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Full text of "Sri Sri Vishnu Purana"

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ॐ ` 
रीश्रीकिष्णुपुराण 


[ मूर शोक भौर दिंदी-अलुवादसदहित ] 


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( संचिच्र ) 


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अनुवादक 


भरीपरनिलार गुप 


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मोतीलाल जालान 
गीताप्रेस, गोरखपुर 


सं० १६६० से २०९१४ तक २१२५० 
सं० २०१८ पद्म संस्करण ५,००० 


सं० २०२४ पष संस्करण ५,००० 





कुरु ३१.२५० 
(वि €. ©. 300६ 
| शि 


(5.१. (ण &(९ | 
णाप, | 








7117011. | 
| 4५. ‰० ४ 0 2 9 ० 


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मूल्य कपदडेकी जिल्द्‌ ५,१० पोच रुपये 


पता- गीतप्रेस, पी० गीतप्रेस ( गोरखपुर 


श्रोहूरिः 


[४ 
विषय-सूची 
अध्याय्‌ विधय पृ अध्याय विपय 
प्रथम अंस २१-करधपजौकी अन्य स्त्रियोकं वंश एवं म्द्गणकी 
उत्पत्तिका वणन "^" 
९-्र्यका उपोद्धात 7 ११ विष्णुभगवानृकी चिभूति भौर जगतुकी 
8 ~ (6 न प भ 
२-चीबोस तत्स्रोके विचारक राश जगतुके उत्पत्ति- ९९ ॥ भ त हं 
~ ^ ^ र्ण "^ 
क्रमका वर्णन ओर विष्णुकी महिमा १४ वस्वाकरा वणन 
३-त्रह्मादिकी भायु रीः कालका स्वरूप २० , द्वितीय अश्च 
छ~ब्रह्माजीको उत्पत्ति, वयह भगद्रानुष्रार पृरथित्री- १-परियन्रतमे वंदा वर्णन 
५ „_ ` ^ -प्रियद्रतके चंशका ठ 
का उद्धार ओर ब्रह्माजीषमी खाके-रथना २२ गोलक ठि 
~ त टि ति [वि = नथ] त्रुरण 
अविद्यादि धिचिधे सर्गा वणन २७ रूषक व का 8 
[भ ए ¢ = म्र 
६-चातुरवर्ण्य-ग्यवस्था, पुथिवी-तिभाग भौर ३~भारतादि नौ खण्डक विभाग गं ~ 
अन्नादिको उत्पत्ति वर्णन ३३ भ-ष्ट्ष तथा शाल्मल आदि दीपोका विशेष वर्णन 
॥ ५6९ 0 ^| ~ क {नि ५१० 
७-परीचि आदि प्रजापक्निगण, तागसिक सर्ग, ५-सान पि व्ण ह 
स्वायम्भुव मनु भीर्‌ रातषटपा तथा उनकी ६-मिन्नमिन्न नरकोका तथा भगवन्नाम 
सस्तानका वर्णन "" ३७ माहुल्यका वर्णन ॥ नि 
^ -भर्भवः भादि वलो कोका वृत्ताः 
८-रोद्र-सुष्टि ओर भगवान्‌ तथा ल्षमीजीको सर्व- थ माद तात ॥ चा 1 वत्त 
व्यापकता वर्णन ` .... ० सूय, नक्षत्र एवं रारियोंगो व्यवस्था तथा 
५ ष्टो षृ णु 
£-दुर्वासाजीक शापसे इच्छरका पराजय, ब्रह्माजीकी गाति छ प ओर्‌ गङ्खानिवका पणन 
स्तृतिसे प्रधन्न हण भगवानृका प्रकट होकर ० तरत ५ ुारतक रो . 
देवताओंको समूद्र-पन्थरका उपद्र करना तथा १०-दादा यकि ताम एवं अभिका वणन 
देवता भौर दैसयोका समुद्र-मन्थन | ४३. ६ १-पधकित एवं ववी शकितका वर्णन 
स्पा ४ ४ र न्धं 
१०-भृगु, अग्नि भौर भग्निष्वात्तादि पितरोकी ` १ द नव्रहाका वण ववा छीकान्तर्सम्बन्धौ 
नानक वर्णन ५५ व्याख्ानका उपसंह्‌।र 


११-घुषेका वनगमनं भोर मरीचि आदि वपया 
से भट ५००० ५१०७ न 

१२-घ्रुवको तपस्यासे प्रदम हष मगवान्‌ गौ 
आविर्भाव भीर उमे प्रुव-पहदान “ 

१३-राजा बेन भीर पृथुका चस 

१४८-पाचीनबह्िका अन्म भौर प्रचेत्ताधथांका भगव- 
दार]घन .. ... 

१५-प्रचेताओंका मारिषा नामक क्धाकै साथ 
विवाह, दक्षप्रनापत्िको उत्पत्ति पवं दक्षकी 
आट कन्याओतरे वंशकां वर्णन *" 

१६-नुसिहावरतारचिषयक प्रर्न 

१७-हिरण्यकरिपुका दिग्विजय भौर प्रह्खौद-चरित 

१८ प्रह्वादको मारनेके खये वरिष,दस्त्र भौर अग्नि 
आदिक्रा प्रयोग एवं प्रह्लावकृत भगवत्‌-स्तुति 


ल + १ [ाकाककाकाक =, ___  ,, _ न 


1 


६२ 
७१ 


७८ 


१२-भरत.चरिन् 


छर दनजडभरत मौर सौवी रनसेशका पवाद 


१५-ऋमुका निदाघको अदटतज्ञानोपदेश 
१६- ऋभुकी आज्ञा निदाघका अपने घरक लौटना 


तृतीय अंश 


१-पटले मरातत मन्न्तरोके मनु, इन्द्र, देवता, सप्ठपि 
ओर मनुपत्रौका वर्णन 
२-सावर्णिमनुकी उत्पत्ति तथां आगामी सात 
गन्वन्तरोके मनु, मनुपुत्र, देवता, दनद भौर 
सप्तघिर्थोका वर्णन ““ "" 
३-चतुयुंगानुसार भिन्न-भिन्न व्यासोके नाम तथा 
ब्रह्मज्ञानके माहारम्यका वर्णन 
४-कऋवेदकी शाखाजओंका विस्तार 


न्भ क्त (+ = च) = ** 


१२ 


११ 


- २० 


`" २१ 


धर्म॑करा वर्णन ` २२७ 


९-ग्रह्मयं भादि आश्रमोका वर्णन ` २९११ 
१०-जातकर्म, नामकरण भौर चित्राहु-पंस्कारकी 
विधि ` २३४ 
११-गृहस्यसम्बन्धी सदाचारका वर्णन “““ २३६ 
१२-गृहस्थसम्बन्धी सदाचारका वर्णन "*" २४७ 
१३-आम्युदयिक श्राद्ध, प्रेततकर्मं तथा श्राद्धादिका 
विचार २५१ 
१४-श्राद-प्रशंसा, भ्राद्धमें योग्य कालका विचार “" २५४ 
४-श्राद्ध-विधि २५७ 
दै-धाद्ध-कममे विहित ओर भविदित वस्तुओंका 
विचचार "" “ २६२ 
१७-नग्नव्रिषयक प्रर, देवताओंका पराजय, उनका 
मशवानूकी शरणमे जाना भौर भगवानृका 
मायामोहूको प्रकट करना “ २६४ 


१८-मायामोह्‌ ओर असुरोका सवाद तथा साजा 


रातधनुकी कथा ^ ` २६८ 
चतुर्थं अंश 
१-वैतस्वतमनुके वंशका वित्ररण ^“ २७९ 
-इकष्वाकुके वंशका वर्णन तथा सौमरि-चरित्र -** २८१५ 
३-मान्धाताकी सन्तति त्रिशद्कुका स्वर्गारोहण तथा 
समरकी उत्पत्ति भौर विजय ` २९६ ^ 
४-सणर, सौदास, लट्वाङ्घ भौर भगवान्‌ समके 
चरित्रका वर्णन "“"“ २९९ 
-निमि-चरित्र मौर निमिवंशका वर्णन “““* ३०७ 
-सोमवंरका वर्णन, चन्द्रमा, बुध गौर पुरूरवाका 
चरित्र * ३१० . 
-गह्युकेा गङ्खापान तथा जमदग्नि भौर विक्वा- 
मित्रकी उत्पत्ति ` ३१६ 
<-काद्यवेशका वणन "““ ३१८ 
&-महाराज रजि ओौर उनके पूर्रोका चरित्र “^ ३२० 
१०-ययातिका चरित्र ““ ३२२ 
१ १-यदुवशका वर्णन भौर सहघाजुंनका चरित्र ““* ३२४ 
१२-यदुपुत्र क्रोष्टुका वंश "^ ""“ ३२५ 
१३-सत्वतको सन्ततिका वर्णन भौर स्यमन्तक- 
मणिकी कथा "" “““ ३२८ 
१४-अनमिध भौर अन्धकके वंशका वर्णनं " ३४० 
१५-दिशुपालके पूर्व-जन्मान्तरोका तथा वघुदेवजी- 
फी सम्ततिका वर्णन "^ ""“" ३४३ 
१६-ुर्वसुके वंदाका वर्णन -“" ""“ ३४७ 


| च्म १. # 
१ "१417 


५ 


१९-पुरुवंरा ˆ २३४९ 
२०-कुरुके वंश्षका वर्णेन ` ३५३ 
२१-मतिष्यमे होनैवाङे राज्राओंका वर्णन *** ३५६ 
२२-भविष्यमे होनेवले इक्व्राकवशीय राजाओंका 
वणन “" २५७ 
२२३-मगधवंशक्ा वर्णन “ ३५८ 
२४-कलियुगी राजा्मों भौर कलकिधर्पोका वर्णन 
तथा राजवंश-वर्णनका उपसंहर * ३५८ 
पश्चम अंश 
१--त्रसुदैव-देवकीका विवाह, भारपीडिता पृथिवीका 
देवताओंके सहित क्षीरसमुद्रपर जाना भौर 
भगवानृक्ा प्रकट होकर उपे धैर्यं बंधाना, 
कृष्णावतारका उपक्रम "** ३७१ 
२-भगव्रानृका गर्भ॑प्रवेशा तथा देवगणद्वारा 
देवकीकी स्तुति "“"“ ३७८ 
३-मगवानृका आविर्भाव तथा यौगमायाद्वारा 
कसको वञ्चना "“"" ३८० 
४--वसुदेव-देवकीका कारागारसे मोक्ष ““““ ३८३ 
५-प्‌तना-वध ""“ ३८४ 
६-दाकटभनञ्जन, यमराजुन-उद्धार, ब्रजवासि्योका 
गोकुलपे वृन्दावनमें जाना भौर वर्षावर्णन """ ३८६ 
-कालिय-दमन "“" “ ३९० 
८-धेनुकासुर-वध " ३९७ 
६-प्रखम्ब-वध * ३६८ 
१०-शरदर्ण तथा गौवर्धनको पूजा ` ४०२ 
११-दन्द्रका कोप र्‌ श्रीकरष्णका गोव्रघन-धारण""" ४०६ 
१२-दन्द्रका आगमन भौर दृद््रकृत श्रीकृष्णा्भिषेक ४०६ 
१३-गोपोद्वारा भमवानुका प्रभाववरणन तथा भगवानुका 
गोपियोके साथ रासक्रीडा करना "** ४११ 
४-वृषभासुर-वधं "“" "" ४१६ 
१४-कंसका धूकृष्णको बुलनेके कल्लिये अक्रूरको 
भजता ***" ४१७ 
१९-कैरिवध "“" * ४१९ 
१७-अक्रुरजोकौ गोकूलयात्रा ` ४२२ 
१८-भगवान्‌क। मधुराको प्रस्थान, गोषि्योकी विरह्‌- 
कथा ओर अक्गूरजीका मोह """ ४२५ 
१९-भगवानूक्रा परथुरा-प्रवेश, रजक-वध तथा 
मालीपर कणा " * ४३० 
२०-कुम्जापर एषा, धतुर्भङ्ग, कुवल्यापीड बौर 
चाणूरादि मत्लोका नार तथा- कंस-व्च “४३२ 


५ ८ 
अध्वाय विषय पष्ठ अध्याय विषय एष 
२१-उग्रसेनका राज्याभिषेक तथा भगवानृका २३६-द्विविद-वध " ४८५ 

विद्याध्ययन " ““" ४४१ ३७-क्षियोंका शाप, म्दुवंशनिनाकष तथा भगवानूका 
२२-जरासन्धको पराजय "श स्वधाम सिधारना “ """ ४८७ 
२३-द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका भस्म होना ३८-यादोंका अन््ये्टि-संस्कार, परीक्षित्क्ा 

तथा मुचुकुन्दक भगवस्स्तुति ` ४४५ राज्याभिषेक तथा पाण्डवोका स्वर्गारीटेण ˆ" ४९२ 
२४-मुचुकुन्दका तपस्याके लिये प्रस्थान भौर पष्ठ अ 

बलरामजीकी ब्रजयाघ्रा "“"“ ४४९ 
२४-बलमद्रजीका ब्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण “ ४५१ १-कल्धर्मनिह्पण ` ५०५ 
२६-रकिपिणी-हूरण "४ ` ४५२ २-श्नीग्यासजीदारा कलियुग, शूद्र भौर स्तियोका 
२७-गप्रचयुम्न-हरण तथा दाम्बर-वध " ४४४ महछ-वर्णन “^ ““" ५१० 
२८-रकमीका वध “ " ४५७ इ-निमेषादि काल-मान तथा नैमित्तिकं प्रल्यका 
२९-नरकाभुरका वध " ४५८ वर्णन “ ““" ५१३ 
३ ०-पारिजात-हुरण ` ४६२ भ~प्रकृत प्रल्यका वर्णन """" ५१७ 
३१-मगवानृका द्वारकापुरीमे लौटना बौर सोलह भ-आध्यात्मिकादि त्रिविध तापोंका वर्णन, भगवान्‌ 

हजार एक सौ कन्याभसे विवाह करना " ४६९ तथा वासुदेव राब्दोकी व्याल्या भौर भगवानूके 
३२-उषा-चरित्र - ` ४७० पारमाधिक स्वरूपक्रा वर्णन """" ५२१ 
३ ३-श्रीकृष्ण भौर बाणासुरका युद्ध ` ४७२३ ६-केशिष्वरज गौर खाण्डिक्यकौ कथा ` ५२८ 
३४-पौष्डक-वध तथा कारीदहन ` ४७८ ७ -ब्रह्मयोगका निर्णय ~ ४५३३ 
३४-साम्बका विबाहु ` ४८१ <-शिष्यपरम्परा, माहात्म्य भौर उपसंहार ` ५४१ 

१/१ च, = 
चित्र-सूची , 
माम पृष्ठ 

१-श्री विष्णुभगवान्‌ “" { बहुरगा) प्रारम्भे 
२-प्रुव-नारायण ^ १ ५७ 
३-भगवान्‌ श्रीनृषिहदेवकौ गोदमें मक्त प्रह्लाद # ९८ 
४-जडभरत ओर सीवी रनरेशका संवाद २? १३५ 
४-यमराज भौर दूता संवाद | ॥ २०५ 
६- भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र ॥ २७९ 
७ -त्रज-नव-युवराज । # २३७१ ` 
<-श्रीग्यासजी एवं ऋषियोका संवाद # ५०५ 





निषेदन 


अष्टादशा महापुगणोभै प्रीविष्णुपुराणका स्थान बहुत ऊँवाङै। दरसकरे रचयिता श्रीपर्रग्जी दै) 

` इसमे अन्य विषयोके साश्र भूगोल, ज्योतिष, कमंकाण्ड, राजयृल्च ओर श्रीकृष्ण-चरित्र जादि क प्रसंगोका 

बड़ा ही अनूढा ओौर विद्यद्‌ वणेन किया गया है । मक्ति ओर्‌ ज्ञानकी भ्रसान्व घास तौ इसमे सवैर ही 

परच्छन्नरूपसे बह रही दे । यद्यपि यह पुराण विष्णरुपरकर दलो मी भगवान्‌ संकरके ल्यि इममे कमी 

अनुदार माव प्रकट नहीं क्रिया गया | सम्पूणं ग्रन्थनं िवजीका प्रसंग सम्भवतः श्रीष्षम-वाणासुर-संग्राममे 

ही शा है, सो बरहा सयं भगवाम्‌ कृष्ण महादेवजीके साथ अपनी अभिन्ना प्रकट कर्ते हुए श्रीश्चुखसे 
कहते है-- 


त्वया यद्भयं दन्तं तदत्तमखिक्लं मया । मत्तो ऽविभिन्नमात्मान्रषटुधहसि शङ्कुर ॥ ४७ ॥ 
योऽद स त्वं जगच्चेदं सदेवाखरमाञुषम्‌ । मत्तो नान्यदशेपं यत्तस्यं शाघुमिहार्दसि ॥ ४८ ॥ 
भविद्यामोहितात्पानः पुरुषा भिन्नदर्दिनः । वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ॥ ४९ ॥ 

( अंश ५ ध्याय ३३) 


ह, तृतीय अदयम मायामोदके प्रसंगे बौद्ध ओर जेनियोके प्रति कुछ कटाक्ष अवङ्य क्रये गये है । 
परन्तु इसका उत्तरदायित्व मो यन्थकारकी अपेक्षा उस भसंगको हा अधिक्‌ । वहम कसंकाण्डका प्रसंग 
हे ओर उक्त दौनों सम्प्रदाय वैदिक कर्मफ विरोधो है, इलस्य उनके पवि कुछ स्यंग व्रत्तिहो जाना 
स्वाभाविक दही है । अस्तु ! 

आज सरवौन्तयौम) सर्वश्रकी असीम कृपासे मै इस अन्धरसाका हिन्दी-अनुवाद्‌ पाठकोके सम्मुख 
रखनेमे सफल हा सका ह इससे सन्ने बड़) हप हो रहा है । अभीतक हिन्दी इसका कोड मी भविक 
अनुवाद प्रकारित नहीं हुजा था। गीताग्रेसने इसे प्रकार्चित करनेका उद्योरा करके हिन्दी-साहित्यकरा बड़ा 
उपकार किया हे । सं्छृततम इसके ऊपर विष्णुचिति ओर श्रीधरी दो ठकार छ, जो संकरेश्रग स्टीमप्रेस 
यस्ब्ईसे भक्रारित हृ द । प्रस्तुत अनुवाद मी उन्दरीकि आधारपर करिया गथा है; तथा इसे पृञ्यपाद 
महामहोपाध्याय पं० श्रौपञ्चाननजी तकरत्नद्वारा सम्पादित वंगला-अुवादसे भी अच्छः सहाया दौ गयी 
, हे । इसके लिये मँ श्रौपण्डिवजीका अत्यन्त जाभारी ह 

अनुवादे यथासम्भव मूलका हा भावाथ दिया गया ६ । जह स्र करनेके द्यि कोई घात उषरसे 
खिली गयी है बह [ ] देसा तथा जँ करिसी शब्दका भाव व्यक्त करनेकरे सिये छठ छख गया हे 
वँ ( ) एेसा कोष्ठ दिया गया दै । जो इललोक स्मरण रखनेयोग्य समध्चै गये द उन्हे रेखाङ्कित कर दिया 
गया है; इससे पाठकोके लियि मनन्थको उपादेयता बहुत बद्‌ जायगी । 

अन्तमे, जिन चराचरनियन्ता श्रीहरिकी प्रेरणा मैने, योग्यता म हते हए भी, इस ओर ब्रदनेका 
दुःलाहस किया है उनसे क्षमा मौँगता इभा उन खीरामयकी यह रखीखा उन्हीके चरणकमलमे समर्पित 
करतार 


सुरजा विनीत 
मार्ग० शु० २ सं० १९९० अनुवादक 















विष्णुवन्दनम्‌ 


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५५.444 
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विश्वातीतं विश्वविधानं विदधे विश्वन्तं विव्वम्भरमाघं पियुपीख्यम्‌ | 


वि्यावियावेधविदहीनं हृदि वें बन्दे विष्णुं विश्वविलासं विधिवन्म्‌ ॥ 


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सत्यं सत्यातीदग्र्त्यं सदसन्तं शुद्रं बुद्धं उक्तमसुक्तं विभिशक्तम्‌ । 


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(1 


सवं सर्वासर्वसुदूरं सुखसान्द्रं बन्दे विष्णुं सर्वसहाय सुरसेव्यम्‌ ॥ 


मानं मानातीतममेयं मनसाप्य मन्तुमन्तारं ुनिमान्यं महिमाल्यम्‌ । 


0 
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मायाक्रीडं मापिनमाद्यं गतमायं बन्दै विष्णुं मोहमहारिं महनीयम्‌ ॥ 


1 


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पारं पाराफारमपारं परयारं पारावाराधारमधायं दह्यविकार्॑म्‌ | 


२२ 


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ूर्णाकारं पू्णविहारं परिपूणं बन्दे विष्णुं प्रमाराध्यं परमाम्‌ | 


2 


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23 


कालातीतं काकरालं करणाद्र कालाकान्यं केलिकराढथं कमनीयम्‌ । 


स 


य 
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कामाधारं कारङटारं कमराक्षं वन्दे विष्णुं कामविरासं कमरेकम्‌ ॥ 


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^-^ ~^ ^ 


नित्यानन्दं नित्यविहठारं निरपायं नीराधारं नीरदकान्ति निरदयम्‌ । 


नानानानाकारसनाकारषुदारं बन्दे विष्णुं नीरजनामं नलिनाक्षम्‌ ॥ 







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रातमन्‌ ४०८ ७-०४८-०५ 


2 
श्रीदिष्णयं 
विष्णघराण 
प्रथम्‌ अंश 


२ 
५; 


न 
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च 


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५) 4 





श्रीमक्नारायणाय नमः 


श्रीरिष्युपुराण 


प्रथम अण 


++ 


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव॒ नरोत्तमम्‌ । 
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयद्दीरयेत्‌ ॥ 


पटला अन्याय 


ग्रन्था उपोदघात 


श्रीसूत उवाच 

ॐ पराशरं भरुनिवरं कृतपौर्वाहि कक्रियम्‌। 
यत्रेयः परिपप्रच्छ प्रणिपत्यामिवाद्य च | १॥। 
त्वत्त हि वेदाध्ययनमधीतमखिलं गुरो । 
धर्मदास्चानि सर्वाणि तथाङ्गानि यथाक्रमम्‌ २ ॥ 
स्वस्रसादान्युनिशरेष्ठ मामन्ये नाकृतश्रमम्‌ । 
वष्यन्ति सवंश्ेषु प्रायशो येऽपि विद्धिषः। ३॥ 
सोऽहमिच्छमि धर्मन भोतं ततो यथा जगत्‌ । 
वभूव भूयश्च यथा महाभाग भविष्यति ॥ ४॥ 
यन्मयं च. जगदुत्रहन्यतद्चैतचराचरम्‌ । 
रीनमासीचधा यत्र रुयमेष्यति यत्र च्‌ ॥५॥ 
यरभाणानि भूतानि देवादीनां च सम्भवम्‌। 
सपुद्रपवंतानां च संस्थानं च यथा शवः ॥ ६॥ 
र्यादीनां च संस्थानं प्रमाणं भुनिसत्तम । 
देवादीनां तथा वंशान्मनूत्मन्वन्तराणि च ॥७॥ 
कपान्‌ कपविभागां्च चातुंगविकल्पितान्‌। 
कल्पान्तस्य स्वरूपं च युगधर्माध कृस्स्नशः। ८॥ 


भीसूतजी बोरे-यैव्रेयजीने निस्यकमौसे 
निबत्त हए मुनिवर परा्चरजीको प्रणाम ओर 
अभिवादन कर उनसे पृष्ठा-॥ १॥ "ह गुरुदेव ! 
मैने आपहीसे सम्पूणं वेद्‌, वेदाङ्ग ओर सक 
धमेशाखोका क्रमशः अध्ययन किया है।॥२॥ 
हे स॒निश्ेष्ठ ! आपकी छृपासे दुसरे लोग यहँतक 
कि मेरे विपक्षी मीमेरेक्लिये प्रायः यह्‌ नहीं कह 
सकेगे कि भने सम्पूणे श्लोके अभ्यासम परि- 
श्रम नहीं किया'॥ ३ ॥) है धमंज्ञ! है महाभाग) 
अच मै भापस यह सुनना चाहता हँ कि यह्‌ जगत्‌ 
किंस प्रकार उत्पन्न हुआ भौर आगे भी (दूसरे कल्प- 
के आरम्भे ) केसे होगा ?॥ ४॥ तथा हे ब्रह्मन्‌ ! 
इस संसारका उप्रादान-कारण क्या है १ यह सम्पूणं 
चराचर किससे उत्पन्न हुआ है १ यह्‌ पदले किस 
छीन था ओर आगे किस छीन हो जायगा! 
॥ ५ ।! मुनिसत्तम ! इसके अतिरिक्त, [ आकार 
आदि ] भूतोका परिमाण, समुद्र, पवेत तथा देवता 
आदिकी उत्पत्ति, प्रथिवीका अधिष्ठान ओर सूयं 
दिका परिमाण तथा उनका आधार, देवता 
आदिके वंश, मनु, मन्वन्तर, [ बार-बार आनि. 
वाटे ] चारौ युगोमे विभक्त कल्प ओौर कल्पक 
विभाग, प्रख्या स्वरूप, युगोके प्रथक्‌-प्रथक्‌ 


ॐ ७ | 


[1 0 11 9 वा ता 





"ॐ ` ७ ` 








देवर्षिपाथिवानां च चरितं यन्पह्ुने । 
वेदशाखाप्रणयनं यथावद्ववासकरेकष्‌ ।॥ ९॥ 
धर्मा ब्राह्मणादीनां तथा चाश्रमवाधिनाम्‌। 
भ्रोतुमिच्छम्यहं सवं सत्तो बाभिष्ठन्दन ॥१०॥ 
ब्रह्मनप्रसादप्रणं इरष्व मयि मानसम्‌ | 
येनाहमेतजानीयां सखत्प्रस्ादान्महाप्रने ॥११॥ 


श्रीपरराङर उवाच 
साधु तैत्रेय धमन स्मारितोऽसम एरातनयू । 
पितुः पिता मे भगवान्‌ वसिष्ठो यदुवाच ह ॥१२॥ 
विश्वामित्रप्रयुक्तन रक्षसा भक्षितः पर । 
भरुतस्तातस्ततः क्रोधो मेत्रेयाभून्ममातुलः॥ १२॥ 
ततोऽहं रक्षसां सत्रं पिनाकाय समारभप्‌ | 
भस्मीभूता शतशस्तस्मिन्सत्रे निशाचराः।। १४ 
ततः सदक्षीयमाणेषु तेषु रक्षस्खरेषतः। 
माद्युवाच महाभागो वसिष्ठो मसितामहः | १५॥ 


अलमत्यन्तकोपेन तात मन्युमिमं जदि । 


राक्षस्षा नापराध्यन्ति पितुस्ते विहितं हि तत्‌ ॥१६॥ 


मूढानामेव भवति क्रौवो ज्ञानधतां कुतः । 
हन्यते तात कः केन यतः स्वकृतमुकपुमान्‌। १७॥ 
सश्चितस्य।पि महता वस्स क्न मानवैः । 
यशसस्तपसश्चैव क्रोधो नाशकरः परः ॥१८॥ 
स्व्गपव्॑स्यासेधकारणं परमर्षयः | 
वजंयन्ति सदा क्रोधं तात मा तदवो भव १९॥ 
लं निशाचरैदुगरदनिरनपकारिभिः। 
स॒घरं ते पिरमस्येततक्षमासारा दि साधवः॥२०॥ 
एवं तातेन तेनाहम्नीतो महात्मना | 
उपसंहृतवान्सत्रं सद्यस्तद्राक्यगौरवात्‌ ।॥२१॥ 
ततः प्रीतः स भगवान्यसिष्ठो ुनिसत्तमः। 


सम्पूर्णे धमं, दैविं ओौर राजर्धियोके चरि, 
श्रीव्यासजीक्त वैदिक लछाखाओंकी यथावत्‌ 
रचना तथा ब्राह्मणादि वणं ओौर ब्रह्मचर्यादि 
आश्रमोफे धमे-ये सव्र, हे महामुनि शक्ति 
नन्दन । मै आपसे सुनना चाहता हँ ।। ६-१० ॥ 
हे ब्रह्मन्‌ । आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादो- 
न्भुख कीजिये जिससे हे महामुने ! मै आप 
कुपासे यह सन जानं सरक" | ११॥ । 


श्रीपराश्रजी बोले--“हे धमंज्ञ मैत्रेय ! मेरे 
पिताज्धीफे पिता श्रीवसिष्ठजीमे जिसका ब्ण॑न 
किया था, उस प्राचीन प्रसङ्गका तुमने सुश्च 
अच्छा स्मरण कराया--[ इसके लिये तुम धन्य- 
वादके पाचहो]॥ १२॥ हे मैत्रेय! जव भने 
सना कि पिताजीको विश्वामित्रको प्रेरणासे 
राक्चसनेखा लिया दहै, तो मुद्चको असीम क्रोध 
हुआ । १३ ॥ तब राक्षसोका ध्वंस करनेके 
छियि सने यज्ञ करना आरम्भ किया। उस यज्ञम 
सैकड़ों राक्षस जलकर भस्म हो गये) १४६॥ 
इस प्रकार उन राक्षसोको सवथा नष्ट होते देख 
मेरे महाभाग पितामह वसिष्ठजी मु्चसे 
बोे-)। १५ ।॥ “हे वस्स | अत्यन्त क्रोध 
करना ठीक नही, अव तुम इस कोपको व्याग 
दो | राक्चसोका इछ भी ` अपराध नहीं है, तुम्हारे 
पिके स्यि तोणेसा ही होना था॥ १६॥ 
कोष तो मूको ही हृजा करता है, ज्ञानवानोंको 
भता कैसे हो सकता दै? भैया। भला कौन 
किसको मारता है १ पुरुष अपने क्रियेका ही फ 
भोगत्ता है ॥ १७ ॥ वत्स! यह्‌ क्रोध तो 
मनुष्यके अव्यन्त कष्टसे सच्छित यश्च ओौर तपका 
भी प्रबल नाश्चकदहै।। १८ ॥ हे तात! इस लोक 
ओौर पररोक दोनोंको विगाडनेवङे इस क्रोधका 
महर्षिगण सव॑दा त्याग करते दै, इसय्ि तुम 
एसे वज्ञीभूत मत होओ ॥ १९ ॥ अव इन 
बेचारे निरपराध राक्षसोको दग्ध करनेसे कोड 
लाभ नरह; तुम्हाय यह यज्ञ बन्द्‌ हो जाना 
्ाहिये; क्योकि साध्रुभंका बल केव 
क्षमा हे" | २० ॥ 


सष्ात्मा दादाजोके दस प्रकार समद्मानिपर 


उनकी बातोके गौरवका विचार करके मैने वह 
| यज्ञ॒ समप्त कर दिया | २१ ॥ इससे मुनिश्रेष्ठ 


क 


[ााकााननाताक 1  ििििििििििििि 








सम्प्राप्रध तदा त्र पृटस्त्यो ब्रह्मणः सुतः ॥२२॥ 


पितामहेन दत्ताध्यंः कृतासनपरिग्रहः 
मामुवाच सहाभागो मैत्रेय परहाग्रनः ॥२३॥ 
पुलस्त्य उताच 
वैरे महति यद्दाक्याद्‌ गुरोरथाधिता क्षमा । 
त्वया तस्मास्समस्तानि भवाञ्च्छान्चाणि वेस्स्यति 
सन्ततेनं ममोच्छेदः क्रुद्धेनापि यतः कृतः। 
त्वया तस्मान्महाभाग ददास्यन्य महावरम्‌ २५ 
पुराणसंहिताकर्ता भवान्व्स भविष्यति । 
देवतापारमाथ्यं च्‌, यथाबदरस्यते भवान्‌| २६॥ 
रवतते च निधत्ते च कर्मण्यस्तमला मतिः । 
मस्प्रसादादसन्दिग्धा तव वत्र भविष्यति | २७॥ 
ततश प्राह मगवान्वसिष्ठो मे पितामहः । 
पुलस्त्येन यदुक्तं ते स्व॑मेतद्धविष्यति ।॥२८॥ 
इति पूं वसिष्ठेन पूस्तयेन च धीमता। 
यदुक्तं तस्स्छृति याति खत्प्क्नादखिल मम्‌।।२९॥ 
सोऽहं बदाम्यकेपं ते मत्रेय परिप्रच्छते । 
पुराणसंहितां सम्यक्‌ तां निवोध यथातथम्‌।।३०॥ 
विष्णोः सकाशादुद्भूतं जगत्तत्रैव च स्थितम्‌। 
स्थितिसंयमकर्तासौ जगतोऽस्य जगच सः॥३१॥ 





भगवान्‌ वसिषठजी बहुत प्रसन्न हुए । उसी समय 
ब्रह्माज्ीके पुत्र पुरस्यजी वर्ष अये ॥ २२ ॥ 
हे भेत्रेय ! पितामह [ वसिष्ठजी ] ने उन अध्य 
दिया, तव वे महिं पुखहके व्येष्ठ धाता महा- 
भाग पुरस्त्यजी आसन ब्रहण करके सुह्चसे 


बोरे | २३ ॥ 


पुलस्त्यजीने कहा-तुमने, चित्तम महन्‌ 
वैरभावके रहते हुए भी अपने बडे-बूद वसिष्ठजी- 
फ कहनेसे क्षमाका आश्रय हिया है, इसलिये 
तुम सम्पूणं ्लाखरके ज्ञाता होगे॥ २४ ॥ दै 
महामाग ! अच्यन्त करुद्ध होनेषर मी तुमने मेरी 
सन्तानका स्वंथा मूलोच्छेद नदीं किया; अतः 
मै तुमह एक ओर उत्तम वरदेता हूं ॥ २५॥ हे 
वत्स ! तुम पुराणखरंहिताके स्चयिता होगे भौर 
देवता (परमात्मा) फे वास्तविक स्वरूपको 
यथावत्‌ जानोगे ॥ २६ ॥ तथा मेरे प्रसादसे 
त॒म्ारी निर्मल बुद्धि भवृत्ति (करमंयोग) ओर 
निनरत्ति ( वास्ययोग ) सम्बन्धी कर्मोमिं सन्देह- 
रहित हो जायगी । २७ ॥ पुषष्स्यजीके इस तरह 
कहनेफे अनन्तर मेरे प्रि्तामह भगवान्‌ वसि्ठजी 
बोे--"वत्स ! पुरष्व्यजीने तुम्दारे स्यि जो 
कुछ कहा है, वह सब सत्य होगा ॥ २८ ॥ 

हे मैत्रेय! इस प्रकार पूवकालम बुद्धिमान्‌ 
वसिष्ठजी ओर पुलस््यजीने जो कुछ कहा था; 


। वह सब तुम्हारे प्रनसे सुश्च स्मरण हौ आया 


है ॥ २९ ॥ अतः हे मैत्रेय! तुभ्दारे पृष्नेसे मं 
उस सम्पूरणं पुराण-संहिताको तुमह सुनाता द 
तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो ॥ ३० ॥ 
यह जगत्‌ विष्णुसे उसन्न हृभा है, वनन्ीमें स्थित 
है वे ही द्रसकी स्थिति ओौर छयके कतौ है तथा 
यह जगत्‌ भीवेही दै ॥ ३१॥ 


न 4/९ 


दति भीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ 





१४ 


भ्रीविष्णुपुराणं 


[ अ० २ 








दूसरा अध्याय 


चौबीस तच्वोके विचारे साथ जगतृकरे उत्पत्ति-कमका 
वर्णन यर विष्णुकी महिमा । 


प्रारार उवाच 
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने । 
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ १॥ 
नमो हिरण्यगर्भाय हरये शंकराय च। 
वासुदेवाय ताराय स॑स्थित्यन्तकारिणे ॥ २॥ 
एकानेकस्वरूपाय स्थूरक्ष्मात्मने नमः । 
श्रव्यक्तव्यक्तरूपाय विष्णवे शुक्तिदेतवे ॥२॥ 
सगेस्थितिविनाक्रानां जगतो यो जगन्मयः 
मूरभूतो नमस्तस्मं विष्णवे परमात्मने ॥४॥ 











आधारभूतं विश्वस्याप्यणीयांसमणीयसाम्‌। 
प्रणस्य सव॑भूतस्थमच्युतं परूपोत्तमम्‌ ॥ ५॥ 
ज्ञानस्वरूपमस्यन्तनिमंलं परमार्थतः । 
तमेवाधेस्वरूपेण श्रान्तिदशंनतः स्थितम्‌।। ६॥ 
विष्णुं ग्रसिष्णुं विश्वस्य स्थितो सगे तथा प्रथम्‌] 
प्रणम्य जगतामीशषमजमक्षयमव्ययम्‌ | ७॥ 
कथयामि यथापूव दक्षाचेुनिसत्तमेः । 
पृष्टः प्रोवाच भगवानब्जयोनिः पितामहः ॥ ८ ॥ 
तैशरोक्तं पृर्रस्साय भुजे नर्मदातटे । 
सारस्वताय तेनापि मह्य सारस्वतेन च॥९॥ 
पर्‌; पराणां प्रम; परमात्माद्मसंस्थतः । 
रूपवर्णादिनिर्दैशविशेपणविवजितः ॥१०॥ 
द्मपक्षयविनाक्षाभ्यां परिणामरधिजन्ममिः। 
वितः सक्यते वक्तु यः सदास्तीति केवलम्‌।।११॥ 
/ सर्त्रासौ समस्तं च बसस्यत्रेति वै यतः। 





श्रीपराशरजी बोटे-जो ब्रह्मा, विष्ण ओर 
शंकररूपसे जगत्‌की उस्पत्ति, स्थिति ओौर संहार- 
के कारण दहै तथा अपने भक्तोको संसार-सागरसे 
तारनेवले है, उन विकार-रहित, शद्ध अविनाश्ची 
परमात्मा, सवदा एकरूप, सवेविजयौ भगवान्‌ 
वादुदेवसंज्ञक विष्णुको नमस्कार दै १-२॥ 
जो एक होकर भी नाना रूपव दै, स्थूल 
सुक्ष्ममय रहै, अव्यक्त (कारण) एवं न्यक्त 
( कायं ) रूप हैँ तथा [ अपने अनन्य भक्तोंकी ] 
सुक्क कारण द, उन श्रीचिष्णुभगवानृको नम- 
स्कार है।३॥ जो विर्वरूप प्रभ विश्वकी 
उत्पत्ति, स्थिति ओर संहारके मूलकारण है, उन 
परमात्मा विष्णरुभगवान्‌को नमस्कार है ४ 
जो विड्वे अधिष्ठान है, अतिसूष्ष्मसे भी सूक्ष्म 
है, सयं प्राणियोमे स्थित पुरषोत्तम भौर अवि- 
नारी द, जो परमाथंतः ( वास्तवे ) अति निमंल 
ज्ञानस्वरूप दै, किन्तु अज्ञानवश् नाना पदाथे- 
रूपसते प्रतीत होते दहै, तथा जो [ काल-स्वशूपसे ] 
जगत्‌की उत्पत्ति ओर स्थिति समथं एवं उसका 
संहार करनेवारे है ठन जगदीर्वर, अजन्मा 
अक्षय ओौर अन्यय भगवान्‌ विष्णुको प्रणाम 
करके तुम्हे बह सारा प्रसंग क्रमकः सुनाता ह्र 
जो दद्व आदि मुनिश्रष्ठोके प्रष्ठनेपर पितामह 
भगवान्‌ ब्रह्माजीने उनसे कषा था ॥ ५-८ ॥ 


बह प्रसंग दक्ष आदि युनियोने नमेदा-तटपर 
राजा पुरु्कुत्सको सुनाया था तथा पुरुङ्स्सने 
सार्स्वतसे ओर सारस्वतनें यु्चसे कहा था 
॥ ९ ॥ जो पर ( श्रकृति) सेभो पर परमश्रेष्ठ, 
अन्तराद्मामे स्थितं परमासमा रूप; वणं, नाम 
ओर विशेषण जादिते रहित ह; जिसमे जन्म, 
यद्धि, परिणाम, क्षय जौर नाञ्च इन विकारोका 
अभाव है, जिसको सव॑दा फेवछ दै इतना ही 
कह सकते दै, तथा जिसके ल्थि यह प्रसिद्धै 
कि वह सवत्र दै ओौर उसमे समस्त बिर्व 
बसा हज है--हसव्यि टी विद्धान्‌ जिसको 











तद्बह्म॒परप्नं नित्यमजमक्षयमनव्ययम्‌ । 
एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निमेरम्‌॥१३॥ 
तदेव स्भेवैतदरवक्ताग्यक्तस्वरूपवत्‌ । 
तथा पुरुषरूपेण कालृहूपेण च स्थितम्‌ ।॥१४॥ 
प्रस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज | 
व्यक्ताव्यक्ते तथैवान्ये रूपे कारस्तथा परम्‌।।१५॥ 
प्रधानपुरषव्यक्तकारानां परमं दि यत्‌ । 
परयन्ति सूरयः शुद्धं तद्विष्णोः परमं पदम्‌।।१६॥ 
प्रधानपुरुषव्यक्तकारास्त॒ प्रविभागशः | 
रूपाणि स्थितिसर्गान्तव्यक्तिसद्धावरेतवः । १७॥ 
व्यक्त विष्णुस्वथाग्यक्त पुरपः कारुएव च। 
क्रोडतो बारकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ॥१८॥ 
व्यक्तं कारणं यत्तसधानमृषिसत्तमेः । 
ग्रोच्यते प्रकृतिः स्दमा निस्य सदसदात्मकम्‌ १९, 
अक्षय्यं नान्यदाधारममेयमनरं धुवम्‌ । 
काब्दस्पशिष्ीनं तदरपादिमिरसंदितम्‌ ॥२०॥ 
त्रिगुणं तजगदयोनिरनादिप्रमवाप्ययम्‌ । 
तेनाग्रे सर्वमेवासीयापत वै प्ररयादु ॥२१॥ 


वेदवादपिदो विदन्नियता ब्रह्मवादिनः । 
पठन्ति चैतमेषाथं प्रधानप्रतिपादकम्‌ ।॥२२॥ 
नाहो न रातरिनं नभो नभूमि- 
नासीत्तमोज्योतिरभुच्च नान्यत्‌ । 
श्रीत्रादिबुद्धयानुपलभ्यमेक 


प्राधानिकं ब्रह्म पूमास्तदासीत्‌ ।।२२॥ 











अभ्यय तथा एक स्प होने ओर हेय गुणोके 
अभावके कारण निमेल परब्रह्म रै | १०-१३॥ 
वटी इन सथ भ्यक्तं (कायं) ओौर अव्यक्त 
( कारण ) जगते रूपसे, तथा [ इसके साक्षी ] 
पुरुष ओर [ महाकारण ] कारके रूपसे स्थित 
है ॥ १४ ॥ हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष 
हे, अव्यक्त (प्रकृति ) ओौर व्यक्त ( महदादि ) 
उसके अन्य रूप हैँ तथा [ सवको क्षोभित करने 
वाखा होनेसे ] काट उसका परमरूप दै । १५॥ 


हस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, स्यक्तं ओौर 
काछ--इन चारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन 
ही देख पते है बही भगवान्‌ विष्णुका विज्य 
रमपद्‌ है ॥ १६ ॥ प्रधान, पुरुष, व्यक्तं आओौर 
काल--ये [ भगवान्‌ विष्णु ] रूप प्रथक्‌-प्रथक्‌ 
संसारकी उत्न्ति, पाछ्न ओर संहारे प्रकारश्च 
तथा उपादनम कारण दै ॥ १७ ॥ मरवान्‌ 
विष्णु व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष ओर कालरूप भी दै; 
दस प्रकार बाबत क्रीड़ा करते हुए उन 
भगवान्‌की टीला श्रवण करो ॥ १८ ॥ 


उनमेसे अव्यक्त कारणको जो खदसद्रुप 
८ कारणरक्तिविषिष्ट ) ओर नित्य (सदा एकरस) 
है, शरषठ सुनिजन प्रधान तथा सूष्ष्म प्रकृति कहते 
है| १९ ॥ वह क्षयरदहित दै, उसका कोद अन्य 
आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय, अजर, निल) 
शग -खरणीदिश्चन्य जौर रूपादिरहित है ॥ २०॥ 
वह॒ त्रिगुणमय भौर जगतकरा कारण हे तथा 
स्वयं अनादि एवं उत्पत्ति भौर यसे रहित है । 
यह्‌ सम्पूणं प्रप्र प्रलयकालसे रेकर सष्टिके 
आदितक दसीसे भ्याप्रथा ॥ २१॥ हे विन्‌ | 
्रुतिके मर्मको जाननेवाके, श्रुतिपरायण बह्यवेत्ता 
महात्मागणं इसी अथंको लक्षय करफे प्रधानके 
प्रतिपादक इस ( निम्नङ्खित ) इखोकको कहा 
करते दै-। २२ ॥ डस समय ( प्रख्यकाल्में ) 
न दिन था, न रत्रिथी, न अकार था) न 
प्रथिवो थी, न अन्धकार था, न प्रकाराथा ओर 
न॒ इनफे अतिरिक्त कुछ ओर ही था । बस, 
्रोत्रादि इन्द्रियो ओौर बुद्धि आदिका अविषय 
एक प्रधान ब्रह्य पुरुष ही था! ॥ २३॥ 








विष्णोः स्वरूपार्परतो हि ते 
स्पे प्रधानं पुरुषश्च विप्र । 
तस्यैव तेऽन्धेन धृते वियुक्त 
रूपान्तरं तद्दि कारसन्ञम्‌ ॥२४॥ 


॥1 


प्रकृतौ संस्थितं व्यक्तमतीतग्रये तु यत्‌ । 
तस्मास्प्राफरतसंज्ञोऽययुच्यते प्रतिसश्चरः ॥२५॥। 


द्रनादिभंगवान्कालो नान्तोऽस्य द्विज विद्ते। 
अन्युच्छिननास्ततस्त्येते सगं स्थित्यन्तसंयमाः\२६। 
गुणसाम्ये ततस्तस्मिन्प्रथकपु सि व्यवस्थिते | 
कालस्वरूपं तद्धिष्णोमे त्रेय परिवत्तते ॥२७।। 
ततस्तु तत्परं ब्रह्म परमात्मा नगन्मयः। 
0 © 

सवेगः सवेभूतेशः स्वात्मा परमेश्वरः ॥२८॥ 
प्रथानपृरुपौ चापि प्रविश्यासेच्छया हरिः । 
प्तोभयामास सम्परापने सगकाले व्ययाव्ययौ ।२९] 
यथा सन्निधिमात्रेण गन्धः क्षोभाय जायते। 
मनसो नोपकतेत्वात्तथासौ परमेश्वरः ॥३०॥ 
स एव क्षोभको ब्रह्मन्‌ क्षोभ्यश्च परषोत्तमः। 


स संकोचबिकासाभ्यां प्रधानत्येऽपि च स्थितः २१। 


विकासाणुस्वसूपैथ ब्रहमरूपादिभिस्तथा । 
व्यक्तस्वरूपश्च तथा विष्णुः सर्वेश्वरेशरः ।[२२॥ 


गुणसाम्यात्ततस्तस्मात्सेवन्नाधिष्ठितान्छुने। 
गुणग्यञ्जनसम्भूतिः समकाल द्विजोत्तम ॥२३॥ 


परथानतच्भुद्ध. तं महान्तं तत्समाष्रणोत्‌ । 


साच्िको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान्‌ ।२४। 


प्रधानत्वेन समं त्वचा बीजमिवादृतम्‌ । 


हे विप्र! विष्ुके परम (उपाधिरदहित ) 
स्वरूपसे. प्रधान ओर पुरुष--ये दो रूप हुए; उसी 
(विष्णु) केजिस अन्य रूपकेद्वारावेदोनों[ ष्टि 
ओर प्रख्यकाठमं ] संयुक्त भौर वियुक्त होते दै, 
उस रूपान्तरका ही नाम "काङ' है || २४॥ बीति हुए 
प्रलयकालमें यहं व्यक्तं प्रपञ्च प्रकृतिमें स्थित था, 
इसलिये प्रपञ्चके इस प्रज्यको प्राक्त प्रलय कहते 
ह॥ २५} है दविज ! कालरूप भगवान्‌ अनादि 
है, इनका अन्त नहीं है इसल्यि संसारी 
उसत्ति, स्थिति ओर प्रख्य भो कभी नहीं सकते 


[ वे भ्रवाहरूपस्ते निरन्तर होते रहते ह ] ॥ २६॥ 


हे मैत्रेय ! प्रख्यकारमे प्रधान ( प्रकृति ) क 
साम्यावस्था सिथित ह्यो जानेषर अर पुरुषके प्रकरतिसे 
पथक्‌ स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान्‌का कारूष 
[इन दोनोको धारण करनेके ल्यि ] भरवृत्त होता 
ह|| २७ ॥ तदनन्तर [ सगंकार उपस्थित होने- 
पर्‌ ] उन परन्रह्य परमात्मा विरवरूप सर्वव्यापी 
सवंभूतेश्वर सर्वात्मा परमेरवरने अपनी इच्छासे 
विकासी प्रधान ओौर अधिकारी पुरुषमें प्रविष्ट 
होकर उनको क्षोभित किया ॥ २८-२९ ॥ जिस 
प्रकार क्रियाक्षीर न होनेपर मी गन्ध अपनी 
सन्निधिमात्रसे ही मनको ष्रुभित्‌ कर देता हे 
उसौ प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमाच्रसे ही 
प्रधान ओर्‌ पुरुषको प्रेरित करते दै ३० ॥ हे 
ब्रह्मन्‌ ! वह पुरषोत्तम ही इनको क्षोभित करने- 
वे ओरवे द्यी ष्वव्ध होते दै तथा संकोच 
(साम्य) ओौर विकास (्षोम ) युक्त प्रधान्‌- 
ह्पसे मी वेदी स्थित दै ॥ ३१॥ ज्ह्यादि 
समस्त ईरवरोके शटवर वे विष्णु ही समष्टि 
म्य्टिरूष, ब्रह्मादि जौघरूप तथा महत्ततत्वरूपसे 
स्थित द ।॥ ३२॥ 


हे द्विजश्रेष्ठ ! सगंकार्के प्राप्न होनेपर गुणोकौ 
साम्याचस्थारूप प्रधान जब विष्णुके कषै्ज्ञरूपसे 
अधिष्ठित हुआ तो उससे महन्तत््वकी उत्पत्ति हुई 
॥ ३३ ॥ उन्न हए ॒महान्‌को प्रधानतन्त्वने 
आबरृव किया; महत्त्व सात्त्विक, राजस भौर 
तामसभेदसे तीन प्रकारका है। किन्तु जिस 
प्रकार बीज छिलकेसे समभावसे ठंका रहता ै 
| वैसे हो यह्‌ त्रिविध महत्त्व भ्रधान-तन्त्वसे सव 











प्रिविधोऽयमहङ्धारो महत्तवादजायत । 
भूतेन्द्रियाणां हेतः स तरिगुणत्ान्मह एने ॥३६॥ 
यथा प्रधानेन महान्महता स॒ तथातः | 
भूतादिस्तु वि्र्बाणः शब्दतन्मात्रकं ततः ॥२३७॥ 
ससजं शब्दतन्मात्रादाकारशं शब्दलक्षणम्‌ । 
शब्दमात्रं तथाकारं भूतादिः स समाव्रणोत्‌।।३८। 
आकाषस्तु विषुर्वाणः स्योमात्रं ससजं ह । 
यरूवानभवद्वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ॥२३९॥ 
ग्राकाशं शब्दमात्रे त स्पमात्रं समारणोत्‌ । 

ततो वाधुर्वक्वणो रूपमात्रं ससं ह ॥४०॥ 
ज्योतिरुत्पद्यते वायोस्तद्रुपशुणपच्यते । 
स्मात्र तु वै वाग रूपमात्रं समावृणोत्‌ ॥४१॥ 
ज्योतिश्चापि विढुर्वाणं रसमात्रं ससज ह । 
सम्भवन्ति ततोऽम्भांसि रसाधाराणि तानि च।४२। 
रसमात्राणि चाम्भांसि रूपमात्रं समाव्रणोत्‌। 
विदुर्बाणानि चाम्भांसि गन्धमात्रं ससर्भिरे।॥४२॥ 
सद्धयतो जायते तस्मात्तस्य गन्धो गुणो मतः| 
तस्मिस्तस्मिस्तु तन्मात्रं तेन तन्मात्रता स्मृता।४४। 
तन्मात्राण्यविरेषाणि ग्रविरेषास्ततो हिते, 

न शन्ता पि धोरास्ते न मूटाश्वाविशेपिणः। ४५॥ 





भूततन्ा्रसिमोऽ्यमहङ्कारातु तामसात्‌ । 
तेजसानीन्दरिपाण्याहुेवा वैकारिका दश ॥४६॥ ' 


एकादशं मनधात्र देवा वैकारिका स्मृताः । 
वि० प० 9-- 


( साच्िक ); तैजस ( राजस ) ओर भूतादिरूप 
तामस तीन प्रकारका अहंकार उतपन्न हुभा। ह 
महाञ्रने ! वष॒ त्रिगुणात्मक होनेसे भूत भौर 
इन्द्रिय आदिका कारण हे ॥ ३४-३६ ॥ प्रधानसे जैसे 
महत्त्व व्यप्र दहे, वैसे ही महत्तसे वह 
( अहंकार ) व्याप्त है । भूतादि नामक तामस अषटु- 
कारने विक्त होकर श््द्‌-तन्माच्रा ओर उससे खम्द 
गुणवाले आकाडकी रचना को। उस भूतादि तामस 
अहंकारने शछब्द-तन्मात्रारूष आकृङञकौ व्याघ्र 
किया ॥ ३७-३८ 1} फिर [ स्ब्द-तन्माचारूप ] 
आकाडने विकृत होकर स्पशे-तन्माच्नाको रचा ¡ उस 
( स्पश्च-तन्माच्रा ) से बलवान वायु हुआ । इसका 
गुण सपं माना गया दै ॥ ३९ ॥ शष्ट्-तन्माच्रारूप 
आकाशने सश्च-तन्मात्रावारे वायुको आवृत करिया 
है । फिर [ स्प्ं-तन्मात्रारूप ] चाने विषत ठौ कर, 
रूप-तन्माच्राकी सष्टिको। ४० ॥ ( रूप-तन्मात्रायुक्त ) 
वायुस तेज छत्पन्न हुभा है, उसका गुण रूप कहा 
जाता हे । सगै-तन्माघ्रारूप वायुने रूप-तन्मात्रावा्े 
तेजको आवृत किया ॥ ४१ ॥ फिर [ रूप-तन्माच्रा- 
मय | तेजने भी विकृत द्रोकर रस-तन्माच्राकी रचना 
कौ । उस ( रस-तन्मात्रा ) से रस-गुणवाहा जल 
हुआ ॥ ४२॥ रस-तन्मात्रावारं जलक्रो सूप-तन्माघ्रा- 
मय तेजने आचरत किया । [ रस-तन्माच्रारूप ] जने 
विकारको प्राप्न द्कर गन्ध-तन्माघ्राकी सषटिकी 
॥ ४३॥ उससे प्रथिवा उदन्न हुई है जिसका गुण 
गन्ध माना जाताह। उन-उन आकाञ्चादि भूतोभिं 
तन्मात्रा ह [ अर्थात्‌ केव उनके गुण शब्दादि दही 
ह । ] इसल्यि वे तन्मात्रा ( गुणरूप ) षी कषे गये 
हैः ४ ॥ तन्मात्रा विदधे भाव नदी ‰ इस- 
लिये उनकी अविरोष संज्ञा द्ै। ये अव्रिेप तन्मा. 
त्रां शान्त, घोर अथवा भूद नहीं द [ अर्थात्‌ उनका 
सखख-दुःख या मोहरूपसे अनुभव नरी ह्र सकता ] 
॥ ४५॥ इस प्रक्रार तामस अष्काससे यह भूत- 
तन्मात्रारूप सगं हुआ हे । 

इन्द्रियां तेजस अर्थात्‌ राजस अष्ठंकागे ओर 
उनके अधित दश देवता वैकारिक अर्थात सास्ति 
भ्कारसे उन्न हुए कै जति द ॥ ४६ ॥ इस 


१८ 








त्वक्‌ चकष्नासिका जिहा श्रो्मत्र च पश्मम्‌।४५७॥ 
रब्दादीनामवाप्त्यथं बुद्धियुक्तानि वै द्विन। 
पायूपस्थौ करौ पादो वाक्‌ च मेतरेय पश्चमी ॥४८॥ 
विसर्गकिल्पगस्युक्ति कम॑ तेषां च कथ्यते । 
आकारवायुतेजां सि सिरं प्रथिवी तथा ॥४९॥ 
राब्दादिभिर्गणेवहन्सयुकतान्युत्तरोत्तरः । 
शान्ता घोराश्चूढाश्च विशेषास्तेन ते स्पृताः॥५०॥ 
नानावीर्याः परथग्भूतास्ततस्ते संहतिं विना । 
नाशक्ुचन्परनाः सष्टमसमागस्य कत्स्नशः।।५१॥ 
सपेत्यान्योऽन्यस्ंयोगं परस्परसमाश्रयाः | 
एकसङ्घातरुक्ष्या्च सम्प्राप्यैक्यमरेषतः ॥५२॥ 
परुषाधिष्ठितत्वाच्च प्रधानानुग्रहेण च। 
महदाद्या विशेषान्ता द्ण्डयुत्पादयन्ति ते ॥५२॥ 
तत्क्रमेण षिवृद्धं सजलबुदबुदवस्समम्‌ । 
भूतेभ्योऽण्डं महाबुद्धे महत्तदुदकेशयम्‌ ।॥५४॥ 
प्राकृते ब्रह्मरूपस्य विष्णोः स्थानमनुत्तमम्‌ ॥५५॥ 
तत्राच्यक्तसरूपोऽसौ व्यक्तकूपो जगत्यतिः। 
विष्णुब्रह्मसखरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः ॥५६॥ 
परेरुरुत्यमभूत्तस्य जरायु महीधराः | 
गभोदकं समुद्रा तस्यासन्सुमहात्मन ; ॥५७॥ 
साद्विदरोपसयुद्रा्च सन्योतिरछोकसग्रदः । 
तस्मिनण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमादुषः ॥५८॥ 


ाखििह्वयनिराकारोस्ततो भूतादिना बहिः। 


भरीविष्णुपराण 


| अ० २ 





परकार्‌ इन्दयोके अधिष्ठाता १ देवता ओर ग्यारहवाँ 
सन वैकारिक ( साच््विक ) दै । ह द्विज! स्वक्‌, 
चक्षु, नासिका, जिह्या ओौर श्रो्न--ये पाचों बुद्धिकी 
सहायतासे शब्दादि विषयोँको ग्रहण करतेचारी पच 
ज्ञानेन्द्रिय है । हे मैत्रेय! पायु ( गुदा), उपस्थं 
( लिङ्ग ), हस्त, पाद भौर वाकू-ये पच क्न्द्रः 
ह ॥ ४७.४८ ॥ इनके कमं [ मल-मूत्रका ] स्याग 
शिल्प, गति जर व चन बतखये जति द । आकाश, 
वायु, तेज, जक ओर परथिकी-ये पचो भूत उत्तरो- 
त्तर ( क्रमशः ) श्ब्द-सशं आदि पाँच गुणोंसे युक्त 
है । ये पचो भूत आन्त, घोर ओर मूढ हैँ [ अर्थात्‌ 
सख, दुःख ओौर मोहयुक्त हँ | अतः ये विशेष कह 
ठाति दै | ४९५० ॥ 

इन भूतोमे प्रथक्‌ पथक्‌ नाना शक्तिर्या ह । अतः 
वे परस्पर पूण॑तया मिषे विना संसारकौ रचना नहीं 
कर सके ॥ ५१॥ इसल्यि एक दूसरेके आश्रय 
रहनेवरे ओौर एक ही संघात्तको इउत्पत्तिके लक्ष्य- 
वे महत्तत्वसे केकर विरोषपर्थन्त प्रकूतिके इन 
सभी विकासेने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण 
परस्पर मिलकर सवथा एक होकर भ्रधान-त्तके 
अनुग्रहसे अण्डकी उत्पत्ति की ॥ ५२-५३ ॥ दे महा. 
बुद्धे ! जलके बुख्बुेके समान क्रमशः भूतोसे बदा 
हुआ बह गोखाकार भौर जठपर स्थित महन्‌ अण्ड 
ब्रह्म ८ हिरण्यगभ ) रूप विष्ण्रुका अति दन्त प्राक्त 
आधार हज । उसमे ये अभ्यक्तस्वरूपर जगत्पति 
विष्णु व्यक्त हिरण्यगभरूपसे स्वयं ही विराजमान हप 
॥ ५४.५६ ॥ उन महात्मा हिरण्यगभंका सुमेर उल्ब 
( गर्भको देँकनेवाली क्चिल्ली ), अन्य पवत जरायु 
( गभौञ्चय ) तथा समुद्र गभञ्चयस्थ रस था ॥५अ्‌। 
हे विप्र! उस अण्डमे ही पवेत ओर द्वीपादिके 
सहित समुद्र, भ्रहणके सहित सम्पूणं छोक तथा देष, 
असुर ओौर मनु्य आदि विविध प्राणिवगं प्रकट 
हुए ॥ ५८॥ वह्‌ अण्ड पूरवं-पूवंकौ अपेक्षा दश-दश 
गुण अधिक जल, अग्नि, वायु, भकार ओर 
भूतादि अर्थात्‌ तामस अहंकारसे आवृत है तथा 





+ परस्यर प्ले यशी शा लानत प्न १ > च> ~ = ~ 1 नो (नित) ~ => + 


न्न 


निकामा गायि 





वृतं दशगुणैरण्डं भूतादिर्महता तथा ॥५९॥ 
दमव्यक्तेनादरतो बरहम॑सतैः स्वैः सहितो महान्‌। 
एभिरावरणैरण्डं सप्तभिः प्राकृतैवृतम्‌ । 
नारिकिरफलस्यान्तवीजं बाह्यदरुरि ॥६०॥ 
लपन्‌ रजोगुणं तत्र स्वयं विशे श्वरो हरिः 
ब्रह्मा भूसवास्य जगतो विस सम्भवतत ते ॥६१॥ 
सृष्टं च पात्यलुुगं पावस्कल्पविकल्यना । 
सत्वभूृद्धगवान्विष्णुरप्रमेयपराक्रमः ॥६२॥ 
तमोद्रकी च कल्पान्ते रद्रपी जनादेनः। 
मत्रेयाखिहभूतानि भक्षयस्यतिदारुणः ॥६३॥ 
भक्षयित्वा च भूतानि जगत्येकाणबी ते । 
नागपयंङदायने शेते च परमेश्वरः ॥६४॥ 
प्रबुद्धश्च पनः सृष्टिं करोति बह्मरपधरक्‌ ॥६५॥ 
सुषटिरिथरयन्तकरणीं बह्मविष्णुरिवात्मिकाम्‌ | 
स संहं याति भगवानेक एव जनार्दनः ।।६६॥ 
सरष्टा सुजति चास्मान विष्णुः पाल्यं च पाति च। 
उपसंहियते चान्ते संहतं च श्वयं प्रथः ॥६७॥ 
पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च । 
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यजञगत्‌ ।६८॥ 
स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽभ्ययः। 
सर्गादिकं तु तस्येव भूतस्थप्रुपकारकम्‌ ॥६९॥ 
सएव सृज्यः स च सर्गकर्ता 
स॒ एव पात्यत्ति च पाल्यते च। 





ब्रह्मा्वस्थाभिरशेषमूरति- 
विष्णुवेरिषठो वरदो वरेण्यः ॥७०॥ 








भूतादि महत्तत्त्वे धिरा हुभा है ॥ ५९॥ भौर इन . 
सवके सहित वह महत्तत््व भी अव्यक्तं प्रधानसे 
आघ्त है। इस प्रकार जैसे नारियर्के फलका 


भीतरी बीज बाहरसे कितने ही छिलकोंसे देका रहता 


है वैसे ही यह्‌ अण्ड इन सात प्राकृत आवरणोसे 
विरा हुभा है ॥ ६०॥ 

उसमे स्थित हुए स्वयं विश्येशर भगवान्‌ विष्णु 
ब्रह्मा होकर र्जोगुणकरा आश्रय केकर इस संसारक 
रचनाम प्रवृत्त होते है ॥ ६१॥ त्था रचनादहो 
जनेपर सच्वगुण-वि शिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान्‌ 
विष्णु खसका कल्पान्तपय॑न्त युग-युगमे पारन कस्ते 
ह ॥ ६२ ॥ हे मैत्रेय ! फिर कह्पका अन्त होनेपर 
अति दारुण तमःश्रधान रुद्ररूप धारण कर वे 
जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतौका भक्षण कर छेते 
हे ॥ ६३ ॥ इस प्रकार समस्त भूतोका भक्षण कर 
संसारको जरूमय करके वे परमेश्वर रोष-ङञस्यापर 
ज्ञयन करते है ॥ ६४॥ जागनेपर ब्रह्मारूप होकर 
वे किर जगतकौ रचना करते दै ॥ ६५ ॥ वह्‌ एक 
ही भगवान्‌ जनादन जगत्‌की सृष्टि, स्थिति भौर 
संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु ौर शिब--इन तीन 
संज्ञाओंको धारण करते हैँ ॥ ६६ ॥ वे प्रमु विष्णु 
सषा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सष्टि करतेदे, 
पाक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ली पालन करते 
ह, ओर अन्तम स्वयं दही संहारक ( शिव ) तथा 
स्वयः हये उपसंहत ( छीन ) होते ह ॥ ६७॥ प्रथिवी, 
जल, तेज, वायु ओौर आकाश्च तथा समस्त इन्द्र्यो 
ओर अन्तःकरण आदि जितना जगत्‌ है सब पुरुष- 
रूप है, ओर क्योकि वह्‌ अन्यय विष्णु ह विश्वरूप 
भौर सब भूतकि अन्तरात्मा दै, इसक्तिये ब्रह्मादि 
प्राणियों स्थित सगौदिक भी उन्दी उपकारक है । 
[ अ्थौत्‌ जिस प्रकार छविर्जोद्राया किया हंजा 
हवन यजमानका उपकारक होताहै, उसी तरह 
परमात्मक स्वे हुए समस्त प्राणियोद्धारा होनेबाली 
सृष्टिमी उन्दीकी उपकारक है] ॥ ६८.६९ ॥ वे 
सर्व॑स्वरूप, शरेष्ठ वरदायक ओौर वरेण्य ( प्राथेनाके 
योग्य ) भगवान्‌ विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओं- 
द्वारा रचनेवष्टि है, वेह स्चेजतिहै, बे ही पाते 
है, वेदी पालित होतेह तथावेही संहार करते है 
[ ओर स्वयं हौ संहृत होते है ]॥ ५० ॥ 


++ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽरे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ 


=, से क१,/४५५५०- ~ 


२०५ 


न 
यिः 


भ्रीषिष्णुपुराण 


[अ० 


तीसरा अध्याय 


बरह्मादिकी आयु सौर कारका स्वरूप 


श्रसैत्रेय उवाच 
निगुंणस्याप्रमेयस्य बुद्रस्थाप्यमलात्मनः । 
कथं सगादिकतंखं ब्रह्मणोऽभ्युपगम्यते ॥ १॥ 
श्रीपराङ्ञर उवाच 

दाक्तयः सर्व॑भावानामचिन्त्यज्ञानगोचराः । 
यतोऽतो ब्रह्मणस्तास्तु सरगचया भावशक्तयः।। २॥ 
भवन्ति तपतां श्रेष्ठ पावकस्य यथोष्णता। 
तन्निबोध यथा सर्गे भगवान्सम्पव्ेते ॥ ३॥ 
नारायणाख्यो भगवान्ब्रह्मा लोकपितामहः । 
उत्पन्नः प्रोच्यते विद्रन्नित्यमेवोपचारतः ॥ ४॥। 
निजेन तस्य मानेन श्रायुवं्षशतं स्प्रतम्‌ । 
तत्यराल्यं तदद्धं च पराद्रममिधीयते ॥ ५॥ 
काटस्वरूपं विष्णोश्च यन्मयोक्तं तवानघ । 

तेन तस्य निबोध त्वं परिमाणोपपादनम्‌ ॥ ६ ॥ 
अन्येषां चैव जन्तूनां चराणामचरा ये । 
भूमृभृत्सागरादीनामशेषाणां च सत्तम ॥७॥ 
काष्ठा पश्चदशाख्याता निमेषा युनिसत्तम । 
काष्ा्िबत्कला तरिश्त्करा मौदूत्तिको विधिः॥।८॥ 
तावत्संख्यैरहोरात्रं युहत्मालषं स्मृतम्‌ । 
अहोरात्राणि ताबन्ति मासः पक्षद्रयात्मकः ॥ ९॥ 
तैः पद्मिरयनं षप द्रेऽयने दक्षिणोत्तरे । 
शयनं दक्षिणं रात्रिरदैवानाय॒त्तरं दिनम्‌ ॥१०॥। 
दिव्यैवषसहसरस्त॒ कतत्रेतादिसंकषितम्‌ । 
चतुयुगं द्वादशभिस्तद्िमागं निबोध मे ॥११॥ 
चत्वारि त्रीणि दे चेक कृतादिषु यथाक्रमम्‌ । 
टिव्यान्दानां मरस्ाणि यगेष्वाद्नः परा तिट+। ०२।। 


भरीभेत्ेयजी बोरे-हे भगवन्‌ ! जो ब्रह्म निरंण, 
अप्रमेय, शुद्ध ओर निमंलात्मा है उसका सगौदिका 
कन्ती होना कैसे साना जा सक्तारै?])१॥ 

्रीपराहारजी बोके-है तपस्वि यमे श्रेष्ठ मैत्रेय ! 
समस्त भाव-पदार्थोको शाक्तियां अचिन्त्य ज्ञानकी 
विषय होती है; [ उनमें कोड युक्ति काग नहीं देती ] 
अतः अग्निकी शक्ति उष्णताके समान ब्रह्मकीभी 
सर्गादिर्चनारूप शक्तियो स्वाभाविक ह । अव, 
जिस प्रकार भगवान्‌ सुष्टिकी र्चनामें भरवृत्त होते 
है सो सुनो ॥ २-३॥ हे विहन्‌ ! नारायण नामक 
खोक-पितामह्‌ भगवान्‌ ब्रह्माजी सदा उपचारसे ही 
“उत्पन्न हुए कहलति दँ ।। ४ । उनके अपने परि- 
माणसे उनकी आयु सौ वषैकी कही जाती है । उस 
सौ (वपं) का नामपरदहै, इसका आधा पराद्धं 
कहखाता है ॥ ५॥ 

हे अनघ! मेने जो तुमसे विष्णुभगवान्‌का 
काटस्वरूप कहा था उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा 
ओर भी जो प्रथिवी, पवेत, समुद्र आदि चराचर 
जीव है उनकी आयुका परिमाण करिया जाताहै 
॥ ६-७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पंद्रह निमेषको काष्ठा कहते 
है, तीस काष्ठाकौ एक कला तथा तीस कठाका एक 
मुहूतं होता है ॥ ८ ॥ तीस सुहूततेका सनुष्यक्रा 
एक दिनरात कहा जाता है ओौर उतने ही दिन- 
रातका दो पक्षथुक्त एक मास होताहै ॥९॥ छः 
महीनोका एक अयन ओौर दक्षिणायन तथा उत्तरा- 
यण दो अयन मिरुकर एक वपं होता है ! दक्षिणा- 
यन देवत्ताओंकी रात्रि है ओौर उत्तरायण दिन 
॥ १० ॥ देवताओके बारह हजार वेकि सत्ययुग, 
चेता, द्वापर भौर कचियुग नामक चार युग होते 
है । उनका अृग-अल्ग परिमाण मँ तुम्हे सुनाता 
॥ १९॥ पुरातत्वके जाननेवाठे सत्ययुग आदिका 
परिमाण क्रमाः चार, तीन, दो ओर एक हजार 


(= ~ ५, य, ~ 














तत्परमाणेः शतैः सन्ध्या पूर्वा तत्राभिधीयते । 
सन्ध्यांशं व तत्तुल्यो युगस्यानन्तरो हि सः ।१३ 
सन्ध्यासनध्याशयोरन्तयंः कारो यनि्त्तम । 
युगाख्यः सतु विज्ञेयः कृतत्रेतादिस्गितः । १४॥ 
कृतं त्रेता द्वापर करटिश्रौव चतुम्‌ । 
प्रोच्यते त्सहसरं च ब्रह्मणो दिवसं पने ॥१५॥ 
ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवस्तु चतुदश । 
भवन्ति परिमाणं च तेषां कालकृतं शृणु ॥१६॥ 


सपरपयः सुराः शक्रो मलुस्तत्प्ूनवो नृपाः । 
एककाले हि सृज्यन्ते संहियन्ते च पूयवत्‌ ।। १७ 
चतुयुंगाणां संख्याता साधिका छेकसप्ततिः । 
मन्वन्तरं मनोः काल सुरादीनां च सत्तम ॥१८॥ 
अष्टौ शतसदस्राणि दिव्यया संख्यया स्यतम्‌ | 
्विपश्वारत्तथान्यानि सहस्राण्यधिकानि तु॥१९॥ 
निशस्कोच्स्तु सम्पूर्णाः संख्याता; संख्यया द्विज । 
सप्तपषटिस्तथरान्यानि नियुतानि महाञुने ॥२०॥ 
विंशतिस्त॒ सदखाणि कारोऽ्ेमधिक बिना | 
मन्वन्तरस्य सङ्घयेयं मारुषैव॑र्सरैद्रिन ॥२१॥ 
चतुदंशगुणो हेष कालो बाहममहः स्यृतम्‌ । 
ब्राह्मो नैमित्तिको नाम तस्यान्ते प्रतिसश्चरः ॥२२॥ 








तदा हि दह्यते सवं ब्रेलोक्यं भूर्भुवादिकम्‌ । 

जनं प्रयान्ति तापार्ता महलोकनिवासिनः ॥२३॥ 
¢ ् 

एकाणवे तु बरछोक्पे ब्रह्मा नारायणात्मकः । 

भोगिशय्यां गतः रेते व्ैरोकयगरासवरहितः ॥ २४॥ 

जनस्थेयोगिभिर्देवधिन्त्यमानोऽन्नसम्मवः | 


प्रसयेक युगके पूवं उतने ही सौ बपेकी सन्ध्या 
वतायी जाती है ओौर युगके पीष्ठे उतने ही परिमाण- 
वाठे सन्ध्यां होते ह | अर्थात्‌ सत्ययुग आदिक 
पूवं क्रमशः चार, तीन, दौ ओर्‌एक सौ दिभ्य 
वषंकी सन्ध्या ओर इतने ही वपंके सन्ध्यां होते 
ह ] ॥ १३॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्या ओर सन्ध्यांशच- 
के बीचका जितना काल होता, उसे ही सत्ययुग 
आदि नामवाछे युग जानना व्ाददिये । १४॥ हे 
सने ! सस्यथुगः त्रेता, द्वापर भौर कछ ये मिलकर 
चतुर्युंग कहलाते दै पेसे हजार चतुयंगका ब्रह्माका 
एक दिनि होतादहे।॥ १५॥ हे बहान ! ब्रह्माफे एक 
दिनम चौदह मनु होते दै । उनका कालक्रन परिमाण 
सुनो ॥ १६ ॥ सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र, मु ओर मनु- 
के पुत्र राजाखोग [पूवे-कल्पानुसार] एक ही कारमं 
रचेजातेरहै ओौर एकरद" कारम उनका संहार 
किया जाता है ।॥ १७ ॥ हे सत्तम ! इकदत्तर चतु- 
युगसे कुछ अधिक कालका एक मन्वन्तर 
गिना जाता षै। यही मनु ओर देवता आदिक्रा 
काठदहै। १८॥ इध परकरार्‌ दम्य वरप-गणनासे एक 
मन्वन्तरभे आठ राख वावन हजार वपं बताये 
जति द| १९॥ तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष. 
गणनके अनुसार मन्वन्तरका परिमाण परे तीस 
करोड़, सरसठ, छाख बीमं हजार वपं षट, इससे 
अधिक नहीं | २०-२१॥ इस कालका चौदह गुना 
ब्रह्माका दिन होता है, उसके अनन्तर नैमित्तिक 
नामवाला व्रणा प्रलय होता हे | २२॥ 

ठस समय मूर्छाक, भुवर्छकि भीर स्वर्छोक तीर्न 
जने ठगते है ओर महर्लकरमे रहनेषाटे सिद्धगण 
अति सन्तप्त होकर जनलोकको चले जाते दै । २३॥ 
हस प्रकार विलोक्रीफे जरमय हो जानेपर जनरोक- 
वासी योगियद्राय ध्यान क्रिये जाते हष नारायण- 
रूप कमख्योनि ब्रह्माजी चिलोकरीकः प्राससे तप्त 
होकर दिनकरे बरावर ही परिगाणवाी उम साधितं 


न~ नी 


% परकहत्तर चतुयुंगके हिसाबसे चौदह म॑न्वन्तरोमे ९९४ चतुगुग होते हुं । भौर ब्रह्मनः एक दिने पक हजार 


चुंग होते है, भतः छः चतुरयुग भीर्‌ बचे । 
हौता रह, 


चतुुगका चौदहर्घां भाग कुषं कम नि हुनार्‌ एक रौ तीन दित्य वर्ध 
दष प्रकार एक मन्वन्तरे इकतत्तर चतुरयुगके भतिरिवतत इतने दिवम वपं भीर्‌ अधिक होते है । 








तसरमाणां हि वां रात्रिं तदन्ते सुजते पुनः ॥२५॥ 
एवं तु ब्रह्मणो व॑मेवं वंशतं च यत्‌ । 

शतं हि तस्य वर्षाणां प्रमायु्महात्मनः ॥२६॥ 
एकमस्य व्यतीतं तु परादध ब्रह्मणोऽनघ । 
तस्यान्तेऽभून्मदाकपः पाश्च इत्यभिविश्रुतः २७॥ 
द्वितीयस्य पराद्धंस्य वत॑मानस्य वै दिन । 

व[राह इति कल्पोऽयं प्रथमः परकिर्तितः ॥२८॥ 





शेषक्चय्यापर शयन कर्ते है ओौर उसके बौत जने- 
पर पुनः संसारकी छृष्टि करते है ॥ २४.२५ ॥ इसी 
प्रकार ( पक्ष, मास जदि ) गणनासे ब्रह्माका एक 
बं ओर फिर सौ वपं होते दै ब्रह्यके सौ वंद 
उस महात्मा (बह्मा ) की परमायै ॥ ९६॥ दहे 
अनघ ! उन ब्रह्माजीका एक पराद्धं बीत चुका दै । 
उसके अन्तमे पाद्म (मसे विख्यात भमह्‌कस्प हज 
था | २७॥ हे द्विज ! इस समय वतमान उनके 
दूसरे पराद्धंका यह वाराह नामक पहा कल्प 
कहा गया है ॥ २८ ॥ 


---म---- 


दृति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽञञे वरतीयोऽध्यायः ।॥ ३1 


-- क को १,११.११० 


चोथा अध्याय 


बरह्माजीकी उत्पत्ति, वराह भगवानद्व(स पृथिवीका उद्धार 
ओर ब्रह्माजीकी टोक-रचना 


श्रीमैत्रेय उवाच 

रह्मा नारायणास्योऽसौ कल्पादौ सगवान्यथा ] 
ससजं सर्वभूतानि तदाचक्ष्व महान ॥ १ ॥ 

शोपराञ्चर उवाच 
परजाः सस्यं भगवान््रह्मा नारायणात्मकः | 
परजापतिपतिर्देवो यथा तन्मे निशामय ॥ २॥ 
अतीतकल्पावसाने निश्नासुप्रोदिितः प्रभुः । 
सत्वोद्रिक्तस्तथा ब्रहम शुन्यं लो कमवैक्षत ।। २ ॥ 
नारयणः परोऽचिन्त्यः परेषामपि स प्रसुः। 
बहमस्वरूपी भगवाननादिः सवंसम्भवः ॥ ४ ॥ 
हमं चोदाहरन्त्यत्र शलोकं नारायणं प्रति । 
नद्मस्वरूपिणं देवं जगतः प्रमवाप्ययम्‌ ॥ ५ ॥ 
अपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरघ्नवः। 
अयनं त॒स्य ताः पूं तेन नारायणः स्मृतः ॥ ६ ॥ 





भीभैेयजी बोखे- हे महायुने ! कल्पके आदि- 
मे नारायणाख्य भगवान्‌ ब्रह्माजीने जिस प्रकार 
समस्त मतोकी स्वना की वह आप वणेन 
कीज्ञिये ।॥ १॥ 


श्रीपराश्षरजी बोरे-प्रजापतियोके स्वामी 
नारायणस्वखूप भगवान्‌ ब्रह्माजीने निस प्रकार 
परजाकी खष्टिकी थौ वह मुक्षसे सुनो ॥ २॥ पिचे 
कल्पका अन्व होनेपर राच्रिमै सोकर उठनेपर सन्त्व- 
गणके इद्रेकसे युक्त भगवान्‌ ब्रह्माजीने सम्पूणं 
लोकोको शरुन्यमय देखा ॥ ३॥ वे भगवान्‌ नारायण 
पर्‌ है, अचिन्त्य है, ब्रह्म, शिव आदि ईश्रोकेमी 
ह्र हे, बह्म्वरूप है, अनादि दहै ओर सबकी 
उत्पन्तिके स्थान रै ।॥ ४॥ [ ममु भादि स्पृतिकार | 
उन ब्रह्मस्वरूप श्रीनारायणदेवके विषयमे जो इस 
जगत्की उत्पत्ति भौर यके स्थान दै, यह्‌ शोक 
कहते है ॥ ५॥ नर [ अर्थत पुरुष-- भगवान्‌ 
पुरुषोत्तम ] से उयन्न होनेके कारण जछ्को "नार 
कहते है; वह नार ( ज ) ही उनका प्रथम अयन 
( निबास-स्थान ) दै । इसल्यि मगवानको नारा 
यण कहा है ॥ ६ ॥ 


०४] तपण्डी 2 8६, भवम ज ^ 


„~ ~ 
----------------------_-__-[_--_----_-__--------- 





तोयान्तःस्थां मदी तास्वा नगलयेर्णवीकृते। 
अतुमानात्तदुद्धारं कतंकामः प्रजापतिः ॥ ७ ॥ 
ग्रकरोत्स्वतनूमन्यां कन्पादिषु यथा परा । 
मत्स्यकूमादिकां तद्दारा वुरास्थितः । ८ ॥ 
वेदयज्ञमयं रपमरोषजगतः स्थितौ । 
स्थितःस्थिरास्मा सवर्मा परमात्मा प्रजापतिः॥९॥ 
जनलोकगतैसिद्धेस्सनका्रमिषटुतः । 
प्रविवेश तदा तोयमात्माधारो धराधरः ॥१०॥ 
निरीच्य तं तद्‌ देवी पाताहृतलमागतम्‌ । 
तुष्टाव प्रणता भूत्वा मक्तिनम्रा वसुन्धरा ॥१९१॥ 
प्रथिव्युघाच 

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शहुचक्रगदाधर । 
माुद्ररास्मादच् त्वं ततोऽहं पू्॑युस्थिता ॥१२॥ 
स्वयादघुदुधृता पूं सन्मयाहं जनादन । 
तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यश्ेषतः ॥१२॥ 
नमस्ते परमात्मात्मन्पुरूषात्मनमोञ्स्त ते । 
प्रधानव्यक्तभूताय कारमूताय ते नमः ॥ १४॥ 
खं कर्ता सर्वभूतानां सवं पाता सं विनाशकृत्‌ ! 
सर्गादिषु प्रमो ब्रह्मविष्णुरुद्रास्मरूपधक्‌ ॥१५॥ 
सम्भक्षयित्वा सकलं . जगस्येकाणेवीते । 

शेपे त्वमेव गोचिन्द चिन्त्यमानो मनी पिभिः॥१६। 
भवतो यत्परं त्वं तन्न जानाति कथन । 
ग्रवतारेषु यद्रुपं तद्च॑न्ति दिवौकसः ॥१७॥ 


त्वामाराध्य प्रं ब्रह्म याता युक्ति पृपुक्षव्रः। 


+++ > 19 1111317 । 9/1) 











सम्पूणं जगत्‌ जङमय हो रहय था । इसक्तिये 
प्रजापति ब्रह्माजीने अतुमानसे प्रथिवीको जख्के 
भीतर जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छसे एक 
दूसरा शरीर धारण करिया । उन्न पूव-कल्पोकि 
आदिमे जैसे मस्य, कूमं आदि रूप धारण क्रिये घे 
वैसे ही इस वाराह कल्पके आरम्भमे देवरयज्ञमय 
वाराह शारीर प्रहण क्रिया ओर सम्पूणं जगतेकी 
स्थिततिमे तत्पर हो सबके अन्तरात्मा ओर अविच 
रूप वे परमात्मा प्रजापति ब्रह्माजी, जो प्रथिवीको 
धारण करनेवाखे ओौर अपने ही आश्रयसे स्थितद् 
जन-लोकस्थित सनकादि सिद्धश्रोसे स्तुति कयि. 
जति हुए जलमे प्रविष्ट हुष्‌ ॥ ७-१०॥ तव उन्हे 
पाताटलोकमे आये देख दैवी वसुन्धरा अति भक्ति- 
विनम्र हो उनकी स्तुति करने ठगी ॥ १५ ॥ 

पृथिवी बोरी--हे शद्ध, चक्र, गदा, पद्य धारण 
करनेवाके कमरूनयन भराचन्‌ ! आपको नमस्कार 
हे । आज आप इस पाताल्तपे मेरा उद्धार कीजिये। 
पूवं कालम भपहीसे य उदन्न हई थी ॥ १२॥ हे 
जनादन ! पहले मी आपहीने मेरा उद्धार किया धा] 
ओरदहे प्रभौ! मेरे तथा आकाञ्चादि अन्य सव 
भूतोके मौ आपहौ उपादान-कारण दहै ॥ १३॥ हे 
परमार्मस्वरूप ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषा- 


त्मन्‌ ! आपक्रो नमस्कार दहे। हे प्रधान (कारण) 
ओर व्यक्त ( कायं ) रूप आपको नमस्कार है । है 


कालस्वरूप ! आपको बारवार नमस्कार है ॥ १४॥ 
हे प्रभो ! जगत्‌की छट आदिक लिये ब्रह्मा, विष्णु 
ओर रुद्ररूप धारण करनेवारे आप ही सम्पूणं भूतौ- 
की उत्पत्ति, पालन ओर नाञ्च करनेवषे द ॥ १५॥ 
ओर्‌ जगतकरे एकाणंवरूप ( जलमय ) द्यो जानेपर, 
हे गोबिन्द ! सबकफो भक्षणकर अन्तमें भप ही मनी- 
पिजनोँद्रारा चिन्तित होते हुए जरम यन करते 
हे ॥ १६॥ दे प्रभो ! आपका जो परतक्व है उसे 
तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जोरूप 
अवतासेमे प्रकट होतादहै उसीकी देत्रगण्र पूजा 
करते है ॥१७॥ आप परनब्रह्मकी ही आराधना करके 
स॒खक्ुजन सक्त होते दै । मला वासुदेवौ आराधना 


(० {= स या एना ~ -थः1 >?) १.८1 


~~~ 
यक्तिञ्चिन्मनसा ग्राहं यदूप्राहयं चक्षुरादिभिः] मनसे जो कुष्ठ प्रहण ( संकल्प } किया जाता दैः 


ुद्धया च यत्पगिच्छेशयं तद्रपमखिं तव ॥१९॥ | १५ कति इन्द्योसे जौ छ प्हण ( विषय) 
------------------ करनेयोग्य है तथा बुद्धिद्रारा जो कुछ विचारणीय 


त्वन्मयाहं त्वदाधारा तस्सृष् चत्समाश्रया | है वह सवर आपहोका रूप है ॥ १९ ॥ हे प्रभो । 
% माधवीमिति रोकोऽयममिषतते ततो हि माम्‌।२०। यँ आपहौका रूप हँ, आपहीके आश्रित हँ भौर 
जयासिहक्ञानमय जय स्थूरमयाव्यय । आपहीके द्वारा रची गयी द तथा आपहीकी 


_ उक्त जय २ मो शरणमे ह इसीलिये छोकमे मुन्चे (माधवी भी 
जयानन्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय प्रभा ॥२१॥ | कते ह २०॥ हे सम्पूणं ज्ञानमय ! हे ्थूर- 








प्रापरा्मन्विश्वाद्मञ्चय यज्ञपतेऽनघ । मय ! ह अव्यय | आपकी जय हो । हे अनन्त ! हे 
त्वं यज्घस्त्ं वपटकारस्त्वमोदध।रस्तवमग्नयः।२२ अभ्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो 
त्वं वेदास्तं तदङ्गानि त्वं यज्ञपरुषो हरे । ।॥ २१ ॥ हे परापर-स्वरूप ! हे चिशवास्मन्‌ ! हे यज्ञ- 


॥ि । | क | शे 
पर्यादयो श्हास्तारा नक्ष्ाण्यसि्ं जगत्‌ | २३॥ | पते ! दै भनघ { भाक च हे प्रभो! जद) 
यज्ञ दहै, आपही वषट्कार ह, आपदह्ी ओंकार 


¢ ५ # 
मूर्तामूतमदुरय च दयं च परपोत्तम । ओर्‌ आप ही (आहवनीयादि ) अग्न्या दै ॥ २२॥ 
यद्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र परमेश्वर | हे हरे! आप ही वेद, वेदाङ्ग ओौर यज्ञपुरुष ह तथा 
तरसवं तं नमस्तुभ्यं भूणे भूयो नमो नमः॥२४॥ | च भरि म, तारः नक्ष भार सृण जगत भौ 
-------------------- आपदहीहै॥ २३॥ हे पुरुषोत्तम ! दहे परमेश्वर ! 
श्रीपराशर चाच मूत-अमूतं, दृरय-अहश्य तथा जो क्छ सने कदा है 
एवं संस्तूयमानस्तु एथिव्या धरणीधरः | = | भौर जो नही कडा, वह्‌ सव आप ही है| अतः 
सामस्तर्वनिः भीमाञ्ञमसं परिषर्षर्‌ ॥२५॥ आपको नमस्कार है, बारवार नमस्कारहै ॥ २४॥ 
ततः सथुलकिप्प धरं स्वदया 
महावराहः र्ङटपदमलोचनः | 
रसरातलादु खलपृत्र सनिमः 
सयुतिथितो नीर हवाचरो महान्‌ २६ 








ओआपराशरजी बोरे-प्रथिवीद्ारा इस प्रकार 
स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनिहै 
उन भगवान्‌ धरणीधरने घघंर श्चब्दसे गजना की 
॥ २५॥ किर विकसित कमलके समान मेत्रोंवाछे 
उत सहावराहमे अपनी डादूसे प्रथिषीको उठा 


उत्तिषटता ठेन युखानिलाहतं सिया ओौर्‌ वे कमल्दल्के समान इयाम तथा नीटा- 
तत्सम्भवाम्भो जनलोकसंश्रयाच्‌ । चरके सहश्च विशालकाय भगवान्‌ रसात्तलसे बाहर 
्र्नायामाप्त हि तान्महाद॒तीन्‌ निकटे | २६ ॥ निकरते समय उनके मुखके श्वासे 


उछलते हुए जने जनलोकमे रह नेवारे महातेजस्वौ 
ओर निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्चरोको भिगो दिया 
प्रयान्ति तोयानि सुराग्रविक्षत- ॥ 
॥ २७ ॥ जख बड़ा शब्द्‌ करता हु उनके खुयसे 
रातकेऽपः कृतकब्दसन्तति । विदीणं हुए रसातलम नीचेकी ओर जने लगा ओौर 
धासानरस्ताः; परतः प्रान्त जनदोकमे रहनेबाटे सिद्धगण उनके श्वास-वायुसे 
सिद्धा जने ये निवता बस्षन्ति ॥२८॥ | वि्षप्त होकर इधर-उधर भागने लगे ॥ २८॥ 


सनन्दनादीनपकल्मषान्‌ मुनीन्‌ ॥ २७॥ 


०७] < नकप ९०े प्रथम्‌ अश | २५९ 

























कुक्षि जलम भीगी हई है बे महदा- 
वराह्‌ जिस समय अपने वेदमय शरीरको कंपाते हप 
प्रथिवीको लेकर बाहर निके उपर समय उनकौ रोमा- 
वलिमें स्थित मुनिजन स्तुति वारने कगे ।। २९॥ उन 


उत्तषठतस्तस्य ज्रम 
महावराहस्य महीं विगृह्य। 
विधुन्वतः वेदमयं शरीरं 
येमान्तस्स्था अनयः स्तुवन्ति ॥२९॥ 
तं त॒ष्टयुस्तोषपरीतचेतसो 
लोके जने ये निवसन्ति योगिनः | 
सनन्दनाद्या द्यतिनम्रकन्धरा 
धराधर धीरतगद्धतेक्षणम्‌ ॥२०॥ 


जयेदवशणां परमेश केशव 

प्रमो मदाशह्धरासिचक्रधक्‌ । 
प्रषतिनाश्चस्थितिरैतुरीरवर- 

स्त्यमेवं नान्यरपरमं च यत्पदम्‌ ॥३१। 


पदेषु वेदास्तव पृषद्‌ 

दन्तेषु यज्ञाधितयश्च वक्त्रे । 
हताशजिद्टोऽसि तनृषदाणि 

दर्भाः प्रभो य्ञपुमांस्त्वमेव ।३२॥ 
विरोचने राज्यहनी मदहातम- 

न्सर्वाश्रयं ब्रह्म परं शिरस्ते। 
रक्तान्यरेपाणि सराकरूपो 

प्राणं समस्तानि हवीपि देष ॥।३३)। 


सुकतुण्ड सामस्वरघीरनादं 


निश्गेक ओर उन्नत दृष्टवा धराधर भगवान्‌की 
जनरोकमे र्हमेवाे सनन्दनादि योगीश्वरोने प्रसन्न- 
चित्तसे अति नग्रतापू वंक सिर ्चुकाकर इस प्रकार 
सतुति की ३०॥ 


^हे ब्रह्मादि ईश्ररोंके भी परम हश्यर । है केश्चव | 
हे शद्ध-गदाधर ! हे खडग-चक्रधारी प्रभो ! आपकी 
जय हो । आप ही संसार्की उत्पत्ति, स्थिति ओर नाज्ञ- 
केकारण रहै ततथाओपदहीदश्वर ह ओर जिसेपरम 
पद्‌ कहते है बह भी आप्रसे अतिरिक्त आौर्‌ कुछ 
नहीं ह॥ ३१॥ दह यूपरूपौ डादूबारे प्रभो! 
आप ही यज्ञपुरुष है, आपके चरणो चासो वेद है, 
दते यज्ञ दै, भुखमे [ श्येन, चित आदि] 
चितियाँ द । हुताशन ( यज्ञाग्नि ) आपकी जिहा 
है तथा शां रोमावलि दै ।॥। ३२॥ हे महात्मन्‌ । 
रात ओर दिन भापकेनेत्र हँ तथा सबका आधारभूत 
परब्रह्म आपका सिरहै। हे देव! वेष्णव आदि 
समस्त सूक्तं आपके सटाकलाप (स्कन्धके रोम-गुच्छ ) 
है ओौर समघ्रहवि आपके प्राण है ३३ हे मभा { घुक 


्राग्वंशषकायाखिलसत्रसन्धे | की शनी कि 

[9 ¢ न . 

पतदपममणोऽपि ॥ की संधि्ौ है । द ब | इ (प्रोत । ओर पूतं 
सनातनात्मन्भगवन्प्रसौद ॥३४।। । 1 इ 


( स्मार्तं) धमं आपकेः कान ह| हेः नित्यश्वरूप 
भगवन्‌ | प्रसन्न होशये।॥३४॥ हे अक्षर ! दे विन्यमूतं ! 
अपने पाद्-हारसे मूमण्डलको व्याप्त करमेव ले 
आपको हम विश्यके आदिकारण समक्षते ह 1 आप 
सम्पूणं चराचर जगते परमेश्वर ओर नाथ दै; अतः 
प्रसन्न होये ॥३५॥ दे नाथ ! आपकौ डादूपर रखा 
हुआ यह्‌ सम्पू भूमण्डङदेसा प्रतीत होता दै मानो 
कमलवनको सौदते हए गजराजके दतसे कोद 
^ त्वा चगल 1 पन्ता ठटगा 1 ३६॥ 


पदक्रमाक्रान्तथुवं भवन्त- 
मादिस्थितं चाक्षरं विश्वमूर्ते | 
विश्वस्य ॒विश्चः परमेश्वयेऽसि 

प्रसीद नाथोऽसि परावरस्य ॥२५॥ 
देाभ्रविन्यस्तमशेषमेत- 

दुभूमण्डलं नाथ विभाव्यते ते। 


विगाहतः पद्मवनं विग्नं 
(3 112£ 1) 











द्यावापृथिव्योरतलग्रभाव 
यदन्तरं तद्रपुषा 
व्याप जगद्व्याप्चिसम्थदीप्त 
हिताय विहवस्य बिभो भव त्वम्‌ ॥३७॥ 
परमाथस्त्वमेवैको न्प्र न्योऽस्ति जगतः पते । 
तवैष महिमा येन व्याप्तमेतचचराचरम्‌ ।\२३८ 
यदेतद्‌ दृश्यते मूत॑मेतञ्जानात्मनस्तवं । 
भ्रान्तिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्रूपमयोगिनः | ३९] 
ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतददुद्रयः 
अथस्वरूपं पर्यन्तो भ्राम्यन्ते मोहसम्प्टवे | ४०।। 
येतु ज्ञानविदः शुद्धवैतसस्तेऽसिलं जगत्‌। 
ज्ञानात्मकं प्रपयन्ति सद्रपं परमेरर ।।४१॥। 
प्रसीद सवं सर्वासन्वासाय जगतामिमाम्‌। 
उद्वरोवीममेपास्मज्छन्नौो दे्न्जरोचन |४२। 
सोद्विक्तोऽसि भगवन्‌ गोविन्द परथिवीमिमाम्‌। 
 सथुद्धर भवायेश्च शनो देद्यन्जरोचन ॥४३। 
सगप्धतिर्भवतो ` जगतायुषकारिणी । 
भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु श्न देद्यभ्जरोचन।।४४॥ 


तवैव । 








श्रीपरा्चर उवाच 

एवं सस्तूयमानस्त॒ परमात्मा महीधरः । 
ठज्दार क्षितिं कषिप्रं न्यस्तवांध महाम्भसि।।४५॥ 
तस्योपरि नलोधस्य महती नौखि स्थिता। 
वित्ततस्वाततु देहस्य न मही याति सम्प्ठवम्‌।।४६॥ 
ततः कषितिं समां त्वा पृथिव्यां सोऽचिनोद्धिरीन्‌ । 
यथाविभागं भगवाननादिः; परमेश्वरः ।४७।॥ 
पराक्सगंद्ग्धानिलान्पवतान्पथिवीतके 

अमोघेन प्रभावेण ससजामोघवाञ्छित; ॥४८॥] 
भूविमागं ततः कृत्वा सपद्रीपान्यथातथम्‌। 








हे अनुपम प्रभावक्चाली प्रभो! परथिवी ओौर 
आकराञ्चके बीच जितना अन्तर दहै बह आपके 
शरीरसे ही ग्यप्है। हे विश्वको. व्याप्त करनेमें 
समथं तेजयुक्त प्रभो ! आप विहवकरा कल्याण कीजिये 
॥ ३७ ॥ हे जगत्पते ! परमाथ (सस्य वस्तु) तो एक- 
मात्रजप हीह, आपके अतिरिक्त ओौरकोष्भी 
नहीं हे । यह्‌ आपकी ही महिमा (माया) है जिससे 
यह्‌ सम्पूणं चराचर जगत्‌ भ्याप्त हे ॥ ३८ ॥ यह जो 
कुछ भी मूर्तिमान्‌ जगत्‌ दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप 
आपहीका रूप है | अजितेन्द्रिय लोग रमसे इसे जगत्‌. 
रूप देखते है ।॥। ३९॥ इस सम्पूणं ज्ञानस्वरूप जगत्‌- 
को बुद्धिहीन लोग अ्थरूप देखते हँ अतः वे निर- 
न्तर मोहमय संसार-सागरमें भटका करते है ॥४०॥ 
हे परमेश्वर ! जो रोग शुद्धचित्त ओर विज्ञानवेत्ता है 
वे इस सम्पूणं संसारको आपका ज्ञानारम क स्वरूप हयै 
देखते हे ।। ४१।, ह सवं । हे सर्वात्मन्‌ | प्रसन्न हो दये । 
हे अप्रमेयात्मन्‌ ! हे कमलनयन ! संसारके निवासके 
चयि प्रथिवीक्रा बद्धार करफे हमको श्चान्ति प्रदान 
कीजिये ॥४२॥ दे भगवन्‌ ! हे गोविन्द ! इस समय 
आप सत्त्वप्रधान है; अतः है ईश्च ! जगततकरे उद्धवे 
स्यि आप इस प्रथिवीका दद्भार कीजिये ओौर दहे 
कमलनयन ! हमक्रो आान्ति प्रदान कीजिये ॥४३॥ 
आपके द्वारा यह्‌ सगकी प्रवृत्ति संसारका उपकार 
करनेवाी हो । हे कमलनयन । आपको नमस्कार 
है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥ ४४ ॥ 
भीपयाश्चरजी बोरे-इस भकार स्तुति किये 
जानेपर प्रथिवीको धारण करनेवाषे परमात्मा 
वराहजीने उसे रीघ्र ही उटाक्रर अपार जलके 
ऊपर स्थापित कर द्या । ४५ ॥ उस जलसमूहके 
ऊपर वह्‌ एक बहुत बड़ी नौकाके समान स्थित है 
ओर बहुत चिस्तृत आकार होनेके कारण उसमें 
दूबती नहीं है । ४६ ॥ फिर उन अनादि परसेश्वरने 
प्रथिवीको समतल कर उसपर ज्तौ पकतोको 
विभाग करके स्थापित्त कर दिया ॥ ४७॥] सत्य- 
संकल्प भगवान्‌ने अपने अमोघ प्रभावे पूवेकलप- 
के अन्तमे दग्ध हु समस्त पवंतोको प्रथिवी-तल- 
पर यथास्थान रच दिया ॥ ४८ ॥ तदनन्तर इन्होंने 
सप्तद्रीपादि-क्रमसे परथिवीका यथायोग्य बिभाग 











भूराधांतुरो सोकान्पूर्ववत्समकल्पयत्‌ ।४९॥ 
ब्रहमरू पधरो देवस्ततोऽसौ रजसा व्रतः । 
चकार सुष्टिं भगवांशतु्वकत्रधरो हरिः ॥५०॥ 
निमित्तमातरपेवासौ सृज्यानां सगंकमेणि । 
प्रधानकारणीभूता यतो वै सूल्यशक्तयः ॥५१॥ 
निमित्तमात्रं युक्सवेवं नान्यक्किश्विदपेक्षते । 

नीयते तपतां रेष स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्‌ ॥५२॥ 





कर भूर्छोकादि चारों छोकोकी पूववत्‌ कल्पना कर 
दौ || ४९॥। फिर उन भगवान्‌ हरिने रजोगुणसे युक्त 
हो चतुशरंखधारी ब्रह्मरूप धारणकर खुष्टिकी रचना 
की । ५० | सृष्टिकी रचनाम भगवान्‌ तो केव 
निमित्तमाच्रहो है, क्योकि उसकी प्रधान कारणतो 
स्य पदार्थोकी शक्तियाँ ही दहै ॥५९॥ हे तपस्वियोमें 
रेष्ठ मैत्रेय ! बस्तुओकी रचनाप्रै निमित्तमाच्रको 
छोड़कर ओौर किसी बातकी आवश्यकता मी नहीं 
है, कयौकि बस्तु तो अपनी ही [ परिणाम ] खक्तिसे 
वस्तुता (स्थूखरूपता) को भराप्न हो जाती है ॥ ५२॥ 


"कः+, 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽञे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 


44 १,६.९५ ~ 


पोच अध्याय 


अविद्यादि विविधं सर्गोका वणेन 


श्रीमैत्रेय उवाच 
यथा ससं देवोऽसौ देवधिपितृदानवान्‌ । 
मचुष्यतियंग्बृकषादीन्भूव्योमसक्िरौकसः ॥ १ ॥ 
यदुगुणं यत्स्वभावें च यद्र च जगह द्विज | 
सर्गादौ सुष्टवान्त्रह्मा तन्ममाचक्ष्व ठृत्स्नश्ः॥ २॥ 
श्रीपराद्चर उवाच 
मतरे कथयाम्येतच्छणुष्व सुसमाहितः । 
यथा ससजं देवोऽसौ देवादीनखिलान्वि्ः ।। ३॥ 
सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्यादिषु यथा पुरा । 
अुद्धिपूवंकः सगः परादुरभतस्तमोमयः ॥ ४॥ 
तमो मोद्य महामोदस्तामिसो घन्धसं्चितः। 
अविद्या पञ्चपर्वैषा ्रादुमता महात्मनः ॥५॥ 
पञ्चधावस्थितः सर्गोभ्यायतोऽप्रतिनोधवान्‌ | 
वहिरन्तोऽप्रकाशथ संवृतास्मा नगारमकः | ६ ॥ 
युख्या नगा यत; प्रोक्ता युख्यसर्गस्ततस्त्वयम्‌।७। 








श्रीमैनरेयजी बोरे-है द्विज सज ! सगंके आदिमं 
भगवान्‌ ब्रह्मजीते प्रथिश्री, आकाश ओर जल 
आदिमे रहनेवाे देव, ऋषि, पिद्गण, दानव, 
मनुष्य, तियंक्‌ ओर वरृक्चादिको जिस प्रकार रचा 
तथा जैसे गुण, स्वभाव ओर हषवाठे जगत्‌की 
रचना की वह्‌ सथ आप मुञ्चसे किये । १-२॥ 


श्रीपराशग्जी बोरे--हे मैत्रेय ¦ भगवान्‌ बिभुने 
जिस प्रकार इस सर्गकी रचना की वह र तुभे 
कहता ह, सावधान होकर सुनो ॥३॥ सगके 
आदिमे ब्रह्मा जीके पूवेषत्‌ सृष्टिका चिन्तन करतेपर 
पहटठे अबुद्धिपूवेक [ अथौत्‌ पहटे-पहट असावधान 
हयो जनेसे] तमोगुणी सश्टिका आविसव हुजा॥ ४॥ 
उस महास्मासे प्रथम तम ( अज्ञान ), मोह, भहा- 
पोह ( मोगेच्छा ), तामिख ( क्रोध ) ओौर अन्ध- 
तामि (अभिनिवेश) नामक पच्पवां (पच 
प्रकारकी ) अविद्या उत्पन्न हुई । ५॥ उसके ध्यान 
करनेपर्‌ ज्ञानशुन्य, बाहर-भीतरसे तमोमय आर 
जड नगादि (वृ्ष-गुल्म-छता-वीरुत्‌-तृण ) रूप पाच 
प्रकारका सग हुभा ।॥६॥ [ बराहजीदारया सवप्रथम 
स्थापित हने कारण ] नगादिको मुख्य कहा गया हे, 
इसल्यि यह्‌ सगं मी युख्य सगं कदखाता है ॥ ७॥ 


न्राददष्बुदद्ण ॥ अ० ५ 











तं दुष्रासाधकं. सर्गममन्यद्परं पुनः ॥ ८ ॥ उस सृष्िको पुरुपाथंकी असाधिका देखकर 
९ ॥ उन्होने फिर अन्थ सगकरे ल्यि ध्यान क्रियातो 
तस्याभिध्यायतः सर्गस्तियकुस्नोताभ्यवत्तत | तियंक्‌ सरोत-खष्टि उलयन्न हई । यद्व सगं [ वायुके 


राः 5 समान ] तिरछा चख्नेवाला है इसल्यि तियक्‌ खोत 
यस्मात्तियगपवृततस्प तियकल्ोतास्ततः समृतः ।९॥| कहलात है || ८-९॥ ये प यश्च आदि नामसे 


वादयते विरयातास्तमः प्राया वेदिनः । = | मिद्ध द जोर भाष तमोमय ( भज्ानी 
^ ॥ विवेकरहित अनुचित मागका अचलम्बन करनेवाले 
उत्पथग्राहिणश्वव तेऽज्ञाने ज्ञानमानिनः | १०॥ | ओौर विपरीत ज्ञानको ही यथार्थं ज्ञान माननेवाठे 


. होते है । ये सव अहंकार, अभिमानी, अद्टाईस 


न्तः ५ समश्ननेवाले ओर परस्पर एक दूसरेको प्रवृत्तिको न 
अन्तः प्रकाशचस्ते सव आ्दृताशर परस्परम्‌ ॥११॥ | जानना हत ह ॥ १८.-११॥ 
तमप्यसाधकं मत्वा ध्यायतोऽन्यस्ततोऽभवत्‌। उस सगको मौ पुरुषार्थ॑का असाधक समञ्च 
॥ ^ + पुनः चिन्तन करनेपर एक ओौर सगं हुभा । वह्‌ 
उध्वस्ोतास्तृतीयस्तु साखिकोष्वमवत्तेत।१२॥ | उध्वखोतनामक तीसरा साच्विकं सं ऊपरके 


~ लोकम रहने खगा ॥ १२॥ वे उध्यै-सोत सष्ठ 
ते ुखप्रोतिबहुटा बहिरन्तस्त्वनाइृताः । उत्पन्न हृष प्राणी विषय.सुखके प्रेमी, बाह्य ओर 








# साख्यकारिकामे अद्ुईस नधोका वर्णन इस प्रकार किया है-- 
पएकादतोन्द्ियवधाः सह॒ बुद्धिवपेरशक्तिरदिष्टा । सप्तदश चधा बद्र्विपययातष्टिसिद्धीनाम्‌ ॥ 
आध्यात्मिक्यश्चतसरः प्रकृ्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्या विषयोपरमात्‌ पञ्च च नव तुष्टयोऽभिमताः ॥ 
अहः शब्दोऽध्ययनं हुःखविघाताखयः सुटसासि; । दानज्न सिद्धयोऽ्छौ सिद्धः पू्वोऽङकुशखिविधा ।। 


( ४६-५१ } 
ग्यारह इन्दरियवेध भौर तुष्टि तथा सिद्धिके विपर्यये सत्र बुद्धि-वध--ये कुल भदा वध अशवित कहलाते 


है । प्रकृति, उपादान, काल भौर भाग्य नामक चार भाव्यात्मिके भीर पाचों ज्ञानेन्दियोके बाह्य विपयोके निवृत्त हो 
जानेसे पाँच बाह्य-दइसं प्रकार कुल नौ तृष्णां ह । तथा उहा, शब्द, अध्ययन [ आध्यात्मिक, माधिभौतिक मौर 
आधिदैविक ] तीन दुःखविधात, सुहृस्राप्ति भौर दान--ये भाठ सिद्धिर्या ह । ये [इन्दरियाशवित, वृष्टि मौर सिदधिरूप] तीन 
वध मुनिस पूर्वं विध्नरूप हँ । 

भन्धत्व-बधिरत्वादिते छेकर पागलपनतकृ मनसहित ग्यारह इन्द्रियोकी विपरीत अवस्थाएं ग्यारह इन्धियवध ह । 

माठ प्रकारक प्रकृतिमेसे किसी चित्तका कय हो जानेस अपनेको मुक्त मान लेना कृत्तिः नामवाली वृष्टि 
है । संन्यासे ही अपनेको कृतार्थं मान ेना "उपादान" नामकी तुष्टि है । समय भनेपर स्वयं ही सिद्धिकभहो जायगी, 
ध्यानादि षटेशकी क्या भावद्यकता है--एेसा विचार करना "काल! नामकी तुष्टि है भौर भाग्योदयसते सिद्धि हो जायगी-- 
एसा विचार (भाग्यः नामकी तुष्टि ह । इन चारोका आत्मासे सम्बन्ध है; अतः ये आध्यात्मिक वृष्यां हँ । पदाधेकि उपार्जन, 
रक्षण भौर व्यय आदिमे दोष देखकर उनसे उपरत हो जाना बाह्य तुष्टया ह । शब्दादि बाह्य विषय परनि है, इसलिये बाह्य 
तृष्य भी पाँचहीहै। इस प्रकार कुल नौ तुष्टां है । 

उपदेशकौ अपक्वा न करक स्वयं हौ परमार्थका निश्चय कर लेना 'उहा' सिद्धि है। प्रसंगवक्च कही कुछ सुनकर 
उसीपे ज्ञानसिद्धि मान लेना श्षब्द' सिद्धि है । गुरुम पठुकर ही वस्तु प्राप्त हो गयी~-एेसा मान लेना अध्ययन" सिद्धि 
ह) आआध्यारिमिकादि त्रिविधे दुःखो नाक्ञ हौ जाना तीन प्रकारकी 'दुःलविघात्त' सिद्धि है। भभीष्ट पदार्थकी प्रास्त 


हयो जाना 'सुहू्राप्ति' सिद्धि दह । तथा विद्धान्‌ या तपस्वियोका संग प्राप्त हौ जाना दान" नामिका सिद्धि ह । इस प्रकार 
ओ गः भि) & , ॥ 








प्रकाशा बहिरन्तश्च ऊध्॑सोतोद्धवाः स्मृताः ॥१३॥ 
तु्टासनस्तरतीयस्तु देवसर्गस्तु स स्य्ृतः 
तस्मिन्सर्गेऽमयस्परीिनिप्यनने ब्रह्षणस्तदा ।। १४॥ | 
ततोऽन्यं स तदा दध्यौ साधकं सगंुत्तमम्‌। 
श्रसाधकांस्तु ताञ्ज्ञात्वा युख्यसगादिसम्भवान्‌ १५ 


तथाभिध्यायतस्तस्य सत्याभिष्यायिगस्ततः, 
परादर्मूब चाव्यक्तादर्वाक्सोतास्तु साधकः ॥ १६॥ 
यस्मादधार्व्यवतंन्त ततोऽवाक्घोतसस्तुते। 
ते च प्रकाश्वहुलास्तमेोद्रिक्ता रजोऽधिकाः ॥ १७॥ 
तस्मात्ते दुःखबहुला भूयोभूयत्च कारिणः । 
प्रकारा चदिरन्तश्च मनुष्याः साधकास्तु ते॥१८॥ 
इत्येते कथिताः सर्गाः षडत्र निशत्तम । 


प्रथमो महतः सगं विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ॥१९॥ | 
तन्मात्राणां द्वितीयश्च भूतसर्गो हि सस्परतः। 
वैकारिकस्ततीयस्त॒ समं देन्द्ियक; स्पत ॥२०॥ 
त्येष प्राकृतः सगं; सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः । 
यख्यसरगधतुथस्त स्या वै स्थावराः स्परताः॥।२१॥ 
तिथ॑क्सोतास्तु यः प्रोक्स्तैय॑ग्योन्यः स उच्यते 
तदष्वं्लोतसां षष्ठो देवसग॑स्त संस्मरतः ॥२२॥ 
ततोऽ्वाषसोतसां सर्म सपतमः स त मानुषः। २२॥ 
श्र्टमोऽलुग्रहः सः साचिकस्तामसश्च सः । 





परैत वैकृताः सगः प्राकृतास्तु त्रयः स्मरताः ॥२४॥ 
प्रादृतो वैृतश्यैव कौमारो नवमः स्म्रतः। 


प्राकृता वैकृताश्ैव जगतो मृरदेतवः । 





सूजतो जगदीशस्य फिमन्यच्द्भोतुमिच्छसि ॥२६॥ 





आन्तरिक टष्टिसम्पन्न, तथा बाह्य ओर आन्तरिक 
ज्ञानयुक्त ये ॥ १३ ॥ यह तीसरा देबसगं कहटाता 
है । इस सगंके प्रादुभूत होनेसे सन्तु्ट-चित्त ब्रह्माजी- 
को अति प्रसन्नता हह ॥ १४॥ 

फिर,इन मुख्य सगं आदि तीनों प्रकारकी सष्टियो- 
मे उत्पन्न हु प्राणियोको पुरुपाथंका असाधक जान 
उन्होने एक ओर उत्तम साधक सर्गे ल्यि चिन्तन 
किया || १५॥ उन सत्यसकल्प ब्रह्माज्ञीके इस प्रकार 
चिन्तन करनेपर अव्यक्त ( प्रकृति ) से पुरुषार्थका 
साधक अव्र॑कृस्नोतनामक्र सगं प्रकट हुआ । १६॥ 


| इस सगर प्राणी नीचे ( प्रथिीपर ) रहते है इस- 


लिये वे अर्वाक्खोत' कहलाते दँ । उनमें सनव, रज 


' ओौर त्तम तीनोंहीकी अधिकत। होती है ॥ १७ ॥ इस- 


दिये वे दुःख-बहुख, अस्यन्त क्रियाक्चौल एवं बाह्य- 
आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्तं ओौर साधक ठै । इस सर्ग॑के 
प्राणी मनुष्य है ॥ १८॥ 

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सगं 
कहे । उनम महत्तरको ब्रह्माका पहला सगं जानना 


| चाहिये ॥ १९॥ दूसरा सगं तन्मात्राओौकरा दै, जिसे 


भूतसगं भी कहते है ओर तीसरा वैकारिक सगं है 
जो रेन्द्रियिक ८ इन्द्रिय-सम्बन्धो ) सभं कहता 
है ॥ २०॥ इस प्रकार बुद्धिपूेक उलन्न हुआ यदह 
प्राकृत सग हृ । चौभा सख्य सगं हे । पवैत- 
वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्गे अन्तर्गत है ॥२१॥ 
पचर जो ति्य॑कसखोत बतलाया उसे तियेक्‌ ( कीट- 
परतंगादि ) योनि मी कहते ह । किर छटा सगे उध्वं- 
स्रोताओका दहै जो द्वेवसगे' कहलाता है । उसके 
पश्चात्‌ सातर्बौ सर्म अर्वाक-खोताओंका है, वह्‌ 
मनुष्यसगं दे ॥ २२.२३ ॥ भरव अनुग्रह सगं हे । 
वह साच्विक ओर तामसिकदहै।ये पाच वेत 
( विकासो) सरम दै ओौर पदे तीन श्राकृतसगेः 
कहत दै ।॥ २४॥ नवँ कौमार-सगं है जो प्राकृत 
लर्‌ वैकृत भी दै । दस प्रकार सृष्टि-स्वनामे प्रवतत 
हुए जगदीश्वर प्रजापतिके प्राकृत ओौर वैकछ्तनामकं 
ये लगते मूलमूत नौ सगं तुम्हं सुनाये । अव ओौर 
क्या सुनना. चाहते हो १ ॥ २५२६॥ 





श्रीमैत्रेय उवाच 
सइक्षपात्कथितः सर्गो देवादीनां सने खया । 
विस्तराच्छीतमिच्छामि स्वत्तो युनिवरोत्तम ।॥२७॥ 
श्रीपराङ्चर उवाच 

कर्मभिर्भाविताः पूर्वः इशराङ्ककरेप्त ताः | 
ख्यात्या तया हनिर॑क्ताः संहारे हुपसंहृताः॥।२८॥ 
स्थावरान्ताः सुराद्यास्तु प्रजा बह्मधतुर्विधाः 
बरह्मणः इुवंत सृष्टिं जज्ञिरे मानसास्त॒ ता; ॥२९॥ 
ततो देवाजुरपितृन्मनु्यांथ चतुष्टयम्‌ । 
भिसृकषरम्भास्थेतानि स्वमारमानमयूयुनत्‌ ॥३०॥ 
युक्तात्मनस्तमोमात्रा शुद्िक्तामूसमजापतेः। 
सिचृ्तोज॑यनासूर्व मसुरा जिर ततः ॥२१॥ 
| उस्ससे ततस्तां त॒ तमोमात्रात्मिका तरम्‌ । 

सा तु व्यक्ता तचुस्तेन पैत्रेयामूद्धिमावरी॥३२॥ 
सिसक्ुरन्यदेहस्थः प्रोतिमाप ततः सुराः । 
सच्वोद्रिक्ताः समुद्भूता तो ब्रह्मणो दिज॥।३३ 
वयक्ता सापि ततुस्तेन सचवप्रायमभूदुदिनम्‌। 

ततो हि बिन रात्राघसुरा देवता दिषा ॥३४॥ 
सत्वमात्रात्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तदम्‌। 
पितरृघन्मन्यमानस्य पितरस्तस्य जन्निरे ।।२५॥ 
उत्ससजं ततस्तां तु पितुन्ृ्ापि स प्रः । 

सा चोत्युष्टामवत्सन्ध्या दिननक्तान्तरस्थिता । २६। 
रजोमात्रातमिकामन्यां जगृहे स तयु ततः। 
रजोमामोत्कया जाता मनुष्या द्विजसत्तम ३७॥ 
तामप्याङ्ु स तत्याज तनु सद्यः प्रजापतिः। 
उ्योत्सना सममवर्हापि प्राक्सन्ध्या याभिधीयते ॥ 








श्रीभेत्रेयजी बोरे-हे म॒ने ! आपने इन देवादिको- 
के सर्गोका संक्षेपसे वर्णन किया । अव, हे मुनिश्रेष्ठ । 
मँ इन्दे आपके सुखारविन्दसे विस्तार पूवक सुनना 
चाहता हू || २७॥ 

श्रीपराश्चरजी बोके-दे मैत्रेय ! सम्पूणं प्रजा 
अपने पूव॑-्ुभाञ्चुभ कर्मोसि युक्त दै; अतः प्रलय- 
कामे सवका खय होनेपर भी वह उनके संस्कारौ. 
से मुक्त नहीं होती ॥ २८॥ हे ब्रह्मन्‌ ! ब्रह्मालीके 
सृष्टि-क्ममे प्रवृत्त होनेपर देवताओंसे टेकर स्थावर 
पर्यन्त चार प्रकारकी सष्टि हई । वह केवल मनो- 
मयी थी ॥ २९॥ 

फिर देवता, असुर, पिकेगण ओर मरुष्य इन 
चासेकी तथा जलकी सृष्टि करनेकी इच्छसे उन्दने 
अपते शञरौरका उपयोग क्रिया ॥ ३० ।) सृष्टि-स्चना- 
कौ कामनासे प्रजापतिके युक्तचित्त होनेपर तमोगुणः 
कीबृद्धि हृ । अतः सबसे पहले उनकी जंचासे `, 
असुर उलपन्न हए ॥ ३९ ॥ तवः हे मैत्रेय ! इन्दोनि 
उस तमोमय श्चरीरको छोड़ दिया, वह्‌ छोड़ा हृभा 
तमोमय क्सीर हयी सत्रि हुआ ॥ ३२ ॥ फिर अन्य 
देहम स्थित होनेपर सृष्टिकी कामनावाले उन प्रजाः 
पत्तिको अति प्रसन्नता हुदै, ओर हे द्विज ! उनके सुख 
से सन््वप्रधान देवगण उतपन्न हुए 1) ३३॥ तदनन्तर 
उस शरीरको मी उन्होने त्याग दिया | वह्‌ त्यागा 
हआ रीर ही सन्तवस्वरूप दिन हज । दसीलिये 
राच्रिमे असुर बलवान्‌ होते है भौर दिनमे देवगणोका 
बल विज्ञेष होता है ॥। ३४ ॥ फिर उन्होने आंशिक 
सस्वसय अन्य क्ञरीर बह करिया ओर अपनेको 
पितृवत्‌ मानते हए [ अपने पारव-भागसे ] पिदरगणकं 
रचना की || ३५ | पितृगणक) स्वना कर उन्होने 
उस श्चरीरको भी छोड़ दिया 1 वह्‌ व्यागा इजा 
सर ही दिन ओर साचरिके बीचभें स्थित खन्ध्या 
हुई ॥३६॥ तयश्चात्‌ उन्होने आंिक रजोमय अभ्य 
शरसर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रजःप्रधान 
मनुष्य उतपन्न हुए ३७ फिर सीप्र हय प्रजापतिने उस 
श्॒रीरफो भी स्याग दिया, बही उयोरस्ना हुआ, जिसे 
ू्व-सन्ध्या अर्थात्‌ प्रातःकाल कहते दै ॥ ३८॥ 


` न्न 








उ्योत्स्नागपे तु बलिनो मनुष्याः पितरस्तथा । 


सत्रेय सन्ध्यासमये तस्मादेते भवन्ति बे ।३९॥ 
उयोत्स्ना रा्यहनी सन्ध्या चत्वार्येतानि वै प्रमोः। 
््मणस्तु शरीराणि त्रिगुणोपाश्रयाणि तु ॥४०॥ 
रजोमात्रास्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तचम्‌ । 


ततः शद्‌ ब्रह्मणो जाता यज्ञे कामस्तया ततः।(४१॥ 
सुतामानन्धकारेऽथ सोऽसुजद्धगवांस्ततः। 
विरूषाः दमभरलाजातास्तेऽभ्यधावस्ततःपरधुमू्‌।४२। 
सैवं भो रद्यतामेष यैरुक्तं राक्षसास्तु ते । 

उतु; खादाम इत्यन्ये ये ते यक्षास्तु जक्षणात्‌॥४३। 


वयप्रियेण तु तानदृ्ट केशाः शी॑न्त वेधसः। 
हीना शिरसो भूयः समारोदन्त तच्छिरः ।॥४४॥ 


स्पणात्तेऽभवन्‌ सर्पा हीनत्वादहयः स्परताः। 
ततः क्रुद्धो नगस्छषटा करोधास्मानं विनिमेमे ॥४५॥ 


र्भ कपना पिशिताशनाः । 
गायते.ऽङ्गात्सथुत्पन्ना गन्धवांस्तस्य तर्षणात्‌ ४६ 
पिबन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वास्तेन ते द्विज । 
एतानि युष मगवान्त्रह्मा तच्छक्तिचोदितः।४७।॥ 
तत;खच्छन्दतोऽन्यानि वयांसि वयसीऽसुजत्‌। 
वयो वक्षसथकरे युखतोऽजाः स सृष्टवान्‌ ॥४८॥ 
सुश्वानुदराद्गाश्च पाश्वाभ्यां च प्रजापतिः| 
पद्भ्यां चाश्च।न्समातङ्गात्रासमान्गवयान्मृगाय्‌०९ 
उद्टू(नश्वतरांश्चैव न्यदुकूनन्याश्च जातयः । 
छरपध्य; फरमूहिन्यो रोमभ्यस्तस्य जलिरे।॥५०॥ 
त्रेताधुगयुखे रह्मा कल्पस्यादौ द्विजोत्तम । 








इसलिये, हे मैत्रेय ! प्रातःकार होनेपर मनुष्य ओर 
सायंकालमे प्रचरृगण बलवान्‌ होते है ।॥ ३९ ॥ इस्त 
प्रकार रात्रि, दिन, प्रातःक्रार ओौर्‌ साय॑कारये 
चारो प्रमु ब्ह्याजीके ही य्यरीर है ओौर तीनों गुणो 
के आश्रय हैं ॥४०॥ 





फिर ब्रह्माजीने एक ओर रजोमाचराद्मक सरीर 
धारण क्रिया । उसके द्याया बह्याजीसे क्षुधा उतन्न 
हृ भौर क्षुधासे कामको उत्पत्ति हुई ॥ ४१ ॥ तव 
भगवान्‌ प्रजापतिने अन्धकारमें स्थित होकर छचधा- 
प्रस्त सष्टिकी रचनाकौ। उसमे वड़े कुरूप ओर 
डादी-मछव छे म्यक्ति उन्न हुए । वे स्वयं ब्रह्माजी- 
कौ ओरदहौी [ न्ह भक्षण करनेके किये] दौड़े 
| ४२॥ बनमेसे जिन्हने यह कहा कि देखा मत 
करो, इनकी रक्षा करो' वे राक्षसः कहलये ओौर 
जिन्होने कहा हम खायेगे' वे मक्षणकं) बासनाषाछे 
होनेसे यक्षः के गये ॥ ४३ ॥ 

उनकी इस अनिष्ट प्रवर्तिको देखकर ब्रह्मयाजौके 
केश्च श्षिरसे गिर गये ओर फिर पुनः उनके मस्तक- 
पर आरूढ हुए । इस प्रकार ऊपर चदुनेके कारण 
वे सपं" कहछाये ओर नाचे गिरतेके कारण "अहिः 
कहे गये । तदनन्तर जगत्‌-रचयिता ब्रह्माजीने 
क्रोधित होकर क्रोधथुक्त प्राणियोंकौ स्चना को (४ 
४५ वे कपिश्च ( कालापन च्वि हु पीले ) वणेके, 
अतिखप्र स्वभाववाेत्तथा मांसाहारी हुए; फिर 
गान करते समय उनके श्रीरसे तुरंत ह गन्धव 
उत्पन्न हुए ॥ ४६ ॥ हे द्वि ! वे वाणीका उचारण 
करते अथौत्‌ बोलते हुए उतपन्न हुए थे, इसलिये 
“गन्धवं' करये | 


हन सबकी रचत्ता करके भगवान्‌ ब्रह्माजीने 
पश्वियोका, उनके पूचकर्मोसि प्रेरित होकर स्वच्छ- 
न्दतापूवेक अपनी आयुसे रचा । तदनन्तर अपने 
वक्षुःस्थलसे भेड़ ओर मुखसे बकरियोकौ रचना की 
॥ ४७-४८ ॥ फिर प्रजापरति ब्रह्याजीने उदर ओर 
पारव-भागसे गौ, वैरोसे घोडे, हाथी, गधे, वनगाय, 
मृग, ऊंट, खञ्चर ओर न्यङ्कु आदि पञ्ुओँकी 
रना की तथा उनके सोसो फलमूढरूप भो पधि 
उतपन्न हुं ॥४९-५०॥ है द्विजोत्तम ! कल्पके आारम्भमें 
ही जरह्माजीने पञ्च ओौर ओषधि भादिकौ रचना करके 


३२ 


~--------- 


गमधकन्य 





श्रीविष्णुपुराण 


[ अ० ५ 








सृष्ट पशोपधीः सम्यम्युयोज स तदाध्वरे ॥५१।। 
गौरजः पुरूषो मेपधाश्वश्रतरगदमाः | 
एतान्ग्रास्यान्पशुनाहुसरण्यांश्च निबोध मे।५२॥ 
शधापदा द्विखुरा दस्ती वानराः पक्षिप्वमाः | 
अदकाः पक्वः षष्ठाः सप्तमास्तु सरीघुपाः ।५३॥ 
गायत्रं च ऋ्वदचैव त्रिवरत्सोमं रथन्तरम्‌ । 
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निमेमे प्रथमान्एुखात्‌।५४॥। 
यजुषि वरषटुमं छन्दः स्तोमं पञचदवं तथा । 
वृहर्माम तथोक्थं च दक्षिणादसूनन्णुखात्‌।५५॥ 
सामानि जगतीछन्द्‌ः स्तोमं सप्तदशं तथा | 
वैरूपमतिरात्रं च पथिमादसृजन्धुखात्‌ ॥५६॥ 
पकर्विशषमथर्वाणमाघ्रोर्यामाणमेव च । 
अनुष्टुभं च वैराजगुत्तरादसुजन्युखात्‌ ॥५५७॥ 
उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे । 
देवासुरपितन्‌ सृष्टा मनुष्या प्रजापतिः ॥५८॥। 
ततः पुनः ससर्जादौ सङ्कल्पस्य पितामहः । 
यक्षान्‌ पिक्ञाचान्गन्धर्वान्‌ तथेवाप्सरसां गणान्‌ 
नरकिनररक्षंयसि वयःपञुखरगोरगान्‌ । 
अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजज्गमम्‌॥६०॥ 
तस्ससर्यं तदा ब्रह्मा मगवानाद्छिससः । 

तेषां येयानि कर्माणि प्रारूुष्ं प्रतिपेदिरे । 
तान्येवते प्रपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥६१॥ 
दिखाते शदुकररे भर्माध्मावताृते । 
तद्भाविता; प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ॥६२॥ 
इन्द्रियाथषु भूतेषु शरीरेषु च सप्रथः | 
नानां त्रिनियोगं च धातैवं व्यसु जस्स्वयम्‌।\६३॥ 
नामरूपं च भूतानां इृद्यानां च प्रप्नम्‌ । 
वेदशब्देभ्य एवादौ देवादीनां चकार सः ॥६४॥ 
ऋषीणां नामधेयानि यथा वेदश्रुतानि वै । 














फिर प्रेतायुगके आरम्भमे उन्ह यज्ञादि कर्मों 
सम्मिङित किया ॥ ५१ ॥ गौ, बकरी, पुरुष, भेड्‌, 
घोडे, खच्चर ओर गघे-ये सवर गौँबोमे रहनेत्रारे 
पञ्च है । जंगी पये है--श्वापद्‌ (व्याघ्र आदि), 
दो खुरबछे ( वनगाय आदि), हाथी, बन्दर ओौर 
पौचवें पक्षी, छठे जछ्के जीव तथा सातवें सरौसप 
आदि ॥ ५२.५३ ॥ फिर अपने प्रथम ( पूवं ) सुलसे 
ब्रह्माजीने गायत्री, ऋक्‌; त्रिवृत्सोम, रथन्तर ओर 
अग्निष्टोम यज्नोको निर्मित किया | ५४॥ दक्षिण 
मुखसे यज्ञ, तेष्टुपछन्द, पञ्छदशस्तोम, बृहस्साम 
तथा उक्थकी रचना की 11५५ पश्चिम सुखसे साम, 
जगतीछन्द, सघ्रदशस्तोम, वैरूप ओर अतिराच्रको 
उन्न किया 1 ५६ | तथा उत्तर मुखसे उन्होने 
एकविशतिस्तोम, अथववेद, शाप्रोयोमाण, अुष्डुप्‌- 
छन्द्‌ ओौर वैराजकी खष्टि को ॥ ५७॥ 

इस प्रकार उनके शरीरसे समस्त ऊँंच-नीच 
प्राणी उस्पन्न हप । उन आदिकती प्रजापति भगवान्‌ 
्रह्मजने देव, असुर, पिद्गण ओर मतुष्योकौ 
सृष्टिकर तदनन्तर कल्पक्रा आरम्भ होनेपर फिर 
यक्ष, पिशाच, गन्धवे, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, 
याश्च, पशु, पक्ष, सृण ओौर सपं आदि सम्पूणं 
निस्य एवं अनिस्य स्थावरजंगम जगत्‌करो रचना 
की । उनमेसे जिनके जैसे-जैसे कमं पूवेकल्पोभ थे 
पुनःपुनः सृष्ट होनेपर उनकी उन्दी फिर प्रवृत्ति 
हो जाती है ॥*८ -६१॥ उस समय दिसा-अर्हिसा, 
मृदुता-कठोरता, धमे-अधमं, सत्य-मिथ्या--ये सव 
अपनी पूवेभावनाके अनुसार उन प्राप् होजतिंदै, 
रमसे ये इन्द अच्छे लगने ख्गते दै ।। ६२ ॥ 

इस प्रकार प्रमु विधातने हो स्वयं इन्द्रियके 
विषय भूत भौर शरीर आदिम विभिन्नता ओर 
म्यवहारको उदन्न किया है ।। ६३ ॥ उन्दने कल्पके 


| आरम्भ देवता आदि प्राणि्योके वेदाुलार नाम 


जौर रूप तथा कार्य-विभागको निशित किया 
है 1 ६४ । ऋषियों तथा अन्य प्रणि्योके भी वेदानु- 
कूठ नाम ओर यथायोग्य कर्मौको उन्होने निष्ट 








यथतष्डृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पय॑ये | 


दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥8६६॥ 


करोत्येवेषिधां सृष्टिं कल्पादौ स पुनः पनः । 


जिस प्रकार भिन्न-मिन्न ऋतुओंके पुनःपुनः आनेपर 
उनके चिह्न ओर नाम-रूप आदि पूववत्‌ रहते ह 
उसी प्रकार युगादिमे भी उनके पूवं-भाव ही देखे 
जाते ह ॥। ६६॥ सिखक्षा-रक्तिसे" युक्त वे ब्रह्माजी 
छज्य शक्तिकीः प्रेरणासे कल्पोके आरम्भे बारबार 


सि॒क्षाशक्तियुक्तोऽसौ सृञ्यश्क्तिग्रचोदितः। ६७। | इसी प्रकार खटकर रचना श्रिया करते दै ॥ ६७॥ 


+ ~~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽसे पव्नमोऽध्यायः ॥ ५॥ 


~^ १११५५ 


छटा अध्याय 
चातुवंण्य-व्यवस्था, पृथिवी-विभाग यौर अन्नादिकी उत्पत्तिका वणेन 


श्रीमैत्रेय उवाच 


गर्बाकघोतास्तु कथितो भवता यस्त॒ मानुषः। 
ब्रह्मन्विस्तरतो ब्रहि ब्रह्मा तमसूजद्यथा ॥ १॥ 
यथा च वर्णानसूजद्यद्गुणांश्च प्रजापतिः । 
यच तेपां स्मृतं कम विप्रादीनां तदुच्यताम्‌ ॥ २॥ 
श्रीपराङ्ार उवाच 
सत्यामिष्यायिनः पूर्वं सिसृ्ोग्रह्णो जगत्‌। 
प्रजायन्त द्विजश्रेष्ठ सोद्रिक्ता युखासनाः।॥२॥ 
वक्षसो रजसोद्विक्तास्तथा वै व्रह्मणोऽभवन्‌ । 
रजसा तमसा चैव सथुद्िक्तास्तथोरुतः ॥ ४॥ 
पद्धथामन्याः प्रजा ब्रह्मा ससजं दविजसत्तम । 
तमःप्रथानास्ताः सर्वाश्ातु्॑ण्यं मिद ततः ॥५॥ 
ब्राह्मणाः कषत्रिया वैश्याः बूद्राच दिनसत्तम । 
पादोस्वक्षःस्थरूतो प्रुखतश्च सथदगताः॥ ६॥ 
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्‌ ब्रह्मा चकार वै| 
चातुर्वण्यं महामाग यज्ञसाधनदत्तममर्‌ ॥ ७॥ 
यज्ञराप्यायिता देवा वृष्टधुस्सर्गेण वै प्रजाः 
ग्राप्याययन्ते धमन्न यज्ञा; कल्याणहैतवः ।॥ ८॥ 
निष्पाद्यन्ते नरेस्तैस्त॒ सधर्माभिरतेस्सदा । 


ीमेभ्ेयज्ी बोले--हे भगवन्‌ } आपने जो 
अवाकल्लोता मनुष्योंके विषयमे कहा उनकी सृष्टि 
ब्रह्म जीने किंस प्रकार को-यह्‌ विस्तारपूकंक कट्िये 
॥ १॥ श्रोप्रजापत्तिने ब्राह्मणादि वणेको जिन-जिन 
गुणोंसे युक्त ओर जिस प्रकार रचा तथा उनके 
जो-जो कतम्य कमं निधीरित किये वह सब वर्णन 
कीजिये ॥ २॥ 


श्रोपएराक्शरजी बोङे-हे द्विजश्रेष्ठ | जगत्‌-रचन।- 
की इच्छासे युक्त सत्यसंकल्प श्रीन्रह्याजीके मुखसे 
पहठे सत्व प्रधान प्रजा उसन्न हु ॥ २ ॥ तदनन्तर 
उनके वक्षःस्थलसे रजःप्रथान तथा जंघाओंसे रज 
ओर तमविषिष्ट ष्टि हुई ॥ ४॥ हे द्विजोत्तम । 
चरणोंसे ब्रह्माजीने एक ओर्‌ प्रकारक प्रजा उत्पन्न 
की, वह्‌ तमश्रधानथी। येही सब चारों वणे हुए 
॥ ५॥ इस प्रकार, हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण; क्षचिय, 
वैङ्य ओर शद्र-ये चारों कमश्चः ब्रह्माजीके सुख 
वक्षःस्थर, जासु ओर चरणोँसे उत्पन्न हुए । & ॥ 


हे महाभाग) ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानके किये ही 
यज्ञके उत्तम साधनरूप इस सम्पूण चालतुवेण्यंकी 
स्वनाकीथी।॥७॥ दे धमज्ञ! यन्नसेकप्रहोकर 
देवगण जल बरसाकर्‌ प्रजाको तृप्त करते दै; अतः 
यज्ञ सवथा कल्याणका हेतु है । < जौ मनुष्य 
सद्‌ा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन भौर सुमागं- 


१. सृष्टि-र्चनाको इृच्छालूप शित । २. सृष्टिक प्रारब्धे । 


++ _ | 


०५०४ 





विशुद्धाचरणोपेतैः सद्धिः सन्मागंगामिभिः॥ ९॥ 
स्वर्गापवर्गौ मारुप्याखाप्तुबन्ति नरा य॒ने। 
यच्चाभिरुचितं स्थानं तथान्त मनुजा दिज ॥१०॥ 
प्रजास्ता ब्रह्मणा सषटाश्चतुवेण्यंब्यवर्थिताः। 
सम्यकहुद्धासमाचारप्रबणा मुनिसत्तम ॥११॥ 
यथेच्छावासनिरता; सवंबाधाविषभिताः । 
शुद्धान्तःकरण बुद्धाः कर्मालषठाननि्म॑राः ॥१२। 
दधे च तासां मनसि बुद्धेऽन्तःसंस्थिते हरो। 
शु्ध्ञानं प्रपश्यन्ति विष्ण्वार्यं येन तरपदम्‌॥ १३॥ 
ततः कालासको योऽसौ स वशः कथितो हरेः। 

स॒ पातयत घोरमल्पमल्पाल्पसारवत्‌ ॥१४॥ 
अधरमबीजणुद्धूतं तमोरोसण्धवम्‌ । 
प्रजासु तासु मैत्रेय रागादिकमसाधकम्‌ ॥१५॥ 
ततः सा सहजा सिद्िस्तासां नातीव जायते । 


रसोघ्नासादयश्चान्याःसिद्धयोऽष्टौ मवन्ति याः) १६। 





गामी होते ह उन्दीसे यज्ञका यथावत्‌ अनुष्ठान हो 
सकता है ॥९॥ हे सुने! [ यज्ञके द्वारा] मलुष्य 
इस मनुष्यश्षरीर्से हो स्वगं ओर अपवगं प्राप्त कर 
सकते है; तथा अओौर सी जिस स्थानकी उन्हं इच्छा 
हो उसीको जा सकते है ॥ १०॥ 

हे मुनिसत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हृद बह चातु- 
वंण्यं-विभागमें स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त भआचरण- 
वाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूण बाधाओंसे 


रदित, शुद्ध अन्तःकरणवाल्ली, सत्छुलो्पन्न ओर 


पुण्य-कमेकि अनुष्ठानसे परम पवित्र थी ॥ १९-१२॥ 
उसका चिन्त शुद्ध होनेके कारण उपरम निरन्तर शुद्धः 
स्वरूप शीहरिके विराजमान रहनेसे उन्हें शुद्ध ज्ञान 
प्राप ह्योत्ता था जिससे वे भगवानूके उस "विष्णु! 
नामक परम पदको देख पाते थे ॥ १३॥ फिर (त्रेता- 
युगके आरम्भमे ) हमने तुमसे भगवान्‌के जिस काक 
नामक अंशचका पहछे वणेन क्रिया हे वह्‌ अति अल्प 
सारवाछे ( सुखवाछे ) तुच्छ ओर घोर ( दुःखमय) 
पापोको प्रजामें प्रवृत्त कर देता दै ।। १४.॥ हे भेत्रेय। 
उससे उस प्रजामे पुरुषाथंक्रा वि घातक तथा अज्ञान 
अर खोभको उलन्न करनेवाला रागादिरूप अधमका 
बौज उत्पन्न हो जाता है । १५॥ तमीसे उसे वह 
विष्णु-पद-परापि-रूपस्वामाविक्र सिद्धिओौर रसोल्ञास 
छादि अन्य अष्ट स्िद्धियांैः नहीं मिखुतीं ।॥ १६॥ 





® रसोल्लासादि अष्ट-सिद्धियोका वर्णन स्कन्दपुराणमें इस प्रकार क्रिया है-- 


रसस्य स्वत॒एवान्तर्दासः स्याच्छते युगे । रसोर्कासाख्यिका सिद्धिस्तय। हन्ति श्षुधं नरः ॥ 
सन्यादीनां नैपेक्षेण सदा वक्षा प्रजास्तथा । द्वितीया सिद्धिररिष्टा सा तृ्षिञनिसत्तमैः ॥ 


धर्मोत्तमरच योऽस्त्यासां सा तृतीयाभिधीयते । चतुर्थी तस्यता तासामायुषः सुखकूपयोः ॥ 


पकान्ध्यबरुबाह्ुस्यं विशोका नाम पञ्चमी । परमात्मपरस्वेन 


तपोभ्यानादिनिष्टिता | 


षष्टी च कामचार्त्वं सक्षमी सिद्धिर्च्यते । अष्टमी च तथा प्रोक्ता यच्रक्वचनक्षायिता ॥ 


अर्थ-सत्ययुगमें रसक्षा स्वयं ही उल्लास होता था । यही र्सोर्लास नामको सिद्धि ह, उसके प्रभावसे मनुभ्य 
भूखको नष्ट कर देता है । उस समय प्रजा स्त्री भादि भोगोकौ अपेक्षके बिना ही सदा तुप्त रहती थी; इमो मुनिश्रष्ठोन 
तृप्ति" नामक दूरौ सिद्धि कहा ह । उनका जो उत्तम धमं था वही उनको तीसरी सिद्धि कहौ जत्तौह। उस स्मय 
सम्पूणं प्रजाके हूय भौर आयु एक-पे ये, यदौ उनकौ चौथौ सिद्धि थौ । बकी एकान्तिकी भधिक्ता--यह्‌ "विशोका" 
तामकौी पाँचवीं पिद्धि है। परमात्मपरायण रहते हृए तप-ध्यानादिमे तत्पर रहना छटी सिद्धि है । स्वेच्छानुप्तार 
विचरना सातवीं द्धि कही जाती ह तथा जरह -तहां मनकी मौज पड़ रहना मद्वीं सिद्धि कहौ गयी है । 





तासु क्षीणास्वरेषापु बद्ध॑माने च पातके | 
दन्द्राभिमवदुःखातस्ता पवन्त ततः प्रजाः १७ 
ततो दुगौणि ताश्कर्धन्वं पावतमौदकम्‌ । 
्रतरिमं च तथा दुं परखर्बटकादिकम्‌ ॥१८॥ 
गृहाणि च यथान्यायं तेषु चक्रः पुरादिषु । 
सीत।तपादिवाधानां प्रशमाय महामते ॥१९॥ 
प्रतीकारमिमं कृखा शीतादेस्ताः प्रजाः पुनः। 
वार्तोपायं ततश्क्रहैस्तपिद्धि च कजाम्‌ ॥२०॥ 
व्रीहयश्च यवाशेव गोधूमाश्वाणवस्तिराः 
प्रियज्खवो द्ुदाराश्च कोरदुषाः सतीनकाः ॥२१॥ 
माषा युदा मघराश निष्पावाः सङ्लस्थकराः। 
प्मटक्यश्चणकारचैव शणाः सपद स्छृताः ।॥२२॥ 
इत्येता ओषधीनां त ्राम्यानां जातयो रने । 
गरोषध्यो य्ञियार्यैव ग्राम्यारण्याशचतुदंश ॥२३॥ 
व्रीहयस्सयवा मापा गोधूमीध्राणवस्ति्ाः । 
प्रियङ्कुसपतमा चेते अष्टमास्त॒ इुरत्थकाः ॥२४॥ 


द्यामाकास्स्वथ नीवारा जिला; सगवेधुकाः। 
तथा वेणुयत्राः ग्रोक्तास्तथा मकटका पुने ॥२५॥ 


्राम्यारण्याःस्पता दयता यपध्यस्तु चतुदश | 
यज्ञनिष्पत्तये यज्ञस्तथासां हेतुरुत्तमः ॥२६॥ 
एताश सह यज्ञेन प्रजानां कारणं प्रम्‌ | 
प्रावरविदः प्राज्ञास्ततो यन्नान्वितन्वते ॥२७॥ 
त्रहन्यहन्ययुषठानं यज्ञानां शुनिसत्तम । 
उपकारकरं पुंसां क्रियमाणाघकान्तिदम्‌ ॥२८॥ 
येषां त॒ कालसृष्ोऽसौ पापचिन्दुरमहाएने । 
चेतःसु वत्रधे चक्रुस्ते न यज्ञेषु मानसम्‌ ॥२९॥ 
वेदवादांस्तथा वेदान्यज्ञकमीदिकं च यत्‌ । 
तत्सवं निन्दयामामुयंज्ञव्यासेधकारिणः ॥२०॥ 
रवृत्तिमागव्युच्छित्तिकारिणो वेदनिन्दकाः। 
दुरास्मानो दुराचारा बभूवुः इटिलाश्या; ॥३१॥ 











उन समस्त सिद्धियोके क्षीण हो जने ओर पाप- 
के बढ़ जानेसे फिर सम्पूण प्रजा दन्द, हास भौर 
दुःखसे आतुर हो गयी ॥ १७।। त उसने मरुभूमि, 
पवेत ओर जल आदिक स्वामाविक तथा कृत्रिम 
दुगं ओर पुर तथा खबंट् आदि स्थापित कयि 
॥ १८ ॥ हे महामते ! उन पुर आदिकोमे चीत ओर 
घाम आदि बाधाओंसे वचनेके लिये उस्ते यथायोग्य 
घर बनये ॥ १९॥ 

इस प्रकार श्चीतोषणादिसे बचनेका उपाय करके 
डस प्रजाते जीविकाके साधनरूप छषि तथा कला- 
कोर आदिकी स्वनाकी॥२०॥हेस्ुने) घान, 
जो, गह, छोटे धान्य, ति, कँगनी, उवार, कोदो, 
छोटी मटर, उड़द, मू ग, ससुर, बङी मटर, छुलथी, 
अरहर, चना ओर सन-ये सन्रह्‌ माम्य ओपधियो- 
कौ जातिया है | प्रास्य ओर वन्य दोनों प्रकारकी 
मिलाकर ङ चौदह षधिर्या याज्ञिक हैँ । उनके 
नाम ये दहै--धान, जौ, उड्द्‌, गेह छोटे धान्य, 
दिर, कौगनी ओौर कुख्थी-ये आठ तथा स्यामाक 
( समां ), नीवार, बनतिल, गवेधु, वेणुयव ओौर 


सकट ( मक्ता ) ॥ २१-२५॥ ये चौदह भ्राम्य भौर 


वन्य ओषध्य यज्ञानुष्ठानकौ सामग्री है ओर यज्ञ 
इनकी उत्पन्तिका प्रधान हेतु है ॥ २६॥। यज्ञोके सहित 
ये ओपधि्य प्रज्ञाकी वृद्धिका परम कारण है 
इसलिये इहो क-परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञोका 
अनुष्ठान किया करते दै ॥ २७॥ दे स॒निशरेषठ ! नितव्यभ्रति 
किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यांका परम उप- 
कारक भौर उनके कयि हुए पापोको शान्त करने- 
वार है ।॥ २८॥ 

हे महामुने ! जिनके चित्तम कारकौ गतिसे 
पापका बीज बद्ता है उन्दी लोगोँका चित्त यज्ञम 
प्रवृत्त नदह होता | २९॥। उन यज्ञके विरोधियोने 
वैदिक मत, वेद ओर यज्ञादि कमं-सभीको निन्दा 
कीदहै।३०।वेलोग दुसरा, दुसचारी, कृटिकमतिः 
वेदविनिन्दक ओौर प्र्रन्तिमागेका उच्छेद करनेवाे 
ही थे॥३१॥ 


# पह्‌(ङ़ या नदीके तटपर बम हुए छोटे-छोटे टोोको 'लर्वट' कदत द । 


३६ 





भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ०8 








संसिद्धायां तु वार्तायां प्रजाः सृष्ट प्रजापतिः। 
मर्यादां स्थापयामास यथास्थानं यथागुणम्‌ ३२॥ 
वर्णानामाश्रमाणां च धर्मान्धर्मभृतां वर । 
लोकांश्च सववर्णानां सम्यग्धर्मादुपारिनाम्‌ ॥३३॥ 
प्राजापत्यं बराह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियावताम्‌ । 
स्थानमैन्द्रं क्षत्रियाणां संग्रामेष्वनिवतिनाम्‌। ३४ 
वैश्यानां मारुतं स्थानं सखधर्ममलुवर्तिनाय्‌ | 
गान्धवं शूद्रजातीनां परिचर्यानुषतिनाम्‌ । ३५ 
अष्टाशीतिसहखाणि पनीनामभूष्वरेतसाम्‌ । 

स्मृतं तेषा तु यत्स्थानं तदेव गुरुवासिनाम्‌।।३६॥ 
सप्ौणां तु यस्थानं स्पृतं तदे वनौकसाम्‌ । 
प्राजापत्यं गृहस्थानां न्यासिनां ब्रहमसंितम्‌।। २७॥ 
योगिनामभरतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम्‌।३८। 
एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनश्च े। 
तेषांतु परमं स्थानं यत्तत्प्यन्ति षूरयः ॥३९॥ 
गत्वा गत्वा निवतन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहः 

अद्यापि न निवतेनते द्वादशचाक्षरचिन्तकाः॥४०॥। 
ताभिश्वमन्धतामिं महारौरवरौरवौ । 
असिपत्रवनं घोरं कारघत्रमवीचिकम्‌ ॥४१।॥ 
विनिन्दकानां वेदस्य यक्ञन्याधातकारिणाम्‌ | 
स्थानमेतत्समास्यातं सखधर्मस्यागिनध ये॥४२। 











हे धमवानोँमे श्रेष्ठ मैत्रेय! इस प्रकार कृषि 
आदि जीविकाके साधनोके निश्चित हो जानेपर 
प्रजापति ब्रह्माजीने प्रजाकौ रचना कर उभके स्थान 
ओर गणोके अनुसार मयीदा, बणं ओौर आश्रमोके 
धमं तथा अपने धमका मी प्रकार पाखन करनेवाठे 
समृस्त व्णोकि लोक आादिकी स्थापना की ।[३२-३३॥ 
कमनिष्ठ त्राद्यणोंका स्थान पिृखोक है, युद्ध-क्षेचसे 
कभोन हटनेवाले क्षत्रियोंका इन्द्रलोक है ॥३४॥ 
तथा अपने धमेका पालन करनेवाछे वैर्योका चायु- 
लोक ओर सेवाधमंपरायण शूद्रौका गन्धवंरोक दै 
॥ २५ अवासी हजार ऊध्वंरेता मनि है; उनका जो 
स्थान बताया गया है वही गुरकुल्वासी ब्रह्मचारियो. 
का स्थान है।।३६॥ इसी प्रकार वनवासी वानम्रस्थौ- 
का स्थान सप्र्षिलोक, गृहस्थोका पिवृरोक ओर 
संन्यासियोंका बह्मरोक है तथा आत्मानुभवसे त्प 
योगियोका स्थान अमरपद्‌ ( मोक्ष ) है ।२७-३८] 
जो निरन्तर एकान्तसेची ओर ब्रह्मचिन्तनमें मग्न 
रहनेवाङे योगिजन है उनका जो परमस्थानहै 
चसे पण्डितजन ही देख परति रै ॥३९। चन्द्र 
ओर सूय आदि प्रह भी अपने-अपने लोकम जाकर 
फिर लौट अते दहै, किन्तु द्ादश्चाक्षर मन्त्र (ऊश्नमो 
भगवते वासुदेवाय) का चिन्तने करनेव्राङे अभमीतक 
मोक्षपदसे नहीं खोदे ॥ ४०॥ तामिस्र, अन्धतामिख; 
महारौरव, रौरव, असिपत्रवने, घोर, कालसूत्र ओौर 
अवीचिकञआदिजोनरकदटहै, वे वेदोकी निन्दा ओर 
यज्ञोंका उच्छेद करनेवषे तथा स्वधमे-विश्ुख 


पुरुषोके स्थान कदे गये है ॥ ४१-४२॥ 


रर र,/५,०१./७०९.९.५-०---~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ 


त्नानि = श्लघ. 





सात्वं अध्याय 


मरीचि भादि प्रजापतिगण, तामसिक सग, स्वायम्भुव मनु ओर 
शतरूपा तथा उनकी सन्तानका वणेन 


श्रीपराञ्चर उवाच 

ततोऽभिध्यायतस्तस्य जज्ञिरे मानसाः प्रजाः। 
तच्छरीरसुत्पन्नेः कारयेस्तैः करणैः सह ॥ १॥ 
रज्ञाः समवत्तन्त गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः। 

ते सर्वे समवकतन्त ये मया प्रागुदाहुताः ॥ २॥ 
देवाद्याः स्थावरान्ताश्च बरगुण्यविषये स्थिताः। 
एवंभूतानि सृष्टानि चराणि स्थावराणि च ॥ ३ ॥ 
यदास्य ता; प्रजा; सर्वा न व्यवध॑न्त धीमतः। 
जथान्यान्मानसानपुत्रान्सदुशानात्पनोऽसू जत्‌ ।४। 
भृगु परस्त्य पुरं क्तुमङ्धिरसं तथा । 
मरीचि दक्षमत्रिं च वसिष्डं चैव मानसाद्‌ ॥ ५॥ 
नव ब्रह्माण इत्येते पराणे निश्चयं गताः । 


ख्यातिं भूतिं च सम्भूतिं क्षमां प्रीतिं तथेव च ॥ ६॥ 


सन्नतिं च तथैवोर्जामनघ्रूयां तथैव च। 
्रषतिं च ततः सृष्टा ददौ तेषां महात्मनाम्‌ ॥ ७॥ 
पलन्यो भवध्वमियुक्तवां तेपामेव तु दत्तत्रान्‌। 
सनन्दनादयो ये च पूर्वयष्टास्त॒ वेधसा ॥ ८॥ 


न ते छोकेष्वसजन्त निरपेक्षाः प्रजासु ते । 

सवे तेऽम्यागतज्ञाना वीतरागा विमत्सराः ॥ ९ ॥ 
तेष्वेवं निरपेकषेषु लोकसृषटौ महात्मनः । 
ब्रह्मणोऽभून्महान्‌ क्रोधस्त्ैलोक्यद्इनक्षमः।। १०॥ 
तस्य क्रोधात्सथुद्धतञ्वासामालातिदीपितय्‌ । 
बह्णोऽभूत्तदा सवं बररोक्यमखि्ं यने ॥११॥ 
भ्रफरीकुटिसाततस्य छलाटा्करोधदीपितात्‌। 


सपुत्पननस्तदा सद्रो मभ्याहाकसमप्रभः ॥१२॥ 
अर्धनारीनरवपुः प्रचण्डोऽतिशरीरवान्‌ । 


विभजारमानमिसयुक्सा तं ्रहमान्तर्दपे ततः॥१३२॥ 





श्रीपराश्चरजी बोटे-षफिर उन प्रजापतिके ध्यान 
करनेपर उनके देहस्वरूप भूतोसे उसन्न हुए शरीर 
ओौर इन्द्रियोके सहित मानस प्रजा उतपन्न हुईं ॥१॥ 


उस समय मतिमान्‌ ब्रह्माजीके शरीरसे ही चेतम 
जीबोंका प्राहुभीव हु । मैने पदे जिनका बणेन 
किया है, देवताओसे केकर स्थावरपयंन्त वे समी 
त्रिगुणात्मक चर ओौर अचर जीव इसी प्रकार 


उसन्न हुए ॥ २-३॥ जव महाबुद्धिमान्‌ प्रजापतिकी 
वह्‌ प्रजा पुत्रपौत्रादि क्रमसे ओरन बी तव 


उन्होने श्रगु, पुलस्त्य, पु, क्रतु, अङ्धिरा, मरीचि, 
दक्ष्‌, अत्रि ओर वसिष्ठ--इन अपने ही सदश्च अन्य 
मानस पुच्रोकी सृष्टि की ॥ ४.५ ॥ पुराणम ये नौ 
ब्रह्मा माने गये हैँ | फिर ख्याति, भूति, सम्भूति, 
क्षमा, प्रीति, सन्नति, ऊञ्जौ, अनसूया तथा प्रसूति 
दून नौ कन्याओंको उत्पन्न कर, इन्द उन महा- 
त्माओंको दिया | ६-७॥ ब्रह्माजीने तुम इनकी पत्नी 
होः दसा कहकर [ वे कन्या ] उन्दरौको सोप दीं । 

ब्रह्माजीने प्रे जिन सनन्दनादिको हत्पन्न 
कियाथावे निरपेश्र होनेके कारण सन्तान ओर 
संसार आदिमं प्रवृत्त नहीं हृए । वे सभी ज्ञानसस्पन्न, 
विरक्त ओर मत्सरादवि दोषोसे रहित थे ॥ <९॥ 
उनको संसार-रचनासे उदासीन देख महात्मा ब्रह्मा- 
जाको व्रिखोकीको भस्म कर देनेवाला महान्‌ क्रोध 
उतपन्न जा ॥ १०॥ हे मुने ! उन ब्रह्माजीके क्रो धके 
कारण सम्पूणं वरिरोकी उवारा-माकाओंसे अस्यन्त 
देदीप्यमान हो गयी ॥ ११॥ 


उस समय उनकी टेदी भरि ओर क्रोध-सन्तप्र 
लाटसे दोपहर सूयके समान प्रकाञ्चमान रुद्रकी 
उत्पत्ति हुई ॥। १२॥ उसका अति प्रचण्ड शरीर जधा 
नर ओौर आधा नारीरूप था | तव ब्रह्माजी अपने 
सलरीस्का विभाग कर' एेसा कहकर अन्तधौन हो 
गये ॥ १३॥ फेला कदे जानेपर उस रद्रने अपने 


२८ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[षकाण णरागी रिरि 0) 


[ अ० ७ 





तथोक्तोऽसौ द्विधा श्चीलं पुरत्वं तथाकरोत्‌ । 
विभेद पुरषत्वं च दशधा चैकधा पनः ॥१४॥ 
सौम्यासौम्यैस्तदा सान्ताशान्तैः सीलं चस प्रयु 
विभेद बहुधा देवः स्वसूपैरसितेः सितैः ॥१५॥ 
ततो त्रह्मासमसम्भूतं पूवं सवायम्पुषं प्रसुः। 
्ालमानमेव कृतवान्परजापाल्ये मनु द्विज ॥१६॥ 
शतरूपा च तां नारीं तपोनिषू तकल्मषाम्‌। | 
स्वायम्भुवो मसुर्दवः पीते जगृ प्रभुः ॥१७॥ | 
तस्मात पृष्पदिवी शतरूपा व्यजायत्‌ । 





प्रियव्तोत्तानपादौ प्रसुत्याद्रुतिसंितम्‌ ॥१८॥ : 
कन्यादयं च धर्मज्ञ रूपौदायंगुणान्वितम्‌ । 
ददौ प्रसूतिं दक्षाय श्राद्रूति सुचये पररा ॥१९॥ 


प्रजापतिः स जग्राह तयोजेजञे सदक्षिणः | 

पत्रो यज्ञो महाभाग दस्परयौ भिथुन ततः ॥२०॥ 
यज्ञस्य दक्षिणार्या तु पुत्रा द्वादश्च जक्निरे। 

यामा इति समाख्याता देवाः स्वायम्भुवे मनौ । २१ 
सूर्यां च तथा दक्षश्वतस्चो विंशतिस्तथा । 

ससजे कन्यास्तासौ च सम्ड्‌ नामानि पे श्रण्‌।२२। 
रद्ध रमीधतिस्षटिमैधा पृष्टस्तथा क्रिया । 
ुद्धिलंला वपुः शान्तिः सिद्धिः कीरतिसखयोदशी। २३। 
पटन्यथं प्रतिजग्राह धमों दाक्षायणीः प्रभुः 

ताभ्यः शिष्टाः यवीयस्य एकादश्न सुलोचनाः ।२४। 
ख्यातिः सत्यथ सम्भूतिः स्पतिः श्रीतिः क्षमा तथा 
सन्ततिश्ानसुया च ऊजा स्वाहा स्वधा तथा।२५। 
भृगु्भवो मरीचिश्च तथा चैवाङ्गिरा इनिः । 
पुलस्त्यः परहश्चैव क्रतुधर्पिवरस्तथा ॥२६॥ 
म्वरिवंशिष्ठो वहि पितर यथाक्रमम्‌। 


|, क @ | | न | _ \ 








शरीरस्थ सखी ओर पुरुष दोनों भागको अरूग-अल्ग 
कर दिया ओर फिर पुरुष-भागको ग्यारह भागों 
विभक्त किया ॥ १४॥ तथा ख्रौ-मागको,मो सौम्य- 
क्रूर, शान्त-अश्ान्त ओर इयास-गौर आदि कई 
रूपोँमे विक्त कर दिया 1 १५॥ 

तदनन्तर, हे द्विज ! अपनेसे उत्पन्न अपने ही 
स्वरूप स्वायम्भुव को बद्याजीने प्रजा-पाछनके लिये 
प्रथम मनु बनाया ॥ १६॥। उन स्वायम्भुव मुने 
[ अपने ही साथ उदपन्न हू ] तपके कारण निष्पाप 
सतरूपा नामकी खरीको अपी पत्नीरूपसे प्रहण 
किया ॥ १७ ॥ हे धमंज्ञ } -उन स्वायम्भुव मुसे 
शतरूपा देवाने प्रियत्रत ओौर उत्तानपादनामक दो 
पुत्र तथा उदार, रूप ओौर गुणोंसे सम्पन्न प्रसूति 
अर आकूति नामक दो कन्या उत्पन्न कीं । उनमे- 


। से प्रसूतिको दक्षके साथ तथा आक्ूतिको रुचि 


प्रजापतिके साथ विवाह दिया ॥ १८-१९॥ 

हे महाभाग} रुचि प्रजापतिने इसे प्रहरण कर 
किया ¦ तव उन दम्पतीके यज्ञ ओर दक्षिणा-ये 
युगल ८ जुड़ ) सन्तान उत्पन्न हृदं | २० ॥ यज्ञके 
दक्षिणासे बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भुव मन्वन्तरमें 
याम नामके देवता कहखाये ॥ २१ ॥ तथा दक्षन 
प्रसूनिसे चौव्रौस कन्या उत्पन्न कौं । मुद्चसे उनके 
युम नाम खनो ॥ २९॥ श्रद्धा, छक्मी, धृति, तुष्टि 
मेधा, पुष्टि, क्रिया, बुद्धि, खजा, वपु, सान्ति, सिद्धि 
आओौर तेरहवीं कीर्ति--इन दक्ष-कन्याओंको धमंने 
पत्नीरूपसे प्रहण क्रिया । इनसे छोटी हेष ग्यारह 
कन्याएं ख्याति, सती, सम्मूति, स्मरति, क्षमाः 
सन्तति, अनसूया, उभ्जी, स्वाहा ओौर स्वधाथीं 
॥ २३-२५ 1 हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि 
कन्याओंको क्रमश्चः भृगु, सचिव, मरीचि, अङ्गिरा, 


पुरुसत्य, पुखह, क्रतु, अचरि, वसिष्ठ--इन मुनियों 


१. ष्ठ । "+ (^ ॥ ब्‌ [शिच  \ | ऋ ५ 


[कातता रेन 


न न - 


श्रद्धा कामं चा दपं नियमं धृत्तिरासनम्‌। 
सन्तोषं च तथा तुष्टिरेमिं पृष्टिष्यत ॥२८॥ 
मेध श्रतं क्रिया दण्डं नयं विनयमेव च ॥२९॥ 
बोधं बुद्धिस्तथा रजा विनयं वपुरार्मजम्‌। 
व्यवसायं प्रजे वै कषेमं श्ान्तिरद्यत ॥३०॥ 
सखं सिद्वियंशः कीरतिरिप्येते धम॑द्नवः । 
कामाद्रतिः सुतं हषपं॑धर्मपौत्रमघठयत ॥२१॥ 
हिंसा भार्या सधर्मस्य ततो जनने तथानृतम्‌ । 
कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयं नरकमेव च ॥२३२॥ 
माया च वेदना चैव परिथुनं सिदमेतयोः । 
तयोजेजञेऽथ वै माया मृष भूतापहारिणम्‌ । २३३ 
वेदना खसुतं चापि दुःखं जज्ञेऽथ रौरवात्‌ । 
मृत्यो््याधिजराक्ञोकतृष्णाक्रोधाश्च जक्ञिरे ॥२४॥। 
दुःखोत्तराः स्पृता हेते सरवे चाधर्मलक्षणाः । 
नैषां पुत्रोऽस्ति वै भार्या ते सव दयध्वरेतसः ॥ ३५॥ 
रद्राण्येतानि रूपाणि विष्णोधुनिवरात्मज। 
नित्यप्रसयहैतुत्वं जगतोऽस्य प्रयान्ति वै ॥ ३६॥ 
दक्षो मरीचिरत्रि भग्वाघयाश्च प्रजेशधराः। 
जगत्यत्र महाभाग निस्यसमंस्य हेतवः ॥२७॥ 
मनवो मचुपुत्रा्च भूषा वीयंघराश्र ये। 
सन्मागंनिरताः षुरासते स्व स्थितिकारिणः॥ २८1 
श्रीमैत्रेय उवाच 
येयं निरया स्थितिव्र्ननित्यसगंस्तथेरितः। 
निस्यामावश्च तेषां वे स्वरूपं मम कथ्यताम्‌ ॥२९॥ 
श्रीपरद्यर उवाच 


स्गस्थितिविनाशं्च मगवान्मधुषदनः । 


तैस्तै स्पेरचिन्त्यात्मा करोस्यव्याहतो वि्चुः॥।४०॥ 


नैमित्तिकः प्राकृतिकस्तथेबात्यन्तिकेो ठिज। 
नित्यश्च सर्वभूतानां प्रह्योऽयं चतुविधः ॥४१॥ 








्रद्धाने काम, चला ( लक्ष्मी ) ने दप, धृतिने 
नियम, वुष्टिने सन्तोष ओर पुषिन छोभको उदपन्न 
किया ॥ २८ ॥। तथा मेधाने श्चुत, क्रियाने दण्ड, नय 


। ओर विनय, बुद्धिने बोध, ख्ज्ञाने विनय, वपुने 


अपने पुत्र व्यवसाय, शान्तिने क्षेम, सिद्धिने सुख 
ओर कौर्तिने यञ्चको जन्म दिया; ये हौ धर्मके पुत्र 
ट रतिने कामसे धर्मक पौन्र हपका उत्पन्न किया 
॥ २९८३१ ॥ ` 


अधमंकी खी हिसा थी, उससे अनृतनामक पुत्र 
ओर निकृति नासकी कन्या उसच्च हुई । उन दोनोँसे 
भय ओर नरक नामके पुत्र तथा उनकी पल्नियाँ 
माया ओर वेदना नामक्रौ कन्यां हु । उनमेसे 
मायाने समस्त प्राणियोका संहारकत्तो सल्युनामक 
पुत्र उत्पन्न क्रिया ॥ ३१-३३ !! वेदनाने भी रौरव 
( नरक ) के द्वारा अपने पुत्र दुःखको जन्म दिया, 
अौर मृद्युसे व्याधि, जरा, श्ञौक, वृष्णा ओर क्रोध- 
की उस्पतति हुई ॥ ३४ ॥ ये सव्र अधमंरूप द ओौर 
'ुःलोत्तर' नामसे प्रसिद्ध है, [ क्योकि इनसे परि- 
णाममे दुःख ही भरप्ठहयोताहे ] हुनकेन कोषखी है 
ओौरन सन्तान, ये सव उध्वरेता है ॥३५॥ 
हे स॒निकुमार ! ये भगवान्‌ विष्णुके बड़े भयङ्कर 
रूप हैँ आर येही संसारके निव्य-प्रख्यके कारण होते 
है ।॥ ३६॥ हे महाभाग ! दक्र, मरीचि, अत्रि ओर 
भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत्के नित्य-सगंके 
कारण है । २७ ॥ तथा ममु ओर मुके पराक्रमी, ` 
सन्मागपरायण ओर शयुर-वीर पुत्र राज्ागम इस 
संसारकी नित्य-स्थितिके कारण दै ॥। १८॥ 


शरीमैभ्रेयजी बोले-हे ब्रह्मन्‌ ! आपने जो नित्य 
स्थिति, नित्य-सगं ओर निरय-प्रलयक्रा उल्टेख किया 
सो कृपा करके मु्चसे इनका स्वरूप वणन कौजिये 
|} ३९ ॥ 


श्रीपराश्चरजी बोले-जिनकी गति कहीं नहीं 
रकती वे अचिन्त्यात्मा सवेग्यापक भगवान्‌ मधु- 
सूदन निरन्तर इन मनु आदि सूपोसे संसारक. 
उत्पतति, स्थिति ओर नाञ्च करते रहते दै ।। ४०॥ हे 
द्विज ! समस्त मूतोका चार प्रकारका प्रलय ह 
तेमित्तिक, प्राकृतिक, आयन्तिक. भौर नित्य ।॥४९। 


० 








्राह्लो नैमित्तिकस्तत्र शेतेऽयं जगतीपतिः । 
प्रयाति प्राते चैव ब्रह्माण्ड प्रकृतौ लयम्‌ ॥४२। 
्ञानादात्यन्तिकः प्रोक्तो योगिनः परमात्मनि। 
नित्यः सदैव भूतानां यो षिनाशो दिवानिशम्‌ ।४३। 
्र्रतिः प्रकृतेरयं तु सा सृष्टः प्राढृता स्मृता । 
देनन्दिनी तथा प्रोक्ता यान्तरप्रर्यादनु 1४४] 
भृतान्यलुदिनं यत्र जायन्ते परुनिसत्तम । 
नित्यसर्गो हि स प्रोक्तः पुराणार्थत्रिचक्षणैः । ४५॥ 
एवं सर्वशरीरेषु भगवान्भूतभावनः । 
संस्थितः स्ते विष्णुसूतपत्तिस्थितिसयमान्‌॥।४६॥ 
तृषटिसिथतिषिनाशषानां शक्तयः सर्देिषु । 
वैष्णव्यः परिवत्तन्ते मैत्रेयाहरनिशं समाः ॥४७॥ 
गुणत्रयमयं छेतदुब्रहमन्‌ शक्तित्रयं महत्‌ । 
योऽतियाति स यात्येव परं नावर्तते पनः ॥४८॥ 


श्रीविष्णुपुराण 











उनमेसे नैमित्तिक प्रख्य ही त्राह्म-प्रलय है, जिसमे 
जगसपति ब्रह्माजी कल्पान्तमे शयन करते है; तथा 
परकरतिक प्रखयमे ब्रह्माण्ड प्रकृतिमे छीन हो जाता है 
॥ ४२ ॥ ज्ञानक ह्यास योगौका परमात्मा छीन 
हो जाना आत्यन्तिक प्रलय है ओौर रात-दिनजौ 
भूतोंका क्षय होता है बही नित्य-प्रख्य है | ४३॥ 
प्रकृतिसे महत्तस्वादि.क्रमसेजो खष्टि होती है बह 
प्राकृतिक सृष्टि कराती है ओर अवान्तर-प्रलयके 
अनन्तर जो [ब्रह्माफे द्वारा ] चराचर जगत्‌की 
उत्पत्ति होती है बह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है 
1 ४४ ॥ ओर हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमे प्रतिदिन प्राणियो.- 
की उत्पत्ति होती रहती है उसे पुसाणाथेमे श 
महानु भावोने निव्य-सष्टि कदा ३॥ ४५ ॥ 


इस प्रकार समस्त शरीरम स्थित भूतभावन 
भगवान्‌ विष्णु जगत्‌की उत्पत्ति, स्थिति ओर प्रख्य 
कृरते रहते दै ॥ ४६ ॥ हे मैप्रेय ! सृष्टि, स्थिति ओर 
विनाक्चकी इन वैष्णवी शक्तियोका समस्त शरीरम 
समान भावसे अहर्मिश्च सच्चार होता रहतादहै, 
॥ ४७।। हे ब्रह्मन्‌ ! ये तीनो महती शक्तियाँ वरिगुणमयी 
है; अत्तः जो इन तीनों गुणोका अतिक्रमण कर जाता 
है बह परमपदको ही प्राप्तकर केता है, फिर जन्म- 


मरणादिफे चक्रमे नहीं पड़ता ॥ ४८ ॥ 
#। 


दति श्रीविष्णुपुराणे प्रथभेऽशे सप्तमोऽध्यायः । ७ 





आढटर्वो अध्याय 
रोद्र-खष्टि मौर भगवान्‌ तथा लक्ष्मीजीकी सवेन्यापकताका वणेन 


श्रीपरश्चर उवाच 
कथितस्तामसः सर्गो ब्रह्मणस्ते महायुने । 
रुद्रसगं प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ॥ १॥ 
कन्पादाबात्मनस्तुल्यं सुतं प्रध्यायतस्ततः। 
प्राुरासीसभोरङ्के इमाये नीश्लोदितः॥ २॥ 
सरोद सुस्वरं सोऽथ प्राद्रवदुद्विजसत्तम | 
किं त्वं रोदिषि तं ब्रह्मा श्दन्तं प्रत्युवाच ह ॥ २॥ 





श्रीपराशरजी बोके--हे सहासुने ! मेने ठमसे 
ब्रह्माजीके तामस-सर्गका चरणेन किया, अवरम 
सुद्र-सरंका वणेन करता हूँ सो सुनो ॥१॥ 
कत्पके आदिमे अपने समान पुत्र उसन्न होने- 
के लये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजोकौ गोदे 
नीरलयोहित वणेके एक कुमारका प्रादुभाव हु 
1 २॥ है द्विजोत्तम | जन्मके अनन्तर ही वु 
जोर-जोरसे रोने ओर इधर-उधर दौडने लगा | 
उसे तेता देख ब्रह्माजीने उससे पृा--^तू क्यों 
रोता है १।॥ ३ ॥ उसने कहा--“मेरा नाम रखो ।” 


१" ~ 





दसत भ ननन 


शद्रस्लं देव न(म्नासि मा रोदीर्धैय॑मावह ॥ ४ ॥ 
एवघक्तः पुनः सोऽथ सत्वो रुरोद वै । 
ततोऽन्यानि ददौ तस्मै सप्र नामानि वै प्रः ।॥ ५॥ 
स्थानानि सैषामष्टानां पतीः पुत्रा स प्रः 

भयं सवंमथेनानं तथा पशुपतिं हिज ॥ ६॥ 
भीमग्रं महादेवद्ुवाच स पितामहः। 

चक्रे नामान्येतानि स्थानान्येषां चकार सः॥। ७॥ 
सूयो जरं मदी वायुवंदहिराकाशमेव च । 
दीक्षितो ब्राह्मणः सोम इव्येतास्तनवः क्रमात्‌ ॥८॥ 
सुवर्चला तथेवोपा केरी चापरा शिवा । 
स्वाहा दिशस्तथा दीक्षा रोहिणी च यथाक्रमम्‌॥ ९। 
र्यादीनां द्विप्र सद्रचेर्नाममिः सह । 
प्ल्यः स्मरता महाभाग तदपत्यानि मे श्रृणु ॥१०॥ 
एषां छतिग्रदतिभ्यामिद्रमापूरितं जगत्‌ । 
कमैशवरस्तथा शुक्रो छोषिताङ्धो मनो जवः ॥११॥ 
स्कन्दः सर्गोऽथ सन्तानो बुधथानुक्रमासुताः। 
एवंप्रकारो रुद्रोऽसौ सतीं मार्यामनिन्दिताम्‌।१२॥ 
उपयेमे दुहितरं दक्षस्यैव प्रजापतेः । 
दक्षकोपाच्च तत्याज सा सती स्वकलेवरम्‌ ॥१२॥ 
हिमवद्‌ दुहिता साभून्मेनायां द्विजसत्तम्‌ । 
उपयेमे पनश्चोमामनन्यां भगवान्हरः ॥१४॥ 
देवौ धातृविधातारौ भ्रूगोः स्यातिरसुयत। 

धियं च देवदेवस्य परती नारायणस्य या ॥१५॥ 





तू मतसो, धैयं धारण कर? ॥ ४॥ देसा कदनेपर भी 
वह्‌ सात वार ओर रोया तन्न भगवान्‌ ब्रह्माजीने 
उसके सात नाम भौर रखे ॥ ५॥ तथा उन जाटोके 
स्थान, क्ली, ओौर पुत्र भी निधितक्यि। हे द्िज ! 
प्रजापतिने उसे भव; शवं, ईन, प्रयुपति, मीम; 
उग्र भौर महादेव कहकर सम्बोधन किया । यही 
उसके नाम र्खे ओर इनके स्थान भी निश्चित किये 
11 ६-७ ॥ सूं, जख, प्रथिवी, वायु, अग्नि, आकाञ्च, 

( यज्ञे ] दीक्षित ब्राह्मण ओर चन्द्रमा-ये क्रमशः । 
उनकी मूर्विया ह।॥८॥ हे द्विजश्रेष्ठ | रद्र आदि 
नामोक्रे साथ उन सूयं आदि मूर्वियोकौ क्रमशः 
सुघरच॑ला, उषा, विके, अपरा) शिवा, स्वाहा; 
दि्ञा, दीक्षा ओर रोहिणी नामकी पलिया है] हे 
महाभाग ! अरव उनके पुत्रके नाम सुनो ॥ ९-१०॥ 
उन्ही पुतर-पौत्रादिकोसे यह सम्पूणं जगत्‌ परिपू 
है । सनैश्चर शुक्र, लोहिताङ्ग, मनोजव, स्कन्द्‌, सर्ग, 
सन्तान ओर बुध ये क्रमक्ञः उनके पुत्र है । एसे 
यगवान्‌ सद्रने प्रजापति दर्षी अनिन्दिता पुत्री 
सततीको अपनी भायीरूपसे ग्रहण किया । उस सतीने 
दक्षपर कुपित होनेके कारण अपना सरीर त्याग 
दिया था 1 ११-१३ 1 हे द्विजसत्तम ! फिर वह्‌ मेना- 
के गर्भ॑से दिमाचरुक पुत्री ( उमा ) हई । भगवान्‌ 
श्रंकरने उस अनन्य-परायणा उमापे फिर भौ वित्राद 
किया ॥ १६ 1 भृगक द्वारा स्यातिने धाता भौर 
विधाता नामक दो देवतांको तथा रक्ष्मीजीको 
जन्म दिया जो भगवान्‌ विष्णुकौ पतनी हुई ॥ ९५॥ 
















श्रीमेत्रेय उव्राच 


्षीरान्धो श्रीः सषत्पन्ा श्रुयतेऽगृतमन्थने । 


श्रमे्ेयजी बोले--भगवन्‌ ! सुना जाता दै कि 
रक््मीजी तो असृत-मन्थनके समय क्षीर-सागरसे 
उतपन्न हुई थी, फिर आप एेसा कहते हैकिवेगृशु- 


भृगोः ख्यात्वा समतपननेतयेतदाह कथं मवान्‌ ।१६॥| ॐ दवारा ख्यातिसे उतपन्न हई ॥ १६ ॥ 


श्रीपराज्चर उवाच श्रीपराश्चरजी बोरे-हे द्विजोत्तम ! जिनका 


कभी तिर भाव नदीं होता, वे जगञजननी लक्ष्मीजी 
नित्य ह्वी है ओर जिस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्‌ 
सर्वत्यापक है वैसे हौ ये मी है ॥ १७॥ विष्णु अथं 


नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी | 
यथा सवं गतो षिष्णुस्तयवेयं द्विजोत्तम ॥१७॥ 











अर्थो विष्णुरियं वाणी नीतिरेषा नयो हरि । 
बोधो विष्णुरियं बुद्धिष्॑मोऽसौ सच्िया स्यम्‌ १८ 
सषा विष्णुरियः सृष्टिः श्रीभूमिभूषरो हरि । 
सन्तोपो मगर्वोँल्टक्ष्मीस्तु्िमेत्रेय शाश्वती ॥१९। 
इच्छा श्रीभगवान्कामो यज्ञोऽपौ दक्षिणा वियम्‌ 
 भआञ्याहृतिर्सौ देवी एरोडा्ञो जनादन; ॥२०॥ 
पली सारा यने रमी; प्राग्वंशो मधुसूदनः । 
चितिच्मीरियप इध्मा शरीरमगवान्डृशः ।२१॥ 
सामस्वरूपी भगवानुद्रीतिः कमलाया । 
साहा लदमीजंगन्नाथो वासुदेवो हुताश्चनः॥२२॥ 
राङ्रो भगवाज्छोरि्गोयै छच्मीद्विजोत्तम। 

मैत्रेय केशवः सुय॑स्तस्मा कमलालया ॥२३॥ 
विष्णुः पितृगणः पमा स्वधा साश्वतपुष्टिदा। 

द्यौः श्रीः सर्वात्मको विष्णुरकाशोऽतिविस्तरः।२४। 
शशाङकः श्रीधरः कान्तिः श्रीस्तथैवानपायिनी । 
धृतिरकदमीर्जगचेष्टा वायु; सर्त्रमो हरि; ॥२५॥ 
जरपिद्दिज गोविन्दस्तदरेला श्रर्महायने । 
लक्ष्मीस्वरूषमिन्द्राणी देवेन्द्रो मधुद्रदनः ॥२६॥ 
यमथक्रधरः साक्षादुधूमोणो कमहाछ्या । 





छदिः श्रीः श्रीधरो देवः स्वयमेव धनेश्वरः ॥२७॥ 
गोरी लक््मीमेहाभागा केशवो वरुणः खयम्‌ | 
्रीरदेवसेना विप्रन देवसेनापतिर्हरिः ॥२८॥ 


रवटम्भो गदापाणिः शक्तिरंश्मीदिजोत्तम। 
काष्ठा रच्मीनिमेषोऽसौ युहूत्तोऽसौ कला त्वियम्‌ २९ 


ज्योत्ध्ना रक्ष्मीः प्रदीपोऽसौ सवं; सर्वेरो हरिः। 


हँ ओौरये वाणी, हरिन्यायदह सौरये नीतिदहै, 
भगवान्‌ विष्णु बोधदहओौर ये बुद्धि, तथा वे 
धर्मद, ओर ये सक्करियादहै। १८॥ दे मैत्रेय! 
भगवान्‌ जगते खष्टा है ओौर क्ष्मीजी खष्टि दैः; 
श्रीहरि भूधर ( पर्व॑त अथवा राजा) दै जर लक्षमी- 
जी भूमि दै तथा भगवान्‌ सन्तोष दै ओर रक्ष्मीजी 
निव्य-तुषि हँ ॥ १९॥ भगवान्‌ काम दै जौर क्ष्मी- 
जीडन्छाहैवे यज्ञद भौरये दक्षिणा, प्री 
जनादन पुरोडास्च है ओर देवी लक्ष्मी जी आच्याहति 
( घृततकी आहुति दँ ) | २० ॥ है मुने! मधुसूदन 
यजमानगृह हैँ ओर लक्ष्मीजी पस्नीशाला दै, श्रीहरि 
यूप दै ओौर छष्मीजौ चिति दै तथा भगवान्‌ कुशा 
ह ओर लक्ष्मीजी इध्मा दै ॥ २१॥ मगवान्‌ साम- 
स्वरूप दै ओर श्र कमलादेवी उद्गीत है, जगतस्ति 
मगान्‌ बासुदेव हुताशन है भौर लष््मोजो स्वाहा 
ह ।॥ २२॥ हे द्विजोत्तम ¦ भगवान्‌ विष्णु संकर है 
ओर खधमीनी गौरी ह, तथाह मैत्रेय | प्रीकरेराव 
सूयं द ओर कमख्व्रासिनो श्रौलक्रपीजौ उनक प्रभा 
है २३॥ श्राविष्णु पिदरूगाग है ओर श्रीकमला 
नित्य पुष्ठिदायिनी स्रधा, विष्णु अति विस्तीणं 
सर्वात्मक अवकार हँ ओर लक्ष्मोजी स्वगंलोक हैँ 
॥ २४ ॥ भगवान्‌ श्राघर चन्द्रमा है ओर श्रीलक्ष्मी 
जी उनकी अक्षय कान्ति हरि सवेगामी वायु 
ओर छक्ष्मीजौ जगच्चेष्टा ( जगत्‌कौ गति ) ओौर 
धृति ( आधार ) है | २५॥ हे महामुने ! श्रीगोविन्द्‌ 
समुद्रै जरह द्विज ! र्मीजो उसकी तरङ्गै, 
भगवान्‌ मधुसूदन देवराज इन्द्र दै ओौर लक्ष्मीजी 
इन्द्राणी है ॥। २६ ॥ चक्रपाणि भगवान्‌ यम है भौर 
भ्रीकमला यमपल्नो धूमोणो दै, देवाधिदेव श्रीविष्णु 
कुवेर दै ओर श्रीरुक्ष्मीजी साक्षात्‌ ऋद्धि है ॥। २७॥ 
भ्रीकेश्चव सयं वरण हँ ओौर महाभागा लक्ष्मीजी 
गौरी, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामि- 
कातिङेय है ओर श्रीर्ष्मीजी देवसेना है ॥। २८॥ 
हे द्विजोत्तम ! भगवान्‌ गदाधर आश्रयहै ओर 
लक्ष्मीजी शक्ति दै, भगवान्‌ निमेष दै ओर लक्ष्मीजी 
काष्ठा, बे युतं दह भौर ये कटा दै ॥२९॥ 
सर्वेश्वर सवंरूप श्रीहरि दीपक दै ओौर 


` ण 


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लताभूता जगन्माता भ्रिष्णुह मसं्ञितः ॥३०॥ 
विभावरी श्रीर्दिवसो देवश्वक्रगदाधरः। 
वरप्रदो बरौ विष्णु॑धूः पञ्चवनारुया ॥३१॥ 
नदसरूपी भगवाज्छीनंदीरूपसंस्थिता । 
ध्वजश्च पुण्डरीकाक्षः पताका कमलालया ॥३२॥ 
तृष्णा लक््मीजेगन्नाथो लोभो नारायणः परः । 

रती रागघनैत्रेय लक्ष्मी्मोिन्द एव च ॥३३॥ 
पिं चातिबहुनोक्तेन सदक्षिपेगेदपुच्यते ॥३४॥ 
देवतियंडमनुष्यादौ पामा मगवान्हरिः। 
स्ीनास्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोविं्यते परम्‌ ॥ २३५॥ 





्रोकक्ष्मीजी ज्योति दै, श्रीविष्णु बृक्षरूप दै जीर 
जगन्माता श्रीरक्ष्मीजी कता है ॥ ३०॥ चक्रगद्यधर- 
देव श्रीविष्णु दिन है ओर लक्ष्मीजी रत्नि, बर- 
दायक श्रीहरि वर द जौर पद्यनिवासिनः श्रीरक्ष्मी- 
जी वधू है ॥ ३१॥ भगवान्‌ नद्‌ दहै भौर श्रीजी 
सदी है, कमर्नयन भगवान्‌ ध्वजा है भौर 
कमलाया लक्ष्मीजी पताका हैँ ॥ ३२ ॥ जगदीश्वर 
परमात्मा नारायण रोम है ओर लक्पीजी ष्णा है 
तथा हे मैत्रेय ! रति ओौर राग भी साक्षात्‌ श्रीलक्ष्मी 
ओर गोविन्दरूपही है ।॥ ३३॥ अधिक क्याकहा 
जाय ? संक्षेपमे, यही कहा जाता है कि देव, तियक्‌_ 
ओर मनुष्य आदिमे पुरुषवाची भगवान्‌ हरि हैँ 
जर्‌ श्लीवाची श्रीलक्षमीजी । इनके परे ओर कोई 
नहीं ह ॥ २४.३५ ॥ 


-~--+कन- ~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमे.ऽरो अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 


नवौ अध्याय 


दुवौसाजीके शपते इन्द्रका पराज्ञय, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे प्रसन्न हप मगवान्‌का प्रकर होकर देवतार्मोको 
समुद्र-मन्थनका उपदेश करनए तथा देवता ओर दैर््यौका ससुद्र-मन्थन 


श्रीपराश्चर उवाच 

इदं च शृणु मैत्रेय यखष्टोऽहमिह त्वया । 
शरीसम्बन्धं मयाप्येतच्छ तमासीन्मरीचितः।। १॥ 
ुर्बासाः शङ्करस्यांरश्चचार प्रथिवीमिमाम्‌ । 

स॒ ददं सजं दिव्यामूषिविधाधरीकरे ॥ २॥ 
सन्तानकानामसिरं यस्या गन्धेन वासितम्‌ । 
श्रतिसेव्यमभूदूतरहमन्‌ तदनं वनचारिणाम्‌ ॥ ३॥ 
उन्मत्तव्तधृणिवप्रस्ता दषटर शोभनां सजम्‌। 

तां ययाचे वरारोहां विद्याधरवधं ततः ॥४॥ 
याचिता तेन तन्वद्धी मालां विधयाधराङ्गना। 

ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं प्रणिपत्य तम्‌॥ ५॥ 
तामादायात्मनो मूध्नि सखजयुन्मत्तरूपधक्‌ 

छरला स्‌ विप्रो मैत्रेण परिविघ्राम मेदिनीम्‌॥६॥ 


श्रीपराश्चरजी बोरे-दे मैत्रेय ! तुमने इस 
समय सुश्चसे जिसके विषयमे पूछा ह वह श्रीसम्बन्ध 
( ठक्ष्मीजीका इतिहास ) सैने भी मरीचि ऋषिसे 
सुना था, वह्‌ मेँ तुदं सुनता ह, [ सावधान 
होकर ] सुनो ॥ १॥ एक धारः ननंकरके अंशात्रतार 
्रीदुवीसाजी प्रथिवीतलमे विचर रहे थे। घुमते- 
घुमते उन्होने एक बिद्याधरोके हाथौमे सन्तानक 
पुष्पोकी एक दिन्य माला दैखी । हे ब्रह्मन्‌ ¦ उसकी 
गन्धरसे सुबासित होकर वह बन वनवासिर्योके 
खये अति सेवनीय हो रहा था | २-र॥ तव उन 
उन्मन्तवृत्तिवारे विग्रवरने वह्‌ सुन्दरः माका देखकर 
उसे उस विद्याधर-सुन्दरोसे मर्गगा ॥ ४ | उनके 
मगनेषर इस बड़े-बड़े नेत्रोवाली कृकांगी बिद्या 
धरीने उन्दः आदरपूकेक प्रणाम कर वह्‌ माला 


देदी॥५॥ 


हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विगप्रवरने उसे 
ठेकर अपने मस्तकपर डाल छिया भौर परथिकीपर 





स ददं तमायन्तदन्मततेरावते स्थितम्‌ । 
्रोक्याधिपतिं देषं सह देवेः शचीपतिम्‌ ॥ ७॥ 
तामारमनः स रिरसः सजघुन्मत्तषटषदाम्‌ । 
आदायामरराजाय विक्षेषोन्म॑त्तवन्पुनिः ॥ ८ ॥ 
गृहीस्वामरराजेन  सरभेरावतमूद्नि । 
न्यस्ता रराज कैरासरिखरे जाहषी यथा ॥९॥ 
मदान्धकारिताक्षोऽसौ गन्धङ्ृटेन वारणः । 

, करेणाघ्राय चिक्षेप तां स्रजं धरणीतले ॥१०॥ 
ततश्चुक्रोध मगवान्दुर्वासा भ्निसत्तमः । 
मेत्रेय देवराजं तं करद्धश्चैतदुबाच द ॥११॥ 

दुर्वासा उवाच 
एश्वयंमददु्टर्मन्नतिस्तन्धोऽसि वास्तव । 
श्रियो धाम सरजं यस्त्वं मदचां नाभिनन्दसि ।॥१२। 
प्रसाद इति नोक्तं ते प्रणिपातपुरःसरम्‌ । 
हपोतफुन्लकपोलेन न चापि शिरसा धरता | १३॥ 


मया दत्तामिमां माहां यस्मान्न बहु मन्यसे। 
्रोक्यश्रीरतो भूढ चिनाशषुपयास्यति ॥१४॥ 
मां मन्यसे खं सदशं नूनं शक्रेतरद्विनैः। 
अतोऽवमानमस्मामु मानिना भवता कृतम्‌ । १५॥ 
महत्ता भवता यस्मास्षिप्ना माहा महीतरे । 
तस्मास्मण्टलचमीकः त्रैलोक्यं ते भविष्यत्ि॥ १६॥ 
यस्य सञ्ञातकोपस्य भयमेति चराचरम्‌ । 
तत्वं मामतिगर्वेण देवराजावमन्पसे ॥१७॥ 
घ्रीपराञ्चर उवाच 

महेन्द्रो बारणस्कन्धादवतीयं त्वरान्वितः । 
प्रसादयामास यनि दुर्वाससमकल्मषम्‌ ॥१८॥ 
प्रसाद्यमानः सर तदा प्रणिग्रतपरःसरम्‌ | 
ह्युवाच सहस्राक्षं दुर्वासा युनिसत्तमः ॥१९॥ 








विचरे लगे॥ £ ॥ इसी समय उन्होने उन्मत्त 
देरावतपर चद्‌ कर रैवताओंके साथ आति हुए 
्रेलोक्याधिपति क्चीपति इन्द्रको देखा ॥ ७।। उन्हे 
देखकर भुनिवर दुवासाने उन्मत्ते समान बहु 
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मतव्रारे भोरोँसे गुञ्जायमान माला अपने क्चिर्परसे 
उतारकर देवराजः इन्द्रके ऊपर फक दी॥८॥ 
देवराजने उसे छेकर एेराव्रतक्रे मस्तक्रषर डाल दिया; 
उस समय वह्‌ ेसी सुशोभित हुई मानो केडाश्च 
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पतक क्िखरपर श्रीगङ्काजी विराजमानदहों।९॥ 
उस मदोन्मत्त हाथीने भौ उसकी गन्यसे आकर्षित 
हो उसे सूडसे घुँघकर प्रथिबौपर फेक दिया 
॥ १० ॥ हे मैत्रेय ! यड देलक्र मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ 
दुवाँसाजी अति क्रोधित हए ओर देवराज इन्द्रसे 
इस प्रकार बा ॥ ११॥ 


दुर्वा साजीने कदा--अरे पेश्येकरे मदसे दृषित- 
चित्त इन्द्र) तूवड़ा दीठदै. तूनेमेरी दौ हई 
सम्पूणं ज्ञोभाकी धाम मालका कुक भी आदर नहीं 
किया! ॥ १९॥ अरे ! तूने नतो प्रणाम करके बड़ी 
कपा की'ेसा ही कदा ओर न हषेंसे प्रसन्नवदन 
होकर चसे अपने श्िरपर ही रक्ला ॥१३॥ 
रे मूढ! तूतेमेरी दी हुई माटाका कुछ भी मूल्य 
नदीं किया, इसय्यि तेरा त्रिटोकीका वैभव नष्टहो 
जायगा ॥ १४ ॥ इन्द्र ! निश्चय ही तू सुश्च भौर 
बरह्मणोके समान सम्यत दहै, इसलिये लुङ्च अति 
मानीने हमारा इस प्रकार अपमान किया है | १५॥ 
अच्छातूतेमेरीदी हई माछाको प्रथ्वीपर फक 
हसल्यि तेरा यहु चिभुबन भी स्चीघ्र ही श्रीहीन हो 
जायगा ॥ १६ ॥ रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर 
सम्पूणे चराचर जगत्‌ भयभीत दहो जाता उस 
मेरा हयी तूने अति गवेसे इस प्रकार अपमान 
किया ! ॥ १७॥ 

श्री परा्नारजी बोरे-तव ता इन्द्र तुरन्त हो 
पेरावत हा्थीसे उतरकर निष्यापर मुनिवर दुर्बासा- 
जोको [ अनुनय-विनय करके ] मनने खगे ॥ १८ ॥ 
तब दस प्रकार प्रणामादिपूवेक् उनके मनानेपर 
मुनिरेष्ठ दुवा साजे यौ कहा--॥ १९॥ 


दुर्वासा उवाच 

नाहं कृषालुहृदयो न च मां मनते क्षमा | 

अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि माम्‌ ॥२०। 
गौतमादिमिरन्यैस्ं गवंमागोपितो ब्धा । 
अक्षान्तिसारसवस्यं दुर्वाससमवेहि माम्‌ ॥२१॥ 
वसिषठाघेदयासारेसस्तोत्रं॑इर्वद्धिरुबकैः । 

गवं गतोऽसि येनैवं मामप्यद्यावमन्यसे ॥२२॥ 
ज्रहज्जटाकरपस्य भृकुटीकुटिलं मखम्‌ । 
निरौदय कचिसुवने ममयो न गतो मयम्‌ ॥२३॥ 
नाह क्षमिष्ये बहुना किंघुक्तेन सतक्रतो । 
विडम्ब्नामिमां भयः करोप्युनयािकाम्‌।।२४॥ 

श्रीपसाञ्चर उवाच 

इत्युक्तवा प्रययौ विप्रो दैवराजोऽपि ते पनः। 
आरुहयरावतं ब्रहन्‌ प्रययावमरावतीम्‌ ॥२५॥ 
ततः प्रभृति निःशोकं सशक्रं युवनत्रयम्‌ । 
मतरेयासीदपध्वस्तं सदक्षीणोपधिवीरधम्‌ ॥२६॥ 
न यज्ञाः समवक्तन्त न तथस्यन्ति तापसाः । 

न च दानादिधर्मेषु मनश्करे तदा जनः ॥२७॥ 
निःस्वाः सकला लोका छोमाबरुपहतेन्दियाः । 
स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तम ॥२८॥ 
यतः स्वं ततो रुच्मीः सं भूत्यनुस्रारि च | 
निःश्रीकाणां कतः स्वं विना तेन गुणाः फुतः। २९। 
वलशोर्याद्यमावश्च पुरुषाणां गुणेर्विना । 
रद्कनीयः समस्तस्य बरुरोयंबिव्ितः ॥३०॥ 
मवत्यपध्वस्तमतिलंद्धितः प्रथितः पमान्‌ ॥३१॥ 
एवमत्यन्तनिःश्रीके त्ररोक्ये सर्ववसिते । 


देवान्‌ प्रति बलोद्योगं चक्रतेयदानवाः ॥३२॥ 
लोभाभिभूता निःभौका देयाः सवविवभिता; । 











दुर्वासाजी बोे-इन्द्र ! मै कृपाटु-चित नहीं 
ह, मेरे अन्तःकरणमें ्षमाको स्थान नहीदै।वे 
मुनिजनतो ओरी तुम समश्च, मै तो दुर्वासा 
हन १॥ २० ॥ गौतसादि अन्य सुनिजनोने व्यथ 
ही तुचे इतना गह लगालियादै; पर याद स्ख, 
तो दुर्वासा जिसका मुख्य सवसव क्षमा न करना 
ही दै॥ २९ ॥ दयामूर्निं वसिष्ठ आादिके बद्‌-बदकर 
सतुति करमेसे तू नना गर्वा दौ गया है कि आज 
मेरा अपमान करने चछा दै।। २२॥ अरे ! आज 
त्रिखोकीमरै देसा कौनदहै जा मेरे प्रञ्वलित जटाः 
करखाप ओौर टेही बरह्कुदिको देकर भयमीतनद्ो 
ज्ञाय १॥ २३॥ रे श्लतक्रतो | तू बाररार अनुनय- 
विनय करमैका ढोँग क्यों करता है१ तेरे इस 
कहने-सुननेसे क्याहयोगा? मै क्षमा नहीं कर्‌ 
सकता ॥ २४ ॥ 


श्री पयश्चरजी बोरे-हे ब्रह्मन्‌ ! इस प्रकार कह 
वे विप्रवर वहसे चल दिये ओौर इन्द्र सी ठेरावत- 
पर्‌ चदृकर अमराव्‌तीकरो चके गये || २५॥ हे 
मैत्रेय ¦ तभीसे इन्द्रफे सहित तीनों लोक वृक्ष 
छता आदिक क्षीण ह जानेसे श्रीहीन ओर नष्ट-धष्ट 
दोने लगे ॥ ५६॥ तवसे यज्ञोका होना बन्द हो 
गया, तपस्वियोने तप करना छोड़ दिया तथा लोगो- 
क] दान आदि धमनिं चित्त नहीं रहा! २७॥ हे 
द्विजोत्तम ! सम्पूणं लोक छोमादिके वश्चीभूत ह्यो 
जानेसे सत््वशन्य ( सामभ्य॑हीन ) हो गये ओौर 
तुच्छ वस्तुओंके ल्यि भो छाषटायित रहने कगे ॥ २८॥ 

४० रे भ भदै 
ज सन्त्व होता दै वहीं लक्ष्मी रहती हे मौर सन्त्व 
भी लक्ष्मीका ही साथी है । श्रीहीनोमे भला सत्त्व 
कँ १ ओर बिना सत््वके गुण कैसे ठहर सकते 
है १॥ २२॥ त्रिना गुणोके पुरपमे बल, शौये आदि 
सभीका अभाव हो जातादहै ओौर निवे तथा 
अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता दै ॥ ३० ॥ 
अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषकी बुद्धि चिगड़ 
जाती है| ३१॥ 


इस प्रकार त्रिखोकीके श्रीहमीन ओर सन्छरहित 
हो जानेपर दैत्य ओर दानवोनि देवताओंपर चदाई 


। कर्‌ दी ॥ ३९॥ सन्त्व आौर वेभवसे शन्य होनेपर 





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रिया षिदहीनेनिःसचेदवेशकरस्ततो रणम्‌ ॥३३ 
विजितास्िदश्षा दैत्वैरिनद्रा्ाः शरणं युः | 
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः ॥२४॥ 
यथावत्कथितो देयेत्र॑ह्या प्राह ततः सुरान्‌ । 
परावरेशं शरणं व्रजध्वमसुरा्दनम्‌ ॥३५॥ 
उतपत्तस्थितिनाशानामदतं॑देतमीधरम्‌ । 
प्रजापतिपतिं विष्णुमनन्तमप्राजितम्‌ ॥३६॥ 
परथानपुसोरनयो; कारणं कायंभूतयोः । 
प्रणतार्तिहर विष्णुं स बः श्रेयो विधास्यति ॥३७ 


श्रीपराक्चर उबाच 


एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान्‌ ब्रह्मा रोकपितामहः । 
क्षीरोदस्योत्तरं तीरं तैरेष सरितो ययौ ॥३८॥ 
स गत्वा त्रिदशे; सर्वैः समवेतः पितामहः । 
तृ बाभ्मिरि्ामिः परावरपतिं हरिम्‌ ॥३९॥ 





नह्मोवाच ` 
नमामि सवं सर्वेशमनन्तमजमन्ययमू । 
रोकथाम पराधारमप्रकारममेदिनम्‌ ॥४०॥ 


नारायणमणोयांसिमरेषाणामणीयसाम्‌ । 





समस्तानां गरं च भूरादीनां गरीयसाम्‌ ॥४१॥ 
यत्र सवं यतः सर्वुत्न्नं मलुरःसरम्‌ । 
सवभूत यो देवः पराणामपि यः परः ॥४१९॥ 
पटः परस्माुस्पासपरमातसरपधुक्‌ । 
योगिभिधिन्त्ये योऽपो यक्तिेतरुशुभिः।।४२॥ 
स्वादयो न सन्तीशने यत्र च प्राकृता गुणाः। 

स बुद्धः सवशु्रेभ्यः एमानायः प्रसीदतु ॥४४॥ 
कलाकाष्ठामृहुत्तादिकाल्प्रस्य गोचरे । 
यस्यशक्तिनं शुद्धस्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ॥४५॥ 


भी देत्योँने छोभवश्च निःसन्ख जौर श्रीहीन देव- 
ताओंसे घोर युद्ध ठाना ॥ ३३ ॥ अन्तमं दैत्योद्रारा 
देवता छोग परास्त हुए । तव इन्द्रादि समस्त दैव- 
गण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह 
्ौजरह्माजीक जरण गये ॥ ३४ ॥ देव ताओंसे सम्पूणं 
वृत्तान्त सुनकर ब्रीबरह्माजीने उनसे का, “हे 
देवगण ! तुम दै्य-दन परावरेर भगवान्‌ विष्णु- 
की शरण जाओ, जो [ आरोपसे ] ससारकी उत्पत्ति, 
स्थिति ओर संहास्के कारण हैँ किन्तु [ वास्तवमें ] 
कारणमी नहीं दँ ओर जो चराचरफे र, प्रजा- 
पति्यके स्वामी, सवभ्यापक, अनन्त ओौर अजेय 
है, तथा जो अजन्मा किन्तु कारयंखूपमें परिणत हए 
प्रधान ( मूलप्रकृति ) ओौर पुरुपके कारण हँ एवं 
लञरणागतवत्सर है । [ शर्ण जानेपर ] वे अवश्य 
तुम्हाया मङ्गल करगे ॥ ३५-३७॥ 


श्रीपराशरजी बोखे--हे मैत्रेय ! सम्पूणं देव- 
गणोसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीत्रह्माजी भी 
उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तदपर गये ॥ ३८ ॥ 
वहाँ पहुंचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवतार्भ- 
के साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवानूकौ अति 
मङ्गलमय वाक्योसे स्तुति की ॥ ३९॥ 


ब्रह्माजी कहने रुगे-जो समस्त अणुओंसे भो 
अणु ओौर प्रथिवी आदि समस्त गुरुभं ( भारी 
पदार्थो) सेभी गुरु ( भारी) दै, उन निखिललोक- 
विश्राम, प्रथिवीके आधारस्वरूप, अप्रकारय, अभेद्य; 
सवरप, सवंश्वर, अनन्त, अज ओर अत्यय नारा- 
यणको ओँ नमस्कार करता हँ ४०-४१ ॥ मेरेसहित 
सम्पूणं जगत्‌ जिसमे स्थित है, जिससे उन्न हुभा 
देभौर जो देव सवंभूतमय है तथा जौ प्र 
( प्रधानादि) सेमोपरदहै; जो पर पुरुषसे भी पर 
है, यक्ति.काभके स्यि मोक्षकामी मुनिजन जिसका 
ध्यान करते है तथा जिस ईश्वरम सन्त्वादि प्राकृतिक 
गुणोका सवेथा अमाव है वह समस्त ञुद्ध पदार्थौ 
से भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष ह मपर 
प्रसन्न हों ।॥ ४२४४ ॥ जिस शुद्धस्वूप भगवान्‌- 
की षक्ति ( विभूति ) कला-काष्ठा ओौर मुहूतं आदि 
कार-करमक्रा विषय नहीं ह, वे भगवान्‌ विष्णु हम- 
पर प्रसन्न हों ।॥ ४५॥ 











प्रोच्यते परमेशो हि यः बुद्धोऽप्युपचारतः । 








प्रसीदतु स नो विष्णुरात्मा यः सबेदेहिनाम्‌।४६॥ 
यः कारणं च कायं च कारणस्यापि कारणम्‌। 





कार्यस्यापि च यः कायं प्रसीदतु सनो हरिः ॥४७॥ 





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कायंकार्यस्य यत्कार्यं तत्काय॑स्यापि यः स्वयम्‌ । 








तत्ायंकायंभूतो यस्ततश्च प्रणताः स्म तम्‌॥४८॥ 
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम्‌ । 
तत्कारणानां देतु तं प्रणताः स्म परेश्वरम्‌ ।॥४९॥ 





भोक्तारं भोग्यभूतं च स्टार सृल्यमेव च। 
कायंकर्स्वरपं तं प्रणताः स्म परं पदम्‌॥५०॥ 
विशुद्धोधवन्निस्यमजमक्षयमग्ययम्‌ । 
त््यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ।५१॥ 
न स्थूलं न च समं यन्न विकषेषणगोचरम्‌ । 
तत्पदं परमं विष्णा; प्रणमामः सदामम्‌ ॥५२ ॥ 


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यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता । 
प्र्रह्मस्वरूप१ यस्प्रणमामस्तमम्ययय्‌ ।५३॥ 
यद्ोगिनःसदोचुक्ताः ण्यपापसयेऽ्षयम्‌ । ` 
परयन्ति प्रणवे चिन्त्यतद्िष्णोःपरमं पदम्‌ ॥५४॥ 


यन्नदेवानघ्ुनयो न चाहं न च शङ्करः । 





जाननिति परमेक्ष्य तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ॥५५॥ 
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुरिवासिकाः । 
भवन्त्यभूतपू॑स्य तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ।५६॥ 


सर्वेश॒सवेभूतात्मन्सवं सर्वाश्रयाच्युत । 








प्रसोद विष्णो भक्तानां बज नो दृष्टिगोचरम्‌॥॥५७। 








जो श्द्धस्वरूप होकर भी उपचारसे परमेच्धर 
परमा = महालक््पी ईश्वर = पति ) अथात्‌ लक्ष्मी- 
पति कहलति है ओर जो समस्त देहधारियोके 
अस्मादहं वे श्रीविष्णुभगवान्‌ हमपर प्रसन्नहों 
॥ ४६ ॥ जो कारण भौर कायरूप हँ तथा कारणके 
भी कारण जओौर कायक मी कायं हवे श्रीहरि हमपर 
प्रसन्न हों ।। ४७ ॥ जो कायं ( महत्तत्त्व ) के कायं 
( अहंकार ) का भी कायं ( तन्मात्रापञ्चक) है 
उसके कायं ( भूतपच्चकर ) का भौ कायं ( ब्रह्माण्ड) 
जो स्वयं है ओर जो उसके काये ( ब्रह्मादक्षादि ) 
काभी कायंभूत (प्रजञापतिर्योके पुत्रपौत्रादि) दै 
खसे हम प्रणाम करते ह ॥ ४८ ॥ तथा जो जगते 
कारण (ब्रह्मादि) का कारण (ब्रह्माण्ड) ओर 
उसके कारण ( भूनपञ्चक ) के कारण (पञ्चतन्मात्रा) 
के कारणों ( अहंकार-महत्तस्वादि ) कामी हेतु 
( मूलप्रकृति ) है उस परमेश्चरको हम प्रणाम करते 
है | ४९॥ जो भोक्ता भौर मोग्य, सरष्टा भौर सभ्य 
तथा कत्त ओर कायेरूप स्वयं ह है उस परमपद 
हम प्रणाम करते ह| ५० ॥ जो विद्ध वोधस्वषूप, 
निस्य, अजन्मा, अश्चय, अव्यय, अम्यक्त भौर 
अचिकारी दहै वही विष्णुक्रा परमपद ( परस्वरूप ) 
है ॥५१॥ जो नस्थूढहै नसूक्षम ओौरनक्रिसी 
अन्य विररेषणक्रा विषय है वही भगवान्‌ विष्णुका 
नित्य-निमह परमपद है, हम उसको प्रणाम करते 
ह ॥ ५२ ॥ जिसके अयुतांश्च ( दश्च हनारवं अञ्च) 
के अयुनांमे यह्‌ विङ्षरचनाकी शक्ति स्थित है 
तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अल्ययको हम प्रणाम 
करते ह || ५३॥ नित्ययुक्त योगिगण अपने पुण्य 
प्रापादिका क्षय हो जनेपर ऊग्कारद्वारा चिन्तनीय 
जिस अविनाक्ञो पदेका साक्षात्कार करते दै, वही 
भगवान्‌ विष्णुका परमपद है ॥ ५५॥ जिसक्रो 
देवगण, मुनिगण. शकर ओर मै-कोई भी नहीं जान 
सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है ॥ ५५॥ 
जिस अभूतपूवं देवकी ब्रह्मा, विष्णु भौर क्ञिव- 
खूप शक्ति दै बहौ भगवान्‌ विष्णुका परमपद 
है ॥ ५६॥ दे सर्वेरवर ! दे सर्वभूतात्मन्‌ ! हे सवं- 
प} हे सर्वाधार! हे अच्युत! हे विष्णो | हम 
भक्तोपर प्रसन्न होकर हमे दथेन द जिये ॥ ५७॥ 





श्रीपराशर उवाच 
इत्युदीरितमाकण्यं ब्रह्णखिदश्चास्ततः । 
प्रणम्योचुः प्रसीदेति वरज नो दृष्टिगोचरम्‌ ।५८॥ 
यन्नायं मवान्‌ बह्मा जानाति परमं पदम्‌ । 
तन्नताः सम जगद्धाम तव सर्वगताच्युत ॥५९॥ 


इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां ब्रह्मणस्तथा | 
उुर्दवणेयस्सवे बृहस्पतिपुरोगमाः ।।६०॥ 
आदयो यज्ञपुमानीच्यः पूर्वेषां यश्च पूर्वजः 
तन्नताः स्म जगत्खष्टुः खष्टारमविरेषणम्‌ ॥६१॥ 
भगवन्भूतमव्येशच  यज्नमृर्तिधरात्यय । 
प्रसीद प्रणतानां खं सर्वेषां देहि दर्शनम्‌ ॥६२॥ 
एष बर्मा सहास्माभिः सदष््रश्िलोचनः । 
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं सहाग्निमिः।६२॥ 
जधिनौ वबसवर्चेमे सरवे चैते मश्ट्गणाः। 
साध्या विश्वे तथा देवा देवेन्द्रधायमीश्वरः ॥8४॥ 
प्रणामप्रवणा नाथ दैतयसैन्यैः पराजिताः। 

शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ता देवतागणाः ।६५॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 

एवं सस्तूपमानस्तु मगवाञ्छद्ुचक्रधरक्‌ । 

जगाम दानं तेषां मैत्रेय परमेश्वरः ॥६६॥ 
तंदषट्रते तदा देवाः शह्ुचक्रगदाधरम्‌ | 
अपूवरपसंस्थानं तेजसां रा्चिमूजितम्‌ ॥६७॥ 
प्रणम्य प्रणताः सर्वे सं्नोमस्तिमितेक्षणाः। 

तष्टवुः पुण्डरीकाक्षं पितामहपुरोगमाः ॥६८॥ 


देवा ऊचुः 
नमो नमोऽविशेषस्त्वंखं ब्रह्मा त्वं पिनाकध्रक्‌ । 


इनद्रस्स्वमश्निः पवनो वरुणः सविता यमः ॥६९॥ 
.वसवो मरुतः साध्या विरवेदेवगणाः भवान्‌ 
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः । 








श्रीपराश्चरजी बोके-त्रह्माजीके इन उदूगारोको 
सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बङे--'श्रमो। 
[व म € ~ भ 
हमपर्‌ प्रसन्न होकर हमे दञ्येन दीजिये ॥५८॥ हे 
जगद्धाम सवगत अच्युत } जिसे ये भगवान्‌ ब्रह्माजी 
भी नहीं जानते, आपके उस परमपदको हम प्रणाम 
करते है || ५९ ॥ 


तदनन्तर ब्रह्मा ओर देवगणोके वो चुकनेषर 
बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कुनै टगे-1) ६० ॥ 
धजो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ-पुरुष दै ओर पूवंजोँ- 
के भीपूवपुरुष दै, उन जगतके रचयिता निर्धिरीष 
परमास्माक्रो हम नमस्कार करते दै | ६१ ॥ हे भूत 
भव्येश्च यज्ञमूर्षिधर भगवन्‌ | हे अत्यय | हम सव 
शरणागत्तौपर आप प्रसन्न होदये ओौर दशन दीजिये 
॥ ६२॥ है नाथ | हमारे सहित ये ब्रह्माजी, शद्रे 
सहित भगव्रान्‌ शंकर, बारहो आदित्योके सहित 
भगवान्‌ पूषा, अग्नियौँके सहित पावक्र आओौरये 
दोनों अ्िनीक्कुमार, आटो बसु, समस्त मश्दूगण, 
साध्यगण, विङ्वेदेव तथा देवराज इन्द्रये सभी 
देचगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणतौ 
आपकी ज्ञरणमें आये हैः? | ६२-६५॥ 

्रीपराशरजी बोले-दे मेत्रेय ¦ इस प्रकार 
स्तुति किये जानेपर श्रह्भ-चक्रघासी भगवान्‌ परमेश्धर 
उनके सम्पुख प्रकट हुए | ६६ ॥ तव उस शद्भूचक्र- 
गदाधारी उ्छरष् तेनोराशिमय अपूव द्विभ्य मूर्तिको 
देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अपि विनय- 
पूवक प्रणामकर क्षोभवकश्च चकित-नयन हो उन 
कमलनयन भगवान्‌की स्तुति करने कगे ॥ ६५७-६८ ॥ 

देवगण बोले--हे प्रभो | आपको नमस्कार हैः, 
नमस्कार दै] आप निर्धिेष ट तथापि भप ही ब्रह्मा 
दै, आपहीखंकर्‌ ह तथाओआपही इन्द्र, अग्नि, 
पवन, वरुण, सूं ओर यमराज है ॥ ६९॥ हे देव । 
वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण ओौर चिङ्वेदेवगण 
मो आप हौ है, तथा आपकर सम्मुख जा यह 


| देवसमुदाय है, हे जगस्खष्टा ! वह्‌ मीआपङ्ाहैः 








स॒ त्वमेव जगत्छष्टा यतः स्वगतो भवान्‌।॥७०॥ 
स्वं यज्ञस्त्वं वपटकारस्त्वमोङ्कारः प्रजापतिः। 
विधया वेयं च सर्वात्मंसस्वन्मयं चाखिरं जगत्‌।॥७१॥ 
त्वामारत्तीः शरणं पिष्णो प्रयाता दैस्यनि्भिताः। 
वयं प्रसीद पर्वासपर॑स्तेजक्षाप्याययस्वे नः ॥७२ 
तावदा्तिस्तथा वाञ्छा तावन्मोहस्तथासुखम्‌ । 
यावन्न याति शरणं स्वामशेषाघनाश्चनम्‌ ॥७२॥ 
त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन्‌ प्रपन्नानां कुरुष्व नः । 
तेजसां नाथ सर्वेषां स्वश्त्याप्यायनं इ₹।।७४॥ 
श्रोपराश्चर उवाच 

एवं संस्तूयमानस्तु प्रणतैरमरैदरिः । 

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प्रसननदृ्टिभिगवानिदमाह स॒ विश्वद्त्‌ ।५७५॥ 
तेजसो भवतां देवाः करिष्याम्युपवृंहणम्‌ । 
, वदाम्यहं यक्कियतां भवद्धिस्तदिदं सुराः ॥७६॥ 
श्ानीय सहिता दैत्यैः ्षीराब्धौ सक्टोषधीः। 
प्रक्षिप्यात्रामृता्थं ताः सकला दैत्यदानवैः ।॥७७॥ 
मन्थानं मन्दरं कृतवा नेत्रं करत्वा च वासुकिमू्‌। 
मथ्यताममृतं देवाः पहाये मय्यवस्थिते ॥७८॥ 
सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र साहाय्यकमंणि | 
सामान्यफरभोक्ताये युयं वाच्या मिष्य \७९॥ 
मथ्यमाने च तव्रान्धौ यत्समुत्पत्स्पतेऽमृतम्‌। 
तत्पानाद्विनो यूयममराश्च मविष्यथ ॥८०॥ 
तथा चाहं करिष्यामि ते यथा भरिदक्षष्ठिषः | 
न प्राप्स्यन्त्यमृतं देवाः केवल क्रेशमागिनः।।८१॥ 

श्रीपराश्चर उवाच । 
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ह्युक्ता देवदेवेन सवं एव तदा सुराः। 
शन्धानमसुरैः कृस्वा यत्नवन्तोऽसृतेऽभवन्‌।८१॥ 
लानोपधीः समानीय देवदैतेयदानवाः । 
किप्त्वा क्षीरान्धिपयसि चरदभ्रामरसिषि ॥८२॥ 


(५ 


क्योकि आप सवत्र परिपणे ह ॥७०॥ अही 
यज्ञ दै, आप हौ वषट्कार है तथा आपह भौकार 
ओर प्रजापति हैँ । हे स्बत्मन्‌ ! विद्या, वेद्य ओर 
सम्पूणं जगत्‌ आपहीका स्वरूप तो हे ।७१॥ हे 
विष्णो ! दैत्योंसे परास्त हुएहम आतुर होकर आप- 
कौ शरणमे आये है; हे स्वस्वरूप ! आप हमर 
प्रसन्न होये ओर अपने तेजसे हमे स्त कीजिये 
॥ ७२ ॥ हे प्रभो ! जवत्तक जीव सम्पू्णै पापोको 
नष्ट करनेवाे आपकी शरणमे नदी जाता तभीतक 
उसमे दीनता, इच्छा, मोह ओर दुःख आदि रहते 
है ।। ७२ ॥ हे प्रसन्नास्मन्‌ । हम स्रणायतोंपर भाप 
प्रसन्न होदये ओर हे नाथ ! अपनी शक्तिस्ते हस सन 
देवताओके [ खोये हुए ] तेजको फिर बद्ाद्ये॥५। 

भरीपराशरजी बोखे-विनीत दैवताओद्रारा इस 
प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकत्त भगवान्‌ हरि 
प्रसन्न होकर इस प्रकार बोरे-॥ ५५॥ हे देवगण । 
मै तुम्हारे तेजको फिर बढर्यगा; तुम इस समये 


| जो कुछ कहता हँ बहू करो ॥७६॥ तुम दैत्योँके साथ 


सम्पूण भओोपधियौँ खाकर अखरतके दिये क्षीर-सागर- 
मे डालो ओर मन्द्राचखको मथानी तथा वासुकि 
नागको नेती बनाकर उसे दैत्य ओर दानबोके सहित 
मेरी.सहायतासे मथकर असत निकारो ॥ ७७-७८॥ 
तुमलोग सामनीतिका अवलम्बनं कर दैत्योँसे कहो 
कि इस कामम सद्टायता करनेसे भआपलोग भी इसके 


फलम समान भाग पायेंगे 1 ७९॥ समुद्रे मथने- 
पर उससे जो अभरत निकलठेगा उसका पान करनेसे 
तुम सबल ओौर अमर दो जाभोगे ॥ ८० ॥ है देव 
गण ! तुम्हारे लिये मै एसी युक्ति करूंगा जिससे 
तुम्हरे द्वेषी दैत्योको अश्रृत न मि सकेगा ओर 
उनके हिस्सेमे केवल समुद्र-मन्थनक्रा क्छे्च ही 
आयेगा ॥ ८१॥ 


श्रीपराश्चरजी बोके-तव देवदेव भगवान्‌ विष्णु- 
के एेखा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके 
अम्रतप्रापधतिफे किये यत्न करने खगे ॥ ८२॥ द 
मैत्रेय ! देव, दानव ओौर देत्योँने नाना प्रकारकी 
ओषधियौ छाकर उन्है शरदू-ऋतुके आकाडको-सी 


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मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्र कत्वा च वाञुकिम्‌। 
ततो मधितुमार्धा भैत्रेय तरतामूतम्‌ ॥८४॥ 
विधुधा; सहिताः सर्षे यतः पुच्छं ततः कृताः । 
कृष्णेन बासुकेदस्याः पू्वकाये निवेदिताः ॥८५॥ 
ते तस्य एखनिःशासवहवितापहतसिषः | 
निस्तेजसोऽयराः स्वे बभूवुरमितौजसः ॥८६॥ 
तेनैव युखनिःासवायुनास्तबलाहकैः । 
पुच्छप्रेशे वर्पद्धिस्तदा चाप्यायिता; सुराः ॥८७॥ 
्षीरोदमध्ये भगवान्कूमरूपी स्वयं हरिः । 
मन्थनाद्रेरधिष्ठानं भ्रमतोऽभून्मदा्ने ॥८८॥ 
रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः । 
चकरपं नागराजानं दैस्यमध्येऽपरेण च ॥८९॥ 
उपर्याक्रान्तवाऽच्छं बृहद्रुपेण कैरवः । 
तथापरेण मैत्रेय यन्न शं सुरासुरैः ॥९०॥ 
तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्दरिः । 
अन्येन तेजसा देवानुप्वृहितवान्प्रथुः ॥९१॥। 
मथ्यमाने ततस्तसिमिनक्षीराब्धौ देवदानवैः । 
हविर्धामाभवतूवं सुरभिः सुरप्‌निता ॥९२॥ 
जग्य्ंदं ततो देवा दानवाश्च महान । 
व्याक्षिप्रयेतसश्चैष बभूवुः स्तिमितेक्षणाः ।९३॥ 
किमेतदिति सिद्धानां दिवि चिन्तयतां ततः। 
बभूव वारुणी देवी मदाघूणितलोचना ॥९४॥ 
कठावर्तात्ततस्तस्मास््ीरोदाद्वासयज्ञगत्‌ । 
गन्धेन पारिजातोऽभूदेवश्नीनन्दनस्तरूः ॥९५॥ 
रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां गणः । 
्ीरोदधेः सन्नो मेत्रेय परमाद्भुतः ॥९६॥ 
ततः शीतांशुरमवजगृहे तं महेश्वरः 
जगृहु विषं नागाः क्षीरोदान्धिसमुस्थितम्‌ ।॥९७॥ 





निमंख कान्तिवाछे क्षीरसागर जर्मे डाटा भौर 
मन्द्राचख्को मथानी तथा वासुकि नागको नेती 
बनाकर बड़े वेगसे अमृत मथना आरम्भ क्रिया 
॥ <३-८४ ॥ मग वान्‌ने जिस भोर वासुकिकी पछ 
थी उसं ओर देवताओंको तथा जिस भोर मुख था 
उधर दैत्योको नियुक्त फिया ॥ ८५॥ मदहतेजस्वी 
वासुकिके सुखसे निकलते हुए निभ्धासागिनिसे ज्ुख्स- 
कर समी दैत्यगण निस्तेज हो गये ! ८६ | ओौर 
उसी श्वास-वायुसे विष्ठिप्र हए मेघोके पूंछठकौ ओर 
बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढती गयी ८७] 

हे महान ! भगवान्‌ स्वयं कूमेरूप धारण कर 
क्षीर-सागरमे घूमते हए मन्द्राचल्के आधार्‌ हुए 
| ८८ ॥ ओौर वे ही चक्र-गदाधर भगवान्‌ अपने 
एक अन्य रूपसे देवताओं ओर एक रूपरसे 
देत्योमे मिलकर नागराजको खींचने खगे थे ॥ ८९॥ 
तथा हे मैत्रेय ! एक अन्य विज्ञा रूपसेजो 
देवता ओर द््योँको दिखायी नहीं देता था, 
श्रीकेश्चवने ऊपरसे पवंतको दबा रखा था ॥ ९० ॥ 
भगवान्‌ श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वाुकिमें 


` | चछका सञ्चार करते थे ओर अपने अन्य तेजसे 


वे देवताओंका बर बदा रहे थे ॥ ९१॥ 


स प्रकार देव्ता ओर दानवोद्रारा क्षीर- 
समुद्रके मथे जानेपर पडे हि ( यज्ञ-साम्री ) की 
आ1श्रयरूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हु ।॥ ९२ ॥ 
हे महायुने ! उस समय देव ओर्‌ दानवगण अति 
आनन्दित हुए ओर उसकी ओर चित्त सिच जानेसे 
उनकी टकटकी बध बयी ॥ ९३ ॥ पिर स्वग 
लोकम "यह क्या है? यह्‌ क्यादै? दस प्रकार 
चिन्ता करते हृए॒सिद्धोके समक्ष मदसे स्लुमते 
हुए नेच्रोँबाढौ वारुणीदेवी प्रकट हु | ९४ ॥ भौर 
पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर-सागरसे, अपनी 
गन्धसे च्रिलोकोको सुगन्धित करनेवाखा तथा सुर- 
स॒न्द्रियोका आनन्दवधेक कल्पचरृक् उत्पन्न हुआ 
| ९५॥ हे मत्रेय ¦ तत्पश्चात्‌ क्षार-सागरसे, रूप 
रौर उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत 
अप्सरा प्रकट हु ।। ९६ ॥ फिर चन्द्रमा प्रकट 
हुभा जिसे महदेवजीने प्रहण फर ख्या 1 इसी 
प्रकार क्षीर-सागरसे उत्पन्न हुए विषको नागमे 





ततो धन्वन्तरदिवः 
विभ्रस्कमण्डलुं पूणेममृतस्य समुत्थितः ॥९८॥ 
ततः स्वस्थमनस्कास्ते स्वँ दैतेयदानवाः । 
वभूवदिताः सर्वे मैत्रेय घुनिभिः सह ॥९९॥ 
ततः स्फुरत्कान्तिमती विकासिकमले स्थिता । 
श्रीदेवी पयसस्तस्मादुद्धता प्रतपङकना ॥१००॥ 
तां त्टुयुषेदा युक्ताः श्रीघठक्तेन महषयः । 
विश्वावसुष्खास्तस्या गन्धर्वाःपुरतो जगुः॥।१०१॥ 
धृताचीप्रषुखास्तत्र ननूतुाप्सरोगणाः । 
गङ्गाद्याःसरितिस्तोयैः स्नाना्थमुपतस्थिरे ॥१०२॥ 
दिग्गजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं नलम्‌ | 
स्नापयाश्चकरिरे देवीं सवंलोकमहेशवरीम्‌ ॥१०३॥ 
क्षीरोदो सपधृक्तस्यै मारामम 
ददौ विभूषणान्यङ्धे विश्वकर्मा पिः 
दिव्यमान्याम्बरधरा स्नाता 


ह ॥१०४॥ 


"०१०१०००० ०००८०००९ 


परयतां सव॑देवानां ययौ वक्षःस्थलं हरः ।१०५॥ 


तया विोक्षिता देवा दखिक्षःस्यटैस्चया । । ; |; 
रम्या मैत्रेय सहसा परां निडति्मगता| 1, 
य 


गं परमं जगत्या विप्णुफाहलाः ।' ^" 
त्यक्ता लच्स्या महाभाग विप्रचितिपुरोगमाः१०७ 
ततस्ते जगरहू्देस्या धन्वन्तरिकरस्थितम्‌ । 
कमण्डलु महावीर्या यत्रास्तेऽगरतयुत्तमम्‌॥१०८॥ 
मायया मोदयिसा तान्विष्णुः खीरूपसंस्थितः। 
दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ प्रभुः ॥१०९॥ 
ततः पपुः सुरगणाः शक्राद्यास्तत्तदामरतम्‌ । 
उद्यतायुधनि्िसा दैत्य स्तां समभ्ययुः ॥११०॥ 


(अ 


५ त्‌ 


ग्रहण किया ॥ ९७ |] फिर इवेतवबख्लधारी साक्षात्‌ 
भगवान्‌ घम्बन्तरिजी अमूृतसे भरा कमण्डलु ल्य 
प्रकट हुए ॥ ९८ ॥ ह मेतरेय ! उस समय सुनिगणके 
सहित समस्त दैत्य भौर दानवगण स्वस्थ-चित्त 
होकर अति प्रसन्न हुए ॥ ९९] 

उसके पश्चात्‌ विकक्षित कमलपर विराजमान 
स्फुट कान्तिमयी श्रीलक्ष्मोदेवो हाथमे कमल- 
पुष्प धारण किये क्षीौर-सभुद्रसे प्रकट हुई ॥ १००॥ 
उस समय महरषिगण अतिं प्रसन्नतापूवेक श्रीसूक्त 
द्वारा उनकी स्तुति करने लगे, विश्वावसु आदि 
गन्धवेगण उनके सम्मुख गाने रगे ॥ १०१॥ घृताची 
आदि अप्सर नस्य करने छगीं । उन्हं अपने जल- 
से स्नान करानेके ल्लिये गङ्खा आदि नदियां स्वयं 
उपस्थित हुई ।। १०२॥ भौर दिगजोनि सुबणे-कलरशो- 
मे भरे हुए उनके निमे जङसे सबेखौकमदहेश्वरी 
भरीलक््मदेवीको स्नान कसया ॥ १०३ ॥ क्षीरसागर 
ने मूर्विमान्‌ होकर उन्हं विकसित कमल-पुष्पोकी 
साखा दौ तथा विश्वकर्माने उनके अङ्धमत्यङ्गमें 
त्रिरथ आभूषण प्रहनाये ॥ १०४॥ इस प्रकार 
दिष्य राला ओर वख धारण कर, दिव्य जसे 


, ह मैत्रेय! श्रीहरिके बश्चःस्थलम विराजमान 
“श्रीरक्ष्मीजीकरे दृष्टिपात करनेसे देवताभोको अक- 
-स्मात्‌ अत्यन्ते प्रसन्नता प्राप्न हु ॥ १०६ ॥ ओर हे 





-मष्टाभाग ¦ लक्ष्मीजीसे परिव्यक्त होनेके कारण 
भगवान्‌ विष्णुके विरोधी विग्रचित्ति आदि दैस्य. 
गण परम उद्विग्न (ग्याङु ) हए ॥ १०७ ॥ तव 
उन महाबलवान्‌ दैव्योने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे 
वह्‌ कमण्डलुं छीन छिया जिसमे अति उत्तम अगत 
भरा हआ था ॥ १०८ ॥ अतः खली ( मोहिनी } खूप- 
धारी भगवान्‌ विष्णुने अपनी मायासे दानर्वोको 
मोहित कर नसे वह्‌ कमण्डलु छेकर देवताओँको 
दे दिया । १०९॥ 

तव इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये; 
दससे दैत्यलोग अति तीचे खङ्ग आदि शक्लौसे 
| सुसज्ित हो उनके उपर ट्ट पड़े ॥ ११० ॥ 





५२ 


श्रीविष्णुपुराण 


[अ० ९ 








पीतेऽमृते च वकिभिरदवदस्यचमूस्तदा । 
वध्यमाना दिसो भेजे पातालं च षिवेश वै॥१११॥ 
ततो देवा षदा युक्ताः श्धचक्रगदाभृतम्‌ । 
प्रणिपत्य यथापूर्व॑माशासत्तलिविष्पम्‌ ।॥११२॥ 
ततः प्रसन्नभाः ष; प्रययौ स्वेन वतना । 
ज्योतींषि च यथामागंप्रययुधुनिसत्तम ।॥११३॥ 
ज्वा भगवांधोच्चेधार्दीिविंमावसुः। 

ध्म च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत ॥११४॥ 
ेरोक्यं च भिया जुष्टं बभूव द्विजसत्तम । 

शक्रश त्रिदशश्रेष्ठ पुनः भ्रीमानजायत ॥११५॥ 
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य तरिदिवं पुनः । 
देवराज्ये स्थितो देवीं वष्टावाज्जकरां ततः ॥११६॥ 

इन्द्र उषयच 

नमस्ये सर्वरोकानां जननीमन्नसम्भवाम्‌। 
भियसुतनद्रपदमाक्षी विष्णुवक्षःस्थरस्थिताम्‌।११५७। 
पद्मालयां पद्रकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्‌ । 

बन्दे प्शसीं देवीं पञमनामग्रियामहम्‌ ॥११८॥ 
त्वं सिद्विस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा सं लोकपावनी । 
सन्ध्या रात्रः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ।११९। 
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने । 
आत्मविद्या च देवि तं विगुक्तिफएरदायिनी।१२०। 


आन्वीक्षिको त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च । 
सौम्यासौमयैनगदस्ववैतदूवि पूरितम्‌ ॥१२१॥ 





किन्तु अमत पानके कारणा बलवान्‌ हुए देवताओं- 
दवारा मासी-काटी जाकर दैत्योको सम्पूणं सेना 
दिश्चा-विदिस्ाओंम भाग गयी ओर कुछ पाताटलोक- 
मं भौ चरी गयी ॥ १११ ॥ फिर देवगण प्रसन्नता- 
पूवक शद्क-चक्र-गदा-धारी मगवानुको प्रणाम कर 
पहरेहीके समान स्वगेका शासन करने रगे ॥११२॥ 


हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त 
भगवान्‌ सूयं अपने मागसे तथा अन्य तारागण भी 
अपने-अपने मागंसे चलने छग ॥ ११३ ॥ सुन्दर 
दीरि्ञाछी भगवान्‌ अग्निदेव अस्यन्त प्रज्वलित हो 
उठे ओर उसी समयसे समस्त प्राणियोकी धमं 
प्रवृत्ति ह्यो गयी । ११४ ॥ हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी 
श्रीसम्पन्न हयो गयी भौर देवताभोम भ्रष्ठ इन्द्र भी 
पुनः श्रीमान्‌ हो गये ॥ ११५॥ तदनन्तर इन्द्रन 
स्वगंखोकमे जाकर फिरसे देव राञ्यपर अधिकार 
पाया ओर राजर्विहासनपर आर्द्‌ हो पद्महस्ता 
श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की ॥ ११६॥ 


इन्द्र बोरे--सम्पूणं लोकोकी जननी, विकसित 
कमख्के सदृ नेवौवाली, भगवान्‌ विष्णुके वक्षः 
स्थल्मे विराजमान कमदोद्धवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मेँ 
नमस्कार करता हँ ॥ ११७॥ कमल ही जिनका 
निवासस्थान है, कमल ही जिनके कर-कमरोमे 
सुशोभित है तथा कमल-द्ख्के समान ही जिनके 
नेच्र है चन कमदमुखी कमख्नाभ-प्रिया भ्रौकमला- 
2499 वन्दना करता हँ ॥ ११८ ॥ हे देवि । 
त॒म सिद्धि हौ, स्वधादहो, साहा, सुधा दहो ओौर 
त्रिछोकीको पवि करनेवाी हो तथा तुम ही 
सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा ओर 
सरस्वती हो ॥ ११९ ॥ हे शोभने ! यज्ञविधा 
८ कर्मकाण्ड ), महाविद्या ( उपासना ) ओर गुह्य 
चिद्या (इन्द्रनार ) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तु्दीं 
मुक्ति-फर-दायनी आत्मविद्या दहो ॥ १२० ॥ हे 
देवि ! आन्बीक्षिकी ( तकंविद्या ), वेदत्रयी, वार्त 
८ चिल्प.बाणिज्यादि ) ओर दण्डनीति ( राजनीति ) 
भो तुम्हीं हो । वुम्हीने अपने शन्त ओर इन्र रूपो 
से इस समस्त ससारको व्याघ्र करर है ॥१२१॥ 


----------~~----------------------------------~---"---~------------ - ` 








्रध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ।१२२। 
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं युवनत्रयम्‌ । 
विनष्टमरायममवन्वयेदानीं समेधितम्‌ ॥१२२॥ 
दाराः पूत्रास्तथागारुहृद्धान्यपनादिकम्‌ । 
भवत्येतन्महाभागे निरयं खद्ीक्षणान्तृणाम्‌। १२४, 
सुखम्‌ ] 

देवि खद्षृषटदशाना पुरषाणां न दुमम्‌॥ १२५) 


शरीरारोभयमैश्वयंमरिपक्षक्षयः 


सं माता सर्वहोकानां देवदेयो हरिः पहा । 
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्‌ व्याप्तं चराचरम्‌ १२६ 
मानःकोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम्‌ | 

मा शीर कलग्रं च त्यजेथाः सव॑पावनि ॥१२७॥ 
मा पुत्रान्मा सहृढगं मा पदुन्मा विभूषणम्‌ । 
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोवंक्षःस्थलाहये। १२८। 
सत्वेन सस्यशचौ चाभ्यां तथा शीछादिमि्ुणेः । 
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यःसन्त्यक्ता ये तयामके१२९ 
स्वया परिलोकिताःपचःशीलाचैरसिलेयुणेः। 
दुरेव च युज्यन्ते पुरुपा निरयुणा पि ॥१३०॥ 
स श्ाध्यः स्र युणी धन्यः स॒ लीनः स बुद्धिमाच्‌। 
स शूरः स च विक्रान्तो यस्स्वया देवि वीक्षित; १३१ 
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीटाचाःसकरा गुणाः। 
पराद्गुसी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवन्लमे॥ १३२॥ 
न ते व्णयितुं शक्ता गुणाञ्िहापि वेधसः। 

प्रसीद्‌ देवि पद्माक्षि मास्मास्त्याक्षो; कदाचन ॥ 








देवदेव भगवान्‌ गदाधरफे योगिजनचिन्तित सवे- 
यज्ञमय सरोरका आश्रय पा सके ॥ १२२॥ हे 
देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूणं त्रिलोकी नषटप्राय 
हो गयी थी; अव वुम्हीने उसे पुनः जीवन-दान 
दिया है ॥ १२३ ॥ हे महामये! खी, पुत्र, गृह 
धन, धान्य तथा सद्‌ ये सब सदा आपहीके 
टृष्टिपातसे मनुभ्योको मिरते है ।॥ १२४ ॥ हे देवि ! 
तुम्हारी कृपा-रष्टिके पात्र पुरुषोके लिये क्चारौरिक 
आरोग्य, रे्यं, शचर-पक्षका नाच भौर सुख आदि 
कुछ मी दुभ नही ह ॥ १२५॥ तुम सम्पूणं छोकों- 
की माता हो खौर देवदेव भगवान्‌ हरि पिता है । 
हे मातः! तुमसे ओर श्रीविष्णुभगवानसे यह 
सकल चराचर जगत्‌ व्याघ्र दै ॥ १२६ ॥ दे सवं- 
पावनि मतिश्वरी ! हमारे कोक्च ( खजाना ), गोष्ठ 
( पञ्च-शाखा ), गृह, भोगसामग्रौ, खरौर ओरस्री 
दिको आप कमी न त्याने अथौत्‌ इनमे भरपूर 
रह ॥ १२७॥ अयि विष्णुवक्षःस्थरनिवासिनि ! 
हमरे पुत्र, सुद्‌, पलु भौर भूषण आद्रिको जप 
कभी न छोडं ।। १२८ ॥ दे अमले ! जिन मनुष्योको 
तुम छोड़ देती हो छन्द सत्त्व ( मानसिक ब ) 
सत्य, श्लौच भौर ज्ञीठ आदि गुणभी क्लीघ्र ही स्याग 
देते है ॥ १२९॥ ओर तुम्हारो कृपा-दष्टि होनेपर तो 
गुणन पुरुष मो शीघ्र ही शर आदि सम्पूणं गुण 
ओर्‌ कुलीनता तथा देव्य आदिसे सम्पन्न हौ जाते 
रे ॥ १३० ॥ है देवि ! जिसपर वुण्हाी कृपादृष्टि है 
वही प्रश॑सनीयषहै, बही गुणी है, बही धन्यमाग्य 
है, बह कुलीन भौर बुद्धिमान्‌ ह तथा बही श्ुरवीर 
आर पराक्रमी है ॥ १३१॥ हे विष्णु्रिये ! हे जग- 
जननि ! तुम जिससे विशुख हो उसके तौ ज्ञो आदि 
सभी गुण तुरंत अवगुणरूप हो जति द ॥ १२२॥ 
देवि } तुम्हरे गुणका वणेन करने तौ श्रीब्रह्माजीकी 
रसना भी समथं नहीं है । [फिर मैं क्या कर सक्ता 
हूं १] अततः हे कमलनयन } अव मुद्पर प्रसन्न हौ 


ओर मञ्चे कभी न छोडो ॥ ५३३॥ 


भ्रीपराञ्चर उवाच 
एवं श्रीः संस्तुता सम्पक्‌ प्राह देवी शतक्रतुम्‌ । 
शृण्वतां सर्वदेवाना सर्वभूतस्थिता दविज ॥ १३४॥ 
श्रीरुवाच 
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे । 
व्रं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता ॥१३५॥ 
दन्द्र उवाच 
वरदा यदि भे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम्‌ । 
्ेलोकयं न खया त्याञ्यमेप मेऽस्तु वरः प्र, १२६। 
स्तोत्रेण यस्तथेतेन ला स्तोष्यत्यव्िसम्भवे। 
स॒ त्वया न परित्यान्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम १३७ 
श्रोरुवाच 
वरेरोकयं विद्रे न सन्त्यच्यामि वासव । 
दत्तो वयो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया ।१३८। 
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः। 
मौ स्तोष्यति न तस्यां मविष्यामि प्राइद्ी १३९ 
श्रीपराञ्चर उवाच 
एवं ददौ षरं देवी देवराजाय वै पुरा । 
मत्य शरीपहामागा स्तोत्राराधनतोपिता ॥१४०॥ 
मृगो; स्यात्यौ सष्ुतपन्ना श्रीः पू्युदधेः एनः । 
देवदानवयत्नेन प्रघूतागृतमन्थने ॥१४१॥ 
एवं यदा अगत्छामी देवदेवो जनार्दनः | 
अवतार करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सदायिनी । १४२] 
पुन पश्चादुसपन्ना आदिस्योऽभूदयदा हरिः। 
यदातु मागेवो रामस्तदाभूदररणी लियम्‌॥१४२॥ 
राघवत्वेऽभवत्सीता रुषिमणी दृष्णजन्मनि । 
न्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी | १४५॥ 








श्री परक्षारजी बोले-हे द्विज} इस प्रकार 
सम्यक्‌ स्तुति किये जानेपर सवेभूतस्थिता श्रीकक्ष्मी- 
जी सव देवताओके सुनते इए इन्द्रसे इस प्रकार 
बोलीं || १३४॥ 

श्रीरक्ष्मीजी बोी- हे देवेरवर इन्द्र ! मै तेरे इस 
स्तोत्रसे अति प्रसन्न; तु्चको जो अभीष्टहो बही 
वर मँगले। मै तुक्षे वर देनेके लिये ही यँ भयी 
हुं ॥ १३५ ॥ 

दन्र बोरे हे दैवि) यदि आप वर देना 
चाहती हैओौरमे मी यदि वरपने योग्यहूतो 
मुद्चको पहला घर तो यही दीजिये कफिंआप इस 
त्रिलोकीका कभी व्याग न करें ॥ १३६॥ ओर दहे 
समुद्रसम्भवे } दूसरा वर मुद्चे यह दजियेकिजो 
कोई आपकी इस स्तौत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी 
न त्यागं ॥ १३७ ॥ 


श्रीलक्ष्मीजी बोरी -दे देवश्ेष्ठ इन्द्र ! मै अव 
इस त्रिछोकीको कभी न छोडगी । तेरे स्तो्रसे 
प्रसन्न होकर मँ तुचे यह वर देती हँ | १३८ ॥ तथा 
जो कोई मनुष्य प्रात्तःकाढ ओर सायंकार्के समय 
इस स्तोच्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भौं कभी 


विमुख न होगी ॥ १३९ ॥ 


श्रीपराद्रारजी बोले-हे भेत्रे ! इस प्रकार पूं 
काठमे महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोच्ररूप 
आराधनासे सन्तुष्ट होकर उन्हे ये बर दिये ॥ १४० ॥ 
लक्ष्मीजी पदे भ्रगुजीके हारा स्याति नामक सीसे 
उत्पन्न हु थीं फिर अमृत-मन्थनकरे समय देव शौर 
दानवोंकै प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हुईं १४१ 
इस प्रकार संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीषिष्णु- 
भगवान्‌ जब-जब अवतार धारण क्रते ह तभी 
लष्टमीजी चनके साथ रहती है ॥ १४२ ॥ जब श्री- 
हरि आदि्यरूप हृए तो वे पद्यसे फिर उत्पन्न हुई 
[ ओर पद्मा कहकायीं ] तथा जब वे परजाम हप 
तो ये प्रथिवी हु ॥। १४३ ॥ श्रीहरिकै राम होनेपरये 
सीताजी हृदं ओौर कृष्णावतारे श्रीरुकिमणीजी 
हृदं । इसी प्रकार अन्य अवतायोमे भी ये भगवानूसे 
कभी प्रथक्‌ नहीं होतीं । १४४ ॥ 


__ ____-_--------~-~-~-~--~-~-~-~-~---~~ ~~~ ~~~ 








देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मादुषी | 
विष्णोर्दहालुरूपां वै करोव्येषालसनस्तुभ्‌ ॥ १४५॥ 
यदचैतन्छणुयाञ्जन्म रुदम्या यचच पठेबरः। 

श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यायल्छरत्रयम्‌ । १४६। 
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिने । 
रलचमीः कलहाधारा न तेष्यास्ते कदाचन॥। १४७ 
एतत्ते कथितं ब्रहमन्यन्मां तं परिप्च्छसि । 





्ीरान्धौ श्रीयंथ। जाता पूवं भृगुसुता सती॥ १४८॥ 

शति सकलविभूरयवा्षिहेतः । 
स्तुतिरियमिन्द्रयुसखोद्गता हि रक्म्याः | 

अनुदिनमिह प्यते दृभिरथे- 

वसति न तेषु कदाचिदप्यलरपीः ॥१४९॥ 


मगवान्‌कै देवसू होनेपर ये दिव्य रासीर धारम 
करती दै ओौर मघुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट 
होती दे। विष्णुभगवानूके रीर अनुरूष हीये 
अपना सीर भो बना ठेी है ।। १९५ ॥ जो मनुष्य 
लक््मीजीके जन्मकी इस कथाका सुनेगा अथवा 
पेगा उसके घम्म [ ब्तंमान, आगमौ जोर भून | 
तीनों छृलोके रहते हप कभी लक््णाकरा नाद्य न 
होगा ॥ १४६ ॥ हे सने ! जिन घरमे ट्म जीके 
दस स्तोत्रका पाठहोता है उनमें कछदक्ो आधार 
भूना दरिद्रता कभी नहीं ठदर सकती ॥ १४७ ॥} हे 
ब्रह्मन्‌ ! तुमने जो सुद्चसे पृष्ठा था कि पदर श्रगुजौ- 
की पुत्रो होकर फिर लक्ष्माज्ञा क्षौर-समुद्रसे केसे 
उत्पन्न हृद सो यैने तुमसे यह सन वृन्ताम्न कह 
दिया ॥ १४८॥ इस प्रकार हन्द्रकै मुखसे प्रकट 
हु यह लक्टमीजीकौ स्तुति मकर विभूगियोौकी मा्नि- 
का कारण दहे, जो छाग इसक्रा नित्यप्रति पाट 
करेगे उनके घरमे निघसता कभी सष्ठ गह सकेगी 
।| १४९ ॥ 


---+ "न - 


हृति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमे.ऽदौ नवमोऽध्यायः | ९ ॥। 


द, 9/५ 


दसर्वो अश्याय 


भृगु, अग्नि ओर अग्निष्वात्तादि पितसेकी सन्तानका वणेन 


श्रामेत्रेय उवाच 


कथितं मेत्वया सवं यरपृषटोऽभि मया षने । 

भृगुसमगासमूस्येष सर्गो मे कथ्यतां पुनः ॥ १॥ 
श्रीपराश्चर वाच 

भृगो; ख्यात्यां सथ्ुस्पन्ना रक््मर्विष्णुपरि्रः। 

तथा धातृविधातारौ ख्यात्यां जातो सुतो भृगोः .२। 

ग्रायति्नियतिश्चेव मेरे; कन्ये महासमनः। 

भार्य धातृविधात्रोस्ते तयोर्जातौ सुतावुभौ ॥ ३॥ 

प्राणदयेव सकण्ड्श्च माक॑ण्डेयो मूकण्डुनः। 

ततो वेदरिरा जज्ञ प्राणस्यापि युतं मृणु।॥४॥ 





श्रीभै्रेयजी वोले--हे मुने! नने भापसे जौ 
कुछ पठा था बह सव आपये वर्णेन करिया; 
अव भ्रगुनीकी सन्तानसे टेकर सम्पूणं सूएका आप 
मुद्यसे फिर वणेन कौजिये ।॥ १॥ 


श्रीपराश्रजी बोरे-श्रगुजीक द्वारा ख्मातित्ते 
विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी ओर धाना, विधाता नामक 
दो पुत्र उतपन्न हए । २॥ महात्मा मेका आयति 
ओर नियति नाम्नी कन्याप घाता ओर विधानाकी 
सियो थी; नसे उनके प्राण ओर मृकण्डु नामकनौ 
पुत्र हु । मुकण्डुसे साकण्डेय ओर चने वेदृ्चिराका 
जन्म हुआ) अवर प्राणका सन्लानश्टा 
सुनो ॥ ३-४॥ 


सणन 











प्राणस्य धुतिमान्पुत्रो राजवांश्च ततोऽभवत्‌ । 

ततो वंशो महाभाग विस्तरं मार्गवो गतः॥ ५ 
पत्नी मरीचे; सम्भूतिः पौणमासमघयत । 
पिरलाः पवतश्चैव तस्य पुत्रौ महात्मनः ॥ ६ ॥ 
वंश्चसंकीरतने पूत्रान्वदिष्येऽहं ततो द्विज । 
स्मृतिशाङ्धिरसः पल प्रता कन्यकास्तथा ॥ ७ ॥ 
सिनीवाटी इुह्चेव राका चानुमतिस्तथा । 
द्यनद्यया तथैवात्र जे निष्कल्मषान्‌ सुतान्‌ ॥ ८ ॥ 
सोमं दुरघाससं चैव दत्तात्रेयं च योगिनम्‌ । 
प्रीसयां पुरस्त्यमार्यायां दततोहिस्तस्मुतोऽभवत्‌।९। 
ूर्लन्मनि योऽगस्त्यः स्मृतः स्वायम्ुवऽन्तरे। 
कर्दमधोर्वरीयांथ॒ सहिष्णु सुताच्चयः ॥१०॥ 
षमा त॒ सुपुवे भायां परहस्य प्रजापतेः । 
क्रतोश्च सन्ततिर्भायां वारखिल्यानध्रयत ॥११॥ 





पष्टपत्रसहख्ाणि युनीनामूष्व॑रेतसाम्‌ । 
अङ्गषटप्वमात्राणां ज्वलद्धास्करतेजसाम्‌ ॥१२॥ 
ऊर्जायां तु वसिष्ठस्य सप्राजायन्त वै सुताः 





रजो गोत्रोद्ष्वेवाहुश सवनथानषस्तथा ॥१३॥ 
सुतपाः शुक्र इत्येते सँ सपर्षयोऽमलाः। 
योऽसावग्न्यभिमानी स्याद्‌ ब्रह्मणस्तनयोऽग्रन;१४ 
तसमारसवाहा सुरतन्लिमे भ्रीनुदारीजसो द्विज । 
पावकः पवमानं तु बुचिं चापि जलारिनम्‌। १५॥ 
तेषां त॒ सन्ततावन्ये चखारिभिचच पश्च च| 





कथ्यन्ते वह्मयश्चेते पिता पुत्रत्रयं च यत्‌ ॥१६॥ 
एवमेकोनपश्वाशद्रहयः परिकीतिताः। 
पितरो बह्मणा स॒ष्टा व्याख्याता ये मया दज । १७॥ 


अग्निष्वात्ता वहिषदोऽनग्नयः साभ्रयश ये। 
तेभ्यः स्वधा सुते जके मेनां वै धारिणीं तथा ॥१८॥ 


प्राणका पुत्र द्य॒तिमान्‌ ओौर उसका पुत्र राजवान्‌ 
हज । हे महाभाग } उस राजवानसे फिर भगु 
वंरका बड़ा विस्तार हु ॥ ५॥ 

मरीचिकौ पत्नी सम्भूतिने पौणेमासको इ्यन् 
किया! उस महात्माके विरजा ओर पवेत दो पुत्र 
थे ॥ ६॥ हे द्विज ! उनके वंराका वणेन करते समय 
मँ उन दोनोंकी सन्तानका वणन करूंगा । अङ्गि 
राकी पर्नी स्मरति थी । उसके सिनीवारी, कुहू, राका 
सौर अनुमति नामकी क्यार हई । अच्रिको भाया 
अनसूथाने चन्द्रमा, दुबांसा ओर योगी दत्तत्रेय 
हन निष्पाप पुत्रोको जन्म दिया। पुलस्स्यकौ सी 
प्रीतिसे दत्तोलिका जन्म हआ ॥ ७-९॥ जो अपने 
पूं जन्मभे स्वायम्भुव मन्वन्तरमें अगस्त्य कहा 
ज्ञाता था} प्रजापति पुख्फी पत्नी क्षमासे कदम, 
उवंरीयान्‌ जओौर सहिष्णु-ये तीन पुच्र हुए । क्रतुकी 
सन्तति नामक भायौने अंँगूटेके पोरुओके समान 
लरीरवाे तथा प्रखर सू्यके समान तेजस्वी बाल- 
खिल्यादि साठ हजार उध्वंरेता मुनियोंको जन्म 
दिया 1 १०-१२॥ वसिष्ठकी ऊज नामको खीसे रज, 
गोचर, उध्वंबाहु, सवन, अनव, सुतपा ओर दके 
ये सात पुत्र उत्पन्न हुए । ये निमल स्वभाववष्े 
समस्त मुनिगण [ तीसरे मन्वन्तरमें ] सप्तर्षि हृए। 


हे द्विज ! अग्निका अभिमानी दैव, जो ब्रह्माजी- 
का स्येष्ठ पुत्र है, उसके द्वारा स्वाहा नामक पर्नीसे 
अति तेजस्वी पावक, पवमान ओौर जखको भक्षण 
करनेवाङा श्ुचि-ये तीन पुत्र हुए ॥ १३-१५ | इन 
तीनों [ प्रव्येकके पंद्रह-पंद्रह पुत्रफे क्रमसे। 
पैतालौस सन्तान हुई । पिता अग्नि ओौर उनके तीन 
पुत्रको मिराकर ये सब भग्नि ही कहलाते हैँ । इस 
प्रकार कुर उनचास (४९ ) अग्नि के गयेदै। ह 
द्विज ! ब्रह्माजीद्वारा र्वे गये जिन अनग्निक अग्नि- 
ष्वात्ता ओर साग्निक वर्हिंषद्‌ आदि पितसरोके विषय 
मे तुमसे कहा था उनके द्वारा स्वधने मेना ओर 
धारिणी नामक दो कन्यां उन्न कीं ।। १६-१८॥ 








ते उभ ब्रह्मवादिन्यौ योगिन्यावष्युमे हिज । 

र. ५ ^ तै ¢ = 
उत्तमज्ञानसम्पन्ने सवः सथुदितेगुणेः ॥१९॥ 
इत्येषा दक्षकन्यार्ना कथितापत्य्न्ततिः | 
भद्धावान्संस्मरन्नेतामनपत्यो न जायते ॥२०॥ 


वे दोनों ही उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न भौर सभी गुणोंसे 
युक्त ब्रह्मवादिनी तथा योगिनी थीं ॥ १९॥ 
इस प्रकार यह्‌ दक्षकन्याओंकौ वंद्परस्पराका 


वणेन किया। जो कोई श्रद्धापूवंक इसका स्मरण 
करता है वह निःसन्तान नहीं रहता ॥ २०॥ 


++ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथभेऽरे दशमोऽध्यायः ।| १० ॥ 


५११9 ७५४५. 


ग्यारहर्वोँ अध्याय 
ध्नवका वनगमन ओर मरीचि भादि ऋषियोसे भैर 


श्रीपराशर उवाच 
प्रियव्रतोत्तानपदो मनोः स्वायंय्ुवस्य तु । 


द्रौ त्रौ तु महावीर्यौ धर्मज्ञो कथितौ तव ॥ १॥ । 
तयोरुत्तानपादस्य सुरूयाय॒त्तमः सतः । 





अभीष्टायामभूद्बह्मन्पितुरत्थन्तवन्लमः ॥ २॥ 
सुनीतिर्नाम या रात्नस्तस्यासीन्म्हिषी द्विज । 
स नातिप्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या धरुवः सुतः । ३॥ 
राजासनस्थितस्याङ्क' पितु्रातरमाधितम्‌ । 


ुषटत्तमं धरुबशक्रे तमारोदुं मनोरथम्‌ ॥ ४॥ 
्रसयक्षं भूषतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत । 
प्रणयेनागतं पृत्रघुतसङ्गारोहणोत्सुकम्‌ ॥ ५॥ 
सपत्नीतनयं दृष्ट्रा तमद्कारोदणोलसुकम्‌ । 
स्वपुत्रं च तथारूदं सुचि्वाक्यमव्रवीत्‌ ॥ ६ ॥ 
क्रियते किं ब्धा वत्स महानेष मनोरथः । 
अन्यञ्चीग्भेजातेन हम्भूय ममोदरे ॥ ७ ॥ 
उत्तमोत्तसमप्राप्यमविवेको दि वाञ्छसि । 
सत्यं सुतस्तरमप्यस्य फिन्तुन तं मयाधृतः॥ ८॥ 





एतद्राजासनं सर्वभूमृर्ंश्रयकेतनम्‌ । 
योग्यं मनैव पुत्रस्य किमार्मा क्रियते तया ॥ ९॥ 


श्रीपराशरजी बोले-हे मेतरेय ! मैने तुद 
स्वायम्भुवमलुके प्रियव्रत एव उत्तानपाद्‌ नामक दो 
महाबलवान्‌ आओौर धमंज्ञ पुर बतलाये थे ॥ १॥ 
हे ब्रह्मन्‌ ! ठनभेसे उत्तानपादकी प्रेयसी पतनी 
खरुचिसे पिताका अत्यन्त छाडला उत्तम नामक पुत्र 
हा ।॥२॥ हे द्विज | उस राजाक्री जो सुनीति 
नामकी राजमहिषी थी उसमे उसका विरोष प्रम 
न था । उसका पुत्र ध्रुव हआ ॥ ३॥ 


एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी 
गोदमें अपने माई उत्तमको बैठा देख रू वकी इच्छा 
भो गोद बैठनेकी हई ॥४॥ किन्तु राजान 
अपनी प्रेयसो सुरुचिके सामने, गोदमे चद्नेके लिये 
उत्कण्ठित होकर प्रेमवश्च आये हुए उस पुत्रका आद्र 
नदीं किया ॥ ५॥] भपनी सौत्तके पुत्रको गोदमें 
चदनेके लिये उत्सुक ओर अपने पुत्रको गोदभे बैठा 
देख सुरुचि इस प्रकार कनेः रगी--1। ६ ॥ “अरे 
ल्ह्ला } बिना मेरे पेटसे उसपन्न हुए किसी अम्य ख्ीका 
पुत्रहयोकर भीत्‌ व्यथं क्यों एेसा बड़ा मनोरथ 
करता है १॥७॥ तू अविवेकी दहै, इसील्यि एेसी 
अभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा कर्ता है । यह 
ठीकहै कितूभी इन्दं राज्ञाका पुत्रहै, तथापि 
शैने तो त॒क्षे अपने गभभे धारण नहीं किया । 
|| ८॥ समस्त चक्रवर्तीं राजा्ओंका आश्रयरूप 


यह राजसि्ासन तो मेरे ही पुष्रके योग्ये; त्‌ 
व्यर्थं क्यों अपने चिन्तको सन्ताप देता है १॥ ९॥ 


उच्चैमनोरथस्तेऽयं मसूत्रस्येव विः बथा | 
सुनीत्यामात्मनो जन्य कि तया नावगम्यते | १०। 
श्रीपराशर उवाच 

उत्स्य पितर्‌ बालस्तच्छतया मात मापितम्‌। 

जगाम पितो मातुनिजाया दविज मन्दिरम्‌ | ११॥ 

तं दुष्ट पितं पु्रमीपलपरस्फुरिताधरम्‌ । 

सुनीतिरङमारोप्य मेतरयेदमभापत ॥१२॥ 

वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च सवां नाभिनन्दति । 

कोऽवज्ानाति पितरं वत्स यस्तेऽपराध्यति ॥१३॥ 
. श्रीपसद्चर उवाच 

इत्युक्तः सकर मात्रे कथयामास तद्यथा । 

सुरुचिः प्राह भुपालग्रतयक्षमतिगर्विता ॥१४॥ 

विनिशशस्येति कथिते तस्मिन्ुत्रेण दुर्मनाः । 

श्वासक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाकयमत्रवीत्‌।। १५॥ 

सुनीतिरुवाच 
सुरुचिः सत्यमादेदं मन्दमाग्योऽसि पुत्रक 
न हि पुण्यवतां वर्स सपलैरेवुच्यते ॥१६॥ 


नोद्धेगस्तात कततम्यः कृतं यद्धवता पुरा | 
तत्कोऽपहत्तुं शक्नोति दातु कथाकृतं तया | १७ 
तच्चया नात्र क्त्यं दुःखं तदवाक्यसम्भवम्‌। १८॥ 
राजासनं राजच्छ््रं वराश्चवरवारणाः | 

यस्य पुण्यानि तस्यते मद्वैतच्छास्य पुत्रक । १९॥ 
अन्यजन्मकृतैः पुण्यः सुरुनयां सुरुचितरपः। 
भायेति प्रोच्यते चान्या मदिधा पुण्यवनित।२०॥ 
पृण्योप्चयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः । 

मम पुत्रस्तथा जात स्वल्पपुण्यो प्रवो भवान्‌॥२१॥ 
तथापि दुखं न भवान्‌ कनुंमहैति पत्रक । 

यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः ॥२२॥ 





मेरे पुत्रके समान तुञ्े वरध ही यह्‌ ऊंचा मनोरथ 
क्योहोतादहै१क्यातू नहीं जानता कि तेरा जन्म 
स॒नीतिसे हुआ है" ॥ १० ॥ 

श्रीपयश्चरजी बोले--हे हिज ! विमाताका एसा 
कृथन युन वह्‌ बारूक कुपित हो पिताको छोड़कर 
अपनी माताके महर्को चल दिया ॥१९१॥ हे मैत्रेय ! 
जिसके ओष्ठ कुकु कौप रहे थे एेसे अपने पुत्रको 
क्रो धयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमे बिठाकर पृषठा-- 
॥ ९२॥ “बेटा ! तेरे क्रोधका क्या कारण दहै ¶ तेरा 
किसने आद्र नहीं किया ? तेरा अपराध करके कौन 
तेरे पितताजीका अपमान करने चछा है १" ॥ १३॥ 


श्रीपराशरजी बोले फेस! पृष्ठनेपर ध्रुबने अपनी 
मातासे वे सब बातें कद्व दीं जो अति गर्वीली 
सुरुचिने उससे पिताके सामने कहौ थीं ॥ १४॥ 
अपने पुत्रके सिसक-सिसककर एेसा कहनेपर दुःखिनी 
सुनीतिने लिन्नचित्त भौर दीघं निभ्यासके कारण 
मङिनिनयना होकर कदा ॥ १५॥ 


सुनीति बोल्ी- बेटा ! सुरुचिने ठीक ही कहा 
है, अवकश्यहोतू मन्दभाग्य है। हे वत्स! पुण्य 
वानोँसे उनके विपक्ष) देसा नहीं कह सकते ॥ १६ ॥ 
बच्चा ! तू व्याल मत हो, क्योकि तूने पूवंजन्मोमे 
जो कुछ फिया दहै उसे दूर कौन कर सकता दै! 
ओर जो नहीं किया वह्‌ तुक्च दे भी कौन सकता 
हे १ इसि तुश्चे उसके वाक्योँसे खेद नदीं करना 
यादिये ॥ १७-१८ ॥ बेटा ! जिसका पुण्य होता 
है उसीको राजासन, राजन्छन्र तथा उत्तम-उत्तम 
घोडे ओर हाथी आदि मिते है-ठेसा जानकर तु 
ल्यान्त हयो जा ॥ १९॥ अन्य जन्मोमे कथि हुए 
पुण्य-कर्मकिं कारण् ही सुरुचिमे राजाकौ सुरुचि 
( प्रीति ) है ओौर पुण्यहीना होनेसे ही सुश्च-जैसी 
खी केवर भाया (भरण करने योग्य ) ही कही 
जाती है ।॥ २०॥ उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम 
मी बड़ा पुण्यपुञ्सम्पन्न है ओौर मेरा पुत्रत्‌ 
भ्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान्‌ इ्पन्न हज है 
॥[२१॥ तथापि, बेरा ! तुचे दुखी नहीं होना चाहिये, 
क्योकि जिस मनुष्यको जितना मिखूता है वह 
अपनी उतनी १? पंजी मग्न रहता है| २२ 





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यदि ते दुःखमत्यथं सुरूप्या वचसामवत्‌ । 
ततुण्योपचये यत्नं इर सर्वंफरप्रदे ॥२३॥ 
सुशरो भव धर्मास्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः। 


निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः २४॥ 


ध्रुव उवाच 
सम्ब यक्वमिद्‌ प्रास्य प्रशमाय वचो मम । 
नैतद्‌दुषेचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति ॥२५॥ 
सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम्‌ 


स्थानं प्राप्स्यास्यकेपाणां जगतामभिपूजितम्‌। २8। 


सुरुचिर्दयिता राज्गस्तस्या जातोऽस्मि नोदरात्‌। 

प्रभावं परय मेऽम्ब स्वं बद्धस्यापि तवोदरे ॥२७॥ 

उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया। 

स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत्‌॥२८॥ 

नान्यदत्तमभीप्सामि स्थानमम्ब स्क्मणा। 

इच्छमि तदहं स्थानं यन्न प्रापपिता मम।२९॥ 

श्रीपराङार उवाच 

निजंगाम मृहान्मातुरितयुक्तवा मातरं भर्‌ बः। 

पराच निर्गम्य ततस्तद्वा्योपयनं ययौ ॥२०॥ 

स ददश एनीस्तत्र सप ूरवागतान्पर वः । 

कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान्‌ ॥३१॥ 

स॒राजयुत्रस्तान्सर्वान्प्रणिपत्याम्यमापत । 

्रध्रयावनतः सम्यगमभिवादनपू्धकम्‌ ॥३२॥ 
ध्रुव उवाच 

उत्तानपादतनयं मां निषोधत सत्तमाः । 


ओर यदि सुरुचिके वाक्योसे तुश्चे अत्यन्त दुख ही 
हृ है तो सर्वंफलदायक पुण्यके संग्रह करनेका 
प्रयत्न कर ॥ २३॥ तू सुर्षील, पुण्यास्मा, प्रेमी ओर 
समस्त प्राणियोका हितैषी बन, क्योकि जैसे नीची 


भूमिकी ओर ठलकता हज जक अपने-आप ही पात्र 
मे आ जातादहे वैसे ही ससत्र मरु्यके पास स्वतः 
ही समस्त सम्पत्तियां आ जाती है ॥ २४॥ 


ध्र च बोके- माताजी ! तुमने मेरे चिन्तको शान्त 
करनेके छिये जो बात कही है वह्‌ दुर्वाक्योसे विधे 
हृए मेरे हृदयम तनिक भी नहीं ठदरती ॥ २५॥ 
इसलिये भँ तो अव वही प्रयसन करूंगा जिससे 
सम्पूणं लोकोसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर 
सकं २६ ॥ राजाकौ प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि दी 
दै ओर मैने उसके उद्रसे जन्म भी नहीं छिया है, 
तथापि हे माता} अपने गमे बहे हुए मेरा प्रभाव 
भी तुम देखना ॥ २७ उत्तम, जिसको उसने अपने 
ग्म धारण किया है, मेरा भाई ही है । पितताका 
दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । [भगवान्‌ करे] 
ेसा हय हो ॥ २८॥ माताजी ! मँ किसी ` दूसरेके 
दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हम तो अपने पुरुषाथे- 
से हो उस पदी इच्छा करता हँ जिसको पिताजीने 
भी प्राप्न नहीं करिया है ॥ २९॥ 

श्रीपराष्रारजी बोले-मातासे इस प्रकार कह 
ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा ओर फिर नगरसे 
बाहर आकर बाहरी उपवने पर्चा ॥ ३०॥ ` 

वह घ्रबने पहलेसे दी आये हए सात मुनी- 
श्रसेको कृष्ण मृग-चमंके बिछीनोसे युक्त आसनोपर्‌ 
ठे देखा ॥ ३१ ॥ उस राजकुमारने उन सबको 
प्रणाम कर ति नश्रता ओर सथ्चुचित अभिवाद्‌- 
नादि पूषेक उनसे कहा ॥ ३९॥ 


ध्र वने कहा-दे महासा ! मुके आप सुनीति- 
से उल्न्न हुआ राजा उन्तानपाद्का पुत्र जाने । मैं 


जातं सुनीत्यां निर्वेदादुष्माक प्ाप्तमन्तिकम्‌।२२॥| आत्मग्डानिके कारण आपके निकट आय हूं ॥३३॥ 


्रीविष्णुषरीणे 


[ अ० ११ 


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ऋषय ऊचुः 
चतुःपश्वान्दसम्भतो बालस्त्वं सृषनन्दन । 
निवेंदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्तते ॥३४॥ 
नै चिन्त्यं भवतः किञ्चिद्‌धियते भूपतिः पिता। 
न चैवेष्टवियोगादि तव पदयाम बालकं ॥३५॥ 
शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलच्यते । 
निर्षेदः किननिभि्तस्ते कथ्यतां यदि बिघ्ते ॥३६॥ 
श्रीपराशर उवाच 
ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम्‌ । 
तन्निशम्य ततः प्रोचु्ुनयस्ते परस्परम्‌ ॥३७॥ 
अहो कातरं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा । 
सपत्न्या मातुरुक्तं यदृ्दयान्नापसपंत्ि ॥२८॥ 
मो भो क्षत्रियदायाद निर्दाचच्वयाधुना | 
कतुं ग्यवसितं तमः कथ्यतां यदि रोचते ॥३९॥ 
यञ्च फाय तवास्मामिः सादाय्यममितघयुते । 
तदुच्यतां विवकषुस्त्वमस्मामिरुपक्ष्यसे ॥४०॥ 
ध्रुव उवाच 


नाहमथंमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः । 
तत्स्थानमेकमिच्छमि यक्तं नान्येन यत्पुरा ४१॥ 
एतन्मे क्रियतां सम्यकथ्यतां प्राप्यते यथा| 
स्थानमग्रयं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो धुनिसत्तमाः।४२। 


मर्‌ चिस्वाच 
अनाराधितगोबिन्देनरः स्थानं दृपात्मज । 
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तरमादाराधयाच्युतम्‌ ।॥४३२॥ 
अत्रिरुवाच ॥ 
प्रः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनादनः | 
स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम्‌॥४४। 
-------- न "4५ 


॥ अङ्का उवाच 
यस्यान्तः सवंमेवेदगच्युतस्यान्ययात्मनः | 


च  _ _ _ कः (~ ® [1 














ऋषि बोले-राजकमार ! अभी तोतू चार 


पाच वषेका हौ बाखक है । अभी तेरे नि्वेदकरा को 


कारण दिखायी नहीं पड़ता ॥ ३४॥ तुचे को 
चिन्ताका.विषय भी नदं है, क्योंकि अभी तेरा पिता 
राजा जीवित है ओौर है बालक! तेरे को दष वस्तु 
खी गयी हो ठेसा भी "हमे दिखायी नहीं देता ॥२५॥ 
तथा हमे तेरे उसरमे भो कोई व्याधि नहीं दख 
पड़ती, फिर तेरी ग्छानिकाक्या कारणहे१यदि 
कोर्हेतु हो तो बता। ३६॥ 

भीपराश्चर्जी बोरे--तव सुरुचिने उससे जो 
कुछ कहा था बह सब उसने कष्‌ सुनाया । उसे सुन- 
कर वे ऋषिगण आपसमे इस प्रकार कहने खगे 
॥ ३७ ॥ “अहो ! क्षाच्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे 
नारके भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका 
फथन चसके दयसे नहीं टछ्ता” ॥३८॥ हे 
क्षत्रियङ्कमार ! इस निवेदके कारण तूने जो क्छ 
करनेका निश्चय करिया है, यदि तुश्चे रुचे तो बद हम 


छोगोँसे कह दे ॥ ३९ ॥ ओर हे अतुङिततेजस्वौ । 


यह भी वताकि हमतेरी क्या सहायता कर, 
क्योकि हमें फेसा प्रतीत होत्रा कित्‌ कुछ कहना 
चाहता है ॥ ४० ॥ 

भरू वने कहा-दहिजश्ेषठ ! सुनने न तो `धनकी 
इच्छादहै ओौरनराञ्यकी; मतो केवर एक उसी 
स्थानको चाहता हँ जिसको परे कमी किसीने न 
भोगा हो ॥ ४१ ॥ हे सुनिशरष्ठ ! आपको यही सहा- 
यता होगी किञआप सुद्धे मषी प्रकार यह बता दं 
किक्या करनेसे वह्‌ सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्न 
हो सकता है ॥ ४२॥ 


मरीचि बोरे-हे राजपुत्र! बिना गोबिन्दक) 
आराधना किये मनुष्यक्रो वह्‌ श्रेष्ठ स्थान नदीं मिल 
सकता, अततः तू. श्रीअच्युतको आराधना कर ॥४३॥ 


अत्रि बोरे-जो परा प्रकृति आदिसे मी परे 
दैवे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट ह्यते है उसो- 
को वह अक्षयपद्‌ भिता है यह्‌ मै सत्य-सत्य 
कहता हू ॥ ४४ ॥ 

अंगिरा बोले--यदि तू अभ्रधस्थानक्रा इच्छुक 


हे तो जिन अभ्ययात्मा अच्युते यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ 


पुलस्त्य उवाच 
परं ब्रह्म परं धाम योऽपो ब्रह्म तथा परम्‌ । 
तमाराध्य हरिं याति घक्तिमप्यतिदुखमाम्‌ ॥४६॥ 





पुरह्‌ उवाच 
रेनद्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम्‌ । 
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुब्रत ॥४५७॥ 


क्रतुरवाच 
यो यज्ञरूप यज्ञो योगेश; परमः पमान्‌ 
तस्मि्तुष्टे यदप्राप्यं करं तदस्ति जनादन ॥४८॥ 
वसिष्ठ उवाच 
पराप्नोष्याराधिते विष्णो मनसा यद्यदिच्छसि । 
त्ररोक्यान्तगंतं स्थानं किप बत्सो्तमोत्तमम्‌॥४९॥ 


भवं उवाच 
> 


ग्राराध्यः कथितो देवो भवद्धिः प्रणतस्य मे। 
मया तस्परितोपाय यजपतव्यं तदुच्यताम्‌ ॥५०॥ 
यथा चाराधनं तस्य मया कायं महात्मनः । 
प्रषादसुखास्तन्मे कथयन्तु महषयः ॥५१॥ 


ऋषय उचुः 


भाजप यथा विष्णोराराधनपरैनरै | 
कायंमाराधनं तन्नो यथावनच्छोतुमदसि ॥५२॥ 
बाद्या्थादखिलाचित्तं स्याजयेलयरथमं नरः| 
तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततः वीत निशवलम्‌ ॥५३। 
एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन प्रतातमना। 
जप्तव्यं यन्नियोधैतत्तत्नः पार्थिवनन्दन ॥५४॥ 
दिरण्यगर्भपुरपप्रथानाव्यक्तरूपिगे । 
ॐ नमो वासुदेवाय बुद्धज्ञानस्वरूपिणे ॥५९५॥। 
एत्ञजाप भगवान्‌ जप्यं स्वायम्भुवो मनुः । 
पितामहस्तव पुरा तस्य तुशे जनादन; ॥५६॥ 











पुखस्त्य बोरे-जो पररन्रह्म परमधाम जौर्‌ 
प्रस्वरूप है उन हरिकी आराधना करनेसे मसुष्य 
अति दुरम मोक्षपदको भी प्राप कर छेता है ॥ ४६॥ 


पु बोरे--हे सुत ¦ जिन जगत्पतिकी 


आराधनासे इन्द्रने अल्युत्तम इन्द्रपद प्राप्र किया 
हेतू छन यज्ञपति भगवान्‌ विष्णुकी आराधना 
कर | ४७॥ 


क्तु बोरे--जो परमपुरुष यज्ञपुरुप, यज्ञ भौर 
योगेश्वर ह उन जनादनके सन्तुष्ट होनेपर पेसी कोन 
वस्तुहैजोप्र्ठिन दहो सकती हो १।४८॥ 


चसिष्ठ बोरे-हे वत्स ! विष्णुभगवान्‌की 
आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो छ चाहेगा 
बही प्राप्त कर लेगा, फिर च्रिलोकोके उत्तमोत्तम 
स्थानकी तो बात ही क्याहे १॥ ४९॥ 


ध्न चने कहा-हे महर्िगण ! सुश्च विनीवको 
आप्रने आराध्यदेव तो बता दिया । अब उसको 
प्रसन्न करनेके सिये मुदे क्या जपना चाहिये--यद्‌ 
बताये । उस महापुरुषको मक्षे जिस -प्रकार 
आराधना करनी चाहिये, वह्‌ आपलोग शक्चसे 
२ 
प्रसन्नतापूवेक कषटिये ॥ ५०-५१॥ 


चऋपिगण चोरे-हे राजकुमार ¦ विष्णुभगवान्‌- 
की आराधन तस्र्‌ पुरुषोको जिर, प्रकार उनकी 
उपासना करनी चाद्ये वह्‌ तू ह-भसे यथावत्‌ श्रवण 
कर्‌ ॥ ५२॥ मनुष्यको चाहिये कि पटे सम्पूणं 
बाह्य विषयोँसे चिन्तको हटावे ओर उसे एकमाव 
उन जगदाधागमे ही स्मर कर दे॥५३॥ दे गज- 
कुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभावसे 
जो कुछ जपना रहिये, वह हमसे सन--॥ ५४॥ 
ॐ दिरण्यगभ, पुरुष, प्रधान ओर अव्यक्तरूप 
गुद्धज्ञानस्वरूप चासुदेवको नमस्कार हैः ॥ ५५ ॥ 
दस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन््रकरो 
परूवंकाखम तेरे पितामह भगवान्‌ स्वायम्भुवममुने 
जपाथा। तच उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनादेमने 








ददौ यथाभिरृषितां भिद्धि रेरोक्यदुमाम्‌ उन्हें तरिखोकीमे दुरम सनोवाञ्छित सिद्धिदौ थी। 


उसी प्रकारतू भी इसका निरन्तर जप करता हआ 


तथा त्वमपि गोविन्दं तोष्येतस्सदा जषन्‌ ॥५७॥॥ श्रोगोषिन्दको प्रसन्न कर ॥ ५६५७ ॥ 





/६.१.९५-*-~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽरे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥ 


--**+*~- 


वारहवां अध्याय 
भ्र चकी तपस्यासे प्रसन्न हप भगवानका विभाव सौर उसे धुवपद्‌-दान 


श्रीपराशर उवाच 
निशम्यैतदकेषेण मैत्रेय नृपतेः सुतः। 
निजगाम वनात्तस्मासमणिपत्य स तानृषीन्‌ ॥१॥ 
कृतकृस्यमिवात्मानं मन्यमानस्ततो द्विज । 
मधुसनज्ञ महापुण्यं जगाम यञ्ुनातयम्‌ ॥ २॥ 
पुनश्च मधुसज्ञेन दैत्येनाधिष्ठितं यतः। 
ततो मधुवनं नाम्ना ख्य।तमत्र महीतले ॥३॥ 
हत्वा च छवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम्‌ । 
रत्नो मधुरां नाम पुरीं यत्र चकार वै ॥४॥ 
यत्र वै देवदेवस्य सान्निध्यं दरिमिधसः | 
सव॑ पापहरे तरसिमस्तपस्तीय चकार सः ॥५॥ 
मरीचिषर्यैषेनिमियंधोदिष्टमभूचथा | 
द्मात्मन्यशेषदेवेशं स्थितं विष्णुममन्यत ॥६॥ 
अनन्यचेतसस्तस्य ध्यायतो भगवान्दरिः । 
स्वेभूतगतो विप्र स्बभावगतोऽभवत्‌ ॥७॥ 
मनस्यवस्थिते तस्मिन्विष्णौ त्रेय योगिनः । 


न शशाक धरामारुदरो भूतधारिणी ॥८॥ 
वाम॑पादस्थिते तस्मिन्ननामार््धेन मेदिनी । 
दवितीयं च ननामादध क्षितेदक्षिणतः स्थिते ॥९॥ 














| 
पादूङ्ुष्टेन सम्पीद्य यदा स वसुधां स्थितः । 
तदा समस्ता वसुधा चचार्‌ सह पर्वते; ॥१०। 





भ्रीपराशरजी बोरे --हे मैत्रेय ! यह सुनकर 
राजपुत्र ध्रुव उन छऋषियोको प्रणामकर उस वनसे 
चछ दिया॥ १। ओर हे द्विज ! अपनेको कृतकृत्य-सा 
मानकर वह्‌ यम्रुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नामक 
वनम आया । क्योकि पीठे उस वनम सधु नामक 
दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस प्रथ्वीतलमें 
सुवन नामसे विख्यात हुआ ॥ २-३॥ वहीं मघुके 
पुत्र छ्वण नामक महाबली राक्षसको मारकर 
शत्रुहनने मधुरा (सुरा) नामक पुरी बसायी।॥४॥ 
जिस (मधुबन) मे निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि 
रहती है, उसी सवंपापापहारी तीथं ध्रुबने तपस्या 
की॥५॥ मरीचि आदि समुनीन्ने चसे जिस 
प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने 


हृदयम विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान्‌- 
का ध्यान करना आरम्भ किया) &॥ इस प्रकार 
हे चिप्र ! अनन्य-चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे 
उसके हृष्यमे सवंभूतान्तर्यामौ भगवान्‌ हरि सवंतो- 
भावसे प्रकट हुए ॥ ७॥ 

दे मैत्रेय ! योगी ध्रुबके चित्तम भगवान्‌ विष्णुके 
स्थित हो जानेपर सवेभूतोको धारण करनेवाडी 
प्रथिवी उसका भार न संभाल सकी।1 ८ ॥ उसके 


बाय चरणपर्‌ खड़े दहयोतेसे प्रथिवीका वायां 


आधा भाग इक गया ओौर फिर दायं चरणपर 
खड़े होनेसे दार्यं माग चरुकं गया ॥ ९॥ ओर 
जिस समय वह्‌ पैरके अंँगूहेसे प्रथिवीको (बीचसे) 
दबाकर खड़ा हुआ तौ परवतो सहित समस्त 
भूमण्डल विचि हो गया ॥ १० ॥ 


[ताकि क निमी 











नद्यो नदाः सुद्रा्च सङ्क्षोभं परमं ययुः । 
तत््ोमादमराः क्षोमं परं जग्ुमहाुने ॥११॥ 
यारा नामतदा देवा मैत्रेय परमाङखाः । 
इन्द्रेण सह सम्मन्तय ध्यानमङ्कं प्रचक्रुः ॥१२॥ 
कूष्माण्डा विपि स्पैमंहैन्दरेण महाय । 
समापिभङ्गमत्यन्तमारन्धाः कनतेमात्राः॥१३॥ 
सुनीतिर्नाम तन्माता साखा तस्पुरतः स्थिता। 
पुत्रेति करुणां वाचमाह मायामयी तदा ॥१४॥ 
पुत्रकास्माननिवत्तस्व शरीरात्ययदारुणात्‌ । 
निबेन्धतो मथा रग्धो बहुभिस्तवं मनोरथैः ॥१५॥ 
दीनामेकां परित्यक्तुमनाथां न त्वमसि | 
सपत्नीवचनादरस्स अगतेस्तवं गतिम॑म ॥१६॥ 
क्र च त्वं पश्ववर्पीयः कर चैतदारुणं तपः । 
निवर्ततां मनः क्ानिधन्धात्फटवजितात्‌ ॥१५७॥ 
कालः क्रीडनकरानान्ते तदन्तेऽध्ययनस्य ते | 
ततः समस्तमोगानां तदन्ते चेष्यते तप; ॥१८॥ 
कालः क्रीडनकानां यस्तव बालस्य पुत्रक | 
तसमिस्त्वमिच्छसि तपः विं नाश्रायात्मनो रतः १९. 
मसीतिः परमो धमो तरेयोऽवस्थाक्रियाक्रमम्‌ । 
अनुवरच॑स्व मा मोहािवर्तास्पादधरममतः ॥२० 
परित्यजति वत्साद्य यथेतन्न मवांस्तपः | 
त्यक्ष्याम्यहपिह प्राणांस्ततो वै पश्यतस्तव ॥२१॥ 
श्रीपराङ्ञर उवाच 
तां श्रहपवतीमेवं वाप्याकृहविरोचनामू । 
सुमादितमना विष्णौ परयन्नपि न दष्टवान्‌ ॥५२॥ 





हे महामुने ! उस समय नदी, नद ओौर समुद्र आदि 
सभी अस्यन्त क्षुन्य हो गये ओौर उनके क्षोभे 
देवताओं भी वदी हलचल मची 1 ११ ॥ हे मैत्रेय! 
तव याम नामक देवतान अस्यन्त व्याकुल हो 
हन्द्रके साथ परामञ्ञं कर उसके ध्यानको भङ्ग करने- 
का आयोजन करिया ॥ १२॥ हे महामुने! इन्द्रफे 
साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने 
नाना रूप धारणकर +उसकौ समाधि भङ्ग करना 
आरम्भ किया ॥ १३॥ 


उस समय मायाहीसे रची हुई उसको माता 
सुनीति नेच्रौमे ओँ भरे उसके सामने प्रकट ह 
ओर श पुत्र ! हे पुत्र {-रेसा कहकर करणायुक्त 


। वचन बोलने गी [ उसने कहा ]-- बेटा! तू 


शरीरको नष्ट करनेवे इस भयङ्कर तपका आग्रह 
छोड दे । मैने वङ्-्कड़ी कामनाओंद्रार तुञचे प्रात्र 
किया है १४.१५ ॥ अरे ! मुञ्च अकेटी अनाथा, 
दुखियाको सौतके कडु बाक्योसे छोड़ देना तुशे 
उचित नष है । बेटा ! आश्रयदीनाका तो एकमात्र 
तूहीसदापदै॥ १६॥ कर्मतो पच वषकातू 
ओर कर्म तेरा यह अति उम्मतप? अरे! इस 
निष्फर क्टेङकासे आप्रहसे अप्रना मन मोड़ 
डे ॥ १७ ॥ अभी तो तेरे खेरने-कूदनेका समय है, 
फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त 
भोगो भागनेका ओर किर अन्तम तपस्या करना 
भी रोक होगा} १८ ॥ बेटा ! तुश्च सुकुमार बाल्क- 
प्‌ न ५ मेँ 
का जो खेल-कूदकरा समय हं उक्तीमे तु तपस्या करना 
है ५५३ र में 
चाहनाहै। तुइ प्रकार कथँ अपने सवंनार 
तपर हभ दै ॥ १९॥ तेरा परम धम तो मुश्चको 
प्रसन्न रखना ही है, अतः तू अपनी आयु ओर 
अवस्थे अनुकूल कर्मोमिं ही कग मोहृका अचु- 
वर्दन नकर ओौर इस तपरूपी अयमंसे निवृत्त 
हो ॥ २०॥ बेटा ! यदि आजतू इस तपरस्याको न 
छोडेगा तो देख, तेरे सामने ही मै अपने प्राण छोड 
दूगी? 1) २५॥ । 


श्रोपर्तर्जी बोङे-हे मैत्रेय ! भगवान्‌ विष्णुप 
चित्त स्थिर रहने कारण ध्वने उसे भँ मे सू 
मरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नदी 
देवा ॥ २२॥ 


६४ भ्रीषिष्णुपुराण [ अ० १२ 
---------~------------------------------------- 
त्स वत्स सुधोरणि रक्षास्येतानि भीषणे | तब, अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस 

२ ~ त महाभयंकर वनम ये कैसे घोर राश्चस अख-राख 
ऽ णु र 16: (क्‌ द 

वने यथतत ॥ समाया प यताम्‌।।२३ | उठाये आ रदे है" देल बहती हृ बह च) गयौ 
इस्युक्तवा प्रयये! साथ रक्षास्याविबभुस्ततः । | भौर वरह जिनके मुखसे अग्निको कपटे निकल रही 
अभ्युदयतोग्रशघ्चाणि ज्वालामाराङुरुपंसः ॥२४॥ 


थीं ठेसे अनेकों राक्षसगण अखख-शख संभाले प्रकर 
ततो नादानतौवोग्रान्‌ राजपुत्रस्य ते पुरः। 


हो गये ॥ एरर उन राक्षसोने अपने अति 
चमकीठे शखोंको धुमाते हए उस राजपुत्रके सामने 

यचुदींप्रशखाणि रमयन्तो निशाचराः ॥२५॥ 

+ 0 

शिवा शतशो नेदुः सन्वालकवरेषखेः | 


बड़ा भयंकर कोलाहल किया | २५ ॥ उस नित्य 
योगयुक्त बाखकको भयभीत करने छ्य अपने 
¢ 
त्रासाय तस्य बा्छस्य योगयुक्तस्य सवंदा।२६॥ 
हन्यतां हन्यतामेष चित्रतां छिद्रतामयम्‌ । 


मुखसे अग्निकी रपट निकालती हई सेकं 
भक्ष्यतां भक्ष्यतां चायमित्यूचस्ते निशचरः॥२७॥ 












स्यारियाँ घोर नाद करने ठगी 1 २६ ॥ वे राक्षस- 
गण भी ईसको मारो-मारो, काटो-काटो, खाभो- 
खाओ' इस प्रकार चित्त्ाने खगे ॥ २७ ॥ फिर सिह, 
ऊंट ओर मकर आदिके-से मुखवाटे राक्षस राज- 
पुत्रको चास दैनेके ल्यि नाना प्रकारसे गरजे 
खगे ॥ २८॥ 


ततो नानापिधानादान्‌ सिह्टुमकराननाः । 
त्रासाय राजपुत्रस्य नेदुस्ते रजनीचराः ॥२८॥। 
रक्नांसि तानि ते नादाः शिवास्तान्यायुधानि च। 
गोबिन्दासक्तचित्तस्य ययुनेन्द्रियगोचरम्‌ ॥२९॥ 


किन्तु उस मगव्रदासक्तचित्त बाल्कको वे राध्षस, 
उनके शब्द, स्यारियौ ओर अद्ल-टाखरादि कुछ भी 
दिखायी नहीं दिये ॥ २९॥ वह्‌ राजपुत्र एकाथ. 
चिन्तसे निरन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवानको 
हयै देखता रहा ओर उसने किंसीकी आर किसी मी 
प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥ ३०॥ 


एकाग्रचेताः सततं पिष्णुमेषार्मसंश्रयम्‌ । 
दृष्टवान्प्रथिवीनाथपुत्रो नास्यं कथश्चन ॥२०॥ 
ततः सर्वासु मायासु विलीनासु पुनः सुराः | 
सङ्क्षोभं परमं जग्पुस्तत्पराभवश्रङ्किताः। २१॥ 
ते समेत्य जगद्ोनिमनादिनिधनं हरम्‌ । 
शरण्य शरणं यातास्तपसा तस्य तापिताः ॥२२॥ 


तब सम्पूणं मायाके छीन हो जानेपर उससे 
हार जनिकी आन्नंकासे देवताओंको बड़ा भय हुजा 
॥ ३१ ॥ अतः दसके तपसे सन्त्र हो वे सव आपस- 
मे मिलकर जगत्‌के आदिकारण, शरणागतवत्सल, 
अनादि ओर अनन्त श्रीहरिकी शरणमे गये ॥ ३२॥ 

देवता बोरे--दहे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्चर, 
पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तप्त होकर 
आपकी उरणभे अये दह ॥ ३६॥ हे देव | जिस 
प्रकार चन्द्रमा अपनी कछाओंसे प्रतिदिन बदृता है 
उसी प्रकार यह मी तपस्याके कारण रात-दिन उन्नत 
हो रहा है ॥ ३४ ॥ है जनादन ! इस उन्तानपादके 


1 4 1 


देवा ऊचुः 
देवदेव जगन्नाथ परेश्च पुरुषोत्तम । 
धरुवस्य तपसा तप्रा्तवां बयं शरणं गताः ॥३३॥ 
दिने दिने करषगेः शशाङ्कः पूयंते यथा । 


तथायं तपसा देव प्रयाय दविमहर्निशम्‌ ॥२४॥ 
जओत्तानपादितपसा वयमित्थं जनार्दन । 








न विदयः किं स शक्रत्वं सयं सवं फिमभीप्सति । 
वित्तपाम्बुपसोमानां साभिलाषः पदेषु किम्‌ ।२६॥ 
तदस्माकं प्रसीदेश हृदयाच्छल्यमुद्रर | 
उत्तानपादतनयं तपसः सन्निवर्तय ॥३७॥ 
श्रीभगवानुवाच 
नन्दरत्वं न च धरय नेवामबुषधनेशताम्‌ । 
प्रथयत्येष यं कामं तं करोम्यखिं सुराः ॥३८॥ 
यात देवा यथाकामं स्वस्थानं विगतज्वराः | 
निवक्तयाम्यहं बालं तपस्यासक्तमानसम्‌ ॥३९॥ 


श्रीपराडर उवाच 


इत्युक्ता देषदेवेन प्रणम्य ॒व्रिदश्नास्ततः। 


प्रययुः स्वानि धिष्ण्यानि इतक्रतुपृरोगमाः॥४०॥ 


भगवानपि सर्वात्मा तन्मयत्वेन तोपितः | 

गत्वा धुवषुवाचेदं चतुसुं जवपुररिः ॥४१॥ 
श्रीभगवानुवाच 

ओत्तानपादे भद्रं ते तपसा परितोपितः। 

वरदोऽहमनुप्राप्नो वरं वरय सुव्रत ॥४२॥ 

बाह्यार्थनिरपक्षं ते मयि चित्तं यदादितम्‌ । 


त्टोऽदं भवतस्तेन तद्घ्रणीष्व वरं परम्‌ ॥४६।। 
श्रीपराशर उवाच 
शरुसेत्थं गदितं तस्य देवदेवस्य बालकः । 
, उन्मीहिताक्षो ददश ध्यानद्टं हरिं पुरः ॥४४॥ 
शङ्कचक्रगदाशाङ्गवराधिधरमच्युतम्‌ । 
किरीटिनं समालोक्य जगाम शिरसा महीम्‌॥४५॥ 
रोमाथिताङ्गः सहसा साध्वसं परमं गतः 
स्तवाय देवदेवस्य स चक्रे मानसं युवः ॥४६॥ 


किं वदामि स्तुतावस्य केनोक्तेनास्य सस्ततिः। 
चि १० ९. 


हम नीं जानते, वह इन्द्रस चाहता है या स्त्व 
अथवा उसे कुबेर, वरण या चन्द्रमाके पदकी अभि- 
लाषा है ॥ ३६ ॥ अतः हे ईश ! भाप हमपर प्रसन्न 
होहये ओर इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त 
करके हमारे हृदयका कटा निकाल्लिये ॥ ३७॥ 

श्रोभगवान्‌ बोले-हे सुरगण ! उसे इन्द्र, सूं, 
वरुण अथवा कुबेर आदि किंसीके पदकौ अभिलाषा 
नदं है, उसकी जो कुठ इच्छा है वहे मँ सब पूणं 
कर्गा ॥ ३८ ॥ हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर 
इच्छानुसार अपने-अपने स्थानोको जाओ। मै 
तपस्यमें कगे हए उस्र बालकको निवृत्त कर्ता 
हूं ॥ ३९॥ 


श्रीपराश्षरजी बोरे- देवाधिदेव भगवान्‌के ेसा 
कदनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रभामकर 
अपने-अपने स्थानोको गये ॥ ४० ॥ सर्वात्मा भगवान्‌ 


हरिन भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न हो उसके निकट 
चतुभंजरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥ ४१॥ 


श्रीभगवान्‌ बोर--हे उत्तानपाद्के पुत्र ध्रुव । 
तेरा कल्याण हो । जँ तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर 
त्च बर देनेकेलियि प्रकट हाहं हेसुत्रत! तू 
वर माँग ॥ ४२॥ तूने सम्पूण वाह्य विषयोंसे उपरत 
होकर अपने चिन्तको सश्चते ही खगा दिया है । अतः 
म तुश्चसे अति सन्तुष्ट हरं । अब तू अपनी इच्छानुसार 
रेष्ठ वर मग ॥ ४२ ॥ 


श्रीपराशरजी बोलो--देवाधिदेव भगवान्‌के एेसे 
वचन सुनकर बालक धरुवे आंखें खोली ओर अपनी 
ध्यानावस्थामें देखे हए भगवान्‌ हरिको साक्षात्‌ 
अपने सम्बुख खड़े देखा ॥ ४४ ॥ श्रौअच्युत्तको 
किरीर तथा शद्ध, चक्र, गदा, शाङ्ग धनुष ओर 
खङ्ग धारण किये देख उसने प्र्वीपर शिर रखकर 
प्रणाम किया ॥ ४५ ॥ ओौर सहसा रोमाश्ित तथा 
परम भयभीत होकर उसने देवदेषको स्तुति करनेकी 
हच्छा की 1 ४६ ॥ किन्तु इनकी स्तुततिके स्यि मँ 
क्या कट १ क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता दै ¢ 


६६ 


(> = € 4६ ~ ` श्रीविषणुषुराण 


[ अ० १२ 


[नायाायाककनाकायातकयाव निनि 
न --------- 


हत्याङ्लमतिर्देवं तमेव शरणं ययौ ॥४७।॥ 


धरूब उवाच 
भगवन्यदि मे तोषं तपसा प्रमं गतः। 
स्तोतुं तदहमिच्छामि वरमेनं प्रयच्छ मे ॥४८॥ 
्ह्माचैर्य॑स्य वेद्नक्ायते यस्य नो गतिः ।. 
तं त्वां कथमहं देव स्तोतुं शक्नोमि वारकः ॥ ४९॥ 
तद्धक्तिप्रवणं द्येतत्परमेश्वर मे मनः। 
स्तोतं प्रवृत्तं त्वत्पादौ तत्र प्रज्ञं प्रयच्छ मे ॥५०॥ 

श्रीपराङञार उवाच 

र्ुानतेन गोविन्दस्तं पस्पशं कृताञ्जलिम्‌ । 
उत्तानपादतनयं द्विजवयं जगत्पतिः ॥५१॥ 
दथ प्रसन्नवदनः स॒ क्षणान्नुपनम्दनः | 
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भूतधातारमच्युतम्‌ ॥५२॥ 

ध्रुव उवाच 
भूमिरापोऽनछो बाः खं मनो बुद्धिरेव च ।. 
भूतादिरादिरकृतियंस्य रूपं नतोऽस्मि तम्‌ ॥५३॥ 
शुद्धः छ्मोऽखिरु्यापी प्रधानातपरतः पुमान्‌ । 
यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणारिने ॥५४॥ 
भूरादीनां समस्तार्ना गन्धादीनां च शाश्वतः । 
बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥५५॥ 
तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषनगतः पतिम्‌ । 
प्रपये शरणं शुद्धं सवद्रपं परमेश्वर ॥५६॥ 
बरहत्वाद्‌ वरंहणत्वाच्च यद्रपं ब्रह्मस्ितम्‌ । 
तस्मै नमस्ते सर्वासन्योगिचिन्स्याविकारिणे।५७। 


` सहस्रोप पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌ । 


¢ 
जनटगााएी चल, 21 १>~)) निता 11 ।1/ „~ 1} 


यह न जाननेके कारण वह्‌ चित्तम व्याछुख हो गया 
ओौर अन्तम घसने उन देवदेवकी ही रारणद 
॥ ४७ ॥ 

धरुघने कहा-भगवन्‌ ! आप यदि मेरी तपर्या- 
से सन्तुष्ट है तो मै आपकी स्तुति करना चाहता हूं | 
आप मुञ्चे यही बर दीजिये [ जिससे मै स्तुति 
कर स्रं] । ४८॥ हे दैव | जिनकी गति ब्रह्मा 
आदि वेदज्ञजन भी नदीं जानते, उन्हीं जापका 
बारक.कैसे स्तवन कर सकता हँ ॥ ४९॥ किन्तु हेः 
परम प्रभो ! आप्रकी भक्तिसे द्रवौभूत हुआ मेरा 
चित्त आपके चरणोँकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा 
है। अतः आप.इसे उसके ट्यि बुद्धि प्रदान कीजिये 
॥ ५० ॥ 


भी पराश्ञरजी बोरे-द द्विजवयं ! तव जग- 
त्पति श्रीगो विन्दने अपने सामने हाथ जोडे खे 
हुए उस सत्तानपादके पु्रको अपने शञद्कुके अभ्रभागसे 
र दिया ॥ ५१॥ तव तो एक क्षणम ही वह राज- 
कमार प्रसन्न-मुखसे अति विनीत हो सचंभूताधिष्ठान 
श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ॥ ५२॥ 

धच बोरो--प्रण्वी, जर, अग्नि) वायु, आकार, 
मन, बुद्धि, अहंकार भौर मूलप्रकृति-ये सब 
जिनके रूप है ठन भगवान्‌को मै नमस्कार करता 
हुं | ५२ ॥ जो अति शुद्ध सृष्च्म, सवेम्यापक ओर 
प्रधानसे मी परेद, बह पुरुष जिनका रूपदहै उन 
गुण-भोक्ता परम पुरुषको मँ नमस्कार कर्ताहं 
1 ५४ ॥ हे परमेश्वर ! प्रथिवी आदि समस्त भूत, 
गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि तेरह करण तथा 
प्रधान ओर पुरुष ( जीव ) से भो परे जो सनातन 
पुरुष ह, उन आप निखिलबरहमाण्डनायकके ब्रह्ममूत 
युद्धस्वरूप परमात्माकी मै सरण द | ५५.५६ ॥ हे 
स्बीव्मन्‌ ! हे योगियोके चिन्तनीय ! व्यापक ओौर्‌ 
वधंनरीख होनेके कारण आपका जो ब्रह्मनामकं 
स्वरूप है, चस विकाररहित रूपको मै नमस्कार 
करता द| ५७॥ हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाे, 
हजारों नेत्रोवाठे भौर हजारो चरणोवाठे परमपुरुष 
है, आप सर्वत्र म्याप्त है जौर [ प्रथिवी आदि आव- 
रणोके सहित ] सम्पुणं ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दश 


नृ [नक [नाता | कक १ || })} + |} 


$ ` ० 








यदुभूतं यच वे म्यं परपोत्तम तद्धवास्‌ । 
त्वत्तो विराद्‌ स्वराट्‌ सम्राट्‌ सत्तथाप्यधिपूरषः।५९ 
अत्यरिच्यत सोऽधध तियंगृष्वं च वै युवः। 
सत्तो विरवमिदं जातं तत्तो भूतभविष्यती ॥६०॥ 


त्वदूरूपधारिणश्रान्तभूतं सव॑मिदं जगत्‌ । 





तत्तो यज्ञः सव॑हुतः पृषदाज्यं पदुद्धिधा ॥६१॥ 
सत्तः छचोऽथ सामानि सत्तरछन्दांसि जज्ञिरे । 
तत्तो यजष्यजायन्त सवत्तोऽशवादचैकतो दतः।६२। 
गावस्त्वत्तः सद्धतास्त्वत्तोऽजा अवयो शरगाः। 
त्वन्भुखादुप्राह्मणास्त्वततो बाहोः क्षत्रमजायत।६३। 
वैश्यास्तवोरुजाः षुद्रास्तव पद्भयां सथ्रदूगताः । 
अर्णो; पूर्योऽनिहप्राणाघन्द्रमा मनसस्तव ।६४। 
प्राणोऽन्तःसुषिराज्जातो एुखादग्निरजायत्‌ । 
नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवतेत । 
दिशः्ोत्रासितिःपद्धयां त्तः सर्व मभूदिदम्‌। ६५। 
न्यग्रोध! सुमह्यानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः । 
संयमे विश्च मिरु बीजभूते तथा स्वपि ॥६६॥ 
बीजादङ्करसम्भूतो न्यग्रोधस्तु सणुत्यितः । 
विस्तारं च यथा याति खत्तःसुषटौ तथा जगत्‌ ।६७। 
यथा हि कदली नान्या स्वकपत्रादपि दृश्यते| 

एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं खस्स्थायीश्वर दश्यते ।६८ 
हादिनी सन्धिनी संवि्वय्येका सरव॑संस्थितौ | 


हे पुरुषोत्तम ! भूत ओर भविष्यत्‌ जो दुख पदाथ 
हवे सब आपह दै तथा विराट्‌, स्वराट्‌, सम्राट्‌ 
ओर अयिपुरुष ( ब्रह्मा ) आदि भी सव आपहीसे 
उत्पन्न हुए है ॥५९॥ वे ही जाप इस प्रध्वीके नीचे- 
ऊपर अर इधर-उधर सव ओर बहे हर दै। यह 
सम्पूरणं जगत्‌ आपसे उलन्न हुआ है । तथा आपः 
हीसे भूत ओर भविष्यत्‌ हुए है ॥ ६० ॥ यह सम्पूणं 
जगत्‌ आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्डके अन्तगेत है 
[ किर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बातत ही क्याहै | 
जिसमे सभी पुरोडाशोंका हवन होता हे वह यज्ञ 
परपद्य ( दधि भौर घृत) तथा [भ्राम्य ओर 
वन्य ] दो प्रकारके पञ्ु आपसे उतपन्न हृष है 
॥६१। आपदहीसे ऋक्‌, साम ओर्‌ गायत्री आदि 
छन्द प्रकट हृए दै, आपहीसे यजुषंदका प्रादुमौव 
हुआ है ओर आपहीसे अश्च तथा एक ओौर दौँतवाले 
महिष आदि जीव उत्पन्न हुए है | ६२॥ आप्हौसे 
गीं, बकरियो, भेदो अर मगोकी उत्पत्ति हृ है; 
आपहीके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जघाओं- 
से वैर्य ओौर चरणोसे शुद्र प्रकट हृष्‌ हँ तथा आप- 
हके नेत्रोसे सूय, प्राणसे वायु, मनसे चन्द्रमा, 
भीतरी छिद्र ( नासारन्धर ) से प्राण, मुखसे अग्नि, 
नाभिसे आकारा, सिस्से स्वगं, श्रत्रसे दिला जर 
चरणोसे प्रथिवी आदि उयन्न हुए है; इस प्रकार 
हे प्रभो ! यह सम्पूणं जगत्त्‌ आपसे प्रकट हु 
है | ६१-६५ || जिस प्रकार नन्हे-से बीजमे बडा 
भारी वट-वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रख्य-कारमें 
यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ बौजस्वरूप अपदहीमें छीन रहता 
है ।। ६६ ॥ जिस प्रकार बीजसे अङ्कररूपमे प्रकट 
हुआ वटवृ बदृकर अत्यन्त विस्तारवारा हो 
जाता है उसी भ्रकार सष्टिकालमे यह्‌ जगत्‌ आपही- 
से प्रकट होकर फैल जाता है ॥ ६७ ॥ हे ईशर । 
जिस प्रकार केटेका पौधा छिलके ओर प्रत्तौसे अङ्ग 
दिखायी नहीं दैता उसी प्रकार जगतूसे जप पथक्‌ 
नहीं है, बह आपहीम स्थित देखा जाता है ॥ ६८ ॥ 
सबके आधारभूत आपे ह्ादिनौ ( निरन्तर आह 
दित करनेवाङी ) ओर सन्धिनी ( चिच्छेद्रहित ), 
संवित्‌ (बिचाशक्ति) अभिन्नरूपसे रहती है । आपे 
(विषयजन्य) आहवाद्‌ या ताप देनेबाली (सान्सिविकी 
या तामसी ) अथवा उभयमिश्रा ( राजसी ) कोद 


भी संवित्‌ नहीदहै, क्योकि भाप निगुण रहै 


हादतापकरी मिश्ा त्वपि नो गुणवर्भिते ॥६९॥ | | ६९ आप [का्यरष्टिसे] ए्रथकुरूप ओर [कारण- 


५१५१५ 


५ ५ <ॐ& ` ` षि ् {. ॐ शे 





पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः| 
प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥७०॥ 
व्यक्तं प्रधानपुरुषो विराट सम्राट्‌ स्वराट्‌ तथा। 





विभाग्यतेऽन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो भवान्‌ ॥७१॥ 
सर्व॑स्मिन्सर्वभूतस्त्वं सव॑; सवंखरूपधृक्‌ । 
सवं खत्तस्ततश्च खं नमः सर्वस्मिनेऽस्तु ते ॥७२ । 





सर्वातमकोऽसि सर्वैश सर्वभृतस्थितो यतः । 
कथयामि ततः फं ते सव वेत्सि हृदि स्थितम्‌ ।७२॥ 





9 ९ 
सर्वात्मन्सवेभृतेशच॒ सवं सत्वसमुद्धव । 


सर्वभूतो भवान्वेत्ति सवंस्वमनोरथम्‌ ॥७४॥ 


यो मे मनोरथो नाथ सफरः स वया कृतः । 
तपश्च तप्तं सफलं यदृदष्टोऽसि जगत्पते ॥७५॥ 





श्रीभगवानुवाच 
तपसस्तत्फल प्राप यदुदृषटोऽदं स्या धव । 
मदर्नं हि विफलं राजपुत्र न जायते ॥७६॥ 
वेर वरय तस्मात्वं यथाभिमतमात्मनः । 
सवं सम्पद्यते पुंसां मयि दृष्टिपथं गते ॥७७॥ 
ध्रुव वाच 
भगवन्भूतभव्येश स्वसपास्ते मवान्‌ हृदि । 
क्रिमज्ञातं तव त्रह्न्मनसा यन्मेक्षितम्‌ ॥७८॥ 
` तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि यन्मया । 
प्रा्यंते दुविनीतेन हृदधेनातिदुर्ठमम्‌ ॥७९॥ 





पि वा सवंजगत्खषटः प्रसन्ने त्वयि दुर्मम्‌। 
त्वत्मसादफलं यदुक्त वरहोकयं मघवानपि ॥८०॥ 





दृष्टिसे ] एकरूप दै । आपही भूतसूष््म ह ओर आप 
ही नागा जीवरूप दै । हे भूतान्तरात्मन्‌ ! पसे आप 
को मै नमस्कार करता हूँ ॥ ७० ॥ [ योगियोके 
द्वारा ] अन्तःकरणमे आप दही महत्त्व, प्रधान, 
पुरुष, विराट्‌, सम्राट्‌, ओर स्वराट्‌ आदि रूपोंसे 
भावना किये जाते है, ओर [ क्षयज्ञीर ] पुरुषोमे 
आप नित्य अक्षय दह ॥ ७१॥ [आकाशादि ] सबमें 
आप ही सवभूत अर्थात्‌ उनके गुणरूप है; समस्त 
रूपोंको धारण करनेवाले होनेसे सव्‌ कुछ आप ही 
है; सब छु आपसे हुआ दै; अतएव सवके द्वारा 
आपहीहोरहे है इसङिए आप सवीतमएको नस 
स्कार है।७२॥ हे सर्वंश्वर ! आप सर्वात्मक है 
क्योकि सम्पूणं भूरतोमि व्याप्त दै अतः मै आपसे 
क्या कटू {जप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंको 
जानते दै ॥ ७३॥ हे सर्वात्मन्‌ ! हे सवंमूतेश्वर ! 
दे सव भूतोके आदि-स्थान ¦ आप सवेभूतरूपसे 
सभी प्राणियोके मनोरथोको जानते ह ॥७४॥ हे 
नाथ !मेाजो कुछ मनोरथथा वह तौ आपने 
सफर कर दिया ओौर हे जगत्पते ¦ मेरी तपस्या 
भी सफल हो गयौ, क्योंकि मुञ्चे आपका साक्षात्‌ 
दशन प्राप्न हुमा ॥ ७५॥ 


भगवान्‌ बोरो-हे ध्रुव ! तुमको मेरा 
साक्षात्‌ दलेन प्राप्त हृभा, इससे अवश्य ही तेरी 
तपस्या तो सफल हो गयी; परन्तु हे राजङ्कुमार ! 
मेसा दशन भी तो कभी निष्फल नहीं होता ॥७६॥ 
दसलिये तुक्चको जिस बरकी इच्छा हो वह मग 
ठे। मेरादश्चन हो ज्ानेपर पुरुषको सभी कछ 
प्राप्त हयो सकता है ॥ ७७॥ 


धुव बोरे-हे भुतमव्येन्धर भगवन्‌ | आप 
सभीके अन्तःकरणौँमे विराजमान है । हे ब्रह्मन्‌ | 
मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे 
छिपी हुईं है १।७८॥ तो भी, हे देवेश्वर ! मँ दुर्विनीत 
जिस अति दुखंम वस्तुकी ह्दयसे इच्छा करता हँ 
उसे आपकौ आज्ञाुसार आपके प्रति निषेदन 
करूंगा ॥ ७९॥ हे ` समस्त संसारको रचनेवाछे 
परमेश्वर ! आपके प्रसन्न हौनेपर ( संसारमें ) क्या 
दुख्ेम हे ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे 
दी त्रिखोकोको भोगता दै ॥ ८०॥ 








नेतद्राजासनं योग्यमजातस्य ममोदरात्‌ । 
इतिगर्वादवोचन्मां सपनी मातुरः ॥८१॥ 
आधारभूतं जगतः सर्र॑वाभरुत्तमोत्तमम्‌ । 





्रथयामि प्रभो स्थानं त्वत्मसादादतोऽन्पयम्‌ ८२) 
। श्रीभगवानुवाच 

यन्वया प्राभ्यंतेस्थानमेतसप्राप्स्यति वै मधान्‌। 

त्वयाहं तोपितः पूवंमन्यजन्मनि बालक ॥८३॥ 

त्वमासीर्बाक्मणः पूवं मग्येकाग्रमतिः सदा । 

मातापित्रोश्च शुभरुर्निजधर्मादुपाटकः ॥८४॥ 

केन गच्छता मित्रं राजपुत्रस्तवाभवत्‌ । 


योवनेऽखिरभोगादयो दश्ेनीयोज्ज्वहाकृतिः।८५। र 
| इच्छा हु किच भी राजपुत्र हो ॥ ८६ ॥ अतः 


तत्सङ्गात्तस्य तासृद्धिमवलोक्यातिदुरंमाम्‌ । 

भवेयं राजपृत्रोऽहमिति वाञ्छा खया कृता ॥८६। 
ततो यथामिरूषिता प्रप्रा ते राजपुत्रता | 
उत्तानपादस्य गूहे जातोऽसि ध्रव दुरटमे ॥८७॥ 
अन्ये दलंमं स्थानं इले स्वायम्धुवरय यत्‌ 
तस्यैतदपरं वारु येनाहं परितोपितः ॥८८॥ 





मामाराभ्य नरो क्तिमवाप्नोत्यबिरम्बिताम्‌ 
मय्यपितमना बार क्स स्वर्गादिकं पदम्‌ ॥८९॥ 
्ररोकयादधिके स्थाने सवताराग्रहा्यः | 
भविष्यति न सन्देह्ये मसरसादाद्धवान्ध च ॥९०॥ 
सूर्यात्सोमात्तथा भोमात्सोमपुत्राद्वहस्पतेः। 
सिताकंतनयादीनां सर्वक्॑णां तथा ध्र ब ॥९१॥ 
सप्पीणामरेषाणां ये च वैमानिकाः सुराः । 
सवषाम परि स्थानं तव दत्तं मया धब ॥९२॥ 
केचित्युंगं तावत्केचिन्मन्वन्तरं स॒राः | 





तिष्ठन्ति भवतो दत्ता मया वै कल्पसंस्थितिः ॥९३॥ 


प्रभो ! मेरी सोतेली माताने गवेसे अति षद्-बहु- 
कर मुद्चसे यह्‌ कदा था करि जो मेरे उद्रसे उसन्न 
नदीं है उसके योग्य यह्‌ राजासन नहीं हैः ॥ ८१ ॥ 
अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मै उस सर्वोत्तम एवं 
अत्यय स्थानको प्राप करना चाहता हँ जो सम्पूणं 
विश्वका आधारभूत हो ॥ ८२॥ 

श्री भगवान्‌ बोटो-अरे वारक ! तूने अपने 
पूवेलन्ममें भी सुश्च सन्तुष्ट किया था इसघ्यित्‌ 
जिस स्थानकीं इच्छा करता है उसे अव्य प्रप्र 
करेगा ॥ ८३ ॥ पूवे-जन्ममे तू एक ब्राह्मण था जओौर 
म॒ञ्चमें निरन्तर एकाग्र-चित्त रहनेवाछा, माता-पिताका 
सेवक तथा स्वधमेका पालन करनेवाखा था ॥ ८४॥ 


। काडङान्तरमे एक राज्ञपुत्र तेरा मिच्र ह्रो गया) बह 
। अपनी युवावस्थामे सम्पूणं भोगोसे सम्पन्न भौर 
अति दश्च॑नीय रूपलावण्ययुक्त था ॥ ८५ ॥ उसके 


सङ्कसे उसके दुरंभ वैभवको देखकर तेरी ठेसी 


हे धुव ! तुद्यको अपनी मनोवाञ्छित राजयपुत्रतः प्राप्त 
हई ओर जिन स्वायम्भुवमनुके कुर्म ओर किसीको 
स्थान मिना अत्ति दुभ है, उन्दीके घरमे तूने 
उन्तानपादके यह जन्म छिया। अरे बालक । [ओके 
स्यि यहं स्थान कितना ही दुलभ हो; परन्तु] 
जिसने सुश्च सन्तुष्ट किया है उसके घल्यि तो यदह 
अस्यन्त तुच्छ है ॥ ८५.८८ ॥ मेरी आराधना करने- 
से तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर 
जिसका चित्त निरन्तर मुद्यमे ही खगा हुभा है उसके 
लिये स्वगोदि छोकौका तो कहना ही क्याहै 
॥ ८९ ॥ ह ध्रुव ! मेरौ करपासे तू. निःसन्देहं उस 
स्थानमे, जो त्रिरोकोम सबसे उच्ृष्ट है, सम्पूणं ग्रह 
ओर तारामण्डलका आश्रय बनेगा ॥ ९० ॥ हे ध्रव ! 
म तषे वह धुव ( निश्वक ) स्थान देता हँ जो सूरय, 
चन्द्रः सङ्कट, बुधः ब्रहस्पति, शुक्र ओर श्नि आदि 
मदो, समी नक्षत्रौ, समस्त सपर्षियों ओर सम्पूण 
विमानचारी देवगणँसे उपर है ॥ ९१.२२ ॥ देव- 
ताओभेसे कोई तो केवल चार युगतक ओौर कोई 
एक मन्वन्तरतक ही रहते है; कितु तुसचेमे एक 
क्पतककौ स्थिति देवा हं ॥ ९३ ॥ 


> ` @ ॐ 


न - 








 सुनीतिरपि ते माता खदासन्नातिनिम॑ला | तेरी माता सुनीति भौ अति स्वच्छ तारारूपर्ते 
विमाने तारका भूत्वा तावत्कालं निवत्स्यति ।।९४॥| उतने ही समय तक तेरे पास एक बिमामपर निवास 
ये चस्वा मानवाः प्रातः सायं च सुसमाहिताः | करेगी ॥ ९४॥ भौर जौ कोम समाहिलचिततसे 


पिष्यन्ते ~ सायंकार ओौर प्रातकारम तेरा गुण-कीतेन करेगे 
कीत्तयिष्यन्ति तेषां च महत्पुण्यं भविष्यति ।।९९५॥| उनको महान्‌ पुण्य होगा ॥ ९५ ॥ 


श्रीपराशर उवाचं श्रीपराशरजी बोटो--दहे महामते ! इस प्रकार 
पूवंकालमे जगत्पति देवाधिदेव भगवान्‌ जनादेनसे 
चर पाकर ध्रुव उस अल्युत्तम स्थानम स्थित हुए 
11९६ ॥ हे मुने! अपने माता-पिताकी धर्मपूवेक 





एवं पूवं जगन्नाथद्धिवदेवाञ्जनाद॑नात्‌ । 

वर्‌ प्राप्यधर्‌ वः स्प्रानमध्यास्ते स महामते ।।९६॥ 
स्वयं शुभरपणादधम्यान्मातापित्रो वै तथा । | सेना करसे तथा द्रादलाशचर-मन््र माल्य ओर 
दादशञाक्षरमाहात्म्यात्तपसथ प्रभावतः ॥९७॥। | तपङ्े प्रभावसे उनके मान, वैभव एवं प्रभावकी बद्ध 
तस्यामिमानसद्धि च महिमानं निरीक्ष्यहि। देखकर देव ओौर असुरोके आचायं श्ुक्रदेनने ये 
देवासुराणामा चार्यः श्लोकमन्रोशना जगौ ॥९८॥। | शलोक कटे है--॥ ९०७-९८ ॥ 


९ । “अह ! इस ध्र वके तपका कैसा प्रभाव है ! 
अहोऽस्य तपसौ वीयमहोऽस्य तप्तःकलम्‌ । अहो ! इसको तपस्याका फसा अद्भूत फल है जो 
यदेनं पुरतः कृत्वा धू वं सप्त॑यः स्थिताः ॥९९॥॥ इस ध्रुवको ही आगे रखकर सपर्षिंगण स्थित हो 

॥ रहे है ॥ ९९ ॥ इसकी यह सुनीति नामवाखी माता 

धर्‌ वस्य जननी चेयं सुनीतिर्नाम प्रनृता । भी अवङ्य ही सस्य ओर हितकर बचन बोखनेबाी 
6 हैः । संसारमे पेसा कौनदे जो इसकी महिमाका 

स्याश्च मदिमानं कः शक्तो बणयितु युचि । १००॥| वरणेन कर सकर ¶ जिसने अपनी कोम उस ध्रुवको 


तरलं ं प्रां पर स्थानं स्थि धारण करके तिोकीका आश्रयभूत अति उत्तम 
रोक्याश्रयतां आसु पर्‌ स्थानं स्थिरयति । | स्थान प्रा कर छिया, जो भविष्यसे भी स्थिर रहने- 


स्थानं प्राघ्ा परं धरता या ङक्षिविवरे घ्र.वम्‌ | १०१॥| बाला दे”॥। १००-१०१ ॥ 

९ ^ जो भ्यक्ति ध्रुवके इस दिग्यलोक-परापनिके प्रसङज्गका 
यश्चैतस्कोत्तयेन्नित्यं धर वस्यारोदणं दिबि । | कीतेन करता है चह सव पापो युक्त होकर स्वगे- 
स्व पापविनिरधु्तः स्वग॑ोके महीयते ॥१०२॥ | लोक पूजित दता है ॥ १०२ ॥ वह स्वर्गमें रहे 


+, ~ अथवा प्रथ्वीमे कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता 
स्थानञ्रसं न चाप्नोति दिनि वा यदि वावि । तथा समस्त मङ्गलोसे भरपूर रहकर बहुत कारुतक 


सवं कल्याणसंयुक्तो दीषंकाटं स जीवति ।॥१०३॥ जीवित रहता दै ॥ १०३।। 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथभेऽश द्वादशोऽध्यायः ।। ९२ ॥ 


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(नानाकारा गणी 


कगुनीततिने ध्रुवको पृण्योपार्जन करनेका उपदे दिया था, जिसके आाचरणसे उम्हुं उत्तम रोक प्राप्त हुआ । 
तएव 'सूनीति' सूनूता कौ गयो ह । 


राजा वेन ओर पृथुका चरित्र 


श्रीपराशर उवाच 
धवाच्छिष्ठिच भव्यं च भव्याच्छम्भुव्येजायत। 
शिष्टेराधत्त सुच्छाया पश्चपुत्रानकल्मषान्‌ ॥ १ ॥ 
रिपुं रिपुञ्जयं विग्रं वकं व्रकतेजसम्‌ । 
रिपोराधत्त वृहती चाकषुपं सर्वतेजसम्‌ ॥ २॥ 
भजीजनत्पुष्करिण्यां बार्ण्यां चाक्षुषो मनुम्‌ | 
प्रनापतेरात्मजायां वीरणस्य महात्मनः ३॥ 
मनोरजायन्त दश्च नड्वलायां महौजसः । 
कन्यायां तपतां पर वैराजस्य प्रजापतेः ॥ ४ ॥ 
कृ पुरः शत्रुम्नस्तपस्वी सत्यवाञ्छचिः। 
द्ग्निशोमोऽतिरात्रश सुघुम्नश्चेति ते नव ॥ ५॥ 
अभिमन्युश्च दशमो नड्वला वां महीजः । 
कुरोरजनयत्पुत्रान्‌ षडाग्नेयी महाप्रभान्‌ 1} &॥ 
अङ्घ सुमनसं रूयातिं क्रतुमङ्गिरसं क्षिषिम्‌ । 
अङ्गारुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत ॥ ७ ॥ 
्रना्मूपयस्तस्य ममन्ुद॑कषिणं करम्‌ । 
वेनस्य पाणौ मथिते सम्बभूव मदा्रूने ॥ ८ ॥ 
वैन्यो नाम महीपालो यः पृथुः परिकीततितः । 
येन दुग्धा सदी पूवं प्रजानां हितकारणात्‌ ॥ ९ ॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 
किमथं मथितः पाणिर्वेनस्य परमर्िमिः । 
यत्र जनने महावीर्यः स प्धु्ुनिसत्तम ॥१०॥ 
श्रीपराशर उवाच 
सुनीथा नाम या कन्या सृत्योः प्रथमतोऽमवत्‌ । 
ग्ज्गस्य भार्या सा दत्ता तस्यां वेनो व्यजायत ।११ 
स मातामहदोषेण तेन मृत्योः सुतार्मजः। 
निसगदिषं मतरेय दुष्ट एव व्यजायत ॥१२॥ 





शीपराशरजी बोरे--हे मेतरेय ! ध्रुवसे [उसकी 
पत्नीने] शिष्टि भौर भव्यक्रो उसन्न किया ओर मन्य- 
से श्म्भुका जन्म हुआ तथा रिष्टे द्वारा उसकी 
पत्नी सुच्छायाने रिपु, रिपुञ्जय, विप्र, वृक ओर 
वृकतेजा-नामक पच निष्पाप पुत्र उतपन्न किये । 
उनमेसे रिपुके द्वारा ब्रृहतीके गभेसे महातेजस्वी 
चाक्षुपका जन्म हुभा ॥ १-२॥ चक्षुषने अपनी 
साया पुष्करिणीसे, जो वरुण-कुश्मे उसन्न ओौर 
महात्मा वीरण प्रजापत्िकी पुत्री थी, ममुको उसन्न 
किया [ जो छठे मन्वन्तरके अधिपति हए ]॥ ३॥ 
तपस्वियोँभ श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापतिकी पुत्री 
नडवलाके गभेसे दश्च महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हए 
॥४॥ नडवरासे कुरु, पुरु, शतवयुम्न, तपस्व सव्य- 
वान्‌, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नँ सुम्न. 
ओर देशव अभिमन्यु--इन महातेजस्वी पुर्राका 
जन्म हज । ऊुरुके द्वारा उसको पत्नी आग्नेयीने 
अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरसा ओर शिबि-- 
इन छः; प्रम तेजस्वी पु्रोको उत्पन्न किया | अङ्गसेः 
सुनीथाके वेन नामक पुत्र उसन्न हुभा ॥५-७।ऋषि- 
योने उस (धेन) फे दाहिने हाथका सन्तानके लिये 
मन्थन कियाशथा। हे महामुने! वेनके हाथका 


` मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपा उसन्न 


हृए जो प्रु नामसे विख्यात ह ओर जिन्हे प्रजा- 
के हितके लि पूक्कालमे पथिवीको दुद था ॥८-९॥ 
श्रीभेजेयजी बोरे-हे मुनिश्रेष्ठ ! परसषियोने 
वेनके हाथको क्यो मथा, जिससे महापराक्रमी 
परथुका जन्म हुम १॥ १०॥ | 
श्रीपरारारजी बोरो-हे सुते ! भ्स्युकी सुनीथा 
नामवाी जो प्रथम पत्री थी वह अङ्खको पल्नीरूप- 
सेदी( व्याही) गयीथौ, उसीसे वेनका जन्म 
हु ॥ ११॥ हेमेत्रेय ! वह्‌ मृस्युक्ी कन्याका पुत्र 
अपते मातामह ( नाना) के दौषसे स्वभावसे ही 


दु्ट हआ ॥ १९ ॥ उस वेका निस समय महर्पियोः 


७२ 


श्रीपिष्णुपुराण 


[ अ० १३ 











श्ममिषिक्तो यदा राज्ये स वेनः परमर्षिभिः 
घोषयामास स तदा प्रथिव्यां पृथिवीपतिः || १३॥ 
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं कथञ्चन । 
भोक्ता यज्ञस्य कस्तवन्यो यहं यज्ञपतिः प्रथः १४ । 
ततस्तमृषयः पूवं सम्पूज्य पृथिवीपतिम्‌ । 
ऊचुः सामकरं वाक्यं मैत्रेय सदुपस्थिता; ॥१५॥ 
ऋषय उचुः 
मो भो राजन्‌ शृणुष्व खं यद्वदाम महीपते । 
राज्यदेहोपक्राराय प्रजानां च हितं परम्‌ ॥१६॥ 
दीर्घसत्रेण देवेशं स्वयक्नेषरं हरम्‌ । 
पूजयिष्याम भद्रं ते तस्यांशस्ते मविष्यति।।१५७॥ 
यज्ञेन यज्ञपृरपो विष्णुः सम्प्रीणितो तृप । 
गरस्मामिभेषतः कामान््वनिव प्रदास्यति ॥ १८॥ 
यतयं जञेश्वरो येपां राट सम्पूज्यते हरि; । 
तेषां सर्वेष्ितावाध्रिं ददाति नृप भूभृताम्‌ ॥१९॥ 


वेन उवाच 


मत्तःकोऽस्यधिकोऽन्योऽस्ति कशथाराध्यो ममापरः 


कोऽयं हरिरिति ख्यातो यो वो यत्नेश्रो मतः।२०। 
बरह्मा जनार्दनः शम्धुरिनद्रो वायुयंमो रविः । 
हुतयग्बरूणो धाता पूषा भूमिर्निंशाकरः ॥२१॥ 
एते चान्ये च ये देवाः शापानुग्रहकारिणः | 


नृपस्यैते शरीरस्थाः सवदेवमयो नुषः ॥२२॥ 
एवं ज्ञात्वा मयाक्पं यद्यथा क्रियतां तथा | 
न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च मो द्विजाः २३। 
मदेशुभ्रुषणे धमो यथा स्रीणां परो मतः। 


हारा राजपदपर अभिषेक हा उसी समय उस 
प्रथिवीपत्िने संसारमरमें यह घोषणा करदीकि 
"भगवान्‌? यज्ञपुरुष मँ ही हू, मुञ्चसे अतिरिक्त यज्ञ- 
का भोक्ता ओर स्वामी होदही कौन सकतादहै!? 
इसलिये कभी कोड यज्ञ, दान ओौर हवन आदि न 
करे ॥ १३-१४॥ हे भैत्रोय ! तब ऋषयोने उस 
प्रथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब 
प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वागीसे कहा ॥१५॥ 


ऋषिगण बोले--हे राजन्‌ ! हे प्रथिवीपते। 
तुम्हारे राज्य ओर देहके उपकार तथा प्रजाके हित- 
के ल्ि हम जो वातत कते दै सुनो ॥१६॥ वुम्दारा 
कल्याण हो; देखो, हम बदे-बड़े यज्ञोद्ारा जो सचं- 
यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान्‌ हरिका पूजन करेगे 
उसके फल्मेसे तुमको भी [छटा] भाग मिरेगा ॥१७। 
हे सृप ! इस प्रकार यज्ञोके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्‌ 
विष्णु प्रसन्न होकर हदमलोगोके साथ तुम्हारी भी 
सकट कामनार्पँ पूणे करेगे ॥ १८॥ हे राजन्‌ । 
जिन राजाओके राञ्यमे यज्ञेश्वर भगवान्‌ हरिका 
यज्ञोद्वारा पूजन किया जात्ता है, वे उनकी सभी 
कामनाओंको पूणं कर देते दै ॥ १९॥ 


वेन बोला मुक्चसे भी बदुकर एसा ओर कौन 
हैजोमेरा भी पूजनीय है जिसे तुम यज्ञेश्वर 
मानते हो बह्‌ रि" कदरनेवाखा कौन है १ ॥२०॥ 
रह्मा, विष्णु, महदिव, इन्द्र, वायु, यम, सूये, अग्नि, 
वरुण, धातता, पूषा, प्रथिवी ओौर चन्द्रमा तथा इनके 
अतिरिक्त ओौर भी जित्तने देवता ज्ञाप ओर छपा 
करनेमे समथ दह, वे सभी राजाके श्लरीरमे निवास 
करते है, इस प्रकार राजा सव॑देवमय है ॥२१-२२॥ 
हे ब्राह्मणो ! फेस जानकर मैने जैसपे जो कुछ आज्ञा 
कीहैवेसाहीक्रो। देखो, को भी दान, यज्ञ 
ओर हवन आदि न करे ॥ २३॥ दे द्विजगण ! ली- 


का परमधमं जेसे अपने पतिकी सेवा करना ही 
__ न ह ॐ ^ 


‰# कि नध 


---------------------------------~-~---------~--------~------~------- 


ऋषय ऊचुः 
देद्यसुत्ां महाराज मा धर्मो यातु सदक्षयम्‌ । 
हविषां परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत्‌ ।२५॥ 

श्रीपराशर उवाच 

इति विज्ञाप्यमानोऽपि स वेन! परमपिभिः। 
यदा ददाति नानुज्ञां प्रोक्तः प्रोक्तः पूनः पुनः।।२६॥ 
ततस्ते मुनयः स्वे कोपामपसमन्विताः । 
हन्यतां हन्यतां पाप इ्यूचुस्ते परस्परम्‌ ॥२७। 
यो यत्ञपुस्षं विष्णुमनादिनिधनं प्रथम्‌ । 
विनिन्दत्यधमाचारो न स योग्यो युवः पतिः॥२८॥ 
इत्युक्त्वा मन्त्रपूतैसतैःदुशेषु निगणा नृपम्‌ । 
नि जप्लु्निहतं पूवं भगवन्निन्दनादना ॥२९॥ 
यतश्च मुनयो रेणुं दद्शुः सर्वतो द्विज । 
किमेतदिति चासनान्प्रच्छस्ते जनास्तदा ।२०॥ 
आख्यातं च जनेस्तेषां चोरीभूतैरराजके । 
र्ट त॒लोकैरारन्धं परस्वादानमातुरः ॥२१॥ 
तेषामदीणवेगानां चोराणां सनिसत्तमाः । 
सुमहान्‌ दुष्यते रेणुः परवित्तापहारिणाम्‌॥३२९॥ 
ततः सम्मन्त्र्य ते सर ुनयस्तस्य भूभृतः । 
ममन्धुरुहं पूत्रा्थ॑मनपत्यस्य यत्नतः ॥२३॥ 
मभ्यमानात्स्तस्थौ तस्योरोः पुरुपः किल । 
दग्धस्पूणाप्रतीकाशः खर्वाटास्योऽतिहस्रकः।३४। 
किं करोमीति तान्तर्वान्स विप्रानाह चातुरः । 
निषीदेति तमूचुस्ते निषादस्तेन सोऽभवत्‌ ॥३५॥ 
ततस्तत्सम्भवा जाता विन्ध्यकेटनिवासिनः | 
निषादा सुनिश्ादल पापकमोपरक्षणाः ॥३६॥ 
तेन दारेण तत्पापं निष्क्रान्तं तस्य भूपतेः । 


निषादास्ते ततो जाता वेनकल्पपनाशनाः ॥३७॥ 
वि० पु° १०-~ 








ऋषिगण बोरो- महाराज ! आप रेसी आन्ना 
दीजिये, जिससे धमेका क्षय न हो । देखिये, यह्‌ 
सारा जगत्‌ हवि ( यज्ञम हवन की हुई सामभ्री ) 
काही परिणाम है॥ २५॥ 


श्रीपराश्चरजी बोलो-महर्षियोके इस प्रकार 
बारंबार समश्चाने ओर कहूने-सुननेपर भी ज वेनने 
ेसौ आज्ञा नदं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध ओौर अमषै- 
युक्त होकर आपसे कहने लगे-द्रस पापीको मारो, 
मासे ! ॥ २६-२७॥ जो अनादि ओौर अनन्त यज्ञ- 
पुरुष प्रमु विष्णुकौ निन्दा करता है बह अनाचारी 
किसी प्रकार प्रथिकीपति होनेके योग्य नहीं दहै 
॥ २८ ॥ एसा कह युनिगगोँने, भगवान्‌कौ निन्दा 
आदि करनेके कारण पले हौ मरे हुए उस राज्ञाको 
मन्त्रसे पवित्र किये हुए कुञ्चाओंसे मार डारा ॥२९॥ 


हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वसने सब ओर बड़ी 
धृल उठती देखी, उसे देखकर उन्होने अपने निकट. 
बततीं रोगोँसे पुठा--“्यह्‌ क्या है १" ॥ ३०॥। उन 
पुरुषान कदा--“राषटूके राजाहीन हो जानेसे दीन. 
दुखिया लोगोनि चोर बनकर दुसरोका धन टूटना 
आरम्भ करदियादहै ॥३१॥ हे मुनिवरो ! उन 
तीव्र वेगबाे परधनहारी चोरोके उत्पातसे ही यह 
बड़ी भारी धूलि उडती दीख रही दै, ॥ ३२॥ 


तव उन सव मुनीन्धसोने आप्रसमे सलाह कर 
उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लि यल्नपूचंकं 
मन्थन किया ॥ ३३॥ उसकी जंघाके मथनेषर उससे 
एकं पुरुष उदयन्न हभा जो जले द्ठके समान काटा, 
अत्यन्त नाटा ओर छोटे मुखवाछा था ॥ ३४॥ 
उसने अत्ति आतुर होकर उन सव ब्राह्मणोँसे कदा-- 
धै क्या कर १ उन्होने कहा--"“निषीद ( बैठ )" 
अतः बह 'निषाद्‌" कलाया ॥ २५॥ इसलिये हे युनि- 
शादु ! ससे उसन्न हुए लोग विन्भ्याचलनिवासी 
पाप-परायण निषादगण हुए ॥ २६ ॥ उस निषाद्ख्प 


द्वरसे राज्ञा वेनका सम्पूण पाप निकट गया । अतत 


निषादृगण वेनके पापोका नाश्च करनेवरारे हुए ।॥३७॥ 


तस्यैव दक्षिणं हस्तं ममन्धुसते ततो द्विजाः ३८॥ 
मथ्यमाने च तत्राभूतयुर्वेन्यः प्रतापवान्‌ । 
दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ञ्वल्‌॥२९॥ 
आद्यमाजगवं नाम खात्पपात ततो धनुः । 
दुरा दिव्या नभसः कवचं च पपात हं ।४०॥ 
तस्मिन्‌ जाते तु भूतानि सम््हृटानि सवशः । 
सत्पुत्रेणैव जातेन वेनोऽपि त्रिदिवं ययौ ॥४१॥ 
पुन्नाम्नो नरकात्‌ त्रातः सतेन सुमहात्मना । 

तं सुराश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सवशः ॥४२॥ 
सोयानि चाभिषेकाथं सर्वाण्येवोपतस्थिरे । . 
पितामदश 
स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सवशः । 
समागम्प तदा वैस्यमभ्यपिश्वेन्नराधिपम्‌ ॥४४॥ 
हस्ते तु दक्षिणे चक्र दृष्ट्वा तस्य पितामहः । 
विष्णोरंशं पृथु सखा परितोषं परं ययो ॥४५॥ 
विष्णुचक्र करे चिद्य सर्वेषां चक्रवतिनाम्‌ । 
भवत्यन्याहतो यस्य प्रभावस्िदशेरपि ॥४६॥ 
महता राजराज्येन पृरथुवैन्यः प्रतापवान्‌ । ` ` 
सोऽभिषिक्तो महातेजा विधिवद्धमेकोविदैः ।।४७। 
पित्रापरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनातुरञ्जिताः । 
अनुरागात्ततस्तस्य. नाम॒राजेत्यजायत ॥४८॥ 
शापस्तस्तम्भिरे चास्य सञुद्रमभियास्यतः । 
पवताश्च ददुरमागं ध्वजभङ्ग नाभवत्‌ ॥४९॥ 
अकृष्टपच्या परथिवी सिद्धयन्त्यन्नानि चिन्तया । 
सवेकामदुषा गात्रः पुटके पुटके मधु ॥५०॥ 
तस्य वै जातमात्रस्य यन्ते पैतामहे शुभे । 
घतः सूत्यां सघुत्पन्ः सौत्येऽहनि महामतिः॥५१॥ 


ऋ | ५ क = क = 





श्रीविष्णुपुराण 


--------------------------------------------- 





, भगवन्देषैराद्धिरसेः सह ॥४३॥ 








[ श्र० १३ 





फिर उन ब्राह्मणोँने उसके दायं हाथका मन्थन 
किया । उसका मन्थन करनेसे परमप्रतापौ वेनञ्ुबन 
प्रथु प्रकट हए, जो अपने शरीरस प्रजवित अग्नि 
के समान देदीप्यमान थे ॥ ३८-३९॥ इसी समय 
आजगव नामक आद्य ( सवेप्रथम ) शिब-धनुष 
ओर दिव्य बाण तथा कवच आकाञ्चसे गिरे ॥४०॥ 
उनके उतपन्न होमेसे सभी जीवको अत्ति आनन्द 
हा रौर केवल सतपुत्रके ही जन्म लेनेसे वेन भौ 
स्वर्भलोककफो चला गया ॥ ४१ ॥ दरस प्रकार महात्मा 
पुचके कारण हौ उसकी पुम्‌ अर्थात्‌ नरकसे रक्ता हई । 

महाराज प्र्ुके अभिषेकके स्यि सभो समुद्र 
आओौर नदियां सव प्रकारके रतन ओौर जल ठेकर उप- 
स्थित हुए । उस समय आङ्गिरस देबग्गोके सदित 
पितामह जह्याजीने ओौर समस्त स्थावरजंगम प्राणियो- 
ने वह आकर महाराज वैन्य (वेनपुच्र) का राञ्या- 
भिषेक किया ॥ ४२-४४ ॥ उनके दाहिने हाथमे चक्र- 
का चिह्न देखकर उन्दः विष्णुका अंश जान पित्तामह 
ब्रह्मा जीको परम आनन्द्‌ हुआ ४५॥ यह श्रीविष्णु- 
भगवानृकरे चक्रका चिह्न सभौ चक्रवर्ती राजाजोके 
हाथमे हा करता & जिसका प्रभाव कि देवताओं 
से भी कुण्ठित नहीं होता ॥ ४६ ॥ 

इस प्रकार महातेजस्वी ओर परम प्रतापी वेन 


पुत्र, ध्मङुशल महाभात्रो द्वारा विधिपूवंक अति 
महान्‌ राजरजेश्वरपद्पर अभिषिक्त हुए ॥ ४७ ॥- 


| जिस प्रजाको पिताने अपरक्त ( अप्रसन्न) कियाथा 


टसीको उन्होने अनुरञ्ित ( प्रसन्न } किया, इसल्यि 
अनुरञ्जन करनेसे उनका नाम (राज्ञा' हु ॥४८॥ 
जव वे.समुद्रम चरूतेथे, तो जर स्थिर हो जाता 
था; पवेत न्ह मागं देते थे भौर उनकी ध्वजा कभी 
भंग नदीं हुई ॥ ४९ ॥ प्रथिवी चिना जोते-बाये धान्य 
पकामेवादी थी; केवल चिन्तनमाचरसे ही अन्न सिद्ध 


हो जाताथा, गौ्पँं कामघेनुरूप थीं ओर पुट-पुटमें 


मधु भरा रहता था ॥ ५० ॥ 

राजञा प्रुने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया 
उसंसे सोमाभिषवके दिनं सूति (सोमाभिषवभूमि) 
से महामति सूतकी उत्पत्ति हु 11 ५१९ ।॥ उसी महा- 





प्रोक्तौ तदा युनिवरैस्तावुमौ प्ूतमागधौ ॥५२॥ 
स्तूयतामेष चृपतिः प्रधु्ेन्यः प्रतापवान्‌ । 
कर्मेतदुरूपं वां पात्रं स्तोत्रस्य चापरम्‌ ॥५३॥ 
ततस्तावृचतुरविप्रान्सर्वानिव कृताञ्जरो । 
ञअरद्यजातस्य नो करम ज्ञायतेऽस्य महीपतेः ।।५४॥ 
गुणान चास्य ज्ञायन्ते न चास्य प्रथितं यक्षः 

स्तोत्रं फिमा्रयं त्वस्य काय मस्माभिरच्यताम्‌। 

ऋषय उचुः 


करिष्यत्येष यत्कर्म चक्रवती महाबलः । 





गुणा भविष्या ये चास्य तैरयं स्तूयतां चपः ॥५६॥ 
 श्रीपराश्चर उवाच 

ततः स सृपतिस्तोपं तच्छूला परमं यथो । 
सद्गुणःछाध्यतमिति तस्माल्नभ्या गुणा मम ।५७। 
तस्माध्यदब स्तोत्रेण गुणनिवं्णनं विमो | 
करिष्येते करिष्यामि तदेवाहं समाहितः ॥५८॥ 
यदिमौ वजंनीयं च फिञ्चिदत्र वदिष्यतः । 

तदहं बजयिष्यामीत्येवं चक्रे मतिं सपः ॥५९॥ 
अथ तौ चक्रतुः स्तो परोर्वेन्यस्य धीमतः। 
भविष्यैः कर्मभिः सम्यकूसुस्वरौ द्रूतमागधौ ।।६०॥ 
सत्य वाग्दानशीरोऽयं सत्यसन्धो नरेरः। 
हीमान्मैवः क्षमाशीलो विक्रान्तो दु्टशासनः ॥६१॥ 
धमथ कृतक्ञश्च दयावान्‌ प्ियभापक; । 
मान्यान्मानयिता यज्वा बरह्मण्यः साधुसम्मतः।६२। 
समः शत्रौ च मित्रे च म्यवहारस्थितौ सपः । 





प्रतेनोक्तान्‌ गुणानित्थं स तदा मागधेन च ॥६२॥ 
चकार हृदि तादृक्‌ च कर्मणा कृतवानसौ । 
ततस्तु पृथिवीपालः पायन्प्रथिवीमिमाम्‌ ।॥६४॥ 


इयाज विविधैयंतमहदधिभूरिदक्षिणैः । 


तव मुनिवर्योने उन दोनों सूत ओर मागधोसे कदा- 
॥ ५२ ॥ “तुम इन प्रतापवान्‌ वेनपुत्र महाराज 
परथुकी स्तुति करो । तुम्हरे योग्य यही कायं ह ओर 
राजा भी स्तुतिके दही योग्य ह” \| ५३ ॥] तव खन्होने 
हाथ जोड़कर सव ब्राह्मणोसे कहा-- “ये महाराज 
तो आजही उत्पन्न हुए दह, हम इनके कोटं कमं 
तो जानते हौ नहीं दै ॥५४॥ अभी इनकेन तो 
को गुण प्रकट हूए दै ओौरन यशी विख्यात 
हुआ है; फिर किये, हम किस आधारपर इनकी 
स्तुति करं १ ॥ ५५ ॥ 

ऋषिगण वोले-ये महाबली चक्रवर्ती महाराज 
भविष्यमे जो-जो कमं करेगे ओौर इनके जो-जो 
भावी गुणहोगे उन्दीसे तुम इनका स्तवन करो 
।॥ ५६ ॥ 

श्रीपयशरजी बोखे--यह्‌ युनकर राजाको भी 
परम सन्तोष हुभा; न्होने सोचा--“मनुष्य सद्‌- 
गुणोके कारण ही प्रञञ॑साका पात्र होतादै अतः 
छश्चको भी गुण उपाजेन कर्ते चाहिये ॥ ५७ ॥ इस- 
लिये अव स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोका बणेन 
करेगे मे भी सावधानतापूरंक वेसा ही करूगा 
॥ ५८ ॥ यदि यद्ौँपर ये छु त्याज्य अवगुणोंको 


| भी कगे तो मँ उन्हे त्यागा | इस प्रकार राजाने 


अपने चिन्तमे निश्चय किया ॥ ५९ ।॥ तदनन्तर उन 
( सूत ओौर मागध ) दोनोने परम चुद्धिमान्‌ वेन- 
नन्दन महाराज प्रथुका, उनके भावी कमफि आश्रय 
से स्वरसदहित भटीप्रकार स्तवन फिया ॥ ६० ॥ 
[ उन्होने कहा--] “ये महाराज सत्यवादी, दान- 
लील, सत्यम्यदावाले, छलाशीर, सुष्द्‌, क्षमाशीर) 
पराक्रमी जौर दुष्टोका दमन करनेवाठे है ॥ ६१॥ 
ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान्‌, प्रियभाषी, माननीयोँको 
मान देनेवाटे, यज्ञपरायण, ब्रह्मण्य, साधुसमाजमें 
सम्मानित ॥ ६२॥ तथा व्यवहार पड़नेपर शत्र 
ओौर मित्रके प्रति समान रहनेवलि ह" हस प्रकार 
सूत ओौर मागधके कहे हुए गुणोको उन्होने अपने 
चित्तम धारण किया ओर उसी प्रकारफै कायं कियि 
तव उन प्रथिबी-पतिने प्रथिवीका पालन करते हुए 
बद्ो-बड़ी दश्चिणाभों वाके अनेकों महम्‌ यज्ञ किये । 





तं प्रजाः पथिवीनाथगुपतस्थुः क्षुधार्दिताः ॥६५॥ 

ओषधीषु प्रणष्टासु तस्मिन्कारे द्यराजके । 

तमूचुस्ते नताः प्र्टास्तत्रागमनकारणम्‌ ॥६६।॥ 
प्रजा ऊचुः 

अराजके नृपश्रेष्ठ धरा सकरोपधीः । 

ग्रस्तास्ततः क्षयं यान्ति प्रजाः सर्वाः प्रजेश्वर ६७) 

स्वनो वृत्तिप्रदो धात्रा प्रजापारो निरूपितः । 

देहि नः षुत्परीतानां प्रजानां जीवनोषघी; ॥६८॥ 

श्रीपराशर उवाच 

ततस्तु तरपतिर्दिभ्यमादायाजगवं धनुः । 

शरांध दिव्यान्छपितः सोऽन्वधावदरसुन्धराम्‌।। ६९॥ 

ततो नना स्वरिता गौर्भूत्वा च वसुन्धरा। 

सा लोकान्बह्मरोकादीन्सन्त्रापादगमन्मही ॥७०॥ 

यत्र यत्र यथौ देवी सा तदा भूतधारिणी। 

तत्र तत्र तु सा वैन्यं ददृेऽभयुद्तायुधम्‌।।७१॥ 

ततस्तं प्राह वसुधा प्रथु पृथुपराक्रमम्‌। 

प्रवेपमाना तद्वाणपसत्राणपरायणा ।।७२॥ 
प्रथिव्युवाच 

स्मीवधे तं महापापं किं नरेन्द्र न पश्यसि | 

येन मां हन्तुमत्यथं प्रकरोषि वृपोधमम्‌ ॥७३॥ 
प्थुहवाच 

एकस्मिन्‌ यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि। 

बहूनां मवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः ॥७४।॥। 

- प्रथिग्युवाच 








प्रजानापरुपकाराय यदि मां त्वं हनिष्यसि । 
आधारः क; प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति ॥७५॥। 


प्रथुरवाच 
> 0 
सुधे बाणमंच्छासनपाडुखीम्‌। 
भेनेमा धारयिष्याम्यरं प्रजा; ।॥७६॥ 


अराजकताके समय ओषधियोके नष्ट हो जनेसे 
भूखसे व्याकुल हुई प्रजा प्रथिकीनाथ प्रथुक्े पास 
भायी ओर उनके पूनेपर प्रणाम करके उनसे 
अपने अनिका कारण निवेदन किया ॥ ६२-६६ ॥ 


प्रजाने कदहा- हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकता- 
के समय प्रथिर्बाने समस्त ओषधिं अपनेमे छीन 
क्र ली है, अतः आपकी सम्पूणं प्रजा क्षीण हो रही 
ह ॥ ६७ ॥ विधाताने आपको हमारा जीवनद्‌ायक 
प्रजापति बनाया है; अतः श्षुधारूप महारोगसे 
पीडित हम प्रजाजनोको आप जीवनरूप ओषधि 
दीजिये ॥ ६८॥ 


श्री पराश्रजी बोर- यह सुनकर मष्टाराज 
पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष ओर दिन्य 
चाण छेकर अत्यन्त क्रोधपूवक प्रथिवोके पीछे वोदे 
| ६९ । तव भयसे अत्यन्त भ्याक्रुरु हह प्रथिवी 
गौका रूप धारणकर भागी ओर ब्रह्मलोक आदि 
सभी लोकौमे गयी ॥ ७० ॥ समस्त भूतोको धारण 
करनेवाली प्रथिवी जर्हा-जहँ भी गयी वही-वहीं 
उसने वेनपुत्र प्रथुको शक्ल-सन्धान क्रिये अपने पीछे 
आते देखा ॥ ७१ ॥ तब उन प्रवल्न पराक्रमी महाराज 
्रथुसे, उनके बाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे 
कोपती हु प्रथिवी इस प्रकार बोली ॥ ५२॥ 


पृथिवीने कहा-हे र जेन्द्र ! क्या आपको खी. 
चधका महापाप नदं दीख पड़ता, जो सुक्षे मारने- 
पर आप देसे उतारू हो रहे है १?।॥ ७२३॥ 


प्रथु बोले-जहँ एक अनथंकारीको मार देनेसे 
बहुतोको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यग्रद्‌ 
दै। ७ ॥ 


परथिवी बोरी--हे चृपश्रष्ठ ! यदि आप प्रजे 
हितके लिये हयै भुक्षे मारना चाहते है तो [ मेरे मर 
जानेपर ] आपकी प्रजाका आधार क्या होगा ! 
॥ ७५1 

पृथुने कहा--अरी वसुधे ! अपनी आज्ञाका 
उल्लद्कन करनेवाली तुके मारकर मँ अपमे योगवल- 
से ही इस प्रजाको धारण कगा ॥ ७६ ॥ 


> < आ 








श्रीपराक्ञर उवाच 

ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम्‌ । 
प्वेपिताङ्खी प्रमं साध्वसं सथुपागता ॥७७॥ 

| प्रथिध्युवाच 
उपायतः समारण्धाः सवे सिद्धचन्त्युपक्रमाः | 
तस्माद्रदाम्युपायं ते तं कुरुष्व यदीच्छसि ॥७८॥ 
समस्ता या मया जीर्णा नरनाथ महषधीः । 
यदीच्छि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः॥७९ 
तस्माखजादितार्थाय मम घर्मभृतां बर | 
तं तु वत्सं डुरुष्व तवं क्षरेयं येन वत्सला ॥८०॥ 
समां च छुर्‌ सवत्र येन क्षीरं समन्ततः । 
वरोपधीवोजभूतं बीजं सर्वत्र भावये ॥८१॥। 
। श्रीपराङ्र उवाच 
तत उत्सारयामास शेलान्‌ शतसहस्रशः । 
धनुष्कोख्या तद्‌ वैन्यस्तेन शेला विवद्धिताः।८२॥ 
नहि पूर्वविसगे वै विषमे प्रथिवीतले। 
प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराभवत्‌ ॥८३॥ 
न सस्यानि न गोरत्यं न कृषिनं बणिक्पथः । 
वेन्या्भृति मेते सवंस्यैतस्य सम्भवः ॥८४॥ 
यत्र यत्र समं त्वस्या भूमेरासीदूदिजोत्तम। 
तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन्‌ ॥८५॥ 
्ाहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा । 
कृच्छेण महता सोऽपि प्रणष्टास्वोषधीपु वे ॥८६॥ 
स कल्पयित्वा व्सं तु मनु स्वापम्धुवं प्रथम्‌; 
स्वपाणो पएृथिषीनाथो दुदोह प्रथिवी पृथुः ॥८७॥ 
सस्यजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया । 
तेनान्नेन प्रजास्तात वतन्तेऽ्यापि नित्यश्चः॥८८॥ 
पराणप्रदाता स प्रुय॑स्मद्धमेरभरिपता । 








श्रीपराश्रजी बोरे-तब अत्यन्त भयभीत एवं 
कपत हई प्रथिवीने उन प्रथिवौपत्तिको पुनः प्रणाम 
करके कहा ॥ ७७ ॥ 

पृथिवी बोली -हे राजन्‌ ¦ यत्नपूवंक आरम्भ 
किये हृष सभी कायं सिद्ध हो जते ह । अत्रय मी 
आपको एक उपाय बतातौ द यदि आपकी इच्छा 
हो ततो वैसा ही करे ॥ ७८॥ हे नरनाथ ! भने जिन 
समस्त ओषधियोंको पचा ज्लिया है उन्ँं यदि 
आपकी इच्छा हो तो दुग्धल्पमं चै दे सकती दँ 
॥ ७९ ॥ अतः हे धर्मात्माओंमें शरेष्ठ महाराज । आप 
प्रजाके हितके लिये कोई एेसा बस्स ( बछडा ) 
बनाये भिससे बात्सल्यवश्ञ मै चन्द दुग्धरूपसे 
निकाल सकं ॥ ८० ॥ ओर्‌ सुश्चको आप सवत्र सम- 
तल कर दीजिये जिससे मै उत्तमोत्तम ओषधिथोके 
बीजरूप दुग्धको सवत्र खलयन्न कर सकं ॥ ८१॥ 


श्रीपराश्चरजी बोरे-तव महाराज प्रथने अपने 
धनुषकी कोटिसे सैको-हजारौ पवेतोको उखाड़ 
ओर उन्हे एक स्थानपर इकट। कर दिया ॥ <२॥ 
इससे पूवं प्रथिवीके समतछ न होनेसे पुर भौर 
ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था 
॥ ८३ ॥ हे मैत्रेय ! उस समय अन्न, गोरक्षा, कृषि 
ओर ्यापारकामी कोरक्रमन था] यह्‌ सवतो 
वेनपुच्र पृथुके समयसे हौ आरम्भ हुजा है ॥ ८४ ॥ 
हे द्विजोत्तम ! जरह.जहौँं भूमि समतल थी वर्ही- 
वर्हीपर प्रजाने निवास करना पसंद किया ॥ ८५ ॥ 
उस समयत्तक प्रजाका आहार केवल फल-मूखादि 
ही था; वह्‌ भी ओषधियौके नष्ट हो जानेसे बड़ा 
दुखेम हो गया था ॥ <६ै ॥ 

तब प्रथिवीपति प्रथने स्वायम्भुव्रमलुको वछ्ड़ा 
चनाकर्‌ अपने हाथमे ही प्रथिवीसे प्रजाके हितके 
लिये समस्त धान्योको दुहा ह तात! उसी 
अन्नके आधारसे अव मी सदा प्रजा जीवित रहती 
है 1] ८७.८८ \। महाराज प्रथु प्राणदान करनेके 
कारण भूमिके पिता हुए इसलिये उस सवभूत 





+ जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेनाला, अन्नदाता, भयते रक्षा करनेवाला तथा जौ विद्यादान करे-ये 


पाचों पिता मानै गये है; जैसे कहा है- 


जनकश्चोपनेता च यश्च विधाः प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पश्चेते पितरः स्मृताः ॥ 








ततस्तु परथिवीसंज्ञामवापखिृधारिणी ॥८९।। | धारिणीको ध्रथिवी' नाम मिला ॥ ८९ ॥ 


ततश्च देैषुनिरभिदेत्यै रक्षोभिरद्रिमिः। ` हे शने ! फिर देवता, सुनि, दैत्य, राक्षस, पवत, 
गनधः पिह्मस्तरुमिस्तथा॥९०॥| गन्धनं, सप यक्ष जोर पिद्गण आदिने जपन-पने 

, पामे अपना अभिमत्त दूध दुहा, तथा दुहनेबारो- 
तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तदृदुग्ध युन प्रयः | के अनुसार उनके सजातीय हौ दोग्धा ओर बत्स 
वत्सदोशरवेपाश तेषां त्ोनयोऽभवन्‌ ॥९१॥ | जादि ह ॥ ९०.९१ ॥ इसलिये निष्णुभगवानकै 
चरणोँसे प्रकट हई यह्‌ प्रथिवी ही सबको जन्म 
देनेबाी, बनानेबाी तथा धारण ओर पोषण 
स्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतलोद्धवा ॥९२।|| .करनेवाली है ॥ ९२ ॥ इस प्रकार पूरेकारमें वेनके 

. पुत्र महाराज प्रथु देसे प्रभावशाली ओौर वीयव 

एव्मायस् पुः प्रो वेनस्य बीर्यवान्‌ | = | पुज मकान ध्र द भभावर त 


~ विः हए । प्रजाका रञ्जन करनेके कारण वे राजा 
जज्ञे महीपतिः पूर्वो राजाभूजनरञ्लनात्‌ ॥९३॥ | करये ॥ ९२ ॥ 


य इदं जन्म वैन्यस्य प्रथोः संकीत्तयेनरः जो मनुष्य महाराज प्रुके इस चरित्रका कीतंन 
; कि ~ : हीं 
न तस्य दुष्ठृतं किञ्चित्फटदायि प्रजायते ॥९४॥ करता है रसका कोई भी दुष्कमं फलदायी न 
+ होता ॥ ९४ ॥ प्रुका यह अय्युत्तम जन्मचरत्तान्त 
दुस्स्वप्नोषशमं नृणां शृण्व॑तामेतदुत्तमम्‌ । 


९ £ = ओर उनका प्रभाव अपने सुननेवारे पुरुषोके 
पृरथोजन्म प्रभावश्च करोति सततं रणाम्‌ ॥९५ | दुःखप्नोको सर्॑दा शान्त कर देता दै ॥ ५५॥ 


^+" 


सैषा धात्री विधात्री च धारिणी पोषणी तथा। 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽ त्रयोदञ्चोऽभ्यायः ॥ १३ ॥ 


(तौ 0) 01) । 


चोददरवँ अध्याय 
प्राचीनवर्हिका जन्म ओर प्रचेताभोंका भगवदाराधन 


्रीपराश्चर उवाच भ्रीपराद्यरजी बोठे-हे मेत्रेय ! प्रधुके अन्त 


. + . ज्ञ पुत्र हष; उनमेसे 
थोः पप्रौ त॒ धर्मज्ञो जकातेऽनतद्विवादिनौ द्धन मौर वादी-नामक दो धमज्ञ पुत्र हुए; उन 

॥ ५ ठ भमौ जज्ातेऽनतधिवादिनो अन्तद्धनसे उसकी पत्नौ कचिखण्डिलीने हविधौनको 
तिखण्डिनी हविधानमन्तर्थानाद्वयजायत ॥१॥ | उन्न किया ॥ १॥ हविर्थानसे अग्निक्ृलीना 


हविरधानात्‌ षडाग्नेयी धिषणाजनयस्सुतान्‌। धिषणाने प्राचीनवर्हि, शुक्र, गय) छृष्ण) वृज ओर 


#नयहिषं शुक्रं गयं कष्ण जनौ अजिन-ये क्कः पुत्र उत्पन्न कियि॥२॥ है महा- 
वचन शुक्र भय दप्ण धजाजिन। ॥२॥ भाग ! हविधौनसे उत्पन्न हए भगवान्‌ प्राचीनवर्हि 
+ नै र 
प्राचीनबरहिभेगवान्महानासीसजापतिः । एक महान्‌ प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी 

न क | ५ 
हपिर्थानान्महाभाग येन संवधिताः प्रजा! ॥३।। | मजाक बहुत बृद्धि की ॥ ३॥ हे मुने ! उनके समय 


ष्यं 8ि ने [ यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण ] प्राचौनाग्र 
रचीन गराः शप्तस्य परथिवयां विश्रृतायुने। कुश समस्त प्रथिवीमे फैले हुए थे, इसलिये वे महा- 


प्राचीनवहिरभवत्ख्यातो भवि महाबलः ॥४॥ । बी भ्राचीनवर्हिः नामसे विख्यात हष ॥ ४ ॥ 





सथ्द्रतनयायां त॒ कृतदारो महीपतिः । 
महतस्तपसः पारे सवर्णायां महामते ॥ ५॥ 


सवर्णाधत्त साघ्द्री दश्च प्राचीनवर्हिषः 
सवे प्रचेतसो नाम धसुर्वेदस्य पारगाः 
त्रपृथग्धर्मचरणास्तेऽतप्यन्त ` 
दशवष॑सहक्नाणि 


|} ६ ॥ 
महत्तपः । ` 
सथुद्रसहिलेशयाः ॥ ७॥ 

रित्य उवाच | 

यद्थ॑ते महारमानस्तपस्तेषु्हासने । 

प्रचेतः समुद्राम्भस्येतदाख्यातुमहैपि ॥ ८ ॥ 
श्रीपराश्चर उवाच 

पित्रा प्रचेतमः प्रोक्ताः प्रनार्थ॑ममितासमना । 

परजापतिनियुक्तेन बहुमान परस्सरम्‌ ॥ ९॥ 
 प्राचीनवहिरुाच 

ब्रह्मणा देवदेवेन समादिष्टो ऽस्म्यहं पुता; । 


तन्मम श्रीतये पुत्राः  प्रजाघरद्धिमतन्द्रिताः । 
इृरुष्यं माननीया वः सम्यगाकञा प्रजापते ॥११। 


श्रीपराञ्चर उवाच .. 
ततस्ते तत्पितः शरुखवा वचनं नृपनन्दनाः । 


तयेलुक्त्वा च तं भूयः पप्रच्छुः पितरं मुने ।।१२॥ 
॥ | 


प्रचेतस ऊच 
येन तात प्रजाघद्धौ समर्थः कमणा वयम्‌| 
भवेम तत्‌ प्रमस्तं नः कमं व्याख्यातुमहसि ॥१३॥ 


परितोवाच 


आराध्य वरदं विष्णुभिषटपर्िमसंशयम्‌ । 


समेति नान्यथा मत्यं; किमन्यत्कथयामि वः॥१४॥| : 


तस्मासनानिवद्वथं सर्वभूतपरभं हरिम्‌ । 
श्राराधयत गोविन्दं यदि सिद्धिमभीप्सथ ॥१५॥ 
धर्ममथं च कामं च मोक्षं चान्विच्छतां सदा । 














हे महामते ! उन महीपतिने महान्‌ तपस्याके अन- 
न्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णसे विवाह किया ॥ ५॥ 
उस समुद्र-कन्या सवर्णाके प्राचीनवर्हिसे दस पुत्र 
हुए । वे प्रचेता-नामक समी पुत्र धनुर्विद्याके पार- 
गामी थे॥ £ ॥ उन्होने समद्रफे जल्मे रहकर दश्च 
हजार व्षैतक समान धमंका आचरण , करते हष 
घोर तपस्या की ॥ ७॥ 


` श्रीमैत्रेयजी बोलोे--हे महामुने ! उन महात्मा 
प्रचेताओंने किसलये समुद्रके जलम तपस्या की 


थीसौो आप कहिये।८॥ 


श्रीपराश्चरजी कहने लगे-हे मेत्रेय ! एकवार 
प्रजापरतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा परिता 
पराचीनवर्हिने उनसे अति सम्मानपूवेक सन्तानो 
त्पत्तिके ल्ि इस प्रकार कहा । ९॥ 


प्राचीनवर्दिं बोरे-दहे पुत्रो! देवाधिदेव 
ब्रह्माजीने सु्चे आज्ञा दीदहै किं तुम प्रजाकरी वृद्धि 


"^ | | करोः ओौर मैने भो उनसे "बहुत अच्छाः कह 
प्राः संबद्धनीयास्ते मया चोक्तं तथेति तत्‌ ॥१०॥ 


दिया हे।॥ १० ॥ अत्तः हे पुत्राण | तुम भी मेरी 
प्रसन्नताके स्यि सावधानत्तापूबक प्रजाकौ वृद्धि 
करो; क्योंकि प्रजापतिको आज्ञा तुमको भौ सवथा 
माननीय ह | ११॥ 

श्रीपराशरजी बोरे--हे सने ! उन राजकछुमारोने 
पिताक ये वचन सुनकर उनसे जो आन्नाः एता 
कहकर फिर पूछा ।॥ १२॥ 


प्रचेता बोरो--हे तात ! जस कम॑से हम प्रजा- 
वृद्धम समथ हो सके, उतकौ आप्र हमसे भली 
प्रकार म्याख्या कौजिये ॥ ९३॥ 

पिताने कहा--वरदायक भगवान्‌ विष्णुकी 
आराधना करनेसे ही मसुष्यको नि्सन्दे् इष्ट 
वस्तुकी प्राप्न ह्योत है ओर किसी उपायसे नहीं । 
इसके सिवा भौर मै तुमसे क्या कहू | १४ ॥ इस- 


लिये यदि तुम सफर्ता चाहते हो तो प्रजा-बृद्धिके 


ल्यि सवं मूतोके स्वामी श्रौहरिगोविन्दकौ उपासना 
करो | १५॥ धमं,अथं, काम या मोक्षकौ इच्छावो 


| को सदा.भनादि पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुकौ हौ 


च 


न> 


श्ाराधनीयो भगवाननादिपुर्षोत्तमः ॥१६॥ 








यस्मिन्नाराधिते सगं चफारादो प्रातिः । 
तमाराप्याच्युतं वृद्धिः परजानां वो भविष्यति।।१७।॥। 
श्रीपराशर उवाच 
इस्येवथुक्तास्ते पित्रा पत्रा; प्रचेतसो दश । 
मग्नाः पयोधिसषिरे तपस्तेपुः समाहिताः ॥१८॥ 
दशवर्षसदस्चाणि न्यस्तचित्ता जगत्पतौ । 
नारायणे बनिश्रेष्ठ॒सर्वरोकपरायणे ॥१९॥ 
तत्रैवावस्थिता देवमेकाग्रमनसो हरिम्‌ । ` 
तषटयुवंससतुतः कामान्‌ स्तोतुरिटान्प्यच्छति।२०। 
श्रीमैत्रेय उवाच 
स्तवं प्रचेतो विष्णोः सथुद्राम्भसि संस्थिताः। 
चकरस्तन्मे एुनिश्रेष् सुपुण्यं वक्तुमई॑सि ॥२१॥ 
श्रीपराङ्ञार उवाच 
भृणु तत्रेव गोविन्दं यथापूव प्रचेतसः । 
तष्ुवुस्तन्मयीभूताः सथुद्रसिरेश्याः ॥२२॥ 
प्रचेतस ऊचुः 
नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा तत्र शाश्वती । 
तमादयन्तमरेषस्य जगतः परमं प्रम्‌ २३ 
ज्योतिराद्यमनौपम्यमण्वनन्तमपारवत्‌ । 
योनिभूतमशेषस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥२४॥ 
यस्याः प्रथमं रूपमरूपस्य तथा निशा । 
सन्ध्या च परमेषस्य तस्मे कारत्मने नमः॥२५॥ 
युञ्यतेऽतुदिनं देवैः पितभिध सुधात्मः। 
जीवभूतः समस्तस्य तस्म सोमात्मने नमः ॥२६॥ 
यस्तमांस्यत्ति तीव्रारमा प्रभामिर्भासयममः। 








आराधना करनी चाहिये ॥ १६ ॥ कल्पके आरम्भमें 
जिनकी उपासना करके प्रजापतिने ससारकी रचना 
की है, तुम उन अच््युतकी ही आराधना करो } इससे 
तुम्हारी सन्तानको बृद्धि होगी | १७॥ 


भीपराश्चरजी बोर--पिताकी एसी आज्ञा होने- 
पर प्रचेता नामक दशो पु्रौने समुद्रके जलम इवे 
रहकर सावधानतापूवेक तप करना आरम्भ कर 
दिया ॥ १८॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सवंखोकाश्रय जगत्पति 
श्रीनारायणमें चिन्त छ्गाये हुए उन्होने दश्च हजार- 
वर्षतक वहीं ( जख्में ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव- 
श्रीहरिकी एकाप्रचिन्तसे स्तुति की, जो अपनी स्तुति 
की जनेपर स्तुति करनेवालोंकौ समौ कामना 
सफल कर देते है ॥। १९-२० ॥ 


भीमेषेयजी बोले- हे स॒निश्रेषठ ! समुद्रके जल्मे 
स्थित रहकर प्रचेताओंने भगवान्‌ विष्णुकी जो अति 
पवित्र स्तुति की थी चह कृपया मुञ्चसे किये ॥ २१॥ 


श्रीपयशरजी वोके-हे मैत्रेय ! पूचेकालमें 
समुद्रम स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मय-भावसे 
श्रीगोविन्दकी जो स्तुति की, वह्‌ सुनौ ॥ २२॥ 


भरघेता्भोने कदा-जिनमे सम्पूणं वाक्योकी 
निव्यप्रतिष्ठा है [ अथौत्‌ जो सम्पुणे वाक्योकि एक- 
मात्र प्रतिपाद्य ह ] तथा जो जगतरकी उसन्ति ओर 
प्रलयके कारण है, उन निखिल-जगन्नायक परम- 
प्रमुकरो क्ष्म नमस्कार करते दै ॥ २२३॥ जो आच्च 
उग्रो तिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनन्त, अपार ओर 
समस्त चराचरके कारण ह तथा जिन रूपहीन 
परमेश्धरङे दिन, र त्रि ओर सन्ध्याही प्रथमदरूप 
है, उन काठस्वरूप भगवान्‌को नमस्कार हे 
| २४.२५ ॥ समस्त प्राणियोँके जीवनरूप जिनके 
अस्तमय स्वरूपकी देव भौर पितृगण नित्यभरति 
भोगते है उन सोमस्वखूप प्रभुको नमस्कार है 
॥ २६॥ जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाश्च- 
मण्डलको प्रकाशित करते हए अन्धकारको भक्षण 
कर जाति ह तथाजो. घाम, क्ञौत ओर जलख्के 











घमं्ीताम्भसां योनिस्तसनौ घ्र्थात्मने नमः॥ २७] 
काटिन्यवान्‌ यो विमतिं जगदेतदरोषतः । 
शब्दादिसं श्रयो व्यापी तसै भूम्यात्मने नमः॥२८॥ 
यश्चो निभूतं जगतो बीजं यस्स्वदेहिनाम्‌ । 
तत्तोयरूपमीशस्य नमामो हरिमेधसः ॥२९॥ 
यो युखं सदेवानां हव्यशकन्पथुक्‌ वथा । 
पितृणां च नमस्तस्मै विष्णवे पावकात्मने ॥३०॥ 
पश्चधावस्थितो देहे यश्वेशं कुरुतेऽनिषम्‌। 


आकाशयोनिभगवांस्तस्मै बास्वासने नमः।॥३१॥ 


अवकाशमशेषाणां भूतानां यः प्रयच्छति । 
अनन्तमूतिमाज्छुद्रस्तस्मै व्योमात्मने नमः॥ ३२॥ 
समस्तेन्दरियसगंस्य यः सदा स्थानत्तममू। 

तस्मे ्षब्दादिरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ॥३३॥ 
गृह्णाति विषयान्निर्यमिन्द्रियास्मा क्षराक्षरः। 
यस्तस्मै ज्ञानमुकाय नताः स्म हरिमेधसे ॥२४॥ 
गृहीतानिन्द्ियेर्थानारमने यः प्रयच्छति । 
अ्न्तःकरणरूपाय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥३५॥ 
- यसि्मिन्ननन्ते सकलं विश्वं यस्मात्तथोद्‌ गतम्‌ । 
रयस्थानं च यस्तस्मै नमः प्रकृतिधरभिणे ॥३६॥ 
शुद्धः संन्लक्ष्यते भरन्त्या गुणवानिव योऽगुणः। 
तमात्मरूपिणं देवं नताः स्म पुरुषोत्तमम्‌ ॥२७॥ 
द्मविकारमजं शुद्धं निंणं यन्निरञ्ञनम्‌ । 

नताः स्म तत्परं ब्रहम विष्णोयंत्परमं पदम्‌ ॥३८॥ 
तरदीहस्वमर्थूहमनण्वश्या मोहितम्‌ । 
अस्नेदच्छायमतनुमसक्तमररीरिणम्‌ ॥३९॥ 
घरनाकाशमसंस्पतमगन्धमरसं च यत्‌} 


शधि) 0 99. 








उदूगमस्थान दह उन सूयस्वरूप [ नारायण ] को 
नमसकार है ॥ २७॥ जो कठिनतायुक्त होकर इस 
सम्पूणं संसारको धारण करते दै ओर शब्द आदि 
पौँचों विषयोकि आधार तथा म्यापक द, उन भूमि- 
रूप भगवानको नमस्कार है ॥ २८॥ जौ संसारका 
योनिरूप है ओर समस्त देहधारिथोंका बीज है, 
भगवान्‌ हरिके उस जलस्वरूपको हम नमस्कार करते 
है ।॥ २९॥ जो समस्त देवताओका हभ्यभुक्‌ ओौर 
पिवृगणका कम्यमुक्‌ मुख है, उस अग्निस्वरूप 
विष्णुभगवान्‌को नमस्कार हे॥ ३०॥ जो प्राण, 
अपान आदि पंच प्रकारसे देहम स्थित होकर 
दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि 
आकाञ्च है, उस वायुरूप भगवान्‌को नमस्कार है 
॥ ३१॥ जो समस्त भूतोको अवकाश्च देता है उस 
अनन्तमूतिं ओर परम जद आकाङस्वरूप प्रसुको 
नमस्कार है ॥ ३२॥ समस्त इन्द्रिय-सिके जो 
उत्तम स्थान दै उन खन्दरस्प्ीदिरूप विधाता 
्रकरृष्णचन्द्रको नमस्कार दै ॥ ३६॥ जो क्षर ओर 
अक्षर इन्द्रियरूपसे नित्य विषयोको ग्रहण करते 
उन ज्ञानमूख हरिको नमस्कार है ॥ ३४॥ इन्द्रिथोके 
द्वारा ग्रहण किये विष्योको जो आ्माके सम्भुख 
उपस्थित करता ह उस अन्तःकरणदूप विश्वात्माको 
नमस्कार करता है ॥ ३५॥ जिस अनन्तमे सकर 
बिश्व स्थित दै, जिससे बह उतपन्न हृभा दै ओर 
जो उसके छयका भी स्थान दै उस प्रकृतिस्वरूप 
परमात्माको नमस्कार है ॥ ३६॥ जो शुद्ध ओर 
निर्गुण होकर मौ भरमवश्च गुणयुक्त-से दिखाई देते 
ह उन आस्मस्वरूप पुरषोत्तमदेवको हम नमस्कार 
करते दै ॥ २७॥ जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, 
निर्शुण, नि्म॑छ ओौर श्रीविष्णुका परमपद दहै उस 
्रहमस्वरूपको हम नमस्कार कसते ह ॥ ३८॥ जो न 
स्वा है, न पतछाहै,नमोटाहैःनषछोटाहे ओौरन 
कालादहै, नारद; जो स्तेह (द्रव) कान्ति 
तथा श्ञरीरसे रदित एवं अनासक्तं ओर अश्रेरी 
( जीवसे भिन्न) है ॥ ३९॥ जो आकाञ्च, स्पशे, 
गन्ध जओौर रससे रहित तथा आंँख-कान-विहीन) ` 


८र्‌ 


भ्रीविष्णुपराण 


[ अ० १४ 











श्रचकषुःओत्रमचहमवाक्पाणिममानसम्‌ ॥४०॥ 


अनामगोत्रमसुखमतेजस्कमहेतुकम्‌ । 


श्ममयं श्रान्तिरहितमनिद्रमजरामरम्‌ ॥४१॥ 


श्ररनोऽश्ब्दममृतमप्डुतं यदसनरतम्‌ । 


पूर्वापरे न वै यस्मिस्तद्विष्णो; परमं पदम्‌ ॥४२। 
परेश्चत्वगुणवत्सर्भूतमसंश्रयम्‌ 
नताः स्म तत्पदं विष्णोजिह्वादुग्गोचरं न यत्‌।४३। 
श्रीपराङ्र उवाच 
एवं प्रचेतसो विष्णुं स्तुबन्तस्तत्समाधयः। 
दशव्षसहल्लाणि  तपश्वेरुम॑हाणेषे ॥४४॥ 
ततः प्रसन्नो भगवांस्तेषामन्तजेरे दरिः । 
ददौ दशंनुनिनद्रनीरोत्पलदरुच्छविः ॥४५॥ 
पतस्तरिराजमारूढमवरोक्य प्रचेतसः 
प्रणिपेतुः िरोभिस्तं मक्तिभारावनामितेः ॥४६॥ 
ततस्तानाह भगवान्वियतामीप्सितो वरः। 
प्रसादसुमुखो बो वरदः सथपस्थितः ॥४७॥ 
ततस्तमूचु्वरदं॒प्रणिपत्य प्रचेतसः । 
यथा पित्रा समादिष्टं प्रजानां धृद्िकारणम्‌॥४८॥ 
स चापि देवस्तं दर्वा यथाभिरषितं वरम्‌ । 
अन्तर्धानं जगामाशु ते च निधक्रसुजंरात्‌॥४९॥ 








अचर एवं जिह्वा, हाथ ओर मनसे रदित हे ॥ ४०॥ 
जो नाम, गोत्र; सुख ओर तेज्ञसे शुन्य तथा 
कारणहीन है; जिसमे भय, धान्त, निद्रा, जरा 
ओर मरण--दइन ( अवस्थां) का अभाव है 
॥ ४१॥ जो अरज (रजोगुणरदहित ), अङाष्ठ, असत, 
अष्टु ( गतिशुन्य ) ओर असंत्रृत (अनाच्छादित ) 
है एवं जिसमें पूवीपर म्यवहारकी गति नदीं है बही 
भगवान्‌ बिष्णुका परमपद्‌ है ॥ ४२ ॥ जिसका ईन 
(जासन) ही परमण है, जो सवेरूप ओर अनाधार 
है तथ। जिह्वा ओौर दृष्टिका अविषय है, भगवान्‌ विष्णु- 
के उस परमपदको हम नमस्कार करते दै ॥ ४३ ॥ 


भ्रीपराश्शरजी बोरे--इस प्रकार श्रीविष्णुभग- 
वानरम समाधिस्थ होकर प्रचेताओंनि महासागरं 
रहकर उनकी स्तुतिं करते हुए दश हजार. वषंतक 
तपस्या की ॥ ४४॥। तव भगवान्‌ श्रीह रने प्रसन्न होकर 
उन खिछे हुए नील कमलकी-सी अमायुक्त दिन्य 
छविसे जल्के भीतर हो दशंन दिया ॥ ४५॥ 
प्रचेताओंने पक्षिराज गरुड्पर चदे हुए श्रीहरिको 
देखकर उन्है भक्तिभावके भारसेश्युके हए मस्तक 
द्वारा प्रणाम किया ॥ ४६॥ 


तब भगवान्‌ने उनसे कहा“ तुमसे प्रसन्न 
होकर तुम्ह वर देनेके खयि आया हः तुम अपना 
अभीष्ट वर मांगो" || ४७ ॥ तब प्रचेताओने वरदायक 
श्रीहरिको प्रणाम कर, जिस प्रकार उनके पिताने छन्द 
प्रजा-वृद्धिके स्यि आज्ञादौ थी वह सब इलसे 
निवेदन की ॥ ४८॥ तदनन्तर, भगवान्‌ न्ह 
अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये ओर वे जलसे 
बाहर निकर आये ॥ ४९ ॥ 


९१5 ४१४०१५५ 





अ० १५ ] 


प्रथम अश्च + ५ 


-------------_~~~__-__-~---------- 
पन्द्रह अध्याय 
परचेताभका मारिषा नामक कन्याके साथ विवाह, दक्ष परजापतिकी उत्पत्ति पतं 
दक्चकी भाट कन्यार्ओक वंशका वणेन 


श्रीपराशर उवाच 


तपशरत्सु परथिवी प्रचेतःसु महीरुहाः । 


अस्द्यमाणामाववर्बभूवाथ प्रजाक्षयः ॥ १॥ 
नाशकन्मरुतो वातुं वृतं खममभवदुदूमेः । 
द्षवर्षसहस्चाणि न शेकुश्चेष्टितुं प्रजाः ॥ २॥ 


तान्दष्रा जलनिष्कान्ताः सर्वे क्रुदरा प्रचेतसः । 
यखेभ्यो बायुमग्नि च तेऽघुजन्‌ जातमन्यवः । २॥ 
उन्मूलानथ तानधृक्षान्कृसवा वायुरशोषयत्‌ । 
तानग्निरदहद्धोरस्तत्राभृदुदरुमसडक्षयः ॥ ४ ॥ 
दरमक्षयमधो षट फिञ्िच्छष्ेु भाविषु । 
उपगम्या्रवीदेतान्राजा सोमः प्रजापतीन्‌ ॥ ५ ॥ 
कोपं यच्छत राजानः शृणुध्वं च वचो मम । 
सन्धानं बः करिष्यामि सह क्षितिर्दैरदम्‌ ।॥ ६ ॥ 
रत्नभूता च कन्येयं बाक्षेयी वरबधिनी । 
भविष्यज्जानता पूवं मया गोभिविवदधिता ॥ ७॥ 
मारिषा नाम नाम्नेषा वृक्षाणामिति नि्भिता। 
भार्या वोऽस्तु महाभागा धवं वशविवद्धिनी॥ ८ ॥ 
युष्माकं तेजसोऽर्दरेन मम चारद्र॑न तेजसः । 
अस्या्घुत्पत्स्यते विद्वान्दक्षो नाम प्रजापतिः ॥ ९। 
मम चांशेन संयुक्तो युष्मत्तेजोमयेन वै । 
तेजसाग्निसमो भूयः प्रजाः संबदयिष्यति ॥१०॥ 
कण्डुर्नाम सनिः पू्व॑मासीद्ेदविदां वरः । 
सुरम्ये गोमतीतीरे स तेपे परमं तपः ॥११॥ 


~> "17. -1->णा धकतोन्यार्दय वरगष्प्रभः | 





श्रीपराश्चरजी बोखे- प्रचेताओंके तपस्यामे लगे 
रहनेसे [ कृषि आदिद्रारा ] किसी प्रकारकी रक्षा न 
होनेके कारण प्रथिवीको वृक्नि टंक किय ओर 
प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो _ गयी ॥ १॥ आकार 
बृ्षोसे भर गया था । इसल्यि दश हजार वषतक 


नतोवायुही चलाभौर नप्रजाहीकरिसी प्रकारकी 


चेष्ठा कर सकी ॥ २॥ अक्लसे निकरनेपर इन 
वृक्षोको देखकर प्रचेततागण अति क्रोधित हए ओर 
उन्होने रोषपू॑क अपने मुखसे वायु ओर अभ्निको 
छोडा ॥३॥ वायुने वृक्षोको उखाड्-उलाड़कर 
सुखा दिया ओर प्रचण्ड अग्निने खन्द अछा डाला | 
स प्रकार चस समय वरहा वृक्षोका नाश हीने 
खगा ॥ ४॥ 

तव वह्‌ भयंकर चक्षप्रलय देखकर थोड़-से 
वक्षोके रह जनिपर उनके राजा सोमने प्रजापति 
प्रचेताओके पास जाकर का-॥५॥ दि नृपतिगण । 
आप क्रोध ज्ञान्त कीजिये भौर मै जो कुछ कहता 
हं सुनिये । मेँ वृ्षोके साथ अपलोगोंकी सन्धि 
कण दूंगा ॥६॥ वृक्षसे उलन हु इस खन्दर 
वर्णवाली रस्नसवरूपा कन्याका, मने पदशेसे दी 
भविष्यको जानकर अपनी | अमरतमयी ] किरणोसे 
पाङन-पोषण किया है ॥ ७ ॥ वृक्षोकौ यह कन्या 
मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, यह महाभागा इसल्यि ही 
पन्न की गयी है कि निश्वयदही तुम्हारे व॑शको 
बदानेवाली तुम्हारी भार्या हो ॥ <॥ मेरे ओर 
तम्दारे आवे-आघे तेजसे इसके परम विद्वान्‌ दक्ष 


नामक प्रजापति रन्न होगा ॥९॥ वह तुम्हारे तेजके 
सहित मेरे अंशसे युक्त होकर भपने तेजके कारण 


अग्निक समान होगा ओर प्रजाकी सुच वृद्धि 
करेगा ॥ १०॥ 

पू्व॑काले बेदवेत्ताओंमे भ्ठ एक कण्डु नामक 
मुनी्र थे । उन्होनि गोमतौ नदीके परम रमणीक 
तटपर धोर दप किया 1 ११॥ तव इन्द्रने नद 
नान यमेक लि परम्त्योचा नामी उत्तम 


< 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 








प्रयुक्ता क्षोभयामासतमूपिंसा बरुचिस्मिता ॥१२॥ 
क्षोमितः-स तया साद्धं वर्षाणामधिकं शतम्‌। 
अतिष्ठन्मन्दरदरोण्यां बिषयासक्तमानसः ॥१३॥ 
तंसा प्राह महामाम गन्तुमिच्छाम्पहंदिवम्‌। 
प्रसादसुमुखो ब्रहम्नलुज्ञां दातुमर्हसि ॥१४॥ 
तयेवय॒क्तः स युनिस्तस्यामासक्तमानसः । 
दिनानि कतिचिद्धदरे स्थीयतामित्यमापत्‌ ॥१५॥) 
एवघुक्ता ततस्तेन साग्रं वषशतं पुनः । 
बु्जे विषयांस्तन्वी तेन साक महात्मना ॥१६॥ 
अनुज्ञां देहि भगवन्‌ बजामि त्रिदशाङयम्‌ | 
उक्तस्तथेति स पुनः स्थीयतामित्यभाषत ॥ १७॥ 
पुनते वर्षशते साधिके सा शुमानना। 
यामीत्याद दिवं बहमन्प्रणयस्मितशो भनम्‌ ॥१८॥ 
उक्तस्तयैवं स युनिरुपगुद्यायतेक्षणाम्‌ । 
इहास्यतां क्षणं सुश्रु चिरकारं गमिष्यसि ॥१९॥ 
सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्षिणा पनः। 
शतद्वयं किञ्चिदूनं बषाणामन्वतिष्ठत ॥२०॥ 
गमनाय महाभाग देवराजनिवेश्चनम्‌ | 
प्रोक्तःप्रोक्तस्तया तन्व्या स्थीयतामित्यभाषत। २१, 
तस्य शापभयाद्धीता दाक्षिण्येन च दक्षिणा। 
परोक्ता प्रणयभङ्गा्तिदेदिनी न जद युनिम्‌॥२२॥ 


नैः दक्षिणा नायिकाका लक्षण दस प्रकार कहा है-- 





अप्सराको नियुक्तं किया । उस मञ्हासिनीने उन 
ऋ षिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥ १२॥ उसके 
दवारा क्षुब्ध होकर वे सौसे भी अधिक बपे- 
तक विषयासक्तचिन्तसे मन्दराचख्की कन्दरामें 
रहे ॥ १३॥ 

तब हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कण्डु 
ऋषिसे कहा--“'हे ब्रह्मन्‌ ! अब मेँ स्वगंोकको 
जाना चाहती ह आप प्रसन्नतापूवेक सुद्चे आज्ञा 
दीजिये ॥ १४॥ उसके एेसा कहनेपर उसमें 
आसक्त चिच हुए मुनिने कहा-^भद्रे ! अभी कुछ 
दिनि ओर रहो” ॥ १५ ॥ उनके पेसा कहनेपर उस 
सन्दरीने महात्मा कण्डुके साथ सौ वसे ङु 
अधिक कारतक ओर रहकर नाना प्रकारके भोग 
भोगे ॥ १६॥ तब भी इसके यह्‌ पूषछठनेपर किं 
भगवन्‌ ! म्चे स्व गंलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये" 
ऋषिने यही कहा कि अभी ओर ठहरोः ॥ १७॥ 
तदनन्तर सौ वष॑से कछ अधिक वीत जानेपर उस 
सुभखीने प्रणययुक्तं मुसकानसे युश्चोभित वचनम 
फिर कहा--^ब्रह्मन्‌ ! अब मेँ स्वगंको जाती हें 
| १८ ॥ यह्‌ सुनकर भ्निने उस विज्ञालाक्षीको 
आक्गिनकर कहा--“अयि सुश्रु ! अवतो तू. बहुत 
दिनोके लि चली जायगी इसल्यि क्षणमर तो 
ओर ठहर ॥ १९॥ तव वह सुश्रोणी ( सुन्दर 


कमरवाष्टी ) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करती हु 


वो सौ वषंते कुछ कम भौर रहो ॥ २०॥ 


हे महाभाग ! इस प्रकार जव-जव वह सुन्दरी 
देवलोकको जानेके लिये कहती तभी-तभी कण्ड् चगपि 
उससे यही कहते कि अभी ठहर जाः ॥ २१॥ मुनिके 
इस प्रकार कहनेपर, प्रणयमंगकी पीड़ाको जानने वाली 


उस दक्िणानेः अपने दाक्षिण्यवज्ञ तथां भुनिके 
श्चापसे भयभीत होकर खन्द न छोड़ा | २२॥ 





तया च रमतस्तस्य परमर्परहरनिशम्‌ । 


नवं नवमभूरेम मन्मथाविष्टचेतसः ॥२३॥ 
एकदा तु त्वरायुक्तो निथक्रामोटजान्धुनिः | 
निष्क्रामन्तं च दुतरेति गम्यते प्राह सा शुभा॥२४॥ 
इत्युक्तः स तया प्राह परिषृत्तमहः बभे । 
सन्ध्योपास्ति करिष्यामि क्रियालोपोऽन्यथा भवेत्‌। 
ततः प्रहस्य सुदती तं सा प्राह महानिम्‌ | 
किम सर्व॑धरमक्ञ परिवृत्तमहस्तव ॥२६॥ 


बहूनां विप्र वर्षाणां परिवृत्तमहस्तव । 
गतमेत करुते विस्मयं कस्य कथ्यताम्‌ ॥२७॥ 


मुनिरुवाच 
प्रातस्त्वमागता भद्रे नदीतीरमिदं बुभम्‌ । 


मया दृष्टासि तन्वङ्गि ्विष्टासि ममाश्रमम्‌ ॥२८॥ 
ह्यं च वतते सन्ध्या परिणाममहगंतम्‌ । 
उपदासः किमर्थोऽयं सद्भावः कथ्यतां मम ॥२९॥ 


प्रम्लोचोवाच 


्रसयूषस्यागता ब्रह्मन्‌ सत्यमेतन्न तन्मृषा | 

नन्वस्य तस्य कारस्य गतान्यब्दशतानि ते ॥२३०॥ 
सोम उवाच 

ततस्ससाध्वसो विप्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम्‌। 

कथ्यतां भीर्‌ कः कालस्त्रया मे रमतः सह ॥३१॥ 


भम्लोचोवाच 
सप्नोत्तराण्यतीतानि नववषशतानि ते। 


मासाश्च पदटूतथैवान्यस्समतीतं दिनत्रयम्‌ ॥२२॥ 
ऋषिरुवाच 


सत्यं भीर बदस्येतत्परिहासोऽय वा शुभे | 
दिनमेकमदहं मन्ये स्वया साद्धमिहासितम्‌ ।२३॥ 














तथा उन महर्षि महोदयका भी, कामासक्तचित्तसे 
उसके साथ अह्नि रमण करते-करते, चसमें निस्य 
नूतन प्रेम बद्ता गया ॥ २३॥ 

एक दिन वे मुनिवर बड़ी श्चीघ्रतासे अपनी 
इसे निकटे । उनके निकर्ते समय बह सुन्दरी 
बोली--“आप कहँ जते है" ।। २४ ॥ उसके इस 
प्रकार पूषछनेपर सुनने कहा--“्ै दुभ ! दिन अस्त 
हयो चुका है, इसलिये मे सन्ध्योपासना करूगा; नौं 
तो नित्य-क्रिया नष्ट हो जायगी ॥ २५॥ तब उस 
सुन्दर दौँतोँवालीने उन सुनीश्रसे हंसकर कहा- 
“हे सवंधमंज्ञ ! क्या आज हौ आपका दिन अस्त 
हभ है १॥ २६॥ हे विप्र | अनेकों वर्षोकि पश्चात्‌ 
आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे किये, 
किसको आश्चयं न होगा ?: | २७॥ 

मुनि बोरे -हे भद्रे ! नदीके इस सुन्दर तटपर 
तुम आज सबेरे हो तो आयी हो [ यु्चे भली प्रकार 
स्मरण है ] मैने भाज ही तुमको अपने आश्रमम 
प्रवेश्च करते देखा था ॥ २८ ॥ अव दिनके समाप्त 
होनेपर यह सन्ध्याकाल हभ है । फिर, सच तो 
कहो, फेसा दपहास क्यों करती हो १॥ २९॥ 


प्रस्टोचा बोली -न्रह्यन्‌ ! आपका यह्‌ कथन 
फिं तुम सवेरेही आयीहो' ठीक ही है, इसमें 
शूठ नही; परन्तु उस समको तो आज सैकड़ों वषं 
बीत चुके ॥ ३० ॥ 

सोमने कहा-- तव उन विग्रबरने चस विज्ञा- 
खाक्षीसे कुछ घबड़ाकर पृषछठा-“भरी मीर ! ठीक- 
रीक बता, तेरे साथ रमण करते मुञ्चे कितना समय ` 
बीत गया {१ ३१॥ 

भम्टोचाने कदा--अवतक नौ सौ सात वषे, 
छः महीने तथा तीन दिनि भौर भी बीत चुके, 
है ॥ ३२॥ 

ऋषि बोले--अयि भीर! यह तू. ठीक कहती ` 
हे, याहे श्चमे) मेसेदहँसी करती? सुश्चे तो एसा 
ही प्रतौत होतादहै किम इस स्थानपर तेरे साथ 
केवल एक ही दिनि रहा हं ।॥ ३३॥ 


८६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 











प्रम्ोचोबाच 
वदिष्याम्यनृतं ब्रहनन्कथमत्र तवान्तिके | 
विरेषेणाद्य मवता पृष्टा मार्गासुवर्तिना ॥३४॥ 
सोम उवाच 
निक्षम्य तद्रचः सस्यं स यगिचंपनन्दनाः । 
धिगूधिडूमामित्यतीवेत्थं निनिन्दात्मानमात्मना॥। 
मुनिरुवाच 
तपांसि मम नष्टानि हतं ब्रह्मविदां धनम्‌ । 
हतो विवेकःकेनापि योपिन्मोहाय निर्मिता॥३६॥ 
ऊर्मिषटूकातिगं बरह्म ज्ञेयमात्मजयेन मे । 
मतिरेषा हृता येन धिक्‌ तं कामं महाग्रहम्‌ | २७॥ 
चतानि वेदवेद्या्षिकारणान्यखिहानि च । 
नरकम्राममार्गेण सेङ्धेनापहृतानि मे ॥३८॥ 
विनिन्येत्थं स धर्मज्ञः स्वयमात्मानमास्मना । 
तामण्सरसमासौनामिदं वचनमव्रवीत्‌ ॥२९॥ 
गच्छ पापे यथाकामं यत्काय तत्कृतं त्वया । 
देवराजस्य मलक्षोभं डुव॑न्त्या भाववेषटतैः ॥४०॥ 
न तवां करोम्यहं मस्म करोधतीत्रेण वदह्धिना 
सतां सप्तपदं मेत्रयुषितोऽहं त्वया सह ॥४१॥ 
अथवा तव को दोषः कंवा कुप्याम्यहं तब । 
ममेव दोषो नितरां येनाहमनितेन्रियः ॥४२। 
यया ररक्रप्रियाथिन्या कृतो मे तपसो व्ययः। 


त्वया धिक्तां महामोदमन्जुपांसुजगुम्सिताम्‌।।४३॥ 





प्रम्लोचा बोरी--दहे ब्रह्मन्‌ ! आपके निकर सँ 
सूठ केसे बोख सकती हँ १ ओौर फिर विरोषतया स 
समय जब कि आज आप पने धर्म-मागंका अनु- 
सरण करतेभ तत्पर होकर जुक्चसे पूछ रदे दै ॥२४॥ 


सोमने कहा-दहे राजकुमारी ! उसके ये सत्य 
वचन सुनकर मुनिन सुश्च धिक्षार है! भ॒ञ्चे धिकार 
है! एेसा कहकर स्वयं ही अपनेको बहुत कुछ 
मला-बुरा कहा ॥ ३५ ॥ 


सुनि बोे--ओह ! मेरा तप नष्ट हयो गया; जो 
नहवरेत्ताओंका धन था वह्‌ लुट गया ओर विवेक- 
बुद्धि मारी गयी ! अहो । सख्रीको तो किसने मो 
उपजनेके ल्यिही रचा दहै! ॥ ३६॥ ञ्चे अपने 
मनको जीतकर छो ऊर्भियो से अतीत परन्रह्मको 
जानना चाहिये जिसने मेरी इस प्रकारकौ बुद्धि 
को नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रहको 
धिक्षार है ॥ ३७ ॥ नरकभ्रामके मागंरूप इस स्के 
संगसे वेदवेद्य भगवान्‌की प्राप्निके कारणरूप मेरे 
समस्त त्रत न हो गये ॥ ३८ ॥ 


दस प्रकार इन धभेज्ञ भुनिवरने अपने-आप ही 
अपनी निन्दा करते हुए व्यँ वेढी हुई उस अप्तरा- 
से कदा-।। ३९ ॥ “अरौ पापिनि ! अब तेरी जँ 
इच्छा हो चटी जा, तूने अपनी भावभंगीसे स्त 
मोहित करके इन्द्रका जो कायं था वह पूरा कर 
लिया ॥ ४०॥ मँ अपने क्रोधसे प्रञ्वकिति हुए 
अग्निद्रारा तुद्चे मस्म नहीं करता हू, क्योकि सज्जनो 
कौ मित्रता सात पग साथ रहनेसे हो जाती है ओर 
मतो [ इतने दिन ] तेरे साथ निवास कर चुका 
ह|| ४१ ॥ अथवा इसमे तेरा दोष भी क्या, जो 
मैं तुद्चपर कोध करू१ दोषतो सारा मेया हीहै, 
क्योकि मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हं ।॥ ४२॥ जिसने 
इन्द्रके स्वांके लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी ठेसी 
महामोह्की पिरटारी ओर अत्यन्त निन्दनीया तुच 
धिक्षार है" ॥ ४३॥ 





अ० १५ | 





सोम उवाच 
यावदित्थं स विप्रपिसतो ब्रवीति समध्यमाम्‌। 
तावद्गरत्स्ेदजला सा बभूवातिवेषधुः ॥४४॥ 
प्रवेपमानां सततं स्वि्नगात्ररतां सतीम्‌ । 
गच्छ गच्छेति सक्रोधयरुषाच मुनिसत्तमः ।।४५॥ 
सातु निर्मस्सिता तेन विनिष्क्रम्य तदाश्रमात्‌ । 
श्राक्षाश्मामिनी स्वेदं ममाञं तश्पल्हवैः ।४६॥ 
नि्मर्जमाना गात्राणि गच्छेद्‌ रलानि वै। 
वृक्षाद्वृक्षं ययौ बाहा तदय्रारुणपल्रवैः ॥४७॥ 
ऋषिणा यस्तदा गरभ॑स्तस्या देहे समाहितः। 
निर्जगाम स॒ रोमाश्रसवेदरूपौ तदङ्ग; ॥४८।॥ 
तं वृक्षा जगृह्गभमेकं चकरे तु मारुतः । 
मया चाप्यायितो गोभिः स तदा वधे शनेः॥ ४९। 
ृ्षग्रग्मसम्भूता मारिषाख्या वरानना । 
तां प्रदास्यन्ति वो वृक्षाः कोप एष प्रशाम्यताम्‌] ५०। 
कण्डोरपत्यमेवं सा वृकषेभ्यश्च समद्‌ गता । 
ममापत्यं तथा वायोः प्रम्टोचातनया च सा॥५१॥ 
स चापि भगवान्‌ कण्डुः क्षीणे तपसि सत्तमः। ,. 
परुषोत्तममाख्यातं विष्णोरायतनं ययौ. ॥५२॥ 
तत्राग्रमतिभूस्वा चकाराराधनं हरेः । 
ब्ह्मपारमयं इवंञ्पमेकाम्रमानसः । 
उर्ववाहूमहायोगी स्थित्वासौ भूपनन्दनाः॥।५२॥ 
म्रचेत्तस ऊचुः 
ब्रह्मपार ने श्रोतुमिच्छामः परमं स्तवम्‌ । 


+ 41 3} गागश्यत फैरावः ।५५५। 








सोमने कहा- वे ब्रह्मि उस मुन्दरौसे जवतक 
देसा कहते रहे तचतक वह [ भयके कारण | पसीने- 
मे सराबोर होकर अस्यन्त कोपती रही ॥ ४४॥ इस 
प्रकार जिसका समस्त शरीर पसीनेमे इवा इजा था 
ओर जो मयसे थर-ध्रर कौप रही थी उस प्रम्लोचा 
से सुनिश्ेषठ कण्डुने करोधपूचक कहा--“अरी ! तू 
चद्धी जा । चली जा !' ॥ ४५ ॥ 

तच बारबार फटकारे जानेपर व्‌ उस आश्रम- 
से निकी आर आाकाङ्चमागेसे जाते हुए उसने 
अपना पसीना वृषे पत्तोसे पाठा ॥ ४६ ॥ वद 
बारा वृक्षो के नवीन लाछ-लाल पर्तसे अपने पसीने- 
से तर शरीरको पोती हदे पक वरश्रसे दूसरे बृ 
पर चरती गयी || ४७ ॥ उस सगय ऋपिने उसके 
लसर जो गर्भ स्थापित किया था बह भौ रोमाच्च- 
से निकठे हृष पतीनेके रूपमे मके शरीग्से बरार 
निकल आया ॥ ४८ ॥ उस गभेको वृक्षानि प्रण 
कर खिया, उसे वायुने एकतिन कर दिया भौर मँ 
अपनो किरणोसे उसे पपि करने खगा । इससे चह 
धीरे-धीरे बदु गया ॥ ४२ ॥ बरक्षामरसे उतन्न ह 
वह्‌ सारिषानासकी सुुण्वी कन्या तुम्दुं बरक्षगण 
समर्पण करगे । अतः अच ग्रह क्रोध शान्त करो 
॥ ५० ॥ स प्रकार वृक्षौसे उन्न हृद ब कन्या 
्म्लोचाकी पुत्री दै वथा कण्डु युनिक्ी, मेरी ओर 
वायुकी भी सन्तान द ॥ ५१ ॥ 

फिर साघुतरषठ मगवान कण्डु भी तपके प्रीण षहो 
जानेसे पुरपोत्तमक्नित्रनागक भग्रानि, विष्णु 
निवासमूमिकौ गये ओर हे राजपुत्रो! वहीँ वे 
महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाम्र चित्ते ब्रह्मपार 
मन्त्रका जप करते हुप्‌ ऊध्वंताहुं रहकर श्रीरिष्णु 
भगवान्‌कौ आयधना करने ले ॥ ५९-५३ ॥ ` 

श्रघेतागण वोले-हस कण्डू युनिका ब्रह्मपार 
नामक परमस्तोत्र सुनना चा्ते द, जिसका ज' 


करते हुण उन्दनि श्रीकेरावकौ आराधना कौ थं 
} ५९ । 


सोम उवाच 


पारं परं विष्णुरपारपारः 

परः परेभ्यः प्रमार्थूपी । 
स॒ ब्रह्मपार प्रपारभूतः 

परः पराणामपि पारपारः ॥५५॥ 
स॒ कारणं कारणतस्ततोऽपि 


तस्यापि दतः परहेतैतः । 
कार्येषु चैवं सह कर्मकरै 

सूपैरशेषैरवतीद 
बह्म प्रश्रं स सवभूतो 

ब्रह्म प्रजानां पतिरच्युतोऽसौ । 


सर्वम्‌ ॥५६॥ 


ब्रह्मान्ययं नित्यमजं स षिष्णु- 
रपक्षया्चेरखिलेरसङ्कि ॥५७॥ 
ब्रहमा्षरमजं नित्यं यथासौ पुरुषोत्तमः । 
तथा रागादयो दोषाः प्रयान्तु प्रशमं मम ।॥५८॥ 
एतदुत्रह्मपर। ख्यं बै संस्तवं परमं जपन्‌ । 
अवाप परमां पिदधि स तमाराध्य केशवम्‌ ।५९॥ 
[ हृमं स्तवं यः पठति शृणुयाद्वापि नित्यशचः। 
सकामदोपैरिलें्तःपरामोति वाञ्छितम्‌ ॥ ] 
हयं च मारिषा पूरवमासीद्या तां वीमि वः। 
| कार्थगोरवमेतस्याः कथने फलदायि व; ॥६०॥ 
अपुत्रा प्रागियं विष्णुं मृते भततरि सत्तमाः। 


भूपपली महामागा तोषयामास भक्तितः ॥६१॥ 
आराधितस्तया विष्णुः प्रा प्रत्यक्षतां गतः। 


सोमने कहा--[ हे राजकुमारो ! वह मन्त्र इस 
प्रकार है-] श्रीविष्णुभगवान्‌ संस्ार-मागेकी 
अन्तिम अवधि दहै, उनका पार पाना कठिनदहै,वे 
पर ( आकाञ्चादि ) से भी पर अथात्‌ अनन्त दहै, 
अतः सत्यस्वरूप दै । तपोनि्ठ महात्माओंको ही वे 
भ्राप्त हो सकते दै; क्योकि वे पर ( अनाट्म-प्रपच्च ) 
सेपरे दै तथा पर ८ इन्द्रियों) के अगोचर पर 
मात्मा ह ओर [ भक्तोके] पाक एवं [ उनके 
अभीष्टको ] पूणं करनेवषे दै ॥ ५५॥ वे कारण 
( पञ्चभूत ) के कारण ( पच्तन्मात्रा ) के हेतु 
( तामस अहकार ) आओौर उसके मी हेतु (महत्तत्त्व) 
के हेतु (भ्रधान)केभीपरमदेतु दै ओर इस प्रकार 
समस्त कमं ओर कन्त आदिके सहित कायरूपसे 
स्थित सकल भ्रपच्चका पान करते है ॥ ५६ ।। ज्रह्य 
ही प्रभु है बरह्मही सवरूपदै ओर ब्रह्म ही सकठ 
प्रलाका पति ( रक्षक ) तथा अविनाञ्ञी है। वह 
ब्रह्म अव्यय, नित्य ओर अजन्मा है तथा वही क्षय 
आदि समस्त विकारोँसे शुन्य विष्णु है ॥ ५७॥ 
क्योंकि वह अक्षर, अज ओर नित्यव्रह्म ही पुरु- 
षोत्तम भगवान्‌ विष्णु द इसलिये [ उनका नित्य 
अनुरक्त मक्त होनेके कारण ] मेरे राग आदि दोष 
शान्त हों ॥ ५८ ॥ 

इस ब्रह्मपार-नामक परम स्तोत्रका जप करते 
हुए श्रौकैश्चवकी आराधना करनेसे उन मुनीश्वरने 
परम सिद्धिप्राप्न की ५९॥ [जो पुरुष इस स्तव- 
को नित्यभरति पदता या युनतादहै बह काम आदिं 
सक दोषोँसे मुक्त होकर अपना मनो वाञ्छित फल 
प्रा करतादहै] अब मँ तुम्हूं यह्‌ बताता हँ कि 
यह मारिषा पूवंजन्ममे कौन थी । यह बता देनेसे 
तुम्हारे काका गौरव सफङ होगा । [ अथौत्‌ तुम 
प्रजा-वृद्धिरूप फल प्राप्न कर सकोगे ] ॥ ६० ॥ 

यह्‌ साध्वी अपने पृवेजन्ममे एक महारानी 
थी । पुत्रहीन अवस्थामें ही पतिके मर जानेपर इस 
मह्‌ाभागाने अपने भक्तिभावसे विष्णुभगवानको 
सन्तुष्ट किया ॥ ६१ ॥ इसकी आराधनासे प्रसन्न हो 
विष्णभगवान्‌ने प्रकट होकर कहा--हि शुभे | वर 


वरं ृणोष्वेति शुभे सा च प्राहात्मव।ज्छितमू्‌ | ६२।॥| माग ।' त इसने अपनो मनोऽभिलापा इस प्रकार 


भ० १५ ]~नुदानेतेखो कषितसा भम्‌ ज स्ना तिजा, | 


------~----~--------------------------------------------------------------- `` 


८९ 





भगवन्वार्वैधग्याद्‌ ब्रथाजन्माहमीदशी । 
मन्दमाग्या सुदता विफला च जगत्पते ॥६२॥ 
| भवन्तु पतयः शयाध्या मम जन्मनि जन्मनि । 
त्स्रसादात्तथा पुत्रः प्रनापतिसमोऽसतु मे ।।६४॥ 
कलं शीलं बयः सत्यं दाक्षिण्यं क्षिप्रकारिता । 
विसंवादिता सच्चं वृद्धसेवा कृतक्तता ॥६५॥ 
रूपसम्पतसमायुक्ता सवस्य प्रियद्शना । 


्रयोनिजा च जायेयं त्वसखरसादादधोक्षज ॥६६। 
सोम उवाच 

तयैवदक्तो देवेशो हषीकेश उवाच ताम्‌ । 

प्रणामनम्राधत्थाप्य वरदः परमेश्वरः ।\६७॥ 
श्रीभगवानुवाच 

भविष्यन्ति महावीर्यां एकस्मिन्नेव जन्मनि । 

प्र्यातोदारकर्माणो भवत्याः पतयो दश्च ॥६८॥ 

त्रश्च सुमहावीयं महाबलपराक्रमम्‌ । 

प्रजापतिगुणैयुक्तं त्वमवाप्स्यसि शोभने ।६९॥ 

वंशानां तस्य कवलं जगत्यस्मिन्भविष्यति । 

्ैलोक्यमखिला द्रतिस्तस्य चापूरयिष्यति ॥७०॥ 

त्वं चाप्ययोनिजा साध्वी सूपौदायं गुणान्विता । ` 

मनःप्रीतिकरी नणां मत्परसादाद्धविष्यसि ॥७१॥ 

इत्युकत्वान्तरदपे देवस्तां बिशालबिलोचनाम्‌। 

सा चेयं मारिषा जाता युष्मत्पली च पत्मजाः॥७२॥ 
श्रीपराञ्चर उवाच 

ततः सोमस्य वचनाज्जगृहुस्ते प्रचेतसः । 

संहूत्य फोपं बृकषेम्यः पलीधर्मण मारिषाम्‌॥७२॥ 

दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यो मारिषायां प्रजापतिः| 


५ 
=> ~+ न-7न7। कन तिन [नकन च € "नु नष्न्नः } |; ११ | 








कह सुनायो-। ६२॥ “भगवन्‌ ! बाङूबिधवा 
होनेके कारण मेरा जन्म व्यथं ही हुभा । हे जगत्पते । 
मँ ठेसी अभागिनी हँ कि फल्दीन ( पुत्रहीन ) ही 
खत्पन्न हुई ॥ ६३ ॥ अतः आपकी कृपासे जन्म-जन्ममे 
मेरे बे प्रशंसनीय पति हो ओौर प्रजापति (ब्रह्माजी ) 
के समान पुत्र हो ॥ ६४।। ओौर हे अधोक्षज । 
आपके प्रसादसे मै मी कल, स्चीर, अवस्था, सस्य, 
दाक्षिण्य ( काय-ङुश्ता ); श्ीघ्रकारिता, अविसं- 
वादिता ( उलटा न कहना ), सत्छ, वृद्धसेवा ओर 
छत्ञता आदि गुणोँसे तथा सुन्दर रूपसम्पत्तिसे 
सम्पन्न ओौर सबको प्रिय छगनेवाङी अयोनिजा 
( माताके गर्भ॑से जन्म छ्यि निना) हौ उतपन्न 
हो” | ६५-६६ ॥ 


सोम बोरे--उसके ेसा कहनेपर वरदायक 
परमेश्वर देवाधिदेव श्रीहषीकेराने प्रणामके छथि 
रुकी हई उस बालाको उठाकर कहा ॥ ६७ ॥ 


भगवान्‌ बोके-तेरे एक ही जन्मभै बड 
पराक्रमी भौर विख्यात कर्मवीर दश्च पति होगे; 
ओौर हे श्लोभने ! उसी समय तुचे प्रजापतिके समान 
एक महावीयंवान्‌ एवं भव्यन्त बल-विक्रमयुक्त पुत्र 
मी प्राप होगा ॥ ६८-६९ ॥ वह इस संसारम कितने 
ही वंसोंको चलानेवाखा होगा ओौर दसकी सन्तान 
सम्पूर्णं त्रिढोकीमे फैल जायगी ॥ ७०॥ तथा त्‌ 
भी नेरी कृपासे उदारूपगुणसम्पन्ना, सुक्लीरा ओर 
मनु्योंके चिन्तको प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही 
उत्पन्न होगी ॥ ७१॥ हे राजपुत्रो ! उस विञ्ञालाक्षीसे 
एसा कह भगवान्‌ अन्तधौन हयो गये ओौर बही यह्‌ 
मारिषाके रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारो पत्नी दै ॥ ५२॥ 


भीपराशस्जी बोके--तव सोमदेवके कहनेसे 
प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया ओर्‌ उस 
मास्विाको बक्षोसे पल्नीरूपसे म्रहण किया ॥ ५३॥ 
उन दशो प्रचेताओंसे मारिषाके महाभाग दक्ष 


| प्रजापतिका जन्म हभा, जो पटले ब्रह्माजीसे उत्पन्न 


__ अ 


९० 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 








सतु दक्षो महाभागस्युष््वथं सुमदामते । 
पुत्राच्स्पादयामास प्रजासष्टय्थ॑मामनः ।।७५॥। 
अवरांश्च वरांश्चैव द्विपदोऽथ चतुष्पदान्‌ । ` 
अदेशं बरह्मणः दव॑ सृष्टयथं सदुपर्थितः ।७६॥ 
स सृष्टा मनसा दक्षः पश्चादसृजत स्ियः। 
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश्च ।७७॥ 
कारस्य नयने युक्ताः सप्तविंशतिमिन्दवे । 
तासु देवास्तथा दैत्या नागा गावस्तथा खम्‌(।७८। 
गन्धर्वाप्सरसच्चैव दानवाधयाश्च ज्ञि । 
ततः प्रभृति मैत्रेय प्रजा तधुनसम्भवाः ।७९॥ 
सङ्कल्पाद शं नार्स्पशषस्पूवेषाममवन्‌ प्रनाः | 


तपोविशेषैः सिद्धानां तदात्यन्ततपस्विनाम्‌॥८०। 


श्रीमैत्रेय उवाच 
अङ्षादक्षिणादक्षः पूवं जातो मया शरुतः । 
कथं प्राचेतसो भूयः सञ्ुरन्नो महापुने ॥८१॥ 
एप मे संशयो तब्रहन्सुमहान्हूदि वत्तते । 
तदौहितर थ सोमस्य पुनः श्ुरतां गत; ॥८२॥ 
श्रीपराशर उवाच 


उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यो भूतेषु सव॑दा । 


ऋषपयोञत्र न्‌ शद्यन्ति ये चान्ये दिव्यचक्षुषः ।८२॥ 


युगे युगे भवन्त्येते दक्षाद्या मुनिसत्तम । 
पुनश्चैवं निरुद्ध्यन्ते विद्वांस्तत्र न युद्ति।८४॥। 
कानिष्ठयं ज्यैष्ठ्यमप्येषां पूवं नाभूदूदविजोचम । 


तप॒ एव गरीयोऽभूखभावदचैव कारणम्‌ ॥८५॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 
देवानां दानवानां च गन्धर्बोरगरक्षसाम्‌ । 


हे महामते ¦ उन महयाभाग-दृक्षने, ब्रह्माजीक्री 
आज्ञा पार्ते हए सगे-रचनाके ल्य उद्यत होकर 
उनकी अपनी छष्टि . बहाने ओर . सन्तान उतपन्न 


करनेके लिये नीच-ऊंच तथा द्विपद चतुष्पद्‌ आद्‌ 
नाना प्रकारके जीवोंको -पुत्ररूपसे . उत्पन्नः किया 
| ७५-७६ ॥ प्रजापति दक्षने पहछे मनसे ही सषि 
करके फिर ल्ियोंकी उसपत्तिं कौ.। उनमेसे दक 
धर्मको ओौर तेरह ` करयपको दीं ,॥ ७७ ॥ तथा 
कारु-परिवतंनमें नियुक्त [अश्िनी आदि ] सत्ताेस 
चन्द्रमाको विवाह दो । उन्हींसे देवता, दैत्यं, नाग, 
गौ, पक्षी, गन्धव, अप्रा ओर्‌ दानव आदि 
उत्पन्न हुए 1 हे भेत्रे ! दक्षके समयसे ही प्रजाका 
मैथुन ( खी-पुरुष-सम्बन्ध ). द्वारा दत्पन्न दोना 
आरम्भ हुआ दै ॥ ७८७९ ॥ उससे पहङे ती 
अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषोके तपाबर्ये 
नके संकल्प, दशन अथवा खशामाच्रसे द्धौ प्रजा 
उत्पन्न होती थी.।। <० ॥ “ “ 


भीभेन्रेयजी बोर--दे महासने ! मैने तो सुना 
था कि दक्षका जन्म ब्रह्माजीके दायं अँगृटेसे हमा 
था, फिर वे प्रचेताँके पुत्र किसःप्रकार हए 
॥ ८१ ॥ हे ब्रह्मन्‌ ! मेर हृदयम यह्‌ बड़ा सन्देह ष्ट 
कि सोमदेवके दौहित्र ( घेवते) होकरमभी फिरवे 
उनके श्वशुर हुए १॥ <२॥ 

श्रोपराशरजी बोरे-हे मेत्रेय | प्राणियांकं 
उप्पत्ति ओर नाञ्च [ प्रवाहरूपसे ] निरन्तर हु 
कर्ते दं । इस विषयमे ऋप्रियों तथा.अन्य दिव्यदृष्टि 
पुरुषोको कोई मोह नहीं होता ॥ ८३ ॥ हे ुनिश्रे ! 
ये दक्षादि युगयुगमे होते दै ओौरकफिर ीनष्टा 
जाति दैः इसमे विद्वानूको किसी अरकारका सन्देषः 
नदं होता ॥ ८४ ॥ हे द्विजोत्तम ! इनमे पहर किसी 
प्रकारकी उयेष्ठता अथवा कनिष्ता भी नदीं यी । उस 
समय तप ओर प्रभावः ही उनकी ,व्येष्ठताका कारण 
तेता था ॥ <५॥ 

ध्रीमेश्ेयजी बोरे-दे ब्रह्मन्‌ ! आप मुद्चसे देव- 


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अ० १५ ] [इष्य अनतत निना प्रथम अश्च 


९.१ 





` श्रोपराद्चर्‌ उवाच 

प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूव दक्षः स्वयम्धवा। 

यथा ससं भूतानि तथा शृणु महामुने ॥८७॥। 
मानसान्येव भूतानि पूवं दक्षोऽसजत्तदा | 
देव्रानृषीन्सगन्धर्वानसुरान्पननगास्तथा ॥८८॥ 
यदास्य सृजमानस्य न व्यवधंन्त ताः प्रनाः। 

ततः स्चिन्त्य स पुनः सृष्टिहेतोः प्रजापतिः।।८९॥ 
मेधुनेनैव धर्मेण सिसृकुविंविधाः प्रजाः ; 
असिक्नी मावहत्कन्यां बौरणस्य प्रजापतेः। 

सुतां सुतपसा युक्तां महतीं लोकधारिणीम्‌ ।९०॥ 


अथ पुत्रसहस्राणि वैरण्यां पश्च वीय॑वान्‌ । 
असिक्न्यां जनयामास सरगहेतोः प्रजापतिः ।९१॥ 
तान्दषा नारदो विप्र संबिवद्धयपू खजाः। 
सङ्गम्य प्रियसंबादो देवपिरिदमव्रवीत्‌ ॥९२॥ 
हे दयश्ा महावीर्याः प्रजा यूयं करिष्यथ । 
ईदृशो चयते यत्नो मवतां श्रूयतामिदम्‌ ॥९२॥ 
बाहा वरत यूयं वै नास्या जानीत बै युवः । 
अत्तरुष्व॑मधदचैव कथं सृद्यथ वै प्रजाः ॥९४।॥ 
उध्वं तियंगधश्चैव यदाप्रतिहता गतिः| 
तदा कस्माद्भुवो नान्तं सरव दररयथ वारिशञाः।।९५॥ 
ते ठु त्चनं शरुत्वा प्रयाताः सवतो दिशम्‌ । 
द्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥९६॥ 
-हयंश्ेष्वथ नष्टेषु दक्षः प्रचेतसः पनः ] 
वैरण्यामथ पुत्राणां सहस्नमसृजत्शः ॥९७] 
विवद्धंयिपवस्ते तु शयलाशवाः प्रजाः पुनः। 
ूरवक्तं वचनं ब्रहमनारदेनैव नोदिता; ।।९८॥ 





` भीपसश्चरजी बोखे--हे महासने ! स्वयम्भू 
भगवान्‌ ब्रह्माजीकी फेसौ आज्ञा हौनेपर कि तुम 
प्रजा उतपन्न करोः दक्षते पृवेकारमे जिस प्रकार 
प्राणियोकी स्वना की थी वह्‌ सुनो ॥ ८७ ॥ उस 
समय पहठे तो दक्षने ऋषि, गन्धवे, असुर ओर 
सपं आदि मानसिक प्राणियोको ही उत्पन्न किया 
॥ ८८॥ इस प्रकार रचना करते हुए जब उनकौ 
वह प्रजा ओर्‌न बही तो उने प्रजापति खष्टिकी 
बद्धिके छ्यि मनम बविचारकर मैथुनधमेसे नाना 
मरकारकी प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे वीरण प्रजा- 
पतिक अति तपस्विनी ओर छोकधारिणी पुन्न 
असिक्नीसे चिवाह्‌ किया ।। ८९-९० ॥ 


तदनन्तर वीयवान्‌ प्रजापति दक्षने सगेकी 
बृद्धिके छियि बीरणसुत्ता असिक्तीसे पाँच स्ट पुत्र 
उत्पन्न किये ॥ ९१ ॥ उन्हू प्रजाबरद्धिके इच्छुक देख 
प्रियवादो देवर्षिं नारदने उनके निकट जाकर इस 
प्रकार कहा ॥ ९२॥ “हे महापराक्रमी हयेश्धगण ! 
आपषरोगोकी एसी चेष्टा प्रतीत होती है किभाप 
प्रजा उतपन्न करगे, सो मेरा यह कथन सुनो ॥ ९३ ॥ 
खेदकी बातदहै, तुमखोग अभी निरे अनभिज्ञो; 
क्योकि तुम इस प्रथिवीका मध्य, उध्वं (ऊपरी 


| भाग) भौर अधः ( नीचेका भाग) कुक भी नर्द 


जानते, फिर प्रजाकी रचना किंस प्रकार करोगे ! 
॥ ९४ ॥ जब तुम्हारी गत्ति इस ब्रह्माण्डमे ङपर-नीचे 
ओौर इधर-दधर सब ओर अप्रतिहत ( बे-रोक-टोक ) 
हे तो हे अज्ञानियो | तुम सब भिरकर इस परथिवी. 
का अन्त क्यों नहीं देखते १2 ॥ ९५ ॥ नारद्जीके 
ये वचन सुनकर वे सव भिन्न-भिन्न दिश्चाओंको चले 
गये ओर समुद्रम जाकर जिस प्रकार नदिय नर्ही 
लौटतीं उसी प्रकार वे भी आजतक नही छोटे ॥ ९६॥ 


हयश्चोके इस प्रकार चके जानेषर. प्रचेताओंफे 
पुत्र दक्षने वैरुणीसे एक सहस्र पुत्र ओर उत्पन्न किये 
॥ ९७ ॥ वे श॒बङाच्चगण भी प्रजा बदु नेके इच्छुक 
हुए, किन्तु हे ब्रह्मन्‌ ! जब नारदनीने उनसे भी 
पूर्वोक्त बातें कहं तो वे सव भी आपसमे एक-दुसरे- 
से हते र्गे-महमनत 1र्दजो "गवः कमे 3. 


९२ 


श्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 





भ्रातणां पदवी चेव गन्तव्या नात्र संशय; ॥९९॥ । मागंका ही अवलम्बन करना चाये ॥ ९८-९९ ॥ 


ज्ञात्वा प्रमाणं पृथ्व्याश्च प्रजास्सक्ष्यामहे ततः 
तेऽपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सव॑तोयसम्‌। 
अद्यापि न निवक्तन्ते सथद्रेभ्य इवापगाः | १००॥ 
ततः प्रभृति वे भ्राता भ्रातुरन्वेषणे दिज। 


प्रयातो नश्यति तथा तन्न कायः विजानता ॥१०१॥ 


तांधापि नष्टान्‌ विज्ञाय पुत्रान्‌ दक्षः प्रजापतिः| 
क्रोधं चक्रे महाभागो नारदं स शशाप च।।१०२॥ 
सर्गकामस्ततो विद्वान्स येतरेय प्रजापतिः । 

पष्ट दक्षोऽघुजत्कन्या वेरुण्यामिति नः भरुतम्‌। १०३। 
ददौ सद्र धमय कश्यपाय त्रयोदज्। 
सप्तविंशति सोमाय चतस्रोऽरिष्टनेमिने ॥१०४॥ 
दवे चेव बहुपुत्राय ह चेबाह्धिरसे तथा । 

दे कृशाश्वाय विदुषे तासां नामानि मे शृणु | १०५॥ 
अहन्धती वसुर्यामिलम्बा भानुर्मरुत्वती । 

सङ्कल्पा च हर्ता च साध्या विश्वा च तादशी ।१०६। 


धर्मपल्यो दश्च त्वेतास्तास्वपत्यानि मे शृणु | 
विश्वेदेवास्तु षिश्वायाः साभ्या साध्यानजायत। १०७ 
मरुत्वत्यां मरुतन्तो वसो वसवः स्मृताः । 
भानोस्तु भानवः पुत्रा खहूर्तायांृहूर्तजाः ॥१०८॥ 
लम्बायाइ्चेव घोषोऽथ नागवीथी तु यामिजा। 
पृथिवीविषयं सवंमरुन्धत्यामजायत । 
सङ्कल्पायास्तु सर्वात्मा जने सङ्कल्प एव हि ॥१०९॥ 


ये त्वनेकवसुप्राणदेवा ज्योतिः पररोगमाः। 


वसवोऽष्टौ समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम्‌११० 
आपो घ वश्च सोमश धर्मश्चेवानिलोऽनरः। 


प्रत्यूषश्च प्रभासथ वसवो नामभिः स्परताः ॥१११॥ 
आपस्य पुत्रो वैतण्डः शरभः शान्तो ध्वनिस्तथा | 


हम भमी पएरथिवोका परिणाम जानकर ही छट 
रगे ।' इस प्रकार वे भी उसी मागंसे समस्त 
दिश्चाओंको चके गये ओर समुद्रगत नदियोके समान 
आज्ञतक नहीं छोटे ॥ १०० ॥ हे द्विज ! तबसे ही 
यदि भाईको खोजनेके ल्थि भाई हीजायतो वह 
नष्ट हो जाता हे, अतः विज्ञ पुरुषको ेसा न करना 
चाहिये । १०१ ॥ 
महाभाग दक्ष प्रजापतिने उन पुत्रोको भी गये 
जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया भौर न्ह श्चाप 
दे दिया ॥ १०२॥ हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर 
उख विद्वान्‌ प्रजापतिने सगेवृद्धिकी इच्छासे वैरुणी- 
मे साठ कन्याएं उत्पन्न कीं ॥ १०३ ॥ उनमेसे उन्होने 
दश॒ धमेको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस सोम 
(चन्द्रमा) को ओर चार अरिष्टनेमिकोरी 


| ॥ १०४॥ तथा दो बहुपुत्र, दो अङ्गिरा ओर दो 


छरडान्धको वि वाही । अब उनके नाम सुनो ॥ १०५॥ 
अरुन्धती), वसु, यामि, रम्बा, भानु, मरुत्वती 
सङ्कल्पा, सुहूती, साध्या ओौर विश्वा ॥ १०६ ॥--ये 
दज धमकी पलिया थीं; अब तुम इनके पुत्रोका 
विवरण सुनो । विश्वके पुत्र वि्येदैवा ये, साध्यास 
साभ्यगणं हुए ॥ १०७ ॥ मरुत्वतीसे मरुत्वान्‌ ओौर 
वसुसे वसुगण हुए तथा भावुसे भानु भौर मुहूतौसे 
युहूतीभिमानी देवगण हुए ॥ १०८ ॥ छम्बासे घोष, 
यामिसे नागवीथौ ओर अरन्धतीसे समस्त प्रथिनी- 
विषयकं प्राणी हुए तथा सङ्कल्पासे सवीरमक सङ्कल्प- 
की उत्पत्ति हुई ॥ १०९ ॥ 


नाना प्रकारका वसु ( तेज अथवा धन) ही 
जिनका प्राण है एेसे ऽ्योति आदि जो भटे बयुगण 
विख्यात है, अव मै उनके वंश्चका विस्तार बताता 
ह ॥ ११० ॥ उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धमे, 
अनिर ( वायु), अनर (अग्नि) प्रस्युष आओौर 
प्रभास कषे जाते है ।। १९११॥ पके पुत्र वैतण्ड, 


षा आगन च्ञ ननि सा 9 चन चान 





सोमस्य भगवान्वर्चा वर्चस्वी येन जायते । 
धमंस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा ॥।११३॥ 
मनोहरायां शिरिरः प्राणोऽथ वरुणस्तथा। 
ग्निलस्य शिवा भार्यां तस्याः पत्रो मनोजवः ११४। 
विज्ञातगतिश्चैव द्रौ पुत्रावनिलस्य तु । 
अग्निपुत्रः कुमारस्तु शरस्तम्बे व्यजायत ॥११५॥ 
तस्य शाखो विश्षाखश्च नैगमेयश्च पृष्टजः । 

अपत्यं कृत्तिकानां तु कात्तिकेय इति स्मृतः।॥११६॥ 
प्रत्यूषस्य विदुः पत्रभपिं नाम्नाथ देवरम्‌ । 

दौ पतरौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ मनीषिणो ॥११७॥। 
बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्षी ब्रह्मचारिणी । 
योगसिद्धा जगछरत्स्नमसक्ता विचरर्युत ॥११८॥ 
प्रभासस्य तु सा भार्यां वघ्ूनामष्टमस्य तु । 
विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः।११९॥ 
कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च बद्धंकी । 
भूषणानां च सर्वषां कर्ता शिल्पवतां वरः ।॥१२०॥। 
यः सर्वेषां विमानानि देवतानां चकार ह । 
मलुष्याश्नोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ।१२१। 
तस्य पुत्रास्तु चत्वारस्तेषां नामानि मेभृणु। 
अन्नेकपाददिध्न्यस्तष्टा सद्र वीयंबान्‌॥१२२॥ 
त्वटुशाप्यात्मजः पुत्रो विश्वरूपो महातपाः । 
हरथ बहुरूप तयम्बकशापराजितः ॥१२३॥। 
वृपाकपिश इम्भुश्च कपदीं सेवतः स्मरतः । 
मृगव्याधश्च शवे कपाली च महामुने ॥१२४॥ 
एकादरेते कथिता रद्रालिुवनेश्वराः । 

रतं त्वेक समाख्यातं रद्राणाममिततौजसाम्‌। १२५॥ 
कश्यपस्य तु भाय यास्तासां नामानि मे शृणु | 
अदितिदितिदंुस्चैवारिटा च सुरसा खसा।।१२६॥ 
सुरभिविनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा | 
कदनिश् ध॑त्त तदपत्यानि मे शृणु ॥१२७॥ 











भगवान्‌ वर्चा सोमक पुत्र थे जिनसे पुरुष वचंस्वी 
(तेजस्वी) हो जाता है, ओौर धमके उनकी भायां 
मनोहरासे द्रविण, हुत एवं हव्यवह तथा रि्िर, 
प्राण ओर बरुण नामक पुत्र हुए । अनिलकी पन्न 
शिबा थी; उससे अनिखके मनोजव भौर अविज्ञात- 
गत्ति-ये दो पुत्र हुए । अग्निका पुत्र कुमार शरस्तम्ब 
( सरक्ण्डे ) से उत्पन्न हा था ॥ ११३-११५॥ 
शाल, विश्चाल ओौर नैगमेय उसके छोटे भाई थे। 
कृत्तिकाओंका पुत्र कार्तिकेय कहलाया ॥ ११६॥ देवङ 
नासक ऋषिको प्रत्युषका पुत्र कहा जाताहे। इन 
देवख्केभी दो क्षमाशील आओौर मनीषी पुत्र हए 
॥ १९१७ ॥ 

बरहस्पतिजीकौ बहिन वरक्नी, जो ब्रह्मचारिणी 
ओर सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त भावसे समस्त 
भूमण्डलमें वि चरती थी, भाठवें वसु प्रभासक्रो मायां 
हई । उससे महाभाग प्रजापति विश्धकमका जन्म 
हमा जो सहसो शिल्पो ( कारगरियों ) के कती, 
देव ताओंके शिल्पी, समस्त रिल्मकारोमे श्रेष्ठ ओर 
सब प्रकारके आभूषण वनानेवाटे हुए ॥११८-१२०]] 
तथा जिन्होने देवताओके सम्पूणं विमानोंकी रचना 
की ओर जिन महात्माकी [ आविष्कृता ] शिल्प- 
विद्याके आश्रयसे बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्बीह 
करते है| १२१॥ उन विनश्वकर्माके चार पुत्र थे 
उनके नाम सुनो । वे अजेकपादू, अहिनुध्न्य, त्वेषा 
ओर परमपुरुषार्थ सद्र थे 1 १२२ ॥ उनमेसे त्वष्टा- 
फे पुत्र महातपस्वी विरूप हुए । हे महासने ! हर 
बहुरूप, यम्बक, अपराजितः वृषाकपि, सम्भुः कपर्दी 
रेवत, मृगव्याध, शवं ओौर कपाखो ॥ १२२-१२४॥ 
ये व्रिोकीके अधीश्वर भ्यारह रुद्र कहे ग्ये दहै । फेसे 
सैकड़ों महातेजस्वी पकाद्च रुद्र प्रसिद्ध है 


॥ १२५ || 


जो [ दक्वकन्यार्पु ] कर्यपजीकी खियाँ हृदं उनके 
नाम सुनो--वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुस्साः 
खसा, सुरभि, विनता, तारा, क्रोधवजा, इरा, कदु 
जौर मुनि थीं। हे धर्मज्ञ! अव तुम उनकी सन्तान- 
का विवरण श्रवण करो ॥ १२६-१२७॥ 


९४ 





पूवंमन्वन्तरे श्रेष्ठा दादशषासन्सुरोत्तमाः । 
तुषिता नाम तेऽन्योऽन्यमूुर्ेवस्वतेऽन्तरे।१२८। 
डपस्थितेऽतियकषसशा्ुषस्यान्तरे मनोः । 
समवायीकृताः; सर्वे समागम्य परस्परम्‌. ॥१२९॥ 
आगच्छत तं देवा अदितिं सम्प्रविर्य वै । 
मन्वन्तरे प्रह्यामस्तन्नः प्रयो मवेदिति।।१३०॥ 
एवगुक्ा तुते स्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः। 
मारीचाक्श्ष्यपाजाता आदिप्या दक्षकन्यया १३१ 
तत्र विष्णुश्च शक्रश्च अज्ञाते पुनरेव हि। 
अ्॑मा चैव धाता च त्वा पूषा तथैव च ॥१२२॥ 
विवस्वान्सविता चेव मित्रो वरुण एव च । 
अंसुरभगश्ातितेजा आदित्या द्वादश स्परताः॥ १२२॥ 
चाक्षुषस्यान्तरे पू्॑मासन्ये तिताः सुराः । 
वैवस्वतेऽन्तरे ते वै भादित्या द्वादश स्पृताः। १३४ 
याः सपरविशतिः प्रोक्ताः सोमपल्योऽथ सुत्रताः। 
सां नक्षत्रयोगिन्यस्तन्नाम्न्यश्चैव ताः स्म्रता; १२५ 
तास्रामपत्यान्यमवन्दीप्नान्यमिततेजसम्‌ । 
-अरिषटनेमिपत्नीनामपत्यानीह परोडच ॥१३६॥ 
बहुपुत्रस्य विदुपशतस्रो विद्युतः स्मृताः । 
-प्ररय ्खिरसजाः शष्ठ ऋचो बरह्मपिंसत्डृताः॥। १३५७॥ 
कृशाश्वस्य तु देवर्पदेवप्रहरणाः स्मृताः । 
;एते युगसहस्रान्ते जायन्ते पनरव हि ॥१२८॥ 
-स्ं देवगणास्तात त्रयस्तु छन्दजाः | 
तेषामपीह सततं निरोधोत्ततिरुच्यते ।६२९॥ 


४8 ज्योतिःशस्तरमे कहा है-- 
द्शग 





श्रीविष्णुपुराण 








[ अ० १५ 





पुवं ( चाक्षुष ) मन्वन्तरमे तुषरित नामक बारह 
रेष्ठ देवगण थे वे यङस्वी सुरश्रेष्ठ चा्षुष- 
मन्वन्तरके पश्चात्‌ वैवस्वत-मन्वन्तरके दपस्थित 
होनेपर एक दूसरेके पास जाकर मिरे ओर परस्पर 
कहने ल्गे--॥ १२८-१२९॥ “हे देवगण ! आभो; 
हमरोग शीघ्र ही अदित्िके गभभे प्रवेश्च कर इस 
वैवस्वरत-मन्वन्तरमे जन्म ठं, इसीमे इमास दहित 
है" | १३० ॥ इस प्रकार चा्षुष-मन्वन्तरमें निश्चयः 
कर उन सबने मरीचिपुत्र कर्यपजीके यँ दक्षकन्या 
अदितिके ग्मसे जन्म छिया 1 १३१॥ वे अति- 
तेजस्वी उससे उलन्न होकर विष्णु, इन्र, अयमा, 
धाता, त्वा, षा, विर्वस्वान्‌, सविता, मैत्र, वरुण, 
अंशु ओर भरी नामक द्वादश आदित्य काये ॥ 
१२२.१२३॥ इस प्रकार पे चा्षुष-मन्वन्तरमे जो 
तुथित नामक देवगणये वे ही वैवस्वत-मन्वन्तरमे 
द्रादञ्च आदित्य हुए ॥ १३४ ॥ 

सोमकी जिन स॒न्ताईस सुव्रता पत्नियोकि विषय- 
मे पटे कह चुके ह बे सब भभनी हं ओर 
उन नामोसेः ही विख्यात है ॥ १२५॥ उन अति 
तेजस्वि नियोसे अनेक प्रतिभाश्चाली पुच्र उसपन्न हए । 
अरिष्टनेमिकी पल्नियोके सोरु पुत्र हए ॥ १३६ ॥ 
बुद्धिमान्‌ बहुपुत्री भायौ [ कपिका, अतिरोदिता, 
पीता ओर अरिताधनामक } चार प्रकारकौ वियत्‌ 
कही जाप है । बरह्मियोसे सल्छृत ऋचाओके भनि 
मानी देवशरेष्ठ प्रतयङ्गिरासे उत्पन्न हृए दै तथा 
[ स्ाखोके अभिमानी ] देवप्रहरण नामक दैवगण 
देवि छृश्चारवकी सन्तान कहे जति दै । एक हजार 
युगके पञ्चात्‌ ये फिर, भी खन्न होते ह ।॥ १३७- 
१३८ ॥ हे तात ! ये तंतीस वेदोक्त देवता† अपनी 
इच्छानुसार जन्म ठेनेव छे है । कहते दै, इस रोक. 
म इनके उत्पत्ति भौर निरोध.निरन्तर हआ करते 
पिमुब्रह सतत नरोधातपातरुच्यते ॥६३९॥ | ह ॥१३९॥ ______- 


पि ध 1वधाया विदिता | 


प्रथम अश. 


_____ ~~~ 


अ० 
१५ ] । 


प दया 








सैतरेय ! जिस प्रकार छोकमे सूयके अस्त ओर 
उद्य निरन्तर हुभा करते द उसी प्रकार ये देवगण 
भी युग-युगम उत्पन्न होते रहते हे ।। १४० ॥ 


हमने सुना है दितिके करयपजीके वयसे परम 
दुर्जय हिरण्यकशिपु ओर हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र 
तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हृ जो विप्रचित्तिः 
को विवाहो गयी | हिरण्यकक्िपुके अति तेजस्वी 
ओर महापराक्रमी अनुह्वाद, ह्वादे, बुद्धिमान्‌ प्रहाद 
ओर सहनाद नासक चार पुर हृषु जो दैस्यवंञको 
बदृनिबाछे थे ॥ १४१-१४३॥ हे महामाग | उनमें 
्रह्ादजी सवत्र समदश्ची ओर जितेन्द्रिय थे, जिन्होनि 
श्रौ विष्णुभगवान्‌कौ परम भक्तिका वणेन कियाथा 
| १ ॥ जिनको दैत्यराजद्वास दीप्र किया हज 
अग्नि उनके सर्वाङ्गमे व्यप्र होकर भी, हृदयम 
वासुदेव भगवान्‌के स्थित रहनेसे नहीं जला पाया 
॥ १४५॥ जिन महावुद्धिमानके पाशवद्ध होकर 
समुद्रफे जलम पदे-पदे इधर-उधर हिरने-डख्नेसे 
सारी प्रथिली दिलने लगौ थी ॥ १४६ | जिनका 
वर्च॑तके समान कठोर सरीर, सवत्र भगवच्चित्त 
रहनेके कारण दै्यराजके चये हृए अक्ञ-श्लसि 
सी छिन्न-भिन्न नह हमा | १४७ ॥ दैत्यराजद्यरा 
मरित विषागभ्निसे प्रज्वठ्ति श्ुखवराटे सपं भी जिन 
सह।तेजस्वीका अन्त नहीं कर सके ॥ १४८॥ जिन्न 
भगवरस्मरणदू्पी कवच धारण किये रहनेके कारण 
























यथा द्रर्यस्य मैत्रेय उदयास्तमनाबिह । 

एवं देवनिकायास्ते सम्भवन्ति युगे युगे ।॥१४०॥ 
दित्या पत्रह्मयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम्‌ । ॥ 
दिरण्यकरिषुस्चैव हिरण्याक्षश्च दुजयः ॥१४१॥ 
सिंहिका चामवत्कन्या विप्रचित्तेः परिग्रहः । 
हिरण्यकरिपोःपुत्राधत्वारः प्रथितौजसः ॥१४२॥ 
भनुहादस्चैव हाद प्रह्मादश्चैव बुद्धिमान्‌ । 
संहादश्च महावीर्या दैर्यवंशविवद्ध॑नाः | १४३॥ 
तेषां मध्ये महाभाग स्त्र समदम्वशी । 

हदः परमां सक्तिं य उवाच जनादैने ॥१४४॥ 
दत्येन्द्रदीपितो वद्धिः सर्वाङ्गोपचितो द्विज । 

न ददाह च यं विप्र वासुदेवे हदि स्थिते ।१४५॥ 
महार्णवान्तःसरिले स्थितस्य चरतो मही । 
चचार सकरा यस्य पादवद्वस्य धीमतः ॥१४६॥ 
न भिन्नं विविधैः शसैय॑स्य दैखेनदरपातितैः। 
शरीरमद्विकटिनं सर्व॑त्राच्युतचेतसः ॥१४५७॥ 
विषानक्छोज्ञ्वरुघुखा यस्य दैत्यप्रचोदिताः। 
नान्ताय सर्वपतयो बभूवुरुरुतेजसः ॥१४८॥ 
रोकेरा्ान्तदेहोऽपि यः स्मरन्पुरुषोत्तमम्‌ | 
तत्याज नात्मनः प्राणम्‌ विषणुस्मरणदंरितः।१४९ 
पतन्तथृश्चादवनियं्पेत्य महामतिम्‌ । 


पुरुषोत्तम भगवान्‌का स्मरण कस्ते हुए पत्थरोकरौ 
मार पड्नेषर भी अपने प्रारणोको नहीं छोड़ा ॥ १४९॥ 
स्वगंनिबासी दैत्यपतिद्धारा ऊपरसे गिरये जनिषर 
जिन मह्ामत्तिको प्रथिवीने पास जाकर बरीचहोमें 
अपनी गोदे धारम कर छिया ॥ १५० ॥ ` चित्तम 
श्रीमधुभूदन भगवान स्थित रहनेसे दैत्यराजका 
नियुक्त किया हुभा सबका शोषण करनेवाला चायु 


९ अवाप सदक्षयं सद्यथिततस्थे मधृद्दने ॥१५१ | | जिनके शरीरे छगनैसे इन्त हो गया ॥ १५१॥ 
। र „ | देवयेनदरदारा आक्रमणके ` छथि नियुक्त उन्मत्त 


विषाणमङ्गयुन्मत्ता मदहानिं च दिगजाः। दिगगजोि दत जिनके बक्सथके केसे टट गये 


५ „= {+++ 9८ ~ ||| „9. ~~ गा पद वर्णं गे गया | १५२ ॥ 


दधार दै्यपतिना कपत स्वगनिवापिना | १५०॥ 
यस्य संोपको वाहे दैयेन्द्रयोजितः। 


९६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


| अ० १8६ 








यस्य चोत्पादिता कृरया दैस्यराजपुरोहिैः। 
बभूव नान्ताय पुरा गोविन्दासक्तचेतसः।१५३॥ 
शम्धरस्य च मायानां सदश्मतिमायिनः। 
यस्मिन्प्रयुक्त चक्रेण कृष्णस्य वितथौकृतम्‌। १५४। 
दैवयेन्द्र षदो पहृतं यस्य हालां विषम्‌। 
उरयामास मतिमानविकारममस्सरी ॥१५५॥ 
समवेता जगत्यस्मिन्यः सर्वेष्वेव जन्तुषु । 
यथारमनि तथान्येषां परं यैत्रगुणान्वितः ॥ १५६॥ 
` धर्मारमा सत्यरौर्यादिगुणानामाकरः परः । 
उपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाभवत्‌ ॥१५७॥ 


पूबकारमे दैत्यराजके पुरोदितोकौ उत्पन्न कौ हद 
कृत्या भी जिन गोबिन्दासक्तचित्त भक्तराजके 
अन्तका कारण नही हो सकी ॥ १५३ | जिनके 
उपर प्रयुक्तं की हई अति मायावी हम्बरासुरकी 
हजारो माया श्रीकुष्णचन्द्रके चक्रसे व्यथे हो गयीं 
॥ १५४ ॥ जिन मतिमान्‌ ओौर निर्मत्सरने दैत्यराजके 
रसोइयोके छाये हए हलाहर विषको निविकार- 
भावसे पचा छिया | १५५1 जो इस संसारं 
समस्त प्राणियोके प्रति समानचित्त ओर अपने 
समान ही दृसरोके लिये भी परमप्रेमयुक्तं थे ॥ १५६॥ 
ओर जो परम धममीत्मा महापुरुष, स्त्य एवं रोयं 
आदि गुणोँको खानि तथा समस्त साधु-पुरुषोके 
लिये खपमास्वरूप हुए थे ॥ १५७॥ 


[ति 9 ^) पं 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽञञ पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥) 


सोलह अध्याय 


मृसिहावतारविषयक्त प्रश्न 


श्रीमैत्रेय उवाच 


कथितो मवता वंशो मानवानां महात्मनाम्‌ । 
कारण चास्य जगतो विष्णुरेष सनातनः ॥ १॥ 
यच्वेतेद्‌ भगवानाह प्रहवादं दैस्यसत्तमम्‌ । 
ददाह नाग्नर्नास्त्रिथ भुण्णस्तत्याज जीवितम्‌ २॥ 
जगाम वसुधा क्षोमं यत्रान्िसरिले स्थिते । 
पाशेव॑दरे बिचरति विक्षिप्ताः समाहता ।॥ ३॥ 
शेेराक्रान्तदेहोऽपि न ममार च यः पुरा। 
त्वया चातीव माहात्म्यं कथितं यस्य धौमतः।४॥ 
तस्य प्रमाबमतुकुं विष्णो भक्तिमतो यने । 
भोतुमिच्छमि यस्थैतचचरितं दीप्ततेजसः ॥ ५॥ 
-किनिमित्तमसो शसरविक्षिपो दितिजेने। 


9 ¢ 
विभ नरज किति इना, | £ ।। 


| “ श्रीमेतरेयजी बोले--आपने महात्मा मनुपुत्रोके 


वंशोँका वणेन किया ओौर यह्‌ भी बताया इसं 
जगत्‌के सनातन कारण भगवान्‌ विष्णु ही हे ॥ १॥ 
किन्तु, भगवन्‌ | आपने जो कदा कि दैत्यश्रेषठप्रह्नाद- 
जीकोनतो भग्निने द्यी मस्म किया ओौर न उन्होने 
अश्ल-शख्मोसे आघात किये जानेपर ही अपने प्रा्णोको 
छो! ॥ २॥ तथा पाकबद्ध होकर समुद्रके जरे 
पड़ रहनेपर नके हिरते-डलते हुए भङ्गोसे आत 
होकर प्रथिवी उगमगाने लगी ॥ ३ ॥ ओर ज्ञरोरपर 
पत्थरोकी बोखार पड्नेपर भी बेनी मरे। इस 
प्रकार जिन महाबुद्धिमान्का आपने बहत ही 
माहात्म्य बणेन किया है ॥ ४ ॥ हे मुने ! जिन अति 
तेजस्वी मद्ात्मके एसे चरि्रहे, मै उन परम 
विष्णुभक्तका अतुङखित प्रभाव सुनना चाहता हँ ॥५॥ 
दे सुनिवर! वेतो बड़े ही धर्म॑परायण ये; 
फिर दैस्योने उन क्यों अल्-सखसे पीडित किया 


„+, 0 न 


अ० १६1 


आक्रान्तः पर्वतैः कसादष्श्चैव मरोरभैः । 
धिष; भिमद्विक्षिलराक्कि वा पवकसश्चये ॥ ७ ॥ 
दिग्दन्तिनां दन्तमूभिंस च कसान्निरूपितः । 
संशोषकोऽनिलशाख प्रयुक्तः किं महासुरे; ॥ ८ ॥ 
कतयां च दैत्यगुरो युधुस्तत्र ष सने । 
शम्बरशापि मायानां सदसं पवि प्रयुक्तवान्‌ ॥ ९॥। 
हालाहलं षिषमहो देत्यष्टमहात्मनः। 
कसात षिनाकषाय यज्जीणं तेन धीमता ॥१०॥ 
एतत्सवं महाभाग ्रहादख महात्मनः । 
चरितं भरोठमिच्छामि महामाहात्म्यषवकम्‌ ॥११॥ 
नहि कौतूहरं तत्र यत्यै हतो हि सः । 
अनन्यमनसो विष्णौ कः समर्थो निपातने ॥१२॥ 
, तखिन्धर्मपरे नित्यं केद्यवाराधनोधते ) 
खपशप्रभवैरदैत्येः एतो देषोऽतिदुष्करः ॥१३॥ 
धर्रारमनि महाभागे विष्णुभक्ते पिमस्परे । 
दैतेयैः प्रहुतं कसात्तन्ममास्यातुमररसि ।१४॥ 
प्रहरन्ति महात्मानो विपक्षा अपि नेशे । 
गुणैस्समम्विते साधौ फिं पुनय॑; खपक्षजः ।॥१५॥ 
तदेतत्कथ्यतां सवं भिस्तरान्छुनिपुङ्घव । 


त्येश्वरख चसितिं भोतुमिच्छाम्यशेषतः ॥१६॥ 


प्रथम अश 








९७ 





उन्होने किसलये उन्हें पर्वतोसे दनाया ? किस कारण 
सर्पोसि ईसाया ? क्थ पर्वतशिषरसे गिराया भौर 
क्यो अश्चिमे उच्वाया ?॥७॥ उन महादैत्योने उन्दै 


` दिजोके दोँतोसे कयो ठैधवाया ओर क्यो सर्वशोषक 


वायुको उनके ल्यि निथुक्त किया !॥ ८ ॥ हे सुने ! 
उनपर देव्यगुरूभओोने किसलये कृत्याका प्रयग किया 
ओर राम्बराघुरने क्यो अपनी सहस्रौ मायाओंका वार 
किया ॥ ९ | उन महत्माको मारनेके लिये दैव्यराजकेः 
रसोह्योने, निसे वे महाचुद्धिमान्‌ पचा गये ये रेस 
हह विष क्यों दिया १ ॥ १०॥ 


हे महाभाग ! महात्मा प्रह्मदका यह समूर्ण 
चरि, जो उनके गान्‌ . माहात्यका सूचक है, मै 
छुना चाहता द्र ॥ ११ ॥ यदि देष्यगण उन्दं नहीं 
मार सके तो इसका सुस्े कोई आश्वं नह है, क्योकि 
जिसका मन अनन्यमावसे भगवान्‌ विष्णुम लगा 
हआ है उको भला कौन मार सक्ता है ? ॥ १२॥ 
[ आश्वयै तो इसीका है कि] जो नित्यधमेपसयण 
ओर भगवदाराधनामे तत्पर रहते ये उनसे उनके ही 
कुर्म उत्पन्न हए देत्योने एेसा भति दुष्कर द्वेष किया | 
[ क्योकि रेसे समदशीं ओर घर्मभीरं पुरषेसे तो 
किसीका भी देष होना अत्यन्त कठिन है ] ॥ १३॥ 
उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्प्ररदीन विष्णुभक्तको 
स्योने किस कारणसे इतना कष्ट दिया, सो भप 
मुञ्से किये ॥ १४ ॥ महात्पखेग तो पेते गुण- 
सम्पन्न-साघु पुरत विपक्षी हदोनेपर भी उनपर किसी 
प्रकारका प्रहार नहीं करते, किर खपक्षमे होने 
प्र तो कहना दी क्थाहैः?॥ १५॥ इसय्यि हे 
मुनित्रेष्ठ } यह सम्पूणं वृत्तान्त विसतापूऱ््॒ वर्णन 
कीजिये । मै उन देव्ययजका सम्पूणं चस्ति सुनना 
चाहता ह ॥१६॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽरे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ 


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९८ 





1 कक्काण्कयकेकािकी 
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श्रौविष्णुपुराणं 





| अ० १७ 


सतर्वा अध्याय 


दिरण्यकरिपुकरा दिग्विजय ओर प्रहवाद्‌-चरित 


श्रीपराद्यर उवाच 

तेय शरूयतां सम्थश्‌ चितं तख धीमतः । 
ग्रहादय सदोदारचरितख महात्मनः ॥ १ ॥ 
दितेः पुत्रो महावीर्यो हिरण्यकरिपुः एुरा । ` 
त्रैलोक्यं वकशषमानिन्ये ब्रह्मणो वरदर्पितः ॥ २॥ 
इनद्रमकरेैत्यः स चासीस्सषिता खयम्‌ 
वायुरग्निरां नाथः सोमशामूर्महासुरः ॥ २ ॥ 
धनानामधिपः सोऽभूत्स एवासीस्छयं यमः 
य्ञमागानशेषास्त॒ स खयं बुेजेऽसुरः ॥ ४॥ 
देवाः स्वगं परित्यञ्य तलासान्ुनिसत्तम । 
विचेदूवनौ सव बिभ्राणा मातुषीं वहम्‌ ॥.५ ॥ 
जित्वा तरि्ुवनं सवं तररोक्येशवयंदपितः । 
उपगीयमानो गन्धे विषयान्प्िपान्‌ ॥ ६ ॥ 
पानासक्तं महारमानं हिरण्यकशिपुं तदा । 
उपासाशचरिरे स्वं सिद्धगन्धवपन्नगाः ॥ ७॥ 
अादयन्‌ जगुश्वन्ये जयश्षब्दं तथापरे । 
दैत्यराजख पुरतश्ठः धिद्धा युदान्विताः ॥ ८ ॥ 
तत्र प्रनृत्ताप्तरसि स्फाटिकाञरमयेऽसुरः । 

पपौ पानं यदा युक्तः प्राप्रदे सुमनोहरे ॥ ९॥ 
तख पुत्रो महाभामः प्रहदो नाम नमतः । 
पपाठ बालपल्यानि ` शुरुगेहङ्गतोऽभफः ॥१०॥ 
एकदा तु स धर्मात्मा जगाम गुरणा सहं । 
पानासक्तसखय परतः पितुदैत्यपतेसतद्‌ा ।॥१९॥ 
पादप्रणामावमतं तयुत्थाप्य पिति सृतम्‌ 1 ` 
हिरण्यकशिपुः प्राह प्रहाद्ममितौजसम्‌ ॥१२॥ 

हिरण्यकशचिपुर्वाच 
पष्यतां भवता षत्स सारभूतं सुभाषितम्‌ । 





श्रीपरादारजी बोटे-हे त्रेय | उन सवदा उदार- 


चरति परमबुद्धिषान्‌ महात्मा प्रह्णादजीका चस्ति तुम 


यानूरवक श्रवण करो ॥ १ ॥ प्वकाल्मे दितिके पुत्र 
महाबली हिरण्यकशिपुने, ब्रह्माजीके वरसे गवयुक्त 
( सशक्त ) होकर सम्पूणं त्रिरोकीको अपने वची भूत 
करच्यि था ॥२॥ वह दैव्य हृ्रपदका भोग 
वरता था ] वह्‌ महान्‌ अघर खयं ही सुय, वायु, अग्नि 
वरुण अ चन्द्रमा बना इभा था॥ ३ ॥ वह खयं 
ही कुबेर ओर यमराज भी था ओर वह अघर खयं 
ही सृमपरणं यज्ञ-भागोको भोगता धा ॥४॥ दै 
मुनिसत्तम । उसके भयसे देवगण खगेको छोडकर , 
मनुष्य-शपीर धारणकर भूमण्डल विचरते रहते थे 
॥ ५॥ इस प्रकार सम्पूर्णं त्रिलोकीको जीतकर 
ननिमुवनके वैभवसे गर्वित हआ ओर गन्धरवोते अपनी 
सतुति सुनता हा वह अपने अभीष्ट मोगौकौ भोगता 


था॥६॥ 


उस सप्रय उस्र मयपानासक्त महाकाय हिरण्यकरशिपु- 
की हयी समस्त सिद्ध, गन्धर्वै ओर्‌ नाग आदि उपासना 
करते ये ॥ ७॥ उस दैयराजके सामने कोई सिद्ध 
गण तो वाजे बजाकर उसका योगान करते ओर 
वो अति प्रसन होकर जय-जयकार करते ॥ ८॥ 
तथा बह अघुरयन व्यौ स्फटिक एवं अश्र-शिरके 
यने इए मनोहर महठमे, जहौ अप्तराका उत्तम 
नूप इभा करता था; प्रसननताके साथ म्पान 
करता रता था 1 ९ ॥ उसका प्रहा नानकं महा 
मप्यवान्‌ पुत्र धा | वह्‌ बा्क गुरुके यरो जाकर 
बाडोचित पाठ पठने कग ॥१०॥ एक दिन वह धर्मासि 
बाछक गुरजीके साथ अपने पिता देत्यराजके पास र्या 
ज उस समय मथपानमे ख्णा इञ था ॥११॥ तब अपने 
चरणो श्युकै इए अपने परम तेजखी पुत्र प्रह्ादजीको 
उठाकर पिता हिरण्यकरिपुने का ॥ १२ ॥ 


हिरण्यकरिपु बोख--वससं ! भबतक अध्ययन- 
मे निरन्तर तत्पर रहकर तुमने जो डु पदा है 


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भगवान्‌ त्॒मिहदवकी गोदर्मभक्त प्रह्माद 


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अ० १७ 1] 





ग्रहाद्‌ उवाच 
भ्रूयतां तात वक्ष्यामि सारभूतं तवाक्घया | 
समाहितमना भूवा यन्मे चेत्तखवरसितम्‌ ॥१४॥ 
अनादिमध्यान्तमजमबरदधिक्षयमच्युतम्‌ _ ॥ 
प्रणतोऽस्म्यन्तसन्तानं सर्वकारणकारणम्‌ ॥१५॥ 





| श्रीपराशर उवाच 
एतनिरम्य दैत्येन्द्रः सकोपो रक्तरोचनः 
विलोक्य तद्गुरु प्राह स्पुरिताधरपष्टवः ॥१६॥ 
हिरण्यकशिपुरुवाच 
ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते व्रिपक्षस्तुतिसंहितम्‌ ) 
असारं ग्राहितो बालो मामवज्ञाय दुर्मते ॥१७॥ 
गुरुरुवाच 
-दत्येशवर न कोपख वशमागन्तुम्सि । 
-ममोपदेश्चजनितं नायं वदति ते सुतः ॥१८॥ 
| हिरण्यकरिपुरुगाच 


अनुशिष्टोऽपि केनेद्बस्स प्रहाद्‌ कथ्यताम्‌ । 

मयोपदिष्टं मेस्येष प्रत्रभीति गुरुव ॥१९॥ 
्रहाद उवाच 

शासता विष्णुरेषख जगतो यो हदि थितः 





तते परमात्मन्‌ तात कः केन शाते ॥२०॥ 





। हिरण्यकरिपुर्कत 
कोऽयं विष्णुः सुदुबुदधे यं त्षीपि पुनःपुनः 
जगतामीश्वरस्येह पुरतः प्रसभे मम ॥२१ 
ग्रहि उवाच 
न चन्दभचरं यश्य योगिध्येयं परं पदम्‌ । 


यतो यश स्वयं विद्धं स षिष्णुः परमेश्वरः ॥२२॥ 





हिरण्यकशिपुरुवाच 
परमेश्वरसंज्ञोऽज्ञ किमन्यो मय्यवयिते | 


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९९ 









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प्रहवाद्रजी बोरे--पिताजी | मेरे मनम नो सबके 
सारांशणडपसे खित है वह मे भापकी आज्ञानुसारं 
पुनाता रह सावधान होकर घुनिये ॥ १४॥ जो 
आदि, मध्य ओर अन्तसे रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय- 
शून्य ओर अच्युत है समस्त कारणोके कारण तथा 
जगत्‌के सिति ओर्‌ अन्तकर्ता है, उन श्रीहरिको मेँ प्रणाम 
करता द्रं ॥ १५॥ 

श्रीपराहास्जी बोरे-- यह सुन दैव्यराज हिरण्य 
कशिपुने क्रोधसे नेत्र छार कर प्रह्वादके गुरुकी ओर 
देखकर कोँपते हए ओटोसे कहा ॥ १६॥ 

दिरण्यकदिपु वोखा--रे द्बद्धि ब्राह्मणाधम | यह 
क्था १ तूने मेरी अवज्ञा कर इस बाटकको मेरे विपक्षी- 
की स्तुतिसे युक्त अपार दिक्षा दी है! ॥ १७ ॥ 

गुरुजने कहा- दैत्यराज । आपको क्रोधके 
वक्षीभूत न होना चाये । आपका यह पुत्र मेरी सिखायी 
हई बात नही कह रहा है ॥ १८ ॥ 

हिरण्यकरिपु बोला- बेटा प्रहाद ! बताओ तो 
तुमको यद्व शिक्षा किसने दी है ? ठम्हरे गुरुजी 
कहते है फिमैने तो इसे रेस उपदेश दिया नदी 
है ॥ १९ ॥ 

प्रहवादजी योटे-पिताजी ! हृदयम सित भगवान्‌ 
विष्णु ही तो सम्पूर्णं जगत्‌के उपदेशक दै । उन 


 परमालमाको छोडकर ओर कौन किंप्रीको बु 


विखा प्षकता है ? ॥ २०] 


दिरण्यकरिपु बोखा--अरे मूं | जिस विष्णुका त. 
मु जगदीश्वरके सामने धृष्टतापूर्वक निररं होकर 
बारंबार वर्णन. करता है, वह कौन है १ ॥ २१॥ 

पहूादजी बोरे--योगियोके ध्यान कनेयेभ्य 
निस्का परमपद बाणीफा विषय नद्ध हो सकता 
तथा जिससे विश्च प्रकट इआ है ओर जो खयं विश्च 
खूप है वह परमेश दी व््णु है॥२२॥ 


हिरण्यकिपु बोखा--अरे मूढ | मेरे रहते इर ओर 
कौन परमेश्वर का जा सकता है १ फिर भीत पौतके 


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भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 


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ग्रहाद्‌ उवाचं 
-न केवलं तात मम्‌ प्रनानां 
स बरहममूतो भयतथ विष्णुः । 
-धाता विधाता परमेश्वरश्च | 
परसीद कोपं बुरुषे किमथम्‌ ।॥२४। 
हिरण्यकशिपृरुवाच 
भरविष्टः कोऽस्य हृदये दुबुदररतिपापकरत्‌ । 
येनेदशान्यताधूनि वदत्याशरष्टमानसः ।२५॥ 
प्रह्मद उवाच 
न केवलं मद्ध्रदयं स विष्णु- 
रक्रम्थ लोकानखिलानवयितः । 
स मां त्वदादींश्च पितस्पमस्ता- 
न्समस्तचेष्टासु युनक्ति सर्वगः ।२६॥ 


हिरण्यकशिपुरुवाच 








निष्कासखतामयं पापः शाखतां च गुरोर्गृहे । 
योजितो दुर्मतिः केन विपक्षमिषयस्तुतौ ।।२७॥ 


श्रीपराशर उवाच 


ह्युक्तोऽपौ तदा दैत्यैनीतो ुरुगृहं एनः 1 

जग्राह विद्यामनिश्षं गुरु्शरषणोद्यतः ॥२८॥ 

कालेऽतीतेऽति महति प्रहादुमसुरेश्वरः । 

समाहूयात्रवीद्धाथा काचिद्पुत्रक गीयताम्‌ ।२९॥ 

ग्रह्माद उवाच 

यतः प्रधानपुरूपौ  यतश्चैतचराचरम्‌ । 

कारणं सकलस्यास्य ष नो विष्णुः प्रसीदतु ।२०॥ 
हिरण्यकरिषुस्वाच 

दुरास्मा वध्यतामेष नानेनार्थोऽसति जीवता 1 

स्पकषहानिकर्दसखाचः ुखाङ्गारतां गतः ।।२१॥ 

श्रीपराद्नर उवाच 











मह्ादजी बोके--हे तात | वहं ब्रह्मभूतं विष्णु त 
केवर मेरा ही नही जल्कि सम्पूर्णं प्रजा ओर आपका] 
भौ कर्ता, नियन्ता ओर परमेश्वर है | आप प्रस 
होह्ये, व्यथं क्रोध क्यो करते हैँ ॥ २४ ॥ 


दिरण्यकरिपु बोला--अरे कौन पापी इस दुर्दधि 
वाङ्कके हृदयम धुप बैठा है निससे आविष्ट-चिन्त 
होकर यह देते अमङ्कक वचन बोर्तः है १ ॥ २५॥ 

भहादजी बोले--पिताजी | वे विष्णुभगवान्‌ तौ 
मेरे दी हृदयम नही, बल्कि सम्पूर्णं लोकम खित 
है | वे पर्वगामी तो मुञ्यो, आप सवको ओर समस्त 
प्राणिरयोको अपनी-अपनी वेष्टाओंमे प्रदृत करते 
है ॥ २६॥ 

हिरण्यकरिपु बोरा--हस पापीको यसे निकालो 
ओर गुस्के ययँ ठे जाकर इसका भटी प्रकार शासन 
करो । इस दुर्मतिको न जने किसने मेरे विपक्षीकी 
प्रशंसा नियुक्त कर दिया है १॥ २७ ॥ 
` श्रीपरादारजी बोरे-उसके रेसा कहनेपर दैत्य 
गण उपस बाछकको फिर गुरुजीके यदौ ठे गये ओर 
वे वहाँ गुरुनीकी रात-दिन भीप्रकार॒सेवा-छश्रूषा 
करते इए विधाध्ययन करने खो ॥ २८॥ बहत 
काट व्यतीत हो जनेपर दैव्यराजने प्रहादजीको 
पिर बुखया ओर कहा--श्वेदा आज कोई गथा 
( कथा ) सुनाओ' ॥ २९ ॥ 

महावजी बोटे- जिनसे प्रधान, पुरुष ओर यद्क 
चराचर नगत्‌ ` उन इभा है वे सकर प्रपश्चके 
कारण श्रीविषणुभगवान्‌ हमपर प्रसन हयं || ३० ॥ 

दिरण्यकरिपु वोरा--भरे ! यह बड़ा दरासा 
है | इसको मार डो; अन इसके जीनेसे कोई काभ 
नहीं है, क्योकि खपकषकी हानि करनेवाखा होनेसे यह्‌ 
तो अपने इुक्के ल्यि अंगारल्प ह्यो गया है | ६१ |] 

श्रीपरादारजी बोटे--उसकी पेसी आश्चा होनेपर 


अ० १७ ] 


प्रथम्‌ अश 


१०१५ 








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हाद उवाच 
विष्णुः शखेषु युष्मासु मयि चासो व्यवस्थितः। 
दैतेयास्तेन सत्येन माक्रमन्त्ायुधानि मे ।२३ 





श्रीपरा्यर उवाच 


ततस्तेश्शतशो दैत्यैः शस्रोैराहतोऽपि सन्‌ । 
नावाप वेदनामरपाममू्ैव पुनर्नवः ॥३४॥ 
हिरण्यकरिपुरकच 
ुरुदरे भिनिवर्तस्व वैरिपकषतबारदतः 
अभयं ते प्रयच्छामि मातिमूढमतिभव ॥२५॥ 
म्रहुमाद उवाच 
भेयं भयानामपहारिणि स्थिते 
मनस्यनन्ते मम इत्र तिष्ठति । 
यस्मिन्स्मृते जन्मजरन्तकादि- 
भयानि सर्वाण्यपयान्ति तात्‌ ॥३६॥ 
हिरण्यकथिपुरुवाच - 
भो भोः सर्पा दुराचारमेनमत्यन्तुमतिम्‌ । 
पिषञ्यालङकर्वकरः सद्यो नयत सङक्षयम्‌ ॥२७॥ 
श्रीपराद्चर उवाच 
इत्युक्तास्ते ततः सपाः कुहकास्तक्षकादयः । 
अदश्चन्त समस्तेषु गाप्रेप्वतिषिषोखबणा; ॥२८॥ 
स त्वासक्तमतिः ईृष्णे दस्यमानो महोरगैः । 
न विषेदास्मनो गात्रं तरस्परस्याहद सुस्थितः ॥३९॥ 
सर्पा उचुः 
दष विक्ती्णा मणयः स्फुरन्ति . 
फणेषु तपो हृदयेषु फम्पः | 
नास्य स्वचः खरपमषीहे भिन्नं 
प्रापि दैत्येश्वर कायंमन्यत्‌ ॥४०॥ 


हिरण्यकरिपुरुवाच # 


हे दिग्गजाः सङ्क्दन्तमिश्रा 








---------- ---~ ------ ~ - --- --- ------- ~ 


प्रहादजी बोठे--अरे दैत्यो ! भगवान्‌ विष्णु तो 
रसगे, तुमरोगोमे ओर सुश्षमे--सवत्र ही स्थित है । 
दस सव्यके प्रमावसे इन अस्-श्लोका मेरे ऊपर कोई 
प्रभावन हो ॥३३॥ 


श्रीपसशरजी बोले-तब तो उन चैकं दै्थोके 
शख्-समूहका आधात ह्योनेपर्‌ भी उनको तनिक-पसी 
भी वेदना न हई, वे किर भी यो-के-वयौ नवीन बट- 
सम्पन ही रहै ॥ ३४ ॥ 


दिरण्यकरिवु बोखार दर्रे अत्तु विपक्षीकी 
स्त॒ति करनाषछठोड दे; जा, मै तसे अभय-दान देता 
ट्र भन ओर अधिक नादान मत दह्ये ॥ ३५ ॥ 


ग्रहमादजी बोे-हे तात ! जिनके स्मरणमात्रसे 
जन्म) जरा ओर पष्य आदिके पमस्त भय दूर ह्ये 
जाते है, उन सकक-भवहारी अनन्तके हयम स्थित 


रहते मुञ्चे भय कर्हो रह पकता है ?॥ ३६ ] 

हिरण्यकशिपु बोखा--अरे सर्पो | इस अत्यन्त 
दुद ओर दुराचारीको अपने विषानि-सन्तप्त सुखौसे 
काटकर शीघ्रहीनष्टकरदो॥ २७॥ 

श्रीपरारर्जी बोटे-रेसी आक्ञा होनेपर अति 
रूर ओर विषधर तक्षक आदि सर्पोनि उनके समस्त 
अङ्खोमे काटा ॥ २८ ॥ भिन्तु उन्हं तो श्रीढरणणचन्द्र- 
म असक्त-चित्त रहनेकै कारण मगवस्स्मरणके परमा 
नन्दमे इये रहनेसे उन महासपोके काटनेपर भी 
अपने ररीरकी कोई एुपि नी इई ॥ ३९ ॥ 


सपं बोके-हे दैत्यराज ! देखो) हारी दादे टूट 
गयी, मभ्य चटखने सी, फणो पीडा होने ल्मी 
ओर हृदय कोपने दगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी 
नहीं कटी । इट्य अब आप हमे कोई ओर्‌ कार्थ 
बताह्ये ॥ ४०॥ 

दिरण्यकदिषु बोख--हे दिग्जो | तुप सब 
अपने संकीर्णं दौतौको मिलाकर मेरे शद्रुपषदार 
[ बहकाकर ] मुञ्घसे विमुख कवि इर्‌ इस बल्क- 


श्रीविष्णुपुराण 





तजा षिनाज्चाय भवन्ति तस्य 
यधारणेः प्रज्वरितो हुताक्षः ।॥४१॥ 


श्रीपरारार उवाच 


ततः. स दिग्गनैर्गीरो भूमृच्छिलरसन्निमेः } 
पातितो धरणीपृष्ठे विषाणै्वा्पीडितः .॥४२॥ 
खरतस्तख गोविन्दमिभदन्ताः सदक्षश्ः ) 
तीर्णा वक्षःस्थरं प्रप्य सर श्राह पितरं ततः ॥५३॥ 
दन्ता गजानां इठिशाग्रनिष्डुराः 
शीर्णा यदेते न बलं ममैतत्‌ । 
महापिपत्तापविनाश्ननोऽयं 


जनाद॑नाुसरणालुभावः, 








|| ४५॥। 
हिरण्यकरिपुर्वाच 
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उत्रार्यतामसुरा वहिरपसपंत दिम्मजाः | 
वायो समेधय सं दद्यतामेष पापन्रत्‌ ॥४५॥ 
| श्रीपरङ्गर उवाच 


महाकाष्टचयस्थं तमघरेन््रसुतं ततः । . 


प्रज्वास्य दानव। वष्ठं दृद्कुः स्वामिनोदिताः।४६॥ 


ग्रहाद्‌ उवाच 
तातैष वद्धिः पथनेरितोऽपि 
न मां दहत्यत्र समन्ततीऽदम्‌ । 
परयामि पद्चास्तरणास्ततानि 
सीतानि सर्वाणि दिशम्पुखानि।।५७॥ 
भि . श्रीपशङ्यर्‌ उवाच 
अथ दैस्येशवरं परोचुभीमवस्यास्मजा द्विजाः । 
पुरोहिता महात्मानः पाम्न संस्तूय बाममिनः॥।४८॥ 
| पुरोहिता उचुः 
राजनियम्यक्तां को गी वारेऽपि तनये निने । 
न्मपो देषनिकायेषु तेषु ते सषलो यतः ॥४९॥ 
"= > श्रासितारो वयं तरप । 











अग्नि उपीको जल डाल्ताहै उसी प्रकार कोई-कोई 
जिससे उत्पने होते है उीके नारा करनेवरे हो 
जते हं ॥ ४९१॥ 


शरीपराशरजी बोटे-तत्र पर्वत-शिखरके समान 
विश।ककाय दिगजेने उस बाल्कको प्रथीपर परक 
कर अपने दतिंसे खू् रदा ॥४२॥ किन्तु. 
श्रगोविन्दका स्मरण करते रहनेसे हाधियोके हजारो 
दौँत उनके वक्षःस्थल्से टकराफर्‌ टूट गये; तब 
उन्होने पिता दिरण्यकरिपुसे कहा-॥ ४३ ॥ “ये जो 
हायियोके व्क समान कठोर दत द्र गये है इसमे 
मेरा कोई बल नहीं है; यह तो श्रीजनादन भगवान्‌ 
के महा विपत्ति ओर केके नष्ट करनेवाले स्मरणका 
ही प्रभाव है, | ४४ ॥ 

दिरण्यकरिपु बोला--अरे दिग्गजो | तुम हट 
जाजो । द्यगण । तुम अग्नि जलाभो) ओर ह 
वायु |. तुम अगिको प्रजखलित करो जि्तसे ईस पापी- 
को जहा डाला जाय ॥ ४५ ॥ 

श्रीपरादारजी बोले--तब अपने स्वाभीकी भक्ञासे 
दानवगण काठके एक बडे देम स्थित उस अघर 


-राजकुमारको अगन प्रञ्बछिति करके जलने गे ॥ ४६ ॥ 


प्रह्नादजी बोरे--हे तात । पवनसे प्रेसि हआ 
भी यह अगि मुच नही जरता । सुञ्नको तो सभी 
दिर देसी शीतक प्रतीत होती है मानो मेरे चारे 
ओर कमक व्रि इए हो ॥ ४७ ॥ 


श्रीपराच्ारजी बोके-- तदनन्तर, शुक्रजीके पुत्र 
बडे वागमी महामा [षण्डा-मकं आदि] पुरोद्ितगण साम 
नीतिसे दैव्यराजकी बडाई करते इर बोटे-॥ ४८ ॥ 


पुरोहित वोरे- हे राजन्‌ ! अपने इस बालक 
पुत्रके प्रति अपना क्रीध शन्त कीजिये; आपको 
तो देवनाओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योकि उसी 
सफर्ता तो वहीं है || ४९, ॥ हे राजन्‌ | हम आपके इस 
मालको रेसी शिक्षा देगे जिससे यह पिपक्षके नाराका 


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बालत्वं सर्वदोषाणां देत्यराजाश्पदं यतः । 
ततोऽ कोपमत्यथं योक्तुमहंसि नार्भकै ॥५१॥ 
न त्यक्ष्यति हरेः पक्षमशखाकं वचनादि । 
ततः छृत्यां बधायाख करिप्यामोऽनिवत्तिनीम्‌) ५२ 
श्री पराडार्‌ उवाच 
एवमभ्यधितस्तेसतु दैत्यराजः; परोदितैः ) 
दत्यनिष्क।सयामास पूरं पावकसश्चयात्‌ ।॥५२॥ 
ततो गुरुगरहे बालः स वसन्धालदानवान्‌ । 
अभ्यापयामसि ुहुरुपदेशन्तरे गुरोः ।॥५४॥ 
ग्रहाद्‌ उवाच 
श्रूयतां परमार्थो मे दैतेया दितिजास्मनाः । 
न चान्यथैतन्मन्तव्यं नात्र रोभादिकारणम्‌ ॥ ५५ 
जन्म बारयं ततः सर्पो जन्तुः प्रामोति यौवनम्‌ । 
अव्याहतैब भवति ततोऽसुदिवसं जरा ॥५६॥। 
ततश मृत्युमभ्येति जन्तुदैतयेशवरास्मजाः । 
प्रत्यक्ष दृश्यते चैतद खाकं भवतां तथा ॥५७॥ 
मृतस्थ च पुनर्जन्म भवत्येतस्य नान्यथा | 
आगमोऽयं तथ। यच्च नोपादानं विनोद्ध्रः ॥५८॥ 





गरभवासादि यायत पूनर्जन्मोपपाद्नम्‌ । 
समस्तावस्थकं तायट्दुःखमेषावगम्यताम्‌ ॥५९॥ 
्ुतुष्णोपशमं तदच्छीतायुपशमं सुखम्‌ । 
मन्यते बालबुद्धिखाहूःखमेष हि तत्पुनः ॥६०॥ 
अत्यन्तस्तिमिताङ्ानां व्यायामेन सुसेषिणाम्‌। 








भ्रान्तिक्ञानधृताक्षाणां दुःखमेव सुखायते ॥६१॥ 








क हरीरमरेषाणां रलेष्मादीनां महाचयः । 














है देव्यराज { बाल्यावस्था तो सव प्रकारके दोषोका आश्रय 
होती ही है, इसलिये आपको इस बारुकपर अव्यन्त क्रोध- 
का प्रयोग नक्ष करना चाहिये ॥ ५१ ॥ यदि हमारे कहनेसे 
भी यह्‌ विष्णुका पर नहीं छषेडेगा तो हम इसको नष्ट करनेके 
ल्म किसी प्रकारन टलनेवाटी करत्या उतपन्न करेगे ॥५२॥ 


श्रीपराशरजीने कद।- पुरोहितीके इस ॒प्रकार 


| प्राना करनेपर दैव्यराजने दैत्योढारा प्रह्ादको अगम्नि- 


समूहसे बाहर निकल्वाया ॥ ५२ ॥ किर प्रहादजी 
गुरुजीके यौ रहते हए उनके पदा चुकनेपर अन्य 
दानव्ुमारेको बार-बार उपदेश देने कगे ॥ ५४ ॥ ` 


म्ह्ादजी बोके--है दैव्यकुलेप्पल अघुर-बार्को ! 
सुनो, मै तुम्हे परमार्थका उपदेश करता ह तुम इसे 
अन्यथा न समन्नना, क्योकि मेरे एसा कन्म किंसी 
प्रकारका खेभादि कारण नद्य है ॥ ५५ ॥ समी जीव 
जन्म, बाल्यावस्था ओर फिर यौवन प्राप्त करते 
है, तत्पश्चात्‌ दिन-दिन बृद्धावस्थाकी प्राप्ति भी 
अनिवायं ही है ॥ ५६] ओर हे दैव्यराजकुमारो | 
फिर यह जीव मृ्युके मुखम चला नाता दहै; यह्‌ 
हम ओर तुम समी प्रवयक्ष देखते हैँ ॥ ५७ ॥ मरनेपर 
पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नही टता । 
दस विषयमे [ श्रुति-स्पृतिरूप | जगम भी प्रमाण 
है छि बिना उपाद्ानके कोई वस्तु उत्पन्न नहीं 
होती # ॥ ५८ ॥ पुनर्जन्म प्राप्त करनेवाी गर्भवासं 
आदि जितनी अव्स्था्पि है उन सरको दुःखरूप दी 
जानो ॥ ५९ ॥ मनुष्य मूरवरताधर क्षुधा, तृष्णा 
ओर शीतादिकी शान्तिको सुख मानते है परन्तु 
वस्तवे तो वै दुःखमात्र ही दै || ६० ॥ जिनका 
दारीर { वातादि दौषसे ] अध्यन्त शिथिक हौ जाता 
दै उन्दजिस प्रकार व्यायाम घुप्रद प्रतीत होता 
है उसी प्रकार निनकी दृष्टि भरान्तिक्ञानसे टंकी 


† इई है उन्द दुःख ही घुखशूप जान पडता है ॥ ६१ ॥ 


अहो । क्यौ तो कफ आदि महाघ्रूणित पदार्थोका 


जह सन्म हेमे युति ह क्योकि जबक पूरत-जन्मके किय इष, छाछ कर्मरूप कारणक होना न युक्ति है क्योकि जबतक पूर्व-जन्मके किये इए; शुमा्ुभम कम॑रूप कारणका होना नं 


माना जाय तबतक वतमान जन्म भी सिदध नहीं हो सकता 
हेतो इसका कार्यरूप पुनजैन्म भी अवदय होगा । 


। इसी प्रकारः जब दस जन्मे छुमान्चुभका आरम्भ दा 


५ 


११4 4७९९ 





-यय्य्व्व्य्न--- न्य्व व्व 
~~~ ~-------~-~---~-~ 


कछ कान्तिशोभासौन्दयरमणीयादयो गुणा; ॥६२॥ 





मांससृक्पूयपिपमूत्रसनायुमजास्थिसंहती । 
देहे चेपरीतिमान्‌ मूढो भविता नरकेऽप्यसौ ।।६३॥ 
अग्नेः शीतेन तोयस्य तषा भक्तस्य च क्षुधा । 
करियते सुखकरं तदिलोभस्य चेतर; ॥६४॥ 
करोति दे दत्यसुता यावन्मात्रं पखिहम्‌ 1. 
तावन्मां स एवास्य दुःखं चेतति यच्छति ॥६५॥ 
यवतः कुरुते जन्तः सम्बन्धान्मनसः प्रियान्‌ । 


तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः ॥६६॥ 





यद्यदुगृहे तन्मनसि यत्र तत्रवतिषटतः । 


नाशदाहोपकरणं तख तपरे तिष्ति ॥६७।॥ 





-जन्मन्यतर महददुःखंप्रिथमाणस्य चाप्र तत्‌. 
यावनासु वमो गम॑द्कमणेषु च ॥६८॥ 
गर्भेषु सुखरेशोऽपि मवद्धिरसुमीयते 
यदि तन्कथ्यतमेवरं सवं दुःखभयं जगत्‌ ॥९९॥ 


तदेवमतिदुःखनामाश्देऽ्र_ भवेव । 
भवतां कथ्यते सतयं विष्णुरेकः परायणः ॥७०॥ 
मा जानीत वथं बाला देही देहेषु शाश्वतः । 
जरायोवनजन्माधा धर्मा देहस नात्मनः ॥७१॥ 
घालोऽहं ताषदिच्छातो यतिप्ये श्रेयसे युवा । 


युवां व! प्राप्ते करि्याभ्यातमनो हितम्‌ ।।७२॥ 





समूहरूप शरीर ओर कँ कान्ति, शोभा, सौन्दथ एवं 
रमणीयता आदि दिव्य गुण ? [ तथापि मवुष्य दस 
घृनित दीम कान्ति आदिका आसेप कर ख मानने 
लगता है] ॥ ६२ ॥ यदि किसी मूढ पुरषकी मांसः स्थिर, 
पीव, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मलना ओर अस्थियोके समूह- 
रूप दस शीर प्रीति हयो सक्ती हतो उसेनरकमभी 
प्रिय ल्ण सकता है| ६३ ॥ शीतके कारण अग्नि; 
प्यसके कारण जल ओर्‌ क्षुधाके कारण भात सुखकारी 
होता है ओर इनके प्रतियोगी जठ आदि भी अपनेसे भित 
अग्नि आदिके कारण हयी घुख्के ैतु होते ह ॥ ६४ ॥ 

है दै्यक्कमारो । विषयोका जितना-जितना संप्रह 
किया जाता है उतना-उतना ही वे मुष्यके चित्तम 
दुःख बढ़ते है ॥ ६५ ॥ जीव अपने मनको प्रिय 
रुगनेवाले जितने ही सम्बन्धोको बढाता जाता है 
उतने द्वी उस्वे हृदयम शोकरूपी शव्य ८ कटि ) 
स्थिर होते जते है ॥ ६६॥ घर्मै जो कुक घन- 
धान्यादि होते हैँ मनुध्यके जर्हतर्हौ ( परदेशे ) 
रहनेपर भी वे पदां उसके चित्तम बने रहते ई, 
ओर उनके नाश्च ओर दाह आदिकी सामग्री भी 
उसीमे मौजूद रहती दै । `[ अर्थात्‌ चरमे स्थित 
पद येति सुरक्षित रहनेपर भी मनःस्थित पदार्थेति 
नदि आदिकी मावनासे पदा्थ-नाश्का दुःख प्राप्त 
हयो जाता है ] ॥६७॥ ईस प्रकार जीते-जी तो यदय महान्‌ 
दुम्व होता हयी है, मध्नेपर भी यमयातना 


ओर गर्भप्र्रशयै उग्र कष्ट भोगना पडता है 


॥ ६८ ॥ यदि तुम्हे गर्भवास केशमात्र भी सुखका 
अनुमान होता होतो को ! सारा संसार शी प्रकार 
अत्यन्त दुःखभय है ॥ ६९ ॥ ईसच्यि दुःखके परम 
आश्रय ईस संसारसमुद्रमे एकमात्र विष्णुभगवान्‌ ही 
आपलोगोकी परमगति दै--यह मै सर्वथा सत्य 
कहता ह ॥ ७० ॥ . 

देता मत समक्ष कि हम तो अभी बालक है, 
क्योकि जय, यौवन ओर जन्म आदि अवस्थां तो देहके 


दीधमं है शरीरका अधिष्ठाता आला तो नित्य है, 


उसमे यह कोई धर्मं नदीं है ॥ ७१ ॥ जो मनुष्य रेसी 
दुरायाओसे विक्षिघ्त.चिनत्त रहता है कि (अभी म बालक 
ह इसव्यि इच्छानुप्तार खेख-कूद द, युवावस्था प्राप्न 
होनेपर कस्याण-साधनका यत्न करेगा [ पिर युर 


न्य 


~ 





वृद्धोऽहं मम कार्याणि समस्तानि न गोचरे । 
किंकरिप्यामि मन्दारमा समर्थेन न यत्कृतम्‌॥७२॥ 
एवं दुराशया किप्नमानसः पुरुः सदा| 
प्रयसोऽभिश्खं याति न कदाचितिपपासितः।।७४। 


बाल्ये क्रीडनकरासक्ता यौवने विषयोन्पुखाः। 


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र्ता नयन्स्यरक्त्या च वाद्धक सष्ुपस्थतम्‌।।७५। 








तस्माद्भाम्ये विवेका्मा यतेत श्रेयसे सदा। 





॥\७६॥ 





वाल्ययौवनवृद्धादेदमावेरसमुतः 


तदेतद्वो मयाख्यातं यदि जानीत नावत्‌ । 


तदस्मसीतये विष्णुः स्मयतां बन्ध्ुक्तिदः ।॥७७॥ 
प्रयासःस्मरणे कोऽस्य स्मृतो यच्छति शोभनम्‌ । 


___-----------------______~__~_~_~__~~_~_~-~~~ 


पापक्षयश्च भवति स्मरतां तमहर्निशम्‌ ॥७८।। 





सर्वभूतस्थिते तस्मिन्मतिमत्र दिवानिशम्‌ । 
मवतां जायतामेवं रववेशान्परहास्यथ ॥७९॥ 
तापत्रयेणाभिहतं यदेतदखिलं जगत्‌ । 


तदा जोच्येषु भूतेषु दषं प्राहः करोति कः॥८०॥ 
अथ द्राणि भूतानि हीनशक्तिरहं परम्‌] 





रदं तदापि कुवीत हानिर्ेषफलं यतः ॥८१॥ 
बदधवैराणि भूतानि दपं द्वन्त चेत्ततः । 
~^ +~ 








सुशोच्यान्यतिमोहेन व्याक्ठानीति मपोपिणाम्‌।८२। 


एते भिन्नदांदैस्या विकल्पाः कथिता मया। 
कृतवाभ्युपगमं तत्र संक्षेपः भ्रुयतां मम ॥८२॥ 











होनेपर कहता है किं ] अभी तो मैँयुवा ह बुढपिमें 
आत्मकल्याण कर दूँगा" जौर [ वृद्ध होनेषर सोचता 
है कि] अनमं चृढा हो गया, बतो मेरी इन्द्रिया 
अपने कमभि प्रवृत्त ही नहीं होती, शरीरके शिथिङ 
हो जानेषर अवरम क्या कर सकता हँ! साम्यं 
रहते तो मैने कुछ किया ही नही" वह--अपने 
कल्याणपथपर कभी अग्रसर नहीं होता; केवर भोग- 
तृष्णामे ही भ्याङ्कुख रहता है 11 ७२-७४ ॥ मूखेलोग 
अपनी बाल्यावस्थामे सेखकूदमे कगे स्दते दै, युवा- 
वश्थामे विषमे फस जाते दँ ओर्‌ बुदापा आनिपर 
उसे बड़ी असमथंतासे काटते है ॥ ७५॥ इसलिये 
विवेकी पुरुषको चाहिये कि देहकी बाल्य, यौवन 
ओर वृद्ध आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा न करके 
वाल्यावस्थाम ही अपने कल्याणक्रा यत्न करे ॥ ७६॥ 
मैने तुमलोगौसे जो कुछ कहा है उसे यदि तुम 
मिथ्या नहीं समश्चते तो मेरी प्रसन्नताके ल्यिही 
बन्धनको दुडनिवाठे श्रीविष्णुभगवान्‌का स्मरण 
करो 1} ७७1} उनका स्मरण करनेभे परिश्रम मी 
क्या दै १ ओर स्मरणमात्रसे ही वे अतति शुभ फल 
देते हैः तथा रात.दिन चन्हींका स्मरण करनेवालोका 
पापभीनष्ट हो जाता दै 11७८॥ उन सवंभूतस्थ 
प्रभुम तुम्हारी बुद्धि अहर्न लगी रहे ओर उनम 
निरन्तर तु्ार प्रेम वदे; इस प्रकार तुम्हारे समस्त 
क्ठेर दृर हो जार्यगे ॥ ७९ ॥ 
` जव कि यह सभी संसार तापच्रयसे दग्ध हो रहा 
है तो इन बेचारे सोचनीय जीवौँसे कौन बुद्धिमान्‌ 
देष करेगा ? 1 ८० ॥ [ यदि एे्ा दिखायी दे किं ] 
“अर जीव तो आनन्दम दै, मै ही परम शक्तिहीन 
हैः तव भी प्रसन्न ही होना चाये, क्योकि दवेषका 
फरुतो दुःखसूप्र ही है || ८१॥ यदि कोई प्राणी 
वैरभावसे द्वेष भीकरेतो विचारबानोकेलियितो 
वे अहो ! ये महामोहसे व्याप्त है! इस प्रकार 
अव्यन्त श्लोचनीय ही दहै ।। ८२॥ 
हे दैत्यगण ! ये मैने भिन्न-भिन्न दष्टिवालोके 
विकल्प ( भिच्न-मिन्न उपाय) कहे । अव उनका 
समन्वयपू्वंक संक्िप्न॒ विचार सुनो ॥ ८३॥ 








विस्तारः सवभूतस्य विष्णोः सवेमिदं जगत्‌ । 
दरष्टव्यमारमवत्तस्मादभेदेन विचक्षणैः ॥८४॥ 
सय॒त्सृञ्यासुरं मावं तस्माद्यूयं तथा वयम्‌। 
तथा यत्नं करिष्यामो यथा प्राप्स्याम निघ्र तिम्‌ ८५ 
यानाग्निनान चरकेण नेन्दुना चन वायुना। 
पजन्यवरुणाभ्यां वा न सिद्धने च राक्षसः।।८६॥ 
न यप्ैन च दैत्येन्द्र नोरिगैनं च किन्नरः 
न॒ सनुष्येनं पलुमिदोषिनवात्मसम्भवः ॥८७॥ 
ज्वराक्षिरोगातीस्रारश्रीहगुल्मादिकेस्तथा । 
देपेष्यामत्सरादयबा रगलोभादिभमिः क्षयम्‌ ॥८८॥ 
न चान्येनींयते कैथिनित्या यात्यन्तनिमखा । 
तामाप्नोत्यमले न्यस्य केशवे हदय नरः ॥८९॥ 








असारसंसारविव्तनेषु 

सा यात तोषं प्रसमं व्रवीमि । 
„+ --------- 

सवत्र दैस्यास्समतरुपेत 
समत्वमाराधनमच्युतस्य ॥९०॥। 

तस्मिनप्रसने फिमिहास्स्यलभ्यं 
धर्मार्थकामैररमल्पकास्ते । 

समाधितदृब्रह्मतरोरनन्ता- 














निःसंशयं प्राप्स्यथ वै महस्फलम्‌॥९१॥ 





यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ सवभूतमय भगवान्‌ विष्णुका 


विस्तार है, अतः विचक्षण पुरुषोको इसे अभेदरूपसे 
आत्मवत्‌ देखना चाहिये ॥ ८४ ।॥ इसल्यि दैत्य- 
भावको छोड़कर हम ओर तुम एेसा यत्न करे जिससे 
तान्ति-खाभ कर सके ।। ८५ जो [ परम श्ञान्ति ] 
अग्नि, सूय, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध राक्षस, 
यक्ष, दैत्यराज, सपे, किन्नर, मुष्य ओर षश्चुओंसे 
अपने मनसे होनेवठे दोषोँसे, उवर, नेत्ररोग, 
अतिसार, शहा, (तिल्ली) ओौर गुल्म आदि रोगोँसे 
एवं द्वेष, ईैष्यी, मत्सर, राग, छोभ ओर किसी अन्य 
भावसे भी कमी क्षीण नहीं होती, ओौर जो सवेदा 
अत्यन्त निम॑ल है उसे मनुष्य अमरस्वरूप श्रीकेश्चव- 
भ मनोनिवेशच करनेसे प्राप्न कर केता है 1] ८६-८९॥ 

हे दैत्यो ! मै भाग्रहपूवंक कहता ह, तुम इस 
असार संसारके विषयोँमे कभो सन्तुष्ट मत होना । 
तुम सवत्र समदृष्टि करो, क्योकि समता ही श्री 
अच्युतकी [ वास्तविक ] आराधना है 1} ९० | उन 
अच्युतके ्रसन्न होनेषर फिर संसारम दुलंभम ही 
क्या दै१ तुम धमे, अर्थं ओर कामकी इच्छाकभी 


न करना; वे तो अत्यन्त तुच्छ दहै । हस ब्रह्मरूप 
महवृृक्षका भाश्रय सेनेपर तो तुम निभसन्देह 


[ मोक्षरूप ] महाफख प्राप्त कर लोगे ॥ ९१॥ 


^^ ८१८१४०९ ज 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथम ऽद सप्तदञ्चो ऽध्यायः ।१७) 





अ० १८ | 


प्रथम अश्च 


१०७ 


------[--~-------------------------------- ~~~ ~ ___ 





अटरह्बोँ अध्याय 


प्रहादको भारनेके टिये विष, शख ओर अधि आदिका 
भ्रथोग पवं परह्वादङृत भगवत्‌-स्तुति 


श्रीपराङ्र उवाच 
तस्यैतां दानवाव दृष्टा दैत्यपतेर्भयात्‌। 
आचचक्षुः स चोवाच स्रूदानाहूय सत्वरः ॥ १॥ 


हिरण्यकशिपुरुवाच 
दे छदा मम पूनोऽसाबन्येषामि दुर्मतिः । 
इमागदेशिको दुष्टो हन्यतामविहम्वितम्‌ ॥ २॥ 
हालाहलं विषं तस्य सरवमक्षेषु दीयताम्‌ । 
अविज्ञातमसौ पापो हन्यतां मा विचायंताम्‌। ३॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 

ते तथैव ततथक्रुः प्रहादाय महात्मने । 
विपदानं यथाज्ञप्तं पित्रा तस्य महात्मनः ॥ ४॥ 
इालादकं विषं घोरमनन्तोचारणेन सः । 
भरभिमन्त्य सहान्नेन मैत्रेय बुयेजे तदा ॥ ५॥ 
ग्रविकारं स तदुशुकतवा प्रहादः सखस्थमानसः। 
प्रनन्तस्यातिनिवीय नरयामाघ तद्विषम्‌ ।। ६ ॥ 
तः घरदा मयत्रस्ता जीणं दष्टा महद्विषम्‌ । 
तयेशवरमुपागम्य प्रणिपत्येदमनुवन्‌ ॥ ७ ॥ 


घ्रूदा ऊचुः 
त्यराज विषं दत्तमस्मामिरतिभौषणम्‌ । 
गणं तेन सदान्नेन प्रहादेन सुतेन ते | ८॥ 
हिरण्यकशिपुरुवाच 


¢ + १4 
अयतां त्व्॑तां है है सद्यो दैत्यपुरोदिताः । 
त्यां तस्य विनाश्ञाय उत्पादयत मा चिरम्‌ ॥ ९॥ 


श्रीपराञ्चर उवाच 
काश्मागम्य ततः ग्रहादस्य परोष्टिताः | 





भीपराशरजी बोले--उनकी पेसी वेष्टा देख 
दैत्योनि दैस्यराज हिरण्यकशिपुसे डरकर उससे सारा 
वृत्तान्त कह सुनाया, ओर उसने भी तुरंत अपने 
रसोदइयोंको बुलाकर कहा ॥ १॥ 

हिरण्यकशिपु बोला--अरे रसोक्यालोगो ! 
मेरा यह्‌ दुष्ट भौर दुमंति पुत्र ओरोको भी कुमागं- 
का खपदेश देतादहै, अतःतुम सीर ही इसे मार 
डालो ॥ २॥ तुम उसे उसके विना जाने समस्त 
खादयपदार्थोमिं हलाहल विष मिलाकर दो ओर किसी 
प्रकारका सोच-विचारन कर उस्र पापको मार 
डालो ॥ ३॥ 

भीपराश्चरज्ी बोखे-तब उन रसोडयोँने 
महात्मा प्रहादको, जेसी कि उनके पिताने आक्ञादी 
थी उसीके अनुसार विपदे दिया।४॥ हे मत्रेय । 
तच वे उस घोर हलहर विषको भगवन्नामके उचा- 
रणसे अभिमन्त्रित कर अन्नके साथ खा गये ॥ ५॥। 
तथा भगवन्नामके प्रभावसे निस्तेज हुए उस विषको 
खाकर उसे बिना किसी बिकारके पचाकर स्वस्थ 
चित्तसे स्थिर रहे ॥ ६।। उस महान्‌ विषको पचा 
हुआ देख रसोदयोनि भयसे व्याङ्धल हो हिरण्य- 
करिपुके प्रास जा उसे प्रणाम करके कहा ॥ ७ ॥ 

सूदगण बोरे-हेः दैत्यराज ! हमने आप्रकी 
आज्ञासे अच्यन्त तोक्ष्ण विष दिया था), तथापि 
आपके पुत्र प्रह्ाद्ने उसे अन्नके साथ पचालिया 
| ८ ॥ 


दिरण्यकर्रिपु बोखा--हे पुरोहितगण ! शीघ्रता 
करो, शीघ्रता कसो { उसे नष्ट करनेके छ्यि अब 
करत्या उत्पन्न करो; ओौर देरी न करो ॥ ९॥ 


श्रीपराशर बोखे-तव पुरोहिते अति 
विनीत प्रह्नादसे उसके पास जाकर साम नीतिप्वंक 


क» 





पुरोहिता ऊचुः, 
जातस्रेलोक्यविख्यात घ्ायुष्मन््ह्मणः कुरे ] 
दैत्यराजस्य तनयो हिरण्यकशिपोभवान्‌ ॥११॥ 
कि देवैः किमनन्तेन किमन्येन तवाश्रयः। 
पिता ते सव॑रोकानां खं तथैव भविष्यसि ॥१२॥ 
तस्मात्परित्यजेनां त्वं विपक्षस्तवसंहिताम्‌। 
शछाष्यः पिता समस्तानां गुरूणां परमो गुरुः ॥ १३) 

ग्रह्वाद्‌ उवच 
एवमेतन्महामागाः शछाष्यमेतन्महाङलम्‌। 
मरीचेःसकलेऽप्यसिमन्‌ त्ररोक्ये नान्यथा बदेत्‌।१४। 
पिता च मम सवरिमल्लगत्यु्छृष्टवेष्टितः । 
एतदप्यवगच्छामि सत्यमत्रापि नानृतम्‌ ॥१५॥ 
गुरूणामपि सर्वेषां पिता परमको गुरः । 
यदुक्तं प्रान्तिस्तत्रापि सखल्पापि हिन विद्यते| १६॥ 
पिता गुनं सन्देहः पूजनीयः प्रयरनतः । 
तत्रापि नापराध्यामीत्येवं मनसि मे स्थितम्‌ १७॥ 
यच्वेतत्किमनन्तेनेलयुक्तं युष्माभिरीदृशषम्‌ । 
को ब्रवीति यथान्याय्यं फं तु नैतद्वचोऽ्थ॑वत्‌॥ १८॥ 


इत्युक्तवा सोऽमवन्मोनी तेषां गौरखयन्तितः। 
प्रहस्य च पुनः प्राह किमनन्तेन साध्विति ॥१९॥ 
साधु मो फिमनन्तेन सधु मो गुरो मम । 
भुयतां यदनन्तेन यदि सेदं न यास्यथ ॥२०॥ 
धर्माथकाममोक्षाथ पुर्पार्था उदाहूताः । 
चतुष्टयमिदं यस्मात्तसमाक्कि किमिदं वचा 





पुरोहित बोके-हे आयुष्मन ! तुम त्रिलोकौमें 
विख्यात ब्रह्माजीके कुरूप उन्न हुए हो ओर देत्य- 
राज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो | ११॥ तुम्हं देवता, 
अनन्त अथवा ओौर भी किसीसे कया प्रयोजन है ! 
तम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूणं छोकरोके आश्रय दै 
ओर तुमभी पेसेदहोहोने ॥ १२॥ इसल्यि तुम 
यह्‌ विपक्ष॒की स्तुति करना छोड़ दो । पित्ता सब 


प्रकार प्रशंसनीय होता है ओर बही समस्त गुरुभोँ- 
मे परम गुर भी है॥ १३॥ 


प्रह्ादजी बोरे--हे महाभागगण ! यह ठीक दह 
है । इस सम्पूणं विरोके मगवान्‌ मरीचिका यह्‌ 
महान्‌ सुक अवद्य ही प्रजसनीय है । इसमें को 
कछ भी अन्यथा नहीं कहू सकता ॥ १४ ॥ ओर 
मेरे पिताजी भी सम्पूणं जगतमे बहुत बडे पराक्रमी 
है; यह मी जानताद्। यदह बात भौ बिल्कुल 
रीक दै, अन्यथा नहीं || १५ ॥ ओर भापने जो कहा 
कि समस्त गुरुओमे पिता षौ परम गुरु दै-दसमें 
भी मुशे ठेशमात्र सन्देह नहीं है ॥ १६ ॥ पिताजी 
परम गुरु दै अर प्रयत्नपूवंक पूजनीय दै--इसमं 
को सन्देह नहीं । ओरमेरातो एेसा विचारहैकि 
मँ उनका कोह अपराध भी नहीं कररहा हँ १७॥ 
किन्तु आपने जो यष कहा कि नतुञ्चे अनन्तसे क्या 
प्रयोजन है ¢ सो एेसी वातकरो भला कौन म्यायो. 
चित कह सकता है १ आप्रका यह कथन किसी भी 
तरह ठीक नहीं है | १८॥ 


एेसा कहकर वे उनका गौरव रखनेके लिये नचुप 
हो गये ओर फिर हं सक्रर कहने रगे-तुश्चे अनन्तसे 
क्या प्रयोजन है? इस विचारको धन्यवाद है| 
॥ १९॥ हे मेरे गुरुगण ! आप कहते है तुशे अनन्त- 
सेक्या प्रयोजन है धन्यवाद्‌ दहै आपके इस 
विचारस्को | अच्छा, यदि आपकोलुरान ल्गेतो 
मुश्चे अनन्तसे जो प्रयोजन है सो सुनिये ॥ २०॥ 
धमं, अर्थ, काम ओर मोक्ष-ये चार पुरुषार्थः कदे 
जतेदहँ। ये चासो ही जिनसे सिद्ध होते दै, उनसे 
क्या प्रयोजन ह १ आपके इस कथनको क्या का 


॥२१।।| जाय ! ॥ २१॥ 


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[111 यनो 








मरीचिमिभ्रैद्षाचेस्तयैवान्यैरनन्ततः । 
धर्मः प्रास्तथा चान्यैः कामस्तथापरैः ॥२२ | 
तत्त्ववेदिनो भूत्वा जानध्यानसमाधिमिः। 
परवापुञुक्तिमपरे परुषा ध्वस्तबन्धनाः ॥२२॥ 
सम्पदैशय॑माहास्यज्ञानसन्ततिकर्मणाम्‌ ! 
बियुक्तेश्चेकतो लभ्यं मूलमाराघनं हरेः ॥२४॥ 
यतो धरमार्थकामास्यं ुक्तिधापि फलं द्विजाः । 
तेनापि किं क्िमिस्येवमनन्तेन फियुच्यते ॥२५॥ 
किं चापि बहुनोक्तेन भषन्तो गुरवो मम । 
वदन्तु साधु वासाधु विवेकोऽस्माकमल्पकः ।२६॥ 
बहुनात्र किञुक्तेन स एव जगतः पतिः | 

स केता च विकर्ता च संहर्ता च हृदि स्थितः| २७॥ 
स भोक्ता मोज्यमप्येवं स एव जगदीश्वरः | 
मवद्धिरेतस्षन्तव्यं बाल्यादुक्तं तु यन्मया ॥२८॥ 

पुरोहिता उचुः 

दद्यमानस्त्वमस्मामिरग्निना बार रक्षितः । 

भूयो न वच्यसी्येवं नैव ्तातोऽस्यबुद्धिमान्‌।२९। 
यदास्मद्वचनान्मोहग्ाहं न सयक्ष्यते भवान्‌ । 

ततः स्यां विनाज्ञाय तव सूच्या दुर्मते ।।३०॥ 

प्रह्राद उवाच 

कः केन हन्यते जन्तुज॑नतुः कः फैन रश्यते। 

हन्ति रक्षति चेवात्मा द्यसत्साधु समाचरन्‌ । ।२१॥ 
कमणा जायते सवं कमैव गतिसाधनम्‌ । 
तस्मात्सवप्यतनेन साधुकम समाचरेत्‌ ॥३२॥ 


भीपराङर उवाच 
इत्युक्तास्तेन ते क्र्रा दैस्यराजपुरोहिताः । 








उन अनन्तसे हयै दक्ष ओर मरीचि आदि तथा 
अन्यान्य ऋषीश्रोको धमं, कन्हं अन्य मुनीश्वसेको 
अथं एवं अन्य किन्हीको कामकी प्राचि हई है 
॥ २२॥ किन्हीं अन्य महापुरुषोने ज्ञाम, ध्यान जीर 
समाधिके द्वारा उनके तन्त्वकों जानकर अपने 
संसार-बन्धनको काटकर मोक्षपदं प्राप कियाहै 
। २३॥ अतः सम्पत्ति, रेच्य, माहस्म्य, ज्ञान, 
सन्तति ओर कमं तथा मोक्ष-इन सबकी एकमात्र 
मूख श्रीह रिकी आराधना हौ चपाजनीय हे ॥ २४ ॥ 
हे द्विजगण ! इस प्रकार जिनसे अथं, धम, काम 
ओौर भोक्ष-ये चासं ह्ये फल प्राप्न होते है उनके लिये 
भी आप ेसा क्यों कहते है किं अनन्तसे तुशचे क्या 
प्रयोजन है ? ॥ २५॥ भीर बहुत कहनेसे स्या 
लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु रै; उचित-अनुचित 
सभी कुछ कह सकते दै । भौर सुक्चे तो विचार भी 
बहुत दी कम है | २६॥ इस विषयमे अधिक क्या 
कहा जाय [मेरे विचारसेतो]वे ही संसारके 
स्वामी है, तथा सबके अन्तःकगणोमे स्थित एकमात्र 
वेही उसके रचयिता, पालक ओर संहारकरं 
॥ २७ ॥ वे ही भोक्ता भौर भोष्य तथावेही एकमाच्र 
जगदीच्धर ह । हे गुरुगण ! सने बाल्यभावसे यदि 
कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करं ॥ २८॥ 


पुसोहितगण बोरे--अरे बाकक ! हमने तो यह्‌ 
समञ्चकर कि तू फिर देसी बातत न कग तुशे अग्निभें 
जलनेसे बचाया है । हम यह्‌ नहीं जानते थेकित्‌ 
एेसा बुद्धिहीन दै १ ॥२९॥ रेदुमेते! यदित्‌ 
हमारे कहनेसे अपने इस मोहमय आग्रहको नदीं 
छोडेगा तो हम तुचे न्ट करनेके द्यि छ्रत्या चलपन्न 
करगे ॥ ३०॥ 

प्रह्ादजी बोरे-कौन जीव किससे मारा जाता 
दै ओर कौन किससे रक्षित होताहै १ श्चुभ ओर 
अजुभ आचरणोँके द्वारा आस्मा स्वयं ही अपनी 
रक्षा ओौर नाश्च करता हैः । ३१॥ कर्मक कारण ही 
सब च्लन्न होते हँ ओर कम॑ ही ठनकी शुभा्ुभ 
गतियोके साधन दै । इसचयि प्रयत्नपूवंक शुभकर्म. 
काही आचरण करना चाहिये ॥ ३२॥ 


श्रीपसश्चरजी बोखरे--उनके एेसा कहनेपर उन 
दैस्यराजके पुरोदितोने क्रोधिव होकर अग्निशिखा 


११० 


कृत्या्चुत्पादयामायु््वाला मालोज्ज्वलाङृतिम्‌। ३३ 
्मतिमीमा समागम्य पादन्यासक्षतक्षितिः। 
शूरेन साधु सद्करुद्रा तं जघानाशु वक्षसि ॥२४॥ 
तत्तस्य हृदयं प्राप्य शूरं वास्य दीप्निमत्‌। 
जगास खण्डितं भूमौ तत्रापि शतधा गतम्‌ ॥२५॥ 
यत्रानपायी मगवान्‌ हृद्यास्ते हरिरीश्वरः । 


भङ्गो मवति जस्य तत्र शरस्य का कथा ॥२६॥ 


अपापे तत्र पापैश्च पातिता दैतययालकैः। 
तानेव सा जघानाञ्रु कृत्या नाशं जगाम च ॥३७॥ 
कृत्यया दद्यमानांस्तान्विोक्य स महामतिः| 
त्राहि कृष्णे्यनन्तेति वदनभ्यवपद्यत ॥२८॥ 
ग्रह्वाद उवाच 

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सवव्यापिन्‌ जगद्रूप जगत्रष्टजनाद्‌न । 
पाहि विप्रानिमानस्मादुदुःसदान्मन्तरपावकात्‌। २९। 
यथा सर्वेषु भूतेषु सर्व॑ब्यापी जगद्गुरुः । 
विष्णुरेष तथा स्वे जीबन्त्वेते पुरोहिताः ॥४०॥ 
यथा सर्वगतं विष्णु मन्यमानोऽनपायिनम्‌ | 
चिन्तयाम्यरियक्षेऽपि जीबन्तेतेपुरोहिताः॥४१॥ 
ये इन्तुमागता दत्तं येर्विपं येहुंताशनः । 
येददिर्गजेरहं क्षुण्णो दष्टः सर्पश्च येरपि ॥४२॥ 
तेष्वहं मित्रभावेन समः पापोऽस्मि न कचित्‌। 
यथा तेनाद्य सस्येन जीबन्तवसुरयाजक।ः ॥४३॥ 


श्रीपराद्यर उवाच 
इत्युक्तास्तेन ते सवे संस्पृष्टा निरामयाः । 


भ्रीविष्णुपुरोणं 


------------------------------------------------------~-~- ~~~ ------------------------- ~ 





[ अ० १८ 





समान प्रञ्यलित शरीरबाी कृत्या उत्पन्न कर दौ 
॥ २३॥ उस अति भयंकरीने अपने पद्ाघातसे 
परथिकीको कम्पित करते हए वहाँ प्रकट होकर बदे 
रोधसे प्रह्वादज्ीकी छातीमें त्रिशूल्से प्रहार किया 
॥ ३४॥ किन्तु उस बाङकके वक्षःस्थलमें लगते ही 
वह तेजोमय त्रिशुल द्ूटकर प्रथिबीपर गिर पड़ा 
सौर वहम गिरनेसे भी उसे सैकड़ों ुकडे हो गये 
॥ ३५॥ जिस हृदयम निरन्तर अक्षुण्णमावसे 
श्रीह रिभगवान्‌ विराजते है उसमे छ्गनेसे तो वके 
भी टकनटरक हो जति दै, तरिञूख्की तो चात ही क्या 
है १॥ २३६ ॥ 


खन पापी पुरोदहितोने उस निष्पापं बाखकपर 
करृत्याका प्रयोग किया था; इसल्यि तुरंत ही उसने 
उनपर बार किया ओर स्वयं भोनष्ट हो गयी 
11 ३७ ॥ अपने गुरओको कृत्याद्वारा जखये जाते 
देख भदहामति प्रह्वाद्‌ कृष्ण ! रक्षाकरी! हे 
अनन्त ! बचाओ ! रेसा कहते हए उनकी ओर 
दौड ।॥ ३८॥ 


्ह्वादजी कडने रुगे-दे सर्वव्यापी, विश्वरूप, 
विश्वखष्टा जनादन ! इन ब्राह्मणको इस मन्त्राग्नि- 
रूप दुःसह दुःखसे रक्षा करो 1) ३९ ॥ 'सवेभ्यापी 
जगद्गुरु भगवान्‌ विष्णु सभी प्राणि्योम व्याप्र 
है"-इस सत्यके प्रभावसे ये पुरोदहितगण जीवित हो 
जाय ।। ४०॥ यदि मै सवेव्यापी भौर अक्षय 
भ्रीविष्णुमगवान्‌को अपने विपक्षियोमे मी देखता 
हतो ये पुरोहितगण जीवित हो जाँ ४१॥ जो 
लोग मुशे मारनेके स्यि आये, जिन्होँने सुश्ै विष 
दिया, जिन्दोने आगमे जखाया, जिन्होंने दिग्गजोसे 
पीड़ित कराया ओर जिन्दौने सर्पौसि डंसाया उन 
सवके प्रति यदि मै समान मित्रभावसे र्दा द्र भोर 
मेरी कभो पाप-बुद्धि नदीं हृ तो उस सस्यके प्रमाव- 
से ये दैत्यपुरोष्ित जी उट ॥ ४२.४३ ॥ 


श्री पराशरज्ी बोले--पेसा कहकर उनके स्पश 
करते ही वे व्राह्मण स्वस्थ होकर उट बैठे भौर उस 


णाना 


पुरोहिता ऊचुः 
दीर्घाघुररतिहतो बरबीयं समन्वितः । 
तरपव धनैश्वये क्तो वत्स भमोत्तमः ॥४५ 
श्रीपराश्चर इउवाच 
इर्युक्तवा तं ततो गत्वा यथाघृत्ं पुरोहिताः। 
दैत्यराजाय  सककमाचचकमहाभुने ॥४६॥ 





पुरोहितगण बोले-हे बस्स ! तू ब्ड़ाश्रेष्ठ है। 
तू दौघीयु, निद्र, बल-वीयंसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र 
एवं धन-फेश्वयीदिसे सम्पन्न हो ॥ ४५ ॥. 


श्रीपराश्चस्जी बोखे-हे महाघरने । एेसा कह 
पुरोहितोने दैत्यराज हिरण्यकरिपुके पास जा उसे 
सारा समाचार व्यो-का-त्यां सुना दिया ॥ ४६ ॥ 


-- ++ ~~ 


इति शीविष्णुपुराणे प्रथमे ऽरोऽष्टादश्ञोऽध्यायः ।। १८ ॥ 


१9 ३१/१४/१९९५ 


उन्नीसर्वौ अध्याय 


प्रह्वादरूत भगवदू-गुण-वर्णेन ओर प्रह्नादकी रक्चाके लिये भगवामूका 
सुदशेनचक्रको मेज्ञना 


श्रीपराश्चर उवाच 
हिरण्यकशिपुः श्रुला तां कृत्यां बितथीकृताम्‌। 
हूय पुत्र पप्रच्छ प्रभावस्यास्य कारणम्‌ ॥ १॥ 
हिरण्यकञ्िपुरवाच 
परहाद्‌ सुप्रमावोऽस्ि किमेतत्ते षिचेष्टितम्‌। 
एतन्मन्त्रादिजनितमतादो सहजं तव ॥२॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 
एवं पृष्टस्तदा पित्रा ग्रह्नादोऽषुरवारकः | 
प्रणिपत्य पितु; पादाविदं वचनमव्रवीत्‌ ॥२॥ 
न मन्व्ादिकतं तात न च तैसभिको मम । 





प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि ॥ ४॥ 
श्न्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा। 


तस्य पापागमस्तात देत्वभावान्न बिद्यते ॥५। 





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कमणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः। 





तद्वीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाबुभम्‌॥।६॥ 
सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा। 





चिन्तयन्सधेभूतस्थमास्मन्यपि च केशवम्‌ ॥ ७॥ 


्ीपराश्चरजी बोठो-दिरण्यकङिपुने कृत्याको भी 
विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्वादको बुखाकर उनक्षौ 
इस प्रभावका कारण पृष्का ॥ १॥ 


हिरण्यकशिपु बोखा-अरे प्रहाद ! तू बड़ा 
प्रभावश्चाखी है ! तेरी ये चेष्टां मन्त्रादिजनितदहया 
स्वाभाविकहीदै॥२॥ 


श्रीपराश्यरजी बोे-पिताके इस प्रकार पूछठनेपर 
देत्यक्कुमार प्रहादजीने उनके चरणोमे प्रणाम कर 
इस प्रकार कहा-।॥ ३ ॥ पिताजी! मेरा यद्‌ 
प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है ओर न स्वाभाविक 
ही है, बल्कि जिस-जिसके हृदयम श्रीखच्युतमगवान्‌- 
का निवास होता है उसके ल्यि यदह सामान्य बात 
है॥४॥ जो मनुष्य अपने समान दुसरौका बुरा 
नही सोचता, हे तात ! कोई कारण न 
रहनेसे उसका मी कभी बुरा नहीं होता ॥ ५॥ 
जो मसुष्य मन) वचन, या कमेसे दृसरोका कष्ट 
देताहै उसे इस परपीडारूप बीजसे ही इत्यन्न 
हभ अत्यन्त अञ्युम फर मिक्ता है ॥ ६॥ 
अपनेसद्ित समस्त प्राणियोमे श्रीकेरवको वतंमान 
समन्चकर मैन तो किंसीका बुरा चाहता दँ 
ओर न कहता या करता ही हुं ॥७॥ 


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शारीरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा । | 
सर्वत्र बरुभचित्तस्य तस्य मे जायते कुतः ॥ ८ | 


एवं सर्वेषु भूतेषु मक्तिर्यमिचारिणी । 


कर्तर्या पण्डितैातवा सर्वभूतमयं हरिम्‌॥ ९॥ 








श्रीपराङञर उवाच 
इति श्रुरया स दैत्येन्द्रः प्रासादश्चिखरे स्थितः। 
क्रोधान्धकारितयुखः प्राह दैतेयकिङ्करान्‌ ॥१०॥ 
हिरण्यकशिपुरुवाच 
दुरात्मा क्िप्यतामस्मातपराप्ादाच्छतयोजनात्‌। 
गिरिष्ठे पततरस्मिन्‌ शिङामिनाद्गसंहतिः। ११॥ 


ततस्तं चिक्षिपुः सर्वं बां दैतेयदानवाः | 
पपात सोऽप्यः क्षिप्तो हृदयेनोददन्दरिम्‌॥ १२॥ 
पतमानं जगद्धात्री जगद्धातरि केशवे । 
भक्तेयुक्त दधारेनमुपरङ्गम्य मेदिनी ॥१३२॥ 
ततो विलोक्य तं स्वस्थमविशीर्णास्थिपञ्चरम्‌ । 
हिरण्यकशिपुः ग्राह शम्बरं मायिनां वरम्‌ ॥१४॥ 


हिरण्यकरिपुरत्राच 


नास्माभिः शक्यते हन्तुमसौ दुषु द्विबालकः 
मायां वेत्ति मरवास्तस्मान्माययेनं निषूदय॥१५॥ 


उम्र उवाच 
षदयाम्येव दैसेन्द्र परय मायात्रलं मम। 
सदस्रमत्र मायानां परय कोटिशतं तथा ॥१६॥ 
भ्रीपराज्ञर उवाच 
ततः स ससृजे मायां प्रहदे शम्परोऽपुरः। 
विनाशमिच्छनदुु द्विः र्व समदरिनि॥ १७॥ 
समाहितमतिर्भूता शम्भरेऽपि विमत्सरः 
मैत्रेय सोऽपि प्रहाद्‌ः सस्मार मधघ्रदनम्‌॥ १८॥ 








इस प्रकार सवत्र गुभचित्त होनेसे युक्च लञारीरिक, 
मानसिक, वैदिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार 
भाप्न हो सक्ताहे१॥८॥ इसी प्रकार मगवानको 
सवेभूतमय जानकर बिद्ानोको सभी प्राणियोमिं 
अविचल भक्ति ( प्रीति ) करनी चाषे” ॥ ९॥ 


श्रीपराशरजी बोलो-अपने महल्को अद्रालिका- 
पर बैठे हुए उस दैस्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो 
अपने दैत्य अनुचरोसे कहा ॥ १०॥ 

हिरण्यकशिपु चोला-यह्‌ बड़ा दुरात्मा है, इसे 
इस सौ योजन ऊंचे महल्से गिरा दो, जिससे यह्‌ 
इस पकंतके ऊपर गिरे ओर शिलाओंसे इसके अंग- 
अंग छिन्न-भिन्न हो जायं | ११॥ 

तव उन समस्त देव्य ओौर दानबोँने उन्हें महर- 
से गिरा दिया ओर वे मौ उनफे ठकेर्नेसे हदयमे 
भरहरिका स्मरण करते-करते नीचे गिर मये ॥ १२॥ 
जगत्ता भगवान्‌ केशवफे परमभक्त प्रह्वादजौके 
गिरते समय उन जगद्धात्री प्रथिवीने निकट जाकर 
अपनी गोद्मे छे छिया ॥ १३ ॥ तव विना किसी 
हड़ी-पसखोके टूटे उन्ह स्वस्थ देख दैत्यराज 
दिरण्यकञिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कदा 
।॥ १४ ॥ . 


हिरण्यकशिपु बोखा-वह्‌ दुवद्धि बालक हमसे 
नही मारा ज्ञा सकता; आप माया जानते है; अतः 
इसे मायासे हौ मार डाले ॥ १५॥ 


शम्बराखुर बोखा-हे देत्येन्द्र ! इस बारुकको 
मै अभी मारे डालता तुम मेसो मायाका ब 
देखो । देखो, मै तुम सैकड़ों हजारो-करोड़ो माया 
दिखाता हँ ॥ १६ ॥ 


भीपराशरजौ बोटो-तब उस दुर्बद्धि शम्बरासुर- 

ने सवेत्र समदा प्रहवादके छथि, उनके नारकी 

इच्छासे बहुत-सी मायां रची ॥१७॥ किन्तु, हे 

त्रेय ! शम्बरालुरॐे अरति भी सर्व॑या द्वेषहीन रहकर 

प्रहादजी सावधान चित्तसे श्रौमधुसूदनमभगवान्‌का 
स्मरण रते से १८), 


अ० १९ | 


------------------------------------ ¬~ ~ 


ततो भगवता तस्य र्नाथ चकरु्मम्‌ । 
द्राजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदशनम्‌॥ १९॥ 
तेन माथासषं तच्छम्बरस्याशुगामिना । 
वारस्य रक्षता देहमेकैकं च विशोधितम्‌ ॥२०॥ 
सं्ोषकं तथा वायुं दैसयेन्द्रस्स्विदमत्रवीत्‌। 
शीप्रमेष ममादेशञाद्‌ दुरात्मा नीयतां क्षयम्‌ ॥२१॥ 
तथेरयुक्तवा त सोऽप्येनं विषेश पवनो र्षु । 
श्ौतोऽतिरुक्षः शोषाय तदेहस्यातिदुःसहः॥२२॥ 
तेनाविष्टमथारमानं स बुद्ध्वा दैत्यषारकः। 
हदयेन महात्मानं दधार धरणीधरम्‌ २२ 
हृदथस्थस्ततस्तस्य तं वायुमतिभीपणम्‌ । 
प॒पौ जनार्दनः क्रदधः स ययौ पवनः क्षयम्‌ ॥२४॥ 
्ीणासु स्वमायासु पवने च क्षयं गते । 
जगाम सोऽपि भवनं गुरोरेव महापतिः ॥२५॥ 
द्रहून्यहन्यथाचायँ नीतिं राञ्यफरप्रदाम्‌ 
ग्राहयामास तं बार राज्तागुशनसा कृताम्‌ ॥२६॥ 
गृहीतनीतिश्षास््ं तं विनीतं च यदा गुरः । 
मेने त्र तरिपत्रे कथयामास रक्षितम्‌ 
चायं उवाच 
गृही तनीतिशषाख्स्ते पुत्रो दैत्यपते कृतः । 
्रहादस्तरबतो वेत्ति भागवेण यदीरितम्‌ ॥२८॥ 


। हिरण्यकरिपुरुव्राच 
सत्रेषु वर्तेत कथमरिवर्भेषु भूपतिः । 
श्हाद्‌ ति षु रोकेषु मध्यस्थेषु कथं चरेत्‌ ॥२९॥ 


कथं मन्तिष्वमास्येषु बा्चष्वाभ्पन्तरेषु च । 
ऽ"डितेष्वितरेप ` 


ननन तमि नरष 


३० 


प्रथम अश्च 














५५५ 


कायावातािि 





चस समय भगवान्‌की आज्ञासे उनको रक्षाके 
दिये व्यँ ज्वाखा-माराओंसे युक्तं सुदशेनचक्र आ 
गया | १९॥ उस शी्रणामी सदश नचक्रने उस 
बालककौ रक्षा करते हए श्चम्बरासुरफौ सहस्रौ 
माया ओको एक-एक करके नष्ट कर दिया ॥ २० ॥ 

तब दैत्यराजने सवको सुखा. डाख्नेवाछे वायुसे 
कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्री दस दुरात्माको 
नष्रकर दो॥२१॥ अतः उस अति तीत्र शीतर 
ओौर रूक्ष वायुने, जो अति असहनीय था जो 
आज्ञा कद्‌ उनके शरीरको सलनिक लिये उसमें 
प्रे किया ॥ २२॥ अपने इारीरमे बायुका आवेश 
हुआ जान दै्यज्कमार प्रहवादने भगवान्‌ धरणौधरको 
हृदयम धारण करिया ॥ २३ ॥ उनके ह्ृद्यमें स्थित 
हुए श्रीजनादेनने क्रुद्ध होकर उस भौषण वायुको पौ 


लिया, इससे बह क्षीण हो गया ॥ २४॥ 


हस प्रकार पवन ओर सम्पूणं सायाओके क्षीण 
हयो जानेपर मामति म्रहवादजी अपने गुरुके घर चरे 
गये ॥ २५ ॥ तदनन्तर गुरुजी उन्द नित्यप्रति शुक्रा 
चार्यजीकी बनायी हृ राज्यफल-प्रदायिनी राज- 
नीततिका अध्ययन कराने छगे ॥ २६ ॥ जब गुरुजीने 
खन्ह नीतिश्ञाखमे निपुण अर विनयसम्पन्न देखा 
तो इनके पितास्े कहा-अब यह सुशिक्षित हो 
गया है! ॥ २७ ॥ 


आचार्यं बोरे-हे दैत्यराज ! भव हमने तुम्हारे 
पुत्रको नीतिशाखमे पूतया निपुण कर दिया दै, 
भृगुनन्दन शरुक्राचार्यजीने जो इछ कदा दै उसे 
रह्मा तत्वतः जानता हे ॥ २८॥ 
हिरण्यकशिपु बोखा-प्रह्ाद ! [ यद्‌ तो बता] 
राजाको मिन्रोसे कैसा बर्तीव करना चाहिये ! 
मौर शच्रुओंसे कैसा ¶ तथा त्रिरोकीभे जो मध्यस्थ 
( दोनों पक्षोके हितचिन्तक ) हो, उनसे क्रिस प्रकार 
आचरण करे १ । २९॥ मन्त्रय, अमात्यो, बाह्य ओर 
अन्तःपुरे सेवको, गुप्रचरो, पुरवा सियो, शङ्कितं 
( जिन्दं जीतकर बलास्कारसे दास बना लिया हो } 
त अन्यान्य जनोँके प्रति किस प्रकार उ्यवहार 





११४ 





भ्रीविष्णुपुराण 





[ अ० १९ 


__ .._..___ ~~~ --~------------------------~~----------------------~ 


ङृस्याकुत्यविधानश् दुर्गाटविकसाधनम्‌ । 
प्रहाद्‌ कथ्यतां सम्यक्‌ तथा कण्टकशोधनम्‌ २१॥ 
एतच्चान्यच्च सकरुमधीतं सवता यथा । 


कथा मे कथ्यतां जातु तवेच्छामि मनोगतम्‌॥।२२॥ 
श्रीपराशर उवाच 

प्रणिपत्य पितुः पादौ तदा प्रश्रयभूषणः । 

प्रहादः प्राह दैत्येन्द्र कृताञ्जरिपुटस्तथा ॥३२॥ 
प्रहत उवाच 

ममोपदिषटं सकलं गुरुणा नात्र संशयः । 

गृहीतन्तु मया किन्तु न सदेतन्मतम्मम्‌ ॥३४॥ 

साम चोपप्रदानं च भेददण्डौ तथापरौ । 


उपायाः कथिताः सर्वे मित्रादीनां च साधने॥२५॥ 
तानेवाहं न प्रयामि मित्रादीस्तात मा करूषः । 
साध्याभावे महाबाहो साधनैः किं प्रयोजनम्‌॥ २६। 





सर्व॑भूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये । 





परमारमनि गोबिन्द मित्रामित्रकथा इतः ॥२७॥ 





उय्यस्ति मगवान्‌ विष्णुमेयि चान्यत्र चास्ति सः। 
यतस्ततोऽयं मित्रं मे शत्रुश्चेति प्थक्छतः ॥२८॥ 


तदेभिररमस्यथं दुष्टारम्भोक्तिविस्तरे । 





 अविद्ानतर्गतैय॑सनः कतव्यस्तात शोभने ॥३९॥ 
विद्यवुद्धिरबिद्यायामन्ञानात्तात जायते । 
मालोऽगनि किं न खच्ोतमसुरेर मन्यते ॥४०॥ 
तत्कमं यत्नबन्धाय सा पिदा या बिशुक्तये। 





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करना चाहिये ?। ३० ॥ हे प्रह्ाद ! यह्‌ ठीक-टोक 
बता कि करने आरन करनेयोग्य कार्योका त्रिधान 
किंस प्रकार करे, दुगं ओौर आट विक्‌ (जंगली मनुष्य) 
आदिको किस प्रकार वक्ञीभूत करे भौर गुप्रशच्र- 
रूप कौँटोंको कैसे निकटे १ ॥ ३१ ॥ यह सब तथा 
ओर भी जो छु तूने पदा द्रो बह सव मुञ्चे सुना; 
मै तेरे मनके भावोको जाननेके छ्य बहुत उससुक 
हं ।॥ ३२॥ 


श्रीपराश्षरजी बोले-तव विनयभूषण प्रह्ादजीने 
पितके चरणों प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे 
हाथ जोड़कर कहा ।। ३३॥ 


परह्वादजी बोले-पिताजी { इसमे सन्देह नदीं 
गुरुजने तो सुने इन सभी विषयोकी शिक्षा दी हे, 
ओर मै उन्हे समञ्च भी गया हू परन्तु मेरा विचार 
है कि वे नीतियां अच्छी नहीं| ३४ ॥ साम, दान 
तथा दण्ड ओर भेद-ये सब उपाय मिच्रादिके 
साधनेके छ्यि बतलाये गये है ॥ ३५॥ किन्तु, 
पिताजी ! आप क्रोधन करे, सुनेतो कोईशात्र- 
मित्र आदि दिखायी ही नदीं देते; ओर हे महावाहो 
जब कोड्‌साध्यही नहह तो इन साधनोँसे लेना 
ही क्या दै? ॥३६॥ हे तात्त! सवंभूतास्मक 
जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमे भा शत्र 
मिच्रकी बात हौ कय है १ ॥ ३७ ॥ श्रीविष्णुभगवान्‌ 
तो. आपमे, सुश्चमे ओर अन्यत्र भी सभी जगह 
वतमान दै, फिर श्यह मेरा मित्र हे ओर यह श्त्रुहे" 
रेस सेदभावको स्थान ही कहाँ है १।। ३८ ॥ इसलिये, 
हे तात } अविद्याजन्य दुष्कममिं प्रवृत्त करनेवाले 
इस वाग्जालको सवथा छोड़कर अपने श्ुभके लि 
ही यत्न करना चाष्िये ॥ ३९॥ हे दैत्यराज । 
अज्ञानके कारण ही मुष्योकी अविद्यामें वि्या-बुद्धि 
होती है। बाख्क क्या अज्ञानवज्ञ खदोतको ही 
अग्नि नदीं समञ्च ठेता ? ॥ ४० ॥ कमं वही है जो 
बन्धनका कारणनदहो ओौर विद्याभीवहीदहै जो 
मुक्तिकी साधिका हो । इसके अतिरिक्तं भौर कमं 
तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याः कला-कौ माच 


तदेतदबगम्याहमप्तारं सारषत्तमम्‌ । 
निकामय महाभाग प्रणिपलय व्रवीमि ते॥४२॥ 
न चिन्तयति को राज्यं को धनं नाभिवाञ्छति। 
तथापि भावमेवैतदुभयं प्राप्यते नरः ॥४३॥ 
सवं एव महाभाग महं परति सोमाः । 
तथापि पुंसां भाग्यानि नोघमा भूतिरेतबः॥ ४४।॥ 
1 


भाग्यभोज्यानि राज्यानि सन्त्यनीतिमतामपि। ४५ 





जडानामविवेकानामशुराणामपि 





तस्मा्यतेत पुण्येषु य इच्छेन्महतीं धियम्‌ । 
यतितव्यं समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता ॥४६॥ ` 





देवा मनुष्याः पशवः पक्िवृक्षसरीघपाः । 





रूपमेतदनन्तस्य षिष्णोर्भिननमिव स्थितम्‌ ॥४५७॥ 
एतदिजानता सबं जगरस्थावरजङ्गमम्‌ । 





दर्टव्यमात्मवद्िष्णुयं तोऽयं विश्वरुपध्रक्‌ ॥४८॥ 
एवं ज्ञाते स भगवाननादिः परमेश्वरः। 





प्रसीदत्यय्युतस्तसिमन्प्रसने वंलेश्चसक्षयः ।।४९॥ 





श्रौपरारर उवाच 


एतच्छुसवा तु कोपेन सपुस्थाय वरासनात्‌ । 
हिरण्यकेरिपुः पतरं पदा वक्षस्यताडयत्‌ ॥५०॥ 
उवाच च स कोपेन सामर्षः प्रज्वलनिष । 
निषिष्य पाणिन। पाणि हन्तुकामो जगद्यथा॥५१॥ 
हिरण्यकशिपुरुवाच 
हे विप्रचित्ते हे राहो हे बलेप महाणवे। 
नागपारोददेवंदष्वा क्षिप्यतां मा विलम्ब्यताम्‌५२ 
अन्यथा सकला लोकास्तथा दैतेयदानवाः । 











हे महाभाग | इस प्रकार इन सबको असार 
समश्चकर अव आपको प्रणाम कर मँ उत्तम सार 
चतखाता ह, आप श्रवण कोजिये ॥ ४२॥ राज्य 
परानेकी चिन्ता किसे नहीं दह्येत ओर धनकी अभि- 
छाषा भी किसको नहीं है १ तथापिये दोनों मिख्ते 


उन्ीको है जिन्हे मिख्नेवारे होते है॥ ४३॥ हे 
महाभाग ! महस्व-पराप्रिके ल्यि सभी यत्न करते है, 
तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्यहीहै, 
उद्यम नहीं ।। ४४ ॥ हे प्रभो ! जड, अत्रिवेकी, निवल 
ओर अनीतिज्ञोको भी भाग्यवश्च नाना प्रकारके 
भोग ओर राञ्यादि प्राप्र होते है ॥ ४५ ॥ इसलिये 
जिसे महान्‌ वेभवकी इच्छा हो उसे केवर पुण्य- 
सश्चयका ही यत्न करना चाहिये; ओर जिसे मोक्ष- 
की इच्छा हो उसे भो समत्व-लाभक्रा ही प्रयत्न 
करना चाहिये ॥ द्‌ ॥ देव, मनुष्य, पञ्चु, पक्षी, वृक्ष 
ओौर सरीरप--ये सव भगवान्‌ विष्णुसे भिन्न-से 
स्थित हुए भी बास्तवभे श्री अनन्तक ही रूप दै1४ञ। 
इस बातको जाननेवाङा पुरुष सम्पूणं चराचर 
जगत्‌को आत्मवत्‌ देखे, क्योकि वह्‌ सब तिग्चरूप- 
धारी भगवान्‌ विष्णु ही दै । ४८॥ रेसा जान 
छेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान्‌ अच्युत प्रसन्न 
होते ह ओर उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्टे्च क्षीण 
हो जाते द ॥ ४९॥ 


भीपराश्षरजी बोले-यह सुनकर दहिरण्यकश्चिपु- 
ने क्रोधपूवंक अपने राजसिहासनसे उठकर पुत्र 
प्रहादके वक्षःस्थरमे छात मारी । ५० ॥ ओर क्रोध 
तथा अम॑से जलते हृए मानो सम्पूणं संसारको 
मार डष्धेगा इस प्रकार हाथ मरता हुजा बोरा 
॥ ५१ ॥ 


दिरण्यकशिपुने कदा-हे विप्रचित्ते! हे राहो | 
हे बर! तुम छोग इसे भली प्रकार नागपाङ्चसे बँध- 
कर महासागरमे डाख दो, देरी मतकरो) ५२॥ 
नहीं तो सम्पूणं लोक ओौर दैत्य-दानव आदि भी 
हृ मूढ दुरास्माके मतका ही अनुगमन करेगे 
[ अर्थात्‌ इसकी तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायंगे ] 


अनुयास्यन्ति मूढस्य मतमस्य दुरात्मनः ॥५२॥ ॥ ५३॥ 








बहुशो वारितोऽस्माभिरयं पापस्तथाप्यरेः । 
स्तुतिं करोति दृष्टानां वध एवोपकारकः ॥५४॥ 
श्रीपराशर उवाच 
ततस्ते सत्वरा दैत्या बद्ध्वा तं नागवन्धनैः। 
मरवराजञं पुरस्य चिक्षिपुः सलिलाणेवे ॥५५॥ 
ततशथचाल चलता प्रहादेन महार्णवः | 
उदवलोऽभूरपरं क्षोभ्य च समन्ततः ॥५६॥ 
भूरोकिमखिल दृष्टा श्षाव्यमानं महाम्भसा । 
दिरण्यकरिपूर्देस्यानिद्माह महामते ॥५७॥ 
हिरण्यकशिपुरुवाच 


दैतेयाः सकः शटेरेव बरुणार्ये । 





निष्रैः सवशः स्वै थौयतामेष दुर्मतिः ॥५८॥ 
नाग्निदंहति नैवायं शसतैरिछन्नो न चोरमैः। 

क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न प्रत्यया ॥५९॥ 
न मायाभिनं चैवोचात्पातितो न च दिग्गजैः। 
वालोऽतिदु्टचित्तोऽयं नानेनार्थोऽसिति जीवता।& ° 
तदेष तोयमध्ये तु समाक्रान्तो महीधरैः । 
तिष्ठलन्दसदस्ान्ं प्राणान्हास्यति दुम॑तिः॥६१॥ 


ततो दैत्या दानवाश्च पवतैस्तं महोदधौ । 


आक्रम्य चयनं चक्रुयोजिनानि सदस्रशः ॥६२॥ 
स चितः पवंतैरन्तः सथ्ुदरस्य महामतिः । 
तष्टावाहिकवेरायामेकाग्रमतिरच्युतम्‌ ॥६२॥ 


प्रह्वाद उवाच 

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम । 
नमस्ते सवरोकात्मनमस्ते तिम्क्रिणे ॥६४॥ 
नमो बहमण्यदेवाय गोव्राहमणदि बह्मण्यदेवाय गोव्राह्मणहिताय च । 











जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥६५॥ 


हमने इसे ब्रहुतेसा रोका, तथापि यह दुष्ट 
शन्रुकी ही स्तुति किये जाता है | ठोकदहै, दुष्टोंको तो 
मार देना ही लाभदायक होतः है ॥ ५४ ॥ 

भ्रीपराश्रजी बोरे-तव उन देत्योने अपने 
स्वामीकी आज्ञाको श्िरोधायं कर तुरन्त ही उन्द 
नागपाङसे बधकर समुद्रम डाल दिया ॥ ५५॥ 
उस समय प्रहवादजीके दिलने-डटनेसे सम्पूणं महा- 
सागरम हरचल मच गयी ओर अत्यन्त क्षोभके 
कारण उसमे सत्र ओर ऊंची-ऊंची छहर उठने खगं 
॥। ५६ ॥ हे महामते ! उस महान्‌ जख-पूरसे सम्पूणं 
प्रथ््रीको इूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस 
प्रकार कहा || ५७ ॥ 


दिरण्यकश्चिपु बोला -अरे दैत्यो ! तुम इस 
दुमंतिको इस समुद्रे भीतर ही किसी ओरसे खुला 
न रखकर सब ओरसे सम्पूणं पवतोँसे दवा दो 
॥ ५८ ॥ देखो, इसे न तो अग्निने जाया, न यह्‌ 
शख्रोसे कट, न सपि नष्ट हुभा ओर न वायु, विष 
ओर कृव्यासे ही क्षीण हुजा, तथा न यह मायाओ- 
से, उपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोँसे हौ मारा 
गया । यह्‌ बाछक अत्यन्त दुष्टचिन्त है, अब इसके 
जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ५९६० ॥ अतः 
अव यह्‌ पवंतोसे लदा हभ हजारो ब्रषेतक जलेः 
ही पड़ा रहे, इससे यह दुभंति स्वयं ही प्राण छोड़ 
देगा ॥ ६१॥ 

तव दैत्य ओर दान्वोने उसे समुद्रम ही पवंो- 
से ठककर उसके उपर हजारों योजनक्ा ढेर कर 
दिया ॥ ६२ ॥ उन मद्ामतिने समुद्रम पवेतोँसे खाद 
दिये जानेपर अपने नित्यक्मेकि समय एकार चिन्तसे 
श्रीअच्युत भगवानकी इस प्रकार स्तुति की ॥ ६३ ॥ 


प्रह्ादजी बोखे-हे कमलनयन ! आपको 
नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम { आपको नमस्कार है । 
हे सवंखोकात्मन्‌ ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्ण- 
चक्रधारी प्रमो! आपको वारंवार नमस्कार है 
| ६४ ॥ गौ-ब्ाह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान्‌ 
कुषणको नमस्कार दै । जगते्‌-हितकारी श्रीगोविन्दकरो 
बारंबार नमस्कार है ॥ ६५ ॥ 


ब्रह्मस्वे सृजते विश्वं स्थितो पारयते पुनः । 
 शद्ररुपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं तरिमूतेये ॥६६॥ 
देवा यक्षासुराः सिद्धा नागा गन्धवकिननराः। 
पिन्ञाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा | ६७॥ 
पक्षिणः स्थावराश्चैव पिपीरिकसरीसुपा। 
भूम्यापोऽग्निंमो वायुः शब्दः सपोस्तथारसः।६८। 
रूपं गन्धो मनो बुद्धिरात्मा कालस्तथा गुणाः। 
एतेषां परमार्थश्च सर्वमेत्चमच्युत ॥६९॥ 
विदयाविघे मवान्सत्यमसत्यं त्वं विषामृते । 

प्रवृत्तं च निषत्त च कमं वेदोदितं भवाद्‌ ॥७०॥ 

















समस्तकमभोक्ता च कर्मोपकरणानि च । 
त्वमेव विष्णो सर्वाणि सवेकमंफलं च यत्‌ ॥७१॥ 
मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु यबनेषु च । 
तवेव व्यापनिरधयगुणसं्चिकी प्रभो ॥७२॥ 
त्वां योगिनधिन्तयन्ति तवां यजन्ति च याजक; । 
हव्यकव्यथचुगेकस्त्वं पितरदेवस्वरूपध्क्‌ ।७३॥ 
रूपं महत्त स्थितमत्र विदं 
ततश्च घमं जगदेतदीर । 
रूपाणि सर्वाणि चभूतमेदा- 
सोष्वन्तरात्मारुयमतीव मम्‌ ॥७४।॥ 
तस्माच सषष्मादिविरेषणाना- 
मगोचरे यत्परमात्मरूपम्‌ । 
किमप्यचिन्त्यं तव सपमस्ति = ` 
तस्मै नमस्ते प्रुपोत्तमाय ।७५॥ 
सवभूतेषु सर्बात्मन्या शक्तिरपरा तव | 
गुणाश्रया नमस्तस्ये शाश्वतायै सुरेधर ॥७६॥ 
यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा । 


जतानिन्ञानपरिच्छदया तां वन्दे स्वेश्वरीं पराम्‌॥७७।॥। 


























आप व्रह्मारूपसे विश्वकी रचना करते दै, फिर 
उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूपसे पाङन करते है भौर 
अन्तम रुद्ररूपसे संहार करते है-ेसे ब्रिमूर्तिधारी 
आपको नमस्कार दै ॥ ६६ ॥ हे अच्युत ! देव, यक्ष; 
असुर, सिद्ध, नाग, गन्धवं, किन्नर, पिंञ्चाच) राक्षस, 
मनुष्य, पञ्चु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका ( चींटी ); 
सरोपः, प्रथिवी, जल, अग्नि, आका, वायु, ब्द, 
स्पशं, रूप, रस, गन्ध, मन, बुद्धिः आत्मा, कार 
ओर गुण--इन सवके पारमार्थिक रूप आप ही हैः 
वास्तबभे आपही ये सब है ॥ ६७-६९॥ आप 
ही विद्या ओर अविद्या, सत्य ओर असत्य तथा 
विष ओर अमृत हैँ तथा आप हौ वेदोक्त प्रवृत्त ओर 
निवृत्त कमं है ॥ ७० ॥ हे विष्णो ! आप ही समस्त 
कर्मके भोक्ता ओौर उनकी सामप्री ह तथा सवं कर्मो 
के जितनेभी फर हवे स्वमी अप ही दै ॥७१॥ 
हे प्रभो ! स॒द्यमे तथा अन्यत्र समस्त भूतो ओर 
भुबनोंमे आपहीके गुण ओर रेश्वयंकी सूचिका 
व्याघ्र हो रह है ॥ ७२॥ यागिगण आपहीका ध्यान 
धरते है जौर याज्ञिकगण आापदीका भजन करते है 
तथा पितृगण रौर देवगणकै रूपसें एक आप हौ 
हव्य भौर कठ्यके भोक्ता है ॥ ७३1 


हे ईश ! यद्‌ निखिख ब्रह्माण्ड ही आपका सथू 
रूप है, उससे सूक्ष्म यह्‌ खंसार ( एथिवीमण्डल ) 


| है, ससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न रूपधारी समस्त 


माणी है; उनम भो जो अन्तरात्मा है वह ओरभौ 


| अत्यन्त सूक्ष्म है ॥ ७४॥। उससे भी परे जौ सुष्म 


आदि विकेषणोका अविषय आपका कोड अचिन्त्य 
परमास्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार 
है ॥ ७५॥ हे सवौत्मन्‌ ! समस्त भूतम घापकी जो 
गुणाघ्रय पराशक्ति हे, दे सुरेश्वर! उस नित्य- 
स्वरूपिणीको नमस्कार है । ७६। जो बाणो आओौर 
मनक परे है, विशेषणरद्वित तथा ज्ञानियोके ज्ञानसे 
परिच्छे हे उस स्वतन्त्रा पराक्चक्तिकी मँ वन्दना 
करता हँ ।| ७७॥ ॐ उन भगवान्‌ वासुदेवको सद्‌ 


११८ 





ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा । 
च ` ~ 
व्यतिरिक्त न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिरस्य य;७८ 





नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने । 





नाम रूपं न यस्यैको योऽस्तित्वेनोपटभ्यते ।॥५९॥ 





यस्यावताररूपाणि समयैन्ति दिवौकसः । 





दपरयन्तः परं रूपं नमस्तस्मै महात्मने ॥८०॥ 
योऽन्तसितिष्न्नरेषस्य पश्यतीशः शुमाशुभम्‌ । 

नमोऽ विष्णवे सम यस्वामिजमिरं जगत्‌! _ 
ध्येयः घ जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः॥८२॥ 














यत्रोतमेतसरोतं च विश्वमक्षरमन्ययम्‌ । 
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे दरिः ॥८३॥ 
ॐ नमो विष्णवे तस्यै नमस्तस्मै पुनः पुनः। 
यप्र सवं यतः सवं यः सवं सर्वसंश्रयः ॥८४॥ 








सवंगतादनन्तस्य स॒ एवाहमवस्थितः। 

¢ ^ ५4 4 
मत्तः सवंमहं सवं मयि सवं सनातने ॥८५॥। 
द्रहमेबाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंभ्रयः । 





ब्रह्मसज्ञोऽदहमेषाग्रे तथान्ते च परः पुमान्‌ ॥८६॥ 


्रीविष्णुपुराण 





[ अ० १९ 





नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त भौर कोई वस्तु नहीं 
है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त ( असङ्ग) है 
।| ७८ ।} जिनका कौ मी नाम अथवा रूप नहीं है 
ओर जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपरुन्ध होते है 
उन महास्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार 
है ॥ ॥ ७९ ॥ जिनके पर-स्वरूपको न जानते हए ही 
देवतागण उनके अवतार-्चरीरोका सम्यक्‌ अच्व॑न 
करते ह उन महात्माको नमस्कार है ।॥ ८० ॥ जो 
ह्वर सवके अन्तःकरणोमे स्थित होकर उनके 
स॒भाश्ुभ कर्मोको देखते ह उन सवंसाक्षौ विश्वरूप 
परमेश्रको मै नमस्कार करतां ॥ ८१॥ 


जिनसे यह जगत्‌ सवथा अभिन्न है उन श्री- 
विष्णुमगवान्‌को नमस्कार दै, वे जगतके आदिकारण 
शौर योगियोके ध्येय अन्यय हरि भुञ्चपर प्रसन्न हों 
॥ ८२ ॥ जिनमे यह सम्पूणं विश्च ओतभरोत है वे 
अक्षर, अभ्यय ओर सबके आधारभूत हरि मुक्चपर ` 
प्रसन्न हों ॥८२३॥ ॐ उन श्रीविष्णुभगवान्‌को 
नमस्कार है--डन्द बारबार नमस्कार है जिनमे सब 
कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ दहै ओर जो 
स्वयं सब कुछ तथा सवके आधार दै ॥ ८४॥ 
भगवान्‌ अनन्त सर्वंगामी है; अतःवे दही मेरे श्पसे 
स्थित दै, इसलिये यह सम्पूणं जगत्‌ सुक्नदीसे हमा 
है, मे हयी यह सव कुछ हँ ओर मुञ्च सनातनम ही 
यह्‌ सब स्थित ह ॥ ८५॥ ओँ ही अक्षय, नित्य ओर 


आत्माधार परमात्मा द तथाम ही जगत्तके आदि 
ओौर अन्तमे स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष ह ॥ ८६ ॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमैऽशे एकोनविङ्तितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥ 





ग्रहादश्त भगवत्‌-स्तृति भोर भगवानूका मावि्भाव 


श्रीपराश्चर उवाच 
एवं सश्चिन्तयन्विष्णुमभेदेनास्मनो द्विज । 
तन्मयत्वमवाप्यग्रयं मेने चात्मानमच्युतम्‌ ॥ १॥ 
विसस्मार तथात्मानं नान्यक्किञ्चिदजानत । 
द्हमेषान्ययोऽनन्तः परमात्मेस्यचिन्तयत्‌ ॥ २॥ 
तस्य तद्धावनायोगास्षीणपापस्य वै क्रमात्‌। 
शुद्धेऽन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः। २। 
योगप्रभाषासखह्वादे जाते विष्णुमयेऽसुरे। 
चलस्युरगबन्पैसतैमेभरेय बरुटितं क्षणात्‌ ॥ ४॥ 
्रान्तग्राहगणः सोभिर्ययो क्षोमं महार्णवः। 
चचाल च मदी सर्वा स॒रेरबनकानना ॥५॥ 
स चतं शैरपद्कातं दैत्ैन्यंस्तमथोपरि । 
उल्किप्य तस्मात्पलिरानिधक्राम महामतिः ॥ ६॥ 
ष्टा च स जगद्धयो गगनाधुपरक्षणम्‌ । 
प्रहादोऽस्मोति सस्मार पुनरात्मानमातमनि ॥ ७॥ 
तुष्टाव च पुनर्धीमाननादि पुरुषोत्तमम्‌ । 


एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाकायमानसः । ८॥ 


प्रह्ाद उवाच 


ॐ नमः परमार्थाथं स्थूद्रषम क्षगा्षर | 





व्यक्ताव्यक्त कलातीत सफरेश निर्जन ॥९॥ 
गुणाज्ञन गुणाधार निर्युणात्मन्‌ गुणस्थित | 
ूर्ताूतंमहामूते घ्ममूते स्फुटासफुट ॥१०॥ 


करारसोम्यरूपात्मन्वियाविद्यामयाच्युत । 








श्रीपराशरजी बोरे-हे ष्िज ! इस प्रकार 
भगवान्‌ विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन कमरते- 
करते पूणं तन्मयता प्राप हो जनेसे उन्होने जपने- 
को अच्युतरूप ही अनुभव किया ॥ १॥ वे अपने- 
आपको भूल गये;.उस समय उने श्रौविष्णुभगवान्‌- 
के अतिरिक्त ओौर कुमी प्रतीतन होता था। बस, 
केवल यहौ भावना चित्तम थीकिरै दी अव्यय 
ओर अनन्त परमास्मा हूं ॥ २॥ उस भावनाके योग- 
सेवे क्षीण-पाप हो गये ओर उनके रुद्ध अन्तःकरण. 
मे ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्रुभगवान्‌ विराजमान 
हुए ॥३॥ 


हे भेत्रेय ! स प्रकार योगव्रलसे अदर प्रहादजी- 
के विष्णुमय हो जानेपर उनके वि चलित होनेसे वे 
नागपाञ्च एक क्षणमरमे ही टूट गये ॥ ४ ॥ भरमण- 
शील म्राहगण ओर तरलछ-तरगोसे पूणं सम्पूणं महा- 
सागर श्षुन्ध हौ गया तथा पवेत ओर्‌ वनोपवनोंसे 
पूणं समस्त प्रथिवी हिरन गी ॥५॥ तथा महामति 
प्रहवादज्ञा अपने ऊपर दैर्योारया रदे गये उस 
सम्पूणं पवंतसमूहको दूर फंककर जङसे बाहर 
निकर अये ॥ ६ ॥ तब आकाञ्चादिरूप जगत्‌क्ो 
फिर देखकर उन्दः चित्तम यह्‌ पुनः मान हज कि 
मै प्रहाद दँ ७ ॥ ओर उन महाबुद्धिमान्‌ने मन, 
वाणी ओौर श्वरीरके सखयमपूवंक धैयं धारणकर 
एकाभ्र चिन्तसे पुनः भगवान्‌ अनादि पुरुषोत्तमकी 
स्तुतिकौ॥ ८ ॥ ५ 


प्रह्मावजी कहने ल्गे-हे परमां ! हे अर्थं 
(दश्यरूप) ! हे स्थूषसूष्म (जाप्रत्‌-स्वप्नदद्यस्वरूप) ! 
हे क्षराक्षर ( का्थै-कारणरूप ) ! हे व्यक्तान्यक्त 
९ दर्यादद्यस्वरूप ) ! हे कात्तीत । हे सकटेश्वर ! 
हे निरज्ञन दैव ! आपको नमस्कार दै।॥९॥ हे 
गु्णांका अनुरञ्ित करनेवषे ! हे गुणाधार ! हे 
निगुंणास्मन्‌ ! हे गुणस्थित ! हे मूतं ओर अमूतेरूप 
महामूर्ति मन्‌! हे सृष्ष्ममूतं । हे प्रकाश्चाप्रकासचस्वरूप 
[ आपको नमस्कार है ]॥ १० ॥ हे विकराल ओर 
सुन्दररूप ! हे बिद्या ओर अविद्यामय अच्युन ! हे 
सदसत्‌ (कायकारण) रूप जगत्‌के इद्वस्थान भौर 





{मं 





सदसद्रपसद्धाव सदसद्धावमावन ॥११। 
नित्यानित्यग्रपश्चास्मनिष्प्रपश्चामराभित । 
एकानेक नमस्तुभ्यं बासुदेवादिकारण ॥१२॥ 
यः स्थृलघ््ष्मः प्रकरप्रकाशो 
यः स्व॑भूतो न च सवभूत; । 
विश्वं यतस्चैतदविश्वहैतो 
 न॑मोऽस्तु तसै पुर्पोतचमाय ॥१३॥ 




















भौपरा्ञर उवाच 

तस्य तच्चेतसो देषः स्तुतिमित्थं प्रहतः । 
आविर्बभूव मगवान्‌ पीताम्बरधरो इरि; ॥१४॥ 
ससम्भ्रमस्तमारोक्य सयुत्थायाकुरक्षरम्‌ ।. 
नमोऽस्तु विष्णवेत्येतद्‌ व्याजहारासष्द्‌ दज ।१५। 
| प्रहाद्‌ उवाच ` 
देव प्रपन्नातिंहर प्रसादं रु केशव । 
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्युत ॥१६॥ 

। भ्रीभगवःाुवाच 
र्वतस्ते प्रसन्नोऽहं मक्तिमन्यभिचारिणीम्‌ । 
यथामिरूपितो मत्तः प्रहाद्‌ चियतां वरः ॥१७॥ 

। प्रह्ाद्‌ उचाच 

नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम्‌ । 
तेषु तेष्वच्युता भक्तिस्व्युतास्त सदा त्वयि ॥१८॥ 
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । 


त्वामनुस्मरतः सा मे हदयान्मापसपंतु ॥१९॥ 








|  श्रीमगवेनुबाच 
मयि भक्तिस्तवार्पयेव भूयोऽपयेवं भविष्यति । ` 
वरस्तु मत्तः प्रा प्रियतां यस्तवेष्पितः ॥२०॥ 
| प्रहराद्‌ उवाच | 
मयि द्रेषादुबन्धोऽभूत्ससतुताबरु्ते वव । 





सद सज्गतके पालक ! [ आपको नमस्कार है] 
॥ ११] हे नित्यानित्य ( आकाङ्चवटादिद्प) 
प्रपश्चात्मन्‌ ! दे. प्रपच्चसे प्रथक रहनेवषले ! हे 
ज्ञानियोके आश्रयसूप ! हे एकानेकरूप आदरिकारण 
वासुदेव ! [ आपको नमस्कार है] ।॥ १२॥ जो 
सथूल-सृक्ष्मरूप ओर स्फुट भरकाञ्चमय ह, जो अथि 
छठानरूपसे सवेभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूणं 
भूतादिसे परे दैवि के कारण न होनेपर मौ जिनसे 
यह्‌ समस्त विश्च उत्पन्न हुआ हे, उन पुरुषोत्तम 
भगवान्‌को लमस्कार है ॥ १३ ॥ । 


श्रीपराशरजी बोखे--उनके इस प्रकार तन्म- 


यतापृवेक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव 


भगवान्‌ हरि प्रकट हुए ॥ १४॥ है द्विज! उन्हे 
सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये ओौर गदु गद 
वाणीसे (विष्णुभगव्रान्‌को नमस्कार है! विष्णु 
भगवान्‌को नमस्कार है! एेसा बारंबार कने 
खगे ॥ १५॥ 

प्रहवादजी बोरे-दे क्षरणागत-दु :खहारी श्रीकेशाव- 
देव | प्रसन्न होइये। हे अच्युत ! अपने पुण्य-दशेनोसे 
मुशे फिर भी पवित्र कोजिये ॥ १६॥ 

भीभगवान्‌ बोरे--हे प्रह्वाद ! मैं तेरी अनन्य 
भक्तिसे अति प्रसन्न हू; तुचे जिस वरकौ इच्छाहो 
मोँगदले॥ १७॥ 

श्रहवादजी षोले-हे नाथ ! सदसी योनियोमेसे 
म जिस-जिसमे भी जाऊँ उसी-उसीमे हे अच्युत । 
आपन्न मेरी सव॑दा अक्षुण्ण भक्ति रदे ॥ १८॥ 
अविवेकी पुरुषोकी विषयोँमे जेसी अविच प्रीति 
होतो है वसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय- 
सेकभीदृूरनहो॥१९॥ 

श्रीभगवान्‌ बओशे--हे प्रह्वाद्‌ ! युक्च तो तेरी 
भक्तिहेहौीजौरअगे भीदेसी ही रहेगी; किन्तु 
इसके अतिरिक्त भी तुश्च ओर जिस बरकी इच्छा 
हो सुश्चसे मगरे २०॥ 

अ्रह्वादजी बोरे देव ! आपकी स्तुतिमे प्रवृत्त 
होनेसे मेरे पित्ताके - चित्तम मेरे प्रतिजो दष 


[1 


--------------------------------------------- 


मत्तितुस्त्छृतं पापं देव तस्य प्रणश्यतु ॥२१॥ 
शख्राणि पातितान्यङ्ध क्षिपो यचचागनिसंहतौ । 
दंशितश्रोरमैदत्तं यद्विषं मम भोजने ॥२२॥ 
वदुध्वा स्र यस्िप्तो यचितोऽस्मि रिरोचयैः । 
अन्यानि चाप्यस्ाधूनि यानि पितरा कृतानिमे २३ 
स्वयि भक्तिमतो देषादघं तत्सम्भवं च यत्‌ । 
त्वसरसादास्रभो सचयस्तेन सच्येत मे पिता ॥२४॥ 
श्रीभगवानुवाच 
प्रहाद सर्वमेतत्ते मतपरसादादभविष्यति । 
अन्यच ते षरं दन्नि वियतामसुरार्मज ॥२५॥ 
श्रह्वाद्‌ उकाच 
एतकृत्योऽस्मि मगवन्वरेणानेन ययि । 
भवित्री स्वप्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी ॥२६॥ 
धर्माथकामैः किं तस्य शुक्तिस्तस्य करे स्थिता । 


श्रीभगवानुवाच 
यथा ते निश्चलं चेतो मयि भक्तिसमन्वितम्‌। 
तथा स्वं मसरसादेन निर्बाणम्परमाप्स्यसि ॥२८॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 
इत्युक््वान्तदैधे विष्णुस्तस्थ मैत्रेय परयतः। 
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः ॥२९॥ 
तं पिता मूध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य च पीडितम्‌। 
जीवसीत्याह वत्तेति बाष्पाद्रनपनो दज ॥३०॥ 
्ीततिमांशाभवत्तस्मिन्ननुतापौ महासुरः । 
गुरुपित्रोधकारवं ुभरुषां सोऽपि धमेषित्‌ ॥२१॥ 








हुआ -है खन्द उससे जो पापल्गा दै बहन्षटहो 
जाय ।॥ २१॥ इसके अतिरिक्त [ उनकी आज्ञासे ] 
मेरे ्सीरपर जो शाख्चाघात किये गये, युद्चे अग्नि- 
समूहमे डाला गया, सपेसि कटवाया गया, भोजनमें 
बिष दिया गया, बँधकर समुद्रम डाला गया, 
क्िखाओंसे दबाया गया तथा ओर मौ जो-जो 
दुव्य॑बहार पिताजीने मेरे साथ किये है, वेसर 
भापमे भक्ति रखनेवाटे पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे 
छन्ह खनके कारण जो पापलगादहै, हे प्रभो ! आप्‌- 
की .कृपासे मेरे पिवा उससे शीघ्र ही युक्त हो 
जाय ॥ २२२४ ॥ । 

आभगवान्‌ बोले-है प्रह्वाद्‌ ! मेरी कृपासे 
वुम्दारी ये सब इच्छापं पूणे दोग । हे असुरकुमार । 
मै वुमको एक वर ओरमभ देताः तुम्हजो इच्छा 
हो मगल ॥ २५॥ । 

परह्वादजी बोले-हे भगवन्‌ ! मँ तो आपके इस 
वरसे ष्टी कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें 
मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी ।॥२६॥ हे 
प्रभो ! सम्पूणं जगत्‌के कारणरूप आप जिसकी 
निश्वर भक्ति दै, मुक्ति भी उसकी सुद्धीमे रहती है, 
विर धमं, अथे, कामसे तो उसे लेनाह्ौी क्या 
है १॥ २७॥ 


भगवान्‌ बोरे--दहे प्रह्वाद ! मेरी भक्तिसे 
युक्तं तेण चित्त जैसा निश्चल दै उसके कारण तुमेरौ 
करपासे परम निर्वाणपद्‌ प्राप्न करेगा ॥२८॥ 


श्रीपराशरजी बोशे- दे मैत्रेय! पेस्ा कह 
भगवान्‌ नके देखते-देखते अन्तधौन हो गये; भौर 
छन्होने मी श्षिर आकर अपने पित्ताके चरणोकी 
वन्दना की ॥ २९॥ ह द्विज ! तव पितता दहिरण्य- 
कशशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीडित किया था उस 
पुत्रका शिर संकर, ओंँखोम आंसू भरकर कदा-- 
बेटा ! जीतातौ दै! ॥ ३० ॥ वह्‌ महान्‌ असुर 
अपने कियेपर पछछताकर फिर प्रह्ादसे प्रेम करने 
लगा ओौर इसी प्रकार धमेज्न प्रहादजी भी अपने 
गुरु ओर माता पिताकी सेवाङुशरुषा करने 
ङ्गे 1 ६१॥ हे मैत्रेय | तदनन्तर दृरसिहुरूपधारी 








पितयुंपरतिं नीते नरिदस्वरूपिणा । भगवान्‌ विष्णुद्रारा परिताके मारे जानेपर वे दैत 
विष्णुना सोऽपि दैस्यानांमैतरेयाभूततिस्ततः।३२।| राजा हए ॥ ३२ ॥ हे दविज ! फिर प्रारब्धक्षयर्का 


ततो राज्यदयुति प्राप्य कमशुद्धिकरीं दविज । `. | राज्यलक्ष्मी, बहृत-से पुत्र-पौ्नादि तथा परमे 
पुत्रपौत्रांश्च सुबहुनवाप्यैश्वयमेव च ॥३३॥ | पाकर, कमधिकारके क्षीण होनेपर्‌ पुण्य-पा 
क्षीणाधिकारः स यदा परण्यपापविषजितः रहित हो भगवान्‌का भ्यान करते हुए उन्होने प 
तदा स भगवद्भयानात्परं तिर्वाणमाप्तवात्‌ ॥२४॥ | निरबाण पद प्राप्त किया ॥ ३३-३४॥ 

एवंप्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीन्मदहामतिः । ` हे मैत्रेय ! जिनके विषयमे तमने पृछा च 

दतो यं लं मामन ` * | परम भगवद्धक्त मामति दैत्य प्रवर प्रहादर्ज 

प्रहादो भगवद्भक्तो यं सवं मामनुपृच्छसि ॥२५॥ | प्रभावशषार हुए ॥ ३५॥ उन महात्मा प्रहार 
यस्त्वेतचरितं तस्य प्रह्मादस्य महात्मनः |; ˆ ` । इस चरिध्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप ₹ 


शृणोति तस्य पापानि सच्चो गच्छन्ति सदक्षयम्‌२६| दौ न दी जति द ॥ ३९ ॥ दे चरेय ! इसमे स 

, „` , | नहीं कि मनुष्य प्रहाद-चरिव्रके सुनने या पद्‌ 
अहोरात्रकृतं पापं ्रहादचरितं , नरः ;. | दिनि-रातके ( निरन्तर ) किये हए पासे अव 
शृण्वन्‌ पटं मैत्रेय व्यपोहति न संशयः ॥३७॥ छूट जाता है ॥ ३७ ॥ हे द्िज ¦ पूर्णिमा, अमावरं 
पौणमास्याममावास्यामष्टम्यामथ वा पठन्‌ |... | अष्टमी अथवा द्वादज्ञीको इसे पदनेसे मनुष्य 
द्वादश्यां बा तदामोति गोप्रदानफरं दविज ॥३८॥ गोदानका फल मिख्ता है ॥ ३८ ॥ जिस भ्रव 


, तस॒ यथा रक्षितवानरिः भगवानने ्रह्ाद जीको सम्पूणं आपत्तियोसे २ 
महाद सकष चथा रोततवन्डिर्‌ः की. थीःउसी प्रकार वे सवदा उसकी भमीरक्षाक 
तथा रक्षति यस्तस्य श्रृणोति चरितं सदा ॥३९॥ | द जो उनका चरित्र सुनता है ॥ ३९॥ ` 


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इति श्रीविष्णुपुराणे अथमेऽशे विज्ञोऽध्यायः ॥ २० ॥ 


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 इक्षीसर्वो अध्याय 

कश्य पजीकी अन्य खि्योके वंश्य पतरं मस्द्रणकी उत्पत्तिका वणेन 
भ्रीपराज्ञर ` उवाच ` ` श्रीपराश्षरजी बोले-संहादके पुत्र आयुष्मा 
संहादपुत्र आगुष्माज्छिविर्बाप्कलएव च |` `" क्चिवि ओौर बाष्कछ ये तथ प्रह्वादके पुत्र विरोः 
विरोचनस्तु प्राह्ादि्लियं्ने विरोचनात्‌ ।१॥ | थे भौर विरोचनसे बिका जन्म हा ॥ १॥ 
बलेः पुत्रशतं स्वासीद्वाणज्यषठं महान । सहाने ! बिके सो पुत्र थे जिनमे बाणासुर स 
हिरण्याक्षसुताश्चासन्सवं एव महाबलाः ॥२॥ | बड़ा था। दिरण्याक्षके पुत्र उत्छुर, शनि, भू 
उत्कुरः शनिश्चैव भूतसन्तापनस्तथा ।; . .. | सन्तापन, महानाभ, महाबाहु तथा कार्नाभ अ 

महानामो महाबाहुः कालनाभस्तथापरः ॥२॥ | समौ मं्ाबक्वान्‌ थे ॥ २.३ ॥ 


अभवेन्दनुपत्राश्च द्विमूद्धौ शम्बरस्तथा | , |. ( क्रयपजीकी एक दूसरी सलौ) दलुके ' 
अयोयुखः शङ्कुशिराः कपिलः शङ्करस्तथा ॥४॥ | द्वमूद्ध, शम्बर, अयोुल, शंकुशिर, कपि 
एकचक्रो महाबाहुस्तारकथ महाबलः 1 : .:: शंकेर, एकचक्र; महाबाहु, तारक, महाव 


शध 


सवर्मानुबर षप च परोमध महावर; ॥ ५॥ 
शते दनोः सुताः रूयाता विप्रचित्तिश्च वीय॑वाद्‌ । 
स्वर्भानोस्तु प्रमा कल्या शर्ष्ठा बाप॑प्व॑णी ॥ ६ ॥ 
उपदानी हयशिराः प्रख्यात्ता वरकन्यकाः | 
वैशवानरपुते चोभे पुलोमा कारुका तथा॥ ७॥ 
उमे सुते महाभागे मारीचेस्तु परिग्रहः । 
ताभ्यां पुत्रसदस्राणि पष्टिदीनवसत्तमाः ॥ ८॥ 
पौरोमाः कारुकेयाश्च मारीचतनयाः स्मृताः । 
ततोऽपरे मदादीरया दारुणास्ततिनिष्ेणाः॥ ९॥ 
सिहिकायामथोत्पन्ना विप्रचित्तेः सुतास्तथा। 

व्यंशः शल्यश्च बलवान्‌ नमश्चैव महाबरुः ॥१०॥ 
वातापी नयुचिष्यैव इल्वलः खसुमस्तथा । 
अन्धको नरकरैव कालनामस्तथेष च ॥११॥ 
स्वर्भानुश्च महावीर्यो वक्वयोधी महापुरः ।. 

एते पै दानवाः श्रेष्ठा दयुवंशविवद्रनाः ॥१२॥ 
एतेषां पूत्रपोतराश्च इतकषोऽथ सदस्रशः । 
प्रह्ादथ तु दैत्यस्य निवातकवचाः कुरे ॥१२॥ 
सथरुस्पन्नाः सुमहता तपसा भावितात्मनः । 

षट्‌ सुताः सुमहासत्वास्ताम्रायाः परिकीतिताः।१४ 
शुकी श्येनी च भासी च सुप्रीवीभुचिगृद्‌धिकाः। 
शुकी शुकानजनयदुलूकप्रसयुहूकिकाम्‌ ॥१५॥ 
श्येनी दयेनास्तथा भासो भासान्यृदुधांश्च मृदुघयपि 
शुन्यौदकान्पक्षिगणान्सुप्रीवी तु व्यजापत ।१६॥ 
अश्वालुषटानगदमांध ताम्रावंशः प्रकीर्तितः । 
विनतायास्तु दौ पत्र विख्यातौ गरुडारणो॥१७॥ 
सुपणेः पततां शष्ठो दारणः पर्गारनः । 
सुरसायां सहं त सर्पाणाममितोजसाम्‌ ॥१८॥ 
अरनेकिरसां ब्रह्म्‌ खेचराणां महात्मनाम्‌ । 
काद्रवेयास्तु णिनिः सदस्रममितोजसः, ॥१९॥ 
सुपणेवशगा ब्रह्मन्‌ जक्ञिरे नैकमस्तकाः । 


सव मौवु, वरषपवौ, महाबली पुलोम ओर परमपरा- 
क्रमी विभ्रचित्तिये। ये सब दूनुके पुत्र विख्यात है| 
स्वभौलुकी कन्या प्रभा थौ तथा इर्मिष्ठा, उपदानी 
ओर हयशिरा-ये वृषपवकी परम सुन्दरौ कन्यां 
विख्यात ह । वैश्वानरकी पुलोमा ओर काल्कादो 
पत्रिर्यौँ थीं ॥ ४-७ ॥ हे महाभाग ! वे दोनों कन्यां 
मरीचिनन्दन कश्यपजीकी भायीं हदं । उनके पुत्र 
साठ हजार दानवश्रेष्ठ हुए ।। ८ ॥ मरीचिनन्दनः 
करयपजीके वे सभी पुत्र पौरोम भौर कालकेय कह 
छाये । इनके सिवा विप्रचित्तिके सिहिकाके ग्॑से 
ओर भी बहुत-से महाबरूबान्‌ भयंकर भौर अतिक 
पुत्र उत्पन्न हए । वे व्यंर, शल्य, बरवान्‌, नभः 
महाबली वातापी) नमुचि, इल्वट, खलम), अन्धकः 
नरक, काठनाम, महावीर स्वभौलु ओर महादैत्य 
वक्त्रयोघी थे।ये सब दानवश्रष्ठ दजुके वशको 
बदानेवाछे थे ॥ ९-१२॥ इनके ओर भी सैकड़ौ- 
हजारों पुत्रपौत्रादि हुए । महान्‌ तपस्याद्वारा आस्म- 
ज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रहादजीके कुखमें निवातकवच 
नामक दैत्य उसपन्न हुए । कश्यपजीकी खो ताभ्राकी 
युक, श्येनी, मासी, सु्रीवी, जुचि ओर गृदूधिका- 
ये छः अति प्रभावश्चालिनी कन्या्पँ कही जाती है । 
युकीसे शुक, उलूक एवं उलटूकोके प्रतिपक्षो काक 
आदि उन्न हए ॥१३--१५॥ तथा रयेनीसे स्येन 
( वाज ), भासीसे भास ओर गृदूधिकासे गरदुध्रका 
जन्म हुआ । भ्ुचिसे जख पक्िगण ओर सुप्रीवीसे 
अश्च, चष्ट ओर गदेभोंको उत्पत्ति हुई । इस प्रकार 
यह ताग्राका वज्ञ कदा जातां है । विनताके गरुड 
ओौर अरुण~ये दो पुत्र विख्यात है ।। १६-१७ ॥ 
दनभ पश्षियोमिं श्रेष्ठ सुपणं ( गरुडजी ) अति भय- 
कर ओर सर्पोको खनेवाङे दै । दे ब्रह्मन्‌ ! सुरसासे 
सहस्रो सपं उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभवा, 
आकारे बिचरनेवाठे, अनेक शिरोँवाखे भौर बद 
विश्चाख्काय घे ओौर कहके पुत्र भी महाबली भौर 
अमिततेजस्वी अनेक शिरवाठे सखो सपं ही हृष 
जो गरुडजीके वक्चवरतीं थे। उनमेसे शेष, वासुकि, 


१२४ 


भरीषिष्णुपुराण 


[ अ० २१ 








तेषां प्रथानभूतास्तु शेषवासुकितक्षकाः ॥२०॥ 
शङ्कदवेतो महापद्मः कम्बलाश्वतरौ तथा । 
एलापत्रस्तथा नागः ककेटिकधनज्जयो ॥२१॥ 


एते चान्ये च बहवो दन्दशूका विषोल्बणाः । 

गणं क्रोधवशं विद्धि तस्याः सर्वे च दष्टिणः ॥२२॥ 
स्थलजाः पक्षिणोऽग्जाश्च दारुणाः पिशिताश्नाः। 
क्रोधा तु जनयामास पिश्षाचांश महाबलान्‌ ॥२३॥ 
गस्तु वै जनयामास सुरमि्हिषांस्तथा । 

हरा वरक्षलतावल्लीस्ृणजातीश्च स्व॑ः ॥२४॥ 
खसा त॒ यक्षरक्षांसि अनिरप्परसस्तथा । 
अरिष्टा तु महासखवा्‌ गन्धरवान्समजीजनत्‌ | २५॥ 
एते कश्यपदायादाः कीत्तिताः स्थाणुजङ्गमाः । 
तेषा पुत्रा पौत्रा शतशोऽथ सहस्रशः ॥२६॥ 
एष मन्वन्तरे सर्गो ब्रहमन्स्वारो चिषे स्मृतः| 
वैवस्वते च महति वारुणे वितते एतौ ॥२७। 
जुह्वानस्य ब्रह्मणो वै प्रासं इच्यते । 

पूवं यत्र तु सप्षीनुत्पन्नान्सप्रमानसान्‌ ॥२८॥ 
पितरत्वे कल्पयामास स्वयमेव पितामहः । 
गन्धवंभोगिदेवानां दानवानां च सत्तम ॥२९॥ 
दितिविनष्पुत्रा वै तोषयामास काश्यम्‌ । 

तया चाराधितः सम्यकाहयपस्तपतां वरः ॥२०॥ 
वरेणच्छन्दयामास सा च वरे ततो षरम्‌। 
पूतरमिन्द्रवधार्थाय समर्थममितौजसम्‌ ॥३१॥ 
स च तस्मै वरं प्रादाद्धाययि मुनिसत्तमः । 

दत्वा च बरमल्युग्रं कर्यपस्ताएुवाच ह ॥२३२॥ 
शकर पुत्रो निहन्ता ते यदि गमं शरच्छतम्‌ । 
समाहितातिप्रयता शोचिनी धारयिष्यसि ॥२३॥ 





तक्षक, शंखद्वेत, महापद्म, कम्बर, अच्तर, एलापृत्र; 
नाग, ककोटक, धनञ्जय तथा ओर भी अनेकों उग्र 
विषधर एवं काटनेवाङे सपं प्रधान द । कोधवशाके 
पत्र क्रोधवक्षगण ह । वे सभी वड्-वड़ दादौवारे, 
भयंकर ओौर कञ्चा मांस खानेवाङे जलचर, स्थङ्चर 
एवं पक्चिगण ह । महाबली पिश्चाचौको मी क्रोधाने 
ते जन्म दिया है ॥ १८--२३ ॥ सुरभिसे गौ ओौर 
मद्िष आदिकी उसत्ति हुई तथा इरासे वृक्ष, लता, 
बेर ओर सब प्रकारके वृण उसन्न हुए दै ।॥ २४॥ 
खसाने यक्ष ओौर राक्वसौको, सुनिने अप्लराभोको 
तथा अरिष्टाने अति समथं गन्धर्वोको जन्म दिया 
। २५ ॥ ये सब स्थरावर-जंगम कर्यपजीकी सन्तान 
हए । इनके ओौर भी सेकड़ो-हजारों पुत्रपौत्रादि हुए 
1 २६॥ हे ब्रह्मन्‌ ! यष स्वारोचिष मन्वन्तरको 
सृष्िका वणेन कहा जाता है । वैवस्वत-मन्वन्तरके 
आरम्भे महान्‌ वारण यज्ञ हुआ, उसमे ब्रह्माजी 
होता थे, अन भै उनकी प्रजाका वणेन करता द| 
हे साधुशरे्ठ ¦ पूव-मन्वन्तरमे जो सप्रषिगण सयं 
ब्रह्माजीके मानसपुत्ररूपसे उत्पन्न हए थे, उन्हीको 
नह्माजीने इस कल्पमे गन्धव, नाग, देव ओरं दान- 
वादिके पिन्ररूपसे निशित किया ॥ २७-२९ ॥ पुत्रोके 
नष हो जानेपर दितिने कर्यपजीको प्रसन्न किया । 
उसको सम्यक्‌ भाराधनासे सन्तुष्ट हो तपस्वियोमें 
श्रेष्ठ क्यपजीने इसे बर देकर प्रसन्न किया । उस 
समय उसने रन्द्र बध करनेमे समथं एक अति 
तेजस्वी पुत्रका वर माँगा 1) ३०-३१॥ मुनिश्रेष्ठ 
कश्यपजीने अपनी भायां दितिको बह वर दियाभौर 
उस अति उग्र वरको देते हुए वे उससे बोटे-\ ३२॥ 
“यदि तुम भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर रहकर अपना 
गभे श्चौचकः जौर संयमपूवेक सौ वषेतक धारण कर 
सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाखा होगा” 


-------------------------------~----------~----~-------~-_-- --_-__-___] 


> शौच आदि नियम मत्स्य पराणे दस प्रकार चतलाये श 


मामा 11 





इत्येवमुक्त्वा तां देवीं सङ्गतः कश्यपो युनिः | - | .॥ ३२ ॥ एेसा कहकर मुनि कश्यपजीने उस देवीसे 


दधार सा च तं गमं सम्पक्छौचसमन्विता | २४। 
गभमात्मबधार्थाय ज्ञाता तं मधवानपि । 
शुभरुषुस्तामथागच्छद्विनयादमराधिपः 
तस्यचेवान्तरपरप्पुरतिष्ठस्यकासनः । 
उने वर्षशते चास्या ददर्शान्तरमासना ॥ ६॥ 
अकृत्वा पादयोः श्चौचं दितिः शयनमाबिशत्‌। ` 
निद्रां चाहारयामास तस्याः ङु प्रविश्य सः॥ ३७॥ 
वज्रपाणिर्मदागमं चिच्छेदाथ स सप्तधा । 
सम्पीड्यमानो वज्रेण स रुरोदातिदाणम्‌ ।२८॥ 
मा रोदीरिति तं शक्रः पुनः पुनरभाषत । 
सोऽमवत्सप्रधा गभ॑रतमिन्द्रः पितः पुनः ।।३९॥ 
एकेकं सप्ता चक्रे वज्ञेणारित्रिदारिणा । 
मरतो नाम देवास्ते बभूवुरतिवेगिनः ॥४०॥ 
यदुक्त वै भगवता तेनैव मरुतोऽभवन्‌ । 

देवा एकोनपश्वाशत्सदहाया वजपाणिनः ॥४१॥ 


संगमन किया जौर उसने बड़ शीचपूंक रहते हृए 
वह्‌ गभे धारण किया ॥ ३४ ॥ 


उस गभको अपने वधका कारण जान देषराज 


॥ २५ ॥ | इन्द्र भी विनयपूवेक उसकी सेवा करनेके ल्थि भ 


गये ॥२५॥ उसके छौचादिभे कभी को अन्तर षड़े- 
यह देखनेकी इच्छासे इन्द्र बह हर समय उपस्थित 
रहते थे । अन्तम सौ वषमे क्छ ही कमी रहनेपर 
उन्होने एक अन्तर देख ही छिया ॥ ३६ ॥ एक दिन 
दिति बिना चरण-रुद्धि कयि ही अपनी श्चस्यापर छेट 
गयी । उस समय निद्राने उसे धेर छिया । तव इन्द्र 
हाथमे वज छेकर उसको कुक्षिभे घुस गये भौर उस 
महागभेके सात दुकदे कर उषे । इस प्रकार वश्रसे 
पीड़ित नेसे बह गर्भं जोर-जोरसे रोने ठ्गा 
॥ ३७.३८ ॥ इन्द्रने उससे पुनः-पुनः कदा किं (मत 
रोः। किन्तु जब बह गभं सात्त भार्गोमे विभक्तो 
गया,.[ ओर फिर भीन मरा] तो इन्द्रे अत्यन्त 
कुपित हो अपने श्रुविनाञ्क बरसे एक-एकके 
सातःसात टुकड़े ओर कर दिये | वे ही भति वेगवान्‌ 
मरत्‌ नामक देवता हुए ।। ३९.४० ॥ भगवान्‌ इन्द्रने 


| जो उससे का था फि "मा रोदीः" (मत रो ) इस- 


ख्ये वे मरत्‌ कषये । ये उन्‌चास मरुदूगण इन्दर 
के सहायक देवता हए ॥ ४१ ॥ 


"५4 १.८७९.५०० 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽे एकविंशोऽ्यायः ॥२९॥ 





है सुन्दरी ! गर्भिणी स्त्रीको चाहिये कि सायंकालमे भोजन न करे, 


वृक्षोके नीचे न जाय भौरन वह ण्हुरे ही 


तथा लोगोके साय कलह मौर अँगड़ाई छेना छोड़ दे, कभी केव सुखा न रक्ते भौर न अपवित्र ही रहै। 
तथा भागवते भी कहा है--न हिस्यास्सवं मूलानि न शपेन्नानृतं वदेत्‌" इत्यादि । अर्थात्‌ प्राणि्योकी हिसा न 


करे, किसीको भला बुरा न कह भौर कभी कूठ न बोले । 


१२६ 





भ्रीषिष्णुपुराण 


[ अ० २२ 





वासवं अध्याय 
विष्णुभगवानकी विभूति ओर जगत्‌की म्यवस्थाका . वर्णन 


श्रीपराशर उवाच 
यदाभिषिक्तः स पृथुः पूवं राज्ये महर्षिभिः। 
ततः क्रमेण राज्यानि ददौ लोकपितामहः ॥ १ ॥ 
नकषत्रग्रहविप्राणां वीरुधां चाप्यदेषतः । 
सोमं राज्ये दधदुब्रहमा यज्ञानां तपसामपि ॥ २॥ 
राज्ञां वैश्रवणं राज्ये जलानां वरुणं तथा । 
श्मादित्यानां पतिं विष्णुं वघ्नामथ पावकम्‌ ॥ ३॥ 
प्रजापतीनां दक्षं त॒ वासवं मरुतामपि । 
दैत्यानां दानवानां च प्रहादमधिपं ददौ ॥ ४॥ 
पितृणां पर्मराजं तं यमं राज्येऽभ्यषेचयत्‌ । 
रेरावतं गजेन्द्राणामरेषाणां पतिं ददौ ॥ ५॥ 
पतत्रिणां तु गरुडं देवानामपि वासवम्‌ । 
उच्चैःश्रवसमश्वानां वृषभं तु गवामपि ॥ ६॥ 
मृगाणां चेव सर्वेषां राज्ये सिहं ददौ प्रथः । 
शेषं ` तु दन्दशृकानामकरोतखतिमन्ययः ॥ ७ ॥ 
हिमालयं स्थावराणां प्ुनीनां कपिलं युनिम्‌। . 
नखिनां द॑ष्टिणां चेव मृगाणां व्याघ्रमीश्वरम्‌ ॥ ८ । 
वनस्पतीनां राजानं कषक्षमेवाभ्यषेचयत्‌ । 
एवमेवान्यजातीनां प्राधान्येनकरोखभून्‌॥ ९॥ 


एवं पिमज्य राज्यानि दिशां पालाननन्तरम्‌। 
प्रजापतिपतिन्रह्मा स्थापयामास सवेतः ।॥१०॥ 
पूवेस्यां दिशि राजानं वैराजस्य प्रजापतेः । 
दिशापालं सुधन्वानं सुतं वै सोऽभ्यषेचयत्‌ ॥११॥ 
दक्षिणस्यां दिशि तथा कदमस्य प्रजापतेः 

पुत्रं शह्पदं नाम राजानं सोऽभ्यषेचयत्‌ ॥१२॥ 
पश्चिमस्यां दिशि तथा रजसः पुत्रमच्युतम्‌ । 
केतुमन्तं महारमानं राजानं सोऽभ्यषेचयत्‌॥१२॥ 
तथा दिरण्यरोमाणं पजन्यस्य प्रजापतेः 


्रीपराशरजी बोके-पूक्काखमे महर्षियोनि जव 
महाराज प्रथुको राञ्यपद्पर अभिषिक्त किया तो 
रोक-पितामह्‌ श्री्रह्माजीने भी क्रमसे राव्योका 
वेटवारा किया ॥ ९ ॥ ब्रह्माजीने नक्षत्र, ग्रह, बराह्मण 
सम्पूणं वनस्पति ओर यज्ञ तथा तप आदिक राञ्यपर 
चन्द्रमाको नियुक्त किया ॥ २॥ इसी प्रकार विश्रवा- 
के पुत्र कुबेरजीको राजाभोंका, वरुणको जलका, 
विष्णुको आदित्योका ओौर अग्निको वसुगर्णोका 
अधिपति बनाया ॥ ३॥ दश्चको प्रजापतियोंका, इन्द्र 
को मरद्गणका तथा प्रह्वादजीको दैत्य ओर दानर्वो- 
का आधिपत्य दिया ॥ ४॥ पितृगणके राञ्यपद्पर 
धर्मराज यमको अभिषिक्त किया भौर सम्पूणं गज- 
राजञोंका स्वामित्व पेरावत्तको दिया ॥ ५ ॥ गरुड़को 
पक्षियोका, इन्द्रको देवताओंका, उच्चैःश्रवाको 
धोका ओर वृषभको गौजँका अधिपति बनाया 
॥ ६ ॥ प्रमु ब्रह्माजीने समस्त शरगों ( वन्यपञ्ुभ ) 
का राज्य सिंहको दिया ओर सर्पोका स्वामी रोष- 
नागको बनाया ॥ ७ ॥ स्थावर्रोका स्वामी हिमाख्य- 
को, सुनिजनोका कपिष्देवजीको ओर नख तथा 
दाद्बाे मृगगणका राजा व्याघ्र ( बाघ ) को बनाया 
॥ ८॥ तथ। सक्च ( पाक्‌ ) को बनस्पतियोंका राजा 
किया } इसी प्रकार ब्रह्माजीने भौर-भौर जातियोके 
प्राधान्यकी भी व्यवस्था की ॥९॥ 


हसं प्रकार राथ्योका विभाग करनेके अनन्तर 
प्रजापतियोके स्वामी ब्रह्माजीने सव ओर दिक्पारछो- 
को स्थापना की ॥ १० ॥ उन्होने पूव-दिश्मे बैराज 
प्रज्ञापतिके पुत्र राजा युधन्वाको दिक्पाल्पद्पर 
अभिषिक्त किया ॥ १९ ॥ तथा दक्षिण-दिश्ामें कदेम 
प्रजापतिके पुत्र राजा शंखपदकी नियुक्ति की ॥ १२॥ 
कभी च्युत न होनेबाे रजसपुत्र महात्मा केतुमान्‌ 
को उन्होने पञथ्चिम-दिञ्चामे स्थापित किया ।॥ १३॥ 
जर पजन्य प्रजापतिके पुत्र अति दुद्धेषं सजा हिरण्य- 


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भयोभय णाय 





तैरियं परथिवी सर्वा सप्षद्रीपा सपत्तना । 
यथाप्रदेशमद्यापि धर्मतः परिपाल्यते ॥१५॥ 


एते स रृत्तस्य स्थितो विष्णोमेहातमनः । 
विभुतिभूता राजानो ये चान्ये ुनिसत्तम ॥१६॥ 
ये भविष्यन्ति ये भूताः सवे भूतेश्वरा द्विज। 

ते सर्वे सवंभूतस्य विष्णोरंशा द्विजोत्तम ॥१७॥ 
येतु देबाधिपतयो येच दैत्याधिपस्तथा | 
दानवानां चये नाथा ये नाथाः पिरहितारिनाम्‌॥ 
पशनां ये च पतयः पतयो ये च पक्षिणाम्‌ । ` 
मनष्याणां च सर्पाणां नागानामधिपाथये।१९॥ 
वृक्षाणां पवतानां च ग्रहाणां चापि येऽधिषाः। 
द्मतीता वर्तमानाश्च ये भविष्यन्ति चापरे । ` 

ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशसथुद्धवाः ॥२०॥ 
न हि पालनसामथ्य॑सृते सर्वेश्वरं हरिम्‌ । ` 
स्थितं स्थितो महाप्राज्ञ भवत्यन्यस्य कस्यचित्‌ २१ 
सुजत्येष जगत्सृष्टौ स्थितौ पाति सनातनः । ". 
हन्ति चैवान्तकत्वेन रजःसखीदिसं्रयः | 
चतुविभागः संसृष्टौ चतुर्था संस्थितः स्थितौ । 
परय च करोत्यन्ते चतुभैदो जनार्दनः ॥२३॥ 
- एकेनांशेन ब्रह्मासो मवत्यव्यक्तमृत्तिमान्‌। 
मरीचिमिश्राः पतयः प्रजानां चान्यभागशः। २४॥ 
कारस्दृतीयस्तस्यांश्चः सवेभूतानि चापरः । 
स्थं चतुर्था संसृष्टौ बत्ततेऽसो रजोगुणः ॥२५॥ 
एकांरोनास्थितो विष्णु; करोति प्रतिपालनम्‌ । 


मन्वादिरूपथान्येन काछसूपोऽपरेण च।२६॥ 


सर्वभूतेषु चान्येन संस्थितः कुरते स्थितिम्‌ । 


आभस्य तमसो वृत्तिमन्तकारे तथा पुनः 


[क ) 


द्रसवरूपो भगवानेकांेन॒भवत्यजः ।॥२८॥ 
अश्तयन्तकादिरूपेण भगेनान्थेन वत्ते । . 
कालस्रूपे भागो यस्सवंभूतानि चापरः॥२९॥ 





वे आजतक सात दीप ओर अनेकों नगसयोसे युक्त इसं 
सस्मूणं परथज्रीका अपने-अयने विभागाजुसार घमं. 
पूर्वक पालन करते दँ ॥ १५॥ | 


हे मुनिसन्तम ! ये तथा अन्य भी जो सम्पूणे 
राजारोग है बे सभी विश्वके पाठने प्रवृत्त परमातमा. 
शरीविष्णुभगवान्‌ॐे विभूतिरूपम दै ॥१६॥ दे. 
द्विजोत्तम ! जो-जौ भूताधिपति पहरेहोग्ये है ओौर 
जो-जो अगे होगेवे सभी सवभूत भगवान्‌ विष्णुके 
अंश है ॥ १७॥ जो-जो भो देवताओं, दैव्यो, दानवो, 
भौर सांसमोजि्योके अधिपति है, जो-जो पश्ुञो, 
पक्षियों, मनुष्यो, सर्पो ओर नागोके .अधिनायक है, 
जो-जो वृक्षो, पवेतों ओौर अरहोके स्वामी है तथा ओर 
भी भूत, भविष्यत्‌ एवं बतेमानकारीन ' जितने - 
भूकर है वे सभी सवभूत भगव न्‌ विष्णु अंशञसे 
उत्पन्न हए है ॥ १८-२० ॥ दे महाप्राज्ञः! सृष्टिक 
पाठन-काय प्रबृत्त सव्र प्रीहरिको छोड़कर ओर . 
किसी मी पान करनेको सक्ति नही द ।॥ २१॥ 
रजः ओौर सत्त्वादि गुणोके आश्रयसे वे सनातन 
प्रमु हौ जगत्की स्चनाके समय रचना करते 
स्थितिकै समय पान करते दै ओर अन्तसमयमे 


| कालरूपसे संहार करते दै ।। २२॥ 


वे जनादन चार त्रिभागे ट ओर चार्‌" 
बिभागसे ह स्थितिकै समय रहते है तथा चार रूपः. 
धारण करके ही अन्तम प्रख्य करते है॥ २३॥ वें 


` |. अन्यक्त स्वरूप भगवान्‌ अपने एक अंसे ब्रह्मा होते 


है, दूसरे अंशसे मरीचि भादि प्रजापति होते हैः, 


: | उनका तीसरा अंस काल है ओर चौथा सम्पूणं प्राणी ।८ 


इस प्रकार वे रजोगुणविरिष्ट होकर चार प्रकारस, 


| सकि समय स्थित होते दै ॥ २४-२५॥ किर वे, 


पुरुषो त्तम सससवशुणका आश्रयं लेकर जगत स्थितिं 
करते दैः। उस समय वे एक अंरासे. विष्णु होकरः 


- | पालन करते ह दूरे अंशस मल आदि होते. दै- 
सच्चं गुणं समाभरित्य जगतः परुपोत्तमः ॥२७॥। | 
` | स्थित होते दै ॥ २६-२७।। तथा अन्त॑काल्मे वे 


तथा तीसरे अंशञसे कार ओर चौयेसे सवंभूतोम. 


अजन्मा भगवान्‌ तमोगुणकी वृत्तिका आश्रयः 
एक अंसे सद्रूप, दुसरे भागसे अग्नि ओर अन्त 
कादिरूप, तीसरेसे कालरूप भौर चौयेसे सम्पूणे 
शूतस्वरूप'हो जाते ह ॥ २८-२९॥ हे ब्रहान्‌ † 


१२८ 
______ _ 
विनां तस्तस्य चतुव महात्मनः । 
0 
विभागकल्पना ब्रह्मन्‌ कथ्यते सावकालिकी ॥३०॥ 
ब्रह्मा दक्षादयः कारुस्तथेवाखिरजन्तवः । , 


बह्मा दा" ` -------- 
विभूतयो दरेरेता जगतः चुिदतवः ॥ ९. हरेरेता जगतः सृष्टिहेतवः ॥२१॥ 
विष्ुमन्वादयः कारः सर्वभूतानि चद्विन। 


----- 


ह्तेनिमिमु तसय विष्णोरेता विभूतयः ॥२२॥ 
स्थितिना _ _ म 
सद्र; कारान्तकाधाञ् समस्तार्चैव जन्तवः । 
-------------------- 
चतुर्था प्र्यायेता जनादनविभूतयः ॥२२॥ 
चतुधा खवाचि ^ 


जगदादौ तथा मध्ये चृष्टिरप्ररयाद्‌ दिन । 
भात्रा मरीविमिशरध क्रियते जन्दुमिस्तथा ३४] 
ब्रह्म सूजत्यादिकारे मरीचिगप्रग्ुखास्ततः । 
उत्पादयन्स्यपत्यानि जन्तव प्रतिक्षणम्‌ ॥ २५॥ 
कालेन न विना ब्रह्मा सुष्टिनिष्पादको द्विज । 

न प्रजापतयः स्वे न चेवाखिरजन्तवः ॥२६॥ 
एवमेव विभागोऽयं स्थितावप्युपदिश्यते । 
चतुर्धा तस्य देवस्य मैत्रेय प्रह्ये तथा ॥३७॥ 
यत्किशवित्सुज्यते येन स्वजातेन वै दविज । 

तस्य सुज्यस्य सम्भूतौ तत्सवं वै हरेस्तनुः॥३८। 
हन्ति यावच्च यक्किशचित्सच स्थावरजङ्गमम्‌ । 
जनार्दनस्य तद्द्र तैत्ेयान्तकरं बुः ॥३९॥ 
एवमेव जगत्खश्टा जगत्पाता तथा जगत्‌ । 
लंगद्भक्षयिता देवः समस्तस्य जनादन! ॥४०॥ 
सृष्िस्थित्य न्तकारेषु त्िधैवं सम्प्रवतेते । 
गुणप्रृर्या परमं पदं तस्यागुणं महत्‌ ॥४१। 
तच्च ज्ञानमयं व्यापि स्वसंवेयमनौपमम्‌ । 


भ्रीपिष्णुपुराण 











“=>  ------- 


विनाश कस्नेके क्तियि उन महारमाकौ यह 
चार प्रकारकी सा्वंकालिक विमागकल्पना कही 
जाती ह ॥ ३० ॥ ब्रह्मा, दक्ष आदि भ्रजापतिगणः 
काल तथा समस्त प्राणी-ये श्रीदरिकी विभूति 
जगतकी सृष्टिक कारण दै ॥ ३१॥ द द्विज ! विष्णुः 
मन आदि, काढ ओर समस्त भूतगण-ये जगत्कौ 
स्थितिके कारणरूप मगवान्‌ विष्णुकौ विभूतिर्यौ दै 
॥ ३२ ॥ तथा रद्र, काक अन्तादि भौर सकल 
जीव श्रीजनादेनकी ये चार विभूति प्रर्यकौ 
कारणरूप दै ॥ ३३॥ ` 


हे द्विज ! जगतके आदि ओर मध्यमे तथा 
परक्यपर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथाभिन्न- 
भिन्न जीवोसे दही सषि हमा करती है ॥ ३४॥ सष 
के आरम्भे पे ब्रह्माजी रचना करते दै, फिर 
मसेचि आदि प्रजापतिगण ओर तदनन्तर समस्त 
जीव क्षण-क्षणभे सन्तान उत्पन्न करते रहते है 
॥ ३५ ॥ दे हिज ! कालके बिन ब्रह्मा, प्रजापति एवं 
अन्य समस्त प्राणी मी सष्टि-र्चना नहीं कर सक्ते, 
अतः भगवान्‌ काठरूप विष्णु ही सवेदा सष्टिके 
कारण ह] ॥ ३६ ॥ हे मैत्रेय ! इसी प्रकार जगतकौ 
स्थिति ओौर प्रख्यमे मी उन देवदेवके चार-चार 
विभाग बताये जाते दै । ३७॥ हे द्विज ¦ जिस 
किसी जीवद्वारा जो कु भी स्चनाकी जातीहे 
उस उत्पन्न हुए जीवक उत्पत्ति सवथा श्रीदरिका 
शरीर द्यी कारण है ॥ ३८ ॥ हे मैत्रेय ! इसी प्रकार 
जो कोई स्थावरजंगम भूतोमैसे किसीको नष्ट करता 
है, बह नाश्च करनेवाला मी श्रीजनादेनका अन्त- 
कारक सीद्ररूप ह &।। ३९ ॥ इस प्रकार वे जनादंन- 
देव ही समस्त संसारके रचयिता, पालनकत्ता भौर 
संहारक ह तथावे ही स्वयं जगत्-खूप भी दै 
॥ ४०५ ॥ जगत्‌की उस्पत्ति, स्थिति भौर अन्तके 
समय वे इसी प्रकार तीनों गुणोकी प्रेरणासे अचरत्त 
होते दहै, तथापि उनका परमपद महान्‌ निरांण है 


॥ ४१९ ॥ परमारमाका बह स्वरूप ज्ञानमयः व्यापक; 
स्वसं द्य आर अतपम है तथा बह भी चारप्रकार 


अ० २२] 


प्रथम्‌ अद 


पाापावक1ििाााियानिि 


१२९ 








श्रीमैत्रेय उवाच 
चतुःप्रकारतां तस्य ब्रह्मभूतस्य हे मुने । 
ममाचक्ष्व यथान्यायं यदुक्तं परमं पदम्‌ ॥४३॥ 
श्रीपराशर उवाच 
मैत्रेय कारणं प्रोक्तं साधनं शर्ववस्तुषु । 
साध्यं च वस्त्वभिमतं यस्साधयितुमात्मनः।४४॥ 
योगिनो सक्तिकामस्य प्राणायामादिसाधनम्‌। 
साध्यं च परमं ब्रहम पुनर्नावतंते यतः ॥४५॥ 
साधनारम्बनं जञानं युक्ते योगिनां हि यत्‌। 
स भेदः प्रथमस्तस्य ब्रह्मभूतस्य वै पुने ॥४६॥ 
युञ्खतः क्लेशयुक्स्यथं साध्यं यदुव्रह्मयोगिनः । 
तदालम्बनविज्ञानं द्वितीर्योऽशो महाघने ॥४७॥ 
उभयोस्तवविभागेन साध्यसाधनयो यत्‌ । 
विज्ञानमदेतमयं तद्धागोऽन्यो मयोदितः ॥४८॥ 
जानत्रयस्य वै तस्य विरोपो यो महाघ्रुने । 
तन्निराकरणद्वारा 
निर्व्यापारमनास्येयं व्याप्निमात्रमनूपमम्‌ । 
द्मात्मसम्बोधविषयं सत्तामात्रमलक्षणम्‌ ॥५०॥ 
प्रशान्तमभयं शुद्धं दुर्विभाव्यमसश्रयम्‌ | 


दरितात्सस्वरूपवत्‌ ॥४९॥ 


विष्णोर्ञानमयस्योक्तं तज्ज्ञानं ब्रहमसंितम्‌ ॥५१ । 
तत्र ज्ञाननिरोधेन योगिनो यान्ति ये छयम्‌। 
संसारकरपणप्तो ते यान्ति निषजतां द्विज ॥५२॥ 
एवंप्रकारममलं नित्य॒ व्यापकमक्षयम्‌ | 
समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम्‌ ॥५२॥ 
तद्ज्रह् परमं योगी यतो नावतेते पुनः । 





्रयत्यपुण्योप्रमे क्षीणक्लेशोऽतिनि्मलः ॥५४॥ 





---((-(----------------------------------------- 


एत्‌ 








3 


भीमेत्रेयजी बोले-हे सुने ! आपने जो भगवान्‌- 
का परमपद्‌ कहा, वह चार प्रकारका कैसे है १ यह 
आप सन्ने विधिपू्ंक किये ॥। ४३॥ 


श्रौपराशरजी बोरे-दे मेत्रेय ! सब वस्तुभौ- 
काजोकारण होता है वही उनका साधन भौ कहा 
गया है ओर जिस अपनी अभिमत वस्तुक सिद्धि 
की जाती है बही साध्य कहछाप्ती है ४४ ॥ युक्ति 
की इच्छाबाले योगिजनोके खयि प्राभायाम आदि 
साधन हैँ ओर परब्रह्म ही साध्य दै, जर्हसि फिर 
खौटना नहीं पडता ॥ ४५॥ हे मुने ! जो योगीकी 
मुक्तिका कारण है, बह (साधनादम्बन ज्ञान' ही उस 
ब्रह्मभूत परमपदका प्रथम सेद देकः ।। ४६ ॥ कटे 
बन्धनसे मुक्त होनेके लिय योगाभ्यासी योगीका 
साध्यूप जो ब्रह्म है, हे माने ! उसका ज्ञान ही 
'आरस्बन-विज्ञानः नामक दूसरा भेद है ॥ ४७॥ 
इन दोनों साध्य-साधनोंका अभेदपूर्वक जो अद्रेत- 
मयज्ञानः है, उसौको मैने तीसरा भेद कदा ह 
॥ ४८ ॥ ओौर हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकारके 
ज्ञानक बिरोषताका निराकरण करनेपर असुभव हए 
आरस्वरूपके समान ज्ञानस्वरूप मगवान्‌ विष्णुका 
जो निव्यौपार, अनि्व॑चनीय, उ्याप्चिमात्र) भतुपम, 
आत्मबोधस्वरूप, सत्तामाच्र, अखक्षण, शान्त) 
अभय, ञुद्ध, भावनातीत जओौर आश्रयहीन रूप है, 
बह श्रमः नामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद ] दै 
॥| ४९-५१ ॥ हे द्विज ! जो यो गिजन अन्य ज्ञानोका 
निरोधकर इस ( चौथे भेद) म हीढीन हो जाते 
हवे इस संसारकषेत्रके भीतर बीजारोपणरूप कमं 
करनेमे निर्बीज ( बासनारदित ) होते है । [ अथौत्‌ 
वे छोकसंम्रहके स्यि कमं करते मी रहतेदैतोभी 
उन्दः उन कर्मोका कों पाप-पुण्यरूप फट प्राप्त नहीं 
होता ]॥ ५२॥ इस प्रकारका वह निमे, निस्य, 
म्यापक, अक्षय ओर समस्त देय गुणोसे रहित 
विष्णु नामक परमपद है ॥ ५३ ॥ पुण्य-पापका क्षय 
ओौर क्ेशोको निचरृत्ति दोनेपर जो अस्यन्त निमेल 
हो जाता है बही योगी उस परन्रह्मका आश्रय छेता 
है जर्हसे बह र नदीं छौटता ॥ ५४ ॥ 


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क कव, स 


१३० 


श्रीविष्णुपुराण 


[ अ० २२ 








दे स्पे ब्रह्मणस्तस्य भूतं चामूर्तमेव च । 





क्षराक्षरस्वरूपे ते स्वंभूतेष्ववस्थिते ।५५॥ 
ग्रक्षरं तत्परं बरह्म क्षरं स्व॑मिद्‌ जगत्‌ । 





एकदेश स्थितस्याग्नेज्यात्स्ना विस्तारिणी यथा| 








परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तथेदमखिलं जगत्‌ ॥५६॥ 





तत्राप्यासन्नद्रस्वादुबहुरवस्वल्यतामयः । 
ज्योर्स्नाभेदोऽस्ति तच्छक्तसतद्वन्मत्रेय वि्यते।५७ 
ब्रह्मविष्णुशिवा बरह्मन्प्रधाना त्रह्मश्क्तयः । 
ततश्च देवा मत्रेय न्यूना दक्षादयस्ततः ।॥५८॥ 
ततो मनुष्याः पशवो सगपक्षिसरीयृषाः । 
न्यूनान्यूनतराश्च ब वृक्षगुल्मादयस्तथा ॥५९॥ 
तदेतदक्षरं निस्यं जगन्धुनिवराखिलम्‌ । 
आविर्भावतिरोभावजन्मनारविकल्पवत्‌ ॥६०॥ 
सर्वशक्तिमयो विष्णुः सरूपं ब्रह्मणः परम्‌ । 
मूतं यद्योगिभि; पूव योगारम्भेषु चिन्त्यते।।६१॥ 








साह्म्बनो महायोगः सबीजो यत्र संस्थितः | 
मनस्यव्याहूते सम्यग्युञ्चतां जायते यने ।६२॥ 
स परः परशक्तीनां ब्रह्मणः समनन्तरम्‌ । 


मूतं बह्म महाभाग सर्व्॑रहममयो हरिः ॥६३॥ 








तत्र सवेमिदं प्रोतमोतं चैवाखिलं जगत्‌ 





ततो जगजगत्स्मिन्स जगचाखिटः रुने ॥६४॥ 
षराक्षरमयो विष्णुविंभग्यंखिलमीश्वरः । 
पुरुषाग्याकृतमयं भूषणासस्वरूपवत्‌ ॥६५॥ 





श्रीभेत्रेय उवाच 
भूषणास्रस्वरूपस्थं यच्ेतदखिलं जगत्‌ | 


(< = ¢ | | क „ ९6 





खस ब्रह्मे मूतं ओर अमृतं दोरूपदै,जो 
क्षर आओौर अक्षररूपसे समस्त प्राणियोँमे स्थित 
॥। ५५ ॥ अक्षर ही वह्‌ परन्रह्म दै ओौर क्षर सम्पूणं 
जगत्‌ है । जिस प्रकार एकदेञ्चीय अग्निका प्रकाश 
सवत्र फैला रहता है उसी प्रकार यद्‌ सम्पूणं 
जगत्‌ परन्रह्मकी ही शक्ति है ॥ ५६ ॥ हे सेत्रेय ! 
अग्निकी निकटता ओर दुरताके मेदसे जिस प्रकार 
दसके प्रकाराभे मी अधिकता ओर न्यूनताका भेद्‌ 
रहता दै चसौ प्रकार ब्रह्मी शक्तिम भी तारतम्य 
है ॥ ५७॥ हे ब्रह्मन्‌ ! ब्रह्मा, विष्णु ओर शिव 
ब्ह्मकी प्रधान रशाक्ति्यौ ह, उससे न्यून देवगण 
ह तथा उनके अनन्तर दश्च आदि प्रजापतिगण है 
1} ५८ 1। खनसे भी न्यून मनुष्य, पश्यः पक्षी, मृग 
ओर सरीखपादि द तथा उनसे भी अत्यन्त न्यून 
यष, गुल्म ओौर कता आदि द ॥५९॥ अतह 
मुनिवर ! आविभीव ८ उत्पन्न होना ), तिरोभाव 
( छिप जाना ), जन्म आर नाश्च आदि विकल्पयुक्त 
भी यह्‌ सम्पूणे जगत्‌ वास्तबमे नित्य ओौर अक्षय 
हीह 1६० ॥ 

सवेशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्मे प्रस्वरूप तथा 
मूतेरूप द जिनका योगिजन योगारम्भक्े पूवं चिन्तन 
करते ह| ६१॥ हे यने! जिनमें मनको सम्यक्‌ 
प्रकारसे निरन्तर एकाग्र करनेबाखोंको जरम्बनयुक्त 


 सबीज ( सम्ध्रज्ञात ) महायोगको प्राप्नि होती है, 


हे महाभाग ! बे स्वत्रह्ममय श्रोविष्णुभगवान्‌ 
समस्त परशक्तियोमे प्रधान ओर ब्रह्यके अत्यन्त 
निकट वर्तीं मूतं ब्रह्मस्वरूप द ॥ ६२-६२॥ हे सुने ! 
दन्दीमे यह सम्पूणं जगत्‌ ओतप्रोत है, इन्दीसे यह 
दपर हभा हे, उन्हींमे स्थित दै ओर स्वयंवेहौ 
समस्त जगत्‌ दँ ॥ ६ ॥ क्षराक्चरमय ( काये- 
कारणरूप ) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुषप्रकृतिमय 
सम्पूणं जगत्‌को अपने भाभुषण ओर आयुधरूपसे 
धारण करते ह ।॥। ६५ ॥ 

मैत्रेयी बोले--भगवान्‌ बिष्णु इस संसारको 
भूषण ओौर भायुधरूपसे किस प्रकार धारण करते 


०२२ ९०{२.१ 2०६५८ ते 


प्रम अज्ञ 


१३१ 





श्रौपराश्चर उवाच ° 


नमस्छत्याप्रमेयाय विष्णवे प्रभविष्णवे । 
कथयामि यथाख्यातं वसिष्ठेन ममामवत्‌ ॥६५७॥ 
आत्मानमस्य जगतो निरछेपमगुणामलम्‌ । 
विभक्ति कौस्तुममणिखरूपं मगवान्हरिः ॥६८॥ 
भ्रीवत्ससस्थानधरमनन्तेन समाधिम्‌ । 
प्रधानं बुद्विरप्यास्ते गदारूपेण माधवे ॥६९॥ 
भूतादिमिन्द्रियादिं च दविधाहङ्कारमीश्वरः । 
चिमन्ति शङ्खरूपेण शञाङगरूपेण च स्थितम्‌ ॥७०॥ 
चहत्स्रूपमस्यन्तं जवेनान्तरितानिलम्‌ । 
चक्रस्वरूपं च मनो धत्ते षिष्णुकरे स्थितम्‌ ॥७१॥ 
पश्चरूपा तु या माला वैजयन्ती गदाभृतः । 

सा भूतहेतुसङ्काता भूतमाछा च वैँ द्विज ॥७२॥ 
यानीद्धियाण्यकेषाणि वुद्धिकर्मात्मकानिवै। 
शररूपाण्यदेषाणि तानि धत्ते जनादनः ॥७३॥ 
मिभत्ति यचापिरत्नमच्छुतोऽस्यन्तनिमंलम्‌। 
विद्यामयं तु तञ्ज्ञानमविद्याकोशसंस्थितम्‌॥७४॥ 
इत्थं पुमान्प्रथानं च बुद्धथदङ्कारमेव च । 
भूतानि च हृषीकेशे मनः सर्वेन्द्रियाणि च। 
विद्याविदे च ततरेय सर्॑मेतत्समाभितम्‌ ॥७५॥ 
अस्भूषणसस्थानस्वरूपं रूपवजितः । 
विभति मायारूपोऽसौ श्रेयसे प्राणिनां हरिः ॥७६॥ 
सविकारं प्रभानं च पमांसमखिलं जगत्‌ । 
बिभत्ति पुण्डरीकाक्षस्तदेवं परमेश्वरः ॥७७॥ 
या विद्याया तथाविद्या यत्स्यचासदन्ययम्‌। 


तत्सवं सर्वभूतेशे मैत्रय॒मधुद्रदने ॥७८॥ 


कराकाष्ठानिपरेषादिदिनतवयनहायनेः । 
कालस्वरूपो मगवानपापो हरिरव्ययः ।७९॥ 


भूरोकोऽथ शुवरछोकः स्वरोको मुनिसत्तम । 








श्रीपराश्चरजी बोरे--हे मुने ! जगत्‌का पाछन 
करनेवाटे अप्रमेय श्रीविष्णुभगवान्‌को नमस्कार कर 
अवर, जिस प्रकार वसिष्ठजीने भुक्चसे कहाथा 
वष्ट तुम्दः सुनाता ह \। ६७ ॥ इस जगत्‌के निरुप 
तथा निशण भौर निम आत्माको अथौत्‌ शुद्ध 
शषेन्ज्ञ-स्वरूपको श्रीहरि कौस्तुभमणिरूपसे धारण 
करते है ।॥ ६८॥ श्रीअनृन्तने प्रधानक श्रौवस्सरूपसे 
आश्रय दिया है ओर बुद्धि श्रीमाधवकी गदारूपसे 
स्थितदहै।) ६९॥ भूतोके कारण तामस अषकार 
ओर इन्द्रियोके कारण राजस अहंकार इन दोनोंको 
वे शङ्क ओर शाङ्ग धनुषरूपसे धारण करते दै 
॥ ७० ।} अपने वेगसे पबनको भी पराजित करनेबाला 
अव्यन्त चश्चल, सास्त्िक अह्‌काररूप मन धरीविष्णु- 
भगवान्‌के कर-कमशोमे स्थित चक्रका रूप धारण 
करता है 1 ७१॥ हे द्विज ! भगवान्‌ गदाधरकी 
जो [ युक्ता, माणिक्य) मरकत, इन्द्रनील ओर 
हीरकमयी ] पद्चरूपा वैजयन्ती माला है बह 
पश्चतन्मात्राओं जौर पञ्चभूतोका हौ संघात ह 
॥ ७२ ॥ जो ज्ञान ओर कमेमयी इन्दिर्यौँ दै उन 
सबको श्रीजनार्दन मगवान्‌ बाणरूपसे धारण करते 
है ।। ७६३॥ भगवान्‌ अच्युत जो अत्यन्त निमंल 
खड्ग धारण करते ह बह अविद्यामय कोश्षसे 
आच्छादित विद्यामयज्ञान ही है! ७४ 1 हे मैत्रेय ! 
इस प्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहकार, पच्छभूतः 
मन, इन्द्रिय तथा विद्या ओर अविद्या सभी 
श्रीहषीकेशमे आश्रित हं ॥ ७५॥। श्रीहरि रूपरहित 
होकर मौ मायामयरूपसे प्राणियोके कल्याणके छ्य 
इन सबको अश ओौर भूषणरूपसे धारण करते दै 
॥ ७६॥ इस प्रकार वे कमलनयन परमेश्वर 
सविकार प्रधान [ निर्विकार ] पुरुष तथा सम्पूणं 
जगतृको धारण करते दै ॥७७॥ जो कुछ मौ 
बिद्या-अविद्या, सत-असत्‌ तथा अन्ययद्प दै, दे 
मैत्रेय ! बह सब सवंभूतेश्वर श्रीमघुसूदनमें हौ स्थित 
है ॥ ७८ । कला, काष्ठा, निमेष, दिनः ऋतु, अयन 
सौर वरपसे वे कारस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि 
हयो विराजमान दै ॥ ५९ ॥ 

हे य॒निश्रष्ठ ! मूर््ोक, अवर्छोक भौर स्वलोक 
त्था गह न तपर ओर सत्य आदि सातां 


१३२ 


भ्रीविष्णुपुराण 


 अ० २२ 








लोकार्ममूतिः सर्वेषां पूर्वेपामपि पूवज: 
धारः सवं विद्यानां स्वयमेव हरिः स्थितः॥८१॥ 
देवमातुषपश्वादिसवस्यैबहुभिः स्थितः 
तततः सर्वशवरोऽनन्तो भूतमूर्तिरमूतिमान्‌ ॥८२॥ 
ऋचो यजंषि सामानि तथैवाथवणानि वै । 
इतिहासोपवेदाश्च वेदान्तेषु तथोक्तयः ॥८२॥ 
वेदाङ्गानि समस्तानि मन्वादिगदितानि च। 
शाखाण्यश्ेषाण्याख्यानान्यनुवाकाश्च ये कचित्‌८४ 
काव्याङापाश्चये केचिदूगीतकान्यविलानि च| 
रब्दमूर्तिधरस्यैतद्पुविष्णोमंहात्मनः ॥८५॥ 
यानि मूर्तान्यमुर्तानि यान्यत्रान्यत्र बा कचित्‌। 
ससित वै बस्तुजातानि तानि सर्वाणि तद्रपुः।८६॥ 
अहं हरिः सचंमिदं जनादनो 
नान्यत्ततः कारणकीर्यजातम्‌ । 
दैदड्मनो यस्य न तस्य भूयो 
भयोद्धवा दन्दगदा भवन्ति ॥८७॥ 
इत्येष तंऽदाः प्रथमः पुराणस्यास्य रै दिन । 


यथावत्कथितो यस्मिञ्चुते पपिः प्रषुच्यते ॥८८॥ 
कार्तिक्यां पुष्करस्नाने दादशचाब्देन यत्फलम्‌। 
तदस्य श्रवणात्सवं भैत्रेयाभोति मानवः ॥८९॥ 
देवपिंपितृगन्धवेयक्षादीनां च सम्भवम्‌ । 
भवन्ति श्यण्वतः पुंसो देवाद्या वरदा भने ।॥॥९०॥ 





सभी पूवंजोके पूर्वज तथा समस्त विद्याओंके आधार 
श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूपसे स्थित है ॥ ८१॥ 
निराकार ओौर सवंश्चर श्रीअनन्त ही भूतस्वरूप 
होकर देव, मनुष्य ओर पञ्ु आदि नानारूपोंसे सित 
ह ॥ ८२॥ क्‌, यजुः, साम ओौर अथववेद, 
इतिहास ( महामारतादि ), उपवेद ( आयुवंदादि ), 
वेदान्तबाक्य, समस्त वेदाङ्ग, मनु आदि कथित 
समस्त धर्म॑श्ञाख्, पुराणादि सकल शाख, आख्यान, 
अनुवाक ( कल्पसूत्र ) तथा समस्त काम्य-चचाँ 
ओर राग-रागिनी आदि जोङ्छ भीर वे सब 
शब्दमूर्िधारी परमात्मा विष्णुका ही शरीर है 
। ८३-८५॥ इस लोकमे अथवा कहीं भौर मी 
जितने मूत, अमूत पदाथं है वे सन उन्दरीका शरीर 
हे ।॥ ८६ ॥ शै तथा यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ जनादेन 
श्रीहरि ही है; उनसे भिन्न जौर छु मी काय. 
कारणादि नदीं है-जिसके चित्तम ेसी भावना 
है इसे फिर देहजन्य राष-देषादि हन्द्ररूप सोगकौ 
प्राप्ति नदीं होती ॥ <७ ॥ 

हे द्विज } इस प्रकार तुमसे इस पुराणके पटे 
अंश्चका यथावत्‌ वणेन किया, दसका श्रवण करनेसे 
मनुष्य समस्त पापोसे यक्त हौ जाता हे ।॥ ८८॥ 
हे मैत्रेय} बारह व्ष॑तक कार्तिकं मासम पुष्करः 
क्षेमे स्नान करनेसे जो फल होता है, बह सब 
मलष्यको इसके श्रवणमात्रसे मिल जाता है॥ ८९॥ 
हे स॒ने ! देव, ऋषि, गन्धव, पितर ओर यक्ष आदिकौ 
खसपन्तिका श्रवण करलेवारे पुरुषको वे देवादि 
वरदायक दो जाति है ॥ ९० ॥ 


न्््कीवयीन क 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽदो दर्विशञोऽध्यायः ॥ २२॥ 
इति श्रीपराशरथुनिषिरचिते श्रीषिष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णु- 
मरहापराणे प्रथमोऽशः समापन; | 


॥ 

(४ प) 

८8 
५ < 


श्रीषिष्णुपुराण 


=---+~-क-+ --- 


वितींय अष 











स्त्य सव्यातीतमसत्यं सदसन्तं शुद्धं बुद्धं सुकरूमलक्तं पिधिसुक्तम्‌ । 
सर्वं सर्वासर्वसुदूरं खखसान्द्रं बन्दे विष्णुं सवेसदायं छरसेन्यम्‌ ॥ 





स्फ़ारास्तीर्ण 5 (ज ^= या 


स गदततत स. 1 = टस कौ मोर 4 ` ५11 
न्धजीवङ्क, ८11६६ म रमेरन्‌ =1 < ९४8 / 
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१ 


भरत ओर सौवीरनरेशका संबाद 


५९४, 


५ 


श्रीमन्नारायणाय नमः 
श्रीविष्णुपुराण 


त्ितीय अप्र 


+न 


पहला अध्याय 


धरियत्रतके वंशकरा वर्णन 


` श्रीमैत्रेय उबाच ` 

[गवन्सम्यगारू्यातं ममैतदखिलं तरया } 
[गतः सरगसम्बन्धि यसष्टोऽसि गुरो मया ॥ १॥ 
१5 यमजो जगत्छुष्टिसम्बन्धो गदितस्त्वया। 
त्राहं श्रोतुमिच्छामि भूयोऽपि मुनिसत्तम | २॥ 
परयवतोत्तानपादो सुतौ स्वायम्थुवस्य यौ । 
[योरुत्तानपादस्य ध्रुवः पुत्रस्त्रयोदितः ॥ २॥ 
रेथवतस्यनैवोक्ता भवता द्विज सन्ततिः। 
महं श्रोतुमिच्छामि ग्रसनो वक्तुमरसि ॥ ४॥ 


श्रीपराशर उवाच 


ह्दमस्यासजां कन्याग्ुपयेमे प्रियव्रतः । 
पराद्‌ कुक्षिश्च तत्कन्ये दश्ञुत्रास्तथाषरे ॥ ५॥ 
पहाप्रज्ञा महावीय विनीता दयिताः पितुः । 
प्रेयव्रतसुताः ख्यातास्तेषां नामानि मे शृणु ॥ &॥ 
आग्नीध्रशराग्निवाहु वपुष्मान््युतिमांस्तथा | 

सेधा मेधातिथिमैन्यः सवनः पुत्र एव च | ७॥ 
ज्योतिष्मा्दक्ञमस्तेषां सत्यनामा सुतोऽमवत्‌। 
प्रियत्रतस्य पुत्रास्ते प्रख्याता बहीयंतः | ८ ॥ 
मेधाग्निबाहुपुत्रास्तु त्रयो योगपरायणाः । 
जातिस्मरा महाभागा न राज्याय मनो दधुः ॥ ९॥ 


भीमैेयजी बोले-हे भगवन्‌ | है गुरो ! मैने 
जगत्को खष्टके विषयमे भापसे जो कुछ पुषा था 
वह सव आपने युञ्चसे भली प्रकार कह दिया ॥ १॥ 
हे यनिश्र्ठ ! जगती सृष्टिसम्बन्धी आपने जो यह्‌ 
प्रथम अंज कदा है, उसकी एक वात मै ओौर सुनना 
चाहता दं ॥ २॥ स्वायम्भुक्मयुके जो प्रियव्रत आर 
उत्तानपाद दो पुत्र थे, नमसे उत्तानपादङे पुत्र 
ध्रुवके विषयमे तो जपने कहा ॥ ३॥ किन्तु, है 
द्विज { आपने प्रियत्रतकी सन्तानके विषयमे कुछ 
भी नदीं कहा, अतः मै उसका वणेन सुनना चाहता 
ह सो आप प्रसन्नतापूवंक किये ॥ ४॥ 


श्रीपराशरजी बोखे-प्रियव्रतने कदंमजीकी 
पुत्रीसे विवाह किया था | उससे उनके सम्राट्‌ ओर 
कुक्षि नामकी दो कन्यां तथा दश्च पुत्र हुए ॥५॥ 
प्रियत्रततके पुत्र बड़े बुद्धिमान्‌, ववान्‌, विनयसम्पन्न 
ओर अपने भाता-पिताके अत्यन्त प्रिय कहे जाति है; 
उनके नाम सुनो-॥ ६ ।। वे आग्नीध्र, अग्निवाह्ु, 
बपुष्मान्‌ ¦ युतिमान्‌, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन 
भौर पुत्र थे तथा दसवां यथाथनामः अ्योतिष्मान्‌ 
था । वे प्रियत्रतके पुत्र अपने बल-पराक्रमके कारण ` 
विख्यात थे ॥ ७-८ ॥ उनमें महाभाग मेधा, अग्नि- 
बाहु ओर पुन्न-ये तीन .योगपरायण तथा अपने 
पूवंजन्मका वृत्तान्त जाननेवाटे थे । इन्होने राञ्य 
आदि भोगोँमे अपना चित्त नहीं लगाया ॥ ९॥ 





्रीविष्णुपुराण 


__.____--------------------------------------------~- 





-------- 


निर्मलाः सर्वकारन्तु समस्तार्थषु वै यने । 
चकः क्रियां यथान्यायमफलाकाद्िणो हि ते।१० 


प्रियत्रतो ददौ तेषां सक्तानां युनिसत्तम । 
सप्द्वीपानि मैत्रेय विभज्य सुमहात्मनाम्‌ ॥११॥ 
लम्बी महाभाग सग्नीप्राय ददौ पिता । 
मेधातियेस्तथा प्रादात्प्टक्दरीपं तथापरम्‌ ॥\१२॥ 
श्ाल्मरे च वपुष्मन्तं नरेन्द्रमभिपिक्तवान्‌ । 
उपोतिष्मन्तं बुशदरीपे राजानं कृतवान्प्रस; ।।१२॥ 
युतिमन्तं च राजानं क्रोचदपे समादिशत्‌। 
ताकदीपेशधरं चापि मभ्यं चक्रे प्रियव्रतः; ॥१४॥ 
पुष्कराथिपतिं चकरे सवनं चापि सप्रथः । 
जम्बूदीपेधरो यस्तु ्ाग्नीधी यृनिसत्तम ॥१५॥ 
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते प्रजापतिसमा नब | 
नामिः किस्पुरुषदचेव हरिवपं इलावृत; ॥१६॥ 
रम्यो हिरण्वानयषश्च दुरुभदराश्च एव च | 
केत॒माटस्तथेवान्यः साधुचेशोऽभवन्दृपः ॥१७॥ 
जम्ूद्ीपतिमागांश् तेषां विग्र निशामय । 
पित्रा दत्तं हिमाहं तु बषं नाभेस्त दक्षिणम्‌ ॥१८॥ 
हेमकूटं तथा वषं ददौ किम्ुरूषाय सः । 
तृतीयं नैषधं व॑ं हरिवपाय दत्तवान्‌ ॥१९॥ 
इादृताय प्रददौ मेस्यंत्र तु मध्यमः । 
नीहाचहाधितं बष॑ रम्याय प्रददौ पिता ॥२०॥ 
रतं तदुत्तरं व॑ पित्रा दत्तं दिरण्वते । 
यदुत्तरं शृह्वतो वषं तंत्र ददो ॥२१॥ 
भरो; पूर्वेण यदप मद्रारवाय प्रदत्तवान्‌ । 
गन्धमादनवषं तु केतुमाछाय दत्तवान्‌ ॥२२॥ 
इत्येतानि ददौ तेभ्यः पत्रेभ्यः स नरेशधरः । 
वरपष्येतेषु तान्पुत्नमिषिच्य स भूमिषः ॥२३॥ 
शालग्रामं महापुण्यं मैत्रेय तपसे ययौ । 
. यानि किम्पुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ महायुने ॥२४॥ | 








०1 
याक 


हे मुने) वे निमेलचित्त ओर कमफलकी इच्छासे 
रदित थे तथा समस्त विषयमे सदा न्यायानुद्ूल 
ही प्रवृत्त होते थे ॥ १०॥ 

हे मुनिश्रेष्ठ ! राजा प्रियत्रतने अपने शष सात 
महात्मा पुत्रोको सात द्वीप बोट दिये॥ ११॥ हे 
महाभाग ! पिता प्रियत्रतने आग्नीधको जभ्बूषद्रीप 
अर मेधातिथिको क्षक्ष नामक दुसरा हप दिया 
॥ १२॥ उन्होने श्षाल्मलद्वीपमं ब पुष्मान्‌को अभिषिक्त 
किया; स्योतिष्मानूको कशद्वीपे राजञा बनाया 
॥ १३ ॥ युतिमान्को ,कौश्चद्वीपके श्षासनपर नियुक्त 
किया, मन्यको प्रियत्रतने श्ञाकद्वीपका स्वामौ बनाया 


॥ ९४ ॥ ओर सवबलको पुष्कर द्वीपका अधिपति किया । 


हे मुनिसत्तम ! उनमें जो जग्बूष्रीपके अधीन्वर 
राजा आग्नीध्र थे उनके प्रजापतिके समान नौ पुत्र 
हुए । वे नाभि, किम्पुरुष, हरिवषं, इलावृत, रम्य, 
हिरण्वान्‌, कुरु, भद्राश्च ओर सत्कमंशीट राजा 
केतुमाक ये ॥ ९५-१७॥ हे विप्र ! अब उनके 
जम्बद्रीपके विभाग सुनो । पिता आग्नीधने दक्षिणकौ 
जोरका दिमवषं [ जिसे अव भारतवषं कहते दै ] 
नाभिको दिया ॥ १८ ॥ इसी प्रकार किम्पुरुषको 
हेमनृूट वषं तथा हरिबपषेको तीसरा नैषधवप दिया 
॥ १९॥ जिसके मध्यमं मेरुपवंत है वद इरावृत्तवषं 
उन्होने इखावृततको दिया तथा नीराचलसे ख्गा दुभा 
वषं रम्यको द्विया ॥ २० ॥ पिता आग्नीध्रने उसका 
उन्तरबतीं श्वेतबपं दिरण्यवान्‌को तथा जो वषं 
श्॑गवान्‌ पवतके उत्तरम स्थित है बद्‌ कुरुको दिया 
॥२१॥ भौर जो मेरु पूर्वमे स्थित है वद्‌ भदरा्चको 
दिया तथा केतुमाङको गन्धमाद्नबपं दिया ॥ २२॥ 
इस प्रकार राजा भाग्नीधरने अपने पुर्बोको ये वषं 
दिये । हे मैत्रेय ! अपने पुत्रोको इन वर्पोमिं अभिषिक्त 
कर्‌ चे तपस्याके लिये शालग्राम नामक महापवित्र 
्षेत्रको चङे गये । 


हे महामुने ! किम्पुरुष आदि ' जो भाठ वषं 
ह उनम सुखी बहता दै ओौर बिना यत्नके 





१ भ» " #) ` 








` विषययो न तेष्वस्ति जरामल्युभयं न च ॥२५॥ 
` धू्माधर्मौ न तेष्वास्तां नोत्तमाधममध्यमाः । 

,न तेष्वस्ति युगावस्था कत्रेष्व्टसु सव॑दा ॥२६॥ 
दिमाहयं तु वै वपं नामेशसीन्महात्मनः । 
-तस्य्षमोऽमवलतरो गेर्देव्यां महाद्युतिः ॥२५७॥ 
ऋषभाद्भरतो जञ व्येषठः पुत्रशतस्य सः । 

कत्वा राज्यं स्वधर्मेण तथेष्ट विविधान्मखान्‌ ।२८ 
प्रभिषरिच्य सुतं वीरं भरतं परथिवीपतिः। 
तपसे स महाभागः पुखदस्याश्रमं ययौ ॥२९॥ 
वानप्रस्थविधानेन तत्रापि कृतनिशयः । 
तपस्तेपे यथान्यायमियाज प महीपति; ॥२०॥ 
तपसा कषितोऽत्यथं कृशो धमनिसन्ततः, 
नग्नो वीरां खे कलवा वीराध्वानं ततो गतः।३१। 
ततश्च भारतं _ बधमेतन्रोकेषु गौयते | 
मरताय यत; पित्रा दत्त प्रातिष्ठत बनम्‌ ॥२२॥ 
सुमतिर्भरतस्याभूसपुत्रः परमधार्मिकः । 
कृर्वा सम्यग्ददौ तस्य राज्यमिषटमखःपिता ।२२॥ 
पत्रमद्क्रामितशरीस्तु भरतः स महीपतिः | 
योगाभ्यापरतः प्राणान्शालग्रामेऽत्यजन्युने॥ ३५४॥ 
अजायत च विप्रोऽसौ योगिनां प्रवरे इहे । 

मैत्रेय तस्य चरितं कथयिष्यामि ते पुनः ॥२३५॥ 
सुमतेस्तेजसस्तस्मादिनद्रघयुम्नो व्यजायत । 
परमेष्ठी ततस्तस्मात्प्रतिहारस्तदन्वयः ॥३६॥ 
प्रतिहतेति विख्यात उप्पन्नस्तस्य चात्मजः। 


भेवस्तस्मादथोद्गीथः प्रस्ताघस्तत्मुतो विभुः (३७ 


(~+ ऋणा 4} 








उनमें किसी प्रकारके विपयय (असुख या अकार मल्यु 
आदि ) तथा जरा-मृल्यु आदिका कोई भय नहीं है 
॥ २४.२५ ॥ ओर न धर्म, अधमं अथवा उत्तम, 
अधम ओर मध्यम भदिका ही मेद्‌ है । उन आठ 
वर्षमे कभी कोई युग-परिवतेन भी नदीं होता ॥२६॥ 


महात्मा साभिका हिम नामक वषं था; उनके - 
मेरुदेवीसे अतिश्षय कान्तिमान्‌ ऋषभ नामक पुत्र 
हु ॥ २७॥ ऋषमजीके भरतका जन्म हुभा जो 
उनके सौ पुत्रम सबसे बड़ थे । महाभाग परथिबीपति 
ऋषभदेवजी धमेपूवेक राग्य-शञासन तथा विविध 
यज्ञोका अनुष्ठान करनेके अनन्तर अपने बौर पुत्र 
भरतको राञ्यायिकार सौपकर तपस्यके लि 
पुाश्रमको चठे गये 1 २८-२९ ॥ महाराज ऋषभने 
वर्ह भी बानप्रस्थ-आश्रमकी विधिसे रहते हुए 
निश्चयपूवेक तपस्या की तथा नियमानुक्कूल यज्ञाुष्ठान 
किये ।|०॥ वे तपस्याके कारण सूखकर अत्यन्त छर हो 
गये ओौर उनके ्ञरीरको-शिरा् (र्तवादहिनी नाड्य) 
दिखायी देने लगीं! अन्मे अपने सुखमें एक पत्थरकी 
बटिया रखकर उन्होने नग्नावस्थामे मह प्रस्थान 
किया ॥ ३१॥ 


पिता ऋषभदेवजीने बन जाते समय अपना राज्य 
भरतजीको दिया था; अतः तचसे यह्‌ (दहिमवषे) इस 
छोकमें मारतवषं नामसे सिद्ध हुजा ३२ भर्तजी- 
के सुमति नामक परम धार्मिक पुत्र हुभा। पिता 
(भर्त) ने यज्ञालुष्ठानपूवेक यथेच्छ राञ्य-सुल मोग- 
कर डसे सुमतिको सौँप दिया ॥३३। | हे यने ! 
महाराज भरतने पुत्रको राज्यलक्ष्मी सौँपकर योगा. 
भ्यास तस्पर हो अन्तम स्लालप्रामश्षेत्रमै अपने 
प्राण छोड़ दिये ॥ ३४ ॥ फिर इन्होने योगि्योँके पतित 
कुखमे ब्राह्मणरूपसे जन्म छया । हे भत्रेय ! इनका 
वह्‌ चरित्र मँ तुमसे फिर करहरा ॥ ३५ ॥ 


तदनन्तर सुमतिके वीयसे इन्द्रयुम्नका, जन्म 
हा, ससे परमेष्ठी ओर परमेष्ठीका पुत्र प्रतिहार 
हआ ॥ ३६ ॥ प्रतिदहारके प्रतिहतौ नामसे विख्यात 
पुत्र चसन्न हुआ तथा प्रतिहताका पुत्र भव) भवका 
उद्‌ गोथ ओर उदुगीधका पुत्र अतिसमथे प्रस्ताव 
हृभा ॥ ३७॥ प्रस्तावका पथु, प्रुका नक्त ओर 


१२३८ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ०र२ 


[वा 1111।२1।11 गायामि 





पृथुस्ततस्ततो नक्तो नक्तस्यापि गयः सुतः । 

नरो गयस्य तनयस्तत्पत्रोऽभुद्धिरार्‌ ततः ॥२८॥ 
तस्य पुत्रो महावीयों धीमांस्तस्मादजायत । 
महान्तस्तत्युतशाभून्मनस्युस्तस्य चात्मजः ॥२९॥ 
त्वष्टा खष्टुश बिरजो रजस्तस्याप्यभूत्सुतः । 
दतजिद्रनसस्तस्य जके पुत्रशतं यने ॥४०॥ 
विष्व्ज्योतिः प्रधानास्ते यैरिमा वद्धिताः प्रजाः। 
तैरिदं भारतं वपं नवभेदमलद्कृतम्‌ ॥४१॥ 
तेषां वशप्रतैथ यक्तेयं भारती परा । 
कृतत्रेतादिसरगेण युगाख्यामेकसप्रतिम्‌ ॥४२॥ 
एष स्वायम्भुवः सगो येनेदं पूरितं जगत्‌ । 

वाराहे तु शुने कल्पे पूरवमन्वन्तराधिषः ॥४२॥ 





नक्तका पुत्र गय हजा । गयके नर भौर उसे 
विराद्‌ नामक पुत्र हा ॥ ३८ ॥ उसका पुत्र 
महावीयं था, चससे धीमानका जन्म हआ तथा 
धीमानका पुत्र महान्त ओर उसका पुत्र मनस्यु 
हा ॥ ३९ ॥ मनस्युका पुत्र स्वष्टा, त्व्टाका विरज 
ओर विरजका पुत्र रज हुजा। हे यने! रजके 
पुत्र शतलित्के सौ पुत्र उतपन्न हृए ॥ ४०॥ 
डनम विष्वग्ड्योति. प्रधानथा | उन सौ पूत्रौसे 
यहाौकी प्रजा बहुत बद्‌ गयी । तव उन्होनि इस 
भारतवर्षको नौ विभागोसे विभूषित किया । [ अथौत्‌ 
वे सब इसको नौ भागोमे बौँटकर भोगने लगे ] 
॥ ४१ ॥ इन्दीके वंशधसौने पूवेकाख्मे कृत-त्रेतादि 
युगक्रमसे इकदत्तर युगपयन्त इस भारतभूमिको 
भोगा था ॥ ४२॥ हे सुने ! यह इख बाराहकल्पमे 
सबसे पहर मन्वन्तराधिप स्वायम्मुबमनुका वं 
है, जो उस समय इस सम्पूणं संसारको व्याप्त 


किये हुए था ॥ ४३॥ . 


~+ 


इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमे ऽश प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ 


1 





दूसरा अध्याय 


भूगोरका विवरण 


श्रीमैत्रेय उवाच 
कथितो भवता ब्रह्मन्स; स्वायम्धुबध मे । 
भ्रोतुमिच्छाम्यं सत्तः सकलं मण्डल युवः ॥१॥ 
यावन्तः सागरा द्वीपास्तथा वर्षाणि पवंताः। 
वनानि सरितः पयो देवादीनां तथा यने ॥२। 
यसप्माणमिदं सवं यदाधारं यदात्मकम्‌ । 
संस्थानमस्य च शुने यथावदत्तुमदैसि ॥३॥ 


भ्रीपराश्चर उवाच 
मैत्रेय भ्रुयतामेतत्सक्षपाद्गदतो मम । 
नास्य वषैशतेनापि वक्तु शक्यो हि विस्तरः॥४॥ 


भीमैध्ेयजी बोटे- हे बरद्मन्‌ } आपने सुश्चसे 
स्वायम्भुव मलुके वंजलका वर्णन किया । अवँ 
आपके सुखार विन्दसे सम्पूणे एरण्वीमण्डलका विवरण 
सुनना चाहता हँ ॥ १} हे सुने } जितने भी सागरः 
दीप, ब, पर्व॑त, वन, नदिया ओर देवता भादिकी 
पुरियाँ ह, उन सबका जितना-जितना परिमाणे, 
जो आधारदहै, जो डपादान-कारण दै ओर जैसा 
आकार दहै, बह सब आप यथावत्‌ वणन 
कोजिये || २-३॥ 


श्ओपराशरजी बोटे-दे मेत्रेय ! सुनो, मै इन सब 
बातोंका संक्षेपसे वणेन करता ह, इनका विस्तार- 
पूवक वणेन तो सौ वष॑मे भी नही हो सकता ॥४॥ 


अ०२] 


द्वितीय अंश 


१३९. 


कि 





कुशः क्रौश्चस्तथा शाकः पृष्करस्चैव सपमः॥५॥ 
एते द्वीपाः पणत सप्त सप्तभिरादृताः । 
छवणेकुसुरासपिदेधिदुग्धनलेः समम्‌ ॥६॥ 


जम्बुद्वीपः समस्तानामेतेषां मध्यसंस्थितः । 
तस्यापि मेरत्रेय मध्ये कनकपवंतः ॥७॥ 
चतुराशीतिसादस्रो योजनैरस्य चोच्छुयः । 
प्रविष्टः पोडशाधस्तादुदवात्रिशन्मूषनि षिस्तृतः॥८। 


मरे षोडशसाहस्रो विरतारस्तस्य सर्॑शः । 
भूपञ्मस्यास्य शेोऽसौ कणिकाकारसंस्थितः।॥९॥ 
हिमवान्हेमकूटश्च निषधश्चास्य दक्षिणे । 
नीः श्वेतश्च शृद्धी च उत्तरे वरषपव॑ताः ॥१०॥ 
लक्षप्रमाणौ द्रौ मध्यौ दक्चदीनास्तथापरे । 
सहस्रद्ितयोच्छायास्तावद्विस्तारिणश्च ते ॥११॥ 
भारतं प्रथमं वषं ततः श्रम्पुरपं स्पृतम्‌ । 
हरिषपं तथैवान्यन्मेरोदक्षिणतो द्विज ॥१२॥ 
रम्यकं चोत्तरं वषं तस्येवानु दिरण्मयम्‌। 
उत्तराः रवश्चेैव यथा वे भारतं तथा ॥१३॥ 
नवसादस्मेकैकमेतेषा 


इखावृतं च तन्मध्ये सोणो मेरुरुचिद्तः ॥१४॥ 


द्विजसत्तम । 


मेरोश्वतदिंशं तत्तु नवसादस्तविस्तृतम्‌ । 

४ ¢ 
शातं महाभाग चत्वारश्ात्र पवता; ॥ १५॥ 
विष्कम्भा रचिता मेरोरयोजनायुतष्च्दिताः। 





सात पुष्कर-ये सातो द्वीप चारों रसे खरे 
पानौ) इृश्ुरस, मदिरा, धृत, द्धि, दुग्ध ओर मीठे 
जल्के सात सयुद्रोसे धिरे हए दै ॥ ५-६ ॥ 


हे मैत्रेय } जम्बृद्धीप इन सवके मध्यमे स्थित है 
शौर उसके भी बीचोँ-बीचमें सुबणंमय सुमेरुपवेत 
है ॥॥७॥ इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है 
ओौर नीवेकी ओर यह सोखह्‌ हजार योजन प्रथ्वीमे . 
घुसा हुआ है, भौर उरी भागे इसका विस्तार 
बत्तीस हजार योजन है ॥। ८॥ तथा नीचे ( तलेटीमे ) 
उसका सारा विस्तार सोलह हजार योजन है । इस 
प्रकार यह पवेत इस प्रथ्वीरूप कमलख्की कर्णिका 
( कोञ्च ) के समान स्थित ह ॥ ९॥ इसके दक्षिणे 
हिमवान्‌, देमकूट ओौर निषध तथा उसमे 
नीर, श्वेत ओर आङ्गो नामक बषेयवेतदहै {जो 
भिन्न-मिन्न वर्षका विभाग करते दै] ॥१०॥ 
उनमें बीचके दो पवत [ निषध भौर नीख ] एक-एक 
लाख योजनतक पैरे हुए है, उनसे दुसरे-दुसरे 
दश-दश हजार योजन कम ह [ अथौत्‌ हेमकूट आौर 
इवेत नब्बे-नन्वे हजार योजन तथा हिमवान्‌ ओर 
शङ्को अस्सी-अस्सी सहस्र योजनतक फैले हृ दै । ] 


वे सभो दो-दो सदस योजन ऊँचे ओर इतने ही 
चौड़ है ॥ ११॥ 


हे द्विज } मेरुपवेतके दक्षिणकौ ओर पहला 
भारतवषं है तथा दुसरा किम्पुरुषवषं ओर तीसरा 
ह्रिवष है ॥ १२॥ रत्तरकी ओर प्रथम रम्यकः, 
फिर हिरण्मय ओर तदनन्तर उत्तरकुरुवषे है जो 
[द्वीपमण्डलकी सीमापर होनेके कारण] भारतवपेके 
ससान [ धलुषाकार ] है ।। १३॥] हे दविजश्रेष्ठ ! इनमेसे 
परत्येकका विस्तार नौ-नौ हजार योजन है तथा इन 
सबके वीचमे इलावृतबषं है जिसमे सुबण॑मय 
सुमेरुपवंत खड़ा हज है । १४ ॥ हे महामाग ! 
यह इलावृतवर्षं सुमेर चारों ओर नौ हजार 
योजनतक फटा हभ है । इसके चारो जर चार 
पव॑त है ॥ १५॥ ये चारो पवेत मानो सुमेरुको 
धारण करनेके खयि ईश्वरकृत कीणियाँ ह [ क्योकि 
हनके बिना ऊषरसे विस्तृत ओौर मृरमे संकुचित 
होनेके कार्ण सुमेरु गिरनेकी सम्भावना है ]। 


१४० 


श्रीविष्णुपुराणे 


[काका यिय 


[अ०र 








विपुलः पथिमे पाञ्च सुपार शोत्तरे स्मरतः 
कदम्बस्तेषु जम्बूश्च पिप्पछो वट एव च ॥१७॥ 
एकादशशतायामाः पादपा गिरिकेतवः । 
जम्बदीपस्य सा जम्पूर्नामेतमेहाभुने ॥१८॥ 
महागजप्रमाणानि जम्ब्वास्तस्याः फलानि षै । 
-पतन्ति भूभृतः पृष्ठे शीय माणानि सवतः ॥१९] 
रसेन तेषां प्रख्य।ता तत्र जाम्बूनदीति वै। 
सरिलमवत्तते चापि पीयते तम्निवासिभिः ॥२०॥ 
नस्वेदोन च दौग॑न्ध्यं न जरा नेन्द्रिक्षयः। 
तत्पानात्छच्छमनसां जनानां तत्र जायते॥२१॥ 
तीरम॒त्तद्रसं प्राप्य सुखवायुविशोषिता । 
जाम्बूनदाख्यं भवती सुवर्णं सिद्धभूषणम्‌ ॥२२॥ 
भद्रादवं पूर्वतो मेरोः केतुमा च पशमे । 

वपे दधेतु मुनिश्रेष्ठ तयो्॑ध्यमिलाशृतः ।॥२२॥ 
बनं चैत्ररथं पूरे दक्षिणे गन्धमादनम्‌ । 
वैभ्राजं पिमे तददुत्तरे नम्दनं स्मृतम्‌ ॥२४॥ 
श्मरुणोदं महामद्रमसितोदं समानसम्‌ । 
सरांस्येतानि चस्वारि देवभोग्यानि सव॑दा ॥२५॥ 
शीताम्भश्च इुयुन्द्च कुररी माल्यर्वास्तथा । 
वैकङ््रखा मेरोः पूतः केसराचलाः ।॥२६॥ 
त्रिकूटः िरिरर्चैव पतङ्खो स्चकस्तथा । 
निषदाद्या दक्षिणतस्तस्य केसरपर्वताः ॥२७॥ 
शिखिवासाः स्वैड्यः कपिलो गन्धमादनः । 
नारुपिप्रमुखास्तद्त्पश्िमे केसराचलाः ।२८।) 
मेरोरनन्तराङ्केषु जटरादिष्ववस्थिताः । 
शङ्कूटोऽथ ऋषभो हंसो नागस्तथापरः। 
काठञ्ञाद्याश्च तथा उत्तरे केसराचलाः ॥२९।। 
चतुर्दशसहस्राणि योजनानां महाप | 


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विपुर पश्चिमम ओर सुपाश्यै उत्तरम है। ये सभी 
दश-दश हजार योजन ऊँचे दहै । इनपर पवेतोकी 
ध्वजाओंे समान क्रमञ्चः म्यारह-ग्यारह सौ योजन 
ठचि कदम्ब, जम्बू , पीपर भौर वटके वृक्ष है । 

हे महामुने ! इनम जम्बू ( जायन ) बश्च जम्बू- 
द्वीपके नामका कारण दहै ॥ १६-१८ 1 उसके फ 
महान्‌ गज्राजफे समान बड़े होते है| जवे 
पव॑तपर गिरते हतो फटक्रर सब ओर फैरु जाते 


ह १९ ॥ उनके रससे निकी जम्बू नामकी प्रसिद्ध 
नदी वहं बहती है, जिसका जल वर्हकि रहनेवाटे 


पीते दै ।। २० ॥ उसका पान करनेसे वहौके ञुद्धचित्त 
लोगोको पसीना, दुगंन्ध, बुहापा अथवा इन्द्रियक्षय 
नदीं होता ॥ २१॥ उसफे किनारेकी स॒न्तिका 
उस रससे मिलकर मन्द-मन्द बायुसे सूखनेपर 
जाम्बूनद नामक सुवणं हो जाती दहै, जो सिद्ध 
पुरुषोका भूषण हे 1 २२॥ मेरुके पूर्मं भद्राश्चवष 
जर पश्चिमम केतुमाख्वपं है तथा हे सुनिश्ष्ठ ¡ इन 
दोनोके बीचमे इलाचृतवषं है | २२॥ इसी प्रकार 
उसके पूवंकी ओर चैत्ररथ, दक्षिणकौ मोर गन्ध 
मादन, पथिमकी ओर्‌ वैभ्राज भौर रन्तरकी भोर 
नन्दन नामक वन है ॥ २४॥ तथा सवदा देवताओंसे 
सेवनीय अरूणोद, मष्टाभद्र, असिततोद ओर मानस-- 
ये चार सरोवर द| २५॥ 

हे मैत्रेय ! स्ीताम्भ, कुमुन्द्‌, कुररी; माल्यवान्‌ 
तथा वैकंक आदि पवेत [ भूषद्मकौ कर्णिकारूप | 
मेरुके पूचं-दिश्चाके केसराचर द ॥ २६॥ त्रिकूट, 
शिक्िर, पतङ्ग, रुचक ओौर निषाद भादि केसराचल 
उसके दक्षिण गोर दै ।। २७॥ क्िखिवासा, वैद्य, 
कपि, गन्धमादन ओर जारुधि आदि उसके पञचि- 
मीय केसर पर्व॑त दै ।। २८ ॥ तथा मेरुके अति समीपस्थ 
इलाबरृतवर्षमे भौर जठरादि वैशोमे स्थित शङ्ककूट, 
ऋषभ, हंस, नाग तथा काछञ् आदि पवेत त्तरः 
दिश्चाके केसराचर है । २९॥ 


हे मैत्रेय ! मरके ऊपर अन्तरिधमे चौदह सहस्र 
योजन चम्ता कह्ीन्ह्ा कृ महापरो (ब्रह्मपर) 


भ० २ 








हन्द्रादिलोकषाछानां प्रख्याताः प्रवराः पुरः ॥२३१॥ 
विष्णुपादविनिष्करान्ता क्षाषयितेन्दुमण्डलम्‌। 
सर्भन्ताद्‌ ब्रह्मणः पुर्या गङ्गा पतति वे द्विः ॥२२॥ 
सा तत्र पतिता दिक्षु चतुद्धौ प्रतिपद्यते । 

सीता चालकनन्दा च चश्षुभद्र। च वै कमात्‌ ॥३३॥ 
पूरेण शेरात्सीता तु शैलं यात्यन्तरिक्षगा । 

ततश्च पूवर्ेण मेद्रादयेनेति साणैवम्‌ ॥३४॥ 
तथैवालकनन्दापि दक्षिणेनैत्य भारतम्‌ । 
प्रयाति सागरं भूत्वा सप्तभेदा महारने ॥३५॥ 
चक्षुश्च पश्चिमगिरीनतीत्य सफशंस्ततः | 
पञिमं केतुमालाख्यं वर्ै' गत्पैति सागरम्‌॥३६॥ 
भद्रा तथोत्तरगिरीरत्तरांश्च तथा इरन्‌ । 
अतीतयोत्तरमम्भोधि समभ्येति महामुने ॥२७॥ 
आनीहनिषधायामो माल्यवद्गन्धमादनो । 
तयोर्मध्यगतो मेरुः कणिकाकारसंस्थितः ॥३८॥ 
भारताः केतुमालाश्च मद्राशाः कुरवस्तथा । 
पत्राणि लोकप्नस्य मर्यादाशेरबाद्यतः ॥३९॥ 
जटरो देवकूटश्च मर्यादपव॑तावुभौ । 

तौ दक्षिणोत्तरायामावानीरनिषधायतौ ॥४०॥ 
गन्धमादनकैलासौ पूवंपश्रायतावुमौ । 
अशीतियोजनायामावणंबान्तम्यंवस्थितौ ॥४१॥ 
निषधः पारियात्र मयदिपवंतापुमौ । 
मेये; पथिमदिग्मागे यथा पूवं तथा स्थितो॥४२॥ 
्रिशृङ्खो जारुधिद्चैव उत्तरौ वर्षपवंतौ । 

पूं पश्चायतावेतावणंवान्तन्पवस्थितौ ॥४३॥ 
ह्येते यनिबर्योक्ता मर्यादापव॑तास्तब । 


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द्वितीय अंश 


---------__-_--------------------------------------- 








कथ, = (=¢ = । 


१४१ 


इन्द्रादि लोकपारोके आठ अत्ति रमणीक ओौर 
विख्यात नगर हैँ ३१॥ विष्णुपादोदधवा श्रीगङ्गा- 
जी चन्द्रमण्डकको चास ओरसे आस्लावित कर स्वग- 
लोकते नह्मपुरीमे गिरती है ।। २२॥ वँ गिरनेपर 
वे चायो दिकशाओंमे क्रमसे सीता, अलर्कनन्दा,) चक्षु 
ओर भद्रा नामसे चार भागोमिं विभक्त हो जाती 
| ३३ ॥ उनमेसे सीता पूवंकी भोर आकाशमागेसे 
पक पवैतसे दूसरे पवंतपर जाती हु अन्तम पृवेस्थित 
भद्राख्वषपको पाकर समुद्रम मिक जाती हे ॥ ३४॥ 
हसी प्रकार, हे महासने ! अककनन्दा दक्षिण-दिशाकी 
ओर भारतवर्षे आती दै ओर सात भागोम विमक्त 
होकर समुद्रम मिरु जाती है ॥ ३५॥ चक्षु पञ्चिम- 
दिहाके समस्त पवंतोको पारकर केतुमाल नामक 
वर्षमे बहती हई अन्तम सागरम जा गिरती है 
॥ ३६ । तथा हे महामुने ! भद्रा इन्तरके पवतो ओर 
उन्तरकुरुवषको पार करती हुदै उत्तरीय समुद्रमे मिल 
जाती है ।। ३७॥ माल्यवान्‌ ओर गन्धमादनपवैत 
उत्तर तथा दक्षिणकी ओर नीलखाचल भौर निषधः 
पवंततक फैडे हुए ह । उन दो नोके बौच कणिकाकार 
मेरुपवंतत स्थित है ॥ ३८ ॥ 

हे मैत्रेय । मर्यादापवंतोके बहिर्भागमे स्थित 
भारत, केतुमा, मद्राश्च भौर कुरुव पं इस छोकपद्मके 
पत्तोके समान है ॥ ३९ ॥ जठर ओर देवकूट-ये 
दोनों मयौदापवंत है जो इन्तर ओर दक्षिणकी ओर 
नीर तथा निषधपवंततक फैट हुए द ॥ ४०॥ पूवं 
शौर पश्चिमको ओर फैडे हए गन्धमादन ओर 
कैरास--ये दो पवत, जिनका विस्तार अस्सी योजन 
है, सस॒द्रके भीतर स्थित द ।। ४१ ॥ पूवक समान 
मेरुकी पश्चिम भोर भी निषध ओौर पास्यिात्र नामक 
दो मयीदापवंत स्थित है| ४२९॥ उत्तरकी भोर 
निश्वक्गः ओर जारुधि नामक वपव दै । ये दोनों 
पूवं ओर पश्चिमी जोर सञुद्रके गभेभे स्थित है 
॥ ४३ ॥ इस प्रकार, हे मुनिवर ! तुमसे जठर भावि 
मयोदापकंतोंका बणेन किया, जिनसे दो-दो मेर्की 


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३१५ १ 





मेरोशतर्दिरं ये त॒ प्रोक्ताः केसरपवैताः 
शीतान्ताद्या यने तेषामतीव हि मनोरमाः 
दोङानामन्तरे द्रोण्यः सिद्धचारणसेविताः 
सुरम्याणि तथा तासु काननानि पुराणि च ॥४६॥ 
लक्ष्मीविष्ण्वगनिषर्यादिदेवानां युनिसत्तम । 
तास्वायतनवर्याणि जुष्टानि वरकिन्नरेः ।॥४७॥ 
गन्धर्वयक्षरकषांसि तथा दैतेयदानवाः । 
क्रीडन्ति तासु रम्यासु शेरद्रोणीष्वहरनिशम्‌)।४८॥ 
भौमा येते स्ताः सर्गा धर्मिणामालया ने । 
नैतेषु पापकर्माणो यान्ति जन्महातैरपि ।॥४९॥ 
भद्रा भगवान्विष्णुरास्ते हयरिरा द्विज । 

वराहः केतुम त॒ मारते कूमरूपधक्‌ ॥५०॥ 
मत्स्यरूपश्च गोविन्दः करु्वस्ते जनादेनः । 
विश्वरूपेण सवत्र स्वः सर्वत्रगो हरिः ॥५१॥ 
सर्वस्याधारभ तोऽसौ मैत्ेयास्तेऽसिात्मकः ।५२। 
यानि किम्पुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ महान । 

न तेषु शोको नायासो नोदेगः ुद्धयादिकम्‌ ।५३। 
स्वस्थाः प्रजा निरातङ्कास्सर्व॑दुःखविवनिताः | 
दशद्वादशवर्षाणां सदस्राणि स्थिरायुषः ॥५४।॥ 
न तेषु वष॑ते देवो भौमान्यम्भांसि तेषु बे । 
कृतत्रेतादिकं नैव तेषु स्थानेषु कल्पना ॥५५॥ 
सर्वेष्वेतेषु वर्षेषु सप्त सप्त कुलाचलाः । 


।४५॥ 


७2. र “१ भ 








हे यने! मेरुके चाये ओर स्थित जिन शीतान्त 
अदि केस्रपवं तोके विषयमे तुमसे कहा था, उनके 
बीष्वमें सिद्ध-चारणादिसे सेवित अति सुन्द्र कन्दर्प 
। हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरस्य नगर तथा उपवन 
॥ ४५.४६ ।। ओर लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि एवं 
सूयं आदि देवताओंके अस्यन्त सुन्दर मन्दिर ह 
जो सद्‌ा किन्नरश्र्ठोसे सेवित रहते दँ ।। ४७ ॥ खन 
सुन्दर पवतर णियोँमे गन्धव, यक्ष, राक्षस, दैत्य 
ओर दानवादि अहर्न क्रीडा करते है ॥ ४८॥ 
हसने! ये सम्पूणं स्थान भौम (प्रथ्वीके ) स्वगं 
कहलाते है; ये धार्मिक पुरुषोके निवासस्थान है । 
पापकमा पुरुष इनम सौ जन्मभे भी नही जा 
सकते । ४९ ॥ 


हे दविज ! भीविष्णुभगवान्‌ भद्राशवषमे हयग्नौव- 
रूपसे, केतुमारवषमे वराहृरूपसे ओौर भारतवषेमे 
कु्मरूपसे रहते ह ॥ ५० ॥ तथा वे भक्तप्रतिपालक 
श्रीगो विन्द्‌ कुरुवषमे मद्स्यरूपसे रहते दै । इस प्रकार 
वे सर्वमय सवंगामी हरि विश्चरूपसे सवत्र ही रहते 
ह| ५९॥ हे सैतरेय! वे सबके आधारभूत ओौर 
सर्वात्मक है ॥ ५२ ॥ हे महामुने ! किम्पुरुष आदि 
जो आठ वषं है उनमें शोकः श्रम, उदधेग लौर क्षुधाका 
भय भादि कुछ मी नहीं हे | ५३ ॥ वर्हौकी प्रजा 
स्वस्थ, आतङ्कदीन भौर समस्त दुखोंसे रहितै 
तथा वष््ौके छोग दक्ष-बारह हजार वषंकी स्थिर 
भायुबाले होते द ॥ ५४ ॥ उनम वषौ कभी नहं 
होती, केवल पार्थिव जल दही दै ओर न उन स्थानेभिं 
कृत-त्रेतादि युगोकी ही कल्पना है ५५॥ है 
द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षभं सातत-सात कुरूपवत है 


नश्च शतशस्तेभ्यः प्रघता या द्विजोत्तम ।।५६॥ शौर उनसे निकली हृद सैकड़ों नदिर्यौ दै । ५६ ॥ 


१/9 १,११६.८० -~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयं ऽश द्विरीयोऽध्यायः॥ २॥ 














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५११५।९.६ 


श्रीपराज्ञर उवाच 
उत्तरं यत्सथुद्रस्य हिमादरर्चैव दक्षिणम्‌ | 
वषं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥ १॥ 
नवयोजनसाहस्रो विस्तारोऽस्य महाुने। 
कमभूमिरियं स्वगेमपवगं च गच्छताम्‌ ॥ २ ॥ 
महेन्द्रो मलयः; सद्यः शुक्तिमानृक्षपकेतः 
विन्ध्यर्च पारियात्रस्च सपत्र बुरपव॑ताः 


॥ २॥ 
अतः सम्रापयते स्वगो मुक्तिमस्पास्मयान्त ै। 
तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा घुने ॥ ४॥ 
इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते। 

न खल्वन्यत्र मर्यानां कमं भूमौ विधीयते ॥ ५॥ 


भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदान्निशामय । 
इन्द्रदीपः कसेरूदच ताम्रपर्णो गभस्तिमान्‌ ॥ ६ ॥ 
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः। 

मयं तु नवमस्तेषां दीपः सागरसश्रतः ॥ ७ ॥ 
योजनानां सदस्च तु दीपोऽयं दक्षिणोत्तरात्‌ । 

पूरवे किराता यस्यान्ते परिचमे यवना; स्थिताः।( ८। 
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेदया मध्ये प्रास्च भागशः । 
इञ्यायुधवणिन्यावतंयन्तो व्यवस्थिताः ॥ ९॥ 
शतदरुचनद्रमागाच्या॒दिमबत्पादनिगेताः । 
वेदस्मृतिमुखाद्याइच पारियात्रोद्भवा यने ॥१०॥ 
न्दा सुरसाचयाच नचो बिन्ध्याद्रिनिगंताः। 
तापीपयोष्णीनिर्विन्ध्याप्र्ुखा ऋक्षसम्मवाः।११॥ 
गोदावरी भीमरथी कृष्णवेण्यादिकास्तथा। 


५ ६५५ 44 -३ 


शीपराश्रजी बोले-हे मेत्रेय ! जो समुद्रके 
उत्तर तथा हिमारयके दक्षिणम स्थिव है वह्‌ देश्च 
भारतवषं कहराता दै । उसमे भर्तकी संतान बसी 
हुई है ।॥ १॥ हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार 
योजन हे यहु स्वगं भौर अपवग प्राप्न करनेवालोकी 
कमेभूमि हे ॥२॥ इसमे महेन्द्र, मलय, सद्य, 
युक्तिमान्‌, ऋष्ष, विन्ध्य ओौर पारियात्र-ये सात 
कुखुपवेत है ।॥३॥ हे सुने! इसी देरमे मलुष्य 
यभ कर्मोदारा स्वगं अथवा मोक्ष प्राप्न कर सकते 
दै ओर यहीसे [ पाप-कमेभि प्रवृत्त होनेपर ] वे 
नरक भथवा तियंग्योनिभे पडते दै ।। ४ ॥ यदीसे 





[ कमौनुसार ] स्वग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा 
पाताल आदि द्योकोको प्राप्न किया जा सकता दहै, 
प्रथ्वीमे यकि सिवा ओर कहीं भी मनुष्यके ल्यि 
कमंकी विधि नहींदहै।५॥ 

इस भारतवषके नौ भाग दहै; उनके नामये 
है--इन्द्रदीप, कसेर, ताम्रपणे, गभस्तिमान्‌, नाग. 
दीप, सौम्य, गन्धवे भौर वारुण तथा यह्‌ समुद्रसे 
धिरा हुभ्ा द्वीप उनम नवँ है ॥ ६-७॥ यह्‌ द्रप 
उत्तरसे दक्षिणतक सहस्र योजन दै । इसके पूर्वीय 
मागमे किरात छोग ओर पश्चिमीयमे यवम बसे 








सद्यपादोद्धव। नघः स्मृताः पपमयापहाः।१२॥ 
कृतमाला ताभ्रपर्णीप्रयुखा मलयोद्भवाः । 


हुए दै ।॥ ८॥ तथा यज्ञ, श्ल्लधारण ओर व्यापार 
आदि अपने-अपने कर्मोकौ ग्यवस्थाके अनुसार 
आचरण करते हुए ब्राह्मणः, क्षत्रिय, वैरय भौर शरद्रगण 
वणविभागानुसार मध्यम रहते है ॥९॥ ह यने! 
इसकी शतद्रु ओर चन्द्रभागा आदि नदिया हिमाछ्यकौ 
तलेटीसे, वेद्‌ र स्मृति आदि पारियात्र पवसे, 
नमेदा ओर सुरसा आदि विन्ध्याचलसे तथा 
तापो, पयोष्णी ओर निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरिसे 
निकी दै ॥ १०-११॥ गोदावरी, सीमरथी ओर 
कृष्णवेणौ आदि पापहारिणी नदियां सष्यपवतसे 
उत्पन्न हुं कटी जाती हँ ॥ १२॥ कृतमाला ओौर 





त्रिसामा चाय॑डुल्याया महैन्द्रमभवाः स्प्रताः। १३ 
ऋषिद्धल्याङकमाराचाः ुक्तिमत्पादसम्भवाः। 
आसां नघुपनदयस्च सन्त्यन्यारच सदस्चशः ।१४॥ 
तास्विमे इदपा्ाहा मध्यदेशादयो जनाः। 
पूर्वदेशादिकाश्चैव कामरूपनिवासिनः ।।१५॥ 
ण्डाः कलिङ्गा मगधा दकषिणाघयादच सर्वशः । 
तथापरान्ताःसोरषटाः शूराभीरास्तथाबु दाः ।।१६॥ 
कारूषा मालवाश्चैव पारियात्रनिवासिनः। 
सौवीराः सैन्धवा हूणाः साल्वाः कोशलबासिनः। 
माद्रारामास्तथाम्बष्ाः पारसीकादयस्तथा ॥ १७। 


आसां पिवन्ति सरि वसन्ति सहिताः सदा । 
समीपतो महाभाग हषटपुष्टजनाङ्लाः ॥१८॥ 





चत्वारि भारते बं युगान्यत्र महामे । 
ढृतं त्रेता द्वापरश्च कलिर्चान्यत्र न कचित्‌ ।१९। 
तपस्तप्यन्ति युनयो जुहते चात्र यज्विनः । 
दानानि चात्र दौयन्ते परलोकार्थमादरात्‌ ॥२०॥ 
परुपयपुरषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते। 
यत्नैय॑जञमयो विष्णुरन्यद्रीपेषु चान्यथा।।२१॥ 
अत्रापि भारतं भरष्ट जम्बुद्ीपे महाने । 
यतो हि कर्मभूरेषा हयतोऽन्या मोगभूमयः।।२२॥ 
अत्र जन्मसहस्राणां सहस्ेरपि सत्तम । 
कदाचिन्छमते जन्तु्मारुष्यं पृण्यसश्चयात्‌॥२३॥ 
गायन्ति देवा; किं गीतकानि 
धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे । 
स्वरगापवर्गासदमागंभूते 
भवन्ति भूयः पूपाः सुरत्वात्‌ ।॥२४॥ 
कर्मण्यसङ्न्पिततत्फरानि 
संन्यस्य विष्णौ परमात्ममूते | 
तां कमंमहीमनन्ते 
तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति।।२५॥ 





अवाप्य 





ताम्रपर्णी आदि मलयाचलसे, त्रिसामा ओौर आर्य 
कुल्या आदि महेन्द्रगिरिसे तथा ऋषिकुल्या ओौर 
कुमारी आदि नदियां शुक्तिमान्‌ पवत्से निकी हैं| 
इनकी ओर भी सहस श्चाखा नदियाँ जौर उपनदिरया 
है ॥ १३-१४ ॥ इन नदियोंके तटपर कुरु, पाञ्च! 
ओर मध्यदेशादिके रहनेवाे, पूवदेा ओर काम.) 
रूपके निवासी, पुण्ड, कल्िग, मगध ओौर दाक्षिणात्यः" 
कग, अपरान्तदेशवासी, सौराषटूगण तथा शूर, 
आभीर ओर अलंद्गण, कारूष, माख्व ओौर 
पारियाच्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हण, साल्व ओर 
कोशल-देशवासी तथा माद्र, भराम, भम्ब ओौर 
पारसीगण रहते ह | १५--१७ ॥ ह महाभाग! वे 
लोग सदा आपसमे मिरुकर रहते है भौर हन्हीका 
जल-पान करते ह । इनकी सन्निधिके कारण वे बड़े 
हृ्ट-पुष्ट रहते है ॥ १८ ॥ 

हे सने! इस भारतवषंमे हो सत्ययुग, तेता, 
द्वापर जर कछि नामक चार युग है, अन्यत्र 
कहौ नहीं । १९ ॥ इस देशम परलोकके लियि 
मुनिजन तपस्या करते है, याज्ञिकं रोग 
यज्ञानुष्ठान करते है ओौर दानीजन आद्र 
पू्ेक दान देते ह २०॥ जम्बूदरीपम यज्ञमय 
यज्ञ पुरुष भरवान्‌ विष्णुका सदा यज्ञोदारा यजन 
किया जाता दहै, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपो 
उनकी ओौर-ओौर प्रकारसे दपासना होत्ती है ॥ २१॥ 
दे महामुने ! इस जम्बूद्ीपञ भी भारतवपं सर्वशरेष् 
दे, क्योकि यह कमेभूमि दै। इसके अतिरिक्त 
अन्यान्य देश मोग-मूमियाँ ह ॥ २२॥ हे सत्तम ! 
जीवको सहसरा जन्मोंके अनन्तर महान्‌ पुण्योका 
उदय होनेपर ही कमी इस देश्चमै मनुप्य-जन्म 
माप होताहै। २३॥ देवगण भी निरन्तर यष 
गान करते है किं जिन्दोने स्वगं ओर्‌ अपवर्गे 
मागभूत भारतवपमे जन्म छिया है तथा जो इस 
कमे-भूमिभे जन्म छेकर अपने पलाकांश्चासे रहित 
कर्मोको पररमात्मस्वरूप श्रीविष्णु-मगवान्‌को 
अपण करनेसे निमंर ( पापपुण्यस्ते रहित ) होकर 
उन अनन्तम ही खीन हो जाते हवे पुरुष हम 
देवताओकी अपेक्षा मौ अधिक धन्य ( बद़मागौ ) 
ह ।॥ २४.२५ ॥ | 








जानीम नैतत्क बयं वि्टीने 
0 णि 
स्वगप्रदे कमणि देहवन्धम्‌ | 
प्राप्स्याम धन्याः खलु ते मदुष्या 
ये भारते नेन्द्रियविप्रहीनाः ॥२६॥ 
नववषं तु त्रेय जम्बूदरीपमिदं मया । 
लक्षयोजनविस्तारं सङक्षेपात्कथितं तव ॥२७॥ 
जम्बृद्रीपं समावृत्य लक्षयोजनविस्तरः । 


पता नही, अपने स्वगप्रद्‌ कर्मोका क्षय होनेपर 
कह जन्म ब्रहण करगे १ धन्य तोवेही मनुष्य 
है जो भारतभूमिभें उतपन्न होकर इन्दरियोकी शक्तिसे 
हीन महीं हुए है" ॥ २६॥ 

हे मैत्रेय ! इस प्रकार छाख योजने विस्तारवाछे 
नववषे-वि रिष्ट इस जम्दुद्टीपका मैने तुमसे सक्षेपसे 
वणेन किया । २७॥ हे मैत्रेय ! इस जम्बूदरीपको 
बाहर चारों भोरसे छख योजनवाठे वख्याकार 


मैत्रेय बहयाकारः स्थितः ्षारोदधिवंहिः ॥२८॥ | खारे पानीके समुद्रने घेर रखा है ॥ २८॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमे.ऽशञे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ दिति 


चोथा अध्याय 


श्क्च तथा श्दमक सादि द्वौपोंक( विश्चेष वर्णन 


श्रीपराञ्चर उवाच 
क्षारोदेन यथा द्वीपो जम्बुसंज्ञोऽभिवेष्टितः। 
सवेष्टय क्षारमुदधिं क््षद्रीपस्तथा स्थितः ॥१॥ 
जम्बूद्वीपस्य विस्तारः शतसाहस्रसम्मितः 
स एव द्विगुणो ब्रह्मन्‌ शक्षद्रीष उदाहृतः ॥ २॥ 
सप्र मेधातिथेः पुत्राः क्क्षदरीपेशवसस्य वै| 
ज्येष्ठः श्रान्तहयो नाम शिश्िरस्तदनन्तरः ॥३॥ 
सुखोदयस्तथानन्दः शिवः क्षेमक एव च । 
ध्व सप्तमस्तेषां कक्षदरीपेशवरा हि ते॥४॥ 
पव शान्तहयं वपं शिशिरं च सुखं तथा । 
मानन्दं च रिवं चैव क्षेमकं धर बमेव च ॥ ५॥ 
| म्यादाकारकास्तेपां तथान्ये वर्षपर्वताः । 
सप्तैव तेषां नामानि शृणुष्व शुनिसत्तम ॥ ६ ॥ 
मोमेदश्चेव चन्द्रद्च नारदो दुन्दुभिस्तथा । 
सोमकः सुमनाश्चेव वैभ्राजश्चैव सप्तमः ॥७॥ 
र्षाचकेषु रम्येषु वर्पष्ेतेषु चानघाः | 


पछ्ि6 06 0९ 


धोपराशरजी बोले-जिस प्रकार जस्बूद्रीप 
क्षारसमुद्रसे धिर हभ है उसी प्रकार क्षारसमुद्रको 
चेरे हए सक्चद्ठीप स्थित हे॥ १॥ जस्द्रीपका 
विस्तार एक लक्ष योजन है; ओर हे नहान्‌ ! सक्ष- 
दरीपका उससे दूना कहा जाता है । २॥ लक्षद्वीपके 
स्वामी मेधातिथिके सात पुत्र हुए । उनम सबसे 
बड़ा शान्वहय था शौर उससे छोट शिश्चिर ॥ ३॥ 
उनके अनन्तर कमराः सुखोदय, नन्द्‌, किव भौर 
क्षेमक थे तथा सातवाँ घुर था। ये सब सक्षद्रीपके 
अधीश्वर हुए ।॥। ४ ॥ [उनके अपने-अपने अधिकृत- 
वर्षो] प्रथम शान्तहयवषं दै तथा अन्य सि्िरवषे, 
सुखोदयवपं, आनन्दवर्ष, शिववष, कषेमकव षे ओर 
भरुववप दह ॥ ५॥ तथा उनक्र मयोदा निश्चित करने- 
बाठे अन्य सात पवत्‌ दै । हे मुनिश्रष्ठ ¦ उनके नाम 
ये है, सुनो--॥ & ॥ गोमेद, चन्द्र, नारद्‌, दुन्दुभि, 
सोमक, सुमना भौर सातवोँ वैघ्राज्न ॥ ७॥ 


इन अपति सुरम्य वषे-पवेतो ओर वर्पोमिं देवता 


१४६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अज०४ 


[काका 111 





वसन्ति देवगन्धवंसहिताः सततं प्रजाः ॥८॥ 
तेषु पुण्या जनपदाधिराच्च भ्रियते जनः 

नाधयो व्याधयो वापि सवंकालसुखं हि तत्‌ ॥९॥ 
तेषां नद्यस्तु सप्तैव वर्षाणां च सथुद्रगाः | 
नामतस्ताः प्रवक्ष्यामि श्रुताः पापं हरन्ति याः।१०। 
श्ननुतप्ठा िखी चेव विपाशा धिदिवाक्रमा। 
श्रमृता सुकृता चेव सप्त तास्तत्र निम्नगाः॥ ११॥ 
एते शेहास्तथा नद्यः प्रधानाः कथितास्तव । 
ुद्रशेहास्तथा नस्तत्र सन्ति सहस्रशः ॥१२॥ 
ताः पिवन्ति सदा हृष्टा नदीजनपदास्तु ते । 
अपसतपिणीन तेषां बै न चेबोत्सपिणी द्विज॥१२। 
न त्वेवास्ति युगावस्था तेषु स्थानेषु सप्त । 
त्रेतायुगसमः कालः सवैदेव महामते ॥१४॥ 
षकषदरीपादिषु ब्रहज्छाकदीपान्तिकेषु वै। 


---------------*- ------ 


पश्च वषंसदस्राणि जना जीवन्त्यनामयाः 1१५ 


धर्मा; पश्च तथेतेष वर्णाध्रमविभागश्षः 


वर्णाथ तत्र चत्वारस्तानिवोध वदामि ते ॥१६॥ 
आयंकाः दुररास्चेव विदिङया भाविनश्च ते । 
विगर्षत्रियवेश्यास्ते शूद्राश्च निसत्तम ॥१५७॥। 
जम्बूक्प्माणस्तु तन्मध्ये सुमहांस्तरः । ` 
प्क्षस्तन्नामसं्ञोऽयं क्क्षदरीपो द्विजोत्तम ॥१८॥ 
इल्यते तत्र भगवांस्तैवणेरायंकादिभिः 
सोमरूपी जगत्छ्टा सवः सर्वेश्वरो दरिः 
प्क्षद्रीपप्रमाणेन पकषद्रीपफ समादृतः 
तथैषेक्षरसोदेन परिविषानुकारिणा ॥२०॥ 
इत्येवं तव मेत्रेय प्टकषद्रीप उदाहतः 


# प, (५ 


[1 


॥ १९ 


चा क = ।  _ 





ओौर गन्धर्वो सहित सदा निष्पाप प्रजा निवास 
करती है ॥ ८ ॥ वरहौकि निवासीगण पुण्यवान्‌ होते 
सौर वे चिरकालतक जीवित रहकर मरते दै; 
उनको किसी प्रकारकी आधिव्याधि नहीं होती, 
निरन्तर सुख ही रहता है ॥ ९ ॥ उन वर्षोकौ सात 
ही समुद्रगाभिनी नदिया ह । उनके नाम यैं कुम्दे 
चतलाता दँ जिनके श्रवणमाच्रसे वे पापोंको दूरकर 
देती है 1 १० ॥ वहम अनुतप्ता, हिली, विपाज्ञा, 
त्रिदिवा, अक्तमा, अता ओौर सुकरता-ये ही सात 
नदिय है ॥ ११॥ यह रने तुमसे प्रधान-प्रथान 
पवत भौर नदियोका वर्णेन किय! है; वर्ह छोदे-छोदे 
पर्व॑त लौर नदिया तो भौर भी सहसो है ।॥ १२॥ 
उस देश्के हृष्-पुष्ट लोग सद्‌ा उन नदिका जल- 
पान करते हे! हे द्विज ! उन लोगो हास अथवा 
वृद्धि नही होती ॥ १३॥ ओर न उन सात्त वर्पोमिं 
युगकी ही कोई अवस्था है। हे महामते! दे व्रह्मन्‌! 
सक्षदरपसे छेकर श्ञाकट्रौपपयन्त छ्य दवपोमि सदा 
्रतायुगके समान समय रहता है । इन द्वीपोके 
मनुष्य सद्‌ा नीरोग रहकर पौँच हजार बधतक जीते 
ह ॥ १४.१५ ॥ ओर इनमे वणीश्रम-विभागानुसार 
पच धमं ( अर्हिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं ओर 
अपरिग्रह ) वतमान रहते है । 

बह जो चार वणं है वह्‌ मै तुमको सुनाताहं 
॥ १६] हे स॒निसत्तम ! उस दवीपम जो आयक, कुरर 
विदिष्य भौर भावी नामक जातिया हवे ही क्रमसे 
ब्राह्मण, क्षच्रिय, वैड्य ओौर श्र दै ॥ ५७॥ हे 
द्विजोत्तम ! उसीम जम्बूवक्षके हरी परिमाणवाला एक 
सक्ष ( पाकर) का वृक्ष है, जिसके नामसे उसकी 


` सज्ञा सक्षद्रीप हृ है ॥ १८ ॥ वह आर्यकादि वर्ण 


दारा जगत्छष्टा, सवेरूप, स्वेश्र भगवान्‌ हरिका 


 सोमरूपसे यजन किया जाता हे ॥ १९॥ लक्षद्रीप 


अपने हौ बराबर परिमाणवाछे वृत्ताकार इश्चुरसके 
समुद्रसे चिरा हआ है ॥ २०॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार 
मेने तुमसे संक्षेपे शक्षदरीपका वणेन किया, 








शाल्मरुस्येश्वरो वीरो वपूष्मांस्तत्सुतज्छणु । 
तेषं त॒ नामसज्ञानि सप्तवर्षाणि तानि वे॥२२॥ 
एवेतोऽथ हरितिवैव जीमूतो रोहितस्तथा । 
वेयुतो मानसर्चेत्र सुप्रमश्च महाएने ॥२२॥ 
शाल्मलेन सथ्द्रोऽसो द्वीपेनेभुरसोदकः 
विस्तारद्विगुणेनाथ पवतः संवृतः स्थितः 
तघापि पवता; सप्न विज्ञेया रत्नयोनयः 
वर्षामिव्यञ्जकायेतु तथा सप्र च निस्रगाः।॥२५। 
कुयुदथोनतश्चैव तृतीयश्च बादकः । 

द्रोणो यत्र महौपषप्यः स चतुर्थो महीधरः ॥२६॥ 
कट्स्तु पञ्चमः षष्ठो महिषः सप्रमस्तथा । 

कुद न्पवंतवरः सरिन्नामानि मे शृणु ॥२७॥ 
योनिस्तोया वितृष्णा च चन्द्रा युक्ता विमोचनी 
निदृत्तिः सपमी तासां स्मरतास्ताः पायक्चान्तिदाः २८ 
रेतश्च हरितं चैव वैधुतं मानसं तथा । 
जीमूतं रोहितं चैव सुप्रमं चापि शोभनम्‌ । 
सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुवंण्यंुतानि बे ॥२९॥ 
श्राल्पहे ये तु वर्णाश्च वसन्त्येते महाभ्ुने । 
कपिलाश्वारुणाः पीताः कृष्णारचेव पृथक्‌ पृथक्‌३० 
बराह्मणाः कषत्रिया वेश्याः दुद्राश्चैव यजन्ति तम्‌| 
भगवन्तं समस्तस्य विष्णुमात्मानमव्ययम्‌ ॥३१॥ 
वायुभूतं मसग्रष्य॑ज्वानो यज्ञसंस्थितिम्‌। 
देवानामत्र सान्निष्यमतीव सुमनोहरे ॥२२॥ 
शाल्मलिः सुमहान्य्षो नान्न निर्तिकारकः। 

एष दीपः सथुद्रेण सुरोदेन समादृतः ॥२३॥ 
विस्ताराच्छाल्मरस्यैव समेन तु समन्ततः | 
सुखेद्कः परषतः कुादठीपेन संतः ।।२४॥ 
शाल्मलस्य तु विस्ताराद्‌ दिगुणेन समन्ततः। 
ज्योतिष्मतः इुशद्रीपे सप्त पुत्राञ्च्छणुष्व तान्‌। २५ 


॥२५॥। 








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सयाल्मल्द्वीपके सवामी वीरवर वपुष्मान्‌ थे। 
उनके पुत्रोके नाम युनो-हे महासने ! वे इवे, 
हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस ओौर सुप्रभ 
थे । उनके सात वषं उन्दीके नामानुसार संज्ञावाछे 
है ॥ २२-२३ ॥ यह्‌ ( क्षक्षद्रीपको वेरनेवाङा ) 
इुरसका समुद्र॒ अपनेसे दूने विस्तारे इस 
स्ाल्म्द्रीपसे चारो जरसे धिसा हुआ है| २४॥ 
वँ भी रत्नोके उद्भबस्थानरूप सात पवैतदै, जो 
उन सातों वपेकि विभाजक है तथा सात नदियां 
है ॥ २५। पवतो पहा कुद, दसरा उन्नत ओर 
तीसरा बलाहक है तथा चौथा द्रोणाचल है, जिसमें 
नाना प्रकारकी महौषधियौ है ॥ २६॥ पौँचवां 
कङ्क, छठा महिष ओौर सात्वं गिरिवर ककुद्मान्‌ 
है। अव नदियोके नाम सुनो ॥ २७॥ वे योनि, 
तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, मुक्ता, विमोचनी ओर 
निचरत्ति दै तथा स्मरणमात्रसे ही सारे पापको शान्त 
कर देनेवाल द ॥२८॥ सवेत, हरित, वेदत, 
मानसः, जीमूत, रोहित ओौर अति शोभायमान 
सुप्रभ--ये उसके चासो वर्णोसे युक्त सात वपं टै 
॥ २९॥ हे महामुने ! शाल्मखद्रीपमे कपिर, अरुण, 
पीत ओर क्रष्ण--ये चार बणं निवास करते द जो 
पृथक-एथक्‌ क्रमः ब्राह्मण, कषन्निय, वेश्य ौर शुद्र 
दै । ये यजनश्चील छोग सबके आत्मा, अन्यय ओौर 
यज्ञफे आश्रय वायुरूप विष्णुभगवान्‌का श्रेठ यज्ञो 
द्वारा यजन करते हुए पूजन करते हँ । इस अस्यन्त 
मनोहर द्वीपे देवगण सदा विराजमान रहते दै 
॥२०-३२॥ इसमे शाल्मख ( सेमर ) का एक महान्‌ 
वृक्ष है जो अपने नामसे षी अत्यन्त श्चान्तिदायक 
है । यह्‌ द्वीप अपने समान ही विस्तारवे एक 
मदिराके ससद्रसे सव्र भोरसे पूणेतया धिसा हुभा 
है ओर यह्‌ सुणस्मुद्र श्चास्मखुट्टीपसे दूने विस्तारः 
वाठ कुशद्धीपद्वारा सब भोरसे परिवेष्टित है । 


कुशद्रीपमें [ वहकि अधिपति ] भ्योतिष्मान्‌के 





उद्धिदो वेणुमांश्चैव वैरथो लम्बनो धृतिः । 
प्रभाकरोऽथ कपिलस्तन्नामा वर्षपद्वतिः ॥२६॥ 
तस्मिन्वसन्ति मनुजाः सदह दैतेयदानवैः । 
तथैव  देवगन्धर्वयक्षफिम्पुरुषादयः ॥३७॥ 
वर्णास्तत्रापि चत्वारो निजामुष्रानतस्पराः । 
दमिनः शुष्मिणः स्नेहा मन्देदाश्च महान ॥२८॥ 
ब्राह्मणाः क्षत्रिया कैदयाः इुद्राश्वाजुक्रमोदिताः। 
यथोक्तक्मकरत्वात््ाधिकारक्षयाय ते ॥३९॥ 
तत्रैव तं ङुशदवीपे ब्रह्मरूपं जनादेनम्‌। 
यजन्तः क्षपयन्तयुग्रमधिकारफलप्रदम्‌ ॥४०॥ 
विदूमो हेमशेरश्च चयुतिमान्‌ पृष्पवांस्तथा । 
कुशेशयो हरिश्चैव सप्तमो मन्दराचरः ॥४१॥ 
वर्षाचलास्तु सप्तैते तत्र द्वीपे महाने । 
नद्यश्च सप्र तासां तु शृणु नामान्यनुक्रमात्‌ ।४२। 
धूतपापा शिवा चेव पवित्रा सम्मतिस्तथा | 
विदयुदम्भा मही चान्या सवंपापहरास्तिमाः ॥४३॥ 
अन्याः सहस्रशस्तत्र शुद्र नद्यस्तथाचलाः । 

ईश द्वीपे डुशस्तम्बः संका तस्य तत्स्मृतम्‌ ॥४४॥ 
तत्प्रमाणेन स द्वीपो घृतोदेन समृतः | 
धृतोदश्च शुद्र पै करौश्चद्वीपेन संतः ।४५॥। 


रश्वदरीपो महाभाग भ्रुयताश्चापरो महान्‌ । 
इुशदीपस्य विस्ताराद्‌ द्विगुणो यस्य तिस्तरः।।४६॥ 
कशद्वीपे द्युतिमतः पुत्रास्तस्य महात्मनः। 
तन्नामानि च वर्षाणि तेषां च्रे महीपतिः ॥४७॥ 
शलो मन्दगशोष्णः पीवरोऽथान्धकारकः | 

निश दुन्दुभिश्चैव सप्तैते तत्सुता ने ॥४८॥ 
तत्रापि देवगन्धव॑सेबिताः सुमनोहराः । 
वर्षाचला महाबुद्धे तेषां नामानि मे भृणु ॥४९॥ 





सात पुत्र थे, उनके नाम सुनो ॥३३-३५॥ वे उद्धिद्‌, 
तेणुमान्‌ , वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर ओौर्‌ कपि 
थे । उनके नामानुसार ही बहक वर्षोकि नाम पडे 
॥ ३६ ॥ उसमें दैत्य ओौर दानबोके सहित मनुष्य 
तथा देव, गन्धर्वे, यक्च भौर किन्नर आदि निवास 
करते दै ॥ ३७ ॥ है महामुने ! वहाँ भी अपने-अपने 
क्मोमि तत्पर दमी, शुष्मी, स्नेह ओर मन्देहनामक 
चारही वणं ह|| ३८॥ जो क्रमसः बराह्मण, क्षत्रिय, 
वैश्य ओर शूद्र ही दै । अपने प्रारन्धक्षयके निमित्त 
आखानुक्कूल कमं करते हुए व्यँ कुशदीपमें हौ वे 
ब्रह्मरूप जनादंनकी उपासनाद्वारा अपने प्रारब्धफसरके 
देनेवाछे अल्युग्र अहकारका क्षय करते दै ॥३९-४०॥ 
हे महासने ! उस ्वीपमें विद्रुम, हेमशेल, द्युतिमान्‌, 
पुष्पवान्‌, कुरीशय, हरि सौर सात्वं मन्दराचलक-- 
ये सात वषपवंत ह । तथा उसमे सात ही नदिया 
हः उनके नाम क्रमकः सुनो 1 ४१-४२९॥ वे धूतपापा, 
शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत्‌, अम्भा ओर मही 
है । ये सम्पूणं पापोको हरनेवाडी दहै ॥ ४३ ॥ वर्ह 
ओर भी सहसो छोरी-छोटी नदियां जर पवत दै । 
छुशद्रीपमें एक कुशका श्चाड्‌ है । उसीफे कारण इसका 
यहः नाम पडा है | ४४ ॥ यह्‌ द्वीप अपने हौ बराबर 
विस्तारवाठे घीके समुद्रसे धिरा हुआ है भौर वह्‌ 
घृत-समुद्र करौश्चद्वीपसे परिवेष्टित है ।। ४५ ॥ 

हे महाभाग ! अव इसके अगले क्रौच्चनामक 
महाद्रीपके विषयमे सुनो, जिसका विस्तार कुशद्रीपसे 
दूना है ॥ ४६ ॥ कोच्हीपमे महात्मा दयुतिमान्‌के 
जो पुत्र थे उनके नामायुसार हौ महाराज ययुतिमानने 
उनके वर्षं नियत किये | ४७॥ हे मुने ! उसके 
कुचल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि भौर 
दुन्दुभि-ये सात्त पुत्र थे ॥ ४८॥ वौ भी देवता 
मौर गन्धर्वोसे सेवित अत्ति मनोहर सात बषेपर्व॑त 
है । हे महाबुद्धे ! उनके नाम सुनो-॥ ४९॥ 


अ०४ | 


द्वितीय अश्च 








____------------------------------------------ 


करौश्चरच वामनरचेव तृतीयदचान्धक।रकः । 

चतुर्थो रतनशेरदच स्तराहिनी हयसनिमः ॥५०॥। 
दिवात्रस्पश्चमधात्र तथान्यः पुण्डरीकवान्‌ 
दुन्दुमिश्र महाशेहो द्विगुणास्ते परस्परम्‌ ॥५१॥ 
द्वीपा द्रीपेषुये रला यथा द्वीपेषु ते तथा । 
वर्े्ेतेषु॒रम्येषु तथा शेरबरेषु च । 
निवसन्ति निरातङ्काः सह देवगणः प्रजाः ॥५२॥ 
पुष्कराः पुष्क धन्यास्तिष्यार्पाचर महाशने। 
ब्रद्मणाः त्रिया वैश्याः सुद्राशानुक्रमोदिताः ५३ 
नदीरत्रेय ते तत्र याः पिबन्ति शृणुष्व ताः । 
सप्षप्रधाना क॒तशस्तत्रान्याः शषद्रनिम्नगा; ॥५४। 
गोरी इुधुदरती चैव सन्या रात्रिम॑नोजवा 
क्षान्ति पुण्डरीका च सप्तैता वष॑निम्नगाः (५९५ 
तत्रापि विष्णुर्भगवान्पुष्कराचेजेनारदनः । 

यानै शुद्रस्वरूपश्च इ्यते यत्तसकननिधो ॥५६॥ 
्रश्चदरीपः सदु्रेण दधिमण्डोदकेन च । 
आवतः सर्वतः क्रोश्चदीपतुल्येन मानतः ॥५७॥ 
दधिमण्डोदकद्चापि शाकद्वीपेन सघृतः । 
्रोश्वद्रीपस्य विस्ताशद्‌ द्विगुणेन महान ॥५८॥ 


शराकद्रीपेदवरस्यापि मन्यस्य सुमहात्मनः । 
सप्तैव तनयास्तेषां ददौ वर्षाणि सप्त सः ॥५९॥ 
जलदश्च कुमारस्च सुङकमारो मरी चकः । 
कुसमोदश्च मोदाकि, सप्तमश्च महाम; ।॥६०॥ 
ततसं्ञान्येव तत्रापि सप वरषाण्यनुक्रमात्‌ । 
तत्रापि पर्वताः सप्त वप॑विच्छेदकारिणः ॥६१॥ 
ूर्॑स्तत्रोदयगिरिजेलाधारस्तथापरः 
तथा रेतकः इयामस्तथेचास्तगिरिद्धिज 
आम्पिकेयस्तथा रम्यः केसरी पवंतोच्तमः 


।६२॥ 


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शाकस्तत्र महावृक्षः सिद्धगन्धवं सेवितः ॥६३॥ 


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छने पहटा कच्च, दूसरा वामन, तीस्षय॒ अन्धः 
कारक, चौथा घोडीके भुखके समान रत्नमयं 
स्वादिनी पवत, पच दिवाघृत्‌ › छठा पुण्डरोकवान्‌ 
अओौर सातवाँ महापवंत दुन्दुभि है । वे द्वीप परस्पर 
एक-दुसरेसे दूने है ॥ ५०.५१ ॥ ओर उन्दीकी भति 
उनके पवत भौ [ उत्तरोत्तर द्विगुण ] दै । इन सुरम्य 
वर्पो भौर पर्वतशरषठोम देवगणोंके सदित सम्पूणं 
प्रजा निर्मेय होकर रहती है ॥ ५२॥ हे महासने ¦ 
वहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ओर शुद्र कमसे पुष्कर 
पुष्कर, धन्य ओर तिष्य कहराते द ॥ ५३ ॥ हे 
मैत्रेय ! वहं जिनका जल पान किया जाता है उन 
नदियोंका विवरण सुनो । उस द्वीपमें सति प्रधान 
तथा अन्य सैकड़ों दर नदिया है | ५४॥ वे सात 
वर्ष-नदियौं गौरी, कुमुहती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजव, 
क्षान्ति ओौर पुण्डरीका है || ५५ ॥ वहाँ भी रुद्ररूपी 
जनार्दन भगवान्‌ विष्णुको पुष्करादि वर्णोद्वारा 
यज्ञादिसे पूज्ञा की जाती दै ॥ ५६ ॥ यह्‌ कौचदरीप 
चासो ओरसे अपने तुल्य परिमाणवाठे दधिमण्ड 
( महं ) के सस्रते घिरा हुमा है ॥ ५७॥ मौर हे 
महासने ! यह मटका समुद्र मी श्ाकदवीपसे चिरा 
हुआ है, जो विस्तारमे करौच्चद्रीपसे दूना हे ॥ ५८ ॥ 


` ज्ञाकद्कोपके राज्ञा महात्मा भग्यके भी सात ही 
पुत्र ये । उनको भौ उन्होने प्रथक्‌-प्रथच्‌ सात वषं 
दिये ॥ ५९ ॥ वे सात पुत्र जरद्‌, कुमारः, सुकुमार, 
मरीचक, कुसुमोद्‌, मौदाकि घौर मदा्ुम थे । 

नहीकि नामालुसार वह करमशः सात वपं दै ओर 
वहाँ भी वर्पोका विभाग करनेवटे सात ही पवेत 
ह ॥ ६०.६१ ॥। द दज ! वयँ पदला पंत उदयाचर 
है ओौर दूसरा जराधारः तथा अन्य पवत रेवतकः 
स्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय ओर अति सुरम्यं 
गिरिश्रेष्ठ केसरो दै । वह सिद्ध भौर गन्धर्बोसि 
सेवित एक अति महान्‌ सकृ हे ॥ ६२.६३ ॥। 
(> णक) स्प करतेसे हृदयम परम आहू 


१५० 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० ४ 








तत्र पुण्य। जनपदार्चातुेण्यंसमन्वितः ॥६४॥ 
नदयरचात्र महापुण्या; सव पापमयापहाः। 
सुङ्मारी कुमारी च नरिनी घेदुका च या॥६५॥ 
इशषुदच पेणुका चव गभस्ती सप्तमी तथा । 
अन्याश्च शतशस्तत्र क्षुद्रनद्यो महाघुने ॥६६॥ 
महीधरास्तथा सन्ति शतशोऽथ सहस्रशः । 

ताः पिबन्ति मुदा युक्ता जरदादिपुये स्थिताः।६७। 
वरेषु ते जनपदाः स्वर्गादभ्येत्य मेदिनीम्‌। 
धमंहानिनं तेष्वरित न सङ्घः परस्परम्‌ ॥६८॥ 
मर्यादाब्यु्रमो नापि तेषु देशेष्‌, स्षसु । 
वज्गारच मागधाश्चैव मानसामन्दगास्तथा॥६९॥ 
वद्धा बाह्मणभूयिष्ठा मागधाःक्षत्रियास्तथा। 
वैश्यास्तु मानसास्तेषां शूद्रास्तेषां त मन्दगाः ।७०। 
शाकद्वीपे तु तैरविष्णुः च्य॑रूपधरो श्रे । 
यथोक्तेरिडयते सम्यक्‌कर्ममिनियतात्मभिः।७१॥ 
शाकदवीपस्तु मतरेय क्षीरोदेन समादृतः । 
शकरद्रीपप्रमाणेन बल्येनेव वेष्टितः ॥७२॥ 
प्षीरान्धिः स्वतो ब्रहन्पुष्कराख्येन वेष्टितः । 
दीपेन शाकद्वीपात्तृ दिगुणेन समन्ततः ॥७३॥ 


पुष्करे सवनस्यापि महावोरोऽभवत्सुतः । 
धातकिश्च तयोस्तत्र द्वे वषे नामचिहिते ॥७४॥ 
महावीरं तथेवान्यद्धातकीसण्डसंसतितम्‌ । 
एकरचात्र महाभाग प्रख्यातो व्ेपवंतः ॥७५॥ 
मानसोत्तरसंस्तो वै मध्यतो बयाठ़ृतिः। 
योजनानां सदक्ताणि ऊध्वं पशवाश्दुच्दितः॥७६॥ 
तावदेव च विस्तीणः सवतः परिमण्डलः । 
परष्करदी पवलयं मध्येन विभजन्निव ॥७७॥ 
स्थितोऽसौ तेन विच्छिन्नं जातं तदरषकद्यम्‌ । 
वरूयाकारमेकैकं तयो्व॑पं॑तथा गिरि, ॥७८॥ 


[च न = 











उस्पन्न होता दै । बहम चातुवेण्यसे युक्तं अति पविच्र 
देश दै ॥ ६४ ॥ ओर समस्त पाप तथा भयको दूर 
करनेवाली सुङ्कमारी, कुमारी, नलिनी, धेका, इक्षु 
वेणुका ओर गभस्ती-ये सात महापवित्र नदियां 
है । हे महामुने ! इनके सिवा उस द्वीपमे ओौरभी 
सैकड़ों छोटी-छोटी नदिय ओर सेकड़ौ-हजारों 
पवेत है । स्वर्ग-मोगके अनन्तर जिन्होने ए्रथिवी- 
तङूपरः आकर जरद्‌ आदि वर्षम जन्म ग्रहण किया 
है । वे लोग प्रसन्न होकर उनका जख पान करते है । 
उन सातो वमिं धर्म॑का हास, पारस्परिक संघषं 
( कख्ह्‌ ) अथवा मयौदाका उल्छङ्घन कभी नहीं 
होता । बह वंग, मागध, मानस ओौर मन्दग-ये 
चार वणे है| इनमें वंग सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण है, मागध 
क्षत्रिय है, मानस वैश्य दै तथा मन्दग शुद्र 
॥ ६५--७० ॥ हे ने ! शाकद्वीपे श्ाखानुकूक कमं 
करनेवाछे पूर्वोक्तं चारो वर्णोह्ास संयत चिनत्तसे 
विधिपूवेक सूय॑रूपधारी मगवान्‌ विष्णुक्ी उपासना 
की जाती दै ॥ ७१ ॥ हे मेत्रेय ! वह्‌ शाकद्वीप अपने 
ही बराबर विस्तारवारे मण्डलाकार दुग्धके समुद्रसे 
धिरा हभ है ॥ ७२॥ ओर हे ब्रह्मन्‌ ! वह क्षीर- 
सञुद्र शाकट्वीपसे दूने परिमाणवाठे पुष्करद्वीपे 
परिवेष्टित हे ॥ ७३॥ 


पुष्करद्वीपमें वहौकि अधिपति महाराज सवनके 
महाबीर ओौर धातकिनामक षो पुत्र हुए । अतः 
डन दोनोके नामानुसार उसमे महावीर-लण्ड भौर 
धातकौखण्डनामक दो वषं ह । हे महाभाग ! इसमें 
मानसोत्तरनामक एक ही वर्प-पवंत कहा जाता दै 
जो इसके मध्यमे बलयाकार स्थित है तथा पचास 
सहस्र योजन ङंचा ओर इतना ही सब ओर 
गोल्लाकार फैडा हृआदहै। यह्‌ पवत पुष्करः 
द्वीपद्प गोखेको मानो बीचमेसे विभक्त कर 
रहा दहे ओर इससे विभक्त होनेसे उसमे दो 
वषं हो गये दहै; उनसे प्रत्येक वषं ओौर 
वह्‌ पवेत वकयाकार दही हे ॥ ७४--७८ ॥ व्हकि 





मिरामया विशोकाश्च रागहेषादिव्जिताः ॥७९॥ दश्च सहस्र वर्ष॑तकृ जीवित रहते है ॥ ७२ ॥ 


अधमोत्तमौ न तेष्वास्तां न वध्यवधकौ द्विज 
न्याया मयं दवेषो दोषो लोमादिको न च ॥८०॥ 
महावीरं बहिवंषं॑धातकीसण्डमन्ततः। 
मानसोत्तरशेरस्य देवदैस्यादिसेषितम्‌ ॥८१॥ 
सत्यानृते न तत्रास्तां द्वीपे पष्करसं्षिते । 

न ततर नघः रेखा वा द्वीपे बधदयान्वते॥८२॥ 
तल्यतेषास्तु मनुजा देवास्तत्रेकरूपिणः। 
वर्णाश्रमाचारहीनं धर्माचरणवर्जितम्‌॥।८३॥ 
त्रयी वार्ता दण्डनीतिगुभ्रुषारहितश्च यत्‌ । 
वद्यं तु तैत्रेय भौमः स्वरगोऽयथुत्तमः ॥८४॥ 
सव॑तुसुखदः कालो जरारोगादिवर्जितः | 
धातकफीखण्डसंन्ेऽथ महावीरे च वे एने ।८५॥ 
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः स्थानुत्तमम्‌ । 
तस्मिन्निवसति बरह्मा पूञ्यमानः सुरासुरैः॥८६॥ 
स्वादूदकेनोदधिना पुष्करः परिविषटितः । 

समेन पुष्करस्यैव विस्तरान्मण्डलं तथा ॥८७। 


एवं द्वीपाः सुद्ध सप्र सप्तभिरावृताः । 
द्वीपर्चेव सयुद्रश्च समानौ द्विगुणौ परो ॥८८॥ 
पयांसि सव॑दा स्व॑स््रेषु समानि वे। 
न्यूनातिरिक्तता तेषां कदाचिन्नैव जायते ॥८९॥ 
स्थारीस्थमग्निसंयोगादुद्रेकि सलि यथा। 
तयेन्दुद्रौ सलिलमम्भोधौ घनिसत्तम ॥९०॥ ` 
अन्पूनानतिस्कतिशच वधंन््यापो हसन्ति च। 
उदयास्वमनेष्विन्दोः; पक्षयोः शुक्गकृष्णयोः॥९१। 
दशोत्तराणि पैव हङकु्ानां शतानि व । 


हे हिज ! उनमें उत्तम-अधम अथवा वध्य-वधक 
आदि (विरोधी) भाव तदहींदहै ओौरन उनमें 
ईष्यौ, असूया, भय, द्वेष ओौर लोभादि दोषही है 
॥ ८० ॥ महावीरवषं मानसोत्तर पक॑तके बाहरकी 
ओर है ओर धातकीखण्ड भीतरकी ओर । इनमें 
देव भौर दैत्य आदि निवास करते ह ।॥ ८१॥ दो 
खण्डोँसे युक्त उस पुष्करद्वीपमे सत्य ओर मिभ्याका 
व्यवहार नहीं है ओर न उसमे पवत तथा नदियां 
ही दै ।॥ ८२॥ बहौके मनुष्य ओौर देवगण समान 
वेष ओर समान शूपवाटे होते } हेमेत्रेय। 
वणश्रमाचारसे हीन, काम्य कर्मोसि रहित तथा 
वेदत्रयी, कृषि, दण्डनीति भौर छ्रुश्रूषा आदिते शन्य 
वे दोनो वषं तो मानो अघ्युत्तम भौम ( प्रथिवीके ) 
स्वग॑हेँ ॥। ८३-८४ ॥ हे मुने ! उन महावीर ओर 
घातकोखण्डनामक बषमिं कार ( समय ) समस्त 
ऋतुओमे सुखदायक ओौर जरा तथा रोगादिसे 
रहित रहता दै ॥ ८५ ।। पुष्करद्वीपभं ब्रह्माजीका 
त्तम निवासस्थान एक न्यम्रोध (वट) का वृक्ष 
है, जह्य देवता ओौर दानवाद्विसे पूनित श्रीत्रह्माजी 


. विराजते हँ ॥ ८६ ॥ पुष्करद्वीप चारों ओरसे अपने 


ही समान विस्तारवारे मीठे पानीके समुद्रसे 
मण्डलके समान विरा हुआ है ॥ ८७ ॥ 


हृ प्रकार सातो द्वीप सात समुद्रौसे धिरे हुए 
है ओरवे ह्वीप तथा [ न्ह घेरनेवारे}) समुद्र 
परस्पर समान द ओौर रन्तरोत्तर दने होते गये दै 
॥ ८८ । समी सयुद्रौमे सदा समान जर रहता है, 
ठसमे कभी न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती 
| ८९ ॥ है मुनिश्रेष्ठ ¦ पाच्रका जर जिस प्रकार 
अग्निका संयोग होनेसे उवख्ने छगता है उसी 
प्रकार चन्द्रमाकी कलाओंके बद्नेसे समुद्रका जल 
भी बदने छगता ह ॥ २० ॥ शुक्त ओर दरष्ण पक्षों 
चन्द्रमाके उद्य ओौर अस्तसे न्यूनाधिक न होते 
हुए ही जल घटता ओौर बढता है ॥९१॥ हे 
महामुने! समुद्रके जल्की बृद्धि ओौर क्षय पाँच 


अगां वृद्धिक्षयौ द्रौ सामुद्रीणां महायुने ॥९२॥ । सौ द (५९०) अगुलतक देखी जातौ दै ॥ ९२॥ 


# 9 ४ ` ° ` ॐ ` 4 ॥। 





भोजनं पुष्करद्वीपे तत्र स्वयथुपस्थितम्‌ | हे विप्र | पुष्करद्वीपमे सम्पूणं प्रजावगं सवदा 
“ “" , । , `` , | [विना.प्रयत्नके ] अपने आपह प्राप्त हुए षड्रस 
षड्रसं युञ्जते बिभ्र प्रजाः सर्वाः सदेव हि ॥९२॥ | मोजनका आहार करते ह ॥ ९३ ॥ 


स्वादूदकस्य परितो दृश्यतेऽरोकसंस्थितिः। ` स्वादृदक (मीठे पानके) समुद्रके चारों ओर खोक 
द्विगुणा काश्चनी भूमिः सवंजन्तुविवजिता ॥९४॥ निवासे शून्य ओर समस्त जौवोसि रदित उससे 

| वनौ सुबणमयी भूमि दिखायी देती हे ॥ ९४ ॥ वहं 
लोकालोकस्तत्शेको योजनायुतविस्तृतः। दस सहस्र योजन बिस्तारवाखा रछोकाणोक-पवंत 
है । बेह पर्व॑त ऊँचाईमे भी उतने ही सहस योजन 
करा है.॥। ९५ ॥ उसके आगे चस पवंतको सब ओरसे 
ततस्तमः समाघृर्य तं रोर सवतः स्थितम्‌ । आबरृतकर घोर अन्धकार छाया हुआ है, तथा वह 
तमध्ाण्डकट!हेन समन्तात्परिवेष्टितम्‌ ॥९६॥ | अन्धकार चारों ओरसे ब्रह्मण्ड-कटाहसे आवृत 
। | | है ॥ ९६ ॥ हे महामुने ! अण्डकटाहके सहित द्वीप 
पश्वाशत्कोरिग्रिस्तारा सेययुवीं महायरुने। समुद्र भौर पव॑तादिथु् यह्‌ समस्त भूमण्डल पचास 
सहैवाण्डकटाहेन सद्वीपान्िमदीधरा ॥९७॥ | करोड़ योजन विस्तारवारा है ॥ ९७॥ हे मैत्रेय ! 


सेयं धात्री विधात्री च स्ैभूतगुणाधिका | | भाकाशादि समस्त मूलोसे अधिक शुणवाल चद्‌ 
प्रथिवी सम्पूणं जगती आधारभूता ओर्‌ उसका 
आधारभूता सवेषां मैत्रेय जगतामिति ॥९८॥ | पाडन तथा द्व करनेवाछ है ॥ ९८॥ 


भन्न = 





उच्छायेणापि तावन्ति सदश्चाण्यचह्ो हि सः।॥|९५॥ 





इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयंऽरो चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 


पाँचर्वोँ अध्याय 
सात पाताललोर्कीका वणेन ` 

श्रीपराह्ञर उवाच भीपराश्ारजी बोरे-हे द्विज ! मैने तुमसे यह्‌ 
विस्तार एष कथितः प्रथिव्या भवतोमया। | एथिवीका विस्तार कहा; इसको ऊंचाई भी सन्तर 
है । 
 स्ततिस्त॒ सदखाणि दरिजोच्छुयोऽपि कथ्यते॥ १॥ सहस योजन कहौ जाती है ॥ १॥ हे मुनिसत्तम ! 
- समेव पातालं ` एनिसन्म । अतल, वित, नित, गभस्तिमान्‌ , महत्त, सुतल 
, दसा | ता | ४ स  . ओर पाताल इन सातोमसे प्रस्येक पाताल दश-दश 

अतलं वितं चैव नितं च गभर्तमत्‌। 


सद्र योजनकी दूरीपर है ॥ २॥ हे मैत्रेय ! सुन्दर 
` मरहाख्य सुतर चग्रय पाताट चापि सप्रमपर्‌।॥। २॥ महंोसे सुश्लोभित वहौकी भूमियां युक्त, छृष्ण, 





0 ५४ ५ © ८ 
.शुक्रकृष्णारुणाः पीताःशकराःशहकाश्चनाः। अरुण ओर पीत वणंकी तथा शकंरामयी ( कँकरीी ) } 
भूमयो यत्र मैत्रेय बरप्रासा्मण्डिताः ॥ ३॥ | जैडी ( पल्थरकी) अर स॒बणेमयी है ।॥३॥ हे 
तेषु दानवदैतेया यक्षाश्च शतशस्तथा। | महासने ! उनम दानव, द्य, यश्च भौर बङध-बद़े नाग 


: निषसन्ति महानागजातयश्च महा्ने ॥ ४॥ । जािकोंकी सकद जातिया निवास करती ह ।1 ४॥ 


` 9 








स्वर्छोकादपि रम्याणि पाताष्ानीति नारदः । 

प्राह सरगसदां मध्ये पातारेभ्यो गतो दिषि॥ ५॥ 
आहयादकारिणः जुभ्रा मणयो यत्र सुप्रभाः । 
नागाभरणभूषासु पातां केन तत्समम्‌ ॥ & ॥ 
हैत्यदानवकन्यामिरितश्चेतश्च शोभिते । 
पाताले कस्य न प्रीतिर्विदुक्तस्यापि जायते| ७ ॥ 
दिवार्रदमयो यत्र प्रभां तन्वन्ति नातपम्‌। 
शशिरदिमर्न शीताय निचि घोताय केवलम्‌ ।॥ ८॥ 
भक्यमोज्यमहापानयुदितैरपि भोगिभिः । 

यत्र न ज्ञायते काटो गतोऽपि दञुजादिभिः॥९॥ 
वनानि न्यो रम्याणि सरांसि कमलाकराः | 
पस्कोकरिरामिापाथ मनोज्ञान्यम्भराणि च)।१०॥ 
भूषणान्यतिशुभ्राणि गन्धादचं चानुलेपनम्‌ । 
वीणावेणुमूृदङ्गानां स्वनास्तूर्याणि च द्विज ॥११॥ 
एतान्यन्यानि चोदारभाग्यमोग्यानि दानवैः । 
दैर्योरगैश युज्यन्ते पातालान्तरगोचरेः ॥१२॥ 
पातालानामधश्चास्तै विष्णोर्या तामसी तनुः । 


रोपार्या यदगुणान्वक्तु न शक्ता दैत्यदानवाः। १३। 
योऽनन्तः पटयते सिद्ेदबो देवर्पिपूनितः । 

स सदखरिरा व्यक्तस्वस्तिकामरभूषणः ॥१४॥ 
फणामणिसदस्रेण यः स विद्योतयन्दिशः । 
सर्वान्करोति निर्वीर्यान्‌ दिताय जगतोऽसुरान्‌।१५। 
मदाघूणितनेप्रोऽस्तौ यः सदैवेकङ्कण्डलः । 
किरी सरम्धये भाति सागि; इवेत इवाचछः। १६। 


नीरवासा मदोत्सिक्तः श्वेतहारोपशोभितः । 





साघ्रगङ्गाप्ाहोऽसौ कैलासाद्रिरिवापरः ॥१७॥ 





एक बार नारदजीने पातालोँसे स्वगमे जाकर 
वहौकि निवासियोसे कहा था कि "पाता तो स्व्म॑से 
भी अधिक सुन्दर हैः ॥५॥ जहौ नागगणके 
आमूषणोंमे सुन्दर प्रमायुक्त आह्वादकारिणी शुभ्र 
मणिँ जड़ी हुई है उस पाताख्को किसके समान 
कहु १ ॥ ६ ॥ जहतां दैत्य ओर दानवोंकी 
कन्याभोँसे सुक्लोभित पाताख्लोकमे किंस शुक्त 
पुरुषकी मी प्रीति न होगी ॥ ७॥ जह दिनम सूयेकी 
किरणं केवर प्रकाश हो करती है, घाम नदी करती; 
तथा रातमें चन्द्रमाक्री किरणोँसे शीत नदीं होताः 
केवत चदनी हे फैलती है ॥८। जहौ भक्ष्य, मोञ्य 
ओर महापानादिके भोगोँसे आनन्दित सर्पौ तथा 
दानवादिकोँफो समय जाता हुआ मी अतीत नहीं 
होत्रा ॥ ९। जहौ सुन्दर बन, नदिया, रमणीय 
सरोवर अौर कमलोके बन दै, जह नरकोकिलोकी 
सुमधुर क्ूक भूजती है एवं आकाश मनोहारी है 
॥ १० || ओर हे द्विज ¦ जह्य पात्ताखनिवासी दैत्य, 
दानव एवं नागगणद्रारा अति स्वच्छ आम्‌षण, 
सुगन्धमय अनुदेपन, वीणा, वेणु ओर बदंगादिकि 
स्वर तथा तूयं-ये सव, एवं भाग्यञञाल्ियोके भोगने- 
योग्य ओौर भी अनेक मोग भोगे जाते है ॥ ११-१२॥ 

पातालोके नीचे विष्णुभगवान्‌का रेष नामक जो 
तमोमय विग्रह है हसफे गुणोका दैत्य अथवा 
द्ानवगण भी वर्णन नही कर सकते ॥ १३॥ जिन 
देव र्षिपूजित देव क्रा सिद्धगण अनन्त" कहकर ब्रखान 
करते थेवे अति निर्मल, स्प स्वस्तिक चिहोसे 
बिभूषरित तथा सहस्र शिरवके है ।॥ १४ ॥ जो 
अपने फगोको स्ख मणियोसे सम्पूणं दिश्चाओंको 
देदीप्यमान करते हुए संसारके कल्याणके रिषए 
समस्त असुरोंको वयहन करते रहते दै ॥ १५॥ 
मदके कारण अरुणनयन, सदैव एक ही कुण्ड 
पहने हृए तथा सुङुट ओर माखा आदि धारण किये 
जो अग्नियुक्त इवेत पवैतके समान सुशोभित है 
॥ ९६ ।॥ मदसे उन्मत्त हए जो नीलाम्बर तथा इवेत 
हारोसे सुशोभित होकर मेघमाला भौर गङ्ग प्रवाह- 
से युक्त दूसरे कैलास पवेतके समान विराजमान 
है ।॥ १७॥ जो अपने हाथमे हर ओौर उत्तम मूस 


१५४ 


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लाङ्गरासक्तदस्ताग्रो विभ्न्पुपरयुत्तमम्‌ । 


४ ¢ 
उपास्यते स्वयं कान्त्या यो बाङ्ण्या च मूत्तया ।१८। 


कन्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो बिषानलजिखोज्ञ्वरः। 


सङ्कषणात्मको रुद्रो निष्क्रम्यात्ति जगसयम्‌॥।१९॥ 


स विभरच्छेखरीभू तमशेषं क्षितिमण्डसम्‌ । 
ञ्मास्ते पातामूरस्थः शेषोऽशेष्सुराधितः ।॥२०॥ 


तस्य वीयं प्रभावश्च स्वरूपं रूपमेव च| 
न हि वणेयितुं शक्यं ज्ञातुं च त्रिद्शोरपि ॥२१॥ 
यस्येषा सकरा पृथ्वीं फणामणिशिखारुणा | 


भरीषिष्णुपुराण 








धारण किये है तथा जिनकी डपासना शोभा ओौर 
वारुणी देवौ स्वयं मूर्तिमती होकर करती है ॥१८॥ 
कल्पान्तमे जिनके मुखोसे विषाग्निरशिखके समान 
देदीप्यमान संकषण-नामक सुद्र निकलकर तीनों 
सोकोंका भक्षण कर जाता है।॥ १९॥ वे समस्त 
देवगरणोसे वन्दित शेषभगवान्‌ अशेष भूमण्डल्को 
मुक्कटवत्‌ धारण किये हुए पाताल-तटमें विराजमान 
दै ॥ २० ॥ जिनका बल-वीर्य,प्रभाव, स्वरूप (तत्त्व) 
ओर रूप (आकार ) देवताओसे मी नहीं जाना 
ओर कहा जा सकता ॥ २१॥ जिनके फणोकी 
मणियोंकी अभासे अरुण वणं हद यह्‌ समस्त 
प्रथिवी एूलोकी मालाके समान रखी हृ दै उनके 


रासते कुसुममाछेव कस्तदवीयं वदिष्यति ।२२॥ | बरबीयंका बणेन मला कौन करेगा १॥ २२ ॥ 


यदा विजुम्भतेऽनन्तो मदाघूणितरोचनः । 
तदा चरति भूरेषा सान्धितोया सकानना।।२३॥ 


गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः फिनरोरगचारणाः । 


नान्तं गुणानां गच्छन्त तेनानन्तोऽयमन्ययः। २४ 


यस्य॒ नागवधूहस्तैपितं हरिचन्दनम्‌ । 
यहुः श्वासानिलाणास्तं याति दिषुदवासताम्‌ । २५। 
यमाराध्य पुराणि ज्योतींषि तत्वतः । 
ज्ञातवान्सकलं चैव॒ निमित्तपटितं फलम्‌ ॥२६॥ 
तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता सदी । 


जिस समय मदमत्तनयन ेषजी जमुदहाई ठेते है 
खस समय समुद्र ओौर वन आदिके सदहवित यह 
सम्पूणं प्रथिवी चायमान हो जाती हे।॥ २३॥ 
इनके गुणोंका अन्त गन्धवे, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, 
नाग ओर चारण आदि कोईमी नहींपा सकते; 
इसय्ि ये अविनाक्ञी देव "अनन्तः कहते दै ।॥२५॥ 
जिनका नाग-वधुओंद्वास केपित हरिचन्दन पुनः 
पुनः श्ास-वायुसे रूट -छूटकर दिङ्ञाओंको सुगन्धित 
करता रहता है ॥ २५ ॥ जिनकी आराधनासे पूव. 
कारीन महषिं गगने समस्त ज्योतिर्मण्डक ( मरह- 
नक्षत्रादि ) ओर शङकन-अपशचङ़नादि नैमित्तिक फलों 
को तन्त्वतः जाना था ॥ २६ ॥ उन नागश्रेषठ रोषजी- 
ने इस प्रथिवीको अपने मस्तकपर धारण किया 
हज हे, जो स्वयं मी देव, असुर ओर मनुष्योके 
सहित सम्पूण छोकमारा (पातालादि समस्त लोकों) 


बिभति मालां लोकानां सदेवासुरमानुषाम्‌ ॥ २७॥ | को धारण श्ये हए है ॥ २७ ॥ 


नक के--~ 


अ० ६ | 


द्वितीय अं 


१५५ 


----------_-___------------------ ~ 
छटा अध्याय 


भिन्न-सिन्न नरकोका तथा भगवक्नामके मादहाद्स्यका वर्णन 


श्रीपरङ्गर उवाच 


ततश्च नरका विप्र भुबोऽधः सकिलस्य च । 
पापिनो येषु पालयन्त ताञ्च्छुणुप्व महान ॥ १॥ 
रौरवः घरूकरो रोधस्तालो विशसनस्तथा । 
महाञ्वालस्तप्ङकम्भो छवणोऽथ विरोषहितः))२॥ 
रधिरास्भो वैतरणिः कृमीशः कृमिभोजनः। 
अधिपत्रवनं कृष्णो लालाभक्षश्च दारुणः ॥ ३॥ 
तथा पूयवदः पापो वहिज्वारो द्यधःशिराः। 
सन्दंशः कालश्च तमथावीचिर च।॥४॥ 
श्रभोजनोऽथाप्रतिष्ठथाप्रचिश्च तथा परः । 
इत्येवमादयश्वान्ये नरका भृशदारुणाः ॥ ५॥ 
यमस्य विषे घोराः शच्लाग्निभयदायिनः। 
पतन्ति येषु पुरुषा; पापकमेरतास्तु ये ॥ ६॥ 


कूटसाक्षी तथा सम्यक्पक्षपातेन यो वदेत्‌ । 
यथान्यदनूतं वक्ति स नरो याति रौरवम्‌॥७॥ 
भ्रूणहा परहन्ता च गोध्नश् निसत्तम । 
यान्ति ते नरक रोधं यथोच्छ्रासनिरोधकः ॥ ८॥ 
सुरापे ब्रह्महा हर्ता सुबणंस्य च घ्रूकरे | 
प्रयान्ति नसे यश्च तैः संस्गष्यैति वे ॥ ९॥ 
राजन्ययैद्यदा ताके तथेव गुरुतल्पगः । 
तपू्ुण्डे स्वदगामी हन्ति राजभटांश्च यः ॥१०। 
साध्वीविक्रयकृद्भन्धपाङः केसरिविक्रयी । 


तप्तलोहे पतन्त्येते यथ भक्तं परित्यजेत्‌ ॥११॥ 
रुषां सुतां चापि गत्वा महाज्वाडे निपात्यते । 





श्रीपराश्चरजी बोके-द विप्र ! तदनन्तर प्रथ्वी 
जर जलके नीचे नर्क है जिनमे पापी खोग गिराये 
जाति ह हे महासने ! उनका विवरण सुनो ॥ १॥ 
रौरव, सक्र, रोध, तार, विज्ञसन, महाज्वाल, तप्त 
कुम्भ, ख्वण, विरोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, 
कृमीक्च, कृमिभोजनः, असिपत्रवनः, कृष्ण, लालाभक्षः 
दारुण, पूयवह्‌, पाप, वहिञ्वाङ, अधःजिरा, सन्द, 
कालसूत्र, तमस्‌, आवोचिः भोजन, अप्रतिष्ठ ` 
अर अप्रचि-ये सब तथा इनके सिवा ओरमभी 
अनेको महामयङ्कर नरक दै, जो यमराजके शासना- 
धीन है ओर अति दारुण शद्ख-मय तथा अभ्नि- 
भय देनेवाले है ओौर जिनमे जो पुरुष पापरत होते 
हवे ही गिरते ह ॥ २--&॥ 


जो पुरुष कूट साक्षी (जडा गवाह अथात्‌ जान- 
कर्मी न बत्तल्लानेवाला या कुछ-का-ङुछ कहने- 
बाला ) होता है अथवा जो पश्षपातसे यथार्थं नहीं 
बोता ओर जो मिभ्याभाषण करता दै वह्‌ रौरव 
नरकमने जाता है ॥ ७॥ हे मुनिसत्तम ¦ भरण (गभ) 
नष्ट कस्नेवाठे, भ्रासनाज्चक ओर गोहस्यारे छोग 
रोधन्नामक नरके जाते ह जो श्वासोन्छवासको 
रोक्रनेबाछा र ॥ ८॥ मद्यपान करनेबाटा, ब्रह्मघाती! 
सुवणं चुरानेवाखा तथा जौ पुरुष इनका संग करता 
है ये सब सूकरनरकम जति हे ॥९ कषत्रिय अथवा 
वैर्यका वध करनेबाढा ताकनस्कमे तथा गुरुख्चीके 
लाथ गमन करनेवाला, भगिनीगासी ओर राजदूत 
को मारनेवाला पुरुष तप्तङकण्डनरकभं पडता हे १० 
सती स्लीको बेचनेवाला, कारागृह रक्षकः अश्वविक्रेता 
आर भक्त पुरषका व्याग करनेवाङाये सव छोग 
तप्तरोहनरकमे गिरते द ॥। ११॥ पुत्रवधू ओर पुत्र 
के साथ विषय करनेसे मनुष्य महास्वारनरकमें 


१५६ 





वेददृषयिता यथ ॒वेदविक्रयिकथ यः। 
अगस्यमामी यश्च स्यात्ते यान्ति रबणं दविज॥१३॥ 
चोरो विरोह पतति मर्यादादृषकस्तथा । 
देवद्विजपितृदेटा रत्नदूषयिता च यः ॥१४॥ 
स याति कृमिभक्े वै कृमीशे च दुरिषकत्‌। 
पितृदेवातिथीरस्यक्वा पयंइनाति नराधम 1१ 
` छालाभक्षे स यास्युग्रे शरकर्ता च पेधके। 
करोति कर्णिनो यश्च यथ ख्गादिङृन्नरः ।॥१६॥ 
प्रयान्त्येते विशसने नरके भृशदारुणे । 
असल्मरतिगृहीता तु नरके यात्यधोखे ॥१७॥ 


अयाञ्ययालकद्चैव तथा नक्षच्रघ्रचकः 


वेगी पूयवहे चैको याति भिशटन्नथुड्नरः ॥१८॥ 
लाक्षामांसरसानां च तिलानां रबणस्य च। 
` धिक्रेता ्राह्मणो याति तमेव नरकं दविज । १९ 
मार्जारङक्डुरच्छागश्चवराहविदङ्गमान्‌ । 


पोषयन्नरकं याति तमेव द्विजसत्तम ॥२०॥ 


श्रीविष्णुपरराण 





रङ्खोपजीनी कैवर्त; इुण्डाशरी गरदस्तथा । 
सची मादिषकदयेव पर्वक।री च यो हिजः।॥२१॥ 
आगारदाही मित्नघ्नः शा्नि््रामयाजकः । 
रुधिरान्धे पतन्त्येते सोमं विक्रीणते च ये ॥२२॥ 


[ भ० ६ 








अपमान करनेवाला ओौर उनसे दुर्वचन बोलनेवारा 
होताहैतथाजो बेदृकी निन्दा करनेवाङा, वेद्‌ 
मैचनेवाखछा या अगम्या खीसे सम्भोग कर्वाहे, हे 
द्विज ! वे सब खवणनरकमे जाते दै ।। १२-१३॥ 
चोर तथा म्यीदाका उष््गन करनेवाला पुरुष विलो- 


हित नरकमे गिरता दहै) जो पुरुष देव, द्विज ओर 


पितरगणसे द्वेष करनेवाा तथा रत्नकं दूषित करने. 
वादा होता है वह कृमिभक्षनरकमे ओौर अनिष्ट 
यज्ञ करनेवाला छृमोशनरकमे जात्ता है । 


जो नराधम्‌ पितृगणः, देवगण जौर अतिधिर्यो- 
को छोड़कर उनसे पहटे भोजन कर छता है वह 
अति ग्र छालामक्षनरकमे पड़तादै; ओर बाण 
वनानेवाखा वेधनस्कमे जाता है । जो मनुष्य कणी 
नायक बाण बनतिद् ओर जो खज्ञादि राख 
बनानेवे है वे अति दारुण विङ्सननस्कमें 
गिरते दै । असत्‌-पतिग्रहसे छेनेवारा, अयास्य 
याजक ओर नक्षत्रोपजीवी ( नक्षत्रविद्याको न 
जानकर भी दसक्ा दोग रचनेवाला ) पुरुष अधो 
युखनसर्कमे पड़ता है । साहस ( निष्टुर-कभं ) 
करनेवाला पुरुष पूयवरहनरकमे जाता ह. तथा 
[ पुत्र-मिन्रादिकी वश्चना करके ] अकेठेद्ी स्वादु 
मोज्ञन करनेवाछा ओौर लाख, मांस, रस; तिल 
तथा छवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी 
( पूयवह ) नरकमे गिरता दै ॥ १४-९९ ॥ हे 
द्विजश्रेष्ठ ! विराव, कुक्कुट, छाग, अरव, शूकर 
तथा पक्षियोँको | जीविकाके ल्ि ] पालनेसे भी 
पुरुष उसी नरकमे जाता है | २० ॥ नट या महल 
बृत्तिसे रहनेवाा, धीवरका कमं करनेवाा, 
कुण्ड ( उपपतिसे उःपन्न सन्तान ) का अन्न खाने 
वाला, विष देनेवारा, चुगक्खौर, स्लीकी असदू- 
न्तिके आश्रय रहनेवाा, धन आदिके लोभसे बिना 
पर्वे अमावास्या आदि पवंदिनोंका कायं कराने- 
वाला द्विज, चरमे भाग कगनिवाछा, मिच्रकौ हत्या 
करनेवारा, शकन आदि बतानेवाला; ब्रामका पुरो- 


हित तथा सोम (मदिरा) बेचनेवाङा-ये सब 
प्न्य तिरते 2 |) २१.२२ यज्ञ अथवा 





रेतः पातादिकर्चारो मर्यादामेदिनो हि ये ॥२३॥ | क्था जो लोग बीरयपातादि करनेवाले, सेरतोकौ वाढ्‌ 


ते कृष्णे यान्त्यश्षोचा कुदकाजीभिनये। 


असिपत्रवनं याति वनच्छेदी व्ृधैव यः ॥२४॥ 
ओरभिको स्ृगव्याधो बह्विज्याके पतन्ति बे । 
यान्त्येते द्विज तत्रैवये चापाकेषु वहिदा; ॥२५॥ 
व्रतानां लोषको यच्च स्वाश्रमादिच्युतश्च यः। 
सन्दश्चयातनामभ्ये पततस्तावुभावपि ॥२६॥ 


दिवा स्वप्ते च स्कन्दन्ते ये नरा ब्रह्मचारिणः । 


पुत्रैरध्यापिता ये च ते पत्तन्ति श्वभोजने ॥२७॥ 


एते चान्ये च नरकाः शतशोऽथ सहस्रशः । 

येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यन्ते यातनागताः ॥२८॥ 
यथेव पापान्येतानि तथान्यानि सहश; । 
युज्यन्ते तानि पूरवैनरकान्तरगो चरैः ॥२९॥ 
वर्णाश्रमविरद्रं च कम इुर्वन्ति ये नराः । 
कर्मणा मनसा वाचा निरयेषु पतन्ति ते ॥३०॥ 
अधःरिरोमिदंश्यन्ते नारकैदिवि देवताः । 
देवाधाधोखान्पर्बानधः पदयन्ति नारकान्‌ ।२१। 
स्थावराः कृमयोऽन्नाश्च पक्षि णः प्रवो नराः। 
धार्भिकाचिद्नास्तदन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम्‌ ॥२२। 
सह भागप्रथमा दितीयानुक्रमास्तथा । 

सवं छेते महाभाग याबन्बुक्तसमाश्रयाः ॥।३३॥ 
यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः । 


तोड़नेवे, अपवित्र ओौर छलन्रत्तिके आश्रय रहने- 
बाले होते है बे कुष्णनरकमे गिरते हैँ) जो बृथा ही 
वनोको काटता है वह असिपत्रवननरकमे जाता 
है ॥ २३-२४॥ 

मेषोपजीवी ( गड़रिये ) ओौर व्याधगण वहि 
उवालनरकमे गिरते है तथा हे द्विज ! जो कच्चे 
घडो अथवा इंट आदिको पकानेके क्लिये उनमें 
अग्नि डारते दहै, वे भी उस ( बहिञ्वारूनरक ) मेँ 
ही जाते है | २५॥ व्रतोंको लोप करमेवाछे तथा 
अपने आश्रमसे पतित दोनों ही प्रकारके पुरुष 
सन्दंश्ञ नामक नरकमे गिरते दै ॥ २६॥ जिन 
बरह्मचारियोंका दिनम तथा सोते समय [ बुरी- 
भावनासे ] बीर्य॑पात हो जाता दै, अथवा जो भपने 
ही पुत्रोसे पते दहै वे लोग भोजननरकम गिरते 
है ।॥ २७॥ 


इस प्रकार, ये तथा अन्य सेकडो-हजारों नरक 
है जिनमे दुष्कर्म लोग नाना अकारक यातनां 
मोगा करते द ॥ २८ ॥ इन उपयुक्त पापोके समान 
ओौर भी सहसो पापकर्म दै, उनके फर मनुष्य 
भिन्न-भिन्न नस्कोमे भोगा कस्ते है॥२९॥ जो 
रोग अपने वर्णाश्रम-धमके विरुद्ध मन, वचन अथवा 
कर्म॑से कोई आचरण करते वे नरकम गिरते 
है ॥३०॥ अधोमुख नस्कनिवासियोको स्व गं-लोकमें 
देवगण दिखायी दिया करते ह भौर देवता रोग नीचे- 
के रोकोमे नारकी जीवोको देखते है ॥ ३१ ॥ पापी 
लोग नस्कभोगफे अनन्तर क्रमसे स्थावर, कृमि; 
जरचर, पक्षी, पञ्ु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण 
तथा मुयुश् होकर जन्म ग्रहण करते दै ॥ ३९॥ हे 
महाभाग ! मुसक्षुपयेन्त इन सबमें दसरोकी अपेक्षा 
पहञे प्राणो [ संख्याम ] सख गुण अधिक दै 
॥ ३३॥ जितने जीव स्वर्गभें दँ उतने ही नरकमें 
है, जो पापी पुरुष [ अपने पापका ] प्रायश्चित्त नहीं 


पापकृद्याति नरक प्रायधित्तपरादएखः ॥२३४॥ | करते वे ही नरकमे जते ह ॥। ३४॥ 


पापानामनुरूपाणि प्रायधित्तानि यद्यथा । 


भिन्न-सिन्न पापोके अनुरूप जो-जो प्रायथित्त 


तथा तथैव संस्म्रव्य प्रोक्तानि परमपिमिः ॥३५॥ ` हे उन्दौ-उन्दीको महर्षियोनि वेदार्थका स्मरण करके 








पपेगुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्धिदः। 
प्रायधित्तानि मेत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः ॥३६॥ 
प्रायधित्तान्यरोषाणि तपःकर्मात्मकानि पै। 


यानि तेषामदोषाणां कृष्णानुस्मरुणम्परम्‌ ॥२७॥ 
छते पचेऽनुतापो वे यस्य पुंसः प्रजायते । 
प्रायतत तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम्‌ ॥३८॥ 
प्रातनिशि तथा सन्ष्यामध्याह्यादिषु संस्मर्‌। 
नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः ॥३९॥ 
विष्णुसंस्मरणात््षीणसमस्तक्टेशसश्वयः | 
युक्ति प्रयाति स्वगा्िस्तस्य विध्नोऽनुमीयते! ४० 
वासुदेवे मनो यस्य जपहोमाचनादिपु । 
तस्यान्तरायो मतरय देषेनदरस्वादिकं फलम्‌ ॥४१॥ 
क नाकठगमनं  धनराहतिरकषणम्‌। 
के जपो वासुदेवेति एक्तिबीजमरत्तमम्‌ ॥४२। | 

















तस्मादहनिनं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो एने । 
न याति नरकं मत्यः सदक्षीणाखिरपातकः॥४२॥ 
मन॑प्रीतिकरः सर्गो नरकस्तद्विपर्ययः | 
नरकखगंसंजञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ॥४४।॥ 
वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च | 


फोपाय च यतस्तस्माद्रस्त॒ बस्त्वारमकः कुत; || ४५॥ 








तदेष प्रीतये भूत्वा पनदुखाय जायते । 














तदेव फोपाय यतः प्रसादाय च जायते ॥४६॥ 
° "` च जायत्‌ ॥५६। 
तेस्मादूटुःखात्मक नास्ति न च फिञ्चित्सुखात्मकम्‌। 
4 ^ 0 (प वातमा 
मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः ॥४७॥ 
----- ~~ ~ = दरण ॥ ४७) 


ानमेव परं बरह्म ज्ञानं बन्धाय वेष्यते | 


बताया है | २५॥ हे मैत्रेय ! स्वायम्मुवसनु आदि 
स्म्रतिकारोनि महान्‌ पापक लिये महान्‌ ओौर अल्पों 
के ज्िये अल्प प्रायधित्तोंकी व्यवस्था की है ॥ ३६॥ 
किन्तु जितने भमी तपस्यात्मक ओौर क्मत्मक 
प्रायधित्त है उन सवम श्रीकृष्णस्मरण स्शरेष्ठ है 
॥ ३७ ॥ जिस पुरुषके चित्तम पाप-कमेके 
अनन्तर पश्चात्ताप होता है उसकै लियेतो हरिः 
स्मरण ही एकमाच्र परम प्रायश्चित्त है। ३८ ॥ 
प्रातःकाल, सायंकाल, रात्रिम ओर मभ्याह्वादिके 
समय भगवान्‌का स्मरण करनेसे पाप क्षीणहो 
जानेपर मनुष्य श्रीनारायणको प्रप्र कर ठेताहै 
॥ ३९ ॥ श्रीविष्णुभगवान्‌के स्मरणसे समस्त पाप- 
राके भस्महो जानेसे पुरुष मोक्षपद प्रप्र कर 
केता दै, स्वर्ग॑-लछाम तो उसके लिये विष्नरूप माना 
जाता हे ॥ ४०॥ हे मैत्रेय ! जिसका चित्त जप, 
होम ओर अ्च॑नादिं करते हष निरन्तर भगवान्‌ 
वासुदेवमे खगा रहता है उसके लिय इन्द्रपद्‌ आदि 
फर तो अन्तराय ( विघ्न ) है ॥ ४१॥ कहौ तो 
पुनजेन्मके चक्रमे डालनेवाली स्वगै-प्राप्ति ओर कँ 
मोक्षका सर्वोत्तम बीज षवाञुदेवः नामका 
जप ! ॥ ४२॥ 


इसल्यि हे सुने ! श्रीविष्णुभगवानका अहर्न 
स्मरण करनेसे सम्पूणं पाप क्षीण हो जानेके कारण 
मनुष्य फिर नरकमें नदीं जाता ॥ ४३ ॥ चिन्तको 
प्रिय लगनेवाला ह स्वगं है ओर उसके विपरीत 
( अप्रिय कगनेवाला ) नरक है। हे द्विजोत्तम ! 
पाप ओर पुण्यहीके दूसरे नाम नरक ओर्‌ स्वगं 
ह| ४४ ॥ जब किंएकृदही बस्तु सुख ओर दुभ 
तथा ईर्ष्या ओर कोपका कारणहो जातीहै तो 
ठसमे वस्तुता ( नियतस्वभावत्व ) ही कहौ है ! 
॥ ४५ ॥ क्योकि एक ही वस्तु कृभी प्रीतिकी कारण 
होतीहैतो वदी दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती 
है ओौर वही कभी करोधकी हेतु होतीदहे तो कभी 
भ्रसन्नता देनेवाखी हयो जाती है | ४६ ॥ अतः कोई 
भी पदाथ दुःखमय नदीं है जौर न कोष सुखमय दै । 
ये सुखदुःख तो मनके हो विकार है ॥ ४७॥ 
[ परमाथेतः ] ज्ञान दही परह्य है! भौर 
[ अविद्याकी उप धिसे1 वही बन्धका कारण 


तयप देया 





ज्ञानात्मकमिदं विदं न ज्ञानाद्विद्यते परम्‌॥४८॥ 


विद्याविध्येति मैत्रेय ानमेबोपधारय ॥४९॥ 








एवमेतन्मयाख्यातं भवतो मण्डलं शुषः । 
पातकानि च सर्वाणि तथैव नरका हिज ॥५०॥ 
सथुदराः प्व ताद्यैव द्वीपा वर्षाणि निम्नगाः । 
सङक्ेपाल्सर्वमाख्यातं कं भूयः भोतुमिच्छसि।५९। 


है । यह्‌ सम्पूणं विर्व ज्ञानमय ही है; ज्ञानसे भिन्न 
ओौर कोई वस्तु नहींहै। हे मैत्रेय! विद्या भौर 
अविद्याको भी तुम ज्ञान ही समश्चो । ४८-४९ ॥ 

हे द्विज! इस प्रकार मैने तुमसे समस्त भूमण्डल, 
सम्पूणं पातारृलोक ओौर नरकोंका वर्णन कर दिया 
॥ ५० ॥ समुद्र, पवेत, वषं ओौर नदियोँ- इन समी- 
की भने सक्षेपसे व्याख्या कर दो; अब तुम भौर 
क्या सुनना चाहते हो १ ॥ ५१ ॥ 





^^ 9 च^५४९९------ 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्विती 


यंऽसे षष्ठोऽध्यायः | ६॥ 


~+ ++ ~ 


सात्वं 


अध्यय 


भूं वः मादि सात ऊर्वं छोकोंका बरत्तान्त 


श्रीमेत्रेय उवाच 
कथितं भूतलं ब्रहमन्ममैतदखिलं खया । 
यध्लोकादिकोललोकाञ्च्छोतुमिच्छाम्यहं घुने ॥१॥ 
तथेव ग्रहसंस्थानं प्रमाणानि यथा तथा । 
समाचक्ष्व महाभाग तन्मद्चं परिप्च्छते ॥ २॥ 


श्रीपराङार उवाच 

रविचन्द्रमसोरयाबन्मयूखैरवमास्यते । 
ससघूद्रसरच्छिहा तावती प्रथिवी स्मृता ॥ ३॥ 
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डलत्‌ । 
नभस्तावसप्माणं वै व्यासमण्डरतो हिज ॥ ४॥ 
भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मेत्रेय मण्डशम्‌ | 

` छक्षादिवाकरस्यापि मण्डलं शशिनः स्थितम्‌ ॥ ५। 
प्ण शतसह तु योजनानां निशकरात्‌ । 
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नश्चपरिटासखकोशते ॥ ६ ॥ 
दे लक्षे चोत्तरे बह्मन्‌ बुधो नक्षत्रमण्डलात्‌ । 
तावस्ममाणभगेतु बुधस्याप्युशना स्थितः ॥ ७॥ 
अङ्कारफोऽपि शुक्रस्य तस्रमाणे व्यवस्थितः । 


भरीभैत्रेयजी बोटे-्रह्मन्‌ ¦ आपने सुश्चसे समस्त 
भूमण्डलका वणेन किया | हे सुने | अव मँ मुवो 
आदि समस्त लौकोके विषयमे सुनना चाहता ह 
॥ १॥ तथा हे महाभाग! इन प्रहगणकरी जेसी- 
जेसी स्थिति भौर परिमाण है, उन सबको आप 
सुश्च जिज्ञासुसे यथावत्‌ वणेन कीजिये ॥ २॥ 


श्री पराश्रजी दोटे--जितनी दुरतक सूयं भौर 
चन्द्रमाकी किरणोका प्रकाञ्च जाता है; समुद्र; नदी 
ओर पवेतादिसे युक्त उतना प्रदेश प्रथिवी कहखाता 
है।॥३॥ हे द्विज ! जितना प्रथिवीक्रा विस्तार ओर 
परिमण्डल (घेरा) है उतना ही विस्तार ओौर 
परिमण्डल युवर्छकिका भीदहै।४॥ हे मैत्रेय! 
प्रथिवीसे एक छाख योजन दूर सूयेमण्डल है ओर 
पूयमण्डल्से मी एक लक्ष योजनके अन्तरपर 
चन्द्रमण्डल दै ॥५॥ चन्द्रमसे पूरे सौ हजार 
एक लाख ) योजन उपर सम्पूणं नक्षत्रमण्डलं 
प्रकाशित हो रहा ङै॥ £ ॥ 
हे ब्रह्मन्‌ ! नक्षत्रमण्डरसे दो छाख योजन ऊषर 
बुध ओर बुधसे भीदो खक्ष योजन उपर शुक्र स्थित 
है ॥ ७ ॥ भुक्रसे इतनी हय दूरीपर मंगल द ओर 
म॑गछ्से भी दो छार योजम ऊपर बृ्स्पतिज्ी 


ठक्षदरये त॒ भौमस्य स्थितो देवपुरोहितः ॥ < ॥ | है ॥ ८॥ हे द्विजोत्तम ! बृहसयतिजीसे दो लाख 


५९० 


+।८त ` ५५९॥ । 


( "~ ~ 








रौरिवहसपतेधोध्वं द्विलक्षे समवस्थितः । 
सप्तषिमण्डलं तस्माघ्नक्षमेकं दिजोत्तम ॥ ९ ॥ 
ऋषिभ्यस्तु सहस्राणां शतादृष्वं व्यवस्थितः । 
मेदीभूतः समस्तस्य उ्योतिश्क्रस्य वैर वः ॥१०॥ 
ेछोक्यमेतत्कथितयुत्सेधेन  म्ायुने | 
इज्याफरस्य भूरेषा इज्या चात्र प्रतिष्टिता ॥११॥ 
धर्‌ बादृष्वं महरि यत्र ते कल्पवापिनः | 
एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः ॥१२॥ 
दे कोरी तु जनो रोको यत्र तेब्रह्मणः सुताः। 
सनन्दनाद्याः प्रथिता यैत्रेयामलचेतसः ॥१३॥ 
चतुगुणोत्तरे चोध्वं जनोकात्तपः स्थितम्‌ | 
वैराजा यत्रते देवाः स्थिता दाहविव्जिताः॥१४॥ 
ष्डगुणेन तपोोकात्सत्यलोको विराजते । 
द्रपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः ॥१५॥ 
पादगम्यन्तु यत्किच्िदरस्त्वसित पृथिवीमयम्‌ । 

स भूरोकिः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः १६ 
भूमिध्र्यान्तरं सच्च सिद्धादिभुनिसेवितम्‌। 
शबरछोकस्तु सोऽप्युक्तो दितीयो मुनिसत्तम ॥१७। 
भर घ््यन्तरं यच्च नियुतानि चतुदश । 
सशोकः सोऽपि गदितो लोकसंस्थानचिन्तकैः १८ 
रेलोक्यमेतत्ृतकं भेत्रेय परिपव्वते। 
जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्‌ ।१९॥ 


कृतकाङकतयो्मध्ये मलोक इति स्मृतः । 
स्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न बिनरथति २० 


एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्तव | 


पातालानि च सुप्तेव ब्रह्माण्डस्यैष षिस्तरः।।२१॥ 








योजन ऊपर श्नि दै ओर शनिसे एक लक्ष योजनके 
अन्तरपर सप्रषिमण्डरदे। ९॥ तथा सप्र्षियोसे 
भी सौ हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्चक्रका 
नाभिरूप ध्रुवमण्डल स्थित हे ॥ १० ॥ हे महामुने! 
मने तुमसे यदह चरिखोकीकी उश्चताके विषयमे बणेन 
किया । यह्‌ व्रिरोकी यज्ञफलकी भोग-भूमि है भौर 
यज्ञानुघ्ठानकी सिथिति इस भारतवषेमे ही है ॥११॥ 

धुवसे एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक दै, 
जं कल्पान्तपयंन्त रहनेवाछे शगु आदि सिद्धगण 
रहते दै ।॥ १२॥ हे मैत्रेय ! उससे भी दो करोड़ 
योजन ऊषर जनरोक है जिसमें ब्रह्माजीके प्रस्यात 
पुत्र नि्म॑लचित्त सनकादि रहते दँ ॥ १३ ॥ जन- 
लोकसे चौगुना अर्थात्‌ आट कसोड़ योजन उपर 
तपलोक दहै; वहाँ बैराज नामक देषगणोकरा निवास 
है जिनका कमी दाह नदीं होता ॥ १४ ॥ तपलोकसे 
छःगुना अर्थात्‌ बारह करोड़ योजनके अन्तरपर 
सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मखोक भी कहलाता है 
ओौर जिसमे फिर न मरनेवाे अमरगण निवास 
करते हे ॥ १५॥ 

जो मी पार्थिव वस्तु चरणसञ्चारके योग्यै 
बह भूर्टोकहो है । उसका विस्तार मँ कह चुका 
॥ १६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! प्रथिवी ओौर सूयेके मध्यमं 
जो सिद्धगण ओौर मुनिगणसेवित स्थान दै बही 
दूसरा युवर्छोक ह ॥ १७॥ सूयं भौर ध्रुवके वीचमें 
जो चौदह रक्ष योजनका अन्तर है उसीको रोक- 
स्थित्तिका विचार करनेवारोँने स्वर्लोक कहा हे 
॥ १८ ॥ हे मैत्रेय ! ये (भूः, सुव, स्वः ) (कृतकः 
त्रैलोक्य कहलाते है ओर जन, तप तथा सत्य- 
ये तीनों “अकृतक्रः लोक है | १९ ॥ इन कृतक ौर 
अकृतक त्रिलोकियोँके मध्यमे महूर्छोक कहा जाता 
दे, जो कल्पान्तभं केवल जनन्य हो जाता है, 
अव्यन्त नष्ट नहीं ह्येता [ इसलिये यद्‌ (छतकाकृतः 
दै ]॥ २०॥ 

हेमेत्रेय ! इस प्रकार मैने तुमसे ये 
सात लोक ओर सात ही पाताल के । इस 
ब्रह्माण्डका बस इतना हौ विस्तार | २१ 


अ० ७] 


शएतदण्डकटाहेन तिर्यक्‌ चोध्वंमधस्तथा । 
कपित्थस्य यथा बीजं सवेतो वै समावृतम्‌ ॥२२॥ 
दज्ोत्तरेण पयसा यैतरेयाण्डं च तद्घृतम्‌ । 
सरवोऽम्बुपरिधानोऽसो बह्विना वेष्टितो बदिः ॥२३॥ 
वद्धि वायुना वायुर्तरेय नभसा वृतः 
भूतादिना नभः सोऽपि महता परिष्टितः ॥२४॥ 
दशोत्तराण्यशेषाणि मैत्रेयैतानि सप्त वै। 
महान्तं च समाव्रस्य प्रधानं समवरिथतम्‌।॥२५॥ 
अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि षिद्यते। 
तदनन्तमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः ॥२६॥ 
हेतुभूतमशेषस्य प्रतिः सा पर मुने । 
अण्डानां तु सहस्राणां सदस्ाण्ययुतानि च ॥२७॥ 
` इद्शानां तथा तत्र कोटिकोटिशतानि च । 
दारुण्यमिर्यथा तैलं तिरे तद्वसपुमानपि ॥२८॥ 
प्रधानेऽवस्थिती व्यापी चेतनात्मात्मवेदनः। 
प्रधानं च पुमांश्चैव सवंभूतासमभुतया ॥२९॥ 
विष्णुशक्त्या महाबुद्धे वृतौ संश्रयधर्मिणौ । 

तयो; सैव पथग्मावकारणं संश्रयस्य च ॥३०॥ 
्षोमकारणमूता च सगकाले महामते । 

यथा सक्तं जके वातो भतिं कणिकाशतम्‌।३१॥ 
शक्तिःसापि तथा विष्णोः प्रधानपुरुषात्मकम्‌। 
यथा च पादपो मृरस्कन्धश्ाखादिसंमु तः ॥३२॥ 
आदिषीजाखमवति बीजान्यन्यानि वै ततः। 
प्रभवन्ति ततस्त्यः सम्भवन्त्यपर दरुमाः ॥२३॥ 
तेऽपि तह्वक्षणद्रव्यकारणादुगता धने । 
एवमव्याकरृतासूवं जायन्ते महदादयः ॥२४॥ 
विक्षेषान्तास्ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यसुरादयः। 
तेभ्यश्च पुत्रास्तेषां च पूत्राणामपरे सुताः ॥३५॥ 


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द्वितीय अंश 


१६१ 


यह्‌ ब्रह्माण्ड कपित्थ (कथे) के बीजके समान ऊपर- 
नीचे सव ओर अण्डकटाहसे चिरा हुआ दै ॥२२॥ 
हे मैत्रेय ! यह्‌ अण्ड अपनेसे दश्गुने जरसे आवृत 
है ओर वह जरुका सम्पूणं आवरण अग्निसे धिरा 
हुभा दै ॥ २२॥ अग्नि बायुसे ओर वायु आकाश्ञसे 
पसिविष्टिव है तथा आका्ञ भूतोके कारण तामस 
अहंकार ओौर अहंकार महत्तत्वसे धिरा हुभा दे 
॥ २४ ॥ हे मैत्रेय ! ये सातौ उत्तरोत्तर एकनवसरेसे 
दशरने दै । महत्तस्वको भी प्रधानने आवृत कर 
रका है ॥ २५॥ वह अनन्त है; तथा उसक्रान 
कभी अन्त (नाच) होतादहै आरन कोद संख्या 
हीह; क्योकि हे सुने! बह अनन्त, असंस्येय, 
अपरिमेय ओर सम्पूणं जगतका कारण है जौर वदी 
परा प्रकृति है । उसमे रेमै-रेसे हजारो, खखों तथा 
सैकड़ों करोड ब्रह्माण्ड है । त प्रकार काषठमे अग्नि 
अौर्‌ तिमे पैल रहता है उसी प्रकार स्वप्रकाश चेतना- 
त्मा भ्यापक पुरुष प्रधानम स्थित है । हे महाबुद्धे! ये 
संश्रयश्ील ( आपसमे मिरे हुए ) प्रधान भौर पुरुष 
भी समस्त भूतोकी स्वरूपभूता विष्णु-शक्तिसे आवृत 
है । हे महामते! वह विष्णु-शक्ति ही [ प्र्यके 
समय ] उनके पाक्य भौर [ स्थितिके समय | 
उनके सम्मिकनकी हेतु है । तथा सगौरम्भके समय 
वही उनके क्षोभकी कारण है । जिस प्रकार जलके 
संसर्मसे वायु सैकड़ों जल्कणोको धारण करता 
उसी प्रकार भगवान्‌ विष्णुकी शक्तिभी प्रधन- 
पुरुष्रमय जगत्‌को धारण करतौ है । 

हे सुने! जिस प्रकार आदि-बीजसे दी मूलः 
स्कन्ध ओर क्षाखा आदिके सहित बृक्ष उन्न होता 
है ओर तदनन्तर उससे आर भी बीज उन्न होते 
ह, तथा उन वीजोसे अन्यान्य वृक्ष उत्पन्न दोते 
है ॥ २६.२२ ॥ ओर बे भी उन्दी रक्षण, द्रव्य ओर 
कारणोसे युक्त होते है; उसी प्रकार पहले अव्याकृत 
( प्रधान ) से मदत्तस्वसे टेकर पच्चभूतपयेन्त 
[सम्पूणं विकार ] उत्पन्न होते ह तथा उनसे देष, 
असुर आदिका जन्म होता है भौर फिर उनके पुत्र 
तथा चन पुत्रके अन्य पुत्र होते हे ॥ ३४-३५॥ 
अपने बौजसे अन्य बृक्षके उत्पन्न हौनेसे जिस प्रकार 


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प्राणियोके उत्पन्न होनेसे जन्मदाता प्राणियोंका 


भूतानां भृतसर्भेण नैवास्स्यपचयस्तथा ॥२६॥ 


सन्निधानाद्यथाकाशकालाचाः कारणं तरोः। 
तथैवापरिणामेन विश्वस्य भगवान्हरिः ॥३७॥ 
व्रीहिबीजे यथा मूकं नां पत्ाह्करौ तथा । 

काण्डं कोशस्तु पुष्पं च क्षीरं तद्वच्च तण्डछाः॥२८॥ 
तुषा; कणा सन्तो वे यान्त्याविर्मावमातसनः। 
प्ररोहरैतुसामग्रीमासाद् भुनिसत्तम ॥३९॥ 
तथा कमस्वनेकेषु देवाद्याः समवस्थिताः । 
विष्णुशक्तिं समासाद्य प्ररोहञुपयान्ति वे ॥४०॥ 
स च विष्णुः परंब्रह्म यतः सथंमिदं जगत्‌। 
जगरच यो यत्र चेदं सुरिपश्च छयमेष्यति।४१॥ 





तदूघ्रह्म तत्परं धाम सदसत्परमं पदम्‌ । 





यस्य सवंमभेदेन यतश्चैतच्चराचरम्‌ ॥४२॥ 


स एव मूलभ्रकृतिव्येक्तरूपौ जगच्च सः । 








तरिपन्नेव कयं सवं याति तत्र च तिष्ठति ॥४२॥ 
कत क्रियाणां स च इञ्यते करतुः 





स एव तत्कर्मफलं च तस्य । 
सुगादि यत्साधनमप्यशेषं 


हरेनं किश्विद्व्यतिर्किमस्ति॥४४॥ 











हास नहीं होता ॥ ३६॥ 


जिस प्रकार आकार ओर कालादि सन्निधि- 
मात्रसे ही वृक्षके कारण होते है उसी प्रकार भग- 
वान्‌ श्रीहरि भी बिना परिणामके हय विश्वके कारण 
ह ॥ ३७॥ दे मुनिसत्तम ! जिस प्रकार धानके 
बीजम मूढ, नार, पत्ते, अङ्कुर, तना, कोष, पुष्य, 
क्षीर, तण्ड, तुष ओौर कण सभी रहते है, तथा, 
अङ्कुरोसखत्तिकी देुभूत [ भूमि एवं जल आदि ] 
सामभ्रीके प्राप्न होनेपर वे प्रकट हो जति है 
|| ३८-३९ ॥ उसी प्रकार अपने अनेक पूवंकमेमिं 
स्थित देवता आदि विष्णु-श्क्तिका आश्रय पानेषर 
आविभूंत हो जाति दै ४० ॥ जिससे यदह सम्पूणं 
जगत्‌ उत्पन्न हभ दहे, जो स्वयं जगत्‌-रूपसे स्थित 
है, जिसमे यह स्थित है तथा जिसमे यह्‌ रीनदहो 
जायगा बह परन्रह्म हौ विष्णु मगवान्‌ हैं| ४१॥ 
बह ब्रह्म है, बही [ श्रीविष्णुका ] परमधाम ( परस्व. 
रूप ) ह, बह पद्‌ सत्‌ भौर असत्‌ दोनोंसे विरक्षणं 
है तथा उससे अभिन्न हुआ ही यह्‌ सम्पुणं चराचर 
जगत्‌ ठससे उत्पन्न हज है । ४२ ।} बही अग्यक्त 
मूलप्रकृति है, वही व्यक्तस्वरूप संसार है, उसमें 
यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ छीन होता दै तथा उसीके आश्रय 
स्थित है ॥ ४३ ॥ यज्ञादि क्रियाओंका कतं बही है, 
यज्ञरूपसे सीका यजन किया] जाता है, ओर उन 
यज्ञादिका फलस्वषूप भी वही है तथा यज्ञके साधन 


खूप जो सुषा आदिदहैवे सत्र भी हरिसे अतिरिक्त 
ओर कुक नदीं है ।। ४४ ॥ 


[थी 1 


इति श्रौविष्णुपुराणे द्वितीयेऽञे सप्रमोऽध्यायः |! ७ ॥ 
| आटवो मध्याय 
सये, नक्षत्र एवं रारिर्योकी व्यवस्था तथा कालचक्र, लोकपार ओर गंगाविभावका वर्णन 


श्रीपराशर उबाच 
व्याख्यातमेतदुब्रह्माण्डसंस्थानं तव सुत्त । 


भीपराशरजी बोरे-हे सुत्रत ! मैने तुमसे यह 
ब्रह्माण्डकी स्थिति कटी, अव सूयं आदि प्रहोकी 


ततः प्रमाणसंस्थाने पूर्यादीनां शृणुष्व मे ।१॥ | स्थिति ओर उनके परिमाण सुनो ॥ १॥ 


अ० ८ ] 


___ ~~~ 


द्वितीय अंश 


= न~~ 








योजनानां सदस्चाणि मास्करस्य रथो नव। 
ईषादण्डस्तथेवास्य द्विगुणो सनिसत्तम ॥ २ ॥ 
सार्धकोटिस्तथा सप्र नियुतान्यधिकानि वै| 


योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्‌ ॥ २॥ 
त्रिनाभिमति पञ्चारे पण्नेमिन्यक्षयातमके । 


संवत्सरमये कृत्स्नं कार्चक्र प्रतिष्टितम्‌ ॥४॥ 
हयाश्च सप्तच्छन्दांसि तेषां नामानि मे भणु । 
गायत्री च बृर्युष्णिग्जगती श्िष्टुयेव च ॥ ५॥ 
अुषटप्पदक्तिरितुक्ता छन्दांसि हरयो रवेः । 
चत्वारिश्त्सदस्राणि द्वितीयोऽक्षो विवसतः ॥६॥ 
पश्वान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य महामते । 
अक्षप्रमाणद्चभयोः प्रमाणं तचुगा्दयोः ॥ ७॥ 
हस्वोऽकषस्तद्गा्न प्रुवाधारो रथस्य वै । 
द्वितीयेऽक्षे तु तच्चक्र संस्थितं मानसाचके॥ ८ । 
मानसोत्तरशेहछस्य पर्व॑तो वासवी पुरी । 
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वरणस्य च ॥९॥ 
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानिमे शृणु । 


वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा ॥१०॥ 
परी सुखा जेश्चस्य सोमस्य च विभावरी । 


काष्ठं गतो दक्षिणतः क्षिप्तेषुरिव सपति ॥११॥ 
मतरेय भगवान्मानु््योतिषां चक्रसयुतः । 
अहोरात्रल्यवस्थानकारणं भगवान्रविः ॥१२॥ 


देवयानः परः पत्था योगिनां क्रेशसदक्षये । 
दिवसस्य रविर्मध्ये सवकालं व्यवस्थितः ॥१३॥ 
सरवद्वीपेषु तत्य निशद्धेस्य च सम्धुलः । 
उदयास्तमने चेव सकारं तु समुखे ॥१४॥ 
मिदि लशेषासु तथा तरन्‌ दिशासु च । | भौर निदिशानोमं जह सग (प त्वरोष।सु तथा ब्रह्मन्‌ दिशासु च । 





# अर्थात्‌ जिस द्वीप या खण्डं सूर्यदेव मध्याह्घके समय सम्मुख पड़ते हँ उसकी समान 











हे यनिरेष्ठ ! सू्देवके रथका विस्तार नौ हजार 
योजन है तथा इससे दूना उसका देषा-दण्ड (जूभा- 
अौर रथके बीचका भाग ) है ॥२। उसका धुरा 
डेद्‌ करोड़ सात लाख योजन रवा हे जिसमे इसका 
पहिया छगा हणा है ॥ ३ ॥ उस |[ पू्वाह, मध्या 
ओर पराह्वरूप ] तीन नाभि, [ परिबस्सरादि ] पच 
अरे भौर [ षड्च्छतुरूप ] छः नेमिवाठे अक्षयस्वसूप 
संबत्सरात्मक चक्रम सम्पूणं कालचक्र स्थित दै 
॥ र । सात छन्द्‌ ही उसके घोड़े दै, उनके नाम 
सुनो--गायघ्र, ब्रहती, उष्णिक्‌, जगती, त्रिष्टुप्‌, 
अनुष्टुप्‌ जौर प॑क्ति-ये छन्द ही सके सात घोडे 
कदे गये दै} हे महामते ! भगवान्‌ सेके रथका 
दूसरा धुरा सद पैतालौस सदस योजन कम्बा हे । 
दोनो घुरोके परिमाणके तुल्य ही उसके युगाद्धो 
( जृं ) का परिमाण है ॥ ५-७ ॥ इनमसे छोटा 
धुरा रसं रथके एक युगाद्धं (जूए) के सहित ध्रुवके 
जाधारपर स्थित है ओर दुरे घुरेका चक्र मानसौ- 
न्तरपवंतपर स्थित है ॥ ८ ॥ 

इस मानसोत्तरर्वतके पूर्वमे इन्द्रकी, दक्षिणम 
यमक, पश्चिमम वरुणकी ओर उन्तरमे चन्द्रमाको पुरी 
है; उन पुरियोके नाम सुनो । इन्द्रको पुरी वस्वौक- 
सारा है, यमकी संयमनी है ॥-९-१०॥ वरुणको 
सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है) हि मैत्रेय ! 
उयोतिश्चक्रके सदत भगवान्‌ भानु दक्षिणदिश्में 
भरवेशकर छोड इए बाणके समान तीश्र वेगसे 
चरते है । 

भगवान्‌ सूर्यदेव दिन ओर रात्रिकौ म्यवस्थाके 
कारणं दै ॥ ११-१२॥ ओर रागादि क्टेशोके क्षीण 
हयो जानेपर वे ही करमसुक्तिभागी यो गिजनोँके देव- 
यान नामक श्रेष्ठ मागं दै । दै मेत्रय ! सभी द्वीरपमे 
स॑दा मभ्याह तथा मध्यरन्निके समय सूयेदेव 
मण्य-जाकाङ्चमे सामनेकौ ओर रहते दै । इसी 
प्रकार उदय ओौर अस्त भी सदा एक-दुसरेके सम्युख 
ही होते दै ॥ १३-१४॥ दे त्यन्‌ ! समस्त दिशा 
लौर विदिश्चाओंमै जहौकि छोग [ रात्रिका अन्त 


रेापर दूसरी ओर 


१६४ 


भ्रीपिष्णुपुराण 


[ अ० ८ 


1111 





यत्र दृश्यते भास्वान्स तेषाधदयः स्मरतः 
तिरोभावं च यत्रेति तव्रषास्तमनं खेः। 
नेवास्तमनमर्क॑स्य नोदयः सवेदा सतः ॥१६॥ 
उद्यास्तमनाख्यं हि दशनाद रवैः । 


शक्रादीनां पुरे तिष्ठ्‌ स्परशत्येष पुरत्रयम्‌ ॥१७॥ 
विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्नीन्‌ कोणान्दे पुरे तथा । 


उदितो वद्धंमानाभिरामध्याह्वा्तपनरविः ॥१८॥ 


ततः परं हसन्तीभिर्गोमिरस्तं नियच्छति । 
उदयास्तमनाभ्यां च स्मरते पूर्वापरे दिशौ ॥१९॥ 
यावत्पुरस्तात्तपति तावत्षठे च पाश्वयो; । 
ऋतेऽमरगिरेमंरोरुपरि ब्रह्मणः समाम्‌ ॥२०॥ 
येये मरीचयोऽकंस्य प्रयान्ति बरह्मणः समाम्‌ । 

ते ते निरस्तास्तद्धासा प्रतीपदुपयान्तिषै ॥२१॥ 
तस्मादिषश्युत्तरस्यां वै दिवारातिः सदैव हि। 
सर्वेषां दीपवर्षणां मेरुरुत्तरतो यतः ॥२२॥ 
प्रभा विवस्वतो रात्रावस्तं गच्छति भास्करे। 
विशत्यग्निमतो रात्रौ बदहिर्दरा्काशते ॥२३॥ 
बहवः प्रभा तथा भावुरदिनेष्वाविश्चति द्विज। 
अतीव वह्ठिसंयोगादतः घ्य; प्रकाशते ॥२४॥ 





तेजसौ भास्कराग्ेय प्रकाशचोप्णस्वरूपिणी । 
परस्पराचुप्रवेशादाप्यायेते दिवानिशम्‌ ॥२५॥ 


॥, न्ग धि न १ व 





॥१५॥| होनेपर ] सूयंको जिस स्थानपर देखते द उनके च्थि 


बहम उसका उदय होता ह ॥ १५॥। ओर जहाँ दिनके 
अन्तमं सूयंका तिरोभाव होता हे बीं उसका अस्त 
का जाता है । सव॑दा एक रूपसे स्थित सूयेदेवका, 
वास्तवमें न उदय होता दहै भौरन अस्त ।॥ १६॥ 
वस, उनका दीखना ौर न दीखना हौ उनके दद्य 
ओर अस्त है । मभ्याहकालमे इनद्रादिभेसे करंसौकी 
पुरौपर प्रकाङ्ित होते हुए सूयदेव [ पारबवर्ती दो 
पुरियोक्रे सहित ] तीन पुरियों ओर दो कोणं 
( षिदिश्चाओं ) को प्रकारित करते दहै, इसी प्रकार 
अग्नि आदि कोणोँमसे किसी एक कोणमें प्रकाशित 
होते हृए वे [ पारवेवतौँ दो कोणके सहित ] तीन 
कोण ओौर दो पुरियौको प्रकाशित करते है । सूयदेव 
उदय होनेके अनन्तर मध्याहपयन्त अपनी बद्त्ती 
हुई किरणोँसे तपते है ॥ १७-१८ 1 ओर फिर क्षीण 
होती हई किरणौसे अस्त हो जाते ह ४। 


सूरये उद्य ओौर अस्तसे ही पूवं तथा पश्चिम 
दिशञाओंकी म्यवस्था हु है॥ १९ ॥ वास्तवे तो, 
वे जिस प्रकार पूरव॑से प्रकाश करते है उसी प्रकार 
पश्चिम तथा पारव वर्षिनी [ उत्तर ओर दक्षिण ] 
दिञ्चाओमे भी करते है } सूर्यदेव देव पवत सुमेरुके 
ऊपर स्थित्त ब्रह्माजीकी समासे अतिरिक्त ओर सभी 
स्थानौको प्रकाशित करते है ॥ २० ॥ उनकी जो 
किरणं ब्रह्माजीकी सभामे जाती दहै बे उसके तेजसे 
निरस्त होकर खउख्टी लौट आती हें ॥ २१} सुमेर 
पवेत समस्त द्वीप आओौर वर्षोकि उत्तरम है इसलिये 
उत्तरदिज्ञामे (मेरुपवेत पर) सदा [ एक ओर ] दिनं 
ओर [ दूसरी ओर्‌ ] रात रहते दै ॥ २९॥ रात्रिक 
समय सूयक अस्त हो जानेपर उसका तेज अग्निम 
प्रविष्टहो जाताहै; इसल्यि उस समय अग्नि दुरहीसे 
प्रकाशित होने लगता है| २३॥ इसी प्रकार, द 
दविज ! दिनके समय अग्निका तेज सूथेमे प्रविष्ट हो 
जाता है; अतः अग्निके संयोगसे ही सूयं अत्यन्त 
प्रखरतासे धरकार्ित होता है ॥ २४ ॥ इस प्रकार सूर्यं 
ओर अग्निके प्रकारा तथा उष्णतामय तेज परस्पर 
मिखछकर दिन-रातमबृद्धिको राप होते रहते है ।२५॥ 


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अ० ट | 


दवितीय अश्च 


९९५ 


व य 








दक्षिणोत्तरभुम्यद्रं सञुततिष्ठति भास्करे । 
अहोरात्रं विकषत्यम्भस्तमः प्राकारयसीटवत्‌ ॥ २६॥ 
आताम्रा हि मवन्त्यापो दिवा नक्तप्रवेशनात्‌। 

दिनं विशति चैवाम्भो भास्करेऽस्त एुपेयुषि ॥२७॥ 
तस्माच्छुक्घा भवन्त्यापो नक्त पष्ठः प्रवेशनात्‌ | 


एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः ॥२८॥ 


त्रिशद्धागन्तु मेदिन्यास्तदा महतिक गतिः। 
कुहालचक्रश्यंन्तो भ्रमन्नेष दिवाकरः ॥२९॥ 
करोत्यहस्तथा रात्रिं विुश्न्मेदिनीं दज । 
अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः ॥३०॥ 
ततः कुम्भं च मीनं च रासे राश्यन्तरं दविज । 
तिष्वेतेष्वथ युक्तेषु ततो वैपुवतीं गतिम्‌ ॥३१॥ 
प्रयाति सविता कुवं नहोरात्रं ततः सममू । 

ततो रातरिःक्षयं याति बदधतेऽनुदिनं दिनम्‌ ॥२२॥ 
ततश्च मिथुनस्यान्ते परां कष्टा्ुपागतः । 
राहि ककटकं प्राप्य कुरते दक्षिणायनम्‌ ॥३३॥ 
कुलालचक्रपयेन्तो यथा शीघ्रं प्रवत्त॑ते | 
दक्षिणप्रक्रमे प्रय॑स्तथा शीघ्र प्रतते ॥३४॥ 
अतिवेगितया कारं बायुवेगबार्चरन्‌ । 


तस्मास््कृष्ं भूमिं तु करेनाल्पेन गच्छति ॥ २५। 
घरयो द्वादक्षभिः सघ्रयान्युहूर्तेदक्षिणायने । 


मेरे दक्षिणी भौर सत्तर भूम्यद्धमे सूयंके 
प्रकाशित ह्येते समय अन्धक्रारमयी रात्रि ओर 
परकारमय दिन क्रमकः जलमें प्रवेश कर जति ह 
| २६ ॥ दिनके समय रात्रिके भ्रवेश्च करनेसे ही 
जल बु ताोम्रबणं दिखाई देताहै, किन्तु सूयं 
अस्त हयो जानेषर उसमे दिनका प्वेश्च हो जाता है 
|| २७ ॥ इसलिए दिनके प्रवेश्चके कारण ही रात्निके 
समय बह शुक्तब्रणं हो जाता है । 


इस भकार जव सूं पुष्करद्वीपके मध्यमे प्च 
कर प्रथ्वीका तीस्व भाग पार कर छ्ेतादैतो 
उसको वह्‌ गति एक युूरतैकी होती है । [ अथौत्‌ 
उतने भागके अतिक्रमण करनेम उसे जितना समय 
गता है वही मुहूतं कखाता दै ] | दे द्विज | 
कुलाख-चक्र ( ुम्हारके चाक ) के सिरेपर धूमते 
हुए ज्ीव्रके समान भ्रमण करता इजा यह्‌ सूयं 
परथिकीके तीसो भागोका अतिक्रमण करनेपर एक 
दिन-रान्रि करता है । हे द्विज ! उत्तरायणके भारम्भ- 
म सूयं सबसे पठे सकर ॒रारिमे जाता है 
॥ २८३० ॥ चसक पञ्चात्‌ बह कम्भ ओर मीन 
राशियों एक राक्तिसे दूसरी रातिम जाता है। 
इन तीनों राश्चियोको मोग चुकनेपर सूयं रात्रि ओर 
दिनको समान करता हा वैघुबती मत्तिका अव- 
लम्बन करता है, [ अर्थात्‌ वह भूमभ्य-रेखाके बीच- 
म हो चलता है ] उसके अनन्तर निस्यप्रति रात्रि 
क्षीण द्नेने छगती है ओौर दिन बदुने लगता है 
॥ ३१-३२ ॥ फिर [ मेष तथा वृष राशिका अति- 
क्रमण कर 1 मिथुन रासे निकलकर ₹हन्तरायणकौ 
अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कक-राशिमें 
प्हुचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता है ॥ ३३॥ 
जिस प्रकार कुराल-चक्रफे सिरेपर स्थित जीव 
अति शीघ्रतासे धूमतादहै उसी प्रकार सूवं मी, 
दक्षिणायनको पार करनेमे अति श्लीघ्रतासे चर्त 
हे ॥ ३४ ॥ अतः बह अतिशीघ्रतापूवंक वायुवेगसे 
चखते हए अपने उत्कृष्ट मागंको थोडे समयमे ही 
पार कर देता हे ।। ३५॥ हे दज ! दक्षिणायनमें 
दिनके समय शशीघ्रतापृवक्र चरनेसे उस समयके 
सादे तेरह नक्षत्रोको सूयं बार्ह सुहूरतमिं पार कर 


¢ ~ (~ 
योदश उमक्षाणामहमा त चरति दज ॥२६।॥ । छता है | ३६ | किन्त राचिके समय ( मन्दगामी 


१६६ 





हतस्ताबरक्षाणि = नक्तमष्टादरेश्चरन्‌ । 
इलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसपेति ॥२७॥ 
तथोदगयने द्वयः सपते मन्दविक्रमः । 
तस्मारीर्यैण कालेन भूमिमन्पां तु गच्छति ।(२८॥ 
अष्टादश्हृतं  यदुत्तरायणपशिमम्‌ । 
हर्मि तच्चापि चरते मन्दविक्रमः ।३९॥ 
त्रयोदशाद्धमह्या तु ऋक्षाणां चरते रिः । 
एहतस्ताबदक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन्‌ ॥४०॥ 
अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा। 
मृतण्ड इव मध्यस्थो धर वो भ्रमति वै तथा॥४१॥ 
ङुरालचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैव वतेते । 

भ वस्तथा हि तेय तत्रैव परिवत॑ते ॥४२॥ 
उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु । 

दिवा नक्तं च स्थस्य मन्दा शीघ्रा च वै गतिः।४३। 
मन्दाह्वि यरिमन्नयने शीघ्रा नक्तं तदा गतिः, 
शीघ्रा निशि यदा चास्य तदा मन्दा दिवा गतिः ४ 
एकप्रमाणमेवैष मागं याति दिवाकरः । 
अहोरात्रेण यो शुक्तं समस्ता राशयो द्विज ॥४५॥। 
षडेव राशीन्‌ यो युङ्क्ते रात्राबन्यांस्च षड दिवा । 
रािप्रमाणजनिता दीषेहस्वास्मता दिने ॥४६॥ 
तथा निशायां राशीनां प्रमाणेरघुदीषता । 


दिनादेर्दीधेहस्वलं तद्धोगेनैब जायते ॥४७॥ 


[ना+ क + णक # ~ 


भ्रौविष्णुपुराण 


























॥ अर £. 





होनेसे ) उतने ही नक्षघ्नोको अठारह शूर्तीमि पार 
करता है | कुराट-चक्रके मध्यमे स्थित जीव जिस 
प्रकार धीरे-धीरे चरता है उसौ प्रकार उत्तरायणके 
समय सूयं मन्द गतिसे चरता है इसल्यि उस समय 
बह थोड़ी-सी भूमि भी अति दीरघ॑काख्मे पार करता दै 
| ३७.३८ ॥ अतः खन्तरायणका अन्तिम दिन अरा- 
रह अुहूतंका ह्येता दै, उस दिन भी सूयं अति मन्द 
गत्तिसे चछता है । ३९। ओौर अ्योतिश्चक्राधेके सादे 
तेरह नक्ष्ोको एक दिने पार करता दहै किन्तु 
राञ्चिके समय बह उतने ही ( सादे तेर्‌ ) नचो 
को बारह युहूतोभि हौ पार कर छेतादै ।४०। 
अतः जिस प्रकार नाभि देशम चक्रके मन्द्-मन्द्‌ 
धूमनेसे बहयौका त्‌पिण्ड भौ मन्दगतिसे चूमता 
है उसी प्रकार उ्योतिश्चक्रके मध्यमे स्थित ध्रुव 
अति मन्द्‌ गतिसे धमता दै ।४९। दे मैत्रेय ! 
जिस प्रकार कुलार-चक्रकी नामि अपने स्थानपर ही 
घूमती रहती है, उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर 


ही घूमता रहता हे ॥ ४२॥ 


इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाभोके मध्य- 
मे मण्डलाकार धूमते रहनेसे सूयंकी गति दिनि 
अथवा रात्रिके समय मन्द्‌ अथवा सीघ्रहो जाती 
है ! ४३ । निस अयनमे सूयंकी गति दिनके समय 
मन्द होती है उसभ राधिके समय जघ्र होती है 
तथा निस समय रननि-कालमे शौघ्र ह्येती है उस 
समय दिनमे मन्द हयो जाती दहै । ४४। दे द्विज, 
सू्यको सदा एक बरावर मागं ही पार करना 
पड़ता दै; एक दिनरात्रि यद समस्त राकियोका 
भोग कर केता दै ॥ ४५॥ सूं छः राशियोको 
राच्रिके समय भोगता है ओौर छः को दिनके समय । 
दिनका बद्ना-घटना राश्चियोके परिमाणाजुसार 


ही होवा है । ४६ । तथा राच्रिकी छघुता-दीघेता भी 
राकियोके परिमाणसे ही होती है । राशियोके 


भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकौ रुघुत्ता अथवा 
९. म , र । नाथः रप्रयो तति 


अ० ८ ] ८०५ द ८0 ८ । दितीय अश 


१६७ 








दक्षिणे खयने चैव विपरीता विबखतः ॥४८ ॥ 
उषा रात्रिः समाख्याता व्युष्टिाप्ुच्यते दिनम्‌ । 
प्रोच्यते च तथा सन्ध्या ठषाग्युष्टोयंदन्तरम्‌।४९ | 
सन्ध्याकाले च सम्प्राप्ते रौद्रे परमदारुणे । 

मन्देहा राक्षसा घोराः घठयंमिच्छन्ति खादितुम्‌।५०। 
प्रज।पतिषृतः शापस्तेषां मैत्रेय रक्षसाम्‌ । 
अक्षयत्वं शरीराणां मरणं च दिने दिने ॥५१॥ 
ततः सयंस्य तुदं भवत्यत्यन्तदारुणम्‌ । 

ततो दिनोत्तमास्नोयं सदुक्षिषन्ति महामुने ॥५२॥ 
उ्कारव्रह्मसयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्‌ | 

तेन दद्चन्ति ते पापा वजीभूतेन वारिणा ॥५३॥ 
अग्निहोत्रे हृयते या समन्ता प्रथमाहुतिः । 

घयां ज्योतिः सहस्नांशुस्तया दीप्यति मास्करः। ५४) 
ओङ्कारो भगवाच्िष्णुद्खिधामा वचसां पतिः। 
तदुच्चारणतस्तेतु विनाशं यान्ति राक्षसाः ॥५५॥ 
वैष्णवोंऽशः परः दर्यो योऽन्तव्यों तिरसम्छवम्‌ । 
अभिधायक उग्कारस्तस्य तस्तेरकः परः ॥५६॥ 
तेन सम्परितं ज्योतिरोङ्कारेणाथ दीपिमत्‌ । 
दहस्यशेपरकषांसि मन्देहाख्यान्यधानि वै ॥५७॥ 
तस्मान्नोल्नक्नं काय सन्भ्योपासनकर्मणः। 

स हन्ति घयं सन्ध्याया नोपारित कुस्ते तु यः।५८। 
ततः प्रयाति भगवान्त्राह्मणेरभिरकषितः । 
वाटखिल्यादिभिश्चेव जगतः पारनोधयतः ॥५९॥ 


काष्ठा निमेषा दश पश्च चैव 








रात्रिकालमें श्चीघ्र होती है चथा दिनमे मन्द । दक्षिणा- 
यनम इसकी गति इसके विपरीत होती है ॥ ४८ ॥ 

रात्रि उषा कहाती है वथा दिन व्युष्टि प्रभात) 
क्‌ जाता है; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समय- 
को सन्ध्या कहते दिषष ४९ ॥ इस अपति दारुण ओर 
भयानक सन्भ्या-कालके उपस्थित होनेपर सन्देहः 
नामक भयंकर राक्षसगण सूर्य॑को खाना चाहते ह 
॥ ५० ॥ ह मैत्रेय ! उन राक्षसोको प्रजापत्तिका यह्‌ 
ज्ञाप कि खनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण 
निव्यप्रति हो ॥ ५१ ॥ अतः सन्ध्या-कालमें उनक्रा 
सूयंसे अति भीषण युद्ध होता दहै; है मदाने ! उस 
समय हिजोन्तमगण जो बह्यस्वहूप ऊकार तथा 
गायन्रीसे अभिमन्त्रित जर छोड़ते हैँ उन वजस्वरूप 
जसे वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते दै | ५२.५३ ॥ 
अग्निहोत्रमे जो सूर्यो ज्योतिः" इत्यादि मन्तरसे प्रथम 
आहुति दी जाती है उससे सहखरा्ु दिननाय 
देदीप्यमान हयो जति दै ॥ ५४ ॥ ऊकार जाग्रत्‌, 
स्वप्न ओर सुघु्चिरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान 
विष्णु ह तथा सम्पूणं बागियों (वेदों) का अधिपति 
है, उसके उ्चारणमात्रसे हयी वे राक्षसगण नष्टो 
जाते है ॥ ५५॥ सूयं विष्णुभगवानका अतिश्रेष्ठ 
अं भौर विकाररदित अन्तस्योतिभस्वरूप है। 
रेत्कार उसका वाचक है ओर बह उसे उन राक्षसो. 
के वधम अत्यन्त प्रेरित करनेवाखा है ॥ ५६ ॥ उस 
उेध्कारस्कौ प्रेरणासे अति व्रदीप्र होकर वह ्योति 
मन्देहः नामक सम्पूणं पापी राक्षसोंको दगध कर 
देती हे ॥ ५७ | इसल्यि सन्ध्योपासनकमंका उल्क- 
नन कभी न करना चाये । जो पुरुष सन्ध्योपासन 
नही करता वह भगवान्‌ सूयंका धात करता है 
॥५८॥। तदनन्तर [उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात्‌] 
भगवान्‌ सूयं संसारके पाटनमें प्रवृत्त हो बाल 
द्िल्यादि ब्रह्मणोसे सुरक्षित होकर गमन करते 
है ॥ ५९ ॥ 


पदर निमेष मिलकर पक काष्ा होतेह ओ 


१६८ 


---------------------------------------- --~ 


्रिशत्करुश्चैव भवेन्हत- 

स्तैधिश्ता रात्र्यहनी समेते ॥६०॥ 
हासचरृद्धी त्वह्मागैरदिवप्रानां यथाक्रमम्‌ । 
सन्ध्या युहूतंमात्रा वै हाधवृदधयोःसमा स्प्रता ।६१। 
रेखाप्रमृत्यथादिस्ये त्रिहुतंगते खौ । 
प्रातः स्परतस्ततः कारो मागशराहः स पशचमः।६२। 
तस्मारातस्तनात्कारासियुहतस्तु सङ्गवः। 
मध्याहविश्हूस्तु तरमात्कारातत सङ्खवात्‌ ॥६३॥ 
तस्मान्माध्याहिकार्कारादपराहं इति स्मृतः। 
त्रय एव पहूर्तास्तु कालमागः स्मृतो बुपरैः ॥६४॥ 
अपरा व्यतीते तु कारः सायाह्न एव च| 
दश्षपश्चघुहूरता वै पुहूरताश्चय एव च ॥६५॥ 


दुशपश्वयुहूतं यै अदहर्वषुवतं स्प्रतम्‌ । 
वदते हमते चेवाप्ययने दक्षिणोत्तरे ॥६६॥ 
अदस्तु ग्रसते रात्रिं रात्रिग्र॑सति वासरम्‌ । 
शरदसन्तयो्मध्ये विषुवं तु विभाव्यते ॥६७॥ 
तुकामेषगते भानौ समरात्रिदिनं त॒ तत्‌ । 
ककंटावस्थिते मानो दक्षिणायनच्यते ॥६८॥ 
उत्तरायणमप्युक्त मकरस्थे दिवाकरे । 
्रिशन्युहतं कथितमहोरात्रं त॒ यन्मया ॥६९॥ 


तानि पश्वदश ब्रह्मन्‌ पक्ष इत्यभिधीयते । 
मासः पक्षदयेनोक्तो दवौ मासौ चाकैजावृतुः॥(७०॥ 
ऋतुत्रयं चाप्ययनं द्ऽयने वर्ैसंते। 


भरीपिष्णुपुराण 





[ अ० ८ 





कराओंका एक सुहूते होता है ओर तीस सुदूतेकि 
संम्पूणं रात्रि-दिन होते द ॥ ६० ॥ दि्नौका हास 
अथव) वृद्धि क्रमस्चः प्रात्काङ, मध्याह्वकाल आदि: 


, दिव सांशोके हास-वृद्धिके कारण होते ह; किन्तु 


दिमोके घटते-बदते रहनेपर भी सन्ध्या सवद समान 
भावसे एकर मुहूतंकी ही होत्ती है ।॥ ६१ ॥ उद्यसे 
टेकर सूर्यकी तीन य्ूतंको गतिके कालको भ्रातः 
करार कहते है, यह्‌ सम्पूणं दिनका पाँचवाँ भाग होता 
ट ॥। ६२ ॥ इस प्रातःकालके अनन्तर तीन युहूतेका 
समय (सङ्गवः कहलाता है तथा सङ्गव कारके पश्चात्‌ 
तीन मुहूतेका (मध्या होता है ।॥ ६३ ॥ सध्याह- 
कालसे पोका समय 'अपराह" कहलाता हे । इस 
कालभागको मी बुधजन तीन सुहूतंका ही बताते 
द | ६४ ॥ अपराहके बीतनेपर 'सायाह' आता हे 


इस प्रकार [ सम्पूणं दिनमें ] पदर सुद्ूतं ओर 
[प्रत्येक दिवसीङभं ] तीन मुहूतं होते दै ॥ ६५॥ 


वैषुवत दिवस प्रह युहूतेका होता है, किन्मु 
उत्तरायण ओौर दक्षिणायनमे क्रमः उसके बृद्धि 
ओर हास ह्यन छगते रै ६8] इस प्रकार उत्तयायणभे 
दिनि रात्रिका ग्रास करने कगता है ओर दक्षिणायने 
रात्रि दिनकाश्रास करती रहतीहे) शरद्‌ ओौर 
व सन्त्छतुके मध्यमं सूयेके तुखा अथव मेषराश्िमें 
जानेपर (विषुव होता है। उस समय दिनि ओर 
रात्रि समान होति दै सूर्यके ककंरारिमे उपस्थित 
होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है ॥ ६७.६८ ॥ ओर 
खसक्रे मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहखातादै। 


हे ब्रह्मन्‌ ! मैने जो तीस सुहूतेके एक राच्नि-दिन 
कदे है, एसे पंद्रह रात्रि-दिवसका एक."पक्षु' कृडा 
जाताहे। दो पक्चका एक मास होतादहै, दो सौर- 
मासकी एक ऋतु ओर तीन ऋतुका एक अयन होत 
है | दो अयनही [ मिलाकर ] एक वषं क 
जाते हँ [ सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षुत्र-इन ] 


चार प्रकारके मासेके अनुसार विविध रूपसे 
अवः: 1217ि' श्य 0-12-9 5 1 {>> मे 


भ० ८ ] 





निश्चयः सवंकारस्य युगमित्यभिधीयते । 
संवत्सरस्तु प्रथमो द्वितीयः परिवत्सरः ॥७२॥ 
इद्रत्सरस्तृतीयस्त॒ चतुर्थाुवत्सरः । 
वर्वरः पथमशात्र कारोऽयं युगसंसतितः ॥७३॥ 
यः शेतस्योत्तरः गेलः शृङ्गवानिति विभरुतः। 

त्रीणि तस्य तु शृङ्गाणि यैरयं शृद्गवान्स्परतः॥७४॥ 
दक्षिणं चोत्तरं चैव मध्यं वैषुवतं तथा | 
ररद्सन्तयोमभ्ये तद्धानुः प्रतिपद्यते ॥७५॥ 
मेषादौ च तुलादौ च वैतरेय विषुवत्स्थितः । 

तदा तल्यमहोरात्रं करोति तिमिरापहः ॥७६॥ 
दशपशचश्हूतं वै तदेतदुभयं स्मृतम्‌ । 

प्रथमे कृत्तिकामागे पदा भास्तरस्तदा शशी ॥७७॥ 
विश्चाखानां चतुर्थे यने तिषतयसंशयम्‌ । 
विशाखानां यदा घवव॑श्रत्यशं तृतीयकम्‌ ॥७८॥ 
तदा चन्दर बिजानीयाल्छत्तिकाशिरसि स्थितम्‌ , 
तदेव विपुषरार्योऽयं कालः पुण्योऽभिधरीयते ।७९। 
तदा दानानि देयानि देवेभ्यः प्रयतात्मभिः। 
ब्राह्मणेभ्यः पितृभ्यश्च भखमेतततु दानजम्‌ ॥८०॥ 
प्तदानस्तु विपूवै कतदृरयोऽमिजायते । 
्होरात्रादर॑मासास्तु कलाः काष्ठाः ्षणास्तथा ।८१ 
णमाकी तथा ज्ञेया अमावास्या तथैव च । 
तनीबार डहृश्चैव राका चानुमतिस्तथा ॥८२॥ 





द्वितीय अंश 





१६९ 


यह्‌ युग ही [ मरमासादि] सव प्रकारके काल- 
निणेयका कारण कहा जातादहै। उनम पहला 
संवत्सर, दृसरा परिवत्सर, तीसरा इद्रत्सर, चौथा 
अलनुवत्सर ओौर पचरब वत्सर है । यह्‌ कार प्युगः 
नामसे विख्यात ह ॥ ७२.७३ ॥ 


उवेतवषंकर उत्तरमे जो श्ङ्गवान्‌ नामसे विख्यात 
पवंत है । उसके तीन अग दै, जिनके कारण यह 
शृङ्गवान्‌ कहा जाता है ॥ ७? ॥ उनमेसे एक श 
उन्तरमे, एक दक्षिणमे तथा एक मध्ये है । मध्य- 
शक्र ही '्वैषुवत' है। चरत्‌ ओर बसन्त ऋतुके 
मध्यभ सूयं इस वैषुवत श्द्गपर अते हे ॥ ७५॥ 
अतः ह भेत्रेय ! मेष अथवा तुल्लाराशिके आरम्भमें 
तिमिरापहारी सूयदेव विषुबरत्‌पर स्थित होकर 
दिन ओौर रत्रिको समान-परिमाण कर देते दै 
॥ ७६ ॥ उस समय ये दोनों पदरह-पंद्रह मुहूतेके 
होते ह । हसने! जिस समय सूयं कत्तिकानक्ष्रके 
प्रथम भाग अथात्‌ मेषरािके अन्ते तथा चन्द्रमा 
निचय ही विश्चाखाके चतुर्थाश्च [ अथीत्‌ वृश्चिकके 
आरम्भ ] मे हयँ; अथवा जिस समय सूये विज्ञाखा- 
के तृतीय भाग अथौत्‌ तुराके अन्तिमां्चका भोग 
करते हों ओर चन्द्रमा छृत्तिकाके प्रथम भाग 
अर्थात्‌ मेषान्तमे स्थित जान पड़ं तभी यह ॒'विषुव' 
नामक अति पित्र काल कहा जाता है ॥ ७७.५९ ॥ 
इस समथ देवता, त्रादमण भौर पितृगणकरे उदेश्यसे 
संयतचिन्त होकर दानादि देने चाहिये । यह्‌ समय 
दानग्रहणके लिये मानो देवताओके सुठे हुए युखके 
समान है | ८० ॥ अतः विषुः कारम दान करने- 
वाला मनुष्य करनकव्य हो जाता है। यागादिके 
काठ-निणेयके लिये दिन, रात्रि, पक्ष, कडा, काष्ठा 
ओर क्षण आदिका विषय भरी प्रकार जानना 
चाहिये ॥ ८१॥ राका ओर अनुमति दो प्रकारकी 
पूणं मासी तथा सिनीबाली ओर इ दो प्रकारकी 
अमावास्या † होती दै ॥८२॥ माघ-फाल्गुन, चैत्र 





¢ जिष पूणिमामें पूर्णच््र विराजमान होताह वद्‌ "राका" कहती हुं तथा जिसे एक कला हीन होती हं 


% १.११ ५), # + 1 ४१ 





तपस्तपस्यौ मधुमाधवौ च 
शुक्रः गुचिधायनयुत्तरंस्थात्‌। 
नमोनभस्यो च इषस्तथोन- 
स्सहः सहस्याविति दक्षिणं तत्‌।८२॥ 


लोकालोकथ यश्येरः प्रागुक्तो भवतो मया। 
लोकपालास्तु चत्वारस्तत्र तिष्ठनित सुव्रताः ॥८४॥ 
( 
सुधामा शङ्खपाच्चैव कदमस्यास्मजो दज । 
हिरण्यरोमा चेवान्यश्चतुथः केतुमानपि ॥८५॥ 
निर्दा निरभिमाना निस्तन्द्रा निष्पर्ग्रदाः। 
लोकपालाः स्थिता येते लोकालोके चतुर्दिशम्‌ ।८६। 
उत्तर यदगस्त्यस्य यजवीथ्याथ दक्षिणम्‌ 
पितुयानः सवै पन्था वैश्वानरपथाद्वदिः ॥८७॥ 
त्रासते महास्मान ऋषथो येऽग्निहोत्रिणः | 
भूतारम्भदठतं ब्रहम शंसन्तो ऋत्विगुद्यताः । 
प्रारभन्ते तु ये छोकास्तेषां पन्थाः स दक्षिणः ॥८८॥ 
चकितं ते पुनव्रंहय स्थापयन्ति युगे युगे । 
सन्तत्या तपसा चेव मर्यादाभिः श्रुतेन च ॥८९॥ 
जायमानास्तु पूरवे च पथिमानां गृहै वै । 
पथिमास्चैव पूर्वेषां जायन्ते निधनेष्विह ॥९०॥ 
एवमावतंमानास्ते तिष्ठन्ति नियतवताः। 
सवितुरदक्षिणं मागं भरिता ्याचन्द्रतारकम्‌ ॥९१॥ 
नोगवीथ्युत्तरं यच्च सप्पिभ्यथ दक्षिणम्‌ | 
उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः ॥९२॥ 
तत्रे ते वश्चिनः सिद्धा विमा ब्रह्मचारिणः । 
सन्ततिं ते जुगुप्सन्ति तस्मान्मरस्युजितश्च तैः॥९३॥ 
(4 ¢ 
ष्टा्ीतिसदस्ाणि शुनीनामूध्वरेतसाम्‌ । 
नम्॑म्णःस्थितान्याभुतसम्डवम्‌।९४॥ 











वैशाख तथा य्येष्ठ-आषाद्‌--ये छः मास उत्तरायण 
होते दहै ओर श्रावण-भाद्र, आ्िन-कार्षिक तथा 
अगहन-पौष- ये छः दक्षिणायन कहराते दह ।॥ ८३॥ 


मैने पदे तुमसे जिस छोकालोकपवेतका वर्णेन 
किया है, उसीपर चार्‌ ब्रती लोकपा निवास 
करते है ८४॥ हे द्विज! सुधामा, करमके पुत्र 
ंखपाद्‌ ओर हिरण्यरोमा तथा केतुमान्‌-ये चारो 
निन, निरभिमान, निरारप्य भौर निष्परिग्रह 
खछोकपाख्गण लोकालोकपवेतकी चायं दिश्लाओमें 
स्थित है ॥८५-८६॥ 


जो अगस्स्यके त्तर तथा अजवीथिके दक्षिणम 
वैश्धानरमाग॑से भिन्न [मृगवीयि नामक ] मागं है वही 
पितृयानपथ है | ८७ ॥ उस पितरयानमागंमे महास्मा 
मुनिजन रहते हँ । जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणि. 
योंकी इउत्पत्तिके आरम्भक ब्रह्म ( वेद्‌ ) की स्तुति 
करते हुए यज्ञानुष्ठानके व्यि उद्यत हो कमेका आरम्भ 
करते है वह्‌ (पितृयान) उनका दक्षिणमागं है ॥८८॥ 
वे युग-युगान्तरमे विच्छिन्न हुए वैदिक धमकी सन्तान, 
तपस्या, बणीश्रम-मयीद्‌ा ओौर विविध शास्ोके द्वार 
पुन; स्थापना करते हँ | ८९ ॥ पूतन धरम॑भ्रवतंक 
ही अपनी स्तरकाल्ीन सन्तानकफै ग्रहं उन्न होते 
ह ओर फिर उत्तरकाङीन धमं्रचारकगण अपने यँ 
सन्तानरूपसे उतपन्न हुए अपने पितृगणके कुम जन्म 
छेते दै । ९० | इस प्रकार, वे व्रतक्षीक महर्षिगण 
चन्द्रमा ओर तारागणकी स्थितिपयन्त सूय॑के दक्षिण- 
मागमे पुनः-पुनः आते-जाते रहते ह ।। ९१॥ 


नागवीथिके उत्तर भौर सप्र्षियोके दक्षिणमें जो 
सूयंका उत्तरीय मागं है उसे देवयानमागं कहते ष 
|| ९२ ॥ उसमें जो प्रसिद्ध निमंङस्वभाव ओर जिते- 
न्द्रिय ब्रह्मचारिगण निवास करते ह बे सन्तानकी 
इच्छा नीं करते, अतः उन्होने मृत्युको जीत जिया 
हे।। ९३॥ सूयक उत्तरमागमे सठासी हजार.उभ्व॑रेता 
मुनिगण प्रङयकापयंन्त निवास करते हे ॥ ९४ ॥ 





तेऽसम्प्रयोगाल्लो मस्य मैथुनस्य च वनात्‌ | 

इ च्छादेषप्रधृत्या च भूतारम्भविवजंनात्‌ ॥९५॥ 
पुनश्च कामासंयोगाच्छष्दादेदपिदच्ेनात्‌ । 
इत्येभिः कारणः शुद्रास्तेऽख्रतत्वं हि भेजिरे ॥९६॥ 
्ाभूतसम्छवं स्थानमख्तत्वं विभाव्यते । 
ब्ररोक्यस्थितिकालोऽयमपुनर्मार उच्यते ॥९७॥ 
ब्ह्महत्याश्रमेधाभ्यां पापपुण्यकृतो विधिः| 
द्माभूतसम्शववान्तन्तु फरयक्त तयोरविन ॥९८॥ 


यावन्मात्र परदेशे तु मैत्रेयावस्थितो धरवः। 
लषयमायाति तावत्तु भूमेराभूतप्तम्प्डवात्‌ ॥९९॥ 
उर्वोत्तरखपिभ्यस्तु ध्र बो यत्र व्यवरिथतः| 
एतद्विष्णुपदं दिव्यंतरतीयं व्योम्नि भासुरम्‌।१००। 
निधू तदोपपङ्कानां यतीनां संयतात्मनाम्‌ । 
स्थानं तत्परमं विग्र पुण्यपापपरिक्षये ॥१०१॥ 
दमपुण्यपुण्योपरमे प्षीणाशेषापरिहेतबः । 


यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णो; परमं पदम्‌ ।१०२। 





धरमधर वाध्ासितष्टन्ति यत्ते लोकसाक्षिणः 





तर्साष्टयेत्पिनियोगेद्धास्तद्विष्णोः परमं पदम्‌ १०३ 


यप्रोतमेतसप्रोत च यद्भूत सचराचरम्‌ | 





भाग्य च विष्वं मैत्रेय तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ।१०४। 
दिवीव चक्षुरातत योगिनां तन्मयारमनाम्‌। 
विषेकज्ञानदष्टं च तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ॥१०५॥ 


यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान्मेदीभूतः स्वय धरुवः । 


धर वे च सर्वज्योतींषि ज्योतिःष्वम्भोुषो दविज १०६ 


मेधेषु सङ्गता वृष्टवुष्टेः सृष्टेथ पोषणम्‌ | 
श्राप्यायनं च सर्वेषां देवादीनां महाधने ॥१०७॥ 


उन्होनि छोभके असंयोग, मेधुनके व्याग, इच्छा भौर 
ढेषकी अप्रवृत्ति, कमानुष्ठानके व्याग, कामवासनाके 
असंयोग ओर शब्दादि विषयोके दोषदशेन इत्यादि 
कारणोसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्नकरछोहै 
॥ ९५.९६ ॥ भूतो प्रर्यपयंन्त स्थिर रहनेको ही 
अमरता कते है । त्रिोकीकी स्थितितकके इस 
कारको हयी अपुनमौर ( पुनभ्रत्युरहित ) कहा जाता 
हे || ९७॥ हे द्विज ! ब्रहमहत्या भौर अश्यमेध-यज्ञसे 
जो पाप ओर पुण्य होते दै उनका फल प्रख्यपयंन्त 
कहा गया है | ९८ ॥ 


हे मैत्रेय ! जितने प्रदेशमे ध्रव स्थित दै, परथ्वी 
से ठेकर उस प्रदेश्षपयंन्त सम्पूणं देश प्रलयकालमें 
नष्ट हो जाता दै। ९९॥ सप्त्षियोंसे उत्तर-दिज्ञामें 
उपरकी भोर जहाँ ध्रव स्थित है वह्‌ अति तेजोमय 
स्थान ही आकाञ्चमे विष्णुभगवानका तीसरा दिव्य 
धाम है॥ १००॥ हे चिप्र ! पुण्य-पाप्करे क्षीण हो 
ज्ञानेपर दोष-पङ्कशन्य संयतात्मा सुनिजनोका यही 
परमस्थान हे ॥ १०१॥ पाप-पुण्यके निवृत्त हौ जाने 
तथा देह्‌-पापिके सम्पूणं कारणोके नष्ट हो जनिपर 
प्राणिगण ज्ञिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं 
करते बही भगवान्‌ विष्णुका परमपद हे ॥ १०२॥ 
जहौ मगवान्‌की समान रेरवयंतासे प्राप हृए योग- 
दवासा सतेज होकर धमं भौर ध्रुव आदि छोकसाश्षि- 
गण निवास करते हैं बही भगवान्‌ विष्णुक्ता परम- 
पद है ॥१०३॥ दे मैत्रेय | जिसमे यह भूत, 
भव्रिष्यत्‌ भौर बतंमान चराचर जगत्‌ भोतप्रोत 
हो रहा है बह्म भगवान्‌ विष्णुका परमपद है 
| १०४ ॥ जो तल्लीन योगिजनोंको आकाक्चमण्डल- 
मे देदीप्यमान सूयक समान, सवके प्रका्चकरूपसे 
प्रतीत होतादहै तथा जिसका विवेक ज्ञानसे ही 
प्रत्यक्ष होता है बही भगवान्‌ विष्णुका परमपद्‌ है 
॥१०५॥। हे द्विज ! उस बिष्णुपदम ही सवके आधारः 
भूत परमतेजस्वी ध्रुव स्थित दै, तथा ध्ुवजीमे 
समस्त नक्षत्र, नक्षत्रम मेघ ओर मेघोम वृष्टि 
आश्रित दहै। हे महामुने! उस -वृष्टिसे ही समस्त 
सष्टिका पोषण ओर सम्पूणं देव-मलुष्यादि 
प्राणियोकी पुष्टि द्ोतीहै ॥ १०६-१०७॥ 


ध्रीविष्णुपुरण | 


[अ०६ 








ततश्वाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हविश नः । 

ृष्टेः कारणतां यान्ति भूतानां स्थितये पुनः| १०८। 
एवमेतत्पदं विष्णोस्तुतीयममलात्मकम्‌ । 
द्माधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम्‌। १०९ 
ततः प्रभवति ब्रहमन्सवंपापहरा सस्‌ । 

गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामयङेषनपिञ्जरा ॥११०॥ 
वामपादाम्बुजाङ्ष्ठनखसरोतोषिनिगंताम्‌ । 
विष्णोरिति यां मक्त्य शिरसाहरनिशं ध्‌ वः १११ 
ततः सप्तषयो यस्या प्राणायामपरायर्णाः । 
तिष्ठन्ति वीचिमालाभिरुद्चमानजटा जे ॥ ११२॥ 
वायोरपि; सन्ततैवंस्याःप्ावितं शशिमण्डल.। 
भूयोऽधिकतरां कान्ति वहत्येतदुदक्षये ॥११३॥ 
मेशपष्टे पतत्युच्चेनिष्कान्ता शरिमण्डलात्‌। 
जगतः पावनार्थाय प्रयाति च चतुदिंशम्‌ । ११४ 
सीता चालकनन्दा च चकषुभदरा च संस्थिता। 

एकैव या चतुर्भेदा दिग्मेदगतिरक्षणा ॥११५॥ 
मेदं चारकनन्दाख्यं यस्याः सर्वोऽपि दक्षिणम्‌ । 
दधार सिरसा प्रीस्या वर्षाणामधिकं शतम्‌ ११६। 





रम्भोजेटाकलापाच्च बिनिष्कान्तास्थिशकैराः। 
प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान्‌ ॥ 
स्नातस्य सरले यस्याः सद्यः पापं प्रणयति । 
अपूर्पुण्यप्राहनि्च सयो मैत्रेय जायते ॥११८॥ 
दत्ताः पितृभ्यो यत्रापस्तनयैः ्रद्यान्वितैः । 
समातं परयच्छन्ति तृप मेत्रेय दुंमाम्‌ | ११९॥ 
यस्यामिष्ट्ा महायज्ञेयजञेशं स्पोत्तमम्‌ । 


+ 4 (+ क _ (र (म क = न 


तदनन्तर गौ आदि प्राणियोसे उत्पन्न दुग्ध भौर 
घृत आदिको आहूतियोसे परिपुष्ट अग्निदेव ही 
प्राणियोंकी स्थितिके ल्य पुनः ब्रष्टिके कारण होते 
ह | १०८ ॥ इस प्रकार विष्णु-भगवान्‌का यह्‌ 
निमंल वृतीय लोक (घ्व) ही च्रिखोकीका 
आधारभूत भौर वृष्टिका आदिकारण दै | १०९॥ 


हे ब्रह्मन्‌ ! इस विष्णुपदसे ही देवाङ्गनाओंके 
अङ्खरागसे पाण्डुरवणं हई-सी सवेपापापदारिणी 
श्रीगङ्ाजी उतपन्न हुई ह ॥ ११० ॥ विष्णुभगवानके 
वाम चरण-कमल्के अँगूठेके नखरूप स्रोतसे निकली 
हृ उन गङ्गाजीको ध्रुव दिनरात अपने मस्तकपर 
धारण करता है ॥ १११ ॥ तदनन्तर जिनके जले 
खड़े होकर प्राणायामपरायण सप्र्षिगण उनकी 
रङ्गभङ्गीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हए 
अघमर्षण मन्त्रका जप करते ह तथा जिनके विस्त 
जलसमूहसे आप्ठावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके 
अनन्तर पुनः पहटेसे भी अधिक कान्ति धारण 
करता है, वे श्रीगङ्गाजी चन्द्रमण्डलसे निकलकर 
मेरुपचं तके उपर शिरती ह ओर संसारको पविच्र 
करतेके द्यि चारों दिश्चाओंम जाती है ॥ ११२ 
११४ | चाये दिश्चाओंमे जानेसे वे एक ही सीता, 
अलकनन्दा, चक्षु भौर भद्रा--इन चार भेदोबाली 
हो जाती है ॥ १९५1 जिसके अङकनन्दा नामक 
द्क्चिणीय भेदको भगवान्‌ शंकरने अत्यन्त प्रीतिः 
पूचेक सौ वर्षसे भौ अधिक अपने मस्तकपर धारण 
किया था, जिसने श्रीश्च॑करके जटाकलापसे निकल- 
कर पापी सगरपुर्रोके अस्थिचूणेको आप्ठावित कर 
खन्द सवगम पहुंचा दिया ।। ११६.११७॥ दे मैत्रेय! 
जिसके जरे स्नान करनेसे शीघ्र दही पापका माश्च 
हो जातादहै भौर अपूर्वं पुण्यकी प्राप्ति होती है 
॥ ११८ ॥ जिसके प्रवाहमे पूत्रोदारा पितरोके लि 
रदधापूवैक किया हा एक दिनका भी तपण उन 
सौ वषंतक दुरम तृनि देता है ॥ ११९ ॥ हे द्विज । 
जिसके तटपर राजाओंने महायज्ञोसे यज्ञेश्वर 
भगवान्‌ पुरुषोत्तमका यजन करके इहरोक ओर 


¢ + ऋ, 1 ^ + 


^ 


भ० ९ | 


द्वितीय अश 


१७२ 


(काका १ कानि 








स्नानाद्विधूतपापाश्च यञ्जलैयंतयस्तथा । 
केशवासक्तमनसः प्राप्न निर्वाणश्ु्तमम्‌ ॥१२१॥ 
भ्रुताभिहषिता दृष्टा स्पष्टा पीतावगाहिता । 

या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने॥१२२॥ 
गङ्गा गङ्धेति यैर्नाम योजनानां शरतेष्वपि । 
रिथतैरूच्यारितं हनित पापं जन्मत्रयार्जितम्‌ ।१२३। 
यतः सा पावनायाहं त्रयाणां जगतामपि । 





समुद्धता पर तत्तु तृतीय भगवत्पदम्‌ ॥१२४॥ 





जिसके जरम स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजरननोने 
भगवान्‌ कैराचमं चित्त र्गाकर अत्ति उत्तम निर्वाण- 
पद्‌ प्राप्न करिया है।। १२१॥ जो अपना श्रवण) इच्छा, 
दर्शन, स्प, जकपान, स्नान तथा यज्ञोगान करनेसे 
हौ निव्यप्रति प्राणियोको पवित्र करती रहती है 
॥ १२२ । तथा जिसका शङ्गा, गङ्गा' फेला नाम सौ 
योजनकी दूरीसे भी उचारण क्रिये जानेपर [ जौबके। 
तीन जन्मोके सद्धित पापोको नष्ट कर देतादै 
॥ १२३ ॥ त्रिखोकीको पवित्र करनेमे समथं वह 
गङ्गा जिससे उत्पन्न हृष हे, वही भगवान्‌का तोसरा 
परमपद है ॥ १२४॥ 


---*-+ 9 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयऽ अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 


१११ कक /४/४0८१७० > 


न्वा अध्याय 


ज्योतिश्चक्र ओर चिश्युमास्चक्र 


श्रीपराज्ञर उवाच 
तारामयं भगवतः शिशुमाराङ्रति प्रभोः। 
दिति पं हरेय॑तत तस्य पृच्छेस्थितो घ्र वः ॥१॥ | 
सैष भ्रमन्‌ भ्रामयति चन्द्रादिस्यादिकान्‌ महान्‌। 
भ्रमन्तमनु त यान्ति नक्षत्राणि च चक्रवत्‌ ॥२॥ 
घूर्याचन्द्रमसौ तारा नक्षत्राणि ग्रहैः सद । 
वातानीकमयैवन्यैध्‌ पे बद्धानि तानि वै ॥२॥ 


शिशुमाराकृति प्रोक्तं यदरपं ज्योतिषां दिवि। 
नारायणोऽयनं धान्नां तस्याधारः सख्यं हृदि ॥४॥ 
उत्तानपादपुत्रस्तु तमाराध्य जगत्पतिम्‌ । 
स ताराशिगुमारस्य घ्‌ वः पुच्छेव्यवस्थितः॥ ५॥ 
आधारः िष्ुमरस्य सर्वाध्यक्षो जनादनः | 
धवस्य शिशुमारस्तु भ वे मादुच्य॑बस्थितः॥ ६॥ 
तदाधारं जगच्चेदं सदेव।सुरमादुषम्‌ । 


भ [क 


भद जन्त शु जन्मत ५ 





१ शक्यत्‌ म, न |, | 


भीपराश्चरजी बोरे--आकाञ्मे भगवान्‌ 
विष्णुका जो शिञ्चुमार ( गिरगिट अथवा गोधा ) के 
समान आकारवाला तारामय स्वरूप देखा जाता 
है, इसे पुच्छ-भागमें ध्रुव अवस्थित है ॥ १॥ यद 
प्रव स्वयं घूमता हुभा चन्द्रना ओर्‌ सूयं आदि 
प्रहोको घुमाता है । उस भ्रमणज्लील प्र वके साथ नक्षत्र 
गण भी चक्रके समान घूमते रहते दै ॥ २॥ सूय, 
चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र भौर अन्यान्य समस्त प्रहगण 
वाधु-मण्डलमयी डोरंसे ध्रुवके साथ बे हुए है ॥२॥ 


नने तुमसे आकाशम म्रहगणके जिस शिष्ुमार- 
स्वस्पका वणेन किया है, अनन्त तेजके आश्रय स्वयं 
मगवान्‌ नारायण ही इसके हृद्यस्थित आधार दै 
॥६॥ उन्तानपाद्के पुत्र ध्र बने उन जगस्पतिकौ आरा- 
धना करके तारामय शि्ुमारके पुच्छस्थानमे स्थिति 
्राप्न कौ दै ५॥ शिल्ुमारके आधार सेश्वर श्री- 
नारायण है, सि्ुमार्‌ ध्रुवका जाश्रय है ओर धरुवमे 
सूयेदेव स्थित है ॥६। तथा हे षिप्र! जिस प्रकार 
देव, असुर ओर मनुष्यादिके सहित यह सम्पूणं 
जगत्‌ सूयेके आश्रित है, वह तुम एकाग्रचित्त होकर 


भ्रीविष्णुपुराणं 


[ अ° 


न 





बिवस्वानष्टभिरमासिरादायापो रसात्मिकाः । 
वर्षत्यम्बु ततशवान्मान्नदप्यसिरं जगत्‌ ॥ ८ ॥ 
विवस्वानंशुभिस्तीकष्णरादाय जगतो जलम्‌ । 
सोमे पुष्णास्ययेन्दुस्च बायुनाडीमयेदिवि ॥ ९ ॥ 
नाेविक्िपतेऽगरेषु॒पूमाग्न्यनिलमूर्तिषु । 
न्‌ भ्रश्यन्ति यतस्तेभ्यो जलान्यभ्राणि तान्यतः १० 
अभ्रस्थाः प्रपतन्त्यापो वायुना सयदीरिताः। 
संस्कारं कालजनित' मैत्रेयासाद निर्मा; ॥११॥ 


सरित्सथ्द्रभोमास्त तथापः प्राणिसम्भवाः । 


चतुष्प्रकारा भगवानादत्ते सविता यने ॥१२॥ 

आकाश्चगङ्गासलिक तथादाय मभस्तिमान्‌। 

अनभ्रगतमेवोर्व्या सद्यः क्षिपति ररिमभिः।॥।१३॥ 

तस्य संरपशनिषू तपापपङ्को द्विजोत्तम । 

- न थाति नरक मर्यो दिग्यं स्नानं हि तस्स्प्रतम्‌ १५। 
श & श 

दृष्य हि यद्वारि पतस्यर्विना दिवः । 


आकाशगङ्गासलिलं तद्रोभिः क्षिप्यते खः ॥१५॥ 








कृत्तिकादिषु ऋक्षेषु विषमेषु च यदिवः। 
दृष्टाकंपतितः तेयं तदङ्ग दिग्गजोन््ित्‌।॥ १६॥ 
युग्मक्षपु च यत्तोयं पतत्यर्कोज्ड्ित दिवः। 
तत्घरयरदिममिः सवं समादाय निरस्यते ॥१५७॥ 
उभयं पुण्यमत्यथं नृणां पापभयापहम्‌ । 
आकाक्नगङ्भसलिछं दिव्यं स्नानं महामुने ॥१८। 


च) १७१ ५ १ ५ | क 








सूयं आठ मासत्तक अपनी किरणोँसे रसस्वर 
जलको रहण करके उमे चार महीनोमे बरसा दै 
है । उससे अन्नकी उत्पत्ति होती दै ओर अश्न 
सम्पूणं जगत्‌ पोषितत होता दै ॥८॥ सूयं अपनी ती। 
रङ्मियोसे संसारका जल सीचकर उससे चन्द्रमा 
पोषण करता है ओर चन्द्रमा आकाशम वायुम 


| नाडियोके मा्गसे उसे धूम, अग्नि ओौर वायुः 


मेघोमे पहवा देता है । यदह चन्द्रमाद्वारा प्राप्त उ 
मेघोसे तुस्त ही च्रष्ट नहीं हयोता इसछ्यि बे अ 
कराते है ।। ९-१०॥ हे मैत्रेय ¦ काङजनित स॑स्क 
के प्राप्त होनेपर यह्‌ अभ्रस्य जल निंर होः 
वायुको प्ररणासे पृरथ्वौपर बरसमे खगत दै ॥१९। 


हे सुने ! भगवान्‌ सूयेदेव नदी, सखुद्रः प्रथ 
तथा प्राणियोसे उत्पन्न दन चार प्रकारके जलौ 
आकषेण करते है ॥१२॥ वे अं्ुमाखी अकाशगङ्ग 
जलखको प्रहण करके उसे बिना मेधादिके अप्‌ 
किरणोसे ह तुरंत एथ्वीपर बरसा देते दै।। १२ ॥ 
द्विजोत्तम ! उसके स्पञंमात्रसे पाप-पङ्कके धुल जारे 
मनुष्य नरकमें नटीं जाता । भतः बह दित्यस्न 
कहराता है ।। १४ ॥ सूयं दिखलायी देते हुए, बि 
मेधोके हो जो जक बर्सता है बह सू्ंकौ किर 
द्वारा बरसाया हुभा आकाश्चगङ्गाका ही जल ह) 
है | १५ ॥कृत्तिका आदि विषम ( अयुग्म ) नक्षः 
मे जो जख सूयक प्रकाित होते हृए बरसता दै ९ 
दिग्गजोद्वास बरसाया हूभा अआकाश्चगङ्गाका ऊ 
समश्चना चाहिये ॥ १६॥ [ रोहिणी ओर आ 
आदि ] सम संस्यावाले नक्ष्रोमिं जिस जलको रं 
चरसाता है बह सू्रदिमयोद्ारा [ आकाश्ञगङ्गासे 
महण करके हयी बरसाया जाता है । १७ ॥ हे मः 
मुने ! आकाश्चगङ्गाके ये [ सम तथा विषम नक्षत्र 
बरसनेवारे ] दोनों प्रकारके जख्मय दिभ्य स्न 
अस्यन्त पविन्र भौर मनुष्योके पापमयको दूर कर 
वे दै॥१८॥ 


_ ष्क क ऋ ^ 








पष्णास्योपधयः सवां जीवनायामसृत' हि तत्‌ । १९॥ 
तेन वद्धि परां नीतः सकहथोषधीगणः | 
साधकः फरृपाकान्तः प्रजानां द्विज जायते ॥२०॥ 
तेन यज्ञान्पथाप्रोक्तान्मानवाः शास्रचकषुषः 


कुव॑न्स्यदरदस्तैश् देवानाप्याययन्ति ते ॥२१॥ 





एवं यज्ञाश्च वेदाद्च वर्णाथ वषटपूंकाः | 
सर्वे देवनिकायाश्च सर्वे भूतगणाश्च ये ॥२२॥ 
ष्टा ध्रतमिदं सर्षमन्रं निष्पाते यया | 
सापि निष्पाद्यते वष्टः सवित्रा युनिसत्तम ॥२२॥ 
आधारभूतः सितु वो घनिवरोत्तम । 
धर्‌ बस्य रिषरुमारोऽसौ सोऽपि नरायणास्मकः २४ 
हृदि नारायणस्तस्य शिशुमारस्य संस्थितः। 
विभर्ता सव॑भूतानामादिभूतः सनातनः ॥२५॥ 








प्राणियोके जीवनके लि अमूतरूप होता है ओर 
ओषधि्योका पोषण करता है ॥ १९ ॥ हे विप्र | 
उस बृष्टिके जरसे परम वृद्धिको प्राप्न होकर समस्त 
ओषधिं आओौर फरु पकनेपर सूख जानेवके 
[ गोधूम, यव आदि अन्न] प्रजाब्गफे [सरीरकी 
रत्पत्ति एवं पोषण आदिके ] साधक होते दै ॥ २०॥ 
उनके द्वारा शाखविद्‌ मनीषिगण नित्यप्रति यथा- 
विधि यज्ञातुष्ठान करे देवताओंको सन्तुष्ट करते 
है ॥ २१॥ इस प्रकार सम्पूणं यज्ञ, वेद, ब्राह्मणादि 
वण, समस्त देवसमूहू ओर प्राणिगण व्रि ही 
आश्रित द ॥२२॥ हे मुनिश्रेष्ठ! अन्नको उसन्न 
करनेवाटौ वृष्टि हौ इन सबको धारण करती है 
तथा उस वृष्टिकी उत्पत्ति सूयसे योती है ॥ २३॥ 


दे सनिवरोत्तम ! सूखंका आधार ध्रुव है, ध्रुव- 
का शिजुमार हे तथा िललुमारके आश्रय श्रीनारायण 
दै ॥२४॥ उस शिघयुमाररे हदयमें श्रीनासयण स्थित 
है जो समस्त प्राणि्योफे पाठनकर्ता तथा आदिभूत 
सनातन पुरुष है ॥ २५॥ 


कनन 


इति श्रौविष्णुपुराणे द्वितीयं ऽके नव मोऽध्यायः ॥ ९॥ 





+ ^ ^ 


दसर्वों अध्याय 


द्दश्च सूयौके नाम पवं 
श्रीपराशर उवाच 


साशीतिमण्डलश्षत काष्टयोरन्तरं दयोः । 
आरोहणात्ररोदाभ्यां भानोरब्देन या गतिः। १॥ 
स रथोऽधिष्ठितो देवेरादिल्यैक्रपिभिस्तथा। 
गन्धर्वैरप्सयोभिथ मग्रामणीसर्पराक्षतैः ॥ २॥ 
धाता क्रतुस्थछा चैव पुलस्त्यो वासुकिस्तथा | 
रथभृदग्रामणीरेतिस्तम्बुरुश्येव सप्तमः ॥२॥ 
एते वमन्ति वै चैत्रे मधुमासे सदैव दि । 

मैत्रेय स्यन्दने मानोः सप्त मासाधिकारिणः॥ ४॥ 
ययमा पुरस्यैव रथोजाः पुञ्जिकस्थला | 





अधिकारिर्यका वर्णन 


श्रीपयश्चस्नी बोरे--आरोह ओर अव- 
रोके वारा सूयंकी एक वपम जितन गति है उस 
संपूणं मागंकौ दोनों काष्ठाओका अन्तर एक सौ 
अस्सी मण्डल है | १ ॥ सूयंका रथं [ प्रतिमास ] 
भिन्न-मिन्न आदित्य, ऋषि, गन्धव, अप्सरा, यक्ष, 
सपं ओर राक्षसगणोंसे अधिष्ठिन होता है ॥२॥ 
हे मैत्रेय ! मधुमास चैत्रमे सूर्यके रथमे सवदा 
घाता नामक आदित्य, क्रतुस्थला अप्सरा, पुलस्त्य 
ऋषि, चासुक्रिं सपे, रथभ्त्‌ यक्च, हेति राक्षस ओर 
तुम्बुरु गन्धवं-ये सात मास्राधिकारी रहते दै 
॥ ३-४ ॥ तथा अर्यमा नामक आदित्य, पुलह 
ऋषि, रथौजा यक्ष, पुञ्धिकस्थल्ला अप्सरा, प्रहेति 


~ 
~ 


प्रहेतिः कच्छ्वीरश्च नारदश्च रथे रेः ॥ ५॥ 
माधवे निवसन्त्येते शुचिसंनने निबोधमे) ६॥ 
मिग्रोऽवरिस्तक्षको रक्ष; पौरूषेयोऽथ मेनका । 
हाहा रथस्वनश्चैव भैत्रेथैते वसन्ति चै।॥७॥ 
वरुणो वसिष्ठौ नागश्च सहजन्या हह रथः । 
रथचित्रस्तथा शुक्रे वसन्त्याषाठसज्ञके ॥ ८ ॥ 
इन्दर विश्वासु; सोत श्लापुत्रस्तथाङ्खिसः । 
प्रम्लोचा च नभस्येते सर्पिधाके वसन्ति वै ॥९॥ 
विबस्वानुग्रसेनश मृगुराप्रणस्तथा | 
च्मनुम्लोचा शह्कुपालो व्याघ्रो माद्रपद्‌ तथा।१०। 
पूषा वनमुरुचिर्वानि गोत मोऽथ धनञ्जयः । 
सुपेणोऽन्यो धृताची च वसन्त्याश्वयुजे रवो ।११॥ 
विश्वावसुर्भरद्राजः पञजन्यैरावतौ तथा | 
प्रि्वाचौ सेनजिच्चापः कारपिके च वसन्ति वे॥ १२॥ 
अंशकादयपताचर्यास्तु महापग्नस्तथोवंडी । 
चित्रसेनस्तथा विद्युन्मागेशौयेऽधिकारिणः ।१३॥ 
करतुर्मगस्तथोर्णायुः स्पूजैः कर्कोट कस्तथा । 
अरषनेमिक्चैबान्या पूचित्तिवंराप्तराः ।॥१४॥ 
पौषमासे वसन्त्येते सप्त भास्करमण्डले । 
लोकप्रकाश्चनार्थाय विप्रवर्याधिकारिणः।।१५॥ 
त्वष्टाथ जमदभिश्च कम्बलोऽथ तिलोत्तमा । 
ब्रह्षोपेतोऽथ ऋतजिद्‌ ध्रतरा्टोऽथ सक्ठमः ।१६॥ 
माघमासे वसन्त्येते सप्त मैत्रेय भास्करे । 
भ्रुयतां चापरे घ्य फाल्गुने निवसन्ति ये ॥१७॥ 





राक्षस, कच्छवीर सपं जओौर नारद्‌ नामक गन्ध्य 
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ये वैशाखमासे सूयेके रथपर निवास करते 
हे मैत्रेय ! अब ञयेष्ठ मासम निवास करनेव 12 
नाम सुनो ॥ ५६ ॥ उस समय मित्र 8! 
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आदित्य, अत्रि ऋषि, तक्षक सपे, पौरुषेय रा 
¢ । 
मेनका अप्सरा, हाहा गन्धवं ओर रथस्वन न 
यक्ष-ये उस रथम वासर करते है ॥७॥ = 
अषादु-मासमे बखुण नामक आदित्य, वसिष्ठ = 
© ¢ 
नाग सपे, सहजन्या अप्सरा, हूहू गन्धव) रथ रा । 
अर रथचिनच्र नामक यक्ष उसमे रहते है ॥ < 
श्राबण-मासमें इन्द्र नामक भादित्य, विच्छ! 
गन्धर्व, खोत यक्ष, एलापुत्र सप, अङ्गिरा = 
प्म्छोचा अप्सरा ओर सर्पि नामक राश्चस र्ठ 
रथम वसते द ॥९।। तथा भाद्रपद विव स= 
नामक आदित्य, उग्रसेन गन्धव, शगु ऋषि, अपृ 
यक्ष, अनुम्लोचा अप्सरा, शंखपार सपं ओर ८ 
नामक राक्षसका उसमे निवास होवाहै) ९० 
आशिन मासमे पूषा नामक दित्य, वसु: 
€ 
गन्धं, वात राक्षस) गौतम ऋषि, धनन्जय 
सुषेण गन्धवं लौर धृताची नामको अष्लर 
उसमे बास होता है ॥ ११ ॥ कार्तिक-मासमे = 
विश्चावसु नामक गन्धवं) भरद्वाज ऋषि, प्यैर 
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आदित्य, एेरावतत सपे, विश्याची अप्सर से { 
यश्च तथा आप नामक राश्वस रहते है॥ ९२ 
मार्गश्ीषके अधिकारी अंश नामक भाचि 
काक्यप ऋषि, तायै यक्ष, महापद्म सपे, खः 
अप्सरा, चित्रसेन गन्धव, ओर विद्युत्‌ न 
राक्षस दहै ॥ १३॥ हे विप्रवर! क्रतु ऋषि; 
आदित्य, ऊर्गाथु गन्धव, स्पूजं राक्षस, कक 
भ € 
सर्प, अरिष्टनेमि यक्ष तथा पूवेचित्ति अप्सर 
अधिंकारिगण पौष-सासमे जगत्‌को प्रकाशित चक 
के ल्य सूर्य॑मण्डलमें रहते ह ॥ ९४-१५ ॥ 
हे मैत्रेय ! त्वष्टा नामक आदित्य, जम 
ऋषि, कम्बल सर्प, तिलोत्तमा अप्सरा. त्रद्छे 
राक्षस, ऋनजित्‌ यक्ष॒ ओर धृतराट्र गन्ध 
ये सात माघ-मासमे भारमण्डल्मे 
ह। अव, जो फाल्गुन-मासमे सूयके र 
रहते उनके नाम सुनो ॥ १६.१५ 


विष्णुर्तरो रम्भा खयंवर्चाश सत्यजित्‌ । 


विश्वामित्रस्तथा रक्षो यत्तोपेतो महामुने ॥१८॥ 


मासेष्येतेषु मैत्रेय वसन्त्येते तु सप्तकाः । 
सवितुर्मण्डले ब्रहमन्विष्णुराक्तयुपरहिताः ॥१९॥ 
स्तुवन्ति भुनयः प्यं गन्धवगीयते पुरः । 
नृस्यन्त्यप्सरसो यान्ति घ्यंस्याु निश्चाचराः।२०। 
वहन्ति पन्नगा यक्षैः करियतेऽभीपुसडग्रहः । 
मालविल्यास्तयेवैनं पियं समासते ॥२१॥ 
सोऽयं सप्नगणः घ्यंमण्डके घ्ुनिसत्तम । 
हिमोष्णवाखिवष्टीनां देतु; स्वसमयं गतः ॥२२॥ 





हे महामुने ! वे विष्णु नामक आदित्य, अश्वतर 
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सप, रम्भा अप्सरा, सूु्य॑वर्चा गन्धव, सत्यजित्‌ 

पः विश्यामिच्र ऋषि ओर यज्ञोपेत नामक राक्षस 
 ।| १८ ॥ 


हे ब्रह्मन्‌ ¦ इस प्रकार विष्णुभगवान्‌की श्चक्तिसे 
तेजोमय हुए ये सात-सात गण एक-एक मासतक 
सुयंमण्डल्में रहते दै । १९॥ मुनिगण सूयक 
सुति करते दै, गन्धव सभ्भुख रहकर उनका यजशो- 
गान करते दै, अप्सरा नृत्य करती दहै, राक्षस रथ- 
क पीठे चलते हः, सपं बहन करनेके अनुकर रथको 
सुसल्ित करते दँ ओर यक्षगण रथकी बागडोर 
संमाख्ते है तथा [ नित्यसेवक ] बाख्खिल्यादि 
इसे सव ओरसे चेरे रहते दै ॥ २०-२१ ॥ हे सनि- 
सत्तम ! सूयंमण्डल्फे ये सात-सात गण हौ अपने- 
अपने समयपर उपस्थित होकर शीत, ग्रीष्म ओौर 
वर्षा आदिके कारण दते है ॥२२॥ 


++ 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयं ऽसे दश्ञमोऽभ्यायः }। १० ॥ 


न ौौ पौ ॥ ^ 


ग्यारह्बौं अध्याय 
सूर्य॑शक्ति पवं वैष्णवी शक्तिका वणेन 


श्रीमैत्रेय उवाच 
यदेतद्धगयानाह गणः सप्तविधो खेः। 
मण्डले हिमतापादेः कारणं तन्मया श्रुतम्‌ ॥ १॥ 
व्यापारशापि कथितो गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ । 
ऋपीणां बारुखिल्यानां तथैवाप्सरसां गुरो ॥ २॥ 
यक्षाणां च रथे भानोर्विष्णुशक्तिध्तात्मनाम्‌। 
किं चादिस्यस्य यत्कमं तन्नत्रोक्त सवया यने ॥ २॥ 
यदि सक्तगणो वारि हिमद्ष्णं च वर्षति । 
तत्किमत्र सर्येन वृष्टिः प्र्यादितीयंते ॥४॥ 
विवस्वानुदितो मर्ये यात्यस्तमिति किं जनः। 


ब्वीयेतस्छमं कम यदि सक्षगणस्य तत्‌ ॥ ५॥ 
ब्ि°प१०२३- 





श्रीरैतेयजी बोके--भगवन्‌ ! पने जो कषा 
कि सूयंमण्डलमे स्थित सातो गण शीतत-ग्रीष्म 
आदिक कारण हेते है,सो नैनेसुना ॥१॥ दे 
गुरो ¦ आपने सके रथम स्थित ओौर विष्णु-शक्तिसे 
प्रभावित गन्धव, सपे, राक्षस, ऋषि, बाल 
खिल्यादि, अप्यय तथा यक्षोके तो एथक्‌-प्थक्‌ 
व्यापार बतलाये, किन्तु हे सुने ! यह्‌ नहीं बताया 
फिसूरंका कायं क्या है ॥२-३॥ यदि सातां 
गण ही ज्ञी, भीष्म ओौर वर्षाके करनेवष्द तो 
फिर सूयैका क्या प्रयोजन है १ अओौर यहं केसे कहा 
जाता किव्रृष्टि सूयंसे होतीदै? ॥४॥ यदि 
सातो गणोका यह वृष्टि आदि कायं समानही है 
तो श्सूयं उदय हभ, अव मध्यमे है, अत्र अस्त 
होता दै" ठेसा रोग क्यों कहते है १॥५॥ 








ष्णुपुराण अण 
१७८ ५ 3; श्रीपिष्णुपुराण [ अ० ११ 
श्रीपराशर उवाच भीपयश्चरजी बोके-हे मैत्रेय ! जो कु तुमने 
मैत्रेय श्रयतमनेतघद्धवान्परिपच्छति । पुछा है उसका उत्तर सुनो । सूयं सात गोसे ही 


यथा सप्तगणेऽप्येकः प्राधान्येनाधिको रविः ॥ ६ ॥ 
सर्वशक्तिः परा विष्णो ग्यजुःसामसंहिता । 

सैषा त्रयी तप्यंहो जगतथ हिनस्ति या ॥ ७॥ 
सैषा विष्णुः स्थितः स्थित्यां जगतः पारनोद्यतः । 
ऋग्यलुःसामभतोऽन्तः सविता तिष्ठति ॥ ८ ॥ 
भासि मासि रविर्यो यस्तत्र तत्र हिसा परा। 
त्रयौमयी विष्णुक्क्तिरवस्थानं करोति वै ॥ ९॥ 
ऋचः स्तुवन्ति पू्वाहे मध्याहवेऽथ यज्‌ पिे। 
बृहद्रथन्तरादीनि सामान्यह्वः क्षये रविम्‌ ॥१०॥ 
अङ्कमेषा त्रयो विष्णो ऋयजुःसामसंरिता। 
विष्णुशचक्तिरवस्थानं सदादिवये करोति सा ॥१९१॥ 
न केवरं रेः शक्ति्वष्णवी सा त्रयीमयी । 
ब्रह्माथ पुरुषो हद्रस्चयमेतसखरयीमयम्‌ ॥१२॥ 
सर्गादौ ऋदमयो ब्रह्मा स्थितौ विष्णुवंलुमयः। 
शद्रः साममयोऽन्ताय तस्मात्स्याशुचिष्वनिः।१३। 
एवं सा साखिकी शक्तिविष्णवी या त्रयीमयी । 
आस्मसप्तमणस्थं तं भाखन्तमधितिष्ठति।॥१४॥ 
तथा चाधिष्टितः सोऽपि जाज्वक्छीति स्वरदिमभिः। 
तमः समस्तजगतां नाश्चं नयति चाखिलम्‌ ॥१५॥ 


स्तुवन्ति चैनं घुनयो गन्धव गीयते पूरः । 


मृत्यन्त्योऽप्सरसो यान्ति तस्य चानु निश्चाचराः १६ 


‰ दस विषयमे यह्‌ क्रुति भी ह-- 


षो न ५ श्र + च 








एक दै तथापि खनने प्रधान होनेसे उनकी विशेषता 
हे ॥ ६ ॥ भगवान्‌ विष्णुकी जो सवेशक्तिमयौ ऋक्‌, 
ज्ञुः, साम नामकी परा शक्तिद बह वेदच्रयी ही 
सूयंको ताप प्रदान करती है भौर [ उपासना किये 
जानेपर ] संसारफे समस्त पापोंको नष्ट कर देती है 
| ७॥ हे द्विज ! जगत्‌की स्थिति ओर पानके 
ख्यि वे ऋक्‌ , यजुः ओौर सामरूप विष्णु सूयक 
भीतर निवास कस्ते है ।॥ ८ ॥ प्रव्येक मासमे जो- 
जो सूयं होता है उसी-उसीम वह वेद्त्रयीरूपिणी 
विष्णुकी पराश्चक्ति निवास करती है ॥ ९॥ पृचौह- 
मे ऋक्‌ , मभ्याहमे यज्ञुः तथा साय॑कालमे ब्रह- 
द्रयन्तरादि सामश्रतियौं सूयक स्ठुति करती दै 
॥ १०॥ यह ऋक्‌-यज्जुः-सामस्वरूपिणी वेदत्रयी 
भगवान्‌ विष्णुका ही अन्ग है । यह्‌ विष्णु-राक्ति 
सवेदा आदित्यम रहती है ॥ \१॥ 


यह त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति फेवल सूयहीकी 
अधिष्ठात्री हो, सो नही; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु ओर 
महादेव भी त्रयीमय ही है ।। १२॥ स्ग॑के आदिं 
ब्रह्मा ऋङमय है, उसकी रिथितिके समय बिष्णु यज्ु- 
मय है तथा अन्तकाछमे सद्र साममय है | इसीटियि 
सामगानकी ध्वनि अपवित्र मानी गयी है ॥ १३॥ 
इस प्रकार बह त्रयीमयी साच््विकी वैप्णवौ शक्ति 
अपने सप्रगणोमें स्थित आदित्यम ही [ अतिङ्घय- 
रूपसे ] अवस्थित होती है ॥ १४ ॥ उससे भधिष्ठित 
सूयदेव भौ अपनी प्रखर रङ्मियोंसे अत्यन्त 
परञ्बङ्ित होकर संसारके सम्पूणं अन्धकारको नष्ट 
कर देते है ॥ १५॥ 


उन सयंदेवको मुनिगण स्तुति करते दै, गन्धवे- 
गण उनके सम्मुख यश्चोगान करते है, अप्सरा 
सरस्य करती हुदै चरती है, राक्चस रथे पीठे रहते 


न क क द्‌ न च 


अ० ११ |] 


द्वितीय भश 


१७९ 








वहन्ति पन्नगा यक्षैः क्रियतेऽभीपुसदग्रहः । 
बालखिल्यास्तथषैनं परिवायं समापतत ॥१७॥ 
नोदेता नास्तमेता च कदाचिच्छक्तिरूपधृर्‌। 
विष्णुर्विष्णोःपृथक्‌ तस्य गणस्सप्विधोऽप्ययम्‌ १ 
स्तम्भस्थदपंणस्येव योऽयमासन्नतां गतः। 
छायादु्रौनसंयोगं स तं प्राप्नोस्यथास्मनः ॥१९॥ 
एवं सा वैष्णवी शक्तर्ेवायैति ततो द्विज । 
मासालुमासं भास्वन्तमभ्यास्ते तत्र संसिथतम्‌॥ २०॥ 
पितुदेवमनुष्यादीन्ध सदाप्याययन्प्र्ुः । 
परिवर्तत्यहोरात्रकारणं सविता द्विज ॥२९१॥ 
सरय॑ररिमिः सुषुम्ना यस्तपितस्तेन चन्द्रमाः। 
कृष्णपक्षेऽमरे; शश्वत्पीयते वै सुधामयः ॥२२॥ 
पीतं तं द्विकलं सोमं कृष्णपक्षे द्विज । 


पिबन्ति पितरस्तेषां भास्करात्तपणं तथा ॥२३॥ 
आदत्ते रदिमभिय॑नतु कषितिसंस्थ रं रविः। 
तयुसूजति भूतानां पुष्यथ सस्यव्रद्धये ॥२४॥ 
तेन प्रीणात्यरेषाणि भूतानि भगवान्रविः । 
पितदेवमतुष्यादीनेवमाप्याययत्यसौ ॥२५॥ 
पक्तुं त देवानां पितृणां चेव मासिकीम्‌ । 


शशवतनिच मर्यनां मेत्रेयाकेः प्रयच्छति ॥२६॥ 











है, सपेगण रथका साज सजाते है ओर यक्ष घोड़ो 
की बागडोर संभारते है तथा बालखिल्यादि रथको 
सव ओरसे घेरे रते हें ॥ १६-१७॥ त्रयीशक्तिरूम 
भगवान्‌ [ सुय॑स्वरूप ] विष्णुका न कभी उद्य 


होता है भौर न अस्त [ अर्थात्‌ वे स्थायीरूपसे सवा 
विमान रहते ह ]; ये सात प्रकारके गण तो उनसे 
पथक्‌ है ॥ १८ ॥ स्तम्भे खो हुए दपेणके समान 
ज्ञो कोष उनके निकट जाता है उसीको अपनी 
छाया दिखायी देने कग्ती है ॥ १९॥ हे द्विज ! 
इसी ध्रफार वह वेष्णवीशक्ति सेके रथसे कमी 
चलायमान नहीं होती ओर प्रत्येक मासमे प्रथक्‌. 
पथक्‌ स्के [ परिवर्तित होकर ] उसमे स्थित 
होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥ २० ॥ 


हे द्विज । दिन ओौर रात्रिके कारणस्वरूप 
भगवान्‌ सूयं पितृगण, देवगण ओौर मलुष्यादिको 
सदा तृप्त करते धूमते रते दै ॥ २१ ॥ सुर्यकी जो 
सुषुम्ना नामक किरण है उससे शुक्तपक्षमे चन्द्रमा- 
का पोषण होता है ओर फिर कृष्णपक्षे उस अश्रत- 
मय चन्द्रमाकी एक-एक काका देवगण निरन्तर 
पान करते है| २२॥ हे द्विज ! कृष्णपक्षके क्षय 
होनेषर [वतुद॑शीके अनन्तर] दो कलायुक्त चन्द्रमाका 
पिदृगण पान करते द । इस प्रकार सुयंद्वारा पितृ- 
गणका तपण होता है । २२॥ 


सयं अपनी किरणोसे प्रथिवीसे जितना जल 
खींचता है उस सव्रको प्राणियोको पुष्टि ओर अन्नकी 
बृद्धि सिय बरसा देता है ॥ २४॥ उससे भगवान्‌ 
सुय समस्त प्राणियोको आनन्दित कर देते ह नौर 
इस प्रकार वे देव, मनुष्य भौर पिवृगण आदि 
सभीका पोषण करते दै ॥ २५॥ हे मैत्रेय ! इस 
रोतिसे सये-देव देवतार्भोकी पाक्षिक, पिह्गणकी 
मासिक तथा मनुष्यांकी निस्यप्रति व्श्चि कस्ते 
रहते ह ॥ २६॥ 


मी क 


नवग्रदोका वर्णन तथा टोकान्तरसम्बन्धी व्यास्यानका उपसंहार 


श्रीपराश्चर उवाच 
र्थलिचक्रः सोमस्य न्दाभास्तस्य बाजिनः। 
वामदक्षिणतो युक्ता दश्च तेन चरत्यसौ ॥ १। 
वीथ्याश्रयाणि ऋक्षाणि ध्रुवाधारेण वेगिना। 
हासबृद्धिकरमस्तस्य ररमीनां सितय॑था ॥ २॥ 
अक्॑येव हि तस्याश्वाः सकृयुक्ता वहन्ति ते। 
कल्पमेकं पनिग्रेष्ठ वारिगभसणुदधवाः ॥ २॥ 
पषीणं पीतं सुरे, सोममाप्याययति दी्रिमान्‌। 
मतरेयैककलं सन्तं ररिमनेकेन भास्करः ॥ ४॥ 
क्रमेण येन पीतोऽसौ देवैस्तेन निशाकरम्‌ । 
आप्याययस्युदिनं भास्करो वारितस्करः ॥ ५॥ 
सम्भृतं चार्धमासेन तस्सोभस्थं सुधाम्‌ । 
पिबन्ति देवा गत्य सुधाहारा यतोऽमराः ॥ ६ ॥ 
व्रयस्तित्सहस्चाणि त्रयलिशच्छतानि च। 
तरय्िरत्तथा देवा; पिबन्ति क्षणदाकरम्‌ ॥ ७॥ 
कलाद्वयावशिष्टसतु प्रविष्टः षयंमण्डलम्‌ | 
यमाख्यरर्मौ वसति अमावास्या ततः स्पृता ॥८॥ 
दप्मु तस्मिन्नहोरातरे पूवं विशति चन्रमा; । 
ततो वीरुत्सु वसति प्रयास्यक ततः क्रमात्‌ ॥ ९॥ 
छिनत्ति वीरुधो यस्तु वीरस्संस्थे निशाकरे । 
पप्र वा पातयत्येकं ब्रह्महत्यां स विन्दति ॥१०॥ 
सोमं पश्वदरे भागे किशिच्छिषे कलास्मके। 
अपराहे पितृगणा जघन्यं प्रयुपासते ॥११॥ 
पिबन्ति दविकलाकार शिष्ठ तस्यक्रातु या। 
सुधामृतमयी पुण्या तामिन्दोः पितरो यने ॥१२॥ 





श्रीपरशरजी बोरे-चन्द्रमाका रथ तीन 


पष्ियोवाखा है, उसके वाम तथा दक्षिण ओर कन्द्‌- 
कुसुमके समान इवेतवणं दश्च घोदे उुते हृष दै । 
ध्रुवके आधारपर स्थित उस वेगञ्ञाली रथसे चन्द्र 
देव भ्रमण करते है, ओर नागवीधिपर आशित 
अश्विनी आदि नक्ष््रौका भोग करते है| सुयके 
समान इनकी किरणोँके भी घटने-बदनेका निश्चित 
क्रम है ॥ १-२॥ हे सुनिभरेष्ठ ! स्के समान समुद्र 
गसंसे उत्पन्न हुए उनके घोडे भौ एकबार जोत 
दिये जनेपर एक कल्पप्यन्त रथ खींचते रहते है 
॥ ३ ॥ हे मैत्रेय ! सुरगणके पान करते रहनेसे क्षीण 
हए कलामात्र चन्द्रमाका प्रकाशमय सुयंदेव अधनी 
एक किरणसे पुनः पोषण करते हे | ४॥ जिस 
क्रमसे देवगण चन्द्रमाका पान करते ह उसी क्रमसे 
जखापकारी सूयेदेव उन्हे शुका प्रतिपदरासे प्रतिदिन 
पुष्ट करते है ।॥ ५॥ हे मैत्रेय ! इख प्रकार भाधे 
महीनेमे एकचित हए चन्द्रमाके अभरतको देवगण 
फिर पीने र्गते दै क्योकि देवताओंका आहार 
तो अमृतहीदै॥६॥ तेंतीस हजार, तंतीस सौ, 
तेतीस ( ३६३३३ ) देवगण चन्द्रस्य अभमृतका पान 
करते है ॥५७॥ जिस समयदो कठामान्र र्हा 
हुआ चन्द्रमा सूखमण्डल्मं प्रवेशञ्च करके उसकी 
अमा नामक किरणमे रहता है बह तिथि अमावास्या 
कहल्टाती है || ८ ॥ उस दिन रात्रिम वह पे तो 
जलम प्रवेश्य करता है, फिर वृक्षता आदिमे 
निवास करता है ओर तदनन्तर क्रमसे सूयं 
चछा जाताहै ॥९॥ वृक्ष ओौर छता आदिमं 
चन्द्रमाकौ स्थित्तिके समय [ अमावास्याको ] जो 
उन्द काटता दै अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता 
है उसे ब्रह्मह्याका पाप छ्गता हे ॥ १०॥ केवल 
पंद्रहवीं कलारूप यत्किन्ित्‌ भागके बच रहनैपर 
उस क्षीण चन्द्रमाको पित्रगण मध्याहूौत्तर कालभे 
चारों आस्से घेर सेते है। ११॥ दे मुने! उस 
समय उस द्विकलाकार चन्द्रमाकौ बची हृ अमत 
मयी एक कलाका वे पिदगण पान करते ह ॥ १२॥ 


॥ ५१ 


(4 *4५ 


॥ किति, 


[या 1111 





निस्युतं तदमावास्यां गभस्तिभ्यः सुधाभ्तम्‌ | 
मासं तृ ्षिमबाप्याग्रयां पितरः सन्ति निर ताः। 
सौम्या वरहिपदशेव अग्निष्वात्ताश्च त्रिधा ॥१३॥ 
एवं देवान्‌ सिते पक्षे कृष्णपक्षे तथा पितृन्‌ । 
वीरधश्नामृतमयेः शीतैरप्परमाणुभिः ॥१४॥ 
वीरुधौपधिनिष्पच्या मलुप्यपलरुकोटकान्‌ । 
आप्याययति शीतासु प्राकाशयाहादनेन तु १५ 
वाय्वगिनिद्रव्यसम्भूतो रथशन्द्रसुतस्य च। 
पिवङ्धैतरर्ु्तः सोऽष्टामिर्वायुवेगिभिः॥१६॥ 
सवरूथः साुकर्ो युक्तो भुमेः । 
सोपाधङ्कपताकस्त शुक्रस्यापि रथो मदाय ॥१७॥ 
अष्टाश्वः काश्चनः श्रीमान्मौमस्यापि रथो महान्‌ । 
पदमरागारुणेररैः संयुक्तो वष्िसम्भवैः ॥१८॥ 
अष्टाभिः पाण्डुरेयुक्तो वाजिभिः काश्चनो रथः। 
तरिमस्तिष्ठति बर्फान्ते राशौ राश बृहस्पतिः ॥१९॥ 
भाकाश्सम्भवैरदवैः शबलः स्यन्दनं युतम्‌ । 
तमारुद्य दनैर्याति मन्दगामी रनैश्रः ॥२०॥ 


स्वर्भानोस्तुरगा शै गृङ्गाा धूसरं रथम्‌ । 
सग्युकतास्त मैत्रेय बहन्त्यविरतं सदा ॥२१॥ 
आदित्यानिस्घुतो राहुः सोमं गच्छति पर्वसु । 
आदित्यमेति सोमाच एनः सौरेषु पसु ॥२२॥ 
तथा केतुरथस्याश्वा अप्यष्टौ वातरंहसः । 
पकालधूमवर्णामा लक्षारसनिभारुणा; ॥२३॥ 


एते मया ग्रहाणां वै तवार्थाता रथा नव । 
सर्वे भरे महामाग प्रबद्धा वायुररिमिभिः ॥२४॥ 
ग्रह्षताराधिष्ण्यानि धवे बद्धान्यशेषतः। 





अमावास्याके दिन चन्द्र-रहमिसे निक्डे हुए 
उस सुधामृतकरा पान करके अत्यन्त तप्र हुए सौम्य, 
वरहिषद्‌ ओर अग्निष्वात्त तीन प्रकारके पितृगण 
एक मासप्य॑न्त संतुष्ट रहते है ।। १३ ॥ इस प्रकार 
चन्द्रदेव शुक्तपश्चमे देवताओंकौ ओौर कृष्णपक्षे 
पिकृगणकी पुष्टि कस्ते है तथा अभरतमय श्लीतर जल- 
कणोंसे छता-बृक्षादिका ओर छता ओषधि आदि 
उत्पन्न करफ तथा अपनी चन्द्रिकाद्रारा आह्वादित 
करके वे मनुष्य, पञ्च एवं कीट-पतंगादि सभी 
प्राणियोँकरा पोपण करते द ॥ १४.१५ ॥ 


चन्द्रमाके पुत्र बुधका रथ वायु ओर अग्निमिय 
रम्यका बना हा है ओर उसमे वाथुके समान 
वेगञ्चारी आठ पिल्ंगवणं घोडे जुते दै ॥ १६॥ 
वरूथ, अनुकरष", उपासंगं ओौर पताका तथा 
परथ्वीसे उन्न हुए पोड़ोके सहित शुक्रका स्थ 
भी अतिमहान्‌ ह ॥ १७॥ तथा सङ्गख्का अत्ति 
रोभायमान सुबर्ण-निर्मित महान्‌ स्थ भी अग्निसे 
उत्पन्न हूए, प्मराग-मगिके समान, अरुणवणे, जां 
घोोंसे युक्त है ॥ १८॥ जो आठ पाण्डुरवणं 
घोडोसे थुक्त सुवणेका रथ है उसमे वंके अन्तमं 
प्रसेक राशि ब्रहस्पतिजी विराजमान होते दै 
॥ १९॥ आक्रारसे उत्पन्न हए विचित्रवणं घोड़ंसे 
युक्त रथे आरूढ होकर मन्दगामौ शनैश्चरनौ 
धीरे-धीरे चरते ह ॥ २०॥ 


राहुका रथ धूसर (मटियषे ) चणेका हैः 
उसमे भ्रमरे समान कृष्णवणं आठ घोड़े जुते 
हृ है| हे मेतरेय ! एक बार जोत दिये जनेपर वे 
चोडे निरन्तर चक्षते रहते है ॥ २१॥ चन्द्रपरव 
( पूर्णिमा ) पर यह्‌ राहु सूयसे निकर्कर चन्द्रमाके 
पांस आता है तथा सौरपर्वो ( अमावास्या) पर यह्‌ 
चन्द्रमासे निकल्कर सूयक निकट जाता हे | २२॥ 
दसी प्रकार केतुके रथकरे बायुवेगश्चारी आठ घोड़े 
मी पुभालके धुरपैकी-सी भाभावाछे तथा खाखके 
समान लार रगके है॥२३॥ 

हे महाभाग ! मैने तुमसे यह नवग्रहोके रथोका 
वर्णन किया; ये सभी वायुमयी डोरीसे ध्रुवके साथ 
वैधे हए है ॥ २४॥ हे मैत्रेय ¦ समस्त प्रहु, नक्षत्र 





१, रथकी रक्षाके लिये बना हमा जोहैका भावरण । २. रथका नीचेका भाग । ३. शस्त्र रखनेका स्थन । 


१८२ 2 {०४ ¢ ८5786 १ 
भ्रमन्दयुचितचारेण मैत्रेयानिःिमिभिः ॥२५॥ 
यावन्त्यश्चैव तारास्तास्ताबन्तो वातसमयः। 

सर्वे धू वे निबद्धास्ते भ्रमन्तो भ्रामयन्ति तम्‌।२६। 
तैरपीडा यथा चक्र भ्रमन्तो भ्रामयन्ति वै। 

तथा भ्रमन्ति ज्योतीषि वातविद्धानि सर्वशषः।२७। 
अलातचक्रवधान्ति वातचक्रेरितानि त॒ । 
यस्माज्ञ्योतींपि वहति प्रवहस्तेन सस्प्तः॥२८॥ 


रिबुमारस्त यः प्रोक्तःस भू बो यत्र तिष्ठति । 
सन्निवेशं च तस्यापि शृणुष्व मुनिसत्तम ॥२९॥ 
यद्वा दुरुते पापं तं दृष्ट्रा निलि युच्यते | 
यावन्त्येव तारास्ताः शिगरुमाराश्रिता दिषि।३०। 
तावन्त्येव तुवर्षाणि जीवत्यभ्यधिकानि च। 


८८उत्तानपादस्तस्याथो धि्ञेयो दुत्तरो हदः ॥३१॥ 


यज्ञोऽधरथ विज्ञेयो धर्मो मू्धानमाध्रित; । 


हद नारायणशासते अधिनौ पूर्वपादयोः ॥३२॥ 
वरुणश्नायमा चेव पश्चिमे तस्य सक्थिनी । 


पच्छेऽग्निथ महेन्द्र करयपोऽथ ततो धरूवः। 


श संवत्सरस्तस्य मित्रोऽपानं समाधितः।।२३॥ 


तारका सिशुमारस्य नास्तमेति चतुष्टयम्‌ ॥२४॥ 
इत्येष सन्निवेशोऽयं पृथिव्या ज्योतिषां तथा। ` 
द्ीपानाशुदधीनां च पवंतानां च कीरितः ॥३९५॥ 
वर्षाणां च नदीनां च ये च तेषु बसन्ति वै। 

तेषां स्वरूपमाख्यातं संक्षेपः श्रुयतां पुनः ॥३६॥ 


यदम्बु वैष्णवः काय स्ततो विग्र वसुन्धरा । 
पद्माकारा समुद्धता पवततान्ध्यादिसंयुता ॥२७॥। 
ज्योतीषि विष्णुस बनानि विष्णु- 
वनानि विष्णुभिरयो दिश | 


,१ 


श्रीविष्णुपुराणे 








[ अ० १२ 


ओर तारामण्डल वायुमयी रज्जुसे ध्रुवके साथ 
ये हुए यथोचित प्रकारसे घूमते रहते 

॥ २५॥ जितने तारागण ह उतनी ही वायुमयी 
डोरिरयाँ हँ । उनसे बेँधकर वे सव स्वयं घुमते तथा 
ध्रुवको घुमाते रते दै ।॥ २६॥ जिस प्रकार तेढी 
खोग स्वयं घूमते हुए कोल्टूको भी घुमाते रहते हैँ 
उसी प्रकार समस्त प्रहगण वायुस बेधकर घूमते 
रहते है ॥ २७॥ क्योफि इस वायुचक्रसे प्रेरित 
होकर समस्त प्रहगण अदातचक्र ( बनैती) के 
समान धूमा करते है, इसल्यि यह्‌ श्रवह" कषढाता 
है ।॥ २८॥ 


जिस रिष्चुमारचक्रका पठे वणेन कर चुके हैः 
तथा ज्य ध्रुव स्थित दहै, हे सुनिश्रेष्ठ! अब तुम 
उसकी स्थितिका वणैन सुनो ॥ २९ ॥ रा्निके समय 
उनका दशन करनेसे मनुष्य दिनम जो कुछ पाप- 
कमं करता है उनसे यक्त हो जाता दै तथा आकाञ्च- 
मण्डलम जितने तारे इसके आश्रित है उतने ही 
अधिकं वषं वह जीवित रहता दै । उत्तानपाद 
उसकी उपरकी हनु ( ठोड़ी ) है ॥ ३०-३१॥ ओर 
यज्ञ नीची तथा ध॑ने उसके सस्तकपर अधिकार 
कर रक्खा है, उसके हृदथ-देशभे नारायण है, 
पंके दोनों चरणो अश्िनौक्ुमार ष ॥ ३९॥ 
तथा जंघाओभमे वरुण ओर अयमा हैँ! संवत्सर 
उसका शिदन दहै, मित्रने उसके अपान-देश्चको 
आश्रित कर रक्ला दै ॥ ३३ ॥ तथा अग्नि, महेन्द्र 
कर्यप ओर ध्रुव पुच्छभागसरं स्थित है । शिष्युमारक 
पुच्छभागमें स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी 
अस्त नदीं होते ॥ ३४ ॥ इस प्रकार मैने, तुमसे 
पथिकी, ग्रहण, द्वीप, समुद्र, पवत, वषे ओर 
नदियौका तथा जो-जो उनभे बसते है उन सभीके 
स्वरूपका वर्णन कर्‌ दिया । अब इसे सं्षेपसे फिर 
सुनो ॥ ३५३६ ॥ 


हे बिभ्र ! भगवान्‌ विष्णुका जो मूतेरूप जछ 
है उससे पर्वत ओौर ससुद्रादिके सित कमलके 
समान आकारवाली प्रथिवी उस्न हृद ॥ ३७ ॥ 
ह भरियवयं ! तारागण, त्रिभुवन, वन, पवेत, 
दिशँ नदिया ओर समुद्र सभी भगवान्‌ विष्णु 
हम है तथा ओर भी जो कुछटै अथवा नहँ 


ज्ञानस्वरूपो भगवान्यतोऽसा- 
वशेषमूिनं तु वस्तुभूतः । 
ततो हि शखान्धिधरादिमेदा- 
ानीरि विज्ञानविजुम्मितानि॥ ३९॥ 
यदा तु शुद्धं निजरूपि सवं 
क्क्षये ज्ञानमपास्तदोषम्‌ | 
तदा हि सङ्कल्यतरोः फलानि 


भवन्ति नो वस्तुषु वस्तुमेदाः॥४०॥ 





वस्त्वस्ति पि छत्रचिदादिमध्य- 
पयंन्तदहीनं सततैकरूपम्‌ । 
यच्चान्यथात्वं दविज याति भूयो 
न तत्तथा तत्र कृतो दि त्वम्‌ ॥४१॥ 
मही घटत्वं घटतः कपारिका 
कपालिका चूणेरजस्ततोऽणुः} 
जनैः स्वकर्मस्तिमितात्मनिशयै- 
रालक्ष्यते ब्रूहि किमत्र वस्तु ॥४२॥ 
तस्मान्न वि्ञानमरतेऽस्ति किञ्चि 
त्कचित्कदाचिददिज वस्तुजातम्‌ । 
विज्ञानमेकं निजकर्मभेद- 
विभिन्नचित्तेबेहुधाभ्युपेतम्‌ ॥४२॥ 
ज्ञानं विशुद्ध पिमलं विशोक- 
मशेषलोभादिनिरस्तसङ्गम्‌ । 
एकं सदेकं परमः परेशः 
स वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति ॥४४ 


सद्धाव एवं भवतो मयोक्तो 
तानं यथा सत्यमसत्यमन्यत्‌] 





एतत्त यत्संभ्यवहारभूतं 
तत्रापि चोक्त युवनाभितं ते ।॥४५॥ 
यज्ञः पुवं हविरयेषक्रति 


क्सोमः सुरा! स्वगंमयश्च कामः। 








क्योकि भगवान्‌ विष्णु ज्ञानस्वरूप दै इसलिये 
वे सवंमय दै, परिच्छिन्न पदाथौकार नदीं है। 
अतः इन पवेत, समुद्र ओर प्रथिवी आदि 
भेदको तुम एकमाच्र विज्ञानका ही विरास जानो 
। ३९॥ जिस समय जीव आस्मज्ञानके ह्याया दोष- 
रदित होकर सम्पूणं कर्मोका क्षय हो जनेसे अपने 
युद्ध स्वरूपम स्थित हो जाता है उस समय आसम 
वस्तुम संकल्पवृक्षके एलरूप पदाथ-मेदोकी प्रतीति 
नहीं होती ॥ ४०॥ 

दे द्विज !कोईभी घटादि वस्तुदैही क! 
आदि, सभ्य जौर अन्तसे रहित नित्य एकरूप चित्‌ 
ही तो सवंत्रभ्याप्त दै। जो बस्तु पुनःपुनः बदलती 
रहती दै, पूवंबत्‌ नदीं रहती, उसमे वास्तविकता 
हीक्याहै१॥ ४१॥ देखो, मत्तिकाहौ घटरूप 
हो जाती है ओौर फिर वही घटसे कपा, कपालसे 
चूणेरज ओर रजसे अणुरूप हो जाती है । तो किर 
बताओ अपने कमोकि वजञीमूत हए मनुष्य आत्म- 
स्वरूपको भूकर इसमे कोन-सी सत्य वस्तु देखते 
ह ॥ ४२ ॥ अतः हे द्विज ! विज्ञानसे अतिरिक्त कमी 
कीं कोई पदाथौदि नदीं है । अपने-अपने कर्मोकि 
मेदसे भिन्न-भिन्न चित्तोद्रारा एक ही विज्ञान नाना 
प्रकारसे मान ल्िया गया हे | ४३ ॥ बह विज्ञान 
अति विदध, निमे, निःशोक ओर छोमादिं समस्त 
दोषोसे रहित है। वही एक सद्छ्वरूप परम परमेश्वर 
वासुदेव दै, जिससे प्रथक्‌ ओर कोई पदाथ नदीं 
है ॥ ४४ ॥ 


टस प्रकार, रैने तुमसे यहः परमा्थंका वर्णन 
किया है, केवल एकज्ञान दही सस्यदः उससे भिन्न 
आौर सव असत्य है । इसके अतिरिक्त जो केव 
म्यवहारमात्र है उस त्रिुषलकफे विषयमे भी 
म तुमसे कह चुका ॥ ४५॥ [ इस ज्ञान-मागंफे 
अतिरिक्ति ] मने कमंमागे-सम्बन्धी यज्ञ, 
पञ्च, बहि, समस्त ऋत्विक्‌ , सोम, सुरगण 
तथा स्वगंमय कामना आदिका भी दिष्दु्न 


१८४ 








त्यादिकर्माभितमांच्ं 


भूरादिभोगाश्च पलानि तेषाम्‌ ॥४६॥ 


स च्यैतद्धवबनगतं मया तवोक्तं 
सत्र व्रजति हि तत्र कमवश्यः | 
ज्ञात्वैवं ध वमचलं सदैकरूपं 


भ्रीषिष्णुपुराण 


[नाका 








करा दिया । मूर्खोकादिके सम्पूणं भोग इन -कमं 
कलापोके ही फल हँ ॥ ४६ ॥ यदह जो भने तुमसे 
्रिुवनगत खोकोका वणेन किया हं इन्हीं जीव 
कमंवज्ञ घूमा करता है ठेसा जानकर इससे विरक्त 
हो मनुष्यको बही करना चाहिये जिससे ध्रव; 
अचल एवं सद्‌ा एकरूप भगवान्‌ वासुदेवम छीन 


तस्यादित हि येन वासुदेवम्‌ ४७। ह्यो जाय ॥ ४७॥ 


-कन---- 


दति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयं ऽरो द्वादेश्चोऽध्यायः ॥ १२॥ 


तेरहवाँ अध्याय 


भरत-चरित्र 


श्रीमैत्रेय उवाच 
भगवन्सम्यगाख्यातं यसष्टोऽसि मया किल] 
भूसशद्रादिसरितां संस्थानं ग्रहसंस्थितिः ॥ १ ॥ 
विष्ण्वाधारं यथा चैतत्रेलोक्यं समवस्थितम्‌ । 
परमा्थस्तते प्रोक्तो यथा ज्ञानं प्रधानतः ॥ २ ॥ 
यच्वेतद्धगबानाह भरतस्य महीपतेः । 
श्रोतुमिच्छामि चरितं तन्ममारूयातुमदंपि ॥ ३ ॥ 
भरतः स महीपाल; शालग्रामेऽवसत्किर । , 
योगयुक्तः समाधाय वापुदेवे सदा मनः ॥ ४॥ 
पुण्यदेशग्रमाषेन ष्यायतश्च सदा हरिम्‌ । 
कथं तु नामवन्ुक्तिय॑दमभूत्स द्विजः पुनः ॥ ५ ॥ 
विभ्रत्वे च कृतं तेन यद्भूयः सुमहात्मना | 
भरतेन धनिगरष्ठ॒रस्सवं॑वक्तुमद॑पि ॥ ६॥ 

श्रीपराद्यर उवाच 


शालग्रामे महाभागो भगवन्स्यस्तमानसः। 
स उवास चिरं कालं मैत्रेय पृथिवीपतिः ॥ ७॥ 
अहिंसादिष्वेषेषु गुणेषु गुणिनां वरः । 


न रणा नाघं अतमरश्चापि मयते | ८ | 





श्रीभत्रेयजी बोखे--हे भगवन्‌ ! सेने प्रथिवी; 
समुद्र, नदियों ओौर प्रहगणकौ स्थिति आदिके 
विषयमे जो कुछ पूछा था सो सब आपने बणेन कर 
दिया।॥ १॥ उसके साथ ही जपने यह भी बतला 
दिया फि किस प्रकार यह्‌ समस्त च्रिखोकौ भगवान्‌ 
विष्णुकरे ही आश्रित दै भौर कैसे परमाथेस्वरूप ज्ञान 
हयो समे प्रधान दै ॥ २॥ किन्तु भगवन्‌ ! आपने 
पहठे जिसकी चच कीथी वह्‌ राजा भरतका 
चरित्रे सुनना चाहता हूँ छपा करके किये 
॥ ३॥ कहते दै, वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त 
होकर भगवान्‌ वासुदेवम चित्त ख्गाये श्ालप्रामः 
षत्रमे सहा करते थे॥ ४॥ इस प्रकार पुण्यदेरके 
प्रमाव ओौर हरि-चिन्तनसे भी उनकी भुक्ति क्यों 
नदीं हृ, जिससे उन्द फिर ब्राह्मणका जन्म छेना 
पड़ा।॥५॥ हे सुनिश्ेष्ठ ! ब्राह्मण होकर भी उन 
महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह्‌ सव आप 
कपा करके सुक्चसे कष्टिये ॥। £ ॥ 


श्रीपराशशस्जी बोटे--दहे मैत्रेय ! वे महाभाग 
प्रथिवीपति मरतजी भगवानूमे चित्त छ्गाये चिर 
काटतक शालम्रामक्षे्रमे रहे ॥ ७ ॥ गुणवानोमे श्रेष्ठ 
उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूणं गुण ओर 
अ ययनभ प्य खउ पंथ किया | ८॥ 


` न 


[णका नसि 





यज्ञेशाच्युत गोबिन्द माधर्बान्ति कैरव । 
कुष्ण विष्णो हूषीेश्च वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥ 


इति राजाह भरतो हरेनामानि केवलम्‌ । 
नान्यज्ञगाद मैत्रेय किश्चिस्स्वमान्तरेऽपि च। 
एतत्पदन्तदथं च विना नान्यदचिन्तयत्‌॥१०॥ 
समिर्पुष्पकुशादानं चक्रे देवक्रियाकृते । 
नान्यानि चक्रे कर्माणि निस्सङ्गो योगतापसः। ११। 
जगाम सोऽभिषेकाथ॑मेकदा तु महानदीम्‌ । 

सस्नौ त्र तदा चक्रे स्नानस्यानन्तरक्रियाः।। १२॥ 


अथाजगाम तत्तीरं जल पातुं पिपासिता । 
आसन्नप्रसवा व्रहमन्नेकैव हरिणी वनात्‌ ॥१३॥ 
ततः समभवत्तत्र पीतप्राये जले तथा । 
सिंहस्य नादः सुमहान्सवप्राणिभयङ्करः ॥१४॥ 
ततः सा सदसा त्रासादाष्टुता निम्नगातटम्‌ । 
अस्युच्चारोहणेनास्या नां गर्भः पपात ह ॥१५॥ 
तमूद्यमानं वेगेन वीचिमालापरिष्लुतम्‌ । 
जग्राह स सृपो गरभार्पतितं खृगपेतकम्‌ ॥१६॥ 
गर्भप्रचयुतिदोषेण प्रोनङ्गक्रमणेन च । 
मैत्रेय सापि हरिणी पपात च ममार च ॥१७॥ 
हरिणीं तां विोक्ाथ विपन्नां सृपतापसः। 


स॒गपोतं समादाय निजमाश्रममागतः ।॥१८॥ 

चकारानुदिनं चासौ मृगपोतस्य वै नृपः 

पोषणं पुष्यमाणश्च स तेन ववृधे यने ॥१९॥ 
0 [क 

चचाराश्रमपयन्ते तुणानि गहनेषु सः। 

दुर्‌ गत्वा च श दंलत्रासादभ्याययौ पुनः ॥२०॥ 











"हे यज्ञेश ! हे अच्युत ! हे गोचिन्द ! हे माधत्र। 
हे अनन्त ! हे कैरव! हे कृष्ण! हे विष्णो | 
हे हृषीकेश ! हे घासुदेव ! आपको नमस्कार दै'- 
इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवर भगवन्नामोँका 
ही उध्यारण किया करतेथे। हे मैत्रेय! वे सवप्नम 
भो इस पदके अतिरिक्त ओर कुछ नहीं कते थे ओर 
न कभी इसके अथक अतिरिक्त ओर कुछ चिन्तन 
हयै करते भे ॥ ९-१० ॥ वे निःसंग, योगयुक्त भौर 
तपस्वी राजा भगवान्‌की पूजाके ख्यि केव 
समिध, पुष्प ओर कुश्ाका ही सच्चय करते थे | इसके 
अतिरिक्तवे ओर कोई कमं नहीं करते थे ॥ ११॥ 


एक दिन वे स्नानके ह्ये नदीपर गये ओर बँ 
स्नान करनेके अनन्तर उन्होने स्नानोत्तर क्रियाँ कीं 
|| १२॥ हे ब्रह्मन ! इतनेहीमे उस नदी-तीरपर एक 
आसन्नप्रसवा ( शीघ्र ही बच्चा जननेवारी ) प्यासी 
हरिणी बनमेसे जर पीनेके लिये आयी ॥ १३॥ उस 
समय जव वह्‌ प्रायः जख पी चुकी थी, वर्ह सव 
प्राणियोको भयभीत कर देनेवारी सिंहकी गम्भीर 
गजना सुनायी पड़ी | १४॥ तब वह अस्यन्त भयभीत 
हो अकस्मात्‌ उछखूकर नदीके तटपर चदु गयी; अतः 
अत्यन्त उच्चस्थानपर चदनेके कारण उसका गभं 
नदीम गिर गया॥ १५ ॥ 


नदीकी तरङ्गमाखाओंमे पड़कर बहते हुए उस 
गर्भश्च मृगत्रालकको राज्ञा मरतने पकड लिया 
॥ १६ ॥ हे मैत्रेय ! गरभपातके दोपसे तथा बहुत ऊचे 
उछलनेके कारण वह्‌ हरिणी भी पठा खाकर गिर 


पड़ी ओर्‌ मर गयी ॥ १७ ॥ उस हरिणीको मरी 


हुई देख तपस्वी भरत उसके बशेकरो अपने आश्रम 
पर ठे आये॥ १८ ॥ . 


ह सुने ! फिर राज्ञा भरत उस मृगदोनेका निव्य- 
प्रति पाङन-पोषण करने खगे ओर बह भी उनसे 
पोषित होकर दिन-दविन बदने रगा ॥ १९॥ वह्‌ बञ्चा 
कभो तो उस आश्रमके आसपास ही घसं 
चरता रहता ओर कभी चनम दृरतक जाकर 
फिर सविहके भयसे छोट आत्ता ॥२०॥ 


१८६ 


श्रावष्णुधरत 


प्रातमलातिद्रं च सायमायास्यथाश्रमम्‌ । 


पुनश्च म॒रतस्याभूदाश्रमस्योटजाजिरे ॥२१॥ 
तस्य तस्मिन्छरगे द्रसमीपपरिर्तिनी । 
आसीच्चेतः समासक्तं न ययविन्यतो द्विज ॥२२। 
विग्ुक्तराज्यतनयः प्रोज्ज्निताशेषान्धवः। 
ममत्वं स चकारोच्चैस्तस्मिन्दरिणवषारके॥२२॥ 
वि वृकेक्षिो व्यप्र; किं सिंहेन निषातितः। 
चिरायमाणे निष्कान्ते तस्यासीदिति मानसम्‌।२४। 
एषा वसुमती तस्य सुराग्र्षतकबुंरा । 
प्रीतये मम जातोऽसौ क ममैणकालकः ॥२५॥ 
विषाणग्रेण मद्वाहुं कण्डूयनपरो हि सः। 
ेमेणाभ्यागतोऽरण्यादपि मां सुखयिष्यति ।२६। 
एते लूनरिखास्तस्य॒दशनैरचिरो रतैः । 
कुशाः काशा विराजन्ते वटवःसामगा इव ॥२७॥ 
हत्थं चिरगते तस्मिन्स चक्रे मानसं सुनिः। 
्रीतिप्रसन्नवदनः पारवस्थे चाभवन्मृगे ॥२८॥ 
समाधिभङ्गस्तस्यासीत्तन्पयस्वाहतात्मनः । 
सन्त्यक्तराज्यभोगद्धिस्वजनस्यापि भूपतेः ।२९॥ 
चपलं चपले तस्मिन्दूरगं दृरगामिनि । 
सृगपोतेऽभवदित्तं स्थैयंवत्तस्य भूपतेः ॥३०॥ 
कालेन गच्छता सोऽथ काल चक्रे महीपतिः । 

पितेव साघं पत्रेण मृगपोतेन वीक्षितः ॥३१॥ 
मरगमेव तदाद्राक्षीस्यजन्प्राणानस्षावपि । 


तस्पयत्वेन पैपरेय नार च्दिशिटविन्तयत। ३ 








प्रातःकाल वह बहुत दूर भौ चला जाता, तो भी सायं- 
कारको फिर आश्रमम ही छौट आता ौर भरतजीके 
आश्रमकी प्णशाखाके आँगनमें पड़ रहता ॥ २१॥ 


हे द्विज ! इस प्रकार कमी पास ओौर कभी दूर 
रहनेवाठे स मगमें ही राज्ाका चित्त सवेदा आसक्त 
रहने खगा, बह अन्य विषयोकी ओर जाता ही नदीं 
था ॥ २२॥ जिन्दोने सम्पूणं राज-पाट भौर जपने पुत्र 
तथा बन्धु-बान्धवोको छोड़ दिया था बे ही भरतजी 
खस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता कले खगे 
। २३ ॥ उसे बाहर जानेके अनन्तर यदि लौटनेमे 
देसी दहो जाती तो वे मन-ही-मन सोचने रुगते-- 
'अ्टो ! उस बच्चेको भाज किसी मेडियेने तो नदं 
खा हिया १ किसी सिहके पंजेमें तो आज बह नीं 
पड़ गया १ २४॥ देखो, उसके खुगोँके चिहोंसे यह 
परथिवी कैसी चित्रितहो रही है! मेरी ही प्रसन्नताके 
लिय उदपन्न हभ बह भृगछौना न जने आज कदां 
रह्‌ गया है ¶॥ २५॥ क्या वह्‌ वनसे छुरालपूवेक 
खटकर अपने सीगोसे मेरी मुजाको सुजखाकर युक्षे 
आनन्दित करेगा १॥ २६॥ देखो, उसके नवजात 
द्तिंसे कटी हुई शिखाबे ये कुश्च भौर काञ्च सामा- 
ध्यायो [ क्िखाहीन ] ब्रह्मचारियोके समान कैसे 
सुशोभित हो रहे है ! ॥ २७॥ दैरफे गये हुए उस बज्चके 
निभित्त भरते मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने छगते 
थे ओर जव बह उनके निकट आ जाता तो उसके 
परेमसे उनका मुख विल जाता था ॥२८॥ इस प्रकार 
उसीमे आसक्तचित्त रहनेसे राञ्य, भोग, समृद्धि 
ओौर स्वजनोँको स्याग देनेवाटे भी राजा भरतकी 
समाधि भग दहो गयी ॥ २९॥ उस राजाका स्थिर 
चित्त उस भृगके चच्वर होनेपर चच्चल हो जाता ओर 
दूर चे जानेपर दूर चछा जाता ॥ २० ॥ 

काछान्तरमें राजा भरतने, उस मृगबालकद्रारा 
पुत्रके सजल नयनोँसे देखे जाते हए पिताके समान, 
अपने प्राणोँका स्याग किया ॥ ३१॥ हे मैत्रेय ! राजा 
भो प्राण छोड़ते समय सनेहवश्च चस मुगको 
ह्य देखता रहा, तथा उसीमे तन्मय रहनेसे 
उसमे १ कलमो चिन्तन नहीं किया) ३२। 


ततश तत्कालकृतां भावनां प्राप्य तादृशीम्‌ । 


जम्बूमार्ने महारण्ये जातो जातिस्मरो गः ॥३३। 


जातिस्मरत्वादुदविग्नः संसारस्य द्विजोत्तम । 
विद्य मातरं भूयः श्ाहप्रामुपाययौ ॥२४॥। 
ुषकैसतृणेस्तथा पर्णैः स दुव्॑नातमपोपणम्‌। 
मृगसवहैतुभूतस्य कमणो निष्कृतिं ययो ॥३५॥ 
तत्र वोत्सुष्देदोऽपौ जज्ञे जातिस्मरो द्विजः। 
सदाचारवतां शुद्धे योगिनां प्रवरे कुरे ॥३६॥ 
सव॑ विक्ञानसम्पन्नः सवंश्ाख्ार्थ॑तत्ववित्‌ । 
अपद्रयत्स च मत्रे आतमानं प्रकृतेः परम्‌ ॥३७॥ 
आत्मनोऽधिगतक्तानो देवादीनि महामृने। 
स्वभूतान्यभेदेन स ददशं तदात्मनः ॥२८॥ 
न पपाठ गुरप्रोक्तं कृतोपनयनः श्रुतिम्‌ । 

न ददश च कर्माणि शाश्चाणि जगृहे न च॥३९॥ 
उक्तोऽपि बहुशः किश्चिज्जडवाक्यमभाषत | 


तदप्यसंस्कारगुणं ्राम्यवाक्योक्तिसंभितम्‌।४०॥ 


अपध्वस्तवपुः सोऽपि महिनाम्बरधृष्िजः । 
चिन्रदन्तान्तरः सर्वेः परिभूतः स नागरः ॥४१॥ 
सम्मानना परां हानि योगद करते यतः 


जनेनावमतो योगी योगसिद्धि च बिन्दति ॥४२॥ 





तस्मा्चरेत वै योगी सतां धममदषयन्‌ । 





जना यथावमन्येरस्गच्छेधुरनेव सद्गतिम्‌ ॥५४३॥ 
हिरण्यगर्भवचनं विचिन्त्येत्थं महामतिः । 


द्वितीय अंश 








१८७ 








तदनन्तर, चस समयी सुदृद भावनाके कारण 
वह॒ जम्बूमागे ( कालञ्जरपवेत ) कै धोर वनम 
अपने पूवंजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हा 
॥ ३३ ॥ हे द्विजोत्तम ! अपने पूवजन्मका स्मरण 
रहमेके कारण वह्‌ संसारसे उप्त हो गया ओर 
अपनी माताको छोडकर फिर शाल्मामकषैत्रमे 
आकर ही रहने रगा ॥ ३४ ॥ वर्ह सूखे घास-फूस 
ओर प्तोँसे ही अपना शरीरपोषण कर्ता हुआ 
वह अपते मृगसव-परापतिके हेपुभूत कर्माका निराकरण 
करने खगा ॥ ३५॥ 

तदनन्तर, उस श्चरीरको छोडकर उसने सदा- 
चार सम्पन्न योगिर्योके पवित्र कुर्म ब्राह्मण-जन्म 
प्रहण किया । उस देहम भी इसे अपने पूवंजन्मका 


स्मरण बना रहा ॥ ३६ ॥ हे मैत्रेय ! वह सवं 
विज्ञानसम्पन्न ओर्‌ समस्त ्ाश्लोंके मम॑को जानने 


वाल्ला था तथा अपने आतमाको निरन्तर प्रकृतिसे 
परे देखता था ॥ ३७ हे महामुने ! आत्मज्ञान 
सम्पन्न होनेके कारण वह्‌ देवता आदि सम्पूणं 
प्राणियोँको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥ ८॥ 


उपनयन-संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पदानेपर 
मी वेदपाठ नहीं करता थातथान किसी कमक 


ओर ध्यान देता ओरन कोई अन्य शाख ही पठता 
था | ३९ | जघ कोई उससे बहुत पूछताछ करता 
तो जडके समान कुछ असंस्कृत, भसार एवं प्रामीण 
वाक्योँसे मिछे हुए वचन बोल देता । ४० ॥ निर- 
न्तर मैरा-कुचैला श्ञरीर, मलिन वक भौर अपरि 
मार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण बह ब्राह्मण सद्‌ा अपने 
नगरनिवासियोसे अपमानित होता रहता था॥ ४१॥ 


हे मैत्रेय ! योगश्रीकै लिये सबसे अधिक हानि- 
कारक सम्मानहीदहै, जो योगी अन्य मनुरष्योसे 
अपमानित होता है वह श्ीघ्रही सिद्धिखाम कर 
ठेता दै ॥ ४२ ॥ अतः योगीको, सन्मागको दूषित 
न करते हुए ठेसा आग्वरण करना चाहिये जिससे 
लोग अपमान करं भौर संगतिसे दूर रह ॥ ४३ ॥ 
हिरण्यगभेके इसे सारयुक्त वचनको स्मरण रखते 
हए वे महामति विप्रवर अपने-आपको छोगोँमे 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १३ 





युट्क्तेकुल्मापवरीदयादिशचाक वन्यं फलं कणान्‌ । 


यद्यदाप्नोति सुबहु तदत्ते क।ठसंयमम्‌॥(४५।। 
पितपरते सोऽथ भरातृ्नतुव्यवान्धतैः । 


कारितः सश्रकरमादि कदन्नाहारपोषितः ॥४६॥ 
स॒ तृक्षपीनावययो जटकारी च कर्मणि । 


सवेहोकोपकःरणं  वभूवाह्ारचेतनः ॥४७॥ 
तं तादशमसंस्कारं विप्राकृतिविचेष्ितम्‌ । 
क्षत्ता पृषपतराजस्य काल्ये परुमकल्पयत्‌ ॥४८॥ 


रात्रौ तं समहद्कृस्य वेशस्य विधानतः । 
अधिष्ठितं महाकारी ज्ञाखा योगेश्वरं तथा ॥४९। 


ततः खङ्ग समादाय निरितं निशि सां तथा। 
षत्तारं ऋूरकमीणमच्छिनत्कण्टभूरतः । 
स्वपापदयु ता देवी पौ रुधिरमुल्बणम्‌ ॥५०॥ 
ततस्सोवीरराजस्य प्रयातस्य महासमनः। 
बिष्टिकर्ताथ मन्येत विष्टियोग्योऽयमिस्यपि ॥५१॥ 
तं तादृशं महात्मानं भस्मच्छक्नमिवानलम्‌। 
त्ता सौवीरराजस्य विष्टियोग्यममन्यत ॥५२॥। 
स राजा शिबिकारूढो गन्तु कतमतिद्विज । 
बभूवेक्षुमतीतीरे कपिरवराभरमम्‌ ॥५२॥ 
प्रेयः फिमत्र संसारे दुःखध्राये चणामिति । 
षट तं मोक्षधर्मं कपिलाख्यं महायुनिम्‌ ॥५४॥ 
उवाह शिबिकां तस्य क्षततवेचनचोदितः । 
सृणां विष्टगृहीतानामन्येषां सोऽपि मध्यगः।।५५॥ 
गृहीतो बिष्टिना विप्र; सवक्ञानैकभाजनः । 


[ण ऋ 





कुल्माष ( जौ आदि ), घान, जाक, जंगल्ली फर 
अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मि जाता उस 
थोडे-सेको भी बहुत मानकर बे उसोको खा छेते ओर 
अपना कारणक्षेप करते रहते ॥ ४५ ॥ 

फिर पिताक चान्त हौ जानेपर उनके भारः 
भतीजे ओौर बन्धुज्ञन उनका सडे-गठे अन्नसे पोषण 
करते हृए उनसे खेती-बारोका कायं कराने खगे 
॥ ४६ ॥ वे भो वैलके समान पुष्ट श्रीरा भौर 
कमम जडवत्‌ निश्चेष्ट होनेके कारण केव जादार- 
मात्रसे ह्य सब लोगोके यन्त्र बन जति थे। 
[ अर्थात्‌ समी छोग उन्हं आहार माच्र देकर अपना- 
अपना काम निकार लिया करते थे ] ॥ ४७ ॥ 


छन्द इस प्रकार संस्कारलन्य ओौर बराह्मणवेषके 
विद्ध आचरणवाछा देख रात्रिके समय प्रषतराजके 
सेवकोंने बलिकी विधिसे सुसञ्जितकर कारीका 
बलि-पडु बनाया । किन्तु इस प्रकार एक परमः 
योगीश्वरको बलिक्रे छ्यि उपस्थित देख महाकाखीने 
तीक्षण खड्ग छे उस करूरकमो राजसेवककरा गला 
काट डाला ओर अपने पाषंदोसष्ित उसका तीखा 
रुधिर पान किया ॥} ४८५० ॥ 

तदनन्तर, एक दिनि महात्मा सोवीर याज कीं 
जा रहे थे। उस समय उनके बेगारियोने समन्चा 
कि यह्‌ भी वेगारकै ही योग्य दै ॥ ५१॥ राजके 
सेवकोने भी भस्ममे छिपे हृए अग्निके समान उन 
महात्माका रंग-दंग देखकर इन्दं बेकारके योग्य 
समश्चा ॥ ५२ ॥ हे द्विज ! ठन सौवीरराजने मोक्ष- 
धर्मके ज्ञाता महानि कपिसे यद पूढनेके स्थि 
"इस दुःखमय संसारम मनुष्योका प्रेय किसमे हैः 
किचिकापर चदकर इक्षुमती नदीके किनारे उन 
महर्षिके आश्रमपर जानेक्रा विचार किया ॥५३-५४॥ 


तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि मी उसकी 
पाकीको अन्य बेगारियोके बौचमें लगक्रर वहन 
करने ठगो ॥ ५५ ॥ इस प्रकार बेगारमे पके 
जाकर अपने पूवेजन्मका स्मरण रखनेवारे, 
सम्पण विज्ञाने एकमात्र पात्र वे विप्रवर 
अपने प्रापमय प्रारब्धका क्षय करनेके कलिय 


अ० १३] 


दितीय अं. 


१८९ 








ययौ जडमतिः सोऽथ युगमात्रावलोकनम्‌ । 
इवंन्मतिमतां श्रष्ठस्तदन्ये सरितं ययुः ॥५७॥ 
विोक्य पत्ति; सोऽथ विषमां रिभिकागतिम्‌। 
किमेतदिस्याह समं गम्यतां शिबिकावहाः ॥५८॥ 
पुनस्तथैव शिभरिकां विरोक्य विषमां हि सः। 

. सुपः किमेतदित्याह मव द्धिमंम्यतेऽन्यथा ॥५९॥ 
भूपतेवंद्तस्तस्य भ्रुतवेत्थं बहुशो बचः | 


शिविकावाहकाः प्रोचुरयं यातीत्यसत्वरम्‌ ॥६०। 


राजोवाच 
कि श्रान्तोऽस्यत्पमध्वानं त्वयोढा शिविका मम। 
किमायाससहो न तं पीवानसि निरीच्यसे।॥। ६१ 


ब्रह्मण उवच 
नाहं पीवान्न चैवोढा शिविका मवतो मया। 


न श्रान्तोऽस्मिन चायासो सोटव्योऽस्ति महीपते६२ 


राजोवाच 

प्रत्यक्ष दृर्यसे पीवानद्यापि शिषिका लयि। 
भमय भारोद्धहने मवत्येव हि देदिनामू्‌ ॥६२॥ 

ब्रह्मण उवाच 
प्रत्यक्षं भवता भूष यदृष्ष्टं मम तद्द्‌ | 
वलबानवरुश्चेति वाच्यं पथाद्विेषणम्‌ ॥६४।॥ 
त्वयोहा शिथिका चेति तस्यद्यापि चसंस्थिता। 
भिध्यैतदत्र तु मवान्छणोतु वचनं मम ॥६५॥ 
भूमौ पादयुभं खास्ते जङ्ग पादद्वये स्थिते । 
उरवोनिघाद्रयावस्थौ तदाधारं तथोदरम्‌ ॥६६॥ 
वक्षःस्थल तथा बाहू स्कन्धो चोदरसंस्थितौ । 





वे बुद्धिमानेमिं शरेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि 
देखते हुए मन्द्‌-गतिसे चरते थे, किन्तु उनके अन्य 
साथी जल्दी चल रहे थे ॥ ५७ ॥ 


इस प्रकार शिचिकाकी विषम-गति देखकर 
राज्ाने कष्ा--“अरे शिबिकावाहको | यह क्या 
करते हो ? समान-गतिसे चरोः" ॥ ५८ ॥ किन्तु 
फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर 
राजाने फिर कहा-“अरे क्या है? इस प्रकार 
असमान भावसे क्यों चते हो "५ ॥ ५९ ॥ राजा- 
के व,र-बार ठेसे वचन सुनकर वे श्िबिकाचाहकं 
[ भरतजीको दिखाकर ] कहने ल्गे-"हममेसे 
एक यही धीरे-धीरे चता है" ॥ ६० ॥ 

राजाने कदा--अरे, तूने तो जमी मेरी शिविका 
कोथोडीही दूर बहन कियाद) क्या इतने दही 
थक गया?तू वैसेतो बड़ा मोटा-युष्ण्डा दिखायो 
देता दहै, फिर कया तुश्चसे इतना भी श्रम नहीं सदय 
जाता ?॥ ६१ ॥ 

ब्राह्मण बोल्ले--राजन्‌ ! मैन मोटा ओौरन 
मैने आपकी ्चिबिकाद्ी व्टास्खीहै। मै थका 
भीनहींहं ओौरन सुक्चे श्रम सहन करनेकी दही 
वङ्यकता दै ॥ ६२॥ 

राजा बोला--अरे, तु तो प्रत्यक्षी मोटा 
दिखायी देरहा है, इस समय मी शिविका तेरे 


कन्धेपर रक्खी हई है ओर वोचा ढोनेसे देह- 
धारियोँको श्रम होतादहीहे।॥ ६३॥ 


ब्राह्मण बोले-राजन्‌ ! तुम्हे प्रत्यक्ष क्या दिखायी 
दे रह है, ुश्चे पटे यदी बताओ । उसके बलवान्‌” 
अथवा अबलवान्‌ आदि विङेषणोँकी बात तो 
पीछे करना ॥ ६४ ॥ स्तूते मेरी शिषिकाका बहन 
क्रिया है, इस समय भी वह्‌ तेरे ही कन्धोपर रखी हुई 
है--वुम्हास पेखा कहना सवथा मिथ्या है, अच्छा 
मेरी बात सुनो-॥ ६५ ॥ देखो, प्रथिवीपर तो पैर 
स्सेदै, पैसके उपर जंघा है ओर जंघाओंके 
उपर दोनों ऊरु तथा ऊरओके ऊपर उदर दै ॥ ६६॥ 
उद्रके ऊपर ब्रक्षःस्थरु, बाहु ओौर कन्धौकी स्थिति 
है तथा कन्धरे यपर य शितिः र्स्वीो > । 


१९० 


भराविष्णुधरराणं 


__-------------------[-------------- 


`` 


शिषिकाथां स्थितं चेदं वपुस्त्वदुपलक्षितम्‌ । 

तत्र त्वमहमप्यत्र प्रोच्यते चेदमन्यथा ।६८॥ 
अहं स्वं च तथान्ये च भूतेरु्ाम पार्थिव । 
गुणप्रवाहपतितो भूतवर्गोऽपि यात्ययम्‌ ॥६९॥ 
कपेवदया गुणाश्चैते सत्याचा; पृथिवीपते । 
अविद्यासञ्चितं कर्म॑तच्ारोषेषु जन्तुषु ॥७०॥ 
आत्मा ुद्धोऽक्षरः शान्तो निगुण प्रकृतेः परः । 
रबद्धयफचयौ नास्य एकस्याखिरजन्तुषु ।॥७१॥ 
यदा नोपचयस्तस्य न चैवापचयो नृप । 

तदा पीवानसीतीस्थं कया युक्त्या खये रितम्‌॥७२॥ 
भूपादजङ्काकटयुरुजररादिषु संस्थिते। 
शिबिकेयं यथा स्कन्पे तथा मारः समस्त्वया।॥७३। 
तथान्येजन्तुभिभुप शिषिकोढा न केवसमू । 
रोरदुमगहोत्थोऽपि पृथिवी सम्भवोऽपि बा॥॥७४॥ 
यदा पुंसः पृथग्भावः प्राकृतैः कारणेनष । 


सोदग्पस्तु तदायासः कथं वा तृप्ते मया ॥७५॥ 





यदद्रभ्या शिविका चेयं तद्द्रव्यो भूतसंग्रहः । 
भवतो मेऽखिलस्यास्य ममस्वेनोपदहितः ॥७६॥ 
भ्रीपराक्चर उवाच 
एवगुक्त्ामवन्मोनी स वहञ्छिभिकां दविजः । 
सोऽपि राजावतीर्यो््या तत्पादौ जगृहे स्वरन्‌।।७७। 
राजोवाच 


भोभो विसृज्य शिबिकां प्रसादं रुमे दविज, 


[क 
र न~) # म =+ "नु. १ एनन्‌ ईस + 16 +| 


इस शिविकामे जिसे वुम्हारा कदा जाता बह 
जञरीर रखा हआ! है । वास्तवमे तो शुम बर्हां 
( क्षिबिकम ) हो ओर मेँ यद्य (प्रथिबौपर ) दर 
पेला कहना सबेथा मिभ्या है ॥ ६८ ॥ हे राजन्‌ ! 
मै, तुम भौर अन्य भी समस्त जीव पश्चभूतोसे ही 
बहन किये जाते ह । तथा यह भूतवगं भी गुणोके 
प्रवाहमे पड़कर ही बहा जा रहा दै ॥ ६९ ॥ दे प्रथिवी. 
पते ! ये स्वादि गुण मी कमेकि बक्षीमूत है ओौर 
समस्त जीवो क्म अविद्याजन्य ही दै ॥७०॥ 
आमा तो शुद्ध, अक्षरः शान्त, निगुण ओर्‌ प्रकृतिसे 
परे है तथा समस्त जोबोमे वह एक ही भोतप्रोत 
है। अतः उसके वृद्धि अथवा क्षय कभी नहीं 
होते ॥ ७१ ॥ हे यूष ! जव उसके उपचय ( वृद्धि ), 
अपचय (क्षय) ही नरह होते तो तुमने यह्‌ बात 
किंस युक्तिसे कही कि ^्ू मोटाहै ?॥७२॥ यदि 
क्रमश्षः प्रथिवी, पाद, ज॑घा, कटि, ऊरू ओर उद्र 
पर स्थित कन्धोपर रखी हु यह शिबिका मेरे लिये 
भाररूप हो सकती हे तो उसी प्रकार वुम्हरे व्यि 
भीतोहो सकती है ? [ क्योंकि ये परथि्ी आदि 
तो जसे तुमसे प्रथक्‌ दै वैसे हौ क्च आस्मासे भी 
सर्वथा भिन्न है] ॥ ७३॥ तथा इस युक्तिसे तो 
अन्य समस्त जीबोने भी केवर क्िबिका ही नही, 
बल्कि सस्पूणे पवेत, वृक्ष, गृह ओर प्रथिवी जदिका 
भारख्ठास्खाटै।। ७४।। है राजन्‌ ! जब प्रति. 
जन्य कारणोसे पुरुष सवथा भिन्न है तो सुह उनका 
परिश्रम भी कैसे हो सकता है१।॥७५॥ अर 
जिस द्रन्यसे यष्ठ शिविका वनी है हे उससे यह 
अग्पका, मेरा अथवा मौर सबका रीर भी बना 
है, जिसमे कि ममस्वका आरोप किया हु दै ७१।६ 


्रीपरश्चसजी बोल्त-फेसा कह वे द्विजवर 
किबिकाको धारण कयि हुए ही मौन हो गये; ओर 
राजानि भी तुरन्त एथिवीपर उतरकर उनके चरण 
पकड़ लिये । ७७ ॥ 


यजा बोखा--अहो द्िजसज ! इस 
किविकाको छोडकर आप मेरे उपर छपा 


कीजिये । रभो ! कृपया बताये इस छद्म 
* _ ष्य (0 ,, ^, , 


च्व कव नकन ~ ) भू" न 1“ [त 


अ० १३] 


दवितीय अश्च 


१९९१ 


न ----- 
-~-------------------------------------------~--------------- ` 


यो मवान्यन्निमित्तं वा यदागमनकारणम्‌ । 


तत्सवं कथ्यतां विद्ठन्म्यं शुश्रूषवे खया ॥७९॥ 
ब्रमण उवाच 
श्रयतां सोऽमित्येतदततु भूप न शक्यते । 

, उपभोमनिमित्तं च सवत्रागमनक्रिया ॥८०॥ 
सुखदुःखोपभोगौ त॒ तौ देदाचयपपादकौ । 
धर्माधर्मोद्धवो भोक्तुं जन्त्दहादिग्च्छति ॥८१॥ 
सर्वस्यैव हि भूपार जन्तोः सवत्र कारणम्‌ | 
धर्माधर्मौ यतः कस्मास्कारणं पृच्छते त्वया ।८२। 

राजोवाच 
धर्माधमौ न सन्देहस्सर्वकार्येषु कारणम्‌ । 
उपभोगनिमित्तं च देहदिहान्तरागमः।८३॥ 
यस्त्वेतद्भवता प्रोक्त सोऽदमिस्येतदास्मनः। 


वक्त्‌' न शक्यते श्रोतुं तन्ममेच्छा प्रवतंते ॥८४॥ 


योऽस्ति सोऽदमिति ब्रह्मन्कथं वक्तु न शक्यते । 


आत्मन्येष न दोषाय शब्दोऽहमिति यो दिज।॥८५॥ 


ब्राद्यण उवाच 
शब्दोऽहमिति दोषाय नात्मन्येष तथैव तत्‌। 
अनात्मन्यात्मविन्ञानं न्दो वा भ्रान्तिरक्षणः८६ 
जिह्वा ब्रवीत्यहमिति दन्तोष्ठौ ताहुके मृष । 
एते नाहं यतः स्वे बाड्निष्पादनहेतवः ॥८७॥ 
रि हेतुमिवदस्येषा वागेवाहमिति स्वयम्‌ । 


„५ "> प [4 कन पाना + अक [ 1 [काका ॥} , ३} 











हे विदन्‌ ! जाप कौन है १ किस निमित्तसे यह 
आपका आना हुआ १ तथा आनेकाक्याकारणदै ? 
यह सव आप युश्चसे किये । युषे आपके विषयमे 
सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ॥ ५९॥ 

ब्राह्मण वोले-हे रजन्‌ ! सुनो, मै अमुक ह 
यह बात की नदीं जा सकती ओर तुमने जो मेरे 
यष्ट जआनेका कारण पूषा सो आना-जाना आदि 
सभी क्रियाँ कमेफलके उपभोगके ल्वि ही हुभा 
करती ह ॥ ८० ॥ सुख-दुःखका भोग ह देह आ!दि- 
की प्राप्ति करनेवाला है तथा धर्मीधमंजन्य सुख- 
दुःखोको भोगनेकं च्यिहौी जीव देद्ादि धारण 
करता है ॥ ८१॥ दे भूषा} समस्त जीवोंकी 
सम्पूणं अवस्था्ओंके कारण ये धमं ओौर अधमं 
हीर, फिर विषेषरूपसे मेरे आगमनका कारण 
तुम क्यों पृषते हो १॥ ८२॥ 


राजा बोला-अवर्य ही समस्त कार्योम धमं 
आर अधमं ही कारण ह ्ौर कर्मफरुके उपभोगके 
च्िद्टी एक दहसे दूसरे देहम जाना होता है 
॥ ८३ ॥ किन्तु आपने जो कदा किर कौनरहै- 
यह्‌ नही बताया जा सकता' इसी बातको सुननेकी 
मुञ्चे इच्छा षयो रही है॥ ८४ ॥ हे ब्रह्मम्‌ ! "जो है, 
( अथौत्‌ जो आत्मा कत्तौ-भोक्छारूपसे प्रतीत होता 
हुआ सद्‌ा सत्तारूपसे बतंमान दहै ] वदी यै द -देसा 
क्यों नही कषा जा सकता ? हे द्विज ! यह "अष 
शब्द तो आत्मामे किसी प्रकारके दोपका कारण 
नहं ह्योत ॥ ८५५ ॥ 


ब्रह्मण बोजले-हे राजन्‌ ! तुमने जो कषा किं 
'अष्ट' छन्दसे आत्मामें कोई दोष नदीं भातासो 
ठीक ही हे, किन्तु अनात्मामे ही आत्मत्वका ज्ञान 
करानेवाढा श्रान्तिमूरके अह" शब्द ही दोषका 


| कारण है ॥ ८६ ॥ हे चप ! अह" श्चब्दका इउच्ारण 


जिह्वा, ओष्ठ ओर तुसे हो होता है, किन्तु 
ये सब "अष्ट" (जै) नहीं है, स्योकिये तो उस 
शब्दके दच्चारणके कारण हे | ८७॥ तो क्या जिहादि 
कारणोके दवाय यष वाणी हयी स्वय अपनेको 
अह कहती है ? नदीं । अतः एेसी स्थितिमें तू 


१९२ श्रीविष्णुपुराण [ अ० १३ 


----------------------------------- ~ - ~ ~ 
पण्डः पृथग्यतः पुंसः रिरःपाण्यादिरक्षणः। = | हिर तथा कर-चरणादिरूप यद शरीर भौ आत्मासे 
प्रथक्‌ ही हे | अतः ह राजन्‌ ! इस (अहः शब्दका 





ततोऽद्मिति शुत्ेतां संज्ञां राजन्करोम्यदम्‌ ॥८९॥। 
यद्यन्योऽस्ति परः कोऽपि मत्तः पाथिवसत्तम्‌। 
तदैषोऽहमयं चान्यो वक्त मेवमीप्यते ।९०॥ 
यदा समस्तदेहेषु पुमानेको व्यवस्थितः । 


तदा हि को मबान्सोऽहमित्येतद्विषरं वचः।।९१॥ 





स्वं राजा शिधिका चेयमिमे बाहाः पुरःसराः। 

अयं च मवतो शोको न सदैतन्तृपोच्यते।९२॥ 
ृक्षादार्‌ ततश्चेयं शिबिका त्वदधिष्ठिता | 

किं वृक्षसंज्ञा वास्याः स्यादारुसंज्ञाथ वा नृप ॥९३॥ 
ृक्षारूटो महाराजो नायं वदति ते जनः। 

न च दारुणि सर्वस्तां व्रवीति शियिकागतम्‌।९४॥ 
भिबिका दारसद्कातो र्वनारिथितिसंस्थितः। 
अन्विष्यतां नृपश्रेष्ठ तद्धेदे शिथिका त्वया ॥९५॥ 
एवं छम्रशलाकानां पृथग्भावे तिखरयताम्‌ । 

क्र यातं छ्रमित्येष स्यायस्त्वयि तथा मयि।॥।९६॥ 
पुमान्‌ स्री गौरजो वाजी कुञ्जरो विहगस्तरुः । 
देषु रोकसञेयं॒विज्ञेया कर्मेतषु ।॥९७॥ 
पुमान देबो न नरो न पशनं च पादपः | 
ररीराृतिभेदास्तु भूपैते कम॑योनयः ॥९८॥ 


वस्तु राज्ञेति यन्लोके यच्च राजभरत्मकम्‌ | 
तथान्यच्च मृपेत्थं तन्न सत्सङ्कल्पनामयम्‌॥९९॥ 


यत्तु कालास्तरेण,पि नान्यां संज्ा्ति षै । 








मँ कहौ प्रयोग कर १ | ८९ ॥ तथा हे यृपश्रष्ठ! 
यदि मुह्यसे भिन्न कोरे ओर भी सजातीय आत्मा 
हो तोभो धह ओौर यह अन्य है-रसा 
कहा जा सकता था ॥ ९० ॥ किन्तु, जब समस्त 
रीसेमे एक ही आत्मा विराजमान दहै तव्र आप 
कौन १ मै वहैः ये सव वाक्य निष्फल ही 
ह ९१॥ 


तू राजा दै, यह शिबिका है, ये सामने शिविका- 
वाकं ह तथाये सव तेरो प्रजा दहै--दे ष! 
इनमेसे को भौ बात परमाथंतः सव्य नदीं 
॥ ९२ ॥ हे राजन्‌ ! वृक्चसे कड हुई ओौर उससे 
तेरी यह क्िबिका बनी; तो बता इसे ठकडो कहा 
जाय या वृक्ष ?॥९३॥ किन्तु महाराज वृक्षपर बैठे 
है" ेसा कोर नदीं कहता ओौर न कोई तुके लकडी- 
पर बैठा हुजा ही बताता है ! सव टोग क्चिबिकामे 
बैठा हुजा ही कते है ॥ ९४ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! र्चना- 
विशेषमं स्थित खकड़योका समूह हौ तो यह शिबिका 
है । यदि बह उससे कोई भिन्न वस्तुदै तो काष्ठको 
अग करके उसे दढ ॥ ९५ ॥ इसी प्रकार छत्रकी 
शखाकार्ओंको अङ्ग रखकर छच्रका बिचार करो 
कि वह कर्मी रहता है । यद्यो न्याय तुक्षमे ओर 
मुक्षमे लाम्‌ होता दहै [ अर्थीत्‌ मेरे ओर तेरे ्षरीर 
भी पञ्चभूतसे अतिरिक्त ओर कोड वस्तु नदी दै] 
॥ ९६ ॥ पुरुष, खी, गौ, अज ( बकरा ), अन्ध, 
गज, पक्षी ओर वृक्ष आदि लौकिक संज्ञाओंका 
प्रयोग कमेहेतुक शर सेमे ही जानना चाहिये ॥ ९७॥ 
हे राजन्‌! पुरुष ( जीव ) तो न देवता है, न मनुष्य 
हेन पञ्हे ओौरन वृक्षहै।ये सवर तो कमं 
जन्य शरीरोकी आङृतियोके हयी मेद है ॥ ९८ ॥ 


रोकं राजा, राजाके सैनिक तथा ओौर मी 
जो-जो बस्तु दै, दे राजम्‌ ! वे परमार्थतः सत्य 
नहीं है, केवल कल्पनामय दही है ॥९९॥ जिस 
वस्तुकी परिणामादिके कारण होनेवाली कोह सज्ञा 
कालछान्तरमे भी नहीं होती, बह परम थ वस्त ॐ । 


अ० १४] 


दवितीय अंश 


१९२ 


[काताााकाकायताततताायाातानाातक ाययोिाििियय 
-----~---------~------------------------------------------- ` 


तं राजा स्व॑रोकस्य पितुः पुत्रो सि रिपुः । 
पटल्या; पतिः पिता घ्नो; कि त्वां भूप वदाम्यहम्‌ | 
स्वं किमेतच्छिरः किं सु ग्रीवा तव तथोदरम्‌ । 

फिथु पादादिकं त्वं बा तवैतत्कि महीपते ॥१०२॥ 
समस्तावयवेभ्यस्तं पृथग्भूय व्यवस्थितः । 
कोऽहमिस्यत्र निपुणो भूस्वा चिन्तय पार्थिव ।१०३। 
एषं व्यवस्थिते ते ममाहमिति मापितम्‌ । 


[त्‌ अपनेहठीको देख--] समस्त प्रजाकै लि तू राजा 
है, पिताके लिये पुत्र ह, श्के यि शत्र दै, पनीका 
पति है ओर पुत्रका पिताहै। हे राजन्‌ | बतला, 
नैतच क्या कहर ।॥ १०१॥ हे महीपते ! त्‌ क्या यद्‌ 
चिर है, अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिभेसे 
कोषे १ तथाये क्षिरभादिमी तिरे स्याद! 
॥ ९०२ ॥ हे प्रथिवीरबर ! तू इन समस्त अवयोँसे 
प्रथक्‌ दै; अतः सावधान होकर विचार किँ 
कौन ह" ।। १०३ ॥ हे महाराज ! आत्मतत्त्व इस 
प्रकार व्यवस्थित दै। उसे सबसे प्रथक्‌ करकेदी 
बताया जा सकताहै। तो फिर, मँ हसे (अह 


पृथकरणतिष्पादचं शक्यते नृपते कथम्‌ ।।१०७।। । शब्दसे कैसे बतखा सकता हं {॥ १०४ ॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयऽ त्रयोदशोऽध्यायः ।। १३ ॥ 


चोदहर्षौ अध्याय 


ज्ञडभरत जर सौवीर्नरेशक! संवाद 


श्रीपराश्चर उवाच 
निश््य तस्येति वचः परमार्थसमन्वितम्‌ । 
प्रभयाबनतो भूत्वा तमाह चृपतिर्दिजम्‌ ॥ १ ॥ 
राजोवाच 

भगवन्यलया प्रोक्तं परमार्थमयं वचः । 

ते तस्मिन्भ्रमन्तीव मनसो मम वृत्तय; ॥ २॥ 
एतद्विवेकविज्ञानं यदशेषेषु जन्तुषु । 
भवता दितं विप्र तत्परं प्रकृतेमेदत्‌ ॥ ३॥ 
नाहं बहाम शिबिकां शिविका न मयि स्थिता। 
शरीरमन्यदस्मततो येनेयं शिविका धरता ।। ४॥ 
गुणपर्रया भूतानां प्दृत्तिः कमंचोदिता । 
वर्वन्ते गुणा हेते किं ममेति त्वयोदितम्‌ ॥ ५॥ 
एतस्मिन्परमार्थक्ञ मम श्रोत्रपथं गते । 


श्रीपसाश्चरजी बोले-नके ये परमाथेमय 
वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन 


विप्रवरसे कहा ॥ १॥ 

राजा बोल्ञे-भगवन्‌ ! आपने जो परमाथेमय 
वचन के दैः उन्दः सुनकर मेरी मनोबत्ति्यां घान्त- 
सीह्यो गयौ ह ॥२॥ दे विप्र! आपने सम्पूण 
जीघोमें व्याघ्र जिस असंग विज्ञानका दिग्दश्षेन 
कराया है वह प्रकृतिसे परे ब्रह्म ह दहै [ इसमे सुद 
को सन्देह नदीं है] ॥ १॥ परन्तु आपने जो कहा 
किच शिविकाको वहन नकर रहार शिबिका 
मेरे उपर नहीं है, जिसने इसे ष्ठा रखा हे वह 
रीर सुञ्चसे अस्यन्त पथक्‌ है । जीवोकी प्रत्त 
गुणों ( सत्व, रज, तम ) कौ प्ररणासे होती हे भौर 
गुण कर्मसि प्रेरित द्येक प्रवृत्त होते है-इसमे मेरा 
कर्व कैसे माना जा सकता है ¶।।४-५॥ दे परमाथ! 
यह्‌ बात मेरे कानोमिं पडते हौ मेरा मन परमाथेका 
~ >, ~ तना हार ॥ 


१९४ 


भरीविष्णुपुराण 


[ १ 


णिनिना रिरि य 





पूवमेव महाभागं कपिलपिमहं द्विज | 
प्रुमस्यु्यतो गत्वा श्रेयः किं तत्र शंस मे ॥ ७ । 
तदन्तरे च भवता यदेतद्वाक्यमीरितम्‌ । 

तेनेव परमार्थाथं तयि चेत; प्रधावति ॥ ८ ॥ 
कपिररपिभेगवतः सव॑भूतस्य वै द्विज । 
विष्णोरंजञो जगन्मोहनाशयोवीयुपागतः ॥ ९ ॥ 
स एव मगवान्नूनमस्माक्‌ हितकाम्यया । 
रत्य्षतामनत्र॒ गतो यथैतद्धवतोच्यते ॥१०॥ 
तन्मयं प्रणताय त्वं यच्छयः परमं द्विज । 
तदरदाखिहविज्ञानजलवीच्युदधिरभवान्‌ ॥११॥ 

प्राद्यमण उताच 

भूप पृन्छसि च प्रेयः परमाथ नु प्रच्छि । 

रया स्यपरमार्थानि अशेषाणि च भूपते ॥१२॥ 
देवताराधनं कृत्वा धनसम्पदमिच्छति । 
पुत्रानिच्छति राञ्यं च प्रेयस्तस्यैव तन्पृप ॥१२॥ 
कमं यजतम प्रेयः एं स्वगातिरक्षणम्‌ । 

भ्रयः प्रधानं च एके तदेवानभिसंहिते ॥१४॥ 
आत्मा ध्येयः सदा भूष योगयुक्तेस्तथा परम्‌ । 
श्रेयस्तस्यैव संयोगः प्रेयो यः परमासनः॥१५॥ 
भ्रेयास्येवमनेकानि शतशोऽथ सहस्रशः । 
सन्त्यत्र परमाथस्तु न स्वेत श्रयतां च मे ॥१६॥ 
धमय स्यञ्यते किन्तु परमार्थ धनं यदि । 


व्ययश्च क्रियते कस्मात्कामप्रप्तयुपरक्षणः | १७॥ 











हे द्विज! मैतो पदलेही महाभाग क 
यह्‌ पृष्छनेके ल्यि कि वताश्ये संसारके २ 
श्रेय किमे हैः उनके पास जानेको तत्पर 
। ७॥ किन्तु बीचहीमे, आपने जो बाकः 
उन्ष सुनकर मेरा चित्त परमार्थ-श्रवण 
निये जापक भर्‌ श्रुक गया दै । ८॥ ह 
क प॑टिुनि सवेमय भगवान्‌ विष्ुके ही 
इन्दनि संसारका मोह दूर करनेके ष्यिदहं 
पर अवतारच्या है॥९॥ किन्तु 
प्रकार भाषण कर रदे ह उससे मुञ्चे निश्चय 
किवेदही भगवान्‌ कपिरुदेव मेरे हितकी 
यहां आपके रूपमे प्रकट हो गये है । १० 
हे द्विज! हमाराजो परमश्रेय हो वहु ऽ 
विनीतसे किये । हे प्रभो ! आप सम्पूणं 
तरंगोके मानो समुद्रही है ॥ ११॥ 

बराह्मण बोज्ञे-हे राजन्‌! तुम श्रेय 
चाहते हो या परमाथ ¶ क्योंकि दे भूपते | 
सव अपारमार्थिक ही हैँ ॥१९॥ दहे नर 
पुरुष देवताओंकी आराधना करे धन, 
पुत्र ओर राञ्यादिकी इच्छा करताटै इर 
तोवे ही परम श्रेय है ॥१२३॥ जिस 
स्वगलोककी प्रापि है बह यज्ञात्मक कमं भ॑ 
किन्तु प्रधान श्रय तो उसके फलकी इच्छा र 
ही है ॥ १४॥ अतः हे राजन्‌ ! योगयुक्त 
प्रकृति आदिसे अतीत उस आ्माका हैध्या 
चादिये; क्योकि उस परमात्माका संयोगः 
ही वास्तविक श्रेय है ॥ १५॥ 


इय प्रकार श्रेय तो सैकडो.हनासों 
अनेकों है, किन्तु ये सव परमार्थं नहीं है । 
परमाथ है सो सुनो-॥ १६॥ यदि धन ही 
हे तो धमेके ल्यि उसका त्याग क्यो किया 3 
तथा इच्छित भोगोकी प्राश्निक सख्यि उसका 8२ 
किया जाता हे१ [अतः वह परमाथ नदीं है] 


अ० ९८ | (४९१५ ५१९५ 





९५५ 








परमाथभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तिता ।१८। 
एवं न प्रमारथोऽस्ति जगत्यसिमिश्चराचरे । 
परमार्थो हि कार्याणि कारणानामशेपतः ॥१९॥ 
राज्यादिप्रा्िखरक्ता परमाथतया यदि । 
परमार्था मवन्स्यत्र न भवन्ति च वै ततः ॥२०॥ 
ऋण्यजुःसामनिष्पाद्यं यज्ञकमं मतं तव । 
परमार्थभूतं तत्रापि श्रयतां गदतो मम ॥२१॥ 
यत्तु निष्पाते कायं मृदा कारणभूतया । 
तत्कारणाद्चगमनाज्ज्ञायते नृप मृण्मयम्‌ ॥२२॥ 
एवं बिनाशिभिद्रव्येः समिदानज्यद्कशादिमिः | 
निष्पाद्यते क्रिया यातुसाभवित्री विनािनी।२३। 
अनाश्नी परमार्थश्च प्रा्ेरभ्युपगम्यते | 

तत्तु नाशि न सन्देहो नाशिद्रन्योपपादितम्‌।(२४॥ 
तदेवाफलदं कमं परमार्थो मतस्तव । 
क्तिसाधनभूतसवासपरमाो न साधनम्‌ ॥२५॥ 
ध्यानं चैवास्मनो भूप परमार्थाथशब्दितम्‌। 
भेदकारि परेभ्यस्तु परमार्थो न भेदवान्‌ ॥२६॥ 
प्रमात्मात्मनोरयोगः परमाथ कृतीष्यते । 
मिथ्यैतदन्यदुदरव्यं हि नैति तदुद्रव्यतां यतः।२७। 
, तस्माच्रयांस्यशेषाणि सृपेतानि न संशयः | 


परास्तु भूपाल सद्क्षेपाच्छु.यतां मम ॥२८॥ 











अन्य (अपने पिता) का परमाथेभूत हे, तथा उसका 
पित्ता मी दूसरेका पुत्र होनेके कारण उस (अपने पिता) 


का परमाथं दोगा ॥ १८ ॥ अतः इस चराचर जगत्‌- 
मे पित्ताका कायरूप पुत्र भी परमाथ नहींहै। 


क्योकि फिर तो सभी कारणोकि कायं परमाथ हो 
जा्यंगे ॥ १९ ॥ यदि संसारमे राञ्यादिकी प्राप्िको 
परमाथ कहा जाय तो ये कभी रहते दँ ओर कभी 
नहीं रहते । अतः परमां भी आगमपायी हो 
जायगा । [ इसलिये राज्यादि भी परमाथं नदीं हो 
सकते ] | २० ॥ यदि ऋक्‌, यज्जुः ओौर सामरूप 
वेदत्रयीसे सम्पन्न होनेवाके यज्ञकमंको प्रमाथं 
मानते हो तो उसके विषयमेंर्मेजो कहताहूंसो 
सुनो--॥ ९१॥ हे यष ! जो बस्तु कारणरूपा मृत्तिका- 
का कायं होती है वह कारणको अनुगामिनो 
होनेसे मत्तिकारूप ही जानी जाती है ॥ २२॥ अतः 
जो क्रिया समिध, घृत ओर कुशा आदि नाङ्चवान्‌ 
द्रव्योसे सम्पन्न होती है वह्‌ भौ नाञ्चवान्‌ ही होगी 
॥ २३॥ किन्तु परमायंको तो प्राज्ञ पुरुष अविनाञी 
बताते है ओर नाश्चवान्‌ द्रग्योसे निष्पन्न होनेके 
क]रण कर्मं [अथवा उनसे निष्पन्न होनेवाे स्वगांदि ] 
नाङ्वान्‌ हौ है-इसमे सन्देह नष्टौ ॥ २४ ॥ यदि 
फलाश्ञासे रदित निष्काम कभैको परमाथे मानते हो 
तो वह्‌ तो मुक्तिरूप फलका साधन होनेसे साधन 
ही दै, परमाथ नीं ॥ २५॥ यदि देहादिसे आस्मा- 
का पाक्य विचारकर उसके ध्यान करनेको पर 
मार्थं कहा जाय तो ब तो अनात्ासे आस्माका 
मेद्‌ करनेवाखा है ओर परमाथेमे मेदहै नी 
[ अतः वह भौ परमाथ नद्यं हो सकता ]॥ २६॥ 
यदि परमातमा ओर जीवात्माके संयोगको परमाथ 
कहै तो एेखा. कहना सवंथा मिथ्या दे, कयां 
अन्य द्रव्यसे अन्य द्रभ्यकी एकता कभी नदी दो 
सकती | २७॥ 


अतः हे राजन्‌! निःसन्देहं ये सबश्रेय ही 
है [ परमां नदीं] अव जो परमाथं है बह 
मेरे द्वारा सक्षेपसे श्रवण करो ॥२८॥ 


+अर्थात्‌ यदि आत्मा परमात्म भिन्नदहै तबतोगौ भीर अर्वके समान उनको एकंताहो नहीं सकती भौर 


(+ (न+ (ननन, ‰#(, ,, , न 3, „न, , (~. (1 क क (9 र. न नमन्‌ ~), ~+ भच 0 


१९६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


॥ अ० १५ 


ताम 





एको व्यापी समः शुद्धो निगणः प्रकृतेः परः । 
जन्मब्रद्धयादिरहित आत्मा सर्वगोऽव्ययः ॥२९॥ 


पर्तानमयोऽसद्धिर्नामजात्यादिमिर्विः । 





न योगवान्न युक्तोऽभूसैव पार्थिव यो््यते ॥३०॥ 
तस्यात्मपरदेदेषु सतोऽष्येकमयं हि यत्‌ । 
विज्ञानं परमार्थोऽसौ दैतिनोऽतथ्यद्रिनः ॥३१॥ 
वेणुरन्धप्रमेदेन भेदः; षडजादिसंहितः । 


अभेदन्यापिनो बायोस्तथास्य परमात्मनः ॥२२॥ 


एकसवरूपमेदथ  बाह्यकर्मप्रवृ्तिजः। 





आसा एक, उ्यापक, सम, शुद्ध, निगुण ओर प्रकृति 
से परे दै वह जन्मरद्धि आदिसे रहित, सवं 
व्यापी ओौर अभ्यय है ॥२९॥ है राजन्‌ ¦ बह 
परम ज्ञानमय है, असत्‌ नाम ओर जाति आदिंसे 
खस सर्व॑म्यापकका संयोग न कभी हभ, नहे 
जओौर न होगा ॥ ३० ॥ "वह, अपने ओर अन्य 
प्राणियोके ञ्चरीरमे विद्यमान रहते हए भी, एक ही 
है इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है बही परमाथं 
है; दैत भावनाबाछे पुरुष तो अपरमाथेदर्ञा ह 
॥ ३९ ॥ जिस प्रकार अभिन्न भावसे व्याप्त पक दी 
वायुके, बौघुरीके छिद्रोके मेदसे पडज आदि भेद 
होते है उसी प्रकार [ शरीरादि उपाधियोंके कारण | 
एक ही परमात्माके [ देवता-मलुष्यादि ] अनेक 
मेद प्रतीत होते द ॥ ३२॥ एकरूप आ्माके जो 
नाना मेद है वे बाह्य देह्ादिकी कमेभवृत्तिके कारण 
ही हप है । देवादि सचरीरोकि भेदका निराकरण हो 
जानेपर वष नदीं रहता । उसकी स्थिति तौ अवि द्याकै 


देवादिभेदेऽपध्वस्ते नास्त्येवाबरणे हि सः ॥३३॥ । आवरणतक हौ है ॥ ३२॥ 


- ^ ७,९५१९५--- 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीये ऽसे चतुदलोऽध्यायः | १४ ॥ 


षि ॐ 0 9 


पंद्रहर्वो अध्याय 
ऋभुका निद्‌ाधको अद्धेतक्षानोपदेशच 


श्रीपराङ्ञर उवाच 
इ त्युक्ते मौनिनं भूयधिन्तयानं महीपतिम्‌ । 


्रसयुवाचाथ विप्रोऽसावदवैतान्तगंतां कथाम्‌ | १॥ 
म्रारद्यण उवाच 

भ्रयतां तृपशाद यद्रीतमृश्ेणा पुर । 

अवबोधं जनयता निदाधस्य महदार्मनः॥ २॥ 

ऋभुरनामामवत्पुप्रो ब्रह्मणः परमेष्ठिनः । 

विज्ञाततर्वसद्धाो निसगदिव भूपते ॥२३॥ 


तस्य शिष्यो निदाधोऽभूष्पुलस्त्यतनयः पुरा। 
प्रादादशेषवि्ञानं स॒ वस्मे परया शरदा ॥ ४॥ 





भीपराश्चर्नी बोठे-हेः मैत्रेय ! एेखा कहनेपरः 
राजाको मौन होकर मन-ही-मन सोच-विचार करते 
देख वे विप्रवर यह्‌ अद्धैत-सम्बन्धिनी कथा स्नाने 
ख्गे॥ १॥ 

ब्राह्मण बोल्ते-हे जशादृल ! पूव कालम महर्षि 
अमुने महात्मा निदाघको उपदेश्च करते हुए जो 


कछ कषा था वहे सुनो ।॥ २॥ द भूपते ! परमेष्ठी 


भोव्रह्माजीका ऋ नामक एक पुत्र था) वह्‌ स्वभाव 
से हौ परमाथेतच्वको जाननेवाखा था ॥३॥ 
पूबंकाठ्मे महपिं पुरस्स्यका पुत्र निदाघ उन 
ऋमुका शिष्य था। उसे उन्होने अति प्रसन्न 
होकर सम्पूणं तस््वज्ञानका उपदेश दिया था 


अ० १५ | 


द्विताक जच 


____------_-__-_-_-_____-_~________-___________-____-_------_-~-~-_-]-] 


* भ 





स ऋशस्तकंयामास निदाघस्य नरेश्वर ॥ ५॥ 
देभिकायास्तटे वीरनगरं नाम वे प्र्‌ । 
समृद्धिमतिरम्यं च पुलस्त्येन निवेशितम्‌ ।॥ ६॥ 
रम्योपबनपयंन्ते स॒तस्मिन्पाथिवोत्तम । 
निद्‌।धो नाम योगत्ञ ऋशुशिष्योऽवरसत्पुरा ॥ ७ ॥ 
दिव्ये वर्षसहस्रे तु समतीतेऽस्य तत्पुरम्‌ । 
जगाम स ऋथुः शिष्यं निदाघमवरोककः ॥ ८ ॥ 
स तस्य वैश्वदेवान्ते द्वराहोकनगोचरे । 
स्थितस्तेन गृहीता्यो निजवेरम प्रवेशितः ॥ ९ ॥ 
रषारिताङ्त्रिपाणि च कृतासनपरिग्रहम्‌ । 
उवाच स॒ द्विजश्रेष्ठो युज्यतामिति सादरम्‌ ॥१०॥ 
ऋभुरुवाच 
मो विप्रवयं भोक्तव्यं यदन्नं भवतो गृहे । 
तत्कथ्यतां कदमनेषु न प्रीतिः सततं मम ॥११॥ 
निदाघ उवाच 
सक्छयावकवाट्यानामपूषानां च मे गृहे | 
यद्रोचते द्विजश्रेष्ठ ततं क्व यथेच्छया ॥१२॥ 
ऋभुरुवाच 
कदन्नानि द्विजैतानि मृष्टमन्नं प्रयच्छ मे । 
संयावपायसादीनि द्रप्सफाणितवनिति च ॥१३। 
निदाघ उवाच 
हे है शिनि मद्गेहे यत्किश्चिदतिशोभनम्‌ । 


भच्योपस्ाधनं मृष्टं तेनस्यानन प्रसाधय ।॥१५४॥ 
ब्राह्मण उवाच 


ह्युक्ता तेन सा पती मृष्टमन्नं हिजस्य यत्‌ । 
प्रसाधितवती तद्र भतु्ब॑चनगोखात्‌ ॥१५॥ 
तं शुक्तवन्तमिच्छातो ष्टमनं महामुनिम्‌ । 


| + _ , 1 , न कर । 1 





ज्ञान होते हुए मी निदाधकी अद्वेतभे निष्ठा नदीं हे।५॥ 
डस समय देविकानदीके तीरपर पुलस्त्यजीका 
बलाया हुभा बीरनगर नामक एक अति रमणीक शौर 
समृद्धिसम्पन्न नगर था ॥ ६॥ दे पाथिवोत्तम 
रम्य उपवनोसे सुशोभित उस पुरमे पूवकारमे 
ऋश्ुका शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था॥५७॥ 
मषिं मु अपने शिष्य निदाघको देखनेके द्यि 
एक सहस दिभ्यवषं बीतनेपर स नगरमे गये 
॥ ८1 जिस समय निदाच बखिवेश्वदैवके अनन्तर 
अपने द्वारपर [ अतिधियोंको ] प्रतीक्षाकर रहा 
था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए ओर बह खन्द द्वारपर 
पहुच अष्येदानपूेक अपने घरमे ठे गया ॥ ९॥ 
खस द्विजशरष्ठने उनके हाथ-पैर धुरखये ओर फिर 
आसनपर निटाकर आदरपूवंक कहा-भोजन 
कीजिये ॥ १० ॥ 
छु बोले- दे विभ्रवर ! आपके य क्या 
क्या अन्न भोजन करना दोगा- यह वताद्ये, 
क्योकि कुस्छित अन्नमे मेरौ रुचि नदीं है ॥ ११॥ 
निदाघे कदा- दे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घरमे सत्तु, 
जोकी लप्सी, बाटी तथा पूष बने द । आपको इन 
मसे जो छु रुचे बही भोजन कीजिये ॥ १२९॥ 
ऋभु बोले-दहे द्विज !ये तो सभी कुत्सित 
अन्न सुच तो दुम खवा, खीर तथा मेद्धा भौर 
लङ्क पदाथे आदि स्वादिष्ट भोजन कराओ ॥१३॥ 


तथ निद्ए्ने [अपनी स्लीसे] कहा- दे गृह 
देवि ! हमारे घर्म जो अच्छी-से-अच्छी वस्तु हो 
उसीसे इनके छथि अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ ॥१४॥ 

बराह्मण (जडभस्त) ने कदा--उसके एसा कहने- 
पर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञाका आद्र 
करते हए न विभ्रवरके छ्य अति स्वादिष्ट अन्न 
तैयार किय ॥ १५॥ 

हे जन्‌ ! ऋसुके यथेच्छ भोजन कर ुकनेपर 


एष्य ७ ^ ~ ^ =  _ _  ,_ {~ >, ~ >+न, 0 । 








निदाघ उवाच 


पिते परमा तृपिहत्यन्ना तुषिरव च । 
अपि ते मानसं स्वस्थमाहारेण कृतं दिन ॥१७॥ 
कर निवासो भवान्विप्र क च गन्तुं सशयतः । 
श्आागम्यते च भवता यतस्तच द्विजोच्यताम्‌॥ १८॥ 


ऋभुरुवाच 

स्य तस्य शुक्तेऽनेतु््ह्षण जायते । 

नमे शुत्नाभवतुिः कस्मान्मां परिपृच्छसि ॥१९॥ 
बदिना पाथिवे धातौ क्षपिते कषुत्समुद्धवः । 
भवस्यम्भसि च क्षीणे तृणां तुडपि जायते ॥२०॥ 
ुतुष्णे देदधर्माखूये न मभते यतो द्विज । 
ततःशुस्सम्भ्रामावातुदनरस््येव मे सदा ॥२१॥ 
मनसः स्वस्थता तुष्िित्तधर्माषिमो द्विज । ` 
चेतसो यस्य तत्पृच्छ प्मानेमिनं यु्यते ॥२२॥ 
कछ निवासस्तवेत्युक्त क गन्तासि च यया । 
कुतश्चागम्यते तत्र तरितयेऽपि निवोध मे ॥२३॥ 
पूमान्सवगतो व्यापी आकाश्चवदयं यतः । 

कतः दत्र क गन्तासीत्येतदप्यर्थवत्कथम्‌ ॥२४॥ 
सोऽहं गन्ता न चागन्ता नैकदैशनिकेतनः। 

तवं चान्ये चन च खं च नान्ये नैवाहमप्यहम्‌ । २५ 
मृष्टं न सष्टमप्येषा जिज्ञासा मे कता तव । 

कि वच्यसीति त्रापि श्रयतां द्विजसत्तम ॥२६॥ 


किमस्वादथ वा मृष्टं युञ्जतीऽस्ति द्विजोत्तम 


मृष्टमेव यदागृष्टं॑तदेषोदेगकारकम्‌ ॥२७॥ 


निदाध बोले-ह द्विज ! किये भोजन करके 
आपका चिन्त स्वस्थ हुआ न आप्र पूर्णतया व्ष्ठ 


ओौर सन्तुष्ट हो गयेन १ ॥१७॥ हे विप्रवर! 
कहिये अप कर्म रहनेबाे है ! कहँ जनेकी 
तैयासमे ह १ भौर कँसे पधारे है १॥ १८॥ 


ऋभु बोले-ह ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती 
है उसीकी ठृप्ति भी हुआ करतो ह । सुश्चको तो कमी 
क्षुधा ही नदीं लगी, फिर दृप्तिके विषयमे तुम क्या 
पूते हो ? ॥१९ । जठराग्निके दास पार्थिव (गस) 
धातुओंके क्षीण हयो जनिसे सुष्यको ष्ुधाकी 
प्रतीति हेती है ओर जल्के क्षीण होनेसे वृषाका 
अनुभव ह्योत है ॥ २०॥ हे द्विज ! ये क्षुधा ओर 
तृषातो देहके ही धर्म॑ है, मेरे नदी; अतः कमी 
छ्ठधितन होनेके कारण मतो सवेदातप्र हीह 
| २१॥ स्वस्थता भौर तुष्टि भी मनहीमे. होते है, 
अतः ये मनहीके धमं ह; पुरुष ( आमा ) से इनका 
कोई सम्बन्ध नदं है | इसद्ि हे द्विज ! ये जिसके 
धमं द उससे इनके विषयमे पूरो ॥ २९॥ ओर 
तुमने जो पूछा कि जाप कहौ रहनेवे है १ कदं 
जा रहे दै! तथा क्सि अये हैः सो इन तीनोके 
विषयमनं मेस मत सुनो--॥ २९॥ आत्मा सवेगत 
है क्योकि यह जाकाङके समान व्यापक है; अतः 
“कदस जये हये, कदय रहते ह्यो ओर कँ जाओगे? 
यह्‌ कथन भी कैसे सांक हो सकता हे? ॥२४॥ 
मैतोनकदींजाता हैन आतार्हरओरन किसौ 
एक स्थानपर रहता ह| [त्‌, म ओर अन्य पुरुष 
मी देदादिके कारण जैसे परथक्‌-एथक्‌ दिखायी देते है 
वास्तवमें वैसे नदीं ह ] वस्तुतः तू तु नहीं है, अन्य 
अन्यतदीदहै ओरं मै नदीं हं । २५॥ 


वास्तवमे मधुर मधुर है भी नदी; देखो, मैने 
तुमसे जो सधुर अन्नकी याचना कीथी हससेभी 
मै यही देखना चाहता था कि तुम क्या कहते होः 
॥ २६॥ हे द्विजश्रेष्ठ! भोजन करनेवाडठेके लिये 
स्वादु ओर अस्वादु भीक्या ह? क्योकि खादिष् 
पदार्थं ही जब समयान्तरसे अस्वादु हो जाता 
है तो वही ऽदरेगजनक होने र्गत है ॥ २७॥ 


अ° १५ | 





श्म्षटं जायते मृष्टं शरष्टाुद्िजते जनः । 
आदिमध्यावसानेषु किमन्नं रुचिकारकम्‌ ॥२८॥ 
सृण्मय हि गृहं यद्वन््रदा छिप्तं स्थिरं भेत्‌। 
पार्थिवोऽयं तथा देहः पार्थिवे; परमाणुभिः।।२९॥ 
यवगोधूमग्रदूगादि धरं तैकं पयो दधि। 

गुड फलादीनि तथा पार्थिवाः परमाणवः ॥३०॥ 
तदेतद्भवता जास्वा मृष्टामृष्टविचारि यत्‌ । 
तन्मनस्समतारूम्नि कायं साम्यं दि युक्तये ॥२१॥ 


, ब्रह्मण उवाच 
इत्याकण्यं वचस्तस्य परमार्थाधितं दृष । 


प्रणिपस्य महाभागो निदायो वाक्यमव्रवीत्‌॥२२॥ 
प्रसीद मद्धितार्थाय कथ्यतां यच्वमागतः। 


नशे मोहस्तवाकरण्यं बचांस्मेतानि मे द्विज ।॥२३॥ 
ऋमुरुवाच 

ऋथुरसिमि तवाचायः प्रज्ञादानाय ते द्विज । 

इहागतोऽदं यास्यामि परमार्थस्तषोदितः॥३४॥ 

एवमेकमिदं विद्धि न मेदि सकलं जगत्‌ । 

वासुदेवाभिधेयस्य स्वरूपं परमासन; ॥२५॥ 

। ब्राह्मण उचाच 


तथेत्युक्त्वा निदाघेन प्रणिपातपूरःसरम्‌ । 
पूजितः प्रया भक्त्या इच्छतः प्रययावृ्; ॥२६॥ 


दितीय अश्च 











१९९ 


दस प्रकार कभी अरुचिकर पदाथ रुचिकरहो जाते 
ओर रुचिकर पदार्थोसे मनुष्यको उटेगहो जाता है । 
ठेसा अन्न भरा कौनसाह जो आदि; मध्य जओौर 
अन्त तीनों कालम रुचिकर हौ हो १। २८ ॥ जिस 
प्रकार मिटटरीका घर मिष्रैसे छीपने-पोतनेसे दढ होता 
है, उसी प्रकार यह पाथिव देह पार्थिव अन्न 
परमाणुओंसे पुष्ट हो जाता हे ॥२९॥ जौ, गहं 
मूंग, धृत, तैल, दुध, दही, गाढ़ ओौर फर आदि सभौ 
पदाथं पार्थिव परमाणुदीतोरहै।[ इनभेसे किसको 
स्वादु कद ओर किसको अस्वादु ! ] ॥ ३०॥ 
अतः, एेखा जानकर तुम्हे इस स्वादु-अस्वादुका. 
विचार करनेवाठे चिन्तको समदश्ची बनाना चाहिये, 
क्योकि मोक्षका एकमान्न उपाय समता दी है।।३१॥ 

ब्राह्मण बोल्-दे राजन्‌ ! उनके पेसे परमा्थंमय 
वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हुं प्रणाम करके 
कहा--। ३२ ॥ “प्रभो ! आप प्रसन्न होदये । कृपया 
बतलादये, मेरे कल्याणकी कामनासे आये हए आप 
कौन! हि द्विज ! आपके इन बचनोंको सुनकर 
मेरा सम्पूणं मोह नष्ट हो गया हैः ॥ ३३ ॥ 


ऋभु बोले-हे द्विज ! नै तेरा गुर ऋभु 
तुञ्चको सदसद्िवेकिनी बुद्धि प्रदान करनेके च्िरमे 
यमँ जाया था। अब जाता ह जो कुछ परमां है 
वह मैने तुश्चसे कह हौ दिया है ॥ ३४॥ इस पर 
माथंतस्वका विचार करते हुए तू इस सम्पूणं जगतूको 
एक वासुदेव परमास्माहीका स्वरूप जान; इसमें 
मेद्‌-भाव विल्छुक नहीं हे ॥ ३५॥ 

व्राह्मण बोल्ले-तदनन्तर निदाघने बहुत अच्छा 


कह उन्हें प्रणाम किया जौर फिर दससे परम भक्ति- 


। पृक पूजित हो छु स्वेच्छानुसार चरे गये ॥ ३६॥ 


ग्नी 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० १६ 








सोलह अध्याय 


शुकी आक्ञासे निदाघका अपने घरको रोटना 


ब्रह्यण उवाच 
तऋभूरवषसदसे त॒ समतीते नरेधर । 
निदाप्ञानदानाय तदेव नगरं ययौ ॥ १॥ 
नगरस्य बदिः सोऽथ निदाघं ददश भुनिः। 
महाबरपरीवारे पुरं विङ्ति पाथिवे॥२॥ 
दरे स्थितं महाभागं जनसम्पर्दवजंकम्‌ । 
षुरक्षामकण्ठम।यान्तमरण्यात्ससमिल्छकम्‌ ॥ २ ॥ 
ष्ट्रा निदाषं स ऋथुहपगम्याभिवाद्य च । 


उवाच कस्मादेकान्ते स्थीयते भवता द्विज ॥ ४॥ 
निदाघ उवाच 
भो विप्र जनसम्मदों महानेष नरेरः। 
प्रविविक्षुः पुरं रम्यं तेनात्र स्थीयते मया ॥५॥ 
ऋमुरुवाच 
नराधिपोऽत्र कतमः कतमश्चेतरो जनः । 
कथ्यतां मे दविजश्रेष्ठ सवमभिजञो मतो मम ॥ ६ ॥ 
निदाघ उवाच 
योऽयं गनजेन्द्रन्मत्मद्विमङ्गसच्दितम्‌ । 
अधिरूढो नरेन््रोऽयं परिलोकस्तथेतरः ॥७॥ 
ऋभुरुवाच 
एतौ हि गजराजानौ युगपदशितौ मम । 
भवता न विषेण पथक्चि्ठोपरक्षणौ ॥ ८ ॥ 
तत्कथ्यतां महाभाग विरेषो भवतानयोः। 
ज्ञातुमिच्छाम्यहं कोऽत्र गजः को वा नराधिपः॥९॥ 
निदाध उवाच 


गजो योऽयमधो ब्रहमन्तुपथस्यैष भूपतिः । 


ब्राह्मण बोे--हे नरेश्वर ! तदनन्तर सहस्र वर्षं 
व्यतीत होनेपर महिं ऋभु निदाघको ज्ञानोपदेश्च 
करनेके चयि फिर उसी नगरको गये ॥ १॥ वहाँ 
पहं चनेपर उन्होने देखा कि वर्हका राजा बहुत-सी 
सेना आदिक साथ बड़ धूम-धामसे नगरमे प्रवेशन 
कर रहा है भौर वनसे कुशा तथा समिध केकर 
आया हुभा महाभाग निदाघ जनसमूहसे हटकर 
भूखा-प्यासा दूर खडा हे ॥ २-३॥ 

निदाघको देखकर ऋभु उसके निकट गये आर 
उसको अभिवादन करके बोटे--“ह द्विज ¦ यहाँ 
एकान्तम जाप क्से खड़े है” ॥ ४॥ 

निदाघ बोले-दे विप्रवर ! आज इस अति 
रमणीक नगरम राजञा जाना चाहता है, सो मागं 
बड़ भीड़ हो रही है; इसच्यि सैं यहा खड़ा हँ ॥ ५॥ 

ऋभु बोल्ते-दे द्विजश्रेष्ठ ! मालूम होता है जाप 
यह्मैकी सव बात जानते है । अतः कष्ठिये, इनमें 
राजा कौन है १ ओर अन्य पुरुष कौन है १॥ ६॥ 


निदाघ बोले-यह जो पवेतकफे समान उवे मत्त 
गजराजपर चदा हज है बही राज्ञा है, तथा दूसरे 


रोग परिजन है॥ ७॥ 

ऋभु बोल्ले-आपने राजा ओौर गज, दोनों एक 
साथ ही दिखाये, किन्तु इन दोनोके प्रथक्‌.प्रथक्‌ 
विरोष चह अथवा रक्षण नही बतलाये ॥ ८॥ 
अतः हे महाभाग ! इन दोनोँमें क्या-क्या विशोषतारपं 
है, यष बतङाष्ये । यै यह जानना चाहता कि 
दनम कौन राज्ञा है ओर कौन गज १ ९॥ 

निदाघ बोले-इनमे जो नीचेदै वह गजदहै 


ओौर उसके उपर राजाह हे द्विज | इन दोनोंका 
वाह्य-वाहक-सम्बन्ध ह-- स बातको कोन नष्टं 


ऋमुरुवाच 
जानाम्यहं यथा बरहमस्तथा मामवबोधय | 
अधःशब्द्निगदयं हि ि चोध्वंमभिधीयते ॥११॥ 
ब्रह्मण उवाच 
इत्युक्तः सहसारुद्य निदाघः प्राह तेमृ्म्‌ । 
भ्र यतां कथयाम्येष यन्मां तवं परिग्रच्छसि ॥१२॥ 
उपयहं यथा राजा समधः कुञ्चरो यथा । 
अवबोधाय ते ब्रहमन्दृ्टान्तो दितो मया ॥१२॥ 
ऋभुरुवाच 
सवं राजेव द्विजश्रेष्ठ स्थितोऽहं गजवद्यदि । 
तदेतक्वं समाचच्छ कतमस्त्वमहं तथा ॥१४॥ 
ञद्यण उवाच 
इत्युक्तः सत्वरं तस्य प्रगृद्य चरणघ्ुभो । 
निदाघरस्त्वाह मगवानाचा्स्तमूध्वम्‌। । १५॥ 
नान्यसयादेतसंस्कारसंस्छृतं मानसं तथा । 
यथाचायंस्य तेन सवां मन्ये प्राप्तमहं गुरुम्‌ ॥१६॥ 
ऋमुरुवाच 
तथोयदेशदानाय  पू॑शुभ्र षणादतः | 
गुरुस्नेहादभुर्नाम निदाघ रञुपागतः ॥१७॥ 
तदेतदुपदिष्टं ते सङ्क्षेपेण महामते । 
परमार्थसारभूतं  यततदद्वैतमशेषतः ॥१८॥ 
ब्रारद्यण उवाच 
णएवघ्ुक्तवा ययौ विद्राननिदाघं स ऋः । 
निदाघोऽ्युपदेशेन तेनादेतपरोऽमवत्‌ ॥१९॥ 
सर्वभूतान्यभेदेन दद्य स॒ तदासनः | 
यथा ब्रह्मपरो अ॒क्तिमवाप परमां द्विजः ॥२०॥ 
तथा त्वमपि धर्मज्ञ तुल्पात्मरिपुवान्धवः । 


भव सर्वगतं नजानन्नातानमवनीपते ।२१॥ 
वि° प° २६ 








भु बोले-[ ठीक दै, किन्तु ] हे ब्रह्मन्‌ ! सुद्षे 
शस प्रकार समश्चाहये, जिससे मेँ यह जान सूँ कि 
"नीचे' इस राष्ट्रका वाच्य क्या है? ओौर ऊपर 
किसे कहते दै १ ॥ ११॥ 

त्राह्मणने कहा --ऋमभुके एेसा कहुनेपर निदाने 
अकस्मात्‌ उनफे उपर चदकर कहा-“ुनिये, 
भापने जो पृष्ठा है वही बत्तछाता ह १२॥ इस 
समय राजाकी मतिम तो उपर ह ओर गजकी 
भाँति आप नीचे है । हे ब्रह्मन्‌ ! आपको समश्चानेके 
ल्यि ही मैने यह दृष्टान्त दिखलाया दे” ॥ १३॥ 

ऋभु बोले-दहै द्विजश्रेष्ठ ! यदि आप राजके 
समान दहै ओर मै गजके समान हँ तो यह बताइये 


किञापकौनदहै१जौरमे कौनह?॥१४॥ 
ब्राह्मणने कदा-ऋसुके एेसा कदनेपर निदाधने 
तुरन्त ही उनके दोनों चरण पकड़ कयि ओर कहा-- 


(निश्चय ही आप आचा्ंचरण महिं ऋभु है 
॥ १५ ॥ हमारे भआचायजीके समान अद्धेत-संस्कार- 


युक्त चित्त ओर किसीका नदीं है; अतः मेरा विचार 
हेकिआप हमारे गुरुजी ही आकर उपस्थित हुए 
ह ॥ १६॥ 

ऋभु बोले-हे निदाघ । पहठे तुमने सेवा- 
ुशरूषा करके मेरा बहुत आदर किया था; भतः 
तुम्हारे स्नेदवश् मै छसु नामक तु्द्रारा गुर दी 
तुमको उपदेश्च देनेके ल्यि आयां ॥१७॥ दे 
महामते ! “समस्त पदार्थो अद्रेत-भत्म-बुद्धि 
रखनाः यही परमाथेका सार दहै जो मैने तुम 
संक्षेपमे उपदेश्च कर दिया | १८ ॥ 

ब्राह्मण बोल्ते-निदाघसे देसा कह परम विद्धान्‌ 
गुरुवर मगवान्‌ ऋमु चे गये ओर उनके उपदेशसे 
निदाघ भी अद्वैत-चिन्तनमे तत्पर हो गया॥ १९ ॥ 
ओौर समस्त प्राणियोँको अपनेसे अभिन्न देखने लगा। 
हे धम॑ज्ञ! हे एरथिवीपते ! जिस प्रकार ब्रह्मपरायण 
ब्राह्मणने परम मोश्चपद्‌ प्राप किया, उसी प्रकार तू 
भी आस्मा, शत्रु जौर मिव्रादिमे समान भाव रखकर 
अपनेको सवगत जानता हु मुक्ति खाभ कर ।२०-२१। 





सितनीलादिभेदेन यथैक दृश्यते नभः । 
भ्रान्तिदृषटिभिरा्मापि तथेकः सन्प्रथकप्रथक्‌ ॥२२॥ 
एकः समस्तं यदिहास्ति फिथि- 

त्दच्युतो नास्ति परं ततोऽन्यत्‌। 
सोऽहसचयखं स च स्व॑भेत- वि 








दात्मस्वरूपं त्यज मेदमोहम्‌।२३॥ 
. श्रौपराकषरञ्वाच = 
इतीरितस्तेन स॒ राजव्॑- 
स्तत्याज भेदं परमार्थः । 
स॒ चापि जातिस्मरणाप्तबोध- 
स्तमैव जन्मन्यपवर्गमाप ॥२४॥ 
भरतनरेन््रसाशर्ं 
कथयति यश भृणोति मक्तियुक्तः। 
स॒विमरूमतिरेति नात्ममोहं 


इति 








भवति च संसरणेषु पुक्तियोग्यः॥२५॥ 


जिस प्रकार एक हौ आकाञ्च इवेत-नीढ 
मेदोवाला दिखायो देता है, उसी प्रकार 
दृष्ियोको एक ही आत्मा परथक्‌-धथक्‌ दी 
॥ २२॥ इस संसारम जो कुछ है बह; 
आत्मा ही है ओौर वहु अविनासी है, 
अतिरिक्त ओर कुछ भी नहींदैःमैःत्‌ ओर 
आत्मस्वरूप ही दै; अतः भेद-ज्ञानरूप 
छोड। २३ ॥ 


श्रीपराशरजी बोले-उनके एेसा कहनेपर : 
राजने परमाथदृष्टिका आश्रय छेकर भः 
को छोड़ दिया ओर वे जातिस्मर ब्राह्मणश्रेष्ठ मं 
युक्त होनेसे उसी जन्मभे युक्त हो गये ॥ २४ 
प्रकार महाराज भरतके इतिष्टासके इस र 
वत्तान्तको जो पुरुष भक्तिपूवंक कहता या 
है उसकी बुद्धि निम हो जाती दै, उसे कभी 
विसरति नहीं होती ओर बह जन्म-जन्मा 
मुक्तिकी योग्यता प्राप्न कर रेता है ॥ २५॥ 


"=+ ~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेऽरो षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥ 


इति श्रीपराश्रभरुनि विरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिणायके 
श्रीमति विष्णुमहापुसणे दितीयोऽशः समाप्रः ॥ 





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ह श्रीकिष्णुपुराण 


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@ तृतीय अश्र 











९ मानं मानातीतभममेयं मनसाप्यं मन्तुर्मन्तारं सुनिमान्यं पदिमाद्यम्‌ । 
५ मायाक्रीडं मायिनमाद्यं गतमायं वन्दे विष्णुं मोदमहारि महनीयम्‌ ॥ 


००८५०५८१... ३/३८३०५.१९१०५०००.५० 






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श्रीमन्नारायणाय नमः 


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श्रीविष्णुपुराण 
तृतीय अंश 
पटला अध्याय 


पदल्ते सात मन्बन्तसेके मल, इनदर देवता, सर्वि ओर मनुपुर्रौका वणन 


श्रीमैत्रेय उवाच 


कथिता गुरुणा सम्यग्भूसुद्रादिसंस्थितिः । 


सूर्यादीनां च संस्थानं ज्योतिषां चातिविस्तरात्‌।१। 


देवादीनां तथा सषटि्छषीणां चापि बगिता। 
चातुर्बण्यंस्य चोत्पत्तिस्तियग्योनिगतस्य च ॥२॥ 
वप्रहादचरितं विस्तराच्च त्वयोदितम्‌ । 
मन्वन्तराण्यक्ेपाणि श्रोतुमिच्छाम्यनुक्रमात्‌॥ २॥ 
मन्वन्तराधिपांश्चैव शक्रदेवपुरोगमान्‌ । 
भवता कथितानेताज्छोतमिच्छम्यहं गुरो ॥४॥ 


श्रीपराञ्च उवाच 
अतीतानागतानीह यानि मन्वन्तराणि वै। 


तान्यहं भवतः सम्यक्थयामि यथाक्रमम्‌ ॥५॥ 
स्वायम्भुवो मनुः पूं परः स्वारोचिषस्तथा। 
उत्तमस्तामसद्चेव  रेवतथ्वाकषुषस्तथा ।॥६ 
षडेते मनबोऽतीतास्स्ाम्प्रतं ठ रेस्मुतः । 
बैवस्वतोऽयं यस्यैतत्स्तमं वतेतेऽन्तरम्‌ ॥७॥ 


स्वायम्धुवं तु फथितं फल्पादावन्तरं मया । 


¢ 
देवास्सप्तपेयश्चैव यथावत्कथिता मया ॥८॥ 








भभेत्रेयजी बोले-हे गुरुरेव ! आपने प्रथिवी 
जओौर समुद्र आदिकी स्थिति तथा सूयं आदि प्रहगण- 
क संस्थानका सुद्चसे मखी प्रकार अति विस्तार 
पूर्वक वर्णन किया ॥ १ ॥ आपने देवता आदि ओर 
ऋषिगणोको सृष्टि तथा चातुवण्य एवं तिय॑क्‌ 
योनिगत जीवोकी उस्पत्तिका भी वणेन किया ॥ २॥ 
व ओर्‌ ्रह्नादके चरिच्रौको भी आपने विस्तार 
पूवक सुना दिया । अतः हे गुरो ! भव मै आपके 
युखारविन्दसे सम्पूण मन्वन्तर तथा इन्द्र भौर 
देवताओं सहित मन्वन्तसोके अधिपति समस्त 
मनुओंका बणेन सुनना चाहता [आप वणन 
कीजिये ]) २-४॥ 
श्रीपराक्षरजी बोज्त-मूतकालमे जितने मन्व 
न्तर हए है तथा अगे भी जो-जो दयोगे, उन सवका 
मै तुमसे क्रम्चः घणैन करता हं ॥ ५॥ प्रथम मयु 
स्वायम्भुव ये । उनके अनन्तर क्रमशः स्वारोचिषः 
उत्तम, तामस, रेवत आओौर चाश्रुष हृए।। ६।॥ ये छः 
मनु पू्ंकाल्मे हो चुके द| इस समय सूयेपुत् 
वैवस्वत मनु रै, जिनका यह सातव मन्वन्तर 
बतंमान है ॥ ७॥ 


कल्पके आदि जिस स्वायम्भुव मन्वन्तरे 
विषय जैने कद्‌] है सके देवता जौर सप्तषियोका तो 
मँ पह हौ यथाबत्‌ बणंन कर चुका द्र॥८॥ 





अत उध्वं प्रवक्ष्यामि मनोस्स्वारोचिषस्य तु । 
मन्वन्तराधिपान्सम्यम्देवरषीस्तत्सुतांस्तथा ॥९॥ 
पारावतास्सतुषिता देवास्स्रारोचिषेऽन्तरे । 
विपधित्तत्र देवेन्द्रो मत्रेयासीन्महावरः ॥१०॥ 
उज्ज स्तम्भस्तथा प्राणो वातोऽथ पृषमस्तथा। 
निस्य परीवांश्च तत्र सप्तषयोऽभवन्‌ ॥११॥ 
चेत्रकिम्पुरुपाचयाश् सुतास्स्वारोचिषस्य तु । 
दवितीयमेतदयाख्यातमन्तर शृणु चोत्तमम्‌ ॥१२। 
तुतीयेऽप्यन्तरे रहननुत्तमो नाम यो मदुः। 
सुशान्तिर्नाम देबेन्द्रो पेतरेयासीसुरेरः ॥१३॥ 
सुधामानस्तथा सत्या जपाशवाथ प्रत्दनाः। | 
वशवर्तिनश्च पञ्चैते गणा हादशकास्स्प्रताः॥ १४॥ 
वसिष्टतनया देते सप्त सक्षषेयोऽमवन्‌ | 

अजः प्रबुदीप्ता्यास्तथोत्तममनोस्मुताः ॥१५॥ 
तामसस्यान्तरे देवास्सुपारा हयस्तथा । 
सत्याश्च सुधियश्चेव सप्तविंक्षतिका गणाः ॥१६॥ 
शिबिचिद्रस्तथा चासीच्छतयङ्ञीपलक्षणः। 
सप्तैयश्च ये तेषां तेषां नामानि मे भरणु ॥ 
ज्योतिर्धामा पृथुः काव्ये ्रोऽग्निषेनकस्तथा। 
पीवरथर्षयो देते सप्त तत्रापि चान्तरे ॥१८॥ 
नर स्याहिः केतुरूपो जानुजङ्गादयस्तथा । 
पुत्रास्तु तामसस्यासन्राजानस्यमहावराः ॥ १९॥ 
पश्चमे वापि मैत्रेय रैवतो नाम नामतः। 
मनुविंयुध ततरन्रो देवरथात्रान्तरे भृणु ॥२०॥ 
अभितामा भूतरया वैहण्ठास्ससुमेधघः । 

एते देवगणास्तत्र॒ चतुदश चतुदश ॥२१॥ 
हिरण्यरोमा वेदश्रीरुष्वंबाहुस्तथापरः । 
वेदमाहुस्सुधामा च पर्जन्यश मदाुनिः। 

एतै सप्तप॑यो विप्र ॒तत्रासनसतेऽन्तरे ॥२२॥ 





अब आगे तै स्वारोचिषमनुके मन्वन्तराधिकारी 
देवता, ऋषि ओर मयुपुच्रोका स्पष्टतया बणंन 
करगा ॥९॥ दहे मैत्रेय ¦ स्वारोचिषमन्बन्तरमें 
पारावत ओर तुपितगण देवता थे, महाबली 
बिपञथित्‌ देवराज इन्द्र थे ॥ १०॥ उञ्ञ, स्तम्भ; प्राण 
वात, प्रषभ, निरय ओौर परीवान--ये उस समय 
सप्र्षिये॥ ११॥ तथा चैत्र ओौर किम्पुरुष आदि 
स्वारोचिषमसुके पुत्र थे। इस प्रकार तुमसे द्वितीय 
मन्वन्तरका वणेन कर दिया । अव उन्तम-मन्वन्तरका 
विवरण सुनो ॥ १२॥ 

हे ्रह्मन्‌ ! तीसरे मन्बन्तरमे उत्तम नामक 


मनु ओर सुश्चान्ति नामक देवाधिपति इन्द्र े ॥१३॥ 


| ४५ 
उस समय सुधाम, सत्य, जप, प्रतदेन ओर वश्ञ- 


बतीं-ये पाच बारह-बारह्‌ देवताओंके गण थे 
॥ १४ ॥ तथा बसिष्ठजीके सात पुत्र सप्रषिगण ओर 
अज, परन्ु एवं दप आदि उन्तममनुके पुत्र थे ॥१५॥ 


तामसमन्वन्तरमे सुपार, हरि, सत्य ओर 
सुधि-ये चार देवताओंके वेगं थे ओर इनमेसे 
प्रत्येकं वगंमें सत्ताईस-सत्तारईस देवगण थे ॥ १६॥ 
सौ अश्वमेध यज्ञवाला राजा शिवि इन्द्रथा तथा 
उस समय जो सप्र्षिगणथे उनके नाम सुद्से 
सुनो--1 ९७॥ व्योतिर्थामा, प्रु काव्य, चेत्र, 
अग्नि, वनक ओर पीवर-ये ठस मन्बन्तरके 
सप्तर्षि थे ॥ १८1 तथा नर, ख्याति, केतुरूप ओर 
जानुजंघ आदि तामसमञुके महाबली पुत्र ही उस 
समय राभ्याधिकारी थे ॥ १९॥ 

हे भैतरेय ! पचे मन्वन्तरमे रेवत नामक मतु 
ओर विभु नामक इन्द्र हुए तथा उस समय जो देव 
गण हुए उनके नाम सुनो-॥ २० ॥ इस मन्बन्तरभं 
चौद्‌ह्‌-चौदह देवताओके अमिताभ, भूतस्यः 
वेदुण्ठ ओर सुमेधा नामकं गण थे ॥२१॥ 
ह विभ! इस रैवतमन्बन्तरमं हिरण्यरोमा, वेदश्र, 
उध्वंबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पजन्य भौर 
मष्टायुनि-ये सात सप्र्षिगण थे ॥ २२ ॥ 


अ० १ |] 


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वलयन्धुश सम्भाव्पस्सत्यकाधाशच तत्सुताः! 
नरेन्द्रा महावीर्या वभूवुधनिसत्तम ॥२२॥ 
स्वारोचिषशोत्तमश्च तामसो रवतस्तथा । 
प्रियव्रतान्वया ह्येते चारो मनवस्स्प्रताः।। २४ 
विष्णुमाराध्य तपा स राजर्षिः प्रियव्रत; । 
मन्वन्तराधिपनेतोल्लब्धवानार्मवंजजान्‌ ॥। २५ 
षष्ठे मन्वन्तरे चासीचाक्ुषाख्यस्तथा मनुः । 
मनोजवस्तथेवेन्द्रौो देवानपि निवोध मे ।॥२६॥ 
आप्या; प्रहता भव्या पृथुकाश्च दिवौकसः । 
महानुभावा रेखाश्च पञ्चैते दष्टका गणाः ॥२७॥ 
सुमेधा पिरजाश्चेव हविष्मावुत्तमो मधुः । 
अतिनामा सदिष्णुश्च सक्नासमिति चपः ॥२८॥ 
उरः पूरुरशतवुम्न्रयुलास्सुमहाबलाः । 
चाभषुषस्य मनोः पत्राः पृथिवीपतयोऽभवन्‌ ॥२९॥ 


विवस्वतस्युतो बिभ्र ्राद्रदेवो महाचुतिः । 
मनुस्संबतैते धीमान्‌ संम्रतं सप्मेऽन्तरे ।।३०॥ 
आदि्यवसुरुद्राद्या देवाशवात्र महन । 
परन्दरस्तथैवात्र त्रेय त्रिदशः ॥३१॥ 
वसिष्ठः कादयपोऽथात्रिर्जमदधिस्सगौतमः। 
विश्वामित्रमरद्राजौ सप्त सप््षयोऽमवन्‌ ॥३२॥ 
हाश्च सृगश्रैव धृष्टः शर्यातिरेव च । 
नरिष्यन्तश्च विख्यातो नामागोऽरिष् एव च ।॥३३॥ 
करूष प्रपत्र सुमहान्लोकयविश्रुतः । 
मनोवैवस्वतस्यैते नव पुत्राः सुधार्मिकाः ॥३४॥ 
विष्णुशक्तिरनोपम्या सचोद्वि्ता स्थितो स्थिता । 
मन्वन्तरेष्वशेषेषु देवतेनाधितिष्ठति ॥३५॥ 
अंशेन तस्या जज्ञेऽसौ यज्ञस्स्वायम्डवेऽन्तरे। 
आङ्ूत्यां मानसो देव उत्पन्नः प्रथमेऽन्तरे 1 ३६॥ 
त, ए, थं २ गव, पादे स्वारोचिषे<रतम) 


तृतीय अक्ष 








५०१. 


हे मुनिसन्तम ! घस समय रेवतमनुके महावीयंश्ञाी 
पुत्र बबन्धु, सम्भाव्य ओर सदस्यक भादि राजा 
थे ॥ २३॥ ~ 

हे मैत्रेय स्वारोचिष), उत्तम, तामस ओर रेवतये 
चार मनु, राजा प्ियत्रतके वंशधर करे जाते दै ॥२६॥ 
राजर्षिं प्रियत्रतने तपस्याद्वारा भगवान्‌ विष्णुको 
आराधना करके अपने वंशम उत्पन्न हुए इन चार 
मन्वन्तराधिपोको प्राप्र किया था ॥ २५॥ 

छठे मन्वन्तरमें चाक्षुष नामक मजु ओर मनोजव 
नामक इन्द्रथे। उससमयजो देवगण थे उनके नाम 
स॒नो-॥२६॥ उस समय आप्य, प्रसूत, भ्य, प्र्ुक 
ओौर ठेख-ये पच प्रकारके महानुभाव देवगण वतं- 
मान थे ओौर इनमेसे प्रत्येक गणम आठ-आठ देवता 
थे ॥२७॥ उस मन्वन्तरम सुमेधा, विरजा, हविष्मान्‌, 
उत्तम, मधु, अतिनामा भौर सर्िष्णु-ये सात सपर्षि 
थे ॥२८॥ तथा चाक्रुषके अति बलवान्‌ पुत्र उर, 
पूर आओौर इतचुन्न आदि राञ्याधिकारी थे ॥ २९॥ 

हे विप्र! इस समय इस सातवें भन्वन्तरमेः 

€ 

सूयक पुत्र महातेजस्वी ओर बुद्धिमान्‌ श्राद्धदेवजी 
मयु दै ॥३०॥ दे महामुने! इस मन्वन्तरमें 
आदित्य, बसु ओर रुद्र आदि देवगण दै तथा 
पुरन्दर नामक इन्द्र है ॥। ३१॥ इस समय वसिष्ठ, 
कारयप्‌, अन्रि, जमद्भि, गोतम, विश्धामित्र भौर 


भरद्वाज-ये सात सप्तर्षि ह ॥ ३२॥ तथा वैवस्वत. 
मुके इक्ष्वाङ्क, खग, धृष्ट, श्यति, नरिष्यन्त, 
नाभाग) अरिष्ट, करूष ओर प्रषध्र--ये अत्यन्त 
लोकप्रसिद्ध ओर धर्मात्मा नौ पुत्र है ३३-३४॥ 


समस्त मन्वन्तरोँमे देवरूपसे स्थित मगवान्‌ 
विष्णुकी अनुपम भौर स्वभ्रधाना शक्ति हौ संसारकी 
स्थितिम उसकी अधिष्ठान्नी होती है ।। ३५ ॥ सबसे 
पहटे स्वायम्भुव मन्वन्तरमें मानसदेव यज्ञपुरुष ठस 
विष्णुश्क्तिके अंशसे ही आकरूतिके गभ॑से इदपन्न हए 


य| 2२८ । पवि स्वाममचिपय्मल्यल्लर ङे दवन्थित 





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तुषितायां सभुत्पत्नो ह्यनितस्तुपितैः सह ॥२७॥ 
ओत्तमेऽप्यन्तरे देवस्तुषितस्त्‌ पुनस्स वै । 
सत्याय।ममवत्सत्यः सत्यैस्सह सुरोत्तमैः ॥२८॥ 
तामसस्यान्तरे चैव सम्प्राप्ते पुनय हि । 
हर्यायां हरिमिस्साधं हरिरेव बभूव ह ॥३९॥ 
रेवतेऽप्यन्तरे देवस्सम्भूत्यां मानसो हरिः । 
सम्भूतो रेवतैस्पाधं देवेदृषवरो हरिः ॥४०॥ 
चाक्ुपे चान्तरे देवो वेदण्डः पुरपोत्तमः। 
विद्कण्डायामप्रौ जज्ञे वैण्टैदेवतैः सह ॥४१॥ 
मन्वन्तरेऽत्र सम्प्राप्ते तथा वैवस्वते द्विज । 
वामनः फयपाद्विष्णुरदिस्यां सम्बभूव ह ॥४२॥ 
त्रिभिः करमैरि्मोन्लि काञ्चित्वा येन महात्मना । 
पुरन्दराय त्रैलोक्यं दत्तं निहतकण्टकम्‌ ॥४३॥ 


इस्येतास्तनवस्तस्य सप्तमन्बन्तरेषु वै। 


सप्तस्वेवाभवन्विप्र यामिः संवद्धिताः प्रजाः ।॥४४। 


यस्मादविष्टमिदं बिडं तस्य शक्त्या महात्मनः। 


तस्मात्सा प्रोच्यते विष्णुर्विशधातोः प्रवेशनात्‌ ।४५। 


सर्वे च देवा मनवस्समस्ता- 
स्सप्पेयो ये मनुष्नवश्च । 
इन्द्र योऽयं त्रिदेशभू 
विष्णोररेषास्तु विभूतयस्ताः॥।४६॥ 





होनेपर वे मानसदेव श्रीभजित दही तुषित 
देव गणोँके साथ तुषितासे उन्न हुए ॥ ३७। 
उन्तममन्वन्तरमे वे तुपितदेव ह देवश्रष्ठ सर 
सहित सत्यरूपसे सत्याके उद्रसे प्रकर हूए 
तामसमन्बन्तरके प्राप होनेपर वे हरि-नामदेः 
सहित हरिरूपसे हर्याके गभंसे उत्पन्न हूर । 
तत्पश्चात्‌ वे देवश्रेष्ठहरि, रेवतमन्वन्तरमे तः 
देवगणक्रे सहित सम्भूतिकै च्द्रसे प्रकट 
मानस नामसे विख्यात हुए ॥ ४० ॥ तथा ` 
मन्वन्तरमे वे पुरुषोत्तम भगवान्‌ वेक्कुण्ठ 

देवगणोके सहित विक्रुण्ठासे दत्पन्न होकर 
कष्टाय ॥ ४१ ॥ ओर हे द्विज ! इस वैवस्व 
न्तरके प्राप्त होनेपर भगवान्‌ विष्णु कश्यप 
अदितिके गभंसे वामनरूप होकर प्रकट हुए 

उन महात्मा बामनजीने अपने तीन गोसे 

खोकोको जीतकर यह निष्कण्टक त्रिलोकी 
देदीथौ॥४२॥ 


हे विग्र ! इस प्रकार सातो मन्वन्तरोमे म 
की ये सात मूर्तियौं प्रकट हुई, जिनसे ( भरि 
सम्पूणं प्रजाकी बृद्धि हृ ॥ ४४ ॥ यह्‌ सम्पू 
उन परमात्माकी ही शक्तिसे व्याप्त है; अतःवे 
कहलाते दै, क्योकि "विशः घातुका अथं भवेः 
ह ॥ ४५ ॥ समस्त देवता, मतुः सप्ति तथा 
ओौर जो देवतार्ओंका अधिपति दै बह १ 
सब भगवान्‌ विष्णुकी ही विभूति दै ॥ ¦ 





इति श्रीविष्णुपुराणे वतीयं ऽ प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ 


के क 


इसरा अध्याय 
सावणिमनुकी उत्पत्ति तथा अगामी सात मन्वन्तसोके मजु, मुपुत्र, 
देवता, इन्द्र ओर सपर्षियोका वणेन 


श्रीमैत्रेय स्वाच 
प्रोक्तान्येतानि भवता सप्तमन्वन्तराणि वै । 


भीभैभ्रेयज्ी बोल्ते-हे विप्रपे ! आपने 
अतीत मन्वन्तरोकौ कथा कही) अव आप 


भविप्याण्यपि विप्रे ममाख्यातुं खमि ॥ १ ॥ | आगामी मन्वन्तरोका सौ वणेन कीजिये ॥ 











श्रौपयोश्चर उवाच 

छ्यंस्य पत्नी संज्ञाभूत्तनया परिदवकर्मणः । 
मसुर्यमो यमी चैव तदपत्यानि वै भने ॥ २॥ 
असहन्ती तु सा भ्ुस्तेजश्छायां युयोजवे। 
भ्शुपूणेऽरण्यं सयं च तपसे ययौ ॥ ३॥ 
सं्ेयमित्यथाकश जअयायामात्मजव्रयभ्‌ । 
शनैश्वरं मनुं चान्यं तपतीं चाप्यजीजनत्‌ ॥ ४ ॥ 
छायासंक्ञा ददौ श्ञापं यमाय कुपिता यदा। 
तदान्येयमसौ बुद्धिरित्यासीयमघ्र्ययोः ॥ ५॥ 
ततो विवस्वानारूपाते तयैवारण्यसंस्थिताम्‌ । 


समाधिरष्टया ददु तामशां तपसि स्थिताम्‌ ॥६। 


वाजिरूपधरः सोऽथ तस्यां देवाचथाधिनो । 
जनयामास रेवन्तं रेतसोऽन्ते च भास्करः ॥ ७ ॥ 
आनिन्ये च पुनः संज स्वस्थानं भगवान्रविः । 
तेजसरशषमनं चास्य विश्वकर्मां चकार ह ॥ ८ ॥ 
भ्रममारोप्य घ्य तु तस्य तेजोनिशातनम्‌ । 
कुतवानष्टमं भामं स व्यजातयद्ग्ययम्‌ ॥ ९ ॥ 
यत्तस्मादन्णवं तेजस्शातितं विश्वकर्मणा । 
जाऽवल्धमानमपतनत्त्धुमौ शरुनिसत्तम ॥१०॥ 
स्वष्टेव तेजसा तेन विष्णोशवक्रमकल्पयत्‌ । 
्रिशूढं चैव शवस्य शिमिकां धनदस्य च ॥११॥ 
शक्ति गुदस्य देवानामन्येषां च यदायुधम्‌ । 
तस्स तेजसा तेन विश्वकर्मा व्यवरधयत्‌ ॥१२॥ 
छायासंक्तासुतो योऽसौ हितीयः कथितो मनुः । 


पूवं नस्य सवर्णोऽसौ सावभिस्तेन कथ्यते ॥१३॥ 


तस्य मन्वन्तरं -द्येतत्सावणिकमथाष्टमम्‌ । 


तच्छृणुष्व सहामाग मविष्यत्कथयामि ते ॥१४॥ 


सावणिस्तु मनुयोऽसौ मैत्रेय मिता ततः । 


सुतपाश्चामितामाशथ सुख्याश्चापि तथा पुराः ॥१५॥ 











श्रीपसयश्चरजी बोखे-दहै सुने ! विश्वकर्माकी पुत्री 
संज्ञा सूयंकौ माय थी । उससे उनके मनु, यम 
ओौर यमी तीन सन्तानं हृदं ॥ २॥ कालान्तर 
म पतिका तेज्ञ सहन न कर सकरनेके कारण 
संज्ञा छायाको पतिकौ सेवा नियुक्त कर 
स्वयं तपश्याकै लिये बनको चद्धी गयी ॥३॥ 
सूयंदेवने यह समन्चकर कि यह संज्ञा ही है, छायासे 
टाचैश्चर, एक अन्य मनु तथा तपती-ये तीन सन्तानं 
उत्पन्न कीं । ४॥ 

एक दिन ज्वर छायारूपिणी संज्ञाने क्रोधितदहोकर 
[ अपने पुत्रके पक्चपातसे ] यमको ज्ञाप दिया तव 
सूयं ओर यसको विदित हुभाक्रि यदतो को 
ओरहै।॥५॥ तव छायकेद्भारा क्षो साय रहस्य 
खुल जानेपर सूयदेवने समाधिम स्थित होकर 
देखा कि संज्ञा घोडीका रूप धारणकर चनभेँ 
तपस्या कर रही है ॥ ६ ॥ अतः उन्दने भौ अश्चहप 
होकर उससे दौ अथधिनीकुमार ओर रेतःसखावके 
अनन्तर ही रेवेन्तको उत्पन्न किया ॥ ७॥ 

फिर भगवान्‌ सयं संज्ञाको अपने स्थानपर ठे 
आये तथा बिश्वकमौने उनके तेजको शान्त कर दिया 
॥ ८॥ उन्होने सूयंको भ्रमियन्त्र ( सान ) चदाकर 
उनका तेज छोटा किन्तु वे उस अक्षुण्ण तेज्ञका केवल 
अष्टमांश ही क्षीण कर सके ॥ ९॥ हे मुनिसत्तम ! 
सू्ंके जिस जाज्वल्यमान वेष्णव-तेजको विश्वकमने 
छोटा था वह प्रथिवीपर गिरा ॥ १० ॥ उस प्रथिवी 
पर मिरे हुए सूयंतेजसे ही विश्यकरमौते विष्णु 
भगवान्‌का चक्र, शङ्करका त्रिश, कुवेरका विमान, 
कार्तिकेयकी सक्ति बनायी तथा अन्य देवताओंके 
भी जो-जो शख थे उन्हँ उससे पुष्ट किया ॥ ११-१२॥ 
जिस छाया संज्ञाके पुत्र दूसरे मलुक्रा ऊपर वणेन 
कर चुके द बह अपने अग्रज मुका सवणे दनेसे 
साबगि कराया ॥ १३ ॥ 

हे महाभाग ! सुनो, अव यै उनके इस सावर्णिक 
नाम आटठवें मन्वन्तरका, जो अभे होनेवाखा 
है, वणेन करता ह ।। १४ ॥ हे मैत्रेय ! यह्‌ साबणि 
हो उस समय मनु होगे तथा सतप, अमिताभ ओर 
मुख्यगण देवता होगे ॥ १५॥ उन देवताओंका 





तेषां गणथ देवानामेकैको विंशकः स्मृतः । 
सप्तषीनपि वश्ष्यामि भविष्यान्धुनिसत्तम ॥१६॥ 
दीप्तिमान्‌ गावो रामः कपो द्रौणिस्तथा परः । 
मपत्रशच तथा व्यास ऋष्यभृङ्गश्च सप्तपरः ॥१७॥ 
विष्णुप्रसादादनघः पातालान्तरगोचरः । 
विरोचनशुतस्तेषां थहिरिन्द्रो भविष्यति ॥१८॥ 
विरजाशरोवरीवांश्च॒निर्मोकाचयास्तथापरे | 
सावर्णस्तु मनोः पत्रा भविष्यन्ति नरेधराः॥१९॥ 
नवमो दक्षसावणिभंविष्यति एने मनुः । 

पारा मरीचिगर्माश्च सुधर्माणस्तथा त्रिधा ॥२०॥ 
भविष्यन्ति तथ। देबा देकैको हादशो गणः । 
तेषामिन्द्रो महावीर्यो भविष्यत्यद्भुतो द्विज ॥२१। 
सवनो चयुतिमान्‌ भव्यो सुर्मेधातिथिस्तथा | 
ज्योतिष्मान्‌ सप्तमः सत्यस्तप्रेते च मदप॑यः।२२॥ 
धरृतकेतदींप्तकेतुः पथ्हस्तनिरामयो । 
पृथु्रवाद्याश्च तथा दक्षसावणिकालजाः ॥२३॥ 
दशमो ब्रहमप्ावणिभविष्यति ने मनुः 
सुधामानो विदुद्वाश्च शतसंख्यास्तथा सुराः ॥२४॥ 
तेषामिन्द्रश्च भविता शान्तिर्नाम महावलः 
सप्तयो भविष्यन्ति ये तथा ताज्छुणु्व ह ॥२५॥ 
दविष्म(न्मुद्ृतस्सत्यस्तपोमूर्तिस्तथापरः । 
नाभागोऽप्रतिमौजाश्च सत्यक्ैतुस्तथेव च ॥२६॥ 
सकषेत्रभ्ो्तमौजाश्च भूखििणादयो दश । 
ब्रह्मसाषणिपुत्रास्तु रक्षिष्यन्ति वसुन्धराम्‌ ॥२७।। 
एकादशश्च भविता धर्म॑स्ावणिको मनुः । 

वि हङ्कमाः कामगमा निर्वाणरतयस्तथा ॥२८॥ 
गणास्त्वेते तदा यख्या देवानां च भविष्यताम्‌ । 
एकैकसिश्कस्तेषां गणर्चेन्रथ वै वृषः ॥२९॥ 
निःखरशाग्नितेजाश्चवपुप्मान्धुणिरारुणिः | 














प्रत्येक गण बीस-बीसका समूह का जातताहै। हे 
मुनिसत्तम ! अव मँ आगे हौनेवाटे सप्तपिभी 
बतखाता हूँ || १६॥ उस समय दौपिमान्‌, गालव, 
राम, छप, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, मेरे पुच्र व्यास ओर 
सातवें शष्यश्र्ग--ये सप्रषिं द्ोगे । १७॥ तथा 
पात्ताछ-खोकवासी विसेचनके पुत्र बलि श्रीविष्णु- 
भगवान्‌की कृपासे तक्कतालोन इन्द्र ओर सावणि- 
मनुके पुत्र विरजा उवंसेवान्‌ एवं निर्मोक आदि 
तत्कालीन राजा होगे ॥ १८१९ ॥ 

हे यूने! नवं मजु दक्षसावभि होगे। उनके 
समय पार, मरीचिगभं ओर सुधमा नामकं तीन 
देववरं होगे, जिनमें प्रव्येक वगम बारह्‌-बारह 
देवता होगे; तथा हे द्विज ! उनका नायक महापरा- 
कमी अद्भुत नामक इन्द्र होगा ॥ २०-२१॥ सवन, 
धुतिमान्‌, भ्य बसु, मेधातिि, ज्योतिष्मान्‌ ओर 
सातवं सत्य--ये उस समयके सप्र्षि होगे ॥ २२॥ 
तथा ध्रृतकेतु, दीधिकेतु, पञ्चहस्त, निरामय आर 
पृथुश्रवा आदि दक्षसाव्िमनुके पुत्र होंगे ॥ २३॥ 

ह सने ! दशवे मतु ब्रह्मसावर्णि होंगे । उनके 
समय सुधामा ओर विज्चुदध नामक सौ-सौ देवताओ- 
केदो गण होये ॥ २४ ॥ महाबलवान्‌ शान्ति उनका 
इन्द्र होगा तथा उस समय जो स्र्षिगणदहोँगे 
उनके नाम सुनो ॥ २५॥ उनके नाम हविष्मान्‌, 
सुकृत, सत्य, तपोमूरषि, नामागः, अप्रतिमौजा ओर 
सत्यकेतु है ॥ २६ ॥ उस समय ब्रह्मसावणिमनुके 
सक्षेत्र, उत्तमौजा ओर भूरिषेण आदि दङ्ञ पुत्र 
पृथिकीको रक्षा करगे ॥ २७॥ 

ग्यारहव मनु धर्मसावर्णि होगा। उस समय 
हयोनेवाङे देवताओके विहगम, कामगम ओर निर्बाण- 
रति नामक मुख्य गण होगे-इनमेसे प्रसयेकमें 
तीस-तीस देवता रहैगे ओर वृष नामक इन्द्र 
होगा | २८-२९ ॥ उस समय होनेवाठे सप्र्षियाके 
नाम निःस्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान्‌ , घृणि, आरुणि, 


१ > ऋ 


पायया ।।।०।२०।।1। गिव 








हषिष्माननघस्यैव भाव्याः सप्रपयस्तथा ॥२०॥ 
सर्वत्रगस्सुधम च देवानीकादयस्तथा । 


भविष्यन्ति मनोस्तस्य तनयाः पृथिवीश्वराः ३१॥ 


रदरपतरस्तु सावणिर्भविता दाद्ञो मुः । 


ऋतुधामा चतरो भविता शृणु मे सुरान्‌ ॥३२॥ 


हरितां रोहिता देवास्तथा सुमनसो द्विज । 
सुकर्माणः सुरापश्च दशकाः पश्च पै गणाः ॥२३॥ 
तपस्वी सुतपाश्चैव तपोमूरतिस्तपोरतिः । 
तपोधति्बतिशवान्यः सक्मस्तु तपोधनः ॥३४॥ 
सप्षयस्त्विमे तस्य पुत्रानपि निबोध मे । 
देववानुपदेवश्च देवश्रे्ठादयस्तथा ।॥३५॥ 
मनोस्तस्य महावीयं भविष्यन्ति महानृपाः। 
त्रयोदशो रुचिर्नामा भविष्यति यने मनुः ॥३६॥ 
सुत्रामाणः सुकर्माणः सुषमाणस्तथामराः। 
तरयदिश्द्विभेदास्ते देवानां यत्र वै गणाः ॥३७॥ 
दिस्पतिमहावीयंस्तेषामिन्द्रो भविष्यति । 


निमोहिस्तचदरीं च निष्परकम्प्यो निरुत्सुकः।३८ । 


धृतिमानन्ययश्ान्यस्सप्तमस्सुतपा युनिः । 
स््षयस्त्वमी तस्य पुत्रानपि निवोध मे ॥३९॥ 
चित्रसेनविचित्राबा भविष्यन्ति महीक्षितः। 
मोमधतु्दश्ात्न मैत्रेय भविता मयुः ॥४०॥ 
-शुचिसिनद्रः सुरगणास्तत्र पञ्च शृणुष्व तान्‌ । 
चाशप प्वित्राश कनिष्ठ ्राजिकास्तथा ॥४१॥ 
वाचावृद्धाश्च चै देवास्प्तपीनपिमे शृणु | 


अग्निवाहुः शुचिः शुक्रो मागधोऽगनिघ्र एव च ।४२। 


युक्तस्तथा जितश्चान्यो मनुपुत्रानतः शृणु । 
रुगम्भीरबुद्धयाच्या मनोस्तस्य सुतानृपाः॥४२॥ 

कथिता युनिशादृह पारयिष्यन्ति ये महीम्‌ ॥४५४॥ 

चतुयुंगान्ते बेदानां जायते किङ विष्ठवः 














हविष्मान्‌ जौर अनघ है| ३० ॥ तथा धम॑सावणि- 
मुके सवेत्रग, सुधमौ ओर देवानीक आदि पुत्र 
खस समयके राज्याधिकारी प्रथिकीपति होगे ॥ ३१॥ 

रुद्रपुत्र सावर्णि बारहवा मनु होगा । उसके समय 
ऋतुधामा नामक इन्द्र होगा; अव तत्काीन देवता- 
ओके नाम सुनो-- ३२॥ ह द्विज ! उस समय 
दश-दश देवताभोके हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा 
ओर सुराप नामक पच गण होगे ॥ ३३॥ तपस्वी, 
सुतपा, तपोमूरति, तपोरति, तपोधृति, तपोदयुति तथा 
तपोघन-ये सात सप्तपि होगे । अब मनुपुत्रौके नाम 
भी सुनो--उस समय उस मनुके देववन्‌, खपदैव 
ओर देवश्रेष्ठ भादि महावीयंशाछी पुत्र तर्कारीन 
सम्राट्‌ होगे । 

हे यने ! तेरहवां रचि नामक मनु होगा ।२४-२६॥ 
इस मन्वन्तरे सुचामा, सुकमौ भौर सुधमा नामक 
देवगण होगे; इनमेसे प्रत्येकमे तैँतीस-तैतीस देवता 
रहैगे; तथा महाबलवान्‌ दिवस्पति उनका इन्द्र 
होगा । निर्मोह, तच्वदरशा, निष्मकम्प्य, निरस्ुकः, 
धृतिमान्‌, अन्यय ओर सुतपा-ये तत्काीन सप्रपि 
होगे । अब मनुपू्ोके नाम मी सुनो ॥२७-३९॥ 
उस मन्वन्तरमे चित्रसेन ओर विचित्र आदि 
ममुपुत्र सज हये 

हे मैत्रेय ! चौदह मनु भौम होगा ॥ ४०॥। उस 
समय शुचि नामक इन्द्र भौर पाच देवगण होगे; 
उनके नाम सुनो-वे चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, धाजिक 
ओर बाचाचृद्ध्‌ नासक देवता है । अब्र तत्कालीन 
सप्र्षियोके नास भी सुनो। उस्र समय अगप्रिबाहुः 
यचि, शक्र, मागध, अग्निध, युक्तं ओर जित-ये 
सप्रषिं हदोगे! मनुपुत्रोके विषयमे सुनो) दे 
सुनिशञादृं ! कहते है, उस मुके ऊर ओौर गम्भीर 
बुद्धि आदि पुत्र होगे जो राञ्याधिकारी होकर 
पृथिवीका पालन करेगे ॥ ४९-४४ ॥ 

्रसयेक चतुथंगके अन्तम बेदोका खोप हो जाता 


9 # > 


॥ 








प्रवर्तयन्ति तानेस्य धं सक्षपेयो दिवः ॥४५॥ 
कृते कृते स्परतेविप्र प्रणेता जायते मनुः । 

देवा यक्ञथुजस्ते तु यावन्मन्वन्तरं तु तत्‌ ॥४६॥ 
भवन्तिये मनोः पुत्रा यावन्मन्वन्तरं तु तैः। 
तदन्वयोद्धवेचैव तावदभुः परिपाल्यते ॥५४७॥ 
मनुस्सपषयो देवा भूपालाश्च मनोः सुताः । 
मन्वन्तरे भवन्त्येते शक्रश्चेवाधिकारिणः ॥४८॥ 
चतुदशषभिरेतैस्त॒ = गतैमेन्तन्वरिन । 
सहस्चयुगपर्यन्तः कल्पो निक्येष इच्यते ॥४९॥ 
तावस्माणा च निश्च ततो मवति सत्तम । 
ब्रहमरूपधरस्शेते रेषाहावम्बुसम्प्लवे ॥५०॥ 
व्ैलोक्यमखिल ग्रस्ता भृगवानादिकृषटिः । 
स्वमायासंस्थितो विप्र स्व॑भूतो जनार्दनः ॥५१॥ 
ततः प्रबुद्धौ भगवान्‌ यथा पूवं तथा पुनः । 

स्ट करोर्यव्ययास्मा कल्पे कल्पे रजोगुणः ।॥५२ । 
मनवो भूय॒जस्सेन्द्रा देवास्सप्षयस्तथा । 
साखिफौऽशः स्थितिफरो जगतो द्विजसत्तम ॥५२॥ 
चतुयुगेऽप्यसौ विष्णुः स्थितिव्यागरलक्षणः। 
युगव्यवस्थां दस्ते यथा मैत्रेय तच्छुणु ॥५४॥ 
कुते युगे परं जञानं कपिछादिस्वरूपध्क्‌ । 
ददाति सर्वभूतात्मा सव॑भूतहिते रतः ॥५५॥ 
चयक्रवतिस्वकूपेण त्रेतायामपि स प्रयुः। 
दुष्टानां निग्रहं रव॑नपरिषाति जगत्रयम्‌ ॥५६॥ 
वेदमेकं चतुर्भेदं कृता शाखाइतेरविुः । 
करोति बहुलं भूयो बेदन्यापखर्पधृ्‌ ॥५७॥ 
बेदास्तु दवापरे व्यस्य कलेरन्ते पुनर्हरिः । 





है, उस समथ सप्तषिगण ही स्वगंडोकसे प्रथिः 
अवतीर्णं ह्योकर उनका प्रचार करते है।४ 
्रस्येक सस्ययुगके आदिमे [ मदुष्योकी धमे-मः 
स्थापितं करनेके किये} स्म्रति-कषा्के र्चा 
मलुक्ा प्राहुभीव होता है अर उस मन्वनः 
अन्त-पयन्त तत्कारीन देवगण यज्ञ-भागोको मं 
है ॥ ४६॥ तथा जो मनुके पुच्रहोते दैवे 
उनके वंज्ञधर मन्वन्तरके अन्ततक प्रथिः 
पाछन कर्ते रहते है ॥ ४७॥ इस प्रकार 
सप्तर्षि, देवता, इन्द्र तथा मनुःपुत्र्‌ राजागणः 
्रलेक सन्वन्तरफे अधिकारी होते दै ॥ ४८ ॥ 

हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरोके बीत जाः 
एक सहस्र युग रहनेवाला कल्प समाप्त हुंजा 
जाता हे ॥ ४९॥ हे साधुश्र्ठ ¦ फिर इतने दौ स 
की रात्रिदहयेतीदै। उस समय ब्रह्मरूपधारो 
विष्णुभगवान्‌ प्रलयकारोन जूके उपर शेष-रः 
प्र शयन करते ह ॥ ५० ॥ हे विभ्र ! तब आदि 
सर्चैम्यापक सवभूत भगवान्‌ जनादेन सः 
त्रिरोकीका मास कर अपनी मायामे स्थित रह 
फिर | प्रख्यरात्रिका अन्त होनेपर ] प्रत्येक क 
आदिमे अन्यया्मा भगवान्‌ जायत्‌ होकर › 
गुणका आश्रय कर्‌ खुष्ठिकौ रचना करते है ॥ ५ 
हे द्विजश्रेष्ठ ! मनु, मनु-पुत्र राजागणः इन्द्रः दे 
तथा सप्र षि-ये सव जगतूका पालन करनेवाले 
चाने सास्विक अंश है ॥ ५३ ॥ 

हे मैत्रेय ! स्थितिकारक भगवान्‌ विष्णु ; 
युगोमि जिस प्रकार म्यवस्था करते दैः सो स 
| ५४ || समस्त प्राणियौंके कल्याणमे तसः 
स्व॑भूतास्मा सस्यथुगमे कपिल आदि स्प धार 
परम ज्ञानका चपदे्च कसते दै ।॥ ५५॥ त्रेता 
वे सवंसमथं प्रभु चक्रवती भूपारु होकर दु! 
दमन करॐै रिलोकीकी रक्षा करते दै | ५६ ॥ ए 
न्तर द्वापरयुगमे वे वेद्ञ्यासखूष धारणकर 
वेदे चार विभाग करते है जौरप्तिर सै 
क्लाखाओंमे बौटकर उसका बहुत विस्तार कर 
दै ॥ ५७ ॥ इस प्रकार द्वापरमें वेदोका विसता 
कलियुगके अन्तम भगवान्‌ कल्किरूप धार 


अं ३ | 


कल्किस्वरूषी दु्रतान्मार्म स्थापयति प्र्ुः ॥५८॥ 


एवमेतजगत्सवं शशवत्पाति करोति च । 


हन्ति चान्तेष्वनन्तार्मा नास्त्यस्माद्न्यतिरेकि यत्‌ 


भूतं भव्यं मविष्यं च सरवभूतान्महास्नः। 
तदान्यत्र वा विप्र सद्भावः कथितस्तव ।॥६०॥ 


मन्वन्तराण्यशेपाणि कथितानि मया तव। 


तृतीय अश्च 


२१३ 


दुराचारी छोगोको सन्माम॑मे पवृत्त करते दै ॥ ५८॥। 
इसी प्रकार, अनन्तारमा प्रु निरन्तर इस सम्पूणं 
जगती उलन्ति, पाङन ओर नाश्च करते रहते है । 
इस संसारम रेसी कोई वस्तु नदीं है जो उनसे 
भिन्न हो ॥ ५९ ॥ हे विप्र ! इहं लोक ओर पररोकमं 
भूत, भविष्यत्‌ ओर वतमान जितने मी पदां है 
वे सव महात्मा भगवान्‌ विष्णुसे ही उर्पन्न हुए 
है- यह सव भँ तुमसे कद चुका ह ॥ ६० ॥ भने 
तुमसे सम्पूणं मन्वन्तर ओौर सन्वन्तराधिकारिय- 
का वणेन कर दिया । कहो, अब जर क्षया 


मन्वन्तरायिषांशचेव फिमन्यत्कथयामि ते ॥६१॥ । सनां ! ॥ ६९॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयं ऽश द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ 


- + 


तीसरा अध्याय 


चचुयुंगाजसार भिन्न-भिन्न उ्यासोके नाम तथा ब्रहमज्ञानके मादात्म्यका वर्णन 


श्रीमैत्रेय उवाच 
ज्ञातमेतन्मया सत्तो यथा स्व॑मिदं जगत्‌। 
विष्णुर्विष्णो विष्णुश्च न प्रं विद्यते ततः ॥ १॥ 
एतत्त श्रोतुमिच्छामि व्यस्ता वेदा महात्मना । 
वेदव्यासस्रूपेण तथा तेन युगे युगे ॥ २॥ 
यस्मिन्यस्मिन्युगे व्यासो यो य आसौन्महा्चुने। 
तं तमाचक्ष्व भगवञ्छखामेदांश्च मे बद्‌ ॥३॥ 
श्रीपराञ्चर उवाच 
वेददरमस्य भत्रेय शाखाभेदास्पदसशषः । 
न शक्तो विस्तरा्क्त संकषपेण शृणुष्व तम्‌ ॥ ४) 
दवापरे द्वापरे विष्णुव्यासरूपी महाय्रुने । 


वेदमेकः सु्रहुधा इते जगतो हितः ॥ ५॥ 
वीयं तेजो बह चाल्पं मनुष्याणामपेकष्य च 





भ्नीमेत्रेयजी बोल्ते-हे भगवन्‌ ¦! अपके 
कथनसे मै यह जान गया कि कित प्रकार 
यद्‌ सम्पूणं जगत्‌ विष्णुरूप दे, विष्णुम ही स्थित 
है, विष्णुसे ही उल्पन्न हआ ह तथा विष्णुसे 
अतिस्क्ति ओर कुछ भी नदीं है ॥ १॥ अब मँ यह्‌ 
सुनना चाहता द्र कि भगवान्‌ने वेदन्यासरूपसे 
युग-युगम किस प्रकार वेदोका विभाग किया! 
1 २॥ हे महाभ्रुने ! हे भगवन्‌ ! जिस-जिस युगमें 
जो-जो वेदभ्यास हुए उनका तथा वेदोके सम्पूणं 
शाला-सेदोका आप मुञ्चसे वणेन कौजिये ॥ ३॥ 

शीपराशारजी बोले- हे मैत्रेय ! वेदरूप वृक्षक 
सहस शाखा-मेद दै, उनका विस्तारसे बणेन 
करनेमे तो कोई भौ समथे नहीं है, अतः संक्षेपे 
द॒नो-॥ ४। हे महासने । प्रत्येक ापरयुगमे भगवान्‌ 
विष्णु व्यासरूपसे अवततीणं होते ह ओर संसारके 
कल्याणे चख्यि एक वेदके अनेक भेद्‌ कर 
देते है ॥५॥ मुष्योकि बल, बीयं भौर 
ते को ल्प जनत रवे समस्त प्राणियोंके 


२१४ 





ययासौ करते तन्वा वेदमेकं प्रथक्‌ प्रभुः | 


वेद्व्यासतामिधानातु सा च मूरति्मधुद्धिषः ॥ ७॥ 
यस्मिन्मन्वन्तरे व्यासा येवे स्पुस्तानिगोध से । 
यथा च भेदश्शाखानां व्यासेन क्रियते ने ।। ८ ॥ 


भ्रीविष्णुपुराणं 


` --------------~____-----------~~-~~~_-----~-~~~~--~_ 





श्र्टाविंशतिकृत्वो वै वेद! व्यस्तो महपिभिः। 
वैवस्वतेऽन्तरे तस्मिन्द्वापरेषु पनः पनः ॥९॥ 
वेदव्यामा व्यतीता ये हयटाविंशति सत्तम । 
चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनः पुनः ॥१०॥ 
दवापरे प्रथमे व्मस्तस्स्वयं वेदः स्वयम्थुवा | 
हितीये द्वापरे चैव वेदन्पासः प्रजापतिः ॥११॥ 
तरतीये चोश्नना व्यासशतुर्थे च बृहस्पतिः। 
सविता पश्चमे व्यासः पष मृष्युर्स्मृतः प्रथः ॥१२। 
सप्तमे च तपैषेन्द्ौ वशिष्रशवाष्टमे स्मृतः । 
सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दश्चमे स्मृतः 1 १३॥ 
णक्रादशतु त्रिक्गिखो भरद्ाजस्ततः परः| 
त्रयोदयो चान्तरक्षो वणी चापि चतुर्दहे | १४॥ 
त्रय्यारुणः; पश्र पोडवे तु धनन्नयः। 
क्रतुज्जयः स॒प्द्े तदुष्वं च जयस्स्मृतः ॥१५॥ 
तता व्यासा मरद्राजो मरद्राजाच् गोतमः) 
गौतमादुत्तरो व्यासो हर्यास्मा योऽभिधीयते।। १६॥ 
यथ हयन्मनोऽन्ते च स्मतौ वाजश्रवा मुनिः| 
सोमधुष्मायणस्तस्मानतुणनिन्दुरिति स्मृतः ।॥ १७॥ 
ऋक्षो धभृद्धागवस्तस्माद्रल्मीकिर्योऽभिधीयते। 
तस्मादस्मल्पिता शक्तिर्व्यासिस्तस्मादहं भुने।। १८॥ 
जानुकर्णऽभवन्मत्तः कृष्णद्रपायनस्ततः । 
आअष्टाप्रिंलतिरिन्येते वेदव्यासाः पुरातनाः ।॥१९॥ 
रकी वेदश्तुर्धातु तैः कृतो हापरादिपु ॥२०॥ 
1 2 धर्‌ चापि निन्यम्‌ भविष्यति । 





[ अ० 
ननमा 
जिस शरीरके द्वारा वे प्रमु एक वेदे अनेक विः 
करते दँ भगवान्‌ सधुसूुदनकौ उस मूर्तिका 
वेदव्यास है ॥ ७॥ 

हे यने ! जिस-जिस मन्वन्तरमे जो-जो ठर 

दोते हैँ ओर वे जिस-जिस प्रकार शाखां 
विभाग कस्ते है--वह सुश्चसे सुनो ॥८॥ 

वेवस्वत-मन्वन्तरके प्रत्येक द्वापर युगमे उ 
महर्षियोँने अबतक पुनःपुनः अद्धा बार वेः 
विभागक्ियि है ।॥९॥ दे साधुशरेष्ठ ! जिनः 
पुनः-पुनः द्वापरयुगमे वेदोके चार-चार विरे 
कि है उन अहा व्यासोका विवरण सुनो 
11 १०} पहले द्वापरे स्वयं भगवान्‌ ब्रह्माञ 
वेदोंका विभाग किया था । दृसरे द्वापरके वेद्‌व्य 
प्रजापति हृए ॥ ११ ॥ तोसरे द्वापरमे शुक्राचायं 
ओर चौथे बृस्पत्तिजी व्यास हुए, तथा पाँचः 
सूयं ओर छटठेमे भगवान्‌ शयु व्यास' कह 
।॥ १२ ॥ सातवं द्रापरके वेदव्यास इन्द्र, आटः 
वसिष्ठ, नवके सारस्वत ओर दसवेके चिधामा : 
जाते है ॥ १३॥ ग्यारहवेंके च्रििख, बारह 
भरद्वाज, तेरहवेमे अन्तरिक्ष ओर चौदहरे 
वणी नामक व्यास हुए ॥ १४॥ पद्रहवेमें त्रय्यां 
सोलह वयोम धनञ्जय, सव्रहवेमै क्रतुञ्जय अ 
तदनन्तर अटारहवमे जय नामक व्यास ¦ 
| ९५} फिर रन्नीसषेमे ग्यास भरद्राज ह 
भरद्वाजकफे पीले गौतम हुए ओर गौतमके पीठे : 
व्यास हुए वे ह्यात्मा कै जाते दै । १६ 
हयास्माके अनन्तर वाजश्रवा मुनि व्यास्त हए तः 
उनके पश्चात्‌ सोमश्चुष्मवंशी वरणविन्दु ( तेईसवे 
वेदन्यास कहलाये ॥ १७ ॥ इनके पीछे शखुवंः 
ऋक्ष व्यास हुए जौ वाल्मीकिं कदहङाये, तदृननः 
हमारे पिता शक्ति हृए जीर फिर मै हुमा ॥ १८ 
मेरे अनन्तर जालुकणं व्यास हए ओौर पि 
कृष्णद्वैपायन इस प्रकार ये अद्भाईस ग्यास प्राची 
हे । इन्दोने द्वापरादि. युगो एकी वेदके चाः 
चार विभाग कयि है ॥ १९८२०॥ दहे इने) मे 


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अ०२] 


ध्रुवमेकाक्षरं बरह्म ओमित्येव व्यवस्थितम्‌ । 
बृ््वादुबंहणत्वाचच तद्ब्कषेर्भिधीयते ।२२॥ 
प्रणवावस्थितं निर्यं भू्ुवस्सरितीयंते । 
ऋण्यजुस्सामाथर्बाणो यत्तस्मै ब्रह्मणे नमः॥२३॥ 
जगतः ्रहयोचपच्योय॑त्तस्कारणसंकञितम्‌ । 
महतः परमं गुं तस्मे सुत्रह्मणे नसः ॥२४॥ 
अगाधापारमक्षय्यं जगर्सम्भोहनाहयम्‌ । 
स्वप्रकाशप्रृत्तिभ्यां पुरुषाथंग्रयोजनम्‌ ॥२५॥ 
सांख्यज्ञानवतां निष्ठा गतिरशमदमात्मनाम्‌ । 
यत्तदव्यक्तममृतं प्रवृत्तितव्रह्म शाश्वतम्‌ ।२६॥ 
प्रधानमात्मयोनिश्च गुद्यसंस्थं च शन्धते । 
अविभागं तथा सुक्रमक्षयं बहुधात्मकम्‌ ॥२७॥ 
परमब्रह्मणे तस्मै नित्यमेव नमो नमः। 
यद्रपं वासुदेवस्य प्रमास्सस्वरूपिणः ॥२८॥ 
एतदुव्रह्म त्रिधा मेदममेदमपि स प्रयुः। 
सवभेदेष्वमेदोऽसो मिते भिन्बुद्धिभिः ॥२९॥ 
स ऋड्मयस्साममयः सर्वात्मा स यजुरभयः। 


ऋग्यजुस्सामसारास्सा स एवात्मा शरीरिणाम्‌, २०। 


स॒ भिद्यते वेदभयस्स्वषेदं 
करोति मेदवंहुमिस्सङ्षाखम्‌। 
शाखाप्रणेता प समस्तक्ाखा- 


ज्ञानस्वरूपो भगवानसङ्गः ॥२१॥ 


तृतीय अंश 


पाकाय 








२१५ 








ॐ यह्‌ अविमाक्ची एकाक्षर ही ह्य है| यह्‌ 
बृहत्‌ ओर म्यापक है इसल्यि श्रह्यः कहलाता है 
॥ २२ ॥ भूर्खोक, भुवर्टछोक ओौर स्वर्लोक-ये तीनां 
प्रणवरूप ब्रह्मभे ही स्थित ह तथा प्रणव हौ ऋक्‌, 
यजुः, साम ओर अथव है; अतः उस ओंक्ाररूप 
ब्रह्मको नमस्कार है ॥ २३॥ जो संसारफे उत्पत्ति 
आर प्रख्यका कारण कहखाता है तथा महन्तचवसे 
भी परम गुह्य ( सूक्ष्म ) है उस ओंकार रूप ब्रह्मको 
नमस्कार है ॥ २४॥ जो अगाध, अपार भौर अक्षय 
है, संसारको मोहित करनेवाठे तमोगुणका आश्रय 
है तथा प्रकाङयमय सन्त्वगुण ओौर प्रवृन्तिरूप रजो- 
गुणके हारा पुरुपोके भोग ओर मोक्षरूप परम- 
पुरुषाथैका हेतु है ॥ २५॥ जो सास्यन्ञानियोंकौ 
परमनिष्ठा है, शम-दमश्चाल्यिका गन्तन्य स्थान दै, 
जो अन्यत्त जीर अविनाशी है तथा जो सक्रिय 
ब्रह्म होकर भी सदा रहनेवाटां है २६॥ जो 
स्वयम्भू , प्रधान ओौर अन्तयामी कहराता है तथा 
जो अविभाग, दीप्तिमान्‌, अक्षय ओौर अनेक रूप दै 
। २७॥ नौर जो परमास्मस्वरूप भगवान्‌ वासुदेव - 
काही रूष ( प्रतीक) है, उस ओंकाररूप परब्रह्मको 
सवेदा बारंबार नमस्कार हं ॥ २८ ॥ यह्‌ ओंकाररूप, 
ब्रह्म अभिन्न होकर भी [ अकार, उकार ओर मकार- 
रूपसे ] चीन मेदोबाला है । यह समस्त भेदोमे 
अभिन्नरूपसे स्थित ह तथापि मेदनुद्धिवालोंक भिन्न- 
भिन्न प्रतीत होता है ।। २९॥ वह सवात्मा ऋङ्मय, 
साममय ओौर यज्ुमय है तथा ऋग्यज्ञुःसामका सार- 
खूप बह ओंकार हौ सव क्रीरधारिथोका आत्मा है 
।॥ ३० ॥ वह्‌ वेदमय है, वदी ऋभ्वेद्‌ादिरूपसे भिन्न 
ह्यो जात्ता दै ओौर वही अपने वेदरूपको नाना 
राखांमे विभक्तं करता ह तथा चह असंगम 
भगवान्‌ हौ समस्त श्चाखाओंका रचयिता ओर 
उनका ज्ञानस्वरूप है ॥ ३१॥ 


न १- ^+ - ~ 


हति श्रीनिष्णपराषणे तत यें<डो ठततोयोऽध्यायः॥ ३॥ 


२१8६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


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ऋग्बेदकी शाखाभका विस्तार 


श्रीपराञ्चर उवाच 
ग्रा्यो वेदश्चतुष्पादः शतसादश्रसम्मितः । 
ततो दशगुणकृससनो यज्ञोऽयं सवंकामधु्‌ ॥ १ । 
ततोऽत्र मस्सुतो व्यासो अ्टाविंशतिमेऽन्तरे । 
` वेदमेकं चतुष्पादं चतुर्धा व्यभजस्रभरुः ।॥ २॥ 
यथा च तेन वै व्यस्ता वेदव्धासेन धीमता। 
वेदास्तथा समसतैस्तैव्यस्ता व्यस्तैस्तथा मया २॥ 
तदनेनैव वेदानां शाखामेदान्दिजोत्तम । 
चतुर्युगेषु पटितान्सभसोष्ववधारय ॥ ४ ॥ 
कृष्णद्रपायनं व्यासं विद्वि नारयणं प्रभम्‌ । 
फो हयन्यो वि मैत्रेय महाभारतषद्धमेत्‌ ॥ ५ ॥ 
तेन व्यस्ता यथा वेदा मत्पुत्रेण महात्मना | 
द्वापरे दात्र मैत्रेय तस्मि्छणु यथातथम्‌ ॥ ६ ॥ 
ब्रह्मणा चोदितो व्यासो वेदान्ग्यस्तं प्रचक्रमे। 
अथ शिष्यान्प्रजग्राह चतुय वेदपारगान्‌ ॥७॥ 
ऋण्वेदपाठकं पेल जग्राह स॒ मदा्निः । 
वैशम्पायननामानं यजुर्दस्य चाग्रहीत्‌ ॥८॥ 
सैमिनिं सामवेदस्य तथैवाथ्ववेदवित्‌ । 
सुमन्तुस्तस्य शिष्योऽभूद्दन्यासस्य धीमतः॥९॥ 
रोमहष॑णनामानं महाबुद्धिं महानि । 
सतं जग्राह शिष्यं स इतिहासपुराणयोः ॥१०॥ 
एक आसी्ु्ेदस्तं चतुर्धा व्यङल्पयत्‌ । 


चातुषेत्रमभूत्तसिमस्तेन यज्ञमथाकरोत्‌ ॥११॥ ` 
आध्वर्यवं यजभिस्त॒ ऋग्मिहेतं तथा निः । 


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्रीपएयश्चस्जी बोल्े-सष्िके आदिमे ईन्धरसे 
आविभूत वेद्‌ ऋक्‌-यज्नुः आदि चार पादौसे युक्त 
ओौर एक लक्ष मन्त्रवाछा था | उसीसे समस्त कामना- 
ओको देनेवछे अग्निहोघ्रादि दश्च प्रकारके यज्ञोका 
प्रचार हुआ ॥ १ ॥ तदनन्तर अट्ाईैसवें द्वापरयुगमे 
मेरे पुत्र करष्णद्वैपायनने इस चतुष्पादयुक्त एक हौ 
वेद्के चार भाग क्यि॥२॥ परम बुद्धिमान्‌ वेद्‌ 
व्यासने उनका जिस प्रकार विभाग किया है, ठीक 
उसी प्रकार अन्यान्य वेदृन्यासोने तथा मेने भी पहले 
किया था॥ ३॥ अतः हे द्विज ! समस्त चतुयुगोमिं 
न्दं श्ालामेदोसे वेदका पाट होता है-एेसा जानो 
॥ ४ ॥ भगवान्‌ कृष्णद्वेपायनको तुस साक्षात्‌ 
नारायण ही समञ्चो, क्योकि हे मैत्रेय! संसारमें 
नारायणके अतिरिक्त ओर कौन महमभारतका 
रचयिता हो सकता है १ ५॥ 

हे मैत्रेय ! द्वापरयुगमे मेरे पुत्र महात्मा कृष्ण- 
द्ेपायनने जिस प्रकार वेदोका विभाग किया धा वह 
यथावत्‌ सुनो ॥ £ ॥ जब ब्रह्माजीकौ प्रेरणासे भ्यास- 
जने वेदौका विभाग करनेका उपक्रम किया, तौ 
उन्होने वेदका अन्तत्तक अध्ययन करनेमे समथं चार 
िष्योको छिया ॥ ७ उनमे उन महामुनिने पैखको 
ऋण्वेद्‌, वैराम्पायनको यजुवद ओर जैमिनिको साम- 
वेद्‌ पद़ाया तथा उन मतिमान्‌ व्यासजौका सुमन्तु 
नामक शिष्य अथवेवेदका ज्ञाता हंजा ॥ <-९॥ 
इनके सिवा सूतजातीय महाबुद्धिमान्‌ रोमहषेणको 
महामुनि ग्यासजीने अपने इतिहास ओर पुराणके 
विदयार्थीरूपसे व्रहण किया ॥ १० ॥ 

पूवकारमे यज्जुवंद एक ही था । उसके उन्दने 
चार विभाग किये, अतः उसमे चातुरदोत्रकी प्रवृत्ति 
हुई भौर इस वचातुरहोच-विधिसे ही उन्होने यक्षा. 
सुष्ठानकी उथवस्था की ॥ ११ ॥ म्यासजीने यजुभसे 
अध्वयुके, कसे होताके, सामसे उद्गातके तथा 


अ० ४ | 


ततस्स ऋच उद्धृत्य ऋण्ेद्‌ कृतवान्पुनिः। 

यजुपिच यजुर्वेदं सामवेदं च सामभिः ॥१३॥ 
५ 0 [७ 

रासां चाथकेवेदेन स्वकर्माणि च प्रथुः। 

कारयामास मेत्रेय ब्रह्मत्वं च यथास्थिति ॥१४॥ 

सोऽयमेको यथा बेदस्तरुस्तेन परथक्कृतः । 


तति अश 





चतुर्धाथ ठतो जातं वेदपादपकाननम्‌ ।१५॥ 
पिभेद्‌ प्रथमं चिप्र पेलो ऋग्वेदपादपम्‌ । 
हन्द्रपरमितये प्रादाद्वाष्कलाय च संहिते ॥१६॥ 
चतुर्धां स बिमेदाथ बाष्कलोऽपि च संहिताम्‌ | 
बोध्यादरिभ्यो ददौ तार िष्येभ्यस्स मह।युनिः १७ 
बोध्याग्निमाढकौ तद्राह्तवल्क्यपरारपौ । 
प्रतिशाखास्तु शाखायास्तस्यास्ते जगृहु १८। 
इन्द्रप्रमितिरेकां त संहितां स्वसुतं ततः। 
माण्डुकेयं महास्मानं मैत्रेयाभ्यापवत्तदा ॥१९॥ 
तस्य रिष्यप्ररिष्येभ्यः पुत्रशिष्यक्रमाद्ययो । 

वे मित्रस्तु शाकल्यः संहितां तामधीतवान्‌।२०॥ 
चकार संहिताः पश्च शिष्येभ्यः प्रददौ चताः। 

तस्य शिष्यास्तु ये पश्व तेषां नामानिमे शृणु ॥२१॥ 
युदगलयो गोगुखस्वैष बात्स्यश्शारीय एव च। 
शरीरः पश्चमश्ासीन्ैत्रेय सुमहामतिः ॥२२॥ 
संहितात्रितयं चक्रे शाकपूणणस्तथेतरः । 
निरूक्तमकरोतदचतुथं धनिसत्तम ॥२३॥ 
क्रौश्चो वैताछिकस्तद्रद्राकथ महामुनिः । 
निरुक्त कृचतुरथोऽभूदेदवेदाङ्गपारगः ॥२४॥ 
इ््येताः प्रतित्राखाभ्यो दयचशाखा द्विजोत्तम । 
बाष्कलश्षापरास्ति््संहिताः कृतवान्दिन ॥२९॥ 
शिष्यः कालायनिर्गाग्यस्ततीयश्च कथाजवः। 
इत्येते बहवाः प्रोक्ता; संहिता यैः प्वतिताः ।२६। 








१9. 


तदनन्तर उन्होने ऋक्‌ तथा यज्ुः्रुतियका उद्धार 
करके ऋवेदं एवं यजुवंदको ओर सामश्रुतिर्योसे 
सामवेदी रचना की ॥ १३॥ हे मैत्रेय ! अथवेवेदके 
द्वारा भगवान्‌ म्यासजीने सम्पूणं राज-कमं भौर 
ब्रह्मत्वकी यथावत्‌ व्यवस्था की | १४ ॥ इस प्रकार 


व्यासजीने वेदरूप एकं वृक्षके चार बिभाग कर दिये। 


फिर विभक्त हुए उन चारोसे वेदरूपी वृक्षका बन 
उत्पन्न हआ ॥ १५॥ 


हे विग्र! पहठे पैरने ऋण्वेद्‌ रूप वृष्षके दो विभाग 
किये ओौर उन दोनों शचाखाओंको अपने शिष्य इन्द्र 
प्रमिति भौर बाष्करको पद़ाया ॥ १६॥। पिर बाप्कलने 
भी अपनी ज्ञालाके चार भाग किये ओौर उन्हं बोध्य 
आदि अपने शिष्योको दिया ॥ १७॥ हे यने | वाष्कल- 
की साखाकी उन चारो प्रतिश्चाखाओंको उनके शिष्य 
बोध्य, अग्निमाढक, याज्ञवल्क्य भौर पराश्ञरने ग्रहण 
फिया ॥ १८॥ हे सैत्रेयजो ! इन्द्र्रमितिने अपनी 
प्रविञ्चाललाक्रो अपने पुत्र महासा माण्डुकेयको प्रद़ाया 
| १९ ॥ इस प्रकार सिष्य-प्रसिष्य क्रमसे उस 
शाखाका उनके पुत्र ओर शिष्योमे प्रचार हुभा। 
इस करिष्य-परम्परासे ही शाकल्य वेदभित्रने -उस 
संदिताको पदा ॥ २० ॥ ओर उसको पच भजु. 
शाखाओमें विभक्त कर अपने पच शिष्योको पदाया | 
उसके जो पौँच श्लिष्य थे उनके नाम सुनो ॥ २१॥ 
द मैत्रेय ! वे सुद्गक, गोमुख, बार्स्य भौर शल्लोय 
तथा पचवें महामति श्चरीर ये। २२॥ हे स॒निः 
सन्तम ! उनके एक दूसरे शिष्य शाकपूणेने तीन वेद्‌- 
संदिताओंकी तथा चौथे एक निरुक्त-परन्थकौ रचना 
की | २३॥ [ उन संहिताओंका अध्ययन करनेवाछे 
उनके शिष्य ] महामुनि कौच्च, वेताछिक ओर बलाक्र 
थे तथा [ निरुक्तका अध्ययन करमेवाे ] एक चौथे 
शिष्य वेद-वेदाङ्गके पारगामी निरूक्तकार्‌ हुए ।1२४॥ 
इस प्रकार वेदरूप बक्षी प्रतिशाखाभोंसे अनु- 
लाखाओकी उत्पत्ति हुई । हे द्विजोत्तम । वाष्कलने 
ओर भी तीम संहिताभंको रचना की ॥ २५] उनके 
[ उन संहिताओंको पदनेवाठे ] शिष्य कालायनि, 
गाम्यं तथा कथाजव थे । इस प्रकार जिन्होने इन 
संहिताओंका प्रचार किया वे बदबुच कहलये ॥ २६॥ 


(नरक भोम... 


इति श्रीविष्णुपुराणे कतीय ऽ चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 





पोचर्वोँ अध्याय 


शुक्छयज्ुयेद तथा तैत्तिरीय यज्ञुःशाखाभोँका वर्णन 


श्रीपराहर उवाच 

ययुर्वेदतरोरशाखास्समरवि्षन्महा्ुनिः । 
वैशम्पायननामासौ व्यासकिष्यथकार पै ॥ १ ॥ 
गिष्येभ्यः प्रददौ ताश्च जगृहुस्तेऽप्यनुक्रमात्‌ । 
याज्ञवल्क्यस्तु तव्राभूदून्नक्षरातसतो दविज ॥ २ ॥ 
शिष्यः परमधमज्ञो गुस्दृततिपरस्सदा । 
ऋपिर्योऽद्य मह मेरोः समाजे नागमिष्यति ॥ ३॥ 
तस्य वै सप्तरात्रात्‌ ब्रह्महस्या मविष्यति । 
ूर्वमेवं युनिगणैस्समयो यः कृतो दिज ॥ ४॥ 
वेशचम्पायन एकस्त॒ तं व्यतिक्रान्तवांस्तदा। 
स्थस्रीयं चारक सोऽथ पदा स्पृष्टमथातयत्‌॥ ५॥ 
शिष्यानाह स मो शिष्या ब्रहमहस्यापहं व्रतम्‌ । 
चरध्वं मत्कृते स्वे न विचायंमिदं तथा ॥ ६ ॥ 
अथाह याक्वल्क्यस्तु किमेभिभंगवन्धिजैः। 
क्रेशिपैरल्पतेजोभिश्वरिष्येऽदमिदं वतम्‌ ॥ ७ ॥ 
ततः करद्धो गुरः प्राह याज्ञवल्क्यं महाश्रनिम्‌। 
मुच्यतां यम्वयाधीतं मत्तो विप्रावमानक ॥ ८ ॥ 
निस्तेजसो बदस्येनान्यचवं ब्राह्मणपुद्भवान्‌ । 
तेन शिष्येण नार्थोऽस्ति ममा्तभङ्गकारिणा ॥ ९ ॥ 
याज्ञवल्क्यस्ततः प्राह मक्त्येततते मयोदितम्‌। 


प्यं त्वयाधीतं यन्मया तदिदं दहिज ॥१०॥ 
श्रीपराज्ञर उवाच 
क्तानि सरूपाणि यजुषि सः। 








श्रीपराश्चरनी बोज्ञे-हे महामुने ! त्यासजीके 
शिष्य वेङम्पायनने यजुर्वेदरूपी वृक्षको सन्ताईस 
ल्ाखाओंकी रस्चनाकी ॥१॥ ओर उन्हं अपने 
शिष्योँको पदाया तथा शिष्योने मी उन्हं क्रमशः प्रहण 
किया। है द्विज ! इनका एक परम धार्भिक ओर 
सदैव गुरुसेवाभे तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरातका 
पुत्र याज्ञवल्क्य था | [ एक समय समस्त ऋषिगणने 
भिछकर यदह नियम किया किं ] जो कोई महामेरपर 
स्थित हमारे इस समाजमे सम्मिङ्ति न होगा, 
उसको सात सचि्योके भीतर ही ब्रह्महत्या छगेगी | 
हे द्विज ! इस प्रकार मुनियोँने पदे जिस समयको 
नियत किया था उसका केवल एक वैश्ञम्पायनने हयै 
अतिक्रमण किया । इसके पश्चात्‌ उसका चरणस्पञं 
हो जनेसे ही उसके भानजेकी हस्या हो गयी 
| २--५॥ तव उन्होने अपने रिष्योसे कहा-- 
शे शिष्यगण! तुम सब खोग किसी प्रकारका विचार 
न करके मेरे लिये ब्रह्महव्याको दूर करनेवाखा 
त्रत करोः ॥ ६॥ 


तव याज्ञवल्क्य बोङे--“भगवन्‌ ! ये सव 
ब्राह्मण अस्यन्तं निस्तेज ह, इन्द कष्ट देनेफी क्या 
आवङ्यकता दै ९ मै अकेला ही इस व्रतका अनुष्ठान 
कर॑गा" || ७॥ इससे गुरु वैशम्पायनजीने क्रो धित 
होकर महामुनि याज्ञवल्क्यसे कहा--“अरे ब्राह्मणो- 
का अपमान करनेवाङे ! तूने अुश्चसे जो कुछ पदा 
्ै, बह सव त्यागदे ॥८॥ तु न समस्त द्विज- 
रेष्ठौको निस्तेज बताता दै, मश्च तु्य-जेसे आज्ञा. 
भङ्गकारी शिष्यसे कोई प्रयोजन नहीं हैः ॥ ९॥ 
याज्ञवल्व्यने कहा, हे द्विज ! मैने तो भक्तिवश्च 
आपसे एेसा कहा था, सुच भौ आपसे कोई प्रयोजन 
नहीं है; छौज्यि, मैने आपसे जो ऊढ पदा है वह 
यह मौजूद हैः ॥ १० ॥ 

श्रीपराश्चरजी बोले-रेखा कह महामुनि याज्ञ- 
वल्क्यजीने संधिरसे भरा हआ मूर्तिमान्‌ यजुवद 











छदयितवा ददौ तस्मै ययौ स स्वेच्छया पुनिः ॥ ११ 
यू प्यथ विसृष्टानि यान्नवल्क्येन वै दविज । 
जगृहुस्तिततिरा भूवा तेत्तिरीयास्तु ते ततः ॥१२॥ 
ब्रह्महत्याव्रतं चीणं गुरुणा चोदितैस्त्‌ यैः | 
चरकाध्वयवस्ते तु चरणान्पुनिसत्तम ॥१२॥ 
या्तवल्क्योऽपि मैत्रेय प्राणायामपरायणः 

तुष्टाव प्रयतस्घयं यजूष्यभिरपंस्ततः ॥१४॥ 


याज्ञवल्यय उचाच 





नमस्सवित्रे द्वाशय भक्तेरमिततेजसे । 
ऋर्थजुरसामभूताय त्रयीधामने च ते नमः ॥१५॥ 
नमोऽ्नीषोमभूताय जगतः कारणात्मने । 
भास्कराय परं तेजस्सौपुम्नरुचिषिभ्रते ॥१६॥ 
फलाकाष्ठानिमेषादिकारन्ञानात्मरूपिणे । 
ध्येयाय विष्णुरूपाय प्रमाक्षररूपिणे ॥१७॥ 
विभति यस्सुरगणानाप्यायेन्दु' खरदिमिभिः। 
स्वधामृतेन च पित स्तस्मै तृप्त्यात्मने नमः।।१८॥ 
दिमाम्बुषमधृषटीनां कर्ता भर्ता च यः प्रभुः 

तस्मै त्रिकालरूपाय नमस्र्याय वेधसे ॥१९॥ 
अपहन्ति तमो यच जगतोऽस्य जगसतिः । 
सन्वधामधरो देवो नमस्तस्मै विवस्षते ॥२०॥ 
सत्कमंयोभ्यौ न जनो नैवापः शुद्धिकारणम्‌ । 
यस्मिभननुदिते तस्मै नमो देषाय भास्वते ॥२१॥ 
स्पष्टो यदशुभिरोकिः क्रियायोग्यो हि जायते । 
प्वित्रताकारणाय तस्मै शुद्धात्मने नमः ॥२२॥ 
नमः सवित्रे पर्याय भास्कराय विवसखते । 
आदित्यायादिभूताय देवादीनां नमो नमः ॥२३॥ 





वमन करके उन्हं द दिया; ओर स्वेच्छानुसार चके 
गये ॥ ११॥ है द्विज ! याज्ञवल्क्यद्रासया वमन 
को हृं उन यजुश्रुतियोको अन्य शिष्योने तित्तिर 
तीतर ) होकर ग्रहण कर छिया, इसलिये वे सव 
तैत्तिरीय कहलाये ॥ १२॥ हे मुनिसत्तम ! जिन 
विग्रगणने गुरुको प्रेरणासे ब्रह्महसव्या-विनाञ्चक 
व्रतका अनुष्ठान किया था, वे सव ब्रताचरणके 
कारण [ यजुःसाखाध्यायो ] चरकाध्वयु हुए।॥ १३॥ 
तदनन्तर याज्ञवल्प्यने भी यञुर्वेदकी प्राप्धिकी 
दच्छासे प्राणोका संयम कर संयतचित्तसे सूयं 
भगवान्‌की स्तुति की ॥ १४॥ 


याज्ञवस्क्यज्ी बोल्े-अतुित तेजस्वी, मुक्तिक 
हारस्वरूप तथा वेदन्रयशूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक्‌; 
यजुः तथा सामस्वरूप सवितादेवकफो नमस्कार है 
॥ १५॥ जो अग्नि ओर चन्द्रमाूप्‌, जगतूके 
कारण ओर सुपुम्न नामक परमतेजकौ धारण 
करनेवाले है, उन भगवान्‌ भार्करको नमसकार है 
| १६॥ कला, काष्ठा, निमेष आदि काटज्ञानके 
कारण तथा- ध्यान करनेयोग्य परब्रह्यस्वरूप 
विष्णुमय श्रीसूयदेवको नमस्कार हे ॥ १७॥ जो 
अपनी किरणोसे चन्द्रमाको पोपित करते हुए 
देवताओंको तथ] स्वधारूप अमृतसे पितरगणको- 
तप्र करते द उन वृहू सूयंदेवको नमस्कार 
है।॥१८॥ जो हिम, ज भौर उष्णता कर्ती 
[ अ्थौत्‌ शौत्त, वषा ओर भीष्म आदि ऋतुभो- 
के कारण ] द ओर [ जगतका ] पोपण करनेवाछे 
है, उन च्रिकालमूतिं विधाता भगवान्‌ सू्यंको 
नमस्कार ह ॥ १९॥ जौ जगत्पति इस सम्पूणं 
जगत्‌के अन्धकार्को दूर करते ह उन सन्त्व- 
मर्विधारौ विवस्वान्‌को नमस्कार है ॥२०॥ 
जिनके उदित हुए ब्रिना मनुष्य सत्कमंमे प्रवृत्त 
नीं हो सकते ओौर जल श्द्धिका कारण नहीं हो 
सकता, उन भास्वान्‌दैवको नमस्कार हे॥२१॥ 
जिनके किरण-समूहका स्पशं होनेपर खोक 
कमौनुघ्ठानकै योग्य होता है, उन पविच्ताके कारण 
युद्धस्वरूप सूयदेबको नमस्कार ह ॥ २२॥ भगवान्‌ 
सविता, सूयं, भास्कर ओर चिवस्वान्‌को नमकार 

देवता आदि समस्त भूतौके आदिभूत 
आदित्यदेवको बारंबार नमस्कार है ॥२३॥ 








हिरण्मयं रथं यस्य केतवोऽमृतवाजिनः । 
वहन्ति यबनालोफिचक्षुषं तं नमाम्यहम्‌ ॥२४॥ 
भ्रीपराञञर उवाच 


इस्येवमादिभिस्तेन स्तूयमानस्स वै रबिः। 
वाजिरूपधरः प्राह व्रियतामिति वाञ्छितम्‌ ॥२५॥ 
याज्ञवल्क्यस्तदा प्राह प्रणिपत्य दिवाकरम्‌ । 
यजू पितानिमेदेहि यानि सन्तिनमेगुरौ ॥२६॥ 
एवगुक्तो ददो तस्मै यज्‌ पि मगवाब्रविः । 
अयातयामसं्ञानि यानि वेत्ति न तद्गुरः॥ २७ 
यू पि यैरभीतानि तानि विगरठिनोत्तम । 
वाजिनस्ते समास्याताः प्ररयोऽप्यश्चोऽभवद्यतः २८ 





शाखाभेदास्तु तेषा बे दश पश्च च वाजिनाम्‌ । 
काण्वादयास्मुमहामाग याज्ञवल्क्याः प्रकीतिताः २९, 





¡ जिनका तेजोमय रथ है, [ प्रज्ञारूप ] ध्वः 


जिन्द [ छन्दोमय ] अमर अश्चगण वहन : 
तथा जो त्रिभुवनको प्रकाशित करमेवाछे 
दै, उन सूयेदेवको मै नमस्कार करता हूं । 
शी पराश्चरजी बोले-उनके इस धकाः 
करनेपर भगवान्‌ सूयं अन्धरूपसे प्रकट 
बोरे--तुम अपना अभीष्ट चर 


1 २५॥ तव याज्ञवत्क्यजीने उन्ह प्रणाम 
कहा--आप न्च उन यजुःशरुतियोका 
कीजिये जिन्हँ मेरे गुरुजी भौ न जानते हौ? 
उनफे पेसा कहनेपर भगवान्‌ सूयने इन्द 
याम नामक यजुः तियोका उपदेश दिय 
उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नहीं जानतेथे 
दे द्विजोत्तम ! उन श्र तियोको जिन ब्राह्म 
था वे वाजी-नामसे विख्यात हुए; क्योंविं 
उपदेञ्च करते समय सूयं भी अश्रूप हो 
॥ २८॥ हे महाभाग ! उन बाजिश्र तियोकं 
आदि पद्रह क्ञाखार्पँदै; वे सब शाखा 
याज्ञवल्क्यकी प्रवृत्त की हुई कही जाती दै 


इति श्रीविष्णुपुराणे ठतीयं ऽर पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ 
छख अध्याय 
सामवेदक शाखा, अटारह पुराण भौर चौदद विद्यासोकि विभागका वर्णन 


श्रीपराज्चर उवाच 
सावेदतयोशश्षाखा व्यासरिष्यस्स जेमिनिः। 
क्रमेणयेन मैत्रेय विभेद शृणु तन्मम ॥१॥ 
एुमन्तुस्तस्य पुत्रोऽभूत्सुकरमास्याप्यभूत्सुतः | 
अधीतवन्तौ चैकैकां संहितां तौ महामती ॥ २॥ 
सहस्रसंहिताभेदं सुकर्मा तस्म॒तस्ततः । 
चकार तं च तच्छिष्यौ जगृहाते महात्रतो ॥ २॥ 
हिरण्यनाभः कौसल्यः पौष्पिभ्जिश्च द्विजोत्तम्‌ | 
उदीच्यास्मामगारिकिष्यास्तस्य पशवशतं स्यृता;।४। 





श्रीपराश्चरजी बोल्ले-हे भेत्रेय ! जिः 
व्यासजीके ्िष्य जैमिनिने सामवेदकी श 
विभाग किया था, वह सुञ्चसे सुन 
जेमिनिका पुत्र सुमन्तु था ओर उसका पु 
हृभा । उन दोनों मदहामति पुत्र-पौत्रोने २ 
एक-एक लाखाका अध्ययन किया । ॥ 
सुमन्तुके पु सुकमनि अपनी सामवेद 
एक सहस्र शाखासेद्‌ किये ओर हे द्विजोन 
उसके कौसल्य, हिरण्यनाभ तथा पौष्पिञ्धि 
महात्रती श्चिष्योँने रहण किया । हिरण्यन 
सौ शिष्य थे जो उदोच्य सामग कहखाये 


* न~ 











हिरण्यनाभात्तावस्यस्संहिता यैद्िंजोत्तमैः । 
गृहीतास्तेऽपि चोच्यन्ते पण्डितैः प्राच्यस्नामगाः।५। 
लोकाक्षिनोधमिस्वैव ककषी्नाङ्गटिस्तथा। 
पौष्पिक्चिशिष्यास्तद्धेरैस्संहिता बहुष्टीकृताः॥ ६ ॥ 
दिरण्यनामरिष्यस्तु चतुर्विशतिसंहिताः | 
प्रोवाच कृतिनामासौ रिष्येम्यश्च महाप्निः। ७। 
तैशापि साभवेदोऽतौ शाखाभिर्वहुरीडतः । 
अथवंणामथो वक्ष्ये संहितानां समुच्चयम्‌ ॥ ८ ॥ 
अथवेदं ष॒ निस्युमन्तुरमितदयुतिः । 
शिष्यमध्यापयामास कवन्धं सोऽपितं द्विधा । 
कतवा त॒ देवदर्शाय तथा पथ्याय दत्तवान्‌ ।\ ९॥ 
देवदरंस्य भिष्यास्तु मेधो ब्रह्मवरिस्तथा । 
तोल्कायनिः पिष्पह्मादस्तथान्यो द्विजशत्तम ।१०। 
प्श्यस्यापि व्रयरिशष्याः कृता यै्िज संहिताः। 
जावाद्धिः इुषदादिश तुतीयर्शौनको द्विज ॥११॥ 
शौनकस्तु द्विधा कृत्वा ददाषेकां तु बभ्रवे । 
द्वितीयां संहितां प्रादात्यैन्धवाय च सं्ञिमे।१२। 
सैन्धवान्भु्धिकेरश दहेधा भिन्नाश्िधा पुनः| 
नक्षत्रकल्पो वेदानां संहितानां तथैव च ॥१३॥ 
चतुधैस्स्यादाङ्खिरसदशान्तिकल्पश पश्चमः। 
्रास्त्वथवंणामेते संहितानां विकल्पकाः ॥१४॥ 
आस्यानधाप्युपाख्यनिर्गाथामिः कल्पसुद्धिभिः। 
पुराणसंहितां चक्रे पुराणाथंवि्षारदः ॥१५॥ 
्रल्यातो व्यासशचिष्योऽभूत्तो बे रोमहषण; । 
पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामतिः ॥१६। 
सुमतिथाग्निवचथ मित्रायुश्शांसपायनः । 
करतव्रमसावणीं पर्‌ शिष्यास्तस्य चाभवन्‌ ।१७। 
काश्यपः संहिताकता सावणिदशांसपायनः | 
रोमदपणिकः। चास्या तिसृणां मूरसंहिता ॥१८॥ 





दरखी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमोँने इतनी ही 
संहिता हिरण्यनामसे ओर ग्रहण कों उन्ह 
पण्डितजन प्राच्य सामग कहते हैँ ॥ ५॥ पौष्रिञ्जिके 
शिष्य खोकाक्षि, नौधमि, कक्षीवान्‌ ओर छागल 
थे | उनके ज्िष्य-प्रक्ञिषयोने अपनी-अपनी संहिताओं- 
के विभाग करके इन्दं बहुत बदा दिया ॥६॥ 
महामुनि कृति नामक दहिरण्यनाभके एक ओर 
शिष्यने अपने शिष्यौको सामवेदकी चौबीस 
संताप पदायीं ॥७॥ फिर चन्होने भी इस 
सामवेदक! श्खाओों्ारया सू विस्तार किया। 
अव म जथववेदकौ सहिताओंके समुचयका वणेन 
करताहँं॥८॥ 

अथवंवेदको सवंप्रथम अमिततेजोमय सुमन्तु 
सुनिने अपने शिष्य कवन्धको पदायाथा; फिर 
कबन्धने उसके दो भाग कर उन्दः देवद्शं भौर 
पथ्य नामक अपने शिष्योको दिया ॥९॥ हे 
द्विजसत्तम ! देवद्के शिष्य मेध, ब्रह्मवडिः 
जञौल्कायनि ओर पिप्पलाद्‌ थे ॥ १० ॥ हे दज । 
पथ्यके मी जाबालि, कुमुदादि भौर शौनक नामक 
तीम शिष्य थे, जिन्होने संहिताओंका विभाग 
किया ॥ ११॥ ज्ौनकने भौ अपनी संहितके दो 
विभाग करके उनभेसे एक बश्ुको तथा दृ्री 
सैन्धव नामक अपने चिष्यको दौ ॥ १२॥ सेन्धव- 
से पद्कर सुख्िफेशचने अपनी संहितके पदे दो ओर 
फिर तीन [इस प्रकार पच] विभाग कयि | 
नश्चत्रकलय, वेदकल्प, संहिताकल्प) आङ्गिरसकल्प 
अर शान्तिकल्प-उनके सचे हुएये पाच विकल्प 
अथर्ववेद्‌ संहिताओमे सवंश्रष्ठ है ॥ १३.१४ ॥ 

तदनन्तर, पुराणार्थविश्ञारद व्यासजीने 
आख्यान, उपाख्यान, गाथा ओौर कल्पजुद्धिके सहित 
पुराणसंहिताकी रचना कौ ॥ ९५॥ रोमहपेण सूत 
व्यासजीक प्रसिद्ध सिष्य थे । महामति व्यासजौने 
उन्हें पुराणसंहिताका अध्ययन कराया ॥ १६॥ 
उन सूतजीके सुमति, अग्निवच, मित्रायु, सास 
पायन, भकरृतव्रण ओर स्तावर्णि-ये छः रिष्य 
ये ॥ १७॥ कार्यपगोत्रीय अकृतव्रण, सावर्णि 
ओर शांखपायन--ये तीनों खंहिताकती हे । उन 
तीनों संहिताओंको आधार एक रोमहपेणजीकी 








चतुष्टयेन भेदेन संहितानामिदं शुने ॥१९॥ | संहिवा है] हे सुने ! इन चारो संहिताओंकी स 


आदं सवंपुराणानां पुराणं ब्राहभुच्यते । 
अष्टाद्षपुराणानि पुराणज्ञाः प्रधक्षते ॥२०॥ 
ब्राह्मं पाद्य वैष्णवं च दवं भागवतं तथा| 
तथान्यनारदीयं च माकण्डेयं च सक्तम्‌ ॥२१। 
आग्तेयमष्टमं चैर मिष्य न्नवमं स्पृतम्‌ । 

दशमं बरह्मवेवतं रङ्गमेकादश्रं स्परत्‌ ॥२२॥ 
वाराहं द्राद्शं च स्कान्दं चात्र ्रयोद्श्म्‌ । 
चतुदंशं वामनं च कौमं पश्चदशं तथा ॥२३२॥ 
मात्स्यं च गारुडं चेव ब्रह्माण्डं च ततः परम्‌ । 
महापुराणान्येतानि द््टादश महासने ॥२४॥ 
तथा चोपप्राणानि दुनिमिः कथितानि च। 
सगथ प्रतिसर्गश्च वंशमन्वन्तराणि च । 
सर्वेष्वेतेषु कृष्यन्ते वंशानुचरितं च यत्‌ ॥२५॥ 


यदेतत्तव गत्रेय पुराणं कथ्यते मया | 

ण ० = ण 
एतद्रप्णवसन्न वं पाब्नस्य समनन्तरम्‌ ॥२६॥ 
सर्गे च प्रतिषगँ च वंशमन्वन्तरादिषु । 
कथ्यते भगवान्विष्णुरशेषेष्येव सत्तम ॥२७॥ 


अङ्कानि बेदाथस्वारो मीमांक्षा न्यायविस्तरः | 
पुराणं धर्मशास्रं च विधा हेताशतुदंश ॥२८॥ 
आयतरदो धनुर्वेदो गान्धव॑स्यैव ते व्रयः | 
अर्थ॑शास्चं चतुथं तु विरा दयष्टादशेव ताः ॥२९॥ 
(द ¢ ९ 0 

लेया ब्रह्मषयः पूव तेभ्यो देवपयः पुनः | 
राजषयः पुनस्तेभ्य पिप्रकृतयस्चयः ॥३०॥ 
इति शाखास्समाख्याताशशाखामेदास्तयथैव च । 


कत्रशव शाखानां भेदहैतुस्तथोदितः ॥३१।। 
सवमन्वन्तरेष्वेवं शाखामेदास्समाः स्मृताः| 
प्राजापय। भरुतिनित्या तद्विकल्पास्तिमे हिञ।३२। 





मने यह्‌ विष्णुपुराणसंहिता बनायी है ॥ ९. 
पुराणज्ञ पुष छर अठारह पुराण बतरते ¦ 


। समे प्राचीनतम ब्रह्मपुराण है ।॥ २० ॥। प्रथम 


ब्राह्म है, दूसरा पाद्य; पीसरा वैष्णव, चौथ 
पचर्व भागवत, छठा नारदीय भौर 
माकण्डेय है ॥२१॥ इप्ी प्रकार ; 
आग्तेय, नबो भविष्यत्‌, दश्वा ब्रह 
जौर ग्यारहवौ पुराण लङ्क कहा ज] 
॥ २२॥ तथा बारहवा वाराह, तेरहवाँ : 
चौदह वामन, पंद्रह कौम तथा इनके ! 
मासस्य, गारुड ओर्‌ ब्रह्मण्डपुराण है । हे मः 
ये हो अटारह सहापुराण दै ॥ २३-२४॥ 
अतिरिक्त मुनिजनोने ओौर भी अनेक उपपुर 
है । इन सभीमें स्ट, प्रख्य, देवता आदिकं 
मन्बन्तर ओौर भिन्न-भिन्न राजवंरके च 
वणेन करिया गया है ॥ २५॥ 


हे मैत्रेय ! जिस पुराणको मँ वु सुना 
५ 
वह्‌ पाद्मपुराणके अनन्तर कहा हुजा वष्णव 
महापुराण है| २६॥ हे साधुश्ेष्ठ! इसः 
प्रतिसर्ग, व॑र ओर सम्बन्तरादिक। वणेन 
¢ ¢ 
सवत्र फेवल विष्णुभगवान्‌का हौ वणन कि 
भ 
है ॥ २७॥ 
छः वेदाङ्ग, चार वेद, मीमांसा, न्याय) पुर 
धर्मश्ञाख्-ये ही चौदह विद्य दै ॥ २८॥ 
आयुवेद, धनुर्वेद ओौर गान्धवं इन तीना 


। चौय अथंश्ाक्लको मिला ठेनेसे कख अटार 


हयो जाती है । ऋषियोके तीन मेद है-प्रथम 
द्वितीय देवर्षिं ओौर फिर राजि ॥ २९३ 
प्रकार मैने तुमसे वेदोकी श्चाखा, ज्चालाभं 
उनके रचयिता तथा शाखा-सैदके कारण 
वर्णन कर दिया ॥३१॥ इसी प्रकार 
मन्वन्तसेमे एक-से शाखाभेद रहते दै; 
प्रजापति ब्रह्माजीसे प्रकट होनैवारी 

नित्य, ये तो उसके विकल्पमाच्र है 





एतत्ते कथितं सवं यस्पृष्टोऽदमिह स्वया । 





हे मैत्रेय! वेदके सम्बन्धमें तुमने सुञ्चसे जो कुछ पृछा 


मैत्रेय वेदसम्बन्धः किमन्यत्कथयामि ते ॥ ३३ | भा वह्‌ सव सुना दिया; अव जौर क्या कहू १। ३३ ॥ 


"क~ 


इति श्र विष्णुपुराणे ठृततीयऽशो षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ 


कै 


सातर्गो अध्याय 


यमगीता 


श्रीमैत्रेय उवाच ` 
यथावत्कथितं सवं यद्ृष्टोऽसि मया गुरो । 
भ्रोतुमिच्छाम्यहं वेक तद्धवान्प्र्वीतु मे ॥ १॥ 
सप्र द्वीपानि पातारविधयश्च महा्रुने । 
सप्तरोकाश येऽन्तःस्था ब्रहमाण्डस्यास्य सव॑तः।२। 


स्थूलेःच्सैस्तथा सकष्मषमा्छकष्मतरेस्तथा । 
स्यूलारस्ूरतरेश्चैव सवेप्राणिभिराइृतम्‌ ॥ ३ ॥ 


अद्लस्याष्टमागोऽपि न सोऽस्ति युनिसत्तम । 

न सन्ति प्राणिनो यत्र कमेबन्धनिवन्धनाः।। ४॥ 
सर्वे चेते वशं यान्ति यमस्य भगवन्‌ किल । 
आयुषोऽन्ते तथा यान्ति यातनास्तसरचोदिताः।५। 
यातनाभ्यः परिघ्रष्टा देवाद्यास्वथ योनिषु । 
जन्तवः परिवर्तन्ते श्ाल्चाणामेष निर्णयः ॥ ६ ॥ 
सोऽदमिच्छामि तच्छोतुं यमस्य वशवत्तिनः। 

न भवन्ति नरा येन तत्क कथयस्व मे ॥ ७॥ 

श्रीपराङ्र उवाच 
अयमेव घ्ने प्रश्नो नद्ुलेन महात्मना । 


ष्टः पितामहः प्राह भीष्मो यत्तच्छणुष्व मे ॥ ८ 


भीष्म उवाच 
पुरा ममागतो वत्स सखा काशिङ्गको हिजः। 
स माग्ुवाच पृष्टो वै मया जातिस्मरो निः॥ ९॥ 
तेनाख्यातभिदं स्वमिरेथं येतद्धविष्यति । 








भ्रीमे्ेयजी बोले-हे गयो ! मैने जो कुछ पूछा 
था वह सव्र आपने यथावत्‌ वणेन किया । अवमे 
एक बात ओौर युनना चाहता ह, वह्‌ आप सुश्चसे 
कविय ॥१॥ हे महामुने ! सातो दवीप, सातों 
पाता ओर सातों छोक-ये सभीस्थानजो इस 
ब्रह्माण्डे अन्तगेत है, स्थूढ, सूक्ष्म, सूक्षमतर, 
सुश्मातिसूष्षम तथा स्थूख ओर्‌ स्थूढतर जीवसे भरे 
हुए द ॥ २-३ ॥ हे मुनिसत्तम ! एक अङ्गुरुका आटा 
भाग मी कोई एेसा स्थान नहीं है जौँ कमे-बन्धनसे 
वैधे हुए जीव न रहते हों ॥ ४॥ किन्तु है भगवन्‌ ! 
आयु समाप्र होनेपर ये सभी यमराजकरे व्षीभूत 
हो जाते द मौर उन्हीके आदैशाुसार नरक आदि 
नाना प्रकारकी यातनां भोगते दै ।। ५॥ तदनन्तर 
प्राप-मोगके समाप्न होनेपर वे देवादि योनियं 
भूसते रहते दै--सकछ साखका पेसा ही मत है 
। ६॥ अतः आप मुञ्चे वह्‌ कमं बताइये जिसे 
करनेसे मनुष्य यमसाजके बश्ञीभूत नदीं होता; भै 
आपसे यही सुनना चाहता ह ॥ ७ ॥ 

श्रोपयक्चरजी बोल्ते-दे मुने ! यही प्रन महारमा 
नक्ुलने पितामह भीष्मसे पृष्ठा था । उसके उत्तरम 
उन्होने जो कुछ कहा था बह्‌ सुनो ॥ ८ ॥ 

भीष्मजीने कदा--हे बस्स ! पृवकारमे मेरे पास 
एक कठिङ्ग-देश्चीय ब्राह्मण-मित्र आया ओर सुञ्चसे 
बोला-भेरे पूषनेपर एक जातिस्मर सुनिने बतलाया 
था क्रिये सवाते अमुक-असक प्रकार हौ होगी।' हे 
बरस ! उख बुद्धिमान जो-जो बाते जिस-जिस प्रकार 








तथा च तदभूद्रस्स यथोक्त' तेन धीमता ॥१०॥ 
स प्ष्टशच मया भूयः श्रदधानेन बै द्विजः । 
यद्यदाह न तेदृच््टमन्यथा हि मया कचित्‌ ॥११। 
एकदा तु मया पृष्टमेतचद्धवतोदितम्‌ । 
प्राह कालिङ्को विप्रस्स्पतवा तस्य पुनेवं चः।। १ २॥ 
जातिस्मरेण कथितो रहस्यः परमो मम । 
यमविद्स्यो्योऽभूत्संवादस्तं ब्रवीमि ते ॥१३॥ 


कराछिङ्ग उवाच 

स्वपुरुपममिवीच्य __ पाशहस्तं 

बदति यमः किल तस्य कणमूरे । 
पश्र मधुप्रदनप्रपन्ना- 

प्रसुरहमन्यनणामवैष्णवानाम्‌ ।॥ १४॥ 
अहममरवराचितेन_ धात्रा 

यम्‌ इति शोकहित।हिते निुक्तः। 
हरिगुुवशगोऽस्मि न स्वतन्वः 

प्रभवति संयमने ममापि विष्णु; ॥१५॥ 
करकषटकुटकणिकादिभेदैः 

कनफमभेदमपीष्यते यथैकम्‌ । 
सुरप्शुमचनादिकल्पनाभि- 








रैरिखिलामिर्दीर्य॑ते तथैकः ॥१६॥ 
क्षितितरपरमाणवोऽनिरान्ते 

पुनरुपयान्ति यथेकतां धरिया; । 
सुरपशुमन॒जादयस्तथान्ते 

गुणकुषेण सनातनेन तेन ॥१७॥ 
हरिमिमरबराचिताद्धिपद् 

प्रणमति यः परमाथतो हि म्यः । 

तमपगतसमस्तपापनन्धं 

व्रज परहस्य यथाग्निमाज्यसिक्तम्‌ १८ 

















होनेको कही थीं वे सवर ज्यो-की-त्यों हुई ॥ ९-१० 
दस प्रकार उसमें श्रद्धा हो जानेसे मैने उससे 
फिर कुछ ओौर भी प्रच किये ओर उनके उत्तरम 
उस द्विजश्रे्ठने जो-नो बातें भतला्यी उनके 
विपरीत मैने कमी कुछ नद देखा ॥। ११॥ एक दिन, 
जो वात तुम मुद्चसे पूछते हो बह ने उस कालिङ्ग 
बराह्मणस पूर्वी । उस समय उसने उस सुनिके वचनो. 
को याद करफे का कि उस जातिस्मर ब्राह्मणने, ` 
यम ओौर उनके दृतोके बीचमे जो संवाद हुभा था 
बह अति गूह रहस्य मुन्षे सुनाया था। वहीन 
तुमसे कत हू । १२.१३ ॥ 

कालिङ्ग बोखा-अपते अनुचरको हाथमे पारा 
लिये देखकर यमराजने उसके कानमे कह्‌ा-भगवान्‌ 
मधुसूदनके शरणागत व्यक्तियोको छोड़ देना, क्योकि 
म, जो विष्णुभक्त नदीं ह फेसे अन्य पुरुषोंका ही 
स्वामी हूं | १४ ॥ देव पूञ्य बिधाताने सुश्च यमः 
नामत्ते लोकोके पाप-पुण्यका विचार करनेके चये 
नियुक्तं किया दै । मै अपने गुर श्रीहरिके वशीभूत 
स्वतन्त्र नदीं ह । मगवान्‌ विष्णु मेरा मी नियन्त्रण 
करनेमे समर्थं दै ।॥ १५॥ जिस प्रकार सुषणं मेद 
रदित ओर एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कणिका 
आदिक सदसे नानारूप प्रतीत होता है उती प्रकार 
एक ही हरसिकिा देवता, मनुष्य ओर पञ्च आदि 
नानाविध कल्पनाभोे निर्देश किया जाता है १६ 
जिस प्रकार वायुके शान्त होनेपर उसमे उडते हुए 
परमाणु प्रथिकीसे मिखकर एक हो जाते ह उसी 
प्रकार गुण-क्षोभसे उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य 
जर पञ्च आदि [ चसका अन्त हो जनेपर ] उस 
सनातन परमात्मामें छीन हो जति द १७॥ जो 
भगवानके सुरवरवन्दिति चरण-कमलोकी परमाथ- 
बुद्धिसे बन्दना करता दै, घृताहुतिसे प्रस्वङित अग्निक 
समान समस्त पाप-बन्धनसे युक्त हुए उस पुरुषको 
तुम दूरहीसे छोडकर निकर जाना ॥ १८॥ 








इति यमवचनं निक्घम्य पाशी 
यम पुरुषस्तश्वाच धमेराजम्‌ । 
कथय मम विभो समस्तधातु- 
भेवति हरेः खलु यादशोऽस्य भक्तः॥१९॥ 
यम उबराच 
न चरति मिजबणधमंतो यः 


सममतिरास्मसुहदि पक्षपकष 
न हरतिन च हन्ति किश्िदुच्चै 
धितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्‌ ।२०॥ 
कलिकलुषमलेन यस्य नात्मा 
विममतेमलिनीकरतस्तमेनम्‌ । 
मनसि कृतजनार्दनं मनुष्यं 
सततमवेहि दरेरतीवभक्तम्‌ ॥२१॥ 
फनकमपि रहस्यवेदय बुद्धया 
ठणमिव यस्समवेति वै परस्वम्‌ । 
भवति च॒ मगवस्यनस्यचेताः 
पुरुषवरं तमपेहि विष्णुभक्तम्‌ ॥२२॥ 
रफटिकगिरिशिलामलः क विष्णु- 
मनसि नृणां क च मतपरादिदोषः। 
न दहि तदिनमयुखररिमपुञ्ते 














भवति हुताशनदीषरिजः प्रतापः ॥२३२॥ 
विममतिरमत्सरः प्रशान्त 

रशुचिचरितोऽखिरुसखमित्रभूतः 
प्रियदित्तवचनोऽस्तमानमायो 

वसति सदा हृदि तस्य बासुदेव; ॥२५४॥ 
बसति हृदि सनातने च तस्मिन्‌ 

भवति. पुमाञ्नगतोऽस्य सौम्यरूपः 
क्ितिरसमतिरम्यमात्मनोऽन्तः _ 

कथयति चारुतयैव शारपोतः ॥२५॥ 
यमनियमविधूतकल्मषाणा- 

मनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम्‌ । 
अपगतमदमानमत्सराणां । 
त्यज भट दरतरेण मानवानाम्‌ ॥२६। 


(= _ क 











यमराजके ेसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूतने 
उनसे पृषछठा--श्रभो ! सवके विधाता भगवान्‌ हरिका 
भक्त कैसा होता है, यह्‌ आप सुद्चसे कियेः।। १९ ॥ 

यमराज्ञ बोल्े-जो पुरुष अपने वणे-धमंसे 
विचङित नहीं होता, अपने सुहृद्‌ ओर विपक्षियोँके 
प्रति समान भाव रखता है, बरात्कारसे किसीका 
रभ्य हरण नहीं करता ओौर न किसी जीवकी हिसा 
ही करता है उस निमंख्चित्त व्यक्तिको भगवान्‌ 
विष्णुका भक्तं जानो ॥ २० ॥ जिस निमेलमतिका 
चिन्त कचि-कल्मषरूप मसे मलिन नहीं हभ ओर 
जिसने अपने हृदयम सव॑दा श्रीजनादंनको वसायां 
हुआ है उस मनुष्यको भगवान्‌का अतीव भक्त 
समद्यो ॥। २१॥ जो एकान्तम पड़ हुए दृसरेके सोने- 
को देखकर भी उसे अपनी बुद्धिस कणके समान 
समक्ता है ओर निरन्तर भगवान्का अनन्यभावसे 
चिन्तम करता है उस नरश्रेष्ठको विष्णुका भक्त 
जानो ॥ २९ ॥ कहँ तो स्फटिकगिरि-शिकाके समान 
अति निमंर भगवान्‌ विष्णु ओर कह मनुष्योंके 
चित्तम रहनेवारे रागेषादि दोष । [इन दोनोका 
संयोग किसी प्रकार नहीं हो सकता ] हिमकर 
( चन्द्रमा ) कै किरणजारूम अग्ति-तेजकौ उष्णता 
कभी न्ष रह सकती है ॥ २३१॥ जो म्यक्ति निमेल- 
चित्त, मास्सयरहित, प्रशान्त, शरुद्ध-चरित्र, समस्त 
जीवोका सुहृद्‌, प्रिय ओर हितवादी तथा अभिमान 
एवं मायासे रहित होता है उसके हृदयम भगवान्‌ 
वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते ह ॥ २४॥ उन 
सनातन भगवान्‌के हृदयम विराजमान होनेपर 
पुरुष इस जगत्‌के स्यि शान्तस्वूप हो जाता है, 
जिस प्रकार नवीन शल वृक्ष अपने सौन्दयसेही 
भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रसको बतला 
देता है ॥ २५॥ 

हे दूतत ! यम ओर नियमके द्वारा जिनकी पाप- 
राक्चि दुर हो गयी दै, जिनका हृदय निरन्तर 
प्रीअच्युतम ही आसक्त रहता है तथा जिनमें गवं 
अभिमान ओर मास्सयंका केच भी नहीं रहा दै उन 
मनुष्योको तुम दृरहीसे व्याग देना ॥२६॥ 


~~~ 





ददि यदि भगवाननादिरास्त 
ह रिरसिश्रह्गदाधरोऽग्ययात्मा । 
तदघमवविघातकतृमिन्नं 
भवति कथं सति चान्धकारमर्के ॥२७॥ 
हरति परधनं निहम्ति लन्तून्‌ 
चदति तथानृतनिष्टुराणि यथ । 
अशु भजनितदुमदस्य पुंसः 
कङुपमतेहदि तस्य नास्त्यनन्तः॥२८॥ 
न सहति परम्पदं विनिन्दां 
 कलटुषमतिः कुरते सतामसाधुः । 
न. यजति न ददाति यश्च सन्तं 
मनसि नतस्य जनादमोऽधमस्य ॥२९॥ 
परमसुहदि बान्धवे क्रे 
सुततनयापितृमातुभत्यव्ग | 
शरमतिरूपयाति योऽधतूष्णां 
 तमधमचैष्टमैहि नास्य भक्तम्‌ ॥२०॥ 
अश्युभमतिरसस्प्रवृत्तिसक्त- 
स्सततमनायेकुशीरसद्धमत्तः । 


अन्ुदिनकृतपापवन्धयुक्तः 
पुरुषपशुनं हि वासुदेवभक्तः 
सकरमिदमदं च बासुदेवः 
` परमपुमान्परमेश्वरस्स एकः | 
शति मतिरचला भवत्यनन्ते 
हद यगते व्रज तान्विहाय दरात्‌ ॥२२॥ 
कमलनयन वासुदेव विष्णो 
 “ ` अरमिधराच्युत श्चक्रपाणे । 


भव शरणमितीरयन्ति ये वै 











॥२१॥ 














त्यज भट दूरतरेण तानपापान्‌ ॥२३॥ 
वसति सन्ति यस्य सोऽव्ययासा 
पुरुषवरस्य न तस्य दृष्टिपते । 











तव भतिर्थ वा ममास्ति चक्र 








यदि खड्ग, शद्ध भौर गदाधारी अग्ययास्मा भगवान्‌ 
हरि हृदयम विराजमान है तो उन पापनाश्चक 
भगवानके द्वारा उसके सभी पाप नष्टहयो जति दै। 
सूयके रहते हुए भला अन्धकार फैसे उहर सकता 
हे ॥ २७ ॥ जो पुरुष दुसरोका धन हरण करता हे, 
जीनोकी हिसा करता है तथा मिथ्याौर कटु 
भाप्रण करता है उस अश्युभ कर्मोन्मत्त दुष्बुद्धिके 
हृदये भगवान्‌ अनन्त नदीं टिक सकते ॥ २८ ॥ 
जो कुमति दससेके वैमवको नहीं देख सकता, जो 
दुसरोकी निन्दा कराह, साधुजनोका अपकार 
करता है तथा [ सम्पन्न होकरमी ] नतो श्रीविष्णु 
भगवानकी पूजा ही करता है ओर न [ उनके भक्तो- 
को] दान दही देता दहै चस अधमके हृदयम श्रीजना- 
दनका निवास कभी नदीं हो सकता ॥ २९॥ जो 
दुष्टबुद्धि अपने परम सुहृद्‌, बन्धु-बान्धव; खी, पुत्र, 
कन्या, माता, पिता तथा भृस्यवगंके प्रति अथे 
तृष्णा प्रकट करता है उस पापाचारीको भगवानका 
भक्त मत समञ्च ॥३०॥ जो दुबद्धि पुरुष असत्कर्मो- 
मे लगा रहता है, नीच पुरुषोंके आचार ओर उन्ही. 
के संगमे उन्मत्त रहता है तथा निस्यप्रति पापमय 
कर्मबन्धनसे हौ बैँधताजाता है बह मनुष्यरूप 
पश्च ही हैः वह भगवान्‌ बासुरैवका मक्त नहह 
सकत ।। ३१॥ यदह सकल प्रपञ्च आओौर मँ एक 
परमपुरुष परमेश्वर बासुदेव ही दहै, हृदयम भगवान्‌ 
अनन्तक स्थित होनेसे जिनकी एेसी स्थिर बुद्धि 
हो गयी हो, खन्द तुम दुरहीसे छोड़कर चङे 
जाना ॥ ३२॥ दहे कमल्लनयन । दे बघुदेव ! हे 
विष्णो ! हे धरणिधर ! हेः अच्युत ! हे शद्ध-चक्रपाणे । 
आप हमं क्षरण दीजिये,-जो रोग इस प्रकार पुका- 
रते हों उन निष्पाप व्यक्तिथोको तुम दूरसे ही व्याग 
देना ।॥ ३३॥ जिस पुरुषश्ेषठके अन्तःकरणमे वे 
अन्ययास्मा भगवान्‌ विराजते दै उसका जर्हौतक 
दृष्टिपात होता टै बहर्म॑तक भगवानूकेः चक्रके 
प्रभावसे अपने बह-वीयं नष्टहो जानेके कारण 
त्री अथवा मेरी गति नही हो सकती । बह 
( महापुरुष ) तो अन्य ( वैक्ण्टादि ) लोकोका 
पात्र हे ३४॥ 


त | 


[कायाकाय वा पानि 





कालिङ्ग उवाच 
निजमटशास्नाय देवो 
¢ 
रवितनयस्स किखाह धमराजः । 
मम कथितमिदं च तेन तुभ्यं 
ुरूवर सम्यगिदं मयापि चोक्छम्‌॥।३५॥ 
श्रीभीष्म उत्राच 
नङ्केतन्ममाख्यातं पं तेन द्विजन्मना । 
कलिङ्धदेशादभ्येत्य प्रीतेन सुमहास्मना ॥२६॥ 
मथाप्येतद्यथान्यायं सम्यग्वस्स तवोदितम्‌। 
यथा विष्णुमृते नान्यस्राणं संसारसागरे ॥३७॥ 
किङ्कराः पाशदण्डाश्च न यमो न च यातनाः। 


इति 


समर्थीस्तस्य यस्यात्मा केववारम्बनस्सदा ॥२८। 
स 





श्रीपराशर उवाच 


एतन्धुने समाख्यातं गीतं वैवस्वतेन यत्‌ । 


त्वलपरश्नाज्ुगतं सम्यकिमन्यच्छो तुभिच्छसि ॥२९॥। 








काठिग बोला-हे ऊुरुवर ! अपने वूतको 
शिक्षा देनेके लि सूयेपुत्र धभेराजने उससे इस 
प्रकार का । युक्षसे यह प्रसंग उख जातिस्मर 
मुनिने कहा था ओर मैने यह सम्पूणं कथा तुमको 
सना दी है।॥ २५॥ 

शरीभीष्मजी बोले-दे नङ्क ! पूवं कामे कलिग- 
देशस अये हुए उस महात्मा ब्राह्मणे प्रसन्न होकर 
यञ्चे यह सब विषय सुनाया था ॥ ३६ ॥ हे वस्स । 
वही सम्पूण वृन्तान्त, जिस प्रकार कि इस संसार 
सागरमे एक विष्णुभगवान्‌को छोडकर जीवक 
जर कोई भी रक्षक नहीं है, ने ्यो-का-त्यौं तुम्दे 
सुना द्या ॥३७॥ जिसका हृदय निरन्तर 
भगवत्परायण रहता है उसका यम, यमदृत 
यमपाक्ञ, यमदण्ड अथवा यम-यातना कुछ भी नहीं 
विगाड़ सकते ॥ ३८॥ 

क्नीपराश्रजी बोल्े-दहे घुने ! तुम्हारे अरनकफे 
अनुसार जो छु यमने क] था, वह सव मेने तुदं 
मी प्रकार सुना दिया; जव ओौर क्या सुनना चाहते 
हो १॥ ३९॥ 


[ग 


इति श्रीविष्णुपुराणे वृत्तय ऽर सप्मोऽध्यायः ॥ ७॥ 


~~--*क-*--- 


- आठर्वोँ अध्याय 
विष्णुभगवानको रधन ओर चातुवेण्ये-चमेका वर्णेन 


श्रीभैत्रेय उवाच 
भगवन्भगवास्देवः संसारविनिगीषुभिः । 
समाख्याहि जगन्नाथो पिष्णुराराध्यते यथा ॥ १ ॥ 
आराधिता भोबिन्दादाराधनपरैनरै । 
यत्प्राप्यते एं श्रोतुं तवेच्छामि महान ॥ २॥ 

श्रौपसद्चर उवाच 
यत्पृच्छति भवानेतत्सगरेण महात्मना । 
भैः प्राह यथा पृषठस्तन्मे निगदतृणु ॥ ३ ॥ 
सगरः प्रणिस्यैनमोवं पप्रच्छ माम्‌ । 





शरीैत्रेयजी बोल्ते-हे भगवन्‌ | जो लाग 
संसारको जीतना चाहते है बे जिस प्रकार जगत्पति 
सगवान्‌ विष्णु उपासना करते है, वह्‌ वणेन 
कीजिये | १॥ जौर हे सहासने ! उन गोषिन्द्की 
आराधना करनेपर आराधनपरायण पुरुषोंको जो 
फर मिलता है, वह भी मँ सुनना चाहता २॥ 

श्रीपराशरनी बोले- दे सैत्रेय ! तुम जो कुछ 
छते दो यदी बात महासमा सगरने ओवंसे पूठी 
थी । उसके उत्तरम चन्होने जो कष्ठ कहा वह मँ 
तुमको सुनाता ह श्रवण करो॥ ३॥ हे सुनिश्् ! 
सगरने शृगुवंी महात्मा ओौवैको प्रणाम करके उनसे 











विष्णोराराधनोपायसम्बन्यं युनिसत्तम \\ ५ ॥ 

फं चाराधिते विष्णौ यदुंसाममिजायते | 

स चाह पृष्टो यत्नेन तस्मै तन्मेऽखिर शृणु ॥ ५॥ 
वं उव्राच 

भीमं मनोरथं स्वगं सर्भिवन्धं च यस्पदम्‌ । 

्रापोत्याराधिते विष्णो निर्वाणमपि चोत्तमम्‌ ॥।६॥ 

यद्यदिच्छति यावच फलमाराधितेऽच्युते । 

यत्तु प्रच्छसि भूपा कथमाराध्यते हरिः 

तदहं सकलं तुभ्यं कथयामि निबोध मे ॥ ८ ॥ 











वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान्‌ । 


विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्तत्तोपारखः ॥ ९॥ 





यजन्यन्ञान्यजत्येनं जपत्येनं जपन्नृप । 





"-----------------*------------------------- 


निध्नन्नन्यान्डिनस्त्येनं संभूतो यतो हरिः॥१०॥ 
तस्मात्सदाचारता परुषेण जनार्दनः । 


आराध्यते स्ववर्णोक्तधर्मानुष्ानकारिमा ॥११॥ 





बाह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शुद्रश्च प्रथिवीपते | 


स्वधमंतत्परो पिष्णुमारधयति नान्यथा ॥१२॥ 





परापवादं वैहुन्यमरृतं च न मापते । 
अन्योदेगकरं घापि तोष्यते तेन केदः ॥१३॥ 
रतिम्‌ । 





परदारषरद्रन्यपरहिसासु यो 
न करोति पमान्भूष तोष्यते तेन केशवः ॥१४॥ 
न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽस्यांशच देहिनः 








यो मनुष्यो मवुष्येनद्र तोष्यते तेन केशवः ॥१५॥ | 








भगवान्‌ विष्णुकी आराधनाके उपाय ओर्‌ विष्णुकी 
उपासना करनेसे मनुष्यको जो फल मिता है उसके 
विषयमे पृष्ठा था | उनके पृष्नेपर ओवन यत्नपू्व॑क 
जो कुछ कदा था वह्‌ सव सुनो ॥ ४-५॥ 


ओवे बोले-भगवान्‌ विष्णुकी आराधना 
करनेसे मनुष्य भूमण्डल-सम्बन्धी समस्त मनोरथ, 
स्वग, स्वगंजललोकनिवासियोके मी चन्दनीय ज्द्यपद्‌ 
ओर परम निर्बाण-पद्‌ मी ्राप्नकर छेताहै।॥ ६॥ 
हि राजेन्द्र ! बह जिस-जिस फलकी जित्तनी-जितनी 
इच्छा करता है, अल्प हो या अधिकं श्रीअश््युतकी 
आराधनासे निश्चय ही सब प्राप्न कर ठेता है ॥७॥ 
ओर हे भूप! तुमने जो पृष्ठा कि हरिकी 
आराधना किस प्रकार की जाय, सो सव मै तुमसे 
कहता द, सावधान होकर सुनो ॥ ८ ॥ जो पुरुष 
वणाश्रम-धमेका पालन करनेवाला है बही परमपुरुष ` 
विष्णुक्ती आराधना कर सक्ता है; उनको सन्तुष्ट 
करनेका ओर कोई मागं नहींहै ॥९॥ हे नूप 
यज्ञोका यजन करनेवाखा पुरुष उन ( विष्णु) होका 
यज्ञन करता है, जप करनेवाला उन्हीका जप करता 
है ओर दृससोकी हिसा करनेवाखा उन्हीकी हिसा 
करता दे; क्योकि भगवान्‌ हरि सवेभूतमय दहै 
॥। १० ॥ अतः सदाचारयुक्त पुरुष अपने वणक ख्ये 
विहित धमेका आचरण करते हुए श्रीजनार्द॑नहीकी 
उपासना करता है ॥ ११॥ हे प्र्वीपते | ब्राह्मण, 
क्षत्रिय, वैर्य ओर्‌ शुद्र अपने-अपने धमेका पान 
करते हुए ही विष्णुकी आराधना करते दै अन्य 
प्रकारसे नहीं । १२॥ 

जो पुरूष दृसरोको निन्दा, चुगरो अथवा 
मिथ्याभाषण नहीं करता तथा एेसा वचन भी नही 
बोलता जिससे दूसरोको खेद हो, उससे निश्चय ही 
भगवान्‌ केशव प्रसन्न रहते द ॥ १३॥ हे राजन्‌। 
जो पुरुष दृसरोकी क्ली, धन ओर हिंसामं रुचि नह 
करता उससे सवदा ही भगवान्‌ केशाव सन्वुष्ट रहते 
ह ॥ १४ ॥ हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य किसी प्राणी अथवा 
[ वृक्षादि ] अन्य देदधारियोको पीडति अथवा नष्ट 
न 7 करता उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रदते है ॥ १५ ॥ 








देवद्विजगुरूणां च शु्रुषासु सदोधतः | 
तोष्यते तेन गोविन्दः पुरुपेण नरेशर ॥१६॥ 
यथात्मनि च पुत्र च सर्वभूतेषु यस्तथा । 
हितकामो हरिस्तेन सवदा तप्यते सुखम्‌ ॥१७॥ 
यस्य रागादिदोपेण न दुष्टं तृष मानषम । 
विशुद्धवेतसा विष्णुस्तोप्यते तेन सव॑दा ॥१८॥ 
वर्णाश्रमेषु ये धर्माशशाश्चोक्ता नृपपत्तम । 
तेषु तिष्टन्रो शिष्णुमाराधयति नान्यथा ॥१९॥ 
सगर वाच 
तदहं शरोतमिच्छमि वणेधर्मानशेषतः । 
तथेवाश्रमधर्माश् द्विजवयं ब्रवीहि तान्‌ ॥२०॥ 
ओौवं उवाच 
बाह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च यथाक्रमम्‌ । 
त्वमेकाग्रमतिभुलखा श्रृणु पर्मान्मयोदितान्‌ ॥२१॥ 
दानं दद्याधजेदेवान्यजञस्स्वाध्यायतत्परः । 




















नित्योदको भवेद्धि; इु्याचाग्निपरियरहम्‌ ॥२२॥ 
वृस्यथं याजयेचान्यानन्यानध्यापयेत्तथा । 
हर्यासतिग्रह्यदानं शुक्रार्थान्न्यायतो दिजः ॥२३॥ 
सर्वभूतहितं इुर्यान्नाहितं कस्यचि्‌ द्विजः । 

मेवी समस्तभूतेषु ब्राह्णस्योत्तमं धनम्‌ ॥२४॥ 
्राठिण रत्ने च पारक्ये समबुदधिर्मवेत्‌ द्विजः । 
ऋतावभिगमः परन्यां शस्यते चास्य पाथिव ॥२५॥ 
दानानि दद्यादिच्छातो द्विजेभ्यः क्षत्रियोऽपि बा। 
यजेच विविधैयंत्ैरधीयीत च पार्थिवः ॥२६॥ 
श्नीवो महीरक्ा प्रवरा तस्य जोविका 





जो पुरुष देवता, ब्राह्मण ओर गुसजनोँी सेवम 
सद्‌ा तत्पर रहता है, हे नरेश्वर ! उससे गोविन्द्‌ 
सदा प्रसन्न रहते है ॥ १६॥ जो ग्यक्ति स्वयं अपने 
ओर अपने पुत्रके समान हयी समस्त प्राणियोंका मी 
दितचिन्तक होता है बह सुगमतासे ही श्रीहरिको 
प्रसन्न करकेतादहै।) १७॥ हे सृप ! जिसका चित्त 
रागादि दोपोँसे दूषित नदी है उस विज्चुद्ध-चित्त 
पुरुषस भगवान्‌ विष्णु सदा सन्तुष्ट रहते है ॥१८॥ 
हे चपश्रेष्ठ ! आखोमे जो-जो वणौश्रम-धसमं कटे है उन- 
उनका ही आचरण करके पुरुष विष्णुकी आराधना 
कर सकता दै भौर किसी प्रकार नदीं ॥१९॥ 


सगर बोल्ते-दे ह्िजश्रेष्ठ ! अव यै सम्पूणं 
बणेघमे ओर आश्रमधर्म सुनना चाहता हः छपा 
करफे बणेन कीजिये ॥ २०॥ 


ओव बोले-जिनकार्मे वणेन करतार उन 


| ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भौर श्रोके धर्मोक्रा तुम 


एकाभ्रचित्त होकर क्रमशः श्रवण करो।२१॥ 
व्राह्मणका कतव्य है कि दान दे, यज्ञोद्रारा देवताओं 
का यजन करे, स्वाभ्यायजञीर हो, नित्य-स्नान-तपेण 
करे ओर अग्न्याधान आदि कमं करता रहै ॥ २२॥ 
ब्राह्मणको उचित है कि वृत्तिके लिये दूसरोसे यज्ञ 
करावे, भौरोको पद्य भौर न्यायोपाजित शुद्ध 
धनमेंसे न्यायानुक्ूल द्रत्यसंग्रह्‌ करे ॥ २३ ॥ ब्राह्मण 
को कमी किसीका अहित नहीं करना चाहिये ओौर 
स्वंद्‌ा समस्त प्राणियोके हितमे तत्पर रहना चाहिये] 
सम्पूणं प्राणिर्योमिं मैत्री रखना हयी ब्राह्मणका प्रम 
धन है ॥२४॥ परेथरमे ओौर पराये रत्नों 
व्राह्यणको समान-बुद्धि रखनी चाष्िये । हे राजम्‌ । 
पत्नीके विषयमे ऋतुगामी होना हयौ ब्राह्मणके लिये 
प्रशंसनीय कमं है ॥ २५॥ 


क्षत्रियको उचित है कि ब्राक्मणोँको यथेच्छ दान 
दे, विषिध यक्तोका अनुष्ठान करे ओर अध्ययन 
करे ॥ २६ ॥ राख धारण करना अौर एथिकीकी रक्षा 
करना ही क्षत्रियकी उत्तम भआजीविकादै; इनमे 


तत्रापि प्रथमः कल्पः पृथिवीपरिपाहनम्‌ ॥२७॥ भी प्रथिवी-पाखन दही उल्छष्टतर दै ॥ २७॥ 


धर्त्री पालनेनैव इतष्त्या नराधिपाः । 
भवन्ति सुपतेरं्ा यतो यकञादिकर्मेणाम्‌ ॥२८॥ 
दुष्टानां श्ासनाद्राजा शिष्टानां परिपारनात्‌। 
्ाप्नोत्यमिमर्तोल्लोकान्वणसंस्थां करोति यः।२९ 
पाशुपाल्यं च वाणिज्यं कृषिं च मनुजे । 
वैरयाय जीविक ब्रह्म ददौ लोकपितामहः ॥२०॥ 
तस्याप्यध्ययनं यज्ञो दानं धर्म श्रयते । 
नित्यतमिततिकादीनामयुष्ठानं च कर्मणाम्‌ ।।२१॥ 
दविजातिसंधितं कमं तादथ्यं तेन पोषणम्‌ । 
क्रयविक्रयनेर्वापि धनैः कारूद्धवेन वा ॥३२॥ 
शूद्रस्य सन्रतिरशौचं सेवा स्वामिन्यमायया । 
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्सङ्गो विप्ररक्षणम्‌ ॥२२॥। 
दानं च दचाच््रोऽपि ¶कय्ैयंजेत च । 
पित्यादिकं च तत्सवं शूद्रः वीत तेन यै ॥३४॥ 
भृ्यादिभरणाथीय सर्वेषां च परिग्रहः । 
ऋतुकाटेऽमिगमनं खदारेपु महीपते ॥३५॥ 
द्या समस्तभूतेषु तितिक्षा नातिमानिता । 

सस्यं शौचमनायासो मङ्गलं प्रियवादिता \३६॥ 
मैतयस्हा तथा तदरदकार्पण्यं नरेखर । 
अनसूया च सामान्यवर्णानां कथिता गुणाः ॥२५७॥ 
आश्रमाणां च सर्वेपामेते सोमान्यरुक्षणाः। 


गुणांस्तथापदर्माशच विप्रादीनामिमान्खृणु ॥२८॥ 


पात्रं कर्म दविजस्योक्त वैश्यं कर्मं तथापदि । 
राजन्यस्य च वैदयोक्तं श्रमं न चैतयोः ॥२९॥ 


सामर्थ्ये सति तत्याज्यमुभाभ्यामपि पाथिव। 








एथिवी-पालनसे हयो राजारोग कृतक्रत्य हो जाति हैः 
क्योकि प्रथिवी होनेवारे यज्ञादि कर्मोका अंश 
राजाको मिलता है ॥ २८ ॥ जो राजा अपने बणं- 
धमेको स्थिर रखता है वह्‌ दु्टौको दण्ड देने ओर 
साधुजनोका पालन करनेसे अपने अभीष्ट छोकोंको 
प्राप्न कर खेतादहे।॥२९॥ 

हे नरनाथ ! लोकपितामह ब्रह्माजी वैर्योको 
पशु-पाङन, बाणि्य ओौर कृषि--ये जीविकारूपसे 
दिये दै। ३०॥ अध्ययन, यज्ञ, दान ओौर निस्य- 
नैमित्तिकादि कर्मोका अलुष्ठान--ये कमं उसके ल्यि 


भी विदित दै॥ ३१॥ 


सु्रका कर्तम्य यौ है कि द्विजातियोकी 
प्रयोजनसिद्धिके ल्यि कमं करे ओर उसीसे अपना 
पारन-पोषण करे, अथवा [ आपत्कामे, जब उक्त 
उपायसे जीविका-निवह न हो सके तो ] चस्तुओके 
छेने-वेचने अथवा कारीगरी कामोसे निवह करे 
॥ २ ॥ अति नश्रता, शौच, निष्कपट स्वामि-सेवा, 
मन्त्रहीन यज्ञ, अस्तेय, सस्सङ्ग ओर ब्राह्मणको रक्षा 
करना-ये शूद्रके प्रधान कमं द ॥ ३३॥ दै राजन्‌ । 
प्रको भी उचित दै कि दान दे, बदविदैब अथवा 
नमस्कार आदि अल्प यज्ञोका अनुष्ठान करे, पितृश्राद्ध 
आदि कमं करे, अपने आश्रित कुडुभ्वियोके भरण- 
पोषणके सख्यि सकल वर्णोसे द्रभ्य-संग्रह करे ओर 
ऋतुकाले अपनी ही सीसे प्रसङ्गः करे ॥ ३५-३५॥ 
हे नरेश्वर ! इनके अतिरिक्त समस्त प्राणियोँपर्‌ दया, 
सहनश्ीरता, अमानिता, सस्य, स्लौच, अधिक परिश्रम 
न करना, मङ्गलाचरण, प्रियवादिता, मैत्री, 
निष्कामता, अद्रपणरता ओौर किसके दोष न देखना 
ये समस्त बर्णोकि सामान्य गुण दै ॥ ३६.३७ ॥ 


सब वर्णोके सामान्य क्षण इसी प्रकार दँ । अब 
दन ब्राह्मणादि चारो वेकि भपद्धमं भौर गुणोँका 
श्रवण कसे ॥३८॥ आपत्तिके समय ब्राह्मणको क्षत्रिय 
जर्‌ वैर्य-वर्णोकी वृत्तिका अवलम्बन करना चाहिये 
तथा क्षत्रियको केवर वैरयनवरत्तिका ही आश्रय ठेना 
चादिये । ये दोनों शूद्रका कमं (सेवा आदि) कभी न 
करं । ३९ ॥ हे राजन्‌ ! इन उपरोक्त वृत्ति्योको 
भी सामथ्यं होनेषर त्याग दे; केवर भापस्कारमें 











तदेवापदि करव्यं न दुर्पासकर्मसङ्करम्‌ ।।४०॥ | ही इनका आश्रये, कमे-सङ्करता (करमोका मेर) 


इत्येते कथिता राजन्वणेधर्मा मया तव । 


न करे ॥ ४० ॥ हे राजन्‌ ! इस प्रकार वणंधर्मोका 
वणेन तो मने तुमसे कर दिया; अव आश्रमधर्मोका 


धर्मानाश्रमिणां सम्यश््रवतो मे निक्चामय ॥४१॥ । निरूपण शौर करता द सावधान होकर सुनो ॥४१॥ 


हूति श्रीविष्णुपुराणे चरतीयेऽरो अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 


---+*+-~~-~ 


नवो अध्याय 


ब्रह्मचर्यं आदि आश्रमोंका वणैन 


ओँवं वाच 
बालः कृतोपनयनो वेदाहरणतत्परः । 
गुरुगेहे वसेद्धुप ब्रह्मचारी समाहितः ॥ १॥ 
सौचाचारवतं तत्र कायं शुश्रूषणं गुरो; । 
वरतानि चरता ग्राह्यो वेदश्च कृतवुद्धिना ॥ २॥ 
उमे सन्ध्ये रविं भूष तथेवाग्नि समादितः। 
उपतिष्ठेत्तदा कुर्याद्‌ युरोरप्यमिवादनम्‌ ॥ ३ ॥ 
स्थिते तिष्टेदूव्जेद्यति नीचैरासीत चासति। ५९ 


रिष्यो गुरोगेपमरेष्ठ परतिकर न सश्चरेत्‌ ॥ ४॥ | 


तेनैबोक्तं पठेद्रदं नाम्यचित्तः पुरर्स्थतः । 
अनुज्ञात भिक्षाननमश्नीयादगुरुणा ततः ॥ ५॥ 


अवगाहेदपः पूवंमाचार्येणावगाहिताः । 


समिज्जरादिक चास्य कल्यं कल्युपानयेत्‌ | ६ ॥| 


गृदीतग्राह्यवेदश्च ततोऽनुज्ञामबाप्य च| 


गा्स्थ्यमाविरेसान्नो निष्पन्नगुरुनिष्ठृतिः ।७।। ` 


विधिनावाप्रदारस्त॒ धनं प्राप्य खकर्मणा । 


गृदस्थकायंमखिलं कुरयादभूषार शक्तितः ॥ ८॥ 
निवापेन पितुनच॑न्यजञदवस्तथातिथीन्‌ । 


ओ्वं बोले-हे भूपते ! बालकको चाहिये कि 
उपनयन-सस्कारके अनन्तर वेदाध्ययन तत्पर 
होकर ब्ह्मच्यंका अवलम्बन कर, साव धानतापू्ैक 
गुरुगृहमे निवास करे ॥१॥ वहाँ रहकर उसे 
शोच ओर आचार.त्रतका पान करते हुए गुरुकी 
सेवा-लु्रषा करनी चाये तथा व्रतादिका आचरण 
करते हुए स्थिरबुद्धिसे वेदाध्ययन करना चाहिये 
॥ २॥ हे राजन्‌ [ प्रातःकार ओर सायंकार ] 
दोनों संभ्याओंमे एकाग्रचित्त होकर सूयं ओर 
अग्निक उपासना करे तथा गुरुका अभिवादन करे 
॥ ३ ॥ गुरुके खडे होनेपर खड़ा हो जाय, चछनेपर 
। पीष्े-पीछठे चख्ने लगे तथा बैठ जानेपर नीचे चैट 
जाय । दे नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार कभी गुरुके विरुद्ध 
कों आचरण न करे ॥४॥ गुरुजीके कहनेपर 
ही उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्तसे वेदाभ्ययन 
करे ओर उनको आज्ञा होनेपर हौ भिक्षान्न भोजन 
करे ॥ ५॥ जलम प्रथम आचायकै स्नान कर 
] चुकनेषर फिर स्वयं स्तान करे तथा प्रतिदिन प्रातः 
। काल गुरुजीके लि समिधा, जल, कुर ओर 
पुष्पादि खाकर जुटादे॥६॥ 








इस प्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त 
कर चुकनेपर बुद्धिमान्‌ शिष्य गुरजीको आज्ञासे 
खन्द गुरुदक्षिणा देकर गृहस्थाश्रममे प्रवेद 
करे ।॥ ७॥ हे राजन्‌! फिर बिधिपूवंक पाणि 
ग्रहण कर अपनी वणौनुकूढ वृत्तिसे द्रभ्योपाजेन 
करता हुआ सामथ्यौतुसार समस्त ग्रहकायं 
करता रहै ॥८॥ पिण्ड-दानादिसे पितरगणको, 
| यज्ञादिसे दैवता्ंको, अन्नदानसे भतिधि्योकौ, 





$ ५ ४ 


अन्ननीशच स्वाध्यायेरपत्येन प्रजापतिम्‌ ॥ ९॥ 
भूतानि वरिमिशैव बास्सल्येनालिं जगत्‌ । 
्रा्नोति लोकान्पुरुषो निजकमेसमा्जितान्‌॥ १०॥ 
मिक्षा्ूजश ये केचिस्परिवाइव्रह्मचारिणः । 





तेऽपयत्रव प्रतिष्ठन्ते गाैस्थ्यं तेन वै परम्‌॥११॥ 





वेदादरणकार्याय तीधेस्नानाय च प्रमो । 
अस्ति वसुधा विग्राः परथिवीदशैनाय च ॥१२॥ 
अनिकेता नाहार स्त्र सायगृहाश्चये। 

तेषा, गृहस्थः सैषां प्रतिष्ठा योनिरेव च ॥१३॥ 
तेषां स्वागतदानादि वक्तव्यं मधुरं नृप । 
गरहागतानां दद्याच्च शयनासन मोजनम्‌ ॥१४॥। 
अतिथिर्यस्य मपाशनो गृदास्रतिनिवतेते । 

स दश्वा दुष्कृतं तसे पुण्यमादाय गच्छति ॥१५॥ 
अवज्ञानमहङ्कारो दम्भधेव गृहे सतः। 
परितापोपवातौ च पारप्यं च न शस्यते ।॥१६॥ 
यस्तु सभ्यक्कररोरयेवं गृहस्थः प्रमं विधिम्‌ । 
सर्वघन्धविनिक्तो लोकान भोस्यनुत्मान्‌ ॥१७॥ 
वयःपरिणतो राजन्कृतकृत्यो गृहाश्रमी । 


पत्रेषु मार्या निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा ॥१८॥ 


पणमूलफलादारः केकशदमशरुजटाधरः । 


भूमिशायी मवेत्त्र एुनिस्सर्वातिथितरप ॥१९। 
चर्मकाश्ीः दुर्यास्परिधानोत्तरीयके । 
तद्टसिषवणं |सनानं शस्तमस्य नरेश्वर ॥२०॥ 


देवताभ्यचनं होमस्सर्वाभ्यागतपूजनम्‌ । 


॥ र 











स्वाभ्यायसे ऋषिको, पुत्रौरपन्तिसे प्रजार्पा 
बल्यं (अघ्नमाग) से भुतगणकी 
बात्सल्यभावसे सम्पूणं जगत्की पूजा 
हुए पुरुष अपने कर्महवा मिले 
खत्तमोत्तम छोकोंको प्राप्त कर ठेता द ॥ ९-' 
जो केवल भिक्षावृत्तिसे हयी रहनेवाटे प्रित 
ओर ब्रह्मचारी आदि दह नका आश्रय भी गृह 
श्रम ही है, जतः यह सवेश्रष्ठहै ॥ ११॥ हेरा 
विप्रगण वेदाध्ययन, ती्थस्नान ओर देश-दः 
खिये प्रथिवी.प्यंटन किया करते दै ॥ १२ ॥ उः 
जिनका को निशित गृह अथवा भोजन- 
नहीं होता ओौर जो जहौ साय॑कार हो ज 
वहीं ठहर जाते दै, उन सवका आधार ओौर 
गृहस्थाश्रम ही है ॥ १३॥ हे राजन्‌ ! ठेसे छो 
घर्‌ आवे तो उनका कुराल-प्रडन ओौर मधुर वच 
स्वागत करे तथा शय्या, आसन ओर भोः 
द्रारा यथाशक्ति उनका सत्कार करे ॥ १४॥ 
घरसे अतिथि निराश होकर छौट जातादहै 
अपने समस्त दुष्कमं देकर वह ( अतिथि) 
पुण्यकर्मोको स्वयं ठे जाता है ॥ ९५ ॥ गू 
लिये अतिथिके प्रति अपमान, अहङ्कार ओर दः 
आचरण करना, उसे देकर पछताना, उसपर 
करना अथवा उससे कट्ुभाषण करना उचित 
है ॥ १६॥ इस प्रकार जो गृहस्थ अपने 
धः ‰ पूणतया पान करता है वह समस्तवः 
मने क्त होकर अप्युत्तम लोर्कोको प्राप्त कर 
है | १७ ॥ 


हे राजन्‌ ! इसप्रकार गृहस्थोचित कार्थं 
करते जिसङी अवस्था ठर गयी हो उस गृह 
उचित कि क्लीको पुत्रके प्रति सौपकर 
अपने साथ रेकर वनको चदा जाय ॥ १८। 
पच, मूख, फल आदिका आहार कस्ता हंजा 
रमभ ( दादी. ) ओर जटाभोको धारण 
प्रथिकीपर शयन करे ओर मुनिषृत्तिका अवः 
कर सव प्रकार अतिथिकी सेना करे ॥ १९। 
च्म, काञ्च ओर छुाशोसे अपना चिष्छौना 
ओदनेका वख बनाना चाद्धिये। हे नरेश्वर 
म॒निके ल्थि च्रिका-स्नानका विधान दै ॥ 
इसी प्रकार देवपूजन, होम, सब अतिरि 
सत्कार, भिक्षा ओर बखिवैश्वदेव 


अ० ९] 


~~~ 









वन्यस्मेहेन गात्राणामभ्यङ्कधासख शस्यते । 
तपश्च तख रजेन्द्र शीतोप्णादिसदिष्णुता ॥२२॥ 
यस्त्वेतां रियतश्यौ वानप्रथधरेन्धरनिः। 
स दहत्यगिवहोपाञ्चयेष्टोकांश शाश्चतान्‌ ।।२२॥ 
चतुर्थधाश्रमो भिक्षोः परोच्यते यो मनीषिभिः 
त खहूपं गदतो मम श्रोतुं दप्सि ॥२४॥ 
ुत्रद्रव्थकतत्रेषु व्यक्तस्नेदी नराधिप । 
चतुर्भमाध्रमसखानं शच्छेनिर्भूतमत्सरः ॥२५।॥ 
नैवरमिकास्त्वजेस्सवानारम्भानवनीपते 


„ मित्रादिषु समो सैतरस्समस्तेष्वेयं जन्तुषु ॥२६॥ 
जरायुजाण्डजादीनां वाख्नःकायकमेभिः । , 


युक्तः कर्वीत न द्रोहं सर्वसङ्ग वर्जयेत्‌ ॥२७। 

एकरात्रथिति््रामि पश्चरत्रितिः पूरे । 

तथा तिष्टेद्यथाप्रीतिर्दैषो वा नास जायते ॥२८॥ 

प्राणयात्रानिभित्तं च व्यङ्कारे थुक्तवञ्जने । 

काले प्रशतनर्णानां भिक्षाथं प्थरेद्‌ गृहान्‌ ॥२९॥ 

कामः क्रोधस्तथा दर्पमोदरोभादयश्च ये । 

तास्तु स्ान्परिर्यञ्य पड निर्ममो भषेत्‌ ।२०। 

तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भयं वियते कचित्‌ ॥२१॥ 

कूलाभिषहोतरं खशरीरसंखं 

शारीरमभ्रिं सष्से जहति । 
सैक्योपहितेरविभि- 

धिताभिकानां व्रजति स लोकान्‌ ॥३२॥ 
यश्चरते यथोक्त 


अ -जिातद्लि यमक, । 


परिप्रस्तु 


मोक्ष श्रमं 


ततीय अशे 


~~ --------~-----~-- "~ ~--------------- 














------~. ˆ-------------- 





उसके विहित क्म है॥२१॥ हे रजेन । बन्य 
तैलादिको शरीस्य मलना ओर शीतीष्णका सहनं 
करते हए तपस्यामे लगे रहना उक्के प्रशस्त क्म 
है | २२॥ जो वानप्रख सुनि इन नियत वरमोका 
आश्वरण करता है वह्‌ अपने समस्त दोक अग्निके 
समान भस्म कर्‌ देता है ओर नित्य खेकोको प्रप्त 
कर्‌ लेतादहै॥ २६३ ॥ 

ह चर } पण्डितगण जिस चतुथं आश्रमको भिक्षु 
आश्रम कहते है, अन भ उक्ते खरूपका वर्णन करता 


र, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ हे नरन | तृतीय 


आश्रमके अनन्त्‌ पुत्र, एवय ओर्‌ सी आदिके स्ते्टको 
सर्वया स्यागकर्‌ तथा मातर्ैवो छोडकर चतुथं आश्रत- 
मे प्रवश्च करे ॥ २५॥ हे प्रष्वीपते} भिक्षुको 
उचित है क्रि अर्थ, धर्म भौर कम्प रिवरग- 
सम्बन्धी समस्त कक्षो छोड दे, रत्र-मित्दिमें 
समान माव रखे जौर सभी जीधोका सुहदो ॥ २६ ॥ 
निरन्तर समाहित दहर जरायुज, अण्डज ओर 
सदन आदि समस्त जीसे मन, वाणी अथवा कर 
टरा कभी द्रोह न करे तथा सत्र प्रकारकी आसक्तिये- 
को व्याग दे॥ २७॥ प्राममै एक रात ओर पुरम 
पच रत्रितक रदे तथा इतने दिन भी तो इस 
प्रकार रदे जिससे विसीसे प्रेम अथवा देष न 
हो| २८॥ जि समय धम अप्नि शन्त हो जय ओर 
लोग भोजन कर्‌ चु उस समय प्राणरक्षके द्यि उत्तम 
वणयि मिक्षाके लिये जाय ॥ २९॥ पलि्िजकको याहिये 
कि काम्‌, कोध तथा दर्प, लोभ ओर गोह आदि समसत 
दु्ुणोको छोडकर ममताूल्य होकर रहे ॥ ६० ॥ 
जो मुनि समस्त प्राणियोको अभयदान देकर विचरता 
है, उपो मी.किसीसे कभी क) भयनहीं होता ॥२१॥ 
जो ब्रह्मण चतुर्थं आश्रमम भपने शरीरम खित प्राणादि 
संहित जलराभ्रिके उदैश्यसे अपने युखमै भिक्षःन- 
ल्प हविसे हवन करते। है, वह रेसा अग्निहोत्र 
करके अद्निहोत्रियोके लेकोको प्रा हौ जता 
ह ॥ ३२ ॥ जो ब्रह्मण [ ब्रहसे भित समी मिथ्या; 
समूर्ण जगद्‌ मगवानका ही संकल है-रेसे ] बुद्ध 
गेगसे यक्त ह्योकर यथाविधि आचस्ण करता हा 


९४ 


[व 
~~~. 


अनिन्धनं 





व्योतिशि प्रशान्तः 


स ब्रह्मरोकं श्रयते द्विजातिः ॥ ३३ ॥ 


शा -1 | ० 


~~~ 








~-~~~~~-~~--~~-~~-~-~--~~-~-~-~---------------~ 


इस पोक्षाश्रमका पवित्रता ओर पुखपूर्वकं आचरण 
करता है, वह निरिधिन अगमनिके समान शान्त होता है 





| ओर्‌ अन्तमं ब्रह्मलोकः प्राप्त करता है ॥ ३२ 1 


-----न्2 र्ट न्न 


इति श्रीविष्णुपुरणे तृतीयेऽ नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ 


_ . खद, 
--नवषरिरन् ` ~ 


दर्वी अध्याय 


जातकर्म, नामकरण ओर विवाह-संस्कारकी विधि ` 


समर उकाच 
कथितं चातुराश्रम्यं चातुरवण्यक्रियास्तथा | 
पुंसः क्रियामहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ॥१॥ 
नित्यनेमित्तिकाः काम्याः क्रियाः पुंसामरेषतः । 
समाख्याहि भृगुश्रेष्ठ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥२॥ 


6 
अवि उवाच 


यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमिसतिकाभ्रयम्‌ । 
तदहं कथयिप्यामि शृणुष्वैकमना मम ॥ ३॥ 
जातस्य जातकमादिक्रियाकाण्डमङेषतः । 
पत्रय इर्वीति पिताशराद्धं चाम्बुद यार्मकम्‌ ॥ ४॥ 
युग्मास्तु प्रा्गुलानवप्रान्भोजयेन्मलजेश्चर । 
यथा वृत्तिस्तथा इ्यारैवं पितयं द्विजन्मनाम्‌ ॥ ५॥ 
दध्ना यवै; सवदरमिश्रानिपण्डान्युदा युतः | 
नान्दीपुखेभ्यसतीर्थेन दचादेवेन पाथिव ॥६॥ 
प्राजाप्येन वा सर्वधुपचारं प्रदक्षिणम्‌ । 
क्रीते तत्तथरोषबरद्धिकालेषु भूपते ॥७॥ 
तत्थ नाम इवत पितैव दसमेऽहनि । 
देवपूर्वं नरास्थं हि र्मेवमादिसंयुतम्‌ ॥ ८ ॥ 
मेति ब्रह्मणोक्तं वर्मेति कप्रसरश्रयम्‌ | 








सगर बोले-हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने चशे आश्रम 
ओर चिं वेकि करमोका वर्णन किया | अव मै 
आपकर द्वारा मनुष्यके ( षोडश संस्काररूप ) करमो 
को सुनना चाहता ह| १॥ दहे शरगुश्रष्ठ! मेरा 
विचार है कि आप सरश है, अतद्व आप मतुप्योके 
निवय-नैमित्तिक ओर काम्य आदि संब प्रकाफे 
कर्माका निरूपण कीजिये ॥ २ ॥ 

मवे बोखे-हे राजन्‌ ! आपने जो निव्य-नेमित्तिक 
आदि क्रियाकलपके विषयमे पूरा सो मै सवका वर्णन 
करता ह, एकाग्रचित्त होकर घनो | २॥ पुत्रके 
उत्पन्न हयोनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकं 
आदि कर क्रियाकाण्ड ओर आभ्युदयिक श्राद्ध करे 
॥ ४ ॥ हे नरेश! पूरवामिपुल बरिठाकर शरम ब्राह्मणको 
भोजन कराते तथा द्विजातियोके व्यवहारके अनुसार देव 
ओर्‌ पितृपक्षकी तृ्तिके ल्यि आद्र करे ॥५॥ ओर 
हे रजन्‌ । प्रसन्नतापूर्वक दैवतीयं ८ अगुलियोके 
अग्रमाग) द्वारा नान्दीमुख पितृगणको दही, जौ 
जर बदीफलट विकट बनाये द्र पिण्डदे॥ ६॥ 
अथवा प्राजापत्यतीरथं ( कनिषठिकाके मूड ) द्वार सम्पूणं 


। उपचचारदव्योका दान करे ! इसी प्रकार [ कन्या अथवा 
 पुत्रौके विवाह आदि ] समस्त व्रद्धिकालोम भी करे ॥५७॥ 
| तदनन्तर, पुत्रोत्पत्तिके दशय दिन पिता नामकरण- 


संस्कार करे) पुरुषका नाम पुरुषवाचक होना 
चाहिये ! उसके परेम देववाचक शब्द हो तथा पीछे 
रार्मा, वर्मा आदि होने चाहिये ॥ ८ ॥ ब्राह्मणके नाप- 


| के अन्तमे शर्मा, क्षत्रियके अन्तर्म वर्मा तथा वैद्य ओर 





य र~ ~~~ 


अ० १०] तृतीय अंश २२५ 


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नामन्तमे क्रमा; गुप्त ओर दास रान्धोका 
प्रयोग करना चाहिये | ९ ॥ नाम अय॑न, अविहित) 
अपरब्दयुक्त, अमाङ्घल्कि ओर निन्दनीय न होना 
चाहिये तथा उसके अक्षर समान हते चहिये ॥ १० ॥ 
अतिदीर्ध, अति चु अथवा कठिन अक्षशेसे युक्त नाम 
नर्वे। जो घुषूर्क उचारण कियाजा सके ओर 
जिसके पीके वणं ख्धरु हो पेसे नाभक्रा व्यतरह्यर 
करे | ११ ॥ 

तदनन्तर उपनयन-पंस्कार हौ जानेपर गुस्गृहमे 
रहकर व्रिधिपूर्वक वि्याध्ययन करे ॥ १२॥ हे 
भूपाल ! पिर विदाध्ययन कर्‌ चुकनेपर गुरो दक्षिणा 
देवर यदि गृहस्थाश्रमे प्रवेश करनेषी इच्छादय, तो 
विवाह करके ॥ १२॥ या द्दप॑कलपपूरवक नैष्ठिक 
्हाचर्य ्रहणकर गुर अथवा गुदुत्रीकी सेवा-छुधूषा 
करता रहे ॥ १४ ॥ अथवा अपनी इच्छा वानप्रख 
या संन्यास प्रहण करके) है रजन्‌ | पहले जप्त 
संकल्प किया ह्यो वैसा दी करे ॥ १५ ॥ 

[ यदि विवाह करना हौ तो } अपनेसे तृतीया 
अवस्थावाटी कंन्यासे विवाह करे तथा अधिक या 
जप केशबाी अथवा अति सवी या पष्डुब्णं 
८ भूरे रणकी ) लीसे सम्बन्ध न करे ॥ १६ ॥ जिसके 
जने ही अपिकया न्यून अंग हो) जौ अपवित्र; 
रोमध्ुक्तः अकुटीना अथवा रोगिणी हौ उप खीसे 
पाणिग्रहण न करे ॥ १७ ॥ बुद्धिमान्‌ पुषकौ उचित 
हैकिजो दुष्ट खमाववाली हो, कटुमाषिणी हयै, 
माता अथवा प्रितके अनुसार अद्खदीना हो) जिसके 
दमश्च ( मूके ) चिह हो, जौ पुरुभके-से गकार्बारी 
हयो, अथवा घ्र शब्द करनेवाले अति मन्द्‌ 
या कौवेके समान ८ कर्णकटुं ) खरवाली हयो तथा 
पक्षमशन्या या गोर नेत्रोवाढी हो उस स्त्रीसे 
विवाह न करे ॥ १८-१९ ॥ जिसकी जंघाभींपर्‌ 
रोम हो, जिसके गु (रखने) ऊंचे हों तथा 
हसते समय निकरे कपौलेमै गूढे पडते हौ उस 
कन्थासे विवाह न करे ॥२० ॥ जिसकी कान्ति 
अध्यन्तं उदासीन हो) नख पण्डुवणं हो, नेत्र कल ह 


गुरदापात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।९॥। 



























नार्थहीनं न चास्तं नापदचन्दयुतं तथा । 
 नामद्गव्य जुगुप्स्यं बा नाम श्यारसमाक्षरम्‌ ।।१०॥ 
नातिदीर्धं नादिहस्वं नाहिगुवक्षरान्वितम्‌ । 


सुखोच्चायं तु तन्नाम इ्याचसषणाक्षरम्‌ ॥११॥ 
ततोऽनन्तरसंस्कारसंस्कती गुरूवेध्मनि । 
यथोक्तविधिमाभिस्य इयादि्यापस्गरहम्‌ ॥१२॥ 
गृहीतविद्यो ुरवे दखा च गुरुदक्षिणाम्‌ । 
गारदस््यमिच्छन्भूपाङ इर्यादारपरिगरहम्‌ १२ 
ब्रहमचर्येण वा कालं इुर्याससंकसपपूर्वकम्‌ । 
गुरश्छभूषणं इर्यात्त्पुत्रादेरथापि वा ॥१४॥ 
मैखानसी बापि भवेतखरिाडथ वेच्छया । 
पूथसङ्कदिपतं याद्‌ ताच्वुरयान्नराधिप ॥१५॥ 
वर्ैरेकगुणां भार्थायुदरहेखिगुणस्खयम्‌ । 


नातिकेशामकेशं पा नातिष्ष्णां न पिङ्गलाम्‌ ॥ १६॥ 
निसगतोऽधिकाङ्ग वा न्यूनाङ्गीमपि नोदरहेत्‌ । 
नाविषद्धं सरोमां वा इुरुजां बापि रोगिणीम्‌ ॥१५७॥ 
न दुष्टं दुष्टवाक्यां वा व्यङ्ञिनीं पितमाठेतः) 
न इमश्ुव्यञ्जनधतीं न चैव पुरुषाकृतिम्‌ ॥१८॥ 
न षधरखरां क्षामां तथा काकखरं न च । 
नानिबन्ये्षणां तदरदूवृत्तकषीं नोद्रहेदूबुधः।। १९ ॥ 
याश्च रोमले जङ्ग गुर्फौ यखास्तथोतरती । 


गण्डयोः कूपरौ यस्या हसन्त्यासतां न चोदरेत्‌।।२०॥ 
नातिरक्षच्छविं पण्डुकरजामस्णेक्षणाम्‌ । 


२३६ 


आषीनहस्तपादां च न्‌ कर्यागुदरहेद्‌ बुधः ॥ २१॥ | 
न वामनां नातिदी्ा नेोहेतपहतभरुषम्‌ । 
न चातिच्छिद्रदशमां न फरालयखीं नरः ॥२२॥ 
पश्वमीं मातृपक्षाच पितिपक्षाच सप्षमीम्‌ । 
गृहखशोदरेत्कन्यां न्यायेन विधिना नृप ॥२३॥ 
ब्राह्मो दैवह्तधैवाषैः प्राजापत्य्तथापुरः । 
गान्धररक्षसौ चान्यौ पेदाचश्ाटमो मतः ॥२४॥ 
एतेषां यख यो धमो व्णखोक्तो महपिमिः । 
वीत दासप्रहणं तेनाम्यं पखिजयेत्‌ ॥२५॥ 
सधर्मचारिणीं प्रप्य गाहस्थ्यं सदहितस्तया | 





सथदेददास्येतस्सम्यगूदं महाफरुम्‌ ॥२६॥ 


` श्रीविष्णुपूराण 


----------------~------------------------ ---------~- ~~ ---------------------------(-------- (न~~ ----~- ~~ ------------------------- - ~ 


[ अ० ११ 






-----------~ ~~~ ~ ~~ ~` 


तथा हाथपैर इछ भारी हयौ वुद्धिमान्‌ पुरुष 
उ कन्यासे सम्बन्ध न क्रे॥२१॥ जी अति 
वामन (नादी) अथवा अति दीव (ल्वी) हो, 
जिसकी गकुं जडी इ हौ, जिसके दोतिमे 
अधिक अन्तर हो तथा जो दन्तुर ( अगिको दत 
निकटे हए ) युलवाटी हौ उस स्मीसे कमी विवाह न 
करे ॥ २२॥ हे राजन्‌ | मातृपक्तते पौचवीं पीदीतक 
ओर पित्तपक्षसे सातवी पीदौतक निष्ठ कन्याका 
सम्बन्ध न हो, गृहस्य पुरषो नियमातु्तार उसीसे 
विह करना चाहिये ॥ २२३ ॥ ब्राह्म देव, आर्ष, 
प्राजापव्य, आषुर्‌, गन्धर्व, राक्षक्त ओर वैश्ाच--ये 
आठ प्रकारके विवाह हैँ ॥२४॥ इनमेसे जिस 
विधाहको जिस वर्णके लियि महिने धर्मायुकूर 
कहा है उधीके द्रा दास्पसिह करे, अन्य विधि्योको 
छोड दे ॥२५॥ इस प्रकार सहवमिणीको 
प्रा कर उसके साथ गारहस््यधर्मका पाटन करे, कोतिं 
उसका पाटन करनेषर व्ह महान्‌ फर देनेगल 
होता है ॥ २६॥ 


9 


इति श्रीविष्णुपुरणे तृतीरयेऽरे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ 


नो 9 क 


ग्यारह 


अध्यय 


गृहस्थसम्बन्धी सदाचारका वणेन 


सगर्‌ उवाच 


गृहस्य सदाचारं श्रोतमिच्छाम्यहं षने । 
सोकादसात्परसाञ्च यमातिष्ठन्न हीयते ॥ १॥ 
भाव उवाच 
श्रूयतां पृथिवीपार सदाचारस्य लक्षणम्‌ । 
सदाचाखता पंसा जितौ सोकाडुमावपि ॥ २॥ 
साधवःश्षीणदोषास्त सच्छब्दः साधुवाचकः । 
तेषामाचरणं यत्त॒ सदाचारस्स उच्यते ॥ ३॥ 
सप्षयोऽथ मनवः प्रजानां पतयस्तथा । | 





न 0 म, ।। म 


सगर बोले-हे पुने ! में गृहस्के सदाचारकी 


पुनना चिता ह जिनका आचरण करनेसे वह 


दृदलैक ओर परलोक--दोनो जगह पतित नदीं 
होता ॥ १॥ 

आओवं बोठे-हे प्रथ्वीपाठ | तुम सदाचास्के . 
लक्षण सुनो । सदाचारी पुरुष इहटोक ओर परक 
दोनेदीको जीत छेता है ॥ २॥ प्तत्‌, शब्दका अर्थ 
सधुदहै ओर सु वदीदहै जो दोषरहित हो। 
उप्त साधु पुरुषका जो आचरण ह्येता है उसीको 
सदाचार कहते हैँ ॥ २॥ दे राजन्‌ ¡ इस सदाचार्‌ 


के वक्ता ओर कर्ता सपर्षिगण, मनु एवं प्रजापति 
च्य ,| (> 1)। 


अ० ११] 


-~~--~------~ 


ब्राह्े सहव चोत्थाय मनसा मतिमाम्मृप । 


परुद्रधिन्तयेदधममथं चाष्यगरिरोधिनम्‌ ॥ ५॥ 


अपीडया तयोः कमिन्ुमयोरपि चिन्तयत्‌ । 
दषादृष्टविनाश्षाय त्रिवर्गे समदर्विता ॥ ६॥ 


परित्यजेदर्थकामौ भर्मपीडाकरी 


मेप) 
धर्ममप्ययुखोदक्ौ लोकविदिष्टमेव च ॥ ७॥ 


ततः कल्यं सषुत्थाय दु्जान्मत्रं नरेधर । 
नैक्यामिषुषिक्षेपमतीत्याम्यधिकं खवः ॥ ८ ॥ 
दूरादावसधान्मत्रं पुरीषं च विसर्जयेत्‌ । 
पादाबनेजनोच्छिष्टे प्र्िपेनन गृहाङ्गणे ॥ ९॥ 
भात्मच्छायां तरुच्छाया गोधूरयाग्यनिरां स्तथा । 
गुरुदिजादीस्तु बुधो नाधिमेदेकदाचन ॥१०॥ 
न इष्टे शस्यमभ्ये वा मोत्रजे जनसंसदि । 

न वर्मन न नचादितीरयेु पुरव्पभ ॥११॥ 
नाप्सु नेवाम्भसस्तीरे स्मशाने न समाचरेत्‌ । 
उस्सगं वे पुरीषस्य मूत्रस्य च विसर्जनम्‌ ॥१२॥ 
उदद्युखः दिवा मूत्रं षिपरीतयुषठो निशि । ` 
हुवीतानापदि प्राज्ञो मूत्रोत्सगं च पाथिवं ॥१३॥ 
तृणैरास्तीयं॑ वसुधां वसुप्रावृतमस्तकः । 
तिष्ठेन्नातिचिरं तत्र नेव ॒किथिदुदीर्येत्‌ ॥१४॥ 
वरभीकमूषिकोदभूतां मृदं नान्तजलां तथा । 
शौचावशिष्टां गेदाच नादचयारङेपसम्भवाप्‌ ॥ १५ 


अणु्राण्युपपन्नां च हरोत्खातां च पार्थिव 
परित्थजेन्मृदो धेतास्सकराश्लौचकर्मणि ॥१६॥ 


तृतीय अंश 


न 











त ०२।।1  ि 





म जगक्षर अपने धर्मं ओर्‌ धर्मारिरोधी अंका 
चिन्तन करे ॥ ५॥ तथा जिसमे धर्म ओर अर्थकी 
क्षति न हो देसे कामका भी चिन्तन करे | ईस 
प्रकार दृष्ट ओर अदृष्ट अनिष्टकी निषृत्तिके व्यि धमै, 
अर्थं ओर काम रस त्रिवर्भकै प्रति समान भवि रखना 
चाहिये ॥ ६ ॥ हे वप | धर्मविरुद्ध अर्थं ओर काम 
दोनोका व्याग कर दे तथा रेसे धर्मका भी 
आचरण न क्रे जो उत्चरकाल्मै दुःखमय अथवा 
समाज-विशद्र हो ॥ ७ ॥ ° 


हे नरेश्वर | तदनन्तर ब्राहमुहूत॑म उठकर मरामसे 
नऋ्यकोणमे जितनी दूर बण जा सकता है उससे 
भगो नद्कर्‌ मूत्र व्याग करे ॥ ८ ॥ अपने निधास- 
स्थानसे दूर जाकर मलमूत्र व्याग करना चाहिये | 
पैर धोया हआ ओर्‌ जूहा जक अपने घरक अओंगनमें 
न उषे ॥ ९ ॥ अपनी या बृक्षकी छयाके उप्र 
तथा गौ, पूर्व, अनि, वायु, "गुरु ओः द्विजातीय 
पुरुषे सामने बुद्धिमान्‌ पुरुष कमी मल-मूलल्थाग 
नक्रे॥ १०॥ इसी प्रकार हे पुस््षेभ | जोते इए 
तेतमे, स्यसम्पन्न भूमिमे, गौरवे गोष्मे, जन-समाजमे, 
मामके बीचमे, नदी आदि तीथ-खनिमे, जक अथवा 
जढाशयके तटपर भौर रमशानमे भी कमी मल- 
मू्रका व्याग न करे ॥ ११.१२ ॥ है रजन्‌ ! कोई ` 
विरोष अपत्तिन होतो प्राज्ञ पुरू्रको चाहिये कि 
दिनके समय उत्तर-पुख ओर रात्रिक समय दक्षिण- 
मुख हकरं मूत्तव्याग करे ॥ १३ ॥ मर्यागके 
समम पृथिवीको तिनकोसे ओर सियो वश्चसे ठक 
ले तथा उस सानपर अधिक समयतकः न रदै ओर्‌ 
न कुछ बोरे ही ॥ १४ ॥ 


हे राजन्‌ | बँबीकी; चुहर विरुसे निकाटी 
इई, जल्के भीतरकी, सौचकरम॑से बची इई, धके 
रीपनकी, चीयै आदि छोटे-छोटे जीवोदया निकाटी इद 
ओर हरते उलादी इई-दन सब प्रकारकी पृत्तिकाभ- 
का लौच-कर्ममे उपयोग न करे॥ १५.१६ ॥ ` 


२३८६ 





एका लिङ्क गुदे तिस्रो दश्च वामकरे नृप) 
हस्तद्ये च सप्र स्युमृदस्पौ चोपपादिकाः ॥१५७।॥ 
अन्छेनागन्धरेपेन जलेनाबुहबुदेन च) 
आचामेच मृदं भूयसतथादचात्छमाहितः ॥१८॥ 
निष्पादिताङ्धरिशौचस्त्‌ पादावभ्युक्षय तैः पुनः । 
्रिःपिबिल्सरिलं तेन वथा हिः परिमाजयेत्‌ ॥१९॥ 
शीर्षण्यानि ततः खानि मून च समारभेत्‌ । 
वाहू नाभि च तोयेन हृदयं चापि संस्पृशेत्‌ ।॥२०॥ 
सखाचान्वस्तु ततः हुीरपुान्केशप्रषाधनम्‌ । 
आदृशाञ्ञनमाङ्गस्ं दुर्वायारम्भनानि च ॥२१॥ 
ततस्खवर्णधर्मेण वयर्थं च धनार्जनम्‌ । 
कुवीत श्द्धासम्पन्नो यजेच पृथिवीपते ॥२२॥ 
सोमसंस्था हविस्संस्थाः पाकसंस्थास्तु संस्थिताः । 
धने यतो मरुष्याणां यतेतातो धनार्जने ॥२३॥ 
नदीनदतटाफेषु देवखातजलेषु च। 
नित्यक्रियां सायीत गिलिक्तवणेषु च ॥२४॥ 
ूपेषृद्धृततोयेन खानं इर्धीति वा सषि । 


गृहेपुदुघ्रततोयेन दथवा शव्यसम्भवे ॥२५॥ | 


सुचिवक्वधरः सातो देधरिंपितृतर्षणम्‌ । 
तेषामेव हि तीर्थन कुषीत सुसमाहितः ॥५६॥ 
त्रिरपः प्रीणनाय देषानामपव्जयेत्‌ । 
चछपीणां च यथान्यायं सष्ररापि प्रजापते! ॥२७॥ 
पितृणा प्रीणना्थीय त्रिरपः प्रथिवीपते। 


पितामहैम्यश्च तथा प्रीणयेसपरपितामहान्‌ ॥२८॥ 

मातामहाय तप्र तप्पि्रे च समाहितः | 

दघाद्ैत्रेण तीर्थेन काम्यं चान्यच्छरृणुष्व मे ॥२९॥ 
छगौतमस्मरतिके अष्टम अध्यायमें कहा है-- 


श्रीविष्णुपुराण 





[ अ० ११ 


------ ---------- --------~------------------~----- 


है सरपं | दिगमे एक तरार, गुदम तीन बार 
बयं ह।थमै दसत बार ओर दोनों हथो सात बार 
पृत्तिका लगानेसे शौच सम्पन्न होता है ॥ १७॥ 
तदनन्तर गन्ध ओर कफेनरहित खच्छ जट्से 
आचमन करे । तथा फिर सावधानतपूर्मक बरह्ृत-सी 
मृत्तिका ठे | १८ ॥ उससे चरण-शुद्धि करनेके 
अनन्तर किर पैर धौकर तीन वार्‌ दुल्ला करे 
जर दो बार यु धौवे ॥ १९ ॥ तत्पश्चात्‌ जक छेकर 
दिगेदेशमे खित ईन्दियरन्ध, मूर्धा, बाहु, नामि भौर 
हृदयको स्प करे ॥ २० ॥ फिर मली प्रकार स्नान 
करनेके अनन्तर केश संघार ओर दर्पण; अद्मन तथा 
दूर्वा आदि माङ्गलिक द्र्व्योका यथाप्रिधि उयवहार्‌ 
कर ॥ १ ॥ तदनन्तर हे पृथिवीपते | अपने वर्णधर्मके 
अनुतार आजीविकके ल्यि धनोपार्जन करे ओर श्रद्‌ 
पूवक यक्ञानुष्टान करे ॥ २२ ॥ सोमसंस्था, हविस्संखा 
ओर पाकर्ससख्ा--इन सत्र धर्म-कर्माका आधाप 
धन ही है |*# अतः मनुष्योको धनोपार्जनका यतन करना 
चाहिये ॥ २३ ॥ नित्यकरमोकि सम्पादनके लिये नदी 
नद्‌) तडाग, देवाल्योकी बावडी ओर्‌ परवैतीय अरनोमे 
स्नान करना चहिये ॥ २४॥ अथवा बुरे जढ 
खीचकर उसके पात्तकी भूमिपर स्नान करे ओर यदि 
वौ भूमिपर स्नान करना सम्भव न ह्यो तो वुर्से 
खींचकर कये हए जलसे घरहीमे नहा ठे ॥ २५ ॥ 

स्नान करनेके अनन्तर शुद्ध वस्र धारणकर्‌ देवता, 
ऋषिगण ओर्‌ पितृगणका उनके तीर्थसि तर्पण 
करे ॥ २६ ॥ देवता ओर ऋषि्ोके तर्षणके च्यि 
तीन-तीन बर्‌ तथा प्रजापतिके ल्यि एक बार जठ 
छोडे ।॥२७॥ हे प्रथिवीपते । पितृगण ओर्‌ पितामहोकी 
प्रसन्नताके लिय तीन बार जल छेडे तथा इसी प्रकार 
प्रपितामहोको भी सन्तुष्ट करे एवं मातामह ( नाना ) 
ओर उनके पिता तथा उनके पिताको भी सावधानता- 
पूर्वक प्ितु.तीर्थसे जकदान करे । अब काम्य तर्पणक्ा 
वर्णन करता दः श्रवण कसे ॥ २८-२९ ॥ 


ओपासनमध्का पणमदः प्राबप्यगरहायणी चेतरमशचमुजीति सप पाकय्संस्थाः \ ज्यधेममिरोत्र द ू्मनसावाम्यणं 
नि . ध (वाव | 
चातुमस्यानि निरूढपङुयन्धस्तोवामणीति संघ हविय॑रघंस्थाः । अञ्गि्ोमोऽतयक्च्टोम उक्थ्यः परशौ वाजपेयोऽतिरतरर्ामा इति 


सष सोमसंस्थाः \ 


ओपासनः अष्टका श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध तथा श्रावण, अग्रहायण, चैत्र ओर आश्विन मासकी पूर्णिमा भे सात प्पाक- 


न सा न, ९ 0 = = (र = , 


भ° ११ | 





तृतीय अंश 


२२३९ 








मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे गुरपल्ये तधा नृप । 
गुरूणां मातुलानां च क्िग्धमित्राय भूय ॥२०॥ 
इदं चापि जपेदम्बु द्ादास्मेच्छया तरप | 
उपकाराय भूतानां कृतदेषादित्पणम्‌ ॥२१॥ 
देवासुरास्तथा यक्षा नागगन्धर्वराकषसताः । 
पिक्ञाचा गुद्यकास्सिद्धाः कूष्माण्डा; पश्वः खगाः) 
जलेचरा भूनिरया बास्वाहाराश्च जन्तवः । 
तृिमेतेन यान्ाश्चु मदतेनाम्बुनाखिलाः ॥२२॥ 
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः 
तेषामाप्यायनायैतदीयते सशिलिं मया ॥३४॥ 
ये बान्धवाबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः। 
ते तृप्रिमखिला यान्तु ये चाखत्तोयकाष्विणः।२५॥। 
यत्र क्चनसंस्थानां श्षुततुष्णापहतासनाम्‌ । 
इदमाप्यायनायास्तु मया दत्तं तिरोदकम्‌ ।३६॥ 
काम्योदकप्रदानं ते मयेतत्कथितं सृप । 
यहा प्रीणयस्येतन्मटुप्यस्सकलं जगत्‌ ।२३७॥ 
सगद्‌।प्यायनोद्‌भृतं पुण्यमाप्नोति चानघ । 
द्‌ खा काम्योदकः सम्यगेतेभ्पः श्रद्रयान्वित्तः।२८ 
आचम्य च ततो दास्याय सटिलाञ्जरिम्‌ । 


नमो विषखते ब्रह्मभाखते पिष्णुतेजसे ।२९॥ 
जगत्सपित्रे श॒चये सवित्रे कर्मसाक्षिणे । 
ततो गुहा्चनं दुयादमीषटसुरपूजनम्‌ ॥४०॥ 
जलाभिषेकैः पुष्ये धुषा निवेदनम्‌ । 
अपू्वमग्निहोत्रं च शर्यारपराग्रह्मणे सृप ॥४१॥ 
प्रजापतिं सथदिश्य दाद्ाहुतिमादत्‌ । 
गृह्याभ्यः कारयपायाथ ततोऽलचमतये कमात्‌ ।४२॥ 
तच्छेषं मणिके पृथ्वीपजन्येभ्यः क्षिपेत्ततः । 


ध्यह जक माताके लवि हो, यह प्रमाताके स्यि हो, 
यह बरद्धप्रपाताके लिये हयो, यह गुस्पत्नीको, यह्‌ गुरुको, 
यह्‌ पामाको, यह प्रिय नित्रको तथा यह्‌ राजाको प्रा हो 
दे राजन्‌ । यह जपता हआ सप्त भूतोके हितकरे लिये 
देव्रादितर्पण करके अपनी इच्छानुसार अभिलषित सम्बन्धी- 
के छि जछदान करे ॥ ३०-३६१ ॥ [ देवादि -तर्पणके 
समय दस प्रकार कहे--] ष्देव, अपुर, यक्ष, नाग 
गन्धर्व, राक्षस, पिरच, गुह्यक, सिद्र, कूणाण्ड) पञ्चः 
पक्षी, जलचर, स्थख्चर ओर वायु-मक्षक आदि सभी 
प्रकारके जीव मेरे दिवे हए इस जख्से तृप्त हं ॥ ३२. 
३३॥ जे प्राणी सम्पूर्णं नरको नाना प्रकारकी 
यातनां भोग रहे है उनकी तृष्तिके स्यि मे यह जर- 
दान करतार ॥ ३४ ॥ जो मेरे बन्धु अथवा अबन्धु 
है तथा जौ अन्य जन्मी मेरे ब्न्धुये एवं ओैरमी 
जो-जो सुक्चपे जल्की सच्छा रखनेवाठे है वे पवर मेरे 
विये इए जलसे परिष्त हं ॥ ३५॥ क्षुधा ओर वृष्णासे 
व्याकु जीव कहँ भी क्योनदहों मेरा दिया इभा यह 
तिखोदक उनको तृषि प्रदान करे ॥ ३६ ॥ हे दप! 
इस प्रकार मैने तुमसे यह काम्यत्पणक निरूपण किया 
निके कनेसे मनुष्य सफल संप्तारको वक्त कर देता 
हे ॥३७॥ ओर है अनघ | इस प्रका उपरक्त जीवोको 
रद्रप्रवैक कोम्यज-दान करनसे उसे जगवेकी तृतिसे 
होनेवाल पुण्य प्राप होता है ॥ ३८ ॥ तदनन्तर 
आचमन करके पूर्वदेवो जसमन्चलि दे ] [ उत समय 
इस प्रकार कहै--] (भगवान्‌ विवखानकछषो नमस्कर है 
जो वेद्-बेय ओर विष्णुकरे तेजघखसरूप है तथा नगत्को 
उतवन्न करनेधाले, अति पित्र एवं कमेकि सक्षी है | 

तदनन्तर जलामिषेक ओर पुष्प तथा धूपादि 
निनेदन करता हआ गृहदेव ओर दृष्टदेवका पूजन करे । 
हे दप ! फिर अपूर्वं अननिहोत्र करे, उसमे पहले ब्रह्माको 
ओर तदनन्तर क्रमशः प्रजापति, गृह्य, काद्य ओर 
अनुभतिको आदपूषैक आृति्यौ दे ॥ २९-४२ ॥ 
उक्षसे बचे हए हव्यको प्ृधिी ओर मेधके 
उद्देद्यसे उदकपत्रमे,# धाता ओर व्रिधाताके उदुदेद्यसे 


% वह भर पात्र जो अग्निहीत्र करते समय समीपम रख किया जाता है ओर जिसमे (दन्न ममः कहकर 


आहृतिका शेष भाग छोड़ा जाता है । 


9८ ` १५१ 





~~~ ~--~----------~------~-------------~-~-----------~--- 


दारे धातुविधातुथ मध्ये च ब्रह्मणे क्षिपेत्‌ । 


गृह्य पुरूपन्याघ्र दिण्देवानपि मे शृणु ।॥४३॥ 
इनद्राय धर्मराजाय वरुणाय तथेन्दवे। 
प्राच्यादिषु बधो दधादुधुतशेषात्मक बलिम्‌ ॥४४॥ 
प्रागुत्तर च दिगभभागे धन्वन्तरिं बुधः । 
निवेयद्शदेषं च करम॑इर्यादतः परम्‌ ॥४५॥ 
वायव्यां वायते दिष्चु समस्ता यथादिशम्‌ । 
ब्रह्मणे चान्तरिक्षाय भानवे च क्षिपेद्वरिमर्‌ ॥४६॥ 


धिश्वेदेवान्धिश्वभूतानथ विश्वपतीन्यितुन्‌ । 
यक्षाणां च स्ुदिश्य परि द्ान्मरेशर्‌ ॥४५७॥ 


 ततोऽन्यदन्नमादाय भूमिभागे शुचौ बुधः । 
दघादशेषभुतेभ्यस्स्वेच्छया पु्तमाहितः ॥४८॥ 
देवा मयु्याः परयो वांसि 
 - सिद्रास्षयक्षोरगदैत्यसक्गः । 
प्रेताः _ पिदाचास्तरवस्समस्ता 
ये चान्नमिच्छन्ति मयात्र दत्तम्‌ ॥४९॥ 
पिपीलिकाः दीरपतद्गकादया 
बुध्षिताः _ _ कूरमनिबन्धद्राः | 
प्रयन्तु ते तभिमिदं मयान्नं 
, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु ॥५०॥ 
येषांन. मतान पिता नबन्धु- 
नैवान्नरिद्विन तथान्नमस्ति । 
ततपतयेन्नं अषि दत्तमेतत्‌ 
ते यान्तु तिं सृदिता भवन्तु ॥५१॥ 
भूतानि _ सर्वाणि _तथान्नमेत- 


ददं च भिष्णनं ततोऽन्यद्स्ति | 








तसाद भूतनिकायभूत- 
मन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्‌ ॥५२॥ 
चतुर्दशो भूतगणो य॒ एष 


तत्र शिता येऽखिरुभूतसक्गाः । 


...---.--------------------=~---- 











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दररके दोनो ओर तथा ब्रह्मकरे उद्‌ देश्ये घरके मध्यमे 
छोड दे । हे पुरुषम्याघ्र ! अब भै दिक्पारुगणकी 
प्ूनाका वर्णन करता ह, श्रवण करो ॥ ४३ ॥ 

बुद्धिमान्‌ पुष्षको चष्धिये कि पूर्व, दक्षिण) 
पश्चिम ओर उत्तर दिशाओम करमशः इनदर, यम) वरुण 
ओर्‌ चन्द्रमाके च्य हृतशिष्ट सामग्रीसे बलि प्रदान 
करे | ४४ ॥ पूर्मं ओर उत्तर दिशाओं घन्वन्तरिकि 
ल्यि बलि दे तथा इसके अनन्तर वस्पिशदेव-कर्भ 
करे ॥ ४५।। बदिवैश्रदेवके समय वायष्यकोणमें वायुको 
तथा अन्य समस्त दिशाओंम वायु एवं उन दिशाओंको 
गकि दे, इसी प्रकार ब्रह्मा, अन्तरिक्नि ओर सैको भी 
उनकी दिशाओके अनुसार [ अर्थात्‌ मध्यमं ] बि 
प्रदा करे ॥ ४६ ॥ फिर हे नरेश्वर ! विश्वदेवो, 
विश्रभूतो, बिद्वपतियो, पितरौ ओर यक्षोके उदुदे्यसे 
[ यथास्यान ] बलि दान करे ॥ ४७ ॥ 

तदनन्तर बुद्धिमान्‌ व्यक्ति ओर अन्न केकर पित्र 
पथिवीपर समाहित-चित्तसे बैठकर सेच्छानुपार समस 
प्रागियोको बलि प्रदान करे ॥ ४८ ॥ [ उस समय इस 
प्रकार कदै--] देवता, मनुष्य, पञ्च, पक्षी, सिद्धः यक्ष; 
सर्प, दैव्य; प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा ओर भी चींटी 
आदि कीट-पतङ्ग ओ अपने कर्मबन्धनसे धे इए 
्वुशतुर होकर मेरे दिये इए अन्नकी इच्छा करते - 
है, उन सवके व्यि मै यह अन्न दान करता द्वे 
दृ्से परितृप्त ओर आनम्दित हो ॥ ४९-५० || जिनके 
माता, पिता अथवा कोई ओर बन्धु नहीं है तथा 
अन्न प्रस्तुत करनेका साधन ओर अन्न भी नहीं है 
उनकी तृकठिके छ्यि मेने परथिधीपर यह अन्न रखा है; 
वे इससे वृत होकर आनन्दित हो ॥ ५१ ॥ समपूरण 
प्राणी, यह अन्न ओर मे-सभी विष्णु है; क्योकि 
उनसे भिन्न ओर इछ है ही नहीं । अतः मै समस 
भूौका शरीररूप यह अन्न उनके परोषणके लभे 
दान करता द्र ॥ ५२ ॥ यह जो चौदह प्रकारका 
भूतसमदाय है उक्तम जितने भी प्राणिसमुदाय है 

^ __ __ __------ 








® चौदह भूतसमुदार्योफा वणैन इसत प्रकार फिया गमा है-- „ _, लका 
अटनं दैनं ैयमयोन्यस्च पर्वधा मवति 1 मनुष्यं चैकलिधं समासतो मैतिकः सेः ॥ 





उन सबकी वृप्निके धियि मैने यह्‌ अन्न प्रस्तुत किया 
है; वे इससे प्रसन्न हो? ॥ ५३॥ इस प्रकार उचारण 
करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूवेक समस्त जीवोके 


ुप्सयरथमन्न हि मया विसृष्ट 
तेषामिदं ते रुदिता भवन्तु ॥५२॥ 


ह ुच्चायं नरो द्यादन्नं श्रद्धासमन्वितः । 
यवि सर्वोपकाराय गृहो सर्वाश्रयो यतः ॥५४॥ 
श्वचाण्डाहविहङ्कानां अवि दचयान्नरेर । 
ये चान्ये पतिताः फेचिदयपुत्राः सन्ति मानवाः) ५५॥ 
ततो गोदोहमात्र वै कालं तिष्ठद गृहाङ्गणे । 
अतिथिग्रणार्थाय तदूध्वं तु यथेच्छया ॥५६॥ 
अतिथिं तत्र समप्राप् पूजयेत्‌ स्वागतादिना । 
तथासनप्रदानिन पादग्रक्षालनेन च ॥५७॥ 
श्रद्धया चान्नदानेन प्रियप्रहनोत्तरेण च । 
गच्छतशानुयानेन प्र तिपुर्यादयेद्‌ गही ॥५८॥ 
अन्नातङुरनामानमन्यदेश्ादुपागतम्‌ । 
पूजयेदतिथिं सम्यङ्‌ नेकग्रामनिषासिनम्‌॥५९॥ 
अकिथ्चनमसम्बन्धमन्नातङ्करुरीर्टिनम्‌ । 
अपनम्पू्यातिर्थिं क्ल भोक्त्‌ कामं व्रजत्यध्‌; ६० 


स्वाध्य।यगोत्राचरणमपृषट च तथा इलम्‌। 


दिरण्यगमयुद्धया तं मन्येताभ्यागतं गृही।६१। 


पित्रथं चापरं विप्रमेकमप्याशरयेन्तरप। 


तदर्यं विदिताचारसम्भूतिं पाश्चयत्तिकम्‌ ॥६२॥ 


अन्नाग्रशच सयुद्धरस्य हन्तकारोपकन्पितम्‌। 
निर्वापभूतं भूपा श्रोत्रियायोपपादयेत्‌ ॥६२॥ 





उपकारके ल्य प्रथिवीमे अन्नदान करे, क्योकि 
गृहस्थ ही सवका आश्रय दै।। ५४ ॥ ह्‌ नरेश्वर! 
तदनन्तर कुत्ता, चाण्डार, पक्षिगण तथा ओौरमभी 
जो कोड पतित एवं पुत्रहीन पुरुष हो उनकी वृपतिके 
लिये प्रथिवीमे बलिभाग रखे ॥ ५५ ॥ 


फिर गो-दोहनकारपयन्त अथवा इच्छानुसार 
इससे भी छु अधिक देर अतिथि प्रहण करनेके 
लिये घरे अंगने रहे | ५६ ॥ यदि अतिथि आ 
जाय तो उसका स्वागतादिसे तथा आसन देकर 
ओौर चरण धोकर सत्कार करे ॥५७॥ फिर 
्रद्धपूवेक भोजन कराकर मधुर बाणीसे प्रशरोत्तर 
करके तथा उसके जानेके समय पीक्ठे-पीष्ठे जकर 
उसको प्रसन्न करे ॥ ५८ ॥ जिसके कुल ओर नामका 
कोई पतान हो तथा अन्य देश्चसे याहो उसी 
अतिथिका सत्कार करे, अपने ही गौँवमें रहनेवाछे 
पुरुषकी अतिथिरूपसे पूजा करनी "उचित नहीं है 
॥ ५९ ॥ जिसके पास कोष्ट सामप्री नहो, जिससे 
कोह सम्बन्ध न हो, जिसके कुल-शीखका कोई पता 
नहो ओर जो भोजन करना चाहता हो उस 
अतिथिका सत्कार क्रिये बिना भोजन करनेसे 
मनुष्य अधोगतिको प्राप्न होताहै ॥ ६० ॥ गृहस्थ 
पुरुषको चाहिये कि आये हए अतिथिके अध्ययन, 
गोत्र, आचरण ओौर कुर आदिक वि षयमें कुछ मी 
न पृषछठकर हिरण्यगमैःचुद्धिसे उसकी पूजा करे 
॥ ६१ ॥ हे सृप ! अतिथि-सत्कारङे अनन्तर अपने 
ही देश्चके एक ओर पाश्चयन्ञिक ब्राह्मणको जिसके 
आचार ओर कुक आदिका ज्ञान हो पिवृगणके छिपे 
भोजन करावे ॥ ६२॥ हे भूपाल । [ मनुष्ययज्ञक्र 
बिधिसे (मनुष्येभ्यो हन्त! इत्यादि मन्त्ोचारणपूवंक)] 
पहसे ही निकाख्कर अख्ग र्खे हुए हन्तक्रार 
नामक अन्रसे उस श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन 
करावे | ६३ ॥ 


भर्थात्‌ आठ प्रकारका देवसम्बन्धी, पाच प्रकारका तिर्थग्योनिसम्बन्धी भौर एक प्रकारका मनुष्ययोनिसम्बन्धी--यह 
संक्षेपे भौतिक सर्गं कहराता है । इसका पृथक्‌-पृथक्‌ विवरण द प्रकार है-- 


सिद्धगुद्यकगन्धवंयक्षराक्षसपक्षगाः 
सरीसपा वानराश्च पश्वो खगपक्षिणः 


। विद्याधराः पिशाचाश्च निर्दिष्टा देवयोनयः ॥ 
नन = 
। तियन्न इति कथ्यन्ते परचेता: प्राणिजातयः ॥ 


अर्थसिद्ध, गुद्यक, गन्धव, यक्ष, राक्षस, सपं, विद्याधर भौर पिशाच~-ये भाठ देवयोनियां मानी गयौ ह तथा 
सरीसृप, वानर, पशु, मृग ( जंगी प्राणौ ) बौर पक्षी--ये पच तिर्यक्‌ योन्यां कही गथी है । 


श्रीविष्णुपुराण 





दा च भिक्षात्रितय परिवाटु्रह्मचारिणाम्‌। 
इच्छया च बुधो ददया्धिभवे सत्यवारितम्‌ ॥६४॥ 
इत्येतेऽतिथयः प्रोक्ताः प्रागुक्ता भिक्षवश्च ये। 
चतुरः पूजयितैतान्यृप पापास्भुच्यते ॥६५॥ 
अतिथिर्यस्य भग्नो गृहास्तिनिवतते । 





स तस्त दुष्टृतं दत्वा पुण्यमादाय गच्छति ॥६६॥ 
धाता प्रजापतिः शक्रो बद्िव॑सुगणोऽय॑मा । 








परविश्यातिथिमेते वे य॒ञ्जन्तेऽन्नं नरेर ॥६७॥ 
तस्मादतिथिपूजायां यतेत सततं नरः। | 
स केवरुमपं यडक्तं यो युड्कते हयतिथि विना।६८॥ 





ततः स्ववाधिनीदुःखिगर्भिणीषृदधवालकान्‌ । 
मोजयेत्संस्कृतान्नेन प्रथमं चरमं गृही ॥६९॥ 
अथुक्तवस्ु चैतेषु युञ्जन्धक्त स दुष्टृतम्‌। 
मृत गला नरक ररेष्मयुग्जायते नरः ॥७०॥ 
अस्नाताक्ञी मलं अङ्क्ते यजपी पूयशोणितम्‌ । 


असंस्कृतान्नयमूत्ं बालादिप्रथमं श्रत्‌ ॥७१॥। 
अहोमौ च कृमीनधद्कते जदा निपमसतते। 
तसमाच्छुणु्वरनेन्दर यथा चुञ्जीत वै गृही ॥७२। 
युञ्धतथ यथा पुंसः पापबन्धो.न जायते । 

इह चारोग्यविपुलं बलबुद्धिस्तथा सृप ।॥५७२॥ 
भषर्यरषटशान्तिथ वैरिपक्षाभिवारिका । 
स्नातो यथावतृतवा च देविपितृत्पणम्‌ ।७४।॥ 
प्रश्स्तरस्नपाणिस्तु युञ्जीत प्रयतो गृह्य । 

करते जपे हृते वह्वौ बुद्धवक्धरो नृप ॥७५॥ 


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| अ० १९ 


इस प्रकार [ देवता, अतिथि ओर ब्राह्मणको ] 
ये तीन भिक्षा देकर, यदि सामथ्ये हौ तो 
परित्ाजक ओर ब्रह्मचारि्ोको भी बिना लौटाये 
हुए इच्छानुसार भिक्षा दे ॥ ६४ ॥ तीन पहर तथा 
भिष्ुगण-ये चारों जतिथि कडि है । दे राजन्‌ ¦ 
इन चारोका पूजन करनेसे मसुष्य समस्त पापां 
मुक्त हो जाता दै ॥ ६५ ॥ जिसके घर्से अतिथि 
निरा होकर छौट जाता दै उसे बह अपने पाप 
देकर उसके शुभकर्मोको छे जाता हे । ६६॥ ह 
नरेश्वर ! धाता, प्रजापति, ईन्द्र, अग्नि, वसुगण 
ओर अर्यमा-ये समस्त देवगण अतिधिमे प्रविष्ट 
होकर अन्न भोजन करते द ॥ ६७ ॥ अतः मुष्यको 
अतिथि-पूजाके लिये निरन्तर प्रयल्न करना चादिये। 
जो पुरुष अतिथिके बिना भोजन करता दै बहतो 
केवर पापही भोग करता ह ॥ ६८ ॥ तदनन्तर 
गृहस्थ पुरुष पिवृगहमे रहनेवारी विवाहिता कन्या, 
दुखिया ओौर गर्भिणी खी तथा चद्ध जीर बाखकोको 
संस्कृत अन्नसे भोजन कराकर अन्तम स्वयं भोजन 
करे॥ ६९ जो मनुष्य इन सबको भोजन कराये बिना 
स्वयं भोजन कर खेता है बह पापमय भोजन करता 
है सौर अन्तम मरकर नरकम कफ भक्षण करनेवाला 
कीड़ा होता है ।॥ ७० ॥ जो म्यक्ति स्नान किये.बिना 
भोजन करता दै बह मल भक्षण करता, जप 
किये बिना भोजन करनेवाला रक्त आओौर पूय पान 
करता है, संस्कारहीन अन्न खातेवाछा मूत्र पान 


करता है तथा जो बारक-वृद्ध आदिसे पहले आहार 
करता है वह विष्ठाहारी है ॥ ५७१॥ इसी प्रकार 
विना होम किये भोजन करनेवाखा मानो कौडे 
खाता दहै भौर बिनादान किये खनिवाला विषः 
भोजी है। 

अतः हे रजेन्द्र ! गृहस्थको जिसप्रकार भोजन 
करना चाहिये- जिस प्रकार भोजन करनेसे पुरुष- 
को पाप-बन्धन नहीं होता तथा इहलोकमे अत्यन्त 
आरोग्य, बर-बुद्धिकी प्रापि ओर अरिष्ौकी शान्ति 
होती है भौर जो शवुपक्चका हास करनेवारी दे-वह्‌ 
भोजनविधि सुनो । गृहस्थको चाहिये किं स्नान 
करनेके अनन्तर यथाचिधि देव, ऋषि ओर पिवृगण- 
का तर्पण करके हाथमे उत्तम रत्न धारण क्ये 
पविच्रतापूवंक भोजन करे। हे चप! जप तथा 
अग्निहोत्रके अनन्तर शुद्ध बखर धारणकर अतिथि, 


| 2 क 1 6 „= १४ 


अ० ११] 


तृतीय अं 


२४३ 





------------------------------------------ ~~ 


पुण्यगन्धश्कस्तमाल्यधारी चैव नेर ॥७६॥ 
एकवस्धरोऽथाद्रफणिपादो महीपते । 
विशुद्धवदनः परीतो सुञ्जीत न विदिद्ञलः ॥७५॥ 
्रादशचसोददुखो वापि न चैवान्यमना नरः) 


अने प्रशस्तं पथ्यं च प्रोक्षितं प्रोक्षणोदकैः ॥७८॥ 
न इस्सिताहतं नैव जगुप्ावदसंस्कृतम्‌ ॥७९॥ 
द्खा तु भक्त शिष्येभ्यः भुधितेभ्यस्तथा गृही। 
्ररस्तशुद्धपात्रे तु सखीताङ्पितो सृप ॥८०॥ 
नासन्दिसंस्थिते पात्रे नदेशे च नरेश्वर । 
नाकाले नातिसद्कीणे दच्वाग्रं च नरोऽनये ॥८१॥ 
मनस्त्रामिमन्तितं शस्तं न च पथुपितं नष । 
अन्यत्र फलमूलेभ्यशनरुष्कशाखादिकात्तथा ॥८२॥ 
तदद्धारीतकेभ्यश्च गुडभक्षयेभ्य एव च । 
युञ्लीतोदधृतसाराणि न कदापि नरेधर ॥८३॥ 
नाशेषं पुरुपोऽदनीयादन्यत्र जगतीपते । 
मध्वम्बुदधिसर्पिभ्यस्सक्ुभ्यशच विवेकवान्‌ ॥८५॥ 
अश्नीयात्तन्मयो भूत्वा पूवं तु मधुरं रसम्‌] 
रुबणाम्हो तथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्ततः॥८५॥। 
्राद्रवं पुरुषोऽदनीयान्मध्ये कठिन भोजनः। 

भन्ते पुनद्र॑वाशी तु बह्ारोग्ये न इशत ॥८६॥ 


अनिन्द्यं भक्षयेदिस्थं बाग्यतोऽक्म्घत्सयन्‌। 


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बृद्धो ) को भोजन करा सुन्दर सुगन्धदायक उन्तम 
पुष्पमाला तथा एक ही चख धारण किये हाथ-पाँब 
ओर ह धोकर प्रीतिपूवेकं भोजन करे । 
हे राजन्‌ ! भोज्नके समय इधर-उधर न देखे 
॥ ७२.७७ || ममुष्यको चाहिये कि पूवं अथवा 
त्तरकी ओर मुख करके, अन्यमना न होकर उत्तमं 
ओर पथ्य अन्नको प्रोक्षणके श्य रखे हुए मन्त्रपृत 
जसे छिडक कर भोजन करे 1 ७८॥ जो अन्न 
दुराचारी व्यक्तिका लाया हुभा दयो, घृणाजनक हो 
अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कारभून्य हो उसको 
प्रहणन करे। दहे राजन्‌ } गृहस्थ पुरुप अपने 
खाद्मेसे कुछ अंञ्च अपने शिष्य तथा मन्य भूखे- 
प्यासोंको देकर उत्तम ओर शुद्ध पामे शान्तचित्तसे 
भोज्ञन करे ॥ ७९-८०॥ ह नरेश्वर ! किसी वेत 
दिके आसन ( कुसी आदि } पररखे हुए पत्रमे, 
अयोग्य स्थानम, असमय ( सन्ध्या आदि काठ) 
मर अथवा अत्यन्त संकुचित स्थानम कमी भोजन 
न करे । मलुष्यको चाहिये कि | परोसे हए 
मोजनका ] अभ्रमाग अग्निको देकर भोजन करे 
॥ ८१॥ हे सृप ! जो अन्न मन्त्रपूत ओर प्रस्त ह 
तथा जो बासी न हयो उसीको भोजन करे । परन्तु 
फल, मूल भौर सूखी जञालाभोंको तथा बिना 
पकाये हृए लेह्य ( चटनी ) आदि भौर गुद्के 


पदार्थके छथि ठेसा नियम नहीं है । हे नरेश्वर 


-सारहीन पदार्थोको कमी न खाय ॥ ८२८ ॥ 


हे प्रथिवीपते ! विवेको पुरुष मधु, जलः दही, घौ 
ओर सन्तके सिवा ओौर क्रिसौ पदा्थको पूरा न 
खाय ॥ ८४॥ 

भोजन एका्रचित्त होकर करे तथा प्रथम 
मधुर रस, फिर लवण भौर अम्ड (खटा) रस 
तथा अन्तम कटु ओौर तीखि पदार्थोको खाय 
॥ ८५।] जो पुरुष पहले द्रव पदार्थोको, वीचमें 
कटिस वस्तुओंको तथा अन्तम फिर द्रव पदार्थोको 
ही खाता है बह कभी बल तथा आरोग्यसे हीन 
नद्य होता ॥ ८६॥ इस प्रकार चाणीका संयम 
करके अनिषिद्ध अन्न मोजन करे | अन्नकौ निन्दान 
करे. } प्रथम पच प्रास अत्यन्त मौन होकर प्रहण 


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युक्त्वा सम्यगथाचम्य प्रादूयलोददयुखोऽपि बा। 
यथावत्पुनराचामेस्पाणी प्रक्षाल्य मरतः ॥८८॥ 
स्वस्थः प्रशान्तचित्तस्तु कृतासनपरिग्रहः । 
अभीष्टदेवतानां तु कंवीत स्मरण नरः ॥८९॥ 
अग्निरप्याययेद्धातुं पार्थिवं पवनेरितः। 
दत्तावकाश नभसा जरयत्वस्तु मे सुखम्‌ ॥९०॥ 
अन्नं बलाय मे भूमेरषामग्न्यनिरस्य च | 
भवस्येतस्परिणतं ममास्त्वम्याहतं सुखम्‌ ॥९१॥ 
प्राणापानसमानाना्रदानन्यानयोस्तथा । 
अन्नं पुष्टिकरं चास्त॒ ममाप्यव्याहतं सुखम्‌ ।।९२॥ 

सगस्तिरग्नियंडवानलश्च 

यक्त मयान्नं जरयत्वेषम्‌ । 
सुखं च मे तर्परिणामसम्भवं 
यच्छन्त्वरोगो मम चास्तु देहे ।।९३॥ 

विष्णुस्समस्तेन्दरियदेददेदी 

प्रधानभूतो मगवान्यथेकः । 
तेनात्तमरेषमन- 

मारोग्यदं मे परिणाममेत्‌ ॥९४॥ 
विष्णुरत्ता तथैवान्नं परिणासश्च बै तथा । 
सत्येन तेन मद्भक्त जीयंखममिदं तथा ॥९५॥ 
इतयुचायं स्वहस्तेन परिशरज्य तथोदरम्‌ । 
अनायासप्रदायीनि इर्या्कर्माण्यतद्धितः ॥|९६॥ 
सच्छान्ादिविनोदेन सन्मार्गादविरोधिना। 
दिनं नयेत्ततस्सन्ध्यायुपतिष्टेत्समादितः ।९७॥ 


सस्येन 


दिनान्तसन्ध्यां दूरेण पू्वामृपेयुतां बुधः । 
उपतिषटे्यथाम्याय्यं सम्यगाचम्य पाथिव ॥९८॥ 


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सवंकारयुपस्थानं सन्ध्ययोः पाथिवेष्यते | 





भोजनके अनन्तर मली प्रकार आचमन करे ओर 
फिर पूवं या उत्तरकी ओर मुख करके हाथोको उनके 
मूलदेशतक धोकर विधिपूवेक आचमन करे॥८८॥ 


तदनन्तर, स्वस्थ ओर शान्त-चिन्तसे आसनपर 
बैटकर अपने इष्टदेवोंफा चिन्तन करे ॥ ८९॥ 
[ ओर इस प्रकार कहे- ] “[ प्राणल्प ] पचनसे 
मरञ्वङ्ति हुभा जठराग्नि आकारके द्वारा 
अवकारयुक्त अन्नका परिपाकं करे ओौर [फिर 
अन्नरससे ] मेरे क्षरीरके पार्थिव धातुओंको पुष्ट 
करे जिससे मुह्ये सुख प्रप्र हो ॥ ९० ॥ यदह अन्न 
मेरे शरीरस्थ प्रथिवी; जर, अग्नि ओर वायुका 
वर बद़ानेबाखा हो अओौर इन चारों तरवींके रूपमे 
परिणते हुभा यह्‌ अन्न ही सश्च निरन्तर सुख 
देनेवारा हो ॥ ९१॥ यह अन्न मेरे प्राण, अपान, 
समान); उदान ओर व्यानकी पुष्टि करे 
तथा सुश्च भी निर्बाध सुखकी भ्रापि हो ॥९२॥ 
मेरे खाये हुए सम्पूणं अन्नका अगस्ति नामक अग्नि 
अर बड़वान परिपाक करे, मुषे उसके परिणामसे 
होनेवाखा सुख प्रदान करं ओर उससे मेरे क्चरीरको 
आरोग्यता प्रप्र हो ।। ९३॥ देह ओर इन्द्रियादिके 
अधिष्ठाता एकमात्र मगवान्‌ विष्णु ह प्रधान है 
हस सत्यके बरसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न 
परिपक्र होकर युश्चे आरोग्यता प्रदान करे ॥ ९४॥ 
"भोजन करनेवाला, भोऽ्य अन्न ओर उसका 
परिपाक-ये सव विष्णु ही हैः-इस सत्य भावनाके 
बरसे मेरा खाया हुआ यह्‌ अन्न पच जायः॥ ९५॥ 
पेखा कहकर अपने उद्रपर हाथ फेरे भौर सावधान 
होकर अधिक श्रम उत्पन्नन करनेवाङे कार्यों 
लग जाय ॥ २६ ॥ सच्छाश्लौका अवरोकन आदि 
सन्मागके अविरोधी विनोदोँसे शेष दिनो 
ग्यत्तीत करे भौर फिर सायंकार्के समय 
सावधानतापूवंक सन्ध्योपासन करे ॥ ९७ ॥ 

दे राजन्‌ ! बुद्धिमान्‌ पुरुषको चाहिये कि 
सायंकारूके समय सूयके रहते हए भौर प्रातःकार 
तारागणके चमकते हुए ह भप्रकार आचमनादि 
करफे विधिपूवेक सन्ध्योपासन करे ॥ ९८ ॥ दे 
पायिव | सूतक(पुत्र-जन्मादिसे हयोनेवाली अञ्जुचिता), 
अशौच ( मरत्युसे होनेवाली अशुचिता ), उन्माद, 


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[याका ाीााािााििनिानिााने 





अन्यत्र सतकाश्लोचविधरमातुरमीतितः ॥९९॥ 
पूर्येणाभ्युदितो यथ च्यक्तः सूर्येण बा स्वपन्‌ । 
अन्यत्रातुरभावात प्रायधित्ती भवेनरः ॥६००॥ 
तस्मादमुदिते ष्ये सयुस्थाय महीपते । 
उपतिष्टेनरस्सन्ध्यामस्वपंथ दिनान्तजाम्‌।१०१। 
उपतिष्ठन्ति वै सन्ध्यां ये न पूर्वा न पधिमाम्‌। 
व्रजन्ति ते दुरासमानस्तामिखं नरक नृप ॥१०२॥ 
पुनः पाकयुपादाय सायमप्यवनीपते | 
वैश्वदेवनिमित्तं वै परन्यमन््रं बिं हरेत्‌ ॥१०२॥ 
त्रापि श्पचादिभ्यस्तयैवान्नविसर्जनम्‌ । 

अतिथि चागतं तत्र स्वशक्तया पूजयेद्‌ बुधः ।१०४। 
पादौ चासनप्रहस्वागतोक्त्या च पूजनम्‌। 
ततश्वान्नप्रदानेन शयनेन च पार्थिव ॥१०५॥ 
दिवातिथौ तु बिभुखे गते यत्पातक सृप | 
तदेवाष्टगुणं पुं्स््रर्योदे विुखे गते ॥१०६॥ 
तस्मार्स्वशक्त्या राजेन्द्र घर्योढमतिथि नरः। 
पूजयेत्पूनिते तस्मिन्पूजितास्सवदेवता; ॥ १०७॥ 
अनशाकाम्बुदानेन स्वशक्त्या पूजयेत्पुमान्‌ । 
शयनप्रस्तरमहीग्रदानैरथवापि तम्‌ ॥१०८॥ 
कृतपादादिशनौचस्तुभुक्सवा सायं ततो गृ 
गच्छेच्छय्यामस्फुरितामपि दारुमयीं सतृष ॥१०९॥ 
नाविक्ालां न वै मग्नां नासमां महिना न च। 

न च जन्तुमयीं श॒च्यामधितिष्ेदनास्त्रताम्‌।॥। ११०॥ 
प्राच्यां दिशि रिरश्शस्तं याम्यायामथ बा चृप। 
सदैव स्वपतः पुंसो विपरीतं तु रोगदम्‌॥१११॥ 





रोग ओर भय आदि कोई बाधानहोतो प्रतिदिन 
हौ सन्ध्योपासन करना चाहिये ॥ ९९ ॥ जो पुरुष 
सग्णावस्थाको छोडकर जीर कभौ सूेके उदय 
अथवा अस्तक समय सोता है वह प्रायश्ित्तका 
भागी होत्ता है ॥ १०० ॥ अतः हे महीपते ! गृहस्थ 
पुरुष सूर्योदयसे पूं हो उठकर प्रातम्सन्ध्या करे 
ओर सायंकालमे भी तत्कालीन सन्ध्यावन्दन फर; 
सोवे नदीं । १०१॥ हे नृप ! जो पुरुष प्रातः अथवा 
सायंकारीन सन्ध्योपासन नहीं करते वे दुरात्मा 
अन्धतामिचख नरकमे जति दै ॥ १०२॥ 


तदनन्तर हे प्रथिवीपते! सायंकार्के समय 
सिद्ध किये हए अन्नसे गृहपल्नी मन्हीन बलिवैश्वदेव 
करे । १०३ ॥ उस समय भो उसी प्रकार शपरच 
आदिके दिये अन्नदान करना चाष्िये । बुद्धिमान्‌ 
पुरुष उस समय आये हुए अतिधिका भी 
सामथ्यौवुसार सत्कार करे ॥ १०४ ॥ हे राजन्‌! 
प्रथम पव धाने, आसन देने भौर स्वागत-सू चक 
विनम्र वचन कहनेसे, तथा फिर भोजन करने 
ओौर रायन करानेसे अतिथिका सत्कार किया जाता 
है ॥ १०५॥ हे चप! दिनके समय अत्तिथिके 
लौट जानेसे जितना पाप छगता है उससे आटगुना 
पाप सूयस्तके समय ौटनेसे होता दै ॥ १०६॥ 
अतः हे रजेन्द्र! सूर्यास्ते समय आये हुए 
अतिथिका गृहस्थ पुरुष अपनी सामध्यौनुसार 
अव्य सत्कार करे; क्योकि सकरा पूजन करनेसे 
ही समस्त देवताओंका पूजन हो जाता हे ॥ १०५७॥ 
मनुष्यको चाहिये किं अपनी क्चक्तिके अनुसार उसे 
भोजनके छ्यि अन्न, क्चाक या जल देकर तथा सोनेके 
लिये शय्या या घास-पफूसका विदछछौना अथवा प्रथिवी 
ही देकर उसका सत्कार करे ॥ १०८॥ 


हे यूप ! तदनन्तर गृहस्थ पुरुष सायकालका 
भोजन करके तथा ह्‌थ्पवं धोकर दिद्रादिहीन 
काष्ठमय श्य्यापर छेद जाय ॥ १०९ ॥ जो काफो 
बड़ी नहो, टूटी हृद हो, ऊँची-नीची हो, मल्नि हो 
अथवा जिसमे जीव होँंया जिसपर कुछ बिछा 
हज न हो उस क्य्यापर न सोवे ॥ ११० ॥ 
हे शप ! सोनेके समय सदा पूवं अथवा दक्षिणकी 
ओर सिर रखना चाहिये । इनके विपरीत 
दि्ाओंकी ओर जिर रखना रोगकारकदे ॥ १११॥ 





२४६ 


श्रीविष्णुपुराणे 


[ अ० ११ 





ऋतावुपगमदशस्तस्स्वपरन्यामवनीपते । 


ए्सामक्षगुमे करे ज्येष्ठायुग्मासु रात्रिषु ॥११२॥ 
नागरूनां तु सिय गच्छेन्नातुरां न रजस्वलम्‌ । 

नानिष्टं न प्रकुपितां न त्रस्तां न च गभिणीम्‌ ११३ 
नादक्षिणां नान्यकामां नाकामां नान्ययोषितम्‌। 


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ुरक्षामां नातिथक्तां बा स्वयं चभिगुणयुतः।११४। 


स्नातस्छगन्धधृकप्ीतो नाप्मातःभुधितोऽपि वा| 
सकामस्साञरागश्च व्यवायं पुरुषो व्रजेत्‌ ॥ ११५ 
चतुदर्यष्टमी चैव तथामा चाथ प्रूणिमा | 
पर्वाण्येतानि रजेन्द्र रबिसंकरान्तिर च ॥११६॥ 
तेरस्लीमां पसम्भोगी सर्व्वेषु वै परमान्‌। 
विफमूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः ॥१६७॥ 
अरेषप्वस्वेतेषु तस्मात्संयमिभिबुधेः । 
भाग्यं सच्छासदेवेव्याध्यानजप्यप्रनैरः ॥११८॥ 
नान्ययोनावयोनो वा नोपयुक्तौषधस्तथा । 
दविजदेवगुरूणां च व्यवायी नाश्रमे मवेत्‌ ॥११९॥ 
चैत्य चत्वरतीरथेषु नैव गोष्टे चतुष्पथे । 

नैव गरमश्षानोपवने सरेषु महीपते ॥१२०॥ 
परोक्तपवंस्रेेषु नैव भूपार सन्ध्ययोः । 
गच्छेदवयतरायं मतिमान्न मत्रोच्चारपीडितः। १२१ 
पवंस्वभिगमोऽधन्यो दिवा परापप्रदो नष । 


शेवि रोगावदहो न॒णामप्रशस्तो जलाशये ॥१२२॥ 
छ . 
परदारान्न गच्छेच मनसापि कथञ्चन | 








हे प्रथिवीपते! ऋतुकारमे अपनी ही खरीसे 
सङ्ग करना उचित है । पुँलिङ्गः नक्षत्रम युग्म ओौर 
उनमे मी पीछठेकी रात्रियोमें जुम समयमे सखप्रसङ्ग 
करे ।॥ ११२ । किन्तु यदि खली अप्रसन्ना) सोगिणी 
रजस्वला) निरमिराषिणी, कोधिता, दुःखिनी 
अथवा गभिणी हो तो उसका सङ्ग न करे॥ ११३ ॥ 
जो सीघे स्वभावकीन हो, परामिलाषिणी अथवा 
निरभिलापिणी हो, क्षुधातां हो, अधिक भोजन 
कयि हए हो अथवा परद्ली हो ठसक पास न जाय; 
ओौर यदि अपनेभेैये दोषहों तोभी ज्लीगमनन 
करे ।। ११४ ॥ पुरुषको उचित दहै कि स्नान करनेके 
अनन्तर माला ओौर गन्ध धारण कर काम ओौर 
असुरागयुक्त होकर श्ञीगमन करे! जिस समय 
अति भोजन किया हो अथवा क्षुधित हो उस समय 
उसमें प्रवृत्त न दहो ॥ १९५॥ 


हे रलजेन्द्र! चतुदंञ्ची, अष्टमी, अमावास्या, 
पूर्णिमा ओौर सू्यंकी संक्रान्ति-ये सव पवैदिन दै 
॥ ११६ ॥ इन पवेदिनोमे तैल, खी अथवा मासका 
भोग करनेवाला पुरुष मर्नेपर विष्ठा ओर मूत्रसे 
भरे नरकमे पड़ता हे ॥ ११७॥ संयमी ओर 
बुद्धिमान्‌ पुरुषोको इन समस्त पवंदिनोभं 
सच्छाखावलोकन, देवोपासना, यज्ञानुष्ठान, ध्यान 
ओौर जप आदिमे रगे रहना चाहिये ॥ ११८ ॥ 
गौ-छाग आदि अन्य योनियोसे, अयोनियोसे, 
ओौपधःप्रयोगसे अथवा ब्राह्मण, देवता ओर गुरुके 
आश्रमम कमी मेधुन न करे ॥ ११९॥ 
हे प्रथिवीपते! चैत्यवृष्षके नीचे, ओगनमे, तीथे, 
पञ्ुज्ञालामे, चौराहेषरः इमान, उपव नमे अथवा 
जलम मी मेथुन कस्ना उचित नदीं है ॥ १२०॥ 
है राजन्‌ ! पूर्वोक्त समस्त पवदिनोम प्रातःका 
ओर सायंकार्म तथा मरू-मूत्रके वेगके समय 
बुद्धिमान्‌ पुरुष मैथुनमें प्रवृत्त न हो ॥ १२१॥ 

हे चप! पवंदिनोमे खीगमन करनेसे धनकी 
हानि होती है; दिनम करनेसे पाप होता है, एरथिवीपर 
करनेसे रोग होते दहै ओौर जराशचयमे खीप्रसङ्ग 
करनेसे अमंगल होता दहै ॥ १२२॥ पर्खीसे तो 
वाणीसे क्या, मनसे मी प्रसङ्ग न करे, क्योकि उनसे 








परशख्मीको भासक्ति पुरुषको इहरोक ओर परश्टोक 
दोनों जगह भय देनेवार है; इहलोकमे उसकी 
आयुक्षीणहो जाती है ओर मरनेपर वह नरकमें 
जाता है ।। १२४ ॥ पेसा जानकर बुद्धिमान्‌ पुरुष 
उपयुक्त दोसे रहित अपनी खीसे हये ऋतुकास्मे 
प्रसङ्ग करे तथा उसको विष अभिलपाहो तो 
सकामेष्वनृतावपि ॥ १ २५॥ । विना ऋतुकारके भौ समन करे ॥ १२५॥ 


मरतो नरकमभ्येति दीयतेऽतरापि चायुषः | 
परदाररतिः पुंसामिह चाघुत्र भीरिदा ॥१२४॥ 
इति मत्व स्वदारेषु ऋतुमत्सु बुधो त्रनेत्‌ । 
यथोक्तदोषहीनेषु 


~~~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे वतीयं ऽश एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥ 


[षौ 


बारहवा अध्याय 
गृदस्थसम्बन्धी सदाचारका वर्णन 


€ 
अवं उवाच 


देवगो्राह्मणान्सिदधान््राचार्यास्तथाचयेत्‌ । 





ओव योले-गृहस्थ पुरुपरको नित्यप्रति देवता, 
गौ, ब्रह्मण, सिद्धगण, बयो वद्ध तथा आचायको पूजा 
करनी चाहिये ओर दोनों समय सन्ध्यावन्दन तथा 


द्रिका च नमेस्सन्ध्यामग्नीनुपचरेत्तथा । १॥ | अग्निहोत्रादि कम करने चाहिये ॥ १॥ गृहस्थ पुरुष 


सदानुपहते वस्ते प्रशस्ताश्च महौषधीः । 
गारुडानि च रत्नानि विभरयास्मयतो नरः ॥२॥ 
प्रस्निग्धामलकेदशथच सुगन्धशाशुवेपध्रक्‌ । 
सितास्ुमनसो हृशा बिभृयाचच नरस्सदा ॥३॥ 
किथित्परसवं न हरेनाल्पप््यप्रियं वदेत्‌ । 
भियं च नानतं जरयान्नान्यदोषादुदीरयेत्‌ ॥४॥ 
नान्यस्ियं तथा वैरं रोचयेदुरुष्॑म | 
न दुष्टं यानमरोहेरकूरच्छायां न संप्रयेत्‌ ॥५॥ 
विदिष्टपतितोन्मत्तवहुवरादिषीटकैः । 


वन्धकी बन्धकोभतुः कषुद्रारृतक्यैस्द ॥६।॥; 


॥॥ 


तथातिष्ययकीर्च परिादरतैषरैः । 
बुधो मैत्री न इवत नैकः पन्थानमाश्येत्‌ ॥७॥ 
नावगाहैज्जलोषस्य वेगमग्रे नरेश्वर । 
प्रदीप वेदम न विरेनारोदेच्छिखरं तरोः ॥८॥ 








सदा हौ संयमपूचकं रहकर विना कीस कटे हु 
दो वख; उत्तम ओषधिं ओर गारुड ( मरकत 
आदि विष नष्ट करनेवारे ) रत्न धारण करे ॥ २॥ 
वह्‌ केडौको स्वच्छ ओर चिकना र्खे तथा सव॑दा 
सुगन्धयुक्त सुन्दर वेष ओौर मनोहर उबेतयुष्प धारण 
करे ॥ ३ ॥ किसीका थोड्-सा भी धन हरण न करे 
सौर थोड्ा-सा भी अग्रिय भाषण नकरे। जो 
मिथ्या हो एेसा प्रिय बचनमभी कभीन बोरे ओर 
न कभी दृसरोके दो्षोको ही कहै ॥ ४॥ है पुरुष- 
र्ठ ! दृससको खी अथवा दृस्रोके साथ वैर 
करनेमे कभी रुचि न करे, निन्दिते सवारीमे कभी 
न चदे ओर नदीतीरकी छायाका कमी आश्रयन 
ठे॥५॥ बुद्धिमान्‌ पुरुष लोकचिष्ठि्ट, पतित, 

न्मत्त ओर जिसके बहुत-से शवर देसे पर-पीडक 
पुरुषोके साथ तथा हुखरा) कुखटाके स्वामी, क्षुद्रः 


.। मिभ्यावादी, अति व्ययङ्ील, निन्दापरायण ओर दुष्ट 


पुरुषोके साथ कभी मित्रता नकरे ओौरन कभी 
मागमे अकेला चले ॥ ६-७॥ दे नरेश्वर ! जल- 
प्रवाहके वेगम सामने पड़कर स्नान न करे, जरते हप 
घरमे प्रवचन करे ओौर वृक्षक चोटौपर न चदहे।॥८॥ 


२४८ 


भ्रीविष्णुपुराण 


॥ अ० १२ 





न इर्यादन्तसङ्कषं इप्णीयाच्च न नासिकाम्‌ । 
नासंबृतुलो नम्भेच्छरासकासौ विजयेत्‌ ॥९॥ 
नोच्चेरैसेत्छरब्दं च न शुच्येस्यवनं बुधः । 
नखान खादयेच्छिन्ध्ा् तृणं न महीं लिचेत्‌॥१०॥ 
न इमशरु मक्षयेद्नोश न मृद्नीयाद्िचक्षणः । 
ज्योतीष्यमेध्यशषस्तानि नाभिवीक्षेत च प्रभो ।११ 
नग्नां परस्त्रियं चैव द्यं चास्तमयोदये । 

न हृच्छयं गन्धं वरबगन्धो हि सोमजः॥१२॥ 
चतुष्पथं चैसयतरुं दमङ्ानोपवनानि च । 
दटसतीसनिकषै च वयेनिशि सवदा १३ 
पूर्यदेवद्विजञ्योतिद्छायां नातिक्रमेद्‌ बुधः| 
नेकददू्यारवीं गच्छेत्तथा दून्यगृे वसेत्‌ ॥१४॥ 
केशारिथकण्ट कामेध्यवहिभस्मतुपास्तथा । 
स्नानार्रधरणीं चैव दूरतः परिवर्जयेत्‌ ॥१५॥ 
नानार्यानाश्रयेतकांधिन्न जिह्यं रो चेद्‌ बुधः । 
उपसरयेन्न वै म्यां चिरं तिष्टेन्न बोस्थितः ।॥१६॥ 
अतीव जागरस्वप्ने तद्वरस्नानासने बुधः 

न सेवेत तथा शय्यां व्यायामं च नरेश्वर ॥१५७॥ 
ंष्ट्िणदणद्धिणश्व परो द्रेण वजयेत्‌ 
अवरयायं च रलेन्द्र पुरोबातातपौ तथा ॥१८॥ 
न स्नायान्न स्वपेन्नमनो न रोवोपर्पशेद्‌ बुधः। 
युक्तकेशथ नाचामेदरेवाचर्चा च प्रजेेत्‌ ॥१९॥ 
होमदेवार्चनाच्ासु क्रियासाचमने तथा। 
नैकवस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिके जपे ॥२०॥ 
नासमञ्जसशीरेस्तु सदासीत . कथश्चन । 
सदूदृत्तसनिकर्षो हि णादि शस्यते ॥२१॥ 
विधं नोत्तमरगच्छेनाधमैथ सदा बुधः | 


(९ 
^ ~ „(0 > ~ ~) || 














दौतौको पररस्परन पिसे, नाककोन छरुरेदै तथा 
मुखको व॑द कि हृए जमुहाश्न केओौर नवद्‌ 
मुखसे वसि या श्वास छोडे ॥ ९॥ बुद्धिमान्‌ पुरष 
जोरसे नदहँसे ओर शब्द्‌ करते हुए अधोवायुन 
छोडे; तथा नखोको न चावि, तिनका न तोड़े भौर 
प्रथिवीपरभी न ङ्खि॥ १०॥ 


हे राजन्‌ ! विचक्षण पुरुष मृँछ-दादोके बालोंको 
न चववे, दो देलोको परस्पर न रगड़े ओौर अपवित्र 
एवं निन्दित नक्ष्रोको न देखे ॥ ११ ॥ नग्न परली. 
को अर उदय अथवा अस्त होते हुए सूयंको न देखे 
तथा श्व आओौर हव-गन्धसे घृणा नल करे; काकि 
ङव-गन्ध सोमका अंश है ॥ १२॥ चौराहा, चैत्य- 
क्ष, हमश्चान, उपवन ओर दुष्टा ख्लीको समीपता-- 
दन सवका सात्रिके समय सवेदा त्याग करे ॥ १३॥ 
बुद्धिमान्‌ पुरुष अपने पूजनीय देवता, ब्राह्मण ओर 
तेजोमय पदार्थोकी छायाको कभी न लपि तथा 
शुन्य बनखण्डी भौर शून्य घरमे कभी अकेला न 
रहे ॥ १४ ॥ केश, अस्थि, कण्टक) अपवित्र वस्तु, 
बलि, भस्म, तुष तथा स्नानके कारण भीगी हृ 
प्रथिवीका दूरहीसे त्याग करे ॥ १५ ॥। प्राज्ञ पुरुषकरो 


चाहिये किं अनायं व्यक्तिका सङ्ग न करे, कटि 
पुरषमे भासक्तन हो, सपैके पासन जाय ओर 
जग पडनेपर अधिक दैरतक लेटा न रदे 1 १६॥ 
हे नरेश्वर ! बुद्धिमान्‌ पुरुष जागने, सोने, स्नान 
करने, वैठने, शय्यासेवन करने ओौर व्यायाम 
करनेमे अधिक समय न रगावे ॥ १७॥ हे राजेन्दर! 
प्राज्न पुरुष दात ओर सींगवाछे प्रञयुभको, भसक। 
तथा सामनेकी वायु ओर धूषको सवंदा परित्याग 
करे | १८ ॥ नग्न होकर स्नान, शयन ओौर अआच- 
मनन करे तथा केश खोलकर आचमन भौर देव- 
पूजन न करे । १९॥ होम तथा देवाच॑न आदि 
क्रियाओंमे, आच मनम, पुण्याह बाचनमे ओर जपमें 
एक चख धारण करके प्रवृत्तन हो।। २० ॥ संराय- 
शीर व्य्तियोके साथ कमी न रहे। सदाचारी 
पुरुषोका तो आधे क्षणका सङ्ग भी भतिश्चय प्रशंस 
नीय होता है ॥ २१॥ बुद्धिमान्‌ पुरुष उत्तम अथवा 
अधम व्यक्तियोसे विरोध नकरे। हे राजम्‌! 
विवाह ओौर विवाद सदा समान ग्यक्तियोसे द्री 
भ , , न, | ~~ 1) 











नारभेत कटिं प्रा्शुष्कवैरं च वर्जयेत्‌ । | माज परप कलह न बद्व तथा व्यथं वैरका भौ 
[3 ( क त्य र प- # कि ( चै 
अप्यन्पदानिस्सोढव्या वैरेणार्थागभे त्यजेत्‌ ॥ २३।| वयग कर । सौ दानि सह्‌ ठ किन वैरसे इछ 


. ॥ .. ॥ खभहोताहोतो हसे भौ छोड दे।२२॥ स्नान करने- 
स्नातो नाङ्घानि सम्माजत्स्नानकषाख्या न पाणिना के अनन्तर स्नानसे मीगी हुई धोती अथवा हाथोसे 


नच निधू तयेतकेशान्नाचामेच्चैव चोर्थितः || २४॥| ररीरको न पे तथा खडे-खदे शोको न काढ 
` | ओर आचमनमभीन करे ॥ २४॥ पैरके उपरपै 
पादेन नाक्रमेत्पादं न पूञ्यामिग्ुखं नयेत्‌। (४ (एत 


=, ~ „ रखे, गुरजनोके सामने पैर न फैलाबे ओर धृष्टता- 
नोच्चासनं गुरोरमरे भजेताविनयान्वितः ॥२५॥ पूवक उनके सामने कमी उच्चासनपर न बैठे । २५॥ 


अपसय्यं न गच्छेय देवागारचतुष्पथान्‌ । । देवालय, चौरा, माङ्गलिक द्रभ्य ओर पूर्य 


माङ्गल्थपूर्यांथ तथा विपरीतान्न दक्षिणम्‌ ॥२६। । ठ्यक्ति-हइन सरको बायीं भोर रखकर न निकठे तथा 
सोमारकम्यम्बुवाय॒नां पूज्यानां ८ | दरनफे विपरीत वस्तुओंको दायीं भोर रखकर न 
~ बु शूना षू ^ नाच नसम्खम्‌। जाय ॥ २६॥ चन्द्रमा, सूय, अग्नि) जर, वायु ओर 
ङान्निषठीवविण्सतरसद्त्सगं च पण्डितः ॥२७॥ पूथ्य भ्यक्तियोके सम्मुख पण्डित पुरुष मल-मूत्र-त्याग न 
तिष्ठन्न मूत्रयेत्दर्पथिष्वपि न मूत्रयेत्‌ । करे भौर न थूके ह ॥ २७॥ खड़-खदे अथवा मागमे 
दहेष्मविष्पूत्रस्तानि सवदैवन रद्घयेत्‌ ॥२८॥ | मूक्त्याग न करे तथा रृखेष्मा ( युक्त }, विष्ठा, मूत्र 
शिक्ाणिकोः ओर रक्तको कभी न रोधि ॥ २८ ॥ भोजन, देवपूजा, 
र्प्पशिङ्ञाणिकोत्पर्गो नान्नकाले प्रशस्यते । | माङ्गलिक कायं जर जपहोमादिके तमय तथः 
यलिमङ्गरुजप्यादौ न होमे न महाजने ।॥२९॥ मह्‌पुर्पोके सामने धूकना ओौर छीकना उचित 
योषितो नावमन्येत न चासां विश्वसेद्‌ बुधः। नहीं है ॥ २९ ॥ बुद्धिमान्‌ पुरुष च्ियोका अपमान न 
हि ॥ करे, उनका विश्वास भौ न करे तथा उनसे ईष्या 

न चैवेप्यां मवेत्तासु न धिक्डूर्याकदाचन ॥२०॥ (ओर उनका तिरस्कार भी कभी न करे ॥ ३०॥ 
मङ्गल्यपुष्परत्नाम्यपूल्याननमिवाद्य च । ,सदाचारपरायण शआा्ञ पुरुष माङ्गलिक द्भ्य, पष्प, 
रस्न, घृत ओर पूर्य व्यक्तियोका अभिवादन किये 

न निष्क्रमेद्‌ गृदाखान्ञस्सदाचारपरो नरः ॥२१॥ | बिना कभी अपने घरसे न निकले ।। ३१॥ चौरा 
चतुष्पथान्नमस्यर्यातकारे होमपरो भवेत्‌ । को नमस्कार करे, यथासमय अग्निहोत्र करे, दीन- 


खियोका उद्धार करे ओौर बहुश्रत साधु पुरुषोका 
दीनानभ्युद्ररेर्ाधूनुपासीत बहुश्रुताय ॥३२॥ सलग करे ॥ ३२॥ ध 





देषरपिषूजकस्सम्यकतुषिण्डोदङ्प्रदः । ` जो पुरुष देवता ओर ऋषियोकी पूजा करता है, 
सत्कर्ता चातिथीनां यः स रोकालु्मान््रञेत्‌। ३३॥| पिदणणको पिण्डोदक देता दे भौर भतिभिका स्कार 


हका ककव समाक --- | करता दहै बह्‌ पुण्यलोकोंको जाता है ॥ ३३॥ जो 
हितं मितं प्रियं कारे वश्यात्मा योऽभिभपते। व्यक्तिं जितेन्द्रि होक्रर समयानुसार हित, मित 
स याति लोकानाहादरेतुमुतान्तृषाक्षयान्‌ ॥२४॥| जौर प्रिय भाषण करता दै, है राजन्‌ ! वह्‌ आनन्द- 
धीमान्हीमान्क्षमायुक्तो ह्यास्तिको विनयान्वितः । 3 अक्षय लोकौको शा होता ६ ॥ १॥ 

2 ` ---; | बुद्धिमान्‌; छजलावान्‌, क्षमाश्षीट, आस्तिक ओर 
विद्याभिजनबृद्धानां याति लोकाननुत्तमान्‌ ॥२५॥ विनयी पुरूष विद्धान्‌ ओर करुखीन पुरुषोके यम्य उत्तम 


ले 6 लोकोमे जाता है ॥ ३५॥ अकाल मेघगजेनके समय 
॥ ¢ नो ५९१ € 1 
अक्रारगजितादौ च पवेस्वाभौचकादिषु । सविर लो य कतमे तथाचन नो रूषरणः 


अनध्यायं बुधः कु्यादुपरागादिके तथा ॥२६॥ | क समय बुद्धिमान्‌ पुष अध्ययन न करे ।। ३६ ॥ 
वि० प०--३२ 














२५० 








भ्रीपिष्णुपुराण 





[ अ० १२ 








मीताश्वासनद्त्साधुस्स्वगंस्तस्याल्पक एलम्‌। ३७। 





वर्षातपादिषु च्छ्री दण्डी रात्यटवीषु च| 
शरीरत्राणकामो वे सोपौनत्कस्सदा व्रजेत्‌ ॥३८॥ 


जो भ्यक्ति क्रोधितको शान्त करता है, सवका बन्धु 
हे, मटसरशुन्य दै, भयमीतको सान्त्वना देनेवारा 
है ओर साधु-स्वभाव है उसके स्यि स्वगतो 
बहुत थोड़ा फल है ॥ २७॥ जिसे श्चरीर-रक्षाकी 
इच्छा दो वह पुरुष वषा ओौर धूषमे छाता छेकर 
निकटे, रातनिके समय ओर बनमें दण्ड छेकर जाय 
तथा जहाँ कहीं जाना हो, सवेदा जूते पहनकर 





नोध्वं न तिय॑गदूर वा न प्र्यन्पयंटेद्‌ बुधः। 
युगमात्रं महीपं नरो गच्छेदविषटोकयन्‌ ॥३९॥ 
दोषहेतूनरोषांश्च वश्यात्मा यो निरस्यति । 
तस्य पू्माथकामानां हानिर्नाल्पापि जायते ॥४०। 
सदाचाररतः प्राज्ञो विद्याविनयरिक्षितः। 


पापेऽप्यपापः परुषे द्यभिधतते प्रियाणि यः। 








मैत्रीद्रबान्तःकरणस्तस्य शक्तिः करे स्थिता ॥४१॥ 
ये कामक्रोधलोभानां वीतरागा न मोचरे। 

(~ © 
सदाचारस्थितास्तेपामसुमवधेता मरी ॥४२॥ 
तस्मास्सत्यं बदैत्ाज्ञो यस्परप्ीतिकारणम्‌ । 
सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत्‌ ॥४३॥ 


्रयप्क्तं दितं नैतदिति मत्वा न तद्रदेत्‌। 





भ्रेयस्तत्र हितं वाच्य यद्यप्यत्यन्तमप्रियम्‌ ॥४४॥ 


प्राणिनामुपकाराय यथैवेह पसर च । 








कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतिमान्भनेत्‌ ।॥४५॥ 


जाय ॥ ३८ ॥ बुद्धिमान्‌ पुरुषको उपरकौ ओर, 
इधर-उधर अथवा दूरके पदार्थोको देखते हए नदीं 
चलना चाहिये, केवल युगमाच्र (चार हाथ) 
प्रथिवीको देखता हुमा चके ॥ ३९॥ 

जो जितेन्द्रिय दोषके समस्त हेतुओंको त्याग 
देता है उसके धमे, अथं ओर कामकी थोड़ी-सी 
भीहानि नहीं होती ॥४०॥ जो विद्या-विनय- 
सम्पन्न,सदाचारी प्राज्ञ पुरुष पापीके प्रति पापमय 
व्यवहार नदीं करता, कुटिल पुरुषोंसे प्रिय भाषण 
करता है तथा जिसका अन्तःकरण भैत्रीसे द्रबीभूत 
रहता दहै, मुक्ति उसकी सुद्धीमे रहती है ॥४१॥ 
जो घौतराग महापुरुष कभी काम, क्रोध ओर 
लोभाद्रिके वशीभूत नहीं होते तथा सवेदा 
सदाचारमें स्थित रहते दै उनके प्रभावसे ही प्रथिवी 
टिकी हदे ॥ ४२।। अतः प्राज्ञ पुरुषको वही 
सस्य कहना चाहिये जो दृसरोकी प्रसन्नताका 
कारण हो| यदि करंसी सत्य वाक्यके कहनेसे 
दृसरोको दुख होता जाने तो मौन रहे ॥ ४६॥ 
यदि प्रिय चाक््यकोभी अषह्ितकर समक्चेतो चसे 
न कषे; खस अवस्थामें तो हितकर वाक्यद्री कहना 
अच्छाहे, भले ही वह्‌ अत्यन्त अग्रियक्यौन दहो 
॥ ४४॥ जो कायं इहलोक भौर परलोकमे प्रागिर्योके 
हितका साधक हो, मतिमान्‌ पुरुष मन, वचन 
ओर कमंसे उसीका आचरण करे ॥ ४५॥ 








०११... क," १५५०५० ~ 








आभ्युदयिक धाद्ध, परेतकमे तथा ाद्धादिका विचार 


वं उवाच 

सचैलस्य पितुः स्नानं जाते पुत्रे विधीयते। 
जातकं तदा इर्याच्छद्मम्बुदये च यत्‌॥ १॥ 
युग्मान्देवांथ फित्यां श सम्यक्सम्यक्रमाद्‌ दिजान्‌। 
पूजयेद्धोजयेच्चैव तन्मना नान्यमानसः ॥ २॥ 
दभ्यक्षतैस्सवदरेःप्राडषुखोदट्मुखोऽपि वा | 
देवतीर्थेन वै पिण्डान्दब्यात्कायेन वा सृप ॥२॥ 
नान्दी्ुख; पित्रगणस्तेन भराद्धेन पाथिव। 
रीयते तत्त॒ कर्तव्यं पुरुैस्प्वृद्िषु ॥ ४॥ 
कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशेषु च वेश्मनः । 
नामकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा।॥ ५॥ 
सीमन्तोन्नयने चैव पत्रादिधुखदशने । 
नान्दीगुखं पितगणं पूजयेसखयतो गृही ॥६॥ 
पितुपूजाक्रमः प्रोक्तो बृद्रावेष सनातनः | 
भ्रूयतामवनीपा प्रेतकर्मक्रियाविधिः ॥७॥ 
्ेतदेहं शुभैः स्नानैस्स्नापितं सग्विभूषितम्‌ । 


दग्ध्वा ग्रामाद्बहिः स्नात्वा सचेलस्सिलाशये॥ ८॥ 
यत्र तत्र स्थितायैतदयुकायेति वादिनः। 


दक्षिणाभिमुखा दब्ररबान्धवास्सलिलाज्ञलीन्‌ ।९॥ 
प्रविष्टाश्च समं गोभिग्रामं नक्षघ्रदश्ने | 


९ 6.९ [> 
कटकमं ततः कयुभूमो प्रस्तर्ायिनः ॥१०॥ 


दातभ्योऽनुदिनं पिण्डः प्रेताय सुवि पाथिव । 
दिवा च भक्तं मोक्तव्यममांसं मुजषम | ११॥ 


दिनानि तानि चेच्छातः कतंब्यं विप्रभोजनम्‌। 





१ अंगुलियोके अग्रभाग । २ कनिष्ठिकाका मूखभाग । 








ओव बोज्े-पुत्रके उत्पन्न होनेपर पिताकौ 
सचे (वस्त्रो सहित) स्नान करना चाहिये । उसके 
पथात्‌ जात-कमे-संस्कार ओौर आभ्युदयिक श्राद्ध 
करने चाहिये ॥ १ ॥ फिर तन्मयभाव से अनन्यचित्त 
होकर दैवता ओर पितृगणके ल्यि क्रमः दायीं 
ओर बाथीं भोर विठाकर दो-दो ब्राह्मणोँका पूजन 
करे ओर उन्ह भोजन करावे ॥२॥ हे राजन्‌! 
पूवं अथवा उत्तरी ओर सुख करके दधि, अक्षत, 
भौर बद्रीफङ्से बने हुए पिण्डोको दैवतीथै' या 
प्रजापति तीथंसे" दान करे ॥ ३॥ हे ए्रथिवीनाथ ! 
दस आभ्युदयिक श्राद्धसे नान्दीमुख नामक पितृग्ण 
प्रसन्न होते है । अतः सव प्रकारकी अभिवृद्धि 
समय पुरुषोंको इसका अनुष्ठान करना चाहिये 
॥ ४ ॥ कन्या ओर पुत्रके विवा, गृहप्रवेशचमे, 
वारकरोके नामकरण तथा चूडाकमे आदि संस्कारो, 
सीमन्तोन्नयन-संस्कारमे ओर पुत्र आदिफे मुख 
देखनेके समय गृहस्थ पुरुष एकाग्रवित्तसे नान्दीमुख 
नामक पिच्रगणका पूजन करे ॥ ५-६॥ हे एथिकीपा | 
आभ्युदयिक श्राद्धमे पिच्रपूज्ञाका यह सनातन क्रम 
तुमको सुनाया, अब प्रेतक्रियाकी विधि सुनो ॥ ७॥ 

बन्धु-बान्धवोको चाहिये कि मरी प्रकार स्नान 
करानेके अनन्तर पुष्प-माङाओंसे विभूषित वका 
गौँवके बाहर दाह करं ओर फिर जछाञ्चयमें 
वखसहित स्नानकर दक्षिण-मुख होकर ्यत्र तत्र 
स्थितायैतदमुकाय 2 आदि वाक्यका उच्चारण करते 
हुए जलाञ्चलि दे ॥। <-९॥ 


तदनन्तर गौधूलिके समय तारा-मण्डलके दौखने 
लगनेपर प्राममे प्रवेश्च करं ओौर कट कमं(अश्चौचडस्य) 
सम्पन्न करके प्रथिवीपर वृणादिकौ श्चय्यापर यन 
करं ॥ १० ॥ हे प्रथिवीपते ! मृत पुरुषे लिये निस्य- 
प्रति प्रथिवीपर पिण्डदान करना चाहिये ओर हे 
पुरुषश्रेष्ठ ! केवल दिनके समय मांसदहीन भात खाना 
वाषिये ॥ ११ ॥ अश्षौच कालम, यदि ब्राह्मणो 
इच्छादहयो ता उन भोजन कराना चाहिये, क्योकि 


® अर्थात्‌ हमलोग अमुक नाम-गोव्रवाे प्रेतके निमित्त, वे जरह कही भी हों यह्‌ जल देते हैँ । 


२५२ 


रेता यान्ति तथा त्नं बन्धुवर्गेण अज्ञता ॥१२॥ 
परथमेऽद्वि तृतीये च सप्तमे नवमे तथा | 
वह्छस्यागवदिस्स्नाने कृष्वा दद्याचिरोदकम्‌ ।१३। 
चतुर्थेऽद्वि च करतवय तस्यारिथिचयनं नुप । 
तदु्वमङ्कसंस्यदस्सपिण्डानामपीप्यते ॥१४॥ 
योग्यास्सवक्रियाणां तु समानसलिलास्तथा । 
अनुकेपनपुष्पादिभोगादन्यत्र पार्थिव ॥१५॥ 
दाय्यासनोपभोगश्च सपिण्डानामपीष्यते। 
भस्मास्थिचयनादध्वं संयोगो न तु योषिताम्‌।१६। 
बाले देशान्तरस्थे च पतिते च मुनौ मूते । 
सद्यर्शौचं तथेच्छातो जलाम्न्ुदधन्धनादिप्‌॥ १७॥ 
मृतबन्धोदेशाहानि कुलस्यान्नं न युज्यते । 

दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायश्च निवत॑ते ॥१८॥ 
विग्रस्यैतद्‌ दवादक्चाहं राजन्यस्याप्यश्नौचकम्‌। 
अर्घमासं तु वैदयस्य मासं शूद्रस्य शुद्धये ॥१९॥ 
अयुजो भोजयेत्कामं द्विजानन्ते ततो दिने । 
ददयादर्षु पिण्डं च प्रतायोच्छिष्टसन्निधो ॥२०॥ 
वार्यायुधप्रतोदास्तु दण्डश्च द्विजमोजनात्‌ । 
स्र्टव्योऽनन्तरं वणः बुद्ेरनते ततः क्रमात्‌॥ २१॥ 
ततस्स्ववणधर्मा ये विग्रादीन्दाहृताः । 
तान्डुवीत पमाञ्जीवेनिजधर्माजनैस्तथा ॥२२॥ 


भ्रीषिष्णुपुराण 


यायात यिनि 


[ अ० १३ 











उस समय ब्राह्मण ओौर बन्धुवगेके भोजन करनेसे 
मरत जोवकी दृति होती है ॥ १२ ॥ अशौचके पहर, 
तीसरे, सातये अथवा नवे दिन वश्च त्याग कर भौर 
बहिरदैशमें स्नान करके तिरोदक दे ॥ १३॥ 


हे चप! अक्चौचके चौथे दिन अस्थिचयन करना 
चादिये; उसके अनन्तर अपने सपिण्ड बन्धुजनोका 
अङ्ग सञ्च किया जा सकता दै ॥ १४॥ हे राजन्‌ ! 
उस समयसे समानोदकक्षः पुरष चन्दन ओर 
पुष्पधारण आदि क्रियाओके सिवा [ पश्चयज्ञादि ] 
ओर सव कमं कर सकते ह ॥ १५॥ भस्म भौर 
अस्थिचयनके अनन्तर सपिण्ड पुरषोद्रारा शय्या 
ओर आसनका दपयोगतो किया जा सकतादै 
किन्तु ख्ी-संसगं नहीं किया जा सकता ॥ १६॥। 
बाखक, देश्ान्तरस्थित व्यक्ति, पतित ओौर तपस्वीके 
मरनेपर तथा जख, अग्नि भौर उदूबन्धन ( फसी 
लगाने) आदिद्वारा आत्मघात करनेपर श्ीघ्रही 
अश्ञौचकी निवृत्ति दहो जाती दै] ॥ १७॥ मृतकके 
कुदधम्बका अन्न दद दिनतक न खाना चाहिये तथा 
अङञौचकारमे दान, परिप्रह्‌, ह्ये ओर स्वाध्याय 
आदिकमंमीन करने चाहिये ॥ १८ ॥ यह्‌ [ दश 
दिनका ] अशौच ब्राह्मणका दै; क्षत्रियका अज्ञौच 
यारह्‌ दिन ओौर वैरयका पंद्रह दिन रहता है तथा 
शु ्रकी अशयौच-लुद्धि एक मासमे होती दे ॥ १८॥ 
अस्यौ चके अन्तमें इच्छानुसार अयुग्म ( तीन, पच) 
सात, नौ आदि) ब्राह्मणोको भोजन करावे तथा 
उनकी उच्छिष्ट ( जूठन ) के निकट प्रेतकौ तृ्िके 
ल्यि क्ु्ापर पिण्डदान करे ॥ २० ॥ असच शुद्धि 
हो जानेपर ब्रह्मभोजके अनन्तर ब्राह्मण आदि चारो 
बर्णोको क्रमश्च; जढ, शखर, कोड़ा ओर. खठोका 
स्प करना चाद्ये ॥ २१॥ 

तदनन्तर, ब्राह्मण आदि वणेकि जो-जो जातीय 
धर्म घतलये गये दहै उनका आचरण करे; भौर 
स्वधमीनुसार उपार्जित जीवि कासे निवह करे ॥२२॥ 





* समानोदके ( तर्पणादिभमै समान जराधिकारी भर्थात्‌ सगोत्र ) ओर सपिण्ड ( पिण्डाधिकारी ) की व्या्या 


कू्मपुराणमें इस प्रकार कौ है- 


सपिण्डता तु पुस्पे सक्षम विमिवतेते । समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने ॥ 


|“ ॐ ५ = नि 


____,_,__------------------~--~-~-~-- 
मृताहनि च करतंव्यमेकोदिष्टमतः परम्‌ । 
आदह्वानादिक्रियादैवनियोगरहितं हि तत्‌ ॥२३॥ 
एकोऽध्यस्तत्र दातव्यस्तचवैकपयित्रकम्‌ । 
प्रेताय पिण्डो दातव्यो शुक्तवस्मु द्विजातिषु ॥२४॥ 





ग्रधश्च तत्राभिरतिर्यजमानेदिजन्मनाम्‌ | 
क्षय्यमदुकस्येति वक्तव्यः विरतौ तथा ॥२५॥ 
एकोदिष्टमयो धम ईइत्थमावत्रास्स्फरतः । 
सपिण्डीकरणं तसिमिन्काले राजेन्द्र तच्छृणु ॥२६॥ 
एकोदिष्टविधानेन कायं तदपि पार्थिव । 
संवत्सरेऽथ पषटेवा मासे वा द्वाद्शेऽद्ि तत्‌ ॥२७॥। 
तिरगन्धोककैयुक्तं तत्र॒ पात्रचतुषटयम्‌ । 

पात्रं प्रेतस्य तत्रकं पैत्रं पात्रत्रयं तथा ॥२८॥ 
सेचयेदपितपात्रेपु मरेतपात्रं ततसिपु । 

ततः पितृत्वमापने तसिमन्परते महीपते ॥२९॥ 
श्राद्धर्मरेैस्त तसू्वानचयेतपिन्‌ 
पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातुसन्ततिः। ३०॥ 
सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रिया नृप जायते । 
तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः ॥३१॥ 
मातुपक्षसरपिण्डेन सम्ब्वा ये जहेन वा | 
कुरद्येऽपि चोच्छिन्ने सीभिः कार्याक्रियाचृपर२ 
सद्धातान्तेतैरवापि कार्याः प्रेतस्य च क्रियाः| 
उत्सन्नवम्धुरिक्थाद्रा कारयेदवनीपतिः ॥३३॥ 
पूर्वाः क्रिया मध्यमाश्च तथा चैवोत्तराः क्रियाः। 


त्रिप्रकाराः क्रिया; सर्वास्तासां मेदं भृणुष्व मे ।३४॥ 
आदाहवार्यायुधादिस्प्शाबन्तास्त याः क्रियाः 


ताः पूर्वा; मध्यमा मासि मास्येकोदिष्टसक्गिताः २५ 














तातपि पदयनयम 


फिर प्रतिमास म््युतिथिपर एकोदिष्टश्राद्ध करे 
जो आवाहनादि क्रिया ओर विड्वेदेवसभ्बन्धी 
ब्राह्मणक आमन्त्रण भदिसे रहित होने चाये 
|| २३ ॥ उस समय एक अघ्यं ओर एक प्वि्रक 
देना चाहिये तथा बहूत-से ब्राह्मणोँके भोजन करनेपर 
मी मृतकके द्यि एक ही पिण्ड दान करना चाये 
| २४ || तदनन्तर, यज्ञमानके 'अभिरम्यत्ताम्‌' एला 
कहनिपर्‌ ब्राह्मणगण अभिरताः स्मः पेसा कटै ओर 
पिर . ण्डदान समाप्त होनेपर "अगुकस्य अक्षस्य 
मिदमुपषठताम्‌" इस वाक्यका उन्रारण कर्‌ ॥ २५॥ 
इस प्रफार एक वपेतक प्रतिमासर एकोदिषटकमं 
करनेका विधान हे। है रजेन्द्र! वषके समाप्न 
होनेपर सपिण्डीकरण करे; उसकी बिधि सुनो ॥ २६॥ 

हे पार्थिव ! इस सपिण्डीकरण कमंको भी एक 
वषं, छः मास भथवा बारह दिनके अनन्तर एको दिष्ट 
श्राद्धकी विधिसे हयी करना चाहिये ॥ २७॥ इसमें 
ति, गन्ध ओर जसे युक्तं चार पात्र र्खे । इनर्भेसे 
एक पाच्च मृत पुरूषका होता है तथा तीन पिकृगण्के 
होते दै।। २८॥ फिर मृत पुरुषके पात्रस्थित जखादि- 
से पिकृगणके पात्रोंका सिच्छन करे । इस प्रकार मृत 
पुरुषको पित्व प्राप्त दो जानेपर सम्पूणं श्राद्धधर्मो- 
के द्वारा उस मृत पुरुषसे हौ आरम्भ कर पितृगणका 
पूजन करे । हे राजन्‌ ! पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भै, 
भतीजा अथवा अपनी सपिण्ड सन्ततिभे उत्पन्न हुआ 
पुरुष ह श्राद्धादि क्रिया करनेका अधिकारी होता है। 
यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदककौ सन्तति 
या मातृपक्षफे सपिण्ड अथवा समानोदकको इतका 
अधिकार है । है राजम्‌ ! माव ओर पिवृङ्कर 
दोनोकेनष्टहो जनिपरख्रीही इस क्रियाकोकरे 
॥ २९-३२॥ अथवा [यदिखीभीनतदहोतो] 
साथियोमैसे ही कों करे या बान्धवद्दीन मृत्तकके 
धनसे राजा ही उसके सम्पूणं प्रेत-कमं करे ॥ ३३ ॥ 

सम्पूणं प्रेत-कमं तीन प्रकारके द-पूवेकमः 
मध्यमक तथा उत्तरकमे । दूनके प्रथक्‌.प्रथक्‌ लक्षण 
सुनो ॥ ३४ ॥ दाहसे छेकर जल ओौर शख आदिके 
स्यच पर्थन्त जितने कमं द उनको पूवंकमं कहते 
ह तथा प्रयेकं मासमे जो एकोदिष्टशराद्ध किया 
जाना है वह मध्यसकमं कहछाता हे ॥ ३५1 





रते पितृत्वमापन्ने स््ण्डकरणादतु | 
क्रियन्ते याः क्रियाः पत्यः प्रोच्यन्ते ता नृपोत्तराः 
पितमातुसपिण्डेस्त॒ समानसलिलिस्तथा । 
स॒द्ातान्तभंतैरवापि रान्ना तद्धनहारिणा ॥२७॥ 
पूर्वाः क्रियादच कतंव्या; पत्राचैरेव चोत्तराः । 
दौवा नृपश्रेष्ठ कार्यास्तचनयैस्तथा ॥३८॥ 
मृताहनि च करत॑व्याः स्लीणामप्युत्तराः क्रियाः | 
प्रतिसबत्रं राजन्नेकोदिष्टतरिधानतः ॥३९॥ 
तस्मादुत्तरस्ञायाः क्रियास्ताः भृणु पार्थिव) 

यथा यथा च कतया विधिना येन चानघ ॥४०॥ 











ओर हे सृप ! सपिण्डीकरणके पश्चात्‌ भृतक व्यक्ति 
पित्त्वको प्राप्रहो जानेपर जो पितृकमे किये जाते 
है वे उत्तरक्मं कहते हे ।। ३६ ॥ माता, पितता, 
सपिण्ड, समानोदक, समूहके रोग अथवा उसके 
धनका अधिकारी राजा पूवंकमं कर सकते है; किन्तु 
उत्तरकमं केवल पुत्र, दौहित्र आदि अथवा उनकी 
सन्तानको ही करना चाहिये ॥ २७.३८ ॥ हे राजन्‌! 
प्रतिवषं मरण-दिनपर खियोका भी उन्तरकमे एको- 
दिषटश्राद्धकी विधिस्चे अवरस्य करना चाहिये ॥ ३९॥ 
अतः है अनघ} उन उत्तरक्रियाओंको जिस- 
जिसको जिस-जिस विधते करना चाये, वह 
सुनो ॥ ४० ॥ 


१/9 भ ११ ~न 


इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयं ऽश 


त्रयोदशोऽभ्य)यः।। १३॥ 


चोदहर्षँ अध्याय 


श्राद्ध-प्रशंसा, श्राद्धमे पात्रापात्रका धिचार 


ओव उवाच 

्रहमन्द्ररुद्रनासत्यसूर्याग्निवसुमास्तान्‌ । 
विक्वेदेवान्पितुगणान्वयांसि मघुजान्पशून्‌॥। १॥ 
सरीसृपानुपिगणान्यच्ान्यद्धतसंञितम्‌ । 
राद्धं ्रदरान्वितःवु्वन्ीमयत्यखिलं जगत्‌ ॥ २॥ 
मासि सास्यसिते पक्षे पञ्चद्र्यां नरेश्वर । 
तथा्टकासु दुर्वी काम्यान्काराज्छृणुष् मे॥ ३॥ 
्ाद्धाहैमागतं द्रव्यं विशिष्टमथ वा द्विजम्‌ । 

श्राद्धं कुवीत विज्ञाय व्यतीपातेऽयने तथा ॥ ४॥ 
विपे चापि सम्प्राप्ते ग्रहणे शरिष्र्थयोः । 
समस्तेष्वेव भूपा रारिष्वके च गच्छति ॥ ५॥ 
नक्षत्रग्रहपीडापु दुष्टस्वम्रावोकने । 
इच्छाशराद्धानि वीत नवसस्यागमे तथा ॥ ६ ॥ । 
अमावास्या यदा मेत्रविक्ञाखास््रातियोगिनी । 





भद्ध पितृगणस्तरिं तथाप्नोसयष्टवारपिकीम्‌॥ ७॥ 


योव घोले-हे राजम्‌ } श्रद्धासहित श्राद्धकमे 
करनेसे मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, सद्र, अश्िनीक्कुमार, सूय, 
अग्नि, वसुगण्, मरुद्गण, विश्वेदेव, पितृगणः, पक्षी, 
मनुष्य, पशु, सरीसृप, ऋषिगण तथा भूतगण जादि 
सम्पूणं जगतको प्रसन्न कर देता है ।| १-२॥ हे 
नरेरवर ! प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी पच्चमी 
( अमावास्या ) ओर अष्टका ( हेमन्त जोर शिशिर 
ऋतुजओोके चार महीनोकौ श्युम्छा अभष्टमियां ) पर 
श्राद्ध करे 1 [ यह निव्यश्राद्धकाह है ] अव काम्य 
्राद्धका काट बततलाता ह श्रवण करो ॥ ३॥ 


जिस समय श्राद्धयोम्य पदार्थं या किसी विशिष्ट 
ब्राह्मणको घरमे आया जाने, अथवा जब उत्तरायण 
या दक्षिणायन आरम्भ या व्यतीपात हो तव काम्य 


| श्राद्धका सनुघ्ठान करे ॥ ४ ॥ विषुवसंकरान्तिपर, सूयं 


ओर चन्द्र ्रहणपर, सूयक प्रत्येक रारभे भवेस 
करते समय, नक्षत्र अथवा प्रहकी पीड़ा होनेपरः 
दुःस्वप्न देखनेपर ओौर घरमे नवीन अन्न आनेपर 
भी काम्यश्राद्धु करे ॥ ५.६ ॥ जो अमावास्या अनु- 
राधा, विज्ञाखा यास्वातिनक्षत्रथुक्ता हो, उसमें श्राद्ध 
करनेसे पिवृगण आढ वपत्तक वप्र रहते है ।॥ ७ ॥ 


अ० १४] 








अमावास्या यदा पुष्ये रौद्रे चकं पुनव॑षौ । 
द्रादश्ाब्दं तथा तुतत प्रयान्ति पितरोऽचिताः ॥\८॥। 
वासवाजेकपादकष पितृणां तृ्िमिच्छताम्‌ । 

वारुणे वाप्यमावास्या देवानामपि दुमा ॥९॥ 
यदैतेष्ववनीपते । 


तदा हि तृषि श्रां पितृणां श्रु चापरम्‌ ॥१०॥ 


नवस्वृक्ेष्वसायास्या 


गीतं सनस्छुमारेण यथैराय महात्मने । 


पृच्छते पितृभक्ताय प्रश्रयावनताय च ॥११॥ 
श्रौ सन्छुमार उवाच 
वैशाखमासस्य च या तुतीया 
नवम्यसौ कार्तिकशुङ्गपक्षे 
नमस्यमासस्य च कृष्णपक्ष 
त्रयोदशी पञ्चदशी च माषे ॥१२॥ 
एता युगाद्याः कथिताः पुराणे- 
ष्वनस्तपुण्यास्तिथयश्चतखः । 
चन्द्रमसो रवे 
त्रिष्वष्टकास्वप्ययनद्रये च ॥१३ 
पानीयमप्यत्र तिरेविमिभ्रं 
द्या्पितुस्यः प्रयतौ मरुप्यः । 
श्राद्धं कृतं तेन समासदसं 
रहस्यमेतद्पितरो वदन्ति ॥१४॥ 
माेऽसिते प्श्चदशी कदाचि- 
दुपेति योगं यदि वारणेन । 
ऋक्षेण कारस्य परः पितणां 
न ह्यल्पपुण्येनंप रभ्यतेऽपरौ ॥१५॥ 
कि धनिष्ठा यदि नाम तस्मि 
स्भयेततु भूषा तदा पितुभ्यः । 
दत्तं जलान्नं ्रददाति त्ति. 
वर्पायुतं तत्छलजैमंर्यः ॥१६॥ 
तत्रैव चेद्धाद्रपदा नु पूर्वा 


उपश्षवे 


तृतीय अष 


[याताया यायाय 





२५५ 





तथा जो अमावास्या पुष्य, आद्रा या पुनव 
नक्षत्रयुक्ता हो, उसमें पूजित होनेमे पि्गण बारह 
चपेतक तृप्र रहते द ॥ ८ ॥ जो पुरुष पिदरगण सौर 
देवगणको वपन करना चाहते ह मकै लिये धनिष्ठा, 
पूवं भाद्रपदा अथवा शतभिषा नक्षत्रयुक्त अमावास्या 
अति दुभ दे ।॥ ९॥ दे प्रथिवौपते ! जव अमावास्या 
हून नौ नक्षच्रोसे युक्त होती है उस समय किया 
हुआ श्राद्ध पिद्रगणक्रो अत्यन्त ते प्रिदायक होता है । 
इनके अतिरिक्त पितृभक्त इखापुच्च महात्मा पुरूर्वकि 
अति चिनीत भावसे पूषठनेपर श्रौसनक्छमारजीने 


जिनका वर्णन किया था वे अस्य तिथियाँ मी 
सुनो ॥ १०-११॥ 


श्रीसनतकुमारजी बोले वेशाखमासकी शक्ता 
तृतीया, कार्तिक शक्ता नवमी, भाद्रपद्‌ कृष्णा 
त्रयोदशी त्था माघमासकी अमावास्या--इन चार 
तिथियोको पुराणे धुगाद्याः कहा है । ये चारों 
तिथि्यौ अनन्त पुण्यदायिनी दै । चन्द्रमा या सूयके 
ग्रहणक समय, तीन अष्टकाओंमे अथवा उत्तरायण 
या दक्षिणायनके आरम्भमे जो पुरुष एकाभ्रचित्तसे 
पितृगणको तिलसहित जल भी दान करता हे वह 
मानो एक सहृख वके लिये श्राद्ध कर देता द यह्‌ 
प्रम रहस्य स्वयं पिद्रगण ही कहते दै ॥ १२-१४॥ 
यदि कदाचित्‌ माघकी अमावास्याका सतमिषानक्षत्र 
सेयोगदह्यो जाय तो पिरगणकी वृश्चिके ण्यि यह्‌ 
परम उच्छृष्ट काल होताद्ै । दे राजन्‌ । 
अल्पपुण्यवान्‌ पुरुषोको एेसा समय नहीं मिता 
। १५॥ अर यदि उस समय (माघकी अमावास्यामे) 
धनिष्ठानक्ष्रका योग दहो तब तो अपने ही कुमे 
उन्न हृ पुरुषद्वारा दिये हुए अन्नोदकसे पिदृगणको 
दश्च सदस व्ैतक ठप्नि रहती दै ॥१६॥ तथा 
यदि उसके साय पूवेभाद्रपदनक्षत्रका योग हयो भौर 


| ~ = (~, ~, {मज नारा तो 





्राद्रं पशं तुद्य तेन 
युगं स्स पितरस्स्वपन्ति ॥१५॥ 
गङ्गां शत्र यञुनां विपाशां 
सरस्वतीं तैमिषगोमतीं वा । 
तत्रावगाह्याचैनमादरेण 
कृवा पितृणां दुरितानि हन्ति ॥१८॥ 
गायन्ति चेततिपितरः कदायु 
वपौमातुश्िमवाप्य 
माघासितान्ते बुमतीथतायै- 
स्थाम्‌ तुं तनयादिदततः ॥१९॥ 
चित्तं च वित्तं च नृणां विशुद्ध 
शस्तश्च कालः कथितो विधिश्च । 
प्रं यथोक्तं प्रमा च भक्तिः 
णां प्रयच्छन्त्यमिवाज्छितानि ॥२०॥ 
पितुगौतान्तयवातरइलोकांस्ताज्छणु पार्थिव । 
शरुत्वा तथैव भवता भाव्यं तत्रादृतात्मना ॥२१॥ 
अपि धन्यः कुले जायादस्माक मतिमान्नरः, 
अकुर्वन्वित्तशाथ्यं यः पिण्डान्नो निष पिष्यत्ति।२२॥ 
रतनं वस्रं महायानं सवंभोगादिकःं वसु । 
पिमये सति विप्रेभ्यो योऽस्मासुदिदय दास्यति।२३. 
अभ्नेन बा यथाशक्त्या कालेऽस्मिन्भक्तिनम्रधीः। 
भोजयिष्यति विप्राग्रयांस्तन्मात्रविमवो नरः| २४। 
असमर्थोऽक्नदानस्य धान्यमामं स्वशक्तितः। 
परदास्यति द्विजाग्रयेभ्यः स्वल्पान्पां वापि दक्षिणाम्‌, 
त्राप्यसामथ्यंयुतः कराग्रा्स्थितांस्तिलान्‌। 
परणम्य द्विजयुख्याय कस्मैचिद्धुष दास्यति ॥२६॥ 
पिेस्सपताष्टमिर्वापि समवेतं जलाञ्जलिम्‌ । 
भक्तिनम्रस्समुदिशय शुव्यस्माकं प्रदास्यति॥ २७॥ 
यतः करुतधिरम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवा्िकम्‌। 
अभावे प्रीणयनस्माञ्च्छद्धायुक्तः प्रदास्यति (२८। 


भूयः। 














उन्हँ परम तप्निप्राप्तदोतीहै जओौर वे एक सदख 


युगतक़ शायम करते रहते दै ॥। १७ ॥ गङ्गा, तद्र, 
यमुना, बिपाञ्चा, सरस्वती ओौर नैमिषारण्यस्थिता 
गोमतीम स्नान करे पिठृगणका अआदरपूवेक 
अचेन करनेसे मनुष्य समस्त पार्पोको नष्ट कर देता 
दै ॥ १८॥ पिवृगण सवेदा यह गान कर्ते दकि 
'वघौकार ( भाद्रपद शक्ता त्रयोदशी ) के मघा 
नक्षत्रमे वप्त होकर फिर माघकी अमावास्याको 
अपने पूत्र-पौच्ादिद्वारा दी गयी पुण्यतीर्थोकी 
जराञ्जक्सि हम कथ तृततिखाभ करगेः ॥ १९॥ 
विदयुद्धचित्त, ञुद्ध धन, प्रशस्त काल) उपयुक्त विधि, 
योभ्य पात्र भौर परम भक्ति--ये सव मनुष्यको 
इच्छित फल देते दै ॥ २०॥ 


हे पाथिव ! अव तुम पिदरगणके गाये हुए कुछ 
इलोकोंका श्रवण करो, इन्दं सुनकर तुमह आदर- 
प्रेक वैसा हौ आचरण करना चाहिये॥ २१॥ [पिद्रगण 
कहते दै--] हमारे करम क्या कोई रेखा मतिमान्‌ 
धन्य पुरुष उत्पन्न होगा जो वित्तरोटुपताको 
छोड़कर हमारे ल्यि पिण्डदाने करेगा ॥ २९॥ जो 
सम्पत्ति होनेपर हमारे उदेरयसे ब्राह्मणोको रत्न, 
व्ल, यान भौर सम्पूणं भोगसामभ्री देगा ॥ २३॥ 
अथवा केवल अन्न-वश्लमात्र वैमव होनेपर जो 
श्राद्रकाछ्मे भक्ति-विनन्र चित्तसे उतम ब्राहमणोको 
यथाशक्ति अन्नदही भोजन करायेगा ॥२४॥या 
अन्नदानमे भी असमथं होनेपर जो ब्राह्मणश्रषठोको 
कचा धान्य भौर थोड़ी-सौ दक्षिणा हो देगा ॥ २५॥ 
जर यदि इसमे भी जसमथं होगा तो किन्दीं 
द्विजशरे्को प्रणाम कर एक मुद्धी तिल दही देगा 
॥ २६ ॥ अथवा हमारे उदश्यसे प्रथिवीपर भक्ति 
चिन्न चित्तसे सात-आठ तिलतोसे युक्तं जन्नाञ्चछि 
हयौ देगा ॥ २७॥ भौर यदि इसका भी अमाव 


होगा तो कर्ही-न-कर्हीसि एक दिनका 
चारा छाकर प्रीति भौर श्रद्धापूवेक हमारे 
उददैश्यसे गौको खियेगा ॥ २८॥ 


अ० १५ | तृतीय अग्र २५७ 








तथां इने सभी वस्तुओंका अभाव होनेपर जो 
बमम जाकर अपने कश्चमू ( बगल } फो दिखाता 
हुआ सूयं आदि दिक्पालोसे इचस्वरसे य्ह 
कदेगा--॥ २९॥ भरे पास शराद्धकमेके योग्यन 
विन्तदहै,न धनदहै भओौरन कोई अन्य सामग्रीहै, 


सर्वाभावे बनं गत्वा कक्षपरूलश्रदशेकः 
छरर्णदिरोकपारानामिदयुच्चैवदिष्यति ॥२९॥ 
न मेऽस्ति वित्तंन धनं च नान्य- 
च्छाद्रोपयोग्य स्वपितन्नतोऽसिमि। 


तप्यन्त भक्त्या पितरो मयेतौ 
कृतौ युजौ वत्मनि मारुतस्य ॥३०॥ 
ओौवं उवाच 
इत्येतत्पितुमिगीतं भावामावप्रयोजनम्‌ । 


यः करोति कृतं तेन श्राद्धं मवति पार्थिव ॥२९१॥ 








अतः मँ अपने पितरयणको नमस्कार करता वे 


मेय भक्तिसिदही वृधि लाम करं । मैने अपनी दोनों 


सुजा आका्चमे ख्ठा रखी हैः ॥ ३०॥ 
ओव षोले-हे राजन्‌ ! धनके होने अथवा 
न होनेपर पिद्रगणने जिस प्रकार बतलाया है वैसा 
जो पुरुष आचरण करता है वह उस आचारसे 
विपिपूकंक श्राद्धही कर दैवा है॥ ३१॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे ठतीय॑ऽसे चतुर्दसोऽध्यायः ॥ १४ ॥ 


पंद्रह्बो अध्याय 
भाद्ध-विधि 


ओव उवाच 

ब्रह्मणान्भोजयेच्छद्े यदूगुणांस्तान्निषोध मे । 
त्रिणाचिकेतिमधुखिुपणेष्यडङ्कवित्‌ ॥ १॥ 
वेद्विच्छोत्रियो योगी तथा वै ज्यषटस्ामगः । 
ऋलिविक्ससेयदौहित्रजामातुशरुरास्तथा ॥ २ ॥ 
मतलोऽथ तपोनिषठः पश्वाग््यभिरतस्तथा । 
शिप्यास्सम्बन्धिनदचैव मातापितेरतशथ यः ।[३॥ 
एतान्नियोजयेच्छाद्ध पवोक्तान्प्रथमे चुप । 
ब्राक्मणान्पित्‌तुष्टयथंमनुकल्पेष्वनन्तरान्‌ ॥ ४॥ 
मितरधुक्छुनखी क्रीयर्रयावदन्तस्तथा द्विजः 
कन्यादपयिता बह्ववेदोज्छस्सोमविक्रयी ॥ ५॥ 
अभिशस्तस्तथा स्तेनः पिशुनो ग्रामयाजकः । 


भूतकाध्यापकस्तद्रदुभृतकाध्यापितह्च यः ॥ & ॥ 


परपूर्वापतिश्चैव मातापित्रौस्तथोज्छकः । 
दृषलीच्रतिपोष्टा च वृषरोपतिरेव च ॥७॥ 
तथा देवलकरचैव श्रद्धे नाहंति केतनम्‌ ॥ ८ ॥ 


ओवं बोकले-हे राजन्‌! श्राद्धकालमे जैसे 
गुणवारे ब्राह्य्णोको भोजन कराना चाहिये वहु 
बतला ह सुनो । त्रिणाचिकेत, च्चिमधु, 
त्रिसुपण, शदो बेदाङ्गोके जाननेवाे, वेदवेत्ता 
श्रोत्रिय, योगी ओर अ्येष्ठसामग तथा छत्व 
भानजे, दौहित्र, जामाता, श्वसुर, मामा, तपस्वी 
पथ्चाग्नि तपनेवालठे, शिष्य, सम्बन्धी ओर मात्ता- 
पिताक म्रेमी इन त्राह्मणोको श्राद्धकममे नियुक्त 
करे । इनर्मेसे [ त्रिणाचिकेत आदि ] पहरे क 
हुओंको पवंकालमे नियुक्त करे जौर [ तिक 
आदि ] पीछे बतल्लाये हुँको पितरोको तृप्त 
ल्य उत्तरकमेमे भोजन करावे ॥ १-४॥ मित्रघाती 
स्वभावसे ही विकृत नखोचाटा, नपुंसक, काल्ञे 
दतिवाटा, कन्यागामी, अग्नि ओर वेदका त्याग 
करनेवाला; सोमरस बेचनेषाटा, छोकनिन्दिति, 
चोरः, चुगख्खौर, भ्रमपुरोहित, वेतन लेकर ` 
पटानेषारा अथवा पदृनेवाला, पुनर्विवाहिताका 
पति, माता-पिताका स्याग करनेवाला, श्ुद्रकौ 
सन्तानका प्रान करनेवाटा, श्द्राका पति तथा 
देवोपजीवी ब्राह्मण श्राद्धमे निमन्त्रण देनेयोग्य 
नहीं है | ५-८॥ 


-द्वितौय कठके अन्तर्गत “अयं वाव यः पवते" इत्यादि तीन अनुवाको त्रिणाचिकेत" कते ह, उसको 


पटृनवाला या उस्तकेा सनुष्ठनि केरनवाला । 


= (ननन वा 70 +~ 2157774 ~¬ 41 "1 ८217-4 > 34 # } 


२५८ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १५ 





~ 





प्रथमेऽदहि बुधदशस्ताज्छोत्रियादीन्निमन्त्रयेत्‌ । 
कथयेच्च तथैवैषां नियोगानपतुदेविकान्‌ ॥ ९ ॥ 
ततः करोधव्यबायादीनायापं तैषठिजेस्सद । 
यजमानो न कुवीत दोषस्तत्र महानयम्‌ ॥१०॥ 


श्राद्धे निथुक्तो शक्ता बा भोजयित्वा नियुञ्य च। 





व्यवायी रेतसो गत्ते मज्ञयर्यात्मनः पितृन्‌ ॥११॥ 





तस्मासप्रथममत्रोक्त द्विजाग्रयाणां निमन्त्रणम्‌ । 


अनिमन््य द्विजानेवमागतान्मोजयेद्यतीन्‌ ॥१२॥ 
पादङ्ञौचादिना गेहमागतान्पूजयेद्‌ हिजान्‌ । 
पवित्रपाणिराचान्तानासनेषुपवेशयेत्‌ ॥१२॥ 

| पितृणामयुजो युग्मान्देवानाभमिच्छया दिजान्‌ । 
देवानामेकमेके वा पितृणां च नियोजयेत्‌॥१४॥ 
तथा मातामहशादधं वैशवदेवस्षमन्वितम्‌ । 

ङु्वीत मक्तिसम्पन्स्तन्प्रं वा वैश्वदेबिकम्‌॥ १५॥ 
प्राडणुखान्मोजयेदविान्देवानाग्ुभयात्मकान्‌ । 
पितुमातामहानां च मोजयेचाप्युद््‌खान्‌॥।१६॥ 
पृथक्तयोः केविदाहुः श्राद्रस्य फरणं नृप । 
एककेन पाकेन वदन्त्यन्ये मह्यः ॥१७॥ 
विष्टराथं कुदं दसा सम्पूज्याध्यं विधानतः । 
ुर्यादावाहनं प्राज्ञो देवानां तदनु्तया ॥१८॥ 
यवाम्बुना च देवानां दच्यादध्यं विधानवित्‌। 
सग्गन्धधूपदीपांस्च तेभ्यो दद्याद्यथाविधि ॥१९॥ 


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तः +न्‌ ननन ~=) | 





श्राद्धके पहले दिन बुद्धिमान्‌ पुरूष श्रोत्रिय आदि 
विष्ित ब्राह्मणोको निमन्त्रित करे ओौर उनसे 
यह्‌ कह दे किं आपको "पितृश्राद्ध ओर आपको 
विश्वेदेव-श्राद्धमे नियुक्त दोना दै ॥९॥ उन 
निमन्तित ब्राह्मणोके सहित श्राद्ध करमेबाखा पुरुष 
उस दिन क्रोधादि तथा स्लीगमन शौर परिश्रम 
आदिन करे, क्योकि श्राद्ध करनेमे यह महान्‌ दोष 
माना गया है ॥ १०॥ श्राद्धमे निमन्त्रित होकर 
या भोजम करके अथवा निमन्च्रण करके या मोजन 
कराकर जो पुरूष खीप्रसङ्गः करता हे वद्‌ अपने 
पिदृगणको मानो बीयके छ्ृण्डमे डबोता है ॥ ११॥ 
अतः धभाद्धके प्रथम दिन पटे तो उपयुक्त 
गुणविशिष्ट द्विजग्ेष्ठौको निमन्त्रित करे ओौर यदि 
उस दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घर 
आर्यं तो उन्दः भौ भोजन करावे ॥ १२॥ 


चर अये हुए ब्राह्मणोँका पठे पाद्लुद्धि 
आदिसे सत्कार करे; फिर हाथ धोकर उन्दं भाचमन 
कृरानेके अनन्तर आस्नपर विठावे ।। १३ ॥ अपनी 
सामभ्यनुसार पिद्रगणके छ्यि अयुग्म ओौर देवगण- 
के लियि युम्म ब्राह्मण नियुक्त करे अथवा दोनों 
पक्षोके ल्यि एक-एक ब्राह्मणकी हौ नियुक्ति करे 
| १४॥ आओौर इसी प्रकार वैरवदेवके सहित 
मातामह-ध्राद्ध करे अथवा पित्रपक्ष ओर मातामह्‌- 
पक्ष दोनोके छ्यि भक्तिपूवंक एक ही वैशवदेव-धाद्ध 
करे ॥ ९५ ॥ देव-पक्षके ब्राह्मणको पूवौभिमुख 
बिठाकर ओौर पितर-पक्ष तथा मातामह-पक्षके 
ब्राह्मर्णोको उत्तर-मुख भरिठाकर भोजन करावे ॥ १६॥ 
हेचृप! कोई तो पिवृ-पक्ष ओर मानामह-पक्षके 
श्राद्धोंको अलग-अलग कस्नेके लिये कहते दै ओर 
कों महर्षिं दोर्मोका एक साथ एक्‌ पाक्मे ही 
अनुष्ठान करनेके पश्चमे दै ॥ १७॥ विज्ञ व्यक्ति 
प्रथम निमन्त्रित ब्ाह्मणोकि वैरनेके लि कुशा 
बिद्ठाकर फिर अष्यंदान आद्विसे विधिपूवेक पूज्ञा कर 
उनकी अनुमतिसे देवताओंका आवाहन करे 
॥ १८ ॥ तदनन्तर श्राद्धचिधिको जाननेवाखा पुरुष 
यव-मिश्रित जलसे देवताओंको अध्यंदान करे भौर 
चन्दे विधिपूवंक धूप, दीप, गन्ध तथा माढा आदि 
निवेदन करे ॥ १९ ॥ ये समस्त उपचार पिठृगणके 
(+ ५९ क , = (न ऋ ५ नै (+ 


अ० १५ 1 


तताय अश्च 


॥ 


.------------------------------------------------- 











अनुज्ञां च ततः प्राप्य दच्वा दर्भाद्दिधाकृतान्‌।२०। 
मन्तरं पितृणां त दुर्याचागाहनं बुधः ) 
तिराम्बुना चापसव्यं द्यादरध्यादिक सृप ।२१। 
कारे तत्रातिथिं प्राप्तमलकामं नृपाधमम्‌ । 
्ह्मणैरभ्यनुक्ञातः कामं तमपि भोजयेत्‌ ॥२२॥ 


योगिनो विवि स्पैनंराणाद्पकारिणः। 
भ्रमन्ति प्रथिवीमेतामविज्ञातस्वरूपिणः ॥२२॥ 
तस्मादभ्यचयेखाप श्राद्धकेऽतिधिं बुधः। 
श्रादधक्रियाफरं हन्ति नरेनद्रापूनितोऽतिथिः। २४) 
जुहयादथज्ननक्षारवर्जमनं  ततोऽनठे । 
अनु्ञातो द्िजेस्ैसतु तरिष्खः पर्पेम ॥२५॥ 
श्मश्रये कन्यवाहाय स्वारैत्यादौ चृषाहुति; । 
सोमाय वे पितृमते दातव्या तदनन्तरम्‌ ॥२६॥ 
वैवस्वताय चैवान्या तृतीया दीयते ततः । 
हुतावशिष्टमल्यान्नं विप्रपात्रेपु निर्वपेत्‌ ॥२७॥ 
„ततोऽन्नं मृष्टमत्यथंमभीष्टमतिसंस्छतम्‌ । 
द्वा जुषध्वमिच्छातो वाच्यमेतदनिष्टुरम्‌॥२८। 
भोक्तव्यं तैथ तचित्तेमोनिभिस्सुसैः सुखम्‌ । 
अक्ुदचता चार्ता देयं तेनापि भक्तितः ।२९॥ 


र्ोघतभन्व्रपठनं भूमेरास्तरणं तिर; । 
कृत्वा भ्येयास्स्वपितरस्त एव द्विजसत्तमाः ॥३०॥ 
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः 

मम तपिं प्रयान्खद्य विप्रदेदेषु संस्थिताः ॥३१॥ 
पिता पितामहस्येब तथैव प्रपितामहः 

मम तुपि प्रयान्त्वद्य होमाप्यायितमूंयः ॥३२॥ 
पिता पितासदश्चब तथेव प्रपितामहः 

तुरं प्रयान्तु पिण्डेन मया दत्तेन भूतले ॥३३॥ 





चक (= क (५५ [1 ) च 





ब्राह्मणोकी अनुमतिसे दो भागों बेरे हुए कुराओंका 
दान करके मन्ध्ोध्ारणपूवेक पितृगणका जावाहन 
करे तथा दै राजन्‌ ! अपसम्यभावसे तिखोदकसे 
अयादि दे ॥ २०.२१९ ॥ 


हे प! उस समय यदि कोई भूखा पथिक 
अतिथिरूपसे आ जायत निमन्त्रित ब्राह्मणोँकी 
आज्ञासे उसे भो यथेच्छ भोजन करावे ॥ २२॥ 
अनेक अज्ञातस्वशूप योगिगण मचुष्योके कल्याणकौ 
कामनासे नानारूप धारणकर पथिवीतछपर 
विचरते रहते ह ॥ २६॥ अतः विज्ञ पुरुष भराद्ध- 
काले भये हुए अतिथिका सत्कार अव्य करे । 
हे नरेन्द्र! उस समय अतिधिका सत्कार ने करनेसे 
वह्‌ श्राद्ध-क्रियाके सम्पूणं फलको नष्टकर देता 
है ॥ २४॥ 

हे पुरुषश्रष्ठ ! तदनन्तर छन ब्राह्मणोकी आज्ञासे 
शाक ओर लबणदहीन अन्नसे अग्निम तीने बार 
आहुति दे ॥ २५॥ हे राजन्‌ ! उनमेसे अप्नये 
कव्यवाहनाय स्वाहा" इस मन्त्रसे परी आहूति, 
सोमाय पितृमते स्वाहाः इससे दूसरी भौर 
वैवस्वताय स्वाहाः इस मन्त्रसे तीसरी आहूति 
दे । तदनन्तर आहूतियोँसे बचे हए अन्नको थोड़ा- 
थोड़ा सव ब्राह्मणोके पात्नोमे परोस दे ॥ २६-२७ ॥ 


फिर रुचिके अनुकूल अति संस्कारयुक्त मधुर 
अन्न सबको परोसे ओर अति सदु वाणीसे कषे 
कि आप भोजन कीजियेः॥ २८ ॥! ब्राह्मणोको भी 
तदूगतचित्त ओर मौन होकर प्रसन्नञुखसे 
सखपू्॑क भोजन केरना चाहिये तथा यज्ञमानको 
क्रोध ओौर उतावटेपनको छोड़कर भक्तिपूवंक 
परोसते रहना चाद्ये ॥ २९॥ फिर रक्षो 
मन्त्रका पाठ्करः श्राद्धमूभिपर तिल छिड़के तथा 
अपने पिवृरूपसे हन द्विजश्रष्ठौका ही चिन्तन 
करे ॥ ३०॥ [ओर कहे फि] न ब्राह्यणोंके 
शरीरोभे स्थित मेरे पिता, पितामह ओर 
प्रपितामह आज आदि तृ्ठि लाभ कर ॥३१॥ 
होमद्वारा सब होकर मेरे पिता, पितामह ओर 
प्रपितामह आज तपि छाम करं ॥ ३२॥ मैने जो 
पृथिवीपर पिण्डदान किया है उससे मेरे पिता, 
पितामह ओर अरपितामह तप्नि काभ कर ॥ ३३॥ 











पिता पिहामदश्चेव तथैव प्रपितामहः । 
तृं प्रयान्तु मे मक्त्या मयेतत्समुदाहृतम्‌।३४। 
मातामदस्तृशिष्ैतु तस्य 
तथा पिता तस्य पिता ततोऽन्यः। 
विवे च देवाः परमां प्रयान्तु 
तुरि प्रणयन्तु च यातुधानाः॥२५॥ 
यज्ञेश्वरो हन्यसमस्तकव्य- 
भोक्तान्ययास्ा हरिरीश्वरोत्र | 
तत्सननिधानादपयान्त॒ सदो 
रक्षास्यरेषाण्यमुरा्च सर्वे ॥३६॥ 
तपरष्वेतेषु विकिरेदन्नं विप्रेषु भूतके। 
दद्यादाचमनार्थाय तेभ्यो वारि सकृत्सकृत्‌ ॥३७॥ 
एतप्तैसतैरज्ञातस्सवेणान्नेन = भूतके । 
सतिेन ततः पिण्डान्सम्यग्दद्यासखमाहितः ।३८। 
पितृतीर्थेन सतिलं तथैव सलिलाञ्जलिम्‌। 
मातामहेम्यसतेनैव पिण्डांस्ती्ेन निवपेत्‌ ॥३९॥ 
दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पष्पधूपादिपूजितम्‌ । 





स्वपितरि प्रथमं पिण्डं दद्यादुच्छिष्टसन्निधौ ॥४०॥ 
पितामहाय चेबान्यं तत्तित्रे च तथापरम्‌ । 
दरभमूरे ठेप्यजः प्रीणयेन्छेपधरषणेः ॥४१॥ 
पिण्डेमतिामहास्तदवद्गन्धमान्यादिसंयुैः। 
पूजयित्वा द्विजाग्रयाणां द्याचाचमनं ततः।४२॥ 
पितृभ्यः प्रथमं भक्त्या तन्मनस्को नरेश्वर । 
सुस्वधेत्याशिषा युक्तां दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम्‌ ॥ 
द्रवा च दक्षिणां तेभ्यो बाचयेदेधदेषिकान्‌। 
्रीयन्तामिह ये वि्रदेवास्तेन इतीश्येत्‌ ॥४४। 
तथेति चोक्त ैनिगर प्राथनीयास्तथाश्िषः | 





श्राद्धरूपसे छु भी निवेदन न कर सकनेके 
कारण ] मैने भक्तिपूबेकजो कुष कहा है उस मेरे 
भक्ति-भावसे ही मेरे पिता, पितामह ओौर प्रपितामह 
तृपति लाम करे ॥ ३४॥ मेरे मातामह (नाना), 
उनके पिता ओर उनके भी पिता तथा विङ्वेदैवगण 
परम तुपि काभ करं तथा समस्त राक्षसगण नष्ट 
हों ॥। ३५ ॥! यहाँ समस्त हम्य-कत्यके भोक्ता यज्ञेश्वर 
भगवान्‌ हरि विराजमान है, अतः उनकी सन्निधिङ 
कारण समस्त राक्षस ओर अदुरगण यसे तुरंत 
भाग जायं | ३६ ॥ 


तदनन्तर ब्राह्मणोके वप्र हो जानेपर थोडा~सा 


अन्न परथिवीपर डे ओर आचमनके लिये न्दं एक 








एक बार ओर जल दे ॥ ३७ ॥ फिर भटीप्रकरार वप 
हुए न ब्राह्मणोको आज्ञा होनेपर समाहित चिन्तसे 
परथिवीपर अन्न ओर तिलके पिण्डदान करे | ३८॥ 
भौर पितरतीथंसे तिख्युक्त जकाञ्जलि दे तथा मातामह 
आदिको भी उस पिव्रतीथंसे ही पिण्डदान करे 
॥ ३९. ॥ ब्राह्म्णोके बच्छिष्ट ( जूढन ) के निकट 
दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके बिकछठाये हुए 


| इशाओपर पहले अपने पिताक छ्य पुष्प-धूपादिसे , 


पूजित पिण्डदान करे ॥ ४० ॥ तद्यश्चात्‌ एक पिण्ड 
पितामहके छिथ भौर एक प्रपितामहके ल्य दे ओर 
फिर कुराओके मूखमे हाथमे कगे अन्नको पँछकर 
[ छिपभागयुजस्तृप्यन्ताम्‌' एला उच्चारण करते हुए ] 
ेपभोजी पिद्रगणको वरप करे । ४१॥ इसी प्रकार 
गन्ध भौर मालादियुक्त पिण्डसे मातामह जदिका 
पूजन कर फिर द्विजश्रेष्ठौ को आचमन करावे ॥ ४२॥ 
ओर हे नरेश्वर ! इसके पीछे भक्तिभावसे तन्मय 
होकर पहले पितृपक्षीय ब्राह्यणोंका पुस्वधाः 
यह आशक्ञीवौद्‌ प्रहरण करता हमा यथादाक्ति 
दक्षिणा दे ॥ ४९३॥ फिर वेश्वदेविक ब्राह्मणोंके 
निकट जा चन्द दक्षिणा देकर कहि किं 
रूस दक्षिणासे विर्वेदेवगण प्रसन्न होः 
॥ ४४ ॥ उन ब्राह्मणोके (तथास्तु कनेषर 
उनसे भशीर्बाद्के लिये प्राथना करे ओर 


अ० १५ | 


तृतीय अश्च 


२६१ 


दि = पि । 








पथादिसजंयेदेवान्पू्ं पितान्मदीपते ॥४५॥ 
मातामहानामप्येवं सह देवैः क्रमः स्मरतः । 
भोजने च स्वशक्त्या च दाने तदद्विसजंने ॥४६॥ 
आपादशौचनात्पूवं कर्षाहिबदिजन्मघु । 
विसजनं तु प्रथमं पैत्रमातामहेषु वे ॥४५७॥ 
विसर्जयेतथीपिवचस्सम्पान्यास्यधितांस्ततः । 
निवतेताम्यनुज्ञात आद्वारं ताननुत्रजेत्‌ ॥४८॥ 
ततस्तु वेश्देवास्यं ुर्यान्नित्यकरियां बुधः। 
येज्ज्याच्चैव समं पूज्यभूत्यवन्धुभिरात्मनः ।४९॥ 
एवं श्रा बुधः र्यातिषतयं मातामहं तथा । 
राद्धेशष्यापिता दयुस्सर्ान्कामान्पितामहाः ५० 
त्रीणिश्रद्धे पवित्राणि दौहि्िः कुतपस्तिछाः। 
रजतस्य तथा दानं कथासङ्कीतनादिकम्‌।५१॥ 
वर्ज्यानि कव॑ता श्राद्ध करोधोऽध्वगमनं त्वरा । 


मोक्तुरप्यत्र रजेन्र॒त्रयमेतन्न शस्यते ॥५२॥ 
विष्वेदेबास्सपितरस्तथा मातामहा सष । 

लं चाप्यायते पुंसां सवं भरद प्रहुव॑ताम्‌ ॥५२॥ 
सोमाधारः पितृगणो योगाधारथ चन्द्रमाः। 
भरद्धेयोगिनियोगस्तु तस्माद्‌भूपाल शस्यते ।५४। 
सहस्रस्यापि विप्राणां योगी चेदुरः स्थितः। 





सवानभोकत स्तारयति यजमानं तथा युप ॥५५॥ 





फिर पठे पिदपक्चके ओर पौषे देवपक्षके ब्राह्मणोको 
विदा करे । ४५॥ विड्वेदेव गणके सहित मातामह 
अआदिके श्राद्धमे मी बाह्मण-मोजन, दान ओौर विस- 
जन आदिकी यही विधि बतलायी गयी है ॥ ४६ ॥ 
पिर ओर मातामह दोनों ही पक्षोके श्राद्धमे पाद्व 
आदि सभी कमं पहछे देवपक्षके ब्राह्म्णोके करे 
परन्तु विदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातामहुपक्षीय 
ब्राह्मणोकी ही करे ।। ४७ ॥ 


तदनन्तर, प्रीतिवचन ओर सम्मानपूवेक 
ब्रह्मणोंको विद्‌ करे ओौर उनके ज नेके समय द्वारतक 
उनके पीछे-पीे जाय तथाजववे आज्ञाद्‌तो 
खौट आवे | ४८॥ फिर विज्ञ पुरूष वैश्वदेव नामकं 
नित्यकमं करे ओर अपने पूज्य पुरुष, बन्पुजन तथा 
भरृत्यगणके सहित स्वयं भोजन करे ॥ ४२॥ 


बुद्धिमान्‌ पुरुष इस प्रकार पैञ्य ओर मातामह- 
श्राद्धका अनुष्ठान करे । श्राद्धमे तप्र होकर पिचरगण 
समस्त कामनाओोको पूणे कर देते है।। ५० ॥ दौहिव 
( कडकीका लङ्का } कुतप ( दिनका आवां 
सहतं ) ओौर तिल-ये तीन तथ चँदीका दान भौर 
उसकी बातचीत करना--ये सव श्राद्धकाले पवित्र 
माने गये दै ॥ ५१॥ हे राजेन्द्र! श्राद्धकतीके स्यि 
कोध, मार्गगमन ओौर उतांवरापन--ये तीन बतं 
वर्जित है; तथा श्राद्धमे भोजन करनेबालको भी इन 
तौनोका करना उचित नहीं है ॥ ५२॥ 


हे राजन्‌ ! श्राद्ध करनेबाषे पुरुषसे विश्रदेवगण, 
पिदगण, मातामह तथा टुम्बोजन--सभी सन्तुष्ट 
रहते दै ॥५३॥ हे मूपाल ! पितरगणका आधार 
चन्द्रमा है ओर चन्द्रमाका आधार यौग है, इसल्यि 
श्राद्धमे योगिजनको नियुक्तं करना अति उत्तम 
हे । ५४ ॥ हे राजन्‌ ! यदि श्राद्धभोजी एक सदस 
ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी मीहो तो बह यजमान- 
के सदिव ठन सबका उद्धार कर देता है ॥ ५५॥ 


मकनन = 


इति श्रोविष्णुपुराणे वृपतीयेऽजञे पच्चदश्योऽध्यायः ॥ १५॥ 








सोलहर्वं अध्याय 
श्राद्धकर्म विहित ओर अविदित वस्तुर्खोका विचारं 


ओवं उत्राच 
हविष्यमस्स्यमांसैस्तु शशस्य नङ्कुस्य च । 
सौकरच्छगरेणेयरौखगेवयेन च ॥ १॥ 
ओरभ्रगव्यैश् तथा मासवृद्ध्या पितामहाः । 
प्रयान्ति तृं मासैस्तु नित्यं वाप्रीणसामिषैः। २। 
खडगमांसमतोवात्र काटश्चाकं तथा मधु | 
शस्तानि करमेण्यत्यन्ततुततिदानि नरैर ॥ ३॥ 
गयाश्ुपेद्य यः श्राद्धं करोति परथिवीपते | 
सफलं तस्य तञ्नन्म जायते पितुतुष्टिदम्‌ ॥ ४ ॥ 
प्रशान्तिकास्सनीवारारदषामाका द्विविधास्तथा। 
वन्योषधीप्रधानास्तु श्राद्ा्ीः पुरूषषेम ॥ ५॥ 
यवाः प्रियङ्खवो बरुदूगा गोधूमा व्रीहयस्तिाः 
निष्पावाः कोविदार सपषंपाथात्र श्नोमनाः। ६ ॥ 


भकृताग्रयणं यच्च धान्यजातं नरेशर | 
राजमापानणुेव मध्रंश्च विसजेयेत्‌ ॥ ७॥ 
अलाबु गृञ्जनं चेव पाण्डु पिण्डमूरकम्‌ | 
गान्धार ककरस्बादिरुवणान्योषरणि च ॥ ८ ॥ 
आस्त्ारचैव निर्यासाः प्रत्यक्षलवणानि च। 
वञ्यान्येतानि वे श्राद्धे यञ्च वाचान शस्यते॥ ९॥ 








ओव बोले-दवि, मस्य, सश्ञक ( खरगोश्च ) 
नकु, शूकर, छाग, कस्तूरिया मृग, छृष्ण खग, गवय 
( वनगाय ) ओौर मेषके मांसोँसे तथा गव्य ( गौके 
दूध-धी आदि) से पितगण क्रमश्च: एक-एक मास 
अधिक तपि लाम करते है ओौर वाध्रीणस पक्षीके 
मांससे सदा तप्र रहते है ॥ १-२॥ हे नरे्र ¦ 
श्राद्धकमंभनं गेडेका मांस, कारञ्चाक ओर मधु अत्यन्त 
्ञञस्त ओर अत्यन्त तृपिदायक दै% ॥३॥ हे 
प्रथि बीपते ! जो पुरुष गयामे जाकर श्राद्ध करता दै 
उसका पितरगणको ठृपि देनेबाखा वह जन्म सफर 
हो जातादहै॥४॥ हे पुरुषश्े्ठ! देवधान्य, नीवार 
ओर सयाम तथा इवेत वणं इयामाक ( समा ) एवं 
प्रधान-प्रधान वनौषधि श्राद्धके पयुक्तं द्रव्य दै 
॥ ५॥ जो, कोंगनी, मूग, गेह, धान, ति, मटर, 
कचनार ओौर सरसों-इन सबका श्राद्धमे होना 
अच्छा दहै॥६॥ । 


हे रजेश्वर ! जिस अन्नसे नवान्न यज्ञन किया 
गया हो तथा बड़ ठडद्‌, छोटे उड़द, मपर, कदूदू, 
गाजर, प्याज, जलजम, गान्धारक ( सालिविशेष ), 
बिना तुषके गिरे हए धान्यका आटा, ऊसर 
भूमिमे उत्पन्न हा क्वणः हग आदि कुछ-कुछ 
खां रंगकी वस्तुः [ शाकादिभें मिरे हुपएसे भिन्न ] 
केवल छवण ओर कुछ अन्य वस्तुं जिनका स्ाखमें 


विधान नहीं है श्राद्धकमममे स्याज्य है ॥ ७-९॥ 








मैः इन तीन इलोकोका मूलके अनुसार अनुवाद कर दिया गया ह । समक्षे नहीं आता, दस व्यवस्थाका क्या 


रहस्य हं ? माम होता है, श्रुति-स्मृतिमे जर्हा कहं मासका विधान है, बहु स्वाभाविक मांसभोजी मनुष्योकी प्रवृत्तिको 
संकुचित ओर नियमित करमेके ल्यिहीह। समी जगह उक्छृष्ट धमं तो मांसमक्षणका सर्वथा त्यागही माना ग्याह। 
मनुस्मृति अ० ५ मे मसिप्रकरणका उपसंहार करते हुए श्टोक ४५ से ५६ तक मांसभक्षणकी निन्दा भौर निरामिष भहारकी 
भूरि-भूरि प्रशंसाको गयो ह । श्राद्धकमंमे मांस कितना निन्दनोय ह, यह भीमद्धागवतत सप्तम स्कन्ध अध्याय १५ कै द्न 
रोके स्पष्ट हो जाता ह~ 

न दद्यादामिषं शराद्धे न चाचाद्धमतस्ववित्‌ । मुन्यन्नैः स्यासरा प्रीतियंया न पशुहिंसया ।। ७ ॥ 

नैतादशः परो धर्मों नृणां सद्धममिच्छताम्‌ । न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्षायजस्य यः ॥ ८ ॥ 

दरव्ययक्लौ यक्ष्यमाणं दष्ट भूतानि बिभ्यति । एष माकरूणो हन्यादतञ्जो ह्य सुतृच्‌ ध्रुवम्‌ ।। १० ॥ 

अर्थ--धर्मके मर्मको समन्ञनेवाला पुरुष श्वाद्धमे [ खानेके लिये | मांसिनदे भौरनस्वयंही सखाय, क्योकि 
पितृगणकौ तुप्ति जैसी मूनिजनोचित माहारते होती ह वैसी परबुहिषासे नहीं होती ॥ ७ ॥ सद्धरमकौ इच्छावाले पुरुषोके 
लिये (सम्पूर्ण प्राणि्यकै प्रति मन, वाणी भौर शरीरसे दण्डका त्याग कर देना--दइसके समान बौर कोई शरेष्ठ घमं नही 
ई ।॥ ८ ॥ पुरुषको द्रग्ययज्ञसे यजन करते 'देखकर जीव उरते है कि यह भपनेदही प्राणका पोषण करनेवाला निर्दय 
अज्ञानी मृक्षो अवश्य मार्‌ डलेगा 1 १० ॥ 


अ० १६ 








नक्ताहतमसुच्छिन्नं तुप्यतेन च यत्र गौः। 


दुगन्धि फेनिर चाम्बु ्राद्रयोग्यं न पाथिव।१०। 
्षीरमेकश्षफानां यदोष्टूमाविकमेव च । 
मागं च मादिं चैव वजयेच्छद्रकमंणि ॥११॥ 
षण्डापविद्धचाण्डालपापिपाषण्डिरोगिभिः। 
कृकवादुशनम्नैश्च वानप्रामषफरः ॥१२॥ 


उदकषयाद्रतकाशौचिगरतहास्थ वीक्षिते । 


राधे सुरा न पितरो युञ्जते पुरुषै ।१३॥ 
तस्मात्परिशरिते कर्याच्छादध श्द्रासमन्वितः। 
उर्व्या च तिरुविक्षेपायातुधानानिबारयेत्‌॥। १४॥ 
नखादिना चोपपन्नं केशकीटादिभिनष । 

न चेवाभिषवेरमिश्रमन्नं पुषितं तथा ॥१९॥ 
भद्धासमन्वितैदत्तं पितुभ्यो नामगोत्रतः 
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारस्वमेति तत्‌ ॥ १६॥। 
भ्रुयते चापि पितृमिगीता गाथा महीपते । 
एवाकोमनपत्रस् करापोपवने एरा ॥१७॥ 


अपि नस्ते भविष्यन्ति इुरे सन्मार्भशीलिनः। 
गयाुपेर्य ये पिण्डान्दास्यन्तयस्माकमादरात्‌। १८। 
अपि नस्स कुरे जायाघयो नो दद्ास्रयोदशीम्‌। 
पायसं मधुसरपि्या वपासु च मासु च॥१९॥ 
गौरीं बाष्युद्ैत्कन्यां नीलं वा वरपधुतसृजेत्‌। 
यजेत॒वाश्वमेधेन विधिवदक्षिणावता ॥२०॥ 





तृतीय अश्च 


२६३ 





हे राजन्‌ ! जो राचरिके समय छाया गयादहो, 
अप्रतिष्ठित जलाशयका हो, जिसे गौ वृप्तनदहो 
सकती हो से गड्ढेका अथवा दुगेन्ध या फेनयुक्त 
जल श्राद्धे योग्य नही होता ॥ १०॥ एक सुर 
वालोका, ऊंटनीका, मेडका, सृगीका तथा मंसका 
दृध श्राद्धकममे कामम नदे॥ ११॥ 


हे पुरुषषमभ ! नपुंसक, अपविद्ध ( सत्पुरषोदयासा 
बहिष्कृत ), चाण्डा, पापी, पाषण्डी, रोगी, कुक्कुट 
श्वान) नरन ( वैदिक कमंको त्याग देनेवाङा पुरुष ) 
वानर, भ्राम्यश्नुकर, रजस्वला सी, जन्म अथवा 
मरणके अङौचसे युक्त व्यक्ति ओर श्चव ठे जानेवे 
पुरुप--इनमेसे किसौकी भी दष्ट पड़ जातेसे देवता 
अथवा पितृगण कोट भी श्राद्धमे अपना भाग 
नदर छेते ॥ १२.१३ ॥ अतः किसी धिरे हुए स्थानम 
श्रद्धापूवक शराद्धकम करे तथा परयिकीे ति छिडक- 
कर राक्षसको निवृत्त कर दे ॥ १४ ॥ 


हे राजम्‌! श्राद्धमे एेसा अन्चन दे जिसमे नख, 
केश या कीड़े आदि दहो, या जो निचोड़कर 
निके हुए रससे युक्त होया बासी हो ॥१५॥ 
रद्धायुक्त व्यक्तियोद्वाय नाम ओर गोच्रके उच्चारण- 
पूवक दिया हुआ अन्न पितृगणको वे जैसे आदहारके 
योग्य होते ह वेसा ही होकर उन्है मिलता है ॥१६॥ 
दे राजम्‌ ! इस सम्बन्धमे एक गाथा सुनी जाती है 
जो पूककार्म मनुपुत्र महाराज इष््वाङ्के प्रति 
पितगणने काप उपवने कही थी ॥ १७॥ 


क्या हमारे कुमे एसे सन्मागश्चीर व्यक्ति होगे 
जो गयामे जाकर हमारे लि आदरपूवक पिण्डदान 
करेगे १॥ १८ ॥ क्या हमारे कलमे कोई एसा पुरुष 
होगा जो वर्षकारी मघानक्चत्रयुक्त त्रयोदञ्ञीको 


| हमारे उदेश्यसे मधु ओर घृतयुक्तं पायस ( खीर ) 


देगा १ ॥ १९॥ अथवा गौरी कन्याका दान 
करेगा, नीला सँड छोदेगा या दक्िणासदहित विधि- 
पुवं अश्वमेध यज्ञ करेगा १ ॥ २०॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे ठृतीयेंऽञे षोडशोऽध्यायः | १६ ॥ 


रकण 


५९ 


१114 ` ७९५ 








सत्रहर्गोँ अध्याय 
नञ्नविप्रयक प्रशन, देवतार्ओका पराजय, उनका भगवान्‌की शरणमे 
जाना ओर भगवानूका मायामोहको प्रकट करना 


भ्रीपराद्चर उवाच 
ह्याह मगवानौव॑स्तगराय महात्मने । 
सदाचारं पुरा सम्यङ्‌ मैत्रेय परिपृच्छते ॥ १॥ 
मयाप्येतदरेषेण कथितं भवतो दज । 
सथृल्वदप्य सदाचारं कथिन्नामोति शोभनम्‌ ॥ २॥ 

श्रीमैत्रेय उवाच 

पण्टापविद्धप्रषुखा पिदिता भगवन्मया | 
उदक्याद्याथ मे सम्यड्‌ नग्नमिच्छमि वेदितुम्‌। ३। 
फो नग्नः किंसमाचारो ननसंज्ां नये रमेत्‌ । 
नग्नस्वरूपमिच्छामि यथावत्कथितं त्वया | 





श्रोतं धमेमृतां भ्रष्ठ न दयस्त्यविदितं तव 
श्रोपराञ्चर उवाच 
ऋण्यनुस्ामसन्नेयं जयी वर्णाव्तिद्धिज । 
एतागुर्न्रति यो मोहात नः पातको द्विज ॥५॥ 
त्रयी समस्तवर्णानां द्विज संबरणं यतः। 
नभ्रो भवस्युज्द्रितायामतस्तस्यां न संश्रयः ।६। 
हदं च श्रुयतामन्यचद्धीप्माय महात्मने । 
कथयामास धर्मज्ञो वसिष्ठोऽस्मपिितामहः ॥ ७॥ 
मयापि तस्थ गदतशश्रुतमेतन्मदास्मनः । 
न्नसम्बन्धि मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह सया ॥ ८॥ 
देबासुरममचुद्रं दिव्पमब्दश्तं पुरा । 


तस्मिन्पराजिता देवा दैत्यैहादपुरोगमैः ॥ ९॥ 





्षीरोदस्योत्तरं दूरं गत्वातप्यन्त वै तपः । 


विष्णोगगधनार्थाय लशलज्चेप्रं स्तत तटा |? ।। 


श्री पराश्चरजी बोले-हे मेत्रेय ! पूवेकालमे 
महात्मा सगरसे उनके पूषनेपर भगवान्‌ ओौवेने 
इस प्रकार गुहस्थके सदाचारका निरूपण कियाथा 
॥ १॥ हे द्विज ! मैने भौ तुमसे इसका पूणंतया 
वणेन कर दिया । कोई भी पुरुष सदाचार का उ्लद्घनं 
करके सद्गति नदीं पा सकता ॥ २॥ 

भीभैत्रेयजी बोल्े-भगवन्‌ ! नपुंसक, अपविद्ध 
अर रज्स्वा आदिको तो मै अच्छी तरह जानता 
(किन्तु यष नदीं जानता फि नग्नः किसको 
कहते ह ]। अतः इस समय मै नग्नके विषयमे 
जानना चाहता हँ ॥ ३ ॥ नग्न'कौन ह १ ओौर किस 
प्रकारके आचरणवाल्ला पुरुष नम्न-संज्ञा प्राप्त करता 
है १ हे धर्मार्माओंनें श्रेष्ठ ! मे आपके हारा नग्नके 
स्वरूपका यथावत्‌ बणेन सुनना चाहता ह, क्योकि 
आपको कोई भी बात अविदित न्हीदै।॥४॥ 


शीपराशरजी बोकज्ञे-हे दविज ! ऋक्‌, साम 
ओौर यज्नुः यह वेदत्रयी वर्णोका आवरणस्वरूप है । 
जो पुरुष मोहसे इसकाव्याग करदेताहै बह पापी 
(नग्नः कषृाता है ॥ ५॥ हे ब्रह्मन्‌ ! समस्त वर्णो. 
कासंवरण ( देँकनेवाला वश) वेदत्रयी हीह, 
इसल्यि उक्तका त्याग कर देनेषर्‌ पुरुष (नग्नः हो 
जातादहै इसमे कोई सन्देह नहीं ॥६॥ हमारे 
पितामह धमंज्ञ वसिध्रजीने इस विषयमे महास्मा 
भीष्मजीसे जो छुछ कहा था वह श्रवण करो ॥७॥ 
हे मेचेय ! तुमने जो सुञ्चसे नग्नके विषयमे पूवाद 
इस सम्बन्धे भीष्मके प्रति वणेन करते समय मैने 
भी महात्मा वसिष्ठजीका कथन सुना था॥ < ॥ 


पूवंकारमे किसी समय सौ दिव्यवपंतक देवता 
ओर असुरोका परस्पर युद्ध हआ । उसमें हाद-प्रभृति 
दैत्योद्वारा देवगण पराजित हुए | ९।। अतः देव गणने 
्षीरसागरके उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की भौर 
भगवान्‌ विष्णुकी आराधनाके ल्य उस समय इस 


न~" +~ 1१ ~ (>+ ,) 0. ।। 


अ० १७ | 


तताय अच्च 


५९५ 








देषाडुः 
आराधनाय लोकानां विष्णोरीशस्य यां गिरम्‌ । 
वद्यामो भगवानाचयस्तया विष्णुः प्रसीदत ॥११॥ 
यतो भूतान्यशेषाणि प्रघूतानि महारमनः। 
यरसिमिश ठयमेष्यन्ति कस्तं स्तोतुमिहेश्वरः॥१२॥ 
तथाप्यरातित्रिधवंसष्वस्तवीर्याभयाथिनः। 
त्वां स्तोप्यामस्तवोक्तीनां याथाथ्यं नेव मोचरे१३ 
त्वधुवीं सङिरं वहिर्वायुराकाशमेव च । 
समस्तमन्तःकरणं प्रधानं तत्परः पमान्‌ ॥१४॥ 
एकं तवेतद्धतात्मन्ूरतामू॑मयं वपुः । 





आत्रह्म्तम्मपय॑न्तं स्थानक्रालविमेदधरत्‌ ॥१५॥ 
तत्रेशच तव यपूव सन्नामिकपरलोद्धवम्‌ । 

रूपं धिश्वोपकाराय तस्मे ब्रह्मासने नमः ॥१६॥ 
रक्राक॑रद्रवस्धिमरत्सोमादिभेदवत्‌ । 
वयमेक सरूपं ते तसे देवात्मने नमः ॥१७॥ 
दम्भप्रायमसतम्बोपि तितिक्षादमवर्जितम्‌ । 
द्रप तप्र गोविन्द्‌ तसम दैर्यात्मने नमः ॥१८॥ 
नातिक्ञानबदह। यस्मिन्नाड्यः स्तिमिततेजसि । 
दब्दादिलोमि यत्तस्मै तुभ्यं यक्षाटमने नमः ॥१९॥ 
करोयंमायामयं घोरं यचच रूपं तवासितम्‌ | 
निश्चाचरात्मने तस्मै नमस्ते पुरषोत्तम ॥२०॥ 
स्व्गस्थथिसद्रमफरोपफरणं तव । 
धर्माख्यं च तथा रूपं नमस्तस्मै जनादन ॥२१॥ 
हषैप्रायमसंसगि गतिमद्गमनादिषु । 
सिद्धास्यं तब यद्र.पं तस्मै सिद्धातमने नमः॥२२॥ 
अतितिक्षायनं क्ररमुपभोगसहं हरे । 
दविजिहं तव यदव पं तस्मै नागातमने नमः ॥२३॥ 





देवगण बोके-हमलोग लोकनाथ भगवान्‌ 
विष्णुकी भाराधनाके लिये जिस बाणीका उचारण 
करते ह उससे वे आद्य-पुरुष श्रौविष्णुभगवान्‌ प्रसन्न 
हो ११ जिन पर्मा्मासे सम्पूणं भूत इपन्न हुए 
हँ ओर जिनमे बे सत्र अन्तमं द्ीन हो जा्यंगै 
संसारम उनकी स्तुति करनेमे फौन समथ दै १।।१२॥ 
हे प्रभो ! यद्यपि आपका यथाथं स्वरूप बाणीका 
विषय नहीं हैःतो भी इत्रुभंके हाथसे निध्वस्त 
होकर पराक्रमहीन हो जनेके कारण हम अभयः 
प्रापरिके ल्यि आपकी स्तुति करते है ॥ १३॥ 


| प्रथिवी, जर, अग्नि, वायु, आका; अन्तःकरण, 


मूढ-परकृति भौर प्रकृतिसे परे पुरुष-ये स आप 
ही है ॥ १४ ॥ हे सवेभूतालन्‌ ! त्रह्मासे छेकर 
तृणपयंन्त स्थान ओर काठादि सेदृयुक्त यह मृत्तौ 
मूतत-पदाथंमय सम्पूणं प्रपच्च आपहीका शरीर 
है ॥ १५॥ उसमे आपके नाभि-कमलसे विग्धके 
उपक्राराथे प्रकट हा जो आपक्रा प्रथम रूप 
है, हे दशवर ! उस ब्रह्मस्वरूमको नमस्कार दै 
॥ १६॥ इन्द्र, सूये, सद्र, वसु, अधिनीकमारः 
मरुदूगण ओर सोम्‌ आदि भेदयुक्त हमलोग भी 
आपहीका एक रूप दै, अत; आपके उस देवरूपको 
नमस्कारै ॥ १७॥ हे गोविन्द्‌ ! जो दम्भमयी, 
भज्ञानमयी तथा तितिक्षा ओौर देमसे शुन्यदै 
सपक चस दैर्य-मूर्तिको नमस्कार है ॥ १८ ॥ जिस 
मन्व-सन्व स्वष्पमँ हृदयकी नाड्यां अत्यन्त 
ज्ञानवाहिनी नहीं होती;तथा जो श्लच्डादि विषयोका 
लोभी होता है आपके उस यक्षरूपको नमस्कार है 
॥ १९॥ हे पुरुषोत्तम ! आपका जो क्रूरता ओर 
मायासे युक्त घोर तमोमय रूप दै उस राक्षसस्वरूप- 
को नमस्कार है ।॥२०॥ हे जनादन ! जो स्वगे 
रहनेवारे धार्मिक जनौके यागादि सद्धमकि फल 
( सुखादि ) की प्राप्नि करनेवाछा आपका धमं 
नामक ल्प है उसे नमस्कार है॥२१॥ जो जल, 
अग्नि आदि गमनीय स्थानो जाकर भी सवेदा 
निर्प्नि ओर प्रसन्नतामय रहता है बह सिद्ध 
नामक शूप आपहीका हे; रसे सिद्धस्वरूप 
आपको नमस्कार है ॥ २२॥ हे हरे ! जो अक्षमाका 


आश्रय अत्यन्त क्रूर ओर कामोपभोग समर्थं 


आपका द्विजिह्व (दो जीभवाला) रूप है, उन 
नागस्वरूप आपको नमस्कार दहै ॥२३॥ 





अववोधि च यच्छन्तमदोपमपकल्मषम्‌ |. 
ऋषिरूपास्मने तस्मै विष्णो रूपाय ते नमः॥२४॥ 
भक्षयस्यथ कल्पान्ते भूतानि यदवारितम्‌। 
सद्र. पुण्डरीकाक्ष तस्मै कालात्मने नमः॥२५॥ 
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि देवादीस्यविशेपतः । 
मुस्यत्यन्ते च यद्र.पं तस्मै रदरात्मने नमः ।२६॥ 
्रवृस्या रजसो यच कर्मणां करणारमकम्‌ । 
जनादन नमस्तस्मै खदर.पाय नरत्मने ॥२५७॥ 
अष्टाविंशद्रधोपेतं यद्र.पं तामसं तव। 
उन्माभंगामि सर्वातम॑स्तस्मै बहयासने नमः।२८। 
यजञाङ्गभूतं यद्र.पं जयतः स्थितिसाधनम्‌ । 
वृ्ादिभेदैष्वट्भेदि तस्मै युख्यामने नमः॥२९॥ 
तिय॑ड्मनुष्यदेवादि व्योमशब्दादिकः च यत्‌] 
सम सल तसै सत नम ।र॥ 
प्रपानवबुद्धवादिमयादशेषा- 
 बदन्यदस्ासपरमं परात्मन्‌ । 














रूपं तवायं यदनस्यतुल्यं 
तस्मै नमः कारणकारणाय ॥३१॥ 
शुक्रादिदीर्घादिषनादिददीन- 


मगोचरं यच विशेषणानाम्‌ | 


शुद्धातिशुद्धं परमर्षिद््यं - 
रूपाय तस्मै मगवन्ताः स्मः॥३२॥ 
_चररीरेषु यद्न्यदेहे 
पवशेषवर्तुष्बजक्षयं यत्‌ । 
तस्माच्च नान्यद्वयतिरिक्तमस्ति 
ब्रह्मस्वरूपाय नताः स्म तस्मै ॥३२॥ 





यनु; 





हे विष्णो! जो ज्ञानमय) शान्त, दोषरदित ओर 
कल्मषहीन दहै उस आपके मुनिमय स्वरूपको 
नमस्कार है ॥ २४॥ जो कल्पान्तमे अनिचायंरूपसे 
समस्त भूतोका मक्षण कर जाता हे, दे पुण्डरीकाक्ष ! 
आपके उस कालस्वरूपको नमस्कार दर ॥ २५॥ 
जो प्रखयकालमे देवता आदि समस्त प्राणियोको 
सामान्य भावसे भक्षण करके त्य करता है आपके 
उस रद्रस्वरूपको नमस्कार है ॥ २६॥ रजोगुणकी 
प्रचृत्तिके कारण जो कर्मोक्ा करणसूपदहै, हे 
जनादन ! आपके उस मनुष्यातमक स्वरूपको 
नमस्कार दै ॥ २७॥ हे सवीत्मन्‌! जो अटक 
वधःयुक्तछः तमोमय ओर उन्मागंगामी है आपके 
उस पद्ुरूपको नमस्कार है ॥ २८ ॥ जो जगत्‌की 
स्थितिका साधन ओौर यज्ञका अङ्गभूत हे तथा 
वक्ष, छता, गुल्म, वीरुघ, तृण भौर गिरि--इन छः 
भेदोसे युक्त दै उन मुख्य ( दद्धिद्‌ } रूप आपको 
नमस्कार है ॥ २९ ॥ तियंक्‌, मनुष्य तथा देवता 
आदि प्राणौ, आकाशादि प्रच्चभूतओौर शभ्दादि उनके 
गुण-ये सव सवके अद्भूत आपके रूपैः 
अतः आप सर्वास्माको नमस्कार है || ३० ॥ 

हे परमात्मन्‌ ! प्रधान ओर महत्तत्त्वादिरुप 
इस सम्पूणं जगतसे जो परे है, सवका आदिकारण 
है तथा जिसके समान को अन्य रूपनहींदहै, 
आपके उस प्रकृति आदि कारणोके भी कारण रूपको 
नमस्कार है ॥ ३१॥ हे भगवन्‌ ! जो शुक्ञादिरूपसे, 
दीघता आदि परिमाणसे तथा घनता आदि गुणोंसे 
रहित &, दस प्रकार जो समस्त विशेषणोका 
अविषय दहै, तथा परमर्वियोका दशनीय णवं 
ुद्धातिशुद्ध दै आपके स स्वरूपको हम नमस्कार 
करते दै ॥३२॥ जो हमरे शरीरम, अम्य 
प्राणि्योके शरीसेभे तथा समस्त वस्तुभौँमे वतमान 
है, अजन्मा ओर अविनाङी दै तथा जिससे 
अतिरिक्त ओर कोर भी नदौ ठै; उस 
ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते है ॥ २६९॥ 


ऋ ग्यारह इन्दिय-वध, नौ वुष्टि-वध गौर आठ सिद्धि-वध~-ये कुल दरद वध हुं 1 इनका 11 ना त पे दुक माह स ह । इनका परथमा पञ्चमा 


श्याय दलोक दशक टिप्पणी विस्तारपूर्वक वर्णन किया दै । 


1 ५८१९ 4 ~+ <~ 4 < €<4 
परमपदात्मवतस्सनातनस्य । 
तमनिधनमरेषबीजभूतं 
्रभममलंप्रणतास्सम वासुदेवम्‌ २४) 
श्रीपराहयर इवाव 
स्तोत्रस्य चावसाने ते ददशः परमेश्वरम्‌ । ` 
शद्कवक्रगदापाणिं गरुडस्थं सुरा हरिम्‌ ॥२५॥ 
तमूचुस्सकलछा देवाः प्रणिपातपुरस्सम्‌ । 
प्रसीद नाथ दैत्येम्यस्ाहि नश्शरणार्थिनः॥२६॥ 
्ोक्ययज्नमागाथ् दैत्यहादपुरोगगरैः | 
हता नो ब्रह्मणोऽप्वाज्ञायुल्लद्कय परमेरवर | २७॥ 
यद्यप्यशेषभू तस्य बयं ते च तवांश॒जाः । 
तथाप्यविद्यामेदेन भिन्नं परयामहे जगत्‌ ३८॥ 
स्ववणधर्माभिरता वेदमार्गाुसारिणः 
न शक्यास्तेऽरयो हन्त॒मस्माभिस्तपसागरताः॥ ३९॥ 
तशुपायमरोषात्मन्नस्माकं दातुमहपि । 
येन तानसुरान्हन्तं भवेम भगवन्क्षमाः ॥४०॥ 
श्रीपराशर उवाच 
इव्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायामोहं श्रीरतः। 
सथत्पा् ददो विष्णु प्राह चेदं सुरोत्तमान्‌ ॥४१॥ 
मायापोदोऽयमखिल्ान्दैः्यांस्तान्मोहपिष्यति । 
ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्मवहिष्कृता; ॥४२॥ 
स्थितौ स्थितस्य मे वध्या यावन्तः परिपन्थिनः । 
ब्रह्मणो द्यधिकारस्य देवदेत्यादिकाः सुरा; ॥४३॥ 
तदुगच्छत न मीः कार्या मायामोदयोऽयमग्रतः। 
गच्छन्नद्योपकाराय भवतां भविता सुराः ॥४४॥ 
श्रीपराशर उवाच 


इत्युक्ताः प्रणपत्येनं ययुर्देवा यथागतम्‌ । 








मायामोहोऽपि तैस्साद्धं ययौ यत्र महासुराः ॥४५॥ 








१ ~+ १९ ^इष २1 ("ना+ 1 १५1 र न्तत (गग 


सनातन ओर अजन्मा भगवान्‌का यह्‌ सकल प्रपञ्च 


रूप हे, उन सबके वीजभूत, अविनाश्ची ओौर निभं 
प्रमु बासुदेवको हम नमस्कार करते दहै ॥ ३४॥ 


भ्रीपशशरजी बोले-हे मेत्रेय ¦ स्तोके समाप्त 
हो जानेपर देषताओंने परमात्मा श्रीहुरिको हाथमें 
राङ्क, चक्र ओर गदा ल्यि तथा गर्ड्पर भरू 
हुए अपने सम्थ्ुख विराजमान देखा । ३५1 उन्द 
देखकर समस्त देवताओने प्रणाम करनेके अनन्तर 
उनसे कषहा--!हे नाथ ! प्रसन्न होद्ये ओर हम 
लारणागतोरी दैत्योसे रक्षा कीजिये ॥३६॥ हे 
परमेश्वर ! हाद प्रति दैत्यगणने ब्रह्माजीकी आज्ञाका 
भी उल्लक्वन कर हमारे ओौर त्रिखोकीके यज्ञभागोंका 
अपहरण कर लिया है ॥ ३७ ॥ यद्यपि हम भौर वे 
सर्वभूत आपहीके अरज दै तथापि अविद्यावरा हम 
जगत्‌को परस्पर भिन्न-भिन्न देखते द ३८ ॥ हमारे 
रात्रगण अपने वणंधमंका पान करनेवादे, बेद्‌- 
मागौवरम्बी ओर तपोमिष्ठ है, अतः वे हमसे नहीं 
मारे जा सकते ॥ ३९॥ अतः हे स्वात्मन्‌ ! जिससे 


हम उन असुरा वध करनेमे समथं हो एेसा कोई 
उपाय आप हमें वतखादइये" ।। ४०॥ 


भीपराश्चरजी बोले-उनके एसा कहनेपर 
भगवान्‌ विष्णुने अपने शरीरसे मायामो्को उसन्न 
किया ओौर उसे देवताओंको देकर कहा! ४१॥ 
“यह मायामोह उन सम्पूणं दैत्यगणको मोहित कर 
देगा, तव वे वेद मामका षल्लङ्घन करनेसे तुम छोगोँसे 
मारे जा सकेगे ॥ ४२ ॥ हे देवगण ! जो को देवता 
अथवा दैत्य ब्रह्माजोके कायने बाधा डालते ह वे 
सृष्टिकी रक्षाम ततर मेरे बध्य होते है ॥ ४३॥ 
अतः हे "देवगण ! अब तुम जाओ, डरो मत। 
यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार 

रेणा" | ४४ ॥ 

भीपराक्चरजी बोले--भगवान्‌की एसी आज्ञा 
होनेपर देवगण खन्द प्रणामकर जर्हसि जयेथे 
वह चे गये तथा उनके साथ मायामोह भौ जह 
असुरगण थे वह गया ॥ ४५॥ 


इति श्रविष्णरुपुराणे दृतीयंऽश सप्तदङ्षोऽध्यायः ॥ १७॥ 





२६८ १८ 
2४ 


९४००. भरीविष्णुपुराण 


[ अ० १८ 





अटारहवोँ 


अध्याय 


मायामोह भौर अरोका संबाद्‌ तथा राजा शतधनुको कथा 


श्रीपराशर उवाच 


तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान्‌ । 
मेतरेय ददृशे गता नम॑दातीरसंभितान्‌ ॥ १ 
ततो दिगम्बरो पण्डो बरहिपिच्छधरो द्विज । 
मायमोहोऽपुरान्‌ र्रशष्णमिदं वचनमव्रवीत्‌ ।। २॥ 


मायामोह उवाच 
भ्य 
हे दत्यपतयो ब्रूत यदथं तप्यते तपः | 
एेदिकं वाथ पार्यं तप्र: फरमिच्छ्य ॥ ३ ॥ 


असुरा ऊचु 
पारत्यफललामाय तप्यं महामते । 
अस्माभिरियमारब्धा किं वा तेऽत्र विवक्षितम्‌ ॥४॥ 


मायामोह वाच 
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि युक्तिमभीप्सथ । 
अह्वमेनं धम च सुक्तिद्रारमसंदृतम्‌ ॥ ५ ॥ 
धर्मो वि्क्तेर्होऽयं नैतस्मादपरो बर; । 
अत्रैव संस्थिताः स्वग विषक्ति बा गरिष्यथ | ६॥ 
अहं धर्ममेतं च स्वे युयं महाबलाः । 

श्रीपराक्ञर उवाच 
एवप्रकारेवंहुमिधक्तिदशंनचचितैः ॥ ७॥ 
मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपाष्ताः । 





धरमयितदधर्माय सदेतन्न सदि्यपि ॥ ८॥ 
विश्ुक्तये लिदं नैतदिति सम्प्रयच्छति । 
परमार्थोऽयमत्यथ प्रमा न चाप्ययम्‌ ॥ ९ ॥ 
करायंमेतदकायं च नैतदेवं स्फुटं त्विदम्‌ । 
दिण्वाससामयं धर्म धर्मोऽयं बहुवाससाम्‌॥१०॥ 
ई व्यनेकोन्तवादं च मायामोहेन नैकधा । 
तेन दशंयता देस्यास्सधर्म त्याजिता द्िज॥११॥ 


ीपराश्चरजी बोल्ते-है मैत्राय! तदनन्तर 
मायामोहते [ देवताओंके साथ ] जाकर देखा छि , 
असुरगण नमंदाके तटपर तपस्यामे लगे हह 
॥ १ ॥ तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर ओौर 
मुण्डितकेरा मायामोहने असुरोसे अति मधुर बाणी. 
मे इस प्रकार कहा | २॥ 

मायामोह बोखा-दे दैत्यपतिरगण  कष्िये, आप. 
लोग किंस उदेश्यसे तपस्या कर रहे है, जापको किसी 


लौकिक फलकी इच्छाहै या पारटौकिककी १ ३॥ 


असुरगण बोले- हे महामते ! हम लोगोने पार- 
टौकिक फलकी कामनासे तपस्या आरम्भ की है | 
इस विषयमे तुमको हमसे कया कहना है १॥ ४॥ 


मायामोह बोखा--यदि आपलोगोको सुक्तिको 
दृच्छादहैतो जैसा मै कहताहूँं वैसा करो। आप- 
लोग सुक्तिके सुखे द्वाररूप इस धमेका आदर 
कीजिये ॥ ५॥ यह्‌ धमं मुक्तिमे परमोपयोगी हे । 
इससे श्रेष्ठ अन्य कोड धमं नदीं है । इसका अनुष्ठान 
करनेसे आपलोग स्वगं अथवा मुक्ति जिसकी 
कामना करेगे प्राप्न कर खगे ॥ ६॥ आप सवलरोग 
सहाबलवान्‌ है, अतः इस धमेका आद्र कीजिये । 


भ्रीपराश्चरजी बोले--दस प्रकार नाना प्रकारकी 


युक्तियोंसे अतिरञ्ित बाक्योंद्वारा मायामोहने दैत्य- 
गणको वैदिकमागंसे भरष्ट कर दिया । "यद धभंयुक्त 
है ओर यह धमंविरुद्ध दै, यह सत्‌ है ओर यह्‌ 
असत्‌ हे, यह्‌ मुक्तिकारक दै ओर इससे मुक्ति नदीं 
होती, यह्‌ आत्यन्तिक परमाथ दै अर यह्‌ परमार्थं 
नहीं है, यह कत्तव्य है जओौर यह अकन्तेन्य है, यह्‌ 
ठेसा नदीं है ओर यह स्पष्ट ठेसा ही हे, यह दिगम्बरो- 
का धमे है ओर यह साम्बरोका धमं हैः | ७.१० ॥ 
हे द्विज ! एसे अनेक प्रकारके अनन्त वादोंको दिखाकर 

मायामोह उनश््व्य बधस्तेच्य कर दय११। ` 


॥ 





[ाककााषयाताकणायकक क व पपरा 





अहेवैतं महाधमं मायामोहेन ते यतः। 


प्ोक्तास्तमाभिता धर्ममारहतास्तेन तेऽभवन्‌। १२ 


तरयीधर्मसपुस्तगं मायामोहेन तेऽसुराः । 


कारितिास्तन्मयाद्यासंस्ततोऽन्ये तस्रचोदिताः। १३। 


तैरप्यन्ये प्ररे तैश्च तैरप्यन्ये परे च तैः। 
अल्यैरहोभिस्सन्स्यक्ता तैदत्यैःप्रायशस्यी ॥ १४॥ 
पुनश रक्ताम्बरधद्मायामोहो जितेन्द्रियः । 


अन्यानाहासुरान्‌ गत्वा सद्रल्पमधुराक्षरम्‌ | १५॥ 
स्र्गाथं यदि बो वाञ्छा निर्वाणार्थमथाससः। 


तदलं पषुघातादिदुषटधमनिबोधत ॥१६॥ 
विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छत | 


बुध्यध्वं मेवचः सम्यभ्बुधेरेवमिहोदितम्‌ ॥१७॥ 
जगदेतदनाधारं प्रान्तिज्ञानाथतत्परम्‌ । 
रागादिदुष्टमत्य्थं भ्राम्यते भवसङ्कटे ॥१८॥ 
एवं बुध्यत बुध्यध्वं बुभ्यतैवमितीरयन्‌ । 
मायामोहः स दैवेयान्धरममत्याजयन्निजम्‌ ॥१९॥ 
नानाप्रकारवचनं स तेषां युक्तियोजितम्‌। 
तथा तथा त्रयीधर्म' तत्यजुस्ते यथा यथा ॥२०॥ 
तेऽप्यन्येषां तथेवोचुरन्यैशन्ये तथोदिता, । 
मैत्रेय तत्यजुधंम' बेदसमृसयुदितं परम्‌ ॥२१॥ 
अन्यानप्यन्यपापण्डप्रकासैहुमिरिन । 
दैतेयान्मोहयामास मायामोद्येऽतिमोहछत्‌ ।२२। 
स्वल्पेनेव हि कालेन मायामोहेन तेऽयुराः। 


मोदितास्तस्यजुसस्ा ्रयीमारगाभितां कथाम्‌ ।२३।| 





मायामोहने दैव्योसे का थाकि आपरोग इस 
महाधमको अहत" अर्थात्‌ इसका आद्र कौजिये। 
अतः चस धमेका अवदम्बन करनेसे वे (आर्हतः 
कदर्ये ॥ १२॥ 

मायामोहने असुरगणको त्रयीधमसे विमुख कर 
दिया ओौर बे मोहग्रस्त हो गये; तथा पीठे उन्होने 
अन्य दैत्यौको भी इसी धमेमे प्रवृत्तं करिया ॥ १३॥ 
उन्होने दुसरे दैत्योंको, दुसरोने तीससको, तीसयेने 
चौथोको तथा चन्होने ओौरोको इसी धमैमे प्रवृत्त 
किया} इस प्रकार थोड़े हो दिनम दैत्यगणने वेद्‌ 
चरयीका प्रायः व्याग कर दिया | १४॥ 

तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोहने रक्तवख् 
धारण कर अन्यान्य असुरोकि पास जा उनसे मदु, 
अल्प ओर मधुर शन्दामे कष्म--॥ १५॥ “हे असुर 
गण ! यदि तुमखोगोँको स्वगं अथवा मोक्षकी इच्छा 
ह तो पशुहिंसा आदि दुष्टकर्मोको स्यागकर बोध 
प्राप्न कसो ॥ १६ ॥ यह सारा जगत्‌ विज्ञानमय है- 
ठेसा जानो । मेरे बाक्योपर पृणेतया ध्यान दौ । 
दस विषयमे बुधजमोका एसा ही मतद फियह्‌ 
संसार निराधार है, भ्रमजन्य पदार्थोकी प्रतीतिपर 
ही स्थिर है तथा रागादि दोषोंसे दूषित दै! इस 
संसार-सङ्करमे जीच अत्यन्त भटकता रहता दै" 
।१७-१८॥ इस प्रकार शुभ्यत ( जानो ), बुध्यध्वं 
( समन्नो ), बुध्यत ( जानो) आदि शब्दोसे बुद्धधम- 
का निर्दय कर मायामोहने दैध्योसे उनका निजधमं 
छुड़ा दिया ॥ १९ ॥ मायामोहने . पैसे नाना प्रकारके 
युक्तियुक्त वाक्य कदे जिससे उन देत्यगणने त्रयी 
धमैको त्याग दिया ॥ २० ॥ उन दैत्यगणने अन्य 
देत्योसे तथा उन्होने अन्यान्यसे रसे ही वाक्य 
कषेः | हे मैत्रेय! इस प्रकार उन्होने श्रतिस्मति 
विहित अपने परम धमंको व्याग दिया २१॥ है 
द्विज ! मोहकारी मायामोदने ओौर भी अनेकानेक 
देत्योको भिन्न-मिन्न प्रकारके विबिध पाषण्डोसे 
मोहित कर दिया॥ २२॥ इस प्रकार थोड़े ही 
समयमे मायामोहके द्वारा मोहित होकर असुरगण- 
ने वेदिकधमेकी बातचीत करना भी छोड़ दिया 
।॥ २३॥ 











केचिदिनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज । 
यक्तकर्फलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम्‌ ॥२४॥ 
नैतदयुक्ति सहं वाक्यं दसा धर्माय चेष्यते । 





हवीप्यनलदग्धानि फलयेत्यरमकोदितम्‌ ॥२५॥ 
यज्ञरनेकैरदेवत्वमवाध्येन््रेण युज्यते । 
शम्यादि यदि वेत्काष्टं तद्वरं पत्र ुकपशुः ॥२६॥ 


निहतस्य पशोरथ॑ज्ने स्वप्राप्नियंदीप्यते । 





स्वपिता यजमानेन किन्वु तस्मान्न हन्यते ॥२७॥॥ 
तृप्ये जायते पुंसो युक्तमन्येन चेत्तत; । 
र्याच्छाद्धं ्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः ॥२८॥ 
जनश्रद्धेयमिस्येतदवगम्य ततोऽ वः। 
उपेक्षा प्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्‌॥।२९॥ 
न द्याप्रवादा नभसो निपतनिति महासुराः । 


युकतिमद्चनं प्रायं मयान्येश्च भवद्विधः ॥२०॥ 


श्रीपराङ्चार उवाच 
मायामोहेन ते दैस्याः प्रकासंहुमिस्तथा । 


युत्थापिता यथा नैषां त्रयी क्िदरोचयत्‌॥२१॥ 





इस्थयुन्मागयतिषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः । 
उद्योगं परमं कृता बुद्धाय सृषटुपस्थिताः ॥३२॥ 
ततो देवासुरं युद्धं एनरेवाभवद्‌ द्विज । 
हताथ तेऽसुरा देवैः सन्मागंपरिपन्थिनः ॥३२॥ 
स्वधरमकवचं तेषामभूयस्रथमं द्विज । 


तेन रक्षाभवदूं नेशुनष्टे च तत्र ते ॥३४॥ 
[3 0 
ततो मैत्रेय तन्मागेवर्तिनो येऽमवज्ञनाः | 


हे द्विज ! उनमेसे कोई बेदोकी, कोई देवताओं- 
की, कोई याज्निक कम-कलापोकी तथा कोई ब्राह्मणो 
की मिन्दा करने ल्गे॥ २४॥ [ वे कहने ख्गे-- ] 
'हिसासे भी धमं होता है-यह्‌ बात किसी प्रकार 
युक्तिसङ्गत नहीं है । अग्निम वि जरनेसे फङ 
हयोगा--यह मी वश्योकी-सी बात दै ॥ २५। अनेकों 
यज्ञो द्वारा देवत्व छाभ करके यदि ईन्द्रको शमी 
आदि काष्ठका ही मोजन करना पड़ता है तो इससे 
तो पत्ते खानेवाला प्श ही अच्छा है॥२६। यदि 
यज्ञम बकल किये गये पञ्चको स्व्गकी प्राप्न होती है 
तो यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार 
डाखता १ ।॥ २७॥ यदि किसी अन्य पुरुषे भोजन 
करनेसे भी किसी पुरुषकी वत्ति हो सक्तीहै तो 
पिदेशकी याच्राके समय खाद्य पदाथं ठे जनका 
परिश्रम करनेकी क्या आवर्यकता हे; पुत्रगण घर- 
पर ही श्राद्धकर दिया करं ॥ २८ ॥ अतः यह्‌ समश्च- 
कर किं यह ( श्राद्धादि कमेकाण्ड ) छोगोकी अन्ध. 
श्रद्धा ही दहै" इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये ओर 
अपने प्रेयःसाधनके स्यि जो कुछ मैने कहाहै 
उसमे रुचि करनी चाहिये ॥ २९ ॥ हे असुरगण ! 
भ्रति आदि आप्तवाक्य छु आकाशसे नहीं गिरा 
करते । हम, तुम ओौर अन्य सबको भी युक्तियुक्तं 
वाकयोँको अ्रहण कर लेना चाहिये ॥ २०॥ 


श्रीपराशरजी बोले--इस प्रकार अनेक युक्तियोँ- 
से मायामोहने दैत्योंकौ वि चछ कर दिया जिससे 
उनसे किंसीकी भी वेदत्रयीम रचि नहीं रही ॥३१॥ 
इस प्रकार, दैत्योके विपरीत साग प्रवृत्त हो जाने- 
पर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्धके 
ल्य उपस्थित हुए ॥ ३९॥ 


हे द्विज ! तव देवता ओौर अघ्ुरोम पुनः सं्राम 
छिड्ा। उसमें सन्मागगवि रोधी देत्यगण देवताओंह्ारा 
मारे गये ॥ ३३ ॥ हे ्ठिज ! पहले देत्योके पास जो 
स्वधर्म॑रूप कवच था सीसे उनकी रक्षा हई थी। 
अबकी बार उसके नष्ट हो जनेसेवे भीनष्टहो गये 


,॥ ३४ ॥ हे मैत्रेय ! खस समय जो रोग मायामोहः 


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नभ्रास्ते तै्यतस््यक्तं त्रयीसंवरणं तथा ॥३५॥ 


ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी । 
परिव्राड्‌ वा चतुर्थोऽतर पश्चमी नोपपद्यते ॥२६॥ 
यस्तु सन्त्यञ्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते। 
परिव्राट्‌ चापि तैत्रेय स नग्नः पापकृन्रः | ३७॥ 
नित्यानां कमणां विग्र तस्व हानिरहनिश्म्‌। 

अङ्कवं न्वितं कमे रक्तः पतति तिने ॥३८॥ 
प्रायश्चित्तेन महता शुद्धिभाप्नोत्यनापदि । 

पक्षं नित्यक्रियादहानेः कर्ता मैत्रेय मानवः । ३९ 


संवत्सरं क्रियाहानियंस्य पुंसोऽभमिजायते । 


तस्यावलोकनास््र्यो निरीच्यस्सापुमिस्सदा ॥४०। 


सपृ स्नानं सचैरस्य शुदधर्दतुमेहामते । 
पुंसो मवति तस्योक्ता न शुद्धिः पापफरमंणः ॥४१॥ 
देवर्षिपित॒भूतानि यस्य निःश्वस्य वेदमनि। 


प्रयान्त्यनचितान्यत्र लोके तस्मान्न पापकृत्‌ । ४२। 








सम्भाषणानुप्रहनादि सहास्यां चैव इव॑तः। 
जायते तुल्यता तस्य तेनैष द्विज वत्सरात्‌ ॥४२॥ 
देवादिनिःश्वासषतं शरीरं यस्य वेश्मं च। 
न तेन सङ्करं इयाद्‌ गृहासनपरिच्छ्देः ॥४४॥ 
अथ शुदुक्ते गृहे तस्य करोत्यास्यां तथासने । 
शेते चाप्येकशयने स सद्यस्तत्समो मवेत्‌ ॥४५॥ 


देबतापितुभूतानि तथानभ्यच्वं योऽतिथीन्‌ । 





युङकते स पातक युङक्ते निष्कृतिस्तस्य नेष्यति।४६। 


~. 








द्वारा प्रर्तित मागंका अवटम्बव्थः, ~ न्ष्नेतरए वे 


नग्नः कहलाये क्योकि उन्होने वेदत्रयीरूप षस 


त्याग दिया था॥ ३५॥ 

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ ओर संन्यासी-- 
ये चारही आश्रमी दै । इनके अतिरिक्त पचा 
श्रमी भौर कोई नहीं ह | ३६ ॥ हे मैत्रेय! जो 
पुरुष गृहस्थाश्रमको छोडनेके अनन्तर वानप्रस्थ या 
संन्यासी नहँ होता बहु पापी मी नग्नही है ॥३७॥ 


हे विप्र! सामभ्य रहते हुएमी जो बिदहित 
कमं नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाताहै 
ओर उस एक दिन-रातमे हौ उसफे सम्पूणं निर्य- 
कर्मकरा क्षयदहो जता है ॥३८॥ हे मैत्रेय, 
आपन्तिकाल्को छोड़कर ओौर किसी समय एक 
पक्षतक नित्यकमेका त्याग करनेवाला पुरुष महान्‌ 
प्रायथित्तसे ह ञुद्ध हो सक्ता द ॥ ३९॥ जो पुरुष 
एक बषंतक्‌ नित्य क्रिया नहीं करता इसपर हृष्टि 
पड़ जानेसे साधु पुरुषको सदा सूयका दन करना 
चाहिये ॥ ४० ॥ हे महामते ! एसे पुरुषका स्पशं 


होनेषर बद्मसदित स्नान करनेसे शद्ध हयो सकती दै 
ओर उस पापात्माकी उद्धतो किसी भी प्रकार नहीं 


हो सकती ।॥ ४१॥ 

जिस मनुष्यके घरसे देव गण, ऋषिगणः पिदराण 
ओर भूतगण बिना पूज्ञित हुए निरास छौडते 
अन्यच्च चे जति दह, छोकमे उससे बदुकर ओौर 
कोई पापी नहीं दे ॥ ४२॥ दे दिज ! एसे पुरुषके 
साय एक वर्ष॑तक सम्भाषण, कुशप्रइन भौर उठने. 
्ैठनेसे मुष्य उसीके समान पापात्मा हौ जाता है 
॥ ४६ । जिसका श्चरोर अथवा गृह देवता आदिक 
निभाससे निहत है उसके साथ अपने गृह, आसन 
ओर त्रश्च आदिकोन मिरावे ॥ ४४॥।। जो पुरूष 
उसके घरमे भोजन करता है, उसका भासन प्रहण 
करता है अथवा उसके साथ एक हौ शय्यापर 
शयन करता है, बह शीघ्र द्वी खसीके समान हो 
जाता है ॥ ४५॥ जो मलुष्य देवता, पितर, भूतगण 
ओर अतिथियोका पूजन किये चिना स्वयं भोजन 
करतः है वह पापमय भोजन करता दै; उसकी 
शभगति नहीं हो सकती ॥ ४६ ॥ 


२७२ 











बराह्मणाचयास्तु ये वर्णास्स्वधर्मादन्यतोग्ुखाः। 
यान्दि ते नग्नसंज्ञं तु हीनकरमस्ववस्थिताः ॥४७। 
चतुर्णा यत्र वर्णानां मैत्रेयात्यन्तसङ्करः | 
तत्रास्या साधुवृत्तीनाष्ुषधाताय जायते ॥४८॥ 
अनभ्यच्यं ऋपीन्देवान्पितृमूतातिथींस्तथा। 

यो शडक्ते तस्य संन्नापात्यतन्ति नरके नराः ॥४९॥ 
तस्मादेतान्नगी नग्नांश्चयीसन्त्यागदृषितान्‌। 
सर्वदा वर्जयेलान्न आलापस्पशंनादिषु ॥५०॥ 
भर द्भावद्धिः कृतं यतादेवान्पितुपितामहान्‌ । 

न प्रीणयत्ति तच्छाद्धं य्ेमिरबरोकितम्‌।५१।। 





श्रुयते च पुरा ख्यातो राजा शतधनुमवि । 

पनी च शेन्या तस्यामूदिधरमपरायणा |५२॥ 
पतिव्रता महाभागा सत्यकशौचदयान्विता। 
सर्वलक्षणसम्पन्ना धिनयेन नयेन च ॥५३॥ 
सतु राजा तया सादरं देवदेवं जनाद॑नम्‌। 
आराधयामास विभुं प्रमेण समाधिना ॥५९॥ 
रोमैजपैस्तथा दानैहपवातैथ भक्तितः । 
पूजाभिधानुदिवसं तन्मना नान्यमानसः ॥५५॥ 
एकदा तु समं स्नातौ तौ त॒ भार्यापती जले। 
भागीरश्यास्सय्ती्णो कातिक्यां सद्पोपितौ। 
पाषण्डिनमपदयेतामायान्तं सम्डुखं द्विज ॥५६॥ 
चापाचायंस्य तस्यासौ सखा रासो महात्मनः । 
अतस्तद्गौरवात्तेन सखाभावमथाकरोत्‌ ॥५७॥ 
न तु सा वाग्यता देवी तस्य पत्नी पतिव्रता । 
उपोषितारमीति रविं तस्मिन्द्े ददशं च ।॥५८॥ 
समागम्य यथान्यायं दम्पती तो यथाविधि। 
विष्णोः पूजादिकं सवं कृतवन्तौ द्विजोत्तम ।५९॥ 








कालेन गच्छता राजा ममारासौ सपलनजित्‌ । 


द्‌ # ऋ ^ @५ क्न क __ , । ऋ, = 


श्रीविष्णुपुराण 


[ अ० १८ 





जो ब्राह्मणादि बणे स्वधमेको छोड़कर परधममिं 
वृत्त होते ह अथव हीनवृत्तिका अवल्म्बन करते 
हवे नग्नः करते दै ॥ ४७॥ हे मैत्रेय ! जिस 
स्थानम चारों वर्णका अत्यन्त मिश्रण हो उसमें 
रहनेसे पुरुषकी साधुव्रत्तियोका क्षय हो जाता है 
॥ ४८ । जो पुरुष ऋषि, देव, पिच, भूत आौर्‌ 
अतिथिगणका पूजन किये ब्रिना भोजन करताहै 
ससे सम्भाषण करनेसे भी रोग नरके पडते 
है || ४९ ॥ अतः वेदघ्रयीके त्यागसे दूषित इन 
नग्नोके साथ प्राज्ञपुरुष सवेदा सम्भाषण ओर स्पशं 
आदिकाभी व्याग करदे।|५०॥ यदि इनकी दृष्ट 
पड़ जाय तो श्रद्धावान्‌ पुरुषोंका यत्नपूवेक क्रिया 
हु श्राद्ध देवता जथवा पितृ-पितामह गणकी चश्चि 
नहीं करता ॥ ५१॥ 


सुना जाता है, पूवंकालमे प्रथिवीतख्पर र॒तधनु 
नामसे विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी ग्या 
अत्यन्त धमेपरायणा थी ॥ ५२॥ वह महाभागा 
पतिब्रता, सत्य, शौच ओर दयासे युक्त तथा विनय 
ओर नीति आदि सम्पूणं सुखक्षणोसे सम्पन्ना थी 
| ५३ ॥ उस महारानीके साथ राजा इतधनुने 
परम समाधिद्रारा सचंव्यापक देवदेव श्रीजनाद॑न- 
की आराधना की ५४ ॥ वे प्रतिदिन तन्मय होकर 
अनन्यमावसे होम, जप, दान, उपवास ओर पूजन 
आ1दिद्धारा भगवानूको भक्तिपूवंक आराधना करने 
लगे ॥ ५५ ॥ हे द्विज ! एकर दिन कार्तिकी पू्णिमा- 
को उपवास कर उन दोनों पति-पसिनियोने श्रीगङ्गाजी- 
मे एक साथ ही स्नान करनेके अनन्तर बाहर आने- 
पर एकं पाषण्डीको सामने आता देखा ॥ ५६ ।) यहु 
बराह्मण उस महात्मा राजाके धलु्वंदाचायंका मित्र 
था; भतः भाचार्यके गौरववज्ञ राजाने भौ उससे 
मित्रवत्‌ म्यवहार्‌ किया ॥ ५७ ॥ किन्तु उसकी 
पतिन्रता पत्नीने उसका कुछ भौ भाद्र नँ किया 
वहु मौन रदी ओौर यह सोचकर कि मै हपोषिता 
( उपवा सयुक्त ) हूँ उसे देखकर सूयका दशन किया 
॥ ५८ ॥ हे द्विजोत्तम ! फिर उन स्री-पुरुषोने 
यथारीति आकर भगवान्‌ विष्णुके पूजा आदिक 
सम्पूणं कमं विधिपूवंक किये ॥ ५९ ॥ 


काछान्तरमे वह श्ञच्रजित्‌ राजा मर गया। 
तब, दैवी शओेत्याने भी चितारूढ महाराजका 





सतु तेनापचारेण शवा जनने बसुधाधिषः। 
उपोपितेन पाषण्डसंन्लापो यच्छृतोऽमवत्‌ ॥६१॥ 
सातु जातिस्मरा जन्ने काशिराजसुता गुभा। 
सवेविज्ञानसम्पूर्णा सर्वलक्षणपूनिता ॥६२॥ 
तां पिता दातुकामोऽमृदराय विनिवारितः । 
तयैव तन्व्या विरतो धिवाहारम्भतो सुपः ॥६३॥ 


ततस्सा दिव्यया दुष्टया दृष्ट्रा श्वानं निजं पतिम्‌ । | 


(9 


बिदिक्ाख्यं पुरं गत्वा तदवस्थं ददश तम्‌ ॥६४॥ 
तं दव मष्टामागं श्वभूतं तु पतिं तदा। 
ददो तस्मै बरा्टारं सत्कारपरबणं सुभा ॥६५॥ 
युञ्ञन्दत्तं तया सोऽन्मतिमृष्टमभौप्ितम्‌। 
स्वजातिललितं इवेन्यहु चाड चकार वै ॥६६॥ 
अतीव व्रीडिता बाला इुवंता चाट तेन सा। 
प्रणामपूव॑माैदं दयितं तं इयोनिजम्‌ ।६७॥ 
रमयतां तन्महाराज दाक्षिण्यलहितं त्वया । 
येन इवयोनिमापन्नो मम चाटुकरो भवान्‌।॥६८॥ 
पाषण्डिनं समामाप्य ती्थंस्नानादनन्तरम्‌। 
प्राप्रोऽसि हत्सितां योनिं किन स्मरसि तसपरभो 
श्रीपराश्चर उवाच 
तथैवं समारिति तस्मिनपूंजातिकृते तदा । 
दध्यौ चिरमथावाप निर्वदमतिदुटमम्‌ ॥७०॥ 
निर्षिण्णचित्तस्स ततो निग॑म्य नगराद्बहिः । , 
महपरपतनं कृता शार्गाीं योनिमागतः ॥७१॥ 
सापि द्ितीये सम्प्राप्ते बीद््य दिव्येन चक्षुषा | 
ज्ञात्वा शृगाल तं द्रष्टु ययो कोलाहलं गिरिम्‌ । 
तत्रापि वृष्टं पराह शरां योनिमागतम्‌ | 
भर्तारमपि चार्वङ्गी तनया पृथिवीक्षितः ॥७३॥। 


{= 0०६५२९१. 








राजा शतधलुने उपबास-अवस्थाभे पाखण्डीसे बाता- 
छाप किया था। अतः उस पापके कारण उसने 
कुत्तेका जन्म छखिया ॥ ६१॥ तथा वह जभ 
लक्षणा काञ्ञीनरेशकी कन्या हुई, जो सब प्रकारके 


| विज्ञानसे युक्त; सवंखक्षणस्तस्पन्ना ओर जातिस्मरा 


( पूवंजन्मका दृत्तान्त जाननेबाी ) थौ । ६२ ॥ 
राजाने उसे किंसी वरको देनेकी इच्छा की, किन्तु 
उस सुन्दरी हय रोक देनेपर वह्‌ उसके विवाहादिसे 
खपरत हो गये ॥ ६३॥ 


तव उसने दिभ्य हृष्टिसे अपने पतिको इवान 
हुआ जान विदिज्ञा-नामक नगरमे जाकर उसे वहाँ 


| कुत्तेकी अवस्थामे देखा ॥ ६४ ॥ अपने महाभाग 


पत्तिको इवानरूपमे देखकर खस सुन्द्रीने उसे 
सत्कार-पूवेक अति उत्तम भोजन कराया ॥ ६५॥ 
उसके दिये हुए उस अति मधुर ओर इच्छित अन्नको 
खाकर वह अपनी जातिफे अनुकूल नाना प्रकारकी 
चादुता प्रद्रित करने खगा ॥ ६६ ॥ उसके चादुता 
करनेसे अत्यन्त संकुचित हो उस बाङ्काने कुस्सित 
योनिम उत्पन्न हुए खख अपने प्रियतमको प्रणाम कर 
उससे इस प्रकार कहा-। ६७ ॥ “मक्षाराज ! आप 
अपनी उस उद्ारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण 
आज आप इवानयोनिकौ प्राघ्र होकर मेरे चाटुकार 
हुए दै । ६८ ॥ हे प्रभो ! क्या आपको यह्‌ स्मरण 
नहीं है कि तीर्थस्नाने अनन्तर पखण्डीते वार्ता 
छाप करनेके कारण ही आपको यह्‌ कुस्सित योनि 
मिरी दहे ?॥ ६९ ॥ 

श्रीपराशरजी बोल्ते-कारिराजसुताद्रारा इस 
प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक 
सपने पूवजन्मका चिन्तन किया । तव इसे अति 
दुरम निद प्रप्र हुजा ॥ ७० ॥ उसने अति उदास 
चिन्तसे नगरफे बाहर आ प्राणत्याग दिये भौर 
फिर शछगारूयोनिम जन्म ल्या ॥ ७१॥ तक 
काञ्चिराजकन्या दिन्य दृष्टिसे उसे दूसरे जन्मभे 
श्रूगाक हुभा जान उसे देखनेके ख्ये 
कोलाहल्-पवेतपर गयी ॥ ७२॥ वरहा भी अपने 
पतिको श्रगार-योनिम उत्पन्न हा देख वह्‌ 
सन्दरौ राजकन्या उससे वोटी-- ॥ ७३॥ 


२७४ 





अपि स्मरसि रजेन्द्र श्रयोनिस्थस्य यन्मया 
प्रोक्तं ते पूवं चरितं पापण्डालापसंग्रयम्‌ ॥७४॥ 
पुनस्तयोक्तं स ज्ञास्वा सत्यं सत्यवतां वरः| 
कानने स॒ निराहारस्तत्याज खं करेवरम्‌ ॥७५॥ 
भूयस्ततो वृको जज्ञे गत्वा तं निजने बने। 
स्मारयामास मर्तारं पूवृत्तमनिन्दिता ॥७६॥ 
न खं वृको महाभाग राजा श्तधनुर्मवान्‌ । 

श्रा भूता तं शृगारोऽभू्ैकलं साम्प्रतं यतः।७७। 
स्मारितेन यदा त्यक्तस्तेनास्मा गृध्रतां गतः 
अपापा सा पुनरचैनं बोधयामास भामिनी ।॥७८॥ 
नरेन्द्र स्मय॑तामामा यलं ते गधरचेष्टय।। 
पाषण्डालापजातोऽयं दोषो यदुगृध्रतां गतः॥७९॥ 
ततः काकृत्वमापन्नं समनन्तरजन्मनि । 
उवाच तन्वी भर्तारुपरुम्यास्मयोगतः ॥८०॥ 
अशेपभूभूतः पूवं वरया यस्मै बिं ददुः । 

स त्वं काकत्वमापन्नो जातोऽ वर्क्‌ प्रभो।८१ 
एवमेव च काकत्वे स्मारितस्य पुरातनम्‌ । 
तत्याज भूपतिः प्राणान्मयूरत्वमवाप च ॥८२॥ 
मयूरत्वे ततस्सा वै चकारानुगतिं शुभा । 

दतै प्रतिक्षणं भोजधर्ाला तज्जातिमोजनैः ॥८३॥ 
ततस्तु जनको राजा वाजिमेधं महाक्रतुम्‌ । 


चकार तस्यावभृथे स्नापयामास तं तदा ॥८४॥ 
सस्नो स्वयं च तन्वङ्गी स्मारयामास चापि तम्‌| 


जभ = = = ` (4 न ® | (¢ | । । |, 


भ्रीरिष्णुपुराण 


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[ अ० १८ 


"हे रजेन्द्र! श्वान-योनिमे जन्म केनेपर मैने 
आपसे जो पाखण्डीसे बातीरापविषयक पूवं जन्मका 
वृत्तान्त कष्टा था, क्या बह सापको स्मरण 
र ११ ॥ ७४ ॥ तब सत्यनिषठोमे श्रेष्ठ राजा चतधसुने 
उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृत्तान्त 
जानकर निराहार रह वनभ अपना शरीर छोद्‌ 
दिया ॥ ५५॥ 


फिर वह एकर सैड़िया हुभा; उस समयमभी 
अनिन्दिता राजकन्याने उस निजंन वनम जाकर 
अपने पतिको इसके पूबंजन्मका वृत्तान्त स्मरण 
कराया ॥ ७६ ॥ [ उसने कष्ा-- } “हे महाभाग ! 
तुम सेडिया नदीं हो; तुम राजा इतधनु हो । तुम 
[ अपने पवंजन्मोमे ] क्रमश्च: कुक्छुर ओर शगार 
होकर अव भेडिया हूए हो” ॥ ५७॥ इस प्रकार 
उसके स्मरण करानेपर राजाने सब सेडियेके शरीर- 
को छोड़ा तो गृध-योनिमे जन्म छिया। उस समय 
भी उसको निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया- 
| ७८) “है नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूपका स्मरण 
करो; इन गृघ्चेष्ठाओंको छोड़ो । पाखण्डीके साय 


वातीछाप करनेके दोषसे ही तुम गृ हप ह| 


किर दूसरे जन्मभे काक-योनिको प्राप्त होनेपर 
भी अपने पत्तिको योगबछ्से पाकर उस सुन्द्रीने 
कहा--। ८० ॥ “हे प्रभो ! जिनके बज्ञीभूत होकर 
सारे सामन्तगण नाना प्रकारकी बस्तु संट करते 
थे बही आप भाज काक-योनिको प्राप्त होकर बकि- 
भोजी हुए है” ॥ ८१॥ इसी प्रकार काक-यौनिमं 
मी पूर्वजन्मका स्मरण कराये जञानेपर राजान अपने 
प्राण छोड दिये ओौर फिर मयूर-योनिमे जन्म 
लिया ॥ ८२॥ 


मयूरावस्थाभम मौ काज्ञिराजकौ कन्या उसे क्षणः 
क्षणम अति सुन्दर मयूरोचित आहार देती हु 
उसक्रौ टहख करने ठगी ॥ <३॥ उस समय 
सम्य राजा जनकने अश्वमेध-नामक महायज्ञका 
अनुष्ठान किया; उस यज्ञम अवधथ-स्नानके 
समय उस मयूरको स्नान कराया ॥ ८४॥ तव 
उस सुन्दरीने स्वयं भी स्नान कर राजाको 
यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान 


कै ५ 


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स्मृतजन्मक्रमस्सोऽथ तरयाजं स्वकरेवरम्‌ । 

जज्ञे स जनकस्यैव पूत्रोऽसौ सुप्रहात्मनः ॥८६॥ 
ततस्सा पितरं तन्वी विवाहाथमचोदयत्‌ । 

स चापि कारयामास तस्या राजा स्वय॑वरम्‌॥८७॥। 
स्वयंवरे कृते सा तं सम्प्राप्त पतिमास्मनः। 
वरयामास भूयोऽपि मतभावेन भामिनी ॥८८॥ 
बुय॒जे च तया साद्धं सम्भोगान्तृपनन्दनः । 
पितयपरते राज्यं विदेषेषु चकार सः ॥८९॥ 
हयाज यज्ञान्युवहून्ददौ दानानि चा्थिनाम्‌ । 
पुत्रानुत्पादयामास युयुधे च सहारिमिः ॥९०॥ 
राज्यं युक्त्वा यथान्यायं पाठयित्वा वसुन्धराम्‌ । 
तत्याज स प्रियास्राणान्संगरमे धर्मतो रपः।९१। 
ततथितास्थं तं भूयो मर्तारं सा शुभेक्षणा | 
अन्वारुरोह बिधिवद्यथापूवं यदान्विता ॥९२॥ 
ततोऽवाप तया साद रापून्यास पाथिवः। 
रेन्द्रानतीत्य वैलोकोल्होकान्प्राप तदाक्षयान्‌ ९३ 
स्वरगाक्षयत्वमतलं दाम्पत्यमतिदुमम्‌ । 
प्राप पुण्यफलं प्राप्य संशुद्धि तां द्विजोत्तम।।९४॥ 
एष पाप्ण्डसम्भाषादोषः प्रोक्तो मया दविज । 
तथाश्चमेधावभृथस्नानसादात्म्यमेव च ॥९५॥ 
तस्मात्यापण्डिभिःपायैरारापरपदनं त्यजेत्‌ । 


विशेषतः क्रियाकारे यज्ञादौ चापि दीक्षितः॥९६॥ 
करियाहानि्ृहे यस्य मासमेकं प्रजायते । 
तस्यावोकनास्घरयं पद्येत मतिमान्नरः ॥९७॥ 
पुनस्तु सन्त्यक्ता त्रयी सर्वात्मना दविज । 
पाषण्डमोजिभिः पपैवेदबादविरोधिभिः ॥९८॥ 





अपनी जन्म-परम्पराका स्मरण होनेपर उसने अपनां 
दररीर व्याग दिया ओर फिर महात्मा जनकजीके 
यँ ही पुत्ररूपसे जन्म छिया । ८६.॥ 

तब उस सुन्दसेने अपने पिताको विवाहके 
दिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणासे राजानं उसके 
स्वयंबरका आयोज्ञन किया ॥ ८७ 1 स्वयव॑र 
होनेपर उस राजकन्याने स्वयवरमं अये हुए अपने 
डस पत्िको फिर पतिभावसे वरण कर छया 
| ८८॥ उस राजक्कमारने काशिराजसुताके साथ 
नाना प्रकारे भोग भोगे ओर फिर पिताके 
परललोकवासी दोनेपर विदेहनगरका राञ्य किया 
|} ८९ ॥ उसने बहुत-से यज्ञ॒ किये, याचकोंको नाना 


 प्रकारसे दान विये, बहुत-से पुत्र उलन कयि ओर 


रातरओंके साथ अनेक युद्ध किये ॥ ९० ॥ इस प्रकार 
उस राजानि परथिबीका न्यायाचुद्ल पालन करते हष 
रास्य-भोग किया जौर अन्तम अपने प्रिय प्राणोको 
धर्मयुद्धमे छोड़ा ॥ ९१॥ तच उस सुखोचनाने 
पहकेके समान फिर अपने चितारूद पतिका 
विधिपू्क प्रसन्न-मनसे अनुगमन किया ।॥९९॥ 
दखसे वह्‌ राजा उस राजकन्याके सदित इन्द्रलोकसे 
भी उत्कृष्ट अश्चय छोकोको प्रा्र हुभा॥ ९२ ॥ 


हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जनिषर उसने 
अतुखनीय अक्षय स्वगं, अति दुकंम दाम्प्य ओर 
अपने [पूजित पुण्यका फल प्रापत कर लिया॥९४॥ 

हेद्धिज! इस प्रकार मेने तुमसे पाखण्डीसे 
सम्भाषण करनेका दोष ओर अरबमेध-यन्ञमें स्नान 
करनेका माल्य वणेन कर दिया ॥ ९५ ॥ इसदिये 
पाखण्डी अर पापाचारियोसे कभी वा्ताराप ओर 
सपजञं न करे; बिरोषतः नित्यनैमित्तिक कमक्गि समय 
ौर जो यज्ञादि क्रियाओंके छ्यि दीक्षित हो उसे 
तो उनका संसग त्यागना अत्यन्त आवेरेयक्‌ है 
|| ९६ ॥ जिसके घरमे एक मासतक नित्यकर्मोका 
अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख केनेपर बुद्धिमान्‌ 
मदुष्य सूर्यका दजन करे ॥ ९७॥ फिर जिन्दोने 
वेदच्रयीका सवथा त्याग कर दिया है तथाजो 
पाखण्डियोका अन्न खाते ओौर वेदिक मतका 
विरोध करते है उन पापास्माओंके द्चनादि 
करनेपर तो कहना ही क्या दहे १ ॥९्८॥ 


९७९ 


सहारापस्तु संसग; सहास्था चातिपापिनी । 
पापण्डिमिदुराचारैस्तस्मात्तान्परिवजंयेत्‌ ॥९९॥ 
पाषण्डिनो बिकमेरथान्पैडारवतिकान्छटान्‌ | 
हैतंकान्धकवृत्तीथ वाडुमातरेणापि नाच॑येत्‌ ।१००। 
दुरतस्तैरतु सम्पकंस्त्याल्यथाप्यतिपापिभिः। 
पाषण्डिभिहुराचारेस्स्मात्तान्पखिअयेत्‌ ॥१०१॥ 





एते नग्नास्तवाख्याता चाः श्राद्धोपधाततकाः | 

येषां सम्भाषणात्पुंसां दिनपुण्यं प्रणर्यति॥ १०२॥ 

एते पाषण्डिनः पापा न छेतानालयेद्‌ बुधः। 

पण्यं नश्यति सम्भाषादेतेषां तदिनोद्धवम्‌॥ १०२॥ 

पुंसां जटाधरणमौण्डयवतां बधैव 
मोधारिनामखिलशौचनिराङृतानाम्‌ । 

तोयगप्रदानपितुपिण्डवहिष्कृतानां 





सम्भाषणादपि नरा नरक प्रयान्ति।।१०४। 


भ्रातिष्णुपराण 


इन दुराचारी पाखण्डियोके साथ वातांहाप करने, 
सम्पकं रखने ओर उठने-वैठनेमे महान्‌ पाप होता 
है; इसख्यि इन सब बातोका व्याग करं ॥ ९९ ॥] 
पाखण्डी, विकर्म, विडारबरतवारे, दुष्ट, स्वार्थी 
ओर बगुखा-मक्त लोगोका वाणसेभी आदर न 
करे | १००॥। इन पाखण्डी, दुराचारी ओर अति 
पापियोँका संसग दृरहीसे त्यागने योग्य है । इसल्यि 
द्रनका सवेदा त्याग करे ॥ १०१॥ 


हस प्रकार मैने तुमसे नग्नोकी व्याख्या की, 
जिनके दञेनमात्रसे श्राद्ध नष्टहो जातादै ओर 
जिनके साथ सम्भाषण करनेसे मसुष्यका पक्र 
दिनका पुण्य क्षीण हो जाता ह ॥ १०२॥ ये 
पाखण्डो बड़ पापी होते है, बुद्धिमान्‌ पुरुष इनसे 
कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण 
करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता हे ।। १०३॥ 
जो बिनाकारणही जटा धारण करते अथवा मूड 
गुडति है, देवता, अतिथि आदिको भोजन कराये 
बिना स्वयं ही भोजन कर छेते दहै, सब प्रकारसे 
जौ चहीन है तथा जल-दान ओौर पिव्र-पिण्ड आदिसे 
भी बहिष्छरत दै, खन छोगोसे वा्तीछाप करनेसे भी 
लोग नरकमें जाते है | १०४॥ 


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इति श्रीबिष्णुपुराणे वतीयेऽ अश्टादञ्चोऽध्यायः ॥ १८ ॥ 


रि 


इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके 
श्रीमति विष्णुमहापुराणे व्रतीयोऽशः समाप्तः । 





® प्रच्छन्नानि च पापानि वैडारं नाम तदु्तम्‌ ] 


2 नि त जा =+ वाशा = ॐ , नो 221 --2 = ~ ४-19-15 ॐ , 






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पारं पारापारमपारं पर्पारं पाराषाराधारमघायं ह्यविकार्यम्‌ । 
पूणाकारं पृणेविदारं परिपूर्णं वन्दे विष्णुं परमाराभ्यं परमार्थम्‌ ॥ 


कालश 










(ऊध) 
४ 





भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र 


५ 


श्रीविष्णुपूराण 


चतुथं अंश 


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पहला जधघ्याय 


वेवस्वतमनुके वंशकरा विवरण 


श्रीमैत्रेय उवाच 
मगवन्यन्नरः कायं साधुकर्मण्यवस्थितैः । 
तन्मह्यं गुरुणाख्यातं नित्यनेमित्तिकात्मकम्‌'। १॥ 
वणधर्मास्तथाख्याता धर्माये चाश्रमेषु च। 
भोतुमिच्छाम्यहं वंशं राजञां तद्‌ ब्रूहि मे गुरो ॥२॥ 
श्रीपराशर उवाच 
मेते श्रयतामयमनेकयज्वशूीरधीरभू- 
पालारडङृतो बह्मादिर्मानवो वंशः ॥ २ ॥ तदस्य 
वंशस्यानुपू्वीमशेषवं शपापप्रणारनाय मेत्रयेतां 
कथां शृणु | ४॥ 


तद्यथा सकरजगतामादिर्नादिभूतस्स 
छम्यजुस्सामादिमयो भगवान्‌ विष्णुस्तस्य ब्रह्मणो 
मूत्त रपं हिरण्यगर्भो ब्हमाण्डभूतो ब्रह्मा भगवान्‌ 
पराखभूव ॥ ५॥ ब्रह्मणश्च दक्षिणङ्गुजन्मा 
दकषप्रजापतिः दक्षस्याप्यदितिरदितेषिवस्वान्‌ 
विवस्वतो मुः ॥ ६ ॥ मनोर््िाुनृगध- 
शर्यातिनरिष्यन्तप्रंगुनाभागदिष्टकरूप्पधास्या 
दश पुत्रा बभूवुः | ७॥ 








भीमेष्रेयजी बोले-दे भगवन्‌ ! सत्कर्म परवन्त 
रहनेषष्े पुरुष)।को जो करने चाये उन सम्पूणं 
नित्यनैमित्तिक कर्मोका आपने वर्णन कर दिया 
॥ १॥ षै गुरो | आपने वण-धमं ओौर आभ्रम- 
धर्मोकी व्याख्या मी कर द । अव मुके राजवशोका 
विवरण सुननेको इच्छा है, अतः उनका वर्णन 
कीजिये ॥ २॥ 


भी पराशरजी बोले-दहे मेत्रेय | अव तुम 
अनेकों यज्ञकन्ता, शूरवीर भौर धैयल भूपालोसे 
सुशोभित इस मनुवंराका वणन. सुनो, जिसके 
आदिपुरुष श्रीब्रह्माजो दै ।॥ ३॥ हे मैत्रेय ! अपने 
वराके सम्पण पापोको नष्ट करनेफे ल्ि इस वंश्च- 
परस्पराकौ कथाका क्रमश्चः श्रवण करो ॥४। 


उसका विवरण इस प्रकार है-सकर संसारे 
आदिकारण भगवान्‌ विष्णु है| वे अनादि तथा 
ऋक्‌-साम-यजुःस्वरूप हँ । उन ब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ 
विष्णुके मूत्तरूप ब्रह्माण्डमय हिरण्यगभं भगवान्‌ 
ब्रह्माजी सवसे पके प्रकट हुए ॥ ५॥ ब्रह्माजीके 
दायं अंगूठेसे दक्षप्रजापति हृए, दक्षसे अदिति हु 
तथा अदितिसे विवस्वान्‌ ओर विवस्वान्‌से मनुका 
जन्म॒ हृंआ ॥६॥ मनुके इक्ष्वाकु, गग, धृष्ट, 
रायीति, नरिष्यन्त, प्र, नाभाग, दिष्ट, करूष आओौर 
पृषं नामक दस पुत्र हुए ॥ ७॥ 


भ्रीविष्णुपुराण 


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नोय सयातक्कााक 





इष्टि च मित्रावह्णयो्नुः पूत्रकामश्वकार 
| ८ ॥ तत्र तावदपहते होतुरपचारादिला नाम 
कन्या वभूव ॥९॥ सैव च मित्रावर्णयो 
प्रघादासुगरम्नो नाम मनोः पुत्रो मैत्रेय आसीत्‌ 
॥१०॥ पन्वेशरकोपास्छी सती सा तु सोम- 
दूनोवधस्याश्रमसमीपे बभ्राम ॥११॥ साुरागन् 
तस्यां बुधः पुरूरवसमात्मजयुत्पादयामास।। १२॥ 
जातेऽपि तरिमन्नमिततेजोभिः परमषिभिरिष्टिमय 
ऋङ्मयो यजु्रैयस्साममयोऽथवंणमयस्पवेेद- 
मयो मनोमघो ज्ञानमयो न कि्रिन्मयोऽन्रमयो 
भगवान्‌ य्पुरुपस्वरूषी सुद्युम्नस्य पुंसतवमभि- 
लपद्धर्ययावरदिषटस्तससादादिला पुनरपि 
मवत्‌ ।। १२) तस्याप्युत्करुगयविनतास््रयः पुत्रा 





वभूवुः ॥५४॥ सुध्ुम्नस्त स्त्रीपूवकल्वाद्राज्य- 
भागंन रेभे ॥१५॥ तदिपत्रा तु विष्टवचना- 
सतिष्ठानं नाम नगरं सुद्ुम्नाय दत्तं तचचासौ 
पुरूरवसे प्रादात्‌ ॥१६॥ 

तदन्वयाश्च क्षत्रियास्सर्वे दि्ष्वमवन्‌ । पष- 
धरस्तु मनुपुत्रौ गुरूगोवधाच्छ्गत्वमगमत्‌ ॥१७॥ 
मनोः पत्रः करूषः करूपात्कारूपाः क्षत्रिया 





महावहपराक्रमा बभूवुः ॥१८॥ दि्टपुत्रस्त 
नमामो वैरयतामगमत्तस्माद्व्टन्धनः पुत्रोऽभवत्‌ 
॥१९॥ वलन्धनादसप्रीतिरूदारकीर्तिः ॥२०॥ 
वत्सप्रीतेः प्रांशुरमवत्‌ ॥२१॥ प्रजापतिश्च प्रंगो- 
रेकोऽमवत्‌॥२२॥ तह खनित्रः ॥२२॥ तस्मा- 
चापुषः | २४ चाकुषाचचातिबरपराकरमो विंशोऽ- 
भवत्‌ ॥२५॥ ततो विरविं्चकः ॥२६॥ तस्माच्च 





खनिने्ः | २७।। ततश्वातिविभूतिः।२८।।अति- 


मनुने पुत्रकौ इच्छासे मित्रावरुण नामक दो 
देवताओंके यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ ८ ॥ किन्तु 
होताके बिपरोत सङ्कल्यसे यज्ञे विपयंय दो जानेसे 
उनके ्ाः नामकी कन्या हुई ।॥ ९॥ देः मैत्रेय । 
भिन्नावरुणकरी कृपासे वह इला ही मलुका सुम्न 
नामक पुत्र हुई ॥ १०॥ फिर महादिवजीके कोप 
( कोपप्रयुक्त शाप ) से वह खी होकर चन्द्रमाके 
पुत्र बुधे आश्रमके निकर घूमने छ्गी ॥ ११॥ 
बुधने अनुरक्त होकर उस स्लीसे पुरूरवा नामक 
पुत्र उत्पन्न किया ॥ १२॥ पुरूरवाके जन्मके 
अनन्तर भी परमर्षिगणने सुयुभ्नको पुरुषरवखाभकौ 
आकांक्षासे क्रतुमय ऋण्यज्ुःसामाथवेमय, सववेद्‌- 
मय, मनोमय, ज्ञानमय, अन्नमय ओर परमाथत 
अक्रिद्िन्मय भगवान्‌ यज्ञपुरुषक्रा यथावत्‌ यजन 
किया ! तत्र उनकी छपासे इला पिर भौ खयुम्न हो 
गयी ॥ १३॥ उस ( सुधुम्न ) के भौ उत्क, गय 
अओौर विनत नामक तीन पुत्र हुए ॥ १४॥ पटे 
ल्ली होनेके कारण सुद्युम्नको राञ्याधिकार प्राप्त 
नही इ ॥ ९५॥ वसिष्ठजीके कदनेसे उनके 
पिताने उन्हें प्रतिष्ठान नामक नगरदे दिया था 
वही उन्होने पुूरवाको दिया ॥ १६॥ 


युरूरबाकी सन्तान सम्पूणं दिज्ञाओोमे फैले हप 
्षत्रियगण हुए । मनुका प्रषध्र नामक पुत्र गुरुक 
मौका वध करनेके कारण शर हो गया ॥ १७॥ 
मनुका पुत्र करूष था । करूषसे कारूष नामक 
महाबल्ली ओौर पराक्रमी क्षत्रियगण वसन्न हुए 
॥ १८॥ दिष्टका पुत्र नाभाग वेश्य दहो गया था; 
उससे बढन्धन नामक पुत्र हज ।। १९॥ बलन्धनसे 
महान्‌ कीर्तिमान्‌ वस्सप्रीतिः वत्सप्रीतिसे प्राच ओर 
प्रारसे प्रजापति नामक इकलौता पुत्र हृशा 
॥ २०-२२ ॥ प्रजापतिसे खनित्र खनित्रसे चाक्षुष 
तथा चाक्षषसे अत्तिवर-पराक्रम-सम्पन्न विश्च हुआ 
॥ २३-२५॥ विसे विविशञकः विर्बिशकसे 
खनिनेत्र, खनिनेश्रसे अतिविभूति ओौर अति- 
भिमतिसे भति बख्वान्‌ सौर शूरवीर 


=+ >» न ` ५ / 


तस्मादप्यविशषित्‌ ।॥२०॥ अविक्षितोऽप्यतिषरपरा- , करन्यमते अविक्षित्‌ हभा ओर अविशषितके मरुत्त नामक 


क्रमः पूत्रो मरतो नामाभेवत्‌; यस्येमाव्यापि 
श्ोकौ गीयेत ॥२१॥ 


मरुत्तस्य यथा यज्ञस्तथा कसयाभवद्ुषि 


1 


सवं हिरण्मयं यख य॒ज्ञवस्त्यतिश्तोभनम्‌ ॥२२॥ 


अमाघदिन्द्रस्सोमेन दक्षिणामिर्दिजातयः 


॥२२॥ 


स मरुत्तथक्रवतीं नरिष्यन्तनामानं पुत्रमवपि 
॥२४॥ तसाच दमः ॥३५॥ दम पुत्रो 
राजवद्नो जज्ञे ॥१६॥ राजव्धनातुषृद्धिः 
॥२३७॥ सुवद्धेः केवलः ॥३८॥ कैवरात्युध- 
तिरभूत्‌ ॥२३९॥ ततश नरः ॥४०॥ तसाचन्द्रः 
॥४१॥ ततः केवलोऽमूत्‌ ॥४२।॥ केवलाद्न्धु- 
माच्‌ ॥४३॥ बन्धुमतो वेगवान्‌ ॥४४॥ 
वेगवतो बुधः ॥४५।! ततश्च तणविन्दुः ॥४६॥ 
तखःप्येका कस्या इलप्रिरा नाम ॥४७॥ ततशा- 
रम्बा नाम वराप्सरास्वणविन्दुं मेने ॥४८॥ 
तस्यामप्यख विक्चासो जज्ञे यः परीं पिश्षरां 
निर्ममे ॥४९॥ 

हेमचन्द्रथ विशारद पूत्रोऽभवत्‌ ।।५०॥ 
ततशन्द्रः ॥५१॥ तत्तनयो भूतरक्ष; ।॥५२॥ 
तस्यापि सूञ्जयोऽभूत्‌ ॥५३॥ सृञ्जयात्सहदेवः 
॥५४॥ ततथ दशाश्वो नाम पूत्रोऽभवत्‌ ॥५५॥ 
सोमदत्तः छषाश्चाजक्ञे योऽश्वमेधानां शतमाजहार 


मरुतः परिवेष्टारस्सदस्या्च दिषौकसः 


॥५६॥ ततपुप्रो जनमेजयः ।॥५७॥ जनमेजया- | 


त्ुमतिः ॥५८॥ एते वैशालिका भूमृतः ॥५९॥ 
श्ोकोऽप्यत्र भीयते ॥६०॥ 
त्रणविन्दोः प्रसादेन सर्व वेशालिका सृषाः । 


दीर्घायुषो महात्मानो बीरयवन्तोऽतिधामिंकाः ।६१॥ ` 





कजा ००९००. 


५ ५१०५७ ०००००००५ 
-----+--~~~--------~----------- ~~ ~ 


~~ ---~--¬ 








अति बल-पराक्रमयुक्त पुत्र हआ, जिसके विषयमं 
आजकरु भी ये दो श्लोक गये जाते है ॥ २०-३१॥ 

ध्मरुतका जैसा यज्ञ इआ था वैसा इस प्रथिवीपर 
ओर कितका इभा है, जिसकी समी यश्गिक वस्पुए्‌ 
एुवेणमय ओर अति घुन्दर शीं ॥ ३२ ॥ डस यद्गभ 
इन्द्र सोमरससे ओर त्राह्मणगण दद्षिणासे परितप्त हो 
गये थे तथा उसमे म्ण पयेखमेवाछे ओर देवगण 
सदस्यथ ॥ ३३ ॥ 


उस चक्रवर्ती मरुततके नरिषन्त नामक पुत्र हभ 
तथा नख््िन्तके दम ओर दमके राजवर्दधन नामक 
पुत्र उन्न इभ ॥३४-३६॥ राजंवद्धनसे पुवृद्धिः 
सुशरद्विसे केवर ओर केवकसे घुधृतिका जनम हज 
॥ २७-३९॥ घुधृतिषे नर, नरसे चन्द्र॒ ओर चन्द्रसे 
कवठ इभा ॥ ४ ०-४२॥ केवले बन्धुमान्‌, बन्धुमान्‌ 
वेगवान्‌, वेगवानसे बुध, बुधसे तृ'णिन्दु तथा 
तृ णविन्दुसे पहले तो हृलविला नामकी एक कन्या हृद 
धी, किन्तु पीछे अरम्बुसा नारकी एक पुन्दरी अष्छरा 
उसपर अनुरक्त हो गयी । उसमे तणभिन्दुके विराट 
नामक पुत्र हआ; जिसने विशाला नामकी पुरी 
्रसायी ॥* ६-४९॥ 

व्रिशाख्का पुत्र हैमचन्द्र द्भ, हेपचन्द्रका चन्द्र 
चन्द्रका धूम्रा, पूम्रा्षका सञ्चयः सञ्चयका सहदेव 
रौर सहदेवका पुत्र कृशश्च हज ॥५०-५५५॥ 
कृशाश्चकरे सोमदत्त नामक पुत्र दभा, जिसने सौ 
अश्रमेधयन्न विये ये | उससे जनयेजय दज ओर 
जनमेजयसे सुमतिका जन्म इभा । ये सब विरल. 
वंसीय राजा हए । इनके विषयमे यह्‌ इलोक प्रसिद्ध 
है--1५६-६०॥ प्तृणविन्दुके प्रसादसे विशार- 
वंसीय समस्त राजालेम दीर्घायु, महात्मा, वीयैवान्‌ 
ओर अति घर्मपरयण इ ॥६१॥ 





~ ~~~ ^ 
~------- -------------------------~----------- ~~ ~~ 


एयतिः कन्या सुकन्या नामाभवत्‌ | 
च्यवनः ॥६२॥ आनर्चनामा परमधामिकरश्रया- 


तिपुत्रोऽभवत्‌ ॥६३॥ अनर्तस्यापि रेषतनामा 
त्रो जज्ञे योऽसाधानत्तैविषयं बुधे पुरीं च 
ुशसलीमध्युवास ॥६४॥ 


रेषतस्यापि रेवतः पुत्रः कड्निनामा धमासा 
भ्रातृशतस्य ज्येष्ठोऽभवत्‌ ॥६५॥ तस्य रेवती नाम 


कन्याभवत्‌ ।॥६६॥ स तामादाय कखेयमर्हतीति 
भगवन्तमन्नयोनिं प्ष्टु' ब्रह्मलोकं जगाम ॥६७॥ 
तावच्च ब्रह्मणोऽस्तिके दाहाहहुसंज्ञाम्यां गन्धर्वा - 
भ्यामतितानं नाम दिव्यं गन्धर्वममीयत ॥६८॥ 
तच्च ॒त्रिमार्गपखिकतैरनेकयुगपरिवृत्ति तिषट्पि 
रेवत्धृणवनधुहूतमिव मेने ॥ ६९४ 

गीतावसाने च भगवन्तमऽ्जयोनिं प्रणम्य 
रेवतः कन्यायोग्यं परमपृच्छत्‌ ॥७०॥ ततासौ 
भगवानकथयत्‌ कथय योऽभिमतस्ते वर इति॥७१॥ 
पनथ प्रणम्य भगवते तसमै यथाभिमतानास- 
नस्प परान्‌ कथयामाप्न । क एषां भगवतोऽभिमत 
इति यस्मे कन्यामिमां प्रयच्छामीति ॥७२॥ 

ततः फिशचिद्बनतिरारसस्मितं भगवानब्न- 
योनिराह ।७३।य एते भवतोऽभिमता नैतेषां साम्प्रतं 
पत्रपोत्राप्त्यापत्यसन्ततिरस्त्यवनीतके 
बहूनि तवात्रेय गान्थवं श्रण्वतधतुरयुमान्यतीतानि 
॥ ७५॥ सम्परतं महीतलेऽटाविशतितममनोधतुर्य- 
गमतीतप्रायंवर्वते।७६। आसन्नो हि कलिः।।७७॥ 


॥७४॥। 














८ १ ४ 
मनुपुत्र शा्यतिके सुकन्या नामवाली एकः कन्या 
दई, जिसका विवाह व्यवन ऋषिके साथ हइ 
॥६२॥ रार्यातिके आनर्तं नामक एक परम धार्मिक 
पुत्र इअ । आनर्तक रेवत नामका पुत्र हआ जिसने 
कुशस्थरी नामकी परीमे रहकर आनततदेश्चका रा्य- 
भोग किया ॥ ६२-६४॥ 

रेवतका भी रेवत कु नामक एक अति धर्मात्मा 
पुत्र था, जो अपने सौ म्यम सबसे बडा था ॥६५॥ 
उसके रेवती नामकी एक कन्या हई ॥६६॥ महा- 
रज रैवत उसे अपने साथ लेकर ब्रह्माजीसे 
यह प्रूनेके स्यि कि यह कल्या किस बरके योग्य हैः 
्रह्मखोकको गये ॥६७॥ उस समय व्रह्माजीके समीप 
हाहा ओर हष्र नामक दो गन्धर्वै अतितान 
नामक दन्य गान गा रहै ये ॥६८॥ बह [ गान- 
सम्बन्धी चित्रा, दक्षिणा ओर धात्री नामक ] च्रिमागेके 
परिवर्तनके साथ उसका विरक्षण गान सुनते इए 
अनेकों युगोके पचिर्तन-काट्तक ठहरनेपर भी 


रैवतजीको केव एक मुहर्त दही बीता-सा माद 


इ ॥६९॥ 

गान समाप्त हौ जनेपर्‌ रैवतने भगवान्‌ कमर- 
योनिकी प्रणाम कर उनसे अप्रनी कन्याके योग्य वरं 
रछा ॥७०॥ मगवान्‌ ब्रह्मने कहा--ष्वुग्हे जो वर्‌ 
अभिमत हो उन्हे बताओ ॥७१॥ तन उन्होने ' 
मगवान्‌ ब्रह्माजीको पुनः प्रणाम कर्‌ अपने समस्त 
अभिमत वरोका वर्णन किया ओर्‌ प्रा कि “इनमे 
आपको दीन वर पसंद है जिसे म यह कन्या 
दू ४ ॥७२॥ 

हेसपर मगवान्‌ कमल्योनि कुछ सिर ञ्ुकाकर 
मुस्कराते इए बोले-।॥७२॥ “तुमको जो-जो वर अभिमत 
हे उनमैसे तो अन प्रथ्वीपर किसीके पुत्र-पौत्रादिकी 
सन्तान मी नहीं है ॥७४॥ क्योकि यह गन्धर्गोका 
गन सुनते इए तुम्हे कई चतुर्युग बीत चुके दै 
॥७५।। इस समय प्रथिवीतल्पर अट्राईसरये मनुका 
चतु्युग प्रायः समाप्त हो चुका है ॥७६॥ 
तथा कच्युगका प्रारम्भ होनेवाछा दहै ॥७७॥ 


अ० १ | 








चतुर्थं अंश | 


२८३ 








अन्यस्मे कन्यारत्नमिदं भषतेकाकिनाभिमताय 
देयम्‌ ॥ ७८ ॥ भवत्तेऽपि पुत्रमित्रकल्र- 
मन्तिभृत्यबन्धुष्लकोश्चादयस्समस्ताः काले- 
नेतेनात्यन्तमतीताः ॥ ७९ ॥ ततः पुनरप्यु- 
त्पन्नाताध्वस्लो राजा भगवन्तं प्रणम्य 
पप्रच्छ ॥ ८० ॥ भगवन्नेवमषस्थिते मयेयं कसमै 


देयेति ॥ ८१ ॥ ततस्स भगवान्‌ फिथिदवन- 


म्रकन्धरः कृताज्ञलिभूत्वा सवंलोकगुरुरम्भोज- 
योनिराह ॥८२॥ 


श्रीवह्मोकाचे 
न॒ द्यादिमध्यान्तमजख यस्य 
विशो वयं सर्वमयख धातुः। 
न च स्क्स्पंन परं स्वभावं 
नचैव सारं परमेश्वरख ॥८२॥ 
कलासुहुतदि मयश्च कालो 
न॒ यद्विभूतेः परिणामहेतुः । 
अजन्मनाश्ख ` सदैकमूत्त 
रनामरूपस सनातनख ॥८४॥ 
प्रसादादहमच्युतख 
भूतः प्रजायुष्टिकरोऽन्तकारी । 
शद्रः स्थितिहेतुभूतो 
यसाच मध्ये परुष; परसात्‌ ॥८५॥ 
, मदृरूपमास्थाय सृजस्यजो यः 
स्थितो च योऽसौ परुषखसूषी । 
रद्रखस्पेण च योऽत्ति व्च 
धत्ते 'तथानन्तवपुस्समस्तम्‌ ॥८६॥ 
पाकाय योऽग्निख्रपैति लोका- 
न्विभतिं प्रथ्यीवपुरव्ययात्मा | 
शक्रादिषरूषी परिपाति विश्व 
मरकेनदुरूपक्व तमो हिनस्ति ॥८७॥ 
चे्टाश्थसनखस्ूपी 
लोकल तश्च च जसान्नरूषी | 
धिश्वरिधतिस्थितस्तु 


[नका ध १ ॥ 1} # + ॥ | 


यख 


क्रोधाच्च 


करोति 


ददाति 


(५ 
7 4 1 1 1 ॥, च केम 








अत्र तुम अवले ही एह ग्ये ह्यो, अतः यह 
वन्या-एत किसी ओर योग्य वको दौ । इतने 
कषणयमें दुग्हारे पुत्र, पिरि, कलत्र, मन्निव्ग, 
भ्रस्यगणः बन्धुगण, सेना ओर कोरादिका भी र्भया 
अभाव हो चुका है! | ७८-७९ | तब भयभीत 
हृ राजा रवतने भगवान्‌ ब्रह्माजीको पुनः 
प्रणाम कर्‌ प्रछ--॥८०॥ भगवन्‌ ! रेसी बत 
है, तो अव मै इसे किसको दँ ॥८१॥ तव 
सवलोकगुरु भगवान्‌ कमल्योनिं कुछ सिर ह्भुकाये 
हाथ जोड़कर बोले ॥८२॥ 


प्ीब्रह्माजीने कहा-- जिस अजन्मा, सर्वमय, 
विधाता प्रमेश्वरका आदि, म्य ओर्‌ अन्त हम नी 
जानते ओर न निसका स्वरप्‌, उट स्वभाव ओर 
सार ही जान पतिहैँ॥ ८३ ॥ कल-मुदर्तादिमय, 
कारु भी निसकी विभूतिके परिणामा कारण 
नदीं हो सकता, जिसका जन्म ओर मरण नक्ष 
ह्येता, जो सनातन ओर सर्वदा एकरूप है तथा नो 
नाम ओर रूपसे रहित है ॥ ८४ ॥ जिस अ्युतकी 
करृपासे मेँ प्रजाका उत्पत्तिकर्ता दः निसके क्रोधसे 
उत्पतन इभा रुद खष्िका अन्तका्ता है तथा जिस 
परमाष्णिसे मध्यमं जगद्तितिकारी विष्णुरहप पुरुषका 
्ादुर्माव इञा है ॥ ८५ ॥ जो अजन्मा मेर रूप 
घरारणकर्‌ संसारकी स्वना करता है, सितिके समय 
जो पुरुषरूप है तथा जो रदररूपसे समं विश्वका 
प्रास कर जत है एवं अनन्तरूपसे सेमप्णं जगत्‌श्रो 
धारण करता है ॥ ८६ ॥ जो अग्ययात्रा पाकंके छिये 
अन्निरूप हो जता है, प््वीरूपसे सम्पूणं रोर्कोको 
धारण करता है, इन्द्रदिरूपसे विश्चका पाटन करता 
है ओर सूयं तथा चन्द्रहूप होकर सम्पूण अन्धकारका 
नाश करता है ॥ ८७] जो श्रास-ग्र्रासरूपसे जीयोमिं 
चेष्टा करता है, जल ओर अनरूपसे लेककी तृषि 
करता है तथा विश्वकी स्थितिभे संरग्न रहकर जो 


°) ¶--~श ~~) ~ क) क नन्वत शने [व (54 ॥॥ 


२८७ 


यस्सुञ्यते 








सर्मकृदात्मनैव ` 
यः फरयते पालयिता च देषः । 

विश्रात्मकस्संहियतेऽन्दकारी 
पृथक्‌ त्रयाय च योऽन्यथात्मा ॥८९॥ 

यसिञ्जगघी जभदेतदाधो 
यथाशितोऽसिञ्जगति खयम्भूः | 

स सर्वभूतभ्रभवो धर्यां 

खांशेन विष्णुनपतेऽवती्णः 

कुपस्ली या तव भूप रस्या 
पुरी पुराभूदसरावतीव । 

सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते 

स॒ वशवांश्लो वबलदेवनामा ॥९१॥ 

स्वमेनां तनयां नरेन्द्र 

प्रयच्छ मायामनुजाय जायाम्‌ । 

दछाध्यो वरोऽसौ तनया तवेयं 
सरीरतनभूता सद्शो हि योभः ॥९२॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 
इतीरितोऽसौ कमरोद्धषेन 
ू मुघं समासाय पतिः प्रजानाम्‌ । 

ददश हखान्‌ पुरुषान्‌ षिरूपा- 
नरपौजसस्खरपविवेकवीर्यान्‌ 

कुशस्थलीं तां च . पुरीग्पेत्य 
दृषान्यरूपा प्रददौ स कन्यम्‌ । 


॥९०॥ 


तस्मै 


॥९२॥ 


सीरायुधाय स्फटिकाचरभ- 
वश्षःस्थलायातुरुधीनैरेन्रः ॥९४॥ 
उच्चश्रमाणामिति तामवेक्ष्य 
खलाद्लपग्रेण च तारकेतुः | 
पिनम्रयामास ततश्च सापि 
वभूव सयो वनिता यथान्या ॥९५॥ 
तां रेवतीं रवतमूपकन्यां 
सीशयुधोऽसौ विधिनोपयेमे । 


द्वा कन्यां स. नृपो जमाम्‌ 
मार्यं पै तपसे प्रतात्मा ॥९६॥ 


भ्रीपिष्णुपुराण 








[ अ० १ 











जो सृता होकर भी विंखरङूपसे आप दही अपने 
दास रचा जाता दै, जगत्‌का पारन करमेवाखा होकर 
भी भाप द्यी पालित ह्येता है तथा संहारकारी हकर भी 
स्वयंदही संहत होता है ओर जो इन तीनोसे प्रथक्‌ 
हनका अषिनाश्षी अस्मा है ॥८९॥ जिसमं यदह 
जगत्‌ खित है, जो आदिपुरुष जगत्‌-स्वरूप है ओर 
इस जगव्के ही आश्रित तथा स्वयम्भू है, हे टपते 
सम्पूर्ण मूतोका उद्रवस्थान वह॒ विष्णु धरते अपने 
अंशसे अवतीर्णं हभ है ॥९०॥ 

हे राजन्‌ | पूर्वकाख्मे तुम्हारी जो अमरावतीके 
समान कुशखदी नामकी पुरी थी वह़्॒ अब द्वारकापुर 
ह्यो गयी है | वह्यं वे बरदेव नामक भगवान्‌ विष्णुके 
अंह विराजमान ह ॥ ९१॥ हे नरेन्ध } ठम यह 
कन्या उन मायामानव श्रीबरुदेवजीको पर्नीरूपसे दो । 
ये बलदेवजी संसारम अति प्रशंसनीय हैँ ओर तुम्हारी 
कन्या मी लियोमे रनस्वरूपा है अतः इनका योग 
सर्वथा उपयुक्त है | ९२ ॥ 

श्रीपराशरजी बोे-मगवान्‌ ब्रह्माजीके रेस 
कहृनेपर प्रजापति रैवत पृ्वीतक्पर आये तो देखा 
कि सभी मनुष्य छेटे-छोटे, कुरूप, अह्पतेजोमय, 
अल्पवीर्यं॑तथा विवेकहीन दयो गये है ।९३ ॥ 
अतुलबुद्धि महागज रैवतने भपनी कुशश्च नापकी 
पुरी ओर हयी प्रकारकी देवी तथा क्कटिक-पर्वतके 
समान जिनका वक्षःस्थल है उन मगवान्‌ हलायुधको 
अपनी कल्या दे दी || ९४ || भगवान्‌ बलुदेवजी 
उसे बहुत ऊँची देखकर अपने हल्के अप्रमागसे 
दबाकर नीची कर ढी । तब रेवती भी तत्कालीन 
अन्य दियोके समान ( छोटे `इरीरकी) दहो 
गयी || ९५ ॥ तदनन्तर बल्रामजीने महाराज रेवतकी 
क॒न्या रेवतीस्े विधिूर्वैक विवाद किया तथा राजा 
भी कन्यादान करनेके अनन्तर एकाग्रचिचसे तपस्या 
केके व्यि हिमाख्यपर्‌ च्छे गये ।\९.६॥ 


क 2 -2---#-~--- ~ 


~ नि >) तशपधोन्ध्णाा, | 9 ॥ 


€ ` ` 9५ १ 
द््वाकुके वंराकरा वणेन तथा सौभरिचरित्र 


श्रीपराशर उवाच 

यावच्च ब्रह्मलोकात्स कुशी रेषतो नाभ्येति 
ताघपुण्यजनपंज्ञा राक्षसास्तामख पुरीं इर्यलीं 
निजघ्नुः ॥ १ ॥ तचा भ्रातृरतं पुण्यजन- 
त्रासादिशो भेजे ॥ २॥ तदन्वयाश्च क्षभिया- 
स्सरवदिकष्वभवन्‌ ॥ ३ ॥ प्रषटसापि धाष्टकं कषत्रम- 
भवत्‌ ॥ ४ ॥ नाभागसात्मजो नाभागसंज्ञोऽभवत्‌ 
॥ ५ ॥ तस्याप्यम्बरीषः | ६ ॥ अम्बरीषखापि 
विरूपोऽभवत्‌ ।।७॥) विरूपासपृषद्श्रो जज्ञे ।। ८ ॥ 
ततश्च रथीतरः ॥ ९ ॥ अत्रायं श्छोक्षः-- 
एते कषत्रप्रघरता वै पनशा्धिरसाः स्मृताः । 
रथीतराणां प्रवराः भरत्रोपेता दिजातयः ॥१०। इति. 

्चुतवतशथ मनोरिक्विङः पुत्रो जक्ञे प्रणतः 
॥ ११॥ तख पुत्रशतप्रधाना विद्क्षिनिभिदण्डा- 
स्यास्ञयः पुत्रा बभूवुः ॥.१२॥ शङ्निप्रुाः 
पश्चाशसपुत्रा उत्तरापथरक्षितारे बभूवुः ॥ १२ ॥ 
चतवारशिदष्टौ च दक्षिणापथमूपालाः ॥१४॥ स 
वेक्ष्वङ्करषटकायाताद्यत्पाय श्राद्धा मांसमान- 
येति वि्धिमाज्ञापयामासर ॥ १५॥ स तथेति 
गृहीताज्ञो भिधृतशरासनो वनमभ्येत्यानेकशो 
मृगान्‌ हस्या श्रान्तोऽति्षतपरीतो िदुक्षिरेक 
शशमभक्षयत्‌ । शेषंच मांसमानीय पित्र 
निवेदयामास ।॥ १६॥ 

इक्ष्या्घकराचार्थो वशिष्टस्तसपरोक्षणाय चोदितः 


प्राह । अलमनेनामेध्येनामिषेण दुरात्मना तव 
त्रेणैतम्मांसणुपहतं यतोऽनेन शशो भक्षितः 


॥ १७॥ ततश्चासौ विङिर्मरुणैवएक्तस्यशाद- 


संज्ञामबाप पित्रा च परित्यक्तः ॥१८॥ 





श्रीपरादारजी बोठे--जिस समय रवत 'रठुश्ी 
ब्रहमलोकसे ठीटकर्‌ नह्य आये ये उसी समय पुप्यजन 
सक राक्षसोने उनकी पुरी बुशखलीका ध्वंस 
कर दिया ॥ १ ॥ उनके सौ माई पुण्यजन 
रक्षसेके भयसे दरों दिशम भाग गये ॥२॥ 
उन्हीके वंशम उतपन्न हए क्षत्रियगण सप्त दिशामि 
पठे ॥ ३ ॥ धृष्ये वेदम धारक मामक क्षत्रिय इए 
॥ 9 ॥ नामागके नाभाग नामक पुत्र हआ, नामाग- 
वा अम्बरीष ओर अम्बरीषका पुत्र विकूप दुभा) 
विषखूपसे प्रषदश्वका जन्म हज तथा उससे रथीतर 
भा ॥ ५-९ ॥ रथीतरके सम्बन्धमे यह इटोक प्रसिद्ध 
है--^थीतरके वंशाज कषत्रिय सम्तान होते हए भी 
आङ्धिरस कस्ये; अतः वे क्षत्रोपेत त्रह्मण इए, ॥१०॥ 


छीकनेके समय मनुकी प्रणेन्दियसे इक्ष्वाकु नामक 
पुत्रका जन्म इआ ॥११॥ उनके सौ पुत्रौमैसे विकुक्षि, 
निमि ओर दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान इए तथा 
उनके राकघुनि आदि पचास पुत्र उत्तरापथके भीर्‌ ` 
दोष अडताङीस दक्षिणापथके शासक इए ॥ १२-१४॥ 
दक्वाकुने अषटकाश्राद्धका आरम्भ कर अपने पुत्र 
विकुक्षिको आक्ञा दी कि श्रद्रके योग्य रसि 
टाजो ॥ १५१ उसने बहुत अच्छा! कह उनकी आङ्ञाको 
हिरोधा्थं किया ओर धनुष-बाण टेकर्‌ वनम आ 
अनेकों मृगेका वध किया, किन्तु अति थका्मोदा 
शौर अच्यन्त भूखा दोनेवे कारण कर्कि उनमेसे एक 
शशक ( रगो ) खा शिया ओर वया इअ मांस 
खाकर अपने पिताको निवेदन किया ॥ १६॥ 

उस मांतका प्रोक्षण करनेके स्यि प्रार्थना कयि 
जानेप्रर्‌ इष्छाकुके कुल-पुगोहित वरिष्ठजीने कहा-- 
“दस अपवित्र मांसकी क्या आवद्यक्रता है ? तुम्हारे 
दुरापा पुत्रने इसे शष्ट कर्‌ दिय है; कथि उसने 
दसमैसे एक शशफ खा टिया है", | १७॥ गुस्फे 
रसा कहनेपर, तभीसे विक्ुक्षिका नाम रक्चाद पडा 
ओर पितिने उत्को व्याग दिया ॥ १८ ॥ 


११५ ५ ५, 


| ° 9 9 





पितयुपते चास्ावलिरमेतां प्रध्मर धर्मतश्चशास 
॥१९॥ शशादख तख पुरञ्जयो नाम पुत्रोऽभवत्‌ 
॥ २०॥ 

तस्थेदं चान्यत्‌ ॥२१॥ पुरा हि रतायां देवा- 
सुरयुद्रमतिभीषणमभवत्‌ ॥२२॥ तत्र॒ चातिप्रलि- 
भिरसुरैरमराः पराजितास्ते भगवन्तं पिष्णुमारा- 
धयाश्चक्रुः ॥ २२ ॥ प्रसन्नश्च देवानामनादिनिध- 
नोऽखिरजगत्परायणो नारायणः प्राह ॥ २४ ॥ 
ज्ञातमेतन्मया दयुष्माभि॑दभिरुपरितं तदर्थमिदं 
श्रूयताम्‌ ॥ २५ ॥ पुरञ्ञयो नाम राजरवैश्चश्चादख 
तेनयः श्त्रियवरो यस्तख शरीरेऽहमंशेन खयमे- 
वावतीयं तानशेषानलरान्निहनिष्यामि तद्भवद्धिः 
पुरञ्ञयोऽसुखधार्थयुचयोगं कार्यतामिति ॥ २६॥ 


एतच्च श्रुता प्रणम्य भगवन्तं विष्णुभमराः 
पुरञ्जयसकाशमाजगुरुचुश्चैनम्‌ ॥ २७॥ भो भो 
 कुत्रियवर्यासाभिरम्यथितेन भेवतासाकमराति- 
वधोचतानां क्ंव्यं साहाग्यमिच्छामः तद्धवता- 
साकमभ्यागतानां प्रणयभङ्खो न काय इत्युक्तः 
पुरञ्जयः प्राह ॥२८॥ वरैरोक्यनाथो योऽयं युप्मा- 
कमिन्द्रः कतक्रतुरखय यदयं स्कन्धाधिरूढो 
युष्माकमरातिभिस्सह योर्स्ये तदहं मवतां सहायः 
खाम्‌ ॥ २९॥ 

इत्याकण्यं समश्तदेवैरिन्द्रेण च बाढमित्येव 
समन्वीप्ितम्‌ ॥ ३०॥ तवथ शतक्रतोर्वपसूप- 
धारिणः कङुदि थितोऽतिरोपसमन्वितो भगयत- 
शराचरगुरोरच्युत्य तेजसाप्यायितो देवासुर 
सडग्रामे समल्तानेवासुरान्निजघान ॥ २१॥ यत 
वृषभककुदि थितेन रज्ञा रतेयबटं 
निषृदितमतशासौ कंडुत्यसंक्ञामवाप ॥ ३२॥ 
कडुत्यसयाप्यनेनाः प्रोऽभवत्‌ ॥ २३ ॥ 
पृथुरनेनसः ॥ ३४ ॥ परथोिष्टराश्चः ॥ ३५॥ 
तस्यापि चान्द्रो युप्रनाश्रः ॥ ३६ ॥ चान्दरख 











पिताक मरनेके अनन्तर उसने इस पृथ्वीका ध्मदिस्तार 
शासन किया ॥ १९॥ उस राश्चादके पुरञ्जय 
नामक पुत्र हआ ॥ २०॥ 

पुरञ्जयका भी यह एक्‌ दप्तरा नाम पडा--॥२१॥ 
रकालमे त्रेतायुगे एक बार अति भीषण देवाघुर- 
संम्राम हा ॥ २२॥ उकम महघरल्वान्‌ देप्यगणसे 
पराजित दए देवताओंने भगवान्‌ विष्णुकी आराधना 
की | २३॥ तव आदि-अन्त-यून्य भरोष जगन्ति. 
पाठक, श्रीनारायणने देवताओंसे प्रसन होकर कहा-- 
॥२४॥ (अापलेोगका जो हु अभीष्ट है वह मैने जान 
लिया है । उसके विषयमे यह घात घुनिये--॥२५॥ 
राजिं श्ादका जो पुरञ्नय नामक पुत्र है उस 
षत्रियशरेष्ठके शारीरम मै अंशमात्रसे खयं अवतीर्णं 
ह्येक उन सम्पूर्ण दैत्योफा नार कर्हगा | अतः 
तुभल्लेग पुरञ्जयको दैत्योके वधके चल्यि तैयार 
करोः ॥ २६॥ 

यह सुनकर देवताभने विष्णुभगवान्‌को प्रणाम किया 
ओर पुरञ्चयके पास आकर उससे कहा--॥ २७ ॥ 
दे क्षत्रियश्रेष्ठ | हमलोग चाहते दै फि अपने 
दात्रुभकि वधे प्रवृत्त हमलोगोकी आप सहायता 
करे । हम अभ्यागत जनोका आप मान्मंग न करे 1, 
यह॒ सुनकर पुरञ्जयने कहा--॥ २८ ॥ ध्ये जो 
्रेखोक्यनाथ रातक्रतु आपलोगोके इन्द्र दहै यदि पै 
इनके कन्धेपर चदकर्‌ आपके रघ्रओसे युद्ध कर 
सक्‌ तो आपलोगेका सहायक हो सकता द" ॥२९॥ 

यह सुनकर समस्त देवगण ओर इन्र वहत 
अच्छा- रसा ककर उनका कथन सखीक।र्‌ कर 
ठ्या ॥३०॥ फिर दृषभरूपधारी इन्द्रकी पटपर 
चदफर चराचर गुट भगवान्‌ अ्युतके तेजसे पर्णं 
होकर राजा पुर्चयने रोषषूर्वक सभी दै्योको मार्‌ 
डर ॥३१॥ उस सजाने वेल्के ककुद्‌ ( कन्धे ) 
पर बैटकर देव्यसेनाका वध किया था, अतः उसका 
नाम कदु पड़ा ॥ ३२ ॥ ककुःस्थके अनेना नामक 
पुत्र इआ ॥ ३२ ॥ अनेनाके पृथु, प्रथुके विष्टराश्च, 
उनके चान्द्र युबनाश्र; तथा उस चान्द्र -युवनाश्रके 


० २] 





चतुर्थं अन्च 


गं 








चव 


तश्य युवनाश्व शावस्तः यः पुरीं शावस्तीं 
निवेश्चथामास ॥२७॥ शषस्तस्य बृहदश्व; ।॥२८॥ 
तसखापि  इवटयाश्चः ॥३९॥ योऽसाबुदकख 
मह्वरपकारिणं दुन्धुनामानमपुरं वे्णवेन 
तेजसाप्यायितः पूत्रसदसैरेकविशद्धिः परिघ्रतो 





जघान धुम्धुमारसंज्ामवाप ॥४०॥ तख च 
तनयास्समस्ता एव धुन्धुषुखनिःधासाभिना 
विष्टष्टा पिनेश्चः ।॥४१।॥ ददाश्वचन्द्रा 
कपिराश्चा् त्रयः केवरं रोषिताः ॥४२॥ 
ददाशवाद्र्यधः ॥४३॥ तसाच निङघम्भः 
॥४७।॥ निङ्कम्भखामिताश्चः ॥४५॥ 
कृशाश्चः ॥४६॥ तखाच्च प्रसेनजित्‌ ॥४७॥ 
ग्रसेनजितो युवनाशीऽभवत्‌ ॥४८।। तस्य चापरत्र 
स्मातिनियेदान्छनीनामाश्रममण्डले निथसतो 
द्यामिर्युनिभिरत्योस्ादनयेष्टिः कृता ।४९॥ 
तां च मध्यरात्रौ निदत्तायां मन््रपूतजलपूणं 
करुशं वेदिमध्ये निवेश्य ते मुनयः सुषु 
॥५०॥ सुतेषु तेषु अतीव तटूपरीतस्स भुपारत्त- 
माश्रमं परिवेश ॥५१॥ सुपंथ तानूषीन्नैवोतथाप- 
यामास ॥५२॥ तच्च करुशमपरिमेयमाहारेम्य- 








मन्त्रपूतं पपौ ॥५३॥ प्रबुद्धाथ ऋषयः पप्रच्छुः 
केनैत्मन्वपूतं वारि पीतम्‌ ॥५४॥ अत्र॒ हि 
राज्ञो युधनाश्वख परली महाबरपरक्रमं पुत्र 
जनयिष्यति । इत्याकण्यं स॒ राजा अजानता | 
ीतमित्याह ॥५५। गभध युवनाश्वसोदर 
अभवत्‌ क्रमेण च वधे ॥५६॥ प्रापतसमयच 
दक्षिणं इुधिमघनिपतेनिभिच निशक्राम ॥५७॥ 
न चातो राजा ममार ।॥५८॥ 


जातो नामैष कं धाखतीति ते नयः प्रोचुः 
१0) -णाान्य देवराजोऽत्रतरीत्‌ मामथ धाय 


---- ----यप्व्वय्प्य्स््५५्- ~~ -------------------- ------- -- 
---------------------- 
~~~ ~ 


शावस्त नामक पुत्र हभ जिसने शावस्ती पुरी 
वसायी थी ॥ ३४-२७ ॥ दावस्तके ब्रृहद्श्च॒ तथा 
बृहद श्चके वुवख्याश्चका जन्म हज, जिसने वैष्णव- 
तेजसे प्रणता खभ कर अपने कीस सस्त धतरके 
साथ मिटकर महर्षिं उदकके अपकारी धुन्धु नामक 
दैव्यको मारा था; अतः उनका नाम धुन्धुमार इ 
॥ २८-४० ॥ उनके सभी पुत्र धृन्धुके मुलसे निकमे 
हए निःशवासाद्चिसे जल्कर मर गये ॥ ४१॥ उनमेसे 
केवल ददाथ, चनस्य ओर कपिलाश्व-ये तीन दय 
ज्येये ॥ ४२॥ 

दृदसे हरयश्च, हर्थ्चसे निवुम्भः निदुम्भसे 
अितास्च, अमिताखसे कृशस्य, दराश्वसे 
प्रसेनजित्‌ ओर प्रसेननितसे दुवनाखका जन्म 
हृभा ॥ ९३-४८ ॥ युषनाश्च निःसन्तान होनेके 
कारण दन्न चित्तसे सुनीश्वरोके आश्रमम रहा 
करता था; उसके दु; खसे द्रधीमूत होकर दया मुनि- 
जननि उसके पुत्र उत्पन्न होनेके व्यि यक्ञानुष्ठान 
करिया ॥ ४९ ॥ आधी रातके समय उस यक्षके समा 
होनेपर मुनिजन मन्त्प्ूत॒जकका क्ट वेदीमे रखकर 
सो गये ॥ ५० ॥ उनके सो जनिप्‌ अव्यन्त पिपासा- 
दुर होकर राजान उस सथानम प्रवेश .किया ओर 
सये ह्येनेके कारण उन ऋषियोको उन्होने नहीं 
जगाया ॥५१-५२॥ तथा उप॒ अपरिमित महाम्य- 
श्राढी कलक मनत्परूत जठ्को पी ठ्या ॥५३॥ 
जागमेपर ऋषिर्योने प्रा) "ईस मन्नू जरुको 
विसे परिया है १ ॥५४॥ इका पान कनेपर 
ही युवनाश्चकी प्ली महा(यच्पिक्रमक्षीर पुत्र उसन्न 
करेम | यह घुनकर जाने कहा--प्पैने दी विना 
जाने यह जक षी च्या है"! ॥५५॥ अतः 
युवनाश्वके उदम गभे स्यापि हौ गया ओर क्रमशः 
वदने ठगा ॥ ५६ ॥ यंथासमय बालक राजाकी दरी 
कोख फाडकर्‌ निकल आया ॥ ५७ ॥ किन्तु इससे 
राजाकी मृष्यु नदीं इई ॥ ५८ ॥ 


उसके जन्प ऊेनेपर सुनियोने क्ा--“ह बालक 
क्या पान करके जीवित रहेगा ?! ॥ ५९ ॥ उसी 





वषत्रे चाद्य प्रदेशिनी देषेन्द्रेण न्यस्ता तां 
पपौ ॥६१॥ तां चामृतस्ाधिणीमाखाधष्विव स 
व्यवर्त ॥६२॥ ततस्तु मान्धाता चक्रवती 


स्द्रीपा मही बु ॥६२॥ तत्रायं शोकः ॥६४॥ 


यावत्र उदेत्यस्तं यायच्च प्रतितिष्ठति । 
स्म॑ कयौवनाश्वख म॒न्धातुः शषत्र्ुच्यते ॥६५॥ 


मान्धाता शतविन्दोहहितरं॑चिन्दुमतीपयेमे 
॥६६॥ पुरुत्समम्बरीपं एुचन्दं॑च तयां 
पत्रत्रयपुस्पादयामास ॥६७।॥ पश्चाशदुहितर्त- 
खामेव तथ्य नृपतेवैभूढुः ।॥६८॥ 

तसिननन्तरे बहवुचश सौमरिनाम महरषिरन्त- 
जे द्वादशाब्दं कारघरुधासर ॥६९॥ तत्र चान्त- 
उठे सम्मदो नामातिबहुभ्रजोऽतिमात्रप्रमाणो 
मीनाभिपतिरासीत्‌ ॥७०॥ तख च पुत्रपौत्र 
दौहित्राः प्ष्टतोऽग्रतः पायोः पक्षपुच्छरिर्सां 
चोपरि भरमन्तसतैव सदादरनिशपतिनिष्रैता 
रेमिरे ॥७१॥ स 
प्रकरपो बहुप्रकारं र्य ऋषेः परश्यतस्तररमन- 
पत्रपौत्रदोहित्रादिभिः सहसुदिनं सुतरां रम 
॥७२॥ अधान्तजरवथितस्सौभरिरेकग्रतस्स 
मापिमपहायानुदिनं तख मस्खसात्मजपुत्रपौत्र- 
दोहिमादिभिस्सह्यतिरमणीयतामयेकष्याचिन्तयत्‌ 
॥७३॥ अहो धन्योऽयमीदशमनभिमतं योन्य- 
स्तरमवाप्येभिरासजपुत्रपीत्रदौहिप्रादिभिस्सह 
रममाणोऽतीवाखाकं स्पृहाुस्पादयति ॥७९४। 


[क क, 
षनुरनभ्कृके 41 + ५, कू गु कुष्य गकर 


श्रीविष्णुपुराणं 








[अ०२ 





समय देवराज इन्द्रे आकर कहा--यह्‌ मेरे आश्रय 
जीवित रहेगा, ॥ ६० | अतः उसका नाम मान्धता 
हआ । देवेन्ने उसके मुखमे अपनी तर्जनी ( अगूे- 
के पासकी ) भँगुली दे दी ओर वह उसे पीने खा । 
उस अमृतमयी अँगुटीका भाखादन करनेसे वह एक 
ही दिनम बद्‌ गया ॥ ६१-६२ ॥ तभीसे चक्रवर्तीं 
मन्धाता सप्तद्वीपा प्रथिवीका राज्य भोगने ख्णा ॥६३॥ 
इसके विषयमे यह श्छोक कहा जाता है ॥ ६४ ॥ 


'जहोँसे सूर्यं उदय होता है ओर जहौ अस्त 
होता है वह सभी क्षेत्र युवनाद्के पुत्र मान्धाताका 
है ॥ ६५॥ । 


मान्धाताने शतनिन्दुकी पुत्री विन्दुमतीसे विवाह 
किया ओर उससे पुरक, अम्बरीष ओर मुचुदुन्द 
नायक तीन पुत्र उत्पन्न किये तथा उसी ( बिन्दुमती ) 
ते उनके पचास कन्यार्द हईं ॥ ६६-६८ ॥ 


उसी समय बहू टच सौभरि नामकं महर्षिने बारह 
वर्षतक जलम निवाक्ष किया ॥ ६९ | उस जल्मे 
सम्मद्‌ नामक एका बरहृत-सी सन्तानोबाला जर्‌ अति दी. 
याय मल्स्यरान था ॥७०॥ उसके पुत्र, पौत्र ओर दौहित्र 
आदि उसवेः आगे-षीछे तथा दवर-उधर पक्ष पुच्छ ओर 
शिरके उपर वरुभते हए अति आनन्दित होकर रात-दिन 
उकीके साथ क्रीडा करते रहते थे ॥ ७१॥ तथा ब्रह 
भी अपनी सन्तानकरे सुको पट स्परौसे अप्यन्त हष॑युक्त 
होकर उन मुनिर देखे-देढते अपने पुत्र, पौत्र ओर 
दौहित्र आदिके साथ अहर्न क्रीडा करता रहता 
था ॥७२॥ इस प्रकार जक शित सौभरि ऋषिने 
एकाग्रताषूप समाधिको छोडकर रात-दिन उस 
मद्स्यराजकी अपने पुत्र, पौत्र ओर दौहित्र आदिकै 
पाथ अति रमणीय क्रीडा्भोको देखकर विचार 
किया ॥७३॥ (अह्यो ! यह्‌ धन्य है, जो रेसी अनिष्ट 
योनि उत्पमे होकर मी अपने हन पुत्र, पौत्र. ओर 
दौहित्र आदिके साथ निरन्तर पमण करता हआ हमारे 
हृदयम डाह उस्न करता है ।॥७४॥ हम भी इसी 


न (म (~ ~ ~ न & 


अ०२] 


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चतुथं अश्च 


५८५९ 





इत्यवमभिकाद्नन्‌ स॒ तस्मादन्तरजलान्नि- 
क्रम्य सन्तानाय निवेष्डुकामः कम्याथं मान्धा- 
तारं राज्ञानमगच्छत्‌ ॥ ७५ ॥ 

आगमनश्रवणसमनन्तरं चोत्थाय तेन रज्ञा 
सम्गर््यादिना सम्पूजितः कृतासनपरिग्रहः 
सौभरिर्वाच राजानम्‌ ॥ ७६ ॥ 


सौभरिरुचाच 
निवेष्टुकामोऽस्मि नरेन्द्र कन्यां 
प्रयच्छ मे मा प्रणयं विभादक्षीः। 
न दयथिनः कायंवक्ादुपेताः 
कुरस्थवंसे वि्ुखाः प्रयान्ति।।७७॥ 
अन्येऽपि सन्त्येव नृषाः परथिभ्यां 
मान्धातरेषां तनयाः प्रस्ता; । 
त्व्थिनामथितदानदीक्षा- 
कृतवतं शछाष्यमिदं इ ते ।७८॥ 
दातार्धसंरू्यास्तव सन्ति कन्या- 
। स्तासां ममैकां नृपते प्रयच्छ । 
यसप्राथनामङ्कमयाद्विभेमि 
तस्मादहं रालवरातिदुःखात्‌।७९। 


करि 


श्रीपराञ्चर उवाचं 
इति ऋषिवचनमाकण्यं स राजा जराजजे- 
रितदेहमृषिमाोक्य प्रत्यारूयानकातरस्तस्माच 
लापमीतो मिभ्पस्किञिदधोश्ुखधिरं दध्यौ च 
॥ ८० ॥ 
सौभरिरुवाच 
नरेन्द्र कस्मास्पथुपैपि चिन्ता- 
मसद्ययुक्तं न मयात्र किचित्‌ । 
यावदयदेया तनया तयैव 
कृतार्थता नो यदि किं न र्धा ॥८१॥ 
श्रीपराशर उवाच 
जथ तस्य मगवतश्शापमीतस्सम्रश्रयस्तयुवा- 


न), „न+ । „~ 1) 








देसी अभिलाषा करते हुए वे उस जल्के 
भीतरसे निकर आये ओर सन्तानाथ गृहस्थाश्रमं 
प्रवेश करमेकी कामनासे कन्या प्रम करनेके लिये 
राज! सान्धाताके पास भये ॥ ५५ ॥ 


मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अध्यं- 
दानादिसे नका मलौ प्रकार पूजन किया। 
तदनन्तर सौभरि मुनिने आसन प्रहण करके 
साजासे कह! ॥ ५७६॥ 

सोभरिजी बोले-दे राजन्‌ ! यै कन्या-परिप्रह- 
का अभिाषी ह, अतः तुम ञ्चे एक कन्या दो; मेरा 
प्रणय मङ्ग मत करो । कङ्तस्थवंखमे कायश्च आया 
हुभा को भी प्रार्थी पुरष कमी खाली हाथ नी 
ल्लैौटता ॥ ७७॥ हे मान्धता ! प्रथिबीतलमे मौर भी 
अनेक राजारोग द ओर उनके भी कन्यापुं उलन्न 
हृ है; किन्तु याचकोको ममी हुदै वस्तु दान 
देनेके नियमे ददप्रतिज्ञ तो यह तुम्हार प्रश्ंसनोय 
कुल ही है | ७८॥ हे राजन्‌ ! तुम्हारे पचास कन्या 


ह, उनमेसे तुम मुषे केवल एक ही देदो। हे नृष- 
त्रेषठ ! से इस समय प्राथेनाभङ्गकी आश्ङ्कासे उत्पन्न 
अतिङय दुःखसे भयभीत दो रहा हं ॥ ७९॥ 


श्रीपयाश्षरजी बोल्ञे-ऋषिके ठेसे ब चन सुनकर 
राज्ञा उनके जराजीर्ण देको देखकर ज्ञापके भयसे 
अस्वीकार करनेभे कातर हो उनसे डर्ते हुए कछ 
लीचेको सुख करके मन-दी-सन चिन्ता करने 
लमे ॥ ८० ॥ 

सोभरिजी बोले- ह नरेन्द्र } तुम चिन्तित क्यों 
होते दयो ९ मैने इसमे कोद असह्य ब्रात तो कही नहीं 
है; जो कन्या एक दिन तुमह अबर्य देनी ही दै उससे 
ही यदिहम कृताथ हो सके तो तुम भ्या नदी प्राप 
कर सकते हो ! ॥ ८१॥ 

श्रीपराश्रजी बोज्ञे--तव भगवान्‌ सौमरिके 
शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्रतापू्क 
दशे कटा ८२॥ 





राजोषाच 
भगवन्‌ अस्मत्छुलस्थितिरिय य एव कन्या- 
भिरचितोऽमिजनवान्वरस्तस्मै कन्या प्रदीयते 
भगवद्यांच्ला चासमन्मनोरथानामप्यतिगोचरव- 
निनी कथमप्येषा सञ्धाता तदेवदुपस्थिते न विः 
किं कुम इस्येतस्मया चिन्स्यत इत्यभिहिते च तेन 
भूया ध्रनिरचिन्तयत्‌ ॥८३॥ अयमन्योऽस्म- 
सस्यास्यानोषायो ब्रद्धोऽयमनमिमतः स्त्रीणां 
कियत कन्यकानामित्यष्ुना सथिन्त्येतदभिहि- 
तमेवमस्तु तथा करिष्यामीति सञ्चिन्त्य 
मान्धातारघुबाच ॥८५॥ यदेवं तदादिश्यताम- 
स्मा प्रवेशाय कन्यान्तःपुरषषवरो यदि कन्यैव 
 काचिन्पामभिलषति तदाहं दारसंग्रहं करिष्यामि 
अन्यथा चेत्दहमरस्माकमेतेनातीतकालारम्भणे- 

नेद्युक्तवा विरराम ॥ ८५ ॥ 


ततश्च मान्धात्रा युनिशचापशङ्ितेन कन्यान्तः 


पुरवर्षबरस्समाज्ञपतः ॥८६॥ तेन सदह कन्यान्तः- 
परं प्रविशन्नेव मगवानखिलसिद्रगन्धर्वेभ्योऽति- 
दायेन कमनीयं रूपमकरोत्‌ ।॥। ८७ ॥ प्रवेश्य च 
तमूृषिमन्तःपुरे वर्षवरस्ताः कन्याः प्राह ॥८८॥ 
भवतीनां जनयिता महाराजस्समाज्ञापयति ।८९। 
अयमस्मान्‌ ब्रह्मपिः कन्याथं समभ्यागतः ॥९०॥ 
मया चास्य प्रतिज्ञातं यद्यस्मत्कन्या या काचि- 
द्गवन्तं वर्यति तत्कन्थायारछन्दे नाहं परिष- 
न्थानं करिष्यामीत्याकण्यं सर्वा एव ताः कन्याः 
सालुरागाः सप्रमदाः करेणव इवेभयुथपतिं 


+ (+ 


भरीविष्णुपुराण 











राजा बोकले-भगवन्‌ ! हमारे छलक यह रीति 
है कि जिस सव्छृरोत्पन्न वर्को कल्या पसंद करती 
है वह्‌ उसीको दी जाती दै। आपकी प्राथनातो 
हमारे मनोस्थोसे भी परेदै। न जाने, किंस प्रकार 
यह्‌ उतपन्न हृ है १ रेल अवस्थे चँ नदीं जानता 
कि क्या करं १ वसः सुक्षे यही चिन्ता है | महाराज 
मान्धाताके एेखा कहनेपर मुनिवर सौभरिने विचार 
किया--।)८३) “ुश्चको टा देनेक) यह एक ओर ही 
खपाय है । यह वृूढा है, प्रौढा सिय मी इसे पद 
नहीं कर सकतीं, फिर कन्याओंकी तो वातही क्या 
है १ रेखा सोचकर ही राजाने यह वात कही दै । 
अच्छा रेखा हो सहै मी ठेसा हौ उपाय करूंगा |) 
यह्‌ सन सोचकर उन्होने मान्धातासे कहा-॥८४॥ 
यदि देसी बात है तो कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षक 
नपु"सकको वहाँ मेरा प्रवे करानिके लिये आज्ञा 
दो | यदि कोष कन्याही मेरी इच्छा करेगीतो ही 
यै बी-त्रहण करगा, नहीं तो इस दरती अवस्थभें 
सञ्च इस व्यथं उयोगका कोई प्रयोजन नहीं है 1” 
एेसा कहकर वे मौन हो गये ॥ <५॥ 


तब मुनिके शापकी आश्चङ्कासे मान्धाताने 
कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षकको आज्ञा दै दौ ।८६। उसकं 
साथ अन्तप्पुरमें प्रवेश करते हुए भगवान सोभरिने 
अपना रूप सकल सिद्ध भौर गन्धवेगणसे भी अतिश्चय 
मनोहर वना डया ।८७॥ इन ऋषिवरको अन्तःपुर 
में छे जाकर अन्तःपुर-रक्षकने उन कन्याओंसे कहा 
--1८८। तुम्हारे पिता महाराज मान्धाताकी आज्ञा 
है कियेब्रह्यि हमारे पास एक कन्याके लिये पधार 
ह भौर मैने इनसे प्रतिन्ञाकीदहै किंमेरी जो कोई 
कन्या श्रीमान्‌को वरण करेगी उसक्री स्वच्छन्दतां 
मै किसी प्रकारकी वाधा नदीं डादृंगा।' यह्‌ 
सुनकर चन समी कन्याओंने यूथपति गजराजका 
वरण करनेवाषटी हथिनियोकै समान अनुराग ओौर 
आनन्दपूवेक केटी सै हौ-अकेटी मँ ही 
वरण करती हू" एेसा कहते हुए खन्द घरण कर 





अहं भगिन्थोऽहमिमं ब्रृणोमि 
वृणोम्यहं नैष तवानुरूपः | 
ममैष भर्ता विधिनैव चष्ट 
स्सृष्टादमस्योपश्चमं प्रयाहि ॥९२॥ 


वृतो मयायं प्रथमं मयायं 
गृहं विशन्नेव विहन्यसे किम्‌ । 
मया मयेति क्षितिपास्मजानां 
¢ ¢ (~ ¢ 
तदथमत्यथकलिविभूव ॥९२॥ 
यदा घनिस्ताभिरतीवहार्दाद्‌- 


वरृतस्स कन्याभिरनिन्यकीरतिः। 
तदा स॒ कन्याधिषृतो सूपाय 
यथावद्‌ाचष्ट बिनप्रमूतिंः ॥९४॥ 
भ्रीपराञ्चर उषाच 
तदवगमात्किङ्किमेतत्कथमेतस्कि किं करोमि 
किं मयाभिषितमित्याङुलमतिरनिच्छनपि कथ- 
मपि राजातुमेने ॥ ९५ ॥ कृतातुरूपविवाहश 
महर्षिस्सकला एव ताः; कन्यास्स्वमाधरममन- 


यत्‌ ॥ ९६॥ 
तत्र चाेषश्चिन्पकल्पप्रणेतारं धातारमिवान्यं 
विश्वकर्माणमाहूय सफरकन्यानामेकैकस्याः 


्ोरफुह्वपङ्कनाः दूलत्कर्दसकारण्डवादिषिदङ्ग- 
माभिरामजलाश्यास्सोपधानाः सावकाशास्सापु- 
शय्यापरिच्छदाः प्रासादाः क्रियन्तामित्यादि- 
देश्च ॥ ९७ ॥ 

तच तथेवानुष्ितमशेषसिल्पविरशेषाचा्स्त्वष्टा 
दरचितवान्‌ ॥९८॥ ततः परमर्पिंणा सौभरिणारप्त- 
स्तेषु गृहेष्वनिवार्यानन्दनामा महानिधिरासाश्चक्र 
॥९९॥ ततोऽनवरतेन भच्यभोजपलेद्यादयुपभोगै- 














अरौ बह्िनो ! व्यथे चेष्टा क्यों करतीहो ! मँ इनका 
वरण करती ह, ये तुश्दारे अनुरूप हैँ मी नहीं, 
विधाताने ही ह्रं मेय मत्त ओर सच्चे इनकी भायां 
बनाया है| अतः तुभ श्रान्त हये जाओ ॥९२॥ 
अन्तःपुरमे आते ही सबसे पहले मैने ही इन्हे वरण 
फियाथा, तुम क्यों मरी जाती हयो १ इस प्रकार 
भने वरण करिया है-पहले मैने वरण किया है" देसा 
कहू-कहकर उन राजकन्याओंमे इनके किये वड़ा 
कटके मच गया ॥ ९३॥ 


जव उन समस्त कन्याओंने अतिशय अन्ुसगवश्च 
उन अनिन्यकीतिं सुनिवरको वरण कर लियातो 
कन्यारक्षकने नग्रतापूवंक राजसे सम्पूण बरत्तान्त 
उ्योँ-का-त्यो कह सुनाया ॥ ९४ ॥ 


भीपराद्ास्जी बोरे-यदह्‌ जानकर राजाने "यह 
क्या कहता दै ¢ यह कैसे हुआ ¢ श्च क्या करं १ 
भने क्यों उन्हे [ अन्दर जानेके ल्थि ] कहा था ¢ 
इस प्रकार सोचते हुए अव्यन्त व्याकुख चित्तसे इच्छा 
न होते हुए भी जैसे-तैसे अपने व चनक्षा पालन फिया 
ओौर अपने अनुरूप विवाह्‌-संस्कारके समाप्र होनेपर 
महषिं सौभरि छन समस्त कन्याओंको अपने आश्रस- 
पर ले गये ॥ ९५-९६ ॥ 

वह आकर छन्ने दूसरे विधाताके समान 
अरोप-जिल्प-कल्प-प्रणेता विश्चकर्माको बुखाकर कहा 
कि इन समस्त कन्याजभेसे प्रतयेकके ल्य प्रथक्‌ 
प्रथक्‌ मह बनाओ, जिनमे लिहे हुए कमल भौर 
कूजते हए सुन्दर हस तथा कारण्डव आदि जल- 
पक्षियोँसे युखोभित जछाक्षय हं, सुन्दर उपधान 
( मसनद ), श्ञय्या ओौर परिच्छद ( ओदुमेके बस) 
हौ तथा परयाप्र खुला हुमा स्थान हो ॥ ९७ ॥ 

तब सम्पूणं शिल्प-विद्याके विकेष आसायं विश्व- 


कर्मानि भी उनफे आज्ञालुसार सब कुछ तैयार करे 
न्ह दिखलाया ॥ ९८ ॥ तदनन्तर महषिं सौभरिकी 


आज्ञासे उन महलोमे अनिवार्यानन्द नामकी महा- ` 


निधि निवास करने छगी ॥ ९९॥ तब तो चन सम्पूणं 
महलोमें नाना प्रकारफे भक्ष्य, भोज्य सौर छेद्य भादि 


२९२ 


भ्रीषिष्णुपुराण 


| अ० २ 





रागतानुगतमूत्यादीनहनिसमगेषगृहेषु 
क्ितीशदुषितये मोजयामाघुः ॥ १००॥ 


ताः 


एकदा तु दुहिवृस्तेहाकृष्टहदयस्स महीपति- 
रतिदुःखितास्ता उत सुखिता बा इति षिचिन्त्य 
तस्य महपराश्रमसमीपदुपेत्य स्फुरदशुमालाल्ल- 
मां स्फटिकमयप्रासादमाङामतिरम्योपवनजला्ष- 
याँ ददं ॥ १०१॥ 

प्रविश्य चैकं प्रासादमात्मजां परिष्वस्य 
छृतासनपरिगरहः प्रधृद्रस्नेहनयनाम्बुगमनयनो- 
ऽत्रवीत्‌ ॥६०२।॥। अप्यत्र वत्से मवस्याः ुखभरत 
किशविदसुखमपि ते महर्पिस्सनेहवानुत न, स्मय॑ते- 
ऽस्मदृगृहवास दृस्युक्ता तं तनया पितरमाह ।१०२। 
तातातिरमणीयः प्रासादोऽत्रातिमनोसयुपवनमेते 
करवाक्यविदङ्गमामिरुताः प्रोत्फुल्नपन्नाकर- 
जकाशयाः मनोऽनुङकमकष्यभोज्यानुकेपनवन्न- 
भूषणादिभोमो सृदूनि शयनासनानि स्सम्प्स- 
मेतं मे गाहैस््यम्‌ ।॥ १०४॥ तथापि फेन वा 
जन्मभूमिनं स्मय॑ते ।। १०९५ ॥ त्वससादादिदम- 
रोषमतिशोभनम्‌ ॥१०६॥ किं स्वेक ममेतद्दुःख- 
कारणं यदस्मद्गृहान्मह्षिर्यम्मद्धतां न निष्का- 
मति ममैव केवलमतिप्रीत्या समीपपरिवतीं 
नान्यासामस्पद्धगिनीनाम्‌ ॥१०७॥ एव चमम 
सोदयोऽतिदुःखिता हत्येवमतिदुःखकारणमिल्यु- 
स्तया द्वितीयं प्रासादषुपेस्य स्वतनयां परिष्व- 
ज्यौपविष्टस्तथेव पृष्टवान्‌ ॥ १०८ ॥ तयापि च 





सामग्रियोसे वे राजकन्या आये हए अतिथियौं 
ओर अपने अलुगत्त भ्त्यवर्गोको वप्र करने लगीं 
॥ १०० ॥ 


एक दिन पुत्रियोके स्मे्से आकर्षित होकर राजा 
मान्धाता यह देखनेक ज्िये कि बे अव्यन्त दुखी 
या सुखी १ महर्षिं सौभरिके आश्रमके निकट आये 
तो उन्होने बह अतिरमणीय उपवन भौर जदाक्चयों 
से युक्त स्फटिक-शिछाके महलोंकी पंक्ति देखी जो 
फेकती हुई मयूख-माकाओंसे अस्यन्त मनोर मालूम 
पडती थी} १०१॥ 


तदनन्तर वे एक महरमे जाकर अपनी कन्याका 
स्नेहपूबेक आलिङ्गनकर आसनपर बैठे भौर फिर 
बद्ते हुए प्रेमकै कारण नयनो जक भरकर बोटे- 
। १०२॥ “वटी ! तुम लोग यह सुखपूचेक हो न ! 
तुम्हे किसौ प्रकारका कष्ट तो नहीं है १ महर्षिं सौभरि 
तुमसे स्नेह करते हैँ या नहीं १ क्या वु हमारेघर 
की भी याद आती है ।' पिंताके एेसा कहनेपर उस 
राजपुत्रीने कहा-॥ १०३ ॥ “पिताजौ ¦ यदह मह 
अति रमणीय हे, ये उपवनादि भी अतिराय मनोहर दैः 
खिले हुए कमो से युक्त इन जलाशयो जख्पक्षिगण 
सन्दर बोखी बोलते रहते है; मक्ष्य, भोज्य आदि 
खाद्य पदाथ, उबटन ओर वस््राभूषण आदि मोग 
तथा सुकोमल सचय्यासनादि सभी मनक अनुकर दै 
दस प्रकार हमारा गाहस्थ्य यद्यपि सवसम्पन्तिसम्पन्न 
हे ।॥ १०४ ॥ तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला 
फिसको नही आती १॥ १०५ ॥ आपकी कृपासे यदपि 
सव ङ्छ मङ्गरूमय हे ॥ १०६ ॥ तथापि सञ्च एक 
बड़ादु्लेषैकि हमारे पतिये महि मेरे घरसे 
बाहुर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीततिके कारणये 
केव मेरे ही पास रहते है, मेस अन्य बहिनक 
पासये जते ही नहीं है || १०७ ॥ इस कारणस मेस 
बहिन अति दुखी होगी । यदी मेरे अति दुःखका 
कारण है| उसके रेखा कहनेपर राजान दूसरे 
महरम आकर अपनी कन्याका आलिङ्गन किया ओर 
आसनपर बैठनेकै अनन्तर उससे भी इसी प्रकार 
पुछा ॥ १०८ ॥ उसने भी उसी प्रक र महल दि 


ममैव केवलमतिप्रीत्या पापि, नान्या- 

सामस्मद्धगिनीनामित्येबमादि्रुत्वा समस्तप्रासा- 
देषु राजा प्रविवेश तनयां तनयां तथेवाप्रच्छत्‌ 
॥ १०९॥ सर्वामि तामिस्तथैवामिदितः परितोष- 
विस्मयनिर्भरविवशहदयो भगवन्तं सौभरिमेका- 

स्तावेस्थितप्ुपेर्य कृतपूजोऽ्रवीत्‌ ॥\ ११०1] दृष्टस्ते 
भगवन्‌ सुमहानेष सिद्धिप्रमावो तैवंबिधमन्यस्य 

कस्ययिदस्मामिर्धिभूतिमिषिंसितयुपलक्षितं यदे- 
तद्धगवतस्तपस्ः फरूमिस्यभिपूज्य तमृषिं 

त्रैव तेन ऋषिवर्येण सह फिश्ित्कारमभिमतोप- 

भोगान्‌ बुश स्वपुरं च जगाम ॥ १११॥ 


कालेन गच्छता तस्य तासु राजतनयासु 
पुत्रशतं साधममवत्‌॥ ११२॥ अनुदिनानुरुटस्नेद- 
प्रससथ स तत्रातीव्र ममताकृष्टहृदयोऽभवेत्‌ 
॥११२। अप्येतेऽस्मतपृत्राः कङमाषिणः पद्ध्यां 
गच्छेयुः अप्येते यौबनिमो भषेयुः अपि कृत- 
दारानेतान्‌ प्येयमप्येषां पुत्रा भवेयुः अप्येत- 
्पतान्पुत्रसमन्वितान्पदयामीत्यादिमनोरथाननु- 
दिनंकारसम्पत्ति्व्द्धानुपेकष्येतचचिन्तयामास ११४ 


अहो मे मोहस्यातिविस्तारः ॥११५॥ 
मनोरथानां न समाप्निरस्ति 


वरषायुतेनापि तथाब्दरक्षेः | 
पूर्णेषु पूर्णेषु मनोरथाना- 
ुस्पत्तयस्सन्ति पुनन॑वानाम्‌ ॥ ११६ 
- पद्भ्यां गता यौवनिमश्च जाता 
दार्थ संयोगमिताः भ्रघताः | 
सुतास्तसनयगप्र्रतिं 
द्रष्टु पुनर्वाञ्छति मेऽन्तरात्मा ॥ ११७1 
दरक्ष्यामि तेषामिति चेस्प्ष्तिं 
मनोरथो मे भविता ततोऽन्यः 


दः 








किं अतिञ्ञय प्रतिक कारण महर्षिं केवल मेरेही पास 
रहते है मौर किसी बहिनके पास नदीं जाते | इस 
प्रकार पूववत्‌ सुनकर राजञा एक-एक करके प्रव्येक 
महलमे गये ओर प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूढा 
। १०९ ॥ जर उन सबते मी वैसा ही उत्तर दिय।। 
अन्तम आनन्द ओौर विस्मयके भारसे विवरचित्त 
होकर उन्होने एकान्तम स्थित भगवान्‌ सौभरिकी 
पूजा करनेके अनन्तर उनसे कषा--। ११० ॥ 
"भगवन्‌ ! आपकी ही यौगसिद्धिका यह महान्‌ 
प्रभाव देखा दहै। इस प्रकारके महान्‌ वैभवके साथ 
ओर किसीको मौ विखास करते हृए हमने नदीं देखा 
सो यह सन आपकी तपस्याका ही फल है 1" इस 
प्रकार लनका अभिवादन कर वे कुछ कातक उन 
मुनिवरे साथ हौ अभिमत भोग मोगते रहे ओौर 
अन्तमे अपने नगरको चरे जये ॥ १११॥ 


कारक्रमसे उन राजकन्याभौसे सौभरि सुनिको 
डेद्‌ सौ पुत्र हुए ॥ ११२॥। इस प्रकार दिन-दिन स्नेह- 
का प्रसार हनेसे उनक्रा हृदय अविद्य ममतामय 
हो गया ॥ ११३ ॥ वे सोचने लगे-'क्या मेरे ये पुत्र 
मधुर बोीसे बोरेगे १ अपने पौ्ोसे चलगे१ क्या 
ये युवावस्थाको प्रप्त होगे १ चस समय क्या मैं इन्दे 
सपल्लीक देख सर्कगा १ फिर क्या इनके पुत्र होगे 
ओर ओँ इन्दे अपने पुत्र-पौचोसे युक्त देखूरा ?' इस 
प्रकार काल्क्रमसे दिनातुदिन वदते हए इन मनोर्थो 
कीं उपेक्षा कर वे सोचने गे ११४ ॥ 

“अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है १॥ ११५॥ 

इन मनोर्थोकी तो हजारो-लखो वर्षामि भौ 
समासि नदीं हो सकती । उनमेसे यदि कु पूणं भी 
हो जाते दै तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथौकी 
खत्पत्ति हो जाती है ॥ ११६ ॥ मेरे पुत्र पैसे चलने 
लगे, पिरवे युवा हुए, उनका विवाह हभा तथा 
खनके सन्ताने ह्ट--यह्‌ सवतो तँ देख चुका; किन्तु 
अव मेरा चिन्त उन पौत्रोके पुत्र-जन्मको भौ देखना 
चाहता है ! ॥ ११७॥ यदि उनका जन्म भीन देख 
लिया तो फिर मेरे चित्तम दृसरा मनोरथ उटेगा 


२९४ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० २ 


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पूर्णेऽपि तत्राप्यपरस्य जन्म 

(के ¢ व्‌ 

निबायते फेन मनोरथस्य ॥११८॥ 
आम्रद्युतो नैव मनोरथाना- 


मन्तोऽस्ि विज्ञातमिदं मयाद्य। 
मनोरथासक्तिपरस्य चित्त 
न जायते वै परमाथसङ्धि ॥११९॥ 


स॒मे समाधिजेटवासमित्र- 
मरस्थस्य सङ्कास्सहसैव नष्टः । 
परिप्रहस्सद्गकृतो मयायं 
परिग्रहोस्था च ममातिहिष्ा ॥१२०॥ 
यदैवेकशरीरजन्म 
रताद्रंसंख्याकमिदं प्रघ्रतम्‌ । 
क्षितिपात्मजानां 
सुतैरनेकैेहृरीढृतं तत्‌ ॥१२१॥ 
सुतास्मनैस्तत्तनयेश्च भूयो 
भूयश्च तेषां च परिग्रहेण । 
तिस्तारमेष्यस्यतिदुःखहैतुः 
परिग्रदो वै ममताभिधानः ॥१२२॥ 
चीणं तपो यत्तु जलाश्रयेण 
तस्यद्विरेषा तपसोऽन्तरायः। 
मत्स्यस्य सङ्कादभवच यो मे 
सुतादिरगो मुषितोऽस्मि तेन ॥१२३॥ 
निस्पङ्खता मुक्तिपदं यतीनां 


सङ्खादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः । 
आरूढयोगो विनिपात्यतेऽध- 








दुःखं 


परिग्रहेण 


स्सङ्गेनयोमी किषठतान्पपिद्धिः॥१२४॥ 


अहं चरिष्यामि तदात्मनोऽथे 
परिग्रद्राहगहीतधुद्धिः । 
यदा हि भुः परिदीनदोषो 
जनस्य दुःखेभेविता न दुःखी ॥१२५॥ 
धतारमचिन्स्यरूप- 
मणोरणीयां समतिप्रमाणम्‌ । 
सितासितं वचेश्वरमीश्वरागा- 


९ 
सवस्य 





ओर यदि बह भी पूराहो गयातो अन्य मनोरथकी 
उत्पत्तिको ही कौन रोक सकता दै ? | ११८॥ मैने 
अव भली प्रकार समञ्च च्याहै कि मप्युपयंन्त 
मनोरर्थोका अन्त ती होना नहीं है भौर जिस चित्तम 
मनोरथोकी आसक्ति होती है वह परमार्थ॑भे छग 
नह सकता ॥ ११२ ॥ अहो मेरी बह समाधि जल- 
वासके साथी मस्स्यके संगसे अकस्मात्‌ नष्ट हो गयी 
ओर उस संगके कारण ही मने खी ओर धन आदिका 
परिदह्‌ किया तथा परिग्रहके कारण हयै अव मेरी 
तृष्णा बद्‌ गयीदहै।। १२०॥ एक श्वरौरका ब्रहण 
करना ही महान्‌ दुःख दहै ओर नेतो इन राज- 
कन्याभोका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया 
है । तथा अनेक पुत्रोके कारण अव वह बहुतदही 
घद्‌ गया दै ॥ १९१ ॥ अब अगे भी पु्रोके पुत्र तथा 
उनके पुत्रोंसे ओर उनका पुनः-पुनः वि वाह-सम्बन्ध 
न"करमेसे वह ओर मी बदृेगा । यह्‌ ममतारूप विबाह- 
सम्बन्ध अवश्य बदे ही दुःखका कारण हे ॥ १२९॥ 
जटाङ्ञयमे रहकर भने जो तपस्या की थी चसक 
फरस्वरूपा यह्‌ सम्पतन्ति तपस्याकी बाधक दे । मस्स्यके 
संगसे मेरे चिन्तमे जो पुत्र भादिकां राग उसपन्न हुमा 
था उसने सुश्च ठग छिया ॥ १२३ ॥ निधसंगता हौ 
यतियोको मुक्ति देनेवाली है, सम्पूणं दोष संगसे ही 
उ्पन्न होते है । संगकै कारण तो योगम पूणेताको 
राप हुए यति भौ पतित हौ जति दै, परिरं जिन 
थोडी ही सिद्धि परार हृ है उनकी तो बातदही क्या 
है १॥ १२४॥ परिपरदरूपी ग्राह मेरी बुद्धिको पकड़ा 


| हणा है । इस समय सँ पेखा उपाय करंगा जिससे 


दोषो मुक्त होकर फिर अपने कटुम्बियोके दुःखसे 
दुःखी न होड ॥ १२५॥ अब मँ सवके विधात), 
अचिन्त्यरूप, अणुसे भी अणु, सबसे महान्‌ शवङ 
एवं शुद्धस्वरूप तथा रईरोके भी दर मगवान्‌ 


अ० २] 








९ .. 
चतुथ अश्च 


२९५ 





तस्मिन्नरेषोजसि _ सर्वरूपि- 
ण्यव्यक्तविस्पष्टतनावनन्ते । 
ममाचलं चित्तमपेतदोपं 
सदास्तु विष्णावभवाय भूयः ॥१२७॥ 
समस्तभूताद्मलादनन्ता- 
स्वेश्वरादन्यद्नादिमध्यात्‌ । 
यस्मान्न किञ्चित्तमहं गुरुणा 
प्रं गुरुं संश्रयमेमि विष्णुम्‌ ।॥१२८॥ 
श्रीपराशर उवाच 
इत्यात्मानमात्मनैवाभिधायासौ सौभरिरष- 
¢ ५ 
हाय पुत्रगृहासनपरिच्छ्दादिफमशेपमथजात सक- 
लभार्यासमन्वितो वनं प्रविवेश ॥१२९॥ तत्राप्य- 
लुदिनं वैखानसनिष्पादयमरपक्रियाकरपं निष्पाद्य 
क्षपितसकरूपापः द 
माप्य भिक्ुरमवत्‌ ॥१२०॥ भगवत्यासञ्या- 
खिलं कर्मकरापं हितानन्तमजमनादिनिधनम- 
~ 0 ५ 
विकारमरणादिधमंमवाप परमनन्तं परवतामच्युत 
पदम्‌ ॥१३१॥ 

इ व्येतन्मान्धातृदुहितुसम्बन्धादाख्यातम्‌ 
॥१३२॥ यश्ैतत्सौमरिचरितमनुस्मरति पठति 
पाठयति श्रृणोति श्रावयति धरत्यवधारयति लिखति 
लेखयति शिक्षयस्यध्यापयल्युपदिश्नति वा तस्य 


पद्‌ जन्मानि दुस्सन्ततिरसद्धमों बाइ्मनसयोरस- 
नमार्गाचरणमरेषदेतुषु बा ममं न भवति ।१३२। 











उन सम्पूण तेजोमय, सर्वस्वरूपः अव्यक्त, विस्पष्ट 
शरीर, अनन्त श्रीविष्णुभगवान्‌मे मेरा दोपरदहित 
चिन्त सदा निश्चल रहे जिससे सु्षे फिर जम्मन 
ठेना पड़े ॥ १२७ ॥ जिस सवेरूप, अमङ, अनन्त- 
सर्वेश्वर ओर आ दि-मध्य-शनयसे प्रथक्‌ ओर कुछ भी 
नहीं है उस गुरुजनोके भी परम शुरु भगवान्‌ 
विष्णुकी मँ श्चरण छेत ह" ।। १२८ ॥ 

श्रीपसक्षरजी बोक्ले-दस प्रकार मन-ही-मन 
सोचकर सौभरि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद 
आदि सम्पूणं पदार्थोको छोडकर अपनी समस्त 
खियोढे सद्टित वनम चछ गये ॥ १२९॥ वर्ह, बान 
प्रस्थोके योस्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते 
हुए सम्पूर्णं पापौकाक्षयद्ो जानेषपर तथा मनोवृत्ति 
के राग्रेषहीन हो जानिषर, आदहवनीयादि अग्रियोको 
अपने स्थापित कर संन्यासी हो गये । १३०॥ फिर 
भगवानभे भासक्त हो सम्पूणं कमंकलापका व्याग 
कर परमात्मपरायणर पुरुषोके अच्युतपद ( मोश्च ) को 
प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादिः अविनाक्षी, विकार 
जर भरणादि धर्मोसि रहित, इन्द्रियादिसे अतीत 
तथा अनन्त है ॥ १३१॥ 

इस प्रकार मान्धाताकी कन्याभोके सम्बन्धसे मैने 
इस चरित्रका वणन किया दै । जो कोई इस सौभरि" 
चरिच्रको स्मरण करता दै, अथवा पदता पठात 
सुनता-सुनाता, घारण करता-कराता, टिखता-ङलता 
तथा सीखता-सिखाता, अथवा उपदेह करता दै 
सके छः जन्मों तक दुःसन्तति, असद्धमं जओौर बाणी 
अथवा मनकी कुमागेमे प्रवृत्ति तथा किसी भी 
पदार्थमे ममता नहीं होती ॥ १३२-१३३ ॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽर द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ 


१/४ % १३१५ 


२९६ 1९ 1ुकन्कुतस, इतति ठर२१। भविष्यपुराण [ अ०३ 








तीसरा अध्याय 
मार्धाताकी सन्तति, तरिशङ्कका स्वगीसेहण तथा सगरकी 
उत्पत्ति भोर विज्ञय 


अतश्च मान्धातुःपुत्रसन्ततिरमिधीयते ।१॥ 
, अम्बरीषस्य मान्धातृतनयस्य रयुवनाशः पत्रोऽ- 
| । भूत्‌ ।॥२॥ तस्माद्भरीतः यतोऽङ्गिरसो हारीताः 
` ॥३॥ रसते मौनेया नाम गन्धर्वा वभृधुष्ब्‌- 


कोटिसंख्यातास्तैररेषाणि नागङलान्यपहूतप्रधान- 


रलनाधिपत्यान्यक्रियन्त ॥४॥ तैश्च गन्धवेवीर्या- 
वधूतैरुरोश्वरेः स्तूयमानो भगवानरेषदेवेशः 
स्तवच्छबणोन्मीहितोन्नदरपुण्डरीकनयनौ जल- 
शयनो निद्रावसानात्‌ प्रबुद्धः प्रणिपत्याभिहितः 
भगवक्नस्माकमेतेभ्यो गन्धर्वेभ्यो मयुत्पननं कथ- 
युपशममेष्यतीति ॥५॥ आह च भगवाननादि- 
निधन पुरूषोत्तम योऽप्रौ योवनाश्वस्य मान्धातुः 
पुरुकत्सनामा पृत्रस्तमहमनुप्रविर्य तानरेषान्‌ 
दुष्टगन्धर्वारुपशमं नयिष्यामीति ॥६॥ तदाकर्ण्य 
भगवते जलशायिने कृतप्रणामाः पुनर्नागरोकमा- 
गताः पन्नमाधिपतयो नर्मदां च पूुरुङ्तसानय- 
नाय चोदयामासुः ॥७॥ सा चैनं रसातलं नीत- 
वती ॥ ८ ॥ 

रसातरगतश्चासौ भगवत्तेजपाप्यापितात्म- 
वीयंस्सकलगन्धर्बाननिजघाने ॥९॥ पुनश्च स्वपुर- 
माजगाम ॥ १० ॥ सकल्पन्नगाधिपतयश्च नर्म 
दाये बरं ददुः । यस्तेऽनुस्मरणसमवेतं नाम- 
ग्रहणं करिष्यति न तस्थ सपविषभयं मविष्यतीति 
॥ ११॥ अत्र च शोकः ॥ १२॥ 
नंदायै नमः प्रातनम॑दायै नमो निशि । 


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अवहम मान्धाताके पुत्रोंकी सन्तानका वर्णन 
करते है ।। १॥ मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनारव ‡ 
नामक पुत्र हआ ॥ २॥ उससे हारीत हुा जिससे, 
अंगिरा-गोत्रीय हारौतगण हए ॥ ३॥ पूवेकालमे रसा-“ 
तलमे मौनेय नामक छः करोड़ गन्धव रहते थे । 
उन्होने समस्त नागङ्खुटोके प्रधान-प्रधान रन्न भौर 
अधिकार छीन ल्यिथे॥ ४।। गन्धर्वोकि पराक्रमसे 
अपमानित उन नागेश्वरोारा स्तुति किये जानेपर 
उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसटश 
जख खु गयी हँ निद्राके अन्तमं जगे हए उन जल- 
लायी भगवान्‌ सवेदेवेरवरको प्रणाम कर उनसे 
नागगणने कहा, “मगबन्‌ ! इस गन्धर्वोसि उत्पन्न 
हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ¢ ॥५॥ 
तब आदि-भन्त.रदहित भगवान्‌ पुरूषोत्तमने कदा-- 
युबनाग्के पुत्र मान्धाताका जो यह्‌ पुश्ुस्स नामक 
पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मै उन सम्पूणं दुष्ट गन्धर्वो 
का नाश्च कर दूगाः॥ ६॥ यह सुनकर भगवान्‌ 
जखश्ायीको प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण 
नागखोकमें छोट आये ओौर पुरुकुत्सको लने लि 
[ अपनी बहिन एबं पुरकरत्सकौ भार्या ] नमेदाको 
प्रेरित किया ॥ ७॥ तदनन्तर नमंदा पुरकुरसको 
रसातलम ठे आयी ॥ < ॥ 

रसातलम पहुचनेपर पुरुकुत्सने भगवानूके तेज- 
से अपने श्चरीरका बल बद जानेसे सम्पूणं गन्धर्वोको 
मार डाला ओर किर अपने नगरमे छौट आया 
॥ ९-१० ॥ उस समय समस्त नागराजोने नमंदाको 
यह्‌ वर दियाकि जो कोई तेरा स्मरण करते हृ 
तेरा नाम ठेगा डसको सपे-विषसे कोक भय न होगा 
।। ११॥ इस विषयमे यह्‌ शोक भी दै--11 १२ 


ध्नमेदाको प्रातःकाल नमस्कार है ओर 

रात्रिकाले मी नमंदाको नमस्कारै) है नमेदे! 

तुमको बारंबार नमस्कार है, ठुम मेरी विषजौर 
ए ऋ भ 4 | | 


मामा ०००००५० 





इत्युचार्याद्निशमन्धकारप्रवेशे वा॒सर्पेनं 
द्यते न चापि कृतानुस्मरणश्जो विषमपि 
यृक्तष्पघाताय भवति ॥ १४ ॥ पूरुङत्साय 
सन्ततिविच्छेदो न भविष्यतीत्युरगपतयो घरं 
ददुः ॥ १५॥ 

पुरुकुत्सो नर्मदायां त्रसदस्पुमजीजनत्‌ 
॥१६॥। व्रसदस्युतस्सम्भतोऽनरण्यः यं रावणो 
दिगिजये जघान ॥ १७ अनरण्यस्य प्रषदश्वः 
पषदश्चस्य हयं शः पूत्रोऽमवत्‌ ॥ १८॥ तस्य च 
हस्तः पू्रोऽमवत्‌ ॥ १९॥ ततथसुमनास्तस्यापिं 
त्रिधन्वा ्रिधन्वन्चष्यारुणि; ॥२०॥ तरच्या- 
रुणेस्सरयत्रतः योऽसौ ्रिशङ्कसंत्तामवाप ॥२१॥ 

स चाण्डालताग्ुफगतश्च ॥ २२ ॥ दादश- 
वापिक्यामनाव्ृष्ट्वां विश्वाभित्रकटत्रापत्यपोष- 
णाथं चाण्डाहप्रतिग्रहपरिहरणाय च जाही- 
तीरन्यग्रोधे मरगमांसमनुदिनं बबन्ध ॥२३॥ स 
तु परितुष्टेन विश्वामित्रेण सरशरीरस्गमा- 
रोपितः ॥ २४॥ 

्रिशङ्कोहरिथन्द्रस्तस्माचच रोदिताश्वस्ततश् 
हरितो हरितस्य चश्रुश्वश्वोर्विजयवसुदैवौ रंरुको 
विजयाद्ररुकस्य बकः ॥ २५ ॥ ततो वृकस्य 
वाहूरयोऽसौ दैदयतालजक्घादिमिः पराजितोऽन्त- 
वंटन्या महिष्या सह वनं प्रवियेश ॥ २६ ॥ 
तस्याश्च सपर्या ग्भस्तम्भनाय गरो दत्तः 
| २७ ॥ तेनास्या गभस्सकषवर्षपाणि जठर एव 
तस्थौ ॥२८॥ स च बाहुवदरमावादेर्वाधरमसमोपे 
ममार ॥२९॥ सा तस्य मार्या चितां कृता 
तमारोप्यायुमरणकृतनिशयाभूत्‌ ॥ ३० ॥ अधै- 
तामतीतानागतवतंमानकालत्रयवेदी भगवा- 
नौवंससाभ्रमानिगेत्यात्रवीत्‌ ॥ २३१ ॥ 








इसका दचारण करते हए दिन अथवा राश्रिमिं ` 
किसी समय भी अन्धकारमे जानेसे सपं नहीं 
काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करने- 
चषका खाया हज विषभी घातक नदीं होता 
॥| १४ ॥ पुरुकरुत्सको नागपतिरयोने यदह बर दिया 
कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा ॥ १५ ॥ 

पुरुञत्सने नर्भदासे तरसदस्यु नामक पुत्र उलन्न 
किया | १६ ॥ त्रसदस्युसे अनरण्य हा, जिसे 
दिग्विज्ञयके समय रावणे मारा था ॥ १७ ॥ 
अनरण्यफे पृषदश्व, परषदरवके हयं डव, हयंरवङे 
हस्त, हस्तक सुमना, सुमनाके च्रिघन्वा, त्रिधन्वा 
त्र्यारुणि आर च्रस्यारुणिके सस्यत्रते नामक पुत्र 
हु, जो पीछे विद्यु कलाया ॥ १८-२१ ॥ 


वह त्रिशंकु चाण्डाल हो गया था॥२२॥ 
एक बार बारह वषेतक अनावृष्टि रषी | उस 
समय विङवामित्र मुमिके शली ओौर बाल-वश्चोके 
पोषणाथं तथा भपनी चाण्डार्ताको घुने ष्ि 
बह गङ्गाजीके तटपर एक वटके बृष्षपर प्रतिदिन 
मृगका मांस बौध आता था॥ २३ ॥ इससे प्रसन्न 
होकर विक्षामित्रजीने उसे सदेह स्वगं भेज 
दिया ॥ २४॥ 


व्रिश॑कुसे हरिश्चन्द्र, हरिश्न्द्रसे रोहिताश्व, 
रोितारवसे हरित, हैरितसे चञ्चु, चञ्चुसे विजय 
ओर वसुदैव, विजयसे रुरुक ओौर सरुकसे वृक्का 
जन्म हुआ॥ २५॥ वृक्क बाहु नामक्त पुत्र हुभा 
जो हैहय ओर ताल्जंघ आदि क्षत्रियोसे पराजित 
होकर अपनी गभेवती पटरानीके सहित वनम 
चला गया था ॥२६॥ षरटरानोकी सौतने 
उसका गभे रोकनेकी इच्छासे विष खिला दिया 
॥ २७॥ उसके प्रभावसे उसका गभं सात 
वषतक ग्भरायहीने रहा ॥ २८॥ अन्तमे, वाह 
बृद्धावस्थाके कारण ओौवं मुनिके शाश्रमके . समीप 
सर गया । २९॥ तब उसकी उस पररानीने 
चिता बनाकर उसपर पतिका इव स्थापित 
कर उसफे साथ सती होनेका निध्वय किया 
॥ ३० ॥ उसी समय भूत, भविष्यत्‌ ओर वतमान 
तीनों काङ्े जाननेवाङे भगवान्‌ ओवेने 
अपने भाश्रमसे निकछकर उससे कहा--।। ३१॥ 





अलमरूमनेन।सद्ग्राहेणाखिरभू मण्डकपतिरति- 


वीयपराक्रमो ने कयज्ञकृदरातिपक्षक्षयकर्ता तमोदरे 
चक्रवत्तीं तिष्ठति ।॥ ३२ ॥ नैवमतिसाहसाध्यव- 
सायिनी भवती भवस्वि्युक्ता सा तस्मादन्‌ मरण- 


निवेन्धाद्विररम ॥ ३३ ॥ तेनैव च मगधता 


स्वाश्रममानीता ॥ २३४ ॥ । 

तत्र कतिपयदिनाभ्यन्तरे च सद्व तेन 
गरेणातितेजसी वारको जके ॥ ३५॥ तस्थौरबो 
जातकमादिक्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम 
चकार ॥ ३६ ॥ दृतोपनयनं चैनमोर्वो वेद- 
शास्ाण्यस्नं चाग्नेयं मार्गवास्यमभ्यापया- 
मास ॥ ३७ ॥ 





उत्पन्बुद्धिश मातरमग्रबीत्‌ ॥ ३८॥ अभ्व | 
कथमत्र वयं क वा तातोऽस्माकभिसेवमादि- 
पृच्छन्तं माता सर्वमेषावोचत्‌ ।। ३९ ॥ ततश्च 
पित्राज्यापदरणादमषितो दयताटजद्वादि- 
बधाय प्रतिज्ञामकरोत्‌ ॥ ४० ॥ प्रायश्च दै््य- 
ताटजक्काञ्जघान ॥४१॥ शेकयवनकाम्बोजपारद- 
पहुबाः हन्यमानास्त्छटगुरुं वसिष्ठं शरणं 
जगुः ॥ ४२ ॥ अथेनान्वसिष्ठे जीवन्द्रतकान्‌ 
कृत्वा सगरमाह ॥४३॥ वत्सारमेभिर्जीवन्पत- 
केरनुसतः ॥४७॥ एते च मयैव सवस््तिक्ना- 
परिपाह्टनाय निजधर्मदिजसङ्गपरित्यागं कारिताः 
|| ४५ ॥ तथेति तदृगुूवचनमभिनन्य तेषां 
वेषान्यत्वमकारयत्‌ ॥ ४६ ॥ यवनान्दुण्डित- 
चिरसोऽद्ुण्डिताज्छकान्‌ प्ररम्बकेशान्‌ पारदाच्‌ 
पहवीनूरमशरुधरान्‌ निस्स्वाध्यायवषट्‌कारानेता- 





अयि साध्वि! इस स्यथं दुराग्रहको छोड। 
तेरे उदरमे सम्पूणं भूमणर्डल्का स्वामी, अत्यन्त 
बरूपराक्रमञ्ली, अनेक यज्ञोका अनुष्ठान करने. 
वाला ओर शत्रुभोंका नाञ्च करनेवाला चक्रवर्ती 


1०। 


राजा हे ॥३९॥ तू एसे दुस्साहसका उद्योग 
न कर ।' छेसा कै जानेपर बह अनुमरण ( सती 
हने ) के भग्रहसे बिरतदहो गयी ॥३३॥ ओर 
भगवान्‌ ओव उसे अपने आश्रमपर ठे अये ॥ ३४॥ 


वह कुछ ही दिनम, उसके उस्र गर ( विष) 
कै साथ ही एक अति तेजस्वी बाखकमे जन्म ल्या 
। ३५ ॥ भगवान्‌ ओौवंने उसके जातकमं आदि 
सस्कार कर उसका नाम शसगर' रखा तथा उसका 
उपनयन -संस्कार होनेपर ओवने ही उसे वेद, शाख 
एवं भागव नामक आग्नेय रस्लोकी शिक्षा 


दी ॥ ३६-३५॥ 


बुद्धिका विकास होनेपर उस बारूकने अपनी 
मातासे का~ ३८ ॥ "मौ! यदह तो बता, इसः 
तपोवने हम स्यो रहते हँ जौर हमारे पिता कहँ 
है!" इसी प्रकारके ओर भौ प्रन पृष्ठनेपर माताने 
उससे सम्पूणं वृत्तान्त कह दिय | ३९॥ तव तो 
पित्ताके राञ्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण 
उसने हेहय ओौर तालजंघ आदि क्षत्रियोको मार 
डालनेङी भतिज्ञा की ओर प्रायः सभी हैहय एवं 
ताज घवंशीय राजाओंको स्ट कर दिया ॥ ४०. 
४१ ।। उनके पश्चात्‌ ञ्चक, यवन, काम्बोज, पारद 
ओर पहूवगण भी हताहत होकर सगरके कुल्गुर 
वसिष्ठजीकौ शरणमे गये ॥ ४२ ॥ वसिष्ठजीने 
न्ह जीवन्म्रत ( जीते हप हौ मरेके समान ) करके 


। सगरसे कहा-~। ४२३ ॥ “बेटा ! इन जीते-जी मरे 


हुओंका पीछा करनेसे क्या खाम है !॥ ४४ ॥ देख, 
तेरी अ्रतिज्ञाको पूणं करनेके च्थि मैने हीन्द्र 
स्वधमे ओर द्िजातियोके संसगंसे वञ्चित कर 
दिया देः || ४५॥ राजाने (जो आज्ञाः कहकर 
गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया ओौर नफ वेष 
बदख्वा दिये ॥ ४६ ॥ उसने यवनोके चिर 
मुडवा दिये, शकीको अद्धंमुण्डित कर दिया 
पारदौके स्वे-खंबे केश रखवा दिये, पहूर्बोकि 
मूखछनदादी रखवा दीं तथा इनको भौर 








नन्यांय क्षत्ियांधकार ॥ ४७ ॥ एते चात्मधर्म- 
प्रि्यागादुत्राह्मणेः परित्यक्ता ग्टेच्छतां ययुः 
॥४८॥ समरोऽपि स्वमधिष्ठानमानम्पारखङिति- 


चक्रर्यप्रदरीपवतीमिमायुरवी प्रश्ना ॥ ४९॥ 


--~ ५५५८१११४. 





इनके समान अन्यान्य श्त्रियोको भी स्वाध्याय 
ओर वषट्कारादिसे बहिष्छते कर दिया ॥ ४७ ॥ 
अपने ध्मंको छोड़ देनेके कारण ब्रह्म्णोने भी 
हनका परिस्याग कर दिया; अतः ये स्छेच्छ हो गये 
॥ ४८! तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानी. 
मे आकर अप्रति्त सैन्यसे युक्त हयो इस सम्पूणं 
सप्तद्वीपवती प्रथिवीका श्चासन करने छगे ॥ ४९॥ 





इति श्रीविष्णुपुराणे चतुथंऽसे दृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ 


~“ "ण्यै 


वोधा अध्याय 


सगर, सौदास, खयुचाज्ग सौर ममचानू राक्र 
चरित्रका वणन 


श्रीपरादार उवाचं 

काश्यपदुहिता सुमतिषिदर्भशजतनया 
केशिनी च दवे भायं सगरस्यास्ताम्‌॥ १॥ ताभ्यां 
चापत्याथंमौवैः परमेण समाधिनाराधितो वर- 
मदात्‌ ॥२॥ एका वंशकरमेकं पुत्रमपरा पष्ट पत्र- 
सहस्राणां जनयिष्यतीति यस्या यदभिमतं 
तदिच्छया गृ्यतामिप्युक्तं कैरिन्येक वरयामास 
॥ ३ ॥ एमतिः पुत्रसहस्राणि प्ट षरे ॥ ४॥ 


तथेत्युक्ते अल्यैरहोभिः केशिनी पृत्रमेकम- 
समञ्ञसनामानं वंगकरमघत ॥ ५॥ काय" 
तनयायास्तु सुमत्याः पष्टिः पुत्रसदस्चाण्यमवन्‌ 
॥ ६ ॥ तस्मादसमज्ञसादशुमान्नाम कमारो जनन 
॥ ७॥ स॒ त्वसमञ्ञसो बारे बाल्यादेवापद्‌- 
वृत्तोऽभूत्‌ ॥८॥ पिता चास्याचिन्तयदयमती- 
तचास्यः सुबुद्धिमात्‌ भविष्यतीति ॥९। अथ 
तत्रापि च षयदरयतीते असच्चरितमेनं पिता 
तत्याज ॥ १०॥ तान्यपि षष्टिः पुत्रसहस्याण्य- 
समञ्नसचरितमेवाुचक्रः ॥ ११ ॥ 





भी पराक्षरजी बोले -कारयपसुता सुमति ओौर 
विद्भैराज-कन्या कैशिन ये राजा सभरकी दौ 
शिया थीं ।। १॥ उनसे सन्तानोत्पत्तिके लिये परस 
समाधिद्वारा आराधना किये जनिपर भगवान्‌ 
ओर्वने यह वर दिया ॥ २॥ (कसे वंको बद्ध 
करनेवाला एक पुत्र तथा दूसरौसे साठ हनार 
पुत्र उत्पन्न होगे, इनमेसे जिसको जौ अभीष्ट हो 
वद्‌ इच्छापूवक उसीको प्रहण कर सकती है ।' 
उनके एसा कदनेपर केशिनीने एकं तथा सुमतिने 
साठ हजार पुत्रका वर मगा ।॥ ३-४॥ 


सक्षि शतथास्तुः कहनेपर कुछ ही दिनम 


| कै्चिनीमे वंञ्चको बदूनिवादे असमन्जस नामक 


एकं पुत्रको जस्म दिया जओौर कार्यपड्कमार सुमतिसे 
साठ सहस्र पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ^.& 1 राजकुमारः 
असमञ्चसके अंशुमान्‌ नामक पुत्र हंजा 
| ७} यह असमञ्जस बाल्यावस्थासे ही बड़ा 
दुराचारी था ८ ॥ पिताने सोचा कि बाल्यावस्या- 
क बीत जानेपर यद बहुत समश्चदार होगा ॥९॥ 
किन्तु उस अवस्थाके बीत जानेपर भी जब उसका 
आचरणन सुधरा तो पिनि उसे स्याग दिया 
॥ १०॥ उने साठ हजार पुत्रोने मौ असमञ्जसके 
चरित्रका ही अञुकरण किया ॥ ११॥ 


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ततथासमञ्जसवरितानुकारिमिस्सागरेप- 
५वस्तयज्ञादिसन्मार्मे जगति देवास्सकलविद्यामय- 
मसंसपषटमरोषदोपभेगवतः पूरुषोत्तमस्यां शभूतं 
कपिं प्रणम्य तद्थेमूचुः ॥१२॥ भगवन्नेभि- 
स्सगरतनयैरसमञ्जसचरितमनुगम्यते ॥ १२ ॥ 
कथमेभिरसदुढत्तमनुसरद्धिजंगद्धविष्यतीति। १४॥ 
अस्यार्चजगत्पस््राणाय च भगवतोऽत्र शरीर- 
ग्रहणमित्याकण्यं भगवानाहाल्यैरेव दिने्वि- 
नदक्षथन्तीति ॥ १५ ॥ 
अत्रान्तरे च सगरो हयमेधमारभत ॥१६॥ 
तस्य च प्रेरधिष्ठितमस्याश्वं कोऽप्यपहुसा 
सवो बि प्रविवेश ॥ १७॥ ततस्तत्तनयाशा- 
शरसुरगतिनिवेन्धेनावनीमेकैको योजनं चरतुः 
॥१८]॥ पाते चादवं परिरमन्तं तमवनी- 
पतितनयास्ते ददुः ।१९॥ नातिद्‌रेऽवस्थितं 
च भगवन्तमपधने भररत्कालेऽकंमिव तेजोभिर- 
नवरतमृष्वंमधश्वाेपदिशधोद्धापयमानं हयहर्तारं 
कपिहर्षिमपरयन्‌ ॥ २०॥ 
ततश्रोघतायुधा दुरात्मानोऽयमस्मदपकारी 
यज्ञविध्रकारी हन्यतां हयह्ता हन्यतामिरपवो- 
चन्नभ्यधाव् ॥ २१} ततस्तेनापि भगवता 


 किश्चिदीपर्परिवततितलो वनेनावक्टोकितास्स्वश्री- 
| रसुत्थेनाभिना दह्यमाना विनेशुः ॥ २२ ॥ 
सगरोऽष्यवमम्याद्वानुसारि तसपुत्रबरमशेषं 
प्रमर्पिंणा कपिलेन तेजसा द्धं ततोऽबुमन्त- 
मसमञ्जसपुत्रमश्वानयनाय युयोज ॥ २३॥ 














तब, असमञ्जसके चरित्रका अनुकरण 
करनेवाले उन सगरपु्रोद्वारा संसारम यज्ञादि 
सन्मागंका उच्छेद हो जनेपर सकर-विद्यानिधान, 
अश्ञेषदोषदहीन; भगवान्‌ पुरुषोन्तमके अंसभूत 
श्रीकपिष्देवसे देवताओने प्रणाम करनेके अनन्तर 
उनके विषयसनै कहा-। १२1 “भगवन्‌ ! राजा 
सगरफेये सभी पुत्र असमञ्जसके चरित्रका ही 
अनुसरण कर रहे है ॥। १३ ॥ इन सवके असन्माग- 
मे प्रयृत्त रहनेसे संसारकी क्या दश्ञा होगी १ १४॥ 
प्रभो ! संसारमे दीनजनोकी रक्चाके स्यि दही आपने 
यह्‌ शरीर ग्रहण किया है [ अतः इस घोर आापत्तिसे 
संसारकी रक्षा कीजिये ] 1” यह्‌ सुनकर भगवान्‌ 
कपिलने कहा, ध्ये सव थोड़ेही दिनोमे द््टहो 
जागे? || १५ ॥ 


इसी समय सगरने अश्वमेध यज्ञ आरम्भ 
किया ॥ १६॥} ठसमे उसके पुच्ो्यारा सुरक्षित 
घोड़ेको कोई व्यक्ति चुराकर प्रथिवीमं घुस गया 
॥ १७ ॥ तब उस घोड़ेके खुरोँके चिहोंका अनुसरण 
करते हुए उनके पुत्रोभेसे प्रव्येकने एक-एक योजन 
परथिवी खोद डाली ॥ १८ ॥ तथा पातालमे पर्ुवकर 
ठन राजछुमारोने अपने घोड़ेको फिरता हज देखा 
॥ १९॥ पासी मेषावरणहीन शारस्कालके सूये 
समान भपने तेजसे सम्पूणं दिश्ञाओंको प्रकाशित 
करते हुए घोङ्ेको चुरानेवाले परमर्षिं कपिखको 
चैठे देखा ॥ २०॥ 


तव तो वे दुरात्मा अपने अक्-श्लौको उठाकर 
"यहयो हमारा अपकारी आौर यज्ञम विघ्न डालनेवाखा 
है, इस घोडधेको चुरनेनालेको मारो, मारो' एेसा 
चिल्लाते हए उनकी ओर दौड ॥ २१ ॥ तव भगवान्‌ 
कपिरदैवके कुछ आंख षद्‌ङकर देखते हयी वे सव 
अपते ही श्ररीरसे उत्पन्न हुए अग्निम जल्कर नष्ट 
हो गये ॥ २२॥ 


महाराज सगरको जव यह माम हुभा किं 
घोडेका अनुसरण करनेबाठे उसके समस्त पुत्र 
महर्षिं कपिषरूके तेजसे दग्ध हो गये दहतो 
उन्होने असमञ्जसके पुप्र अश्ुमान्‌को घोडा 
ठे अनेके चि नियुक्त किया ॥२२॥ 


स॒ तु सगरतनयखातमार्गेण कपिलञुपगम्य 
भक्तिनग्रस्तदा तुष्टाव ॥२४॥ अथेनं मगवानादह 
॥ २५ ॥ गच्छेनं पितामहायादवं प्रापय बरं 
वृणीष्व च पत्रक पौत्रश्च ते स्व्गाद्गङ्धां थुवमा- 
नेष्यत इति ।[२६॥ अथांशुमानपि स्वयातानां ब्रह्म 
दण्डहतानामस्मव्पतृणामस्वगंयोग्यानां स्वग - 
पराप्चिकरं वरमस्माकं प्रयच्छेति प्रत्याह ॥२५७॥ 
तदाकण्यं तं च भगवानाह उक्तमेवैतन्मयादय 
पौत्रस्ते त्रिदिबादङ्गां युवमानेष्यतीति ॥ २८ ॥ 
तदम्भषा च पर्ेष्वस्थिभस्मसु एते च स्वग- 
मारोच्यन्ति ॥ २९॥ भगवद्विष्णुपादङ्ुष्ठनिगे- 
तस्य॒ हि जलस्यैतन्माहारम्यम्‌ ॥ ३० ॥ यन्न 
केवमभिसन्धिपूषकं स्नानाधरुपमोगेपूपकारक- 
मनमिसंहितमप्यपेतप्राणस्यास्थिचमस्नायुकेशाचु- 
पस्पष्टं शरीरजमपि पतितं सद्यश्शरीरिणं स्वगं 
नयतीस्युक्तः प्रणम्य भगवतेऽश्चमादाय पितामह- 
यक्षमाजगाम ॥ ३१ ॥ सगरोऽप्यश्चमासाद् तं 
यज्ञं समापयामास ॥२२॥ सागरं चात्मजप्रोत्या 
पुत्रत्वे कल्पितवान्‌ ॥२३॥ तस्यां्रुमतो दिलीपः 
पुत्रोऽभवत्‌ ॥२४॥ दिष्टीपस्य भगीरथः योऽसौ 
गङ्गां स्व्गादिक्शनीय भागीरथीसज्ञां चकार ।३५। 
भगीरथात्सुहोवस्सुदोत्राच्ुंतः तस्यापि 
नाभागः ततोऽम्बरीषः तद्पुत्रस्सिन्धुद्रीपः सिन्धु- 
दवीपादयुतायुः ॥३६॥ तसपत्र छतुपणेः योऽसौ 
नरसदहययोऽकषहृदयन्ञोऽभूत्‌ ॥ ३७ ॥ 
ऋतुपणपुत्रस्स्वकामः ॥ ३८ ॥ तसनय- 
स्युदासः ॥ २९ ॥ सुदासात्सोदासो भित्रसद- 








वह्‌ सगर-पुचरोद्यारया खोदे हए मागंसे कपिर्जीके 
पास पर्हचा ओर भक्तिविनम्र होकर उनको 
स्तुति की ॥२४॥ तव भगवान्‌ कपिने उससे 
कद्रा, ष्वेटा ! जा, इस घोडेको छे जाकर अपने 
दादाकोदेओरतेरो जो इच्छाहो बही वर माँग 
ठे। तेरा पौत्र गङ्खाजीको स्वर्गसे प्रथिवीपर 
रायेगा' ॥ २५-२६ ॥ इसपर अं्ुमानने यही कहा 
किमुश्चे फेला वर दीजिये जो ब्रह्मदण्डसे आहत होकर 
मरे हुए मेरे अस्वग्यं पितृगणक्षो स्वगकी प्राचि 
करनेवाला हो | २७ ॥ यह सुनकर भगवषान्‌ते कह) 
शषँ तुश्चसे पके ही कह चुकाह्टरकि तेरा पोर 
गङ्खाजीको स्व्गसे प्रथिवीपर लायेगा ॥ २८॥ 
उनके जले इनकी अस्थियोकी मस्मका स्पशे होते 
हौ ये सब स्वगेको चज्ञे जायेगे ॥ २९॥ भगवान्‌ 
विष्णुके चरणनखसे निके हए उस जलका एसा 
माहास्म्य है कि वह्‌ कामनापूक केवर स्नानादि 
कार्यमिं ही उपयोगी हो-सो नहीं भपितु, बिना 
कामनाके मृतक पुरुषके अस्थि, चम॑, स्नायु अथवा 
केश आदिका सथं हो जानेसे या "उसके शरीरका 
को अङ्ग गिरनेसे भी बह देहधारीको तुरन्त 
स्व्गमे ठे जाता दहै । भगवान्‌ कपिख्के एसा 
कहनेपर वह खन्हे प्रणाम कर घोडेको रेकर अपने 
पितामहकी यज्ञक्षाङामें आया ॥ ३०-३१॥ राजा 
सगरने भी घोडेकै मिल जानेपर अपना यज्ञ 
समाप्त किया भौर [ अपने पूत्रोके खोदे हुए ] 
सागरको ही अपत्य-स्तेहसे अपना पुत्र माना 
॥ ३२-३३ ॥ उस अंशुमान्‌के दिप नामक्र पुत्र 
हृ ओौर दिरीपफै भगीरथ हभ, जिसने 
गङ्गाजीको स्वगंसे प्रथिवीपर लाकर उनका नाम 
भागीरथी कर दिया ॥ ३४-३५ ॥ 


भगीरथसे सुहोत्र, सुहोचसे श्रि, श्रृतिसे 
नाभाग, नाभागसे अम्बरोष, अम्बरीषसे सिन्धुदीप; 
सिन्धुद्वीपसे अयुताय ओौर अयुतायुसे छतुपणं 
नामक पुर हुभा जो राजा नका सहायक ओर 
युतक्रौडाका पारदा था ॥ ३६-३७॥ 


ऋ तुपणंका पुश्च सवेकाम था, उसका सुदास 


ओर सद्ासका त्र सौदास मिश्रसह हअ ।३८-४०॥ 


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नामा ॥४०॥ स॒ चाटव्यां मृगयाथीं पयंटन्‌ 
व्याघद्रयमप्रयत्‌ ॥४१॥ ताभ्यां तद्वनमपम्गं 
कृतं मस्वैकं तयोर्बाणेन जघान ॥ ४२ ॥ ग्रिय- 
माणथ्ासावतिभीषणाकृतिरतिकरार्वदनो रक्ष- 
सोऽभूत्‌ ॥ ४३॥ द्वितीयोऽपि प्रतिक्रियां ते 
करिष्यामीप्युक्तवान्तर्षानं जगाम ॥ ४४ ॥ 

काठेन गच्छता सोदासो यक्तमयजत्‌॥४५॥ 
परिनिष्टितयन्नं आचार्ये विष्टे निष्करास्ते तद्रक्षो 
वसिष्ठरूपमास्थाय यज्ञावसाने मम नरमांसभोजनं 
देयमिति तत्संस्कियतां क्षणादागमिष्यामीत्यु- 
कत्वा निष्क्रान्तः ॥ ७६ ॥ भूयश्च घछदवेषं त्वा 
राज्ञया मानुषं मासं संसत राज्ञं न्यवेदयत्‌ 
॥ ४७ ॥ असावपि हिरण्यपत्रे मांसमादाय 
मसिष्ठागमनप्रतीक्षकोऽमवत्‌ ॥। ४८ ॥ आगताय 
वसिष्ठाय निवेदितवान्‌ ॥४९॥ 

स चाप्यचिन्तयदहो अस्प रारो दौर्शीन्यं 
येनैतन्मांसमस्मां प्रयच्छति किमेतद््रन्यजात- 
मिति ध्यानपरोऽभवत्‌ ॥५०॥ अपदयच तन्मांसं 


मानुषम्‌ ॥ ५१ ॥ अतः क्रोधक्ृहुषीकृतचेता 
राजनि शापद्त्ससजं | ५२ || यस्मादभोज्यमेत- 
दस्मद्विधानां तपस्विनामवगच्छन्नपि भवान्महय 
ददाति तस्मात्तवैवात्र लोलुपता भविष्यतीति । ५२ 

अनन्तरं च तेनापि मगवतेवाभिहितोऽस्मी- 
यक्तं किं फं मयाभिहितमिति सुनि; पुनरपि 
समाधो तस्थौ ।॥ ५४ ॥ समाधिविन्तानावगता- 








एक दिन मगयाके खयि वनम घूमते.घूमते उसने 
दो स्याघ्र देखे ॥ ४९॥ इन्होने सम्पूणं बनको 
सृगहयीन कर दिया है--एेसा समन्चकर उसने 
उनमेसे एकको बाणसे मार डाला | ४२ ॥ मरते 
समय वह अति भयङ्कुररूप वऋूर-वदन राक्षस हो 
गया ॥ ४३ ॥ तथा दूसरा भी शँ इसका बदडा 
दुगा' पेखा कहकर अन्तधौन हो गया ॥ ४ ॥ 


काङान्तरमें सौदासने एक यज्ञ किया ॥ ४५॥ 
यज्ञ समाप्न हो जानिपर जब आचायं वसिष्ठ बाहर 
चङे गये तब वष राक्षस वसिष्ठजीका रूप बनाकर 
बोला, यज्ञके पूणं होनेपर सुश्च नरमांसथुक्त भोजन 
कराना चाहिये; अतः तुम एेसा अन्न तैयार करा, 
मँ अमी आताः देक्षा कहकर वह्‌ बाहर चरा 
गया | ४६ ॥ पिर रसोदयेका वेष बनाकर राज्ञाकी 
आज्ञासे उसने महुष्यका मांस पकार्कर उसे निवेदन 
किया ॥ ४७॥ राजा भी उसे सुवणेपात्रमे रखकर 
वसिष्ठजीफे अनेक प्रतीक्षा करने खगा भौर उनके 
आति ही वह मांस निवेदन कर दिया । ४८५९ ॥ 


ब सिष्ठजीने सोचा, अद्यो ! इस राजाकी 
कुटिरता तो देखो जो यह जान-चृह्यकर मौ रुशत 
लाने छथि यह मांस देता दै ॥ फिर यह्‌ जाननेके 
चयि कि यह्‌ किसका है वे ध्यानस्य हो गये ॥५०॥ 
ध्यानावस्थामे उन्होने देखा कि बह तो नरर्मास 
है ॥ ५१॥ तव तो क्रोधके कारण श्ुन्धर्चत्त 
होकर उन्होने राजाको यह्‌ ज्ञाप दिया-॥ ५२ ॥ 
“क्योकि तूने जान-यृद्चकर भी हमारे-जसे तपस्वियो- 
क्रे दिये अस्यन्त अभक्ष्य यह्‌ नरमांस मुञ्चे खनको 
दिया है इचि तेरी द्सीभ लोदुपता होगी 
[ अथात्‌ तू राक्षस हो जायगा ] ॥ ५३ ॥ 

तदनन्तर साजाके यह्‌ कहनेपर किं भगवन्‌ । 
मापहीने ेसी आज्ञा कौ थीः वसिष्ठजी यह्‌ कहते हुए 
कि ्क्यार्ँनेही देखा कषा था १ फिर समाधिस्थहो 
गये ॥५४॥ समाधिद्रारा यथाथं बात जानकर उन्होने 














थंानुग्रहं तसमै चकार नास्यन्तिकमेतद्दादशा्दं 
तच भोजनं भविष्यतीति ॥ ५५ ॥ अष्रावपि 
प्रतिगृ्योदकाल्जलि युनिशापप्रदानायोधयतो 
मगवन्यमसमद्‌ गुरुनसयेनं $ढदेवताभूतमाचायं 
शप्त॒मिति मदयन्त्या स्वपटन्या प्रसादितस्सस्१- 
स्बुदरक्षणाथं तच्छापाम्बु नोर््ान चाकर 
विक्षेप फं तु तेनैव स्वपदौ सिषेच ॥ ५६ ॥ तेन 
च क्रोधाभितेनाप्बुना द्धच्छायौ तत्पादौ 
कल्पापतागुषगतौ ततस्स कल्पापपादसं्ञामवाप 
|} ५७ । वसिष्टशापाच्च षष्ठे षष्टे काले राक्षस- 
स्वभावमेर्यारध्यां पयंरन्ननेकशो मानुषान- 
मक्षयत्‌ ॥ ५८ ॥ 

एकदा तु फथिन्ुनिस्रतकारे भार्यासङ्गतं 
ददश ५९ ॥ तयोश्च तमति मौषणं राक्षसस्वरूप- 
मवरोक्य त्सादम्पस्योः प्रधावितयोत्राक्षणं 
जग्राह ॥ ६० ॥ ततस्ता ब्राह्मी | 
याचित्तवती ॥ ६१ ॥ प्रसीदेदा$ङ्रतिरकभूत- 
स्खं महाराजो भित्रसदो न राक्षप्ः॥६२॥ नासि 
सीधरमसुखाभिज्ञो मय्यकृतारथायामस्मदधरतार 
हन्तुमित्येवं बहुप्रकारं तस्यां बिखयन्स्यां व्याघ्रः 
पशुमिवारण्येऽभिपतं तं ब्ाक्षणप्तमक्षयत्‌ ॥६३॥ 

ततथ्ात्िकोपसमन्विता ब्राह्मणी तं राजानं 
श्राप ॥ ६४ ॥ यस्मादेवं मग्यतष्तायां सयायं 
मत्पतिर्मक्षितः तस्माचमपि कामोपमोगप्रवत्तोऽन्तं 
प्राप्स्यसीति ॥ ६५ ॥ श्खा चेवं 
प्रविवेश ।॥ ६६ ॥ 


सारि 








राजापर अनुग्रह्‌ करते हुए का, “तू अधिक दिनं 
नरमांस भोजन न करेगा, केवल बारह वषं ही तुश्च 
सा करना होगा ॥ ५५॥ वसिष्ठजीके एेसा 
कहनेपर राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिम जल 
लेकर समुनोश्चरफो शाप देनेके ल्य उद्यत हुआ । 
किन्तु अपनी पत्नी मदयन्तीद्रास 'भगवन्‌ {ये 
हमारे कुल्गुर दै, इन कुर्देवरूप आचायेको ज्ञाप 
देना उचित नदी है-देसा के ज नेसे शान्त दहो 
गया तथा अन्न ओौर मेघको रक्षके कारण उस 
लञाप-जछको परथिवी या आकाञ्चमे नहीं फेका, बलिक 
उससे अपने पैरोको ही भिगो लिग्रा | ५६॥ उस 
करोधयुक्त जलसे उसे पैर स्ुछतकर कटमाषवणें 
( चितकवबरे ) हो गये । तभौसे उनका नाम 
कल्माषपाद हु ॥ ५७ ॥ तथा वसिष्ठजीके सञापकरे 
प्रभावसे छठे कालमे अर्थात्‌ तीसरे दिनके अन्तिम 
भागे बह राक्चल-स्वमाव धारणकर वनम घूमते 
हुए अनेकों मवुष्योँकौ खाने र्गा ॥ ५८ ॥ 

एक दिन उसने एक मुनीश्चरको ऋतुकारके 
समय अपनी भासे सङ्गम करते देखा | ५२॥ 
उस अति भीषण राश्व्तरूपको देलकर भयसे 
भागते हुए अन दम्पतिथोमेसे उक्तने ब्राह्मणको 
पकड़ छया ॥ ६० ॥ तव ब्राह्यणीने ससे नाना 
प्रकास्से प्राथंना की ओर कदा राजन्‌! 
प्रसन्न होडये । आप राक्षस नहीं दै बह्कि इक्ष्वाकु 
कुरुतिलक महाराज मिचषह दै ॥ ६१-६२॥ आप 
खी-खयोगके सुखको जाननेवरे है मै अत्न हः 
मेरे पिको मारना आपको उचित नदीं है ।' इस 
प्रकार उसके नाना प्रकारसे बिछाप करनेपर भी 
उतने उस ब्राह्मणको इस प्रकार भक्षण कर ख्या 
जैसे वाघ अपने अभिमत प्चुको वने पकड़कर 
खा जाता है 1। ६३॥ 


तव ब्राह्म णीने अत्यन्त क्रोधित होकर राजाको 
चाप दिया-। ६४ ॥ अरे ! तूने मेरे अवप रहते 
हुए भौ इस प्रकार मेरे पतिको खा ख्या, 
इसल्यि कामोपभोगे प्रवृत्त होते ही तेय अन्त हो 
जायगाः ॥ ६५ ॥ इस प्रकार शाप देकर बेह्‌ 
अग्निम प्रविष्ट हो गयी ॥ ६६ ॥ 


३०४ 


्रीविष्णुपुराण 


[ अ० ¢ 





ततस्तस्य द्वादशाब्दपयये विषुक्तश्रापस्य 
स्रीविषयाभिह्ापिणो मदयन्ती तं स्मारयामास 
॥} ६७}! ततः परमसौ सीभोगं तत्याज ॥ ६८॥ 
वसिष्ापत्रेण राज्ञा पुत्राथेमम्यथितो मदयन्त्यां 
गर्भाधानं चकार ॥ ६९॥ यदा च स॒प्तर्षाण्यसो 
गभो न जके ततस्तं गभैमदमना सा देवी जघान 
॥ ७० ॥ पूत्रश्वाजायत ।॥ ७१ ॥ तस्य चारमक 
इस्येव नामाभवत्‌ || ७२ ॥ अर्मकस्य मूरुको नाम 
पत्रोऽभप्रद्‌ ॥ ७२ ॥ योऽप्तौ निशषत्रे चमातले- 
ऽस्मिन्‌ क्रियमाणे स्लीमिर्विवस्रामिः परियं 
रक्षितः ततस्तं नारी कवचन्ुद्‌ादरन्ति ॥ ७४ ॥ 


मूलकादशरथस्तस्मादिकिविरुस्ततश्च धिश्व- 


सहः॥ ७५॥ तस्माच खट्वाङ्गः योऽसौ देवासुर 
संग्रमे देवेरम्थितोऽपुराज्जवान।। ७६॥ स्वे 
च कृतप्रियेदेवैवरपरहणाय चोदितः प्राह ॥ ७७॥ 
यद्यवद्यं वर प्राह्चः तन्ममायुः कथ्यतामिति 
-|| ७८ ॥ ब्रनन्तरं च तैरक्तमेकछचप्रमाणं 
` तथायुरिसयुक्तोऽथास्खलितगतिना विमानेन रुषि- 
` मगुणौ मरस्य॑लोकमागम्येदमाह ॥ ७९ ॥ यथा 
न्‌ ब्राह्मणेभ्यस्सकाश्ादात्मापि मे प्रियतरः न 
च स्वधर्मोन्सद्वनं मया कदाचिदप्यनुष्टितं न च 
 सकल्देवमानुषपशुपक्षवरक्तादिकैष्वच्युतव्यतिरेक- 
वती दृष्टिमम।भूत्‌ तथा तमेवं एुनिजनानुस्मृतं 
| भगवन्तमस्खितिगतिः प्रापयेयमिस्यरेपदेवभुरौ 
` भगवत्यनिर्दश्यवपुषि स्तामा्ातमन्यासमानं 


, पस्या-मनि वासदेकास्ये ययोक्ञ तमेव चं 





तदनन्तर बारह वंके अन्तम शापमुक्त हो 
जानेष्र एक दिन विषय-कामनामें प्रवृत्त होनेपरः 
रानी मदयन्तीने इसे ब्रा्मणीके ज्ञापका स्मरण करा 
दिया ॥ ६७॥ तभीसे राज्ञाने स्ली-संभोग व्याग 
दिया ॥६८॥ पढे पुत्रहीन राजाफे प्राथेना 
करनेपर वसिष्ठजीते मदयन्तीके ग्माधान किया 
॥ ६९ । जब उस ग्भने सात बधं भ्यतीत होनेपर 
भी जन्म न चल्यातो दैवी मदयन्तीने उसपर 
पत्थरसे प्रहार करिया ॥ ७०॥ इससे उसी समय 
पुत्र उच्च हा ओौर उसका नाम अङ्मक हृभा 
1 ७१-७२ | अङमकके मूख्क नामक पुत्र हज 
|| ७३। जव परञ्चुरामजीद्ारा यष्॒प्रश्वीतछ 
क्षत्रियहीन क्रिया जा रहा था स्स समय उस 
( मूक ) कौ रक्षा वखर्टीना च्िर्योने घेरकर की 
थी, इससे उसे नारीकवच भी कहते दै ।॥। ७४ ॥ 


मूके दशरथ, दश्चरथके इतिवि, इङिविलके 
विश्वसह ओर विग्धस्रदके खट्बाङ्ग नामक पुत्र 
हुआ, जिसने देवाञुरसंमराममे देवताभोंके प्राथंना 
करनेपर दैव्योका बध किया था}) ७५-७६ | इस 
प्रकार स्वर्गमें देबताओंका प्रिय कस्तेसे उनके द्वारा 
वर मगनेके लिये प्रेरित किये जानेपर उसने कहा 
|| ७७ ॥ ध्यदि सह्षे बर प्रहण करना ही पड़े तो 
आपल्लोग मेयो आयु बताये" ॥ ७८ ॥ तब 
देवताभोके यह्‌ कहनेपर फि तुस्हारी आभु केवल 
पक मुहूतं ओर रही ह बह [ देबताओके दिये हुए ] 
एक अनवसद्धगति चिमानपर्‌ बैठकर बड़ी श्ोघ्तासे 
सव्यंलोकमें आया ओर कहने रगा- ७९ ॥। धयदि 
मश्च ्राह्मणोकी अपेक्षा कभी अपना आत्मा भौ प्रियत्तर 
नहीं हुजा, यदि मैने कभी स्वधमेका उल्छङ्कन नदीं 
किया ओर सम्पूण देव, मचुष्य, ञ्ु, पक्षी भौर 
वृक्षादिमे शरीअच्युत्तके अतिरिक्त मेरी अन्य दृष्टि 
नदीं हु तो मैं निर्विध्नतपूवे उन मुनिजनवन्दित 
प्रभुको प्राप्त होञं ।' पेखा कहते हुए राजा खटबाङ्गने 
सम्पूण देव ताओके गार, अकथनीयस्वरूप, सत्तामात्र 


[1 "न = न+ > नु नुक कोच कन्नो [ककन भक कन {1 








अत्रापि श्रुयते श्लोको गीतस्सप्तपिभिः परा । 


खट्वाङ्गेन समो नान्यः कथिदुर््या मविष्यति। ८ | 
येन खर्गादिहागम्य युत्त राप्य जीवितम्‌ । 


तरयोऽतिसंहिता लोका बुद्रथा सेन चेष दि॥८२॥ 
खट्वाङ्गादी्वाहुः पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ८३ ॥ ततो 
रपुरभवत्‌।८४॥ तस्मादप्यजः॥८५॥ अजाद श्च 
रथः ॥| ८६॥ तस्यापि मगवानन्ननाभो जगतः 
सथित्य्थमात्मांशेन रामह्ष्मणमरतशतष्नरूपेण 
चतुद्भ पत्रतमायासीत्‌ ॥ ८७ ॥ 
रामोऽपि बाह एव विश्वामित्रयागरक्षणाय 
गच्छस्ताटकां जघान ॥ ८८ ॥ यज्ञे च मारीचमिषु- 
वाताहतं सथुद्रं चिक्षेप ॥ ८९ ॥ सुषाषट्रयुखांच 
्षयमनयत्‌ ॥ ९० ॥ द्थैनमात्रेणाहस्यामपाषां 
चकम्‌ ॥ ९१ ॥ जनकमगहे च माहेश्वरं चापमना- 
यासेन यभन | ९२ ॥ सीतामयोनिजां जनकराज- 
तनयां बीयंगुल्कां रेमे ॥ ९२॥ सकरक्षत्रियक्षग्र- 
कारिणमशेषदैहयकुलधुमकेतुभूतं च परुराममपा- 
स्तवीयंबलावरेपं चकार ॥ ९४ ॥ 
पितृवचनाज्चागणितरान्यामिराषो भ्रातृभार्या 
समेतो वनं प्रविषेश्च ॥९५॥ विराधखरदृषणादीन्‌ 
कबन्धवालिनौ च निजघान ॥ ९६ ॥ बद्ध्वा 
चाम्भोनिधिमश्ेषरक्षसङलक्षयं कृत्वा दञ्चानना- 
पहृतं मार्या तद्रधादपहृतकलङ्कामप्यनलप्षेश- 
ुदधामरपदेषसद्वः स्तूयमानरीलां जनकराज- 
कन्यामयोध्यामानिन्ये ॥९७॥ततश्वाभिषेकमङ्गलं | 


® , च) र 





इस विषयमे भो पूवंकारमे सप्षियोंदारा कषा 
हुआ शोक युना जाता है! [ उसमें कहा दै-] 
(खट वाङ्गक समान प्रथिवीतढमे अन्य कोई भी राजा 
नहीं होगा, जिसने एक सुहूतेमात्र जीवनके रहते ही 
स्वगेलोकसे भूमण्डलमे आकर अपनी बुद्धिष्ठारा 
तीनों लोर्कोको सौँघकर सत्यस्वरूप भगवान्‌ 
वासुदेवको प्राप्त कर छिया' | <१-८२॥ 


खट्बाङ्गसे दीषेवाह नामक पुत्र हुमा । दीवेनाहु- 
से रधु, रघुसे अज ओौर अजसे दश्चरथने जन्म छिया 
॥ ८३-८६ ॥ देश्ञरथजीके भगवान्‌ कमरनाभ 
जगत्‌की स्थितिके लिये जपने अंसे राम, रक्ष्मण, 
भरत ओर जत्रूष्न इन चार रूपे पुत्र भावको 
प्राप्न हुए ॥ ८७ ॥ 


रामजीने बाल्यावस्थामे दही विश्वामित्रजीकी 
यज्ञरक्षके लिये जाति हुए मागमे ही ताटका राक्षसी. 
को मारा, फिर यज्ञशालामे पहुंचकर मारीचको 
बाणरूपी बायुसे आदत कर समुद्रम फक दिया 
ओर युबाह आदि राक्चसोंको नष्ट कर डाङा ८८९० 
उन्होने अपने दशंनमात्रसे अहल्याको निष्पाप फिया, 
जनकजीके राजमवनमे बिना श्रम ही महादेवजीका 
धनुष तोधा शौर पुरुषाथसे ही प्राप्र होनेवारी 
अयोनिजा जनकराजनन्दिनी श्रीसीताजीको परनी- 
रूपसे प्राप्त किया ॥ ९१-९३ ॥। ओौर तदनन्तर सम्पूणं 
षत्रियोको न्ट करनेवाछे समस्त देदयकुलके द्यि 
अग्निस्वरूप परश्ुरामजीके बल -वौयका गवे नष्ट 
किया ॥ ९४ ॥ । 


फिर पिताके बचनसे राञ्यलक्ष्मीको क्छ भीन 
गिनकर भाई लक्ष्मण ओौर धमेपत्नी सीताके सहितं 
वनम चरे गये ॥ ९५ ॥ बहौ विराध, खर, दूषण 
आदि राक्षस तथा कबन्ध ौर बाीका वध किया 
ओौर सयुद्रका पुल बौँधकर सम्पूणं राक्चसङ्कख्का 
विध्वंस किया तथा रावणद्वारा हरी हुदै ओर उस्रके 
वधसे कर्ङ्कहीना होनेपर भी अग्नि-प्रवेश्चसे शुद्ध 
हुईं समस्त देवगणोँसे प्रशं सित स्व माबवाल्ली अपनी 
भायौ जनकराजकम्या सीताको अयोध्य ङे आये 
॥ ९६-९७ ॥ हे मैत्रेय ! उस समय उनके राज्याः 


३०६ 


------------------------_----_----- ¬ 


त्रेय वषैशतेनापि वक्तुं न श्यते सङ्क्षेपेण 
श्रूयताम्‌ ॥ ९८ ॥ 


लदमणमरतशन्रुध्नविभीषणसुग्रीवाङ्गदजाम्ब- 
बद नुमसभृतिभिस्सयुत्फुल्टवदनेरछ्त्रचामरादि- 
ुतैः सेव्यमानो . दाशरथि मियमनि्छति- 
वरुणवायुङुमेरेतानप्रभृतिभिस्सरवामरेमसिष्ठवाम- 
देववान्मीक्िमाकंण्डेयविश्वामित्रभरदाजागस््यप्र- 
भृतिमि्निवरैः ऋम्यजुस्सामाथवेभिस्संस्तूयमानो 
सृस्यगीतवाद्या्खिललोकमङ्गरबा्ेवीणवेणुप्‌- 
दङ्गमेरीपटहशह्कादरगोशवप्रभृतिभिस्मुनादेस्स- 
मस्तभूभृता मध्ये सकलरोकरक्ाथ यथोचितममि- 
षिक्तो दाशरथिः कोसलेन्द्रो रघुरुतिरको 
जानकीप्रियो भराृत्रयग्रियस्सिहासनगत एका- 
दश्चाब्दसदसं राज्यमकरोत्‌ ॥ ९९ ॥ 


भरतोऽपि गन्थवंविषयसाधनाय गच्छन्‌ संग्रामे | 


गन्धर्वकोटीस्तिसचो जधान । १०० ॥ शत्रुष्न 
नाप्यमितवहपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम 
राक्षसो निहतो मधुरा च निवेशिता ॥ १०१॥ 
इत्येवमादतिवहपराक्रमविक्रमणेरतिदुष्टसंहारिणो- 
ऽशेषस्य जगतो निष्पादितस्थितयो रामरदमण- 
भरतश्नरुध्नाः पुनरपि दिवमारूढाः ॥ १० २.॥ 
येऽपि तेषु मगवदंशेष्वनुरागिणः कोसलनगर- 
जानपदास्तेऽपि तन्मनसस्तत्सरोक्यताम- 
वापुः ॥ १०३॥ 


` अतिदुषटसंहारिणो रामस्य इश्ररबौ द्वी पतरौ 
रक्ष्मणस्याङ्गदचन्द्रकेत्‌ तकषष्को भरतस्य 


भीविष्णुपुराम 





[ अ० ¢ 








भिभेकका जैसा मङ्गल हुमा उसका तो सौ वषंभी 
५ * 
वर्णन नहीं कियाजा सकता; तथापि संक्षेपसे 


सुनो ॥ ९८ ॥ 


दङरथ-नन्दन श्रौरामचन्द्रजी, प्रसन्नवदन 
रक्ष्मण, भरतः शत्रुघ्न, विमीषण, सुग्रीव, अङ्गद) 
जाम्बवान्‌ भौर हनुमान्‌ आदिसे छच्-चामरादिद्रार 
सेवित हो, बरह्मा, इन्द्र, अग्नि, यम, निक्त, वरुण, 
वायु, कुवेर ओर ईशान आदि सम्पूणं देवगण, 
वसिष्ठ, वामदेव, वाल्मीकि, साकंण्डेय, विदामित्र, 
भरद्वाज ओर अगस्त्य आदि मुनिजन तथा ऋक्‌, 
यजुः, साम शौर अथवेवेदोसे स्तुति किये जाति हूए 
तथा नृत्य, गीत, वाद्य आदि सम्पूणं मङ्गरूसाम- 
भियोसदहित बीणा, वेणु, खदङ्ग, भेरो, पटह, शद्धः 
काहङू ओर गोमुख आदि बाजोके घोषके साथ 
समस्त राजाओंके मध्यमे सम्पूणं लोकोंकी रक्षके 
लिये विधिपूवंक अभिपिक्त हए । इस प्रकार दशरथः 
कुमार कोसखाधिपति, रघुङ्करतिल क, जानकीवल्लभ, 
तीनों ्राताओके प्रिय श्रीरामचन्द्रनीने सिहासना- 
रूढ होकर ग्यारह हजार वपे रा्य-लञासन 
किया ॥९२९॥ 


भरतजीने भी गन्धर्वखोकको जीतनेके दिये 
आकर युद्धम तीन करोड़ गन्धर्बोक्रा वध किया 


ओर शन्रुष्नजीने भी अतुलित बलश्चारी महपरा- 


कमी मधुपुत्र लवण राक्षलका संहार किया ओौर 
मथुरा नामक नगरकी स्थापना की ॥} १००-१०९॥ 
दस प्रकार -अपने अतिरय बरू-पराक्रमसे महान्‌ 
दुष्टौको नष्ट करनेवले भगवान्‌ राम, छष्ष्मण, 
भरत ओौर शाधरूष्न सम्पूण जगतकौ  यथो- 
चित व्यवस्था कशनेके अनन्तर फिर स्वगंलोकको 
पधारे ॥ १०२ ॥ उनके साथ ही जो अयोध्या- 
निवासी उन भगवरदंशस्वरूपोके अतिश्चय भचुरागी 
थे उन्होने भी तन्मय होनेके कारण साकोक्य-मुक्ति 
प्राप्त कौ || १०३॥ 

दुष्टदलन भगवान्‌ रामके कुश ओर रब नामक 
दो पुत्र हुए । इसी प्रकार रक्ष्मणजीके अङ्गद शौर 


अं० ५ | 


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रतियेरपि निषधः पुत्रोऽभूत्‌ ॥१०५॥ निषधस्या- | उवाह ओर शूरसेन नामक पुत्र हुए ।। १०४ ॥ करके 


प्यनलस्तस्मादपि नमाः नभसः पुण्डरीकस्तत्तनयः 


सेमधन्वा तस्थ च देवानीकस्तस्याप्वदीनकोऽदी- 
नकस्यापि रुरस्तस्य च पारियात्रकः पारियात्र 
कादेवको देवराद्नचरु; वस्याप्युकः उस्काच्च 
वजनाभस्तस्माच्छष्वणस्तस्मादयुषितारवस्ततथ 

विश्वसहो जने ।।१०६॥ तस्माद्विरण्यनामः यो 
महायोगीशवराञ्जेमिनेरिकप्यादयाकतवन्क्यायोगम- 
वाप ॥ १०७} दिरण्यनामस्य पुत्रः पृष्यस्तस्मा- 


प्रगस्तसमाद्पि मर पुत्रोऽमवत्‌। १०८॥ योऽसौ 
योगमास्थाया्यापि कलापग्राममाभ्चित्य तिष्ठति 
॥१०९॥ आगामियुगे ्रयंवंक्षत्प्वत्तयिता 
भविष्यति ॥११०॥ तस्यारमजः प्रसुशरुतस्तस्यापि 
सुसन्धिस्ततश्ाप्यमरषस्तस्थ च सहस्वास्ततशच 
िशवमवः ।॥१११॥ तस्य वृहद्वसः योऽङगुनतन- 
येनाभिमन्युना भारतयुद्ध क्षयमनीयत ॥११२॥। 


एते हवाङ्मूपालाः प्राधान्येन मयेरिताः । 


एतेषां चरितं शृण्वन्‌ सर्वपाप प्रदुच्यते ॥११३॥ 








अतिथिः अतिथिके निषध, निषधके अनल, अनलके 
नभ, नभके पुण्डरीक, पुण्डरीकके क्षेमधन्वा, क्षेम- 
घन्वाके देवानीक, देवानीकके अहीनक, अहीनकके 
सरु, ररुके पारियाच्रक, पारियान्रकके देवर, देवलके 
वश्चल, वश्चछके दट्क, दत्कफे वश््रनाभ, वज्रनाभके 
शङ्कण, शङ्कणके युपिताश्च ओर युपिताश्चके विश्वस्‌ 
नामक पुत्र हज ॥ १०५-१०६ ॥ विश्सहके हिरण्य- 
नाम नामक पुत्र हभ जिसने जैमिनिके शिष्य 
महायोगीरवर याज्ञवल्क्यजोसे योगविदा प्राप्त करी 
थौ | १०७ ॥ हिरण्यनाभका पुत्र पुष्य था) उसका 
धरुवसन्ध, ध्रुवसन्धिका युदसंन, स॒दशंनका अग्नि 
बण, अग्निवणंका सीध्रग तथा ज्ीघ्रगका पुत्र मर 
हुजा जो इस समय मी योगाभ्यास तस्र हुआ 
कलापग्राममे स्थित है ॥ १०८१०९॥ अगामी 
युगम यह सू्ेवंश्ौय कत्रियोका प्वत्तेक होगा 
॥ ११० ॥ मरका पुत्र प्रसुश्रुत, प्रसुश्रुतका सुसन्धि, 
सुसन्धिका अमै, अमपंका सहस्वान्‌, सहस्वान्‌का 
चिश्यभव तथा विक्बभवका पुत्र ब्रहद्वक हृभा 
जिसको भारतीय युद्धम अजनके पुत्र अभिमन्युने 
माराथा॥ १११-११२॥ 


इस प्रकार मैने यह दश्वङ्खक्ृलके प्रधान-प्रधान 


राजाओंका बणैन किया । इनका चरित्र सुननेसे 
मलुभ्य सकल पापोंसे युक्त हो जाता दै ।। ११३ ॥ 


[1 1 ॥ ॥ + न 


इति श्रीविष्णुपुराणे चसु ऽर. चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 


पोँच्वौँ अध्याय 
निमिचरित्र ओर निमिवंश्चका वणैन 


| भरीपराञ्चर उवाच 
इष्वाङवनयो योऽसौ निमिर्नाम सदस वत्सरं 
सत्रमारेमे । १ ॥ वसिष्ठं च होतारं वरयामास 


> ।) तमाह व्िषोऽदमिन््रेण पशववषेशत- 


भीपसश्चरजी बोले--द्ष्वा ङ्का जो निमि 
नामक पुत्र था उसने एक सदस वषभ समाप्त होने- 
वारे यज्ञका आरम्भ किया ॥ १॥ उस यज्ञम रसने 
वसिष्जीको होता वरण क्िया॥२॥ वसि्वजीने 
उससे कहा किं पौच सौ वके यज्ञके ट्यि इन्द्रने 


२०८ लाचिष््घ्ययेदरान्तरफषपर :} 


भरौविष्णुपुराण 


[ अ० ५, 








यागाथं प्रथम वृतः ॥२॥ तदनन्तरं प्रतिषाल्यता- 


मगतस्तवापि ऋलिगूमविप्यामीस्युक्तं स 
पृथिषीपतिनं किशचिदुक्तवान्‌ ॥ ४ ॥ 

वसिष्ठोऽप्यनेन समन्वीप्सितमित्यमरपते- 
यागमकरोत्‌ ॥ ५ ॥ सोऽपि तत्कार एवान्यै- 
गौतिमादिमिर्यागमकरोत्‌ ॥ & ॥ 

समाप्ते चामरपतेरयागे स्वरया वसिष्ठो निमि- 
यच करिष्यामीत्यानगाम्‌ ॥ ७ ॥ तर्कमकपेलं 
च गौतमस्य दृष्ट स्वपते तसमै राज्ञे मां प्रस्या- 
ख्यायैतदनेन गौतमाय कर्मान्तर समितं यस्मा- 
तस्मादयं बिदेहो भविष्यतीति शापं ददो ॥८॥ 
्रबुद्धथासाववनिपतिरपि प्राह ॥ ९ ॥ यस्मान्मा- 
मसम्भाष्याज्ञानत एव शयानस्य शपोर्सग- 
मसौ दुष्टगुरुकार तस्मात्तस्यापि देह; पतिष्य- 
तीति शापं दश्वा देहमत्यजत्‌ ॥ १० ॥ 

तच्छापाच मित्राबरणयोस्तेजसि षधिष्ठस्य 
चतः पर्ष ॥ ११ ॥ उरवशोदर्चनाहधतबीज- 
प्रपातयोस्तयोस्सकाशशाद्रसिष्ठो देदमपरं रेभे 
॥ १२॥ निमेरपि तच्छरीरमतिमनोहरगन्धतैरा- 
दिमिरपसंस्कियमाणं नैव क्छेदादिकं दोषमवाप 
सो मृत इब तस्थौ ॥ १३॥ 

यक्ञसमाघ्नो भागग्रहणाय देषानागतानृतिन 
उशुयंजमानाय वरो दीयतामिति ॥ १४ ॥ 
देवैश्च छन्दितोऽसौ निमिराह ॥१५॥ मगवन्तो- 
ऽखिसंसारदुःखहन्तारः॥ १६॥ न देतादृगन्यद्‌- 





मुश्चे पदे हयी वरण कर छलिया है ॥ ३ ॥ अतः इतने 
समय तुम ठहर जाओ, वहसे आनेपर मँ तुम्दारा 
भी ऋत्विक्‌ हो जारंगा । उनके एसा कहनेपर 
राजमे न्ह कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ ४ ।। 


वसिष्ठजीने यष समन्यकर कि राजाने उनका 
कथन स्वीकार कर ल्या इन्द्रका यज्ञ आरम्भ 
कर दिया ॥ ५ किन्तु यजा निमि मी उसी समय 
गौतमादि अन्य होवाओद्रारा अपना यज्ञ करने 
गे ॥ &॥ 


देवराज इन्द्रका यज्ञ समाप्त होतेही भुश्चे 
निमिका यज्ञ कराना हैः इस विचारसे वसिष्ठजी भी 
तुरंत ही आ गये ॥ ७॥ स यज्ञमे अपना [होताका] 
कर्म गौतमको करते देख उन्दने सोते हए राजा 
निमिको यह्‌ ज्ञाप दिया किं इसने मेरी अवज्ञा 
करके सम्पूणं कमंका भार गौतमको सौपा है इसलिये 
यह्‌ देहहीन हो जायगा" ॥ ८ ॥ सोकर उठनेपर 
राजा निमिने भी कहा--॥ ९ [ “स दुष्ट गुरने 
युक्से बिना बातचीत किये अज्ञानतापूवेक युञ्च 
सोये हुएको स्षाप दिया है, इसख्यि दसका देह भी 
नष्ट हो जायगा} इस प्रकार श्चाप देकर राजाने 


अपना क्चरीर छोड दिया । १०॥ 


राजा निमिके श्ापसे वसिष्ठजीका लिङ्गे 
मिन्रावरुणकै वीयं प्रविष्ट हुजा॥ ११॥ ओर 
उवंशीके देखनेसे उसक्रा वीयं स्खलित होनेपर उसीसे 
उन्होने दूसरा देह धारण किया ॥ १२॥ निमिका 
शरीर भी अति मनोहर गन्ध ओर तैर आदिसे 
सुरक्षित रहनेके कारण गला-सङ्ा नही, बल्कि 
तत्कार मरे हुए देहके समान ही रहा ॥ ९३॥ 

यज्ञ समाप्त होनेपर जव देवगण अपना भाग 


ग्रहण करनेके छथि आये तो उनसे छखिगृगाण बोे 
कि--“4यजमानको बर दीजिये” 1 १४ ॥ देवतार्ओ- 


द्वारा प्रेरणा किये जानेपर राजा निमिने उनसे कहा- 
॥१५॥ “भगवन्‌ ! आपलोग सम्पूण संसार-दुःलको 
र करमेबाछे है ॥ १६ ॥ मेरे विचारभेँ क्षरीर ओौर 


अ० & | 





चतुथं अश्च 








तदहमिच्छामि सकलूलोकलोचनेषु वस्तुं न 
पुनर्शरीरग्रहणं कतु मित्येव ेवैरसावरेषभूता- 
नां नेतरष्ववतारितः ॥ १८॥ ततो भतानयुन्मेष- 
निमेषं चक्रः ॥ १९ ॥ 


अपूप्रस्य च भुजः शरीरमराजकमीरबो 
युनयोऽरण्या ममन्थुः ॥ २० ॥ तत्र च मारो 
जज्ञे ॥ २१॥ जननाजनकसक्ञां चावाप ॥ २२॥ 
अभूद्धदेदीऽस्य पितेति वैदेहः मथनान्मिधिरिति 
॥ २३॥ तस्योदावसुः पुत्रोऽभवत्‌ ।॥ २४॥ उदा- 
बसोनन्दिबद्धनस्ततस्मुकेतुः वस्मादेवरतस्ततशच 
वहदुकथः तस्य च महावीयंस्तस्यापि सुतिः 
॥ २५॥ ततश्च धृष्टकेतुरजायत ॥ २६॥ धृष्ट 
केतोरय॑शवस्तस्य च मयुर्मनोः प्रतिक तस्मा- 
स्छृतरथस्तस्य देवमीढः तस्य च विनुधो विघुधस्य 
महाधृतिस्ततश्च कृतरात; ततो महायेमा तस्य 
सुबणरोमा तत्पुत्रो हस्वरोम। हस्वरोम्णस्सीरभ्वजो- 


ऽभवत्‌ । २७ ॥ तस्य पुत्राथं यजनं कृषतः 
सीरे सीता दुता सथुत्पन्ना ॥ २८ ॥ 


सीरध्वजस्य भ्राता साङ्काश्याधिपतिः 
कुशध्वजनामासीत्‌ ॥ २९॥ सौरभ्वजस्यापस्यं 
भानुमान्‌ मानुमतर्शतदयुम्नः तस्य त॒ शुचिः 
तस्माच्चोजनामा पुत्रौ जज्ञं ॥ २० ॥ तस्यापि 
शतभ्भजः ततः कृतिः कृतेरज्ञनः तदपुत्रः इर- 
जित्‌ ततोऽरिष्नेमिः तस्माच्छुतायुः भुतायुषः 
सुपा; तस्मास्सृञ्यः ततः श्चेमावी ्ेमाविनो- 
ऽनेनाः तस्माद्धौमरथः तस्य सत्यर्थः तस्मादुष- 
गुरुपगोरुपगुप्ः तपतरः स्वागतस्तस्य च स्वा- 


. € 
>+ ~= ~>, ~ ~ ननः, ¬ +ना 








सौर कोड दुःख नदीं हे॥ १७॥ इसलिये ५1 अब 
फिर श्रीर्‌ ग्रहण करना नहीं चता, समस्त खो गोके 
नरम ही बास करना चाहता हु ।'' राजाके एसा 
कह्नेपर देवताओंने उनको समस्त जीवोके ने््रोभें 
अवस्थित कर दिया ॥ १८ ॥ तभौसे प्राणौ निमे. 
घोन्मेष (पर्क खोलना-मूँदना) करने गे ह स 

तदनन्तर अराजकताके भयसरे युनिजनोनि उस 
पुन राजाके क्षरीरको अरणिसे मथा ॥ २० ॥। 
उससे एक मार उत्पन्न हज जो जन्म टेनेके 


कारण (जनकः कहखखाया ।। २१.२२ ॥ इसके पिता 
विदेह ये, इसल्यि यह्‌ "वैदेह कदलाता है, ओर 
मन्थनसे. उत्पन्न ह्योनेके कारण भमिधिः भी कहा 
जाता है ।॥ २३॥ उसके उद्‌ावसु नामक पुत्र हुमा 
॥ २४ ।। उद्ावसुके नन्दिवद्धंनन, नन्विवद्धनके सुकेुः 
सुकेतुके देवरात, देवरातके घ्रहदुक्थ, बह दुक्थके 
महावीय, महावोर्यके सुधृति, सधतिके धृष्टकेतु, 
धृषटकेतुके हयश्च, हर्यन्धके मजु, मचुके प्रतिक, प्रतिक 
के फतरथ, कृतरथकफे देवमीद, देवमीढके तिघयुध, 
बिवयुधके महाधृति, महाधृत्िके कृतर, कुत रातके 
महारोमा, महासोमाके सुबणैरोमा, स॒चणरोमाके 
हस्वरोमा ओौर हस्वरोमाके सीरध्वज नामक पुष्र 
हुभा ॥। २५२७ ॥ वह पु्रकी कामनासे यज्ञमूमि- 
को जोत रहाथा। इसी समय हल्के अग्र भारामे 
उसके खीता नामकी कन्या उत्पन्न हुई ॥ २८ ॥ 


सीरभ्वजका भाई सांकारयनरेद्च छृशभ्वज था 
॥ २९ ॥ सीरध्वजके भानुमान्‌ नामक पुत्र हभा । 
भाजुमान्‌के शतयुम्न, सतद्यम्नके शुचि, श्युचिके ऊजं- 
नामा, ऊजे नामके स्चतध्व ज, शतध्व जके कनि, च तिके 
अन्न, अञ्जनके ऊुरुजित्‌, कुरुजितके भरिनेमि, 
अरि्टनेमिके श्रत्तायु, श्रुतायुके सुपारवं, सुपाहषंके 
खञ्जयःसञ्जयके श्चेमावी, क्षेमावीके नेना, जनेनाके 
मोमरथः,भौमरथके सत्यरथ, सत्यरथके पशु, ठपगुके 
उपात्त, उपगुप्त स्वागत; स्वागते स्वानन्ब्‌, 


नाभ द, „क दो षन 





२ ९ © | अ० 


ना नाजिम 


------“---------------`-----_-_-___`````````_`_`_`_`_____`_`_`_`_`_`_`_`_`_`_`_________ 


सुभाषः तस्य सुश्रुतः तस्मात्सु्रुताञ्जयः तस्य 
पुत्रो विजयो विजयस्य तः ऋतास्ुनयः 
सुनयाद्री तव्यः तस्मादुधरतिषैतेबंहुराश्चः तस्य 
पुत्रः कृतिः ॥ ३१॥ कृतौ संतिषठतेऽयं जनकवशः 
॥ ३२ ॥ इत्येते मैथिलाः ॥ ३३॥ प्रायेणैते 
जरमविधयाश्रयिणो भूपाला भवन्ति ॥ ३४॥ 


सुमाषके सुश्रत, सुश्रुतके जय, जयके विजय, विजयके 
रत, ऋतके सुनय, सुनयके वीत्य, वौतहभ्यके 
धृति, धृतिके बहुकाश्च भौर बहुलाश्चके कृति नामक 
पुत्र हुआ ॥ ३०-३१॥ कृतिम हौ इस जनकवंङञकी 
समासि हो जाती दहै ३२९॥ येही मेथिरभूषाल- 
गण है| २३॥ प्रायःये सभी राजारोग आत्म- 
विद्याको आश्रय देनेवाठे होते ह ॥ ३४ ॥ 


"+" 


दति श्रौ विष्णुपुराणे चतुथे ऽसे पच्चमोऽभ्यायः | ५ ॥ 


=~--क॑न्ज्केने- ~ 


टा अध्यय 
सोमवंदाका चणेन, चन्द्रमा, बुध सौर पुरूरवाका चरितं 


श्रीमैत्रेय उवाच 
पूयस्य वंहया मगवन्कथिता भवता मम । 
सोमस्याप्यसिलान्वंश्याज्छोतुमिच्छामि पार्थिवान्‌ 
करीत्य॑ते स्थिरकीतीनां येषामपि सन्ततिः । 
प्रसादसुयुलस्तान्मे ब्मनाख्यातमर॑सि ॥ २॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 


१4 ¢ ५ 
भरुयतां शनिशादृल वंशः प्रथिततेजसः । 
सोमस्यानुक्रमार्ल्याता यत्रोवीपतयोऽमघन्‌ | ३॥ 


अयं हि वंशोऽतिवहपराक्रमदयुतिशीखवे्ट- | 


मद्धिरतिगुणान्वितैनंहुषययातिकातेवीयाजनादि- 
मिर्भपारैरलद्कृतस्तमहं कथयामि भरूयताम्‌॥४॥ 


अखिहजगत्सषटर्मगवतो नारायणस्य नामि- 
सरोजपरुद्धवान्जयोनेत्रह्मणः पूत्रोऽत्रिः ॥ ५ ॥ 
अत्रस्तोमः ॥ ६ ॥ तं च. मगवानन्नयोनिः 
अशषौषधिद्िजनकषतराणामाधिपत्येऽभ्यपेचयत्‌।।७॥ 
स च राजष्वयमकरोत्‌ ॥ ८ ॥ तस्मावादल्यु- 
स्ृष्टाधिपत्याधिष्ठाुत्वाच्चैनं मद्‌ आविवेश ॥९॥ 
ग्रलायञवान्च अकशरवपारोर्दनरस्यते तामः चाम 








श्रीभेभेयजी षोक्े-मगवन्‌ ! आपने सूय॑वञ्ञीय 
राजामोका व्णैन तो कर दिया, अव मै सस्पूणे चन्द्र 
वं्ञीय भूपतियोंका वृत्तान्त भी सुनना चाहता द । 
जिन स्थिरकीरतिं महाराजोकी सन्ततिका यञ्च भाज 
भी गान किया जाता दै, हे ब्रह्मन्‌ ! प्रसन्न-सुखसे 
आप खन्हीका बणेन सुद्यसे कीजिये ॥ १-२॥ 


ीपराद्ारनी बोक्े-दे स॒निसादृंख ! परमः 
तेजस्वी चन्द्रमाके वश्ञका क्रमश्च श्रवण करो जिसमें 
अनेकों विख्यात राजा छोग हृष ह ॥ ३॥ 


यह्‌ वंशच नहुष, ययाति, कातेवीयं भौर अजन 
आदि अनेकों अति वरू-पराक्रमशीक, कान्तिमान्‌) 
क्रियावान्‌ भौर सदगुणसम्पन्न राजार्भोसे अठंकृत 
हुआ है । सुनो, तँ उसका वणेन करता हं 1 ४ ॥ 


सम्पूण जगतके रचयिता भगवान्‌ नारायणके 
नाभि-कमर्से उस्पन्न हए भगवान्‌ ब्रह्माजीके पुत्र 
अत्रि प्रजापति ये।॥ ५॥ इन अत्रिके पुत्र चन्द्रमाह्‌ 
॥ ६ ॥ कमङयोनि भगवान्‌ बरह्माजीने उह सम्पूणं 
भोषधि, द्विजजन ओर नक्षत्रगणके आधिपस्यपर 
अभिषिक्त कर दिया थ! ॥७॥ चन्द्रमाने राजसूययज्ञ- 
का अनुष्ठान किया ॥ ८ ॥ अपने प्रभाव ओर अति 
उल्छृष्ट आधिपश्यके अधिकारी होनेसे चन्द्रमापर 


 राजमद सकार हा ॥९॥ तब मदोन्मत्त हौ जानेके 


~~ द्यये --त >-1ओं कक ष्ा्धअरवान अहस्‌ तिज 


अ० ६ | 


¢ ९ 
नव) ज ० ४4 5 4. चतुथ अत्र 


२११ 








पत्नीं जहार ॥ १० ॥ बहुशश्च बृहस्पतिचोदि- 
तेन भगवता ब्रह्मणा चोध्मानः सकरेथ देवरषि- 
भिर्याच्यमानोऽपि न युमोच ॥ ११॥ 

तस्य चन्द्रस्य च बृहस्पतर्ेषादुश्चना पाष्णि- 
ग्रहोऽभूत्‌ ।॥ १२॥ अद्धिरसश्च सकाच्चादुपलन्ध- 
विद्यो भगवान्र वृहस्पतेः साहाय्यमकरोत्‌। १३। 
 यत्रो्चना ततो जम्भङम्भाद्या;ः समस्ता 
एव देत्यदानवनिकाया महान्तयुचमं चक्रुः १४। 
बृहस्पतेरपि सकरुदेषसैन्ययुतः सहायः शक्रो- 
ऽभवत्‌ ॥ १५ ॥ एवं च तयोरतीषोग्रसग्राम- 





स्तारानिमित्तस्तारकामयो नामाभूत्‌ ॥ १६ ॥ | 


ततश्च समस्तशषस्राण्यसुरेषु शद्रपुरोगमा देवा 
देवेषु चाशेषदानवा युचः ॥ १७ ॥ एवं देवा- 
सुरादवसक्षोभक्षुम्धहृदयमशेषमेव जगदुत्रह्माणं 
शरणं जगाम ॥१८॥। ततश्च भगवानम्जयोनिर- 
पयुशनसं शङ्कगमपुरान्देवांश्च निवायं बृहस्पतये 
तारामदापयत्‌ ॥ १९ ॥ तां चान्तःप्रसवामव- 
लोकय बृहस्पतिरप्याह ॥ २०॥ नैष ममक 
मवत्यान्यस्य सुतो धाय॑स्सथ्सयृजैनमलमलमति- 
धाष्चनेति ॥ २१ ॥ 


सा चतेनैवयुक्तातिपतिवता मतुं बचना- 
नन्तरं तमिषीकास्तम्मे गरभ॑ुत्ससजं ॥२२॥ स 
चोस्सृष्टमात एवातितेजसा देवानां तेजांस्ाचि- 
प ॥२२॥ बृहस्पतिमिन्दु च तस्य कुमारस्या- 
तिचारुतया साभिाषो चष्ट देवास्समुस्पन्नसन्दे- 
हास्तारां पप्रच्छः ।। २४॥ सत्यं कथयास्माक- 


न न श्रा ५ ष्क 





जीकी भाय ताराको हरण कर लिया ॥ १०॥ तथा 
बरहस्पतिजीकी प्ररणासे भगवान्‌ ब्रह्माजीफे वहत कुछ 
कहने-सुनने ओर देवर्षियोके मगनेपर मी च्सेन 
छोड़ा ॥ ११॥ 

बरहस्पतिजीसे हेष करनेके कारण शुक्रजी भी 
चन्द्रमाके सहायक हो गये ओर अङ्धिरासे विद्या-राभ 
करनेके कारण भगवान्‌ रृद्रने ब्रह्टस्पतिकी सहायता की 
[ क्योकि शरहस्पतिजी अङ्किराके पुत्र है ]॥ १२-१२॥ 

जिस पक्षमे जुक्रजी ये उस ओरसे जम्भ ओर 
कुम्भ आदि समस्त दैव्य-दानबादिने भी [ सहायता 
देनेमे ] बद्धा खय्योग किया ॥ १४॥ तथां सकल 
देव-सेनाके सहित इन्द्र बुहस्पतिजीके सहायक 
हुए ।१५॥ इस प्रकार ताराके लिये उनमें तारकामय 
नामक अत्यन्त घोर युद्ध छिड गया ॥ १६॥ तव 
सुद्र भादि देवगण दानवोके प्रति ओौर दानवगण 
देवताओंके प्रति नाना भरकारके शख छोडने छगे।९५। 
इस प्रकार देवासुर-संग्रामसे क्षुग्ध-चित्त हौ सम्पूणं 
संसारने ब्रह्माजीकी शरण छी | १८] तब भगवान्‌ 
कमङनयोनिने भी शुक्र, सद्र, दानव भौर देवगणको 
युद्धसे निवृत्त कर बहस्पतिजीको तारा दिख्वा दी 
। १९ ॥ छसे ग्िणी देखकर ब्रहसतिजीने कहा- 
॥ २०॥ “मेरे कषेत्रम तुद्चको दृखरेका पुत्र धारण 
करना चचित नदीं है; इसे दूर कर, अधिक धृष्टता 
करना ठीक नर्हीः' ।। २१॥ 


बरृहस्पतिजीके एेसा कदनेपर उस पतिव्रतानि पतिक 
वचनानुसार वह गभ इषीकास्तम्ब ( सीककी स्ञाड़ ) 
म छोड़ दिया ॥ २२॥ उस छोड़ हए गने अपने 
तेजसे समस्त देवताओके तेजको मलिन कर दिया 
॥ २३ ॥ तदनन्तर उस बालककी सुन्दरताके कारण 
ब्रहस्पति ओौर चन्द्रमा दोनोको उसे छेनेफे लिये दत्सु 
देख देवताओने सन्देह हो जानेके कारण तारासे पृष्टा 
। २४ ॥ “हे सुभगे ! तू हमको सच-सच बता, यह 


9 के $ 








इति ॥ २५ ॥ एवं तैरुक्ता सा तारा हिया श्षिञचि- 
न्नोवाच ॥२६॥ बहुशोऽप्यमिदिता यदासौ 
देवेभ्यो नाचचक्षे ततस्स कुमारस्तां रप्तुयुवतः 
प्राह ॥२७॥ दुषटेऽम्ब कस्मान्मम तातं नाख्यासि 
॥ २८ ॥ अघ्रैव ते व्यरीकर्ञावस्या- 


स्तथा श्ास्तिमहं करोमि॥ २९॥ यथा च 
मैवमच्ाप्यतिमन्थरचना भविष्यसीति ॥२०॥ 
अथ भगवान्‌ पितामहः तं मारं सन्नि 
वायं स्वयमपृच्छततां ताराम्‌ ॥ ३१ ॥ कथय 
वत्से कस्यायमात्मजः सोमस्य वा वृहस्पतेवां 
इस्युक्ता लउ्जमानाह सोमस्येति ॥ ३२॥ ततः 
परस्फुरदुच्छबसितामरकपोलक्ान्तिभगवानुड्पतिः 
कुमारमालिङ्गय साधु साधु वरस प्र्तोऽसीति 
बुध इति तस्य च नाम चक्रं ॥ ३२ ॥ 
तदाख्यातमेवैतत्‌ स चे यथेहायामात्मजं 
पुरूखसलयादयामास ॥ ३४ ॥ पुरूरवास्त्वति- 
दानश्ीोऽतियञ्वातितेजस्वो । यं सत्यवादिनः 
मतिरूपवन्तं मनस्विनं मित्रावरुणशापान्मानुषे 
लोक्े मया वस्तव्यमिति कृतमतिस्तव॑शी ददश 
॥ ३९ ॥! दृष्टमात्रे च तस्मित्नपहाय मानमशषेषम- 
वास्य खर्गसुखाभिहापं तन्मनस्का भूत्वा तमेबो- 
पतस्थे ३६॥ सोऽपि च तामतिशयितसकर- 
लोकस्चीकान्तिसौकुमायंलावण्यगतिविलासष्ासा- 
दिगुणामबलोक्य तदायत्तचित्तशृतिवंभूव ॥ २७॥ 
उभयमपि तन्मनस्कमनन्यदष्टि परित्यक्त 
समस्तान्यप्रयोजनमभूत्‌।॥ ३८ ॥ 


राजा त॒ प्रागलम्यात्तामाह ॥ ३९ ॥ सुप्र 


स्वामहपभिकामोऽसिमि प्रसीदानुरागगुद्रहलयुक्ता 


लजावखण्डितप्वंशी तं प्राह ॥ ४०॥ 











उनके एेसा कहनेपर्‌ ताराने खलनावरा छु भी न कहा 
॥ २६॥ जव बहुत कुछ कहूनेपर भी वह्‌ देषताओंसे 
न बोी तो बह बालक उसे शाप देने लिये उद्यत 
होकर वोखा-॥ २७॥ “अरीदुष्टा माँ ।तू मेरे पिता- 
का नाम क्यों नहीं वतङाती ¶ तुश्च व्यथं लल्नाबतीकी नै 
अभी ेसी गति करूंगा जिससे तू आजसे ही इस प्रकार 
अव्यन्त धीरे-धीरे बोखना भूख जावेगीः' ॥२८-३०॥ 

तदनन्तर पितामह श्रीब्रह्माजीने उस बाख्कको 
रोककर तारसे स्वयं ही पूछा ॥ ३१॥ बेदी | 
टीक-ठीक बता यह्‌ पुत्र किसका है-न्हस्पतिका 
या चन्द्रमाफा १ इसपर उसने छलजापूवेक का, 
““चन्द्रमाका" ॥ ३२॥ तब तो नक्षत्रपत्ति भगवान्‌ 
चन्द्रने उस बालकृको हृदयसे रगाकर कहा--“बहूत 
ठीक, बहुत ठीक, बेटा ! तुम बड़े बुद्धिमान्‌ होः" 
ओर उसका नाम शुध रख दिया । इस समय उनके 
निमंङ कपोखौको कान्ति उच्छू सित अर देदीप्य- 
मानदो रही थी ॥३३॥ 

बुधने जिस प्रकार इषासे अपते पुत्र पुरूरवाको 
उत्पन्न किया था उसका बणेन परे दी कर चुके 
ह ।। ३४ ।। पुरूरवा अति दानक्षोक, अति याज्ञिक 
सौर अति तेजस्वी था । भित्रावरुणके श्ापसे युश 
म्य॑लोकमें रहना पड़ेगा पेसा विचार करते हूए 
ठवंरी अप्ससाकी दृष्टि उस अति सत्यवादी, रूपके 
धनी ओर मतिमान्‌ साजा पुरूरवापर पड़ी ॥ ३५॥ 
देखते दी बह सम्पूणं मान तथा स्वगं-सुखकी इच्छा 
को छोड़कर तन्मयभावसे उसीके पास आयौ ॥२६॥ 
राजा पुरूरबाका चित्त भी चसे संसारकी समस्त 
खियोमे चिरि तथा कान्ति-सुक्कमारता, सुन्दरता, 
गतिविलास भौर सुसकान आदि गुणोसे युक्त दैख- 
कर उसके वज्ञीभूत हो गया ॥ २७॥ इस प्रकार 
वे दोनों ही परस्पर तन्मय ओौर भनन्यचित्त होकर 
ओर सव का्मोको.भूल गये ॥ ३८॥ 


निदान राजाने निभसंकोच होकर कहा-।॥३९॥ 
हे सुभ्रु! मेँ वुम्दारौ इच्छा करता ह तुम प्रसन्न 
होकर सुनने प्रेम-दान दो |” राजाके पेखा कहनेपर 


र्वश्ञोने भी रल्नावस् स्खङित स्वरम कदा-॥४०॥ 


. ४ « 
अ० ६] -रूमन्ूति गुर्ल्खयलनो चतुथं अञ्च 


३१३ 





भवसेवं यदि मे समयपरिपारनं भवाय्‌ करोती- | “यदि आप मेरी प्तिज्ञाको निभा सके तो अवश्य 


त्याख्याते पुनरपि तामाह ॥ ४१ ॥ आख्याहि 
मे समयमिति ॥ ४२ ॥ अथ परश पनरप्य- 
मीत्‌ ॥ ४३ ॥ शयनसमीपे ममोरणकदयं 
त्रभूतं नापनेयम्‌ ॥ ४४ ॥ भवां मयान 
नग्नो द्रष्टव्यः ।॥ ४५ || घ्रतमात्रं च ममादार 
इति ॥ ४६ ॥ एवमेवेति भूपतिरप्याह ॥ ४७ ॥ 

तया सदह स चावनिपतिररुकायां चैत्ररथादि- 
वनेष्वमलप्म खण्डेषु मानसादिसरस्स्वतिरमणी- 
येषु रममाणः पटिवषैसदस्ताण्यनुदिनप्रवद्धमान- 
प्रमोदोऽनयत्‌ ॥ ४८ ॥ उर्वशी च तदुप 
मोगासतिदिनग्रबद्धमानानुरागा अमरोक- 
वासेऽपि न स्पृहां चकार ॥ ४९ ॥ 

पिना चोवंश्या सुरलोकोऽष्सरसां सिद्ध- 


गन्धर्वाणां च नातिरमणीयोऽमवत्‌ ॥ ५० ॥ 


ततक्वोरवशषीपरूरवसोस्समयविदिश्वावसुगन्धवसम- 


वेतो निशि शयनाभ्याशादेकष्ुरणकं जहार 
॥ ५१ ॥ तस्याकाशे नीयमानस्योवंशी शष्दम्‌- 
शृणोत्‌ ॥ ५२ ॥ एवयुवाच च ममानाथायाः 
पत्रः केनापरहियते कं श्रणमुपयामोति ॥ ५३ ॥ 
तद्‌कण्यं राजा मां नग्नं देवी वीदंयतीति न 
ययौ ॥ ५४ ॥ अथास्यमप्युरणकमादाय गन्धर्वा 
ययुः ॥ ५५ ॥ तस्याप्यपहियमाणस्याकण्यं 
शब्दमाकाशे पुनरप्यनाथास्म्यदममत्‌ का 
कापुरुषाश्येत्यासराविणी बभूव ॥ ५६ ॥ 
राजाप्यमषवकादन्धकारमेतदिति खद्ग- 


११) नत न ठतो पोति उयाटरपनभ्यश्चातत 


एेसा ही हो सकता है ॥› यह्‌ सुनकर राजने कहा- 
॥ ४१॥ अच्छा, तुम अपनी प्रतिज्ञा युद्चसे कहो 
॥ ४२ ॥ इस प्रकार पूछनेपर वह्‌ फिर बोरी-। ४३॥ 


“मेरे पुत्ररूप इन दो मेषश्ञिद्युजंको आप कभी मेरी 
राय्यासे दूर न कर सकेंगे ॥ ४ ॥ मै कभी अापको 
नग्न न देखने पाड॥ ४५॥ भौर केवर घृत मेराह्यी 
आहार होगा-- [ यहौ मेरी तीन प्रतिज्ञाय है] 
॥| ४६॥ तव राजाने का~ दसा ही होगा  ॥ ४७॥ 


तदनन्तर राजञा पुषरूरवने दिन-दिन बदृते हुए 
भानन्दके साथ कभी अछकापुरीके अन्तगंत चैत्ररथ 
आदि वनौमे ओौर कभी सुन्दर पद्मखण्डोसे युक्त अति 
रमणीय मानसर आदि सरोवरे विहार करते हुए 
साठ हजार वषं चित्ता दिये ॥ ४८ ॥ उसके उपभोग- 
सुखसे प्रतिदिन अनुरागके बदृते रहनेसे उवंशीको 
भी देवोकमें रहनेको इच्छा नदीं रही \। ४९॥ 


इधर, उवंश्चीके विना अप्सराभो, सिद्धो भौर 
गन्धर्वोको स्वगेलोक्‌ अस्यन्तं रमणोय नहीं मादू 
होता था॥५०॥ अतः उवंज्ञी ओौर पुरूरवाकौ प्रतिज्ञा- 
के जाननेवाठे बिश्वावसुने एक दिनि रात्रिक समय 
गन्धर्वोकिं साथ जाकर उसके रायनागारके पाससे एक 
मेषका हरण कर छिया ॥ ५१ ॥ उसे आकाशम ठे 
जाते समय उवंश्चीने उसका शब्द्‌ सुना । ५२ ॥। तथ 
वह्‌ बोलो-“भुक्च अनाथाके पुत्रको कौम छ्य जाता 
है, अब मँ किसकी चरण जा १, ॥ ५३॥ किन्तु 
यदह सुनकर भी इस भयसे, करि रानी सञ्च नंगा देख 
ठेगी, राजा नही उठा ॥ ५४ ॥। तदनन्तर गन्धवेगण 
दसरा भी मेष ठेकर चछ दिये ॥ ५५॥ उसे छे जाते 
समय उसका शब्द सुनकर मी उवी ष्टाय ! मै 
अनाथा ओर भृहीना हँ तथा एके कायरके अधीन 
हो गयी दँ ।' इस प्रकार कहती हृ बह आत्तेस्वरसे 
विललाप करने गी ॥ ५६ ॥ 

तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार 
हे [ अतः रान शुचे नग्न न देख सकेगी ] क्रोधपूवेक 
८. घ्र याराग "यह हते हप तलव्‌ारटेकर 


२३१४ 


¢ 


भ्रीदिष्णुपुराण 


[ अ० ६ 








॥ ५७ ॥ ताध गन्धर्वेरप्यतीदोज्ज्वला विघु- 
निता ॥ ५८ ॥ तसरभया चोवंशी राजानम- 
पगत।म्बरं दृषटपरत्तप्षमया तत्षणादेवापक्रान्ता 
॥ ५९ ॥ परित्यज्य तावप्युरणको गन्धर्वा 
स्मुररोकटुपागताः ॥ &° ॥ रजापि च तौ 
सेषावादायातिहृ्टमनाः स्वशयनमायातो नोर्धशीं 
ददशं ।॥ ६१॥ तां चापरयन्‌ पपगताम्बर एवो- 
ल्मत्तरूपो बभ्राम ॥६२॥ ुरभेत्रे वाम्भोजसरस्य- 
न्यामिशतस्ुभिरप्सरोभिस्समवेताषु््ौ ददं 
॥ ६२ ॥ ततशरोन्मत्तरूपो जाये है तिष्ट मनसि 


घोरे ति वचसि कपटिक एिषटत्येवमनेकम्रकार 


घक्तमवोचत्‌ ॥ ६४ ॥ 
आह वो्व॑शी ॥ ६५ ॥ महाराजारमनेना- 

पिवेकचेष्टितेन ॥ ६६ ॥ अन्त्रन्यहम्दान्ते 
भवतात्रागन्तव्यं कुमारस्ते भविष्यति एकां च 
निशामहं सया सह वस्स्यामीत्युक्तः प्र्टस्स्वपुरं 
जगाम ॥ ६७ ॥ 

तासां चाप्रसाधुव॑स्ची कथयामास ॥ ६८॥ 
अयं स पुरुषोृषटो येनादमेतावन्तं कार- 
मनुरागाकृष्टमानसा सहोषितेति ॥ ६९ ॥ एव- 
यक्तास्ताशाप्सरस उचुः ॥ ७०॥ साधु साध्वस्य 
रूपमप्यनेन सहास्माकमपि स्व॑कालमास्या 
भवेदिति ॥ ७१॥ | 

अब्दे च पूर्णं स राजा तजाजगाम ॥ ७२॥ 
कुमारं चायुषमस्मै चोवंशौ ददौ ॥ ७२ ॥ दन्ना 
चेकां निशां तेन राज्ञा सदोषितना प्च पुप्रो- 
त्पत्तये गभ॑मवाप ॥ ७४॥ उवाचैनं राजानमस्म- 
सपरीत्या महाराजाय सर्वं एव गन्धर्वा वरदा- 











पीछे दौड़ा ॥ ५७॥ दसौ समय गन्धर्वोनि अति 
खउऽवछ विद्युत्‌ प्रकट कर दी }} ५८ | उसके प्रकाश्चमें 
राज्ञ[को वखहीन देखकर प्रतिज्ञा टूट जानेसे उवंश्षी 
तुस्ती वहसे चो गयी ॥५९॥ गन्धवेगण 
भी उन मेपोको वहीं छोड़कर स्वगंलोकमे चले गये 
॥ ६० ॥ किन्तु जवर राज उन मेषरोँको घि हुए भति 
प्रसन्नचित्तसे अपने क्चयनागारमे आयातो वर्ह 
उसने उवंञ्ौको न देना ।॥ ६१ ॥ उसे न देखनेसे वह्‌ 
ठस वखहीन-अवस्थामे हौ पागलकै समान घूमने 
खगा ॥ ६२॥ घूमते-घूमते उसने एक दिन करकषे्े 
कमरु-सरोवरमें अन्य चार अप्सराभओके सहित 
उवंज्ञोको देखा ॥ ६३ ॥ उसे देखकर वह्‌ उन्मत्तक 
समान षदे जाये | ठहर, अरी हृदयकी निष्टुरे ¦ खड़ी 
हो जा, अरौ कपट रखनेवारी! बा्ताललापके 
ल्यि तनिक ठहर जा-एेसे अनेकं वचन कहने 
खगा । &४॥ 

उवंशी बोरी- “महाराज ! इन अज्ञामियोकी-सी 
चेष्टाओंसे कोई छाभ नहीं ॥ ६५.६६ ॥ इस समय 
मै गभेवती हर । एक वपं उपरान्त आप यहीं आ जाव, 
खस समय आपके एक पुत्र होगा ओौर एक रातये 
भी आपके साथ रहँगी | उवंश्ञीके देखा कहनेपर 
राजा पुरूरवा प्रसन्न-चित्तसे अपने नगरको चला 
गया 1 ६५ ॥ 


तदनन्तर उवश्रीने अन्य अप्सरयाओंसे कदा-- 
॥ ६८ ॥ "ये बही पुरुषश्रेष्ठ दँ जिनके साथ मँ इतने 
दिनोतक प्रेमाषृष्ट-चित्तसे भूमण्डले रदी थी, 
॥ ६९ ॥ दरसपर न्य अप्सरा्ओनि कहा-\। ७० ॥ 
“वाह । वाह ! सचमुच इनका रूप बड़ा ही मनो- 
हर है, इनके साथतो सवदा हमारा भी सहवास 
हो" | ५१ ॥ 
[भि किप [1 
वपं समाप्र होनेपर राजा पुरूरवा वहाँ आये 
॥ ७२ ॥ उस समय ठवंशञोने उन्हे आयुः नामक एक 
बाख्क दिया ॥ ७२ ॥ तथा उनके साथ एक रात 
(4 £ 
रहकर पाच पुत्र उतपन्न करनेके लियि गभे धारण 
किया ७४ ॥ भौर कहा-हमारे पारस्परिक स्नेहके 
कारण सक्त गन्धवंगण म्‌ 1राजको वरदान देना 


अ० ६ | 


6 
चतुथं अश्च २१५ 








आह च राजा ॥ ७६ ॥ विजितसकला- 
रातिरविदतेन्दरियसामर््यो बन्धुमानमितबर- 
फोशोऽस्मि, नान्यदरमाकघुवंशीसारोक्यासर्- 
ग्यमस्ति तदहमनया सदोवंश्या कां नेत॒म- 


भिहपामीसयुक्त गन्धर्वा राज्ञेऽग्निस्थालछी द्रुः 


॥ ७७ ॥ उचुधैनमग्निमाम्नायानुसारी भला 
तरिधा कृत्वोवंशीसरोकतामनोरथश्ुदिदय सम्य- 
ग्यजेथाः ततोऽवद्यममिरुरितमवाप्स्यसीत्युक्त- 
स्तामग्निस्थालीमादाय जगाम ॥ ७८ ॥\. 
अन्तरटग्यामचिन्तयत्‌ अहो मेऽतीव 
भूढता किमहमकरवम्‌ ॥ ७९ ॥ वहिस्थाही 


मयैषानीता नोति ॥ ८० ॥ अथैनामट- 


व्यामेवाग्निस्थाहीं तत्याज स्वपुरं च 
जगाम ॥ ८१ ॥ व्यतीतेऽद्रात्रे विनिद्रथा- 
चिन्तयत्‌ ॥ ८२ ॥ ममोवंशीसारोक्यप्ाप्तयथे- 
मभनिस्थारी गन्धदा सा च मयारव्यां परित्यक्ता 
॥ ८३॥ तदं तत्र॒ तदाहरणाय यास्यामीस्यु- 
त्थाय तत्राप्युषगतो नाग्निस्थालीमपदयत्‌ 
॥ ८४ ॥ कमीगभं चाश्वत्थमग्नस्थाङीस्थाने 
टषटराचिन्तयत्‌ ॥ ८५॥ मयात्राग्निस्थाटी 
निक्षिप्ता सा चाश्वत्थररमीगर्भोऽभूत्‌ ॥ ८६ ॥ 
तदेनमेवाहमगिनिरूपमादाय स्वपुरममिगभ्यारणि 
करता तदुत्यत्नाग्नरुपास्ति करिष्यामीति ॥८७॥ 

एवमेव स्वपुरमभिगस्यारणि चकार ॥८८॥ 


तत्प्रमाणं चाङ्गः इवंन्‌ गायत्रीमपठत्‌ ॥८९॥ 


१ [षो 





राजा बोङे-मैने समस्त श्रुभोको जीत लिया 
है, मेरी इन्दरियोकी सामथ्यं नष्ट नहीं ह है, मै बन्धु- 
जन, असंख्य सेना ओर कोरासे भी सम्पन्न, इस 
समय उवंक्ञीके सहवासके अतिरिक्त युश्चे भौर कुछ 
भी प्राप्रभ्य नहीं है। अत्तः इस उवेशीके साथ दही 
काछ-यापन करना चादहृतता हूं ।'' राजाके एसा कहने. 
पर गन्धर्षेनि उन्हं एक अस्थाद ( अभियुक्त पात्र) 
दी ओर कहा-- “इस अग्निक वेदिक विधिसे 
गाहपत्य, आहवनीय जौर्‌ दश्िणाग्निरूप तीन भाग 
करके दसम उचंशीकं सहवासकी कामनासे भरीर्भति 
यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्रात्र 
कर लोगे ।'” गन्धर्बोकि एसा कहनेपर राजा उस 
अग्निस्थारीको ठेकर चछ दिये । ७६-५७८ ॥ 

[ मागमे ] बनके अंदर उन्होने सोचा- 
अहो ! यै कैसा मूख र १ ने यह्‌ क्या किया जोइस 
अग्निस्थालीको तो रे आया ओौर उवंश्ीको नदीं 
छायाः ॥ ७९-८० ॥ देस सोचकर दस अग्निस्थाली- 
को वनमे ही छोडकर वे अपने नगरमे चले अये 
।॥ ८१ ॥ आधी रात बीत जानेके बाद्‌ निद्र दूटनेपर 
राजाने सोचा ॥८२॥ “उवे श्रीकी सन्निधि प्राप्र 
करनेके लि ही गन्धवति मश्चे बह अग्निस्थाली दी 
भरी ओौर मैने उसे बमम हौ छोड़ दिया ॥ ८३॥ 
भतः अब सुश्च उसे रानेक लिये जाना चाहिये" पेसा 
सोच चठकर वे वह गये, किन्तु उन्होने उस स्थारो- 
को वहम न देखा ॥ ८४ ॥ अग्निस्थाल्लीके स्थानपर 
राजा पुूरवाने एक समीगभं पौपलके बृक्षको देखकर 
सोचा-॥८५॥ शरै यदीं तो बह अग्निस्थालौ फको 
थी। वह स्थाढी ही श्चमीगभं पीपल हो गयी है 
॥ ८६ ॥ अतः इस अग्निरूप अश्वत्थको हौ अपने 
नगरमे छे जाक्रर इसको अरणि बनाकर उससे 
उद्पन्न हर अग्निकौ ही उपासना करू ।॥ <७ ॥ 

रेखा सोचकर राज्ञा उस अश्वस्थको ठेकर 
अपते नगरम जये ओर उसकी अरणि बनायी 
|| ८८ ॥ तदनन्तर उन्दने उस काष्ठको एक-एक 
अंशुल करके गायत्री-मन्त्रका पाठ किया ॥ ८९ ॥ 
ठसकरे पाठसे गायत्रोकौ अक्षर-संख्याके बराबर एक- 


२१६ करगे. तव्य णसिनुः। भ्रीविष्णुपुराणे 











तत्राग्नि नि्मध्यागित्रयमाम्नायाचुसारी भूता 
जुहाव ॥ ९१ ॥ उवंशीसालोकयं फएलमभिसंहि- 
तवान्‌ ॥ ९२ ॥ तेनैष चाग्निविधिना बहुविधान्‌ 
यज्ञानिष्टा गान्धर््ोकानवाप्योर्वद्या सहा- 
वियोगमबाप ॥ ९३ ॥ एकोऽग्निरादावमवद्‌ 
एकेन सवत्र मन्वन्तरे तरेषा प्रवतिंताः ॥ ९४ ॥ 


उनके मन्थनसे तीनों प्रकारके अग्नियोंको उत्पन्न कर 
उनम वैदिक विधिसे हवन किया। ९१॥ तथा 
४५ कम [8 

उदंशीकं सहवासख्प फलको दृच्छा की॥९२॥) 
तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकारके यज्ञोका यजन 
करते हुए उन्होने गन्धवे-खोक प्राप्र किया ओर फिर 
खवंशीसे उनका वियोग न हु ॥ ९३ ॥ पूवंकाक 
मे एकदहीअभ्निथा, उस एकदीसे दस मन्वन्तरमें 
तीन प्रकारके अग्नियोका प्रचार हुआ ॥ ९४ ॥ 


= कवी 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुथं ऽश षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ 


==००११११.(९/२./४./२) ^ 8६१५० -- ~ 


सातवौँ अध्याय 
आद्धका गङ्गापान तथा जमदग्नि ओर चिग्वामित्रकी उत्पत्ति 


श्रीपसाश्लर उवाच 


तस्याप्यायुधीमानमावसुर्विश्वावरः भ्रुतायु- 
ईशतायुरयु तायुरितिसंज्ञाः षट्‌ पुत्रा अभवन्‌ ॥१॥। 
तेथामावसोमीमनामा पुत्रोऽभवत्‌ ॥२॥ भीमस्य 
कश्चनः काश्चनात्सुहोत्र; तस्यापि जहुः ॥ ३॥ 
योऽसौ यक्ञवादमलिरं गङ्गाम्भसा श्षादितम- 
बलोक्य करोधसंरक्तलोचनो भगवन्तं यज्ञपुरुष- 
मात्मनि परमेण समाधिना समारोप्यासिलामेव 
गङ्गामपिवत्‌ ॥ ४ ॥ अथैनं देवर्षयः प्रसाद- 
यामासुः ॥५॥ दुहितृत्वे चास्य गङ्गामनयन्‌ ॥६॥ 


जहो सुमन्तु्नाम पूत्रोऽमवत्‌ ॥ ७ ॥ 
तस्याप्यजकस्ततो बलाकाश्वस्तस्माुशस्त- 
स्यापि कृशाम्बहुदानाभाधूतत॑रजसो वमुश्चेति 
चत्वारः पुत्रा बभूवुः ॥ ८ ॥ तेषां इशाम्बः 
शक्रतुल्यो मे पुत्रो भवेदिति तपथफार ॥ ९॥ 
तं चोग्रतपसमवलोक्य मा भवत्वन्योऽस्मततन्य- 


¢ 
[^ ककन [वागा ~ क प्‌ श्नि भ्म ७७ नद» नानी भूक््क्यपौष्नकः } €)  ॥ | 





ीपराश्षरजी बोले-राज्ञा पुरूरवाकं परम 
बुद्धिमान्‌ आयु, अमावसु, विश्वावसु, श्रतायु, शतायुः 
सौर अयुतायु नामक छः पुत्र हए । १॥ अमा- 
वसुफे भीम, मोमके काश्चन, काच्चनके सुहोत्र भौर 
सुहोत्रके जह, नामक पुत्र हमा, जिसने अपनी 
सम्पूणं यज्ञशञाखाको ग्गाजलसे आप्लावित देख 
क्रोधसे रक्तनयन हो भगवान्‌ यन्न पुरुषको परम 
समाधिके द्वारा अपने स्थापित कर सम्पूणं 
गङ्गाजीको पी लिया था २--४ ॥ तव देविये 


। इन्हे प्रसन्न किया भौर गङ्गाजीको इनके पुत्रीभावको 


प्राप्न कर दिया ॥ ५६ ॥ 


लह के सुमन्तु नामक पुत्र हुजा ॥ ७॥ सुमन्तु 
के अज्ञक, अजकके बराकान्च, बाकाश्चके कुश्च ओर 
कुशकफे ऊ श्ाम्ब, कुशनाभ, अधूत्तेरजा ओर वसु 
नामक चार पुश्च हुए ॥ ८1 उन्मेसे कुञ्चाम्बने इस 
इच्छासे किं मेरे इन्द्रके समान पुत्रो; तपस्या की 
॥ ९ ॥ उसके इप्र तपको देखकर ब्भ कोद अन्य 
मेरे समान नहो जाय, इस भयसे इन्द्रस्वयंही 


५९ [र ^~ 








गाधि पत्यवतीं कन्यामजनयत्‌ ॥ १२। 
तां च भार्गव ऋचीको वव्रे ॥ १३॥ गाधिर- 
प्यतिरोपणायातिव्रद्वाय ब्राह्मणाय दातुमनिच्छ- 


तरकतदयामकर्णानामिन्दुवरचसामनिररंदसामथा- 


नां सहस्रं कन्याप्रुल्कमयाचत ॥ १४ ॥ तेना- 
प्युपिणा वरुणसकाशादुपलभ्याश्चतीत्पिननं 
तादुशषमश्वसदस्चं दत्तम्‌ ॥ १५॥ 

ततस्तासचीकः कन्यापुपयेमे ॥ १६ ॥ 
ऋचीकथ तस्याथरमपर्याथं चक्षार ॥ १७ ॥ 
ततप्रसादितथ तन्मात्रे क्षत्रवरपत्रोखत्तये चरूमपरं 
साधयामास ॥ १८ ॥ एष चरभवस्या अयमपर- 
शरृस्तवन्मात्रा सम्यगुपयोज्य इल्युक्तवा वनं 
अगाम ॥ १९ ॥ 


उपयोगकले च तां माता सत्यवतीमाद 
॥२०॥ पत्रि स्व॑ एवास्मपूत्रमतिगुणमभिङषति 
नासजायाघ्नातरमुणेप्वतीवादुतो भवतीति ॥२१॥ 
अतोऽदंसि ममात्मीयं चरु दातं मदीयं चरुमा- 
त्मनोपयोक्तम्‌ ॥ २२॥ सत्ुपरेण हि सकरभू- 
मण्डहपरिपारनं कायं कियद्वा ब्राह्मणस्य बह - 
वीयसम्पदेसयुक्ता सा स्वचहं मत्रे दत्तवती ॥२२॥ 

अथ वनादागत्य सत्यवतौमृषिरिपश्यत्‌ 
॥ २४॥ आह चेनामतिपापे फिमिदम- 
कायं भवस्या कृतम्‌ अतिरौद्रं ते बपुरुदयते 
॥२५॥ नूनं स्वया त्वन्मावृसाक्कृतथरसपयुक्तो 
न युक्तमेतत्‌ ॥२६॥ मया हि तत्र चरौ सकले 
शरयंवीयंशौयबरसम्पदारोपिता खदीयचरावप्य- 
खिरशान्ति्तानतितिक्षादिवाह्मणयुणसम्पत्‌ । २७। 
तच्च विपरीतं कव॑त्यास्तवातिरौद्रास्चधारणपालन्‌- 











गाधिने सत्यवती नामक्री कन्याको जन्म दिया 
॥ १२॥ उसे भ्रगुपुत्र ऋचीकने बरण करिया । १३॥ 
गाधिने अति क्रोधौ ओर अति ब्द्ध ब्राह्मणको कन्या 
न देनेकी इच्छासे ऋचौकसे कन्याके मूल्यमे जो 
चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ आओौर पवनकै तुल्य 
वेगवान्‌ हो, ठेसे एक सहृख इ्यामकर्णं घोड़े मागे 
॥ १४॥ किन्तु महपिं ऋचीकने अग्धतीथंसे उत्पन्न 
हुए वैसे एक सहस्र घोदे उन्हँ बरुणसे ठेकर दे 
दिये ॥ १५॥ 


तव॒ ऋचीकने उस कन्यासे विवाह किया 
॥ १६ ॥ [ तदुपरान्त एक समय ] उन्होने सन्तानकी 
कामनासे सव्यवतीके ल्यि चर ( यज्ञीय खीर) 
तैयार किया ॥ १७॥ ओौर उसीके द्वारा प्रसन्न किये 
जानेपर एक क्षत्रियश्ेष्ठ पुत्रको उपत्तिके लिये एक 
आौर चरु उसकी सात्तिके लिये भी बनाया ॥ १८॥ 
ओर्‌ यह चरु तुम्हारे स्यि है तथा यहे तुम्हारी 
मातके ल्िये-दइनक्रा तुम यथोचित पयोग करना 
--ठेसा कहकर वे बनको चङे गये ॥ १९॥ 


उनका डपयोग करते समय सत्यवतीकौ माताने 
उससे कहा--।(२०॥ “बेटी | सभी छोग अपतेही 
ल्य सबसे अधिक गुणवान्‌ पुत्र चाहते दै, अपनो 
परनीके भाईके गुर्णोमें किंसीकी भी विङेष रचि नहीं 
होती ॥ २१।॥ अतःतूअपना चरुतो ु्चेदेदे 
ओौरमेरातू लेशे; क्योकि मेरे पुत्रको तो सम्पूणं 
भूमण्डङ्करा पालन करना हयेगा भौर ब्राह्मणकरुमारको 
तो बल, वीयं तथा सम्पत्ति आदिसि ठेना ही क्या 
है ।; एसा कहनेषर सत्यवतीने अपना चरु अपनी 
माताको दे दिया ॥ २२२३ ॥ 


वनसे ललौटनेपर ऋषिने सत्यवतीको देखकर 
कहा--“अरी पापिनि ! तूने फेला क्या अकाय किया 
है जिससे तेय क्षरीर एेसा भयानक प्रतीतं होता है 
॥ २४-२५ ॥ अवश्य हय तूने अपनी माताके द्यि 
तैयार किंये चरका उपयोग किया है, सो ठीक नदीं 
है ॥ २६॥ मेनि इसमे सम्पूण र्ये, पराक्रम, 
शूरता ओौर बलकी सम्पत्निका आरोपण किया था ] 
तथा तेरेमे शान्ति, ज्ञान, तितिक्षा आदि सम्पूणं 
तराह्मणोचित गुर्णोका समवेश्च किया था ॥ २७॥ 


उनका विपरीत उपयोग करनेसे तेरे भति भयानक 
५ ६५ 
स्व-गश्यधौा पानक नै त्परशध्चियदकेसमा 


२३१८ 





भीषिष्णुपुराणं 


[ अ०८ 


यारि तात 


निष्ठः कषत्रियाचारः पूत्रो भविष्यति तस्याश्चौप- 
शमरुचि््ाह्मगाचार दस्याकर्ण्येव सा तस्य पादौ 
जग्राह ॥ २८ ॥ प्रणिपत्य चेनमाह ॥ २९ ॥ 
भगवन्मयैतदक्ञानादसुष्टितं प्रसादं मे र मैवं- 
विधः पुत्रो भवतु काममेवंविधः पैत्री मवि 
सयुक्त एुनिरप्याह ॥ ३०॥ एवमर्स्िति ॥३१॥ 
अनन्तरं च पा जमदग्िमजीजनत्‌ ॥ ३२॥ 
तन्माता च विश्चामिघ्रं जनयामास ॥ २३३॥ 
सत्यवत्यपि कोक्षिकी नाम नद्यभवत्‌ | २४ ॥ 
जमदग्निरिष्वाकरुषंशोद्धवस्य रेणोस्तनयां रेणु- 
कायुपयेमे ॥ ३५ ॥ तस्यां चशेपक्षत्रहन्तारं 
परशुरमसं्ञं मगव्रतस्सकरलोकगुरोर्मारयण- 
स्यां जमद्ग्निरजीजनत्‌ ॥ ३६ ॥ विश्वामित्र 
पुत्रस्तु मार्मव -एव शुनश्छेपो देवैः ततश्च 
देवरातनामाभवत्‌ ॥ ३७॥ ततथान्ये मधु- 
च्छन्दोधनञ्चयकृत द्रवा फफच्छपहारीत कार्या 
विद्वामित्रपुत्रा बभूवुः ॥ ३८ ॥ तेपां च बहूनि 





आचरणवाछा पूत्रहोगा ओौर उसके शान्तिप्रिय 
नराह्यणाचारयुक्त पत्र होगा ॥› यह्‌ सुनते ही सत्यवतीनि 
उनके चरण पकड़ खयि ओर्‌ प्रणाम करफे कहा- 
|| २८-२९॥ "भगवन्‌ ! अज्ञानसे ही मने पेसा किया 
दे, अतः प्रसन्न होये ओर एेसा कीजिये जिससे 
मेरा पुत्रपेसानहो, भे ही पौत्र ेसा हो जाय ।” 
इसपर मुनिने कहा--"ठेसा ही होः | ३०-२१॥ 
तदनन्तर उसने जमदग्निको जन्म दिया ओर 
उसको माताने विष्वामित्रकरो उत्पन्न किया तथा 
सत्यबती कौशिकी नामकी नदी हो गयी ॥२२-३४॥ 
जमद्ग्तिने दष्ष्वाकुक्कुटोद्धव रेणुकी कन्या 
रेणुकासे विवाह किया ॥। ३५ उससे जमद्ग्निके 
सम्पूण क्षन्नियोका ध्वंस करनेवाले भगवान्‌ परु 
रामज) उत्पन्न हप जो सक लोक-गुरु भगवान्‌ 
नारायणे अज्ञ थे ॥ ३६॥ देवताओने विश्वामित्र 
जीको भ्रगुवंञ्लीय श्ुन्रेप पुत्ररूपसे दिया था; 
दइसख्ियि पीठे उसका नाम देवरात हुआ ओर फिर 
विईवामित्रजीके मधुच्छन्द, धनञ्जय, कृ तदेव, अष्टकः 
कच्छप एवं हारीतक नामक ओौर भौ पुत्र हुए 


फोिक्गोत्राणि = कष्यन्तरेषु वि्राह्यान्य- | ॥ ३७.३८ ॥ उनसे अन्यान्य ऋपिवंशोमे वि वाहने 
भवन्‌ ॥ ३९ ॥ योग्य बहूुत-से कोक्चिक गोच हए ॥ ३९॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽसे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥ 


आट्वँ अध्याय 
काश्यवंकशका वर्णन 


श्रौपराशर खाच 


। परवशो ज्येष्टः पुत्रो यस्तवायुरनामा स राहो- 
दु दितरथपयेमे ॥ १ ॥ तस्यां च पश्च पुत्रातु- 
त्पादयामासं ॥ २ ॥ नहुपक्षत्रवरद्रम्मरनिसंता- 
स्तथेवानेनाः पञ्चमः पुत्रोऽभूत्‌ ॥ २ ॥ कषत्रबृदरा- 
तुदतः पप्रौऽमवत्‌ ॥ ४ ॥ काश्यकारगृत्सम- 
दाख्चयस्तस्य पुत्रा बभूवुः ॥ ५॥ गृत्समदस्य 





शीपराशरजी चोज्ते-आयु नामक जो पुरूरवा- 
का ज्येष्ठ पुत्र था उसने राहुकी कन्यासे विवाह किया 
| १॥ उससे उसके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम 
क्रमङ्ञः नहुष, क्षत्रवृद्ध रम्भ, रजि ओर अनेनाथे 
॥ २-३ ॥ क्षच्नवृद्धके सुहोत्र नामक पुत्र हुभा ओर 
सुहोत्रके काश्य, काञ्च तथा गृत्समद नामक तीन पुत्र 
हुए । गृ्समद्का पुत्र शौनक चातुवण्यंका प्रबतंक 


अ० ८] चतुथे अ २१९ 
----_------___[____-_________________________----_-~-~-~--~- ~ 
कारयस्य काशेयः काशिराजः तस्मद्राट काड्यका पुत्र काञचिराज कारेय हा । उसके 


रा, राष्ट दीघतपा ओर दोधैतपाके धन्वन्तरि 
रष्ट्स्य दीषतपाः पु्रोऽभवत्‌ ॥७॥ षन्वन्तरिसतु | ना पुत्र भा ॥ ७.८॥ इष धन्धन्तरिकके शरं 


दोषतपसः पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ८ ॥ स हि संसिद्ध- | जर इन्द्रिया जरा आदि विकासेसे रहित ये 
¢ 1] ९५ [ब्‌ ट्र ट क 
काय करणस्पकरसम्भू तिष्वरेपक्तानविद्‌ मगषता | पथा समाज मामं यह्‌ सस्पृणं श्ाखांका जाननेवाला 


| था । पूवं जन्मतन भगवान्‌ नारायणने उसे यह बर 
नारायणेन चातीतसम्भतौ तस्मै वरो दत्तः ।।९॥ दियाथाकरि का्चिराजके वंशम उलन्न होकर तुम 


£ न € ~ 
काशिराजगोत्रेऽवतीयं त्वमष्टवा सम्यगायुतेदे | सम्पूणं आयुकेदको आठ भामोमे भिभक्त कसेने 
करिष्यसि य्ञमागयुग्मविष्यसीति ॥ १०॥ ओर यज्ञ-मागके भोक्ता हगे' ॥ ९.१० ॥ 


तस्य च धन्वन्तरेः पुत्रः केतुमान्‌ केतुमतो | = घन्वन्तरिका पुरकेतुमान्‌, केतुमानका भीमरथ, 


स्थापि ^ ९, | भीगरथक्रा दिवोदास तथा दिबोदासका पु प्रतदेन 
भीमरथस्तस्यापि दिवोदाप्रस्तस्यापि प्रतद॑नः हमा ॥ ११॥ उत्ते सेरयवंशका नाहा करके 


॥ ११॥ स च मद्रशरण्यवंश्विनाशनादशेपशत्र- | समस्त सत्रप विजय प्रा्तकी थौ, इसख्थि 


ऽनेन जिता इति | उसका नाम श्त्रजिवः हज ॥ १२॥ दिबोद्‌]सने 
नोऽनेन जिता इति पथुजिद्ममत्‌ ॥ १ २॥तेनच | जवन त (अन त मलन 
्रीतिमतात्मपुत्रो बरस बरस्सेरयमिितो वरपो- | "वत्स ! वत्स ? कहा था, इसलिये इसका नाम 


ऽभवत्‌॥ ६२॥ सत्यपरतया ऋतध्वजसंज्ञामवाप्‌ | वत्छ' हृं ॥ १३ ॥ अत्यन्त सत्यपरायण होनेके 
॥ कारण इसका नास ऋतध्वजः दुआ ॥१४।) तदनन्तर 
॥ १४ ॥ ततश्च इुवरूयनामानमस्ं रेभे ततः | इसने छुबलय नामक अपूर्वं अन्ध प्राप्त किया । इल. 


डुबराश्च ह्यस्यां प्रथिव्यां प्रथितः ॥ १५ ॥ | दि यह इस प्रभिवौतलपर 'इुवख्याश्च' नामस 


तस्प च वत्सस्य पुत्रोऽह्नामाभतद्‌ यस्यायम्‌ विख्यात हुआ ॥ १५॥ इस वर्क अकं नामक 
तवस्य पुत्रः मच्‌ वस्य पुत्र हा जिसके विपयभे यह्‌ शोक आजतक गाया 


द्यापि शलोको गीयते ॥ १६॥ जाताङे। १६॥ 
पष्टिव्पसदश्चाणि पषटिषंशचतानि च । ूरवंकालमे लकंके अतिरिक्त जीर किसने 


| _ „^ भी छाछठं सदस वपेतक युबाचरस्थामे रहकर 
अरकांदपरो नान्यो बजे मेदिनीं युवा ॥१७॥ | प्रभिकोका मोग नहीं करिया ।। १०॥ 


तस्याप्यकेस्य॒सन्तिनामामवदार्मजः | = उत अलके मी सन्नति नामक पुत्र हुभासन्नतिके 


॥ १८॥ सन्नतेः सुनीथस्तस्यापि सुकेतुस्तस्माच | सनीय, सुनीथके सुक्ल, केले पनु पम 
ध्केतुज्ने ॥ १९॥ ततश सत्यक्ेतुस्वरमाद्विय- | पयु, सलभ्टु विशु, वु तिज, विख 


ि तु के सुषमार, सुकुमारक धृष्टञेतु, धृष्त वीतिहोत्र, 
तत्तनयस्मुविथस्ततशच सुकुपारस्तस्यापि धृषटके वीतिहोत्र भागे ओर मौगके भागंभूमि नामक 


स्ततश्च बीतिदोत्रस्तस्मादूभार्गो भागस्य माग | पुच्रहुभा भगभूमिसे चातुवण्यंका प्रचर हु । 
भूमिस्ततश्वातुवेण्यप्रृत्तिरिसयेते फादरयमूभृतः | इस प्रकार काठ्यवंशके राजाओंका वणन हो चुका | 
कथिताः ।॥२०॥ रजेस्त॒ सन्ततिः श्रूयताम्‌ | २१॥ | अव रजिकौ सन्तानका विवरण सुनो ॥ १८-२१॥ 





३२० 


भ्रीषिष्णुपुराण 


[०९ 


-------------------------------------- 
नर्व अध्याय 


महाराज रजनि मौर उनके पुर्वोका चरित्र 


श्रीपराश्चर उवाच 
रजस्तु पश्च पूत्रशतान्यतुरुषरूपराक्रमसारा- 
ण्यासन्‌ ॥ १ ॥ देवासुरसंग्रामारम्भे च प्रस्पर- 
वधेप्सवो देवाशापुरथ्च ब्रह्माणुपेत्य पप्रच्छुः 
॥ २॥ मगवनस्माकमत्र विरोधे कतरः पक्षो 
जेता भविष्यतीति ॥ ३॥ अथाह भगवान्‌।।४॥ 
येषामर्थे रजजिरात्तायुधो योत्स्यति ततपक्षो 


जेतेति ॥ ५ ॥ 
अथ दैलैसपेद्य रज्ञिराससाहाय्यदानाया- 
भ्यथितः प्राह ॥ ६ ॥ योस्स्येऽहं मवतामरथे 
यद्यहममरलयाद्धवतामिन््रो मविष्यामीत्याकण्ये- 
तततैरमिषहितम्‌ ॥ ७ ॥ न वयमन्यथा वदिष्या- 
मोऽस्यथा कषष्यामोऽस्मा कमिन्द्र प्रहादस्त- 
र्थमेवायशयम इचयुक्ला गतेष्वसुरेषु देवेरप्य- 
साववनिपतिरेवमेबोक्स्तेनापि च तथैवोक्तं 
देवैरिन्द्रस्खं भविष्यतीति समन्वीप्सितम्‌ ॥८॥ 
रजिनापि देवसैन्यसंहायेनानेकरमेदासत्रस्तद- 
शेषमहासुखलं निषूदितम्‌ ॥ ९ ॥ अथ जिता- 
रिपक्ष देवेन्द्रो रजिचरणयुगरमालसनः भिता 
निपीव्याह ।॥ १० ॥ मयत्राणादनदानाद्धवान- 
 स्मदितशेषलोकाना्रत्तमोत्तमो भवान्‌ यस्याहं 
पत्रचिरोकेन्रः ॥ ११ ॥ 
स चापि राजा प्रहस्याह ॥ १२॥ एवम- 


सत्वेवमस्त्वनतिक्रमणीया हि वैरिपक्षादप्यनेक- 
विधचाद्ुबाक्यगर्मा प्रणतिरिव्यक्ता स्वपुरं 


श्रीपयशरजी बोज्ञे-रजिके अतुटिति = बह- 
पराक्रमराली पच सौ पुत्रथे॥ १॥ एक बार देवा- 
सुरसं्रामके आरम्भमं एक दुसरेको मारनेकर इच्छा- 
बाछे देवता ओर्‌ दैत्योने बह्माजीके पास जाकर 
पृषछठा-“भगवन्‌ ! हम दोनोके पारस्परिक कलमे 
कौन-सा पश्च जीत्तेगा ९ ॥ २-३॥ तब भगवान्‌ 
ब्रह्माजी बोखे-- “जिस पक्की रसे राजा रजि 
रच घारणक्रर युद्ध करेगा उसी पक्की विजय 


[48 


होगी" ॥ ४-५॥ 


तव दैत्योमे जाकर रज्ञिसे अपनी सदहायताके 
द्यि प्रार्थना की, इसपर रजि बोटे--। ६ ॥ “यदि 
देबताभंको जीतनेषर मँ आपल्योगोका इन्दर हो सक 
तो आपके पक्षम छ्ड सक्ता ह" 1 ७ ॥ यह्‌ सुन- 
कुर दैत्योने कदा--“दमल्लोग एक बात ककर 
उसके विरुद्ध दृससरी तरहका आचरण नहीं करते । 
हमारे इन्द्र तो प्रहदजी है ओर उन्दीके दिये 
हमारा यद सम्पूणे चयोग है ” एेला ककर जव 
दैव्यगण चे गये तो देवताओंने भी आकर राजासे 
उसी प्रकार प्राथंना की ओौर उसने भी उनसे वही 
बात कदी । तब देवताओंने यह्‌ ककर कि भाप हौ 
हमारे इन्द्र होगे" उसकी बात स्वीकार कर री ॥ ८ ॥ 

अतः रजिन देव-सेनाकी सहायता करते हप 
अनेक महान्‌ अशँसे देत्योकी सम्पूणे सेना नष्ट 
कर्‌ दी ॥ ९॥ तदनन्तर शनुपक्षको जीत चुकनेषर्‌ 
देव राज इन्द्रने रजके दोनो चरणोको अपने मस्तक- 
पर रखकर कका-॥ १० ॥ (भयसे रक्वा करने ओर 
अन्न-दान देनेके कारण जाप हमरे पिता, आप 
सम्पूणं लो कोम सर्वोत्तम दह; क्योकि मेँ त्रिलोकेन्दर 
आपका पुत्र हुः ॥ ११॥ 

इसपर राजाने हँसकर कहा--अच्छा, फेसा ही 
सही । शन्रुपश्चकौ भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त 
अनुनय-विनयका अतिक्रमण करना उचित नदीं 
>+ वदि उन धनतो मे 1 तो कथ 1) तेमा 


____ _ ..--.-.----------------------------------------- 





शतक्रतुरपीन्द्रसं चकार! १४ ॥ स्वयति 
तु रजौ नारदर्पिचोदिता रलिपुतराश्शतक्रतुमात्म- 
पित्पुत्रं समाचाराद्राज्यं याचितवन्तः । १५॥ 
अप्रदानेन च विजिव्येनद्रमतिवलिन; स्वयमि- 
न्द्रं चक्रुः ।। १६.॥ 


ततश्च बहुतिये काले ह्तीते बृदस्पतिमेकान्ते 
दष्टा अपहृततरैलोक्ययज्ञमागः शतक्रतुरुवाच 
॥ १७ ॥ बद्रीफहमात्रमप्यदैसि ममाप्यायनाय 
पुरोडाश्खण्डं दातुमिसयुक्तो बृहस्पतिरुवाच 
॥ १८॥ ययेवं स्वयां पूवमेव चोदितया 
तन्मया खद किमककव्यमित्यन्येरेवादोभिस्तवां 
निजं पदं प्रापयिष्यामीस्यमिधाय ं 
मारिवारिकः बुद्धिमोहाय शक्रस्य तेजोऽभित्रद्रये 
जुहाब ॥ १९॥ ते चापि तेन बुद्धिमोहेनामि- 
भूयमाना त्रहठिषो धमेत्यागिनो वेदवाद्‌- 
पराद्युला बभूवुः ॥ २० ॥ ततस्तानपेतधर्मा- 
चारानिन्द्रो जथान ॥ २१ ॥ परोदिताप्यायित- 
तेजश्च शक्रो दिवमाक्रमत्‌ ।॥ २२॥ 


एतदिन्द्रस्य स्वपदच्यवनादारोहणं श्रुता 


पुरुषः स्वपदर्रंशं दौरारम्यं च नाप्नोति ॥ २२ ॥ 

रम्भरस्वनपस्योऽमवत्‌ ॥ २४॥ क्षत्रबृद्धएतः 
्रतिकषत्रोऽमवत्‌ ॥ २५ सपुत्रः सञ्जयस्तस्यापि 
जयस्तस्यापि वियस्तस्माच क्ते कृतः ॥ २६॥ 
तस्य च हय॑धनो हयं धनसुतस्सददेवस्तस्माददी- 
नस्तस्य जयस्सेनस्ततश्च संसछतिस्तदुत्रः्षत्रधमी 
ह्येते क्षत्रवृद्धस्य वंर्याः ॥ २७॥। तता नष 
वंशं प्रवच्यामि ॥ २८॥ 











दस प्रकार रतक्रतु ही इन्द्रपदपर स्थित हज । 
पीठे, रज्ञिफ स्वगंबासी ह्‌ नेषर देवि नास्द्जीकी 
क्‌ ए (व [न 
प्ररणासे रजके पुत्रौने अपते पिताके पुत्रभावको 
प्राप्न हुए सतक्छतुसे व्यवहारे अनुसार अपने 
पिताक्रा राञय सगा ॥ १४.१५ ॥ किन्तु जवर इसने 
नदिया तो च्म मदावल्वान्‌ रजि-पुर्रोने इन्द्रको 
जीतकर स्षयं हे इनदरयदका भोग किया ॥ १६ ॥ 


फिर बहुन-सा समय बीत जानेपर एक दिन 
बृहस्पतिजीको एकान्तम वेठे दें त्रिटोकीके 
यज्ञभागसे वद्चित हृष शतक्रतुने उनसे कहा-- 
॥ १७॥। प्क्या आप मैरी वृश्चिके ल्यि एक बेरके 
बरार मी पुरोडाश्ञ-खण्ड सुपषे दे सकते दह १ उनके 
ठेसा कनेर बृहस्पत्िजी बोरे--॥ १८॥ यदि 
देस है, तो पष्ट ही तुमने भुक्ते क्यो नदीं कहा 4 
तुम्हारे लिये भल मेँ कया नहीं कर सकता ¶ अच्छा, 
अव थोडे हयी दिनोमे मै तुम्रं अपने पदपर स्थित 
कर दगा । ठेसा कह बृहस्पतिजी रजिःपु्ोकौ बुद्धि 
को मौष्ित कस्नेके लिये अभिचार ओर इन्द्रकौ 
तेजो बरद्धिके स्यि हवन करने लगे ॥ १९॥ घुद्धिको 
मोहित करतेवाष्े उस अभिचारकर्मसे अभिभूत 
हो जनके कारण रज्जिपुतर ब्राह्मण-विरोधी; धमे 
त्यागी अर येद्-विप्रुख ह्यो गये ।॥ २०॥ तव 
ध्माचारहीन ह्यो जानिसे इन्द्रने चन्द मार डाला 
॥ २१॥ ओर पुरोदहितजीके द्वारा तेजोदद्ध होकर 
स्वर्गपर अपना अधिकार जमा छया ॥ २२९॥ 

हृल प्रकार इन्द्रे अपने पदसे गिरकर उसपर 
फिर आरूढ होने इस भ्रसङ्गको सुननेसे पुरुष 
अपने पदसे पतित नहीं होवा भौर डस कभी 
दुष्टता नही आती ॥ ९३॥ 

[ आयुका दुसरा पुत्र | रम्भ सन्ता हीन हुआ 
॥ २४ ॥ क्षघ्वृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र ह्वअाः परतिक्षत्रका 
सञ्चय, सञ्जयका जय, जयका विजय, विंजयका 
छत, कृतका हयंधनः, येधनका सहदेवः सहदेवका 
अदीन, अदीनका जयत्सेनः जयत्सेनका संस्करति 
ओर संस्छृतिका पुत्र क्षत्रथमों हंथा । ये सव 
्षच्नबृद्धके वंशज हुए ॥ २५२७ ॥ अव मँ नहुष- 
वंक्ा वणेन करूंगा ॥ २८ ॥ 


--"क- + 


हरति श्रीविष्णुपुराणे चपुर्थ ऽर नवमोऽध्यायः ।॥ ९ ॥ 


षि) 


[क [भ्न 
ययाति चव्य 


श्रीपराक्ञर उवाच 
यतिययातिसंयात्यायातिवियातिकृतिसंसा 

नहुषस्य षट्‌ पुत्रा महाबहृपराक्रमा बभूवुः ।१॥ 
यतिस्तु राज्यं नैच्छत्‌ ॥२}॥ ययातिस्तु भूभृद- 
भवत्‌ ॥३॥ उशषनसश्च दुहितरं दैवयानीं 
वापेपर्वणीं च शरमिष्ठादुपयेमे ॥ ४ ॥ अत्रायुषश- 
रलोको मवति ॥ ९॥ 
यदु च तुवसु चैव देवयानी व्यजायवे | 
द्रु चानु च पूरुं च कष्ठ वाषपवंणौ ॥६।६ 

काव्यक्नापाचाकालेनैत ययातिजरामवाप ॥७॥ 
प्रसन्नुक्रवचनाच स्वजरां सद्क्रामयितुं ज्येष्ठ 
पुत्रं यदुवाच ॥८॥ वस सस्मातामहेश्नापादि- 
यमकालेनैव जरा ममोपर्थता तामहं तस्यैवानु- 
ग्राद्धवतस्सश्चास्यामि ॥ ९ ॥ एकः वपंसदसरम- 
तृपरोऽसिमि विषयेषु खदयसा विषयानहं मोकतू- 
मिच्छामि ॥ १०॥ नात्र मता प्रस्याख्याने 
कत्तव्यमियुक्तस्प॒यदु्नच्छत्ां जशमादातुम्‌ 
॥ ११॥ तं च पिता शशाप त्लाष्रतिर्न 
राज्याहां मविष्यतीति ॥ १२॥ 

अनन्तरं च तुसु दरषयमनु च पृथिवीपति- 

जराग्रदणाथं स्वयौवनप्रदानाय चाग्यर्थयामास 
॥ १२ ॥ तैरप्येकेकेन प्रत्याख्यातस्ताजञ्छ्क्षाप 
॥ १४ ॥ अथ शर्भिष्ठातनयमशेषकनौयांसं पूरं 
तथैवाह ॥ १५॥ स चातिप्रवणमतिः सबहुमानं 
पितरं प्रणम्य महाप्रसादोऽयमस्माकमिस्युदारस- 
भिधाय जरां जग्राह ॥ १६॥ स्रकीयं च यौवनं 
स्वपितरं ददौ ॥ १७ ॥ 








श्रीषराश्ष्जी चोले--नष्ुषक्र 
संयानि, अखात, वियाल सौरः 
महावखविष प्रदी पुत्र हु ॥ १॥ यतिने सञ्की 
ह्च्छा न्दौ री, इंसद्यि युति दौ गन्ना हज 
॥ २-३ ॥ यगातिते जरुक्रायायं आ एलो दैदखरानी 


यत्ति, ख्याति, 


{६ ग छः 
९.3। } {>~ 


फर बुसपवौकी कन्था श्भिष्ठास पिवाह्‌ (केयाथा 
॥ ४ ॥ यने वके सम्बर्ध्य दीक प्रसिह्ु 
हे--1 ५॥ 

द्ेनयापीरे गहु 1 तुखशुको जन्म दिया तथा 
वरृपप्रकी पुत्री स्र्चिष्ठने प्र, भनु गौर पूरको, 
उत्प फियाः ॥ £ ॥ 

खयाविक्ो शुक्रा ायद्रि क्ाधदे वृद्धावर्शने 
असमगं ही षे लियाथा ॥७॥ प्ररे शरुक्ठमीके 
प्रसन्न होकर कडनेषर्‌ अन्दर पपनी पुद्धात्स््ाकौ 
ग्रहण कर्मे, लिये ५ पृच्र गहु एह ~| ८ ॥ 
"वत्स ! तुम्हारे चानाजीके रए सुने धसी 
नृद्धाचस्थाने घेर छ्य है, अश बन्दीकी कपास यैं तये 
तुसको देना चाहता ह| २ ॥ मै अमी दिपय- 

५१ ५५१ ५५ ष ४ 
भोगोंसे वप्र नहीं हुमा) दमङिगे पकर सदेश चं 
तक परै तुम्हारी युञा्स्थातते लद भौगया चादुला ह 
॥ १० ॥ इस दिपय्ँ तुमह (ली प्रश्मस्की साना 
कानी सीं फर्ना वारये ।' छिन्त पिताफे मा 
कटनेपर ओ यदटुने वृद्धावश्थाक् महण कृरलान 
साहा ॥ ५१ ॥ तव पिताने सै क्चापददियार्रितेरी 
सत्तान राज-पदफे योग्यन दामी ॥ १८॥ 

फिर राज्ञ। यथात दुवे, द्रुद्ध जौ अक्त मो 
अपता यौत्रन देकर वृद्धावस्था मरहम करन लिये शद; 
तथा जनमसे प्रस्येकके अश्यीकागरफत्नेपर उन्मि उन 
सभीको कापदे दिया ॥ १३-१४ ॥ शन्त सवर छदे 
शर्गिष्ठाके पुत्र पूरके भी वही बात दही ती इद्वने ति 
नञ्रता ओौर आदरफे साथ पिनाक प्रश्राम कर्भ उद्‌ा- 
गत पूवंक कद्ा-यद्‌ सी हमारे उद यापा सष्ान्‌ 
जनुग्रह है ॥ फेसा दह क पून अपने पिताक बुद्धा 


। स्था प्रहरण कर उन अपना यौनं दै दिया ॥१५-१७॥ 


अ० १० | 


वयय एय कन "न यकर ५ 


चतुथं अश 


[1 





सऽपि पौरवं योवनकासाश्र धरोवरियेधेन 

यथाक्रमं यथदस यथोत्साहं विषयांश 
वार ॥ १८ ॥ स्वप्‌ च प्रजापनत 
॥ १५ ॥ विशःच्या देववान्या थ संहोष्मोगं 
युक्त्वा फातानायन्तं प्राप्स्याणीरथन्‌ धिन उन्म 
नस्तो बभूर ॥ २०॥ मनृद्धिनं चोपमोमतः 
कामानतिरस्याम्मेने ॥ २१॥ ततश्चैव 
गायतत २२॥ 
11 जातु सातः कामानाद्ुपभोजय शाम्यति । 

हिप द्नयरस्व भूय एदाभिवंते ॥२१॥ 
यस्पथनव्थ वीद्ियवं हिरण्यं पवः सिकः ; 
एकस्पापि य पपं दस्मासिष्णां प्रिस्येत्‌।२४॥ 
यद्‌ न हतं माद सतचभूतेषु प्रधकषर्‌ । 
समर< द पुंसः सर्वरपुखमया। दिशः ॥ २५॥ 
या दुस्त्षजा दुभैतिभिरया स पीयति सौरः | 
तां दष्णां सन्सयसेलखाद्वस्युसमवामिपूयवे ॥२६॥ 
यंन सौय का द सीयेन्ति चीयत; । 
धनाः धीं ताद्व सौय ताऽपि न सीय॑तः। २५७] 
पूणं वपं पे पिपयाधकचेतसः । 
तथाप्यनुदिन दुन्णा सथ तेपूचलाथते ॥२८॥ 
तस्थादेतामह्‌ स्वववा र. लण्याधाय सनश्‌ , 
निन्द निसंम युलखा चरस्य सगस्सह। २९॥ 

श्रापर्‌ [दर इवाशु 

पूरोस्शषाद्रादाष जरां दश्वा च यौवमय्‌ | 
राज्येऽभिषिच्य पूं च प्रययौ तपे वयस्‌ ॥३०॥ 
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुव॑सु च धमरादिक्षत्‌ । 
प्रतीच्यां चतथा द्र्य दक्षिणायां ततो पदुभ्‌।। ३१) 
उदीच्यां च तथेवानु कुता मण्डद्धि-प सृषान्‌ | 
सवप्रथ्पीपहिं पूं सोऽभिषिच्य वनं ययौ ॥३२॥ 











३२३ 


राज! ययात्तिने पूरुका यौव्रन लेकर समया- 

नु्रार प्राघ्ठहप्‌ य॒ेच्छ विषयोँको अपने उत्साहक 
भनुलार धमेपूक्क भोगा ओर अपनी प्रजाका 
यी प्रकार पालन क्रिया ॥ १८१९॥ फिर 
किश्वावौ ओर्‌ दैवयानीके साथर विविध भोग।को 
योते हृष न्नै कामनाओंका अन्त कर रगा 
पसे सोचते-सोचते वे प्रतिदिन [ भो्गोके ल्यि | 
उत्कण्ठित रहने छग ॥ २० ॥| ओौर निरन्तर मोगते 
रहनेसे उन कामनाओँको अत्यन्त प्रिय मानने ख्गे 
दुपरान्त उन्दने इस प्रकार अपना उदूगार प्रकट 
छया ॥ २१-२२॥ 


''भोगोकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त 
नदीं पोती, बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान बह 
बदृती दही जाती हे ॥ २३॥ सम्पूणं परथिवी जितने 
भी धान्थ, यव, सुवणं, पट ओर खियाँ दै वे सव 
एक मनुष्यके यि भी सन्तोषञनक नहीं है, इसल्यि 
दष्प्णको सचंथा व्याग देना चाहिये ॥ २४॥ जिस 
समय कोर पुशष किसी भी प्राणीके हिय पापमयी 
मावमा नहीं करता उस समय उस समद्घीके द्यि 
समी दां सुखमय हो जाती दै ॥ २५॥ 
दुमलियांकै लिये जो अव्यस्त दुस्स्यजञ दै तथा 
बृद्धावस्थामे भी ओ क्चिथिर नहीं होती, बुद्धिमान्‌ 
पुरुष इस तृष्णाक्रो स्यागकर खसे परिपूण हो जाता 
& । १६ ॥ अवस्थक जीणं हानिषर कैद भौर दात 
तो जणो जाते ह किन्तु जीवन ओर धनक्णी 
आसा उसक्त जौणं होनेपर भी जीण नहीं होतीं 
॥ २७ | विषययोमे आसक्त रहते हुए मुशे एक स्स 
वषं चीव गये, फिर भी निर्ण ही नमे मेरी कामना 
दरोती दै ॥ २८ ॥ अतः अन मैं दसे छोड़कर अपने 
चिन्तकः। सगवासभे ही स्थिर कर निद्र भौर 
निम ह्य [ नमे ] मृगोके साथ विचरगा" | २९॥ 

श्रीपराश्चरजी वोक्ञे-तदनन्तर राजा यथातिने 
पुरस अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया 
ओर चसे राज्य-पदूपर अभिपिक्त्‌ कर बलको चले 
गये ॥ ३० ॥ उन्दने दक्षिण-पूवं दिश्चमे ठतुवसुको, 

श्चिममें द्रह्यको, दक्षिणञ्चै यदुको भौर उत्तरम 
अमुक्तो माण्डलिकपदपर नियुक्तं किया; तथा पूरको 
सम्पूणं भूमण्डल्के राञ्यपर अभिपिक्तकर स्वयं 
वनको चले गये ॥ ३१.३२ ॥ 


~ +~ 


दति श्रीविष्ण्रुपुसणे चतुरथंऽसे दस्चमोऽध्यायः ॥ १० ॥ 


यदुवंश्चका वर्णेन ओर सहखाञ्जुनका चरित्र 


श्रीपराशर उवाच 
अतः परं ययातेः प्रथमपूत्रस्य यदोवश्चमहं 


कथयामि ॥ १।॥ यत्राशेषरो निवासो | 


गन्धवंयक्षराक्षद्गुद्यकर्िगुस्षाप्यरररमावहग- 

दैस्यदानवारिस्यस्द्रवस्वध्िपरुदेवर्षिमिषयक्षुभि- 
धेर्माथकाममोक्षाधिमिश्च ततर्फरुलामाय पदा- 
भिष्टुतोऽपरिच्छेयमाहयत्म्यांरेन = मगवाननादि- 
निधनो विष्णुरवततार ॥२॥ अत्र रोकः ॥ ३॥ 


2“ ¢ पै 
यदोवशं नरः श्रुता सवपापैः प्रुच्यते । 


यत्रावतीणं कृष्णास्यं परं ब्रह्म निरङ्रति ॥४॥ 

सहस्रभित्कोष्टुनष्टनदुषसंज्ञाश्लारो यदुपुत्रा 
बभूवुः ॥ ५ ॥ सदस्रजित्पत्रश्यतमित्‌ ॥ ६ ॥ 
तस्य दैहयहेहयवेणुदयाख्रयः पुत्रा बभूवुः ॥७॥ 
हैहययुत्रो धर्मस्तस्यापि धर्मनेतरस्ततः इस्तिः 
कुन्तेः सहनिप्‌ ॥ ८ ॥ तत्तनयो सदहिष्मान्‌ यो- 
ऽसौ माहिष्मतीं पुरीं निवासयामाग्र ॥ ९॥ 
तस्माद्धद्रभेण्यस्ततो दुदमस्तस्माद्रनको धनकस्य 
कृतवीयंदरताधिकृतधर्मक्रतौजसश्रत्वष्‌ः पुत्रा 
बभूबुः ॥ १०॥ 

कृतवीर्यादजु नस्पक्ष्रीपाधिपतिर्षाहुसदसो जज्ञ 
॥११॥ योऽपौ भगवदंश्मशरिङ्हग्र्रतं दता- 
त्रेयाख्यमाराध्य वाहुमरहस्तमधर्मसेवानिवारणं 
स्वधरमसेवितं रणे प्रथिवीजयं धर्मतधासुषारन- 
मरातिभ्योऽपरजयमखिलजगसस्यातपुरूष(च 
मल्युमि्येतान्यरानभिरूषितबान्ठेमे च ॥१२॥ 
तेनेयमरेषद्रीपवती परथिवी सम्यग्परिषङिता 
।॥१२॥ दशयक्ञसदस्राण्यसावयजत्‌ | १४॥ तस्य 
च रहोफोऽ्यापि गीयते ॥ १५॥ 








श्रीपराश्चरजी वोज्े--अव भै ययासिषे प्रथम 
पुत्र यदुके बंका वणेन करना जिसमे कि ममुष्य, 
सिद्ध, गन्धव, यक्ष, राक्षस, गुह्यकः किपुरूष, अप्सरा 
सपं, पश्र, दैत्य, दानव, आदित्य, द्र, वसु, अश्नी 
कुमार, मरुद्गण, देवर्षि, सुमुक्षु तथा घसं, अथं, काम 
ओर मोश्चकरे अभिटापी पुरषोद्रारा सव॑दा स्तुति किये 
ज्ञानेबाटे, अखिललोक विश्राम आद्यन्तहीन भगवान्‌ 
वरिष्णुने अपने अपरिमित मदस्वश्ाखी अंशसे 
अवतार छियाथा। इस विषयमे यहु रलाक प्रसिद्ध 
दे ॥ १-३॥ 

जिसमें श्रीकरष्म नामक निराकार परब्रहाने 
अवतार छ्ियाथा उस यदुवं्ञका श्रवेण करनेसे 


मञुष्य सम्पूणे पापोसे युक्त हो जाता हैः ॥ ४॥ 

यदुके सहजित्‌, क्रोष्टु, नल ओर नहुष नामक 
चार पुत्र हए । सहुख्जितके शतजित्‌ ओौर 
क्तजित्ङके हैहय, हेहय तथा वेश्रुहय नागक तीन पुत्र 
हुए । ५-७ 1 हैहयका पुत्र धर्म, धर्मका धमंनेच, धमे- 
नेचका छुन्ति, कुन्तिका सहजित्‌ नथा सहजित्‌का 
पुत्र महिष्मान्‌ हआ, जिसने माद्िप्मत्तीपुरीको 
वसाया ॥ ८९ ॥ महिष्मानके भद्रश्रेण्य, भद्रशरेण्यके 
दुम, दुदेमङे घनक तथा धनकके करतघीये, छताभ्नि, 
छतधमं ओर कृनौजा नामक चार पुत्र हुए ॥ १०॥ 

करनवीर्यके सहस्र मुजञाभोंकाे सप्रद्रीपाधिपति 
अञ्जीनका जन्म हुा॥। ११ ॥ सद्र खाजुंनने अन्रि्गल- 
मे उलयन्न भगवद्रू श्रीदन्ता्ेयजीकी ठपासनाकर 
"सहस मुजा्पँ, अधर्मा चरणका निवारण, म्बधमंका 
सेवन, युद्धे द्वारा सम्पूणं प्रथिवोमण्डल्कौ विजय, 
धसाबुसार प्रजा-पाङन, शत्रुओंसे अषराज्ञय तथा 
त्रिलोकप्रसिद्ध पुरुषसे मृत्यु-रेसे करई षर ममि 
सौर प्राप्त किये थे॥ १२॥ अजुनने इस सम्पूणं 
सप्तद्वीपवती प्रथिकीका पाडन तथा दश्च हजार यज्ञो- 
का असुष्ठान किया था ॥ १३-१४ ॥ उसके विषयमे 
यदं इखोक आजतक कहा जाता ह--।। १५॥ 








न नूनं कातंवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः | 
यञ्ैदनिस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण शरुतेन च ॥१६॥ 


अनष्टद्रम्यता च तस्य राज्येऽभवत्‌ ॥१७॥ | 


एवं च पञ्चाशीतिवषपदस्चण्यव्याहतारोगयश्रीयल- 
पराक्रमो राज्यमकरोत्‌ ॥ १८ ॥ माहिष्मत्यां 
दिग्विजियाम्यागतो नमंदाजलाबगाहनक्रीडाति- 
पानमदाङ्खरेनायत्मेनेव तेनारोपदेवदस्यगन्धरवे- 
शजयोदभूदमदावरपोऽपि रावणः पञुखि बद्ध्वा 
स्वनगस्कान्ते स्थापितः ॥१९॥ यथ पल्वारीति- 
वपेसहसरोपलक्षणकालावसाने मगवन्नारायणांशेन 
परसुरामेणोपसंहतः ॥ २० ॥ तस्य च पूत्ररत- 
प्रधाना; प्च पुत्रा वभूवुः शरदूरसेनवरषेन- 
मधुजयध्वजसंज्ाः ॥ २१ ॥ 
जयध्वजात्ताछजङ्घः पुपमरोऽभवत्‌ ॥ २२॥ 


तालजक्घस्य दाहअक्ाख्यं पत्रशतमासीत्‌ 
॥ २३॥ एषां येष्ठो वीतिदोत्रस्वथान्यो 


मरतः ॥ २४ ॥ भरताददृषः ॥ २५ ॥ घृषस्य 
पत्रो मधुरभवत्‌ ॥ २६॥ तस्पापि वृष्णि 
प्रमुखं पुत्रतमा्ीत्‌ ।॥२५॥ यतौ वृष्णिसंज्ञा- 
मेतदरोत्रमवाप | २८॥ मधुसंज्ञाहैत्च मधुरभवत्‌ 
॥२९।॥ यादवाश्च पहुनामौपलक्षणादिति ॥३०॥ 








यज्ञ, दान, तप, विनय ओर विद्याम कातबीये 
-सहस्रा्जुनकौ समता कों भी राज्ञा नही कर 
सक्ता" ॥ १६॥ 


उसके राञ्यमे को्ईभी पदाथं नष नहीं होता 
था | १७ || इस प्रकार उसने ब्र, पराक्रम, आरोग्य 
ओर सम्पत्तिको सवथा सुरक्षित रखते हुए पचासी 
हजार वषं राज्य किया ॥ १८ ॥ एक दिन जव वह 
अति्य मद्य-पानसे व्याकर हुआ नमेद्‌ नदीम जल- 
क्रीडा कर रहा या,+उसको राजधानी माहिष्मतीपुरीपर 
दिग्िजय्क्रे य्यि आये हुए सम्पूण देव, दानव, 
गन्धव्रं भैर राजाओके विजय-सदसे उन्मत्त रावणने 
आक्रमण किया, उस समय उसने अनायास हो रावण- 
को पञ्युके समान बाँधकृर अपने नगरके एक 
निजंन स्थानमे रख दिया ॥ १९॥ दस सह ाजैन- 
का पचासी हजार वषं उयतीत होमेपर भगवान्‌ 
नारायणके अंजयावत्तार परञ्चुरामजीने वथ किया था 
॥ २० ॥ इसके सौ पुत्रोमेसे रूर, शूरसेन, वृषसेन, मधु 
ओर जयध्वज- ये पाँच प्रधान थे॥ २१॥ 


जयध्व जका पुत्र ताह्जंघ हुभा ओौर तालजं वके, 
ताख्जघनामक सौ पुत्र हुए, इनमेसे सवसे बडा 
वीतिहोत्र तथा दूसरा भगत था ॥ २२२४ ॥ भरतके 
बृप, वरुषके मधु ओौर मधुके वृष्णि आदि सौ पुर हुए 
|| २५-२.७॥ बृष्णिे कारण यह वेह वृष्णि 
कृहलाया ॥ २८ ॥ मधुकरे कारण इसकी मघु-संज्ञा 
हुई ॥ २९ ॥ ओर युके नामावुसार इस वंश लोग 


यादव कष्टखये ॥ ३० ॥ 





दति श्रीविष्णुपुराणे चपुर्थंऽमे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥ 


९ १,५५९.०७. 


वार्वा अध्यायं 
यदुपुत् करोधुका वंश 


श्रीपराशर उवाच 
क्रोष्टोस्त॒यदुपुत्रस्यास्मजो भ्वनिनीवान्‌ 
॥१॥ ततश स्वातिस्ततो सशद्क स्शङ्कोधित्- 


भी पसाशरजी बोक्ञे--यदुपुत्र फ्रोष्टुके ध्वजिनी- 


वान्‌ नामक पुर हुआ ॥ १ ॥ उसके स्वाति, स्वातिके 


रथः ॥ २॥ तत्तनयश्शरिबिन्दुधतुदशमदारले- राक, रुशद्के चित्ररथ भोर वित्ररथके शरशिषिन्दु 


२२६ 





पाय य तकया मयमय २.२०. 





भ्रीविष्णुपुररीण 


[ अ० १२ 








शाथक्रवस्थं भवर्‌ ॥२॥ तस्य च शतसह पतनी- 
नाममवत्‌ ॥ ¢ ॥ दश्षलश्रसख्याश पुत्राः ॥ ५॥ 
तेषां च पृथुश्रवाः पृथुकमा प्रधुकतिः पृदुयशाः 
पृथुजयः प्थुःधनः पट्‌ पुत्राः प्रानाः ॥६॥ 
पृथुश्रवदथ पुप्रः प्रथुतमः ॥ ७॥ तस्पाह्रनः 
यो वाञिग्रेधानां शतमालषह!र ॥ ८ ॥ तस्यच 
रितपुरनाम पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ९ ॥ तस्यापि सक्म- 
कव चस्ततः पराघ्ु्‌ ;। १०॥ 
रवये पुपृथुस्यामववदहितदरितसजःस्तस्य पश्वा 
त्मजा मथूवुः ॥ ११ ॥ कस्या्रदधापि स्याम 
धस्य रछाषो गौयते ॥ १२॥ 
भार्यविरपास्पु ये क्ेिद्धविष्यन्स्यथं वा सृताः । 
तेषां तुज्यामवः शरष्सयेग्यापतिरभुन्यृषः ॥१२॥ 
अपुत्रा तस्य सः पतनी शैव्या नासं तथाप्यसौ 
अपस्यक्षादःऽपि ययानान्पां मा्यमविन्दत। १४॥ 
स त्वेकदा प्रभूतरथपुरमगजपम्पदतिदारुणे 
महाहवे पुद्धवमानः सदङमेवःरिवद्रभजगरत्‌ 
॥ १५ ॥ तद्ारिवकसपस्तपू्रफटयवन्युवल- 
कों स्वमधिष्ठातं परेष्यल्य दिक्च; प्रति 


विहतम्‌ ॥१६॥ स्मि दिद्रतेऽतिप्राहद्ोरायत- | 


लोचनपरुषं अहि मारि भां दाताम्ब भातरित्या- 


कुहविलाविषुर घ शजक्न्यारत्नद्राक्षीत्‌। १७ । 


तदशेनाचच तस्थामलुरमावुगदान्वरास्मा भ 
सृपोऽचिन्तयप्‌॥ १८ साध्विदं ममापस्यरदितस्य 
वन्थ्याभतुः साम्प्रतं विधिनापत्यकारणं कन्या- 


पशवो 








लासक पुत्र हुआ जो चौदह महारत्नोकार स्वामी 
तथा चक्रवर्ती सम्राट्‌ था ॥ २.३ ॥ शश्चिनिन्दुके एक 
खाल खि जीर दस छाख पुत्र ये ४-५ | उनम 
प्रथुश्रवा, प्धुकमा, प्रथुकीर्ति, प्रथुयजन्न, प्रुज्रय अर 
प्थुद्ान- येः प्रधाने ॥ ६ ॥ प्रथुश्रव्ाका पुत्र 
परथुतम ओर उसक्रा पुत्र उद्ना हुभा जिसने सौ 
अश्वमेघ-यज्ञ किया था ॥ ७.८ ॥ उजनाफे सितपु 
नामक पुत्र हुआ ॥९॥ कितपुकफे सक्मकयय, 
सङ्रभकवचफे परावृत्‌ तथा प्राव्रत्‌के सक्मेषु. प्रथु, 
ञ्यामघ, विति ओौर हरित नामक पच पुत्र हुए 
| १०.१९१ ॥ दनमेखे उयामघके विषयमे अव मी 
यह्‌ शोक गाया जाता दै ॥ १२॥ ~ 

संसारम खीके वज्ञीभूत जो-जो लोग होगे ओौरं 
जो-पो पले हो चु हैँ उनम सेऽ्याका पति राजा 
ज्यामघ ही सर्वश्रेष्ठ दै ॥ १३॥ उक्तकी खी शव्या 
यद्यपि निःसन्तान थी तथापि सन्वानको इच्छा श्दते 
हुए भी उसने उसके भयसे दूसरी खीसे सिचाह्‌ नदी 
फिया ॥ १४ ॥ 

एक दिन बहुत-से रथ, घोड़े भीर हाधियोके 
संघष्टरसे अत्यन्त भयानक महायुद्धे क्ते हुए उसने 
अपने समम्त ्ञच्रूजोको जीत लिया ॥ १५॥ उस 
सभय वे समस्त शत्रुशण पुत्र, भित्र, खी, सेना ओर 
कोश्ादिसे षन होकर अपने-अपने स्थानक छोडकर 
दि्ञा-विदिङ्चाओमे भाग गये ॥ १६॥ स्ने माग 
लानेषर्‌ उसने एक राजकन्याको रेखा जा सस्यन्त 
भयसे कातर हुदै विश्चाल आंखोँसं [ दैखवी हदं 1 
ट तात, हे मातः, है भरातः} मेरौ रक्षाकरो, रक्षा 
करा" इस प्रकार व्याङ्घुरुतापूवक विलाप कर रह्‌ थौ 
॥ १७॥ उक्र देखते ही उसमे अनुरक्त-चित्त हो 
जानेस जाने विचार किया ॥ १८ ॥ चय्‌ अच्छाहौी 
हुमा; यैं पुत्रहीन ओौर वन्ध्याका पति द्र; पसा माूम 
होता दै कि सन्तानकी कारणष्पा इस कन्या- 


4 धर्मसंहितापे चौदह रत्नोका उल्टेखं इस प्रकार करिया है-- 
श्वक्र' रथो मणिः सङ्गश्वमं रत्नं च प्सम्‌ । केतुर्निधिश्च सप्तैव प्राणहीनानि चक्षते ॥ 


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|| २० ॥ अथवैनं स्यन्दनमासेप्य स्वमधिष्ठानं 
रयामि ॥२१। तथैव देव्या शेव्ययाहमनुक्ञात- 
स्थ्ुढहामीति ॥ २२॥ 

अथैनां स्थमारोप्य स्वनगरमगच्छत्‌ ॥२२॥ 
विजयिनं च ` राजानमशेपपेरभृत्यपरिजनामा- 
स्यसपनेता सेव्या द्रटुमधिष्ठानदास्मागता ॥२४॥ 
सा चावक्क्य रातः सत्यपा्वंवतिनीं कन्या- 
मीषदुद्भूतामरषस्ुरदधरपन्टवा राजानमबोचत्‌ 
॥ २५। अरिचपरूषित्तात्र स्यन्दने केयमारोपि- 
तेति ॥२६॥ अघरावप्यनालोचितोत्तरवचनोऽति- 
भयात्तामाह सुपा एमेयमिति ॥ २७ ॥ अथैनं 
रेग्योबाच ॥ २८ ॥ 
नाहं प्रता पुत्रेण नान्या पर्यमत्तवर । 
पूनुपासम्बन्धरता ह्येषा कतमेन सुतेन ते ॥२९॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 

हत्यास्मेप्याकरोपक्रलुपितवयनश्ुषितविषेको भया- 
दुरुक्त परिहाराथंमिदमवनीपतिराह ॥२०॥ यस्ते 
जनिष्यत भआराखलस्तस्येवमनागतस्यैव भार्या 
निरूपितैत्याफण्यद्भूतस्‌दुदा पा तेयेत्याह ।।३१॥ 
भिवे च रा्ञा सदाधिष्टानम्‌ | ३२॥ 

अनन्तरं चातिशुद्धरनहोरांश्च कावयोक्तकृत- 
ुत्रजन्पहाममुणादयसः परिणामश्ुपगतापि शेञ्पा 
स्वल्यैरेवारोभिगमेभवाप ।३३॥ कालेन च 
कुमारमजीजनत्‌ ॥३९॥ तस्य च विदं इति 
पिता नाम वक्र ॥३५॥ सथ तां स्तुषायुपयेमे 
॥३६॥ तस्यां चासौ क्थकैसिसंजञो पूत्राव- 
जनयत्‌ ॥३७॥ एनश्च तृतीयं रोमपादसंज्ं 
पुत्रमजीजनघ्ौो = नारदादवाप्तन्चामवानभवत्‌ 


एस्नश्ुषपादितय्‌ ॥ १९ ॥ तदेतत्सश्ढहसीति | रः 

















रत्नको विधााने हू इश्च समय यहाँ मेजा दै ।। १९॥ 
तो फिरग्रुश्च इससे विवह्‌ कश्छेया चाहिये ॥ २०॥ 
अथा इं अपने रथपर बैठाकर पने निवाल- 
धानक ख्ये चप हु चहँ ददौ यैन्या्धी आज्ञा 
ख्कर हौ इससे विवह्‌ कर लंगा? ॥ २१-२२॥ 
तदन्तः गै उसे दथपरर दाकर अपने नगर्को 
छ चख ॥ २६ ॥ वामं विजयौ साजा द्चलफे स्यि 
सम्पूणं पुरयास्नो, सेवक, पटुम्बीजन ओर मन्वि- 
पेगके श्ण म्टारानी छेव्या नगरे द्वारपर आयौ 
हुई थो ॥ २४ ॥ उसने राभ्कके वामागये बैठी हुई 
राजकन्या देखकर प्राधकं कारण क्ट करौपरते हुए 
होटोसे कहा--।॥ ५५॥ ह अत्ति चपट्चित्त | 
तुते रयै यह कराल वैठा रकी ट्‌ १॥ २६ ॥ 
पदको मी तरम सञ्ला तो यस्यन्त 
उरते-खरते का~ मेरौ पूत्रवधू दै! ॥ २७॥ 
तैघ्या बौखी-॥ १८ ॥ 


५. 
स कापर 


मेये ता कोह परत्र हज महदीहै भौर अफ 
दुसशी छं सीमा बही, पिर किस पुत्रके कारण 
आपका इससे पुच्र्धूा स्वन दुखा ? ॥ २९ ॥ 


्रीपरयश्चरजी चोक्े- दस प्रद्र सीन्याके द्या 
आौर क्रोध-कल्षित्र वचनोंसे विवेक्रह्हीन हकर 
भये कारण की दु असंकद्ध वालके सन्देवो दूर 
रने स्थ्यि राजामे फुष्ा--।॥ ३० | ध्वुग्ारे जो 
प्रत्र द्योनेचाला दे उस भावी श्चि्की चैने यह 
पहय्से ही माया पिश्चितक्ररदुी ह ]' यह्‌ सुनकर 
गनीने अधुर मुध्ुकानके सायं कष्ा--(अन्छा, पेसा 
ही हो सौर राजा साथ नगरमे प्रवेश 
क्रिया ॥ १-६२॥ 


तदनतर पृच्र-खाभके गणस युक्त उस अति 
विश्रद्ध छश्च होरांह्नक अवयव ससय पुत्र 
जन्मविषयकर वातताल्यापके प्रभावस गभंधारणके 
श्ोभ्य अवस्था ठ रहनेपर भौ गौडेदही दिनीम 
सैव्याके ग्भ रह्‌ गया ओर यश्रासमय एक पुत्र 
चलन्न हुआ ॥ २३.३४ ॥ पिताने धसक। नाम धिदमं 
रखा॥ ३५ ॥ शीर वसीय साथ उस पुत्रचधूका 
पाणिग्रहण हसा ॥ ३६ ॥ उससे चिदसने क्रथ ओर 
कैक सासक दो पुत्र खल्पन्न क्रिये ॥ ३७ ॥ फिर 
सोमपाद्‌ भासक एकर तीक्लरे पुत्रका जन्मवियाजो 
नारदजीके धपदेरसे ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न हो गयां 


२२१८ 





णा 


विष्णुपुराण 











॥ ३८ ॥ रोमपादाद्वभरवोरधतिरतेः कैशिकः 
कैशिकस्यापि चेदिः पुत्रोऽभश्द्‌ यस्य सन्ततौ 
चेद्या भूपालाः ।। ३९ ॥ 

क्रथस्य द्नुषापुत्रस्य इन्तिरमवत्‌ ॥ ४० ॥ 
इन्तेधेषिषष्टमिधतिनिधतेदेशा स्ततश्च व्योमा 
तस्यापि जीमूतस्ततश्च विकृतिस्ततश्च भीमरथः 
तस्मान्नवरथस्तस्यापि दशरथस्ततशथ्च श्निः 
तत्तनयः करम्भिः करम्मेर्देबरातोऽभवद्‌ ॥४१॥ 
तस्मादेवकष्रस्तस्यापि सधुम॑धोः दुमारवंशः 
कुमाखंशादनुरनोः पुरुमित्रः परथिषौपतिरभवत्‌ 
॥७२॥ ततशाशुस्तस्माच्च सस्वतः॥ ४२ सतवता 
देते सालताः॥४४॥ दत्येतां ज्यासषस्य सन्तरति 
सम्यकुदधामन्वितः श्रता पुमान्‌ मैत्रेय स्वपाः 
प्रमुच्यते । ४५॥ 











था ॥ ३८ ॥ रोमपादके बशर, घथरुके धृत्ति, धृततिके 
केशिक ओर केजचिकङे चेदि नामक पुत्र हुआ जिसकी 
सन्ततिमें चेश्य राजान जन्म लिया | ३९ ॥ 


उ्यामघकी पुत्रवधूके पुत्र क्रथक्रे कनिति नामक 
पुन्न हज ॥ ४० ॥ कन्तके धृष्टि, धृषटिके निधृत्ति, 
निशृत्तिके दज्चाहं, दश्चाहके व्योमा, व्योमके जीमूत, 
जीमूतके तिक्ति, विकृतिके भीमरथ, भीसरथके 
नवरथ, नरथक दशरथ, दज्ञरथके शङ्कनि, सकुनिके 
करम्मि, करम्भिके देवरात, देवराततके देवक्षत्र, 
देवक्चव्रके मधरु, मधुके मारकर, छमारवशषके अनु, 
अलुके राजा पुरुमित्र, पुरुमित्रके अंगु ओौर अंके 
सत्वत्त नाम पुत्र हु] तथा स्तत्वतसे सास्वत-वं्का 
प्रादुमौत हृथा ॥ ४१-ध् ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार 
ज्यामघकी सन्तानका ्रद्धापूवेक भली प्रकार श्रवण 
करनेसे मनुष्य अपने समस्त पापोँसे मुक्त हो 
जाता है ॥ ४५ ॥ 


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दूति श्रीविष्णुपुराणे चुर्थेऽरो हादशोऽध्यायः ॥ १९२॥ 


तेरो अध्याय 


सत्वतकी सन्तत्तिका वर्णेन सौरः स्यमन्तकमणिको कथा 


श्रीपराश्चर उवाच 
भजनमजमानदिव्यान्ध ददेवावृधमदा मोज- 
वृष्णिसज्ञास्सत्तस्य पुत्रा बभूवुः ॥ १ ॥ भज- 
मानसम निमिङृकणव्ृष्णयस्तथास्ये दैमात्राः 
दतजिरसदस्चजिदयुतजित्संज्ञाखयः ॥ २ ॥ देवा- 
वृधस्यापि बभ्रुः पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ३ ॥ तयोधायं 
रोको गीयते ॥ ४॥ 


यथेव. शृणुमो दृरास्सम्परयामस्तथान्तिकात्‌ । 
वभ्रुः शरेष्ठो मनुष्याणां देवेदषावरधस्समः ॥५॥ 


प्रपा; षद्‌ च षष्टि षट्‌ सदक्नाणि चाष्ट च । 


म षय न, (> न 


श्रीपराश्चरजी बोज्ते--ससवततके भजन," मजमान, 
दिभ्य, अन्धक, देवाबरृध, महाभोज ओर्‌ वृष्णि नामक 
पुत्र हुए ॥ १॥ भजमानके निमि, कृकण ओर्‌ व्रष्णि 
तथा इनके तीन सौतेरे माई स्षतजित्‌, सदहखजित्‌ 
ओर अयुतभित्‌--ये छः पुत्र हुए । २॥ देवावृधके बभ्रु 
नामक पुत्र हुआ ॥ ३॥ इन दीनो ( पिता-पुत्र ) के 
विषयमे यह रलोक प्रसिद्ध है--॥ ४ ॥ 


(जैसा हमने दूरसे सनाथा वेसाहौ पास जाकर 
भी देखा; वास्तवमें वशर मनुष्ये श्रेष्ठ है ओर देवा- 
बृधतो देवता्ओंके समान है ॥ ५॥ बधु ओर 
देवावृध [ के उपदेश किये हुए मागेका अवलम्बन 
करते ] से क्रमञ्चः छः हजार चोत्तर ( ६०७} 


अ० १३। 

























महाभोज बड़ा धमीरमा था, उसकी = सा पमो थ चको समानम 
| तथा मृत्तिकावरपुरनिवासी मा्तिकावर 
गृपतिगण हूए ।। ७॥ बृष्णिके दो पुत्र सुमित्र ओर 
युधाजित्‌ हुए, उनमैसे सुमि त्रके अनमित्र, अनमित्रके 
निष्न चथा निष्नसे प्रसेन ओर सत्राजित्तका जन्म 
हुभा ॥ ८-१० ॥ 


महाभोजस्त्वतिधरमास्सा तस्यान्वये भोजा 
मृत्ति्षावरपुरनिवासिनो मार्तिकावरा बभूवुः 
॥ ७॥ वृष्णेः सुमित्रो युधाजिच पूत्रा्भूताम्‌ 
| ८ ॥ ततश्वानमित्रस्तथानमित्रानिष्नः ॥ ९ ॥ 
निष्नस्य प्रहेनसप्राजितो ॥ १० ॥ 


उस सच्राजितके मित्र भगवान्‌ आदित्य हुए ॥११॥ 
एक दिन सथद्र-तटपर बैठे हृए सत्राजिते सूयंभग- 
वान्‌ की स्तुति की । उसके तन्मय होकर स्तुति करनेसे 
भगवान्‌ मास्कर उसके सम्पुख प्रकट हए ।१२॥ 
उत समय उनको अस्पष्ट मूतिं धारण किये हुएदेखकर 
सन्राजितने सूर्थसे कटा--॥ १३॥ “आकाञमे अग्नि 
पण्डके समान भापको जैसार्मैने देखा ह वेसा दी 
सम्मुख अनिपर भी देख रहा ह| यह आपकी 
प्रसादस्वप कछ विशेषता स्ने नी दीखती | 
सश्राजितके एेसा कहनेपर भगवान्‌ सूयन अपने 
गस स्यमन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर 
जङ्ग स्ख दी ॥ १४॥ 


तस्य च सत्राजितो मगवानादिस्यः सखा- 
भवत्‌ ॥ ११ ॥ एकदा स्वम्भोनिधितीरसंभ्रयः 
घय सत्राजिचुष्टाव तन्मनस्कतया च भास्वान 
भिष्टरयमानोऽप्रतस्तस्थौ ॥ १२ ॥ तततस्तरस्पषट 
मुतिषरं चैनमाोक्य सतराजितडय माह ॥ १२॥ 
ययैव व्योम्नि वहिपिण्डोपमं स्वामहमपर्यं तथेवा- 
द्ाग्रतो गतमप्यत्र मगवता विशन प्रसादीकृतं 
विरेषदपलक्षयामीत्येवहटक्ते भगवता धर्यं निज- 
कण्टादुन्छुच्य स्यमन्तक नाम महामणिवरम- 
वतायकान्ते न्यस्तम्‌ ॥ १४ ॥ | 

तव सत्राजितने भगवान्‌ सूयंको देखा--उनका 
ररर किञ्चित्‌ ताभ्रवणे, अति उ्वल भोर लघु था 
तथा छनके नेत्र कुछ पिंगलबणं थे ॥ १५। तदनन्तर 
सन्नाजित्‌ प्रणाम तथा स्तुति आदि कर ्ुकनेपर 
सदखांडु भगवान्‌ आदित्यने उससे क्ा-तुम अपना 
अभीष्ट वर मगो ।। १६॥ सत्राजित्‌ने उस स्यमन्तक 
मणिको हयै मगा ॥ १७॥ तब भगवान्‌ सूयं उसे 
वह्‌ मणि देकर अन्तरिश्षमे अपने स्थानको चे 
गये ॥ १८॥ 


ततस्तमातामोढ्स्वलं हस्ववपुषमीषदापिङ्ध- 
लनयनमादित्यमद्राकतीत्‌ 1 १५॥ कृतप्रणिपात- 
रतवादिकं च सत्राज्ञितमादह भगवानादित्यस्स- 
हस्रदीधितिर्वरमस्मततोऽथिमतं वृणीष्वेति १६॥ 
स॒ च तदेव सणिरस्नमयाचत ॥ १७॥ स 
चापि तस्स तद्वा दीधितिपतिर्वियति स्वधिष्ण्य- 
मार्रोह ॥ १८ ॥ 
किर सन्राजिततने उस निर्भर मणिरस्नसे अपना 


कण्ठ सुशोभित होनेफे कारण तेजसे सूये समान 
समस्त दि्षाओओको प्रकाहित करते हुए द्वारकामे 
भ्रव करिया ॥ १९॥ द्वारकावासी रोगोनि उसे आते 
देख, प्रथिवीका भार उतारने के लिये अंशरूपसे 
अवतीणे हृष सदुष्यरूपधारी आदिपुरुष भगवान्‌ 
पुरुषोत्तमसे प्रणाम करके कह्‌!-। २० ॥ “भगवन्‌ । 
आपके द नोक लियि निश्चय हौ ये भगवान्‌ सूयदेव 
आं रदे दै इनके एेखा कहनेपर भगवानने उनसे 


सत्रालिदप्यमलमणिरत्नसनाथकण्ठतया रयं 


हव तेजोभिरशेपदिगन्तराण्युद्धासयन्‌ द्रारकां 
विवेश ।॥१९॥ द्वारकावासी जनस्तु तमायान्त- 


मवेक्ष्य भगवम्तमादिपुरष पुरुषोत्तममबनिभारा- 
वतरणायांरिन माुषरूपधारिणं प्रणिपत्याह 
|} २० ॥ भगवन्‌ भवन्तं द्रष्टु नूनमयमा- 
~ न्य ग मगबासवाच ॥ २१॥ 


२२० 


भीषिष्णुपुराण 


[ थ० १३ 








भगवान्नायमादित्यः सत्राजिदयमादित्यदत्तस्य- 
मन्तकाख्यं महामणिरत्नं बिभ्रदत्रोपयाति 
॥२२॥ तदेनं विश्रब्धाः पर्यतेव्युक्तास्ते तथैव 
ददृशुः ॥ २२ ॥ 


सच तं स्यमन्तकमणिमात्मनिवेश्ने चक्रे 
॥ २४ ॥ प्रतिदिनं तन्मणिरस्नमष्टौ कनकमारा- 


न््रवति ॥ २९॥ तस्प्रमावाचच सकफरस्यैव राष्ट 
स्योपसर्गानाव्ृष्टिग्यालाग्नियोरदुरभिक्षादिभयं न 
भवति ॥२६॥ अच्युतोऽपि तदिव्यं रत्नयुग्रसे- 
नस्य भूपतेर्योम्यमेतदिति शिप्सां चक्रे ॥ २७॥ 
गोत्रभेदभयाच्छक्तोऽपि न जहार ॥ २८ ॥ 


सप्राजिदष्यच्युतो मामेतद्याचयिष्यतीर्यव- 
गम्य रलनक्ोमादू्त्रे प्रसेनाय तद्रसनमदात्‌ 
॥ २९ ॥ तच शुचिना धियमाणमशेषमेव सुण 
सवादिक गुणजातद्चरपादयति अन्यथा धारयन्त- 
मेव हन्तीस्यजानन्नसावपि प्रसेनस्तेन कण्ठसक्तेन 
स्यमन्तकेनाश्वमारुदयाटव्यां मृगयामगच्छतू्‌ 
॥ ३० ॥ तत्र च सिहादधमवाप ॥ ३१॥ साश्वं 
च तं निहत्य िंहोऽप्यमलमणिरत्नमास्याप्रेणा- 
दाय गन्तुमभ्युद्यतः ऋक्षाधिपतिना जाम्बवता 
दृष्टो षातितश्च ॥२२॥ जाम्बवानप्यमलमणिरल- 
मादाय स्ववि प्रविषेश्च ॥ ३३॥ सुङमारसंसाय 
वाराय च क्रीडनकमकरोत्‌ ॥ २४ ॥ 
अनागच्छति तस्मिन्प्रसेने कृष्णो मणिरलममि- 
षितवान्स च प्राप्रवान्नूलमेतदस्य कर्मैत्यखिल 
एष यदुलोकः परस्परं क्णाकण्यं कथयत्‌ ॥ ३५॥ 


विदितरोकापवादवृत्तान्तश्च भगवान्‌ स्वै 
यदुसैन्यपरिवारपखितः प्रसैनाश्चपदवीमनुससार 


19 £ 1] 11 रन 9 {= 





कहा-। २१॥ ये मगवान्‌ सूयं नहीं दै; सत्राजित्‌ 
है । यह सूयेभगवाभ्से प्राप्त हुं स्यसन्तक नासकी 
महामणिको धारणकर यँ भ रहा है ॥२२॥ तुम 
ल्टोग अब विश्चस्त होकर इसे देखो 1 भगवान्‌के 
एेसा कहनेपर हारकावासी ऽसे उसी प्रकार देखने 


लगे ॥ २३॥ 


सत्राजिते वह्‌ स्यमन्तकमणि अपने घरमे रख 
दी | २४] बह मणि प्रतिदिन आठ मार सोना देत्ती 
थी | २५॥ उसके प्रभावसे सम्पूणं राष्ट रोग, 
अनाब्रषटि तथा सपं, अग्नि, चोरया दुर्भिक्ष आदिका 
भय नहीं रहता था । २६} भगवान्‌ अच्युतको भी 
ेसी इच्छा हुई कि यह दिव्य र्नतो राजा उग्रसेन 
योग्य है ।२७॥ किन्तु जातीय वि द्रोहके भयसे समथं 
होते हए भी उन्होने उसे छीना नदीं ।॥ २८॥ 


सचराजितेकौ जब्र यह मालूम हुजा फिं मगवान्‌ 
गुद्यसे यह्‌ रत्न मगनेवाके दहै तो उसने लोभवश्च 
उसे अपने भाई प्रसेनको ३ दिया ॥२९॥ किन्तु इस 
बातको न जानते हए कि पविच्रतापुवक धारण करने- 
से तो यह्‌ मणि सुबणे-दान आदि अनेक गुण प्रकट 
करती है ओर अशुद्धावस्थामे धारण करनेसे घातक 
हो जाती है, प्रसेन उसे अपने गलेमें बधि हुए घोड- 
प्र्‌ चदृकर मृगयाके छ्य वनको चखा गया | ३०॥ 
वरह उसे एक सहने मार डा! ॥ ३१॥ जव वह 
सिह घोडके सष्टित उसे मारकर डस निंर मणिको 
अपने यहम ठेकर चखनेको तैयार हुभा तो उसी समय 
ऋष्षराज जाम्बवान्‌ने उसे देखकर मार डरा ॥३२॥ 
तदनन्तर उस निमे मणिरत्नक्रो छेकर जाम्बवान्‌ 
अपनी गुफामें भाया ।३३॥ गौर उसे सुकुमार नामक 
अपने बारूकके छ्य खिोना बना किया ॥ ३४॥ 

प्रसेनके न छौटनेपर सब यादवो अ1पसमें यह 
कानापरूसी होने छगी किं कृष्ण इस मणिरत्नको 
ठेना चाहते थे, अवश्य ही इन्हीने उसे खे ल्या 
हे--निरचय यह इन्दीका काम हैः 1] ३५॥ 

इस रोकापवादका पता रगनेपर सम्पूणं यादव- 
सेनाके सहित भगवान्‌ने भरसेनके घोदेके चरण-चिह्- 


का अनुसरण किया ओर आगो जाकर देखा फि 
क _ भ भ ४ ~ | ~ ` ह, 








तम्‌ ॥३७॥ शखिलजनमभ्ये सिदपददशेनकृत- 
परिशुद्धिः सिहपदमनुससार ॥ ३८ ॥ ऋक्षपति- 
निहतं च शिहमप्यल्पे भूमिभागे दृषा ततश्च 
तद्रतनगौखादक्षस्यापि पदान्यज्ुययौ ॥ ३९॥ 
गिरितटे च सकमेब तद्यदुसैन्यमवस्थाप्य 
तत्पदानुसारी चषक्षविरं प्रधिवेश \। ४० ॥ 
अन्तःप्रविष्ट घात्याः सुङकमारकपरललार- 
यन्त्या वाणीं श्राव ॥ ४१ ॥ 
चिः प्रसेनमवधीर्छिहो जाम्बवता इतः । 
सुङकमारक मा रोदीस्तव छेष स्यमन्तकः ॥ ४२॥ 
इत्याकण्योपरुब्धस्यमन्तकोऽन्तःप्रविष्टःङमार- 
क्रीडनकौकृतं च धान्या हस्ते तेजोमिर्जाज्वन्य- 
मानं स्यमन्तक ददं ॥४३॥ तं च स्यमन्तकामि- 
रपितचशषुषमपूवंपुरुषमागतं समवेच्य॒ धात्री 
तराहि ब्राहीति व्याजहार ॥ ४४ ॥ 


तदातरवश्रवणानन्तरं चामर्पूर्णहृदयः स 
जाम्बवानाजगाम | ४५॥ तयो परस्परणुदरता- 
मषयोधुद्रमेकषिंशतिदिनान्य मवत्‌ ।॥ ४६ ॥ तेच 
यदुसैनिकास्तत्न सपराष्टदिनानि तन्निष्करान्ति- 
युदीक्षमाणास्तस्थुः ॥ ४७ ॥ अनिष्करमणे च 
मधुरिपुरसाववश्यमत्र बिरेऽत्यन्तं नाश्चमवपरो 
भविष्यत्यन्यथा तस्य जीवितः कथमेतावन्ति 
दिनानि बर्ुजये व्याक्षेपो मविष्तीति छृताध्य- 
वसाया द्रारकामागम्य हतः कृष्ण इति कथया- 
मासुः ॥ ४८ ॥ तद्बान्धवाश्च तत्कारोचित- 
मखिल युत्तरक्रियाकलापं चक्रुः ॥ ४९॥ 

ततशास्य युद्धयमानस्यातिश्रद्धादत्तविरिष्टोप- 
पात्रयुक्तान्नतोयादिना श्रीद्रष्णस्य बरुगप्राण- 
ुष्टिरभूत्‌ ॥ ५०॥ इतरस्यानुदिनमतिगुरुपुरुष- 








॥ ३७ ॥ फिर सत्र रोगोँके बीच सिंहे चरण-चिह 
देख लिये जानेसे अपनी सफाहो जाने पर्‌ भी 
भगवान्‌मे उन चिह्णोका अनुसरण किया ओर थोड़ी 
ही दूरीपर ऋष्षराजद्वारसा सारे हुए सिहको देखा; 
किन्तु इस रत्नके महत्वे कारण उन्होने जाम्बवान्‌ 
के पद-चिह्वौका भी अनुसरण किया ॥१८-३०॥ ओौर 
सम्पूणं यादव -सेनाको पवंतके तटपर छोडकर ऋष्ष- 
राजके चरणोंका असुस्रण करते हए स्वयं उनकी 
गुफाभें घुस गये ॥ ४०॥। 


भीतर जानेपर भगवानूने सुकुमारको बहराती 
हृदे धाच्रीकी यह्‌ बाणौ सुनी--। ४१॥ 

सिंहने प्रसेनको मासा ओर सिहको जाम्बवान्‌मे; 
हे स्मार ! तू रो मत यह स्यमन्तकमणितेरी ही 
है ॥ ४२॥ 

यह सुननेसे स्यमन्तकका पता रगनेपर भगवानूने 
भीतर जाकर देखा कि सुकुमारक लिये खिल्योना बनी 
हुई स्यमन्तकमणि धाच्रीके हाथपर्‌ अपतत तेजसे 
देदीप्यमान हो रही है ॥४३॥ स्यमन्तकमणिकौ ओर 
अभिलापापूणं दृष्टिसे देखते हुए एक विखक्षण पुरुषको 
वहं आयादेख धात्री श्राहि-चादहि' करके चि्लाने 
र्गी ॥ ४४ ॥ 

उसकी आत्त-वाणीको सुनकर जाम्बवान्‌ क्रोध- 
पूणे हृदयसे बह अया ॥ ४५॥ फिर परस्पर रो 
बदु जानेस उन दोनोका इकीस दिनतक घोर युद्ध 
टु ।४६॥। पवतके पास भगवान्‌ प्रतीक्षा करने- 
वाछे याद्व-तैनिक सौत-भाठ दिनतक उनके गुफासे 
बाहर आनेकी बाट देखते रहे 1 ४७॥ किन्तु जव इतने 
दिनतक वे उसमेसे न निकटे तो उन्होने समश्चा कि 
'अवर्य हो श्रीमधुसुदन इस गुम मारे गये, नहीं 
तो जीवित रहनेपर शात्रुके जीतनेमे उन्ह इतने दिन 
क्यों खगते ‰ पे निश्चयकर वे दवारकाम चले आये 
ओर वह कह दिया क्रि श्रोकृष्ण मारे गये ॥४८॥ 
उनके बन्धुओंने यह्‌ सुनकर समयोचित सम्पूणं 
जओौध्वेदैहिक कमं कर दिये ॥ ४९ ॥ 


इधर, अति श्रद्धापूवेक दिये हुए विशिष्ट पा्ोसदित 
इनके अन्न ओर जरसे युद्ध रते समय श्रीकरष्णचन्द्रके 
बह ओर प्राणकी पुष्टि हो गयी | ५० ॥ तथा अति 


३३२ 





मेयमानस्य अतिनिष्टुरप्रहारपातपीडिताखिल- 
वयवस्य निराहारतया बलृहानिरभूत्‌ ॥ ५१ ॥ 
निजितशच भगवता जाम्ब्रवान्प्रणिपत्य व्याजहार 
॥ ५२॥ सुरासुरगन्धर्वयक्षरक्षसादिभिरप्यखिले- 
भवान्न जतं शक्यः क्ि्ुतावनिभोचरैरल्पवीर्ेनंरेन- 
रावयवभूतचतिर्यग्योन्युसृतिभिः पि पुनरस्मद्वि 
यरवश्यं भवतास्मत्सवामिना रामेणेव नारायणस्य 
सक्ृलजगत्परायणस्याशेन भगवता भवितव्य 
मित्युक्तस्तस्मै भगवानसिलावनिभारावतरणाथे- 
मवतरणमाचचकषे ॥ ५३॥ प्रीत्यभिग्यञ्चितकर- 


भरीविष्णुपुराण 





तरुस्पदनेन चैनमपगतयुद्धखेदं चकार ॥ ५४ ॥ 


स च प्रणिपत्य पुनरप्येनं प्रसाद्य जाम्बवतीं 
नाम कन्यां गृहागतायाध्यभूतां ग्राहयामास 
॥ ५५ ॥ स्यमन्तकमणिर्नमपि प्रणिपत्य तस्मै 
परददौ ॥५६॥ अच्युतोऽप्यतिप्रणतात्तसमादग्रा्य- 
मपि तन्मणिरत्नमात्मसंशोधनाय जग्राह ॥ ५७॥ 
सह जाम्बवत्या स द्ारकामाजगाम ॥ ५८ ॥ 


मगवदागमनोद्तहेतकिषस्य । 
स्य कृष्णावलोकनात्तर्षणमेवातिपरिणतवयसोऽपि 
नवयोवनमिवाभवत्‌ ॥ ५९ ॥ दिष्टया दिष्टयेति 
सकर्यादवाः सिय समाजयामासुः ॥ ६० ॥ 
भगवानपि यथानुभूतमसेषं यादवसमाजे यथा- 
वदाचचक्षे ॥ ६१ ॥ स्यमन्तकं च सत्राजिते 
दस्वा भिथ्याभिशसितिपरिशुद्धिमवाप ॥ ६२॥ 
जाम्बवतीं चान्तःपुरे निवेशयामास ॥ ६२ ॥ 


सत्राजिदपि मयास्याभूतमलिनमारोपित- 


+ (+ १ ता; - ता । मन नना 





[ अ० १३ 


------------------------------------------- 





महान पुरषे द्वारा मर्दित होते हुए उनके अस्यन्त 
निष्ट प्रहारोके खाघातसे पीड्त श्चरीरवाले चाम्ब- 
वान्‌का ब निराहार रहनेसे क्षीण हो गया ॥५१॥ 
अन्तम भगवान्‌से पराजित होकर जाम्बवान्‌ने उन्हे 
प्रणाम करकः कहा-]) ५२ ॥ ^मगवन्‌ ! आपको तो 
देवता, असुर, गन्धवं, यक्ष, राक्षस आदि कोह भी 
नहीं जीत सकते, फिर प्रथिवीतलपर रहनेवारे 
अल्पवीयं मनुष्य अथवा मनुष्योके अवयवमृत हम- 
जैसे तियंक-योनिगत जीबोकी तो वात ही क्या है ! 
अवङ्य ही आप हमरे प्रयु श्रौरामचन्द्रजीके समान 
सकर लोक-प्रतिपाङ्क भगवान्‌ नारायणके ही 
अंश्चसे प्रकट हुए दै ।' जाम्बवान्‌के एेसा कहनेपर्‌ 
भगवानने प्रथिवीका भार उतारनेके लिये अपने 
अवतार केनेका सम्पूण वृत्तान्त उससे कह दिया 
ओर इसे प्रीतिपूवंक अपने हाथसे कूकर युद्धके श्रम 
से रहित कर दिया । ५३-५४॥ 


तदनन्तर जाम्बवानने पुनः प्रणाम करके उन्हे 
प्रसन्न किया ओर घरपर आगे हुए भगवानके लिये 
अर््यस्वरूप अपनी जाम्बवती नामकी कन्थादेदी 
तथा इन्द प्रणाम करके मणिर्न स्यमन्तक भी दे 
दिया 1! ५५.५६ ॥ भगवान अच्युतने भी चस अति 
विनीततसे केने योग्य नहोनेपर भी अपने कद्र 
शरोधनके छियि बह मणिरस्न ठे हिया भौर जाम्बव तीके 
सहित द्वारकामे आये ॥ ५७.५८ ॥ 


उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके आगमनसे 
जिनके हषका वेग अस्यन्त बद गया है उन द्वारका- 
वासियोभसे बहत ठली इई अवस्थावालोमे भौ 
उनके दञजनफे प्रभावसे तत्काल ही मानो नवयौवन- 
का सच्नार हो गया ॥५९।। तथा सम्पूणं यादबगण 
अओौर उनकी सयौ (अदहोभाग्य ! अहोभाग्य ^" 
ेसा कहकर उनका अभिवादन करने खगीं ॥ ६० ॥ 
यगवानने भी जो-जो वात जैसे-नैपे हुई थी बह 
उयो -की-त्यो यादव-समाजमे सुना दी ओौर सत्राजित्‌ 
को स्यमन्तकमणि देकर मिथ्या कलक्रसे छुटकारा 
पा ल्िया। फिर जाम्बवतीको अपने अन्तःपुरमें 
परुचा दिया ।। ६१--६३॥ 


सत्राजिते भी यह्‌ सोचकर कि, भने ही कृष्ण 


भ, (~ अ ० +न 411 ~, + न 








ना यय्यननक 





भार्यां द्दौ || ६४ ॥ तां चाकरूतवर्मशतधन्व- 
प्रयुखा यादवाः प्रागवरयाोभ्बभूवुः || ६५ ॥ ततस्त- 
तदानादवक्गातमेबात्मानं मन्यमानाः सत्राजिति 
वेरानुषन्धं चक्रुः ॥ ६६ ॥ 

अक्र रछृतवर्मग्रुखाशच शतधरन्वानमूचुः ॥६७॥ 
अयमतीव दुरास्मा सत्राजिद्‌ योऽस्मामिभेवता 
च प्राथितोऽप्यात्मजामस्मान्‌ भवन्तं चावि- 
गणय्य कृष्णाय दत्तवान्‌ ॥ &८ ॥ तदमनेन 
जीवता घातयिख्वैनं तन्महारत्नं स्यमन्तकास्यं 
त्वा फं न गद्यते बयमभ्युपपत्स्यामो यद्यच्धु- 
तस्तवोपरि वैरानुबन्धं करिष्यतीत्येवशुक्तस्त- 
येत्यसावप्याह ॥ ६९ ॥ 

जतुगृहदग्धानां पाण्डुतनयानां विदितपरमा- 

थोऽपि भगवान्‌ दुरयोधनभ्रषत्नरैधिल्यकरणाथं 
 कुल्यकरणाय वारणावतं गतः ॥ ७० ॥ 


गते च तस्मिन्‌ सुप्रमेव सत्राजितं शतधन्वा 
जघान मणिरत्नं चाददात्‌॥ ७१॥ पितृवधामप- 
पूर्णां च सत्यभामा सीरं स्यन्दनमारूढा बार- 
णावतं गत्वा भगवतेऽह प्रतिशदितेस्यक्षान्तिमता 
दतधन्वनास्मत्पिता व्यापादितस्तश्च स्यमन्तक- 
मणिरस्नमपहूतं यस्यावभासनेनापहूततिमिर 
लोक्यं भविष्यति ॥ ७२॥ तदियं स्वदीयापदहा- 
सना तद।लोच्य यदत्र युक्तं तक्करियतामिति 
कृष्णमाह ॥ ७३ ॥ . 

तया चैगगुक्तः परितुष्टान्तःकरणोऽपि कृष्णः 
सर्यभामाममरषताम्रनयनः प्राह ॥ ७४ ॥ सये 
सतयं ममेवैषापहयसना नाहमेतां तस्य दुरात्मन- 
स्पिष्ये ॥७५॥ न ह्यनुलवद्घय वरादपं तरछत- 








पत्नीषूपसे अपनी कन्या सत्यभामा चि काह दी ॥६४॥ ` 
उस कन्याक्ो अक्रूर, कृतवरमा ओर सतधन्बा आदि 
यादवोने पहले वरण किया था ॥ ६५॥ अतत श्रीकुष्ण- 
चन्द्रके साथ उसे वरि बाह दैनेसे उन्दने अपना अप- 
मान समश्चकर सत्राजितसे वैर बोध लिया | ६६ ॥ 


तदनन्तर अक्रूर ओौर कृतवमां आदिमे स्तधन्वासे 
कहा ६७ । “यह सचाज्ञित्‌ व्रड़ा ही दुष्ट है, 
देखो, इसने हमारे ओर आपके मगनेषर भी हम- 
खोगोंको कुछ भी न समञ्चकर अपनी कन्या कृष्ण- 


चन्द्रफो दे दो ६८ ॥ अतः अव इसके जीवनका 


प्रयोजन ही क्या हे; इसको मारकर आप स्यमन्तक 
महामणि क्यों नहींठेरेते है! पौषे, यदि अच्युत 
आपसे किसी प्रकारका विरोध करगे तो हमलोग मी 
आपका साथ देँगे |” उनके पेखा कहनेपर शातघन्वा- 
ने कहा--“बहुत अच्छा, एेसा ही करगे" 1 ६९ ॥ 
इसी समय पाण्डवोके लाक्नागृहम जलनेपर, यथाथं 

बातको जानते हुए भी, भगवान कृष्णचन्द्र दयौ धनके 
प्रयत्नको शिथिल करनेके उदेश्यसे इलोचित कमं 
करनेके छख्यि वारणावत नगरको गये | ७० ॥ 

उनके चे जानेपर शतधन्वने सोते हुए 
सत्रान्रि्ुको मारकर वह्‌ मणिरल्न ठे लिया | ७१॥ 
पिताके बधसे क्रोथित है सत्यभामा तुरत हौ रथ 
पर्‌ चकर बारणावत नगरमे परहुची ओर भगवान्‌ 
कृष्णसे बोी, “मगवन्‌ ! पिताजीने मुशचे आपके कर- 
कमलम सोप दिया--इस बातको सदन न कर 
सकनेके कारण रातधन्वाने मेरे पिताजीको मार दिया 
ह आर उस स्यमन्तक नामक मणिरल्नको ठे किया है 
जिसके प्रकाचसे सम्पूणं चिखोकी भी अन्धकाररुन्य 
हयो जायगी ॥७२॥ इसमे आपहीकी हँसी है 
सरि सव बातोका बिचार फरक जैसा उचित 
समश्च, करे ॥ ७२ ॥ 

सव्यभामके एेसा कहनेपर भगवान्‌ शरोक्घष्णने 
सदा प्रसन्न चित्त होनेपर भी कोधसे ओँल खाकर 
उनसे कदा --।॥! ७४ ॥ “सव्ये ! अवरस्य इसमे मेरी 
ही हसो दै, उस दुरात्माके इस कुकमेको भै सहन 
नहीं कर सकता, क्योकि यदि ऊचे वृक्षका 


२३२४ 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० १३ 








" नीडाश्रयिणो विहङ्गमा वध्यन्ते तदरमयुनास्म- 
त्पुरतः शोकप्ररितवाक्थपरिकरेणेप्युक्स्वा द्ारका- 


मभ्ेत्येकान्ते षरदेवं वासुदेवः प्राह ॥ ७६ ॥ 
४ $ ¢ 

खगयागतं प्रसेनमटन्यां मृगपतिजंधान | ७७॥ 

सत्राजिदप्यधुना शतधन्वना निधनं प्रापितः 


॥ ७८ ॥ तदुमयबिनाशात्तन्मणिरसनमावाभ्यां 
सामान्यं भविष्यति ॥ ७९ ॥ तदुत्तिष्ठारुघतां 


रथः शतधन्निधनायोदयमंङर्वित्यमि्ितस्तथेति 


समन्वीप्सितवान्‌ ॥ ८० ॥ 


छतोधमौ च तावुमावुपरम्य शतधन्वा 
करतवर्माणुपैत्य पार्णिपूरणकषमनिमित्तमचोदयत्‌ 
॥ ८१ ॥ आह चैनं कृतवर्मा ॥ ८२ ॥ नाहं 
बरदेववामुदेवाभ्यां सह पिरोधायारमिद्युक्तथा- 
्रुरमचोदयत्‌ ॥८२॥ असावप्याह |॥८४।। न दि 
कथिद्धगवता पादग्रहारपरिकम्पितजगसरयेण 
सुररिपुवनितावधव्यकारिणा प्रबररिपुचक्रा- 
प्रतिहतचक्रेण चक्रिणा मदद्दितनयनावरोफिता- 
सिषनिशातनेनातिगुरषं खिरणापकषणाविदृत- 
मदहिमोरुसीरेण सीरिणा च सह सकरुजगदन्धा- 
नाममरवराणामपि योद्धं समथः कितादम्‌॥ ८५॥ 
तदन्यद्शरणमभिहष्यतामितयुक्तर्शतधनुराह 
॥८६॥ यच्स्मत्पसिाणासमथं मवानात्मानम- 
धिगच्छति तदयमस्मत्तस्ताबन्मणि; संगृह्य रच्य- 


__ ®+ ®+ ण्व 


च्वङ्गन न किया जा सके तो उसपर धों सा बनाकर 
रहनेवाले पक्चियोको नहीं मार दिया जाता [ अर्थत्‌ 
बड़ आदसि्योँसे पार न पानेपर उनके आश्चितोंको 
नहीं दवाना चाहिये । ] इतये अव तुमह हमारे 
सामने इन शोक-प्ररित वास्योके कहनेकी ओौर 


आवश्यकता नी है [तुम ज्लोक छोड़ दो, भँ 
इसका भर प्रकार बदा चुका दूंगा । ]' सत्यमामा- 
से इस भरकार कह भगवान्‌ वासुदेवे द्रारकामें 
अकर श्रीबकूदेव जीसे पए कान्तमें कह्‌1-॥ ७५७६ ॥ 
'वनमे अखिटके स्यि गये हुए प्रसेनको तो सिहने 
मार द्या था ॥७५७॥ अब ज्ञतधन्वाने सत्राजित्‌को 
भी मार दिया है ॥ ७८ ॥ इस प्रकार उन दोनौँके 
मारे जानेपर मणिरनन स्यमन्तकपर हम दोनोका 
समान अधिकार होगा ॥७९॥ इसलिये डरिये ओर 
रथपरर चदुकर ङतधन्वाके मारनेका प्रयत्न कीजिये ।' 
करुष्णचन्द्रके पेसा कहनेपर बरूदैवजीने मौ बहुत 
अच्छा कह उसे स्वीकार किया | ८० ॥ 


कृष्ण ओर बख्देवको [ अपने वधके लिये ] उद्यत 
जान श्चतधन्वाने कृतचर्मीके पास जाकर सहायताके 
लिये प्राथेना कौ ॥ ८१1] तव छतवमने इससे 
का~ ८२ ॥ भसँ बख्देव ओर बाुदेवसे विरोध 
करनेमे समथः नहीं हँ । उसके टेसा कहनेषर 
सतघन्वाने अकरूरसे सहायता मरगी, तो अक्रूरे 
भी कहा-1। ८३-८४ ॥ "जो अपने पाद-प्रहारसे 
त्रिखोकीको कम्पायमान कर देते दै, देवशच्र असुर 
गणकी खियोको वेधम्यद्‌ान देते ह तथा अति प्रबर 
शन्रू-सेनासे भी जिनका चक्र अप्रतिहत रहता दै 
डन चक्रधारी भगवान्‌ बासुदैवसे तथा जो अपने 
मदौन्मच नयनोँकी चितबनसे सवक्रा दमन करने- 
वात्ते ओर भयङ्कर शच्रुसमूहशूप हाथियोंको खीच- 
नेके लिये अखण्ड महिमास्ारी प्रचण्ड दहर धारण 
करनेवारे है उन श्रीदूलधरसे युद्ध करनेमे तो 
निखि खोक वन्दनीय देव गणमे मी कोह समथं नदीं 
है फिरमेरीतोबातदही क्याहै १॥ ८५] इसच्यि 
तुम दृसरेकौ शरण छो । अक्रूरे एेसा कहनेपर 
शतधन्वाने का~ | ८६ ॥ (अच्छा, यदि मेरी रक्षा 
करने आप अपनेको सवथा असमथ समश्चते है तो यै 
आपको यह मणिदेताद्ट इसे खेकर इसोकी रक्षा 


अ० १३] 


चतुथ अश्च 


२२५ 








यद्यन्त्यायामप्यवस्थायां न कसमैचिदहधबान्‌ कथ- 


यिष्यति तदहमेततं ग्रहीष्यामीति ॥ ८९ ॥ 
तथेस्ुक्ते चाक्ररस्तन्मणिरतनं जग्राह ॥ ९० ॥ 

दतथनुरप्यतूषेभां रतयोजनवािनी 
डवामारुदयापक्रान्तः ।। ९१ ॥ शेव्यसुप्रीवमेष- 
पष्पव्लाहकाश्चचतुषटययु क्तरथस्थितौ बरदेववासु- 
देषौ तमनुप्रयातौ ॥९२॥ सा च बडवा शतयो- 
जनप्रमाणमागंमतीता पुनरपि वाह्यमाना 
मिथिावनोदेशे प्राणानुत्ससजं ॥ ९२ ॥ शत- 
धनुरपि तां परित्यञ्य पदातिरेवाद्रबत्‌ ॥ ९४॥ 
कृष्णोऽपि बहमद्रमाह ॥ ९५ ॥ तावदत्र स्यन्दने 
भवता स्थेयमहमेनमधमाचारं पदातिरेव पदाति- 
मनुगम्य यावदूषातयामि अत्र हि भूभगे 
दृष्टदोषास्समया अतो नैतेऽशवा मवतेमं भूमिभाम- 
यन्लङ्कनीयाः ॥ ९६ ॥ तथेत्युक्ता बलदेवो 
रथ एव तस्थौ ॥ ९७ ॥ 


कृष्णोऽपि क्रोशमात्रं भूमिभागमनुसुस्य 
दूरस्थितस्यैव चक्र क्षिप्त्वा शतधनुषरिशरशचिच्छेद 
॥९८॥ तच्छरीराम्ब्रादिषु च बह्ुप्र ारमन्विच्छ- 
नपि स्यमन्तकम्रणि नाबाप यदा तदोपगम्य 
यरुभद्रमाह ॥ ९९॥ वृथैवास्मामिः रतधनुर्घा- 
तिरो न प्राप्तमखिलजगरसारभूतं तन्महारत्नं 
स्यमन्तकार्पमित्याकण्योद्धतकोपो बरूदेषो 
वासुदेवमाह ॥ १०० ॥ धिक्लां यस्त्वमेवम्थं- 
रिप्सुरेतच्च ते आराव्रखान्मया क्षान्तं तदय पन्था- 
स्स्वेच्छ्या गम्यतां न मे द्वारकया न त्वया 


न चाशेषन्धुभिः कायमलमकमेमिर्ममाग्रतो- 
ऽक्टोकशचपथेरित्याक्षिप्य तत्कथां फकथशिससाद्य- 





मँ इसे तभी ठे सकता हँ जव कि अन्तकाल उपस्थित 
होनेपर भी तुम फिंसीसे मी यह्‌ बात न कहो ॥ ८९॥ 
ङ॒तधन्वाने कहा-- धसा ही होगा ।* इसपर अकरुरने 
वह्‌ मणिरत्न अपने पास रख छया ॥९०॥ 

तदनन्तर, क्चषतधन्वा सौ योजनतक्‌ जानेवाली 
एक अत्यन्त वेगवती घोडीपर चदकर भागा ॥९१॥ 
ओौर शम्य, सुप्रीव, मेघपुष्पं तथा बलाहक नामक 
चार घोड़ों बारे रथपर चदुकर बलदेव ओर बासु- 
देवने मी उसका पीछा फिया ॥९२॥ सौ योजन मां 
पार कर जानेपर पुनः आगे छे जानेसे उस घोड़ोने 
मिथिदा देश्चके वनम प्राण छोड दिये | ९३ | तव 
दातधन्वा उसे छोड़कर पैदल ह भागा ॥९४॥ दस 
समय श्रङ्कष्ण चन्द्रे बमद्रजीसे कह 11 ९५। अप 
अभी रथमें ही रहिये भै इस पैदल दौडते हुए दुरा- 
चासीको पदक जाकर ही मारे डाछता हूँ । यहं 
[घोडीके मरने आदि] दोषोको देखनेसे घोडे भय- 
भीतदहयोर्हे है, इसल्यि आप इन्द ओर अगेन 
बदादयेगाः ॥ ९६ | तब बलदेवजी (अच्छा पेसा 
कहकर रथमे ही वटे रहे ॥ ९७॥ 


कृष्णचन्द्रने केवर दा ही कोसतक पीछाकर अपना 
चक्र पक दुर होनेपर भी श॒तधन्वाका सिरकाट 
डाला ॥९८। किन्तु उसके ञ्चरीर ओौर वसन आदिमे 
बहुत कुछ दरंदनेपर भी जव स्यमन्तकमणिको न पाया 
तो बहभद्रजीके पास जाकर उनसे फहा-1। ९९॥ 
“हमने शतधन्वाको व्यथं ही मारा क्योकि उसके 
पास सम्पूणं संसारकी सारभूत स्यमन्तकमणि तो 
मिरी ही नहीं । य सुनकर बलदेवजीने [ यह्‌ 
समक्चकर कि कृष्णचन्द्र उस मणिको छिपानेके लिये 
हयी पेसी बातं बना रहै है] कोधपूत्रंक भगवान्‌ 
वासुदेवसे कषा~। १००॥ तुमको धिक्षार है, तुम 
बड़ेही अथंरोदुप हो; माई होनेके कारण ही म तुम 
क्षमा कयि देतां । तुम्हारा मागं खुखा हआ दै, 
तुम खुश्ोसे जा सकते हो । अव शुचे तो द्वारकासे, 
तुमसे अथवा ओर सव सगे-सम्बन्धियोंसे कोई काम 
नहे बस. चेरे आगे इ थ थी अपथोक्‌ अब 


३२६ 


भीविष्णुपुराण 


[ अ° १३ 








मानोऽपिन तश्यौ॥ १०१॥ स द्रदपुरीं 


प्रविवेश ॥ १०२॥ 
जनक नथा्यंपूवंफमेनं गृहं प्रवेशयामास 
॥१०३॥ स तत्रैव च तस्थौ ॥ १०४ ॥ बामुदेवो- 
ऽपि द्वारकामाजमाम ॥ १०५॥ यावच जनक 
राजगृहे बरुपद्रोऽवतस्थे तावद्धातेरष्ौ दुयोधन- 
स्स्यकाशाद्दाशिक्नामरिक्षयत्‌ ॥१०६॥ वरषत्र- 
यान्ते च॒ वभूग्हेनप्रशृतिभिर्यद््ैनं॑तद्रतं 
` कृष्णेनापहुतमिति कृतावरगतिभिर्विदेहनगरीं गत्वा 
वह्देवस्वम्प्रास्याय्य द्ारकामानीतः ॥ १०७॥ 
अक्र रोऽसयुत्तममणिप्रष्द्तसुवरणेन भ गवद्भवा- 
नपरोऽनवरतं यज्ञानियाज ॥ १०८॥ सवनगतौ 
हि क्षत्रियवैश्यौ निष्नन््रहमहा मवतीस्येवम्प्रकारं 
दीक्षाकययं प्रविष्ट एव तस्थौ ॥ १०९॥ द्विषष्टि- 
वर्पाण्येवं तन्मणिप्रमावाततत्रोपसगेदुभिक्षमारिका- 
मरणादिकं नाभूत्‌ ॥११०॥ अथाक्ररपक्षीयेमो- 
नैरशत्ुष्ने साततस्य प्रपौत्र व्यापादिते मोजैस्स- 
हाक्र रो द्ारकामपदायापकरान्तः ॥१११॥ तदप- 
क्रन्तिदिनादारम्य तत्रोपसगदु्भिक्षम्याहानात्र- 
षिमारिकायुपद्रबा बभूवुः ॥ ११२ ॥ 
अथ यादवबलमदरोग्रसेनसमवेतो मन्वम- 
मन्त्रयदूभगवानुरगारिकेतनः ॥११३॥ किमिद- 
मेकदैव प्रचुरोपद्रवागमनमेतदाहोच्यतामिस्युक्ते- 
ऽन्धकनामा यदुवृद्धः प्राह ॥ ११४॥। अस्याक्र.रस्य 
पिता श्वफल्को यत्र यत्राभूतत्र ततर दुभिक्षमारिका- 
नाव्ृ्टयादिक नाभूत्‌ ॥ ११५॥ काशिराजस्य 


पिषये तवनाष्टया च श्रफल्को नीतः ततश 
तसक्षणादेषो चवषं || ११६ ॥ 


_ _  # ५ @ 





कड प्रयोजन नहीं ।' इस प्रकार उनकी बात्तको 
काटकर बहुत कुछ मनानेपर मीवे वर्हमौनरुके 
ओर बिदैहनगरको चरे गये ॥ १०१-१०२॥ 
विदेहनगरे पहंचनेपर राजा जनक उन्दं अर्ध्य 
देकर अपने घर ठे अये ओरवे रहीं रहनेल्गे 
॥१०३.१०४॥ इधर, भगवान्‌ वासुदेव दवारकाम चरे 
आये ॥ १०५ ॥ जितने दिनतक बलदेव जी राजा 
जनकके यह रहे उनने दिनतक धृतगाष्टूका पुत्र 
दुर्योधन उनसे गदायुद्ध सीखना रह्‌ा॥। १०६।। अनन्तर, 
बभ्र ओर उभ्रसेन आदि यादबोँके, जिन्ह यह्‌ ठौक 
माम था कि क्षणे स्यमन्तकमणि नहीं छी है 
विदैदनगरमे जाकर शपथपूवंक विश्वास दिलानेपर्‌ 


¦ बरूदेवजी तीन वपं पश्चात्‌ दवारकाम चदे आमे। १०७] 


अक्रूरजी भो भगत्रद्भथान-पर।यण रहते हुए उस 
मभि.रत्नसे प्राप्न सुच्णके द्वारा निरन्तर यज्ञानुष्ठान 
करने खगे ॥१०८॥ यज्ञ-दीक्षित क्षिय ओर वेैरयोके 
मारनेसे ब्रह्महत्या होती है इसख्यि अक्रूरजी सदा 
यज्ञदीक्षाख्प कवच धारण ही करिये रहते थे ॥१०९॥ 
उस मणिके प्रभावसे बासठ वषंतक द्वारकामे रोग, 
दुर्भिक्ष, महामारी या मृत्यु आदि नदीं हुए ॥११०] 
फिर अकरुर-पक्षीय मोजवं रियो हारा सात्वतके प्रपौत्र 
शातरुष्नके मारे जानेपर भोजोंके साथ अक्रूर भी 
ह्वारकाको छोडकर चले गये ॥१११। उनके जति ही 
उसी दिनसे दवारकाम सेग, दुर्भिश्, सपं, अनावृष्टि 
ओौर मारी आदि इपद्रब होने खगे ॥ ११२॥ 


तव गरुडध्वज भगवान्‌ कृष्ण बलभद्र ओर चम्र- 
सेन आदि यदुबंशियोंके साथ मिखकर सराह करने 
कगे | ११३॥ श्रसक्रा क्या कारणदहैजो एक साथही 
इतने उपद्रवोंका आगमन हभ, इसपर विचार करना 
चाहिये ।' उनके ठेसा कहनेपर अन्धक नामक एक 
बुद्ध याद्वने का ११४ ॥ अक्रूरके पिता श्फल्क 
जह-जहाँ रहते थे वहम-बहंदुर्भिक्ष, महामारी, अना- 
वृष्टि आदि उपद्रव कभी नहीं होते थे ॥ ११५ ॥ एक 
बार काञ्चिराजके देश्चमे अनाचरष्टिहुई थी । तब शफल्क- 
को वहारे जाते ही तत्कारु वषा होने रगो | ११६॥ 


न ाााोयतानाााानमनन 
1 


॥ ११७ ॥ सा च कन्या पूर्णेऽपि प्रतिकारे 
नेव निशक्राम ॥ ११८॥ एवं च तस्य गर्भस्य 
द्ादयवर्पाणयनिष्कामतौ यपु; ॥ ११९ ॥ कारि- 
राजथ तामासमजां गमस्थामाह ॥ १२० ॥ पुत्रि 
कस्मान्न जायसे निष्कस्यतामास्यं ते द्रषटूमि- 
च्छामि एतां च मातरं किमिति चिरं ष्छेश- 
यसीतयुक्ता गर्भस्थैव व्याजहार ॥ १२१ ॥ तात 
यधेकैकां गां दिने दिने ब्राह्मणाय प्रयच्छसि 
तदादमन्यैखिभिवपैरस्मादरभात्तावदवश्यं निष््- 
मिष्यामीर्येतदचनमाकण्यं राजा दिने दिने 
त्राह्मणाय गां प्रादात्‌ ॥ १२२ ॥ सापि तावता 
काठेन जाता ॥ १२३ ॥ 


ततस्तस्याः पिता गान्दिनीति नाम चकार 
॥ १२४॥ तां च गान्दिनीं कन्यां श्रफल्कायोष- 
कारिणे गृहमागतायाध्यं भूतां प्रादात्‌ ॥ १२५॥ 
तस्यामयमकरुरः श्वफल्काञजज्ञे ॥ १२६॥ तस्यै- 
वङ्गुणप्नियुनादुत्पत्तिः ॥ १२७ ॥ तत्कथमसिमि- 
नपक्रान्तेऽत्र ॒दुभिक्षमारिकादयुषद्रवा न मवि- 
ष्यन्ति॥ १२८ ॥ तदयसत्रानीयतामहमतिगुण- 
वत्यपराधान्वेषणेनेति यदुबदरस्यान्धकस्यैतद्चन- 


माकण्यं केषवेोग्रसेनवहभद्रपुरोगमैयंदुभिः 
कृताप्राधतितिभुमिरभयं दत्वा श्वफल्फपुत्रः 
स्वपुरमानीतः ॥ १२९ ॥ तप्र चागतमात्र एव 
तस्य स्यमन्तकमणे; प्रभावादनाब्ृ्टिमारिकादु- 
भिक्षन्यालायुषद्रवोपकमा बभूवुः ॥ १३० ॥ 


कृष्णश्चिन्तयामास ॥ १३१॥ स्वल्पमेत- 
त्कारणं यदयं गान्दिन्यां श्वफल्केनाक्रूरो जनितः 
॥ १२२॥ सुमहांधायमनाब्षटिुरभिक्षम।रिकाघु- 
` प्रवप्रतिषेधकारी प्रभावः ॥ १३३ ॥ तनूनमस्य 
सकाशे च॒ महामणिः स्यमन्तकारूयस्तिषएति 
॥ १२४ ॥ तस्य दव॑विधाः प्रमावाः श्रुयन्ते 


{~ [ा  _ न 











।} ११७ ॥ वह कन्या भरसूतिकालके समाप्त दोनेपर 
भी गमंसे बाहर न भाय ॥ ११८ ॥ इस प्रकार 


उस गभेको प्रसव हुए विना बारह बं म्यतीत हो 
गये । ११९॥ तव काश्चिराजने अपनी डस गर्भस्थिता 


पुरीसे कहा-। १२० ॥ चेटी ! तू उसन्न क्यों नहीं 
होती १ बाहर आ, मै तेरा मुख देखना चाहता 
ह १२१॥ अपनी इस माताको तू इतने दिनोसे क्यों 
कष्टदेरही दै? राजाकरे रेषा कहनेपर उसने 
ग्म रहते हए ही कहा-"पिताजी ! यदि आप 
प्रतिदिन एक गौ ब्राह्मणको .दान दंगे तो अगे तीन 
वषं वीतनेपर मै अवरय गर्भसे बाहर आ ज्ञाडंगी ॥' 
इस वबातको सुनकर राजा प्रतिदिन ब्राह्मणको एक 
गौ देने लगे |} १२२॥ तव उतने समय ( तीन वषं ) 
बीतनेपर बह उत्पन्न हुई ॥ १२३ ॥ 


पिताने उसका नाम गान्दिनी रखा १२४॥ ओर 
रसे अपने उपकारक श्फल्करको, घर आनेपर अष्यं- 
ख्पसे दे दिया ॥ १२५॥ उसीसे छफल्कके द्वारा इन 
करूरजीका जन्म हुआ ॥ १२६॥ इनकी एेसौ गुणवान्‌ 
माता-पितासे उत्पत्ति है तो फिर उनके चङे जानेसे 
यह दुर्भिक्ष भौर महामारी आदि उपद्रव क्योन 
हग ?॥ १२७-१२८ । अतः उनको यहम ठे आना 
चाहिये, अति गुणवान्‌के अपराधकी भविक जच 
परतारू करना ठीक नहीं है । यादववरृद्ध अन्धकके 
पैसे बचन सुनकर कृष्ण, दम्रसेन ओर बलभद्र 
आदि यादव चफल्पुत्र अकर के अपराघको भुटाकर 
उन्ह अभयदान देकर अपने नगरमे छे आये ॥ १२९॥ 
=नके वह आते हट स्यमन्तकमणिके प्रभावसे अना. 
वृष्टि, महामारी, दुर्भिक्ष ओर स्पभय आदि समी 
उपद्रवे शान्त हो गये | १३० ॥ 


तव श्रोकृऽणचन्द्रने विचार किया-1 १३१॥ 
“अक्रूरका जन्म गान्दिनीसे चफल्कके द्वारा हुभा दै, 
यह्‌ तो बहुत सामान्य कारण है ॥ १२२॥ किन्तु 
अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी आदि खपद्रवोँको शान्त 
कर देनेवाला इसका प्रभाव तो अति महान्‌ दै 
। १३३॥ अवश्य ही इसके पास वह स्यमन्तक नामक 
महामणि है ॥ १३४ ॥ इसीका रेस प्रभाव सुना 








} १३५ ॥ अयमपि च यन्नादनन्तरमन्यल््र 
तन्तरं तस्यानन्तरपन्य््ान्तरं चाजस्मवि- 
च्छिन्नं यजतीति ॥ १३६ ॥ अल्पोपादानं 
चास्यासंशयस्रासौ मणिवरस्तिष्ठतीति इताध्यव- 
सायोऽन्यस्रयोजनुदिश्य सकल्यादवप्तमाज- 
मात्मगरह एवाचौकरत्‌ ॥ १२३७ ॥ 


तत्र चोपविषेष्वसिरेषु यदुषु पूव प्रयोनन- 
ुपन्यस्य पविते च तसिमन्‌ प्रषङ्गान्तरपरिद- 
सकथामकरेण दृता जना्दनस्तमकरूरमाद 
॥ १३८.॥ दानपते जानीम एव बयं यथा 
दतधन्यना तदिदमखि जगत्सारभूतं स्यमन्तक 
रसनं भवतः एमरपितं तदशेषराष्रोपकारफ मवस्स- 
कारे तिष्ठति तिष्ठतु सयं एव बयं तसभावफल- 
युजः फं सवेष बरमद्रोऽस्मानाशङ्कितवांस्तदस्म- 
प्रीतये दु्धयस्वेव्यमिधाय जोषं स्थिते भगवति 
वासुदेवे सरतस्सोऽचिन्तयत्‌ ॥ १३९॥ किमत्रा- 
नुष्टेयमन्यथा वेदूत्रवीम्यहं तर्केवलाम्बरतिरोधान- 
मन्विष्यन्तो रतमेते द्रर्यन्ति अतिबरिरोपो न 
क्षेम इति सशचिन्त्य॒तमखिहजगत्कारणभूतं 
नारायणमाहाक्र.रः ॥१४०॥ भगवन्ममैतत्स्यम- 
न्तकरतनं शतधरषा समपिंतमपगते च तस्मिश्च 
श्वः परदवो वा ममवान्‌ याचयिष्यतीति कृतमति- 
रतिष्च््णेतावन्तं कालमधारयम्‌ ॥ १४१ ॥ 
तस्य च धारणक्लेशेनाहमरेषो पभोगेप्वसद्धिमानसो 
न वेचि सवसुखकलमपि।। १४२ ॥ एतावन्मात्र- 
मप्पशेषराष्टोपकारि धारयितुं न रक्रोति भवान्म- 
नयत हत्यास्मना न ॒चोदितवान्‌ ॥ १४३ ॥ 


जातादहै॥ १३५ इसे भी हम देखते दहै किएक 
यज्ञके पीछे दसरा भौर दुसरे पीठे तीसरा इस 
प्रकार निरन्तर अखण्ड यज्ञानुष्ठान करता रहता 
है | १३६ ॥ ओर इसके पास यज्ञके साधन [ धन 
आरि ] भी बहुत कम है; इसलिये इसमें सन्देह नहीं 
कि इसके पास स्यमन्तकमणि अवश्य है।' पसा 
निश्चयकर किसी ओर प्रयोजनके लदेश्यसे उन्दने 
सम्पूणं यादनोको अपने महरूम एकत्रित किया॥ १३७ 


समस्त यदुवंशियोके व्यँ आकर बैठ जानेके बाद 
प्रथम प्रयोजन बताकर उसका उपसंहार होनेषर 
प्रसंगान्तरसे अक्रूरके साथ परिहास कस्ते हुए भग 
षान्‌ कृष्णने उनसे कहा १३८॥ “हे दानपते ! जिस 
प्रकार सतधन्वाने तुम्रं सम्पूण संसारकी सारभूत 
वह स्यमन्तक नामकी महामणि सौँपी थौ वह्‌ हमे 
सब सादूम है । वह्‌ सम्पूणे राष्टूका उपकार कर्ती 
हुदै तुम्हारे पास हेतो रहे, उसके प्रभावका फएरतो 
हुम सभी भोगते है; किन्तु ये बलभद्रजी हमारे उपर 
सन्देह करते थे, इसच्यि हमारी प्रसन्नताके सख्यि आप 
एक बार उसे दिखा दीजिये 1 भगवान्‌ वासुदेवके 
एेसा कहकर चुपहयो जानेषर रत्न साथ ही लिये रहनेके 
कारण भक्रूरजी सो चने रगे-1। १३९॥ “अब सुश्च क्या 
करना चाहिये, यदि ओौर किसी प्रकार कहता हँ तो 
केवल वश्मोे ओटमें टटोल्नेपर ये उसे देखी ठंगे 
ओौर इनसे अत्यन्त विरोध करमेभे हमाय ऊर 
मष्ट है" देसा सोचकर मिखिल् संसारके कारण- 
स्वरूप श्रीनारायणसे अक्रूरजी बोले-॥ १४०॥ “भग- 
वन्‌ ! शतधन्वने यु्चे बह मणि सौपदी थो । उसके 
मर जानेपर मैने यह सोचते हुए बड़ी हौ कठिनतासे 
इसे इतने दिन अपने पास रखा है किं भगवान्‌ 
आज, कल या परसो इसे मगंगे ॥ १४१ ॥ इसकी 
चौकसीके क्टेशसे सम्पूणं भोगो अनासक्तचित्त 
होनेके कारण सुच युखका ेश्चमात्न भी नहीं 
मिखा ॥ १४२ ॥ भगवान्‌ ये विचार करते कि यह , 
सम्पूणं राष्टूके रपकारक इतने-से भारको मी नदीं उटा 
सकता, इसदिये स्वयः मने आपसे कदा नहीं ॥ १४३॥ 


तदिदं स्यमन्तकरत्नं गृह्यताभिच्छया यस्याभिमतं 
तस्य समप्यंताम्‌ ॥ १४४ ॥ 


ततः स्वोदस्वस्लनिगोपितमतिर्घुकन कसयुद्र- 
कगतं प्रकटीकृतवान्‌ ॥ १४५ ॥ ततश 
निष्कराम्य स्यमन्तकमणि तस्मिन्यदुङकुलस्षमाजे 
ममोच ॥ १४६॥ युक्तमप्रे च तस्मिनतिकान्तया 
तदखिलमास्थानय्योतितम्‌ ॥ १४७ ॥ अथाहा- 
ररः स एप मणिः शतधन्वनास्माक समपितो 
यस्यायं सर एनं गृह्णातु इति ॥ १४८ ॥ 


तमालोक्य सर्वयादवानां साधु्ाधिति 
विस्मितमनसां बाचोऽश्रुयन्त ॥ १४९ ॥ तमाो- 
क्यातीव यलमद्रो ममायमय्युतेनव सामान्यस्स- 
मन्वीष्पित इति टृतस्प्रहोऽभू्‌ ॥ १५० ॥ 
मपैषायं पितृथनमित्यतीव च सत्यभामापि 
सपृहयाश्चकार ॥ १५१ ॥ बलसरयावरोकना- 
र्कृष्णोऽप्यारमानं गोचक्रान्तरावस्थितमिष मेने 
॥१५२॥ सफ़यादवसम्षं चाक्र.रमाई | १५२॥ 
एतद्वि मणिरत्नमारमसंशोधनाय एतेषां यदूनां 
मया दशितम्‌ एतच्च मम वभद्रस्य च सामान्यं 
पितृधनं चैवस्सत्यमामाया नान्यस्थैतत्‌ । १५४॥ 
एतच सवकालं शुचिना त्रहमचर्यादिगुणमता 
धियमाणमशेषराष्स्योपकारकमगुचिना भियमा- 
णसाधारमेव हन्ति ॥ १५५॥ अतोऽहमस्य षोड- 
रस्ीसहस्तपरिग्रहादसमथों भारणे कथमेवत्स- 
त्यमामा स्वीकरोति ॥ १५६ ॥ आयबमदे- 
णापि सदिरापानाधसेपोपभोगपरित्यागः कायंः 
॥ १५७ ॥ तदलं यदुलोकोऽयं बरमद्रः अहं च 








अव, लीजिये आपकर वह स्यमन्तकमणि यदह 
रही, आपकी जिसे इच्छादहो ससे दही इसे दे 
दीजिये” ॥ ९४४ ॥ 


तवं अक्रूरजीने अपने कटि-वश्लभं छिपायी हुई 
एक छोटी-सी सोनेकी पिटारीमें स्थित वह स्यमन्तक- 
मणि प्रकट की ओौर उस पिदारीसे निकारकर 
याद्व-समाजमें रख दौ ॥ १४५-१४६ || उसके रखते 
ही वह सम्पूणं स्थान उसकी तीत्र कान्तिसे देदीष्य- 
मान होने खगा ॥ १४७ ॥ तव अकषूर्जीने कषा, 
“मुञ्चे यह्‌ मणि सतधन्वाने दी थी, यह्‌ जिसकी हो 


वह ठे ठे" ॥ १४८ ॥ 


उसको देखनेपर सभी यादवोंका बिस्मयपूवैक 
"साधु, साधु" यह वचन सुना गया ॥ १४९ ॥ उसे 
देखकर बरभद्रजीने 'अच्युतके ही समान इसपर 
मेया मी अधिकार दैः इस प्रकार अप्रतौ अधिक 
सपरहा दिखायी । १५० ॥ तथा "यह्‌ मेरी ही पैक 
सम्पत्ति है" इस तरह सव्यभाभाने भी उसके स्थि 
अपनी इउत्करट अभिषापा प्रकट की] १५१ ॥ वल्भद्र 
ओर सत्यभामाक्ो देखकर कृष्णचन्द्रने अपनेको 
वैर भौर पहियेके बीचमे पड़ हुए जीवे समान 
दोनों ओरसे संकटग्रस्त देखा ॥ १५२॥ ओर समस्त 
यादबोके सामने बे अक्रूरजीसे बोखे-। १५३ ॥ 
"रस मणिरत्नको मैने अपनी सफाई देनेकेल्यिहौी .. 
इन यादवोंको दिखवाया था! इस मणिपर मेरा 
सौर बलभद्रजीका तो समान अधिकार है भौर 
सत्यभामाकी यह पैवरक सम्पत्ति है; ओौर किसीका 
इसपर कोई अधिकार नहीं दै ।१५४॥ यह मणि सदा 
शुद्ध ओौर ब्रह्मचयं आदि गुणयुक्त रहकर धारण 
करनेसे सम्पूण राष्टरूका हित करती है ओर अशुद्धा 
वस्थामे धारण करनेसे अपने आाश्रयदात्ताको भी 
मार डारती है ।॥ १५५ ॥ मेरे सोलह हजार स्वरया 
है, इसलिये मै इसके धारण करनेमे समथ नदीं ह 
इसील्यि सत्यभामा भी इसको कैसे धारण कर सकती 
हे ?॥ १५६ | आयं बरभद्रफो भी इसके कारणसे 
मदिरापान आदि सम्पूण भोगोको स्यागना पड़ेगा 
| १५७॥ इसलिये हे दानपते ! येयादवगण, बरुभद्रजी, 


३४० 






भरीविष्णुपुराणे 


[ अ० १४ 








सत्या च खां दानपते प्रार्थयामः ॥ १५८ ॥ 
तद्भवानेव धारयितुं समथः ॥ १५९ ॥ त्वदृधरतं 
चास रष्स्योपश्नारकं तद्धवानकेपराषटनिमित्तमे- 
तसूर्हवद्धार्यखन्यन्न वक्तव्यभिस्ुक्तो दानपति- 
स्तयेत्याह जग्राह च तन्महारतम्‌ ॥ १६० ॥ 


तत; प्रभृर्यक्करः प्रकटेनैव तेनातिजान्व- 
ल्यमानेनास्मफण्डावसक्तेनादिस्य इषांशुमारी 
चचार ॥ १६१ ॥ 


इस्येतद्भगवतो मिथ्यामिशसितिक्षालनं यः 
स्मरति न तस्य कदाविदल्पापि मिथ्याभिश- 
स्तिरभवति अव्याहताखिहेन्दरियश्ाखिरूपापमीक्ष- 
मवाम्नोति ॥ १६२ ॥ 





मै जौर सव्यभामा सब मिरुकर आपसे प्राथना करते 

कि इसे धारण करनेमे आप हौ समयं है | १५८ 
१५९ | आपके धारण करनेसे यह सम्पूणं राष्टूका 
हित करेगी इसल्यि सम्पूणं राष्टूके मंगरके लिये 
आप ही इसे पूबंवत्‌ धारण कीजिये; इस विषयमं 
आप ओौर कुछ मी न कह ।'° भगवान्‌ ठेस कहने 
पर दानपति अक्रस्त जो आज्ञाः कृद वह्‌ महारत्न 
ठे हिया । तवसे अक्ररजी सवके सामने उम अति 
देदीप्यमान मणिको अपने गेम धारणकर सूयके 
समान किरण-जालसे युक्त होकर विचरने खगे 
|| १६०-१६९ ॥ 


भगवान्‌के मिभ्या-कलङ्क-रोधनरूप इस प्रसंगका 
जो को स्मरण करेगा, उसे कभी योड़ा-सा भी 
मिथ्या कलङ्कं न लगेगा, उसकी समस्त इन्द्र्यो 
समर्थं रहेगी तथा वह समस्त पापोँसे सक्त हो 
जायगा ॥ १६९ ॥ 





इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽे त्रयोदसोऽध्यायः ।॥ १३॥ 


~~ १ ७ ९३/४५. 


चोदह्वाँ अध्याय 


अनमित्र मौर अन्धके वंशाका वणेन 


श्रीपराश्चर उवाच 

अनमित्रस्य पुत्रः शिनिर्नामाभयत्‌ ॥ १ ॥ 
तस्यापि सस्यकः सत्यकास्तास्यकियुंयुधाना- 
परनामा ॥ २॥ तस्मादपि सञ्यः तत्पुत्रश्च 
कुणिः बुणेयुगन्धरः ॥३॥ इयते रेनेयाः ॥।४॥ 

अनमित्रस्यान्यये पृदिनस्तस्पात्‌ श्वफल्कः 
तरभावः कथित एव ॥ ५ ॥ शरफल्कस्यान्यः 
कनीयांधित्रको नाम भ्राता ॥ ६ ॥ श्वफल्कादक्ररो 
गान्दिन्याममवत्‌ ॥७॥ तथोपमद खदामृदविश्वा- 
सिमिजयगिरिक्रोपक्षप्रशतकतारिमदनधर्मर्ृष- 


क 





ीपयशरजी बोक्ते--अनमित्रके शिनि नामक 
पत्र हआ; हिनिके सत्यक ओर सत्यकसे सात्यकिका 
जन्म हज जिसका दूसरा नाम युयुधान था ॥१-२॥ 
तदनन्तर सात्यक्रिके सञ्जय, सञ्जयके छुणि शौर 
कुणिसे युगन्धरका जन्म हुआ । ये सव शैनेय नाम- 
से विख्यात हुए ॥ ३-४ ॥ 

अनमिन्रके वरम ही प्रदिनिका जन्म हुजा ओर्‌ 
प्रहिनिसे श्वफल्ककी "तपन्ति हई जिनका प्रभाव पहले 
वर्णेन कर चुके दै । श्चफल्कका चिचक नामक एक 


छोरा भाई भौर या ॥ ५-६ ॥ शफल्कके गान्दिनीसे 
अक्रुरका जन्म हृ ॥७॥ तथा [एक दूसरी जीसे] 
उपमदूशु, सृदाृद्‌, चिश्वारि, मेजय, गिरिक्त्रः डप 


¢ ध भे, 


[यावता 1111 
न ------- `` 


सुताराख्य। कन्या च ॥ ९ || देववानुपदेवधाक्र.र- 
पत्रो ॥ १० ॥ पधुविपृथुप्रषुखाधित्रकस्य पुत्रा 
बहथो बभूवुः ॥ ११॥ 
कुङकुरमजमानुचिकम्बलबरहिषाख्यास्तथान्ध- 
कस्य चत्वारः पुत्राः ॥ १२॥ इुराद्धष्टः 
तस्म।च कपोतरोमा ततश्च विक्छोमा तस्मादपि 
तम्बुरुपखोऽमवदनसंजञशच ॥ १३ ॥ अनोरानक- 
दुन्दुभिः ततश्वाभिनित्‌ अभिजितः पुनवंसुः 
॥१४। तर्याप्याहुक आहुको च कन्या ॥१५॥ 
आहुकस्य देवकोग्रसेन द्रौ पप्रौ ॥ १६ ॥ देव- 
वानुपदेवः सहदेवो देबरक्षितो च देवकस्य 
चत्वारः पुत्राः ॥ १७ ॥ तेषां व्रकदेबोपदेवा 
देवरक्षिता श्रीदेवा शान्तिदेवा सहदेवा देवको 
च सप्त॒ भगिन्यः ॥ १८ ॥ ताश्च सर्वां वसुदेव 
उपयेमे ॥१९॥ उग्रसेनस्यापि कंसन्पग्रोधसुना- 
मानकाहश््ुसुभूमिरा्गल्युद्धतष्टिस॒तष्टिमत्सज्ञाः 
पुत्रा बभूवुः ॥ २० ॥ कसाकंसवतीसुतनुर्पा- 
लिकाहश्वोग्रसेनस्य तनूजा; कन्याः ॥ २१ ॥ 
मजमानाच विदूरथः पुत्रोऽभवत्‌ ॥ २२ ॥ 
विद्रथाच्छरः सुराच्छमी शमिनः प्रतिक्षत्रः 
तस्मात्स्यभो स्ततश्च हृदिकः ॥ २३ ॥ तस्यापि 
कृतवर्मशतधनुदेवादैदेवगर्माद्याः पत्रा बभूवुः 
॥२४॥ देवगर्मस्यापि शूरः ॥ २५ ॥ शुरस्यापि 
मारिषा नाम पल्यभवत्‌ ॥ २६॥ तस्यां चासौ 
दगरपू्रानजनयद्वसुदेबपूर्बान्‌ ॥ २७। वसुदेवस्य 
जातमात्रस्येव तद्गृहे मगवदंशावतारमव्याह- 
तटटया पदयद्विदपे्दिव्यानकटुन्दुभयो वादिताः 
॥ २८॥ ततश्चासावानकदुन्दुमिसं्ञामवाप २९ 
तस्य च देवभागदेवध्रवोऽटककङूचक्रवरपधारक- 
“ सुञ्जयरयामक्षमिकगण्टूषसन्ञा नव भ्रातरोऽभवन्‌ 





वाह्‌ ओर प्रतिवाह्‌ नामक पुत्र तथा सुतारानाम्नी 
कन्याका जन्म हुआ । <-९॥ देववान्‌ ओर 
उपदेव ये दो अकरूरफे पुत्र थे ।। १०॥ तथा चिच्रकके 
पृथु, विप्रशु आदि अनेक पुत्र थे॥ ११॥ 


कुकुर, भजमान, शुचिकम्बरू ओर वर्हिष ये चार 
अन्धकके पुत्र हुए ॥ १२ ॥ इनमेसे कुक्ुरसे धृष्ट, धृष्टसे 
कपोतरोमा, कपोतरोमासे विलोमा तथा विष्टोमासे 
तुम्बुरु मित्र अलुका जन्म हुआ ॥ १३॥ अलुसे 
आनकदुन्दुभि, उससे अभिजित्‌, अभिजिते 
पुनव॑सु ओर पुनवंसुसे आहुक नामक पुत्र ओर 
आहुको नाम्नी कन्याका जन्म हुआ ॥ १४-१५॥ 
आहुकके देवक ओर म्रसेन नामक दो पुत्र हृए।॥१६॥ 
उनमेसे देव कके देववान्‌, पदैव, सहदेव ओर 
देवरक्षित नामक चार पुत्र हृए ॥ १७॥) इन चाररोकी 
वरृकदेवा, उपदेवा, देवरक्षिता, श्रीदेवा, ्ान्तिदेवा, 
सहदेवा ओौर देवकी ये सात भगिनियाँ थीं ॥ १८॥ 
ये सव वसुदेवजौको विवाहौ गयी थीं । १९॥ मर 
सेनके भौ कंस, न्यग्रोध, स॒नाम, आनकाह, शङ्कुः 
सभूमि, रष्टरूपाढ, युद्धतष्टि जौर सुवुष्टिमान्‌ नामक 
पुत्र तथा.कंसा, कंसवती, युततु भौर राष्टूपालिका 
लामकी कन्या हृद ॥ २०-२१॥ 


भजमानका पुत्र विदूरथ हु, विदृर्थके दुर, 
शरे शमी, शमीके प्रतिक्षत्र, भ्रतिक्षत्रके स्वयंभो, 
स्वयभोजके हृदिक तथा हदिकके कृतवर्मा, शतधन्वा, 
देवादहं ओर देवगभं आदि पु हुए । देवगभंके पुत्र 
शुरसेन ये ॥ २२-२५ ॥ शरूरसेनकी मारिषा नामकी 
पत्नी थी । उससे उन्दोनि वसुदेव आदि द पुत्र उतपन्न 
किये ॥ २६-२७॥ वयुदेवके जन्म रेते ही देवतानि 
अपनी अभ्याहत रृष्टिसे यह्‌ देखकर फि इनके घरमे 
भगवान्‌ अंञ्चावतार ठेर, आनक ओर दुन्दुभि भादि 
घाजे बजय थे ॥ २८ ॥ ईसील्यि इनका नाम आनक- 
दुन्दुभि भी हृ ॥ २९॥ इनके देवभाग, देवश्रवा, 
अष्टक, ककुचक्र;) वस्सधारक; सञ्चय, सयाम, मिक 
ओर गण्डूष नामक्र नौ माई थे।॥ ३०॥ तथा इन 


३७२ 


भरीविष्णुपुरोभं 


[ अ० १४ 


॥ २० ॥ पृथा श्रुतदेवा श्रुतकोति; श्रुतश्रवा | बसदेव आदि दश भाहूयोकी प्रथा, श्रतदेवा, 


राजाधिदेवी च वदुदेवादीनां पश्च भगिन्यो 
ऽभवन्‌ || ३१ ॥ 


शरस्य इन्तिर्नाम सखाभवत्‌ ॥३२ ॥ तसै 
चापुत्राय पृथाप्रासजां बरिधिना शरो दत्तषान्‌ 
॥२३॥ तां च पाण्डुरुवहि ।॥ २४ ॥ तस्यां च 
धर्मानिलेन्रैयुधिष्ठिरमीमतेनाज नास्यासलयः 
स्सथुटपादिताः ॥३५॥ पूमेवानहाया्च भगवता 
भासत कानीनः कर्णो नाम पुत्रोऽजन्पत ॥३६॥ 
तस्याश्च सप्ती मद्री नामाभूत्‌ ॥ २७॥ तस्यां 
च नासत्यद्चाभ्यां नद्ुलसददेषरो पाण्डोः पुत्रौ 
जनितौ ॥ ३८ ॥ 





श्रुतदेवां तु धृद्धधर्मा नाम कारूप उपयेमे 
॥ ३९॥ तस्यां च दन्तःक्रो नाम महापुर जज्ञे 
॥४०॥ भ्रुतकीतिमपि कैकयर। ज उपयेमे ॥४१॥ 
तस्यां च सन्तद॑नादयः कैकेयाः पञ्च पुत्रा बभूषुः 
॥॥ ४२ ॥ राजापिदेष्यामवन्त्यौ विन्दानुविन्दौ 
जक्ञते ॥ ४३॥ श्रुतश्रवसषमपि चेदिराजो 
दमधथोषनामोषयेमे ॥ ४४ ॥ तस्यां च शिदुषा- 
ठतवादयामास ॥ ४५ ॥ स षा पूवंमप्युदार- 
विक्रमो दैस्यानामादिपुरुषो हिरण्यकरिपुरभवत्‌ 
॥ ४६ ॥ यश्च॒ भगवता सकफरृ्टोकगुहणा 
नरसिंहेन प्रातितः ॥ ४७॥ पुनरपि अक्षयवीयं- 
रोयंसम्पत्पराक्रममुणस्समाक्रान्तसकसत्रेडोक्येश्वर- 
प्रभावो दश्नाननो नामाभूत्‌॥ ४८॥ बुकारोप- 
युक्तभगवत्सकाशावाप्रशषरीरपातोद्धवपुण्यफो 
अमवतां राघवरूपिणा सोऽपि निधनयुपपादितः 
118॥ पुनश्च दिस्य दमधोषस्यादपञरिकशु- 
पाठनामासवत्‌ ॥५०॥ रिकुपाहत्वेऽपि भगवतो 
-अशरावतारणा [वितोणश्तिस्य पण्टरीठकनयन- 





भरृतकीर्ति, धरतश्रवा ओर राजाधिदेवी ये पाँच 
यदिन थीं ॥ ३१॥ 


शुरसेनके कुन्ति नामक एक मित्र थे ॥ ३२॥ वे 
निःसन्तान थे अतः शुरसेने द्तक-विधिसे उन्हें 
अपनी प्रथा नामकी कन्यादेदी थी।॥३३॥ खसका 
राजा पाण्डुके साथ विवाह हु ॥ २४ ॥ उसके धमः; 


वायु शौर इन्दरफे द्वारा करमशः युधिष्ठिर, भीमसेन 
आर अञ्युन नामक तीन पुत्र हुए ॥ ३५॥ 
इनके पहले इसके अविवाहितावस्थाभ हौ भगवान्‌ 


सूयके द्वारा कणे नामक एक कानीन पुत्र ओर 
हज था ॥ ३६ ॥ इसकी माद्री नामी एक सपत्नी 


थी | ३७॥ उसे अधिनीक्कमारोद्वारा नक्ुढ ओौर 
सहदेव नामक पाण्डुके दो पुत्र हुए ।॥ ३८ ॥ 


शुरसेनकौ दूसरी कन्या श्रुतदेवाका कारूष-नरेशच 
बृद्धधमौसे विवाह हुभा थ ॥ ३९ ॥ उससे दन्तवक्र 
नामक महादैस्य उपपन्न हुआ ॥ ४० ॥ श्रुतकीतिंको 
केकयराजने विवाहा था ॥ ४१ ॥ उससे केकय-नरेश- 
के सन्तदेन आदि पौँच पुत्र हुए ।। ४२ ॥ राजाधि. 
देवीसे अवन्तिदेञ्चीय विन्द्‌ ओौर अनुचिन्दका जन्म 
हज ॥ ४३ ॥ श्रुतश्रवाका भौ चेदिराज दमघोषने 
पाणिग्रहण किया ॥ ४४ ॥ ससे शिघ्ुपारका जन्म 
हुज1 ॥ ४५ ॥ पूवंजन्मम यह्‌ अतिशय पराक्रमी 
हिरण्यकशिपु नामक दैत्योका मूढ पुरुष हुभाया जिसे 
सकल लोकगुर भगवान्‌ बरसिहने मारा था 1 ४६ 
४७ ॥ तदनन्तर यह्‌ अक्षय वीयं, शौय, सम्पति ओर 
पराक्रम आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा समस्त त्रिमुवनके 
स्वामी इन्द्रके भी प्रभावको द्बानेवालछा दक्षानन हुभा 
॥ ४८॥ स्वयं मगवान्‌के हाते हो मारे जानिके पुण्यसे 
्ाप्रहुए नाना भोगों को बह बहुत समयत भोगते हृ 


` अन्तमें राघवरूपधारी भगवानके हो ह्वार मारा गया 


॥ ४९॥ उसके पीछे यह्‌ चेदिराज दमघोपका पुत्र 
शिष्चुषाछ हृभा ॥ ५० ॥ ज्िन्ुपल होनेपर भी वह भू- 


९ 
व म | 


अ० १५ | चतुथं अश २४२ 





ननन" ~ ~~~ 


ख्यस्योपरि दवेषानुषन्धमतितराश्चकार ॥ ५१ ॥ 
` भगवता च स निधनदुपनीतस्तत्रेव परमात्मभूते 
मनस एकाग्रतया सायुल्यम्वाप ॥ ५२॥ 
भगवान्‌ यदि प्र्नो यथामिहषितं ददाति 


तथा अगप्रसनोऽपि निक्चन्‌ दिग्यमनुपमं स्थानं 
प्रयच्छति ॥ ५२ ॥ 








भगवान्‌ पुण्डरीकाक्चमै अत्यन्त दवेष-बुद्धि करने 
खगा ॥ ५९ ॥ अन्ते भगवान्‌ हाथसे ही मारे 
जानेपर डन परमास्मामे ही मन लगे रहनेके कारण 
सायुञ्य-मोक्ष प्राप्त फिया ॥५२॥ भगवान्‌ यदि प्रसन्न 
होते है तब ज्ञिस प्रकार यथेच्छ फल देते है, उसी 


प्रकार अप्रसन्न होकर मारनेपर भी वे अनुपम 
दिव्यरोककी प्राप्ति करति दै ॥ ५३॥ 


ब" कन. 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽरो चतुदंशोऽध्यायः ॥ १४॥ 


१ ११६५० 


पंद्रहर्वो अध्याय 


शिश्चुपारके पूषे-नन्मन्तरयोका तथा वसुदेवजीकी सन्ततिका वणेन 


श्रीमैत्रेय उवाच 


हिरण्यरिषुर्वे च रावणसवे च विष्णुना । 
अवाप निहतो भोगानप्राप्यानमरैरपि ॥ १॥ 
न लयं तत्र तेनैव निहतः स कथं पुनः । 
सम्भाप्रः शिशुणहृते सायुज्यं शाश्वते हरो ॥ २॥ 
एतदिच्छाम्यहं श्रोतं सर्वधर्मभृतां बर । 
कौतूहरपरेणेततणष्टो मे वक्तुमदसि ॥ ३॥ 


श्रीपराञ्चर उवाच 
दैत्येश्वरस्पर बधायाखिलकोकोत्पत्तिस्थिति- 
विनाशकारिणा पूवं तनुग्रदणं वेता सृिदरूप- 
माविष्छृतम्‌ ॥ ४॥ तत्र च दिरण्यकश्षिपोरविष्णु- 
रथमिस्येतन्न सनस्यभूत्‌ ॥ ५॥ निरतिश्षय- 
पण्यसुद्धतमेतत्सत्वजातमिति ॥ & ॥ रजड- 
दरेकप्रेरितैकाग्रमतिस्तद्वावनायोगात्ततोऽवाप्तवध- 


हैतुक निरतिश्चयामेवाखिलत्रेरोकयाधिक्य- 
धाश्िणीं द्ातनत्वे ओगसस्थटमवाप } ५ ॥ 


श्रोभैभरेयजी बोल्ते-मगवम्‌! पूवंजन्मोे हिरण्य 
कशिपु ओर रावण होनेपर इस रि्चुपाखने भगवान्‌ 
विष्णुके द्वारा मारे जनेसे देव-दुरेभ मोगोको तो 
्राप्रकिया, किन्तु यह डन (श्रीह रिम ) रीन नहीं हुआ; 
फिर इस जन्ममें ही उनके द्वारा मारे जानेपर इसने 
सनातन पुरुष श्रीहरिमे सायुञ्य-मोक्ष कैसे प्रप्र 
किया १।१-२॥ हे समस्त धमीस्मा्ओमे श्रेष्ठ मुनिबर। 
यह्‌ बात युननेकी यञ्च बड़ी ही इच्छा है । अव्यन्त 
कुतूहर्वश्च होकर आपसे यह्‌ प्रन किया हे, कृषया 
इसका निरूपण कीजिये ॥ ३॥ 


्ीपरशरजी बोले प्रथम जन्ममे दैत्यराज 
दहिरण्यकरिपुका वध करमेफे छ्य सम्पूणं लोकोकी 
पत्ति, स्थिति ओर नाञ्च करनेवाटे मगवान्‌ने शरीर 
ग्रहण करते समय नृसिहरूप प्रकट फिया था॥ ४॥ 
खस समय हिरण्यकरशिपुके चित्तम यह भाव नदीं हभा 
थाकियेविष्णु भगवान्‌ द| ५।। कैव इतना ही 
विचार हभ कि यह को निरतिश्चय पुण्य-समूहसे 
उतपन्न हु प्राणी है ॥ ६ ॥ रजोगुणके उस्कषेसे 
प्रेरित हो इसकी मति [उस विपरौत भावनकरे 
अनुसार ] दद्‌ हो गयी ! अतः उसके भीतर ईश्वरीय 
भावनाका योग न होनैसे भगवान्‌के द्वारा मारे जने- 


के कारण हौ रावणका जन्म ठेनेषर सने सम्पूणं 
{नत्मेचमन शिन 4. यस्यन्ति प्रतध्र की 1 ५।। 


३४४ 


भरीविष्णुपराण 


[ अ° १५ 





नतु स तस्मिन्ननादिनिषने पररह्मभूते भगवत्य- 
नाम्नि कृते मनसस्तस्लयमवाप ॥ ८ ॥ 


एवं दशाननत्वेऽप्यनङ्गपराधीनतया । 
समासक्तचेतसा भगवता दाशषरधथिरूपधारिणा 
हतस्य तद्रपदशंनमेवासीत्‌ नायमच्युत श््या- 
सक्तिविषयतोऽनतःकरणे मानुषवुद्धिरेव कैवहम- 
स्याभूत्‌ ॥ ९॥ 

पुनरप्यच्युतविनिपातमात्रफलमखिरमूमण्डल- 
इलध्यवेदिशजङ्कछे जन्म अव्याहकैधयं रिशु- 
पाटत्वेऽप्यवाप ॥ १० ॥ तत्र लखिहानामेष स 
भगवनाश्नां सङ्कारकारणममवत्‌ ॥ ११ ॥ 
ततश्च तस्कार्कृतानां तेषामरशेषाणामेवाच्युत- 
नाम्नामनवरतमनेकजन्मसु वधितविदेषानुबन्धि- 
वित्तो विनिन्दनसन्त्जनादिपुचारणमकषरोत्‌ 
॥ १२॥ तच रुप्खुन्नपद्मदलामराक्षमव्युज्ज्वह- 
पौतवस्रधाय मलक्रिरीदकेयूरदारकटकादिङ्ोमित- 
युदारचतुर्वाहुशङ्खचक्रगदाधरमतिप्ररढवैरानुभा- 
वादटनभोजनस्नानासनश्षयनादिष्वशेषावस्थान्त- 
रेषु नान्यत्रोप्ययावस्य चेतसः ॥१३॥ ततस्त- 
मेवाक्रोओेषुश्वारयस्तमेव हृदयेन धारयन्नारमवधाय 
यावद्धगवद्रस्तचक्रांशुमारोज्ज्वलमक्षयतेजस्स्वसूपं 
ब्रहमभूतमपगतद्ेषादिदोषं भगवन्तमद्रक्षीत्‌ 
॥ १४॥ तावच्च भगवच्चक्रेणाशु व्यापादितस्त- 
तस्म्रणदग्धाविलापसश्चयो भगवतान्तयुपनीत- 
स्तसिमिमेव छयद्ुपययौ ।॥ १५ ॥ एतत्तवाखिलं 
मयाभिष्ितम्‌ ।॥१६॥ भयं हि भगवान की्ति- 




















उन अनादि-निधन, परब्रह्मस्वरूप, निराधार भगवान्‌- 
मं चिन्तन लगानेके कारण चह इन्दीमे छीन नदीं 
हु ॥ < ॥ 


इसी प्रकार रावणहोनेपर भी कामवश्च जानकीजी- 


में चिन्त र्ग जानेसे भगवान्‌ दशरथनन्दन रामके हारा 


मारे जानेपर फेवरू इनके रूपका ही दशन हुमा था; 
ये अच्युत दै" फेसी आसक्ति नहीं हुई, बल्कि मरते 
समय इसके अन्तःकरणमे केवल मनुष्यबुद्धिं ह 
रहौ ॥ ९॥ 


फिर श्रीभच्युतके द्वारा मारे जानेके फरस्वरूप 
इसने सम्पूणं भूमण्डलभे प्रशंसित चेदिराजके कुले 
शिष्युपाररूपसे जन्म छेकर भी अक्षय देश्यं प्ाप्र 
किया।१०॥ उस जन्ममे बह भगवान्‌केप्रस्येक नामो- 
मे तुच्छताकी भावना करने लगा॥ ११॥ उसका हृदय 
अनेक जन्मके देषानुबन्धसे युक्त या, अतः वह्‌ उनकी 
निन्दा जौर तिरस्कार आदि करते हए भगवान्‌ 
सम्पूणं समयानुसार लीलाश्रत नामोंका निरन्तर उद्य. 
रणकरताया ॥ १२॥ खिले हुए कमलदलके समान 
जिसकी निमंर आंखें है, जो इञ्न्वछ पीताम्बर तथा 


निल किरीट, केयूर, हार ओर कटकादि धारण 


किये हए है तथा जिसकी लम्बी-कम्बी चार युजा 
है ओर जो शद्ध, चक्र, गदा ओौर पद्म धारण कयि 
हृए दै, भगवानका वह्‌ दिन्य रूप अस्यन्त वैरानु- 
बन्धके कारण घमण, भोजन, स्नान, आसन ओौर 
ङयन भादि सम्पूणे अवस्थाभोंमे कभी ठसके चिन्तसे 
दृरनहोता था॥ १२॥ फिर गल्ली देते समय 
उन्दींका नासोच्वारण करते हुए ओर हृदयम भी 
उन्हीका ध्यान करते हुए जिस समय वह अपने 
वधके किये हाथमे धारण किये चक्रके उञ््वर किरण. 
जालसे सुशोभित, अक्षय तेजस्वरूप, द्वेषादि सम्पूर्णं 
दोरषोसे रदित, बऋह्मभूत , भगवान्‌को देख रहा था 
॥ १४॥ उसौ समय तुरत भगवश्क्रसे मारा गया; 
भगवत्तस्मरणके कारण सम्पूणं पापराक्घिके दग्ध हो 
ज नेसे भगवानके द्वारा सका अन्त हुञा भौर बह 
उन्दी रीन हो गया ॥ १५॥ इस प्रकार इस सम्पूणं 
रहस्यका ने तुमसे वणेन किया ॥ १६॥ अह ! 


५ नै ` चै 





दिदरमं फलं प्रयच्छति कित सम्यग्मक्तिमता- 
मिति ॥ १७ ॥ 

वसुदेवस्य स्वानकदुन्दुभेः पौरवीरोहिणीम- 
दिराभद्रादेवकोप्रषखा बहयः परन्योऽमवन्‌ 
॥ १८ ॥ बलमद्र्टसारणदुरमदादीन्पत्रात्रोरि 
ण्यामानकदुन्दुभिरुत्पादयामास् ॥ १९ ॥ वर- 
देवोऽपि रेवस्यां विश्चटोल्पुकौ पुत्रावजनयत्‌।।२०॥ 
सा्टिमा्टिरिशुसत्यधरतिग्रयुखाः सारणासमजाः 
॥ २१॥ मद्राघमद्रवाहृददेमभूताव्ा रोदिण्याः 
दुरुजाः ॥ २२॥ नन्दोपनन्दकृतकाच्या मदिर- 
यास्तनयाः ॥ २३ ॥ भद्रायाश्चोपनिधिमदाच्ाः 
॥२४॥ वैशाल्यां च कौरिकमेकमेवाजनयत्‌ ॥२५। 


आनकदुन्दुमेरदेवक्यामपि कीर्तिमस्पुषेणोदा- 
युमद्ररेनछछजुदासमद्रदेवाख्याः षट्‌ पप्रा जङ्ञिर 
॥२६॥ तांश सर्वानेव कसो घातितचान्‌ ॥२७॥ 
अनन्तरं च सप्तमं मर्भमद्धरातरे भगवस्रदिता 
योगनिद्रा रोष्िण्या जदरमाङृष्य नीतवती ॥२८॥ 
कर्पणाचासावपि सङ्कप॑णारूयामममत्‌ ॥ २९ ॥ 
ततश्च सकरुजगन्पहातरुमूलभूतो भूतभविष्यदा- 
दिसकलसुराषुरणु निजनपनसामप्यगोचरोऽन्नभ- 
वग्रपुखेरनलयुखे; प्रणम्यावनिमारहरणाय प्रसा- 
दितो भगवाननादिमध्यनिधनो देवकीगर्ममव- 
ततार बामुदेवः ॥ ३० ॥ तस्रसादविवद्धंमानो- 
रपरहिमा च योगनिद्रा नन्दगोपपटन्या यश्चोदाया 
गर्भमधिष्ितवती ॥ ३१ ॥ सुप्रसननादित्य- 
चन्द्रादिग्रहमग्यारादि भयं स्वस्थमानसमलिल- 
मेबैतज्जगदपास्ताधमेसभवत्तसिपश पुण्डरीकनयने 
जायमाने ॥३२॥ जातेन च तेनाखिलमेषैतत्स- 


न्मागवक्तिं जगदक्रिथत ॥ २२ ॥ 
कि चठ ९९ 





दुरभ परमफल देते है, फिर सम्यक्‌ भक्ति-सम्पन्न 
पुरुपोकी ती बात ही क्या हे १॥ १७॥ 


आनकटुन्दुभि वसुरेबजीके पौरवी, रोहिणी, 
मदिरा, भद्रा ओर देवक आदि बहुत-सी सिया थीं 
॥ १८ ॥ उनमें रोहिणीसे वसुदेवजीने बलभद्र, छठ, 
सारण ओर दुंद आदि कर पुत्र उत्पन्न किये ।। १९॥ 
तथा बल्भद्रजीके रेवतीसे विश्चठ ओर दल्मुक नामक 
दो पुत्र हुए ॥ २०॥ साष्ट, माष, शिशु, सत्य ओर 
धरति आदि सारणके पुत्र थे ॥ २१॥ इनके अतिरिक्त 
भद्रा, भद्रबाहुः दुदेम ओर भूत आदि भी रोहिणी- 
हीकी सन्तान थे ॥ २२॥ नन्द्‌, उपनन्द ओर 
कृतक आदि मदिराके तथा उपनिधि ओर गद आदि 
भद्रके पुत्र ये ॥ २२-२४ ॥ वैश्चाङीके गभसे कौशिक 
नामक केवल एक ही पुत्र हुभा ।॥ २५॥ 


आनकदुन्दुभिके देवकीसे कीर्तिमान्‌, सुषेण, 
उदायु, मद्रसेन, छऋलजुदास तथा भद्ररेव नामक छः 
पुत्र हए ॥ २६ ॥ इन सबको कंसने मार डरा था 
| २७॥ पीछे भगवान्‌की प्ेरणासे योगसमायाने 
देवकीके सातवें गभेको आधी रातके समय खींचकर 
रोहिणीकीक्क्षिमे स्थापित कर दिया ॥ २८॥ आकषेण 
करमेसे इस ग्भका नाम संकर्षण हुआ ॥ २९॥ 
तदनन्तर सम्पूणं संसाररूप महचृक्षके मूरस्वरूप, 
भूत, भविष्यत्‌ भौर वतंमानकालीन सम्पूणं देव, 
असुर ओर सुनिजनकी वुद्धिके अगम्य तथा ब्रह्मा 
ओर अग्रि आदि देवताभं्रायः प्रणाम करके भूभारः 
हरणके स्यि प्रसन्न किये गये छादि, मध्य ओर अन्त- 
हयेन भगवान्‌ वासुदैवने देव कीके गभेसे भवतारछिया 
तथा इन्हीकी कृपासे वदी हृ सदहिमावारो योगनिद्रा 
मी नन्दगोपकी पल्ली यज्ञोदाके गभेमे स्थित हु ॥ ३०- 
३१॥ उन कमरूनयन भगवान्‌के प्रकट होनेषपर यह्‌ 
सम्पूर्णे जगत्‌ प्रसन्न हुए सूय, चन्द्र आदि ब्रहोसे 
सम्पन्न, सपदिके भयसे शन्य, अधमादिसे रित तथा 
स्वस्थचित्त हो गया ॥ २॥ उन्होनि प्रकट होकर इस 
सम्पूणं संसारफो सन्मागोवम्बी कर दिया ।२॥ 


२४६ 


भीषिष्णुपुराण 


[ अ० १५ 








भगवतोऽप्यत्र म्यलोक्षेऽवतीणंस्य पोडश्ष- 
सहस्राण्येकोत्तरशताधिकानि भार्याणाममेवन्‌ 
॥ २४] तासां च रुपिमणीसतथमामाजम्बधती- 


चारुहापिनीप्रुला दष्टो पटन्यः प्रधाना बभू 
॥ ३५ ॥ तासु चाष्टवयुतानि रक्षं च प्राणां 
मगवानखिरमूर्तिरनादिमानजनयत्‌ ॥ ३६ ॥ 


तेषां च प्रदुप्नचार्देष्णसास्वादयः त्रयोदश 
प्रधानाः | ३७ ॥ प्रद्युम्नोऽपि रुकरिसिणस्तनयां 
रक्ती नामोपयेमे ॥ ३८ ॥ तस्यामनिर्द्रो 
जज्ञे ॥ ३९ ॥ अनिशुदरोऽपि रुकिमिण एव पोत्र 
सुभद्रां नामोपयेमे ॥ ४० ॥ तस्य।मस्य वजो 
जज्ञे ४१ ॥ वज्रस्य प्रतिबाहुस्तस्यापि सुचारुः 


| ४२॥ एवमनेकरतसहसपुरूषसंख्यस्य यदु- 
कुरस्य पत्रसंख्या वशतैरपि वक्तु न शक्यते ।४३। 
यतो हि शछरोफाविमावत्र चरस्ति्थो ॥ ४४ ॥ 


तिस्रः कोव्यस्पदस्राणामष्टशीतिशतानि च ! ` 
कुमाराणां गहाचार्याथ्ापयोगेषु ये रताः ॥४५॥ 
संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्‌ । 
यत्रायुतानमयुतरक्षेणास्ते सदाहुकः ॥ ४६ ॥ 
देवासुरे हता ये तु दैतेयास्सुमद्वलाः । 
उत्पन्नास्ते मदुष्येषु जनोपद्रषकारिणः ॥ ४७॥ 
तेषायुतसादनाथीय यवि देवा यदोः इरे । 
अवतीर्णाः इुरुशतं यमरेकाम्यधिकर दविज ॥ ४८॥ 
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रयते च व्यवस्थितः। 
निदेशस्थायिनस्तस्य वब्रधुस्स्वयादवाः ॥ ४९॥ 
इति प्रतिं वृष्णीनां यद्थृणोति नरः सदा । 

स स्वै पातकैषु क्तो विष्णुरोक प्रप्ते ॥५०॥ 











इस सत्यदोकमे अवतीणं हुए भगवानूकी सोढ 
हजार एक सौ एक रानिर्यौ थी ॥ ३९ ॥ उनमें 
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती ओर चारहासिनी 
आदि जठ जुष्य थीं | ३५ ॥ अनादि भगवान्‌ 
अखिलमूर्तिने उनसे एक छाख अस्सी हजार पुत्र 
चत्यन्न किये ॥ ३६ ॥ उनर्मेसे प्र्युम्न, चारुदेष्ण आओौर 
साम्ब आदि तेरह पुत्र प्रधान थे ॥ ३७॥ ्र्युम्नने 


भी सुक्मीकी पुत्री सुक्मवतीसे विवाह किया था 
॥ ३८॥ उससे अनिरुद्धका जन्म हुआ ॥ २९॥ अनि- 
रुद्धने भी रुक्मीकौ पौत्री सुभद्रासे विवाह किया था 
॥ ४० ॥ उससे वज्र उतन्न हुआ ॥ ४१ ॥ वजरका 
पुत्र भ्रतिवाह तथा प्रतिबाहुका सुचारु था ॥ ४२॥ 
इस प्रकार सैकड़ों हजार पुरषोकी संख्यावाङे 
यदुकुककी सन्तानोकौ गणना सौ सपमे भी नहींकी 
जा सकती ॥ ४३॥ क्योंकि दस्र विषयभैये दो 
इखोक चरितां है-- ॥ ४४ ॥ 


जो गृहाचायं यादवमारोको धनुर्वि्ाकी शिक्षा 
देनेमे तत्पर रहते थे डनको संख्या तीन करोड़ अदासी 
खाख थी, फिर उन महात्मा याद्वोंकी गणना तो 
कर ही कौन सकता है १ जद खखो-करोडोके साथ 
सवेदा यदुराज उग्रसेन रहते ये ॥ ४५-४६ । 


देवासुर-संग्राममें जो महावो दैतव्यगण मारे गये 
थे वे मुष्यलोकमे उपद्रव करनेवाङे राजालोग होकर 
पन्न हुए ॥ ४७॥ इनका नाञ्च करमेके लिये देवता- 
आने यदुवंशे जन्म छया जिसमे कि एक सौ एक 
ख थे ॥ ४८ ॥ उनके नियन्त्रण ओौर्‌ स्वामित्पर्‌ 
भगवान्‌ विष्णु ही अधिष्ठित हुए, ओौर वे समस्त 
याद्वगण ₹न्हकी आज्ञादुसार वृद्धिको प्राप हुए 
| ४९ ॥ इस प्रकार जो पुरुष इस ब्ष्णिवंङकी 
त्पत्तिके विवरणको सुनता है वह सम्पूणं पापोंसे 
युक्त होकर विष्णुल्ोकको प्राप्त कर केता है ।। ५०॥ 


~+ --~ 


५ 


अ५ ९९, ९१९५८ । 


१9 १५ 


____ ___----_--_----------------_--------[-------- 








सोलद्यो अध्याय 
दु्व॑सुके वं शका चरणेन 


श्रीपराशर उवाच 

त्येष समासतस्ते यदोवशः कथितः । १॥ 
अथ द्वस मवधारय ।२॥ दुवंसोवदिरत्मनः 
वहरमामों भारगाद्धानुस्ततश्च त्रपीसानुस्तस्माच 
करन्दमस्तस्यापि मरुत्तः २॥ सोऽनपरयोऽमवत्‌ 
| ४।। ततश्च पौरवं दुष्यन्तं पुत्रमकल्पयत्‌ ॥५॥ 
एवं ययातिशापात्तदंशः पौरवमेव वं समाधितः 
वान्‌ ॥ ६ ॥ 





्रीपर्चरजी बोले-दस प्रकार मने तुमसे 
संक्षेपे युके वंसका वणन किया ॥ १॥ अब 
दुधेुके वंचका वर्णन सुनो ॥ २॥ हुवेुका पुत्र 
वहि था, वहिका भागे, भागंका भानु, भादुका 
त्रयीसालु, चरयीसाचुका करन्दम ओर करन्दमका 
पुत्र मरुत्त था ॥ ३॥ मरुत्त निस्सन्तान था॥ ४ ॥ 
इसल्यि सने पुरुवंशौय दुष्यन्तको पुत्ररूपसे स्वीकार 
कर छया | ५॥ इस प्रकार ययातिकेशापसे दुबसु- 
के वंडने पुरुवंशका ही आश्रय छया ॥ ६ ॥ 


[+ न 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतर्थेऽरे षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥ 


८-^५८९.४६ र ^^ 


सत्रहर्वो अध्याय 
दुद्ु-चंश 


श्रीपराद्यार उवाच 
र्सु तनयो बभुः ।१॥ व्रोस्सेतुः ॥ २॥ 
सेतुपुत्र आर्धनामा ।। ३ ॥ आरब्स्पात्मजो 
गान्थासे गान्धारस्य घमं धर्माद्‌ घृतः घ्रतादू 
दुदंमस्ततः प्रचेताः ॥। ४ ॥ प्रचेतसः पूत्रह्शत- 
धर्मो बहुनां म्टेच्छानापुदोच्यानामाधिपत्यम- 
करोत्‌ ॥ ५॥ 





पराार्जी बोले-्रह्ुका पुत्र वधु था वधक 
सेतु, सेद॒का आरब्ध, आरब्धका गन्धार गान्धर 
कार्म, धर्मका चृत, तका दुद॑मः दुदमकरा प्रचेवा 
तथा प्रचेताका पुत्र शतधमं था । इसने उत्तरवर्ती 


बहुत-से म्ठेच्छोका आधिपत्य किया ॥\ १-५॥ 


^ 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतु्थ॑ऽे सप्तदशोऽध्यायः ॥ ७ ॥ 


०५ दद ~~ 


अटारदर्वा अध्याय 
अयुवंश 


श्रीपरज्ञिर उवाच 


भीपयश्चरजी बोक्ञ-ययातिके चौये पुत्र भुके 


© 
म्र नृटववक्षुःपरमवु- : 
ययातेश्चतुयपव्रस्यानोस्सभानखचु परेषु सभानल, चक्षु ओर परसेषु नामक तीन पुत्र ये। सभा- 


संत्ाद्धयः पुत्रा बभूवुः । १ ॥ समानल्पुत्रः 
कालानङलास्यञ्जयः! ।। २॥ 


जगन्न !), 4 ॥ 


सलक पुत्र कारानख हुभा तथा काङानङके सज्य, 


३४८ 


भरीविष्णुपुराण 


[ अर १८ 








सुञ्जयात्‌ पुरञ्जयः ।॥ ४ ॥ परञ्जयाञ्जनमेजयः 
॥५॥ तस्मान्मंहाज्ारः ॥ ६ ।। तस्माच मह।मनाः 
॥७} तस्मादुशीनरतितिकष द पुत्रावुखन्नौ ॥८॥ 
उशीनरस्यापि सिषिनृगनरकृमिवरमास्याः 
पञ्च पत्रा बभूवुः ॥ ९ ॥ पृषदर्भुवीरकेकयमद्र- 
काश्चत्वारद्शिषिपुत्राः ॥ १०॥ तितिक्षोरपि 
ररद्रथः पुत्रोऽभूत्‌॥ ११ ॥ तस्यापि हेमो हेम- 
स्यापि सुतपाः सुतपप्श्च बलिः | १२ ॥ यस्य 
त्र दीथेतमधाङ्गवद्धकलिङ्गसुपौण्ड्‌ाख्यं बारें 
कषत्रमजन्यत ॥ १३॥ तन्नामसन्ततिसंना्च पश्च- 
विषया बभूवुः ॥ १४॥ अङ्गादनपानस्ततो 
दिषिरथस्तस्माद्र्मरथः ॥ १५ ॥ ततशित्ररथो 
रोमपादसंन्नः ।॥ १६ ॥ यस्य दशरथो भित्र 
जज्ञे ।॥ १७॥ यस्याजपूत्रो द्चरथद्शान्तां नाम 
कन्यामनपत्यस्य दुहितृत्वे युयोज ॥ १८ ॥ 


रोमपादाच्चतुरङ्गस्तस्मातपृथुलाक्षः ॥ १९॥ 
ततश्चम्पो यश्चस्पां निवेक्षयामास] २ ०। चम्पस्य 
गो नामात्मजोऽभूत्‌ ।२१।हयङ्गाद्धदररथो भद्रसथाद्‌ 
वृहदरथो वृह्रथादूवृहतर्मा बृहत्कमेणश्च वृहद्धानु- 
. स्तस्माच बृहन्मना बृदनमनसो जयद्रथः । २२॥ 
जयद्रथो ब्रहमक्षत्रान्तरातम्भूत्यां पलन्यां बिजयं 
नाम पुत्रमजीजनत्‌ ॥ २३ ॥ विजयश्च धृतिं 
पुत्रमवाप ॥ २४॥ तस्यापि धरतव्रतः पुत्रोऽभूत्‌ 
॥ २५॥ धृतव्रतार्सत्यकर्मा ॥ २६॥ सत्यकमण- 
स्त्वतिरथः ॥ २७॥ यो गङ्गाङ्गतो सञ्जूषागतं 
पथापविद्धं कणं पुत्रमवाप ॥२८ ॥ कर्णावरषेनः 
हत्येतदन्ता अङ्गवश्याः ॥ २९॥ अतश्च परुवंशं 
भरोतुमहेसि ॥ ३० ॥ 








सञ्जयके पुरञ्जय, पुरञ्ञयके जनमेजय, जनमेजयके 
महाङ्रार, महाशास्के महामना ओौर महामनाके 
दञ्ञीनर तथा तितिक्षु नामक दौ पुत्र हुए ॥ १-८॥ 


ढशीनरके श्चिचि, नुग, नर, कृमि ओर वमं नामक 
पच पुच्र हए ॥ ९॥ उनमेसे लिचिके प्रषदर्भ, सुवीर 
केकय गैर मद्रक-ये चार पत्र थे ]॥ १०॥ 


तितिक्षका पुत्र सशद्रथ हुआ । उसङ़े हेम, हेमके 
सुतपा तथा सुतपाके बि नामक पुत्र हुजा। १९ 
१२॥ इस बलिक क्षेत्र ( रानी ) में दोघेतमा नामक 
सुनिने अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुद्य भौर पौण्ड्‌ नामक 
पोच बालेय कषत्रिय इउत्पन्न किये ॥ १३ ॥ इन वरि- 
पुत्रौकी सन्ततिके नासालुसार पच दशके भोयेही 
नाम पड़े ॥ १४ ॥ इनमेसे अंगसे अनपान, अनपान- 
से दिविरथ, दिविरथसे धमैरथ ओौर धरममरथसे 
चिच्ररथका जन्म हुआ जिसका दुसरा नाम रोमपाद 
था | इस रोमपादके मित्र दश्चरथज्जी थे, अजके पुत्र 
द्ङारथजीते रोमपादको सन्तानदीन देखकर न्दे 
पुत्रीरूपसे अपनी शान्ता नामकौ कन्या गोद दै दी 
थी }| १५-१८॥ 


सोमपादका पुत्र चतुरंग था । चतुरंगके प्रथुराक्ष 
तथा प्रथुकाक्षके चस्प नामक पुत्र हुआ जिसने चम्पा 
नामकी पुरी बसायी थी ॥ १९-२० ॥ चम्पके हेयज्ग 
नामक पुत्र हभ, दयेज्गसे भद्ररथ, सद्रस्थसे बरहद्रथ 
बह द्रथसे ब्रहत्कमा, बृहत्कमासे ब्रहद्धातु, व्रहद्धाुसे 
वरहन्मना, बरहम्मनासे जयद्रथका अन्म हुभा ॥ २९ 
२२ ॥ जयद्रयकी ब्राह्मण ओर क्षत्रियके संखगसे 
उतपन्न हुई पल्लीके गभसे विज्ञय नामक पुध्रका जन्म 
हुभा ॥ २३॥ विज्यके धृति नामक पुत्र हुः 
धृतिके धृतव्रत, धृतन्रतके सत्यकर्मा ओर सस्यकमासे 
अतिर्थका जन्म हभ जिसने कि [ स्नानकफे छि ] 
गङ्गाजीमे जानेषर पिटारीमे रखकर परथाद्वारा बहाये 
हुए कर्णैको पु्ररूपसे पाया था । इस कणेका पुत्र 


घृषसेन था । बस, अङ्गवंश्च इतना ह है । २४-२९॥ 
इसके आगे पुरुवंश्चका वणन सुनो ॥ ३० ॥ 


ति) 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुरथेऽरो अष्टादश्चोऽध्यायः ॥ १८ ॥ 





५५ 


ॐ» 








१५49 १९५ 


उन्लीसर्वौँ अध्याय 
पुरुव श 


श्रापराङ्ञार उवाच 
पुरोजेनमेजयस्तस्यापि प्रचिन्वान्‌ प्रचिन्वतः 
प्रचीरः प्रवीरान्मनस्यु्मनस्योशामयदस्तश्यापि 
सचुस्ुबोहुमतस्तस्यापरि संयातिस्संय तिरं - 
यातिस्ततो रद्राः ॥ १॥ 


ऋतेपुकतेषुस्थण्डिठेषुृतेुजरेषुधर्मषुधतेप- 


स्थेपुसननतेपुवनेषुनामानो रोद्राश्वस्य दश्च पुत्रा 
यभूवुः ॥ २ ।। छतेपोरन्तिनारः पुत्रोऽभूत्‌ ॥२॥ 
सुमतिमप्रतिरथं ध्रवं चाप्यन्तिनारः पूप्रानवाप 
॥। ४॥ अप्रतिरथस्य कण्वः पुत्रोऽभूत्‌ ॥५॥ 
तस्यापि मेधातिथिः ॥ & ॥ यतः काण्वायना 
दविजा बभूवुः ।॥ ७ ॥ अप्रतिरथस्यापरः पुत्रो- 
ऽभृदरीनः ॥८॥ रेरौनस्य दुष्यन्ता्याश्लवारः 
पत्रा बभूवुः ॥ ९ ॥ दुष्यन्ताच्चक्रधतीं भरतो- 


ऽभूत्‌।। १०॥ धन्नामहैतु्दवैश्दलोको गीयते ११॥ 


माता मसरा फुः पुत्र येन जातः श एव सः। 
भरस्व पुत्र दुष्यन्त सावमस्थारशकुन्तखम्‌।। १२ 


रेतोधा; पूत्रो नयति सरदैव यमक्षयात्‌ । 


+ [५ 
त्व चास्य धाता ममस्य सस्यभाषद्‌ शडून्तस ।॥ १२॥ 


स्तस्य पीतये मेव पुत्रा बभूवुः ॥१५॥ 
तेते मगादुरूपा इत्यभिहितास्तन्मातरः परित्याग- 
भयत्ततपत्राञ्जध्युः || १५ ॥ ततोऽस्य वितथे 
पुत्रजन्मनि पू्राथिनो मरुत्सोमयाजिनो दी्ै- 
तमसः पाष्ण्यपास्तादूदृहसपतिवीर्यादुवश्यपरन्यां 








श्रीपसश्चरजी गोज्ते-पुरुका पुत्र जनमेजय था 
जनमेजयका प्रचिन्वान्‌, प्रचिन्वान्‌का प्रवीर, 
प्रवीरका मन्यु, मनस्युका अभयद्‌, अभयदका सुदुः 
सुद्युका बहुगत, बहुगतका संयाति, संयातिका 
अहंयाति तथा अहयातिका पुत्र रौद्राश्च था॥ १॥ 


रौद्रा्चके तेषु, कक्षेषु, स्थण्डिटेषु, कृतेषु, 
जटेषु, धमषु, धतेषु, स्थलेषु, सन्नतेषु ओर वनेषु 
नामक दश्च पुत्रथे॥२॥ ऋतेषुका पुत्र अन्तिनार 
हुआ तथा अन्तिनारकै सुमति, अप्रतिरथ ओर ध्रुव 
नामक तीन पुत्रोने जन्म छिया ॥ ३-४॥ इनमेसे 
अप्रतिरथका पुत्र कण्व ओर कण्वका मेधातिथि हभ 
जिसको सन्तान काण्वायन ब्राह्मण हुए ॥ ५-७॥ 
अप्रत्तिरथका दुसरा पुत्र एेखीन था ॥८॥ इस 
एेखीनके दुष्यन्त आदि चार पुत्र हए ॥९॥ 
दुष्यन्तके यँ चक्रवर्ती सम्राट्‌ भरतका जन्म हुभा 
जिसके नामके विषयमे दैवगणने इस श्ोकका गान 
किय! था ॥ १०-११॥ 


«माता तो केवल्ल चमडेकी धौकनीके समान है, 
पुत्रपर अधिकार तो पिताका ही है, पुत्र जिसके द्राय 


जन्म ग्रहण करता है उस्तीका स्वहूप होता है। 
हे दुष्यन्त ! तुम इस पुत्रका पालन-पीषण करो, 
शङुन्वङाका अपमान मत करो । हे नरदेव { अपने 
ही बीरे उसन्न हभ पुत्र अपने पिताको यमलोकसे 
[ निकाकर स्वगखोकको ] ठे जाता है । (ईस पुत्रके 
आधान करनेवाठे वुम्दौं हो--शद्घन्तछनि यह 
बात ठीक ही कही हैः ॥ १२-१३॥ 


भरतके तीन सियो थी जिनसे उनके नौ पुत्र हुए 
॥ १४॥ भरतके यह कनेपर कि, ये मेरे अनुरूप 
नदी हैः, उनकी सातानि इस भयसे कि, सजा हमको 
त्यागन दे, उन पुत्रोंको मार डाला॥ १५॥ इस 
प्रकार पुघ्र-जन्मके बिफट हो जनेसे भरतने पुत्रकी 
कामनासे मरुत्सोम नामक यज्ञ किया) उस 
यज्ञके अन्तमे मरद्‌गणने उन्है भरद्वाज नामक एक 


। ग 


नयकर 





ममतायां सष्रसयन्नो मरद्राजाख्यः पूत्रो मरुि- 
¢ 


दत्तः ॥ १६ ॥ तस्यापि नामनिरव॑चनश्टोकः 
पञ्चते ॥ १७ ॥ 


मूढे भर द्वाजमिमं मर द्वाजं बृहस्पते । 


यातौ यदुक्त्वा पितसै मरहाजस्ततस्त्वयय्‌॥ १८॥ 


भरढाजस्स बितथे पुत्रजन्मनि मरुहधिर्द॑त्तः 
ततौ वितथसंज्ञामवाप ॥ १९॥ वितथस्यापि 
मन्युः पुत्रोऽमत्‌ ॥ २० ॥ वृषषत्रमहावीयं- 
नरग्गां अभमवन्मन्युपुत्राः ॥ २१॥ नरस्य 
सङ्कृतिर्पट्कृतेशु्ीतिरन्तिदेवौ ॥ २२ ॥ 
गर्गाच्छिनिः ततश्च गाग्याश्किन्याः क्ष्ोपेता 
द्विजातयो वभूव; ।॥२२॥ महावीरयाच्च दुरक्षयो 
नाम पुत्रोऽपवत्‌ ॥ २४ ।। तस्य त्रय्यास्गि; 
पुष्करिण्यो कपिश्च पुत्रपरयमभूत्‌ ॥ २५॥ तच्च 
ुत्रत्रितयमपि प्थाद्धिभतायुपनगाम ।॥ २६॥ 


चहतषत्रस्य सुहोत्रः ॥ २७ ॥ पुहोत्राद्रस्ती य 
हदं हस्तिनापरमावासयामास ॥ २८ ॥ | 


-अजमीटद्िजमीहपुरमीढान्यो हस्तिनस्तनयाः 
॥ २९॥ अजमीदास्कण्वः | २० कण्वान्भेषा- 
तिथिः ॥३१॥ यतः काण्वायना दिजाः।।३२॥ 
अजमीदस्यान्य; पूप्रो शृहदिषुः ॥ ३२ ॥ श्द- 
दिषो्रशनुहदरनुपश्चबरहसकरमा ततद जयद्रथ- 
स्तस्मादपि विश्वजित्‌ ॥ ३४ ॥ ततश्च सेनलित्‌ 
॥ २५॥ शचिरा्काश्यदृटदनुबस्पदनुसन्नासेन- 
जितत पुत्राः ॥ २६ ॥ सचिराश्चपुत्रः पएधुरेनः 


बालक पुव्ररूपसे दिया जो उतथ्यपत्नी मम 
मे स्थित दीषैतमा मुनिके पाद्-प्रहारसे स 
बहस्पतिजीके वीयसे उसन्न हज था 
उसके नामकरणके विषयमे भी यह्‌ इह 
जाता है--॥ १७॥ 

^“ पुत्रोप्पत्तिके अनन्तर बृहरतिने 
कहा-- ] हे मू! यह पुत्र द्वाज (हः 
उतपन्न हभ) हेतू इसका भरण कर 
ममताने मी कहा--] हे वृ्गस्पते ! यह 
हे; अतः तुम इसक्रा मरण करो ।' इस प्रक 
धिवाद्‌ करते हए सके माता-पिता 
इसल्यि उसका नाम भरद्वाजः पड़ा? ` 


पुत्रजन्म वितथ ( विफङ ) होनेषर : 
राजा भरतको भरद्वाज दिया था, इसि 
नाम वितथः भौ हुआ १९॥ वितथक 
हा भौर मन्युके बहत्त्र, महावीर्य, नर 
आदि कषे पुत्र हुए ॥ २०-२१॥ नरका 
ओर संकृतिके गुश्भ्रीति एवं रन्तिदेव : 
पुत्र हुए ॥ ९२ ॥ गगंसे शिनिका जन्म हूः 
कि गाग्यं ओौर ओेन्य नामसे विख्यात क्षत्र 
उत्पन्न हुए ॥ २३ ॥ महावी्यका पुत्र दुर 
॥ २४ ॥ उसके चस्यारुणि, पुष्करिण्य 
नामक तीन पुत्र हुए ॥२५॥ ये त्तोनो 
ब्राह्मण हो गये भे ॥ २६ ॥ व्रहुरक्षत्रका 
सुदहोचका पुत्र हस्ती था जिसने यह्‌ 
नामक नगर बसाया था ॥ २७-२८ ॥ 


हस्तीके तीन पुत्र अजमीढ) द्विजमीदे 


मीढ थे । अजमीढके कण्व ओर कण्वके 
नामक पुत्र हआ जिससे कि काण्वाः 
उत्पन्न हुए ॥ २९-३२॥ अजजमीढका ¦ 
बृहदिषु धा ॥३६३॥ उसके ब्ृहद्धु, 
बुहस्कम, बहस्कमोके जयद्रथ, जयद्रथे 
तथा विश्वजित्‌के सेनजित्‌का जन्म हभ 

रुचिराश्व, काय, टटहनु भौर वत्सु ः 
पुत्र हृद ॥ ३४३६ ॥ सचि राके प्रथुसेः 





पृथुसेनाद्पारः ॥ २३७ ॥ परान्नः । ३८ ॥ 
तस्थैकरतं पू्राणाम्‌ ॥ २९ ॥ तेषां प्रधानः 
काम्पिल्याधिपतिस्समरः ॥ ४० ॥ समरस्यापि 
पारसुपारसदश्वास्चयः पुत्राः ॥ ४१॥ सुपारात्प्रथुः 
परथोस्सुह्ृतिस्ततो विधानः ॥४२॥ तस्मा्चाणुहः 
॥४२॥ यरशुकदुहितर कीरति नामोपयेमे । ४४॥। 
अणुहादूब्रह्मदत्तः ॥ ४५॥ ततश्च विष्वकतेनस्त- 
स्मादुदक्सेनः ॥ ४६ ॥ मन्छाभस्तस्य चा- 
त्मजः ॥ ४७ ॥ 


द्विजमीहस्य तु यवीनरसंज्ञः पुत्रः ॥४८॥ तस्या- 
पि प्रतिमांस्तस्माच सत्यधृतिस्ततश द्ठनेमिस्त- 


स्माच सुपाखव॑स्ततस्पुपतिस्ततशच सन्नति पान्‌ ।४९। 


सम्रतिमतः कृतः पुत्रोऽभूत्‌ ॥ ५० ॥ यं दिरण्य- 
नामो योगमध्यापयामास ॥ ५१ ॥ यश्चतुर्विशष- 
तिं प्राच्यस्रामगानां संहिताश्रकार॥ ५२॥ कृता- 
स्वोग्रायुधः ॥ ५३ ॥ येन प्राचुर्येण नीपक्षयः 
कृतः ॥ ५४ ॥ दग्रायुधास्कषेम्यः क्षेम्ात्पुधीरस्त- 


स्पराद्विपुञ्जयस्तस्माच बहुरथ इत्येते पोरवाः॥५५॥ 


अममीढस्य नङ्नी नाम पत्नी तस्यां नीर. 
संज्ञः पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ५६ ॥ तस्मादपि शान्तिः 
शान्तेस्सुशान्तिस्पुशान्तेः पुरञ्ञयस्तस्माच्चं 
ऋक्षः ॥ ५७॥ ततश्च हयंश्चः ॥ ५८॥ तस्मा- 


नयुदरसृभ्जयवृहदिपुयवीनरकाम्पिल्ययंज्ताः प्वा- 


नामेव तेषां विषयाणां रक्नणायारमेते मत्पुत्रा 
हति पित्राभिष्िताः पाश्चाहाः ॥ ५९ ॥ 


यृदरास्च मौदधन्याः; क्षत्रोपेता द्विनातयो 
बभुवुः। ६० ॥ बुद्रखदुबहदश्वः ॥ ६१॥ ब्रहद- 
श्वादिवोदासोऽहन्या च मिधुनमभूत्‌ ॥ ६२ ॥ 
शरद्तश्चाहन्यायां शतानन्दोऽभवत्‌ ॥ ६३ ॥ 
शतानन्दास्सस्यधतिधंनुरवेदान्तगो जज्ञे ॥ ६४ ॥ 
सत्यषतेवराप्ठरस व॑शी दृष्ट रेतस्कन्नं शरस्तम्बे 








कया कनि 





पार ओर परारके नीखका जन्म हुभा । इस नीरे 
सौ पुत्र थे, जिनमे काम्पिल्यनरेख समर प्रधान था 
॥ ३७-४० ॥ समरके पार, सुपार ओर सदश्च 
नामक तीन पुत्र थे॥ ४१॥ सुपारके प्रथु, प्रथु सुरति, 
स॒क्ृतिकेः वि भ्राज ओौर विभ्राजके अणुह नामक पु 
हअ, जिसने युककन्या कीर्तिसे विवाह किया 
था ॥ ४२-४४ | अणुष्से ब्रहमदत्तका जन्म हुभा । 
ब्रह्मद त्से विष्वक्सेन, विष्वक्सेनसे उदकसेन तथा 
उदक्सेनसे मल्लाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुभा | ४५.४७ ॥ 


द्विजमीढका पुत्र यवौनर था॥४८॥ उसका 
धृतिमान्‌ , धृतिमान्‌का सत्यधृति, सत्यधृतिका दढ- 
नेभि, दठनेमिका सुषाव, सुपारवका सुमति, सुमतिका 
सन्नतिमान्‌ तथा सन्नतिमान्‌का पुत्र कृत हभा जिसे 
हिरण्यनामने योगविद्याकी शिक्षा दी थी तथा जिसने 
भ्राच्य सामग श्रृतियोंकौ चौबीस संहितार्पै रची 
थीं ॥ ४२८५९ ॥ कृतका पुत्र उथायुधं भा जिसने 
अनेकों नीपवश्चीय क्षप्रियोका नाद किया ॥५३.५४॥ 
उप्रायुधके क्षेम्य, क्षेम्यके सुषीर, सुधीरके रिपुञ्जय 
ओौर रि पुञ्जयसे बहुरथने जन्म छिया । ये सब पुर- 
वंद्यीय राजागण हुए ॥ ५५ ॥ 


अजमीटठकी सलिनी नाम्नी एक भार्या थी। 
उसके नीर नामक एक पुत्र हज ॥ ५६ ॥ नीरे 
लान्ति, खान्तिके सुशान्तिःसुशचान्तिके पुरञ्जय, पुरङ्घय- 
के ऋक्ष ओर छक्षके हये नामक पुत्र हुआ ॥ ५७. 
५८ ॥ हयंश्वरे मुद्‌ गू, खञ्जय, बहदिषु, यवीनर भौर 
काम्पिल्य नामक पाँच पुत्र हुए । पिताने कहा था किं 
मेरे ये पुत्र मेरे आश्रित पचो देोकी रक्षा करनेमें 
समथं दै, इ्य्यि वे पाश्चाछ कढाये ॥ ५९॥ 


मुद्‌ गर्से मौदूगल्य नामक्र क्षघ्रोपेत ब्राह्मणोंकी 
उत्पत्ति हुई ॥६०॥ युद्गर्से ब्रहदश्च ओर ब्रहदश्वसे 
दिवोदास नामक पुत्र एवं अहल्या नामकौ एक 
कन्याका जन्म हज ॥ ६१-६२॥ अषहल्यासे महर्षि 
गौतमके द्वारा शतानन्दका जन्म हुआ ॥ ६३॥ खता- 
नन्दसे धलुवंदका पारदक्चीं सत्यधृति उन्न हुभा 
॥ ६४॥ एक बार अप्सराओंमे श्रेष्ठ उवंशीको देखनेसे 
सस्यधरुतिका वीयं स्लछित होकर श्षरस्तम्ब (सरकण्डे) 


३५२ 


श्रीविष्णुपुराण 


| अ० ९९ 


[ााकागायतााावतााााकताातयाकााातता क रा 





पपात ॥ ६५ ॥ तच्च द्विधागतमपतयदय कुमारः 
कन्या चाभवत्‌ ॥ ६६ ॥ तौ च मगयाषुपयात- 
रशान्तनुर्ा कृपया जग्राह ॥ ६७॥ ततः क्षारः 
कपः कन्पा चाश्वस्थाभ्नो जननी कृषी द्रोणाचार्यस्य 
पटन्यमवत्‌ ॥ ६८ ॥ 


दिगोदयासस्य पूप्रो मित्रायुः ॥ ६९॥ मित्रा- 
योरहच्यवनो नाम राजा ॥ ७० ॥ स्यवनाससुदासः 
सुदासात्पौदाष्तः सौदासास्सददेवस्तस्पापि सो- 
मकः ॥ ७१ ॥ सोमकाजन्तुः पूत्रशतव्येष्ठो- 
ऽभवत्‌ । ७२ ॥ तैषां यवीयान्‌ प्रपत; प्रपताद्‌- 
दुपदस्तस्माच धृषटधुम्नस्ततो धृष्टकेतुः ॥ ७३ ॥ 


अजमीटस्यान्य ऋक्षनामा पुत्रोऽभवत्‌ ॥ ८५४) 
तस्य संवरणः ॥ ७५।। संबरणाद्ुरः ॥ ७६ ॥ 
य इदं धमकर करकषेत्रं चकार ॥७७॥ सुधनु- 
जंहुपरीकषिसलाः हरो; पुत्रा बभूषुः ॥ ७८ ॥ 
सुधनुषः पुत्रस्सुदोत्रस्तस्माच्च्यषेनश्च्यवनात्‌ 
कृतकः ॥ ७९॥ ततश्ोपरिचिसे वसुः ॥ ८० ॥ 
बृहद्रथप्रत्यग्रहुशाम्बुचेरमास्सयगप्रयखा वसोः 
पत्रास्प्राजायन्व ॥ ८१ ॥ वृषद्रथार्शाग्र 
कुकाग्रादूषषमो वृषभात्‌ पुष्पवान्‌ तस्मास्सत्य- 
हितस्तस्मास्सुधन्वा तस्य च जतुः ॥ ८२ ॥ 
बृहद्रथाच्चान्यश्शक्लद्वयजन्मा जरया संहितो 
जरासन्धनामा ॥ ८३॥ तस्मात्सदहदेवस्सददेषा- 


स्सोमपर्ततशच श्रुतिश्रवाः ॥ ८४ ॥ इत्येते मया 
मागधा भूपाला; कथिताः ॥ ८५ ॥ 








पर पड़ा ॥ ६५ ॥ उससे दो भागम बंद जानेके 
कारण पुत्र ओौर पुत्रीरूप दो सन्ताने उसपन्न हु 
॥ ६६ ॥ न्ह खगयके छ्य गये हुए राजा शान्तु 
करुपावश्च ठे अये ॥ ६७ ॥ तदनन्तर पुत्रका नाम 
कूप हुमा ओौर कन्या अश्चत्थामाक्रौ माता द्रोणा- 
चायंकी पल कृपी हुई ॥ ६८ ॥ 

दिवोदासका पुत्रमिन्रायु हुज॥ ६९॥ मिच्रायुका 
पुत्र च्यवन नामक राजा हुआ, च्यवनका सुदास, घुदा- 
सका सौदास, सौदासका सदेन, सहदेवका सोमक 
ओौर सोभकके सौ पुत्र हुए, जिनमे जन्तु सबसे बड़ा 
ओर्‌ प्रवत सचसे छोटा था । पएरूषतका पुत्र द्रुपद, 
द्रुपदा वृष्युन्न भौर धष्युञ्चका पुत्र धृष्ठकेत 
था ॥ ५०-५३ ॥ 


अजमीटका ऋक्ष नामक एक पुत्र ओर था॥७४॥ 
उसका पुत्र संवरण हुआ] तथा संतरणका पुत्र छर 
था जिसने कि धमे कुरक्षेत्रकी स्थापना की ॥ ७५. 
७७ ॥ कुरुके पुर सुधनु, जह, ओर परीक्षित्‌ आदि 
हृष ॥ ७८ ॥ सुधलुका पुत्र सुहोत्र था, सुहोघ्रका 
च्यवन, च्यवनका कतक ओर कृतकका पुत्र उपरिचर 
वसु हुआ ॥ ७२८० ॥ वसुके बह द्रथः प्रत्यत्र, कुराभ्बुः 
कुचे ओौर मास्स्य आदि सात पुत्र थे ॥ ८१ ॥ इनभेसे 
वृहद्रथके कुदार, कुशाग्र वृषभ, वृषभके पुष्पवान्‌) 
पुष्पवानूके सव्यहित, सस्यदहितके सुधन्वा ओर 
सुधन्वाके जतुका जन्म हुभा ॥ ८२॥ बृहद्रथके दो 
खण्डोम विभक्त एक पुत्र जौर हभथाजोकिजस- 
के द्वारा जोड़ दिये जनेपर जरासन्ध काया 
॥ ८३ ॥ उससे सहदेवका जन्म हुभा तथा सहदेवस 
सोमप ओौर सोमपसे श्रतिश्रवाकी उत्पत्ति हु 
॥ ८४ ॥ इस प्रकार मैने तुमसे यह्‌ मागध मुपा्ने- 
का वणेन कर दिया है ॥ ८५ ॥ 


"+ 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽरे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ 





१“ ४ ८ 8। 


१९9 + १५ 


# \ ५ 








बीसर्वां अध्याय 


छुख्के व' शका वणन 


श्रीपराशर उवाच 


परीक्षितो जनमेजयश्रुतसेनोग्रसेन मीमसेनाश्च- 
त्वारः पुत्राः ॥ १॥ जह्ोस्तु सुरथो नामात्मजो 
वभूव ॥ २॥ तस्यापि विद्रथः ॥ ३ ॥ तस्मा- 
त्सावंमौमस्साव मौमाज्जयत्तैनस्तस्मादाराधित- 
स्ततश्चायुतायुरयुतायोरकोधनः।। ४॥ तस्मादेवा- 
तिथिः ॥ ५॥ तत्र ऋक्षोऽन्योऽमवत्‌ ॥ ६ ॥ 
ऋष्षाद्धीमसेनस्ततश्च दिलीपः ॥ ७ ॥ दिलोपात्‌ 
प्रतीपः ॥ ८ ॥ 


तस्यापि देवापिशान्तनुबाहीकसं्ताल्यः पूत्रा 
भूयुः ॥ ९ ॥ देवापिर्घाल एवारण्यं विवेश 


॥ १० ॥ शन्तनुस्तु महीपलोऽभूत्‌ ॥ ११ ॥ 
अयं च तस्य श्लोकः पृथिव्यां मीयते ॥ १२॥ 


यं यं राभ्यां स्पृशति जीणं यौवनमेति सः। 


शान्ति चासोतियेनाग्रथां कर्मणा तेन रान्तनुः १३ 


तस्य च प्र्ञान्तनो राष्ट दादशषवर्फणि देषो न 
ववषं ॥ १४ ॥ ततश्वाशेषरा्टविनाशमवेच्यासौ 
राजा ब्राह्मणानप्च्छत्‌ कस्मादस्माक्र राष्टेदेवो नं 
वर्षति को ममापराध हति ॥ १५ ॥ 

ततश्च तमृच्ाह्मणाः ॥ १६ ॥ अग्रजस्य 
ते हीयमवनिस्त्वया सम्भुज्यते अतः परिवेत्ता 
त्वमिद्युक्तस्स राजा पुनस्तानप्च्छ्‌ ॥ १७ ॥ 
किं मयात्र विधेयमिति ॥ ६८ ॥ 


ततस्ते पुनरप्युचुः ।॥ १९॥ यावदेवापिनं 
पतनादिमिदो पैरमिभूयते ताबदेतत्तस्याहं राज्यम्‌ 





भी पराश्रजी बोल्ले-[ कुरुपुत्र ] परीश्षितके 
जनमेजयः श्रुतसेन, उग्रसेन ओर भीमसेननामक चार 
पुत्र हुए, तथा जहुके सुरथ नामक एक पुत्र हुभा 
॥ १-२॥ सुरथके विदुरथका जन्म हुभा । विदूरथके 
सावभौम, सावंभौमके जयत्सेन, जयस्सेनके आरा- 
धित, आराधितके अयुतायु, अयुतायुके अक्रोधन, 
अक्रोधनके देबातिथि तथा देवातिथिके [ अजमीढके 
पुत्र ऋश्वसे भिन्न ] दूसरे ऋष्षका जन्म हृभा 
॥ ३-६॥ ऋष्षसे भीमसेन, भीमसेनसे द्रोप ओर 
दिषछीपसे प्रतीप नामक पुत्र हुआ ॥ ७-८॥ 


प्रतीपके देवापि, स्ान्तमु ओर बह्टवीक नामक 
तीन पुत्र हृए ॥ ९ ॥ इनमेसे देवापि बाल्यावस्थामें 
ह्य नमे चखा गया था अतः श्चान्ततु ही राजा हुभा 
॥ १०-११॥ उसके विषयमे प्रथिवीतरूपर यह्‌ इलोक 
कहा जाता हे | १२॥ 


'¶ृराजा श्यान्तयु] जिसको-जिसको अपने हाथसे 
स्पश कर देतेथे वेवृद्ध पुरुष भी युवावस्था प्राप 
कर छेते थे तथा उनके सपशंसे सम्पूण जीव अध्युत्तम 
लान्तिछाम करते थे, इसलिये वे शान्तनु कृहलाति 
थे” | १३ ॥ 


एक बार महाराज शान्तसुके राथ्यभ वार्‌ 
वषेतक वषौन हई ॥ १४॥ उस समय सम्पूणं 
दशको नष्ट होता देखकर राजे ब्राह्मणोसे पूछा, 
हमारे राञ्यमे वषा क्यों नहीं हृदं १ इसमे मेर 
क्या अपराध हे ?॥ १५॥ 


तव ब्राह्मणोँने उससे कहा--ष् राभ्य तुम्हारे 
बड़े भाईका दै किन्तु इसे तुम मोग रहै हो; इसील्यि 
तुम परिवेत्ता हो उनके एेसा कहनेपर राजा 
शान्तनुने उनसे फिर पृष्ठा, तो इस सम्बन्धमे मचे 
सब क्या करना चाये ¢ ॥ १६-१८॥ 

इसपर्‌ वे ब्राह्मण फिर बोरे-जघतक तुम्हारा बड़ा 


भाई देवापि किसी प्रकार परत्ित न षह्ो तवतक यह्‌ 


> ` 


मोन णकाक 





। २० ॥ तदलमेतेन तु तस्मै दीयतामिलयुक्ते 
तस्य मन्तिप्ररेणाहमसारिणा तत्रारण्ये | 
वेदवादविरोधवक्तारः प्रयुक्ताः ॥ २१॥ तैरस्या- 
प्यति क्छलुमते्म॑हीपतिपुत्रस्थ बुद्ध्वेदषाद्विरोभ- 
मार्गानुसारिण्यक्रियत ।॥ २२॥ राजा च श्ान्त- 
लुदिजवचनोत्पन्नपरिदेवनशोकस्तान्‌ ब्राह्मणान 
ग्रतः कुतवाग्रजस्य प्रदानायारण्यं जगाम ॥ २३॥ 


तदाश्रमयुपगताश्च तमवनतमवनीपतिपुत्र 
देवापिधुपतस्थुः ॥ २४॥ ते ब्रह्मणा वेदबादाचु- 
बन्धीनि वचांसि राज्यमग्रजेन कर्तव्यमित्यथ- 
वन्ति तभूवुः ॥ २५॥ असावपि देवापिवदवाद्‌- 
विरोधयुक्तिदूषिठमनेकव्रकारं तानाह । २६ ॥ 
ततस्ते ब्राह्मणाह्यान्तनुभूचुः ॥ २७ ॥ आगच्छ 
हे राजन्ररमत्रातिनि्वैन्येन प्रशान्त एवासाबना- 
बृष्टिदोष; परितोऽयमनादिकारमहितवेदवचन- 
दुषणोचारणात्‌ ॥ २८ ॥ पतिते चाग्रे नैव ते 
परिेतृखं मवतीव्युक्तश्शान्तनुस्स्वपुरमागम्य 
राज्यमकरोत्‌ ॥२९॥ वेदवादविरोधवचनोच।रण- 
दूपिते च तसििन्देवापौ तिष्ठत्यपि च्येषप्ातर्य- 
विरसस्यनिष्पत्तये ववषं मगवान्पर्जन्यः॥ ३०॥ 


बाहीकात्सोमदत्तः पुत्रोऽभूत्‌ ।॥ २१॥ सोम- 
दत्तस्यापि भूरिभूरिवःशन्यसंक्ञाञ्चयः पुत्रा 
बभूवुः । ३२॥ शान्तनोरप्यमरनयां जाहव्या- 
युदारकीतिरेषशास्रथेविद्धीप्पः पूप्रोऽभूत्‌ 
॥ ३३ ॥ सत्यवत्यां च चिघ्रङ्गदविचित्रषीर्यौ द्रौ 
ुत्राबुत्पादयामास शान्तनुः ॥ ३४॥ चिव्राङ्ग- 
दस्तु बाल एव चित्राङ्गदेनैव गन्धर्वेणाहवे निहतः 


राज्य बसीके योग्य दै ॥ १९-२० ॥ अतः तुम इसे 
उसीको दे डरो, तुम्हारा इससे कोई प्रयोजन 
नदीं । बाह्म्णोके एेसा कहनेपर शान्तलुके मन्त्री 
अङ्मसारीने वेदवादके विरद बोखनेवाङठे तपस्वि- 
योंको वनमें नियुक्त किया ॥ २१ ॥ उन्दने अतिशय 
सरल्मति राजकुमार देवापिको बुद्धिको वेदवाद्के 
विरुद्ध मागेभें प्रवृत्त कर दिया ॥ २२॥ उधर राजा 
शान्तनु ब्राह्मणोके कथनानुसार दुःख भौर श्ञोकयुक्त 
होकर ब्राह्मणोको आगे कर अपने बड़ भाईको राभ्य 
देने लिये वनम गये ॥ २३॥ 


वनम पर्हुचनेपर वे ब्राह्मणगण परम विनीत 
राजकुमार देवापिके आश्रमपर्‌ उपस्थित हुए; ओर 
ससे श्येष्ठ ्राताको हौ राज्य करना चादिये-इस 
अर्थ॑के समथंक अनेक वेदाुकरूर वाक्य कहने लगे 
॥ २४-२५॥ किन्तु उस समय देवापिने वेद्वाद्के 
विरुद्ध नाना प्रकारकौ युक्तियोसे दूषित वातं कीं 
| २६ ॥ तथ उन ब्राह्मणोने श्ान्तनुसे कहा-।। २७ 
नहे राजन्‌ ! चरो, अब यह अधिक आग्रह करनेकी 
आवश्यकता नहीं ¦ अव अनाच्ृष्टिका दोष शान्त हौ 
गया । अनादिकारसे पूजित वेद वाक्यो दोष बत- 
खानेके कारण देवापि पर्तित हो गया है ॥ २८॥ 


.उयेष्ठ ्रात्ताके परित हो जानेसे अब तुम परिवेत्ता 


नहीं रहे ॥ उनके एसा कहनेपर शान्तनु अपनी 
राजधानीको चरे आये ओर राञ्यञ्चासन करने गे 
॥ २९ ॥ वेदवाद्के विरुद्ध वचन बोखनेके कारण 
देवापिके पतित हो जानेसे, बडे भाईके रहते हुए भी 
सम्पूणं धान्योकी उत्पत्तिके लिये पजेन्यदेव ( मेघ ) 
घरसने खगे ॥ ३०॥ 


बाहीकके सोमदत्त नामफ पुत्र हा तथा सोम- 
दत्तके भूरि भूरिश्रवा भौर शल्य नामक तीन पुत्र हुए 
॥ ३१-३२॥ चान्तनुके गङ्गाजीसे अतिद्यय कीर्तिमान्‌ 
तथा सम्पूणं श्ाश्मोका जानेवाला भीष्म नामक पुत्र 
हा ॥ ३३ ॥ शान्तनुने सत्यषतीसे चित्राङ्गद ओर 
विचिच्रवीयं नामक दो पुत्र ओौर भो इत्यन्न किये 
॥ ३४॥ उनमैसे चिच्राङ्गदको तौ बाल्यावस्थमे हे 
चित्राङ्गद नामक गन्धवंने युद्धमे मार डाला ॥ ३५॥ 


[०। [ति 


ना 





॥ ३५॥ विचित्रवीर्योऽपि काशिराजतनये 
अम्मिकाम्परालिङ्के उपयेमे ॥३६॥ तदुपमोमाति- 
खेदाच यक्ष्मणा गृहीतः स पश्चसमगमत्‌। २७॥ 
सत्ययतीनियोगाच् मत्पुत्रः कृष्णद्वैपायनो मातु- 
मैचनमनतिक्रमणीयमिति द्त्वा विचित्र वीयषेत्र 
धृतराटपाण्ड्‌ ततप्रहितयजिष्यायां विदुरं चोखपाद्‌- 
यामास ॥ ३८ ॥ 


धृतरष्टोऽपि गान्धार्या दुयोधनदुश्शासनभ्रधानं 
पुत्रशत्ुरपादयामास ॥ २९ ॥ पाण्डोरप्यरण्ये 
मृगयायामूषिकापोपहतप्रजाजननसामथ्य॑स्य धभ 
वायुत्रैयुधिष्ठिरमीमदेनाज नाः इन्स्यां नदल- 
सहदेवौ चाधिम्यां माद्रयां पश्वपुत्रास्सयुल्पादिताः 
॥ ४० ॥ तेषां च द्रौपद्यां पञ्चैव पुत्रा बभूवुः 
॥ ४१ ॥ युधिष्ठिरासतिविन्ध्यः भीमसेनाच्चुत- 
सेनः श्ुतकी्तिरलं नाच्छुतानीको नङ्लाच्चत- 
कर्मा सहदेवात्‌ ॥ ४२ ॥ 


अस्थे च पाण्डवानामास्मजास्तद्यथा || ४३॥ 
यौधेयी युधिष्िरादेवकं पुत्रमवाप ॥ ४४॥ 
हिडिम्बा घटोत्कचं भीमसेनास्पुत्रं हेमे ॥ ४५ ॥ 
काशी च भौमसेनादेव सर्वगं सुतमवाप ॥ ४६ ॥ 
सहदेवाच विजया सुहोत्रं पुत्रमवाप ॥ ४७ ॥ 
रेणुमत्यां च नङ्करोऽपि निरमित्र मजीजनत्‌॥ ४८। 
अनु नस्याप्युलृप्यां नागकन्यायामिरावान्नाम 
पुत्रोऽभवत्‌ । ४९॥ मणिपुरपतिपुत्यां पत्रिका- 
धर्मेण वशरवाहनं नाम पुत्रमजु नोऽजनयत्‌॥५०॥ 
सुभद्रां चारमक्षसवेऽपि योऽ्तावतिवरपरक्रम- 
स्पभस्तारातिस्थजेता सेऽभिमन्युरजायत ।\५१॥ 
अभिमन्योरूतरायां परिक्षीणेषु इर्ष्वश्वस्थाम- 





विचिच्रवीर्यने का्चिराजकी पत्री अम्बिका ओौर 
अम्बालिकासे विवाह किया | २३६ ॥ उनके उप- 
भोगमें अत्यन्त वयग्र रहनेके कारण वह यद्ष्माके 
वरीभूत होकर [ अकाल्हीमे ] मर गया ॥ २७॥ 
तदनन्तर मेरे पुत्र करष्णद्ेपायनने सत्यवतीके नियुक्त 
करनेसे माताका बचन टाख्ना उचित न जान 
विचिघ्रवीयंको पन्नियोसे धृतराष्ट्र ओौर पाण्डु नामक 


दो पुत्र छयन्न किये ओर उनकी भेजी हुई दासीसे 
विदुर नामक एक पुत्र उलन्न किया ॥ ३८ ॥ 


शृतरष्टूने भी गान्धारीसे दुर्योधन ओौर दुःशासन 
आदि सौ पुप्रोको जन्म दिया ॥ ३९॥ पाण्डु वनमें 
अआच्चेट करते समय ऋषिके शापसे सन्तानोत्पादनमें 
असमथ हो गये ये अतः उनकी खी कुन्तीसे धम, 
वायु ओौर इन्द्रन क्रमः युधिष्ठिर, भीम ओौर अजुन 
नामक तोन पुत्र तथा माद्रीसे दोनों अधिनीक्कमारोने 
नज्कुल ओर सष्टदेव नामक दो पुच उन्न किये । 
दस प्रकार उनके पच पुत्र हुए ।। ४०॥ उन रपौचके 
द्रौपदीसे पौच ही पुत्र हए । ४१ ॥ उनमेसे युधिष्ठिरः 
से प्रतिविन्ध्य, मोमसेनसे श्रुतसेन, अजँनसे शरुत- 
कीरति, नछुसे श्रुतानक तथा सहदेवसे श्रुतकमौोका 
जन्म हुभा था ॥ ४२॥ 


इनके अतिरिक्त पाण्डवोके ओर मी कद पुत्र 
हए! ४३॥ जैसे-युधिष्ठिरसे यौधेयीके देवक नामक 
पुत्र हु, मीमसेनसे हिडिम्बाके घटोत्कच ओर 
काञ्चीसे सर्वग नामक पुत्र हज, खहदेवसे विजयाके 
सुदोत्रका जन्म हुआ, नज्खछने रेणुमतीसे निरमिनत्रको 
उलपन्न किया ॥ ४४-४८॥ अनक नागकन्या उदूपौ- 
से इरावान्‌ नामक पुत्र दुभा ॥ ४९॥ मणिपुरनरेश्चको 
पुरीसे अयने पुच्रिका-धमावुसार वभुवाहन नामक 
एक पुत्र घसपन्न किया | ५० ॥ तथा उसके सुभद्रासे 
अभिमन्युका जन्म हमा जो कि बाल्यावस्था हौ 
बड़ा बरूपराक्रम-सम्पन्न तथा अपने सम्पूणं शुभ 
को जीतनेवाखा था ॥ ५१।। तदनन्तर, कुरकुलके 
क्षीण ह्यो जानेषर जो अश्त्थामके प्रहार कयि हए 
ब्रह्माद्या गमे हयी भस्मीमूत दयो चुका था, किन्तु 








२५६ 


्यक्ततह्ाल्ेण ग्मं॑एव भस्मीकृतो भगवत- 
स्करुषुरासुरन्दित्वरणयुगलस्यात्मेच्छया 


भ्रीविष्णुपुराण 


[करस गरीयां 


| अ० २९१ 





फिर जिन्दोने अपनी इच्छासे ही माया-मानव-देह 
धारण किया है उन सकल सुराुरबन्दितिचरणारविन्व्‌ 
श्रकष्णचन्द्रके प्रभावसे पुनः जौवित हौ गया; उस 


कारणमानुषूपथारिणोऽलुमावास्युनजीवितमवाप्य| परीक्षिते अभिभन्युके द्वारा उत्तराक गमस जन्म 


छया जो कि इस समय इस प्रकार धसंपूवेक सम्पूणं 


परीकषलन्न ॥५२॥ योऽयं सामप्तमेतद्ुमण्डल- भूमण्डलका क्ञासन कर रहा है कि जिससे भविष्ये 


मखण्डितायतिधर्मेण पारयतीति ॥ ५३ ॥ 


भी उसकी सम्पत्ति क्षीण न हो ॥ ५२-५३ ॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽरो विंशो ऽध्यायः ॥ २०॥ 





इक्षीसर्वो अध्याय 
भविष्यमे दोनेवालते राजार्मोका वणेन 


श्रीपराञ्चर उवाच 
| (^ ध ¢ 
अतः परं भविष्यानहं भूपाहान्कीतयिप्यामि 
॥ १ ॥ योऽयं साम्म्रतमवनीपतिः परीकषित्तस्यापि 


जनमेजयभरतसेनोग्रसेन भीमसेनाशवस्वारः पुत्रा 
भविष्यन्ति ॥ २ ॥ जनमेजयस्यापि शतानीको 





भविष्यति ॥ ३॥ योऽसौ याज्ञवल्क्यादेदमधीत्य 
कपादस्ाण्यवाप्य विषमविषयविरक्त चित्तवृत्ति 
सौनफोपदेशादात्मन्ञानप्रवीणः परं निर्बाणमवा- 
प्स्यति ॥ ४ । शतानीकादश्चमेधदत्तो भविता 
| ५ ॥ तस्मादप्यधिसीमहृष्णः।। ६ ॥ अधिसी- 
मह्रष्णान्निचकनुः ॥ ७ ॥ यो गङ्धयापहूते हस्ति- 
नापरे कौश्यां निवत्स्यति ॥ ८ ॥ 


तस्याप्युष्णः पुत्रो मविता ॥ ९॥ रष्णादि- 
चित्ररथः ॥ १० ॥ ततः शुचिरथः ।॥ ११॥ 
तस्माद्ध्ष्णिमास्ततस्सुषेणस्तस्यापि | 
थान्नुपचकषुस्तस्मादपि सुखा्रुस्तस्य च पारि्व- 
स्तत सुनयस्तस्यापि मेधावी ॥ १२॥ 
मेधाविनो सिुज्ञयस्ततो गरदुस्तस्माच तिग्मस्त- 
स्माृबद्रथो बरहद्रथादसुदानः -॥ १३॥ 
ततोऽपरदश्तानीकः। १४॥ तस्माब्योदयन उदय- 


श्रीपराश्चरजी बोक्त-अव मेँ भविष्यमे होनेवाे 
राजाओंका वर्णन करता ह| १॥ इस समय जो 
पसक्षित्‌ नामक महाराज दै इनके जनमेजय, श्रुत- 
सेस, उग्रसेन शौर भीमसेन नामक चार पुच्र होगे 
॥ २॥ जममेजयका पुत्र शतानीक होगा जो याज्ञ- 
घत्क्यसे वेदाध्ययनकर छृपसे शद्लविदया प्राप्तकर 
विषम विषययोसे बिरक्तचित्त हौ महर्षिं सौनकके 
उपदेशसे आ्मन्ञानमे निपुण होकर परमनिवोण-पद्‌ 
प्राप करेगा ।। ३-४ ॥ रतानीकका पुत्र अश्वमेधदत्त 
हयेगा । ५॥ उसके अधिसौमङ्कष्ण तथा अधिसीम- 
करष्णके निचक्सु नामक पुत्र होगा जो कि 
गङ्गाजीद्राया हरितिनापुरफे बहा ठे जानेषर कौशाम्बी 
पुरीम निवास करेगा ॥ ६८ ॥ 

निचकुका पुत्र दष्ण होगा, उष्णका विचिच्ररथः 
विचिच्ररथका शरुचिस्थ, श्ुचिरथका दृष्णिमान्‌ 
वृष्णिमानका सुषेण, सुषेणका सुनीथ, सुनीथका चप, 
चपका चक्षु, चक्चुका सुखाबल, सुखावलका पारिसवः 
पारि्ववका सुनय, सुनयका मेधावी, मेधावीका 
रिपुञ्चय, रिपुञ्ञयका गदु, मृदुका तिग्म, तिग्मका 
बृहद्रथ, बृहद्रथका वसुदान, बसुदानका दूसरा 
शतानीक, शतानीकका उद्यन, उद्यनका अहीन) 


अ० २२] 


चतुथं अं 


२५७ 








तस्माच पेपकः ॥१६॥ अत्रायं शोकः ॥१७।। | निरमित्रका पुत्र क्षेमक दोगा । इस विषयमे यह्‌ 


ब्रह्मक्षत्रस्य यो योनिवशयो राजपिसस्कृतः । 


क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थान प्राप्स्यते कटौ | १८।। 


शोक प्रसिद्ध है--।। ९-१७॥ 


ज्ञो वंह ब्राह्मण ओर क्षत्रियोंकी उतपत्तिका 
कारणदूप तथा नाना राजर्षियोसे सभाजित है वह 
कलियुगमे राजा क्षेमकके उतपन्न होनेपर समप्तहौ 
जायगाः | १८॥ 


~ ++" 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽसे एकविंशोऽध्यायः ।॥ २१॥ 


१५ 
1 


वाईसर्वा अध्याय 


भविष्यमे होनेचाले दृक्ष्वाङ्कव॑श्चीय राजार्भोकए चरणन 


श्रो पराद्चर उवाच 

अतश्च क्वाकबो भविष्याः पार्थिवाः कथ्यन्ते 
॥ १॥ बृहद्हृस्य पुत्रो ब्रहस्षणः ॥ २॥ तस्मा- 
दुरुक्षयस्तस्माच बत्सव्यृहस्ततश्च प्रतिव्योमस्तस्मा- 
दपि दिवाकरः ॥ ३॥ तस्मास्सहदेवः सददेवाद्‌- 
बरहदश्वस्तसघ लर्मालु रथस्तस्य च प्रती ताश्वस्तस्यापि 
सुप्रतीकस्ततथ मरदेवस्ततः सुनक्षत्रस्तस्मात्किननरः 
॥ ४ ॥ किन्नरदन्तरिषस्तस्मारसुपणस्ततथामिनर- 
जित्‌ ॥ ५॥ ततश बृहद्राजस्वस्यापि धमीं 
धर्मिणः कृतज्ञयः। ६॥ -कृतञ्जयाद्रणञ्ञयः।\७॥। 
रणज्जयास्सञ्चयस्तस्माच्छाक्यष्शाक्याच्छुद्रोदन- 
स्तस्माद्राहु्टस्ततः प्रसेनजित्‌ ॥ ८ ।} ततश्व शुद्र 
करततश्च ुण्डकस्तस्म।दपि सुरथः ।|९॥ तत्पुत्रश्र 
सुभित्रः ॥ १० ॥ इत्येते चेकष्वाकवो वृहद्ध- 
छास्वयाः ॥ ११ ॥ 

अत्रानुवंशश्ोकः ॥ १२ ॥ 
इक्ष्वाकूणामयं वश्स्सुमित्रान्ते भविष्यति । 


यतस्तं प्राप्य राजानं सस्थां प्राप्स्यति वै कटो ।१३ 


1 
(म 





शीपराश्चरजी बोले-अब मँ भविष्यमे होने 
वारे इ््वाक्ुवंशीय राजाओंका बणेन करता ह 
| १ ॥ ब््द्रलका पु बरहस्छ्षण होगा, उसका उरक्षयः 
छरक्षयका वत्सम्यह, वर्सम्यूहका प्रतिन्योम, 
म्रतिन्योमका दिवाकर, दिवाकरका सहदेव, सहदेव 
काब्रहदश्ध, बहदश्धका भायुरथ, भातुरथका प्रतीता) 
प्रतीताच्चका सुप्रतीक, सुप्रतीकका मरुदेव; मरुदैवका 
स॒नक्चच्र, सुनक्षत्रका किन्नर) किन्नरका अन्तरिक्ष; 
अन्तरिश्चका सुपण, सुपणेका अमित्रजित्‌, अमित्र 
जित्‌का बह द्राज, बृद्राजका धर्मी, धर्मीका कृतञ्च; 
कुतञ्यका रणञ्ञय, रणञ्जयका सञ्जय, सञ्यका 
शाक्य, शाक्यका ज्ुद्धोदन, शुद्धोदनक्रा राहृल 
राहुलका प्रसेनजित्‌ , प्रसेनजितका क्षुद्रक) शद्रकका 
कुण्डक, कुण्डकका सुरथ ओौर सुरथका सुमित्र 
नामक पुत्र होगा । ये सव इक्ष्वाङ्के वसम बइहद्रल- 
की सन्तान दोगि । २-११॥ 

इस वं शके सम्बन्धमे यद शोक सिद्ध है-1 १२॥ 


व्ह इक््वाक्ुवं र राजा सुमित्रतक रहेगा, क्यो. 
कि कलियुग राजा सुमिच्रके होनेपर फिर यह 
समाप्त हो जायगाः ॥ १६॥ 


५ 
॥ 
1 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थःऽरो हाधिङ्ोऽध्यायः ॥ २२॥ 


३५८ 


भ्रीषिष्णुपुराण 


[ अ० २३, २४ 


तेहसर्वां अध्याय 
मगधवंशका वर्णन 


भ्रोपरारचर उवाच 
मागधानां बाहद्रथानां माविनामनुक्रमं कथ- 
यिष्यामि ॥ १॥ अत्रहि वंशे महाबह्पराक्रमा 

जरासन्धप्रधाना बभूवुः ॥ २॥ 
जरासन्धस्य पुत्रः सहदेवः ॥२॥ सददेबारो- 
मापिस्तस्य भ्रुतश्रवास्तस्याप्ययुतायुस्ततश्च निर- 
मित्रस्तत्तनयस्सुनेत्रस्तस्मादपि वृदतकर्मा॥ ४॥ 
ततश्च सेनजित्ततथ भ्रुतञ्जयस्ततो विप्रस्तस्य च 
प्रश्युचिनामा भविष्यति ॥ ५॥ तस्यापि 
ेम्यस्ततश्च पुव्रतस्ुवतादधमस्ततस्मुधवाः॥६॥ 
ततो दृढसेनः ॥ ७॥ तस्मात्सुबल! ॥ ८ ॥ 
सुषलास्युनी तो भविता ।।९॥ ततस्पत्यनित्‌।।१०॥ 
तस्मादविश्चनित्‌ ॥ ११॥ तस्यापि रिपुञ्जयः 


॥ १२॥ इत्येते बदरथा भूपतयो वसह 
सरमेकं भविष्यन्ति ॥ १३ ॥ 





भ्रीपराशशरजो बोक्ञे-अव मै मगधदेशीय बरह- 
द्रथकी भावी सन्तानका अनुक्रमसे वर्णन करगा 


॥ १॥ इस वंशम मष्टाबलवान्‌ ओर पराक्रमी 
जरासन्ध आदि राजागग प्रधान थे॥ २॥ 

जरासन्धका पुत्र सहदेव है ॥ २॥ सदेवके 
सोमापि नामक पुत्र होगा, सोमापिके श्रुतश्रवा, 
्रुतश्रवाके अयुत्ायु, अयुतायुके निरमिच, निरमि त्रके 
सुनेत्र, सुमेत्रके श्रहत्कमौ, ब्रहत्कमौके सेनजित्‌, 
सेनजितके श्रुतञ्जयः, श्रुतञ्जयके विग्र तथा विग्रके 
शुचि नामक एक पुत्र होगा, ।। ४-५ ॥ युचिके क्ष्यः 
्षेम्यके सुव्रत, सुत्रतके धमं, धमेके सुश्रवा, सुश्रवा- 
के दृद्सेन, दृदसेनके सुर, सुबलके सुनीतः खुनीत- 
के सत्यजित्‌, सस्यजित्‌के विश्वजित्‌ ओर विश्वजितके 
रिपुञ्चयका जन्म होगा ॥ ६-१२॥ इस भ्रकारसे 
बृह द्रथवंश्चीय राजागण एक्‌ सहस्र बषपयन्त मगध 
मे शासन करेगे ॥। १३॥ 


४ ५ 
न्य © +न 


इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽे व्रयो्विोऽध्यायः ॥२३॥ 


== © २ 


चोवीसर्वँ अध्याय 
कलिदुगी रजाँ ओर कलिधमोका वर्णेन तथा राजवंश-वर्णनका उपसंहार 


श्रीपराञ्चर उवाच 

योऽयं रिषुल्लयो नाम बददथोऽन्त्यस्तस्या- 
मात्यो सुनिको नाम भविष्यति ॥ १॥ स चैनं 
स्वामिनं हत्वा खपुत्र प्र्ोतनामानमभिपरेषष्यति 
॥ २॥ तस्यापि बह्ाकनामा पुत्रो भविता ॥ ३॥ 
ततश्च विशासयृपः ॥४।। तत्पुत्रो जनकः ॥ ५॥ 
तस्थ च नन्दिवद्धंनः ॥६॥ ततो नन्दी ॥७॥ 
दस्येतैऽष्प्रिशदत्तरमन्दशतं पञ प्रोताः परथिवी 


श्रीपरशस्जी बोल्ते- बर द्रथवंश्का रिपुञ्ञय 
नामक जो अन्तिम राजा द्योगा उसका युनिक 
नामक एक मन्त्री होगा । वह अपने स्वामी रिपुखय- 
को मारकर अपने पुत्र प्र्योतका राज्याभिषेक करेगा । 
उसका पुत्र बलाक होगा, बलाकका विशाखयूपः 
विञ्चाखयूपका जनक, जनका नन्दिवद्धंन तथा 
नन्दिवरद्नका पुत्र नन्दी होगा। ये पौच प्र्योत- 
वंशीय नपतिगण एक सौ अडतीस वषे पथिवीका 


अ० २५ | चतुथं अश 


णााामयकायााायाा णम काना 








ततश्च शिशुनामः ॥ ९॥ तत्पुत्रः काकवर्णा 
मविता ॥ १०॥ तस्य च पुत्रःकषेमधर्मा | ११॥ 
तस्यापि क्षतोजाः ॥ १२ ॥ तद्पुत्रो विधिपारः 
॥ १३॥ ततथाजनातवात्रुः ॥ १४॥ तस्मादेकः 
॥ १५ ॥ तस्माचोदयनः ॥ १६ ॥ तस्मादपि 
नन्दिवद्धनः ॥ १७।। तत्तो महानन्दी ॥ १८ ॥ 
ह्येते दौशुनाभा भूपालघ्चीणि वर्श्षतानि 
दिषष्टयधिकानि भविष्यन्ति ॥ १९ ॥ 

महानन्दिनस्ततश्शद्रागर्भोद्वोऽतिलुन्धोऽति- 
वलो महाषदमनामा नन्दः परशुराम द्वापरोऽखिल- 
षत्रान्तकारी भविप्यति ॥२०॥ ततःप्रभृति शूद्रा 
भूपाला भविष्यन्ति || २१ ॥ घ॒ चैकच्छ्ाम- 
नुल्लङ्खितश्चासनो महापद्मः प्रथिवीं भोक्ष्यते 
|| २२॥ तस्याप्यष्टौ सुतास्सुमाल्याघया भवितारः 
|| २३॥ यस्य महाप्मस्यानु परथिवी मोक्ष्यन्ति 
॥ २४ ॥ महापदपत्रा्कं वर्षशचतमवनीपतयो 
भविष्यन्ति | २५ ॥ ततथ नव वचैतान्नन्दान्‌ 
कोरिल्यो ब्राह्मणस्सष्ुद्ररिष्यति ।॥ २६ ॥ तेपा- 
मभावे मौर्याः परथिवीं मोश््यन्ति । २७ । कौटिल्य 
एव चन्द्रगुप्युत्पन्नं राज्येऽभिपेक्ष्यति ॥ २८ ॥ 

तस्यापि पुत्रो विन्दुसासे भविष्यति | २९ |! 
तस्याप्यशोकवद्रनस्ततस्पुयशास्ततशथ दशरथ- 
स्ततश्च संयुतस्ततदशालिषुस्तस्मात्सोमशमां 
तस्यापि सोमशषमणद्शतधन्वा । २० ॥ तस्य।- 
पि ब्रृहुद्रथनामा भविता | ३१ || एवमेते मौयां 
दश भूपतयो भविष्यन्ति अब्दशतं सपतत्रि शदुत्तरम्‌ 
।॥ २३२ ॥ तेषामन्ते पृथिवीं दन्न शद्धा भोक्ष्यन्ति 
| ३३ ॥ पुष्यमित्रस्सेनापतिस्स्वामिनं इत्वा 
राज्यं करिष्यति तस्य।त्मजोऽपिमित्रः ।। ३४।। 
तस्मास्सुज्येष्ठस्ततो वसुमित्रस्तस्मादप्युदङ्कस्ततः 
पुिन्दकस्ततो घोषवसुस्तस्मादपि वज्रमित्रस्ततो 
भागवतः | ३५ ॥ तस्मादेवभृतिः ।। २६ ॥ 


इत्येते शङ्गा दादशोत्तरं वर्षशतं परथिवी 
शीष््भ्ति 3५५ ।। 











२५९ 





नन्दीका पुत्र रिद्ुनाभ होगा, शिदयुनाभका काक- 
वणे, काकव्णका क्षेमधर्मा, क्षेमधमौका कषतौजा, 
कषतौजाका विधिसार, बिधिसारका अजातशत्र, 
जअजातरान्रुफा अभक, अभेकक। उद्यन, डद्यनका 
नन्दिवद्धंन ओर नन्दिवर्ूनका पुत्र महानन्दी 
होगा। ये सिष्युनाभवंीय सृपतिगण तीन सौ 
चासट वषं प्रथिकीका श्चासन करगे ॥ ९-१९॥ 

महानन्दीके शूद्राके गर्भ॑से उन्न अत्यन्त 
लोभी ओौर महाबलवान्‌ महापद्म नामक नन्द्‌ 
दूसरे परश्ुसासके समान सम्पूर्ण क्षत्रियोका न्च 
करनेवाला होगा । तसे शुद्रजातीय राजा रास्य 
करेगे। राजा महापद्म सम्पूणं प्रथिषीका पक- 
च्छन्न ओर अनुह्लङ्कित राभ्य-जञासन करेगा । उस 
समालो आदि आठ पुत्र होगे जो महापद्मे पीछे 
प्रथिवीका राज्य भोगेगे ॥ २०-२४ ॥ महापद्म भौर 
उसके पुत्र सौ वपषेतक प्रथिवीका श्चा्तन करो। 
तदनन्तर इन नवो नन्दको कौटिल्य नामक एकं ब्राह्मण 
नष्ट करेगा, उनका अन्त होनेपर मौयं नृपतिगण 
प्रथिकीको भोर्गेगे । कौटिल्य ही [मुरा नामकी 
दासीसे नन्दद्ाया ] इदन्न हुए चन्द्रगुप्तको राञ्या- 
भिषिक्तं करेगा ॥ २५-२८॥ 

चन्द्रगुघ्ठका पुत्र बिन्दुसार, विन्दुसारका अञ्ञोक- 
वद्धंन, असोकवद्धंनका सुयक्चा, सुयज्ञाका दञ्चरथ, 
द्रथका संयुत, सयुतका शालिक, आदिशुकका 
सोमङमौ, सोमश्चमौका शतधन्वा तथा सचतघन्वाका 
पुत्र बृहद्रथ होगा । इस प्रकार एक सौ तिहत्तर वप- 
तक ये दश्च मौयंवंञ्ची राजा राज्य करगे ॥ २९-२२॥ 
इनके अनन्तर प्रथिवीमे दस शुङ्गवंञ्चीय राजागण 
होंगे ॥ ३३ ॥ उनमें पहला पुष्यमिन्न नामक सेना- 
पति अपने स्वामीको मारकर स्वयं राञ्य करेगा 
उसका पुत्र अग्निमिच्र होगा ॥ ३४ ॥ अग्निमित्रका 
पुत्र सुच्येष्ठ, सुच्यष्ठका वसुमित्र, चसुमित्रका 
उदक, उदृंकका पुिन्दक; पुलिन्दकका घोषवसु, 
घोषवसुका वख्रमित्र, वजमित्रका भागवत ओर 
भागवतका पुत्र देवभूति होगा ॥ ३५-३६॥ ये 
शुज्गनरेख एक सौ बारह वषे परथिवीका भोग 


-क- म, ,, त ।॥ 








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ततः कण्वानेषा भूर्थास्यति | ३८॥ देवभूतिं 
त॒ बुद्खराजानं व्यसनिनं तस्थैवामात्यः काण्वो 
वधुदेबनामा तं निहत्य स्मयमवनीं मोक्ष्यति 
॥ ३५॥ तस्य पुत्रो भूमित्रस्तस्यापि नररायणः 
|| ४० ॥ नारययणात्मजस्दुशर्मा ।॥ ४१ ॥ एते 
काण्व।यनाशत्वारः पशचतवारिशिद्पामि भूपतयो 
भविष्यन्ति | ४२ ॥ 
सुशर्माणं तु काण्वं तद्भृर्यो वहिपुच्छकनामा 
हसान्धजातीयो वसुधां मोक्ष्यति ॥४३॥ ततथ 
कृष्णनामा तद्भ्राता पथिवीपतिरम॑विष्यति।।४४। 
तस्यापि पुत्रः शान्तकणिस्तस्पापि पूगोत्सङ्गस्त- 
त्पुत्रश्शातकणिस्तस्माच रुम्बोदरस्तस्माच पिल ङ- 
स्ततो मेषस्वातिस्ततः पटुमान्‌ ॥ ४५।। ततश्रा- 
रिषटकर्मा ततो दारदः ॥ ४६॥ दालादलास्प- 
रलकरस्ततः पृिन्दसेनस्ततः सुन्द्रस्ततश्च।त- 
णिस्ततरिशिवसातिस्ततश्च मोमतिपुत्रस्तदपत्रोऽलि- 
मान्‌ ॥ ४७ ॥ तस्यापि शान्तकणिस्ततः; शिव- 
भितस्ततशथ शिषस्कन्धस्तस्मादपि यज्ञश्रीस्ततो 
दवियक्ञस्तस्माचन्द्रभ्रीः ॥ ४८॥ तस्मात्परोमाचिः 
।४९॥ एवमेते त्िंश्चत्वायब्दशतानि षर्‌ पश्चा- 
शदधिफानि प्रथिवीं मोक्ष्यन्ति आन्धभरत्याः 
॥५०॥ सप्रामीरप्मूतयो दश गदमिराभ भूयनो 
भविष्यन्ति ॥ ५१ ॥ ततष्पोडश शका भ॒पतर्थी 
भवितारः ॥ ५२ ॥ ततथा यवनाथतुदश् 
तुरुष्कारा युण्डाश्च त्रयोदश एकादश्च मौना एते 
मै पृथिवीपतयः पृथिवीं दशवर्षशतानि नवत्य- 
धिकानि भोशष्यन्ति ॥ ५३ ॥ 
ततश एकादश मुपतयोऽब्दशचतानि त्रीणि 
पृथिवीं मोक्ष्यन्ति ॥ ५४ ॥ तेपूर्सननेषु कैङ्किला 
यवना भूषतयो मविष्यन्त्यमूद्धामिषिक्ताः ।५५॥ 
तेषामपत्यं विन््यशक्ति स्ततः प्रञ्जयस्तस्माद्राम- 
चन्द्रस्तस्माद्रमंवर्मा ततो वद्गस्ततोऽम्‌न्नन्दनस्तत- 
स्सु{नन्दी तद्‌धाता नन्दियशनादलुक्रः प्रवीर एते 








इसके अनन्तर यह प्रथिवी कण्व भूपाले 
अधिकारमें ची जायगी | ३८॥ शुङ्कवंशञीय अति 
ञ्यसनज्ञीरु राजा दैवभूतिको कण्ववंरीय वसुदेव 
नामक उसका मन्त्री मारकर स्वयं राञ्य भोगेगा 
॥ ३९ ॥ उसका पुत्र भूमिच्र, भूमित्रका नारायण 
तथा नारायणका पुत्र सुञ्चमी होगा ।॥ ४०-४१॥ ये 
चार कण्व भूपतिगण पैताल्लीस वपं प्रथिवीके 
अधिपति रहने ॥ ४२॥ 

कण्व वज्ञीय सुशमाको उसका यद्िपुच्छक नाम 
वाखा आन्धरजातीय सेवक मारकर स्वयं परथिवीका 
मोग करेगा ॥ ४३ ॥ उसके पीके उसक्रा भाई कृष्ण 
पूथिकीका स्वामी होगा ॥ ४४ ॥ उसका पुत्र शान्त- 
कर्णि, शान्तकर्णिका पुत्र पूर्णोल्सिग, पूर्गोत्सगक्रा 
ातकणि होगा, ्ातकणिका लम्बोदर, छम्बोदरकरा 
पिक, पिकका मेवस्वाति, मेवस्वातिका पदुमान्‌ , 
पटुमान्का अरिष्टकमी, अरिष्टकमौका हाराहख, 
दाखाहख्का पलक, पठल्कका पुङिन्दसेन, पुडिन्व्‌- 
सेनका सुन्दर, सुन्दरका शात्तकणिं | दसरा ] 
श्ातकणिका शिघस्वाति, शिवस्वातिका गोमतिपुत्र, 
गोमतिपुत्रका अदिमान्‌, अलिमानका शान्तकणि 
[ दुसरा | शछान्तकर्णिका शिवश्रित, शिवश्रितका 
शिवस्छन्ध, स्िवस्कन्धका यज्ञ्री, यज्ञश्रीका द्वियज्ञ, 
द्वियज्ञका चन्द्रश्री तथा चन्द्रभीका पुत्र पुलोमाचि 
होगा ॥ ४५-४९ ॥ इस प्रकार ये तीस आन्धरभस्य 
राजागण चार सौ छष्पन वं परथिकीको भोगेगे 
॥ ५० ॥ इनके पीठे सात आभीर ओर दश गदभिङ 
राजा होगे ॥ ५१॥ फिर सोह शक राजा होगे 
॥ ५२ ॥ उनके पीछे आठ यवन, चौदह तुकं, तेरह 
मुण्ड ( गुरुण्ड ) ओर ग्यारह मौनजाततीय राजादोग 
एक हजार नेव्वे वष प्रथिवीका शासन करेगे ॥५३॥ 

इनभेसे भी ग्यारह मौन राजा प्रथिवीको तीनसौ 
वर्प॑तक भोगेरो ॥ ५४ ॥। इनके उच्छिन्न होनेपर ककिर 
नामक यवनजातीय अभिषेकरष्ित राजा होगे॥ ५५॥ 
उनका वंङञधर विन्ध्यशक्ति होगा। षिन्ध्यशक्तिका पुत्र 
पुरञ्जय होगा । पुरञ्जयका रामचन्द्र, रामचन्द्रका धमं- 
वम, धमेव माका वंग, वंगका नन्दन तथा नन्द्नका 
पुत्र सुनन्द होगा । सुनन्दीके नन्दया, युक्र ओग 


` | न न 


[ानााताााायपता कवि 





वषशतं पदुवर्पाणि भूपतयो भविष्यन्ति ॥ ५६॥ 
ततस्तपपुतरास्तयोदशेते बाहिकाश् त्रयः | ५७॥ 
ततः पूष्पमित्राः पटुमित्राञ्लयोदशेकराशच 
सप्रास्धाः ॥ ५८ ॥ ततश्च कोश्छायां तु नव 
चैव भूपतयो मविष्यन्ति ॥ ५९ ॥ नेषधास्तु त 
एव ॥ ६० ॥ 

मगधायां तु बिश्वस्फटिकसं्ञोऽन्यान्वर्णान्क- 
रिष्यति ॥ ६१॥ कैवत्तवदुपुरिन्दतराक्षणात्राज्ये 
स्थापयिष्यति ॥ ६२ ॥ उत्साद्याखिलक्षत्रजातिं 
नव नागाः पञ्मावस्यां नाम पुर्यामनुगङ्काप्रयागं 
गयायाश्च मागधा गुप्तश्च मोक्ष्यन्ति ॥६२॥ कोष- 
लान्धषुण्ड्ताम्रशिप्न स्द्रतदणुरीं च देवरक्ितो 
रक्षिता ॥ ६४॥ किङ्गमाहिषमदेन्द्रभोमान्‌ गुहा 
भोक्ष्यन्ति ॥ ६५॥ नेषधनैमिषककारकोशकाञ्च- 
नपदान्मणिधान्यकवंज्ञा भोध््यन्ति ॥ ६६ ॥ 
ेरा्यपुपिकजनपदान्कनकाह्यो मोक्ष्यति 
॥ ६७ ॥ सौराषाबन्तिददराभीरान्नमंदा मरुमूविष- 
यांश वरात्यद्विजामीरषु्राद्या मोक्ष्यन्ति ॥६८॥ 
सिन्धुतट्दाविकोषीचन्द्रमागाकादमौरषिषयां 
व्ात्यम्लेच्छदूद्रादयो भोक्ष्यन्ति ॥ ६९ ॥ 

एते च तुन्यकालास्सर्वे पृथिव्यां भूशजो 

भविष्यन्ति ।। ७० ॥ अन्पप्रसादा बृहस्कोपास्सरव- 
कारमनूताधरमेरुचयः स्ीवालमोबधकत्तरः पर- 
स्वादानरुचयोऽल्पपारास्तमिनप्राया उदिगस्त- 
मितप्राया अल्पायुषो महेच्छा ह्यल्पधरमा टुन्धाशच 
भविष्यन्ति ।७१॥ तैथ विमिश्रा जनपदास्तच्छी- 


लादुव्तिनो राजाश्रयशुष्मिणो म्ठेच्छास्चार्याशच 
विपर्ययेण वर्तमानाः प्रजाः क्षपयिष्यन्ति ॥७२॥ 





प्रवीर ये तीन भाद्येगे। ये सवब.एकसौ छः वषं 
राभ्य करेगे ॥ ५६॥ इसके पीछे तेरह इनके व॑र 


ओर तीन बाहिक राजा होगे ॥ ५७ ॥ उसके बाद 
तेरह पुष्पमित्र ओौर पटुमित्र आदि तथा सात्त अन्ध्र 
मण्डलिक भूपतिगण हग ॥ ५८ ॥ तथा नौ, राज्ञा 
क्रमश्चः कोशख्देशमे राञ्य करेगे ॥ ५९ ॥ निषध- 
दशके स्वामी भीयेष्छी होगे॥ &०॥ 


सगधदेशमे बिश्वस्फटिक नामक राजा अन्य 
वर्णोको प्रवृत्त करेगा ॥ ६१ ॥ बह कैवत्ते, बटु, 
पिन्द ओर बराह्मणोको राञ्यमें नियुक्त करेगा ॥ ६२॥ 
सम्पूणं क्षत्रिय-जातिको दच्छिन्न कर पदमावतीपुरीमे 
नागगण तथा गङ्गाके निकटवर्ती प्रयाग ओर गयामें 
मागध ओर गुप राजा छोग राञ्य-भोग करगे 
॥ ६३ ॥ कोश, आन्ध्र, पुण्ड्‌ , ताम्रदप्र जीर समुद्र 
तटवर्तिनो पुरीकी देवरक्चित नामक एक राजा रक्षा 
करेगा ॥ ६४ ॥ कलिङ्ग, माहिष, महेन्द्र ओर भौम 
आदि दैश्चोको गुह्‌ नरेद भोगेगे ॥ ६५॥ नैषध, 
नैमिषक ओर कालकोरक आदि जनपदोको मणि- 
धान्यक-वश्ञीय राजा भोगेगे ॥ ६६ ॥ त्रेराञ्य ओौर 
मुषिक देशचोपर कनक नामकं राजाक्रा राज्य होगा 
॥ ६७ ॥ सौराष्टु, अवन्ति, शुद्र, आभीर वथा नमंदा 
तटवतीं मरभूमिपरः ब्रास्य, द्विज, आभीर जौर शुद्र 
आदिका आयपिपत्य होगा ॥ ६८ ॥ सथुद्रतट, दाषि- 
कोरक, चन्द्रभागा ओौर कादमीर आदि देशोका 
व्रात्य, म्डेच्छ ओौर रुद्र आदि राजागण भोग 
करगे ॥ ६९॥ 


ये सम्पूण राजालोग प्रथिवीमे एक ही समयमे 
गे ॥ ७० ॥ ये थोड़ी प्रसन्नताबाटे, अत्यन्त क्रोधी, 
सवंदा अधमं ओर मिथ्या भाषणमें रचि रखनेवाे, 
सखी-बालक ओौर गोओंकी हत्या करनेवाठे, पर-पन- 
हरणमे सुचि रखनेवाटे, अल्पश्चक्ति, तमःप्रधान, 
उत्थानके साथ ही पतनश्चीर, अल्पायु, महती कासना- 
बारे, अल्पपुम्य ओौर अत्यन्त छोभी होगे 
॥ ७१॥ ये सम्पूण देश्चौको परसर भिल्ला दंगे तथा 
उन राज्ञाओोके आश्रयसे ही वख्वान्‌ ओर इन्दीके 
स्वभावक्रा अनुकरण करनेवाले स्छेच्छ तथा आय- 
विपरीत आचरण करते हुए सार प्रजाको नष्ट-च्रष्ट 
कर दमे ॥ ७२॥ 


# ५ 9 





ततशानुदिनमन्पाल्पहासब्यवच्छेदादर्माथं- 
योर्जगतस्सं्षयो भविष्यति | ७३ ॥ ततरां 
एवाभिजनदेतुः ॥ ७४ ॥ बहमेवारेषधर्हैतुः 
॥ ७५ ॥ अभिरुचिरेव दाम्पत्यसम्बन्धहेतुः 
॥७६॥ स्ीखमेषोपमोगहेतुः ॥७७॥ अनृत- 
मेव व्यवहारजयहेतुः ॥ ७८ ॥ उन्नताम्बुतैव 
पृथिवीहेतुः ॥ ७९ ॥ ब्रह्मेव विप्रसहतुः 
॥ ८० ॥ रस्नधातुतैव श्छाध्यताहेतुः ॥ ८१ ॥ 
रिङ्गधारणमेवाश्रमहेतु; ।॥ ८२ ॥ अन्याय एव 
एृतति्ेतुः ॥ ८२ ॥ दौवेल्यमेवादृत्तरेतुः ॥ ८४ ॥ 
अमयप्रगन्मोच्चारणमेव पाण्डिस्यहैतु; ॥ ८५ ॥ 
अन।द्यतैव साधुत्वरेतः ॥ ८६ ॥ स्नानमेव 
प्रसाधनदेतुः ॥ ८७॥ दानमेव धमेहेतुः ॥ ८८॥ 
स्वीकरणमेव विषादहेतः ॥ ८९ ॥ सदेषधार्येव 
पात्रम्‌।९०॥ दूरायतनोदकमेव तीथंदेतुः॥।९१॥ 
कपटवेषध।रणमेव महस्वहैतुः ॥ ९२॥ हृत्येवम- 
नेकषदोपोत्तरे त॒ भूमण्डले सवंबणेष्वेव यो यो 
बहवान्स स भूपति्भविष्यति ॥ ९३ ॥ 


एवं चातिरुन्धकराजासहारेलानामन्तर- 


द्रोणी; प्रजास्सश्रयिष्यन्ति ॥ ९४ । मधुशाक- 

मूरफरपतरपष्याच्याहाराचं भविष्यन्ति ॥ ९५॥ 

तरुवल्कहृप्णचीरप्रावरणाश्वातिवहुप्रनारशौतवा- 
© 

तातपवषंसहाश्च भविष्यन्ति ॥ ९६ ॥ नच 

किसखरयो्विंशतिवर्षाणि जीविष्यति अनवरतं 

चात्र कलियुगे क्षयमायात्यखिह एवैष जनः 




















तव दिन-दिनि धमं ओर अथंका थोङ्ा-धोड़ा 
हास तथा क्षय होनेके कारण संसारका क्षय हो 
जायगा ॥ ७३॥ उस समय अथं हौ कुलीनताका 
हेतु होगा; बर ही सम्पूणं धमेका हेतु होगा; पार. 
स्परिक रुचि ही दाम्पत्य-सम्बन्धकी हेतु होगी) 
ख्रीव्व ही इपभोगका देतु होगा [ अ्थौत्‌ सखरीकी 
जाति-कुख आदिका विचार न होगा]; मिथ्या 
भाषण ही व्यवहारे सफङ्ता प्राप्र करनेका हेतु 
होगा; जक सुखमता ओर सुगमता हयी प्रथिषीकी 
स्वीकृतिका हेतु होगी [ अथौत्‌ पुण्यक्षेत्रादिका कोई 
बिचारन होगा। जहकी जलवायु उत्तम होगी 
वही भूमि उत्तम मानी जायगी]; यज्ञोपवीतही 
ब्राह्मणस्वका हेतु होगा; रत्नादि धारण करना 
प्रजंसाका हेतु होगा; बाह्य चिह्न ही आश्रमोके हेतु 
होगे; अन्याय ही आजोविकाका हेतु होगा; दुवैरता 
ह बेकारीकादतु होगी; निभयतापूवेक धृष्टतके 
साथ बोलना ही पाण्डिव्यका देतु होगा; निधनता 
हयै साधुस्वका हेतु होगी; स्नान ही साधनका हेतु 
होगा; दान दी धमेका हेतु होगा; स्वीकार कर छेना 
ही विवाहका हेतु होगा [ अर्थीत्‌ संस्कार आदिकी 
अपेक्षा न कर पारस्परिक स्नेहबन्धनसे ही दाम्पत्य- 
सम्बन्ध स्थापित दहो जायगा ]; भटी प्रकार बन- 
ठनकर रहनेवाखा ही सुपा समन्ना जायगा; 
दुरदेशका जल ही तीर्थोदकस्वका हतु होगा तथा 
छषवेश्च धारण ही गौरबका कारण होगा ॥ ७४- 
९२॥ इस प्रकार पएथिकीमण्डल्मे विविध दोषोके 
कैढ जनेसे सभी बणेमिं जो-जो बरूवान्‌ होगा 
वही-वही राजञा बन वैठेगा ॥ ९३॥ 


इस प्रकार अतिरोलुप राजाभकिं कर-भारको 
सहन न कर सकने कारण प्रजा पवंत-कन्द्‌ राओंका 
आश्रय लेगी तथा मधु, शाक, मूढ, फर, पत्र ओर पुष्प 
आदि खाकर दिन कटेगी ॥ ९४-९५ ॥ बरक्षके पन्न 
ओर वल्क ही उनके पहनने तथा ओदुनेके कपड़े 
हयैगे । अधिक सन्तानं हयगी । सब रोग शीत, वायु, 
घाम आओौर वषा आदिके कष्ट सहेंगे ॥ ९६ ॥ को 
भी तेईस बपेतक जीविन रह सफेगा। इस 
प्रकार क्युगमे यह्‌ सम्पूण जनसमुदाय निरन्तर 


अ० ४४ | 








। ९७॥ श्रौते स्मात्ते च धर्मे विक्षषमस्यन्तश्ुपगते 
पषौणप्राये च करावशेषजगस्खष्टुश्वराचरणुरोरा- 
दिमभ्यान्तरहितस्य ब्रह्ममयस्यालरूपिणो भग- 
वतो वासुदेवस्यांशर्शम्ब्रग्रामप्रधानव्रा्मणस्य 
विष्णुयशसो गृहेऽटगु णद्विसमन्वितः कन्किरूपी 
जगव्यत्रा्रतीयं परकलम्डेच्छद्स्ुदुष्टाचरणवेत- 
सामशेषाणामपरिच्छिनशक्तिमाहास्म्यः क्षय 
करिष्यति स्वधर्मेषु चालिहमेव. संस्थापयिष्यति 
॥९८॥ अनन्तरं चाञेपकलेरवसाने निशावस्षने 
विधुद्धानामिव तेषामेव जनपदानाममलस्फटिक- 
विशुद्धा मतयो भविष्यन्ति ॥ ९९॥ तेषां च 
वीजभूतानामसेषमदुष्याणां परिणतानामपि 
तत्कारढरतापतयप्र्रति मरिष्यति ।॥ १००) तानि 


च तदपत्यानि कृतयुमामुसारीण्येव मवि- 
ष्यन्ति ॥ १०१ ॥ 


अघ्रोंच्यते 
यदा चन्द्रधघ्रयंश्च तथा तिष्यो बृदस्पतिः। 
एकराशौ समेष्यन्ति तदा भवति वै छतम्‌ ॥१०२॥ 
अतीता वर्तमानाश्च तथैवानागताश्च ये । 
एते वेषु भूपालाः कथिता भुनिसत्तम ॥१०३॥ 
यावस्यरीक्षितो जन्म याबन्नन्दामिषेचनम्‌ । 
एतद्षसदस् तु जेयं पश्वशतोत्तरम्‌ ॥१०४।॥ 
पप्पीणां त॒ यौ पूर्वो दृश्येते दितौ दिवि । 
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दुदयेते यत्समं निशि ॥ १०५॥ 
तेन रकषषेयो युक्तास्ति्ठन्त्यव्दश्तं नृणाम्‌ । 
ते त॒ पारीक्षिते कलि मघास्ासन्दरिजोत्तम्‌।। १०६॥ 
तदा प्रवृत्त कटिद्रादजञाब्दशतात्मकः ॥१०७॥ 


यदैव भगवान्विष्णोरंसो यातो दिवं दविज । 
वसुदेबहरोद्धतस्तदेवात्रागतः कलिः ॥१०८।। 


---------------" ~ ~ चा ॥ ० _ 
% यद्यपि प्रति बारहवे वषं जब बृहस्पति ककंरारिपर जाते हँ तो अमावास्या तिथिको पुष्यनक्षत्रपर दन तीनों 


चतुथं अश्च 





६६२ 





क्षीण होता रहेगा ॥ ९७॥ इस प्रकार श्रौत ओर 
स्माततं धमंका अत्यन्त हास हो जाने तथा कलिथुग- 
के प्रायः बीत जानेपर शम्बर (सम्भर) भामनिवासी 
ब्रह्यणश्रष्ठविष्णुयक्च के घर सम्पूणं संसारके रचयिता, 
चराचरगुर, आदिभध्यान्तसुन्य, ब्रह्ममय, आत्म 
स्वरूप भगवान्‌ बासुदेव अपने अंश्चसे अष्टेरव युक्त 
कल्किरूपसे संसारम अवतार ठेकर असीम शक्ति 
ओर माहास्म्यस्ते सम्पन्न हो सकर म्लेच्छ, दस्यु, 
दुष्टाचारी चथा दुष्ट चित्तोका श्चय करगे ओर समस्त 
प्रजाको अपने-अपने धममे नियुक्त करगे ॥ ९८॥ 
इसके पश्चात्‌ समस्त कक्लियुगके समाप्न हो जनेपर 
रान्रिके अन्तम जगे हुओके समान तत्कालीन लोगो 
कौ लुद्धि स्वच्छ, स्फटिकमणिके समान निर्मख हो 
जायगी ॥ ९९ ॥ उन बीजभूत समस्त मनुष्योंसे 
उनको अधिक अवस्था होनेपर भी खस समय सन्तान 
उत्पन्न हो सकेगी ॥ १०० ॥ उनकी वे सन्तानं सत्य- 
युगके ही धर्मोक्रा अनुसरण करनेवाल्लौ हो ग) ॥१०१॥ 


इस विषयमे फेसा का जाता हैः कि--जिस 
समय चन्द्रमा, सूये ओर्‌ ब्रहस्पति पुष्यनक्षन्नमे स्थित 
होकर एक राक्चिपर एक साथ आगे उसी समय 
सत्ययुगका आरम्भ हो जायगा & ॥ १५२॥ 

हे मुनिश्रेष्ठ ! तुभसे मेने यह्‌ समस्त वंसोके भूत, 
भविष्यत्‌ ओर वततमान सम्पूण राजा्ंका वणन 
कृर दिया ॥ १०३॥ 

परीक्षिते जन्मसे नन्दफे अभिपेकतक एक 
हजार पच सौ वषका समय जानना चाहिये ॥ १०४॥ 
सप्तर्षियोमेसे जो [ पुरुष्तय ओर कतु ] दो नक्षत्र 
आकारामे पहञे दिखायी देते दै, उनके बीचभे राचचि- 
के समय जो [ दक्चिणोत्तर रेखापर } समदेश्मे स्थित 
[ अश्विनी आदि ] नक्ष दै, उनमेँसे प्रत्येक नक्षत्र 
पर सप्र्िगण एक-एक सौ वषं रहते है । द द्विजो 

म ! परीक्षित्के समयमे वे सप््षिगण मघानक्षत्र 
परथे। उसी समय बारह सौ बं प्रमाणबाला 
कलियुग आरम्भ हुभा था ॥ १०५-१०७॥ हे द्विज ! 
जिस समय श्रीविष्णुके अंस्ञावतार एवं षसुदेवजी 
ॐ व॑स्चधर भगवान्‌ कृष्ण निजधामको पधारे थे 
सी समय प्रथिवीपर कलियुगका आगमन हज 

था ॥ १०८ ॥ 


----- 


ग्रहोका योग होता है तथापि "समेष्यन्ति" पदति एक साथ बानेपर सत्ययुगका भआरम्म कहा है; इसलिये उक्त समयपर 


+^ 


~~ 








याबतस पादपद्च।स्यां पस्पेमां वसुन्ध रम्‌ । 
ताषतपृथ्वीपरिष्वङ् समथो ना मवत्कटिः ।॥ १०९॥ 
गते समातनस्यांशे दिष्णोस्तत्र शवो दिवम्‌ । 
तत्याज सानुजो राव्यं घप्र ुधिषठिरः ॥११०॥ 
विपरीतानि दुष्टा च निमित्तानि दि पाण्डवः । 
याते ष्ण चकाराथ सोऽभिषेकं परीक्षितः ॥ ११९१॥ 
प्रयास्यन्ति तदा चैते पूर्वाषाढां महषयः । 


तदा नन्दापरभूस्येष गतिधृद्धि गमिष्यति ॥११२॥ 
यस्मिन्‌ कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि। 
प्रतिषन्नं कषियुगं तस्य संस्थां निबोधमे॥११२। 
त्रीणि लक्षाणि वर्षाणां दविज मानुष्यसंर्पया । 
पष्ििचैव सहस्राणि मविष्यत्येष वै करिः ।११४। 
शतानि तानि दिव्यानां सप्त पश्च च संरूपया । 
निर्रपेण गते तस्मिन्‌ भविष्यति पुनः फृतम्‌। ११५ 
बराह्मणाः कषत्रिया वेदयाददूदराश्च ठिजसत्तम । 
युगे युगे महासानः समतीतास्सहस्तशः । ११६। 


बहतवाजनामधेयानां परिसर्या इले कुले । 
पौनस्क्स्याद्वि साम्याच न मया परिकीतिता।११७। 


देवापिः पौरवो राजा मरृश्चेरवाडुवंशजः । 
महायोगवरोपेती करापग्रामसंभितौ ॥११८॥ 
कृते युगे विह्ागभ्य क्त्र्रवत्तको हि तौ | 
भविष्यतो मनोक्शबीजभूततौ व्यवस्थितौ ।११९। 
एतेन क्रमयोगेन मनुपूत्रैव॑सुन्धरा । 
छृतत्रेताद्वापराणि युगानि त्रीणि सुञ्पते ।१२०। 
कोते बीजभूता वै केचित्िषठम्ति वै यने । 
यथेव देवापिपङ साम्प्रतं समधिष्ठितौ ।॥१२१॥ 








जबतक भगवान्‌ अपने चरणकमलोसे इस 
प्रथिवीका स्पशं करते रहे तबक पएरथिवीसे खंसमं 
करनेकी कियुगकी हिम्मत न पड़ी ॥ १०९॥ 


सनातन पुरुष भगवान्‌ विष्णुके अंशावतार 
श्रीषष्णचन्द्रके स्वग॑लोक्र पध।रनेपर भाद्योके सहित 
धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरने अपने राञ्यको छोड़ 
दिया ॥ ११० ॥ छरष्णचन्द्रेके अन्तधौन दो जानेपर 
विपसेत लक्षणोको देखकर पाण्डगोने परीक्षित्को 
राऽयपद्पर अभिषिक्तं कर दिया ॥ ९१९॥ जिस 
समयये सप्र्षिगण पूर्वाषाढानक्षत्रपर जर्ेगे उसी 
समय राजा नन्दक समयसे कलिथुगका प्रभाव 
बहेगा 1 ११२ ॥ जिस दिन भगवान्‌ कृष्णचन्द्र 
परमधामको गये थे उसी दिन कषियुग उपस्थित हो 
गया था। अब तुम कल्तियुगकौ वै-संख्या सुनो 
॥ १९१३ ॥ 


हे द्विज ! मानवी ब्ैगणनाके अनुसार कटिथुग 
तीन छाख साठ हजार वं रहेगा ॥ ११४ ॥ इसके 
पश्चात्‌ बारह सौ दिभ्य वषै बीतनेतक् कृतयुग 
रहेगा ॥ ११५॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! प्रस्येक युगम हजासों 
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैर्य ओर शुद्र महात्मागण हो गये है 
॥ ११६।। उनके बहुत अधिक संख्याम होनेसे तथा 
समानताहोनेके कारण क्रोम पुनरुक्ति हो जानेके 
भयसे मैने उन सबके नाम नदं बतरूये दहै । ११७॥ 


पुरुवंज्ञीय राजा देवापि तथा इक्षवाङ्घुङ्कलोत्पन्न 
राजा मस-ये दोनों अत्यन्त योगवरसम्पन्न है ओौर 
करापभ्राममं रहते है ॥ ११८॥ सत्ययुगका आरम्भ 
होनेपर ये पुनः मध्यंरोकमे आकर क्षत्रिय-कुटके 
प्रवर्तक होगे । वे आगामी मुवंरके बीजरूप है 
1 ११९॥ सव्यथुग, चेता ओौर हापर इन तनां 
युगम इसी क्रमसे मतुपुत्र ए्रथिवौका भोग करते 
ह ॥ १२० ॥ फिर कलियुगमे उर्हीमेसे कौई-कोईं 
आगामी मनुसन्तानके बीजरूपसे स्थित रहते है 
जिस प्रकार कि आजकल देवापि ओर सरु है ।॥१२१॥ 








एष तूदरेशषतो वंशस्तवोक्तो भूयेजां मया । 
निखिलो मदितुं शक्यो नेष वपशतेरयि ॥ १२२॥ 
एते चान्ये च भूपाला यैरत्र क्षितिमण्डले । 
कृतं ममस्वं मोहान्धै्िस्यं हेयकटेवरे । १२२ ॥ 
कथं ममेयमचका मघ्पुत्रस्य कथं मही । 
मदर॑शस्येति चिन्तात्ती जग्धुरन्तमिमे नृपाः ॥१२४॥ 
तेम्यः पू॑तराश्वान्ये तेभ्यस्तेभ्यस्तथा परे । 


भविष्यास्चैव यास्यन्ति तेषामन्ये च येऽप्यनु। १२५. | 


विलोक्यात्मजयोद्योगं यात्राव्यग्रान्नराधिषान्‌ । 

पष्पम्रहासेद्शरदि हसन्तीव वसुन्धय ॥ १२६॥ 

मत्रे परथिवीगीताञ्छलोकांधात्र निबोध मे । 

यानाद धर्मष्वजिने जनकायाितो निः ॥१२७॥ 
प्रथिव्युबाच 

कथमेष नरैन्द्राणां मोहो बुद्धिमतामपि । 

येन फेनसधर्माणोऽप्यतिविश्व्तचेतसः ॥ १२८॥ 





पूवंमालमजयं कृता जेतुमिच्छन्ति मन्विणः 


ततो भृत्यांश्च पौरांश्च जिगीषन्ते तथारिपून्‌॥ १२९॥ 





क्रमेणानेन जेष्यामो वयं पृथ्वीं ससागराम्‌ । 


इत्यास्षक्त धियो सस्यं न पश्यन्त्यविद्रगम्‌।। १३०॥ 





सषुद्राबरणं याति भुमण्डरमथो वशम्‌ । 
कियदात्मजयस्येतन्धुक्तिरारमजये फम्‌ ।॥१२१॥ 


न, पूर ५ [9 
उत्छञ्य पूजा याता या नादाय गतः पता 


तां मामतोवमूदस्वाञ्जेतुमिच्छन्ति पाथिवाः) १३२। 





मर्कृते पिवपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रहः 








इस प्रकार मैने तुमसे सम्पूणं राजवं शोका यद 
संश्षिप्न वणेन कर दिया है, इनका पृणंततया वणेन तो 


सौ वपने भी नहीं किया जा सकता ॥ १२२॥ 
हेय शरीरके मोहसे अन्धे हुएये तथा ओौर भी एेसे 
अनेक भूपतिगण हो गये है जिन्होने इस प्रथिवी. 
मण्डलम ममता कौ थी ॥ १२३ ॥ ध्यह प्रथिवी किस 
प्रकार अचकछमावसे मेरी, मेरे पुत्रकी अथवा मेरे 
वश्षकी होगी !' इसी चिन्तामें व्याङ्कुक हुए इन सभी 
राजाओंका अन्त हो गय] ॥ १२४ ॥ इसी चिन्तामें 
दूबे रहकर इन सम्पूण राजाओके पू्वे-पूवतरवतं 
राजा चरे गये भौर इसमे मप्र रहकर आगामी 
भूपत्तिगण भौ गव्यु -युखमें चरे जायंगे ॥ १२५ ॥ इस 
प्रकार अपनेको जीतनेके खयि राजाओंको अथक 
चदयोग करते देखकर वसुन्धरा श्चरस्कारीन पुष्पके 
रूपमे मानो हंस रही है ॥ १२६॥ 

हे मैत्रेय ! अब तुम प्रथिवोके कहे हुए इछ 
इलोकोको सुनो । पूवंकारमें इन्हे असित सुनिने 
धमेध्वजी राजा जनकको सुनाया था ॥ १२७॥ 


पृथिवी कती है-अदहो ! बुद्धिमान्‌ होते हृएभी 
इन राजा्ओंको यष कैसा मोह हो रहा है जिसके 
कारण ये बुखबुलेके समान क्षणस्थायी होते हए मी 
अपनी स्थिरताम इतना विश्वास रणते है ॥ १२८॥ 
ये छोग प्रथम अपनेको जीतते है ओर फिर अपने 
मन्नत्रियोको तथा इसके अनन्तर ये क्रमकः अपने 
शत्य, पुरवा एवं शन्रओंको जीतना चाहते दै 
|| १२९. ॥ सी क्रमसे हम सभुद्रपयन्त इस सम्पूण 
परथिवौीको जीत गे, एेसी बुद्धिस मोहित हृएये रोग 
अपनी निकटवर्तिनी मृत्युको नहीं देखते ॥ १३० ॥ 
यदि ससुद्रसे धिर ह यह्‌ सम्पूणं भूमण्डल अपने 
वकम हो ही जाय तो मी मनोजयके सामने इसका 
मूल्य भौ क्या है ! क्योकि मोक्ष तो मनोजयसे ही प्राप्त 
होता है ॥ १३१॥ जिसे छोड़कर इनके पूवज चके गये 
तथा जिसे अपने साथ लेकर इनके पिता भी नहीं गये 
उसी सुक्चको अत्यन्त मूखेताके कारणये राजारोग 
जीतना चाहते है ॥। १३२॥ जिमका चित्त ममतामय 
दै उन पिता-पुत्र ओर भादयोमे अत्यन्त मोहके कारण 


जायतेऽत्यन्तमोदेन ममत्वाद्चेतसाम्‌ ॥१२३॥ । मेरे हौ स्थि परस्पर कच्द होता है ॥ १३३ ॥ 


[कातता यिनि 


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[वारा ।।।।िि 





पृथ्वी ममेयं सका मेषा 
 मदन्वयस्यापि च चाधतीयम्‌ | 
योयो मृतो ह्यत्र बभुव रजा 

्ुयुद्धिरासीदिति तस्य तस्य ॥ १३४ ॥ 
दृषटरा ममल्वदृतचित्तमैकं ` 

विदाय मां सुल्युव्ं व्रजन्तम्‌ । 
तस्यातु यस्तस्य कथं ममं 

दयच्ास्पदं मद्भवं करोति ॥ १३५ ॥ 
पथ्य ममैषा परीत्यजेनां 

बदन्ति ये दृतदसैसस्वशत्रन्‌ । 
नराधिषास्तेषु ममातिहासः 

पुनश्च मदेषु दयाभ्युपैति ॥ १३६ ॥ 




















भ्रीपराशञर उवाच 
त्येते धरणीगीताखलोका मेत्रेय यैदभरुताः । 
ममत्वं विय याति तपत्यरफे यथा हिमम्‌ ॥ १३७ 
इत्येष्‌ फधितः सम्पड्मनोवशो मया तव । 
यत्र स्थितिग्रयृत्तस्य विष्णोरशांशका नुपाः॥१३५। 
शृणोति य दमं भक्त्या मनोव॑शमलुक्रमात्‌ । 
तस्य पापमरेषं वे प्रणदयत्यमलासमनः॥१३९॥ 
धनधान्यद्विमतुखं प्राप्नोत्यव्याहतैन्द्रियः । 
भुतवेवमखिल वंशं प्रशस्तं शशिघ्यंयो; ॥१४०॥। 
दकष्वङ्कजहुमान्धातृसगराविक्षितात्रधून्‌ । 
ययातिनहषाचांध ज्ञाता निष्टद्चुपगतान्‌।१४१॥ 
महावहान्महावीर्याननन्तथ नसश्चयान्‌ । 
कृतान्कारेन वशिना कथारेषान्नराधि पान्‌ ॥ १४२॥। 
भुत्वा न पूत्रदारादौ सृह्षत्रादिकै तथा । 
द्रव्यादौ वा कृतग्रत्तो ममत्वं इुरुते नरः ॥१४३॥ 


रदवाहमिवर्भगणाननेकान्‌ । 
इष्टा सुयजेवंहिनोऽतिवी्यीः 


छता सु कठेन केथावरेषाः॥ १४४॥ 
ृषुस्पमस्तान्विचचार्‌ छोका- 


नव्याहतो यो विजितारिवक्रः। 

















जो-जो राजालटोग यँ हो चुके दँ न सभीष 
छवुद्धि सदी है कि यह प्रथिवी मेरी है-यद्‌ स 
सारीमेरी हीह ओर [मेरे पीठेमी ] य 
मेरी सन्वानकी दी र्हेगी ॥ १३४ ॥ इस 
मेरेमे ममता करने एक राजाको, सुश्च ई 
मृद्युके सुखम जति हुए देखकर भीन जाः 
उसका उत्तराधिकारी अपने हृदयपे मेरेल्यिम 


स्थान देता है १॥ १३५ ॥ जो राजारोग दूरतो 
अपने शनरुओंसे इस प्रकार करति है टि 
प्रथिवी मेरी है, तुमलोग इसे तुरंत छोड़ 
जाओ उनपर मुञ्चे बड़ी हसी आती दै ओं 
उन मदपर सुशचे दया भी आ जातीहे॥ 


श्रीपराश्चरजी बोल्ते-दे मेत्रेय ! प्रथिवीः 
हुए इन इलोकोको जो पुरुष सुनेगा उसको 
सी प्रकार छीन हो जायगी जैसे सूक तपते 
वफ पिघल जाता है ॥ १३७ ॥ इस प्रकार मैन 
भली प्रकार मनुके वंश्या षणेन कर दिया। 
वंके राजागण स्थितिकारक भगवान्‌ विशणुके 
अच थे॥ १३८ ॥ जो पुरुष इस मयुवे्चका 
श्रवण करता है उस शुद्धास्माके सम्पूणे पाप ' 
जति है ॥ १३९ ॥ जो मनुष्य जितेन्द्रिय होक्‌ 
ओर चन्द्रमाके इन प्रसं सनीय वंशोका सम्पूणं 
सुनता है, वह्‌ अतुदित धन-घान्य भौर सर्म्पा 
करता दै ॥ १४० ॥ सहाबङ्वान्‌, महावीय 
अनन्त धन स्वय करनेवलि तथा परम निः 
इक्ष्वाकु, जहु, मान्धाता, सगरः आविक्षित (र 
रुवं सीय राज्ञागण तथा नहुष भौर ययाति 9 
च रिप्नोंको सुनकर; जिन्हं कि काटने भाज कथ 
हु शेष रखा हे, प्रज्ञावान्‌ मचुष्य पुत्र, खी, युहं 
अर धन आदिमे ममता न करेगा ॥ १४९१-१ 

जिन पुरषशरषठोनि उध्वं बाहु होकर अनेभ 
प्यन्त कठिन तपस्या की थी तथा विविध प्र 
यज्ञोका अनुष्ठान किया था, अजञ उन अति बः 
ओर वौरय्॑चाङी राजाभोकी कालने कैव कथ 
ही छोड़ दी है ॥ १४४॥ जो प्रथु अपने शतुः 
को जोतकर स्वच्छन्द-गतिसे समस्त ठ 
विचरता थाआज बहौ काल-वायुकर परेरणासे 


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स कारुवाताभिहर्तः प्रणष्टः 
 क्िपरं यथा श्ाल्पलितूहमग्नौ ॥ १४५ ॥ 
यः कातेवीरयो बुध्ने समस्ता- 
द्रीपान्माक्रम्य हतास्विक्रः । 
कथाप्रसंगेष्बमिधीयमान- 
स्स एव सङ्कल्पविकल्पदेतुः ।॥ १४६ ॥ 
दशाननाविकितराषवाणा- 
मेश्वय॑द्धासितदिद्लानाम्‌ । 
भस्मापि रिष्टं न कथं क्षणेन 
भुमभङ्गपातेन धिगन्तकस्य ॥ १४७ ॥ 
कथारारीरत्वमवाप यद्ध 
मान्धातनामा यि चक्रवतीं | 
शरुतवापि तत्को हि करोति साधु 
 ममलमात्मन्यपि मन्दचेताः ॥ १४८ ॥ 
भगीरथायास्सगरः कडुस्स्थो 
दशाननो राषवरुश्मणौ च| 
युधिष्ठिरा्याश्च बभूवुरेते 
सत्यं नमिथ्याक्रनुतेनविञ्मः। १४९ ॥ 
ये साभ््रतं येच नृषा भविष्याः 
प्रोक्ता सया विप्रवरोग्रवीर्याः | 
एते तथान्ये च तथामिधेयाः 
सर्वे भविष्यन्ति यथेव पूरे ॥ १५० ॥ 
ममलखमास्मन्यपि पण्डितेन । 
, तिष्ठन्तु तावत्तनयात्मजाद्याः 





























फके हुए सेमरकी रू्दैके देरके समान नष्ट-्ष्ट हो 
गया है ॥ १४५ ॥ जो कातेवीयं अपने श्त्रु-मण्डरुका 
संहारकर समस्त द्वीपौको व्ीभूतकर इन्द भोगता 


था वही आज कथा-प्रसङ्गसे वणेन करते समय 
उट्टा संकल्प-बिकल्पका हेतु होता है [ अर्थात्‌ 
उसका वणेन करते समय यद्‌ सन्देह होता है, कि 
वास्तवमं वह्‌ हा था या नह । ]॥ १४६ ॥ समस्त 
दिश्चाओंको देदीप्यमान करनेवाले रावण, मरुत्त 
ओर रघुषं्ियोके [ क्षणमङ्खर ] रेरधयंको धिक्कार 
है । अन्यथा काके क्षणिक कटाक्षपातके कारण 
अज उसका मस्ममान्न भी स्यो नदह बच सका! 
॥ १४७॥ जो मान्धाता सम्पूणं मूमण्डल्का चक्रबतीं 
सथ्राद्‌ थाआज उसका केवल कथाम ही पता वरता 
है । फेसा कौन मन्दुद्धि होगा जो यह्‌ सुनकर अपने 
क्ञसीरमे भी ममता करेगा १ [ पिर प्रथिवी आद्रि 
ममता करनेकी तो बातदही स्याह ?] ॥ १४८॥ 
भगीरथ, सगर, ककुत्स्थ, रावण, रामचन्द्र, रक््मण 
आौर युधिष्ठिर आदि पके हौ गये है यह्‌ वात सवभा 
सत्य दै, किती प्रकार भी भिथ्या नदय है, किन्तु अव 
वे कहाँ है इसका हमे पता नहीं ।॥ १४९॥ 


हे विभ्रवर ! बतंमान ओौर भविष्यकाटीन जिन- 
जिन महाबीयंज्ञारी राजाजोका येने वणेन किया है 
ये तथा अन्य रोग भी पूर्वोक्त राजाओंकी भति 
कथामाच्र रष रहेगे ॥ १५० ॥ एेसा जानकर पुतन, 
पुत्री ओर क्षेत्र आदि तथा अन्य प्राणी तो अछ्ग 


रहै, बुद्धिमान्‌ मतुष्यको अपने श्वरीरमें मी ममता 


षत्रादयो ये च शररीरिणोऽन्ये ॥ १५१ ॥ | नदीं करनी चाहिये ॥ ५१॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽरो चतुविश्ोऽध्यायः॥। २४॥ 


१/३. 





इति श्रीपराशरमुनििरचिते श्रीविष्णुपरतनि्णायके भीमति 
विष्णुमह्यपुराणे चतुर्थाऽसः समाप्तः । 






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भीरिष्णुयुराण 


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पद्चम्‌ अश 























काठातीतं कालकरालं करणार कालाकाट्यं केरिकलाद्यं कमनीयम्‌ । 
कामाधारं कामङुटारं कमलाक्ष बन्दे विष्णुं कामविखासं कमलेशम्‌ ॥ 





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श्रीमन्नारायणाय नमः 


 अ्रीकिष्णुपुराण 


११ ३/३ 


पञ्चम्‌ अण 


पहला अध्याय 


चसुदेव-देवकीका विवाह, भारपीडिता एथिवीका देवता्भोके सहित क्षीरसमुद्रपर जाना भौर भगवान्‌ 
का प्रकर दोकर उसे धे घाना, कृष्णावतारका उपक्रम 


श्रीमैत्रेय उवाच 
सृपाणां कथितस्सर्वो भवता वंशविस्तरः | 
वंशासुचरितं चैव॒ यथाव्रदनुबणितम्‌ ॥ १ ॥ 
अंशावतासे बरह्मपं योऽयं यदुदुरोद्धवः । 
विष्णोस्तं विस्तरेणाहं भोतुमिच्छामि तचखतः॥२॥ 
चकार यानि कर्माणि मगवान्पुरुषोत्तमः । 
अंशंशेनावती्यो्व्या तत्र तानि पने बद ॥२॥ 
श्रपराञ्चर उवाच 
मत्रेय श्रुयतामेतद्तपरष्टोऽदमिह स्या । 
विष्णोर शसम्भूतिचरितं जमतो हितम्‌ ॥ ४॥ 
देवकस्य सुतां पूवं वसुदेवो महाषुने । 
उपयेमे महाभागां देवकीं देवतोपमाम्‌ ॥ ५ ॥ 
कसस्तयोर्वररथं चोदयामास सारथिः । 
वसुदेवस्य देवक्याः संयोगे भोजनन्दनः ॥ ६॥ 
अथान्तरिसे बागुचेः कसमामाष्य सादरम्‌ । 
मेघगम्भीरनिर्घोपं समाभाष्येदमन्रवीत्‌ ॥ ७ ॥ 
यामेतां वहसे मृढ सह त्रा रथे स्थिताम्‌ । 
अस्यास्तवाष्टमो गभः प्राणानपहर्ष्विति ॥ ८ ॥ 





श्रीमै्ेयजी बोल्ते-भगवन्‌ ! आपने राजाओंके 
सम्पूणं व॑शोका विस्तार तथा उनके चरित्रोका क्रमशः 


यथावत्‌ वर्णन किया ॥१॥ अब दे ब्रह्मषं 
यदुक्कुख्मे जो भगवान्‌ विष्णुका अंज्ञावतार हृंजा 
था, से मै विस्तारपूवेक यथावत्‌ सुनना चाहता 
हुँ ॥ २॥ हे सने ! भगवान्‌ पुरुषोत्तमने अपने 
अश्चारसे प्रथिवीपर भवतीणं होकर जो-लो कमं 
किये थे उन सबका आप मुञ्चसे वणेन कीजिये ॥ ३॥ 


श्रीपराशरजी बोल्े-हे मैत्रेय ! तुमने सुश्चसे 
जो पृष्ठा है वह संसारम परम मङ्गलकारी भगवान्‌ 
विष्णुके अंशांश्चावततासका चरित्र सुनो ॥४॥ हे 
महामुने ! पव॑कारम देवककी महाभाग्यज्ञाडिनी 
पत्री देवीस्वरूपा देवकौके साथ वसुदेवजीने विवाह 
किया ॥५॥ वसुदेव ओौर देव कीके वैवाहिक सम्बन्ध 
होनेके अनन्वर [ विदा होते समय ] भोजनन्दन 
कंस सारथी बनकर उन दोनोंका माङ्गलिक रथ 
हूम॑कने लगा॥ £ ॥ दसी समय मेके समान गम्भीर 
घोष करती हुई आकाशवाणी कसको उंच स्वरसे 
सम्बोधन करके यों बोखी--॥ ७ ॥ “अरे मृद्‌ । 
पततिके साथ रथपर नैटी हु जिस देवकौको तू लिये 


जा रहा है इसका आठर्बां गभं तेरे प्राण हर 
ठेगा ॥ ८ |) 


२७२ 





भाविष्णुपुर्णं 


०७७५ पतताम ययमा वयम य नकम ००१०५०० 0००१०५८ 


| अ 








श्रीपराशर उवाच 
हत्याकण्यं सथुत्पाच्च सङ्खं कसो महावलः । 
देवकीं हन्तुमारज्धो वसुदेबोऽ्रवीदिदम्‌ ॥९॥ 
न हन्तस्या महाभाग देवको भवतानध । 
समर्पयिष्ये सकलानर्भानस्योदरोद्ध बान्‌ ॥१०॥ 


श्रीपराक्चर उवाच 
तथेत्याह ततः कंसो वसुदेवं द्विजोत्तम । 
न घातयामास च तां देवकीं सत्यगौरवात्‌॥११॥ 
एतस्मिन्नेव काटे तु भूरिभारावपीडिता । 
जगाम धरणी मेरौ समाजं त्रिदिवौकसाम्‌ ॥१२॥ 
सब्रह्मकान्पुरान्पर्वन्प्रणिपत्याथे मेदिनी । 
कथयामास तत्वं सेदात्करूणमापिणी ॥१३॥ 


भूमिरुवाच 

अभिस्पुवर्णस्य गुर्गेवा प्रयः परो गुरः । 
ममाप्यलिषृहोकनां गुरुनारायणो गुरः ॥१४॥ 
प्रजापतिपतिनह्या पूर्वेषामपि पूर्वजः | 
कलाकाष्ठानिमेषात्मा कालधाव्यक्त मृत्तिमान्‌ ।१५। 
तदशम्‌ तस्प्वेषां समूहो वस्सुरोत्तमाः । 
आदित्या मरुतस्साध्या सद्रावस्वश्िवह्यः | १६॥ 
पितरोये च लोकानां सशरोऽत्रिपुरोगमाः। 

एते तस्याप्रमेयस्य विष्णो रूपं महास्मनः॥ १७॥ 
यक्षराक्षसदैतेयपिथिचोरगदानवाः | 
मन्धर्वाप्सरसश्चैव शूप विष्णोभेहातनः॥१८॥ 
ग्रद॑तारकाचित्रगगनाग्निजछानिशः । 

अहं च पिषयादचेव सवं विष्णुमयं जगत्‌ ॥१९॥ 
तथाप्यनेक्ररूपस्य तस्य रूपाण्यहर्निरम्‌ । 
बाध्यवाधकतां यान्ति कन्नोला इव सागरे॥२०॥ 





तरसाम्प्रतमभी दैत्याः काहनेमिपुरोगमाः। 
मत्य॑रोकर समाक्रम्य बाधन्तेऽहनिश प्रजाः ॥२१॥ 
कालनेमि्हतो योऽसौ पिष्णना प्रभविष्णुना । 





श्रीपराशरजी बोल्ते- यह्‌ सुनते ही मह 
कंस [ म्यानसे ] खड्ग निकारुकर देवकीको म 
के लिये उद्यत हज । तब वसुदेवजीने यों क 
। ९॥ “हे महाभाग ! हे अनघ! आपदेवः 
वधन करे जँ इसके गभेसे चत्पन्न हुए सभी व 
आपको सौप दगा ॥ १०॥ 


आओपराश्रजी बोल्-दहे द्विजोत्तम ! तव स 
गौरवसे कंसने वसुदेवजीसे बहत अच्छा 
देवकीका वध नहीं करिया ॥ ११॥ इसी २ 
अत्यन्त भारसे पीडित होकर एथिवी [ गक 
धारणकर ] सुमेरुपवंतपर देवताभोँकी सभाम 
॥ १२॥ वर्ह उसने ब्रह्माजीके सहित समस्त 
ताभोंको प्रणामकर खेदपूवैक करुणस्वरसे व 
हए अपना सारा वृत्तान्त कहा ॥ १३॥ 


परथिषी बोखी- जिस प्रकार अग्नि सुव 
तथा सथं गौ (किरण ) समूहका परमगुर है 
प्रकार समस्त लोको गुरु श्रीनारायण मेरे शु 
॥ १४ ॥ वे प्रजापतियो पत्ति भौर पूवंजोँद 
पूर्वन ब्रह्माजी दै तथावे हौ कला, काष्ठा जर 
आदिके रूपे प्रतीत होनेवाङा भव्यक्तस्वरूप 
है | १५॥ हे देवश्रषठगण ! आप सब छोगौका र 
भी उन्हौका अंशस्वरूप है । आदित्य, मरुद्‌ 
साध्यगण, रुद्र, वसु, अधिनीक्ुमार, अग्नि, पिच 
र छोकोकी सृष्टि करनेवाले अत्रि आदि प्रजा' 
गण~-ये सव अप्रमेय महात्मा विष्णुके ही रू 
॥ १६.१७॥ यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिल्ाच, सपं, दा 
गन्धर्वं ओर अप्सरा आदि भी महात्मा विष 
ही हप दै ॥ १८॥ रह्‌, नक्ष तथा ताराग' 
चिन्रित आकाञ्ञ, अग्रि, जर, वायु, मै भौर इन् 
के सम्पूणं विषय--यह सारा जगत्‌ विष्णुमर 
है ॥ १९॥ तथापि उन अनेकरूपधारी चि 
ये रूप समुद्री तरक्गोके समान रात-दिन एक-दुः 
के वाध्य-वाधक होते रहते ह ॥ २०॥ 


इस समय कालनेमि आदि दै्यगण मत्योः 
अधिकार जमाकर अह्नि जनताको क्लेश पु च। 
है ॥ २१॥ जिस कालनेमिको सवेशक्तिमान्‌ म गः 
विष्णते माराथा, इस समय बह्म उभरसेनक्े 


~ ९ | 


पञ्चम अश्च 


२७३ 


~~~ 


उग्रसेनणुतः कंसस्पम्भूतस्प महासुर ॥२२॥ | 
मरि धेनुकः केशी प्रलम्बो नरकस्तथा । 
पन्दोऽसुरस्तथाद्ुगरो बाणश्रापि बेस्मुतः॥२३॥ 
तथान्ये च महावीर्या वृषाणां भवनेषु ये । 
सयुत्पनना दुरात्मानस्तान्न संरूपातुपस्सहे ।॥। २४। 
अक्षोहिण्योऽर बहुला दिव्यमूर्तिरास्सुराः। 
महाब्रहानां दृप्तानां दैतेन्द्राणां ममोपरि ॥२५॥ 
तद्धूरिमारपीडा््ता न शकनोभ्यमरेगः । 
विमर्तुं मात्मानमहमिति विज्ञापयामि बः ॥२६॥ 
क्रियतां तन्महामागा मम माराव्रतारणम्‌ । 

यथा रक्तातक नाहं गच्छेयमतिविहला ॥२७॥ 


© 
इत्याक्षण्यं धरावाक्पमरेपैिदशेरैः | 
युवो मारावताराथं बरह्मा प्राह प्रचोदितः ॥२८॥ 


नह्मोचाच 

यथाह वमुधा तवं सत्यमेव दिवौकसः । 

अहं भरो भवन्तश्च से नारायणात्मकाः ॥२९॥ 
विभूतयश्च यास्तस्य तासामेव परस्परम्‌ | 
-भाभिकयं न्यूनता वा्यवाधकतवेन नते ॥३०॥ 
तदागच्छत गच्छाम क्षीरान्पेस्तरपृत्तमस्‌ । 
तत(राध्य हरिं तस्मै सवं विज्ञापयाम वै ॥२१॥ 
सव॑यैव जगत्यथे स सर्वात्मा जगन्मयः । 
सत्वान वतीयोन्या धमेस्य दुरुते स्थितिम्‌ ॥२२॥ 

श्रोपराङार उवाच 

इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र सह देवैः पितामहः । 
समाहितमना वं तष्टा गरुडध्वजम्‌ ३३ 














ब्रह्मोवाच 
दे विधे त्वमनाम्नाय पया चैवापरा तथा | 


त एव मवतो स्पे मूर्तामूर्तासिमके प्रभो ॥२४। 








महान्‌ असुर कंसके खमे उत्पन्न हुआ है ॥ २९॥ 
अरिष्ट, लुक, केशी, प्ररम्ब, नरक, सुन्द, बलिका 
पुत्र अति भयंकर बाणासुर तथा ओर भी जो महा- 
बलवान्‌ दुरात्मा राक्षस राजाओंकै घरमे उसन्नहो 
गये ह खनकी मै गणना नहीं कर्‌ सकती ॥ २३-२४॥ 
हे दिव्यमूर्तिधारी देवगण ! इस समय मेरे उपर 
महाबलवान्‌ भौर गर्वा दैस्यराजोकी अनेक अक्षौ- 
हिणी सेनां है ॥ २५॥ हे अमरेर्वसे ! मै आप 
लोगो यह्‌ बतछये दैत रँ कि अव उनके अत्यन्त 
भारसे पीडित होनेके कारण सुञ्मे अपनेको धारण 
करनेको भी शक्ति नहीं रह गयी है ॥ २६ ॥ अतः हे 
सहाभागगण ! जापहोग मेरा भार उतारिये; जिससे 

अत्यन्त ग्या होकर रसात्तख्को न ची 
जाऊ । २७॥ 


प्रथिषीके इन वाक्योको सुनकर उसके भार 
उतारनेके विषयमे समस्त देवतार्भौकी प्रेरणासे 
भगवान्‌ ब्रह्माजीने कहना आरम्भ किया ॥ २८॥ 


ब्रह्माजी बोले-हे देवगण ! प्रथिवीने जो कुछ 
कष्टा है वह सव सत्यही दै] बरास्तवमें भ, शंकर 
भौर आपर सव छोग नारायणस्वरूप ही है ॥ २९॥ 
उनक) जो-जो विभूतियौँ है, उनकी परस्यर न्यूनता 
ओौर अधिकता ही बाध्य तथा वाधकरूपसे रहा करती 
है ।। ३०॥ इसख्यि भाओ, अब हमरोग क्षौरसागरः 
करे पवित्र तटपर चं ओर वहाँ श्रौहरिफी आराधना 
करे यह सम्पूणं चरत्तान्त उनसे निवेदन कर दं 
॥ ३९ ॥ बे विश्वरूप सव्रत्मा सवथा संसारके हितके 
छ्य ही अपने शुद्ध सन्तवांशसे अवततौणे होकर 
प्रथिवीपर धमकी स्थापना करते है ॥ ३२॥ 


भपराश्चस्जी बोले-एेसा कहकर दृव ताओंके 
सहित पितामह ब्रह्माजी बह गये ओर एकाग्रचित्त. 
से श्रीगरुडध्वज भगवान्‌को इस प्रकार स्तुति करने 
ल्मे ॥ ३३॥ 


ब्रह्माजी बोल्ञे--हे बेदवाणीके अगोचर प्रभो, 


परा ओर अपरा-ये दोनों बिद्या आपही है। 
१ भ, "9 „~न £ र _ _ € [9 ५) न=. 4 ॥॥ 





द ब्रह्मणी स्वणीयोऽतिरथूलात्मन्पवं सवित्‌ । 


शब्दब्रह्म परं चेव बह्म व्रह्ममपस्थ यत्‌ ॥३५॥ 





ऋणवेदसवं _यरयवदस्सामवेदस्त्वयर्वणः । 








शिवा कन्पो निरुक्त च च्छन्दो स्यौतिपमेबच ।३६। 





इतिहासपुराणे च तथा व्याकरणं प्रभो । 
मीमांसा न्यायक्षास्नं च धर्मद्ाचाण्यधोक्षज। ३७॥ 





आत्मात्मदेहगुणवद्धिचाराच।रि यद्वचः । 
तदप्याश्रपते नान्यदध्यात्मात्मस्रूपयत्‌ ॥२८॥ 
त्वमव्यक्तमनिरद्यमचिन्त्यानासवणवत्‌ । 





अपाणिपादस्पं च बुद्धं नित्य परास्परम्‌॥२३९॥ 





भृणोप्यकणे; प्रिपकयसि त्व- 

पचक्षुरेफो बदहुरूपस्पः 
अपादहस्तो अवनो ग्रहीता 

स्वं वेत्सि सवं न च सववेद्यः।।४०॥ 
अणोरणीयांसमसत्छस्पं 

स्वां परयतोऽाननिवृत्तरग्रया । 
धीरस्य धीरस्य ्िमतिं नान्य- 

दरेण्यरपात्परतः परात्मन्‌ ॥४१॥ 
त्यं विश्वनामिभुवनस्य गोप्ता 

सर्वाणिभूतानि तबान्तराणि । 
यदुभूतभन्यं यदणोरणीयः 

पुमास्तवमेकः प्रकृतेः परस्तात्‌॥४२। 
एकथतुद्रा _मगवान्हुताशो 

वचो विभूतिं जगतो ददाति । 


























त्वं विश्वतशक्षुरनन्तमूे 
त्रेधा पद स्वं निदधासि धातः ॥४३॥ 

यथाग्निरेफो बहुधा समिध्यते 
विकारमेदैरविकाररूपः 

तथा _ भवान्वंगतैकरूषी 


रूपाण्यशेषाण्यनुपुष्यतीश्च ॥४४॥ 











हे अस्यन्त सूक्ष्म ! है विरादस्वरूप! हेर 


हे सवेज्ञ ! शब्दब्रह्म ओर परन्रह्म-ये दोनों 
आप ब्रह्ममयके हीरूप है । ३५॥ जापही ऋ 
यजुवंद्‌, सामवेद ओौर अथवेबेद्‌ है तथा आ 
शिक्षा, कल्प, निसक्त, छन्द ओर 'उयौतिषश्ञा 
॥ ३६ ॥ हे प्रभो ! हे अधोक्षज ! इतिहास, 
ग्याकरण, मीमांसा, न्याय ओौर धमश्चास्त्र-ये 
मी[आपदहीरहै]1। ३७॥ 

दे आचपते ! जीवात्मा, परमात्मा, स्थुल 
देह तथा उनका कारण अव्यक्त--इन सथके वि 
से युक्त जो अन्तरात्मा ओौर परमाद्मकि स्वर 
बोधक वेदान्त-वाक्य है, बह भी आपसे भिन्न 
है ॥ ३८ ॥ आप अव्यक्त, अनिवीँच्य) अरि 


नाम जौर वर्णसे रदित, हाथन-पौँब भौर रूप 


| शुद्ध, सनातन अौर परसे भी प्र दै ॥ ३९॥ 


कणेहीन होकर भी सुनते दै, नेत्रहीन होक 
देखते दै, एक होकर भी अनेक रूपों प्रकट हो 
हस्तपादादिसे रहित होकर भी बड़े वेगक्ञाी 
ग्रहण करनेवाछे है तथा सबके अवेद्य होक 
सबको जानमेवारे है ॥ ४०॥ हे परास्मन्‌ । 
धीर पुरुषको बुद्धि आपके शर छठतम रूपसे प्रथक्‌ 
कुछ भौ नहीं देखती, आपके अणुसे भौ अणु 
स्वरूपको देखनेवारे उस पुरुषकौ आत्यन्तिक अ 
निवृत्ति हो जाती है ॥ ४१॥ आप विश्वके केन्द्र 
्िभुवनके रक्षक है; सम्पूणे भूत आपहीमे 
है तथा जो कुछ भूत, मविष्यत्‌ ओर अणुसे भं 
है बह सब आप प्रशृतिसे परे एकमात्र परम 
हो ह ४२॥ आपद्ी चार प्रकारका अश्नि। 
संसारको तेज ओौर विभूतिं दान करते द 
अनन्तमूर्तं ! आपके नेत्र सब ओर्‌ ह| हेष 
आप ही ( तरिविक्रमावतास्मर | तीनों रोकमें 
तीन पग रखते ह ॥ ४३ ॥ हे ईस } जिस प्रका 
ही अविकारी अभि विकृत होकर नाना प्रर 
प्रञजवलित होता है उसी प्रकार सवंगतरूप एक 
ही सम्पूणं रूप धारण कर कते दै 








एक त्वमग्रचं परमं पदं य- 

पश्यन्ति त्वां प्रयो ज्ञानदु्यम्‌ । 
स्वत्तो नान्य्किञचिदस्ति स्वरूपं 

यद्वा भूतं यच्च भव्यं परात्मन्‌ ॥४५॥ 
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपस्त्वं सभषटिन्य्टिरूपवान्‌ । 
स्व्स्पवंवित्स्शक्ति्ञानषलद्िमान्‌ ॥४६॥ 
अन्युनश्ाप्यवृद्धिश् स्वाधीनो नादिमान्वशी । 
क्रमतन्द्राभयक्रोधकामादिभिरसंयुतः ॥४७॥ 
निरवद्यः परः प्रपिनिरथिषठोऽक्षरः क्रमः । 


कि 


सर्वधरः पराधासे धाश्चां धामात्मकोऽक्षयः॥४८॥ 








सकलावरणातीत निराम्ब्रनमावन | 
महाबिभूतिसंस्थान नमस्ते पुरुषोत्तम ॥४९॥ 
नाकारणात्कारणाद्रा कारणाकारणान्न च | 





ररीरग्रहणं वापि धर्मत्राणाय केवलम्‌ ॥५०॥ 
भ्रीपराञ्चर उवाच 

इत्येवं संस्तवं श्रुत्वा मनसा भगवानजः । 

ब्रह्माणमाह प्रीतेन विश्वरूपं प्रकाशयन्‌ ।॥५१॥ 
श्रीभगवानुवाच 

भो भो ब्रहस्या मत्तस्सह देवैयं दिष्यते । 

तदुच्यतामशेषं च सिद्धमेवावधाय॑ताम्‌ ॥५२॥ 
श्रौपराङञर उवाच 

ततो ब्रह्मा हरेदिव्यं विश्वरूपमवेक्ष्य तत्‌ । 

तुष्टाव भूयो देवेषु साध्वसावनतात्मसु ॥५२॥ 


ब्रह्मी वाच 
नमो नमस्तेऽस्तु सदस्कृत्वः 
सदखबाहो वबहुघक्त्रपाद्‌ । 
नमो नमस्ते जगतः प्रषृत्ति- 
| विनाक्चसंस्थानकराप्रमेय ॥५४॥ 
प्रकषमातिप्रह्मातिवृहत्प्रमाण 


ग्रीयसामप्यतिगौरवात्मिनः ) 








जो एकमात्र शरेष्ठ परमपद दै, बह आप ही है । ज्ञान- 
दृष्टस देखे जाने योग्य आपको ही ज्ञानी पुरूष देखा 
करते हैँ । हे परमास्मन्‌ ! भूत ओर भविष्यत्‌ जो 
कुछ स्वरूप है बह आपसे अतिरिक्त ओौर कुछ भी 
नहीं दै ॥ ४५॥ आप म्यक्त ओौर अत्यक्तस्वरूप है, 
समष्टि ओर व्यष्टिरूप ह तथा अपदहौ स्वज्ञ,. 
सवेसाक्षी, सवंशक्तिमान्‌ एवं सम्पूणं ज्ञान, ब 
ओौर रे्वयंसे युक्त द| ४६॥ आप हास ओौर 
बृद्धिसे रहित, स्वाधीन, अनादि भौर जितेन्द्रिय द 
तथा आप श्रम, तन्द्रा, मय, क्रोध अीर काम आदिसे 
रहित दै ।॥ ४७। जाप अनिन्य, अधराप्य, निराधार 
ओर अष्याहत.गति है; आप सबके स्वामी, अन्य 
ब्रह्मादिक आश्रय तथा सूयोदि तेजोके तेज पवं 
अविनाज्ञी है ॥ ४८ । आप समस्त आवरणशुन्य, 
असहायोके पारक आर सम्पूणं महाविभूतियोफे 
आधार दहै, हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है 
॥ ४९॥ आप किसी कार्ण, अकारण अथवा 
कारणाकारणसे स्रौ रमण, नहीं करते, बहि फेैवठ 
धमं-रक्षाके स्थि ही करते है ॥ ५०॥ 


श्रीपराश्चरजी बोल्ते--इस प्रकार स्तुति सुनकर 
भगवान्‌ अज अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए 
ब्रह्म जीसे प्रसन्नरचित्तसे कने खगे ॥ ५१॥ 
भीभगवान्‌ बोले--हेः द्यन्‌ ! देषताओंके सहित 
तुम्हे यश्चसे जिस कस्तुकी इच्छा षहो व्‌ सव को 
जर उसे सिद्ध हआ ही समश्चनो ॥ ५२॥ 
श्रीपराशरजी बोले-तथ श्रीहरि उस ईिन्य 
विश्वरूपको देखकर समस्त देवतार्थे भयसे विनीत 
हो जानेपर ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने खगे ॥ ५२॥ 
ब्रह्माजी बोज्े-हे सहस्रवादो ! हे अनन्तमुख 
एवं चरणवाष्े ! आपको हजासें बार नम्कार हय! 
ह्‌ जगत्‌की उसत्ति, स्थिति ओौर चिनार करनेवारे । 
हे अप्रमेय ! आपको बारस्वार नमस्कार को ॥५४॥ हे 
भगवम्‌ ! जाप सृक्ष्मसे भी सूक्ष्म, गुरुसे मी गुरु ओौर 
अतिबृहत्‌ प्रमाण दै, तथा प्रधान (प्रकृति), मततत 





प्रधानबुदधीन्द्रियवसप्रधात 
मूलास्पराटमनमगवन्प्रसौद्‌ ॥५५] 
एषा मही देव महीपरघ्तै- 
महासुरैः पीडितशेरबन्धा । 
प्रायणं त्वां जगतायुपैति 
भारावताराथमपारसार 
एते बयं वव्रिपुस्तथायं 
नासत्यदसौ 
इमे च रद्रा वसवस्तष््या- 
स्सपमीरणाभिप्रएुखास्तथान्ये ॥५७॥ 


।५६॥ 


वर्णस्तथैव । 





सुरास्समस्तासपुरनाथ कायं- 
मेमिमेया यच तदीक्ञ स्वम्‌ | 
आज्ञापयाज्ञां परिपाल्यन्त- 
स्तवैव तिष्ठाम सदास्तदोपाः ॥५८॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 
एवं संस्तूयमानस्तु भगवान्परमेश्वरः | 
उज्ञदारात्मनः फेशौ सितकृष्णो महाप्ने ॥५९॥ 
उवाच च सुरानेतौ मल्केशो वसुधारे । 
अवतीयं युवो भारक्लेशहानि करिष्यतः ॥६०॥ 
राश सकला।स्स्वांरैरवतीयं महीतले 
कुन्तु युद्ध्न्मत्तेः पूोत्पतेमंशसुरैः ॥६१॥ 
ततः क्षयमशेषास्ते दैतेया धरणीतले । 
प्यास्यन्तिन सन्देहो मदुदुक्पातविचूधिताः॥६२। 
वसुदेवस्य या प्ली देवकी देवतोपमा | 
तत्रायमष्टमो गर्भो मत्केशो सविता पुशः ॥६२॥ 
अवतीयं च तत्रायं कसं घातयिता भुवि 
कालनेमिं स्दधतमितयुकतान्तदेषे हरिः ॥६४॥ 
अदृश्याय ततस्तस्मै प्रणिपत्य महाघने । 
मेरुपृष्ठं सुरा जग्ुरवतेरुथ मृतरे ॥६५॥ 
कंसाय चाष्टमो गर्भो देवक्या परणीधरः । 
भवषिष्यतीस्याचचकषे भगवान्नारदो निः ॥६६॥ 
कसोऽपि तदुपश्रुत्य नारदाक्कपितस्ततः । 
देवं वसुदेवं च गृहे गुप्रावधारयत्‌ ॥६७॥ 
वसुदेषेन कंसाय तेनैवोक्तं यथा पुरा । 
तथेव बषुदेवोऽपि पूत्रमपितवान्द्रिनः ॥६८॥ 








ओर अहंकारादिरभ प्रधानभूत मूढ पुरुषसे भी परे 
हैः हे भगवन्‌ ! आप हमपर प्रसन्न होडये ॥ ५५॥ 
ह देव ! इस प्रथिवीके पवेत्तरूपी मूलबन्ध इसपर 
उरपन्न हुए मान्‌ असुरोके उत्पातसे क्िथिख हो गये 
ह । अतः ह अपरिमितवीयं ! यह अपना भार 
उतरवानेके लिये आपकी शरणमे आयी है । ५६ ॥ 
हे सुरनाथ ! हम ओर यद इन्द्र अध्िनीकुमार तथा 
वरुण, ये रुद्रगण, वसुगण, सूयं, वायु ओर अग्नि 
आदि अन्य समस्त देवगण यदम दपस्थित दहै; इन्दे 
अथवा मुषे जो कुछ करना उचित हो उन सव 
बातोके लिये आज्ञा कीजिये हे ईश्च ! अपहीकी 
आज्ञाका पाटन कर्ते हृष हम सम्पूणं दोषोँसे युक्त 
हो सकंगे ॥ ५७-५८ ॥ 

श्रीपराश्रजी बोले-हे महामुने ! इस प्रकार 
स्तुति किये जनेपर भगवान्‌ परमेश्चरने अपने इयाम 
आर सवेत दो केश्च उखाड़ ॥ ५९॥ ओर देवता्ओंसे 
बोरे--भेरे ये दोनों केश्च प्रथिवीपर अवत्तार छेकर 
प्रथिवीके भारय कटको दुर करेगे 1 ६० ॥ सब 
देवगण अपने-अपने अंशस प्रथिवीपर अवतार छेकर 
अपनेसे पूं उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्योके साथ युद्ध 
कर | ६१ तब मेरे टृष्टिपाततसे दित होकर प्रथिवी- 
तटपर सम्पूणं दैत्यगण निभसन्देह क्षीण हो जा्यगे 
1 ६२]। वसुदैव जीकी जो देवीके समान देवकी नामकी 
भाय है उसके आठवें गभ॑से मेरा यह (इयाम) केच 
अवतार छेगा 1६३॥ ओर इस प्रकार वह अवततार 
ठेकर यह कालनेमिके अवतार कंसका वध करेगा । 
देसा कहकर श्रीहरि अन्तधौन हो गये ॥ ६४ ॥ ह 
महामुने ! मगवरान्‌के अद्य हो जानेपर उन्हे प्रणाम 
करके देवगण सुमेरुपवंतपर चे गये ओर फिर 
परथिवीपर अबततीणं हुए ॥ ६५ ॥ 

इसी समय भगवान्‌ नारदजीमे कंससे आकर 
कहा कि देषेकौके आठवें गमम भगवान्‌ धरणीधर 
जन्म रगे 1 ६) नारदजीसे यह समाचार 
पाकर कंसने कुपित होकर वसुदेव ओर देवकीको 
कारागरृहमे वंद कर दिया॥ ६७॥ द्विज 
वसुदेवजी भी, जैसा कि उन्होने प कह द्या 
था, अपना प्रत्येक पुत्र कसको सौँपते रहे ॥ &< ॥ 


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हिरण्यकशिपोः पतराष्यड्गर्भा इति विश्रुताः । 
विष्णुप्रयुक्ता तानिद्रा कमादव्मान योजयत्‌ ॥६९॥ 
योगनिद्रा महामाया वैष्णवी मोहितं यया । 
अविद्यां जगस्सवं तामाह भगवान्हरिः ॥७०॥ 


श्रीमगवानुबाच 


निद्रे गच्छ ममादेश्त्पातारुतरसंश्रयान्‌ । 





एकैकत्वेन पड्र्भन्देवकीजटरं मय ॥७१॥। 
हतेषु तेषु कैन शेषार्योऽशस्ततो मम्‌ । 
अंक्षांशेनोदरे तस्यास्सप्रमः सम्भविष्यति ।।७२॥ 
मोङ्करे वसुदेवस्य मार्यान्या रोहिणी स्थिता । 
तस्यास्य सम्भूतिसमं देवि नेयस्त्वयोद्‌रम्‌ ।७३॥ 
सप्तमो मोजराजस्य मयद्रोधोपगेधतः | 
देबक्याः पतितो ग इति लोको बदिष्यत्ि॥७५। 
मर्मसङ्कषणास्पोऽथ लोके सङ्कपणेति वै । 
सं्ञामशप्स्यते बीररदवेताद्विशिखरोपमः ।॥५७५॥। 
ततोऽहं सम्भविप्यामि देवकीजटरे सुमे । 

गर्भे या यक्ोदाया गन्तव्यमविषटम्वितम्‌ ।।७६। 
्ा्टुकाटे च नभसि कृष्णाषटम्यामहं निरि । 
उत्पत्स्यामि नवम्थां तु प्रतिं स्वसवाप्स्यसि ।।७७॥ 


यतनोदाक्षयने मां तु देवक्यास्त्वामनिन्दिते। 
फ, ह ¢ 
मच्छक्तिम्रेरितमतिवंसुदेबो नरिष्यति ।,७८॥ 


कंसश्च त्वामुपादाय देवि शेरशरिहातले । 





्कषेप्स्यत्यन्तरिन्े चसंस्थानं त्वमवाप्स्यसि }।७९॥ 


` ततस्तां शतदद्‌ चकः प्रणम्य मम गौरवात्‌ । 





प्रभिपातानतश्चिय भगिनीत्वे ग्रहीष्यति ।॥८०॥ 
त्वं च सुभ्भनिशुम्भादीन्हसवादैस्यान्सदस्रशः । 


एेसा सुना जाता है किये छः गं पठे हिरण्य- 
कञचिपुके पुत्र थे भगवान्‌ विष्णुकौ प्ररणासे योगनिद्रा 
खन्द क्रमश्चः गमे स्थित करती रही ॥ ६९ ॥ 
जिस अविद्या-रूपिणीसे सम्पूणं जगत्‌ मोहित हो 
रहा है, बह योगनिद्रा भगवान्‌ विष्णुकौ महामाया 
है उससे भगवान्‌ श्रीहरिमे कहा--॥ ५० ॥ 


श्रीभगवान्‌ बोक्ञे-हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञासे 
तू पाताख्मे स्थित छः गर्भोको एक-एक करके देवकी. 
की कुक्षि स्थापित कर दै।॥ ७१॥ कंसद्रारा उन 
सवके मारे जानेपर शेषनामक मेरा अंश अपने 
अंशांशसे देवकीके सातवं गेम स्थित होगा ॥ ७२॥ 
हे देवि । गोकुखपरे वसुदैवजीकी जो रोहिणी नामकी 
दूसरी भाया रहती है उसके उद्रमे उस सातवें 
गर्भकोले जाकरतू इस प्रकार स्थापित करदेना 
जिससे बह उसीके जठरसे उत्पन्न हुएके समान जान 
पड़े || ७२ ॥ उसके विषयमे संसार यह केेगा कि 
कारागारमें बन्द होनेकै कारण भोजराज कंसके 


, भयसे देवकीका सात्वं गभं गिर गया ॥ ७४ ॥ वह 


ठ्वेत ओौढिखरके समान वीर पुरुष गभंसे आकषेण 
करिये जानेके कारण संसारम 'सङ्कषणः नामसे प्रसिद्ध 
होगा ॥ ७५॥ 

तदनन्तर, हे शुभे ! देवकीके आठवें गभेभे मै 
स्थित दोगा । उस समय तू भी तुरन्त ही यशोदके 
गर्ममे चली जाना ॥ ७६॥ वषाऋतुमे भाद्रपद कृष्ण 
अष्टमीको रान्निके समयम जन्म दूंगा ओरत्‌ 
नवमीको उस्पन्न होगी ।। ७७ ॥ हे अनिन्दिते ! उस 
समय मेरी शक्तिसे अपनी मति फिर जनके कारण 


बसुदेवजी सुक्े तो , यज्ञोदाक ओौर तुस देवकोके 
रयनगृहमे छे जारयेगे । ७८॥ तव, ह देवि ¦ कंस 


तुश्च पकड़कर पवत-शिङापर पटक देगा; उसके 
पटकते ही तू आकाङम स्थित हो जायगी ॥ ५९॥ 

उस समय मेरे गौरवसे सहसखरनयन इन्द्र शिर 
ुकाकर्‌ प्रणाम करनेके अनन्तर तुके भगिनीरूपसे 
स्वीकार करेगा ॥। ८० ॥ तू मौ जम्भ, निुम्भ आदि 


~" _ अ ~ = ` __-------------------------- 

% ये बालक पूयंजन्समे हिरण्यकरिपुके भाई कालनेभिके, पुत्र थे; इमी इन्ह उसका पुत्र कहा गया ह । हन सस 
कमारने हिरण्यकरिपुका भनादरकेर भगवानूकी भक्तिकौ थी; अतः उसे कुपित होकर इहं शाप दिया कि तुमलाग 
पने पिताके हाथ ही मरे जाओगे । यदह प्रसंम हरिवंरमे बाया ह) 


३७८ 


भीविष्णुपुराण ` 


[ अ०२ 








स्थानैरनेकैः परथिषीमरशेषां मण्डयिष्यपि ॥८१॥ 


त्वं मुतिः सन्नतिः क्षान्तिः कान्तिद पृथिवीधृतिः 
लज्ञापुष्टिरुषाया तु काचिदन्या स्वमेव सा।॥८२॥ 
ये तवामार्येति दुर्गेति वेदगर्भाम्थिकेति च । 
भरेति भद्रकाटीति क्षेमदा माग्यदेति च ।॥८३॥। 
्रतश्चैवापराे च स्तोष्यन्त्यानम्रमृचंयः । 
तेषां हि प्रार्थितं सवं मससादाद्धविष्यति ।(८४।। 
पुरामांसोपहारेथ भ्ष्यमोज्येश् पूजिता । 
सृणामशेपकामांस्तं प्रसन्ना सम्प्रदास्यसि ॥८५॥ 
ते सँ सव॑दा भद्रे मतप्रसादादसंशयम्‌ । 
असन्दि्वा मविष्यन्ति गच्छदेवि यथोदितम्‌॥८६॥ 





सहस दैत्यको मारकर अपने अनेक स्थानोंसे समस्त 
प्रथिवीको सुञ्लोभित करेगी ॥ ८१॥ तू हौ भूति,सन्नति, 
क्षान्ति भौर कान्ति दै;तू ही भाकाङ् प्रथिवी, धृति, 
खजा, पुष्टि ओर उषा हे; इनके अतिरिक्त संसारमें 
ओरमभीजो कोई शक्तिद वहस्वत्‌ू ही है।॥८२॥ 


जो खोग प्रातकार ओर सायंकालमे अस्यन्त 
नस्रतापूवंक तक्ष आर्या, दुगा, वेदगर्भा, अम्बिका, 
भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा ओर भाग्यदा आदि कहकर 
तेरी स्तुत्ति करगे चनकी समस्त कामना मेरी कृपासे 
पूणं हो जायेगी | <३-८४ ॥ मदिरा ओर मांसकी 
मेंट चद्ानिसे तथा भक्ष्य ओौर भोऽ्य पदार्थोद्वारा 
पूजा करनेसे प्रसन्न होकर तू मलुष्योँकी सम्पूण 
कामनाभौको पूणं कर देगी ॥ ८५ ॥ तेरे द्वारा दी 
हुई बे समस्त कामना मेरी छृपासे निस्सन्देह पूणं 
होगी । हे देवि ! अव तू मेरे बताये हुए स्थानको 
जा | <६ ॥ 





इति भीविष्णुपुराणे पश्चमेऽरे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ 


^^ कद 


दसरा अध्याय 


भगवानका गर्भ-प्रवेश् तथा देवगणद्धारा देवकीकी स्तुति 


श्रीपराश्चर उवाच 
यथोक्तं सा जगद्धात्री देवदेवेन वै तथा | 
पडगर्भगर्मविन्यासं चक्रे चान्यस्य कर्षणम्‌ ॥१॥। 
सप्तमे रोदिणौं गे प्रप्ते गभं ततो हि । 
लोकत्रयोपकाराय देवक्याः प्रविवेश ह | २॥ 
योगनिद्रा यशषोदायास्तस्मिमेव तथा दिने। 
सम्भृता जठरे तद्वबथोक्तं परमेष्ठिना ॥ २॥ 
ततो प्रहमणस्सम्यक्श्रचचार दिवि दिज। 
विष्णोरशे युवं याते ऋतवश्चावयश्बुभाः ॥ ४॥ 
न सेहे देवकीं द्रष्टु कथिदप्यतितेजसता | 
जाज्वल्यमानां तां दष्टा मनांसि क्षोभमाययुः|५॥ 


[५ 
आरणा, राई अ, 





ीपराश्षरजी बोजते-हे मेत्रेय ! देवदेव श्रीविष्णु 
भगवान्मे जेखा कहा था उसके अनुसार जगद्धात्री 
यीगमायाने छः गर्भोको देवकीके उद्‌रमे स्थित किया 
आौर सातकंको उसमेसे निकाल छिया ॥१॥ इस 
प्रकार सातवें गे रोदहिणौके उद्रमें पर्हुच जनिपर 
श्रीहरिने तीनों छोकोँका चद्धार करनेको इच्छासे 
देवकीके गभमे प्रवेश किया । २॥ जेसाकि भगवान्‌ 
परमेश्वरे उससे कहा था । योगमाया भी उसी दिन 
यरोदाके गर्भम स्थित हुई ॥ ३ ॥ हे द्विज ! विष्णु- 
अंरके प्रथिवीमें पधारनेपर आकाशम म्रहगण ठीक- 
ठीक गत्तिसे चलने कगे ओर छऋतुगण भो मंगलमय 
होकर श्ञोभा पाने गे ।॥ ४॥ उस समय अत्यन्त 
तेजसे देदीप्यमान देवकीजीको कोई भीन देख सकता 
था । उन्दः देखकर [देके] चित्त थकफित हो जाते 


थे ॥ ५॥ तव देवतागण अन्य पुरुष तथा दियो 
[ किवम + ॥ [५ 1 (~न -बन्नु / [+ 


पन [~ नन 


[ाायवाकातातयााकाााययािािि 





देवता ऊचुः 

प्रकृतिस्त्वं परा एकमा ब्रहमगमाभवः पुरा । 

ततो बाणी जगद्धातुर्वेदगर्भासि शोभने ॥ ७॥ 
सुज्यस्वरूपगर्मासि चुष्टिभूता सनातने । 
बीजमुता तु सर्व॑स्य यभू तामवस्यी ॥ ८ ॥) 
फलगरमा स्वमेवेऽ्या बहविगमां तथारणिः 
अदितिर्देवगर्भा स्वं दैत्यगभां तथा दितिः ॥९॥ 
व्योत्स्ना बासरगमा सवं ज्ञानग भसि स्नतिः। 
नयगर्भा परा नीतिज्ञा तं प्रश्रयोद्रहा ॥१०॥ 
कामगर्भा तथेच्छा तवं तुष्टिः सन्तोषगभिणी । 

मेधा च बोधमर्भासि प्ग मेदा धृतिः ॥११॥ 
ग्रक्षतारकागर्मा ब्मौरस्याखिहैतुकी । 
एता विभूतयो देवि तथान्या सहसस: ॥१२॥ 
तथास्षंख्या जगद्धात्रि साम्प्रतं जठरे तव । 
सखुद्र्िनदीदीपवनपत्तनभुषणा १३) 
ग्रामखव॑टचेटाल्या समस्ता प्रथिवी सुमे । 
समस्तबह्वयोऽम्भांसि सकलाश्च समीरणा: ॥१४॥ 
ग्रक्षतारकाचिघ्रं विमानश्नतसंदुसम्‌ । 
अवकाशषमश्ेषस्य यददाति नमःस्थहप्र्‌ ॥१५॥ 
भूर्लोक थुवरलोवस्स्वरोकिऽथ महज॑नः । 
तपश्च ब्रह्मलोकश्च व्रह्माण्डमखिलं चुमे ॥१६॥ 
तदन्तरे स्थिता देवा दैत्यगन्धवं चारणाः । 
महोरगास्तथा यक्षा राक्षसाः प्रेतगुद्यकाः ॥१७। 
मसुष्याः पञचवशवान्ये ये च जीवा यशस्विनि । 
तैरन्तःस्थेरनन्तोऽसौ सर्वगः सवं भावनः ॥१८॥ 
रूपकरमस्रूपाणि न॒ परिच्छेदगोचरे । 
यस्याखिरप्रमाणानि स विष्णुगंभंगस्तव ॥१९॥ 


तवं स्वाहा खं स्वधा विद्या सुधा ज्योतिरम्ब्रे । 


देवता बोल्ले-हे शोभने! तु पटे ब्रह्य-परतिविम्ब 
धारिणी मूलम्रकृति हुई थी ओर फिर जगद्विघाताकी 
वेदगमौ बाणी हुई ॥ ७॥ है सनातने ! तृ ही सज्य 
पदार्थोको उत्पन्न करनेबाी ओरतू ही सृष्टिह्पा 
हे;तू ही सबकी बीज-स्वरूपा यज्ञमयी, वेदच्रयी हुई 
है॥८॥ तू ही फलमयी यज्ञक्रिया ओौर अग्निगभौ 
अरणिहै तथात ही देवमाता अदिति ओर दैत्यप्रषू 
दितिदहै॥९॥ तू ही दिनकर प्रभा ओर ज्ञानगभां 
गुर्शुशरूषा द तथा तू ही न्यायमयी परमनीति ओौर 
विनयकी मूखभूता छुञजाहै ।॥ १० ॥ तू ही काममयी 
इच्छा, सन्तोषमयी तुष्टि, बोधगभां प्रज्ञा ओर धैयं- 
धारिणी धृति है ॥ ११॥ अह्‌) नक्षत्र ओर तारागण- 
को धारण करनेवाला तथा [ वृष्टि अगदिकै द्वारा इस 
अखिख विश्वका ] कारणस्वकूप आकाश्‌ ही है । 
ह जगद्धात्री ! हे दैवि । ये सब तथा ओौ भी सहस्रो 
जौर असंख्य विभूति इस समय तेरे उदरमें स्थित 
ह| दे ्युभे! समुद्र, पवेत, नदी, द्वीप, बन ओर 
नगरोसे सुञ्चोभित तथा भ्राम, खवेट ओौर खेरादिसे 
सम्पन्न समस्त प्रथिवी, सम्पूणे अभ्नि ओर जर तथा 
समस्त वायु, ग्रह, नक्षत्र एवं तारागणोंसे चित्रित 
तथा जो सबको अवकाञ्च दैनेवाठा है वह.सैक्रदं 
विमानोसे पूर्णं आका, मूर्छोक, सुवरोकरूथा मह, 
जन, तप ौर्‌ ब्रह्मरोकपयेन्त सम्पूणं ब्रह्माण्ड तथा 
उसके अन्तवे्ती देव, असुर, गन्धव, चारण, नाग, 
यक्ष, राक्षस, प्रेत, गुह्यक, मनुष्य, प्ञु भौरजो 
अन्यान्य जीव दै, हे यश्चस्विनि! वे सभौ अपने 
अन्तर्गतं होनेके कारण जो श्रीभनन्त सवेगामी ओर्‌ 
स्वंभावन दै तथा जिनके रूप, कमे, स्वभाव तथा 
( बाङत्व महत्व आदि } समस्त परिणाम परिच्छेद 
८ मयौदा ) के विषय नदीं दो सकते वे ही श्रीविष्णु- 
भगवान्‌ तेरे गमे स्थित है ॥ १२-१९॥ तूही 
स्वाहा, स्वधा, विद्या; सुधा भौर आक्राङस्थिता 








यमक 





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त्वं सवंरोकरकषर्थमवतीर्णा महीतरे ॥२०॥ 
प्रसीद देषि सवस्य जगतर्शं शुभे $ । 


प्रीत्या तं धारयेशचानं श्रतं येनाखिलं जगत्‌ ॥२१॥ 


ज्योति हे। सम्पूणं छोकोकी रक्षके लिये ही तूने 
प्रथिवी अवतार लिया है॥२०॥ हेदेवि।तू 
प्रसन्नहो।हेश्युभे! तू सम्पूणं जगत्‌का कल्याण 
कर! जिसने इस सारे संसारको धारण किया 
हभ दहे उस प्रञ्ुको तू प्रीतिपूवेक अपने ग्भ 
धारण कृर ॥ २१॥ 





इति श्रीविष्णुपुगणे पञ्चमे.ऽरो द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ 


= नकश 


तीस अध्याय 


भगवानका आविभौव तथा योगमायाद्वास कंसकी वश्चना 


श्रोपराश्चर उवाच 
एवं संस्त॒यमाना सा देवै्दैवमधारयत्‌ | 
गर्भेण परण्डरीकाक्षं गतस्ाणक्ारणम्‌ ॥ १॥ 
ततोऽखिरलगखद्मयोधायाच्युतमानुना । 
देकीपू्ंसन्ध्यायामाविभूतं महात्मना ॥ २ ॥ 
तजन्मदिनमस्यर्थमाहाघमरूदिदलम्‌ । 
वभूव सव॑होकस्य कोमदी शशिनो यथा ॥ ३॥ 
सन्तस्पन्तोषमधिक प्रशमं चण्डमारुताः | 
प्रसादं निश्नगा याता जायमाने जनार्दने ॥ ४॥ 
सिन्धवो निजशब्देन वाद्यं चक्रमनोहम्‌। 
जगुर्गन्धवंपतयो नसूतुशराप्सरोगणाः ॥ ९५॥ 
ससृजुः पुष्पवर्षाणि देवा शव्यन्तरिक्षगाः। 
जञ्वलुशाग्नयदगान्ता जायमाने जनार्दने ॥ ६ ॥ 
मन्दं जगल जलदाः पुष्यवरष्टिुचो दविज । 
अद्धरात्रेऽखिलाधारे जायमाने जनार्दने ॥ ७॥ 
एल्लेन्दीवरपत्रामं चतुर्बाहषदीक्ष्य तमू । 
श्रीवत्सवक्षसं जातं तुष्टावानकदुन्दुभिः ॥ ८॥ 
अभिष्टय च तं वामिमिःप्रसन्नामिर्महामतिः । 








श्रीपयश्चरजी बोरे-हे मैत्रेय ! दैव ताओंसे इस 
प्रकार स्तुति की जातौ हुई दैवकीजीने संसारकी 
रक्षाके कारण भगवान्‌ पुण्डरीकाक्षको गभे धारण 
किया! १॥ तदनन्तर सम्पूणं संसाररूप्र कमलको 
विकसित करनेके स्थि देवकीरूप पूवं सन्ध्यामें 
महात्मा अच्युतरूप सूयैदेवका आविभौव हभा 
॥ २॥ चन्द्रमाकी चाँदनीफे समान भगवान्का 
जन्मदिन सम्पूणं जगत्‌को आहादित करनेवाला 
हुआ ओर उस दिन सभो दश्च अव्यन्त निम 
हो गयीं | ३॥ 

श्रीजनादंनके जन्म केनेपरर संतजनौको प्रम 
सन्तोष हुआ, प्रचण्ड वायु शान्तो गया तथा 
नदियां अत्यन्त स्वच्छदहो गयीं।॥४॥ समुद्रगण 
अपने घोषसे मनोहर बाजे बजाने लगे, गन्धयराज्ञ 
गान करने लगे ओर अप्सरा नाचने छम ॥ ५ ॥ 
श्रीजना्दनके प्रकट होनेपर आकाडगामी देवगण 
प्रथिवीपर पुष्प वरसाने लगे तथा सान्त हए यज्ञानि 
फिर प्रज्वहित हो गये ॥ ६॥ हे द्विज | अद्धरात्रिके 
समय स्वाधार मगवान्‌. जनादंनके आविभूत 
होनेपर पुष्पवषां करते हए मेघगण् मन्द्-मन्द्‌ गजना 
करने खगे ॥ ७॥ 


उन्दं खिले हुए कमख्दल्की-सौ आभावङे, चतु- 
सज ओर वक्षःस्थलमे श्रीवस्सचिहसदित उत्पन्न हुए 
देल आनकदुन्दुभि वसुदेबजी स्तुति करने लगे ॥८॥ 
दै द्विजोत्तम ! महामति वसुदे वजीने प्रसादयुक्तं वचनो- 


अ० \ | 


[णाता 11 नेनि 


4८41 =+१॥ 


^~ 








विज्ञापयामास तदा कंसाद्धीतो दिजोत्तम ॥ ९॥ | से भगवानकी स्तुतिकर कंसे मयमीत रनकै 


वसुदेव उवाच 
जातोऽसि देवदेवेश शङ्कचक्रगदाधरम्‌ । 
दिव्यरूपमिदं देव प्रसादेनोपसंहर ॥१०॥ 
अघ्ैव देव कसोऽयं कुरुते मम घातनम्‌ । 
अवतीणं इति ज्ञात्वा समस्मिन्मम मन्दिरे॥११॥ 

देवक्युवाच 

योऽनन्तरूपोऽखिटविश्वरूपो 
गर्भेऽपि लोकान्वपुपा बिभर्ति | 


प्रसीदतामेष स देषदेवो 
यो माययाबिष्करृतमररूपः ॥१२॥ 


उपसंहर सर्वा्मन्रपमेतचतु यु जम्‌ । 
जानातु मावतारं ते कसोऽयं दितिजन्मजः ॥१३॥ 
श्रीभगवानुवाच 
स्तुतोऽदं यवया पूवं पुत्रा्थिन्या तदध ते। 
सफलं देवि सञ्चातं जातोऽहं यत्तयोदरात्‌ ॥१४॥ 
श्रीपरारार उत्राच 
सयुवत्वा मगवांस्तूष्णीं वभूव मुनिसत्तम । 
वसुदेषोऽपि तं रात्रावादाय प्रययौ बहिः ॥१५॥ 
मोहिताशामवंस्तत्र रक्षिणो योगनिद्रया | 
मथुराद्रारषालाश्च वजत्यानकदुन्दुभमौ ॥१६॥ 
वषेतां जलदानां च तोयमल्युन्वणं निरि । 
संवरत्यायुययौ देषः फणेरानकटुन्दुमिम्‌ ॥१७॥ 
यष्नां चातिगम्भीरं नानावत्तंशताङलाम्‌ | 
वसुदेवो बहन्विष्णुं जानुमात्रवहां ययौ ॥१८॥ 
कंसस्य करदानाय तव्रैवाभ्यागतांस्तटे । 


त्था | यट कथ! स्र्दिशाते व्मायी 2 








कारण इस प्रकार निवेदन किया ॥ ९॥ 

सदेवजी बोल्ते-दे देवदेवेश्वर ! यद्यपि आप 
[ साक्षात्‌ परमेश्वर ] प्रकट हष है, तथापि ह देव 
मुक्षपर छपा करके अव अपने इस ठांख-चक्र-गदाधारी 
दिभ्य रूपका रपसंहार कीजिये ॥ १०॥ हे देव । 
यह्‌ परता लगते हो कि आप मेरे इस गृहमे अवततीणं 
हुए है, कंस दसी समय मेरा सवनाञ्च कर देगा ॥ ११॥ 


देवकोजी बोटी--जो अनन्तरूप ओर अखिल- 
विश्चस्वरूप है, जो गर्भम स्थित होकर भी अपने 
शरीरसे सम्पूणं छो कोको धारण करते हैँ तथा जिन्होनि 
अपनी मायासि ही बाहृरूप धारण क्ियादहैवे 
देवसेन हमपर्‌ प्रसन्न हों ।। १२॥ है सवौत्मन्‌ ! जाप 
अपने इस चतुभज रूपका उपसंहार कीजिये । 
भगवन्‌ ! यह्‌ राक्षसके अंसे उसखन्न्ः कंसं आपके 
इस अवतारका वृत्तान्त न जानने पावे।॥ १३॥ 


श्रीभगवान्‌ बोल्ते-हे देवि ! पूव-जन्ममे तूने 
जो पुत्रकौ कामनासे मु्चसे [ पुघररूपसे उत्पन्न होनेके 
स्यि ] प्राथ॑ना की.थी। आजरमने तेरे गभ॑से जन्म 
लिया है--इसमे तेरी वह कामना पूणं हो गयी ॥। ९४॥ 


ओपयश्चरजी बोले-हे उनिशरेष्ठ ! ठेसा कहकर 
भगवान्‌ मौन हो गये तथा वसुदैश्रजी भी उन्ह उस 
राधि हयी लेकर बाहर निकले ॥ १५॥। वसुदेवजीके 
नार ज्ञाते समय कारागृहरक्षक ओर मंथुराके 
दरारपाङ योगनिद्राके प्रभावसे अचेत हो गये ।। १६॥ 
खस राव्रिके समय षष कसते हुए मेघोकी जलराशि- 
को अपने फणोसे रोककर श्रीरषजी आनकटदुन्दुभिके 
परछे-पीछठे चङे | १७॥ भगवान्‌ वरिष्णुको ठे जाते 
हुए वसुदेवजी नाना प्रकारके सैकड़ों भंवरोसे भरी 
हुई अत्यन्त गम्भीर यञ्ुनाजीको घुटनों तकं रखकर 
ही पार्‌ कर गये ॥ १८ ॥ उन्होने वहा यञुनाजीके 
तटपर ही कंसको कर देनेके ल्थि अये हुए 


% हमि नामक राक्षसने राजा उग्रसेनका रूप धारण कर उनकी पत्नीपे संसं किया था । उसी केसका जन। 


[1 








तसिमिन्काष्ठे यरोदापि मोहिता योगनिद्रया। 


तामेव कस्यां पैत्रे प्रसूता मोहिते जने ॥२०॥ 


वसुदेवोऽपि विन्यस्य बारमादाय दारकम्‌ । 
यशोदा शयनात्तण॑माजगामामितयुतिः ॥२१॥ 
दद्य च प्रलुद्ा घा यशोदा जातमात्मजम्‌। 
नीलोत्पलदलश्यामं ततोऽत्थथं मृदं ययौ ॥२२॥ 
आदाय बसुदेबीऽपि दारिकां निजमन्दिरे । 
देवकीशयने न्यस्य यथापू॑मतिष्ठत ।॥२२॥ 
ततो बारुध्वनिं शरुत्वा रक्षिणस्सहसोत्थिताः । 
दविज ॥२४॥ 
कंसस्तूण॑गुपेत्ैनां ततौ जग्राह बलिम्‌ । 


कस।यावेदयामाप्ुरदेवफीप्रसें 


मृ गुश्ेति देवक्या सन्चकण्डया निवारित; ॥२५] 
चिक्षेप च शिरे सा क्षिप्ता वियति स्थिता । 
अवाप रूपं सुप्रहस्सायुधाष्टमहायुजम्‌ ।॥२६॥ 


प्रजहास तथैवोच्यैः कंसं च रुपिता्वीत्‌ | 
किमया क्िक्नया कैस्नजातो यस्त्वां वधिष्यति ।२७। 
सवस्वभूतो देवानामासीन्मृसयुः पुरा सते। 
तदेतत्सम्प्रधार्याश क्रियतां हितमास्मनः ॥२८॥ 
इत्युकवा प्रययो देवी दिव्यन्लग्गन्धमृषणा | 
परयत भोजराजस्य स्तुता धिद्ध रिहायस्ता ॥२९॥ 














हः मैत्रेय ! इसी समय योगनिद्राके पभरभावसे सब 


मघुष्योके मोदित हो जानेपर मोहित हृद यञ्चोदाने 
भी उसी कन्याको जन्म द्या ॥ २०॥ 


तब अतिशय कान्तिमान्‌ बलुदेवजी भौ उस 
बाकको सुलाकर ओर कन्याको केकर तुरन्त 
यज्चोदाके शयन-गृहसे चरे अये ॥ २१॥ जब 
यश्चोदाने जागनेपर देखा किं उसके एक नीलकमल- 
दूरके समान श्यामवर्णं पुत्र उत्पन्न हुभा दहै तो उसे 
अस्वन्त प्रसन्नता हई ॥ २२॥ इधर वसुदेव जीन 


कन्याको छे जाकर अपने महरम देव कके शयनः 
गृहमे सुहा दिया भौर पूवं त्‌ स्थित हो गये । २३॥ 


हे द्विज ! तदनन्तर बाख्कके रोनेका शब्द्‌ ुन- 
कर कारागृहरक्षक सहसा उठ खडे हुए ओर देवकीौ- 
के सन्तान दत्पन्न होनेका वृत्तान्त कंसको सुना दिया 
॥ २४ ॥ यह्‌ सुनते ही कंसने तुरन्त जाकर देव कोके 
दबे हप कण्ठसे छोड़, छोद़'--देसा ककर रोकने- 
पर भी उस बाल्काको पकड़ छया ओर चसे एक 
शचिलापर पटक दिया। इसके परटकते ही व 
आका स्थित हो गयी ओौर उसने शखयुक्त एक 
महान्‌ अष्टमुजरूप धारण कर छिया ॥ २५-२६ ॥ 


तव उसने चे स्वरसे अदास किया जर 
कंससे रोषपूर्क कहा --अरे कस ! सुक्षे पटकनेसे 
तेरा कया प्रयोजन सिद्ध हुमा ! जो तेसा बध करेगा 
उसने तो [ प्रहे हयी ] जन्मे ट्वा दहे ॥ २७॥ 
देवताओंके सव॑स्वरूपवे हरि ही पृवेजन्मभ भी 
तेरे काल ये। अतः एसा जानकर तु शीघ्र ही अपने 
हितका उपाय कर' ॥ २८॥ एेला कह, वह दिभ्य 
माला जौर चन्दनादिसे विभूषिता तथा सिद्धगण- 
द्वारा स्तुति की जाती हृ देवी भोज्ञसाज कंसके 
देखते-देखते आकाशमागंसे ची गयी ॥ २९॥ 


"9 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्छमेऽसे वृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ 


~ 46 


अ० ४ | 4८ 1१ ५ 





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चोथा अध्याय 
वसुदेव-देवक्षोका कासगास्से मोश्च 
श्रोपराश्ञर उचाच श्रोपयशशरजी बोले--तब कंसने छिन्न चित्तसे 
वःसस्तदोद्धि्रमनाः पाह सर्बान्पहा सुरान्‌ । प्रलस्ब ओर्‌ केशी जदि समस मुख्यस्य अपुर 
प्ररम्बकेशिप्रघुखानाहूयासुरपुज्खवान्‌ ॥ १ ॥ को बुखाकर कटा 11 १॥ 
कंस उवाच कंस बोखा-- प्ररम्ब ! हे महाबाहो केशिन्‌ ॥ 


दे धेनुक ! दे पूतने ! तथा ह अरिष्ट चादि अन्य 
; 
दे प्रलम्ब महावा केशिन्‌ धेलुक पूतने । असुरगण ! मेख वचन सुनो--| २॥ यद बात 


अरिषटाघास्तयैबाम्ये श्रूयतां वचनं मम्‌ ॥ २ ॥ | प्रसिद्ध ह्ये सदौ है कि दुरात्मा दैवतानि मेरे मारने" 
मां हन्तुममर्यलः कृतः कि दुरारपमिः । के च्थिको् यत्नकिया द न्तु वोर इस 
वौर्यसे सताये हुए इन छोगोको कछ भो नह 
गिनता ह ॥ ३ ॥ अल्पवौयं इन्द्रः अक्रेट धूमनेवाले 
सहदेव अथवा छिद्र ( अस्ाबधानीका समय) 
दरंदकर देस्योका वध करनेव छे विष्णुसे उनका क्या 
कायं सिद्ध द्यो सकता दै १ ॥ ४॥ मेरे वाहुबलसे 
दिति आदित्यो, अल्पवीयं _ वसुगर्णौः अन्नियों 
अथवा अन्य समस्त देवताओंसे मी मेरा क्या 
अनिष्ट ह्यो सकता है १॥ ५॥ 




















महीर्यतापितान्वीरो न सवेतान्गणयाम्यदम्‌ ॥२॥ 
किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण किं हरेणेकचारिणा । 
हरिणा वापि कि साध्यं ष्िद्ष्सुरषातिना ।॥४॥ 
किमादितयैः विः वसुभिरल्पवीय; किमिगनिपिः । 
क्षि बान्यैरमरः सरवमद्ाहुबलनिनितैः ॥ ५॥ 


आपललौगनि क्या देखा नदी था कि मेरे साथ 
युद्धमूमिमे जाकर देवराज इन्द्र वक्षःस्थल्मे नदी, 
अपनी पीठपर बाणोकी बोहछार सहता इ भाग 
गया या ॥ ६॥ जिस समय इन्द्रे मेरे रस्ये 
वर्षका होना वंद कर दियायथा उकस्त सम्यक्‌ 
भेधोनि मेरे बाणोसे विधकर्‌ हौ यथेष्ट जल नर्द 
बर्साया १ ॥ ७1 हमारे यु ( चलुर ) जससन्धको 
छोड़कर क्या प्रथिरवीके अर सभा नृपतिगण मेरे 
बाहुवटसे मयमौत होकर मेरे सामने शिर नहीं 
कति १ < ॥ 


फि न दृ्ोऽपरपति्मया सयुगमेत्य सः । 


षेव वहन्बाणानपागच्छन्न वक्षसा ॥६॥ 
मदर वारिता वृष्टियंदा शक्रेण क्रि तदा । 
मद्वःणमिने्लदे्नाि सक्ता यथेप्िताः ॥ ७ ॥ 
किदव्यामबनीपाला मद्वाहुबरपषीखः । 
न स्वे सन्नतिं याता जराप्तन्धस्ते गुरुम्‌ 11 ८ ॥ 


हे दैव्य्रेषठगण ! देबताओके प्रति मेरे चित्तम 
अवज्ञा होता ६ आर हे बीरगण ! उन्हे अपने (मेरे) . 
चथका यत्न करते देखकर तो सुच हसी आती दै 
1 ९॥ तथापि द दैखेन्द्रौ ! उन दुष्ट ओर दुरात्मा. 
क्के अपकारक स्थि ख्व ओर भी अधिकं प्रयत्न 
करना चाहिये ॥ १० ॥ अततः प्रथिवीमे जो कोद 
यज्ञस्वी ओर यज्ञकती हों उनका देव ताओंके अप- 
कारके द्यि सर्वथा वथ कर देना चाहिये ॥ ११॥ 


अमरेषु ममावज्ञा जायते दैसयपुज्गवाः । 
हास्यं पे जायते वीरासतेषु यततपरष्वपि ॥९॥ 
तथापि खलु दुष्टानां तेषामप्यधिक मया । 
अपकाराय दैत्येन्द्रा यतनीयं दुरसनाम्‌ ॥१०॥ 


ते यश्षस्विनः केचिरप्रथिष्यां ये च याजकाः । 
नि जतचनञय तेषांस स्प { दधः ११ 





५७ 











इतन्श्वापि मे मृप्युभुतपूलस्प वै कि । 
इत्येतदरिा प्राह देवकीगमेसम्मवा ॥१२॥ 
तस्माद्रछिपु च परो यनः कायो मीत । 
यत्रोद्रिक्तं ब्र बे स हन्तव्यः प्रयतः ।॥१२॥ 
इ््याज्नाप्पामुरान्कसः प्रविद्याशु गं ततः । 
मुमोच वसुदेवं च देवकीं च निरोधतः ॥१४॥ 
कंस उवाच 
युवयोर्घातित। गर्भा ब्रथेवेते मयाधुना | 
कोऽप्यन्य एव॒ नाकाय ब्राहो मम मर्ुद्तः॥१५॥। 


तदं परितापेन नूनं तद्धाविनो हिते। 
अर्मका युवयोदपाचायुषो यद्वियोजिताः॥ १६॥ । 


श्रीपराशर उवाच 
इत्याश्वास्य वि क्तवा च कसस्तौ परिशङ्कितः । 
अन्तगं द्विजश्रेष्ठ प्रविवेश्च ततः स्वकम्‌ ॥१५७। 





देवकीके गमंसे उत्पन्न हुई वाल्काने यह भी 
कहा दै कि, बह मेरा भूतपूवं ( प्रथम जन्मका) 
कार निश्चय हौ उतपन्न हयो चुका है । १२॥ अतः 
आजकल प्रथिवीपर उत्पन्न हुए बारकोफे विषयमे 
चिरेष सावधानी रखनी चाहिये ओर जिस बारक- 
म विशेष बका श्द्रेक हो उसे यत्नपूचंक मार 
डाखना चाहिये ॥ १३॥ असुरोको पेसी आज्ञा दे 
कंसने कारागृहमे जाकर तुस्तदही बरसुदेव आर 
देव कीको बन्धनसे सक्त कर दिया ॥ १४॥ 

कंस वोखा--मैने भवतक आप दोनोके बाख्कोँ 
कीतोवृथादहीहत्याकी, मेरानारा करनेके चयि 
तो कोर ओर ही बाक उतसन्न हो गया है ॥ १५॥ 
परन्तु आपलोग इसका कुछ दुख न माने क्योकि 
उन वालकोकी होनहार रेसी ही थो । आपदोगौँके 
प्रारब्ध-दोषसे ही उन बाङकोंको अपने जीवनसे 
हाथ धोना पड़ा है ॥ १६॥ 


श्रीपराश्चरजी वोकज्े--हे द्विजश्रेष्ठ ! उन्हे इस 


प्रकार टौँटस वधा ओौर बन्धनसे घयुक्तकर कंसने 
शङ्कित चित्तसे अपने अन्तःपुरमे प्रवेरा किया ॥ १७॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्चमेऽसे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 


पौचर्वा अध्याय 
पूतना-वध 


श्रीपररारार उवाच 

विगरुक्तो बसुदेबोऽपि नन्दस्य शकटं गतः । 

रहं दृ्टवान्न्दं पुत्रो जातो ममेति वे ॥ १॥ 
वसुदेवोऽपि तं प्राह दिष्टया दिषटयेति सादरम्‌ । 
बारकेऽपि सथुरप्रतनयोऽयं तवाधुना ॥ २॥ 
दत्तो हि बािकस्सवों मवद्धिनु पतेः करः 
यदथ॑मागतास्तस्मानात्र स्थेयं महाधनैः ॥ ३ ॥ 
यदथंमागताः कायं तन्निष्पन्नं किमास्यते | 





श्री पराश्चरजी बोले-बन्दीमगृहसे हृते दी 
वसुदैव जी नन्दजीफे छकडेके पास गये तो उन्हें इस 
समाचारसे अत्यन्त प्रसन्न देखा कि भेरे पुत्रका 
जन्म हुआ है" || १॥ तव बघुदेवजीने भी उनसे 
आदरपूवंक कहा--अव बृद्धावस्थामें भी आपने 
पुत्रका मुख देख दिया यह्‌ बड़ ही सौमाग्यकी बात 
है ॥ २॥ आप्रलोग जिस ल्थयि यहम आयेथे वह्‌ 
राजाकासारा वार्षिकं कर देद्ी चुके है । यदह 
धनवान्‌ पुरुषोंको ओर अधिक न ठहरना चाहिये 
॥ ३॥ आपरोग जिसदियि यदह आये थे वह कार्थ 
पूराहो चुका, भव ओर अधिक किंसद्िये ठरे हुए 
द १ [ यह दैरतक ठहरना ठीक नर्हीहे ] अतः 








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---------~-----------~--~---~~----------~----~----------- ---------- ` 





भवद्धिर्मम्यतां नन्द तच्छीघ्रं निजगोङुरम्‌॥ ४॥ नन्दजी ! आपोग शीघ्र हौ अपने गोक्कुर्को जाये 


ममापि वाहकस्तत्र रोहिणीप्रमवो हि यः| 
स रक्षणीयो भवता यथायं तनयो निजः ॥५॥ 


हतयुक्ताः प्रषयुगोपा नन्दगोपपुसेगमाः । 
रकटारोपितैर्माण्डेः करं दत्वा महाबलाः ॥ ६॥ 
वसतां गोङ्कसे वेषां पूतना चारघातिनी । 
सुप्तं कृष्णपुपादाय रत्रौ तसमै स्तनं ददौ ॥७॥ 
यस्मै यसौ स्तनं रात्रौ पूतना सम्प्रयच्छति । 

तस्य तस्य क्षणेनाङ्गं बाृकस्योपहन्यते ॥ ८ ॥ 
कृष्णस्तु तत्स्तनं गां कराभ्यामति पीडितम्‌ । 
गृहीत्वा प्राणसहितं पपौ क्रोधसमन्िितः ॥ ९॥ 
सातिुक्त महारावा विच्छिनस्नायुबन्धना । 
पपात पूतना भूमौ म्रिषमाणातिमीषणा ॥१०॥ 
तन्नादश्रुतिसन्तरस्ताः प्रबुद्धास्ते तजौकसः। 


ददृशुः पूतनोत्सङ्ध क्ष्णं तां च निपातिताम्‌ ॥११॥ 


आदाय कृष्णं सन्त्रस्ता यशोदापि द्विजोत्तम । 
गोपुच्छभ्रामणेनाथ बाठदोषमपाकरोत्‌ ॥१२॥ 
गोपुरीषशुणदाय नन्दगोपोऽपि मस्तके । 
कुष्णस्य प्रददौ रक्षां कुचैतदुदीरयन्‌ ॥१३॥ 


नन्दगोप उवाच 
रक्षतु खामरेषाणां भूतानां प्रमो दरिः । 
यस्य॒ नामिसयुद्धतपङ्कजादमवजगत्‌ ॥१४॥ 
येन दंषटरमरविधता धारयत्ववनिजंगत्‌ । 
वरादरूपधृण्देवस्स त्वां रक्षतु केशवः ॥१५॥ 
नखाङ्करविनिभिनवेखिक्षस्स्थलो विः । 
नृसिंहरूपी सर्वत्र रक्षतु स्वां जनादन; ॥१६॥ 
वामनो रक्षतु सदा मवन्तं यः क्षणादभूत्‌। 


1 ४ ॥ वरहँपर रोहिणीसे उत्पन्न हज जो मेरा पुत्र 


है उसकी भी आप च्सी तर्‌ रक्षाकरं जैसे किं 
अपने इस वाखककी ॥ ५॥ 


वघुदेवजीके रेसा कनेपर नन्द आदि महा- 
बरुवान्‌ गोपगण छकडुमे रखकर खये हष भाण्डसे 
कर चुकाकर चरे गये ॥ ६॥ उनके गोडुरमे रहते 
समय बाख्धातिनी पूतनाने राच्रिके समय सोय हए 
कूष्णको गोदमे ठेकर सफ मुखभे अपना स्तन दै 
दिया ॥ ७ ॥ राच्रिके समय पूतना जिस-जिस वारकः 
के मुखम अपना स्तन दे देती थी उसीका शरीर 
तत्काल नष्ट हो जाता था ॥ ८ ॥ कृष्णचन्द्रने कोधः 
पूवक उसके स्तनको अपने हाथोसे सूव दबाकर 
पकड लिया ओौर उसे उस्तके प्रा्णोके सहित पीने 
रगे 1 ९ ॥ तब स्नायु-बन्धनोके शिथिर हो जानेसे 
पूतना घोर शब्द करती हु मरते समय महाभयङ्कर 
रूप धारणक प्रथिकीपर गिर पड़ी ॥ १०॥ उसके 
घोर नादको सुनकर भयभीत हुए वरज्ञषासीगण जाग 
च्छे आर देखा कि कृष्ण पूतनाकी गोदमे दै ओर 
वष्ट मारी गयी दे ॥ ११॥ 


हे द्विजोत्तम ! तथ भयमीता यशचोदने कृष्णको 
गोदमे छेकर उन्हे मौकी पसे ब्ञाडकर बाखकका 
्रहदोष निवारण किया | १२॥ नन्दगोपने भी 
आगेके वाक्य कहकर विधिपूवेक रक्षाकरते हष 
छरष्णके मस्तकपर गोबरका चुणं रगाया ॥ १३॥ 


नन्दगोप बोक्ते-जिनंकी नाभिसे प्रकट हप 
कमङ्से सम्पूणं जगत्‌ उत्पन्न हआ हवे समस्त 
भूतोकि आदिस्थान श्रीहरि तेरी रक्षा करं ॥ १४॥ 
जिनकी दादि जग्रभागपर स्थापित होकर भूमि 
सम्पूणं जगततूको धारण करती हे वे वराह-रूपधारी 
श्रीकेश्चव तेर रक्षा करं ।। १५ ॥ जिन विभुने अपने 
नखार््ोसि शतरुके वक्षःस्थल्को बिदीणे कर दिया था 
वे नृरसिहरूपी जनार्दन तेरी सवत्र रक्षा करें ॥ १६॥ 
जिन्हे क्षणमात्रमै सख त्रिविक्रमरूप धारण 
करके अपने तीन पगोे त्रिखोकीको नापल्याथा 


त्रिविक्रमः कमाक्रान्तत्रेरोक्यः रफुरदायुधः ॥ १५७।॥| बे वामनमगवान्‌ तेरी सवेदा रक्षा करे ॥ १७॥ 


३८६ 


श्रीविष्णुपुराण 


[ अ० & 











शिरस्ते पात्‌ गोविन्दः कण्ठं रक्षतु फेरावः। 
गुं च जढरं धिष्णुञजदवं पादौ जनार्दनः ॥१८॥ 
खं बाहू प्रबाहू च मनः सर्वेन्दियाणि च | 
रक्षलखव्याहतैश्वयंस्तव नारायणोऽव्ययः ॥१९॥ 
शाङ्गचक्रगदापाणेदशह्नादहताः क्षयम्‌ | 
गच्छन्तु प्रेतवूष्भाण्डराक्षप्ताये तवाहिताः ।२०॥ 
त्वां पातु दिक वैकुण्ठो विदिक्षु मधुचदनः। 
हृषीकेशोऽम्बरे भूमो रक्षतु त्वां महीधरः ॥२१॥ 


श्रीपराशर उवाच 
एवं कृतस्वस्त्ययनो सन्दगोपेन बारुकः | 
शायितरशकरस्याधो बापयंङ्किफाते ॥२२॥ 
ते च गोपा महद्‌ दृष्ट पूतना; करेवरम्‌ । 
मृतायाः परमं त्रासं षिस्मयं च तदा ययुः ॥२३॥ 





गोतिन्द तेरे शिरकी, केराव कण्ठकी, विष्णु गुद्यस्थान 
ओर जञठरकी तथा जनादन जंघा ओौर चरणोकी 
रक्वा करं ॥ १८ ॥ तेरे सुख, बाहुः प्रवाहः? मन ओर 
सम्पूणं इन्द्रियोकी अखण्ड र्यं से सम्पन्न अवि- 
नाशी श्रीनारायण रक्षा कर ॥ १९ ॥ तेरे अनिष्ट 
करनेवाले जो प्रेत, कूष्माण्ड ओौर राक्षस होवे 
शाङ्खं धनुष, चक्र ओर गदा धारण करनेवाङे विष्णु- 
भगवान्‌की शद्ध-ध्वनिसे नष्ट हो जायं ॥ २०॥ 
भगवान्‌ वैश्ण्ठ दिश्चाभे, मधुसूदन विदिशाओों 
(कोणो) मे, हृषीकेश आकारै तथा प्रथिवीको 
धारण करेवा श्रीरोषजे प्रथिवीपर तेरी रक्षा 
करे ॥ २१॥ 

श्रीपरश्चरजी बोल्ते--इस प्रकार स्वस्तिवाचन 
कर नन्दगोपने बालक छृष्णको छकडेके नीचे एक 
खटोटेपर सुला दिया ॥ २२९॥ मरी हई पूतनाके 
महान्‌ करेवरको देखकर न सभी गोपोको अत्यन्त 
भय ओर विस्मय हुआ ॥ २३॥ 





इति श्रीबिष्णुपुराणे पश्चमेऽरो पश्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ 


पनी ॐ) पं 


छढा अध्यय 


शकेटभक्चन, यमलाज्ञुन-उद्धार, बज्वासिर्थयोक। गोक्कखते दन्दावनमे 
जाना सौर वषौ-वणेन 


श्रीपराश्चर उवाच 
कदाचिच्छकटस्पाधरशयानो मधुप्रदनः। 
चिक्षेप चरणावृष्व स्तन्याथीं प्रहरोद इ ॥ १ ॥ 
तस्य पादश्रहारेण शकटं परितितम्‌ । 
विष्वस्तङ्कम्भमाण्डं तद्विपरीतं पपात वै ॥ २॥ 
ततो हाहाकृतं सर्वो गोपगोपीजनो द्विज | 
आजगामाथ दद्शे बाह्पत्तानश्ायिनम्‌ ॥ २ ॥ 
गोपाः केनेति केनेदं शकटं परिपेतितम्‌ । 
त्व बालकाः परोचुषिनानेन पातितम्‌ ॥ ४ ॥ 
रुदता दृष्टमस्मामिः पादविकषेपपातितप्‌ । 
शकटं परिष पे नैतदन्यस्य वेष्टितम्‌ ॥ ५ ॥ 


भरीपराश्चरजी योके--एक दिन छकडेके नीचे 
सोये हुए मधुसूदने दृधके किये रोते-रोते उपरको 
खात मारी ॥ १॥ उनकी छात्त खगते ही वह छकड़ा 
लोट गया, उसमे रखे हुए कुम्भ ओर माण्ड आदि 
पुट गये ओौर बह उरुटा जा पड़ा ॥ २॥ हे द्विज । 
उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपी- 
गण वह आ पहुचे ओर उस बाखकको उत्तान सोये 
हुए देखा ॥ ३ ॥ तव गोपगण पृष्ठनेल्गेकि इस 
छकडेको किसने उरूट दिया, किसने उलट दिया ¢ 
तो वौँपर खेरते हुए बालकोने कहा-- “स कृष्णने 
ही गिराया है ॥ ४ ॥ हमने अपनी ओँलोसे देखा 
है कि सेते-रोते इसकी छात रगनेसे हौ यदह छकड़ा 
गिरकर उलट गया है । यह्‌ भौर किसीका काम 
नहीं हे" ॥ ५ ॥ 








ततः पुनरतीवासन्गोपा विस्मयचेतप्तः । 
नन्दभमोपोऽपि जग्राह बारसत्यन्तविस्मितः ।॥६॥ 
यक्षोदा शकथरूटभ्नमाण्डकपालिकाः । 
शकटं चार्चयामास दधिपुष्पफलाक्षतैः ॥ ७ ॥ 


गगश्च गोदे तत्र॒ वसुदेवप्रचोदितः । 
प्रच्छन्न एव गोपानां सस्फायनकरोत्‌ तयोः ॥८॥ 
ज्येष्टं च राममित्याह कृष्णं चैव तथावरम्‌ | 
गर्गो मतिमतां परेष्ठो नाम इवन्सहामतिः॥ ९॥ 
स्वल्पेनैव तु कालिन रिङ्गिणौ तौ तदा व्रजे । 
धष्टजालुकरौ विप्र बभूवतुरुभावपि ॥१०॥ 


करीषभस्मदिग्धाङ्गो श्रममाणावितस्ततः | 
न निवारयितुं शेके यशोदा तौ न रिणी ॥११॥ 
गोवाटमध्ये क्रीडन्तो बत्सवाटं गतौ पुनः| 
तददर्जातगोवत्सपुच्छाफषणतत्परौ ॥१२॥ 


यदा यशोदा तौ बाटावेकस्थानचरावुभौ । 
शश्चाक नो वारयितुं करीडन्तावतिचश्रो ॥१३॥ 
दाम्ना मध्ये ततो बद्ध्वा कन्ध तमुरुखले। 
कृष्णमद्विष्टक्माणमाह चेदमपर्पिता ॥१४॥ 
यदि शक्रोषि गच्छ त्वमतिचश्चृचेषटित । 
इर्युक्त्वाथ निजं कमे सा चकर हटुग्िनी ॥१५॥ 


गयग्रायामथ तस्यां स कमाण ऽर्खरम्‌ । 
यमलाजँनमभ्येन जगाम कमहेश्षणः ॥१६॥ 
कपैता बृक्षयोमभ्ये तियगगतधुषहम्‌ । 
भग्राबुनुङ्गशाखाप्रौ तेन तौ यमलार्जुनौ ॥१७॥ 
तत; कटकटाश्ब्दसमाकणेनतत्परः । 
आजगाम व्रनजनो ददे च मह्रुमौ ॥१८॥ 
नवोदतानल्पदनम्तांशुसितहासं च बाकम्‌ । 
तयोर्मध्यगतं दाम्ना बद्धं गां तथोदरे ॥१९॥ 











यह्‌ सुनकर गोपगणके चित्तम अत्यन्त विस्मय 
हुआ तथा नन्दगोपने अस्यन्त चकित होकर बाख्क- 
को बडा ज्िया।।&। फिर यसलोदने भी छकडमे 
रखे हुए पटे भाण्डोके ुकड़ोकौ भौर उस छकड़ेकौ 
दह, पुष्प, अक्षत भौर फर आदिसे पूजा की ॥७॥ 


दसो समय वसुदेव जके कहनेसे गगौचायने 
गोपोँसे चिपे-छिपे, गोङ्ल्मे आकर उन दोनों 
बाख्कोके [ हविजोचिव ] संस्कार करिये॥८॥ उन 
दोनोके नामकरण संस्कार करते हए महामति 
गगजीने बड़का नाम राम ओौर छोरेका कृष्ण 
बतलाया ॥ ९ ॥ हे विग्र ! वे दोनों बाख्क थोडे ही 
दिनोँमे गौओंफे गो्ठमे रंगते-रगते हाथ भौर 
घुट नौके बल चख्नेवाके हो गये ॥ १०॥ गोबर ओर 
राखभरे सरीरसे इधर-उधर धूमते हए उन बाख्को- 
को यशोदा भौर रोहिणी रोक नहीं सकती थी 


॥ ११ ॥ कभी वे गौओके धोषमें खेलते ओर कभी 
वछछडोके मध्यमे चले जाते तथां कभी दसौ दिन 
जन्मै हुए बचछृडोकी पठ पकड़कर खीचने 
लगते ॥ १२॥ 


एक दिन जब यश्चोद्ा, सद्‌ा एकं ही स्थानपर 
साथ-साथ सखेखमेवाले खन दोनों अत्यन्त चच्चल 
वाल्कोकोन रोक सकी तो उसने निर्दोष कमं 
करनेवछठे कृष्णको रस्सीसे कटिभागमें कसकर 
ऊखलमे बौध दिया भौर रोषपूवंक इस प्रकार कहने 
खगी-॥ १३-१४॥ अरे चश्च छ ! अब तुशचमे सामभ्य 
होतो चलाजा।' एेसा कहकर कुटुभ्विनी यञ्चोदा 
अपने घरे धन्घेमे छग गयी ॥ ९५॥ 

उसके गृहकायंभ व्यग्र द्यो जनेपर कमङ्नयन 
छृष्ण ऊखछ्को खी चते-खीचते यमङाञ्ुनके बौचमें 
गये ॥ १६॥ ओर उन दोना षृक्चोके बीचमें तिरछी 
पड हई उखलको खींचते हए उन्दने ऊंची 
शाखाओवाङे यमलाँन नामक दो धृक्षोको उखाड़ 
डाला ॥ १७ ॥ तब उनके उखडनेका कट-कृट शब्द्‌ 
सुनकर ब्म व्रजवासी ोग दौड आये ओर उन 
दोनों महाघृश्ोंको तथा उनके वीचमे कमरमें रस्सी- 
से कसकर वँघे हुए बारुकको नन्है.नन्हूः अल्प दोक 
दवेत किरणोसे दुभ क्स करते देखा । तभीसे 


२९८ 


भ्राविष्णुपराण 


| अ० ९ 


रस्सीसे षंधनेके कारण उनका नाम दामोदर 


ततश्च दामोदरतां स ययौ दामबन्धनात्‌ ॥२०॥ । 


| पड़ा ॥ १८-२०॥ 


मोषवृदरास्तेतः सें नन्दगोपपुरोममाः । 
मन्त्रयामासुरुदधि्ा मद्यत्पातातिमीखः ॥२१॥ 
स्थानेनेह न नः कायं व्रजामोऽन्यस्महयवनम्‌। 
उत्पाता बहवो ह्यत्र दुद्यन्ते नाश्हेतवः ॥२२॥ 
पूतनाया विनाश शकटस्य विपर्ययः । 
विना वातादिदोपेण द्रुमयोः परतनं तथा ॥२३॥ 
बृन्दावनमितः स्थानात्तस्मादच्छाम मा चिरम्‌ । 
यावद्धोममहोत्पातदोपो नाभिमवेदू्जम्‌॥२४॥ 
इति ता मतिं सरवे गमने ते व्रजौकसः । 
उचुस्स्वं स्वं कुर शीध्रं गम्यतां मा विलम््रथ॥ २५॥ 
ततः क्षणेन प्रययुः शकटैगोधनेस्तथा । 

- युथन्नो बत्सपाला् कालयन्तो व्रजौकसः ॥२६॥ 

्रव्यावयवनिदुधूतं क्षणमात्रेण तत्तथा | 

काकमाससमाकीणं व्रजस्थानमभृदृद्विन ॥२७॥ 
नावनं मगवता कृष्णेनाक्हषटक्मणा । 
शुभेन मनसा ध्यातं गवां सिद्धिमभीप्सता ॥२८॥ 
ततस्तत्रातिरुकेऽपि ध्म॑काले द्विजोत्तम । 
्राह्टूकाल इवोद्धतं नवशष्पं समन्ततः ।।२९॥ 
स समावासितः स्वो व्रजो बृन्दावने ततः । 
शकटीवाटपयंनतथनद्राद्रकिरसंस्थित्िः ॥२०॥ 
वत्सपालो च संवृत्तौ रामदामोदरौ ततः । 
एङस्थानस्थितो गोष्टे चेरतुर्बारलीख्या ॥२१॥ 
वरहिपत्रकृतापीडौ वन्यपुष्पावतंसको । 
मोपएवेणुदतातोदयपत्रवा्यङृेतस्वनौ ॥२२॥ 
काकपक्षधरो बाहो इमारारिव पावकी । 





तव नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोने महान्‌ 
उत्पातोके कारण अत्यन्त भयमीत होकर आपसे 
यदह सलाह की-- ।॥ २१॥ अब इस स्थानपर 
रहनेका हमारा को प्रयोजन नदीं हे, हमै किसी 
ओर महावनको चलना चादिये। क्योकि यदहं 
नाश्चके कारणस्वरूप, पूतना-वध, छकड़का छोट 
जाना तथा ओंँधी आदि किसी दोषके बिनाही 
वृक्षका गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी 
देने छे है ॥। २२-२३ ॥ अत्तः जवतक कोई भूमि. 
सम्बन्धी महान्‌ उत्पात व्रजको नष्टन करे तबतक्‌ 
डीघ्रहौ हमलोग इस स्थानसे बृन्दावनको चल 
दें र्॥ 

इस प्रकार बे समस्त वजवासी चलनेका 
विचारकर अपने-अपने कुदुभ्बके छोगोँसे कने 
लगे-श्ीघ्र ही चलो, देरी मत करोः ॥ २५ ॥ त 
वे व्रजवासी वस्सपार दर बौँधकर एक क्षणम ही 
छकड़ो ओर गौओंके साथ चन्द हौकते हए चङ 
दिये । २६॥ दे द्विज ! बस्तु के अवरिष्टंशोसे युक्त 
वह ब्रज्ञभूमि क्षणभरम ही काक तथा भासत आदि 
पक्षियोसे व्याघ्र हो गयी ॥ २७॥ 


तब छीराविहारी भगवान्‌ कृष्णमे गौ्भकी 
अभिब्द्धिकौ इच्छासे अपने श्ुद्धचिन्तसे बृन्दावन 
( नित्यब्न्दावनधाम ) का चिन्तन किया ॥ २८ ॥ 
इससे हे द्विजोत्तम ! अत्यन्त रूक्ष प्रीष्मकाख्मे भी 
वर्ह वर्षाछतुके समान सब ओर नवीन दूब दस्पन्न 
ह्यो गयी ॥ २९॥ तव वह्‌ व्रज्ञ चास ओर भद्ध 


चन्द्राकार छकडोकी बाड़ छगाकर स्थित हुए त्रज- 
वासियोँसे बस गया || ३० ॥ 


तदनन्तर राम ओर कृष्ण भौ बडे रक्षक 
हो गये ओर एक स्थानपर रहकर गोष्ठमे बार्लीला 
करते हुए विचरने लगे ॥ ३१॥ वे काकेपक्षधारो 
दोनों बाख्क श्िरपर मयुरपिच्छका युक्कुट धारण- 
कर तथा वन्यपुष्पोके कणेभूषण पहन ग्रारोचित 


व्॑ची आदिसे सव प्रकारके बाजोकी ध्वनि करते 
प्ते षाज्े ही नन प्र॒ क ४ नि 


१ ~ 4 ॥ | 


१8 ३ -" 


++ 








हसन्तौ च रमन्तो च चेरतुः स्म महावनम्‌॥२३॥ 
कचिदहन्तावन्योन्यं क्रीडमानौ तथा परैः 


गोपपुत्रेससमं वत्सांधारयन्तौ विचेरतुः ॥२४॥ 
कालेन गच्छता तौ तु सप्तवषौँ महाव्रने । 
सर्वस्य जगतः पालौ वत्सपालो बभुवतुः ॥२५॥ 
राट्‌ कारस्ततोऽतीव मेधोधस्थगिताम्बरः | 
बभुव वारिधाराभिरेक्यं ङु्वन्दिशामिव ॥३६॥ 





प्ररूढनवरष्पाद्या शक्रगोपाचिता मदी | 
तथा मारकतीवासोस्यञ्नरा गविभूषिता ॥२७॥ 
उहुरुन्मार्ग वादीनि निभ्रगाम्मां सि सर्वतः । 
मनां पि दुर्विनीतानां प्राप्य लक्ष्मीं नवापरिव ॥२८॥ 





न रेजेऽन्तरितध्द्रो निर्मलो महिनधनैः। 
सद्वादिवादो मूर्खाणां प्रगस्भामिरिोक्तिभिः॥२९॥ 
निगुणेनापि चापेन शक्रस्य गगने पदम्‌ । 
उवाप्यताविवेकस्य तसृपस्येव परिग्रहे ॥४०॥ 
मेषषृष्टे वाकानां रज विमला ततिः । 

दु्तते पृततचेष्ेव इटीनस्पातिश्नोभना ।(४१। 
, न वबन्धाम्बरे स्थेयं विदयदत्यन्तचश्चला । 





म्रीव प्रवरे पुंसि दुजनेन प्रयोजिता ॥४२। 
मागां बमूनुरस्प्टास्टणशष्पचयाृताः । 
अर्थान्तरमनुप्राप्ताः प्रजडानामिवोक्तयः ॥४३॥ 
उन्मत्तरिखिसारङ्गे तस्मिन्कारे महावने । 
कृष्णरामौ मुदा युक्तौ मोपोरेरचेरतुस्सह ।४४॥ 
कचिद्रोमिस्समं रम्यं गेयतानरतावुभौ । 
चेरतुः कविदत्यथं शीतवृक्षतलाभितौ ॥४५॥ 





निकालते, स्कन्धके अंङञभूत शाख-विञ्ञाल कुमारोके 
समान हँसते ओर खेरते हुए उस महावनमें बिचरने 
र्गो ।। ३२-३२॥ कभौ एक-दुसरेको अपने पटपर 
ठे जाते हुए खेलते तथा कमी अन्य ग्वालबाछोके 
साथ खेखते हुए बे बषदोको चराते साथ-साथ 
धूमते रहते ॥ ३४ ॥ इस प्रकार उस महाघ्रजमें 
रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर बे निखिरलोक- 
पारक वत्सपाख सात बषकफे हो गये ॥ ३५॥ 


तब मेघसभूहसे अ{कारको आच्छादित करता 
हृभा त्था अतिशय बवारिधाराभोसे दिश्चाभोको 
एकरूप करता हुभा वर्षाकाल आया ॥ ३६॥ उस 
समय नवीन दृबीके बद्‌ जाने ओर वीरबहूटियोँसे* 
म्याप्न हो जनेके कारण प्रथिवी पद्मरागविभूषिता 
मरकतमयी-सी जान पड़ने ख्गी || ३७॥ जिस प्रकार 
नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त चच्ृद्वल हो 
जाता है उसी प्रकार नदियोंका जछ सब ओर अपना 
निर्दिष्ट मागे छोडकर वहने लगा ॥ ३८} जसे मूखं 
मनुष्योंको धृष्टतापूणं उक्तियोसे अच्छे वक्ताकी बाणो 
भी मछ्िनि पड़ जातीहे वैसेष्टौ महिनि मेघोसे 
आच्छादित रहनेफे कारण निमल चन्द्रमा भी श्ोभा- 
हीन हो गया ॥ ३९॥ जिस प्रकार विवेकदीन 
राजाके संगमे गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्र कर 
छता है उसी प्रकार आकाशमण्डलमे गुणरहित 
इन्द्रधनुष स्थित हो गया ॥ ‰० ॥ दुराचारी पुरुषमें 
कुलीन पुरुषकी निष्कपट शुभ वेष्टाके समान मेघ- 
मण्डलम बगुखोकी निमेख 'प॑क्ति सुक्चोभित होने लगी 
॥ ४१ श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुजनकी मित्रताके 
समान अत्यन्त चश्चर विद्युत्‌ आकाञ्चम स्थिरन 
रह सकी ॥ ४२ ॥ महामूखं मलुष्योकी अन्यार्थिका 
उक्तियोके समान मागं वृण ओौर दूबसमू$से आच्छा- 
दित होकर अस्पष्ट हो गये ॥ ४३॥ 

उस समय छन्मत्त मयूर ओौर चातकगणसे 
सुशोभित महावनम कृष्ण आओौर राम प्रसन्नतापूवक, 
गोपङ्कमारोंके साथ विचरते लगे ॥ ४४॥ बे दोनों 
कभी गौओकि साथ मनोहर गान ओौर तान छेडते 
तथा कभी अस्यन्त शीतल वुक्षतलका आश्रय रेते 
हृए विचरते रहते ॥ ४५॥ वे कभी तो कद्म्ब- 





एक प्रकारके लाल कड, जो वर्षाकालमें उत्पन्न होते है, उन्हे इन्धगमोप या वो रबहूटी कहते हँ । 


१९० 


---------------------------------------------- 


कवित्कदम्बस्रक्‌चितरौ मयूरस्म्बरानितौ । 
विरिक्तो कचिदासातां धिविधैनिरिधातमिः॥४६॥ 
पर्णकञग्यासु संसुपरौ कविन्नतरेपिणो । 
कचिद्र्जति जीमूते दाहाकारखाडरौ ॥४७॥ 
गायतामन्यभोपानांप्रशंसापरमौ कचित्‌ । 
मगूरकेकालुगतौ गोपवेणुप्रवादको ॥४८॥ 
इति नानाविषेभविरुतमप्रीतिसंयुतै । 
क्रीडन्तो तौ बने तस्मि्चेरतुस्तष्टमानसौ ॥४९।। 
विकरे च समं गोभिगेपितरन्दसमन्वितो । 
विहस्याथ यथायोगं व्रजमेस्य महावौ ॥५०॥ 
गोधैस्समानैस्पहितौ क्रीडन्तावमशषिव । 


एवं तावृूषतुस्तत्र रामषृष्णो महाघरुती ॥५१॥ 


41 ` ७ड५। । 








८ ` ` 


पुष्पके हारसे विचिच्र वेप बनाते, कभी मयूर 
पिच्छकी मालासे सुशोभित होते ओर कभी नाना 
प्रकारकी पर्वतीय धातुभसे अपने शरीरको स्प 
कर ते ॥ ४६ ॥ कभी श्छ पकी ठेनेकी इच्छासे 
पत्तोकी सञय्यापर्‌ छेट जाते ओौर कभी मेधके गजने- 


पर हाहाः करके कोला मचाने कगते ॥ ४७ ॥ 
कमी दूसरे गोपोके गानेपर आप दोना उसकी 
प्रशंसा करते अर कभी ग्बारोकी-सी बुरी बजाते 
हए मयुरकी बोीका अनुकरण करने कगते ॥ ४८॥ 


इस प्रकार वे दोनों अव्यन्त प्रीतिके साथ नानां 
प्रकारके भावोसे परसर खेकते हए प्रसन्नचित्तसे 
उस वनभ विचरने को ॥ ४९ ॥ सायद्काखके समय 
से महाबली बाुक वनमें यथायोग्य विहार करनेके 
अनन्तर गौ भौर गबारवारोके साथ बजे खोट अति 
ये ॥ ५० ॥ दस्त तरह अपने समवयस्क गोपगणके 
साथ देवताओके समान क्रीडा करते हृष बे महा- 
तेजस्वी राम भौर कृष्ण बँ रहने लगे ॥ ५१॥ 


==“ ¡ $ ~~ 
इति विष्णुपुराणे परश्मेऽरे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ 
~~: % :- 
सातवोँ अध्यायं 
कालिय-द्मन 


भ्रीपराक्ञर उवाचं 

एकदा तु विना रामकृष्णो बृन्दावनं ययौ | 
विचचार घ्रतो मोव॑न्यपुष्पसतगुज्ञ्वलः ॥ १ ॥ 
स जगामाथ कारिन्दीं रोटकल्लोरशलिनीम्‌। 
तीरसंहप्रफेनोवेसन्तीमिव स्वतः ॥ २ ॥ 
तस्याश्वातिमहामीमं विषाम्निभितवारिकम्‌ । 

हदं कालियनागस्य ददुरातिषि भीषणम्‌ ॥ ३ ॥ 
विषाग्निना प्रसरता दग्धतीरमदीरुहम्‌ । 
बाताहताम्बुविकषेपस्परेदग्धविदङ्गमम्‌ ॥ ४ ॥ 


-तमतीव महारद्रं मृयुवक्त्रमिवापरम्‌ । 
-विह्योस्य चिर या {सि भगवान्पधश्दनः | ५। 





श्रीपराशषरजी बोक्े-एक दिन रामको बिना 
साथ लिये कृष्ण अके ही वरन्दावनको गये ओौर 
बहौ वन्य पुष्पोंकी सालाओंते सुशोभित हो गोप- 
गणसे चिरे हृए विचरन रुगे ॥ १॥ धूसते-घूमते वे 
चश्चर तरङ्गावाखी यञुनाजीके तटपर जा पर्वे जो 
किनारोपर फेनके इक हो जनेसे मानो सब भोरसे 
हस रही थी ॥ २॥ यञुनाजीमे न्दने विषाभ्निसे 
सन्तप्र जलवाला काल्ियनागका महाभयंकर कुण्ड 
देखा ।॥ ३॥ उसकी विषामनिके भ्रसारसे किनारेके 
वृक्ष जर गये ये भौर बायुकरे थपेडोसे उरते हृए 
जलकणोका स्प होनेसे पर्चिगण दग्ध हो जाते 
े॥४॥ । 


यृद्युके दू सरे मुखे समान उस महाभय॑कर कुण्ड- 
को देखकर भगवान्‌ मधुसूदनने विचार किया-॥ ५॥ 


५ = 


[काणक नि 
---------~----- ~ ~-~--------------------------- -----------------------------[- 


अस्मिन्वसति दृष्टाखा कालियोऽसौ विषायुधः। 
यो मया निभितस्स्यक्सा दृष्टो नष्टःपयोनिपिम्‌।६। 
तेनेयं दूपिता सत्रा यदुना सागरद्गमा | 
न नरमोधनैश्वापि वपरतरपष्स्यते ॥ ७ ॥ 
तदस्य नागराजस्य कतेग्यो निग्रहो मया । 
निखासास्तु सुखं येन चरेयुव्र॑जवासिनः ॥ ८॥ 
एतदथं तु लोकेऽस्मिन्नवतारः कृतो मया | 
यदेषादुतवथसथानां कार्या शान्तिद रत्मनाम्‌॥९। 
तदेतं नातिद्रस्थं कदम्बगुरुत्ाखिनम्‌ । 
अधिरह्च पतिष्यामि हदैऽस्मिननिङारिनः।॥।१०॥ 
श्रीपराशर उवाच 
हस्थं विचिन्त्य वध्वा च गाद परिरं ततः । 
निपपात हदे तत्र नागराजस्य वेगत; ॥११॥ 
तेनातिपतता तत्र क्षोभितस्स महाहदः 
अत्यथं दूरजातास्तु समपिखम्मदीरहान्‌ ॥१२॥ 
तेऽहिदु्टविषल्वालावप्नाम्बुपवनोक्षिताः । 
नज्वहुःपादपास्स्यो ज्वालाव्यापदिगन्तराः। १३॥ 
भास्पोटयामास तदा कृष्णो नागहदेुमू। 
तच्छब्दश्रवणाचाञु नागराजोऽभ्युपागमत्‌॥ १४॥ 
आताप्रनयनः कोपाटिषज्वाकुले्सेः । 
वृतो महापिपैधान्येरुररनिराशनैः ॥१५॥ 
नागपटलन्यश्च शतशो हारिहारोपशोभिताः । 
प्रफम्पिततनुक्षेपचलत्ङृण्डरकान्तयः ॥१६॥ 
ततः प्रवेष्टितस्सपेरस दृष्णो भोगवन्धनेः | 
ददृशुस्तेऽपि तं कृष्णं विष्ञ्वााङ्करेषु सै; ॥ १७] 








तं तत्र पतितं ष्ट्रा स्॑भोनैरनिपीडितम्‌ । 


मोपा व्रजघ्पागम्य चकम सोकलाटरसाः ॥१८॥ । 


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(इसमें दुष्टात्मा काङियिनाग रहता है जिसका बिष 
दी श्खहै भौर जो दुष्ट मुञ्च [ अ्थीत्‌ मेरी विभूति 
गरुड ] से पराजित हो सयुद्रको छोड़कर भाग 
आया है ।॥ ६॥ इसने इस सयुद्रगामिनी सम्पूणं 
यमुनाको दूषित कर दिया दहै, अव इसका जड 
प्यासे मनुष्यो ओौर गौओंके भी कामम नदीं आता 
|] ७॥ अतः मक्षे इख नगराजक्रा दमन करना 
चाद्ये, जिससे व्रजवासी छोग निभेय होकर सुख- 
पूवक रह्‌ सकं ॥ ८ ॥ श्टुनकरुपरागंगामी दुसत्मार्ओं- 
को शान्त करना चाद्ये, इसल्यिहौ तो मैने इस 
लोकम अवतार छिया द| ९ अतः अवम इस 
ऊँ्वी-ची शाखाओंवारे पासदहीके कदम्बवृक्षपर 
चदृकर वायुभक्षी नागराजके कुण्डम कूदता 
हू १०॥ 


भ्रीपयाशरजी बोज्ञे-हे मेत्रेय ! एेसा विचारः 
कर भगवान्‌ अपनी कमर कसकर वेगपूवेक नाग- 
राजके दण्डम कूद्‌ पड़ ।। ११॥ उनके कूदनेसे उस 
महयाष्ृदने अच्यन्त क्षौभित होकर दुरस्थित बरक्षोको 
भी भिगो दिया ॥ १२॥ उख सपेके विषम विषकी 
उप्रालासे तपे हुए जसे भीरनेके कारण वे वृक्ष 
तुरंत हयी जल ष्ठे ओर उनकी उ्वाराओंसे सम्पूणं 
दिशां व्याघ्रहो मयीं।। १३॥ 

तब कृष्णचन्द्रते उस नागक्रुण्डमे अपनी भुजाभो- 
को टोका; उनका शब्द्‌ सुनते हौ बहु नागराज 
तुरत उनके सम्मुख आ गया] १४ ॥ इसके नेत्र 
क्रोधसे कुछ ताम्रवरणं हो रहे थे, सुखोसे अग्निक 


कपट निकल रही थीं ओर बह महाविैढे अन्य 


वायुभक्षो सर्पोसे चिरा हभ था ॥ १५॥ चसक 
साथमे मनोहर हयरोंसे मूषिता भौर शरौर-कम्पनसे 
हिरत हुए इण्डलोकी कान्तिसे सुञ्ञोभिता सेकड़ं 
नागपनिर्या थीं ॥ १६॥ तव सर्पोनि कुण्डहाकार 
होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरे बौध छया भौर 
अपने विषाग्नि-सन्तप्र सुखोसे काटने रगो ॥ १७॥ 


तदनन्तर गोपगण कृष्णचन्द्रको नागङ्कण्डमें 
गिरा हभ ओौर सपोकि फणोँसे पीडित होत्ता देख 
व्रजमे चङे आये ओर रोकसे व्याकु होकर रोने 
लगे ।| १८॥ 


५114 ` ॐ ^। ` ॥ 





गोपा ऊचुः 
एष मोहं गतः कृष्णो मग्नो बै कालियहदे । 
मध्यते नागराजेन तमागच्छत पश्यत ॥१९॥ 
तच्छुसवा तत्र ते गोपा वज्रपातोपमं वचः । 
गोप्यश्च सरिता जग्धुयेशोदाप्रुखा हदम्‌ ॥२०॥ 
हा ह कासािति जनो गोषीनामतिविद्वरः। 
यञ्ञोदया समं भ्रान्तो दरुतपरस्खक्ितं ययौ ॥२१॥ 
नन्दगोप गोपाश्च राम्राद्धतविक्रमः | 
सरितं यघुनां जगुः कृष्णद््ीनलालसाः ॥२२॥ 


ददु्ापि ते तत्र॒ सपेराजवशङ्गतम्‌ | 
मिप्प्ली्तं दृष्णं सपेभोग विवेष्टितम्‌ ॥२३॥ 
नन्द्मोपोऽपि निश्चेष्टो र्यस्य पत्रधसे दुम्‌ 
यतोदा च महामागा बभूव प्ुनिसत्तम ॥२४॥ 
गोप्यस्तवन्या संदन्त्यथ ददुः सो ककातराः। 
रोच केशवं प्रीया मयकातयं गदम्‌ ॥२५॥ 
गोप्य ऊचुः 
सर्वा यशोदया साद्धंविश्चामोऽत्र मदाहदम्‌। 
सपेराजस्य नो गन्तुमरसपामियुन्यते व्रजम्‌ ॥२६॥ 
दिवक्षः फो विना द्यं बिना चन्द्रेण का निश्ञा। 
बिना वृषेण का गावो विना एृष्णेन को व्रजः ॥२७ | 
विनाष्ता न यास्ामः कृष्णेनानेन गोडरम्‌। 
अरस्य नातिसेव्यं च वारिदीनं यथा सरः ॥२८॥ 
यत्र नेन्दीवरदृहयामकान्तिसयं हरिः । 
तेनापि मातुर्वातन रतिरस्तीति बिरमयः ॥२९॥ 
उत्ुल्लपङ़ मदरस्पषटकान्तिविलोचनम्‌ । 
भपदयन्त्यो हरि दीनाः कथं गोष्ठे भविष्यथ ॥३०॥ 
अरथस्तमधरलापरताक्षेषमनोर्थमं 








गोपगण शोक्ते-आभो, आओ, देखो ! यह्‌ 
कृष्ण काीवहमे इकर मूच्छित हो गया है, देखो, 
इसे नागराज खये जाता है ! | १९॥ वज्पातकै 
समान उनके इन अमङ्गर वाकयोंको सुनकर गोप- 
गण ओौर यश्चोदा आदि गोपियाँ तुरंत हौ काटीदह- 
पर दौड़ आयीं । २०॥ हाय ! हाय ! वे कृष्ण 
कहाँ गये १ इस प्रकार अत्यन्त वयाकुरखुतापूवेक 
रोती हृ गो पिय य्चोदाके साथ शीघ्रतासे गिर्ती- 
पड़ती चीं ।। २१ ॥ नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण 
ओर अद्भुत विक्रमयाछी बटरामजौ भौ कृष्णद्शेनकरी 
लारसासे शीघ्रतापूवंक यमुना-तटपर आये ॥ २२॥ 


बँ आकर उन्होने देखा कि इष्णचन्द्र सपे- 
राके च॑गुरम फंसे हुए ह ओर उसने उन्द अपने 
शरीरते लपेटकर निरूपय कर दिया है | २३॥ दहे 


मुनिसत्तम ! महाभागा यक्चोदा ओर नन्दगोप भी 
पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर वचेष्टाञुन्य हो 
गये ॥ २४ ॥ अन्य गोपि्योने भी जब कृष्णचन्द्र 
को इस दशमे देखा तो वे शोकाङख होकर रोने 
लगीं ओर भय तथा व्याङ्कुरताके कारण गद्गदं 
वाणीसे उनसे प्रीतिपूवंक कहने रगीं ॥ २५॥ 


गोपियोँ बोटी--अव हम सव भी यश्ोदाके 
साथ इस सपराजके मदहाङ्ण्डमे ही इवी जाती है, 
अव हमे त्रजमे जाना उचित नहीं है । २६ ॥ सूयक 
बिना दिन कैसा १ चन्द्रमके बिना रात्रि केसी! 
सङके भिना गौँक्या१ पसे ही कृष्णक बिना 
त्रजमे भी क्यारखा है १॥ २७॥ कृष्णको बिना 
साथ ल्य अव गोकुक नदीं जायगी; क्योकि इनके 
बिना वह जर्हीन सरोवरके समान अस्यन्त अभव्य 
सौर असेठय है ॥ २८ ॥ जह नीलकमख्दर्को-सौ 
आभावाठे ये श्यामसुन्दर हरि नदीं है उस मात्‌- 
मन्दिरिसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चयं ही 
है ॥२९॥ अरी! लिठे हुए कमर्दलके सदश्च 
कान्तियुक्त नेत्रो वाटे श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त 
दीन हदं तुम किसर प्रकार त्रजमै रह 


सकोगी ! ॥ ३० ॥ जिन्होने अपनी अच्यन्त 
--गोन्ड लोतभिये हन्ना सम्पण अतोरथोकी 


निति ति नि 





न विनः पुण्डरीकाक्षं यास्यामो नन्दगोङ्लम्‌।।२१॥ 

भोगेनवेष्टितस्यापि सर्पराजस्य प्रयत । 

सितशोभि सुखं गोप्यः कृष्णस्यासद्िलोकने | २२। 
श्रीपराद्चर उवाच 

इति गोषीषचः शरुत्वा रौहिणेयो महाल; । 

गोपांश त्रासविधुरान्िलोकय स्तिमितेक्षणान्‌ ।॥३३॥ 

नन्द्‌ च दीनमत्य्थं न्यस्तं सुत्तानने । 





------------~---------न--~*----~~"---------~--- ~~~ ~~. 








अपने वक्ञीभूत कर लिया है उन कमलनयन 

कृष्णचन्द्र जिना हम नन्दजीके गोकुख्को नही 
¢ | 

जर्थेगी ॥ ३१ ॥ अरी गोपि ! देषो; सप॑राजके 


` फुणसे आबरऽ होकर भी श्रीह्ष्णका सुल हमे देखकर 


मधुर मुतकानसे एुशोमित दौ रहा है ॥ ३२ ॥ 
श्रीपरादारजी बोर--गो पियोके एसे वचन सुनकर 


| तथा त्रासविहक चकितनेत्र गोपोको, पुत्रके मुखपर 


दृष्टि छगाये अव्यम्त दीन नन्दजीको ओर मूर्छ 
यदोदा छतो देखकर महाब्टी रोहिणीनम्दन ककसमजीने 
अपने संकेते श्रषणाजीसे कटा--॥३२-२४॥ “दे 





मूच्लछकलां यशोदां च कष्णमाहार्म्यसंश्ञया ॥३४॥ 


किमिदं देवदेवेश भावोऽयं मानुपस्त्वथा । .. 
व्यल्यतेऽः्यन्तमास्मानं किमनन्तं न वैच्सि यत्‌ । २५ 
त्वमेव जगतो नाभिरराणामिष संश्रयः | 


| 


। देवदेवेश्वर ! क्या आप अपनेको अनन्त नर्द जानते ! 


फिर किंस चिप यह अच्यन्त मानव-माव व्यक्त कर 
रहे है ॥ ३५ ॥ प्हियोकी नामि जित प्रकार अररका 
आश्रय होती है उसी प्रकार अप ही जगत्के आश्रयः 
कार्ता, हर्ता ओर रक्षकै तथा अप ही त्रेखोक्य- 
। खरूप ओर वेदत्रथीमय है ॥ २९ ॥ हे अचिन्धयासन्‌ । 
| इन्द्र, स्र, अनि, वसु, आदित्य) मरद्रण ओर अधिनीुमार 





कर्ताप्हत्ता पाता च व्रेरोक्यं सं वयीमयः ॥२६॥ ¦ तथा समस्त योगिजन आपदहीका चिन्तन करते 


सेन रुद्राग्निवसुभिरादित्यैम॑रुदधिभिः। 
चिन्त्यसे तवमचिन्स्यात्मन्‌ समस्तेथैव योगिभिः ३७ | 
जगत्यथं जगन्नाथ भारावतरणेच्छया |, 
अवतीर्णोऽसि मर्स्येषु तवांशथाहमग्रजः ॥२८॥ 
मु्यलीलां भगवन्‌ भजता भवता सुराः। ` 
विडम्बयन्तस्तवर्लीरां सर्वं एव सहासते ॥ २९ | 
अवतार्य भवाम्पू्ं मोक्रे तु पुराङ्गना; । 
क्रीडाथमास्नः पादवतीर्णोऽसि शश्वतः ॥४४॥ 
अत्रावतीर्णयोः दष्ण मोपाणएव हि बान्धवाः । ` 
गोप्यश्च सीदतः, कसादतान्वन्धूलपेशषसे ४१ 
दितो मादुषो भावो दितं बालचापलम्‌ । , 
तदयं दभ्यतां कृष्ण दुष्टात्मा दशषनायुधः ॥४२॥ 
श्रीपराद्चर उवाच 
इति संखारितिः ष्णः सितभिनोष्टसम्पुटः । 


कि ^ +. 


है ॥ ३७] हे जगाथ ! संसारके हितके व्यि प्रथिवीका 
मार उतारनेकी इच्छसे ही आपने मघ्यैलोकमे अवतार 
ल्या है; आपका अग्रन मै भी आपदीका अंश 
ह ॥ २८ ॥ हे मगवन्‌ | आपके मनुष्य-टीख करनेपर 
ये गोपतरेषधारी समस्त देवगण भी आपकी ठीलाओंका 


| अनुकरण कसते हए आपहीके साथ ते है ॥ ३९॥ 


हे शाश्वत | पटले अपने विहारं देवाङ्गनाओंको 
| मोपीरूपसे गोकुटमे अवतरीणेकर पीछे आपने अवृतार 
(च्या ॥ ४०॥ हे कृष्ण ! यौ अवतीर्णं होनेपर 
। हम दोनेकेतोये गोप ओर गोपि ही बन्धव है; 
फिर अपने इने दुखी बान्धवी आप क्यो उपेश्व 
करते है ॥ ४१॥ रे ढ़ृष्ण | यह मनुष्यमाव ओर 
नाल्वापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अन तो सीघ्र 


| ही इत दुशत्माका, जिसके शख दोत ही है) दमन 


कीजिये" ॥ ४२ ॥ 
| भ्रीपरादारजी बोटे--दइस प्रकार सएण कराये 





जानेप्र, मधुर मुसकानसे अपने आष्ठसम्पुटको 








अस्फोव्य मोचयामास सदेहं भोगिबन्धनात्‌।४२॥ 
आनम्य चापि हत्ताभ्यञभा्यां मध्यमं शिरः| 


अआगरुद्याशुप्रशचिरसः प्रणनर्तोरुविक्रमः ॥४४॥ 
पराणाः फणेऽभरषाप्य दृष्णस्याङ्धिनिक््ने; | 
यघ्रो्तिं च ्ुरुते ननामास्य ततश्तिरः ॥४५॥ 


मूच्छंधपाययौ मान्ता नागः कृष्णश्च रेचकैः । 





(५, # 


दण्डपातनिपातेन ववामि रुषिरं बहु ॥४६॥ | 

तं विदमधिरोग्रीवमास्येभ्यस्घुतशोणितम्‌ । 

धिरोक् करुणं जण्मु्तत्पलनयो मघुष्नम्‌ ॥४७।॥ 
नागपल्य उचुः 

ज्ञातोऽसि देवदेवेश सर्वज्ञस्तवमनुत्तम । 


परं उ्योतिरचिन्त्यं यत्तदंश्ञः परमेश्वरः ॥ ४८।, 


श्रीविष्णुपुराण 








न समर्था; सुरास्ततोतुं यमनन्यभवं विम्‌ ! 
खरूपवर्णनं तख कथं योषित्करिप्यति ।॥४९॥ 
यस्याखिलमहीन्योमजलाग्निपवनास्मकम्‌ 
्रहमाण्डमस्पकासपांशःसतोप्यामस्तं कथं वयम्‌ ॥५०॥ 
यतन्तो न बिदुनित्यं यत्स्रस्पं हि योगिनः। 
परमार्थमणोरयंस्थूलास्स्यूढं मताः स तम्‌ ।५१॥ 
न यस्य जन्मने धातायस्य चान्ताय नान्तकः | 
सितिकर्ता न चान्ोऽसति य तस्मै नमस्पद्‌ा ।५२। 


कोपःखलणोऽपि तेनास्ति सितिषालनमेष ते । 
कारणं कालियस्यास्य दमने श्रूयतां वचः ॥५२॥ 





खोर्ते हए श्रीकृष्ण चन्द्रने उछलकर अपने रारीरको 
सपे बन्धनसे द्ुडा च्या ॥ ४२ ॥ ओर किर अपने 
दोनों हसे उसका ब्रीच्ा फण स्ुकाकर उस्‌ 
नतमस्तक ॒सर्पैके ऊपर चकर बड़े वरेगतसे नाचने 
लगे ॥ ४४ ॥ 

करुषणणचन्द्रफे चरणोकी धमकसे उसके प्राण मुखमे 
आ गये, बह अपने जिस मस्तकको उठता उसीपर 
कूद कर्‌ भगवान्‌ उसे इका देते ॥ ४५ || श्रीकृष्णचन्द्र 
जीकी मान्ति (भ्रम), रेचक तथा दण्डपात नामकी 
[ वघ्यसम्बन्धिनी ] गति्ोके ताडनसे वह महाप 
मूच्छित द्यो गया ओर उसने वदहुत-सा स्थिर वमन 
किया |} ४६॥ इस प्रकार उसके पिर ओर म्रीवाओंको 


| ्ुके हए तथा मुले स्थिर बहत। दे उसकी पलयो 


कर्णासे मरकर श्रीक्ृष्णचन्द्रके पास आयीं || ४७ 1 

नागपलिनर्यो बोली--हे देवद्रश्वर ! हमने आप- 
को पहचान लिया; आप सर्वज्ञ ओर सर्वश्ष्टदहैः जो 
अचिन्त्य ओर प्रम अ्योति है आप उसीके अरा 
परमेश्वर दै, ॥ ५८ || जिन स्थयम्भू ओर व्यापक 
प्रमुकी स्तुति करनेमे देवगण भी समथं नदीं 
उन्म आपके खद्ूपका हम लिया किस प्रकार वर्णन 


| कर्‌ सकती हे !॥ ४९ ॥ प्रथिवी, आकार, जख) अग्नि 


| ओर वायुखशूम यह सम्पूणं ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से 
छोटा अंश है, उनकी स्तुति हम क्रिस प्रकार कर 
। सकेगी || ५० ॥ योगिजन जिनके नित्यस्व्प- 
क्तो यतन करनेपर भी नही जान प्राते तथा 
जो परमार्थखूप अणुसे भी अणु ओर स्थूरसे 
भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती है ॥ ५१ ॥ 


| जिनके जन्म्मे विधाता ओर अन्तमे कार दतु नीं है 
| तथा जिनका खितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हं 
| सर्वदा नमस्कार है ॥ ५२॥ इस काल्यिनागके 


दमनमे आपको थोडा-सा मी क्रोध नही है, केवल 
कोकरक्षा दी इसका दतु है; अतः हमारा नितरेदन 





लियोऽलुकम्प्यास्पाधूनां मूढा दीनाश्र जन्तवः । 


--ो८0 9 (कद पन न 1१.९1) 


षुनिये ॥ ५२ ॥ दे क्षमाक्रीखोमे श्रेष्ट ! साधु पुर्षोष्षो 
खियों तथा मूढ ओर दीन जन्तुर्ओपर सदा दी कृपा 


~ = 1132. आ, ~ 522 -त-- 5; ~+ प्या 


[न 


समस्तजगदाधारो भवानद्परलः फणी । 
सरपादपीडितो जदयान्धुहतादन जीवितम्‌ ॥५५।॥ 


छ प्गोऽल्पतीर्याऽयं क भवान्युषनाश्रधः । 
मरीतिद्रेषौ समोच्छरष्टगोचरी भवतोऽच्थय ।॥५६॥ 


ततः इर अग्सामिन्प्रसादमवसीदतः | 


प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तभिक्षा प्रदीयताम्‌ ।५७। 
सवनेष जगन्नाथ महापृ्ष पूर्वज । 

प्राणांस्त्यसति नागोऽयं भरतेभिक्षं प्रयच्छ न; ।५८। 
देवेश 


वेदान्तवे ुष्टदैस्यनिबर्हण | 


प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भतमिक्षा प्रदीयताम्‌ ।५९। | 


श्रीपराशर उकाच 
इस्युक्त ताभिराश्वख छ्वान्तदेहोऽपि पन्नगः । 
परसीद देवदेवेति प्राह वाक्यं शनेः शने; ॥६०॥ 

काटिय उवाच 
तवाष्टयुणमेश्यं नाथ खाभाविकं परम्‌ | 
निरस्तातिशयं यख तख स्तोप्यामि किन्न्वहम्‌ ।।६१॥ 
त्वं परस्त्वं पराद्य; परं सत्तः परात्मक । 
परसाव्परमो यस्त्वं तख स्तोप्यामि किन्न्वहम्‌।।६२॥ 
यस्माद्रह्या च रुद्रश्च चन्दन्रमरुदधिनः ] 
पसवश्च सहादिव्ये्तख स्तोष्यामि किन्न्वहम्‌॥६२॥ 
एकावयवष्ष्मांशो यथयेतदखिरं जगत्‌ । 
कस्पनाग्यधसांशस्तसय स्तोभ्यामि किन्हम्‌ ॥६४॥ 
सदसद्रूपिणो यख ब्रह्मा्ास्निदशेधराः | 
परमाथ न जानन्ति तख स्तोष्यामि किरन्वहम्‌ ।६५। 














कीजिये || ५४ ॥ प्रमो { अप सम्पूणं संसारके अधिष्टन 
है ओर यष सप तो [ आपकी अपेश्ना ] अघ्यन्त 
बलहरीन है । आपके चरणोसे पीडित होकर तो 
यह भवे पुद्तैमे ही अपने प्राण छोड देगा ॥ ५५ ॥ 

हे अव्यय | प्रीति समानसे ओर देप उकृष्से 
देखे जते है; फिर कहौ तो यह्‌ अल्पधी सपं भौर 
करटा अलिलमुवनाश्रय आप ! [ इसके साथ अप्का 
रेष केसा १]॥ ५६ ॥ अतः हे अगत्छामिन्‌ } इष 
दीनपर द्या कीजिये | हे प्रभो | अब यह्‌ नाग 
अपने प्राण छदने ह्वी चाहता है; कृपया हमें 
पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५७॥ है भुषनेश्वर्‌ | ह 
जगन्नाथ ! हे महापु ! दे पूर्वन | यहे नाग अव 
अपने प्राण छोडना ही चाहता है ? कृपया आप हमं 
पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५८ ॥ दहे वेदान्तवे 
द्रेखर ! हे दुष्ट-दैतथ-दख्न ! अव्र यह्‌ नाग अपने 
प्राण छना ही चाहता है; अप हमे पिकी धिह्ता 
दीजिये ॥ ५९ ॥ 

श्रीपरादारजी वोले--नागपलियेकै रेसा कने. 
पर थका-मदा ह्यनेपर भी नागान कुछ ढम्‌ बैध 
कर धीरे-धीरे कहने कग(--प्हे देवदेव ! प्रपन्न 
हदये ॥ ६० ॥ 

कालिय नाग वोलखा--हे नाथ ! आपका स्वाम,विकः 
अण्गुणविशि्ट परम रें निरतिशय है [ अर्थात्‌ 
आपसे बदकर किसीका मी पेखयं नहीं है ], भतः 
मै विसे प्रकार आपकी स्तुति कर सकूंगा ? ॥६१॥ अपु 
पर है, आप पर्‌ ( मू प्रकृतिं ) के भी अदिकारण 
है, हे परात्मक | पर्की प्रवृत्ति भी अप्दहीसे इ 
है, अतः आप पससे पीपर दै फिर मै विस 
प्रकार आपकी स्तुति कर सकरग। १।६२॥ निनसे ब्रह्म 
सदर, चन्द, इन्द्र, मर्द्ण, अखिनीढुमार, वघुगण ओर 
आदित्य आदि सभी उद्यन्त इए है; उन आपकी वै 
विस्‌ प्रकार स्तुति कर सकूगा ? ॥ ६३ ॥ यह सू 
जगत्‌ जिनके काल्पनिक अवयवका एक सुष् 
अवयवांरमात्र है, उन आपकी भै किमन प्रफार स्तुति 
कर सकूगा १ ॥ ६९ ॥ जिन सदसत्‌ ( क्ै-कारण ) 
स्वरूपके वास्तविक पको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी 
नद्य जानते उन आपकी मे किंस प्रार्‌ स्तुति 


ब्रह्मचैरचितते यस्तु गन्धपुष्पालङ्ेपनैः | 
नन्दनादिषक्तैसोऽवयते वा कथं मथा ॥६६॥ 
यद्यावताररूपाणि देवराजस्सदार्चति । 
नवेत्ति परमं रूपं सोऽन्ते वा कथं मया ॥६७॥ 
गिषयेभ्यस्समादत्य सर्वक्षाणि च योगिनः 
यमर्चयन्ति ष्यानेन सोऽच्यंते वा कथं मया ॥&८॥ 
हदि संकरप्य यदं प्यनेनार्चन्ति योगिनः । 
भावशुषपादिना नाथः सोऽर्यते बा कथं मया ॥६९॥ 
सोऽहं ते देषदेवेश नार्चनादो स्तुती न च । 
समर्यवान्‌ कृ पामघ्रमनोधृततिः प्रसीद्‌ मे ॥७०॥ 
सर्षजातिपियं क्रय यख। जातोऽसि केशव । 
तत्खमोऽयमत्रासि नापराधो ममास्युत ॥७१॥ 


सज्यते सवता सवं तथा संहियते जमत्‌ । 


यथा भवता सृष्टो जात्या सूयेण वेध । | 
स्वभावेन च सयुक्तसतथदुं चेष्टितं मया ॥७३२॥ 
यद्यन्यथा प्रवर्तेयं देवदेध ततो मयि । 
न्याय्यो दृण्डनिपातो य तवैव वचनं यथा ॥७५॥ 
तथाप्ये गत्छामिनदण्ड पातितवान्मयि । 
पं -शध्योऽयं परा दण्डस्तवततो मे नान्यतो बरः।७५। 
हतवीयो इतविषो दमितोऽहं तथंच्युत । , ¦ 
शीति ~ग नातोत- ताय कनो {का 1८, 


भ्रीपिष्णुुराणं 


---~-----~-~-~--------~---~---~--=-----~---*~--~--~-“~--------~---~------~--~--------*-- ^~ 


| कर सक्रँगा ॥ ६५ ॥ जिनकी पूना त्रह्ञा आदि देवगण 

















नन्दनवनकरे पुष्प, गन्ध ओर असुेपन आदिसे कसते 
है उन आपपर मै किप प्रकार प्रजा कर सकता ह ।[६६॥ 
देवराज हृनद्र॒ जिनके अवतारर्पोकी सर्वदा प्रूजा करते 
है तथा यथार्थं पको नदह जान पाते, उन आपकी 
तै किस प्रकार पूना कर सकता ह्रं ! ॥६५७।। यीगिगण 
अपनी समस्त इृद्धियोको उनके विषर्योसे खीचकर्‌ 
जिनका ध्यानद्वारा प्रजने करते है उन आपकी मे किंस 
प्रकर प्रजा कर सकता द || ६८ ॥ जिन प्रमुके ल्रूपकी 


| चित्तम भावना करके योगिजन भावमय पुष्प भादिसे 


ध्यानद्वारा उपासना करते है उन आपकी मै किस 
प्रकार प्रूना-कर सकता हरु१॥ ६९ ॥ 


ह देवदेवेश्वर ! आपकी प्रूना अथवा स्तुति करने 
मै सर्वथा असमथ दँ मेरी चित्तवृत्ति तो मेवर आपकी 


| कृपाकी ओर्‌ ही गी हहं दै, अतः आप सुह प्रसन्न 
| होये ॥ ७० ॥ है केराव | मेरा जिसमे जन्म इ 
| है वह सर्षनाति अत्यन्तः ब्रू ` ह्योती दै, यह मेरा 


जातीय खमाव है। हे अच्युत ! इसमे मेरा कोई 
अपराध नहीं है ॥ ७१॥ इस्त सम्पूणं जगव्‌की रचना 


| ओर संहार आप दही करते है । संसार्की स्चनके 


_ | | साथ उसके जाति, ख्य ओर खमा्ेक्री भी अपदही 
जातिस्पसभावाश्च सृज्यन्ते सृजता सया ॥७२॥ 


बन।ते है| ७२॥ 


हे ईर्‌ | आपने मुञ्चे जाति, खूप ओर खभावसे 
युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अतुसार मेने यह 
येष्टामी कीरै ॥७३॥ दहे देवदेव"! यदि मेरा 
आचरण विपरीत हो तत्र तो अव्य आपके कथनानुसार्‌ 
मञ्चे दण्ड देना उचित है} ७४॥ तथापि हे जत्‌ 
खामिन्‌ ! अपने मुद्र अक्ञको जो दण्ड दिया है वह 
आपसे मिस ' हज दण्ड मेरे. लिये कहीं" अच्छा है 
विन्तु दूप्तरेका बर भी अच्छा नहीं ॥ ७५.॥. है 
अच्युत ! आपने मेरे पुरषाथं ओर्‌ विषको नष्ट करके 
मेय भीं प्रकार मानपदन केर दिया है | अब 
केवल सुनने प्राणदान दीजिये ओर आ्ञा कीनिये्किं 


मे .-25 ---5 ।। 5 ॥ “ ५, ५1 


पञ्चम अं 


३९७ 





श्रोभगवासुत्राच 
नात्र स्थेयं त्वया सपं कदाचिघ्ुनाजछे । 
सपुत्रपिरस्छं स्द्रसलिकं वज ॥७७॥ 
मत्यदानि च ते सपं दृष्ट मूर्दनि सागरे । 
गरुडः पन्नगरिपुसतवयि न प्रहरिष्यति ॥७८॥ 
श्रीपराशर उवाच 


इत्युक्त्या सपंराजं तं युमोच भगवान्हरिः । 


प्रणम्य सोऽपि कृष्णाय जगाम परथसां निधिम्‌ ।७९। 


परयता सवेभूर्तना सभृरयसुतनान्धवः । 


प्रीभगवान्‌ बेषे-हे सपं { अब तन्न इस् यघुना- 
जलम नहीं रहना चाहिये तू शीघ्र ही अपने पूत्र 
| ओर परिास्वे सित स॒पुद्रके जलम चका जा ॥७७॥ 
| तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिको देकर रमु 


| रहते दए भी सर्पका श॒ गर्ह वुञचप्र प्रहर 
। नहीं करेगा ॥ ७८ ॥ 

श्रीपरशस्जी बोे-सर्पराज कालिये रेता कह 
भगवान्‌ इसि उसे छोड दिया गौर वह उन्हें प्रणा 
करके समस्त प्राणियोवे देखते-देदते अपने . सेवक, 
पुत्र, बन्धु आर सप्त चि्योके सहित अपने उप॒ 


। कुण्डक्रो छोडकर समुद्रको चला गया | ७९-८० ॥ 





समल्तभा्यासहितः परित्यज्य खकः हदम्‌ ॥८०॥ | सपे चले जनप गोपृगण, छोटे इए मृत पुरक समान 


गते सपं परि्विज्य भृतं पुनसियतम्‌। 


| कृष्णचन्दरयो आलिङ्गन वर ्रीतिधूषय उनके मस्तक 


गोपा मृद्रनि ह्‌ादन पिषिचुनत्रजेजैरै ॥८१॥ यो नेन्नरजस्से भिगेने ल्मे ॥ ८! ॥ ङु अन्य 


ृष्णमगरिलषटकर्माणमन्ये विरिमतचेतसः 


तष्डबुधुदिता मोषा दृटा शिवजलां नदीम्‌ ॥८२॥ 


गीयमानः स॒ गोपीभिधरसितेस्साधुवेश्ितैः । 


गौपगण थपरुनाफो घखच्छ जछ्वारी देख प्रसन्न होकर 
| टीखात्रिदाी दृष्णचन्द्रकी व्रि्षित-चित्तसे स्त॒ति 
करने ल्मे ॥ ८२ ॥ तदनन्तर अपने उम चसिनके 
कारण गोपियासे गीयमान ओर गौपौसे प्रित होते 


संस्तूयमानो गोपे दृष्णो वरजघुपागमत्‌ ॥८३॥। | इ दाचन जम चठे गये ॥ ८३ ॥ 


ति श्रीविष्णुपुराणे प्चमेऽले सप्मोऽव्यायः ॥ ७ ॥ 
1. 


आर्ट्ब अध्याय 
घेवुकाखस्वध 


श्रीपसदरार उवाच 
गाः पारयन्ती च पुनः सितै प्ररकेशवो । 
ग्रममाणी षने तसित्रम्यं तालवनं गतौ ॥ १ ॥ 
तत्त तालवनं दिभ्यं धेनुको नाम्‌ दानवः | 
मृगमांसकृताहारः सदाध्यास्ते खराकृतिः ॥ २ ॥ 
तत्त॒ तारवनं परकफरसम्पर्समन्वित्तम्‌ । 
दृष्टा स्पृहानिता गोपा; फलादानेऽह्रुवन्वचः।) २) 
गोपा ऊचु , 


हराम हे कृष्ण सदा पेनुकेनेष .रक्ष्यते.। .. 


श्रीपराशरजो बोले-णकः दिन बलराम ओर्‌ कृष्ण 


| साथ-साथ गौ चरते अति सीय तार्वनमे आये ॥१॥ 


उस्न दिभ्य ताढ्वनमे घेतुक नापक एक गधेके आकार्‌- 
वाद दैत्य मृगमांसतका आहार करता हज सदा रहा 
करता था॥२) उप्त ताख्वनको पके फरोकी 
सम्पत्तिसे सम्पन्न देकर उन्हें ` तोडनेकी इच्छसे 
गोपगण गेठे.}] ३.॥  - 

गोप्रोने कहा--भैया.राम ओर कृष्ण | इस -भूमि- 





परदेशी . रक्षा सदा चेतुकाघुर करता है, ईसीष्यि 


भूप्रदेशो यतस्तसास्पक्रानीमानि सन्ति वै | ४ । | वँ पेते पकेपके कट कगे हए है ॥ ४॥ 


२५८ 





-----~-----~-~ 





फलानि पय तालानां गन्धामोदितदीशि वे । 
वयमेताम्यभीष्पामः पालयन्तां यदि रोचते ॥५॥ 
श्रीपराशर उवाच 


इति मोपएङुमाराणां श्रुखा सङ्षणो पचः । 
एतस्कर्व्यमित्युक्तवा पातयामास तानि वै । 
कृष्णश्च पतयामास भमि तानि फलानि वे ॥ ६॥ 
फलानां पततां शन्दमाकण्यं सुदुः; । 
आजगाम त्त दुष्टात्मा कोपादैतेयगर्दभ; ॥ ७ ॥ 
पद्भ्यायुभाम्यां स तदा प्चिमाभ्यां बरं बली । 
जधानोरसि ताभ्यां च स च तेनाभ्यगृह्यत्‌ ॥ ८ ॥ 
गृहीस्या भरमयामास् सोऽम्बरे गतजी बितम्‌ । 
तिन्नेव स चिक्षेप वेगेन ठणरजनि ॥ ९॥ | 
ततः फलान्यनेकानि तालाग्रान्निप्न्खरः । 
परथिन्यां पातयामास महावातो घनानिव || १०॥ 
अन्यानथ पजादीयानागतान्देस्यगदंभान्‌ । 
कुष्णथिक्षेप ताले बलभद्र रील्या ॥११॥ 
क्षणेनालडकृता पृथ्वी पक्स्तारफरेस्तदा । 
दत्यगरदभदेदेशच मैत्रेय शश्मेऽधिकम्‌ ॥१२॥ 
ततो गावा निराबाधास्तस्मिस्तालवने दविज । 
न्प सुखं चरयन्न युक्तमभूत्पुरा ॥१३॥ 





९१1 "4.1 *" 





अपनी गन्धसे सम दिशाओंको आमोदित करनेवाले यं 
ताट-फल तो देखो; हमे इनं खनेकी ख्च्छा है यदि 
आपको अच्छा लगे तो [ णेड़-से ] श्राड दीनि ॥५॥ 

प्रीपराद्स्जी बोटे- गोपदुमारोके ये वचन घुन- 


| कर वल्यमनीने "रेस दी करना चाहिये यह कह- 


कर फल गिरा दिये ओर पीछे बुछठ एक ब्रष्णचन्द्रने भी 


 पृथिवीपर्‌ भिरये ॥६॥ गिरते इए फलका शब्द सुनकर 
। वह दुद ओर दुराघ्मा गर्दभाुर्‌ क्रोधध्वक दौड 


आया ॥ ७ ॥ उस महाबछ्वान्‌ अघर अपने पिले 
दो पैरोसे बररामजीकी छतीमे लात मारी । बरामजीने 
उसक्रे उन वैरको प्रकड़ छखिया ॥ ८ ॥ ओर उसे पथड़- 
कर आकारे घुमान टो | जव वह निर्जीव दो गया तो 


| उसे अव्यन्त वेगसे उस ताछ वृक्षपर ही दे मारा ॥९॥ 


उस गघेने निरते-गिरते उप ताछबृष्से बहुत-से एर इस 
प्रकार गिरा दिये जैसे प्रचण्ड वथु बादलंको गिर 
दे॥ १०॥ उसके सजातीय अन्य गदंभाएुरोके 
अनेपरभी कृष्ण ओर रामने उन्द अनायासदही 
ताल-वृकषोपर पटक दिया ॥ ११॥ है मत्रे ! ईस 
प्रकार एकं क्षणमे ही पके ह्र्‌ तालफलं ओर गदभा- 
पुरोके देहौसे विभूषिता दह्योकर प्रथिवी, अघ्यन्त 
एुरोमित होने ठगी ॥ १२ ॥ है द्विन ! तनस उस्‌ 
ताख्वनमे गोर निर्विघ्न ह्योकर षुखधूर्वक नवीन तृण 
चरने छगीं जो उन्हे पहले कभी चरनेको नसीव्र नहीं 
आथा ॥ १२॥ 


गिरि 
इति श्रीविष्णुपुराणे पवमेऽये अषटपोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 





नपा अध्याय 


ग्ररखुस्ब-वध 


श्रीपराशर उवाचि 
तसित्रासभदेतेये सादुगे षरिनिपातिते। 


श्रीपयशस्जी बोटे--अपन अनुचरे सहित उस 
गहभाुरके मारे जानेपर वह सुर्य ताख्वन गोप 


सोम्यं तदरोपगोधीनां रम्यं तालवनं बभौ 1] १॥ | भौर गोपिेके ल्य घुखदायक हो गया ॥ १ ॥ 


ततस्तौ जातहर्पौ तु वसुदेवसुतावुभौ । 


तदनन्तर षेसुकाष्ुरको मारकर वे दोगों वघुदेवपुत्र 


इत्वा पेनुकदैतेयं॑भण्डीखटमागतौ ॥ २ ॥ | प्रसन्न मनसे भाण्डीर नाक वददृक्के तके आये ॥२॥ 


अ० ९] पश्वम अश ३९९ 


०००५८०० 
11 





(७०७५००४१०००५ ०००९५ 








्वेमानैौ प्रगायन्तौ पिचिन्यन्तौ च पादपान्‌। | कल्वेपर गो वरधनेकी' र्ती डले ओर वनमाकपे 
चारयन्तौ च मा दुरे ्याहरन्तौ च नामभिः ॥ ३॥ | विभूषित इ वे दोनों महात्मा भर्व सिंहनाद करते, 
> | गति, वृषौपर्‌ चदते, दृर्तक गौ चराते तथा उनका 
निर्योगपादस्कम्धौ तौ बनमालाविभूषितौ ] सामल एवते द नये स्ते अलोम 
श्यभाते महामानी बालशङ्खविवर्पैभौ | ४ ॥ ` समान हुशोभित ढो रे थे ॥ २-४॥ उन दोनेके 
सुवर्णाज्ञनचूर्णाम्यां तौ तदा रुषिताम्बरौ | = | क [ कनः । पुनहरी जर स्याम एसे रगे हृएये अतः 
मरैन्द्रायुधसंयुक्तौ खेतष्रप्णाविषाम्बरुदौ ॥ ५ ॥ | (त रेत ओर्‌ द्याम मेधके | समान ॥ जान 

' पडते ये ॥ ८ ॥ वे समस लोकपालोके प्रमु प्रधिवीपर 
चेरतर्छोकसिद्राभिः क्रीडाभिरितिरेतरम्‌ । ॑ अवतीर्णं ॑होकर्‌ नाना प्रकार्की ठौकिक टीलभओसे 
पमस्तल)कनाथानां नाथभूतौ युवं महतौ ॥ ६ ॥ ` परस्पर खेल रहै थे ॥ ६॥ ॥ तर रहकर 
मटुप्यधमाभिरतौ मानयन्तौ मनुष्यताम्‌ | | मप्यताक। सममन वरते र मे मलय नातवे गुणो 
¢ | की क्रीडां कते हर वनम विचररहेथे॥ ७॥ 
तज्ात्युणयुक्तामिः क्रीडाभिश्चेरतुषनम्‌ ।॥ ७ ॥ । ् दोनो महरी वाल्क कमी इूलमे बल्य, कभी 
ततस्त्वान्दोरिकामिश्व नियुद्धे महाबलो । परस्पर मषठुद्ध फर ओर कभी प्र पककर नाना 


म्यायामं चक्रतु्तत् कषेपणीयस्तथादमभिः ॥ ८ ॥ | भ व्यायमकररद च॥<॥ इसी समय उन 
| दोनो लेते हए बाल्कौको उठा ठे जनेकी इच्छासे 


रसिरप्ुपुरत्र॒युभयो रममाणयोः । प्ररस्य नामव; दव्य गोपत्रपमे अपनेको दछिपाकर वर्ह 
आजगाम प्रम्बास्यो मोपवेषतिरोहितः ।॥ ९ ॥ | आया ॥ ९ ॥ दानवतर प्रलम्ब सलुष्य न होनेपर भी 
सोऽवगाहत निरशङ्कस्तेषां मध्यममापुपरः | । मनुष्यर्प धारणकर निद्ा्कमावसे उन बाककोके बीच 


मानुषं वुरा्थाय प्रलम्भ दानवोत्तमः ।१०॥ | शठ गणा ॥ १०॥ उन, दोनोकी अतवचानताका 
| | अवसर देखनेवाटे उस दैव्यने कृष्णक तो सर्वथा 


तयोरिछद्रन्तसम्रपसुरविसदचममन्यत । अजेय समर्चा; अतः उसने व्रमजीको मारनेका 
कृष्णं ततो रौिणेयं हन्तुं चक्रे मनोरथम्‌ ॥११॥ | निश्चय किया | ११॥ 
| तदनन्तर वे समस्त गवाह-बालट हरिणक्रीडन > 
नामक.सेल खेलते हर आपस एक प्राथ दो-दो 
परवन्तो हि ते सरव द्वौ ढौ युगपटुत्थितौ ।१२॥ | बारुक उटे ॥ १२ ॥ तब श्रीरानकि साथ ह्ृष्णवन्द, 
प्ररम्बके साथ वराम ओर दसी प्रकार अन्यान्य 
गोपोके साथ ओर-ओौर म्बाल-बाट [ होड बदकर्‌ ] 
गोपालेरपरेधान्ये गोपालाः पूष्ठुबु्ततः ॥१३।। | उठते इए चलने ले ॥ १३॥ अन्ते, कृषणचन्दन 
५, श्रीदामाकी; बटरामजीने श्रम्नको तथा अन्यान्य 
श्रीदामानं ततः कृष्णः प्रलम्ब रोहिणीसुतः | कृष्णपक्षीय गोपने अपने प्रतिपक्ियोको दर 
-मितवानकरष्णपकीयगेविरन्थे परामिताः ॥१४॥ 8 १५॥ 
# एक निश्चित छक्षयके पास दो-दो वाल्क एक-एक साथ हिरनकी मति उछछते दए जति है । जो दोन पे 
पटच जाता दै वह विजयी होता हैः हारा हृ वाल्क जीते दए्को अपनी पीटर चदव मस्य स्यानतक 


हरिणाक्रीडनं नाम बालक्रीडनकं तत्त 


श्रीदाम्ना सह गोविन्दः प्ररम्बेन तेथा बलः; | 














नच यप प्य्य्व्व्य्व्य्य्व्य्यप्नव्य---~-- 
न ~~~ ^-^ ^ 


ते वाहयन्तस्यन्योन्यं भाण्डीरं वरमेत्य पै । 
पुननिंबवरतुस्स्वे ये ये तत्र पराजिताः ॥१५॥ 

सङ्कर्षणं त॒ स्कन्धेन सीघ्रषस्िप्य दानवः । 
नभस्खकर जगामाशु सचन्द्र इख वारिद; ॥१६॥ 
असहन्रोहिणेयख स भार' दानवोत्तमः । वि 
ववृधे स महाकायः प्रादृषीव बलाहकः ॥१७॥ 

सदरषणस्तु तं दष्ट दग्पहैलोपमाङृतिम्‌ । 
सग्दामलम्बाभरणं भदटारोपमस्तकम्‌ ॥१८॥ 

द्रं शकटचकरां रदन्यासचलस्ितिम्‌ । 

अभीतमनसा तेन रसा रोहिणीसुतः 
हियमाणस्ततः कृष्णमिदं वचनमतरवीत्‌ ।॥१९॥ 

ष्ण कृष्ण हये दयेष पर्वतोदप्मृचतिना । 
केनापि पर्य दैत्येन गोपारच्छ्रूपिणा ॥२०॥ 
यद सम्परतं कायं मया मधुनिषुदन। ` 
तत्कभ्पतां प्रयत्येष दुरात्मातिखरान्ितः ॥२१॥ 

श्रीपरान्नर उच 

तमाह राम्‌ गोविन्दः सितमभिनोषटसम्युट; | 
महात्मा रौहिणेय बलवीर्यमाणवित्‌ ।२२। 
श्रीकृष्ण उवाच । 

किमयं मादुपो मावो व्यक्तमेवावलम्न्यते | 
स्ासमन्‌ सरवगुहयाना गु्गुदयातमना खया ॥२३॥ 

सरारोषजगद्वीजकारणं कारणाग्रजम्‌ । 
आत्मानमेकं तद्र जगत्येकार्णवे च यत्‌ ॥२४॥ 
नवेत्ति यथाहंच सं चैकं कारणं युवः। ,, 
मारावतठारणाथाय मर्त्यलोकुपागतौ ॥२५॥ 

नभरकिरस्तेऽम्बुवहाश्च केशाः 
- पादौ क्षिति्व््रमनन्त हिः। 
सोमो मनस्ते शरतितं समीरणो 

दिशश्चतसरोऽव्यय बाहवस्ते ॥२६॥ 


[ती 








.~----~-----~--------~-~^^~“*~ 








उस चलम जो-जो बाटक ह्यरे ये वे सत्र जीतने- 
वालको अपने-अपने करन्धोपर चदकर भाण्डीरवट- 
तक ठे जावर्‌ बह्लँसे फिर ट आये ॥१५॥ किन्तु 
पररम्बाघुर अपने कुन्धेपर व्ररामजीको चाकर 
चन्द्रमाके सहित मेधके समान अध्यन्त वेगसे भाकारा- 
मष्डल्को चट दिया ॥१६॥ वह दानवघ्े्र॒ रेदिणी- 
नन्दन श्रीबरमद्रजीके भारौ सहन न कर सकनेके 
कारण वर्षाकारीन मेघके समान बदृकर अत्यन्त स्थ 
रारीखाल हो गया } १७॥ तव मास ओर आभूपण 
धारण किये, शिरपर मुकुट पहने गाडीके पहियोके 
समान भयानक नेत्रोवाठे, अपने. पादप्रहारसे पृथिवी- 
घो कम्पायमान करते इए तथा दग्धपनतके समान 
भकाराठे उस दैत्यको देकर उस निभैय राक्षसके 
द्राराठे जये जाते हुए बलमद्रजीने कृष्णचनद्रसे 
कहा- || १८-१९. ॥ भैया कृष्ण ! देखो, छ्रपूवंक 
गोपवरेष धारण कनेव(छा कोई पर्वतके सम(न महाकाय 
दैव्य मुक्े हरे स्थि जाता है ॥२०॥ हे मधघुत्ूदन | 
अब मुञ्चे क्या करना चाहिये, यह बतलओं । देखो, 
यह दुरात्मा बडी रीघ्रतासे दोडा जा रहा है" ॥२१॥ 

श्रीपराक्ारजी बोरे-- तब रोहिणीनन्दनके बल- 
वीरयैको जाननेवाके महातमा श्रीकष्णचन्द्ने मधुर 
मुपकानसे अपने ओष्ठप्म्पुटको खोकते हृए उन 
अलरामजीसे कहा ॥ २२ ॥ 

श्रीङ्कष्णचन्द्र बोरे--है सवत्मिन्‌ | आप सम्पूरणं 
गुह्य पदरथेमिं अयन्त गुद्यखरूप हकर भी यह स्पष्ट 
मानव-माव क्यो अवलम्बन कर रहे दै ?॥ २३॥ 
आप अपने उस खरूपका स्मरण कीजिये जो 
समस्त संसास्का कारण तथा कारणका भी प्व 
वर्ता है ओर प्रल्यकाल्मै मी सित रहनेवालाहै 
॥ २४ ॥ क्या आपको माद्म नहीं है कि भप 
ओर मै दोनों ह्वी इस संसास्के एकमात्र कारण 
है ओर परथिवीका भार उतारनेके व्यि ही म्यक 
आये. ॥ २५ ॥ है अनन्त } आकाञ्च अपक शिर 
है, मेष केरा ्ै, प्रथिवी चरण है अग्नि मुह, 
चन्द्रमा मनदै, वायु श्रासप्रघसर है ओर चात 


सदस्रवक्त्रो भगवन्महास्मा 
सदहस्रदस्ताद्प्रिशरीरमेदः । 
सहसपञचोद्धवयोनिगव्- 
स्सदखशस्स्वां युनयो यणन्ति ॥२७॥ 
दिव्यं हि रूपं तव वेत्ति नन्यो ` 
देवैरशेपैरवेताररूपम्‌ । 
, तद्च्यंते वेपि न भरि यदन्त 
स्वग्येव विश्वं छयमभ्युपैति ॥२८॥ 


त्वया धतेयं धरणी विभर्ति 
चराचरं बिश्वमनन्तमूत्ं | 

कृतादिभेदेरज कालरूपो 
निमेषपू्ं जगदेतदस्सि ॥२९॥ 

अत्तं यथा वाडववष्धिनाम्बु 
हिमस्वरूपं परिगृह्य कास्तम्‌ । 

हिमाचले मानुमर्तोऽशुसङ्गा- 
ज्ञृत्वमभ्येति पनस्तदेव ॥३०॥ 

एवं स्वया संहरणेऽत्तमेत- 
जगत्समस्तं स्वदधीनक पुनः । 

तवैव सर्गाय सुतस्य 
जगखमभ्येत्यनु कल्पमीश ।॥२१॥ 


मवानहं च विश्वात्मन्नेकमेव च कारणम्‌ । 
जगतोऽस्य जगस्यर्थे मेदे नावां व्यवस्थितौ ॥२३२। 
तत्स्मय॑ताममेयामंस््वयात्मा जहि दानवम्‌ । 
मालुष्यमेवावलम्ब्य बन्धूनां क्रियतां दितम्‌ ॥२३॥ 
श्रीपराशर उवाच 
हति संस्मारितो तप्र कृष्णेन सुमह।स्मना । 
विष्टस्य पीडयम्‌ प्रृम्बं बलवानः ॥२३४॥ 
युषटिना सोऽहनन्मूर्भि कोपसंरक्तलोचनः । 
तेन चास्य प्रहारेण बहिर्याति विरोचने ॥३५॥ 
स निष्कासितमस्तिष्को युखाच्छोणितयुद्मन्‌ । 
निपपात महीपृष्ठे दैत्यों ममार च ॥३६॥ 


बि० प° ५१- 








दिशाँ बाहु है ॥ २६ ॥ हे भगवन्‌ ! भप महाकाय 
है, आपके सहसो सुख दै तथा सहयो हाथ, पौव 
आदि शरीरके मेद है! आप सस्र ब्रह्ाओंके 
आदिकारण है, सुनिजन आपका सहसो प्रकार 
बणैन करते है ।। २७॥ आपके दिव्य रूपको [ आपके 
अतिरिक्त ] भौर को नदीं जानता, अतः समस्त 
देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते है। 
क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमं यद्‌ सम्पूणं 
विश्च जाप छीन हो जाता है ॥ २८॥ है अनन्त- 
मूते ! आपसे धारण की इई य परथिवी सम्पूणं 
चराचर विश्वको धारण करती है । हे अज ! निमे- 
षादि कारस्वरूप आप ही कृतयुग आदि मेदौसे इस 
जगत्‌का ग्रास करते द ।॥ २२ ॥ जिस प्रकार वडवा- 
नलसे पीया हुभा जक बायुद्धारा हिमाख्यतक 
प्चाये जानेपर दिमकारूप धारण कर केता दै 
ओौर फिर सूय-किरणोका संयोग होनेसे जलस्य हो 
जाता है उसी प्रकार हे ईश! यह समस्त जगत्‌ 
[ सुद्रादिरूपसे ] आपहीके दवारा विनष्ट होकर आप 
[ परमेश्वर ] केही अधीन रहता द ओर फिर प्रत्येक 
कल्म आपके [ दिरण्यगभरूपसे ] सष्टि-रचनमें 
रवतत होनेषर यह [ विराद्रूपसे ] स्थूढ जगद्रूप हो 
जाता दै । ३०-३१॥ हे विश्वात्मन्‌ ¦ आप ओर मेँ 
दोनों हयी इस जगत्‌के एकमात्र कारण है । संसारके 
हितके ल्यि ही हमने अपने भिन्न-भिन्न रूप धारण 


किये टै ॥ ३२॥ अतः हे अमेयात्मन्‌ | आप अपने 
स्वरूपको स्मरण कौजिये ओौर मनुष्यभावका ही 
अवलम्बनकर इस दैत्यको मारकर बन्धुजनोका हित 
साधन कीजिये ॥ २३३ ॥ 


श्रीपराश्चरजी बोले--दे विप्र ! मह.त्मा कष्ण- 
चन्द्रद्मारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महा 
बलवान्‌ बरूरामजी हसते हु९ प्रलम्बासुरको पीडित 
करने छगे ॥ ३४ ॥ न्ने क्रोधसे नेत्र छार करके 
उसके मस्तकपर एक घँसा मारा, जिसकी चोटसे 
उस दैत्यके दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥ ३५॥ 
तदनन्तर बह दैव्यश्रेष्ठ मगज फट जनेपर मुखसे 
रक्त वमन करता हुआ परथिवीपर गिर पड़ा ओौर 








१ । ¢ 
प्ररम्बं निहतं दुष्टरा बलेनाद्भुतकमणा । 
्रहु्टस्तष्टुवुगोपास्साधुसाध्विति चात्रुवन्‌ ॥।२७॥ 
संस्तूयमानो मोपिस्तु रामो दैत्ये नि पतिते। 


मर गया ॥ ३६॥ अद्भुतकमां बररामजीदारा 
प्रछम्बासुरको मरा हृजा देखकर गोपगण प्रसन्न 
होकर "साधु, साधु, कहते हुए उनकी प्रशंसा करने 
गे ॥ २७ ॥ प्रम्बासुरफे मारे जनेषर बलरामजी 
गोपोद्वारा प्र्॑सित होते हुए कृष्णचन्द्रके साथ 


ग्रछछम्बे सह कृष्णेन पुन्गोकुरुमाययौ |॥२८॥। । गौम लौट आये ॥ ३८ ॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पश्वरमेऽर नवमोऽध्यायः ॥ ९॥ 


[पीं 


दसर्वोँ अध्याय 
शरढर्णन तथा गोवर्धनकी पूजा 


श्रीपराश्चर उवाच 
तयो्विदरतोरं  रामकषेरवयोत्रे । 
प्रातर्‌ व्यतीता विकसर्सरोजा चाभवच्छरत्‌ ॥१॥ 
अवापुस्तापमस्यथं शफयः पल्वलोदे । 
पत्रषे्रादिसक्तन ममत्वेन यथा गृही ॥ २॥ 
मगुरा मौनमातस्थुः परित्यक्तमदा बने । 
अस्रारतां परित्ाय संषारस्येव योगिनः ॥ ३ ॥ 
उत्सुज्य जक विमलार्सितमूत्तयः । 
तत्थजुथाम्धरं मेषा गृहं विज्ञानिनो यथा ॥४॥ 
शर्धरयाशुत्ानि ययुद्ोपं सरांसि च । 
बहाछम्बममत्वेन हृदयानीव देहिनाम्‌ ॥ ५ ॥ 
हृषदेरशरदम्भांधि योग्यतालक्षणं ययुः | 
अववोधैर्मनांसीव समत्वममलात्मनाम्‌ ॥ ६ ॥ 
तारकाविमरेव्योश्नि रराजाखण्डमण्डलः | 
चन्द्रधरमदेदात्मा योगी साधुङछे यथा ॥ ७॥ 


दानकेश्वानकेरतीरं तत्यजुश्च जह्याः । . 


ममत्वं कषेत्रपु्रादिरुदपुच्चैय॑था बुधाः ॥ ८ ॥ 








श्रीपराश्षरजी बोज्े-दइस प्रकार उन राम ओौर 
कृष्णक घजभें बिहार करते-करते वपौकार बीत गया 
आओौर प्रफुल्लित कमछोसे युक्त शरद्‌-ऋतु आ गयी 
॥ १॥ जेसे गृहस्थ पुरुष पुत्र ओर क्षेत्र आदिमे ख्गी 
हुई ममतासे सन्ताप पाति है चसी प्रकार मछलि्यौँ 
गडढोके जरम अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥ २॥ खंसार- 
की असारताको जानकर जिस प्रकार योगिजन 
शान्त हो जति दै उसी प्रकार मयुरगण मदहीन 
होकर मौन हो गये ॥ ३॥ विज्ञानिगृण [ सब प्रकार. 
की ममता छोडकर ] जैसे धरका त्याग कर देते दै 
वसे टौ निम॑ल वेत मेघोँने अपना जृरूप सव॑स्व 
छोडकर आकाश्चमण्डलका परित्याग कर दिया ॥ ४ ॥ 
विविध पदार्थोमं ममता करनेसे जैसे देहधारियोके 
हदय सारहीन हो जाते है वैसे ही शरत्कालीन सुचै. 
के तापसे सरोवर सूख गये ॥ ५॥ नि्म॑खचित्त 
पुरुषोके मन जिस प्रकार ज्ञानद्वारा समता प्राप कर 
छेते दै उसी प्रकार शरत्काखीन जोक [स्वच्छताके 
कारण ] करुमुदोंसे योग्य सस्बन्ध प्राप्न हो गया॥ ६॥ 
जिस प्रकार साधुकम चरमदेहधारो योगी 


सुशोभित होता है उस प्रकार्‌ तारका-मण्डर-मण्डित 
निमंल आकासं पूणंचन्द्र विराजमान हु ॥ ७॥ 


जिस प्रकारकषेत्र ओर पुत्र भादिमे बद हुई ममता- 
को विवेकोजन शनैः-रानैः त्याग देते दहै वैसे ही जा. 
सर्योका जल धौरे-धौरे अपने तटको छोढ्‌ने लगा॥८॥ 





पं त्यक्तेससगोऽम्मोमि्ैसा योगं पुनयंयुः | 

केरेः कुयोगिनोऽशेैरन्तरायहता इव ॥ ९॥ 
निभूतोऽमवदत्यथं सुद्र; स्तिमितोदकः | 
कमावाप्तमहायोगो नि्ह्ार्मा यथा यतिः ॥१०॥ 
सर्वत्रातिप्रसन्नानि सलिानि तथामवन्‌ । 

ज्ञाते संगते विष्णौ मनांसीष सुमेधसाम्‌ ॥११॥ 
बभूव निम व्योम शरद्‌ ध्वस्ततोयद्र्‌ । 
योगाम्निदग्धक्छेशोधं योगिनामिव मानसम्‌ ॥१२। 
र्या शुजनितं तापं निन्ये तारापतिः चरमम्‌ | 
अहमानोद्धवं दुःखं विवेकः सुमहानिव ॥१३॥ 
नमसोऽब्दं युवः पङ्कं कालुष्यं चाम्भपदशसत्‌। 
इन्दरियाणीन्धियारथम्यः प्रत्याहार इवाहसत्‌ ॥१४॥ 
` प्राणायाम इवाम्भोमिस्सरसां कृतपूरकैः । 
अभ्यस्यतेऽसुदिवसं रेचकाङ्म्भकादिभिः ॥१५॥ 
विमलाम्बरनक्षतरे कारे चाभ्यागते वरजे । 
ददर्न्द्रमहारम्भायोधयतांस्तान्वजौकसः ॥१६॥ 


कृष्णस्तानुस्सुकान्दृष्टा गोपानुस्सवलाहृान्‌। 


जिस प्रकार अन्तरायो ( विष्नो ) से विचदित हुए 
कुयोगियौका क्डेशोँ {से पुनः संयोग हो जाता है 
उसी प्रकार पहले छोड़ हुए सरोवरे जलसे ह॑सका 
पुनः संयोग हौ गया॥९॥ क्म्चः महायोग 
( सम्प्रज्ञातसमाधि ) प्राप्न कर लेनेपर जैसे यति 
निश्वरत्मा हो जाताहै वैसे दी जलके स्थिरहो 
जानेसे समद्र निश्चल हो गया ॥ १०॥ सवगत 


भगवान्‌ विष्णुकी जान ठेनेपर मेधावी पुरुषोके 
चित्तके समान समस्त जलाश्योका जढ स्वच्छ हो 
गया ॥ ११॥ 


योगाग्निदारा जिनके क्डेशचसमूह नष्ट हो गये दै 
डम यो गियोँके चित्तके समान शीतके कारण मेघोकि 
रीन हो जनेसे आकाश्च निमंङ हो गया ॥ १२॥ 
जिस प्रकार अहंकार-जनित महाम्‌ दुःखको विवेक 
लान्त कर देता है उसी प्रकार सूयेकिरणोँसे उयन्न 
हुए तापको चन्द्रमाने ज्ञान्त कर दिया ॥ १३॥ , 
प्रत्याहार जैसे इन्द्रियोको उनके विषयोंसे खींच ठेता 
है वैसे ही स्षरस्काख्ने आकाञचसे मेघोको, प्रथ्नीसे 
धूलिको ओर जसे मल्को दूर कर दिया ॥ १४॥ 
[ पानीसे भर जनेके कारण ] मानो ताराबोके जल 


पूरक कर चुक्नेपर अब [स्थिर रहमे ओौर सूखनेसे] 
रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रियाद्वासा प्राणायामका 
अभ्यास कर रहे है| १५॥ 


इस प्रकार ब्रजमण्डल्मे निर्मल काञ्च ओर 
नक्चत्रमय शरत्काखके अनिपर श्रौफष्णचन्द्रने समस्त 
ब्रजवासियोको इन्द्रफा उत्सव मनानेके लि तैयारी 
करते देखा ॥ १६॥ महामति द्रष्णचन्द्रने उन गोपों 
को उ्सवको उमंगसे अत्यन्त ₹त्साहपूणं देख 


कोतूहरादिदं वाक्यं प्राह वृद्धान्महामतिः॥ १७॥ | डुतूहल्वश्च अपने बडे बूदसे पूढा--॥ १५॥ 


® अन्तराय नौ है- 


व्याधिस्त्यानषंशयप्रमादारस्याविरतिश्रान्तिवर्शनारन्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तधिक्षेपास्तेऽन्तरायाः । 


(यो० द० १।३०) 


अर्थात्‌ म्याधि, स्त्यान ( साधने अधरवरत्ति ), संक्षय, प्रमाद, आस्य, अविरति ( वैराग्यहीनता ), आ्रान्तिदशषंन, 
अरुड्धभूमिक्रसव ( लक्ष्यकी उपकरन्ि न होना ) ओर अनवस्थितस्व ( जक्षयमे स्थिर न रहना } ये नौ अन्तराय है । 


| क्लेश पोच है; सैते- 
विद्यास्मिता सागद्रेषासिनिवेशाः वेदाः । 


(यो०द०२।३ 


~ ) „= 
अर्थात्‌ विद्या, अस्मिता ( महकार ), र(ग, द्वेष जौर अभिनिवेश ( मरणन्रास ) ये पच कलेश ह । 


०४ 











दोऽयं शक्रसमो नाम येन वो हषे श्नागतः। 
प्राह तं नन्दगोपश्च प्रच्छन्तमतिसादरम्‌ ॥१८॥ 
सन्दगोप उवाच 
मेघानां पयसां बेश्ो देवराजश्शतक्रतः । 
तेन सश्चोदिता मेषा वषेन्तयम्बुमयं रसम्‌ ॥१९॥ 
तदूवृष्टिजनिसौ सस्यं वयमन्ये च देहिनः । 
वर्सयामोपयृञ्ञानास्तपयामथ देवताः ॥२०॥ 
्ीरवत्य दमा गावो वस्सवत्यशच निद ताः । 
तेन संवदधितैस्ससयस्तष्टाः पषटा मवन्ति वै ॥२१। 
नासस्या नातृणा भुमिं बुभुक्षितो जनः। 
द्यते यत्र श्यन्ते बृष्टिमस्तो बसाहकाः ॥२२॥ 
भोममेतत्पयो दुग्धं गोभिः छस्य बार । 
पर्नयस्सव॑रोकस्योद्धवाय शुषि वेति ॥२२॥ 
तस्मासपाव्रषि राजानस्सरवे सक्र युदा युताः । 
मसैस्सुरेशमरयन्ति वयमन्ये च मानवाः ॥२४॥ 


श्रीप्ररयाश्चर उवाच 
नन्दुमोपस्य वचनं शरुतवेतथं शक्रपूजने । 
रोषाय बरिदचेन्द्रस्य प्राह दामोद्रस्तदा ॥२५॥ 
न वयं कुपिकर्तारो बाणिज्याजीषिनो न च। 
गाबोऽस्मरैवतं तात वयं पनचरा यतः ॥२६॥ 
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथा परा। 
विद्याचतुष्टयं चैतद्वत्तीमात्रं शृणुष्व मे ॥२७।॥ 
कृषिर्वणिज्या तद्वच दृतीयं परशुषलनम्‌ । 
विद्या चेका महाभाग वात्ता दृत्तित्रयाश्रया ॥ | 
कषकाणांकृषिवरत्ति पण्यं विपणिजीविनम्‌ । 
अस्माकं गौः परा ब्रतिर्वा्ता मेदैरियं तरिभिः ॥२९॥ 
विद्यया यो यथा युक्तस्तस्य सा देवतं महत्‌ । 
सैव पूल्याच॑नीया च सैव तस्योपकारिका ॥२३०॥ 
थो यस्य एलमदनन्यै पूजयत्यपरं नरः । 


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` श्रीविष्णुपुराण 


„~~~ 








ध्मापलोग जिसके खयि फूले नहीं समति ह्‌ इन्द्र 
यज्ञ क्या है १ इस प्रकार अत्यन्त आद्रपूवक पृने- 
वाछे श्रीकरष्णसे नन्दगोपने का--॥ १८ ॥ 


नन्दगोप बोल्ञ-मेव भौर जलका स्वामी देव 
राज इन्द्र दै। उसकी प्ररणासे ही मेघगण जररूप 
रसकी वषा करते ह ॥ १९॥ हम ओर जन्य समस्त 
देहधारौ उस वपसे उन्न हुए अन्नको ही वतेते दै 
तथा उसीको पयोगे छति हए देवताक्नौको भी 
चप्र करते है ॥ २०॥ उस (वप )से बदु हृ 
घाससे हौ चपर होकर ये गौ तुष्ट ओर पुष्ट होकर 
वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती है ।॥ २१॥ जिस 
भूमिपर बरसनेवाठे मेघ दिखायी देते है उसपर 
कमी अन्न ओर चणका अभाव नहीं होता ओर न 
कमी वके लोग मूचे रहते ह देखे ते दै । २२॥ 
यह्‌ पर्जन्यदेव (इन्द्र) प्रथिवीके जछ्को सूयं किरणो- 
द्वारा खींचकर सम्पूणं प्राणियोकौ वृद्धिके ल्यि छसे 
मेघोदारा प्रथिवोपर बरसा देते दहै ॥ २३॥) इसख्ि 
वीतु समस्त राजारोग, हम ओर अन्य 
मलुष्यगण देवराज इन्द्रकी यज्ञ दारा प्रसश्नतापूवेक 
पूजा किया करते दै ।॥ २४॥ 


श्रीपराशरजी घोले-दनद्रफो पूजक विषयमे 
नन्दजौके एेसे वचन सुनकर श्रीदामोदर देवराजको ` 
कुपित करनेके छ्यि ही इस प्रकार कहने छगे ।२५) 
हर तात! हमनतो कृषक ओरन म्यापारीः 
हमारे देवता तो गौ ही दै; क्योकि हमोग वनचर 
ह ॥। २६ ॥ आन्वीक्षिकी ( तकंसाख ), त्रयी ( कम- 
काण्ड ), दण्डनीति ओर वा्त-ये चार बियाह, 
इनभेते केव वातौका विवरण सुनो । २७॥ हे 
महाभाग ! बाती नासकी यह एक विद्या ही करषि, 
वाणिभ्य आर पञ्ुपाकन इन तीन वृ्तियोकौ 
आश्रयभूता है ।। २८॥। वातौकी इन तीनो भेदोमेसे 
कृषि किंसानोकी, वाणि्य व्यापारिर्थोकौ अौर 
गोपाढ्न हम छोगोकी त्तम वृत्ति है ॥ २९॥ 
जो म्यक्ति जिस वियासे युक्तं है उसकी वही 
इष्टदेवता है, वह पूजा-अर्चाके योग्य है ओर 
बही परम खपकारिणी दै ॥ ३०॥ जो पुरुष एक 


व्यकितसे फ लाम करके अन्यकी पूजा कस्ता 
ॐ 1 दशतो अथव छ कमे कहीं भी 








कृष्यान्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं च न्नम्‌ । 
वनान्ता गिरयस्स्े ते चास्माक परा गतिः ॥३२। 
न द्वारबन्धावरणा न गृहकषत्रिणस्तथा | 
सुखिनस्तरसिछे लोके यथा वै चक्रचारिणः॥३३॥ 
भयन्ते गिरयश्च वनेऽसिमन्कामरूपिणः। 
तत्तद्रपं समास्थाय रमन्ते खेषु सायुषु ॥ ३४॥ 


यद्‌। चैतैः प्रबध्यन्ते तेषां ये काननोकसः। 
तदा सिंहादिरूपैस्तान्धातयन्ति महीधराः ॥२३५॥ 
गिरियज्ञस्त्वयं तस्माद्रोयक्ञघर प्रवस्य॑तामू | 
किमस्माकं महेन्द्रेण गावर्पलाश देवता; ॥३६॥ 
मन्त्रयङपरा विग्रास्सीस्यसाथ कपकाः | 


गिरिगोयज्ञशीहथ वयमद्विवनाश्रयाः ॥२५७॥ 


तस्माद्गोवर्ध॑नश्दोरो भवद्धिषििधारदभेः। 


७०००५ ¢ # पूर / (क 
अच्य॑ता पूर्यतां मेध्यान्परून्दत्वा विधानतः॥३८॥ 


सवंधोपस्य सन्दोह गृह्यतां मा विचायंताम्‌ । 
भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाज्छकाः ॥ 
तत्राचिते एते होमे भोजितेषु द्विजातिषु । 
शरतुष्पकृतापीडाः परिगच्छन्तु गोगणाः ॥४०॥ 
एतन्मम मतं गोपास्सम्प्रीसया क्रियते यदि । 


तत; कृता मवे्ीतिगंवामदेस्तथा मम ॥४१॥ 
~ ~~ वलातियवामहस्तया मम्‌ ॥४१॥ 














म नहीं होता॥ ३१॥ खेतोके अन्तमे सीमा है, 
सीमाके अन्तम वन है जौर वनोके अन्तम समस्त 
पवेत दैवे पवंतही हमारी परमगति है ॥ २३२॥ 
हमरोग न तो किवाडे तथा भित्तिके अंदर रहनेवाछे 
दै ओौर न निधित गृह अथवा सतवा किसान ही 
है, मोग तो चक्रचारीकः मुनियोकी मौँति समस्त 
जनसमुदायमे सुख है ॥ २३॥ 


"सुना जाता कि इसत वमके पर्वंतगण काम. 
रूपी ( इच्छानुसार रूप धारण करनेवले) है । वे 
मनोवाञ्छित रूप धारण करके अपने-अपने श्निखसोपर 
विहार किया करते हैँ ॥ ३४ । जथ कमी वनवासी- 
गण इन गिगिदेवोको किसी तरहकी बाधा परहवाति 
है तौ वे सिहादिरूप धारणकर चन्द मार डालते दै 
॥ २५॥ अतः भजसे [ दस इन्द्रयज्ञके स्थानें ] 
गिरियज्ञ अथवा गोयन्नका प्रचार्‌ द्येना चाहिये । 
हमें इन्द्रस कया प्रयोजन है १ हमारे देवता तो गौर 
ओर पवेत ह ॥ ३६॥ ब्राह्मणखोग मन्त्र-यज्ञ 
तथा कुषकगण सीरयज्ञ ( हरूका पूजन ) करते दै; 
अतः पंत ओौर बरनोमे रहनेवारे हमरोगोको 
गिरियज्ञ ओर गोयज्ञ करने चाहिये ॥ ३७ ॥ 


“अतएव आपहोग विधिपू्ंक मेध्य पञ्ु्ओंकौ 
वि देकर विविध सामगप्रियोसे गोवधेनपर्वैतकी 
पूजा करे ॥ ३८ ॥ आज सम्पूणं व्रजका दृध एकच्नित 
कर छो ओर उससे ब्राह्मणो तथा अन्यान्य याचकोँ- 
को भोजन कराओो; इस विषयमे ओर अधिक सोच- 
विचार मत्त करो ॥ ३९॥ गोवधेनकी पूजा, होम 
ओर ब्राह्मणभोजन समाप्त होनेपर श्ञरद्‌-ऋमतुके 
पष्पोसे सजे हए मस्तकवाङी गौर गिरिराजकी 
प्रदक्षिणा कर ॥ ४० ॥ है गोपगण ! आपलोग यदि 
प्रीतिपूबेक मेरी इस सम्मतिके अनुसार कायं करेगे 
तो इससे गौभोको, गिरिराजको ओर मुञ्चे अत्यन्त 
प्रसन्नता होगी” ॥ ४१॥ 








® चक्रचारौ सुनि वेदैंजो शकट आदिते सरवर मण किया करते ह र जिनका कोद खास निवासन नहीं 
होता दै । जहाँ सायंकाल होता है वहं रद जाते ड । भतः अन्हे 'सायंमृह्" भी कहते है । 


७०३९ 


भ्रोविष्णुपुराणं 


[ अ० ११ 








श्रोपराश्चर उवाच 
इति तस्य बचः श्रुखानन्दाग्ासते व्रजौकसः । 
्ीसय्पुल्नयुखा गोपास्साधु साधित्यथात्रवन्‌ ४२ 
शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्धवतोदितम्‌ । 
तत्करिष्यामहे सवं गिरियज्न प्रवत्य॑ताम्‌ ॥४२॥ 
तथा च कृतवन्तस्ते गिरिय्घं व्रनोफसः । 
दधिपायसमांसाेददुश्ैटवलि ततः ॥४४॥ 
दविजांश भोजयामासुशतशोऽथ सदसः ॥४५॥ 
गावददोरं ततथतरुरचिताध्ताः प्रदक्षिणम्‌ । 
ृषभाधातिनदंन्तस्सरोया जलदा हव ॥४६॥ 
गिरिपू द्नि कृष्णोऽपि शैलोऽहमिति मृतिमान्‌ । 
बुधुजेऽननं बहुतरं गोपधर्याहृतं द्विज ॥४७॥ 
स्वेनैव फष्णो रूपेण मोधैरपह भिरेरिशरः । 
अधिरुहयाचयामास् दवितीयामात्मनस्तसुम्‌॥४८॥ 
अन्तद्भानं मते तस्मिन्मोपा न्ध्वा ततो वरच्‌ । 
छृस्वा गिरिमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः ॥४९॥ 














भीपराशरजी बोले-कृष्णचन्द्रके इन चाक्यौको 
सुनकर नन्द आदि तरजषासी गोपोने प्रसन्नतासे 
चिषे हृए मुखसे साधु, साधुः कहा ॥ ४२॥ ओर 
बोटे--हे वत्स ! तुमने अपनाजो बिचार प्रकट 
कियाहै ब्रह बड़ी सुन्दर है हेम सव ेसा ही करगे; 
आजसे गिरियज्ञका प्रचार किया जाय ॥ ४३ ॥ 


तदनन्तर उन व्रजवासि्योँने गिरियज्ञका अचुष्ठान 
किया तथा दही, खीर ओर मांस आदिसे पबेतराज- 
फो बछि दी ॥ ४४ ॥ सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणको 
भोजन कराया तथा पुष्पाचित गौओं ओौर्‌ सजछ 
जरधरके समान अत्यन्त गजंनेवाठे सौँडने गोव- 
धेनकी परिक्रमाकी ॥ ४५-ए६ ॥ हे द्विज ! उस 
समय कृष्णचन्द्रने पवेतके शिखरपर अन्य रूपसे 
प्रकट होकर यह दिखलति हए कि मै मतिमान्‌ 
गिरिराज ह, उन गोपश्रेषटौके चदय हए विविध 
व्यञ्जनोको ग्रहण किया ॥ ४७ ॥ कृष्णचन्द्रने अपने 
निजरूपसे गोपोके साथ पवंतराजके श्िखरपर चदु- 
कर अपने दी दूसरे स्वरूपका पूजन किया ॥ ४८ ॥ 
तदनन्तर उनके अन्तधौन होनेपर गोपगण अपने 
जभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्र करके फिर अपने- 
अपने गोष्रौमे चङे आये ॥ ४९ ॥ 


कि) 
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽरो दश्चमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ 


तौ) ^ ^ 


ग्यारह्वोँ मध्याय 
हृन्द्रकां कोप भौर श्रीकष्णका मोवधैन-धारण 


श्रीपराश्चर उवाच 
मखे प्रतिहते शक्रो मैतरेयातिरूषान्वितः । 
संवर्तक नाम गणं तोयदानामथात्रवीत्‌ ॥ १॥ 
मो भो मेषा निक्म्पैतद्रचनं गदतो मम । 
आन्नानन्तरमेवाश्ु क्रियतामविचारितम्‌ ॥ २॥ 
नन्दगोपससुदुबुद्धिगो पैरन्येस्सह्ययवान्‌ । 
कष्ण श्र बह्ाध्याति परखथङम्यततीकग | 3 





श्रीपराश्रजी बोरे-हे मैत्रेय ! अपने यज्ञके रक 
जानेसे इन्द्रने अस्यन्त रोपपूवेक संवतेक नामक 
मेघोके दरे इस प्रकार कहा-॥ १ ॥ “भरे मेधो ! 
मेरा यह बचन सुन ओर मै जो कुछ कषर उसे मेरी 
आज्ञा सुनते हयै, बिना $ सौचे-वि चारे, तुरंत 
पूरा करो ॥२॥ देखो, अन्य गोपोके सहित 
दद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सदहायताके बरसे अन्धे 


क ज भ + न ~ (~ = ।। ~ | 





------------------------------------[----------------- 


आजीवो याः परस्तेषां माषस्तस्य च कारणम्‌| 

ता गावो वृष्टिवातिन पीडयन्तं वचनान्मम ॥४॥ 

अहमप्यद्विभृङ्घामं तङ्धमारंद्य वारणम्‌ । 

साहाय्यं वः कर्प्यामि वास्वभ्बूतर्मयोजितप्‌।।५॥ 
श्रीपराङचर उवाच 


इत्यान्ञपरास्ततस्तेन युयचस्ते बलाहकाः । 
वातवषं महाभीममभावाय गां द्विज ॥ 8 ॥ 


ततः क्षणेन प्रथिवो कङ्कमोऽम्बरमेव च । 
एफ धारामहासारपूरणेनाभवन्पुने ॥ ७॥ 
विदयुल्लताककायातत्रस्तैरिवि धनेषेन्‌ । 

[+ [न 
नादापूरितदिक्चक्रेधौराक्वारमपास्यत ॥ ८ ॥ 
अन्धकारीकृते रोके वर्षद्धिरनिशं घनैः | 
अधश्ोष्वं च तियंक्‌ च जगदाप्यमिवा मवत्‌ ॥९॥ 
गावस्तु तेन पतता वषेवातेन वेगिना | 
धूता; प्राणाज्ञदुस्पनत्रिकसविथरिरोधराः॥१०॥ 
क्रोडेन वत्छानाक्रम्य तस्थुरन्या महाघ्रुने । 
गावो विवत्सा कृता वासि्रेण चापराः ॥११॥ 
वत्साश्च दीनवदना वातकम्पितकन्धराः | 
त्राहि ्राहीत्यल्पकषब्दाः कृष्णमूचुखितुरः ॥१२॥ 


ततस्तदधोडलं सवं गोगोीगोपसङ्कलस्‌ । 
अतीवातं दरष्टा मैत्रेयाचिन्तयत्तदा ॥१२॥ 
एतत्छृतं मन्द्रेण मखमङ्गविरोधिना । 
तदेतदखिकं गोष्ठं त्रातच्यमधुना मया ॥१४॥ 
हममद्रिमहं षेरयादुस्पारथोरुशिलाषनम्‌ । 
धारयिष्यामि गोष्टस्य पथुच्छ्प्रमिवोपरि ॥१५॥ 











अतः, जो उनकी परम जीविका ओर उनके गोपत्व- 
का कारण दै उन गौभोंको तुम मेरी आल्नासे वाँ 
ओौर बायुके वारा पीडित कर दो ॥ ४ ॥ मँ मी पवेत- 
शिखरफे समान अच्यन्त ऊचे अपने पेरावत हाथीपर 
चदृकर वागु ओौर जल छोडनेके समय तुम्हारी 
सहायता करेगा ॥ ५॥ 


श्रीपसाशरजी बोले--दे द्विज ! इन्द्रौ ठेसी 
आज्ञा हयोनेषर गौओंको नष्ट करनेके ख्ये मघोने 
अति प्रचण्ड वायु ओौर बघा छोड़दी ॥६॥ दे 
सुने ! उस समय एक क्षण्म ह्यो मेघोंकी छोड़ी हई 
महान्‌ जलधारा ओंसे प्रथिवी, दिशया ओर आकार 
एकरूप हो गये ॥ ७ ॥ मेवगण मानो विचयुज्ञतारूप 
द्ण्डाघातसे भयभीत होकर महान्‌ श्ब्दसे दिशाज- 
कोम्याप्र करते हुए मूसछाधार्‌ पानी नरसाने रगे 
| ८ | इस प्रकार मेधो के अहर्निश्च बरसनेसे संसार. 
के अन्धकारपूणे हो जानेपर ऊपरर-नीये ओर सब 
ओर समस्त लोक जलमय-सा हो गया | ९॥ 


वर्षा ओर वायुके वेगपूवंक चरते रहनेसे गौओ- 
के कटि, ङा भौर प्रीवा आदि सत्न हो गये ओौर 
कोपते-कापते अपने प्राण छोड़ने छगीं [ अथौत्‌ 
मूर्च्छित हो गयीं ] ॥ १०॥ दै महासने ! कोद 
गौ तो अपन्न बषठद्ोको अपने नीचे छिपाये खडी 
रहीं ओर कोई जके वेगसे बस्सहीना हो गयीं 
1 ११॥ बायुसधे कँपते हए दौनवदन ब्रछ्डे मानो 
व्याक्रुख होकर मन्द-स्वरसे छृष्णचन्द्रसे रक्षा करो, 
रक्षा करोः ठेस कहने खगे ॥ १२॥ 


हे मैत्रेय ! उस समय गो, गोपी ओर गोपगणके 
सद्ित सम्पूणं गोक्कुखको अत्यन्त व्याङ्घुल देखकर 
श्रीह रिने विचारा--॥१२॥ यज्ञ-भंगकेकारण विरोध 
मानकर यह्‌ सव करतूत इन्द्र ही कर रहा हे; अतः 
अब मचे सम्पूणं त्रजकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १४॥ 
अव मँ धैयपूरेक बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस 
पवेतको उखाड़कर इसे एक बड़े छत्रफरे समान 
व्रजके उपर धारण करूंगा ॥ ५1 


५०८ 


[रा २ 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० ११ 








श्रीपराङर उवाचं 
इति कृत्वा मतिं कृष्णो गोचधनमहीधरम्‌। 


उतपाटवैककरेणैव धारयामास शीलया ॥१६॥ 
गोपांधाह इरज्छीरिस्पपयाटितभुधरः । 
वि्ध्वमत्र खरिताः कृतं वपेनिवारणम्‌ ॥१७॥ 
सुनिवातेषु देशेषु यथा जोपमिहास्यताम्‌ । 
्रवि्यतां न भेतव्यं गिरिषाताच निर्भवैः ॥१८॥ 
दयुक्तास्तेन ते गोपा विषिषुणोधिनेस्पह । 


दकटारोपितै्भाण्डमोप्यश्रासरपीडिताः ॥१९॥ 


कृष्णोऽपि तं दधार शेरगस्यन्तनिहम्‌ । 


व्रसैकवासिभिरिस्मिताक्षैनिरीक्षितः ॥२०॥ 


भोपगोषीजनेदैष्टैः प्रीतिषिस्तासिक्षणैः । 
संस्तूयमानचरितः दप्णद्येरुपधारयत्‌ ॥२१॥ 


सप्तरात्रं महामेषा वबु नन्दगोकुरे । 
इन्द्रेण चोदिता विप्र गोपानां नाषकफारिणा २२ 
ततो प्रते महारेरे परसिति च गोरे । 
मिथ्याप्रतिज्ञो बरमिद्टारयामास तान्धनान्‌॥२२॥ 
व्यप्रे नभसि देवेन्द्रे वितथात्मवचस्यथ | 
निष्कम्य गोलं हृष्टं खस्थानं एुनरागमत्‌।२४॥ 
पुमोच कृष्णोऽपि तदा गोव्धनमहाचलम्‌ । 
स्वस्थाने पिर्मितष्चैष्स्तैस्त व्रजौकसः ॥२५॥ 





श्रीपराश्चरज्ी बोले-श्रीरृष्णचन्द्रने पेखा 
बिचारकर्‌ गोवधंन पवंतको उखाड़ छया ओर 
उसे लीलास हयी अपने एक हाथपर उठा छिया 
॥ १६ ॥ पवंतको उलाड़ छेनेपर घुरमन्दने श्रीरयाम- 
सुन्दरे गोपौसे दंसकर कहा-“आओ, शीघ्र हौ 
इस पवेतकै नीचे भा जाओ, मैने वपौसे बचनेका 
प्रबन्ध कर दिया है ॥ १७॥ यदह बायुहीन स्थानो 
मे आकर सुखपू वक वैठ जाओ; निभंय होकर प्रवेश 
करो, पवेतके गिरने आादिका भय मत करो" | १८॥ 


श्रीकषणचन्द्रके एेसा कहनेपर जल्की धाराओंसे 
पीडित गोप ओर गोपी अपने बर्तन-भँड़ंको छकड- 
म रखकर गौओंके साथ पवंतके नीचे चले गये 
॥ १९ ॥ व्रजवासियोदरारा हषं भौर विस्मयपूंक 
टकटकी लगाकर देखे जति हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी 
गिरिराजको अत्यन्त निग्चछतापूंक धारण किये 
रे ॥ २०॥ जो प्रीततिपूवैक आँखे. फाड़कर देख 
रहे थे डन हषित-चित्त गोप भौर गोपियोँसे अपने 
चरितोंका स्तवन होते हए श्रीछष्ण चन्द्र॒ पवेतको 
धारण किये रहे ॥ २१॥ 


हे विप्र गोपोके नारकी इन्द्रकी प्ररणासे 
नन्दजीफे गोङ्कखमे सात रात्रितक महामयंकर मेघ 
बरसते रहे ॥ २२॥ किन्तु जव श्रीक्रष्णचन्दरने पवत 
धारणकर गोङ्कलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यथं 
हो जानेसे इन्द्रने मेघोको रोक दिया ।२२॥ आकाश्च- 
के मेवद्ीन हयो जनेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जने- 
पर समस्त गोकुत्तवासी वष््सि निकलकर प्रसन्नता- 
पूवक फिर अपने-अपने स्थानोपर आ गये ॥ २४ ॥ 
ओर कृष्णचन्द्रने भी इन व्रजवासियोके विश्मय- 


पूवक देखते-देखते गिरिराज गोवधंनको अपने 
स्थानपर रख दिया ॥ २५॥ 


+++ 


दन्द्रका आगमन भौर इन्द्ररृत श्चीरृष्णाभिषेक 


श्रीपराञ्चर उवाच 
धरते गोवर्धन दले परित्राति च गोङ्के । 
रोचयामास कृष्णस्य दशनं पाकशासनः ॥ १॥ 
सोऽधिरुह्य महानागयैरावतममित्रनित्‌। 
गोवधनगिरौ कृष्णं ददश त्रिदशेश्वरः ॥ २ ॥ 
चारयन्तं महावीयं गास्तु गोपवपु॑रम्‌ | 
करत्स्नस्य जगतो गोपं वृतं गोपकुमारकैः ॥२॥ 
गरुडं च ददशो्चिरन्तद्धानगतं द्विज । 
कृतच्छ्मयं हरेमधि पक्षाभ्यां पकषपुङ्गवम्‌ ॥ ४॥ 
अवरुद्य स॒ नागेन्द्रादेकान्ते मधुष्दनम्‌ । 
दरक्रस्सस्मितमाहेदं प्रीतिविस्तारितेक्षणः ॥५॥ 

न्द्र उवाच 

कृष्ण कृष्ण शृणुष्वेदं यदथमहमागतः । 
त्वत्समीपं महाबादये नैतचचिन्त्यं स्वयान्यथा ॥६॥ 
भारावतारणार्थाय परथिवयाः पृथिवोतहे । 
अवतीर्णोऽखिल्ाधार्‌ स्वमेव परमेश्वर ॥७॥ 
` मखमङ्धविरोधेन मया गोकुहनाशकाः | 
समादिष्टा मदामेषास्तैश्चेदं कदनं कृतम्‌ ॥ ८॥ 
जातास्ताथ त्वया गावस्सयुत्पास्य महीधरम्‌ । 
तेनादं तोषितो वीर कर्मणास्यदधुतेन ते ॥ ९ ॥ 
साधितं कृष्ण देवानामहं मन्ये प्रयोजनप्‌ । 
त्वयायम द्विप्रः करेणे केन यदधरतः ॥१०॥ 
गोभिश्च चोदितः कृष्ण त्वत्सकाशमिहागतः । 
स्वया त्रातामिरत्यथं युष्मस्सर्कारकारणात्‌ ॥।११। 
स त्वां कृष्णामिषेच््यामि गवां वाक्यप्रचोदितः। 


उपेन्द्रस्वे गवाभिन्द्रो गोविन्दस्त्वं मविष्यसि।१२। 


श्रीपराशर उवाच 
भथोपवाह्यादादाय षण्टामेरावतादवजात्‌ । 
अभिषेकं तया चक्र पवित्रजलपूणया ॥१२॥ 


वि० पु०५२-- 





भीपराश्रजी बोल्े-इस प्रकार गोवधेनपवेत- 
का धारण ओौर गो्ुकी रक्षा हो जानेषर देवराज 
इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दशन करनेकौ इच्छा ह 
॥ १॥ अतः शनरुजञित्‌ देवराज गजराज देरावतपर 
चद्कर गोवधंनपवंतपर आये ओर वर सम्पूणं 
जगतके रक्षक गोपवेषधारी मदावरवान्‌ श्रीकृष्ण- 
चन्द्रको ग्बाख्वारोके साथ गौरं चराते देखा ॥ २-३॥ 
हे द्विज ! उन्होने यद्‌ मी देखा कि परिशेष गरड 
अदर्यभावसे उनफे खर रहकर अपने पङ्कोसे उनकी 
छाया कर रदे है| ४॥ तव बे ेराबतसे उतर पडे 
छीर एकान्तम श्रीमधुसुदमकी ओर प्रोतिपूचक दष्ट 
कैरते हए सुसकरसाकर बोरे ॥ ५॥। 


इन्द्रे कदा-दे श्रीकृष्णचन्द्र! मँ जिसलिये 
आपके पास आया ह, बह सुनिये-दहे महाबाहो ! 
जप इसे अन्यथा न समञ्चं ॥ ६ ॥ दे अखिलाधार 
परमेश्वर ! आपने प्रथिवीका भार उतारनेके छथि ही 
प्रथिवीपर अवतार छिया दै ।। ७ ॥ यज्ञभंगसे विरोध 
मानकर ह मैने गोकुकको नष्ट करनेके छ्यि महमेधो- 
को आज्ञादी थी, न्दने यह सहार मचायाथा 
॥ ८1) किन्तु जपने पवैतको उखाड़कर गोओंको 
बच] किया । हे बीर ! आपके इस अद्भुत कमेसे में 
अति प्रसन्न ॥ ९॥ दे कृष्ण ! आपने जो अपने 
एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है इससे मँ 
देवताभका प्रयोज्म [ आपके द्वारा ] सिद्ध हृभा 
ही समन्ता हँ ॥ १०॥ [ गोवंशकी रक्षाद्यारा 1 
आपसे रक्षित [ कामधेनु आदि ] गौभोंसे प्रेरित 
होकर हयी मँ आपका विरौष सत्कार करनेके लिये 
यद्यं आपके पास भाया द| ११॥ हे कृष्ण ¦ अब 
चे मौओके बाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्र-पद्पर 
अभिषेक करेगा तथा आप गौओके इन्द्र (स्वामी ) 
है इसल्यि आपका नाम गोविन्द्‌, भी होगा ॥ १९॥ 


श्रीपराशरजी बोल्ले--तदनन्तर इन्द्रे अपने 
वाहन गजराज एेरावतका घण्टा लिया ओर उसमें 
पविथ्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक 


४१० 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० १२ 





क्रियमाणेऽभिषेके तु गावः कृष्णस्य तःक्षणात्‌। 
परसवोद्भूतदुगधद् सचथत्वेसुन्धराम्‌ ।१४॥ 
अमिषिच्य गवां बाभ्यादुपन््रं बै ननादनम्‌ । 
प्रीत्या सप्रश्रयं वाक्यं पुनराह शचीपतिः ॥१५॥ 
गवामेतस्कृतं वाक्यं तथान्यदपिमे भृणु । 
यदुत्रवीमि महामाग मारावतरणेच्छया ॥१६॥ 
ममांशः पुरषव्याघर प्रथि्यां प्रथिवीषरः । 
अवतीर्णोऽज नो नाम संरक्ष्यो मवता सद्‌ ॥१७॥ 
भारावतरणे साह्यं सते वीरः करिष्यति | ` 
संरक्षणीयो सवता यथासा मधुन ॥१८॥ 
श्रीभगवानुनाच 

जानामि भरते वंशे जातं पाथं तवांशतः। 

तमहं पारयिष्यामि यावस्स्थास्यामि भूतले ॥१९॥ 
यावन्महीतरे शक्र स्थास्पाम्यहमरिन्दम । 

न तावद नं कथिद्देबनद्र युधि जेष्यति ॥२०॥ 
कंसो नाम महाबाहूदत्योऽरिषस्तथापुरः । 

केशी इुवहयापीडो नरकाद्यास्तथा परे ॥२१॥ 
हतेषु तेषु देवेन्द्र मपिष्यति मदाहवः ¦ 

तत्र विद्धि सदस्ाक्ष मारादतरणं कृतम्‌ ॥२२॥ 
स छं गच्छ नसन्तापं पथे कमपि । 

नाज नस्य रिपुः कथिन्ममप्र प्रमषिष्यति ॥२३२॥ 
अर्जुनार्थे सहं सर्ान्युधिष्ठिरपुरोगमान्‌ । 
निवत्ते भारते युद्धे न्त्ये दास्याम्यविक्षतान्‌॥२४॥ 

श्रीपराशर उवाच 

इ्यक्तः सम्परिष्वज्य देवराजो जनादनम्‌। 
आरुदयराघतं नागं पुनरेव दिवं यथौ ॥२५॥ 
कृष्णो हि सदितो गोमिगोपारेध पृनव॑जम्‌ । 











आजगामाथ गोपीनां र्िपूतेन वर्ना ॥२६॥ 


किया ।॥ १३॥ श्रीकष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय 
गौओनि तुरत ही अपने स्तनोंसे टपकते हुए दुग्धसे 
परथिकवीको भिगो दिया ।॥ १४ ॥ 


हस प्रकार गौ भके कथनानुसार श्रीजनादेनको 
उपेन्द्र-पदपर अभिपिक्तकर राचीपति इन्द्रने पुनः 
प्रीति ओौर मिनयपूवंक कहा-॥ १५ ॥ “हे सहामाग ! 
यह्‌ तो ने गौओंका वचन पूरा किय, अब प्रथिवी- 
के भार उतारनेकी इच्छासे मँ आपसे जो इछ ओर 
निवेदन करता हँ बह भी सुनिये ॥१६॥ दे 
प्रथिकीधर ! हे पुरुषसिह ! अजुन नामक मेरे 
अंडाने प्रथिवीपर अवतार लिया दै; आप कृपा करके 
उसकी सवदा रक्षा करे.॥ १७ ॥ हे मधुसूदन ! वह 
वीर्‌ प्रथिवीका भार उतारनेमे आपका साथ देगा, 
अतः आप उसकी अपने शरीरके समानदहौ रक्षा 
करः ॥ १८ ॥ 


श्रीभगवान्‌ बोज्ते-मरतवंरमे प्रथाके पुत्र 
अञ्ुनने तुम्हारे अंशसे अवतार छिया है--यह्‌ मँ 
जानता हँ । मै जबतक प्रथिवीपर ररहगा, उसकी 
रक्षा करेगा ॥ १९॥ हे राचरसूदन देवेन्द्र ! जवत्तक 
मह्यैतरूपर रहँगा तवबतक अजुँनको युद्धे कोई भी 
न जीत सकेगा ॥ २०॥ हे देवेन्द्र ! वि्ाल भुजाओं 
वाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टसुर, कैश्ची, कुबलया- 
पीड भौर नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्योका नाञ्च 
होनेपर यहा महाभारत-युद्ध होगा । हे सद्खाक्ष | 
उसी समय प्रथिकवीका भार उतरा हआ समञ्चना 
॥ २१-२२ ॥ अव तुम प्रसन्नातापूबंक जाओ, अपने 
पुत्र अजुंनके लिये तुम फिसी प्रकारकी चिन्ता मत 
कयो; मेरे रहते हए अज्युनका कोई भी शच्च सफल न 
हो सकेगा ॥ २३ ॥ अजुन लिये ह मेँ महाभारत- 
के अन्तमं युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंको अक्षत- 
शरीरसे कुन्तोको दंगा ॥ २४॥ 


भ्रीपराकशरजी बोलते -कष्णचन्द्रके एेसा कहनेपर 
देवराज इन्द्र उनका आिङ्कन कर देरावत हाथीपर 
आरूद्‌ हो स्वगंको चछ गये | २५॥ तदनन्तर कृष्ण- 
चन्द्र भी गोपियोके दृष्िपातसे पवित्र हुए मागंद्ाय 
गोपक्मारो ओर गौभोके साथ व्रज्जफो रट 
आये ॥ २६ ॥ 


--*-*+--- 


तेरह्वँ अध्याय 


गोपोँद्धारा भगवान्‌का प्रभावव्णैन तथा भगवान्‌का गोपि्योके साथ सासक्रीडा करना 


श्रीपराश्चर उवाच 


गते शक्रे त॒ गोपलाः कृष्णमङ्गि्टकारिणम्‌ | 

उचुः प्रीस्या धतं दष्ट तेन गोवधंनाचलम्‌ ॥ १ ॥ 
वयमस्मान्महामाग भगवन्महतो भयात्‌ | 
गावश्च भवता त्राता गिरिधारणकमणा ॥ २॥ 
बालक्रीडेयमतुखा गोपारसवं जुगुप्सितम्‌ । 
दिव्यं च भवतः कमं किमेवत्तात कथ्यताम्‌ ॥ ३॥। 
कालियो दमितस्तोये घेुको विनिपातितः । 
धृतो गोवधनश्रायं शङ्कितानि मनांसि नः॥ ४॥ 
सत्यं सत्यं हरेः पादौ शपामोऽमितधिक्रम । 
यथावदीयैमालोक्य न लां मन्यामहे नरम्‌॥ ५॥ 
प्रीतिः सस्ञीङ्कमारस्य चस्य त्यि केशव । 
कमं॑चेद्मशक्यं यत्समस्तैसिदशेरपि ॥ ६ ॥ 
बारत्वं चातिषीयंतं जन्म चास्मास्वश्षोभनम्‌। 
चिन्त्यमानममेयारमञ्छङ्कं कृष्ण प्रयच्छति ।७। 


देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धवं एव वा। 


किमस्माकं विचारेण बान्धवोऽसि नमोऽस्तुते ॥८॥ 


श्रीपराञ्चर उवाच 
क्षणं भूत्वा तसौ तूष्णीं किञ्चिसणयकोपवान्‌ । 
ह्येवशुक्तस्तैर्गो पैः कृष्णोऽप्याह महामतिः ॥९॥ 


श्रीभगवानुबाच 
मस्सम्बन्धेन बो गोपा यदि छज्ञान ज्ञायते | 


भीपराश्चरजो बोज्ञे-इन्द्रके चठे ज मेपर, निर्दोष 
कमं करनेवाले श्रष्णचन्द्रको गोव्धन-पवेच धारण 
करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूवंक वोके-॥ १॥ 
हे भगवन्‌ ! हे महाभाग | आपने गिरिराजको 
धारण कर हमारी ओर गौओंकौ इस महान्‌ भयसे 
रक्षाकीदहै॥२॥ हे तात! कहं आपकी यह्‌ अतु- 
पम बारा, कहँ निन्दित गोपजाति भीर कहाँ 
ये दिव्य कमं १ यह्‌ सब क्या है, कृपया हमे वत- 
छादये ॥ ३॥ आपने यसुमाजकमे काल्ियनागका 
दमन किया; घेुकासुरको मारा भौर फिर यह 
गोवधंनपवेत धारण किया; आपके इन अद्भुत कर्मा 
से हमारे चित्तम बही खंकाहोरही है॥४॥ हे 
अमित्तविक्रम | हम भगवान्‌ हरिके चर्णोंकौ शपथ 
करके आपसे सच-सच कहते है किं आपके रेसे बल- 
वौ्य॑को देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते 
॥ ५॥ हे केव ! स्री ओर बालकोँके सहित सभी 
व्रजवासियोकी आपपर अत्यन्त प्रीति है । आपका 
यह कम॑ तो देवताओंके स्यि भी दुष्कर दहै ॥६&॥ 
हे कृष्ण ¦ आपको यह्‌ बाल्यावस्था, विचित्र च- 
वीयं ओर्‌ हम-जेसे नीच पुरुषोमे जन्म ठेना--हे 
अभयात्मन्‌ ! ये सब बातं विचार करनेपर हमें 
छ्ंकामे डाल देती है || ७।। आप दैवता दो, दानव 
ह, यक्ष हो अथवा गन्धवं हों, इन घातोंका विचार 
करनेसे द्मे क्या प्रयोजन है १ हमारे तो आप बन्धु 
ही है, अतः आपको नमसकार है ॥ ८॥ 


भीपराश्चरजी बोले--गोपगणके एेसा कहनेपर 
महामतिं कृष्णचन्द्र कुछ दैरतक व्ुप रहे भौर फिर 


कुछ प्रणयजन्य कोपपूवेक इस प्रकार कहने 
टगे-। ९॥ 


श्रोभगवान्‌ने कदहा--हे गोपगण | यदि आप- 


खोगोको मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकीख्लञानदहो; 


४१२ ।1}# । 


ॐ९। ॥ 





श्ाध्यो बाहं ततः कि बो पिचारेण प्रयोजनम्‌ । १ 
यदि बोऽस्ति मयि प्रीतिः ाघ्योऽहं भवतां यदि। 
तदात्मबन्धुसदुशी बुदधिवेः क्रियतां मयि ॥११॥ 

) नाहं दैवो न गन्धर्वो न यक्षोन च दानवः । 

अहं बो बान्धवोजातो नैतचिन्त्यमितोऽन्यथा।।१२। 

भ्रीपसद्धर उवाच 

इति शरुला हरेर्व बद्धमोन।स्ततो बनम्‌ । 
यथुर्गोपा महाभाग तसिमन्प्रणयकोपिनि ॥१३॥ 
कृष्णस्तु विमल व्योम शरचन्द्रस्य चन्द्रिकाम्‌ । 
तदा इयुदिनीं फल्छामामोदितदिगन्तराम्‌ ।।१४॥ 
वनराजिं तथा श्रूजट्मृङ्गमाामनोहरम्‌ । 
विलोक्य सह गोपीमिम॑नशकर रतिं प्रति ॥१५॥ 
विना रमेण मधुरमतीव बनिता्रियम्‌ । 
जगौ करुपदं रौरिस्तारमन्दरकृतक्रमम्‌ ।। १६।। 
रम्यं मीतप्वनिं शरुता सन्त्यज्यावसर्थास्तदा। 
आजग्यस्तवरिता गोप्यो यत्रास्ते मधुद्दनः॥ १७ 
शतदशनैरजगो गोपी काचित्तस्य रयानुगम्‌। 
दत्तावधाना काचिच्च तमेव मनस।सपरत्‌ ॥१८॥ 
काचिल्छृष्णेति कृष्णेति प्रोच्य रुजायुफययो। 
ययौ च काचितरमान्धा तर्पादवंमविरम्बितम्‌।१९। 
काचिचावसथस्यन्ते स्थिता दष बहिगुरु्‌। 
तन्मयत्वेन गोविन्द्‌ दध्यौ मीलितलोचना ॥२०॥ 
तचि्तविमलाहादक्षीणपुण्यचया तथा | 
तदश्रा्िमदादुःखविलीनाश्ेषपातछा ॥२१॥ 
चिन्तयन्ती जगर्ति पर्रहमस्वरूपिणम्‌ । 





०|| तो म भपलोगोसे प्रथंसनीय हँ इस बातका विचार 


करनेकी भौ क्या आवश्यकता है ‰ ।} १०॥ यदि 
मुद्समे आपकी प्रीति है भौर यदि मै आपकी प्रश्ंसा- 
का पात्रँ तो आपटरोग मुञ्चे बान्धव-बुद्धि दही 
करे ॥ ११॥ म नदेवहः न गन्धवहः न यक्ष 
रन दानवह्रँ। मतो आपके बान्धवरूपसे ही 
उतपन्न हुआ ह आपशोगोको इस विषयमे ओर कुछ 
विचारन करना चाहिये ॥ १२॥ 


्ओपराशरजी बोले-हे महाभाग ! श्रीदरिके 
इन वाक्योको सुनकर इन्द प्रणयकोपयुक्त देख वे 
समस्त गोपगण चुपचाप बनको चरे गये ॥ १३॥ 


तव श्वीकृष्णचन्द्रने निमंङ आकार, शरयन्द्रफौ 
चन्द्रिका भौर दिश्चाओंको सुरभित करनेबाढी 
विकसित छ्ुमुदिनो तथा बन-खण्डीको मुखर 
मधुकरोसे मनोहर देखकर गोपि्योके साथ रमण 
करनेकी इच्छा कौ ॥ १४-१५ ॥। उस समय वलराम- 
जीके चिना ही श्रीमुरखोमनोहर खियोंको प्रिय 
कगनेवाखा त्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मदु पव्‌ 
डच ओौर धमे स्वरसे गाने रुगे ॥ १६॥ उनकी 
उस सुरम्य गीतध्वनिको सुनकर गोपि अपने-अपने 
चरोको छोडकर तत्का जह श्रीमधुसतूदन थे वर्ह 
चली र्यी । १७॥ 


वह आकर कोई गोपी तौ उनके स्वरमें स्वर 
मिलाकर धीरे-धीरे गने छ्गी ओौर कोई मनही- 
मन उन्हीका स्मरण करने लगी ॥ १८ ॥ को हे 
कृष्ण, हे कृष्णः एेसा कहती हई लज्नावरा संकुचित 
हो गयी ओौर कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरंत 
छनके पास जा खडी हई ॥ १९ ॥ को गोपी बाहर 
गुरजनोंको देखकर अपने घरमे ही रहकर आंख 
मूंदकर तन्मय भावस श्रीगोविन्दका ध्यान करने 
खगी ॥ २० ॥ तथा कोई गोपङ्कमारी जगतके कारण 
परज्ह्यस्वल्प श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करते-करते 
[मूच्छबस्थामे ] माणापानके रक जनिसे शुक्तहो गयो, 
क्योंकि भगवद्धथानकै विमल आह्वादसे उसकी समस्त 
पुण्यरासि क्षीण हो गयी ओर भगवान्‌की अप्रापिके 


निरुच्छ्रासतया शुक्ति गतान्या गोपकन्यका ॥२२।॥ महान्‌ दुःखसे उसके समस्त पाप छीन हो गये ये २१-२२ 





गोपीपरिवृतो रात्रिं शर्चन्द्रमनोरमाम्‌ । 


मानयामास गोविन्दौ रसारम्भरसोत्सु कः ।॥२२॥ 
गोप्यश्च वृन्दशः दृष्णयेषटास्वायत्तमूतंयः । 

` अन्यदेशं गते कृष्णे चेरवरन्दावनान्तरम्‌ ॥२४॥ 
कृष्णे निबद्धहुदया इदमुचुः परस्परम्‌ ॥२५॥ 
कृष्णोऽदमेष रहितं व्रजाम्यारोक्यतां गतिः । 
अन्या त्रवीति कृष्णस्य मम गीतिर्नि्म्यताम्‌।२६। 
दष्टकालिय तिष्ठत द्रपष्णोऽहमिति चापरा । 

वाहुमास्फोव्य कृष्णस्य लया सर्वमाददे ॥२५७॥ 
अन्या व्रवीति भो गोपा निरशङ्धेस्थीयतामिति । 
भल वृष्टिमयेनान्र धृतो गोवधेनो मया ॥२८॥ 
धेदुकरोऽयं मया क्षिप्तो विचरस्तु यथेच्छया । 


गावो रवीति चेवान्या कृष्णहीलानु सारिणी ।॥२९। 


एवं नानाप्रकारासु कृष्णचेष्टा तास्तदा । 


गोप्यो व्यग्राः समं चेरू रम्यं बृन्दावनान्तरम्‌।॥२०॥ 


विरोक्षयैका युवं प्राह गोपी गोपवराङ्गना । 
पुरुफाश्ितसर्बाङ्ी विकासिनयनोस्परा ।॥२३१॥ 
भ्वजवजङ्कशाव्जाङ्रेखावन्त्याहि पश्यत । 


पदान्येतानि इृष्णस्य लीहारुहितिगामिनः ॥२२) 


कापि तेन समायाता कृतपुण्या मदालसा । 
पदानि तस्यारचेतानि धनान्यल्पतननि च ॥२२॥ 
पष्पापचयमत्रोच्चेधकरे दामोदये धुवम्‌ । 


चेनागारा-तपानाति चनास्थन प्रात्पः ३९2 


धश्वमं अश 


------------------------------------------------- 





४१२ 


गोपि्योसे चिरे हृए रासारम्भरूप रसके छ्य 
उत्कण्ठित श्रीगोविन्दने उस शारखन्द्रसुज्ोभिता 
राच्निको [ रास करके ] सम्मानित किया ॥ २३॥ 


उस समय भगवान्‌ कृष्णके अन्यत्र चे जने- 
पर कृष्णवेष्ठाके अधीन हुई गोपियौँ यूथ बनाकर 
वृन्दावनके भीतर विचरन रगो ।। २९1 कृष्णे 
निवद्धचित्त हृद वे व्रजाङ्गनार्पै परस्र इस प्रकार 
चातीकाप करने र्गी 1] २५॥ [ उनभेसे एक गोपौ 
बोदटी--] “यै ही कृष्ण ह देखो, कैसी खुन्दर चालसे 
चरता ह; तनिक मेरी गति तो देखी ।” दूसरी कहने 
कगी--“कृष्ण तो यँ र अहा ! मेरा गाना तो सुनो" 
॥। २६ ॥ कोई अन्य गोपी भुजाय ठोककर बोट 
उटी--“अरे दुष्ट काछिय ! मँ कष्ण ह तनिक ठहर 
तो"--एेसा कहकर बह कृष्णक सरे चरित्रौका 
लीरापू्ंक अनुकरण करने लगती | २७॥ [ क्रिस 
ओर गोपीमे कहा--] “अरे गोपगण ! मैने गोवधेन 
धारण कर जिया दै तुम वषौसे मत उरो, निरशङ्क 
होकर इसके नीचे भाकर बैठ जाओ" ॥ २८ ॥ को 
दूसरी गोपी करष्णीलाओँका अनुकरण करती हद 
कहने लगी “ने घेनुकासुरको मार दिया है, अब 
यँ गौ स्वच्छन्द होकर विचरं” ॥ २९॥ 


इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीष्णचन्द्रकौ नाना 
प्रकारको चेष्टाओंमे व्यप्र होकर साथ-साथ अति 
सुरम्य वृन्दावनमे बिचरने खगं ॥ ३०॥ खिले हुए 
कमल-जैसे नेत्रंवाली एक सुन्दरी गोपाङ्गना सर्वाग- 
म पुखकित हो प्रथिवीको ओर देखकर कहने 
कगी-- ३१॥ भरी आी } ये ीखाललितिगामी 
कष्णचन्द्रके ध्वज्ञा, वजर, अक्रा ओर कमल आदिः 
की रेखाओंसे सुशोभित पदचिह सो देखो ॥ ३२॥ 
ओर देखो, उनके साथ कोर पुण्यवती मदमाती 
युवती भी गयौ दै, उसके ये घने छोटे-छोटे भौर 
पत्रे चरण-चिह्न दिखायी दे रहै दै ॥ २३॥ यदहं 
निश्चय ही दामोद्रने ऊंचे होकर पुष्पचयन 
किया है; इससे यदौ उन महात्माके चरणके 
> णाया = अलिति ए ३ ॥ २४॥ 


४९०७ 


श्राक्ब्ुुबुरणन 


मिनत ाकागाा यिय 01111 





अ्रोपयिदय वै तेन काचितपुषपररुबकुता । 
अन्यजन्मनि स्वासा विष्णुरम्यचितस्तया ॥३५। 
पुष्पवन्धनसम्पानकृतमानामपास्य ताम्‌ । 
नन्दगोपपुतो यातो मार्गेणानेन पश्यत ॥२६॥ 
अनुयातेनमत्रान्या नितम्बभरमन्थरा | 

या गन्तव्य दूतं पाति निम्नपादाग्रसंस्थितिः। २७॥ 
हस्तन्यस्ताग्रदस्तेयं तेन याति तथा सवी | 
अनायत्तपदन्यास्ा रक्ष्यते प्दपद्भतिः ॥३८॥ 
हस्तसंस्पशेमातरेण पू्तनेषा। विमानिता । 
नेराश्यान्मन्दगामिन्या निवत्त लयते पदम्‌ ॥३९॥ 


नूनष्क्ता सरमीति पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम्‌ । 





तेन कृष्णेन येनैषा लसिता पदपद्रतिः ॥४०॥ 
` श्रिष्टो गहनं कृष्णः पदमत्र न रुक्यते | 


निवतेष्वं शशाङ्कस्य नैतदीभितिगोचरे ॥४१॥ 


निषतास्तास्तद्‌ गोप्यो निराशाः कृष्णद््न। 





ययुनातीरमाक्ा्च जयुस्तच्चरितं तथा ॥४२॥ 
ततो ददुभुरायान्तं मिकासिष्ुखपङ्कजम्‌ । 
गोप्यस्ोकयोपारं भुष्णम्रिचेषटितम्‌ ।४२॥ 
काचिदाहोक्य मोविन्दमायान्तमतिदरषिता । 
कुष्ण कुष्णेति कृष्णेति प्राह नान्यदुदीरयत्‌॥४४॥ 
काचिदुभभङ्ुरं खा लहाटफलमः हरिम्‌ । 
विरोक्ष नेतरभृङ्गाभ्यां पपौ तन्पुसपडूजम्‌ ॥४५॥ 


य्ह बैठकर उन्होने निश्चय ही किसी वड़मागिनीका 
पुष्पोँसे शङ्कार क्रिया है; अवश्य ही उसने अपे 
पूवजन्मभे सर्वात्मा श्रीविष्णुभगवान्‌की उपासना की 
होगी | ३५॥ ओौर यह देखो, पुष्पवन्धनके सम्मानसे 
गर्षिता होकर उसके मान करनेपर श्रीनन्द्न्द्‌न 
उसे छोड़कर इस मागंसे चरे गये दै ।। ३६ ॥ अरौ 
सखियो | देखो, यह कोई नितम्बभारके कारण 
मन्दगामिनी गोपी कृष्णचन्द्रके पीछे-पीरे गयी हे । 
वह्‌ अपने गन्तव्य स्थानको तीत्रगतिसे गयी है, 
इसीसे उसके चरणचिहके अप्रभाग कुछ नीचे 
दिखायी देते है । ३७॥ यह वह सखी उनके हाथ- 
मे अपना पाणिपल्लतर देकर ची है इससे उसके 
चरणचिह्न पराधीन-सेः दिखलायी देते दै ॥ ३८॥ 
देखो, यसे उस मन्दगामिनीके निराज्ञ होकर 
लौटनेके चरणचिह्न दीख रहे दै; मालूम होता है, 
उस धूते केवर करस्पटं करके उसका अपमान 
किया ह ।। ३९॥ यहं कृष्णने अवय उस गोपीसे 
कहा है (तु यदीं बैठ] मै शीघ्रही जातादह्ं [ इस 
वनम रहमेवाछे राक्षसको मारकर ] पुनः तेरे पास 
दौर आगा । इसलिये यदहं उनके चरणौके चि 
शीघ्र गतिके-ते दौख रहे ह" ॥ ४०॥ यसि कृष्ण- 
चन्द्र गहन वने चरे गये दै; इसीसे उनके चरण- 
विह दिखलायी नदीं देते; अध खट चरो; इस स्थान- 
प्र चन्द्रमाकी किरणें नदीं पहुंच सकतीं ॥ ४१ ॥ 


तदनन्तर वे गो पिय कृष्ण-दश्नसे निराश होकर 
लौट आयीं ओौर यञुनातटपर आकर उनके चरितो. 
को गाते लगीं ॥ ४२९॥ तव गोपियोने प्रसन्नसुलार- 
विन्द व्रिभुवनरक्षक अक्तिष्टकमौ श्रीकरष्णचन्द्रको 
वह्यं आते देखा ॥ ४१ ॥ उस समय कोड गोपी तो 
भ्रीगोविन्दको आते देखकर अति हर्षित हो केव 
“कृष्ण ! कष्ण !] कृष्ण |||* तना हौ कहती रहं 
गयो ओर कुछ न बोर सकी । ४४ ॥ कोई [ प्रणय- 
कोपश्च ] अपनी भ्रूमंगीसे ललाट सिकोड़कर भी- 


हरिको देखते हुए अपने नेत्ररूप श्रमरों्ारा उनकफै 
मखकमदल्का मकरन्द पान करते खगी ॥ ४५॥ 


अ० १३. 





= 


---------------------------------------- ~ 


काचिदारोक्य गोविन्दं निमीहितविरोचना। 
तस्यैव रूपं ध्यायन्ती योगारूढेव सा पमौ ॥४६॥ 
ततः काशिसियालापैः काश्चिदुभरभङ्गवीक्षितैः। 
निन्येऽतुनयमन्यां च करस्परेन माधवः ॥४७।॥ 
ताभिः प्रसम्नचित्ताभिगोपीमिस्पद सादरम्‌ । 

ररास रासगोष्ठीमिरुदारचसिति हरिः ॥४८॥ 
रासमण्डलबन्धोऽपि कृष्णपाखंमनञ्रता । 
गोपीजनेन नेवामूदेकस्थानस्थिरास्मना ॥ ४९॥ 
दस्तेन गृ चेकेकां गोपीनां रासमण्ड्म्‌ । 
चकार त्फरस्पदोनिमीरितदृशं हरिः ॥५०॥ 
ततः प्रवृते रासश्चरुद्रल्यनिसखनः। 
अञुयातशषरत्काग्यगेयगीतिरनुक्रमात्‌ ॥५१॥ 
कृष्णदश्रचन्द्रमसं कोएदीं इषदाकरम्‌ 
जगौ गोषीलनस्तयक् कृष्णनाम पुनः पुन; ॥५२॥ 
प्रिदति्रमेणेका चरद्ररयलापिनीम्‌ । 

ददौ बाहृखतां स्कन्धे गोपी मधुनिषातिनः॥५३। 
काचिसप्रविखसद्वाहुः परिरम्य चुचुम्ब तम्‌ । 
गोपौ गीतस्तुतिव्याजानिपुणा मघु्दनम्‌ ॥५४॥ 
गोपीकगेसंर्टेषममिगम्य दरे । 
पुकोदमसस्याय स्वेदाम्बुधनतां गतौ ॥५५॥ 


रासगेयं जगौ कृष्णो यावत्तारतरष्यनिः । 


साधु कृष्णेति कृष्णेति तावत्ता द्विगुणं जगुः ॥५६॥ 


 गतेऽनुगमनं चक्रुवंरने सम्धुलं युः । 


प्रतिरोमानुरोमाम्यां मेलुगोपाङ्गना हरिम्‌ ॥५७॥ 


स त॒था षह गोपीमो ररास मधष्रदनः | 








कोड गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूंदकर उन्हीके 
रूपका ध्यान करती हृष योगारूदृ-सौ भासित 
होने ठगी । ४६॥ 


तथ श्रीमाधव किसीसे प्रिय भाषण करके, 
किसीकी ओर भरूभ॑गीसे देखकर आओीर किसीका हाथ 
पकड़कर उन्दहँ मनाने छगे ।। ४७ ॥ फिर उदार चित्त 
श्रीह रिने न प्रसन्नचित्त गोपियोके साय रासमण्डड 
बनाकर आद्रपूवकं रमण क्रिया । ४८॥ किन्तु 
उस समय कोई भी गोपी कुष्णचन्द्रकी सन्निधिको 
नहीं छोडना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर 
स्थिर रहनेके कारण रासोचित मण्डलन बन सका 
| ४९॥ तव उन गोपियोमेसे एक-एकका हाथ 
पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डरकी रचना की । उस 
समय उनके करस्पशेसे प्रत्येक गोपीकी ओँलं आनन्द्‌- 
से भद जाती थीं ।॥ ५०॥ 


तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हृद । उसमे 
गोपियोके चश्चल कङ्कणोंकी इनकार होने ख्गी ओर 
फिर क्रमशः शरद्रणेन-सम्बन्धी गीत होने रगे ॥५९१॥ 
डस समय कृष्णचन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका ओर कुयुद- 
वनसम्बन्धौ गान करने रुगे; किन्तु स।पियोने तो 
बारबार केवल करष्णनापका ही गान किया ॥ ५२॥ 
फिर एक गोपीने नृत्य करते-करते थककर चञ्चलं 
कङकुणकी क्चनकार करती हृदं अपनी बाहृख्तां श्री- , 
मधुसूदनके गले डा दौ ॥ ५३॥ किसी निपुण 
गोपीने भगवान्‌के गानकी प्रशंसा करनेके बहाने 
भुजा फैकाकर्‌ श्रीमधुसूदनको आरिङ्गन करके चूम 
छया ॥ ५४ ॥ श्रीहर्की भुजां गोपियोके कपोले 
का चुम्बन पाकर उन ( कपोलं ) मे पुलकावलिरूप 
धान्यकी इत्पत्तिके ल्य स्ेद्रूप जल्के मेध बन 
गयीं ॥ ५५ ॥ 


कृष्णचन्द्र जितने उच्च्वरसे रासोचित गान 
गाते थे उससे दुनने शब्दसे गोप्यो “धन्य कृष्ण ! 
धन्य कृष्ण)” को ही ध्वनि छग रहो थीं ॥ ५६॥ 
भगवानूके अगे जनिपर गोपिरयौँ उनके पीछे जातीं 
अौर दौटनेपर सामने चरती, इस प्रकार वे अनुलोम 
अर प्रतिखोम-गतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं।५७॥ 


| श्रीमधुसूदन भी गोपियोके साथ इस प्रकार रासक्रौडा 


४१६ 





यथाब्दकोरिप्रतिमः क्षणस्तेन विना मवत्‌ ।५८॥ 
तावाय॑माणाः पतिभिः पितृ सिर्थातिभिस्तथा। 
कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः ॥५९॥ 
सोऽपि केशोरकवयो मानयन्मधुद्रदनः । 

रेमे ताभिरमेयासा क्षपासु क्षपिताहितः ॥६०॥ 
तद्धतु घु तथा तामु सवभूतेषु वेश्वरः । 
आत्मस्वरूपरूपोऽपो व्यापी ब युर स्थितः॥६१॥ 
यथा समस्तभूतेषु नभोऽग्निः प्रथिवी जलम्‌ । 
वायुशाला तथैवासौ व्याप्य सर्व॑मवस्थितः॥६२॥ 


भ्रीविष्णुपुराण 





[ अ० १४ 


कररदेयथे कि उनके धिना एक क्षण मी गापियोको 
करोड़ों वषकिं समान बीतता था ॥ ५८ ॥ वे रास- 
रसिक गोपाङ्गना पति, माता-पिता ओर रातां 
आदिके रोकनेपर भी रा्रिभं श्रीहयामसुन्दरके साथ 
विहार करती थीं ॥ ५९॥ श्रृहन्ता अमेयात्मा 
भ्रीसधुसूदन मी अपनी किशोरावस्थाका मान करते 
हुए रात्रिक समय उनके साथ रमण करते थे ।। ६०॥ 
वे सवंव्यापौ ईश्चर मगवान्‌ कृष्ण तो मो पियो; 
उनके पतिम तथा समस्त प्राणियोमें आत्मस्वरूप- 
से बायुके समान व्याप्त थे।॥ ६१॥ जिस प्रकार 
आकारा, अग्नि, प्रथिवी, जट, वायु ओर आत्मा 
समस्त गिव मा है उसी प्रकारवे भी सब 


पदार्थोमिं व्यापक ह ॥ ६२ ॥ 


-*-4-+--- 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चभेऽरो चयोदशोऽध्यायः॥ १३॥ 


=~~-र#-*-- 


-चोदहवौं अध्याय 
वृषभासुर-वध 


भ्रोपराश्चर उवाच 

्दोषाग्रे कदाचित्तु रासासक्ते जनाद 
त्रासयन्समदो गोष्ठमरिसपणुपागमत्‌ ॥ १ ॥ 
सतोयतोयदच्छायस्तच्णशृङ्खोऽकेरोचनः । 
सुराग्रपातेरत्यथं दारयन्धरणीतहम्‌ ॥ २ ॥ 
रेिद्टानस्सनिष्पेषं जिहयोषठौ पुनः पुनः । 
संरम्भाविद्धलाङ्गलः कटिनसकन्धबन्धनः ॥ ३॥ 
उदय्रकङकदामोगप्रमाणो दुरतिक्रमः । 
-विण्मूत्रहिपषृषठाङ्गो गवुदेगकारकः ॥ ४ ॥ 
प्रहम्बकण्टोऽतिधुखस्तस्खाताङ्किताननः | 


पातयन्त गवां गर्भान्दैरयो वृषमरपध्रक्‌ ॥ ५ ॥ 


ना +न) ना, ननन नन्क क 


भीपराशरजी बोज्ञे-एक दिन सायंकार्कै समय 
जब श्रीकृष्णचन्द्र रासक्रीडा आसक्त थे, भरष्ट 
नामक एक मदोन्मत्त असुर [ बृषभरूप धारणकर ] 
सबको भयभीत करता वजमें आया ॥ १॥ उसकी 
कान्ति सजल जरूधरके समान थो, सींग अत्यन्त 
तीक्ष्ण थे, नेत्र सूयेके समान तेजस्वी थे ओर अपने 
सखुरोंकी चोटसे बह मानो प्रथ्वीको फाड़ डारूता 
था।|२॥ बह रदति पीसता हुआ] पुनः-पुनः अपनी 
जिह्वासे ओं्ठोको चाट रहा था, उसने क्रोधवज्च 
अपनी पूंछ उठा रखी थौ तथा उसके स्कन्धबन्धन 
कठोर थे ॥ ३॥ उसके कुद ( कुदान ) ओौर शरीर. 
का प्रमाण अस्यन्त ऊँचा एवं दुकंङ्घ्य था, प्रष्ठमाग 
गोवर ओर मूत्रसे लिथड़ा हुआ थ] तथा वह्‌ समस्त 
गोभोँको भयभीत कर रहा था ॥ ४ ॥ उसकी प्रीवा 
अत्यन्त खम्बी ओौर सुख ब्क्के खोंखछेके समान 
अति गम्भीर था। बह बुषभरूपधारी दैत्य गौभोके 
गभो गिराता भौर तपस्ियोको मारता हुभा सदा 





ततस्तमतिषोराक्षमवेकष्यातिभयातुराः । 
गोपा मोपक्षियश्चेव कृष्ण कृष्णेति चुक्‌ शुः ॥७॥ 
सिंहनादं ततश्चक्रं तरशब्दं च केश्यः । 
तच्छब्दश्रवणाच्चासो दामोदरघुपाययो ॥ ८ ॥ 
अग्रन्यस्तविषाणाग्रः कृष्णक्ुक्षिकृतेक्षणः । 
अभ्यधातचत दुष्टात्मा कृष्णं वषमदानवः ॥ ९ ॥ 
आयान्तं दैत्यवरृषमं दृष्टा कृष्णो महावर; । 


न चचा तदा स्थानादवज्ञास्मितरीखया ॥१०॥ 
आसन्नं चेव जग्राह ग्राहभन्मधृष्दनः। 
जघान जानुना डुक्षौ विषाणग्रहणाचलम्‌ ॥११॥ 
तस्य दपेवलं भ्क्त्ा गृहीतस्य विषाणयोः। 
अपीडयदरिषटस्य कण्ठं क्रि्नमिवाम्बरम्‌ ॥१२॥ 
उत्पा श्रङ्गमेकं तु तेमैवाताडयत्ततः । 
ममार स महादैत्यो युखाच्छोणितघ्दमन्‌ ॥१२॥ 
तष्ुव्िहते तस्मिन्दैत्ये गोपा जनार्दनम्‌ । 

जम्भे हते सदक्ताक्षं पुरा देषगणा यथा ॥ १४॥ 





तब उस अति भयानकं नेच्रोंवाछे दैप्यको देख- 
कर, गोप ओर गोपाङ्कनाएं भयभीत होकर शृष्ण, 
कृष्णः पुकारने ठगी ॥ ७ ॥ उनका शम्द सुनकर 
श्रीकेशचवने पोर सिंहनाद्‌ किया भौर तारी वज्ञायी | 
उसे सुनते ही बह श्रीदामोदरके पास आया ॥ ८ ॥ 
दुरात्मा ब्रषभासुर आगेको सींग करके तथा कृष्ण. 
चन्द्रकी कुक्षिमं दृष्टि रगाकर उनकी ओर दौड | ९॥ 
किन्तु महाबलो कृष्ण व्रषमासुरको अपनी ओर 
आता देख अवदहेलनासे ीरापूवक मुसकाते हूए 
खस स्थानसे विचितं न हुए ॥ १० ॥ निकट अआगने- 
पर श्रीमधुसुदनने उसे इस प्रफार पकड़ लिया जैसे 
माह किसी क्षुद्र जीवको पकड छेता है; तथा सींग 
पकडनेसे अचल हुए उस दैत्यकी कोखमे घुरनेसे 
परहार किया ॥ ११॥ 


इस प्रकार सींग पकड़ हुए उस दैव्यका दपं 
भंगकर भगवान्‌ने अरिष्टासुरकी प्रीवाको गीठे बश्- 
कै समान मरोड़ दिया ॥ १२॥ तदनन्तर उसका 
एक सींग उखाडइकर उससे उसपर आघात किया 
जिससे वह्‌ महादैत्य मुखसे रक्त वमन करता हुभा 
मर गया ॥ १३ ॥ पूचेकाङम जम्भक मरनेपर जैसे 
देवताओँने इन्द्रकी स्तुति की थी उसी प्रकार अरिष्टा 
सुरके मरनेपर गोपगण श्रीजनादेनकी भ्रशंसा करने 
लगे ॥ १४॥ 


° -+ ~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽरो चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥ 


६/9 





पदरहवा मध्याय 
कं सका ्रीृष्णको बुलानेके लिये यक्रूरको भेजना 


श्रीपराञ्चर उवाच 
फडति हतेऽरिषटे धेनुके विनिपातिते । 
प्ररम्मे निधनं नीते धरते मोवधनाचके ॥ १ ॥ 
द्मिते कारयि नागे भग्ने त॒ङ्गूमहये । 
हतायां पूतनायां च शकटे परितिते ॥ २॥ 
कसाय नारदः प्राह यथाच्ृत्तमनुक्रमात्‌ | 
यशोदादेवकीगभंपरिवच्या्यशेषतः 
वि० पु० ५३ 


धीपराशर्ञी बोरे-वुषभरूपधारी अरिषटासुर, 
धेनुक ओर प्रङम्ब आदिका वध, गोवधनपवे्तका 
धारण करना, काडियनागका दमन, दो विश्चाल 
वृक्षका उखाडना, पूतनावध तथा शकटका उख्ट 
देना आदि अनेक लां हो जानेपर एक दिन 
नारदजीने कंसको यरोदा ओौर देव कौके गमे-परि- 
वतेनसे ठेकर जैसा-जैसा हुआ था, वह्‌ सव वृत्तान्त 


| २ ॥ | करमशः सुना दिया ॥ १-३॥ 








४१८ 


श्रता तरछकरं कंसो नारदादेवदञषन।त्‌ । 
घमुदेवं प्रति तदा कोपं चक्र सुदुमतिः ॥४॥ 
सोऽतिक्ोपादुपाहृभ्य सवंयादबससदि । 
अग याद्वादचैव कारय चैतदचिन्तयत्‌ ॥ ५ ॥ 
यावन्न वहमरारूटौ रामढष्णो सुबारकरो । 
तावदेव मया वध्यावसाध्यौ रूढयोप्रनौ ॥ & ॥ 
चाण्रोऽत्र महावीयं बुषटिकथच मदाबरः । 
एताभ्यां मह्युद्धेन मारयिष्यामि दमती ॥७॥ 
धलुरमहमहायोगव्याजेनानीय तौ वलत्‌ । 

तथा तथा यतिष्षामि यास्येते सदक्षयं यथा ॥८॥ 
शरफल्कतनयं बुरमक्ररं यदुपुङ्गवम्‌ । 
तयोरानयनार्थाय प्रेषयिष्यामि गोङुम्‌ ॥९॥ 
ृन्दाबमचरं घोस्मादेकष्यामि च केशिन्‌ । 
तप्ैवासावतिवरुस्तावुमौ षातयष्यति ॥१०॥ 
गजः कुवलयापीडो मरछकाशमिदहागतो । 
घातयिष्यति बा गोपौ वसुदेवसुतावुभौ ॥११॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 
इत्यालोच्य स दुखा कंसो रामजनार्दनौ । 
हन्तुं कृतमति्बीरावक्र रं वाक्यमत्रभीत्‌ ।१२॥ 
कंस उवाच 

भो मो दानपते षाक्यं क्रियतां प्रीतये मम। 
इतः स्यन्दनमारुह्य गम्यतां नन्दगोकुलम्‌ ॥१३२॥ 
वसुदेवघुतौ तत्र विष्णोरशसगुद्धवौ । 
नाशाय किर सम्भूतौ मम दुष्टौ प्रवद्रतः ॥{४॥ 
धुर्महो ममाप्यत्र चतुदेश्यां मरिष्यति । 
आमेयौ भवता गत्वा मल्हयुद्धाय तत्र तौ ॥१५॥ 
चाभूरयु्टिको मल्लो नियुद्ध मम । 
ताभ्यां सदहानयोुदरंसवडोकोऽअ पयतु ॥१६। 
गजः कुबहूयापीडो महामात्रप्रचोदितः | 





भ्रोबिष्णुपुशम | अ० ९ 


[णाया 


ननन `` 


देवदर्जन नारदजीसे ये सब बातें सुनकर दुचुद्धि 
कंसने बसुदेवजीके प्रति त्यन्त क्रोध प्रकट 
किया | ४ | उसमे अत्यन्त कोपसे वसुदेवजीको 
सम्पूणं यादवोकौ साभ डौँटा तथा समस्त यादवो 
की भी निन्दा की ओौर यह कायं विचारे ख्णा-- 
ध्ये अस्यन्त बाङक राम ओर कृष्ण जवतक पूणं बल 
प्राप्न नहीं करते ह तमीतक सुद्धे इन्द मार पेना 
चाद्ये; क्योकि युवावस्था प्राप्त हानेपर तो ये भजेय 
दो जारयैगे | ५-६॥ मेरे यद्य महावीयञ्चाी चाणर 
ओौर महाव युष्टिक-जैसे मल्ल दै । भँ इनके साथ 
मल्लयुद्ध कराकर उन दोनों दुवुद्धियोको मरता 
डारदगा ।॥ ७॥ उन महान्‌ धमुयज्ञके मिससे बजसे 
बाकर रेसे-फेसे उपाय करगा जिससे वे नष्ट हो 
जाय || ८ उन्दः छनेके ल्ि मँ अफल्कफे पुर 
यादवश्रेष्ठ शूरवीर अक्ररको गोट सेजूंगा ॥ ९॥ 
साथ ही बृन्दावनमे विचरनेवाछे घोर असुर केशी 
को भी ाज्ञारदंगा जिससे बह महावर दैत्य उन्हें 
वहीं नष्ट कर देगा।। १० ॥ अथवा [ यदि किसी 
प्रकार बचकर ] वे दोनों वसुदेव पुत्र गोप मेरे पास 
आमी गयेतौ उन्हुं मेरा ङवछख्यापीड हाथी मार 
डाठेगा ॥ ११॥ 


श्रीपराशर ज्ी बोले-रेसा सोचकर स दुषटास्मा 
कंसने बीरबर राम ओौर कृष्णको मारनेका निश्चय. 
कर अक्रूरजीसे कहा ॥ १२॥ 


कंस बोखा--हे दानपते ! मेरी प्रसन्नताके ल्यि 


आप मेरी एक बात स्वौकार कर छीजिये । यहसि 


रथपर चदुकर आप नम्द्कै गोकुरुको जाये ॥ १३॥ 
वँ वसुर्दैवके विष्णु-्जसे उन्न दो पु ह । मेरे 
नाश्चके लिये उत्पन्न हूए वे दुष्ट बारुक वहाँ पोषित 
हो रहै दै १४॥ मेरे यह चतुदंसीको धनुषयज्ञ 

नेवाला है; अतः आप बह जाकर न्दं मल्लयुद्धके 
द्ये ठे आइये ।। १५॥ मेरे चाणुर आौर मुष्टिक 
नामक मल्ल -युग्म-युद्ध्‌ ( रती ) मे अति कुशल 
है, [ उस धञुयंज्ञके. दिन ] उन दोनोंके साथ 
मेरे इन पहर्वानोका न्द्रयुद्ध यद सव रोग 
देखं ॥ १६ ॥ अथवा महावतसे प्रेरित हज 


.| कुबलयापीड नामक गजराज उन दोनों -दष्ट 


(कक 








स वा हनिष्यते पापौ वसुदेवात्मजो शिशू ॥१७॥ 
तौ हत्वा बसुदेवं च नन्दगोपं च दुम॑तिम्‌ । 
हनिष्ये पितरं चैनघुग्रसेनं सुदुमेतिम्‌ ॥१८॥ 
ततस्समस्तगोपानां गोधनान्यसिलान्यहम्‌। 

वित्तं चाप्हरिष्यामि दुष्टानां मदरेपरिणाम्‌ ॥१९॥ 
त्वामृते याद्वा्चेते द्विषो दानपते मम । 
एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः ॥२०॥ 
तद्‌ निष्कण्टकं सवं राञ्यमेतदयादवम्‌ । 
प्रसाधिष्ये सवा तस्मान्मसरीर्ये वीर गम्यताम्‌ २१ 
यथा च मादिपं सपिदधि चाघ्युायं वै| 
गोपास्समानयन्तायु तथा वाच्यास्स्वय। च ते।२२। 

श्रीपराञ्चर उवाच 

इस्याञ्चपरस्तदक्ररो महाभागवतो दविज । 
प्रीतिमानभवक्छृष्णं शच दरकष्यामीति सरः ॥२२॥ 
तथेत्युक्ता च राजानं स्थमारुदय शोभनम्‌ । 
निशक्राम्‌ ततः पूया सथरुराया मधुप्रियः ॥२४॥ 





वसुदेव-पुत्र वाखूकोको नष्ट कर देगा ॥ १५७॥ 
हस प्रकार उन्है मारकर मै दुमेति वसुदेव, 
नन्दगोप ओर इस अपने मन्दमति पित्ता उग्रसेनको 
भी सार डा्हुगा ॥ १८ ॥ तदनन्तरं मेरे वधको 
इच्छायाटे इन समस्त दुष्ट गोपोके सम्पूणं गोधन 
तथा धनको मै छीन रंगा ॥ १९॥ हे दानपते । 
आपके अतिरिक्तये सभी यादवगण सुश्चसे द्वेष 
करते है, अतः मै क्रमश्चः इन समीको नष्ट करनेका 
प्रयतत करंगा ॥ २०1 क्षिर मै आपके साथ मिलकर 
दस याद्बहौन राज्यको सिर्विस्नवापूवक भोगूा, 
अतः हे वीर! मेरी प्रसश्रताके ल्यि आपस्चीघ्रही 
जाद्ये ।। २१ ॥ जाप गोक्ुमं पर्ुचकर गोपगणोसे 
रस प्रकार कै जिससे वे माष्िष्य ( गैसके ) धृत 
अर दधि आदि उपद्ारोफे महित श्षीघ्रही यहं 
आ जायं ॥ २२॥ 


आपयशरजी शोल्े-हे द्विज ! कंससे एसी 
आज्ञा पा महाभागवत अक्रुरजी कलमैश्चोघ्र दही 
श्रीष्णचन्द्रको देखँगाः-यह्‌ सोचकर अति प्रसन्न 
हुए । २३ ॥ माधवप्रिय अक्ररजी राजा कंससे जो 


आज्ञाः कह एक अति सुन्दर रथपर्‌ चद ओर 
मथुरापुरीसे बाहर निकंढ आये ॥ २४॥ 


-~---*-#-*--- 


इति श्रीविष्णुपुराणे परश्चमेऽरो पञ्चदस्योऽध्यायः ॥ १५॥ 


साललहबबौँ अध्याय 
केशिवध 


- श्रीपराश्चर उवाच 
कैरी चापि बहोदग्रः कसदूतप्रचोदितः | 


छृष्णस्व निधनाकाद्‌पी बृन्दाचनश्पागमत्‌ ॥१॥ 
स॒ खुरक्षतभपृरष्ठस्सयाक्षेपधुताम्बुदः । 
दुतविक्रान्तचन्दराकमा्यो गोपाुपाद्रवत्‌ ॥ २॥ 
तस्य हेपितशब्देन गोपाला दैत्यवाजिनः । 
गोप्यश्च भयसंविग्ना गोविन्दं सरणं ययुः ॥ २ ॥ 





श्रोपराशरजी बोजे-दे भेत्रेय ! इधर कंसके 
दूतद्वारा मेजा हु महावष्टी केञ्ची मी कृष्णचन्द्रके 
वधकी इच्छासे [ घोड़ेका रूप धारणकर ] बरन्दाचन- 
मे आया ॥ १॥ वद्‌ अपने सुरोसे प्रथिवीतलूको 
खोदता, मरीवाके वालोसे बादरोको छिन्न-भिन्र करता 
तथा बेगसे चन्द्रमा भौर सूयके मागको भी पार 
करता गोपोकी भोर दौड़ा ॥ २। उस अश्यरूप 
दैत्य हिनहिनानेके श्षब्दसे भयभीत होकर समस्त 
गोप भौर गो पिया श्रीगो विन्दकौ श्चरणमे भये ॥ ३॥ 


४५० 


११ छ ९ 4 १ ४ 


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------------------ ~~~ 


त्राहित्राहीति गोविन्दः शरुत्वा तेषां ततो वचः। 
सतोयजहृदध्वानगम्भीरगिदयुक्तवान्‌ ॥ ४ ॥ 
अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः कि भयातुरः । 


भवद्धिरगोपज्ञातीयैवीरमीयं विलोप्यते ॥ ५॥ 


किमनेनाल्पसारेण हेषिताटोपकारिणा । 
देतेयवहवाचेन वल्गता दुष्टवाजिना ॥ ६ ॥ 


एदि दुष्ट कृष्णोऽहं पूष्णसित्िव पिनाकश्क्‌ । 
पातयिष्यामि दश्नान्वदनादखिलंस्तव ॥ ७ ॥ 
इत्युक्सास्फोखय गोविन्दः केरिनस्सम्धुखं ययो । 
विवृतस्य सोऽप्येनं दैतेयाश्च उषाद्रवत्‌ ।॥ ८ ॥ 
बाहुमाभोगिनं कता खे तस्य जनादन; । 
प्रवेशयामास तदा केशिनो दुष्टवाजिनः ॥ ९॥ 
केशिनो वदने तेन विक्षता इृष्णबाहुना । 
दातिता दशनाः पेतु; सिताभ्रावयवा इच ।१०॥ 
कृष्णस्य वव्रे बाहु; केिदेहगतो द्वि । 
विनाक्वाय यथा व्याधिरासम्भूतेसपेक्षितः ॥११॥ 
विपाटित बहुकं सफेनं रुधिरं वमन्‌ । 
सोऽक्षिणी विद्ते चक्र विशिष्टे युक्तयन्धने ॥१२॥ 
जघान धरणीं पादैश्वकृनमूत्र सद्ुरसुजन्‌ । 
सवेदा्रंगातरर्यान्तशच नियं र्नस्ोऽभवत्तदा।। १२ 
व्यादितास्यमहारन्प्रस्सोऽसुरः कृष्णबाहुना। 
निपातितो दविधा भूमौ वेदयुतेन यथा द्रुमः ॥१४॥ 


दिपादे पृषटपुच्छदरे भ्रवणेकाक्षिनापिके। 
कैशिनस्ते द्विधाभूते शकर दर विरेजतुः ॥१५॥ 





तब उनके बराहि-त्राहि शब्दको सुनकर भगवान्‌ 
करष्णचन्द्र सज मेघकी गजना समान गम्भीर 
वाणीसे बोे-॥ ४ ॥ हे गोपालगण ! आपरोग केशी 
( केशचधारी अश्व) सेन डर, आप तो गोप-जातिके 
है, फिर इस प्रकार भयमीत होकर आप अपने 
बीरोचित पुरुषा्थंका छोष्‌ क्यों करते है १ ॥ ५॥ 
यह्‌ अल्पवीर्य, हिनदिनानेसे आतङ्क फैकानेवाछा 
ओर नाचनेवाला दुष्ट अश्च, जिसपर राक्षसगण 
बरुपूवंक चदा करते दै, आपछोगौँका क्या बिगाड़ 
सकता है १1 &॥ 

[ इस प्रकार गोपोको धेयं ्वैधाकर वे केश्ीसे 
कहने छगे-] अरे दुष्ट ! इधर आ, पिनाकधारी 
सीरभद्रने जिस प्रकार पूषाके दौँत उखाड़ थे उसी 
प्रकार मै कृष्ण तेरे मुलसे सारे दत गिरादूँगाः 
। ७॥ पेसा कहकर श्रीगोविन्द उछढकर केश्चीके 
सामने आये ओर वह अश्वरूपधारी दैत्य मी मुंह 
खोकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ८ | तव॒ जनादंनने 
अपनी बाह फेटाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्यके 
मुखम डारुदी ॥९॥ केश्चीफे युखमे घुसी ह 
भगवान्‌ कृष्णकी बाहुसे टकराकर उसके समस्त 
दत शुभ्र मेघखण्डोके समान दुटकर बाहर गिरं 
पड़े | १० ॥ 


हे द्विज ! उत्पत्तिफे समयसे ही उपेक्षा की गयी 
व्याधि जिस प्रकार नाञ्च करमेके छिये बदने लगती 
है उसी प्रकार केङीके देहमे प्रविष्ट हह छृष्णचन्द्रकी 
भुजा बढ़ने र्गी ॥ ११॥ अन्तम भोढठोके फट जानेसे 
वह्‌ फेनसहित रुधिर बमन करने छ्गा भौर उसकी 
रखें स्नायुबन्धनके दीरे हो जानेसे पट गर्यो 
॥ १२॥ तब बह मलमूत्र छोड़ता हृं प्रथिकीपर 
वैर पटकने ढगा, उसका शरीर पसरीनेसे भरकर 
ठंडा पड़ गया ओर बह निर्चेष्ट हो गया ॥ १३॥ 
दस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको भुजासे जिसके सुखका 
विश्ञाल रन्ध्र कैथा गया है वह्‌ महाम्‌ अघुर 
मरकर बजरपातसे गिरे हुए वृक्चके समान दौ खण्ड 
होकर पएरथिवीपर गिर पड़ा ॥ १४॥ केशोके शरीरके 
वे दोनों खण्ड दो पौव, भाषौ पौठ, आधौ पूंछ तथा 
एक-एक कान-्जख्ल ओर नासिकारन्धसदहित 
सुञ्योभित हुए ॥ १५॥ 


अ० १६1] 


पेश्चम्‌ अश्च 


४२१ 








हत्या तु कैशिनं कृष्णो भोपालेदितैकतः । 
अनायस्ततसुस्स्वस्थो दसंस्तत्रेव तस्थिवान्‌ ॥१६॥ 
ततो गोप्यश्च गोपाश्च हते केशिनि विसिमिताः । 
त॒ष्टुवुः पुण्डरीकाक्षमनुरागमनोरमम्‌ ॥१७॥ 
अथाहन्तर्हितो विग्र नारदो जलदे स्थितः । 

केशिनं निहतं दृष्टा हपनिभेरमानसः ॥१८॥ 
साधर साधु जगन्नाथ लीख्यैव यदच्युत । 
निहतोऽयं त्वया कैरी क्लेशदसखिदिवौकसम्‌।१९। 
ुद्धोरसुकोऽहमत्यथं नरवाजिमहाहवम्‌ | 
अभूतपूमन्यत्र द्रष्टुः स्वर्गादिद्यगतः ॥२०॥ 
कर्माण्यत्रावतारे ते कृतानि मधुघ्दन । 

यानि तैर्विरिमतं चेतस्तोपमेतेन मे गतम्‌ ॥२१॥ 
तुरङ्गस्यास्य शक्रोऽपि कृष्ण देवाश्‌ विभ्यति । 
धुतकेसरजारस्य हेषतोऽभ्रावलोकिनः ॥२२॥ 
यस्माच्येष दुष्टात्मा हतः कैश जनादन । 
तस्मातकेशवनाम्ना स्वं रोक ख्यातो भविष्यश्चि २३ 
स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि कसयुदधेऽधुना पुनः । 
परश्ोऽदं समेष्यामि त्वया केशिनिषूदन ॥२४॥ 
उग्रसेनषुते कंसे सानुगे विनिपातिते । 
भारावतारकर्ता तं पृथिव्याः परथिवीधर ॥२५॥) 
ततरानकश्रकाराणि युद्धानि पृथिवीक्षिताम्‌ । 
द्रष्टव्यानि मयायुष्मसरणीतानि जनादन ॥२६॥ 
सोऽहं यास्यामि गोचिन्द देवकायं महछृतम्‌। 


$ 
1 





दस प्रकार केश्ीको मारकर प्रसन्नचित्त ग्वाल 
बालोंसे धिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र विना श्रमके स्वस्थ- 
चित्तसे हसते हए बही खड़े रहे । १६ ॥ तव कैञ्चीके 
सारे जानेस विस्मित हुए गोप ओर गोपिर्योने 
अनुरागवरा अत्यन्त सनोर प्रतीत होनेबाल्ते 
कमछूनयन श्रीहयामसुन्दरकी स्तुति की ॥ १५७॥ 


हे विप्र! उसे मरा देश मेघपटल्भे छिपे हुए 
श्रीनार्दजी हर्षितचित्तसे कहने खगे-। १८॥ “हे 
जगन्नाथ ! हे अच्युत ! अप धन्यै धन्य है| 
अहा ! आपने देवताओंको दुःख देनेवाले इस केशी. 
को लीरासे हयी मार डाङा॥ १९॥ मै मनुष्य भौर 
अश्वक इस अभूतपूवं ( प्रहे कभी न होनेवाके ) 
युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त इत्कण्डठित होकर 
स्वर्गसे य्ह आया था ॥२०॥ हे मधुसूदन) 
आपने अपने इस अवतारमे जो-जो कमे किर 
उनसे मेया चिन्त अस्यन्त विस्मित ओौर सन्तुष्ट हो 
रहा है ॥ २१॥ है एृष्ण ! अपनी सटाओंको फड़- 
फड़निवाले ओर हीस-हींसकर अआकाङको भौर 
देखने इस घोड़ेसे तो समस्त देवगण ओर इन्द्र 
भी डर जाते ये॥ २२९॥ हे जनादन ! आपने इस 
दुष्टात्मा कैशीको मारा; इसल्यि आप लोकमें 
“केश्वः नामसे विख्यात होगे 11 २२1 हे केङिनिपूदन ! 
आपका कल्याण हो, अव मै जाता हं । परसो कंसके 
साथ आपका युद्ध होनेके समय यै फिर आगा 
॥ २४ ॥ हे प्रथिचीधर ! अनुगामियोंसहित दम्रसेनके 
पुत्र कंसके मारे जानेपर आपे प्रथिकीका भार उतार 
दमो | २५॥ हे जनादन ! उस समय मै अनेक 
राजाओंके साथ आप आयुष्मान्‌ पुरुषके कये हर 
अनेक प्रकारके युद्ध देूरा ॥ २६॥ हे गोचिन्द्‌ ! 
अब मै जाना चाहता हँ । आपने देवताओंका बहुत 
बड़] कार्यं किया है । आप सभी कुछ जानते ह 
[ मै अधिक क्या कहं !] आपका मंगल हो, मँ 


त्वयैव षिदितं सवं स्वस्ति तेऽस्तु वरजाम्यदम्‌ ॥२७। जाता दर" | २७॥ 


नारदे तु गते ृष्णस्सह गोपेस्माजितः। 


तदनन्तर नारदजीके चले जनेपर गोपगणसे 
सम्मानित गोपियोके ने्रोके एकमा पेय [ अथात्‌ 
इर्य 1 श्रीकृष्णचन्द्र ग्बाखबालेकि साथ गोङ्करमे 


विवेद गोड्छं गोपीनेत्रभानैकभाजनम्‌ ॥२८॥ | प्रवेश किया ॥ २८॥ 


[1 


षे क 9 ॥ रथ 


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॥ चा ५ 


४९२ 





भीरविष्णुपुराण 


| अ० १७५ 








स्हर्वोँ अध्याय 


अकुरज्ीको गोङुखयात्रा 


श्रीपराङ्ञर उवाच 
अ्रुरोऽपि विनिष्क्रम्य स्यन्दनेनाश्ुगामिना। 
ष्णसंददनाकादकषी प्रययौ नन्दमोडम्‌ ॥१॥ 
चिन्तयामास चाक्रूरो नास्ति धन्यतरो मया। 
योऽहमंशावीणंस्य यख द्रक्ष्यामि चक्रिणः ॥२॥ 
अद्य मे सफ़र लन्म सुप्रमातामवन्निश । 
यदुनिद्राभपत्राक्षं विष्णोद्रकष्याम्पहं एखम्‌ ॥३॥ 
पापं हरति यत्पुंसां स्मतं सङ्कल्पनामयम्‌ । 
तत्ुण्डरीकनयनं विष्णोद्र्याम्यहं युखम्‌ ॥४॥ 
विनि्ज्ुय॑तो वेदा वेदाङ्गान्यसिखानि च । 
द्रकष्यामि तत्परं धाम धाम्नां मगवतो एखम्‌ ॥५॥ 
यशञेषु यज्ञपुरुषः पूपैः पुस्पोत्तमः | 
इज्यते योऽखिलाषारस्तद्रह्यामि जगत्पतिम्‌॥।६॥ 
षट यमिन्द्रो यज्ञानां शवेनामरराजताम्‌ । 
अव(प तमनन्तादिमहं द्रक्ष्यामि केशवम्‌ ॥ ७॥ 
न ब्रह्मा नेन्द्ररदराशिवस्ादित्यमस्द्रणाः | 
यस्य खरूपं जानन्ति प्रत्यक्षं याति मे हरिः ॥८॥ 
स्बास्मा सवंवितसरवस्सर्वभूतेष्यवस्थितः । 
यो धचिन्त्योऽन्ययो व्याप स वध्यति मया पह ९ 
मतस्यद््बराहाश्पिदरूपादिभिः स्थितिम्‌ । 
चकार जगतो योऽजः सोऽ मां प्ररपिष्यति॥१०॥ 
साम्प्रतं च जगस्छामी कायेमातहदि स्थितम्‌| 


कृतं मचष्य † प्रा्रस्स्येच्छादेधशयव्यय, ।? 9। 








शरीपराशरजी बोले--अक्रूरनी भौ तुरंत ही. 


मथुरापुरीसे निकलकर श्रीकरष्ण-दशंनकी लालसासे 
एक सीधरगामी रथद्यारा नन्दजीके गोकुख्को चे 
॥ १॥ अक्रूरजी सोचने कगे-भाज सुञ्च-जेसा 
बड़भागी ओर कोई नहीं है, क्योकि अपने अंशस 
भवतीणं चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान्‌का मुख मेँ अपने 
नेसे देगा ॥ २॥ आज मेरा जन्म सफर हो 
गया; आजकी रात्रि [ अवश्य ] सुन्दर प्रभातवाली 
थी, जिससे कि भँ आज खिढे हुए कमलके समान 
नेत्रवाले श्रीषिष्णुभगवान्‌े मूलका दश्चन कर्गा 
॥ २ ॥ प्रमुका जो संकल्पमय मुखार विन्द्‌ स्मरण. 
मात्रसे पुरुषोके पोको दूर कर देताष्ै आजं 
विष्णुभगवानके उसी कमलनयन सुखको देखुंगा 
॥ ४ ॥ जिससे सम्पूणं वेद्‌ भौर वेदाङ्गोकी दप्ति 
हुई दे । आज मँ सम्पूण तेजस्ियोके परम आश्रय 
चसी भगवत्‌-मुखारविन्दका दशन करूंगा ॥ ५॥ 
समस्त पुरुषोके द्वारा यज्ञम जिन अखि विश्वके 
आधारभूत पुरुषोत्तमका यज्ञपुरुष-रूपसे यजन 
( पूजन ) किया जाता है आज मै उन्हीं जगत्पत्तिका 
दछन करंगा ।। ६ ॥ जिनका सौ यज्ञस यजन करके 
दृनद्रने देवराज-पदवी प्राप्तकी है, भाजै उन्दी 
अनादि भौर अनन्त केरावका दशन फरछगा 1 ५७॥ 
जिनके स्वरुपको ब्रह्मा, इन्द्र सद्र, अश्िनीकुमार, 
वसुगण, भादित्य ओर मरुद्गण जादि कोई भी 
नहीं जानते, आज वे हदीहरिमेरे नेत्रोके विषय 
होगे ॥८॥ जमो सर्वस्मा, स्षंज्ञ, स्वस्वरूप ओर 
सब भूतोभिं अवस्थित दै तथा जो अचिन्त्य, अन्यय 
ओौर सवयापक दै, अटो ! आज स्वयं वे ही मेरे 
साथ वातं करगे ॥ ९॥ जिन अजन्माने मत्स्य, 
कूम, वराह्‌, हयग्रीव ओौर चसह आदि रूप धारण- 
कर जगतकी रक्षाकीदै भाजवेही सुद्वसे बातौ- 
काप करगे ॥ १०॥ 

(स समय उन भभ्ययात्मा जगसभुने अपने 
मनम सोचा हुआ कायं करनेके छथि अपनी हौ 


= = 
= ~ + १ {नञा ॐ 11 991 











योऽनन्तः परथिवी धत्ते रेखरस्थितिसंस्थिताम्‌ । 


सोऽवतीणौँ जगद्यर्थे साम्ररेति वक्ष्यति ॥१२॥ 
पितपत्रृद्भादमातुबन्धुमयीमिमाय्‌ । 
यन्मायां नारुप्रत्ततं जगत्तस्पै नमो नमः ।॥१३॥ 


तरत्यविधां विततां हृदि यरिमनिवेरिते । 
योगमायाममेयाय तस्मै धिचास्मने नमः ॥१४॥ 
यञ्वमिर्थपुरपो वासुदेवश्च सास्वतैः | 
वेदान्तवेदिमिर्विष्णुः प्रोच्यते यो नतोऽस्मि तभ्‌ १५ 
यथा यत्र जगद्धाम्नि धातर्येत्प्तिष्ितम्‌ । 
सदसततेन सरयेन मय्यसौ यात्‌ सोभ्यततम्‌ ।१६॥ 
ररते सकलकल्याणभाजनं यत्र॒ जायते । 
पुरुषस्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं दरिम्‌ ॥१७॥ 


श्रीपरादर उवाच 


हत्थं सश्चिन्तयन्विष्णु भक्तिनभ्रास्ममानसः। 
अक्र गोलं पराप; किश्चिस्छर्े विराजति ॥१८॥ 
स ददर्शं तदा कृष्णमाद्‌वादोहने गवाम्‌ | 
ब्समध्यगतं पन्ननीरोत्यरदरच्छबिम्‌ ॥ १९॥ 
्रफुल्लपदापतरा्षं श्रीषस्साङ्कितवक्षसम्‌ । 
प्रलम्बबाहुमायामतुज्ञोरःस्थरुधच्सम्‌ ॥२०॥ 
सविरासस्मिताधारं बिभ्राणं युलपङ्कजम्‌ । 
तुङ्गरक्तनखं पद्भ्यां धरण्यां सुप्रतिष्टितम्‌ ॥२१॥ 
बिभ्राणं बाससी पीते वन्यपुष्पविभूषितम्‌ । 
सन्ुनीलाचलाभं तं सितास्भोजावतंसकम्‌ ॥२२॥ 


हंसङन्देन्दुधवलं नीलाम्बरधरं दिज । 


तस्यात ब्रम च दद्य यदुनन्दनम्‌ ॥२२ 











जो अनन्त ( शेषजी ) अपने मस्तकपर रस्खी इई 
प्रथिकीको धारण करते है, संसारके हिते लिये 
अवतीणहृएवे हौ आज मुश्नसे अक्रूर कहकर 
धोखे ॥ १२॥ 

“जिनकी इस पिता, पुत्र, सुद्‌, भ्राता, माता 
ओर बन्धुरूपरिणी मायाको पार करने संसार सवथा 
असमथ है डन मायापतिको बरवार नमस्कार है 
॥ १३ ॥ जिनमे हृदयको खगा देनेसे पुरुप इस 
योगमायारूप विस्त अविद्याको पार कर जाता है 
उन विद्यास्वरूपर श्रीहरिको नमस्कार ह । १४॥ 
जिन याज्ञिकं रोग यज्ञपुरुषः, सात्वत ( यादव 
अथवा भगवद्भक्त) गण (वासुदेव! ओर वेदान्तवेत्ता 
“विष्णुः कते दै उन्हं बारंबार नमस्कार हे ॥ १५॥ 
जिस ( सव्य } से यह्‌ सदसद्रूप जगत्‌ इस जगदा 
धार बिधातामें ह स्थित है डस सतव्यवख्सेहौवे 
प्रमु युक्षपर प्रसन्न हं ।॥ १६ ॥ जिनके स्मरणमान्रसे 


पुरुष सवंथा कल्याणपा्च हो जाता दै, मै सवदा 
उन अजन्मा हरिकी क्षस्णमें प्राप्न होता हू ॥ १७॥ 


भीपराशरजी बोले--हेः मेत्रेय ! भक्तिविनन्र- 
चित्त अक्ररजी इस प्रकार श्रीविष्णुभगवानका 
चिन्तन करते फुछ-कुक सूयं रहते दी गोुलमे पर्हुच 
गये ॥ १८॥ वहाँ पहुंचनेपर पहठे उन्दने खिले हुए 
नीककमख्को-सौ कान्तिवाटे श्रीकृष्णचन्द्रको गौओंके 
दोहन-स्थानमे बचछडोके बीच विराजमान देखा 
| १९॥ जिनके नेत्र लि हृए कमलके समान थे, 
वक्षःस्थलमे ध्रीवत्स-चिह सुशोभित था, युजा 
ठवी-खंत्री थी, वक्षःस्थल विङाक भौर ऊचाथा 
तथा नासिका उन्नत थी॥२०॥ जो सविलास 
हासथयुक्त मनोहर मुखारविन्दसे सुक्चोभित थे तथा 
उन्नत ओर रक्तनखयुक्त चरणोँसे ए्रथिवीपर बिराज 
मानथे॥२९१॥ जोदो पीताम्बर घारणक्यिये 
न्यपुष्पोसे बिभूषित थे तथा जिनका इवेव कमलके 
आभूषणोसे युक्त शयाम शरीर सचन्द्र नोचे 
समान सुशोभित था ॥ २२॥ 


हे द्विज ! श्रीत्रञजचन्द्रके पीछे उन्दने हस, छन्द 
आर चन्द्रमाके समान गौरबणे नीलाम्बरधारी 
यदुनन्दन श्रीबलभद्रनीको देखा ॥ २१ ॥ 


४२४ 


भीविष्गुपुराण 


[ अ० १७ 





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प्राशुदतङ्गबाहसं विकासिश्ुखपङ्कजम्‌ । 
मेधमालापरितं केलासाद्रिमिषाप्रम्‌ ॥२४। 


तौ दुष्टर विकसदक्त्रसरोजः स महामतिः| 
पूलकाश्चितसवाङ्गस्तदाक्ररो ऽभवन्मुने ॥२५॥ 
तदेतत्परमं धाम तदेतत्परमं पदम्‌ । 
भगवद्रासुदेवांशो द्विधा योऽयं व्यवस्थितः ॥२६॥ 
साफल्यमषष्णोयुंगमेतदत्र 

ष्टे जगद्धातरि यातश्च्चैः | 
अप्यङ्गपेतद्भगव्रसादा- 

त्दङ्गसद्धे एखवन्मम स्यात्‌ ॥२७॥ 
अप्येष पृष्ठे मम्‌ हस्तपश् 

करिष्यति भ्रीमदनन्तमूर्तिः । 
यस्याङ्गरिस्पशंहताखिलायै- 

~ एवाप्यते सिद्विरपास्तदोषा ॥२८॥ 

येनाभिविद्यद्रविररिमिमासा- 

करारमयुग्रमपेतचक्रम्‌ । 

५ ¢ 

चक्रं घ्नता दै्यपतेहतानि 

दत्याङ्गनानां नयनाञ्जनानि॥ २९॥ 
यत्राम्बु बिन्यस्य बलिमनोक्ता- 

नवाप सोगान्वसुधातलस्थः। 
तथामरखं प्रिदश्चाधिपसं ॥ 

मन्वन्तरं पूणमपेतशत्रम्‌ ॥३०॥ 
अप्येष मां फसपरि्रहेण 

दोषारपदीभूतमदोषदुष्टम्‌ । 
कर्तावमामोपहतं धिगस्तु 

तजन्म्‌ यत्साधुवदिष्छतस्य ।२१॥ 
ज्ञानात्मकस्यामटसराशे- 

रपेतदोषस्य सदा स्फुटस्य | 
कि वा जगत्यत्र समस्तपुसा- 

मज्ञातमस्यास्ति हृदि स्थितस्य॥३२॥ 
तस्मादहं भक्तिविनम्रचेता 

मजामि सवेश्वरमीश्चरणाम्‌ । 


अंशावतारं पुरषोत्तमस्य 
दानाधिमि्यालतद्तस्य तिषणो, }} 2२) 














जिनको सुजा विश्ञार थी, कन्पे च्न्नत ये, युखार- 
विन्द खिला हुभा या तथा जो मेषमारासे धिरे हए 
दूसरे केलासपवे्तके समान जान पडते थे ॥ २४॥ 
दे मुने ! उन दोनों बाकोको देखकर सहमति 
अक्ररजौका युखकेमल प्रफुल्लित हो गया तथा रनके 
सवाग पुरुकाबटी छा गयी ॥ २५॥ [ ओौरवे 
मन-दी-मन कष््ने क्गे- ] इन दो रूपोमे जो यह 
भगवान्‌ बासुदेवका अंश स्थित दहै बही परमधाम 
है भौर वही परमपद दहै ॥ २६ ॥ इन जगद्िधाताके 
दोन पाकर आज मेरे नेघ्रथुगल तो सफर हो गये; 
किन्तु क्या अब भगवस्छृपासे इनका अंगसंग पाकर 
मेरा रौर भी कृतकृत्य हो सकेगा १ ॥ २७॥ 
जिनको अंगुल्लीके स्पशे मात्रसे सम्पूणे पापोसे मुक्त 
हए पुरुष निर्दोपसिद्धि ( कैवल्यमोक्ष ) प्राप्न कर 
ठेते टै क्था वे अनन्तमूर्ति श्रीमान्‌ हरि मेरी पीर- 
पर अपना करकमरू रखेगे ?॥ २८॥ जिन्न 
अग्नि, विद्युत्‌ ओौर सूयंकौ किरणमाङाङे समान 
अपने उग्र चक्रक प्रहारकर्‌ दैत्यपतिकी सेनाको नष्ट 
करते हुए असुर-युन्दरियोंकी ओंखोके अज्ञन धो 
डे थे॥ २९1 जिनको एकं जरूविन्दु प्रदान 
करनेसे राजा बलिने प्रथिकीतलमे अति मनोक्ञ भोग 
ओर एक सन्वन्तरतक दैवत्व-लाभपुबक शन्ुविहीन 
इन्द्रपद प्राप्न किया था ॥ ३०॥ वे ही विष्णुभगवान्‌ 
मुद्च निर्दोषको भौ कंसके संसर्गसे दोषी ठद््याकर 
क्यामेरी अवज्ञाकर दंगे? मेरे एेसे साघुजन- 
बहिष्छत पुरुषफे जन्मको धिक्षार दै ॥ ३१॥ अथवा 
संसारम पेली कौन वस्तुदहैजो उन ज्ञानस्वरूप, 
युदधसन्त्वराकि, दोपदीन, नित्यभ्रकाज्च ओर समस्त 
भूतोके हृदयस्थित प्रञुको बिदितनदहो?॥२२॥ 
अतः मे डन ईश्रोके ईशर, आदि, मध्य ओौर अन्त 
रहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुके अंशञावतार 
भ्रीकृष्णचन्द्रके पासन भक्तिविनम्रचित्तसे जाता हं । 
[सुक्े पूणं आश्ाै, वे मेरी कभी अवज्ञान 


०, 1] ।, ~~ 


अटारहव। 


अध्याय 


भगवानूका मथुराको प्रस्थान, गोपियोकी विरहकथा ओर अक्रुरजीका मोद 


श्रोपराक्ञर उवाच 
स्तयन्निति गोविन्दशरुपगम्य स याद्वः। 


यक्ररोऽस्मीति चरणौ ननाम शिरसा हरेः ॥ १॥ 
सोऽप्येनं ध्वजवजाञ्जकृतविदठेन पाणिना । 


संस्पृश्यादृष्य च प्रीत्या सुगादं परिषिसखजे ॥२॥ 
कृतसंबन्दनौ तेन॒ यथाबद्भरकेशबौ । 
ततः प्रविष्टौ संहृष्टौ तमादायात्ममन्दिरम्‌ ॥ ३॥ 
सह ताभ्यां तदाकरूरः कृतसंबन्दनादिकः । 
शक्तभोज्यो यथान्यायमाचचक्षे ततस्तयोः ॥४॥ 
यथा निर्भरितस्तेन कंसेनानकटुन्दुभिः । 
यथा च देवकी देबी दानवेन दुरात्मना ॥ ५॥ 
उग्रसेन यथा कंसस्स दुरार्मा च वर्त॑ते । 
यं चैवाथ समुदिकय कंसेन तु विसजितः ॥ ६ ॥ 
तत्सवं विस्तराच्छुत्वा भगवान्देवकीसुतः । 
उवाचाखिरमप्येतन्तातं दानपते मया ।॥ ७॥ 
करिष्ये तन्म्टामाग यदत्रौपयिकं मतम्‌ । 
विचिन्त्यं नान्यथेततते विद्धि कंसं हतं मया। ८॥ 
अहं राम मथुरां श्वो यास्यावस्सह या । 
गोपगद्धाश्च यास्यन्ति ह्यादायोपायनं बहु ।॥९॥ 
निशेयं नीयतां वीर न चिन्तां कतम्सि । 
त्रिरात्राभ्यन्तरे कसं निहनिष्यामि सावुगम्‌॥१०॥ 


श्रीपराश्ञर उवाच 
समादिश्य ततो गोपानक्रुरोऽपि च केशवः । 
सुष्वाप बरभद्रश्च नन्दगोपयहे ततः ॥११॥ 


वि० पु° ५४-- 





श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! यदुवंशी अश्र 
जीने इस प्रकार चिन्तन करते श्रीगोषिन्दके पास 
प्ुचकर्‌ नके चरणो हिर क्ुकाते हए रभ 
अक्रूर हः फेला कहकर प्रणाम क्रिया ॥१॥ 
भगवान्‌ने भौ अपने ध्वजा-वज-पद्याङ्खित करकमलो- 
से नद स्पशेकर ओर प्रीतिपूवंक अपनी ओर खच 
कर गाद्‌ आगन किया ॥ २॥ तदनन्तर अकरूर- 
जीके यथायोग्य प्रणामादि कर चुकनेपर श्रीवलरामजी 
ओर कृष्णचन्द्र अति आनन्दित हो खन्द साथ ठेकर 
अपने घर अये ॥३॥ फिर उनके दारा सल्छृत 
होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकनेपर अक्रूरने 
उनसे वह सम्पूणं वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे 
कि दुरात्मा दानव कंसने आनकदुन्दुभि वदेव ओर 
देवी देवकीको डाटा था तथा जिस प्रकार वहं 
दुरास्मा भपने पिता श््रसेनसे दुभ्यबहार कर रहा 
है ओौर जिसलिये उसने उन्ह ( अक्रूरजीको ) बृन्दा. 
वन मेजा है ॥ ४-६॥ 


भगवान्‌ देव कीनन्दनने यह सम्पूणे वृत्तान्त 
विस्तारपूबेक सुनकर कह1--भ हे दानपते ! ये सब 
मातं मुञ्चे माम हो गयीं ॥ ७ ॥ हे महाभाग ! इस 
विषयमे मुञ्चे जो उपयुक्त जान पड़ेगा बही करूगा । 
अव तुम कंसको मेरेद्ठारा मरा हभ ही समश्चो | 
इसमे किसी ओर तरहका विचारन करो॥ ८॥ 
भैया बलराम शौर्य दोनोँहौी कछ तुम्हारे साथ 
मथुरा चछंगे, हमारे साथ ही दुसरे बड़े-बृदरे मोप 
भी बहुत-सा उपहार ठेकर जायंगे ॥ ९॥ हे बीर ! 
आप यह्‌ रात्रि सुखपूवंक बिताह्ये, किसी प्रकारकौ 
चिन्ता न कौजिये। तीन राच्रिके भीतर मँ कंसको 
उसकै अनुचरोंसहित अवश्य मार डादुगा ॥ १०॥ 


भीपराश्रजी बोज्ञे-तदनन्तर अक्रूरजी, श्री- 
कष्णचन्द्र जौर बलरामजी सम्पूणं गोपोको कंसकी 
आज्ञा सुना नन्दगोप घर सो गये ॥ ११॥ 


` ७४५ 


।1न ` ५९१ ॥ 





ततः प्रभाते विमले कृष्णरामौ महाचुती । 
अक्रूरेण समं गन्तुद्ती मधुरां एरीष्‌ ॥१२॥ 
दृष्टा गोपीजनस्साखः शयद्वलयवाहुकः । 
निःकशवासातिदुःखातत पराह चेदं परस्परम्‌ ॥१३॥ 
मधुरां प्राप्य गोविन्दः कथं गोङ्रमेष्यति । 
नगरस्ीकलालापमधु श्रोत्रेण पास्यति ॥१५४॥ 
विासवाक्यपानेषु नागरीणां कृतास्पदम्‌ । , 
चित्तस्य कथं भूयो ्राम्यगोपीपु यास्यति ॥१५॥। 
सारं समस्तगोष्ठस्य विधिना हरतां हरम्‌ । 

प्रतं गोपयोपिु निष्रेणेन दुरार्मना ॥१६॥ 
मावगभ॑समितं वाक्यं विहासलष्िता गतिः। 
नागरीणामतीवैतस्करक्िक्षितमेव च ॥१५७॥ 
्राम्यो हरिरयं तासां विहछासनिगडेषुंतः | 
भवतीनां पुनः पाश्वं कय। युक्त्या समेष्यति ॥१८॥ 
एपेष रथमारुह्य मथुरां याति केशवः । 
ररेणाकरूरफेणात्र॒निषणेन प्रतारितः ॥१९॥ 
किंन वेत्ति वृशंसोऽयमनुरागप्रं जनम्‌ । 
येनैवमरणोराहादं नयत्यन्यत्रनो हरिम्‌ ।॥२०॥ 
एष रामेण सहितः प्रयास्यस्यन्तनिष्रंणः | 
रथमारुह्य गोषिन्दस्तयंतामस्य वारणे ॥२१॥ 


गुरूणामग्रतो वक्तुं क्रि बरवीषि न नः क्षमम्‌। 
गुरवः किं करिष्यन्ति दग्धानां विरहाभिना ॥२२॥ 
नन्दगोप्खा गोपा गन्तुमेते सथुघताः । 
नोयमं ईरते कथिद्रोबिन्दविनिवततने ॥२३॥ 


सुप्रभाताद्य रजनी मधुरावासियोपिताम्‌ | 


यन या ह 
पास्यन्त्यच्युतवकत्रान्जं यासां नेत्रादिपडुक्तयः। २४|| सुखारविन्दुका 


दूसरे दिन निमे प्रभातकाल होते ह महातेजस्वौ 
राम ओौर छृष्णको अकरूरके साथ मधुरा चलनेकौ 
तैयारी करते देख जिनकी भु नाके कंकण टीके हो 
गये दैवे गोपि्यौं नेत्रो आँसू भरकर तथा दुःखात्ं 
होकर दीघं निःश्वास छोडती हुई परस्पर कहने 
लगीं--॥ १२-१३॥ ५अब मध्ुरापुरी जाकर श्रीः 
कृष्णचन्द्र फिर गोक्ुरमे क्यो आने ठगं ¢ क्योकि 
वहम तो ये अपने कानोंसे नगरनारियोंके मधुर 
आरापरूप मधुका ही पान करेगे ॥ १४ ॥ नगरकी 
[ विद्ग्ध ] वनिताओंके विलासयुक्त ब चनोके रसः 
पानम आसक्तं होकर फिर इनका विन्त गंबारी 
गोपियोंकी ओर क्यों जाने लगा ?॥ १५॥ आज 
निद्यौ दुरात्मा विधातने समस्त व्रजके सारभूत 


: ( सवस्वस्वरूप ) श्रीहरिको षरकर हम गोपनारियोँ 


पर घोर आघात किया है १६ ॥ नगसरकी नारियौ- 
मे भावपूण भुसकानमयी बोट, विासुरूडित गति 


आओौर कटाक्षपूणं चितवनकी स्वभावसे हौ अधिकता 


होरी है । उनके व्रिरास-वन्धनोंसे वँधकर यह प्राम्यं 
हरि फिर किस युक्तिसे तुम्हारे [ हमरे ] पास 
आवेगा !॥ १७-१८॥ देखो, देखो, करर एवं निदेयी 

क्रूरके बहकानेम आकर ये कृष्णचन्द्र रथपर चह 
हए मथुरा जा रहे दै । १९॥ यह्‌ चश्ष॑स अक्रूर 
क्या अनुरागीजनोके हृदयका भाव तनिक भी नहीं 
जानता † जो यह इस प्रकार हमारे नयनानन्द्वधेन 
नन्दनन्दनको अन्यत्र लिये जाता है । २०॥ ईैखो 
यह्‌ अव्यन्त निद्र गोविन्द रामक साथ रथपर 
चदृर जारहै दहै; अरौ! इन्द रोकनेमे शीघ्रता 
करो ॥ २९१॥ 


[ इसपर गुरुजनोके सामने पेखा करनेमे 
असमथेता प्रकट करनेवाली किसी गोपीको रक्ष्य 
करके उसने फिर कहा--] “अरो ! तू क्या कहू रहौ 
है “कि अपने गुरुजनोके सामने हम एेसा नही कह 
सकतीं १ भला अव विरहाग्निसे भस्मोभूत हृ 
हमरो गोका गुरुजन स्या करगे १।॥ २२॥ देखो 
यह नन्दगोप आदि गोपगण भी उन्हीके साथ जाने 
की तैयारी कर रहे दै । इनमेसे भी कोई गोविन्दको 
लौटानेका प्रयत्न नहीं करता ॥ २३ ॥ आजको रात्रि 
मथुरावासिनी स्ियोके च्यि सुन्दरे प्रभातवाली 

है, क्योकि आज उनके नयन-भूङ्ग श्रीअ््युततके 
मकरन्द्-पान करेगे ॥ २४६॥ 


अ० १८ ] 





पश्चभम अश्च 


४२७ 








धन्यास्ते पथि ये कृष्णमितो यान्त्यनिवारिताः। 
उददिष्यन्ति पयन्तसस्वदेहं पुरुकाच्ितम्‌॥२५॥ 
मथुरानगरीपौरनयनानां महोत्सवः । 
गोविन्दावयवैरष्टैरतीवा्य भविष्यति ॥२६॥ 
को लु सप्नसमाग्याभिचटस्ताभिरधोक्षजम्‌ । 


विस्तारिकान्तिनयना या द्रकष्यन्स्यनिवारिताः। २७. 


श्रहो गोपीजनस्यास्य दशषयिल्या महानिधिम्‌ । 
उत्छृतान्यद् नेत्राणि बिधिनाकरुणात्मना ॥२८॥ 
अनुरागेण शेथिल्यमस्माघ व्रजिते हरौ । 
रोथिल्यभुपयान्त्याशु करेषु वरयान्यपि ॥२९॥ 
अक्रूरः जरहुदयद्शौघ प्रेरयते हयान्‌ । 
एवमार्ता योषि कृषा कस्य न जायते ॥३०॥ 
एष कृष्णरथस्योचेश्चक्ररेणु्मिरीदयताम्‌ । 
दूरीभूतो हस्विन सोऽपि रेणुं रक्ष्यते ॥३१॥ 
श्रीपराशर उवाच 

इत्येवमतिहार्देन  गोपीजननिरीक्षितः | 
तत्याज वजभूभागं सह रामेण केशवः ॥३२।। 
गच्छन्तौ जवनाश्वेन रथेन यद्चुनातयम्‌ । 

प्रप्ता मभ्याहृसमये रासाकररजनाईेनाः ॥३३॥ 


अथाह कृष्णमक्रुरो मवद्धयां तावदास्यताम्‌। 


यावत्करोभि कारिन्ा आद्दिकारणमम्भसि।३४॥ 


श्रीपयाश्चर उवाच 
तथेस्युक्तस्ततस्स्नातस्स्वाचान्तस्प महामतिः । 
दध्यौ ब्रह्म परं विप्र प्रविष्टो यद्ुनाजले ॥ ३५॥ 
फणासदस्रमालाल्य बहभद्रं ददश सः | 
बुन्दमालाङ्गयुनिद्रपसपत्रायतेक्षणम्‌ ॥३६॥ 














जो छोग इधरसे बिना रोक-टोक श्रीकृष्णचन्द्रका 
अनुगमन कररहैदहषे धन्यै, क्योंकि षे उनका 
दशन कसते हुए अपने रोमाञ्चयुक्त शरीरका बहन 
करगे ॥ २५॥ आज श्रोगो विन्द्के अगप्त्यगोको 
देखकर मथु तनासियोकि नेन्नौको अत्यन्त मक्षोससब 
शोगा ॥ २६॥ आज न जाने उन भाग्यङा!लिनियोनि 
फेसा कोन शुम स्वप्न देखा दै जो वे कान्तिमय विशाल 
नयनोवाखी ( मथुरापुरीको सिया ) स्वच्छन्द्ता- 
पूवक श्रीअधोक्षजको निहारेगी १ ॥ २७॥ अहो ! 
निष्टुर विधातानि गोपिथोंको महानियथि दिखाकर 
आज उनके नेत्र निकाठ ज्लिये ॥ २८॥ देखो, हमारे 
मरति श्री्रिके अनुरागमे शिधिखता आ जनेसे हमारे 
हथोके कंकण भी तुरन्त हयी दीढे पड़ गये है 
॥ २९॥ भा, हम-जे पी दुःखिनी अवहाओंपर किसे 
दथा न आवेगी १ परन्तु देखो, यह्‌ क्रूरहृदय अक्रूर 
तो बड़ी शप्रतासे घोडोको हाँक॑रदा है !॥ ३० ॥ 
देखो, यह छृष्णचन्द्रके रथकौ धूलि दिखायी दे रही 
हे; किन्तु हा ! अब तो श्रीहरि इतनी दुर चछे गये 
किं बह धूढछि भौ नहीं दीखती" ॥ ३१॥ 


भीपराश्चरजी बोल्े-इस प्रकार गोपियोके अति 
अनुरागसदहित दैखते-देखते श्रीरष्णचन्द्रने बराम- 
जके सहित ब्रजमूमिको त्याग दिया ॥ ३९॥ तव 
वे राम, छृष्ण ओर अक्रूर शोघ्रगामौ घोड़वारे 
रथसे चहते-चलते मधभ्याहके समय यञुनातटपर्‌ 
आ गये ॥ ३३ ॥ वर्ह पहुचनेषर अक्रूरने श्रीकृष्ण 
चन्द्रसे कहा--“जबतक मै यमुनाजलमे मध्याह- 
काटीन उपासनासे निवृत्त हो तत्तकं आप दोनाीं 
यहीं विराजं" ॥ ३४ ॥ 

श्रीपराश्रजो बोले-दहे विप्र ! तव भगवान्‌के 
वहत अच्छा' कहनेपर महामति अक्रूरजी यञुना- 


जकमं घुसखकर स्नान भौर आचमन दिके अनन्तर 
परबरह्मका ध्यान करने लगे॥ २५॥ उस समय छन्होने 


देखा कि वल्मद्रजी सहस्फणावरिसे सुशोभित ई, 
उनका शरोर कुन्दमाङाभोके समान [ञुभ्रवणे] है तथा 
नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विज्ञाङ दै ॥ ३६॥ 





# कंकणोका ढीला होना यह प्रदक्ित करताहै कि वे श्रीकृष्णचन््रके भावी विरहकौ भशद्धुसे ही बहत 


न क, मन „4 





वृतं वासुकिरस्भावैमेहद्धिः पवनारिमिः । 
संस्तूथमानुदन्थिवनमालविभुषितम्‌ ॥३७॥ 
दधानमिते वञ्च चार्पश्मावतसक्रम्‌ । 
चारकरुण्डरिनं मान्तमन्तजंहतले स्थितम्‌ ॥३८॥ 
तस्योत्सङके घनश्याममाताम्रायतलोचनम्‌ । 
चतुबहुषुदाराङ्ध चक्राद्यायुधभूपणम्‌ ॥३९॥ 
पीते वसानं वसने चित्रमास्योपोमितम्‌। 
रक्रचापतटिन्माङाविवित्रमिव्र तोयदम्‌ ॥४०॥ 
श्रीवत्सवक्षसं चार्‌ स्फुरन्मफरदुण्डलम्‌ । 

दुद कृष्णमविष्ट पुण्डरीकावतंसम्‌ ॥४१॥ 
सनन्दनाेुनिभिसविद्धयोगैरकन्पपैः । 
सञ्िन्त्यमान तव्रस्येनासिग्रन्यस्तरोचनैः ॥४२। 
बल्ृष्णौ तथाक्रुर प्रत्यभिज्ञाय विस्मितः। 


अचिन्तयद्रथाच्छीघ्र कथमत्रागतातिति ॥४२॥ 
बिवक्षोः स्तम्भयामास वाचं तस्य जनार्दनः । 
ततो निष्क्रम्य सहिलाद्रथमभ्यागतः पुनः ॥४५॥ 
दुदशे तत्र चेबोमौ रथस्योपरि निष्ठितौ । 
रामकृष्णौ यथापूव मुष्यवपुषान्वितौ ॥४५॥ 
निमग्नश्च पुनस्तोये ददं च तथेव तौ | 
संस्तूयमानौ गन्थवुनिसिद्धमहोरगैः ॥४६॥ 
ततो विज्ञातसद्धावस्स त॒ दानपतिस्तदा। 
तष्टा स्विज्ञानमयमच्युतमीरवरम्‌ ॥४७॥ 
अक्रर उवाच 

सन्मात्ररुपिणेऽचिन्त्यमहिम्ने परमात्मने | 
व्यापिने नैकस्पेकस्वरूपाय नमो नमः ॥४८॥ 





_सवैरूपाय तेऽचिन्तय हविभूंताय ते नमः। 


वे वाुक्रि ओर रम्भ आदि भहासर्पोसि धिरकर 
उनसे प्रशं सित हो रहै दै तथा अत्यन्त सुगन्धित 
वनमालाओंसे विभूषित है ।३७॥ वे दो श्याम 
वख धारण किये, कभर्छोक बने हुए सुन्दर आभूषण 
पहने तथा मनोहर इण्डडटी ( गेडली ) मारे जख्के 
भीतर विराजमान दै ३८॥ 


उनको गोदमे उन्दने आनन्दमय कमरभूष्रण 
श्रीकृष्णचन्द्रको देखा, जो मेघके समान यासवण, 
कुछ काल-छ विश्चा्त नयनोँवाष्े, चदुभुं ज, मनोहर 
अंगोपागोंवाले तथा श्चंख-चक्रादि आयुधोसे सुश्चो- 
भित, जो पोताम्बर पने हए ह ओर विचित्र 
वनमाङासे विभूषित दै, तथा [ उनके कारण ] इन्द्र 
धनुष ओर विदयुन्मारामण्डित सज मेधे समान 
जान पडते हैँ तथा जिनके वक्षःस्थलमे श्रोवत्सचिद्ठ 
ओर कानोमिं देदीप्यमान मकराकरत कुण्डङ विराज- 
मान हं ॥ ३९८-४१॥ [ अक्रूरजीने यद भी देखा कि] 
सनकादि मुनिजन ओर निष्पाप सिद्ध तथा योगिजञन 
उस जलें हो स्थित होकर नासिकामर-दष्टिसे उन 
(श्रीकृष्णचन्द्र ) का ही चिन्तन कर रहे है ॥ ४२॥ 


इस प्रकार वहाँ सम भौर कृष्णको पह चानकर 
अक्रूरजी बड़ ही धिस्मित हए ओौर सोचने खगे किं 
ये यहाँ इतनी श्चीप्रतासे रथसे कैसे आ गये १।४३॥ 
जव उन्होने कुछ कहना चाहा तो भगवानूने उनकी 
वाणी रोक दी। तब वे जरसे निकृकर रथके पास 
जये ओर देखा कि वर्ह भी राम भौर कृष्ण दोनों 
दी मनुष्य-शरीरसे पूर्ववत्‌ रथपर बैठे हुए है ॥ ४४ 
४५ ॥ तदनन्तर इन्होने जछ्मे घ्ुसकर उन्हे फिर 
गन्धव, सिद्ध, मुनि ओर नागादिकोसे स्तुति किये 
जाति देखा ॥ ४६॥ तव तो दानपति अक्रूरजी 
वास्तविक र्स्य जानकर उन सवं विज्ञानमय अच्युत 
भगवान्‌की स्तुति करने लने ॥ ४७॥ 


अक्ररजी बोले-जो सन्मान्नस्वरूप, अचिन्त्य- 
महिम, सवेवयापक्‌ तथा [ कायंषूपसे ] अनेक ओौर 
[कारणरूपसे] एक खूप है उन परमात्माको नमस्कार 
हे नमस्कार है ॥ ४८ ॥ हे अचिन्तनीय प्रभो ! आप 
सवंरूप एवं हविःस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार 


अ० १८ ] 


पश्वमं अश्च 


४२९ 








नमो विज्ञानपाराय पराय प्रतेः प्रभो ॥४९॥ है । भप बुद्धिसे अतीत ओर प्रकृतिसे परे दै, आप 





भूतात्मा चेन्द्रियात्मा च प्रधानात्मा तथा मबान्‌। 


आत्मा च परमास्मा च स्वमेफः पञ्चधा स्थितः ।५० 
ग्रसीद सवं सर्वात्मन्‌ क्षराक्तरमयेश्वर। 


नह्य विष्णुशिवास्याभिः कल्पनाभिरूदीरितः ॥५१॥ 





अनाख्येयस्वरूपात्मन्ननाख्येयप्रयोजन । 
अनाख्येयाभिधानं सां नतोऽस्मि परमेश्वर ॥५२॥ 





न यत्र नाथ्‌ विद्यन्ते नामजास्यादिकल्पनाः । 
तदुत्रह्म प्रमं नित्यमविकारि भवानजः ॥५२॥ 
न कल्पनामूतेऽथेस्य सर्वस्याधिगमो यतः। 
ततः छृष्णाच्युतानन्तभिष्णुसं्ञामिरीडयते।५४॥ 
सवा्थास्तवमज _विकल्पनाभिरेतै- 

देषाचैभेवति हि यैरनन्तविश्म्‌ । 
विश्वात्मा त्वमिति बरिकारदीनमेत- 

स्व॑रिमन्न हि मवतोऽसि फिञिदन्यत्‌ ।५५। 
सवं ब्रह्मा पशुपतिरयमा विधाता 

धाता स्व व्रिद्श्पतिस्समीरणोऽप्निः। 
तोयेशो _ धनपतिरन्तकस्तवमेको 














मिन्नारथैजगदभिपासि शक्तिभेदैः ।५६॥ 
विद्वं भवान्सुजति घूयंगभरितसूपो 

विवेश ते गणमयोऽयमतः परपन्चः 
रूपं परं सदिति वाचकमक्षरं य~ 

जक्ञानामने सदुसते प्रणतोऽरिम तस्मे ।५७। 
ॐ नमो बासुदेवाय नमस्संकषणाय च । 
्रह्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरद्राय तै नमः ॥५८॥ 











को बारंबार नमस्कार ह ॥ ४९ ॥ आप भूतस्वरूप 
इन्द्रियस्वरूप ओर प्रधानस्वरूप है तथा आप ही 
जीवात्मा ओौर परमात्मा है। इस प्रकार अप 
अके ह पच प्रकारसे स्थित दै ॥ ५०॥ हे सवं । 
ह सवाोत्मन्‌ ! हे क्ष॒राक्षरमय ईर ! आप प्रसन्न 
होद्ये । एक जप ही ब्रह्मा, विष्णु ओर शिव आदि 
कल्पनाओंसे वणेन कयि जति दहै ॥५१॥ हे 
परमेश्वर ! आपके स्वरूप, प्रयोजन भौर नाम 
आदि सभो अनिवंचनीय है| मै आपको नमस्कार 
करता हँ ५२॥ 


हे नाथ ! जरह नाम ओौर जाति आदि कल्प- 
नाओंका सवथा अभाव है माप्‌ बरही नित्य अवि- 
कारी ओौर अजन्मा परवह्म है । ५३॥ क्योकि 
कल्पनाके बिना किसी भो पदायंका ज्ञान नहीं होता, 
इसलिये आपका दरष्ण, अन्यत, अनन्त ओर विष्णु 
आदि नामोंसे स्तवन फिया जाता है [ वास्तवमे तो 
आपका किसी मी नामसे निर्द्॑ नहीं किया जा 
सकता ] ॥ ५४ ॥ हे अज | जिन देवता आदि 
कत्पनामय पदार्थोसि अनन्त बिन्यकी उसपत्ति हु है 
वे समस्त पदाथ आपह हैँ तथा आपह विक्रार 
हीन आस्मवस्तु है, अतः आप विश्वरूप है। हे 
प्रभो ! इन सम्पूण पदार्थो आपसे भिन्न भौर ङ्र्ठ 
भी नदीं हे ॥ ५५ ॥ आप हौ ब्रह्मा, महदेव, अयमा, 
विधाता) धाता, इन्द्रः वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर 
ओर यमदै। इसप्रकार एक आप ही भिन्न-भिन्न 
कायेवारे अपनी शक्तियोके भेदसे इस सम्पूणं . 
जगत्कौ रक्षाकर रहे ई ॥५६॥ हे बिर्वेशच 
सूयकी किरणरूप होकर भाप ही [वृष्टिद्रारा] विश्धकी 
रचना करते है, अतः यह्‌ गुणमय प्रपच्च आपका 
ही रूप है । (सत्‌' पद्‌ [ "तत्‌ सत्‌ इस रूपसे ] 
जिसका वाचक है बह्‌ द अक्षर आपका परम 
स्वरूप दहै, आपके इस ज्ञानारमा सद्सत्स्वरूप्को 
नमस्कार हे ॥ ५७॥ हे प्रभो ! बासुदेव, संकषण 
प्र्यघ्न ओर अनिरुद्धस्वरूप आपको बारंबार 
नमस्कार हे ॥ ५८॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमऽसे अष्टादशोऽध्यायः || १८॥ 


४३० 


भ्रीविष्णुपुरणं 


[ अ० १९ 











उन्नीसर्वँ अध्याय 
भगवाम्का यथुस-प्रवेश्च, रजक-वध तथा मारीपर कृपा 


श्रीपरा्चर उवाच 
एवमन्तजले विष्णुममिष्टरय स॒ यादवः । 
अर्चयामास सर्वे पूपपुषैम॑नोमयैः ॥ १॥ 
परित्यक्तान्यविषयो मनस्तत्र निवेश्य सः । 
ब्रह्मभूते चिरं स्थिता विरराम समाधितः ॥ २॥ 
कृतकृस्यमिवात्मानं मन्यमानो महामतिः। 
आजगाम रथं भूयो निस्य ययुनाम्भसः॥ ३ ॥ 
द्दशं रामकप्णौ च यथपूर्॑मवस्थितौ । 
विसिमिताक्षस्तदाक्रूरस्तं च कृष्णोऽभ्यमापृत ॥४॥ 


श्रीकरुष्ण उवाच 
नूनं ते दृषटमाशवयंभकूर यग्ुनाजसे । 
विस्मयोस्फुल्ननयनो मवान्पंरक्ष्यते यतः | ५॥ 


अक्रूर उवाच 

अन्तर्जले यदाश्रयं दष्टं तत्र मयाच्युत । 
तदत्रापि पदयामि मूर्िमस्पुरतः स्थितम्‌ ।॥ ६॥ 
जगदेतन्महाथयंरूपं यस्य महात्मनः । 
तेनाशवयंपरेणाहं भवता कृष्ण सङ्गतः ॥ ७ ॥ 
तत्किमेतेन मधुरां यास्यामो मधुष्रदन । 
बिभेमि कंसाद्वि्जन्म प्रपिण्डोपजीविनाम्‌ | ८॥ 
इत्युक्त्वा चोदयामास स इयाम्‌ बातरंहसः। 
सम्प्राप्तथापि सायाहे सोऽकरो मधुरां पुरीम्‌ ९॥ 
विरोक्य मथुरां कृष्णं रामं चाह स यादः । 
पद्‌भ्यां यातं मदाशीरो रथेनेको विश्ाम्यहम्‌॥।१०। 
गन्तव्यं बमुदेवस्य नो भवद्भ्यां तथा गृहम्‌ । ` 
युष्योहि कृते ब्रद्धस्प कसेन नि यते ।११ 





भोपराश्चरजी बोक्ले-यदुकुलो्पन्न अक्रुरजीने 
भ्रीविष्णुभगवान्‌का जलके भीतर इस प्रकार स्तवन. 
कर चन स्ेंश्वरका मनःकल्पितं धूप, दीप ओौर 
पुष्पादिसे पूजन किया ॥ १॥ उन्होने अपने मनको 
अम्य विषयोँसे हटाकर छन्हीमे खगा दिया ओर 
चिरकालतक उन ब्रह्मभूतमें ही समाहितभावसे 
स्थित र्टकर फिर समाधिसे विरत हो गये ॥ २॥ 
तदनन्तर महामतिं अक्रूरजी अपनेको छृतकृत्य-सा 


मानते हए यमुनाजङसे निकर्कर फिर रथके पास 
चरे आये ॥ ३ ॥ वर्ह आकर इन्होंने आश्चययुक्त 


नेत्रोसे राम भौर कष्णको पूववत्‌ रथम बैठा देखा। 
घस समय श्रीकृष्णचन्द्रने अक्ररजीसे कहा ॥ ४ ॥ 


शरीृष्णजी बोले-अक्रूरजी ! आपने अवक्ष्य ही 
यपुना-जख्म कोरे आश्वयंजनक बात देखी है, क्योकि 
आपके नेत्र आश्चर्य चकित दीख पडते है ॥ ५॥ 

अक्ररजी वोले-दे अच्युत ¦ मैने यमुनाजले 
जो आश्चयं देखा है उसे मै इस समय भी अपने 
सामने मूर्तिमान्‌ देख रहार ।॥ ६ ॥ हे ष्ण ! यह्‌ 
महान्‌ आश्चयमय जगत्‌ जिस महात्माका स्वरूप 
दे उन्दी परम आश्व्थस्वरूप आपके साथ मेरा 
समागम हृ है ॥७॥ दहे मधुसूदन ! अब इस 
आश्वर्यके विषयमे ओौर अधिक कहनेसे छाभही 
क्या है? चलो, हमे शीघ्र ही मधुर पर्हुचना है; स्ने 
कंससे बहूव भय लगता दै । दुसरेके दिये हुए अन्नसे 
जोनेवाठे पुरुषोके जीवनको धिकार है ! ॥ ८॥ 


फेला कहकर अकरूरजीने बायुके समान वेगे 
घोडोंको हका ओर सायंकाट्के समय मथुरापुरीमें 
पर्हुच गगरे ॥ ९ ॥ मथुरापुरीको देखकर अक्रूरने राम 
ओर कृष्णसे कहा--“हे वीरवरो ! अव मै अकेला 
ही रथसे जाऊंगा, भप दोनों पैदछ चछे आवें 
॥ १० ॥ मथुरामे पर्हचकर आप वसुदेवजीके घर न 
जार्यै; स्योकि आपके कारण ही डन बद्ध वसुदेवजी- 
य वव अ तिमर कग्ता रहता | ११। 





श्रीपराशर उवाच 
इत्युक्त्वा प्रविवेशाथ सोऽक्रूरो मधुरा पुरीम्‌ | 
प्रविष्टौ रामकृष्णौ च राजमायुणगतौ ॥१२॥ 
स्ीमिनरेश सानन्दं लोचनैरमिषीक्षितौ । 
जम्मतुीरया वीरौ मत्तौ यारगजोविव ॥१२॥ 
भ्रममाणौ ततो दृष्टा रजकं रङ्गकारकम्‌ | 
अयाचतां सुरूपाणि वासांसि रुचिराणि तौ ॥१४॥ 


कसस्य रजकः सोऽथ प्रसादारूढवि्यः | 
यहून्यकिपवाक्यानि प्राहोच्चै रामकेशवौ ।॥ १५॥ 
ततस्तलग्रहारेण दृष्णस्तस्य दुरात्मनः | 
पातयामास रोषेण रजकस्य शिरो यवि ॥१६॥ 
दत्वादाय च बच्राणि पीतनीहाम्बरै ततः। 
कृष्णरामौ युदा युक्तो माहाकारगृहं गतौ ॥१७॥ 
पिकासिनेत्रयुगखो मालाकारोऽतितिस्मितः। 
एतौ कस्य सुतौ यातौ मेत्रेयाचिन्तयत्तदा ॥१८॥ 
पीतनीहाम्बरधरौ तौ दृषटातिमनोहरो । 
स तकयामास तदा मुं देवावुषागतौ ॥१९॥ 
विकापिशुखपदयाभ्यां तस्यां पष्याणि याचितः | 
थुवं विष्टभ्य हस्ताभ्यां स्पशं शिरसा महीम्‌ ॥२०॥ 
प्रषादपरमौ नाथो मम गैदृ्ुषागतौ | 
धन्योऽहमचेयिष्यामीत्याह तौ मान्यजीबनः॥२१॥ 
ततः प्रृष्वदनस्तयोः पष्पाणि कामतः । 
चारूण्येतान्ययेतानि प्रददौ स प्रलोभयन्‌ ।॥२२॥ 
पुनः पुनः प्रणम्योभौ माहाकारो नरोत्तमौ । 
ददौ पुष्पाणि चाकूणि गन्धवन्त्यभलानि च ।॥२३॥ 
माटाकाराय कृष्णोऽपि प्रसन्न; प्रददौ वराम्‌। 
भ्रस्तां मत्संभ्रयामद्र न कदाचिच्यरिष्यति | २४ 








श्रीपाश्चरजी बोल्ले-एेला कह अक्रर्जौ मथुरा- 
पुरीम चे गये । उनके पीके राम ओर क्रष्ण भी 
नगरमे प्रवेद्चकर राजमागेपर आये ॥ १२॥ वहि 
नर-नारियोंसे आनन्द्पू्ंक देखे जाते हृए वे दोनों 
वीर मतवा तरुण हाथियोके समान लीलापूबेक 
जारहेथे॥ १३॥ 


मागमे उन्होने एक वश्च रगनेवाले रजकको 
घूमते देख उससे रग-विरगे सुन्दर वस मौँगे 
॥ १८ ॥ वह रनक कंसका था भौर राजक ँह- 
लगा होनेसे बड़ा घमंडी हो गया था, अतः राम 
ओौर कृष्णक वख माँगनेपर्‌ उसने विस्मित होकर 
उनसे वड़े जो रोके साथ अनेक दुर्वाक्य कहे ।। १५॥ 
तव श्रीकरष्णचन्द्रने क्रुद्ध होकर अपने करतख्के 
प्रहारसे उस दुष्ट रजकका चिर प्रथिवीपर गिस 
दिया ॥ १६ ॥ इस प्रकार उसे मारकर राम ओौर 
कृष्णने उसके वस्र छीन ल्यि तथा क्रमशः नील 
ओर पीत चख धारणकर वे प्रसन्नचित्तसे मारके 
घर गये ॥ १७॥ 


हे मेश्रेय ! उन्दः देखते ही उस माटीके नेत्र 
भानन्दसे खिर गये भौर वह्‌ भथयंचकित होकर 
सोचने खगा किथ्ये किसके पुत्रहै ओर कसि 
आये दै? ॥ १८॥ पीछे ओर नषे व्ल धारण 
करिये उन अति मनोहर बारूकोंको देखकर उसने 
समश्चा मानो दो देवगण ही प्रथिवीवङूपर पधारे है 
॥ १९ ॥ जब उन विकसित मुखकमर बाछकौने 
उससे पुष्प मागे तो उस्ने अपने दोनों हाथ प्रथिवी. 
पर ठेककर क्षिरसे भूमि को स्पशं क्रिया ॥ २० ॥ फिर 
डस मालीने उन दोनोसे कहा--हे नाथ! आप्‌ 
बड़ कपाटुदहैजो मेरे घर पधारे। मै धन्यै 
क्योंकि आज सै आपका पूजन कर सकरुगा ॥ २१॥ 
तदनन्तर उसने देखिये, ये बहु सुन्दर है; ये बहुत 
सुन्दर है-इस प्रकार प्रसन्रमुखसे टुमालुभकर 
न्ह इच्छानुसार पुष्प दिये ॥ २२॥ उसने उन 
दानों पुरुषश्रेष्ठोको पुनःपुनः प्रणामकर्‌ अति निमेख 
ओर सुगन्धित मनोहर पुष्प दिये ॥ २३॥ 


तव कृष्णचन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस साल्ीको 
यह्‌ बर दिया कि “हे भद्र | मेरे आश्रित रहनेब्राही 
ल्मी तुञ्चे कभी न छोड़ेगी ॥ २४६॥ हे सौम्य ! तेरे 








बलदहानिनं ते सौम्य धनहानिरथापि वा | 
यावदिनानि तावच्च न नक्ष्यति सन्ततिः ॥२५॥ 
युक्त्वा च विषुलान्मो गांस्त्वमन्ते मखसादतः। 
ममानुस्मरणं प्राप्य दि्यं लोकमवाप्स्यसि ॥२६॥ 
धर्मे मनश्च ते भद्र सवेकारं भविष्यति | 
युष्मरन्ततिजातानां दीर्॑मायु विष्यति ॥२७॥ 
नोपसरगादिक दोषं युष्मत्सन्ततिसम्भवः । 
अवाप्स्यति महाभाग याबस्छयों भविष्यति ॥२८॥ 


श्रीपररारार उवाच 
इत्युक्तवा तद्गृहाल्छृष्णो बरुदेवसहायवान्‌। 


बल ओौर धनका हास कभी न होगा ओर जबतक 
दिन ( सूयं ) की सत्ता रहेगी तबतक तेरी सन्तान- 
का च्च्छेदन दगा ॥२५॥ तू भी यावल्ञीवन 
नाना प्रकारके भोग भोगता हुजा अन्तभ्नै मेरी 
कृपासे मेया स्मरण करनेके कारण दिव्य लोकको 
प्राप्त होगा ॥२६॥ हे भद्र! तेरा मन संदा धर्मपरा- 
यण रहेगा तथा तेरे वंशम जन्म ेनेवालोकी आयु 
दीघं होगी | २७॥ दे महाभाग ! जबतक सूयं 
रहेगा तवतकं तेरे वंशम उसन्न हुआ कोई भी 
व्यक्ति उपसगं ( आकस्मिक रोग ) आदि दोषोंको 
प्राप्न होगाःः॥ २८ ॥ 


धीपराशरजी वोज्े-हे स॒निश्रषठ ! देखा कहकर 
श्रीकृष्णचन्द्र बरूभद्र जीके सहित मालाकारसे पूजित 


निजगाम धनिशरष्ठ मालाकारेण पूजितः ॥२९॥ | हो उसके घरसे चर दिये ॥ २९॥ 


नक 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽरे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥ 


तो) 


बीसर्वाँ अध्याय 
ुन्जापर कृपा, धलु्भज्ग, कुबलयापीड ओर चाणुरादि मल्लोका नाश तथा कंस-वध 


श्रीपराश्चर उवाच 
राजमार्गे ततः कृष्णस्प्ालुङेपनमाजनाम्‌ | 
ददशं ङव्जामायास्तीं नवयौवनमोचराम्‌ ॥ १॥ 
तामाह रहितं कृष्णः कस्येदमनुरेषनम्‌ । 
भवत्या नीयते सत्यं बदेन्दीषरोचने ॥ २ ॥ 
सकामेनेव सा प्रोक्ता सानुरागा हरि प्रति । 
प्राह सा हितं इजा तदशनवातृता ॥ २॥ 
कान्त कस्मान्न जानासि कंसेन विनियोजिताम्‌। 
नैकवकरेति विस्यातामलरेपनकमंणि ॥ ४॥ 
नान्य पिष्टं हि कंसस्य प्रीतये द्यसहेपनम्‌ । 
भवाम्यदहमतीवास्य प्र्ादधनमाजनम्‌ ॥ ५॥ 


श्रीपयाश्चरजी षोज्ञे-तदनन्तर श्रोकृष्णचन्द्रने 
राजमागमे एक नवयौवना कुडजा सखीको अनुरेपनका 
पात्र लिये आती देखा ॥ १॥ तब श्रीटूष्णने उससे 
विलासपूक कहा--'“जयि कमछृलोचमे ! तू सच- 
सच बता यह्‌ अनुरेपन किसके स्थिखे जार्ही 
है ?॥ २॥ भगवान्‌ कृष्णके कामुक पुरुषकी भति 
इस प्रकार पञछठनेपर अनुरागिणी क्रुञ्जनि उनके 
दशेनसे हठात्‌ आक्रृष्टचित्त हो अति ललित भावसे 
इस प्रकार कहा--॥ ३॥ “हे कान्त ! क्या आप सुच 
नहीं जानते १ मै अनेकवक्रा-नामसे विख्यात ह 
राजा कंसने सद्य अनुखेपन-काय॑में नियुक्त किया है 
॥ ४1 राजा कंसको मेरे अतिरिक्त ओौर किंसीका 
पीसा हुजा उवटन पसंद नहीं है, अतः मै उनकी 
अत्यन्त कृपापात्री हूं५॥ ५॥ 


अवयगत्रसदुर द यतामरयुरूपनपर्‌ ॥ ९ ॥ 
श्रीपरा्चर उवाच 
शरुतयेतदाह सा हुव्जा गृह्यतामिति सादर्‌। 
अनुरेपनं च प्रददौ मात्रयोगयमथोभयोः ॥७॥ 
भक्तिच्छेदानुलि्ताङ्गो ततस्तौ पुरुपषभौ | 
सेन्द्रचापौ व्यराजेतां सितकृष्णाविवाम्बुदौ ॥ ८॥ 
ततस्तां चिबुके शोरिरुल्लापनविधानवित्‌ । 
उत्पाट्य तोरय।मास द्चङ्कलेनाग्रषाणिना ॥ ९॥ 


चकरपपद्धयां च तदा जुस केशवोऽनयत्‌ । 
ततस्सा ऋजुतां प्राप्रा योपिताममवदरा ॥१०॥ 


विरात प्राह ॒प्रेमग्मरारपम्‌ । 
वस्त्रे प्रगृह्य गोविन्दं मम गेहं वजेति वै ॥११॥ 
एवुक्तस्तया शौरी श परस्यारोक्य चाननम्‌ । 
प्रहस्य कुब्जां तामाह नैकवक्रासनिन्दिताम्‌ ॥१२॥ 


आयास्य भवतीगेदमिति तां प्रहसन्हरिः । 


विससजं जहासोच्चै रामस्यालोक्य चाननम्‌॥१३॥ 


भक्तिभेदालरिशताज्ञ नीरूपीताम्बरै तु तौ | 


धनुश्शाहयां ततो यातौ चित्रमान्योपरो मिती॥१४। 


आयागं तद्धन्‌रल ताभ्यां परषटेस्तु रक्षिभिः। 
आख्याते सहसा कृष्णो गदीत्वापूरयद्वनु; ॥१५॥ 
ततः पूरयता तेन मञ्यमानं वशद्धनुः | 


चकार युपदच्छब्दं मधुरा येन पूरिता ॥१६॥ 
वि० पु° ५५-- 


टरीरके योग्य भी कोट अनुषेपनदहोतोदो॥६॥ 


श्रोपयन्ञर्जी बोज्ञे-यह सुनकर कुचजाने 
कहा--'छीजिये, ओर फिर उन दोनोको आदरपूवंक 
उनके शरीय्योग्य चन्दनादि दिये ॥ ७ ॥ उस समय 
वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ [ कपो आदि ] अंगम पत्र चना- 
विधिसे यथावत्‌ अनुलिप्रि होकर इन्द्रधमुषयुक्त 
इयाम ओौर इवे मेघकरे समान सुरभित हए ॥ ८ ॥ 
तखश्चात्‌ उल्छापन ( सीधे श्ररनेक्ी ) विधिक जानने 
वाले भगवान्‌ कृष्ण चन्द्रम उसको ठोडीमे अपनी 
आगेकी दो अंगुल्यां रगा उसे इचकाकरर हिाया 
तथा उसके पैर अपने पैरोसे दवा ल्यि । इस प्रकार 
्ीकरेरावने उसे ऋजुकाय ( सीधे शरसीरवाली ) कर 
दी। तव सीधी दो जनेपर वरह सम्पूणं खियोमें 
सुन्दरौ हो गयौ ॥ ९-१०॥ 


तव वह श्रीगोविन्दकरा पल्ला पकडकर्‌ अन्त- 
गर्भित प्रेम-भारसे भकसायी हई विासङलित 
वाणीम बोछा--आप मेरे घर च्यः ॥ ११॥ 
उसके देसा कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रते इस क्ु्जासे, 
ज्ञो परे अनेकों अंगोँसे देदी थी, परन्तु अब सुन्दरी 
हो गयी थी, बलरामजीके मुखकौ ओर देखकर हं सते 
हुए कहा--॥ १२॥ हौ, वु्हारे घर भी जाङगा-- 
पेसा कहकर श्रीद रिने उसे मुखकाते हुए विदा किया 
जर बरृभद्रजाके मुखक्ो ओर देखते हुए जोर-जौर. 
से हंसने सगे ॥ १३॥ 


तदनन्तर पत्र-रचनादि बिधिसे अनुख्प्रि तथा 
चित्र-विचिच मालाभोसे सुश्रोमितत राम ओर कुष्ण 
क्रमशः नीलाम्बर ओर पीताम्बर धारण किये हुए 
यज्ञशाखातक आये ॥ १४॥ वहां पर्ुचकर चन्होने 
यज्ञरक्षकोसे उस यज्ञके इदेरयस्व रूप धुषे विष्रयमें 
पूछ्ठा ओर उनके बतटानेपर्‌ श्रीदरष्णयवन्द्र उसे सहसा 
उठाकर इसपर प्रस्यच्चा (डोरी) चटाने छगे ॥ १५॥ 


उसपर बलपूवक प्रत्यच्वा चदूति समथ वह धनुष 
टूट गया, उस समय उसने एसा घोर शब्द्‌ किया 
कि उससे सम्पूणं मथुसपुरौ गूँज्ञ उठी ॥ १६॥ 


धक ५ 


४1१ 1 ७.१ भ 


८ ~ > 











अनुयुक्तो ततस्तौ तु मग्ने धनुषि रक्षिमिः। 
रकषिसैन्यं निहत्योमौ निष्क्रान्तौ का्कारयाद्‌ १ 


अक्ररागमवृत्तान्तप्रुपटस्य महद्रसुः । 


मग्नं शरुा च कंसोऽपि पराह चाणुरमुटिको ॥१८॥ 
कंस उवाच 
गोपाहदारकफौ प्राप्नो मवद्धयां तु ममाग्रतः । 
मल्लयुद्धेन हन्तव्यौ मम प्राणहरो हि तौ ॥१९॥ 
निथुद्धे तहििनशिन मवद्धयां तोषितो द्हम्‌। 
दास्याम्यमिमतान्कामान्नान्ययतौ महाब ।॥२०॥ 


न्यायतोऽन्यायतो वापि मवद्धयां तौ ममाहिती। 
हन्तव्यौ तदधाद्राल्यं सामान्यं वां मविष्यति।।२१॥ 
ह्यादिद्य स तौ मन्लो ततश्वाहूय हस्तिपम्‌ । 
प्रोवाचोचेस्वथा मनल्लसमाजद्रारि इुज्ञरः ॥२२॥ 
स्थाप्यः कवहयापीडस्तेन तौ गोपदारकौ । ` 
धातनीयो निषुद्धाय शङ्खदवास्ुपागतौ ॥२३॥ 


तमप्याज्ञाप्य दृष्ट च सर्वान्मश्वानुपक़ृतान्‌। 
आस॒नमरणः कंसः द्र्योदयदुदैक्षत ॥२४॥ 


ततः समस्तमभ्चेषु नागरस्स तदा जनः। 
राजमञ्चेषु चारुटास्ह भृत्ये नराधिपाः ॥२५॥ 
मल्लग्रारिनिकव्गथ रङ्गमध्यसमीपगः | 
कृतः कसेन कंसोऽपि तुङ्गमश्े व्यवस्थितः ॥२६॥ 
अन्तःपुराणां मथ्चाश्च तथान्ये परिकल्पिताः | 
अन्ये च वारुख्यानामन्ये नागरयोपिताम्‌ | २७॥ 
नन्दगोपादयो गोपा मश्रेष्वन्येष्ववस्थिताः। 
अकरृशवसुदेषौ च मश्प्रान्ते व्यवस्थितौ ॥२८॥ 


तव धनुष टूट जानेपर उसके रक्षकोँने उनपर 


आक्रमण किया, उस रक्षकसेनाका संहारक वे 
दोनों बाख्क धनुरश्चालासे बाहर आये ॥ १७॥ 


तदनन्तर अकरूरफे आनेका समाचार पाकर 
तथा उस महान्‌ धनुषक्रो भग्न हुआ सुनकर कंसने 
चाणूर ओर सुष्टिकसे कहा ॥ १८ ॥ 


कंसं बोखा-- यदहं दोनों गोपालबाल्लक आ गये 
है] वेमेरा प्राणहरण करनेवछे है, अतः तुम 
दोनों मह्युद्धसे न्द मेरे सामने मार डालो । यदि 
तुमलोग मल्लयुद्धे उन दोनोँका विनाश्च करके सुन्षे 
सन्तुष्ट कर दोगे तो भँ तुम्दारी समस्त इच्छा पूणे 
कर दगा; मेरे इख कथनको तुम मिथ्या न समक्ना 
॥ १९-२०॥ तुम न्यायसे अथवा अन्यायसे मेरे इन 
महाबख्वान्‌ . भपकारियोको अवश्य मार डा । 
उनके भारे जानेपर यह सारा गार्य [हमारा ओौर] 
तुम दोनोका सामान्य दोगा ॥ २१॥ 


मह्लोको इस प्रकार आज्ञा दे कसने अपने महा- 
वतको बुलाया भौर उसे आक्ञादी कितु कवल्या- 
पीड हाथीको स्लोकौ रंगभूमिके द्वारपर खड़ा रख 
ओर्‌ जव वे गोपुर युद्धके दयि यहाँ आवे तो 
उन्हे इससे नष्ट करा दे ॥ २२-२३॥ इस प्रकार उसे 
आज्ञा देकर ओौर समस्त सिहासनोंको यथावत्‌ रखे 
देखकर, जिसकी मृत्यु पास आ गयी है वह कंस 
सूर्योदयकती प्रतीक्षा करने र्गा ॥ २४ ॥ 


प्रातःकाल होनेपर समस्त मञ्चोौपर नागरिकलोग 
अौर राजमच्ोंपर अपने अनुच मेके सहित राजालोग 
बैठे । २५॥ तदनन्तर रंगभूमिके मध्यभागे समीप 
कंसने युद्धपरीक्षकोंको वैठाया भौर फिर स्वयं आप 
भी एक उचे सिंहासमपर बेठा॥ २६॥ वह अन्तःपुर 
की खियोके दिये प्रथक्‌ सचान बनाये गये थे तथा 
मुख्य-मुख्य वारांगनाभों ओर नगरकी महिल्ाओंके 
ख्ये भौ अलग-अलग मच्च ये ॥२७॥ कुछ अन्य मश्चो- 
पर नन्दगोप आदि गोपगण बिडाये गये थे भौर डन 
मच्चौके पास ही अक्रूर ओर वसुदेवजी वैदे थे॥ २८॥ 


ष्णा 








नागरीयोपितां मध्ये देवकीपुत्रगर्धिनी | 
अन्तकारेऽपि पुत्रस्य द्रष्पामीति परुखं स्थिता॥२९॥ 


वाद्यमानेषु तूर्येषु चाणूरे चापि बल्मति । 
हाह्ाकारपरे रोके ह्यास्फोटयति मुष्टिक ॥२०॥ 
हषद्रसन्तौ तौ वीरौ बरमद्रजनार्दनौ । 
गोपवेषथरौ बालो रङ्द्वारयुपागतौ ॥३१॥ 
ततः कुवलयापीडो महामात्रप्रचोदितः | 
अभ्यधावत्‌ बेगेन हन्तुं गोप्कुमारको ॥३२॥ 
हाहाकारो महाञ्चनने रङ्गमध्ये द्विजोत्तम । 
वरुदेबोऽयुजं दष्टा वचनं चेदम्रवीत्‌ ॥३३॥ 
हन्तव्यो हि महाभाग नागोऽयं शरुचोदितः॥३४॥ 


हस्युक्तस्सोऽग्रजेनाथ बररैवेन वै द्विज । 


सिंहनादं ततश्चक्रे माधवः परवीरहा ॥२३५॥ 
करेण करमाकृष्य तस्य केशिनिषूदन; । 
भ्रामयामास तं शौरिरधवतसमं बरे ॥३२६॥ 
देशोऽपि सवंजगतां वारहीरालुसारतः । 
क्रीडिता सुचिरं एरष्णः करिदन्तपदान्तरे | २७॥ 
उत्पाव्य वामदन्तं तु दक्षिणेनैव पाणिना। 
ताडयामास यन्तारं तस्यासीच्छतधा ि२,।॥३८॥ 
दक्षिणं दन्तद्ुतपाख्य बलमद्रोऽपि तरक्षणात्‌ । 
सरोपस्तेन पाद्व॑स्थान्‌ गजपारानपोभयत्‌ ॥३९॥ 
ततस्तूरप्टुस्य वेगेन रौदिणेयो महावलः । 
जघान वामपादेन मस्तफे हस्तिनं सषा ॥४०॥ 
स पपात हतस्तेन बलमद्रेण लीलया | 
सहस्राक्षेण वजे ण ताडितः पवतो यथा ॥४१॥ 
हृस्वा छुवलयापीडं दस्त्यारोहप्र चोदितम्‌ । 
मदा्गनरिप्तान्ञो हस्तिदन्तवरयुधौ ।॥४२॥ 
मृगमध्ये यथा सिंहौ गवंछीरावलोकिनौ । 








नगरकी नारियोँके बीच श्चखो, अन्तकाख्में ही 
पुत्रका मुल तो देख दूँगी" ेसा विचारकर पुत्रके 
ल्यि मङ्गखकासना करती हुई देव कीजी बैठी थो।। २९॥ 

तदनन्तर जिस समय तूयं आदिके बजने तथा 
चाणुरके अत्यन्त उछकने ओर मुष्टिकके ताल ठोकने- 
पर दकगण हाहाकार कर रहे थे, गोपवेषधारी 
वीर बालक बरभद्र ओर कृष्ण कु हँसते हुए रंग- 
भूमिके द्वारपर आये ॥ ३०-३१ ॥ वहाँ अति ही 
महावतकी प्रेरणासे कुवख्यापीड नामक हाथी उन 
दोनों गोपक्रुमारोको मारनेके ल्य बड़ वेगसे दौड़ा 
॥ ३२॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस समय रंगमूमिभे महान्‌ 
हाहाकार मच गया तथा बलदेवजीने अपने अनुज 
कृष्णकी ओर देखकर कहा--'षहः महाभाग ! इस 
हाथीको शने ही प्रेरित किया है; अतः इसे मार 
डालना चाहिये ॥ ३१-२४॥ 

हे द्विज ! य्येष्ठ भ्राता बटरामजीके एेसा कहने- 
पर शचरसूदन श्रीश्यासयुन्दरने बड़े जोरसे सिंहनाद 
किया ॥ ३५॥ फिर केशीका वध करनेव ङे मगवन्‌ 
श्रीकरष्णने बलम एेरावतके समान उस महाबटी 
हाथीको सूंड अपने हाथसे पकड़कर उसे घुमाया 
॥ ३६ ॥ भगवान्‌ छृष्ण यद्यपि सम्पूणं जगत्के 
स्वामी दहै तथापि उन्होने ब्रत देरतक उस हाथीके 
दत ओौर चरणोके वीचभे सखेरते-खेकते अपने दायं 
हाथसे उसका बार्यौँ दत उखाडकर उससे महावरत- 
पर प्रहार किया । इससे घसके शिरके सैकड़ों इकडे 
हो गये 1 ३७-३८ ॥ उसी समय बलभद्रजीने भी 
करो धपूवक उसका दाया दतु उखाड़कर उससे आस- 
पास खडे हुए महाचतोंको मार डाला ॥ ३९॥ 
तदनन्तर महाबदटी योदिणीनन्द्नने रोषपू्ोक अति 
वेगसे उछहूकर उस हाथीकफे मस्तकपर अपनी बायीं 
छात मारी ॥ ४० ॥। इस प्रकार बह हाथो बकभद्रजी- 


दवाय ीरापूबेक मारा जाकर इन्द्र-वज्रसे आहत 
पवंतके समान गिर पड़ा ॥ ४१॥ 


तब महावतसे प्रेरित कुचख्यापीडको मारकर 


उसके मद ओौर्‌ रक्तसे छथपथ राम ओर कष्ण उसके 
दौतोको लिये हए गवेयुक्त छीलासयी चितबनसे 





५९९ 


11 ° ५९" 


६ ~“ 





प्रविष्टौ सुमहाङ्ं बहमद्रजनादैनौ ॥४२॥ 


हाहाकारो महाञ्जज्ञे सदहार्ै खनन्तरम्‌ । 


कृष्णोऽयं बरभद्रोऽयमिति लोकस्य विस्पयः॥४४॥ 
सोऽयं येन हता घोरा पूतना बाहघातिनी । 

क्षिप्तं तु शं येन मग्नौ तु यमलाजु नौ ।४५॥ 
सोऽयं यः कालियं नागं ममदा्च बालः। 
धृतो मोवर्ध॑नो येन सृषठरात्रं महाभिरिः ॥४६॥ 
अरि धेनुकः फेशी छीरयैव सहात्मना । 
निहत। येन वता दुर्यतामेष सोऽच्युतः ॥४७॥ 
अयं चास्य महाबाहवरमद्रोऽप्रतोऽगरनः । 
प्रयाति रीषछया योपिन्मनोनयननन्दनः ॥४८॥। 
अयं स कथ्यते प्रत्न पुराणायनिकारदैः । 
मोपालो यादवं व॑ं मणनमभ्युदधरिष्यति ॥४९॥ 
अयं हि स्व॑रोकस्य पिष्णोरखिहजन्मनः। 
अवतीर्णो महीमंशो नूनं भारहरो यवः ॥५०॥ 
इत्येवं बणिते पौरे समे एृष्णे च तत्षणात्‌ । 
उरस्तताप देवक्याः स्नेदसुत्ेपयोधरम्‌ ॥५१॥ 
महोस्सवमिवापाच्च पूत्राननविलोकनात्‌ । 
युवेव वसुदेबोऽभूद्िहायाभ्यागतां जराम्‌ ॥५२॥ 
विस्तारिताक्षियुगहो राजान्तःपुरयोषिताम्‌। 
नामरखीसमूहश्च द्रष्टुं न विरराम तम्‌ ॥५३॥ 
सख्यः पदयत दृष्णस्य युखमस्यरणेक्षणम्‌। 
गजगुद्कृतायास॒स्वेदाम्बुकणिकाचितम्‌ ॥५४॥ 
विकासिकशस्दम्भोजमवदयायजरोक्षितम्‌ । 








निहारते उस महान्‌ रंगमूमिभ इस प्रकार आये 
ससे मृग-समूहके बीचमे सिह चका जाता दै ॥ ४२- 
४३ ॥ उस समय सदहान्‌ रंगमूभिभे वड़ा कोलाहल 
होने लगा ओर सव छोगोमे “ये कृष्ण है, ये बलभद्र 
है" रेखा विस्मय छा गया ॥ ४४ ॥ 


[ तरे कहने लगे-- ] “जिमने बालघात्तिनी धोर 
रक्षी पूतनाको मारा था, श॒कटको उल्ट दिया था 
अर यमला्जुनको उखाड़ डाला था वह्‌ यदह है । 
जिस बाछकने कालियनागके ऊपर चदुकर उसका 
मान-मदैन किया था भौर सात रात्रितक मह्‌।पवत 
गोवर्ध॑नको अपने हाथपर धारण किया था वह्‌ यदी 
है । ४५.४६ ॥ जिस महात्मने अरिष्टाघुर, पेतुका- 
सुर ओर केशी आदि दुष्टौको खीरासे ही मार डाखा 
था; देखो, वह्‌ अच्युत यही है || ४७ ॥ ये इनके 
अगे इनके बड़े माई महाबाहु बलमभद्रनी जो बडे 
ीहापू्वंक चल रे द| ये खियोके मन भौर 
नयनोको बड़ा ही आनन्द देनेवठे दै ॥ ४८ ॥ 
पुराणा्थवेन्ता विद्वानखोग कहते दँ कि ये गोपारन्नी 
दबे हए यदुवं्चका उद्धार करेगे ॥ ४९॥ ये सवे- 
लोकमय ओर सवकारण भगवान्‌ विष्ण्रुके ही अंश 
है, इन्हने प्रथिवीका भार उतारनेके लिये ही मूमि- 
पर अवतार छिया दं" ॥ ५० ॥ 

राम भौर कृष्णके व्रिषयभ पुरवास्ियोके इस 
प्रकार कहते समय देवकीके स्तनोंसे स्नेहके कारण 
दूध बहने गा ओौर उसके हृदयम बड़ा अनुताप 
हज ॥ ५१॥ पुत्रौ का मुख देखनेसे अत्यन्त शल्लास- 
सा प्रप्र होनेके कारण वसुदैवजी मी मानो अये 
हप बुदापेको छोड़कर फिरसे नवयुवक-से हयो 
गये । ५२॥ 


राजाके अन्तःपुरकी खियौँ तथा नगरनिवासिनी 
महिलाएँ मौ उन्दः कटक देखते-दे ते न छकी।।५३॥ 
[ बे परस्पर कने मीं --] “अरो सखियो ! अरण- 
नयनसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रका अति सुन्दर अख 
तो देखो, जो छुबख्यापीडके साथ युद्ध करनेके 
परिश्रमसे स्वेदविन्दुपूणं होकर हिम-कण-सिश्चित 
रशरत्काल्तीन प्रफुल्ल कमल्को रञ्जित कर रहा है। 


परिभूय स्थितं जन्म ष्फ क्रियतां दशः ॥५५॥ 


श्रीवत्साङ्कं मद्धाम वालस्येतद्धिलोक्यतम्‌। 


विपक्षक्षपणं वक्षो युजयुम्मं च भामिनि ॥५६॥ 


कि न पर्यसि दुग्धेन्दुमणाह्धवहाकृतिम्‌ । 


बरमद्रभिमं नीहपरिधानष्ुपागतम्‌ ॥५७॥ 


वल्गता शुष्टिकेनैव चाणूरेण तथा सखि । 


क्रीडतो बलभद्रस्य हरेहस्यं विलोक्यताम्‌ ॥५८॥ 
सरूपः परयत चाण नियुद्राथ॑मयं हरिः। 
समुपेत न सन्त्यत्र किं वृद्धा युक्तकारिणः ॥५९॥ 
क यौवनोन्पुलीभूतसुङ्मारतदु्रि । 
क वज्रकटिनाभोगक्रीरोऽयं महापुर; ॥६०॥ 
हमौ सुरुरितैरङ्ैवेतेते नवयौवनौ | 
दैतेयमन्छाश्राणुरम्रुलास्त्वतिदारुणा;ः ॥६१॥ 
गियुद्धप्रारिनिफानां तु महानेष व्यतिक्रमः। 


यद्वालवरिनो्धदरं मध्यस्थस्समुपेकष्यते ॥६२॥ 
श्रीपराशर उवाच 
इत्थं पुरक्षीटोकस्य वदतशथाहयन्युवम्‌ । 
ववल्ग बद्धकक्ष्योऽन्तजेनस्य भगवान्हरिः ॥६३॥ 
बहृमद्रोऽपि चास्फोरटथ ववन्ग छलितं तथा । 
पदे पदे तथा भूमिं शीर्णा तदद्भुतम्‌ ॥६४॥ 
चाणुरेण ततः कृष्णो युयुधेऽमितविक्रमः। 
नियुद्धहुरलो दस्यो बरमप्रेण यिकः ॥६५॥ 





अर) , इसका दन करके अपने नेत्राकरा हाना सफ 
कर लो? ॥ ५४-५५ || 

( पकः खी बोङी- ] “हे भामिनि ! इस बाख्क- 
का यह श्रीवत्साङ्कयुक्त परम तेजस्वी वक्षःस्थख 
तथा शत्रुजोंको पराजित करनेवाली दोनो भुजाएं तो 
देखो ! ॥ ५६ ॥ 


[ दुसरी०- ] अरी ! क्या तुम नीाम्बर 

धारण क्रिये इन दुग्ध, चन्द्र अथवा कमल्नार्के 
¢ 

समान श्युभ्रवणं बरुदैव जीको आते हुए नहीं देखती 
हा १ ॥ ५७ ॥ 


[ तीसरी०~ ] “अस सियो ! [ अखाडेमं | 
चक्र देकर घूमनेव षे चाणूर ओर सुष्टिककरे साथ 
क्रीडा करते हुए बल्लभद्र तथा कृष्णक हसना तो 
देखो" ॥ ५८ ॥ 

[ चौथी०- हाय ! सियो ! देखो तो चाणूर 
से लडनेके लिये ये हरि अगे बदु रहै है; क्या इन्द 
छुडानेवाठे कोई भौ वद-ृदे यहाँ नहीं है १।५९॥ 
कँ तो यौवनम प्रवेश करनेवाठे सुङ्कमारयरीर 
ङ्याम ओौर कहौ वके समान कठोर शसीरवबाला 
यह्‌ महान्‌ असुर ! ॥ ६० ॥ ये दोनों नवयुवक तो. 
बढ ही सुकुमार शरीरबले दै, [ फिन्घु इनके भरति- 
पक्षी ] ये चाणूर आदि दैत्य मह्न अत्यन्त दारण है 
॥ ६१॥ मह्लयुद्धके परीक्षकगोंका यच बहुत बड़ा 
अन्याय हैजोवे मध्यस्थ होकर भौ इन वारकः 
ओौर वलवान्‌ मह्लोके युद्धकौ पेश्वा कर रदे 
है" ॥ ६२ ॥ 


रीपराक्ञरजी बोल्े-नगरकी सियो दस प्रकार 
वातलाप करते समथ भगवान्‌ कृष्णचन्द्र अपनी 
कमर कसकर उन समस्त द्शंकोंके घीचमे प्रथिवीको 
कम्पायसान करते हुए रङ्गमुभिमे कूद पड़े ।। ६३ ॥ 
श्रीबहभद्रजी भी अपने युजदण्डोको टोकते हुए अति 
मनोहर भावसे उछछूने लगे । उस ससय उनके पद्‌- 
पद्पर प्रथिवी नहीं फटी, यही बड़ा आश्चयं है ॥६४॥ 

तदनन्तर अमितविक्रम कृष्णचन्द्र चाणूरे 


साथ ओर दन्द्रयुद्धमै इुशल राक्षस मुक 
बर्भद्रजीके साथ युद्ध करने कगे ॥६५॥ 








सन्निपातावधृतैस्त॒ चाणूरेण समं हरिः । | श्रीकृष्णचन्द्र चाणूरके साथ परस्पर भिङ्कर, नीचे 
तिः शिराकर, उछाखकर, धूंसे ओौर वच्रके समान कोष्नी 
प्रषपणेधटिमि्च कौकुबजनिपातनैः ॥६६॥ | मारकर, पैसे ठोकर ` भारकर तथा एक-दूसरे 


> ९ अंगोको रगड़कर छ्डने गे । उस समय उनमें 
पादोद्घूतैः प्रम तयोयुदरमम्‌ महत्‌ ॥६७॥ | महान्‌ युद्ध हने रगा ॥ ६६.६७ ॥ 





अरास्चमतिषोरं तत्तयोधुदर पुदारुणम्‌ । इस प्रकार उस समाजोत्खवके समप केवढ 
बरप्राणविनिष्याय्ं समानोरवसन्निधौ ॥६८॥ बल भौर प्राणरक्तिसे ही सम्पन्न होनेवाला उनका 

| अति मयंकर भौर दारुण शख्वहीन युद्ध हुआ ॥६८॥ 
यावद्यावञ् चाणूर युयुधे हरिणा सह । चाणूर जैसे-जैसे भगवान्‌से भिदता गया बेसे"ही 
प्राणहानिमवापा्रवं तावचताल्रा्नवम्‌ ॥६९॥ वैसे रकी प्राणशक्ति थोडी-थोङौ करके अत्यन्त 

१ षि क्षीण होती गयी ॥ ६९ ॥ जगन्सय भगवान्‌ पष्ण 
कृष्णोऽपि युयुधे तेन लीछय॑व जगन्मयः । भी, श्रम भौर कोपके कारण अपने पुष्पमय श्चिरो- 


सेदाारयता कोपाननिजशेखरके्रम्‌ ॥७०॥ | भूषणम लगे हए कैडरको दिकनवारे उस चाणूरसे 


धरक्षयं षवह्ध गूखप्णयोः । छीरापूवेक रटने रगे ॥ ५७० ॥ उस समय चाणृरके 
सभय द्ध च दृद चाबृह्छवताः वका क्षय ओर्‌ छष्णचन्द्रफे बखका उद्य देख कंसने 
वारयामास तूर्याणि कंसः कोपपरायण; ।७१॥। | खीद्चकर तुयं आदि बजि बंद करा दिये ॥ ५१॥ 
~ ~ _ र्गभूमिमे खदङ्ग ओर तूयं आदिक ब॑द्‌ हो जानेपर 
ङः येषु प्रति क्षणात्‌ । ले ९ 

जगाद तू्थषु परिदधे तः ॥ आकाशम अनेक दिष्य तूं एक साथ बजने खगे 
से सङ्कतास्यवाद्यन्त देवतूर्याण्यनेक्श्चः ॥७२॥ | ॥ ७२ ॥ ओौर देवगण अत्यन्त हृषित होकर अरक्षित- 
जय गोवि णूरं जहि न भावस कहने र्गे-“हे गोविन्द ! आपकी जय हो । 
द चाणूरं दि केर दनम्‌ । हे केशव ¦ आप ज्ञीघ्र ही इस चाणुर दानवको 

अन्तद्भानगता देवास्तमूचुरतिहर्षिताः ॥७३॥ | मार डाक्नियेः' ॥ ७३॥ 








चाणूरेण चिरं कालं क्रीडिता मधुघ्रदनः | ¦ अगवान्‌ मधुसूदन बहुत देरतक चाणृरके साथ 
उत्थाप्य आमयामास तद्भाय कृतोचमः ॥७४॥ | खेल पते रहै, फिर उसका नध कनक छवि उयत 
होकर उसे उठाकर घुमाया 1 ॐ । सन्रुविजयौ 
भ्रामयित्वा शरतमुणं दैत्यमन्नममित्रजित्‌ । भीक्गणचन्ते उस दत्य मतछवो सकद वार घुमा. 


भूमावास्पोय्यामास गगने मतजीषितम्‌ ।।७५॥ | कर भाकारमे ही निर्जीव हौ _जानिपर एभिबीपर 
पटक दिया ॥ ७५॥ भगवान्‌के द्वारा प्रथिकीपर 


भूमावास्फोटितस्तेन चाणूरः श॒तधाभवत्‌ । . | गिरय जति ही चाणूरे शरीरके सैकड़ों इकडे हो 


ध गये आओौर उस समय उसने रक्तखावसे प्रथिवौको 
रक्तसाविमहापड्का चकार च तदा श्रम्‌ ॥७६।। | अत्यन्त कौचङ्मय कर दिया ॥ ७६ ॥ इधर, जिस 


वहदेवोऽपि तत्कालं शुष्टिकेन महाबलः । भकार भगवान्‌ द््ण चाणुरसे लड़ रह थे उती 
प्रकार मदहवरी बरूभद्रजी भौ उस समय दैत्य-सन्ञ 


युयुधे दैत्यम्वेन चाणूरेण यथा दरिः ॥७७] | अु्टिकसे भिदे हए ये ॥ ७७॥ बरामजीते उसके 
सोऽप्येनं टना मूभिवकषस्याह््य जानुना । मस्तकपर धूसोसे तथा वक्षःस्थं जायुसे श्रहार 

. 8 किया ओौर उस गतायु दैत्यको प्रथिषीपर पट ककर 
पातयिता धरापृष्ठे निष्पिपेष गतायुषम्‌ ॥७८॥ | सैद्‌ डाला ॥ ७८॥ 





ध“ ॥। + > १ 








कष्णस्तोशलछक भूयो मन्हराजं महाबसपर्‌ । 
वामयुष्टिप्रहारेण पातयपा भूतरे ।॥७९॥ 
चाणुरे निहते मल्ले श्टिके विनिपातिते । 
नीते क्षयं तोशलके सवे मन्लाः प्रदरः ॥८०॥ 
व्वल्गतुस्वतो ग्ड कृष्णसद्कुषेणाघुमो | 
समानवयसो गोषान्यहादाकृष्य हपितौ ॥८१॥ 


कंसोऽपि कोपरक्ताक्षः प्राहोच्चैव्याीयताननरान्‌ | 


गोपवितौ समाजोघानिष्कर।म्येतां बलादितः ॥८२॥ 


नन्दोऽपि गृद्यतां पापो नि्लैरायतैरिहं । 
अब्रद्धा्दण दण्डेन वसुदेवोऽपि बध्यताम्‌ ॥८३॥ 
वल्मन्ति गोः कृष्णेन ये चेमे सहिताः पुरः। 
गवो निगृद्यतामेषां यच्चास्ति वसु किंचन ॥८४॥ 
एवमाज्ञापयन्तं तु प्रहस्य मधुश्दनः। 
उत्प्लुत्यारहय तं मश्चं कसं जग्राह वेगतः ।॥ ८५] 
केगेष्वाढरृष्य विगकूतिकरीटमवनीतले । 

स कसं एतयामा्च तस्योपरि पपात च ॥८६॥ 
अशेषजगदाधारगुरुणा पततोपरि । 


कृष्णेन त्याजितः प्राणानुग्रसेनासमजे सपः ॥८७।॥ 


मृतस्य केशेषु तदा ग्रहीत्वा मधुष्रदनः | 
चक्ष देहं कंसस्य रङ्गमध्ये महावर; ॥८८॥ 
गौरवेणातिमहता परिखा तेन कृष्यता । 
कृता कंसस्य देहेन पेगेनेव महाम्भः ॥८९॥ 
कसे गृहीते कृष्णेन तद्भ्राताऽम्यागतो सषा । 
सुमाली बहमदरेण रीरयैव निपातितः ॥९०॥ 
ततो हाहाकृतं सवमासीत्त्रङ्मण्डलम्‌ । 
अवज्ञया हतं दृष्ट्रा कृष्णेन मधुरेश्वरम्‌ ॥९१॥ 
कृष्णोऽपि वसुदेवस्य पादो जग्राह सत्वरः । 
देक्याश्च॒महाबाहुवंरुदेवसदहायवान्‌ ॥९२॥ 








तदनन्तर श्रीकुष्णचन्द्रनै महाबलो मल्छरयाज 
तक्षको बायं हाथसे घूंसा मारकर प्रथिवीपर गिरा 
दिया ॥ ७९॥ मह्नश्ेष्ठ चाणूर ओर सूिकके मारे 
जानेपर तथा मल्लराज तोश्चहके न्ट हानेपर समस्त 
मह्लगण माग गये ॥ ८० ॥ तव कृष्ण ओर संकषंण 
अपने समवयस्क गोपोंको बलपूवेक खीचकर 
[ आगन करते हुए ] दषसे रङ्गभूमिभै उलन 
लगे ॥ ८१॥ 


तदनन्तर कंसने क्रोधसे नेत्र जार करके वर्ह 
एकत्रित हुए पुरूषोसे कदा--“अरे ¦ इस समाजसे 
इन दोनों गवाखवालेको बखपूवक निकाल दो ॥<२॥ 
पापी नन्दको छोहेकी खलम बोधकर पक्ड़ो 
तथा वृद्ध पुरषोके अयोग्य दण्ड दैकर बसुदेवको भी 
मार डालो । ८३ ॥ मेरे सामने कृष्णकरे सराथये 
जित्तने गोपगम वचछल रहे हँ इन सबको भी मार्‌ 
डालो तथा इनकी गों ओौर जो कुछ अन्य धन हो 
वह्‌ सव छीन छो” ॥ ८४ ॥ जिस समय कंस इस 
प्रकार आज्ञादे रहाथा उसी समय श्रीमधुसूदन 
हसते-हँसते उखछुखकर मश्चपर्‌ चद्‌ गये ओर जीघ्रता- 
से इसे पकड लिया | ८५ ॥ तथा उसे केशोद्रारय 
खींचकर प्रथिवीपर पटक्र दिया ओर उसके उपर 
आप भी क्रूद पडे, इस समय उसका! मुद्कुट शिरसे 
खिसककर जलग गिर गया था ॥ ८६ ॥ सम्पूणं 
जगत्के आधार भगवान्‌ कुष्णके उपर गिरते ह 
सग्रसेनात्मज राजा कंसने अपने प्राण छोड़ दिये ॥८७॥ 
तव महाव कूष्णचन्द्रने मृतेक कंसके कैट पकरड्कफर 
ठसके देहको रङ्गभूमिम घस्षीरा ॥ ८८ ॥ कंसका 
देह बहुत भारी था, इसलिये उसे घशीरनेसे महान्‌ 
जलप्रबाहके वेगसे हृदं दरारके समान परथिवीपर 
परिखा बन गयी ॥ <९॥ 


श्रीकृष्णचन्द्रह्ारा कंसकफे पकड़ किये जनेपर 
उसके भाई सुमारोने कोधपूवेक आक्रमण किया । 
उसे बलरामजीने लीललासे ही मार डाडा॥९०॥ 
हस प्रकार मथुरापति कंसको कृष्णचन्द्रहारा अवज्ञा- 
पूवक मा हु देखकर रङ्गूमिभमे उपस्थित सम्पूणं 
जनता हाहाकार करने ठगी | ९१॥ उसी समय 
महाबाहु कृष्णचन्द्रने बलदेवज्ीसहित वसुदेव 
जौर देवकीके चरण पकड च्यि ॥९२॥ 


[व 





उत्थाप्य वसुदेवस्तं देधी च जनादनम्‌ । 


स्मृतजन्मोक्तबचनौ तावेव प्रणतौ स्थितौ ॥९२॥ 


श्रीवसुदेव उवाच 

प्रसीद सीदतां दत्तो देवानां यो षरः प्रभो। 
तथावयोः प्रादेन एतोद्धारस्स केशष ॥९४॥ 
आराधितो यद्धगवानवतीणों गृहे मम । 
दुत्तनिधनार्थाय तेन नः पावितं कुलम्‌ ॥९५॥ 
मन्तः सर्वभूतानां स्वभू तमयः स्थितः । 
प्रवतेते समस्तात्म॑स्तवत्तो भूत मविष्यतो ॥९६॥ 
यससस्वमिव्यसेऽचिन्तय सर्वदेवमयाच्युत । 
स्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वर ॥९४७॥ 
सञुद्धवरपमस्तस्य जगतस्तवं जनादन ॥९८॥ 
सापहवं मम मनौ यदेतर्षयि जायते । 
देवक्याथार्मजग्रीस्या तदस्यन्त विडम्बना ॥९९॥ 
लं कता स्वभूतानामनादिनिधनो मवान्‌ । 
स्वँ मनुष्यस्य कस्यैषा जिह पप्रेतिवक्ष्यति।१००॥ 


जगदेतजगन्नाथ सम्भूतमखिलं यतः । 
कया युक्त्या विना मायां सोऽस्पत्तः सम्भविष्यति। 
यसिमिन्परतिष्ठितं सवं जगर्स्थावरलङ्गमम्‌ । 
सकोष्टोत्सङ्गशयनो मादुपो जायते कथम्‌ ॥१०२॥ 
स तवं प्रसीद परमेश्वर पाहि विश्व 
मंशावतारकरणेनं ममासि पुत्रः । 
आब्रह्मपादपपिदं जगदेतदीश 
स्वत्तो विभोहयसि किं पुरूषोत्तमास्मान्‌ ॥ 


मायाविमोहितदश्ा तनयो ममेति 
कसाद्धयं छतमपास्तभयातितीव्रम्‌ । 

















तब जन्मके समय कष हृए भगवद्‌ बाकयोका स्मरण 
हो आनेसे वसुदेव ओर देवकीने श्रीजनारनको 
प्रथिकीपरसे उठा छया तथा उनके सामने प्रणत- 
भावसे खड हो गये ॥ ९३ ॥ 


भीवसदेवजी बोले-हे प्रमो ! अब आप दहूम- 
पर्‌ प्रसन्न होये । हे केव ! आपने आत्तं देवगणो 
कोजो वर दिया थावह हम दोनोंपर अनुग्रह करके 
पूणे कर दिया ॥ ९४ || भगवन्‌ ! आपने जो मेरी 
आराधनासे दुष्टजनोके ना्चके स्यि मेरे घरमे जन्म 
जिया, उससे हमारे कुख्को पवित्र कर दिया है। ९५॥ 
आप सव॑मूतमय है ओर समस्त मृतके भीतर स्थित 
है । हे समस्तास्मन्‌ ¦ मूत आर भविष्यत्‌ आपसे 
प्रवृत्त होते द ।।९६॥ हे अचिन्त्य ! हे सवेदेवमय । 
हे अच्युत ! समस्ते यज्ञौसे आपहीका यजन किया 
जाताहे तथा दहै परमेरवर ! आपह यज्ञ करने 
वाके याजक ओर यक्ञस्वररूप दै ॥९७॥ हे 
जनादन ! अप तो सम्पूणं जगत्‌ उत्पत्तिस्थान हैँ 
आपे प्रति पुत्रबात्सल्यके कारण जोमेरया ओर 
देवकीका चत्त भ।न्तियुक्त हो रहा है यदहं बड़ी दी 
हंसीकी बात ह ॥ ९८-९९ ॥ आप आदि ओर अन्त- 
से रहित है तथा समस्त प्राणियोंके उत्पत्तिकन्त है 
पेसा कौन मनुष्य है जिसकी जिहा आपको पुत्र 
कहकर सम्बोधन करेगी १ । १००॥ 


हे जगन्नाथ | जिन आपसे यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ 
उरपन्न हुआ है बही आप बिना मायाश्चक्तिके ओर 
किस प्रकार हमसे उत्पन्न हा सकते ईह ॥ १०१॥ 
जिसमें सम्पूण स्थावर-जंगम जगत्‌ स्थित है बह प्रयु 
कुश्चि (कोख ) ओर गोदमें शयन करनेबाखा मनुष्य 
कैसे हो सकता है ! ॥ १०२॥ 


हे परमेश्वर ¦ वही आप हमपर प्रसन्न होये 
ओौर अपने अंशावतारसे व्रिश्की रक्षा कीजिये! 
आपमेरे पुत्र नदीं दहेँ। हेरईञ्च! ब्रह्मासे ठेकर 
वृक्षादिपयंन्त यह सम्पूणं जगत्‌ भापस उसन्न 
हभ हे, फिर दे पुरुषोत्तम! आप हमे क्यों 
मोहित कर र्दे है १॥ १०२॥ दहे निभय। 
आप मेरे पुत्र हैः इस मायासे मोहित ह्योकर 
मैने कंससे अस्यन्तं भय माना भा ओर 





उस शन्रुके भयसे ह मेँ जापको गो ठे गया था । 
॥ हे ईश्च ! आप वहं रहकर इतने बड़ हृ है, इसलिये 
द्वि गतोऽसि मम्‌ नासति ममलमीश १०४| अव आप मेरौ ममता नहीं रहो है ॥ १०४॥ 
अवतक्‌ मने आपके ेसे अनेक कमे देखे हँ जो स्र, 


„ „ | मसद्गण, अश्िनीकुमार भौर इन्द्रके किये भी साध्य 
साध्यानि यस्य न भवन्ति निरीक्षितानि । | नी ह । अव मेरा मोह दूरहोगयादै,दहे ईश! 


नीतोऽसि गोङरमरातिभया्कुरेन 


कर्माणि रद्रमरुदश्चिशतकतुनां 


त्वं विष्णुरीश जगतागरुपकारहेतोः 


[ सेने निश्वयपूवंक जान दिया है कि} आप साक्षात्‌ 


श्रीविष्णुभगवान्‌ हो जगत्‌के दपकारफे लि प्रकट 


पराप्ठोऽसि नः परिगतो विगतो दि मोहः १०५ हृए है ॥ १०५॥ 


---*-*-*--~ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्चभेऽरो तिश्लोऽध्यायः | २०॥ 


~ -+**~--~ 


इक्षीसर्वं अध्याय 


उन्रसेनका सन्याभिषेक तथा भगवानका विद्याध्ययन 


श्रीपराशर उवाच 
तौ समख विक्ानौ भगवतकमेदच्नात्‌ । 
देषकीवसुदेबौ त॒ दष मायां पुनर्हरिः । 
मोहाय यदुचक्रस्य विततान स॒ वैष्णवीम्‌ ॥ १॥ 
उवाच चाम्ब हे तात चिरादुस्कण्ितेन मे । 
भवन्तौ कंसमीतेन ट्टो सङ्कपेणेन च ॥ २॥ 
ङ्त याति यः कालो मातापत्रोरपूजनम्‌। 
तस्खण्डमायुषो व्यथमसाधुनां हि जायते ॥ ३॥ 
गुरुदेवद्धिजातीनां मातापित्रोश्च पूजनम्‌ । 
इवतां सफलः कालो देदिनां तात जायते ॥ ४॥ 
तरकषन्तव्थमिदं सवेमतिक्रमशृतं पितः । 
कसवीर्य्रतापाभ्यामावयोः पर्ययो; ॥ ५॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 
इत्युक्त्वाथ प्रणम्योभो यदुशदधानसुक्रमात्‌। 
यथावदभिपूज्याथ चक्रतुः पोरमाननम्‌ ॥ ६ ॥ 
कसपरस्यस्ततः कंसं परियं हतं यवि । 
तिरेपूर्मातरश्ास्य दुःखशोकपरिष्ुताः ॥ ७ ॥ 


प्ति^ {^ 6 


भोपरयश्चरजी बोले-अपने ईश्रीय कर्मकरो 
देखनेसे वसुदेव ओर दैवकोको विज्ञान ठन्न हु 
देख भगवान्‌ने यदुवंकचियोको मोहित करनेके चि 
अपनी वेष्णवी मायाका विस्तार किया ॥ १॥ भौर 
बोरे-- “शे मातः! हे पिताजी ! बलरामजी ओर 
मँ बहत दिनोंसे कंसके भयते छिपे हुए आपके दशनो 
के ख्यि उत्कण्ठित थे, सो आज आपका दन 
हभ है ।॥ २॥ जो समय माता-पित्ताको सेवा किये 
बिना बीतता ह वह असाधु पुरुषोकी आयुका भाग 
स्यथंही जाता है ॥द॥ हे तात! गुर, देव, 
ब्रह्मण जौर माता-पिताका पूजन करते रहनेसे देह 
धारियोका जीवन सफल हो जाता है ॥ ४॥ अतः 
हे तात! कंसके बौयं ओौर प्रतापसे भीत हम 
परबक्ञोसे जो कुष अपराध हुआ दो बहू क्षमा 
कर"! || ५॥ 

श्रीपराशरजी बोज्ञे-राम ओर कृष्णे इस 


प्रकार कह साता-पिताको प्रणाम किया ओौर 
फिर क्रमशः समस्त यदुब्रद्धांका यथायोग्य अभि- 
वादनकर पुरवासियोंका सम्मान किया ॥६॥ 
डस समय कंसको पलनिर्या ओर मातार्प प्रथिवी- 
पर प्डे हृष मृतकं कसक घेरकर दुःख 


शोकसे पणं हो बिाप करने लगौ ॥७॥ 


७५०५.५ “९, . छ. &» 9 च 





[रि 
~~ 


बह्रकारमत्य्थं॑पथात्तापातुरो हरिः । = | तव कृष्णचनद्रन भौ अव्यन्त पश्चत्तापसे विह्वल हो 
स्वयं आंखोमे ओँघू भरकर उन्ह अनेको प्रकारसे 
तास्समाशधासयामास सखयमघ्ाविलेक्षणः ॥ ८ ॥ | टोँढस वैँधाया ॥ ८॥ 


उग्रसेनं ततो बन्धान्पुमोच मधुष्टदनः तदनन्तर श्रमधुसुदनने, जिनका यत्र मारा गया, 
| उन राजा उम्रसेनको बन्धनसे भुक्त किया ओर उन्ह 
अभ्यषिश्वत्तदैवैनं निजरास्ये हतास्मनम्‌ ।॥ ९॥ | अपने राञ्यपर अभिषिक्त कर दिया॥ ९ ॥ श्रीकृष्ण 


। ॥ चन्दरद्रारा राञ्याभिषिक्त होकर यदुश्रेष्ठ उग्रसेनने 
राज्येऽभिषिक्तः कृष्णेन यदुिस्सुतस्य सः | अपने पुत्र तथा ओौर भी जो लोग वौ मरि गये थे 
चक्षार प्रेतकार्याणि ये चान्ये तत्र घातिताः ॥१०॥ | इन सवके ओौध्वेदैहिक कमं किये ॥ १०॥ जओध्व- 

नित | दैहिक कर्मोसे निवृत्त होनेपर सिहासनारूद्‌ इ्रसेनसे 
कुतोद्धवदैहिकं चैनं शिहासनगतं हरिः । श्रीहरि बोरे--्हे विभो! हमारे योग्यजो सेवा 
` [ता ¦ ॥१ हो उसफे छ्यि हम निर्शंक होकर आज्ञा दीजिये 
उवाचाज्ञापय विभो यत्काय मविशङ्कितः ॥११॥ | ॥ ११॥ यथानिका श्प हेनेसे यद्यपि हमारा वंश 


ययातिवापद्रयोऽयमराज्या ऽपि साम््तम्‌ | | राच्या अविकार) नदी है तथागि इस समय यु 
दासक रहते हुए राजार्ओको तो क्या, आप देवता- 


मयि भृष्ये स्थिते देवानाह्ापयतु किं र्पैः ॥१२॥ | ओको मी आज्ञा दे सकते दै" ॥ १२॥ 

श्रीपराशर वाच भी परशस्त्ी बोक्ते--उग्रसेनसे इस प्रकार कहं 
इत्यक्त्वा सोऽस्मर्रायुमाजगाम च तत््षणत्‌। | | धर्मसस्थापनादि ] कायं सिद्धिके लिये मनुष्यरूप 
उवाच येनं भगवान्‌ केशवः कार्थमाङुषः ॥१२॥ | पारण करनेवारे भगवान्‌ छष्णने वाका स्मरण 
` , किया ओौर वह्‌ उसौ सम्रय वह उपस्थित हो गया | 
गच्छेद हि वायो समरं गर्वेण वात्र | तव भगवान्‌ने उससे कहा १३ ॥ “हे बायो ! तुम 


. जाओ ओर्‌ इन्द्रस कहो कि हे बासव ! ऽ्यथं गवं 
दीयतागरसेनाय सुमा भवता समा ॥१४॥ छोडकर तुम चम्रसेनको अपनी सुध मौ-नामकी समा 


कृष्णो व्रवीति राजामेतद्रलमनुत्तमम्‌ । दो ॥ १४॥ छृष्णचन्द्रकी आज्ञा है कि यह्‌ सुधर्मा 


, + यदिरार सभा नामक सर््ोत्तपर रत्न राज्ञाकेदहयो योग्यहे। 
६८ १ है | 
सुधरमाख्यघमा पुक्तमस्या यदुभरासतुम्‌ ॥{५॥ इसमे याद््वोंका विराजमान होना उपयुक्त है,।१५॥ 


श्रीपराशर उवाच श्रीपराश्चारजी दोल्े--भगवान्‌की देसी आज्ञा 


¢ 

इत्युक्तः पवनो गत्वा सवे माह शचीपतिम्‌ । होनेपर वायुने यद्‌ सारा समाचार इन्द्रस जाकर 
ति स्यां ¡ तायो! परलरः कह दिया ओर इन्द्रम भी तुरंत ही अपनी सुधर्मा 
ददौ सोऽपि सुधर्माख्यां समां वायो; पुरन्द्रः॥ १६॥ सको तमा वायु दे दौ ॥ ९६॥ वाणुदरारा 
वायुना चाहृतां दिभ्यां समां ते यदुपुङ्गवाः । छायी हुई उस सवेरल्नसम्पन्न दन्य सभाका सम्पूणं 
९ उोपिनःअलयशध्रयाः यद्रे श्रकृष्णचन्द्रकी सुजाभके आश्रित रहकर 

बुभुज्सवेरतनाद्यां मोषिन्दथुजसंश्रयाः ॥१४॥ | भोग करने लके ॥ १७॥ 
विदिताखिटविक्ञानौ सर्व॑ज्ञानमयावपि । तदनन्तर समस्त विज्ञानको जानते हए ओर 
जक न्तौ यद्‌ सवज्ञान-सस्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण 
शिष्याचार्यक्रमं वीरौ स्पापयन्तौ यदत्मो || १८॥ | मौर बलराम गुरुशाप्यसम्बन्धको प्रकाशित 
ततस्पान्दीपनिं काश्य मवन्तिपुरवासिनम्‌। करनेकै ल्य उपनयन-संस्कारके अनन्तर विद्यो- 
९ पानके ल्यि काञ्चीम चलन्न हुए अवन्तिपुर- 
विध्याथं जममतुर्बारो कृतोपनयनक्रमौ ॥१९॥ | वासी सान्दीपनि सुनिके यँ गये ॥ १८-१९॥ 











अ० २१] 


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वेदाभ्यासङृतप्रीतौ सङ्कपणलनादैनौ । 
तस्य शिष्यस्वमभ्येत्य गुश्वत्तिषरौ हि तो ॥२०॥ 
दर्शयाश्चक्रतुवीरावाचारमचिके जने । 
सरहस्यं धसुरवेदं सपद्ग्रहमधीयताम्‌ ॥२१॥ 
अहोरात्रचतुष्पष्टया तदद्भुतमभूद्‌ दविज । 


सान्दीपनिरसम्भाव्यं तयोः कर्मातिमानुषम्‌ ॥२२॥ 


विचिन्त्य तौ तदा मेने प्राप्रौ चन्द्रदिवाकरी। 
साङ्गां चतुरो वेदान्सरवशञाञ्चाणि चैव हि ॥२३॥ 
असग्राममश्ेषं च प्रोक्तमात्रमवाप्य तौ । 
उचतुवरियतां या ते दातव्या गुरदक्षिणा ॥२४॥ 
सोऽप्यतीन्द्ियमाोक्य तयोः कमं महामतिः। 
अयाचत मूतं पूत्रं प्रभासे रवणाणेवे ॥२५॥ 
गृहीवास्ली ततस्तौ तु साध्यहस्तो महोदधिः । 
उवाच न मया पूत्रो हृतस्सान्दीपनेरिति ॥२६॥ 
देस्यः पश्चजनो नाम शह्धरूपस्स वारकमू । 
जग्राह योऽस्ति सर्र मभैबाघुरघ्रदन ॥ २७॥ 
श्रीपराडर उवाच 
हस्युक्तोऽन्तञंलं गला हस्व पश्चजनं च तम्‌। 
कृष्णो जग्राह तस्यास्थिभ्रमवं शङ्खत्तमम्‌॥२८॥ 
यस्य नादेन दैत्यानां बरृदानिरजायत । 
देवानां वधू तेजो यास्यधमेध सदक्षयम्‌॥२९॥ 
तं पाश्चजन्यमापूयं गसा यमपुरं हरिः । 
रुदेवश बहृवाज्जिस्वा वैवस्वतं यमम्‌ ॥३०॥ 
तं बालं यातनासंस्थं यथापूर्वशरीरिणम्‌ । 
पितरि प्रदत्तवान्कृष्णो बह बिना वरः ॥३१॥ 
मधुरां च पुनः प्रापतावु्रसेनेन पारितम्‌ । 


्र्पुरषसचीकाष्ुमो = रामजनादेनौ ॥३२॥ 


पञ्चमं अश्च 











७४३ 


[कवक वकं 





वीर संकर्षण ओर जनादन सान्दीपनिका शिष्यत्व 
स्बीकारकर वेदाभ्यासपरायण्र हो यथायोग्य गुह 
शुशूषादिमे भवृत्त रह सम्पूणं लोकोको यथोचित .. 
रिष्टाचार प्रदर्शित करने छे । हे द्विज ! यह्‌ बडे 
अश्वयक] बात हुई कि उन्हने केवर चौसठ दिनमें 
रहस्य ( अख्रमन्त्रोपनिषत्‌ ) भोर संग्रह (अस्प्रयोग) 
के सहित सम्पूणं धलुवंद सीख किया । सान्दीपनिने 
जव उनके इस असम्भव ओर अतिमानुष क्मेको 
देखा तो यदी समञ्च! कि साक्षात्‌ सूयं ओर चन्द्रमा 
ही मेरेघरओा गये । उन दोनोने अङ्गोसहित 
चारों वेद्‌, सम्पूणं साख ओर सब प्रकारक अश्ञ- 
विद्या एक बार सुनतेदी प्राप करङी ओरषफिर 
गुरुजीसे कहा--“कदिये, आपको कया गुरदक्षिणा 
द १, ॥ २०-२४ ॥ महामति सान्दीपनिने उनके 
अतीन्द्रियकमं देखकर प्रभास-कषेत्रके खारे ससुद्रमे 
दूवकर मरे हुए अपने पुत्रको माँगा ॥ २५॥ तदनन्तर 
जब वे शख ग्रहणकर समुद्रे पास पर्हुचे तो सुद्र 
अष्यं ठेकर उनके सम्मुख उपस्थित हा भौर कहा- 
“तेने सान्दीपनिका पुत्र हरण नही किया 1 २६॥ 
हे दैत्यदमन । मेरे जलम हौ पञ्चजन नामक एक 
दैत्य शंखरूपरसे रहता दै; उसीने उस बालकको 
पकड़ लिया था ॥ २७॥ 


शी पराशचरजी बोल्ले-समुद्रके इस प्रकार कहने- 
पर कृष्णचन्द्र जलके भीतर जाकर पच्चजनका वध 
क्रिया ओर उसक्री अस्थियोसे उलन्न हुए शंखको ठे 
दिया | २८॥ जिसके शब्दसे दै्यौका बल नष्ट हो 
जाता है, देवताओंका तेज बदता है भौर अधमेका 
क्षय होता है | २९॥ तदनन्तर दस पाच्चजन्य 
डंखको बजाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र ओर बख्वान्‌ 
बलसाम यमपुस्को गये ओौर सूयपुत्र यमक्रो जीतकर 
यमयातना भोगते हृष दस बाछ्कको पूर्वत्‌ शरीर 
यक्तकर उसके पिताको दे दिया ॥ १०.९१ ॥ 


इसके पश्चात्‌ वे राम ओौर क्ष्ण राजा य्रसेनद्टारा 


परिपाछित सथुरापुरीभे, जहकिं सी-पुरुष [ उनके 
आगमनसे ] आनन्दित हयो रहे थे, पधारे ॥ ३२॥ 


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वाईसर्वोँ अध्याय 
जशसन्थकी पजय 


श्रीपराक्ञर उवाच 
जरासन्धसुते कंस उपयेमे महाब; । 
असत प्रधि च कैत्रेय तयोभेेहणं हरिम्‌ ॥ १ ॥ 
महावकूपरीनारो मगधाधिपतिवेी । 
हन्तु ममभ्याययौ कोपाज्ञरासन्धस्सयादवम्‌॥ २॥ 
उपेत्य मथुरां सोऽय रुरोध मगधेश्वरः । 
अप्तौहिणीमिस्यैनयस्य त्रयोरवितिभि॑तः॥ २॥ 


निष्कम्याल्पपरीषाराघुभौ रामजनादैनौ । 
युयुधाते समं तस्य बिन रिसैनिकैः ॥ ४ ॥ 
ततो रामश दृष्मथ्च मति चक्रतुरञ्ञसा । 
आयुधानां पुराणानामादाने शुनिसत्तम ॥ ५॥ 
अनन्तरं दरेदशाङ्ग तूणो चाक्षयसायकौ । 
आकाश्चादागतौ विप्र तथा कौमोदकी सदा ॥ ६॥ 
हरं च बेशभद्रस्य गगनादागतं महत्‌ । 
मनसोऽभिमतं विप्र सुनन्दं शरुसलं तथा ॥ ७। 
ततो युद्धे पराजिर्य ससैन्यं मगधाधिषम्‌ । 

पुरीं बिविशतुवीराुमौ रमजनादैनौ ॥ ८॥ 
जिते तस्मन्पुदुश ते जरासन्धे महा्टुने । 
जीवमाने गते कृष्णस्तेनामन्यत नाजितम्‌ ॥ ९॥ 
पुनरप्याजगामाथ जरासन्धो बलान्वितः । 
जितश्च समङृष्णाम्यामपक्रान्तो द्विजोत्तम ॥१०॥ 
दश चाष्टौ च सद्गरामानेवमत्यन्तदुरमदः । 
यहुभिर्मागधो राजा केकरे कृष्णपुरोगमैः ॥११॥ 
सर्म्वेतेषु युद्धेषु यादवैस्स पराजितः । 
अपक्रान्तो जरासन्धस््ल्पसैन्येषराधिकः।। १२॥ 
न तद्वरं यादवानां विजितं यदनेकरः । 
तत्त सनिधिमादारमयंविप्णोरश्स्य चक्रि णः॥ १२॥ 








श्रीपराशयरजी बोज्ञे-हे मैत्रेय ! महाबरी कंसने 
जरासन्धकी पुत्री असि ओर प्राप्निसे विवाहं किया 
था, अतः बह अत्यन्त बलिष्ठ मगधराज क्रोधपूवेक 
एक बहुत बडी सेना ठेकर अपनी पुश्रियोके स्वामी 
कको मारनेवे श्रीहरिको यादवोके सहित मारने 
की इन्कछ्रासे मथुरापर चद्‌ आया ॥ १-२॥ मगचघेश्वर 
जरासन्धते तेस अक्षौहिणी सेनाके सहित आकर 
मथुराको चारो ओरसे घेर छया ॥ ३॥ 


तब महाबटी राम ओर जनादन थोड्-सी सेना- 
के साथ नगरसे निकरकर जरासन्धके रल सैनिको 
से युद्धकसमे स्गे॥४॥ हे मुनिश्रेष्ठ! उस समय 
राम ओौर कृष्णने अपने पुरातन अ्खोको प्रण 
करनेका विचार किया ॥५॥ ह विग्र! हरिके 
स्मरण करते हौ उनका शाङ्गंधनुष, अक्षय बाणयुक्त 
दो तरकक्च ओौर कौमोदकी नामकी गदा आकाश्चसे 
आकर उपस्थित हो गये ॥ ६ ॥ हे दविज ! वलमद्रजी- 
के पास भी ठका मनोवाञ्छित महान्‌ दर ओर 
सुनन्द नामक मूसङ आकाञ्चसे आ गये ॥ ७॥ 


तदनन्तर दोनों वौर राम ओर कृष्ण सेनके 
सहित मगधराजको युद्धम हराकर मथ्ुसपुरीमे चले 
आये ॥ ८ ॥ हे महामुने! दुराचारी जरासन्धको 
जीत छेनेपर भी उसफे जीवित चले जनके कारण 
कुष्णचन्द्रने अपनेको अपराजित नहीं समन्चा ।६९।१ 

हे द्विजोत्तम ! जरासन्ध फिर उतनी ही सेना 
ठेकर आया, किन्तु राम ओर फरष्णसे पराजितः 
होकर भाग गया ॥ १० ॥ इस प्रकार अत्यन्त दुधंषं 
मगधराज जरासन्धने राम ओर कृष्ण आदि यादवो 
से अद्टारह्‌ बार युद्ध किया ॥ ११॥1 इन सभी युद्धोमें 
अधिक सैन्यञ्ञालो जरासन्ध थोड़ी-सी सेनावाडे यदु. 
बंशियोसे हारकर भाग गया ॥ १२॥ यादवोकी थो डी- 
सी सेना भीजौ [ उसकी अनेक बड़ी सेनाभोसे ] 
पराजित न हई, यह्‌ सब भगवान्‌ विष्णुके अंज्ञावतार 
्रीकृष्णचन्द्रकी सन्निधिका हो माहात्म्य था ॥ १३॥ 





मदष्यधर्मशीरस्य लीला सा जगतीपतेः । 
अ्नाण्यनेकरूपाणि यदरातिषु उुश्चति ॥१४॥ 
मनसैव नगत्सृष्ट संहारं च करोति यः । 
तस्यारिपक्ष्षपणे क्रियाजुच्मविस्तरः ॥ १५॥ 
तथापि यो महुष्याणां धरमस्तमलुवरतते 
इवन्यरधता सन्थि हीते करोर्यसौ ॥१६॥ 
साम चोपप्रदानं च तथा मेद्‌ च दर्शयन्‌ । 
करोति दण्डपातं च चिदेव पलायनम्‌ ॥१७॥ 


मरुष्यदेहिनां चेष्टामिस्येवमयुवर्वते । 
रला जगत्यतेस्तस्यच्छन्दतः परिर्तते ॥१८॥ 


१८०१ 1 





खन मानबधमंश्चीक जगस्पतिकी यह्‌ छीला दीह कि 
वे अपने शत्रुओंपर नाना प्रकारके अख-शख छोड़ते 
हैः ॥ १६ ॥ जो केवल संकल्पमात्रसे ही संसारकी 
उसत्ति ओर संहार कर देते दै उन्हं अपने इन्ुपक्- 


का नाञ्च करनेके ल्यि भला कितना उयोग फेलाने- 
। की आवर्यकता है ? ॥ १५॥ तथापि वे बल्वानोसे 
। सन्धि ओर बलहीनौँसे युद्ध करके मानव-धर्मोका 


अनुवतेन कर रहे है ॥ १६॥ वे कहीं साम, कीं 
दान ओर कहीं भेदनीतिका म्यवहार करते हैँ तथा 
कहीं दण्ड देते ओर कहीसे स्वयं भागमी जाते 
ह ॥ ९७॥ इस प्रकार मानवदेह्धारियोंको चे्ओ- 
का अनुवतेन करते हुए श्रीजगत्पतिकौ अपनी 
इच्छानुसार लीला होती रहवौ थीं ॥ १८॥ 


१०.०१.०१८ 


दति श्रीविष्णुपुराणे पच्भेऽरो द्वाविश्चोऽध्यायः ॥ २९ ॥ 


---+*-++---~ 


तेहसर्वा अध्याय 


ारका-दुगकी स्चना, कारयघनका भरम होना तथा सुचुज्घन्दकृत भगवर्स्तुति 


श्रीपरङ्ञार उवाच 
गाग्यं गोष्ठयां द्विजं श्यालष्षण्ट दस्यु क्तवान्दिन। 
यदूनां सन्निधौ सरवे जहघु्यादषास्तदा ॥ १॥ 
ततः कोपपरीतात्मा दक्षिणापथमेस्य सः। 
सुतमिच्छस्तपस्तेपे यदुचक्र भयावहम्‌ ॥ २॥ 
आराधयन्महादेवं लोहवूणैममक्षयत्‌ । 
द्दौ बरं च तुषटोऽसमै वषे तु द्वादशे हरः ॥ ३॥ 
सन्तोषयामास च तं यवनेशो ्यनात्मजः। 
तद्योषिस्सङ्गमाचास्य पुप्रोऽभूदहिसन्निभः॥ ४॥ 
तं कालयवनं नाम राज्ये स्पे यवनेश्वरः | 


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अभिषिच्य वनं यातो वजाग्रकटिनोरसम्‌ ॥ ५॥ 


श्री पराश्चरजी बोल्ले-हे विज ! एक वार महषि 
गारयंसे उनके सेने यादधोकौ गोष्ठौमे नपुंसक कह 
दिया । उस समय समस्त यदुवश्रो हस पडे ।॥ १॥ 
तव गार्ग्यने अत्यन्त कुपित हो दक्षिण-समुद्रके तटपर 
जा यादबसेनाको भयभीत करमैवाछे पुच्रकी प्राप्िके 
ल्य तपस्या की ॥ २॥ उन्होने श्रौमहदेवजीकी 
उपासना करते हुए केव शोहचूणं भक्षण किया । 
तब भगवान्‌ शंकरने बारहवं वपेमें प्रसन्न होकर 
उन्हं अभीष्ट वर दिया ॥ ३॥ 


एक पुत्रहीन यवनराजने महिं गाग्येकी अत्यन्त 





सेवाकर उन्दः सन्तुष्ट किया, उसकी खीके संगसे ही 
इनके एक भरे समान कृष्णवणं बालक हुज॥४॥ 
वह यत्रनराज उस कार्यवन नामक बाल्कको, 
जिसका वक्षस्थल वज्रके समान कठोर था, राञ्य- 
पदपर अभिषिक्तं कर वनको चछा गया ॥ ५॥ 


४६ 


श्रीविष्णुपुराणे 


[ अ० २३ 








स तु वीयंमदोन्मत्त पृथिव्यां विनो सपान्‌। 
अपृच्छन्नारदस्तस्मे कथयामास यादवान्‌ ॥ ६॥ 
म्टेन्छयोरिसदस्राणां सहसेरसोऽभिसंवृतः। 


गजाश्चरथसम्पन्नै्रकार परमोद्यमम्‌ ॥ ७॥ 


प्रययौ पोऽव्यवच्छिन्नं छिन्न्रानो दिने दिने। 
यादवान्प्रति सामर्षो मैत्रेय मधुं पूरम्‌ ॥८॥ 
कृष्णोऽपि चिन्तयामास क्षपितं यादवं बम्‌ । 


यवनेन रणे गम्यं मागधस्य भविष्यति ॥९॥ 


मागधस्य बह क्षीणं स कालयवनो बी | 


हन्तैतदेवमायातं यदूनां व्यसनं दविधा ॥१०॥ 


तस्मादु करिष्यामि पदूनामरिदुजैयम्‌ । 
सियोऽपि यत्र युधयेुः किं पुनगरष्णिप्खवाः ।।११। 
मयि मत्ते प्रमत्ते वा सुप्ते प्रवसितेऽपि बा । 
यादवाभिमवं दुष्टा मा बुव॑न्सररयोऽपिका; ॥१२॥ 
इति सश्चिन्त्य गोबिन्दो योजनानां महोदधिम्‌। 
ययाचे द्वादश पुरीं द्वारकां तत्र निर्ममे ॥१२॥ 
महोनां महावप्रां तटाकशतश्चोभितम्‌ । 
प्रासादगृदसम्बाधामिन्द्रस्येवामरावतीम्‌ ॥१४॥ 
मधुराबापिनं लोकं तप्रानीय जनार्दनः । 
आसन्ने कायवने मधुरं च स्वयं ययो ॥१५॥ 
वहिरावासिते सैन्ये मधुराया निराघुधः । 


(6 [ "कतु [न कने च्वि [प ब 1, । ।॥ ।, # हम, | 





तदनन्तर बीयंमदोन्मत्त कार्यवनने नारदजी- 
से पृछा कि प्रथिवीपर बलवान्‌ राजा कौन-कौन-से 
है १ इसपर नारदजीने उसे यादृवोंको ही बतला 
दिया ॥ ६ ॥ यह्‌ सुनकर काख्यवनने हजारो हाथी, 
घोड़े ओर रथोके सहित सहस्रो करोड़ म्डेच्छ- 
सेनाको साथे बो भारी तैयारी की ॥ ७॥ ओर 
याद््बोके प्रति क्रुद्ध होकर वह प्रतिदिन [ हाथी, 
घोडे आदिके थक जानिपर ] उन बाहनोंका व्याग 
करता हुभा [ अन्य वाहनोपर चकर ] अविच्छिन्न 
गतिसे मश्ुरापुसोपर चद्‌ यरा ॥ ८॥ 


[ यह्‌ देखकर ] श्रीकृषणचन्द्रते सोचा-ध्यवनो- 
के साथ युद्ध करनेसे क्षीण हु यादवसेना अवश्य 
हो मगधनरेश्चसे पराजित हो जायगी ॥ ९॥ ओर 
यदि प्रथम मगधनरेरसे ्डते हँ तो उससे क्षीण 
हु यादव सेनाको बबान्‌ कालयवन नष्ट कर देगा । 
जहो ! दस प्रकार यादवोपर [ एक ही साथ ] यह 
दो तरहकी आपत्ति आ पड़ी ॥ १०॥ अतः मँ 
यादषोके ल्यि एक देखा दुजंय दुगे तैयार करता ह 
जिसमे ब्रेकर बृष्णिश्र्च यादइवोकी तो बात ही क्या 
है, सियो मी युद्ध कर सके ॥ ११॥ उस दुगमे 
रहमेपर यदि मै मत्त, प्रमत्त ( असावधान ) सोया 
अथवा कहीं बाहर भो गय! होऊं तब भी, अधिक- 
से-अधिक दुष्ट शन्रुगण भी यादवोंको पराभूतन कर 
सकर | १२॥ 


एसा चिचारकर श्रौगोविन्दने सशुद्रसे बार्ह 
योजन भूमि गी ओर उसमे द्वारकापुरी निमौण 
की।॥१३॥ जो इन्द्रको अमरावतीपुरीके समान 
महान्‌ उद्यान, गहरी खाई, सैकड़ों सरोवर तथा 
अनेकों महलसे सु्चोभित्त थी ॥ १४॥ कार्यवन- 

समीप ज जानेपर श्रीजनादंन सम्पूणं 
मथुरानिवासियोको दवारकाम ठे अये ओर फिर 
स्वयं मथुरा लोट गये ॥ १५॥ जब कालयवनकी 
सेनाने मथुराको घेर ल्या तो भरकृष्णचन्द्र 
बिना शख ल्यि मथुरासे बाहर निक अये। 


[काकतां 
~~~ 





स ज्ञास्वा वासुदेवं तं बादुप्रहरणं नृषः। 


अनुयातो महायोभिचेतोभिः प्राप्यते न यः॥ १७॥ 


तेनालुयातः कृष्णोऽपि प्रविवेच्च महागुदयम्‌। 
यत्र शेते महावीर्यो यचुहृन्दो नरेश्वरः ॥१८॥ 
सोऽपि प्रविष्टो यवनो दुष्टरा ्च्यामतं नृपम्‌ । 





पादेन वाडयामास मसा कृष्णं सुदुमेतिः ॥१९॥ 
उस्थाय पृचुह्कन्दोऽपि ददक्षं यथनं नृपः ॥२०॥ 
दृष्टमात्रश्च तेनासौ जज्वाल यवनोऽभ्निना। 

तत्कोधजेन यत्रय भस्मीभूतश्च तस्षणात्‌ ॥२१॥ 


सहि देवाकरे युद्धेगतो दता महासुरान्‌। 
निद्रा्तस्मुमहाकाहं निद्रा वव्रे वरं सुरान्‌ ॥२२॥ 
प्रोक्त देषैस्संसुप्रं यस्त्वा्चुत्थापयिष्यति । 


दे्टसेनाभिना स्यस्स तु भस्मी मविष्यति ॥२३॥ 
एवं दग्ध्वा स त पापं दृष्ट्रा च मधघुष्ठदनम्‌ । 
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः §रे। २४ 
वसुदेवस्य तनयो यदोर्वश्चसपुद्धवः । 
चुढृन्दोऽपि तत्रासौ बृद्धगाग्येवचोऽस्मरत्‌॥ २५॥ 
संस्परस्य प्रणिपत्यैनं सवं सर्वश्वरं हरम्‌ । 

प्राह ज्ञातो मवान्विष्णोरंशस्तवं परमेश्वर ॥२६॥ 
पुरा गार्ग्येण कथितम्रष्टाविंशषतिमे युगे । 
हापरान्ते हरेजैन्म यदुवंशे भविष्यति ॥२७॥ 
स ्वंप्रापनोन सन्देहो मत्पानाष्ुपकारछत्‌। 
तथापि सुमहततेजो नारं सोहुमहं तव ॥२८॥ 
तथा हि सजलाम्भोदनादधीरतरं तव । 

वाकयं नमति चैवोवीं युष्मत्पाद्रपीडिता ॥२९॥ 


सहायो गीन्वरोका चित्त मी जिन्हे प्राप्न नदीं कर पाता 
उन्हीं बासुदेवको केवट बाहुरूपर शखोसे ही युक्त 
[अथौत्‌ खाली हाथ ] देखकर वह उनके पीछे 
दौड़ा । १५॥ 


कालयवनसे पीछा क्रिये जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र 
उप्त महागुहमिं घु गये जिसमे मदावीयशञाली 
राजा मुचुङ्कन्द सो र्हा था ॥ १८ ॥ उस दुमेति 
यवनने मी उष गुम जाकर सोये हुए राजाको 
कृष्ण समञ्यफर छात मारी ॥ १९ ॥ उसफे छात 
मारनेसे उटक्षर राजा मुचुकरुन्दने उस यवनराज्को 
देखा । हे मैत्रेय ! उनके देखते हयौ वह्‌ यवन उनकी 


कोधाग्निसे जलकर तत्काङ भस्मीमून हयो 
गया | २०.२१} 


पू कालम राजा मुचुकुन्द देवताँकी ओरसे 
देवासुरसंग्रामे गये थे; अदुरोको मार चुकनेपर 
अत्यन्त निद्रालु दोनेके कारण कनन देवताओंसे 
वहत समयतक सोनेका वर मोगाथा॥२२॥ उस 
समय देवताओोने कहा था क्रि तुम्हारे स्चयन करने- 
पर तुम्है जो कोड्‌ जगावेगा बह तुरंत हही अपने 
शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर मस्म हो 
जायगा ॥ २३॥ 

इस प्रकार पापौ कार्यवनकरो दग्ध कर चुकने- 
पर राजा मुचुक्ृन्दने ्रीमधुसूदनकरो देखकर पूछा- 
'आप कौन दै १ तव भगवान्‌ने कह,“ चन्दरव॑श्च- 
के अन्तगंत यदुकुखुम वसुदेव जीके पुत्रूपसे उत्पन्न 
हु हं तव मुचुञखन्धको वृद्ध॒ गाग्यं मुनिके 
वचनोंका स्मरण हु ॥ २४-२५॥ उनका स्मरण 
होते क्ट दन्धोने स्षरूप सवंश्वर हरिकं प्रणाम 
करके कहा--“हे परमेश्वर । मैने आपको जान लिया 
है; आप साक्षात्‌ सगवान्‌ विष्णुके अं है ॥ २६॥ 
पूवकारमे गाग्थं सुनिने कहा था कि अहृ ईसं 
युगम द्वापरके अन्तमं यदुङुरमे श्रीहरि जन्म 
होगा ॥ ९७1 निस्सन्देह्‌ आप भगवान्‌ विष्णुके अंज 
है ओौर मनुष्योके उपकारके लिये ही अवतीण हृष 
तथापि मै आपके महान्‌ तेजको सहन करनेमें समथ 
नहीं ह ॥ २८॥ हे भगवन्‌! आपका शब्द्‌ सजर मेव- 
की घोर गजना समान अति गम्भीरदै अतः आपके 
चरणोँसे पीड़िता होकर प्रथिवी दयुकौ हुई हे ॥ २९॥ 


४५८ 








भ्रीविष्णुपराण 


[ अ० २३ 








देबासुरमहायुदधे दैस्यसेन्यमहामटाः । 


न सेहुर्मम तेजस्ते सक्तो न सष्ाम्यदम्‌ ॥३०॥ 
संसारपतितस्यैको जन्तोस्खं शरणं परम्‌ । 
प्रसीद सं प्रपलातिहर नाशाय भेऽशुमम्‌ ॥२१॥ 





स्वं पयोनिधयर्शेरसरितस्त्ं वनानि च । 
मेदिनी गगनं बायुरपोऽगनिस्ख तथा मनः ॥२२॥ 
ुद्धिरव्याद्तप्राणाः प्राणेश्स्तं तथा पुमान्‌ । 

पुंसः परतरं यञ्च व्याप्यजन्पविक्षाखत्‌ ॥२२॥ 
राब्दादिहीनमजरममेयं क्षयपजितम्‌ । 
अृद्धिनाशं तदत्र तमा्न्तविबनितम्‌ ॥३४॥ 
 ख्तोऽपरास्सपितरो यकषगन्धवमिननरः। 
सिद्धाशाण्सरसस्तत्तो मनुष्याः पशवः खगाः । २५ 
सरीदुपा मृगार्पवे खतस्पर्वे महीरुहाः । 

यच्च भूतं मविष्यं च फिञिदत्र चराचरम्‌ ॥२६॥ 
ूर्तामूतं तथा चापि स्पूं ष्वच्मतरं तथा । 
त्स सवं जभत्क नास्ति किचिचया विना।२७ 











मया संसास्वकरेऽस्मिन्भरमता मगवन्‌ सदा| 
तापत्रयामिभूतेन न प्रा्ा निष तिः कचित्‌ ॥ २८ 
दुःखान्येव सुखानीति मृगतृष्णा जल्ाशया। 

मयान गृहीतानि तानि तापाय मेऽमवन्‌॥ २९॥ 
राज्ययुर्वी बलं कोशो मित्रपक्षप्तथात्मजाः। 

भार्या भृत्यजनो येचक्षन्दाद्या विषयाः प्रमो ॥४०॥ 
सुखबुद्ध्या मया सरं गुहीतमिदमग्ययम्‌ । 
परिणामे तदेवेश तापात्मकमभून्मम ॥४१॥ 
देवोकमतिं प्राप्तो नाथ देषगणोऽपि हि। 




















मत्तस्पाहाय्यकामोऽपूच्छधती ङु निव तिः।४२। 
स्वामनाराध्य जगतां सर्वेषा प्रभवास्पदम्‌ | 


नात्रा शाश ~ 1 पिन ।। ९५9१ 


हे देव ! देवासुर-महासं्रामभे दैत्य-सेनाके बद-बदे 
योद्धागण भी मेरा तेज नदी सह स्केथे ओर 
आपका तेज सहन नहीं कर सकता | ३०॥ संसार. 
मे पतितत जीवोंके एकमात्र आप हये परम आश्रय है| 
हे शरणागतोका दुःख दुर करने ! आप प्रसन्न 
होद्ये भौर मेरे अमंगलोको नष्ट कीजिये ॥ ३१॥ 


आपृदह्ी समुद्रैः आपद पव॑ते, आपह 
नदियां हैमौर आपह वने हैतथा जापदहप्रथिकी, 
आकार, वायु, जछ, अग्नि ओर मन ह॥ ३२॥ 
आप ही बुद्धि, अव्याकृत, प्राण ओर्‌ प्रा्णोका 
अधिष्ठाता पुरुष है; तथा पुरषे भी परे जो म्यापक 
जओौर जन्म तथा बिकारसे शन्य तत्त्व दै बह भी 
आपह है ॥ ३३॥ जो शब्दादिसे रहित, अजर, 
अमेय, अक्षय जौर नाञ्च तथा वबृद्धिसे रहित है वष 
आद्यन्तष्ीन ब्रह्म भी आप ही दै ॥ २४ ॥ आपसे 
देवता, पिवृगण, यक्ष, गन्धं, किन्नर, सिद्ध ओौर 
अप्सरागण उन्न हुए हँ । आपष्टीसे मुप्य, पशु, 
पक्षी, सरीसप जौर मृग आदि हए है तथा आपसे 
सम्पूणं वृक्ष शौर जो कुछ भी भूत-भविष्यत्‌ चरा- 
चर जगत्‌ है वह्‌ सव हुभा दहै ॥ ३५.३६॥ हे प्रमो ! 
मूते-अमूत, स्थूख-सूष्म तथा ओौर भी जो कुष है 
बह सब आप जगत्क्त हो है, आपसे भिन्न ओर 
कुछ भौ नहीं है ॥ ३७॥ 


हे भगवन्‌ | तापव्रयसे अभिभूत होकर सव॑दा 
इस संसार-चक्रमे भ्रमण करते हुए मुशे कमी 
शान्ति भ्राप्र नहीं हुई ॥ ३८ ॥ हे नाथ ! जलकी 
आज्ञासे मृगचरष्णाके समान जैने दुःक्ोको ही सुख 
समक्षकर प्रण किया था; परन्तु बे मैरे सन्तापके 
ही कारण हुए ॥ ३९॥ हे प्रभो | राज्य, प्रथिवी, 
सेना, कोर, भित्रपक्ष, पुत्रगण, शी तथा सेवक 
आदि ओौर शब्दादि विषय इन सबको चैने 
अविनारी तथा सुख-बुद्धिसे ही अपनाया था; 
किन्तु दहे ईरा! परिणाममवे ही दुः्लरूप सिद्ध 
हुए ॥ ४०-४१॥ हे नाथ ! जब देवलोक प्राप्न करके 
भी देवताओंको मेरी सहायताकी इच्छा हुई तो 
उस ( स्वगंखोक ) म भी निव्यश्चान्ति कहाँ है! 
॥ ४२ ॥ हे परमेश्वर { सम्पूण जगचक्णौ उसनत्ति 
भादिःस्थान आपकी आराधना किये बिना कोन 








त्वन्मायामृढमनसो जन्ममृ्युजरदिकान्‌ । 
अवाप्य तापान्पद्यन्ति प्रेतराजमनन्तरम्‌ ॥४४॥ 
ततो निजक्रियाष्ूति नरकेष्वतिदारणम्‌ । 
प्राप्सुवन्ति नरा दुःखमस्वरूपविदस्तव ॥४५॥ 
अहमस्यन्तविषयी मोहितस्तव मायया | 
ममस्वगवगर्तान्त्रमामि परमेश्वर ॥४६॥ 

सोऽहं सवां शरणमपारमप्रमेयं 

सम्प्रपनः परमपदं यतो न किचित्‌। 
संसारभ्रमपरितापतप्तचेता 


हे प्रभो! आपकी मायासे मूढ हए पुरुष जन्मः 
म्रद्यु ओर जरा आदि सन्तापोको भोगते हुए अन्तमं 
यमराजका देन करते है ।। ४ ॥ आपके स्वरूपको 
न जाननेवाे पुरुष नरको पड़कर अपने कमकि 
फलस्वरूप नाना प्रकारके द्रण केश पतह ॥४५॥ 
हे परमेश्वर ! मँ अत्यन्त विषयी हूँ ओर आपकी 
भायासरे मोदित होकर ममस्वाभिमानके गदे 
भटकता रहा हँ ॥ ४६ ॥ बही नै आज्ञ अपार ओौर 
अप्रमेय परमपदरूष आप प्रमेश्वरकी शरणम 
आया हँ जिससे भिन्न दसरा कुछ भी नदीं, 
ओर संसारभ्रमणके खेदसे खिन्नचित्त होकर मँ 
निरतिशय तेजोमय निर्वाणस्वरूप आपका ही 


निवे परिणतध।भ्नि साभिलाषः ॥४७॥| अभिरापी ह" ॥ ४७॥ 





# ^ ^^ ॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽशे त्रयोविरोऽभ्यायः ॥ २३॥ 


[रि 


चोवीस्यो अध्याय 


मुचुङ्कन्दका त पस्याके छिये भ्रस्थान भौर बरामजीकी जयाता 


श्रीपराशर उवाच 
हत्थं स्तुतस्तदा तेन पुचुङ्कन्देन धीमता। 
प्राशः सवभूतानामनादिनिधनो हरिः ॥ १॥ 

श्रीभगवानुवाच 
यथामिवाञ्छ्तानिदिव्यान्गच्छरोकानराधिष। 
अव्याहतपरेधर्यो मत्रसादोप्रहितः ॥ २॥ 
भुक्ता दिव्यान्मह्यभोगान्भविष्यसि महाङ्खे। 
जातिस्मर मसखसादात्ततो मोक्षमवाप्स्यसि ॥३॥ 

श्रौपरारर उवाच 
ह्युक्तः प्रणिपस्येशं जगतमच्युतं सष; | 
गुहायुखाद्िनिष्करान्तस्स ददर्शान्पकान्नरान्‌ ॥४॥ 
ततः कलियुगं सत्वा प्राप्तं तपतु चपस्तपः। 
नरनारायणस्थानं प्रययौ गन्धमादनम्‌ ॥ ५॥ 
कृष्णोऽपि षातयिस्ारिपुपायेन दि तद्वलम्‌। 
जग्राह मथुरामेतय हस्त्यश्वस्यन्दनोऽज्यरम्‌ ।\&॥ 


वि प© ५.५. 





भीपराश्चरजो बोल्े--परम बुद्धिमान्‌ राजा 


सुचुकन्दके इस प्रकार स्तुति करनेपर सवभूतोके 
ईश्वर अनादिनिधन भगवान्‌ हरि बोढटे ॥ १॥ 


श्रीभगवानने कहा--हे नरेश्वर ! तुम अपने 
अभिमत्त दिभ्य लोकोँको जाओ; मेरी कृपासे म्ह 
अन्याहत परम सेयं प्राप्त होगा ॥ २॥ वरह 
अच्यन्त दिव्य भोगोको भोगकर तुम अन्तम एक 
मष्ान्‌ कुर्म जन्म लोगे, उस समय तुम्रं अपने 
पूवेजन्मका स्मरण रहेगा ओर फिर मेरी कृषासे 
तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे ॥ ३॥ 
 श्रीपराश्चरजी बोले--भगवानके इस प्रकार 
कहनेपर राजा सुचुकरुन्दने जगदीश्वर श्रीभच्युतको 
प्रणाम किया ओर गुफासे निकर देखा कि खोग 
बहुत छोटे-छोटे हो गये दै ॥ ४॥ उप्र समय कटि- 
युगको बत॑मान समश्चकर राजा तपस्या करनेके छ्यि 
भ्रीनरनारायणके स्थान गन्धमादनपवेतपर चले गये 
॥ ५ ॥ इस प्रकार कृष्णचन्दरने उपायपूवंक शुको 
नष्टकर फिर मथुरामे अ! उसकी हाथी, घोड़े ओर 
रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत शिया 


~ 





आनीय चोग्रसेनाय द्ाखल्यां न्यवेदयत्‌ । 





जओौर उसे द्वारकामे खाकर राज्ञा उग्रसेनको अपण 
कर दथा । तवसे यदुवर शत्रओके दमनसे निःखंक 


परामिमवनिरशङ्क बभूव च यदोः दुखम्‌ ॥ ७ ॥ | हो गया ॥ ६-७॥ 


बहूदेबोऽपि मैत्रेय प्रशान्ताखिरषिग्रहः । 
ज्ञातिद्नसोखकण्ठः प्रययौ नन्दगो डलम्‌ ॥ ८॥ 
ततो गों गोपीश यथा पूवममित्रनित्‌ । 
तथेबाम्यवदसरेम्णा बहुमानपुरस्रम्‌ ॥ ९॥ 
स कैधित्सम्परिष्वक्तः कांधिच परिषद्य । 
हास्यं चक्रे समं कैषिदरोपगोपीजनेस्तथा ॥१०॥ 
प्रियाण्यनेकान्यबदन्‌ गोपास्तत्र हलायुधम्‌ | 
गोप्यश्च प्रेमङपिताः परोचुस्सेष्यमथापराः॥११॥ 


गोप्य पग्रच्छुरपरा नागरीजनवल्नमः । 
कचिद।स्ते एुखं ृष्णश्चसप्रेमलवारमकः ॥१२॥ 
अस्मच्चे्टामपहसन्न कचविरपुरयोषिताम्‌ । 
सौभाग्यमानमधिकं करोति क्षणसीहूदः ।१३॥ 
कचितस्मरति नः कृष्णो गीतातुगमनं कलम्‌। ` 
अध्यसौ मातरं द्रष्टुः सक्दप्यागमिष्यति ॥१४। 
अथा किं तदारपैः क्रियन्तामपराः कथाः । 
यस्यास्मामिर्विना तेन बिनास्माकं भविष्यति। १५॥ 
पिता माता तथा भ्राता मरतां बन्धजनश्च किम्‌ । 
सन्त्यक्तस्तत्कृतेऽस्माभिरक़त्ञभ्वजो हि सः ॥१६॥ 
तथापि कचिदाह्ापमिहागमनसश्रपम्‌ । 
करोति कृष्णो वक्तव्यं भवता राम नानृतम्‌ ॥ १७॥ 
दामोदरोऽघो गोविन्दः पूरख्ीसक्त मानसः । 
अपेतप्रीतिरसमासु दुः प्रतिभाति नः ॥१८॥ 


श्रीपराशर उवाच 
आमन्त्रित कृष्णेति पुन्दामोदरेति च । ` 


हे मैत्रेय ! इस सम्पूणं विश्रहके शान्त हो जानेपर 
बटटदेवजी अपने बान्धवो दशनकी उक्कण्डासे 
नन्दजीके गो्ुखको गये ॥ ८ ॥ वँ पर्ुचकर 
राचुजित्‌ बरभद्रजीने गोष जौर गो पियौँका पदल्ही- 
कीरति अति आदर ओौरप्रेमके साथ अभिवादन 
किया | ९॥ किसीने उनका आलिङ्खन क्रिया जोर 
क्रिसीको उन्होने गे छ्गाया तथा किन्ह गोप ओर 
गो पियोके साथ उन्होने हास-परिहास फिया ॥ ९०॥ 
गोपने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा 
गोपियोभसे कोई प्रणयङ्कपित होकर बोरी ओर 
-किन्हीनि उपालम्भयुक्तं बाते कीं ११॥ 


, किन्हीं अन्य गोपियोनि पूष्ठा--चश्चल एवं अल्पः 
प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियोके 
प्राणाणार कृष्ण तो आनन्दम हैन ¶१।१२॥वे 
"क्षणिक स्नेहवारे नन्दनन्दन हमारी वचेष्टाओंका 
उपहास करते हृए क्या नगरकी महिराभोके सौभाग्य 
# 1 
कामान नहीं बदाथा करते १ ॥ १३ ॥ क्या कृष्णचन्द्र 
कभी हमारे गीतानुयायी मनोहर स्वरका स्मरण 
करते दै? क्या वेएकर बार अपनी माताको भी देखनेके 
खयि य्ह आवेगे १1 १४॥ अथवा अब उनकी 
बात करनेसे हमे क्था प्रयोजन दै, कोड भौर बात 
करो । जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तोहम 
भी उनफे बिना निभादह्ी ख्गी। १५॥ क्या मतिः 
कया पिता, क्या बन्धु, कया पति. ओर क्या छु टुभ्बके 
लोग ! हमने उनके स्यि सभीको छोड़ दिया, किन्तु 
वे तो अकृतज्ञोकी ध्वजा ही निकरे | १६।। तथापि 
बछरामजी ! सच-सच बताइये क्या कृष्ण कभी 
यदं अनेके विषयमे भी कोई बातचीत कस्ते द ! 
|| १७ ॥ हमे रेसा प्रतीत होता, है करि दामोदर 
छरष्णका चित्त नागरी नारियोमे फस गया है; हममे 
अव्‌ उनकी प्रीति नहीं है, अतः अव हमें तो उनका 
देन दुकेम हयी जान पड़ता हे ॥ १८ ॥ 


| शरीपराश्चरजी बोले--तदनन्तर श्रहसिनि जिनका 
चित्त हर ल्यिादैवे गोपि बरामजीको कृष्ण 








जहमुस्स्वरं गोप्यो हरिणा हतचेतप्तः ॥१९॥ | भौर दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगीं ओर 


सन्देतस्साममधुरैः प्रमगमगकधितैः। 


फिर उच्च स्वरसे हं सने लगीं ॥ १९॥ तव बल्भद्रनी- 
ने कृष्णचन्द्रका अति मनोहर ओर शान्तिमिय 


रामेणाशासिता मोप्यः कृष्णस्यातिमनोहरै;।२०॥॥| परेमग्मित ओर गवहीन सन्द सुनकर गोपिर्योको 


गोपे पूववद्रामः परिहासपनोहराः 


सान्त्वना दी | २०॥ तथा गोपोके साथ हास्य करते 
हुए उन्होंने पहठेकी भोति बहुत-सी मनोहर बातं 
कीओर उनके साथ बजभूमिमे नाना प्रकारकी 


कथाकार रेमे च सह तैव्ेजभूमिषु ।२१॥ | लीक करते रहे ॥२१॥ 


---भव्किष्य-*- 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चभऽरो चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४॥ 








पन्चीस्वँ अध्याय 


वरभद्रजीका बज-विहार तथा यञुनाकषेण 


ध्रीपराश्चर उवाच 
वने विचरतस्तस्य सह गोपैमंदासमनः । 
मावुपषच्छद्मरूपस्थ शेषस्य धरणीधृतः ॥ १॥ 
निष्पादितोरुक्ार्यस्य कये णोर्वप्रिचारिणः। 
उपमोगाथमत्यथं वरुणः प्राह वारुणीम्‌ ॥ २॥ 
अभीष्टा सदा यस्य मदिरे त्वं महौजसः । 
अनन्तस्योपभोगाय तस्य भच्छ पदे शुभे ॥ ३॥ 
इर्युक्ता वारुणी तेन सन्मिघानमथाकरोत्‌ । 
वन्दावनसदुत्पन्नकदम्बतस्कोटरे ॥ ४॥ 
विचरन्‌ बलदेवोऽपि मदिरागन्धथुत्तमम्‌ । 
आधाय मदिरातर्षमवाफाथ वराननः ॥ ५॥ 
ततः कदम्बार्सदसा मच्धासं स शङ्री । 
पतन्तीं वीक्ष्य सैतरेय प्रययो परमां यदम्‌ ॥ ६ ॥ 
प्पो च गोपगोपीभिस्सयुपेतो शुदान्वितः । 
प्रगीयमानो कर्तं गीतवाधविश्षारदैः ॥ ७ ॥ 


स म्तोऽत्यन्तघर्माम्भः कणि कामौक्तिकोरन्वलः। 


आगच्छ ययने स्नातुमिच्छामीत्याह विद्वः ॥८॥ 


श्र पराश्चरजी बोल्ले-अपने कार्योसे प्रथिनीको 
विचक्लित करनेवाले, बड़े बिकट कायं करनेवा्े, 
धरणीधर रोषजीके अवतार माया-मानवरूप महात्मा 
बरूरामज्ीको गोपोके साथ वनम विचरते देख 
उनके उपभोगके छिये वरुणने वारुणी (मदिरा ) से 
कहा-। १-२॥ हे मदिरे ! जिन महाबलश्ञाली 
अनन्त देवको तुम सवदा प्रियहो; हेमे) दुम 
उनके उपभोग ओर प्रसन्नताके क्लिये जाओ" \ ३॥ 
वरुणको एेसी आज्ञा होनेपर वारुणी बृन्दावनमं 
उत्पन्न हुए कदम्ब-वृक्षके कोटरमें रहने लगौ ॥ ४॥ 
तब मनोहर मुखवाछे बरुदेवजीको वनम विचरते 
हुए मदिराकी अति सन्तम गन्ध संघनेसे उसे पीनेकी 
दृच्छा हृ ॥ ५॥ हे मैत्रेय ! उसी समय कदम्बसे 
मच धारा गिरती देख हरुधारी बङरामजी बड़े 
प्रसन्न हए ।। ६ ।। तथा गने-बजानेमे छुञ्चक गोप 
आओौर मोपियोके मधुर स्वरसे गाते हुए उन्दने उनके 
साथ प्रसन्नतापूवेक मद्यपान किया ॥ ५७॥ 

तदनन्तर अत्यन्त घामके कारण स्वेद-विन्दुरूप 


मोतियोसे सुञ्चोभित मदोन्मत्त बरूरामजीने विहर 
होकर कहा--“्यमुने! आ, मै स्नान करना चाहता 


४५२ 


भ्रीबिष्णुपुरण 


[ अ० २४ 








तस्य वाचं नदीसा तु मतोक्तामवमस्य वै । 
नाजगाम ततः क्रुध हं लग्राह ाङ्गही ॥ ९॥ 
गृहीत्वा तां इलान्तेन चकं मदविह्वलः । 

पपे नायासि नायाति गम्यतामिच्छयान्यतः। १० 
साङ्ृष्टा सहसा तेन मागं सन्त्यज्य निम्नगा । 
यास्ते बरमद्रोऽसो क्षावयामास तदननम्‌।।११॥ 
शरीरिणी तद्‌भ्येत्य त्राप्तविहरलोचना । 
परसीदेत्यत्रवीद्रामं पुश्च मां मुसलायुध ॥१२॥ 


ततस्तस्याः सुवचनमाकण्यं स दरायुधः। 
सोऽतरवदबजानासि मम शौयंबरे नदि । 
सोऽहं तवां दरपातेन नयिष्यामि सहस्रधा ॥१३॥ 
श्रीपराश्चर उवाच 
इव्युक्तयातिसन्त्रासात्तया नचा प्रसादितः । 
भूभागे पाविते तस्मिन्युमोच यदुनां बः ।॥१४॥ 
ततस्स्नातस्य वै कान्तिरजायत महात्मनः। 
अवतंसोत्पलं चारगृहीत्वैकं च दुण्डलम्‌ ॥१५॥ 
वरुणम्रहितां चास्मे मालामम्हानपङ्कजाम्‌ । 
सथुद्रामे तथा वस्ते नीले रु्मीरयच्छत ॥१६॥ 
छृतावतंसस्स तदा चारुकुण्डलभूषितः । 
नीलाम्बरधरस्सरमबी बुशुमे कान्तिसंयुतः ॥१७॥ 
इत्थं बिभूषितो रेमे तत्र रामस्तथा वने । 
मासदयेन यातथ स पुनदरफां पुरीम्‌ ॥१८॥ 
रेवतीं नाम तनयां सतस्य महीपतेः | 
उपयेमे बहस्तस्यां जज्ञाते निशयोल्मुकौ ॥१९॥ 


है || ८ । उनके वाक्यको उन्मत्तक प्रलाप समक्च- 
कर॒ यमुनाने उसपर कुछ भी ध्यान न दिया ओौर 
वह बरहा न आयी । इसपर हलधरने क्रोधित होकर 
अपना हल उठाया ॥ ९॥ ओर मदसे विहल होकर 
यमुनाको हख्की नोकसे पकड़कर खीचते हुए कहा- 
“अरौ पापिनी! तू नदीं आती थी | अच्छा, अव 
[ यदि श्चक्ति होतो] इच्छानुसार अन्यत्रजा तो 
सही" ॥ १० ॥ इस प्रकार वरूरामजीके खींचनेषर 
यमुनाने अकस्मात्‌ अपना मागं छोड़ दिया ओर 
जिस वनमें बरूरामजी खड़े थे उसे अ!प्डाबित्त कर 
दिया ॥ ११॥। 


तव वह्‌ शरीर धारणकर बलरामजीके पास 
आयी ओर भयवश्च उव्रडबाती अरलोसे कहने 
लगी--दे सुसछायुध ! आप प्रसन्न होये ओर 
सुश्च छोड़ दीजिये” ॥ १२॥ उसके चन मघुर वचनो 
को संनकर हलायुध बलमद्रजीने कहा--“अरी 
नदि! क्यातु मेरे बल-वीयंकी अवज्ञा करती है! 
देख इख हरसे मै अभी तेरे हजारों डुकदे कर 
डादूगाः ॥ १३॥ 


भ्रीपरादरजी बोले-वरूरामजी इया इस 
प्रकार कहौ जनेसे भयभीत हुए यमुनाके उस भू- 
भागम बहने रगनेपर दन्दोने प्रसन्न होकर उसे छोड़ 
दिया ॥ १४॥ उस समय स्नान करनेपर महात्मा 
बररामजीको अत्यन्त शोभा हुई । तब लक्ष्मीजीने 
[ सशरीर प्रकट होकर ] उन्दँ एक सुन्दर कणर, 
एक ऊुण्डल, एक वरुणकी मेजी हृं कमी न 
कुम्हलानेवाठे कमल-पुष्पोकी माछा सौर दो ससुद्र- 
के समान कान्तिव ठे नीख्वणे वस दिये ॥ १५.१६॥ 
उन कणेपूछ, सुन्दर छण्डल, नीलाम्बर ओर पुष्प- 
माछाको धारणकर श्रीवररामजी अतिशय कान्ति- 
युक्तं हो युशोभित होने गे ॥ १७ ॥ इस भकार 
विभूषित होकर श्रीबरुभद्रजीने जम अनेकों लीरा 
कीं ओर फिर दो मास पश्चात्‌ हारकापुरीको चे 
आये ॥ १८॥ वह आकर बरूदेवजीने राजा रेवत- 
की पुत्री रेवतीसे विवाह किया; उससे उनके निक्ञठ 
ओर उल्मुक नामक दो पुर हुए ॥ १९॥ 


ति) 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्मेऽशञे पच्चविश्चोऽध्यायः ॥ २५॥ 


| १ + “^ 


५ ४१ ~ १४ 








छञ्वीसर्वोँ अध्याय 


रुकिमणीहदरण 


श्रीपराक्चर उवाच 

भीष्मकः कुण्डिने राजा विदभविषयेऽभवत्‌। 
रुक्मी तस्यामवस्पुत्रो रुविमणी च वरानना ॥ १। 
रुकिमणीं चकमे कृष्णस्सा च तं चारुहासिनी । 

न ददौ याचते चैनां सक्मी ठेषेण चक्रिणे ॥ २॥ 
ददौ च शिषुपाङाय जरासन्धप्रचोदितः। 
मीष्मको रुविमणा सादरं सुक्मिणीयुरविक्रमः।। ३॥ 
विवाहाथं ततः सर्वे जरासन्धयखा चपः । 
भीष्मकस्य परं अग्धुषिशशुपाकप्रियैपिणः ॥ ४ ॥ 
कृष्णोऽपि बलमद्राचैय॑दुभिः परिवारितः । 
प्रययो दण्डिनं द्रुं विवाहं चेभूशृतः ॥ ५ ॥ 


रवोभ।विनि विवाहे तु तां कन्यां हूतवान्हरिः। 
विपक्षभारमासन्य रामादिष्वथ बन्धुषु ॥ ६ ॥ 
ततश्च पौण्ड्कदशीमान्दन्तवक्रो विदूरथः । 
रिषुपालुजरासन्धशाल्वा्याथ महीभृतः ॥ ७ ॥ 
कुपितास्ते हरि दन्तु चक्ररुघोगयुततमम्‌ । 
निर्जिताश्च समागम्य रामा्चैयंदुपुज्गवैः ॥ ८ ॥ 
कुण्डिनं न प्रवेद्यामि यह्वा युधि केशवम्‌। 
कृता ्रतिजञां स्वमी च इन्त कृष्णमनुदरतः।॥ ९ ॥ 
हत्वा बलं सनागारव पत्तिस्यन्दनसङ्कलम्‌ । 
निजनितः पातितथोर््या लीलयैव स चक्रिणा॥१०॥ 
` निजित्य रुक्मिणं सम्यगुपयेमे च.रुकिमिणीम्‌। 
राक्षसेन विवाहेन सम्प्रा्ठां मधुष्ूदनः ॥११॥ 
तस्यां जज्ञे च प्र्ुम्नो मदनांश्स्सवीयंवान्‌ । 


श्रीपयश्चरजी बोज्ञे-विदभेदेशान्तगत कुर्डिन- 
पुर नामकं नगरमे भीष्मक नामक एक राजा थे। 
उनके सक्मी नामक पुत्र ओर रकिमिणी नामकी एक 
समुखी कन्या थी ॥ १ ॥। श्रीकरष्णने रुक्मिगीकी जौर 
चारुहासिनी रुकमिणीने श्रीकृष्णचन्द्रकी अभिलाषा 
की, किन्तु भगवान्‌ श्रीछष्णचन्द्रके प्राथना करनेपर 
भी उनसे देष करनेके कारण सक्मीने उन्हू रुक्मिणी 
नदी ॥२॥ मह्‌ापराक्रमो भीषमकने जरासन्धकी 
प्रेरणासे रुक्मौसे सहमत होकर शिशुपार्को सक्मिणी 
देनेका निरचय श्रिया ॥ ३ ॥ तब शिजुपाके हितेषी 
जरासन्ध आदि सम्पूणं राज्ञागण विवाहम सम्मि- 
ङिति होनेके धियि मीष्मकके नगरमे गये॥४॥ 
इधर बरुभद्र आदि यदुवंक्चियोके सहित श्रीकृष्णचन्द्र 
भी चेदिराजका विवाहोत्सव देखनेके यि ुण्डिन- 
पुर आये ॥ ५॥ 


तदनन्तर विवाहका एकं दिन र्नेपर अवने 
विपक्षियोका भार बलभद्र आदि बन्धुजोको सौपकर 
श्रीहूरिने उस कन्याका हरण कर छिया ॥ ६ ॥ तब 
श्रीमान्‌ पौण्डूक, दन्तवक्र, विदूरथ, शिष्ुपाल, 
जरासन्ध ओर श्चाल्व आदि राजाओने क्रोधित 
होकर श्रीहरिको मारनेका महान्‌ उद्योग किया, 
किन्तु वे सव बख्राम आदि यदु्रष्ठंसे मुठभेड़ 
होनेपर पराजित हो गये ॥ ७-८ ॥ तव रुकमीने यह 
प्रतिज्ञाकर कि भं युद्धम कृष्णको मारे बिना कुण्डिन- 
पुरमे प्रवेश्च न करू गाः कृष्णको मारनेके छवि उनका 
पीछा किया। ९ ॥ किन्तु श्रीकृष्णे खीरासे हो हाथी, 
घोड़े, रथ ओौर पदातियोसे युक्तं उसको सेनाको नष्ट 
करके उसे जीत छिया ओर्‌ प्रथिवीमे गिरा दिया ॥१०॥ 


इस प्रकार रुक्मीको युद्धम परास्तकर श्रीमधु- 
सूदनने राक्षसविवाहसे मिरी हु रुक्मिणीका सम्यक्‌ 
( बेदोक्त ) रीतिसे पाणिप्रहण किया ॥ ११॥ इससे 
उनके कामदेवके अंसे उतयन्न हुए वीय॑वान्‌ परयुप्न- 





जहार शम्बरो यं वै यो जपान च सम्बरम्‌ | १२॥ | जीका जन्म हआ, जिन्हे कम्बरासुर हर ठे गया धा 


ओर फिर [ काट-क्रमसे ] जिन्दोने शम्बरासुरका 
चध कियाथा॥१२॥ 


~-"*"क + 


इति श्रीविष्णुपुराणे पज्चमे ऽर षदुर्विशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ 


११ १२८१५५५ ~ 


सत्ताहेस्गोँ अध्याय 
प्रद्युन्न-हरण तथा शभ्बर-वच 


श्रीमैत्रेय वाचं 
शम्बरेण हृतो वीरः प्र्युम्नः स कथं शुने । 
म्बरः स महावीयंःप्रदुम्नेन कथं हतः । १ ॥ 
यस्तेनापहूतः पूवं स कथं विजघान तम्‌ । 
एतद्िस्तरतः श्रोतुमिच्छामि सकछं गुरो ॥ २॥ 
श्रीपराश्चर उवाच 

पष्ठेऽद्वि जातमात्रं त प्र्ुम्नं घूतिकागृहात्‌ । 
ममैष हन्तेति शुने हतवान्कारशम्बरः ॥ २ ॥ 
हा चिक्षेप चैवैनं प्रारोगरे छवणाणंवे। 
कल्लोरजनितावते सुघोरे मकरालये ॥ ४ ॥ 
पातितं तत्र चेवैको मल्स्यो जग्राह बालकम्‌ । 

न ममार च तस्यापि जटराग्नप्रदीपितिः ॥ ५॥ 
मत्स्यबन्ध मरस्योऽसौ मत्स्यैरन्येस्सह द्विज। 
धातितोऽसुरवर्याय शम्बराय निषेदितः ॥ ६ ॥ 
तस्य मायावती नामपत्नी सर्वगृहेशरी । 
कारयामास प्रदानामाधिपत्यमनिन्दिता ॥ ७ ॥ 
दारति मत्स्यजठरे सा दद्र्शातिशोभनम्‌ । 
डुमारं मन्मथतरोद्वस्य प्रथमाद्कूरम्‌ ॥ ८ ॥ 
कोऽयं कथमयं मत्स्यजटरे प्रविवेशितः । 
हत्येवं कोतुकाविषटं तन्वीं पराह्मथ नारदः ॥ ९ ॥ 





भीमेभेयजी बोकते--हे सुने ! वीरवर प्रद्युप्नको 
शम्बरासुरने कैसे हरण किया था १ ओौर फिर उस 
महाबलो शम्बरको प्र्यु्नने केसे मारा १ ॥ १॥ 
जिसको पके उसने हरण किया था उसीने पीछे 
उसे किस प्रकार मार डाछा † हे गुरो ! मै यह्‌ सम्पूणं 
प्रसंग विस्तारपूवेक सुनना चाहता हँ २॥ 


भीपराशरजी बोज्ञे--हे मुने ! कारू समान 
बिकरा् क्ञम्बराञुरने प्रधयुम्नको जन्म सेनेकेष्ठे ही 
दिन ध्यह्‌ मेरा मार्नेवाछा है" ठेसा जानकर सूतिका- 
गहसे हर लिया ॥ ३॥ उसको हरण करके शाम्बरा- 
सुरने कवणसमुद्रमे डा दिया, जो तर्गमालाजनित 
आवर्तोसि पूणं ओर वदे भयानक मकरोका घर 
है ॥ ४ ॥ वह फँके हृए उस बालकको एक मस्स्यने 
निगङ छिया, किन्तु बह उसकी जठराग्निसे जकर 
भीन मरा।॥५॥ 


काटान्तरमं कुछ मेने उसे अन्य मछखियोंके 
साथ अपने जालमे फसाया ओर अपुरश्रेष्ठ श्म्बर- 
को निवेदन किया ॥ £ ।। उसकी नाममाच्रकी पत्नी 
मायावती सम्पूण अन्तःपुरकी स्वामिनी थौ ओर वह 
सुलक्षणा सम्पूणं सूदो ( रसौहयों ) का आधिपत्य 
करती थी | ७ ॥ उस मछखीका पेट चीरते ही उसमें 
एक अति सुन्दर बाख्क दिखायी दिया जो दग्ध हुए 
कामचरक्षका प्रथम अंकुर था॥ ८ ॥ तब यह्‌ कोन 
है ओर किंस प्रकार इस मीके पेटमें डाखा गयाः . 
इस प्रकार अत्यन्त आडइचयंचकित हुदै उस सुन्दरी- 
से देवर्षिं नार्दने आकर कहा--॥९॥ 


अ० २७ | 


पश्चम अश्च 


४५५ 


[तापा 11 
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अयं समस्तजगतः स्थितिसदारकारिणः। 


शम्बरेण हूतो विष्णोस्तनयः घतिकागहात्‌ ॥१०॥ 


्िपस्पमुदरे म्सयेन निगीणंसते गृहं गतः । 
नररलमिदं सुभ्रु विस्न्धा परिपाङय ॥११॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 
नारदेनैवयुक्ता सा पालयामासतं शिशुम्‌ । 
बाल्यादेवातिरागेण स्पातिशयमोहिता ॥१२॥ 


स यदा यौवनाभोगभूषितोऽभून्महामते । 


सामिषा तदा सापि बभूव गजगामिनी ॥१२॥ 


माय(वती ददौ तस्मै मायास्पर्वा महामुने । 
प्रयुम्नायायुरागान्धा तन्न्यस्तहृदयेश्षणा ॥१४॥ 
प्रसजन्तीं त॒ तां प्राह स काष्णिः कमलेक्षणाम्‌। 
मातृखमपहायाद्य किमेवं वत॑सेऽन्यथा ॥१५॥ 
सा तस्मै कथयामास न पुत्रस्तं ममेति वै। 


तनयं त्वामयं विष्णोहंतवान्कालशम्बरः ॥१६॥ 
कषिपः सथर मत्स्यस्य सम्प्रप्रो जटरान्मया। 


सा हि रोदिति ते माता कान्ताचयाप्यतिवस्सला। १७ 


श्रीपराश्चर उवाच 
हतपुक्तरयम्बरं युद्ध प्रयुम्नः स समाहयत्‌ । 
क्रोधा्खरीकृतमना युयुधे च महावर ॥१८]॥ 


हत्वा सैन्यमरेषं तु तस्य दैत्यस्य यादवः । 


सप्त माया व्यतिक्रम्य मायां प्रयुयुजेऽषटमीम्‌ ॥१९॥। 


तया जघान तं दैत्यं मायया कारुशम्बरम्‌ । 











“ह सुन्दर भृकुटिवाछ्ी ! यह्‌ सम्पूणं जगत्‌के स्थिति 
ओौर संहारकत्तां भगान्‌ विष्णुका पुत्रहै; इसे 
रम्बरासुरने सूतिकागृरृहसे चुराकर समुद्रम फक दिया 
था। वहाँ इसे यदह मत्स्य निग गया ओर अब 
इसीके द्वारा यह तेरे घर आ गया। तू इस नररत्न- 
का व्रिश्वस्त होकर पाङन करः ॥ १०-११॥ 


श्रीपयक्चस्जी बोज्ञे- नारद जीके रसा कने- 
पर मायावतीने इस बाख्ककी अतिङाय सुन्द्रतासे 
मोहित हो बाल्यावस्थासे ही उसका अति अनुराग- 
पूवक पाटन श्रिया॥ १९॥ दे महामते! जिस 
समय बह नवयौवनके समागमसे सुसोभित हुआ 
तब वह गजगामिनी उसके प्रति कामनायुक्त अनुराग 
प्रकट करने लगी ॥ १३॥ हे महुते ! जो अपना 
हृदय ओौर नेत्र प्रद्युम्न अर्पित कर चुकी थी च्स 
सायावतीते अनुशगसे अन्धी होकर चसे सब 
प्रकारकी माया सिखा दी ॥ ९४॥ इस प्रकार अपतत 
उपर आसक्त हुई उस कमरलोचनासे कृष्णनन्दन - 
पर्युम्नने कहा--“आज तुम सातर-मावक्ो छोद्कर, 
यह्‌ अन्य प्रकारका भाव कयां प्रकट करती हो १ 
|} ९५) तव मायावतीने कहा--“तुम मेरे पुत्र नदीं 
हो, तुम मगवान्‌ विष्णुके तनय हो । तुमह काल- 
शम्बरने हरकर समुद्रम फक दिया था; तुम मुञ्चे एक 
मस्स्यके उदरमे मिछे हो । हे कान्त ! आपकी पुत्र 
वत्सला जननी आज भी रोती होगी" ॥ १६-१७॥ 

ओपसश्चरजी बोज्ञे-सायावतीके इस प्रकार 
कहनेपर महाबरूवान्‌ प्रदुम्नजीने क्रोधसे विह्वल हौ 
्॒म्बरासुरको युद्धके चयि छखकारा ओर उससे युद्ध 
करने गे ॥ १८॥ यादवश्रेष्ठ प्र्युम्नजीने उस 
दैत्यकी सम्पूणं सेना मार डारी भौर उसकी सात 
मायाओंको जोतकर स्वयं आठवी मायाका प्रयोग 
किया ॥ १९॥ उस मायासे. उन्होने दैत्यराज 
कालक्चम्बरको मार डाला ओर मायावतीके साथ 
[ विमानद्वारा ] उड़कर अकारामागसे अपने पिता- 


उरपत्य च तया साद्धमाजगाम पितु; पुरम्‌ ॥२०॥ | के नगरमे आ गये | २०॥ 


षयो क्क 


[ 





तं दृष्टा कृष्णसद्कल्पा बभूवुः ृष्णयोपितः ॥२१॥ 
रविमणी पामवसपरम्णा सासदृष्टिरनिन्दिता । 
न्यायाः खल्वयं पुत्रो वतेते नवयौवने ॥२२॥ 
अस्पिन्ययसि पूत्रो मे प्रद्युम्नो यदि जीवति ] 
समाग्या जननी वरप सा खया का विभूषिता २२॥ 
अथवा यादृशः स्नेहो मम यादग्वपुस्तव । 
हरेरपत्यं सुव्यक्तं भवान्वस्स भविष्यति ॥२४॥ 
श्रीपराङर खवाच 
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्स्सह ॒दृष्णेन नारदः । 
अन्तःपुरवरा देवीं रकिमिणीं पराह हष॑यन्‌ ॥२५॥ 
एष्‌ ते तनयः सुभ्रु हत्वा सम्बरमागतः । 
हृतो येनाभवद्वालो भवत्य।स्सूतिकागृहात्‌ ।।२६॥ 
हयं मायावती मार्या तनयस्यस्य ते सती । 
शम्बरस्य न मार्यं भ्रुयतामत्र कारणम्‌ ॥२७॥ 
मन्मथे तु गते नाशं तदुद्धवपरायणा | 
शम्बरं मोहयामास मायारूपेण रूपिणी ॥२८॥ 
विहाराद्यपमोगेषु रूपं मायामयं शुभम्‌ । 
द्ेयामास दैत्यस्य यस्येयं मदिरेभ्षणा ॥२९॥ 
कामोऽबतीरण पुत्रस्ते तस्येयं दयिता रतिः। 
विशङ्का नात्र कतेव्या स्सुषेयं तथ शोमने ॥२०॥ 
ततो हषपमावि्ट रुकिपिणीकेशवौ तदा । 
नगरी च समस्ता सा साघु साधिवत्यभाषत ॥३१॥ 
चिरं नष्टेन पुत्रेण सङ्गतां प्य रकिमणीम्‌। 
अवाप विस्मयं सर्वो द्ारवस्यां तदा जनः ॥३२॥ 


।॥ ॥ निषि 


ग्ण म 
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श्रीकरष्णचन्द्रको रानियौने इन्दं देखकर कृष्ण ह्‌ 
समञ्चा ॥ २१॥ किन्तु अनिन्दिता सक्मिणीके तेवो 
मे प्रमवबर ओघ मर अये ओर वे कहने रगी-- 
"अवश्य हौ यह्‌ किसी वड़मागिनीका पुत्र है ओौर 
इस समय नवयौवनमें स्थिव दै | २९॥ यदि मेरा 
पुत्र प्रयुम्न जीवित होगा तो उसकी भौ यही आयु 
होगी । है वत्स! तू ठीकठीकं बता तूने किस 
भाग्यवती जननीको विभूषित किया हे ?॥ २३॥ 
अथवा, बेटा! जैसा स्ते तेरे प्रति स्नेह हो रहा दै 
ओर जैसा तेय स्वरूप है उससे युके एेसा भी प्रतीत 
होताहं कित्‌ श्रीहरिका ही पुत्र दैः ॥ २४॥ 


शरी पयशरजी बोल्ञे--इसी समय श्रीकृष्णचन्द्र 
के साथ वह नारदजी आ गये । उन्होने अन्तःपुर- 
निवासिनी देवी रुक्मिणीको आनन्दिति करते हुए 
कहा- २५॥ “हे सुधर ! यह तेरा ही पुत्र है। 
यह शम्बरासुरको मारकर आ रहा है, जिसने करि 
इसे बाल्यावस्थामं सूतिकागृहे हर टिया था॥ २६॥ 
यह्‌ सती मायावती भी तेरे पुत्रकीद्ीश्चीहै; यह्‌ 
डम्बरासुर्की पतनी नदीं हे । इसका कारण सुन ।२७॥ 
पूवंकालमे कामदेवकफे भस्म हो जानेपर उसके पुन- 
जेन्मकी प्रतीक्षाः करती हृद इसने अपने मायामय 
रूपसे शम्बरासुर्को मोहित किया था ॥ २८॥ यह्‌ 
मन्तविोचना उस दैत्यको विदहारादि उपभोगोके 
समय अपने अति सुन्दर मायामय रूप दिखराती 
रहती थी | २९॥ कामदेवने हू तेरे पु्ररूपसे जन्म 
छिया दै ओर यह्‌ सुन्दसी दसकौ प्रिया रति षी है। 
हे शोभने ! यह तेर पुत्रवधू दे, इसमे तू फिसी 
प्रकारकी विपरीत शंका न कर” ॥ ३० ॥ 

यह सुनकर रक्षिमिणी ओर कृष्णको अतिश्चय 
आनन्द हआ तथा समस्त द्वारकापुरी मी साघु 
साघु कने ठगी ॥ ३१॥ उस समय चिरकालसे 
खोये हुए पुत्रके साथ रुक्मिणीका समागम हृजा 
देख द्वारकापुरीफे समी नागरिकोको बड़ा आश्चयं 
हा ॥ ३२॥ 


शीं 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्वमेऽरो सप्तर्विश्चोऽध्यायः ॥ २७॥ 


0) 08 ^ ^) ) + म 


अ० २८] पश्चम्‌ः अश ०५१७; 


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अदुईैसर्वो अध्याय 


सक्मीका वध . 
श्रीपराशर उवाच ीपराशरजी बोल्ते-है भत्रेय ! रुक्मिणीके 
चारुदेष्ण सुदेष्णं च चारुदेदं च वीयंवान्‌ । [ अ्ुश्नके अतिरिक्त ] चारुदेष्ण, सुदेष्ण, बौयंवान्‌ 


चासदे्, सुषेण, चासगुप्र, मद्रचारु, चारेविन्द्‌, सुचारु 
अर बरूवानोमें श्रेष्ठ चार नामक पुत्र तथा चारुमती 
नासकी एक कन्या हह ॥ १-२॥ रुकिमिणीके अति- 
रिक्त श्रीकृष्णचन्द्र “कारिन्दी, मिधविन्दा, नग्न 


टिन्दी मित्रविन . जती जित्‌की पुत्री सस्या, जास्बवान्की पुत्री कामरूपिणी | 
कालिन्दी मित्रविन्दा च सत्या नाप्रजिता तथा।॥र रोहिणी देवी, जविकीक्वती मद्रराजसुता सुका 


देवी जाम्बवती चापि रोहिणी कामरूपिणी । भद्रा, सव्राजितको पुत्री सत्यभामा जौर चारुहासिनी 
मद्रराजसुता चान्या बुश्ीला शीलमण्डना ॥ ४ ॥ | उष्घमणा-ये अति सुन्दरी सातं लियो जौर थीं । 
सात्राजिती सत्यभामा रक्ष्मणा चारुहासिनी । | इनके सिवा उनके सोह हजार चयौ ओर मी: 
पोडक्षासन्‌ सदश्वाणि स्रीणामन्यानि चक्रिणः) ५॥| थीं ॥ ३-५॥ 


प्र्स्नोऽपि महावीर्यो रुकिमिणस्तनयां रमाम्‌ । महावीर भरयु्नने सुक्मीकी सुन्दरौ  कन्याको 
्.  _ | ओर उस कन्यानि भी भगवान्‌के पुत्र प्रयुभ्रजीको 
स्वयंवरे तां जग्राह सा च तं तनयं हरेः ॥ ६ ॥ | सवयंवरम बरहण किया ॥ ६। उससे प्रयप्रजीके 
तस्यामस्याभवत्पत्रो महाबलपराक्रमः । अनिरुद्ध नामक पक महागरपराकरमसम्पन्‌ एच भा 
जो युद्धमें रुद्ध ॒( प्रतिहत ) न होनेवाङा, बलकं 

अनिरुद्धो रणेऽरुदबीयोंदधिररिन्दमः ।। ७ ॥ | समुद्र तथा शदुजंका दमन करनेवाला था ॥ ७॥ 
करष्णचन्द्रने उस ( अनिरुद्ध ) के लिये मी रुक्मीकी 

तस्यापि रुकिमिणः पोत्री बरयाधास केशवः | पौत्रीका बरण किया ओौर रकमीने छृष्णचन्द्रसे 
श , , ॥ ष्या रखते हए भी अपने दौोहित्रको अपनी पौत्री 

दौषित्राय ददौ रुक्मी तां स्पद्न्नपि चक्रिणा ॥ ८ ॥। | देना स्वीकार कर छया ॥ ८॥ . 


तस्था विबाहे रामाया यादा हरिणा सह । । हे द्विज ! उसके विवाहे सम्मिलित दनक ष्थि 
| | ,कृष्णचन्द्रके साथ बछभद्र आदि अन्य यादवगण भी 
रुकिमणो नगरं जग्ुरनानना भोजकटं दविज ॥९॥ रुकमोकी राजधानी भोजकट सामक नगरको गये 


विवाहे तत्र निषे प्रादयमेस्तु महात्मनः । ॥ ९॥ जव प्रद्यु्नपुत्र महात्मा अनिरद्धका विवाह- 
र संस्कार हो चुका तो करिगराज आदि राजानि 


कलिङ्गराजप्रयुखा रुक्मिणं वाक्यमनरुबन्‌ ।।१०॥ | रकमीसे कहा--। १०॥ धेः बलभद्र॒यूतकरीडा 


अनकषस्तो दी यते वथास्य व्यसनं महत्‌ । [अच्छी तरह] जानते तो ह सीं तथापि इन्दं उसका 
^ | व्यसन बहत है; तौ फिर हम इन महाबली रामको 

न जयामो बलं कर्मादुदयुतेननं महाबलम्‌ ।११॥ | जुप्से ही क्यो न जोत र १ ॥ ११॥ 
श्रीपराक्चर उवाच ीपराशरजी बोजते-तब बरके मदसे उन्मत्त सक्मी- 
तथेति तानाह दृपान्स्वमी बमदन्वितः । ने डन राजाभोसे कहा-- बहुत अच्छा' ओौर सभामें 
पायां सह 1 णचक्रेयतंचवैतदा।॥१२| ररामजोके साथ द्यतक्रीडाजारम्भकर दी २॥ 


सुषेणं चासुयुपं च भद्रचारुं तथा परम्‌ ॥ १॥ 
चारुषिन्दं सुचारुं च चारु च बलिनां वरम्‌ । 
रुकिमण्यजनयत्पुत्रान्कन्यां चारुमतीं तथा॥ २॥ 
अन्याश्च मार्याः कृष्णस्य बभूवुः सप्त शोमनाः। 





४५८ 


१।न ` ७९॥ । ~" 


9 


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सुदस्मेकः निष्काणां रुषिमणा विजितो बलः। 
द्वितीयेऽपि पणे चान्यत्सहस्ं रविमणा जित १२॥ 
ततो दश्चसहस्चाणि निष्काणां पणमाददे । 
यङमद्रोऽजयत्तानि स्क्मी दयूतविदां वरः ॥१४॥` 
ततो जद्धःस्र स्वनवत्कलिङ्घाधिपतिर्दिज । 
द्तान्विदेयन्मूदो सेमी चाह मदोद्धतः॥१५॥ 
अविद्योऽयं मया चूते बरुमद्रः पराजितः। 
येवा्षावरेपान्धो योऽवमेनेऽक्षकोविदान्‌ | १६। 


दृष्टा कलिङ्गराजं तं प्रकाशदशनाननम्‌ । 
रुक्मिणं चि दुर्वाक्यं कोपं चक्रे हरायुधः। १७। 
ततः कोपपरीतात्मा निष्ककोटि समाददे । 
ग्द जग्राह रुक्मी च तदर्थेऽक्षानपातयत्‌ ॥१८॥ 
अजयद्वरदेषस्तं प्राह्ेषेविजितं मया । 
मयेति रुक्मी ्राहोचैररीोक्तेरं ग ॥१९॥ 
त्वयोक्तोऽयं ग्छस्सत्यं न मयेषोऽतुमोदितः। 
एवं स्वया चेद्धिजितं विजितं न मया कथम्‌ ॥२०॥ 
श्रीपराशर उवाच 
अथान्तरिपषे वागुच्चैः प्राह गम्मीरनादिनी । 
बलदेवस्य तं कोपं बद्ंयन्ती महात्मनः ॥२१॥ 
जितं वहेन धर्मेण हविमिणा भाषितं सषा । 
अनुक्तापि वचः फिथिततं मवति कमणा २२॥ 
ततो बर; समुत्थाय कोपसंरक्तलोचनः । 
जघानाष्टपदेनैव रुकिमणं स महावर; ॥२३॥ 
किङ्कराजं चादाय विस्फुरन्तं बराद्ररः । 
वभज्ञ दन्तान्छुपितो यैः प्रकाशं जहास सः॥२४॥ 
आद्ृष्य च महास्तम्मं जातरूपमयं बः । 
जघान तान्ये तत्पक्षे भूभृतः कुपितो भूश्षम्‌ ॥२५॥ 


रुक्मीने पदे ह दवम बलरामजीसे एक सहस 


निष्क जीते तथा दूसरे दवम एक सहस निष्क ओर 

जीत ख्ये ॥ १३॥ तव बखभद्रजीने दश्च हजार 

निष्कका एक दौव ओर छ्गाया । उसे भी पक्के 

ज्ुजारी सक्मीने ही जीत ल्या १४॥ दे दज! 

इसपर मूढ कठिगराज दाति दिखाता हा जोरसे 

हने रगा ओौर मदोन्मत्त रुक्मीने कह!-॥ १५॥ 

“दयुतक्रौडासे अनभिज्ञ इन बलभद्रजीको मने हरा. 
दिया; ये वृधा दी भक्षक घमंडसे अन्धे होकर 

अक्षदु्चङ पुरुषोका अपमान करते थे" । ९६॥ 


इस प्रकार कर्गिराजको दत दिखाते ओौर रुक्मी- 

गे दुवौक्य कहते देख हखायुध वलम द्रजी अत्यन्त 
क्रोधित्त हुए ॥ १७॥ तथ डन्हने अत्यन्त कुपित 
होकर करोड निष्कका दब छगाया ओर रक्मीने भी 
उसे ग्रहणकर उनके निमित्त पौँसे फंके | १८॥ रसे 
व्देवजीने ही जीता ओौर वे जोरसे बो उठे-र्भेने 
जीता) इसपर रक्सी भी चिल्लाकर बोला-“बलराम। 
असत्य बोलनेसे कछ काभ नहीं हो सकता, यह्‌ दरव 
भीमेनि दही जीता है॥ १९॥ आपने इस दाविके 
विषयमे जिक्र अव्य किया था, किन्तु मैने उसका 


अनुमोदन तो नहीं किया । इस प्रकार यदि आपने 


इसे जीता है तोमैने भी क्यो नदीं जीता १ ॥२०॥ 


भी पसाश्चरजी बोले--उसी समय महात्मा बलदेव 
जीके क्रोधको बदाती हुदै भकाङवाणीने गस्मीर स्वरम 
कहा--।। २१॥ “इस दौबको धमनु सार तो बरूराम- 
जी ही जीति दहै; रुक्मी यू बोख्ता है, क्योंकि 
[ अनुमोदनसूचक ] वचन न कहनेषर मौ [ पसि 
फकनै आदि ] कायसे बह अनुमोदित ही माना 
जायगा" २२॥ 


तब क्रोधसे अश्णनयन हुए महावखी बरभद्रजीने 
खठकर सक्मीको जुआ खेखनेके ्पौसोसे ही मार डाला 


,॥ २३ ॥ फिर फड़कते हुए कर्टिगराजको बरपूवेक 
` पकड़कर बलरामजीने उसके दति, जिन्हं दिखलाता 
हुआ बह हँसा था, तोड़ दिये । २४ ॥ इनके सिवा 


उसके पक्षके ओरभीजो कोष राजारोगथे उन्हे 
बरूरामजीने अत्यन्त कुपित होकर एक भुबणेमय 


स्तम्भ उखाड़कर उस्रसे मार डला ॥ २५॥ 





काना 








ततो ह!दाङ्कतं सवं पलायनपरं द्विज | 


तद्राजमण्डलं भौतं वभूव इपिते बे ॥२६॥ 
बलेन निहतं दुष्ट रुविपणं मधुष्ठदनः । 


नोवाच क्ििन्यैत्रेय रुकिणीवरयोभयात्‌ ॥२७॥ 


ततोऽनिरशुद्धमादाय कृतदारं द्विजोत्तम । 


हे द्विज ! उस समय बरूरामजके कुपित होनेसे 


हाहाकार मच गया ओौर सम्पूणं राजालोग भयमीत 
होकर भागने खगे ॥ २६ ॥ 


हे मैत्रेय ! उस समय रुक्मीको मारा गया देख 
श्रीमधुूदनने एक ओर रुकिमिणीके भौर दूसरी ओर 
बलरामजीके भयसे कुछ भी नही कहा ॥ २७॥ 
तव्नन्तर हे द्विजश्रेष्ठ ! यादनोके सहित श्रीकृष्णचन्द्र 
सपत्नौक अनिरद्धको छेकर द्वारकापुरीमे चले 


दारकामाजगामाथ यदुचक्रं च फेरवः ॥२८॥ । अये ॥ २८॥ 
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमे ऽरोऽष्टाविशञोऽध्यायः ॥ २८ ॥ 
उन्तीसर्वँ अध्याय 
नर्कासुरका वध 


श्रीपराश्चर उवाच 
द्वारवत्यां स्थिते कृष्णे शक्रलियुवनेश्वरः । 
आजगामाथ यत्रय मत्तेरावतपृष्ठगः ॥ १॥ 


प्रविश्य द्वारकां सोऽथ समेत्य हरिणा ततः। 
कथयामास दैत्यस्य नरकस्य विचेष्टितम्‌ ॥ २ ॥ 
त्वया नाथेन देवानां मनुष्यत्वेऽपि तिष्ठता । 
प्रशमं सर्वदुःखानि नीतानि मधु्रदन ॥२३॥ 
तपसिव्यसनार्थाय सोऽरिषटो घेनुकस्तथा । 
्रषृत्तो यस्तथा केशौ ते सर्वे निहतास्त्वया ॥ ४॥ 
कंसः डुबल्यापीडः पूतना बाषातिनी । 
नाशं नीतास्त्वया सर्वे येऽन्ये जगदुपद्रवाः।। ५ ॥ 
युप्मदोरद॑ण्ड्म्भूतिपरित्रिते जगत्य । 
यञ्वयत्तांशसम्प्राप्त्या तचिं यान्ति दिवोकसः।६॥ 
सोऽहं साम्प्रतमायातो यन्निमित्तं जनादन ] 
तच्चुत्वा तल्मतीकारपयत्नं कतुम॑सि ॥ ७॥ 


भोमोऽयं नरको नाम प्रण्न्योतिपपूरेरः। 


भीपराशरजी बोल्ले-दे मैत्रेय ! एक बार जब 
श्रीभगवान्‌ दवारकाम ही थे च्रिमुवनपति इन्द्र अपने 
मत्त गजराज रेरावतपर चदृकर उनके पास आये 
॥ १॥ द्वारकामे आकर वे भगवान्‌से मिले ओर 
खनसे नरकासुरफे अव्याचारोका षणंन किया ॥ २॥ 
[ वे बाठे-] “हे मधुघ्रुदन ! इस समय मनुष्यरूप- 


। म स्थित होकर भी आप सम्पूणं देवताओके स्वामीने 


हमारे समस्त दुःखोको शान्त कर दिया है ॥ ३॥ 
जो अरिष्ट, घेलुक जओौर केशी आदि असुर सवदा 
तपस्वियोको तंग कश्नेमे ही तत्पर रहते थे उन 
सबको आपने मार डाला ॥ ४ ॥ कंस, कुबलयापीड 
जओौर बाल्यातिनी पूतना तथा ओर भी जो-नो 
संसारके दपद्रवरूप थे, उन सबको आपने नष्ट कर्‌ ` 
दिया ॥ ५॥ पके बाहूदण्डकी सन्तासे त्रिलोकीके 
सुरक्षित हयो जानेके कारण याजकोके दिये ए यज्ञ- 
भागोको प्राकर देवगण त्नहयो रहे है॥६॥ हे 
जनार्दन ! इस समय जिस निमित्तसे मे आपके पास 
उपस्थित ह॑ चसे सुनकर भप इसके प्रतीकारका 
प्रयत्न कीजिये ।॥ ७॥ 


हे शनरुदमन ! यह प्रध्वीका पुत्र नरकाघुर 


६० 


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सर्वैभूतानागरुपघातमरिन्दम ॥ ८ ॥ प्राग््योतिषपुरका स्वामी है; इस समय यह सम्पूण 


करोति 
देवसिद्धासुरादीनां रृपाणां च जनादन । 
ह्वा तु सोऽसुरः कन्य रथे निजमन्दिरे ॥ ९॥ 
छत्रं यस्सक्िस्लावि तज्जहार प्रचेतसः । 
मन्दरस्य तथा भृह्गं हृहवान्मणिपवेतम्‌ ॥१०॥ 
अमृतस्राविणी दिव्ये मन्मातु; कष्ण इण्डले । 
जहार सोऽपुरोऽदित्या बाञ्छ्यैरावतं गजम्‌ ॥११। 
दुनीतमेतदरोषिन्द्‌ मया तस्य निवेदितम्‌ । 
यद्र प्रतिकतव्यं तत्स्वयं परिगररयताम्‌ ॥१२॥ 
भ्रीपराश्ञर उवाच 
इति श्रुत्वा स्मितं कृत्वा भगवान्देवकीमुतः। 
गृहीता वासवं हस्ते सथततस्थौ वरासनात्‌ ॥१२॥ 
सश्चिन्त्यागतमारुह्य गरुडं गगनेचरम्‌ | 
सत्यभामां समारोप्य ययो प्राग्ज्योतिषं पुरम्‌ ॥१४॥ 
आर्दयेरावतं नागं शक्रोऽपि त्रिदिवं थयौ । 
ततो जगाम कृष्णश परयतां द्वारकौकसाम्‌ ॥ १५॥ 
प्राग्नयोतिषपुरस्यापि समन्ताच्छतयोजनम्‌ । 
आचिता मौखैः पः परान्तैभृदिंजोत्तम।१६॥ 
तांभिच्छेद हरिः पारान्किप्ठा चक्र सुदशनम्‌ । 
ततो युरस्सश्तस्थौ तं जघान च केशवः ॥१७॥ 
रस्य तनयान्सप्न सदसतास्तांस्ततो हरि; । 
चक्रधाराभिनिरद्धा्कार शकरभानिव ॥१८॥ 
हृस्वा भर॒ हयग्रीवं तथा पश्वजनं द्विज | 
प्राग्ज्योतिषपुरं धीमास्तरावान्सप्ुपाद्रवत्‌ १९ 
नरकेणास्य तत्रामून्महासेन्येन संयुगम्‌ । 
ष्णस्य यत्र गोिन्दो जघ्ने दैत्यान्पहस्शः॥२०॥ 
रख्राख्लवपं युश्वन्तं तं भौमं नरकं बही । 


‰१ न "५4९ १ 


जीवोका घात कर रहा है।८॥ हे जनादन, 
उसने देवता, सिद्ध, असुर ओर राजा आदिकोंकी 
कन्याओको बलात्कारसे लाकर अपने अन्तःपुरं 
बंदकर रखादहै। ९) इस दैत्यने बरुणका जक 
बरसानेवाडा छर ओौर मन्द्राचलक्रा मणिपवंत- 
नामक शिखर भी हर छिथा ह ॥ १० ॥ 


हे कृष्ण ! उसने मेरो माप्त अदित्तिके अभृतः 
खाबी दोनों दिन्य क्ुण्डरु ठे स्यि दै जर अब दस 
देरावत्त हाथीको भी छेना चाहता है॥१९१॥ हे 
गोविन्द्‌ ! मैने आपको उसकी ये सव अनीतिर्य 
सुनादौदहैः इनकाजो प्रतीकार दोना चाहिये, बह 
आप स्वयं विचार टः ।॥ १२॥ 


भरोपराशरजी बोले-इन्द्रके ये बेचन सुनकर 
श्रीदेवकीनन्दन मुसकाये ओर इन्द्रका हाथ पकड्कर 
अपने श्रेष्ठ आसनसे उठे । १३ ॥ फिर स्मरण करते 
हयी उपस्थित हुए आकाङगामी गरुडपर सत्यभामा 
को चदाकर स्वयं चद्व भौर पराग्ज्योतिषपुरको चके 
1} १४ ॥ तदनन्तर इन्द्र भी देराबतपर चद्कर 
देवल्लोकको गये तथा भगवान्‌ कृष्णचन्द्र सब 


दवारकावास्तियोँके देखते-देखते [ नरकाञुरको मारने] 
चे गये ॥ १५॥ | 


हे द्विजोन्तम ! प्राग्ब्योतिषपुरके चारो ओर 
प्रथिवी सौ योजनतक्र मुर दैत्यके बनाये हुए दछुरेक) 
धारके समान अति तीक्ष्ण पासे धिरी हृद थी 
॥ ९६ ॥ भगवानूने उन पालको सुदशचंनचक्र फककर 
काट डाला; फिर सुर दैत्य भो सामना करनेके ल्यि 
खटा, तव श्रीकेङ्चवने उसे भौ मार डा ॥ १७॥ 
तदनन्तर श्रीहरिने मुरफे सात हजार पु्रोकोभी 
अपने चक्रकी धारूप अग्निम पतंगके समान भस्म 
कर दिथा ॥ १८ ॥ हे द्विज ! इस प्रकार मतिमान्‌ 
भगवान्‌ मुर, हयग्रीव एवं पच्चञ्नन आदि दैत्योको 
मारकर बड़ी शीघ्रतासे प्राम्भ्योतिषपुरमे प्रवेश 
किया || १९॥ वहाँ पहुंचकर भगवान्‌का अधिक 
सेनावाछे नरकायुरसे युद्ध हअ, जिसमे श्रीगोविन्द्‌- 
मे उसके सहसरं देत्योको मार डाला ॥ २०॥ 
देैत्यदल्का दछन करनेवाले मदहाबर्वान्‌ भगवान्‌ 
चक्रपाणिने श्नाख्लको वषो करते हृए भूभिः 





काननस्य ताअ 








सिप्त्वा चक्र द्विषा चक्रे चक्री देतेयचक्रहा ।॥२१॥ 
हते तु नरके भूमिगृदीखादितिङण्डके । 
उपतस्थे जगन्नाथं वाक्यं चेदमथात्रवीत्‌ ॥२२॥ 
परथ्ठयुवाच 
यदाहयद्श्रता नाथ स्वया सूकरमूतिना । 
त्वत्स्पशेसम्मवः पूत्रस्तदायं मय्यजायत ॥२३॥ 
सोऽयं सयैव दत्तो मे स्वयैव विनिपातितः । 
गृहाण कुण्डले चेमे पाृयास्य च सन्तततिम्‌॥२४॥ 
भारावतरणार्थाय ममैव भगवानिमम्‌ | 
अंशेन रोकमायातः प्रसादसुमुखः प्रभो ॥२५॥ 


त्वं कतां च विकर्ता च संहता प्रभवोऽप्ययः। 
जगतां तं जगदरपः स्तूयतेऽच्युत किं तव ॥२६॥ 
व्या्िव्याप्यं क्रिया कर्ता कायं च भगवन्यथा। 
सर्वम्‌ तास्मभूतस्य स्तूयते तव र तथा ॥२७॥ 
परमात्मा चभूतारमा स्वमास्मा चान्ययो भवान्‌ । 
यथा तथा स्तुतिर्नाथ किमथ ते प्रव॑ते ॥२८॥ 
प्रसीद स्वभूतात्मन्नरकेण तु यत्छरृतम्‌ । 
तरक्षम्यतामदोषाय स्वस्सुतस्स्वन्निपातितः।२९॥ 


श्रीपरा्चर उवाच 
तथेति चोक्त्वा धरणीं मगवान्भूत भावनः । 
रत्नानि नरकावासाजग्राह मुनिसत्तम ॥३०॥ 
कन्यापुरे स कन्यानां षोडकश्ातुलविक्रमः। 
शताधिकानि ददुश्च सहस्राणि महामुने ॥२३१॥ 
चतुदषान्गजांशाप्यान्‌ षट्सहस्रं दवान्‌ । 


काम्बोजानां तथाश्वानां निषुतान्येकविंशतिम्‌।२२। 
ताः कन्यास्तांस्तथा नागांस्तानश्नान्‌ दरक पुरीम्‌। 


प्रापयामास गोविन्दस्स्यो नरककिङ्करैः ॥२२॥ 





पुत्र नरकायुरके सुदशनचक्र फंककर दो टुकड़े कर 
दिये ॥ २१ ॥ नरकासुरके मरते ही प्रथिवी अदिति 
कुण्डल ठेकर उपस्थित हुई ओर श्रीजगन्नाथसे कहने 
ठगी ॥ २२॥ 


पृथिवी बोली--हे नाथ ! जिस समय वराहरूप 
धारणकर आपने मेरा इद्धार किया था उसी समय 
आपके स्यसे मेरे यह पुत्र उत्पन्न हा था।२३॥ 
इस प्रकार आपने ञुञ्े यह पुर दिया था ओर अव 
आपदीने इसको नष्ट किया दै; आपये क्रुण्डल लीजिये 
ओर भवर हसकी सन्तानकी रक्षा कीजिये 1 २४॥ 
हे प्रभो ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर हो आपमेरा भार 
उतारनेके यि अपने अंशसे इस लोकम अवतीर्णं हुए 
ह ॥ २५ ॥ है अच्युत ! इस जगते भप ही कती, 
आपही विकर्ता (पोषक) ओर आप ही हतां 
(संहारक ) है; आप ह इसको उत्पत्ति भौर कये 
स्थान हँ तथा आप ही जगद्रुप है । फिर हम आपकी 
किस वातकी स्तुति करं १ ॥ २६॥ दे भगवन्‌! 
जव कि व्याप्ति, व्याप्य, क्रिया, कर्ता जओौर कायूप 
भापहीदहै तव सबके आत्मस्वरूपं आपकी किस 
प्रकार स्तुति की जा सकती है ?। २७॥ हे नाथ ! 





जव आपदही परमात्मा, जआपही भूतात्मा ओर 


भाप ही अन्यय जीवात्म] हैँ तब किंस वस्तुको केकर 
आपकी स्तुतिहो सकती है १। २८॥ हे सव भूतात्मन्‌ ! 
आप प्रसन्न हदये ओर इस नरकासुरफे सम्पूणं 
अप्रराध क्षमा कीजिये । आपने अपने पत्रको निदोँष 
करनेके व्यि ह्वी इसे स्वयं मारा दै ॥ २९॥ 


धी पराश्चरजी बोले--हे म॒निशेष्ठ ! तदनन्तर 
भगवान्‌ भूतभावनने प्रथिवीसे कदा--^तुम्हारी 
इच्छा पूणं हो" ओर फिर नरकासुरके महछ्से नाना 
प्रकारके रत्न लिये ॥ ३०॥ हे महामुने ! अतुरविक्रम 
श्रीभगवान्‌ने नरकासुरके कन्यान्तःपुरमे जाकर सोह 
हजार एके सौ कन्याएं देखीं ।॥ ३१ ॥ तथा चार 
दतिवाङे छः हजार गजश्रषठ भौर इक्ीस छख 
काम्बोजदेश्चीय अश्च देखे ॥ ३२॥ इन कन्याओ 
हाथियों ओौर घोद़ंको श्रीकृष्णचन्दरने नरकासुरके 
सेवको तुरंत दी द्वारकापुर प्हचवा दिया॥ २३॥ 





४९५ 


॥१* ५५९। 


{ ० ९० 








ददुश्च बारुणं छत्रं तथैव मणिपर्वतम्‌ । 
आरोपयामास हरि्गरुडे पतगेश्वरे ॥२४॥ 
आरुह्य च स्वयं कृष्णस्सत्यभामासहायवान्‌ । 


तदनन्तर भगवानूते बरुणक्रा छत्र ओर मणिपबंत 
देखा, रन्हँ उठाकर इन्होंने पक्षिराज गरुडपर रख 
छया ॥ ३४ ॥ भौर सव्यभामाके सहित स्वयं भी 


उसीपर चदुकर अदितिके छुण्डल देनेके ल्यि 


अदिव्या कुण्डके दातुं जगाम त्रिदशालयम्‌ । २५॥| स्वर्मलोकको गये । ३५॥ 


इति श्रीविष्णुपुराणे पच्चमऽरे एकोन्चिश्चोऽध्यायः ॥ २९ ॥ 


~ ५ /४.१९१५--- 


तीसरा अध्याय 
पारिजात-हस्ण 


श्रीपराश्चर उवाच 
गरुडो वारुणं छत्रं तथैव मणिपर्वतम्‌ । 
समायं च हृषीकेशं रीलयैव बहन्ययौ ॥ १ ॥ 
ततश्शङ्कधुपाभ्मासीतस्वगंदरास्गतो हरिः । 
उपतस्थुस्तथा देवास्साध्यंहस्ता जनादेनम्‌॥ २॥ 
स देवैरधितः कृष्णो देवमातुनिवेशनम्‌ । 
सिताभ्ररिखराकारं प्रविश्य दद्शेऽदितिम्‌ ॥ ३॥ 
स तां प्रणम्य शक्रेण सह ते कृण्डलोत्तमे | 
ददौ नरकनाक्षं च शशसास्यै जनादन ॥ ४॥ 
ततः प्रीता जगन्माता धातार जगतां हरि । 
तष्टावादितिरव्यग्रा कृतवा तेखवणं मनः ॥ ५॥ 

अदितिरुवाच 

नमस्ते पण्डरोकाक्ष मक्तानामभयङ्र । 
सनातनास्मन्‌ सर्वात्मन्‌ भूतात्मन्‌ भूतभावन ॥६॥ 
परणेतर्मनसो बुद्ध रिन्दरियाणां गुणात्मक । 
त्रिगुणातीत निनद शुद्ध हदि स्थित ॥ ७ ॥ 
सितदीर्घादिनिररेषकल्पनापरिव्जित । 
जन्मादिभिरसस्पृषट स्वप्नादिपरिवजित ॥ ८ ॥ 
सन्ध्या रात्रिरदो भूमिगंगनं वाधुरम्॒ च । 
हताशो मनो बुद्विभतादिस्ं तथाचुत्‌ ॥ ९ ॥ 

















ओपराशरजी बोले-पक्षिराज गरुड.उस वारण- 
छत्र, मणिपवेत ओर सत्यभामाके सहित श्रकष्णचन्द्र- 
को छोलासे हौ केकर चलने लगे ॥ १॥ स्वगेके दार 
पर परते ही श्रीह रिने अपना शंख बजाया । उसका 
शच सुनते ह देवगण अष्यं ठेकर भगवान्‌के सामने 
उपस्थित हुए॥ २॥ देव ताओंसे पूजित होकर श्रीकृष्ण 
चन्द्रजीने देवमाता अदितिकेङ्वेत मेघश्िखरके समान 
गृहमे जाकर उनका दर्शन किया।। ३॥ तब श्रीजनादेन- 
ने इन्द्रके साथ देवमाताको प्रणामकर उसके अत्युत्तम 
कुण्डरु दिये ओर उसे नरक-वधका वृत्तान्त सुनाया 
11 ४ ॥ तदनन्तर जगन्माता अदितिने प्रसन्नतापृवंक 
तन्भय होकर जगद्धाता श्रीहरिकौ अन्य्रभावसे 
स्तुति कौ ॥ ५॥ 


अदिति बोरी--हे कमलनयन ! हे भक्तोको अभय 
करनेवाठे ! हे सनातनस्वरूप ! हे सवीतमन्‌ ! हे 
भूतस्वूप ! दे भूतभावन ! आपको नमस्कार हे 
॥ ६॥ हे मन, बुद्धि ओौर इन्द्रियोके रचयिता ! दे 
गुणस्वरूप । इ त्रिगुणातीतः हे निदधन! हे शुद्धसत्त्व! 
हे अन्तर्यामिन्‌ ! आपको नमस्कार है ॥७॥ हे नाथ । 
आप इवेत, दीं आदि सम्पूणं कल्पना रहितै 
जन्मादि विकारोसे प्रथक्‌ है तथा स्वप्नादि अवस्था- 
यसे परे है; आपको नमस्कार है ॥ ८ ॥ हे अच्युत 
सन्ध्या रात्रि, दिन, भूमि, आकाञ, वायु, जख, अग्नि; 
मन, बुद्धि जौर अदंकार-ये सव आपदही है ॥ ९॥ 








स स्थितिविनाशानां कर्ता कठपतिर्भवान्‌। 
बरहमविष्णुरिवाख्यामिरात्ममूतिमिरीश्वर ॥१०॥ 
देवा दैस्यास्तथा यक्षा राक्षसारिसद्वपन्नगाः 1 

कूष्माण्डा पिदाचाश गन्धर्वा मनुजास्तथा।।११। 
पशव मृगाश्चैव पतङ्गाथ सरीसुपाः । 
ृक्षगुल्मरता बहमयः समस्तास्तृणजतयः ॥१२॥ 

स्थूला मध्यास्तथा घुष्ष्मार्घर ्मास्ह्माख्षमतराशचये। 
देदमेदा भवान्‌ सव ये केचितपगराश्रयाः ॥१३॥ 


माया तवेयसक्ञातपरमार्थातिमोहिनी । 
अनात्मन्यात्मविक्तानं यया मूढो निरुद्रते ।१४॥) 
अस्वे स्वमिति भावोऽत्र यदपुसायुपजायते। 

अहं ममेति भावो यस््रापेणेवाभिजायते । 








संसारमातुर्मायायास्तवैतन्नाथ चेष्टितम्‌ ॥१५॥ 
यैः स्वधमपरनाथ नरैराराधितो मवान्‌ । 
ते तरन्त्यखिलमेतां मायामात्म्िभुक्तये ॥१६॥ 





बह्माच्यास्सकला देवा मनुष्याः पशवस्तथा । 
विष्णुमायामहावतमोहान्धतम्ाबृताः ॥१७॥ 
आराध्य त्वाममीष्सन्ते कामानात्ममवक्षयम्‌। 
यदेते पुरुषा माया सैवेयं भगवंस्तव ॥१८॥ 
मया तं पुत्रकामिन्या वैरिपक्षजयाय च | 


क कवा क त 1 णिव 


हे दईश्रर ! आप ब्रह्मा, विष्णु ओर क्तिव नामक 
अपनी मू्ियौसे जगत्की उतपन्ति, स्थित्ति ओर 
नायके कती दह तथा जाप कतीओकेभी स्वामी 
ह | १०॥ देवता, दैव्य, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, पन्नग 
( नाग ), कूष्माण्ड, पिज्ञाच, गन्धव, मनुष्य, पञुः 
मग, पतङ्ग, सरीसप (सप ), अनेकों वृक्ष, गुल्म 
ओौर छतार्दै, समस्त वृणजातियाँं तथा स्थूच मध्यम 
सूक्ष्म ओर सूद्ष्मसे भमी सृष्च्म जितने देह-भेद्‌ 
पुग ( परमाणु ) के आश्रित दहै वे सबञप ही 
है ॥। ११--१३॥ 


हे प्रभो! आपकी माया हयौ परमाथेतच्वके न 
जाननेषाठे पुरषोको मोहित करनेवाी है जिससे 
मृद पुरुष अनात्मामे आत्मवुद्धि करके बन्धनमें पड 
जाते है ॥ १४॥ हे नाथ ! पुरुषको जो अनास्मामें 
आत्मबुद्धि भौर 'मै-मेयः आदि माव प्रायः उद्पन्न 
होते दै बह सव आपकी जगजननी मायाका ही 
बिलास है \॥ १५॥ हचाथ! जो स्वघर्मपरायम 
पुरुष आपकी साराधना करते है वे अपने मोक्षफे 
लि इस सम्पूणं मायाको पार्‌ कर जति है ॥ १६॥ 
ब्रह्मा आदि सम्पूणं देवगण तथा मनुष्य जओौर पञ 
आदि सभी विष्णुमायारूप महान्‌ आवतम पड़कर 
मोदृरूप अन्धकारसे आवृत्त हैँ ॥ १७॥ ह मगवन्‌ ! 
[ जन्म ओर मरणके चक्रम पड़े हुए ]ये पुरुष 
जीवक भव-बन्धनको नष्ट करनेवाले आपकी आरा. 
धना करकेमोजो नाना प्रकारकी कामना ही 
सौगते है यह्‌ आपकी मायादहीहै॥ १८॥ ैनेमी 
शन्रुपक्षको पराजित करने लिये पुत्रोकी जयकामना- 


आराधितो न मोक्षाय मायाविलपितदहि तत्‌॥१९॥| से ही आपकी आराधना कौ थौ, मोक्षके ल्यि नहीं । 


कोपीनाच्छादनप्राया वाञ्छा कल्पटुमाद्पि। 





जायते यदपुण्यानां ऽपराधः स्वदोषजः ॥२०॥ 
तस्प्रसीदाखिलजगन्मायामोहकरान्यय । 
अक्नानं ज्ञानसद्धावभूतं भूतेश नाशय ॥२१॥ 
नभस्ते चक्रहस्ताय शाङ्गदस्ताय ते नमः । 


यह मी आपकौ मायाका हमै विटास् है ॥ १९॥ 
पुण्यहीन पुरुषोको जो कल्पव्क्षसे भी कौपीन ओर 
आच्छादन-बञ्माच्रको ही कामना होती दहै यह्‌ 
उनका कमं-दोष-जन्य अपराधी दै।२०॥ 

हे अखिल-जगन्माया-मोहकारी अन्यय प्रभो ! 
जाप प्रसन्न होद्ये ओर हे भूतेश्वर ! मेरे ज्ञानाभि- 
मानजनित अज्ञानको नष्टं कीजिये ॥२१॥ दहे 
चक्रपाणे ! आपको नमस्कार दे, हे शाङ्गेधर ! आप्रको 


७६४ 11 ८ "~ ^~ 


~ 


गदादस्ताय ते विष्णो शङ्कदस्ताय ते नमः।॥।२२॥ 





। है; हे गदाधर ! आपको नमस्कारहे; हे 
शंखपाणे ¦ हे विष्णो | आपको वारंवार नमस्कार ` 


दै ॥-२२॥ ँ स्थूड चिहोसे प्रतीत होनेवाठे आपके 
दस रूपको ही देखतौ दः -भापके वास्तविक परस्व 
रूपको मे नहीं जानती; हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न 
दोदये ॥ २३॥ । 
श्रीपराशचरजी बोल्ले-अदितिद्वारा इस प्रकार 
स्तुति किये जनेपर भगवान्‌ विष्णु देवमातासे हस- 
कर बोरे--“हे देवि ! तुम तो हमारी मातत हो; तुम 
प्रसन्न होकर हमे चरद्ायिनी होओो? ॥ २९ ॥ 
अदिति बोखी-हे पुरुषरसिह ! दुम्हारो इच्छा 
पूणं हयो । तुम मस्यंलोकमे सम्पूणं सुरासुरोसे अजेय 
होगे ॥ २५॥ 
श्रीपराहारजी बोक्ञे-तदनन्तर शक्रपरनी सचीके 
सहित कृष्णभ्िया सत्यभासानि अदितिको पुनः पुनः 
प्रणाम करके कहा-“माता } आप प्रसन्न दोदये"' ॥२६॥ 
अदिति बोी--हे सुन्दर शङ्कटिवाखी ! मेरी 
छरपासे तुचे कभी बृद्धावस्था या विरूपता व्यात्तन 
होगी । हे अनिन्दिताङ्कि! तेरा नव यौवन सद्‌ स्थिर 
रहेगा ॥ २७ ॥ 











एतस्पश्यामि ते रूपं स्थूरचिहयोपलक्षितम्‌ । 


न जानामि परं यत्ते प्रसीद परमेश्वर ॥२६॥। 
श्रीपरोकश्षर उवाच 
अदिव्यैवं स्तुतो षिष्णुः प्रहस्याह सुरारणिम्‌ । 
माता देवि खम॑समाफ प्रसीद बरदा भव ॥२४॥ 
अदितिरवाचं 
एवमस्तु यथेच्छा ते स्वमरेपैस्पुरासुरेः । 
अजेयः पुरुषव्याघ्र मत्यलोके भविष्यसि ।।२५॥ 
श्रीपराशर उवाच . 
ततः कृष्णस्य पत्नी च शक्रप्रन्या सदादितिम्‌ 
सत्यभामा प्रणम्याह प्रसीदेति पुनः पुनः ॥२६॥ 
अदितिरुवाच | 
मसरसादानन ते सुभ्रु जरा वैरूप्यमेव वा । 


भविष्यत्यनवदयाङ्खि सुस्थिरं नवयोवनम्‌ ॥२७॥ 
. श्रीपराञ्चर उवाच 
अदिरया तु कृता देषराजो जनार्दनम्‌ । ` 
यथावस्पूजयामास बहुमानपूरस्तरम्‌ ॥२८॥ 
हमची च सर्यमामायै पारिजातस्य पुष्पकम्‌ | 
न ददौ मालुषीं सतवा स्यं पुषपैरलड्‌ङृता ॥२९॥ 
ततो ददं दृष्णोऽपि सत्यम(मासदायवान्‌। 
देवोद्यानानि ह्यानि नन्दनादीनि सत्तम ॥३०॥ 
ददं च सुगन्धाहयं मञ्जरीपु्धधारिणम्‌ । 
नित्याह्ादकषरं ताभ्रवारुपल्छवशोमितम्‌ ॥३१॥। 


श्रीपराश्रजी बोकले-तदनन्तर अदितिको आज्ञा 
से देवराजने व्यन्त आद्र-सत्कारके साथ भरोकृष्ण- 
चन्द्रका पूजन किया ॥ २८॥ किन्तु कल्पचृक्षके 
पुष्पोसे अंत इन्द्राणीने सत्यभामाको मानुषी 
समक्चकर.वे पुष्पन दिये ॥ २९॥ दे साधुश््ठ। 
तदनन्तर सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्र भीः: 
देवताओं नन्दन आदि मनोहर उद्यानोंको देखा 
॥ ३० ॥ वह्म॑पर केश्िनिषुदन जगन्नाथ श्रीकृष्णने 
सुगन्धपूणं मञ्जरीपुञ्लधारी, निव्याहवादकारी, ताम्र 
बर्णंवाले बाढ प्तोसे खुञ्लोभित अमृत-मन्थनके 


मध्यमानेऽपरते जातं जातरूपोपसत्वचम्‌ । ` | समय प्रकट हभ तथा सुनदरौ छारवाला पारिजात 
पारिजातं जगन्नाथः केशवः केशिष्ठदनः ॥३२॥ | वृक्ष देखा ॥ ३१.३९ ॥ 

तुतीष परमप्रीरेया तरूराजमनुत्तमम्‌ । हे द्विजोत्तम ! उस अ्युत्तस बृष्षराजको देख- 
. [ता द्र कर परम प्रीतिश्च सत्यभामा अत्ति प्रसन्न दुई 
तं टा प्राह गोविन्दं सस्यभामा द्विजोत्तम । अौर श्रामोविन्दसेः बोलो“ कष्ण ! इस वृक्ष 


कस्मान्‌ द्वारकामेष नीयते ष्ण पादपः ।॥३३॥ कौ द्वारकापुरी क्यो नदीं ठे चकते १ ॥ ३३॥ 


~ स्य समल्य्भं म यदि आपका यह्‌ वचन कि पुम ही मेरी अत्यन्त 
यदि चेखद्टवः सस्यं खमत्यथं प्रियेति मे । पया हय" सत्य दै तो मेरे गूदोयानमे च्गनि 


भदे हनिष्डुटार्थाय तदयं नीयतां तरः ॥३४॥ | के क्थ इल वृष्टो , ठे चल्यि ॥ ३४ ॥ 











न मे जाम्बवती तादुगभीष्टा न चरुविमणी 
सस्ये यथा तवभिस्युक्त स्वया दृष्णासकृखियम्‌ । ३५ 


सस्यं तद्यदि मोचिन्द्‌ नोपचारकृतं मम । 
तदस्तु पारिजातोऽयं मम ॒गेहविभूषणम्‌ ।॥३६॥ 
विभ्रती पारिजातस्य केश्चपक्षेण मञ्जरीम्‌ } 
सपतीनामहं सध्ये शोमेयमिति कामये ॥२३७ 
श्रीपराशर उवाच 
इट्युक्तस्स प्रहस्यैनां पारिजातं गरुत्मति । 
आसेपयामास हरिस्तमूचुवंनरक्षिणः ॥२८॥ 
भो शची देवराजस्य महिषी ततरिग्रदम्‌ । 
पारिजातं न गोबिन्द हतुंमहसि पादपम्‌ ॥३९॥ 
तपन्नो देवराजाय दत्तस्सोऽपि ददौ पुनः। 
महिष्यै समहामाम देव्यै शच्यै कुतूहरात्‌ ॥४०। 
देवैरमृतमन्थने । 
एत्पादितोऽयं न क्षेमी गृदीदयेनं गमिष्यसि ।॥४१॥ 


शचीनिभूषणार्थाय 


देवराजो यखेक्षी यस्यास्तस्या; परिग्रहम्‌ । 
भद्याखार्थयसे समौ गृही खैनं हि को त्रजेत्‌॥४२॥ 
अवदयमस्य देषे््रो निष्कृतिं कृष्ण यास्यति । 
वजो्यतकरं चक्रमनुयास्यन्ति चामराः ।(४२॥। 
तदलं सकरेरदवर्विप्रहेण 
विपाककटु यत्कमं तन्न शंसन्ति पण्डिताः ॥४४॥ 


तवाच्युत । 


भ्रीपरश्चर उवाच । 
युक्ते तैरुवाचैतान्‌ सत्यभामातिकोपिनी । 
का श्रची पारिजातस्य को बा शक्रससुराधिपः।॥४५॥ 
सामान्यस्सर्बलोकस्य यथेषोऽमृतमन्थने । 
अणनपनस्तस) कस्पादेको गह्णाति वासवः ।॥७६॥ 











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हे कुष्ण ! आपने कद बार मुद्यसे यद प्रिय बाक्य 
का है किदे सव्ये! खुह्चेतू जितनी प्यार है.उतनी 
न जाम्बवती है ओौरन रुक्मिणी हीः ।॥ ३५॥ 
हे गोविन्द ! यदि आपका यह कथन सत्य दै-- 
केवल मुपे बहाना ही नदीं है--तो यदं पारिजात- 
वृक्ष नेरे गृहका भूषण हो ॥ ३६ ॥ मेरी देसी इच्छा 
ह कि सै अपने केश-कछापोमे पारिजातपुष्प गूथकर 
अपनो अन्य सपल्नियोमे सुशोभित दोॐ* ॥ ३७॥ 


श्रीपराश्यरजी बोल्ते-सत्यभासाके इस प्रकर 
कहनेपर श्रीहरि हँसते हए चस पारिजातवृक्षको 
गरडपर रख छया; तब नन्दन बनके रक्षकोने कहा-- 
॥ ३८ ॥ ण्डे गोचिन्द्‌ ! देवराज इन्द्रकौ पटली जो 
महारानी श्च ह यह्‌ पारिजात-क्ष उनकी सम्पत्ति 
है, आप इसका हरणन कीजिये 1 ३९ ॥ क्षीर- 
सुद्रसे उत्पन्न होनेकै अनन्तर यद देबराजको 
दिया गया था; फिर हे महाभाग । देव राजने 
कुतूहरवशच इसे अपनी मद्िषी शचीदेवीको दे दिया 
ह ॥ ४० ॥ समुद्र-मन्थनके समय इचौको विभूषित 
करनेके लि हयी देवताओंने इसे उत्पन्न किया था; 
इसे ठेकर आप छुप्‌ नही जा सके ।॥ ४९॥ 
देवराज भी जिसका यँद देखते रहते ह उस शचीकी 
सम्पत्ति इस पारिजातक इच्छा जाप मुढतादीसे 
कमते दै; इसे केकर मका कोन सकरा जा सकता 
ह? ४२॥ हे करष्ण! देवराज इन्द्र इख वृक्षका 
बदा चुकानिके लिय भवक्षय ही वघ टेकर उद्यत 
होगे ओर फिर देवगण भौ अवय ही चनका अमु 
गमन करगे ॥ ४३॥ अतः दे अच्युत ॥ समस्त 
देवताश साथ रार बदानेसे आपका कोई लाभ 
नदी; क्योकि जिस क्म॑का परिणाम कटहोता हे, 
पण्डितजन उसे अच्छा नदी कहते !\ ४४ ॥ 

श्री पयशशरजी चोक्त-उ्यान-रक्चकोके इस प्रकार 
कहनेपर सत्यभामाने अत्यन्त क्रु हकर कदा-- 
“इच्ची अथवा देवराज इन्द्र ह इस पारिजातक कौन 
होते दै १। ४५॥। यदि यह अमृत-मन्थनके समय 
उतपन्न हज दै, तो सबको समान सम्पत्ति दै । 
अक्खा इन्द्रही इसे केसे ठे सकता ह १ ॥ ४६॥ 





यथा सुरा यथैषम्दुयंथा श्रीवंनरक्षिणः । 
सामान्यस्पर्बरोकस्य पारिजातस्तथा दमः ।४७॥ 
मतेवाहमहागर्बहणद्भयेनमथो शची । 
तत्कथ्यतामल क्षान्त्या सत्या हारयति दरूमम्‌॥४८॥ 
कथ्यतां च दरुतं गला पौलोम्या वचनं मम । 
सत्यभामा वद्येतदिति गर्बोद्धताक्षरम्‌ ॥४९॥ 
यदि तवं दयिता भर्ुयेदि वश्यः पतिस्तव । 
मद्ध्हैरतो ब्रं तत्कार्य निवारणम्‌ ॥५०॥ 
जानामि ते पतिं शक्रं जानामि त्रिदशेश्वरम्‌ । 
पारिजातं तथाप्येनं मासुषी हारयामि ते ॥५१॥ 

श्रीपराशर उवाच 

इत्युक्ता रक्षिणो गत्वा शच्याः प्ोचुयंथो दितम्‌ । 

रुला चोत्सादयाम्‌।स शची दक्र सुराधिपम्‌ ॥५२। 


ततस्पमस्तदेवानां सैन्यैः परितो ह्मि । 
प्रययो पारिजाता्थमिन्द्रो योदधु द्विजोत्तम ॥५३॥ 


१५११ ॐ" ! 





ततः परिषनिरसिशगदाशूलवरायुषाः । 
वभूयुसत्रदशास्सजञाः शक्रे वजर स्थिते ॥५४॥ 
ततो निरीक्ष्य गोविन्दो नागराजोपरि स्थितम्‌। 
शक्र देवपरीवार युद्धाय सष्रुपर्थितम्‌ ॥५५॥ 
चार बह्ुनिधोपिं दिशश्शब्देन पूरयन्‌ | 
युमोच शरसक्कातान्सदहस्रायुतशरिशतान्‌ ॥५६॥ 
ततो दिशो नमरचैष दृष्ट्रा शरकतैधितम्‌ | 
युधुचुश्िदशास्सरवे यस््रशस्त्राण्यनेकसः ॥५७॥ 
एवैकमसर शसं च देवैषक्तं सदशः । 
चिच्छेद छोरयेवेशो जगतां मधु्रदनः ॥५८॥ 
पादं सलिलराजस्य समदृष्योरगाशनः । 


४ -*- ^ 


अरे बनरक्षको ! जिस प्रकार [ समुद्रसे उत्पन्न हुए] 
मदिरा, चन्द्रमा ओर छक्ष्मीका सव छोग समानतासे 
भोग करते द उसो प्रकार पारिजात-बृक्ष भी समीको 
सम्पत्ति है ॥ ४७॥ यदि पतिके बाहुवलसे गर्विता 
होकर राचीने ही इसपर अपना अधिकार जमा रखा 
है तो उससे कहना फं सत्यभामा उस बक्षको हरण 
कराकर ल्य जाती है, तुम्हे क्षमा करनेकी आवेडय- 
कता नहीं है ॥ ४८॥ अरे माल्यो ! तुम तुरंत 
जाकर मेरेये शब्द शचीसे कटी किं सत्यभामा 
अत्यन्त गवेपूवंक कड़े अक्षरोमे यह्‌ कहती ह कि 
यदि तुम अपने पतिको अत्यन्त प्यारीहो ओरवे 
तुम्हारे व्लीभूत है तो मेरे पत्तिको पारिजात हरण 
करतेसे रोकं ॥ ४९-५० ॥ मँ तुम्हारे पति राक्रको 
जानती हँ भौर यह्‌ भी जानती दर किवे देवताओंके 
स्वामी है, तथ।पि मै मानवी ही तुम्हारे इस पारिजात- 
बृक्षको ल्थि जाती हूः" ।। ५१ ॥ 


श्रीपयश्चरजी बोे--सत्यभामाके इस प्रकार 
कहनेपर वनरक्षकोने शचीके पास जाकर उससे 
सम्पूण वृत्तान्त व्यो-का-त्यो कह दिया । यदह सव 
सुनकर शचीने अपने पति देवराज इन्द्रको उत्साहित 
किया ॥ ५२॥ हे द्विजोत्तम ।! तब देवराज इन्द्र 
पारिजात-वृक्षको छुडनेके लिये सम्पूणं देवेसेनाके 
सहित श्रीहरिसे छ्डनेके स्थि चले ॥ ५३ ॥ जिस 
समय इन्द्रने अपने हाथमे वज्र छिया उसी समय 
सम्पूणं देवगण परिघ, निखिजञ, गद्‌1 ओौर शूल आदि 
अस्-सखोँसे सुस्त हो गये ॥ ५४ ॥ तदनन्तर 
देवसेनासे धिरे हुए एेरावतारूढ इन्द्रको युद्धके लिये 
उद्यत देख श्रीगो विन्दन सम्पृणं दिक्च ओको श्ब्दाय- 
मान करते हुए श््धध्वनि की ओौर हजारो-खखों 
तीखे बाण छोड ॥ ५५-५६ । इस प्रकार सम्पूणं 
दिश्चाभों ओौर आकाञ्चको सैकड़ों बाोसे पूण देख 
देवताओने अनेकों अ्न-स्ख छोड । ५७॥ 


त्रिोकीके स्वामी श्रीमधुसूदनने देवताओके छोड़ 
हुए प्रस्येक अञ्च-शखके छीलासे ही हजारों टुकड़े कर 
दिये ॥ ५८ ॥ स्पहारो गसडने जज्ञाधिपति वरणके 


चकार खण्डशथञ्च्वा वारूपन्नगदेहवत्‌ ।॥५९॥ 
यमेन प्रहितं दण्डं गदाविक्षेपखण्डितम्‌ । 
पृथिव्यां पातयामास भगवान्‌ देवकीसुतः ॥६०॥ 
शिथिकां च धनेशस्य चक्रेण तिहषो विशः | 
चकार शौरिर च दृष्िश्टदतौजसम्‌ ॥६१॥ 
नीतोऽग्निरशीततां बाणे््रविता बक्षपो दिशः। 
चक्रविच्छिनिशूलाग्रा रुद्रा यवि निपातिताः ।॥६२॥ 
साध्या विश्वेऽथ मरुतो गन्षर्वहिचैव सायकैः । 
शाण प्ररितैरस्ता व्योम्नि श्ान्मितूहवत्‌।॥ ६२ 
गरुत्मानपि तुण्डेन पक्षाभ्यां च नखाद्ुर । 
भक्षयंस्ताडयन्‌ देवान्‌ दारयं्च चचार वै ॥६४॥ 
ततदशरसषसेण देवेनद्रमधुरदनो । 
परस्परं वर्षति धाराभिरिव तोयदो ॥६५॥ 
एेरावतेन गरुडो युयुधे तत्र सङ्कुले । 
देषैस्समस्तेयुयभे शक्रेण च जनादन ॥६६॥ 
भिनेष्वशेषबाणेषु शस्ेष्वस्ेषु च त्वरन्‌ । 
जग्राह वासवो वजरं कृष्णरचक्र सुदशनम्‌ ॥६७॥। 
तठो हाहाकृतं सवं त्रैलोक्यं द्विजसत्तम । 
वज्नचक्रकरौ दष्टा देवराजजनादेनौ ॥६८॥ 
कषिप्रं बज्रमथेन्द्रेण जग्राह भगवान्हरिः | 

न मोच तदा चक्रं शक्रं तिष्टेति चात्रवीत्‌ ।।६९॥ 
प्रणष्टवजं देवेन्द्रं गरुडक्षतवाहनम्‌ । 
सत्यमामात्रवीद्वीरं पायनपरायणम्‌ ॥७०॥ 
्रैलोकयेश न ते युक्त शचीभत; पलायनम्‌ । 
पारिजातद्चमाभोगा स्वाग्चुपस्थास्यते शची ।७१॥ 
कीरशं देवराज्यं ते पारिजातसगुज्ज्वखाम्‌ । 
अप्यतो यथापू्ं प्रणयाभ्यागतां शचीम्‌ ॥७२॥ 








पञ्चको लीं चकर अपनी चों चसे स्पंके वच्ेके समान 
उसके फितने ही कड़े कर डाठे | ५२ ॥ श्रीदेवकी- 
नन्दनने यमके फेके हुए दण्डको अपनी गदासे खण्ड- 
खण्ड कर प्रथिबीपर भिरा दिया ॥ ६० ॥ कुबेरे 
विमानको भगवान्‌ने सुद्श्ञंनचक्रद्वारा तिक-तिरू कर 
डरा ओौर सूयंको अपनी तेजोमय दृष्टिसे देखकर 
ही निस्तेज्ञ कर दिया ॥ ६१॥ तदनन्तर भगवानने 
बाण बरसाकर अभ्निकरो शीतल कर दिया ओर 
वसुओंको दिशा-वि दिक्ाओंमे मगा दिया तथा अपने 
चक्रसे व्रिशूलोकी नोक काटकर्‌ रद्रगणको प्रथिवीपर 
गिरा दिया ॥ ६२॥ भगवान्‌के चये हए बा्णोँसे 
साध्यगण, विर्वेदेवगण, मरुद्गण ओर गन्धवेगण 
सेमरकरी रूईके समान आकारामे ही रीन हो गये 


॥ ६३ ॥ श्रीमगवाम्के साथ गरुडजी भी अपनी 
चोच, पंख भौर पंजोसे देवताओंको खाते, मारते 
भौर फाड़ते फिर रहे थे ॥ ६४ ॥ 


पतिर जिस प्रकार दो मेव जलकी धाराएं बरसाति 
हों इसी प्रकार देवराज इन्द्र ओर श्रीमधुसूदन एक 
दूसरेपर बाण बरसाने रगे ॥ ६५॥ उस युद्धम 
गरुडजी देरावत्के साथ ओर श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्र 
तथा सम्पूर्णं देवताभोके साथ छ्ड़ रहे थे ॥ ६६॥ 
सम्पूणं बाणोकि चुक जाने ओर अख-लखोके कट 
जानेपर इन्द्रने शघ्रतासे वजर ओर छूष्णने सुदशेन- 
चक्र हाथमे छिथा ॥ ६७ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस समय 
सम्पूणं त्रिलोकी इन्द्र ओर छृष्णचन्द्रको करमशः 
वज्र ओौर चक्र खियि देखकर हाहाकार मच गया 
| ६८ ॥ श्रीहरि इन्द्रके छोड़ हुए बज्रको अपने 
हाथोसे पकड क्तिथा ओर स्वयं चक्र न छोडकर 
इन्द्रसे कहा-““अरे ! ठहर !“ ॥ ६९ ॥ 


इस प्रकार बजर छिन जाने ओर अपने बाहन 
एेरावतके गरुडद्वारा क्षत-विक्षत हो जानेके कारण 
भागते हुए बीर इन्द्रसे सत्यमामाने कहा-॥७०।) “दहे 
्रेरोक्येश्वर ! तुम शचीके पति हो, तुम्दे इस प्रकार 
युद्धे पीठ दिखखाना उचित नहा है । तुम भागो मतः 
पारिजात-पुष्पोकी मारासे विभूषिता होकर शची सघ 
ही म्ह रि पास आवेगी ।७१॥। अव प्रेमवज्ञ अपने पाक्त 
आयौ हई शचीको पहरेकी भोति पारिजातपुष्पको 
माखसे अछ्ङकुत न देखकर तुम्ह देव राज्त्वका क्या 


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११५ " ऊॐ- 9 


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अहं शक्र प्रयासेन न व्रीडां गन्तुमहयि 
नीयतां पारिजातोऽयं देवास्पन्तु गतन्यथाः।।७२। 


पतिगर्वावहेपेन बहुमानपुरस्सरम्‌ । 
न ददं गृहं याताप्ुपचारेण मां शची ॥७४॥ 
स्रीत्वादगुरुवित्ताहं॑स्वभदलाधनापरा । 
ततः कृतवती शुक्र भवता सह विग्रहम्‌ ॥७५॥ 
तदं पारिजातेन परस्वेन हृतेन मे । 
रूपेण ग्वितासातुमेत्रा का स्री न गर्विता ॥७६॥ 
श्रीपराश्चर उवाच 
इत्युक्तो यै निववृते देवरजस्तया द्विज । 
प्राह चैनामं चण्डि सख्युः सेदोक्तिविस्त।७७' 
न चापि सगेसंहारस्थितिकर्ताखिकस्य यः । 
जितस्य तेन मे ब्रीडा जायते विश्वरूपिणा ॥७८॥ 
यस्माज्ञगस्सकलमेतदनादिम्या- 
स्मिन्यतश्च न भविष्यति स्व॑भूतात्‌। 
तेनोद्धवप्रहयपारनकारणेन 
व्रीडा कथं भवति देवि निराङ्तस्य ।७९॥ 
सकलवनघतिमूतिरल्पाल्पह्मा 
विदितसकरवेदैज्ञायते यस्य नान्यैः । 
तमजमक़ृतमीशं शाश्वतं सखेच्छयैनं 
जगदुपञृतिमत्यं को विजेतु समथः ॥८०॥ 








सुख होगा १ ॥ ५७२॥ है शक्र ! अब तुम्हं अधिक 
प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं है, तुम सङ्कोच 
मत करो; इस पारिजातः.वृक्षको ठे जाओ । इसे 
पाकर देवगण सन्तापर हित हों ।| ७३ ॥ अपने पतिके 
बाहुबरसे अत्यन्त गर्विता शचीने अपने घर जनिपर 
भौ सुश्च कुछ अधिक सम्मानकी दृष्टिसे नदीं देखा 
था ॥ ७४ ॥ स्री होनेसे मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर 
नहीं हे, इसल्यि मैने भी अपने पतिका गौरव प्रकट 
करनेके ल्यिदही तुमसे यह र्डाई ठानौ थी ॥ ७५॥ 
यसे दुसरेकी सम्पत्ति इस पारिजातको ठे जानिको 
क्या आवर्यकता है ? शची अपने रूप ओौर पतिके 
कारण गर्वितादहै तोेसी कौन-सीखीहैजौ इस 
प्रकार गर्वो नहो १॥ ७६॥ 


शीपयाशरजी बोरे-दे द्विज ! सव्यभामाके इस 
प्रकार कनेर देवराज रौर आये ओर बोरे-“हे 
क्रोधिते ! मैं तुम्हारा सुद्‌ ह, अतः मेरे ल्ि सी 
वैमनस्य बद़ानेवाली उक्तियोके विस्तार करनेका कोई 
प्रयोजन नहीं है ॥७७॥ जो सम्पूणं जगत्‌की 
उत्पत्ति, स्थिति ओर संहार करनेव छे है खन विरव- 
रूप प्रभुसखे पराजित हयोनेमे भी सुश्च कोई सङ्कोच 
नदीं है ॥ ७८ ॥ जिस आदि ओर मधभ्यरहित प्रभुसे 
यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ उतपन्न हभ दै, जिसमे यह स्थित 
है ओर फिर जिसमे छीन होकर अन्तम य्न 
रहेगा; हे ३ेवि ! जगत्‌क) उत्पत्ति, प्रख्य ओर पाङनके 
कारण उस परमात्मासे ही परास्त होनेमे युषे कैसे 
खजा हो सकती है १ ॥ ७९ ॥ जिसक्ी अत्यन्त अल्प 
ओर सूक्ष्म मूर्विको, जो सम्पूणं जगतको चत्यन्न 
करनेवाो है, सम्पूणं बेदोको जाननेवाे अन्य पुरुष 
भी नहं जान पाते तथा जिसने जगत्‌के उपकारक 
लिये जपनी इच्छसे ही मनुष्यरूप धारण किया है 
उस अजन्मा, अकतं ओर नित्य ई्ररको जीतनेमें 
कौन समथं है १ ८० ॥ 


~---++-*-- 


इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेऽश िसयोऽध्यायः ॥ ३० ॥ 


+कः 


११०। १०] -4११। १.91. ८०१८१ <१।,९. ९11८2, हसा१९ ५ सा 
कमभ्याभोसे विवाह करना 


भ्रीपराश्चर उवाच 
संस्तुतो भगवानिस्थं देवराजेन केशवः । 
प्रहस्य भावगम्भीरमुबाचेन्द्रं द्विजोत्तम ॥ १। 


भ्रीकरुष्ण उवाच 
देवरातो मवानिन्द्रो बयं मर्या जमत्पते | 
्षन्तभ्यं भवतैवेदमपराधं कृतं मम ॥ २॥ 
पारिजाततरधायं नीयताष्ुचितास्पदम्‌ । 
गृहीतोऽयं मया शक्र सस्यावचनकारणात्‌ ॥ २ ॥ 
वजरं चेदं गृहाण त्व' यदत्र प्रहितं सख्या । 
तवेवतसरहरणं शक्र ैरिविदारणम्‌ ॥ ४॥ 
ईन्द्र उवाच 

विमोहयति मामीश्च मर्त्योऽहमिति 8 बदन्‌। 
जानीमस्त्वां ममवतो न तु घ्मधिदो वयम्‌ ॥५॥ 
योऽसि सोऽपि जगत््राणप्रवत्तो नाथ संर्थतः। 
जगत्शल्यनिष्कपं करोष्यपुरघूदन ॥ ६॥ 
नीयतां पारिजातोऽयं कृष्ण द्वाखरतीं पुरीम्‌ । 


मत्य॑शोकै खया त्यक्ते नाय संस्थास्यते शुषि ॥५॥ 


देवदेव जगन्नाथ कृष्ण विष्णो महारज । 
रह्धचक्रगदापाणे क्षमस्वेतद्न्यतिक्रमम्‌ ।॥ ८ ॥ 
भ्रीपराश्चर उवाच 

तथेल्युक्तवा च देवेन्धमाजगाम भुवं हरिः । 

^ ९ ६) 

प्रसक्तः सिद्धगन्धवं; स्तूयमानः सुरर्षिभिः ॥९॥ 
ततरदशह्धयुपाध्माय दारकोपरि संस्थितः | 
हषथ्त्पदयामास द्वारकावासिनां हिज ॥१०॥ 
अवती्याथ गर्डात्सत्यभामास्ायवात्‌ । 








भ्रीपराशरजी बोक्ले-हे हिजोत्तम ! इन्द्रने जव 


दस प्रकार स्तुति फो तो भगवान्‌ करष्णचन्द्र गम्भीर 
भावसे हंसत हुए इस प्रकार योरे-॥ १॥ 


श्रीङृष्णजी बोले--हे जगत्पते ! भप देवराज 
न्द्र है ओौरहम मरणधर्मा मनुष्य दै । हमने आपका 
जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करं॥२॥ 
हस पारिजात-वृ्को इसके योग्य स्थान (नन्दनवन) 
कोलेजाद्ये। हे शक्र! नेतो इसे सत्यभामाकी 
बात रखनेके ल्यि हीरेल्िया था॥३॥ ओर्‌ 
आपने जो वज्र फेंका थाउ्से भी ठे लीजिये, 
क्योकि हे सक्र ! यद शात्रओंको नष्ट करनेवाला श्ल 
जापहीका है ॥ ४॥ 

इन्दर बोले- दे ईच ! “नन मनुष्य है" ठेसा कह- 
कर भु्चे क्यो मोहित करते हँ । हे भगवन्‌ | यतो 


आपके इस सगुण स्वरूपको है जानता ह हम 
आपके सूक्ष्म स्वरूपको जाननेवले नदीं दै ॥ ५॥ 
देना! अपजोहैबहीदहै, [हम तो इतना ही 
जानते दै किं] हे दैव्यदरन ! आप लोकरक्षामे तत्पर 
है भौर इस संसारके कौँटोको निकाल रहे दै ॥ ६॥ 
हे कष्ण | इस पारिजातःवृश्चको आप द्वारकापुरी ठे 
जाये, जिस समय आप मव्यंखोकं छोड दृगे, उस 
समय यह्‌ भूर्लौकमें नहीं रहेगा ॥ ७॥ हे देवदेव | 
हे जगन्नाथ हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे महाबाहो ! 
हे शद्कचक्रगदापणे ! मेरी इस धृष्टताको क्षमा 
कीजिये | ८ ॥ 


श्रीपयाश्चर्जी बोले- तदनन्तर श्रीहरि देवराज- 
से तुम्हारी जैसी इच्छा है वेसा हो सष्ीः देसा कष- 
कर सिद्ध, गन्धवं ओर देवषिगणसे स्तुत हो भूलौक- 
मँ चरे आये।)९॥ है द्धिज! द्वारकापुरीके ऊपर 
प्ुचकर श्रीछरष्णचन्द्रने [ अपने भनेकी सूचना देते 
हुए ] शंख बजाकर द्वारकावासि्योँको आनन्दित 
किया ॥ १०॥ तदनन्तर सत्यभामाफे सहिते गरुडसे 


७० 





धीविष्णुपुर्ण 





निष्छुटे स्थापयामास पारिजात महातस्म्‌ ॥११॥ 
यमभ्यरस्य जनस्परबो जातिं स्मरति पोरविकोम्‌ । 
वास्यते यसय पुष्पोर्थगन्धेनो्वीं त्रियोजनम्‌।१२। 
ततस्ते यादवास्स्बे देदबन्धानमाुपान्‌ । 
ददृशुः पादपे तस्मिन्‌ छवन्तो एुखदशेनम्‌ ॥१२॥ 
किङ्करसपथपानीतं हस्त्यश्वादि ततो धनम्‌ । 


विभञय प्रददौ करष्णो बान्धवानां महामतिः ।१४। । 


कन्याश्च कृष्णो जग्राह नरकश्य परिग्रहान्‌ ॥१५॥ 
ततः कल भुम प्राम उपयेमे जनार्दनः । 

ता! कन्या नरकेणासन्पवंतो यास्समाहताः ।१६। 
एकस्मिन्नेव गोषिन्दः कारे तासां महायुने । 
जग्राह विधिवत्पाणीन्पृथमोहैषु धर्मतः ॥१७॥ 
पोडरस्प्रीसदलखाणि शतमेक ततोऽधिकम्‌ । 
तावन्ति चक्रे रूपाणि भगवान्‌ मधुच्दनः ।१८ 
एफेकमेव ताः कन्या मेनिरे मधुष्दनः । 
ममैव पाणिग्रहणं मैत्रेय ठतवानिति ॥१९॥ 
निश्वास च जगत्छशा तापं गेहेषु केशवः । 

` उवास विप्र सर्वासां विश्वरूपधरो हरिः ॥२०॥ 





उतरकर उस पारिजात महाचरक्षको [ सत्यभामाके ] 
गृहयोद्यानमे खगा दिया ॥ ११ ॥ जिसके पासं आकर 
सव मलुष्योको अपने पू्वजन्मका स्मरण हो आता 
है ओर जिसके पुष्पोंसे निकी हृ गन्धसे तीन 
योजनतक प्रथिवी सुगन्धित रहती ह ॥ १२॥ 
याद्बोँने उस वृक्षके पास जाकर अपना मुख 
देखा तो उन्हु अपना शरीर अमानुष दिखलायी 
दिया ॥ १३॥ 


तदनन्तर महामति श्रीकरष्णचन्द्रने नरकासुरके 
सेवकद्वारा लाये हुए हाथी, घोडे आदि धनको अपने 
बन्धु-बान्धवोमें बाँट दिया ओर नरकासुरकी [हरण 
करके ] लायी हुईं कन्याओंको स्वयं ठे लिया ॥ १४ 
१५॥ हभ समय प्राप्र होनेपर श्रीजनाद्‌नने, उन 
समस्त कन्याओके साथ, जिन्ह नरकासुर बडात्कार 
से हर छाया था, विवाह किया ॥ १६॥ हे महामुने ! 
श्रीमो बिन्दने एक ही समय प्रथकू-प्रथक्‌ भवनम उन 
सवके साथ विधिवत्‌ धमपूवेक पाणिग्रहण करिया 
॥ १७॥ वे सोलह हजार एक सौ खियौँ थी; तन 
सवके साथ पाणिग्रहण करते समय श्रीमघुसुदनमे 
दृते ही रूप बना ख्य ॥ १८॥ हे मैत्रेय ! परन्तु 
उस समय प्रस्येक कन्या (भगवान्‌ने मेरा ही पाणि- 
ग्रहण किया है" इस प्रकार उन्दं एक ही समश्च रहौ 
थी ॥१९॥ हे विग्र ¦ जगत्छष्टा विश्वरूपधारी 


श्रीहरि रात्रिके समय छन सभीके घरोमे रहते 


थे ॥ २०॥ 


५५५११५२...) द / कदय 


इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽजञे एकत्रिद्योऽध्यायः ॥ २१॥ 


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घत्तीसर्वौँ अध्याय 


उषा-चरिजि 


श्रीपराञ्चर उवाच 


प्रयु्ना्या हरेः पुत्रा रविमण्यां कथितास्तव । 
भावुमोमेरिकाधां श सस्यमामा व्यजायत ॥१॥ 
दीपिमत्ताप्रपक्षा्ा रोष्टिण्यां तनया हरेः | 
वभूवुरजाम्भवत्यां च साम्बाच्या बलशालिनः ॥२॥ 
तनया भद्रविन्दाचया नाप्रनित्यां महाः । ` 


ओपराश्चरजी बोल्ले-रक्मिणीके गभंसे उन्न 
हुए मगवान्‌के प्र्यम्न-आदि पुत्रोका वणन हम पहले 
0 कर चुके है; सत्यभामाने भातु ओौर भोमेरिक 
आदिको जन्म दिया ॥ १॥ श्रीहरिके रोदिणीके गभं- 
से दीप्तिमान्‌ ओर ताम्नपक्ष आदि तथा जाम्बवतीसे 
बलशाली साम्ब आदि पुत्र हुए ॥ २॥ नाग्नजिती 
/ सन्या, से यह वह भदविन्दय जा ओौर ओव्या 


-------~-------~-----------~-~-------------------------------------------------- --- `` 





वृक्राद्याध सुता माद्रयां गत्रवसपखान्छुतान्‌ । 
अवाप लक्ष्मणा पुत्रान्कारिन्द्ाच्च भ्रुतादयः ॥४॥ 
अन्यासां चैव भार्याणां समुस्पक्नानि चक्रिणः। 
अष्टायुतानि पुत्राणां सद्वाणि चतं तथा ॥५॥ 


रचुम्नः प्रथमस्तेषां सर्वेपां रुक्मिणीसुतः | 

प्र्युम्नादनिरुदरोऽभूद्रजस्तस्मादजायतत ॥ ६ ॥ 

अनिरुद्धो रणेऽसदरौ बः पौत्रीं महाबलः । 

उषां बाणस्य तनयाय्रपयेमे द्विजोत्तम ॥ ७॥ 

यत्र॒युद्रमभूद्षोरं दरिशङ्करयोमंहत्‌ । 

छिन सहस बाहूनां यत्र बाणस्य चक्रिणा ॥ ८ ॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 

कथं युद्धमभूदू्रहन्पुषाथे हरकृष्णयोः । 

कथं क्षयं च बाणस्य बाहूनां छृतवा्दरिः ॥ ९॥ 

एतरसवं महामाग ममाख्यातुं स्वम्ि । 

महत्कोतूहरं जातं कथां भ्रोतमिमां हरे! ॥१०॥ 
श्रीपराशर उवाचं 

उपा बाणघुता विप्र पावंतीं सह शम्भुना । 

क्रीडन्तीगुपहूर्योच्चेः स्पृ चक्रे तदाभ्रयाम्‌। ११। 

ततस्पकरृचित्क्ञा गौरी तामाह भामिनीम्‌ । 

अरुमस्यथतापेन मत्रा त्वमपि रस्यते ॥१२॥ 

इत्युक्ता सा तथा चक्रे कदेति मतिमास्मनः। 

को वा भर्ता ममेत्याह पुनस्तामाह पर्वती ॥१३॥ 

परावत्युवाच 

वैशाखसुक्रदरादश्यां स्वप्ने योऽमिभवं तव । 

करिष्यति स ते मती राजपुत्रि भविष्यति ॥१४॥ 
श्रीपराशर उवाच 


तस्यां तिथावुषास्वप्ने यथा देव्या समीरितम्‌ । 
तथैवामिभवं चक्रे कथिद्रागं च तत्र सा ॥१५॥ 
ततः प्रबुद्धा पुपमपरश्यन्ती समुत्सुका । 














माद्रीसे वृक आदि, छक्ष्मणासे गात्रवान्‌ आदि तथा 
काछिन्दीसे श्रुत आदि पु्रोका जन्म हुआ ॥ ४ ॥ 
इसी प्रकार भगवानूकौ अन्य च्ियोके भी आठ अयुत 
आठ हजार आर सौ ( अह्ासी हजार आठ सौ) 
पुत्र हृए ॥ ५॥ 


इस सव पुत्रम रुकमिणीनन्द्‌न प्रद्युम्न सबसे 
चदे थे; प्रद्युम्नसे अनिरुद्धका जन्म हज ओर 
अनिरद्धसे वख उदपन्न हुआ ॥ ६॥ हे द्टिजोत्तम । 
महाबलौ अनिरुद्ध युद्धम किसीसे रोके नहींजा 
सक्ते थे। उन्होने बलिकी पोत्री एवं बाणासुरकी 
पुत्री उपासे विना किया था ॥ ७॥ उस विवा्मे 
श्रीहरि ओर भगवान्‌ करका घोर युद्ध हुआथा 
ओर श्रीकृष्णचन्द्र बाणासुर्की सदस युनार्पँ कार 
डाखीथीं॥८॥ 


श्रीमेतेयज्ी बोल्ते-दे ब्रह्मन्‌ ! उपाके चयि 
प्रीमह्ादेवे ओर फृष्णक्रा युद्ध क्यो हुभा ओर श्रीहरिने, 
बाणासुरकी भुजा कयो काट डा्ीं१॥९॥ हे 
महाभाग ! आप युञ्चसे यह सम्पूण वृत्तान्त किये; 
म्चे श्रीहरिकी यह कथा सुननेका बड़ा हुतुहख हौ 
रहा दै ॥ १०॥ 

भ्रीपयाश्षरजी बोले-हे विप्र ! एक बार बाणा- 
सुरकी पुत्री उषानि श्रीरञकरके साथ पावतौजीको 
क्रीडा कर्ती देख स्वयं भी अपने पतिक साथ रमण 
करमेकी इच्छा की ॥ ११॥ तव सवौन्तयौमिनी 
श्रीपावेतीजीने उस सुक्कमारीसे कदा--“^तू अधिक 
सन्वप् मत हो, यथासमय तु भी अपने पत्तिक साथ 
रमण करेगी" ॥ ९२॥ पाच तोजीके ठेसा कहनेपर 
उषाने मन-ही-मन यह्‌ सोचकर फि 'नजनेपेसा 
कव होगा ओर मेगा पति भी कौन होगा? 
[ इस सम्बन्धे ] पावत्तीजीसे पृष्ठा, तब पाबेतीजी- 
ने उससे फिर कहा-। १३॥ 

पा्दतीजी बो्ली-हे राजपुत्री ! वैशाख शक्ता 
द्रादश्चोकी राच्रिको जो पुरुष स्वप्नमे तुद्चसे हठात्‌ 
सभ्मोग करेगा बहम तेरा पति होगा ॥ १४॥ 

श्रीपराश्चरजी बोल्ते- तदनन्तर उसी तिथिको 
उषाकी स्वप्नाबस्थामे किसी पुरुषने रससे, जैसा 
श्रोपा्॑तीदेवाने कहा था, उसी प्रकार सम्भोग 
किया भौर उसका भी उसमे अनुराय हो गया। १५॥ 
ह भैतरेय ! तब स्वप्नसे जगनेपर जव उसने उस 
पुरुषको न देखा तो वहु उसे देखनेके छि अत्यन्त 


७२ 


भ्रोविष्णुपुराण 


[~~ 
----------- -~-------~--------------------- ७ 


क्र गतोऽसीति निले मैत्रयोक्तवती सखीम्‌। १६ हयोकर अपनी सखीकी ओर ठष्ष्य करके 


वाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डधित्रलेखा च तत्सुता । । 
तस्या; सर्यभवरंपा च प्राह कोऽयं त्वयोच्यते ।१७। 
यदा रज्ञाङला नास्यै कथयामास सा सी। 

तदा विश्वासमानीय सवेमेवाभ्यवादयत्‌ ॥१८॥ 
विदितार्था त॒ तामाह पुनशरोषा यथोदितम्‌ । 
देव्या तथैव त्को यो चुपायः रष्व तम्‌॥१९॥ 

चिन्रठेखोवाच 
र्वित्ेयमिद वक्तुं प्राप्तं बापिन कक्यते | 
तथापि किशचिकतंस्यदुपकारं श्रिये तवे ॥२०॥ 
स्ा्टदिनपयंन्तं तावत्कारः प्रतीक्ष्यताम्‌ । 
इतयकाभ्यन्तरं गला उपायं तमथाकरोत्‌ ॥२१॥ 
श्रीपराशर उबाच 
ततः पटे सुरान्दैस्यानान्पर्वाशच प्रधानतः । 
मनुष्यांश बिलिस्यासयै वितरलेखा वयदग्रयत्‌॥ २२॥ 
अपास्य सा तु गन्धर्वास्तथोरगसुरासुराच्‌। 
मनुष्येषु ददौ दृटिं तेष्वप्यन्धकवृष्णिषु ॥२३॥ 
ष्णरामौ विलोक्यासीससमरूलंज्ञाजडेव सा । 
्युम्नदने व्रीडादि निन्यऽन्यतो हिज ॥२४॥ 
दृष्ठमात्रे ततः कान्ते प्र्युम्नतनये द्विज । 
¢ 

दृष्टात्यथविलािन्या जञा कापि निराकृता ।२५॥ 


सोऽयं सोऽयमितीस्युक्ते तया सा योगगामिनी । 
वित्रहेखान्रवीदेनाशुषां बाणसुतां तद्‌ ॥२६॥ 








निरेजवापूवंक कदने रगी-“हे नाथ ! आप कहा 
चरे गये १ ॥ १६ ॥ 

चाणासुरका मन्त्री कुम्भाण्ड था; उसकी चित्र- 
ठेखा नामकी पुत्री थी, वह्‌ उषाको सखी थी, [उषा- 
का यह्‌ प्राप सुनकर ] उसने पूछा-““यह तुम 
किसके विषयमे कह रही हो †"" ॥ १७॥ किन्तु जव 
छल्नावश्च दषानि दसे छ मी न बतखाया तव चिनच्र- 
छेखाने [ सब बात गुप रखनेका ] विइवास् दिछाकर 
उपासे सव वृत्तान्त करा छिया ॥ १८ ॥ चिश्रटेला- 
के सय बात जान ठेनेपर उषाने जो कुछ श्रौपावेती- 
जीने कदा था बह भी उसे सुना दिया ओर की 
कि अब जिस प्रकार उसका पुनः समागम हो वदी 
उपाय करो ॥ १९॥ 


चिघक्तेखाने काद प्रिये ! तुमने जस पुरुष- 
को देखा है उसे तो ज्ञानना भौ बहुत कठिन है फिर 
उसे बताना या पाना कैसे हो सकता है १ तथापि 
मै तुम्दारा इछ-न-कुछ उपकार तो करूगी हौ ॥ २०॥ 
तुम खात या माठ दिनतक मेरी प्रतीक्षा करना 
देखा कहकर बह अपते घरके भीतर गयी जर उस 
पुरुषको ददुनेका उपाय करने ख्गी ॥ २१ ॥ 


आरीपयश्चरजी बोल्े-तदनन्तर ( आट-सात 
दिन पञ्चात्‌ छौटकर ] चित्रङेखाने चित्रपटपर सुर्य. 
य॒स्य देवता, दैत्य, गन्धव भौर मलुष्योके चिर 
लिखकर उषाको दिखकरूये ॥ २२ ॥ तव उषाने 
गन्धव, नाग, देवता भौर दैत्य आदिको छोड़कर 
केवर मनुष्योपर ओर नमे भी विशेषतः अन्धक 
ओर्‌ वरिणी याद्वोपर हौ दृष्टि दी ॥२३॥ हे 
द्विज ! साम ओर कृष्णक चित्र देखकर वह सुन्दर 
भृकुटि बाली छजनासे जडवत्‌ हो गयी तथा प्रदयुम्नको 
देखकर उसने लञ्नावस्ञ अपनी दृष्टि हटा छी ॥ २४॥ 
तत्पश्चात्‌ प्रद्युम्नतनय प्रियतम अनिरद्धजीको देखते 
ही उस अत्यन्त विल्ासिनीकी लज्ना मानो करीं 
ची गयी ॥ २५॥ [ वह्‌ बो उटी-- ] वह्‌ यदह 
है, बह यही है । खसके इस प्रकार कहनेपर 
योगगामिनी चिन्रेखाने उस बाणासुरकौ कन्यासे 
कह्‌ा-)। २६ ॥ 


चिच्रहेखोबाच 
अयं कृष्णस्य पौत्रस्ते भरता देव्या प्रसादितः। 
अनिरुद्ध इति स्यातः प्रख्यातः प्रियदश्नः॥२७॥ 
प्राप्नोषि यदि म्तारमिमं प्राप्तं सयाखिलम्‌। 
दुष्प्रवेशा पुरी पूं दारका कृष्णपालिता ॥२८॥ 
तथापि यलनाद्धर्तारमानयिष्यामि ते सखि । 
रस्यमेतदक्तग्यं न कस्यचिदपि स्वया ॥२९॥ 
अचिरादागमिष्यामि सहस्व विरहं मम्‌ | 
ययो द्वारषतीं चोषां समाश्वास्य ततः सखीम्‌॥।२०॥ 


^^. 





चिल्तेला बोरी-देवीने प्रसन्न होकर यह 
कष्णका पौत्र हौ तेरा पति निश्चित किया है; इसका 
नाम अनिरुद्ध है ओर यह अपनी सुन्दरतके खयि 
प्रसिद्ध है ॥ २७ ॥ यदि तुश्चको यह पति मि गथा 
तव तो तूने मानो सभी कुछ पा लिया; किन्तु कृष्ण- 
चन्द्रहारा सुरक्षित द्वारकापुरीम पे प्रवेश ही 
करना कठिन है ॥ २८॥ तथापि हे सखि ! किसी 
उपायसे मै तेरे पतिको छर्डँगीही, त्‌ इस गुप् 
रहस्यको किंसीसे भो न कहना ॥ २९ ॥ मैं शीघ्र ही 
आंगी, इतनी देर तू. मेरे वियोगको सहन कर । 
अपनी सखौ उषाको इस प्रकार ढाढस बंधाकर 
चित्रलेखा द्वारकापुरौको गयी ॥ ३०॥ 





इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमे ऽर दवा त्रि्ोऽध्यायः ॥ ३२॥ 


तेंतीसर्वो अध्याय 
्रीहृष्ण खोर बाणाछुरकः युद्ध . 


श्रीपराश्चर उवाच 


बाणोऽपि प्रणिपत्य मैत्ेयाह त्रिलोचनम्‌ । 


देव बाहुसदसेण निर्विण्णोऽस्म्याहवं विना ॥ १॥ 
कचिन्ममैषां बाहूनां साफल्यजनको रणः । 
भविष्यति बिना युद्धं भाराय ममक यजैः ॥ २॥ 


श्रीडङ्कुर उवाच 
मपुरध्वजभङ्गस्ते यदा बाण भविष्यति । 
पििताशिजनानन्दं प्राप्स्यसे स्वं तदा रणम्‌।॥ ३॥ 
धीपराश्चर उवाच 
ततः प्रणम्य बरद्‌ं शम्धमम्यागतो गृहम्‌ । 
समग्नं ष्वजमाहोक्य हृष्टो हं पुनर्ययौ ॥ ४ ॥ 
एतस्मिन्नेव काले त॒ योगवि्यायलेन तम्‌ । 
अनिरुद्रमथानिन्पे चित्ररेखा वराप्सराः ॥ ५॥ 
कन्यान्तःपुरमम्येस्य . रममाणं सहोषया । 
षि० पु° ६०-- 





भीपराशरजी बोक्ते--दे मैत्रेय ! एक बार बाणा- 
सुरने भी भगवान्‌ त्रिलोचनको प्रणाम करके कहा 
थाकिंडहे देष! बिना युद्धके इन हजार भुजाओंसे 
मुभे बदा दीखेदहो रहा दै ।॥ १॥ क्याकभीमेरी 
दन मुजाओंको सफङ करनेवाखा युद्ध होगा १ भरा 
बिना युद्धके इन भाररूप सुजाभोसे युश्चे रभो 
क्याहे१।।२॥ 

धीशङ्करजी बोल्ले--हे बाणासुर ! जिस समय 
तेरी मयूर-चिहवाछी ध्वजा टूट जायगी उसी समय 
तेरे सामने मांसभोजी यक्ष-पिञ्चाचादिको आनन्द्‌ 
देनेवाङा युद्ध उपस्थित होगा ॥ ३॥ 


भीपराश्चरजी बोल्ञे--तदनन्तर, वरदायक श्रौ- 
कञंकरको प्रणामकर बाणासुर अपने वर आया ओर 
फिर कालान्तरमे उस ध्वज्ञाको टूटी देखकर अति 
आनन्दित हुजा ॥ ् ॥ इसी समय अप्सराश्ष्ठ 
चित्रठेखा अपने योगबरसे मनिरुद्धको बहा ले भायी 
॥ ५॥ अनिरद्धको कन्यान्तःपुरमै अकर चषके 
साथ रमण करता जान अन्तःपुररक्चकोनि सम्पूणं 


७९४ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ० ३३ 








विज्ञाय रक्षिणो गख शशसुरदेप्यभूपतेः ॥ ६ ॥ 
व्यादिष्टं किङ्कराणां तु सैन्यं तेन महार्पना। 
जघान परिधं घोरमादाय परवीरहा ॥७॥ 


हतेषु तेषु बाणोऽपि रथस्थस्तदधोधतः 


युध्यमानो यथाशक्ति यहुवीरेण निर्जितः ॥ ८ ॥ 


मायया युयुपे तेन स तदा मन््रिचोदितः 
ततस्तं पमगास्त्रेण बवन्ध यदुनन्दनम्‌ ॥ ९॥ 
दारव्यां क यातोऽ्तावनिरुदधेति जल्पताम्‌। 
यदृनामाचवक्षे तं बद्धं बाणेन नारद; ॥१०॥ 
तं शोणितपुरं नीतं शरुत्वा विदयाबिदग्धयः | 
योषिता प्रत्ययं ज्धुर्यादवा नामरेरिति ॥११॥ 
ततो गरुडमारुह्य स्यृतमात्रागतं हरिः] 
वहप्रयुम्नसहितो बाणस्य प्रययौ पुरम्‌ ॥१२॥ 
पुररवेशे प्रमयैयुद्रमासीन्महातममनः | 
ययौ बाणपुराभ्याशचं नीत्वा तान्सद्क्षयं हरः॥ १२] 
ततस्िपादस्ििरा ज्वरो माहेश्वरो मदान्‌ । 
वाणर्नाथमभ्येत्य युयुधे शाङ्गधन्वना ॥१४॥ 
तद्धस्मस्पशेसम्भुततापः कृष्णङ्गपङ्गमात्‌ । 
अवाप बहूदेवोऽपि भ्रममामीहितेक्षणः ॥१५॥ 
ततस्स युद्धयमानस्त॒ सह देषेन शाङ्गिणा। 
वैष्णवेन ज्वरेणाशु कृष्णदेहाननिराङृतः ॥१६॥ 
नारायणथचजाषातपरिपीडनविहलम्‌ । 

तं वीक्ष्य क्षम्यतामस्येत्याह देवः पितामहः ॥ १७॥ 


वृत्तान्त दैत्यराज बागासुरसे कह दिया ॥ ६ ॥ तब 
महावीर बाणासुरने अपने सेवकोको उससे युद्ध 
करनेकौ आज्ञा दौ; किन्तु शच्र-दमन अनिरुद्धने भषने 
सम्मुख आनेपर उस सम्पूणं सेनाको एक लोह मय 
दण्डसे मार डाङा ॥ ७॥ 


अपने सेवकोके मारे जानेपर बाणासुर अनिरद्ध- 
को मार डालनेकी इच्छासे रथपर घदृकर उनके 
साथ युद्ध करने लगा; किन्तु अपनी राक्तिमर युद्ध 
करनेपर भी बह यदुबीर अनिरद्धजीसे परास्त हो 
गया ॥ ८ ॥ तव वह्‌ मन्त्रियोकी प्ररणासे माया- 
पूवक युद्ध करने गा ओर यदुनन्दन अनिरुद्धको 
नागपाक्ञसे बध लिया ॥ ९॥ 


इधर ्वारकापुरीमे जिस समय समस्त यादवोमे 
यह चचा हो रही थी कि अनिरुद्ध कहँ गये ¢ उसी 
समय देवि नारदने उनके वाणासुरद्रारा बौधे जाने- 
की सूचना दी ॥ १०॥ नार्दजीके युखसे योग- 
विद्याम निपुण युवती चिन्रडेल्लाद्वारा उन्द शोणित- 
पुर छे जाये गये सुनकर यादवौको विश्वास हो गया 
करि देवताओने इन्दं नहीं चुराय्ा ॥ ११॥ तब 
स्मरणमात्रसे उपस्थित हुए गरुडपर चद्कर श्रीहरि 
बरराम ओर प्रदयम्नके सहित बाणायुरकौ राजधानी- 
म आये ॥ १२॥ नगरमे घुसते ही उन तीनोका 
भगवान्‌ श्ंकरके पाषेद प्रमथगगोँसे युद्ध हज; उन्द 
नष्ट करके श्रीहरि बाणासुर्को राजञधानीके समौप 
चे गये ॥ १३॥ 


तदनन्तर बाणाद्युरकी रक्षके स्यि तीन शिर 
ओर तीन पैरवाखा महेश्वर नामक महान्‌ उबर 
आभे बहकर श्रीभगवान्‌से लड़ने खगा ॥ १४॥ 
[ उस उवरका फेसा प्रभावे था कि ] उसके फके हए 
भस्मके स्प्से सन्तप्त हुए श्रीफष्णचन्द्रके शरीरका 
आङिङ्गन करनेपर बलदेव जीने भी किथिङ होकर 
नेत्र भद लिये ॥ १५॥ इस प्रकार भगवान्‌ शाङ्गधरके 
साथ [ उनके शरीरम व्याप्त होकर ] युद्ध करते हुए 
उस माहेश्वर उवरको वैष्णव उवरने तुरंत उनके 
शरीरसे निकाल दिया ॥ १६ ॥ उस समय श्रीनारा- 
यणकी ्ुजाओंके भाघातसे चस महेश्वर ऽवरको 
पीड़ित ओर बिहव हज देखकर पितामह्‌ ब्रह्माजीने 
भगवानसे कदा-'्से क्षमा कौजिये' ॥ १७॥ 


५ भअवतक्ध थाटवरगण यद्ी मोच ररेभ्रे क्कि पार्जित-दश्णथे न्ितकफ त्विला 2 आति श्ल्कौो = > दामे ॐ, 








ततश्व क्षान्तमेवेति प्रोच्य तं वैष्णवं ज्वरम्‌ । 
आस्मन्येव यं निन्ये भगवान्मधुष्रदनः ॥१८॥ 
ञत्रर्‌ उवाच 

मम स्वया समं युद्धं ये स्मरिष्यरितं मानवाः। 
विज्वरास्ते भविष्यन्तीर्युक्त्वा चैनं ययो ज्वरः१९ 
ततोऽग्नीरभगवान्पश्च जित्वा नीचा तथा क्षयम्‌। 
दानवानां बलं कृष्णस्चृणेयामाष लोलया ॥२०॥ 
ततस्समस्तसेन्येन दैतेयानां बहलेस्मुतः । 

युयुधे शङ्करस्चैव कातिंकेयशथ्च शौरिणा ॥२१॥ 


हरिशङ्करयोयुद्रमतीवासीस्सुदारुणम्‌ । 


वुभुथस्सफला शोकाः शचास्चशुप्रतापिताः ॥२२॥ 


प्रखयोऽयमङञेषस्य जगतो नूलमागतः । 
मेनिरे धरिद्षास्तत्न वतमाने महारणे ॥२३॥ 
नुम्भकास्रेण गोविन्दो जुम्भयामास शङ्करम्‌ । 
ततः प्रणेशुद तेयाः प्रमथाश्च समस्ततः ॥२४॥ 


जुम्भामिभूतस्तु हरो स्थोपस्थ उपाविशत्‌ | 
न शशाक ततो योदधु कृष्णेनाद्विटकर्मणा ॥२५॥ 
गरुडक्षतवाहश्च प्र्युम्नास्त्रेण पीडितः । 
कृष्णहुङकारनिषू तराक्तिश्वापययौ गुदः ॥२६॥ 
जुम्मिते शङ्करे नष्टे दैत्यसैन्थे गुहे जिते । 
नीते प्रमथसैन्ये च सदुक्षयं शङ्खघन्वना ॥२७॥ 
नन्दिना सङ्गुदीताश्वमधिरुढो महारथम्‌ । 


बाणस्तत्राययौ योदधु कृष्णकाष्णिवरेस्सह ॥२८॥ 


वरुभद्रौ महावीर्यो बाणसैन्यमनेकधा । 
विन्याप बाणैः प्रभरदय धर्मतश्च पलायत ॥२९॥ 
आृष्य लाङ्गलाग्रेण भुसछेना्रु ताडितम्‌ । 








तव भगवान्‌ सघुसूदनने अच्छा, मैने क्षमा कौ, ठेसा 
कहकर उस वेष्णब उ्वरको अपनेभे ही लीन कर 
छखिया ॥ १८ ॥ 


उवर बोखा-जो सनुष्य आपके साथ मेरे इस 
युद्धका स्मरण करेगे वे उ्वरहीन हो जार्गे, पेसा 
कहकर बह चखा गया ॥ १९॥ 


तदनन्तर मगवान्‌ कृष्णचन्द्रने पञ्चाम्नियोक्रो 
जीतकर नष्ट किया ओौर पिर रीलासे ही दानव- 
सेनाको नष्ट करने छो ॥ २० ॥ तव सम्पूणं दैत्य 
सेनाके सहित बल्ि-पुत्र बाणासुर, मगवान्‌ शङ्कर 
ओर स्वामिकारतिकेयज्ी भगवान्‌ कृष्णक साथ युद्ध 
करमे गे ॥ २१॥ श्रीहरि ओर श्रीमहादेवजीका 
परस्पर बड़ा घोर युद्ध हृञा, इस युद्धम प्रयुक्त 
रखाखोके किरणजालसे सन्तप्त होकर सम्पूणं लोक 
क्षुब्ध हो गये ॥ २२॥ इस घोर युद्धके उपस्थित 
हयोनेपर दैवताओने समश्चा कि निश्चय ही यह सम्पूण 
जगत्‌का प्रख्यकाल आ गया है ॥ २२ ॥ श्रीगो विन्दन 
जम्भकाख छोड़ा जिससे महादेवजी निद्वित-से 
होकर जमुहाई रेने रगे; उनकी एसी दश्चा देखकर 
दैत्य शौर प्रमथगण चारो भओर भागने खगे ॥ २४॥ 
भगवान्‌ शङ्कुर निद्राभिभूत होकर रथके पि 
मागमे बैठ गये ओर फिर अङ्किष्ट कमं करनेवि 
श्रीकुष्णचन्द्रसे युद्ध न कर सकफे ॥ २५॥ तदनन्तर 
गरुडद्वारा वाहनके नष्ट हो जानेसे, मयुम्नजीके 
रखोँसे पीडित होनेसे तथा कृष्णचन्द्रकै हंकारसे 
छ्रक्तिह्न हो जानेसे स्वाभिकार्निकेय भी भागने 
लगे ॥ २६ ॥ 


इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रहारा महादेव जीके निद्रा- 
भिभूत, दैस्य-सेनाके नष्ट, स्वामिकात्तिकेयके पराजित 
ओौर शिवगणोकै क्षीण हौ जानेपर कृष्ण, प्रद्युम्न 
ओौर बरूमद्रजीके साथ युद्ध करनेके खयि वहां 
बाणासुर साक्षात्‌ नन्दीन्रद्वारा हकि जाते हए 
महान्‌ रथपर चद्कर आया ॥ २७-२८ ॥। उसके 
अते ही महावीयंश्चाली बलभद्रजाने अनेकों बाण 
बरसाकर बाणास्ुरकी सेनाको छिज्न-भिन्न कर डरा; 
तब वह वीरधमंसे धर होकर भागने र्गी ॥ २९॥ 
वाणाञ्ुरने देखा किं उसकी सेनाको वलभद्रज) बड़ 


४७६ 








चले बेन दद्र बाणो अणे चक्रिणा ॥३०॥ 
ततः कृष्णेन बाणस्य युद्धमासीस्मुदारणम्‌। 
समस्यतोरिषृन्दीप्रान्कायत्राणविभेदिनः ॥३१॥ 
कृष्णधिच्छेद आणेस्तान्ाणेन प्रहिताज्छितान्‌ । 
विव्याध केशव बाणो बाणं विव्याधचक्रधक्‌।३२॥ 
पुचाते तथाल्ञाणि बाणकृष्णो जिगीषया। 
परस्परं क्षतिकरौ साधवादनिशषं द्विज ॥३३॥ 
भिद्यमानेष्वशेषेषु शरेष्वस्त्रे च सीदति । 
्रार्येण ततो बाणं हन्तुं चक्रे हरि्मनः ॥२४॥ 
ततोऽकंरतसद्घाततेजसा सदृशचुति । 
जग्राह दैप्यधक्रारिदैरिथक्रं॒सदशंनम्‌ ॥२५॥ 
यश्चतो बाणनाक्ञाय ततथक्रं मधुद्विषः । 
नग्ना दैतेयव्ि्याभूत्कोटरी पुरतो हरेः ॥३६॥ 
तामग्रतो दरि मीक्ितक्षस्सुद्नम्‌ । 
मुमोच बाणमुदिश्यच्छेततु पाहुवनं रिपोः ॥२७। 
क्रमेण तत्त बाहूनां वाणस्यान्युतचोदितम्‌ । 
छेदं॑चक्रेऽसुरापास्तशसोयक्षपणादृतम्‌ ॥३८॥ 
छिन्ने बाहुबने तत्तु करस्थं मधुष्रदनः । 
ुकषुबाणनाञ्चाय विज्ञातसनिपुरद्धिषा ॥२९॥ 
सषपेत्याह गोविन्दं सामपूरवुमापतिः । 
विलोक्य बाणं दोदंण्डच्छेदाधुक्स्ञाववपिणम्‌॥४०॥ 
श्रीशङ्कर उवाच 
ष्ण दृष्ण जगन्नाथ जाने स्वां पुरुषोत्तमम्‌ । 
परेशं परमात्मानमनादिनिधनं हरिम्‌ ॥४१॥ 


देवतियंड्मनुष्येषु शरीरग्रहणात्मिका । ` 
लीडयं सर्तधतस्य तव चै्ोप प्षणा ॥४२। 


भ्रीविष्णुपराण 








| अ० २ 





फु्तीसे हलसे खीच-लींचकर मूसङसे मार रहे है 
भौर श्रीकृष्णचन्द्र उसे बाणोँसे बींध डालते दँ 
॥ ३० ॥ तव बाणास्ुरका श्रीकृष्णचन्द्रके साथ घोर 
युद्ध छिड़ गया । वे दोनों परस्प< कवचभेदी बाण 
छोड़ने लगे । परन्तु भगव्रान्‌ कष्णन बाणाुरके 
छोडे हुए तीस बाणोको अपने बाणौँसे काट डाटा; 
ओर फिर बाणासुर करष्णको तथा कृष्ण बाणासुरको 
बंधने रगे ॥ ३१-३२॥ हे द्विज ! उस समय परस्पर 
चोट करनेवाले बाणासुर ओौर कृष्ण दीनं ही 
विजयकौ इच्छासे निरन्तर सीघ्रतापूवंक जअख-लख 
छोड़ने खगे ॥ ३३॥ 


अन्ते, समस्त बाणोके छिन्न ओर सम्पूणं अख. 
शषखोँके निष्फछ हो जानेपर श्रीहरिने बाणासुरको 
मार डाखनेका वि च।र किया ॥३४॥ तव दैत्यमण्डलके 
शत्रु भगवान्‌ छरष्णने सैकड़ों सूयक समान प्रकार 
मान अपने सुद््न चक्रको हाथमे छे छिया ॥ ३५॥ 

जिस समय भगवान्‌ मधुसूदन बाणाञुरको 
मारनेके छिये चक्र छोड्ना ही चाहते थे उसी समय 
दै्योकी विद्या ( मन्त्रमयी कुलदेवी) कोटरी 
भरवानके सामने नम्रविस्थामे उपस्थित हुई ॥ ३६॥ 
उसे देखते ही भगवान्‌ने नेत्र मूँद लिये ओौर बाणा- 
सरको लक्ष्य करके ठस रान्रुकी युजाओंके वनको 
काटनेके स्यि सुदञ्चंनचक्र छोड़ा ॥ ३७ ॥ भगवान्‌ 
जच्युतकै द्वारा प्रेरित उस चक्रे दैत्योँके छोड हए 
अश्लसमूहको काटकर क्रमञ्चः बाणाञुरकी युजाओंको 
काट डाखा [ केवल दो भुजा छोड़ दीं ] ॥ ३८॥ 
तब च्रिपुररन्रु भगवान्‌ ाङ्कर जान गये फि श्रीमधु- 
सूदन बाणासुरके बाहुवनको काटकर अपने हाथमे 
भाये हुए चक्रको उसका वध केरनेके छ्य फिर 
छोडना चाहते है ॥ ३९ ॥ अतः बाणासुरको अपने 
खण्डित भुजदण्डोसे ोहुकी धारा बहते देख श्रीदमा- 
पतिने गोविन्द्क पास कर सामपूवक कदा-॥ ४०॥ 


धीश्चङ्करजी बोले -हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे जगन्नाथ ! 
म यह्‌ जानता हूँ कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर पर- 
मात्मा ओर आद्-अन्तसे रदित श्रीहरि दै ॥ ४१॥ 
आप सवभूतमथ दै । आपजो देव, तियंक्‌ भौर 
मनुष्यादि योनियोमे शारीर धारण करते हैः यह्‌ पकौ 
स्ता) चेष्ठा उपलक्षक खोखाहमे ह| ४२।॥ 


अ० ३३] 









तरवया नाचतं कायं यन्मया व्याहृतं वचः ॥४३॥। 
अस्मत्संश्रयदुपरोऽयं नापराधी तवाग्यय । 
मया दत्तवरो दैत्यस्ततस्तवां क्षमयाम्यहम्‌ ॥४४॥। 
श्रीपराशर उवाच 
इत्युक्तः प्राह गोविन्दः बलपा णियुमापतिम्‌। 
प्रसन्नवदनो भूखा ग॑तामर्षोऽसुरं प्रति ॥४५॥ 
. श्रीभगवानुवाच 
युष्पदत्तवरो बाणो जीवतामेष्‌ शङ्कर । 
स्वद्वाक्यगौरवादेतन्मया चक्रं निवित्‌ ॥४६॥ 
त्वया यदभयं दत्तं तदत्तमखि मया | 
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्ुमदैसि शङ्र ।४७॥ 


योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमादुषम्‌ । 





मत्तो नान्यदशेषं यच ज्ञातुमिहार॑सि ॥४८॥ 
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्षिनः । 


वदन्ति भेदं प्रयन्ति चावयोरस्तरं हर ॥४९॥ 
प्रसन्नोऽदं गभिष्यामि खं गच्छ वृषमष्वनन |५०॥ 
श्रीपराशर उवाच 

इस्युक्तवा प्रययौ कृष्णः परा्युभ्नियंत्र तिष्ठति । 
तद्भन्धफणिनो नेबुरभरुडानिरूपोधिताः ॥५१॥ 
ततोऽनिरुदरमारोप्य सपरनीकं गरुत्मति । 
आजग्धुदरकां रामकाभ्णिदामोदराःपुरीम्‌ ।॥५२। 
पुत्रपौत्रैः परिङृतस्तत्र रेमे जनार्दनः | 
देवोभिस्सततं विग्र भुमारतरणेच्छया ॥५२॥ 





पश्चम्‌ अश 








४५७ 








हे प्रभो ! आप प्रसन्न होये । भने इस बाणासुरको 
अभयद्‌ान दिया है । हे नाथ | मैने जौ वचन दिया 
है वसे आप मिथ्यान करं॥ ४३॥ हे अल्यय। 
यह्‌ आपका अपराधी नहीं है; यद तो मेरा आश्रय 
पानेसे ही इतना गर्वीखा हो गया है । इस दैत्यको 
मैने ही वर दिया थाइसल्यिमै ही इसे आपसे 
क्षमा करता हूं । ४४ ॥ 


्रीपराशरजी बोखे-त्रिरुरपाणि भगवान्‌ उमा- 
पतिके इस प्रकार कहनेपर श्रीगोविन्दने बाणापुरके 


प्रति क्रोधभाव व्याग दिया ओर प्रसन्नवदन होकर 
इनसे कह ा--॥ ५ ॥ 


श्रीभगवान्‌ बोके-हे शङ्कर ! यदि जपने इसे 
बर दिया है तो यह्‌ बाणासुर जीवित रहे । भापके 
वचनका मान रखनेकै स्यि भै इस चक्रको रोके 
ठता हं ।॥ ४६ ॥ आपने जो अभय दिया दै बह सब 
मेने मी द दिया) हे शङ्कुर ! आप अपनेको सुक्चसे 
सर्वथा अभिन्न देखं ॥ ४७ ॥ आप यद्व भरी प्रकार 
समक्च्टेकिजोग्न दहं सो आपह तथा यह सम्पूणं 
जगत्‌, देव, अघर ओौर मनुष्य आदि कोई भी मुङ्षसे 
भिन्न नहीं है ।॥ ४८॥ हे हर ! जिन छोगोका चित्त 
अवियासे मोहित दैवे सिन्नदर्ची पुरुष ही हम 
दोनोमे मेद देखते ओर बतलाते दै । हे वृषभध्वज ! 
तै प्रसन्न ह, आप पधारिये, मेँ मी अव जाऊंगा 
| ४९-५० ॥ 

श्रीपसश्तरजी बोरे--इस प्रकार कहकर भगवान्‌ 
छष्ण जहौ प्रदयुम्नक्ुमार अनिरुद्ध थे वरये । 
उनके पर्हुचते ही अनिरद्धके बन्धनरूप समर्तः 
नागगण गरुडके वेगसे उत्पन्न हूए वायुके प्रहारसेः 
नष्ट हो गये 1 ५१ ॥ तदनन्तर सपत्नीक अनिरुद्ध 
को गरुडपर चदाकर बलराम, प्र्यम्न भौर कृष्ण- 
चन्द्र द्वारकापुरीमे खछौट अये॥५२॥ हे विप्र! 
वहाँ मूभारदरणकी इच्छासे रहते हृ श्रीजनादन 
अपने पुत्र-पौत्रादिसे धिरे रहकर अपनी रानियोके 
साथ रमण करने रगे ॥ ५३॥ 


+++ 


,„ ^. 


५७४८ 


भरीविष्णुपुराणं 


[-अ० ३४ 


चौतीसर्वा अध्याय 
पोण्डकयथ तथा काशीदहन 


श्रीमैत्रेय उवाच 
चके कम महच्छौरिविभ्राणो मुष तयुम्‌। 
जिगाय शक्रं शवं च सर्वान्देांथ्‌ हीहया ॥ १। 
यचान्यद्करोत्कमं दिव्धवेष्टाबिषात्त्‌ | 
तत्कथ्यतां महाभाग परं कौतूहलं हि मे ॥ २॥ 
भ्रोपराश्चर उवाच 

गदतो मम विद्र श्रूयतामिदमादरात्‌ । 
नशतारे दृष्णेन दश्वा बाशणसी यथा ॥ ३॥ 
पोण्डूको वासुदेवस्तु पासुदेवोऽभवद्धुवि । 
अवतीणं्त्वमितुक्तो अनैर्ानमोहितैः ॥ ४ ॥ 
स मेने वासुदेवोऽहमवतीर्णो महते | 
नष्टस्परतिस्ततस्सवं विष्णुचिह्मचीकरत्‌ ॥ ५॥ 
दतं च प्रेषयामास हृष्णाय सुमहात्मने | 
त्यक्तवा चक्रादिकं चिहं मदीयं नाम चात्मनः॥ ६॥ 
वासुदेवात्मकं भूद त्यक्त्वा सर्वमरेषतः । 
आत्मनो जीवितार्थाय ततो मे प्रणति ब्रज ॥७॥ 
श्युक्तस्सम्प्हस्येनं दृतं प्राह जनार्दनः । 
निनविह्महं चक्रं सध्ये लयति वर ॥ ८ ॥ 
पाच्यशपोण्डूफो गत्वा स्वयां दृत वो मभ। 
शातस्दाक्यसद्धावो यत्कायं तदविधीयताम्‌।।९॥ 
गृहीतचिहमेषोऽहमागमिष्यामि ते परम्‌ । 
रत्स्शष्यामि च तक्र निजविहवमसंशयम्‌ | १०॥ 
आज्ञापूवं च यदिदमागच्छेति त्वयोदितम्‌। 
सम्पाद्यिष्ये श्स्तुभ्यं समागम्याविलम्बितम्‌॥ ११॥ 
शरणं ते| समभ्येत्य कर्तास्मि सपे तथा । 

यथा सत्तो मयं भूयो न मे क्रिथिद्धविऽ ^ ॥१२ । 











भीमे्रेयजी बोक्े-हे गुरो! भ्रीविष्णुभगवानूने 
भूयुष्य-रारीर धारणकर जो छीरासे ही इन्दर, शङ्कर 
भोर सम्पूणं देवगणको जीतकर महान्‌ कमं किये यै 
[ वह मैं सुन चुका ]॥ १॥ इनके सिवा देवता 
को वेष्टाओंका विघात करनेवारे उन्होने भौर भौ 
जो कम किये ये, हे महाभाग ! वे सव मुहे सनाथे; 
समने उनके स॒ननेका बड़ा कुतूहल ह्यो रा है ॥ २॥ 


आओपराशरजी बोले-हे ब्रह्मपे ! भगवान्‌ने 
महुष्याबतार छेकर जिस प्रकार काञ्चीपुरी जायी 
थी वह भँ नाता ह तुम ध्यान देकर सुनो ।। ३॥ 
पोण्ड्कवंजीय वासुदेव नामक एक राजाको अज्ञान- 
मोहित पुरुप 'आप वासुदेवशूपसे प्रथ्वीपर अवतीणं 
हप हः पेखा कहकर स्तुति किया करते थे ॥ ४ ॥ 
अन्तम वह भी यही मानने लगा किं न्नै वासुदेव 
रूपसे प्रध्वीमे अवतीर्णं हु ह| इस प्रकार 
आत्म-विस्मृत हो जानेसे उसने विष्णुभगवान्‌के 
समस्त चिह्न धारण कर स्थि ॥ ५॥ ओौर महात्मा 
छृष्णचन्द्रके पास यह्‌ सन्देश देकर दूत भेजा कि 
“हे मूढ ! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र 
आदि सम्पूणं चिहयंको छोड़ दे ओर यदि तुशचे जीवन- 
की इच्छा है तो भेरी ञरणमें आः | ६-७॥ 


दूतने जब इसी प्रकार जाकर का तो श्रीजना- 
दन उससे हँखकर बोके-“्टीक है, भै अपने विह- 
चक्रको तेरे प्रति छोष्गा। ह दूत ! मेरो ओस्तेत्‌ 
पण्डूकसे जाकर यह्‌ कहना कि मैने तेरे वाक्यका 
वास्तविक भाव समश्च लिया दै, तुशचे जो करना हो 
सो कर ॥ ८-९॥ भँ अपने चिह्न भौर वेष धारण- 
कर तेरे नगरमे आर्यँगा ! ` ओर निस्सन्देह अपने 
चिह्व-चक्रको तेरे उपर छो गा ॥ १०॥ ओर तूने 
जो आज्ञा करते हृए आ" ेसा कहा है सो मै उसे 
भी अवश्य पालन करूंगा तथा कर श्चीघ्र ही तेरे 
पास पटुचंगा ॥ ११॥ हे राजन्‌ ! तेरी शरणमे 


भाकर्‌ मेवद उपाय करंगा जिससे फिर तुश्चसे 
ना ¢ न न" ननः न्न न ॥॥ ह न 








श्रीपराशर उवाच 
इस्युकतेऽपगते दते संस्मृर्याम्यागतं हरिः । 
गरुसन्तमथारु्य तरितस्तत्पुरं ययौ ॥१२॥ 
ततस्तु केश्मोचोगं शरुत्वा कारिपतिस्तद्‌ । 
स्व॑सैन्यपरीवारः पाष्णिग्राह उपाययौ ॥१४॥ 
ततो बेन महता काशिशजवरेन च। 
पण्डको वापुदेबोऽसौ केशवामिदसो ययो॥१५॥ 
तं ददश हरिदराहुदारस्यन्दने स्थितम्‌ । 
चक्रदस्तं गदाशाङ्गयाहुं पाणिगताम्बुजम्‌ ॥१६॥ 
सण्धरं पीतवसनं सुपणरचितध्वजम्‌ | 
वक्षःस्थले कृतं चास्य श्रीवत्सं ददुशे हरिः ॥१७॥ 
किरीरङण्डकथरं नानारस्नोपशोभितम्‌ । 
तं दुष्टरा मावगम्मीरं जहास गरुडध्वजः ।॥१८॥ 
युयुधे च वशेनास्य हस्त्यश्वविना हिज । 
निरिंशापिभदाभूलरक्तिकाकशारिना ॥१९॥ 
षणेन शाङ्गनि्तश्शरेररिषिदारणेः । 
गदाचक्रनिपातैशच द्दयामास तद्रम्‌ ॥२०॥ 
कारिराजवलं चैवं क्षयं नीखा जनार्दनः । 
उवाच पौण्डूकः मूढमात्मचिह्योपलक्षितम्‌॥२१॥ 

श्रीभगवानुवाच 
पौण्ड्कोक्तं स्वया यतत दृतवक्त्रेण मां प्रति । 
समस्सुेति चिष्ानि तत्ते सम्पादयाम्यदम्‌ ।॥२२॥ 
चक्रमेतत्सथस्छष्टं गदेयं ते विसर्निता । 
गरुतमानेष चोस्सषटस्समारोहतु ते ध्वजम्‌ ॥२३॥ 

भ्रीपराक्षर उवाच 
इत्युचायं विुक्तेन चक्रेणासो बिदारितः। 
पातितो गदया भग्नो ्वजशास्य गरुत्मता २४॥ 
`ततो हाहाकृते रके काशिषुयंधिपो बही । 
युयुधे वासुदेवेन मित्रस्यापचिततौ स्थितः ॥२५॥। 





श्री पराक्षरजी बोले- श्रीकृष्ण चन्द्रक पसा कदने- 
पर जव दूत चा गया तो भगवान्‌ स्मरण करते ही 
दपस्थित हुए गरुडपर चदुकर तुरंत उसकी राजधानी. 
को चे ॥ १६३ ॥ भगवान्‌के आक्रमणका समाचार 
सुनकर का्चीनरेश्च भी उसका प्रष्ठपोषक (सहायक) 
होकर अपनो सम्पूण सेना ठे उपस्थित हुभा ॥१४॥ 
तदनन्तर अपनी महान्‌ सेनाके सहित काश्चीनरेशकी 
सेना ठेकर पौण्डूक बासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रके सभ्भुख 
आया ॥ १५ [| भगवान्‌ने दूरसे ही उसे हाथमे चक्र, 
गद्‌, शाङ्ग धनुष ओौर पद्म लिय एक उत्तम रथपर 
बैठे देखा । १६ ॥ श्रीहरिने देखा कि उसके कण्ठमें 
वैजयन्तीमाखा है, श्चरीरभैं पीताम्बर है, गरुडरचित 
ध्वजा दै ओर वक्षःस्थरमे श्रीवत्सचिह्न है ।। १७॥ 
चसे नाना प्रकारके रल्नोसे सुसल्ञित किरीट ओर 
कुण्ड धारण क्रिये देख श्रीगरुडध्वज भगवान्‌ 
गम्भीर मावसे हसने रुगे ॥ १८ ॥ ओर हे दविज ! 
उसकी हाथी-घौड्धंसे बरिष्ठ तथा निक्लिक्च, खन्न, गदा, 
शूर, शक्ति ओर धनुष आदिसे सुसजित सेनासे युद्ध 
करने खगे ॥ १९॥ श्रीभगवाम्‌ने एक्‌ क्वणमें हयी 
अपने शाङ्गधलुषसे छोडे हए शन्रुओंको बिदीणं 
करनेवाके तीक्ष्ण बागों तथा गदा ओर चक्रसे उसकी 
सम्पूणं सेनाको नष्ट कर डाला ॥ २० ॥ इसी प्रकार 


कारिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनाद॑नने 
अपने चिहोंसे युक्त मूढमति पौण्ड्कसे कदा ॥ २१॥ 


श्रीभगवान्‌ बोल्ले-हे पौण्टूक ! मेरे प्रति तूने 
जो दूतके सुखसे यह कदटाया था किं मेरे चिहोको 
छोड दे सो भे तेरे सम्युख उस आज्ञाको सम्पन्न करता 


| ह| २२॥ देख, यह सने चक्र छोड़ दिया, यद्‌ तेरे 


ऊपर गदा भी छोड़ दी ओर यह गरुड भौ छोड़े 
देता ह, यह्‌ तेरी ध्वजापर आरूढ हो ॥ २३॥ 


श्रीपराश्षसजी बोल्े-एेसा कहकर छोडे हए 
चक्रने पौण्ड्ूकको विदीणं कर डाला, गदनि नीचे 
गिरा दिया ओर गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली 
॥२४।] तदनन्तर सम्पूणं सेनभे हाहाकार मच जाने- 
पर अपने मित्रा बदलता वचुकानेके छ्यि खड़ा हभ 
काश्चीनरेश्च श्रीवासुदेवसे लड़ने ङ्गा ॥ २५॥ 


८० 


~ -------------------------------- 


~ 
ततद्ार्डधलुकतरिछला तस्य विरदशरे । 
काशिपुर्यां स चिक्षेप इव ल्लोकस्य विस्मयम्‌। २६) 
हत्वा तं पौण्ड्कं शौरिः काशिराजं च सानुगम्‌ । 
एनमसतीं प्राप्तो रेमे खरगगशतो यथा ॥२७॥ 
तच्छिरः पतितं तत्र चट काशिपतेः पुरे । 
जनःकिमेतदित्याहच्छिन्नं फेनेति बिसिमितः॥२८। 
्ञारा तं वाुदेवेन हतं तस्य सुतस्ततः । 
रोषितेन सदितस्तोषयामा्त शङ्करम्‌ ॥२९ 
अविषकते महिते तोषितस्तेन शङ्करः । 

वरं व्रृणीष्वेति तदा तं प्रोवाच चुपास्मजम्‌ ।२०॥ 
स करे भगवन्छरस्या पितृहन्तुवंधाय मे । 
सथततिष्ठतु कृष्णस्य खसप्रसाद्‌न्महेश्वर ॥२१॥ 

श्रीपराक्चर उवाच 

एवं भविष्यतील्युक्ते दक्षिणाग्नेरनन्तरम्‌ । 
महार्था सपु्तस्थौ तस्थैवाग्नेधिंनाशिनी ॥३२॥ 


ततो ज्वाहाकरारस्या स्वहत्केदकणलिका | 
कृष्ण कृष्णेति पिता स्या द्वाखतीं ययो ॥२३॥ 
तामवेक्ष्य जनश्चापादिबल्छोचनो पठने 1 

ययौ शरण्यं जगतां ज्ञरणं मधुष्रदनम्‌ ॥२४॥ 
काशिराजपुतेनेयमाराध्य वृषभध्वजम्‌ । 
उत्पादिता महाकृस्येत्यवगम्याथ चक्रिणा ॥२५॥ 
जदि कृत्यामिमापग्रांवदिन्वारानटरुकाम्‌। 
चक्रपुस्यष्टमकषेषु क्रीडासक्तन रोषटया ॥२६॥ 


® इस वाक्यका र्थं यह भी होता है कि 











श्रीषिष्णुपुराण 





9 ` क 





तब भगवाम्‌ने शाङ्ग-धलुषसे छोडे हुए एक बाणसे 
दसा हिर काटकर सम्पूणं लोगोको विस्मित करते 
हुए काङघीपुरीमे फक दिया ॥ २६॥ इस प्रकार 
पौण्डूक जौर कारीनरेश्यको अलुचरोसहित मारकर 
सगवान्‌ पिर द्ारकाको लौट अये ओर वहौँ स्वग- 
सदश सुखका अनुभव करते हुए रमण करने 
खगे ॥ २७॥ . 

इधर काञ्चीपुरी काशिराजका शिर भिरा देख 
सम्पूणं नगरनिबासी विस्मयपूवेक कहने रुगे-- यह्‌ 
क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ९॥ ९८ ॥ 
जव उसके पुत्रको मालूम हुभा कि रसे श्रीवासुदेवने 
मारा दै चो इसने अपने पुरोदहितके साथ भिर्कर 
अगवान शंकरको संतुष्ट किया ॥ २९ ॥ अविभक्त 
महाक्षेत्रे उस राजङ्कमारसे संतुष्ट होकर शरीरंकरने 
कहा--“वर मगः | ३०॥ बह बोा-हे भगवन्‌ । 
हे महेश्वर !! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करने- 
चारे कृष्णक नाच करनेफे ल्यि ( अग्निसे ) त्या 
छत्पन्न हो ® ॥ ३१॥ 


श्रीपसदहारजी बो्ते-भगवान्‌ शंकरने कहा; 
"देखा ही होगा ।' इनके एेखा कहनेपर दक्षिणाग्नि- 
का चयन करनेके अनन्तर दसस उस अग्निका ही 
विनाञ्च करनैषाखी कृत्या उत्पन्न हुई ।॥ ३२ ॥ दसका 
करार मुख अवाखामाङाभसे पूणं था तथा सके 
केश अग्निरिखाके समान दीप्निमान्‌ ओर ताप्रवणं 
ये । बह कोधपूवंक छ्ष्ण ! कृष्ण !! कहती द्वारका- 
पुरीम आयी ।। ३३॥ 

हे यने! उसे देखकर छोगोनि मय-विचकिति 
नेसे जगदूगति भगवान्‌ मधुसूदनकी सरण छी 
॥ २४ ॥ जब मगवान्‌ चक्रपाणिने जानाकिश्री 
शंकरकी उपासनाकर काशिराजके पुत्रने ही यह 
महाष्टस्या उलन्न की दहै तो अक्षक्रीडमें लगे हृष 
उन्होने रीरासे ही यह्‌ ककर कि स अभ्नि- 
उवाामयी जटाओवारी भयंकर कुत्याको मार 
डाल' अपना चक्र छोड़ा ॥ ३५३६ ॥ 


नेर वधके छिि मेरे पिता मारनेवाके इष्णके पाल छृस्या उस्पन्न 


~ , ~ ~ (वलो पर्णिम हा तो उसमे शंका नहीं करनी चाहिये) 


अ० ३५ 





पञ्चम्‌ अश 


४८१ 





तदग्निमालाजटिषृल्वाल्यद्वारातिमीषणाम्‌ | 
कृत्यामनुज्मामाञु विष्णुचक्र सुदश्॑नम्‌ ॥३७॥ 
चक्रप्रतापनिर्दग्धा एत्या माहेशी तदा 
ननास वेगिनी वेगात्तदप्यलुजगाम ताम्‌ ॥२३८॥ 
कृत्या वायमसीमेव प्रविवेश्च त्रान्विता | 
विष्णुचक्रप्रतिहतग्रमात्रा पुनिसत्तम ॥३९॥ 


ततः कासीवल भूरि प्रमथानां तथा वलम्‌ 
समस्तशक्ताख्युतं चक्रस्याभिघुखं ययौ ॥४०॥ 


रसरा्रगोक्षवतुरं दण्ध्वा तद्वलमोजसा । 
कृत्यागर्ममशेपां तां तदा वाराणसीं पुरीम्‌ ॥४१॥ 
सभूृदुभूत्यपौरं त॒ पाश्चमातङ्खमानवाम्‌ । 
अकषेषगोष्ठकोशां तां दुर्निरीक्ष्यां सुरैरपि ॥४२॥ 
उवालापरिष्ृताशेषगृहप्राक्रारचस्वरम्‌ । 
ददाह तद्धरेधक्रं सकलमेव तां पुरीम्‌ ॥४३॥ 
अक्तीणामपमल्यु्रसाध्यसाधनसस्पहम्‌ । 
तक्र परसफुरदीपनि विष्णोरम्याययौ करम्‌ ॥ ४४॥ 








तव भगवाम्‌. विष्णुके सुदशंनचक्रने उस अग्नि- 
माखामण्डित जटाभओंवाली ओौर अग्निञ्वाराओके 
कारण भयानक मुखबालौ कृत्याका पीला किया 
। ३७ ॥ उस चक्रके तेजसे देग्ध होकर छिन्न-भिन्न 
होती हृद वह मद्ेश्वरौ कृत्या अति वेगसे दौढ्ने 
छगी तथा बह चक्र भी उतने ही वेगसे उसका पीछा 
करने खगा ॥ ३८ ॥ हे. मुनिश्रेष्ठ | अन्तमें विष्णुचक्र 
से हतप्रभाव हरे कृत्याने शीधतासे काञ्चीमें ही प्रवेश 
किया ॥ ३९॥ उस समय काञ्चीनरेाकी सम्पूणं 


सेना ओर प्रमथगण अख्ल-राखरसे सुसज्िित होकर 
उस चक्रके सम्मुख आये ॥ ४० ॥ 


तथ वह चक्र अपने तेजसे श्ाच्-प्रयोगमें 
कुशल, उस सम्पूणं सेनाको दग्धकर छरत्याफे सहित 
सम्पूण बाराणसीको जने लगा।। ४१॥ जो सजा 
प्रजा ओर सेवकोसे पूण थी; घोदे, हाथी ओौर 
मनुभ्योसे भरी थी; सम्पूणं गोष्ठ ओौर कोशो युक्त 
थी ओौर देवताओंके स्यि भी दुर्नय थी, उसी 
काङ्ञीपुरीको भगवान्‌ विष्णुके उस चक्रने उसके 
गृह, कोर ओर चचूतरोभे अग्निकी उवार प्रकट- 
कर जला डरा ॥ ४२.४२ ॥ अन्तम, जिसका क्रोध 
अभी शान्त नदीं हुभा तथा जो अध्यन्त उग्र कमं 
करनेको दल्घुक था ओर जिसकी दीघ्रि चाये ओर 
फैट रही थी बहु चक्र फिर लौटकर भगवान्‌ विष्णु- 
के हाथमे आ गया ।। ४४ ॥ 


“०५११ ^, / क) कप /क,१६९.१५०० > 


इति श्रीविष्णुपुराणे पश्चमेऽसे चतुखिशोऽध्यायः ॥ ३४॥ 


--*-*-*+-- 


पतीस अध्याय 


साम्बका विवाद 


श्रीमैत्रेय उवाच 
भूय एवाहमिच्छामि बहमद्रस्य धीमतः। 
श्रोतं पराक्रमं व्रह्मन्‌ तन्ममाख्यातुमर्दसि ॥ १॥ 
यगुनाकर्षणादीनि श्रुतानि भगवन्मया । 
तत्कथ्यतां महाभाग यदन्यत्कृतवान्बर्‌ः | २॥ 


ध्रीमैनेयजी बोज्े-हे ब्रह्मन्‌ ! अव मै फिर 
मतिमान्‌ बलमद्रजीके परक्रमकी बात सुनना 
चाहता हँ, आप वणेन कीजिये । १॥ हे भगवन्‌ । 
तने उनके यसुनाकषंणादि पराक्रम तो सुन द्यि; 
अव हे महाभाग! उन्होने जो ओर-जौर विक्रम 
दिखलये द उनका वणेन कौजिये ॥२॥ 


भ्रौपराश्चर उवाच 

गौतरेय श्रूयतां कमे यद्रामेणाभवतकृतम्‌ । 
अनन्तेनप्रमेयेन रेषेण धरणीधृता ॥ २३ ॥ 
सुयोधनस्य तनयां स्त्रयंवरकृतक्षणाम्‌ । 
बलादादक्तवान्वीरस्साम्बो जाम्बवतीसुतः ॥४॥ 
ततः वरदा महावीर्याः कणेदु्योधनादयः। 
मीष्पद्रोणादयस्यैनं ववन्धुयुपि निभितम्‌ ॥ ५॥ 

चछा यादवास्सर्वे क्रोधं दु्योधनादिषु । 
मतरेय चक्रः कृष्णश्च तान्निदन्तुं मदोधमम्‌ ॥ ६॥ 
ता्निवायं बलः प्राह मदलोलकलाक्षरम्‌ । 
मोक्ष्यन्ति ते महचनाद्यास्याम्येको हि कौरवान्‌।।७॥ 

श्रीपराञ्चर उवाच 

बरूदेवस्ततो गला नगरं नागसाहयम्‌ । 
बाह्मोपवनमभ्येऽभून्न विवेश च तपपुरम्‌ ॥ ८ ॥ 
बरूमागतमाज्ञाय भूषा दुयधिनादयः | 
गामरध्युदकं चैव रामाय प्रस्यवेदयन्‌ ॥ ९॥ 
गृहीता विधिवस्सवं ततस्तानाह कोरवान्‌ । 
आत्तापयस्युग्रसेनस्साम्बमक्ु विश्चत ॥१०॥ 
ततस्तद्वचनं श्रुखा भीष्मद्रोणादयो सृषाः। 
कणदुयोभिनादयाथ दचुकषुयुद्िजसत्तम ॥११॥ 
सु कुपितास्सवे बाहिकाघयाश्च कौरवाः । 
अराज्याहं यदोवंशमवेकष्य युसहायुधम्‌ ॥१२॥ 
भो भो किमेतद्धवता बहमद्रेरितं वचः । 
आज्ञा र$रोत्थानां यादवः कः प्रदास्यति ॥१३। 
उग्रसेनोऽपि यचाततां कौरवाणां प्रदास्यति । 
तदलं पाण्डुर्न पयोग्यविंडम्बनैः ॥१४॥ 
तद्रच्छ बल मा वा त्वं साम्बमन्यायचेष्टितम्‌। 
विमोच्यामो न भवतशोप्रसेनस्य शाघनात्‌॥ १५ 








श्रीपराशस्जी बोल्ञे-हे मेत्रेय ! अनन्त, अप्रमेय, 
धरणीधर शोषावतार श्रीवहृरामजीने जो कमं किये 
थे, बह युनो--॥ ३॥ 


एक बार जाम्बबती-नन्दन वीरवर साम्बने 
स्वयंबरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात्कार 
से हरण किया ॥ ४॥ तव महावीर कणं, दुर्योधन, 
भीष्म ओर द्रोण आदिने क्रुद्ध होकर उसे युद्धमे 
हराकर बध हिया॥५॥ यह्‌ समाचार पाकर 
कृष्णचन्द्र आदि समस्त याद्बोने दुर्योधनादिपर 
रुद्ध होकर न्ह मारनेके ल्य बहौ तैयारी की 
॥ & ॥ उनको रोककर श्रीवररामजीने मदिशाके 
उन्मादसे रडखड्ते हुए शब्दो कहा--“कौरवगण 
मेरे कहनेसे साम्बको छोड़ दंगे अतः मँ अकेला ही 


१-.९। | 


उनके पास जाताहूं 


श्रीपरसश्यरजी बोक्ते-तदनन्तर, श्रीवलदेवेजी 
हस्तिनापुरे समीप प्हुंवकर उसक्रे बाहर एक 
उव्यानमे ठहर गये; उन्होने नगरमे प्रवेश नहीं किया 
।॥ ८ ।॥ बलरामजीको आये जान दुर्योधन आदिं 
राजाओंने इन्द गौ, अध्यं ओर पाद्यादि निवेदन 
क्रिये ॥ ९॥ उन सबको विधिवत्‌ प्रहण कर 
बरमद्रजीने कौरबोसे कदा--"्यजा इम्रसेनकी 
आज्ञा ह आपलोग स।म्बक्रो तुरत छोड़ दं” ॥ १०॥ 


॥ ७ ॥ 


हे द्विजसत्तम ! बलरामजोके इन चवर्नोको 
सुनकर भीष्म, द्रोण, कणं ओौर दुर्योधन आदि 
राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ ॥ ११॥ ओर यदुवंश 
को राञ्यपदके अयोग्य समद्च बाह्िक आदि सभी 
कौरवगण कुपित ह्योकर मूसख्धारी बर्भद्रजीसे 
कहने रगे -॥ १२॥ “हे बलमद्र ! तुम यह क्या 
एह रहे हो; एेला कौन यदुवंश है जो ऊुरुलोखन्न 
किसौ वीरको आज्ञादे १॥ १३॥ यदि उग्रसेन 
भी कौर्वोंको आज्ञादे सकते हतो राजाओकि 
शरोग्य कौरवोंके इस स्वेत छच्रका क्या प्रयोजन 
३१ ॥ १४॥ अत्तः हे बकराम ! तुम जाओ 
अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या दम्रसेनकौ आज्ञा 
से अन्यायकमा साम्बको नहीं छोड़ सकते ॥ १५॥ 


[रि ~ न 





प्रणतिर्या कृतास्माकं मान्यानां ुक्ुरान्षकैः | 
ननाम घा ता फेयमान्ञा स्वामिनि भृत्यतः | १६॥ 


गर्वमारोपिता युयं समानासनभो जनैः । 


को दोषो भवतां नीतियंसरीस्या नावलोगिता। १७। 


अस्माभिर्धो भवतो योऽयं बह निषेदितः। 


च 


्म्णैतन्नैतदस्माकः ाघुष्मतछुलो चितम्‌ ॥१८॥ 
। श्रीप्रराडर उवाच 
इत्युक्तवा इरः साम्बं युश्वामो न दरेस्सुतम्‌ । 
कृतैकनिश्वयास्तृणं विविनुगंजसाह्ययम्‌ ॥१९॥ 
मचः कोपेन चाघुणस्ततोऽधिकषेपलन्मना । 
रत्थाय पाष्ण्या वसुधां जयान स दलागुधः॥२०॥ 
ततो विदारिता प्रथ्वी पाष्णिघातान्महात्मनः। 
आस्फोटयामास तदा दिशरशब्देन पूरयन्‌ ॥२१॥ 
उवाच चातिताम्रा्षो भदीडटिलाननः । 
अहो मदूबरेपोऽयमसारणां दुरास्मनाम्‌॥२२॥ 
कौरवाणां महीपत्वमस्माकं किरु कालजम्‌ । 
उग्रसेनस्य ये नाज्ञां मन्यन्तेऽद्यापि छङ्कनम्‌ ॥२३॥। 
उग्रसेनः समध्यास्ते सुधर्मा न स॒चीपतिः । 
धिदमानुषशतोच्छिटे तुष्टिरेषां सृपासने ।॥२४॥ 
पारिजाततरोः पुष्पमञ्जरीवंनिताजनः। 
विभति यस्थ भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपरतिः॥२५॥ 
समस्तभुशृतां नाथ उग्रसेनस्य तिष्ठत्‌ । 
अद्य निष्कोरवायुवीं खा यास्यामि तत्पुरीम्‌॥२६॥ 
फण दुर्योधनं द्रणम मीष्पं सवाहिकम्‌ । 
दुश्यासनादीन्भूरिं च मूरिभवसमेव च ॥२७॥ 


पूवकालमे कुक्कर ओर अन्धकवंश्ञीय यादवगण हम 
माननीयोंको प्रणाम किया करतेथे सो अववे रेखा 
नहीं करते तो न सदष्ी; किन्तु स्वामीको यह्‌ सेवक- 
की ओरसे आज्ञा देना कैसा १॥ १६॥ तुमलोगोफे 
साथ समान आसन ओर भोजनका व्यवहार करके 
तम्हं हमने ही गर्वील्ला बना दिया है; इसमे तुम्हारा 
दोषमभौक्याह, क्योकि हमने हौ प्रीतिश्च नीति 
का विचार नहीं किया॥ १७॥ हे बूराम ! हमने 
जो तुमह यह अध्यं आदि निवेदन करिया है यह सव 
प्रेमवश्च ही है, बास्तवमे हमारे करखकी ओरसे तुम्हारे 
कुरको अध्यादि देना उचित नदीं है ॥ १८ ॥ 


श्री पराश्चरजी बोक्े--देसा कहकर कौरवगण 
यह निश्चय करके कि “हम्‌ कृष्णके पुत्र साम्बको 
नहीं छोड्ंगे'" तुरंत ह स्तिनापुरमे चके गये ॥ १९॥ 
तदनन्तर हलायुध श्रीबूरामजीने उनके तिरस्कारसे 
उत्पन्न हुए क्रोधसे सत्त होकर धरते हुए प्रथिवीमें 
खात मारी ॥२०॥ महात्मा बलरामजीके पाद- 
प्रहारसे प्रथिवी फट गयौ ओौर वे अपने शब्दसे 
सम्पूणं दिश्ञाभको शुँजाकर कम्पायसान करने कगे 
तथ! छाछ-काख नेत्र ओर टेदौ शकटि करके बोटे- 
“अहो । इन सारह्टीन दुरात्मा कौरवोको यह्‌ कैसा 
राजमदका अभिमान है । कौरवा महीपाल तो 
स्वतःसिद्ध दहै ओौर हमार सामयिक-एेसा समश्च 
कर हो आज ये महाराज उग्रसेनकी आश्ञा नदीं 
मानते; बल्कि उसका चष्लहवन कर रहे है ॥ २१-२६॥ 
जज राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें स्वयं विराज 
मान होते है, समे शचोपति इन्द्र॒ भी नहीं बैठने 
पाते! पस्तु इन कौरवोको धिक्षार है, जिन्हें सेकं 
नुष्योके उच्छिष्ट राजसिंहासने इतनी तष्ट है 
। २४॥ जिनके सेवकोंकौ सियो मौ पारिजातः 
बृक्षकी पुष्प-मञ्जरी धारण करती है वह मी इन 
गीरवोके महाराज नह है १ [ यह कैसा आश्चयं 
दै] ॥२५॥ वे उप्रसेन ही सम्पूण राजार्ओं 
के महाराज बनकर रहें । आज मै अकेडा ही 
परथिवीको कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको 
जाङगा ॥ २६॥ आज कणं, दयाघन, द्रोण, भीषम 
बाह्िक, दुरशासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त; 


_ __,____-_-----------------------------~ 








सोमदत्तं शलं चैव भीमाजुनयुधिष्ठिान्‌ । | 
यमो च कौरवं धान्यान्‌ हत्वा साश्वरथद्विपान्‌।। २८॥ 
वीरमादाय तं साम्बं सपतीकं ततः परीम्‌। | 
दारफाधुग्रसेनादीन्मस्वा द्रक्ष्यामि बान्धवान्‌ २९॥ 
अथ वा कौरवावासं समस्तैः करमभिस्सद । 
भागीरथ्यां किषाम्याङु नगर नामसाहयम्‌ ॥३०॥ 
श्रीपरासर उवाच 


ह्युक्ता सदरक्ाक्षः कपणाधोषवं दलम्‌ । 
प्ाकारप्रु्॑स्य चके दुसलामुधः ॥३१॥ 
आधूणितं तस्सा ततो वै हास्तिनं पुरम्‌ । 
ष्टा संुन्धहृदयास्ुभुथः सवंकौखाः ॥३२॥ 
राम राम महावाहो क्षम्यतां क्षम्यतां खया। 
उपसंहियतां कोपः प्रसीद यसशशायुध ॥३३॥ 


एष साम्बस्सपतीकस्तव निर्यातितो बरु । 
अविज्ञातप्रमावाणां क्षम्यतामपराधिनाम्‌ ॥२४॥ 


श्रीपराश्चर उवाच 
ततो निर्यातयामाुस्साम्बं पी समन्वितम्‌ । 
निष्कम्य स्वपुरा्ूणं कोरा एुनिपुङ्व ॥२५॥ 
भीषमद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम्‌ । 
क्षान्तमेव मयेस्याह वटो बहवतां वरः ॥२३६॥ 
अद्याप्यापूर्िताकारं रक्ष्यते तत्पुरं हिज । 
एष प्रभावो रामस्य बहसौयोपरक्षणः ॥३७॥ 
ततस्तु कोरवास्साभ्बं सम्पूर्य दिना सह । 








प्रषयामासुरद्वाहधनमार्यासमन्वितम्‌ ॥३८॥ 


जञ, भीम, अजुन युधिष्ठिर, नष्ुल ओर सहदेव 
तथा अन्यान्य समस्त कौरबोंको उनके हाथी-घोडे 
सौर रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ 
वीरवर साम्बको केकर हमै द्रारकरापुरीभे जाकर 
घग्रसेन आदि अपने बन्धु-वान्धवोको देखुगा ॥ २७. 
२९॥ अथवा समस्त कौरवो फ सहित उनके निवास- 
स्थान इस हस्तिनापुर नगस्को ही अमी गङ्गाजीमें 
पके देता द? ॥ ३० ॥ 

श्रीपराक्रजी बोल्े-रेमा कहकर मदसे असण- 
नयन मुसदायुथ श्रीवलभद्रजीने हल्की नोकको 
हस्तिनापुरे खाई ओर इुरगसे युक्त पभाकारके मूलम 
रुगाकर खींचा ॥ ३१॥ उस समय सम्पूण हस्तिना" 
पुर सहसा डगमगाता द्वै समस्त कोरवगण क्षुब्ध 
चित्त होकर सयभीत हो गये ॥ ३२॥] [ ओौर कने 
लगे-] “हे राम! हे राम! हे महावराहो ! क्षमा 
करो, क्षमा करो ! हे सुमलायुध | अपना कोप शान्त 
करके प्रसन्न होये ॥ ३३॥ हे बलराम ! हम आपको 
पत्नीके सद्वित इस साम्बको सौँपते द । हम आपका 
प्रभाव नहीं जानते थे. इणीसे आपका अपराध 
किया; कृपया क्षमा कीजिये"? । ३४॥ 


श्रीपराशचरजी गोल्े-ह्े मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर 
कौरवोने तुरंत हयै अपने नगरसे बाहर आकर 
पस्नीसहित साम्बको श्रीवल्तरामजीके अपेण कर 
दिया ॥ ३५॥ तब प्रणामपृवेकं प्रिय वाक्य वोरूते 
हुए भीष्मः द्रोण, कृष आदिसे वीरवर वरूरामजीने 
कहा--“अच्छा सते क्षमा किया" ॥ १६॥ हे द्विज । 
हस समय भी हस्तिनापुर [ गङ्गाकी ओर ] छ 
युका हुभा-सा दिखायी देता हे, यह श्रीवलरामजीके 
बलत ओर शुरवीरताका परिचय देनेवाखा उनका 
परमाव ही है| ३७॥ तदनन्तर कौरवौने बरराम- 
जीके सद्वित साम्बकता पूजन किया तथा बहुत-से 
दहेज जौर वधूके सहित न्दं द्वारकापुरी भेज 
द्या ॥ ३८॥ 





इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेऽरौ पच्चत्रिोऽध्यायः ॥ ३५॥ 


०१. 











अ० ३६] पञ्चमं अश्च ०५८५ 
। छततीसर्षो अध्याय 
द्विविद्‌-बध 


श्रोपरक्षिर उवाचं 


मैत्रेयैतद्वलं तस्य वहस्य बरुक्चाछिनः । 
छृतं यदन्यत्तेनाभूत्तदपि श्रुयतां त्वया ॥ १ ॥ 
नरकस्यासुरेन्द्रस्य देवपक्षवियोधिनः। 
सखाभवन्महावीयों द्विविदो वानरषेभः ॥ २ ॥ 
वैरानुबन्धं बलवान्स चकार सुरान्प्रति । 
नम्रक हतवान्दृष्णो देवराजेन चोदितः ॥ २ ॥ 
करिष्ये सर्वदेवानां तरमादेतसरतिक्रियाम्‌। 
यज्ञविध्वंसनं कुवन्‌ मस्यंोकक्षयं तथा ॥ ४ ॥ 
ततो विष्वं्यामास यज्ञानज्ञानमोहितः। 
बिभेद स्‌।धूमर्थादां क्षयं चक्रे च देहिनाम्‌ ॥ ५॥ 
ददाह सवनान्देशान्पुरग्रामान्तराणि च । 
कचिच्च पवेत्षग्ामादीन्मचूणंयत्‌ ॥ ६ ॥ 
शेरालुत्पाव्य तोयेषु युमोचाम्बुनिधो तथा | 
पुनश्चाणेवमभ्यस्थः क्षोमयामास सागरम्‌ ॥ ७॥ 
तेन विक्षोमितश्रान्िरुदेलो द्विज जायते । 
स्ञावयस्तीरजान्त्रामान्पुरादीनतिषेभवान्‌ ॥ ८ ॥ 
कामरूपी महारूपं छृत्वा सस्यान्यरेषतः । 
लुटन्धमणसम्मदैस्सञ्चूणंयति वानरः ॥ ९॥ 
तेन विप्र“ कृतं सवं जगदेतद्दुरात्मना । 


निस्स्वाध्यायवपट्‌कार मेत्रयासीससुदुःङितम्‌॥१०॥ 


एकदा रेवतोद्याने पौ पानं दरुधः | 
रेवती च महाभागा तथैवान्या वरस्तियः ॥११॥ 


उद्वीयमानो विरसन्नलनामौषिमध्यगः । 
रेमे यदुषुरग्रेष्ठः कुवेर हव मन्दरे ॥१२॥ 
ततस्त बानरोऽभ्येत्य गीता सीरिणो हम्‌। 











श्रीपराश्चस्जी बोक्ते-दे मैत्रेय ! बरारी बल- 
रामजोका एसा द्धी पराक्रम था । अव, उन्होनि जौ 
ओर एक कमं क्रिया था बह भी सुनो ॥ १ ॥ द्विविदं 
नामक एक महावीर्यजञाली वानर्ष्ठ दैवपरो दैत्यः 
राज नरकासुरका मित्र था ॥ २॥ भगवान्‌ परष्णने 
देवराज इन्द्रकी प्रेरणासे नरकासुरका बध श्िया थाः 
दसल्यि कीर वानर द्विविदने देबताओंसे वैर ठाना 
॥ ३॥ [ उसने निश्चय किया किं ] “कनै मत्येलोकका 
श्रय कर दंगा ओर इस प्रकार यज्ञ-यागादिका उच्छेद 
करके सम्पूणं देवताओंसे इसका बदरा चुका दगा 
॥ ४ | तथसे बह अज्ञानमोहित होकर यज्ञोको 
विध्वंस करने छगा ओौर साधुमर्यीदाको मिटनि तथा 
देहधारी जोवोको नष्ट करने छगा ॥ ५॥ वह्‌ वनः, 
देर, पुर ओर भिन्न-भिन्न प्रामोको जला देता त्था 
कभी पवत गिराकर्‌ प्रामादिकोको चं कर डारता 
॥ ६ ॥ कभी पहाडोकी चदान उखाडकर ससुद्रके 
जलमे छोड देता ओौर फिर कभो समुद्रम घुसकर 
उसे क्षुभिते कर देता ॥ ७॥ दे द्विज ! उक्तसे क्षुभित 
टज सुद्र ऊँचौ-ऊँची तरङ्खोसे उठकर अति वेगसे 
युक्त हो अपने तीरवरती भ्राम ओर पुर आदिको इषो 
देता था॥ ८ ॥ वह्‌ कामरूपी वानर महान्‌ रूप 
धारणकर रोटने छ्गता था ओर अपने हुण्ठनके 
संघषसे सम्पूणं धान्यो ( चेतोँ ) को कुचर डारूता 
था।२॥ द द्विज! उस दुरास्माने इस सम्पूणं 
जगत्‌को स्वाध्याय ओौर बषट्‌कारसे शुन्य कर दिया 
था, जिससे यह अत्यन्त दुःखमथ हो गया ॥ १० ॥ 


एक दिन श्रीवहूमद्रजी रेबतोद्यानमे [कीडासक्त 
होकर ] मद्यपान कर रहे थे) साथदही महाभागा 
रेवती तथा अन्य सुन्दर रमणि्यँ भौ थौ ॥ ११॥ 
उस समय रमणी-र्नोके बीचमे शोभायमान यदुः 
षठ श्रीषररामजी, उनके द्वारा उच्चस्वरसे गान किये 
जाते हुए, [ रेबतक पवेतपर ] इस प्रकार रमण कर 
रे थे जेसे मन्द्राचर्पर कुनेर ॥ १२॥ इसी समय 
ब्रहम द्विविद बानर आया ओौर श्रीहरूधरफे 


५८8६ 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० ३६ 


[वा 





मुदकं च चकारास्य सम्भुं च विडम्बनम्‌।। १२॥ 
तथेव योषितां तासां जहासामिग्खं कपिः। 
पानपूर्णाश्च करकाचिक्तेपादस्य चै तदा ॥१४॥ 


ततः छोपपरीतारा भरपयामास तं ही । 
तथापि तमवन्ञाय चक्रे फिरकिरष्वनिम्‌ ॥१५॥ 
ततः स्मयता स बलो जग्राह प्रर षा। 
सोऽपि गीरुरिखां मीमां जग्राह कवगोत्तमः॥ १६॥ 


विक्षेपश्च तां क्षिप्रं युषरेन सहस्रधा । 
विभेद यादवश्रषस्छा प्रपात मदीततरे | १७। 


अथ तेन्यं चासौ सपनद्घय शषङ्गमः । 
वेगेनागत्य रोषेण करेणोरस्यताडयत्‌ ॥१८॥ 
ततो बकेन कोपेन बिना मून्नि ताडितः । 
पपात रुधिरोद्वारी हिषिदः क्षीणजीवितः ॥१९॥ 
पतता तच्छरीरेण गिरेदभृद्धमरीर्यत | 
मैत्रेय श॒तथा वजजिवजेणेव बिदारितम्‌ ॥२०॥ 
पुष्पवृष्टिं ततो देवा रामस्योपरि चिक्षिपुः । 
परश्ंसुस्ततोऽभ्येस्य साध्वेतततेमहर्कृतम्‌ ॥२१॥ 


अनेन दुषटकपिना दैत्यपक्षोपकारिणा । 


जगन्निराकृतं बीर दिष्टया स क्षयमागतः ॥२२॥ 


ह्युक्त्वा दिवमाजग्यर्देवा हृशस्सगुद्यकाः॥२३॥ 
श्रीपराकश्षर उवाच 

एवंविधान्यनेकानि बूदेवस्य धीमतः । 

कर्माण्यपरिमेयानि शेषस्य धरणीभृतः।।२४॥ 


ह ओर मूसल ठेकर उनके सामने ही उनकी नकल 
करने रगा ॥ १३॥ वह दुरात्मा कानर उन च्ि्योकी 
ओर देख-देखकर हसने खगा ओर उसने मदिरासे 
मरे हृए घड़ फोडकर फक दिये ॥ १४॥ 


तब श्रीहलघरने क्रुद्ध होकर उसे धमकाया 


तथापि बह उनकी अवज्ञा करफे किलक्रारी मारने 
लगा ॥ १५॥ तदनन्तर श्रोबलरामजीने मुसकाकर 
क्रोधसे अपना मूसछ उठा छिया तथा बस वानरने 
भी एक भारी चदान लेखी ॥ १६॥ ओर उसे बल्ट- 
रामजीके उपर फंको किन्तु यदुबीर ब्मद्रजीने 
मूसरसे उसके हजारो टुकड़े कर दिये; जिससे वह 
प्रथिवीपर भिर पड़ी । १७॥ तब उस वानरने 
वकरामजीे मसला वार बचाकर रोषपू्ंक 
अत्यन्त वेगसे उनकी छाती घूँसा मारा ॥ १८ ॥। 
तव्यश्चात्‌ बरूभद्रजीने भी क्रुद्ध होकर द्विविदके 
सिरम धृंसा मारा जिससे बह रुधिर वमन करता 
हु निर्जीव होकर पएथिवीपर गिर पडा । १९. \1 
हे मैत्रेय ! उसके गिरते समय उसके शरौरका जाघात 
पाकर इन्द्र-बरजसे बिदीणं होनेके समान उस पव तके 
शिखरे सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ २० ॥ 


उस समय देवताङेग बलरामजीके उपर प 

बरसने खो ओौर वहाँ आकर “अपने यह्‌ बड 

च्छा किया? ेसा ककर उनकी प्रसा करने. 
ङ्गे ॥ २१॥ "हे वोर ! दैत्य-पक्चके उपकारक इस 
दुष्ट बानरने संसारको बड़ाकष्ट दे रखा था; यह्‌ बडे 
ही सौभाग्यका विषय है कि आज यह्‌ मारा गया ।*2 
ेसा कहकर गुद्यकोके सहित देवगण अव्यन्त हषे- 
पूवक स्वगेरोकको चले आये ॥ २२-३ ॥ 

ीषराश्रजी बोल्ले-लेषावतार धरणीधर धीमान्‌ 
वरुभद्रजीके पेसे ही अनेकों कर्मं है, जिनका कोड 
परिमाण ( तुखना ) नष्ट बताया जा सकता ॥२४॥। 








अ० ३७ | पश्चम अश ४८७ 
्ैतीसवौँ अध्याय 
ऋषिका शाप, यदुवंशविनाक्च तथा भगवानका स्वधाम सिधास्ना 
श्रीपराज्ञर उवाच श्रीपरयशरजी बोल्ञे-हे मैत्रेय ! इसी प्रकार 


एवं दैत्यवधं दृष्णो बहूदेवसहायवान्‌ । 
चक्रे दुटक्षितीशानां तथैव जगतः कृते ॥ १॥ 
क्षिते भारं भगवान्फाल्गुनेम समन्वितः । 
अवतारयामास विशस्समस्ताक्षोहिणीवधात्‌ ॥२॥ 
कृत्वा भारावतरणं सुवो इत्वासिलानुपान्‌। 
शापव्याजेन विप्राणामुपसंहुतवान्छुरम्‌ । २ ॥ 
उत्सृज्य हारका कृष्णस्त्यक्त्वा मानुप्यमास्मनः। 
सांशो विष्णुमयं स्थानं प्रविवेश शुने निजम्‌ ॥ ४॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 
स विग्रश्ापभ्याजेन संजहे स्वल कथम्‌ । 
कथं च माषं देदुत्ससजं जनादंनः ॥ ५॥ 
श्रीपराक्षर उवाच 
विश्वामित्रस्तथा कण्वो नारदश्च महायुनिः। 
पिण्डारके महातीर्थं दृष्टा यहुङगमारकैः ॥ ६ ॥ 
ततस्ते यौवनोन्मत्ता माविकायंप्रचोदिताः | 
साम्बं जाम्बवती पुत्रं भूषयित्वा सिय यथा ॥ ७॥ 
प्रधरितास्तान्धुनीनचः प्रणिषातयपुरस्परम्‌ । 
हयं सी पुत्रकामा वै ्रूत किं जनविष्वति ॥ ८ ॥ 
श्रीपराशर उवाच 
दिव्य्ञानोपपन्नास्ते विप्ररब्धाः कुमारकैः । 
युनयः पिताः प्रोचुशंसकं जनयिष्यति ॥ ९॥ 
स्वंयाद्वसंहारकारणं  शवनोत्त्‌ । 
येनाविरुङकलीत्सादो यादवानां मविष्यति ॥१०॥ 


इत्युक्तास्ते कुमारास्तु आचचधुर्यथातथम्‌। 
उग्रसेनाय भुसं जज्ञे साम्बस्य चोदरात्‌ ॥११॥ 


९ 
वाः) तानामा] । 








संसारके उपकरारके द्यि बलभद्रजोके सहित श्रीकरृष्ण- 
चन्द्रने दैत्यो भौर दुष्ट राजाओंका बध किया॥ १॥ 
तथा अन्तम अज्जुनके साथ मिखकर भगवान्‌ करष्णने 
अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर प्रथिवीका भार 
हतारा ॥ २॥ इस प्रकार सम्पूणं राजाओंको मार- 
कर प्रथिवीका मारात्रतरण किया ओर फिर 
ब्राह्मणोके सञापके मिषसे अपने कुख्का मी उपसंहार 
कर दिया॥३॥ दहे सुने! अन्तम द्वारकापुरीको 
छोड़कर तथा अपने मानबञ्चसीर्को व्यागकर 
श्रीकृष्णचन्द्र अपते अं ( बररामप्रचम्नादि ) 
के सहित अपने विष्णुमय धामने प्रवेश्च शरिया ४।॥ 

धीमेत्रेयजी बोले-हे सुने । श्रं जनादनने विप्र 
शापके भिपसे फिल प्रकार अपने कुलका नार किया 
भीर अपने मानव-देहका किस प्रकार छ।ड़ा १।५॥ 


्ीपराश्चरजी बोज्ते-एक वार्‌ कुछ यदुञ्मारोनि 
महातीथं पिण्डारकशकषेत्रमे विश्ामित्र, कण्व आर 
नारद्‌ आदि महामुनियांको दैखा।॥ ६॥ तव 
यौवनसे उन्मत्त हुए उन बाख्कौने होनहारकी 
प्रेरणासे जाम्बबतीके पुत्र साम्बका स्ी-वेष बनाकर 
उन मुनीन्धरोको प्रणाम करनेके अनन्तर अत्ति नख्रता. 
से पूछठा--““ईस खकरा पुत्रकौ इच्छा है, हे मुनिजन! 
किये यह्‌ कथा जनेगं। १" ॥ ७.८ ॥ 

धीपराशरजी धोले-यदुकमारोके इस प्रकार 
धोखा देनेपर ठन दिभ्य ज्ञानसम्पन्न मुनिजनोने 
कुपित होकर कदा--“ध्यह एक खोकोन्तर मूखल 
जनेगी जो समस्त यादवोँके नाशका कारण होगा 
ओर जिससे यादवोंका सम्पूणं कुर संसलारमें 
निम हो जायगा ॥ ९-१०॥] 


मुनिगणके दस प्रकार कहूनेपर छन कुमारोने 
सम्पूणं वृत्तान्त व्यो-का-उ्यो राजा उम्रसेनसे कह 
दिया तथा साम्बके पेटसे एक मूसर उन्न हु 


¢ 


# # ॥॥ क, ऋ च _  __ _ , _ _ 


भ्रीविष्णुपुराण 





जक्ष तदेरकानूणं प्रक्षिप्तं तर्महोदधो ॥१२॥ | डाला ओौर उसे उन बाछकोने (रे जाकर ] 


युसलस्याथ रोहस्य चूणितस्य तु यादयः । 
खण्डं चूणितशषेषं तु ततो यत्तोमराकृति ॥१२॥ 
तदप्यम्बुनिधौ क्षिप्तं मर्स्यो जग्राह जाहिमिः। 
घातितस्योदरात्तस्य कटुन्धो जग्राह त्राः ॥ १४॥ 
विज्ञातपरमार्थोऽपि मगवान्परधुष्रदनः । 
नैच्छत्तदन्यथा कतु विधिना यस्समीदितम्‌ ॥१५॥ 


देवैश प्रहितो वाधुः प्रणिषस्याह केशवम्‌ । 
रदस्येवमहं दतः प्रहितो भगवन्मुरेः ॥१६॥ 
व्वश्िमरुदादित्यर्द्रसाध्यादिभिस्सह । 
विक्ापयति शक्रस्त्वां तदिदं श्रूयतां विमो ॥१७॥ 
भारावतरणार्थाय वर्षाणामधिकं शतम्‌ । 
भगवानवतीर्णोऽतर त्रिदयस्द चोदितः ॥१८॥ 
दुत्त निता दैत्या युवो भारोऽवतारितः | 

सवय सन्ाथास्षिदश्षा भवन्तु त्रिदिषे सदा ।॥१९॥ 
तदतीतं जगन्नाथ वर्षाणामधिकं शतम्‌ । 
इदानीं गम्यतां स्वगो भवता यदि रोचते ॥२०॥ 
देमेवि्ाप्यते देव तथात्रैव रतिस्तव । 
तरस्थीयतां यथाकालमाख्येयमनुजीविभिः॥२१॥ 

श्रीभगवानुवाच 

यश्वमात्थासिकं दृत वेदुम्येतदहमष्युत । 
प्रारब्ध एव हि मया यादवानां परिक्षयः ॥२२॥ 


युवो नाद्यापि भारोऽयं याद्वैरनिवर्दिते 
अवतार्य करोम्येतत्सक्ात्रेण सत्वरः 


५ = ^ 


[1 


।॥२३॥। 


१.९ 





समुद्रम फक दिया, उससे बहौ बहुत सरकण्डे 
उत्पन्न हो गये ॥ १२ ॥ यादवोद्रारा चूणे किये गये 
इस मूलके रोदैका जो भाषेकौ नोकके समान एक 
खण्ड चरणं करनेसे वचा उसे भी समुद्रहीमे फिकवा 
दिया । उसे एक मछली निगङ गयी । उस मीक 
मेयेन पकड़ छया तथा चीरनैपर उसके पेटसे 
निकले हुए उस भूसलखण्डको जरा नामक्त म्याधने 
ठे छिया | १३-१४ ॥ भगवान्‌ मधुसूदने इन समस्त 
बातोँकरो ययावत्‌ जानते थे तथापि उन्होने बिधाता- 
की इच्छाको अन्यथा करना न चाहा ।॥ १५॥ 


इसी समय देवताओंने बायुको भेजा । उसने 
एकान्तम श्रीकृष्णचन्द्रफो प्रणाम करके कदा- 
भगवन्‌ ! मुपे देवता्भोनि दूत बनाकर भेजा दे 
| १६ ॥ हे विमो ! बसुगम, अग्िनीक्रमारः रुद्र 
आदित्य, मरुद्गण भौर साध्यादिके सहित इन्द्रन 
आपको जो सन्देश भेजा दै, बह सुनिये ॥ १७॥ 
हे मगवन्‌ ! देवतार्ओकौ प्ररणासे उनके ही साथ 
परूथिवीका मार उतारनेके ज्ये अवतौणं हुए आपको 
सौ वर्षे अधिक बीत चुके ह ॥ १८॥ अब आप 
दुराचारी दैस्योको मार चुके ओर प्रथिवीका भार 
सौ उतार चुके, अतः [ हमारी प्राथंना है कि ] अब 
देवगण सवदा स्वम ही आपसे सनाथ हो [अथौत्‌ 
आप स्वर्गं परधारकर देवताभोको सनाथ करं ] 
॥| १९ ॥ दे जगन्नाथ ! जापको भूमण्डल्मे पधारे 
हए सौ वसे अधिक हो गये, भव यदि आपको 
र्वे तो स्वर्भलोक पधारिये॥ २०॥ है देव | देवगण- 
का यह्‌ भी कथनद्ै कि यदि आपको यहीं रहूना 
अच्छा लोतो र, सेवकोका तो यदी धमै 
कि [ स्वामीको ] यथासमय कते्यका निवेदन 
कर द” ॥ २१॥ 


भरीभगवान्‌ बोल्े-हे दृत ! तुम जो कुछ कहते 
हो बहु सव मँ जानता ह इसलिये अब मने याद्नोके 
नारका जारम्भ कर दिया है ॥ २२॥ इन यादवोका 
संहार हुए बिना अभीतक प्रथिवीका भार हल्का नहीं 
हुआ है, अतः अब सात राच्रिके भीतर [ इनका 
संहार करे ] प्रथिकीका भार उतारकर मँ श्ीघ्रही 
[ जैसा तुम कहते हो ] बहौ करे गा॥२२॥ जिस 


अ० २७ | पशम अश्च ४८९ 


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यादबाचुषसंहुत्य यास्यामि त्रिद्शारयम्‌ |॥२४॥ | उसी प्रकार उसे लौटाकर तथा यादृर्ोका उपसंहार 


† ९ कर मै स्वगंलोकमें आङऊंगा | २४ ॥ अब देवराज 
मलुष्यदेदुत्सुज्य सङ्कपणसहायवान्‌ । इन्द्र ओर देवताओौको यह समक्षना चाहिये छि 
प्रप्र एवासि मन्तव्यो देबेन्द्रेण तथामरे! ।॥२५॥ | संकषेणके सरित भै मनुष्य-सतोरको छोडकर स्वगं 

. _ प्च हौ चुका ह ॥ २५॥ प्रथिवीके भारभूत जो 
जरासन्धादयो येऽन्ये निहता भरदेतवः जरासन्ध आदि अन्य राजागण मरे ग्येदै,ये 
्ितेस्तेभ्यः ऊमारोऽपि यदूनां नापचीयते॥२६॥ | यदुद्मार भौ उनसे कम नहीं है ॥ २६॥ अतः तुम 


तदेतं ॒सुमदहाभारमवतायं कषितेरहम्‌ । देवताओंसे जाकर कहो कि मँ प्रथिवीके इछ 


महाभारको उतारकर ही देवखोकका पाटन करनेके 
यास्याम्यमरलोकस्य पालनाय ब्रवीहि तान्‌ ॥ २७॥ चि स्वरम जागा ॥ २७॥ 


भरीपराञ्चर उवाच श्रीपराशरजौ बोले-हे मैत्रेय ! भगवान्‌ बासुदेव. 
इस्यक्तो वासुदेवेन देवदूतः प्रणम्य तम्‌ । के इस प्रकार कहनेपर देवदूत वायु उन प्रणाम 


, करके अपनी दिभ्य गतिसे देवराजके पास चङे अभे 

त्र छं ग्‌ न्तिक १ ८१ 
मतरेय दिव्यया गत्या देवराजान्तिकं ययौ ॥२८॥ | २८ ॥ भगवान्‌ने देखा कि द्वारकापुरीमे रात-दिन 
भगवानप्यथोत्पातान्दिग्यभौमान्तरिक्नजान्‌। | नारके सूचक दिव्य, भौम जौर अन्तरिश्च-सम्बन्धी 


ददु दरकापुर्या विनाशाय दिवानिशम्‌ ॥२९॥ | महान्‌ उलयात हो रदे ह ।। २९॥.उन उ्पातोको 
देखकर भगवानने यादवोँसे कष्ा--'हैखो, ये कैसे 
तान्दषटरा यादवानाह पर्यध्वमतिदारुणान्‌। 


घोर उपद्रव हो रहै, चरो, शीघ्र ही इनकी चान्तिके 
महोत्पाताञ्च्छमायैषां प्रमासं याम मा चिरम्‌।।२०॥| छि प्रमासक्षेत्रको चर" ।। ० ॥ 








भ्रीपरा्चर उवाच  श्रीपरारारजी बोकलते-करष्णचन्द्रङे रेसा कहनेषर 

एवयुक्तं तु कृष्णेन यादवप्रवरस्ततः । महाभागवत यादवश्रेष्ठ `उद्धबने श्रीहरिको प्रणाम 
[त ६८ ॥ ^ 

महामागवतः प्राह प्रणिपस्योद्धवो हरिम्‌ ॥२१॥ | करके कदा-॥ २१॥ “भगवन्‌ ! सुश्च देसा प्रतीत 


होतादहै कि अव शाप इस लका नाज्ञ करेगे, 
भगवन्यन्मया काय तदाज्ञापय साम्प्रतम्‌ । क्योकि दे अच्युत ! इस समय सब भोर इसके 


मन्ये कुलमिदं सवं भगवान्संदरिप्यति ॥३२॥ | नाशक सूचक कारण दिखायी दे रदे दै; अतः सु 
नाशायास्य निमित्तानि इरस्याच्युत रक्षये॥३३। आज्ञा कीजिये कि मँ क्या करं ॥ ३२-२३॥ 


श्रौभगवासुबाच श्रीभगवान्‌ बोल्ले-दे उद्धव ! अव तुममेर कृषासे 
गच्छ त्वं दिव्यया गत्या मदप्रसादसमुत्यया] प्राप्त हुई दिव्य गतिसे नर-नारप्यणके निषासस्थान 
यद्वदर्याश्रमं पण्यं गन्धम।दनपवंते। गन्धमादनपवं तपर जो पवित्र बदरिकाश्रम क्ेत्रहै 


वष्ट जाओ । प्रथिवीतरपर वही सबसे पाकव्न स्थाम 
नरनारायणस्थाने तत्पवित्रं मदीतले ॥२४॥ &॥ २४ ॥ बहर यमे जित ठाकर तुम भरौ 


मन्मना मत्प्रसादेन तत्र सिद्धिमवाप्स्यसि । कृपासे सिद्धि भराप्र करोगे । अवं भी इस करका 
„९ हः | ५ ५ 
अहं स्वगं गमिष्यामि दयुपसंहुस्य वै इम्‌ ॥२५॥ खंहार करके स्वग॑लोकको चरा जाऊंगा ॥ ३५॥ 


१ च ज १ ऋ 


४९० 


काक ाानिाििोििििििििििनिि 





(1५. -/५९। 4 





मदवेर्म चैकं शुक्त्वा तु भयान्मततो जलाशये । 
तग्र स॒ननिहितथादहं भक्तानां हितकाम्यया ॥३६॥ 
श्रीपसश्चर उवाच 
ह्युक्तः प्रणिपत्यैनं जगामाशु तपोवनम्‌ । 
नरनारायणस्थानं केशवेनानुमोदितः ॥३७॥ 
ततस्ते यादवास्सर्वे रथानारह शीघ्रगान्‌ । 
प्रभासं प्रययुस्सादरं ृष्णरामादिभििंज ॥३८॥ 
प्रभासं समनुप्राप्ठाः इहुरास्धकव्रष्णयः । 
चक्रस्तत्र महापानं वासुदेवेन चोदिताः ॥२९॥ 
पिबतां तत्र चैतेषां सक्घ्ण परस्परम्‌ । 
अतिवादैन्धनो जज्ञे करुहागिनिः क्षयावहः ॥४०॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 
स्वं स्वं वै युज्तां तेषां कलहः क्िन्निमित्तकः । 
सङ्क्षो वा दविलग्रष्ठ तन्ममास्यातुमद॑सि ॥४१॥ 
। भ्रीपराश्चर इवाच 
मष मदीयमनं ते न सृष्टमिति जल्पताम्‌ । 
मृष्टाृष्टकथा जज्ने सद्कषंकरुदौ ततः ॥४२॥ 
ततश्वान्योन्यमभ्येत्य करोधसरक्तरोचनाः। 
लघ्तुः परस्परं ते तु शस्तररदेवषलासछृताः ॥४३॥ 
पषीणशस्ाश्च जगृहुः प्रत्यासन्नामथैरकाम्‌ ।॥४४॥ 
एरका त॒ गृहीता वै वजभूतेव रक्ष्यते । 
तया परस्परं जप्तुस्प्रहारे सुदारुणे । 
्रधुम्नसाम्बप्रयुसाः छृतवर्माथ सात्यकिः । , 
अनिरुद्रादयशान्ये पथुविपृुरेव च ॥४६॥ 
चासूवरमा चार्कथ तथाक्रुराद्यो द्विज । 
एरकारूपिभिरव॑जेस्ते निजघ्तुः परस्परम्‌ ॥४७॥ 
निवारयामास हरि्यादवांस्ते च केशवम्‌ । 
सहायं मेनिरेऽरीणां प्रापनं जध्लुः परस्परम्‌ ॥४८।। 





देगा; मुश्चसे भय माननेके कारण केवल मेरे भवनको 
छोड देगा; अपने इस भवनम मै मक्तोको हितकामना- 
से सदा निवास करता हं ।॥ ६६ ॥ 

श्रीपराद्रजी बोल्ले-भगवानके एेसा कषनेपर 
उद्धवजी उन्हँं प्रणामकर तुरंत ही उनके बताये 
हुए तपोवेन श्रीनरनारायणके स्थानको चले गये 
॥ २७॥ हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण ओर बहराम 
आदि सहित सम्पूणं यादव हीघ्रगामी स्थोपर 
चदकर्‌ प्रभासक्षेत्रम आये ॥ ३८ ॥ वर्म पर्हचकर 
कुक्कुर, अन्धक ओौर वृष्णि आदि वंशञोके समस्त 
यादवोने कृष्णचन्द्रको प्रेरणासे महापान [ ओौर 
भोजन ] क्रिया ॥ ३९ ॥ पान करते समय उनमें 
परस्पर कुछ विवद्‌ हो जानेसे वहां कुवाक्यरूप 
ईधनसे युक्त प्रलयकारिणी कर्हाग्नि धधक 
डटी ।॥ ४० ॥ 


भ्रीमेत्रेयजी बोल्े-दे द्विज! अपना-अपना भोजन 
करते हुए हन याद वोम किंस कारणसे कर्‌ (वाग्धुद्ध) 
अथवा संघषं (हाथापाई) हु भ, सो आप किये ४९ 


श्रीपराशरजी बोल्-मेरा भोजन युद्ध है, तेरा 
अच्छा नहीं दैः इस प्रकार भोजनके अन्छे-वुरेकी 
चची करते-करते उनम परस्पर वि नाद्‌ घौर हाथापाई 
हयो गयी | र ॥ तव वे दैवी प्रेरणासे विज्ञ होकर 
आपसमे ोधसे रक्तनेत्र हुए एक-दृसरेपर शखप्रहार 
करने कगे ओर जब शखर समाप्त हो गये तो षास 
हीमे खगे हद वे सरक्रण्डे ठे लिये ॥ ४३-४४॥ उनके 
हाथमे खगे हुए वे सरकण्डे वच्रके समान प्रतीत होते 
ये, उन वज्रतुस्य सरकण्डोँसे ह) वे उस दारुण युद्धमे 
एक दृ खरेपर प्रहार करने छने ॥ ४५ ॥ 


हे द्विज! प्रद्युम्न ओर साम्ब जादि कृष्णपुत्रगणः 
कृतवमी, साव्यक्रि ओर अनिरुद्ध आदि तथा प्रथु, 
विपु, चारुबमी, चारक ओर अक्रूर आदि याद्वगण 
एक दुसरेपर एरकारूपी बजोसे प्रहार करने कगे 
| ४६.४७ ॥ जब श्रोहरिने इन्द पसम छ्ड़नेसे 


रोका तो उन्होने दन्है अपने प्र तिपक्षीका सहायक 
होकर -आये हुए समक्चा.ओर [ उनकी बातकी 


शि 


१ मेत्रेयजीके जमिम प्रन भौर पराशरजीके उत्तरसे वँ यदुवं्ियोका अश्न-मोजनं करना भौ सिदध होता है। 








कृष्णोऽपि इुपितस्तेषामेरकाथुष्टिमाददे । 
वधाय सोऽपि एुसलं अृषटिरोहमभूत्तदा ।॥४९॥ 
जघान तेन निष्शेषास्य(दवानाततायिनः | 


जध्युस्ते सहसाभ्येत्य तथान्येऽपि परस्परम्‌ ॥५०॥ 


ततथाणेवमध्येन जैत्रोऽसौ चक्रिणो रथः। 


पश्यतो दारुकस्याथ प्रायाद्शवैधतो दविज ॥५१॥ 


चक्रं गदा तथा शाङ्गतुणी श्द्भोऽसिर च । 


प्रदक्षिणं हरि क्र्वा जग्ुरादित्यवत्मना \॥५२॥ 


क्षणेन नामभवत्कधिद्यादबानामघाितः । 


ऋते दृष्णं महास्मानं दारुकं च महान ॥५२॥ 


चङ्क्रम्यमाणौ तो रामं ृकषमूले कृतासनम्‌। 


ददशाते यु खाचास्य निष्क्रामन्तं महोरणम्‌ ।॥५४। 


निष्कम्य स मुखात्तस्य महाभोगो यजङ्गमः। 
प्रययावर्णवं तिदधैः पूज्यमानस्तथोरगैः ॥५५ 
ततोऽध्य॑मादाय तदा जरधिस्सम्भुखं ययौ । 
प्रविवेश ततस्तोयं पूजितः पन्नगोत्तमैः ॥५६।॥ 


दृष्टा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः । 
हदं सवं समाचक्ष्व वषुदेवोग्रसेनयोः ॥५७॥ 
निर्याणं बभद्रस्य यादवानां तथा क्षयम्‌ । 
योगे स्थित्वादमप्येतत्परिस्यक्षये फरेवरम्‌ ॥५८॥ 
वाच्यश्च द्वारकावाशी जनस्सवेस्तथाहुकः । 
यथेमां नगरीं सर्वा सथद्रः क्षवयिष्यति ॥५९॥ 
तस्माद्धवद्धिस्पस्ुप्रतीध्यो शल नागमः। 


न स्थेयं द्वारका मध्ये निष्कान्ते तत्र पाण्डवे।&०॥ 


तेनैव सह गन्तव्यं यत्न याति स कौरवः ॥६१॥ 
गत्वा च ब्रहि कौन्तेयमु नं वचनान्मम । 


प्ाहनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मस्परिग्रहः) ६२॥ 


स्वमज्ञनेन सरितो दारवत्यां तथा जनम्‌ । 


कृष्णचन्द्रने मी कुपित होकर उनका वध करनेके 





ल्यि एक मुद्ध सरकण्डे उठाख्यि। वे मद्कीभर 
सरकण्डे रोके मसल [ समान ] हो गये ॥ ४९.॥ 
उन मुसलरूप सरकण्डोँसे कृष्णचन्द्र सम्पूण आत- 
तायी यादवोंको मारने खमे तथा अन्य समस्त यादव 
भी बरह्म आ-आकर एक दृक्षरेको मारने लगे ॥५०॥ 
हे द्विज! तदनन्तर भगवान्‌ कृष्णचन्द्रका जैत्र नामक 
रथ घोड़से आकृष्ट हो दारुकके देखते-देखते समुद्रके 
मध्यपथसे चला गया} ५१ ॥ इसके पश्चात्‌ भगवान्‌ 
के ल, चक्र, गदा, शाङ्गधतुष, तर्च ओर खड्ग 
आदि आयुध श्रीहरिकी प्रदक्षिणाकर सूयमागसे 
चले गये ॥ ५२॥ 


हे महामुने ! एक क्षणमें ही महात्मा कृष्णचन्द्र 
अौर उनके सारथौ दारुकको छोड़कर ओौर कोई 
यदुवंशी जीवित न बचा ॥ ५९॥ उन दोनोँने वहाँ 
घूमते हप देखा कि श्रौबर्यमजौ एक वृक्षक तले 


बैठे ह जौर उनके सुखसे एक बहुत वड़ा सपे निकर 
रह है ॥५४॥ वह्‌ विज्ञाल फणधारी सपे उनके सुख- 
से निकठकर सिद्ध ओर नागोँसे पूजत हुआ समुद्र 
करी ओर गया।। ५५।] स्तौ समय समुद्र अध्ये ठेकर 
चस ( महासर्पं ) के सम्मुख उपस्थित हज ओर बह 
नागरषठोसे पूजित ह्यो समुद्रे घुस गया ॥ ५६ ॥ 


इस प्रकार श्रीवरूरामजौका प्रयाण देखकर 
्रकरभ्मचन्द्रने दारुकसे कहा -^तुम यह सव वृत्तान्त 
उग्रसेन भौर वघुदेवजीसे जाकर कहो ॥५७॥ बल- 
मद्रजीका निर्याण, यादर्बोकरा क्षय ओर मै मी योगस्थ 
होकर शरीर छदा यह्‌ सव समाचार चन्द | 
जाकर सुनाभ ॥ ५८ ॥ सम्पूण दवास्कावा सं ओर 
आहुक ( चप्रसेन ) से कहना करि अव इस सम्पूणं 
नगरीको समुद्र इवो देगा ॥ ५९) इसलिये आप 
सब केवङ अजुनके आगमनकी प्रतीक्षा कौर करं 
तथा अञजुनके यसे छोटते ही फिर कोई भी व्यक्ति 
दवारकाम न रहे; जर वे कुरुनन्दन जाय वहीं सव 
लोग चङे जाये || ६०-६१ ।) कुन्तीपुत्र अजुनसे तुम 
नेरौ ओरसे कहना किं “अपनी सामधभ्यानुलार तुम 
मेरे परिवारे छोगोंकी रक्षा करना ॥। ६२॥ ओर्‌ 
तुम द्वारकावासी समी लोगोको ठेकर अजंनके 


४९२ 





्रीबिष्णुपुरणे 





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गृहीखा याहि वजश्च यदुराजो भविष्यति ॥६२॥ ` 


श्रीपराजडञर उवाच 
सयुक्त दारः कृष्णं प्रणिपत्य पुनः पुनः। 
प्रदक्षिणं च बहुशः कृत्वा प्रायाद्यथोदितम्‌ ।६४॥ 


स॒ च गला तदाचष्ट द्वारकायां तथाजु नम्‌ । 
आनिनाय महाबुद्धिवज चक्रे तथा नृपम्‌ ॥६५॥ 
भगवानपि गोविन्दो वासुदेवाटमक परम्‌ । 


्रह्मासनि समारोप्य सवभूतेष्वधारयत्‌ ॥६६॥ 
निष्परपञ्चे महाभाग संयोज्यातमानमात्मनि। 
तुरयावस्थं रोर च रोते स्प पुरुषोत्तमः ॥६७॥ 
सम्मानयन्दिजवचो दुर्बासा यदुवाच इ । 
योगयुक्तोऽमवस्पाद्‌ कृत्वा जानि सत्तम ।६८\। 
आययौ च जरानाम तदा तत्र स लुन्धकः। 
॥६९॥ 
स तत्पादं मृगाकारमवेक्ष्यारादवस्थितः । 

तले विन्याथ तेनेव तोमरेण द्विजोत्तम ॥७०॥ 
ततथ दृशे तत्र चत्बाहुधरं नरम्‌ । 


शुसलावरेषरोरैकसायकन्यस्ततो परः 


प्रणिपत्याह चैनं प्रसीदेति पनः पुनः ॥७१॥ 
अजानता कृतमिदं मया हरिणकङ्कया । 
क्षम्यतां मम पापेन दग्धं मां त्रातुमहसि ॥७२॥ 


श्रीपराशर उवाच 
तस्तं भगवानाह न तेऽस्तु भयमण्वपि | 
गच्छ त्वं मत्प्रपतदेन लुभ्ध स्वगं सुरास्पदम्‌ ॥७२॥ 














साथ चरे जाना [ हमारे पीछे ] क्ख यदुवंशका 
राजा होगा” ॥ ६३ ॥ 


भीपरक्चारजी बोरे भगवान्‌ कृष्णचन्द्रके इस 
प्रकार कहनेपर दारुकने उन्हुः बारंबार प्रणाम किया 
अर उनकी अनेक परिक्रमापं कर उनके कथनानुसार 
चछा गया ॥ ६४ ॥ उस महाबुद्धिने द्यरकामं 
पहुंचकर सम्पूणं धृत्तान्त सुना दिया भौर अजजुनको 
वह खाकर वज्रको राञ्याभिषिक्त किया ॥ ६५ ॥ 

इधर भगवान्‌ कृष्णचन्द्रने समस्त भूतम म्यप्त 
वासुदेवस्वरूप परत्रह्मको अपने मात्मा आरोपित 
कर उनका ध्यान किया तथा हे महाभाग ! वे पुरुषो- 
न्तम रीरासे ही अपने चित्तको निष्प्रपच्च परमारमामें 
छीनकर तुरीयपदभे स्थित हुए ॥। ६६.६७ ॥ हे सुनि- 
रेष्ठ ! दुर्वासाजीने [ श्रीकृष्णचन्द्रक किये ] जेसा 
कहा था दस द्विजवाक्यक्रा * मान रखनेके दयि वे 
अपनी जानुभपर चरण रखकर योगयुक्त होकर 
चैठे ॥ ६८ ॥ इसी समय, जिसने मूसके बचे हुए 
तोमर ( बाणम रगे हृए लोके दुकड़ ) के आकारः 
च्छे लोहखण्डको अपने बाणकी नोकपर छगा लिया 
था; बह जरा नासक व्याध वहां आया ॥ ६९॥ 
हे द्विजोत्तम! चस चरणको मृगाकार देख उस 
उ्याषने चसे दृरहीसे खडे-खड़े उसी तोमरसे वीध 
डारा ॥ ७० ॥ किन्तु वहाँ पहुंचनेपर उसने एक 
चतुर्भुजघारी मनुष्य देखा । यह्‌ देखते ही वदं 
चरणोमे गिस्कर बारंबार उनसे कहने स्गा- 
"प्रसन्न होह्ये, प्रसन्न होश्षये ॥ ७१ ॥ मैने विना 
जाने दी मृगकौ अआशङ्कासे यह्‌ अपराध कियाद, 
कपया क्षमा कीजिये ! मै अपने पापसे दग्ध हो रहा 
ह आप मेरी रक्षा कीजिये” ॥ ५२ ॥ 


श्री पराशरजी बोरे--तव भगवानने उससे कहा 
(ुब्धक ! तू तनिक मी न डर; मेरौ कृपासे तूभभी 
देवताओंके स्थान स्वगंोकको चरा जा” ॥ ७३॥। 





% महाभारतम षड प्रसङ्ग आया है क्रि--पुक वार महष दुर्वासा श्री्ष्णचन्द्रजीके यहो आये ओर्‌ भगवानूसे 
सद्कार पाकर उन्होने कहा क्रि आप मेरा जँ जक अपने सारे शरीरम कगादये 1 भगवान्‌ने वैसा ही किया, परन्तु 
श्राह्मणका जूँठ पैरसे नदीं छना चाहिषेः यसा सोचकर पैरमे नहीं कगाया । इसपर दुर्वासाने शाप दिया कि भपपके 


अ० ३८ ] 


पश्च अश्र 


७९ 





विमानमा।गतं सथ्स्तदवाक्यसमनन्तरम्‌ । 
आरुह प्रययो खगं दुन्धकस्तसरतादतः ॥७४॥ 
गते तस्मिन्स भगवान्संयोज्यात्मानमात्मनि। 
ब्रह्मूतेऽन्ययेऽचिन्त्ये वासुदेवमयेऽमटे ॥७५॥ 
अजन्मन्यमरे विष्णावप्रमेयेऽखिहास्मनि । 
तत्याज मानुषं देदमतीस्य त्रिविधां गतिम्‌ ॥७६॥ । इस मलुष्य-शरीरको छोड़ दिया ॥ ७५७६ ॥ 


~^ 


इन भगवद्वाक्योके समाप्न होते ही वहाँ एक विमान 

आया, उसपर चदकर बह व्याघ भगवान्‌की कृपा- 
से चसी समय स्वगंको चला गया ।। ७४ ॥ उसके 
चरे जानेपर भगवान्‌ कृष्णचन्द्रने अपने आत्माको 
अत्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप;) अमर, अजन्मा, 
जमर, अप्रमेय, अखिलात्मा जौर ब्रह्मस्वरूप विष्णु. 
भगवान्‌मे छोनकर त्रिगुणात्मक गतिको पार कर 





इति श्रीविष्णुपुराणे पच्वमऽसे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ 


अडतीसवोँं अध्याय , 
याद्वोँका अन्त्येषटि-संस्क\र, परीक्षिता राज्याभिषेक तथा पाण्डर्वोका स्वर्गारोहण 


्रीपराश्चर उवाच 

अजँनोऽपि तदान्विष्य रामकृष्णकलेवरे । 
संस्कारं छस्मयामास तथान्येपामयुक्रमात्‌। १ ॥ 
अष्टो महिष्यः कथिता रविमणीप्रयुखास्तु याः। 
उपगुह्य हरेदेहं विविशुस्ता हुताशनम्‌ ॥ २॥ 
रेवती चापि रामस्य देहमारिरुष्य सत्तमा । 
विषेश ज्वरितं वहं तस्सङ्ह्ादशीतलम्‌ ॥ २३॥ 
उग्रसेनस्तु तच्छुत्वा तथैवानकटुन्दुमिः । 
देवकी रोहिणी चैव विविशुजातवेदसम्‌ ॥ ४ ॥ 
ततोऽज नः प्रेतकायं कृता तेषां यथािधि। 
निशक्राम जनं सवं गृहीत्वा वजमेव च ॥ ५॥ 


द्वारवस्या विनिष्कान्ता, द्रष्णपल्यः सहस्चश्षः। ` 


चज्नं जनं च कौन्तेयः पारयज्छनकैयंयो ॥ ६ ॥ 
समा सुधर्मा ढृष्णेन मस्यंरोके सथुज्शिते । 

स्वगं जगाम सैत्रेय पारिजातश्च पादपः ॥ ७॥ 
यस्मिन्दिने हरियातो दिवं सन्त्यज्य मेदिनीम्‌ | 


न~, र (५ 





भीपराशग्जी बोले-अजँनने राम ओर कृष्णः 
तथा अन्यान्य मुरूय-मुख्य याद्वोके मृत देहोकी 
खोज कराकर कमश्चः उन सवके ओष्वेदै हिक संस्कार 
किये ॥ १॥ भगवान्‌ कृष्णकौ जो रुक्मिणी आदि 
आठ पटरानी बतल्लायी गयो है उन सबने उनके 
शरीरक। आिङ्गन कर अभ्रम प्रवेद किया ॥ २॥ 
सती रेवतीजी भी वररामजीके देका आलिङ्गन 
कर, उनके अंग-संगके आह्ूादृसे शीतल प्रतीत होती 
हुदै प्रजवङ्ति अग्निम प्रवेश्य कर गयीं ॥३॥ इस 
सम्पूणं अनिष्टा समाचार सुनते ही उम्रसेन, 
वसुदेव, देवकी ओर रोहिणीने भी अग्निम प्रवेश्च 
किया॥ ४॥ 

तदनन्तर भच्ुन उनका विधिपूवंक परेत-कमं 
कर वज्र तथा अन्यान्य कुटुम्बिर्योको साथ रेकर 
ह्यारकासे बाहर आये ॥ ५॥ दमारकासे निकली हु 
कृष्णचन्द्रकी सष्टस्रों पल्नियों तथा वज्र शौर 
अन्यान्य वान्धवोकी [ सावधानतापूवंक ] रक्षा 
करते हए अण्न धीरे-धीरे चले ।॥ ६। दे मैत्रेय! 
कष्ण चन्दरके मत्येरोकका त्याग करते ही सुधमा 
सभा ओौर पारिजात-वृक्ष भी स्वगंलोकको चले 
गये ॥ ७॥ जिस दिन भगवान्‌ परथिवीको छोढ़- 
कर स्वगं सिधारे थे उसी दिनिसे यह मल्नि- 


४९० 


च"न 4५९। ८ 











कञावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधिः। 
वाघुदेवगृहं त्वेकं न ष्डवयति सागरः ॥ ९ ॥ 
नातिकरान्तुमलं ब्रह॑स्तददयापि महोदधिः । 

निस्यं सन्निहितस्तत्र भगवान्केशषो यतः ॥१०॥ 
तदतीव महापुण्यं सवंपातकनाशनम्‌ । 
विष्णुश्रियान्वितं स्थानं दुष पापाद्विुच्यते॥११॥ 


पाथः प्शनदे देशे बहुधान्यधनान्विते । 
चकार वासं सवस्य जनस्य मुनिसत्तम ॥१२॥ ' 
ततो लोभस्समभवत्पार्थेनैकेन धन्विना । 

दृष्टा छचियो नीयमाना दस्यूनां निहतेश्वराः ॥१३॥ 
ततस्ते पापकर्माणो रोभोपहृतचेतसः । 
आभीरा मन््रयामासुस्पमेरयास्यन्तदुमेदाः ॥१४॥ 
अयमेकोऽनु नो घन्वी सखीजनं निहतेश्रम्‌। 
नयत्यस्मानतिक्रम्य धिगेतद्धवतां बलम्‌ ॥१५॥ 
हतवा गर्वसमारूढो भीष्मद्रोणजयद्रथान्‌ । 
कर्णाद न जानाति बल ग्रामनिवासिनाम्‌। १६॥ 
यषटदस्तानवेशष्यास्मान्धकुष्याणिस्स दु्मतिः। 
सर्वानेवावजानाति क्षि वो बाहुमिरननतैः ॥१७॥ 
ततो यश्प्रहरणा दस्यवो शेोष्टषारिणः । 
सहस्रशरोऽभ्यधावन्त तं जनं निहतेश्वरम्‌ ॥१८॥ 
ततो निभत्स्यं कौन्तेयः प्राहाभीरान्दसन्निष । 
निवतंप्वपथरम्ता यदि न स्थ रमूरषवः ॥१९॥ 
अवज्ञाय वचस्तस्य जगृहुस्ते तदा धनम्‌ । 
सखीधनं चैव त्रेय विष्पक्सेनपरिग्रम्‌ ॥२०॥ 
ततोऽलु नो धलुरदिन्यं गाण्डीवमजरं युधि । 
आरोपयितमारेभे न शशाक च बीर्यवान्‌ ॥२१॥ 
चकार सज्यं ठच्च तचाभूच्छिथिर पुनः । 


न भस्य रततोऽश्चाणि चिस्तथद्यपि पाण्ट! २२।)| => 





इस प्रकार जनशरुन्य द्वारकाको समुद्रने इबो दिया, 
केवत्त एक कृष्णचन्द्रके भवनको ही वहू नहीं इुबवातत 
॥ ९॥ हे ब्रह्मन्‌ | उसे इवेमे समुद्र आज भौ 
समथ नहीं है; क्योकि उसमे भगवान्‌ कृष्णचन्द्र 
सव॑दा निवास करते है ॥ १० ॥ वह भगवदै्यं 
सम्पन्न स्थान अति पवित्र ओर समस्त पापको नष 
करनेवाला है; उसके द्र॑नमात्रसे मयुष्य सम्पूण 
पापसे ट जाता है ॥ ११॥ 


हे स॒निश्ेषठ! अुनने उन समस्त द्वारकावासि्यो- 
को अत्यन्त धन-घान्य-सस्पन्न पश्चनद्‌ ( पंजाब | 
दशमे बसाया ॥ १२॥ उस समय अनाथा खि्योको 
अकेले धनुधीरी अजनको ठे जते देख दुटेरौको 
लोभ स्पन्न हआ ॥ १३ ॥ तब उन अत्यन्त दुमद 
पापकम ओर लुष्धहृदय आभीर द्युओंने परस्पर 
मिखकर सम्मति को--॥ १४॥ ‰देखो, यह धनुधौरी 
अजन अकेला ही हमारा अत्तिक्रमण करके इन 
अनाथा खियोको ज्लिये जाता दै; हमरे पेसे बलः 
पुरुष।थंको पिक्ार है ! ॥ १५॥ यष भीष्म, द्रोण, 
जयद्रथ ओर कणं आदि [ नगरनिबासियँ ] को 
मारकर ही इतना अभिमानी हो गया है, अमी हम 
ग्रामीणोके बको यह्‌ नही जानता ॥ १६॥ हमारे 
हाथो लाठी देखकर यह्‌ दुभेति धनुष केकर हम 
सवक अवज्ञा करता है फिर हमारी इन उंची-ऊंची 
सुजाओंसे क्या छाम है १ ॥ १७॥ 

फेली सम्मतिकर बे सहस्रो लुटेरे छाढी ओौर 
देले छेकर चन अनाथ द्वारकावासियोपर टूट पडे 
॥ १८॥ तब अजने खन दे रोको श्चिड़ककर हसते 
हुए कहा-“अरे पापियो ! यदि तुदं मरनेक) 
इच्छानहोतो अमी लौट जाभो”॥ १९॥ किन्तु 
ह मैत्रेय ! दुटेरोने उनके कथनपर क्छ भी ध्यान न 
दिया ओर भगवान्‌ कृष्णके सम्पूणं धन भौर 
स्ीधनको अपने अधीन कर छया ॥ २०॥ तवं 
वीरवर अजञैने युद्धमै अक्षीण अपने गाण्डीव 
धमुषको चदाना चाहा; किन्तु वे एसा न कर 
सके ॥ २१॥ उन्होने जेसे-वैसे अति कठिनतासे 
उसपर प्रत्यच्चा (डोरी ) चदा भीललीतो फिरवे 
क्िथिल हो गये ओर बहुत छक सोचनेपर भी 


कये च्व उता ~ स्या ।! 22 





करान्युमोच चैतेषु पार्थो वैरिष्वमरपितः । 
तम्मेदं ते परं चक्रुरस्ता गाण्डीवधन्विना ॥२३॥ 


ब्रह्विना येऽक्षय। दत्तारश्षरास्तेऽपि क्षयं ययुः । 
यद्धयतस्सद गोपारेरल नस्य भक्षये ॥२४॥ 
अचिन्तयच कौन्तेयः कृष्णस्यैव तद्वलम्‌। 
यन्मया शरसक्कातैस्सकशा भूभृतो हताः ॥२५॥ 
मिषतः पाण्डुपुत्रस्य ततस्ताः प्रमदोत्तमाः। 
आभीरैरपकृष्यन्त कामं चान्याः प्रुुबु; ॥२६।। 
ततदश्रेषु क्षीणेषु धतुष्कोरथा धनञ्चयः । 
जघान दस्यते चास्य प्रहाराज्दसने ।॥२७॥ 
््षतस्तरस्य पार्थस्य दृष्ण्यन्धकवरसियः । . 
जग्धुरादाय ते म्लेच्छाः समस्ता शरनिसत्तम ॥२८५। 
ततस्पुदुःखितो जिष्णुः कष्टं कष्टमिति रुवन्‌ । 

अहो भगवतानेन वश्चितोऽसमि सरोद द ॥२९॥ 
तद्धनुस्तानि शस्ाणि स रथस्ते च वाजिनः । 
सर्वमेकपदे नष्टं दानमश्रोत्रिये यथा ॥३०॥ 
अहोऽतिबहबदेवं बिना तेन महात्मना । 
यदक्ामथ्यंयक्तेऽपि नीचवे जयप्रदम्‌ ॥३१॥ 
तौ बाहस च मे यष्टिः स्थानं ततोऽस्मि चाज नः। 
पुण्येनैव बिना तेन गतं सरवमसारताम्‌ ॥२२॥ 
ममाजु नवं भीमस्य भीमं तत्ते धवम्‌ । 


विना तेन यद्‌।भीरेनितोऽदं रथिनां वरः ॥२३॥ 


| श्रौपराङ्र उवाच 
हत्थं वदस्ययौ जिष्णुरिनद्रपस्थं पुरोत्तमम्‌ । ` 
चकार तत्र राजानं बजरं यादुबनन्दनम्‌ ॥२४॥ 





~ 





तव वेक्रुद्ध होकर अपने श्रुभपर बाण बरसाने 
रगे; किन्तु गाण्डौवधारो अजने छोद़े हए उन 
वार्णोने केवह नकी सवचाको हौ बीघा ॥ २३॥ 
अञजनका इद्भव क्षीण हो जनके कारण अग्निके 
दिये हुए उनके अक्षय बाण भमी उन अहीरोके साय 
ख्डुनेमें नष्ट हो गये ॥ २४॥ 


तव अञ्जने सोचा कि गने जो अपने शरसमूष- 
से अनेको राजार्ओंको जीता था वह सव कृष्णचन्द्र 
काही प्रभाव था॥ २५॥ अज्ञुनके देठते-देखते वे 
अहीर उन सखीरत्नोंको खीच-खीचकर ले जने खगे 
तथा कोको अपनी इच्छानुसार इधर-उधर भाग 
गयीं 1 २६॥ बाणोकि समघ्र हो जानेपर धनञ्जय 
अज्जैनने धनुषकर नोकसे ही प्रहार करना आरम्भ 
किया, सिन्तुहे मुने! बे दस्युगण उन प्रहारोकी 
ओर मी दसी उड्ाने रगे ॥ २७॥ 


हे मुनिश्रेष्ठ | इस प्रकार अञ्जनके दे लते.दे लते 
वे भ्ठेरछगण वृषण ओौर अन्धकवंश्कौ उन समस्त 
कियोको छेकर चे गये ॥ २८॥ तव सवेदा जय- 


शौर जस््ैन अस्यन्त दुखी होकर (हदा ! केसा कष्ट 


है, कैसा कष्ट है १ पेसा कहकर रोने लगे [ ओर 
बौे-] “अदो ! सदये उन भगवानने ही खग लिया 
॥ २९॥ देखो, बहौ धटुप दै, वे ही रख दै, बही 


स्थहभौस्वेह्ौ अश्व; किन्तु अश्रोत्रियको दिये 


हुए दानके समान आज सभौ एक साथ नष्ट हो गये 
|| ३०॥ अष्टो | दैव बदा प्रवल हे, जिसने आज 
खन महार्मा कृष्णके'न रहनेपर असमथं आर नीच 
अरोक जयदे दौ ॥ ३१॥ देखो ¦ मेरवे दी 
भुजे है, बही मेरी युटि द्धी) दे, वह (रक्षेत) 
स्थान है मौर रमे भौ बद्री अञ्जन ह तथापि पुण्यदशेन 
छरष्णके बिना आज सव सारहीन हो गये ॥ ९॥ 
अवक्य ही मेस अजुनत्व ओर भीमका भीमत्व 
भगान्‌ कृष्णकीं कृपासे ही था । देखो, उनके .विना 
आज महारथियोमे शरेष्ठ सुक्को तुच्छ अभीर्योने 
जीत छया” ॥ ३३ ॥ । 


श्रीपराशरजी बोके-अुन इस प्रकार कते 
हुप अपनो राजधानी इन्दरभस्थमे आये जीर बँ 
यादबनन्द्‌न वज्ञक्रा राञ्याभिपेक् किया ॥ ३४॥ 





स ददं ततो व्यासं फाल्गुनः काननाध्रयम्‌। 
तथुपेत्य महामागं विनयेनाभ्थवादयत्‌ ॥ ३५ 
तं वन्दमानं चरणाववकोक्य भुनिधिरम्‌ । 


उवाच वाक्यं बिच्छायः कथमच्च त्वमीदृशः ॥ ३६॥ 
अवीरजोऽनुगमनं ब्रह्महत्या कृताथ वा । 
दृटाशाभङ्गदुःखीव श्रष्टच्छायोऽसि साम्परतम्‌।।२७॥ 


सान्तानिकादयो वा ते याचमाना निराकृताः। 





अगम्यस्नीरतिर्षा स्वं येनासि विगतप्रभः ॥३८॥ 


धेद्क्तऽप्रदाय विप्रभ्यो मिष्टमेकोऽथ वा भवान्‌। 





वि वा कृपणवित्तानि हृतानि भवताजु न ॥३९॥ 





कचिन्नु शूरप॑वातस्य गोचरतं गतोऽजु न । 


ु्टवकुतो वाऽपि निरदथीकः कथमन्यथा ॥४०॥ 





सृष्टो नखाम्भसा वाथ घटवाधुक्षितोऽपि बा। 





केन तव बासि विच्छयौ पनवां युधि निर्जितः ४ १। 





श्रीपराशर उवाच 
ततः पार्थो विनिःश्वस्य श्रयतां भगवन्निति । 


उक्त्वा यथावदा चष्टे व्यासायात्मपराभवम्‌॥४२॥ 
अञ्जुन उवाच ` | 
यद्बलं यच मत्तेजो यदीयं यः; पराक्रमः । 
------- ` ॥ 
या श्री्छाया च नःसोऽस्मान्परित्यन्य हरिगतः॥ 


ईश्वरेणापि महता स्मितपूर्वाभिभाष्िणा । 
हीना बयं सुने तेन जातास्तणमया इव ॥४४॥ 
अखाणां सायकानां च गाण्डीवस्य तथा मम। 





सारता यामवन्मूतिस्य गतः पुरुषोत्तमः ॥४५॥ 








तदनन्तर वे विपिनवासी म्यासमुनिसे मिले ओर 
डन महाभाग मुनिवर के निकट जाकर रन्हं विनय 
पूवक प्रणाम किया ॥ २५॥ अज्ञुनको बहुत देरतक 
अपने चरणोँको वन्दना करते देख मुनिवरने का- 
“अज तुम एेसे कान्तिहीन क्यों हो रहे हो १॥ ३६। 
क्या तुमने भेडोकी धूषिका अनुगमन प्रिया 
अथवा ब्रह्महत्या की है या तुम्हारी कोई सुद आज्ञः 
भंगदहो गयी है { जिसके दुःखसे तुम इस समय 
इतने श्रीह्ीन हो रहे हो ॥ ३७ ॥ तुमने किस 
सन्तानके इच्छुकका विवाहके छि याचना करनेपर 
निराद्र ततो नहीं किया अथवा किसी अगम्य शीसे 
रमण तो नहीं किया, जिससे तुम ेसे तेजोहीन हो 
रहे हो १॥ ३८॥ हे अज्ञुन ! तुम ब्राह्मणोको विन! 
दिये अकेटेष्टी तो मिष्टान्न नदीं खा ठेते, अथव) 
तुमने किसी कृपणका धन तो नहीं हर लिया है 
॥३९॥ हे अजुन | तुमने सूपको वायुका तो सेवन नद 
क्रिया क्या तुम्हारी आँखें दुखती है अथव तु 
किसने मारा! तुम इस प्रकार श्रीहीन कैसे हो 
रहे हो १ ॥ ४०॥ तुमने नख-जलका स्पशं तौ नरह 
क्रिया ? तुम्हारे उपर घड़्ेसे छल्के हुए जलकी छीटे 
तो नहीं पड़ गयीं अथवा तुम्दँ किसी हीनबल पुरष- 
ने युद्धे पराजित तो नदीं किया १ फिर तुम इस 
तरह हतप्रभ केसे हो र्हैदो ?॥ ४१॥ 

श्रीपराशरजी बोले- तब अञ्जने दीघं निःशास 
छोड़ते हुए कहा-- “भगवन्‌ ! सुनिये” देखा कहकर 
उन्होने अपने पराजयका सम्पूणं वृत्तान्त म्यासजी. 
को उयों-का-त्यो सुना दिया ॥ ४२॥ 

सज्जन बोले-जो हरि मेरे एकमात्र बल, तेज, 
वीयं, पराक्रम, श्री ओर कान्तिथेवे हमे छोड़कर 
चङे गये ॥ ४३ ॥ जो सव प्रकार समथ होकर भी 
हमसे मिघ्रवत्‌ हंस-हसकर वातं किया करतेये; हे 
मुने.! उन हरिके विना हम आज वृणमय पुतलेके 
समान निःसन्खर हो गये है ।॥४४॥ जो मेरे दिन्याखो, 
दिव्यबाणों ओौर गाण्डीव धनुष्रके मूर्तिमान्‌ सारथेवे 
पुरुषोत्तम भगवान्‌ हमे छोडकर चके गये है ॥ ४५॥ 


॥ + 1१ ~ क 


~~~ 


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यस्यावलोकनादस्माज्छी्जैयः सम्पदुन्तिः। 


न तत्याज स गोविन्दस्स्यक्त्वास्पारभगवास्मतः॥ 


भीप्पद्रोणाद्गराजाद्यास्तथा दुयोधिनादयः । 
यतसप्रमावेण निदग्धास्प कृप्णस्सयक्तवान्धुवम्‌ ।४७ 
निर्यौबना मतश्रीका न्टच्छायेव मेदिनी । 
विभाति तातनैफोऽहं विरहे तस्य चक्रिणः ॥४८॥ 
यस्प प्रमाबाद्धीष्माचैमय्यभ्रौ श्लमायितम्‌। 
विन। तेनाच दृप्णेन मो पारेरसिम निजितः ।४९॥ 
गाण्डीवद्धिषु छोकेपु रूयातिं यदनुभाव्रतः। 
गतस्तेन विनामीरलगुरैस्ष तिरस्कृतः ॥५०॥ 
सरीसष्टसाण्यनेकानि मन्नाथानि महाघरने । 
यततो मम नीतानि दस्युमिलेगुडायुपैः ॥५९१॥ 
आनीयमानमाभीर कृष्ण कृष्णावरोधनम्‌ । 


हृतं यषटपरदरणेः परिभूय बलं मम ॥५२॥ 
निद्रीकतानमे चित्रं यज्ञीवामि तदद्थतम्‌। 


नीचावमानपङ् ङी निरंज्जोऽसिम पितामह ।।५३ । 


श्रीव्यास उवाच 

अलं ते व्रीडया प्रथं न तं शोचितुमर्हसि । 
अवेहि सवभूतेषु कारस्य गतिरीदशौ ॥५४॥ 
कालो भवाय भूतानाममवाय च पाण्डव । 
कामूरमिद्‌ जञाला भव स्थैवंपरोऽजु न ॥५५॥ 
नद्यः सथुद्रा गिरयस्तकला च वसुन्धरा । 

देवा मलप्याः परशवस्तरवशच _सरीुपाः ॥५६॥ 
सृष्टा; काटेन कठेन पुनर्या्यन्ति संक्षयम्‌। 
कालात्मकमिदं सवं जञात्वा श्रममवाप्लुहि ॥५७॥ 


जिनकी कृपा-दृष्टिसे श्री, जय, सम्पत्ति ओर उन्नतिने 
कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा वेही भगवान्‌ गोविन्द्‌ 
हमे छोडकर चले गये ह ।। ४६ । जिनकी प्रभावाभि- 
से भीष्म, द्रोण, कधं ओर दुर्योधन आदि अनेको 
शूरवीर दग्ध हो गये ये, उन कृष्णचन्दरने इस 
भूमण्डरको छोड़ दिया है ॥ ४७॥ ह तात ! उन 
चक्रपाणि कृष्णचन्द्रके विरहे एकम ही क्या, 
सम्पूणं प्रथिवी हौ यौवन, श्री ओौर कान्तिसे हीन 
प्रतीत होती है ॥ ४८॥ जिनके प्रभावसे अग्निरूप 
मुद्यमे भीष्म आदि महारथोगण पतंगवत्‌ भस्महो 
गये ये, आज उन्हीं एषणे चिना मुञ्चे गोपोनि हरा 
दिया ! ॥ ४९॥ जिनके प्रभावसे यह्‌ गाण्डीव धञुष 
तीनों छोकोंमे विख्यात हुआ था उन्हीके बिना आज 
यह्‌ अहीसकी लाटियोँसे तिरस्कृत हौ गया !॥५० ॥ 
हे महामुने ! भगवान्‌ी जो सहस्रो शर्या मेरी 
देख-रेखमे आ रषी थीं इन्द, मेरे सब प्रकार यत्न 
करते रहनेपर भो दध्युगण अपनी छादिौँके बरसे 
ठे गये ॥५१॥ हः कृष्णद्वैपायन ! लाठियां ह जिनके 
हथियार है उन आभीरोने भाज मेरे बरक कुण्ठित- 
कर भरे द्वारा साथ लाये हुए सम्पूणं कष्ण-परिवार- 
कोहर छिया॥ ५२॥ रेसी अवस्थामे मेरा श्रीहीन 
होना कोई आश्चयंकी बात नहीं दहै, दे पितामह! 
आश्चयं तो यदह है किं नीच पुरुपोंदयारा अपमान- 
पकम सनकर मी मै निरज अभी जीनित ह ॥ ५३ ॥ 


श्रीग्यासलजी बोक्ञे-दे पाथ ! तुम्हारी लल्ना 
व्यथं है, तुष्ट श्लोक करना उचित नदीं हे । तुम 
सम्पूणं भूतम काल्की देती हौ गति जानो ॥ ५४ ॥ 
हे पाण्डव ! प्राणियोंको उन्नति ओर अवनतिका 
कारण काल हीह, अतः हे भजन ¦ इन जयः 
पराजयोको कालके अधीन समश्चकर तुम स्थिरता 
धारण कसे।। ५५ ॥ नदिया, समुद्र, गिरिगणः, सम्पूणं 
प्रथिवी, देव, मनुष्य, षञ्ु, वृक्ष ओर सरीसृप आदि 
सम्पूणं पदाथ काके ही रचे हृष ह ओर फिर 
कालदहीसेये क्षोण हो जति दै, अतः इस सारे प्रपञ्चको 
काडास्मक जानकर जञान्तर ह्योजो } ५६५७ ॥। - 


९.८ 


भरीविष्णुपुराण 


[ अ० ३८ 








कारस्वरूपी भगवान्कृष्णः कमललोचनः । 
यच्चात्थ कृष्णमादारम्यं तत्तयैव धनंजय ॥५८॥ 
मारावतारकार्यरथमवतीणेस्पणमेदिनीम्‌ । ` 
भाराक्रान्ता धरा याता देवानां समितिं पुरा॥५९॥ 
तद््थमवतीणोऽपतो काररूपी जनार्दनः । 

तच निष्पादितं कायंमषा भूथजो हताः ॥६०॥ 
वृष्ण्यन्धककुलं सवं तथा पारथोपसंहुतम्‌ । 

न क्षिशिदन्यत्कतव्यं तस्य भूमिते प्रभोः ॥६१॥ 
अतो गतस्स भगवान्छृतकृस्यो यथेच्छया । 

सृष्टि सर्गे करोत्येष देवदेवः स्थितौ स्थितिम्‌ । 
अन्तेऽन्ताय समर्थोऽयं साम्प्रतं वे यथा गतः॥६२। 
तस्मात्पाथं न सन्तापस्या कायः पराभवे । 
भवन्ति मावाः करेषु पुरुषाणां यतः स्तुतिः ।॥६२॥ 
त्वयैकेन हता मीष्मद्रोणकर्णादयो रणे । 
तेषामजु न कालोत्थः कि न्यूनामिमवो न सः॥६४॥ 
विष्णोस्तस्य प्रमावेण यथा तेषां परामवः। 
कृतस्तथैव भवतो दस्युभ्यस्स पराभवः ॥६५॥ 
स देवेशरशरीराणि समाविद्य जगत्स्थतिम्‌। 
करोति सवभूतानां नामन्ते जगत्पतिः ॥६६।॥ 


मगोदये ते कोम्तेय सहायोऽभून्जनादनः। 
तथान्ते तद्विपकषासते केशवेन विलोकिताः ॥६७॥ 


करभदध्यात्सम्‌ङ्घेयान्दन्यास्त्वं कौरवातिति। 











हे धनंजय ! तुमने कृष्णचन्द्रका जैसा माहात्म्य 
वतशाया दै बहु सव सत्ये है; क्योकि कमलनयन 
भगवान्‌ कृष्ण साक्षात्‌ कारस्वरूप दही है ॥ ५८॥ 
उन्दने प्रथिवीक्रा भार उत्तारनेके लिये ही मत्यंलोक- 
म अवतार छया था । एक समय पूवंकालमें परथिवी 
भाराक्रान्तं होकर दैवताओंकी सभाम गयी थी 
॥ ५९ ॥ कारुस्वरूपी श्रीजनादेनने उसीके किये 
अवतार लिया था । अव सम्पूणं दुष्ट राजा मारे जा 
चुके, अतः बह काय सम्पन्न हो गया ॥ ६० ॥ ह 
पाथं ! वृष्ि ओौर अन्धक भादि सम्पूणं यदुकुखका 
भी उपसंहार हो गया; इसलिये उन प्रसुकरे छ्य अब 
परथिवीतलपर भौर कुछ भौ करते्य नहीं रहा ॥ ६१॥ 
अतः अपना कायं समाघ्र हयो चुकनेपर भगवान्‌ 
सेच्छानुसार चे गये, ये देवदेव प्रमु सगंके 
आरम्भमे सृष्टि-रचना कर्ते दै, स्थितिके समय 
पान करते है ओर अन्तमे येही उसका नाश 
फरनेमे समथं है-जेसे इस समयवे [ राक्षस 
आदिका संहार करे ] चरे गये द ।। ६९॥ 

अतः हे पाथं | तुक्च अपनी पराजयसे दुखी न 
होना चाष्टिये, क्योकि अभ्युदय-काङ उपस्थित होने- 
पर ही पुरूपोसे एेसे कम बनते है जिनसे उनकी 
सतुति होती है ॥ ६३ ॥ दे अञ्जन ! जिस समय 
तञ्च जकेठेने ही युद्धम भीष्म, द्रोण ओर कणं 
आदिको मार उालछाथा बहु क्या उन वौरोका 
काल्क्रमसे प्राप्त हीनव्रङ पुरुषसे पराभव नहीं था! 


: 1! &४ ॥ जिस प्रकार भगवान्‌ विष्णुके प्रभावसे 
` तुमने उन सबोको नीचा दिखाया था उसी प्रकार 


तुचे दस्युओंसे दना पड़ा है ॥ ६५ ॥ वे जगत्पति 
देवेश्वर ही श्षरीसोमे प्रविष्ट होकर जगत्‌की स्थिति 


. करते हैः ओौर वे ही अन्तम समस्त जीवोका नाश्च 


करते ह ॥ ६६ ॥ 


हे कौन्तेय! जिस समय तेण माग्योदय 
हआ था, उस समय श्रीजनादेन तेरे सायक 
थे ओर जव उस ( सौभाग्य ) का अन्तदहौ गया 
तो तेरे विष्षियोपर श्रौकेशवकौ कृपादृष्टि हई 


॥ ६७ ॥ तु. + गङ्खानन्दन भीष्मपितामहके सहित 
सम्पूणं कौरवोको मार डेगा--इस वातको कौन 


क ५ अ (= 


न व द, _ ~ 


ययोस 
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पा्थतरसवभूतस्य दरेटीलाविचेटितम्‌ । 


९4 
हे पाथ ! यह सब सबीत्मा भगवान्‌की रीखाका 


सया यत्क्ोरवा ष्वस्ता यदाभीरेभवाञ्जितः॥६९॥ | दौ कौतुक है कि तक्ष अकेटेने कौरवको नष्ट 


गृहीता दस्युभिर्याश्च मवाज्छोचति तासिछ्यः।. 
एतस्याहं यथात्र कथयामि तवाजुन ॥७०॥ 
अष्टावक्रः पुरा विप्रो जलवास्षरतोऽमवत्‌ । 
वहुन्वषगणान्पाथं गृणन्नह्म सनातनम्‌ ॥७१॥ 
जितेष्वसुरसद्कषु मेरुपृष्ठे महोत्छवः। 
वभूव तत्र गच्छन्त्यो ददुशुस्तं सुरस्य; ॥७२।॥ 
रम्भातिरछोत्तमा्यास्तु शतश्चोऽथ सदस्रशः। 
तुष्टुवुस्तं महात्मानं प्रशशंसुश्च पाण्डव ॥७३॥ 
आकण्ठमग्नं सर्कल अजटामारवहं सनिम्‌ । 
विनयावनताश्चैनं प्रगे; स्तोत्रतत्पराः ॥७४। 
यथा यथा प्रसन्नोऽसौ तु्टुुस्तं तथा तथा। 
सर्मास्ताः कौरवग्रे् तं वरि द्विजन्मनाम्‌ ।।७५॥ 
अष्टावक्र उवाच 
प्रसन्नोऽहं महाभागा भवतीनां यदिष्यते। 


मत्तस्तद्व्रियतां सवरं प्रदास्याम्यतिदुरुमम्‌॥७६॥ 
रम्भातिलोत्तमादयास्तं वदिकयोऽप्तरसोऽत्रवन्‌ | 
प्रसन्न स्वय्यपर्याप्तं किमस्माकमिति द्विज ॥७७॥ 
इतरास्त्वन्रवन्विप्र प्रसन्नो भगवान्यदि । 
तदिच्छामः पतिं प्राप्तु विप्रन पुरुषोत्तमम्‌ ॥७८॥ 


श्रीम्यास्र उवाच 
एवं भविष्यतीस्युक्तवा दयुत्ततार जरान्ुनिः। 
तुत्तीणं च ददृशुर्विरूपं वक्रमष्टपा ॥७९॥ 
तं दृष्टा गूहमानानां यासां हासः स्फुटोऽमवत्‌। 
ताहश्रशाप एुनिः कोपमवाप्य इुरुनन्द्न ॥८०॥ 


कर दिया ओर फिर स्वयं अहीसोसे पराजित हो 
गया ॥ ६९ ॥ । 

हे अञ्जन) तूजो उन दस्णुभंदारा दरणकी 
गयी खियोके खि श्लोक करता है सो मँ तुशे उसका 
यथावत्‌ रहस्य बताता हं ॥ ७०॥ एक बार पूध्व- 
कालम विप्रवर अष्टावक्रजी सनातन ब्रह्मी स्तुति 
करते हुए अनेकों बपषेतक जलमें रहे ॥ ७१॥ दसी 
समय दै्योंपर विजय प्राप्त करनेसे देवताओने 
सुमेरुपवंतपर एक महान्‌ उत्सव किया । उसमे 
सम्मिलति होनेके ल्यि जाती हुई रम्भा घौर 
तिलोत्तमा आरि सैकदो-हजारो देवाङ्गनाने मागं- 
भ उन मुनिबरको देखकर उनकी अत्यन्त स्तुति 
जौर प्रसा की ॥ ७९७३ ॥ वे देवाङ्गनापं उन 
जटाधारी मुनिवरको कण्टपू्यन्त जख्मे इवे देखकर 
विनयपूवेक स्तुति करती हंद प्रणाम करने लगीं 
॥ ज ॥ हे कौरवश्रेष्ठ! जित प्रकारवे द्विजश्रेष्ठ 
अष्टावक्रजी प्रसन्नस्य उसी प्रकार वे अप्सरापं 
उनकी स्तुति करने टमी 11 ७५॥ 

य्ावक्रजी बोले-दहे महामागाओ ! मँ तुमसे 
प्रसन्नहः तुम्दासौ जो इच्छादहो मुद्चसे वही वर 
मौगद्ो; मै अति दुम होनेपर्‌ भी ठम्हारी इच्छा 
पूणं करूंगा ॥ ७६ ॥ तब रम्भा भर तिलोत्तमा 
आदि वैदिकी (वेदप्रसिद्ध) अप्सराओनि उनसे 
कहा--“हे द्विज ! आपके प्रसन्न हो जनिपर हमें 
क्या नहीं मि गया" ॥ ७७॥ तथा अन्य अप्तराओं- 
ने कहा-“यदि भगवान्‌ हमपर प्रसन्नै तोद 
विग्रनद्र ! हम साक्षात्‌ पुरुषोत्तम भगवान्‌को पति- 
रूपसे प्राप्न करना चाहती ईह” ॥ ७८॥ 


भीन्यासज्ञी बोकज्ते-तब "पेला ही होगा यदं 
कहकर मुनि अष्टावक्र जलसे बाहर अये । उनके बाहर 
आते समय भप्सरा्ओनि आठ स्थानोमे देहे इनके कुरूप 
देहको देखा ॥ ७९॥ उसे देखकर जिन अप्सराभोंकी 
हसी छिपानेपर भी प्रकट हो गयी, कुरुनन्दन ! 


उन्हें सुनिवरने कद्ध होकर यह जाप दिया--1 ८०॥। 


यस्मादिङृतरूपं मां मला हासावमानना । 
भवतीभिः कता तस्मादेतं श्राप ददामि वः ॥८१॥ 
मपरस्तादेन भर्तारं रब्ध्वा तु पुरपोत्तमम्‌। 
मच्छापोपहतास्सर्वां दस्युदृस्तं गमिष्यथ ॥८२॥ 
श्रीव्यास उवाच 

ह्युदी रितिमाकण्यं भुनिस्त।भिः प्रसादितः । 
पुनस्सुरेनद्ररोक वै प्राह भूयो गमिष्यथ ॥८३॥ 
एवं तस्य घुनेदशापादष्टवक्रस्य चक्रिणम्‌ । 
मरतां प्राप्यता याता दस्ुदस्ते सुराङ्गनाः ॥।८४।॥ 
तन्वया नात्र कत॑म्यरशोकोऽल्पोऽपि हि पाण्डव । 
तेनैवाखिलनाथेन सवं तदुपसंहृतम्‌ ॥८५॥ 


भवतां चोपसंहार आसन्नस्तेन पाण्डव । 
वलं तेजस्तथा बयं माहास्म्यं चोपसंहतम्‌ ॥८६॥ 
जातस्य नियतो मृल्यु; पतनं च तथोन्नतेः | 





विप्रयोगावसानस्तु संयोगः सश्चये क्षयः ॥८७॥ 
विज्ञाय न बुधारसोकं न हरषदुपयान्ति ये । 
 तेषामेषेतरे चेषां िकषन्तस्सन्ति तादृशाः | ८८॥ 


तस्मा्या नरपे ज्ञाखेतद्रातभिससह । 
 प्रित्यन्याखिढ त्वरं गन्तव्यं तपसे बनम्‌॥८९॥ 

तद्गच्छ धर्मराजाय निवेचैतद्वचो मम | 

परो भ्राठमिस्साद्धं यथा याति तथा इह ॥९०॥ 


हयक्तोऽभ्येत्य पार्थाभ्यां यमाग्यां च साज नः। 
दष्टं चैवाुभूतं च सवंमारयातवांस्तथा ॥९१॥ 
व्यासवाक्यं च ते घव शुताजु नुसेसििम्‌ । 


राज्ये परीक्षितं कखा ययुः पाण्डुसुता बनम्‌ ।।९२॥ 











““मुशचे कुरूप देखकर तुमने हसते हुए मेस अपमान 
करिया है इसलियि मँ तुमह यह्‌ शापदेतार्हूफि मैरी 
कृपासे श्रीपुरुषोत्तमको पतिरूपसे पाकर मी तुम 
मेरे ्चापके वज्चीभूत होकर दुटेतेके हाथों 
पडोगी" ॥ <१-८२॥ 


भीव्यासजी वोल्ञे-मुनिका यह वाक्य सुनकर 
इन अष्सराओने उन्हूं फिर प्रसन्न किया, तब मुनिवर 
ने उनसे कदा-“इसफे प्रशचात्‌ तुम पिर स्वगछोकमें 
चली जाओगी"” ॥ ८३} इस प्रकार मुनिवर 
अष्टावक्रके स्ापसे हौ वे दैवाङ्गनारे श्रीकरष्णचन्द्रको 
पति पाकर भी फिर दस्युभोके हाथमे पड़ी ईह ।८४॥ 


हे पाण्डव ! तुश्च इस विषयमे तनिक भी श्चोक 
न करना चाये; क्योकि उन अखिकलेश्चरने हय 
सम्पूण यदुकुखकरा उपसंहार किया है | ८५ ॥ तथा 
तुमलोगोका अन्त भी अव निकटही है; इसलिये खन 

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सबश्वरने तुम्हारे बर, तेज, वीयं ओर माहात्म्यका 
संकोच कर दिया है । ८६ ॥| जो उत्पन्न हुआ है 
उसकी मस्यु निश्चित है, उन्नतिक्रा पतन अवश्यम्भावी 
हे, संयोगका अन्त वियोग ही हे तथा सद्चय ( एकत्र 
करने ) के अनन्तर क्य (व्यय) होना सवथा 
निश्चित दी है- एसा जानकर जो वुद्धिमान्‌ पुरुष 
[ काभ या हानिमें ] हषं अथवा श्लोक नीं करते ` 
उन्हकी चेष्ठाका अवलम्बनकर अन्य मनुष्यमभी 
अपना वैसा आचरण बनाते ह | ८७-८८॥। इसलिये 
हे मरश्रेष्ठ ! तुम देखा जानकर अपने भादयांसहित 
सम्पूणं राञ्यको छोड़कर तपस्या लिये वनको 
जाओ ॥ ८९ अव तुम जाओ तथा धमराज 
युधिष्ठिरसे मेरी ये सारी बात कहौ ओर जिस तरह 
परसो भाक््योसहित बनको चले जा सको वैसा 
यतन करो ॥ ९०॥ 


मुनिवर व्यासजीके देखा कहनेपर अज्ञुन [दस्विना- 


परमे] आकर एथापुत्र (युधिष्ठिर ओर भीमसेन) तथा 
यमजो ( नङ्क ओौर सहदेव ) को उन्होने जो कुछ ' 


 जैसा-जैसा देखा ओर सुना था, सब ध्यो-का-त्यों सुना 


दिया ॥ ९१ ॥ उन सव पाण्डुपुत्रोने अजुनके मुखसे 
ग्यासजीका सन्देश्च सुनकर राञ्यपदपर परीक्षिवको 


अभिषिक्त किया ओर्‌ स्वयं वनको चले गये ॥९२॥' 


१८१ ^ १“ ४ 








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इतयेतत्तव मैत्रेय विस्तरेण मयोदितम्‌ । हे मैत्रेय ! भगवान्‌ वासुदेवे यदुवंशे जन्म सेकर 


जातस्य यग्रदोव॑े वासुदेवस्य चेष्टितम्‌ ॥९३॥ जो-जो ीरा्पँ की थीं वह सब मैने विस्तारपूवक 
; म के 
यश्चेतच्चरितं तस्य कृष्णस्य भृणुयास्सदा | क छना द ॥ ५ ॥ जो एष भा त 
(---; = इस चरिचकरो सवेदा सुनता है वह्‌ सम्पण पापोँसे 
-सवपापविनिरक्तो विष्णरोकः स॒ गच्छति ।॥९४॥ | सुकत दोक अन्तमे विष्णुरोकको जाता हं ॥ ९४ ॥ 











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इति श्रीविष्णुपुराणे पच्चमैऽरे अष्टा्चिशोऽध्यायः ॥ ३८॥ 


दृति शीपरश्चर्ुनिषिरचिते श्रीषिष्णुपरत्वनिर्णायके 
श्रीमति पिष्णुमहापुराणे पश्चमोऽकः समाप; । 





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नित्यानन्दं नित्यचिहारं निरपायं नीराधारं नीरदकान्ति निरवद्यम्‌ । 
नानानानाकारमनाकारमुदारं बन्दे विष्णुं नीरजनाभं नकलिनाक्षम्‌ ॥ 


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श्रीकिष्णुपुराण 
षष्ठ अण 
पहला अध्याय 


कलिधर्मनिरूपण 


श्रीमैत्रेय उवाच | 

व्याख्याता भवता स्गवंश्षमन्वन्तरस्थितिः । 
दंश्ालुचरितं चैव विस्तरेण महामुने ॥ १ ॥ 
भ्रोतुमिच्छाम्यदं तत्तो यथाबदुपसंहतिम्‌ । 
महाप्रज्ञा च कल्पान्ते च महाएुने 1 २॥ 

श्रीपराशर उवाच । 
रिय श्रुयतां मत्तो यथावदुपसंहतिः । 
कल्पान्ते प्राकृते चैव प्रलये जायते यथा ॥ २ ॥ 
अहोरात्रं पितृणां त मासोऽब्दसिदिवौकसाम्‌। 
चतुर्ुगसदसे तु ब्रह्मणो वै द्विजोत्तम ॥ ४ ॥ 
तं त्ता दपर च करि ति चतपंगम्‌ । 
दिव्यव॑षैसदसैस्त॒तदु्रादशषभिरन्यते ॥ ५। 
चतुर्ुगाण्यशेषाणि सदृशानि खवरूपतः । ` ` 





आयं कृतयुगं युक्ता मैतरेयान्त्यं तथा कलिम्‌ ।।६॥ 


आये कृतयुगे सर्गो ब्रह्मणा क्रियते यथा | 

करियते चोपसंहारस्तथान्ते च करो धुगे ॥ ७॥ 
श्रीमैत्रेय उवाच 

करेसरपं भगवन्वस्तरादवमदपि । 

धर्मधतुष्पाद्धगबान्यसिमन्विवग्च्छति ॥ ८॥ 
श्रीपराशर उवाच 

फकेस्खरूपं मैत्रेय यद्धबाञ्छोतुमिच्छति । 

तन्निवोध समासेन दत॑ते यन्मदाषने ॥ ९॥ 





ीेतेयजी वोल्े-दे महासने ! आपने षटि 
स्वना, व्ञ-परम्परा भौर मन्बन्तरोको स्थितिका 
तथा वंके चसित्का विस्तारसे वणेन किया ॥ १॥ 
अव नै आपसे कलयान्तम होनेवाले महाप्रख्य 
नामक संसारके उपसंहारका यथावत्‌ वर्णन सुनना 


ग्वाहता ह| २॥ 


श्रोपय्रजी बोले-दे मग्रे ! कल्पान्तके 
समय प्रात प्रखयमे जिस प्रकार जौवौका उपसंहार 
होता ह, बह सुनो ॥ ३॥ दे दिजो्तम ! मलुष्यौका 
एक सास पिदगणका, एक ब देवगणका ओर दो 
सद्द चलु्युग ब्रहमाका एक दिनरात होता हे॥४॥ 
सस्ययुग, त्रेता) ह्ापर भौर कि-ये चार युग दहै, 


| इन सवका कार मिलाकर वारं दनार दिभ्य बधं 


का] जाता है 11५1 हे मैत्रेय! [प्रसेक मन्वन्तरे | 
आदि छृतयुग भौर अन्तिम कङियुगको छोडकर 
शेष सव ' चतुग स्वरूपे पक समान हैं| ६॥ 
जिस प्रकार आदयः ( प्रथम्‌ ) सत्ययुगे ब्रह्माजी 
जगतकरी स्वना करते ह उसी प्रकार अन्तिम कलि- 
युग वे उसका उपसंहार करते दै ।॥ ७॥ 
श्रीमेजेयजी बोले दहे भगवन्‌ । कटिके स्वरूप. 
का मिस्तारसे णेन कीजिये, जिसमे चार्‌ चरणो 
वाख मगवान्‌ धमेका प्रायः लोप हो जाता है| ८॥ 
- ्रीपराशरजी बोक्लि-दे मेतरेय ! आप जो कछि- 
युगका स्वरूप सुनना चाहते है सो उस समय 
जो इछ होता दै वह संकषेपसे सुनिये ॥ ९ ॥ 


५०६ 


भ्रीविष्णुपुराण 


[ अ° १ 


----------------------------------------------- 





वर्णाभ्रमाचारवती प्रवृचिनं कौ नृणाम्‌ । 

न॒ सामक्छग्यजुधमविनिष्पादनरैतुकी ॥१०॥ 
विवाहा न करौ धर्म्या न शिष्यगुरुसंस्थितिः। 

न्‌ दाम्पत्यक्रमो नैव वहिदैवात्मकः कमः ॥११॥ 
यत्र छत्र द्रे जातो बी सर्वैशवरः करौ । 


कलियुगमे मलु्योकी प्रवृत्ति वर्णाश्रम-धमुकू 
नटी रहती जौर न वह ऋक्‌-साम-यलुरूप त्रयी- 
धर्म॑का सम्पादन करनेवाली ही होती है।॥ १०॥ 
उस समय धसविवाह, गुर-कषिष्य-सम्बन्धकी स्थितिः 
दास्पत्यक्रम ओौर अग्निम देवयज्ञक्रियाका क्रम 
अनुष्ठान ) भी नदीं रहता ॥ १९॥ 


करिुगमे जो बलवान्‌ होगा वही सवका 


| स्वामी होगा । चाहे किसी भी कुमे क्यो न उत्पन्न 


स्वेभ्य एव बर्गैम्यो योग्यः कन्यावरोधने ॥१२॥ 
येन केन च योगेन द्विजातिदीक्ितः करो । 

यैव सैव च मैत्रेय प्रायथित्तं फरो क्रिया ॥१३॥ 
सर्वमेव करौ शातं यस्य यद्वचनं दिन । 

देवता च कौ सर्वा सर्वस्वस्य चाश्रमः ॥१४॥ 
उपवासस्तथायासो वित्तोरसंस्तपः कौ ।. 
धमो यथाभिरचितैरुषठानेरमुष्ठितः ॥१५॥ 
वित्तेन भविता पुंसां खल्पेनाव्यमदः करौ । 

सीणां रूपमदश्चैवं केोरेव भविष्यति ॥१६॥ 
सुवणमणिरत्नादौ वस्त्रे चोपक्षयं गते | 

फरो लियो भविष्यन्ति तदा केरेररुद्कृताः॥ १७ 
परित्यक्ष्यन्ति मर्तारं वित्तदीनं तथा सियः। 

भर्ता भविष्यति क वित्तवानेव योषिताम्‌ ॥१८॥ 
यो वै ददाति बहुं सवं ष स्वामी सद्‌ वृणम्‌। 
स्वामिरवदेतुस्छम्बन्धो न चाभिजनता तथा ॥१९॥ 


गृहान्ता द्रव्यप्द्काता द्रव्यान्ता च तथा मतिः। 


अर्थाधालमोषमोग्यान्ता भविष्यन्ति फलो युगे।२०। 





हुआ हो; बह सभी वर्णोसे कन्या प्रहरण करनेभं 
समथ होगा ॥ १२॥ उस समय ह्विजातिगण जिस 
किसी उपायसे [ अर्थात्‌ निषिद्ध द्रभ्य आदिसे ] भी 
दीक्षितः हो जार्यंगे भौर जैसी-तैसी क्रियं दी 
प्रायश्चित्त मान कली जायगी ॥ १द॥ दे द्विज ! कलि- 


युगम जिसके शुखसे जो छुट निकर जायगा वही 
शाख समश्चा जायगा; उस समय सभी ( भूत-प्रेत 
मश्चान आदि) देवता होगे ओर सभौके सव आश्रम 
हयैर ॥ ९४।। उपवास, तीयौट नादि काय-क्लेज्ञ, घनः 
दान तथा तप जादि अपनी रुचिके अनुसार अनुष्ठान 
किये हुए ह) धमं समश्च जार्यगे ॥ १५॥। 


करियुगमे अल्प ॒धनसे दी लोगोको धनाद्वता- 
का गवं हो जायगा ओर कैशोसे ही च्िर्योको 
सुन्दर्ताका अभिमान होगा| १६॥ उस समय 
सुवर्ण, सणि! रत्न ओर वके क्षीण हो जानेसे 
िर्यौ केश-कलारपोसे ही अपनेको विभूषित करेगी 
॥ १७॥ जो पति धनहीन होगा चसे सिया छोड़ 
दैगी । कचियुगमें धनवान्‌ पुरुष ही सखियोंका पति 
होगा ॥ १८ ॥ जो मनुष्य [ चाहे वह्‌ कितनाही 
निन्य हो ] अधिक धन देगा वही लोगौका स्वामी 
होगा; उस समय स्वामित्वका कारण सम्बन्ध 
नहीं होगा, ओौरन कुटीनता ह्री उसक्रा कारण 
होगी ॥ १९ ॥ 


करिमें सारा द्रव्य-सं्रह घर बनानेमें हयी समाप्र 
हो जायगा [ दान-पुण्यादिमे नही], बुद्धि धन- 
सञ्चये ही लगी रहेगी { आत्मज्ञानमे नदीं ] तथा 
सारी सम्पत्ति अपने पभोगम हौ न्ट होगी [ उससे 
अतिथियत्छारालिचलोगा1 } २८ 








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खियःको भविष्यन्ति स्वैरिण्यो रहितिस्पहाः। 
अन्यायावाप्नवित्तेषु पुरुपा; स्प्रहयाङ्वः ॥२१॥ 
अभ्य्थितापि सुहृद स्वाथंहानिं न मानषाः। 
पणार्धार्थादधमाप्रेऽपि करिप्यनिति कलौ द्विज ॥२२॥ 
समानपौरपं चेतो भावि विप्रेषु वै कलो | 
्षीरप्रदानसम्बन्धि माबि गोपु च गौरम्‌॥२३॥ 
अनाधृष्टिमियप्रायाः प्रजाः ुद्धयकातराः । 
भविष्यन्ति तदा सर्वे गगनासक्तदृष्टयः ॥२४॥ 
फन्दमूरफलाहारास्तापसा शव मानवाः । 
आमानं घातयिष्यनित ह्यना्ृष्टयादिदुःखिताः। २५ 
दुभिक्षमेव सततं तथा करेश्मनीश्वराः । 
प्रप्स्यनित व्याहतसुखप्रमोदा मानवा; कलो॥२६॥ 
अस्नानभोजिनो नामनिदेवतातिथिपूजनम्‌ । 
करिष्यन्ति करो प्राप्ने न च पिण्डोद्कक्रियाम्‌।२७। 
लोलुपा दस्वदेहाश्च बहनादनतत्पराः । 
बहुप्रजाल्पभाग्याशच मविष्यन्ति कलौ सियः॥२८॥ 
उभाभ्यामपि पाणिभ्यां शिरःकण्डूयनं खिथः। 
इवन्त्ो गुरुमत'णामाजञ भेरस्यन्त्यनादराः|२९। 
स्वपोषणपराः रा देहसंस्कारव्निताः । 
परषारृतमापिण्यो मविष्यन्ति कलो स्ियः ॥२०॥ 
दुःशीला दुषटशौरेषु इ्न्त्यस्सततं स्पृहाम्‌ । 
असदूदृत्ता भविष्यन्ति पूरूपेषु इलाङ्गनाः ॥३१॥ 
वेदादानं करिष्यन्ति पटवशधाकृतत्रताः | 


गृहस्थाश्च न होष्यन्ति न द।स्यन्टुचितान्यपि। २२) 


वानप्रस्था भविष्यन्ति ग्राम्यादारपरिग्रदाः। 
भिक्षवथापि पित्रादिस्नेहसम्बन्धयन्त्रणाः ॥२३२॥ 





कलिकाल्मे खियाँ सुन्दर पुरुषकी कामनासे 
स्वेच्छाचारिणी होंगी तथा पुरुष अन्यायोपार्जित धनके 
इच्छुक होगे ॥ २१॥ हे द्विज ! कलियुगमे अपने 
सुहटदोके प्राथेना करनेपर भी रोग एक-एक द मड़के 
किये भी स्वाथ-हानि नही करेगे ॥ २२॥ कस्मिं 
ब्रह्मणोके साथ शुद्र आदि समानताका दावा करेगे 
ओर दूध देनेके कारण हय गौओंका सम्मान 
होगा ॥ २३॥ 


रस समय सम्पूणं प्रजा षुधाकी व्यथासे वया्ुख 
हो प्रायः अनावृष्टिफे भयन्ते सदा आकराश्चकी ओर 
दृष्टि गाये रहेगी ॥ २४ | मुष्य [ अन्नक्रा अभाव 
होनेसे ] तपसियोके समान केव कन्द, मूल ओौर 
फर आदिके सहारे ही रहैगे तथा अनावृष्टिके कारण 
दुखी होकर आत्मघात करगे ।। २५॥ कलियुगके 
असमथं लोग सुख ओर आनन्दके नष्ट हो जनिसे 
परायः सवेदा दुर्भिक्ष तथा क्लेश ही भोगेगे ॥ २६॥ 
कलिके भनेपर लोग बिना स्नान कि दही भोज्ञन 
करगे, अग्नि, देवता भौर अतिथिका पूजन न करगे 
ओर न पिण्डोदकक्रिया ही करे ॥ २७॥ 


उस समयकी सिया विषयलोलुप, छोटे शरीरवाही, 
अति भोजन करनेवाली, अधिक सन्तान पैदा करने. 
वारी ओर मन्दभाग्या होगी ॥ २८॥ बे दोनों 
हाथोसे क्लिर सखुजाती हृ अपने गुरुजनों ओौर 
पति्योके आदैश्चका अनादरपृ्ेक खण्डन करेगी 
।। २९ ॥ कटियुगकी शिरया अपना षी पेट पार्नेमे 
तरः श्च द्र चित्तवाखी, शारीरिक शौचसे हीन तथा 
कटु ओर मिथ्या भाषणे करनेवाी होगी ॥ ३०॥ 
उस समयकी कुटाङ्गनाए निरन्तर दुश्चरित पुरषोकी 
द्च्छा रखनेवाली एवं दुराचारिणी होंगी तथा 
पुरुषोके साथ असदुव्यवहार करंगी ॥ ३१॥ 
्रह्मचारिगण वैदिक ब्रत आदिसे हीन रहकर हो 
वेदाध्ययन करेगे तथा गृहस्थगणन तो हुवन करेगे 
ओौरन सत्पात्रको उचित दान ही दंगे ॥३२॥ 
वानप्रस्थ [ वनके कन्द-मङादि छोढृकर ] म्रास्य- 
भोजन स्वीकार करगे भौर संन्यासी अपने मित्रादिः 
के स्नेहूवन्धनमें हौ बंधे रहेगे ।॥ ३३॥ 


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अरक्षितारो हर्ताखशुल्कव्याजेन पार्थिवाः । 
हारिणो जनवित्तानां सम्प्राप्ते तु कशो युगे ॥३४॥ 
यो योऽश्वरथनागाद्यस्प स राजा मविष्यति। 
यश्च यश्वाबरस्सव॑स्स स भृस्यः कलौ युगे ॥२५॥ 
वैश्याः कषिवणिज्यादि सन्त्यस्य निजकमंयत्‌। 
्रवृतया प्रवरस्॑न्ति कासकमोपजीषिनः ॥३६॥ 
मकषवरतपराः शूद्राः ्रज्याटिद्धिनोऽधमाः। 
पापण्डसश्रयांवृत्तिमाभ्रयिष्यन्ति सद्छृताः ॥२७॥ 
दुभिक्षकरपीडामिरतीवोषट्रूता जनाः । 
गोधूमान्नयवान्नाव्वन्देशान्यास्यन्ति दुःखिताः 
वेद्मागे प्रलीने च पाषण्डादयेततो जने । 
अथर्मवृद्रथा रोकानामल्पमायुभंवि्यति ॥२९॥ 
अशाच्चविहितं घोरं तप्यमनेषु वै तपः । 
नरेषु सृपदोषेण बाल्ये मृस्ुभेविष्यति ॥४०॥ 
भविता योषितां घ्रूतिः पश्चपट्सपषवार्पिको । 
 नवाष्टदशषवर्पाणां महुष्याणां तथा रौ ॥४१॥ 
पलितोद्भव मविता तथा द्वादक्वापिंकः। 
नातिजीदति वै कथिकरो वर्पणि धिश्रतिः।४२॥ 
अन्पृप्रज्ा वृथारिङ्भा द्टन्तःकरणा; कलो । 
यतस्ततो षिनङ्च्यन्ति कालेनान्पेन मानवाः ४३। 


यदा यदाहि मैत्रेय हानिरस्य रक्ष्यते 
तदा तदा करेवृद्धिरदुमेया विचक्षणैः ॥४४।॥ 
यदा यदा हि पापण्डवृदधिेप्रेय रक्ष्यते | 
तदा तदा कल्रद्धिरलमेया महात्मभिः ॥४५॥ 
यदा यदा सतां हानिरवेदमार्ानुत्तारिणाम्‌। 
तदा तदा करद्धिरमेया विचक्षणैः ॥४६॥ 
प्रारम्भाथावसीदन्ति यदा धर्मभृतां नृणाम्‌ । 


+सु १०्‌ 


तदानुमेयं प्राधान्यं कठेम प्रेय पण्डितैः ॥४५७।॥ 


११." ` ऊ .॥ । 








 -१~ ॐ 
__________- 
कटियुगके आनेपर राजालोग प्रजाकी रक्षा नहीं 
करगे, बल्कि कर छेतेके बहाने प्रजाकराही धन 
छीरनेगे ॥ ३४ ॥ उस समय जिस-जिसके पाप बहुत- 
से हाथी, घोडे ओर रथ होगे वह्‌-वह ही राजा होगा 
तथा जो-जो श्चक्तिक्यन होगा बह-वह्‌ ही सेवक होगा 
॥ ३५ ॥ वेश्यगण कृषि-वाणिञ्यादि अपने कर्मोको 
छोडकर हिल्पकारी आदिसे जीवन-निव्रीह्‌ कर्ते हुए 
शु्रवृत्तियोमं ही खग जार्यगे ॥ ३६ ॥ अधम शुद्रषण 
संन्यास-आश्रमफे चिह्न धारणकर भिक्षावृत्निमें तपर 
रहैगे ओर लोगोँसे सम्मानित होकर पाषण्ड-वृत्तिका 
आश्रय रगे ॥ ३७ ॥ प्रजाजनन दुर्भिक्ष जर करकी 
पीड़ासे अत्यन्त खिन्न ओौर दुःखित होकर पेसे 
देशोमे चले जा्यंगे जहौ गहरं गौर जौकी अधिक्रता 
ह्येगी ॥ ३८ ॥ 
उस समय वेद्-मागंका ढोप, मनुष्यो पाषण्ड. 
कौ प्रचुरता ओर अधमंकी बृद्धि हो जानेसे प्रजाकी 
आयु अल्प हो जायगी ॥ ३९५॥ लो गोके स्ाख्चविरुद्ध 
घोर तपस्या करनेसे तथा राजाके दोषसे प्र जाको 
वाल्यावस्थाभे मरस्य होने ल्गेगौ ॥ ४०} कचं 
पौच-ढः अथवा सात बषंकी श्वी जओौर आट-नौया 
दस वषे पुरुषोके ही सन्तान हो जायगी ॥ ४१॥ 
बारह चकौ अवस्थे हौ लोगोके बाढ पकने कगेगे 
ओर कोई भी भ्यक्ति बीस वषंसे अधिक जीवितन 
रहेगा ॥। ४२ ॥ कलियुगमे लोग मन्दबुद्धिः व्यथं 
चिह्न धारण कर्नेवाठे भौर दुष्ट चित्तवाले ह्योगे, 
दइसल्यि वे अल्पकाल्मे ही नष्ट हो जार्यंगे ॥ ४३ ॥ 


हे मैत्रेय ! जब-जवब धमेकी अधिकानि दिखलायी 
द्‌ तभी-तमी बुद्धिमान्‌ मनुष्यको कलियुगकी वृद्धिका 
अनुमान करना चाहिये ॥ ४४ ॥ हे भेत्रेय ! जव- 
जब पाषण्ड बदा हुजा दीखे तमी-तभी महात्माओको 
कलियुगकी बृद्धि समश्चनी चाहिये ॥ ४५ ॥ जब- 
जब वेदिक मागेक्रा अनुसरण करनेवारे ससपुरुषोका 
अभाव हो तमी-तभी बुद्धिमान्‌ मनुष्य कलिकी वृद्धि 
हुई जाने ॥ ४६॥ हे मैत्रेय ! जब धर्मात्मा पुरुषोके 
आरम्भ कयि हुए कार्योमि असफङ्ता हो तव 
पण्डितजन कचियुगकी प्रधानता समङ्नं ॥ ४७ ॥ 





अ १ | 


॥ 8. 


५०९, 





यदा यदा न यज्ञानामीश्वरः पुरुषोत्तमः । 
इउयते पुरुपयंस्तदा ज्ञेयं कलेवरम्‌ ।॥४८॥ 
न प्रीतिर्वेदबादेषु पाषण्डेषु यद्‌ रतिः। 
केवरदधिस्तदा प्राततैरनुमेया विचक्षणैः ॥४९॥ 
कलो जगत्पतिं विष्णुं सर्वसर्टरमीश्वरम्‌ । 
नाच॑पिष्यन्ति मैत्रेय पष्ण्डोपहता जनाः ॥५०॥ 
किं देवैः किं दिसैरवदेः ककि शोचेनाम्बुजन्मना | 
र्येव विप्र वक्ष्यन्ति पाषण्डोपहता जनाः॥५१॥ 
स्वल्पाम्बुृषटिः पजैन्यः सस्यं सखन्पफरं तथा | 
फलं तथाल्पघ्ारं च विप्र प्राप्ते कलो युगे ॥५२॥ 
साणीप्रायाणि वच्राणि ज्चमीप्राया महीरुहाः । 
शुद्रभायास्तथा वर्णां मविष्यनिति कौ युगे॥५२॥ 
अणुप्रायाणि धान्यानि अजाप्रायं तथा पयः। 
भविष्यति कौ प्रापे ्यौरीरं चानुरेषनम्‌ ॥५४॥ 
शधभुश्वसुरभूयिष्ठा गुरखश्च तृणां कौ । 
र्यालादयाहारिभार्या्च सुहृदो युनिसत्तम ।॥५५॥ 
कस्य माता पिता कस्य यथा कर्मानः पुमान्‌। 
इति चोदादरिप्यन्ति श्वशुराचुमता नराः ॥५६॥ 
वाद्मनःकायनेदोपिरमिभूताः पुनः पुनः । 

नराः पापान्यञुदिनं करिष्यन्त्यल्पमेधसः।।५७॥ 
निस्ववानामरौचानां निहीकाणां तथा नृणाम्‌ । 
यद्यद्दुःखाय तत्सवं कलिकारे भविष्यति ॥५८॥ 
निस्स्वाध्यायवपटूकारेस्वधास्वाहाविवजिते। 
तदा प्रविरलो धर्म; कविलोके निवस्स्यति॥५९॥ 
तत्राल्पेनैव यत्नेन पुण्यस्कन्धमनुत्तमम्‌ | 
कृरोति यं कृतयुगे क्रियते तपता हि सः॥६०॥ 














जब-जव यज्ञोके अधीर भगवान्‌ पुरुषोत्तमका 
लोग यज्ञोँदासय यजन न करं तब-तव कटका प्रभाव 
ही समश्चना चाहिये ॥ ४८।। जब वेद-वादमे प्रीतिका 
अभाव हो भौर पाषण्डमें प्रेम हो तव वुद्धिमान्‌ प्राज्ञ 
पुरुष कडियुगको बदा हु जानं ॥ ४९॥ 


हे मैत्रेय ! कलियुगमे छोग पाषण्डके वश्चीभूत 
हो जानेसे सवके स्चयिता ओर प्रभु जगत्यति 
मगवान्‌ विष्णुका पूजन नहीं करेगे ॥ ५० ॥ हे 
विग्र! उस समयलोग पाषण्डके वज्ञीमूत होकर 
कषगे--“इन दैव, द्विज, वेद ओर जलसे होनेवाठे 
शौचादि क्या रक्ला है? ॥५१॥ दहे विप्र 
कङिके आनेपर वृष्टि अल्प जछ्वाखी होगी, खेती 
थो) उपज वारी होगी ओौर फलादि अल्प सारयुक्त 


होगे 1 ५२ ॥ ककिथुगमे प्रायः सनके बने हुए सवके 
वश होगे, अधिकतर जञमीके ब्रृक्ष होगे भौर चारों 
वणं बहुधा शूद्रवत्‌ हो जार्यै ॥ ५३॥ कल्कि 
आनिपर धान्य अत्यन्त अणु होगे, प्रायः बकरियोका 
ही दूध मिषेगा भौर उशीर (खस ) हौ एकमात्र 
अनुलेपन दोगा ॥ ५४॥ 


हे मुनिश्रेष्ठ ¦ कलिथुगमे सास ओर सुरही 
सोगोके गुरुजन होगे ओर हृदयहारिणी भाय तथा 
साले ही सुषद्‌ दगे ॥ ५५॥ रोग अपने समुरके 
अनुगामी होकर कगे फं कौन किसका पितादहै 
ओर कौन किसकी माता; सव पुरुष अपने कम. 
नुसार जन्मते-मरते रहते है" । ५६ । दस समय 
अत्पदुद्धि पुरुष बारबार घाणी, मन ओर ्चरीरादिः 
के दोपषोके वजीभूत होकर प्रतिदिन पुनःपुनः पाप- 
कमं करेगे ॥ ५७ शाक्त, शौच भौर लजाहीन 
पुरुपोको जो-जो दुःख हो सकते है कलयुगमे वे 
सभी दुःख उपस्थित होगे ॥५८॥ उस्र समय 
संसारके स्वाध्याय ओर बषट्‌कारसे हीन तथा 
स्वधा ओौर स्वाहासे वर्जित हो जनेसे कहीं-कहीं 
कुछट-कुछ धमं रहेगा ॥ ५२९ ॥ किन्तु कलियुगमें 
मनुष्य थोडा-सा प्रयत्न कर्नेसे ही जो अच्यन्त 
उत्तम पुण्यराशि प्राप्र करता है वही सत्ययुगे 
महान्‌ तपस्यासे प्राप्न किया जा सकता हे ॥ ६० ॥ 


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इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठऽ प्रथमोऽध्यायः 1\ १॥ 


भ्रीविष्णुपुराणं 


[ अ० 








दूसरा अध्याय 


श्रीव्यासजीद्धाय कलियुग, शद्ध ओर खिरयोका मह-वर्णन 


भीपराज्ञर उवाच 
व्यासश्वाह महाबुद्धियंदप्रैव हि वस्तुनि । 
तच्छु.यतां महाभाग गदतो मम त्खतः॥ १ ॥ 
कस्मिन्कालेऽल्पकेो घर्मो ददाति सुमहत्फरम्‌। 
नीनां पुण्यवादोऽभूक्केशासौ क्रियते सुखम्‌॥२॥ 
सन्देहनिर्णयार्थाय वेदव्यासं महाघुनिम्‌ । 
ययुस्ते संशयं प्रष्टु मत्रे शुनिपुङ्गवा; ॥ २ ॥ 
ददृशुस्ते यनि तत्र जाहवीसलिके द्विज । 
वेदव्यासं महाभागमद्धंस्नातं सुतं मम ॥ ४॥ 
र्नानावसानं ते तस्य प्रतीक्षन्तो महर्षयः| 
तस्थुस्तीरे महानघास्तसषण्डयुपाप्रिताः ॥ ५॥ 
मगनोऽथ जाह्ृवीतोयादुत्थायाह सुतो मम । 
शद्रस्ताधुः कलिस्साधुरिसयेवं शरण्वतां च॥ 8 ॥ 
तेषां मुनीनां भूयश्च ममज्ञ स॒ नदोजले । 
साघु साध्विति चोस्थाय शूद्र धन्योऽसि चात्रवीत्‌७ 
निमग्न समुत्थाय पनः प्राह मृदाुनिः । 
योषित; साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्य तरोऽस्ति काट 
ततः स्नात्वा यथान्यायमायान्ते च कृतक्रियम्‌। 
उपतस्युमहामागं सुनयस्ते सुतं मम ॥९॥ 
कृतसंवन्दनां थाह ृतासनपर्रहान्‌ । 
किमथमागता यूयमिति सत्यवतीसुतः ॥१०॥ 
तमू; संशयं प्ट मवन्तं वयमागताः । 
अल तेनास्तु तावन्नः कथ्यतामपरं खया ॥११॥ 


ननद ति यट्णोतः नाट, पारितति योषित।। 








भरीपराश्चरजी बोले-हे महाभाग ! इसी विषय- 
म महामति व्यासदैवमे जो कुछकहा दै वह मै 
यथावत्‌ वणेन करता हर सुनो॥ १॥ एक बार 
मुनियोम [ परस्पर 1 पुण्यके विषयमे यह्‌ वातराप 
हज करि “किस समयमे थोड़ा-सा पुण्य मी महान्‌ 
फठ देता है ओर कौन उसक्रा सुखपूवंक अनुष्ठान 
कर सकते है ¢ ॥ २॥ हे मैत्रेय ! वे समस्त सुनि- 
र्ठ इस सन्देहका निर्णय करनेके लिये महामुनि 
म्यासजीके पास यहु प्रन पृषछने गये ॥३॥ हे 
दविज ! व्यँ पहचनेपर उन युनिजनोने मेरे पुत्र 
महाभाग व्यासजीको गङ्गाजीमे आधा स्नान किये 
देखा ॥ ४ ॥ वे महर्षिगण व्यास्तजीके स्नान कर 
चुकनेक प्रतीक्षा उस महानदीके तटपर बृक्षोके 
तले बैठे रहे ॥ ५॥ 

उस समय गङ्गाजीमे इव गये मेरे पुत्र 
भ्यासने जखसे उठकर उन भुनिजनोंके सुनते हुए 
कलग ही शे दै, शूद्र ही श्रेष्ठ हेः य्व वचन 
कहा । ठेसा कहकर उन्दने फिर जलम गोता गाया 
जौर फिर उठकर कहा-शूद्र ! तुम ही श्रेष्ठ हो, 
तुम ही धन्य हो' || ६-७ | यह्‌ कहकर वे महामुनि 
फिर जल्मे मग्नहो गये भौर फिर खडे होकर 
बोरे--“खियां ही साधुः बेदी धन्य दहै, उनसे 
अधिक धन्य ओर कौन है ?॥ ८ ॥ तदनन्तर जव 
मेरे मक्षभाग पुत्र व्यासज्ी स्वान करनेके अनन्तर 
नियमानुसार नित्यकमंसे निधरृत्त होकर आयेतोवे 
मुनिजन उनके पास पहुचे ॥ ९॥ वर्ह आकर जब 
वे यथायोग्य अभिवाद्नादिके अनन्तर आसनोपर 


बैठ गये तो सत्यवतीनन्दन भ्यासजीने उनसे पूछा- 
“जापलोग कैसे जये दै १,॥ १०॥ 


तव युनियोने उनसे कहा--हमलोग आपसे एक 
सन्देह पूछनेके ल्य भये थे, किन्तु इस समय इसे 
तो जाने दीजिये, एक ओर बात हमे बतराइये ॥ ११॥ 
भगवन्‌ ! आपने जो स्नान करते समय कै बार 


नना अ क (नतत चम तिष्व 3 आ = मोष 








यदाह भगवान्‌ साधु धन्याश्चेति नः पुनः ।॥१२॥ | दै लिया दौ साध भौर धन्य दै, सो या बात 


तस्सवंश्रोतुमिच्छमो न चेद्‌ गुं माने । 


तत्कथ्यतां ततो हुरस्थं प्च्छामस्सवां प्रयोजनम्‌ १३ 
` श्रीपराश्चर उवाच 
ह्युक्तो धनिमिर्ग्यासः प्रदस्येदमथात्रवीत्‌ । 
शरूयतां मो यनिशरष्ठा यदुक्तं साघु साधिति ॥१४॥ 
श्रीम्यास् उवाच 
यक्ते ददामिरवपे्ेतायां हायनेन तत्‌ । 
दवापरे तच्च मासेन दयहोरात्रेण त्रौ ॥१५॥ 





तपमो ब्रह्मचयंस्य जपादेश फलं हिजाः । 


पोते करसमा्िमापिम्‌॥१९। 
ध्यायन्कृते यजन्यजञेल्ेतायां द्वापरेऽच॑यन्‌ | 
यदाप्नोति तद्‌प्नोति कणौ सं कीत्य केशवम्‌।। १७॥ 
धर्मोत्वर्षमतीषातर प्राप्नोति पुरपः करो । 
अल्पायासेन धर्म्ास्तेन त॒टोऽस्म्यहं कलेः ॥१८॥ 
वरतचर्यापर्ाह्या बेदाः पूवं द्विजातिभिः । 








ततरखधर्मसम्प्ाप्तैयं व्यं विधिवद्धतैः ॥१९॥ 





वथा फथा वृथा भोजय वरथेज्या च द्विजन्मनाम्‌ । 
पतनाय ततो भाव्यं तैस्तु संयमिमिस्सदा ॥२०॥ 
असम्यक्रणे दोपस्तेषां स्वेषु वस्तुषु | 
भोज्यपेयादिक चेषां नेच्छाभ्रा्षिकरं जाः ॥२१॥ 
पारतन्त्य समस्तेषु तेषां कार्येषु वै यतः । 
जयन्ति ते निरजोन्लोकानक्छेशेन महता द्विजाः॥२२॥ 
 दविजुभुषयेवेष . ` पाकयत्ताधिकाखान्‌ । 


ह १ हम यह्‌ सम्पूणं विषय सुनना चाहते दहै । दे 
महामुने ! यदि गोपनीयनहो तो किये | इसके 
पीठे हम आपसे अपना आन्तरिक सन्देह 
पूगे" ॥ १२-१३ ॥ 


भीपरक्षरजी बोल्ले-मुनियोके इस प्रकार 
पूषछनेपर व्यास्तजीने हँसते हए कदा-“हे मुनि- 
्रष्ठो ।र्मैनेजो इन्द बारंबार साधु-साधु कहा था, 
उसक्रा कारण सुनो" ॥ १४॥ 

धीव्यासज्ी बोले-हे द्विजगण ! जो फट सत्ययुगे 
दृश वं तपस्या, ब्रह्मचये ओर जप आदि करनेसे 
मिता दै उसे मयुष्य तरेतामे एक वपं, द्वारम एक 
मास ओौर कलियुगमें केव एक॒ दिन-रातमें प्राप्त 
करछेतादहैदइस कारणदही मने कलियुगको श्रेष्ठ 
कदा है ॥ १५-१६ ॥ जो फर सत्ययुगे ध्यान) 
च्ेताम यज्ञ ओर द्वापरमे देवाचंन करनैसे प्रप्र 
होता दै बही किमे श्रीकृष्णचन्द्रकरा नाम-कीतंन 
करनेसे मिल जाता है ॥ १७॥ हे धमंज्ञगण ! कलि. 
युगमे थोडे-से परिभ्रमसे ही पुरुषो मदान्‌ धर्मी 
पराप्तिहो जातीदहै; इसथ्यि मँ कलिगुगसे अति 
सन्तुष्ट हं ॥ १८ ॥ 

[ अव्र शुद्र क्यों श्रेष्ठ रहै; यह वतरते] 
द्विजातियोको पहले ब्रहमचयव्रतका पालन करते हष 
वेदाध्ययन करना पड़ता है ओर फिर स्वधम चरण. , 
से उपार्जित धनके द्वारा विधिपूष्षंक यज्ञ करने पड़ते 
है ॥ १९॥ इसमें भी व्यथे वातीह्ाप, ठं भोजन 
ओौर ग्यथं यज्ञ उनके पतनके कारण होते द; इसल्यि 
उन्हें सद्‌ा संयमी रहना आवङ्यक है । २०॥ सभौ 
कामम अनुचित ( विधिके धिपरीत ) करसे उन 
दोष गता है, यौतक कि भोजन ओौर पानादिभी 
वे अपनी इच्छा सार नदीं भोग सकते ।}२१॥ क्योकि 
उन्हं सम्पूणं कार्यों परतन्त्रता रहती दै । हे हिज- 
गण | इस प्रकार वे अत्यन्त क्टेशसे पुण्वरोफौको 
प्राप्न करते दै ॥ २२॥ किन्तु जिसे केवल [ मन्त्रहीन ] 
पाक-यज्ञका द्री अधिकार है वह्‌ चुदर द्विजोकी 
सेवा करनेसे ही सदुगति प्राप कर लेता है, इसि 


निजाञ्जयतिवै लोकाञच्छू्रो.धन्यतरस्तत। ॥२३॥। | बह अन्य जाति्योकौ अपेक्षा धन्य्रतर है ॥ २२॥ 


९५ 


[ष ाकाकाातायाााावयाकपकवकााक ीिपिणरिणगिणणरर गिरिक 


भक्ष्यामक्षयेष नास्यास्ति पेयपेयेषु रै यतः । 
नियमो गुनिशादृलास्तेनासौ स।ध्वितीरितः ॥२४॥ 
स्धर्मस्याधिरोधेन नरैरन्धं धनं सदा | 
प्रतिषादनीयं पत्रेषु यष्टव्यं च यथाविधि ॥२५॥ 
तस्याजने महालेशः पालने च द्विजोत्तमाः। 
तथ।सद्िनियोगेन विज्ञातं गहनं सृणाम्‌ ॥२६॥ 


एवमन्यैस्तथा कलेर; पुरुषा द्विजसत्तमाः । 
निजाञ्जयन्तिवै लोकान्प्राजापत्यादिकान्क्रमात्‌ २७ 
योपिच्टुशुपणाद्धत कमणा मनसा गिरा । 
तद्धिता भुममाप्नोति हस्सालोकयं यतो दविजाः॥ २८ 
नातिश्छेशोन महता तानेव पुरुषो यथा । 

तृतीयं व्याहृतं तेन मया साध्विति योषित; ॥२९॥ 


एतदः कथितं विप्रा यन्निमित्तमिहागताः | 
ततपृच्छत यथाकामं सवं बक्ष्यामि बः स्फुटम्‌॥२०॥ 


ऋषयस्ते ततः प्रोचुयष्टव्यं महा्रुने । 


अस्मिमेव च तत्‌ प्रश्ने यथाघच्छथितं स्रया ॥३१॥ 
भरपराश्चर उवाच 

ततः प्रहस्य तानाह कृष्णद्वैपायनो घुनिः । 

तिस्मयोत्पुल्छनयनांस्तापसांस्ताज्चपागताद्‌। २२॥ 

मयैष भवतां प्ररो ज्ञातो दिन्येन चकषुषा । 

ततो हि षः प्रसङ्धेन साधु साध्विति भाषितम्‌॥३२॥ 

स्वल्पेन हि प्रयस्नेन धर्मस्सिद्रवति वै कलो । 

नरैरास्मयुणाम्भोमिःक्षार्तिखिहफिनवषैः॥ २४॥ 

देथ द्विजरुधरषावत्परेद्िनसत्तमाः । 

तथा स्रीमिरनायाप्रात्पतिशुधरषयेव हि ॥२३५॥ 


५ ।।५ > {९१ ८ 








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1 


| हे मुनिञ्चादृखो ! शुद्रको भक्ष्यामक्य जथा पेयापेय- 


का कोद नियम नहींदै, इसष्यि ओने उसे साधु 
कहा है ॥ २४॥ 


[ अव स्ियोको फिसदिये श्र कहा, यह्‌ बत- 
छते दै--] पुरुषोको अपने धर्मातुकूर प्राप कयि 
हए धनसे ही सवदा सुपा्रको दान ओर विधिपूबेक 
यज्ञ करना चाद्ये ॥ २५॥ है द्विजोत्तमगण ! इस 
दरभ्यके उपाजन तथा रक्षणमे महान्‌ क्ठेशच होता है 
ओर उसक्रो अनुचित कायम रगानेसे भी मतुष्यो- 
को जो कष्ट भोगना पड्तादहै वह मालूम हीह 
॥ २६॥ इस प्रकार है द्विजसत्तमो ! पुरुषगण इन 
तथा रेसे हयी अन्य कष्टसाध्य खपायोँसे क्रमश्च 
प्राज्ञापत्य आदि हभ छोकों को प्राप्न करते दै ॥ २७॥ 
िन्तु चयं तो तन-मन-वचनसे पतिक सेवा करने- 
से ही उनकी हितकारिणी होकर पतिके समान हुम 
लोकोको अनायास ददौ प्राप्त कर छेतीर्हैजो कि 
पुरुषोंको अत्यन्त परिभमसे मिते हैँ । इसीषिये मेने 
तीसरी बार यह कहा था कि श्षियौँसघुर्हैः 
॥ २८-२२॥ हे विभ्रगण ! मैने आपरोगोसे यह 
[ अपने साधुबादका रहस्य ] कह दिया, अव्र आप 
ज्िसल्यि पधारे है वह्‌ इच्छातुसार पिये । मँ 
आपसे सब बातें स्पष्ट करके कह दगा ॥ ३०॥ 
तब ऋषियोने कहा--“ह महान ! हमे जो कुछ 
पूना था उसका यथावत्‌ उत्तर आपने इसी प्रइन- 
मेदे दियादहै।[ इसख्यि अब हमे ओौर छख पृषना 
नदीं है 1" ॥ ३१॥ 

भ्रीपराश्चरजी बोज्ञे-तव मुनिवर कृष्णद्रेपा- 
यनने विस्मयसे खि हुए नेच्रोंवाठे उन समागत 
तपस्वियोसे हंसकर कहा ॥ ३२॥ सैं दिव्य दृष्टस 
आपके इस प्रनको जान गयाथा इसील्यि मैने 
आपलोगोके प्रसंगसे दी "साधु-साधु" कदा था॥ ३३॥ 
जिन पुरुषोँने गुणरूप जरसे अपने समस्त दोष धो 
डाले है उनके थोडे-से प्रयन्नसे हौ कलियुगमे धमं सिद्ध 
हो जात दै ॥ २४॥ दे द्विजश्रेष्ठो ! श्रौको दहिजसेवा- 


` | परायण होनेसे ओर लियोको पतिक सेवामाच्र करने- 


से ही अनायास धर्मकी सिद्धिदो जाती है ॥ ३५॥ 














दइसील्यि मेरे विचारसे ये तीनों धन्यतर है, क्योकि 


९ ह , सत्ययुगादि अन्य तीन युगो भी द्विजातियोको ही 
ध्मसम्पादने क्लेशो दविजातीनां कृतादिषु ॥३६॥ | म सम्पादन करते कषान कलेश उठाना पड़ता 


भवङद्धियंदभिग्रतं तदेतत्कथितं मया। हे ॥ ३६॥ हे धमंज्ञ ब्राह्मणो} इस प्रकार आप- 
_ „ + „ ोगोँका जो अभिप्राय था बह मैने आपके बिना 
भगृेनापि धमाः किमन्यत्कियतां दिनाः ॥ ३७॥ | पूष हौ कह दिया, अव ओर क्या कर १" || १०॥ 


ततेश्चितयमप्येतन्मम धन्यतरं मतम्‌| 


श्रीपराशर उनताच ्रोपराशरजी बोज्ते- तदनन्तर उन्होने प्यासजी- 
ततस्सम्पूज्य ते व्यासं प्रशशंसुः पुनः पुनः | फा पूजनकर उनकी बारंबार प्रशंसा की अौर उनके 


यथागतं विजा जगध्यसोकतङतनिवयाः॥। २८॥ कथनानुसार निश्चवयकर जहासि जयेथे बह चे 
` वत वजा जगन्यात्ाक्तङतानशरषाः ॥२८॥ | रये ॥ २८॥ हे महाभाग मेत्रेयजी ! आपसे भी मैने 
मवतोऽपि महाभाग रस्यं कथितं मय। ॥३९॥ | यह रदस्य कद दिया ॥ ३९॥ इस अस्यन्त दुष्ट 

~ कलियुगमे यद्ही एकर महान्‌ गुण दहै क्रि इस युगम 

ग न्गुणः , . 

त्य तदस्य करेरयभेको मा र । केवल कृष्णचन्द्रका नाम-सं कीप्तन करनेसे हो मनुष्य 
कोतनादेव दरष्ण्य सक्तबन्धः परं वञेत्‌ ॥४०॥ | परमपद्‌ प्राप्त कर्‌ ठेवा दै ॥ ४०॥ अब आपने 
यच। हं भवता परष्ो जगताषपसंहतिम्‌ । य॒द्षे जो संसारके दपसंहार प्रात भ्रख्य ओर 


, अवान्तर प्रख्यके विषयमे पूषा था वह भी 
प्राकृतामन्तरालां च तामप्येप्‌ वदामि ते ॥४१॥ | सुनाता द ॥ ४१ ॥ 


[ति ^) 


इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठ ह्ितीयोऽध्यायः ॥ २॥ 


=". म,/५०६.५.१.५५ 





तीसरा अध्यायं 
निमेषादि काल-मान तथा नैमित्तिक प्रख्यका वर्णन 
श्रीपराश्चर उवाच धीपयाशरमी घोरे--सम्पूणे प्राणियोंका प्रख्य 
सवेषामेव भूतानां तििधः प्रतिस्वरः । नैमित्तिकः प्राकृतिक ओौर आत्यन्तिक तीन प्रकारका 
नैमित्तिकः प्ाटतिकस्तथैवातयन्तिको रयः || १॥ | हेता दै ॥ १॥ उनभेसे नो कल्पान्त मादा परलय 


> ५ होता बह नैमित्तिक, जो मोक्ष नामक प्रख्य दै 
रायो नमितिकसतेां कन्पानते प्रतिस्वरः । ह आत्यन्तिक ओर जो दो पराद्धंके अन्तमे होता 


~ < न 
आत्यन्तिकस्तु मोक्षाख्यः प्राकृतो दविपराद्धंकः॥ २॥| है वह्‌ प्राव प्रलय कहलाता &॥ २॥ 

. श्रीमैत्रेय उवाच शरीमेत्रेयजौ बोखे-मगवन्‌ ! आप युद्धे परार 
पराद्वसंस्यां भगवन्मम चव ययातुसः। की संख्या बताये, जिसक्रो दना करनेसे प्राष्त 
द्विगुणीढरतया जेयः प्राकृतः प्रतिसश्चरः ॥२॥ श्र्यका परिणाम जाना जा सफे॥ ३॥ 

| श्रीपराञ्चर उवाच . भोपराश्रजी बोक्षे- दहे द्विज! एकसे लेकर 

स्थानाल्स्थान दशगुणमेकस्माद्रण्यते द्विज । कमश्चः दगुण गिनते-गिनते जो अटारह्वीं बार 
¢ ९ ^ है 

ततोऽ्टादशमे भे पराद्धमभिधीयते | ४ ॥ । गिनी जातौ है बह सस्या पराद्धं कहलाती है ॥ ४॥ 








® वायुपुराणे इन लटारह संख्याक इस प्रकार नाम ह--एक, दश, दात, सह; अयुत, नियुत, प्रयुत, 
४ [| 
भरद, न्यजद, वन्द्‌, खर्वं, निखवं, शंख, पश्च, समुद्‌, मध्य, अन्त, पराह । 


९५ 


५11 ` ७९५ । 


(८ - > 


[ातययाधाताायककाायकरयकयाया 8 यिनि 


पराद्धद्रिुणं यतु प्राकृतस्स रयो दिन । 
तदान्यक्तेऽखिलं व्यक्तं स्वहेतौ यमेति वै ॥५॥ 
निमेषो मासुपो योऽ मात्रा मात्राप्रमाणतः। 
तैः पश्चदकभिः काष्ठा धिंसत्काष्ठ कला स्मृता ॥६॥ 
नाडिङातु प्रमाणेन सा कला दश्च पश्च च। 
न्मानेनाम्भसस्सा त प्हान्यद्धत्रयोदश्च ॥ ७॥ 
मागधेन तु मानेन जहश्रस्थस्तु स स्तः 
हेममापैः कतच्छद्रतु्भिशुरङ्रेः ॥ ८॥ 
नाडिकाभ्यामथ द्वाभ्यां बहतो द्विजसत्तम । 
अहोरात्र घास त्रिशन्मासो दिनैस्तथा ॥ ९॥ 
मासैरढाद्मिव्महोरात्रं त॒ तदिवि। 
` त्रिभिवंषैशतैवंपं प्या चैवासुरद्विषम्‌ ॥१०॥ 
तैस्त 


चतुयुंगसदस्रं त॒ कथ्यते ब्रह्मणो दिनम्‌ ॥११॥ 


दादश्षसादसेधतुयुगघुदाहृतम्‌ । 


स॒ कन्पस्तत्र मनवध्रतुदश महान । 
तदन्ते चेव मैत्रेय ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ॥१२॥ 
तस्य स्वरूपमल्युगरं मैत्रेय गदतो मम्‌ । 
मृणुष्व प्राकृतं भूयस्तव व्ष्याम्यहं लयम्‌ ॥१२॥ 
चतुयुंगसदस्रान्ते क्षीणप्राये महीतले । 
अनावृषटिसतीगोग्रा जायते शतवार्षिकी ॥१४॥ 
ततो यान्यल्पसाराणि तानि सान्यरेषतः। 

क्षयं यान्ति निरे पाथिवान्यनुपीडनात्‌। १५॥ 
ठतः स भग्वान्विष्णू रद्रूपधरोऽच्ययः । 
याय यतते कतुमासमस्थास्कलाः प्रजाः ॥१६॥ 








हेष्धिज! इस पराद्धंकी दूनी संख्यावाहा प्राकृत 
प्रख्य है, उस समय यह्‌ सम्पूणं जगत्‌ अपने कारण 
अन्यक्तमै छीन हो जाता है | ५ ॥ मनुष्यका निमेष 
ही एक माच्रावाछे अक्षरके उच्चारण-कालके समान 
परिमाणवाला होनेसे मात्रा कहखाता दै; उन पंद्रह 
निमेषोी एक काष्ठा होती दहै भौर तोस काष्ठाक्री 
एक कला कही जाती दै ।॥ ६॥ पंद्रह कडा एक 
नाडिकाका प्रमाण है | वह्‌ नाडिका सादे बारह पल 
तावेक बने हुए जलके पात्रसे जानी जा सकती है । 
मगधदेश्चीय मापसे वह पात्र जखपरस्थ कहराता है; 
उसमे चार अङ्कुल रम्बी चार मासेकी सुवणं -शाका- 
से छिद्र किया रहता है [ उसके छिद्रको ऊपर करके 
जलम डुबो देनेसे जितनी देरमे बह पात्र भर ज्ञाय 
उतने हौ समयको एक नाडिका समक्चना चाद्ये ] 
॥ ७.८॥ हे द्विजसत्तम ! सी दो नाडिकाओंका 
एक महतं होता है, तीस सहूतंका एक ॒दिन-त्त 
होता है तथा इतने ( तीस ) ही दिन-रातक्रा एक 
मास होता है ॥ ९॥ बारह मासका एक वषं होता 
है, देवललोकमे यही एक दिनरात होता है । एेसे 
तीन सौ साठ वर्पोका देवताओंका एक वपं होता 
है ।॥ १०॥ रेसे बारह हजार दिव्य वर्षोा एक 
चतुयुंग होता है मौर एक हजार चतुयुंगका ब्रह्माका 
एक दिन होता है ॥ १९॥ 


हे महामुने ! यहो एक कल्प है । इसमे चौदह 
मनु बीत जाते ह| हे मैत्रेय ! इसके अन्तमं ब्रह्माका 
नैमित्तिक प्रख्य होता है॥ १२॥ हे भत्रे ! सुनो, 
म उस सैमिन्तिकं प्र्यका अत्यन्त भयानक श्प 
वणेन करता ह| इसके पीछे ओ तुमसे प्राकृत प्रख्य 
कामी वर्णन करेगा ॥ १३॥ एक सहस चतुग 
ब्रीतनेपर जन प्रथिवी क्षीणप्रायहो जाती हैतो 
सौ वषतक अति घोर अनाब्रृष्टि होती है ॥ १४॥ 
हे सुनिश्ष्ठ ! चस समयजो पाथिव जीव अल्प 
शक्तिवाके होते दैवे सब अनावृष्टि पीडति होकर 
सवथा नष्ट दह्ये जते है ॥ १५॥ तदनन्तर 
रुद्ररूपधास अभ्ययात्मा भगवान्‌ विष्णु संसार- 
का क्षय करनेके लिये सम्पूणं प्रजाको अपने 
छीन कर ठेनेका प्रयत्न करते दै ॥ १६॥ 








ततस्स भगवाचविष्णु्भानोस्सप्रसु ररिमषु । 
स्थितः पिवत्यशेषाणि जलानि युनिसत्तम ॥१५७॥ 
पीतवाम्मांसि समस्तानि प्राणिभूमिगतान्यपि। 
दोषं नयति यैत्रेय समस्तं पृथिवीतलम्‌ ॥१८॥ 
समुद्रान्धरितः शरुनदीप्रस्रवणानि च। 
पातालेषु च यत्तोयं तरसवं नयति क्षयम्‌ ॥१९॥ 
ततस्तस्यानुभावेन तोयाहारोपवृहिताः । 

त एव ररमयस्सप्र जायन्ते सप्र भास्कराः ॥२०॥ 
अधध्ोष्वं चते दौप्तास्ततस्पप्त दिवाकरः । 
दहन्त्यशचेषंब्रेरोक्यं सपाताूतलं द्विज ॥२१॥ 
दह्यमानं तु तैदीपैखेरोक्यं द्विज भास्कर । 
साद्विनद्यणवामोगं निस्नेहमभिजायते ॥२२॥ 
ततो निर्दग्धवृक्षाम्बु त्रैलोक्यमखिलं दविज । 
भवत्येषा च वसुधा दूरमपृषठोपमाृतिः ॥२३॥ 
ततः कालाग्निररोऽसौ भुखा सर्वहरो दरिः। 
शेपादिशाससम्भूतः पाताानि दहत्यधः ॥२४॥ 
पातालानि समस्तानि स दग्ध्वा ज्वलनो महान्‌ । 
भूमिमभ्येत्य सकर बभस्ति परसुधातलम्‌ ॥२५॥ 
भुवि ततस्सवं स्वकं च सुदारुणः | 
उवाल्ामालामहावतेस्तप्रैव परिवतते ॥२६॥ 
अम्बरीपमिवामाति रेोक्यमखिं तदा । 
ज्वाहावतंपरीवारशुपक्षीगचराचरम्‌ ॥२७॥ 
ततस्तापपरीतास्तु रोकद्टयनिवासिनः । 
कृताधिकारा गच्छन्ति महक महामुने ॥२८॥ 
तस्मादपि महातापतप्ता छोकात्ततः परम्‌ । 
गच्छन्ति जनलोकं ते दशादृ्या परपिणः ॥२९॥ 





हे सुनिसत्तम ! उस समय भगवान्‌ विष्णु सूयी 
सातौ किरणोँम स्थित होकर सम्पूणं जख्को सोख 
ठेते है १७॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार प्राणियों तथा 
पृथिवोके अन्तगेत सम्पूणं जलको सोखकर वे समस्त 
भूमण्डलको शुष्फ कर देते है ॥ १८ ॥ समुद्र॒ तथा 
नदियोमे, पवंतीय सरिताओं गौर सोते तथा 
विभिन्न पातार्लोमे जितना जलटहैवे उस सबको 
सुखा डालते है ॥ १९॥ तथ भगवानूके प्रभावसे 
प्रभावित होकर तथा जल्पानसे पुष्ट होकर वे सातां 
सूयंरदिमर्या सातसूयं हो जाती है ॥२८॥ हे दविज! 
उस समय उपर-नीचे सव ओर देदीप्यमान होकर 
वे सातो सूयं पाताढ्पयन्त सम्पूणं त्रिडोकीको भसम 
कर डारते ह ॥२१॥ हे द्विज ! उन प्रदीप्र मास्करोसे 
द्ग्ध हुई चरिष्टोकी पयेत, नदी भौर समुद्रादिके सदिव 
सवंथा नीरस हो जातौ है ॥२२॥ उस समय सम्पूणं 
तरिोकोके शरश्च भौर जख दिके दग्ध हो जानेसे 
यह परथिवी कुएकी पीठके समान कठोर हो 
जाती हे ॥ २३॥ 


तथ, सघको नष्ट करनेफे छिये उद्यत हुए श्रीहरि 
कालार्निरुद्ररूपसे एोषनागकरे मुखसे प्रकट हौकर 
नीचेसे पातालोको जलाना भारम्म करते ह ॥ २४॥ 
चह महान्‌ अग्नि समस्त पातालोको जलाकर प्रथिवौपर 
पहचता ह भौर सम्पूणं भूतरको मस्म कर डालता 
है ॥ २५॥ तव वह्‌ दारुण अग्नि सुवर्खछोक तथा 
स्वगंरोकको जला डाङ्ता है भौर वह्‌ उवारा- 
समूहका महान्‌ भावतं वदी चक्र छगने लगता 
है ॥ २६॥ इस प्रकार अग्निके आवर्तसि धिरकर 
सम्पूणं चराचरके नष्ट हो जानेपर समस्त त्रि्ोकी 
एक तप्त कराहके समान प्रतीत होने खगती है ।२७॥ 
हे महायुने ! तदनन्तर अवस्थाके परिवतनसे परलोक 
की चाहवाङे भुवर्लोक ओौर स्वगंलोकभ रहनेवारे 
( मन्वादि ] अधिकारिगण भग्निञ्वाङासे सन्त्र 
होकर मदर्छोकको चङे जाते ह किन्तु वहाँ भी उस 
खग्र काटानरके मह्‌ातापसे सन्तप्त होनेकै कारण वे 
उससे बचनेके छिये जनलोके चले जात दै ।२८२९॥ 


५१६ 


भ्रीदिष्णुपुराण 


[०३ 





ततो दग्ध्वा जगत्सवं शद्ररूपी जनादन । 
युखनिःशासजान्मेषान्कयोति युनिसत्तम्‌ ॥३०॥ 
ततो गजक्रग्रस्यास्तदिखन्तोऽतिनादिनः। 
उत्तिष्ठन्ति तथा व्योश्चि घोरास्यंव्तका घनाः॥ २१ 
केचिन्नीरोर्पटश्यामाः केचिच्छंयुदसनिमाः। 
धूम्रवर्णा घनाः केचिर्केचित्पीता; पयोधराः॥२२॥ 
केचिद्रासमवर्णामा लाक्षारसनिभास्तथा। 
केचिदेदयंसङ्ाशा इन्द्रनीरनिमाः क्वचित्‌ ॥३३॥ 
श्ुुन्दनिमाथान्ये जास्यज्चननिभाः परे । 
इन्द्रमोपनिभाः केचित्ततदिशखिनिभास्तथा।३४॥ 
मनदिशिलाभाः केचिद हरितारनिभाः परे । 
चाषपत्रनिभाः फेचिदुत्तिषठनते महाधनाः ॥३५॥ 
केचितएुरषराकाराः केचित्प्वतसन्निमाः । 
कूटागारनिभाशान्ये केचिस्स्थरुनिभा घनाः॥३६॥ 
महारावा महाकायाः पूरयन्ति नमभःस्थलम्‌। 
वषन्तस्ते महासारास्तमग्निमतिभैखम्‌ । 
शमयन्त्यखिटं विप्र त्रेरोक्यान्तरधिष्ितम्‌ ॥ ३७॥ 
नष्टे चाग्नौ च सततं व्षैमाणा दयर्निशम्‌। 
कषावयन्ति जगस्सवंमम्भोभिषनिसत्तम ॥३८॥ 
धाराभिरतिमात्रामिः क्षावयिलाचिषं युवम्‌ । 
युवक तथेवो ध्वं क्ञावयन्ति हि ते दिज ॥३९॥ 
अन्धकारीकृते शोके नष्टे स्थावरजङ्गमे । 
वपन्ति ते महामेधा वर्षाणामधिकं शतम्‌ ॥४०॥ 


एवं मवति कल्पान्ते समस्तं यनिसत्तम | 
वासुदेवस्य माहास्म्यान्निस्यस्य परमत्मिनः॥४१॥ 








हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर रुद्ररूपी भगवान्‌ विष्णु 
सम्पूण संसारको दग्ध करके अपने मुख-निश्राससे 
मेघोँको दत्पन्न करते है ।॥ ३०॥ तब विदयते युक्तं 
भयङ्कर गजना करनेवाले गजसमहके समान ब्रहदा 
कार संव तंक नामक घोर मेघ अकामे उठते है 
॥ ३९ ॥ उनमेसे कोई मेघ नीर कमलके समान 
ट्यामवर्ण, कों कुमुद-कुसुमके समान ₹वेत, कोई 
धूम्रवणं ओौर कोई पीतवणं होते हँ ॥ ३२॥ कोई 
गघेके-से वणत्राठे, कोई लाखक्रे-से रगवाके, कोड 
वेद्रय-मणिके समान ओौर कोई इन्द्रनीख-मणिके 
समान होते दै ॥ ३६॥ कोई शङ्ख ओौर छुन्दके 
समान द्वेत-व्णं, को जाती ( चमेखी) के 
समान उञ्ञ्यछ ओौर कोई कजख्के समान 
इयामव्णं, कोई इन्द्रगोपक समान रक्तवणं ओर 
को$ मयूरे समान विचित्र वणंवाे होते दै 
। ३४ ॥ कोई गेरूफे समान, कोद हरिताख्के समान 
जओौर को मह्‌ मेघ, नीर-कण्ठके प्के समान रंग- 
वाछे होते ह| ३५॥ कोई नगरे समान, कोई 
पवंतके समान ओर कोई कूटागार ( गृहविश्चेष ) के 
समान ब्रहदाकार होते है तथा कोर प्रथिवीतलफे 
समान विस्छत होते है ॥ ३६॥ वे घनघोर शब्द 
करनेबाङे महाकाय मेचगण भाकाड्चको आच्छादित 
कर लेते है भौर मूसलाधार ज षरसाकर त्रिटोक- 
म्यापी भयङ्कर अग्निको शान्त कर दैते है ॥ ३७॥ 
हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्निक नष्ट हो जानेपर मी अहर्निश्च 
निरन्तर बरसते हुए वे मेघ सम्पूणं जगत्‌को जलें 
बो देते | ३८ ॥ हे द्विज ! अपनी अति स्थूल 
धाराओंसे भूर्छोकको जलम इुवोकर वे मुवर्छोकं 
तथा उसके भो ऊपर्के छोकोँको जछमग्न कर देते 
है ३९ इस प्रकार सम्पूणं संसारके अन्धकारमय 
हो जनेपर तथा सम्पूणं स्थावर-जङ्गम जीवोके नष्ट 
हो जानेपर भी वे महामेध सो वषे अधिक कारक 
चरसते रहते दै ॥ ४०॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सनातन 
परमात्मा वासुदेवके माहास्म्यसे कल्पान्तमें इसी 
प्रकार यह्‌ समस्त विष्ठव होता है ॥ ४१॥ 


=+ 


५ ०८ | 


श्न =" च 


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चौथा अध्याय 


प्ाद्धत प्रख्यका वर्णन 


भ्रोपराश्चर उवाच 

सपषिस्थानमाक्रम्य स्थितेऽप्मसि महापु । 
एकाणवं भव्येतसरेलोक्यमखिलं ततः ॥ १॥ 
खनिःश्वासजो विष्णोर्वायुस्ताञ्ररृदांस्ततः । 
नाज्यन्ष। ति मैत्रेय वर्पाणामपरं शतम्‌ ॥ २॥ 
सर्वभूतमयोऽचिन्त्यो भगवान्भूतभावनः । 
अनादिरादिर्विश्वस्य पीत्वा वायुमरेषतः ॥ २॥ 
एकाणवे ततस्तस्मिञ्च्छेपशय्यागतः प्रथः । 
ब्रहमरूपधरश्सेते मभगवानादिकृद्धरिः ॥ ४ ॥ 
जनलोकगतैस्सिदरैस्सनका्ेरभिष्टुतः । 
ब्हमलोकगतैश्चेव चिन्त्यमानो यभुमिः ॥ ५॥ 
आल्मायाम्ीं दिव्यां योगनिद्रां समास्थिततः। 
आस्मानं वासुदेवाख्यं चिन्तयन्पधुद्वदनः ॥ ६। 
एष॒ नैमित्तिको नाम सैत्रेय प्रतिसश्चरः | 
निमित्तं तत्र यच्छते ब्रहरूपथरो इरि ॥ ७॥ 
यद्‌ जागतिं सर्वात्मा स तदा चेष्टते जगत्‌ । 
निमीटस्येतदखिं मायाश्चय्यां गतेऽच्युते ॥ ८ ॥ 
पञ्मयोनेदिनं यत्त॒ चतुपंगसहस्रषत्‌ । 
एकार्णवीकृते लोके तावती रा्रिरिष्यते ॥ ९॥ 
ततः प्रबुद्धो राज्यन्ते पनस्सुष्टि करोत्यजः । 
ब्रह्स्वहूपधृज्िष्णुयंथा ते कथितं पुरा ॥१०॥ 


ह्येप कल्पसंहारोऽबान्तरप्रङ्यो दिज । 
नेमित्तिकस्ते कथितः प्राकृतं शृण्वतः परम्‌ ॥११॥ 
अनादृष्टयादिसम्पर्कारकृते संक्नारने यने । 
समस्तेष्वेव होकेपु पातादष्बसिकेष च ॥ १२) 








श्रोपयश्चरजी बोज्ते-हे महामुने ! जव ज 
सप्त्षियोके स्थानको भी पार कर जाताहै तो यद 
सम्पूणं त्रिोकी एक महासमुद्रे समान हो जाती 
है ॥ १॥ हे सैत्रेय ! तदनन्तर, भगवान्‌ विष्णुके 
मुल-निःाससे प्रकट हृ वायु ख मेघोको नष्ट 
करके पुनः सौ बपेतकं चरता रहता दै ॥ २॥ किर 
जनलोकनिवासी सनकादि सिद्धगणसे स्तुत भौर 
ब्रहमरोकको प्रप्र हुए सुमुक्षुजोसे ध्यान किये जाते 
हए बरहममूतिधारी, सवं भूतमय, अचिन्त्य, अनादि, 
जगत्फे आदिकारण, आदिकतौ, भूतभावन, मधुः 
सूदन भगवान्‌ हरि विश्वके सम्पूणं वायुको पीकर 
अपनी दिभ्यमायारूपिणी' योगनिद्राका भाश्रय ठे 
अपने वासुदेवार्मक स्वरूपका चिन्तन करते हुए 
उस महासमुद्र शेषशय्यापर श्चयन करते ह ॥२-६॥ 
दे मैत्रेय ! इस प्रयके होनेमे ब्रह्यारूपधारौ भगवान्‌ 
इरिका शयन करना ही निमित्त दै; इसर्यि यह 
सैमिन्तिक्र प्रख्य कंदलाता है ॥७॥ जिस समय 
स्वार्मा भगवान्‌ विष्णु जागते रहते ह खस समय 
सम्पूणं संसारकी चेष्टां होती रहती है नौर जिस 
समय चे अच्युत मायाखूपी शय्यापर सो जति 
उस समय संसार भो छीन हो जाता द| ८॥ जिस 
प्रकार बह्माजीका दिन एक हजार चतुथुंगका होता 
हसी प्रकार संसारके एकाणेवर्प हो जानेपर 
जनकी रात्रि मी सतनी द्री बड़ी होती दै ॥ ९॥ उ 
राचिका अन्त होनेपर अजन्मा भगवान्‌ विष्णु 
जागते है जौर ब्रह्मरूप धारणकर, जैसा तुमसे पठे 
कहा था दसी क्रमसे क्षर ष्टि रचते है ॥ १०॥ 

ह द्विज ! इस प्रकार तुमसे कल्पान्तभे होनेवाे 
सेमिन्तिक एवं अवान्तर-प्रयका वणेन किया । जब 
दूसरे प्रात प्रख्यका वणेन सुनो ॥ ११॥ हे सने, 
अनावृष्टि आदिक संयोगसे सम्पू रोक भौर निखिख 
पातारो नष्ट हयो जेपर तथा भगवदिच्छासे उस 





महदादेर्विकारस्य विक्षेपान्तस्य संक्षये | 
कृष्णेच्छाकारिते तस्मिन्परे प्रतिसश्चरे ॥१२॥ 
आपो ग्रसन्ति वै पूषं भूमेगेन्धासकर गुणम्‌। 
आत्तगन्धा ततो भूमिः प्रलयत्वाय कपते ॥१४॥ 
प्रण गन्धतन्मात्रे भवययुर्वी जरासििका | 
आपस्तदा प्रबृद्धासतु वेगबत्यो महास्वनाः ॥१५॥ 
सबेमापूरयन्तीदं तिष्ठन्ति विचरन्ति च | 
सरिङिनोिमारेन रोका व्यघ्नाः समन्तत;॥ १६। 
अपामपि मुणो यस्तु व्योषा पौयतेतु सः । 
नदयन्स्यापस्ततस्ताश्च रसतन्मात्रसक्षयात्‌ ॥ १७॥ 
ततश्वापो हतरसा ज्योतिषं प्राप्नुवन्ति वै। 
अगन्यवस्ये तु सिरे तेजसा सर्वतो एते ॥१८॥ 
स चाधिः सर्वतो व्याप्य चादत्ते तज्जलं तथा। 

स्वं मापू्ंतेऽचिर्भिस्तदा जगदिदं शनैः ॥१९॥ 
अचिरभिस्पंृते तस्मिसिर्थगृरप्वमधस्तदा । 
ज्योतिषोऽपि परं रूपं वायुरत्ति प्रभाकरम्‌ ॥२०॥ 
प्रछीने च ततस्तस्मिन्वायुभूतेऽखिलात्मनि। 

प्रणष्टे रूपतन्मात्रे हृतसूपो विभाषमु; ॥२१॥ 
अशचाम्यति तदा ज्योतिरवाुदधुयते महान्‌ । 
निररोके तथा रोके वाय्ववस्थे च तेजसि ॥२२॥ 
ततस्तु परमासाद्य बायुस्सभवमात्मनः। 

ठष्वं चाधश्च तियक्च दोधवीति दो दश्च ॥२३॥ 
वायोरपि युणं स्पशंमाकाशो प्रसते ततः । 
अशास्यति ततो बायुः खं तु तिष्त्यनाघृतम्‌ ।॥२४॥ 
अरूपरसमस्पंमगन्धं न च मूर्तिमत्‌ । 
सवंभापूरयच्चैव  छमहत्त्मकाशषते ।२५॥ 








प्रख्यकाडके उपस्थित्त होनेपर जव महत्तत्वसे छेकर 
[ एथिवी आद्रि पञ्च ] विशेषपयेन्त सम्पूणं विकार 
क्षीण हो जति हेतो प्रथम जट प्रथिवीके गुण गन्धको 
अपने लीन कर छेताहै। इस प्रकार गन्ध छिन 
जानेसे प्रथिवीका प्रख्यदहो जाता है॥ १२-१४॥ 
गन्ध-तन्मात्राके नष्ट हो जानेपर प्रथिवी जलमय हो 
जाती हे, उस समय बड़ वेगसे घोर शब्द करता 
हुआ जल बद्कर इस सम्पूणं जगत्‌करो व्याप्त कर 
केता है । यह्‌ जल कभी स्थिर होता ओर कभी वहने 
गता हे । इस प्रकार तरङ्गमालाओंसे पणं इस जङसे 
सम्पूणं छोक सव ओरसे व्याघ्र यो जाते है ॥९५-१६॥ 
तदनन्तर जख्के गुण रसको तेज अपनेमे छीन कर 
ठेता है । फिर रस-तन्मात्राका क्षय हो जानेसे जछ 
भी नष्ट हो जाता है ।। १७ ॥ तव रसदहीन हो जानेसे 
जल अभ्निरूप हो जाता है तथा अग्निके सब ओर 
व्याप हयो जानेसे जलके अग्निम स्थित दहो जानेपर 
वह्‌ अग्नि सब ओर फैरकर सम्पूणं जङूको सोख 
ठता हं ओर धोरे-धीरे यह सम्पूणं जगत्‌ ऽवाासे 
पृणं हो जाता है ॥ १८१९ ॥ जिस समय सम्पूणं 
लोक ऊपर-मीचे तथा सव ओर अग्निक्चिखाओसे 
व्याप्रहो जातादहे उस समय अग्निके प्रकाञ्चक 
स्वरूपको वायु अपनेमे छीन कर छेता है ॥ २०॥ 
सवके प्राणस्वरूप उस वायुम जब अग्निका प्रकाञ्चक 
रूप ीनहो जातादै तो रूप-तन्मात्राके नष्ट दहो 
जानेसे अग्नि रूपहीन हौ जाता है ॥२१॥ उस 


समय संसारके प्रकाङदीन भौर तेजके वायुम छीन 
हो जानेसे अग्नि ज्ञान्तहयोजाताहै ओर अति प्रचण्ड 
वायु चलने लगता ह ॥ २२ ॥ तब अपने उद्धवस्थान 
आकाशका आश्रयकर वहं प्रचण्ड वायु ऊपर-नीचे 
तथा सब ओर दश्चो दिक्षाओंमे बड़े वेगसे चलने 
गता है ॥ २३ ॥ तदनन्तर बायुके गुण स्पशेको 
आकाञ्च छीन कर छेता है; तब वायु शान्त हो जाता 
है ओर आकाञ्च जआवरण्हीन हो जाता है॥ २४॥ 
उस समय खूप, रस, स्प, गन्ध तथा आकारसे 
रिव अत्यन्त महान्‌ एक आकाश हौ सबको 
म्याप्न करफे प्रकाशित होता हे ॥२५॥ 





परिमण्डलं च सुषिरमाकारां शब्दलक्षणम्‌ । 
शब्दमात्रं तद्‌ काशं सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥२६॥ 
ततर्शन्दगुणं तस्य भूतादिर्॑सते पुनः । 
भूतेन्द्रियेषु युगपद्धतादौ संस्थितेषु यै ॥२५७॥ 
अभिमानात्मको देष भूतादिस्तामसस्स्रतः | 
भूतादिं ग्रसते चापि महान्वै बुद्धिरक्षणः ॥२८॥ 
उर्वी महां जगतः प्रान्तेऽन्तर्बाहयतस्तथा ॥२९॥ 
एवं सप्त महाबुद्धे क्रमासकतयस्स्मरताः । 
्रस्याहारे तु तास्सर्वा; प्रविशन्ति परसपरम्‌॥२०। 
येनेदमावृतं सर्वमण्डलमप्सु प्रीयते | 
सद्रीपमुद्रान्तं सप्तलोकं सपव॑तम्‌ ॥३१॥ 
उदकावरणं यत्तु ज्योतिषा पीयते तु तत्‌। 


ज्योतिर्वायौ कयं याति यात्याकाशे समीरणः ३२॥ 


आकाशं चैव भूतादिग्॑सते तं तथा महान्‌ । 
महान्तमेभिस्सहितं प्रफ़तिग्॑पते द्विन ॥२३॥ 
गुणसाम्यमनुद्विक्तमन्यूनं च महाष्ुने | 
प्रोच्यते प्रकृतिदतुः प्रधानं कारणं परम्‌ ॥३४॥ 
इत्येषा प्रक़ृतिस्सर्वा व्यक्तान्यक्तस्वरूपिणी । 
व्यक्तस्वरूपमनव्यक्तं तस्मान्मेत्रेय लीयते ॥३५॥ 


एकरशुद्धोऽक्षरो नित्यस्सवंन्यापी तथा पुमाद्‌। 
सोऽप्यशृस्सर्॑भूतस्य मैत्रेय परमात्मनः ॥३६॥ 
न सन्ति यत्र सर्वेशे नामजास्यादिकल्पनाः। 
सत्तामात्रात्मके जये ज्ञानासन्यालमनः परे॥२७॥ 
तदुज्रह्म परमं धाम परमात्मा स चेश्वर, | 











ठस समय चारों ओरसे गो, छिप्रस्वरूप, शब्द. 
लक्षण आक्राञ्च ही रोष रहता है; ओौर बह शब्दमात्र 
आकाञ्च सवको आच्छादित किये रहता है ॥ २६ ॥ 
तदनन्तर, आकार्चके गुण शब्दको भूतादि रस छेता 
दै। इस भूतादिमें ही एक साथ प्च्चमूत ओौर 
इन्द्रियोका भी लय हो जानेपर केवर अहकारारमक 
रह्‌ जानेसे यह तामस ( तमःप्रधान ) कदलाता है । 
फिर इस भूतादिको मी [ सन्प्रधान होनेसे ] 
बुद्धिरूप महत्त ग्रस लेता है । २७.२८ ॥ 


जिस प्रकार प्रश्वी ओर महत्त ब्रह्माण्डके 
अन्तजंगत्‌की आद्रि ओर अन्तिम सीमार्पँ है उसी 
प्रकार उसके बाह्य जगतकी भी है॥२९॥ ह 
महाबुद्धे ! इसी तरह जो सात आवरण बताये गये 
हवे सव मी प्रलयकाले [ पूववत्‌ प्रथिवी आदि 
क्रमसे ] परस्पर ( अपने-अपने कारणोमे ) टीन हो 
जाते दै ।॥ ३० ॥ जिससे यहं समस्त टोक व्याप्ै। 
वह सम्पूणं भूमण्डल सातो द्वीप, सातो समुद्र, 
सातं छोक ओौर सकर पवं त-क्रेणिर्योके सहित जछ- 
मलीन हो जाता ह ११॥ फिर जो जलका 
आवरण दै उसे अग्निपी जाता है तथा अग्नि वायु- 
मे ओर वायु आक्र्चभै छीन हो जाता दहै॥ ३२॥ 
हे द्विज } आकाचको भूतादि ( तामस अहंकार }, 
भूतादिक महन्तत्वे ओर इन सवके सरित महन्तस्व- 
को मूर प्रकृति अपनेमे छीन कर ठेती ह ॥ ३३॥ 
देः महाशने ! न्यूनाधिकसे रहित जो सस्वादि तीनों 
गुणोकी साम्यावस्थादहै ठसीको प्रेति कहते है; 
इसीका नाम प्रधानमीहे। यह प्रधान ही सम्पूणं 
जगत्‌क्रा परम कारण है ॥ ३९ । यह्‌ प्रकृति भ्यक्त 
ओर अभ्यक्तरूपसे सवंमयी है । हे मैत्रेय ¦ इसीलिये 
अव्यक्तम उ्यक्तरूप छीन हो जात है ॥ ३५॥ 

इससे प्रथक्‌ जो एक शुद्ध, अक्षर, नित्य ओौर 
सवयापक पुरुष है वह भी सवभूत परमात्माका 
भरा ही है।॥ ३६ ॥ निस सत्तामात्रस्वरूप आत्मा 
(देहादि संघात) से प्रथक्‌ रहनेवाडे ज्ञानार्मा एवं 
ज्ञातव्य सर्वेश्रमे नाम भौर जाति आदिक कल्पना 
नहीं ह वही सवका परम आश्रय परब्रह्म परमात्मा है 








स विष्णुरपर्॑मेवेदं यतो नावतंते यतिः ॥३८॥ 


प्रकृतिर्या मयारथाता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी । 
पुरुषशाप्युभावेतौ येते परमात्मनि ॥२९॥ 
परमास्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः । 
विष्णुनामा स वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते ॥४०॥ 
प्रवृत्तं च निदत्त च द्विषिधं कम॑ वैदिकम्‌ । 
ताम्यामुमाम्यां पुसुस्स्वमूतिस्स इष्यते ॥४१॥ 
ऋ्यजुस्सामभिर्मगिः प्रदततेरिज्यते यष । 
यत्रो यज्ञपुमान्पुरुषेः पुरपोत्तमः ॥४२॥ 
ज्ञानात्मा ज्ञानयोगेन ज्ञानमूर्तिः स चेञ्यते। 
निवृत्ते योगिभिर्मागे विष्णुयक्तिफलगप्रदः ॥४२॥ 
ह्दीषेष्ुतैयंतु कि्द्रस्वमिधीयते । 

यच्च वाचामबिषयं तत्सवं विष्णुरव्ययः ॥४४।॥ 
व्यक्तस्य एव चाग्यक्तस्स एव पुरुषोऽग्ययः। 
परमात्मा च विश्वात्मा विश्वरूपधरो दरिः ॥४५॥ 
व्यक्ताव्यक्तात्मिका तस्मिन््ऱतिस्सम्प्रीयते । 
पुरुषशापि मैत्रेय व्यापिन्यन्याहतात्मनि ॥४६॥ 
द्विपयाद्धासकः कालः कथितो यो मया तव। 
तददस्तस्य सेत्रेय विष्णोरीक्चस्य कथ्यते ॥४७॥ 
व्यक्ते च प्रकृतौ रोने प्रकृत्यां पुरुषे तथा। 

तत्र स्थितेनिश्चाचास्य तसरमाणा महामुने ४८] 
नैवादस्तस्य न निशा निस्यस्य प्रमात्मनः। 
उपचारस्तथाप्येषप तस्येशस्प द्विजोच्यते ॥४९॥ 
ह्येष तव मैत्रेय कथितः प्राकृतो लयः । 
आत्यन्तिकमथो ब्रहम्निवोध प्रतिसश्चरम्‌ ॥५०॥ 





ओर बहौ ईश्वरदहे। बह विष्णु ही इस अखिल 
बिश्वरूपसे अवस्थित है । उसको प्राप्त हो जनेपर 
योगिजन फिर इस संसारम नदीं लौटते।) ३७-३८॥ 
जिस व्यक्त ओर अन्यक्त्वरूपिणी प्रकृतिका मैने 
वणेन किया दहै वह तथा पुरुष-ये दोनो भी उस 
परमात्मामे ही छीन हो जाति दै ॥ ३९॥ बह 
परमात्मा सवक्रा आधार ओर एकमाच्र अधौश्र 
है; रीका वेद्‌ ओौर वेदान्तोमे विष्णुनामसे बणेन 
किया दै। ४०॥ वैदिक कमं दो प्रकारका है- 
प्रवृत्तिरूप ( कमयोग ) ओौर निघ्रत्तरूप ( सांस्य- 
योग ) । इन दोनों प्रकारके कर्मोसि उस सवभूत 
पुरषोत्तसका ही यज्ञन क्रिया जाता दै।॥ ४१॥ 
मरष्योद्वारा ऋक्‌, यजुः ओर सामवेदोक्त प्रवृन्ति- 
मागसे उन यज्ञपति पुरुषोत्तम यज्ञपुरुषका ही पूजन 
किया जाता है ॥ ४२॥ तथा सिव््ति-मागंमे स्थित 
योगिज्ञन भी उन्हीं ज्ञानाप्मा ज्ञानस्वरूप सुक्ति-फल- 
दायक भगवान्‌ विष्णुका हौ ज्ञानयोगद्वारा यज्ञन 
करते है ॥ ४३॥ हस्व, दीघं ओौर प्टुत--इन 
त्रिविध स्वरोसेजो कछ कहा जाताहै तथाजो 
वाणीका विषय नदींदै बह सव भी अन्ययात्मा 
विष्णु दही है॥ ४।॥ वह्‌ विश्वरूपधारी विश्धरूप 
परमात्मा श्रीहरि ही ग्यक्त, अभ्यक्त एवं अविना 
पुरुष है | ४५॥ हे मैत्रेय ! उन सवंन्यापक ओौर 
अविकरतरूप परमात्मामें ही व्यक्ताग्यक्तरूपिणी प्रकृति 
ओौर्‌ पुरुष छीन हो जाते हँ ॥। ४६ ॥ 

हे मैत्रेय ! मैने तुमसे जो द्विपराद्धंकाल कदा है 
वहु उन [ ब्रह्मारूपथारो ] विष्णुभगवान्‌का केवल 
एक दिन है ४७ ॥ हे मह मुने ! म्यक्त जगत 
अत्यक्तं प्रकृतिभे ओर प्रकृतिके पुरुषमे लीन हो 
जनेपर इतने ही कार्की विष्णुभगवान्‌की राच्नि 
होती ह ॥ ४८॥ हे हिज | बास्तवमें तो उन नित्य 
प्रमा्माका न कोई दिनदहै ओर न रात्रि तथापि 
केवर उपचार ( अभ्यारोप ) से फेसा कदा जाता 
है| ४९॥ है मैत्रेय ! इस प्रकार मैने तुमसे यह 
प्राक्त प्रख्यका बणेन किया, अव तुम आत्यन्तिक 
प्रयका वणन ओर सुनो ॥ ५० ॥ 


मि 


इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेऽरो चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ 


कौ नी / "तिं 


३ = ६. ब ११ 4 1 44 ८१९ १८14 4 1 13 ना १११ +. ~ १4 + ब ५१ ^ ५4 4 4९ १4 ~ (११५. 


पारमार्थिक स्वरूपक्षा वर्णन 


भ्रीपराञ्चर उवाच 
आध्य।सिमिकादि मैत्रेय ज्तास्वा तापत्रयं बुधः। 
उत्पन्न्ञानवैराग्यः प्राप्नोरयारपन्तिक लयम्‌।१॥ 
आध्यासिमिकोऽपि दिविधश्शरीरो मानसस्तथा । 
शरीरो बहुमिरभदैभिदयते श्रुयतां च सः ॥ २॥ 
रिरोरोगश्रतिश्ायन्वरशरुभगन्दरः । 
गुल्माः धयथुश्वासच्छर्यादिभिरनेकथा ॥ ३॥ 
तथाक्षिरोगातीषारशषठङ्गामयसंकञतैः । 
भिव्ते देदजस्तापो मानसं श्रोतुम्दसि ॥ ४ ॥ 
कामक्रोधसयद्वेषलोभमोहविषादनः । 
सोकाष्ठयावमानेष्यामास्सर्यादिमयस्तथा ॥ ५॥ 
मानसोऽपि द्विजम्रष्ठ तापो भवति नैकधा । 
हतयेवमादिभिर्भदैस्तापो द्याप्यात्मिकः स्मृतः।। ६। 
मृगपक्षिमचुप्वाचेः रिद्चाचोरगराक्षसैः । 
सरसरा चणां जायते चाधिभोतिकः ॥ ७॥ 
कीतवातोष्णवर्षाम्बुवैधुतादिसयुद्धवः 
तापो द्विजवर प्रेष्ठः कथ्यते चाधिदैविकः ॥ ८ ॥ 
गर्भजन्मजराक्ञानस॒त्युनारकनं तंथा । 
दुःखं सदसो मेदैभिद्यते अनिसत्तम्‌ ॥ ९ ॥ 
सुङ्मारतनुगंभं जन्तु्बहुमलावृते । 
उल्वशवेष्टितो येग्नपष्ठग्रीवास्थिसंहतिः ॥१०॥ 
अस्यम्हकटुतीकष्णोष्णलवणे्मातिमोजनैः । 
अत्यन्ततयैरस्यथं बद्ध॑मानातिवेदनः ॥११॥ 
प्रसारणाङुश्नादौ नाङ्गानां प्रथरास्मनः । 
शड्नमूत्रमहापङशायौ सवत्र पीडितः ॥१२॥ 
विण पु ६६-- 








भीपसशरजी वोल्ते-हे मेत्रेय ! आध्यास्मिक, 
आधिदैविक ओर आधिमोतिक--तीनों तापौको 
जानकर ज्ञान ओौर वैराग्य सत्पन्न होनेपर पण्डित- 
जन आत्यन्तिक प्रय प्राप्त करते हैँ १।। आध्यात्मिक 
ताप क्ञारीरिक ओर मानसिक दो प्रकारके होते है; 
उनमें शारीरिक तापकेभी कितनेही भेदै, वह्‌ 
सुनो ॥ २॥ क्चिरोरोग, प्रतिश्याय ( पीनस ), उर, 
ल, भगन्दर, गुल्म, अनं (बचासीर), शोय (सूजन), 
श्चास (दमा), छर तथा नेचरोग, अतिसार ओर कषठ 
आदि शारीर्कि कष्ट-नेदसे दैहिक तापके किंतनेही 
मेद्‌ ह। अत्र मानसिक तापोको सुनो ॥ १-४॥ 
हे द्विजश्रेष्ठ! काम, क्रोध, भय, द्वेष, ोभ, मोह, 
विषाद, शोक, अप्रा (गुणो दोपारोपण); 
अपमान, ईैष्यी ओर मास्सयं आदि भेकंसे मानसिक 


` तापके नेक भेद दै। पेसे द्धी चाना प्रकारके 


भेदोसे युक्त तापक्रो जाध्यास्मिक कहते ह ॥ ५-६॥ 
मनुष्योको जो दुःख खग, पक्षी, मनुष्य, पिञ्च 
सपे, राक्षस भौर सर्प ( चिनच्छरू) आदिसे प्राप्न 
होता 2, वसे आयिभौतिक कहते द ॥ ७॥ तथा हे 
द्विजवर ! शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, ज ओौर विद्युत्‌ 
आदिसे प्राप्त हुए दुःखको श्रेष्ठ पुरुष आधिदैविक 
कहते दै ॥ ८ ॥ 

हे य॒निश्रेष्ठ ! इनके भतिरिक्त गभे, जन्म, जरा, 
अज्ञान, मृच्यु भौर नरकसे उसन्न हुए दुःखके भीं 
सहसो प्रकारके मेद्‌ हँ ॥ ९। अत्यन्त मलपूणं 
गभाीञ्चयमें उल्व (गभी श्चिज्ली) से लिपट हु यह्‌ 
सुञ्माररीर जीव, जिसकी पौठ भौर प्रीवाकी 
अस्थियं क्ुण्डलाकार यडी रहती द माताके खाये 
हुए अस्यन्त तापप्रद्‌ खट्टे, कड़वे, चंरपरे, गम. मौर 
खारे पदार्थोसे जिसकी वेदना वहत बद्‌ जाती दै, 
जो मल-मूतररूप महापङ्के पड्ा-पड़ा सम्पूण अङ्गोमे 
अत्यन्त पीडित होनेपर भी अपने अङ्गोको फैकाने 
या सिकोडनेभे समथ नदी होता ओर चेतनायुक्त 








मिरुच्छवासः सचेतन्यस्स्मरञ्जन्मशषतान्यथ । 
आस्ते गभेऽतिहुःखेन निजकमनिवन्धनः ।॥१२॥ 
जायमानः पुरीषासदमूत्रशुक्राविराननः । 
प्राजापस्येन वातेन षील्यमानास्थिवन्धनः ॥ १४॥ 


अधोष्ुसो वै क्रियते प्रबरेस्छतिमास्तैः । 


केशा न्निष्कान्तिमप्नोति जल्रान्मातुरातुरः ॥ १५ 


मूरच्छामवाप्य महतीं संस्पृष्टो षाह्ववायुना । 
विज्ञानभरंशमाप्नोति जातथ घरुनिसत्तम ॥ १६ ॥ 
कण्टकैरिव तुन्नाङ्गः क्रकचैरिव दारितः । 
पूतिव्रणाक्निपतितो धरण्यां कृमिको यथा ॥१७॥ 
कण्डूयनेऽपि चाशक्तः परिवर्तऽप्यनीश्वरः । 
स्नानपानादिकाहारमप्याप्नोति परेच्छया 1 १८॥ 
अश्ुचिग्रस्तरे सुप्तः कीटदं्ादिमिस्तथा । 
भध्यमाणोऽपि नैवैषा समर्थो पिनिवारणे ॥१९॥ 
जन्मदुःखान्यनेकानि जन्मनोऽनन्तराणि च। 
वारमावे यदाप्नोति द्ाधिभोतादिकानि च ॥२०॥ 
अन्तानतमसाच्छन्नो मूढान्तःकरणो नरः । 

न जानाति कुतः कोऽ काह गन्ता किमात्मकः २१। 
केन बन्धेन बद्धोऽहं कारणं किमकारणम्‌ । 

क्षि कायं किमयं बा क्षं वाच्यं क्षि च नोच्यते २२। 


को धर्मः कथ वाधर्म करिमन्धतेऽथ वा कथम्‌। 





| होनेपर भौ श्वास नहीं छे सकता, अपने सेकं 


पूवजन्मोका स्मरणकर कर्मोति वधा हुभा अस्यन्त 
दुःखपूवेक गभं पड़ा रहता दै ॥ १०-१३ ॥ उ्यन्न 
होनेके समय उसका मुख मछ, मूत्र, रक्त ओौर वीयं 
आदिं ङ्पिटा रहता है ओौर उसके सम्पूणं अस्थि- 
बन्धन प्राजापत्य ( गभो सङ्कुचित करनेवाङौ } 
वायुसे अस्यन्त पीडित होते ह ॥ १४ ॥ प्रर प्रसूति- 
वायु उसका मुख नीचेक्रो कर देती दै भौर वद्‌ 
आतुर होकर बड़ क्ठेरके साथ मासाके गभाश्चयसे 
बाहर निकल पाता है । १५॥ 


हे मुनिसत्तम ! उत्पन्न होनेके अनन्तर बाह्य 
वायुका सयं होनेसे अत्यन्त मूचछित होकर वह्‌ 
बेुधदहो जाता है॥ १६॥ सर समय बह जीव 
दुगेन्धयुक्त फोड़मेसे गिरे हृए किसी कण्टकःविद्ध 
अथवा आरेसे चीरे हुए कीदेके समान एथिवीपर 
गिरता है ॥ १५॥ इसे स्वयं खुजछाने अथवा करवट 
लेनेकी भी शक्ति नदीं रहती वह स्नान तथा दुग्ध- 
पानादि आहार भी दृसरेदीकी इच्छसे प्रात्र करता 
है ॥ १८ ॥ अपवित्र ( मल-मूत्रादिमे सने हुए ) 
बिस्तरपर पड़ा रहता है, उस समय कीड़े ओर स 
आदि उसे काटते दँ तथापि वह्‌ इन्हे दूर करने 
भी समथ नही होता ॥ १९॥ 


इस प्रकार जन्मके समय ओर उसके अनन्तर 
बाल्यावस्था जीव आधिभौतिकादि अनेकों दुःख 
भोगता है ॥ २० ॥ अज्ञानरूप१ अन्धकारसे आवृत 
होकर मूदहय पुरूष यह्‌ नदीं जानता कि रैः 
कसि आया हूं १ कोन हं? कं जाङंगा १ तथा 
मेरा स्वरूप क्या है ? ॥२१॥ मैं किंस बन्धनसे 
नैधा हआ! इस बन्धनका क्याकारण हे? 
अथवा यह्‌ अकारण ही प्राप्त हभ है! सु्चे 
क्या करना चाद्ये ओर क्यान करना चाहिये ए 
तथा क्या कहना चाहिये ओर क्यांन कहना 
चाहिये १॥ २२॥ धमं क्या है ! अधर्म क्याहै!? 
किंस अवस्थामे मुञ्चे किंस प्रकार र्ना चाहिये ! 











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किं कतेव्यमकतन्यं किं वा करि गुणदोषवत्‌॥२३॥ कत्य है ओर क्या अकतम्य है ¶ अथवा 
क्या गुणमय ओौर क्या दोषमय है ?॥२३॥ इस 
प्रकार पञ्चके समान विवेकशन्य हिद्नोद्रपरायण 


पुरुष अज्ञानजनित महान्‌ दुःख भोगते ह ।॥ २४॥ 





















एवं पशुपमैभूदर्ानप्रभवं महत्‌ । 
अवाप्यते नरेदु खं शिश्नोद्रपरायणे; ॥२४॥ 


अक्ञानं तामसो भावः कार्यारम्मग्रबृत्तयः। हे द्विज ! अज्ञान तामसिक भाव (विकार) 
है; अतः अज्ञानी पुरुषोकौ ( तामसिक) कमकिं 
आरम्भे प्रवृत्ति होत है; इससे वेदिक करमोका 
लोप हयो जाता है ॥ २५॥ मनीषिजनोँने कम-लोपक्रा 
फल नरक बतल्मया है; इसल्यि अज्ञानौ पुरुषोँको 
इहरोक ओौर परखोक दोन जगह अत्यन्त ही दुख 
भोगना पडता है ॥ २६ ॥ शरीरके जरा-जजेरित हो 
जानेिपर पुरुषके अङ्ग -प्स्यङ्ग शिथिक हो जति दै, 
उसके दत पुराने होकर उखड़ जति द ओर शरीर 
रिय तथा नसनाइयोसे आरत हो जाता है 
॥ २७॥ उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके प्रहण करनेभे 
असमर्थं हो जाती है, नेन्रौके तारे गोरकोमे घुस 
जाते है; नासिकाके रन्धोमेसे बहुत-से रोम बादर ` 
निकल अति दै ओर श्चरीर करपने खगता दै ॥ २८॥ 
उसकी समस्त हडियँं दिखछाधी देने लगती है, 
मेरुदण्ड हुक जाता टै तथा जठसाग्निके मन्द्‌ पड़ 
जानेसे उसके आहार यैर पुरुषाथं कम हो जति दँ 
| २९ ॥ चस समय उसकी चलना-फिर्ना, उठना- 
त्रैढना भीर सोना जदि सभौ चेष्टां बड़ी कठिनवा- 
से होती दै । उसके श्रोत ओर नेत्रोकौ शक्ति मन्द्‌ 
पड़ जाती है तथा लार बहते रहनेसे उसका युख 
मङ्िनि हो जाता द ॥ ३० ॥ अपनी सम्पूणं इन्द्रियां 
स्वाधीन न रहनेके कारण वष्ट सब प्रकार मरणासन्न 
हो जाता है तथा [ स्मरणङक्तिके क्षीण हो जनेसे] 
बह्‌ उसी समय अनुभव किये हुए समस्त पदार्थोको 
भी भूल जाता दै ॥ ३१॥ उसे एक वाक्य उच्चारण 
करनेमे भी महान्‌ परिश्रम होता दै तथा श्वास ओर 
खौसी दिके महान्‌ कष्टके कारण वह्‌ [ दिन-रात | 
जागता रहता है ॥६३२॥ वृद्ध पुरुष भौरोकौ सहायता- 
से हयो उठता तथा जौसोके बिठानिसे ही बैठ सकता 
दै, अत्तः बह्‌ अपते सेवक भौर खी-पुत्रादिके च्य 
भस्यासमप्दाराणामथमानासपदीदृत; ॥३३॥ | सदा अनादरका पात्र बना रहता दै ॥२३॥ 


अज्ञानिनां प्रवतन्ते करमलोपास्ततो द्विज ॥२५॥ 
नरकं कर्मणां रोपास्फलमाहुमेनीपिणः । 
तस्पादज्नानिनां दुःखमिह चाश्चुतर चोत्तमम्‌ ।॥२६॥ 
जराजजेरदेदश्च शिथिलावयवः पुमान्‌ । 
विगलच्छीणेदश्षनो वरिस्नायुशिराव्रतः ॥२७॥ 
दुरप्रण्टनयनो व्योमान्तगंततारकः । 
नासाविषरनिर्यातरोमपुज्ञशरदपुः ॥२८॥ 
प्रकटम्‌ तसर्वार्थनंतपृषठास्थसंहतिः । 


यत्सन्रजटराग्निादल्पाहारोऽल्पवेष्टितः ॥२९॥ 


कृचुचङ्क्रमणोत्थानशचयनासनचेटितः 
मन्दीमवच््ोप्रनेत्रस्छवन्लालाविराननः।॥२३०॥ 
अनायत्तस्समसतैशच करणेमरणोन्पुः । 
तसक्षणेऽप्ययुभ्‌ तानामस्मताविलवस्तुनाम्‌ ।२१॥ 
सढृदुचारिति वाक्ये सणुद्धतमदाश्रमः । 
शरासकाशसयुद्धतमहायासप्रजागरः ॥२२॥ 


अन्येनो्थाप्यतेऽन्येन तथा संवे्यते जरी । 


१५५८ 


भवष्युदुरषय 


॥ अ० + 








प्रक्षीणाखिलकौचश्च विहाराहदारसस्प्हः । 


हास्यः परिजनस्यापि निरविण्णाशेषवान्धवः || २४॥। 
अनुभूतमिवान्यसिमङ्धन्मन्यातमविचेष्ितम्‌ | 
संस्मरन्यौवने दीधे निःश्कषस्यभितापितः ॥३५॥ 
एवमादीनि दुःखानि जरायामनुभूय वै। 

मरणे यानि दुःखानि प्राप्रोति शृणु तान्यपि ॥३६॥ 
शछयदूग्रीवाडुतरिहस्तोऽथ व्याप्तो वेषथुन। भषम्‌ । 
यह्टोनिपरवशो यदर्तानरवान्वितः ॥३७॥ 
दिरण्यधास्यतनयमा्याभूत्यगृहादिषु । 
एते कथं भविष्यन्तीत्यतीव ममताकरः ॥२३८॥ 
मर्मभिद्धिमहारोगैः ककचैखि दारुणैः । 
दरेरिवान्तकस्योग्रेरिख्यमानासुबन्धन्‌ः ॥३९॥ 
परिरतितताराकषो हस्तपाद बुः क्षिपन्‌ | 
संशुष्यमाणतान्वोषटपुटो पुर्धुरायते ॥४०॥ 
निरद्रकण्डो दोषोषेर्दानश्चासपीडितः । 
तापेन महता व्याप्ष्टषा चात्त॑स्तथा कषुधा ।॥४१॥ 
क्रेशादुतकरान्तिमाप्नोति यमकिङ्करपी डितः। 
ततश्च यातनादेह क्छेशेन ्रतिपधते ॥४२॥ 


एतान्यन्यानि चोग्राणि दुःखानि मरणे नृणाम्‌ । 
मृणुष्व नरके यानि प्राप्यन्ते परमतः ॥४३॥ 


याम्यकिङ्करपाशादिग्रदणं दण्डताडनम्‌ | 





उसका समस्त कौचाचारनष्ट हो जाताहै तथा भोग 
ओर भोजनकी छाल्सा बद जाती है; उसङ़े परिजन 
मी उसकी हँसी चड़ति ह ओर समस्त बन्धुजन 
उससे खदासीन हो जाते है ॥ ३४ ॥ अपनी युबा. 
बस्थाकी चेष्टाओको अन्य जन्मभे अनुभव की हुई 
सो स्मरण करके षह अत्यन्त सन्तापवङ्न दीघं 
निभ्धास छोडता रहता है ॥ २५॥ 


दस प्रकार ब्ुद्धावस्थाम रेसे ही अनेकों दुःख 
अनुभव कर उसे मरणकरारम जो कष्ट भोगने पडते 
हवे मी सुनो।। ३६॥ उसके कण्ठ ओर हाथ-पैर 
चिथिर पड़ जाते, शरीरम अस्यन्तं कम्प छा जाता 
है, बसे बार-बार ग्छानि होतो भौर कभी कुछ चेतना 
भी जाती ह! ३७॥ उस समय बहु अपमे 
हिरण्य { सोना ), धान्य, पुत्र-स्त्ी, भृत्य ओर गृह 
दिके प्रति श्न सवबका.क्या होगा ? इस प्रकार 
अत्यन्त ममतासे त्याकुख हो जाता है ॥ ३८ ॥ उस 
समय ममेभेदी क्रकच (आरे) तथा यमराजके 
विकराखछ बाणके समान महाभयङ्कुर रोगोँसे उसके 
प्राण-बन्धन कटने छगते दै ।। ३९ ॥ उसको ओंँखोके 
तारे चह जाते है, वह अत्यन्त पीडासे बारंबार 
हाथ-पैर पटकतता है तथा उसके तादु ओर ओंठ 
सूखने ख्गते द ॥ ४० ॥। फिर क्रमश्च; दोष-समूहसे 
उसका कण्ठ रुक जाता है; अतः वह (वचरः इच्य्‌ 
करने खगत है, तथा उध्वश्चाससे पीडित ओौर 
महान्‌ तापसे व्याप्त होकर श्चधा-तृष्णासे व्याक्रुख 
हो उठता है । ४१॥ रेसी अवस्थामे भी यमदृतोसे 
पीडित होता हुआ वह बड क्टेरसे शरीर छोडता 
दै ओर अव्यन्त कष्टसे कमफ भोगनेके खयि 


यातनादेह प्राप्न करता है ॥ २॥ मरणकाले 
मनुष्योको ये ओौर ठेसे हयौ अन्य भयानक कष्ट भोगने 
पड़ते है; अब, मरणोपरान्त न्द रकम जो 
यातना मोगनी पड़ती दै बह सुनो-॥ ४३ ॥ 


प्रथम यम.-ङङ्कर अपने पामि बधते है, स्विर 
उनके दण्ड-ग्रहार स्ने पड़ते है, तदनन्तर 


क भ्ल + 


४ 

















करम्भवाटुकावह्वियन्तरशश्चादिभीषणे । 
प्रत्येक नरके पाश्च यातना द्विज दुःसहाः ॥४ 
ककयेः पाल्यमानानां सूषायां चापि ददताम्‌ । 


टारे; छृत्यमानानां भूमौ चापि निखन्यताम्‌। ४६। 


दूरेष्वारोप्यमाणानां ्याघ्रवकतर प्रवेश्यताम्‌ । 


गसपृस्मकष्यमाणानांद्वीपिभिशनोपयचञ्यताम्‌ ४७। 


काथ्यतां तैलमध्ये च क्रियतां क्षारकर्दमे । 


उचान्निपात्यमानानां क्षिप्यतां क्षेपयन्त्रफैः ॥४८॥ 


नरके यानि दुःखानि पाप्हेतूद्धवानि वे । 


प्राप्यन्ते नारकैर्विप्र तेषां संख्या न विद्यते ॥४९॥ 


न केवरं दिजश्रेष्ठ नरके दुःखपद्रतिः। 


स्वर्गेऽपि पातभीतस्य क्षयिष्णोर्नाप्ति नितिः।५०। 


पुनश्च गँ भवति जायते च पुनः पुनः । 
गभं विक्टीयते भूयो जायमानोऽस्तमेति वै ॥५१॥ 
जातमात्रश्च प्रियते बारुमावेऽथ यौवने | 


मध्यमं वा वयः प्राप्य बाद्धकेवाथ वा मृतिः ॥५२॥ 


यावज्जीषेति तावच दुःसैर्नानाविपरैः ष्टुतः । 
तन्तुकारणपकषमौषैरास्ते कार्पासचीजवत्‌ ॥५३॥ 
द्रव्यनाशे तथोतपत्तो पाठने च सदा नृणाम्‌ । ` 
मबन्त्यनेकदुःखानि तथैवेष्टविपत्तिषु ॥५४॥ 


यद्य्रीतिकरं पुरां वस्तु मेत्रेय जायते । 
तदेध ॒दुःखबृक्षस्य वीजलपरुपगच्छति ।॥५९५॥ 
कलधपुत्रमित्रा्थगरदकषत्रधनापिकैः । 


करियते न तथा भूरि सुखं पुंसां यथाऽपुसम्‌ ॥५६॥ 


इति संसारदुःखाफंतापतापितचेतसाम्‌ । 


विषक्तिपादपच्छायामूते त्र पुं सृणाम्‌ ॥५७॥ 


तदस्य त्रिविधस्यापि दुःखजावस्य वै मम | 





हे द्विज ! फिर तप्र बादुका, अग्नि-यन्त्र जौर 


राखरादिसे महाभयंकर नरकोमे जो यातनार्पँ भोगनी 
पडती है वे अत्यन्त असह्य होती है ॥ ४५ ॥ आरेसे 
चीरे जाने, मूस तपाये जाने, कुल्हाड़ीसे काटे 
जने, भूमिभे गाड़ जाने, शीषर चद्ये जानि, 
सिहके मुखम डाछे जाने, गिद्धोके नो चने, हाथियों 
दलित होने, तेभ परकाये जाने, खारे दर्दल्मे 
फंसने, ऊपर ठे जाकर नीचे गिराये जने आर 
्षेपण-यन्तद्वारा दूर फके जानेसे नरकनिवाक्षियोंको 
अपने पाप-कम॑कि कारण जो-जो कष्ट उठाने पडते है 
चनक्‌) गणना नदी हो सकती ॥ ४६-४९॥ 


हे ` दविजश्रेष्ठ केवल नर्कभे ही दुहो, सो 
वातत नदी हे; स्वभ भी पतनके भयसे डरे हृ 
क्षयकी आशं कावा उस जीवको कभी शान्ति नरी 
मभिर्ती | ५० ॥ [नरक अथव स्वग-मोगके अनन्तर] 
बार-बार वह गभेभे आता ओौर जन्म प्रहण 
करता दहै तथाकिर कभी गमंमेही नष्टहो जाता 
ओर्‌ कभी जन्मक्ेतेही मर जाताहै।॥५१॥ जो 
खत्पन्न हुआ है बह जन्मते ही बाल्यावस्थामे, युवा- 
वस्थामे, मभ्यमवयमे अथवा जराग्रस्त होनेपर 
अवश्य मर जाता है ॥ ५२॥ जवतक जीता दै 
तवतक्‌ नानः प्रकारके कष्टोसे धिरा रता है, जिस 
तरह्‌ कि कपासका बीज तन्तुभंके कारण सूत्रोसे 
पित रहता हे ॥ ५३॥ द्रभ्यके उपाजन, रक्षण ओर 
नामे तथा इष्ट-मित्रौके विपत्निप्रस्त होनेपर भी . 
मङुष्योको अनेकों दुःख उठाने पडते दै ॥ ५४ ॥ 


दे मैत्रेय ! मनुर्योको जो-जो वस्त प्रिय है, वे 
भी दुःखदूपी ब्रृक्षका बीज हो जाती ड ॥ ५५॥ 
खी, पुत्र, भिन्न, अथे, गृह, कत्र ओर धन आदिसे 
पुरुषोंको जैसा दुम्ब होता है वैसा सुख नहीं होता 
॥ ५६ ॥ इस प्रकार सांसारिक दुःखरूप सूये 
तापसे जिनका अन्तःकरण तप्त हो रहाहै उन 
पुरुषौको मोक्षरूपी वृक्षक [ घनी ] छायाको छोड़- 
कर आओौर कँ सुख मि सकता है १ ॥ ५७ ॥ अतः 


। मेरे ममे गभे, जन्म ौर जरा आदि स्थानो 





गर्भजन्मजराघरेषु स्थानेषु प्रभविष्यतः ॥५८॥ 
निरस्तातिशयाहादषुखमावेकरक्षणा । 
मेषजं भगवत्प्रापिरेकान्तात्यन्तिकी मता ॥५९॥ 
तस्पात्ततप्ाप्रये यलनः कतेव्यः पण्डितेरनरै | 
तसपरापतिहेत्तौनं च कम चोक्ते महान ॥६०॥ 
आगमोस्थं विवेकाच हिधा ज्ञानं तदुच्यते । 
शब्दब्रह्मागप्रमयं परं बह्म विवेकजम्‌ 8 १॥ 
अन्धं तम हवाज्ञानं दीपवबेन्दियोद्धवम्‌ | 
यथा ष्यंस्तथा जानं यदविप्रं विवेकम्‌ ॥६२॥ 
मनुरप्याह वेदाथ स्मृत्वा यन्धुतिसत्तम । 
तदेतच्छुयतामत्र सम्बन्ध गदतो मम ॥६२॥ 
द ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्‌ | 
शब्दब्रह्मणि निष्णातः प्र ्ह्माधिगच्छति ॥६४॥ 
द्र वै विधे वेदितव्ये इति चाथवंणी शरुतिः । 
प्रया वक्षरप्राप्िचछेगवेदादिमयापरा ॥६५॥ 
यत्तदव्यक्तमजरमचिन्त्यमजमन्ययम्‌ । 
अनिर्द्रयमरूपं च पाणिपादा्संयृतम्‌ ।६६॥ 
विश सवंगतं निर्यं भूतयोनिरकारणम्‌ । 























व्याप्यग्याप्ं यतः सवं यदे पश्यनित्‌ घरयः॥६७॥ 
तदून्रहम तत्परं धाम द्वेषं मोक्षफादक्षिभिः। 
भरत्िवाक्योदितं रकष तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ६८ 
तदेव भगवदाच्यं स्वरूपं परमास्मनः | 
वाचको भगवच्छब्दस्तस्याचस्याक्षयास्मनः)&९॥ 
एषं निगदिताथेस्य तन्तं तस्य तन्वतः। 


जञायते येन तज्ज्ञानं परमन्यसरयीमयम्‌ ॥७०॥ 





प्रकट होनेब ङे आध्यास्मिकादि च्रिविध दुःख समूहकी 
एकमाच्र सनातन ओषधि भगवसप्राप्ति ही है जिसका 
एकमान्र लक्षण निरतिश्चय आनन्दरूप सुखकी प्रापि 
ह्मे है ॥ ५८-५९ ॥ इसलिये पण्डितजनोँको भगवत्‌- 
प्राप्निका प्रयत्न करना चाहिये । हे महामुने ! कमं 
ओर ज्ञान-येदो ही उसकी प्रापतिके कारण कै 
गये है ॥ ६०॥ 

ज्ञान दो प्रकारका है-शाख्लजन्य तथा विवेकज 1 
शाब्द ब्रह्मका ज्ञान शाल्लजन्य है ओर परब्रह्मका बोध 
विवेकज ॥ ६१ ॥ हे विग्रषं { अज्ञान घोर अन्धकार. 
के समान है । उसको नष्ट करनेके ल्य इन्द्रियोद्धब 
ज्ञान दीपकवत्‌ ओौर विवेकज ज्ञान सूयक समान है 
॥ ६२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ { इस विषयमे वेदाथेक। स्मरण 
कर मनु जीने जो कुछ कहा है वह्‌ बताता द श्रवण 
करो ॥ ६३ ॥ 

ब्रह्मदो प्रकारका है-शब्दन्रह्य ओौर परब्रह्म । 
ब्दन्रह्म ( राख्नजन्य ज्ञान ) मै निपुण हो जनेपर 
जिज्ञासु [ विवेकज ज्ञानके द्वारा ] परत्रद्यको प्राप्त 
कर ठता है । ६४ ॥ अथवेवेदकी श्रृति दै कि विया 
दो प्रकारको है--परा जओौर अपरा। परासे अक्षर 
ब्रह्मकी प्रापि होती है ओर अपरा ऋगादि वेदत्रयी- 
रपा है ॥ ६५॥ जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, 
अज, अन्य, अनिर्देश्य, अरूप, पाणि-पादादिशुन्य, 
भ्यापक, सवगत, निस्य, भूतोका आदिंकारण, सयं 
कारणहीन तथ जिससे सम्पूणं म्याप्य भोर व्यापक 
प्रकट हुआ है ओर जिसे पण्डितजन [ ज्ञाननेत्रोसे ] 
देखते है वह परमधाम दी ब्रह्म दै, सुय॒क्षु्ओंको 
चसीका ध्यान करना चाद्ये ओौर वही भगवान्‌ 
विष्णुका बेदबचनोसे प्रतिपादित अति सुक्ष्म परमपव्‌ 
है । ६६-६८॥ परमात्माकरा वह्‌ स्वरूप हौ भगवत्‌! 
शञब्दका वाच्य है ओर भगवत्‌ शब्द्‌ हौ उस आद्य 
एवं अक्षय स्वरूपका वाचक हे ॥ ६९ ॥ 

जिसका रेसा स्वरूप बतलाया गया है उस 
परमात्मक त्वक जिसके हारा वास्तविक ज्ञान होता 
है वही परमज्ञान ( परा विद्या ) है । त्रयीमय ज्ञान 
(कर्मकाण्ड) इससे प्रथक्‌ (अपरा विद्या) दै ॥ ७० ॥ 


~ =----- -- 
® रवण दन्दरियद्वारा श्चाश्चका अहण होता है; इषक्यि शास्-जन्य क्षान हौ 'इन्द्रियोद्‌भव' शब्दरसे कहा गया है । 





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अशब्दगोचरस्यापि तस्य वै ब्रह्मणो हिज । 
पूजायां भगवच्छब्दः त्रियते ह्युपचारतः ॥७१॥ 
शुद्धे महाविभूत्यार्े परे ब्रह्मणि शन्ते । 
मैत्रेय भगवच्छन्दस्वंकारणकारणे ॥७२॥ 
सम्भर्तेति तथा मर्ता मक्रोऽ्थंदयान्वितः | 
नेता गमयिता सरष्टा गकारार्थस्तथा एने ॥७२॥ 
देशवय॑स्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्रियः | 
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥७४॥ 
वसन्ति तत्र भूतानि भूतात्मन्यखिहात्मनि। 

स च भूतेष्वशेषेषु वकाराथंस्ततोऽव्ययः ।७५॥ 
एवमेष महाञ्छब्दो मैत्रेय मगवानिति । 
परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥७६॥ 
तत्र॒ पूर्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः | 
शब्दोऽयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः ।॥७७॥ 
उत्पति प्रख्यं चेव भूतानामागतिं गतिम्‌ । 





वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति ।1७८॥ 
जञानशक्तियदेशवय॑वीयंतेजांस्यशेषतः । 


मगवच्छन्दवाच्यानि मिना देयैगुणादिभि, ॥७९॥ 





सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि । 
भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्प्रतः ॥८०॥ 





खाण्डिक्य जनकायाह पृष्टः केरि्वजः पुरा 
नामन्यारूयामनन्तस्य बाभुदेवस्य तत्वतः ॥८१॥ 
भूतेष वसते सोऽन्तवेसन्त्यत्र च तानि यत्‌ । 
धाता बरिधाता जगतां वासुदेवस्ततः प्रथः ॥८२॥ 
स सर्वभूतप्रकृतिं निकारान्‌ 


गुणादिदोषांश्च ने व्यतीतः । 














हे द्विज ! ब्रद्य य्चपि श्व्द्का विषय नहीं है तथाः 

खपासनाके लिये उसका भगवत्‌ उब्दसे उपचारः 

कथन श्रिया जाता है| ७१॥ ह मैत्रेय ! समर 

कारणाकिं कारण, महाविभूतिसंज्ञक् पर ब्रह्मे िरे 
ही (भगवत्‌? श्चब्दका प्रयोग हभ है ॥ ५७२९॥ इर 
( भगवत्‌ राब्द ) मे भकारके दो अथं है-- पोषण 
करनेवाला ओर सबका आधार तथा गकार अथं 
कम-एूर प्राप्न करनेवाला, स्य करनेवाङा ओौर 
रचयिता दै || ७३ ॥ सम्पूणं देश्यं, धमं, यञ, श्री, 
ज्ञान भौर वैराग्य--इन छः का नाम भगः है ॥७४॥ 


उस अचिर भूतास्मामे समस्त भूतगण निवास 
करते हँ ओौर बह स्वयं भी समस्त मृतोमे विराज- 


परान दे इसल्यि वह अव्यय ( परमास्मा) ही 

वकारका अथं है | ७५॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार यह्‌ 

महन्‌ भगवान्‌" शब्द परबह्मस्वरूप श्रोवासुदरेवका 

ही वाचके, किसी ओरका नहीं ॥ ७६ ॥ पूज्य 

पदार्थोको सूचित करनेके छक्चषणसे युक्त इस 

'मरावान्‌” शब्दा परमास्माम स॒ख्य प्रयोग है तथा 

ओके छ्यि गौण॥ ५७॥ क्योकि जो समस्त 

प्राणिर्योकि उसत्ति भौर ना्ञ, आना ओौर जाना 

तथा विद्या ओर अविद्याको जानता हे वही भगवान्‌ 

कहलानेयोग्य दै 11 ७८॥ व्याग करनेयीग्य [त्रिविध ] 

गुण [ ओौर उनके क्टेश ] भादिको छोडकर ज्ञान, 

शक्ति, बक्त, फेय, वीये जौर तेन आदि सद्गुण 

ही भगवत्‌" शब्दके वाच्य द ॥ ७२ ॥ 

उन परमात्म हौ समस्त भूत वसते ह जौर 

वे स्वयं भी सबके आत्मारूपसे सक्र भूतोमिं 

विराजमान दै, इसल्यि उन्द वासुदेव भी कहते 

ह ।॥ ८० ॥ पूवकाख्मे खाण्डिक्यजनकके पूषठनेपर 
केश्ञिध्वजने उनसे भगवान्‌ अनन्तके व्वाघयुदैवः 

नामकी यथां व्याख्या इस प्रकार कौ थी 
॥ <१॥ श्रसु समस्त भूतौमे व्याप द ओौर सम्पूणं 
भूत भी उन्दीमि र्ते द तथा वेदी संसारके 
रचयिता ओर रक्षक दै; इसख्यि वे वासुदेवः 
कहते दैः ॥ ८२॥ दहे मुने ! स्ौत्मा समस्त 
आवरणणोसे परे द बे समस्त भूतकौ प्रकृति, 


५२८ 


भ्रीविष्णुपुराण ~ " 


॥ अ० ९ 








` अतीतपर्वाबरणोऽखिलतसा 
तेनास्ठतं यद्ुबनान्तरारे ॥८३॥ 
वमसबर्पाणयुगालमान्ती । = 
स्क्तिरेशाव्रतमूतवगः । 
इच्छागृहीताभिमतोर्देद- 
स्वंसाधिताषजग द्वितो यः ॥८४॥ 
तेजोबरेधर्यमहाववोध- | 
` "` चुवीर्कत्यादिगुणेकरारिः। 
परः पराणां सका न्‌ यत्र 
| कटेशादयस्सन्ति परावरेशे ॥८५॥ 
स ईरो व्यष्टिषमष्िरूपो 
व्यक्तस्वरूपोऽप्रकटस्वरूपः । 
सशवरसपवदुक्‌ = सवबिच 


समस्तशक्तिः परमेशवरास्यः ॥८९। | 





संज्ञायते येन तदस्तदोषं 
द्धं परं निरमेकरूपम्‌ । ` 
॥ न्ट 
संदर्यत वाप्यवगम्यते वा 








_ ____----------------------------- 
| परकृतिके विकार तथा गुण शौर खनके काये आदि 


दोषोसे बिदक्षण हे । प्रथिवी जौर आकाङके बीचमे 


जो कुछ स्थित है बह सव उनसे व्याप्त दै ।॥ ८३॥ 
वे सम्पूण कल्याण-गुणोकि स्वरूप दै, उन्होने अपनी 


मायाशक्तिके ठेशमाचसे ह सम्पूणं प्राणियोको व्याप 
किया है ओौर वे अपनी इच्छसे स्वमनोऽसुकूछ 
महान्‌ शरीर धारणकर समस्त संसारका कल्याणः 


साधन करते दै ॥८४॥ वेतेज, बल, रेश्वये, 


महाविज्ञान, बीं भौर शक्ति , भादि गुणोकी एक- ` 
माच राशि दै, प्रति जादिसि मी परे है ओर उन ` 
वराबरेरमे अविचयादि सम्ूणै क्टेशोका अत्यन्ता- 


भाव हे ॥ ८५ ॥ वे श्र ही समष्टि ओर व्यष्टिरूप 
ह, वेदी व्यक्त अर अन्यक्तस्वरूप है, वे ही सयके 


स्वामी, ' सचके साक्षी ओर सव कुछ जानतेवठे दैः 
तथा उन्ही सवंशाक्तिमान्‌की परमेश्वरसंज्ञा है ।। ८६॥ 


जिसके दवाय बे निर्दोष, विशुद्धः निर्मल्न गौर एक-. 


खूप परमास्मा देखे या जानि जते है उसीका नाम 
ज्ञान ( परा विद्या ) है ओर जो इसके विपरीत है. 


तल्तानम्ञानमतोऽन्यदुकतम्‌।८७॥ | बही जज्ञान ( अपरा विद्या ) हे 1.८७ ॥ 


~~~ 
1 





निन्ये" 


इति ्रीविष्णुपुरणे पष्ठेऽसे पच्चमोऽध्यायः ।। ^ ॥ 


[ 


छठा अध्याय. 
केशिष्वज्ञ ओर खाण्डिक्यकी कथा 


। भ्रीपराश्चर उवाच 
स्वाघ्यायसंयमाभ्यां स दृश्यते पुरोत्तमः। ` 
तलापिकारणं ब्रह्म तदेतदिति प्यते ॥ १॥ 
स्वाध्यायाद्योगमासीत योगास्खाध्यायमावसेत्‌। 
स्वाध्याययोगसम्पत्या परमात्म प्रकाशते ॥२॥ 
ठदीक्षणाय खाध्यायधह्योगस्तथा परम्‌ । ` ` 


„ _, „+न रशत |) 3।। 


| $ 





. ्रीपराशरजी बोले-वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय 
ओर संयमद्वारा देले जते दै, बरमौ प्रातिका 
कारण होनेसेये भ नह्य ही कहते दै ॥ ९।॥ 


स्वाभ्यायसे योगकां भौर योगसे स्वाध्यायका आश्रय ' 


करे । इस प्रकार स्वाध्याय भौर योगरूप सम्पत्तिसे 


पर्मास्मा भरकाञचित ( ज्ञानक विषय ) होते है ॥२॥ 


क्मरवरूप परमास्माको मांसमय च्ुभोसे नहीं 
देखा जा कता, उन्द देखनेके लिये स्वाध्याय भौर 
गोता द्म ठो चेन्न ष्ै।॥३॥. 


+ ९ | © 1 न प्ल" "~ 1 ल 4 ~ 1. ल ५ 1. 








श्रजैत्रेय उवाच 
मगवंस्तमहं योगं ज्ञातुमिच्छामि तं बद | 
ज्ञाते यत्राखिराधारं परयेयं परमेश्वरम्‌ ॥ ए ॥ 

श्रीपराञ्चर उवाच 
यथा केशिध्वजः प्रह खाण्डिक्याय मरहास्मने। 
जनकाय पुरा योगं तमहं कथयामि ते ॥ ५॥ 

श्रीमेत्रेय उवाच 
खाण्डिक्यः कोऽभवदुतरक्मन्फो वा केरिष्वजः कृती । 
कथं तयो संवादो योगसम्बन्धवानभूत्‌ ॥ ६॥ 





श्रीपराशर उवाच 
धर्मध्वजो वै जनकस्तस्य पूप्रोऽमितध्वजः | 
कृतष्यजश्च नाम्नासीतपदाध्यात्मरतिनृपः ॥७॥ 
कृतध्वजस्य पप्रोऽभूत्‌ रुपातः ैरिष्वजो तृषः। 
पुत्रोऽमितध्वजस्पापि खाण्डिक्यजनकोऽभवत्‌।॥ ८॥ 
कर्ममार्गेण खाण्डिक्यः पृथिव्यामभवल्ृती । 
केशिष्वरजोऽप्यतीवासीद।त्मविघाविशारदः ॥९॥ 
ताबुभावपि चैचास्तां विजिगीषु परस्परम्‌ । 
केशिष्वजेन खाण्डिक्यस्सराज्यादवरोपितः॥ १०॥ 
पूरोधप्रा मन्त्रिभिश्च सपवेतोऽन्पसरापनः | 
राञ्यानिराकृतस्सोऽथ दुर्गारण्य चरोऽमवत्‌॥११॥ 
हयाज सोऽपि सुबहुन्यजञान्न्ञानव्यपाश्रयः] 
ब्रह्मविद्यामधिष्ठाय ततु मृलयुमवि्या ॥१२॥ 





एकदा वतत॑मानस्य यागे योगविदां वर । 
ध्धेनुं जधानोग्रदशाद्‌ लो विजने बने ॥१३॥ 
ततो शजा हतां श्रुखा घेवुं व्याप्रेण चिः । 
प्रायधित्तं स पप्रच्छ किमत्रेति विधीयताम्‌ ॥१५॥ 


तेऽप्यचुनं वयं विगम; कोरः पृच्छयतामिति । 
ति तोतस्तयेय प्राह भागंवम्‌ ॥१५॥ । 


१४ 


श्री्रैत्रेयजी बोज्ञे-भगवन्‌ ! जिसे जान रेनेपर 
मँ अखिलाधारः परमेश्वरको देख सकरूगा उस योगको 
मँ जानना चाहतः ह उसका वणेन कीजिये ।॥ ४ ॥ 


श्रीपरशरजी वोले~-पूवेकालमे जिस प्रकार 
इस योगकरा केिध्व जने महात्मा खाण्डिक्य जनकसे 
वणंन क्रियाया तुम्ह बही बतखछाताहूं॥५॥ 


भ्रीमग्रेयजी बोले-्रह्मम्‌ ! यह खाण्डिक्य ओर 
विद्धान्‌ केशचिष्व्रज कौन थे? ओर उनका योग- 
सम्बन्धी संवाद्‌ क्रिस कारणसे हुआ था!॥६॥ 

श्रीपरारारजी वोले-पूचं कारम घमेध्वज जनक 
नामक एक राजा ये । उनके अमितध्व्रज ओर कत- 
ध्वज नामक दो पुत्र हप । इनमे कृत्व सवेदा 
अध्यार्मश्चाश्मे रत रहता था ॥ ७ ॥ छूतध््रजका 
पुत्र केशिध्वज नामसे विद्यात हुभा जौर अमित 
ध्वज्ञका पुत्र ख(ण्डिक्य जनक हुभ्ना। ८ ॥ प्रथिवी. 
मण्डले खाण्डिक्य कर्ष-मागमे अत्यन्त निपुण था 
ओर केशिध्वज अध्य्रापविद्याका विरोषज्ञ था ।९।। | 
बे दोनों परस्पर एक-दृरेको पराजित करनेको 
चेष्ठामे लगे ते थे] अन्तमे काल्करमसे कैशिष्वजने 
खाण्डिक्यक्रो राञ्यच्युत कर दिया ॥ १०॥ राञ्य- 
शर्ट होनेषर खाण्डिक्य पुरोहित ओर मन्त्रियोकि 
सहित थोडी-ती सामग्री ठेकर दुगम वनभ चला 
गया । ११॥ कफैरिध्वजज्ञाननिष्ठथा, तो भी अविद्या 
(कमं ) द्वारा ष्युक्रो पार करनेकरे ल्यि ज्नान-दष्टि 
रखते हुए उसने अनेकों यज्ञोका अनुष्ठान किया । १२॥ 


हे योगिप्रेषठ! एकर दिन जव राजा केशिध्वज 
यज्ञानुषठानमे स्थित ये, उनकी धमे ( हविके ल्यि 
दूध देनेवाल गौ ) को निजन्‌ वनम एकर भयंकर 
चिहने मार डाला ॥ १३॥ व्यान्रद्ारा गौको सारी 
गयी सुन राजानि ऋत्विजे पूषा कि इसमे क्या 
प्रायश्चित्त करना चाद्िये ? ॥ ४ ॥ ऋचि जोने 
कह्‌ा-'हम [इस विषयमे] नहीं जानते; आप करीरुसे 
पिये ॥ जब राजाने करोखुसे यद. वात पूष तो 
उन्हयुने भी दसी प्रकारका रि दद रनेनद्र मद 








शुन एच्छरालन्द्र नाहं बेन स वेरंस्यति। 


स गत्वा तमणएच्छच सोऽप्याह शृणु यन्धुमे ॥१६॥ 
न कीरनं चैवाहं न चान्यः साम्प्रतं युधि । 


वेचयेक एव खच्छन्रुः खाण्डिक्यो यौ जितस्त्वया १७ 
स॒ चाहतं व्रजाम्येष प्रटुमात्मरिषु यने । 


प्राप्न एवं महायज्ञो यदिमां स हनिष्यति ॥१८॥ 
प्रायध्ित्तमशेपेण स चेत्परष्ठो वदिष्यति । 
ततश्चाषिकलो यागो भुनिश्रेष्ठ भविष्यति ॥१९॥ 


श्रीपराशर उवाच 


इद्युक्तवा रथमास्च कृष्णाजिनधरो नृपः । 

वनं जगाम यत्रास्ते स खाण्डिक्यो महापतिः॥२०। 
तमापतन्तमालोक्य खाण्डिक्यो रिपुमाखनः। 
प्रोवाच क्रोधताम्राक्षससमारोपितका्युकः ॥२१॥ 


खाण्डिक्य उवाच 
कृष्णाजिनं खं कवचमावध्यास्मान्हनिष्यसि | 
कृष्णाजिनधरे वेत्षि न मयि प्रहरिष्यति ॥२२॥ 
मृगाणां बद एषटेषु मूढ कृष्णाजिनं न किम्‌ | 
येषां मया खया चोग्राः प्रहितारि्ितप्रायकाः।॥२३॥ 
स त्वामहं हनिष्यामि न मे जीवन्विमोक्ष्यसे । 
आतताग्यसि दुबुदे मम राज्यहरो शुः ॥२४॥ 
केशिध्वज उवाच 
खाण्डिक्य संशय पर भवन्तमहमागतः । 
न सां हन्तु विचायंतत्कोपं वाणं विदश्च वा ॥२५॥ 








विषयमे नहीं जानता । आप श्गुपुत्र जुनकसे पूष्िये, 
वे अव्य जानते होंगै।' हे सुने! जब राजानि 
युनकसे जाकर पृछा तो इन्होने मी जो कुछ कहा, 
वह्‌ युनिये-॥ १५-१६॥ 


“इस समय भूमण्डल्मे इस वात्तको न कशो 
जानतादहै, नर्म जानता ओरन कोह ओौरदही 
जानता है, केवल जिसे तुमने परास्त क्रिया है बह 
तुम्हारा शत्र खाण्डिक्य ही इस बातको जानता 
है" ॥ १७ ॥ यह्‌ सुनकर केशिध्रजने कदा-"हे 
सनिश्र्ठ ¦ म अपने शत्रु खाण्डिक्यसे ही यह्‌ बात 
पूषठने जाता हँ । यदि उसने सुश्च मारे दियातोभी 
मुशे महायज्ञका फलतो मि ही जायगा अर 
यदि मेरे पृष्ठनेपर उसने युद सारा प्रायश्ित्त 
यथावत्‌ बतङा दिया तो मेय यज्ञ निर्विघ्न पूणं हौ 
जायगा” | १८-१९॥ 


भीपराशरजी बोल्ले-एेसा कह राजा केशिध्वज, 
कृष्ण सरुगचमे धारणकर्‌ रथपर आरूढ हो वनमे, 
जहा मदामति खाण्डिक्य रहते थे, आये ॥ २०॥ 
खाण्डिक्यने अपने शनरुको आते देखकर धनुष चदा 
छिया ओर क्रोधसे नेत्र खार करके कदहा-)। २१॥ 


खाण्डिक्य षोल्े-अरे ! क्या तू कृष्णाजिन- 
रूप कवच वरधिकर हमलोगौको मारेगा१ क्यातू 
यह समन्ता है कि कृष्ण सगचमे धारण किये हृष्‌ 
सुञ्चपर यह प्रहार नहीं करेगा १ ॥२२॥ हे मृद्‌ 
ख्गोकौ पौठपर क्या कृष्ण मृगचमं नहीं होता, जिन- 
परकरिर्मँने ओर तूने दोनोंहीने तीक्षण बाणोकी वर्षी 
की है २३॥ अतः अवँ तुचे अवश्य मारछगा,तू 
मेरे हाथसे जीवित बचकर नहींजा सक्ता। हे 
दवुदध ! तू मेया राञ्य छीननेवाखा शत्रु है, इसि 
आततायी है ॥ २४॥ 


केशिध्वज बोले-दे खाण्डिक्य ! मै आपसे एक 
सन्देह पूछनेके स्यि आया हँ आपको मारनेके 
छ्ियि नहीं आया, इस बातको सोचकर आप मुक्षपर्‌ 
क्रोध अथवा बाग छोड़ दीजिये ॥ २५॥ 








श्रीपराडर उत्राच 
ततस्स मन्त्िभिस्साद्धमेकान्ते सपुरोहितः । 
मन्त्रयामास खाण्डिक्यस्क्ैरेव महामतिः ॥२६॥ 
तमूचुमन्विणो वध्यो रिपुरेष वशं गतः । 
हतेऽस्मि्प्रथिवी सर्वा तव वश्या भविष्यति ॥२७॥ 
खाण्डिक्यश्ाह तान्स्बानेवमेतन्न संशयः । 
हतेऽस्मिन्पृथिवी सर्वा मम वशया भविष्यति ॥२८॥ 
परलोकजयस्तस्य पृथिवी सकला मम । 
न्‌ हनिमि चेज्ञोकजयो मम तस्य वसुन्धरा ॥२९॥ 
नाहं मन्ये छोजयादधिका स्यादमुन्धरा। 
प्रछोक मयोऽनन्तस्स्वल्पफ़ालो मदीजयः ॥३०॥ 
तस्मान्नैनं हनिष्यामि यत्पृच्छति वदामि तत्‌॥।३१। 

श्रावर्‌ाञ्चर्‌ उवाच 
ततस्तमभ्युपे्याई खाण्डिक्यलनको रिपुम्‌। 
्रटव्यं यरवया सवं त्पृच्छस्व वदाम्यहम्‌ ॥३२॥ 
ततस्सवं यथात धर्मघेलुबधं दिन । 
कथयित्वा स पप्रच्छ प्रायधित्तं हि तद्तम्‌ ॥२३॥ 
स चाचष्ट यथान्यायं द्विजे कैशचिष्वजाय तत्‌ । 
प्रायध्ित्तमकषेपेण यद्वै तत्र विधीयते ॥२३४॥ 
विदिता्थस्छ तेनैव ह्यनुज्ञातो महारमना। 
यागभूमिदुपागम्य चक्रे सर्वाः क्रियाः क्रमात्‌॥ ३५॥ 
क्रमेण विधिवद्यागं नीत्वा सोऽवभृथाप्टुतः। 
कृतकृत्यस्ततो भूत्वा चिन्तयामास पारथिवः।।२६॥ 
पूनिताश्च दिजास्सवे सदस्या मानिता मया। 
तथैवाथिजनोऽप्यथंयों जि तोऽभिमतेमया ॥२५॥ 


यथादैभस्य लोकस्य मया सवं विचेष्टितम्‌ । 
अनिष्पन्नक्रियं चेतस्तथापि मम किं यथा ॥३८॥ 





श्रीपराशरजी बोले-यह सुनकर महामति 
खाण्डिक्यने अपने सम्पूणं पुरोहित ओर मन्त्रियोसे 
एकान्तमे सलाह की ॥ २६ ॥ मन्त्रि्योने कहा कि 
(इस समय श्च आपके वषमे है, इसे मार डालना 
चाहिये । इसको मार देनेपर यह्‌ सम्पूणं प्रथिवी 
आपके अधीन हो जायगीः | २७॥ खाण्डिक्यने कहा- 
“यह निस्सन्देह ठीक दै, इसके मारे जानेपर्‌ अवश्य 
सम्पूणं प्रथिवी मेर अधीन हो जायगी; ज्रि्तु इसे 
पारलौकिक जय प्राप्न होगौ ओर मुच सम्पूणं प्रथिवी 
परन्तु यदि इसे तीं मारगातो युक्च पारलौकिक 
जय प्राप्न होगी ओर इसे सारी प्रथिवी ॥२८-५९॥ 
मँ पारटौकरिक जये एथिवीकरो अधिक नदीं मानता; 
कयेकि परणोक-जय अनन्तकालके स्यि होती ह 
शौर प्रथिवी तो थोड़े ही दिन रहती है | इसल्थिर 
इसे मारसगा नदी, यह्‌ जो कुछ पूष्ठेगा, तडा 
दगा ॥ ३०-३१॥ 

श्रीपसशरजी बोज्ञे-तव ख।ण्डिक्य जनकने 


. अपने शत्र केलिध्वजके पास आकर कहा--दुम्ह 


जो कु पूष्ठना हो पृष्ठ छो, मँ उसक्रा उत्तर 
दूगाः ॥ ३५॥ 
हे द्विज | तव केरिध्वजने जिस प्रकार धमधेनु 
मारी गयौ थौ वह्‌ सव वृत्तान्त खाण्डिक्यसे कदा 
ओर उसके लिये प्रायश्चित्त पृष्ठा 1 ३३॥ खाण्डिक्य. 
ने भी वह्‌ सम्पूण प्रायधित्त, जिसका फि उसके 
स्यि त्रिधान था, कघिष्वजको विधिपूवंक बतला 
दिया ॥ २४॥ तदनन्तर पृष्ठे हए अथेका जान रने 
र मह्‌र्मा खाण्डिक्यको आज्ञा ठेकर वे यज्ञभूमिभें 
आये ओर क्रमश्च; सम्पूणं कम समाप्त किया ॥ ३५॥ 
फिर काट्कमसे यक्ष समाप्न होनेपर भवश्रूथ 
( यज्ञान्त ) स्नानके अनन्तर कृतकस्य होकर राजा 
केसिभ्वजने सोचा ॥ ३६ ॥ “ने सम्पूणं ऋतििज्‌_ 
बाह्मणोका पूजन किया, समस्त सदस्यांका मान 
किया, याचकौको उनकी इच्छित वस्तुं दी, लोका- 
चारके अनुसार जो छ कत्य था वह समौ मने 
क्रिया, तथापि न जाने, क्यो मेरे चित्तम किसी 
क्रियाका अभाव खटकर रहा है!" ॥ ३५-३८ ॥ 











हस्यं सश्िन्तयन्नेव सस्मार स महीपतिः । 
खाण्डिक्याय न दत्तेति मया वै गुरुदक्षिणा ॥२९॥ 
स जगाम तदा भूयो रथमारू पार्थिवः । 
त्रेय दर्गगहनं खाण्डिक्यो यत्र संस्थितः ॥४०॥ 
खाण्डिक्योऽपि पुनश तमायान्तं पृतायुधम्‌। 
तस्थौ हन्तुं कृतमतिस्तमाह स पुन्ृपः ॥४१॥ 
भो नाहं तेऽपराधाय प्राप्तः खाण्डिक्य सा क्रुधः | 
गुरोनिष्कयदानाय मामवेहि त्वमागतम्‌ ॥४२॥ 
निष्पादितो मया यामः सम्यक्त्वदुपदेशतः। 
सोऽहं ते दातमिच्छामि वृणीष्व गुरुदक्षिणाम्‌।।४२॥ 
श्रीपराशर उवाच 
भूयस मन्विभिस्पादर मन्त्रयामास पाथिवः। 
गुरुनिष्करयकामोऽयं किं मया प्राध्य॑तामिति॥४५॥ 
तमूचुमेन्तिणो राज्यमरेपंप्ा््यतामयम्‌ । 
शुभिः प्रा्य॑तेराज्यमनायासितसैनिकैः ॥४५॥ 
प्रहस्य तानाह नृपस्स खाण्डिक्यो महामतिः| 
स्वल्पकालं महीपाल्यं मादेः राध्यते कथम्‌॥४६॥ 
एवमेतद्धवन्तोऽतर दयथंसाधनमन्तिणः | 
परमाथ; कथं कोऽत्र युयं नात्र विचक्षणा; ।४७॥ 
श्रीपराञ्चर उवाच 
त्युक्त्वा सयुपेत्यैन स त॒ केशिध्वजं नृपः । 
उवाच किमवद्यं सं ददासि गुरुदक्षिणाम्‌ ॥४८॥ 
बाटमिस्येव तेनोक्तः खाण्डिकयस्तमथान्रवीत्‌। 
मवानष्यात्मविज्ञानपरमाथग्रिचक्षणः ॥४९॥ 


यदि चेदीयते मद्यं भवता । गुरुनिष्क्रयः । 
तत्क्टेरश्रशमायालं यत्कमं॑तदुदीरय ॥५०॥ 





हस प्रकार सोचते-सोचते राजाको स्मरण हुभाकि 
मैने अभीतक खाण्डिक्यको गुर-दक्षिणा नदींदी 
॥ ३९ ॥ हे मैत्रेय ! तब वे रथपर चदुकर फिर उसी 
दुगेम बन्ने गये, जँ खाण्डिक्य रहते थे | ४०॥ 
खाण्डिक्य भी उन फिर शख धारण क्रिये आते देख 
मारनेके छ्य उन हुए । तव राजा केश्चिध्वजने 
कह्ा--॥ ४१॥ “खाण्डिक्य! तुम क्रोधयकरो, 


मै तुम्हारा कोई अनिष्ट करनेके लिये नहीं आया, 
बल्कि तुम्हुं गुरुदक्षिणा देनेफे ल्यि आया हँ--एेसा 
समश्चो ॥ ४२ ॥ मैने तुम्हारे उपदेश्चालुसार अपना 
यज्ञ भटी प्रकार समाप्त कर दिया है, अब मै तु 
गुरु-दक्िणा देना चाहता, वु्हजो इच्छा. 
मग छो" ॥ ४३ ॥ 


श्रीपराश्चस्जी बोले-तव खाण्डिक्यने फिर 
अपने मन्त्रयसे पराम किया कि यह मुञ्चे गुर 
दक्षिणा देना चाहतादै,्ै इससे क्या मग 
॥ ४४ ॥ मन्त्रियोने कहा--“आप इससे सम्पूणं 
राज्य मग लीजिये, बुद्धिमान्‌ छोग सत्र ओंसे अपने 
सेनिकोंको कष्ट दिये विना राञ्यदहो मगा करते है" 
॥ ४५ | तब मद्‌ामति राजा खाण्डिक्यने उनसे 
हसते हुए का--“मेरे-जेसे खोग श्छ ही दिन रमे" 
वाखा राञ्यपद्‌ कैसे मग सक्ते है १ ॥ ४६ ॥ यह 
ठीक है आपललोग स्वाथ-साधनफे ल्यि ह्ये पराम 
देनेवे दै; किन्तु परमार्थं क्या ओौर्‌ कैसादहै १ 
इस प्रिषयमें आपको विरष ज्ञान नदीं है" ॥ ४७ ॥ ` 
श्रीपराश्चरी बोले-- यष कहकर राजा खाण्डिक्य 
केशिध्वजके पास आये ओर उनसे कहा; क्या तुम 
मुञ्चे अवश्य गुरु-दक्ठिणा दोगे' ॥४८॥ जब 
केशिध्वजने कहा क्रि भवै अव्य दूंगा" तो खाण्डिक्य 
बोके--“आप१ अथ्यात्मन्ञानरूप परमाथ -विद्यामे बडे 
कुश्करहै॥४९॥ सो यदिञआपयु्चै गुरुदक्षिणा 
देना ह चाहते तोजो कमं समस्त क्टेशोकी 
ञञान्ति करनेमे समथः हो वह्‌ बतलाद्वये” ॥ ५० ॥ 


१ ५५ 


इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६.॥ 


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सात्वं अध्याय 


ब्रह्मयोगका भिर्णय 


केशिध्वज उवाच 
म प्राथितं सया कस्मादस्मद्राज्यमफण्टकम्‌। 
राज्यलामाद्धिना नान्यसपषत्रियाणामतिप्नियम्‌। १॥ 


खाडिक्य उवाच 
केरिष्वम निवोध सं मया न प्रार्थितं यतः। 
राञ्यमेतदरेषं ते यत्र गुध्नन्त्यपण्डिताः ॥२॥ 
क्षत्रियाणामयं धर्मो यस्प्रजापरिपालनम्‌ । 
वधश्च धर्मयुद्धेन स्वराज्यपरिपन्थिनाम्‌ ॥ २॥ 
तत्राशक्तस्य मे दोपो नैवास्त्यहूते खया । 
वन्धायैव मवस्येषा हविदयाप्यक्रमोल्न्नता ॥ ४॥ 
जन्मोपमोग्िप्सार्थमियं राज्यस्पृहा मम । 
अन्येषां दोषता सैव धमं वै नानुरुध्यते ॥ ५॥ 
न याच्ना क्षत्रबन्धूनां धर्मायेतस्सतां मतम्‌| 
अतो न याचितं राज्यमविधयान्तगंतं तव ॥ ६॥ 
राज्ये ग॒ध्नन्त्यविद्वासो ममत्ाहतचेतसः । 


अहमानमहापानमदमत्ा न माद्शाः ॥७॥ 
भ्रीपराङ्ञर | उताव 

प्रह्टस्साध्विति प्राह ततः केशिध्वजो नृपः । 

खाण्डिक्यजनकं रत्या श्रयतां वचनं मम ॥ ८॥ 

अहं ह्यविधया मस्य ततुकामः करोमि वै। 

राल्य यागं विविषान्मोगैः पुण्यक्षयं तथा॥९॥ 











केशिध्वज बोक्ञे-शत्रियोंको तो राञ्य-प्राप्निसे 
अधिक्र प्रिय ओर कुछ भी नहीं होता, फिर तुमने 
सेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं मगा १॥ १॥ 


खाण्डिक्य बोक्ते-हे केशिध्वज ! मैने जिस 
कारणस तुम्हागा राञ्य नहीं माँगा वह सुनो । इन 
राज्यादिकी आकांक्षातो मूर्खोको हृजा करती है 
॥ २॥ क्षत्नियोका धमं तो यही है कि प्रजाक्रा पालन 
करे ! ओौर्‌ अपने एाञ्यके वि रोधियोका धमे-युद्धसे 
वध करं ॥ ३ ॥ शक्तिहीन द्ोनेके कारण यदि तुमने 
मेरा राञ्यदरण कम्‌ चियादै, तो [ असमथेतावश्च 
प्रजापाछनन करनेपर भी] सुने को दोषम होगा। 
[ किन्तु राञ्राधिक्रार हदोनेपर यथावत्‌ प्रजापारनं 
न करनेत्ते दोषक्रा भागी होना पड़ता है ] क्योकि 
यद्यपि यदह (स्वकर्म) अविद्या ही हैः तथापि नियम 
विसद्ध्‌ व्याग करनेपर्‌ यह्‌ बन्धनक्ो कारण होती 
है| ॥ यह राञ्यकी चाह सुश्च तो जन्मान्तरके 
[ कर्मोह्राग प्राप ] सुखभोगके व्यि होती दहै; ओर 
वष्टी मन्त्री आदि अन्य जलोक्रो राग पं छोभ 
अदि दरोपोसे उत्पन्न होघी है, केवल धमानुरोधसे 
नहीं ॥ ५॥ दत्तम क्ष्रियोका [ राञ्यादिकौ ] याचना 
करना धमं नहीं षैः यदह महास्माभौका मत दवै। 
इसीलियि मैने अविद्या (पालनादि कमं ) के अन्तरगत 
तुम्हारा राञ्य नदीं मगा | ६॥ जो लोग अहंकार- 
रूपी मदिराक्रा पान करके उन्मत्तहो रहै है तथा 
जिनका चित्त ममताम्रस्तद्टो रहा दहे वे मूढजन ही 
राञ्यको अभिलाषा करते ह; मेरे जैसे छोग राज्यकी 
द्च्छा नहीं करते ॥ ७॥ 


्रोपराश्चस्जी बोल्ते--तव राजा केक्ञिध्वजने 
प्रसन्न होकर खाण्डिक्य जनकको साघ्ुबाद दिया 
ओर प्रीतिपूवंक कहा, मेरा वचन सुनो-॥ ८ ॥ जै 
अबिद्याह्वारा मूद्युक्रो पार करनेकी इच्छासे हौ राञ्य 


सथा वि्धिघ यज्ञोका अनुष्ठान कर्ता हँ ओौर नाना 


भागोह्ारा अपने पुरण्योका क्षय कर रहा हूं ॥९॥ 


५२४ 


भरीविष्णुपुराण 


| अ० ७ 








तदिदं ते मनो दिष्टया विकेकैशवयेतां गतम्‌ । 
तच्छुयतामविधायास्स्वरूपं इलनन्दन ॥१०॥ 
अनार्मन्यात्मबुद्धिय चास्ते स्वमिति या मतिः। 








संसारतरुसम्भूतिबीजमेतदुदविभा स्थितम्‌ ॥११॥ 


पश्वभुतात्मके देहे दे मोहतमोवृतः | 

अदं ममेतदिव्युस्पैः ङुसते इमतिमेतिम्‌ ॥१२॥ 
भकाश्वाय्वग्निजरप्रथिवीम्यः पृथक्‌ स्थिते। 
आत्मन्याल्मयं भावं कः करोति फरवर ॥१३॥ 
कठेवरोपमोभ्यं हि गृहसत्रादिकं च कः । 

अदेहे द्यरमनि ग्रान ममेदमिति मन्यते ॥१४॥ 
हस्यं च पुत्रपेत्रेषु तदेहोत्पादितेषु कः । 
करोति पण्डितस्स्वाम्यमनास्मनि केवर ॥१५॥ 
सवं देदोपमोगाय इर्ते कमं मानवः | 
देदश्वान्यो यदा पुंसस्तदा बन्धाय तत्परम्‌ ॥१६॥ 
मृणप्रयं हि यथा गेहं लिप्यते वै मृदम्भसा । 
पाथिवोऽयं तथा देहो सृद्म्ञ्ह्ेपनस्थितः॥ १५॥ 





पश्चभूतात्पकैर्भो गैः पञचभूतारमकं वपुः । 

आप्यायते यदि ततः पुंसे मोगोऽतर फं कृतः ॥१८. 
. अनेकजन्मसा सीं संसारपदषीं वन्‌ । 

मोहश्रमं प्रयातोऽी वासनारेणुगुण्डितः ॥१९॥ 
पर्तालयते यद यदा सोऽस्य रेगङ्ञानोष्णवारिणा । 

तदा संसारपान्थस्य याति मोदश्रमदशमम्‌ ॥२०॥ 

















मोदमे शमं याते स्वस्थान्वःकरणः पुमान्‌ । 
अनन्यातिरयावाधं परं निर्वाणमृच्छति ॥२१॥ 














निर्वाणमय एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः । 
दुःखाहानमया धर्माः प्रकृतेस्ते तु नात्मनः ॥२२॥ 

















नि 


क = ~ # भ = = + + ¢ ~ 








हे कुटनन्दन | बडे सौभाग्यकी बात हे कि तुम्हारा 


मन विवेकसम्पन्न हुआ है, अतः तुम अविद्याका 
स्वरूप सुनो ॥ १०॥ संसारःवृक्षकी बीजभूता यह 
अविद्या दो प्रकारकी है--अनात्मामे आत्मवुद्धि 
ओर जो अपना नहीं है उसे अपना मानना ॥ ११॥ 
यह कुमत्ति जीव मोहरूपी अन्धकारसे आयत्त होकर 
इस पच्चमूतात्मक देहमे त ओर 'मेरापन' का भाव 
करता हे । १२॥ जब करि आत्मा आकाञ्च, वायु, 
अग्नि, जरु ओौर प्रथिवी आदिसे सवधा प्रथक्‌ 
हे तो कौन बुद्धिमान्‌ व्यक्ति शरीरम आत्मबुद्धि 
करेगा १॥ १३॥ ओर आत्माके दहसे परे होनेपर 
भी देहके उपभोग्य गृह्-क्षेत्रादिको कौन प्राज्न पुरुष 
'अपनाः मान सक्ता दै ॥ १४ ॥ इस प्रकार इस 
शरीरके अनात्मा होनेसे इससे दत्पन्न हए पुत्र 
पोत्रादिमें भी कौन विद्वान्‌ अपनापन करेगा! १५॥ 
मनुष्य सारे कभ देहके ही उपभोगके छ्य करता 
है; किन्तु जब करि यह देह अपनेसे प्रथक्‌ है, तोवे 
कम केवल बन्धन ( देहो त्ति ) के ही कारण होते 
है ।॥ १६॥ जिस प्रकार मिष्ट घरको जर भौर 
मिषटीसे रीपते-पोतते दहै उसी प्रकार यह पार्थिव 
शरीर भी मृत्तिका ( मूण्मय अन्न) ओर जछ्कौ 
सहायतासे हौ स्थिर र्वा है॥ १७ ॥ यदि यह्‌ 
पच्चभूतात्मक शरीर पाच्चभौतिक पदार्थोसे पुष्ट होता 
है तो इसमे पुरुषने क्या भोग किया । १८ ॥ यह्‌ 
जीव अनेक सहस जन्मोंतक सांसारिक भोगोँमे पड़े 
रहनेसे उन्दी बासनारूपी धूठिसे आच्छादित हो 
जानेके कारण केवल मोहरूपी श्रमको ही प्राप्र होता 
है ॥ १९॥ जिस समय ज्ञानरूपी गमं जख्से उसकी 
बह धूडि धोद जाती है तब इस संसार-पथके 
पथिकका मोहृरूपी श्रम श्चान्त ह्यो जाता हे ॥ २०॥ 
सोह-श्रमके चान्त हो जानेपर पुरुष स्वस्थ-चित्त हो 
जाता है ओर निरतिशय एवं निबोध परम निवीण 
पद प्राप्त कर छेता है ॥ २१॥ यह्‌ ज्ञानमय निम 
आत्मा निवौण-स्वरूपही है, दुःख आदि जो अज्ञान 
मय धमं दैवे प्रकृतिके है, आत्मके नीं ॥ २२॥ 
दे राजन्‌! जिस प्रकार स्थाटी ( बटो) के 








शब्दोद्रेकादिकान्धर्मास्तिस्करोति यथा नप।॥२२॥ | संसग॑से हौ उसमे खौरनेके शाब्द आदि धमं प्रकट 


तथार्मा प्रकृतेस्सद्धाददस्पानादिद्पितः। 
भजते प्रकृतानधर्मानन्यस्तेभ्यो हि सोऽव्ययः।२४। 


तदेतत्कथितं बीजमविध्याया मया तव । 


मे जाति है, उसी प्रकार प्रकृतिके संसग॑से हमै आत्मा 
अहकारादिसे दूषित होकर प्राक्त धर्मोको स्वीकार 
करता है; वास्तवमे तो वहु अव्ययात्मा उनसे 
सर्वथा प्रथक्‌ है ॥ २३.२४ ॥ इस प्रर मैने वुष्द 
यह अविद्याक्रा बीज बतलाया; इस अविदययासे प्राप्त 
हुए क्छेशोंको नष्ट करनेवाला योगसे अतिरिक्त भौर 


क्टेशानां च क्षयकरं योमादन्यन्न विद्यते ॥२५॥ | कोद उपाय नदह दे ॥ २५॥ 


खाण्डिक्य उवाच 
तं तुब्रूहि महामाग योगं योगविदुत्तम । 
विज्ञातयोगशाक्चाथस्तवमस्यां निपिसन्ततौ ॥२६॥ 
केञ्चिध्वज उवाच 
योगस्वरूपं खाण्डिक्य श्रूयतां गदतो मम | 
यत्र स्थितो न च्परवते प्राप्य ब्रह्मरयं मनि; ॥२७॥ 
मन एव मनुष्पाणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 


बन्धाय विषयासङ्गि युक्त्यै निर्विषयं मनः॥२८॥ 


विषयेभ्यस्समाहू्य विज्ञानासमा मनो युनिः | 
चिन्तयेन्धुक्तये तेन ब्रह्मभूतं .परेशरम्‌ ॥२९॥ 
आत्मभावं नयस्येनं तदुत्रहम ध्यायिनं मुनिम्‌ । 








--------. 


विकायंमाटमनश्चक्त्या छोहमाकपंशो यथा।।३०। 
आस्मप्रयटनसपेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः 
तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग ह्यभिधीयते ॥३१॥ 








एवमत्यन्तवेिष्ट्ययुक्तधरमोपलक्षणः | 
यस्थ योगः स वै योगी भपक्ुरमिधीयते ॥३२॥ 
योगयुक्‌ प्रथमं योगी युज्ञानो भि धीयते। 
बिनिष्पन्नसमाधिस्त॒ पर ब्र्मोपरुब्िमान्‌ | ३३॥ 
यद्यन्तरायदोपषेण दृष्यते चास्य मानसम्‌ । 
जन्मान्तरभ्यततो क्तिः पूवस्य जायते ॥३४॥ 








खाण्डिक्य बोज्े-दे योगवेत्ता भोम शरेष्ठ महा 
भाग केचिध्वज ! पुम निभिवंश्यमे योगश्च ममज्ञ 
हो, अत; उस योगका वणन करो ॥ २६॥ 

कैशिभ्वज्न वोल्े--दहे खाण्डिक्य ¦ जिसमे स्थित 
होकर ब्रह्ममें छीन हुए मुनिजन किम्‌ स्वरूपसे च्युत 
नदीं हते, भै उस योगका वणन करता श्रचण 
कर | २७ ॥ 

मनुष्यके बन्धन ओौर मोक्षा क्रारण केवर मनं 
ही है; विषयक्रा संग करनेसे चह बन्धनकारी ओर 
विषयशुन्य हानेसे मोक्षकारक होता हे ।॥ २८॥ अतः 
विवेकन्ञानसम्पन्न मुनि अपने चिन्तको वरिषरयौँसे 
हटाकर मोक्षप्रापनिकरे लि ब्रह्मस्यशूप पर्मात्माका 
चिन्तन करे ॥ २९ ॥ भिस प्रकार अयस्कान्तमणि 
अपनी शक्तिसे छोहेको खींचकर भपनेमे संुक्त कर 
लेता हं सी प्रकार श्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिको 
परमात्मा स्वभाव्रसे हयी स्वरूपम छीन कर देता है 
॥ ० ॥ आस्मज्ञानके प्रयत्नभूत यम, नियम आदि. 
की अपेक्षा रखनेषाछी जो मनकी विरिष्ट गतिदहै, 
उसका ब्रह्मफे साथ संयोग होना ह ध्योगः कहल्ाता 
है ॥ ३१॥ जिसका योग इस प्रकारे विशिष्ट 
धमे युक्त होता दै वह मुमु योगी का 
जाता हे | ३२॥ जव मुसष्ठ परे-पहरे योगाभ्यास 


| क्षारम्भ करता ह तो उसे योगयुक्तं योगी" क्ते 


हैँ ओर जव उसे परब्रह्मकी प्राप्तिदो जाती है 
तो बह "विनिष्पन्न-समाधि' कषटाता है ॥२३३॥ 
यदि किस विष्नवश् उस योगयुक्त योगीका चित्त 
दूषितद्टो जाता देतो जन्मान्तरमें भी उसी भभ्यास- 
को करते रहनेसे वह्‌ भुक्त दहो जाता है॥३४॥ 


५२९ 


भ्रावष्णुपुराण 


॥ अ० ७ 








विनिष्यन्नसमाधिस्तु बक्ति तत्रेव जम्भनि। 
्रासरोतियोगी योगा्िदग्धकर्मचयोऽचिरात्‌ । ३५ 
ब्रह्मचयमदिसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान्‌ । 

सेवेत योी निष्कामो योग्यतां समनो नयन्‌ ३६। 
स्वाध्यायश्चोचसन्तोपततपांसि नियतात्मवान्‌। 
कुर्वीति ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रबणं मनः ॥२७। 
एते यमास्यनियमाः पञ्चपञ्च च फीर्विताः। 
विरिष्फर्दाः काम्या निष्कामाणां विष्ुक्तिदाः२८। 


एकं मदरा्नादीनां समास्थाय गुणेंतः । 
यमास्यै्नियमास्यैशचयुज्ञीत नियतो यतिः॥३९।। 


प्राणाख्यमनि् बर्यमभ्यासाद्कुस्ते ठं यत्‌ । 
प्राणायामस विज्ञेयस्सवीजोऽवीज एव च ॥४०॥ 
प्रस्परेणामिभवं प्राणापानौ यथानिहो | 
कुरुतरपदिधानेन तृतीयस्पयमात्तयोः ॥४१॥ 
तस्य चारम्बनवतः स्थूररूपं द्विजोत्तम । 
आलम्बनमनन्तस्य योगिनोऽभ्यसतः स्मरतम्‌।४२। 
रब्दादिष्ववुरक्तानि निगृयक्षाणि योगवित्‌। 
ुर्थाच्वित्तानुकारीणि प्रस्याहारपरायणः ॥४२॥ 
व्यता परमा तेन जायतेऽतिचलातसनाम्‌ । 
इन्दियाणामवद्यैसतैनं योगी योगसाधकः।४४॥ 


प्राणायामेन पवने प्रस्याहारेण चेन्द्रिये | 
वश्ीडते ततः कुर्यारिस्थतं चेतर्मुभाश्रये ॥४५॥ 


खाण्डिक्य उवाच 


चरा 











विनिष्पन्नसमाधि योगी तो योगाग्निसे क्म. 


समूहके भस्म हो जनके कारण इसी जन्मे 
थोड़े ही समयम मोक्ष प्राप्रकर छेताहै॥ ३५॥ 
योगीको चाहिये कि अपने चिन्तको ब्रह्मचिन्तनङे 
योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचये, अहिंसा, सस्य, 
अस्तेय ओर अपरिप्रहुका निष्कामभावसे सेवन 
करे ॥ ३६॥ संयत चित्तसे स्वाध्याय, शौच, 


सन्तोष ओौर तपक्षा आचरण करे तथा मनको 

निरन्तर परब्रह्म रगाता रहे ॥ ३७॥ ये पौँच-पौँच 

यम ओर नियम बताये गये है । इनका सकाम 

आचरण करनेसे प्रथक्‌-पृथक्‌ फल मिहत है ओर 

नि्मभागसे सेषन करनेसे मक्ष प्राप्न होता 
|¦ ३८ ॥ 


यतिको चाहिये किं भद्रासनादि आसमोंतेसे 
फिसी एकका अवलम्बनकर यम-नियमादि गुणोंसे 
युक्त हो योगाभ्यास करे ॥ २३९॥ अभ्यासके द्वारा 
जो प्राणवाथुको वशम किया जाता है उसे श्राणा- 
यामः समक्षना चाहिये । बह सबीज ( ध्यान तथा 
मन््रपाठ आदि आछम्बनयुक्त ) ओर निर्बीज 
( निराङम्ब सदसे) दो प्रकारका है ॥ ४०॥ 
सदूगुरके उपद्श्ञसे जव योगी प्राण ओौर अपान 
वायुद्रारा एक्र-दृसरेका निरोध करता है तो [क्रमशः 
रेचक ओर पूरकः नामक ] दो प्राणायाम होते दै 
ओर इन दोनोंकाएक हयी समय संयम करनेसे 
[ कुम्भक नामक्र ] तोसरा प्राणायाम होता है ॥४१। 
हे द्विजोत्तम ! जव योगी सबौीज् प्राणायामका 
अभ्यास आरम्भ करता हैतो सका आलम्बन 
भगवान्‌ अनन्तका हिरण्यगभ आदि स्थूह रूप होता 
हे ॥ ४२ ॥ तदनन्तर बह प्रव्याहारका अभ्यास 
करते हुए शब्दादि षिषयोर्मे अनुरक्त हु अपनी 
इन्द्रियोको रोक्रकर अपने चित्तकी अनुगामिनी 
वनात है ॥ ४३ ॥ देसा करनेसे अस्यन्त चञ्चछ 
इन्द्रिय वसे वशीभूत हयो जाती है । इन्दियीको 
वरामं किये बिना कोई योगी योग-साधन नहीं कर 
सकता ॥ ४४ ॥ इस प्रकार प्राणायामस वायु भौर 
्रस्याद्‌1रसे इन्द्रियोको वज्ञीमूत करके चिन्तको उसङे 
ययम आश्रयमें स्थित करे ॥ ४५॥। 


खाण्डिक्य बोल्ले-हे महाभाग । यदह बतङादये 





केशिध्वज उवाच 

आश्रयश्चेतसो व्रह्म द्विधा तच स्वभावतः | 

भूष पूत्त॑मसूत्तं च प्रं चापरमेव च ॥४७॥ 
त्रिविधा सावना भूष विश्वमेतन्निबोधताम्‌ । 
ब्रह्माख्या कर्मसंज्ञा च तथा चैवोभयालिका ॥४८॥ 
कर्मभावात्मिका देका ब्रह्ममावारिपका परा। 
उभयातिमक्रा तथैवान्या त्रिविधा भावभावना ।४९। 

नन्दनादयो येतु ब्रह्मभावनया युताः 

कमभावनया चान्ये देवाद्या; स्थावराश्वराः॥५०॥ 
हिरण्यगर्भादिषु च बरह्मकर्मास्मिफा द्विधा । 
योपाधिकारयुक्तेषु विद्यते भावभावना ॥५१॥ 


अश्तीणेषु समस्तेषु विशेषक्ञानकर्मघु । 





विश्वमेतत्परं चान्यद्धेदभिन्नदशं सृणाम्‌ ॥५२॥ 








प्रत्यस्तमितभेदं यर्सत्तामात्रसगोचरम्‌ । 





वचसामात्मसवेधयं तञ्जानं ब्रह्मसंज्ञितम्‌ ॥५३॥ 


च विष्णोः एरं एपमरूपारूपमनुक्तमम्‌ । 
विश्वस्वरूपवैरुप्यरक्षणं परमात्मनः ॥५४॥ 
न तद्योगयुजा शक्यं नुप चिन्तयितुं यतः। 
ततः स्थूलं हरे रूपं चिन्तयेद्िशचगोचरम्‌ ।५५९॥ 
हिरण्यगर्भो भगवान्वासुदेवः प्रजापतिः 
मर्तो वसवो रद्रा मास्करास्तारका ग्रहाः ॥५६॥ 
गन्धवेयक्षदैत्या्ास्सकछा देवयोनयः 

नुष्याःपशवर्शलास्पयुदरास्सरितो द्र भाः ॥५७॥ 
भूप भूतान्यशेषाणि भूतानां येच हितवः 
प्रधानादिविशेषान्तं चेतनाचेतनात्मकम्‌ ॥५८॥ 
एकपादं द्विषदं च बहुपादमपादकम्‌ । 
मूततमेतद्धरे रूपं भावनात्रितयातमकम्‌ ॥५९॥ 
एतत्सव मिदं विश्वं जगदेतच्चराचरम्‌ । 





परत्रहमस्ररूपस्य विष्णोरशक्तिसमन्वितम्‌।।६०॥ 





वि० पुण ६८-- 








कैशिध्वज्ञ बोकते--हे राजन्‌ ! चित्ता आश्रय 
ब्ह्महे जोति मूतं ओर अमूत अथवा अपर ओौर 
पर-रूधसे स्वभावसे ही दो प्रकारका दै ॥ ४७॥ है 
भूष ! इस जगते ब्रह्य, कमं ओौर दभयात्मक नामसे 
तीन भ्रकारको भावनारपँ दै ४८॥ इनमे पहली 
कमेभाव्रना, दृलतरी ब्रह्मभावना ओौर तौसरी उभ- 
यात्मिकाभावना कहृछाती है । इस प्रकार ये त्रिबिध 
भावना है ॥ ४९॥ सनन्दनादि मुनिजन ब्रह्मभावना- 
से युक्त दै भौरदेवताओंसे छेकर स्थ।वर-जंगमपयन्त 
समस्त प्राणी कमे-मावनायुक्त द ॥५०॥ तथा 
[ स्वरूपतिषयक ] बोध ओौर [ स्वरगौदितिषयक् ] 
अधिकारसे युक्त हिरण्यगभादिमं व्रहाकमेमयी उभ. 
यास्मिका-भावना हे ॥ ५१॥ 

ह राजन्‌ ! जबतक त्रिरोषज्ञानके हेतु कमं क्षीण 
नहीं होते तभीतक अकारादि भेदके कारण भिन्न 
ट्ट रखनेषाठे मनुष्योको ब्रह्म ओर जगत्‌की भिन्नता 
प्रतीत होती है ॥ ५२॥ जिसमे सम्पूणं भेद शान्त 
हो जति है, जो सत्तामात्र भौर वाणीक्रा अविषयदहै. 
तथा स्वयं ह्वी अनुभव करनेयोग्य है, वही ब्रह्मज्ञान 
कखाता है । ५३ ॥ बही परमातमा विष्णुका अरूप 
नामक परम रूप दै, जो उलके विश्रूपसे विलक्षण 
है ॥ ५४॥ 

हे राजन्‌ ! योगाभ्यासी जन पदटे-पहङ हस 
रूपका चिन्तन नहीं कर सकते, इषलिये इन्द 
्रीहरिके ब्रिश्धमय स्थू रूपका हौ चिन्तन करना 
चाहिये ॥ ५५५॥ दहिरण्यगभं, भगवान्‌ वासुदेव, 
प्रजापत्ति, मरत्‌, वघ, रद्र सूये, तारे, प्रहगण, 
गन्धव, यक्ष ओर दैत्य आदि समस्त देवयोनि्ाँ 
तथा सनुष्य, पञ्च; पथेव, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूणं 
भूत एवं प्रधानसे छेकर विष (पच्चतन्मात्रा) पयेन्त 
उनके कारण तथा चेतन, अचेतन, एक, दो अथवा 
अनेकं चरणोँब्राे प्राणी ओौर बिना चरणोँवाटे 
जीवये सव भगवान्‌ हरिके भावनाच्रयात्मक 
मूतैरूप द ॥ ५६५२ ॥ यह सम्पूणं चराचर 
जगत्‌, परब्रह्मप्वरूप भगवान्‌ विष्णुका, उनको 
शक्तित सम्पन्न विश्वः नामक रूपैः ॥ ६०॥ 





मा 
---------------------__-[------_-------------------------- 


विष्णुह्चक्तिः परा प्रोक्ता कषत्रक्ञाख्या तथाप्य । 


विष्णुरक्ति परादै, क्षेत्रज्ञ नामक शक्ति अपरा 


अविधा करमसं्ान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥६१॥ ॥ भौर कमं नामकी तीसरी शक्ति अविद्या कदकाती 


यया सत्रत्तशक्तिस्सा वेष्टिता रप स्व॑गा । 
संप्तारतापानखिलानवामरोत्यतिष्न्ततान्‌ ॥६२॥ 
तया तिरोहितत्वाच शक्तिः पेत्रज्स्निता । 
सर्वभूतेषु भूषं तारतम्येन रक्ष्यते ॥६३॥ 
अप्राणवत्सु स्वल्पा षा स्थावरेषु ततोऽपिक्रा। 
सरीसृपेषु तेभ्योऽपि ह्तिशक्त्या पतस्िषु ॥६४॥ 
पतस्िम्यो मृगास्तेभ्यस्तच्छकंस्या पशवोऽधिकाः 
पशुभ्यो मदुजाश्चातिशक्त्या पुः प्रभाविताः ।६५। 
तेभ्योऽपि नागगन्धर्वयक्षाचा देवता सृप ॥६६॥ 
शक्रस्समस्तदेपेभ्यस्ततश्वाति प्रजापतिः| 
हिरण्यगर्भोऽपि ततः पुंसः शक्स्युपरक्षितः ॥६७॥ 
एतान्यशेषरूशणि तस्य हपाणि पार्थिव | 
यतस्तच्छक्तियोगेन युक्तानि नमो यथा॥६८॥ 


दवितीयं विष्णुसज्गस्य योभिष्येयं महामते । 
अमूत ब्रह्मणो सूपं यत्सदिसुच्यते बुधैः ॥६९॥ 
समस्ताः शक्तयश्चेता सृप यत्र प्रतिष्ठिताः । 
तद्धिधरूप्वरप्यं  सरूपमन्यद्धरेमंहत्‌ ॥७०॥ 
समस्तशक्तिषूपाणि तत्करोति जनेश्वर । 
देवतियेडमयुष्यादिचेष्टावन्ति सखशटीरया ।७१॥ 
जगतघरुपकाराय न सा करमनिमित्तजा । 
चेष्टा तस्याप्रमेयस्य व्यापिन्यव्याहतास्मिका ।७२। 
तद्रूपं विश्वरूपस्य तस्य योगथुना चप । 
चिन्त्यमात्मविसुद्रथधं स्व किल्विषनाशनम्‌।७२। 
यथाग्निरुद्रतशिखः कक्षं दहति सानिलः । 








_तथा चित्तस्थितो विष्यो गिनां सव्गिन्विषम्‌।७४।| 





है ।॥ ६१ ॥ हे राजन्‌ ¦ इस अविद्या-शक्तिसे आघत 
होकर वह्‌ सक्गामिनी कषेत्रज्ञ शक्ति सब प्रकारके 
अति विस्तृन सांसारिक कष्ट भोगा करती हे ॥६२॥ 
हे भूपा ! अविद्या-शरक्तिसे तिरोहित रहनेके कारण 
हो कषत्रजञशक्ति सम्पूणं प्राणियोम तारतम्यसे दिख- 
खायी देती है ॥ ६३ ॥ वह सव्रसे कम जड पदाथि 
है, हनसे अधिक वृक्च-पवेतादि स्थावरोमे, स्थावसेसे 
अधिक सरीस्युपादिमे ओौर उनसे अधिक पक्षियों 
है ॥ ६४ ॥ पक्षियोसे गृगोम ओर मरगोसे पञुभोमे 
बह शक्ति अधिक दै तथा प्चुभोंकी अपेक्षा मदुध्य 
भगवान्‌क) उस (कषेत्रज्ञ) शक्तिते अधिक प्रभावित 
है ॥ ६५ ॥ मनुष्योंसे नाग, गन्धव ओर यश्च आदि 
समस्त देवगणो, देवताओंसे इन्द्रम, इन्द्रसे प्रजा- 
पतिमें ओर प्रजापतिसे रिरण्यगभमे उस्र शक्तिक। 
विशेष प्रकार हे ॥ ६६-६9॥ हे राजन्‌ ! ये सम्पूणं 
रूप उस परमेश्व्केहो रीर, क्योकिये सत्र 
आकङ्क समान उनकी शक्तिसे स्याप्र दै ॥ ६८ ॥ 


हे महामते! विष्णु नामक ब्रह्मा दुसरा अमूर्त 
( आकारष्टीन ) रूप है, जिसका योगिनन ध्यान 
करते द ओौर जिसे बुधजन शसत्‌' कहकर पुकारते 
है ॥ ६९॥ द चप! जिसमे किये सम्पूणं शक्तियाँ 
प्रतिष्ठित दै बही भगवानूका विश्रूपसे विखक्षण 
द्वितीय रूप ह ॥ ७० ॥ हे नरेश्च ! भगवान्‌का बहौ 
रूप अपनो लीलाक्ते देव, तियेक्‌ ओौर मनुष्यादिकी 
चेष्टा्ओंसे युक्त सव्रशक्तिमथ रूप धारण करता 
हे ॥७१॥ इन रूपोमे अप्रमेय भगवानकी जो 
व्यापक एवं अन्याहूत चेष्टा होती दहै बह संसारके 
उपकार्के स्यिदही होती दै, कमंजन्य नदह होती 
॥ ७२॥ दै राजन्‌ ! योगाभ्यासीक्रो आत्म-ुद्धिके 
ल्यि भगवान्‌ विश्वपे उस सवंपापनाश्चक 
रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३ ॥ 
जिस प्रक्रार वायुसदहित अग्निडची उवाखाओंसे 
युक्तं होकर ष्क तृणसमूषहको जरा डाखूता दै 
उसी प्रकार चित्तम स्थित हुए भगवान्‌ विष्णु 
योगियोंके समस्त पाप नष्ट कर देते ह ॥ ७ ॥ 


अ० ७ |] 


तस्मास्समस्तश्क्तीनामाधारे तत्र चेतसः । 
कुवीत संस्थिति सा तु विज्ञेया सुद्धधारणा ॥७५॥ 


शुभाश्रयः स चित्तस सर्वंगस्याचहारमनः। 
परिभावमावनातीती मुक्तये योगिनो नृप ॥७६॥ 
अन्ये तु पुरुषव्याघ्र चेतसो ये व्यपाश्रयाः । 
अशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाचा; कमंयोनयः ॥७७॥ 
मूतं मगवतो रूपं सर्वापाश्रयनिःस्पृहम्‌ । 
एषा वै धारणा परोक्ता यचित्तं तत्र धायते ॥७८॥ 
यञ्च मूतं हरे रूपं यादृक्रिचन्स्यं नराधिप । 
तच्छुयतामनाधारा धारणा नोपपद्यते ॥७९॥ 


प्रसन्नवदनं चारुपदमपत्रोपमेक्षणम्‌ । 


सुकपोलं एुविस्तीणराटफलकोज्ज्वलम्‌ ॥८०॥ 
समकर्णान्तविन्यस्तचारङृण्डलमूषणम्‌ । 
कम्बुग्रीवं सुविर्तीणधरीवस्साङ्कितवक्षसम्‌ ॥८१॥ 
वित्रिभङ्खिना मग्ननाभिना द्युद्रेण च । 
प्रलम्बा्टय॒जं विष्णुमथवापि चतुश्च जम्‌ ॥८२॥ 


समर्थितोशज्चं च सुर्थिताङ्प्रिवराम्बुजम्‌। 
चिन्तयेदूजमभूतं तं पीतनिर्मखवाससम्‌ ॥८२॥ 
किरीरदारकेयूरकटकादिविभूषितम्‌ ॥८४॥ 
गाङ्गश्गदाखदड्‌गचक्राक्षवलयान्वितम्‌ । 
वरदाभयहस्तं च युद्रिकारर्नभूपितम्‌ ॥८५॥ 
चिन्तयेत्तनमयो योगी समाधायात्ममानसम्‌। 
तावद्यावदृदुदीभूता तत्रैव ९ धारणा ॥८६॥ 
लतसितषठतोऽन्यदवा सेच्छया करम दुवेतः। 








षष्ठं ज्रं . 





५३९ 








इसद्ियि सम्पूणं शक्तियोकि आधार भगवान्‌ विष्णुम 


चित्तक्ो स्थिर करे, यही श्रद्ध घारण्ण है ॥ ७५॥ 


हे राजन्‌ ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान्‌ 
विष्णु ही योगिजनोकी सुक्क लिये उनके [ स्वतः ] 
चच्चल तथा [ किसी अनूठे तरिषयम ] स्थिर रदने- 
वा चित्तके शुभ आश्रय है, ॥ ७६ ॥ हे पुरुपभिह्‌ ! 
इसके अतिरिक्त मनके आश्रयमूत जो अन्य देता 
आदि कम॑योनि्याँ है, वे सबं अशुद्ध ई ॥७७॥ 
भगवान्‌का यद्‌ मूत खूप चित्त को अन्य आलम्बरनोंसे 
निह कर देता दवै । इस प्रकार चित्तक। भगवान 
स्थिर करना ही धारणा कदटाती हे ॥ ७८॥ 

हे नरेन्द्र! धारणा बिना किसी आधारके नहीं 
हो सक्ती; इसरिगे भगवान्‌के जिस मूतं रूपका 
जिस प्रकार ध्यान करना चाहिये, वह्‌ सुनो ॥७९॥ 
जो प्रसन्नवदन ओर कमलदख्के समान सुन्दर 
नेच्रोबाछे दै, सुन्दर कपोल ओौर विश्चाङ भार्से 
अत्यन्त सुशोभित ह तथा अपने सुन्दर कानोमिं 
मनोहर क्रुण्डक पहने हए है, जिनकी मरता शंखके 
समान अर विख वक्षःस्थङ श्रीवत्सचिहसे सयोः 
भित है, जो तरङ्काकार्‌ त्रिवद्ी तथा नीची नामिव 
उद्रसे सुशोभित है, जिनके छंबरी-टंवो आठ अथवा 
चार भुना तथा जिनके जङ्घा वं ऊर समान- 
भावसे स्थित है भौर मनोहर चरणारविन्द छुघडना- 
से विराजमान दै उन निमंङ पीत्ताम्बरधारः ब्रह्म 
स्वरूप भगवान्‌ विष्णुका चिन्तन करे ॥ ८०-८३ ॥ 
हे राजन्‌ ! किरीट) हार, केयूर भौर कटक आदि 
आभूषणौसे विभूषित, शाङ्गघलुष, शंख गद; 
खज्ञ, चक्र तथा अक्षमारासे युक्त बरद ओर 
अभययुकरत हाथोवादे [ तथा अंगुलियों धारण 
क हृ ] रत्नमयी सुद्रिकासे शोभायमान भगवान्‌ 
दिष्य रूपका योगीको अपना चित्त एकाग्र करके 
तन्मयभावसे तबतक चिन्तन करना चाहिये जवः 
तक यह धारणाद्द त हो जाय ॥ <८४-८६॥ 
जव चटठते-फिरते, उठते-वैठते अथवा स्वेच्छातुकरूल 


¢ चतसंज-मू्िके ध्यानम चारो हाथमे क्रमाः शंल, चक्र, गदा जर पद्मी भावना करे तथा अ्टुजरूपका 
ध्यान करते समय छः हामि तो ङ्गं आदि छः आयुधी भावना करे तथा शोष द्मे वरद्‌ ओर ममय-मुद्राका 








ततः शह्गदाचक्रशाङ्खादिरदितं वुधः। 
चिन्तयेद्धवद्रपं प्रशान्तं साक्षघ्त्रकम्‌ ॥८८॥ 
सा यदा धारणा तद्रदवस्थानवती ततः। 
किरीरकेयुरयुलेभूषणे रहितं स्मरेत्‌ ॥८९॥ 
तदेकावयवं देवं येतसा हि पनर्षुधः। 
र्यात्ततोऽवयविनि प्रणिधानपरो भवेत्‌ ॥९०॥ 


तद्रपपरत्यया चेका सन्ततिथान्यनिःसपह् । 
तद्धयानं प्रथमैरङ्गैः पड्भिरनिष्पाघते चप ॥९१॥ 
तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत्‌ । 





मनसा ध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते॥९२॥ 





पि्ान प्रापक प्राप्ये प्रे बरह्मणि पार्थिष। 
प्रापणीयस्तथेवात्मा प्रक्षीणाङञेभाबनः ।।९३।॥ 
त्रः करणो ज्ञानं करणं तस्य तेन तत्‌ । 
निष्पाच् यक्तिकायं वै कृतकृत्यो निवर्ते ॥९४॥ 
तद्धावमावमापन्नस्ततोऽसौ परमालना । 


भवत्यमेदी मेदस्व तस्यान्नानटतो भवेत्‌ ॥९५॥ 
विभेदजनकेऽज्ञाने नाशमात्यन्तिकं गते । 





आत्मनो ब्रह्मणो भेदमसन्तं कः करिष्यति ॥९६॥ 








हत्युक्तस्ते मया योगः खाण्डिक्य परिप्च्छतः। 
सक्षेपविस्तराभ्यां तु किमन्यस्ियतां त ॥९७॥ 


खाण्डिक्य वाच 
कथिते योगसद्धावे सवमेव एतं भम | 


नापयाति यद्‌ वित्तास्विदधां मन्येत तां तदा ।॥८७॥। 





कोई भौर कमं करते दए भी ध्येय मूतिं अपने चित्तसे 
दूरनहोतो इसे सिद्ध इई माननी चाहिये ॥ ८७ ॥ 

इसके हृद्‌ होनेपर बुद्धिमान्‌ व्यक्ति शंख), चक्र, 
गदा ओर शाङ्खं भादिसे रहित भगवान्‌के स्फटि काक्ष- 
माला ओर यज्ञोपवीतधारी शान्त स्ररूपका चिन्तन 
करे ॥ ८८ ॥ जव यदह धारणा मौ पूबवत्‌ स्थिर हो 
जाय तो भगवान्‌के किरीट, केयूरादि आभूषणोँसे 
रहित रूपका स्मरण करे ॥ ८९ ॥ तदनन्तर विज्ञ 
पुरुष अपने चित्तम एक ( प्रधान ) अवयत्रवििष् 
भगव न्‌का हृद्यसे चिन्तन करे ओर फिर सम्पूणं 


अवय्वोंको छोड़कर केवल अवयवौीका ध्यान 
करे ॥ ९० ॥ 


हे राजन्‌ ! जिसमे परमेश्वरके रूपी ही प्रतीति 
होती है, देसी जो विषयान्तरकी सहास रहित एक 
अनवरत धाराहै च्से ही ध्यान कहते ह; यह 
अपनेसे पूवं यम-नियमादि छः अङ्खोसे निष्पन्न ह्येता 
है ॥ ९१ ॥ चस ध्येय पदार्थकराह्ोजो मन्के द्वारा 
ध्यानसे सिद्धं होनेयोभ्य कल्पनाहीन ( ध्याता, ध्येय 
ओर ध्यानके सेद्से रित ) स्वरूप प्रह पिया 
जातादहै उसे ही समाधि कहते है ।॥९२॥ है 
राजन्‌ | [समाधिसे होनेबाा भगवत्साक्षात्काररूप] 
विज्ञान ही प्राप्तभ्य परत्रहमतक पर्ुयानेवाखा है तथा 
सम्पूणं भावनाओंसे रदित एकमात्र आत्मा ही 
प्रापणीय ( बहतक पहुंच सकनेवाल्ला ) है ॥ ९३ ॥ 
मुक्ति-खाभमे क्षेत्रज्ञ कता है ओौर ज्ञान करणे; 
[ ज्ञानरूपी करणके दारा क्षेचज्ञके ] सुक्तिरूरी काय 
कोसिद्ध करके बह विज्ञान कृतकृत्य होकर निषत्त 
हो जाता हे ॥ ९४ ॥ उस समय बह भगवदूभावसे 
भरकर परमात्मासे अभिन्नहो जाता है। इसका 
भेद-ज्ञान तो भज्ञानजनित ह है ॥९५॥ भेद 
खस्यन्न करनेवाके अज्ञानके सवथा नष्ट हो जानेपर 
ब्रह्म ओर आध्मामे भसत्‌ ( अविद्यमान ) भेद कोन 
कर सकता है १।। ९६ ॥ है खाण्डिक्य ! इस प्रकार 
तुम्हरे पूष्ठनेके अजुर मने संक्षेप ओर विस्तारसे 
योगका वणेन क्रिया; अवन तुम्हारा ओर क्या 
कायं करत १ ।॥ २७॥ 

खाण्डिक्य वोजे-भापने इस महायोगका बणेन 
करके मेरा सभी कायं कर दिया, क्योकि आपके 


अ० ८] पष्ट अश्च ५४१ 


कयत 





तवोपदेशेनारेपौ नष्टधित्तमलो यतः ॥ ९८ ॥ 
मयेति यन्मया चोक्तमसदेतन्न चान्यथा | 
नरेन्द्र गदितं कषक्यमपि विज्नेयवेदिभिः ॥ ९९ ॥ 
अहं मभेस्यविघेयं व्यवहारस्तथानयोः । 
परमाथैश्तवसंहछापो मोचरे वचसां न यः ॥१००॥ 
तद्वच्छ श्रेयसे सवं मयैतद्धवता कतम्‌ । 
यद्िुक्िप्रदो योगः प्रीक्तः कैश्षिष्वजाव्ययः। १०९१। 
श्रीपराशर उवाच 
यथाह पूजय। तेन खाण्डिक्येन स पूजितः। 
अजगाम पुर त्रहमस्ततः केिध्वसो सृषः ॥१०२॥ 
खाण्डिक्योऽपि सुतं कृत्वा राजानं योगसिद्धये । 
वने जमाम्‌ भोषिन्दे विनिवेश्चितमानसः॥१०२॥ 
तव्रकान्तमतिभूत्वा यमादिगुणसंयुतः । 
विष्ण्वाख्ये निभे ब्रहमण्यवाप नृपतिटवम्‌।। १०४॥। 
केशिष्दभो विद्ुक्स्यथं स्वकम॑क्षपणोन्धुलः। 
युजे विषयान्कमं चक्रे चानभिसं हितम्‌ ।१०५॥ 
सकन्याणोपमोयैश्र क्षी णपापोऽमलस्तथा । 
अवाप्‌ सिद्धिमत्यन्तां तापक्षयफलां द्विज ॥ १०६॥ 











म 








उपदरैरसे मेरे चिन्तका सम्पूणं मल नष्ट हो गया है 
।॥ ९८1} दहे राजन्‌ ! मैने जो भेरा कहा यह भी 
असस्यही दहै, अन्यथा ज्ञेय वस्तुको जाननेवाे तो 
यह भी नहं कह्‌ सक्ते ।॥ ९९॥ रभँ" ओर भेरा 
पेसी बुद्धि ओर इनका व्यवहार मी अविदयाहीहै, 
परमाथ तो कहुने-सुनमेकी बात नहीं है क्योकि बह 
वाणीक्रा अत्रिषय हे ॥ १००॥ हे केशिध्वज | 
भ 
आपने इस मुक्तिप्रद योगका वणेन करके मेरे 
कल्याणक ह्ये सव कुछ कर दिया, अव्र आप दुख- 
€ 

पूवक पधारिये ॥ १०१॥ 

श्रीपरन्चस्जी बोल्े-हे व्यन्‌ ! तदनन्तर 
खाण्डिययरसे यथोचित रूपसे पूजित हो राजा 


केशिध्वज अपने नगरमे चङे आये ॥ १०२॥ तथा 
खाण्डिक्य भी अपने पुत्रको राज्य दे श्रीगोषिन्दमें 
चित्त छगाकर योग सिद्ध कर्मके लिये [ निजन्‌ ] 
वनकरो चरे गये ॥ १०द्‌ ॥ वह यमादि गुणोसे 
युक्त होकर एकराग्रचित्तसे ध्यान करते हुए राजा 
खाण्डिक्य विष्णु नामक निम ब्रह्मम छीन हो गये 
॥ १०४॥ छन्तु दे्चिध्वज, बिदसुक्तिकरे दिये अपने 
कर्मश क्षय करते हृष समस्त विषय भोगते रहे | 
उन्दने फलकी इच्छा न करके अनेकों शयु कमं क्रिये 
॥ १०५॥ ह द्धिज । दस प्रकार अनेकी कस्याणप्रद्‌ 
भगोंको भोगते हृष्‌ उन्होने पाप ओर मल {प्रारन्ध- 
कमं ) का क्षय हो जानेषर्‌ त्ाप्नयको दूर करने- 
चारी आस्यन्तिक सिद्धि भाप्त कर छी ॥ १०६॥ 


= ---म 49" >~ 


दति श्रीविष्णुपुरामे प्रष्छऽतरे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥ 


---*--+---¬ 


आर्ध अध्याय 


शिष्यपरस्परा, माहास्स्य भौर उपसंहार 


श्रीपराशर उवाच 
इत्येष कथितः सम्यक्‌ तीयः प्रतिस्वरः । 
आत्यन्तिको विषुक्तिया यो ब्रह्मणि शाश्वते ॥१॥ 
सगंशं प्रतिसषणश् वं्ञमन्वन्तराणि च| 
वश्गासुचरितं चैव भवतो गदितं मया ॥ २॥ 
पुराणं वैष्णवं चेतत्सवंकिन्विषनाशनम्‌ । 
विरिष्टं स्व॑शासत्रम्यः पुरूपार्थोपपादकम्‌ ॥ ३ ॥ 





#५ 





धी पराश्चसजी बोले-हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैने 
तमसे तीसरे आत्यन्तिक प्रख्यका वणेन किया, जो 
सनातन ब्रहमभे लयरूप मोभ्र ही है ॥ १॥ मने तुमसे 
संसारके उत्पत्ति, प्रलय, वंदा, मन्वन्तर तथा वंशे 
चरका बणेन किया ।२॥ हे मैत्रेय! मैने तु्दे 
सुननेके षयि दस्युक देखकर यह्‌ सम्पूणं शाखे 
रेष्ठ स्॑पापविनाश्चक ओर पुरुषाथेका पतिपाद्क 


® यद्यपि खाण्डिक्य उस समय राजा नहीं था; तथापि वनम जो उस दुमे, मन्त्री जौर भस्य भादि ये न्दीका 





त्यं यथावनेतरेय परोक्तं ुभुपवेऽन्ययम्‌ । 
यदन्यदपि वक्तव्यं तत्प्रच्छाद्र वदामिते। ४) 
श्रीमैत्रेय उवाच 

भगवन्कथितं सवं यत्पृष्टाऽसि मया भने । 

रुतं चैतन्मया मक्त्या नान्यखष्टव्यमस्ति मे ॥५॥ 
विच्छिन्नाः सरवसन्देहा वैमल्यं मनसः कृतस्‌ । 
त्वतप्रसादान्मया ज्ञाता उत्पत्तिस्थितिसंक्षयाः।६।॥ 
जातशतुर्विधो राशिः शक्तिश्च प्रिषिषायुशे। 
विज्ञातासा च कास्येन त्रिषिधा मावमावबना।।७॥ 
त्स्रसादान्भया ज्ञातं तेयमन्पैरलं द्विज । 
यदेतदखिलं पिष्णोजगन्न ग्यतिर्व्यते ॥ ८ ॥ 
कृतार्थोऽहमसन्देदस्वलससादान्महाष्टुने । 
वणधर्मादयो धर्षा विदिता यदरेषतः ॥ ९॥ 
प्रवृत्तं च निवृत्तं च ज्ञातं कर्मं मयाखिलम्‌ । 

प्रसीद विप्रप्रवर नान्यखष्टव्यसस्ति मे ॥१०॥ 
यदस्य कथनायासैर्यो जितोऽसि मथा गुर । 
तकषम्यतां विशेपोऽस्ति न सतां पुत्ररिष्ययोः।॥११॥ 

श्रीपराश्चर उवाच 
एतत्ते यन्मयाख्यातं पुराणं वेदसम्मतम्‌ | 
[५ ¢ [9 

भुतेऽस्मिन्सवदोषोत्थः पापराशिः प्रणश्यति १२॥ 
सगश् प्रतिसगश्च वंशमन्वन्तराणि च। 
वेशा चरिते कृर्स्नं मयात्र तव कीतितम्‌ ॥१३॥ 
अत्र देवास्तथा दैत्या गन्धवोरिगराक्षसाः। 


यक्षविद्याधरास्सिद्धाः कथ्यन्तेऽप्सरसस्तथा ॥१४॥ 
यनयो भावितात्मनः कथ्यन्ते तप्सानिताः। 





वैष्णवपुराण सुना दिया । अब तुग्दँ जो ओर ङ 
पूना हो पृषो । मँ तुमह सुनाञंगा ॥ ३.४ ॥ 


श्रीमैश्रेयजी बोखे-भगवन्‌ ! मैने आपसे जो 
कुछ पृछा था बर सभी आप कहं चुके ओर यने 
मी उसे श्रद्धाभक्तिपूवंक सुना, अव मुक्चे ओौर कुछ 
भी पृषछठना नहीं हे ॥ ५॥ हे सुने! आपकी कृषासे 
मेरे समस्त सन्देह निवृत्त हो गये ओर मेरा चित्त 
निम हो गया तथा मश्च संसारकी उसयत्ति, स्थिति 
ओौर प्रख्या ज्ञानदो गया ६॥ हेग! मैं 
चार प्रकार्की रा्ि+ ओौर तीन प्रकारक शक्तियो 
जान गया तथा सुश्च त्रिविध भाव-भावना्ओंकाः 
भौ सम्यक्‌ बोध हो गया ॥७॥] हे द्विज ! आपकी 
करपासे मै, जो जानना चाद्ये वह्‌ भो प्रकार जान 
गया करि यद्‌ सम्पूणं जगत्‌ श्रीविष्णुभगवान्‌से भिन्न 
तीं है, इसलिये अब युद्चे अन्य बातोके जाननेसे 
कोई लाभ नहीं| ८ ॥ हे मह्चुने ! आपके प्रसादसे 
मै निस्सन्देह कृताथ हो गया, क्योकि मैने वणे-धमं 
आदि सम्पूणं धमं ओर प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप 
समस्त कमं जान स्थि। हे विप्रवर ! आप प्रसन्न 
रहै; अब भुर ओर कुछ भी पूना नदीं है ॥९-१०॥ 
हे गुरो । मैने आपको जो दख सम्पूणं पुराणके कथन 


। करनेका कष्ट दिया है, इसके व्यि आप मुञ्चे क्षमा 


कर; साधरुजनोंकी दश्टिमे पुत्र ओर शिष्यम कोई 
मेद नहीं होता ॥ ११॥ 


भीपराशस्नी बोक्ञे- दे सुने ! मैने तुसको जो यह्‌ 
वेदसलम्मत पुराण सुनाया है हसक श्रवणमात्रसे सम्पूणं 
दोषोँसे इत्यन्न हुआ पापयपुज्ञ नष्ट हो जाता है ।। १२॥ 
दसम मैने तुमसे खट उत्पति, प्रलय, वंच, मन्वन्तर 
लौर वंशे चरित-श्न सभीका बणंन कियाद 
॥१३॥ इस ग्रन्थे देवता, दैत्य, गन्धव, नाग, राक्षस, 
यक्ष, विद्याधर, सिद्ध ओर अप्तरागणका भी चणन 
किया गया दै ॥ १४ ॥ आत्मासम ओौर तपोनिष्ठ 





१--देचिये--प्रथम अश्न अभ्याय २२ इरोक २३-३३ । 


षष्ट अश अध्याय ७ इरोक ६१-६३ । 
षष्ठ अंश अध्याय ७ दंरोक ४८-५१ । 


यिय 0 





चातुंण्यं तथः पुंसां विशिष्टचरितानि च ॥१५॥ 
पुण्या; प्रदेलञा मेदिन्याः पुण्या नद्योऽथ सामराः। 
पवता सहापुण्याश्चरितानि च धीमताम्‌ ॥१६॥ 
वर्णधर्मादयो धर्मा वेदक्ास्चाणि दरस्सनक्ः। 

येषां संस्मरणात्सद्यः सवं पापैः प्रुच्यते ॥१७॥ 


उत्पत्तिस्थतिनाशानां हेतुर्यो जगतोऽव्ययः | 
स सवभूतस्सर्वात्मा कथ्यते मगवान्दरिः ॥१८॥ 
अवशेनापि यन्नाम्नि कीतिते सवपत्कैः | 


पुमान्विमुच्यते स्रः सिदनसतवरकैरिव ॥१९॥ 





यामकोरतनं भक्त्या पिलायन मुत्तमम्‌ । 
मैतरेयारेषपापानां धातूनामिव पावकः ॥२०॥ 
कहिकिल्पपमस्ुग्रं नरकार्विप्रदं सृणाम्‌ । 


प्रयाति विषयं सद्यः सङृद्त्र च संस्मृते ॥२१॥ 
दिरण्यगमदेबेनद्रद्रादित्याधिवायुमिः । 
पावकैवसुभिः साध्यविंेदेवादिभिः सुरैः ॥२२॥ 
यक्षरक्षोरैः भिद्धदेत्यगन्धवंदानपैः । 
जप्सरोमिस्तथा तारानकषप्रेः सकरेहैः ॥२३॥ 
सप्तपिमिस्तथा धिष्ण्यैधिष्ण्यायिपतिभिस्तथा। 
व्राहमणाचेमनुप्यैध तथेव प्ञुभिरममेः ॥२४॥ 
सरीसूपर्धिङ्धथ पराशामहीहैः । 
वनागनिप्ागरसरित्पाताटेः सधरादिभिः ॥२५॥ 
सब्दादिभिश्च सहितं ब्रह्माण्डपरखि्ं द्विज । 
मेरोखिणुयंस्यैतय्न्पयं च द्विजोत्तम ॥२६॥ 
स स्वः सर्वित्सवंस्वरूपो सूपवजितः । 
भगवान्कीतितो विष्णुर पापप्रणाश्चनः ॥२७॥ 


यदश्वपेधावभूथे स्नातः प्राप्नोति वै फलम्‌] 





मानवस्तदवप्नोति भरुखैतन्पुनिसत्तम्‌ ॥२८॥ 
प्रयाजे पूष्करे चैव इुरुभत्रे तथाव 
कृतोपवासः प्राप्नोति तदस्य धवणान्नरः ॥२९ 








सुनिजन, चातुव॑ण्यःविभाग, महापुरषोके विशिष्ट 
चरितः प्रथिकीफे पविचत्र कषित्र, पवित्र नदौ ओर 
समुद्र, अल्यन्त पावन पवेत, बुद्धिमान्‌ पुरुषोके 
चरित, बणे-धमे आदि धमं तथा वेद्‌ ओौर श्ाश्लोका 
भी इसमे सम्यकशूपसे निहपण हुआ है, जिनके 
स्मगणमाच्रसे मनुष्य समस्त पार्पोसे भुक्त हो 
जाता है ॥ १५-१७॥ 

जो अभ्ययात्मा भगवान्‌ हरि संसार कौ उत्पत्ति, 
स्थिति ओर प्रख्यके एकमात्र कारण हँ उनका भी 
इसमे कीतंन किया गया दै | १८ ॥। जिनके नामका 
विवक्ञ होकर कीतन करनेसे भी मुप्य समस्त 
पापोँसे इस प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे सहसे रे 
हए भेदडिये ॥ १९॥ दे मैत्रेय ! जिनका भक्तिपूवेक 
करिया हुआ नाम-सं कीवेन सम्पूणं धातुओंको पि. 
छानेवाे अग्रिनके समान समस्त पार्पोका सर्वोत्तम 
विङायन ( छीन कर देनेवाला ) है | २०॥ जिनका 
एक वार मी स्मरण करनेसे भवुष्यांको नर क-यातनापं 
देनेवाला अति उग्र कलि-कल्मष तुरंतनष्टहो जाता 
है ॥ २९१॥ हे द्विजोत्तम | दहिरण्यगमे, देवेन्द्र, सद्र, 
आदिस्य, अशध्िनीकुमार, वायु, अग्नि, वसु, साध्य 
ओर विन्दे आदि देवगण, यक्ष, राक्स, उरग, 
सिद्ध, दैत्य, गन्धव, दानव, अप्रा, तारा, नक्षत्र, 
समस्त प्रह, सप्रषि, लोक, खोकपारुगण, ब्राह्मणादि 
मनुष्य, पु, सग, सरीसृप, विहग, परञ्च आदि 
वृक्ष, वन; अग्नि, समुद्र नदो, पाताङ तथा प्रथिवी 
आदि ओर शब्दादि विषयोके सहित यह सम्पूण 
ब्रह्माण्ड जिनके आगे सुमेरुके सामने एकर रेणुके 
समान है तथा जो इसके उपादान-कारण है उन सवं 
सर्वज्ञ स्वस्वरूप रूपरहित ओर पापनारक भगवान्‌ 
विष्णुका इस कीतेन किया गया है ॥२२-२७॥ 


हे सुनिसत्तम ! अश्मेध-यज्ञमे अवभथ (यज्ञान्त) 
स्नान करनेसे जो फ मिख्ता है बह्म फर 
मनुष्य इसको सुनकर प्राप्न कर छेता हे ॥ २८॥ 
प्रयाग, पुष्कर, कुरक्षेत्र तथा समुद्रतटपर रहकर 
उपवास करनेसे जो फर मिता दै वही इस 
पुराणको दुननेसे प्रप्र हो जाता है ॥२९॥ 


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यद्गिनिहोग्रे सुहुते वरषणाप्नोति मानवः । 
महापुण्यफल विप्र तदस्प श्रवणास्सक्ृत्‌ ॥२०॥ 
यज्ज्येटशुक्हादरां स्नासवा वै यघ्ुनाजे। 
मथुरायां दरि दृष्ट प्राप्नोति पुरषः फएसम्‌ ॥३१॥ 
तदाप्नोत्यखि्ं सम्यगध्यायं यः भृणोति वे | 
पुराणस्यास्य विप्र्ष केशवार्पितमानसः ॥२२॥ 


यश्चुनाप्लिस्नातः पुरुषो एनिपत्तम । 
ज्येष्ठामूले सिते पक्षे द्वादश्यां सयुपोपितः ॥३३॥ 
समभ्यर्व्याच्युतं सम्यह मथुरायां समादितः। 
अश्वमेधस्य यन्ञस्य प्राप्नोस्यविकलं एर्‌ ॥३४॥ 
आलोक्यद्धिमथान्येषाघ्रनीतानां स्ववंशजेः। 
एततिकिछोचुरन्येषां पितरः सपितामहाः ॥३५॥ 
कचिदरमल्छुले जातः कािन्दीसलिहाष्डुतः। 
अच॑यिष्यति गोविन्दं मथुरायाष्वपो पितः ॥३६॥ 
जयषठामूरे सिते पक्षे येनैवं वयमप्युत । 
परामरद्धिमवाप्स्यामस्तासिाः स्डुरोः्धयः॥ २७॥ 
ज्येष्ठामूले सिते पके समभ्धव्यं जनादंनम्‌ । 
धन्यानां डुल जः पिण्डान्यञ्रुनायां प्रदास्यति॥३८॥ 
तसिमन्काे समभ्यच्यं तपर कृष्णं समाहितः । 
दश्वा पिण्डं पितभ्यथ यदुनासलिहाण्टुतः ॥२९॥ 
यदाप्नोति नरः ण्यं तारयन्स्रपितामहान्‌ । 
्रुखाध्याय तदाप्नोति पुराणस्यास्य भक्तितः।४०॥ 
एतरससारभीरुणां परित्रणमयुत्तमम्‌ | 
भराव्याणां प्रमं घ्राग्यं पवित्राणामटुत्तमम्‌॥४१॥ 
ुःखप्ननाश्नं नृणां सवेदुटनिवह॑भम्‌ । 
मङ्गल मङ्गलानां च पृत्रसम्पखदायकम्‌ ॥४२॥ 


इदमापं पुरा प्राह ऋभवे कषरोद्धबः । 
ऋथुः प्रियव्रतायाद स च मागुरयेऽत्रषीत्‌ ॥४३॥ 





एक वषेतक नियमानुसार अग्निहोत्र करतेसे मनुष्य. 
कोजो महान्‌ पुण्यफछ मिता दै वही इसे एकर 
वार सुनने हो जाता है । ३०॥ येष शक्ता द्वादशी- 


- | के दिन मथुरापुरीमें यजुना-स्नान करके कृष्णचन्द्र 


दशन करनैसे जो फल पिख्ता है हे विप्रषें ! बही 
भगवान्‌ कृष्णम चित्त छगाकर इस पुराणे 
एक अध्यायको सावधानतापवेक् सुगनेसे भिर 
जाता है | ३१-३२॥ 


हे स॒निश्रेष्ठ ! जेष्ठ मासके शुक्घपश्चकी द्वादशञीको 
मश्ुरापुरीभे उपवास करते हुए यसुना-स्नान करके 
समादहितचित्तसे श्रीअच्युतका भली प्रकार पूजन 
करनेसे मतुष्यको अश्वमेध-यज्ञका सम्पूणं फल 
मिक्ता है ॥ ३३-३४।॥ कहते दै अपने वं्चजद्रारा 
[ यमुनातटपर पिण्डदान करनेसे ] उन्नति लाभ 
किये हुए अन्य पितरो सद्भि देखकर द्रे 
छोगोके पिवर-पितामहयौने [ भपरने वंश्चजोको लक्ष्य 
करके ] इस प्रकार कहा था-)) ३५॥ क्या हमरे 
कुमे उत्पन्न हज कोर पुरुष ज्येष्ठ मासकः शुङ्गपक्ष- 
में [ द्वादशी तिथिको ] मभरम उपवास करते हप 
यञ्ुनाजलम स्नान करके श्रीगोविन्दका पूजन करेगा, 
जिससे हम भी अपने वशरजोद्टारा उद्धार पाकर 
फेला परम देशय प्राप्र कर सकेंगे १ जो वदे भाग्य 
वान्‌ होते ह दन्दके वंशधर स्येष्ठमासीय शुक्लपक्षमे 
भगवान्‌का अचन करके यप्ुनामें पितृगणको पिण्ड. 
दान करते हँ ।। ३६-३८॥ उस समय यमुनाजले 
स्नान करके सावधानतापूक्क मी प्रकार्‌ भगवानूका 
पूजन करनेसे ओर पिद्रगणकों पिण्ड देनैसे अपने 
पितामहोको तारत. हुआ पुरुष जिस पुण्यका भागी 
होता दै वही पुण्य भक्तिपूबक इस पुराणकरा एक 
अध्याय सुननेसे प्राप्न हो जाता है || ३९-४० | यह 
पुराण संसारसे भयभीत हुए पुरषोका अति उत्तम 
रक्षक, अत्यन्त श्रवणयोग्य तथा पवि परम 
सत्तम है ॥ ४१ ॥ यह्‌ मतुष्योके दुःस्वप्नोंको 
नष्ट करनेवाला, सम्पूण दोषोको दूर करनेवाटा, 
माङ्गलिक वस्तुमे परम माङ्गलिक ओर सन्तान 
तथा सम्प्तिकरा देनेवाखा है ॥ ४२ ॥ 


इस आषपुराणको सबसे पठे भगवान्‌ ब्रह्माजने 
ऋसुको सुनाया था । ऋमुने प्रियत्रतको सुनाया ओर 





अ० ८ | 








गुरि स्तम्ममित्राय दधीचाय सचोक्तबान्‌। 
सारस्वताय तेनोक्त मृगुस्सारस्वतेन च ॥४४॥ 
मगुणा पुरुङ्लपाय नमेदाये स चोक्तवान्‌ । 
नमेदा धृतराष्ट्राय नागायापूरणाय च ॥४५॥ 
ताभ्थां च नागराजाय प्रोक्तं वासुकये हिज। 
वासुकिः प्राह वत्साय वत्स्चाश्चतराय वै ।॥४६।॥ 
कम्बछाय च तेनोक्तमेलापूत्राय तेन वै । 
पातालं समनुप्राप्नस्ततो वेदक्लिरा मुनिः ॥४७।॥ 
्राप्रबानेतदखिं स॒च प्रमतये ददौ । 
दत्तं प्रमतिना वचैदजातुक्णीय धीमते ॥४८।॥ 


जातुकर्भेन चैवोक्तमन्येषां पुण्यकर्मणाम्‌ । 
पुरस्त्यवरदानेन ममाप्येतस्स्मृतिं गतम्‌ ॥४९॥ 
मयापि तुभ्यं मैत्रेय यथावत्कथितं विदम्‌ । 
स्वभप्येतच्छिनीकाय करेरन्ते वदिष्यसि ॥५०॥ 


इत्येतत्परमं युद्यं कलिकल्मपनासनम्‌ । 
य; शृणोति नरो भक्त्या सव॑पापैः प्रमुच्यते ॥५१॥ 
समस्तती्थस्नानानि समस्तामरसंस्तुतिः। 
कृता तेन मवेदेतयः श्रृणोति दिने दिने ॥५२] 
कपिरादानजनितं पण्यमत्यन्तदुरछभम्‌ । 
तवैतस्य दशाध्यायानवाप्नोति न संशयः ॥५३। 
यस्त्वेतत्सकं प्रृणोति पुरषः 
कृत्वा मनस्यय्युत 
सवं सर्वमयं समस्तजगता- 
माधारमात्माश्रयम्‌ | 
ज्ञानज्ञेयमनादिमन्तरदहितं 
सर्वामराणां 
स प्राप्नोति न संशयोऽस्त्यविक्षलं 
यदूवाजिपेधे फलम्‌ ॥५४॥ 


हितं 


यत्रादौ भगवांथराचरणुर 
मध्ये तथान्ते च सः 

ब्रह्मसानमयोऽच्य तोऽखिलजग- 
न्पध्यान्तसगेप्रयुः | 


१८ अ 


निकाया 11२ 


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प्रियत्रतने भागुरिति कहा ॥ ४३ ॥ फिर दूसे मागुरिने 
स्तम्भमिन्नको, स्तम्भभित्रने दधीचिको, दधीचिने 
सारस्वतको ओर सारस्वतने भृगुको सुनाया ॥ ४४॥ 
तथा भगुने पुरुृत्से, पुशुङ्कस्ने नमदासे ओौर 
नमेदानि धृतरा एवं पूरणनागसे कहा ॥ ४५॥ है 
द्िज ! इन दोनोँने यह्‌ पुयाण नागराज बासुकिको 
सुनाया । बाुक्रिने वत्सको, बत्सने अश्वतरको 
जश्चतरने कम्बलको ओर कम्बरने एडापुत्रको सुनाया । 
इसी समय मुनिवर वेदशिरा पातारलोकमें पहुचे 
उन्ोने यह समस्त पुराण प्रप्र किया ओौर फिर 
प्रमतिको सुनाया ओर प्रमतिने उसे परम बुद्धिमान्‌ 
जातुकर्णेको दिया ॥ ४६-४८॥ तथा जातुकणने 
अन्यान्य पुण्यश्च महत्माभोंको सुनाया । 


[ पूवं-जन्ममे सारस्वतके युलसे सुना हुभा यष 
पुराण ] पुलस्स्यजीके बरदानसे सुक्चे भी स्मरण रह 
गया । ४९॥ सो मैने अयौ.का-त्योौ तुमह सुना 
दिया । अव तुम भी क्ियुगके अन्तमं इसे शिनीक- 
को सुनाओगे ॥ ५० ॥ 

जो पुरुष इस अति गुह्य ओौर कलिकल्मषनाश्चक 
पुराणको भक्तिपू्क सुनता दै वह सब पापे युक्त 
हो जाता है। ५१॥ जो मनुष्य इसका प्रतिदिन 
रवण करता है उसने तो मानो सभी तीर्थोभिं स्नान 
कर छिया ओर सभी दैवताओंकी स्तुत्ति करी 
॥ ५२ इसके दक अध्यायोका श्रवण करनेसे 
निःसन्देह कपिर गौके दानका अति दुरम पुण्य 
फल प्राप्त होता है ।। ५३॥ जो पुरुष सम्पूणं जगते 
आधार, आत्मके अव्रलम्ब, सवेस्वूप, सवंमय, 
ज्ञान भौर ज्ञेयरूप आदि-अन्तरहित तथा समस्त 
देवताओं हितकारक शरविष्णुभगवानका चित्तम 
ध्यानकर्‌ इस सम्पूणं पुराणो सुनता है दसे निःसन्देह 
अश्मेष-यज्ञका समग्र फल प्राप होता है ॥ ५४॥ 
जिखके आदि, मध्य ओौर अन्तम अलिख जगत्‌कौ 
सृष्टि, स्थिति तथा संदहारमे सथं बरहमज्ञानमय चरा- 
चरुर भगवाम्‌ अच्युतका की कीतंन हुभा दै 


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पवित्रममलं 
भृण्वस्पडन्बाचयन्‌ 
प्राप्नोत्यस्ति न तत्फल प्रिथुवने- 
पवेकान्तसिद्विईरिः ॥५५॥ 
यस्मिरन्यस्तमतिनं याति नरष 
स्वर्गोऽपि यच्चिन्तने 
विघ्नो यत्र निवेशितारममनसो 
| ब्राह्मोऽपि लोकोऽल्पकः । 
अक्ति चेतपि यः रिथतोऽपरलधियां 
पुषा ददात्यव्ययः 
क चित्रं यदं प्रयाति विष्यं 
तत्राच्युते कीर्तिते ॥५६॥ 
यजञेय्॑तविदो यजन्ति सततं 
यलञेश्वरं कर्मिणो 
यं वै ब्रह्ममयं पराबरमयं 
ध्यायन्ति च ज्ञानिनः । 
यं सञ्चिन्त्य न जायतेन म्रियते 
| नो वदधते दीयते 
नैवाघन्न च सद्धबत्यति त्तः ` 
षिवा हरेः श्रूयताम्‌ ॥५७॥ 
कव्यं यः पितरूपध्ग्विधिहतं 
हव्यं च अुद्क्त वि- 
भगणवाननादिनिधनः 
-सादस्वधासक्गते । 
यस्मिन््रह्मणि सर्वशक्तिनिलये 
मानानि नो मानिनां 
निष्ठायै प्रभवन्ति इन्ति कलं 
श्रोत्रं स॒ यातौ हरिः ॥५८॥ 


तत्सवं पुरूषः 











देवत्वे 





नान्तोऽस्ति यस्यन च यस्य समुद्धवोऽस्ति 
द्धनं .यस्य परिणामविवितस्य । 

नापक्षयं च सपुपैत्यनिकारि वस्तु 

यस्तं नतोऽसिमि पूुरपोत्तममीश्षमीढ्यम्‌ ॥५९॥ 





उस परम श्रेष्ठ भौर अमल पुराणको सुनने, पठने 
जौर धारण करनेसे जो फल प्राप्न होता है बह 
सम्पूण त्रिरोकीमे ओर कं प्राप्र नहीं हयो सकता, 
क्योकि एकान्त मुक्तिरूप सिद्धिको देनेबारे मगवान्‌ 
विष्णुदही इसके प्रा्तभ्य फल दै | ५५॥ जिनमें 
चित्त छगानेवाला कभी नरकम नदीं जा सकता, 
जिनके स्मरणमें स्वगं भी विष्नरूप है, जिनमें चित्त 
खग जानेषर ब्रह्मखोक भो अति तुच्छ प्रतीत होता 


हे तथा जो अन्य प्रमु निर्म॑ञचित्त पुरषोके हृदयम 


स्थित होकर न्द मोक्ष देते द न्दी अच्युतका 
कीतेन करनेसे यदि पाप विष्छीन ह्यो जतिद्तो 
इसमे अश्यं ही क्या है! ॥ ५६॥ यज्ञवेत्ता 
कमनिष्ठ लोग यज्ञोद्वारा जिनका यजञेररूपसे 
यजन करते है, ज्ञानीजन जिनका परावरमय 
ब्रहमस्वरूपसे ध्यान करते है, जिनका स्मरण करनेसे 
पुरुष न जन्मतादहै, नमरताहै, न बहुता है भौर 
नक्षीणही हयोताहै तथाजो न सत्‌ (कारण) 
ह भौर न असत्‌ (कायं) ही हैः उन श्रीहरि 
अतिरिक्त ओर क्या सुना जाय ? ॥५७॥ जो 
अनादिनिधन भगवान्‌ विभु पिदृूप धारणकर 
स्वघासंज्ञक कठ्यको भौर देवता होकर अग्निम 
विधिपूवंक हवन किये हुए स्वाहया नामक हन्यको 
ग्रहृण करते हँ तथा जिन समस्त श्ञक्तियोके आश्रय- 
भृत भगवानूके विषयमे बड़े-बड़े प्रमाणङ्कशर 
पुरुषोके प्रमाण भी इयत्ता करनेमे समथ नदीं ह्येते 
वे श्रीहरि श्रवेण-पथमे जाते हौ समस्त पापोको नष्ट 
कर देते है ॥ ५८॥ 

जिन परिणामहीन प्रभुका न आदि दै, न अन्त 
हेः नब्रद्धि है ओर न क्षय द्यौ होता दहै। जो 
नित्य॒ निर्विकार पदाथ है उन स्तवनीय प्रभु 
पुरुषोत्तमको मै नमस्कार करता है ॥५९॥ 








तस्यैव योऽनु युणशग्बहूैक एव 

ुद्धोऽप्युद्ध श्व माति हि मूर्तिभेदः । 
ज्ञानान्वितः सकरसत्चविभूतिकतां 

तस्मै नमोऽस्तु पुरुषाय सदाव्ययाय ॥६०। 
्ञानप्रवृत्तिनिययैकयमयाय पसो 

भोगप्रदानपस्वे त्रिगुणार्पकाय । 
अन्याकरताय मवभावनकारणाय 

वन्दे स्वरूपभवनाय सदाजराय ॥६१॥ 
व्योमानिलाग्निजहभूर्चनामयाय 

शब्दादिमोम्यविष्योपनयक्षमाय । 
पुंसः समस्तकरणेरुपकारकाय 

व्यक्ताय सृक्ष्मबृहदारमवते नतौऽसिम।६२॥ 


इति विविधमजस्य यस्य सूपं 
म्रकृतिपरात्ममयं सनातनस्य । 
प्रदिशत॒ भगवानशेषपुसां 





हरिरपजन्मजरादिकां स सिद्धिम्‌ ॥६३॥ 


---------------------------------------------------- 





जो रन्हीके समान रुणोंको भोगनेवाला हे, एक 
होकर भी अनेक रूप है तथा शुद्ध होकर भी विभिन्न 
रूपोके कारण अशुद्ध (विकासवान्‌) सा प्रतीतं होता 
हे ओर जो ज्ञानस्वरूप एवं समस्त भूत तथाविभ्‌- 
तियोका कनं है उस निस्य अन्यय पुरुषको नमस्कार 
ह ।। ६० ॥ जो ञान ( स्व ), भ्दृत्ति (रज ) ओर 
नियमन (तम) की एकतारूप दै, पुरुषक्ो भोग प्रदान 
करतेमे छश दै, त्रिगुणात्मक तथा अन्याकृत दै, 
संसारकी उत्पत्तिका कारण है; उस स्वतः सिद्ध तथा 
जराशूल्य प्रुको सवदा नमस्कार करता ह 1 ६१॥ 
जो आाकाञ्च, वायु, अग्नि, जल ओर एथिवीरूप हे, 
ङब्द्ादि भोग्य विषयोकी प्राप्ति करने समथंदै 
भौर पुरषका उसकी समस्त इन्दरियोदवारा उपका< 
करता है उस सृष्षम ओर पि रादरूप व्यक्त परमात्मा 
को नमस्कार करता ह| ६२ ॥ 


हस प्रकार जिन नित्य सनातन परमात्मा 
्रकृति-पुरुषमय रसे अनेक रूप दद वे भगवान्‌ हरि 
समस्त पुरषोको जन्म ओर जरा आदिसे रदित 
( सुक्तिरूप ) सिद्धि प्रदान कर ॥ ६२ ॥ 


=^ ५११. द/१०३./७९१५१११० ० 


इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठे सहे अष्टमोऽध्यायः ।। < ॥ 


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इति श्रीपराशरमुनिषिरचिते ्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णु- 
महापुराणे पष्ठऽकः समापुः । 


[क ॥ 1 
इति श्रीविष्णुमहापुराणं सम्पूणंम्‌ 
॥ भीविष्ण्वपेणमस्तु ॥ 


केतके मकु 


‡ 


समाप्त 


[1 





भ्रौहरि ‡ 


श्रीविष्णुपुराणान्तगंतश्लोकानामकारादिकरमेणानुक्रमः 


श्छोकाः 


अकरोरेस्वतनूमन्याम्‌ 
सकालगजितादौ च 
भरकिञ्चनमतम्बन्धम्‌ 
क्रष्ट पच्या पृथिवी 
अशेट्वा पादयोः शौचम्‌ 
घकृताग्रथणं यच्च 
अक्रङृतवर्मप्मुखार्च 


धक्र रोऽप्ुत्तममणिपतमुदुभूत० ˆ" 


अक्रूरोऽपिषविनिष्क्रम्य 
क्रूरः क्ूरहुदयः 
अश्कूरागमवृत्तान्तम्‌ 
अक्षरं तत्पर ब्रह्य 
अक्षयं नान्यदाधारम्‌ 
धक्षीखेषु समस्तेषु 
भक्तोणामषंमद्युश्रर 
मक्षौहिण्योऽत्र बहुलाः 
अखिकरुजगत्सष्टुर्मगवतः 


अखिल जनमध्य शिहपददरशन० "^" 


अगस्तिरग्निबडवानलदव 
अगाधापारमक्षय्यम्‌ 
अरनये कथ्यवाहाय 
अग्निराप्याययेद्धतुम्‌ 
अग्निष्वात्ता बहुषदः 
अग्निहोत्रे हूयते या 
अग्निस्मुवरणंस्य गुः 
अमेः शीतेन तोयस्य 
सरन्यन्तकादिरूपेण 


अग्रजस्य ते हीयमवनिस्त्वया ˆ" 


शम्रन्यस्तविषाणाप्रः 
भङ्खमेषा त्रयो विष्णोः 
ङ्खादनपानस्ततः 
लङ्खारकोऽपि शुक्रस्य 
भद्खानि वेदाश्चत्वारः 
शद्धिरसक्व सकाशात्‌ 
भद्धछाहुक्षिणादृक्षः 


. अंशाः अध्या० शोका्काः 


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दरोकाः 
अद्धलस्याष्टमागोऽपि 
ङ्क सुमनसं रुप्रातिम्‌ 
अचिरादागमिष्यामि 
अूचिन्तयच्ने कौन्तेवः 
अच्छेनागन्धलेपैन 
अच्युतोऽपि तद्िष्यं रत्नम्‌ 
अच्युतोऽप्यतिप्रणतात्तस्मत्‌ 
अजयद्‌ बरदेवस्तम्‌ 
अजमीढद्विनमीढपुषमीढः 
अजमीढात्कण्वः 
अजमीढस्यान्धः पुत्रः 
अजमीढस्य नक्लिनी नाम 
अजमौढस्यान्य ऋक्षनामा 
अ जन्मन्यमरे विष्णौ 
मजायततं च विप्रोऽसौ 
अजाह्‌ररथः 
अजानता कृतमिदम्‌ 
भजीजनद्पुष्करिण्यम्‌ 
अज्ञानं तामसो सावः 
भन्ञानतमसाच्छननः 
अज्ञातकुरनामानम्‌ 
अणु्राण्युपपन्नां च 
अणुहाद्हयदत्तः 
अणुप्रायाणि धान्यानि 
भणोरणीर्यांसमसत्स्वरूपम्‌ 
अत ऊर्वं प्रवक्ष्यामि 
अतदच मान्धातुः 
अतच पुरुवंशम्‌ 
अतचेषष्वाकवो भविष्याः 
णतिविमूतेः 
अतिचपरूवित्ता 
अतिदुष्टसंहारिणः 
भतितिक्षायनं क्रूरम्‌ 
अतिथिर्यस्य भग्नाक्षः 
सतिधिर्यस्य भर्नाशः 
मर्तियि तत्र सम्प्राप्तम्‌ 
अतिवेगित्तया काम्‌ 


अंशाः 


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अध्या० शछोकाद्गुाः 


॥ | 
१३ 
३२ 
३८ 


११. 


१३ 
१३ 

२८ 
१६ 
१९ 
१९ 
१६ 
१९ 
३७ 


४ 


अतीता वतमानारच 
अतो प्रोडिता का 
अतीतकल्पावसानें 
अतीतानागतानीह 
अतीव जागरस्वप्ते 
अतो गतस्स भगवान्‌ 
अतो मन्दतरं नभ्यम्‌ 
अतोऽहमस्य षोडशस्त्री° 
अतोऽहुसि ममाल्ीयम्‌ 
अतः क्रोधकलुषीक्रतचेताः 
अतः परं ययातेः 

अतः सम्प्राप्यते स्वर्गः 
अतः परं भत्रिष्यानहम्‌ 
घत्तं यथा बाडवव्खिनम्ब 
भत्यन्तमधुरालाषण० 
घत्यन्तदुष्टस्य कलेः 
अत्यम्लकटुतीक्ष्णोष्ण० 
अत्यरिच्यत सोऽधश्च 
अत्यन्तस्तिमिताद्धानाम्‌ 
अत्यात्तजगत्परित्राणाय 
छत्र हि राज्ञो युवनादवस्य 
अत्र इलोकः-- 

अत्र जन्मसदहछ्।णाम्‌ 
अत्रहि वंचे 

अत्र च इ्लोकः 

त्र देवास्तथा दैत्याः 
अत्रानुवंशंरलोको भर्वात 
अवायं श्लोकः 

अत्रायं इछोकेः 
अत्तानुवंदाष्ोकः 
घत्रावतीर्णयोः कृष्ण 
अत्रान्तरे च सगरः 
अत्रापि भारतं धरेष्म्‌ 
भघ्रापि भूयते श्लोकः - 
त्रिर्वसिष्ठो वह्धिरच 
अत्रस्सोमः 

अत्रोपविद्य वै तेन 

सथ तस्य भगवतः 

अथ प्रसन्नवदचः 

अथ दैत्यैस्पेत्य 

अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रम्‌ 
अथवा लव को दोषः 


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अथ व्त्यरवर्‌ प्राचुः 
अथ भद्राणि भूतानि 
अथ जित्तारिपक्षश्च 
भथ सर्मिष्ठातनयम्‌ 
अथवैनां स्यन्दनम्‌ 

अथ यादववलभद्रोग्रसेन५ 


अथ दुर्वतोर्वेशमवधारय 
अथवा कि तदाखवैः 


अथवा यादृशः स्नेहः 
अथवा कौरवावासम्‌ 

भथ तन्पुसलं चासौ 

भथ हर्याहमनोऽन्ते च 
अथर्ववेदं स मुनिः 

अथ भुड्क्ते गृहे तस्य 
अथ तत्रापि च 

अथ पुष्टा पुनरप्यत्रवीत्‌ 
अथ वनादागत्य 

भथ भगवान्‌ पितामहः 
भथाजगाम तत्तीरम्‌ 
अथान्यमप्युरणकमादाय 
अथाह याज्ञवल्क्यस्तु 
अथाह भगवान्‌ 

भयाह कृष्णमक्रूरः 
अथागत्य देव राजौऽब्रवीत्‌ , 
अथान्तर्जखावस्थितः 
अथाक्रूरपक्षीयैरमोजैः 
भयाहाक्रूरः स एषः ` 
अथान्तरिक्षे वागुच्चैः 
अथान्तरिक्षे वागुच्चैः 
अथाहान्तहतो विप्र 
सथांदुमानपि स्वर्यातानाम्‌ 
मथेतामतीततानागत्त० 


छथेनन्विसिष्ठो जीवन्मृतकान्‌ "“" 
अथेनामटग्यामेवागिनस्थालीम्‌ 


अथैनं देवर्षयः 

अथैनां रथमारोप्य 

अथैनं शेव्योवाच 

अथैनं भगवानाह 
भ्रथोपवाद्यादादाय 
अदित्यैवं स्तुतो विष्णुः. ` 
उदित्या तु कृतानु 


. घदीषंहश्वमस्थूलम्‌ 


अदृदयाय ततस्तस्मै 


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१८ 


श्छोकाः 
भदष्टाः पुरुषैस्वोभिः 
अद्य मे सफलं जन्म 
अद्याप्याघूणिताकारम्‌ 


अदैव ते व्यलोकण्ज्जात्रत्याः 


अदत देव कंसौऽयम्‌ 
भधर्मबीजमुद्धूतम्‌ 
मधमोत्तमौ त तेषत्रास्नाम्‌ 
अधरचोघ्वं च ते दीप्ताः 
भधिसीमक्ृष्णात्‌ - 
अधोमुखो व क्रियते 
भधःरिरोमिदंषयन्ते 
अनष्टद्रव्यता च 
सनन्यचेतसस्तस्य 
अनन्तरं व दुरवसुम्‌ 
अनन्तस्य न तस्यान्तः 
अनेभ्धरच्यं ऋषीन्देवान्‌ 
मनन्तस्चमसा 
अनरण्यस्य पृषदश्वः 
अनक्षजञो हली य॒ते 
अनन्तरं हरेश्शाङ्धम्‌ 
अनन्तरं चाशेषः 
अनन्तर च सप्तमम्‌ 
अनमित्रस्य पुत्रः 
अनमित्रस्थान्वये 
अनन्तरं चातिशुद्ध° 
अनन्तरं च तैरवतम्‌ 
अनन्तरं च तेनाधि 
अनावृष्टिभयप्रायाः 
अनावृष्टच(दिसम्पकति्‌ 
अनायकतैस्समस्तैदच 
अनासन्यात्मनुदिर्या 
अनादिर्भगवरान्कालः 
भ्रनाराधितगोविन्दैः 
अनाकाशमसंस्पशम्‌ 
अनामगोत्रमसुखम्‌ 
अनादिमध्यान्तमजम्‌ 
अनाकौ परमार्थश्च 
भनागच्छति तस्मिन्धरसेनः 
अनाढघतेव सधुतहेतुः 
अनाश्येयस्वरूपात्मन्‌ 
अनिसद्धोऽपि रुकिमिणः 
अनिकेता ह्यनाहाराः 
अनिन्वं भक्नपेदिव्यत्‌ 


७७०० 


अंशाः अध्या० शोकदुः 


५ २ प 
४५ १७ र 
५ ३५ ३७ 
1 द २६ 
४ ३ ` ११ 
१ ६ १५ 
२ ४ ८० 
६ ३ २१ 
1 २१ ७ 
६ ५ १५ 
२ ६ २३१ 
४ ११ १७ 
१ १२ ७ 
४ १० १३ 
२ ७ २९६ 
३ १८ ४९ 
र ७ ३२ 
॥; ३ १८ 
५ २८ ११ 
५ २९ ६ 
४ २४ ९९ 
४ १५ एण 
४ १४ १ 
४ . १४ ५ 
४ ६२ ३१ 
ष ४ ७६ 
र ४ ५४ 
प १ २४ 
६ ४ १२ 
६ ४, ३१ 
ष ७ ११ 
१ २ २६ 
१ ११ ४३ 
१ १४ ४० 
१ १४. ४१ 
१ १७ १५ 
२ १४ २४ 
४ १३ ३५ 
४ २६ ८६ 
५ . १८ ५२ 
र्ध १५ ४०५ 
र ६ १३ 
३ ११ 5०9 





ररोकाः 
अनिष्क्रमणे च मधुरिपुरसीौ 
छनिरदो रणेऽशदः 
अनुज्ञां देहि भगवन्‌ 
अनुह्वादद्च ह्लादश्च 
अनुशिष्टोऽसि केनेदुक्‌ 
अनुतप्ता सिखी चैव 
अनुष्टुपपद्कितरित्युक्ता 
अनुदिनानुरूढस्नेह्‌ 
अनुदिनं चोपभोगतः 
अनुयातैनमत्रान्या 
अतुरागेण दौधिल्यम्‌ 
अनुयुक्तो ततस्तौ तु 
अनु भूतमिवान्यस्मिन्‌ 
अनृतमेव व्यवहा रजयहैतुः 


` अनेकशिरसां ब्रह्मन्‌ 


अनेन दुष्टकपिना 
अनेकजन्मसारस्ीम्‌ 
अनोरानकंदुन्दुभिः 
अन्तर्जले यदाश्चर्यम्‌ 
अन्तर्द्धानं गते तस्मिन्‌ 
अन्तर्वट्यहुमन्दान्ते 


अन्तरटन्यामचिन्तयत्‌ ` ` 


अन्तःपुराणां मञ्वादेच 
मन्तःप्रविष्टश्च घात्याः 
भन्तःपुरे निपतितम्‌ 
अन्धकारीकृते लोके 
अन्धकारीकृते लोके 
अन्धं तम दवाज्ञानम्‌ 
अन्नसाकाम्बुदानेन 
अघ्नाग्रज्च समुद्धृत्य 
अन्तेन वा यथाशक्त्या 
अन्नं बलायमे भूमे 
भस्य जन्मकृतैः पुण्यैः 
न्यथा सकला लोकाः 
अन्य्मं कन्याः 
अन्यनप्यन्यपाषण्ड० 
अन्यापतं चैव भार्वाणाम्‌ 
अन्याश्च भार्याः कृष्णस्य 
भन्यायवृ्तिहैतुः 
अन्या्तथ स जात्तीयान्‌ 
अन्या ब्रवरोति नो गौपाः 
अन्याः सहस्रशस्तत्र 
न्यू न।(नतिरिकंताद्व 


अंशाः अध्या० शोकङ्काः 


४ १३ ५४८ 
५ ३९ ७ 
१ १५ १७ 
१ १५ १४३ 
१ १७ १९ 
र्‌ ४ ११ 
२ < द 
, २ १११ 
४ १५० २१ 
` ५ १३ ३७ 
“ ५ १८ २९ 
५ २० १७ 
, ९ ५ ३५ 
४ २४ ७८ 
` १ २१ १९ 
५ ३६ २९ 
द ७ १६ 
४ १४ १४ 
` ५ १९ द 
4 १० ४९ 
४ ६ ६७ 
४ ६ ७९ 
५ २० २७ 
“ ४ १३ ४१ 
५ २७ २१ 
* ५ ११ ९ 
` ६ ३ ४०५ 
“` ९ ५ ६२ 
" ३ ११ १०८ 
` ३ ११ ६३ 
' ३ १४ २४ 
३ ११. ६१ 
` १ ११ २० 
१ १९ ५३ 
४ १ ७८ 
३ १८. २९ 
५ ३२ ५ 
५ २८ ३ 
४ २४ ८३ 
५ ८ ११ 
५ १३ २८ 
* २ 4; 
-२ ४ ९१ 


दीका 
भन्यूनर्चाप्यवृद्धिश्च ^^ 
अन्येषां चैव जन्तूनाम्‌ 
अन्ये च पाण्डवानामत्मजाः 
अन्येनीत्थाप्यतेऽन्येन 
अन्ये तु पुरुषन्याघ 
अन्येषां दुटभं स्थानम्‌ 
कन्येषां योने पानि 


अन्येऽपि सन्त्येव नुपाः पृथिव्याम्‌ "` 


अस्योन्यमृचस्ते सरवे 
अपश्यच्च तन्माम्‌ 
अपसव्यं न गच्छेच्च 
अवहन्ति तमो यश्व 
मपध्वस्तवपुः सोऽपि 
भपक्षयविनाश्ाभ्याम्‌ ` 
धपराह्ै व्यतीते तु 
अपामपि गुणो यस्तु 
भ्रपपि तत्र पार्श्व 
अपास्यसातु गन्धर्वम्‌ 
भपि धन्यः करे जायात्‌ 
अपिते परमा तृप्तिः 
भपि स्मरसि राजे 

भपि नस्स कुरे जायात्‌ 
शपि नस्ते भविष्यन्ति 
अपोडया तयोः कामम्‌ 
अपुत्रा तस्यसा पत्नी 
अपुत्रा प्रागियं विष्णुम्‌ 
अपुण्यपुण्योपरमे 

अपुत्रस्य च भूभुजः 
सपृथर्धर्मचरणास्ते 
भष्यतर वेत्वे भवत्याः सुखम्‌ 
अप्येष मां कंपपरिग्रहेण 
प्येष पृष्ठे मम हस्तपद्यम्‌ 
अप्येतेऽस्मत्पुत्राः कलभाविणः " 
प्रदानेन च विजिव्येधम्‌ 
छप्रतिरथस्य कण्वः 
अप्रतिरथस्यापरः 
भअप्राणवत्पु स्वल्पा सा 
शप्रियेण तु तान्दुष्ट्वा 
अप्सु तस्मिन्नहोरातरे 
भष्दि च पूरणे 
अमवन्दनुपुत्राह्च 

अभयं सर्वभूतेभ्णः 
अमयप्रगटमोच्चारणमेत्र 


५१९१५ 


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६ 
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१ 


५ ५५ 


अंशाः अध्या० शछोकाद्ाः 


४८ 











दछोकाः 


अभिमानात्मको दयेषः 

अभिषिच्य गवां वाक्यात्‌ 
अ्भिष्ट्यचतं वाग्भिः 
अभिरुचिरेव दाम्पद्य० 
अभिमन्योरुत्तरायां परिक्षीरोषु "^" 
अभिमन्युश्च दशमः " 
अभिषिक्तो यदा राज्ये 

सभिषिच्य सुतं वीरम्‌ 
भभिशस्तस्तया स्तेनः 

अभीष्टा सर्वदा यस्य ॥ 
अभुक्तवत्सु चैतेषु 

अभूहिदेहोऽस्य पितेति वैदेहः -“ 
भस्परयितापि सुहूदा 

अभस्थाः प्रपतन्त्यापः 

अमरेषु ममावज्ञा 
अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन 

अमावास्या यदा पुष्ये 

अमावास्या यदा मैत्र 

अमिताभा भृूतरया 

अमृष्ट जायते मृष्टम्‌ 
अमूतस(विणी दिष्ये 

अम्बरी षमिवाभाति 

अम्ब यत्त्वमिदं प्रात्थ 


भम्बरोषस्य मन्धातृतनयस्य “““" 


अम्बरी षस्यापि 

अम्ब कथमत्र वयम्‌ 

अयमेव मने प्रः 
अयमन्योऽस्मस्रत्याश्यानोपायः "^" 
अयमस्मान्‌ ब्रह्मषिः 

भयमतीव दुरात्मा सत्राजित्‌ “^ 
अयमपि च यज्ञादनन्तरम्‌ ` 
अथमेकोऽजुंनौ धन्वी 
अयाज्ययाजकश्चैव 

अयुजो भोजयेत्‌ कामम्‌ 

अयं कृष्णस्य पौत्रस्ते 

अयं हि वंशोऽत्तिबलपरक्रम० `" 
भयं स पुरषोत्कृष्टः 

अथं हि भगवान्‌ 

अयं च तस्य इरोकः 

अयं चास्य महाबाहुः 

भयं स कथ्यते प्रज्ञैः 

अयं हि सर्वलोकस्य 

अयं समस्तजगतः ^ ११५ 


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१२९ 
३ 
२४ 


अंशाः अध्या० शषोकाद्काः 


२८ 
१५ 


दरोकाः 
भरजोऽशन्दममृतम्‌ 
अरक्षितारो हर्तारः 
अराजके नृपश्रेष्ठ 
अरिष्टो धेनुकः केरी 
अरिष्टो पेनुकः कैरी 
अरुन्धती वुर्थापिः 
अरुणोदं महाभद्रम्‌ 
अरूपरस्पर्शम्‌ 
अर्व॑स्येव हि तथ्याश्वाः 
मविभिस्संवृते तस्मिन्‌ 
भजुंनस्याप्युलृप्याम्‌ 
जुनार्थे वहं सर्वान्‌ 
अर्जुनोऽपि तदास्तिष्य 
सरथो व्रिष्णुरियं वाणी 
भर्धनारोनरवपुः 
अर्यमा पुलहश्चैव 
अवव्ि्लोतास्तु कथितः 
अरहुष्वं धर्ममेतं च 
अरहुतेतं महाधर्मम्‌ 
अलमत्यन्तकोपेन 
अरमलमनैनासद्ग्राहेण 
अलातचक्रवद्यान्ति 
मलाबु' मञ्जनं चव 
अलं ते न्नीडया पार्थं 
अलं शक्र प्रयासेन 
अलं व्रासेन गोपालाः 
मलं निञ्चाचरंर्दग्धैः 


अरु भगिन्योऽहमिमं वृणोमि ` 


अल्पत्रस्ादा बृहत्तपा; 
मल्पप्रञा वृथालिङ्ख(ः 
सल्पोपादानं चास्थासंशयम्‌ 
अवतीर्याथ गरुडात्‌ 
भवदयमस्य देवेद्रः 
अवरुह्य स॒ नागीन्द्रात्‌ 
अवतायं भवापर्वम्‌ 
अवतीर्य च तत्रायम्‌ 
अवत्रोधि च यच्छान्तम्‌ 
अवज्ञाय वचस्तस्य 
अवज्ञानमहङ्गु(रः 
अवगाहेदपः पूर्वम्‌ 
अवररांइ्च वरा्चैव 
अवष्टम्भो गदापाणिः 
अवशेनापि यन्नाम्नि 


~~ =, 


अंशाः अध्या० शरोकद्धुः 


१ १४ ४२ 
द १ ३४ 
१ १३ ६७ 
५ १ २३ 
४ ६८० ४७ 
१ १५ १०६ 
२ २ २४ 
द ४ २५ 
२ १२ ३ 
प ४ २० 
ष २० ४९ 
५ १२ २४ 
५ ३८ १ 
१ ठ १८ 
१ ७ १३ 
२ १० ५ 
१ द १ 
ड १८ ७ 
३ १८ १२ 
१ १ १६ 
र ४, २२ 
२ १२ २८ 
३ १६ ५ 
५ २ ५४ 
५ ३० ७) 
५ १६ ५ 
१ १ २०५ 
; २ ९२ 
४ :४ ७१ 
द १ ४३ 
1 १३ १३७ 
५ ३१ ११ 
५ ३० ४३ 
५. १२९ ५ 
५ ७ ४० 
५ १ ६४ 
३ १७ २४ 
५ २८ २०५ 
३ ९ १६ 
३ १ ६ 
१ १५ ७९ 
१ २९ 
प ए १९ 





र्छोकाः 
भवकारशमशेषाणाम्‌ 
भवादयन्‌ जगु्चान्ये 
अवाप्तज्ञानतन्त्रस्य 
भवापुस्तापमत्यथम्‌ 
अविकाराय शुद्धाय 
अविकारमजं शुद्धम्‌ 
अविज्ञातगतिश्चैव 
अविकार स तद्भुक्त्वा 
अविक्षितोऽप्यलिब्रल ° 
भविद्योऽयं म्रा ययते 
अविदयामोदहिततात्मानः 
अविमुक्ते महाक्षेत्रं 
भवी रजोऽनुममनम्‌ 
भन्पवतं कारणं यत्तत्‌ 
सन्यवतेनानृतो ब्रह्मन्‌ 
अश्चब्दगोचरस्यापि 
अशस्त्रमतिघोरं तत्‌ 
शशास्त्रविहितं घोरम्‌ 
अशुममतिरसल्पवृत्तिसक्तः 
अशुचि प्रस्तरे सुप्तः 
अशेषपर्वस्वेतेषु 
भशेषभूमृतः पूवम्‌ 
अशेषजगदाधार० 
धरनीयानत्तन्मयो भूत्वा 
अरमकस्थ मूको नाम 
अद्वानुष्टानारदभांश्च 
अरिवनौ वसवश्चेमे 


, अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः 


अ्टारीतिप्तहस्राणि 
अ्टादशमूहतं यत्‌ 
श्रष्टासीतिसहस्राणि 
अष्टारवः काल्वनः श्रमात्‌ 
अष्टाभिः पाण्डुरयुक्तः 
अष्टाविशत्तिकृत्वो वै 
सष्टाविशद्वधोपेतम्‌ 
अष्टावक्रः पुरा विप्रः 
अष्टौ चतसहस्राणि 
अष्टौ मर्हिष्यः कथिताः 
असहन्ती तु सा भतः 
समर्थाऽन्नदानस्य 
असहुत्रौहिसोयस्य 
असस्यवक्रणे दोषः 
भसतारसंसारविवर्तनेषु 


अंशाः अध्या ्टोकाद्काः 


१ १४ ३२ 
१ १७ ८ 
२ १५ ५ 
५ १०५ २ 
१ २ १ 
१ १४ ३८ 
१ १५ ११५ 
१ १८ ६ 

॥\ १ ३१ 

५ २८ १६ 
५ प३ ४९ 

५ ३४ ३० 

५ १८ ३७ 

१ २ १६ 
१ २ ६० 
६ ५ ७१ 

५ ० ६८ 
द १ ४० 
र ७ ३१ 

प ५ १६ 
३ ११ ११८ 
३ १८ ८ 

५ २०५० ७ 
३२ ११ ८५ 
1 ४ ७३ 
१ २१ १७ 
१ ६ ६४ 
१ ५ २४ 
१ ६ रद 
२ ८ ३९ 
२ [4 ९४ 
२ १२ १८ 
२ १२ १९ 
४ २ अ 
र १७ २८ 
५ २३८ ७१ 

१ ३ १९ 
५ ३८ र्‌ 
६ २ र 
२ १४ २५ 
५ १७ 
द २ २१ 
१ १७ ९० 


श्टोकाः 
असावपि दहिरण्यपात्र 


असावपि प्रतिगृह्योदकाल्जलिम्‌'"" 


असावप्यनाखोचितोत्तरवचनः 


असावप्याह 
असावपि देवापिर्वदवाद० 
असिक्नीमावहत्कन्याम्‌ 
भस्तरभूषणसंस्थान० 
भस्त्रग्राममरोषं च 
अस्काणां सायकानां च 
अस्ननभोजिनो नाग्ि° 
अस्नाताशी मं भुदकते 
खस्मत्संश्रयदुप्तोऽयम्‌ 
अस्मन्वेष्टामपहसन्‌ 
अस्माभिरर्धो भवत्तः 
घस्मिन्वसति दुष्टात्मा 
अस्मिन्वयसि पुत्रो मे 
अस्याक्रूरस्य पिता द्वफर्कः 
अस्वे स्वमिति भावोऽत्र 
महङ्कृता भहम्मानाः 
अहन्यहन्यनुष्ठानम्‌ 
अहम्यहन्यथाचार्य॑ः 
अहमेवाक्षयो नित्यः 
अहस्तु ग्रसते रात्रिम्‌ 
अहममरवरायितेन धात्र ` 
अहमप्यद्विश्ृद्खाभम्‌ 
अहमत्यन्तविषयी 
अहिसादिष्वशेषेषु 

षहो क्षात्रं परं तेजः 
अहोऽस्म तपसो बीयम्‌ 
अहोरात्रकृतं पापम्‌ 

महोमी च कृ मीन्भुदक्ते 
महौ धन्योऽयमीदुशम्‌ 

अहो मे मोहस्य 

अहौ गौपौजनस्यास्य 
अहोर(त्रचतुष्पष्टधा 
अहोऽतिबलवह्‌ं वम्‌ 
बहोरादरं पितणां तु 

अहं हरिः सर्वमिदं जनार्दनः 
अहु त्वं च तथान्ये च 


अहं चरिष्यामि तदात्मनौर्थं "` 


अहं रामदच मथुरमम्‌ 
अहं ह्यविद्यया मूृस्युम्‌ 
महू ममेत्यविघेयम्‌ 


171 


अंशाः अध्या शोकाङ्काः 


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२६ 
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७ 
२४ 
४५ 
२७ 








रोकाः 

आ, 
भाकण्ठमग्नं पिरे """ 
माकरा्तस्तु विक्गर्वाणः 
आकारां शब्दमात्रं तु 
भाकाशगङ्खास्छिलम्‌ 
अक्ारसम्भरवैरद्वैः 
आकराशवासरग्निजिक० 
आक्यं चैव भूतादिः 
शाक्ृष्य लाङ्खलग्रेण ` 
आक्रृष्य च महास्तम्भम्‌ 
आक्र्तिः पर्वतैः कस्मात्‌ 
भाख्यातं च जनैस्तेषाम्‌ 
आख्याहि मे समयमित्ति 
अश्यानेदचाप्युपाख्यातैः ` ` 
आगच्छ हे राजन्‌ 
भागमनध्वणसमनन्तरम्‌ 


आगताय तरसिष्ठाय "५; 


आगच्छत दुतं देवाः 
आगमोत्थं विवेकाच्च 
जागारदाही मित्रघ्नः 
आभामियुगे भू्वंश० 
आाग्नीप्रह्चाग्निबाहुस्च 
आग्नेयमष्टमं चैव 
भाघूणितं तत्सहसा 
आचम्य च ततो दद्यात्‌ . 
आजीवो याः परस्तेषाम्‌ 
आजापूर्वं च यदिदम्‌ 
आताप्रनयनः कोपात्‌ 
अआताभ्रा हि भवन्त्यापः 
भातमच्छायां तरुच्छायाम्‌ 
आलमनोऽधिगतज्ञानः 


आत्ममायामयीं दिग्याम्‌ 
भ(त्मभावं नयत्येनम्‌ 


अ! द्पप्रयल्नपपेप्ा 
अ(त्मानमस्य जगक्तः 


आत्मा त्मदेहगुणवत्‌ 

आत्मा शुद्धोऽक्षरः शान्तः 
आत्मा घ्येयः सदा भूष ` 
आदत्ते रश्िमिभिर्यं तु 
आदाय कृष्णं सन्त्रस्ता 
आदय वसुदेवोऽपि 


सादाहुवार्यायुधादि° 
आदिबीजाल्मभवति 


भादित्यान्निःसृतो राहुः 


अंशाः अध्या० शोकाद्गुः 


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९ 


०८ ०८ ०८ ५ न ~< ~< 


ईरोकाः 
आदित्यवपुश्द्रा्ाः 
घाद्यमाजगवं ताम 
भाघ कृतयुगे सर्गः 
आद्यो यक्ञपुपानीड्यः 
आद्यो वेदश्चतुष्पादः 
आं सवपुराणानम्‌ 
आधारभूतं जगतः 
आधारभूतं विद्वस्य 
आधारः सिशुमारस्य 
आधारभूतः स्विः 
आघ्यात्मिकादि मैरेय 
आध्यातिमिकौऽपि द्विविधः 
आध्वर्यवं यजुभिस्तु 
खानस्य चापि हस्ताभ्याम्‌ 
आनफदुन्दुमेदेवक्थामपि 
आनर्तनामा परमधामिकः 


आनरत्तस्यापि रेवतनामा पूत्रः 


आनिन्ये च पुतः संज्ञाम्‌ 
आनीलनिषधायामौ 
आनीय सहिता दैत्यैः 
आतीय चोग्रपेनाय ` 
आनीयमानमाभीरेः 
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता 
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता 
आपस्तस्तम्भिरे चास्य 
आपस्य पुत्रो वैतण्डः 
भापादशौचनात्पर्वम्‌ 
पो प्ुवश्च सोमस्व 
भाषो नारा इति प्रीक्ताः 
भाप ग्रसन्ति वै पूर्वम्‌ 
साध्याः प्रभूता मन्याह्च 
आभूतसंप्लवस्थानम्‌ ` 
आमन्व्ितद्च कृष्णेति 
आमुत्युतो नैव मनोरथानाम्‌ 
आम्बिकेयस्तथां रम्यः 
आयतितियत्िश्चैव 
आययौ च जरानाम 
भायागं तद्धनूरत्तम्‌ ' 
आयास्य मवतीगेहुम्‌ 
घायान्तं दैत्यवृषभम्‌ 
आयुर्वेदो घूर्वेदः 
आरक्ताश्चैव निर्या. 
भआरण्यस्यात्मजः 


००७५ 


अं्लाः अध्या कोकाद्ुः 


२ १ ३१ 
१ १३ ४० 
६ १ ७ 
१ ९ ६१ 
३ ४ १ 
३ ६ २० 
१ १२ ८२ 
१ २ ५ 
२ ९ प 
२ ९ २४ 
द भ, १ 
६ ५ २ 
३ ४ १२ 
४ ७ ८४ 
४ १५ २६ 
४ १ ६३ 
४ १ ६४ 
२ २९ ८ 
२ २ ३८ 
१ & ७७ 
५ २४ ७ 
५ ३८ ५२९ 
१ ९ १२१ 
५ १० २७ 
१ १३ ४९ 
१ १५, ११२ 
गे १५ ४५ 
१ १५ ११९१ 
१ ५ द 
६ 1 १ 
रै १ २७ 
| ८ ९७ 
५ २४ १९ 
४ २ ११९ 
२. ४ ६३ 
१, १० ५, 
४ ३७ ६८ 
५ २० १५ 
५, २०. १३ 
५ १४ १० 
३ ६ २९ 
३.१६ ९ 

१७ ४ 








श्टोकाः 
भाराधितार्च गोविन्दात्‌ 
आरा; कथितो देवः 
आराध्य चरदं विष्णुम्‌ 
माराधनाय छोकानाम्‌ 
आराधितो यद्धगवान्‌ 
आराघभर्महदिवम्‌ 
आराघ्य त्वामभीप्सन्ते ` 
आराधिततस्त्वया विष्णुः 
आरद रावतं नागम्‌ 
अशु च स्वयं कृष्णः 
आर्यबलभद्रेणापि 
आर्यकाः कुररास्चैव 
आालोक्यद्धिमथान्येषाम्‌ - 
आश्रमाणां च सर्वेषाम्‌ 
आश्चपश्चेतसो ब्रह 
आधरिस्य तमसो वृत्तिम्‌ 
आपन्नं चव जग्राह 
जासच्नो हि कलिः 
मापा पिबन्ति सकलम्‌ 
अस्फीटयामास तदा 
आह्‌ चैवं कृतवर्मा 
आहू चैनामतिपपि 
आद्‌ च भगवान्‌ 
आह चोर्वशी 
आह्‌ च राजा 
आहारः फलमूखानि 
आहुकस्य देवकोग्रसेनौ 
आ्ावकारिणः शुभ्राः 


९, 
दक्षश्च वेणुका चैव 
दक्ष्वा्ूतनयो यः 
द्वापरुदन नुगर्वैव 
दक्ष्वक्रुयुाचार्गो वसिष्ठः 
दधष्वाकुनल्खु.माच्धातृ° ` 
दक्ष्वाकूणामयं वंशः 
च्छा घ्ीभेगवान्कामः. 
ज्यते तत्र भगवान्‌ ' ' 
द्रतरस्यानुदिनम्‌ 


, द्रतरास्त्वनुवन्िभ्र 
दति विविधमभस्य यस्य रूपम्‌ ^" 


दति संतारदुःलाकं० ` ' 
इति कत्वा सति कृष्णः. 


अंशाः अध्या० कछोकीद्भु; 


द. ८ २ 
१ ११ ५० 
१ १४ १४ 
३ १७ ११ 
५ २० ९५ 
५ २३ र 
५ ३० १८ 
१ १५ ६२ 
५ २९ १५ 
५ २९ ३५ 
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३ ८ ३८ 
द ७ ४७ 
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६ ८ ६३ 
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इति गोपक्रुमाराणाम्‌ 

दति गोपीवचः शरुत्वा 

इति संस्मारितः कृष्णः 

दति संस्मारितो विप्र 

इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यम्‌ 
इति सचञ्नविन्त्य गोविन्दः 
इति श्रुत्वा स्मितं कृत्वा 
इति तस्य वचः श्रुता 
दति नानाविधैभविः 

हति कृत्वा मति सर्वँ 
इतिहासपुराणे च 

हृति प्रभुति वृष्णीनाम्‌ 
इति कऋषिवचनम्‌ 

इति क्षुतवतद्च 

इति मत्वा स्वदारेषु 

इति निजभटशास्नाय देवः 
इति यमववचनं निशम्य पाकी 
इति गाखास्समाष्याताः 
इति पूर्वं वसिष्ठेन 

इति सकलविभृत्यवाप्तिहतुः 
इति विज्ञाप्यमानौऽपि 
इति श्रुत्वा स दलेन 
इति राजाह भरतः 

इति भरतनरेन्धसारवृत्तम्‌ 
इतीरितस्तेन स राजवरः 
दती रितोऽसौ कमखोद्भूषेन 


इतः स्वगरच मोक्षश्च 
इत्थमुत्मार्गयातेषु 

हत्थं च पुत्रपौत्रेषु 

इत्थं सज््विन्तयन्नेव 
दस्यं वदन्ययौ जिष्णु 
इत्थं धिभूषितो रेमे 
हत्थं पुरस्प्रीरोकस्य 
इत्थं पुमान्प्रधानं च 
इत्थं चिरगते तस्मिन्‌ 
इत्थं त्रिचिन्त्य बदृष्वा च 
इत्थं सञ्चिन्तयन्विष्णुम्‌ 
द्यं स्तुतस्तदा पेन 
इत्यनेकान्तवादं च 
इत्यन्ते वचपरस्तेषाम्‌ 
इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन 
इट्थाज्ञप्तास्ततस्तेन 
हत्याकरण्यं वचस्तस्य ` 


अंशाः अध्या० 


६ 
३३ 
१ 
३४ 
१३ 
१३ 
१३ 
४२ 
४६ 
२५ 
२३७ 
५१ 
८० 

११ 
१२५ 
२५ 
१६९ 
३१ 
२९ 
१४६९ 
२६ 
१०५ 


१० 








श्छोकाः 
इत्याह भगवानौर्वः 
बरत्याकण्यं समस्ततेवैः 
इत्यात्मानमात्मनैवाभिघाय 
इत्यात्मरष्याकोपकरुषित° 
हइत्याकरण्पोपलन्धस्य 
इत्याकर्ण्यं समुत्पाट्य 
हत्याकण्यं ध रावाक्रयम्‌ 
दत्यज्ञाप्यासु रान्कंसः 
हत्यारवास्य विमुक्त्वा च 
इत्यालोच्य स दुष्टात्मा 
इत्याज्ञप्तस्तदाक्गूरः 
इत्यादिश्य स तौ मह्छौ 
दत्युक्तोऽसौ तदा दैत्यैः 
दत्युक्तः स तया प्राह 
दत्युवत्वा मन्व्पूतैस्तैः 
इत्युक्ता देवदेवेन 
हुतयुकत्वा देवदेवेन 
इध्युकेत्वा प्रययौ साथ 
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रः 
इत्युदौ रितमाकरणय 
इत्युक्तः सकलं मातरे 
इत्युक्तास्ते ततः सर्पः 
हतयुक्त्वा सोऽभवन्मौनी 
इत्युक्तास्तेन ते क्रुद्धाः 
इत्युक्तास्तेन ते सर्वे 
ह्युक्त्वा तं ततो गत्वा 
द्यु कहवान्तदधे देवः 
इत्युत्वान्तरदधे विष्णुः 
हृत्युक्ते मौनिनं भूयः 
इत्युक्ता तेन सा पत्नी 
दत्युनेतः सहसारुह्य 
दुक्त सत्वरं तस्य 
ह्युष॑तो सृधिराक्तानि 
इत्युच्चायं नरो दद्यात्‌ 
इत्युच्चार्य स्वहस्तेन 
द्युक्तो मगरवास्तेभ्यः 
द्युता प्रणिपत्यैनम्‌ 
दत्युच्चार्याहिनि्यम्‌ 
हत्यु कत्वा प्रययौ तत्र 
इत्युक्तवा प्रययौ देवी 
ह्युक्त्वा प्रयवुर्गोपाः 
ह्यु क्ते ताभिराश्वस्य 


` इत्युक्त्वा सपंराजं तम्‌ 


#०्के 


अंशाः लषध्या० शोकाः 


३ 


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३ 
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५ 
५ 
५ 
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१५ 


१ 
२०५ 
१९९ 
३० 
४३ 


दरीः 
इत्युकेतास्तेन ते गोपाः 
इत्युक्तः सम्परिष्वज्य 
इत्युक्स्वास्फोटच गोधिन्दः 
दतयुक्त्वा चोदयामास 
दतयुक्त्वा भगवास्तुष्णीम्‌ 
देप्युक्त्वा प्रविवेशाथ 
इत्युक्तवा तद्गृहात्कृष्णः 
हृत्युषतः सौऽप्रजेनाथ 


दतयुकत्वाथ प्रणम्योभौ 
हत्युकत्वा सोऽस्मरद्ायुम्‌ 
हस्युक्तः पवनौ गत्वा 
द्र्युक्तोऽन्तर्जल गत्वा 
इत्युवतः धणिपत्येशचम्‌ 
इत्युक्ता वारुणी तेन 
द्युक्तयातिसन्त्रासात्‌ 
इत्यु कतक्छम्बरं युद्ध 
द्युक्तस्स प्रहस्यैनाम्‌ , 
इत्युक्ते तैरवाचैतान्‌ 
हत्युक्ता रक्षिणौ गत्वा 
इत्युक्तो वै निववृते 
दुसयुक्ता सा तया चक्र 
इत्युक्तः प्राह गोविन्दः 
इत्युक्त्वा प्रययौ कृष्णः 
हत्युक्तस्सम्प्रहस्यैनम्‌ 
हत्युक्तेऽपगते दते 
द्त्थुच्चायं विमुक्तेन 
इत्युक्त्वा कुरवः साम्बम्‌ 
हद्युषत्वा मदरक्ताक्षः 
हुतयुक्त्वा दिवमाजग्मुः 
हस्युकतास्ते कमारास्तु 
द्युक्तो वाधुदेतेन 
इत्युक्तः प्रणिपत्यैनम्‌ ` 
इस्युक्तो दारकः कृष्णम्‌ 
दव्युदीरितमाकष्यं 
इत्युकतोऽभ्येत्य पार्थाभ्याम्‌ 
इत्युक्तो मुनिभिर्व्यासिः 
द्रतयुक्त्वा रथमारुह्य 
इत्युक्त्वा समुपेत्यैनम्‌ ` 
हव्युकेतस्ते मया योगः 
दत्येते कथिताः सर्गाः 
दत्येष प्रकृतः सर्गैः 
हत्येता बोषघीनां तु 
त्येषा दक्षकन्यानाम्‌ 


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१५ 
२४ 
१५ 
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२३ 
३१ 
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. अंशाः जध्या० शोकाद्काः 


१९ 
3, 





दछोकाः 
इत्येषमुक्तास्ते पित्रा 
दत्येवमुक्त्वा तां देवीम्‌ 
इत्येष तंऽशः प्रथमः 
दरत्येतानि ददौ तेभ्यः 
इत्येते सुनिवर्योकिताः 
हत्येवं तव मेत्रेय 


इत्येष सच्चिवेशोऽयम्‌ 


इत्येतास्तनवस्तस्य 


इप्येताः प्रतिश्षाखाभ्यः 
इत्येवमादिभिस्तेन 
दत्येते कथिता राजन्‌ 
हत्येतेऽतिथयः प्रोक्ताः 
इत्येततपितुभिर्गीतम्‌ 
हत्येतन्मान्धातु° 
इत्येते मैथिराः 


दप्येवमाद्यतिबलपयाक्रम 
इत्येतां ज्यामघस्य सन्ततिम्‌ 


इव्येत-द्वगवतः 
हस्यते शैनेया; 
त्येष समासतस्ते 
ह्येते मया मागधाः 
इत्येते चेक्ष्वाकवः 
इत्येते शाहदथाः 
दत्येतेऽष्टत्िरदुत्तरम्‌ 
इत्येते दबुनाभाः 


दत्येते शुद्धा हादशोप्करमूः 


दरत्येते धरणीगौताः 
हतयेप कथितः सम्थक्‌ः 
इत्येवं संस्तवं शरुत्वा 
ह्येवमतिष्ार्देत 
ह्येवं वेरणिते पौरैः, 
दरस्येतत्तव मत्रे 
दत्येतत्परमं गुह्यम्‌ 
इव्येवमनेकदोषोत्तरे 
इत्येष कथितः सम्यक्‌ 
त्येष कल्पसंहारः 
दरत्येष तव मत्रे 
इत्येषा प्रकृतिस्र्वा 
ददमाषं पुय प्राह 

इदं च श्पृणु मैत्रेय 
हदं चापि जपेदम्बर 
इदं च श्रूयतामन्यत्‌ 
दद त्सरस्तृतीयस्तु 


अंशाः अध्या” शोकाद्काः 


५०७९७ 


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२१ 
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१८ 
३४ 
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२३ 
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२१ 
३५ 
4; 


२५ 


रोका 
इन्द्रत्वमकरोरेत्यः 
दद्रपरमित्तिरेकां तु 
दृन्द्राय धर्मराजाय 
इन्द्रियार्थेषु भूतेषु 
इन्द्रो विश्वावमुः खोतः 
दममद्विपहं धैर्यात्‌ 
इमौ घृलकितैरद्धः 
इमं चोदाहरन्दयत्र 
इमं स्तवं यः पठति 
इयाज विविर्धयनैः 
इयाज यज्ञान्‌ सुबहून्‌ 
इयाज सोऽपि सू्रहुन्‌ 
दयं च वर्तते सन्ध्या 
इयं च मारिषा पूर्वम्‌ 
दयं मायावती भार्या 
इलावृताय प्रददौ 
दृष्टवा यमिन्द्रो यज्नालाम्‌ 
दष्ट च मित्रावरुणयोः 


ई, 
ईदृशानां तथा तत्र 
ईषद्धसन्तौ तौ वीरौ 
ईशोऽपि सर्वजगताम्‌ 
दरवरेणापि महता 

उ, 
उक्तस्तयैवं स मुनिः 
उक्तोऽपि ब्रहुशः किचित्‌ 
उग्रसेनस्यापि कंसन्यग्रोध° 
उग्रसेनसूते कसे 
उग्रसेन यथा कंसः 
उग्रसेनं ततो बन्धात्‌ 
उग्रसेनोऽपि यदच्याज्ञम्‌ 
उग्रसेनः समध्यास्ते 
उग्रस्ेनस्तु तच्छत्वा 
उग्रायुघात्क्षम्यः कषेम्यात्‌ 
उश्वप्रमाणामिति तामवेक्ष्य 
उच्चावचाति भूतानि 
उच्चैमनोरथस्तेऽयम्‌ 
उत्कुरः शकुनिश्चैव 
उत्तरं यदमस्त्यस्य 
उत्तरायणमप्युवतम्‌ 
उत्तरे प्रक्रमे शीघ्रा 
उत्तरण च सोमस्य 


अंशाः अध्या० शलोकाङ्काः 


१०९०९ ^ 


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१७ 


आ 4 ॐ आ 


३ 
१९ 
४४ 





इछोकाः 
उत्तरं थत्समुद्रस्प 
उत्तमोत्तममप्राप्यम्‌ 
उत्तमः स ममश्राता 
उत्तानपादृत्रस्तु 
उत्तानपादततनयम्‌ 


उत्तिष्ठता तेन मुखातिखाह्तम्‌ 


उत्ति तस्तस्य जका्रकुक्ष 
उत्थाप्य वसुदेवस्तम्‌ 
उत्थाय मुचुकुन्दयोऽपि 
उत्पत्तिस्थितिनाशानाम्‌ 
उत्पत्ति प्रलयं चैव 
उत्पत्तिस्थितिनाशानाम्‌ 
उत्पत्तिश्च निरोधद्च 
उत्पक्चबुद्धिर्च 
उत्पन्नदचापि मे मृत्युः 
उत्पन्नोदे वराजाय 
उत्पाट्य श्ृद्धमेकं तु 
उत्पाट्य वामदन्तं तु 
उत्फुल्लपद्कुजदल ° 
उत्सजं ततस्तां तु तमः 
उस्ससजं ततस्तां तु पितृन्‌ 
उत्साद्याविलक्षत्रजातिम्‌ 
उत्पुञ्य पितरं बालः 
उत्सृज्य पूर्वजा यत्ताः 
उत्सुज्य जलसर्वस्वम्‌ 
उत्सुञ्य द्वारकां कृष्णः 
उदकावरणं यत्त 
उदग्रककुदाभोग० 
उदङ्मुखो दिवा मूत्रम्‌ 
उदयास्तमनास्यं हि 
उदक्या सूतकाक्लौचि 
उदावसो्नन्दिवद्धनः 
उदीच्यां च तथेवानुम्‌ 
उद्गी यमानौ विसत्‌° 
उद्भिदो वेणुमांश्चैव 
उद्रेगं परमं जग्मुः 
उन्नताम्बुतंव पृथिवीहेतुः 
उन्मत्तत्रतधुखििभ्रः 
उन्पत्तरिखिसारद्खं 
उन्म्‌ छानथ ताच्वृक्षान्‌ 
उपयेमे दुहितरम्‌ 
उपर्थाक्रान्तवाज्च्छैलम्‌ 
उपस्थितेऽतियशसः 


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अंशाः अध्या० शोकङ्काः 


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१९१ 
१९१ 

६ 
११ 

४ 


रछोकाः 
उपदानो हयरिराः 
उपर्यहं यथा राजा "^ 


उपतिष्ठन्ति वै सन्ध्याम्‌ 
उपभोगकलि चताम्‌ "" 
उपसंहर सर्वात्मन्‌ ००५ 
उपवासस्तथायासः # 
उपायतः समारन्धाः 

उपेत्य मथुरा सोऽथ 

उभग्रमपि तन्मनस्कम्‌ 

उभयं पृण्यमत्यरथम्‌ 
उभयोस्त्वविमागेन 

उभयोः काष्टियोमध्ये 

उभा्यामपि पाणिभ्पराम्‌ 

उभे युते महाभगे 

उभे सन्ध्ये रति भूप 
उर्वशीदर्शनादुः्ूत० 

उर्वशी न वदुपभोगात्‌ 
उवंीशनालोक्यम्‌ 

उर्वो महांश्च जगतः ^^ 
उवाच वस कोपेन 

उवाह शिविकां तस्य 

उवाचैनं सजानप्‌ """ 
उवाच च सुरानेतौ 
उवाच चाम्ब हे तति 


उवाच चातिताम्रक्षिः 
उशनसशचं दुहितरम्‌ 
उशोनरस्थापि रिविनुग० 
उपा रात्रिः समाख्याता 
उपा ब्राणसूता विप्र 
उष्टानदवत्तरदिचैत 
उष्णाद्टिचिद्ररथः “""" 


छ, 
ऊनुश्वैनमग्तिमाम्नायानुसादै ˆ“ 
अनचुर्‌च वुपितास्परवे 
ऊः पूरुदशतधुम्न° 
ऊर्जायां तु वसिष्ठस्य " 
ऊर्जः स्तस्भस्त्था प्राणः 
ऊर्वं तिर्यगधश्चैव 
ऊर्ध्वौत्तिरमुपिभ्यस्तु 
उरिषट्कातिगं ब्रह्म 
ऊहरूमार्मवाहीनि 


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२१ 
१६ 
११ 


अंशाः अध्या० शोकाद्रु; 


७ 
१३ 
१०२ 
२३ 
१३ 
१५ 


७ 


१०० 





रटोकाः 


च्छ, 


च्ृश्रपतिनिहतं च 
ऋक्षाद्खीमसेनः 
वक्षोऽभूदार्गवस्तस्मात्‌ 
क्छयजुस्तामसंजेयम्‌ 
कऋहरपजुस्सासभिमर्गिः 
क्ग्यजुःसामनिष्पायम्‌ 
क्हग्वेदपाठकं पलम्‌ 
क्रवेदस्त्वं यजुर्वेदः 

कट चीकश्च तस्याश्चरम्‌ 
त्रहचो यजूंषि सामानि 
बनः स्तुवन्ति पूर्वा 
क्तावुपगपश्शस्तः 
चऋतुत्रयं चाप्ययलम्‌ 
चटतुपणपुतरस्सर्वकामः 
अहतेपुकक्षेषुस्थण्डिरेषु° 
ऋतेपोरम्तिनारः 
वहमुनामा भवत्पुत्रः 


, दभुरस्मि तवाचार्यः 


क्मूरवरषरहसे तु 
तषयस्ते ततः प्रोचुः 
न्ष भा रतौ अन्न 
क्षिकुल्ाकुमाराद्याः 
ऋषिणा यस्तदा गर्भः 
क्षिभ्पस्तु सहस्राणाम्‌ 
चऋपीणां नामपेयानि 


एकमस्य व्यतीतं तु 
एकयिश्रमधर्वाणिम्‌ 
एकस्मिन्‌ यत्र निधनम्‌ 
एकदा तु त्वरायुक्तः 
एकदा तु स ध्मत्मि 
एकदा तु मया पृष्टम्‌ 
एकदा तु समं स्नातौ 
एकदा तु दुहितृस्नेह ०. 
एकदा तु किञ्चित्‌ 
एकदा स्वम्भोनिधिीरसंश्चयः 
एकदा तु विना रामम्‌ 
एकदा रेवतोद्याने 
एकदा वतंमानस्य 
एकवक्रो महाबाहुः 


अंशाः अध्या शछोकाद्राः 


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५९ 


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१३ 


३९ 


दरोकाः 
एकप्रमाणमेवैषः 


एकंस्वरूपभेदर्च १ 


एक आसीद्यजुर्ेदः 

एक रत्रस्थितिग्रमिं 
एकवच्ध रोऽयाद्र° 
एकश्वतुद्धा सगवार्हुताशः 
एकस्पिक्नेव गोविन्दः 
एकदशुद्धोऽक्षरो नित्यः 
एकपादं द्विपादं च 
एकानेकस्वरूपाय 
एकादश्लं मनश्चात्र 
एकार्णवे तु त्रैरोक्ये 
एकान्तिनः सदा जह्य 
एकाग्रचेताः सततम्‌ 
एकादशैते कथिताः 
एकादशक्षतायामाः 
एकादरारच भविता 
एकादशे तु त्रिशिखः 
एका छिङ्खं गुदे तिलः 
एका वंक्नकरमेकम्‌ 
एकावयवसू्माश्चः 


एकार्णवे ततस्तस्मिन्‌ "५ 


एकांरोन स्थितो निष्णुः 
एकेनांशेन ब्रह्मासौ 
एकंकमेव ताः कन्याः 
एकैकमस्वं शस्त्रं च 
एकैकं सप्तधा चक्रे 


एकोऽग्निरा दावमवत्‌ "^" 


एकोदिदष्टमयौ धर्मः 
एकोद्धिष्टविधानेन 
एकोऽष्यंस्तज दातव्यः 
एको वेददचतुर्धा तु 
एको व्याप समः शुः 
एकं तवैतदुभूतात्मन्‌ 
एकं वर्षसहस्म्‌ 

एकं स्वमग्रच परमं पदं यत्‌ 
एकं मद्रासनादीनाम्‌ 
एकः समस्तं यदिहास्ति 
एतत्ते कथितं ब्रह्मन्‌ 
एतद्राजासनं सर्वम्‌ 
एतन्मे क्रियतां सम्यक्‌ 
एतज्जजाप भगवान्‌ 
एतदुबरह्मप यस्यं वै 


अंशाः अध्या० शोकष्काः 


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३ 
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४५ 
३३ 
११ 
२८ 
७७ 





दटोकाः 
एतत्सर्वं महाभाग 
एतचिश्षम्य दैव्येन 
एतन वन्यच्च संकलम्‌ 
एतद्धिजानता सर्वम्‌ 
एतच्छुत्वा तु कोवेन 
एतदण्डकटाहिन 
एतदिवेकविज्ञानम्‌ 
एतस्मिन्परमार्थज्ञः 
एतत्त श्रोतुमिच्छामि 
एतद्ब्रह्म त्रिधा मेदम्‌ 
एतत्ते कथितं सद॑म्‌ 
एतन्मुने समाख्यातम्‌ 
एतच्च श्रुत्वा प्रणम्य 
एतदिन्द्रस्य स्वपदर 
एतद्धि मणिरत्नमात्म° 
एतच्च सर्वकालम्‌ 
एतदिच्छाम्यहं धतुम्‌ 
एतत्तवाखिलं मयाभिहितम्‌ 
एतद्विदित्वा न नरेण कार्यम्‌ 
एतसिमिस्तेन कलि तु 
एतदर्थं तु लोकेऽस्मिन्‌ 
एतन्मम मतं गोषा 
एतत्कृतं महेग्ेण 
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः 
एतत्पश्यामि ते रूपम्‌ 
एतत्सर्वं महाभाग 
एतस्मिन्नेव कलि तु 
एतदः कथितं विप्राः 
एतत्सर्वमिदं विश्वम्‌ 
एतत्ते यस्मयास्यातम्‌ 
एतत्संसारभीरूणाम्‌ः 
एताश्च सह्‌ यज्ञेन 
एता युगाद्याः कथिताः पुराणे `" 
एतानिनियोजयेन्छ्ादधे 
एतावन्मात्र मप्यशेष° 
एतान्यन्यानि चौद।र० 
एतान्यन्यानि चोप्राणि 
एतान्यशेषूपाणि 
एते चान्ये चये देताः 
एते भिन्नदृशां दैत्याः 
एते दनोः सुताः ख्याताः 
एतेषां पुत्रपौत्राश्च 
एते चान्ये च बहुः 


अंशाः अध्या० शछोकाद्काः 


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५८ 


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११ 
१६ 


इ्टोकाः 
एते कश्यपदायादाः 
एते सवे प्रवृत्तस्य 
एते द्वीपाः समुद्रस्तु 
एते शखास्तथा नद्यः 
एते चान्ये च नरकाः 
एते सप्त मया लोकाः 
एते वसन्ति वै चैत्र 
एते मया ग्रहाणां वै 
एते लूनश्िखास्तस्य ` 
एतेषां यस्य यो धर्मः 
एते नग्नास्तवाश्थाताः 
एते पाषण्डिनः पापाः 
एते वैशालिका भूभृतः 
एते क्षतरप्रसूताः 
एते च मयैव 
एते चात्मधर्मपरित्यागात्‌ 
एते क्ष्वाकुभूपालाः 
एते काण्वायनाद्च 
एते च तुल्यकालास्स्ं 
एतेन क्रमयोगेन 
एते चन्ये च भूपालाः 


एते वयं वुत्ररिपुस्तथायम्‌ ` 


एते यमास्सनियमाः 
एक्तौ हि गशजराजानौ 
एभिरावरणेरण्डम्‌ 
एरका तु गृहोता वै 
एवमत्यन्तवैशिष्टय९ 
एवमन्त्जले विष्णुम्‌ 
एवमुक्तस्तया शौरी 
एवमाज्ञापयन्तं तु 
एवमस्तु यथेच्छा ते 
एवमुक्ते तु कृष्णेन 
एवमव्यैस्तथा केशैः 
एवमादीनि दुःखानि 
एवमेष महाज्छन्दः 
एवमेतन्दवन्तोऽत्र 
एवमुक्तः पुनः सोऽथ 
एवमत्यन्तनिःश्रीके 
एवमुक्लवा सुरान्सर्वान्‌ 
एवमेकोनपञ्चाशत्‌ 
एवसेकाग्रचित्तेन 

एव मुक्वा ततस्तेन 
7 नात तै स्वे 


०११९ 


अज्ञाः अध्या०. शोकाः 


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२१ 
२२ 
२ 


२६ 
१६ 
६ 


१२९. 


२८ 
२१ 


१३१ 











इटोकाः 
एवमम्यदितस्तैस्तु 
एवमेव विभागोऽयम्‌ 
एवमेष जगत्वष्टा 
एवमेतन्मयाख्यातम्‌ 
एवमावर्तमानास्ते 
एवमेतत्पदं विष्णोः ` 
एवमुक्त्वामवन्मौनी 
एवमेकमिदं विद्धि 
एवमुक्त्वा ययौ विद्वान्‌ 


एवमेते त्रिशाच्चस्वार्यब्द० ` 


एवमेते मौर्य्य दश 
एवभनेकरातसदहुस्र° 
एवमुक्तः सोऽप्याह 
एवमेतज्जगत्सर्वम्‌ 
एवमुक्तो ददौ तस्मै 
एवमेव च काकत्वे 
एवमेवेति भूपतिः 
एवमुवाच च ममानावाया; 
एवमुक्तास्तादचाप्सरसः . 
एवमेव स्वपुरम्‌ 
एवमस्त्विति 

एवमस्त्वेवम्‌ 

एवं तातेन तेनाहम्‌ 

एवं तु ब्रह्मणो वर्षम्‌ 

एवं संस्तूयमानस्तु 

एवं संस्तूयमानस्तु 

एवं संस्तूयमानस्तु 

एवं संस्तूधमानस्पु 

एवं सर्वशरीरेषु 

एवं श्रीः संस्तुता सम्यक्‌ ` 
एवं ददौ वरं देवी 

एवं यदा जगत्स्वामी 

एवं पूवं जगन्नाथात्‌ 

एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तम्‌ -- ` 
एवं प्रभावस्स पृथुः 

एवं प्रचेतसो विष्णुम्‌ - -. 
एवं दु याशयाच्चिष्त° 
एवमेतन्महाभागाः 


एवं पुष्ठस्तदा पित्रा 


एवं सर्वषु भूतेषु 

एवं ज्ञाते स भगवान्‌ 

एवं सञ्विन्तयन्विष्णुम्‌ः" 
एवं प्रभावो ईैत्योऽपौ - ~ 


वलाः अध्या० शटोकाद्राः 


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२३५ 
१९ 
५०५ 
३२ 
४३ 
दद 
५९ 
२१७ 


१३ 
१४० 
१४२ 


:, इछोकाः - 

एवं विभज्य राज्यानि 

एवं प्रकारममलम्‌ , 

एवं द्वीपाः समुद्रश्च 

एवं यज्ञाश्च बेदारच 

एवं सा सात्विकी दाषितः ` 
चवं सा वैष्णवी शपतः ` 
एवं देवान्‌ धिते पक्षे `` 
एवं छत्रशलाकानाम्‌ 

एवं व्यवस्थिते तचे 

एवं न परमार्थोऽस्ति 

एवं विनारिभि्रषयैः 

एवं श्राद्धं तुधः कर्मात्‌ ` 
एव बुध्यत बुष्यध्वम्‌ 

एवं च मम सोदयं 

एतं च तयीरतोवोग्र° ` 
एवं देवासुराहवसंक्षोभ०' 
एवं तैरुक्ता सा तारा ` 
एवं च पञ्चाक्षीतिवर्ष० 
एषं च तस्य गर्भ॑स्य 

एवं दशाननत्वेऽप्यनङ्ख० ` 
एवै ययातिरापात्‌ः 


षुं चातिलुब्धकराजासषाः 


एवं संस्तूयमानस्तु 

एवं संस्तूयमाना सा 

एवे कृतस्वस्त्ययनः 

एतं त्वया संहरणेऽत्तमेततुं 
एवं नानाप्रकारामसु 

एवं दश्वा स तं पपम्‌ ` 
एवं भविष्यतीत्युक्ते 

एवं विधान्यनेकानि 

एवं दैत्यवधं कृष्णः 

एवं भविष्यतीत्युक्त्वा `" 
एवं तस्य मुनेः शापात्‌ `` 
एवं भवति कठपान्तं 

एवं सप्त महाबुद्धे 

एवं पशु्मैूहैः 

एवं निगदितार्थस्य 

एष पाषण्डसम्भाषत्‌ 

, एष चरर्भवत्या 

एष ब्रह्मा सहास्माभिः `` 
एष मे संशयो ब्रह्मन्‌ ` `` 
एष मन्वन्तरे सर्गः 

पएष स्वायम्भुवः सगं; ` 


१७१४ 


अंशाः अध्या शोकीद्काः 
१ ९२ 


१ 


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२९. 


३८ 


१० 
५३ 
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१४ 
२०५ 
१४ 
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१०४ 
. १६ 
२३ 
५५ 
१९ 


. १०८ 











श्टोकाः 
एष त्द्देशतो वंशः 
एष मोहं गतः कृष्णः 
एष रामेण सहितः 
एष कुष्णरथस्योच्चैः 
एष ते तनयः सुश्रु 
एष साम्बस्सपत्नीकः 
एष नैमित्तिको नाम 


एषा मही देव महीप्रषुतैः 


एषा वसुमती तस्य 
एषां सूतिप्रसूतिभ्याम्‌ 


एषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रः `` ` 


एषेष स्थमाशह्य 


. एद्येहि दुष्ट कृष्णोऽहम्‌ 


एनद्रभिन््रः परं स्थानम्‌ 
एेरावतेन गरुडः 
एिलीनस्य दष्यन्तात्‌ 
एेश्वर्यमददुष्टाःमन्‌ 
एेरवर्यस्य समग्रस्य 


- ओषधीषु प्रणष्टासु ` 


दका रत्रह्यंयुक्तम्‌ 
उकारो भगवान्‌ विष्णुः 
दभ्नमो वासुदेवाय 
उन्नमो वासुदेवाय 
उशनसो विष्णवे तस्मै 
नमः परमार्थं 
उ्पराशरं मुनिवरम्‌ 


भौत्तमेऽप्यन्तरे देव 
शीत्तानपादितपसा 
ओीत्तानपादे भद्रं ते 
ओरचिको मृगव्याधः 
ओौर्नगध्यैदच तथा 


भंशका्यपतकष्यस्तु 
अंशावतारो ब्रह्मं 
भंशेन तस्या जजञेऽसौ 


ककुद्मति 'हतेऽरिष्टे 
कंकुत्स्थस्याप्यनेनाः 


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अंशाः अध्या० शोकाद्कुः 


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२.४ 


१२२९ 
१६ 
२१ 
३१ 
२६ 


रोका 
क्भुस्तु पञ्चमः 
कच्िवत्सरति नः कृष्णः 
कच्चिन्ममेषां बहूनाम्‌ ` 
केच्वन्नु शूर्पवातस्य 
कञ्चिदस्मत्कुले जातः 
कटकमुकरुटकणिकादिभेदैः 
कण्टकैरिव तुन्नाङ्कः 
कण्डुर्नाम मुनिः पूर्वम्‌ 
कण्डूयनेऽपि चासक्षतः 
कण्डोरपत्यमेवं सा 
केण्वान्मेधातिथिः 
कथयामि यथापूर्दम्‌ 
कथमेभिरसद्वृत्तम्‌ 
कथय वत्से कस्यायमात्मजः 
कथमेष तरेन््राणाम्‌ 
कथाशरीरत्वमवाप यद्र 
कथितस्तामसः सर्गः 
कथितं मे त्वया सर्वम्‌ 
कथितो भवता वंशः 
कथितो भवता ब्रह्मन्‌ ` 
कथितं भूतलं ब्रहयन्‌ 
कथिता गुरुणा सम्यक्‌ 
कथिता मूनिशचादुल 
कथितं चातुयाक्नम्यम्‌ 
कथिते योगसे 
कथं मन्तरिष्वमात्येषु 
कथं ममेयमचला 
कथं गुद्धममभूदुत्रहमन्‌ 
कथ्यतां च दरुतं गत्वा 
कथ्यतां मे महाभाग 
कदस्नानि द्विजैतानि 
कदाचिच्छकटस्याधः 


कनकमपि रहस्यवेक्षय बुद्धधा `“ 


। कन्दमूरफङाहूाराः 
कंन्यापुत्रविवाहैषु 
कन्यान्तःपुरमभ्येत्य 
कन्यारच कृष्णो जग्राह्‌ 
कन्यापुरे स कन्यानाम्‌ 
कन्याद्वयं च धर्मञ्च 
कपटवबेषधारणमेत्र 
कपिकषिर्भगवतः 
कपिलादानजतितम्‌ 
कमलनयन वासुदेव विष्णो 


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अंशाः अध्या शोकाङ्कः 


२७ 
१४ 





दोक 
क्वाय च तेनोक्तम्‌ 
क एम्मबालुकावद्धि 9 
करालसौस्यरूपाटमन्‌ 
करूषरच पृषध्रश्च 
करिष्ये सर्वदेवानाम्‌ 
करिष्ये तन्पहाभाग 
करिष्यत्येष यत्कमं 
करीषभस्मदिग्वाद्धौ 
करेण केरमाकृष्य 
करोति चेष्टादहवसनस्वकूपी 
करोत्यहस्तया रात्रिम्‌ . . 
करोति है दैत्यसुताः 
करोत्येवंविधां सृष्टिम्‌ . .. 
कर्णद्वृषपैनः ` 
कणे दुर्योधनं द्रोणम्‌ . ,. 


कर्ता क्रियाणां सच इज्यते क्रतुः """" 


कर्ता शित्पसहल्ाणाम्‌ 
कर्दमस्यात्मजां कन्याम्‌ 
कमंमिर्माविताः पूर्वः 
कर्मणा जायते सर्वम्‌ . 
कर्ममार्गेण खाण्डिक्यः 
कर्मणा मनसा वाचां 
कर्मभावात्मिका ह्येका. 
कमवहया गुणास्ते 
कमं यज्ञात्मकं श्रेयः 


कर्माणि शव्रमरुदरिवशतक्रमूनाम्‌ 


कर्माण्यत्रावतारे ते 
कर्माण्यसद्धुहिपततत्फलानि 
क्षणाच्चासावपि 

कर्षता वृक्षयोर्मष्ये 
कर्षकाणां कृषिवृत्तिः "` 
कलततपुत्रमित्रार्थ० 
कखामुहूत्तादिमयश्च कालः 
कृलकाष्ानिमेषादि० "`" 


-कृलद्रयावशिष्टस्तु 


कलाक्राष्ठामुहूर्तादि° `` ` 


.कलाकाष्ठाजिमेषादि० `" 
, कृकिकलुषमटेन यस्य नात्मा ˆ“ 


कृलिकल्मषमल्ुग्रम्‌ 
कृलिस्साध्विति यसप्रोक्तम्‌ 
कलिद्खमाहिषमहे्र० ` 
कलिद्धराजं चादाय `` 
कलेस्स्वरूपं भगवन्‌ ` 


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२४ 
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अला; भध्याण शेकीद्कः 


८७ 


श्छोकाः 
करेस्स्वरूपं मैत्रेय 
कल्विरोपमोगयं हि 
कलौ ते बीजभूता: 


करौ जगत्पति विष्णुम्‌ ` 
कल्पान्‌ कत्पवि भागांश्च ` 


कंत्पादावात्मनस्तुल्यम्‌ 
कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यः 


कव्यं यः पितृहूपधृग्विधिहृतम्‌ "““ 
कयपस्य तु भार्यायाः 
कशश्वहध्यात्सगाङ्खयान्‌ 


कस्य माता पित्ता कस्य 
` कसिमिन्कालेऽत्पको धर्म 
काकपक्षधरौ बालौ 
 काचितप्रविषटसदुबाहुः 


काचिल्छृष्णेति कृणोति ` 


 काचिच्चावसथस्यान्ते 
`काचिदाखोकषय गोविन्दम्‌ ` 
काचिद्‌ भरुमङकुरं हृत्वा 
काचिदालोक्य गोविन्दम्‌ ` 
काटिस्यवान्‌ यो विभक्ति ` 
का त्वन्या त्वामृते 
कानिष्ठचं च्थैष्ठयमप्येषाम्‌ 
कान्त कस्मान्न जानासि 
कापि तेन समायता 
कामक्रोधभयद्वेष° 
कामल्पी महाखूपम्‌ 
कामगर्मा तथेच्छा त्वम्‌ ` 
` कामोऽवतीणं; पुत्रस्ते 

` कामः क्रोधस्तथा दर्पः 
काम्योदकभ्रदानं ते 

- कारणं कारणस्यापि 
कारूषा मालवास्चैव 
काततिकयां पुष्करस्नाने ` 
का्यकार्यस्य यत्कार्यम्‌ ` 

` कार्यमेतदकायं च 

ˆ काङस्वकूपं विष्णोश्च ` ` 
कालस्य नयने युक्ताः 
कारस्तृतीयस्तस्यांशः.' ` 
कालनेमिर्हृतो योऽसौ". 

-` कालस्वरूपी मगवान्‌' ` ` 

“ कालानलात्सुञ्जयः ` ` 

- काक्ियो दमितस्तोये ` `. 
कारे तत्राति प्राप्तम्‌ 


ग्ट ^< ^< < चट 6 .क न्ट > 4 ८ 5 5 की न्ट ऋ न 


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अंशाः अध्या० श्ोकाङ्काः 


१ ९ 
७ १४ 
२४ १२१ 
१ ५० 
१ ष्ठ 
छ २ 
५ १९ 
(् ४८ 
१५ १२६ 
३८ ६८ 
१ ५६ 
२ २ 
६ ३३ 
१३ ‰४ 
१३ १६ 
१३ २० 
१३ ४४ 
१३ ४५ 
१३ ४६ 
१४ रण 
९ १२२ 
१५ ८५ 
२० ६ 
१३ ३३ 
५ ५ 
३६ ९ 
२ ११ 
२७ ३० 
६ ३० 
११ ३७ 
९ ४९ 
॥ १७ 
२२ ८६ 
६ 4 
१८ १०५ 
३ ६ 
१५ ७८ 
२२ २५ 
१ २२ 
३८ ५८ 
१८ ३ 
१३ ४ 
१५ २२ 








दोकाः 
कालेन गच्छता तीतु ` ` 
कलेन च कृमारम्‌ 
कठेन गच्छतामित्रम्‌ 
कालेऽतीतेऽतिमहति 
कालेन न वितान्रह्या 
कालेन गच्छता सोऽथ 


कले धनिष्ठा यदि नाम तस्मिन्‌ '"" 


कालेन गच्छता राजा 
कारेन गच्छता तस्य 
कालेन गन्छता सौदासः 
कालो मेवाय भूतानम्‌ 
कालः क्रीडनकानां ते 
कालः क्रोडतकानां यः 
काव्यञ्ञापाच्चाकालिनैव ` 
कान्यालापार्च ये केचित्‌ 
काशिराजबलं चैवम्‌ 
काश्चिराजसुतैनेयम्‌ 
काशिराजश्च तामात्मजाम्‌ 
कारिराजस्य विधये 
कारिराजगो्रेऽवतीर्य 
क्रारिराजपल्न्यरच 

कारौ च भीमपेनात्‌ 
काद्यपदुहिता सुमतिः 
कादयपतनयायास्तु 
कारयपः संहिताकर्ता 
कायस्य काशेयः 
कादयाकाशगृत्समद० 
काष्ठाः पञ्चदशास्याताः 
काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव 
किङ्कराः पाक्षदण्डाश्च 
किङ्कुरस्समुपानीतम्‌ 
किञ्चित्परस्वं न हरेत्‌ ` 
किन्न रादन्तरिक्षस्तस्मात्‌ 
कित्निमित्तमसौ दस्त्र 


. किमनेनात्पसारेण 


किमयं मानुषो भावो 
किमत्रानुष्ठेयमन्पथा 
किमथं मथितः पाणिः 
किंमस्वाद्वय वा मृष्टम्‌ 


-किमादित्यैः फ वसुभिः 


किमिन्द्रेणात्पवीर्येण 
किमिदं देवदेवे 
किप्रिदमेकरदैव 


अंशाः भध्या० कोका 


५ 


४ 
१ 
१ 
१ 
र 
३ 
३ 
४ 
४ 
प्‌ 
१ 
१ 
४ 
१ 
५ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
द 
४ 
४ 
१ 
२ 
द 
प्‌ 
३ 
४ 
१ 
५ 
५ 
४ 
९ 
२ 
५ 
प्‌ 
५ 
४ 


६ 
१२ 
१२९ 
१७ 
२२९ 
१३ 
१४ 


१३ 


३५ 
३४ 
८५, 
२९ 
३६ 
३१ 
१६ 
६० 
११२ 


क्टोकाः 
किमेतदिति सिद्धानाम्‌ 
किमुर्यामिवनीपालः 
किरीटकुण्डकधरम्‌ 
किरीटहारकेयुर० 
करि करोमीति तान्सर्बाष्‌ 
क्रि चापि बहुनोक्तेन 
कि चाति बहुनोक्तेन 
किं त्वेकं ममैतद्दुःखण 
क्र देवैः कि दिजैवदैः 
कि देवैः किमनन्तेन 
किन पङ्यसि दुग्वेन. 
किन दृषटोऽमरपतिः 
किन वेत्ति यथाहं च 
क्रि त वेत्ति नुशंसोऽयम्‌ 
क्रि पुनस्तु संत्यक्ता 
कि मयात्र विषयमिति .. 
कि वदामि स्वुतावस्य 
कि वा सर्वजगत्ष्टः 
कि वुरकर्भक्नितो व्याघ्रः 
कि भान्तोऽस्यल्पमध्वानम्‌ 
कि हतुभिवंदत्येषा 
कीदुशं देवराज्यं ते 
कीर्त्यते स्थिरकीर्तीनाम्‌ . 
कुकु रभजमानशुचि° 
कुक रादधुषटस्तस्माच्च 
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि 
कुन्तेधुष्टधुष्टेनिधुत्तिः 
कुपितास्ते हारि हन्तुम्‌ 
कुमारं चायुषमस्प 
कु मुदरचोन्नतर्चैव 
कृ मुददशरदम्भांसि 
कुरुध्वं मम वाक्यानि 


कु रकषेतरे चाम्मोजसरस्यन्याभिक्ष्व 


कुरः पुरुः शतयुम्नः 
कुर्व॑तस्ते प्रसन्नोऽहम्‌ 
करुवतां याति यः कालः 

कु खलचक्रपर्यन्तः 
करुखालचक्रनामिस्तु 

कूरं शीर वयः सत्यम्‌ 
कुशस्थलीं तां च पुरीमुपेत्य 


कुशस्थलौ या तव भूप रम्या" 


कुशलो मन्दगस्चोष्णः 
कशस्या्तिधिः 


< € न ~ ७ ५ ~ ~ ^ न ~ ~ ७ ~ न न्न्‌ न्द्‌ ० ० ७ = न त न न + ~ ~ 
न्ट) 
ए 41 


अंशाः अध्याण श्ोकाद्रुः 
९ ६४ 
॥1 - 


नश््ि 











रोका 
कूटसाक्षी तथा सम्यक्‌" `` 
कूपेषूद्धृततोयेन । 
कूष्माण्डा विविर्षं रूपैः ` ` 
कृच्छ्रा च्चङ्क्रमणोत्थान० - 
कृतघ्वरजस्य पुत्रोऽभूत्‌ 
कृतसंवन्दनांचाह्‌ 
कृतङ्ृत्यमिवात्मानम्‌ 
छतसंवन्दनौ तेन 
कुतञ्जपाद्रगङ्जयः 
कृतश्रणिपातस्तवादिकिम्‌ 
कतवीर्यादजुंनः 
करतपादादिशौचस्तु 
कतकाकृतयो्मध्ये 
कृतमाला ताभ्रपर्णी 
छृतङ्ृत्योऽस्मि भगवन्‌ 
छर तक्रत्यमिवात्मानम्‌ 
कृतानुरूपविवाहश्च 
कृतावर्तात्तितस्तस्मात्‌ 
कृतावतंसस्स तदा 
कृ ताथाऽहमसन्देहः 
कृताच्चौग्रायुधः 
कृते युगे त्विहागम्य 
कृते छते स्मृतेविप्र 
कृते पापेऽनुतापो वै 
कृते युगे परं ज्ञानम्‌ 


कृतोद्यमौ च ताुभावुपकस्पर """" 


कृतोपनयनं चैनमीर्वः 
तौ सन्ति्टतेऽयम्‌ 
कृतीदुघ्व दैहिकं चैनम्‌ 
छृतं त्रेता द्वापरश्च 
कृतं व्रता यापर च 
छृतिकादिषु ऋषषेषु 
कृत्यां च दैत्यगुरवः 
कछत्यया दह्यमानांस्तान्‌ 
करत्या वाराणसीमेव 
इट्याकृत्यविघानज्चव 
करत्वा भारावतरणं 


कृत्वारितिहोत्रं स्वशरीरसंस्थम्‌ “"““ 


कृ राश्वस्य तु देवर्ष 
कृषिर्वणिज्या वद्रच्च ` ` 
फरष्णस्तानुरमुकान्दृ्वा 
कुष्ण कृष्ण हिय ह्येषः ` 
वःहण हिनल्मयाकाप् 


भ॑शाः अष्या० शोक्राद्ः 


२ ६ ७ 
३ ११ २५ 
१ १२ १२ 
९ ५ ३9 
६ ६ ८ 
द २ १५ 
ष्‌ १६ ४, 
५ श ३ 
४ २२ ७ 
` ४ १३ १६ 
४ ११ ११ 
` ३ ११ १०६ 
२ ७ २५, 
२ ३ १३ 
१ २० २६ 
१ १२ २ 
४ २ €६ 
१ ९ ९५ 
५ २५ १७ 
६ ८ ९ 
४ १६ ५३ 
` ४ २८४ ११९ 
“` २ ४६ 
२ ६ ३८ 
र ५५ 
४ १३ ८! 
* ४ ३ ३७ 
` ५ ३२ 
` ५ २१ ११ 
१ ३ १५ 
॥) १ ॥\ 
२ ९ १६ 
1 १६ ९ 
१ १८ ३८ 
५ २४ २३९ 
१ १९ ३१ 
५ ३७ ३ 
३ & ३२ 
१ १५ १३८ 
४५ १० २५ 
५ १५ १७ 
५ ९ २० 
क । 9 920 


"2 12 11१1 तनन्‌ 
कृष्ण कुष्ण सयुणुष्वेदम्‌ 
कृष्णस्तु तत्स्तनं गाढम्‌ 
कृष्णमगिलष्टकर्माणम्‌ 
कृष्णशिचच्छेद बाणैस्तान्‌ 
कृष्णरामौ विलोकयासीत्‌ 
कृष्णस्तीक्षखके भूयः 
कृष्णस्य ववृधे बाहुः 
कष्णरशारच्चद्रमसम्‌ 
कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ 
कृष्णाजिनं त्वं कवचम्‌ 
कष्णे निबेद्धहूदयाः 
कृऽ्णोऽपि बलभद्रमाह्‌ 
कृष्णोऽपि दविक्रोशमात्रम्‌ 
कृष्णोऽपि तं दधारेव 
कृष्णो हि सहितो गोभिः 
कृऽ्णोऽहमेष लखितम्‌ 
क्रुष्णोऽपि युयुधे तेन 
कृष्णोऽपि वसुदेवस्य 
छष्णोऽपि चिन्तयामास 
कृष्णोऽपि धातयित्वारिम्‌ 
कृष्णोऽपि बलभद्राय 


कृष्णोऽपि कुपितस्तेषाम्‌ 
कर्णो ब्रवीति राजाहुम्‌. 


कृष्यान्ता प्रथिता मीमा. 


केचिच्चतुर्ुगं यावत्‌ 
केचिद्धिनिन्दां वेदानाम्‌ 
केचिन्नीलोत्परदयामाः 
केचिद्रासमवगभिाः 
कैचित्पुरवराकाराः 
कैन बन्धेन बद्धोऽहम्‌ 
केवखात्मुधृतिरभूत्‌ 
केवलाद्बन्धुमान्‌ 

` .केशास्थिकण्टकामेध्य° 
कैरीघ्वजो विमुक््यर्थम्‌ 
-कैशिध्वज निबोध त्वम्‌ 
` करिनो षेदने तेन 
केशी चापि बलोषप्रः ` 


केशेष्व कृष्य विगरूत्‌° ` - 


कैवर्तवदुपुलिन्द० 


को धर्म॑; कष्च वाधः - 


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के नु स्वप्तस्सभाग्यामिः 


कोपं यच्छत राञनः `` ` 
कोपः स्वल्पोऽपि ते नास्ति 


कोऽयं कथमयं मलस्य 
कोऽयं विष्णुः सुद्ध 
कोऽयं शक्रमखो नाम 
कोशलन्ध्पुण्डुताम्न 
कौटिल्य एव वद्धरगुप्तम्‌ 
कोपीनाच्छादनप्रायाः 
कौरवाणां महीपत्वम्‌ 
कंसपतल््यस्ततः कंसम्‌ ` 


कसस्य रजकः सोऽथ . | 


कसस्तदोद्धिरनमनाः 
कसस्तूर्णमुपेत्यैनाम्‌ 
कंसस्य करदानाय 
केसश्च त्वामुपादाय 


कसस्तयोवंररथम्‌ 
कसाकंसवतीसूतनु° 
कसाय चाष्टमो गर्भः 
कसाय नारदः प्राह 
कंसे गृहीते कृष्णेन 


कषोऽपि कोपरतक्षः _ 


कंसोऽपि तदुपश्रुत्य 

कंसो नाम महाबाहुः 
कंसः कुवलयापीडः 

कः कैन हृन्यते जन्तुः 
क्रकचैः पारयमानानाम्‌ 
क्रतुर्भगस्तथोणयुः 

क्रथस्य स्तुषापुत्रस्य 
क्रमेण विधिवद्यागम्‌ 
क्रमेण तत्तु बाहुनाम्‌ 


क्रमेण येन पोतोऽघौ ,. . 


क्रमेणानेन जेष्यामः 


क्रियमाणेऽभिपेके तु 
तन्महाभागाः .... 


क्रियते कि वथा वत्स .. 
क्रियाहानिगहे यस्य 
क्रोडेन वत्सानाक्रम्य 
क्रोष्टोस्तु यदुपुत्रस्य 
क्रौञ्चद्वीपो महाभाग `^ 
कोञ्चद्ठीपे चुतिमतः `` 


ष्टोकाः 
क्रौञचदच वामनश्चैव 
क्रौञ्चद्वीपः समुद्रेण 
क्रौञ्चो वेतालिकस्तद्वद्‌ 
क्रौयंमायामयं घोरम्‌ 
केलेशादुक्रान्तिमाप्नोति 
क्वच त्वं पञ्चवर्षीयः 
क्वविद्वहन्तावन्योन्यम्‌ 
क्वचिद्गोमिस्तमं रम्यम्‌ 
कत्रचित्कदम्बस्क्चित्रौ 
कव नाकपु्गमनम्‌ 


भव निवासो भवान्विप्र ` 
क्व निवाभस्तवेदयुकतम्‌ 
क्व प्नगोऽल्पवोर्योऽयम्‌ 
क्व यौवनीन्मुखीमूत 

क्व शरीरमशेषाणाम्‌ 
वाथ्यतां तैलमध्ये च 
क्षणेन नामवेत्कर्ित्‌ 
कषणेन शार्खुनिमुक्तैः 
क्षणेनालइ्क्ृता पृथ्वी , 
क्षणं भूत्वा त्वसौ तुष्णीम्‌ . 
्षतरृद्ात्ुहोतः 
कषत्रवृद्धसूतः 

क्षत्रियाणामयं घर्म 

कषमा तु सुषुवे भार्या 
क्षराक्षरमयो विष्णुः 

क्षात्रं कमं हिजस्योकतम्‌ 
क्षारोदेन यथा द्वीपः 
क्षितितलपरमाणवोऽनिलान्ते 
क्षितेश्च भार्‌ भगवान्‌ 
क्षिप्तस्समुद्रे मत्स्येन 
क्षिप्तं वच्रमथेन्द्रेण 

क्षिप्तः समुद्रे मत्स्यस्य `. 
क्षीणश्ञस्तारच जगृहुः 
क्षीणासु स्वमायासु 
क्षीणाधिकारः स यंदा 
क्षीणं पीतं सुरः सोमम्‌ 
क्षीरमेकशफानां यत्‌ 

क्षी रवत्य इमा यवः 

क्षी रभ्धिः सर्व॑तो ब्रह्मन्‌ 
भीरान्धौ धी समुत्पन्ना ` ` 
क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै 

क्षी रोदमष्ये भगवान्‌ 


अंशाः अध्या० शोकाद्काः 


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४५ 
४६ 
४२ 
१८ 
२३ 
५६ 
६० 
६९ 
४८ 


१०४ 











श्टोकाः 
क्षीरोदस्योत्तरं कूलम्‌ 
क्षुत्कषामानन्धकारेऽथ 
्षुतृष्णोपक्ञमं तद्त्‌ 
्षुतृष्णे देहधर्मस्ये 
क्षु्यस्य तस्य भुक्तेऽन्ते 
क्षेत्रज्ञः करणी जानम्‌ 
्ेवजञाः समवर्तन्त 
क्षोभकारणभूता च 
क्षोभितः स तया सार्धम्‌ 
्ष्वेलमानौँ प्रगायन्तौ 


ख, 


खट्बाद्गादीघबाहुः 
खड्गमांसमतीवाच्र 

खसा तु यक्षरक्षांसि 
खाण्डिक्यजनकायाह 
खाण्डिक्यः कोऽमवदुत्रह्मन्‌ 
सपण्डिक्य संशयं प्रष्टुम्‌ 
खाण्डिक्यद्चाह्‌ तान्सर्वान्‌ 
खण्डिक्योऽपि पृनरदुष्ट्वा 
खाण्डिक्योऽपि सूतं कत्वा 
खप्ातिः सत्यथ सम्भूतिः 


ग्र 


गङ्गा शङ्खेति यैर्नाम 
गङ्गां शत्‌ यमुनाम्‌ 
गच्छत्वं दिव्यया गत्या 
गच्छन्तो जवनाष्वेन 
गच्छ पपि यथाकामम्‌ 
भच्छेदं ब्रूहि वायो त्वम्‌ 
गच्छैनं पितामहाय 
गजो योऽयमधो ब्रह्मन्‌ 
गजः कुवलयापीडः 
गजः कुवलयापीडः 
गृणास्त्वेते तदा मुख्याः 
गतै सपं परिष्वज्य 

गुते च तस्मिन्‌ भुप्तमेव 
भते सनातनस्य 

गते. शक्रं ते गोपाखः 
गतेऽनुगमनं चक्रुः 

गतेः तस्मिन्स भगवान्‌ 
ग्वा गत्वा निवर्तस्ते . 


अंशाः अध्या० शोकाङ्काः 


३ १७ १० 
१ ५ ४२ 
१ १७ ६० 
२ १५ २१ 
२ १४५ १९ 
& ७ ९४ 
१ ७ २ 
२ ७ ३१ 
१ १५ १३ 
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३ १६ द 
१ २१ २४ 
६ ५ ८१ 
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६ ६९ २५ 
६ ६ २८ 
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१ ७ २५. 


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ष्कोकाः 
गत्वा च बूहि कौम्तेयम्‌ 
गदतो मम विप्रषं 
गन्तकष्यं वसुदेवस्य 
गन्धर्वाप्सिरसक््चैव 
गन्धमादनकैलासौ 
गन्धर्वयक्षरक्षांस्ि 
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः 
गन्धर्वयक्षदैत्यायाः 
गमनाय महाभाग 
गयामुपेत्य यः श्राद्धम्‌ 
गरुढक्षतवाहश्च 
गर्डो वरुणं छत्रम्‌ 
गरड च ददर्शोच्चैः 
गरहत्सानपि तुण्डेन 
गर्गह्व गोकुले तत्र 
गर्माच्छितिः ततव 
गर्भजन्मजराज्ञान° 
गभ॑सद्कुरषणात्सोऽथ 
गभरच युवनाश्वस्य 
गभप्रच्युतिदोषेण 
गर्भवासादि यावत्तु 
गरभमास्मवधार्थाय 
गर्भेषु सुखलेशोऽपि 
गर्वमारोपिता यूयम्‌ 
गरवामेतक्छरतं वाक्यम्‌ 
गाण्डीवास्त्रेषु लोकेषु 


गायं गोष्ठयां द्विजं श्यालः 
गाधिद्व सत्यवतीं कन्याम्‌ 


गाधिरप्यतिरोषणाय 
गायत्तामन्यगोपानाम्‌ 


गायन्ति चैतत्पितरः कवा नु 
गायरित देवाः किर गीतकानि 


गायत्रं च ष्चर्चैव 
गावस्तु तेन पतता 


गावस्त्वत्तः समुद्धताः ` 


गावदश्षेख ततदचक्नः 
गास्तु वै जनयामास 


गिरितटे च सकलमेव ` ` 
गिरियज्ञस्त्वयं तस्माद्‌ ` ` 
गिरिमूर्धनि कृष्णोऽपि ` 
गीतादसाने च भगवन्‌ `` 


गीतं सनक्कूमारेण 
गीयमानः स॒ गोपीभिः 


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३७ 
२४ 
१९ 
१५ 

२ 


अंशाः अध्या० छोकाद्कुाः 


६२ 








ईछोकाः 
गुणसाम्यमनुद्रक्तम्‌ 
गुणप्रवृत््या भूतानाम्‌ 
गुणश्नयमयं ह्येतद्‌ 


गुणसाम्ये ततस्तस्मिन्‌ ˆ ` “^ 


गुणव्यञ्जनसम्भूतिः 


गुणा न चास्यं ज्ञायन्ते `` ` 


गुणाञ्जनगुणाधारण० 
गुरुदेवद्धिजातीनाम्‌ 

गुरूणामपि स्वेषाम्‌ 
गुरूणामग्रतो वक्तुम्‌ 
गृत्समदस्य शौनकर्च 
गृहस्थस्य सदाचारम्‌ 


गृहाणि च यथान्यायम्‌ . .. 
गृहन्ता द्रव्यष्ङ्काताः 


गहीत्वामरराजेन 
गृही तानिन्दियैरर्थान्‌ 


गृहीतनीतिशास्व' तम्‌ | 


गृहीतनीतिशास्वस्ते 


हलो बिष्ट विप्रः ` ` 


गुहीतम्राह्यवेददच 
गृहीतविद्यो गुरवे 
गृहीत्वा भ्रामयामास 


गृहीतास्तौ ठतस्तौतु 


गृहीत्वा ता हलान्तेन 
गृहीतचिह्ववेषोऽहम्‌ 

गृहीस्वा विधिवत्सर्वम्‌ 
गृहीता द्यु मिर्याकष्व 


गृह्धाति विषयान्नित्यम्‌ ` ` 


गोपुरीषभुपादाय 
गोकुल वसुदेवस्य 


गीत्रभेदमयाच्छकतोऽपि ` `` 


गोदाबरी भीमरथी 
गोपवुद्धास्ततः सर्वे 
गोपगोपीजैहुष्टैः 
गोपालदारकौ प्राप्त 


गोपांश्वाह्‌ ` हसज्छौरिः .. 


गोपाः केनेति केनेदम्‌ 
गोपीपरिवृतो रात्रिम्‌ 
गोपीकपोरसर्छेषम्‌ 
गोपैश्च पूर्ववद्रामः 
गोवेस्समानैस्सहितौ 


गोप्यश्च वृ्दशः कूष्ण° ` 


मोप्यस्त्वन्या सदस्स्यदच ` † ० 


अवाः अध्या शोकाङ्काः 


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१ 
१ 
१ 
१ 
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५ 
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५ 
५ 
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५ 
५ 
५ 
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21 


दछोकाः 
गोप्यः पप्रच्छुरपराः 
गोभिश्च चोदितः कृष्ण 
गोमेदश्चैव चन्द्र्च 
गोवाटमध्ये क्रीडन्तौ 
गौतमादिभिरनयैस्त्वम्‌ 
गौरवेणानिमहता 
गौरजः पुरुषो मेषः 
गौरी लक्ष्मीमंहाभागा 
गौरी करुमुद्रती चैव 
गौरीं वाप्यद्हेत्कम्याम्‌ 
गाः पारयन्ती च पुनः 
ग्रहक्षतारकाचित्रम्‌ 
ग्रहर्षतास्कागर्मा 
ग्रहक्षताराविष्ण्यानि 
ग्रहक्षतारकावित्र° 
प्रामखर्वटखेटाढचा 
ग्राम्यारण्या: स्पृता ह्येताः 
ग्राम्यौ हरिरयं तासाम्‌ 
प्राल्णि रत्नं च पारक्ये 


प, 


घृतमात्रं च ममाहारः 
घृताचीप्रमुलास्तस्याः 


चे, 


कर्षं पयां च तदा 
चकार सज्यं कृच्छाच्च 
चकार शद्भुनिर्घोषिं 
चक्रार यानि कर्माणि 
चकार संहिताः पञ्च 
चकार हृदि तादृक्‌ च 
चकारानुदिनं चासौ 
चक्रप्रतापतिर्दग्धा 
चक्रमेतत्समुत्पुष्टम्‌ 
चक्रवेत्तिस्वरूपेण 

चक्रे कमं महच्छीरिः 
प्क गदा तथा शाद्धम्‌ 
चधुदच पर्चिमगिरीन्‌ 
चड्ङ्गम्यमाणौ तौ रामम्‌ 
चचाराश्रमपर्यन्ते 
चतुयुगाणां संख्याता 
चतुर्दशगुणो ह्येषः 
चतुतिभागः संसृष्टौ 
चतराशोतिसाहश्ः 


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२ 
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अंशाः अरध्या० श्योकाद्गुः 


१२ 
११ 

७ 
१२ 
२१ 
१९ 


२९४ 














दकोकाः 
चतु्दशमहस्राणि 
चतुरगुणोत्तरे चोरध्वम्‌ 
चतुुंगाम्ते वेदानाम्‌ 
चतुदंशभिरेतैस्तु 
चतुरयुगेऽप्यसौ विष्णुः 
चतुर्धा स बिभेदाथ 
चतुष्टयेन भेदेन 
चतुथंश्वाश्रमो भिक्षोः 
चतुर्दशो भूतगणो य एषः 
चतुर्दश्यष्टमी चैव 
चतुष्पथं चैत्यतरम्‌ 
चतुष्पथाच्चमस्कुर्यात्‌ 
चतुर्थैऽह्ि च कतग्यम्‌ 
चतुर्णा यत्र बर्णानिाम्‌ 
चतुदष्टृन्गजांइच ग्रचान्‌ 
चतृयुंगसहस्ने तु 
चुयुंगसहस्रान्ते 
चतुर्थस्स्यादङ्धिरसः 
चतुःप्रकारतां तस्य 
चतुःपञ्वान्दसम्भूतः 
चत्वारिश्दष्टौ च 
चत्वारि त्रौणिद्वे चैकम्‌ 
चत्वारि भारते वें 
चपलं चपले तस्मिन्‌ 
चम्पस्य हुयंद्धः 
चम॑काशकुशेः कुर्यात्‌ 
चरत्स्वरूपमत्यन्तम्‌ 
चलितं ते पुनर््ह्य 
चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वम्‌ 
चाक्षुषे चान्तरे देवः 
चाक्षुषाच्चातिबल्पराक्रमः 
चाणूरोऽत्र महावीर्यः 
च।णुरमुष्टिको मल्लौ 
चाणूरेण ततः कृष्णः 
चाणूरेण चिरं कालम्‌ 
चाण्रे निहते मल्ले 
चान्द्रस्य तस्य युबनादवस्य 
चापाार्यस्य तस्यासौ 
चारयन्तं महावीर्यम्‌ 
चारुदेष्णं सुदेष्णं च 
चारुविन्दं सुचारं च 
चारुकरच चाकवर्मा 
चिक्षेप च शिकापृष्ठ 


अंशाः अध्या० शोकाद्काः 


२ २ २३० 
र्‌ ७ १४ 
२ २ ४५ 
३ २ ४९ 
मै २ ५४ 
३ र १७ 
३ ६ १९ 
३ ९ ३४ 
३२ ११ ५२ 
३२ ११ ११६ 
३ १२९ ११ 
३ १२ ३२९ 
३ १३ १४ 
३ १८ ४८ 
५ २९ ३२९ 
६ १ ६ 
६ द १४ 
३ ६ १४ 
१ २९२ ५४३ 
१ ११ ३४ 
५; २ १४ 
१ ३ १२१ 
२ ३ १९ 
२ १३ ३० 
४ १८ २१ 
३ ९ २० 
१ २२ ५७१ 
र्‌ ८ ८९ 
१ १५ १३४ 
३ १ ४१ 
1 १ २५ 
५ १५ ७ 
भ १५ १६ 
४ २२ ६ 
२० ७४ 
५ २०५ ८०५ 
४ २ ३७ 
३ {८ ५७ 
५ १९ ३ 
५ २८ 

५ २८ २ 
४ ३७ ४७ 
च ३ ९६ 


इटोकाः 


चिक्षेपस चतां क्षिप्ताम ` 


चित्ते च वित्तं च नृणां विशुद्धम्‌ 


चित्रसेनविचित्राद्याः 
चित्राद्धदस्तु बाल एव 
चिन्तयामास चाक्रूरः 
चिन्तयन्ती जगत्तिम्‌ ` 
चिन्तयश्निति गोविन्दम्‌ 
चिन्तयेततेन्मयो योगी 
चिरं नष्टेन पुत्रेण 

चीर्णं तपो यत्तु जलाश्रयेण 
चेरतुरखोकसिद्धा्भिः 
पवैतरकिम्पुरुषादयास्च 
चैत्यचत्वरतीर्थेषु 

चोरो विह पतति 
च्यवनात्सुदासः सुदासात्‌ 


छ, 
छत्रं यत्सलिख्घावि 
छायासंला ददौ रापम्‌ 
छायासंजञासुतो योऽप्तौ . , 
छिनत्ति वीरुधो यस्तु . 
छिक्ने बाहवे तत्त 

ज, 


जगदादौ तथा मध्यै 
जगतः प्रल्योत्प्थोः ` . 
जगदाप्यायनोदुभूतम्‌ 
जगत्सवित्रे सुचये 
जगदेतदनाधारम्‌ 
जगत्यथं जगन्नाथ 
जगदेतन्महादचर्य० 
जगदेतज्जगघ्चाथ 
जगतामुपकाराय 
जगाम वसुधा क्षोभम्‌ 
जगाम सोऽभिषेकार्थम्‌ 
जग्मुमुदं ततो देवाः 
जघान धरणीं पादैः 
जधान तेन निददेषान्‌ 
जञ्वार भगवांश्चोच्चैः 
जठरो देवकूटश्च 
जडानामविवेकानाम्‌ 


जतुगृहदग्धानां पाण्डुतनयानाम्‌ 


जनस्थैर्योगिभिर्देवः 


( ५७० ) 


अंशाः अध्यार शटोकाद्वुः 


५ १६ १७ 
प १४ २५ 
३ २ ४० 
४ २० ३५ 
५ १७ २ 
५ १३ २९ 
५ १८ १ 
` ६ ७ ८६ 
“` ५ २७ ३२ 
*" २ १२३ 
* ५ ९ द 
य १ १२९ 
,२३ ११ १२७५ 
४ ६ १४ 
४ १९ ७१ 
५ २९ १५ 
३ २ ५ 
३ २ १३ 
२ १२ १५ 
५ ३३ ३९ 


९ ११४ 


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बछोकाः 


जनलोकगतैस्सिदः 
जनश्रद्धेयमित्येतत्‌ 
जनकगृहे च माहैश्वरम्‌ 
जननाज्जनकसंज्ञाम्‌ 

जनके राजश्च 
जनमेजयस्यापि 
जनमेजय।त्सुमतिः 
जन्पन्यत्र महद्दुःखम्‌ 
जन्मदुःखान्यनेकानि 
जन्म बाल्यं ततः सरवे; 
जन्मोपभोगकिप्सार्थम्‌ 
जमदग्निरिक्ष्वाकवंशोःधवस्य 
जम्बूद्रीपं महाभाग 
जम्बुद्रीपे विभागांश्च 
जम्बद्ीपः समस्तानाम्‌ 
जम्बुप्लक्षाह्वयौ दीपौ 
जम्बूदरीपं समावृ्य 
जम्बूद्वीपस्य विस्तारः 
जम्बुवुक्प्रमाणस्तु 

जय गोत्रिष्द चाणूरम्‌ 


जयद्रथो ब्रहयक्षत्रान्तराल० 


जयध्वजात्तालजङ्घः 
जयाशिलन्ञानमय 


जयेश्वराणां परमेश केशव , “""" 


जरायुजाण्डजादीनाम्‌ 
जरासन्धस्य पुत्रः सहदेवः . 
जरासन्धसुते कंसः 
जरासन्धादयो येऽन्ये 
जराजर्जरदेहश्च 
जलधिद्धिज गोविन्दः 
जलदश्च कुमारङ्च 
जलस्य नाभिनिसंसर्गः 
जलाभिषेकः पुष्पैद्च 
जलचरा भूनिक्याः 

जहि कृत्यामिमामुम्राम्‌ .... 
जह्ौर्च सुमन्तुर्नामि .... 
जल्लोस्तु सुरथो नाम 
जातस्त्रैछोक्यविश्याते 
जातस्य जातकरमददि° 
जातस्य नियतो मृत्युः .... 
जातमात्रश्च भ्रियते 
ज।तिस्मरणत्वादुष्धिगनः. 


अंशाः अध्या० श्लोक 


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१७ 


ण न्वध † छ ~< ~> ऊ ल 


श्छोकाः 
जातुकर्णोऽभव्रन्मत्तः 
जातुकर्णेन चैवोक्तम्‌ 


जातेऽपि तस्मिन्नमिततेनोभिः `" 


जातेन च तैनाखिलम्‌ 
जातोऽसि देवदेवेश 

जातो नामैष कं धास्यतीति 
जानामि भारते वंशे 
जानाम्यहं यथा ब्रयन्‌ 
जानामि 5 पति शक्रम्‌ 


जानामि तैतत्वव वयं विलीने "^" 


जाम्बवतीं चान्तःवुरे 
जाम्बवानप्यमलपपिरत्व° 
जायमानास्तु पूर च 
जायमानः पुरीषासुक्‌ 
जितेष्वमुरसङ्धेषु 

जिते तस्मिन्सुदुतते 

जितं बलेन धर्मेण 

जित्वा त्रिभुवनं सर्वम्‌ 
जिद ब्रवीष्यहमिति 
जीर्यन्ति जीर्यतः केशाः 
जुषन्‌ रजोगुणं तत्र 
लुहुयादयञ्जनश्नार ० 
जुह्धानध्य ब्रह्मणो वं 
जुम्भक्ास्तरेण गोविन्दः 
जस्मामिभुतस्तु हरः 
जुम्मिते शङ्कुर नष्टे 
जैमिनि सामवेदस्य 

, ज्ञात्चतुविधो रारिः 
ज्षातमेतन्पया सवचचः 
जञात्तपेतन्मया युष्माभिः 
ज्ञातोऽसि देवदेवेश 
ज्ञात्वा प्रमाणं पुथ्न्यारच 
ज्ञात्वा तं वासुदेवेन 
ज्ञानस्वरूपमत्यन्त° 
जञानस्वरूपमखिलम्‌ 
जञानत्रयस्य वै तस्य 
ज्ञानमेव परं ब्रह्य 
ज्ञानस्वरूपो मगवान्यतोऽसौ 
जञानशपितबरश्वर्थ० 
ज्ञानपरवृत्तिनियमैकयमयाय पुसः 
ज्ञानात्मा ्ञानयोगेन 
ज्ञानात्मकस्यामरसतत्वरशः 


^ 


६ 3 


अंकाः अध्या कछोकाद्गाः 


६] 
२ 
८ 
१ 


१९ 
४९ 
१३ 
३३ 
१०५ 
५ ९ 
१९ 
११ 
५१ 
२६ 
६३ 


। 





रोकः 


ज्ञानं विशुद्धं विमलं विशोकम्‌ `“ 


जेया ब्रह्र्षयः पूवम्‌ 
उयेषठामृले सिते पक्षे 

जयेष्ठा मूषे सिते पक्ष 

ज्येष्ठं च राममित्याह 
उयोतिशटवापि विकरर्वाणम्‌ 
उ्योतिरत्पद्यते वायोः 
ज्योतिरा मनौपम्यम्‌ 
ज्योतिष्मान्दशमस्तेषाम्‌ 
ज्योतिर्धामा पृथुः काव्यः 
उ्योतींषि [वष्णुमुबनानि विष्णुः 
ज्योत्स्नागमे तु बलिनः 
ज्योत्स्ना राग्यहनी सन्ध्या 
उप्रोटस्ना लक्ष्मीः प्रतीपोऽसौ 
ज्योत्स्ना वासरा त्वम्‌ 
उ्वराक्षिरोगातीसार० 

उव लञजटाककापस्य 
उवाकछापरिष्कृताशेष° 
ज्वात्यतामसुरा बह्निः 


त. 


त्च विष्णोः परं रूपम्‌ 
त्च द्विधागतम्‌ 
तच्च पूत्रत्रितयमपि 
तच्च शूपमुत्फुल्लपग्र 
तञ्च दुचिना ध्रियमाणम्‌ 
त्च विपरीतं कर्वरा; 
तथ्च तथैवानुषठितम्‌ 
तच्च कलशसपरिमेय° 
तच्च ज्ञानमयं व्यापि 
तच्च त्रिमार्गपरिवृततः 
तर्च।स्य ्ातुशतम्‌ 
तच्चारिचक्रमपास्त° 
तच्वित्तविमलाह्लादण० 
तच्छरीराम्बरादिषु 
तच्छापाच्च भित्राव्णयौः 
तच्छिरः पतितं तत्र 
तच्छेषं मणिके पृथ्वौ 
तच्छरुल्वातत्रते गोपाः 
तच्छ सा यादवास्वं 
तज्जन्मदिनमतपर्थम्‌ 
तत्व निष्कराम्य 

इवासौ यगवातकथयत्‌ 


अंशाः अध्या० शोकदः 


१२९ 


1.81 
२३० 
३८ 


५४ 


दरोकाः 
ततरिचतास्थं तं भूयः 
ततस्सा पितरं तन्वी 
ततस्तु जनको राजा 
ततस्सा दिग्यया दृष्ट्या 
ततस्तु वैरवदेवास्यम्‌ """ 
ततस्स्ववर्णधर्मा ये 
ततश्च प्राह भगवान्‌ 


ततस्तु तत्पर ब्रह्म "" 


ततश्चुक्रोध भगवान्‌ 
ततस्ते जगुहू्दत्याः 
ततस्तमृषयः पूर्वम्‌ 
ततस्ते मुनयः सर्वे 
ततश्च मुनयो रेणुम्‌ 
ततस्तत्सम्भवा जाताः 
ततस्तावू चतुवि्रान्‌ 
ततस्तु नुपतिदन्यम्‌ 
तत उत्सारयामास 
ततस्तं प्राहु वघुधा 


ततश्च देवैमुनिभिः “" 


ततस्ते तत्ितुः श्रुत्वा 
ततस्तानाह भगवान्‌ 
ततस्तमूचुव॑रदम्‌ 
ततस्स साध्वसो विप्रः 
ततस्तैददातशो दैत्यैः 
तत्व मुत्युमम्थेति 
ततस्तं चिक्षिपुः सर्व 
ततस्ते सत्वरा दैत्याः 
ततरचचाछं चलता 
ततश्च भारतं वर्षम्‌ 
ततस्तमः समावृत्य “" 
ततश्व नरका विप्र 

ततद्च मिथुनस्यान्ते 
ततद्चाज्याहूतिद्ारा 

ततर्च तत्कालक्ृताम्‌ 
ततस्सौवौरराजस्य 

ततस्स ऋच उद्धृत्य 
ततश्च नाम कुर्वीति 
ततस्स्ववर्णधर्मण “" 
ततस्स भगवान्‌ किञ्चित्‌ 
ततश्चासौ विकृक्षिः "^" 
ततदच शतक्रतोः 
ततस्तु मन्धाता 


अंशाः अध्या० श्टोकाद्काः । 


८ (८ ०८ ० ९४ छ ल 6) ~€ ~< ८ „~€ ८) ~< ~< ~< ~< ~< ~< ~= ~< < =< ~< ~< < ~< ==> ~< ~ < ~< ~> ~< < ~= € चछ = ५ = ~ = छ 1 


१८ 
१८ 
१८ 
१८ 
१५ 
१३ 

१ 


( ५७२ †) 


९२ 
८७ 
८ 
६४ 
४९ 
२२ 
२८ 
२८ 
११ 
१०८ 
१५ 
२७ 
३० 
२३६ 
४ 
६९ 
८२ 
७२९ 
९० 
१२ 
५७ 
४८ 
३१ 
२४ 


५७ 





इ्छोकाः 
ततश्च पितु राज्यपिहृरणात्‌ 
ततर्चासमञ्जपचरित० 
ततस्तत्तनयारेच 
ततर्चोद्यतायुधा दूरात्‌ 
ततस्तेनापि भगवला 
ततस्सा ब्राह्मणो बहु शस्तम्‌ 
ततश्चातिकोपस्तमन्विता 
ततस्तस्य द्वादशाब्द० 
तत्व समस्तशस्त्राणि 
ततरच भगवान्‌ 
ततरचो्वंशीपुरूरवसोः 
ततश्चोन्मकत्तरूपो जाये 
ततस्तामुचौकः कन्याम्‌ 
ततर्चान्ये 
ततदच कुवलयनामानम्‌ 
ततर्च सत्यक्रेतुस्तस्मात्‌ 
ततश्च बहु तिथे काले 
ततस्तानपेतधर्माचारण० 
ततश्च स्वातिः. 
ततश्चाशुस्तस्माच्च 
तेतरचानमित्रस्तथा 
ततस्त्वस्प्मूत्तिधरम्‌ 


ततस्तमाताग्नोऽज्वलछम्‌ 
ततदचास्य युद्धचभानस्य 
ततस्तत्प्रदानादवज्ञातम्‌ 
ततरश्चासावानकदुन्दुभि° 
ततश्च तत्काठछकृतानाम्‌ 
ततस्तमेवाक्रोरोषु 
ततश्च सकलजगम्मह्‌ातरु० 
ततस्च पौरवं दृष्यन्तम्‌ 
ततरिचत्ररथः 

ततर्चस्पो यरचम्पाम्‌ 
ततद्च हर्यश्वः 
ततश्चोपरिचरो वुः 
ततर्चाशेषराष्टर विनाशम्‌ 
ततरच तम्‌चुर्बरह्मणाः 
ततस्ते ब्राह्मणाः 

ततस्च बुहुद्राजः 
ततश्च क्षुदकस्ततश्च 
तत्व सेनजित्ततर्च 
तत्तर्च' विश्ञाखयूपः 
ततश्च शिदुनामः 


अंशाः अध्या० 


०८ ० म न न न न न न ० ८ न्न न न < न न न ० < ०८ = न ८ = न न ८ ० णच न न न न न < न न < 


३ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
द 
द 
६ 
६ 
७ 
७ 


श्छोकौः 
ततदच नव चैताननन्दान्‌ 
ततच कृष्णनामा 
ततश्ष्चारिष्टकर्मा 
ततष्षोडशच शकाः 
ततश्चाष्टौ यवनाः 


ततश्च एकादश भूपतयः 


ततस्तत्पुत्रास््रयोदर 
ततश्च कोशलायां तु 
ततश्चानुदिनमल्पाल्प° 


ततश्चार्थं एवाभिजनहेतुः 


ततस्च खनित्रः 
ततश्च।तिविभूतिः 
ततरच नरः 

ततदच तृणचिन्दुः 
ततश्चालम्नुसा नाम 
ततश्शङ्कमुपाघ्मासीत्‌ 
ततस्तमस्तदेवानाम्‌ 
ततर्शरसहस्रेण 
ततद्शद्धमुपा्माय 
ततस्ते सादवास्सवें 


ततस्सकलचित्तज्ञाः 
ततस्तरिपादस्िकिराः 
ततस्स युद्धचमानस्तु 
ततश्च क्षान्तमेवेति 
ततस्समस्तसैन्येन 
ततस्तु केशवोद्योगम्‌ 
ततश्गाङ्खधतुमषतैः 
ततस्तद्रचनं श्रुत्वा 
ततस्तु कौरवास्साम्भम्‌ 
ततस्स वानरोऽभ्येत्य 
ततस्ते यौवनोन्मत्ताः 
ततस्ते यादवास्सर्वे 
ततरचास्योन्यमस्येत्य 
` ततश्चार्णव मध्येन 
ततश्च ददृशे तत्र 
ततस्तं भगवानाह 
ततस्ते पापकर्माणः 
-ततर्शरेषु क्षीणोषु 
ततस्मुदुःखितो जिष्णुः 
ततस्तितयमप्येतत्‌ 
ततस्सम्पूज्य ते व्यासम्‌ 


ततस्स भगवान्विष्णुः ` ` 


अंशाः अध्या० श्लोकाङ्काः 


क = न अल तल न्ट न्ट तल श्ल नल नल न्द च्ल च्ल ल= जल +ल श्ल < च+ जट चट न्त न्ट न्ट चल + न म ० = ० न न न = ५ । ०८ न न न न 


२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 
२४ 


( ५७३ ) 


९६ 
४४ 
४६ 
५२ 
५ 
५४ 
४५७ 
५६९ 


७२९ 











श्छोकाः 


ततस्तापपरीतास्तु 
तत्चापो हूतरसाः 
ततस्तु मूरुमासाद्य 
ततर्शब्दगुणं तस्य 
ततस्स मन्निभिस्ता्धम्‌ 
ततस्तमभ्मुपेव्याह्‌ 
ततस्सर्वं यथावृत्तम्‌ 
ततस्तौ जातहर्षौँ तु 
ततस्त्वान्दोलिकाभमिश्च 
ततस्तत्रातिरूक्षेऽपि 
ततस्तद्गोकू लं सर्वम्‌ 
ततरचन्द्रः 

ततस्च कृकशशादनो नाम 
ततश्च रथीतरः 

ततङ्च कृशाश्वः 
ततश्च सुमनास्तस्यापि 
ततस्चाभिषेकमङ्कलम्‌ 
ततश्च धृष्टकेतुः 
ततस्वैवमगायत 

ततश्च सेनजित्‌ 

ततश्व विष्वक्सेन 
ततश्च ऋक्षोऽन्योऽभवत्‌ 
ततस्ते पुन रप्यचुः 
ततस्सत्यजित्‌ 

ततस्त्वां शतदुकूचक्रः 
ततक्च दामोदरताम्‌ 
ततस्तमतिघोराक्षम्‌ 
ततस्समस्तगोपानाम्‌ 
ततस्तलप्रहारेण 
ततस्तां चिवुके शौरिः 
ततस्तुस्प्टुत्य वेगेन 
ततस्सान्दीपतनि काश्यम्‌ 
ततस्तस्याः सुवचनम्‌ 
ततस्स्नातस्य वै कान्तिः 
ततव पौण्डूकरश्रीमान्‌ 
ततस्तस्याः पिता गान्दिनी 
ततोऽर्जुनो धनुदि्यम्‌ `` 
तततो राजा हतां भुत्वा 
ततो गजक्ुलग्रह्याः 
ततो दश्ध्वा जगत्सर्वम्‌ ` ` 
ततो नि्दग्धवृक्षाम्बु 
ततो यान्यल्पसाराणि 


म 


त त क 9 क तट च च्ल न्द जल चद न्ट नल +< चल श्ट चल + < ० °< ० न ०८ न न च न न्घ ्८ न +< ~< += ~ मो 9 09 „क इ „9 


अंशाः अध्या० शोकाः 


< ०८ = ७ ~< ~< = ~= 0 > (त की कि ५८ ५८ ^ 


1 
4 


१६ 


तठ ४ ख ८४ मि 


२८ 
१८ 
२३ 
२७ 
६ 
३२९ 
२१ 


श्टोकाः 
तत्तो यष्टिप्रहुरणाः 
ततो लोभस्समभवत्‌ 
ततोऽनु लः प्रेतकार्यम्‌ 
ततोऽर््यमादाय तदा 
ततौ बलेन कोपेन 
ततो विध्वंसयामास 
ततो निर्यातयामास 
ततौ विदारिता पुथ्वी 
ततो ज्वाराकरालास्या 
ततो ह्‌।हाकृते लोके 
ततो बलेन महता 
ततोऽनिरुढमारोप्य 
ततोऽकंशतसडघात° 
तत्तोऽग्नीस्भगवान्पञ्चं 
ततो गरुडमारुह्य 
ततो हाहाकृतं सर्वम्‌ 
ततो दिशो नभरतैव 
चतो निरीक्ष्य गोविन्दः 
ततो ददर्श कृष्णोऽपि 
ततोऽनिरुढमादाय 
ततो हाहाकृतं सर्वम्‌ 
ततो बलः समुत्थाय 
तततो जहास स्वनवत्‌ 
ततोऽभिष्यायतस्तस्य 
ततो दशसहस्राणि 
ततो हर्षसमाविष्टौ 
ततो दुढसेनः 
ततोऽपरद्शतानीकः 
ततो भूतानि 
ततो वृकस्य बाहूर्योऽसौ 
ततीऽनवरतेन 
ततो मान्धातुनामा 
ततोऽवाप तया सार्धम्‌ 
ततो मैत्रेय तन्मार्ग° 
ततो दैवासुर युद्धम्‌ 
ततो दिगम्बरो मुण्डः 
ततोऽन्नं मृष्टमत्यर्थम्‌ 
तततो गोदोहमात्रं वै 
ततोऽन्यदन्नमावाय 
ततो यथासिलषिता 
ततो ननाश त्वरिता 
ततो गुसगृहै नालः 
तततो विलोक्य तं स्वस्थम्‌ 


धंलाः अध्या० शोकाद्काः 


५ ३८ १८ 
५ ३८ १३ 
५, ३८ ५ 
५ ३७ ५६ 
५ ३६ १९ 
५ २३६ ५, 
५ ३५ ३५ 
५ २३५ २१ 
प्‌ ३.४ 23 
५ ३४ २५ 
५ ३४ १५ 
५ ३३ ५२ 
५ ३३ २५ 
“५ दे २० 
““ ५ ३३ १२ 
५ ३० ६८ 
५. ३५ ५७ 
५. २३० ५५ 
५, ३० ३० 
५ २८ १८ 
५ २८ २६ 
५ २८ २३ 
५ २८ १५ 
१ ७ १ 
५ २८ १४ 
५ २७ ३१ 
४1 २३ ७ 
४ २९१ १४ 
४ ५ १९ 
४ २ २६ 
#1 २ १०५ 
४ २ ६१ 
३ १८ -९३ 
३ १८ ३५ 
३ १८ ३३ 
३ १८ ४ 
३ १५ १८ 
३ ११ ५६ 
४ ११ ४८ 
१ १२९ ८७ 
१ १३ ७५ 
१ १७ ५४ 
१ १६९ १५ 








दरोकाः 
ततो भगवता तस्य 
ततो दैत्यां दानवाडइ्च 
ततौ राज्यद्युति प्राप्य 
ततो मनुष्याः पचः 
ततो विवस्वानाद्यातें 
ततो व्यासो भरद्वाजः 
ततोऽत्र मत्पुतो व्यासः 
ततोऽनन्तरसंस्कार० 
ततोऽहं रक्षसां सतम्‌ 
ततोऽन्यं स तदा दध्यौ 
ततोऽ्वाक्लतप्तां सर्गः 
तततो देवासुरपितुन्‌ 
ततो दुर्गाणि च यथा० 
ततो ब्रह्यामसम्भूतम्‌ 
ततौ धन्वन्तरिदैवः 
ततो देवा मुदा युक्ताः 
ततो नेादानतीवोग्रान्‌ 
ततो तानातरिधान्नादान्‌ 
ततौ नहुषवंशम्‌ 
ततोऽस्य वितथे पुत्रजन्मनि 
ततोऽनन्दो 
ततो महानन्दी 
ततो विविशकः 
ततौ रधुरमवद्‌ 
ततो ब्रह्मा हरेदिव्थम्‌ 
ततोऽहं सम्भविष्यामि 
ततो ग्रहगणस्सम्यक्‌ 
ततोऽखिरजगत्पद्म° 
ततो बारघ्वनि श्रुत्वा 
ततो हाहाकृतं सर्वः 
ततो गावो निराबाधाः ` 
ततो धुते महाैले 
ततो ददुशुसयान्तम्‌ 
ततो गोप्यश्च गोपाङ्च . 
ततो विज्ञातसद्भावः 
ततो हादाछतं सर्वम्‌ 
ततो रामह्च कृष्णश्च 
ततो युद्धे पराजित्य 
ततो निजक्रियासूत्िम्‌ 
ततौ गोपाश्च गौपीर्च 
ततः पटे सुरान्देत्यान्‌ ` 
ततः प्रबुढाः पुरुषम्‌ 
ततः काले शुभे प्रप्त ` 


अंशाः अध्या० शोकाः 


१ १९ १९ 
१ १९ ६२ 
१ २० ३३ 
१ २९ ५९ 
२ र द 
य ३ १६ 
द ४ २ 
३ १० १९ 
१ १ १४ 
१ ५ १५ 
१ ५ २३ 
१ ५ ३० 
१ ६ १५८ 
१ ७ १६ 
१ ९ ९८ 
१ ९ ११२ 
१ १२ २५ 
१ १२ रष 
४ ९ २८ 
४ १९ १६ 
छ २४ ७ 
२४ १८ 
४ १ २६ 
1 ८४ 
५, १ ५३ 
५ १ ५१६ 
५ २ ् 
५, ४ #\ 
५, ३ २४ 
५ द ४, 
५ ८ १३ 
५ ११ २३ 
५ १३ ५४३ 
५ १६९ १७ 
५ १८ ४७ 
५ २० ६१ 
५ २२ ५ 
५ २२ ८ 
५ २३ ४५ 
५ [31 ८ 
५ ६२ २९ 
५ ३२ १६ 
५ ३१ १९६ 


५९ * >+।५। जबन्नात्ता ' + ३9 ५ ततः क्रृढ। गुहः ब्रा ३ ५ ८ 
ततः कोपपरीतासां ५ २८ १८ ततः प्रबुद्धो भगवान्‌ ३ २ ५२ 
ततः कदम्बात्सहसा "“ ५ २५ ६ ततः पुनः सवै देवः ३ १ ३७ 
ततः कलियुगं मत्वा ““ ५ २४ ५ ततः खन्ध समादाय २ १३ ५९ 
ततः कोपपरीतात्मा " ५ २३ २ ततः सा सहसा त्रासात्‌ २ १३ १५ 
ततः कुवखयापीडः “५ २० ३ ततः शङ्खगदाचक्र° ६ ७ ८८ 
ततः समस्तमञ्चेषु ५ २० २५ ततः समभवत्तत्र २ १३ १४ 
ततः पूरयता तेन ५ २० १६ ततः प्रभवति ब्रह्यत्‌ २ ८ ११० 
ततः प्रहूष्टवदनः ““ ५ १९ २२ तततः सप्तर्षयो यस्याः २ ८ ११२ 
तत्त प्रभाते विमले "“ ५ १८ १२ ततः प्रयाति भगवान्‌ २ ८ ५९ 
ततः प्रववृते रासः “ ५ १३ ५१ ततः भूयस्य तयम्‌ २ ८ ५२ 
ततः काल्नित्पियालावैः “५ १३ ४७ ततः करम्भं च मोनंच २ ८ १ 
तततः फलान्यनेकानि ““ ५ ८ १९ ततः पर हस्न्तीभिः २ ८ १९ 
ततः क्षणेन पृथिवी ५ ११ ७ ततः स॒ ससृजे मानाम्‌ १ १९ १७ 
ततः कुरु जगत्स्वामिन्‌ "““ ५ ७ ५७ ततः सदा भयत्रस्ता १ १८ ७ 
ततः प्रवेष्टितस्पर्पेः ५, ७ १७ ततः स दिगगजर्बालः १ १७ ५२ 
ततः क्षणेन प्रययुः ५ ६ २६ ततः सर्वासु मायावु १ १२ ३१ 
ततः कटकट।राब्द० “५, ६ १८ ततः सम्मन्पर ते स्वे ““ १ १३ ३१ 
ततः पूनरतीवासन्‌ ५ ६ प ततः स नुपतिस्तोपम्‌ १ १३ ५७ 
ततः क्षयमशेषास्ते ५ १ ६२ ततः प्रणम्य वुधा ““ १ १३ ५७७ 
ततः दुचिरथः ४ २१ ११ ततः प्रसन्नो भगवान्‌ १ १४ ३५ 
ततः परमसौ स्त्रोभोगम्‌ ४ ४ ६८ ततः प्रहस्य सुदती १ १५ २६ 
ततः केवलीऽभूत्‌ ४ १ ५२ ततः सोमस्य वचनात्‌ १ १५ ७३ 
ततः पुष्पमित्राः पटुमितराः ४ २४५ ५८ ततः प्रभृति वै भ्राता १ १५ १०१ 
तत. कण्वानेषा भूः ४ २४ ३८ ततः स कथयामास १ ६१ ३७ 
ततः प्रभूति शूद्रा भूपालाः ४ २४ २१ ततः प्रसन्नाः सूर्यः १ ९ १११ 
ततः कुमारः कृपः ४ १९ ६८ ततः पपुः सुरगणा; १ ९ ११० 
तततः प्रभृत्यक्रूरः प्रकटेनैव ४ १३ १६१ ततः स्मयित्वा स बलः ५ ३६ १६ 
ततः स्वोदरवस्वनिगोपित्त° ४ १३ १४५ ततः कालागिनिरुद्रोऽसौ ६ २ २४ 
ततः प्रस्फुरद्च्छ्वसितान्‌ ४ ६ ३३ ततः पार्थो विनिःश्वस्य ५ ३८ ५२ 
ततः परमधिणा ४ २ ९९ ततः स्तात्वा यथान्यायम्‌ ६ २ ९ 
ततः कोपपरीतात्मा ५ ३६ १५ ततः प्रहस्य तानाह “2 ६ २ ३२ 
ततः प्रबुद्धो रात्यन्ते ६ ४ १० ततः स॒ भगवान्‌ विष्णुः “ ६ ३ १६ 
ततः प्रणम्य वरदमू ५ ३३ ४ त्तः सङक्षीयमाणेषु १ १ १५ 
ततः कृष्णेन बाणस्य ५ ३१ ३१ ततः प्रीतः स भगवान्‌ १ १ २२ 
ततः काशौबलं भूरि ५ ३४ ४० | ततः समुरक्षप्यधरांस्वदष्ट्या १ ४ २६ 
ततः क्रद्धा महावीर्याः .. ५ ३५ ५ ततः चिति समां कृत्वा १ ४ ४७ 
ततः पुनरष्युस्पन्न° ४ १ ८० ततः स्वच्छन्दतोऽन्पानि १ ५ ४८ 
ततः किल्चिदवनतरियाः. ४ १ ७३ , ततः पुनः ससर्जादौ १ ५ ५९ 
ततः काकत्वमापन्नम्‌ ३ १८ ८० ततः कालात्मको योऽप १ ६ १४ 
तत; क्रोधन्यवायादीन्‌ "““ ३ ६५ १० ततः सा सहजा सिद्धि; “ ६ ६ १६ 





ङ्छोकाः 


ततः प्रभृति निःश्रीकम्‌ "" 
ततः शी तांगुरभवत्‌ “" 
ततः स्वस्थमनस्कास्ते 

ततः स्फुरतकान्तिमती 
तत्कथमस्मिन्नपक्राम्तेऽतर 
तहकर्मकर्तृतवं च 

तत्कथ्यतां महाभाग 

तत्कमं यन्न बन्धाय 

तक्किमेतन मधुरम्‌ 

तत्क्रमेण विवृद्धं सत्‌ 
तत्कषन्तन्यमिदं सर्वम्‌ 

तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण 
तत्तनयद्शरिविन्दुः 

तत्तनयो धूम्राक्षः 

तत्तनयस्पुदासः 

तत्तस्य हृदयं प्राप्य 

तत्तत्ववेदिनो भूत्वा “"" 
तत्तत्पात्रमुपादाप ^" 
तत्तनथो मरहिष्मान्‌  .. "^" 


तत्तु तालत्रत्ं पएक्व० 

तत्तु तावन दिव्यम्‌ 

तत्त्वया नात्र कर्तव्यः 

तस्वथा नात्र कर्तव्यम्‌ “ 
तदधित्रा तुं वसिष्ठवचनात्‌ 
तप्पुत्रश्च सुमित्रः ^" 
तस्पुत्र्च ऋनुपर्णः 

तत्पुत्रः सज्जयस्तस्यापि 


त्पुत्रौ जनकः “" 


तस्पुत्रः काकवर्णो भविता 
तदुत्रौ विधिसारः 

तत्पुत्रो जनमेजयः +^" 
तत्प्रमाणेन स दोषः 
-तसप्रसादितश्च तन्माघ्र 
तत्प्रसादविवद्ध॑मानः; ` "५० 
तत्प्रसौदाचिल्जगत्‌° “ 
तत्प्रमाणैः शतैः ष 
ततप्रसीदाभयं दत्तम्‌ 
-तल्प्रभावाच्च सकल ० ` ` 
तत्प्रमाणं चाङ्कुलेः कुर्वन्‌ 
तसय्रमया चोर्वी - 
-तत्प्रभावादध्युक्कृष्ट० 


अंशाः अध्या० कछोकाद्रूाः , 


१ 


< = = > ० ०८ च = ल < + ~ ७ ० न ~= ~< ~< 


न न्ट न न = ~= = न न छ = न न न्न न च न ~< ^< +< ज 


९ 


( ५७६ ) 


२६ 





शोकाः 
तत्र ज्ञाननिरोधेन ^" 
तत्र सर्वमिदं प्रोतम्‌ 
तत्र चागतभात्र एव तस्य 
तत्र चौपविष्टेष्वखिलेषु 
तत्र चाततिवलिभिरसुरैः """ 
तत्र चान्तजंले सम्मदः -" 
तत्र चरिषशिल्पकल्प० “^ 
तत्र कतिपयदिनाम्पन्तरे ॥ 
तत्र च सिहाद्धमवाप 
तत्र त्वखिलानामेव 
तत्र वे हिरण्यकरिपुः 


तत्र च कुमारः [सि 
तच पूञ्यपदार्थोकिति० ` 
तत्र वचोत्सृष्टदैदोऽसौ "^ 
तत्र ते वशिनः सिद्धाः ०० 
तत्र तावदपहुते 
तत्राग्यक्तस्वहपोऽसौ 


तत्ाप्यासच्न दूरत्वात्‌ 
तत्रापि पर्वताः सप्त 
तत्रापि देवगन्धर्व० ^" 
तत्रापि विष्णुर्भगवान्‌ “"" 


तत्रासते महात्मानः 

तत्रापि इवपचादिप्यः _. "^" 
तत्ाप्यप्तामर््ययुतः 

तत्रापि दुष्ट्वा तं प्राह "^" 
तत्राप्यनुदिनं वैखान 

तत्राग्नि निर्मथ्य "““ 
तत्रायं रलोकः 

तत्रािते कृते होमे 
तत्रानेकप्रकाराणि " 
तत्राल्पेनैव यत्तेन 

तत्राशक्तस्य मे दोषः "^" 
तवेश तव यत्परम्‌ । 
ततरैवावस्थिता देवम्‌ "" 
ततनैकाग्रमतिम्‌ त्वा -" 
तत्रैव तं कुशदरीपे 

तत्रैव चेदुभाद्रपदा तु पूर्वा 
तत्रैकान्तमत्तिभूत्वा 

तत्सवं श्रोतुमिच्छामः 

तत्सर्वं विस्तराच्छरला """ 
तत्सङ्धात्तस्य तामृद्धिम्‌ "^" 


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अदाः अध्या० श्लोकाद्काः 


२९ 
२९ 


४५२ 


ष्छोकाः 
तत्संज्ान्येव तत्रापि 
तत्स्मर्यताममेयात्मन्‌ 
तथा्भिध्परायतस्तस्य 
तथापि तुभ्यं देवेन्च 
तथपि दुं न भवान्‌ 
तथा चाहं करिष्यामि 
तथा तथैनं बाते 
तथा हिरण्यरोमाणम्‌ 
तथा पूयवहुः पापः 
तथा कर्मस्वनेकेषु 
तथा निञञायां राशौनामू 
तथा केतुरथस्याङ्वाः 
तथान्यैजन्तुभिर्भूष 
तथा त्वमपि धर्मज्ञ 
तथा चोपपुसणानि 
तधातिभ्ययशोटश्च 
तथा देवलकश्चैव 
तथा मातामहश्नाद्धम्‌ 
तथाप्यराह्िविष्वं्° 


तथापि केन वा जन्भ ` ` 


तथामवसोर्भीमनापा 
तथाप्यनेकह्पस्य 
तथान्ये च महावीर्याः 
तथा संस्या जगद्धात्रि 
तथापि खेद दुष्टानाम्‌ 
तथाप्यज्ञं जगत्स्वामिन्‌ 
तथा च कृतवन्तस्ते 
तथापि यो मनुष्याणाम्‌ 
तथा हि सजलाम्भोद० 


तथापि कन्चिदाकापम्‌ . 


तथापि यत्नाद्धुर्तारम्‌ 


तथाक्षिरोगातीसार० 
तथास्मा प्रहृतेस्सद्खात्‌ 
तथेति तद्‌ गुरुवचनम्‌ 
तथेव्युक्ते भत्पैरहोभिः 
तथेत्युक्ते चाक्नूरः 
तथेव्याह ततः कंसः 
तथेत्युक्त्वा बलदेवः 
तथेत्युक्त्वा च राजनम्‌ 
वथेप्युक्तस्ततस्स्नातः 
तथेति तानाह्‌ नृपान्‌ 
तथेति चोक्त्वा धरणीम्‌ 
तथेत्युक्त्वा च देवेन 


अंशाः अध्या शोकाद्गुः 


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६१ 
३३ 
१६ 
७९ 
२९ 
८१ 
५० 
१४ 








इोकाः 
तथेत्युक्त्वा तु सोऽप्येनम्‌ 
तथेत्युक्त्वा निदाघेन 
तथेति चोकते तप्र 
तथैव योषितां तासाम्‌ 
तथेत ्रहसंस्थानम्‌ 
तथैवालकनन्दापि 
तथोक्तोऽसौ द्विधा स्त्रीत्वम्‌ 
तथोदगयने सूर्यः 
तथोपमद्गुमुदामृदण 
तदन्वयाङ्च क्षत्रियास्सर्व 
तदहं श्रोतुमिच्छामि 
तदनेनैव वेदानाम्‌ 
तदन्तरे च भवता 
तदस्य वंशस्यातु° 
तदस्माकं प्रसीदेश 
तदन्वयाश्च क्षत्रियाः 
तदवगमाक्तिङ्धुमेतत्‌ 
तदम्मसा च 
तदनन्तरं प्रतिपाल्यताम्‌ 
तदहमिच्छामि 
तदहं तत्र तदाहुरणाय 
तदलमनेन जीवता 
तदन्यरशरणम्‌ 
तदपक्रान्तिदिनादारभ्य 
तदस्य त्रिविधस्यापि 
तदयमत्रानीयतामलम्‌ 


तदछं यदुरोकोऽ्यं बलभद्रः 


तदर्मेतेन तु तस्पै 
तदन्तरे स्थिता देवाः 
तदलं परितापेन 
तदस्य नागराजस्य 
तदरं सकलर्दवैः 
तदलं पारिजातेन 
तदग्निमालाजटिलण 
तदप्यम्बुनिधौ क्षिप्तम्‌ 
तदतीतं जगन्नाथ 
तदतीव महापुण्यम्‌ 
तदयमवतीर्णोऽसौ 
तदा हि दहते स्रवम्‌ 
तदाधारं जगच्चेदम्‌ 
तदा चन्द्रं विजानीयात्‌ 
तद( दानानि देयानि 
तदाक्ण्यंतं च 


५०० 


अंशाः अध्या० श्टोकाद्काः 


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१९ 
१५ 
१५ 
३६ 

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२२ 
३६ 
६ 


श्छोकाः 
तदाकण्यं च भगवते 
तदा प्रवृत्तश्च कलिः 
तदाकण्यं राजा साम्‌ 
तदास्यातमेवेतत्‌ 
तदार्तरवश्रवणानन्तरम्‌ 
तदाश्चममुपगताश्च 
तदागच्छत गच्छामः 
तदा निष्कण्टकं सर्वम्‌ 
तदाप्नोत्यखिलं सम्थक्‌ 
तदिदं ते मनो दिष्टया 
तदिदं स्यमन्तकरत्नम्‌ 
तदियं त्वदोयापहाप्तना 
तदीक्षणाय स्वाध्यायः 
तदुम्रपेनो मुसलम्‌ 
तदुभयविनालात्‌ 
तदुकत्तिष्ठारुट्यतां र्थः ` 
तदुपभोगातिखेदयच्च 
तदेतदवगम्याहुम्‌ 
तदेभिरलमव्यर्थम्‌ 
तदेतत्कथ्यतां सर्वम्‌ 
तदेतद मयास्यातम्‌ 
तदेबमतिदुःखानाम्‌ 
तदेष तोयमध्ये तु 
तदेव सर्वमेवेतत्‌ 
तदेतदक्षरं नित्यम्‌ 
तदेवाफलदं कमं 
तदेत्दूवता ज्ञात्वा 
तदेव प्रीतये भूत्वा 
तदेतदुपदिष्टं ते 
तदेनमेवाहुमगिनि° 
तदेतत्समुदहामौति 
तदेनं विश्चन्धा 
तदेतं नातिदुरस्थम्‌ 


तदेतत्परमं घाम 

तदेतं सुमहाभारम्‌ 
तदेतत्कथितं बीजम्‌ 
तदेकावयवं देवम्‌ 

तदेव भगवद्वाक्यम्‌ 
तदंशभूतस्सवेषाम्‌ 
तद्गच्छत न मीः कार्या 
तद्गच्छबकमावात्वम्‌ 
तद्गच्छ घर्मराजाय 


[का ण 


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३ 
२४ 
६ 


( ५७८ ) 


अंशाः अध्या क्ोकाद्कुः 


७ 


१०७ 


५४ 
६४ 
४५ 
२४ 
३१ 





दरोकाः 

तदुर्शनाच्च तस्याम्‌ 
तद्धनुस्तानि सस्त्राणि 
तदुब्रह्म परमं नित्यम्‌ 
तद्ब्रह्म परमं योगी 
तवद्ब्रह्म तत्परं घाम 
तद्ब्रह्म तत्परं घाम 
तद्ब्रह्म परमं धाम 
तद्वानेव धारयितुम्‌ 
त द्स्मस्पर्शसम्मूत० 
तद्धूतुषु तथा तामु 
तद्ावभावमापन्नः 
तद्भूरिभारपीडार्ता 
तद्यथा सकल्जगताम्‌ 


तदये यदास्विनः केचित्‌ 
तद्रूपं विदवल्पस्य 
तद्रपप्रत्यया चैका 

तद द्वारोदकेम्परच 
तद्बान्धवाश्च 
तदुवृष्टिननितं सस्यम्‌ 
तनया भद्रविन्दा्याः 
तक्नामसन्ततिसंज्ाश्च 
तन्तादश्रुतिसन््रस्ताः 
तन्तृनमस्य सकाशे 
तन्मम प्रीतये पुत्राः 
तम्मह्यं प्रणताय स्वम्‌ 
तन्माता च विर्वामित्रम्‌ 
तन्मात्राणां द्वितीयश्च 
तत्मात्राण्यवरिशेषाणि 
तपसस्तत्फल प्राप्तम्‌ 
तपङ्चरत्यु पृथिवीम्‌ 
तपस्तपस्यौ मधुमाधवौ च 
तपस्तप्यन्ति मुनयः 
तपसा कषितोऽत्यर्थम्‌ ` 
तपस्वी सुतपास्वैव 
तपस्यभिरतान्सोऽथ 
तपस्विव्यसनार्थाय 
तपसो ब्रह्मचर्यस्य 
तपांसि मम तष्टानि 
तप्तं तपो यैः पुरुषप्रवीरः 
तमप्याज्ञाप्य दृष्ट्वा च 
तमप्यसाधकं मत्वा 
तमतीव महारीद्रम्‌ 


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५ 


अंशाः अध्या० 


१; 
३८ 


श्टोकाः अंशाः अध्या० शटोकाङ्काः 
तमालोक्य सर्वयादवानाम्‌ "५ १३ १४९ 
तमालोक्यातीव बलभद्रः 


४ १२ १५० 
तमाह्‌ रामं गोविन्दः ५ ९ २२९ 
तसापत्तन्तमालोक्य द ६ २१ 
तमुपायमशेषात्मन्‌ ३ १७ ५४० 
तमूद्यमानं वेगेन २ १३ १६ 
तमूनुस्सकला देवाः ३ १७ ३६ 
तमूचु्मन्तरिणो राज्यम्‌ द ६ ४५ 
तमूचुः संशयं प्रष्टुम्‌ ६ २ ११ 
तमूचुम॑न्त्रिणो वध्यः ६ ६ २७ 
तमोद्रेकौ च कल्पान्ते १ २ ६३ 
तमो मोहो महामोहः १ प्‌ ५ 
तया चा्धिष्ठितः सोऽपि २ ११ १५ 
तया तिरोहितत्वाच्च ६ ७ ६२ 
तया जधान तं दैत्यम्‌ ५ २७ २० 
तया सह च चावनिपतिः ॥: ६ ४८ 
तया विलोकिता दैवाः -* १ ९ १०६ 
तया च रमतस्तस्य १ १५ २३ 
तयापि च सर्वमेतत्‌ ४ २ १०९ 
तया चैवमुक्तः " ४ १३ ७५ 
तयेवं स्मारिते तस्मिन्‌ " ३ १८ ७० 
तयैवमुक्तः स मुनिः १ १५ १५ 
तेयैवमुक्तो देवेशः १ १५ ६७ 
तयैव देव्या रव्याहम्‌ “ ४ १२ २२ 
तयोविहरतोरेवम्‌ “ ५ १० १ 
तयोरिषद्रान्तरम्रपमुः प्‌ ९ ११ 
तयोदचायं इकः ४ १३ ४ 
तयोश्च परस्परम्‌ ४ १६ ५६ 
तयोरुत्तानपादस्य १ ११ २ 
तयोश्च तमतिभीषणम्‌ “" ४ ४ ६० 
तरत्यविद्यां वितताम्‌ “ ५ १७ १४ 
तर्वल्कलप्णंबीर० ४ ४ ९६ 
तत्लप्सुरसुरस्तत्र #। ९ ९ 
तवाष्टमुणसेदवर्यम्‌ ५ ७ ६१ 
तवोपदेशदानाय “ २ १६ १७ 
तस्मादुक्षीनरतितिक्ष्‌ “ ४ १८ ८ 
तस्पाच्च महामनाः “ ४ १८ ७ 
तस्मारमहाश्ालः „ “ ४ १८ ६ 
तस्मादपि सञ्जयः " ४ १४ ३ 
तस्मादुदाना ४ १२ ८ 
तस्माद द्रषेण्यः ““ ४ ११ १० 
तस्मादेतामहं त्यक्छा ४ १० २९ 
तस्माद्धिरण्यनाभाः (र । ४ १०७ 





ष्छोकाः 
तस्माच्च खट्बराङ्खः 
तस्मादसमञ्जसात्‌ 
तस्ाद्धारीतः 
तस्मात्पाषण्डिभिः 
तस्मादेतान्नरो नग्नान्‌ 
तस्मासपरिश्रिते कुर्यात्‌ 
तस्मादस्पर्चयेतप्ाप्तम्‌ 
तस्मात्प्रथममतोक्तम्‌ 
तस्मादुत्तरसंज्ञायाः 
तस्मात्‌ सत्यं वदेत्प्राज्ञ 
तस्म।त्स्वशक्त्या राजेन 
तस्मादनुदिते पूरये 
तस्मादत्तिथिपूजायाम्‌ 
तस्मात्सदाचारवता 
तस्माच्छंयास्यशेषाणि 
तस्मात्पार्थ न सन्तापः 
तस्माच्वया नरधेष्ठ 
तस्मादपि महाताप० 
तस्मान्नैनं हनिष्यामि 
तस्मादपि शान्तिः 
तस्मान्मृद्गलसुञ्जय० 
तस्मास्सहुदेवस्सहदेषात्‌ 
तस्मात्वा्वभौमः 
तस्पाहवक्तरस्तस्यापि 
तस्मादप्यधिसौमङ्कष्णः 
तस्मादवृष्णिमांस्तत्तः 
तस्प्राच्पोदथन उदयनात्‌ 
तस्मादु रश्नयस्तस्माच्च 
तस्मात्सहदेवः 
तस्मादर्भकः 
तस्माच्चौदयनः 
तस्मादपि नन्दिवर्धनः 
तस्माल्पुज्येष्ठस्ततः 
तस्माहैवभूतिः 
तस्मात्पुलोमाचिः 
तस्माच्चे्षुषः 
तस्माच्च खनिने्ः 
तस्पादप्यविक्ित्‌ 
तस्माच्च दमः 
तस्माच्चन्द्रः 
तस्माच्च निकुम्भः 
तस्पाच्च प्रसेनजित्‌ 
तस्मादप्यजः 


अंशाः अध्या श्टोकाङ्कः 


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२४ 


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श्छोकाः 
तेस्माच्चाणुहः 
तस्माहवात्तिथिः 
तस्माच्च क्षेमकः 
तस्मात्सुबलः 
तस्माद्िदवजित्‌ 
तस्माद्बषषु च परः 
तस्मासप्रावृषि राजानः 
तस्माद्गोव्धंनश्योलः 
तस्मादहं भव्तिविनस्रचेताः 
तस्माद्‌दुगं करिष्यामि 
तस्माइवद्धिस्सवस्तु 
तस्माच्चरेत वै योगी 
तस्मान्न विक्चानमुतेऽस्ति किञ्चित्‌ 
तस्मात्प्रात्तस्तनात्काला्‌ 


तस्मात्समस्तरक्तीनाम्‌ 
तस्मात्ततप्राप्तये यत्नः 
तस्मान्माध्याह्भिकात्कालात्‌ 
तस्पान्नोर्लङ्घनं कार्यम्‌ 
तस्माच्छुक्ला मवन्त्यापः 
तस्मादिश्युत्तरस्यां वै 
तस्माद्दुःखात्पकं नास्ति 
तस्मादहर्निशं विष्णुम्‌ 

तस्माच्च सूक्ष्मादिविशेषणानाम्‌ `" 
तस्मा तेत पुष्पेषु "" 
तस्मात्परिःयजैनां त्वम्‌ 
तस्माद्‌बाल्ये विवेकास्मा 
तस्मालप्रजाविव्‌ द्वचर्थम्‌ 
तपस्पात्प्रजाहितार्थाय 
तस्माचदचय स्तोत्रेण 
तस्मात्स्वाहा सूर्तास्लिमे 
तस्मात्तु पुरुषादैवी 
तस्मात्ते दुःखबहुला 
तस्मिन्नण्डेऽमवद्विप्र 
तस्मिन्नेव महायज्ञे 
तस्मिन्‌ जाते तु मृतानि 
तस्मिन्घर्मपरे नित्यम्‌ 
तस्मिन्प्रसन्ने किमिहास्त्यरभ्यम्‌ 
तस्मिन्वसन्ति मनुजाः 

तस्मिन्चन्तरे षह वचश्च 
तस्मित्चशेषौजसि सर्व॑रूपि° 
तस्मिश्च विद्रुते 

तस्मिन्काले यशोदापि 
तस्सिन्नासभदैतये 


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अंशाः मध्या शछोकाङ्काः 


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१६ 
२० 
२१ 
२३ 
२३ 

४ 
१० 
१० 
१७ 
९१ 
३७ 
१३ 
१२ 


४१ 





श्टोकाः 
तस्मिन्काले समभ्यर्च्य 
तस्मे चापुत्राय 
तस्म त्वमेनं तनयां नरेन्द्र 
तस्य वं जातमात्रस्य 
तस्य शापभयाद्धाता 
तस्य शाखो विश्चाखक्च 
तस्य पुत्रास्तु चत्वारः 
तस्य प्रभानमतुलम्‌ 
तस्य पुत्रो महाभागः 
तस्य तद्धाव्रनायोगात्‌ 
तस्य तच्चेतसो देवः 
तस्य पुत्रा बभूवृस्ते 
तस्य पुत्रो महावीर्यः 
तस्य वीर्यं प्रभावश्च 
तस्य संस्पर्शनिर्धूत° 
तस्प तस्मिन्मृगे दूरः 
तस्य शिष्यौ निदाघोऽभूत्‌ 
तस्य मन्वन्तरं ह्येतत्‌ 
तस्य रिष्यप्रशिष्येभ्यः 
तस्य वै सप्तरात्रात्तु 
तस्य रेवती नाम 
तस्य पुत्रक्षतप्रधानाः 
तस्य च तनयास्समस्ताः 
तस्य चपुरघ्य 
तस्य च पुत्रपौत्रदौहित्राः 
तस्य च पुत्रैरधिष्ठितम्‌ 
तस्य बृहद्बलः 
तस्थ पुत्राथं यजनमुवम्‌ 
त्य चन्द्रस्य च बृहस्पतेः 
तस्य च धन्वन्तरेः पुतः 
तस्य च वत्सस्य 
तस्यच हर्यधनः 
तस्य हैहयहैहय° 
तस्य च इोकः 
तस्य च पुत्रशतप्रधानाः 
तस्य च शतसहस्तम्‌ 
तस्य च शितपु्नमि 
तस्य च विदर्भं इति 
तस्य च सत्राजितः 
तस्य ह्येदविधाः प्रभावाः 
तस्य च धारणक्टेरोनाहम्‌ 
तत्य च देवभागण० 
तस्य न्रश्थ)सर्णिः 


अंशाः अध्या० शेोकाद्कूः 


1.4 
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३६ 
३३ 
६२ 
५१ 
२२९ 
११६ 


११२ 


रोकः 
तस्य संवरणः 
तस्य च शान्तनो राष्ट 
तस्य च नन्दिवर्धनः 
तस्यच पुत्रः क्षेमधर्मा 
तस्य महापन्नस्यानु 
तस्य पुत्रौ भूमितः 
तस्य च हस्तः 
तस्य चार्मक दत्येवे 
तस्य पादप्रहारेण 
तस्य दपंबलं भङ्क्त्वा 
तस्य हषितशब्देन 
तष्य वाचंनदीसातु 
तस्य मायावती नाम 
तस्य स्वरूपमल्युग्रम्‌ 
तस्य चालम्बनवतः 
तेस्य क्रोधात्समुद्धत° 
तस्याभिष्यायतः सर्गः 
तस्यामिमानमूद्धि च 
तस्याश्चैवान्तरप्प्युः 
तस्यास्समन्ततश्चा्टौ 
तस्यात्मपरदेहेषु 
तस्याप्युत्कलगय० 
तस्याश्च सपल््या गभः 
तस्यापि भगवान्‌ 
तस्याद्मजः प्रसुश्रुतः 


तस्यापि शत्वजस्ततः कृतिः †““* 


तस्याकाशे नीयमानः 
तस्याप्यपह्ियमाणः 
तस्पाप्यायुर्धीमानम्‌ 
तस्याप्यजकस्ततः 
तस्याप्यलकंस्य 
तस्यापि वृष्णिप्रमुखम्‌ 
तस्यापि स्कमकवच० 
तस्यायमदयापि 
तस्यामयमक्गूरः 
तस्यापि सत्यकः 
तस्याजुने महाक्लेशः 
तस्या विवाहं रामाद्याः 
तस्याप्ाहुके आहुकी 
तस्यापि कतवर्भर 


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१९ 
२१ 
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१४ 


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( ५८१ ) 


अंशाः अध्या शटोकीद्काः 


७५ 








श्छोकाः 
तस्यापि हैमो हिमस्यापि 
तस्यापि धुतव्रतः 
तस्यापि मेधातिथिः 


तस्यापि नामनिर्वचनश्लोकः 
तस्यापि धुतिमांस्तस्माच्च 


तस्यापि देवापिशान्तनु° 
तस्पाप्युष्णः पुत्रः 
तस्यापि बलाकनामा 
तस्यापि क्षतौजाः 
तस्यप्यष्टौ सुताः 
तेस्यापि पत्रो बि्दुसारः 
तस्याप्यशोकव्रद्धनः 


तस्यापि बुहुद्रथनामा 


तस्यापि पृत्रः शान्तकणिः 


तस्यापि चाम्तकणिस्ततः 
तस्याप्यध्ययनं यन्नः 
तस्याप्येका कन्या 
तस्यामप्यस्य विशालः 
तस्यपि सज्जयोऽभूत्‌ 
तस्पाप्यम्बरोषः 


तस्यापि चाद्ो युवनाश्वः 


तस्यापि कुवलयाश्वः 
तस्यापि विदूरथः 
तस्यापि क्षेम्यस्ततद्चं 
तस्यापि रिपुञ्जयः 
तस्याञ्चातिमहाभीमम्‌ 
तेस्यामस्यामवत्पुत्रः 


तस्यापि रकरििणः पौत्रीम्‌ 


तस्यां च दिदुपालः 


तस्यां च मध्यरात्रौ 
तस्यांशरुमतो दिलीपः 


तस्यां चाशेषन्षत्रहुन्तारम्‌ 


तस्यां च पञ्च पुत्रान्‌ 


तस्यां चासौ क्रथर्कशिकसं्ञौ 


तस्यां चासौ दच्च पुत्रान्‌ 
तस्यां च धर्मानिलिन्ैः 
तस्यां च नाष॒त्यम्‌ 
तस्यां च दन्तवक्रो नाम 
तस्यां च सन्तर्दनादयः 
तस्यां जने च प्रटाभ््नः 


अंकाः अध्या० शोकाद्रूः 


~ ० न नल न ०८ न ८ च न्द्‌ न न्द > > > न न्द ८ न न न ० नल ० ~ ८ ८ न < १ ० < न च न < न ० म 


१५ 
१८ 
१९ 
१९ 
१९ 
२० 
२१ 
२४ 
२४ 
२४ 


१४ 


१२ 
२५ 


तस्यैव योऽनु गृणभुक्‌ 
तस्यैव कल्पनाहीनम्‌ 
तस्यैकक्षतं पूत्राणाम्‌ 
तस्यैतां दानवाश्चेष्टम्‌ 
तस्यैदंगुणमिथुनात्‌ 
तस्योत्सद्धं घनश्याम० 
तस्थोपरि जलौघस्थ 
तस्योदावपुः 

तस्योर्बों जातकर्मादि० ` 
तात यद्येकैकं गाम्‌ 
तातातिरमभीयः 


तातेष वद्भिः पवनेरितोऽपि 
तानि च तदपत्यानि 

तानि पञ्चदश ब्रह्मन्‌ 
तनिवाहं न पश्यामि 
ताद्दष्ट्वा याद्वानाहू 
तान्दृष्ट्वा जलनिष्क्रान्ताः ` 
तान्दृष्ट्वा नारदो विप्र 
ताक्निवायं बः प्राहू 
तान्यपि षष्टिः पुत्र 
तपित्रयेणाभिहतम्‌ 

ताभिः प्रसन्नचित्ताभिः 
ताभ्यां चापत्यार्थमौरवः 
ताभ्यां तद्टनमपमुगं कृतम्‌ 
ताभ्यां च नागराजाय 
तामग्रतो हरिरदष्ट्वा 
तामवेक्ष्य जनस्वासात्‌ 
तामध्य सं तत्याज 
तामसस्यान्तरे देवाः 
तामसस्यान्तरे चैव 

तामाह छलितं कृष्णः 
तामादायात्मनो मूध्नि 
तामात्मनः स शिरसः 
तामिस्मन्धतामिसम्‌ 
तारकाविमले व्योम्नि 
तारामयं भगवत्तः 
तालजङ्घुस्य तालजङ्खाष्यम्‌ 
तावच्च भगवच्चक्रेभाशु- 


तावच्च गन्धर्वरप्यतीवोञ्ज्वा ""“" 


तावच्च ब्रह्मणोऽन्तिके 
तावदेव च विस्तीर्णः 
तावस्सस्यैरहयरात्रम्‌ 
तावदात्तिस्तथा वाञ्छा. 


अथाः अध्या० श्कद्काः 


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र्टोकाः 
तावन्त्येव तु वर्षाणि 
तावस्प्रमाणा च निश्चा 
तावदत्र स्यन्दने भवता 
ता वार्यमाणाः पतिभिः 
तानुभावपि चैवास्ताम्‌ 
तादच सर्वा वसुदेव० 
तासामपत्यान्यभवन्‌ 
तासां चाप्सरसामुर्वश्ौ 
तासां रुक्मिणीसत्यभामा० 
तायु चाष्टावयुतानि 
तासु क्षीणास्वरेषासु 
तास्विमे कुरुपाञ्चालाः 
तां च भार्गवः 
तांच गान्दिनीं कन्याम्‌ 
तां च पाण्डुरवाहू 
तां चाक्रूरकृतवर्म° 
तां चान्तःप्रसवाम्‌ 


तां चामूतस्ाविणीम्‌ 

तां चापहयन्‌ 

तां तुष्टुवु्मुदा युक्ताः 

तां पिता दातुकामोऽभूत्‌ 
तां प्रकापवतीमेवम्‌ 

तां रेवतीः रवतभूपकन्याम्‌ 
तेदिचापि नष्टान्‌ विञाय 
तास्व स्वानिव कंसः 
ताँस्चिच्छेद हरिः पाशान्‌ 
ताः कन्यास्तांस्तथा नागान्‌ 
ताः पिबन्ति सदा हृष्टः 
तितिक्षोरपि सशद्रथः 
तिरोभावं च यत्रैति 


तिर्यक्छ्ोतास्तु यः प्रोक्त 
तिंहमनुष्यदेवादि० 
तिलगन्धोदकंर्युक्तम्‌ 
तिलस्सप्ताष्टमिर्वापि 
तिष्ठन्न मूव्रयेत्तद्रत्‌ 
तिः कोटय स्सहस्राणाम्‌ 
तुतोष परमप्रीत्या 

तुभ्यं पथावन्पेत्रेय 
तुरङद्कस्यास्य शक्रोऽपि 
तुलामेषगते भानौ 
तुल्यवेषास्तु मनुजाः ` 
तुषाः कणाश्च सन्तो 
वतु्टात्मनस्तृतीयस्तु 


अंशाः अध्या शोकाद्ुौः 


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१२९ 

२ 
१३ 
१३ 

६ 
१४ 
१५ 

६ 
१५ 
१५ 


३१ 
५० 
६६ 
५६ 
१०५ 
१६ 
१३६ 
६५८ 
२३५ 
३६ 
१७ 
१५ 
१२ 
१२५ 
२४ 
६५ 
२० 
६२ 
६२ 
१०१ 
६३ 
२२ 
६६ 
१०२ 
२७ 
१७ 
२३ 
१३ 
११ 
१६ 
२२ 
२३० 
२५ 
२७ 


टोका 


तुष्टने च पुनर्धीमिन्‌ 
तुष्टुवुिहते तस्मिन्‌ 
तृणबिन्दोः प्रसादेन 
तुणेरास्तीर् वसुधाम्‌ 
तीरमृत्तद्रसं प्राप्य 
तृतीये चोशना व्यासः 
तृतीयेऽष्यन्तरे ब्रह्मन्‌ 
तृप्तये जायते पुंसः 
ृप्ते्वेतेषु विकिरेत्‌ 
तृष्णा लक्ष्मीर्जगन्नायः 
ते उभे ब्रह्मवादिन्यौ 

ते कृष्णे यान्त्यशौचाश्च 
ते च यदुसैनिकास्तत्र 

ते च गोपा महद्दृष्ट्वा 
तेचापितेन 

तेजसा नायराजानम्‌ 
तेषसी भ।स्करागनेये 
तेजसो भवतां देवाः 
तेजोबलैश्वर्यमहावबोध० 
ते तस्य मुखनिःदवास० 
ते त्व ततश्चक्रुः 
तेतु तद्वचनं श्रुत्वा 
तेन दरेण तत्पापम्‌ 
तेन सप्तर्षयो धुक्ताः 
तेन सह्‌ कन्यान्तः० 

तेन च प्रोतिमतात्मपुत्र 
तेन व्यस्ता यथा वेदाः 
तेन प्रीणात्यशेवाणि 
तेन यजञान्यथाप्रोक्तान्‌ 
तेन वृद्धि परां नीतः 
तेन संप्रेरितं ज्योतिः 
तेन मायाहघ्रं तत्‌ 

तेन च क्रोध।श्ितेन 

तेन विक्षोमितश्चाभ्धिः 
तेन विप्र छृतं सर्वम्‌ 
तेनास्या गरभस्सप्तवर्षाणि 
तेनाविष्टमथात्मानम्‌ 
तेनाषटयातमिदं सर्वम्‌ 
तेनानुयातः कृष्णोऽपि . 
तेनातिपतता तवर 
तेनाप्युषिणा वरुणः 
तेनेयमशेषद्रोपवती 
तेनेयं दपित। स! 


१ 
् 


४ 
३ 
२ 
३ 
३ 
३ 
म 
१ 
१ 
९ 
४ 
भ्‌ 
४ 
१ 
र 
१ 
६ 
१ 
१ 
१ 
१ 
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४ 
४ 
३ 
२ 
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र 
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१ 
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५ 
५ 
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१ 
३ 
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५ 
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२०५ 


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२६३ 


११ 


१४ 
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१४ 
२३ 
१२ 
१३ 
२८ 
३७ 
३३ 
१९ 
२४ 
४७ 
२३ 
२० 
९१ 
२५ 











( ५८३ } 


यंशा: अध्या” शोकषाह्काः 


इटोकाः 
तेनेयं नागवर्येण 
तेनवोषतं पटद्ेदम्‌ 
तेनैव च भगवता 
तेनैष चाभिविधिना 
तेनैष मुखनिःरवास्त° 
तेनैव सह गन्तव्यम्‌ 
तेऽपि तच्लक्षणद्रव्य° 
तेऽप्यनयेषां तथैवोनुः 
तेऽ्य चुन वयं प्रियः 
ते ब्राह्मणा वेववेदानु 
तेभ्योऽपि नागगन्धर्व० 
तेम्थः पृत्॑तराश्च 
ते वाहयन्तस्त्वन्योन्य० 
तेषाभिन्धश्व भविता 
तेषामुत्सादतार्थाप 
तेषामभावे मौर्याः 
तेषामन्ते पृथिवीम्‌ 
तेषामपत्यं चिन्ध्यशश्रितः 
तेषामुदी्वेगानाम्‌ 
तेषां तु सन्ततावन्धे 
तेषां मध्ये महाभाग 
तेषां नस्तु सप्तैत 
तेषां वंशप्रसुतै्व 


तेषां स्वाभाविकी सिद्धिः 


तेषां गणक्च देवानाम्‌ 
तेषां स्वागतदानादि 
तेषां कुशाम्बः शक्रतुस्यः 


तेषां च बहुनि कौरिकगोत्राणि -.- 


तेषां च पृथुशवाः 
तेषां वृकदेवोपदेवा 
तेषां च प्रचुम्नवार्देष्णः 


तेषां प्रधानः काम्पिल्याधिपत्िः** 


तेषां यवीयान्‌ पृषतः ` 
तेषां च द्रौपद्यां पञ्चैव 
तेषां च बीजमूतानाम्‌ 
तेषां मुनीनां भूयर्च 
तेषु पुण्या जनपदाः 

तेषु दानवदैतेयाः 
तेषुत्सप्नेषु कङ्किलाः 
तेष्वहं मित्रभावेन ` 
वेष्वैषं निरपेक्ेषु 

, तै 'समेत्य -जगद्ोनिम्‌ 


अंशाः भव्या शोकाङ्काः 


४, ५ २७ 
र ९ ५ 
1 र २४ 
ट द ९३ 
१ ९ ८७ 
५ ३७ ६१ 
४, ७ ३४ 
३ २१ 
६ ६ १५ 
४ २० २५ 
६ ७ ६६ 
४ २४ १२५ 
५ ९ १५ 
र २ २५ 
४ १५ ४८ 
४ २४ २७ 
४ २४ ३३ 
४ २४ ५६ 
१ १३ ३२ 
१ १० १६ 
१ १५ १५५ 
र 1 १० 
र्‌ १ ४२ 
२ १ २५ 
४ २ १६ 
र ९ १५४ 
र ७ ९ 
1 ७ ३९ 
४ १२ ६ 
४ १४ १८ 
४ १५ ३७ 
४ १९ ४० 
४ १९ ७३ 
४ २०५ ४१ 
॥1 २४ १०० 
दै #\ 

#\ ४ ९ 
#\ ५ 1 
४ २४ ५५ 
१ १८ ४३ 
१ ७ १० 
१. ३२ 


श्छोकाः 


ते सम्प्रयोगाल्लोभ्य 
ते सुखप्रीतिबहुखाः 

` तै हि दुष्टविषन्कालाः 
तै प्ये कैकेन प्रस्याह्पातः 
तैरप्यन्ये परे तैश्च 
तैरस्याप्यतिऋलुमतैः 
तैरियं पुथिवी सर्वा 
तैरपीडा यथा चक्रम्‌ 
तैरुष्रीमांससम्मोगी 

` तैश्च गन्धर्ववौ यत्तैः 
तैव विमिश्रा जनपदाः 
तैश्वापि सामवेदोऽघौ 
तैश वोक्तं पुर्करत्साय 
तैस्तु दाद्शसाहसैः 
तैः षड्भिरयनं वर्षम्‌ 
तोयान्तःस्थां महीं ज्ञत्वा 
तोयानि चाभिषेकार्थ॑म्‌ 
तौ च मृगयामुपयात्तः 
तौ च दुष्ट्वा विकसद्रक्व9 
तौबाहुसचमे मृष्टिः 
तौ समुत्पन्नविज्ञानः 
तौ हत्वा वसुदेवं च 
तं कालयवनं नाम 
तं च पिता शशाप 
तं च स्यमन्तकाभिृषित्त० 
तं च भगवान्‌ 
तं चोग्रतपसमवलोक्य 
तं तत्र पतितं दुष्ट्वा 
तं तादुशमसंस्कारम्‌ 
तं तादुशं महात्मानम्‌ 
तं तुष्टुबु्तोषपरीतचेतसः 
तंतु ब्रहि महाभाग 
तं ददर्शं हरिदरुरात्‌ 
तं दृष्ट्वा साधकं सर्गम्‌ 
तं दृष्ट्वा ते तदा देवाः 
तं दुष्ट्वा कुपितं पुत्रम्‌ 
तं दुष्ट्वा गूहमानानाम्‌ 
तं दृष्ट्‌व महाभागम्‌ 
तं पाञ्चजन्यमापूयं 
तं पिता मूर््युपाघ्राय 
तं बालं यातनासंस्यम्‌ 


तं ब्रह्मभूतमात्मानम्‌ 


\ न्ट 


अगाः अध्याण शोकदः 


२ ८ ९५ 
१ ५ १३ 
1 ७ १३ 
० १० १४ 
“" ६ १८ १४ 
४ २० २२ 
१ २२ १५ 
र्‌ १२ २७ 
“ ३ ११ ११७ 
र ३ ५ 
४ २४ ७२ 
३ ६ `€ 

१ २ ९ 

६ २ ११ 

१ २ १० 

१ ४ ७ 

१ १३ ४३ 
४ १९ ६७ 
५ १७ २५ 
५ २८ ३२ 
५ २१ १ 
५ १५ १८ 

` ५ २३ ५ 
४ १० १२ 
४ १३ ४४ 

"` ५ ( ७ 
1 ७ १० 
५ ७ १८ 
२ १३ ४८ 
` २} १३ ५२ 
९ ४ ३० 

६ ७ २६ 
५ ३४ १६ 

१ ५ ८ 
“१ ९ ९७ 
१ ११ १२ 
५ ३८ ८० 
३२. १८ ६५ 
५ २१ ३० 
१ २० ३० 
२१ ३१ 

१ १२३. ५8 





दटोकाः 
तं वन्दमानं चरणौ 
तं विभुग्नचिरोग्रीवम्‌ 
तं वृक्षा जगुहूर्गभम्‌ 
तं सोणितपुरं नीतम्‌ 
तं सा प्राह महाभाग 
त्यक्ता सापि तनुस्तेन 
वरयरस्वरश्त्सहस्राणि 
त्रयो चार्ता दण्डनीत्ति° 
त्रयी समस्तवर्णानाम्‌ 
त्रयीधममसमुत्सर्गम्‌ 
व्रयोदश्ार्धमह्घा तु 
त्रय्यारुणेस्सस्यत्रतः 
त्रथ्यारूणः पञ्चदशे 
वरसस्थुतस्सम्भूतः 
व्रातास्तास्च त्वया गावः 
त्राहि त्राहीति मोषिन्दः 
त्रिकूटः शिरश्चैव 
त्रिगुणं तज्जगद्योनिः 
त्रिनाभिमति पञ्वारे 
त्रिभिः क्रमैरिमस्लिकान्‌ 
त्रिरपः प्रीणनार्थाय 
त्रिविधा भावना भूष 
त्रिविधोऽयमहङ्कारः 
व्रिशद्कोहुरिरचन्द्रः 
तरिश्पुद्खो जारुधिङ्चैव 
त्रोणि श्राद्धे पवित्राणि 
तरीणि लक्षाणि वर्षाणाम्‌ 
त्रिशषदागन्तु मेदिन्याः 
त्रिशत्कोटचस्तु सम्पूर्णः 
्ेतायुगमुखे ब्रह्मा 
नैराज्यमुषिकजनपदान्‌ 
्रैछोक्येश्च न ते युक्तम्‌ 
त्रैलोक्यनाथो योऽयम्‌ 
व्रैरोक्यं च धियाजुष्म्‌ 
त्रैरोक्ययज्ञभागादच 
त्रैलोक्यं त्रिदशश्ेष्ठ 
तरैरोक्यादधिके स्थाने 
व्ैलोक्याश्नयतां प्राप्तम्‌ 
तरैरोक्यसेतत्कथितम्‌ 
व्ैलोक्यमेतत्ृतकम्‌ 
व्ैरोक्यमखिलं ग्रस्त्वा 


न 2। 


५७१ 


81) 


9७१ 


[111 


अंशाः अध्या० शेोकाङ्काः 


ध ३८ ३६ 
[4 ७ ७ 
१ १५ ४९ 
१ ३३६ ११ 
१ १५ १४ 
१ ५ ३४ 
२ १२ ७ 
२ # ८४ 
३ १७ ६ 
३ १८ १३ 
१ ८ ४/० 
। ३ २१ 
द ३ १५ 
र ६ १७ 
ध १२ ९ 
५ १६ र 
२ २ २७ 
१ २ २१ 
२ ८ ४ 
र १ ४३ 
३ ११ २७ 
६ ७ ४८ 
१ २ ३६ 
॥1 ४, २५ 
र्‌ २ ४३ 
३ १५ ५१ 
1 २४ ११४ 
र्‌ ८ २९ 
१ ३ २० 
१ ५ ५१ 
४ २४ ६७ 
५ ३० ७९१ 
र २ २९ 
१ ९ १११५ 
५ १७ ३७ 
१ ९ १३८ 
१ १२ ९० 
१ १२ १०१ 
२ ७ ११ 

२ ७ १९ 
३ २ ५१ 


त्वत्तः छऋचोऽय सामानि 
त्वपपादादिदमशेषम्‌ 
त्वत्प्रसादानुनिषेष्ठ 
त्वत्प्रषादान्मया ज्ञातम्‌ 
स्वद्धृतं चास्य राष्ट्रस्य 
त्वद्धवितप्रवणं ह्येतत्‌ 
त्वदरूपधारिणशचान्त० 
त्वत्तो वृत्तिप्रदो धात्रा 
त्वन्मयाहं त्वद्याघारा 
त्वमाया्रूढमनसः 
त्वमजुनेः सहितः 
त्वमव्यक्तमनिर्देरयम्‌ 
त्वमन्तः सर्वभूतानाम्‌ 
त्वमासीर््राह्मणः पूर्वम्‌ 
त्वपूर्वी सलिरं वहिः 
त्वमेत्र जगतो नाभिः 
त्वया विलाकिता सद्यः 
त्वयादमुद्धृता पूर्वम्‌ 
त्वया देवि परित्यक्तम्‌ 
त्वया यदभयं दत्तम्‌ 
त्वया नाथेन देवानाम्‌ 
त्वया धृतेयं धरणी बिभति 
त्वयि भक्तिमतो हेषात्‌ 
त्वयैकेन हता भीष्म० 
त्वयोढा शिबिका वेति 
त्वयोक्तोऽयं ग्ल हस्सत्यम्‌ 
त्वय्पस्ति भगवान्‌ विष्णुः 
त्वर्यतां त्वर्थतांह ह 
त्वष्टाथ जमदग्निर्च 
त्वष्टा त्वष्टुश्च विरजः 
त्वष्टुरचःप्पात्मजः पुत्रः 
त्वष्टेव तेजा तैन 
स्वामनारध्य जगताम्‌ 
त्वामाराध्य पर्‌ ब्रह्य 
त्वामार््ताः शरणं विष्णो 
त्वामूते यादवाश्चैते 

त्वं कर्ता च विकर्तमंच 
त्वं कर्ता सर्वभूतानाम्‌ 

त्वं कर्ता सर्वभूतानाम्‌ ` 
त्वं किमेतच्छिरः फरिनु 
त्यं च शुम्भनिबुम्भादीन्‌'"' 


वि० पु० ७४-- 


१०२९ 








त्व पयानिधयदशल० 
त्वं प्रसादे प्रसन्नात्मन्‌ 


त्वंब्रह्मा पश्ुपतिरर्यमा विधाता `" 


त्वं भूतिः सन्नतिः क्षान्तिः 
त्वं माता स्वलोकान्‌ 
त्वं यज्ञस्त्वं वषटुक्रारः 
त्वं राजा शिबिका चेयम्‌ 
त्वं राजा सर्वलोकस्य 

त्वं राजेव द्विजघ्रेष्ठ 


त्वं विद्वनाभि भुवनस्य गोप्ता `" 


त्वं वेदास्त्वं वषटुकारः 
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्व्राहा 
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा विद्या 
स्वां पातु दिक्षु वैकुण्ठः 
त्वां योगिनरिचन्तयन्ति 
त्वां हृत्वा वसुधे बाणैः 


दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु 
दक्षिणस्यां दिशि तथा 
दक्षिणोत्त रभूम्यद् 
दक्षिणं दन्तमुत्पट्य 
दक्षिणं चोत्तरं चैव 
दक्षो मरीचिरत्रिश्च 
दत्तदानस्तु विषुवे 
दत्ताः पितुभ्यो यत्रापः 
दत्तो हि वाधिकस्सर्वः 
दत्वा च भिक्षत्रितयम्‌ 
दत्त्वा चैकां निशां तेन 
दत्वा तु भक्तं रिष्येभ्यः 
दस्वातिथिभ्यो विप्रेभ्यः 
दत्वा च दक्षिणां तेभ्यः 
ददं च मुगन्धाढयम्‌ 
दद्दा रामकृष्णौ च 
दद्धं तत्र चैवोभौ 


ददल्षं चादवसमवेतम्‌ 
ददाह सवनान्देशान्‌ 


ददौ यथामिलपिताम्‌ 


. ददौ सदश्च धर्माय 


ददौ च शिद्युपालाय 
ददृशे वारणं छत्रम्‌ 
ददुशे च प्रबुद्धासा 
ददुस्ते मुनि तत्र. 


< = = च्ल च्ल श्ल श्ल च्ल ४ ला -ध जु ल =< _~< ~< ~<= ~ +< ~< ~< ~ 


© ~> 2 न्द = = =< < ~< छ ~< ~ ~< < ~<= =< 


क नल न्द 


१२६ 


१०१ 


११९ 


रछोकाः 
ददुशुश्चापि ते तत्र 
दधानम्सते वस्त्रे 
दधिप्रण्डोदकरचापि 
दध्ना यवैः सबदरं: 
दष्यक्षतैस्सबदरेः 


दन्ता गजानां कुलिशागरनिष्ुराः"''' 


दमस्य पुत्रो राजवरधनः 
दमिते कालिये नागे 
दम्भप्रायमपम्बोधि 
दया समस्तभूतेषु 
दर्शानमात्रेणाहत्याम्‌ 
दर्शपाज्चक्गुर्वीर 
दशितो मानुषो भावः 
दक्ष चाष्टौ च सड्ग्रामम्‌ 
द्लक्षसंख्यारच 
दशयन्नसदस्ाणि 
दशमो ब्रह्मसावणिः 
दपञ्चमृहुतं वै 
दशपल्चतृहुतं वै 
दशसाहसरमेकैकम्‌ 
वरावर्ष पहक्षाणि 
दरावषंसह्षाणि 
दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यः 


दशाननाविक्षितराघकाणाम्‌ 


दशोत्तराण्यरेषाणि 
दशोत्तराणि पञ्चैव 
दशोत्तरेण पयसा 
दह्यमानं तु तेरदीप्तिः 
दह्यमानस्त्वमस्मामिः 
दातन्धोऽनुदिनं पिण्डः 
दानपते जानीम एवं वयम्‌ 
दानमेव धर्महैतुः 
दानानि ददयादिच्छातः 
दानं दद्य।जेरैवान्‌ 
दानं च दद्याच्ुदरोऽपि 
दामोदरोऽ्रौ गोविन्दः 
दाम्ना मध्ये ततो बद्ध्वा 
दाराः पुत्रस्तथागारण० 
दारिते मत्स्यजठरे 
दिगजा हिमपात्रस्थम्‌ 


( ५८६ ) 


अंशाः अध्या कोकाङ्काः 


न्द 


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७ 
१८ 


२३ 
३८ 


१३९ 











ष्कोकाः 
दित्याः पुवरहयं जज्ञ 
दिनानि तानि चेच्छातः 
दिनान्तसन्ध्ां सूयेण 
दिने दिनै कलाटेशैः 
दिष्टीपस्य भगीरथः 
दिलीपात्‌ प्रतीपः 
दिवस्पतिर्महावी्यः 
दिवसः को विना सूर्यम्‌ ` 
दिवातिथौ तु विमुखे 


“ दिवा स्वप्न च स्फस्दन्ते ` 


दिवानृत्पव्चमस्चात्र 
दिवाकररमयो यत्र 
दिवीव चक्षुराततम्‌ 
दिवोदासस्य पुत्रो मित्रायुः 
दिव्यमाल्याम्बरधरा 
दिव्यज्नानोपपन्नास्ते 

दिष्ये वर्षसहसते तु 
दिव्यैवर्षसहसैस्तु 


दिव्यं हि रूपं तव वेत्ति नान्यः“ 


दिशि दक्षिणूर्व्याम्‌ 
दिष्टपुत्रस्तु नाभागः 
दष्ट्वा दिष्ट्येति 
दीनामेकां परित्यक्तुम्‌ 


दीप्तिमान्‌ गावो समः ` 


दीप्तिमत्ताम्नपक्षा्याः 
दीर्घसत्रेण देवेशम्‌ 
दीर्धायु रप्रतिहतः 
दुरात्मा वध्यत।मेषः 


दुरात्मा क्षिप्यतामस्मात्‌ . 


दर्नीतमेतद्गो विष्द 
दुबु दे विनिवर्तस्व 
दुभिक्षमेव सततम्‌ 
दुभिक्षकरपीडाभिः 
र्वसोर्बद्धिरात्मजः 
दुर्वासाः शङ्धुरस्पांशः 
दुधिज्ञे यमिदं वक्तुम्‌ 
र्त्ता निहता दैत्याः 
दुष्टकालिय तिष्ठात्र 
दृष्टानां शासनाद्राजा 


दु्टेऽप् कस्मास्मम्‌ 


< न्ट ~> च्ल न 5 ~= न्द == = == ~= न्ट ५ = न न च्ल न्ट ~= ८ < ~= च्ल ~ल < ~ल 4 ८ न्द < न नल ~<= < ८ 


अदाः अध्याण श्टोकाद्काः 


[+ = 


० ५ „< 


१५ 
१३ 
११ 
१९ 


१४१ 
१२ 


रोका 
दुःखान्येव सुखानीति 
दुःखोत्तराः स्मृता ह्येते 
दुःखं यदैवैकद्यरीरजन्म 
दुःशीला दुष्टशीरेषु 
दुःस्वप्ननाशनं नृणाम्‌ 
दुतं च प्रेषयामास 
दुरतस्तैस्तु सम्पकः 
दुर्रणष्टनयनः 
दुरादावक्षथान्मूत्रम्‌ 
दरुरायतनोदकमेव ती्थहेतुः 
दुरे स्थितं महाभागम्‌ 
दृढादवाद्धयंद्ः 


द्‌ टाश्वचेन्द्रारवकपि लादवारच ""““ 


दृष्टमात्रे ततः कान्ते 
दृष्टमात्रदच तेनासौ 
दृष्टमात्रे च तस्मिन्नपहाय 
दष्टमूरथं हि यदहारि 
दृष्टस्ते भगवन्‌ 

दृषटुवा च स जगदुभूयः 
दृष्ट्रा निदाघं सं क्शुः 
दृष्ट्वा ममत्वादुतचित्तमेकम्‌ 
दुष्टूला गौपीजनस्सासः 
दुष्ट्वा कलिज्धराजं तम्‌ 
दृषा बस्य निर्याणम्‌ 
देवदर्ास्य शिष्यास्तु 
देत्रतिर्यडमनुष्ेषु 

देवदेवे जगन्नाय 
देवराजो भपानिन्द्रः 
देवराजो मुलप्रक्षी 
देवसिद्धासुसदीनाम्‌ 
देवरोकगति प्राप्तः 
देवकस्य सुतां पूर्वम्‌ 
देवभूति तु शुद्ध राजानम्‌ 
देवगरभस्थापि शूरः 
देववानुपदेवः सहदेवः 
देववानुपदेवश्च 
देवतापितृभूतानि 
देवषिपितुभूतानि 
देवर्षिपूजकस्सम्यक्‌ 
देव्रगोत्राह्यमान्सिद्धान्‌ 
देवताभ्यर्चनं होमः 
देवद्विजगुकूणां च 
देवताराधनं छस्व 


७ ७ व ७ ५ ७ ४ च न च न ~ल = ~= ~ ~ ~न ~ 


अंशाः अध्या० क्षोकाद्कूः 


५ 
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६ 
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१ 
२ 
1 
५ 
५ 
५ 
३ 


२३९ 
३५ 
१२१ 
३१ 
४२ 








रोकाः 
देवयानः परः पन्थाः 
देवपिपितुगन्धर्व० 
देवमातुषपदवादि° 
देव 'प्रपन्नात्तिहर 
देवदेव जगन्नाथ 
देवतियंडूमनुष्यादौ 
दैवषिपा्िवानां च 
देवत्वे देवदेहैऽयम्‌ 
देवावृधस्यापि 
देवापघुरे हता येतु 
देवापिर्बाल एषारण्यम्‌ 
देवापिः पौरवो राजा 
देवासुरे महायुद्धे 
देवा दैत्यास्तथा यक्षाः 
देवादिनिःरवासहतम्‌ 
देवासुरमभृद्युदधम्‌ 
देवा मनुष्याः पवो वयांसि 
देवापुरास्तथा यक्षाः 
देवादीनां तथा सृष्टिः 
देवा यक्षामुराः सिद्धाः 
देवा मतुष्याः पवः 
देवा; स्थावरान्ताश्च 
देवानां दानवानां च 


देवासुरसंग्रामम्‌ 

देवाः स्वगं परित्यज्य 
देविकायास्तटे वीर 

देवी जाम्बवती चापि 
देवैधिन्ञाप्यते देव 

देवैश्च प्रहितो वायुः 
देवैदच छन्दितोऽषौ 

देवो वा दानवो वा त्वम्‌ 
देवौ धातृविधातारौ 
देह्यनुज्ञां महाराज 
दैतेयाः सकलैः दकः 
दैत्यराज विषं वत्तम्‌ 
दैत्यदानवकस्यामिः 
दैत्येद्धदीपितो वद्धिः 
दैत्येसु दोपहृतम्‌ 
दैव्येश्यर न कोपस्य 
दैस्यैदवरस्य वधायाखिल० 
दैव्यः पञ्चजनो चाम 
दोषहेतुनशे षांश्च 
दौर्घद्यमेवावृत्तिहतुः 


अंशाः अध्या शेकाङ्काः 


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८ 
२२ 


१५ 
२५ 


दटोकाः 
दष्ट ग्रविन्यस्तमशेषमेतत्‌ 


दष्टा विशोर्णा मणयः स्फुटन्ति 


दंष्टिणरषृद्धिणश्चैव 
यावापुथिन्योरतुलप्रभाव 
द्युतिमन्तं च राजानम्‌ 


द्रक्ष्यामि तेषामिति चेत्धसूत्तिम्‌ """ 


द्रव्यनाशे तयोत्पत्तौ 
द्रव्यावयवनिदरभूनम्‌ 
हुमक्षयमथो दुष्टरा 
हृष्ोस्तु तनयो बभ्रुः 
हेादशवाधिक्यामनावृष्ट्याम्‌ 
हापरे दापरे विष्णुः 

हेापरे प्रथमे न्यस्तः 
हारकं च मया त्यक्ताम्‌ 
हारवत्या विनिष्क्रान्ताः 
दारवत्यां स्थिते कृष्णो 
द्वारकावासी जनस्तु 
दारवत्यां कव यातोऽपौ 
द्िजमीढस्य तु यवीनरसंजञः 
दिजशुधूषयेवेषः 
द्विजातिरसौधितं कर्मं 
द्िजारेच भोजयामासुः 
द्वितीयं विष्णु्स्य 
द्वितीयस्य पराद्धस्य 


द्वितीयोऽपि प्रतिक्रियाम्‌ 
द्विपराद्तिकः कालः 


दविपदे पृष्पुच्छद्धं 
दविषष्टिव्षाण्येवम्‌ 

हौपा द्वीपेषु ये शैलाः 
दे कोटी तु जनो लोकः 
दे चैव बहुपुत्राय 

व ब्रह्मणो वेदितष्ये 

टे ब्रह्मणी त्वणीयोऽत्ति° 
रे स्पे ब्रह्मणस्तस्य 

द्रे लक्षे चोत्तरे ब्रह्मन्‌ 
दे विये त्वमनाम्नाय 
दे वै विधे वेदितव्ये 


धनघान्यद्धिमतुखाम्‌ 
घनानामधिपः सोऽभूत्‌ 
घतुरमहमहायोग° 
धनुमंहौ ममाप्यत्र 
्न्वस्न रस्त रीत सः 


( ५८९ † 


अंशाः अध्या शोकाङ्काः 


१ 


१ 
पै 
१ 
र्‌ 
४ 
६ 


५ 


ह ¬ 


1 
१७ 
१९ 





श्छोकाः 

धरटित्रीपालनेनैव 
धर्मज्ञश्च कृतज्ञरच 
धर्ममर्थं च कामं च 
धर्मपल्न्यो दश त्वैताः 
धम॑भ्रुवाद्यास्तिष्ठन्ति 
धर्मध्वजो वै अनकः 
धर्माय च्यज्यते किन्तु 
धर्माधर्मौ न सन्देहः 


, धर्माधर्मौ न तेष्वास्ताम्‌ 


धर्मार्थकामैः कि तस्य 
धर्मार्थकापरमोक्षाद्च 
धर्म्म सत्यशौर्यादि० 
धर्मात्मनि महामाये 
धमे मनश्च ते भद्र 
धर्मो्कर्षमतीवाव्र 
धर्मो विमुक्तेरहोऽयम्‌ 
घर्मरिच ब्राह्मणादीनाम्‌ 
धर्माः पञ्च तथेतेषु 
धाता क्रतुस्थला चैव 
धाता प्रजापतिः शक्रः 
धाराभिरतिमात्राभिः 
धिक्ल्वां यस्त्वमेव 


धीमान्‌ ही मानक्षमायुक्तः 


धूतपापा शिवा चैव 
धृतराष्ट्रोऽपि गान्धार्याम्‌ 
धृतत्रतात्सत्कर्मा 
धृतकेतुर्दीप्तिकेवुः 

धृते गोवर्धने शैले 
धृष्टस्यापि घाष्टंकम्‌ 
धुष्टकेतोरहर्यद्वः 
धृतिमानन्ययस्यान्यः 
धेतुकोऽयं मया क्िप्तः 
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैः 
ध्यानं चैवात्मनो भूप 
धरुवस्य जननी चेयम्‌ 
भरुवसुर्यन्तिरं यच्च 
्रुवप्रह्वादचरितम्‌ 
ध्रुवमेकाक्षरं ब्रह्म 
घुत्राच्छिष्टिच भभ्यंच 
प्रुवादूष्वं महर्लोकिः 
घ्वजवच्ाङ्युशाबजाङ्गु 


तत फोर ' चैवाद्य 


ग्‌, 


अंशाः अध्या शोकाद्ूः 

८ २८ 
१३ ६२ 
१४ १६ 
१५ १०७ 


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लोकाः 
न कर्याहिन्तषद्धर्षम्‌ 
म कुत्सिताहूतं नैव 
तक्र ठैतन्ममास्यातम्‌ 


त कृष्टे सस्यमध्ये वा 

न केवलं ताति मम प्रजानाम्‌ 
न कैवलं मद्धुदयं स विष्णुः 
न केवट स्वैः शाक्तिः 

न कवं द्िजश्रेष्ठ 
नक्ताहूतमनुच्छि्तम्‌ 
नक्षत्रग्रहुपीडासु 
नक्षत्रग्रहुविप्राणाम्‌ 
नक्षत्रकल्पो वेदानाम्‌ 
नखादिना चोपपन्चम्‌ 
नखाङ्कुरमिनिभिन्न 
नगरस्य बहिः सोऽथ 
नर्नस्वरूपमिच्छामि 

नरनां परस्त्रियं चैव 

न घर्घरस्वरां क्षामाम्‌ 

न च करिचत्‌ च्रयोविशति° 
न च्छति निजवर्णधर्मतो यः 
न चान्यैरनीयते कंडिचत्‌ 

न चासौ राजा ममार 

न चापि सर्गसंहारण 

न चिन्त्यं भवतः किञ्म्ित्‌ 
न चिन्तयति को रान्यम्‌ 

न जातु कामः कामानाम्‌ 
न तदूबलं यादवानाम्‌ 

न तद्योगयुजा शक्यम्‌ 

न ताडयति नो हन्ति 

नताः स्म सर्ववचषाम्‌ 
नतुसा वाग्यता देवी 

न तु स तस्सिन्ननादिनिधने 
न तेषु वर्षते देवः 

न ते वर्णयितुं शक्ताः 

ने ते छोकेष्वसज्जन्त 

न त्यक्ष्यति हरेः पक्षम्‌ 

न त्वां करोम्यहं भस्म 

न त्वेवास्िि युगावस्था 

न त्वं वृको महाभाग 
नदस्वषूपी भगवान्‌ 
नदीनदतटाकेषु 
सदीर्मेत्रेयतेतत्र 


अंशाः अध्या० काद्र 


३ ६२ ९ 
३ ११ ५७९ 
३ ७ ३६ 
३ ११ ११ 
१ १७ रष 
१ १७ २६ 
२ ११ १२ 
९ ५ ५७ 
३ १९ १० 
३ १४ ६ 
१ २२ २ 
३ ६ १५ 
३ १६ १५ 
५ ५ १६ 
२ १६ २ 
३ १७ ४ 
३ १२ १९ 
३ १० १९ 
1 २४ ९७ 
३ ७ २० 
१ १७ ८९ 


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दरोकाः 
न दुष्टं दृष्टवाक्यां वा 
नद्यश्चात्र महापुण्याः 
नयो नदा: समुद्राश्च 
नद्यः समुद्रा गिरयः 
न द्वारबन्धावरणाः 
न नूनं कावीर्यस्य 
नन्दगोपादयो गोपाः 
नन्दगोपमुख। गोपाः 
नन्दगोपस्युदुनबुद्धिः 
नन्दगोपस्य वचनम्‌ 
नन्दगोपर्च गोप।इव 
नस्दगोपोऽपि निश्चेष्टः “"" 
नन्दिना सङ्गहीताश्वम्‌ 
नन्दोपनन्दकृतकाद्याः 
नन्दोऽपि गृह्यतां पापः 
नन्दं च दीनमत्य्थम्‌ 
न पपाठ गुरुप्रोक्तम्‌ 
न प्राधितं खया कस्मात्‌, 
त प्रीति्वदवादिषु 
न वबन्धाम्ब्रे स्थैर्यम्‌ 
न ब्रह्मा नेन्दरषटरार्वि° 
नभरदिशरस्तेऽम्बुवहास्व केशाः“ 


नभषोऽष्दं भुवः पद्धुम्‌ 

न भिन्ते विविषैः शस्तः 

नमस्ते परमात्माल्मन्‌ 

नमस्ते सर्वलोकानाम्‌ 

न मन्त्रादिकं तात 

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष 

नमस्ते पुण्डरोकाक्ष 

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष 

नमस्तस्मं नमस्तस्मै त 
लमस्कृत्याप्रमेयाय “" 
नमस्सवित्रे द्वाराय 

नमस्ते चक्रहस्तायः 

नमामि सवं सर्वेशम्‌ 

ल मायाभिनं चेवोच्चत्‌ 

न मे जाम्बवती तादक्‌ 

न मेऽस्ति पित्तं न घर्मचतभ्यि त्‌ 
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्चकृत्वः 

नमो ब्रह्मण्यदेवाय `" 
नमो हिरम्यार्भाषि 


नमो नमोऽविज्ञेषस्त्वम्‌, ५१९० 
नमोऽग्नोपोमभूताय ३ 


अंशाः अध्या श्लोकीः 


३ १० १८ 
२. ४ ६५ 
१ १२ ११ 
५ ३८ ५६ 
रू १० २३ 
४ ११ १६ 
५ २० २८ 
५ १८ २३ 
५ ११ ३ 
४५ १० २५ 
५ ७ २२ 
4 ७ २४ 
५ ३३ २८ 
४ १५ २३ 
रू २० ८२ 
(॥ ७ ३४ 
२ १३ ३९ 
६ ७ 4 
६ १ ४९ 
५ ६ ४२ 
५ १७ ८ 
५, ९ २९ 
धू १० १४ 
१ १५ १४७ 
श ४ १४ 
१ ६ ११७ 
१ १६ , ४ 
५ ३० ६ 
१ १६ ६४ 
१ ४ १२ 
१ १९ ५९ 
१ २२ ६७ 
३ ५ १५ 
५ ३० २२९ 
१ ९ ४० 
१ १६ ६० 
५ ३५ ३५ 
३ १४ ३० 
भ १ ५४ 
१ १९ ६५ 
१ र र 
१ ९ ६६ 
५ १६ 


क्छोकाः 
नमोऽस्तु विष्णवे तस्त 
लमः सवित्र सूर्याय 
न यज्ञाः समवर्तन्त 
न यष्टव्यं न दातव्यम्‌ 
न यक्षर्न च दैव्यन्ः 
न यस्य जन्मने धाता 
न यत्र नाथ विद्यन्ते 
न याच्ला क्षत्रबन्धूनाम्‌ 
नरकेषु समस्तेषु 
नरस्य सद्धुतिप्सद्खुतः 
नरकस्यासुरेन््रस्य 
नरके यानि दु.खानि 
नरकिन्चररक्षांधि 
नर्केणास्य तत्राभूत्‌ 
नरकं कर्मणां लोपात्‌ 
नराधिपोऽत्र कतमः 
रेन स्मर्यताषात्मा 
"नरेन्द्र कस्मात्‌ 
न रेजैऽन्तरितश्चन्धः 
नरः सातिः केतुरूपः 
न ख्यं तत्र तेनैव 
न वयं कृषिकर्तारः 
नवस्वक्षेष्वमानास्या 
नववषं तु मैत्रेय 
नवपताहृस्षमेकेकम्‌ 
नव ब्रह्माण इत्येते 
नवमो दक्षप्तावर्णिः 
न वेयमन्यथा वदिष्यामः 
न वामनां नातिदीर्घाम्‌ 
न विद्यः कि स शक्रत्वम्‌ 
नवोदृतात्वदन्ताशु° 
न शब्दगोचरं यस्य 
न इमशरु भक्षयेद्लोष्टम्‌ 
नष्टे चाग्नौ च सततम्‌ 


न सहति परसम्पदं विनिन्दाम्‌ `" 


न संस्थानि न गोरकषयम्‌ 
न समर्थाः सुरास्स्तोतुम्‌ 
न सन्ति यत्र सर्वेशे 

न सेह देवकीं द्रष्टुम्‌ 

न स्थलं न च सूक्ष्मं यत्‌ 
न स्नायान्न स्वपेन्नम्नः 

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८ ७ = न्द क तद ~= ७ ० छ 2 < ~= ०८ ५ ~ < ~< ५ ~> ज ~ ~< ५ ९ €) ० +< ~< 0 ~ 


१६ 


( ५९० ) 


असाः अध्या० शोकाः 


८२ 
२३ 
२७ 
१४ 





दरोकाः 
नहि करिचद्ूगव्ता 
महि पूर्वविसर्गे वै 
नहि कौतुहरं तत्र 
न हि पाकनसामर््यम्‌ 
नहु षक्षत्रवुद्धरभ्भरजि° 
न ह्यतुव्लद्कय वरपादपम्‌ 
न दयाप्तवादा नमसः 


न ह्यादिमध्यान्तमजस्य यस्य 


न हचेतादुगन्यत्‌ 
नाकारणात्कारणदा 
नागरीयोषितां मध्यै 
नागद्वीपस्तथा सौम्यः 
नागवीथ्युत्तरं यच्च 
नागपल्त्यस्व शतशः 
नामिनर्दहति नैवायम्‌ 
नाडिका तु प्रमाणेन 
नाडिकराभ्थामय इाम्पाम्‌ 
नातिक्रान्तुमलं ब्रह्मन्‌ 
नातिदूरेऽवस्थितं च 
नातिरुक्षच्छवि पाण्डु० 
नातिदीर्घं नातिहस्वम्‌ 
नातिज्ञानवहा यस्मिन्‌ 
नातिवटेशेन महता 

तात्र भवता प्रत्या्यानम्‌ 
नात्र स्थेयं त्वया सर्पं 
नाथ योनिसहसेषु 
नादक्षिणां नान्यकामाम्‌ 
नादयां तु स्वियं गच्छेत्‌ 
नानावीर्याः पृथनुमूताः 
नानार्यानाश्रयेत्कांदिचत्‌ 
नानाप्रकारवेचनम्‌ 
नानौषधीः समानोय 


अयाः भध्याण शेकाद्कुः 


४ 


१ 
१ 
१ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
# 

४ 
२ 
२ 
५ 

१ 

# 
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५ 
४ 
३ 
३ 
३ 
द 
४ 
५ 
१ 
मे 
३ 
१ 
३ 
३ 


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नान्तोऽस्ति यस्य न च यस्थ समुद्भवोऽस्ति 


नान्दोमुखः पितृगणः 
नान्यपिष्टं हि कंस्य 
नान्यस्त्रियं त्तथा वैरम्‌ 
नान्ययोनावयोनौ वा 
नान्यस्या तसंस्कार० 
नान्यदत्तमभीप्घामि 
नाप्सु नैवाम्भसस्तौरे 
नाभागस्यात्मजः 

नाम सूपं च भुतामाम 


~ ०८ ८७ == < ७ ५ ~ल ८ 


१३ 
१३ 
१६ 
२२ 


न, 
८३ 
१२ 
२१ 

६ 
७६ 


श्लोकाः 
नारदे तु गते क्रष्णः 
नारदेनैवमुक्ता सा 
नारभेत कलि प्रज्ञः 
नारायणात्मजस्मुशमप 
नारायणभुजाघातऽ 
नारायणमणोयांपम्‌ 
नारायणाख्यो भगवान्‌ 
नारयणः परोऽचिन्त्यः 
नार्थहीनं न चास्तम्‌ 
नार्हसि स्वीधरममसुखाभिन्ञः 
नालैत्रिक्षिपतेऽभ्रेषु 
नावगाहरजलौघस्य 
नाविशालां न वै मग्नाम्‌ 
नारकन्मरुतो वातुम्‌ 
नाशायास्य निमित्तानि 
नाशेषं पषषोऽश्नीयात्‌ 
लासमञ्जसशोरस्तु 
नासस्या तातुण। भूमिः 
न{सन्दिसंस्थिते पात्रे 
लास्माभिः शक्यते हन्तुम्‌ 
नाहमथमभीप्सामि 


नाह न रत्रिनं नभो न भूमिः 


नाहं मन्ये लोकजयात्‌ , 
नाहं कृपाहुहुदयः 

नाहं क्षमिष्ये बहूना 
नाहं पीवान्न चैवोढा 
नाह वहामि लिबिकाम्‌ 
नाहं प्रषुता पुत्रेण 

न।हु बलदेववासुदेव)भ्याम्‌ 
नाहं देवौ न गन्धर्वः 
निकरुम्भस्यामिताचः 
तिस्य प्रसेनसत्राजितौ 
निजेन तस्य मानेन 
नित्यनेमित्तिकाः कोम्या; 
तित्यानिव्यप्रपर्चात्मन्‌ 
नित्यानां कर्मणां विप्र 
तित्यैवषा जगन्माता 
निद्रे गच्छ ममदेशषात्‌ 
निभृतामबद्यर्थम्‌ 
निमग्नक्च समुत्थाय 
निमग्नरव पुनस्तोये 
निमित्तमात्रमेवाोप्तौ 
निमित्तमात्रं मक्स्ैवम 


४ 


अंशाः अध्या० श्नोकाङ्गाः 


१६ २८ 
२७ १२ 
१२ १३ 
२४ ४१ 
३३ १७ 


११ ८४ 


न्८ न ७ ~© ~= ~= त ~= = ~= ५ ल ८ ४ © ~= छ छ ~) ०८ ० = ~= ~= ~ न ~ ~ ~ 
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५४१५ 


दरोकाः 
निमेषो मानुषो योऽपौ 


निभेरपि तच्छरौ रमतिमनोहर ° "“"" 


नियुद्धे तद्विनाशेन 
नियुद्धप्रारिनिकानां तु 
निरवद्यः परः प्राप्तेः 
निरतिन्पपुण्यसमूद्मूतम्‌ 
निरस्तातिश्याल्लाद० 
निरीक्ष्य तं तदा देवी 
निषुच्छत्रासः सचैतन्यः 
निरुद्धकण्ठो दोषौ्चैः 
निर्गुणेनापि च।पैन 
निर्गुणस्याप्रमेयस्य 
निर्याणं बलभद्रस्य 
निर्योगपाशषस्कन्धौ तौ 
निव्रिण्णचित्तस्य ततः 
निर्जगाम गुहान्मातुः 
निभिय रुकिपरणं सभ्यक्‌ ` 
निजितदव भगवता 
निर्मलाः सर्वकालन्तु 
निर्माजमाना गात्राणि 
निर्वाणमय एवायम्‌ 
नि्यापारमनाषयेयम्‌ 
निर्द्र निरमिमानाः 
निधूंतदोषपङ्कानाम्‌ 
निर्यौव्िना गतश्रीका 
निवारयामास हरिः 
निवापैन पितृनर्चन्‌ 
निवृत्तास्तदा गोप्यः 


निवेष्टकामोऽसि नरेन्रकन्याम्‌ "^" 


निशम्य तस्येति वचः 
निश्ञम्य तष्टचः सत्यम्‌ 
निक्षम्यैतदशेषेण 
निशासु च जगरघ्ष्ट 
निशेयं नीयतां बौर 
निरश्रौकतातमे चित्रम्‌ 
निश्चयः सर्वकालस्य 
निषधस्याप्यनलः 
निषधः पारियात्रक्च 
निष्कास्यतामयं पापः 
निष्क्रम्यात्पपरीनारा 
निष्क्रम्य सं मुखात्तस्य 
निष्यादितो मया यामः 
निष्प्रपञ्च महाभाग 


अंशाः अध्या० शोकाद्काः 


६ २ ६ 
1 ५ १३ 
५ २० २० 
५ २०५० ६२ 
५ १ ४९ 
४ १५ ६ 
प ५ ५९ 
१ ४ १९१ 
६ ५ १३ 
६ ५ ४१ 
५ ६ ४५ 
१ ३ १ 
* ५ ३७ ५८ 
५ ९ ट 
६ १८ ७१ 
१ ११ ३० 
५ २६ ११ 
` ४ १३ ५२ 
# १ १० 
` १ १५ ४७ 
प ७ २२ 
“` १ २२ ५० 
“ २ ८ ८६ 
` २ ८ १०१ 
` ५ ३८ ४८ 
५ ३७ ४८ 
` ९ ९ 
` ५, १३ ४२ 
र २ ७७ 
२ २४ १ 
१ १५ ३५ 
१ १२९ १ 
५ ३१ २० 
५ १८ १० 
५ ३८ ५२ 
२ ८ ७२ 
1 ४ १०६ 
२ २ ४२ 
१ १७ २५ 
५ २२ 1 
५ ३७ ५५ 
६ ६ ४३ 
५ ३७ ६७ 


दछोकाः 
निष्पादितोरुका्स्य 
तिष्पादितादहि्रशौचस्तु 
निष्पाद्यन्ते नररतैस्तु 
निसर्गतोऽधिक्राद्धी वा 
निस्तेजसो वदस्येनान्‌ 


निस्सद्धता मुक्तिपदं यतीनाम्‌ 


निस्सत्वानामशौ चानाम्‌ 
निस्स्वाध्यायत्रषटूकारे 
निस्सृतं तदमावास्याम्‌ 
निःस्वाः सक्रखा लोकाः 
तिःस्वरद्चाग्ितेजाश्च 
निहतस्य पशो्पजञे 
नीतोऽग्तिश्जीततां बाणैः 
नीयतां परिजातोऽगरम्‌ 
नीलवासा मदोत्सिक्तः 
नूनमुक्ता त्वरामीति 
नूनं त्वया स्वन्मातु° 
नूनं ते दृष्टमारचर्यम्‌ 
नुपाणां कथितस्सर्वंः 
नन्द्रत्वं न च सूर्यत्वम्‌ 
नैतद्राजासनं योग्यम्‌ 
सैतदयुक्रितसहूं वाक्यम्‌ 
नैते ममानुष्पाः 
तैमित्तिकः प्राकृतिकः 
नैवमतिसाहसाध्यवसाथिनी 
नैवाहस्तस्य म निशा 
नैष मम क्षेत्रे मत्रत्यान्यस्य 
नैषधतैमिषककार° 
नैषधास्तुत एव 
नोच्चैर्हसेत्‌ सशब्दं च 
नोदेता नास्तमेता च 
नो्रेगस्तात कर्तन्यः 
नोष्वं न तिर्यषदुरं वा 
नोपक्षगौदिकं दोषम्‌ 
न्यग्रोधः सुमहानद्य 
न्यश्रोधः पुष्करद्वीपे 
न्यायतोऽन्यायतो वापि 


१, 


पक्षतुष्ति तु देवानाम्‌ 
पक्षिणः स्थावरा्चव 
पञ्चमी मातुपक्षाच्च 
पञ्चमे वापि मैत्रेय 
पञ्वषूपात्रुयामाला 
पञ्चधा वा स्थितो देह 


४ 


अदाः अध्या० शोकाद्काः 


५ २५ १ 
३ ११ १९ 
१ द ९ 
३ १० १७ 
र ५ ९ 
1 २ १२४ 
६ १ ५८ 
प १ ५९ 
२ १२९ १३ 
१ ९ २८ 
३ २ ३०५ 
३ १८ २७ 
५ ३० ६२ 
५ २१ ७ 
२ ५ १७ 
५ १३ ४१ 
1 ७ २६ 
५ १६ ५ 
५ १ १ 
१ १२ ३८ 
१ १२ ८१ 
५ १८ २५ 
४ १९ १५ 
१ ७ ४१ 
1 २ २३ 
६ ४ ४९ 
र ६ ५१ 
४ २४ ६६ 
४ २४ ६० 
३ १२ १० 
२ ११ १८ 
१ ११ १७ 
३ १२ ३९ 
५ १९ २८ 
१ १३ ६६ 
२ ४ ८६ 
५ २५ २१ 
२ ११ २६ 
१ १९ ६८ 
म १० २३ 
५ १ २० 
१ ५२ ४२ 
१ १४ ३६१ 





दटोकाः 
पञ्चधा वा स्थितः सर्गः 
पञ्चभूतात्कंभेगिः 
पञ्चभृतातपके देहं 
पञ्चाशद्‌ दुहितरस्तस्याम्‌ 


` पञ्चान्यानि तु सार्धानि 


पञ्वाशतकोटिविस्तारा 
पठतरचाक्षरसंख्यान्येव 
पठ्यतां भवता वत्स 
पठयते येपु चैवेयम्‌ 
पतस्िराजमारूढम्‌ 
पतमानं जगद्धात्री 
पतन्तमुच्च।दवनिः 
पतत्त्रिणां तु गरडम्‌ 
पतता तच्छरीरेणं 
पतत्विभ्यो मूमास्तेभ्यः 
पतित्रता सहमामस्‌ 
पतिते च ग्रजे तैव 
पत्िगववलेपेन 
पत्नीशाखा मुने लक्ष्मीः 
पत्नी मरीचैः सम्भूतिः 
पटन्यथं प्रतिजग्राह 
पट्यो मवेध्वमिस्युक्वा 
पथ्थस्यापि त्रसरि्षष्याः 
पदक्रमाक्रान्तमुवं भवन्तम्‌ 
पद्म्प्रामुभाभ्यां स तदा 


पद्भ्यां गता यौवनिनदच जाता '""" 


पद्धयामन्याः प्रजा ब्रह्मा 
पद्ययोनेदिनं यत्त 
पद्मालयां पद्यकेराम्‌ 

पपौ च गौपगोपीभिः - - 
पयांसि सर्वदा सर्व० 
परदारास्र गच्छेच्च 
परपूर्वापतिश्चैव 

परमात्मा च भूतासा ` 
परमात्मा च सवषाम्‌ 
परलोकजयस्तस्य 
परस्मरेणाभिभवम्‌ 
परदारपरद्रभ्य 
परज्ञ'नमयोऽसद्िः 
परमात्मत्मनोर्योगः 
परमेदव रसंोऽन्न 
परमेशत्वगुणवत्‌ 
परमा्थस्त्वमेवेकः 


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अंशाः अध्या० श्ोकद्कुः 
४ ६ 
१८ 
१२ 


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८1 


६० 
१ १३ 
१४७ 
१४ ४६ 
१६ १३ 
१५ १५० 
२२ ६ 
३६ २५ 
७ ६५ 
१८ ४३ 
२५ २६ 
२० ७४ 
८ २१ 
१० ६ 
७ २४ 
७ ८ 
६ ११ 
४ ३५ 
८ ८ 
२ ११७ 
६ ४५ 
॥1 ६ 
६ ११८ 
२६ 
४ ८९ 
११ १२३ 
१५ ७ 
२६ २८ 
॥1 ४० 
६ २६ 
७ ४१ 
८ १४ 
१४ ३० 
१४ २७ 
१७ २३ 
१४ ५२ 


श्लोकाः अंशाः अध्या श्लोकाः 


परस्य ब्रह्माणो रूपम्‌ 

परमब्रह्मणे तस्मै 

परमपृहूदि बान्धवे कलत्रे 
पराप्रात्मनविश्वास्मन्‌ 

परापवाद पैशुन्यम्‌ 

पसवृतो सुक्मेषु 

पराद्धषद्यां भगवन्‌ 

पराद्धदिगुणं यत्तु 
परिवत्तितताराक्षः 

परिमण्डरं च सुषिरम्‌ 
परितुष्टास्मि देवेश्च 

परिट्यजति वत्साद्य 
परित्यजेदर्थकामौ 

परिनिष्ठितयज्ञे आचार्य 

परिप्यज्य तावप्युरणकौै 
परिवृतिशरमेणैका 
परित्यक्रनान्यविपयः 

परि व्यक्ष्यान्त भर्तारम्‌ 

परोक्षितौ जनमेजय 

परं ब्रह्म परं धाम "^" 
परः पराणां परमः ^ 
परः परस्मा्पुरुषःत्‌ 
परः पराणां पुरूषः 
पर्णूरफटाहारः 
पर्णशय्परा्रु संयुप्तौ 
पर्वस्वेभिगमो धन्यः 
पलितोद्धवदच भविता 
पशवरदच मुभा 
पशूनां ये च पतयः 
पदप्रतां सर्वभूतानाम्‌ 
पश्वादयस्ते विख्याताः 
पटिचमस्यां दिशि तथा 
पाक्राय योऽग्नितमुपैति लोकान्‌"“"" 
पाण्डोरप्यरण्ये "^" 
पते चाश्वं परिश्रमन्तम्‌ 
पात्ालानामधरवास्ते 
पततालानि समस्तानि 
प१।तितं तत्र चैवे 
पादशौचादिना गम्‌ 
पादशोचासनप्रह्वः 
पादगम्यन्तु य्कि्वित्‌ 
पादप्रणामात्रनतम्‌ 

धटः षयेन सभ शद्य 


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२ १५ 
३२ २८ 
७ ९० 
४ २२ 
८ १३ 
१२ ११ 
३ ३ 
प ५, 
५ ४० 
४ २६ 
९ १३५ 
१२ २१ 
११ ७ 
४ ४६ 
६ ६० 
१३ ५३ 
१९ २ 
१ १८ 
२५ १ 
११ ४६ 
२ 
९ ४३ 
११ ५५ 
९ १९ 
६ ५७ 
११ १९२ 
१ ४२ 
३० १२ 
२२ १९ 
७ ४० 
५ १५ 
२२ १३ 
१ ८9 
२० ४० 
४ १९ 
५ १३ 
२३२ २५ 
२७ ५ 
१५ १३ 
११ १५१५ 
७ १६ 
१७ १२ 
१२ 9१6 








श्टोकाः 
पादेषु वेदास्तव युपद्रषटर 
पदेन नाक्रमेत्पादम्‌ 
पादोद्धुतैः प्रमृष्टे 
पानस्क्तं महात्मानम्‌ 
पानोयमप्यत्र तिरविमिश्म्‌ 
पापानामनुरूपाणि 
पपे गुरूणि गुणि 
पापं हृरति यत्पुसाम्‌ 
पार्ञ्यफलकाभाय 
पारतन््यं समस्तेषु 
पारान्नीलः 
पारावतस्सतुषिताः 
पारिजाततदहचायम्‌ 
पारिजाततरोः पुष्पर 
पारं परं व्रिष्मुरपारपारः 
पाेत्सर्वभूतस्य 
पाथः पड्चनदै देशे 
पाशुपाल्यं च वाणिज्यम्‌ 
पाशं सर्छराजस्य 
पाषण्डिनं समाभाष्य 
पाषण्डिनो विकरमम॑स्यान्‌ 
पिण्डः पुथग्यतः पुंसः 
पिण्डैर्मातिामरहीस्तदत्‌ 
पितर्युपर्नि नीते 
पितर्युपरते सोऽथ 
पित्ुपरते चासौ 
पितरोये च छोकरानाम्‌ 
पिता माता तथा भ्राता 
पिता चास्याचिन्तयदयम्‌ 
पितामहाय चवरान्पम्‌ 
पिता पितामहश्चैव 
पिता पितामहश्चैव 
पितता पितामहश्चैव. 
पिता पितामहश्चैव 
पिता गरन सन्देहः 
पिता च मम सर्वस्मिन्‌ 
पितामहेन दत्ताध्यः 
पितूमातु्पिण्डेशतु 
पितृपूजाक्रमः प्रोक्तः 
पितुदेवमनुष्यादोन्‌ 
पितृस्वे कल्पयामास 
्रितृपुचसुहद्‌भ्रतृ° 
पितवधामरपपर्णा 


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अं्नाः अध्या शोकाङ्काः 


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1 
१२ 
२५ 
१७ 


३२ 
२५ 


क्टोकाः 
पितुवचन।च्वागणित० 


पितुस्पः प्रथमं भक्त्या ` 


पितृतीर्थेन सतिलम्‌ 
पितुगोतान्तथेवात्र 
पितृणामयुजो युरभान्‌ 
पितृणामपसब्य तत्‌ 
पितणां धर्मराजं तं 

पि तृणां परोणना्थय 

पित्र्थं चापरं विभ्रम्‌ 

पित्रा प्रचेतसः प्रोक्ताः . , 
पित्रापरजिजितास्तस्य 


पिपीलिकाः कीरषपतङ्खकाद्याः 


पिबतां त्र चैतेषाम्‌ 
पिबन्तो जज्ञिरे वाचम्‌ 
पिवन्ति द्विकलकिरम्‌ 
पोतनीलाम्बरधरौ 
पते वसानं वने 
पीतेऽमृते च बलिभिः 
पोतं तं द्िकलं सोमम्‌ 
पीत्वाम्मांसि समस्तानि ` 
पुच्छेऽगनिदव महैव 
पण्डाः कलिद्धा मगधाः ` 
पण्यदेशप्रभावेग ` 
पुण्योपचयसम्पन्नः 
पण्याः प्रदेशा मेदिन्याः ` 
पत्रकास्माक्चिवत्तस्व ` 
पुत्रपोत्रैः परिवृतः 
पुत्र्चाजायत 
पुत्रदरन्यकलग्रषु 
पत्रदचेत्परमार्थः स्परत्‌ 
पत्रसद्क्रामितश्रौस्तु 
पुवञ्व सुमह वीर्यम्‌ 
पत्रि सवं एवात्मपुत्रम्‌ ` 
पत्रि कस्मान्न जायसे 
पुनङच प्रणम्प भगवते 
पुनश्च तृतीयं रोमपादर्सेम्‌ 
पुनरपि अक्षयवीर्य० 
पुनर्चेदिराजस्य 
पुनरप्यच्युतविनिणातम्‌ "` 
पुनश्च ्वपुरमाजगाम ` `` 
पुनरप्याजग।मःथ 
पुनश्च गर्भ भवति 
चश्चश्वर्ो त 


१०११. 


५५८२ 


अदाः अध्या श्छोकाङ्काः 
॥ि, । 


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१५ 
१५ 
१४ 
१५ 
१५ 
२२ 


११ 


११. 


१.४ 


९५ 
४ 
३९ 


१११ 


१२९१ 














`` दछोकाः 
पुनस्तयोक्तं स जात्वा 
पुनस्व रवताम्बरधुक्‌ 
पुनश्च पद्मादुतपन्ना ` 
पुनश्च मधुसंलेन 
पुनगति वरष॑श्ते 
पुनश्च कामासंयोगात्‌ 
पुनस्तथेव शिविका .- 
पुनः पाकमुपादाय . 
पुनःपुनः प्रणम्योभौ 


पुन्नाम्नो नरकात्‌ व्रातः 


पुमान्न देवोन नरः 
पुभान्सर्वगतो व्यापी 


पुत्रान्‌ स्त्री गौधजो वाजी 


पुररवेशे प्रमथैः 
पुरञ्जयाजगनमे जयः 


पुर्‌ड्जयो नाम राजर्षेः . -- 


पुराणसंहिताकर्ता 
पुरा ममागतो वत्स 
पुरा हि रेतायाम्‌ 
पुरा गार््ेण कथितम्‌ 
पुराणं वैष्णवं चैतत्‌ 
पुरौ सुखा. जलेशस्य 


पुरषाः षट्‌ च षष्टिक्व _.. 


परकृत नर्मदायाम्‌ 


ुरकृत्सायं सन्ततिविच्ेदः, 


पुरकरुत्समम्ब्ररीषम्‌ 
पुरषेधज्ञपु रषः 
पृष धि ष्ठितत्वाच्च 


पुरूरवसो उवेष्ठः पुत्रः 
पुरूरवास्त्वत्तिदानसौलः. | 


पुरोधस। मन्त्रिभिश्च 


पुरोदिताप्यायिततेजाद्व 
पु रोजनमेजयस्तध्थापि 


पुष्केराधिपति चक्र 


पुष्कराः पुष्कला धन्याः ` 


धुष्करे सत्रतस्यापिः 
पुप्पव्न्यनसम्मानर 
पुष्पवृष्टि ततो देवाः 
पु पचयमन्रोच्चैः 
पुष्यतित्रस्सेनापतिः 


र्सां जटाधरणमौण्डयवता वुधैव 


भूजिताङ्च ्िज।स्तर्व 
पूज यदेवद्विजज्य)तिः 


(भवता (न्ड -*-- 


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अंशाः अध्या० शोकद्गुः 


१८ 
१८ 

९ 
१२ 
१५ 


१1 


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७६ 
१५ 


१०४ 


श्छोकाः 


प्रोस्सकाशाद।दाय 

परण शतसहस्रे तु 

पूर्णं बर्पदलं मे 
पूर्वमेव महाभागम्‌ 
पूर्वस्यां दिशि राजानम्‌ 
पूर्वजन्मनि योऽगस्त्यः 
पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्टाः 
पूरवस्तत्रोदयगिरिः 
प्वमेवानूढायाञ्च भगवता 
पू्वमात्मजयं करत्वा 
पूव. क्रिया मध्यम।स्च 
पूर्वाः क्रियाश्च कर्तभ्याः 


>) 


वेण सैरात्सौता "१ 


शान्तहयं वर्षम्‌ 
वं व्ययतैस्सरोऽम्भोमि 
पूषा वसुरुविर्वातिः 
पृथक्तयोः केचिदाहुः 
पृथग्भूतैकमू ताय 
पृथा ध्रुतदेवा श्रुतकोत्तिः 
पुथिग्यपिद्तया तेजः 
पुथुिपृथुप्रमुखाश्च 
पृथुस्ततस्ततो नक्तः 
धुश्रवसश्च पुत्रः 


पृथुस्समस्तान्विचचार लोकान्‌ `" 


पृथुरनेनस 

पृथोषिष्टर।द्वः 

पृथोः पुत्रौतु धर्मज्ञो 

पृथ्यौ ममेयं सकला ममैषा 
पुथ्वो ममेषाशु परित्यजैनाम्‌ 
पृषदर्भयुवी रकेकयमद्रकाङ्च 
पौण्डुको वासुदेवस्तु 
पौण्ड्‌कोक्तं त्वया यत्त 
पौर्णमासी तथाज्ञेया 
पौर्णमास्याममावास्याम्‌ 


पौलोमाः; काङ्केयास्व १० 


पौषमासे वसन्त्येते 
प्रकटीभूतसर्वास्थिः 
प्रकृतिर्या मयाख्याता 
प्रकृतिस्त्वं परा सूक्ष्मा 
प्रकृत संस्थितं व्यक्तम्‌ 
प्रक्षाल्यते यदा सोऽप्य 
्रक्षालिताद्धिपाणि च 


असाः अध्या शोकाद्भुः 


४ 


न्ट „९ 


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१० 

७ 
१० 
१४ 


( ५९५ } 


२३० 





श्टोकाः 


प्रष्यातो व्यासरिष्थोऽभूत्‌ 


प्रचेतसः पृत्ररशतधर्मः 
प्रजाप तथैवोच्चैः 
प्रजापतिकृतः ्ञापः 
प्रजानामुपकाराय 
प्रजापतीनां दक्नं तु 
प्रजापति समुदिश्य 
प्रजापतिपतिब्रहा 


 प्रज।पतिश्च 


प्रज।स्त। ब्रह्मणा सृष्टाः 
प्रनापतिः स जग्राह 
प्रजार्थभषयस्तस्य 


प्रजाः ससर्ज भगवान्‌ 


प्रजाः सुजेति व्यादिष्टः 
प्रणष्ठे गन्धतन्मात्रे 
प्रणतिर्या कृतास्माकम्‌ 
प्रणष्ट" देवम्‌ 
प्रमव्रावस्थितं नित्यम्‌ 
प्रणम्य प्रणताः सर्वे 
प्रमामप्रवणा नाय 
प्रणिपत्य चैनमाह 
प्रणिपत्य पितुः पादौ 
प्रणेतर्मनसो वुद्धः 


प्रतिदिनं तन्भणिरत्नम्‌ 


प्रतिहूतीति विस्यतः 
प्रतीकारमिमं एत्वा 
प्रत्यक्षं भवत्ता भूप 
प्रत्यक्षं दृश्यते पीवा 
परत्यक्षं भूपतिस्तस्याः 
प्रत्यस्तमितभेदं यत्‌ 
्र्यूषध्यागता ब्रह्मन्‌ 
प्रत्युषस्य विदुः पूतम्‌ 
प्रथमेऽज्लि बुधर्शस्तात्‌ 
प्रथमेऽह्जिं तृतीये च 
प्रदोषःग्रे कदाचित्तु 
प्र्युम्नोऽपि रषिमिणः 
प्रचुम्नोऽपि महावीर्यः 
परचयुम्नाद्या हरेः पुत्राः 


प्रद्युम्नः प्रथमस्तेषाम्‌ ` 


प्रयुम्नसाम्बप्रमृखाः 
प्रधानपुरुषन्यक्तर 
प्रधानपुरुपम्पक्त° 


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अंशाः अध्या शोकाद्काः 


३ 


६ 
१७ 


१६ 


वटकः 
प्रधानपुरुषौ चापि 
प्रधानत्वेन समम्‌ 
प्रधानपु्तोरजयोः 
प्रधनेऽवस्थितो व्यापौ 
प्रघानमात्मयोनिर्च 
प्रधानवुद्धचादिमयादरेषात्‌ 
प्रफुल्लपद्मपवाक्षम्‌ 
प्रबुदधश्चासाववनिततिरपि 
प्रबुद्धश्च ऋषयः 
प्रबुद्धश्च पुनः सृष्टिम्‌ 
प्रभासध्यतरु सा मार्य 
प्रभा विवस्वतो रात्रौ 
प्रभाक्तं समनुप्राप्ताः 
प्रययौ सोऽव्पवच्छिन्तम्‌ 
प्रयागे पुष्करे चैव 
प्रयास्यन्ति यदा चैते 


प्रयान्ति तोपानि खुराग्रविक्षत०"""" 


प्रपासः स्मरणे कोऽस्य 
प्रथ्त्येते विरामे 
प्रयाति सत्रिता कुवन्‌ 
प्ररूढनवशष्पाढच। 
प्रलयोऽयपेषस्य 
प्रलम्बङ्ण्ठोऽतिमुखः 
प्रलम्बं निहतं दुष्ट्वा 
प्रछीने च ततस्तस्मिन्‌ 
परविवेश च रज्ञा 
प्रविष्टदव समं गोभिः 
प्रविष्टः कौेऽस्य हृदये 
प्रवि चैक प्रासादम्‌ 
प्रविष्य द्वारकां सोऽथ 
प्रविष्टो गहनं कृष्णः 
प्रवृत्ते च निवृत्ते च 
्रवृत्तिमार्गब्युच्छित्ति° 
प्रवृत्तं च निवृत्तं च 
प्रवत्तं च निवृत्तं च 
प्रवृद्या रजसो यच्च 
प्रवेपमानां सततम्‌ 
प्रवेश्य च तमूषिमन्तःपुरे 
प्रशस्तरत्नप।णिस्तु 
प्रशषस्तमभयं शुद्धम्‌ 
प्रशानितिकस्सनीवासयः 
प्रशष(म्यति तद। ज्योतिः 


अंशाः अध्या० शोकादङ्काः 


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{ ५२६ ) 


२६ 
३१५ 
३७ 
२६ 








रछोक; 

प्रश्नितास्तासुनीनूचुः 
प्रसन्नवदनं चार० 
प्रसन्नोऽहं महाभागम 
प्रसन्नोऽहं गपिष्य्रापि 
प्रसज्जन्तींतुतां प्राहु 
प्रहन्नश्च देवानाम्‌ 
प्रसन्नशुक्रवचनाच्वर 


प्रपारणाकूञ्वनादौ 
प्रसादपरमौ नाथौ 
प्रसाचमानः स तदा 
प्रसाद इति नोक्तः ते 
प्रसीद सर्वं सव्रत्मिन्‌ 
प्रसीद स्वं सर्वत्मिन्‌ - 
प्रपीद देवि स्वस्य 
प्रसीद मद्धितार्थाय 
प्रसीदेक्ाङ्रफखतिलक 
प्रसोद सीदतां दत्तः 
प्रसौद पर्वमूतालन्‌ 
प्रसूत्यां च तथा दक्नः 
प्रसूतिः प्रकृतेर्या तु 
प्रतेनजिंतो युवनारवोऽभव्रत्‌ 
परस्िर्वा मके श्चद्व 
प्रहरन्ति महात्मानः 
दुस्य तानाह नृपः 
प्रहु्टस्साध्विति प्राहु 
प्रह्लाद सर्वमेतत्त 
प्रह्लाद सृप्रमाचोऽपि 
प्रह्व।दं सकल पस्मु 
प्राङकता, वेक्ृताश्चैव 
प्राकृतो वकृतश्चैव 
प्रकतं ब्रह्यषूपस्य 
प्राक्सर्गदग्धानखिलान्‌ 
प्रागुत्तर च दिग्मागे 
प्रर्ञ्योतिषपुरस्यापि 
प्राण्रवं पुरुषोऽश्नीयात्‌ 
प्राडमुखान्भोजयेद्‌ विप्रान्‌ 
प्राडमुलोदङ्मुखो वबरापि 
प्राचीनवहिर्भगवान्‌ 
प्राचीनाग्राः कुशास्तस्य 
प्राच्यां दिदि शिरर्सस्तम्‌ 
प्रजाप ब्राह्मणानाम्‌ 
प्राजापल्येन चा सर्वम 


अदाः अध्या० ोकद्रोः 


[प 


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२७ 


८ 
८१9 
७६ 
० 


इोकः 
प्राणा्यमनिरं वश्यम्‌ 
प्राणायाम दवाम्भोभिः 
प्राणाः फणोऽभवंश्चास्य 
प्राणयात्रानिमित्तं च 
प्राणप्रदाता स पृथुः 
प्राणरचैव मृकण्डुश्च 
प्राणस्य ययुतिमनिपत्ः 
प्राणापानसमानानाम्‌ 
प्रणिपत्य पितुः पादौ 
प्राणिनापूषकाराय 
प्राणोऽन्तः सुषिराज्जातः 
प्रातजनिशि तया सन्ध्याम्‌ 
प्रातश्वैवापराह्ले च 
प्रातस्त्वमागता भद्र 
प्रातगत्वातिदूरं च 
प्राप्नोष्याराचिते विष्णौ 


प्रप्तसमयशच दक्षिणम्‌ 
प्रप्नोपि यदि भर्तारम्‌ 
प्रप्तवानेतदखिलम्‌ 
प्रायरिवत्तान्यशेषाणि 
प्रायरिचत्तेन महता 
श्ायश्च हैहयताल० 
प्राथरिचत्तमरोषेणं 
प्रायेणैते आत्मविदा० 
प्रारम्भादवावसीदन्ति 
प्रावरट्काके च नमसि 
प्रावृट्कालपस्ततोऽतीव 
प्शुपुतुद्धबाह्॑तम्‌ 
्रियत्रतो ददौ तेषाम्‌ 
प्रियप्रतोत्तानपादौ 
प्रियव्रतोत्तानपादौ 
प्रियव्रतस्य नैबोक्ता 
प्रियमुक्तं हितं ततत्‌ 
प्रियाण्यनेकान्यवदन्‌ 
प्रीतिमादचाभवत्तस्मिन्‌ 
प्रीतिः सस्त्रीकुमारस्य 
प्री्यमिग्यज्जितकरवछः 
्रक्षतस्तस्य वार्थस्य 
प्रेतदेहं शुभैः स्नानैः 
प्रेते पितुत्वमापन्ते 
परोवतरच देवैस्संमुप्तम्‌ 
्रोकतपर्वस्वशेषेपु 
प्रो्तान्ये्तानिं भवता 


॥ 


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न +< 


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9 


. ९. 


अंशाः अर्ध्या शछेकाद्गुाः 


॥.7.। 
१५ 
॥#. 
२९ 
८९ 





दछोकोः 
प्रोच्ते परमेशो हि 
प्लक्षदरोपादिषृ ब्रह्मन्‌ 
प्लक्षदीपप्रमाणेन 
प्ाव्रयामाप्त तां शुन्याम्‌ 


फणामणिहस्ेण 
फणासहस्चभालाद्यम्‌ 
फरगर्भा त्वमेकेज्या 
फलानि परय तालानम्‌ 
फलानां पततां शब्दम्‌ 
फं च।राधिते विष्णौ 
फु्छेन्दीवरपत्रामम्‌ 


बदरीफलमात्रम्‌ 
बद्धवैराणि भूतानि 
वद्भ््रा समुद्रे यल्कषप्तः 
बद्ध्वा चम्भोनिधिम्‌ 
बन्धुमतो वेगवान्‌ 

बमृव निर्मलं व्योम 
बरभ्रोस्सेतुः 
बहिपव्रकतापीडौ 
बलप्रागतमाज्ञायः 
बरदेवस्ततो गर्स्वा 
बलभद्रो महावीर्यः 
बल्देव्ोऽगि तत्कालम्‌ 
बलभद्रोऽपि चास्फोट्य 
बलदेवोऽपि मैत्रेय 
बलहुानिर्न ते सौम्य 
बलकृष्णौ तथक्रूरः 
बलक्षयं विवृद्धि च 
बलमेवाशेषधरमहितुः 
बलदेवोऽपि रेवत्या 
बलमद्रशठसारणदुर्मद ° 
बलसत्यावरोकनात्‌ 
बलन्धनाद्रत्सप्रीतिः 
बलवन्धुश्व सम्भाव्यः 
बरशौ पदि मावश्च 
बेन निहतं दुष्ट्वा 
बले पुत्रराते त्वासीत्‌. 
बहिरावासिते सैन्ये 
बहपरकारमत्यर्थम्‌ 
बहत्वान्नामधेयानाम्‌ 


अशः भध्या० शछोका्काः 


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५ 6५ © © ~ ^ ^< 


४६ 
१५ 
२० 


१५२ 


शोकाः 

महुकालोपभुक्त 9 
बहु्ोऽप्यभिहिता 
बहुशरच वृदुस्पति° 
बहुशो वा{(तोऽस्माभिः 
बहुनात्र किमुक्तेन 
बहुपुत्रस्य विदुषः 
बहुनां विप्र वर्षाणाम्‌ 
बहुनि तवात्रैव गन्धर्व 
बहदमित्येव तेनोक्तः 


बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डः 


बाणोऽपि प्रमिपव्याग्र 
बारुत्वं चतितरीर्थत्वम्‌ 
भालक्रौडेमतुल। 
बालत्वं सवंदोषाणाम्‌ 
बालिज्ञा बत यूयं वै 
वाने देशान्तरस्थे च 
वालोऽहं ताव्रदिच्छतः 
बालः कृतोपनयने 
वत्थे क्रीडनकरासवताः 
बाहुमामोनिनं कृत्वा 
वाह्यार्थादसिछाचिवत्तम्‌ 
बाह्याथनिरपक्ष' ते 
बाह्ली कात्सोमदत्तः 
त्रिभति भगवान्‌ विष्णुः 
विमति यस्ुरगणान्‌ 
विभेद प्रथमं विप्र 
विभ्रती पारिजातस्य 
विश्राणं वाससी पीते 
बीजादद्कुरसम्भूतः 
ब्रोजादुबुक्षप्ररोहैण 
बुद्धिरव्याष्ृतप्राणः 
बुभुजे च तया सार्धम्‌ 
बृहद्बलस्य पुत्रः 
ृहत्वाद्वुहेणत्तान्वे 
बस्पतेस्तु भगिनी 
बृहस्पतेरपि सकलदेव० 
बृहस्पतिमिन्दुं च तस्य 
वृहःक्षत्रमहीवीर्य० 
वृहतकषत्रस्य घुहोत्रः 
बृहदिपीर्बृहदतुः 
वृहदर्वादिबोदासः 
वृटव्रथप्रत्यग्रकुशाम्ब° 
2411 ~+ 11 


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अंशाः अध्या इलोकरष्काः 


४६ 
२७ 








रोका; 
बृह्रथाच्चान्यः 
वोधं बुद्धिस्तथा लज्जा 
नौध्याग्निमाढकौ तदत्‌ 
बरह्मचर्थमहिसा च 
ब्रह्मसूत्रमेव विप्रत्वहेतुः 
वरह्यक्षत्रस्य यो योनिः 
ब्रह्मणरच दक्षिणाज्गु्ठ० 
व्रह्मचारी गृहस्थश्च 
ब्रह्मचर्येण वा काम्‌ 
ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णम्‌ 
बरह्मणा चोदितो व्यासः 
ब्रह्महत्यार्वमेधास्याम्‌ 
ब्रह्मवि्णुशिवा ब्रह्यन्‌ 
ब्रह्मनध्रस्ञादप्रवणम्‌ 
बरह्मणो दिवपे ब्रह्मन्‌ 
ब्रह्महूपधरो देवः 
बरह्मणा देवदेवेन 
ब्रह्मपारमयं कृर्वन्‌ 
ब्रह्मपार मुनेः श्रोतुम्‌ 


बरह्म प्रभुत्रह्य स सर्वभूतः 


ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते 
ब्रह्मत्वे सुजते विश्वम्‌ 
ब्रह्मा नारायणाद्योऽसौ 
ब्रह्माचैर्यस्य वेदज्ञैः 
ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुः 
ब्रह्मक्षरमजं नित्यम्‌ 
ब्रह्मा दक्षादयः काखः 
ब्रह्मा सृजस्यादरिकाले 
्रह्यायैरचितो यस्तु 
बरह्यास्सकखा देवाः 
ब्रहम ्ररुद्रनासत्य° 
ब्राह्मणान्भो नयेच्छरुद्धे 
ब्राह्मणाचास्तु ते वर्णाः 
बरह्मणक्ञत्रियविश्षाम्‌ 
बाह्मणः क्षत्रियो वैश्यः 
बराह्मणाः क्षत्रिया वैद्याः 
व्राह्मणाः क्षतिया वैद्याः 


बराहमणाः क्षत्रिया वैदयाः 
ब्राह्यणाः क्षत्रिया वैद्याः 


बराह्मणाः क्षत्रिया वैद्याः 
्राह्य सुहुतं चोत्थाय 
ब्राह्मो नैमित्तिकस्तेषाम्‌ 


अंशाः अध्या० काङ्को; 


४ १६ «4३ 
१ ७ ३०५ 
३ 1 १८ 
1 ७ ३६ 
1 ४ ८०9 
४५ २१ १८ 
५ २ ६ 
प १८ ३९६ 
३ १० १४ 
र ५ १३ 
र 1 ७ 
२ ८ ६८ 
१ २२ ५८ 
१ १ ११ 
१ र १६ 
१ 1 ५9 
१ १४ १० 
१ १५ ५३ 
१ १५ ५४ 
१ १५ ५७ 
१ १७ १७ 
१ १६९ ६४ 
१ ६ १ 
१ १२ ४६ 
१ १३ २१ 
१ १५ ५ 
१ २९ २३१ 
१ २२ ३५ 
५, ७ ६९ 
५ ३० १७ 
३ १४ १ 
य १५ १ 
३ १८ ५७ 
२ ८ २१ 
द ८ १२ 
२ ४ ३६ 
र्‌ ४ ३१ 
२ द ९ 
१ ६ प 
४ २४ ११६ 
३२ ११ | 
६ पे र्‌ 


इ्टोकाः 


बराह नैमित्तिकस्तत्र 
बाहुं पादमं वैष्णवं च 


भवितच्छेदानुलिप्ताङ्खो ` 


भक्तिभेदानुलिमप्ताङ्धौ 
भक्षयट्यथ कल्पान्ते 
भक्षयित्वा च भूतानि 
भक्ष्पभोज्यमहापान० 


मक्ष्यामक्षयेषु नास्यास्ति ` 


भगवद्वष्णुपादाङ्खष्ठ 
भगवन्नेमिस्गरतनयैः 
भगवन्भूतमन्येर 
भगवानपि सर्वात्मा 
भगवन्यदि मे तोषम्‌ 
भगवन्भूतभव्येश 
भगवन्वालवैधब्प्रात्‌ 
भगवन्सम्यगास्यात्तम्‌ 
भगवन्सम्यगास्यातम्‌ 
भगवन्यत्वया प्रोक्तम्‌ 
भगवस्मगवन्दिवः 
भगवन्यच्नरैः कार्थम्‌ 
मगवह्ेवमतरस्थिते 


भगवन्‌ मस्मत्कुरस्थितिरियंम्‌ 


भगवत्यासज्याखिलमू 
भगवन्तोऽखिलसंसा० 
भगवन्मयैतदन्ञानात्‌ 
मगत्रप्तस्माकमत्र 

भगवन्‌ भवन्तं द्रष्टुम्‌ 
भगवन्नायमादित्यः 
भगव्रदागमनोदृभूत० 
भगवानपि यथातुभूतम्‌ 
भगवस्ममैतत्स्यमन्तकरत्नम्‌ 
भगवता च स निधन० `` 
भगधान्‌ यदि प्रसन्नः 
मगवतोऽप्यत्र मत्यलोके 
भगवानप्ययोत्पातान्‌ 
भगवन्यत्मपा कार्यम्‌ 
भगवानपि गोविन्द 
भगवंस्तमहुं योगम्‌ 
भगवन्कथितं सर्वम्‌ 
भगीरयत्सुदोत्रः 


भगीरधाद्यास्सगरः ककुत्स्थः 


अगोवये ते कौम्तेय 


#9५५ 


अंशाः अध्या० शोकाद्भूाः 


१ ७ ४२ 
॥ ६ २१ 
५ २० ८ 
५ २० १४ 
३ १७ २५ 
१ २ ६४ 
२ ५ ९ 
६ २ २४ 
४ ४ ३० 
1 ४ १३ 
१ ९ ६२ 
१ १२ ४१ 
१ १२ ४८ 
१ १२. ७८ 
१ १५ ६१ 
२ १ १ 
२ १३ १ 
२ १४ २ 
२ ८ १ 
1 १ १ 
1 १ ८१ 
४ २ -८ 
४ २ १३१ 
1 ५ १६ 
" ४ ७ २० 
६; ९ म 
४ १३ २१ 
४ १३ २२ 
४ १३ ५९ 
४ १३ ६१ 
४ १३ १४१ 
४ १४ ५९ 
४ १४ ५३ 
४ १५ ३४ 
५ ३५ २९ 
५ २३५७ ३२ 
५ ३७ ६६ 
९ ६ 1 
६ ५ 
1 २३६ 
, ४ २४ १४९ 
५ . २८ ६७ 








शोकाः 
भजममजमानदिव्यान्धक० - 
भजमानस्य निभिक्रुकण० 
भजमानाच्च विदुसः 
भद्रार्वे भगवान्‌ विष्णुः 
भद्राश्वं पूर्वतो मेसः 
भद्रा तरथोत्तरगिरीन्‌ 
भद्रारवभद्रवाहु 
भद्रायाद्चोपनिधिगदायाः 
भयत्राणादन्नदानत्‌ 


भयं भयानामपहारिणि स्थिते ""“ 


भरद्ाजस्प वितथे 

भरतस्य पल्नीत्रये 
भरतोऽपि गन्धर्वविषय° 
भरतः स महीपालः 
भरतादवृषः 

मवूसुश्रुषणं घर्मः 
मतुंबाहुमह्‌।गर्वाः 
भल्लाभस्तस्य चात्मजः .- 
भवतीऽपि महाभाग 
भवत्वेवं यदि मे समय०.--- 
मवत्यरिष्टशान्तिश्व 
भवन्ति तपतां श्रेष्ठ 

भवतो यत्परं त्म्‌ 
भवस्यपध्वस्तपतिः 

भवन्तु पतयः रलाघ्याः 
भतवरेन्ति ये मनोः पुत्राः ` ` 
भवतोऽपि पुत्रमिन्र 
भवतीनां जनयिता महाराजः 
भवतां चोपसंहारः 
मवद्धर्यदमिप्रेतम्‌ 

भवानहं च विरवाद्मन्‌ ` - 
भवांश्च मयान 
भविष्यन्ति महाव्रीर्थाः ` 
भविष्यन्ति तया देवाः `. 
भविता योषितां सूतिः ` 
भविष्ये द्वापरे चापि 
भागुरिः स्तम्भपित्राय ` ` 
भारतघ्यास्य वर्षस्य ` 
भारतं प्रथमं वर्षम्‌ 

भारताः वैतुमालास्व 
भारावतारणार्थाय 
भारावतरणे साह्यम्‌ 
भारावतारणार्थाय 


अगाः अध्या० शोकाः 


४ १३ १ 
४ १३. २ 
४ १४ २२ 
` २ २. ५० 
` २ २ २३ 
` ९ २ ३७ 
४ १५ २२. 
1 १५ २४ 
“ ४ ९ ११ 
१ १७ ३६ 

` ४ १९ १९ 
र १९ १४ 
1 ४ १७५ 
` २ १३ ४ 
` ४ ११ २५ 
` १ १३ २४ 
` ५ ३० ४८ 
` ४ १९ ४७ 
६ २ ३९ 

, ४ ६ ४१ 
` ३ ११ ७४ 
१ ३ म 

१ ४ १७ 

१ ९ ३१ 

१ १५ ६४ 

“ मै २ ४७ 
1 १ ७९ 
1 २ ८९ 
५ २८ ८७ 

` ६ २ ३७ 
५ ९ ३९ 
४ ६ ६५ 
१ -१५ ६८ 
य २ २१ 
द १ ४१ 
म १ ११ 
द ८ ४४ 
२ र द 

` २ २ १२ 
२ २ ३९ 
५ १२ ७ 
५ १२ ८ 
५ २९ ` २५ 


दटोकाः 
भारावतारकार्याथंम्‌ 
भारावतारणार्थाय 
भारय्ररयास्तु ये केचित्‌ 
भावगर्भ.स्मतं वाक्यम्‌ 
भिक्नाभुजश्च ये केचितु 
भिद्यमानेष्वशेपेषु 
भिन्नेष्वरोषनाणेषु 
भीममुग्रं महादेवम्‌ 
भीमस्य काञ्चनः 
भीष्मकः कुण्डिने राजा 
भौष्मद्ोणकृपादीनाम्‌ 
भोष्मद्रोणाङ्खराजाद्याः 


भुक्तवा दि्यान्महामोगान्‌ 


भुक्त्वा सम्यगथाचम्य 
भुक्त्वा च विपुलान्भोगान्‌ 
भुड्क्ते कूटमाषत्रोह्यादि० 
भुटकतेऽप्रदाय विप्रेभ्यः 
भुञपतेऽनुदिनं देवैः 
भुठ्जतक्च पथा पुषः 
भुठजन्दत्तं तया सोऽन्नम्‌ 
भुवलेकं ततस्तर्वम्‌ 
भुउनेशं जगन्नाथ 

भुगो नाद्यापि भारौऽपम्‌ 
भूततन्मात्रसर्गोऽयम्‌ 
भूतान्यनुदिनें यत्र 
भूतादिमिद्दियादि च 
भूतात्मा चेद्ियात्मा च 


भूतानि सर्वाणि तथान्नमेतत्‌ 


भूतानि बलिभिश्च 
भूतेषु वसते सोऽन्तः 
भूतं भग्यं भविष्यं च 
भूप भूतान्यज्ञेषाणि 
भूप पृच्छसि फ श्रेयः 
भूपतेर्वदतस्तस्य 
भूपादबङ्घु(कटयूरु० 
भूमावास्फोटितस्तेन 
भूमिरापोऽनलो बायुः 
भूभिभूर्यान्तिरं यरच 
भूमेर्योजनलक्षे तु 
भूमौ पादयुगं स्वस्ते 
भूयस्ततो वृको जज्ञे 
भयरच सुदवेषं एत्वा 


( ६०० ) 


अंलाः अध्या शछोकाद्राः 


५ ३८ ५९ 
५ २७ १८ 
४८ १२ १३ 
५ १८ १७ 
३ ९ ११ 
५ ३३ ४ 
५ ३० ६७ 
१ [4 ७ 
४; ७ ३ 
५ २६ 
५ ३५ ३६ 
1 २८ ४७ 
५ २४ ३ 
३ ११ ८८ 
५ १९ २६ 
२ १३ ५४५ 
५ २३८ ३९ 
१ १४ २६ 
२ ११ ७३ 
३ १८ ६६ 
द ३ २६ 
५, ७ ५८ 
५ ३७ २३ 
१ २ ४६ 
१ ७ ४५ 
१ २९२ ५७०५ 
५ १८ ५० 
२ ११ ५२ 
५ ९ १० 
६ ५ दर्‌ 
३ २ ६० 
६ ७ ५८ 
२ १४ १२ 
२ १३ ६० 
२ १३ ७३ 
५ २० ७६ 
१ १२९ ५३ 
२ ७ १७ 
२ ७ ५, 
२ १३ ६६ 
३ १८ ७६ 
४ ‰ ७ 











ष्टोकाः 


भूयस्प्र मन्तिमिस्ता्धम्‌ 
भूरादीनां समस्तानाम्‌ 
भूरुकिमलिल दृष्टवा 
भूरकिऽथ भुवर्लोकः 
भूर्लोकदच भुवर्लोकः 
भूविभागं ततः कृत्वा 
भूषण स्वरस्वरूपस्थम्‌ 
भूषणान्यतिशु्राणि 
भृगुणा पुरुकुत्साय 
भुगुर्भरो मरीचिङ्च 
भृगुं परस्त्य पुलहम्‌ 
भृगोः शूयात्यां समुत्पन्ना 
भृगोः रूगत्यां समुलन्ना 
भृत्यादिमरणार्थय 

मेदं चालकनन्दाष्यम्‌ 
मैक्षव्रतपसः ददराः 
भोक्न्यं तैश्च तच्चित्तः 
भोक्तारं भोग्यभूतं च 
भोगेनावेष्टितस्यापि 
भोजनं पुष्करद्वीपे 

भो नाहं तेऽपरधाय 
भोभोक्षत्रियदायाद 


भो भो राजन्‌ श्युणुष्व त्वम्‌ 


भोभो सर्पाः दुयचारम्‌ 


भो भो विसृज्य शिबिकाम्‌ 
भोमोक्षत्रियवर्यास्माभिः. 


भो भो ब्रह्मंस्त्वया मत्तः 
भो भो मेघ। निशम्यैतत्‌ 
भो भो दानपते वाक्थम्‌ 
भो भो क्रिमेतद्धूवता 
भो विप्रवर्य भोषतम्यम्‌ 
भो विप्र जनसम्मर्दः 
भो दाची देवराजस्य 
भौममेतत्पयो दुग्धम्‌ 


भीमा ह्येते स्मृताः स्वर्गाः 


भौमोऽयं नरको^नाम 
भौमं मनोरथं स्व्रगम्‌ 


` भुकुटीकुटि लात्तस्य 


श्रषमारोप्य पूरयंतु 

भ्रममाणो ततो दृष्ट्वा 
श्रान्तग्राहगणः सोमिः 
श्मसि ८ { रातगणम 


अंशाः अध्या० शोकाङ्काः 


६ द ४४ 
१ १२ ५५ 
१ १९ ५७ 
१ २९ ८० 
५ २ १६ 
१ 1 ४९ 
१ २२९२ ६६ 
२ ५ ११ 
४६ ८ ४५ 
१ ७ २९६ 
१ ७ ५ 
१ १० २ 
१ ९ १४१ 
३ ८ ३५ 
२ ८ ११६ 
द १ ३७ 
३ १५ २९ 
१ ९ ५० 
५, ७ ३२ 
२ ४ ९३ 
द ६ ४२ 
१ ११ ३९ 
१ १३ १६ 
१ १७ ३७ 
२ १३ ७८ 
४ २ २८ 
५ १ ५२ 
५ ११ २ 
५ १५ १३ 
५ ३५ ११ 
२ १५. १९१ 
२ १६ ५ 
५ २३० ३९ 
५ १० २३ 
र्‌ २ ४९ 
५ २९ ८ 
३ ८ ६ 
१ ७ १२ 
द २ ९ 
५ १९ १४ 
१ २० ५ 
११ 4 १५२५ 


श्टोकाः 


मखभद्धविरोधेन 
मलहा ग्रामहन्ता च 
मखे प्रतिहते शक्रः 
मगधायां तु विश्वः 
मग्नोऽथ जाह्ववीतोयात्‌ 
मङ्खल्यपुष्परत्नाज्य० 
मणिपुरपतिपुष्याम्‌ 
मत्छृते पितुपुत्राणाम्‌ 
मत्तः कोऽम्यधिकोऽन्योऽस्ति 
मत्तः कोपेन चाघुर्णन्‌ 
मत्पदानि च ते सर्प 
मल्पत्रेण हि सकल ० 
मलप्सादश्च ते सुरु 
मद्प्रसादेन भर्तारम्‌ 
मसभरीतिः परमो धर्मः 
मत्सम्बन्धेन वो गोपा; 
मत्स्यरूपश्च गोतिर्दः 


मर्स्यवन्धैश्च मस्स्योऽसौ ^" 


मरस्यकूर्मव राहाश्व ° 
मथुरानगरीपौरण० 
मथुरां प्राप्य गोविन्दः 
मधुरं च पुनः प्राप्तो 
मथुरावातिनं लोकम्‌ 
मध्यमानत्समुत्तस्थौ 
मथ्यमाने ततस्तस्मिन्‌ 
मण्यमानेऽमृतं जातम्‌ 


मथ्यमानो च तत्रान्धौ 
मथ्यमाने च तत्राभृत्‌ 


मदान्धकारिताक्षोऽसौ 
मदारघूणित्तनेत्रोऽपौ 
सदावरेपाद्च सकल० 
मद्त्ता भवता यस्मात्‌ ` 
मद्रष्टर वारिता वृष्टिः 
मद्रूपमास्थाय सुजत्यजो यः 
मधुपनाहेतुश्ष्च 
मधुराकमूरुफल० 


1 


मनवो भूभुजस्मेन्राः ` ^" 


मनसः स्वस्थता तुष्टिः 


मनस्यवस्थिते तस्मिन्‌ 
भनवो मनुपुत्राश्च 


मनसैव जग्सृष्टिम्‌ 
मतरिशलामाः केचिद . 


म, 


~. © ~> ~= त = न ~> ल ~= न < ५ ~~ न ५ ~ 


~> 


अराः अध्या० शोकाद्काः 


^ ~ = ७ = न ०८ > „~= ८ „५ ~= ~= ~= ~> ~= ~ => ~> ~ न 


१२ 

द 
११ 
२४ 





ररोकाः 

मनुस्सप्तषयो देवाः 
मनुष्यदेहिनां चेष्टाम्‌ 
मनुष्यदेहमुर्सृज्य 
मनुरप्याह वेदारथम्‌ 
मनुष्याः परावह्चाच्ये 
मनुष्यलीलां भगवन्‌ 
मनुष्यधर्माभिरतौ 
मनुष्यधर्मशीलस्य 
मनोरिक्ष्वाकुनुगधृष्ट 


मनोरथानां न समाप्तिरस्ति 
मनोस्तस्य महावीर्यः 
मनोहरायां रिरिरः 
मनोरजायन्त दश 
मनोः पुत्र; कंल्षः 

पनः प्रीतिकरः स्वर्गः 
मनतरयन्नपरा विप्राः 
मल्पूवं पितृणां तु 
मन्त्राभिपन्तितं शस्तम्‌ 
मन्थानं मन्दरं कता 
मन्थानं मन्दरं कुत्वा 
मन्दाह्लि यत्मिन्नयने , 
मन्दं जगजु्जरदाः 
मन्मथे तु गते नाक्षम्‌ 
मन्मना मच्प्रसादेन 
मसम्तराधिपाद्रैव 
मन्वन्तरे च सम्प्राप्ते 
मन्वन्तराण्यशेषांणि 
मम स्वया समं बुद्धम्‌ . 
मम चारोन संयुवतः 
ममाजुंनत्वं भीमस्य 
ममापि बाखकस्तत्र 
ममांशः पुरुषव्याघ्र 
ममेति यन्मया चोक्तम्‌ 
म्ैवायं पितृधनम्‌ 
ममोर्वक्षी सालोक्य 
ममोपदिष्टं सकलम्‌ 


मया हि तत्र चरौ सकरुरवर्य° :"“" 


मयापि तुभ्यं सत्रेय 

मया दत्तामिमां मालाम्‌. 
मयाप्येतद्यथान्यायम्‌ 
मयाप्येतदशेषेण 

मथापि तस्य गदतः 


1.1) 


1 


अंशाः अध्या० शोकाः , 


~ = = = = = न = = ७ न्द = ~ < न ~ ~^ ~ ~ ^ 


न्व 
> 


~ न ८. + ~< ~ ~ ~ ~ 


८४ चछ छ ~> 9 न 


२ 
२२९ 


हि 4। ९४) 
५ ल ५ 4 ~ ~ < @ ~ ~ छ 


+> > 
+ >^ 


४८ 
१८ 
२५ 
६३ 
१८ 
३९ 

७ 
१४ 


इछोकाः 
मयात्राग्निस्याली 
मया संसारचक्रऽस्मिन्‌ 
मथा स्वं पुत्रकामिन्था 
मयि भर्वितस्तवास्त्येव 
मयि दवेषानुबन्धोऽभूत्‌ 
मयि मत्ते प्रमत्ते वा 
मयू रध्वजभङद्धुस्ते 
मयूरत्वे ततस्ता वै 
मयूरा मौनमातस्थुः 
मयैष भवता प्रन 
मय्यन्यत्र तथान्येषु 
मरीचिमिश्रदक्नाचैः 
मरीचिमुस्यैमुनिभिः 
मरुत्वत्यां मरच्वन्तः 
मर्तस्य यथा यज्ञः 
मर्मभिद्धिर्महारेगैः 
मथदिाक्रारकास्तेषाम्‌ 
मय दिन्यु्क्रमो नापि 
मल्लप्रादिनकेषर्गस्च 
महता राजराज्येन 
महृदादेविकारय्य 
महाणंवान्तःसखिलि 
महाकाष्टचयस्थं तम्‌ 
महाप्रज्ञा महावीर्याः 
महागजप्रमाणानि 
महावीरं तथैवाम्यत्‌ 
महावीरं बहिर्व्षम्‌ 
महा राजालमनेनाविवेक° 


महा मोजस्त्वतिधर्माल्मा 


महानन्दिनस्ततः 
महापद्मपुत्रादचैकम्‌ 
महाबलान्‌ महावोर्यत्‌ 
महाबछ्परीवारः 
महारावा महाकायाः 
महीघरास्तथा सन्ति 


मद्री धटत्वं घटतः कपालिका “""" 


महीवीर्याच्चि दुरुक्षयः 
महेन्द्रो मलयः सह्यः 
महेन्द्रो वारणस्कन्धात्‌ 
महोत्सवमिवासाय 
महौद्ानां महावप्राम्‌ 
मागधस्य बलं क्षीणम्‌ 


॥ि ^ प 
क्न नृना^ न => ~+ इ ~¬ 015१ शकण 


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अंशाः अध्या० शछोकाद्भाः 


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१९ 
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दलोकाः अंशाः अध्या शोकाद्ूः 
मागधेन तु मानेन ३ ८ 
माधमापे वसन्त्येते १० १७ 
माघेऽरिते पञ्चदशी कदाचित्‌" १४ १५ 
सा जानीत वयं बालाः १ १७ ७१ 
माता भस्त्रा पितुः पुत्रः १९ १२ 
मातामहानामप्येवम्‌ १५ ४६ 
मातामहस्तृपतिसुपैतु तस्य १५. ३५ 
मातामहाय तस्त्र ११ २९ 
मातुलोऽथ तपोनिष्ठः १५ ३ 
मातृपक्षशनपिण्डेन १३ ३२ 
मात्रे प्रमात्रे तन्मात्र ११ ३० 
मास्स्यं च गार्डंर्चव ` ६ २४ 


माधवे निवसन्ध्येते 
मानसोऽपि द्विजश्रेष्ठ 


१० ॥ 


मानसोत्तरशैलस्य 
मानसोत्तरसंज्ञो वै 
मानसान्येव भूतानि । 
मानः कोशं तथा गोष्ठम्‌. 
मान्धाता शतविन्दोः 

मा पुत्रान्मा सुहृदर्मम्‌ 


मामाराघ्य नरो मुक्तिम्‌ _ "^ १२ ८९ 
मायया मोहयित्वा तान्‌ ‰ ^" 

मायया युयुषे तेन ३३ ९ 
माया तवेयमन्ञात० ३० १४ 
मायावती ददौ तस्मै २७ १४ 
मायामोहेन ते दैत्याः १८ ८ 
मध्या च वेदना चैव ७ ३३ 
मायामोहोऽयमखिलान्‌ १७ ४२ 
मायामोहेन ते दैत्याः १८ ३१ 
मायात्रिमोहितदृशा तनयो ममेति २० १०४ 
मारिषा नामनाम्नैषा १५ ८ 
मा रोदीरिति तं शक्रः २१ ३९ 
मार्मा बभृतुरस्पष्टाः ६ ४१ 
मारजारकुक्तरटच्छागण० ६ २९ 
माछाकाराय कृष्णोऽपि १९ र्ट 
माषा मुद्गा मराद ६ २९ 
मासि मास्यसतिते पक्ष १४ ३ 
सासि मास्ति रविर्मोयः ११ > 
मासेष्वेतेषु मैत्रेय १० १९ 
मारैदादशशभिर्वषम्‌ ३ १० 


माहिष्मत्यां दिग्विजिय० ` 
मां मन्यसे त्वं सदृशम्‌ ` 


९ +++ (नन ७6१९ 


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( ६०३ ) 


ईंटोकाः अंशाः अध्या० शोकाः 
मां हन्तुममरैथलः ५ ४ ३ 
मित्रघयुककुनखी कलीब ३ १५ प 
मित्रापोश्च्यव्नः """ १९ ७० 


१९ २९ 
१० ७ 
२८ २९ 
१३ १४७ 


मित्रेपु वर्तेत कथम्‌ 
मित्रौऽत्रिस्तक्षको रक्षः "" 
मिषतः पाण्डुुत्रस्य “^ 
मुक्तमात्रे च तस्मिन्‌ 


मुखनिःश्वासजो विष्णोः ४ २ 
मुखं ब! प्रबाहू च ५ १९ 
मुख्या नगा यतः प्रोक्ताः "^" ५ ७ 
मुञ्चतो बाणनाशाय ३३ २३६ 
मुद्गखादुवुरददवः १९ ६१ 


मुदुगलाच्च मौद्गल्याः 
मूद्गलो मोमुखर्चैव 
मुनयो भावितात्मानः 
मुमुचातं तथास्त्राणि 
मुमोच कृष्णोऽपि तद। 
मुरस्य तनयान्सप्त 
मुष्टिना सोऽदनम्मू्िन 
मुसलस्थाथ लोहस्य 
मूहूरतस्तावदुक्षाणि 
मूढानामेव भवति 

मूढे भर द्वाजमिमम्‌ 
मूर्छामिवाप्य महतीम्‌ 
मूच्छमुपाययो घन्त्या "" 


मूर्तामूतं तथा चापि २३ ३७ 
मृतमूर्तमदृदयं च ^" ४ रए 
मूर्तं भगवतो रूपम्‌ =" ७ ७८ 
मूलका दुस्थ; ४ ७५ 
मठे षोडशसाह्ः २ ९ 
मृगमध्ये यथा त्िहौ २० ४३ 
मृगयागतं प्रपेनम्‌ "^" १३ ५७ 
मृगमेव तदाद्राक्षीत्‌ ^" १३ ३२ 
मृगपक्षिमनुष्याद्यैः = ` ५ ७ 
मृगाणां चैव सप्रेषाम्‌ ` २२ ७ 


मृगाणां वद पूष्ेषु 
मृण्मयं हि यथा गेहम्‌ 
मृण्मयं हि गृहं यदत्‌ = ^" 
मृतस्य केशेषु तदा । 
मृतबन्ोर्दशाहानि 
मृतस्य च पुनर्जम 
मृताहनि च कर्तव्यम्‌ 


५ 
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१७ ५८ 


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रलोकाः 
मृतो नरकमभ्येति 
मृष्दिपु तुषु 
मृष्टं न मृष्टमप्येषा 
मृष्टं मदीयमन्नन्ते 
मेघपृषठे बराकानाम्‌ 
मेघानां पयसां चेशः 
मेषेषु सद्घता वृष्टः 


मेधाविनो रिपुज्जयस्ततः 
मेधा श्रुतं क्रिया दण्डम्‌ 


मेधाग्निबाहूपुत्रास्तु 
मेठरस्नमभृत्तस्य 
मेर्पृष्ठे १तत्युध्चैः 
मेरोर्चतुदिशं ये तु 
मेरोरनन्तराद्खेपु 
मेरोरवतुदिशं तत्तु 
मेरोः पूर्वेण यदर्षम्‌ 
मेषादौ च तुलादौ च 
मत्रेयैतदुबर तस्य 
मैत्रेय भ्रूयतां मत्तः 
त्रेय भूतां कर्म 
मैत्रेय श्रूयतामयम्‌ 
मप्रेय भूयतामेतत्‌ 
य श्रूयतामेतत्‌ 
य श्रूयतामेतत्‌ 
भूयतां सम्यक्‌ 
य कारणं प्रोक्तम्‌ 
य भगवान्भातु 
य कथयाम्येतत्‌ 
य पृथिवी गौतान्‌ 
यस्पृहा तथा तद्वत्‌ 
मैथुनेनैव धर्मेण 
मैवं मो रक्ष्यतामेषः 


-»* ४ ५ ४ > > ४ 
~ ~ < ४ र॥ ~ ~ 


भु" 


मोक्षाश्रमं यश्चरते यथोक्तम्‌ ` 


मोहृश्चमे शमं याते 
मोहिताद्चाभवंस्तत्र 
भ्रियमाणदचासावत्ति° 


म्टेच्छकोटिषहछ्राणाम्‌ 


य ददं धमक्षेत्रम्‌ 
य इदं जनम वेन्यस्य 
य एते भवतोऽभिमता 


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अंशाः भध्या० शटी 


११ १२४ 
२० ७२ 
१५ २६ 
३७ ४२ 

६ ४१ 

१० १९ 

८ १०७ 

२१ १३ 
७ २९ 

१ ९ 

२ ५७ 

८ १४४ 

२ ४५ 

२ २९ 

२ १५ 

१ २२९ 

८ ७६ 

२३६ १ 

१ \ 

३५ २ 

१ ४ 

५ १ र 
२ ११ द 
२ २ र 
१ १७ १ 
१ २९ ४४ 
२ ख १२ 
१ ५ ३ 
४ २४ १२७ 
म ८ 2३७ 
१ १५ १९९ 
१ ५ ४१ 
२ ९ ३३ 
६ ७ २१ 
५ ३ १६ 
1 छ ४६३ 
५ २१ ७ 
` ४ १९ ७७ 
१ १३ ९४ 
४ १ ७४ 


इटोकाः 
यक्षराक्षसदैतेय 
यक्षाणां च रथे मानोः 
यच्चमृत्तं हरे रूपम्‌ 
यच्च कार्यं तवास्माभमिः 
य्चान्यदक रोमं 
यस्वाहूं भवता पृष्टः 


यच्च॑तदुमुवनगतं मया तवोक्तम्‌ 


पजन्यज्ञास्यजस्येनम्‌ 
यनुरवेदतरोद्शालाः 
यजूष्यथ विसृष्टानि 
यजूंषि वरष्टुभं छन्दः 
यजूंषि यैरधीतानि 
यज्ञसमाप्तौ भागग्रहणाय 
यज्ञनिष्पत्तये स्वभू 
यज्ञस्य दक्षिणायां तु 
यज्ञविद्या महाविद्या 
यज्ञाद्धमूतं यद्रूपम्‌ 
यज्ञेश्वरो हव्यसमस्तकभ्य° 
यज्ञेशाच्युत गोविन्द 
यज्ञेन यज्ञपुरुषः 

यज्ञेषु यज्ञपुरुषः 


यज्ञे च मारीचमिषुवाताहतम्‌ "“ 


यज्ञैराप्यायिता देवाः 
यजञै्यजञेरवरो येषाम्‌ 
य्न रनेकरदेवत्वम्‌ 
यजञस्त्वमिज्यसेऽचिन्त्य 

, य्नैरयज्ञविदो यजन्ति सततम्‌ 
यज्ञोऽधरस्च विज्ञेयः 
यज्ञः परुर्व्िर्शेषकछरिवक्‌ 
यञ्ज्येषठशुक्लद्ादश्याम्‌ 
यज्वभिर्यजञपुरषः 

यतक्च वृषभककुदि 
यतद्चोशना ततः 
यतन्तो न विदुनित्यम्‌ 
यतिययातिसंयात्यायाति° 
यतिस्तु राज्यं नैच्छत्‌ 
यतो घर्मथिकामाख्यम्‌ 
यतो मृतान्यशेषाणि 
यतो वृष्मिसंजञाम्‌ 

यतोहि श्छोकाः 

यतः काण्वायना दिनाः 
यतः काण्वायना 

यतः कुतरिचत्तम्प्राप्य 
यृ; सा पावनायालम्‌ 


७१०० 


५ 


२ 
६ 
१ 
५ 
द 
२ 
३ 
३ 
३ 
१ 
३ 
४ 
१ 
१ 
१ 
३ 
३ 
२ 
१ 
५ 
४ 
१ 
१ 
३ 
५ 
पि 
२ 
२ 
६ 
५ 
1 
४ 
५ 
४ 
४ 
१ 
३ 
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१ 
११ 


१२९ 


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अंलाः अष्या० श्छोकाद्काः 


१८ 








५ 


श्लोकाः 
यतः प्रधानपुरुषौ 
यतः सत्वं ततो लक्ष्मीः 
यत्कि {ज्चत्सुज्यते येन 
यत्किल्चिन्मनसा ग्राह्यम्‌ 
यत्ते दशभिवर्षे 
यत्तस्मा्ष्णवं तेजः 
यत्तदग्यक्तमजरम्‌ 
यत्तु निष्पाद्यते कार्यम्‌ 
यत्तु कालान्तरेणापि 
यत्तु मेदः समुत्सुष्टम्‌ 
यत्तु पृच्छसि भूपाल 
यत्वया प्रार्थ्यते स्थानम्‌ 
यत्त्वमात्याखिलं दूत 
यच्तद्धवता प्रोतम्‌ 
यत््वेत(दगवानाह्‌ 
यत्वेतद्‌ भगवानाह 
यस्वेतत्किमनन्तेनेद्युक्तम्‌ 
यत्पृच्छति भवानेततु 
यत्पृथिव्यां त्रीहियवम्‌ 
यदप्रमाणानि भूतानि 
यल्ममाणमिदं सर्वम्‌ 
यत्र तत्र स्थितायैतत्‌ 


` यत्र कुत्र कुरे जातः 


यत्र सर्वं यतः सर्वम्‌ 
यत्र वै देवदेवस्य 

यत्र युदधमभूद्घोरम्‌ 
यश्र तत्र ययौ देवी 
यत्र नेन्दीवरदल० 
यत्र यत्र समं त्वस्याः 
यत्रत्यवातसंस्पर्शात्‌ 
यत्र क्वचन संस्थानाम्‌ 
यत्राशेषलोकनिवासः 


यत्रादौ भगवांस्वराचरगुरः 


यत्रानपायी भगवान्‌ 
यत्राम्बु विन्यस्य बलिः 
यत्रोत्मेस्परोतं च 
यत्रोतमेतसोतं च 
यथतुष्वुतुखिङ्धानि 
यथा सक्षिधिमात्रेण 
यथा प्रधानेन महान्‌ 
यथा ससजं देवोऽसौ 
यथा च वणनिसुजत्‌ 
यथावत्कथितो देवैः 


अंशाः अध्या० शटोकाङ्काः 


१ 


१ 
१ 
१ 
६ 
३ 
द 
२ 
२ 
२ 
३ 
१ 

५ 
२ 
२ 
१ 
१ 
३ 
४ 
१ 
२ 
३ 
६ 
१ 
१ 
५ 
१ 
५ 
१ 
२ 
३ 
४ 
६ 
१ 

५ 
२ 
२ 
१ 

१ 

१ 

१ 

१ 
१ 


१७ 
९ 
२२ 


३० 
२९ 
३८ 
१९ 
१५ 
१०५ 
६६ 
२९ 
१००५ 
१९ 
८ 
८३ 
२२ 


श्लोकाः 
यथा चा राधनं तस्य 
यथा दि कदलो न।स्या 
यथां सूर्यस्य मैत्रेय 
यथा सर्वेषु भुतेषु 
यथा सर्वगतं विष्णुम्‌ 
यथा ते निश्चलं चेतः 
यथाच तेन वं न्यस्ता 
यधावर्कधितं सर्वम्‌ 
यथात्मनि च पुत्रे च 
यथा न ब्राह्मरेम्पः ५ 
यथा चैवम्‌ “ 
यथाहं वभुधा सवम्‌ 
यथाग्निरेको बहुया समिध्यते “““ 
यथाहं भवता सृष्टः | 
यथा समस्तभतेषु 
यथा च माहिषं सपिः 
यथा यत्र जमद्धाम्नि 
यथा निर्भत्सितस्तेन 
यथेच्छावासनिरताः `` 
यथैव पापान्वेतानि " 
यथैव श्पुणुमो दरात्‌ | 
यथैव व्योम्नि व्ल 
यथोक्तं सा जगद्धात्री 
यदह्घ कुरुते पापम्‌ 
यदम्बु वैष्णवः कायः 
यदर्थमागताः कार्यम्‌ 
यदत्र साम्प्रतं कार्यम्‌ 
यदग्निहोत्रे सुहुते 
यदष्वमेधावभुथे 
यदस्प कथनायासतैः 
यदर्थं ते महात्मानः "^ 
यदा तु शुद्धं निनरूपि सर्वम्‌ """" 
यदास्द्रचनान्मोह° * 
यदास्य ताः प्रजाः सर्वाः. 
यदास्य सुजमानस्य 


यदाभिषिक्तः स पृथुः 
यदा विजम्भतेऽनन्तः 
यदा चन्द्रश्च सूर्र्च 
यदा यशोदा तौ बालौ 
यदा चैतैः प्रबाध्यन्ते 
यदाहुमुद्ृता नाथ 

यदा लज्जाकुला नास्यै 
यदायदाहि मैत्रेय 


अंशाः अध्या० दछोकष्भाः 


११ 


५१ 





ई्छोकाः 


यदा यदा हि परषिण्डण 
यदा यदा सतां हानिः 
यदा यदान यज्ञानाम्‌ 
यदा जागत्ति सर्वात्मा 
यदाप्नोति नरः पुण्यम्‌ 
यदा नोपचयस्तस्य 
यदा पुंसः पृथग्भावः. 
यदा समस्तदेदैषु 


मुनिस्ताभिरतीव हात्‌ ""““ 


[१11 


यदा च सप्तवर्षाणि 
यदान कुरते भावम्‌ 
यदि चैच्वद्रचः सत्य 
यदि त्वं दयिता मतुः 
यदि चैदीयते मह्यम्‌ 
यदि शक्नोषि मच्छ त्वम्‌ 
यदि तै दुःखमत्यरथम्‌ 
यदिमौ वर्जनीयं च 
यदि बोऽस्ति मधि प्रीतिः 
यदि सप्तमणो वारि 
यदुक्तं वै भगवता 

यदुं च दुर्वसुं चैत्र 
यदेतनद्धगवानाह्‌ 
यदेतत्तव मैत्रेय 

यदेतद्‌ दुष्यते मूर्त 
यदेतदुवतं भवता 

यदैव भगवान्‌ 

यदोर्वंशं चरः भरस्व 
यद्गुणं यत्स्वभावं च 
यद्द्रव्या शिविका चेयम्‌ 
यद्बलं यच्च मत्तेन 
यद्भूतं यच्च वै भव्यम्‌ 
यदयद्गुहे तस्मनसि 
यद्यन्यथा प्रवेयम्‌ 
यद्यस्मोतिकरं पुंसाम्‌ 
यद्यन्त रायदोषेण 


यद्यन्योऽस्ति परः कोऽपि 
यद्यदिच्छति यावच्च 
यद्यप्यशेषभतस्थ 
यद्यवश्यं वरो ग्राह्यः 
यद्चस्मत्रित्राणाषमर्थम्‌ 
यद्यन्त्यायाम्‌ 

यद्येवं तदादिहयताम्‌ 
ययेवं स्वयाह्‌ पूर्वमेव 


अंशाः अध्या० शोकीद्काः 


५ 


द॑लोकाः 
यद्योगिनः सदोद्युक्ताः 
यद्योनिभूतं जगतः 
यन्न केवलममिसन्धिपू्कम 
यन्न देवा न मुनयः 
यन्नामहैतुरदवैः 
यन्नायं भगवान्‌ ब्रह्मा 
यन्नामकर्तनं भक्त्या 
यन्नः शरीरेषु यदन्धदेह 
यन्मयं च जगदुब्रह्मत्‌ 
यमनियमविघूतकलमपाणाम्‌ 
यमश्चक्रधरः साक्षात्‌ 
यमस्य विपये घोरः 
यमभ्येत्य जनस्तर्वः 
यमाराध्य पुराणः 
यमुनां च।तिगम्भीराम्‌ 
यमुनाकर्पण।दीनि 
यमुनासतलिखस्नातः 
यमेन प्रहितं दण्डम्‌ 
यया क्षेत्रज्ञश्च वितस्ा 
यथातिशापादंशोऽयम्‌ 
यपातेदवतुर्थ पुत्रस्य 
ययतौ कुरते तन्ना 
यया शक्रप्चि याथिन्या 
ययातिस्तु भूमृदभवत्‌ 


ययौ जडप्रतिः सोऽथ 
यवनान्मुण्डितशिरसः 
यवगोधूममुद्गादि° 
येवाम्बुना च देवानाम्‌ 
यवाः त्रियद्कवौ मुद्गाः 
यशोदा शकटाूढ° 
यशोदाशयने मां तु 
यरच सायं तथा प्रातः 
यश्चतुविशति प्राच्य 
यद्चे पञ्चारीतिवर्ष० 
यश्च भगवता प्कल० 
यश्चतच्चरितं त्य 
यश्चैतत्सौभ रि चरितम्‌ 
यक्चैतच्छणुयाज्जनम 
यक्चैतत्कीर्तये न्नित्यम्‌ 
यश्चैतच्चरितं तस्य 
यश्बुकदुहितरं कीम्‌ 
यषटिहस्तानवेक्ष्यास्मान्‌ 
यत्तमास्यत्ति तीतव्राला 


५१०० 


१ 
१ 
४ 
१ 


न्८ ०८. न ~= नल +<. ७ ८ च ७ ०८ ~= य न्द जल = न्ट ~ < +< ~ र< ~ ^= ~ ~ ७ ~} < नज 


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१७ 


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इ +< ४ न्ट = 0 ॐ @ ~ 


ए 


अजाः अध्या” शछोकाद्भाः 


५४ 


२९. 


३१ 
५१५ 


१३३ 
१४६ 


१५२ 
६४ 
1.91 
१७ 
२७ 








इरोकाः 

यस्तु सम्यक्करोत्येवम्‌ ॥ 
यस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यम्‌ 

यस्तं जनिष्यते "^ 
यस्ते नाहतः पूर्वम्‌ ^“ 
यस्त्वेतत्सकलं श्रुणोति पुरुषः `" 
यस्त्वेतच्चरितं तस्थ ^“ 
यस्त्वेतां नियत्चर्यम्‌ "^" 
यस्मान्मामसम्भाष्य """ 
यस्माट्िष्टमिदं विश्वम्‌ ^“ 
य्मादमोज्यम्‌ "^ 
यद्मादेवं सभ्यतुप्तायाम्‌ “^^ 
यस्माद्ब्रह्मा च रद्रहच *" 
यस्माच्वयैष दुष्टात्मा -“" 
यस्माज्जगस्सकलमेतदनादिमध्यात्‌ 
यस्पाद्िकतल्पं माम्‌ ^" 
यस्मादवग्व्यवर््तन्त 


यस्मिस्प्रत्तिष्ठितो भास्वान्‌ "“ 
यस्मिन्नाराधिते सर्गम्‌ “" 
यस्मिन्नयस्तमतिननं याति नरकम्‌ '""" 
यस्मिन्यस्मिन्युगे व्यासः 

यस्मिन्मन्वन्तरे व्यासाः 

यस्मिज्जगदयो जगदेतदाद्यः ^“ 
यस्मिन्‌ कृष्णो दिवं यत्तः =“ 


यस्मिन्प्रतिषठितं सवम्‌ 

यस्मिन्दिने हरिर्यातः 

यस्मिन्ननेन्ते सकलम्‌ "^ 
यस्मै यस्म स्तनं रात्रौ “"" 
य्य सञ्जातकोपस्य **" 
यस्य नागवधूहस्तैः "" 

यस्य नादेन दैत्यानाम्‌ "न 
यस्य दशरथो मित्रम्‌ "" 
यस्य प्रसादादहमच्युतस्य  "“" 
यस्य रागादिदोषेण ॥ 
यस्य संशोषको वायुः ५० 
यस्य क्षत्रे दीर्घतमण० “° 
यस्य चोत्पादिता इत्या ““ 
यस्य प्रभावाद्धोष्मायैः "००० 
यस्यावताररूपाणि "^" 
यस्यावलोकनादस्मान्‌ "“* 
यस्याखिलमदीग्योम० """ 
यस्यायुत्तायु तांशांशे ““" 
यस्यान्तः सर्वमेवेदम्‌ ““" 


यस्याजपु्रो दशरथः *** 


अंशाः अध्या० श्टोकाङ्काः 


न = = नल न= = = न्द = = न्द्‌ न्द्‌ जल ७ = < ~= ल तल च्ल न्द्‌ ५ ४ त > ७ = + == ज ज < १८ ५ न्द ५ ० ~ +< ० ४ 0 


९ 
१४ 
१२ 


१५१ 


१५३ 


श्छोका; 
यस्याहः प्रथमं रूपम्‌ 
यस्पावतारल्पाणि 
यस्यामिष्टूवा महायज्ञः 
यस्याश्च रोमशे जद्षे 
यस्यैषा सकला पृथ्वी 


यस्सुज्यते सऱ््दात्मनैव ` 


याचिता तेन तन्वद्को 
याज्ञवल्क्योऽपि मैत्रेय 
या्ञवत्क्यस्ततः प्राह 
याज्ञवस्वयस्तदा प्राह 
यातनाभ्वरः परिश्र्टाः 
यात देवा यथाकामम्‌ 
यातीतगोचरा वाचाम्‌ 
यादवाश्च यद्ुनाम्‌ 

या दुष््यजा दुर्मतिभिः 
या नाग्तिनान चारकेण 
यानि मूर्त्यमूर्ति 
याति किम्पुरुषादीनि 
यानीद्द्रियाण्यशेष।णि 
या प्रीतिरविवेकानाम्‌ 
यामा नाम तदा देवाः 
यामेतां वहते मूढ 
याम्यकिङ्धुरपाशादिण० 
यावन्मात्रं प्रदेशे तु 
यावत्पृरस्तात्तपति 
यावन्तो जन्तवः स्वगे 
यावतः कुरते जन्तुः 
यावदित्थं स विध्रषिः 
यावन्तः सागरा द्वीपाः 
या्रसखममाणा पृथिवी 
यावन्त्यश्चैव गरास्ताः 
यावच्च ब्रह्मलोकात्सः 
यावन्सहीतले राक्र 
यावन्न बलमाल्ढौ 
याव्रयावच्च चाणूरः 

* यावञ्जीवत्ति तावस्च 
यावल्घू्यं उदेत्यस्तम्‌ 
यावच्च जनकराजगृह 


यावहवापिर्नं पतनादिभिः 


यावत्परीक्षितो जन्म 
यावत्स पादपद्माभ्पाम्‌ 


या विद्याया तथाविद्या 
या; सप्तविशतिः प्रोक्ता; 


०००७ 


अं्ञाः अध्या० शोकाद्गूः 


१ 


१ 
२ 
३ 
२ 
४ 
१ 
३ 
३ 
३ 
३ 
१ 
१ 
४ 
४ 
१ 
१ 
२ 
१ 
१ 
१ 
॥ 
६ 
२ 
२ 
२ 
१ 
१ 
र 
र 
र 
: 
॥ 
५ 
च 
६ 
४ 
४ 
४ 
४ 
४ 
१ 
१ 


२५ 
८9 
१२ 
२५ 








श्छोकाः 
युकतस्तथा नितरचान्यः 
युक्तालनस्तमोमात्रा 
युगे युगे भवन्च्येते 
युगक्ष॑षु च यत्तोयम्‌ 


युग्मान्देवांरच पिच्याद्न `" 
युग्मास्तु प्रादुमृखान्‌ विप्रान्‌ 


युड्जतः क्लेशमुक्ट्य्थम्‌ 
गुदधोत्सुकोऽटमव्य्थम्‌ 
युधिष्ठिरादप्रतिविन्ध्यः 
युयुधे च बलेनास्य 
गुवयोर्घातिता ग्मः 
युष्मरोरदण्डपम्भूति° 
गुष्महत्तदरो वाणः 
युष्माकं तेजसोऽरदेन 

ये कामक्रोधलोभानाम्‌ 


येच त्वां मारवाः प्रातः. 


ये तु देवाधिपत्तयः 
पेतु ज्ञानत्रिद. शुद्ध 
ये त्वनेकवसुप्राणण 

ये त्वामार्येति दुर्गेति 
येन तात प्रजावृद्धौ 
येन केन च योगेन 
येन द॑ष्टाग्रःवधृता 
येन प्राचुर्धण 

येन स्वर्गादिहागम्य 


येनाभिनिविचुद्रविरदिममाला 


येमेदमावृतं सवम्‌ 
येऽपि तेषु 

ये बान्धवाबान्धत्रा वा 
ये भविष्यन्ति ये भूताः 
ये ये मरीचयोऽकंस्य 


येयं नित्या स्थितिर््रहयन्‌ .. 


येषामर्थे रजिरात्तायुधः 
येषां तु कालपुष्टोऽपौ 


येषां न मात्तान पितान बन्धुः 
ये साम्प्रतं ये चनुपा भविष्याः 


ये हन्तुमागता दत्तम्‌ 
यैः स्वधर्मपरैनाथ 
योगयुक्‌ प्रथमं योगी 
योगस्वरूपं खाण्डिक्य 
योगनिद्रा यश्लोदाधाः 
योगनिद्रा महामाया 
यो गङ्ख यापहूृते 


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२ 


अंशाः अध्या० श्टोका 


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१। 


इटोकाः 
यो गङ्खाङ्खतः 
योगभ्रभावास्रह्ुदे 
योगिनो विविधै पैः 
योगिनो मुक्तिकामस्य 
योगिनाममृतं स्थानम्‌ 
योग्यास्पवक्रियाणां तु 
योजनानां सहस्रणि 
योजनानां सहं तु 
योनिस्तोया वितृष्णा च 
योऽनन्तः पुथिवीं धत्ते 


योऽनन्तरूपोऽखिलविदवरूपः 


योऽन्तस्ति्टन्नशेषस्य 
यौऽनन्तः पट्यते सिद्धैः 
यो भवान्यश्चिमित्तं वा 
यो मुखं सर्वदेवानाम्‌ 

यो पे मनोरथो नाथ 

यो य्य फलमद्नन्वं 

यो यज्ञपुरुषो यज्ञः 

यो यज्ञपुरुषं विष्णुम्‌ 
योऽयमंशो जगत्सुष्टि 
यो योऽदवरथनाग।ढचः 
योऽयं गजेन््रमुन्मत्तम्‌ 
योऽयं साभ्वतम्‌ 

योऽयं साम्धरतमवनीपतिः 
योऽयं रिपुञ्जयो नाम 
यो वे ददाति बहुलम्‌ 
योषिच्छुभ्रषणा दत्तः 
योषितो नावमन्येत 
योऽसाबुदकस्य महष 
योऽसि सोऽसि जगस््राणण 
योऽसौ निःक्षत्र 

योऽसौ योगसास्धाय 
योऽसौ यज्ञवाटमखिलम्‌ 
योऽसौ मगवदंशम्‌ 
योऽसौ याक्नदत्वयात्‌ 
योत्स्येऽहं भवताम्‌ 
योऽस्ति सोऽहमिति ब्रह्मन्‌ 
योऽहं स त्वं जगच्चेदम्‌ 
यौधेयी युधिष्ठिराददेवकम्‌ 
यं यं कराभ्यां स्पृशति 

यं हिरण्यनाभो योगम्‌ 


७५०४ 


भंसाः अध्या० श्टोकद्गाः 


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१८ 
२० 
११ 
२२९ 


१३ 


५ ~ ६ 


( ६०८ ) 


२८ 








श्टोकः 
यः शवेतस्योत्तरः शैः 
यः सर्वेषां विमानानि 


यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटप्रकाशः 
र्‌, 


रक्षतु त्वामरोषाणाम्‌ 
रोध्नमन्तरपठनम्‌ 
रक्षांसि तानि ते नादाः 
रद्खोपजीवी कवर््तः 
रजदद्रेकप्ररितेकाग्रमत्िः 
रजिनापि देवसैन्य० 
रजेस्तु सन्ततिः 

रनेस्तु पञ्चपुत्रश्शतानि 
रजोमात्रार्मिकामन्याम्‌ 
रजोमात्रात्मिकामेव 
रणञ्जयात्सञ्जयः 
रत्नधातुतै्र 

रत्नभूता च कन्येयम्‌ 
रत्नं वस्त्रं महायानप्‌ 
रथस्त्रिचक्रः सोमस्य 
रम्भस्त्वनपत्योऽभवत्‌ 
रम्भातिलोत्तमाद्यास्तु 
रम्भातिलोत्तमाद्यास्तम्‌ 
रम्यकं वोत्तरं वर्षम्‌ 
रम्यो हिरण्वान्षष्ठस्व 
रम्योपवनपर्यन्ते 

रम्यं गीतध्वनि क्रुत्वा 
रविचन््रमसोर्यावत्‌ 
रसमातच्राणि चाम्भांसि | 
रसातले मौनेया नाम 


रसातरगतद्चसौ 
रसेन तेषां प्रख्याता 


राघवत्वेऽमवत्सीता 
राजमागे तत्त: कृष्णः 
राजवदधनास्सुवुद्धिः 
राजन्यवैश्यहा ताटे 
राजन्नियम्यततां कोपः 
राजपुत्र यथा विष्णोः 


राजा तु प्रागल्म्यात्तामाहू 


राजासनस्थितस्याद्कुम्‌ 
राजासनं राजच्छन्रम्‌ 
राजप्यमषवशादन्धकारम्‌ 
राजापि चतौ मेषौ 


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भंजञाः अध्या शोकाङ्काः 


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१५ 
२०१ 


४ 
१५ 
१२ 


७४ 
१२१ 
१३ 


१४ 
३० 
२६ 
२१ 


श्टोकाः 
राज्ञां चाथ्ववेदेन 
राकां वैधवणं राज्ये 
राज्यमूर्वी बकं कोशः 
र।उ्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता 
राज्ये गृष्नन्त्यविदांसः 
राज्येऽभिषिक्तः कृष्णेन 
राज्यं भुक्त्वा यथान्यायम्‌ 
रात्रौ तं समलङ्कृत्य 
राम राम महाबा 
रामोऽपि बराल एव 
रासमण्डलबन्धोऽपि 
रासगेयं जगौ कृष्णः 
रिपुं रिपुञ्जयं विप्रम्‌ 
रविमिपी साभवत्प्म्णा 
रूकिमणीं चकमे कृष्णः 
रचिरादव कार्यदृढहनु 
रुचिरङ्मपुत्रः पुथुमेनः 
रुदता दृष्टमप्माभिः 
सुद्रपु्रस्तु सावणिः 
शद्रः कालन्तकाद्यस्च 
रुधिराम्भो वैतरणिः 
सरोद सुस्वरं सोऽथ 
रूपकर्मस्वरूपाणि 
ूपसम्पत्समागुक्ता 
रूपेणान्येन देवानाम्‌ 
रूपौदार्यगुणोपेतः 
रूपं गन्धो मनो बुद्धिः 
ख्पं महत्ते स्थितमत्र विदत्रम्‌ 
रेखाप्रमृत्यथादित्ये 
रेणुमत्यां च नकुलोऽपि ` 
रेतोधाः पुत्रो तयति 
रेवतस्यापि रवतः पुत्रः 


रेवतीं नाम तनगराम्‌ 
रेवती चापि रामस्य 
हवतेऽप्यन्तरे देवः 
रोमाञ्चिताद्धः पदसा 
रोपहू्षणनामानम्‌ 
रोमपादाद्ब्भ्ुः 
रोमपादाच्चतुरङ्गः 
सद्राण्येतानि रूपाणि 
२ कट्च क्षय 


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२३ 
१४ 

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१८ 
१३ 
३५ 

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११ 
१३ 
१३ 
२७ 


( ६०९ ) 


अंशाः अध्या० श्छोकद्ुः 


१४ 





इछोकाः 


लक्नप्रसाणौ द्रौ सष्पी 
लक्ष्मणमरतशवुध्न° 
लक्षमीवरिष्ण्वग्निसूरयादि 
ऊम्बायद्ववर घोषोऽथ ` ` 
कक्षा्ांसरसानां च 
लाद्खलासक्तरस्ताप्रः 
कालासक्षे स याद्यतर 
लिङ्खधारणमेवाश्रमहैतुः 
लेलिहानस्सनिष्पेषम्‌ 
लोकातममूत्िः सर्वेषाम्‌ 
लोकालोकस्ततश्शेलः 
लोकाक्षिर्नौधमिश्चैव 
लकारो कद्व यद्शेलः 
लोभाभिभूता निःश्रीकाः 
कोटुपा हुस्देहास्च 


वक्षसो रजसौद्रिक्ताः 
वक्षःस्थं तथा बाहू 
वद्धा ब्राह्मणभूयिष्ठा 
यच्रपाणिर्महागभम्‌ 
वचस्य प्रतिबाहुः 
वचर चेदं गुहाणत्म्‌ ` ` 
वत्सपालौ च संवृत्तौ 
वत्सप्रीतेः प्रादुरभवत्‌ 


वप्स त्वन्मातामहश्षापादियम्‌ ˆ“ 


वत्स कः कोपहतुः 
त्म वत्स सुधोराणि 
वत्सालमेमिर्जीवन्‌ 
वत्सादच दीनवदना: 
वदिष्याम्यनृतं ब्रह्मन्‌ 
वनरा्जि तथा कुनद्‌० . 
वनस्पतीनां राजानम्‌ 
वनानि नद्यो रम्थाणि 
ब्रन व्रिनरतस्तस्य 
वनं चैत्ररथं पूर्व 
वन्यस्नेहिन गात्राणाम्‌ 
वयमप्येवं पुत्रादिभिः 
वयमस्मान्पहाभाग 
वयम्परिणतौ संजन्‌ 
वरदायदिमेदेत्रि 
वद्णप्रहितां चास्मै 
चरणष्चा' "व्‌ 


४ 


व्‌. 


अंङाः अध्या० शोकाद्काः 


र्‌ २ ११ 
1 ४ ९९ 
२ २ ४७ 
१ १५ १०९ 
२ ६ १९ 
२ १८ 
२ ६ १६ 
४ २४ ८२ 
५ १४ र 
१ २२ ८१ 
२ ४ ९५ 
६ द 
२. ८ ८४ 
१ ९ ३३ 
द १ २८ 
१ द ४ 
२: १३ ^ 
२ ४ ७9 
१ २१ ३८ 
४ १५ ५२ 
५ ३१ ॥। 
५ ६ ३१ 
1 १ २१ 
४ १५ ९ 
१ ११ १३ 
१ १२ २३ 
1 ३ ४४ 
५ ११ ` १२ 
१ १५ ३४ 
५ १३ १५ 
१ २९ ९ 
२ ५ १५ 
५ २५ १ 
र्‌ २ २४ 
३ ९ २९ 
1 २ ७५ 
५ १३ २ 
३ ९ १८ 
१ ९ १३६ 
५ २५ १६ 
२ १ 3३३ 


्छोकाः 
वरेणच्छन्दयामास 
वरं वरय तस्मास्वम्‌ 
वर्ज्यानि कुर्वता श्राद्धम्‌ 
वर्णधर्मास्तिथाख्याताः 


वर्णधर्मादयो धर्मा 
वर्गश्विमविरद्धं च 
वर्णाश्नमाचारवती 
वणनि।माश्चमाणां च 
वर्णास्तित्राणि चत्वारः 
वर्णाश्रमेषु ये धर्मः 
वर्णाश्चपाचारवन 

वर्णेन केपिशेनोभ्र° 

वर्षतां जलदानां च 
वरषत्रयान्ते च वभरप्रभेन° 
वर्षचिदेषु रम्येषु 
वषचिलास्त सप्तैते 
वर्षाणां च नदीनां च 
वर्षात पादिषुच्छत्री 

वर्षेषु ते जनपदाः 
वर्वैरेकगुणां भार्यम्‌ 
यलित्रिभङ्धिना मग्न `` ` 
वल्गन्ति गोपाः कृष्णेन ` `` 
वेल्गता मृष्टिकिनैव 
वटमीकमूपिको दधताम्‌ 
ववल्भतुस्ततो रद्ध 
वरयता परम तैन 

वसन्ति तत्रे भूतानि 
वसति मत्तमि यस्य 

बसति हदि सनातने च 
वसवी मरतः साध्याः ` 
वसतां गोकुले तेषाम्‌ 


वसिष्ठोऽप्यनेन समन्वीम्सितम्‌ "^" 


वसिष्ठं च होतारम्‌ 
व्तिष्ठश्वापूत्रेण राज्ञा 
वसिष्ठशापाच्च पृष्ठ 
वसिष्टः काङ्यपोऽयात्रिः 
वसिष्ठतनया ह्येते 
वसिष्ठचरैदयातारैः 
वसुदेवस्य जातम्‌ 
वसुदेवस्य त्वानकदुनदुभैः 
वशुदेवस्य या पलगी 
वसुदेवेन कसाय 
वसुदेवोऽपि विन्यस्य 


अंशाः अध्या श्लोका्गाः 


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३१ 
७७ 








क्टोकाः 
वुदेवोऽपि तं प्राह 
वेसुदेवसुतौ तत्र 
वसुदेवस्य तनप्रः 
वस्तु राजेति यद्छोके 


वस्त्वस्ति कि कुतचिदादिमध्य० ""' 


वस्त्वेकमेव दुःखाय 
वस्त्ररिवमहतादित्य० 
वहन्ति पन्नगा यक्षैः 
वहन्ति पन्नगा यक्षैः 
वद्भिश्च वायुना वायुः 
व्भिना पाथिवे धातौ 
वह्जिस्यालो सैषा 
वह्िना येऽश्नया दत्ताः 
वद्धिः प्रभा तथाभानुः 
वाडूमनःकायजनैदषिः 
वाया वृद्धाश्च वै देवाः 
वाच्यश्च पौष्डरी गत्वा 
वाच्यठ्च इारकावासौ 
ताजिरूपधघरः सोऽथ 
वाद्यमानेषु तूर्येषु 
वानप्रस्था भविष्यन्ति 
वानप्रस्थविधानेन 
वातापी नवुचिस्चैव 
वामनो रक्षतु सदा 
वामपादाम्बुनाङ्गुष्° 
वामपादस्थिते तस्मिन्‌ 
वायण्णरं बायवे दिक्षु 
वायुभूतं मखधष्ठैः 
वायुना चाहृतां दिन्याम्‌ 
चायोरपि गुणं स्पर्शम्‌ 
वाण्वगिनद्रव्यसम्भूतः 
वाराहं द्वादशं चैव 
वारिवह्वयनिलाकाशेः -- 
वाय्थुधग्रतोद।स्तु 
वायवः सन्ततैयस्याः 
बा्ततराजेकपादर्े 
वासुदेवोऽपि हारकामाजगाम्‌ 
वाभुदेवारमकं मूढ 
वासुदेवे मनो यस्य 
विकासाणुस्वरूपैश्च 
विकाले च समं गोभिः. . 
विकासिनेत्रयुगलः 
विका्षिमुखपद्माम्याम्‌ 


५ 


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१५ 
२३ 
१३ 
१२ 


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अंशाः अध्या० श्टोकाङ्काः 


२ 
१४ 
२५ 
९९ 
४१ 
४५ 
१७ 


श्लोकाः 
विकासिशरदम्मोजम्‌ 
विकोणी ही विकोणस्थ 
विचरन्‌ बरदेवोऽपि 
विचिन्त्य तौ तदा मेने 
विचित्रवीर्योऽपि काशिराज 
विच्छिन्नाः सवसन्देदाः 
विजयश्च धूति पुत्रम्‌ 
विजयिनं च राजानम्‌ 


विजितस्कलारातिरविहतैदधिय 
विजितास्त्रिदशा दैन्यैः 
विज्नात्तपरमार्थोऽपि 
विज्ञानं प्रापकं प्रापये 
विज्ञानमयमेवेतत्‌ 
विज्ञाय न बुषाश्शोकम्‌ 
वितथस्यापि मन्यु 
वित्तेन भत्रिता पुंसाम्‌ 
विदितलोकापव्रादवृत्तान्तक्च 
विदिशासु त्शेषासु 
विदिताखिरविज्ञानः 
विदितार्थातु तामाह 
६ "दितार्थस्स तेनैव 
विदुर धाच्छररः श्राच्छमी 
विद्यया « पे यया युक्तः 
विधाविति ` मैत्रेय 
विद्यावुद्धिरविर "याम्‌ 
विद्याविद्ये भवान्५. भू 


विद्युल्लताक्रशाघात° 

विहरूमो हिमशैलश्च 
विद्धिष्टपतितोन्मत्त° 
विधिनावाप्तदारस्तु 
विनाशं कर्वतस्तस्य ^ 
विनाकृता न यास्यामः * 
विना चोर्वशया भुरलोक० = “*“ 
विना रामेण मधुरम्‌ “ 
विनिन्धेत्थं स धमन्ञः 

विनिन्दकानां वेदस्य """ 
विनिर्जगुयतो वेदाः 
विनिष्पन्नसमाधिस्तु "" 
विनिःदनस्येति कथिते " 
विपरीतानि दृष्ट्वाच 

विपाटितो्ठो बहुलम्‌ ^“ 
विपुलः परिचमे पार्थ ““ 


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२०५ 


( ६११ ) 


असाः अध्या० शोकाद्काः 


५५ 
१८ 

५ 
२३ 


३६ 


६ 
२४ 
२४ 
७७ 
द 
१५ 
९३ 
१७ 
धट 
२० 
१६ 
३६ 
१५ 
१४८ 
१६ 





र्छीकाः 
विप्रस्यैतद्‌ द्रदशाहम्‌ 
विबुधाः सहिताः सर्वे 
विभावरी श्रौदिवसः 
विमं सर्वगतं नित्यम्‌ 
विभूतयरव यास्तस्य 
विभैदजनकेऽन्नानें °^ 
विमलाम्बरनक्षत्र 
व्रिमरमतिरमत्सरः प्रशान्तः 
विमानमागतं सद्यः 
विमुक्तराजतनयः 
विमुक्तये त्विदं नैतत्‌ ^ 
विमुक्तो वसुदेवोऽपि 
विमोहयसि मामीश 


विरजाहबोर्वरौवांश्च ^" 
विराधरसरदूषणादीन्‌ 
विरूपीत्पृपदश्वः *““ 


तरिरोधं नोत्तमेगच्छेत्‌ 
वरिकासनावयपानेषु 
विलागललितं प्राहु 
विलोचने रात्र्यहनी महात्मन्‌ "^" 
विलोक्य नृपतिः सोऽथ 
वरिलोक्याटम जयोद्योगम्‌ 
तिरोव्यैका भुवम्‌ 
विषछोक्य मथुरां कष्णम्‌ 
विवर्धयिषवस्ते तर 
्रिवस्वान्मतिता चैव 
विवस्वानष्टमि्मिः 
व्रिहस्वानंसुभिस्तीष्णेः 
विवस्तानुग्रधेनश्च 
विवस्वानुदितो मध्ये " 
विवस्वतस्सुतो चिप्र 
विवक्षौः स्तेम्भयामास 
व्रिवाहा न कलम धर्म्याः 
विवाहार्थं ततः सर्वे 
विवाह तत्र निर्वृत्ते 
विदाखानां चतुर्थेऽर 
विशगुद्धबौधवच्नित्यम्‌ 
विरशेषान्तास्ततस्तेम्यः 
विष्वाच्या देवयान्या च 
विद्ामित्रप्रयुक्तेन 
विशवात्रसुर्भरद्राजः 
विद्वामित्रपुत्रस्तु 


(¬> ¶1 नाथा; 0 


अंशाः अध्याण श्वोकाद्वुः 


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१३. 


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१६ 
८४ 
२९१ 
६७ 
३० 
९६ 
१६ 
२४ 
७४ 


शोकाः 
विदवेदेवास्पपितरः 
विहवेदेवाग्विश्वभूतान्‌ 


विष्वं भवान्सृजति सूर्यगभस्तिरूपः 


विषयेभ्यस्समावृत्य 
विषयेभ्यस्समाहूत्य 
विषाणमद्धमुन्मत्ताः 


विषाणाग्रेण मदूबाहुम्‌ 


विषानलोज्ज्वलमुखाः 
विषाग्तिना प्रसरता 


विषुवे चापि सम्प्राप्ते 


विष्कभ्मा रचिता मेरोः 


विष्टरार्थं कुशं दत्वा 


विष्ण्वाधारं यथा चैतत्‌ 


विष्णुचक्रं करे चि्ञम्‌ 
विष्णुर्मन्वादयः कालः 


विष्णुपादविनिष्करान्ता ` 


विष्णुसंस्मरणाक्षीम० 


विष्णुरकत्या महाबुद्धे ` 


विष्णुरदवतरो रम्भा 
'विष्णुमाराध्य तपस्त 
विष्णुशकितरनौपम्या ` 
विष्णुप्रसादादनघः 


विष्णुस्समस्तन्दियदेहदेहौ 


विष्णुरत्ता तथैवाक्षम्‌ 
विष्णुस्हेषां प्रमणं च 


` विष्णुह्वित्तः पसा प्रोक्ता 


` विष्णुं ्रसिप्णुं विद्वस्य 
विष्णुः पितुगणः परमा 
विष्णुः शस्त्रेषु युष्मासु 
विष्णोस्तस्य प्रभावेण 
विष्णोः सकारादुदुभूतम्‌ 
विष्णोः स्वल्पात्परतः 
दिष्वर्ज्योतिःप्रधानास्ते 
विसस्मार तथात्मानम्‌ 

` विसर्गशिल्पगल्युवित ` 

विसर्जनं तु प्रथमम्‌ ` 

विस्तारः सर्वभूतस्य 

विस्ताराच्छाल्पमलस्यैव 

विश्तार एष कथितः 

विस्तारिताक्षियुगलः 

विह्‌।राचुपभोगेषु 

धिशतिस्तु सहृखाणिं 

` वीथ्याश्रयाणि ऋक्षाणि 


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१४ 
११ 
१८ 


अंशाः अध्या० दलीकष्भुाः 


३ 
४७ 








रोका 
वीरमादाय वं साम्बम्‌ 
वी रुधौषधिनिष्पतत्या 
वीर्यं तेनो बलं चाल्पम्‌ 
वुकाद्यादेव सुता माद्रचां 
वृक्षग्रगर्भपतम्भूता 
वृक्षाणां पर्वतानां च 
वृक्षादृदार ततदचेयम्‌ 
वृक्षारूढो महाराजः 


वृतो मयायं प्रथमं मयायम्‌ 


वृतं वापुकिरम्भाचैः 

वृ व्यर्थं याजयेचवरास्थान्‌ 
वृथा कथा वृधा भोज्यम्‌ 
तुधैवास्मामिः शतधनुः 
वृढोऽहं मम कार्याणि 


वृन्दावनमितः स्थानात्‌ ` 


वृन्दावनं भगवता 
वृन्दावनचरं घोरम्‌ 
वृषस्य पुत्रो मधुरभवत्‌ 
वृषाकपिश्च शम्भुश्च 
वृष्टया धृतमिदं सर्वम्‌ 
वुष्णेः सुमित्रः 
वृष््यन्वककुलं सर्यम्‌ 
वेगवतो बुघः 
वेणुरन्प्रभेदेन 
वेदवादविदो विद्वान्‌ 
वेदयक्लमयं ल्पम्‌ 
वेदवादांस्तथा वेदान्‌ 
वेदना स्वसूतं चापि 
वेददूषयिता यश्च 
वेदमेकं चतुभंदम्‌ 
वेदहुमस्य मेत्रेय 
सेदन्यासा व्यततीताये 


` वेदविच्छ्रोतरियो योगी ` 


वेदवादधिरोधवचन° 
वेदमार्गे प्ररीने च 
वेदादानं करिष्यन्ति 
वैदाभ्यासक्कृतप्रीती 
वेदान्तवे देवेश 
वेदाह्‌ रणकार्याय 
वेदाद्धानि समस्तानि 
वेदस्तु द्वापरे व्यस्य 
वेदे द्रुमस्य मैत्रेय 
वैवानो वापि भवेत्‌ 


० ७ च = ७ क क्ल ० त च ध ४ ५ छ ल ~= = = = ७ ज तल न्द © ~= जु च्ल नल च्ल == न्ट 9 ध त्त म्द ~ छ ^= ~> +< “० ~ल १, - 


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१४ 


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१ 
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अंशाः अध्या शोकाद्गौः 


२६९ 
१४ 


१०० 


रटीकाः 
वैन्यो नाम महीपालः 
वैरानुबन्धं बलवान्‌ 
वैरे महति यद्राक्यात्‌ 
वैवस्वताय चैवान्या 
वैशम्पायन एकस्तु 
वैराखशुक्लद्वादश्याम्‌ 


ैशाखलमासस्य च या तृतीया "^" 


वैसाल्थां च कौशिकम्‌ 
वेरयास्तवोरजाः द्राः 
वेश्यानां मारतं स्थानम्‌ 
वैश्याः कृषिवणिञ्यादि 
वैष्णवोंऽशः परः सूर्यः 
वंशसंकीर्तने पुत्रान्‌ 
वंशानां तस्य कृत्वम्‌ 
व्यक्तस्स एव चाग्यक्तः 
ग्यक्ताग्यकतस्वल्पस्त्वम्‌ 
व्यवताग्यक्तारिमका तस्मिन्‌ 
व्यक्ते च प्रकृती सीने 
व्यक्तं विष्णुस्तथाव्यक्तम्‌ 
व्यक्तं प्रघानपुहपौ 
व्यग्रायामथ तस्यां सः 
ग्यतीतेऽरदरात्र 

व्यश्च नभसि देवेन 
व्याख्यातमेतदुतब्रह्याण्ड० 
ग्याख्यता भवता सर्ग० 
व्यादितास्यमहारन्प्रः 
व्यादिष्टं किद्कुराणां तु 
व्धापारदचापि कथितः 
व्याप्तिन्यप्यं क्रिया कर्ता 
व्यासवाक्यं च ते स्वे 
व्यासदचाहे महानुद्धिः 


व्योमानिलाग्निजकमूर्वनामयाय 


व्रजतस्तिएठतोऽन्यहा 
व्रतच्यपिरोग्रह्या 
व्रतानि वेदवेद्याप्ति० 
व्रतानां लोपक्ो यश्च 
त्रीहुयद्च यवाश्चैव 
वरीहुयस्सयवा माषाः 
व्रीहिबीजे यथा मूलम्‌ 


शकेयवनकाम्बोज० 
दकुनिप्रमुखाः पञ्च।शत्‌ 
शक्तयो यस्य देवस्य 
दक्तयः सर्वभावानाम्‌ 


< 0 ~) =< च्ल न्द == > 59 ल) ~< त == = द 0 ~= = ्८ ~< ~< < 2 ~ ^< 


अंहाः अध्या० शोकाद्काः 


१ 


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१३ 
३६ 
१ 
१५ 
५ 
३२ 
१४ 
१५ 
१२ 
प 
१ 


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१० 


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र्टोकाः 
शर्वित गुहस्य देवानाम्‌ 
दाविति: पापि तथा विष्णुः 
राक्रस्समस्तदेवेभ्यः 
राक्राकंएद्रवस्वरिव० 
दक्र पत्रो निहन्ताते 
शङ्करो भगवाज्छौरिः 
राद्धुचक्रगदाकार्ज्ुर 
राह्ुश्रान्तेन गोविन्दः 
शद्ुश्वेतो महापद्मः 
शद्खुकुन्दनिभाश््वान्ये 
दाली च सत्यमामायै 
दाचोविभूषणार्थाय 
दतधनुरपि तां परित्यज्य 
रातघनुरप्यतुलवेगाम्‌ 
रातक्रतुरपीन्द्रत्वं चकार 
दातल्पां चतां नारीम्‌ 
दातद्रचन्द्रमागादयाः 
दातानोकादरवमेधदत्तः 
दातानन्दात्सत्यधुक्तिः 


रातार्धंसंख्यास्तव षन्ति कन्याः 


शतानि तानि दिन्धानाम्‌ 
दातुध्नेनाप्यमित० 
दानकेररनकंस्तीरम्‌ 
रनेश्डनैर्जगौ गोपी 
दाप्त्वा चैवं साग्निम्‌ 
रष्दादिभिदच सहितम्‌ 
राम्दादिष्त्रनुरवंतानि 
शब्दादिहीनमजर० 
दान्दादीनामवाप्तयर्थम्‌ 
शब्दादिभिरगुण््रह्यन्‌ 
ल्दोऽहमिति दोषाय 
रमोगभं चार्वत्थम्‌ 
शमं नयति यः क्रुद्धान्‌ 
शम्बरस्य चे मायानाम्‌ 
शम्बरेण हूतो वीरः 
शम्भोर्जंटकिलापाच्चं 


शयनसमीपे ममोरणकद्यम्‌ 


रय्परास्नोपभोगङ्च 
शरत्सर्याशुतप्तानि 
दारदतर्वाहल्थायाम्‌ 
शरणं ते समभ्येत्य 
शरान्मुमाच चैतेषु 
शरी सारोगपमेस्वयम्‌ 


अंगाः अध्याण श्टोकाघ्रुाः 


० ५ ५ ~ ज ० नल ^< क्ल ०0 रल == ग< = ~ ८४ 9 €) च 


५८ 


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२ 


२५ 
६ 


१२ 
३९ 
६७ 
१७ 
३३ 
४ 
४१ 
५१ 
२१ 
३४ 
२६ 
४१ 
६४ 
६१ 
१४ 


१२५ 


शरीरेन चते व्याधिः 
शरीरिणी तदाभ्येत्य 
शमेति ज्राह्यणस्योकतम्‌ 
कायति; कन्या सुकन्या 
शशाङ्कः ध्रोधरः कान्तिः 
शशादस्य तस्य पुरञ्जयः 
शस्त्राणि षातिताभ्यङ्ध 
शस्त्राजीवो महीरक्षा 
रास्त्रास्व्रवषं मुञ्चन्तम्‌ 
शस्तरास्त्रमोक्षचतुरम्‌ 
शाकद्रौपेङवरस्यापि 
शकदीपे तु तैपिष्णुः 
शाकटरीपस्तु मैत्रेय 
दाख।मेदास्तु तेषां वै 
शाणीप्रायाणि वस्त्राणि 
शन्तनुस्तु महीपालोऽभूत्‌ 
शास्तनोरप्यमरनद्याम्‌ 
शारीरं मानं दुःखम्‌ 
शाङ्खगचक्रगदापाणेः 
शाद्धशह्भुगदाखलड्ग° 
श्लालम्रामे महाभागः 
शालग्रामं महेपुण्यम्‌ 
शात्मिः सुमहान्वृक्षः 
शाल्मले येतु वर्णाश्च 
शाल्मलेन समुदरोऽसौ 
शामलस्येरते वीरः 
शाल्मले च वपृष्मन्तम्‌ 
शाल्मलस्य तु विस्तारात्‌ 
शावस्तस्य बुहदहवः 
शास्ता विष्णुरशेषस्य 
क्षिदधिवासाः सवैदूर्यः 
शिबिकां च धनेशस्य 
शिविकायां स्थितं चेदम्‌ 
शिबिका दार्सङ्कातः 
शिबिरिन्द्रस्तथा चासीत्‌ 
क्िरस्ते पातु गोविन्दः 
शिसेरोगप्रतिक्याय० 
लिवाक्व शतशो नेदुः 
शिशुपालत्वेऽपि भगवतः 
शिशुमाराकृति प्रोक्तम्‌ 
शिबुमारस्तु यः प्रोक्तः 
दिष्यानाहू स भौ रिष्याः 
शिष्येभ्यः प्रददौ तास्व 


11, 1। 


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शिष्यः काल यनिरगर्ः 
दिष्यः परमधमंज्ञः 
शीतव तिोष्णव्षम्ब° 
सीताम्भद्च कुमुन्दरच 
शीर्षण्यानि ततः खानि 
शुकी श्येनी च भाषीच 
शुरक्लकृष्णाषणाः पीताः 
शुकलादिदीर्घादिघनादिहीन° 
शुचिवस्त्रधरः स्नातः 
शुचिरिन््रः सुरगणाः 
शुद्धे च ताषां मनसि 
शुदे महाविभूत्याख्ये 
रुद्धः सूक्ष्मोऽखिव्यापी 
शुद्धः संलक्ष्यते भ्रान्त्या 
शुनकं पृच्छ राजेन्द्र 
शुभाश्रयः स चित्तस्य 
दुष्कैस्तृणैस्तथा पर्णैः 
शूद्रस्य सप्नतिर्बौचम्‌ 
दूदरदच द्विजशुश्रूषा 
शूरस्यापि मारिषा नाम 
शूरस्य कुन्तिना 
शूलेष्वारोप्यमाणानाम्‌ 
श्युणु मैत्रेय गोविन्दम्‌ 
शृणोति य दमं भक्त्या 


श्युणोष्यकर्णः परिपदयसि त्वम्‌ "^" 


१०७९ 


शैलानामन्तरे द्रोण्यः 

रै खानुत्पाट्य तोयेषु 
शेरैराक्रान्तदेहौऽपि 

रौ रराक्रान्तदेहीऽपि 
दौग्यसुग्रीवमेघपुष्प० 
रोभनं ते मतं बस्स 
शौचाचारत्रतं तव 
दौनकस्तु द्विधा कृत्वा 
शौरिरबृहस्पतेक्चोध्वंम्‌ 
स्यामाकास्त्वथ नीवाराः 
दयेनी दयेनांस्तथा भासी ` ` 
श्रद्धया चान्नदानेन 
श्रद्धाबरद्िः कृतं यत्नात्‌ 
श्द्धासमन्वितैर्दत्तम्‌ 
शरद्धा लक्ष्मीधृतिस्तुष्टिः 
श्रद्धा कामं चक्रा दर्पम्‌ 
श्रद्धाधर्मेरशेषेस्तु 
शरद्धाहुमागतं द्रभ्यम्‌ 


१७०५ 


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श्छोकाः 
श्राद्धे नियुक्तौ भुक्तवा वा 
श्रोदाम्ना संह गोविन्दः 
श्रीदामानं ततः करष्णः 
श्रीवत्सवक्षसं चारु 
श्रौवस्साङ्घु महद्धाम 
श्रीवतसंस्थानघरम्‌ 
शरुतकीतिमपि केकयराजः 
श्रुतदेवां तु वृद्धधर्म 
श्रुतश्रवसमयपि 
शरृतामिलपिता दृष्टा 
धत्वा तत्सकलं कंसः 
शरुत्वा न पुत्रदारादौ 
भ्रूत्वेद्थं गदितं तस्प 
भ्रुत्वैतदाह सा कुभ्जा 
श्रुयतां नुपशादूल 
श्रूयते चापि पितृभिः 
ध्रूयते च पुरा स्यातः 
धयन्तं गिरयश्चेव 
शरूयतां मुनिक्चादूल 
श्रुयतां सोऽहमिल्येतत्‌ 
धयतां तात रक्षामि 
श्रयतां परमार्थो मे 
श्रयतां पृथिवीपाल 
श्रेयस्थैवमनेकानि 
श्रेयः किमव संसारे 
धोतुमिच्छाम्यहुं त्वत्तः 
श्रौते स्मार्ते च धर्मे 
रलथदुग्रौवाङ््िहस्तोऽथ 
दलेष्मशिद्ुणिकीत्सगंः 
दलो कोऽप्यत्र गोयते 
रव चाण्डाटविहद्धानाम्‌ 
श्वफल्कतनयं शूरम्‌ 
दत्रफटकस्यान्यः 
दइवफल्कादक्रूरो गान्दिन्याम्‌ 
द्वभोजनोऽपाप्रतिष्ठः 
श्वधृरवशुरमूयिष्ठाः 
दवापदाद्िखुरा दस्त 
दवेतञ्च हरितं चैव 
 दवेतोऽथ हरितक्चैव 
दवेतं तदुत्तरं ब्षम्‌ 
दवोभाविनौ विवह तु 


प्रड्गुणेन तपोकोकात्‌ 
षडेव रादीन्यो भुद्बते 


अंशाः अध्या० कशोकाङ्काः 


६ 


५ 
५ 
५ 
५ 
१ 
४ 
1 
४ 
र्‌ 
५ 
र 
१ 
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२ 
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३ 
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५ 
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४ 
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६ 
१ 
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१८ ४१ 

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२२ ६९ 

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१५ ४ 

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१२ ५४ 

२० ७ 

१५ २ 

१६ १७ 

१८ ५२ 

१० ३४ 
६ ६ 

१३ ८० 

१७ १४ 

१७ ५५ 

११ २ 

१४५ १६ 

१३ प 
१ २ 

२४ ९८ 
५ ३७ 

१२ २९ 

१ ६० 

११ ५५ 

१५ ९ 

१४ ६ 

१४ ७ 
६ ५ 
१ ५५ 
५ ५३ 
४ २९ 
४ २३ 

१ २१ 
९९ ६ 
१५ 

४६ 








इटोकाः 

षडेते मनवोऽतीताः 
षण्डापविद्धचाण्डाल० 
षण्डापविद्धप्रमुखाः 
षष्िविषंसहस्राणि 
षष्टिपुत्रसहस्ताणि 
षषठेऽ्ि जातमात्रे तु 
षष्ठे मन्वन्तरे चासीत्‌ 
षोडशस्त्री सहस्राणि 


स ईरवरो व्यष्टि्षमष्टिषूपः 
सं ऋट्‌मयस्साममयः | 
स एव क्षोमको ब्रह्मन्‌ 

स एव सर्वभूतात्मा 
स एव सु्यः स च सर्गकर्ता 
स एव मृलग्रकृतिः 

च एव भगवालूनम्‌ 

स कल्पयित्वा बत्संतु 
सकछमिदमजस्य यस्य ल्पम्‌ 
सकरपन्नगधिपरतयदच | | 
सकमिदमहं च वासुदेवः 
सकल्य।णोपभोगैश्च 


सकलभुव्रनसूतिमूतिरल्प।त्य० 


सकलक्षत्रियक्षयकारिणम्‌ 
सकलयादवसमक्षम्‌ 
स्कलावरणातीत 

स कल्पस्तत्र मनवः 

स कारणं कारणतस्ततोऽपि 
सफामनेव सा प्रोक्ता 
सकाशमागम्य ततः 
सकृदुच्चारिते वाक्ये 

स वैरिचत्सम्परिष्वक्तः 
सक्तुयावकवाटुयानाम्‌ 

स सुरक्षतभूपृ्ठः 

सख्यः पश्यत कृष्णस्य 
सख्यः पयत चाण्रम्‌ . . 
स गत्वा त्रिदशः सर्व 
सगरः प्रणिपत्यैनम्‌ 
सगरोऽपि स्वमधिष्ठानम्‌ 
सगरोऽप्यवगभ्याश्वानुसारि° 
सगरोऽप्यहवमादाय 

स गाधिर्नामिपुत्रः 
सद्कुल्पादुर्शनात्सपर्त्‌ - - 
सद्धर्पणं तु स्कन्धेन 
सदधुर्षणस्तु तं दष्ट्वा 


स्‌, 


अंशाः अध्या शोकाक्काः 


० ०८ श्ल न छ ०८ ला „= ~ छ ~= ~= ~= ल 9 


न 
८ 


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१ 
१६ 
१७ 

८ 
१० 
२७ 


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७ 


इटोकाः 


सङ्घातो जायते तस्मात्‌ ^ 
सद्खातान्तगतैर्वापि ^“ 
सदङ्श्नेपात्कथितः सर्गः 

स च प्रणिपत्य पनरप्येनम्‌ 

सच तं स्यमन्तकमणिम्‌ 
सच राजसूयमकरोत्‌ 

स च तस्मे वरं प्रादात्‌ 

सच तं रोलसद्खातम्‌ ““"' 
सच विष्णुः परं ब्रह्य 

स च बाहुर्ुद्धमावात्‌ 

स चं मद्रभेण्यवंरविनालात्‌ 
सचतां स्नुषाम्‌ 

सच तदेव मणिरत्नम्‌ 

सच गत्वा तदाचष्ट "^" 
स चाह तं ब्रजाम्येषः 

स चाग्निः सर्वतो व्याप्य 

सख चापि तस्यं तद्वा 

स चातिप्रवणमतिः 

रस चापि सजा प्रहस्याह 

स चाप्यस्पर्शोचीयमान० 

स चापि दैवस्तं दत्त्वा 

स चापि भगवान्‌ कण्डुः 

स चाटव्यां मुगयार्थी 

स चाप्यचिन्ठयदहौ भस्य 

स चाण्डाङतामुपगतश्च 

स चाचष्ट यथान्यायम्‌ 

ख चितः पवतेरन्तः "^" 
स चेक्ष्वाकुरष्टकायाः 

स्चैलस्य पितुः स्नानम्‌ 

स चैनं स्वामिनं हत्वा 

स चंकच्छ्राम्‌ "" 
स चोत्सुष्टमात्रः 
सच्छास्तरादिविनोदेन 

स जगाम तदा भूयः 

स जगामाथ कालिन्दीम्‌ 


स ज्ञात्वा वासुदेवम्‌ "^^" 
सञ्िवितस्यापि महता 
सन्म्वित्यागतमाह्य 

स तथां सह भोपीभिः *“१ 
स तत्रैव च तस्थौ 

स तत्पादं मृगाकारम्‌ ^ 
स तथेति गुहीतज्ञः 
स तस्य वैश्वदेवान्ते "^" 


अंशाः अध्या शछोकाद्काः 


१ २ #1 
६ १३ ३३ 
१ ५ २७ 
४ १३ ५५ 
४ १३ रथ 
ट ६ . 
१ २१ ३२९ 
१ २० ९ 
२ ७ ४१ 
र ३ २९ 
र ८ १२ 
४ १२ ३६ 
४ १३ ७ 
५ ३७ ६५ 
६ ६ १८ 
ट ६ १९ 
४ १३ १८ 
४ १० १६ 
1 ९ १२ 
॥1 २} ७२ 
१ १४ ४९ 
१ १५ ५२ 
ट ४ ४१ 
र र्ट ५० 
र, ३ २२ 
।: ६ २४ 
१ १९ ६३ 
र २ १५ 
४ १३ १ 
४ २४ ( 
ष २४ २२ 
1 ६ २३ 
६ ११ ९७ 
६ ६ ४० 
५ ७ २ 
५ २३ १७ 
१ १ १८ 
५ २९ १४ 
५ १३ ५८ 
४ १३ १०४ 
५५ २७ ७० 
र २ १६ 
२ १५ ९ 











दटोकाः 


स तामादाय कस्येयम्‌ 
सतां प्रणम्य शक्रेण 


सतु सगरतनयलातमार्गेण 


सतु तेनापचारेण 

सतु परितुष्टेन 

सतु दक्षो महाभागः 
सतु रागातया सार्धम्‌ 
सतु वीयमदीन्मत्तः 
सतृक्षपोनावयवः 
सतोयतोयदच्छायः 
सत्कर्मयोग्यो न जनः 
सत्त्वमात्रात्मिश्नमेव 
सत्त्वादयो न सन्तीशे 
सत्वेन सत्यशौचाम्याम्‌ 
सत्त्वो द्विक्तोऽसि भगवन्‌ 
सत्यवाग्दातरी लोऽयम्‌ 
सत्यवत्यपि कौरिकी 
सत्यवतीनियोगाच्च 
सत्यपरतया ऋतध्वजसज्ञाम्‌ 
सत्यकर्मणस्त्वतिरथः 
सत्यधृतेर्वराप्तरसम्‌ 
सत्यव्रत्यां च चित्राङ्लुद० 
सत्यानृते न तवत्रास्ताम्‌ 
सत्यामिष्यरायिनः पूर्वम्‌ 
सत्ये सत्यं ममेवेषापहासना 
स्यं तद्यदि गोविन्द 
स्यं कथयास्माकमिति 
सत्यं स्यं हरेः पादौ 


सत्यं भीर वदस्येतत्परिदासः 


सत्राजिदप्यपरमणि° 
सत्राजिदध्यच्युतः 
सत्नाजिदपि मयास्याभूत० 
सत्राजिदप्यधुना शतधन्वना 
स स्वस्मजञ्जसौ बालः ` 
सत्वतादेते सास्ता; 
स्वासवंतमतिः कृष्णे 
त्वामहं हनिष्यामि 
त्वेकदाप्रभूत० 
त्वं प्राप्तो न सन्देहः 
त्वं गच्छन सन्तापम्‌ 
स त्वं प्रसीद परमेश्वर 

स त्वां कृष्णाभिषिक्ष्यामि 
स ददक्षं ततो व्यासम्‌ 


4 2५ 2 4 


अंशाः अध्या० शटोकाद्भुः 


1 १ ६७ 
५ ३9 1 
1 ४ २४ 
द १८ ६१ 
् द २४ 
१ १५ ५७५ 
# १८ ५४ 
५ २३ ६ 
२ १३ ४७ 
५ १४ २ 
द ५ २१ 
१ ५ ३५ 
१ ९ ४४. 
१ ९ १२९९ 
१ ४ ४२ 
१ १३ ६१ 
1 ७ ३४ 
४ २० ३८ 
४\ ् १४ 
४ १८ २७ 
४ १९ ६५ 
॥1 २०५ ३४ 
२ ४ ८२ 
१ ६ ४५ 
४ १३ ७५ 
५ 2३० ३६ 
र ६ रए 
५ १३ ५ 
१ १५ ३३ 
४ १३ १९ 
४ १६ २९ 
४ १३ ६४ 
४ १३ ७८ 
ष्ट ४ . € 
ष १२ ४४ 
१ १७ ३९ 
६ ६९ २४ 
४ १२ १५ 
५ २६३ २८ 
५ १२ २३ 
५ २० १०३ 
५ १२ १२ 
५ २३८ ३५ 


ष्टोकाः 

स ददशं तदा कृष्णम्‌ 
संदसद्रूपिणौ यस्य 
स ददं मुनीस्तत्र 
स ददर्श तमायान्तम्‌ 
सदानुपहते वस्त्र 
सदाचाररतः प्राज्ञः 
स देषैरचितः कृष्णः 
स देवेदाश्दरोराणि 
सन्धधव एव भवतः 
सदयो वैगुण्यमायान्ति 
सद्वेषधार्येव पात्रम्‌ 
स धर्म॑चारिणीं प्राप्य 
सनन्दनादयोये तु 
सनन्दनाैमुनिभिः 
स निष्कासितमस्तिष्कः 
सन्तरसन्तोषमधिकम्‌ 
सन्ततेनं ममोच्छेदः 
सन्तानक्रानामखिलम्‌ 
सन्तोषयामास च तम्‌ 
सन्देशेस्साममधुरैः 
तन्देहतिर्णयार्थाय 
सन्ध्याकाले च सम्प्राप्ते 
सन्घ्यासन्ध्यांदयोरन्तः 
सन्ध्या रात्रिरहौ भूमिः 
सम्न्ति च तथैवोर्ज्जाम्‌ 
सप्नतेः सुनीथस्तस्यापि 
सन्नतिमतः करतः 
सक्चिधानाद्यधाकाश्च० 
सन्निपातावधूतैस्तु 
सन्मात्ररूपिरोऽचिन्त्यम्‌ 
सं पपात हतस्तेन 

सपर्मीतनयं दुष्ट्वा 
` स पर्‌ः परश्वतीनाम्‌ 
सपिण्डसन्तत्तिर्वषपि 
स पृष्टष्व मया भूयः 
सप्त द्वीपानि पाताल 
सप्तर्षयस्त्विमे तस्य 
सप्त मेधातिथेः पुत्राः 
सप्तर्षीणापरोषाणाम्‌ 
सप्तर्षयः सुराः शक्रः 
सप्तर्षीणां तु यत्स्वानम्‌ 
मप्तपे च चेष्टः 


( ६१७ ) 


जंशाः अध्या छ्टोकद्ूः 


५ १७ १९ 
५ ७ ६५ 
१ ११ ३१ 
१ ९ ७ 
३ १२ र्‌ 
३ १२९ ४१ 
५ ३० र 
च २८ ६६ 
२ १२ च 
१ ९ १३२ 
४ २४ ९५० 
४ १० २६ 
६ ७ ५५ 
|; १८ ४९ 
५ ९ ३६ 
५ ३ 4 
१ १ २५ 
१ (अ ४ 
५ २३ ; 
५ २४ २० 
६ २ ६ 
२ ५० 
१ २ १४ 
५ ३० ९ 
१ ७ ७ 
४ ८ १६ 
४ १६ ५०५ 
२ ७ २७ 
४ २५० ६९ 
४ १८ ४८ 
२० ४१ 
१ ११ प 
१ २२ ६३ 
३ १३ ३१ 
४५ ७ ११ 
३ ७ २ 
९ २ २५ 
२ ६; ३ 
१ १२ €२ 
१ ३ १७ 
१ ६ ३७ 
| ३ १३ 





श्छोकाः 
सप्तमो भोजराजस्य 
सप्तमे रोहिणीं गर्भे 
सप्तरात्रं महामेधा: 
सप्तपषिस्यानमाक्रम्य 
सप्तिमिस्तथा पिष्ण्यैः 
सप्तर्षयोऽय मनवः 
सप्ताभीरप्रभृतयः 
सप्ता्टदिनपर्यन्तम्‌ 
सप्तोत्तराण्यतीतानि 
स बिभ्रच्छैेखरीभूतम्‌ 
स ब्रह्मकान्पुरान्सर्वान्‌ 
समानरपुत्रः 
सभा सुधर्मा कृष्णेन 
स भिद्यते वेदभयस्स्वतेदम्‌ 
सभूमृद्‌ मृत्यपौरां तु 
स भोक्ता भोज्यमप्येवम्‌ 
समस्ततीर्थस्नानानि 
समम्यच्यव्युतं सम्यक्‌ 
समस्थितोरुजद्ु च 
समकर्णान्तविन्यस्त० 
समस्तशावितष्पाणि 
समस्ताः शक्तयसत्वैताः 


समस्तकल्याणगुणात्मकोऽसौ 
समस्तभूभृतां नाथ 

स मत्तोऽत्यन्तघरमम्भः 
समस्तजगदाधारः 

समस्तश्च क्रवर्ती 
समस्तावयवेभ्यस्त्वम्‌ 
समस्तकर्मभोक्ता च 
समचेता जगत्यस्मिन्‌ 


समस्ताया मयानजीर्णाः 
समस्तेन्दियसर्गस्य 
समस्तभूतादमशखादनन्तात्‌ 
समरस्यापि पारसुपार० 
समाप्ते चामरपतेषमि 
समधिविज्ञानावगतार्थः 
समाद्ितेमतिभूत्वा 
समातामहदोषेण 
समाविभद्धत्तस्यासीत्‌ 
समागम्य यथान्यायम्‌ 
समादिश्य ततो गोपान्‌ 
पतप्परषं चेतः 


अंशाः अष्या० शछोकाद्भुः 
श १ ७४ 


॥.: २ २ 

५ ११ २२ 
॥ 1 १ 

६ ८ २४ 

२ ११ र्ट 
४ २४ ५१ . 
५ २२ २१ 

१ १५ ३२ 

र्‌ ५ २०५ 

भ १ १३ 
र १८ २ 

भ २८ ७ 

३ ३ ३१ 

५ ३४ ४२. 
१ श्प २०१५ 
द ८ ५२०६ 
६ ~ ३१९. ` 
६ ७ .1६३ 
६ ७ ८१९ 
पे ७ ७१ 

£ ७ ७० 

६ १ ८४ 
भ ३४५ २६ 
. २१ ५ 
४ ७ ४ 
1 १ ३४ 
२ १३ १०३ 

१ १९ ७१ 

१ १५ १५६ 

१ १३ ५७९ 

१ १४ ३२ 
४ २ १२८ 
४ १९ ४१ 
४ १ ७ 
1 1 ५५ 

१ १९ १५ 

१ १३ १२ 
२ १३ २९ 
र १८५ ५९ 
५ १८ ११ 
६ 9 २२ 


दटोकीः । 
। समितुष्पकुशादानम्‌ 
~ समद्रावरणं याति 
` समुत्पन्नाः सुमहा 
.. समुपेद्याह्‌ गोविन्दम्‌ 
> | समुद्रतनयायां तु 
” समूद्धावस्समस्तस्य 
समुत्सुज्यासुरं भावम्‌ 
समुद्रान्सरितः शैङ० 
समुद्राः प्वताङ्नैव 
समेत्यान्योन्यसंयोयम्‌ 
समे समाधिर्जलवासमित्र 
स मेने बासुदेवोऽहुम्‌ 
समः रत्रौ चभिन्रेच 
, सम्पदैदवर्यमाहालम्य° 
` कूम्भक्षयित्वा सकलम्‌ 
ह म्भक्ष्य सर्वभूतानि 
वभतति तथा भर्ता 
सङ्भाषणानुप्रस्नादि 
भतं चार्धमासेन 
> सम्मानना परां हानिम्‌ 
। सम्मानय्दिजवचः `` 
सम्यक्‌ च प्रनापारनभू 
स यदा यौवनामोगण . 
स याति कृमिभक्षे वं 
स रथोऽधिष्ठितो देवैः 
सं राजपूत्रस्तान्सवनि 
सं राजा शिविकारूढः 
-रित्समुद्रमौमास्तु ` 
सरीसुपानुषिगणान्‌ 
सरीसुपा मृगात्सर्ने 
-सरीसूपैविहङ्गैस्व 
सर्गडच प्रतिसर्गश्च 
सर्गहच प्रतिसर्गश्च 
-सर्गस्थितिविनाशानाम्‌ 
सर्गस्थिति विनाकशानाम्‌ 
सर्गकामस्ततो विद्धान्‌ 
सरगस्थितिविनाशांश्च 
सर्गप्रृत्तिर्भवतः 
"सर्गादौ ऋटूमयो ब्रह्मा ` ` 
- गें च प्रतिषे च 
-सर्पणात्तेऽभवन्‌ सर्पाः ` 
सर्पजातिरियं क्ररा 





शाः अध्या० शोकाः 


२ 


६ 
९ 
५ 
९ 
५ 
१ 
६ 
र्‌ 
१ 
1 
५ 
१ 
१ 
१ 
॥ 
४ 
॥ 
२ 
२ 
५ 
1 
च 
२ 
२ 
१ 
र 
र 
॥ 
४ 
प 
६ 
६ 
१ 
भ 
१ 
१ 
१ 
२ 
३ 
१ 
४ 


१३ 
२४ 
२१ 
९ 
१४ 
२० 
१७ 


\¶ 


११ 
१३१ 


199 











दटोकाः 
सर्वच्यापिन्‌ जग्भूप 
सवं भृतस्थिते तस्मिन्‌ 
सर्वत्रासौ समस्तं च 
सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वम्‌ 
सर्वमापूरयन्तीदम्‌ 
सर्वभूत मयोऽचिभ्ट्यः 
सर्वं एव महाभाग 
सर्वभूतेषु सर्वात्मन 
सर्वगसवादनस्तस्य 
सर्वभूतेषु चान्येन 
सर्वशकितमयो विष्णुः 
सर्वस्याधारभूतोऽसौ 
सर्वतुसुखदः कालः 
सवद्ीपेषु मैत्रेय 
सर्वशावितः परा विष्णौः ` 
सर्वविज्ञानसम्पच्चः 
सव्रघोषस्य सन्दोहः 
सर्वरूपाय तेऽचिन्ट्य 
सर्वकालमुपस्थानम्‌ 
सर्वथैव जगत्यर्थे 
सर्वभूतहितं कुर्यात्‌ ` 
सर्वभूतान्यभेदेन 
सर्वत्रगस्सुधर्मा च 
सर्वेव्रातिप्रसन्चानि.. 
सर्वमन्वन्तरेष्वेवम्‌ ` 
सर्वमेन करौ शास्त्रम्‌ ` ` 
सर्वयादत्रसंहार० ` 
सवस्य धातारमचिन्त्यरूपम्‌ 
सवस्यैव हि भूपाल 
सवस्वभूतो देवानाम्‌ 


सर्वात्मकोऽसि सर्वेश 


-सर्वात्मिन्सर्वभूतेश ` 
सर्वाभावे बनं गत्वा 
-सर्वाणि तत्र भ॒तानि 


सर्वार्थास्त्वमज विकल्पनामि 


`सर्वाभिश्च ताभिस्तथैवं 


सर्वस्मा सर्ववित्सर्व 


सर्वां यश्ोदयां सार्द्धम्‌ 
 सर्येश सर्वभूतात्मन्‌ `` 
स्वे देवमणास्तात 
-सरवेष्वेेषु वर्षेषु . 


नत्या स्य व्क काना 


9०७९ 


अंकाः अध्या शटोकाद्कुः 


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१ 


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१८ 
१७ 

२ 
१२ 


१४ ` 


६६ 
७९ 


१२६ 


श्टोकाः 
सर्वेष्वेतेषु युद्धेषु 
सर्वेषामेव भूतानाम्‌ 
सर्वं देहोपभोगाय 
सवनगतौ हि क्षतियतैदयौ 


सवनो चुतिमान्‌ भव्यः ` ` 


सवरूथः सानुकर्षः 

स वव्रे भगवन्‌ एत्या 
सवर्णाधत्त सामुद्री ` 

स वा पूर्वमप्युदारविक्रमः ` 
सविकारं प्रधानं च 

स निदेहपुरीं प्रविवेश 
सविकासस्मिताधारम्‌ 

स विप्रशापव्याजेन 

स दलाध्यः सर गुणी धत्थः 
स सर्वः सर्ववित्सर्व० 

स सर्वभूतप्रकृति विकारान्‌ 
स समावासितः सर्वः 
ससम्ध्रमस्तमारोक्य 

` ससज शब्दतन्मात्रात्‌ 
ससुजुः पृष्पवर्षाणि 

स सृष्टा मनसा दक्षः 
सस्नौ स्वयं च तन्वद्धी 
सस्यजाप्तानि सर्वाणि 
सहसमेकं निष्काणाम्‌ 
सहस्वक्वो भगवन्महास्मा 
सह्देवार्सोमापिः 
सहदेवा्च विजया 
सहजाम्ब्त्या सः 
सहस्रजिदपुप्रसशतजित्‌ 
सहस्रलित्क्रोष्टुनक० 
सहस्रशोर्षाः पुरुषः 

` सहसभागप्रथमा 
सहे्संहिताभेदम्‌ 
सहस्तस्यापि विप्राणाम्‌ 
सह ताभ्यां तदाक्रूरः 
सहारापस्तु संसर्गः 

सदि संसिद्ठकार्थक्रणः 
स हि देवासुरे युध 
सृष्टा सहसा तेन 

सा क्रीडमाना सुश्रोणी 
साद्भथज्नानततां निष्ठा 
सागरं चात्मजप्रीत्या 
साच वरंडवा हात्तय जनत 


अंशाः अध्या० शोकाङ्काः 


८ ० ४ + च न्ट न्द ४ कट घः ८ ७ = म ०८ ० न्म न्ट 


< +< ~> छ ~= +त ~= = तट 9 =) „= +< ^< म्८ ^= न = ल ~ त च 9 = र्ट 


१२ 
१ 
१६ 
१०९ 





श्छोकाः 
सा च तेनैवमुक्ता 
सा च कन्या पूर्णेऽपि 


सा चावरलोकय राज्ञः 


सा चैनं रसातलम्‌ 

स। तस्म कथयामास 

सा तत्र पतिता दिक्षु 

सा तस्य भार्यां चिताम्‌ - 
सातिमुवेतमहारावा 
सातु निर्भत्सि्ता तेन 
सातु जातिस्मरा जज्ञे 
सत्ताजिती सत्यभामा 
साद्विीपसमुद्राद्च 
साधवः क्षीणदोषास्तु , 
साधनाखम्बनं ज्ञानम्‌ 
साधितं कृष्ण देवानाम्‌ . - 
साघु साधु जगन्नाथ 

साधु साध्वस्य ल्पम्‌ 
साधु भो किमनन्तेन 
साधु मैत्रेय धर्मन 

साध्या विवेशय मर्तः. 
साध्विदं ममाप्यरहितस्य 
साध्वीविक्रयक्रदूबन्ध 
सानुरपगर्च तस्यां घुधः 
सान्तानिकादयो वाते 


` सापह्मवं मम मनः 


सापि ह्ितीये सम्प्राप्ते 
सापि तावता काञेन 
साफल्यमकष्णोर्ुगमेतदत्र 
सामवेदतरोहशाख। 

साम चोपप्रदानं च 

साम॑ चोपप्रदानं च 
सामपूर्व च दैतेय 
सामस्वरूपी भगवान्‌ 
साम्ये सति तत्याज्यम्‌ 
सामानि नगतीच्छन्दः, , 
सामान्यस्सर्वरोकस्य 


साम्प्रतं च जगत्स्वामी 
साम्प्रतं महीततछेऽष्टाविषति० `" 


सा यदा धारणा तद्त्‌ 
सारं समस्तगोष्ठस्य 
सार्धकोटिस्तथा सप्त 
साटिमाटिरिषुसत्य° 


[न न जक 


५४५ 


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अंशाः अध्या० शोकाद्काः 


1 


० ४ =© न्ट ४ © < ०८ ^ ^< च ० न 


द 
१३ 
१२९ 

३ 


२२ 
११८ 


क्टोकाः 
सावणिस्तु मनुरोऽसौ 
साशीतिमण्डलसतम्‌ 
साश्वं च तं निहत्य 
सितनीकादिभेदेन 
सित्तदीरघादिनिदशेष ० 
सिनीवाली कुहुस्वैव 
सिन्धवो निजशब्देन 
सिन्धुतटदाविकोर्वीं 
सिसृक्षुरन्यदेहस्थः 
िहुनादं ततश्चक्रं 
पिहासनगतः शक्रः 
सिहिकायामयोत्पन्ना 
पिहिका चाभवत्कन्या 
सिहः प्रसेनमवधीत्‌ 
सीतामयोनिजां जनक 
सीता चालकनन्दाख्यम्‌ 
सीमन्तोन्नयने चैव 
सीरध्वजस्य भ्राता 
सीरघ्वजस्यापत्यम्‌ 
सकु मारसंज्ञाय बारछकाय 
सुक्ुमारतनुर्गभं 
सक्षेतरश्चोत्तमौजार्च 
-सुखबुद्धचा मया सर्वम्‌ 
सुखदुःखोपभोगौ तु 
-सुखोदयस्तयानन्दः 
सुखं िदधि्यंशः कीतिः 
सुगन्धमेतद्राजार्हम्‌ 
सुतपः शुक्र इत्येते 
सुतात्पजैस्तत्तनयैश्च भूयः 
सूताराख्या कन्था च 
सुतुप्तैस्तरनुजातः 
सुत्रामाणः सुकर्माणः 
सुदासात्सौदासः 
सुदयुम्नस्तु स्वीपूर्वकत्वात्‌ 
सुधनुजज्ञ परीक्षित्‌ 
सुधनुषः पुत्रस्सुहोत्रः ^” 
सुधामानस्तथा सत्या 
सुधामा शाङ्खपास्चैव 
सुनिवातिषु देशेषु 
सुनीथा नाम या कन्या 
सुनीतिरपि ते माता 
सुनीतिनमि तम्माता 
सुनीतिनमि य। राजः “" 


अंकाः अध्या० श्लोकद्भूाः 


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२ 
१४ 
१३ 
१६ 
३० 
१५ 


१५ 
१ 
२३२ 








श्लोकाः 
सुपर्णः पततां शरेष्ठः 
सुपर्णवशगा ब्रह्न्‌ 
सुपाराप्पथुः 
सुप्तांस्व तानृषीन्नैव " 
सुप्तेषु तेषु अतीव | 
सुप्रभाताद्य रजनी 


सुप्रसन्नादित्यचन्द्रादि° *“ 


सुबलास्सृनीतो भविता 
सुबाहुपरमुखांश्च क्षयम्‌ 
सुभद्रायां चार्भकत्वेऽपि 
सुभ्रु त्वामहम्‌ 
सुमतिमप्रतिर्थं ध्रुवम्‌ 
सुमतिः पुत्रसहख्ाणि 
सुमतिदेवाग्निवर्चाडचि 
सुमहास्वायमनावृष्टिः 
सुमन्तुस्तस्य पुत्रोऽभूत्‌ 


सुमतिर्भरतस्याभृत्‌ 


सुमतेस्तेजसस्तस्मात्‌ 
सुमेधा विरजाश्चैव 
सुयोधनस्य तनयाम्‌ 
सुरमिधिनता चैव 

सूरासुरगन्धर्वयक्ष० 
सुरापो ब्रह्महा हर्ती 


सुःरास्समस्तास्सुरनाथ कायम्‌ “""" 


सुराश्च सक्कलास्स्विः 
सुरामांसोपहारेश्च 
सुरुचिर्दयिता रज्ञः 
सुरुचिः सत्यमाहेदम्‌ 
सुवच॑ंला तथैवोषा 


सुवर्णमणिरत्नादौ ^" 


सुवर्णाज्जनचूर्णाभ्याम्‌ 
सुवद्धः केवल; 

सुशर्माणं तु काण्वम्‌ 
सुरोलो मव धर्मात्मा 
सुहोत्राद्स्तौ य इदम्‌ 
सृष्ष्मातिसूक्ष्मातिवृहस्रमाण 


सुदयाम्येव दैत्ये ^" 


सूदयंस्तापसानुग्रः 
सूर्य॑स्य द॑र्या भगवन्‌, 
सूयस्य पत्नो संज्ञाभूत्‌ 
सूर्यरदिमः सुषुम्ना यः 
सू्याचन्धमसौ ताराः 
सूर्यात्सोमात्तथा भौमातु 


अंस्ाः अध्या शोकाङ्काः 


१ 


१ 
; 
; 
; 
५ 
; 
; 
; 
; 
; 
; 
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रे 
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९ 
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१ 
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९ 
५ 
५ 
५ 
१ 
१ 
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५ 
४ 
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१ 
४ 
1 
१ 
५ 
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२१ 
२१ 
१९ 


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1 
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१९ 


१८ 
२५ 
४२ 


श्छोकाः 
सूर्यादीनां द्विजश्रेष्ठ 
सूर्यादीनां च संस्थानम्‌ 
सूर्याशुजनितं तापम्‌ 
सूयेणाभ्युदितो यश्च 
सूर्या जं महौ वायुः 
सूर्यो द्वादक्षमिः शैघ्रचात्‌ 
सुजत्येष जगस्सु्टौ 
सुञ्यते भवता सर्वम्‌ 
सुज्यस्वषूपगर्मासि 
सुञ्जयात्‌ पुरञ्जयः 
सुञ्जयात्सहृदेवः 
सुष्टवानुदराद्गास्च 
सृष्टाः कालेन कालेन 
सुषटिस्थित्यन्तकारेषु 
सुष्टिस्थितिविनाशचानाम्‌ 
। सुष्टिस्थित्यन्तकरमणीम्‌ 
सृष्टि चिन्तयतस्तस्य 
सृष्टं च पात्यनुयुगम्‌ 
सेचयेत्पितुपातरेषु 
सेतुपुत्र भारब्धनामा 
सें सद्राम्निवसुभिः 
सेयं धात्री विधात्री च 
सन्ध वाम्मुञ्जिकेशक्च 
सैव च मित्रावरुणयोः 


सैष विष्णुः स्थितः स्पित्याम्‌ 


सैष भ्चमन्‌ भ्रामयति 
सैषा धात्री विधात्री च 
सोऽतिकोपादूपाङभ्य 
सोऽधिरुह्य महानागम्‌ 
सोऽनपत्थोऽमवत्‌ 


सोऽपि च तामतिशयितसकल ९" 


सोऽपि प्रविष्टो यवनः 
सोऽपि तत्काल एवास्यैः 
सोऽपि पौरं यौवनम्‌ 
सोऽपि कैश्लोरकषयः 
सोऽप्यतीद्धियमालोक्य 
सोऽप्येनं ध्वजव्ान्ज० 
सोऽप्येनं मुष्टिना मूध्नि 
सोमदत्तं शं चैव 
सोमदत्तः करशाडवाज्जजे 
पघोमदत्तस्यापि भूरि० 
सोमकाञ्जन्तुः 

सो स्था वस्संस्थः 


अंशाः अध्या० श्टोकद्गाः 


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4 
१ 


११ 
८ 


( ६२१ ) 


१५ 
७ 
१३ 
१००५ 
८ 
३६ 
२२९ 
७२ 





ररोकाः 
सोमाधारः पितृगणः 
सौमं पञ्चदशो भागे 
सौमं दुविसं चैव 
सोऽयमेको यथा वेदः 
सोऽयं येन हता घौरः 
सोऽयं सोऽथमितोस्ुक्तैः 
सोऽयं त्वयैव दत्तो मे 
सोऽयं सप्तगणः सूर्य 
सौर्यं यः कालियं नागम्‌ 
सोऽवगाहत निर्श्ङ्कः 
सोऽदहमिच्छामि तच्छोतुम्‌ 
सोऽहमिच्छामि धर्मज्ञ 


सोऽह त्वां शरणमपारमप्रमेयम्‌ "^" 


सोऽहं गन्ता त चागन्ता 
सोऽहं न पापभिच्छामि 
सोऽहं तथा यतिष्यामि 
सोऽहं वदाम्यशेषं ते 
सोऽहं ते देवदेवेश 
सीऽहुं यास्यामि गोविन्द 
सोऽहं साम्प्रतमायातः 


सौम्यासौम्यस्तदा शान्ता° 
सीरष्टरावन्ति 
सौवीराः सैन्धवाः हणा; 
संख्यानं धादवानाम्‌ 
संज्ञायते येन तदस्तदोषम्‌ 
संञ्ञेयमित्यथार्कइ्च 
संवरणकल्कुरः 

संचत्सर क्रियाहानिः 
संश्ोषकं तथा वायुम्‌ 
संस्ारपतितस्थकः 
संसिद्धायां तु वार्तायाम्‌ 
संस्तुतो भगवानित्यम्‌ 
संस्मूयमानो गोपैस्तु 
संस्मृत्य प्रणिपत्येनम्‌ 
संहितात्रितयं चक्र 

सं ह्वादपुत्र भायुष्मान्‌ 
स्कन्दः सर्गऽथ सन्तानः 
स्तम्भस्थदपणस्येव 
स्तवं प्रचेतसो विष्णुः 
स्तुतोऽहं यत्वया पूर्वम्‌ 
स्तुवन्ति मुनयः सूर्यम्‌ 
स्तुवन्ति चनं मुनयः 
स्तना 40. 


असाः अध्या० शोकाः 


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१२ 
१० 

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२५ 
३२ 


४४ 
१९१ 

६ 
१५ 
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५६ 
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२२ 
४६ 
१० 


र्छोकाः 
स्त्रियोऽनुकम्प्यास्ताधूनम्‌ 
स्वियः करौ भविष्यन्ति 
स्मरीत्वमेवोपभोगरहैतुः 
स्वीत्वादगुरुचित्ताहम्‌ 
स्वौमिर्भरश्च सानन्दम्‌ 
स्वौवधे त्वं महुापापम्‌ 
स्त्रीसहस्राण्यनेकानि 
स्थछजाः पक्षिणोऽष्जारच 
स्थानश्ररां न चाप्नोति 
स्थानात्स्थानं दकगुणम्‌ 
स्थानानि चैषामष्टानाम्‌ 
स्थानेनेह ते नः कार्यम्‌ 
स्थाप्यः त्रुबलयापीडः 
स्थाङीस्थमग्निसंयोगात्‌ 


स्थावराणि च भृतानि ` 
स्थावरान्ताः सुराद्यास्तु 
स्थावराः कमयोऽञ्जार्च 
स्थिते तिष्ठेदत्रजेयाते 
स्थितोऽसौ तेन विच्छिन्नम्‌ 
स्थितौ स्थितस्य मे वध्याः 
स्थूला मघ्यास्तथा सूक्ष्माः 
स्थूरैः पूष्षमैस्तथाः सूक्ष्म 
स्नातस्तलगन्धधुक्प्रीतः 
स्नातस्य सलिले यस्याः 
स्नातो नाङ्गानि सम्मार्जेत्‌ 
स्नानमेव प्रसाघनहैतुः 
स्नानाद्विधूतप।पास्च 
स्नानावसाने ते तस्य 
स्मुषां सूता चापि गत्वा 
स्पृष्टे स्नानं सचैलस्य 
स्पष्टो नखाम्भसा वाथ 
स्पृष्टो मददुभिर्छोक 


स्फटिकगिरिशिलामलःक्व विष्ण 


स्मरतस्तस्य गोविन्दम्‌ 
स्मरारेषनगदुब्ीज० 


स्मर्यतां तन्महाराज 
स्मारितेन यदा व्यक्तः 
स्मुतजन्मक्तमस्सोऽथ 
स्मृते सकलकल्याण० 
स्यमन्तकमणिरत्नमपि 
स्यमन्तकं च सत्राजिते 
सग्धरं पीतवसनम्‌ 
सष्टा सृजति चलत्मानम्‌ 
ष्टा विष्णुरियं सृष्टिः 


अंक्लाः अध्या शोकाद्काः 


4 ७ ४. 
द १ २१ 
४ २४ ७७ 
५ ३० ७ 
: १९ १३ 
१ १३ ७३ 
4 २८ ५१ 
१ २१ २३ 
१ १२ १०३ 
६ ६ ४ 
१ ८ ॥ 
५ ६ २२ 
५ २५ २३ 
२ 1 ६५ 
१ १३ थ 
१ ५ २६ 
॥ 1 ३२ 
३ ९ 1 
२ ४ ७८ 
२ १७ ४१ 
४५ ३० १३ 
२ ७ म 
३ ११ १११५ 
२ ८ ११८ 
३ १२ २४ 
४ २४ <५ 
# ८ १२१ 
९ २ |. 
२ द १२ 
३ १८ ४१ 
३८ ४१ 
३ २२ 
प ७ २३ 
१ १७ ४३ 
५ ₹ रए 
६ १८ ६८ 
५ १८ ७८ 
३ १८ ८६ 
ध १७ १७ 
४ १३ ५६ 
४ १३ ६९ 
भ्‌ २४ १७ 
१ २ ६७ 
१ 4 १९ 











ब्छोकाः 
चुकतुण्डसामस्वरधीरनाद 
स्वकीयं च यौवनम्‌ 


स्वधमंकवनच्ं तेषाम 
स्वधभस्पाविरोधेन 


स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तम्‌ 


स्वपोषणपरः क्राः 
स्वर्य॑वरे कृते सा तम्‌ 
स्वयं शुश्रुषणाद्धर्यनि 
स्वर्गस्थघर्मिसद्धर्मऽ 
स्वरगार्थं यद्वि वो वाज्छा 
स्वर्गापिवर्गव्यापतेध 
स्वर्गापवर्गौ मानुष्यात्‌ 

वर्गाक्षियत्वमतुलम्‌ 
स्वगे च कृत्रि 


स्वभनिस्तुरगा द्यष्टौ 
स्वभनुङ्च महावीर्यः 
स्वयतितु रजौ 
स्वर्लोकादपि रम्याणि 
स्वल्पमेतत्कारणं यदयम्‌ 
स्वल्पाम्बुवृष्टिः पर्जन्यः 
स्वल्पेनैव हि कलन 
स्वल्पेन हि प्रयतेन 
स्वल्पेनैव तु किन 
स्ववर्णधर्माभिरताः 
स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि 
स्वस्थः प्रशान्तचित्तस्तु 
स्वस्थाः प्रजा निरातङ्काः 


स्वाचान्तस्त ततः कुर्यात्‌ 
स्वादूदकेनोदधिना 


स्षादरुदकरस्य परित 
स्वाध्यायगोत्राचरणम्‌ 
स्वाध्यायसंयमाभ्यां स 
स्वाध्यापायोगमासीत 
स्वाघ्यायदौचसन्तोष, 
स्वायम्भुवौ मनुः पूर्वम्‌ 
स्वायम्भुवं तु कथितम्‌ 
स्वारोविषश्चोत्तमश्च 
स्वीकरणमेव विबाहहैतुः 
स्वेनैव कृष्णो पेण 
स्वं स्वं वे भुञ्जतां तेषाम्‌ 


हतवीर्यो हतविषः 
हतेषु तेपु कंसेन 
हतेषु तेषु देवेन 
हतेषु तेषु षाणोऽपि 


॥ " ०१७७. 


अंशाः अध्या० शोकाष्ाः 


१ ४ ३४ 
॥1 १०५ १७ 
६ १८ द 
६ र २५ 
र ७ १४ 
६. १ ३० 
प १८ ८ 
१ १२९ &७ 
३ १७ २१ 
३ १८ १६ 
१ १ १९ 
१ द १० 
३ १८ ६४ 
४ ४ ७७ 
२} १२ २१ 
१ २१ १२ 
४1 ६ १५ 
२ ५ ५ 
४ १२३ १३२ 
६ १ ५२ 
३ १८ २३ 
द २ ३४ 
५ ६ १० 
रे १७ ३९ 
५ १६ २४ 
र ११ ८६ 
र २ ५४ 
रे ११ २९१ 
ए 1 ८७ 
२ ६४ 
२ ११ ६१ 
द ६ १ 
६ ६ २ 
द ७ २३७ 
र १ ६ 
२ १ ८ 
प १ २४ 
1 २४ ८९ 
५ १५ ४८ 
५ ३७ ४१ 
प ७ ७६ 
प १ ७२ 
५ १२ २२ 
५ २३ [4 


श्छोकाः 

हते त नरके भूमिः 
हत्वा च छतरेणं रक्षः 
हत्वा तु केरिनं कृष्णः 
हुत्वादाय च वस्त्राणि 
हत्वा कुवलयापीडम्‌ 
हत्वा बरं सनागारवम्‌ 
हेत्वा चिक्षेप चैवैनम्‌ 
हत्वा सैन्यमशेषं तु 
हृत्वा मुर हयग्रीवम्‌ 


हत्वा तं पौण्डूक शौरिः 


हत्वा गर्वमारूढः 
हन्तव्यो हि महाभाग 


हन्ति यात्रच्च यत्किञ्चित्‌ 


हन्यतां हन्यतामेष; 
हियर्च सप्तच्छन्दांसि 


दरति परधनं निहन्ति जन्तून्‌ `" 


हेरिणाक्रोडनमं नाम्‌ 
हरिशद्ुरयोयृद्धम्‌ 


ह्रिममरव राचिनादघनिपदयम्‌ 


हरिणीं तां विलोक्याथ 
हरिता गोहित। देवाः 
हर्य्वेष्वय नष्टपु 
हय॑द्(्द्ररथः 
हषप्रायमसंसमि 

हरं च बलभद्रस्य 
हविर्धानात्‌ षडाग्नेयी 
ह विष्मान्सुकृतस्सत्यः 
हविष्यमस्स्यमासैस्तु 
हृस्तसंस्पर्मात्रेण 
हस्तन्यस्ताग्रहस्तेयम्‌ 
हस्ते तु दक्षिणे चक्रम्‌ 
हस्तेन गृह्य र्चकैकराम्‌ 
हालाहलात्प्कः 
हालाहलं विषमहौ ` 
हाखहटं विषं तस्य 


हालाहलं विषं घोरम्‌ , 
हाहाकारो महाङ्जन्ने , 


हाहाकारो महाञ्ज्ने 


हा हा क्वासाविति जनः 


हिडिम्बा घटोत्कचम्‌ 
हितं मितं प्रियं -काले 
हिमवान्हुमकूटस्च 

हिमब्रददृहिता सामूत्‌ 


४ 


शाः अध्या० श्लोकष्ुः 


० छ ४ न ~ ~ ~> ~= ~= ~ न त ~= ~= ~ र ७ == ल च = 0 ७ ८ = न ५ ७ = = = ल = ~ ~ ~ ~ ~ < ~ त 


२९ 
१२ 
१६ 
१९ 
१०५ 
२६ 
२७ 
२७ 
१९ 
३४ 


२२ 








कलोकाः 
हिमालयं स्थावराणाम्‌ 
हिमाह्वयं ठु वै वर्षम्‌ 
हिमाम्बुच मवृषटीनाम्‌ 
दिरण्यघान्यततनय० 
हिरण्यगर्माद्िपु चः 
हिरण्यकशिपोः पुत्राः 
दहिरण्यकरसिपुत्वे च 
हिरण्यनामस्य पुत्रः 
दिरण्यनामरिष्यस्तु 
हिरण्यनभात्तावत्यः 
हिरण्यनाभः कौसल्यः 
हिरण्मयं रथं यस्य 
हिरण्यकथिपुः शरुत्वा 
हिरण्यगर्भपुहष ० 
हिरण्यगर्भवचनम्‌ 
हिरण्यरोमा वेदध्रीः 
हिरण्यग मदिवेन्द्र9 
हिरण्यगर्भो भगवान्‌ 
हिसा भार्या सधर्मस्य 
हि्ाहिसे मृदुक्रूरे 
हूदयस्थस्न तस्तस्य . 
हदि नारायणस्तस्य 
हदि यदि भगवाननादिरास्ते 
हदि षद्धव्य यदम्‌ 
हेतुभूतमशेषस्य 


हं दिगजाः सद्कुटदन्तमिश्राः 


हे दैत्यपतयो ब्रूत 

ह प्रलम्ब महाबाहो 
हमचन्धरच विशालस्य 
हेमकूटं तथा वर्षम्‌ 

ह रामदहेकरष्ण सदा. 
हु विप्रचित्ते ह रहो 
ह सूदा मम पुत्रौऽपी 
हे हर्यश्वा महावीर्णीः 
हं ह शाछितनि मदुगेह 


` हहयपुत्रो धर्मस्तस्यापि 


होमदेवार्च॑ना्ासु 


 हि्मजपैस्तथा दानैः 


हंसकृन्देन्दुधवलम्‌ 


` हस्वदीर्घप्टृतर्ततु - 


्स्वोऽक्षस्तयुगार्देन 
ह्ासवृद्धी तवहुभिः 
ह्लादिनी सन्धिनी संवित्‌ 


अंकाः अध्या० शछोकाद्काः 


७ ~ ७ १ ~ ४ ४ न ७ ~= <^ ~ल ~ ० ल ८ ~ छ नल ८ „८ ~= > = 0 न ५ ९ „~= ल ८ ५ < ५८ ०८ ~ल क ~ ~€ ९ ^ 


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११ 


८ 
२७ 
१९ 


"ग ८ ज 
£ संस्छतकी छ मूल तथा सानुषाद्‌ पुस्तकें ४ 
{ हशाव(स्योपनिषद्‌-षानुवाद, शाङ्धुरभाष्यसहित, सचित्र, पुष ५२, मुह्य “" २५ 
£ केनोपनिषद्‌-सानुवाद, शाद्धरभाष्यसहित, सचित्र, पृष्ठ १४२, सस्य “^ ६० 
कटो पनिषदू-सानुवाद, शांकरभाध्यसहित, सचिव्र, पृष्ठ १७८, मस्य """ ७० 
: ग्ररनो पनिपद्‌-सानुवाद) शांकरभाष्यसटित, सचिव, पष्ठ १२८, मूल्य -"" ,५ 4 
५; पुण्ड ्योपनिषृद्‌-पादुवादः शांकरभाष्यसहित, सतित, पृष्ठ १२२, परस्य """ ,५५ ४ 
५: माण्डूक्योपनिषद्‌-सानुवादः शांकरभाष्यसहितः सचित्र, पृष्ठ २८४, मूल्य ““ १.२५ ए 
£ ेतरेयोपनिषद्‌-सातुवाद, शक रभाष्यसहित, पृष्ठ १०४, मुल्य "^" ४५ ५ 
+ तैत्तिरीयोपनिषद्‌ सानुवादः ्ंकरभाष्यसहित, सवित्र, पृष्ठ २५२, दरुल्य  ““ १.५० ६ 
‰ रइवेताश्चतरोपनिषद्‌--सानुवाद, संकरभाष्यस्हित, सचित्र, पृष्ठ २६८, मूल्य" १.०५ 
2 श्रीमुक-पुधा-सागर--भाकार ब° बड़ा, टार्हैप ब° बडे, पृष्ठ १३६०, चिच ₹०.२०.ु० २५.०० 
६ श्रीमद्धागवतमहापुराण- दो खण्डो, सरल हिदीव्याख्यासहित, पृष्ठ २०३२, = 
£ चित्र तिरगे २५, सुनहरा १, मोटा कागज, कपड्की जित्व, मूल्य“ २०.०७ ६ 


श्रीमद्धागवतमहापराण- सुल, मोटा टाप, पृष्ठ ६९२, सचिच्र, सजिल्द, सूर्य ७.५० 
श्रीमद्धागवतमहापुराण-- मूल गुटका, कपड़की निस्द, पृष्ठ ७६८, सचि, सत्थ ४.०७ 


(मु 


अध्यात्मरामायण- सानूवाद, पृष्ठ ४००, सचित्र, कपड़की जिल्द, मू “+ = ४.०9 

बेदान्त-दशन--दी-व्याख्यासहित, पष्ठ ४१६, सचित्र, सजित्द, परत्य * २,५० 

लघुसिद्धन्तक्ोष्ुदी-( संस्कृतके वि्याथियोकि लिये ) पृष्ठ २६८, मूल्य .." .९७ 

2 घक्ति-सुधाकर-पुन्दर श्लोक-संगरह, सानुवाद, पृष्ठ २६६, स्य ,७५, सजिस्द १.२० 

स्तोत्र-रलावो- चने हुए स्तोत्र, सानुवाद, सचित्र, पृष्ठ ३२०, भु०.६५, स° १.०० 
पातञ्चह्योगदशचंन--सटीक, व्याख्याकार--्रीहरिृष्णदासजी गोयन्दका, 

पष्ठ १९२, २ चित्र, भूल्य .९० सजितल्द “" ~ १.२५ 

्रम-दशन--नारदरचित भवित-सूत्रोको विस्तृत-टीका, सचितः पृष्ठ १९२ भुल्य """ ,३५ 

विवेक-चूडामणि--सान्ुवाद, सचित्र, पृष्ठ १८४, म्य ~ ५७ 

अपरोक्षानुभूति शदधरस्वाभिष्ठत, सादरुवाद, पृष्ठ ४०; सचिव, भूत्य ~ २० 


मनुस्मृति -- दवितीय अध्याय, सटीक, -१२ | श्रीरामगीता--सानुवाद, पृष्ठ ४०, ७ 
ध्रीविष्णुषदश्चनामस्तोत्रम्‌- सानुवाद .१२ | श्रीविष्णु्हस्ननामस्तातरम्‌-- सूल ७ 
शराण्डिल्यभक्तिस्-सातुवाद, .१२ | प्रसनोत्तरो--धरीरंकरस्वामिकृत, सानु० ,४ 
मङूरामायण- सानुवाद, पृष्ठ २४, १० | सन्ष्या--मल, विधिसहित, पृष्ठ १६, ४ 
गोषिन्द-दामोद्रस्तोत्र -सादुवाव, -८ | पातञ्जलयो गद्॑न--परलः पृष्ठ २०, 
सन्ध्योपाघनविधि-साचुवाद, रस्य .८ | नारद्‌-भक्ति-ष्प्र-घामुवाद, सूल्य ३ 
शारीरकमीमांसादशंन-सूल, सत्य .७ | सप्रकोकी गीता-साुवाद, सूल्य १ 
पता--गीत प्रेस, पौ° गीतप्रे् ( गोरखपुर ) 





नन न्ना म्न 


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