते हैं, उस
उमय सूर्यं और चख्नमा एकत्र बेठकर दिन-रात जल-स्वरूप धन का
वर्षण करते हुँ।
६. कल्याण के अधिपति अश्विदण, मित्र और वरुण अपने शरीरों
वा तेज से हमारी रक्षा करं। इनके द्वारा रक्षित यजसान बहुत धन पाता
हुँ और मरुभमि के समान दुगति से पार पाता ह।
७. हम स्तुति करते हुं। रुद्रपुत्र बायु, अशिवद्वय, समस्त देवता, रथा-
रूढ़ पुषा, ऋभू, अन्नवान् भग, सर्वत्रणामी इन्द्र, सर्वज्ञाता ऋभुक्षण आदि
हमें सुख दे।
८. महान् इन्द्र यज्ञ के द्वारा प्रभायुधत होते हुँ। इन्द्र, जिस समय
तुम वेगशाली रथ की योजना करते हो, उस समय यज्ञकर्ता भी आनन्द
पाते हँ। इन्द्र फे लिए जो सोम का पार होता है, बह असाधारण हे ।
उनके लिए जो यज्ञानुष्ठान होता है, बह मनुष्य के लिए साध्य नहीं है।
बह् दिव्य हु।
९. प्रेरक देव, हमें अलज्जित करो । तुम घनी यजभायो के ऋत्विक
के द्वारा स्तुत होते हो हमारे बल-रूए हैं। उन्होंने इन मनुष्यों के
यज्ञ में आने के लिए अपने उज्ज्वल रथ-घक्र में मानो बायु को जोता--
` महावेग से पधारे।
१०. दावापृथिवी, तुम लोग हमारे पुत्रादि को प्रभूत अन्न दो। बहू
अन्न लोगों के लिए यथेष्ट हो, बलकर हो, धन-लाभ और विपत्ति से
परित्राण पाने के लिए उपयोगी हो। |
११. इन्द्र, जिस समय शुम हमारे पास आने की इच्छा करते हो,
उस समय स्तोता जहाँ कहीं भी रहे, यज्ञ करसे समथ उसकी रक्षा करो।
हे घनव, तुम्हारी जो स्तुति करता हुँ, उसको जानो ।
१२. मेरा यह विस्तृत स्तोत्र, दीप्ति के साथ, सूर्य के लिपु
जाता हुँ और मनुष्यों की श्री बढ़ाता है। जेसे बढ़ई अइव के खींचने योग्य
सुदृढ़ रथ बनाता है, बैसे ही मेने इसे बनाया हू।
१३६६ हिन्दी-नहुग्येद
१३. जिनके पास हम धन फी इच्छा करते हे, उनके लिए हम अत्यन्त
उत्तम स्तोत्र का बार-बार पारायण करते हें। जसे युद्ध फे सेनिक बार-
बार अग्रसर होते हँ अथवा जसे घटीचक्र श्रेणीबद्ध होकर आगे-पीछे
चलता हें, हमारे स्तोत्र भी बसे ही हें।
१४. जैसे सब देवता पाँच सो रथों में घोड़े जोतकर, यज्ञ में जाने
के लिए, मार्ग में जाते हैं, यैसे ही उनके प्रशंसा-युक्त स्तोत्र का पाठ मेने
दुःशीम, पृथवान्, वेन और बली राम आदि धनपति राजाओं के पास
किया हुँ।
१५. इन राजाओं से ताम्ब, पार्थ्यं और मायव आदि ऋषियों ने शीघ्र
ही सतहत्तर गाये माँगीं।
९४ सूक्त
(देवता सामामिषव-सम्बन्धी प्रस्तर । ऋषि अवद । छन्द जगती
शौर त्रिष्टुप्, ।)
१. प्रस्तर अभिषव-शब्द करें । हम यजमान उन प्रस्तरों की स्तुति
करते हे। ऋत्विको, स्तोत्रपाठ करो । आदरणीय और वृक्ष प्रस्तर, इन्द्र
के लिए सोमाभिषव का शब्द करो । सोमवालो, सोम से तृप्त होओ।
२. थै पत्थर सो वा सहस्र व्यक्तियों के समान शब्द करते हुँ। ये
सोम-संसगं से हरित-वर्ण मुखों से देवों को बुलाते हैं। शोभनकर्मा ये
पत्थर यज्ञ को पाकर देवाह्लाम करनेबाले अग्नि के पूर्व ही भक्षणीय हवि
को पाते हें।
३. नये वा छाल रंग की शाखा को खाते हुए शोभम भोजनवाले
बृषभों के समान थे प्रस्तर शब्द करते हें। जेसे मांस भक्षण करनेवाले
साँस-पाक होने पर आनन्द-ध्वनि करते हें, वेसे ही ये भी शब्द करते हैं।
४. मदकर और चुलाथ जाते हुए सोम से ये प्रस्तर इस को बुलाले
हुए विशाल शब्द करते हें। इन्होंने मुख से मदकर सोम को प्राप्त किया ॥
ये अभिषव-कार्य में लगकर और घीर होकर अपने शब्दों से पृथिवी को
भरते हुए भगिनी-स्वरूप अंगुलियों के साथ नाचते हैं।
हिन्वी-ऋग्वेद १३६७
५. प्रस्तरो का शब्द सुनकर विदित होता है कि, आकाश में पक्षी
शब्द करते हुँ। ये मुगों के स्थान में गमनशील कुष्ण-्सार मुगों के समान
गति-शील होकर नाच रहे हें। निष्पीत सोमरस को ये प्रस्तर नीचे
गिराते हे--मानो सूर्थ के समान इवेतवर्ण जल धारण करते हैं।
६. जेसे बली अश्व परस्पर मिलकर और रथ की धुरा को धारण
करके रथ ले जाते हैं और शरीर को बढ़ाते हैं, बैसे ही ये प्रस्तर भी
आयत होकर सोमरस को बरसाते हँ। ये सोस का ग्रास करते-करते,
इवास के साथ, शब्द करते हें। घोड़ों के समान इनके मुख से निकले शब्द
को मं सुनता हुं।
७. इन अविनाशी प्रस्तरों का गुण-कीर्तंन करो। सोम के अभिषव
के समय, जब कि, दस अँगुलियाँ इन्हें छती हैं, उस समय इत दस अँगु-
लियो को प्रस्तर-स्वरूप घोड़ों की दस वरत्रा. (करने का रस्सा =
तंग) अथवा दस योक्त्र (घोडे के सामान), दस रथ जोतन की रस्सियाँ
अथवा दस लगाम जाना जाता हे। वा दस रथ-धुराय इकट्ठा होकर
ढोती ह।
८. ये प्रस्तर दस अंगुलियों को बन्धन की रस्सी के समान पाकर
शीघ्र-शीघ्र कार्य करते हें। इनके द्वारा उत्पादित सोमरस हरित-वणं
होकर आ रहा है। सोम के टुकड़े कूटे जाकर और अञ्नरूप धारण करके
अमुतरस निकालते हुँ? सोम का प्रथम खण्ड ये ही पाते हँ।
९. वे पत्थर सोम का भक्षण करके इन्द्र के दो घोड़ों को चूमते
हे~-अर्घात् इन्द्र के रथ के पास जाते हैं। डाँठ अंशु से रस निकलकर यो-
चर्म के ऊपर जाता है। ये पत्थर सोम से जो मधुर रस निकालते हे, उसे
पीकर इन्द्र फलते और बढ़ते हे--सांड़ के समाव बल प्रकट करते हें।
१०. प्रस्तरो, सोम का अंशु, खण्ड बा डाँठ तुम्हें रस देगा; तुम
निराश नहीं होता। तुम जिनके यज्ञ में रहते हो, वे सदा अन्न और
भोजने होते हें और सदा धनी लोगों के समान उज्ज्वल तेज से युक्त
होते हें।
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१३६८ हुग्वी-
११. तुम स्वर्थं निराश न होकर दूसरे को निराश करनेवारे हो
तुम्हें परिश्रम, शिथिलता, मत्यु, जरा, रोग, तृष्णा और स्पृहा नहीं हे
तुम मोटे हो। तुम लोग फंकने और बटोरने में बहुत निपुण हो ।
१२. तुम्हारे पुर्वज पर्वत युग-युगान्तरों से स्थिर हूँ, पुर्णाभिलाष हुँ और
किसी भी कारण से अपना स्थान नहीं छोड़ते। वे अजर और हरे वक्ष
से युक्त हुँ। हरे वणं के होकर पक्षियों के कलरव के द्वारा ग्रावापुथिवी
को पुणं करते हु।
१३. जैसे रथारोही लोग रथ चलाने के स्थान पर रथ चलाकर
ध्वनि प्रकट करते हें, बसे ही थे पत्थर सोमरस को उत्पन्न करने के समय
शब्द करते हुँ। जेसे धान्य जोनेवाले धान्य बोते हें, वसे ही ये सोसरस
फेलाते हे। ये खाकर उसे नष्ट नहीं करते ।
१४. सोमाभिषव होने पर पत्थर शब्द करते हुँ--मानो कड़ाशील
घालक क्रीडास्थल में अपनी माता को ठेलकर शब्द करते हेँ। जो पत्थर
. सोमरस का अभिषव कर चुके हुँ, उनकी स्तुति करो । प्रस्तर, प्रस्तुत
होकर, घूमे ।
चतुर्थ अध्याय समाप्त ।
९५ सूक्त
(पञ्चम अध्याय। देवता तथा ऋषि उवंशी ओर पुरुरवा |
छुन्द् त्रिष्टुप् ।)
१. (पुरुरवा की उक्ति )--अयि निष्ठुर पत्नी, अनुरागी चित्त से
ङहरो। हम लोग शीघ्र कथनोपकथन करे। इस समय यदि हुम वोनों में
बातें नहीं हों तो आनेवाले दिनों में सुख नहीं होगा।
२. (उवेशी की उक्ति)--केवल बात-वीत से कया होगा? प्रथम
उषा के समान तुम्हारे पास से में चली आ रही हूँ। हे पुरुरवा, तुम
अपने घर लोट जाओ। में वायु के समान दुष्प्राप्य हूं ।
हिन्दी-त्रहर्वेद . १३६९
३. (पुरुरवा का कथन)--तुम्हारे विरह के कारण पैरै तुणीर से
घाण नहीं निकलता, जय-श्री नहीं मिलती और युद्ध भें जाकर में अपरि*
मित गायों को नहों ले आ सकता । राज-कार्य वीर-बिहीव हो भया है ।
इसकी कोई शोभा नहीं हे। मेरे सैनिकों ने यूद्ध में सिहुनाद करने की
चिन्ता छोड़ दी थी
४. (उर्वशी का कथन )--उ्ा, यदि उर्वशी इश्वशुर को भोजन-
सामग्री देने की इच्छा करती, तो सञ्चिहित गृह से पति के झयन-गृह में
जाती और दिन-रात स्वामी के पास रमण-सुख भोगती।
५. पुररवा, तुम दिन में मुख तीन बार पुरुष-दण्ड से ताड़ित करते
थे। किसी सपत्वी के साथ मेरी प्रतिद्ठन्ट्रिता नहीं थी। मुझे ही तुस नियः
मित रूप से सन्तुष्ट करते थे। तुम्हारे गृह में में आई। तुस मेरे वीर
राजा हुए । तुम मेरे सारे सुखों के विधायक हुए।
(पुरुरवा की उक्ति)--सुर्डूरण, भणि, सुम्न, आपि, हृदेचक्ष
प्रन्थिनी, चरण्य आदि जो महिलायें वा अप्सराय थीं, तुम्हारे आव के
बाद वे सब मेरे पास वेश-भूषा करके नहीं आती थीं। गोष्ठ में जाते समय
जैसे गाये बोलती हें, वैसे शब्द करके वे सब अब मेरे गृह में नहीं भाती
थीं।
७. (उवंशी की उक्ति)--जिस समय पुरुरवा में जन्म ग्रहण
किया, उस समय देव-पत्नियाँ देखने आईं। अपनी शक्ति से बहनेवाली
नदियों ने भी उनको संवर्द्धना की। पुरुरवा, तुम्हें दस्यु-वध करने को,
छोर युद्ध में भेजने के लिए, देवता लोग तुम्हारी संबर््धधा करने ऊंगे।
८. (पुरुरदा का कथन )--जिस समय मनुष्य होकर पुरुरवा अप्सः
राओं की ओर अग्रसर हुए, उस समय वे अपना रूप छोड़कर अन्तर्धान
हो गईं। जैसे डर के सारे हरिणी भागती है अथवा जैसे रथ में जोते हुए
घोड़े भागते हें, बेसे ही वे चली गइ।
९. जिस समय पुरुरवा मनुष्य होकर देवलोकवासिनी अप्सराओं
छे साथ बाते करने और उनका शरीर छते फो आग बढ़े, उस समय वे
१३७० हिन्दी-ऋणग्वेद
लुप्त हो गई-«हपन शरीर को नही दिखाथा--कीडाशील अइवों के
सभाम आण गई।
१०. जिए उशी में आकाश से पतमशील विद्यत के समान शश्रता
धारण की शी ओर भेरे सारे मनोरथो को पुण किया था, उसके यभ से
मनण्य का औओरय सन्दर एच जन्मा था। उर्वशी उसे दीर्घाथ करे ।
११. (उवप का फथन)--एुश्रया, पाथबी की रक्षा के लिए
तुमने पुत्र को जन्त दिया था, गेरे गर्भ में वीर्थ-पात किया था, मन तुमसे
दरबार कहा है कि, क्या होवे से में तुम्हारे पास नहीं रहूंगी; क्योंकि
में यह बात जामतो थी। परन्तु सेरी बाल नहीं सुनी। इस समय पृथिवी-
पालन-कार्य को छोड़कर क्यों जुथा बात करते हो?
१२. (पुरुवा की उक्ति)---फद छुम्हारा पुत्र मुझे चाहेगा ? यदि
बहु सेरे पास आबे, तो इया वह महीं रोवेगा ? आँसु नहीं गिरावेगा?
परस्पर प्रेम से सम्पन्न स्त्री-पुरुष में विच्छेद करने की किसको इच्छा
होगी? तुम्हारे श्वशुर फे गृह में तेजोरूप गर्भ प्रदीप्त हो उठा।
१३. (उर्वेशी का कट) --में तुम्हारी बात का उत्तर देती हूँ।
तुम्हरे पास पुत्र जाकर अश्चु-पात वा फन्दन नहीं करेगा। सं उसको
कह्याण-कायचा करूँगी । तुम्हारे पुत्र को मे तुम्हारे पास भज दूणी।
सूठ्, अपने घर को कौट जाओ । अब मुझे नहीं पा सकोगे ।
१४. (पुरुरवा की उक्ति)--तुम्हारा प्रेमी पति (मे) आज गिर
पड़ा--फिर कभी नहीं उठा! बह बहुत दूर चला गया। वह नित्त
(दुर्गति) में मर जाय। उसे बुक आदि खा जायें।
१५. (उर्जशी की उक्ति) --पुएरबा, तुम मूत्यु-कासना मत करो।
यहीं भस गिरो। तुम्हें बुक (भेड़िया) आदि न खायें। स्त्रियों का प्रेम
या मैगी स्थायी नहीं होदी। स्त्रियों और वको का हृदय एक ससान
होता हैं
१६. में नाना रूपों में सनुऽ
“¢
सी हुई हुँ। संन मनुष्यों मं चार
हिन्दी-ऋण्वेद १३७१
वषं रात्रि-वास किया हे। दिन में एक बार कुछ घी पौकर क्षुधा-निवृत्ति
करते हुए मेंने भ्रमण किया है ।
१७. (पुरुरवा का कथन)---अन्तरिक्ष को पूर्ण करनेवाली और
जल को बनानेवाली उर्वशी को वसिष्ठ (अतीव वासयिता पुरुरवा)
वश से ले आते हैं। शुभ-कर्म-दाता पुररवा तुम्हारे पास रहे। मेरा हुदय
जल रहा है; इसलिए हे उवंशी, लोटो ।
१८. (उवेशी की उक्ति)--इलाएपुत्र पुरुरवा, ये सारे देवता तुमसे
कह रहे हे कि, तुम मृत्युजयी होओगे, हवि से देवों की पुजा करोगे और
स्वर्गं में जाकर आमोद-आह्लाद करोगे!
९६ सूक्त
(देवता इन्द्र के दोनों घोड़े। ऋषि आङ्गिरस वरु। छन्द जगती
ओर त्रिष्टुप् ।)
१, इन्द्र, इस महायज्ञ में तुम्हारे दोनों घोड़ों की सेने स्तुति की।
तुम शत्र-हिसक हो। भली भाँति मस्त होओ, में यही प्रार्थना करता
हूँ । हरित-वणं अश्व से आकर घुत के समान सुन्दर जल गिराओ। तुम
शुभ्र हो। तुम्हारे पास मेरे स्तोत्र जायें।
२. स्तोताओ, तुम लोगों ने इन्द्र को यज्ञ की ओर बुलाया हुँ और
यज्ञ-गृह की ओर इन्द्र के दोनों घोड़ों को लाये हो। घोड़ों के साथ इन्द्र
फे बल-वीये की स्तुति करो। देखो, जैसे गाये दूध देती हैं, वैसे ही इन्द
को हरित-वर्ण सोमरस के द्वारा तुप्त करो।
३. इन्द्र का लोहे का जो व्न है, वह हरित-वर्ण और सुन्दर हे ॥
धह शत्रु-नाशक है और दोनों हाथों में धारण किया जाता है। इन्द्र धनी
हैं, सुगठित जबड़ोंवाले हं और वाण के द्वारा क्रोध के साथ इात्रु-संहार
करते हें। हरित-वणं सोमरस के द्वारा दुख को अभिषिक्त किया गया।
४. आकाश में सूर्य के समान उज्ज्वल घञा धृत हुआ--मानो उसने
अपने वेग से सारी दिशाओं को व्याप्त किया। सुगठित जबड़ों से युक्त
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१३७ HN TER [3
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और फोजररु पीनेदाले इख न छोहमय बस्त्र के दारा वत्र को मारने के
समय असीम दीप्ति प्राप्त की।
५. हुश्ति केशोंवाले इन्द्र, पूर्वकालीन यजमान पुम्हारी स्तुति करते
थे और तुम यज्ञ में आते थे। तुम हरित होओ। इन, तुम्हारा सब
प्रकार का अन्न प्रशंसा के योग्य है, निरुपम और उज्ज्वल हे।
६. स्तुत्य और बप्त्रधर इन्द्र जिस समथ सोमरस के पान के आमोद
में प्रवृत्त होते हैं, उस समय दो कमनीय घोड़े रथ में जोते जाकर उन्हें
ढोते हुँ। कान्त इन्ख्र के लिए अनेक बार सोमरस अभिषत किया
जाता हूं।
७. अविचल इन्द्र के लिए यथेष्ट सोमरस रकखा गया हें। वही सोमरस
इख के घोड़ों को यज्ञ की ओर वेगवान् करता हं। हरित-वर्ण घोड़े
जिस रथ को युद्ध में ले जाते हे, बही रथ इस रमणीय सोमयज्ञ में आकर
अधिष्ठित हुआ हूँ।
८. इसर का इम (दाढ़ी-मूँछ) हरित वा उज्ज्वल हैँ। बं लोहे
के समान दुढ़काय हें। वे सोम पाते हैं। शीघ्-शीघ सोमपान करके
अपने शरीर को फुलाते हे। उनकी सम्पत्ति यज्ञ हुँ । हरितवणं के घोड़े
उन्हें यज्ञ में ले जाते हैं। थे दो घोड़ों पर चढ़कर सारी दुर्गति दूर कर
देते है
९. इन्द्र के दो हरित वा उज्ज्वल नेत्र खुवा नामक यज्ञ-पात्र के
समान यज्ञ में लगे। ब अन्न-भक्षण करने के लिए अयने दोनों हरित वा
उज्ज्यल जबड़े कंपाते हे। परिष्कृत चमस के बीच जो कमनीय सोमरस
था, उसे पीकर वे अयन दो थोड़ों के शरीर को परिष्कृत करते हें। |
१०. हरित वा कमनीय इन्द्र का आवास-स्थान द्यावापृथिवी पर ही
है। बे रथ पर चढ़कर घोड़े के समान महावेग से युद्ध में जाते हे। अत्यन्त
उत्कृष्ट स्तोत्र उनकी प्रशंसा करता हुं। हरितवणं वा उज्ज्वल इद,
तुम अपनी शक्ति से प्रचुर अञ्न दिया करते हो।
हिन्दी-ऋण्वेद १३७३
११. इन्द्र, तुम अपनी महिमा के हारा बावापृणिवी को व्याप्त करके
नित्य नय और प्रिय स्तोत्र पाते हो। असुर (बली) इख, गायो के
उत्कृष्ट स्थान को जऊ-हुरण-कर्त्ता सूर्य के पास प्रकट करो ।
१२. हरित बण के जबड़ोंवाले इन्द्र, तुम्हारे घोड़े रथ में जोते जाकर
तुम्हें सनुष्य के यज्ञ में ले आवं। तुम्हारे लिए जो मधुर सोमरस प्रस्तुत
हुआ हे, उसे पियो। जो सोम दस अंगुलियों से प्रस्तुत होकर यज्ञ का
उपकरण-स्वरूप हुआ, युद्ध के समय तुम उसे पीने की इच्छा करो।
१३. अश्ववाले इन्द्र, पहले (प्रातःसवन मं) जो सोम प्रस्तुत हुआ
हैं, उसका तुमने पान किया हं। इस समय (साध्यन्दिल सवन सें) जो
प्रस्तुत हुआ हुँ, वह केबल तुम्धारे लिए। इन्द्र, इस मधुर सोम का
आस्वादन करो। प्रचुर वृष्टि-कर्ता इन्द्र, अपना उदर भिगोओ ।
९७ सूक्त
(देवता ओषधि । ऋषि अथवो के पुत्र मिषक । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. पुर्व समय में, तीन य॒गों (सत्य, त्रेता और द्वापर वा वसन्त, वर्षा
भौर शरद्) में, जो ओषधियाँ प्राचीन देवों ने बनाई हैं, वे सब पिङ्गल-
वर्ण ओषधियाँ एक सो सात स्थानों में विद्यमान हें, में ऐसा जानता हूँ ।
२. मातृ-रूप ओषधियो, तुम्हारे जन्म असीस हें ओर तुम्हारे प्ररोहण
अपरिमित हँ। तुम सो कर्मोबाली हो। तुम मुझ आरोग्य प्रदान करो ।
३. ओषधियो, तुझ फूल और फरवाली हो। तुम रोगो के प्रति
सन्तुष्ट होओ। तुम घोड़ों के समान रोगों के लिए जयशील हो और
पुरुषों को रोग से पार ले जानेवाली हो ।
४. वीप्तिशाली ओषधियो, तुस मातू-रूप हो। तुम्हारे सामने में
हवीकार करता हँ कि, चिकित्सक को गो, अइच, वस्त्र और अपने को
भी देने को प्रस्तुत हू । |
५. ओषधियो, तुम्हारा अश्वत्थ वृक्ष और पलाइ वृक्ष पर निवास-
स्थान है। जिस समय तुम लोग रोगी के ऊपर अनुग्रह करती हो, उस
ससय तुम्हें गायें देना उचित हे--तुम विशिष्ट कुतञ्चता की पात्रा हो।
११७४ हिन्दी-ऋणग्वेद
६. जसे राजा लोग समिति में एकत्र होते हैं, बसे ही जिसके पास
ओषधियाँ हें वा जो उन्हें जानता है, उसी बुद्धिमान् भिषक् को चिकित्सक
कहा जाता है । बह रोगों का विनाश-कर्ता हे।
७. इसे नीरोग करने के लिए में अश्ववती, सोमवती, अजेयन्ती,
उदोजस आदि ओषधियों को जानता हूँ ।
८. रोगी, जसे गोष्ठ से गार्य बाहर होती हं, वंसे ही ओषधियों से
उनका गुण बाहर होता है। ये ओषधियां तुम्हें स्वास्थ्य-घन देंगी ।
९. ओषधियो, तुम्हारी माता का नास इष्कृति (नीरोग करनेवाली)
है। तुम लोग भी रोगों को दूर करनेवाली हो । जो कुछ शरीर को पीड़ा
देता ह, उसे तुम लोग वेग से बाहर निकाल दो। तुम रोगी को नीरोग
करती हो ।
१०. जेसे कोई चोर गोष्ठ को लाँघकर जाता हुं, वैसे ही विश्वव्यापी
ओर सर्वज्ञ ओषधियाँ रोगों को लाँघ डालती हैं। शरीर में जो पीड़ा
होती है, उसे ओषधियाँ दूर करती हें।
११. जभी में इन सब ओषधियों को हाथ में ग्रहण करता हँ और
रोगी का दौबल्य दुर करता हूँ, तभी रोग की आत्मा वैसे ही मर जाती
है, जैसे मृत्यु से जीव मर जाता हे।
१२. ओषधियो, जेसे बली और सध्यस्थ व्यक्ति सबको अधीन करते
हैं, वैसे ही, ओषधियो, तुम लोग जिसके अङ्भ-प्रत्यङ्ग और ग्रन्थि-ग्रन्थि
सें विचरण करती हो, उसके रोग सभी शरीरावयवों से दूर करती हो।
१३. नीलकण्ठ और किकिदीवि (श्येन! ) पक्षी जसे बुल वेग से
उड़ जाते हं अथवा जेसे वायु वेग से बहता हँ वा जैसे गोधा (गोह)
दोइती हू; बसे ही, रोग, तुम भी शीघ्र दूर होओ।
१४. ओषधियो, घुस रोगों में एक ओषधि दूसरी के पास जाय और
छुसरी तीसरी के पास जाय। इस प्रकार संसार की सारी ओषधियां
एकमल होकर सेरी प्रार्थना की रक्षा करें।
हिन्दी-<'वेद १३७५
१५. फलवती और फलणूल्या तथा पुष्पवती और पुष्पशुस्या ओष-
थिया, बृहस्पति के द्वारा उत्पादित होकर, हमें पाए से बचावें।
१६. शपथ से उत्पन्न पाप से मुझे ओषधियाँ बचावें। वर्ण के पाश
और यस की बेड़ी से भी बचावें। देवों के पाश से भी बचादें।
१७. स्वर्ग से नीचे आते सपय ओषधियों ने कहा था कि, हम जिस
प्राणी पर अमुग्रह करती हे, उसका कोई अनिष्ट न हो।
१८. जिन ओषधियो का राजा सोम है और जो ओषधियाँ असीम
उपकार करती है, ओषधि, उनमें तुम श्रेष्ठ हो, तुम वासना को पुरी करचे
और हृदय को सुखी करने में सभर्थ हो।
१९. जिन ओषधियों का राजा सोम है ओर जो पृथिवी के नाना
स्थानों में अधिष्ठित हैं, वे ही बृहस्पति के हारा उत्पादित ओषधियाँ
इस रोगी को बल दे अथवा इस उपस्थित ओषधि को वीर्यवती करें।
२०, ओषधियो, म तुम्हें खोदकर निकालनेवाला हूँ। मुझे नष्ट नहीं
फरना। जिसके लिए खोदता हूँ, वह भी नष्ट नहीं हो। हमारी जो द्विपद
शौर चतुष्पद आदि सम्पत्तियाँ हे, वे नीरोग रहें।
२१. जो ओषधियाँ सेरा यह स्तोत्र सुनती हँ और जो अत्यन्त दूर
पर हू (इसी लिए स्तोत्र नहीं सुना हें), बे सब इकटूठी होकर इस ओषधि
को वीर्यवती करें।
२२. ओषधियाँ सोम राजा के साथ यह कथोपकथन करती हैं।
राजन्, जिसकी चिकित्सा स्तोता करते हें, उसे ही हम बचाते हैं।
२३. ओषधि, तुम भरष्ठ हो। जितने वृक्ष हे, सब तुमसे हीन हुँ। जो
हमारा अनिष्ट-चिन्तन करता हे, वह हमारे पास न जाय।
९८ सुत्त
(देवता नाना । ऋषि ऋष्टिषेण के पुत्र देवापि । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. बृहस्पति, तुम मेरे लिए प्रत्येक देवता के पास जाओ। तुम मित्र,
वर्ण, पुषा अथवा आदित्यों और वसुओं के साथ इनर (मस्त्वान्) ही
हो। तुम शन्तनु (याज्ञिक) राजा फे लिए सेघ से जळ बरसाओ।
११७६ सि
२. देवापि, कौई एक ज्ञानी और शोघ्रगामी देवता बूत होकर
हुम्हारे यहाँ से मेरे पास आवें। बृहस्पति, हमारे प्रति अभिमुख होकर
भाओ । हमारे मुंह में तुम्हारे लिए शुञ्च स्तोत्र धुत है।
३. बृहस्पति, हमारे मुंह में तुम एक एसा शुश्न स्तोत्र डार दो, जिसमें
भस्पष्टता न हो और भली भाँति स्फूति हो, उसके द्वारा हम शन्तन
के लिए बुष्टि को उपस्थित करें। सधु-युषर, रस आफाश से आवे।
४. सधु-युवत्त रस (वुष्टि-वारि) हमारे लिए आवे। इन्द्र, रथ फे
ऊपर रखकर विस्तृत धन बो। देवापि, इस होम-का्यं में आकर बेंठो ॥
यथाकाल देवों का पुजन करो और होमीय द्रब्य देकर सन्तुष्ट करो १
. ५. ऋषिषेण के पुत्र देवापि ऋषि तुम्हारे लिए उत्तम स्तुति करवा
स्थिर करके हवन करने को बैठे । उस समय वे ऊपर के समुद्र (अन्तरिक्ष)
से नीचे के पार्थिव समुद्र में वृष्टि-जल ले आये।
६. अन्तरिक्ष (समुद्र) को देवों ने आकाश में ढककर रक्खा हे ।
ऋषिषेज के पुत्र देवापि ने इस जल को संचालित किया। उस समय स्वच्छ
भूमि पर जल बहने लगा।
७. जिस समय शन्तन् के पुरोहित देवापि (कौरव) न, होम करने
के लिए उद्यत होकर, जलोत्पादक देव-स्तोत्र को निरूपित किया, उस
क्षमय सन्तुष्ट होकर बृहस्पति ने उनके सन में स्तोत्र का उदय कर दिया ॥
८, अग्नि, ऋहृषिषेण के पुत्र देवापि नासक मनष्य ने कमनीय होकर
हुम्हें प्रज्वलित किया। देवों का सहयोग पाकर तुस जलवर्षक मेघ को
प्रज्वलित करो ।
९, अग्नि, पुवं के ऋषि लोग स्तुतियों के साथ तुम्हारे पास आये थे ॥
बहुतो के द्वारा आहूत अग्नि, इस समय के सब यजमान यज्ञों में स्तुतियों
के साथ तुम्हारे पास जाते हं। रथ के साथ सहस्र पदार्थ शन्तनु राजा ने
इश्चिणा में दिये । रोहित नामक अइववाले अग्नि, पधारो ।
हिन्दी-ऋग्वेद १३७७
१०. अग्नि) रथों के साथ ९९ सहर पदार्थ तुसमें आहति-हूप में दिये
गय ह। उनसे तुम अपने शरीर को मोटा करो। घुलोक से हमारे लिए
वृष्टि करो)
११. अग्नि नब्बे सहन आहूतियों में से इन्र का भाग दो । सारे देव-
यानों को जाननेवाले तुम यथासमय कौरव शन्तन् को देवों के बीच
स्थापित करना।
१२. अग्नि, शत्रुओं की दुर्गम पुरियों को नष्ट करो। रोग और
राक्षसों को दूर करो । इस संसार में महान् अन्तरिक्ष से असीम जल ले
आओ ।
3९ सुकत
(देवता इन्द्र ऋषि वेखानस वम्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. इन्द्र, तुम जानकर हमें विचित्र सम्पत्ति देते हो। बह सम्पत्ति
बढ़ती हे, वह प्रशंदनीय है और यह हमें बढ़ाती है। इन्द्र के बल की वद्धि
के लिए हमें क्या देगा होगा? उनके लिए वृत्र-हिसक बस्त्र बनाया गया
हुँ। उन्होंये घृष्टि-वर्षण किया।
२. इन्द्र विद्युत नाक आयुध से युक्त होकर यज्ञ में सामगान के
प्रति जाते हैं। वे बल-पुर्वक अनेक स्थानों पर अधिकार कर डालते हे।
वे दस ५-स्थाल में रहनेवाले सस्तो के साथ शत्रु को हरते हें। बे
आदित्यो के सप्तम श्राता ह। उनको त्याग करके कोई कार्य नहीं हो
सकता
३. वे सुन्दर गति से जाकर युद्ध-क्षेत्र भे अवस्थित होते हैं। बे
अधियल होकर सो दरवाजोंचाली शत्रुप्री से धन ले आते हें ओर इर्द्रिय-
परायण दुरास्माओं को अपने तेज से हराते हैं।
४. वे मेघों की ओर जाकर और मेघ सें भ्रमण करके उबरा भूमि
पर याहत जल गिशते हें। उन सब जलवाले स्थानों पर अनेक छोटी-छोटी
नदियाँ एकत्र होकर घत के ससान जल को बहती हें। उनके न चरण
हें, न शथ है और न डॉगी (द्रोण) ह।
is ८७
{Re हिल्दी-झग्वेद
कि
इन्द्र, बिना प्राथना के ही, मनोरथ को पुण करते हैं । वे प्रकाण्ड ह।
उनके पास दुर्वास नहीं जाता। व अपने स्थाद से सब्र-पुत्न मण्तों के साथ
यहाँ आबें। मुझ वख के माता-पिता का बलेश चला गया; क्योंकि सने
शत्रु-धन का हरण कर लिया हु और शत्रुओं को रुलाया हे ।
६. प्रभु इन्द्र ने कोलाहरू करनेबाले दासों का शासन किया था।
उन्होंने तीन कपालो और छ: आँखोवाले विश्वरूप (त्वष्टा के पुत्र) को
सारा था। इन्द्र के तेज से तेजस्वी होकर चित ने लोहे के समान तीखे
नर्खोबाली अँगलियो से बराह का वध किया था।
७. उनके किसी भक्त को यदि शत्रु लोग युढ के लिए बलते हुं,
तो वे दर्ष के साथ शरीर को फलाकर शत्न-बध करने के लिए उच्च
अस्त्र प्रदान करते हैं। व मनष्यों के सब अष्ठ नला 81 दस्पु-पिनाह् के
समय मान्य इन्द्र नें अनेक शत्र-पुरियों को घ्यस्स किया था।
८. वे सेघ-समुदाय फे समान तृणसयी भूमि पर जल गिराते हुँ।
उन्होंने हमारे निवास का साग बताया हे। वे अपने शरीर के सारे अंगों
में सोम गिराकर, इयेन पक्षी के समान, लोहे के सदुश तीक्ष्ण और बृढ़-
पृष्ठ से दस्युओं का वध करते हें।
९. ये पराक्रमी शत्रुओं को दृढ़ अस्त्र के द्वारा भगा देते हैं। उन्होंने
कुत्स नामक व्यक्ति का स्तोत्र सुनकर शुष्ण मासक असुर को छेदा था।
उन्होंने स्तोता और कवि उशना के विरोधियों को वश में किया था।
ये उना और दसरों को दान देते हे।
१०. मनध्य-हितेयी मणतों के साथ घनेप्सु होकर इन्द्र ने धन भेजा
था। वे वरुण के समान अपने तेज से सुन्दर और शक्तिमान् हूँ। बे
रमणीय मूरति हैं। उन्हें सभी ययासमय रक्षक जानते हें। उन्होंने चार
परोंवाले शत्रु को मार डाला।
११. उशिज् के पुत्र ऋजिश्वा ने इन्द्र की स्तुति करके बच्चन के द्वारा
पिप्रु के गोष्ठ को विदध किया। जि समय नऋहजिइवा ने खोद को
हिन्दी-क्रग्वेद १३७९
प्रस्तुत करके यज्ञ मे स्तोत्र किया, उस समय आकर इग ने ज्ञत्रु-पुरियों
को विनष्ट किया।
१२. बळी (असुर) इद्ध, में बज्न तुम्हें बहुत हृदि देने की इच्छा से
पेदर चलकर तुम्हारे पास आया हूँ। तुम मेरा मंगर करो। अन्न, बल
और उत्तम गृह आदि सारी बस्तुएँ प्रदान करो।
१०० सूक्त
(९ अनुवाक । देवता विश्वदेव । ऋषि बन्द्न-पुत्र दवस्यु । छन्द्
जगती ओर त्रिष्टुपू।)
१. धनी इन्द्र, अपनो समान बली शत्रु-सैन्य का वध करो। स्तोत्र को
ग्रहण कर ओर सोम को पीकर हमारी रक्षा के लिए प्रस्तुत रहो । हमारी
श्रीवृद्धि करो। अन्य देवों के साथ सविता देव हमारे विश्यात यज्ञ की
रक्षा करें। हम सर्वग्राहिणी अदिति की प्रार्यना करते हे।
२- युद्ध के लिए उपस्थित ऋतु के अनुकूल यज्ञ-भाग वायु को दो।
वे विशुद्ध सोम का पान करते हैं। उनके जाने के समय शब्द होता हँ ।
वे शुर दुग्ध के पीने मे लगे है। हम सर्वग्राहिणी अदिलिदेवी की प्रार्थना
करते है । |
२. हमारे सरलता चाहमेवाले और अभिषदन्कर्सा यजमान को
सवितादेवला अञ्च दें, ताकि उस परिपक्व अन्न से देवों की पुजा की जा :
सके । सर्व ग्राहिणी अदिलिदेवी की हम प्रार्थना करते हँ ।
४, इन्द्र प्रतिदिन हमारे प्रति प्रसन्न रहें। हमारे यज्ञ मे सोभ राजा
अधिष्ठान करें। बन्धुओं के आयोजन फे अनुसार उक्त कर्म सम्पन्न
हो । सवंग्राहिणी अदिति की हम प्रार्थना करते हे।
५. इन्द्र स्तुत्य बल से हमारे यज्ञ की रक्षा करते हें। बृहस्पति, तुम
परमायु प्रदान किया करते हो। यक्ष ही हमारी गति, मति, रक्षक और
सुख हुँ । सवंग्राहिणी अदिति की हय प्रार्थना करते है।
१३८० हिन्दी-ऋणग्वेद
६. देवों का बल इख ने ही बनाया हें। गृहस्थित अग्नि देवों की
८
स्तुति करते, यज्ञ करते और कायं-विर्वाह करते हूँ। वे यज्ञ के समय
पुज्य और रमणीय तथा हुम लोगो के अपने हूँ। सर्व-ग्राहिणी अदिति की
हम प्रार्थना करते हूं ।
७. घसुओ, तुम्हारे परोक्ष में हमने कोई विशेष अपराध नहीं किया
ह। तुम्हारे सामन भी हमने एता कोई कार्य नहीं किया हे, जो देवों के
क्रोध का कारण बन । देयो, हमें मिथ्या नहीं करना। सबग्राहिणी अदिति
की हम प्रार्थना करते हं।
८. जहाँ सधु के समान सोमरस प्रस्तुत किया जाता ओर अनन्तर
अभिषच-प्रस्तर को भली भाँति स्तुत किया जाता हुँ, वहाँ का रोग
सबिता हटाते हें और पर्वत वहाँ का गुरुतर अनर्थ दूर करते हें।
सर्वग्राहिणी अदिति की हम प्रार्थना करते हें।
९. वसुओ, सोम को प्रस्तुत करने का प्रस्तर ऊपर उठे। तब तक
तुम लोग शत्रुओं को अव्यक्त भाव से अलग-अलग करो । सविता रक्षा
करनेवाले है। उनका स्तोत्र करमा चाहिए । सर्वग्राहिणी अदिति की हम
प्राथना करते ह।
१०. गायो, तुम लोग गोचर-भूमि पर विवरण करके मोटी बनो।
यज्ञ म तुम जोग दुग्ध-पात्र में दूध देती हो। तुम्हारा दूध सोमरस के
औषध के समान हो। सर्वग्राहिणी अदिति की हम प्रार्थना करते हं ।
११. इन्द्र यज्ञ को पूर्ण करते है, सबको जरा-यक्ष्त करते हें। वे
युवक और सोम-यज्ञ-कर्ता को रक्षा करते हें ओर उत्तम स्तोत्र पाकर
अनुकूल होते हु। उनके पान के लिए उद्धत द्रोण-कलश सोम से परिपुण
है। सर्वत्राहिणी अदितिदेवी की हम प्रार्थना करते हें।
१२. इद्र, तुम्हारा प्रकाश अइचर्यजनक हें । वह प्रकाश कर्म-पुरक हु।
उसकी प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हारा दुद्धष काथ सारे स्तोताओं की
मनःकासना पुण करता हूं। इसी लिए दुवस्यु ऋषि अतीव सरल रज्जु के
हारा गाय का अग्रभाग शीघ्र खींचते
हिन्दी-ऋणष्वेद १३८१
९७९ सुत्त
(देवता विश्वेदेव। ऋषि बा । छन्द त्रिष्टुप् , जगती
आदि ।)
१. मित्र ऋत्विको, समान-सना होकर जागो। अनेक लोग एक
स्थानवासी होकर अग्नि को प्रज्बलित करो। में दधिक्रा, उषा, अग्नि
और इन्द्र को, रक्षण के लिए, बुलाता हूँ ।
२. मित्रो, मदकर स्तोत्र करो। कर्षण (जोताई) आदि कर्मो का
विस्तार करो। हल दण्ड-रूपिणी और पार लगानेदाली नौका प्रस्तुत
करो। हल के फल या फाल को तेज और सुशोभित करो। मिनो, उत्तम
यज्ञ का अनुष्ठान करो।
३. ऋत्विको, हल योजित करो। युगों (जुआठों) को विस्तृत करो।
यहाँ जो क्षेत्र प्रस्तुत किया गया है, उसमें बीज बोओ हेमारी स्तुतियों
के साथ हमारा अश्च परिपुर्ण हो। हँसुए (सुणि) पास के धके धान्य में
गिरे ।
४. लाङ्गल (हल) जोते जाते हैं। कर्मे-कर्ता लोग जुआडों (युगों)
को अलग करते हें ओर बुद्धिमान् लोग सुन्दर स्तोत्र पढ़ रहे हत
५, पश्ञुओं के जलपान-स्थात को बनाओ। वरत्रा (चर्म-रज्जु) को
योजित करो। अधिक, अक्षय और सेचन-समर्थ गड्ढे से जल लेकर हम
सींचते हे । |
६. पशुओं का जलपान-स्थान प्रस्तुत हुआ हे। अधिक, अक्षय और
जल-पुर्ण गड्ढे में सुन्दर चर्म-रज्जु हें। बड़ी सरलता से जल-सेचन किया
जाता हुँ। इससे जल लेकर सेचन करो। |
७, घोड़ों वा व्यापक बेलों को परितुप्त करो। क्षेत्र (खेत) में र्खे
हुए धान्य को लो। सरलता से धान्य ढोनेवाले रथ को प्रस्तुत करो।
पशुओं का यह जल-पूर्ण जलाधार एक द्रोण (३२ सेर) होगा। इसमें
पत्थर का बनाया हुआ चक्र है। मगुऽ्यों के पीने योग्य जलाधार कूपवत्
होगा। इसे जल-पुर्ण करो।
सिन,
१३८२ हिन्दी-ऋष्वेव
८. गोष्ठ प्रस्तुत करो। वह स्थान ही मनुष्यों के जलपान के लिए
उपयुक्त है। अनेक स्थूछ कवच सी कर प्रस्तुत करो, वृढ़तर झौहमय पात्र
प्रस्तुत करो और चमस को बुढ़ करो, ताकि इससे जल न चू सके।
९. देवो वा ऋत्विको, में तुम्हारे ध्यान को प्रबुत्त करता हूँ, ताकि
तुम रक्षा करो। बह ध्यान यज्ञोपयोगी है, वही तुम्हें पश-भाग देता हैं।
जैसे घास खाकर याये सहस्र घाराओं से दूध देती हैं, बसे ही वह ध्यान
हमारी अभिलाषा पूर्ण करे।
१०. काठ के पात्र में रक्ख हुए हरित-वर्ण सोम को [सिचित करो।
प्रस्तरमय कुठारों से पात्र प्रस्तुत करो। दस अँगुछियों के द्वारा पात्र को
वेष्टन करके धारण करो। बाहक पशुओं को रथ की दोनों धुराओं में
योजित करो।
११. रथ की दोनों धुराओ को शब्दायमान करके रथ-वाहुक पशु
बसे ही विचरण करता हे, जेसे दो स्त्रियों का स्वामी रति-क्रीडा करता
है। काठ के शकट को काठ के आधार पर रक्खो, भली भांति संस्थापित
करो--साकि शकट आधार-शून्य न होने पावे।
१२. कर्माध्यक्षो, इन्द्र सुख के दाता हें। इन्हें सुखमय सोस दो। अन्न
देने के लिए इन्हें प्रेरित करो, अनुरुद्ध करो। इन्द्र अदिति के पुत्र हें।
तुम सब लोगों को पीड़ा का डर हूं। फलतः रक्षण के लिए उन्हें यहाँ
बुलाओ, ताकि सोमपान कर।
१०२ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि भमोश्व-पुत्र मुदूगल। छुन््द बहती शोर
त्रिष्टुप्।॥)
१. मुद्गल, युद्ध में जिस समय तुम्हारा रथ असहाय होता हु, उस
समय दुद्धषं इन्द्र उसकी रक्षा करें। इन्द्र, इस प्रसिद्ध युद्ध में, धनोपार्जन
के समय, तुम हमारी रक्षा करना।
पकर हकमा कमा पय SR ती
Sia हू बन फा नट म < १०
2००, रर्ट, रेन पक
~ केह
२. जिस समय रथ पर चढ़कर मुद्गल की पत्नी (मुद्गलानी)
सहुल्ल गायों को जीववेदाली हुईं, उस समय उनके वस्त्र का संचालन
वायु ने किया। गयो के जीतने के सभय मुद्गल-पत्मी रथी हुईं। इन्द्र-
सेना नाम की बहु मुद्गलानी युद्ध के समय शत्रुओं के हाथ से गायों को
ले आई।
३. इन्द्र, अभिष्टकर्ता और मारने को तैयार शत्रुओं के ऊपर वज्च-
पात करो। दासजातीय हो वा आर्यजातीय हो, शत्रु का, गूढ़ रूप से,
बध करो।
४. यह वृषभ महानन्द के साथ जल पी चुका। अपनी सींग से मिट्टी
के ढेर को खोदकश बह शत्रु की ओर दौड़ा! उसका अण्डकोष लम्बायमान
है। आहार की इच्छा से वह दोनों सींगों को तेज करके शीघ्र आ
रहा हुँ।
५. मनुष्यों ने इस वृषश्च के पास जाकर उसे गरजाया और युद्ध के
बीच उससे मत्र-त्याण कराया। इससे मुदूगल ने उत्तम और आहार-पदु
सकड़ों-गरखों गायों को जीता।
६. शामूर्तहसा के लिए वृषभ योजित किया गया। उसकी रस्सी
को धारण करमेंचाली सारथि मुद्गलानी गरजे रूगीं। रथ में जोते गये
उस घुष को पकड़कर रका नहीं गया। बह झकट लेकर दौड़ा। सेनाये
मुद्गलानी के पीछे-पीछे चलीं।
७. विद्वान भदगर ने रथ-चकऋ्र को चारों ओर बाँध दिया। बड़ी
निपुणतः से उन्होंने रथ में बेल को जोता। गायों के पति उस दूष को
दुः से बचाया । वह वृष बड़ वेग से मार्ग पर चला।
८. यावुक और रस्सीवाला वा डील (कपर्द) वाला चर्मरज्जु
(वरजा) के द्वारा रथाङ्का को बांधते हुए भली भाँति विचरण करने
लगा । अनेक लोगों के वन का उद्धार करने ळगा। अनेकानेक गायों को
घर लाय
३४ Fe soot
१ 4 ¢ ५९२१ नप
९. युद्ध-सीमा में जो मुदूगल गिरा हुआ हुँ, उसन उस वृष का
साथ दिया था। इसके द्वारा मुद्गल ने सेकड़ों और सहस्रं गायों को
जीता था।
१०. किसी ने अत्यन्त दूर देश में वा समीप में कभी ऐसा देखा है ?
जो रथ में योजित किया जाता हँ, वही उसपर प्रहरण के लिए बेठाया
जाता हुँ। इसे घास और जल नहीं दिया गया है; तो भी यह रथ-धुरा
का भार ढो रहा हैँ। यह प्रभु को विजयी भी करता हे।
११. पति-वियुक्ता स्त्री के समान मुद्गलानी ने शक्ति प्रदर्शित करके
पति के धन का ग्रहण किया--उन्होंने सायो मेघ के समान वाण-वर्षण
किया। एसे सारथि के द्वारा हम जय प्राप्त करें। हमें अन्न आदि सिले।
१२. इन्द्र, तुम सारे संसार के नेत्र-रूप हो। जिन्हें नेत्र हुँ, उनके
भी तुम नेत्र हो। तुम जल-वर्षक हो। दो अशवों को रज्जु के दरारा एकत्र
बाँध करके चलाते और धन देते हो ।
१०३ सूक्त
(देवता इन्द्र ओर अप्वा | ऋषि इन्द्र-पुत्र अप्रतिरथ । छन्द तिष्टुप् ।)
१. इन्द्र सबंव्यापी शत्रुओं के लिए तीक्ष्ण, वुषभ फे समान भयंकर,
शत्रुहन्ता तथा मनुष्यों को विचलित करनेवाले हें । मनुष्य त्रस्त होते
हैं। बे शत्रुओं को रुलाते और सदा चारों ओर दृष्टि रखनेवाले हें।
उन्होंने एकत्र विराट् सेन! को जीता हुँ ।
२. योद्धा मनुष्यो, इन्द्र को सहायक पाकर बिजयी बनो । विपक्ष
को पराजित करो। वे झत्रुओं को रुलाते और सदा चारों ओर दृष्टि
रखते हैं। ग्रे युद्ध करके विजयी बनते हें। उन्हें कोई भी स्थान-श्रष्ट
नहीं कर सकता। वे दुद्धषं हुँ। उनके हाथों में वाण है। बे जल
बरसाते हें।
३. वाण और तुणीरवाले उनके संग में रहते है। वे सबको बश में
करते हैं। युद्धकाल में बे विज्ञाल शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुं। जो
हिन्दी-ऋषग्वेद १३८५
उनके सामने जाता हे, उसे बे जीत लेते हैं। बे सौसपान करते हुँ॥
उनका भुजबल विलक्षण हु और धन् भयावह है। उसी धनुष से बाण
छोड़कर बे शत्र को गिराते हे!
४. बुहुस्पति, राक्षसों का वध कर, शत्रुओं को दुःख पहुँचाकर ओर
रथ पर चढ़कर पधारो। शत्र-सेना को ध्वस्त करो, विपक्ष के योद्धाओं
को मार डालो, बिजयी बनो और हमारे रथों की रक्षा करो।.
५. इन्द्र, तुम शत्र-बल-ज्ञाता, अनन्त काल के प्राचीन, उत्कृष्ट बीर,
तेजस्वी, वेगशाली, भयंकर और चिपक्ष-बिजयी हो। बीरों के प्रति दोडी
और प्राणियों के प्रति दोड़ो। तुम बल के पुत्र-स्वरूप हो। तुस गायों को
जीतने के लिए जयशीरू रथ पर चढ़ो।
६. इन्द्र मेघों को फाइनेबाले ओर गायों को प्राप्त करनेवाले हुँ ।
उनके हाथों में वस्र है। वे अस्थिर शत्रु-सेन्य को अपने तेज से
जीतते और मारते हैं। हे अपने वीरो, इन्हें आगे करके वीरता
दिखाओ। सखा लोगो, इनके अनुकूल होकर पराक्रम प्रदर्शित
करो ।
७. सौ यज्ञ करनेवाले और वीर इन्द्र मेघों की ओर दौड़ते हें । बे
निर्दय बली हैं। वे कभी स्थान-अभ्रष्ट नहीं होते। बे शत्रुओं की सेना को
हराते हैं। उनके साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता? युद्धस्थल में बे
हमारी सेनाओं को बचावं।
८. इन्द्र उन सब सेनाओं के सेनापति हें। बृहस्पति उन सेनाओं को
दाहिनी ओर रहें। यञ्ञोपयोगी सोम उनके आगे रहें। मरुद्गण शत्रु-
भयकर्त्नी और विजथिनी देद-सेनाओं के आमे-आग जायें।
९. वारि-वर्षक इन्र, राजा वरुण, आदित्ययण और सरुद्गण की
शक्ति अत्यन्त भयानक है। महानुभाव देवता लोग जिस समय भुवन को
कॅपाकर विजपी होने लगे, उस समय कोलाहल उपस्थित हुआ।
१०. इन्द्र, अस्त्र-ास्त्र प्रस्तुत करो। हमारे अनुचरों के मन को
१३८६ छहिन््दी-ऋष्वेद
उत्साहित करो। बन्नध्य इन्द्र, घोड़ों का बल यढ़े। जयशीळ रथ कौ
निर्घोष ध्वणि उठ।
११. जिस समय पताका फहराई जाती हैँ, उस समथ इन्द्र हमारी
ही ओर रहते हैं। हमारे वाण विजयी हों। हमारे वीर श्रेष्ठ हों, देखो,
युद्ध में हमारी रक्षा करो।
१२. हे पापाशिमानी देवता (अप्दा), तुम चले जाओ और उन
शत्रुओं के सव को प्ररुष्ध करो। उनके शरीरों में पठो। उनकी ओर जाओ।
शोक के इरा उतके हृदय में दाइ उत्पन्न करो। शत्र लोग अन्धकारमयी
रजनी थें एकन्न हों।
१३. मनुष्यों, अग्रसर होओ। जथी होओ। इन्प्र तुम्हें सुखी करें।
तुम लोग जैसे डु हो, वसी ही भयंकर धुम्हारी बाहें हों।
१०३ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र पुत्र अष्टक । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. बहुतों के हारा आएत इन्द्र, तुम्हारे लिए सोम अभिषत हुआ हे।
दोनों घोड़ों के द्वारा शीक्ष ही यज्ञ में पधारो। प्रधान-प्रधान स्तोताओं
ने, तुम्हारे लिए, स्तोत्र पाठ करके यह सोम दिया हें। इन्द्र,
सोम-पान करो।
२. हरि नामक घोड़ों के स्वाभी इन्द्र, कर्मकर्ता जिसे प्रस्तुत और
जल में परिष्कृत करके ले आये हे, उसी सोम का पान करो। उदर भरो।
तुम्हारे लिए पत्थरों ने जो सेचन किया है, उसके द्वारा सत होओ और
अपनी स्तुतियों को ग्रहण करो।
३. हरि नामक घोड़ों के प्रभु इन्द्र, सोम अभिषुत (प्रस्तुत) हुआ है ।
तुम वर्षक हो। तुम्हारे यज्ञागमन की सम्भावना देखकर तुम्हारे पान के
लिए सोम प्रेरित करता हूं। इन्द्र, उत्तमोत्तम स्तोत्र पाकर आमोद करो।
विविध कार्य करो। नाना प्रकार से तुम्हारा स्तोत्र हो ।
हिन्दी-ऋष्बेद १३८७
४. क्षमताशाली इन्द्र, उशिज् वंशवाले यज्ञ करना जानते हें। जो
लोग तुम्हारा आश्रय पाकर, तुम्हारे प्रभाव से अन्न लाभ करके और
सन्तान-भ्राप्ति करके यजमान के घर में रह गये, वे सब आनब्द-मिसग्न
होकर तुम्हारी स्तुति करने लगे।
५. हेरि नामक घोड़ों के स्वामी इन्द्र, तुम्हारा स्तोत्र सुन्दर है।
तुम्हारा घन अहचर्यजनक हे और तुम्हारी उज्ज्वलता अत्यन्त है। तुम |
जो कुछ सुन्दर और यथार्थ स्तोत्र बना चुके हो अथवा घनादि प्रदान कर
चुके हो, उनसे तुम्हारी स्तुति करके अनेकों ने आत्म-रक्षा की हं और
दूसरों की भी रक्षा की हे।
६. हरियों के प्रभु इन्द्र, जो सोम अभिषुत किया गया हँ, उसे पीने
के लिए हरि नाम के दोनों घोड़ों के द्वारा सारे यज्ञों सें जाया करते हो।
तुम शक्तिशाली हो। तुम्हें ही यज्ञ प्राप्त करते हं। यज्ञीय विषय को
समझ करके तुम दान करते हो।
७. जिनके पास असीम अञ्न है, जो शत्रुओं को पराजित करसे हैं,
जो सोम से प्रसन्न होते हैं, जिनका स्तोत्र करने पर आनन्द मिलता है और
जिनके विपक्ष में कोई नहीं जा सकता, उन्हें स्तोत्र विभूषित करते हूँ
और स्तोलाओं के प्रणाम उनकी पुजा करते हें।
८. इन्द्र, रमणीय और अमित गतिवाली गङ्गा आदि सात नदियों
के दवारा तुमने शत्र पुरियों को नष्ट करके सिन्धु को (सागर को) बढ़ाया।
तुमने देवों ओर मनुष्यों के उपकार के लिए नित्यानबे नदियों का माय
परिष्कृत किया है।
९. तुमने जल का आवरण खोल दिया है। तुस जल खाने को अकेले
ही प्रस्तुत हुए थे। इन्द्र, वुन्न-बघ के उपलक्ष में तुमने जो कार्य किये हें,
उनके हारा सारे संसार के शरीर का पोषण किया हुँ ।
१०. इन्द्र, महावीर और क्रिया-कुशल हुँ। उनका स्तोत्र करने पर
आनन्द होता हुँ। उत्तम स्तोत्र उदित होकर उनकी पुजा करता हूँ।
82. न
१३८८ ह
उन्होंने वृत्र का वघ किया, संसार को बनाया, शबितिशाली हो शत्रु-पराभव
किया और शत्रु-सेना के प्रतिकूल गये।
११. स्थूछकाय और धनी इन्द्र को बुलाते हे। युद्ध के सभय जब
कि अज आदि को बाँटा जायगा, तब इन्द्र ही प्रधानतया अध्यक्षता करगे ॥
अपने पक्ष की रक्षा के लिए बे युद्ध मं उग्र मत्त धारण करते, शत्रुओं
को मारते, वृत्रों का नाश करते और धन जीतते हु।
१०५ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि उत्स के पुत्र सुमित्र वा ठुमित्र । छन्द् गायत्री
शादि ।)
१. इन्द्र, सुस स्तोत्राभिलाष करते हो। स्तोत्र किया गया हे। वृष्टि
के लिए यथेष्ट सोम प्रस्तुत किया गया हुँ। हमारे खेत की जल-प्रणाली
कब जल-पुर्ण होगी ?
२. उनके दो घोड़े सुशिक्षित हें। वे अनेक कार्य करते हें। थे वोनों
शुञ्र और केशवाले हे। उनके स्वामी इन्द्र, दान करने के लिए आबें।
३. शोभा के लिए जिस समय बली इन्द्र ने घोड़ों को जोता, उस
समय सारे पाप-फल दूर हुए, उस समय मनुष्य सुखी हुए ।
४. मनुष्यों से पुजा पाकर इन्द्र ने सारे धनों को एकत्र कर डाला।
वे नाना कार्थ करनेवाले और शब्दायमान दो घोडे चलाने रूग ।
५. केशवाले और विशाल, दोनों घोड़ों पर चढ़कर, अपनी देह की
पुष्टि के लिए इन्द्र अपने सुघटित दोनों जबड़ों को चलाते हुए आहार
साँगने लगे ।
६. इन्द्र की शक्ति अतीब सुन्दर हु। वे सुशोभन हूं। वे सस्तो
के साथ यजसान को साधुवाद करते हूं। वे अन्तरिक्ष में रहते हें। जेसे
ऋभुओं ने कमे-कौजल से रथ आदि का निर्माण किया हूँ, बसे ही वीर
इन्द्र ने अपने बल से अनेक बीर-कार्य किये हुँ।
हिन्दी-ऋग्वेद १३८९
७ दस्यु का वव करने के लिए उन्होंने वस्त प्रस्तुत किया था। उनके
शमश्रु (दाढ़ी-मूछ) हरितवर्ण हें। उनके घोड़े भी हरितवर्ण हें। उनके
जबड़े सुन्दर हैं। वे आकाश के समान विज्ञाल हूँ!
८. इन्द्र, हमारे सारे पापों को विनष्ट करो। हम ऋचाओं के प्रभाव से
ऋकजून्य व्यक्तियों का वध कर सकें। जिस यज्ञ में स्तुति का संसग नहीं
है, वह कभी भी स्तोत्रबाले यज्ञ के समान तुम्हें प्रीतिप्रद नहीं होता।
९. जिस समय यज्ञभार-वाहक ऋत्विकों ने यज्ञ-गृह में कार्यारम्भ
किया, उस समय तुम यजमान के साथ एक नौका पर चढ़कर यजमान
को तारो।
१०. दृधवाली गाय तुम्हारे मङ्गल के लिए हो। जिस पात्र के द्वारा
तुम अपन पात्र में मधु ले लेते हो, वह दर्वी (पात्र-विशेष) निर्मल और
कल्याणकर हो।
११. बली इन्द्र, तुम्हारे लिए इस प्रकार से सुमित्र ने एक सौ स्तोत्र
पढ़ें--दुर्मित्र ने भी स्तुति की; क्योंकि तुमने दस्थु-हत्या के समय कुत्स-
पुत्र की रक्षा की हेत
पञ्चस अध्याय समाप्त |
१०६ सूक्त
(षष्ठ अध्याय । देवता अरिवद्वय । ऋषि कश्यप-पुत्र भूतांश ।
छुन्द् त्रिष्ठुप् |)
१. अशिवद्वय, तुम दोनों हसारी आहुति के अभिलाषी हो रहे हो।
जेसे-जेसे तन्तुवाय बस्त्र का विस्तार करता हे, बेसे ही तुम लोग हमारे
स्तोत्र का विस्तार कर देते हो। यह यजमान यह कहकर भली भाँति तुम
लोगों की स्तुति करता हें कि, तुम लोग एक साथ आते हो। चन्द्र-सुर्य के
समान तुम लोग खाद्य द्रव्य को आलोकित करके अठ हो।
१३९० हिन्वी--दुग्बेद
२. जैसे दो बेल गोचर-भूमि में विचरण करते हें, बैसे ही तुम लोग
यज्ञ-दान-समर्थ व्यक्ति के पास जाते हो। रथ मे जोते दो बूषों वा अश्यो
के समान धन-दान के लिए तुम लोग स्तोता के पास आया करते हो।
दूत के समान तुम लोग लोगों के पास यशस्वी बनो। जसे दो महिष जल-
पान-स्थान से नहीं हटते, बसे ही तुम लोग भी सोमपाव से नहीं
हटना ।
३. जैसे पक्षी के वो पंख आपस सं मिले रहते है, वंसे ही तुम लोग
भी परस्पर मिले हुए हो। वो अद्भुत पशुओं के समान इस यज्ञ में आय
हो। यज्ञ-कर्ता अग्नि के समान तुम लोग दीप्तिवाले हो। सबत्रबिहारी
दो पुरोहितों के समान तुम लोग नाना स्थानों में देव-पुजा किया
फरते हो।
४. जैसे माता-पिता पुत्र के प्रति आसक्त रहते हें, वेसे ही तुम लोग
हमारे प्रति होओ। तुम लोग अग्नि और सुर्य के समान दीप्तिशील होओ,
राजा के समान क्षिप्रकारी होओ, धनी व्यक्ति फे समान उपकारी होओ
और सूर्य-किरणों के समान आलोक देते हुए लोगों के सुख-भोग के अन्-
कूल होओ। सुखी मनुष्य के समान इस यज्ञ में पधारो।
५. सुन्दर गतिवाले दो वृषों के समान तुम लोग हुष्ट-पुष्ट और
सुदृइय हो तथा मित्र और बरुण के समान तुस लोग यथाधदर्शी, वदान्य
और दुःख-लास-पूर्वेक, स्तुति प्राप्त करते हो। दो घोड़ों के समान तुम
लोग खाकर मोटे-तगड़े हो गये हो। तुम लोग प्रकाशभय आका में
रहते हो । भेड़ों के समान तुम लोग यथेष्ट भोजनादि करके सुघटित
जङ्क-प्रत्यङ्गवाले हुए हो।
६. हाथी को रोकनेबाले और मारमेबाले अंकुशों फे समान तुम लोग
रोकनेवाले वा भरण करनेबारे (जभेरि) और हन्ता (लुफरि) हो
हन्ता (नेतोश) फे समान तुस रोग शत्रुओं के मारनेवाछे हो; इसी लिए
तुम लोगों को शजु-विदारक (फफरी का) अथवा यजमान-पालक कहा
हिन्दी-कग्बेद १३९१
गया हूँ । तुम लोग एसे निर्मेल हो, सायो जल में उत्पन्न हुए हो, तुम
लोग बली और विजयी हो। घेरी शरण-धर्मशीड देह को फिर
पौयय दो।
७. तीप्र बली अध्विद्वय, जेसे दोष चरणवाला व्यक्ति दूसरे को
जल से पार कर देता हे, बेसे ही तुम लोग सेरी मरण-धर्मशील देह को
विपत्ति से पार करके अभिलषित बिषय में ले चलो। ऋभु के ससान
तुमने अत्यन्त संस्कृत रथ पाया हूँ। वह शीघ्रगामी रथ वायु के समान
उड़कर शत्रु का घन ले आया हृ।
८. महाबीर के समान तुम लोग अपने पेट में घृत शिश लो। तुम
लोग धन के रक्षक और अस्त्र लेकर शत्रुओ के वघ-कर्ला हो। तुख लोग
पक्षी के समान सुन्दर और सर्वत्रविहारी हो। इच्छा करने के साथ ही
तुम लोग भूषित होते हो और स्तोत्र के लिए यज्ञ में जाते हो।
९. जैसे लम्बे पेर रहने पर, गम्भीर जरू के पार होमे के समय,
आश्रय सिरता है, वसे ही तुस लोग आश्रय दो। तुय लोग, दोनों कामों
के समान, स्तोता की स्तुति को, ध्यान से, सुनते हो। दो यञ्चाङ्चों के
समान हमारे इस विचित्र यज्ञ मं पथारो।
१०. जसे बोरुवेवाली वो मणगशिशयाँ मधु के छाते में मधु का
सेचन करती हें, वेसे ही सुस लोग गाय के स्तन सें मधुतुल्य दुग्ध का संचार
कर दो। जैसे श्रमजीवी श्रम करके पसीने से तर हो जाता हे, बसे ही तुम
रोग भी स्वेदबाले होकर जल-सेचन करो। जेसे दुर्बल गाय गोचर-भूनि
में जाकर अपना आहार पाती है, वेसे ही तुम लोग भी यज्ञ में आकर
आहार पाते हो।
११. हम स्तोत्र-विस्तार करते हुँ और आहार का वितरण करते
हैं; इसलिए तुम लोग एक रथ पर चढ़कर हमारे यज्ञ में आओ । गाय
के स्तन में सुमिष्ट आहार के समान दुग्ध हैं । सूर्यांश ऋषि ने यह स्तोत्र
करके अहिवद्दय का मनोरथ पुण {कषा ।
१३९३ (हन्दी-ऽ्हग्देद
(देवता ?5 5८४) दक्षिणा । ऋषि आङ्गिरस दिव्य | छन्द
त्रिष्टुप् ओर जगती ।)
१. इन यजमानों के यज्ञ-निर्दाहु के लिए सूर्य-रूपी इन्द्र का विपुल
तेज प्रकट हुआ। सारे प्राणी अन्धकार से बाहर आये। पितरों के द्वारा
दी गई ज्योति उपस्थित हुई। दक्षिणा देने की प्रशस्त पद्धति उपस्थित
हुई!
२. जो लोग दक्षिणा देते हें, बे स्वर्ग मं उच्च आसन पाते हें। अइव-
दाता सुर्य के साथ एकत्र होते हें। सुवणदाता अमरता पाते हे। वस्त्रदाता
लोग सोम के पास जाते हें। सभी दीर्घायु होते हें।
३. दक्षिणा के हारा पुण्य कर्म की पुर्णता प्राप्त की जाती हे--यह
देव-पुजा का अङ्क-स्यरूप हे। जिनका आचरण खराब हे, उनका काये
देवता लोग नहीं पुरा करते। जो लोग पवित्र दक्षिणा देते हें, निन्दा से
डरते हँ, वे अपने कर्म को पुर्ण करते हें।
४. जो वायु सैकड़ों मार्गों से बहता हुँ, उसके लिए आकाश, सुर्य
सथा अन्यान्य मनुष्य-हितेषी देवों के लिए होमीय द्रव्य (हुथि) दिया
जाता हुँ। जो लोग देवों को तृप्त करते और दान देते हें, उनका मनोरथ
इक्षणा पुरा करती है। यह दक्षिणा पाने के अधिकारी सात पुरोहित
विद्यमान है । |
५. दाता को सबसे पहले बुलाया जाता हे। ब ग्रामाध्यक्ष होते हें
और सबके आगे-आणे जाते हं। जो सबसे पहले दक्षिणा देते हूँ, उन्हें में
सबका राजा जानता हू ।
६. जो सर्व-प्रथम दक्षिणा देकर पुरोहित को तुष्ट करते हे, चे ही
ऋषि और ब्रह्मा कहे जाते हें, वे ही यज्ञ के अध्यक्ष, सामगाता ओर
स्तोता कहे जाते हे। वे अग्नि की तीनों मूतियो को जानते हँ।
हिन्दी-क्रशवेव 9३९३
७. दक्षिणा में अइव, गाय और सनःप्रसादकर सुवर्ण पाया जाता
हुँ। हमारा आत्म-स्वरूप जो आहार हु, चह भी दक्षिणा से पाया जाता
हैं। विद्वान् व्यक्ति दक्षिणा का, देह-रक्षक कवच के समान, व्यवहार
करसे
८. दाताओं की मृत्यू नहीं होती--वे देवता हो जाते हैं। वे दरिद्र
नहीं होते--वे क्लेश, व्यथा वा दुःख भी नहीं पाते। इस पृथिवी वा स्वर्ग
में जो कुछ हे, सो सब उन्हें दक्षिणा देती है।
९. घी, दूध देनेवाली गाय को तो दाता लोग सबसे पहले पाते हैं।
वे सुन्दर परिच्छवाली नवोढा स्त्री पाते हैं। वे सुरा (मदिरा का सार)
(क्या सोम? ) पाते हें। दाता लोग ही चढ़ा-ऊपरी करनेवाले शत्रुओं को
जीतते हृ।
१०. दाता को शीघ्गन्ता अइव, अलंकृत करके, दिया जाता हैं।
उसके लिए सुन्दरी स्त्री उपस्थित रहती है। पुष्करणी फे समान निर्मल
और देवालय के समान मनोहर गृह दाता के लिए ही विद्यमान हे। ._
११. सुन्दर बहनकर्ता अश्वदाता को ले जाते हें। उसी के लिए
सुघटित रथ विद्यमान हे। युद्ध के समय देवता लोग दाता की रक्षा करते
हूं। युद्ध स दाला शत्रुओं को जीतता
१०८ सूक्त
(देवता तथा ऋषि पण्गिण ओर सरमा। छन्द त्रिष्टुप् |) -
१. (पणियों की उक्ति)--सरघा,) तुम क्या किसी प्राथना के लिए
यहाँ आई हो? यह मार्ग तो बहुत दूर का हें। इस मागे पर आते समय
पीछे की ओर दृष्टि फेरने पर नहीं आना हो सकता। हमारे पास एसी
कौन-सी वस्तु है, जिसके लिए तुभ आई हो? कितनी रातों में आई हो ?
नदी के जल को पार कसे किया ?
२. (सरसा की उक्लि)--पणिगण, इन्द्र की दूती होकर में आई छूँ।
तुमने जो गोवन एकत्र किया हे, उसे ग्रहण करने की मेरी इच्छा हुँ)
फू[० ८८
१३९४ हिन्दी-ऋणग्वेद
जल ने मुझे बचाया हे। जल का डर तो हुआ था; फिन्तु पीछे उसे
लॉघकफर मं चली आई। इस प्रकार में मदी के पार चलो आई।
३. (पणियो की उद्ति )--सरमा, जिन इन्द्र की दूती बनकर तुस
इतनी दूर से आई हो, वे इन्द्र केसे हैं ? उनका कितना पराक्रम हें उनकी
फंसी सेना हुँ? इन्द्र आवें। उन्हें हम मित्र सानन को प्रस्तुत हु । वे हमारी
गायें लेकर उनके स्वत्वाधिकारी बम।
(सरमा की उक्ति)--जिन इन्र की दूती बनकर में दूर देश
से आई हूँ, उन्हें कोई हरा नहीं सकता। वे ही सबको हराते हँ। गहन-
गम्भीर नदियाँ भी उनकी गति को रोकने सं समर्थ नहीं हें। पणियो, तुम्हें
निश्चय ही इन्द्र भारकर सुळा देंगे।
५. (पणियों की उक्ति )--पुग्दरी सरम, तुम स्वर्ग की शेष सीमा
पर से आ रही हो; इसलिए इन गायों में से जिग-जिनफो वाहो, हम तुम्हें
दे सकते है । बिना युद्ध के कौन उुम्हें गायं देता? हमारे पास भी अनेक
तीक्ष्ण आयुध हूँ।
६. (सरमा = इन्द्र की कुतिया की उक्ति)--तुम्हारी बातें सैनिकों
के योग्य नहीं है । तुम्हारे शरीरो में पाप हं । थे शरीर कहीं इन्द्र के वाणों
का लक्ष्य न हो जायें। तुम्हारे यहाँ यह जो आने का मागं हँ, इसपर
देवता लोग कहीं आक्रमण न कर बेठ। मुझ सन्देह हु कि, पीछ बृहस्पति
तुम्हें क्लेशा देंगे--यदि तुम गाय नहीं द दोग, तो आपदायें सञ्चिकट हू।
७. (पणियो की उक्ति)--सरमा, हमारी सम्पत्ति पवतों के द्वारा
सुरक्षित है--गायों, अइवों और अन्यान्य घनों से पूर्ण हं। रक्षा-कार्य
में समर्थं पणि लोग इस सम्पत्ति की रखवाली करते हु। गायों के द्वारा
शब्दायमान हमारे स्थान को तुम व्यथ ही आई हो।
८. (सरमा की उक्ति)--आज़िरस अयाल्य ऋषि और नवगृगण,
सोमधान से प्रमत्त होकर, यहाँ आवेगे और इन सारी गायों का भाग करके
इन्हें रे जायेगे । पणियो, उस समय तुम्हें एसी दर्पोक्ति छोड़नी पड़ेंगी।
हिन्दी-ऋग्वेद १३९५
९. (पणिगण की उक्ति)--सरमा, डरकर देवों ने तुम्हें यहाँ भेज
हँ; इसी लिए तुम आई हो। तुम्हें हुए भगिनी-स्वरूप समते हैं। तुम
अब नहीं छोटना। सुन्दरी, हुन गोधन का भाग देते हैं।
१०. (सरमा को उक्त )--में आता और भगिनी की कथा नहीं
समझ सकती । इन्द्र ओर पराक्षणी अङ्किरो वंशीय जानते हे कि, गाथे पाने
के लिए मुझ उन्होंने, रक्षा-पुर्वेक, भेजा है । में उनका आश्रय पाकर आई
हैं । पणियो, यहाँ से बहुत दूर भाग जाओ।
११. पणियो, यहाँ से बहुत दुर भाग जाओ। गाये कष्ट पा रही हें।
वे धर्म के आश्रय में इस पर्यत से लोट चलें। बहस्पति, सोम, सोमाभिषव-
कर्ता पत्थर, ऋषि ओर सेधावी छोग इस गुप्त स्थान में स्थित गायों की
बात जान गये हुँ।
१०६ सूक्त
(देवता विश्वदेव। ऋषि ब्रह्मवादिनी जुहू । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. जिस सभय बृहस्पति ने अपनी पत्नी जूहू का त्याग कर दिया--
इस प्रकार ब्रह्म-किल्विष प्राप्त किया, उस समय सूर्य, शीघ्रगामी वायु,
प्रज्वलित अग्नि, सुखकर सोम, जल के अघिष्डाता देवता वश्ण और सत्य-
स्वरूप प्रजापति की अन्य सम्ततियों ने कहा--प्रायश्चित्त कराया।
२. लज्जा छोड़कर सोम राजा ने पवित्र-्चरित्रा स्त्री को सर्वप्रथम
हस्पति को दिया। मित्र और वरुण ने इसका अनुमोदन किया । होम-
निष्पादफ अग्नि हाथ से पकड़कर पत्नी को ले आये।
३. “इन पत्नी की देह को हाथ से छूना चाहिए~-थ यथाविधि
विवाहित पत्नी हुँ।"--एसा सबन कहा। इन्हें खोजन के लिए जो दूत
भेजा गया था, उसके प्रति य अनासक्त रहीं। जसे बली राजा का राज्य
सुरक्षित रहता हुँ, वैसे ही इनका सतीत्व सुरक्षित रहा।
४. तपस्या में प्रथृत्त सप्तर्ियों और प्राचीन देवों ने इन पत्नी की
बात कही है । ये अत्यन्त शुद्ध-चरित्रा हैं। इन्होंने बृहस्पति से बिवाह किया
१३९६ हिन्दी-ऋग्वेद
है । तपस्या और सच्चरित्रता से निष्ट पदार्थ भी उत्तम स्थान में स्थापित
हो सकता ह।
५. स्त्री के अभाव में बृहस्पति ग्रह्माचर्यं के नियम का पालन करते
हैं। बे सारे देवों के साथ एकात्मा होदर उनके अद्क-विञ्ञेष हो गय हे।
जैसे उन्होंने प्रथम सोम के हाथ से भार्या को पाया थए, वसे ही इस समय
भी उन्होंने फिर जुहू नाम की पत्नी को प्राप्त किया।
६. देवों और मनुष्यों ने पुनः बृहस्पति को उनकी पत्नी को समर्पित
कर दिया। राजाओं ने भी पुनः शपथ फे साथ शुद्ध-चरित्रा पत्नी को
सर्सापत किया ।
७. शुद्ध-चरित्रा पत्नी को फिर लाकर देवों न बृहस्पति को निष्पाप
किया। अनन्तर पृथिवी का सर्वश्रेष्ठ अन्न विभक्त करके सभी सुख से
. अवस्थान करने रये ।
११० सूक्त
(देवता आप्री । ऋषि भागेव जमदग्नि । छन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. ज्ञानी अग्नि, तुम सनष्यों के गृह में आज समिद्ध होकर अपने
देवता और अन्यान्य देवों की पुजा करो। तुम्हारा मित्र तुम्हारी पुजा
करता हुँ--यह जानकर तुम देवों को ले आओ; क्योंकि तुम उत्तम बुढि
से युक्त और क्रिया-कुशल दूत हो।
२. हे तनूनपात् (अग्नि), यज्ञ-गसन के जो पथ (हवि आदि) हे,
उन्हें मधु-सिश्रित करके अपनी सुन्दर शिखा से स्वाद लो। सुन्दर भावों
के द्वारा स्तोत्रों और यज्ञ को समृद्ध करो और हमारे यञ्च को देव-भोग्य
कर दो।
३. अग्नि, तुम देवों को बुळान वाले, प्रार्थनीय ओर प्रणाम के योग्य
हो! वसुओं के साथ पधारो। हे महान् पुरुष, तुम देवों के होता हो।
तुम्हें प्रेरित किया जाता है । तुम्हारे समान कोई यज्ञ नहीं कर सकता ।
तुम इन सारे देवों के लिए यज्ञ करो।
न्धी-ऋग्वेव १३९७
४. पूर्वाह्न में, वैदी को ढँकने के लिए, कुश को पुर्वमुख करके बिछाय!
जाता हँ । वह परम सुन्दर कुश और विस्तृत किया जाता है। उसपर
अदिति और अन्य देवता लोग सुख से बेठते है।
५. जसे स्त्रियाँ वेश-भूषा करके पतियों के पास अपने शरीर को
प्रकट करती हू, वसे ही इन सब सुर्निमत हारों की अभिमानिनी देवियाँ
पृथक हो जाय--विस्टूस रूष से खुल जायें। द्वार-देवियो, देवता सरलता
से जा सक, इस प्रकार खुल जाओ।
६. उषा देवी और रात्रिदेबी लोगों के लिए सुषुप्ति से उत्पन्न सुख
उत्पन्न कर दें। वे यज्ञ-भाग की अधिकारिणी हें। बे परस्पर मिलकर
यञ्ञ-स्थान में बेठे। वे दिव्य-लोक-वासिनी स्त्री के समान अत्यन्त गुण-
चती, परम शोभा से युक्त और उज्ज्वल श्री धारण करनेवाली हैं।
७. दोनों देव--होता (अग्नि और आदित्य) ही प्रथम उत्तम वाक्यों
से स्तोत्र करते हें--मनुष्य के यज्ञ के लिए अवुष्ठान-कार्य का निर्माण कर
घेते हे। वे पुरोहितों को विभिन्न अनुष्ठानों सें प्रेरित करते हैं। वे क्रिया-
कुशल हे और पूर्व दिशा के प्रकाश को उत्पन्न करते हैं ।
८. भारतीदेवी (सुर्य-वीप्ति) हमारे यज्ञ में शीघ्र आदें। इलादेवी
इस यज्ञ की घात का स्मरण करके, मनष्य के समान, आगमन करें। ये
दोनों और सरस्वतीदेवी--ये तीन चरत्हार-्छाह-कारिणौ देबियाँ सासने
फे सुखावह आसन पर आकर बेठ।
९. द्यावापृथिवी देवों की मात-स्वरूपणी हें। होता, जिन देवता
ने उन वोतों को उत्पन्न करके सारे संसार म नाना प्राणियों की सृष्टि
की है, उन्हीं त्वष्टा देव की आज तुम पुजा करो। तुम्हारे पास अन्न हे,
लुम विद्वान् हो और तुम्हारे समान दूसरा कोई यञ्च नहँ कर सकता।
१०. यप (यज्ञ में पशुओं के बांधने के काष्ठ), तुम स्वयं, यथासमय,
देवों के लिए अन्न और अन्यान्य होसीय द्रव्य लाकर विवेदित करो।
वनस्पति, शमिता नामक देव और अग्नि, मधू और घुत के साथ, होमीय
द्रव्य का आस्वादन कर।
£ lo कल
Tl ed il क
१३९८ [एन्य ्म्टष्यय
११. जन्म के साथ ही अग्नि मे बश्च-शिर्साण किया और देवों के
अग्रगामी दूत हुए। अग्नि स्वरूप होता अन््-पाठ फरें। यज्ञोपयोगी देव-
वाक्य उच्चारित हों। स्वाहा फे साय जो होमीय द्रव्य दिया जाता हैं,
उसका भक्षण देवता करे।
१११ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वैरूप अष्टादष्ट्र । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. स्तोताओ, तुम्हारी बुद्धि का उदय जैसे-जैसे होता हे, वैसे-वेसे
तुम लोग स्तोत्र-पाठ करो। सत्कर्सानुण्ठत्य करके इन्द्र को बुलाया जाय;
क्योंकि वीर इन्द्र स्तोत्र जानने पर स्तोताओं का प्यार करते हें।
२. जल का आधार (अन्तरिक्ष) धारण करनेवाले इन्द्र प्रकाशित
होते हँ । अल्पवयस्क गाय के गर्भ से उत्पन्न बृष जसे गायों के साथ मिलता
हे, बैसे ही इन्द्र सर्वव्यापी होते हुँ। विलक्षण कोलाहल के साथ इन्द्र प्रकट
होते हँ। थे बुइत्-बृहत् जलराशि बनाते हें।
३. इस स्तोत्र का वण इन्द्र ही जानते हुँ। थे जयशोल हैं।
उन्होंने सूर्य का मार्ग बना दिया हुँ। अविजल इन्द्र ने से को प्रकट
किया। वे गायों फे सस्थाधिकारी और स्वर्ण के प्रभु हुए। वे चिरन्तन
है। उनके विपक्ष में कोई नहीं जा सकता ।
४. अङ्चिरा की सन्ततियो ने जिस समय स्तोत्र किया, उस समय
हन्त्र मे, अपनी महिया से, विशाल मेघ का कार्य नष्ट किया। उन्होंने बहुल
अधिक जरू बनाया। उन्होंने सत्य-रूप द्युलोक में बल धारण किया।
५, एक ओर इन्द्र हैँ और दूसरी ओर थावापृथिवी हे--वोबों के
बराबर इन्द्र हैं। ये सारे सोगा यज्ञों की बातें जानते हैं। वे ताप नष्ट करते
हुँ। सूर्य फे द्वारा उन्होंने प्रकाण्ड आकाश को सुसख्जित विया हुँ। वे
धारण करने में पट् हैं। सानो खम्भ के हारा उन्होंने आकाश को ऊपर
धारण कर रघखा हे।
हिन्दी-ऋण्वेद १३९९
न्द्र, तुम बुत्रध्न हो--जज् से वू को मारा हे। जिस समय यज्ञ
विरोधी यूत्र बढ़ रहा था, उस समय वुद्ध॑ंय॑ तुमने वष्छ-हारा उसकी सारी
साया को नष्ट कर डाछा। बली इन्द्र, इसके अनन्तर तुम बहुत बल से
बली हुए।
७. जिस समय उषादेवियाँ सुर्य से मिलीं; उस सभय सूर्य-किरणों ने
नाना वर्णो की शोभा धारण की। अनन्तर, जिस समय, आकाश में नक्षत्र
दिखाई दिया, उस समय कोई भी मागंगामी सुर्य का कुछ देख नहीं
सका।
८. इन्द्र की आज्ञा से जो जल बढ्ने लगा था, बह् प्रथम जल बहुत दूर
गया था। जळ का अग्रभाग कहाँ है ? मस्तक कहा है ? जल, तुम्हारा
मध्य स्थान वा चरम सीमा कहाँ हे ?
९. इख), जिस समय वृत्रासुर जल को ग्रास कर रहा था, उस समय
तुमने जल का सोचन किया था। उसी समय जल वेग के साथ
सर्त कडा था । जिस समय इस ने अपनी इच्छा से जल को मुक्त किया
था, उस समय बह विशुद्ध जल स्थिर नहीं रह सका ।
१०. सारे जल मानो कामातुरा स्त्री के समान होकर और एकच
मिलकर समुद्र की ओर घे । शत्र-पुर-व्यसक और इश्र-जजेर-कर्सा इन्क्
सदा ही सारे जरो फे प्रभु हैं। इन्र, हमारी पृथिवी पर स्थित नाना यज्ञ-
सामग्री और खिराभ्यस्त अनेक प्रीतिप्रद स्तोत्र तुम्हारे पास जायं ।
११२ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विरूपगोत्रीय नमःप्रभेद्न । छन्द निष्टुप |)
१. इन्द, रोग प्रस्तुत हुआ है । जितना चाहो, पिथो । जो सोभ प्रातः
काल प्रस्तुत होता है, वह सबसे जागे तुम्हारे पाम के योग्य हु । बीर इच्च,
बजु-वध के छिए उत्साहु-्युषल होओ । हम मन्त्री के द्वारा तुम्हारे बीरत्व
की प्रशंसा करते हं । ६,
१४०० हिन्वी-त्रग्बेद
२. इन्द्र, तुम्हारा रथ मम से भी अविक शीघ्रगामी है। उसी रथ
पर चढ्कर सोमपान के लिए आओ । जिन घोड़ों की सहायता से तुम
आनम्द के साथ जाते हो, वे हरि मामक घोड़े शीघ्र दौड़ें ।
३. इन्द्र, हरित-वर्ण तेज के हारा और सुये की अपेक्षा भी श्रेष्ठतर
नाना शोभाओं के द्वारा अपने शरीर को विभूषित करी । हम बन्धुत्व के
साथ तुम्हें बुलाते हुँ । हमारे साथ बेठकर सोम-पान से प्रमत्त होओ ।
४. सोम-पान से मत्त होने पर जो तुम्हारी महिमा होती हें, उसे षे
शाजापशियी महीं धारण कर सकतीं । इन्द्र, अपने स्नेह-पात्र घोड़ों को
जोतकर सुस्वाढु यञ्ञ-सामग्री की ओर, यजमान के गृह में, आओ ।
५. इन्द्र, जिसका प्रतिदिन सोम-पान करके तुमने अत्यन्त बल दिखाते
हुए शन्न-वध किया हुँ, यही यजमान तुम्हारे लिए यथेष्ठ स्तोत्र प्रेरित कर
रहा हुँ । तुम्हारे सतोरंजन के लिए सोम प्रस्तुत किया गया हुँ ।
६. सौ यज्ञ करनेवाले इन्र, इस सोम-पात्र को तुस बराबर पाया
करते हो। इससे पियो । जिसे बेवता चाहते हैं, उसी मधु-लुल्य और
भत्तता-कारक सोम के पात्र को परिपूर्ण कर दिया गया है ।
७. इन्द्र, अञ्न संग्रह करके तुम्हें अनेक लोग, माना स्थानों में,
सोध-पान के लिए, निमन्त्रित करते हुँ । परन्तु हमारा प्रस्तुत किया गया
सोम तुम्हे सबसे मधुर हो--इसी में तुम्हारी रुचि उत्पन्न हो ।
८. इन्द्र, पुर्यकाल में सबसे आगे तुमने जो बीरत्व दिखाया था, उसकी
में प्रशंसा करता हूं। जल के लिए तुमने मेघ को फाड़ा था और स्तोता
के लिए गाय की प्राप्ति सुलभ कर दी थी।
९. बहुतों के अधिपति इन्द्र, स्तोताओं के बीच में बेठो। क्रिया-
कुशल व्यक्तियों में तुम्हें लोग सर्वापेक्षा बुद्धिमान् कहते हें। समीप वा
दूर में तुम्हारे अतिरिक्त कोई अनुष्ठान नहीं होता । धनी इन्र, हमारी
ऋचाओं को विस्तरत और नाना-झूप कर दो ।
१०. धनी इन्द्र, हम तुम्हारे याचक हु । हमें तेजस्वी कर दो। धनाधि-
पति और मित्र इन्द्र, यह जानो कि, हुम तुम्हारे बन्धु हु । युद्धकर्ता इन्द्र,
हिन्दी-ऋग्वेद १४०१
तुम्हारी शक्ति हौ यथार्थ हं । जहाँ धत-पराप्ति की कोई सम्भावना नह
हो, वहाँ भी तुम हमें धन-भागी करो ।
११३ सूक्त
(१० अनुवाक । देवता इन्द्र | ऋषि शैवरूप शतप्रभैदन |
छन्द जगती और त्रिष्टुप् |)
१. अन्यान्य देवों के साथ यावापूथिवी मनोयोग-पुर्वंक इन्द्र के बल
की रक्षा करें। जब कि, बह वीरता प्राप्त करते-करते अपनी उपयुक्त
महिमा को प्राप्त हुए, तब सोम-पान करते-करते अनेक कार्यों का सम्पा
दन करके वृद्धिगत हुए ।
२. विष्णु ने मधुर सोमलता--खण्ड को भेजकर इन्द्र की उस महिमा
की, उत्साह फे साथ, घोषणा की । धनी इन्द्र सहयोगी देवों के साथ
एकत्र होकर और वृश्र का वध करके सर्वश्रेष्ठ हुए ।
३. उग्रतेजा इन्द्र जिस समय तुम स्तुत की इच्छा से अस्त्र-शस्त्र
धारण करके, ठुद्धष वृत्र के साथ, युद्ध करने के लिए आगे बढ़े, उस समय
सारे मरुद्गण ने तुम्हारी महिमा बढ़ा दी और स्वयं भी वे वृद्धि को
प्राप्त हुए । |
४. जन्म के साथ ही इन्द्र ने शत्रु-दमत किया था। उन्होंने युद्ध का
विचार करके अपने पोरुष की वृद्धि की ओर ध्यान दिया । उन्होंने वृत्र
का छदन किया, मनुष्यों को छुड़ाया और उत्तम उद्योग करके विस्तृत
स्वर्गलोक को ऊपर उठा रक्खा ।
५. विजश्ञाल-विशाल सेनाओं की ओर इन्द्र एकाएक वौड़े। अपनी
बिशिष्ट महिमा से उन्होंने द्यावापृथिवी को वशीभूत किया । जो बज्न
दान परायण वरुण और भित्र के सुख का जनक है, इन्द्र ने उसी लोहमय
वज्त्र को वुद्धेषे रूप से धारण किया ।
६. इन्द्र नाना प्रकार के शब्द कर रहे थे और शत्रु-द्च कर रहे थे।
उनके बल-विक्रम की घोषणा करने के लिए जल निर्यत हुआ। वृत्र ने
१४०३
अन्धकार से घिरकर जळ को धारण कर रदखा था; परन्तु तीक्ष्ण तेजयाले
एन्द्र मे बल-पुर्वेक वृ को काट डाला।
७. आपस में होड़ करके इन्द्र और वुत्र प्रथम-प्रथम अपनी-अपनी
बीरता दिखाकर महाक्रोध के साथ युद्ध करने लम । वृत्र के विनाश के
अमम्दर घना अन्धकार विनष्ट हुआ। इन्र की महिमा ही एसी हे कि,
बीरों की नाम-गणना फे समय सबसे प्रथम इनका ही नाम लिया
जाता हें ।
८. इन्द्र, सोमरस और स्तोत्र के द्वारा देवों ने तुम्हारी संवद्धेमा की ।
इन्द्र ने दुद्ध॑ंष वृत्र का वध कर डारा। इससे शीघ्र ही रोगों को अघ्र-
प्राप्ति हुई । जैसे अग्नि अपनी शिखा के द्वारा जलाने योग्य वस्तु का
भक्षण करते है, बैसे ही लोग दाँतों से अश्न चबाने रूगे ।
९. स्तोत्ताओ, इख ने जो सखा के कार्य किये हैं, उनकी प्रशंसा, उत्त-
मोसम वाक्यों और बन्धुजनोखित छन्दों के द्वारा, करो । इन्द्र मे घुमि
और चमुरि नामक असुरों का वध किया हें और विश्वासी मन से दभीति
राजा की प्रार्थना सुनी हैं ।
१०. इन्त्र, मेचे जो स्तोत्र के समय में प्रचुर सम्पति और उत्तमो-
सम घोड़ों की अभिलाषा की थी, वह सब वो। में पाप को लाँघकर
कल्याण प्राप्त करं । हुम जो स्तोत्र बना रहे हुँ, उसे जानकर ध्यान दो।
११४ सूक्त
(दैवता विश्वदेव। ऋषि वैरूप साघ्र | छन्द त्रिष्टुप ओर जगती ।)
१. सूर्य ओर अग्नि नामक प्रदीप्त देवता चारों ओर जाफर त्रिभुयन-
घ्थापी हुए । भातरिइवा (अन्त रिक्ष-स्दित वायुदेव) मे उनकी प्रसचता प्राप्त
की । जिस समय देयों ने साझ-सन्त्र और सूर्य को प्राप्त किया, उस समथ
उन लोगों ने, त्रिभुवन की रक्षा के लिए आकाशीय जल की सृष्टि की ।
२. याशिक लोग यज्ञ के समय तीन नित्र वियों (अग्नि, सूर्य और
यायु) को उपासना करते छें। इसके अनन्तर यशस्वी अग्निदेयों का
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हिन्दी-ऋग्बेर १४०३
परिचय देवों से होता हँ । विद्ठान् लोग अग्नि आदि का मूल कारण
जानते हु । वे परस गोपनीय ब्रत में रहते हैं ।
२. एक युवती (यज्ञ-घेदी) हे। उसके चार कोने हुँ । उसकी मूर्ति
सुन्दर और (घृत के कारण) स्विग्ध है। बह उत्तमोत्तम वस्त्र (यज्ञ-
सामग्री) धारण करती हुँ। दो पक्षी (यजमान और पुरोहित) उसपर
बेठते हें । वहाँ देवता लोग अपना-अपना भाग पाते हँ ।
४. एक पक्षी (प्राण वायु) समुद्र (ब्रह्माण्ड) में पेठा । बह सारा
विश्व देखता हूँ । परिपक्व बुद्धि फे द्वारा मेंने उसको देखा है । वह
निकट-्यात्तिनी माता (वाक) का आस्वादन करता हे और माता भी
उसका आस्वादन करती हँ ।
५. पक्षी (परमात्मा) एक है; परन्तु कान्तदर्शी विद्वान् लोग उसकी
अनेक प्रकार से कल्पना करसे हँ । बे यज्ञ-काल में नाना प्रकार के छन्वों
का उच्चारण करते और बारह (उपांशु, अन्तर्या आदि) सोम-पात्र
स्थापित करते हे ।
६. पण्डित लोग चालीस प्रकार के सोम-पात्र स्थापित करके वा छन्द
उच्चारण करते हें और बारह प्रकार के छन्द कहते वा सोम-पात्र रखते
हैं। इस प्रकार यह बुदि-पुर्षक अनुष्ठान करके ऋक और साम के हारा
यश-रथ चलाते हें ।
७. इस यज्ञ (परमात्मा) की चोदह महिमायं (भुवन) हुँ। सात
होता आदि शस्त्र वाक्य के हारा यज्ञ-सम्पादन करते हें। यज्ञ-सार्ग में
उपस्थित होकर देवता लोग सोस-पाम करते हें। उस विइव-व्यापी
यज्ञ-माग की बात का कोन वर्णन करे ?
८. प्रह सहल उक्थ मन्त्र हे। द्यावापथिदी के समान ही उक्थ
भी बृहत् हैं। स्तोत्र की महिमा सहस्र प्रकार की हें । जैसे स्तोत्र असीम
है, यैसे ही वाष्य भी ।
९. कौन एसे पण्डित हैं, जो सारे छन्यों की बात जानते हें?
किसने मूल-वाक्य को समझा है ? कौन एसे प्रधान पुरुष हे, जो सातो
१४०४ हिन्दी-ऋणग्वैद
पुरोहितो के ऊपर अष्टम ही सके ? इन्द्र के हरित वर्ण घोड़ को किसने
देखा वा समझा हूं ?
१०. कुछ घोड़े पृथिवी की शेष सीमा तक विचरण करते हें और कुछ
श्थ की घुरा में ही जोते रहते हें । जिस समय सारथि रथ के ऊपर रहता
है, उस समय परिश्रम ढुर करने के लिए घोड़ों को उपयुक्त आहार दिया
जाता हु ।
११५ सूरः
(देवता अग्नि ! ऋषि वृष्टिहञ्य-पुत्र उपहृत । छन्द जगती आदि |)
१. इन नवीन बालक अग्नि का कया ही अद्भुत प्रभाव हूं ! दूध पीने
के लिए यह बालक माता-पिता के पास नहीं जाता । इसके पान के लिए
स्तन-दुगध नहीं हुँ; परन्तु यहु बालक प्रादुर्भूत हुआ हें । जन्म के साथ
ही इस बालक ने कठिन वृत-कार्य का भार ग्रहण करके उसका निर्वाह
किया ।
२. जो नाना कार्य करनेवाले और बाता हें, उन्हीं अग्नि का आधान
किया गया । ये ज्योतिरूप दाँत से बल लोगों का भक्षण करते हें ।
जुहू नामक उच्चपात्र में इन्द्र फो यज्ञ-भाग दिया गथा । जसे हृष्ट-पुष्ट
और बली वष घास खाता है, बेसे ही ये यज्ञ-भाग का भक्षण करते हूँ ।
३. पक्षी के समान अग्नि वृक्ष (अरणि) का आश्रय करते हे। ये
प्रदीप्त अञ्च के दाता हे। वे शब्द करते हुए बन को जळते हें, जल
धारण करते हें, मुख के द्वारा हुव्य का वहन करते हें ओर आलोक के
द्वारा महान् होते हें । उनका कायं महान् हें। अपने मागं को वे रक्त-
बर्ण कर देते हैं उन अग्नि की, स्तोताओ, स्तुति करो ।
४. अजर अग्नि, जिस समय तुम दाह करते हो, उस समय वायु
आकर तुम्हारी चारों ओर ठहुरते हें और अविचलित पुरोहित रोग, यज्ञ
के अवसर पर, स्तुति करते हुए, तुम्हें घरकर खड़े हो जाते हें । उस
समय तुस तीन मूत्तियाँ (आह्कनीय आदि) धारण करते हो, बल
_ हिन्दी-ऋण्वेद १४० ५
प्रकाश करते हो, इधर-उधर जाते हो। पुरोहित लोग, योद्धाओं के
समान, कोलाहल करने लगते हँ ।
५. वे अग्नि ही सबसे अधिक शब्द करनेवाले हैँ॥ जो सशब्द स्तोत्र
करते हैं, उनके तुम सखा हो । वे प्रभु हे और समीपस्थ शत्रु का विनाश
करनेवाले हैं। अग्नि स्तोताओं के और विद्वानों के रक्षक हैं। बे उन्हें
ओर हमें आश्रय देते हें ।
` ६. शोभन पितावाले अग्नि, तुम्हारे समान अञ्चवाला कोई भी नहीं
है । तुम बली और सर्वेश्रेष्ठ हो तथा विपत्ति के समय धवुष धारण करके
रक्षा करते हो। उन ज्ञानी अग्नि को, उत्साह के साथ, यज्ञ-सामग्री दो
और शीघ्र स्तुति करने को प्रस्तुत होओ ।
७. ज्ञाता और कार्य-कर्ता मनुष्य अग्नि की स्तुति करते हुए उन्हे
सम्पत्ति और बल पुत्र कहते हे । यज्ञातुष्ठान करनेवाले बन्धु के समान
झग्नि-कृपा में तृप्ति प्राप्त करते हें। वे ज्योतिर्मय ग्रह, नक्षत्र आदि के
समाम अपने तेज से शत्नु-मनुष्यों को हराते हें ।
८. बल के पुत्र और शक्तिशाली अग्नि, मेरा नाम “उपस्तुत” हे ॥
मेरा वर्षक स्तोत्र तुम्हारी स्तुति करता है । हम तुम्हारी स्तुति करते हैं,
तुम्हारी दया से हम दीर्घायु हों और सन्तान प्राप्त करें।
९. वुष्टिहव्य नामक ऋषि के पुत्र “उपस्तुत” आदि ने तुम्हारी स्तुति
की । उनकी ओर स्तोता विद्वानों की रक्षा करो । उन्होंने वषदू” मन्त्र
और “नमोनमः” वाक्य से तुम्हारी स्तुति की ॥
१९६ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि स्थूल-पुत्र अग्निषुत। छन्द त्रिष्टुप्)
१, बलियो में अग्रगण्य इन्र, प्रचुर बल की प्राप्ति के लिए और
वत्र के वघ के लिए सोम-पान करो । अन्न ओर धन के लिए तुम्हें बुलाया
जाता हँ । सोम-पान करो । मधुतुल्य सोम का पान करो ओर तृप्त
होकर जल सरसःओ ।
१४०६ हिन्दी-त्रटग्वेद
२. दुख, यह सोम प्रस्तुत हे । इसके साथ खाद्य द्रव्य हें। सोम
क्षरित हो रहाहँ । इसके सार भाग का पान करो। कल्याण दो, सन ही
सन आनन्द प्राप्त करो तथा घन और सौभाग्य देन के लिए अग्रसर होओ।
३. इख्र, स्वर्गीय सोम तुम्ह मत करे । पृथिवीस्थ मनुष्यों के मध्य
जो प्रस्तुत हुआ हे, वह भी तुम्हें मत करे। जिससे तुम धन दो, वही
सोम मत्त करे । जिसके द्वारा शत्रु-वध करते हो, यह भी मत्त करे।
४. इन्द्र इस लोक और परछोक में दृढ़, सर्वेत्र-गन्ता और वृष्टिदाता
हैं। हमने सोम-लप आहारीय द्रव्य का चारों ओर सिञ्चन किया हु।
दोनों घोड़ों फे द्वारा इन्द्र उसके पास जायं। शत्र-घातक इन्द्र, मध्-
तुल्य सोम गोचर्म फे ऊपर छाला हुआ और परिपुर्ण हें । वष फे समान
बल का प्रकाश करके यज्ञ फे शत्रुओं का विनाश करो।
५. इन्द्र, तीक्ष्ण अस्त्रों को दिखाते हुए राक्षसों को भूमिशायी करो।
तुम्हारी मूक्ति भयंकर है। तुम्हें बल और उत्साह बढ़ानेवाला सोम हम
देते हेँ। शत्रुओं के सामने जाकर कोलाहलमय युद्ध के बीच उन्हें काट
डालो ।
६. प्रभु इन्द्र, अन्न का बिस्तार करो, शन्नुओ के ऊपर अपना अभि-
रूषित प्रभाव और धनुष फँलाओ। हमारे अनुकूल होकर बढ़ो। शत्रुओं
से पराजय न प्राप्त करके अपने बळ से शरीर को बढ़ाओ।
७. धनी इन्द्र, इस यञ्च-सासग्री को तुम्हारे लिए हम आपल करते
हैं। सस्राट इन्द्र, क्रोध न करके इसे ग्रहण करो। धनी इन्द्र, सोम प्रस्तुत
हुआ हे। तुम्हारे लिए खाद्य पकाया गया हें। यह सारा द्रव्य तुम्हारे
पास जाता हे। पियो और खाओ।
८. इन्द्र, यह सारी यज्ञ-सामग्री तुम्हारे पास जाती हे। जो आहारीय
व्रव्य पकाया गया हे और जो सोम हे, उन दोनों को ही खाओ । अन्न
लेकर हम तुम्हें भोजन के लिए तिमन्द्रित करते हूँ। यजमानों के मन की
वासनायं सफल हों।
हिन्दी-ऋग्वेव १४०७
९. अग्नि ओर इसर के लिए सुरचित स्तुति मैं प्रेरित करता हूँ।
जसे नदी में नाथ भेजी जाती है, बैसे ही पुजनीय मन्त्रों से मैने स्तुति
प्रेरित की। पुरोहितों के समान देवता लोग परिदद्या करते हुँ। वे हमारे
शत्रुओं का विनाश करने के लिए हमें धव देते हूँ ॥
११७ सूक्त
(देवता दान । ऋषि आङ्गिरस मिल्नु । छन्द जगती और त्रिष्टुप् |
१. देवों ने क्षुधा (भूख) की जो सृष्टि की है, बह प्राण-माशिनी है ।
परन्तु आहार करने पर भी तो प्राण को मृत्यु से छुटी नहीं मिलती। तो
भी दाता फा धन कम नहीं होता । अदाता को कोई सुखी महीं कर
सकता।
२. जिस समय कोई भूखा मनुष्य भीख मांगने को उपस्थित होता
है, अन्न की याचना करता है, उस समय जो अप्पाला होकर भी हृदय
को निष्ठुर रखता और सामने ही भोजन करता है, उसे कोई घुखदाता
नहीं भिल सकता ।
३. अञ्च की इच्छा से किसी दुर्बल व्यदित के शिक्षा माँगने पर जो
अन्न-दान करता हु, बही दाता हंत उसे सम्पुर्ण यज्ञ-फल मिलता है और
बहु शत्रुओं में भी सखा पा लेता हे ।
४. अपना साथी पास आता हैं और मित्र होकर भी जो व्यक्ति उसे
अन्नदान नहीं करता, वह मित्र कहाने योग्य नहीं ह। उसके पास से
चला जाना ही उचित है। उसका गृह गृह ही वहीं है। उस समय किसी
घनी दाता के यहाँ जाना ही उचित हे।
५. याचक को अवश्य धन देना चाहिए। दाता को अत्यन्त लम्बा
मागं (पुष्य-पथ) भिलला हँ। जैसे रथ-चछ नीचे-ऊपर घूमता हुं, वेसे
ही घन भो कभी किसी के पास रहता हं और कभी दूसरे के पाइ चला
जाता हुँ--कभी एक स्याव पर स्थिर नहीं रहता।
१४०८ हिन्दी-ऋणग्वेद
६. जिसका सव उदार नहीं है, उसका भोजन करना वथा है। उसका
भौजन उसकी मृत्यु के समान हुँ। जो न तो देवता को देता हुँ और न
भित्र को देता है और स्वयं भोजन करता हूँ, वह केवर पाप ही
छाता हुं।
७. कृषि-कार्य करके हल अन्न प्रस्तुत करता हे--वह अपने माग से
आकर अपने कर्म फे हार! शस्य (अन्न) उत्पादन करता हँ । जेसे विद्वान्
पुरोहित मूर्ख से श्रेष्ठ हे, बैसे ही दाता सदा अदाता के ऊपर रहता हुँ॥
८. जिसके पास एक अंश सम्पत्ति ह, वह दो अंश सम्पत्ति के अधि-
कारी की याचना करता है, जिसके पास दो अंश हें, वह तीनवाले के
पास जाता हें और जिसे चार अंश प्राप्त हे, वह उससे अधिकवाले के
पास जाता हुँ । इसी प्रकार श्रेणी बंधी हुई हु। अल्प धनी अधिक धनी
की उपासना करता हुँ। .
९. हम लोगों के दोनों हाथ समान रूपवाले हूँ; परन्तु धारण
करने की शक्ति समान नहीं हें। एक माता से उत्पन्न होकर दो गायें
समान दुग्ध नहीं देतीं॥ दो (यमज) आता होने पर भी उनका पराक्रम
विभिन्न प्रकार का होता हें । एक बंश की सन्तान होकर भी दो व्यक्ति
समान दाता नहीं होते।
११८ सूक्त
(देवता राक्तसवध-कत्ती अग्नि । ऋषि आमडीयगोत्रज उर क्षय ।
छुन्द गायत्री |)
१. पवित्र ब्रतवाले अग्नि, मनुष्यों के बीच तुम अपने स्थान में प्रदीप्त
होओ। शत्रु का वध करो।
२. स्रक् नाम का यज्ञ-पात्र ठुस्हारे लिए उठाया गया हे । तुम्हें उत्तम
आहुति दी गई हं। तुम उत्तम घत फे प्रति रुचि करो।
३. अग्नि को बुलाया गया हँ। वे वाक्य के द्वारा स्तुत्य हँ। बे
प्रदीप्त होते हें। सभी देवों के पहले उन्हें झुक के द्वारा घृत-पुकत किया
जाता ह
४६३ 4102 क्स्वेष १४०९
अग्नि में आहुति दी गई। उनकी देह घृतमय हुई। बे दीप्तिमान्
और समृद्ध प्रकाश से युक्त हुए। वे घुताक्त हुए।
५. अग्नि, तुम देवों के पास हवि ले जाया करते हो। स्तोत्र करने पर
सुम प्रज्वलित होते हो। तुम्हें मनुष्य बुझाते ह।
६. सरण-शील ममष्यो, अग्नि अमर, दुद्धंष और गृह के स्वासी
घृत-द्वारा उनकी पुजा करो।
७. अग्नि, प्रचण्ड तेज के द्वारा तुम राक्षसों को जलाभो। यज्ञ के
रक्षक होकर दीप्ति धारण करो।
८. अग्नि, अपने स्वभाव-सिद्ध तेजं के दवारा राक्षसियों को जलाओ।
अपने प्रशस्त स्थानों पर रहकर दीप्ति धारण करो।
९, मनष्पों में तुम सर्व्ेष्ठ यज्ञ-कर्ता हो। तुम्हारा निवात-स्थान
अद्भुत हे । तुभ हुव्य-वाहक हो ! तुम्हें स्तुति के साथ प्रज्यलित किया
जाता हें ।
११९ सूक्त
(देवता और ऋष लवरुपी इन्द्र | छन्द गायत्री |)
१. मेरी (इन्द्र की) इच्छा हूँ कि, में गौ, अश्व आदि का दान
करूें। मेने कई बार सोघ-पान किया हैं!
२. जैसे दाय वक्ष को कंपाता और ऊपर उठाता है, वैसे ही सोम-
रस, पिणे जाये पर, मुझे ऊपर उठाता है । मेंने कई बार सोम पिया हुँ ।
, अते ज्ञीघ्रगामी अश्व रथ को ऊपर उठाये रखता हुँ, बैसे ही
सोम ने, पिये जाने पर, मुझे ऊपर उठा रक्खा है। मैने अनेक बार
सोम-पान किया है।
४. जैसे गाय “हम्बा” कहती हुई बछड के प्रति दौइती है, बेसे ही
मेरी ओर स्तुति जाती है। मेंने अनेक बार सोम पिया हे।
, जैसे स्वष्टा रथ के ऊपर के भाग (सारथि-स्थान) को बनाते
है, वैसे ही में भी स्तोता के मन में स्तोत्र का उदय कर देता हूँ । सन
अनेक बार सोम पिया हूँ।
फा० ८९
४ ७०० 3] तल्लाको
23०६ ६०-०८ ४ Uy
दः पञ्च जन (चार वणे और निषाद) मेरी दृष्टि से ओझल नहीं
हो सकते। मेने अनेक बार सोम-पाम किया हें।
७, टावःयूथिवी--दोरसें मेरे एक पाइव के समान भी नहीं हैं। में
अनेक बार सोम पिया ह।
८. मेरी महिमा स्वग और बिस्तृत पृथिवी को लांघती हूं। मेने
अनेक बार सोम पिया हं।
९. मेरी इतनी शक्ति हें कि, यदि कहो, तो इस धरित्री को एक
स्थान से दूसरे स्थान मे ले जाकर रख सकता हूं। मेने अनेक बार सोम“
पान किया हे।
१०. इस पृथिवी को में जला सकता हूँ। जिस स्थान को कहो, में
उसे बिध्वस्त कर दूं। सेने अनेक बार सोम-पान किया हें।
११. मेरा एक पाइने आकाश में हें और एक पाइ पृथिवी पर हूँ ॥
अनेक बार मेने सोम-पान किया हैं।
१२. में महान् से भी महान् हूँ । में आकाश की ओर हूं। मेने अनेक
बार सोम-पाच किया हें।
१३. मेरी स्तुति की जाती हे, में देवों के पास हव्य ले जाता हूं और
स्वयं हव्य ग्रहण करके चला जाता हूँ । मेंने अनेक बार सोम-पान किया हे ।
ष्ठ अध्याय समाप्त ॥
00१
१२० सूक्त
(सप्तम अध्याय । देवता इन्द्र 1 । ऋषि अथवो के पुत्र बृहद्दिव ।
छुन्द् त्रिष्टुप्।)
१. जिनसे ज्योतिर्मय सूर्य उत्पन्न हुए हुं, वे ही सबसे श्रेष्ठ हँ---
उनके पहले कोई नहीं था। जन्म के साथ हो वे सत्रु-विवावा करते हुँ॥
सभी देवता उनका अभिनन्दन करते हूं ।
२. अतीव तेजस्वी और शत्रु-हुन्ता इन, विशिष्ट बल से युक्त होकर,
न्द
ie
दासों के हृदय सं भय उत्पन्न कर देते है। इन्द्र, सारे प्राणियों को,
हिन्दी-ऋग्वेद १४११
तुम सोम-पाल के आनन्द से, सुखी करते और उनका शोधन करते हो।
तब वे तुम्हारी स्तुति करते हें ।
३. जिस समथ देवों को तृप्त करनेवाले यजमान विवाह करते और
(जिस समय) सन्तान उत्पन्न करते हुँ, उस समय वे तुम्हारे ऊपर सारा
यज्ञ-कार्य समाप्त करते हुँ। इन्द्र, जो सुस्वादु है, उसमे उससे भी अधिक
पुस्थाबु यस्तु तुस मिला दो। इस अद्भूत सधु के साथ ओर मधु मिला
दो---अर्यात् सौभाग्य के ऊपर सोभाग्य कर दो ।
४. इन्र, जिस समय तुम सोमपान से सस होकर धन जीतते हो, उस
समय स्तोता लोग भी, साथ ही साथ, सोम-पान से मद-मत्त होते हैं।
अजेय इन्द्र, अटल तेज दिखाओ । दुःसाहसिक राक्षस तुम्हें पराजित न
कर सकें।
५. इन्द्र, तुम्हारी सहायता से हम समर-भूमि में शत्रु-जय करते हैं।
से युद्ध करने योग्य अनेक शत्रु औं का साक्षात् करता हूँ। स्तुति करते
हुए तुम्हारे अस्त्र-शस्त्र को में उत्साहित करता हुँ। सन्त्रो के दवारा में
तुम्हारे तेज को तीक्ष्ण कर देता हूं ।
६ स्तुत्य, नाना मूतियोवाले, विलक्षण दीप्ति से युवत, अमुपस प्रभु
ओर श्रेष्ठ आत्मीय इन्द्र की में स्तुति करता हूँ । वे अपनी शक्ति से वृत्र,
नमुच्चि, कुयव आदि सात दानवों का विनाश करनेवाले ओर अनेक असुरों
फो हरानेवाले हूँ।
७, इन्र, तुम जिस गृह में हुवीकप अन्न से तृप्त होते हो, उसमें दिव्य
और पाथिव घन देसे हो। जिस समय सारे भूतों को बनानेवाले धौ और
पृथिवी चञ्चल होती है, उस समय तुम्हीं उन्हें सुस्थिर करते हो। उस
अवसर पर तुम्हें अनेक कार्य करने पड़ते हूं।
८, ऋषि-अष्ठ और स्वर्गाभिलाषी “बुहह्िव” इसर फे लिए यह सब
प्रसक्षता-फारक वेद-मन्त्र पढ़ रहे हुँ। बह प्रदीप्त इन्द्र विशाल परवत को
हुटाते ओर शत्रु के सारे द्वारों को खोलते हुँ।
९. अथर्वा के पुत्र और भहाबुद्धि बुहृद्विव ने, इन्द्र के लिए, अपनी स्तुति
१४१२ हिन्वी-नऋहग्वेद
का पाठ किया। पृथिवीस्थ निर्मल नदियाँ जल बहाती और अभ के द्वारा
रोगों को कल्याण-वृद्धि करती ह।
(देवता “क” नामवाले प्रजापति । ऋषि दजारति-द्रपु हिरण्यगर्भं ।
छन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. सबसे पहले केवल परमात्मा वा हिरण्यगर्भ थे। उत्पन्न होने पर
वे सारे प्राणियों के अद्वितीय अधीइवर थे। उन्होंने इस पृथियी और
आकाश को अपने-अपने स्थानों में स्थापित किया। उन “क” नामवाले
प्रजापति देवता की हम हवि के द्वारा पुजा करेंगे अथवा हम हृव्य के द्वारा
किन देवता की पुजा करं?
२. जिन प्रजापति ने जीवात्मा को दिया हुँ, बल दिया हे, जिनकी
आज्ञा सारे देवता मानते हे, जिनकी छाया अमृत-छूपिणी हैँ और जिसके
वश में मृत्यु हे, उन “क” नासवाले आदि ।
३. जो अपनी अहिमा से दर्शनेखिय और गतिशक्तिवाले जीवों के
अद्वितीय राजा हुए हँ ओर जो इन द्विपदों और चतुष्पवों के प्रभु हुँ,
उन क” नासवाले आदि।
४. जिनकी महिमा से ये सब हिमाच्छन्न पर्वत उत्पन्न हुए हें, जिनकी
सृष्टि यह ससागरा घरित्री कही जाली है और जिनकी भजायें ये सारी
दिशाएं हु, उन “क” नाम आदि।
५. जिन्होंने इस उन्नत आकाश और पृथियी को अपने-अपने स्थानों
पर दृढ़ रूप से स्थापित किया है, जिन्होंने स्वगं और आदित्य को रोक
रकखा हैँ ओर जो अन्तरिक्ष में जळ फे निर्भाता क” नाम आदि।
६, जिनके द्वारा यौ ओर पृथिवी, शब्दायमान होकर, स्तम्भित ओर
उल्लसित हुए थे और वीप्तिक्षील थो ओर पूथिबी ने जिन्हें महिमान्वित
समझा था तथा जिनके आश्रय से सूर्य उगते और प्रकाश”करते हें, उन:
“छ” ताम आवि।
७. प्रचुर जल सारे भुवन को आउछत्न किये हुए था? जल ने गर्भ
हिन्दी-क्रश्बैद १४१३
धारण करके अस्मि वा आकाश आदि सबको उत्पन्न किया। इससे देवों
के प्राण वायु उत्पन्न हुए उत “क पास आदि।
८. बल घारण करके जिस समय जल ने अग्नि को उत्पन्न किया, उस
समय जिन्होंने अपनी महिमा से उस जल के छपर चारों ओर निरीक्षण
किया तथा जो देबों में अद्वितीय देवता हुए, उन “क” तास आदि।
९. जो पृथिवी कै जन्मदाता हें, जिनकी घारण-क्षमता सत्य है,
जिन्होंने आकाश को जन्म दिया और जिन्होंने आनन्द-वर््धक तथा प्रचुर
परिमाण में जल उत्पन्न किया, वे हुमें नहीं मारें। उन क” नाम आदि ।
१०. प्रजापति, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई इन समस्त उत्पन्न वस्तुओं
को अधीन करके नहीं रख सकता। जिस अभिलाषा से हम तुम्हारा हवन
करंले हे, यह हमें सिझे। हुम धमाधिपति हों।
१२२ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि वसिष्ठ-पुत्र चित्रमहा। छन्द जगती
शौर त्रिष्ठुपू ।)
१. अग्नि का सैज विचित्र हुँ। थे सूर्य के समान हैं। वे रमणीय,
सुखकर और प्रेम-पात्र अतिथि के समान हुँ। उनकी में स्तुति करता हूँ।
जो अग्नि दूध के द्वारा संसार को धारण करते और क्लेश को दूर करते
है, ये गौ और उत्तम बल देते है। वे होता और धृहपति हेँ।
२. अग्नि, तुम सन्तुष्ट होकर मेरे स्तोत्र के प्रति रुचि करो।
उत्तम कर्म करनेवाले अग्नि जो कुछ जानने योग्य है, बह सब तुम जानते
हो। घृत की आहुति पाकर तुम स्तोता को साम-गान के लिए कहो।
तुम्हारा कार्य देखने के अनन्तर देवता लोग अपनए-अपमा कार्य करते हूँ।
३. अग्नि, तुम अमर हो। तुम सर्वत्र जाते हो। उत्तम कार्यकर्ता
दाता को दान करो। पुजा ग्रहण करो। यज्ञ-काष्ठ के द्वारा जो तुम्हारी
संवर्द्धता करता है, उसके पास उत्तमोत्तम सम्पत्ति और सन्तान ले जाओ।
४. याज्ञिक सामग्री से युक्त यजमान सात अइवों वा पृथिव्यादि लोकों
के स्वामी अग्नि की स्तुति करते हुँ। अग्नि यज्ञ के केतु और सर्वश्रेष्ठ
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पुरोहित हैँ। वे धृवाहुति प्राप्त करके और कामना सुनकर असिलषित
फल देते हैं और दाता को उत्तम बल देते ह।
५. अग्नि, तुम सर्वश्रेष्ठ और अग्रगण्य दुत 811 असरता प्राप्त करने
के लिए तुम बुलाय जाते हो। तुम आनग्ददाता हो। दाता के गृह में मरद्-
गण तुम्हें सुशोभित करते हैं। भार्गव लोग, स्तुति फे द्वारा, तुम्हारी
उज्ज्यलता बढ़ाते हंत
६. अग्नि, तुम्हरा कर्म अद्भुत हुँ। जो यजमान यज्ञान॒ष्ठान में रत
रहता हुँ, उसके लिए तुम यश-रूपिणी, वथेष्ट-दुशशदात्री और विइव-
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पालिका गाय से यज्ञ-फल दूह डालो। घृताहुति प्राप्त करके तुम पृथिवी
आदि तीनों स्थायों को प्रकाशलय करते हो। तुम यश्ञ-गृह में सत्र हो।
सर्वत्र जाते हो । सुकृती का जो आवरण हे, वह तुममें दिखाई वेता है।
७. उषा का समय होते ही यजमान लोग तुम्हें दूत-स्वरूप समझकर
यज्ञ करते हें। अग्नि देवता लोग भी तुम्हें, घत के हारा, प्रदीप्त करके
पुजा करने के लिए संवद्धिव करते हें।
८. अग्नि, यज्ञो में वसिष्ट-पुत्र अनुष्ठान प्रारम्भ करके और तुम्हें
अञ्न-युक्त करके बुलाने लगे। यजमानों फे घरों में प्रभूत धन रक्खो।
तुम लोग हमें सदा कल्याण के द्वारा बचाओ।
१२३ सूक्त
(देवता वेन ऋषि भागव वेन। छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. वेन नामक देवता ज्योति के हारा परिवेष्टित हें। वे जल-
निर्माता आकाश के मध्य में सूर्थ-किरणों के सन्तान-स्वहष जर को
पृथिवी पर गिराते हें। जिस समय सूर्य के साथ जल का पिरम होता हैं,
उस समय बुढिभान् स्तोता लोग उन वेन देवता फो, बालक फे रसान
नाना मीठे बचमों से, सन्तुष्ट करते हैं।
२. वेन अन्तरिक्ष से जलू-साला प्रेरित करते हैं। आकाश में उज्ज्यल
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मूत्ति वेन का पृष्ठदेश दिखाई दिया। जल के उन्नत स्थान आकाश में
हिन्दी-ऋण्वेद १४१५
देन दीप्ति पाते हेँ। उनके पारषदो ने सबके उत्पत्ति-स्थान आकाश को
प्रतिध्वनित किया।
३. वेन के साथ जल आकाश में रहता है। बह वत्स-रूपी विद्यत की
माता हु। वह अपन सहवासी वेन के साथ शब्द करने लगा। जल के
उत्पत्ति-स्थान आकाश भें सधु-तुल्य वृष्टि-जल का शब्द उत्पन्न होकर
वेन की संवद्धवा करने लगा।
४. बुद्धिमान् स्तोताओं न प्रकाण्ड महिष के ससान देन का शब्द
सुना। इससे उन लोगों ने समझकर उनके रूप की कल्पना की। उन्होंने
वेन का यजन करके, नदी के समान, प्रचुर जल प्राप्त किया। गन्धदं-
रूपी वेन जल के प्रभु हुं।
५. विद्युत् एक अप्सरा हुँ और वेन उसके पति हैं। विद्युत् ने वेन
फो देखकर, सन्द मुस्कान करते हुए, उनका आलिङ्गन किया। बेन प्रेमी
नायक के समान प्रेयसी विद्युत् की रति-कामना पूर्ण करके सुवर्णमय पक्ष
या मेघ में सो गये।
९. वेन, तुम स्वर्ग में उड़ने वाले पक्षी के समान हो । तुम्हारे दोनों पक्ष
सुवर्णमय ह। तुम सर्पले द-शक वरुण के हूत हो। तुम संसार के
भरण पोषण-फारी पक्षी फे समान हो। तुम्हारा सब दर्शन करते हैं और
अन्तःकारण में तुम्हारे प्रति प्रीति धारण करते हैँ।
७. वे गन्धवे-रूपी स्वर्ग के उन्नत प्रदेश में, उज्चत भाव से, रहते
हँ । ये यारों ओर विचित्र अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए हँ। वे अपनी अत्यन्त
सुन्दर मसि का आच्छादन किये हुए हें। अन्तर्हित होकर वे अभिलषित
बृष्टि-वारि उत्पन्न करते ह्।
८. पेन जलवाले हैं। चे अपने कर्म के साघन-काल सें गुध के
समान दूरदर्शक चक्षु के द्वारा देखते हुए अन्तरिक्ष की ओर जाते हँ। बे
शुभ्र-यर्ण आलोक के हारा प्रदीप्त होते हें। प्रदीप्त होकर तृतीय लोक
आकाश में ऊपरी भाग से सरथ-लोक-वाडिछस जल की सृष्टि करते हँ।
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१४१६ TOT
(देवता और ऋषि अग्मि आदि । छन्द त्रिष्टप, जशती
१. अग्नि, हमारे इस यज्ञ के ऋत्विक, यजमान आदि पाँच व्यक्ति
नियामक वा अध्यक्ष हुँ। इसका अनुष्ठान तीन प्रकार (सवन-त्रय) से
होता हे। इसके अनुष्ठाता होता आदि सात हुँ। इस यज्ञ की ओर
आओ । तुम्हीं हमारे हविर्वाहक और अग्रगासी दूत हो ।
२. (अग्नि का कथन )--देवतः मेरी प्रार्थना करते हैं; इसलिए मैं
दीप्तिहीन ओर अव्यक्त अवस्था से वीप्तिवाली अवस्था को प्राप्त करके,
चारों ओर निरीक्षण करते हुए, अमरता पाता हूं । जिस समय यज्ञ निरु
पप्रय के साथ सम्पन्न होता हे उस समय में अदृष्ट होता और यज्ञ को
छोड़ देता हूं । चिर सखा और उत्पत्ति-स्थान अरणि में चला जाता हूं ।
३. पृथिवी के अतिरिक्त जो आकाश गसन-मार्ण हँ, उसके अतिथि
सूये की वर्षक गति के अनुसार में भिन्न-भिन्न ऋतुओं में पश्चानुष्ठान
करता हूँ । बली देवता पितु-रूप हुँ । उनके सुख के लिए में स्तुति करता हूँ।
यज्ञ के अयोग्य और अपवित्र स्थान से में यज्ञ के उपयुक्त स्थान में जाता हूं ।
४. इस यज्ञ-स्थान में मेने अनेक वर्ष बिताये हें। यहाँ इन्ख्र का वरण
करते हुए अपने पिता अरणि से निकलता हूँ । मेरा अदर्शन होने पर सोम,
वर्ण आदि का पतन हो जाता हें और राष्ट्र-विष्लव हो जाता हं । उस
समय आकर में रक्षा करता हूं ।
५. सेरे आते ही असुर लोग असमर्थ हो गये । वरुण, तुम भी मेरी
प्राथना करो । परमात्मन्, सत्य से मिथ्या को अलग करके मेरे राज्य
का आधिपत्य ग्रहण करो ।
६- (अग्नि वा वरुण की उक्ति) --सोम, यह देखो, स्वग हँ । यह
अत्यन्त रमणीय था । यह प्रकाश देखो । यह विस्तृत आकाश हें । सोम,
प्रकट होओ । वृत्र का बध किया जाय । तुम होमीय द्रव्य हो । अन्यान्य
हृवनीय द्रव्यों के द्वारा हम तुम्हारी पुजा करते हें ।
हिन्दी-क्रग्वेद १४१७
७. ऋनन््तदर्शों सित्रदेव ने क्रिपा-कौशल के हारा यलोक में अपने तेज
को संलग्न किया । वरुण-देव ने थोड़े ही यत्व से मेघ से जल को निकाला ॥
सारे जल नदियाँ बनकर संसार का मंगल करते हुँ। बे सब निर्मल
नदियाँ, वरुण की पत्नी के समान, वरुण का श्र तेज धारण करती हे ।
८. सब जलदेवता वरुण का सर्वश्रेष्ठ तेज़ प्राप्त करते है। उन्हीं
के समान वे होमीय द्रव्य पाकर आनन्दित होते हैं। अपनी पत्नी के
समान वरुण उनके पास जाते हे। जेसे प्रजा भय पाकर राजा को आशय
करती है, वैसे ही जलदेव, भय के कारण, घरण का आश्रय करके वृत्र
के पास से भागते हें ।
९. उन सब भीत और दिव्य जलदेव के साथी होकर जो उनकी
हितेषिता करते हैं, उन्हें “हंस” बा सुर्य वा इन्द्र कहा जाता है। दे
स्तुत्य हँ--वे जल के पीछे-पीछे जाते हुँ। विद्वान लोग बुद्धि-बल खे
उन्हें इन्द्र कहकर स्थिर किये हुए हे ।
१२५ सूक्त
(देवता परमात्मा । ऋषि अस्थ्रण की पुत्री वाक । छन्द त्रिष्टुप्
और जगती |)
( वाग्देवी की उवित )--में रटरों और वसुओं के साथ विचरण करती
हूँ । मं आदित्यों और देवों के साथ रहती हुँ । में मित्र और वरुण को
धारण करती हूँ । मं इन्द्र, अग्नि और अरिवद का अवलम्बन करती हूं ।
२. जो सोम प्रस्तर से पीसे जाकर उत्पन्न होते है, उन्हें में ही धारण
करती हूं । में त्वष्टा, पूषा ओर भग को धारण करती हूं । जो यजमान
यज्ञ-सामग्री का आयोजन करके ओर सोमरस प्रस्तुत करके देवों को भली
ति सन्तुष्ट करता ह, उसे म ही धन देती हूँ ।
३. मं राज्य की अधीइवरी हूँ ओर धन देनेवाली हूँ । में ज्ञानवती
हू और यज्ञोपथोगी वस्तुओं में श्रेष्ठ हूँ । देवों ने मुझे नाना स्थानों में रक्खा
हु। मेरा आश्रय-स्थान विशाल हूँ। में सब प्राणियों में आविष्ट हूँ ।
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i on र् ॥ 4 ih रप ॥१ ई ॥ ve है | द पू
४. जो प्राण धारण करता, देखता, सुनता और अझ्न-भोग करता
हुँ, वह मेरी सहायता से ही यह सख कार्य करता है । जो मुझे नहीं मानते,
बे क्षीण हो जते हैं। विश, सुनो । जो में कहती हूँ, बह थद्धेय हे।
५. देवता और मनुष्य जिसकी शरण में जाते है, उसको में ही उप-
दहा देती हूँ । से जिसे चाह, उसे बली, स्तोता, ऋषि अथवा बुद्धिमान
कर सकती हूं ॥
६. जिस समय इन्त्र स्तोतर-प्रोही शत्रु का वघ करने को उद्यत होते
हैं, उस समय उनके धनुष का विस्तार करती हूँ । मनुष्य के लिए में ही
युद्ध करती हूं । में द्यावापृथिवी में व्याप्त हूँ ।
७. में पिता हूँ । मेंबे आकाश को उत्पन्न किया हें । वह आकाश इस
संसार का मस्तक हैं । समुद्र-जरू में भेरा स्थान हे। उसी स्थान से
में सारे संसार में विस्तृत होती हूँ। में अपनी उच्चत देह से इस धलोक
को छती हूं ।
८. में ही भुवन-निर्माण करते-करते वायु फे समान बहती हूं । मेरी
महिमा एसी बड़ी हे कि, में घावदशूथियी का अतिकम कर चुकी हूँ ।
१२६ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि शिल घ-पुत्र कुल्मलबहिप । छन्द इहती
शौर त्रिष्टुप् |)
१. अर्यमा, मित्र और वरुण जिसे शत्रु के हाथ से बचा देते हे, देवो,
कोई भी अमंगल और कोई भी पाप उसपर आक्रमण नहीं कर सकता।
२. वरुण, मित्र और अर्घमा, हम तुमसे प्रार्थना करते हें फि,
मनुष्य को पाप ओर शत्रु फे हाथ से बचाओ ।
३. वरुण, मित्र और अर्यमा निश्वय ही हमारी रक्षा करेगे। वरुण
आवि देवो, तुमं छे चलो, पार करो और शनु फे हाथ से परिश्राण करो ।
४. घरुण, मित्र और अर्यमा, तुम लोग संसार की रक्षा करते ओर
नेता का कार्य अली भाँति करते हो। तुम लोगों के द्वारा हम शत्रु के
हाथ से रक्षा पाकर तुम्हारे पास सुन्दर सुख पायें ।
हिन्दी-ऋण वेद १४१९
५. आदित्य, दएण, मित्र और अर्यमा शत्रुओं के हाथ से बचादें ।
शत्रु से परित्राण पाकर, कल्याण-लाभ के लिए, हम उम्र-सत्ति रुद्र, मरुवृ-
गण, इन्द्र और अग्नि को बुलाते है ।
६- वरुण, मिश्र और अयंसा मार्ग दिखाकर ले जाने में अत्यन्त निपुण
हैं। य पाप को लुप्त कर देते हे। सनुष्यों के सालिक थे सब देवता सारे
पापों और गत्रृ-हस्त से हमें बचाव ।
७ वरुण, मित्र और अर्यमा रक्षा के साथ हमें सुखी करें। हम जो
सुख चाहते हैं, प्रचुर परिमाण में आदित्य लोग हमें वही सुख दें और
दातु-हस्त से बचावें ।
८. जिस समय शुञ्रव्ण गौ का पेर बाँधा गया था, उस समय यज्ञ-
भाग-भागी वसु लोगों ने बन्धन छुडा दिया था । वैसे ही हमे पाप से
बचाओ । अग्नि, हमं उत्तम परमायु प्रदान करो ।
१२७ सूक्त
(देवता रात्रि। ऋषि साझरि-पुत्र कुशिक । छन्द गायत्री ।)
१. आती हुई राग्रिदेवी चारों ओर विस्तृत हुई हें। उन्होंने नक्षत्रों
के हारा निःशेष शोभा पाई हु ।
. दीप्तिशालिनी रात्रिदेवी न अतीव विस्तार प्राप्त किया हें। जो
नीचे रहते हें और जो ऊपर रहते हे, उन सबको ये आच्छन्न करनेवाली
हं । प्रकाश के द्वारा उन्होंने अन्धकार को नष्ट किया हु ।
३. राति ने आकर उबा को, अपनी भगिनी के समान, परिग्रहण
किया । उन्होंने अन्धकार को दुर किया ।
४, जसे चिडिया पेड़ पर रहती हँ, वैसे ही जिनके आने पर हम सोये
ये, वे रात्रिदेयी हमारे लिए शुभंकरी हों।
५. सब गाँव निस्सब्ध हैं; पादचारी, पक्षी और शीघ्रगासीं इयेच
आदि मिस्तव्य होकर सो गये हैँ ।
६. हे राधि, वृक और पूकी को हमसे अलग कर दो । चोर को
पूर रे जाओ । हुमारे लिए तुम विशेष रीति से शुभंकरी होओ ।
१४३० हिन्दी-ऋण्वेव
७. कृष्णयर्ण का अन्धकार दिखाई दे रहा हे। मेरे पास तक सब
ढक गया है। उषादेवी जसे मेरे ऋण का परिशोध कर ऋण को हटा
देती हो, नेसे ही अन्यकार को नष्ट करो ।
८. आकाश की कन्या रात्रि, तुम जाती हो । गाय के समान तुम्हें
यह स्तोत्र में अपित करता हुँ । ग्रहण करो ।
१२८ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि आङ्गिरस विव्य । छन्द त्रिष्टुप् |)
१. अग्नि, युद्ध के समय मेरे तेज का उदय हो। तुम्हे प्रज्वलित
करके हम आपनी देह की पुष्टि करते हें। मेरे पास चारों दिशायें अवनत
हों । तुम्हें स्वामी पाकर हम शत्रओं को जीतें ।
२. इन्द्रादि देवता, मरुद्गण, विष्णु और अग्नि, युद्ध के समय, मेरै
पक्ष में रहें। आकाश के समान विस्तीणं भुवन मेरे पक्ष मं हों । मेरी
कामना पर वायु, मेरे अनुकूल होकर, मुझे पवित्र करे ।
३. मेरे यज्ञ में सन्तुष्ट होफर देवता लोग मुझे धन वें । में आशी-
वांद प्राप्त करें । देवाह्वान करूं । प्राचीन समय में जिन्होंने देवों के
लिए होम किया हूं, वे अनकूल हों मेरा शरीर निरुपद्रव हो । सन्तान
उत्पन्न हों ।
४, मेरी यज्ञ-सामग्री, मेरे लिए, देवों को अपित हो । मेरा मनोरथ
सिद्ध हो। में किसी पाप में लिप्त न होऊं । निखिल देवता हमें यह
आशीर्वाद कर ॥
५. छः देवियों (द्यौ, पृथिवी, दिन, रात्रि, जल और ओषधि) हमारी
श्री-वद्धि करें। देवो, यहाँ वीरत्व करो । हमारी सन्तति और शरीर का
अमंगल न हो। राजा सोम, शत्रु के पास हम विनष्ट न हों ।
६. अग्नि, शत्रुओं का क्रोध विफल करके रक्षक बनो और दुद्धंष
होकर हमारी सब प्रकार से रक्षा करो । शत्रु लोग व्यर्थ-मनोरथ होकर
लोट जायें। यदि शत्रु बुद्धिमान् भी हों, तो भी उनकी बुद्धि लुप्त हो जाय।
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७. जौ सृष्टि-कर्ताओ के भी सूष्ठि-कर्ता हुँ, जो भुवत के अधीइबर
हैं, जो रक्षक और दत्रु-विजेता हूँ। उनकी से स्तुति करता हुँ । अश्वि-
इय, बृहस्पति तथा अन्यान्य देवता इस यज्ञ की रक्षा करें। यजमान की
क्रिया निरर्थक न हो। |
८. जो अतीव विस्तृत तेज के अधिकारी हे, जो महान् हुँ, जो सबसे
पहले बुलाये जाते हें और जो विविध स्थानों सें रहते हँ, वे ही इन्द्र
इस यज्ञ में हमें सुखी करें । हरित-वर्ण अइव के स्वामी इन्द्र, हमें सुखी
करो, सन्तान से युक्त करो । हमारा अनिष्ठ नहीं करना, हमसे प्रतिकूल
नहीं होना ।
९. जो हमारे शत्रु हे, वे दुर हों। इसर और अग्नि की सहायता से
हम उन्हें जीतें। वसुगण, रुद्रगण और आदित्यगण मुझे सर्वश्रेष्ठ, दद्ध,
बुद्धिमान् और अधिराज करें ।
१२९ सूक्त
(११ अनुवाक । देवता परमात्मा । ऋषि परमेष्ठी प्रजापति । छन्द्
त्रिष्टुप्।)
१. उस समय या प्रलय दशा में असत् (सियार की सींग की सघान
जिसका अस्तित्व नहीं है) नहीं था । जो सत् (जीवात्सा आदि) है, वह
भी नहीं था। पृथिवी भी नहीं थी और आकाश तथा आकाश से विछ
मान सातों भुवन भी नहीं थ। आवरण (ब्रह्माण्ड) भी कहाँ था ?
किसका कहां स्थान था ? क्या दुर्गम ओर गंभीर जल उस समय था ?
२, उस समय मृत्यु नहीं थी, अमरता भी नहीं थी, रात ओर दिन
का भेद भी नहीं था। वायु-शून्य और आत्मावलभ्बन से इवास-प्रश्वास-
घुक्त केवल एक ब्रह्म थे। उनके अतिरिक्त और कुछ नहीं था ।
३. सृष्टि के प्रथम अन्धकार (वा माया-ख्यी अज्ञान) से अन्धकार
(चा जगतूकारण) ढका हुआ था। सभी अज्ञात ओर सब जलमय (चा
अविभक्त) था । अविद्यमान वस्तु के ढारा बह सदव्यापी आच्छन्न था ।
तपस्या फे प्रभाव से बही एक तस्व उत्पन्न हुआ ।
१४२२ ए्दीन्ब
४. सर्व-प्रथम परमात्मा के सन में फाम (सृष्टि फी इच्छा) उत्पन्न
हुआ । उससे सर्व-प्रथम बीज (उत्पत्तिकारण) निकला । बुद्धिसानो ने,
बुद्धि फे द्वारा, अपने अन्तःकरण में विचार करके अवियसान यस्लु से
विद्यमान वस्तु का उत्पत्ति-स्थान निरूपित किया ।
५, बीज-धारक पुरुष (भोक्ता) उत्पञ्च हुए । महिसाये (भोग्य)
उत्पन्न हुईं। उन (भोक्ताओं) का कार्य-कलूाप योगों पाइयो (नीचे और
ऊपर) विस्तृत हुआ । नीच स्वधा (अन्न) रहा और ऊपर प्रयति
(भोवला) अवस्थित हुआ ।
६. प्रकृत तत्व को कोन जानता हं ? कौन उसका वर्णन करे ? यह
सूष्टि किस उपादान कारण से हुई ? किस निमित्त कारण से ये विविध
सृष्टियाँ हुईं ? देवता लोग इन सृष्टियों के अनन्तर उत्पन्न हुए हे । कहां
से सृष्टि हुई, यह कौन जानता हें?
७. ये नाना सृष्टियाँ कहाँ से हुई, किसन सृष्ट्यां कीं और किसने
नहीं कीं--यह सब ये ही जानें, जो इनके स्वामी परम धाम में
रहते हूं हो सकता हं कि, वे भी यह सब नहीं जानते हों ।
१३० सूक्त
(देवता प्रजापति । ऋषि प्रजापति-पुत्र यज्ञ | छन्द ज गती
ओर त्रिष्टुप् ।)
१. चारों ओर सूत्र-विस्तार के हरा यशरूप वस्त्र बुना जाता है।
देवों के लिए बहुसंख्यक अनुष्ठानों के हरा इसका विस्तार किया गया
है। यज्ञ में जो पितर लोग आये हुँ, ये बून रहे हैं। “छम्बा बुनो, चौडा
बुनो” फहते हुए वे वस्त-वयन का कार्य करते हें ।
२. एक वस्त्र को रम्या करते है और दूसरे चौडाई के छिए उसे
पसार रहे हूं। यह स्वर्ग तक विस्तारित हो रहा हुँ । ये सब तेज:पुञ्ज
देवता यज्ञ-गृह में बैठे है। इस कार्य में सासमन्त्रो का ताना-बाना बनाया
जाता है ।
३. जिस समथ देवों ने प्रजापति-यञ्च किया, उस समय यञ्च की सीमा
हिन्दी-ऋष्वेव १४२३
क्या थी ? देव-मत्ति क्ष्या थी? संकल्प क्या था ? घृत क्या था ?
यज्ञ की (पलाश आदि की) तीन परिधियाँ ( साप) क्या थीं? छन्द
आर उक्थ क्या थे ?
४. गायत्री छन्द अग्नि का सहायक हुआ और उष्णिक् सविता देव
का । सोम अनुष्टुप् छन्द के और तेजस्वी सुरथ उक्थ छन्द के साथ मिले ॥
बहती छन्द ने बुहस्पति-वाक्य का आश्रय किया ।
५. विराट् छन्द मित्र और वरुण के आश्रित हुआ । इन्र और दिन
के सोम के भाग में त्रिष्टुप् पड़ा । जगती छन्द ने अन्य देवों का आश्रय
किया । इस प्रकार ऋषियों और मनुष्यों ने यज्ञ किया ।
६- प्राचीन समय में, यज्ञ उत्पन्न होने पर, हमारे पूर्व पुरुष ऋषियों
और मनुष्यों ने उक्त नियम के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न किया। जिन्होंने
प्राचीन समय में यज्ञातुष्ठान किया था, उन्हें, मुझे जान पड़ता है कि,
में सनश्चक्ष से देख रहा हूँ।
७. सात दिव्य ऋषियों ने स्तोत्रों और छन्दों का संग्रह करके पुन!”
पुनः अनुष्ठान किया ओर यज्ञ का परिसाण स्थिर किया । जैसे सारथि
घोड़े का लगाम हाथ से पकड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् ऋषियों ने पूर्व पुरुषों
की प्रथा के प्रति दृष्टि रखकर यज्ञानुष्ठान किया ।
१२१ सूक्त
(देवता अश्विय और इन्द्र । ऋषि कक्षीवान् के पुत्र सुकीत्ति।
छन्द त्रिष्टुप् और अदुष्ट ।)
१. शात्रु-विजेता इस, सामने और पीछे, उत्तर और दक्षिण जो
सब दात्र है, उन्हें दूर करो । बीर, तुम्हारे पास विशिष्ट सुख की प्राप्ति
करके हम आनन्दित हों।
२. जिनके खेत में यच (जो) होता है, बे जेसे अलग-अलग करके
क्रमशः उसे, अनेक बार काटते हें, देसे ही हे इन्द्र, जो यज्ञ में “नमः”
नहीं करते अथवा जो पुण्यानुष्ठान से विरत हुँ, उनकी भोजन-सामप्री
को अभी नष्ट कर दो।
कट
न्द ण्ह्स्वेद
३. जिस शकट में एक ही चन्द्र हं, वह कभी भी नियत स्थान पर नहीं
इपस्थित हो सकता। युद्ध के समय उससे अन्न-लाभ नहीं हो सकता।
जो लोग गो, अश्व, अन्न आदि की इच्छा करते हें वे बुद्धिमान् इन्द्र के
सख्य के लिए लालायित रहते हे ।
४. कल्याण-मृत्ति अङ्विद्वय, जिस समय नमुचि के साथ इन्द्र का युद्ध
हुआ, उस समय तुम दोनों मे मिलकर और सुन्दर सोम का पान करके
नत्र के कायं में उनकी रक्षा की ।
५. अश्विद्ठय, जेसे माता-पिता पुत्र की रक्षा करते हें, वेसे ही तुम
लोगों ने सुन्दर सोम का पान करके अपनी क्षमता और अद्भुत कार्यों के
दारा इन्द्र की रक्षा को । इन्द्र, सरस्वतीदेयी तुम्हारे पास थीं ।
६, और ७. इन्द्र उत्तम रक्षक, धनी ओर सर्वज्ञ हें। बे रक्षा करके
लुखदाता हों। वे शत्रुओं को हटाकर अभय दें। हम उत्तम शक्ति के
अधिकारी हों। यज्ञ भागग्राही इन्द्र के पास हम प्रसन्नता-पात्र हों। वे
हमारे प्रति भली भाँति सन्तुष्ट हों। बे उत्तम रक्षक ओर धनी हें।
इन्द्र हमारे पास के और दूर के शत्रु को दृष्टि-मार्ग से अलग करें ।
१२२ सूक्त
(देवता मित्र और वरुण । ऋषि नृमेध पुत्र शकपूत । छन्द्
प्रस्तारणपङ क्ति आदि ।)
१, जो यज्ञ करता हें, उसी के लिए आकाश (दयो) धन रखता हे ।
पृथिवी भी उसे ही श्री-सम्पञ्च करती है । यज्ञकर्ता को ही अदिवद्वय नाना
सुख-सासग्नी देकर सन्तुष्ट करते हें ।
२. मित्र और वरुण, तुम पृथिवी को धारण किये हुए हो। उत्तम
सुख-सासग्री के लिए हम तुम दोनों की पुजा करते हें। यजमान के प्रति
लुम लोगों का जो सख्य-व्यवहार होता है, उसके प्रभाव से हम शत्ु-
जय करें।
हिन्दी-ऋग्वेद १४२५
३. मित्र और वरुण, जिसी समय तुम्हारे लिए हम यज्ञ-सामग्री का
आयोजन करते हँ, उसी समय हम प्रिय धन के पास उपस्थित होते हें ।
यञ्ञ-राता जो धव पाता हुँ, उसपर कोई उपद्रव नहीं होता ।
४. बली (असुर) मित्र, आकाश से उत्पन्न सूर्य तुम से भिन्न हं।
इण, तुस सबके राजा हो। तुम्हारे रथ का मस्तक इधर ही आ रहा
हे । हसकों के विनाशक इस यज्ञ को तनिक भी अशभ छ नहीं सकता ।
५. मुझ शकपुत का पाप नीच-स्वभाव शत्रुओं को नष्ट करता हे;
क्योंकि मित्रदेव मेरे हितैषी हे। सित्रदेवता आकर शरीर की रक्षा
कर। उत्तमोतम यज्ञ-सामग्री की भी बे रक्षा करें।
६. विशिष्ट ज्ञानी मित्र और वरुण, तुम्हारी माता अदिति हैं।
यावापूथिवी को जल से परिष्कृत करो। निम्न लोक में उत्तमोत्तम
सामग्री दो । सूर्य-किरणों के द्वारा सारे भुवन को पवित्र करो ।
७. अपने कर्म के बल तुम दोनों राजा हुए हो। तुम्हारा जो रथ वन
में विहार करता हुँ, वह इस समय अइवों के वहन-स्थान सें रहे। सब
शत्रु क्रोध के साथ चीत्कार करते हे। बुद्धिमान नृमेध ऋषि विपत्ति से
उद्धार पा चुके हुँ ।
१३३ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि पिजवन-पुत्र॑ सुदास । छन्द॒ शक्वरी ।)
१. इन्द्र को जो सेना उनके रथ के सामने हु, उसकी भली भाँति
पुजा करो । युद्ध के समय जब शत्रु पास आकर भिड जाता हे, तब इन्द्र
पलायन नहीं करते--वुत्र का वध कर डालते हं। हमारे प्रभ् इन्द्र हमारी
चिन्ता करे । शत्रुओं की ज्या छिन्न हो जाय ॥
२. नीचे बहुनेवाली जल-राशि को तुम्हीं ने मुक्त किया है । तुमने
ही मेघ वा वत्र का वध किया हु। इन्द्र, तुम अजेय और शत्रु के लिए
अबध्य होकर जन्मे हो। तुम विइव-पालक हो । तुम्हें ही सर्वश्रेष्ठ
जानकर हम पास सं आध हूँ । झत्रुओं की ज्या छिन्न हो जाय।
फा० ९०
१४२६ हिन्दी-म्दण्वेद
३. अदाता शत्र द् ष्टि-पथ से दूर हो । हमारी स्तुतियाँ चलती रहें।
इन्र, हमारे वथ की इच्छा करनेवाले शत्रु को सारो । तुम्हारी दानशी-
लता हमें धन बें। विपक्षियों की प्रत्यञ्चा छिन्न हो जाय ।
४. इन्द्र, भेडिये के समान आचरण करनेवाले जो लोग हमारे चारों
ओर घूमते हँ, उन्हें धराशायी करो । तुम शत्रुओं को हरानवारे ओर
उन्हें पीड़ा पहुँचानेवाले हो । शत्रुओं की प्रत्यञ्चा छिन्न हो जाय ।
५. हमारे निकृष्ट, समान-जन्मा और अनिष्ट कर्म करनेवाले झत्रुओं
के खल को वसे ही नीचा दिखाओ, जसे विशाळ आकाश सारी वस्तुओं
को नीचा दिखाता हँ । शत्रुओं की प्रत्यञ्चा छिन्न हो जाय।
६. इन्द्र, हम तुम्हारे अनुगामी ह । तुम्हारे बन्धुत्व फे उपयुक्त कार्य
के लिए हम उद्योग करते हँ। पुण्य कर्म के मार्ग से हमं रे चलो । हम
सारे पापों के पार जायं । शत्रुओं की प्रत्यञ्चा छिन्न हो जाय |
७. इस्त्र, हम तुम बह विद्या बताओ, जिसके प्रभाय से स्तोता का
मनोरथ पुर्ण हो । पृथिवी-स्वरूपा यह गो विशाल स्तनवाळी होकर और
सहस्र धाराओं से दूध गिराकर हमें परितुप्त करे ॥
१३४ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि युवनाश्व के पुत्र मान्धाता ओर ऋषिका सातवें
मन्त्र की गोधा नाम की ब्रह्यवादिनी । छुन्द् महापङक्ति
आर पङ्क्ति ।)
१. इन्द्र, तुम उबा के समान द्यावापृथिवी को तेज से परिपुणं करते
ही । तुम महान् से भी महान् हो । तुम मनुष्यों के सम्राट हो । तुम्हारी
कल्याणसयी साता ने तुम्हें उत्पन्न किया हँ ।
२. जो दुरात्मा हमारा बच करना चाहता हँ, उसके अधिक बली
रहने पर भी तुम उस बल को कम कर देते हो। जो हमारा अनिष्ट
चाहता हं, उसे तुस धराशयी करते हो। तुम्हारी कल्याणमयी माता ने
तुम्हें उत्पन्न किया हें।
हिन्दी-ऋग्वेद १४२७
३. शक्तिशाली और जत्रुसंहारी इन्द्र, सबको आनन्दित करनेवाले
उस प्रचुर अञ्न को, अपनी क्षमता से, तुस हमारी ओर प्रेरित करो। साथ
हो सब प्रकार से हमारी रक्षा भी करो। कल्याणमय साता ने तुम्हें
उत्पन्न किया हूँ ।
४. शतकतु इन्द्र, तुम जिस समय नाना प्रकार के अन्न प्रेरित करोगे,
उस समय सोम-यञ्ञ-कर्ता यजमान को असीम प्रकार से बचाओगे और
धन दोगे। कल्याणसयी माता ने तुम्हें उत्पन्न किया है।
५. स्वेद (पसीने) के समान इख के हथियार चारों ओर गिरें।
दूब के प्रतान के समान आयुध सके-व्यापी हों। हमारी दुर्बुद्धि दूर
हो । कल्याणमयी माता ने तुम्हें उत्पन्न किया है।
६. ज्ञानी ओर धनी इन्द्र, विशाल अंकुश के समान “क्ति” नामक
अस्त्र को तुम घारण करते हो। जसे छाग अपने चरणों से वृक्ष-शाखा
को सींयता हूँ, बसे ही तुम उस “शक्ति” के द्वारा शत्रु को खींचकर
गिराते हो । कल्याणमयी माता ने तुम्हें उत्पन्न किया है । |
७. देवो, तुम्हारे विषय में हुम कोई भी त्रुटि नहीं करते, किसी
भी कमं में शेथिल्य वा ओदास्य नहीं करते । मन्त्र और श्रुति के अनुसार
हम आचरण करते हूँ। दोनों हाथों से इकट्ठी यज्ञ-सासग्री लेकर इस
यज्ञ-कर्म का हम सम्पादन करते हेँ।
१३५ सूक्त
(देवता यस । ऋषि यमगोत्रीय कुमार । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. सुन्दर पत्रों के द्वारा शोभित जिस वृक्ष पर देवों के साथ यमदेव
धान करते हे, हमारे नरपति पिता की इच्छा है कि, में उसी वक्ष पर
जाकर पुर्वेजो का साथी बन् ।
२. निर्दय होकर मेरे पिता की “पूर्व पुरुषों का साथी” बनने की बात
पर मेने उनके प्रति विरक्षित से भरा दृष्टि-पात किया था । विरषित को
छोड़कर अब में अनुरक्त हुआ हूं ।
१४२८ हिन्दी-ऋणग्वेद
३. (यम की उदित)--मव्विफेद कुसार) तुनने ऐसा अभिनय रथ
चाहा या, जिसमें चक्र न हो और जिदकी ईया (दण्ड) एक ही हो तथा
जो सर्वत्र जावेयाळा हो । बिना समझ ही दुम उस रथ पर चढ़े हो ।
४. कुमार, बुद्धिताली यम्पु-दान्यदे को छोड़कर तुमने उस रथ को
चलाया हुँ । वह तुम्हारे पिता के छस्त्यवा-एंवं उपदेश वजन के अनुसार
चज़ा है। यह उबदेश उपके लिए चौका ओर आश्रव हुआ। उस नौका
पर संस्थापित होकर यह रथ यहाँ से चला गया हूं ।
प्. इस बालक का जन्मदाता कौन हुँ? किसने इस रथ को भेजा हुँ?
जिससे यह बालक यम के द्वारा जीवलोक में प्रत्यवित होगा, उस बात को
आज हमसे कोन कहेगा ?
६. जिससे यम के द्वारा बालक जीवलोक में प्रत्यपित होगा, बह बात
प्रथम ही कह दी गई थी। प्रथम पिता के उपदेश का मूल अंश प्रकट
हुआ, पीछे प्रस्यागमन का उपाय कहा गया ।
७. यही यम का निवास-स्थान है । लोग कहते हूँ कि, यह देवों के
द्वारा निमित हुआ हं । यह यम की प्रसन्नता के लिए वेणु (गाय) बजाया
जाता है और स्तुतियों से यम को भूषित किया जाता हुं ।
१२६ सूक्त
(देवता असि, सूर्य ओर वायु । ऋषि जूति आदि । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. केशी (सूय) अग्नि, जल और द्यावापृथिवी को धारण करते हें।
केशी ही सारे संसार को प्रकाश के द्वारा दर्शनीय बनाते हूँ । इस ज्योति
को ही केशी कहा जाता हैं।
२. वातरसच के वंशज मुनि लोग पीले वल्कल पहनते हैँ । चे देवस्य
प्राप्त करके बायु की गति के अनुगामी हुए हें ।
३. सारे लौकिक व्यवहारों के विसर्जन से हम उन्मत्त (परमहंस)
हो गय हे। हम वायु के ऊपर चढ़ गये हुँ । लुम लोग केवल हमारा शरीर
देखते हो--हमारी प्रकृत आत्मा तो वायुरूपी हो गई हें ।
हिन्दी-ऋग्वेद १४२९
४. मुलि लोग आकाश में उड़ सकते और सारे पदार्थों को देख
सकते हूँ । जहाँ कहीं भी जितने देवता हुँ, वे सबके प्रिय बन्धु हें। बे
सत्क के लिए ही जीते हू ।
५. मुनि लोग बागुमागे पर घूमने के लिए अद्व-स्वरूप हें। वे वायु
के सहचर हूँ। देवता उनको पारे की इच्छा करते हे। वे पूर्व और
पश्चिम के दोनों समुद्रों सं निवास करते हँ ।
६. केशी देवता अप्सराओं, गन्धो ओर हरिणों में विचरण करते
हँ । बे सारे ज्ञातव्य विषयों को जानते हैँ। वे रस के उत्पादक और
आनन्ददाता मित्र है ।
जिस समय केशी रुद्र के साथ जल-पान करते ह, उस समय वाय
उस जल को हिला देते और कठिन माध्यमिकी वाकू को भंग कर
देते हुँ ।
१३७ सूक्त
(देवता विश्वदेच । ऋषि भरद्वाज, कश्यप, गौतम, आत्रि, विश्वामित्र,
जमदग्नि और वसिष्ठ । छन्द अनुष्टुप ।)
१. देवो, मुझ पतित को ऊपर उठाओ। मुझ अपराधी को अप-
राध से बचाओ । देवो, मुझ चिरजीवी करो
२. रामुदरपर्पन्त--सझद्र से भी दूरवर्ती स्थान तक दो बायु बहते ह--
एक वाय तुम्हारा (स्तोता का) बलाधान करे और दूसरा तुम्हारे पाप-
ध्वंस के लिए बहु ।
३. वायु, तुम इस ओर बहकर ओषध ले आओ और जो अहितकर
है, उसे यहाँ से बहा ले जाओ । तुम संसार के औबध-रूप हो । तुम
देव-दूत होकर जाते हो \
४. यजमान, तुम्हारे लिए सुखकर और ऑहिसाकर रक्षणों के साथ
में आया हूँ । तुम्हारे उत्तम बलाधान का कार्य भी मेने किया हु। इस
समय दुष्हारे रोग को में दूर कर वेता हूं ।
१४३० हिन्दी-ऋग्वेद
प्. इस समय देवता, सरुदूगण और चराचर रक्षा कर । यह व्यक्ति
नीरोग हो ।
६. जल ही औषध, रोगशान्ति का कारण और सारे रोगों फे लिए
भेषज है । तुम्हारे लिए वही जल औषध-विधान करे।
७. दोनों हाथों में दस अंगलियां हे। वचन के आगे-आग जिल्ल
चलती हुँ। रोगशान्ति के छिए दोनों हाथों से में तुम्हूं छूता हू ।
१३८ सूत
(देवता इन्द्र | ऋषि ऊसे के पुत्र अङ्ग । छन्द जगती |)
१. इन्द्र, तुम्हारे लिए बन्धुत्व करन को यज्ञकत्ताओं ये यञ्ञ-
सामग्री ले जाकर और यज्ञ करके बल (राक्षस) को मार डाला । उस
समय स्तोत्र किया गया । तुमन कुत्स को प्रभात का आलोक दिया, जल
को छोड़ा और वृत्र के सारे कर्मो को ध्वस्त किया ।
२. इसर, तुमने जननी के समान जल को छोड़ा है, पर्यतों को
विचलित किया हैँ। गायों को हॉककर से गये, मीठा सोम पिया और
चन के वृक्षों को बृष्टि के द्वारा वद्धित किया । यज्ञोपथोगी स्गुति-बचनों
से इन्द्र की स्तुति हुई । इन्द्र के कम से सूय दीप्तिशाली हुए ।
३. आकाश में सूर्य ने अपने रथ को बला दिया । उन्होंने देखा कि
आये लोग दासों से पराजित नहीं होते । इन्र ने ऋणिइया फे साथ
बन्धुता करके पिप्रु नामक मायावी असुर के बल-बीय को नष्ट कर दिसा ।
४. दुर्द्धषं इन्द्र ने दुर्द्धेषं शत्रु-सेना को नष्ट कर डाला । उन्होंने देव-
शूत्यों की सम्पत्ति को ध्वस्त कर डाला । जैसे सूर्य मास-विशेष में भूमि-
रस को खींचते हे, बसे ही उन्होंने शत्र-पुरी-स्थित धन को हर छिया।
स्तोत्र ग्रहण करते-करते उन्होंने प्रदीप्त अस्त्र के द्वारा झात्रु-निपात किया ।
५. इन्द्रसेना के साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता । बह सर्वगन्ता
कौर विदारक वज्ध के द्वारा वुत्र-निपात करके आयुध पर शान चढ़ाते
हिम्दी-ऋग्वेद १४३१
हुँ । विदारक इन्द्र-वथ्य से शत्रु लोग डरें। सर्व-शोधक इन्र चलने लगे ।
उषा ने अपना शकट चला दिया ।
६. इन्द्र, यह सब वीरत्व का कार्य तुस्हार ही सुना जाता हैं।
अकेले ही तुमचे यज्ञ-विध्न-कर्त्ता ओर प्रधान असुर को सारा था। तुमने
आकाश के ऊपर चस्प्रमा के जाने-आने की व्यवस्था की है। जिस समय
ृत्र सुर्यं के रथ-चक्र को भंग करता है, उस समय सबके पिता चुलोक,
तुम्हारे ही द्वारा उस चक्र को धारण कराते हैं ।
१३९ सूक्त
(देवता सविता ओर विश्वावसु । ऋषि विश्वावसु गन्धवं ।
छन्द त्रिष्ठुप् ।)
१. सविता (सूर्योदय के प्रथम काल के अभिमानी देवता) देव
सूर्य-किरणवाले और उज्ज्वल केशयाले हूँ। ब पूर्व की ओर क्रमागत
आलोक का उदय किया करते हुँ। उनका जन्म होने पर पूषा अग्रसर होते
हैं। वे ज्ञानी हें। बे सारे संसार को देखते और बचाते हूँ।
२. ये मनुष्य के प्रति कृपादृष्टि करके आकाश के बीच में रहते और
खावापृथिवी तथा मध्यस्थित आकाश को आलोक से पूर्ण करते हैं। बे
सारी दिशाओं और कोनों को प्रकाशित. करते हे । वे पूर्व भाग, परभाग,
मध्य भाग और प्रान्त भाग को प्रकाशित करते हूँ।
३. सूर्यदेव धन के मूल-रूप हुँ, सस्पत्ति के मिलम-स्थान हैं। बे
अपनी क्षमता से द्रष्टव्य पदार्थ को प्रकाशित करते हें। सबिता देवता
के समान वे जो कुछ करते हुँ, वह सफल होता है। जहाँ सारा धन
एकत्र मिलता है; यहाँ वे इन्द्र के समान दण्डायमान हुए थे।
४. सोग, जिस समय सस्मित जल चे विश्वावस गन्धर्व को देखा,
उस समय, पुण्य-कमे-प्रभाव से वह विलक्षण रीति से, तिकला। जरू-
प्रेरक इन्द्र उक्त वतान्त को जान गधे हैं। उन्होंने चारों ओर सूर्यमण्डल
का निरीक्षण {कया ।
१४३२ | हिन्दी-क्रास्वेद
५. देबलोकवासी और जल के सुष्टि-कर्ता गन्धव विश्वावसु यह
सब विषय हमें बतावें। जो यथाथ और जो हमे अज्ञात हुं, उसमें बे
हमारी चिन्ता को प्रवत्तित करें। हमारी बुद्धि की रक्षा करें।
६. नदियों के चरण-देश में इन्द्र ने एक मेघ को देखा। उन्होंने
प्रस्तरमय द्वार का उद्घाटन कर दिया। गन्धव ने इन सारी सदियों क्षे
जल की बात कही। इन्द्र भली भाँति मेघों का बल जानते हूँ।
१४० सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अर । छन्द विस्तारपङ क्ति, अष्टकवती आदि ।)
१. अग्नि, तुम्हारे पास प्रशंसनीय अन्न हुँ। तुम्हारी ज्यालायें विचित्र
ढीप्ति पाती हु। दीप्ति ही तुम्हारी सम्पत्ति हे। तुम्हारी दीप्ति प्रकाण्ड
है। तुम क्रिया-कुशल हो। तुम दाता को उत्तम अन्न और बल बेतेहो।
२. अग्ति, जिस समय तुम वीप्सि के साथ उदित होते हो, उस
समय तुम्हारा सेज सबको विशुद्ध करता हें--ये शुक्लवर्ण धारण
करके बृहत् हो जाते हुँ। अग्नि, तुम द्यावापृथिवी को छूते हो। तुम पुत्र
हो, वे माता हुँ। इसी लिए तुम कीड़ा करते हुए उनका आरिङ्न
करते हो।
३. तेज के पुत्र ज्ञानी अग्नि, उत्तम स्तोत्र के पठन के साथ तुम्हें
स्थापित किया गया हुँ। आनन्द करो। तुम्हारे ही ऊपर नानाविध और
माना रूपों को यज्ञ-सामग्री हुत हुई हैं ।
४. अमर अग्नि, नवोत्पन्न किरण-मण्डल से सुझोभित होकर हमारे
पास धन-विस्तार करो । तुम सुन्दर मूत्ति से विभूषित हुए हो। तुम
सबेफलद यज्ञ का स्पशं करते हो।
५. अग्नि, तुभ यज्ञ के शोभा-सम्पादक, ज्ञानी, प्रचुर अञ्चदाता और
उत्तमोत्तम वस्तुओं के समर्पक हो। तुम्हारा हम स्तोत्र करते हूँ। अतीव
सुन्दर और प्रचुर अन्न दो तथा सरव-फलोत्पादक धन दो।
हिन्दी-फऋष्वे १४३४
६. यज्ञोपयोगी, सर्वदशेक और विशाल अग्नि का भनुष्यों ने, सुख
के लिए, आधान किया है। तुम्हारा कान सब कुछ सुनता है। तुम्हारे
समान विस्तृत कुछ भी नहीं है। तुम देवलोकवासी हो। सभी मनुष्य,
यजमान-पति-पत्वी, तुम्हारी स्तुति करते हुँ।
१४१ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि अग्नि। छन्द अनुष्टुप् ।)
१. अग्नि, उपयुक्त उपदेश दो। हमारे प्रति अनुकूल और प्रसन्न
होओ। नरपति, तुस धनद हो; इसलिए हमें दान दो।
२. अर्यमा, भग, बृहस्पति, अन्य देवता और सत्यप्रिय सथा वाक्य
मयी सरस्वतीदेकी आदि हमं. दान क्र।
३. अपनी रक्षा के लिए हम राजा सोम, अग्नि, सूयं, आदिश्यगण,
विष्णु, बुहस्पति और प्रजापति को बाते हें।
४. इन्द्र, वायु और बृहस्पति को बुलाने से आनम्द होता हुँ। इन्हें
हम बुलाते हूँ। धन-प्राप्ति के लिए सब हमारे प्रति प्रसन्न हों ।
५. स्तोता, अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, विष्णु, सरस्वती और
सवितादेवला की, दान के लिए, प्रार्थना करो।
६. अग्नि, तुस अन्यान्य अग्नियों के साथ एक होकर हमारे स्तोत्र
और पञ्च की श्री-वृद्धि करो। हमारे यज्ञ के लिए तुम दाताओं का, धन-
दान फे लिए, अनुरोध करो।
१४२ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि जरिता आदि पत्ती दो-दो मन्त्रो के ।
छन्द जगती आदि |)
१. अग्नि, यह जरिता तुम्हारे स्तोता हुए हुँ। बल के पुत्र अग्नि,
तुम्हारे समान दूसरा कोई आत्मीय नहीं हे। तुम्हारा वास-स्थान सुन्दर
१४२४ हिन्दी-ऋ ग्वेद
हं, जिसके तीन प्रकोष्ठ हैं। हम तुम्हारे उत्ताप से दग्ध होते हे; इसलिए
अपनी उज्ज्वल ज्वाला हमसे दूर ले जाओ।
२. अग्नि, जिस समय तुम अन्न-कामना से उत्पन्न होते हो, उस समय
तुम्हारा प्रकटन क्या ही सुन्दर होता हू बन्ध् फे समान तुम सारे भवनों
को विभूषित करते हो। इधर-उधर जानेवाली तुम्हारी शिखाओं ने हमारे
स्तव का उदय कर दिया हु॥ पश-पालक के समान ये आगे-आगे
जाती हु।
३. दीप्तिशाली अग्नि, दाह करते समय तुम अनेक तूणों को स्वयं
गड देते हो। तुम धान्य से भरी भूमि को धान्यशून्य कर देते हो। हम
तुम्हारी प्रबल शिखा के कोप में न गिरें।
४. जिस समय तुम ऊपर-नीचे वृक्ष आदि को जलाते हो, उस समय
छूटनेवाली सेना के समान अलग-अलग जाते हो। जिस मसय तुम्हारे
पीछे वायु बहता हैँ, उस समय तुम वैसे ही असीम प्रदेश का मुण्डन कर
देते हो, जसे नाई लोगों के इ्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ) मड़ता है।
५. अग्नि की अनेक शिखायें देखी जाती हँ। इनका गन्तव्य स्थान
एक ही हूँ; किन्तु रथ अनेक हैं। अग्नि, तुम बाहुओं (ज्वालाओं) से
सारे वन को जलाते हुए और नज् होकर ऊँची भूमि पर चढ़ते हो।
६- अग्नि, तुम्हारी स्तुति की जाती हूँ। तुम्हारे तेज, शिखा और
यल-विक्रम का उदय हो। बुद्धि प्राप्त करो। ऊपर गमन फरो और नीचे
उतर आओ। तु्हें सारे वासयिता देवता प्राप्त करें।
७. यह स्थात जल का आधार हु। इस स्थान पर समद्र अवस्थित
है। अग्नि, तुम अन्य स्थान ग्रहण करो। उसी पथ से यथेच्छ गगन करो।
८. अग्नि, तुम्हारे आगमन और प्रत्यायमन पर फलो याली दुखे बढ़े ।
यहु तड़ाग हूं, इत पद्म हूं और समद्र की अवस्थिति
सप्तस अध्याय सस्ताप्त ।
हिन्दी-अट ग्वेद १४३५
१४२ सूक्त
(अष्टम अध्याय । देवता अशिवद्वय । ऋषि संख्य पुत्र अत्रि ।
छन्द अनुष्टुप् |)
१. अश्विद्वय, यज्ञ करके अत्रि ऋषि बुद्ध हो गये थे। उन्हें तुम
लोगो ने एसा बना दिया कि, वे घोड़े के समान गन्तब्य स्थान पर चले
गथे। कक्षीवान् ऋषि को तुम लोगों ने बैसे ही नवयौवन प्रदान किया,
जेसे जीर्ण रथ को नया किया जाता हैं।
२. प्रबल पराक्रमी शत्रुओं ने शीघ्रगामी घोड़े के समाव अन्नि
ऋषि को बाँध रक्खा था। जेसे सुदृढ़ गाँठ को खोला जाता हे, बसे ही
तुमने अत्रि को छोड़ दिया था। वे तरुण पुरुष के समान पृथिवी को ओर
'ले गये।
३. शुक्रवर्ण और सुन्दर नायकद्वय, अत्रि को बुद्धि देने की इच्छा
करो। स्वर्ग के नायक-द्वय, ऐसा होने पर में पुनः स्तुति कर सकता हूँ।
४. उत्तम अन्नवाले अडिवद्वय, नायकद्वय, जब तुमने हमारे गृह में
महान् समारोह के साथ यज्ञारम्भ होने पर रक्षा की, तब हम समझते
हैं कि, हमारे दान और हमारे स्तोत्र को तुमने जाना हे ।
५. भुज्यु नामक व्यक्ति समुद्र में गिर गये थे ओर तरङ्गों के ऊपर
आन्दोलित हो रहे थे। तुम लोग पक्षवाली नौका लेकर समुद्र में गये।
सत्यरूप अडिवद्वय, तुमने पुनः भुज्यु को (उद्धार करके) यज्ञानुष्ठाव के
योग्य बना दिया।
६. सर्वज्ञ नायकद्वय, भाग्यवान् लोगों के समान तुम लोग दाता
होकर, धन के साथ, हमारे पास आओ। जेसे दूध बढ़कर गाय के स्तन
को भर देता हैं, वेसे ही हमें धन से पुणं करो।
१४४ सक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि ताक्ष्ये-पुत् सुपण । छन्द गायत्री आदि |)
१. इन्द्र, सुम सृष्टिकर्ता हो। तुम्हारे लिए यह अमूत के समान
सोम, योड़े के समान, दोड्ता है। यह बलाधार और जीवन-स्वरूप हुँ ।
१४३६ हिन्दी-ऋ ग्वेद
हि ह
२. दाता इन्द्र का उज्ज्यल बज्र हमारी स्तुति के योग्य हे। इन्द्र
अन्ध सामक स्तोता झा पालन करते हें । जसे ऋभदेव यज्ञकर्ता
३ करते हे, इसे हो यथ पाऊन करते ह।
३. दल दुख अपरो पजसान-स्वरूप प्रजा के पास भली भाँति
रा Fe {य ना वक न 90 नि किन 23 है ८ र गे उन EC हा
(ति-विधि करते एँ। मुझ सुपर्ण शयेन ऋषि को उन्होंने बंशवृदधि
४. तएग कषय के पुत्र सुपर्णे, अत्यन्त दूर देश से, सोम ले आये हैं।
वह निष्िछ कमो के लिये उपयोगी हे। बह वृत्र की उत्साह-बृद्धि
करता हु ।
५. वह् रस्ववण, अन्य का सृष्टिकर्ता, देखन में सुन्दर और दूसरों
के द्वारा मष्ट न करने योग्य हूँ। उसे अपने चरण से शयेन ले आये हैं।
इन्द्र, सोम के लिए अञ्न, परमायू ओर जीवन दो। सोम के लिए हमारे
साथ मत्री करो।
६. सोस-पान करके इन्द्र देवों और हम लोगों की, भरो भाँति,
विशेष रक्षा करते हें। उत्तभ कर्मवाले इन्द्र, यज्ञ के लिए हमें अन्न और
परमायू दो। यज्ञ के लिए यह सोम हमारे द्वारा प्रस्तुत हुआ हें।
१४५ सूक्त
(देवता सपत्नीपीड़न ऋषि इन्द्राणी । छन्द अनुष्टुप्
आर पङ्क्ति ।)
१. तीव्र शक्ति से युक्त और लता-रूपिणी यह औधि खोदकर में
निकालता हूं । इससे सपत्नी को दुःख दिया जाता हे और स्वामी का प्रेम
प्राप्त किया जाता हुं।
२. ओषधि, तुम्हारे पत्त उच्चत-मुख हें। तुम स्वामी के लिए प्रिय
होते का उपाय हो। देवों ने तुम्हारी सृष्टि की हे। तुम्हारा तेज अतीव
तीब्र हुँ। तुम मेरी सपत्नी को दुर कर दो। मेरे स्वामी मेरे वशीभूत रहेँ,
एसा तुम कर दो।
हिन्दी-क्रर्वेद १४३७
३. ओषधि तुम प्रधान हो। में भी प्रधान होउँ--प्रधात में भी
प्रबान होऊ। मेरी सपत्नी नीच से भी नीच हो जाथ।
४. में सपत्नी का नास तक नहीं लेती। सपत्नी सबके लिए अप्रिय
है। में उसे दूर से भी दूर भेज देती हुँ ।
५. ओषधि, तुम्हारी शक्ति विलक्षण हुँ, मेरी क्षमता भी विचित्र
हैं। आओ, हम दोनों शक्ति-सम्पच्चा होकर सपत्नी को हीन-बल कर दें।
६. पतिदेव, इस शक्ति-सभ्पन्न ओषधि को मेने तुम्हारे सिरहाने
रख दिया। शक्ति-सम्पञ्च उपाधान (तक्षिया), तुम्हारे सिरहाद देन को,
मेने दिया। जैसे गाथ बछड़े के लिए दौड़ती हे और जैसे जल नीचे की
ओर दोड़ता है, बसे ही तुम्हारा भन मेरी ओर दोड़े।
१४६ सूक्त
(देवता अरण्यानी । ऋषि इरस्मद-पुत्र देवमुनि । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. अरण्यानी (बृहद् बन), तुम देखते-देखते अन्तर्धान हो जाते-¬
इतनी दूर चले जाते हो कि, दिखाई नहीं देते। तुम क्यों नहीं गाँव में जाने
का साग पुछते? अकेले रहन सं तुम्हें डर नहीं होता ?
२. कोई जन्तु बुष के समान बोलता है और कोई “चीची” करके
मानो उसका उत्तर देता हं--मानो थे वीणा के पदें-पर्दे में शब्द करके
झरण्यानी का यश गाते हूँ।
३. बिदित होता हे कि, इस विपिन में कहीं गायें चरती हें और कहीं
लता, गुल्म आदि का गृह दिखाई देता है। सन्ध्या को बन से कितने ही
शकट निकल रहे हें।
४. एक व्यक्ति गाय को बुला रहा है और एक काठ काट रहा है।
अरण्यानी मं जो व्यक्ति रहता है, बह रात को शब्द सुनता है।
५. अरण्यानी किसी का प्राण-दध नहीं करती । यदि व्या, चौर
आदि नहीं आवं, तो कोई डर नहीं! घन में स्वादिष्ट फल खा-खाकर
भळी माँति काल-क्षप किया जा सकता हूं ।
१४८३८ हिन्दो-ऋग्येद
६. भुगवाभि (कस्तुरी) के समान अरण्यानी का सौरभ ह। वहाँ
आहार भी है। वहाँ प्रथम कृषि का अभाव रहता टु। वह हरिणों की
सातु-रूपिणी है। इस प्रकार भेये अरण्यानी फरे स्तुति को।
१४७ सूक्त
(देवता इन्द्र। ऋषि शिरीपःपुत्र सुवेदा ।
छुन्द जगतो ऑप टुप् |)
१. इग्द्र, तुम्हारे क्रोध को में प्रधान समझता हूँ । तुमने वृत्र का वध
किया हुँ और लोक-कल्याण के लिए दृष्टि बनाई हँ । द्यावापृथिवी तुम्हारे
ही अधीन हैँ? बप्त्रघर इन्द्र, तुम्हारे प्रभाव से यह पूथियी कापती है ।
२. इन्द्र, तुम प्रशंसनीय हो। अन्न-सुष्टि करने का संकल्प करके
तुमने अपनी शक्ति से मायावी बूत्र को व्यथा पहुंचाई। गोकासना करके
मनुष्य तुम्हारे पास याचक होते हँ। सारे यज्ञों और हवन के समय
तुम्हारी ही प्रार्थना की जाती हे।
३. घनी और पुरूत इन्द्र, इन विद्वानों के पास प्रादुर्भूत होओ।
तुम्हारी कृपा से ये थरीवृद्धिश्ञाली और धनी हुए हुँ। पुत्र-पौत्रों, अन्यान्य
अभिलषित वस्तुओं और विशिष्ट धन पाने के लिए ये लोग यज्ञारस्भ
करके बली इन्द्र की ही पुजा करते हे ।
४, जो व्यक्ति इन्द्र को सोम-पान-जऱ्य आनन्द प्रदान करना जानता
हूँ, वही यथेष्ट धन के लिए प्रार्थना करता हें। घनी इन्र, तुम जिस यज्ञ-
दाता की श्रीवृद्धि करते हो, बह शीघ्र ही अपने भूत्यों के द्वारा धन और
अन्न से परिपुर्ण हो जाता हे।
प, बळ पाने के लिए विशिष्ट रीति से तुम्हारी स्तुति की जाती हे।
तुम बहुत बल और धन दो। प्रियदर्शन इन्द्र, तुम मित्र और वरुण के
समान अलौकिक ज्ञान के अधिकारी हो। वरम हमें सारे अन्न का भाग
करके दिया करते हो।
हिन्दी-क्ररबेद १४३९
१४८ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि वेन-पुत्र प्रथु । छन्द त्रिष्टुप् ।)
१. प्रभूत धनवाले इन्द्र, हुम लोग सोस और अन्न का योजन
करके तुम्हारी स्तुति करते हैं। जो सम्पत्ति तुम्हारे सन के अनुकूल है,
उसे हमें प्रचुर परिमाण में दो । तुम्हारे आश्रय से हम लोग अपने उद्योग
में ही धन प्राप्त करें।
२. वीर और प्रियदशेन इर, तुम जन्म-ग्रहण करने के साथ ही,
भुय-म॒त्ति के दारा, दास-जातीय प्रजा को हराते हो। जो गुहा में छिपा
हुआ हूँ वा जल मं निगूढ़ है, उसे भी हराते हो। वृष्टि-वर्षण होने पर
हम सोम प्रस्तुत करंग ।
३. इन्द्र, तुम विद्वान्, प्रभ्, मेधावी और ऋषियों की स्तुति की
कामना करनेवाले हो। तुम स्तोत्रों का अनुमोदन करो। सोम के द्वारा
हमने तुम्हारी प्रीति उत्पन्न कर डाली है। इसलिए हम तुम्हारे अन्तरङ्ग
हों। रथारूढ़ इन्द्र, यह सब आहारीय द्रव्य तुम्हें मिवेदित हैं।
४. इन्द्र, यह सब प्रधान-प्रधान स्तोत्र, तुम्हारे लिए पठित हैं। बीर,
जो प्रधान से भी प्रधान हुँ, उन्हें अन्न दो। तुम जिन्हें स्नेह करते हो, बै
तुम्हारे लिए यज्ञ करें। जो स्तोत्र करने को एकत्र हुए हूँ, उनकी
रक्षा करो।
५. वीर इन्द्र, में (पुथ्) तुम्हें बुळाता हूँ। मेरा आह्वान सुनो । वेन"
पुत्र पृथु के स्तोत्र फे द्वारा तुम्हारी स्तुति की जाती है। वेन-पुत्र ने घृत-
युक्त यज्ञ-गृह में आकर तुम्हारी स्तुति की हुँ। जसे घाराम नीचे की
ओर दौड़ती हें, बसे ही अन्य!न्य स्तोता भी दौड़ रहे हँ।
१४५ सूक्त
(देवता सविता । ऋषि हिरण्यस्तूप के पुत्र अत् । छन्द त्रिष्टुप्।)
१. नाना (वृष्टि-दान आदि) यन्त्रों से सबिता चे पृथिवी को सुस्थिर
रक्खा है। उन्होंने बिना अवलम्बन के दूलोक को दृढ़ रूप से बाँध रक्खा
१४४० हिन्दी-ऋग्वेद
हे। आकाश सें समुद्र के समान सेघराशि अवस्थित हे। मेघराशि घोड़े
के समान गात्र कम्पित करती हं । यह निस्पद्रव स्थान में बद्ध हुँ। इसी
शे सबिता जल निकालते हें।
२. जिस स्थान पर रहकर समुद्र के समान मेघराशि पृथिवी को
भागं करती है, उस स्थान को जल-पुत्र सविता जानते हूं। सबिता से ही
पुथिवी, आकाश और छावापूथिवी विस्तीण हुए हँ।
३. अझर-स्वर्गोत्पन्न सोम के द्वारा जिन देवों का यज्ञ होता हुँ, वे
सबिता से पीछे उत्पन्न हुए हें। सुन्दर पक्षवाले गरुड़ सविता से प्रथम
उत्पन्न हुए हैं। सविता की घारण-क्रिया (सोमाहरण-फर्म) का अनुसरण
करके थे अवस्थित हें।
४. सबके द्वारा प्रार्यनीय सबिता स्वय के धारण-फर्ता हूँ। दें
हमारे पास बेसी ही उत्सुकता के साथ आते हे, जिस उत्सुकता से गाय
गाँव की ओर जाती हु, योद्धा अशव की ओर जाता हु, नवप्रसूता धेनु
प्रसक्न-मसना होकर दूध देने को बछड़ की ओर जाती हूं ओर जसे स्त्री
स्वामी की ओर जाती हे।
५. सबिता, अङ्चिरोवंशीय मेरे पिता (हिरण्यस्तूप) इस यज्ञ में तुम्हें
बुलाते थे। में भी तुमसे आश्रय-प्राप्ति के निमित्त बन्दना करते-करते,
लुम्हारी सेवा के लिए, बसे ही सतक हूँ, जसे यजमान, सोम-लता की
रक्षा के लिए, सतर्क रहता हृ।
१५० सूक्त
(देवता श्रग्नि । ऋषि वसिष्ठ-पुत्र मृडीक । छन्द बृहती आदि ।)
१. अग्नि, तुम देवों के पास हव्य ले जाया करते हो। तुम्हें प्रज्यलिति
किया गया हूँ, तुम प्रदीप्त हुए हो। आदित्यों, वसुओं और रद्रों के साथ
हुमारे यज्ञ में पधारो। सुख देने के लिए पधारो।
२. यह यज्ञ ह और यह स्तव हे। ग्रहण करो। पास आओ। प्रदीप्त
अरिन) हम मनुष्य तुम्हें बुलाते है--सुख के लिए बुलाते है।
हिन्दी-ऋष्वेद १४४१
३. तुम ज्ञानी और सबके द्वारा प्राथित हो। में तुम्हें स्तुति-वचनों से
स्तुत करता हूँ । अग्नि जिनका कार्य सुखकर है, उन देवों को साथ लेकर
आओ--सुख के लिए आओ।
४. अग्निदेव देवों के पुरोहित हुए हैं। मनुष्यों और ऋषियों ने अग्नि
को प्रज्वलित किया हुँ। में प्रचुर घन की प्राप्ति के लिए अग्नि को बुलाता
हैं। बे मुझे सुखी करें।
५. युद्ध के समय अग्नि ने अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और
त्रसदस्यु की रक्षा की हुं । पुरोहित वसिष्ठ अग्नि को बुलाते हुं--सुख के
लिए बुलाते हुँ ।
१५१ सूक्त
(देवता श्रद्धा । ऋषि कामगोत्रीय श्रद्धा । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. शद्धा के द्वारा अग्नि प्रज्वलित होते हे और श्रद्धा के द्वारा ही
यञ्च-सामग्री की आहुति दी जाती हु। श्रद्धा समत्ति के मस्तक के ऊपर
रहती है। यह सब में स्पष्ट रूप से कहती हैं।
२. श्रद्धा, दाता को अभीष्ठ फल दो। जो दान करने की इच्छा
करता हँ, उसे भी अभीष्ट दो। श्रद्धा, मेरे भोगाथियों ओर याज्िकरों
को प्राथित फल दो। |
३. इन्द्रादि ने बली असुरों के लिए यह विश्वास किया कि, इनका
वध करना ही चाहिए। श्रद्धा, भोक्ताओ और याज्ञिकों को प्राथित
फल दो।
४. देवता और मनुष्य वायू को रक्षक पाकर श्रद्धा की उपासना
करते हैं। मन में कोई संकल्प होने पर लोग श्रद्धा की शरण में जाते
हैं। श्रद्धा के कारण मनुष्य धन पाता हूं।
५. हम लोग प्रातःकाल, सध्याह्व और सूर्यास्त के समय श्रद्धा को
ही बलाते उेँ। श्रद्धा हमें इस संसार में श्रद्धावान् करो ।
प1० ९१
१४४२ हिन्बी-ऋग्पेद
{५२ श्रू
(१२ अनुवाक । देवला इन्द्र । ऋषि सारदाज शास ।
छन्द अनुप्डुप्।)
१. में इस प्रकार इन्द्र फी स्तुति करता हूं। इन्दर, पुद महान शत्र
भक्षक और अद्भुत हो। तुम्हारे सस्य की न तो मृत्यु होती है, न पराजय ।
२. इन्द्र कल्याणदाता, प्रजाविपति, वृत्रघ्य, यूद्व-कर्सा, सप-इशकर्सा,
कास-वर्षक, सोम्पाता और अभवन्दाता हैँ। वे हमारे सामने पघारे।
३. यूशध्न इन्द्र, राक्षसो ओर शत्रुओं का वध करो। वत्र के बोनों
जबड़ों को तोड़ डालो। अनिष्टकर शत्रु का छोध नष्ट दाणे।
४. इन्द्र, हमारे शत्रुओं का दध करो। युद्धार्थी विपक्षियों को हीन-
बल करो। जो हमे निकृष्ट करता हूं, उसे जघन्य अन्यकार में डाळ दो।
५. इन्द्र, शत्रु का मन नष्ट कर दो। जो हमे जराजीण करना
चाहता है, उसके प्रति सांघातिक अस्त्र का प्रयोग करो। शात्र् के क्रोध
से बचाओ। उत्तम सुख दो। गत्रु के सांघातिक अस्त्र को तोड दो।
१५३ सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि इन्त्र-माता । छन्द गायत्री |)
१. क्रिया-परायणा इस्ध-मातायें प्रादुर्भूत इन्द्र फे पाच जाकर उनकी
सेवा करती हें और इन्द्र से उत्कृष्ट धन प्राप्त करती हैं।
२, इन्द्र, तुमने बल-वीर्थ और तेज से जन्म ग्रहण किया है। बद्धक
इन्द्र, तुम अभिलाषा की पुति करते हो ।
३. इन्द्र, तुम वृत्रघ्न हो और घुने आकाश को विस्तारित किया
है। तुने अपनी शक्ति के द्वारा स्वर्ग को ऊंचा कर रक्या हुँ ।
४. इन्दर, तुम्हारे साथी सूर्थं ह। तुमने उन्हें दोनों हाथों से धारण
कर रथखा हु। तुम बलपुर्यक बजा पर सान चढ़ाते हो ।
५. इन्द्र, तुम प्राणियों को अपने तेज से अभिभूत करले हो तुम सारे
स्थानों को आक्रान्त किये हुए हो।
हिन्दी-ग्वेद १४४३
१५४ सूक्त
७५ हे ;
(दवता भृत व्यक्ति की अवश्था । ऋषि विवस्वान की पुत्री यमी ।
अन्द् अनुष्टुप् ))
१. किन्हों पितरों के लिए पोम-रस़ क्षरित होता हैं। कोई-कोई
धृत का सेवन करते हैं। जिन पितरों के लिए मधर स्रोत बहा करतां
0 २
ह, प्रत, तुम उनके पास जाओ।
२. जो तपस्या के बल से बुद्धंष हुए हे, जो तपस्या के बल से स्वर्ग
गये हे ओर जिम्होंने कठिन तपस्या की है, प्रेत, लुम उच लोगों के पात
जाओ।
२. जो युद्ध-स्थछ में युद्ध करते हे, जिन्होंने शरीर की माया छोड़ दी
है अयवा जो बहुत दक्षिणा देते हे, प्रेत, तुस उनके पास जाओ ।
४. पुण्यकमं करके जो सब प्राचीन व्यक्ति पुण्यवान् हुए हें, जो
पुण्य को सरोत-वृद्धि कर चुके हें और जिन्होंने तपस्या की हँ, दस, यह
प्रत उन्हीं के पास जाय।
५. जिन बुद्धिमानों ने सहस्र प्रकार सत्कर्मो की पद्धति प्रदर्शित की
हैं, जो सूर्य की रक्षा करते हे और जिन्होंने तपस्या-बळ से उत्पन्न होकर
तपस्या की हुं, यम, यह प्रेत उन्हीं ऋषियों के पास जाय।
१५५ सूक्त
(देवता अलक्मी-नाश, त्रहEHमएस्पति और विश्वदेव | ऋषि भरद्ाज-
पुत्र शरिन्विठ । छुन्द् आनुष्टुप् ।)
१. अळक्नी, घुम वान-पिरोधिनी, सदा कुत्सित शब्द करवेबाली
विकट आकृतिबादे और सदा ऋध करनेयाली हो। तुभ पर्देत पर
जज । में (शिरिल्यठ) एसा उपाय करता हें, जिससे तुम्हें अवश्य
१३३
दुर दसूया
पे र
१४४४ (हिन्दी-अ ग्वेद
२. अलक्ष्मी वृक्ष, लता, शस्य आदि का अंकुर नष्ट करके दुर्भिक्ष
ले आती है। उसे में इस लोक और उस लोक से दूर करता हूं तीक्षण
तेजवाले इ टाजस्वति; वान-विरोधिनी इस अलक्ष्मी को यहाँ से दुर करके
आओ ।
३. यह जो एक काठ समुद्र-तोर के पास बहता है, उसका कोई कर्ता
(स्वत्वाधिहारी) नहीं हुँ। विकट आकृतिवाली अलक्ष्मी, उसके ऊपर
चढ्कर समुद्र के दूसरे पार जाओ।
४. हिसामयी ओर कुत्सित शब्दोंवाली अलक्षिमयों, जिस समय तत्पर
होकर तुम लोग प्रकृष्ट गमन से चली गईं, उस समय इन्द्र के सब शत्रु,
जल-बुद्बुद के समान, विलीन हो गये।
५. इन लोगों ने गायों का उद्धार किया है, इन्होंने अग्नि को विभिन्न
स्थानों में स्थापित किया हे ओर देवों को अन्न दिया है। इनपर आक्रमण
करने की किसकी शक्ति हे?
१५६ सूक्त
(देवता अग्नि । ऋषि अग्नि-पुत्र केतु । छन्द् गायत्री |)
१. जेसे वुड़वोड़ के स्थान में शीव्रगामी घोड़े को दोड़ाया जाता है,
वेसे ही हमारे स्तोत्र अग्नि को वोड़ा रहे हें। उनके प्रसाद से ह सब
घन जीत ल।
२. अग्नि, जसे तुमसे आश्रय पाकर हम गायों को प्राप्त करते हे।
बसे ही तुम अपनी सहायता देयेवाली सेना के समान रक्षा को हमें दो,
जिससे हम धन-लाभ करें।
३. अग्नि, बहुसंख्यक गायों ओर अश्यों के साथ धन दो। आकाश
को वृष्टि-जल से अभिषिक्त करो। वणिक का वाणिज्य-कर्म प्रर्वात्तत
क्रो।
४. अग्नि, जो सूर्य सदा चलते हुं, जो अजर हुँ ओर जो लोगों को
ज्योति वेते है, उन्हें आकाश में तुम अवस्थित किये हुए हो।
हिन्दी-ऋ ग्वेद १४४५
५. अग्नि, तुम प्रजावर्ग के ज्ञापक हो, प्रियतम हो, श्रेष्ठ हो। तुम
यश-गृह में बैठो, स्तोत्र सुनो और अन्न ले आओ।
१५७ सूक्त
(देवता विश्वदैव। ऋषि आपृस्य-पुत्र' भुवन । छन्द॒ त्रिष्टुपृ ।)
१. ये सारे प्राणी हमारे लिए सुख दें। इन्द्र और सारे देवता भी
इस अथं (सुख) को सिद्ध करें।
२. इन्द्र और आदित्यगण हमारे यज्ञ, देह और पुत्र-पौत्र आदि को
निरुपद्रव कर दें।
३. इन्द्र आदित्यों और मझुतों को सहकारी बनाकर हमारी देह के
शक्षक हों।
४. जिस समय देवता लोग वृत्रादि असुरों का वध करके लोटे, उस
समय उनके अमरस्व की रक्षा हुई।
५. साना कार्यों के द्वारा स्तुति को देवों के निकट भेजा गया। .
भनन्तर आकाश से वृष्टि-पतन देखा गया।
१५८ सूक्त
(देवता सूये। ऋषि सूर्य-पुत्र चन्नु । छन्द गायत्री ।)
१. स्वर्गीय उपद्रव से सूर्य, आकाश के उपद्रव से वायु और पृथिवी
के उपद्रव से अग्नि हमारी रक्षा करे।
२. सविता, हमारी पुजा को ग्रहण करो। तुम्हारे तेज के लिए सौ
यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिए। शत्रुओं के जो उज्ज्वल आयुध आकर
गिरते हें, उनसे हमारी रक्षा करो।
३. सवितादेव हस चक्ष् दें, पंत चक्ष् दें और विधाता चक्षु दें।
४.हमारे नेत्र को दर्शन-शक्ति दो। सारी वस्तुएँ भली भाँति दिखाई
देने के लिए हमें चक्षु दो। हम सारी वस्तुओं को संगृहीत रूप से देख
सकं ।
१४४६ nips
५. सुर्यं, ठुम्हें हुम भली भाँति देख सर्को। मनुष्य जिसे देख सकते
हुँ, उसे हम विशेष रूप से देख सफे ।
१५९ सूक्त
(देवता रोर ऋषि एलोम-पुत्री शची । छन्द अनुष्टुप ।)
१. सूर्योदय मेरा भाग्योदय हे। में यह समझ चुकी हुँ। मेरे पास
सारी सपस्नियाँ परास्त हें। मेने स्वामी को वश में कर लिया हूं।
२. में ही केतु ओर मस्तक टू । प्रबल होकर मे स्वामी फे मुंह से मीठा
वचन सुनती हूं। मुझे सर्वश्रेष्ठ जानकर मेरे स्वामी मेरे कार्य का
अनुमोदन करते हूं, मेरे मत के अनुसार ही चलते हैं।
३. मेरे पुत्र बळी हेँ। मेरी ही कत्या सर्वश्रेष्ठ शोभा से शोमित हूं।
मे सबको जीतली हूं। स्वामी फे पास मेरा ही चाम आदरणीय हैँ।
४. जिस यज्ञ को करके इन्द्र बली और श्रेष्ठ हुए हें, देयो, मेने बही
किया हुं । इससे मेरे सारे शत्रु नष्ट हो गय हे।
५. सेरा शत्रु नहीं जीता रहता। में शत्रुओ का वध कर डालती हूँ।
उन्हें जीतती हूँ--परास्त करती हू। जैसे चञ्चल बद्धिवालों की
सम्पत्ति दूसरे ले जाते हे, वेसे ही में अन्य नारियों का तेज उड़ा
देती हुं।
६. में सब सपत्नियों को जीतती हूँ--परास्त करती हूँ । इसी लिए
में इन वीर इन्द्र के ऊपर प्रभुत्व रती हुँ--कुटु म्थियों के ऊपर भी प्रभुत्व
करती हूं ।
| १६० सूक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र -पुत्र पूरण । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. यह सोगरस अत्यन्त तीवर बाया गया हैं। इसके साथ शाहारीय
सामग्री है। पाच करो। अपने रथ-वाहक दो घोड़ों को इधर छाने के
लिए छोड़ दो। इन्द्र, अन्य यजमान तुम्हें सन्तुष्ट नहीं कर सके। तुम्हुपरे
हो लिए य्ह सब सोम प्रस्तुत किया गया ह ।
हिन्दी-ऋण्वेद . १४४७
२. जो सोम प्रस्तुत हुआ है वा होगा, बह तुम्हारे ही लिए। पह सब
स्तोत्र उच्चारित होकर तुम्हें बुलाते हैं। इन्द्र, हमारा यह यज्ञ ग्रहण करो।
तुम सब जानते हो। यहीं सोम-पान करो।
३. जो व्यक्ति तहीन मन से, अक्षपट भाव से, प्रीति-पक्त अन्तः-
करण से ओर देव-भक्ति के साथ इन्द्र के लिए सोम प्रस्तुत करता हुँ,
उसकी गाये इन्द्र नहीं नष्ट करते--अतीव सुन्दर और प्रशस्त मङ्कःल
उसके लिए देते ह।
४. जो धनी इनके लिए सोम प्रस्तुत करता है, इन्द्र उसके दृष्डि-
गोचर होते हैं। इख्र आकर उदका हाथ पकडते हैं। जो पुण्व-कर्मो के
ह्ैषी हे, उन्हें इन्द्र, जिना किसी के कहे-सुने, बिनष्ट करते हें।
५. इख, गाय, घोड और अन्न की इच्छा से हम तुम्हारे आगमन की
प्रार्थना करते हे। तुम्हारे लिए यह अभिनव और उत्तम स्तोत्र बनाकर
ओर तुम्हें सुखकर जानकर हम तुम्हें बुलाते हूँ।
१६९ सूक्त
(देवता इन्द्र | ऋषि प्रजाएति-पुत्र यद्मनाशन । छन्द त्रिष्टुप आदि ।)
१. रोगी, थज्ञ-सःमग्री के द्वारा में तुम्हें अज्ञातयक्ष्मा रोग और
राजयक्ष्मा से छुड़ाता हूँ; इससे तुम्हारे जीवन की रक्षा होगी। यदि कोई
पाप-ग्रह इस रोगी को घरे हुए हें, तो इन्र और अग्नि, इसे उसके हाथ
से छुड़ाओ ।
२. यदि इस रोगी की आयु का क्षय हो रहा हँ, यदि यह इस लोक से
गया हुआ-सा हँ ओर यदि यह मृत्यु के पास गया हुआ हैं, तो भी में
मृत्यु-देसता निऋति के पास से उसे छोटा ला सकता हूं। मेने इसे इस
प्रकार स्पर्श किया ह फि, यह सौ वर्ष जीता रहेगा।
३. म॑ने यह जो आहुति दी हुँ, उसके एक सहस्र नेत्र सौ वर्ष की
परमाय और आयु देते हें। एसी ही आहुति के द्वारा में रोगी को लौटा
लाया टुं । सारे पापों से छुड़ाकर इन्द्र इसे सौ वर्ष जीवित रक््लें।
१४४८ हिन्दी-ऋ'ग्वेद
४. रोगी, तुम एक सौ शरत्, सुख से एक सौ हेमन्त और एक सौ
वसन्त तक जीवित रहो। इख, अग्नि, सविता और बृहस्पति हृव्य-द्वारा
तृप्त होकर इसे सौ वर्ष की आयु दें।
५. रोगी, तुम्हें मेने पाया हें, तुम्हें लौटा छाया हूँ। तुम पुनः मये
होकर आये हो। तुम्हारे समस्त अङ्भों, चक्षुओं और समस्त परमायु
को सेने प्राप्त किया हे।
१६२ सूक्त
(देवता गसे-रच्चण । ऋषि ब्रह्मपुत्र रक्तोहा । छन्द अनुष्टुप् |)
१. स्तोत्र के साथ एकमत होकर राक्षस-वध-फर्ता अग्नि यहाँ सै
समस्त बाधायें, उपद्रव और रोग बूर कर बे, जिनके द्वारा, हे मारी,
तुम्हारी योनि आक्रान्त हुई हे।
२. नारी, जो मांसाहारी राक्षस, रीग वा उपष्रव तुम्हारी योनि कौ
आक्रान्त करते हुं, राक्षसहन्ता भग्मि, स्तोत्र के साथ एकमत होकर,
उन सबका विवाह करें।
३. नारी, पुरुष के वीर्य-पात के समय, गर्भे में शृक्र-स्थिति कै समय,
(तीन मास के अनन्तर) गर्भ के गमन के समय अथवा (दस मास के
अनन्तर) अन्म के समय जो तुम्हारे गर्भ को नष्ट करता या मष्ट करने
की इच्छा करता है, उसे हम यहाँ से दूर कर वेते है ।
४. गर्भे नष्ट करने के लिए जो तुम्हारे दोनों जघनों को फेला देता
हुँ, इसी उद्देश्य से जो स्त्री-पुरुष फे बीच में सोता हें अथवा जो योनि के
मध्य पतित पुरुष-शुक्र को चाट जाता हु, उसे हम यहाँ से दूर कर
देते हू ।
५. नारी, जो तुम्हारा भाई, पति और उपपत्ति (जार) बनकर
तुम्हारे पास जाता हं और तुम्हारी सन्तति को नष्ट करने को इच्छा करणा
है, उसे हम यहाँ से दूर करते हैं।
हिन्दी-ऋभ्वेद १४४९
६. जो स्वप्नावस्था और निद्रावस्था में तुस्हें मुग्ध करके तुम्हरे
पास जाता हु और जो तुम्हारी सन्तति नष्ट करने की इच्छा करता
है, उसे हम यहाँ से दुर करते हें।
१६३ सूक्त
(देवता यद्माशन । ऋषि कश्यपगोत्रीय विदृहा | छन्द अनुष्टुप् ।)
१. तुम्हारे दोनों नेत्रों, दोनों कानों, दोनों नासा-रन्ध्ों, चिबुक,
शिर, मस्तिष्क और जिह्वा से मे यक्ष्मा (रोग) को दूर करता हूँ।
२. तुम्हारी ग्रीवा की धमनियों, स्नायु, अस्थि-सन्धि, दोनों भुजाओं;
दोनों हाथों और दोनों स्कन्धों से में रोग को दूर करता हूं ।
३. तुम्हारी अश्ननाडी, क्षुद्रनाडी, बहहण्ड, हूदयस्थान, मूत्राशय, यकृत
भौर अन्यान्य मांस-पिण्डों से में रोग को दूर करता हूं । ॒
४. तुम्हारे दो उरुओं, दो जानुओं, दो गृल्मो, दो पाद-प्रान्तों, दो
नितम्बो, कटिदेश और मलद्वार से में व्याधि को दूर करता हुँ।
५. मूत्रोत्सगं करनेवाले पुरुषाङ्ग, लोम और नख--तुम्हारे सर्बाङ्क
शरीर से में रोग को दूर करता हूँ।
६. प्रत्येक अङ्ग, प्रत्येक लोम, शरीर के प्रत्येक सन्धि-स्थाच और
तुम्हारे सर्वाङ्ग में जहाँ कहीं रोग उत्पन्न हुआ है, वहाँ से में रोग को
दूर करता हू।
१६४ सूक्त
(देवता दुःस्वप्न-नाश । ऋषि आङ्गिरस प्रचेता । छन्द अनुष्टुप्
आदि ।)
१. दुःस्वप्नदेव, तुमने मन पर अविकार कर लिया हूँ। हट जाओ,
भाग जाओ, दूर जाकर विचरण करो। अत्यन्त दूर से जो निऋूति देवता
है, उनसे जाकर कहो कि, जीजित व्यक्ति के सनोरथ विशाळ होते हैं;
इसलिए व मनोरथ-अङ्क करती हूं।
९०९० हिबी-क्र ग्यैद
२. जीवित व्यक्ति के मनोरथ विशाल होते हुँ, वें उत्तम क्य वस्तु
को चाहसे है, उत्तम और सुन्दर फल पाये फी कामना करते हुँ। यम
कल्याणमय नेत्र से देखते हे।
३. आशा के समय, आझा-भद्ध के समघ, आशा सफल होने के सपय,
जाग्रदवस्था में और निद्रावस्था सें जो हम अपकर्म करते हुँ, उन सब
क्लेशकर पापों को अग्नि हमारे पास से दूर रे जायें।
४. इन्द्र ओर ब्रह्मणस्पति, हमने जो पाप किया है, अड्िरा के पुत्र
प्रचेता उस शत्रु-कृत अमङ्धऊ से हमारी रक्षा करें।
५. आज हम विजयी हुए हैं, प्राप्तध्य को पा लिया हैं और हम
अपराध-मुक्त हुए हँ। जघ्ग्रददस्था और निद्रायस्था में अथधा सङ्ुस्प-
जन्य जो पाप हुआ हुँ, बह हमारे हेषी शत्रु के पास जाय। जिससे हम
द्वेष करते हें, उसके पास जाय।
१६५ सूक्त
(देवता विश्वदेव । ऋषि निऋति-पुत्र कपोत | छन्द ज्रिष्टुप् ।)
१. देखो, यहु कपोत निऋंति के द्वारा प्रेरिव दूत हैँ। क्लेश देने
के लिए हमारे घर में आया है । उसकी हम पूजा करते हे। यह अमज्भूल
हम दूर करते हुँ। हमारे दास, दासी आदि और गो, अश्व आदि असङ्ल-
ग्रस्त न हों।
२. देखो, जो कपोत हमारे घर में भेजा गया है, बह हमारे लिए
शुभकर हो--हमारा कोई अम्नद्भल न करे। वुद्धिमान् और हमारे आत्मीय
अग्नि हमारा हव्य ग्रहण करें। यह पक्ष-्युक्त अस्त्र हमें परित्याग कर
जाय ।
३. पक्षधारी और अस्त्र-स्बछूप वा हनन-हेलु कपोत हमें न मारे।
जिस व्यापक स्थान में अग्नि संस्थापित हुए हैं, उसी स्थाम पर यह बैठे।
हमारी गायों और ममृष्यों का सङ्कल हो। देवो, हमें यहाँ कपोत गही
सारे।
हिर्दी-ऋ ग्वेद 5 १४५१
४. पह उलूक जो अमङ्गल ध्वनि करता है, वह मिथ्या हो। कपोत
अग्नि-स्थान सें बैठता है। जिनका दुत बनकर यह आया है, उन मृत्यु
स्वरूप यस को तसस्कार।
देवो, यह कपोत अया देने योग्य है । इसे मन्त्र के हारा भगा दो।
अमङ्गल फा वियाश करके आनन्द के साथ गाय को उसकी आहार"
सामग्री की ओर ले चलो। यह कपोत अतीव वेग से उड़ता है। यह हमारा
भन्न छोड़कर दूसरे स्थान में उड़ जाय।
१६६ सूक्त
(देवता शत्रु-विनाशक । ऋषि वैराज ऋषभ । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. इन्द्र एसा करो कि, में समकक्ष व्यक्तियों में श्रेष्ठ होऊं, शत्रुओं
को हराऊ, विपक्षियों को मार डाले और सर्वश्रेष्ठ होकर में अशेष गोधन
का अधिकारी बन्ं।
२. में शत्रु-ध्वंसक हुआ। मुझे कोई हिसित वा आहत नहीं कर
सकता। यह सब शत्रु मेरे दोनों चरणों के नीचे अवस्थिति करता हेँ।
३. शत्रुओ, जेसे धनुष के दोनों प्रान्तों को ज्या से बाँधा जाता है।
वेसे ही तुम्हें में इस स्थान में बाँधता हूँ । वाचस्पति, इन्हें मना कर दो कि,
ये मेरी बात में बात न कह सकें।
४. मेरा तेज कर्म के लिए ही उपयुक्त हे उसी तेज को लेकर में
शत्र-पराजय करने को आया हूँ। शत्रुओ, में तुम्हारे मन, कार्य और
मिलन को अपहूत कर लेता हूँ। |
५. तुम्हारी उदाजत-प्रोग्यता का अपहरण करके में तुम्हारी अपेक्षा
शेष हुआ हूँ--तुम्हारे मस्तक पर उठ गथा हूं । जैसे जल में मेढ़क बोलते
है, पैसे ही तुम लोग मेरे पैरों के नीचे चीत्कार करते हो।
१६७ सुक्त
(देवता इन्द्र । ऋषि विश्वामित्र और जमदग्नि । छन्द जगती |)
१. इन्द्र, यह मधुतुल्य सोमरस तुम्हारे लिए हाला गया हे। यह ओ
सोमीय कल? प्रस्तुत किया जाता हुँ, उसके प्रभ् तुम्हीं हो। हमारे लिए
१४५१ 'हन्दी-ष्ग्देद
तुम प्रचुर घन और विद्याल पुत्रादि दो। तपस्या करके तुमने स्वगे को
जीत लिया हैं।
२. जो इख स्वर्-विजयी हुए है और जो सोम-स्यरूप आहार पाने
प्र विशिष्ट रीति से आमोद करते हैं। उन्हीं इन्द्र को प्रस्तुत सोम-रस
के निकट आने के लिए बुलाते हैं। हमारे इस यज्ञ को जानो। आओ।
धात्रु-विजयी इन्द्र के पास हम शरणापश्च हुए ह।
३. सोम और राजा वरुण के यज्ञ तथा बृहस्पति और अनुमति की
शरण वा यञ्ञ-गृह में वर्तमान में, इन्द्र, तुम्हारे स्तोत्र में प्रवृत्त हुआ हूं।
घाता और विधाता, तुम्हारी अनुमति से मेने कलशस्थ सोम का पान
किया हे ।
४. इन्र, तुम्हारे द्वारा प्रेरित होकर मेने चरु के साथ अन्यान्य
आहारीय द्रव्य प्रस्तुत फिये हेँ। सर्व-प्रथम स्तोता होकर में इस स्तोत्र
का उच्चारण करता हँ । (इन्द्र की उक्ति)--विइवामि्र और जमदग्नि,
सोम प्रस्तुत होने पर मै जिस समय धन लेकर गृह में आता हूं, उस समय
तुम लोग भली भांति स्तुति करना ।
१६८ सूक्त
(देवता वायु ऋषि वातगोत्रीय अनिल । छन्द त्रिष्टुप ।)
१. जो वायु रथ के समान वेग से दौड़ते हुं, उनकी महिमा का में
घणन करता हूँ । इनका शब्द बस्त्र के समान हे। यह वृक्षादि को तोड़ते-
ताइते आते हें। ये घारों ओर रकतवण करके और आकाश-पथ का
अवलम्बन करके जाते हें। ये पुथिवी की धूलि को बिखर करके जाते हें।
२. यायु की गति से पर्वतादि पर्यन्त काप जाते हूँ। घोडियाँ जसे
युद्ध में जाती हैं, चेसे ही पर्यतादि वायु को ओर जाते हुँ । वायु घोड़ियों
की सहायता पाकर और रथ पर चढ़कर समस्त भुवन के राजा के
समान जाते हूँ ।
हिन्दी-% ग्वेद .._ १४५३
३. आकाश में गति-विधि करने के समय किसी भी दिन स्थिर
होकर नहीं बेठते । ये जल के बन्धू हैं, जल के आगे उत्पन्न होते हुँ
ओर ये सत्य-स्वभाव हैं। ये कहाँ जन्मे हें ? कहाँ से आये हैं ?
४. वायुदेव देयों के आत्म-स्वरूप और भुवनों के सन्तान-स्वरूप हैं।
ये यथेच्छ विहार करते हेँ। इनका शब्द ही, अनेक प्रकार से सुना
आता हूं इनका रूप प्रत्यक्ष नहीं होता। हवि के साथ हुम बायु को
पुजा करते हूँ ।
१६९ सूक्त
(देवता गौ । ऋषि कक्षीवान् के पुत्र शवर। छन्द त्रिष्टुप |)
१. सुखकर वायु गायों की ओर बहें। गायं बलकारक तृण, पत्र
आदि का आस्वादन करे । प्रभूत और प्राण-परितुष्तिकर जल ये पियें ।
रुद्रदेव, चरण-घुक्त ओर अञ्च-स्वरूप गायों को स्वच्छन्दता से रक्खो ।
२. कभी गाये समान वर्ण होती हें, कभी विभिन्न वर्णो की और
कभी सर्वाङ्ग एक वर्ण को । यज्ञ में अग्नि उनको जानते हें। अङ्गिरा की
सन्तानों ने तपस्या के द्वारा उनको पृथिवी पर बनाया है। पर्जन्यदेव, उन
गायों को सुख दो।
३. गायं अपने शरीर को देवों के यज्ञ के लिए दिया करली हँ।
सोम उनकी अशेष आहुतियों को जानते हैं। इन्द्र, उन्हें दूध से परिपूर्ण
करके ओर एन्दान-्संदुषह बनाकर हमारे लिए गोष्ठ सें भेज दें।
४. देवों ओर पितरों से परामर्श करके प्रजापति ने मुझे इन गायों
को दिया है। इन सब गायों को कल्याण-युक्त करके वे हमारे गोष्ठ में
रखते हे, ताकि हम गायों की सन्तति प्राप्त कर सक।
१७० सूक्त
(देवता सूयं । ऋषि सूर्यपुत्र विश्राद। छन्द जगती आदि ।)
१. अत्यन्त दीप्तिवाले सुयंदेव सधू-दुल्य सोमरस का पान कर और
गज्ञानुष्ठाता व्याक्ति को उत्तम आयु दें। बे वायु के द्वारा प्रेरित होकर
१४५४ हिन्दी-व्दम्वेव
प्रजावर्ग की स्वयं रक्षा करते हैं, प्रजायर्ग का पोषण करते ओर अशेष
प्रकार की शोभा पाते हूं।
२. सूर्य-रूप और प्रकाशमय पदार्थ उदित हो रहा है। यह प्रकाण्ड,
दीप्तिशाली भली भांति संस्थापित और उर्पोत्कृष्ट अज्नदाता है। यह
आकाश के ऊपर संस्थापित होकर आकाश को आश्रित किये हुए है। ये
दाञु-हन्ता, वृत्र-वध-कर्ता, असुरों के घातक और विपक्षियो के संहारक्ष हँ।
३. सुर्यं सारे ज्योतिर्भय पदार्थों में श्रेष्ठ और अग्रगण्य हें । ये
विश्वजित् और धनजित् हें। ये प्रकाण्ड, बीप्तिशाली और सारी वस्तुओं
को आलोक-यक्त करनेवाले हैं। वृष्टि की सुविधा के लिए ये बिस्तारित
हुए है। ये बल-स्वरूप और अविचरू तेजबाले हू!
४. सुर्ये, तुम ज्योति से प्रकाशमय होकर आकाश के उज्ज्वल स्थान
में गये हो । तुम्हारा प्रताप सारे कर्मों का सहायक है, सारे यश्ञों के
अनुकूल और सारै भुवयों को पुष्टि देनेधाला हे।
१७१ सूक्त
a ep | Ce
(देवता इन्द्र | ऋषि भृगु-पुत्र इट । छन्द गायत्री |)
१. इन्द्र, इट ऋषि ने जिस समय सोम प्रस्तुत किया, उस समय तुमने
उमफे र्थ्य की रक्षा री--सो भ-स्प उस ग्द पता तुम: | र फार सुनी ॥
२. यज्ञ काँप गया---धनुर्द्धारी यन्न का अस्तक शरीर से तुमने पृथक्
फिया। सोमवाले इट के गृह में तुम गये।
३. इस, अस्प्र-युध्न के पुत्र बे बार-बार तुम्हारी स्तुदि फी; इसलिए
तुमने वेन-पुत्र पृथु को उनके वश में कर दिया।
इस, जिस समय रम्य मूत सूर्य पश्चिम की ओर जाते हैं, उस
समय देवता) लोग भी नहीं जानते कि, थे कहाँ गये । तुप दिए उन
सूर्य छो पुष को जोर छ जाते टो।
हिन्दी-क्रग्वेद १४५५
१७२ सूक्त
(देवता उपा | ऋषि आहिरिस संवत्ते । छन्द॒ द्विपदा विराट । )
१. चमत्कार तेज के द्वारा तुम आओ। परिपूर्ण स्तन के साथ गायें
मार्ग पर चली हूं। |
२. उषा, उतम स्तोत्र ग्रहण करणे को तुम आओ। यज्ञकर्ता उत्तम
दान-सामग्री लेकर श्रेष्ठ दातृत्व के साथ यज्ञ-सस्पादन करता हुँ।
२. अञ्न-संग्रह करके हम उत्तमोत्तम वस्तुओं का दान करने को उद्यत
हें। सुत्र के समान इस यज्ञ का हम विस्तार करते है। तुम्हें हम यज्ञ
देते हँ।
४. उषा ने अपनी भगिनी रात्रि का अन्धकार दुर किया। उत्तम
रूप से वृद्धि प्राप्त करके रथ का संचालन किया।
१७३ सूक्त
(देवता राजस्तुति । ऋषि आङ्गिरस धुव । छन्द अनुष्टुप् ।)
१. राजत्, तुम्हें मने राष्ट्रपति बनाया। तुम इस देश के प्रभु
बनो। अटल, अविचल और स्थिर होकर रहो। प्रजा तुम्हारी अभिलाषा
करें। तुम्हारा राजस्व नष्ट न होने पावे।
२. तुस यहीं प्त के समान अविचल होकर रहो। राज्य-च्युत नहीं
होना। इन्द्र के समान निश्चरू होकर यहाँ रहो । यहाँ राज्य को धारण
क्रो ।
३. अक्षय्य होमीय द्रव्य पाकर इन्द्र ने इस नवाभिविक्त राजा को
आश्रय दिया है। ब्रह्मणस्पति ने आशीर्वाद दिया है।
४. जसे आकाश, पृथिवी, समस्त पर्वत ओर सारा विश्व निश्वर हुँ,
वैसे ही यह राजा भी प्रजावर्ग के बीच अविचल हों।
५. वरुण राजा तुम्हारे राज्य को अदिचल करे, बृहस्पतिदेव अविचल
फरे, एुख्न और अग्नि भी इसे अदियर रूप से धारण करें। .
१४५६ हिन्दी-ऋ ग्वेव
६. अक्षग्य हवि के साथ अक्षय्य सोमरस को हम मिलाते हं; इसरि,ए
इद्र मे तुम्हारी प्रजा को एकावत्त और कररदानोन्मुग्र बनाया हूँ।
१७४ सूक्त
(देवता राजस्तुति । ऋषि आङ्किरस अमीवत्ते । छन्द अनुष्ठुप् ।)
१, यज्ञ-सामग्री लेकर देवों फे निकट जाना होगा । यज्ञ-सामग्री
पाकर इन्द्र अनुकल हुए हें । ब्रह्मणस्पति, एसी यज्ञ-सामग्री के साथ हमने
यज्ञ किया है; इसलिए हमें राज्य-प्राप्ति के लिए प्रवृत्त करो।
२. जो विपक्षी हैं, जो हमारे हिंसक गत्रु हें, जो सेना लेकर युद्ध
करने को आते हें और जो हमसे द्वेष करते हें, राजन्, उनको अभिभूत
करो ।
३. सविता वेब तुम्हारे प्रति अनुकूल हुए हेँ। सोम अनुकूरू हुए हूँ
और सारे प्राणी तुम्हारे अनुकूल हुए हें । इस प्रकार तुमने सबके पास
आश्रय पाया हे।
४. देवो, जिस यज्ञ-सामग्री के द्वारा इन्द्र कम-कर्त्ता, अन्नवान् ओर
उत्तम हुए हें, उसी से मेंने भी यज्ञ किया हूँ। इसी से में शत्रु-रहित
हुआ हू। |
५. मेरे शत्र नहीं हैं। मेंने शत्रुओं का वध किया ह। में राज्य का प्रभु
और विपक्ष-वारण में समर्थ हुआ हूँ। में सारे प्राणियों और मन्त्री आदि
का अधघीइवर हुआ हूं।
१७५ सूक्त
(देवता सामाभिपवकारी प्रस्तर | ऋषि सपघि अबु द के पुत्र
ऊदूध्वम्रीवा । छन्द गायत्री ।)
१. प्रस्तरो, सनितादेय अपनी शकत के द्वारा तुम्हें, सोम प्रस्तुत
करने को, नियुक्त करें। तुम अपने कमं में नियुक्त होओ और सोम
प्रस्तुत करो ।
हिन्दी-क्रग्वेद १४५७
२. स्तरो, दुःख-कारण को दूर करो। दुर्मति को दूर कर दो।
गायों को हमारे लिय आओषध-स्वरूप बनाओ।
३. परस्पर मिलकर ध्रस्तर एक विस्तत प्रस्तर की चारों ओर
शोभा पा रहे हे! रस-वर्षक सोम के प्रति वे प्रस्तर अपने बल का
प्रयोग ररते है। |
४. प्रस्तरो, सविता देव सोमयञ्ञकर्ता यजमान के लिये तुम्हें सोम
प्रस्तुत करने को नियुक्त करें। |
१७६ सूक्त
(आभु ओर अग्नि देवता । ृभुःपृत्र सूनु भ्रषि। आनुष्टुप् ओर
गायत्री छन्द ।)
१. ऋभ लोग, घोर पुद्ध करने के लिये, निकले। जेसे बछड़े अपनी
माता गाय को घरकर खड़ ही जाते हे, बसे ही वे संसार को धारण करने
के लिये पर्थिवी के चारों ओर व्याप्त हुए।
२. ज्ञानो अग्निदेव को देव-योय्य स्तोत्र के द्वारा प्रसञ्च करो। बह
यथा-नियम हमारे हुव्य का वहन करें।
३. थह वही अग्नि हैं, जो देवों के निकट जाते हैं। यह होता है।
यज्ञ फे लिये इनको स्थापना की जातो हुं। रथ के समान यह हव्य का
बहन करते हें । पह पुरोहित-यजमानों के द्वारा घिरे हुए हँ। यह किरण-
यक्त हं । यह स्वयं यज्ञ सम्पन्न करना जानते हें। _
४. अग्नि रक्षा करते ह! इनकी उत्पत्ति अमृत के सदृक्ष है। यह
बलवान को अपंक्षा भी बली हुं। परमायुव द्धि के लिये यह् उत्पादित
हुए ६।
प॥० ९२
१४५८ हिन्दी-ऋणग्वेद
१७७ सूक्त
(माया देवता । प्रजापाति-एन्र पतङ्ग ऋरषि। जगती और त्रिष्टुपृ
छ्न्द ।)
१. सन में विचार करके मानस चक्ष से विद्वानों न एक पतंग
(जीवात्मा) को देखा कि उसे आसुरी माया आकान्त कर चुकी ह्।
पण्डितो ने कहा कि यह समुद्र के बीच घटित हो रहा हैं । वे (विद्वान लोग)
विधाता की किरणों में जाने को इच्छा करले हैँ ।*
२. पतंग सन ही सन वचन को धारण करता हुँ। गर्भ के मध्य में
ही उसे गन्धव न वह वाक्य सिखाया हुँ ' बह वाणी दिव्य, स्वग-सुख
देनेवाली और बद्धि की अधीश्वरी हैं ' सत्य-माग म विद्वान लोग उस
वाणी की रक्षा करते हा
३. सेने देखा, गोपालक (जीवात्मा) का कभी पतन (विमाझ)
नहीं होता ' बह कभी समीप और कभी दूर, नाना मार्गो मं भ्रमण करता
है। बह कभी अनेक वस्त्र एकत्र ही पहुनत हु और कभी पृथक्-पृथक्
पहनता हें । इस प्रकार वह संसार मं बार-बार आता-जाता हे
Ce
*ज़ीवात्मा माया से आउ्छश्च ह----यह बात चिन्तन फे द्वारा जानी
जाती हं . समुद्रवत परमात्मा के बीच म हो जीवात्मा रहता ह। परमात्मा
का घास आलोकमय हे। वहाँ जाने से ही माया से मुक्ति मिलती ह।
{जीवात्म (पतंग) में बीज-रूप से सारे शब्ब रहते हु। गर्भावस्था
सें ही गन्धवे अर्थात देवता उसके मन में उस बीज को वे देते हें।
वाक्य की शक्ति असीम हृ। बृद्धिसान लोग उसे कभी मिथ्या की ओर
नहीं ल जाते
7जीवात्माओं का ध्वंस नहीं होता, बह नाना योनियों में भ्रमण
करते हें। किसी जन्म में नाना गुण (वस्त्र) धारण करते हें और किसी
जन्म में दो-एक । निकृष्ट योनि में अल्प गुण रहता है और उत्कृष्ट योनि
में अनेक गुण देख जाते हूं।
ग ना + ५
हिन्दी-ऋणग्वेद १४५९
१७८ सूक्त
(ताच्ये देवता | वाच्ये के पुत्र अरिष्टनेमि आृषि। त्रिष्टुप् छन्द!) :
१. जो ताक्ष्य पक्षो (गरुड) बळी हे, सोम लाने के लिय जिसे देवों
ने भेजा था, जो विपक्ष-विजयो और शचुओं के रथों का जयी है, जिसके
रथ का कोई ध्वंस नहीं कर सकता और जो सेनाओं को युद्ध में प्रेरित
करता हुँ, उसी को हम संगल-कासना से बुलाते हैं।
२. हम ताक्ष्ये पक्षो की दान-शक्ति को बुझाते हें। जैसे हम इन्द्र
की दानशक्ति का आह्वान करते हे, बसे ही आह्वान करते हैं। मंगल
के लिये हुम इस दानशक्ति का, विपत्ति से पार पाने के निमित्त, नौका
के समान आश्रय करते हें। द्यावापुथिवी, तुम विशाल, बुहत्, सर्वव्यापक
ओर गंभीर हो। जाने वा आने के समय हम न मरें।
३. जेसे अपन तेज के द्वारा सूर्ये बुष्टि-वारि का विस्तार करते हैं,
वैसे ही ताक्ष्यं पक्षी ने अति शीघ्र चार वर्णों और निषाद को परिपूर्ण
भाण्डार कर विया। गरुड़ की गति शत और सहस्र धनों की दात्री है
भसे वाण फे लक्ष्य म संलग्न होने पर उसमें कोई बाधा नहीं दे सकता,
वेसे ही ताक्ष्यं के आगमन में कोई बाधा नहीं दे सकता।
१७९ सूक्त
(इन्द्र देवता। १म के उशीनर-एत्र शिबि, रय के काशीनरेश प्रतदन
खोर इय के रोहिदश्व-पत्र वसुमना ऋषि। अनुष्टुप ओग
त्रिष्टुप् छन्द्।)
१. पुरोहितो, उठो। इन्द्र के समयोचित भाग के लिय उद्योग करो।
यवि वह पकाया जा चुका है, तो होम करो और यदि अभी अपक्व हैं, तो
उत्साहपु्वक पाक करो।
१४६० हिन्दी-ऋग्वेक
२. इन्द्र, हव्य-पाक हो चुका हैं। समीप आओ। सूर्य अपने प्रति-
दिन के कुछ कम आध मार्ग (विकलमध्य) मं पहुंच चुके हे । जेसे कुल-
रक्षक पुत्र इतस्ततः विचरण करनंवाल गृहपति को प्रतीक्षा करते हे, बंसे
ही बन्ध् लेग विविध-यज्ञ-सामग्री लेकर .तुम्हारी प्रतीक्षा करते हु ।
३. प्रथम थाय के स्तन थ दुग्ध बा.“बधिधर्माख्य हवि” का पाक
होता ह, पुनः, मुझ विदित हुँ कि, वह अर्नि मं पकाया जाकर अत्युसम पाक
की अवस्था को प्राप्त होता ओर अतीव पवित्र तथा नवीन रूप धारण
करता हू। बहुधन-वितरणकर्त्ता और वज्भाधर इन्द्र, वोपहर के यज्ञ में
तुम्हें जो “दधिघर्माख्य हवि” का अपेण किया जाता हु, उस हवि का,
आस्था के साथ, तुम पान करो।
१८० सूक्त
(इन्द्र देवता । इन्द्र-ए् जय ऋषि। त्रिष्टुप छन्द । )
१. बहुतों के द्वारा आहूत इन्द्र, तुम विपक्षियो का पराभव करते
ही। तुम्हारा तेज सब-श्रष्ठ हुं। पहाँ तुम्हारा दान प्रवत्त हो। इन्द्र,
तुम दाहिने हाथ से धन दो। तुम धन के स्रोत के स्वामी हो!
२. जसे पवंतवासी और कुत्सित चरणबाला पशु धोराकृति
होता हैं, इन्द्र, बंसी ही भयंकर सूत्ति में तुम अति दूरवर्ती स्वं घाम से
आय हो । सवंग और तीक्ष्ण वजा पर सान चढ़ाकर शत्रुओं को मारो
और विपक्षियों को दूर करो। | ॒
२. इन्द्र, तुम एसे शुन्दर तेज को लकर. जनमे हो, जिसके द्वारा
दूसरे | के अत्याचार का निवारण करते ही ' तुम पनुष्यों की कामना को
पूर्ण करते हो और शत्रता करनवाल लोगो को ताड़ित करते हो । तुमने :
देवों के लिय ससार को विस्तोण कर दिया हु ॥
हिन्दी-करगवेद १४६१
१८१ सूक्त
(विश्वदेव देवता। १म के वासिष्ठ प्रथ, श्य के भरद्वाज सप्रथ और
रेय के सूर्यपुत्र धर्म ऋषि । त्रिष्टुप छन्द ।)
१. जिन (वसिष्ठ) के वंशज प्रथ हे और जिन (भरद्वाज) के वंशीय
सप्रथ हं, उनमें से वसिष्ठ धाता, दीप्त सविता और विष्णु के पास से
“रथन्तर' (साम-मन्त्र) ल आय हे। बह अनुष्टुप छन्दवाल और च
नामक हवि को शुद्ध करनवाला हे ।
२. जिस अति निगृढ “बृहत्” (सास-भन्त्र) के द्वारा थज्ञान्ष्ठान
होता हुं और जो तिरोहित था, उसे सबिता आदि ने पाया था। धाता,
दीप्त सविता, विष्ण और आग्नि के पास से भरद्वाज “बहत” को ले आये ।
३. अभिषक-क्रिया-निष्पादक “घमं” (यजुर्वेदीय मन्त्र ) पज्ञ-काये
में, प्रधान रूप से, उपयोगी ह; धाता आदि देवों न उसका मन ही मन
ध्यान करके उसे पाया था। पुरोहित लोग धाता, विष्णु और सूये के
पास से 'घम' को ल आथ हे । |
१८२ सूक्त
(वृहस्पति देवता । बृहस्पति-पृत्र तपुमूद्धी ऋषि। त्रिष्टुप् छन्द । )
१ बृहस्पति दुर्गेति को नष्ट करे, पाप-नाश के लिय स्तुति की
स्फूत्ति कर द, अमंगल को नष्ठ कर दें और दुमेति को दूर कर दें। वहू
यजमान के रोग का नाश कर ठे और भय को हर ले जायं।
२. प्रयाज में नाराशंस नामक अग्नि हमारी रक्षा करे, अनयाज
में भी बह् हमार? मंगल करें। अमंगल को नष्ट कर दं और दुमंति
को दूर कर दें। वह यजमान के रोग का नाश कर दें और भय
को हर ल जायं। ही
१४६२ न्दी -यहग्येद
क उ
३. स्तोत्र-द्वेषी राक्षसों को प्रतप्त-शिरा बृहस्पति दग्ध करें।
ऐसा होने पर हिसक मर जायगा। वहु अमंगल को नष्ट कर दे और
हुर्मेति को दूर कर दें। वह यजमान के रोग का नाश कर दें और
भय को हर छे जायें।
१८२ सूयत
(यजमान, यजमान-पन्नी ओर होता का आशीर्वाद देवता |
प्रजापति-पुत्र प्रजावान ऋषि | त्रिष्टुप छन्द ।)
१. यजमान, मेंने मानस चक्ष् से तुम्हें देखा । तुम ज्ञानी हो, तपस्या
से उत्पन्न हो और तपस्या के द्वारा श्री-वस्धि पायो हैँ! यहाँ पुत्रादि
और घन पाकर प्रसन्न होओ। पुत्र ही तुम्हारी कामना हुं; हसलिय पुत्र
उत्पन्न करो । |
२. पत्नी, मेने मानस चक्षु से देखा कि तुम्हारी मूत्ति उज्ज्वल
हें । तुम यथासमय अपने शरीर में गर्भाधान की कामना करतो हो।
तुमने पुत्र की इच्छा की हे। मेरे पास आकर तुम तरुणो हो जाओ।
सुम पुत्र उत्पन्न करो ।
३. में होता हूं। में वृक्षादि मं गर्भाधान का कारण हूं । में हो अन्य
प्राणियों मे भी गर्भाधान करता हूँ । में पृथिवी पर प्रजा उत्पन्न करता
हुँ। अन्य स्त्रियों म भी में पुत्र उत्पन्न करनेवाला हुं--यज्ञ करके सब
सें पुत्र उत्पन्न कर सकता हूँ ।
१८४ सूक्त
(बिष्णु आदि देवता । त्वष्टा ऋषि। अनुष्टुप छन्द ।)
१. स्त्री के वरांग को विष्णु गर्भाधान फे उपयुक्त कर दे, त्वष्टा
स्तरो-पुरुष के अभिव्यञ्जक चिल्लो का अवयव कर दें, प्रजापति वीर्य-
` पात में सहायक हों और घाता तुम्हारे गर्भ का धारण करें।
हिन्दी-ऋणग्वेद १४६३
२. सिनीवाली, गर्भ का धारण करो। सरस्वती, तुम भी गर्भ का.
धारण (रक्षण) करो; स्वर्ण-मय कमल का आभूषण धारण करनेवाले
अध्विद्यय, तुम्हारा गर्भे उत्पादित करें ।
रे. पत्नी, तुम्हारी गर्भस्थ सन्तान के लिये अश्विद्वय जो सुवणे- `
निर्मित दो अरणियों का घर्षण किये हुए हें, दसवें मास में प्रसव होने
फे लिय तुम्हारी उसी गर्भस्थ सन्तान को हम बुला रहे हें ।
| १८५ सूक्त
(आदित्य देवता । वरुण-पुत्र सत्यधृति ऋषि । गायत्री छन्द |)
१. हम मित्र, अर्यमा और वरुण का सतेज, बुद्धेष और महान '
आश्रय प्राप्त करं।
२. गृह्, पथ और दुर्गंम स्थान मं उन तीनों के आश्रित व्यक्तियों
के ऊपर किसी ट्रेषी शत्रु की चाल नहीं काम करती ।
३. ये तीनों अदिति-पुत्र जिसे निरन्तर ज्योति देते हुं, उसकी
जझीवन-रक्षा होती हं और उस पर किसी शत्र को नहीं चलती ।
१८६ सूक्त
(वायु देवता । बातगोत्रीय उल षि । गायत्री छन्द ।)
२. ओषध फे समान होकर वायु हमारे हृदय के लिये शाबें।
यह कल्याणकर ओर सुखकर हों। वह आय् का विस्तार करें ,
२. वायु, तुम हमारे पिता, भ्राता ओर बन्धु हो। दुम हमारे जीवन
के लिये औषध करो।
३. वायु, तुम्हारे गृह में यह जो अमृत की निधि स्थापित है, उससे
हमारे जीवन के लिये अमत दो ।
१४६४ हिन्दी-ऋग्वेद
१८७ सूक्त
(अग्नि देवता । अग्नि-पुत्र वत्स ऋषि । गायत्री छन्द |)
१. मनुष्यों, मनुष्यों के काम-वर्षक अग्नि के लिये स्तुति प्रेरित
करो। वह हमें शत्रु के हाथ से बचावं।
२. अग्नि अत्यन्त दूर देश से आकाश को पार करके आये है । वह
हमें शत्रु के हाथ से वचार ।
३. यष्टि-वर्षक अग्नि उज्ज्वल शिखा के द्वारा राक्षसों का वष
करते हें। बह हमे शत्र के हाथ से बचावें।
४. वह सारे भुवनों का, पथक्-पयक रूप से, निरीक्षण करते हूँ--
मिलित भाव से भौ पर्यवेक्षण करते है। वह हमें शत्रु के हाथ से बचावें।
५. उन अग्नि ने द्युलोक के उस पार में उज्ज्वल मूर्ति में जन्म ग्रहण
किया हु। बह हमें शत्रु के हाथ से बचायें।
१८८ सुक्त
(इनी अग्नि देवता । आभ्ि-पृत्र श्येन ऋषि । गायत्री छन्द ।)
१. पुरोहित-यजमानो, ज्ञानी अग्नि को प्रज्वलित करो। वह चतु-
दिग्व्यापी और अझ्नयान् हैं। वह आकर कुश पर बंठें।
२. बद्धिमान् यजमान अग्नि के पुत्र हें। अग्नि वष्टि-वारि का सेचन
करते हें । इनके लिये में विस्तृत और शोभन स्तुति प्रेरित करता हुँ ।
३. अग्नि अपनी काली, कराली आदि रुचिकर शिखाओं के द्वारा
देवों के पास हवि ले जाते हें । वह उनके साथ हमारे यज्ञ में पधारे ।
१८९ सूक्त
(सूये वा सापंराज्ञी देवता । सार्पराज्ञी ऋषिका । गायत्री छन्द॒ ।)
१. गतिपरायण और तेजस्वी सुयं उदयाचल को प्राप्त करके अपनी
माता पूर्व दिशा का आलिंगन करते है । अनन्तर वह अपने पिता आकाश
की ओर जाते हूं।
हिन्दी -ऋग्वेद १४५
२. इनकी देह में दीप्ति विचरण करती है। बह दीप्ति इनके प्राण
के बीच से निकल कर आ रहो हुँ। महान् होकर इन्होंने आकाश को व्याप्त
किया ।
३. सूर्यं के तीस स्थान (मुहुत्त॑==दो दण्ड) शोभा पाते हैं। गतिः
परायण सूयं के लिये स्तुति उच्चारित की जा रही है। बह प्रतिदिन
अपनी किरणों से विभूषित होते हेँ।
१९० सूक्त
(सृष्टि देवता। मधुच्छन्दा के पुत्र अघमर्षण आृषि। अनुष्टप
छन्द ।)
१. प्रज्वलित तपस्या से यज्ञ और सत्य उत्पन्न हुए । अनन्तर दिन-
रात्रि उत्पन्न हुए और इसके अनन्तर जल से पुर्ण समुद्र की उत्पत्ति हुई।
२. जल-पू्णं समुद्र से संवत्सर उत्पन्न हुआ । ईश्वर दिन-रात्रि को
बनाते हें। निमिष आदिवाले सारे संसार के वह स्वामी हैं ।
३. पूर्व काल के अनुसार ही ईश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, सुखकर स्वगे,
पृथिवी और अन्तरिक्ष को बनाया ।
१९१ सुक्त
(प्रथम के अग्नि ओर शेष के संज्ञान (ऐकमत्य) देवता । संवनन
ऋषि। अनुष्टुप् और त्रिष्टुप् छन्द ।)
१. अग्नि, तुम कामवर्षक और प्रभू हो। तुम विशेष रूप से प्राणियों
में मिश्रित हो। सुम यज्ञ-वेदी पर जलते हो। हमें धन दो।
२. स्तोताओ, तुम मिलित होओ, एक साथ होकर स्तोत्र पढ़ो और .
तुम लोगों का मन एकसा हो । जसे प्राचीन देवता, एक-मत होकर, अपना
हविर्भाग स्वीकार करते है, वैसे ही तुम लोग भी, एक-सत होकर, घनादि
ग्रहृण करो ।
००५,
३. इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ
हो और ६नके मन (अन्तःकरण) तथा चित (विचारअन्य ज्ञान) एक
विघ हों। पुरोहितो, मं तुम्हें एक ही मन्त्र से मन्त्रित (संस्कृत) करता
हँ और तुम्हारा, साधारण हृयि से, हुवन करता हूं?
४. यजमान-पुरोहितो, तुम्हार अध्यवसाय एक हो, तुम्हारे हुदय
एक हों ओर तुम्हार! अन्तःकरण (मन) एक हो। तुम लोगों का
सम्पूर्णं रूप से संघटन हो।
'्रष्ट्म अध्याय समाप्त
अष्टम खष्टक समाप्त
दशम मण्डल समाप्त
हिन्दी-ऋग्वेद ( -संहिता) समाप्त
ओं तत् सत्
ऋग्वेद-सम्बन्धी उल्लेखनीय ग्रन्थ
ऋग्वेद-सम्बन्धी वाङ्मय के जिज्ञासु पाठकों के व्यापक ज्ञान के
संवद्धन के लिये यहाँ कुछ महत्त्व-पूर्ण ग्रन्थों और उनके समालोचना-
ग्रन्थों की सूची (मूल्य, प्रकाशन-समय प्राप्ति-स्थान आदि के साथ )
विशेष रूप से संग्रह करके प्रकाशित की जा रही है।
इस सूची से ऋग्वेदीय साहित्य की विशालता का पता लग सकेगा
और पढ्न पर ऋग्वेद के प्रति संसार के प्रसिद्ध वेदाभ्यासियों के विचार
भी विदित हो सकेंगे । इनमें से कुछ ग्रन्थ अलम्य हैं! जो मिलते भी
हैं, उनका पुस्तक-विक्रता मंह-माँगा मूल्य छेते हें।
१,
. कपाली शास्त्री--सिद्धाञजम-भाष्य । अपुणं ।
सायणाचायं--ऋग्वेद (शाकल-संहिता) । संस्कृत-भाष्य ।
प्रो० मेक्समूलर और श्री पशुपति आनन्द गजपति राय द्वारा
सम्पादित । प्रथम संस्करण १८४९-७५ ई० । पाँच भाग !
द्वितीय संस्करण १८९०-९२! चार माग । .- ३००]
- राजाराम शिवराम शास्त्री--.सायण-भाष्य । शकाब्ट
१८१०-१२ । ॒ .. १५०]
. वुर्गादास लाहिड़ी--सायण-भाष्य । प्रथम अष्टक का बँग
भाषा में स्वतन्त्र अनूवाद। १६ भाग । पद-पाठ-सहित ।
वंगाक्षर। १९२५ ई०। | .. २५०]
- प्रसन्तकुमार विद्यारत्न-- प्रकाशित । सायण-भाष्य ।
१८९३ ० । .. १० ०]
वेंकट माधव--संस्कृत-भाष्य । तीन भाग । अपूर्ण । १९४६ ई० । १५०]
. स्कन्द स्वामो--संस्कृत-भाष्य। केवल दो भाग। .. ३॥|)
. उद्गीथ --संस्कृत-भाष्य । अपर णे । .. उँ]
- मध्वाचाय---संस्कृत-भाष्य । केवल दो भाग। .. २१]
. शिवशंकर आहिताग्नि--'वेदिक जीवन! हिन्दी-भाष्य ।
४ भाग। “. १००]
॒ ३५)
सातवलेकर---सुत्रोध हिन्दी-भाष्य । १७ खण्ड । अपूर्णः २१]
- स्वामी दयानन्द सरस्वती--हिन्दी-भाष्य । पंचम अष्टक के
पाँचबें अध्याय तक । , ४२)
( २ )
. आर्य मुनि--हिन्दी-भाष्य । सप्तम-भाग-रहित। 55. ३७]
` एस० पी” पण्डित--केवल तीन मण्डल। मराठी और
अंगरेजी अत बाद । ७५]
. सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव--केवल मराठी अनुवाद। १२)
. कोल्हटकर और पटवरद्धंन--मराठी अनुवाद । आठ भाग।
पृष्ठ-सख्यो १२४४ । १०)
रमेशचन्द्र दत्त--कैवल वंगानुवाद | दो भाग । १८८५-८७ ई० । २०]
एफ० रोजन --यूरोप में सर्व-प्रथम ऋग्वेद के प्रथम अष्टक
का छेटिन भाषा में अनवाद। १८३८ ई०। .. दे
. ए० लडविग---जमेंन भाषा में अनवाद । ६भाग। १८७६-
टट -० २००)
. एस० ओल्डेनबगं--जमंन अनुवाद। दो भाग।
१८०९.१५ 0 । ५ 7३% ३५)
. एच० प्रासमान--जमंन में पद्य-बद्ध अनूदित । दो भाग ।
| रोमन लिपि १८७६-७७ छ । ३ ०]
. ब्यूडोर आउफरेख्त--सम्पादित । रोमन । प्रथम संस्करण
१८६२-७३ द्वितीय संस्करण १८७७ ई०। -- ३५)
एस० ए० लांगलोआ--फ्रेंच भाषा में अनुवाद । चार भाग ।
१८५१ ई० -. २०]
एच० एच० विलसन--अंगरेजी अनवाद। ६ भाग।
१८५०-८८ ६०। °. १२५)
. टी० एच० ग्रिफिय--अंगरेजी पद्यानवाद। दो भाग।
१८८९-९३ $०। १५)
` सायणाचार्य - -एतरेय-ग्राह्मण । संस्कृत-भाष्य। दो भाग)
फ़ाशौताथ शास्त्री द्वारा प्रकाशित । १८९६ ई०। .. १०)
. माटिन हाग--एतरेथ ब्राह्माण । अंगरेजी अनुवाद । दो भाग ।
१८६३ ई०। ९
. ए० बी० कीथ--ऋग्वेद-ब्राह्मण (ऐतरेय और कौषीतर्कि)
अँगरेजी अनुवाद। दस भाग । १९२० ई०। ३४]
' बी० लिडनर---कोषीतकि-ब्राह्मण। सम्पादित । १८८७ ई०। ८]
` सत्यव्रत सामश्रमी --ऐतरेय-ब्राह्मण । सम्पादित । सायण-
भाष्य, १८५२-६२ ४० । १०]
सत्यव्रत सामश्रमी--एतरेयारण्यक । सम्पादित । सायण-
भाष्य । १८७२-७६ ई०। + ७]
प् 3
( ३)
` ए० बी० कीथ--शांखायन-आरण्यक | अँगरेजी अनवाद । : ९)
सत्यव्रत सामश्रमी--एतरेयालोचन । १८६३ ६० , .. ५)
५० मकडानल- -बृहद्ेवता सटिप्पन | १९०४ ई० ¦ ` २५]
` ५० मकडानल---क्रकसर्वानक्रमणी । 'वेदा्थ-दीपिका' २
सहित सटिप्पन । १८९६ ड
मध्वाचाय--ऋग्वेदान्क्मणी । ४}
` मंगळदेव शास्त्री--क्रग्वेद-प्रातिशाख्य । सम्पादित ¦
अंगरेजी भूमिका । , *» ट)
` शौनक--ऋग्वेद-प्रातिशाख्य ( पा्षद-सूत्र) । उवट-भाष्य-
सहित । १८९४-१९०३ ई०। ६)
Fe शर्मा--क्रग्वेद-प्रातिशाख्य । हिन्दी-अन्वाद ।
१९० ६}
` मक्समूलर--नऋग्वेद-ध्रातिशाख्य । जर्मन में टिप्पनी ।
१८५६-६९ ई _ ३९)
. गोविन्द. और अनन्त--शांखायनश्रौत-सूत्र । संस्कृत-टीका । १ ५)
` राजन्द्रलाल भित्र--आइवलायन-श्रौत-सूत्र । सम्पादितं । ˆ
१८६४-७४ ई०. ` ४०).
` ए० एफ० स्टसलर--आश्वलायननगृह्य-सुत्र ¦ सम्पादित । .
दो भाग -. . ११}
. गोविन्द स्वामी --वसिष्ठ-धर्मे-सूत्र । संस्कृत-टीका । २६)
` सत्यद्रत सामश्रमी--निरुक्त। चार भाग। सम्पादित। | |
१८८०-९१६० `. -. १२)
सत्यव्रत सामश्रमी--निइक्तालोचन । ६)
. चन््रसणि विद्यालंकार--निरुक्त पर 'ेदार्थन्दीपक हिन्दी: ,
भाषय । ' ७
/ आ
` विश्वबन्धु शास्त्री--वेदिक-पदानृक्रम-कोष। ५ भोग। १५ ०)
. हुंसराज--वेदिक कोष । .. १५)
एच? ग्रासमान-. ऋग्वेदिक कोष । जमेंन । १८७३-७५ ई०। ५ ०)
ए० +लसफोल्ड-- ऋग्वेद रिपिटीशन्स' , अँगरेजी । दो भाग। ३४) _
अविनाशचन्द्र वास--ऋग्वेदिक इंडिया अँगेजी। |
१९२७ ईण ` | म »)
भगवतदरण उपाध्याय-- वमेन इन ऋग्वेद'। १९४१ ई०। ७]
रामगोविन्द त्रिवेदी -वैदिक साहित्य । १९५०ई६०॥ .. ६)
_ सातवलेकर--वेद-परिचय । तीन भाग | ०० ५)
( ४ )
, राथ और बौर्टालग्क----पीटसंबगे संस्कृत-जमन-महाकोष |
ये पुस्तके इंच स्थाचों पर सिल सकती हें--
१. भोतीडाल बवारसीदास, कचौड़ी गली, बनारस ।
२. ओरियंटर बुक एजेंसी, १५, शुक्रवार, पूना।
३. Otto Harrassowitz, Lipzig, Germany.
सात भाग , पृष्ठ १०००० । १८५५-७५ ई०। .. १०००)
, सत्यव्रत सामश्रमी--त्रयी-चतुष्टय । ड ४०)
. सम्पूर्णानन्द--आर्यो का आदि देश । ,+ ५]
, लो० तिलक--आर्कटिक होम इन दि वेदाज । ८॥)
. ए० हिलेब्रान्त--वांदक डिक्शनरी । तीन भाग । ९०)
. सैकडातल और फीथ---वेदिक इंडक्स । ु ५०)
. भगवद्दत---वैदिक बाङमय का इंतिहास। तीन भाग। १५)
. चिन्तामणि चिनायक वद्य--हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर
( वेदिक पीरिथड ) । १९३० ई० | FR १ ०)
. रासगोबिन्द त्रिवेदौ--'गझुगा---वेद।झू। सम्पादित।
१९३२ ई०। कु २॥)
४. 3. H. Blackwell Ltd., $0/51, Broad Street,
Oxtord, England.
W. Heffer and Sons Litd., Cambridge,
England.
हिन्दी में वारो वेद
क्या आपको मालूम हूँ कि आपके पुर्वज कौन थे? क्या आप
जानते ह कि आपके पूर्वज कहाँ के निवासी थे? कया आपको पता हे कि
हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति और हिन्दू-सभ्यता की आधार-शिला क्या हँ?
क्या आप नहीं जानते कि आपके पुवं पुरुष आर्यों के प्रचण्ड प्रताप का
लोहा सारी धरित्री मानती थी? तो, हमारे यहाँ से हिन्दी मे प्रकाशित
चारों वेदों के आज ही ग्राहक बन जाइये
इनसे आपको उक्त प्रश्नों के उत्तर तो मिलेंग ही, साथ ही हिन्दू
जाति के आदि इतिहास, प्राथमिक साहित्य और समूची सद्गुणावली का
भी पूण ज्ञान प्राप्त हो जायगा। वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करते ही
आप ओज, तेज और तारुण्य की भूति बन जायँगे और आपका जीवन
दिव्य और भव्य हो रहेगा। प्रत्येक वेद के साथ विस्तृत और मामिक
भूमिका तथा महत्त्वपूर्ण विषय- श्ी भी रहेगी। हिन्दी ऋस्वेद”
प्रकाशित हो चका है और अन्य वेद छप रहे हैं।
सचित्र हिन्दी महाभारत
महाभारत को पाँचवाँ वेद कहा जाता ह । संस्कृत में कहावत
हे-- यन्न भारते, तञ्च भारते।” अर्थात् जो वस्तु महाभारत में नहीं हे,
वह् भारतवर्ष में भी नहीं है। यह ग्रन्थरत्न हिन्दू-जाति की सम्पूर्ण ज्ञान-
राशि का आकर है, अगाध वारिधि है। इसमें एक से एक बढ़कर उप-
देश हे, हृदयग्राही आख्यान हें, तीर्थ-ब्रतों का रहस्य है, प्रातःस्मरणीय
पुरुषों के आदर्श चरित हें और मानव-जीवन को उत्तम बनाने की
प्रत्येक सामग्री हँ । भगवद्गीता के समान अनमोल रत्न इसी महाग्रन्थ
का एक अंश हे । रंगीन-सादे चित्रों की भरमार है। सुन्दर जिल्द है।
यह दस खण्डों में प्रकाशित हुआ है। १ से ८वें खण्ड तक प्रत्येक खण्ड
का मूल्य १०) हूँ। ९वें खण्ड का ५॥) और १०वें का ४) है। पूरे
प्रन्य का मूल्य ८०) हे ।
इंडियन प्रेस (पब्लिकेशन्स), लिमिटेड, प्रयाग
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भगवद्गीता का परिचय देना सूर्य फो दीपक दिशाना है। गीता
की महिमा और गरिमा का कायल निखिल महीमण्डछ हे । एस ग्रन्थ पर
समस्त संसार का विद्वत्समाज मग्ध हुँ। यह #दापत सोलटों आन बही
हुँ कि “बिन गीता नहि ज्ञान ।
इसी अनमोल मणि को धरस-सुन्दर हिन्दी-टीका हमने प्रकाशित
की हँ। साथ में मल श्लोक भी है मल्य फेवल आठ आन ।
सचित्र श्रीमद् भागवत
श्रीमदभागवत १८ डी पुराणों का मकुट मणि टे । कहावत है
“विद्यावतां भागवते परीक्षा । अर्थात् विद्वानों के ज्ञान की परीक्षा भागवत
में ही होती है। इसके प्रत्येक श्लोक में उदास विचार और भवित की
विमल मन्दाकिनी ब्रहती हैं। इसी ग्रन्थ का हिन्दी अनवाद प्रस्तत
ह् । रंगीन-सादे चित्रों की बहलता 21 २जिल्दों का मल्य | १६ ) रु & ।
सचित्र वाल्मीकीय रामायण
यह हिन्दू-संस्कृति का जीता-जागता उतिहारा हे । मर्यादा-परुषोत्तम
भगवान् रामचन्द्र का अनपम चरित्र आदर्श पातिब्रत्य धर्म आदर्श भ्रात-
प्रेम, आदर्श स्वामि-भक्ति और आदश पित-भवित आदि का ज्ञान प्राप्त
करने के लिए यह ग्रन्थ अमोघ साधन हं । सरसा भाषा में किये गये हिन्दी-
अनुवाद का मूल्य ६॥।) प्रति भाग ।
सचित्र रामचरितमानस
हिन्दू-जीवन को शान्ति और आनन्द देनेवाला रामचरितमानस अनपम
ग्रन्थ है । विदेशी और विधर्मी सस्कृतिथों के भीषण आक्रमणों से इसौ ने
हिन्दू-जाति को बचाकर आज तक सुरक्षित रखा हैं । उसका पाठ गोस्वामी
तुलसीदास की हस्तलिखित पुस्तक से शोधा गया है । ७० पष्ठों की भमिका
है । ११०० से भी अधिक पृष्ठो के सचित्र सजिल्द ग्रन्थ का मल्य
केवल १२) २०। त
ज्ञनेश्व॒री
संसार की भाषाओं मे गीत। पर जितनी भाष्य-टीकाएँ और
आलोचना-प्रत्यालोचनाएँ निकली हे, उनमें प्रसिद्ध सन्त ज्ञानेश्वर महा-
राज की ज्ञानेश्वरी टीका सर्व-श्रेष्ठ गिनी जाती है। बई अक्षरों में मळ
श्लोक और साधारण अक्षरों में टीका है। मूल्य सजिल्द ६) ₹०।
इंडियन प्रेस (पन्लिकेश'न्स), लिमिटेड, प्रयाग