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Full text of "Taittiriya Upanishad Bhasya with the Gloss of Anandagiri, Dipika of Shankarananda and Taittiriyaka-Vidyaprakash of Vidyaranya"

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भ्रीमच्छकरचायंङतं 


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तात्तरायपानषद्धलव्यम्‌ 


श्रीमदानन्दगिरि-शकरानन्द-विधारण्यक्रृत- 
टिप्पण~दीप्कि-तैत्तिरीयकविदाप्रकाश्सहितम्‌ 


दिनकर विष्णु गोखदे, बी. ए, 
इत्यनेन परिष्कृतं संशोधितं च 


ुबय्थां 
कोट सासुननिद्डिग न° ८ 


¢ ष (>. 
^परणिराट इच्छाराम देशाई्‌ ' इत्यनेन स्वीये 
गुजराती” सुद्रणयन्तरालये मुद्रयित्वा तत्रैव प्रकाशितम्‌ । 


संवत्‌ १९५७. ताब्दाः १९१४ 


अस्य सर्वेञथिक्ासः प्वायत्तीकरताः । 


। ॐ. अ -१४ 


संसाराध्वनि तापभानुकिरणपोदधुतदाहव्यथा- 

सिन्नानां जल्कांक्षया मरुमुवि अन्त्या परिभ्राम्यताम्‌ | 
अत्यासन्नसुधाग्बुधि सुखकरं ब्रह्मायं द्चय- ` 

न्त्येषा शंकरभारती विजयते निर्वाणसंदायिनी ॥ 


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* अतो नामरूपे स्वीये ब्रह्मणेवाऽऽत्मवती, न ब्रह्म तदात्मकम्‌ । ते तसत्याख्याने न स्त एतेति तदासमकरे 
उच्येते । ताभ्यां चोपधिभ्यां शातेयज्ञानराब्दाथादिसर्वसंन्यवहारमाग्नह्म । तै. इ. भाष्ये, पृ, ८८. 
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* अवगतिपर्न्तं ज्ञानम्‌-्. स्‌, म्ये. १.१.१ न केवलं ज्ञानमिष्यते, विन्त्ववगतिं साक्षात्कारं 
ङुवेत-भामती. १.१.१ आवरणनिवृततिरूपामिव्यक्तिमचैततन्यमवगतिः ।--रलप्रभा. 
१, [ # ॥५ वि 
ग तसमाघथोक्तसाधनसपत््यनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासा कतेन्या । ब्र. मू. भाव्ये .१.१.१. 


१ 


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* विद्वान्न विभेति कुतश्चन . ( तै. उ. २.९. ), अभवं प्रतिष्ठं विन्दते ८ ते. उ. २,७. ), अहं विशव 
अुवनमभ्यभवाम्‌ ( ते. उ. २. १०). ८८. भ. गी. २. १४-१५. 


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+ सवव्यवहाराणमेव ्र्ह्मासताविजञानात्‌ सत्यत्व पपत्तेः । सभव्यवहारस्येव ्राग्रबोषात्‌ ! यावद्धि न 
सत्थातमकतवमरतिपततिस्तावत्‌ प्माणपमेयपललक्षेषु विकोरष्यरृतलबुद्धि्ं केस्यचिदुत्पते । विकारानेव ल््ममेत्य 
विद्यातमात्मीयेन भविन सवो जन्तुः परतिप्ते स्वामाविकी बरहमालमता दिता । तस्मासरग्ह्मासतप्रतिबो षादुप- 
पत्तः सवो लोषिवो वेदिकश व्यवहारः ।- र. सु, २.१.९४. 


मि 


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0४४ 800 211 56्‌-00पताप०प6त्‌ 26915. अपरिच्छिन्नं सवत्मिकं च ब्रह्म । 
एकमेव ब्रह्म, न ब्रह्मन्तराणि । (१, ४६.४९.) 1{ 0110 प्र§ {4६ 16 ल्3+€0€ 0 


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अनिर्वाच्यानाचविचारूपं रारीरद्यस्य कारणमात्रं सत्‌ स्वस्वरूपाज्ञानं निविकसपकसूयं यदस्ति तत्कारणच्चपीरम्‌ । 


४.4 


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तत्वबोधे । पिरिष्टदेराकाट्निमित्तानामिहेपादानात्‌ । ब्र. स्‌. मध्ये १.१.२. विरेषो हि निरुच्यते, विरेषेश्च 
विकारः, अविकारं च ब्रह्म, सवेविकारहेतुतखात्‌, तसमात्‌ ““अनिरुक्तम्‌"” (तै. उ. प. ९८.). कायै हि वस्तु 
कालेन ( देदातः ) परिच्छिद्यते । अकार्य च ब्रह्म । (पृ, ६०). विशेषक्बन्धो दह्युपरब्धिहेुरष्टः ( ¶. ९३.) 
यस्माल्ममाणप्रमेयव्यवहार्‌ आत्मानवबोधाश्रय एत्र, तस्मात्सिद्धमालसनोऽग्रमेयल्वम्‌ । नैव हि काय स्वकारणमति- 
लद्धधान्यत्राकारक आस्पदमुपनिवघ्रति । नै. सि. २. ९७. कुतोऽव्चिति चोचं स्यान्नैव प्राणयेलसम्भवात्‌ । काङत्र- 
यापरिच्छितिनं चोध्वं चो्संभवः॥ नै. सि. ३. ११६. नाविबस्येव्यविधामेवाऽऽप्षिला प्रकस््यते । ब्ह्मदृ््या 
त्वविचेयं न कथंचन युज्यते ॥ सं. वातिके, १७६. विकालातीतम्‌-त्रिकारतीतं कायोधीगम्यं कालपरिच्छेवम- 
व्यकरृतादि-अव्या्रतं साभाप्तम्ञानमनिरवाच्यं तन्न कालेन परिच्छिद्यते, कालं प्रत्यपि कारणत्वात्कारयस्य कारण- 
प्पश्वाद्धाविनो न प्रागभाविकारणपरच्छिदकलं संगच्छते । माण्डक्ये-तद्वाष्ये तद्रीकायां च १.१. अविदप्रि- 
दगैषाविचासद्धावतिद्धः । ने. सि. २.११२.५२१५८. न हि पूतरपिदधं सत्‌ तते छब्धात्मल।मस्य सेतस्यत्‌ आशय्‌- 
स्याश्रयि भवतिनकारणतया पू्सिद्धमङ्ञानं तत॒ एताज्ञानाछन्धात्मकेस्याहंकारादस्तद्ाज्ञानमाश्रित्य सेत्खतः 
श्रयलेनाभिमतस्याश्रयिं न मवति । कायोदयलस्मगेव तस्याश्रयतयेव सिद्धलत्‌ । ने. सि. सचद्धिका २.१ 
2107. 65815 दला, द [ल ऽत 01008 ग प्रकु 86 10 [1 उ्रढपकय) 
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रागद्रषवियुक्तैसतु विषयानिन्दियेषवरन्‌। 
आत्मव््ैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ 
-भ. गी. २.६४ 
वरो हि यस्येद्धियाणि तस्य प्रज्ञ प्रतिष्ठिता । 
२.६१ 
अशान्तस्य कुतः खम्‌ । 
--२*२६ 
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बुद्धादरैतपतत््वप्य यथेष्टाचरणं यदि । 
नां तत्वदशां चैव को भेदोऽुचिभक्षणे ॥ 
-नै. सि. ४.६२. 

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्रहाप्रसादमारुह्य अरोच्यः सोचतो जनान्‌ । 
भूमिष्टानिव शैलस्थः सर्वानप्रजञोऽनुप्यति ॥ 
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्रहपरत्ययसंततिभगदतो बहैव सत्सर्वतः 
पश्याध्यात्महृशा प्रशान्तमनसा सर्वास्ववस्थास्वपि । 
रूपादन्यदवेक्षितं क्रिममितश्चक्षुष्मतां विद्यते 
तद्वदुब्रह्मविदः सतः किमपरं बुद्धेविहारास्पदम्‌ ॥ 
कस्तां परानन्दरसानुभूतिमुत्सृज्य शून्येषु रमेत विद्वान्‌ | 
चन्द्रे महाह्वादिनि दीप्यमाने चित्रेनदुमाटोकयितुं क इच्छेत्‌ ॥ 


@ क क 


तै्तिरीयोपनिषल्सारसंग्रहः 
---नग्ग्902 20009 


तेत्तिरीयकोपमिषदेवं दि ब्रह प्रतिपाद्यति- 

प्रथमं ¦ ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌ › ( २.१ ) इति संहिताद्युपासनादिमिः एकाध्रचि- 
तमधिकारिणं प्रति ब्रह्मविद्यां सविषयां सफलां सूत्रयामास । " ब्रह्म › इति 
विषयनिदैशः, विद्‌ › इत्यनेन विद्या निरये, ‹ परमाप्नोति › इति विद्याफटं 
निर्दिश्यते-इति विभागः। तदनन्तरं सूत्रस्याथं संक्षेपतः “ सद्य ज्ञानमनन्तं ब्रहम । 
थो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्‌ । सीऽश्चुते सवोन्‌ कामान्‌ सह । ब्रह्मणा 
विपश्धितेति अस्या क्च उदाहरणेन व्याचकार । सलमियादि सूत्रस्थत्रह्मपद्‌- 
त्याख्यानप्‌ ; ये वेदेत्यादि वित्पदन्यास्यानम्‌ , सोऽश्चत इत्यादि आप्रोतिपदद्रय- 
व्याख्यानमिति विभागः । अस्वोऽयमथः--सत्यं काठत्रयबाधामावोपटष्ितम्‌ , 
जञानं स्प्रका्चम्‌ , अनन्तम्‌--अन्तः परिच्छेदः देशकालवसतुषतः, ततिविषपरि 
च्छेदाभावोपटष्ितम्‌ । ब्रह्मेति र्यनिर्देशः । सत्यादिपदत्रयं रक्षणम्‌ । गहायां 
वुद्धौ यत्‌ कारणसरेन वर्तमानं परमं व्योम अन्याङृताकार, तत्र निहितं प्रति- 
विम्बिततयाऽवध्थितं यच्चैतन्यं तद्रह्यस्वेन यो बेद स सर्वान्‌ कामान्‌ सार्व॑मौमा- 
दिहिरण्यगभोन्तान्‌ सह-युगपदश्चुते सुङ्के । केन प्रकारेण {--षिपथिता-सवे- 
ज्ञेन ब्रह्मणा-सवेज्ब्र्रूपेण; नोणधिपरिच्छि्नरूपेण । ब्रह्मानन्दे खल्पानन्दाना- 
मन्तमावात्‌ › सावभोमादिदहिरण्यगमोन्तभोगानां ब्रहमविरखरूपभूतत्वात्‌ ; चैत- 
न्यभास्यला् ब्रह्मविदो युगपत्सवेभोक्तृखमित्यथः । अनन्तरं ब्रह्मणः सूररव्याख्या- 
नरूपया च्चा उदीरितानन्त्यसिद्धये आकारादित्रे्यण एवोत्पत्ति कथयामास । 
ततः यो वेदेत्यादक्त ब्रह्मणः प्रतयक्तं ‹ स बा एष पुरुषोऽन्नरसमयः › इत्यार- 
अय देहादिपश्चकोरारमोपदेशक्रमेण " ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा ‡ इति पुनर्विस्तरेण 
प्रतिपाद्यामास । ततः त्रह्मणः नामरूपातीतस्य प्रत्यक्षा्यविषयत्वेन असच्वश- 
ङायां ८ सोऽकामयत › इति काभयितृतवेन खगंकामिवत्‌ , ‹ स॒ तपोऽतप्यत ` 
इत्याखोचकतेन मन्तिबत्‌, ' इदं सवैमस्जत › इति खषटतवेन कुखाख्त्‌, ८ त- 
देवातुप्राविरत्‌ इति प्रवते सवच सत्युपपाद्य, पुनश्च ° को शेवान्यात्‌ › 


(२) । 
हत्यादिता सवैप्ाणिनां जीवनहैतुलेनः “यदा हषः इत्यादिना ददण्द्र्या- 
मदेतुसेन च पदेव सच ददी चकार । अनन्तरं च सेषाऽऽननदस्य मीमांसा ' 
इत्यादिनाऽछनन्दमीमांसामारभ्य सावेभोमादिहिरण्यगमान्तानामानन्दान सुत्त 
कतगुणोतकर्षपद्नपूैकं ( ‹ स यश्चायं पुरुषे ' इति वाक्यनििष्टस्य बुद्धयव- 
च्छिन्रजीवूपानन्दस्य ' यश्चासावादित्ये › इति वाक्ये आदित्यान्तःस्ल्वेन 
निष्िस्य मायावच्छिन्परमानन्दस्य च ' स एकः ' इति , बाक्येनोपाथिद्वयनि- 
रसनप्कं सवामाविकमभिद्नत्वसुपदिशय ) ब्रह्मविदुषः 
यतो वाचो तिववैन्ते । अप्राप्य मनसा सह । 
आनन्दं ब्रह्मणो दिद्रान्‌ । न बिभेति कुत्धन ॥ 
इति बाङ्ूमनसागोचरनिरतिशयतरह्यानन्दपाति निरतिरायानधनितति च प्र 
तिपा पुनः ' एतं ह बाब ` इत्यादिना अत्थेनिवृतिं प्रपश्य निरतिरायानन्द्‌- 
्रहमापरोकषङ्ञाने साधनाकाह्लायां “ भृश वारुणिः? इत्यादिना भृगुबरुणसंबादसु- 
परस्य ' यतो वा › इत्यादिना ब्रह्मणस्तटस्थरक्षणपूवैकं प्रियाय पुत्राय बरणेन 
पित्रा उपदिष्टं तपआख्यं पुनःपुनर्विचारमेव ब्रह्मापरोक्ष्याय युयं साधनञुप- 
दिरय बरहमविद्सृपरिानं चान्ते प्रद््यै उपरराम तैत्तिरीयोपनिषत्‌ । श्यं तया 
मातृवत्सवैपराणिदितेपिण्या प्रतिपादितं विष्णुं स्तौति द्वाभ्यां श्रीभगवान्‌ 
भाष्यकारः- 
सत्यं ज्ञानं शुद्धमनन्तै व्यतिरिक्ते 
शान्तं गूढं निष्कलमानन्द्मनन्यम्‌ । 
इत्याहादौ ये बरुणोऽसौ भृगवेऽजं 
तं संसारध्वान्तविनाशचं हरिीड ॥ 
कोशानेतान्‌ पच्च रसादीनतिहाय 
ब्रह्मास्मीति स्वात्मनि निश्चित्य दुरिस्थम्‌ । 
पत्रा रिष्टो वेद भूयां यजुरम्ते 
ते संसारध्वान्तविनादं हरिमीडे ॥ 


--दरिसुति--दरितचयुक्तावहिः १९-२० 


उदाहतवक्यग्रन्थनामानि 


अथकैरिखो पनिषत्‌ 
अथवेसंहिता 
अभमरकोहाः 
आत्मपुराणम्‌ 
मापस्तंबधमेसूत्रम्‌ 
आपस्तंबग्ह्यसुत्रम्‌ 
मापस्तबस्छतिः 
आपस्तंबश्नोतस्रजम्‌ 
आश्वलायनश्रौ त्रम्‌ 
ईशावास्योपनिषत्‌ 
उपदेशसाहस्री 
ऋक्संहिता 
फेतरेयत्राह्यणम्‌ 
एेतरेयारण्यकम्‌ 
कठोपनिषत्‌ 
कात्यायनश्रौतसूत्रम 
कुतूहलवृत्तिः . - ` 
कूमेपुराण-उन्तरभागः 
केवद्योपनिषत्‌ 
कौषीतकयुपनिषत्‌ 
खण्डनखण्डखाद्यम्‌ 
गोपथव्राह्मणम्‌ 
गौतभधर्मसूत्रम्‌ 
गौतमसूचम्‌ 
छांदोग्योपनिषत्‌ 
जेमिनिसूजम्‌ 


----- ~~ .2-~----~- 


जेमिनीयन्यायमारातिस्तारः 
तात्पयदीपिका 
तेत्तिरीयत्राह्मणमप्‌ . 
ते्तिरीयसंहिता 
तेत्तिरीयारण्यकम्‌ 


` तैत्तिसयोपनिषद्वातिकरयीका 


तेच्िरीयोपनिषद्वार्तिकम्‌ 
धातुपाटः 

निघण्टुः 

निरुक्तम्‌ 
खर्सिहोत्तरतापनीयोपनिषत्‌ 
नेष्कम्यसिद्धिः 
नेष्कम्यैसिद्धि चन्द्रिका 
न्यायङ्कखमाञ्जलिः 
स्यायरश्चामणिः 
ल्यायवातिंकम्‌ 

न्यायसारः 

न्यायसारदीका 

पञ्चदशी 

पाणिनीशिक्षा 
पाणिनीसूत्रम्‌ 

प्रश्नोपनिषत्‌ 
बृहद्‌ारण्यकोपनिषत्‌ 

बू. उ. वातिकम्‌ | 
बोधायनग्ह्यपरिभाषासत्रम्‌ 
बोधायन्ह्यसुजम्‌ 


ब्रह्मगीता . 
बह्यविद्यामरणम्‌ 
अह्मसज्माष्यम्‌ 
जहसम्‌ 

भगवद्धीता 

आसती 
माष्योत्कषेदीपिका 
मजुस्खछतिः 
महानारायणोपनिषत्‌ 
महामान्यम 
माण्डूक्योपनिषत्कारिका 
मुदलोपनिषत्‌ 
मरैज्रयपीसंदहिता 
मोश्षधमे 
याज्ञवस्क्यस्यतिः 
योगसखज्म्‌ 
योगियान्ञवस्क्यसंदिता 
जिङ्गपुराणम्‌ 
वाक्यच॒त्तिः 


चाणीविलासमुद्धित- ते. उ. 


वाद्नश्चन्नमाखा 
चास्मीकिरामायणम्‌ 
विवरणप्रमेयसंग्रहः 
विवरणम्‌ 


(४) 


विष्णुपुराणम्‌ 
शंकरदिभ्विजयः 
शोौकरमिश्रव्याख्या 
दातपथन्राह्यणम्‌ 
रशाकिरभान्यम्‌ 

हां खायनश्नोंतसन्म्‌ 
हान्तिपवें 
श्ाबरमाभ्यम्‌ 


, दाखदीपिका 


रिवाकेमणिदीपिका 
भ्रीकण्डमाष्यम्‌ 
भ्रीमद्धागवतम्‌ 
ग्छोकवातिकम्‌ 
भ्वेताश्वतरोपनिषत्‌ 
संक्षेपद्ारीरकम्‌ 
संबंधवातिंकम्‌ 
सामवेदः 
सायणभाष्यम्‌ 
सिद्धान्तकोमुदी 
सूतसंहिता 
स्वात्मनिरूपणम्‌ 
हरितत्वमुक्तावखी 
हिरण्यकेदिश्रोतसृज्रम्‌ 


विषयाः 


€ ८८ ,,. 
तैत्तिरीयोपनिषत्सारसंमरहः 
उदाहतवाक्यम्रन्थनामानि 
शीपताव्टी-- | 
उपोद्धातः 
प्रथमोऽनुवाकः =... 
शान्तिः 
द्वितीयोऽनुवाकः ... 
। शीक्षाध्यायः 
तृतीयोऽनुवाकः ... 
संदितोपासनम्‌ , .. 
चतुर्थोऽनुवाकः .. ,. 
मेधादिसिदधयर्था मन्ता; 


पथ्चमोऽनुवाकः 


षष्ठोऽनुवाकः . .. 


सप्रमोऽनुबाकः 


अष्टमोऽनुवाकः 


नवमोऽनुवाकः 


दशमोऽनुवाकः 


व्याहुत्युपासनम्‌ .... 


मनोमयत्वादिरुणकव्रह्मोपासनम्‌ ( किचित्सू- 
क्मदर्शिमध्यमाधिकारी ) .,. 


प्रथिव्याद्यपाधिकत्रह्लोपासनम्‌ (मन्दाधिकारी) 

प्रणवोपासना-ुद्धब्ह्मोपासना ८ उत्तमा- 
धिकारी) ... 

उपासकध्माः 


ब्रह्मनानप्रकाडः ... 


एकादशोऽ्तवाकः = -. = = =-= ०“ ३०२५ 
अनुशासनम्‌ , ००. ०५. ००९ 2) 92 

| विद्याक्मविवेकः ... = = ३५--४ 
दादशोऽखवाकः „| च |. ` भद ४४ 
रान्तिद्रयम्‌ ०० ५५, | ०० 29 1 
ब्रह्म-आनन्द-वटटी ४५-- ११८ 
ब्रह्मविद्याप्रकारः ... ,,. ॐ + 

प्थमाऽ्लुवाकः ५. ~ „+ |... ५५--६५ 
ब्रह्यू्तम्‌ =... ,.. „~ | ४५ 

अनुव्याख्यानम्‌ ... ,.. ४७ 

बरह्लक्षणम्‌ . . - ,.. ... ४७--५४ 

सत्यादीनां टक्षकत्वम्‌ .:. ,.. ५५ 

व्याख्यानम्‌ ...  ... ... ६१६३ 

सृष्टि ,.. ,., ... ६१-६२ 

अन्नमयकोशः ,.. „` ...  ६२--६५ 

द्वितीयोऽ्तुवाकः =... ..+ ... ... ६६-६८ 
५ ६६ 

प्राणमयकोदाः ... ,.. .. ६५७--६८ 

तृतीयोऽनुवाकः ... | ~ |... |... ६९७४ 
) ... ... ...  ६९--७० 

मनोमयकोशः ... ... ,,. ७ १---७४ 

चतुथोऽनुवाकः , ... ... ... ७५-७६ 
५. ७५ 

विज्ञानमयकोशः ... ... ७५७६ 

पञ्चमोऽनुवाकः ... „|...  ... ज७-८ 


आनन्दमयकोशः ' , ,., ७९८२ 
षष्टोऽनुवाकः + | „+ | ~ ~ ८२-९५ 


(७) 


अह्मपुच्छवाक्यं बरह्मणः स्वप्रधानत्वे 


निगमनश्छोक्रः .. -., |... ८३ 
अनुप्रभाः ... ०. ०१ ५५५ ८५ 
ह्मसद्धावहेतवः ... -,. ... ८७ ` 
ब्मलष्टु :.  -- --+ --- ८९ 
बरह्मणो जीवात्मना प्रवेशः -.. ... ९१ 
प्रवेशवचनार्थः ... -.. ... १९ 
ब्रह्म स्च त्यच -.. ... ,.. ९५ 
स्पमोऽटुवाकः „~ = |... | ९६---९९ 
ब्रह्मणः सत्वसाधनम्‌ ... ... ... ९६ 
ब्रह्म आनन्दहैवुः .,. .,. ... ९७ 
अमेद्दरिनो ब्रह्मपापिः . . . ... ... ९९ 
अष्टमोऽनुवाकः ... ... ... १० ०--११४ 
, आनन्दमीमांसा , ... .. .., १०९१ 
तै. उ. महावाक्यम्‌. ... ,.. ,.. १०५ 
प्रतीचोऽद्वितीयब्रह्मत्वम्‌ . .. ,. ,.. ५9 
बरह्मज्ञानमेव ब्रह्मप्राप्तिः ,.. ... ... १०७ 
आह्वानम्‌ ... ,.. ,.. ... १०९ 
अध्यारोपापवादोपदेशः ...  .-~ ११०-११२ 
संक्रमणम्‌ ,.. ... ... ११३ ११४ 
नवमोऽनुवाकः ... ... ... ... ११५ ११७ 
निविकल्पं अन्न + | न |... ११५ 
पुण्यपापयोस्तापहेवुत्वम्‌ . . . .. -,. ११६ 
ब्रह्मविदो न युण्यपापकेपः ,.. ... ११७ 
रान्तिः ... |... ... ... ११८ 
भरगुब्धी > |, ११९- १३७ 


ब्रहयज्ञानसाधनानि ~ -.. > % 


५८) 


प्रथमोऽनुवाकः  -- ~ ~ ११९--१२९ 
| पुराणम्‌-उपाख्यानम्‌ . . . ,५. ... ११९ 


ब्रह्मजिज्ञासा . .. ,.. ,.. .., १२० 
, „ । १२१- १२२ 
अन्ने ब्रह्य ... ,,. .,., > ०) 


तृतीयोऽतुवाकः ..~  --~ ~ -- श्स्य् १२३ 
प्राणो बरह्म ... ४ ... „, , 

चतुर्थोऽ्नुवाकः = .-- = .- + "^ ... १२३ 
। मनो जह्य ... ... ... .. ्‌ 
पञ्चमोऽनुवाकः ... ... ... ... ...` १२४ 
| विज्ञानं ब्रह्म... ,.-+ ,.. » 
षष्ठोऽनुवाकः =. -- + ^ १२४--६ 
आनन्दो ब्रह्म ... .. ... १२४ 

ब्रह्मविद्या ,.. ,.. ... .,. , 

सप्रमोऽनुवाकः ..- `. ... , ... १२६१९२७ 
अन्नब्रह्मोपरासकत्रतम्‌ . . . ... ५; , 

अष्टमोऽनुवाकः =... | .-- न  ... १२७-१२८ 


द्वितीयोऽलवाकः 


| [ह । ष १२ 
नवमोऽलुवाकः =...  .^- + | ~ | .~ १९८ 
+, [क ७५ 9 ००० ११ ड 


,.. „०. किष .,. १२९९- १३६ 
वसत्यथंमागतानामप्रत्याख्यानरूपं व्रतम्‌ ... १२९ 
शिष्टाचारः ... -.., ,., ,,. > 
दानविरेषे फरविरोषः . . . ... ... )) 
उपासनानि ,.. .,. ... १३०१३२३१ 
आत्मनोऽसंसारित्वम्‌ ... ... ... १३२ 
ब्रह्मानन्देक्यम्‌--बदह्यात्मैक्यम्‌ , ... १३३ 
जीवन्मुक्तस्य सर्वात्मैक्यम्‌, . . ... ... १३४ 


दकमोऽनुवाकः 


(९) 


ब्रह्मविदः सामगानम्‌ 


शान्तिः 
राङ्करौनन्दश्ता तेत्तिरीयो- 
पनिषहीपिका ... ... 
परिशिष्टे... ... ... ... 
1 अन्यदरनिप्रामाण्यतारतभ्यम्‌ 
अद्वितदर्शनस्य मतान्तैररविरोधः 
तैतिर्रीयोपनिषद्वतरण- 
सूची. ... 
अनुक्रमणिका 
दुद्धपाठा अधिकपाठटभेद्‌सखध 


ॐ तत्सद्भह्यणे नमः| 
कृष्नयर वदीयतेत्तिरीयारण्यकान्तगता 
७2 कि क क, कष । 
तत्तरायपरनषत 


आनन्दगिरिकृतरिप्पणसंवखितक्ांकरभाष्यसमेता 





अष्यपद्धातः | 
` यस्माज्ञातं जगत्सवं यस्मिन्नेव प्रीयते । 
येनेदं धार्यते चेव तस्मे ज्ञानात्मने नमः ॥ १॥ 
यैरिमे गुरुभिः पूर्वं पदाक्यभमाणतः। 
भ्यास्याताः सवेवेदान्तास्तान्नित्यं प्रणतोऽस्म्यहम्‌ ॥ २॥ 
माष्यूसय सपदाय- तैत्तियीयकसारस्य मयाऽऽचार्यप्रसादतः 
ूरवकलम्‌ विस्पष्टाथेरुचीनां हि व्याव्येयं संप्रणीयते ॥ ३॥ 


मङ्गखचरणम्‌ 





यत्प्रका्रखसाभिन्नं यन्मन्त्रेण प्रकाशितम्‌ । 
वितं ब्राह्मणे तत्स्यामदृद्यं बरह्म निभेयम्‌ ॥ १ ॥ 
यज््वेद-शाखाभेदं तैत्तिरीयको पनिषदं व्याचिर्याछभगवान्भाष्यकारस्तत्प्तिपा्ं 
रह्म , जगजन्मादिकारणत्वेन तरस्थठक्षणेन मन्दमतीन्प्रति सामान्येनोपरक्षिते, सत्यज्ञा- 
नादिना च स्वरूपलक्षणेन विषतो विनिधितं, नमस्कारच्छकेन संक्षेपतो दश्यति-- 
यस्माज्ञातमिति । निमित्तोपादानत्वयोः पञ्चम्याः साधारण्यादुभवविवमपि . कारण- 
त्वमिह विवक्षितम्‌ । कायविरयस्य प्रकृतावेव नियतत्वाद्विरेषतः प्रकृतित्वमाह--यस्मिन्ने 
वेति । का्येषारणस्य निपर्तेऽपि मोदो प्रसिदधत्वात्साधारणकारणत्वमाह-- येनेति 
श्ानात्मन इति स्वरूपलक्षणस्‌चनम्‌ ॥ १ ॥ 
गुरुभक्त्विवयाप्रप्रावन्तरङ्गसाषनतवं ख्यापयितुं गुरुन्प्रणमति-येरिति । प्दानि च 
वाक्यानि च पमाणं चादमानादि--तद्विवेचनेन व्याख्याता इत्यथैः ॥ २ ॥ 
चिकीर्षितं निर्दिशति-तेत्तिरीयकेति । श्युत्पत्रस्य पदेभ्य ख पदाधंस्मतिसंभवा्‌, 
पदस्मारितपदाथानां संसगेस्येव वाक्याथैत्वात्‌, सूत्रकारेणोपनिषत्तातपयंस्य निरूपितत्वाच, 
व्यथः एथ्याख्यारम्भ इत्याश्ङुयाऽह--वबिस्पष्टर्थेति । मन्दमतीनां स्वत एवं निर 


२ ` तैत्तिरीयोपनिषत्‌ | 


अब्दाः नित्यान्यथियतानि कमाण्युपात्तदुरितक्षयाथोनिः काम्यानि 
च फराथिनां, पूर्वस्मिन्‌ श्रन्थे । 

इदानीं कमोपादानदेतुपरिहाराय ब्रह्मविद्या स्तूयते । कमेहेतुः कामः 

,_ _ , स्यात्‌, भरवतैकत्वात्‌ । आघ्कामानां हि कामाभावे स्वात्म- 

य, न्यवस्थानार दतः पाः । आंत्मकामत्वे चाऽसकामता । 

गनः आत्मां हि बह्म । तद्विदो हि परप्रािं वक्ष्यति 1 अतोऽवि- 
दयानिद्र्तौ स्वातमन्यवस्थानं परपरासि,, “अमयं प्रतिष्ठां विन्दते “षत- 
मनन्दमयमात्मानसुपसंका्मति ” इत्यादि श्वुतेः। . 
चपदा्थस्मरणासंभवात्‌ , उपनिषद्रतनिश्छेषपदाथानां विशिष्य निःसंशयं ज्ञानं ये रोचयन्ते, 
तेषाञ्चपकारायेत्यथेः ॥ ३ ॥ 

कमविचारेभेवोपनिषदो गताधैत्वात्‌, उपनिषत्प्रयोजनस्य निःश्रेयसस्य कमेभ्य एव 
संमवात्‌, प्रथग्याख्यारम्भो न युक्तः--हत्याशङ्ामपनेतं कमेकाण्डाथंमाह-नित्या- 
नीति । “ अथातो षर्मजिज्ञाधा ” इति ज्ञैमिनिना धमेग्रहणेन सिद्धवस्तुविचारस्य पयु 
द्स्तत्वात्‌, नोपनिषदो गताथेत्वमित्यथेः । तानि च कर्माणि सश्चितदुरितक्षयाथानि, 
« धर्मेण पापमधददति इति श्तेः, न निभश्रेयसाथांनि । न केवरं जीवतोऽवद्यकतन्यान्य- 
पिगतानिं, फलथिनां काम्यानि च; न॑ तान्यपि निःभेयसाथोनि, “ स्वगेकामः” <द्य- 
-शमः ” इत्यादिवत्‌ “ मोक्षकामोऽ्दः ऊयोत्‌ “ इत्यश्नवणात्‌; अतः संसार एव कर्मणां 
फलमित्यथेः । 

कमकाण्डा्थखक्त्वा तताविचारितखपनिषद्थमाह--इदानीमिति । कर्मण उपादाने- 
ऽचष्ठाने यो देदुस्तनिटच्यर्थं ब्ह्मविव्याऽस्मिन्यन्थे प्रारभ्यते । अतः सनिदानकमोन्मूलना्थ- 
त्वादुपनिषदः क्मंकाण्डविरुदत्वात्न गताथेत्वमित्यथः । कममाड्टाने देतुनिंयोगः, तस्थ 
प्रमाणसिद्धत्वान् विया विरोष इव्याशङयाऽऽइ--कमेहेतुरिति । अस्येदं साधनभि- 
त्येतावच्छान्ञेण बोध्यते; यस्य ॒तत्राभिखाषः, प तत्र प्रवतैते कामत एव । अतो न 
नियोगस्य प्रवतैकत्वसभावनाऽपीत्यथः । सति कामे प्रदत्तिरत्यन्वय उक्तः । कामा- 
भावे न प्रहत्तिरिति न्यतिरेकमाह--आपेति । अभिठपितविषयप्राधिः कामनिटते्तुः, 
न विया । अतः कथं कमेहेतुपरिहाराय विवारम्भः --ह्याशङ्न्याऽऽह--आत्मकामत्वे 
चेति} कामितविषयप्राप्तो कामस्योत्कछिकोपशममात्र, न तच्छेदः, पनविंषयाकाङ्कादभैनात्‌ । 

(१) च. उ. ४-४-६१ ५ (२ ) ते. उ २-१- (३) २-७-१ (४) २-८-१. (५) ने. ष्‌. 
१-२-१९ (६ ) महाना. उ. २२-१ (७) ते. स. २-५-६; ७,४-१. ताण्ड्यमहात्राद्मणे १६-३-२- 


(८ › ताण्ड्यमहाब्राह्मणे २९-९-२. ते. स. २-६४-६. 





भाष्योपोद्धातः द्‌ 


काम्यप्रतिषिद्धयोरनारम्भात्‌ › आरब्धस्य चोपभाग्चयात्‌, नित्यानुष्ठानेन 
प्रत्यवायाभावात्‌, अयलत पव स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः; 
अथवा निरतिद्रायायाः प्रीतेः स्वगेराब्दवाच्यायाः कमेहे- 
तत्वात्‌, कमेभ्य पव मश्चः--इति चेत्‌-- 

न, कमौनेकत्वात्‌ । अनेकानि ह्यारब्धफछान्यनारब्धफखानि चानेकजन्परान्त- 
रक्तानि विरुद्धफटानि कमणि संभवन्ति--दइसयत- 
स्तेष्वनारन्धकरानामेकस्मिञ्जन्मन्युपभोगक्षयासंभवात्‌, रेष- 
कमंनिमित्तहारीरारम्भोषपत्तिः! कमैरोषसद्धावसिदधिश्च, “ तद्य इह रमणी- 
यचरणाँः”, “ ततः शेषेणं ” इव्यादिश्वुतिस्ष्तिहतेभ्यः । टष्टानिष्टफराना- 
मनारन्धानां श्चयाथीनि नित्यानि--इति चेन्न, अकरणे परत्यवायध्रवणात्‌; 
परत्यवायराब्दो हयनिष्टविषयः; नित्याकरणनिमित्तस्य प्रत्यवायस्य दुःखरूप- 
स्याऽऽगामिनः परिहाराथौनि नित्यानीत्यभ्युपगमात्‌, नानारव्धफटकर्मश्षया- 
थानि । यदि नामानारग्धफलकमक्चयाथानि नित्यानि कमीणि, तथास््यञ्चुभ- 
मेव क्षपयेयुः न्‌ शुभम्‌, विरोधामावात्‌ । नहि, इष्फलस्य कर्मणः दुद्धिरू- 
पत्वात्‌, नित्येर्वेरोध उपपद्यते, शुद्ध चद्युद्धथोदहिं विरोधो युक्तः । 


मीमांसतकाः-केवल्क- 
मणां मोक्षसाधनतवम्‌ 


तत्वण्डनम्‌ 


आप्तकामताऽपि निरङुशा^-आत्मैव वस्तु, नान्यत्ततोऽस्तीयेवरूपा--आात्मकामत्वे सति, 
भवति; कामयित्याभावादेव । आत्मानं दयद्वयानन्दरूपमजानन्रेव व्यतिरिक्त विषयं 
परयन्कामयते । ततः कामस्याऽऽत्माविध्ामूकत्वात्‌, आत्मविथेव तत्निटत्तिहेतुरित्यथः । भव- 
त्वात्मविदया कामविरोधिनी, कमेदैतुपरिदाराय ब्रह्मविदा प्रस्तूयते- एति कथक्तं ? 
तत्राऽऽह--आत्मेति। आनन्दमयं परमात्मानमादाय भरुतिर्दाहता । 

एव तावत्कमेकाण्डेनागताथैत्वात्‌ , कमभ्योऽसंभाग्यमाननिःभेयस प्रयोजनत्वाव, उपनिषदो 
व्याख्यारम्भं संभाष्य, एुनरनारम्भवादिनोऽमिप्रायघद्वावयति--काम्यप्रतिषिद्धयोर्ति ! 
जत्यन्तिकागामिक्षरीरादत्पादे स्वरूपावस्थानं निेयसम्‌, शरीराचत्पादश्च हेत्वभावादेव से- 
तस्याति, क ज्ञानार्थोपनिषदारम्भेण ?-इ्यथेः । मतान्तरमाई--अथवेति । यदेव स्वम- 
साधनं ज्योतिष्टीमादि तदेव मोक्षप्ताधनं, निरतिशय प्रीतेः स्वगेपदाथस्य मोक्षादन्यतासं- 
भवात्‌, सति शरीरे छेशस्यावद्यंभावादियथंः । एेकभविकपक्षमायमतं प्रयाल्याति- 





( १) छां. उ. ५-१०-७ (२) अनेन ¢ वणा आश्रमाश्च खवम॑निष्ठाः परेत्य कमैफर्मनुभूय ततः 
देषेण विशिष्टदेशाजातिकुलरूपायुःश्तद्र तवित्तयुखमेथसो जन्म प्रतिपन्ते इति गो. घ. सू, २,११-२९ 
एव ग्रहीतव्यम्‌; न आप. ध. घु. २-२-२३ ^ ततः परिवृत्तौ कर्मफररेषेण जाति, रूपं, वर्णी, मेधां, 
भं द्रव्याणि, कर्मानुष्ठानम्‌ ;-इति प्रतिपवते । तचक्रवदुभयोलीकयोः सुख एव दाति “इति! =. 


, वैतिरीयोपनिषत्‌ 


न च, कमहेतूनां कामानां श्ञानाभावे निड्यसंभवात्‌, अशेषकमेक्षयोपपत्तिः । 
अनात्मक्दो हि कामः, अनातमफरषिषयतात्‌ ; स्वात्मनि च कामायुपपत्ति- 
पि्धादत्टत्‌; स्वयं चात्मा परं ब्रह्मेत्युक्तम्‌ । नित्यानां चोकरणमभावः, ततः. 
प्रत्यवायानुपपत्तिः-इत्यक्तः पूर्वापचितदुरितेभ्यः प्रप्यमाणायाः भ्रत्यवायक्रि- 
याया नित्याकरणं क्षणम्‌--इति “अङ्कुवेन्वि्ितं कमे"-इति दात॒नीडुपपन्तिः। 


नेत्यादिना । यव्यपि वतेमाने देहे काम्यं प्रतिषिद्धं च नाऽऽरभेत खखष्ः, तथाऽपि सच्ित- 
स्पनेकःस्य संभवात्‌ , हेत्वभावोऽसिद्ध इत्यथः । प्रायणनाभिव्यक्तानि सवौण्येव कमाणि 
संभरयेकं श्रीरमारभन्ते, तत्र सर्वेषाडपभोगेनेव क्षपितत्वात्‌, सञ्चितं कमैव नास्तीति 
अ नानिरोकरणायोक्तय्-विर्द्रफः कानीति । स्वगेनरकफलानां ज्योतिष्टोमन्रह्महत्यादी- 
नमिकसिन्देहे भोगेन क्षयासेभवाप्‌ , प्रायणस्य सवोभिव्यज्ञकतवे प्रमाणाभावात्‌, बर्वता, 
प्रतिबद्धस्य दुबेटस्यावस्थानं संभवतीत्यथैः । संभावनामातरमेतप्‌, नात्प्रमाणमस्तीत्याश- 
ङथाःद--कमेदोषेति। “परत्य स्वकमेफल्मदमूय ततः शेषेण... . जन्म प्रतिपबन्ते 
इति स्वगोदवसेहतां कमेशेषसद्रावं दशचेयतीयर्थः। सचितकमेसद्वावमङ्ीङ्त्य , देहान्तरारम्भोः 
न भविष्यतत्याह--द्टेति । एतङ्भाञ्चनां सिद्वान्तविरुढमित्याहं-नेति । उखश्ठणाऽदशि- 
तस्य नित्यदेः सद्धितकमंक्षयाथेत्वाभ्यपगमेऽपि नामिमतसिदिरित्याह-यदि नामेति । 

यकचोक्तं --खखद्धः काम्यानि वजेयेत्--इति तदप्यसति विवेकबङे दुैटम , सति मरूढाज्नानेः 
कामोद्रवस्य दुनिवारत्वारित्याद-न च, कमैहेतूनामिति । नड--कामो .नाततानमृलः, 
आत्मविदामपि कामदश्नादियत आह--स्वात्मनि चेति । सवंमात्मेति पश्यतां तत्वतो 
. विषयाभावादेव कामादपपत्तिः । अशनादिप्रटत्तिनिमित्तं ठ॒ कामाभास एव, वास्तवाभिनिवि- 
शामावाद्िथेः। तेषामप्यचिरादिमार्गेण ब्र्प्ापिकामनाऽस्ति--इति नाऽऽशङनीयमित्याह--. 
स्वयं चेति। यचोर्तम--अकरणनिमित्तप्त्यवायपरिदाराथानि नित्यानि--इति तत्राऽऽह-- 
नित्यानां चेति । आगामि दुःखं प्रत्यवाय उच्यते । तस्य भावरूपस्य नाभावो निमित्तम्‌ ; 

“ पापः पापिनं ” इति शुतेः निषिद्ाचरणनिमिनत्तक त्वा हुःखस्मेत्यथैः । 

“ अङकवेन्विहितं कम॑निन्दितं च समाचरन्‌ । 

प्रसज्जधेन्दरियाथषु नरः पतनमृच्छति ॥ ” 
इति शतप्त्ययादकरणस्यापि निमित्तत्वमवगतमित्याशङ्ाऽद-- अतः पूर्वेति ! यदि यथा- 
व्रित्यनेमित्तिकावष्टानमभविष्यत्‌, तदा सच्रितदुरितक्षयोऽभविष्यत्‌; न चाये विहितमकाषौ- 
त्‌, अतः प्रत्यवाय भविष्यति-इति शिषेेकषयते,-यथा 'अविचिकित्सन्छरोत्रियः” इति । ततः 

गतप्रययस्यान्यथाप्युपपत्रत्वात््‌" न तद्धलादकरणस्य हेत॒त्वमवगन्तं शक्यत इयथः । 


` ८२११ मरु. स्मर १९.४४ त “प्रायश्चित्तीयते नरः "--इति चतु्चएणः; याज्ञवस्क्यस्मतौ २-२१९ 
धवेदितस्व -इतयादिशटोकस्य चलुर्थचरणः नरः पतनश्च्छति' इति । (२) वू. उ. ४-४-५. 


भाष्योपाद्ारतः ५ 


अन्यथा द्यभावाद्धावोत्पत्तिः--इति सर्वप्रमाणव्याकोपः, इत्यतोभ्यलतः 
स्वात्मन्यवस्थानमित्यनुपपन्नम्‌ । 


यच्चोक्त-निरतिश्यप्रीतेः स्वगैदाब्दवाच्यायाः कमेनिमित्तत्वात्कमीरध एव 
मोक्षः--इति तन्न, नित्यस्वान्मोश्चस्य । नहि नित्यं किथिदारभ्यते रोके, यदा 
रब्धं तदनित्यम्‌, ददयतो न कमारभ्यो मोश्चः। 


विद्यासदहितानां कमणां नित्यारम्भसामथ्येम--इति चेन्न,--विरोधात्‌; नित्यं 
विदयकर्मसमुच्चय- च “आरभ्यते इति च विरुद्धम्‌ । यद्धि नष्रं तदेव नोत्पद्यते-- 
वादनिरासः इति प्रध्वंसाभावर्वननित्योऽपि मोक्ष आरभ्य एव--इति चेन्न-- 
मोक्षस्य भावरूपत्वात्‌ । प्रध्वंसाभावोऽप्यारभ्यत इति--अभावस्य विशेषामा- 
वात्‌-विकर्पमा्रमेतत्‌ । भावपरतियोगी ह्य मावः 


न--शलक्षणदेत्वोःक्रियायौः” इति शतृप्रययस्योभयत्र विधानि सति, किमिति हेवत्वमेव न 
ग्यते ए तत्राऽऽह--अन्यथेति । भावरूपस्य कायेस्य भावरूपमेव कारणमिति प्रयक्षादिभि 
रवघारितं, शतप्रत्ययादभावस्य हेत॒त्वाभिधाने सवेप्रमाणविरोपः स्यादिः! नबु-त्वयाऽप्य- 
करणस्य प्रत्यवायटक्षकत्वमिषटम्‌ ; भाट्ेथादपङम्भस्याभावप्रमितिदेवुत्वमिष्यते; तार्कविकेश्व- 
प्रतिचन्धकाभावस्य, तत्तत्प्रागभावस्य च, तत्तत्कायेन्यवस्थापकत्वमिष्यते; तत्कथं भावस्येव 
कारणत्वम्‌ ? तदुक्तम--“भावो यथा तथाऽभावः कारणं कायेवन्मतः" इति । उच्यते--अस्मा- 
भिस्तावदभावस्य स्वरूपेण कारणत्वं नेष्टम्‌ । किव तज्ज्ञानस्य प्रत्यवायगमकत्वमिषटम्‌ । तेन 
च रूपेण न प्रत्यवायजनकलत्वमिष्यते, नित्याकरणाकनानै प्रयवायाभावगप्रसङ्ात्‌। भाट्ानामपि 
च केषांचिज्ज्ातस्य योग्याहपलम्मस्याभावप्रमितिदेतुत्वम्‌, सत्तया तु प्रमितिहेतुत्वेऽभावप्रमायाः * 
परत्यक्षत्वपितः । ताकिंकाणामपि प्रतिबन्धकाभावस्य कारणत्वेऽन्योन्याभयत्वप्रसङ्धात्‌, 
प्रामाणिकत्वम्‌ । प्रागभावस्यापि ज्ञातसूपेण जन्मन्नापकत्वमेव-यस्मादिदं प्राङ्‌ नाऽऽसीत्तस्मा- 
दिदानीं जातमिति- ज तु जनकत्वम्‌ । प्रागभावस्य नियतप्राग्भावित्वेन कारणत्वे प्राक्रालस्य 
स्वदटत्तितापातः। प्राग्भावित्वमपि चान्यथासिदमित्यक्तं तस्वारोक] यस्मादकरणनिमित्तप्र- 
त्यवायपरिहाराथं न नित्यं कमे, कंतु “कमेणा पितो, “तरव एते पुण्यरोका भवन्ति” इति 
तेः पितृखोकप्राप्िफटम्‌, तस्मात्र यथोक्तचरितस्य शरीरादत्पाद इत्याह-दइत्यत शति । 

द्वितीयमतमनद्य दूषयति-यञ्चोक्तमित्यादिना । विद्यासदितेनापि कमेणाऽऽरस्यशे 
न्मोक्षः, तद्योमित्य एव~ यत्कृतकं तदनिखमिति व्याप्निदशना्ट--हत्युक्तम्‌ः तत्र व्याप्निभङ्गं 





(१) पा. स. २-२-१२६ (२ ) न्यायडुमा्किः १-१० (२) न्यायवुखमा्लिः ३-२० ८४) च 
उ. १-५-१६(५, छा. उ. २-२३-२ 


# ५ _ 
६ तैन 


यथा ह्यिन्नोऽपि भावो घटपरादिभि्विशेष्यते भिन्न इव--घटभावः परभाव 
इति.--पवं निर्विरोषोऽपि भावामावः करियागुणयोगाद्रव्यादिवद्विकट्प्यते । न 
हयभाव उत्परादिवदिशेषणसहभावी, विरेषणवस्वे भाव पव स्यात्‌ । विद्या- 
र पिरत्वाद्धिद्याक्मसन्तानजनितमोक्षस्य नित्यत्वम्‌ इति चेन्न, गज्ञाखो- 
तोवत्तत्कतैत्वस्य दुःखरूपत्वात्‌; कतेवयेपरमे च मोश्षविच्छेदाव्‌ । तस्मादति. 
द्वाकामकमौपादानदेतुनिदन्तो स्वात्मन्यवस्थानं मोक्ष इति । स्वयं चाऽऽत्मा 
रह्म, तदिज्ञानादविदयानिड़त्तिमोंश्चः--इत्यतो ब्रह्मविद्याथोपनिषदारभ्यते । 


1 


मन्वानःश्ङ्कते-यद्धि नष्टमिति भावरूपत्वादिति-यद्वावरूपं कायं तदनिलयमिति व्याप्तेः 
तवे च मोक्षस्य निरातिशयप्रीतेभावत्वादानित्यत्वं स्यदवेयथैः प्रध्वंसाभावस्य कायेत्वमस्डुपगस्य 
यध्वसातिरिक्तं कार्यं तदनित्यमिति व्याप्निम्याख्याता । परमाथेतस्त प्रध्वंसस्य कायेत्वमपि 
नास्तीयाह--प्वंसेति ! जन्याभयत्वं तावतपध्वंसस्य न कायेत्वम्‌, जने्नँरकतेभावविकांर- 
ताम्युपगमात्‌; नापि प्रागसतः सत्तासमवायादिलक्षणम, तदनभ्युपगमा्‌ ; नाप्युत्तरकाल. 
योगः, काठेन संबन्धाभावात्‌ , अवच्छेावच्छेदकमभावस्यं संबन्धान्तरमृलकत्वदश्नात्‌ ; उत्त- 
रकाटस्य प्र्वंसावच्छेदकत्वं स्वभावशरेत््‌, अन्यावच्छेदकत्वं स्वभावो न स्यात्‌; तस्मादभावस्य 
निर्विरेषत्वात्‌, कायेतवं कल्पनामात्रमिति भावः । किच, अभावस्य भावनिषेधमात्रस्वभाव- 
त्वात्‌, भावविरोधित्वाच, न भावरूपो धमः संभवतीत्याह--भावेति । 
नड-अभावश्तुर्विषः; ततरानियः प्रागभावः, प्रध्वंसादयस्तु नित्याः; ततः कथं निरविंशेष- 
तमिवयाशङ्न्याऽह--यथां हीति । वििप्र॑त्ययस्येकाकारत्वदेक एव भावो यथावच्छेदकभेदा- 
द्वि्र इव प्रकाशते, तथा निषेधप्रत्ययस्येकाकारत्वात्‌, एक एवाभावोऽवच्छेदकमेदाद्विन इव ध्र 
काशते--जायते, नयति चेति क्रियायोगात्छंख्यायुणयोगाद्रव्यवद्‌ विकल्प्यते--न तु तत्वतः 
सविशेष इत्यथः । इतश्च न तत्वतः सविशेष इत्याह--नहीति । विशेषणं हि विशेष्यान्वयि प्रपि- 
म्‌ । प्रतियोगिना च विशेषणेन नाभावस्य सदभावोऽस्ति; धटप्रथ्वं्स्य नित्यत्वे, घटस्यापि 
नित्यत्वप्रसङ्ाप्र । धटसहभावषित्वे च तदभावत्वव्याधातात्‌, भावाभावयोः सहानवस्थानरूप- 
विरोधास्युपगमाघ्‌ । ततः प्रतियोगिविशेषादभावः सविशेषः, कायेत्वादिधमेवान्‌--इति विभ. 
ममात्रमित्थः । एवं प्रध्वंसदृष्ान्तेन शङ्कितं नित्यत्वं परिढय, प्रकारान्तरेणाऽऽडुन्य निषे- 
चति-विद्ाकमत्यादिना । विदयाकमेणोः कतौ नित्यः--ति साधनसान्तत्यात्ाध्यसा- 
न्तत्यं न वाच्यम्‌ । कतुत्वस्याचपरमेऽनिमोक्षप्रसङ्गात्‌, उपरमे च साधनसान्तत्याभावान्मो- 
शस्य विच्छित्तिः स्यादित्यथः । यस्मात्निःश्रेयसं बह्मज्ञानं विना दुष्प्रापं, तस्मादित्युपसंहारः। 





(> 
(१ ) तद्न्मो० इति पाठान्तरम्‌ । (२) “धड्भावविकारा मवन्तीति वाप्योयणिः-जायते, अस्ति, विप- 
रिमिणते, वधते, मप्षौवते, विनरयति “इति निरुक्ते १-२. ( २ ) भावप्रत्यय-इति पाठान्तरम्‌ । 


अथ शिक्षावस्ल्या प्रथमोभ्लुवाकः 
| ( शान्तिः ) 

हरिः ॐ । शरं नो मितिः शं वरणः । शं नो भवत्वयंमा । 

तं न इधर स्तिः । कं नो विष्णुरस्कमः। 

नमो ब्रह्मणि । न॑स्ते वायो । त्येव परत्यक्षं ब्रह्मासि | 

त्वेव शत्यं ब्रह्मं वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । 

सत्यं व॑दिष्यामि । तन्मामवतु । तदक्तारमवतु । अव॑तु 

माम्‌ । अव॑तु वक्तारम्‌ । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ( १` )॥ 

स॑त्यं वदिष्यामि पश्व च ॥ 

इति कष्णयजुवदीयतेत्तिरीयोपनिषदि शिं्षावस्स्यां प्रथमोऽलुवाकः ॥ ९ ॥ 
उपनिषदिति विद्योच्यते--तच्छीटिनां गभेजन्मज्ञरादि निशातनात्‌, तदबसा- 
दनाद्वा, बह्मणो वोपनिगमयितृत्वात्‌, उपनिषण्णं वास्यां 


उपनिषन्ि्वचनम्‌ परं श्रेय इति; तदथत्वाद्धन्थोऽप्युपनिषत्‌ । 


शं सुखं प्राणबततेरहश्चामिमानी देवतात्मा मित्रो नोऽस्माकं भवतु 1 तथेवापान- 
विचाविध्रा- वृत्ते राज्ेश्चाभिमानी वरुणः; चक्षुष्यादित्य चाभिमानी अयमा; 
नर्न बे बाहयोः--न्द्र; वाचि, बुद्धौ च बृहस्पतिः; विष्णुररकरमो 
बिस्तीणीक्रमः पादयोरभिमानी; पएवमादयाण्यात्मदेवताः । “दौ नो भवतु" इति 


जहाविव्याया्पानेषच्छब्दप्रतिदिरपि वियाया एव निःभेयस्साधनत्वे प्रमाणमित्याह- 
उपनिषदिति । निकशातनाच्छिपयिटीकरणादित्यथः। अस्यां वियायां निमित्तभूतायां परं 
श्रेयो ब्रह्म जीवस्योपनिषप्णम--भत्मतयोपस्थितं भवतीत्यर्थः । 


एवडपनिषदो व्याख्यारम्भं संभाव्य, प्रतिपदल्याख्यामारभते--रं सुखमित्यादिना । 
शं नो भवत्विति--उखकृद्ववतित्यथः । अध्यात्मप्राणकरणाभिमानिनीनां देवतानां खखकृचवं 


( १ ) वक्यददाकबोधकोऽयमङ्कः । एवमयेऽपि बोध्यम्‌ । (२ ) एतदनुवाकगतवाक्यदराकसङ्कलनार्थं 
तत््मक्यदश्कान्तिमपदगणनम्‌ । परं प्त्यनुवाकरसमप्तौ जेयम्‌ । तदेतद्राकयकषयहणमनुवाकेखु वाक्यानां 
निकषिपमक्षेपनिबन्धनन्युनापित्यारणाय पू्वाचयैः प्रोक्तम्‌ , भधीयते चायापि स्वाघ्यायवत्‌ । ( २ ) अस्या 
एब सांहित्यपनिषप््‌ः-इति नामान्तरम्‌ । . 


८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ रि्षवही 


सुछालुरः । तासु दि खखङृत्ख, विद्याभ्र- मघ्रणोषेयागा अग्रतिबन्धेन 
मविष्यन्ति-इति तत्सुखकतृत्वं ्येते--शं नो मवतु इति । 
रह्म विविदिषुणा रस्म पिये वायुविषये बरह्मवि्योपसगेशान्त्यथ 
वदस्य भरदत्य- श्रियेति, सर्वमयाफल्मनां तदधीनत्वात्‌ । ब्रह्म वायुस्तसतर 
अन्तयामिलेन प्रे- ब्रह्मणे, नमः पह्टीभावं, करोमीति वाक्यशेषः; नमस्ते 
कस्य बऋ्मण ख नम तुभ्यं हे वायो; नमस्करोमीति परोश्छप्रत्यक्षाभ्यां वायुरेषा- 
स्कारदनकरिये भिधीयते 1 ईदिच त्वमेव, चक्षुरा्यपेशष्य बाय, संनिरुष्टम- 
व्यवहितं प्रवयक्षं बह्यासि यस्मात्‌, तस्माच्वामेव प्रत्यकं जह्य वदिष्यामि । ऋतं 
यथादाख्रं यथाकतेव्यं बुद्धौ सुपरिनिश्चितम्थै, तदपि त्वदधीनत्वात, 
त्वामेव वदिष्यामि । सत्यमिति--स एव बाक्ायाभ्यां संपाद्यमानोऽ्थेः, सोऽपि 
त्वदधीन पव संपाद्यः--इति त्वामेव खल्यं वदिष्यामि । तत्‌ सवा्मकं वा- 
य्वास्यं ब्रह्म मयं स्तुतं सन्मां वि्याथिनमवतु विद्यासन्नियोजनेन; तदेव ब्रह्य 
< चभरमा्चायै वक्तत्वसामथ्येसंयोजनेन । अवतु मामवतु वक्तारम्‌! इति पुनवेचन- 
मादयथम्‌ 1 "शान्तिः शान्तिः रान्ति? इति तिवैचनमाभ्यात्मिकाधिभोतिकाधिदै- 
विकानां विद्यामाप््युपसगोणां अदामनार्थम्‌॥ | | 
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजका्चायेगोविन्दभगवत्पुज्यपादशिष्यभीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्ठि्षावह्टीभाष्ये प्रथमोऽदवाकः ॥ १ ॥ 


किमिति प्राथ्यते {-तत्राऽह-ताु हीति । ्रव्णं--गुरुपादोपसपंणपूवकं वेदान्तानां 
तात्पयोवधारणम्‌ । धारण--श्वतस्यावेस्मरणम्‌ । उपयोगः--शिष्येभ्यो निवेदनम्‌ । 
अन्यद्भष्य वायुशवान्य इति नाऽऽशङ्कनीयमित्याह--परोक्षेति ब्रह्मणे इति । पारोक्ष्येण 
क्त ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ' इति श्तेः, वायुशब्देन च प्रत्यक्षतया निर्देशः, प्राणस्य प्रत्यक्षत्वा- 
रित्यथेः । यद्यपि सत्रात्मरूपेण वायुः परोक्षः, तथाप्प्याध्याम्िकप्राणसूपेण ब्रह्मशब्दवा- 
च्यत्वेऽप्यपरोक्षत्वमित्याह--कि चेति! बां चक्षरादि, रूपदशेनादषमेयत्वात्‌ , व्यवहितम्‌ । 
प्राणस्त्वव्यवधानेन ाधिवेयः सनिदितश्च भोक्तरिति चक्षरादपेश्षया प्रत्यक्ष इत्यथैः । 
तहणादर्ष-प्राणकृतेन ह्यशनादिना शरीरादे्वहरण प्रसिदधमित्यथैः । यथा राज्ञो दोवारिकं 
कशरिद्राजदिदृभुराह ^ त्वमेव राजा” इति, तथा हादेस्य ब्रह्मणो द्वारपं प्राणं हाई ब्रह्म 
दिदृकषखक्षराह-त्वामेव परत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामीति । ब्रहमवदनक्तिया प्राणेदवतायाः 
स्व॒त्यथां । स्तुत्यन्तरमाह~-ऋतमित्यादिना ॥ , 
इति श्रीमत्परमहंसपरिरजकाचार्यश्रमच्छुद्धानन्दपूञ्यपादशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरीयोपनिषच्छांकर- 
माष्यरिप्पणे िक्षावस्स्यां प्रथमोऽनुवाकः ! १॥ 


(१) तरू. उ. ३-९-९( २ ) विष्णु. पु. १-१२-५७; २-२-२१. ` (दवस सस्र) विष्ठ-पु- ददस्वमङद्र्ह 


अथ शिक्षावर्ल्यां दितीयोऽनुवाकः 
( शिष्षाध्यायः ) 
ऊभश्कषां व्यौस्यास्यामः । वणः स्वरः । मात्रा बञम्‌ | 
साम संतानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ८१) ॥ 
दीक्षां पञ्च ॥ 
इति कृष्णययुर्वदीयतेत्तिरीयोपनिषदि िक्षावस्त्यां द्वितीयोऽनुवाकः । २ ॥ 


अथज्ञानप्रधानत्वादुपनिषदो प्रन्थपाठे यस्नोपरमो मा भूत्‌, इति दीक्षाध्याय 
दषटद्धेपकारी थन्थ- आरभ्यते शीक्चा ~ शिश्यतेऽनयेति वणोद्यञ्चारणलक्च 
पाठनियमे विहितः। णम्‌; शिश्ष्यन्त इति वा शिक्षा-घणादयः, रि्चेव शीश्चा, 
दैष्यं छान्दसम्‌ । तां शीक्षां व्याख्यास्यामो वि स्पष्टम्‌ आ समन्तात्कथयि- 
व्यामः । चक्षिङः ख्याजादिष्ठस्य व्याङ्‌ःपूर्वैस्य व्यक्तवाक्मण एतद्रपम्‌ । तच्च 
वर्णोऽकारादिः । स्वर उदात्तादिः । मात्रा हस्वाद्याः । बलं प्रयत्नविरोषः। 
साम वणौनां मध्यमद्च्योचारणं-समता । सन्तानः सन्ततिः-संहितेत्यथेः। 
एष हि शि्षितव्योऽथः । श्क्षा यस्मिन्नध्यये सोऽयं शीक्षाध्यायः! इत्येवसुक्त 
उदितः; उक्त इत्युपसंहार उन्तराथेः ॥ 

इति श्रीमत्परमहंसपरितव्राजकाचायेगोविन्दभगवत्पूल्यपादरिष्यश्रीमच्छकरभगवत 

कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षाव्टीभाष्ये दितीयोऽदवाकः ॥ २ ॥ 


यत्नोपरम इति-स्वरोष्मव्यज्ननादिप्रमादो मा भूष, अन्यथा विवक्षिताथसिदिरेव 
न स्यात्‌ । तदुक्तम्‌- 
« भन्त्रो हीनः स्वरतो वणतो वा मिथ्याप्रक्तो न तमथमाह । 
स वाग्वजो यजमानं हिनसिति यथेन्द्रशत्रः स्वरताऽपराधातत्‌ ॥ “हेति । 
लक्षणमिति । छक्षणं शालम्‌-शटटुरषाणां भरधा, शदुयशानां ताद्धः-इत्वादि । 


( १) पाणिनिशिक्ता ५२; पा. महाभा. १-१-१. सच वागेज्रम्रः ` इन्द्रशर्वदस्व ` इति ते 
संहितायामसक्रच्छरतः-२-४-१२-१; ५-२-१; कशतपथन्रा, १-५२-१० न्द्रित पदे इन्द्रः राह 
दातयिता ( मारयिता ) यस्येति बहुव्रीहौ आवपदोदात्तत्वम्‌ , यथा ° इन्द्रश्रुः, तेन चेन्द्रस्य दातनक- 
तरतं बध्यते; इन्द्रस्य शषठरिति षषशतत्युरषपक्षेऽन्त्यपदोदात्तत्वम्‌, यथा इन्द्रश्ः' तेन चन्द्रस्य शातन 

कमतयाऽवगमः । ° सोऽयं न्तरगतः स्वरापराथः । अपराधामवे सति, उन्ततया ज्वालया यजमानस्य कार्य- 
सिद्धिः सूचिता मवति । अप्रपि त्ववनतया ज्वालया यजमानस्य कार्थसिद्धथमावः सूच्यते ° । इति ते० सं० 
२. ४. १. १ स्ता° भाष्ये । (२) १ पाणिनिरि० १६-१८; सि. कोडदी, १० । 


॥ 


अथ रिश्चावल्त्यां त॒तीयोऽनुवाकः | 
८ संहितोपासनम्‌ ) 
र स © 
सहं ॑नां यशः । सह नं ब्रह्मवचेसम्‌। 

अथातः सहिताय उपनिषदं व्यौख्यास्यामः । पश्चस्रपिकरणेषु | 
अषिरोकमपिज्योतिषमधिषि्यमयिपरनंपध्यात्मम्‌ । ता महासहा ` 
इत्याचक्षते । 

अधुना संहितोपनिषदुच्यते । तत्र संहिताद्युपनिषत्परिज्ञाननिमित्तं यद्‌ 
विब्य ₹- “यहः, श्राप्यते, तन्नो-आवयोः रिष्याचार्ययोः सहैवा स्त॒ । 
तवः प्राते । तक्निमित्तं च यद्भह्यवयैसं तेजः, तच्च सहैवास्तु, इति शिष्य- 
च्चनमारीः । रिष्यस्य॒ह्यर्ताथत्वात्माथैनोपपद्यते, नाऽऽचायस्य-कृताथै- 
त्वात्‌, इतार्थह्याचायो नाम भवति। . 

अथानन्तरमध्ययनलक्षणविधानस्य पूवृत्तस्य यतो ऽत्यर्थं भ्रन्थभाविता वु- 
संधितादिषयं द्धिने शक्यते सहसाऽथक्ञानविषयेऽवतारयितुमिति--अतः संहि. 
स्थूोपा्नम्‌ ताया उपनिषद्‌ संहिताविषयं ददौनमिति-णतद्रन्थसंनिङ्घष्रा- 
मेव--ज्याख्यास्यामः । पश्चस्वधिकरणेषु--आश्रयेषु- ज्ञानविषयेखित्यथः !: 
कानि तानि ! इत्याह--अधिटोकं लोकेष्वधि यदशनं तदधिरोकम्‌, तथा- 
ऽधिज्योतिषम्‌, अधिविद्यम्‌, अधिप्रजम्‌ , अध्यात्मम्‌-इति । ता पताः 
पञ्चचिषया उपनिषद्‌ छोकादिमहावस्तुविषयत्वरात्‌ संहिताविषयत्वा् मह- 
त्यथ ताः संहिताञ्च ता महासंहिता इत्याचक्ते कथयन्ति वेदविदः । 


तस्ान्यत्रैव सिदत्वात्‌, इद कमेब्डुतपत्िरेव शिकषाशन्दस्य ग्रामा । [रूपमिति] « चाषः 
ख्यान्‌ ” इति सत्रेण ख्यामादिष्टो यस्तस्थेदं रूपं, न ^ ख्या प्रकथने ” इत्यस्य, तस्यः 
सोपसम॑स्य प्रयोगानभिधानादिव्यर्थः ॥ . 

इति श्रीमत्परमदसपरिनाजकाचार््मच्छद्धानन्दपूज्यपादरिष्वानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरयोपनिषन्छा- 

करमाध्यटिप्पणे रिक्षावल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाकः ॥ २॥ 

संहिता-वणोनां सत्रिकषैः, तद्विषयखपासनं प्रथमं कथ्यत ई्याह--अधुनेति। 
सप्निषानाच स्वशाखारदितेव मह्या । श्वं नो मित्रः इत्यायारीवादः कृत्लोपनिषच्छेषः. 
संहितो पनिषच्छेषमार्थीवादान्तरमाह- तत्रेति । 


८११ पा. स. २-४-५४ (२) धातुपाठः २. ५०. (३) "खासंनिष्ितै" इतन पाठन्तरम्‌। 





तृतीयोऽलुबाकः | संहितापासनः- ११ 


अथांधिटोकम्‌ । पृथिवी पवेरूपम्‌ । बोरततररूपम्‌ । 
आकोजचः संधिः ( १ ) । वार्य संधानम्‌ । इत्यधिलोकम्‌ । 
अ्ांभि्योतिषम्‌ । अगिः परषरूपम्‌ । आदित्य उर्तरूपम्‌। 
आपः संधिः बेुत संघानम्‌ | इत्यधिज्योतिषम्‌। 
अर्थाधिविचम्‌ । आचायेः धूवैरूपम्‌ (२ ) । अन्तेवास्युततररूपम्‌। 
विया सधि; । प्रवचन संधानम्‌ । इत्यधिषियम्‌ । 
अयाधिपजम्‌। माता दवेखूपम्‌ । पितोत्तररपम्‌ । 
परजा संधि; । मजनन संधानम्‌ | इत्यधिपजम्‌ ( २ ) 
अथाध्यात्मम्‌। अधरा हलुः पूवेरूपम््‌ । उत्तरा हयुरुत्तररूपम्‌ 
वाक्संधिः | जिह। संधानम्‌ । इत्यध्यात्मम्‌ । 
अथ तासां यथोपन्यस्तानां ध्ये ऽधिरोकं द्दोनम्रुच्यते । दरोनक्रमविवेक्षा- 
लोकादिविषया ॒र्थोऽथरशब्दः स॒वे । पृथिवी पूवेरूपं--पूवों वणेः पूवेरूपं-- 
उपास्यावयवाः संहितायाः पव वणे पृथिवीदष्टिः कर्तन्येत्युक्तं मवति । तथा 
दयोरत्तररूपम्‌-भाकाशोऽन्तरिश्चरोकः संधिमेध्यं पषोत्तररूपयोः- संधीयेत 
अस्मिन्पूवांत्तररूपे--इति ॥ 
वायुः संधानम्‌-संधीयतेऽ्ेनेति । इत्यधिरोकं द्दानयुक्तम्‌ । अथाधि- 
ज्योतिषमित्यादि समानम्‌ । 


वस्तूपासनं हित्वा प्रथमतः शब्दोपासनविधाने हेव॒रतन्वग्देनोक्त इत्याह~-भयतोऽत्यथ- 
मिति । पञ्चस्िति सप्तमी ठतीयार्थे परिणेया । अधिकरणश्ब्दश्च विषयपयोयः । पच्चभिः 
पदाथे्विशेषितं शानं वर्णेषु कर्तव्यम, यथा विष्यदनं प्रतिमायामित्यथः । छोकेष्वधीति । 
लोकानयिकय--उपादाय ध्येयत्वेनेयथंः। विवाशब्देन वियाप्रतिबड आचायोदिर्विवक्षितः । 
तथेव प्रजाशब्देन प्रजाप्रतिबद्ः पित्रादिविवक्षितः । अध्यात्ममिति-आत्मानं-मोक्तारम- 
पिकृत्य यद्रतेते जिह्वादि तद्िवक्षितम्‌ । सवैत्र तत्तदभिमानिनी देवतैव ग्राह्या, अन्यस्यो- 
पास्यत्वासंभवादिति । विधिशेषमथवादमाह-ता एता इति । संदितोपनिषदः कतैन्या 
इत्युत्पत्तिविधिस्क्तः। 


कथं कतैव्याः !-इ्याकाङ्कायां विनियोगविधिमाइ--अथ तासामि्यादिना । 


( १)घु वक्तव्यम्‌--इति पाठान्तरम्‌ (२) न्यथोपा इति पाठन्तरम्‌ । 


१२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ |  { शिक्षाबही 


म बषिः। 
य एवमेता महास ९ दिता व्याख्याता वेद्‌ । संधीयते परजया 
ब्रह्मवत्ेसेनानायेन १.४ लोकेन 
पृुभिः | नामा एवर्गयेणं छोकेन ( ४ ) ॥ 
संधिराचायैः पूवेरूपमित्यधिपजं छोड ॥ 

इति छष्णयञरवदीयतेत्तिरीयोपनिषरि शिकषावल््यां तृतीयोऽनुवाकः ।। २ ॥ 
इतीमा इत्युक्ता उपग्रद्रयन्ते । किर | 

यः कञ्िदेषमेता महासंहिता व्याख्याता बेद--उपास्ते; वेदेत्युपासनं स्यात्‌, 
रेहषुभिकफल- विक्ञानाधिकारात्‌, “ इति भाचीनयोम्योपास्स्व » इति च 
सिद्रयरपासनाविधिः वचनात्‌; उफ्रसनं च यथाश्ाखं तस्यप्रययसंततिः, असं- 
कौणौ चात्पत्ययेः, शाखो्तालम्बनविषया च; ग्रसिद्धश्चोपासनदाब्दस्याथों 
खोके--गस्सुपास्ते,. राजानसुपास्त इति; यो हि गुबोदीन्सन्ततमुपचरति, 
स उपास्त इत्युच्यते; सिच फटमापरोत्युपासनस्य; अतोऽपि. च य यवं 
वेद, स सन्धीयते : स्वगोन्तेः--परजादिफलं पराप्रोतीदयथैः । 

इति भीमत्परमदंसपरित्राजकाचायेगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगवतः 


५ भत त्तिरीयं 


कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावष्टीभाष्ये तृतीयोप्दवाकः ॥ ३ ॥ 





कुरेकत्वात्‌, अव्ेयानां बहुत्वात्‌, अवद्यंभाविनि क्रमविशरेषे नियमाथां अथदब्दाः । 
“ हदयस्यायरेऽवद्ययथ जिहयाया अथ व्ष॑सः ” इतिवत्‌ । 

उपप्रदरर्थन्ते परा्यन्ते । 

अधिकारविधिप्रदश्चेनाय यथा दरशादयः षड्यागाः सखचिताः फठसायनम्‌, अधिकारे 
नाभेदात्‌, तथा पञश्चोपनिषद्‌ः सख॒चिताः प्रजादिफलकामस्याका इत्याह--यः कथ्ि- 
दित्यादिना । फल्कामिनाप्ठयमानं संहितोपासनं कामिवफालय भवति; फठानमिसतधिना 
त्वव्टीयमानं बह्मविवार्थं भवति । 

मेधादीनेन ब्रह्मणोऽवगन्तुमश्क्यत्वान्मेधाकामस्य जपोऽपि ब्र्मविद्याथौ भवति । शरीचि- 
हीनेन सत्वशहयर्थं यागायदुषठातुमशक्यत्वादिति श्रीकामस्य होमोऽपि परम्परया ब्रह्मविधो- 
पयोगीति महत्तात्य्यं विधासनिधितमाम्नातानां सर्वत्र दष्टव्यम्‌ ॥ 

इति श्रीमत्परमदसपरितराजकराचर्यशरीमच्छुद्ानन्दपूज्यपादरिष्यानन्दकञान विरचितायां तत्तिरीयोपनिषच्छा- 
कर भाष्यरिप्यणे शिक्षावस्त्यां तृतीयोऽनुवाकः ॥ ३ ॥ 


के 


(२) १-६.(यर.स्‌ -४-१-१. भाष्यं द्वयम्‌ । (३) ते.स.६-२-१ ०-५.(२) जे.स्‌ .११-१-१ (५) सन्ति 


दाये तरीणि प्रधानानि हर्ीषि, पूर्णमासयागे च वरीणि । अगियोऽशाकपाठः, येन्द्रं दधि, एन्द्रं पयः--इति 
ददीयागे । अश्नियोऽटाकपालः, मञ्येन प्राजापत्य उपांशुयागः, अधरीषोमीय एकादशकपालः--इति पौणमासे। ` 


अथ शिक्षावस्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः } 
: . (मेधादिसिद्धचयथौ मचः). 

यदछन्दसागृषभो विशरूषः । छन्दोभ्योऽध्यदतात्संबभूर्व । 

स मेन्द्रो मेधयां स्पृणोतु । अगतस्य देव धारणो भूयासम्‌ । 

शरीरं परे विचैषेणम्‌ । जिहा गे मधुमत्तमा । कणी॑भ्यां भूरि 

विश्वम्‌ । ऋह्मणः कोशोऽसि मेघया पिहितः । श्रतं मे गोपाय॥ 

यदछन्दसामिति । मेधाकामस्य श्रीकामस्थ च तत्पराप्िसाधनं जपहोमाकुच्ये- 
मेषादेतर्मत्रः ते । “स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु" “ततो मे भियमावह” इति 
च छिङ्द्शैनात्‌ । यद्छन्दसां वेदानासषम इवषेभः प्राधान्यात्‌ ! विश्वरूपः 
सर्वरूपः समैवाग््यापेः, “तद्यथा शकुना” इत्यादिश्चुत्यन्तरात्‌ । अत पवष 
भत्वमोङूारस्य ! ओङगाये ह्य्रोपास्य इति ऋषभादिषाग्दैः स्तुतिन्योय्येवोङ्ा- 
रस्य 1 छन्दोभ्यो वेदेभ्यो, वेदा हयसतं, तस्मादगरतात्‌, अधिसंबभूव,--रोक- 
देववेदन्याहतिभ्यः सारिष्ठं जिघृक्षोः प्रज्ञापतस्तपस्यत ओङ्कारः सारत्वेन 
परत्यभादित्यथैः ! न हि नित्यस्योङ्कारस्याञ्जसेबोत्पत्तिरवकट्पते । स एवंभूतः 
ओङ्कार इन्द्रः सवैकामेराः परमेश्वरो मा मां मेधया प्रज्ञया स्पृणोतु प्रीणयतु 
बखयतु वा । ्ञाबटं हि प्रयते । असृतस्य-भभ्रतत्वहेतुभूतस्य जहयज्ञानस्य 
तदधिकारात्‌ , हे देव, धारणो धारयिता भूयासं भवेयम्‌ । 
किञ्च शरीरं मे मम विचषैर्णं विचक्षणं योभ्यमित्येतत्‌ । भूयादिति प्रथमपु 

मरोग्यादिहतर्मन्रः रुषविपारणामः। जहा म मधुमत्तमा मधुमत्यातदरयेन मघु- 
रभाषिणीर्यथः । कणोभ्यां श्रोजाभ्यां भूरि बहु विश्चुवं व्यश्रवं (१ विश्रन्धं) श्रोता 
भूयासमिष्यथेः 1 आत्मज्ञानयोग्यः कायेकरणसङ्कातोऽस्त्विति वाक्यार्थः मेषा 


अवान्तरतात्पयमभिपरत्याऽह--यद्छन्दसामित्यादिना । संबभूवेति जन्मवाचके पदे 
यमाणे, किमिति “प्रजापतिलोकानम्यतपर्घ्‌" इत्यादिश्चुत्यन्तरादसारेणं अ्टत्वेन प्रति- 
भानं व्याख्यायते १ तत्राह--न हीति । पुरुषविपरिणाम इति । भूयासमित्युत्तम- 
पुरुषस्य प्रकृतस्य प्रथमपुरुषत्वेन विपरिणामः कत्य इत्यथैः । 





(१) छं, उ. २-२३-४ (२) प्राथयते ।` इति पाठान्तरम्‌ ( २) व्यश्रवमित्यत्राडमावदछान्दसः । 
ज्ञटिति भ्रो-० । एवमेव सवैटिकितमुशििपरतकेषु पाठो कभ्यते ! | (४) छां. उ. २-२२-२ (५)-° रेण- 
ऽऽलन्ञानयोम्यकायेश्रठत्वन इति पाठन्तेरम्‌ 


१४ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ शिष्षाव्ही 


आवहन्ती वितन्वाना ( १ )  कुबोणाऽचीरमात्मनः । 
म 
वास।९सि मम गावश्च । अन्नपाने च॑ सवेदा । ततोँ मे 
भियमाव॑ह । लोगं परभिः सह स्वाह । - ` 
[ ओ मायन्तु नह्मचारिणः स्वाहां । विमाऽऽयन्तु ब्रहमचरिणः 
स्वाह् । प ाऽभ्यन्तु ब्रह्मचारिणः साहा । दमायन्तु 
ब्रह्मचारिणः सवाह । शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहां ( ५ २)] 
च तदर्थमेव हि प्राथ्यंते । अह्मणः परमात्मनः कोशोऽसि-असेरिव, उपलव्ध्य- 
चिषठानत्वात्‌ +-त्वं दि ऋहमणः प्रतीकं, त्वयि बह्योपरभ्यते । मेधया. कोकिक- 
पक्या पिहित आच्छादितः स त्वं सामान्यप्रज्ञेरविदितसतत् इत्यथः । श्युतं 
श्रवण ' दैकमभत्भक्षनादिषः मे गोपाय रक्न-तत्पाप्त्यविस्मरणादि कु्षित्यथेः। 
उजपाथौ एते मन्ता मेधाकामस्य । | 
श्रीकामस्य दोमाथौस्त्वधुनोच्यन्ते मन्त्राः । आवहन्ती-आनयन्ती; वित 
शीकामस्य हे न्वाना--विस्तारयन्ती, तनोतेस्तत्कमेत्वात्‌ ; कुवोणा निर्वतैयन्ती, 
माधा मन्नाः अचीरमचिरं क्षिप्रमेवं--चिरं वा कुवोणा, आत्मनो ममः--किम्‌ ? 
इत्याह-वासांसि वख्ाणि, मम गावश्च गश्चेति यावत्‌, अन्नपने च सवैदा- 
एवमादीनि कवोणा भीय तां ततो मेधानिवतेनात्परमवह--भानय, अमेधसो 
हि श्रीरनथोयेवेति । किविरिाम्‌ ? छोमशा--अजाऽव्यादियुक्ता, अन्यैश्च 
पद्युभिः सह युक्तामावहेति, अधिकारादाकार एवामिसंबभ्यते । स्वाहा स्वा- 
हाकासे होमाथेमन्तान्तज्ञापनाथेः। 
विचासम््दायप्ृत्यथं [ आयन्तु मामिति व्यवहितेन संबन्धः । अह्यचारिणो वि्ा- 


विपत्क ऽऽयन्तु प्रमाऽऽयन्तु दमायन्तु रामायन्त्वित्यादि । ] 


अचेतनशब्दं प्रति प्राथना कथं ? कथं चेन्द्रशब्देनाभिधानम्‌ ! इत्याश ङुम्य ब्रह्माभेदविवक्ष- 
येदयभिप्रेत्याऽह--त्रह्मण इति । ब्रह्माभेदेन प्राथितदाने समथंशरेदोडूगरः, किमिति सवनोपा- 
स्यते १ इत्यागङ्थाऽऽह-मेधयेति । छोकिकप्रज्ञयेति--शाटग्रामादिष्विव देवताबुद्-थे- 
सथः । नैतेष्वार्पयादि सग्यम्‌ , ब्राह्मणोत्पत्रत्वात्‌ । 


विषयाभिनिवेरोन [> 


[१ 
(१ ) = विषयाभिनिवेशेन (२) द्यं छन्दम्‌, छन्दसो दीरघः-इति वाधिकं पठन्तम्‌ । (२) रिष्टं 
च लेमशं भ्ियम्‌-इति पाठान्तरम्‌ । ( ४) “ विशब्दो विविधलमाचष्े । प्शरारिकामाः स्वगलोककामा 
जह्मलोककामा मोक्षकाम ब्रह्मचारिणां विविभधत्वम्‌ । पररष्दः परकर्म चे । विधागहणे प्र्ातिशयः 


% चतुर्थोऽनुवाकः ] मेषासिद्धयथां मन्त्राः १५ 


यहो जनेऽसानि खा । श्रेयान्वस्यंसोऽघानि स्वाहा | 
तत्वा भग परविं्षानि स्वाहां । समां भग प्रवि स्वार । 
तसमिन्त्सहस्॑ाते । नि भंगा त्वयं प्रे स्वाहां । 
यथाऽऽपः भरव॑ताऽऽयन्ति । यथा मासा अहनेरमर्‌ । 
एवं मां बह्यचाररि्णः । धातराथन्त॒ सपेतः स्वाह । 


पतिवेशोऽसि भअ मां भाहि प्र मां प्रच्छ (३.)॥ 
यदो यदासी जने जनसमूहेऽसानि भवानि । अ्यान्पदास्यतरो वस्यसो 


संपरदायप्रहृततिजनि- वसीयसो बक्ुताद्धसमत्तराद्वाऽसानीत्यथेः } किच तं ह्मणः 
तकीर्विप्रदौमन्त्रौ कोराभूतं त्वा त्वां हदे भग भगवन्पूलावन्प्रवेशानि, भ- 


चिद्य चानन्यस्त्वदत्मेव भवानीत्य्थः । स त्वमपि मा मां भग भगवन्पजा- 
चन्प्रविशाऽऽवयोरेकत्वमेवास्तु । तस्मिस्त्वायि सदहस्रराखे बह्मेदे हे भगवन्‌ , 
निरज शोधयाम्यहं पापकृत्याम्‌ । 
यथा छोक आपः प्रवता प्रवणवता निञ्नवता देरेन यन्ति गच्छन्ति, 
बहुरिष्यसपादको मन्त्रः यथा च मासा अहजेर-संवत्सरोऽदञरः-अहोभिः परिव- 
तंमानो लोका्जस्यतीतति, अहानि बाऽस्मिज्जीयेन्स्यन्तभेवन्तीत्यहजंरः-तं च 
यथा मासा यन्ति, एवं ब्रह्मचारिणो हे धातः स्वस्य विधातः, भा मामाय- 
न्त्वागच्छन्तु सवेतः सवेदिगभ्यः - 
, म्रतिवेशः भ्रप्रपनयनस्थानम।सन्नग्रहमित्यथेः, एवं तं पतिवेशा इव य 


° वसं निवासे » वंस अच्छादने' इति षाठ॒द्धयादु प्रत्ययः शीठेऽ्थं । वद्र सनश्चीलः । 
पराच्छादनश्ीलो वा वदः । अतिशयेन ववेसीयास्तस्मादरसयसः । ईरोपद्छान्दसः । वसु 
मान्वखशब्देन रक्ष्यत हत्यभिपरत्याऽऽह--वसुमत्तराद्वेति । पूर्वोक्तस्य प्राथनस्य प्रयो. 

क क 


जनमाह--किश्चति । यदुक्तं ‹ ब्रह्मचारिणो भामायन्तु ` इति-तत्र दृ्टन्तमाह-यथेति । 


इति श्रीमत्यरमहंसपलिाजकाचार्यश्रीमच्छुदानन्दपूज्यपादरिष्यानन्दज्ञानविरचत तैत्तिरी- 
योपनिषच्छांकरमाष्यरिप्पणे चिक्षावस्स्यां चतुथऽनुवाकः ॥ ४॥ 





प्रकर्षः । दमित्यनेनाव्ययेन दान्तिरमिधीयते । ब्येन्दियचेषटाभ्यो बारुलीखाभ्य उपरति दान्तिः । दामि- 
त्यनेन रोन्तिरभिषीयते । कोधादिचत्तदोषराशित्यं चान्तः ! विमायान्तित्यादयश्चत्वाये मनः शाखान्त- 
रगतत्वाभिप्रायेण केुचिदेशेषु नाघ्नायन्ते ?-इति श्रीसायणाचायेमष्ये, 

५१) धा० पार १. १०३० (२) धा०पा० २. १३ 


१६ : शैत्तिरीयोपनिषत्‌  [ रिष्षाबह्टी 


` वितन्वाना शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा धातरायन्तु 
सतः स्वादे च ॥ 
इति ङृष्णयजुेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि रिक्षावस्ल्यां चतुर्थोऽलुवाकः || ४ ॥ 


अथ हिक्षावल्ल्यां पथमोऽनुवाकः। 
( व्याहृत्युपासनम्‌ ) 
भूवः सुवरिति वा एतास्तस्नो व्याहंतयः । 


उषृस्थनम्‌ तिचेरस्त्वच्छीलिनां सवेपापदुःखापनयनस्थानमसि, अतो मा 
मां प्रवि प्रसाहि भरकाहायाऽत्मानं, प्रपद्यस्व च-मां रंसविद्धमिव लोहं 
त्कमयं ` त्वदत्मानं कर्वित्यथैः । श्रीकामोऽस्मिन्विद्याप्रकरणेऽभिधीयमानो 
धनाथैः, धनं च कमोथेम्‌, कमे चोपात्तदुरितक्षयाथेम्‌ , तत्क्षये ,हि विद्या 
मकादते, तथा च स्मरतिः- 

“ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मेणः। 

यथाऽध्ददीतरे भख्ये पदयन्त्यार्मानमा्मनि ॥*--इति 

इति श्रीमत्परमहंसपरित्राजकाचायेगो विन्दभगवत्पूज्यपादरिष्यभीमच्छंकरभगवतः 


तेत्तिरीयोर्पा [५ 


कृतो पोपनिषच्छि्षावद्ीभाष्ये चतुर्थोऽनुवाकः ५ ४ ॥ 


संहिताविषय्रुपासनयुक्तं, तदनु मेधाकामस्य श्रीकामस्य च मन्ना अनु- 
अड्देवताध्यानस्य कान्ताः, ते च पारम्पर्यण विद्योपयोगाथौ पव । अनन्तरं 
रौकलेनव्याह- व्याहः्यात्मनो ब्रह्मणोऽन्तरुपासनं स्वाराज्यफर पस्तूयते-- 
तिियम्‌ भूवः .छुवरिति; ^ इतिः , उक्तोपभरवदोनाथेः-पतास्तिख 
इति प्रदितानां परामशाथः, परामृष्टाः स्मायंन्तेः वे--इत्यनेन तिख एताः 
प्रसिद्धा व्याहृतयः स्मायन्ते तावत्‌ । 





टृ्ाठवादपूर्वकडत्तराउवाकस्य संबन्धमाह--संहिताविषयमिस्यादेना । व्याहतीनां 
अदायहीतत्वात्‌, तत्परित्यागेनोपदिर्यमानं त्रह्म न बदधिमारोहेदिति ततो व्याहतिशरीर 
हिरण्यगभौख्यं ब्रह्मान्तः-हृदये-ध्येयत्वेनोपदिर्यते इत्यथः । 





( १) तल्यम्‌--यद्रदयो रसविद्धं कानतं यति तद्वदेवासी । स्वात्मनिरूपणे- 4८. रसविद्धमयः 
स्वर्णं यथा मवति सवदा । केनवितसाधनेनैव तथा जीवः शिवे भ्वेत्‌ ॥ इति केचित्सरमेिन प्रवदन्ति तु 
वादिनः ॥ सूत- सं० ४.३२९.२३० (२ ) शांति-प. २०४--८ । . 


५५ पच्वमोऽनुवाकः | ` व्याहृद्युपासनम्‌ १७ 


तासां ह समेता चतुर्थीम्‌ । माहाचमस्यः पदयते । मह इतिं । 
तद्रह्यं । स आत्मा । अङ्कान्यन्या देव्ता; । 
| भरिति [3 य 1 [१ ४२ 
रिति वा अयं छक: । सुव इत्यन्तरिक्षम्‌ । छवरित्यस। 
खोक; ( १ ) । मह इत्यादित्यः । आदित्येन वाव स्वै छोका 
महीयन्ते । 
भूरिति बा अभिः । युव इतिं वायुः । सुवरित्यादित्यः | पद 
इतिं चन्द्रा; । चन्द्रमसा वाव स्वणि ज्योत षि मद्ैयन्ते। 
भूरिति वा ऋचः । भुव इति सामानि । सुवरिति यनु ईषि (२) 
तासामियं चतुर्थी व्याहतिमेह इति; तामेतां चतुर्थ महाचमसस्यापत्यं 
चतुर्थन्याहतिः माहाचमस्यः प्रवेद्यतेः--उ ह स्म+-इत्येतेषां इन्तायुकथ- 
नाथैत्वद्धिदितवान्‌ ददर्रोत्यथेः। ' माहाचमस्य ` प्रहणमाषासर्णाथम्‌ । ऋष्य- 
युस्मरणमप्युपासनाङ्गमिति गम्यत इहोपदेात्‌ । 
येयं माह्यचमस्यन दषा व्याहतिः 'महः' दाति, तद्द्य- महद्धि ब्रह्य, महश्च 


व्याहतिचुष्ये दृष्टि व्याहतः । क पुनस्तत्‌ : स॒ आत्पा---माम्रातेन्य्तकमण 
विद्ोषविवानम्‌ आत्मा; इतरश्च न्याहतयः-रुक्िः, द्वाः, वदाः, भ्रणश्च- 


मह इत्यनेन व्याहृत्यात्मनाऽऽदित्यचन्द्रबह्याच्नभूतेन व्याप्यन्ते यतः, अतोऽज्ञ- 
न्यवयवा अन्या देवताः; देवताग्रदणमुपलक्षणाथं रोकादीनाम्‌ । 


मह इत्येतस्य ग्याहत्यात्मनो देवरोकादयश्च सर्वेऽवयवभूता यतः, अत 
ता लेक्यव- आहा ऽऽदित्यादिभिखकादयो महीयन्त इतिः--आत्मना द्य- 
टृधिविधानम्‌ ज्मान महायन्तं, पहन चुद्धि स्पचयः, सहायन्त वधन्त इत्यथः 
° महः ` ईति व्याहत वङ्जिबरधष र्टः कतव्या । तत्र करं साम्यम्‌ {--इत्यत आह-मह्‌- 
दधीति । यथा देवदत्तस्य पादादीन्यद्ञानि, मध्यभागश्वाङ्गीतरेषामङ्गानामात्मा कथ्यते--व्याप- 
कस्वात्‌ , तथा महोव्याहतिर्हिरण्थगभस्य ऋद्यणो मध्यभाग आत्मेति करप्यते; इतरा व्याह- 
तयः पादावयवत्वेन कल्प्यन्ते । प्रथमव्याहयतिः पादो , द्वितीया बाह , त॒तीया चिर इत्यथैः । 


(१) तस्या महतवाद्रह्मल्वम्‌ › सवव्यापकत्वाच्चाऽऽत्मत्वम्‌ । (२) आपरोत्नि-उपादानकारणत्या सखकार्य- 
भूतं सव जगदन्तबैदिश्च व्यमरोत्यात्मा । उक्तं हि--““यदादत्ते यच्चामोति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भाव ` 
-स्तस्मादात्मेति गीयते” ॥ टिङ्ग-पए. ७०.९६. (३) महान्याह्ताव ्गिबहमटषटिमद्म्यापकलसाम्रान्यात्‌ ॥, 

ग्‌ 


१८ तैपी्ो५रिर्‌ ` . [ शिक्षाबह्ठी 


मह इति जह ¦ बरह्मणा वाव सवै वेदा महीयन्ते। 
भूरिति वे ग्राणः । युव इत्यपानः । सुवरिति व्यानः । 
मह इत्यन्नम्‌ । अन्नेन वाव सवै प्राणा महीयन्ते ¦ 
ता वा एताथत॑सशतधी । चत॑सशतस्ो व्याहतयः 
ता यो वेदं । स वेद ब्रह्म॑ । सवैऽसमे ठेवा बलिमावहन्ति ( २) ॥ 
अयं टोकः,+ अधिः, ऋग्वेदः, प्राण,--इति प्रथमा व्याहतिभू येते । पवसुत्त- 
येत्तरकेका चतुधौ भवति। | 
मह॒ इति बह्म व्रह्म ` इत्योङ्कारः--ताब्दाधिकारेऽन्यस्यासंमवात्‌ । 
वेद-प्ाणटष्टिविधानम्‌ उक्ताथंमन्यत्‌ । 
ताबा एताश्चतच्रश्तुर्धेति--“ता वा एता-भूथैवः वमह इति चतसख 
ययेक्तव्यहृलुपसत- ष्यकेकराथतुधी चतुष्यकाराः; धादरष्द्‌ः प्रकारवचनः, चत- 
हारः-पोडद्रकल्सयय सश्चतसखः सत्यञ्चतुधा भवन्तात्यथः; । तासाः यथाङ्कक्ताना 
पुरषस्योपास्यतलम्‌ धुनरुपदेशस्तथेवोपासननियमा्थः ! 
ता यथोक्तव्याहतीर्या वेद, स वेदं विजानाति-कि ! ब्रह्य 1 ननु-“ तद्रह्य 
तासां व्याहृतीनासु- स आत्मा ` इति ज्ञाते बरह्मणि न वक्तव्यमविज्ञातवत्‌- स 
पासनाविधि वेद्‌ बह्य--इति ? 
भ्याहत्यवयवं ब्रह्मोपासीतेत्य॒त्पत्तिविधिस्क्तः; इदानीमङ्गविशेषविधिः कथ्यते-भूरिति 
वा अयं रोक इत्यादिना । | 
त ततरैकेका व्याहतिशवतुष्प्रकाराऽवगन्तम्येति तात्प्यमाद~--अर्यं खोक इत्यादिना । 
एकेका व्याहतयो यदा चवुष्प्रकाराशिन्त्यन्ते, तदा षोडश्चकरः पुरुष उपासितो भवतीत्य- 
भिप्रेत्य संकषेपमाह-ता वा एता इति 
^स वेद्‌ ब्रह्म" इति ब्रह्मवेदनं फरूत्वेन न सङ्ीत्येतेऽधिकारबिषिवाक्ये, किन्तु वक्ष्यमाणा- 
दुवाकेनास्मिन्नेव ब्रह्मोपासने गुणविधानं भविष्यतीति सूचयित॒मित्याह--नं, तद्धिरेषवि- 


(१) अन्तरिक्षम्‌, वायुः, साम, अपानश्व-दवितीया; असौ लोकः ( परोक्षो लोकः सग॑लोकः ) , 
आदित्यः, यजुः, व्यानश्व-तृतीया; आदित्यः, चन्द्रः, बह्म, अन्नं च-चतुर्थी । (२) ओङ्गरेण हि सवै 
वेदाः पूज्यन्ते, वेदोच्ारणस्य प्रणवपूरव॑कल्वात्‌ । (३) “अयं लोकः° इत्यादिना व्याहृतीनां प्रवयेकं चतुररिषत्व- 
मुक्तमेव, किमिति पुनरुपदेरः१ इत्याह उपासननियमाथः" इति-- व्याहृतीनां चतुर्धिथत्वं स्तुत्यथं नोच्यते, 
कितु पर्येकं तासां चतुर्विषत्वेनो पासनं नियतमिष्यते । त्था पोडशकटस्य पुरुषस्योपास्यलमत्र भेत्स्यति । 
अधिकवचनेस्याथवि रोषसृचकल्वादित्यथः । 


५ पच्चमोऽनुवाकः | व्याहृल्युपासनम्‌ १९ 


असो छोको यजुरषि वेद दरे च ॥ 
इति छष्णययुरवेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि शिष्षावस्स्यां पश्वमोऽनुवाकः ॥ ५ ॥ 


न, तद्विशोषविवक्चत्वाददोषः । सत्यं , विज्ञातं चतुथैभ्याहत्याः्मा ज्येति, न 
त॒ तद्धिरोषः--हृदयान्तरुपटभ्यत्वम्‌, मनोमयत्वादिश्च “शान्तिसमृद्धम्‌' इत्ये 
वमन्तो विक्षेषणविरष्यरूपो धमप्रगः-- विज्ञायते, इति तद्धिवक्च हि राखम- 
विज्ञातमिव बह्म मत्वा “सवेद ब्रह्य इत्याह; अतो न दोषः! यो हि वक्ष्यमाणेन 
धमपूगेन विरिष्टं ब्रह्य वेद्‌, ˆस वेद्‌ ह्म * इत्यभिप्रायः 1 अतो वक्ष्यमाणाः 
जुवाकेनैकवाक्यताऽस्य, उभययोद्येुवाकयोरेकमुपासनम्‌, टिङ्ाञ्च--भूरि 
त्यभ्नौ प्रतितिष्ठति ` इत्यादिकं लिङ्गमुपासनेकत्वेः--विधायकाभावाच्च--नहि 

वेद-उपासीतः-इति विधायकः कश्चिच्छब्दो ऽस्ति व्याहत्यदवके । ' तायो 
वेद्‌” इति च वक्ष्यमाणाथैत्वान्नोपासनमेदकः। वक्ष्यमाणाथैत्वं च तद्धिरोषविव- 
्त्वादित्यादिनोक्तम्‌ । 

सर्व देवा अस्मा एवं विदुषेऽङ्गभूता आवहन्त्यानयन्ति बर स्वां राज्यपरा्तो 
सत्यामित्यर्थः ॥ 

इति भीमत्परमदहेसपरिताजकाचायेगोविन्दभगवस्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगवतः ` 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषच््टि्षावह्टीभाष्ये पच्चमोऽदवाकः ॥ ९ ॥ 


वश्चत्वादित्यादिना। यदि व्याहत्यवयवमेव अद्मोत्तरत्ो पास्यते, तदेवोपासकस्य प्रथमव्याह- 
त्यात्मकेऽरौ प्रतिष्ठाभिधानं घटेत । तस्माथाहत्यात्मकदेवताप्राप्त्यभिषानखपासनेकते ठिङ्- 
मित्याह--लिङ्ञञचे ति । किञेकत्र प्रधानविाविधिः, अपरत्र युणविधिः--हइत्येवमनुवाकभेदे 
चरितार्थे, नानन्यथासिद्धं भेदकं प्रमाणञ्पठस्यत इत्याह--विधायकाभावाञ्येवि । 
विधायक इति भिन्नविथाबोधक इत्यथः ॥ 
इति भीमत्परम्सपरिवाजकाचारयश्रमच्छुद्धानन्दपूज्यपादरिष्यानन्दज्ञानविरन्चिते तैत्तिरीयोपनिषन्छां- 
करभाष्यरिप्पणे शिक्षाव्स्यां प्वमोऽुवाकः ॥ ५॥ 


८ १) ननु यथोक्तन्याहतिरूपम्रतीकोपासकस्य जह्यरोकप्रातिर्नास्ति, “अगरतीकारम्बनान्नथतीति बादय- 
यणः” ( ज. स्‌४.२.१५. ) इति सत्र प्रतीकरदितब्रह्मोणसकानामेव तव्माप्निनिर्णयात्‌ । ततो ब्रह्मप्राप्त्यभा- 
वैन सवैदेवपूज्यतवं न युक्तम्‌ । नाय॑ दोषः-यस्मा्ः पुमान्‌ व्याहूवीवैद स युमान्वक्ष्यमाणानुवाकोक्त 
ब्रह्मोपासते । ब्रह्मोपासनमेवातर प्रधानम्‌ ; व्याहृ्युपासनमङ्गम्‌ ; तस्माद्रहम्रा्ौ सत्यां सवैदेवपूज्यतं युक्तम्‌ । 

*"अनुवाकमेदप्रमाणं तु नोपाप्तनाभेदास्मिद्धयतीति वाच्यम्‌ । तस्य गुणपरलेनान्यथासिद्धत्वात्‌ । तस्मा- 
दनन्यथािद्धषासनाभेदेनेव सिद्धं प्रमाणं नोपलभ्यते--इति कारीयुद्वितपुस्तके टिप्पणी । 


अथ रिक्लावल्ल्थां षष्ठोऽनुवाकः । 
( मनोमयत्वादिशुणकब्रह्मोपासनम्‌ ) 
( किञित्सृश्मदरिमध्यमाधिकारी ) 
स॒ य एषोऽन्तहंदय आकाशः । तस्िन्नयं पुरषो मनोमयः । 
अतो हिरण्ययः । 
अन्परेण॒ ताके । य एष स्तनं इवा्रम्ब॑ते । सेन्द्रयोनिः । 
यत्रासौ केशान्तो वितति व्यपोह्य शके । 
^ भूयैवःखुवः * स्वरूपा "मह" इत्येतस्य व्याहत्यात्मनो ब्रह्मणो, ्गान्यन्या 
रपस्य्रहमसस्पम्‌ देवता इत्युक्तम्‌] यस्य ता अङ्गभूताः, तस्यतस्य ब्रह्मणः साक्षा- 
दुपडश्ध्यथैमुपासनाथं च हृदयाकाशः स्थानमुच्यते, शालग्राम इव विष्णोः! 
तस्मिन्‌ हि तद्रह्मोपास्यमानं मनोमयत्वादिधमेविशिषं साश्चादुपरभ्यते, पाणा- 
विवाऽऽमलकम्‌ । मागेश्च सवोत्मभावप्रतिपत्तये वक्तव्य इत्यसुवाक आरभ्यते- 
° स * इति व्युत्कम्य ‹ अयं पुरुषः * इत्यनेन संबध्यते ! य एषोऽन्तहैदये हद 
यस्यान्तःः-हृदयमिति पुण्डरीकाकारो मांसपिण्डः, प्राणायतनः, अनेकनाडी- 
सुषिर, उप्वैनाटः, अधोमुखः, विशस्यमाने पड प्रसिद्ध उपलभ्यते, तस्या. 
न्तयं पष आकाशः प्रसिद्ध एव करकाकाशवत्‌,-तरिमन्‌ सेःऽयं पुरुषः; पुरि 
शयनात्‌, पूणा वा मूएदयो छोका येनेति- पुरुषः; मनोमयः-- मनो विजञानं,मनु- 
तेजञोनकमेणः--तन्मयस्तल्ायस्तदुपरुभ्यत्वात्‌, मनुतेऽनेनेति वा मनोऽन्तःकर- 
णम्‌, तदभिमानी तन्मयः, तलिं्ञो घा । असतो ऽमरणधमो , हिरण्मयो ज्योतिमयः 
तस्थे्वगक्षणस्य हृदयाकाशे साक्षा्छतस्य विदुष आत्मभूतस्थेन््रस्येद. 
उपाप्तकस्य खरूप- रास्वरूपस्य ह्मणः स्वरूपपतिपन्तये मार्गोऽभिधी यते ! हृद्‌ 
्तिपरदमम्‌ याद्वं परवत्ता खषुद्ला नाम नाडी योगशाखेषु च प्रसिद्धा; 
सा चान्तरेण मध्ये प्रसिद्धे तालुके ताद्धुकयोगैता ; यथैष ताल्ुकयोमैध्ये स्तन 
इवावरम्बते मां्तखण्डः, तस्य चान्तरेणेव्येतत्‌; यन्न च केरान्तः-केदाना 
मन्तोऽबसाने मलं केरान्तः--विवतेते विभागेन वर्त॑ते मूरध्रदेशे इत्यथैः, तं 
तदुपरभ्यत्वादिति । कानाकारपरिणामिनि मनस्थेवोपठस्यमानत्वाद्वयायिभिरित्य्थः 
जडस्य मनसः प्रति ट्टा तदपिष्ठतृतया हिरण्यगभोऽमीयते, तस्य शाने सकङकरणापिषठतर 
त्वेन प्रसिडत्वादिति तषिङ्गत्व्क्तमित्यथः । . 


(११ तेन लिङ्गेन मननता गम्यमानः । ( २ ) °भ्यवद्रथातिरि०--इति पठन्तम्‌ । 


& षष्ठोऽतुवाकः | सराणन्रहलोपासनम्‌ २१ 


मूरिव्यग्रो इति ४ 
यग्रो प्रतितिष्ठति । सुव इति वायो (१), 
| दित्ये [^ सोति 
सुवरित्यादित्ये । मह इति ब्रह्मणि । आमोति स्वाराज्यम्‌ । 
[सोति | 1 (५ क 1 
आस्मोति मनसस्पतिम्‌ । वाक्पतिशक्षुष्पतिः । श्रोञपपिरविज्ञान- 
(4० ततां ॐ 
पतिः । एतत्ततो भवति । आकाशशरीरं बह्म । सत्यास्म 
¶ $ 1 | 
प्राणारामं मनआनन्दम्‌ । शान्तिसमृद्धमरतम्‌ । 
देशं पाप्य तञ विनिःखता व्यपोह्य विभज्य विदाये शीषेकपाठे दिर कपाछे वि- 
निगेता या, सेन्दरयोनिः--न्द्रस्य ब्रह्मणो योनिमौभैः स्वरूपप्रतिपत्तिद्धारमित्यथेः। 
तथेवं विद्वन्मनोमयात्मदर्ौ मूधो विनिच्कस्य, अस्य टोकस्याधिष्ठाता 
फलं ब्मप्रापिः भूरितिम्याहतिरूपो योऽभिर्महदतो बह्मणोऽङ्गभूतः, तस्मिन्नय्नो भ- 
तितिष्ठति-अम्न्यात्मनेमं कोक व्याभोतीत्यथेः; तथा मुव इति दितीयव्याह- 
त्यातमनि वायो -' प्रतितिष्ठति ` इत्यनुवतैते । . 
सुवरिति तृतीयव्याहत्यात्मन्यादित्ये, मह शत्यङ्गिनि चतुरथव्याहत्यात्मनि ऋह्यणि 
“परतितिष्ठति ' । तेष्वात्मभावेन स्थित्वाऽऽप्रोति बह्ममूतः स्वाराज्यं स्वराड्‌ भावं 
क की क © . . + 
स्वयमेव राजाऽधिपतिभेवति, अङ्कभूतानां देवानां यथा बह्या; देवाश्च सर्व 
भ क शदः क क 
वङिमावहन्त्यङ्गभूताः, यथा बह्मणे । भग्रोति मनसस्पतिम्‌-सरवेषां हि मनसां 
पतिः, सवोत्मकत्वाद्रह्मणः;--सवै्हिं मनोभिस्तन्मयतेः-तदाभोत्येवं विद्वान्‌ । 
किञ्च वाक्यतिः--सवासां वाचां पतिभेवति। तथेव चश्चुष्पति्चसुषां पति श्रो 
पतिः भ्ो्राणां पतिः, विज्ञानपतिर्विक्ञानानां च पतिः-स्वातमकत्वात्सवप्राणिनां 
करणेस्तद्वान्भवतीत्यथेः । किञ्च ततोऽप्यधिकतरमेतद्धवति 1 कि तत्‌ ? उ- 
च्यते--आकाराशरीरमाकाड्ाः शरीरमस्य, आकाशवद्धा सूं शरीरमस्य,--इ- 
त्याकाशरारीरम्‌। फ तत्‌? प्रकृतं ब्रह्म; सत्यात्म-सत्यं मतां मूतेमवितथं स्वरूपं 
चाऽऽत्मा स्वभावोऽस्य, तदिदं सत्यात्म; प्राणारामम्‌--प्राणेष्वाराम आ 
रमणमाक्रीडा यस्य तत्प्राणारामम्‌, प्राणानां चाऽऽरामो यस्मिस्तत्पराणाश- 
स्वाराज्यं निरङ्षमेशवयं जगत्सषटत्वादिच्क्षणं न भवतीत्याहइ--अज्गभूतानां देवाना- 
मिति । सावधिकमेशयमेवाऽऽह--आसो तीत्यादिना ॥ 


इति श्रीमत्परमहंसपरि्राजकाचार्यभीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादरिष्यानम्दज्ञनविरचिते तेक्तरीयोपनिषच्छ- 
करभाष्यटिप्यणे रिष्षावल्ट्यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ & ॥ 


२२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ ` ` .[ शिक्षावही 


इतिं प्राचीनयग्योपस्खि ( २) ॥ 
वायावमतमेड च ॥ ` | 
इति छृष्णयजुवदीयरैत्तिरीयोपनिषदि शिष्चावर्स्यां षष्ठोऽलुवाकः । £ ॥ 


अथ रिक्षावल्ल्यां सस्षमोऽलुवाकः । 
( पृथिव्याद्युपाधिकब्रह्मोपासनम्‌ ) 
( मन्दाधिकारी ) 
पथिव्यन्तरिकं चो्दिशोऽबान्तरादिशाः । अभि- 
वायुरं दित्यश्नद्रमा नक्ष॑त्राणि । आप ओष॑धयो 
वनस्पतय आकरान्च आत्मा । इत्यधिभूतम्‌ । 
मम्‌; मनमानन्दम्‌--आनन्दभूतं सुखङृदेव यस्य मनः, तत्मनभानन्दम्‌; 
रान्तिससद्दं--शान्तिरुपशमः, सान्तश्च तत्सखुद्धं च शान्तिससद्धम्‌, शान्त्या 
वा समृद्धं तदुपरुभ्यत इति शान्तिस्खनद्धम्‌ः असुतममरणधर्मिः--एतच्चा- 
धिकतरं विशेषणं तत्रैव-मनोमयः--इव्यादौ द्रषटव्यमिति। 
एवं मनोमयत्वादिधमर्विरिषं यथोक्तं जह्य हे प्राचीनयोग्य, उपारस्व ! 
उपा्तनाविषिः उपास्स्व-इत्याचायवचनोक्तिराद रथो । उक्तस्तूपासनरब्वस्यार्थः॥ 
इति श्रीमत्परमदहंसपरित्राजकाचायेगोविन्दभगवत्पूञ्यपादक्िष्यश्नीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावहीमाष्ये वषटोऽठवाकः ॥ ६ ॥ 








यदेतब्याहत्यात्मकं बरह्मोपास्यमुक्तं , तस्थेवेदानीं पूथिव्यादिपाङ्स्वरूपेणोपा- 

दिरण्यगभोपासनम्‌ सनमुच्यते । पञ्चसङ्कथायोगात्पाङ्च्छन्दःसंपत्तिः; ततः पाङ्कत्वं 

सवेस्य । पाङ्क् यज्ञ,-“ पञ्चपद्‌। पंद्धिः पङ्को यज्ञः” इति श्चुतः । तेन 
यत्सवं खोकाद्यातमान्तं च पाङ्कं परिकटपयति, यक्तमेव तत्परिकटपयति । तेन 
यद्येन पारकटिपतेन पाड्ात्मकं प्रजापति मभिसंपचते । तत्कथं . पाङ्मिदं 
सवामत्यत आह-- ५, _ 

'पराथेव्यन्तरि्ं द्ा्दिंशेऽवान्तरदिदाः-इति लोकपाङ्म्‌ ; अचिवोयुरादि- 
आपिमोतिकगुण- त्यञ्चनद्रमा नक्षज्ाणि--इति देवतापाङ्म्‌; आप ओषधयो 
पञ्चकनयम्‌ ` वनस्पतय आकाशा आत्मा--ति भूतपाड्म्‌; आस्रेति विरा- 
उत्तरोऽप्यदवाकः प्रकारान्तरेण दिरण्यगर्मोपासनािषय इत्याद--यदेतदित्यादिना । परथि- 


(१) ¶- १२. (२). आ. १. ३.८.८३) ब्र. उ. १. ४. १७; दे. ज. २.२३; ५. १९. ` 


७ सप्तमोऽलुवाकः | सोपाधिक्ब्रह्मोपासनम्‌ २३ 


अथाध्यात्मम्‌ । पराणो व्यानोऽपान उदानः संमानः । चुः 
श्रोत्रं मनो वाक्त्वक्‌ । चम माध्स\ स्नावास्थि मलना । 
एतदधिविधाय ऋषिरवोचत्‌ } पाङ बा इद ९ सवैम्‌ । 
पाङ्धनेव पाङ्स्पृणोतीति ( १ ) ॥ 
सवमेव च ॥ 
इति छृष्णयुर्वदीयतैत्तिरीयोपनिषदि शिष्छावल्स्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


दरू-भूताधिकारात्‌ । इत्यधिभूतम्‌ -इ्यधिरोकाधिदेवतपाङ्दयोपरक्षणा- 
थेम्‌ ! ठोकदेवतापाद्ूःयोश्चामिदहितत्वात्‌ । 
अथ-अनन्तरमध्यंतमं पाङ्यमुच्यते- प्राणादि वायुपाड्म्‌ ; चश्चुरादीन्दरिय- 
सध्यात्मपधक््यम्‌ पाड्म्‌; चमौदि धातुपाङ्म्‌ । एतावद्धीदं सवेमध्यात्मं बाह्यं 
च पाङ्मवेति । 
षतदेवमाधेविधाय परिकंद्प्यर्षिवैदः;, पतदद्ेनरसंपन्नो वा कथिदुषि- 
ग्रहबदस्योपासना रवोचदुक्तवान्‌ । किम्‌ १-इत्याह-- पाडः वा इदं सवम्‌; 
पाङ्केनेवाऽऽध्याकमकेन खङ्कघासंमान्यात्पा इ बाह्यं स्पृणोति बख्यति पूस्यति- 
प्कात्मतयोपठभत इत्येतत्‌; प्वं पाङ्मिदं सवेमिति यो वेद्‌, स प्रजापत्या- 
स्मेव भवतीत्यथैः ॥ 
इति भीमत्परमहंसपरिताजकाचायेगोविन्दभगवत्पञ्यपादरिष्यश्नीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावष्टीभाष्ये सप्तमोऽडवाकः ॥ ७ ॥ 


व्यदिः कथं पा ङ्त्वमित्याकाङ्कायां पड्न्याख्यस्यच्छन्दसः संपादनादित्याह--पञ्चसङ्क्थेति । 
न केवलं पञ्चसद्कथागुणयोगात्‌ पड््छन्दःसंपादनं, यज्ञत्वसं पादनमपि कतुं शक्यत इत्याह-- 
पाङ्च्य यज्ञ इति । पत्नीयजमानत्रदेवमाडषवित्तेः पञ्चभिः संपायत इति यज्ञः पा डुः इत्यथः। 
“ उक्कषटृधिर्निकृ्टे फलवती" इति न्यायाद्धादयपाङ्खूपेणऽध्यास्मिकं पाडतरयमवगन्तम्य- 
मियमिप्रेत्याऽऽह--एकात्मतयेति ॥ 
इति श्रीमत्परमदहसपरित्राजकाचार्यश्रीमच्छुदधानन्दपूज्य पादद्विष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तरीयोपनिषच्छ - 
कर्‌साष्य टिप्पणे शिक्षावस्स्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


८ १ ) यसिमन्देदन्द्रियादिसंघाति शाखसंस्काररष्ितस्य जनस्याहमिति बुद्धिः, सोष्यं लोकप्रसिड आतमा, 

५ क ६१५९. [ +, भ (५ + १ [^ 
तमधिक्रत्य यदुपासनं वतते तदध्यत्मम्‌ । ( २.)= दृष्टरा-इति वातिके; अधिकं सक्षात्कारपर्यन्तं यथा मवति 
तथोपास्य स्ानुमवेन सर्ासमकं विराद्ध ्राप्य-इति सा०भाप्य। (3)तल्य-तै.जा-१.१०.८४)-पथस्याव- 


क 
अथ रिक्चावर्त्यामष्टमोऽुवाकः | 
( ्रणवोपासना--श्ुद्ध्रह्मोपासना ) 
( उत्तमाधिकारी) ` ^ 
ओभि [ ७ ॐ (९, ४७, 
ति जह्य । ओमितीद्‌< सवम्‌ । . 
४०५१ 9 क क 
व्याहृत्यात्मनो ब्रह्मण्‌ उपासनमुक्तम्‌; अनन्तरं च पाङ्‌स्वरूपेण  तस्थेवो- 
पासनमुक्तम्‌ ; इदानीं स्वोपासनाङ्गभूतस्योङार स्योपासनं विधित्स्यते । परा- 
परक्दष्टया हयुपास्यमान ओङ्कारः शब्द्माजोऽपि _ परापरजह्राप्तिसाधूनं 
भवतिस ह्यालरेबनं ह्मणः परस्यापरस्य च, प्रतिभेव विष्णो,--“पतेने- 
वाऽऽयतनेनेकेतरमन्वेति ° इति शचुतेः। _ | 
ओमिति इति › शब्दुः स्वरूपपरिच्छेदाथेः । ओमित्येतच्छब्दरूपं ब्रह्मेति 
ॐ इवाच्य- मनसा धारयेत्‌-उपासीत, यत ओमितीदं सवेम्‌,-सवे हि 
शब्द्रूपमोङ्करेण व्याप्तम्‌, “ तदर्थो दाङ्कुना ” इति श्ुत्यन्तरात्‌ ; 
अभिधानतमन्बं ह्यमिधेयम्‌--इ्यत इदं सवेमोङ्ार इत्युच्यते । 
उतचष्ठवादपूवैकयुत्तरादवाकमवतारयति--व्याहत्यारेमन इत्यादिना ! वेदविदां हि सवाः 


तात्‌] (५)खक्षटेऽपङ्षवुद्धिरनथीय । अपृष्टे पुनरत्कर्षनद्धिः भेये च। द्विविधान्युपसनानि-अदंयहयुक्ता- 
नि, प्रततीकविषयाणि चेति । येषु परमात्मा सगुणः सन्नुपास्यते तान्यदंयदयुक्तानि। तचथा-“स य एषोऽन्त- 
हदय आकाद्चः। तस्मितरयं पुरषो मनोमयः । अग्रतो हिरण्मयः(&अनुवगके }--इत्यत्र हृदयाकादामध्यय्दी 
परमात्माख्यः पुरुषो भनोमयतादियुणयुक्त उप्ितव्यः परमात्माहमिति। स चाईंयदः-““भात्मेति तूपगच्छन्ति 
ग्राहयन्ति च"(ब.स्‌.४.१.२.)-इति सूत्रेऽभिदहितः। परमात्मन्यतिसिक्तानि लोकिकानिनस्तूलयु्ृष्देवतादृष्टया 
बरहमदषटया वा संसछरत्य यत्रोपास्यन्ते तानि प्रतीकाविषयाणि । तवथा-^पृथिवी पूर्वरूपम्‌?" (२अनुवके )-द- 
लत्र भूदेवताद्टवा संस्कृतं पूववणखरूपमुपास्यम्‌ । ““मने) ब्रहयतयुपासीतः ( छं ० ० २.१८.१. ) इत्यादो 
जहाटृष्टया संस्कृतं मनःप्रथतिकसुपास्यस्‌।तच् प्रतीकमुपासकेन न स्वात्मतया यदयीतव्यम्‌ ; यतः प्रतीकस्य ब्रह्म 
कर्थतेनेोतकृष्टटष्ितययाङम्बनलात्रतीकमिल्युच्यते। यदि ब्रह्मकार्यस्य बरहयैक्यमवलोक्येत तदा परतीकस्रूपमेव 
विलीयेत । घ्रस्व मदपेणेक्ये वियददौनात्‌ । यदि जीवस्य ब्हयक्यमवेग्येत, तदा जीवलस्यापाये सति,उ- 
पासकतवं दीयेत। अथोपास्योपासकस्वरूपलेोभेन कायैकारणेत्रयं जीवव्रहौक्यं च न पयीलोच्येत,तदा मोमहिषव- 
दत्यन्तभिन्नयोः प्रतीकोपासकयोनसत्यिकत्वयोग्यता । तस्मात्त प्रतीकस्याहंटष्टि “परथिवी पूर्वरूपम्‌--इ्यत्र 
परथमनिर्दिश्लनेोदैश्यतया यपि पृथिव्याः प्रतीकलं मराप्म्‌ , तथा चरमनिदष्टलेन विभेयतया पूरववरणस्व दृष्टि 
परं प्राप्तम्‌ तथापि पृथिव्या उककृष्टलात्तदूटषटिरेव पूवण कर्तन्या;ः-यथोक्ृष्टविष्णुशिवादिरनिृटे राख्यामादौ 
क्रियते, न तु विपययः; त्यत्‌ । उत्वर्षन्यायः “ह्मटष्िसत्कषात्‌?(ज.स्‌ .४.१.५.)-इत्यत्र चिन्तितः । शासे 
तत्‌ तत्र यन्युपासनान्युक्तानि, तैः समुञचितानि यानि कमणि तेषां केवलस्य चस्मिन्‌ हितोपदेशे यन्थे 
सवत्र चान्यत्रोपालतप्रकरणे मलयुलं फल्मुक्तम्‌, गौणी हि सा मुक्तिः--अदरानायादिसंबन्धात्‌; स- 
स्मात्कल्वदुपायराशतएग्यस्यषटतात्‌ ; आत्यन्तिको तु मुक्तिः सम्यग्डानदिव । 
(१ ) शतस्य वाचकः मणवः-यो- स्‌.१.२७. कटवहटीषु (५.२५. “सवै षदा यत्मदमामनन्ति तपांसि 
स्वणि च यददन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचये चरन्ति तत्ते पदं सङ्गहेण अवीमि--इति भतिज्ञाय तदनन्तरं 


८ अष्टमोऽलुवाकः ] प्रणबोपासना-रुधत्रह्मोपासना | २५. 


ओमित्यतदंतुकरति ह स्म॒ वा अप्यो . भंषयत्याश्रंवयन्ति ! 
ओमिति सामानि गायन्ति । ओभशोमिति शक्ाणिं श \सन्ति। 
ओङ्ारस्तुत्यथैमुत्तरो ग्रन्थः, उपास्यत्वात्तस्य । ओमित्येतदयुकति-- 
` अजुकृतिः--अनुकरणम्‌; करोमि, यास्यामि चेत्‌ कतमुक्तम्‌, ५ आभित्यनक 
त्यन्यः,^अत आओडारोऽनुङृतिः। ह, स्म, वे--इति पसिद्धाथ्योतकाः, प्रसिद्धं 
ह्योङ्ारस्यायुकृतिसम्‌। अपि च आ श्रौवय' इति बरेषपूवेकमाश्रावयन्ति प्रतिश्रा- 
करिया ओङ्कारखबराय प्रवतंन्ते, ततस्तस्य भद्ागरहीतत्वात्तत्परिहारेणोपदिष्टं बह्म न बुदिमारो- 
हेद्‌, अतस्तमादायेवो पासनं विधीयत इत्यर्थः ¦ नन्वोडुगरस्य शष्दमात्रस्याचेतनत्वात्‌, अहम- 
नेनोपासित इति ज्ञानाभावात्‌ कथं फठ्दातत्वं स्यात्‌ !--ह्याशङ्याऽऽइ-- परापरेति ।. 
परतिमा्यचेन इव सवेत्रश्वर एव फठदातेति भावः। ओङरे बरहमत्वाध्यासे विः सादृश्यम्‌ १-- 
इत्यत जआईइ-ओभितीदमिति । सवौस्यदत्वमाङकारस्य ब्रह्मणा सादृद्यमित्यथैः । 
श्ीणि गीतिरदहिता क्च ञच्यन्ते । प्रतिगरमिति । ओऽयामोदेवेतिक्व्दमध्वयैः प्रति- 





“५अमित्येतत्‌, एतद्धयेवाषरं बह्म-इत्यादिना सतैवेदभतिपाचत्वेनोपत्रान्तस्व परब्रह्मणः प्रतिपादकतया ओ- 
भिततिपदमुपक्षिप्य तद्मदयंसादरदनात्‌ ! अपि चास्य मात्रात्रयमूग्यजुस्पामरूपत्मेनाथवैणोपनिषदादिषु प्रसिद्धम्‌ । 
प्रपधसारादिषु च ““अभ्निमा>े पुरोहितम्‌? -इत्याचेदाचवणेस्यः“योनिस्समु्रो बन्धुः“-इति मध्यवेदमध्यव- 
णस्य , * समाने वरम्‌ ""-इत्यन्तिमवेदान्तिमव्णस्य च समादिः " ॐ › इतिपदम्‌--क्षिवाकंमणिदी- 
पिका-१.१.१. (२) प्र. उ. ५.२. (२ ) “ओमिति ब्रह्म"-इति वात्ये जोङ्करे प्रतीके ब्रह्मर्टि्यं विधीयते, 
्ितूपास्यं बह्मोभिलयनेन विशेषणेन विदेष्यते। उद्रीथन्यायेन (ज. स्‌ .२.२.९.) अवापि ब्रह्मदाब्देन मनोमयत्वा- 
दियणकं पृथिन्यादियुणकं शुद्धं चेति त्रिपरिधन्रहमप्रापौ सत्यां सगुणत्वं व्यावत्यं जजुदह्मसमू्पणार्थमोमिति 
विशेषणम्‌ । ओमित्यनेनैव वाचकेन शब्देन वाच्यं यत्परं रह्म तदेवाघ्ोपास्यं वस्तु। नह्यत मनञाद्ुपाधि पृथिन्या- 
दयुपाथि वा चिन्तनीयम्‌ । ननु ब्रह्मतत्त्वस्य प्रमाणजन्यं ेदनमेव संसवतिःन तुपासनम्‌। नायं दोषः-द्िविधं हि 
वेदान्तवाक्यम्‌-अवान्तरवाक्यं महावाक्यं चेति । नगत्कारणन्ह्मणो यत्तासिकंरूयं तस्य बोधमवान्तरवाक्यम्‌। 
जीवन्रह्मणोस्तादात्म्यबोधकं महावाक्यम्‌ । तते महावाक्येन तादात्म्यं विदितवतउपाक्षकत्वाभायो भवतु नाम । 
यस्तववान्तरवाक्यमात्रेण जगत्कारणस्य तच्वमात्रं बुध्यते, तस्य तावता कतल्ानपयादुपस्तकलवं संमवति। 
तदेवं शुदधबरह्मतत््वस्याप्युपास्तिप्तंभवात्‌ “्रह्मोपासवानि-इलयेवं कामयमानः प्रणत्रयुच्रारयंस्तदर्थरूपं ब्रह्मत 
त्वमुपासीत, तदेत्रहमतत्तवस्य ध्यानं अ०सू०१.३.१२. इत्यत्र चिन्तितम्‌ । तेन चोपासनेन ब्रह प्रत्येव । 
८४) छ. उ. २. २. २, 

(१) “° ब्रह्न्प्रवरयाश्रावयिष्यामीति जह्माणमामनत्य, आश्रावय-ोश्रावय-श्रावय--ओमाश्रावयेतति 
वाऽ्ऽश्रावयति इति आप० शरौ° सूऽ २. १५. २. । अत एव ते. सं. १. ६.११. मव्ये--“आश्रा- 
वय इत्ययमेव पायोऽत्रत्यः ८( तैत्तिरीयशाखीयः }; ओभावय-भावय-भोमाश्रादय--इति च त्रयं 
शाखान्तरीयम्‌ इति । ( २ ) अप्रगीतमन्तरस्ताध्या स्तुतिः शलम्‌; प्रीतमन्त्रसाध्या स्तुतिः स्तोत्रम- 
त. सं० म्ये २. २.७. (२) शत. जा. ४. २. २. १२.; जश्च [° सऽ ५. ९. ४. तुल्य--अआप.. 
ओं. स्‌ .१२.२७.१४-१७;१२.९.१०. शा. श्रा. सू. १०.६९. १७. का, भौ. स्‌. १०.२.८..१०.६.५-६.; 
ते. सं. भाष्ये. २. २. ९, 


२६ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ |  ;. [ शिष्षावही 


ओमित्य्॑वयुः पतिगरं शप्रंारि । ओमिति बह्मा भसति । 
ओपित्यभिहोजमतजानाति । ओमिति बाद्यणः प्रवक्ष्यन्नाह; 
ब्रह्मोपावानीतिं । जह्यवोपांमरोति ( १) ॥ 


आं दञ्च॥ 
इति कष्णयजुवैदीयतेत्तिरीयोपनिषदि शि्षावस्त्यामष्टमोऽलुवाकः ।॥ ८ ॥ 


, अथ शिष्षाव्ल्यां नवमोऽलुवाकः । 
` ( उपासकधमाः ) 
ऋतं च स्वाध्यायपवेचने च । सत्यं च स्वाध्यायपव॑चने च । 


तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायपरवचने च । समश्च 

वयन्ति) तथा ओभिति सामानि गायन्ति" सामगाः ओंशोभिति शखाणि शंस- 
न्ति" शाखरांसितारोऽपि । तथा “ओमित्यष्वयः प्रतिगर प्रतिगृणाति" । “ओमिति 
ब्रह्मा प्रसौतिः-- अनुजानाति ! ओमित्यञ्चिहदो्रमनुजानाति-जुहोमीव्युक्त ओ- 
?त््टतां परयच्छति ! ओभित्यव बाह्मणः प्रवक्ष्यन्‌ परवचनं करिष्यन्नध्येष्य- 
माण ओमित्येवाह; ओमिति प्रतिपद्यतेऽ््येतुभित्यथेः। ब्रह्म वेदमुपा्रवानीति 
प्रप्तुयां भ्रहीपष्यामीति; उपारोत्येव ब्य । 

अथवा ब्रह्म परमात्मानम्ुपाश्चवानीत्यात्मानं प्रवक्ष्यन्प्रापयिष्यश्नोमित्येवा ऽऽ हः 
स च तेनोडुरेण बह्म प्रापरोत्येव । ओड्ारपूवै प्रवृत्तानां क्रियाणां फरुवखं 
यस्मात्‌, तस्मादोङकारं ब्रह्मत्युपासीतेति वाक्याथेः॥ 

इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचायेगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगवतः 

कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छक्षावष्टीभाष्येऽष्टमोऽडवाकः ॥ ८ ॥ 


विज्ञानादेवाऽऽभोति स्वाराज्यमित्युक्तत्वात्‌, रीतस्मातानां कभेणामानथैक्यं 

धाप्तम्‌+-इत्यतस्तन्मा प्रापत्‌ इति क्मेणां पुरुषार्थं प्रति साधनत्वप्रद्दीनाथमि- 
गृणाति दोठः शंसनं प्रति--प्रतिरंसनखबारयतीत्यथः। प्वश्ष्यन्निति--“वचं परिभाषणे" 
इत्यस्य सूपं प्रथमव्याख्याने ; द्वितीये “ वह प्रापणे इत्यस्य द्रव्यम्‌ ॥ 


(थ ह 


इति श्रीमत्यरमहंसपलिनानकाचायंश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादिष्यानन्दज्ञानविराचते तैत्तिरीयोपनिषच्छांकर- 
माप्यरिम्पणे दिष्षावल्ल्यामषटमोऽनुवाकः ॥ ८ ॥ 


(१) दीतुः प्रदप्तनमु°~इति पठः (२) धा. पा. २.५३. २ › धा. पा. १.१०२९ 


९ नवमोऽलुवाकः ] उपासकधमौः २७ 


स्वाध्यायपरव॑चने च । अग्नयश्च स्वाध्यायपर्वचने च । अभिहत 
च स्वाध्यायपर्वचमे च । अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च । माटुषं 
च स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजा च सखाध्यायपवंचने च । भ्रजन- 
नथ स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजातिश्च स्वध्यायपर्वंचने च ,। 


सत्यमिति सत्यवचां राथीतरः; । 


होपन्यासः 1 ऋतमिति न्योख्यातम्‌; स्वाध्यायोऽध्ययनम्‌, भवचनमभ्यापनं 
उपासकस्य नित्य- ब्रह्मयज्ञो वाः--एतान्यतादीन्यनुष्टेयानीति वाक्यशेषः। सर्य 
कमेणामुपासनेन सह च सत्यवदनं , यथाष्यांख्याता्थं वा ; तपः छद्कादि; दमो 
ससुचयः बाह्यकरणोपद्ामः शमोऽन्तःकरणोपहामः ; अञ्मय आधा- 


तव्याः; अग्निहो च होतव्यम्‌; अतिथयश्च पृञ्याः; मानुषमिति छोक्छिक 

सेम्यवहारः तच्च यथाप्रासमयु्ेयम्‌; प्रजा चोत्पाद्य; शजनः, भजननम्‌-- 
छतो मायागमनमित्य्थैः प्रजातिः पोत्रोत्पत्तिः- पुरो निवेरायितव्य इत्ये- 
तत्‌ः-सवैरेतेः कमेभि्यक्तस्यापि स्वाध्यायप्रवचने यत्नतोऽचुष्रये--इत्येवमर्थं 
सर्वैण.सह स्वाध्यायग्रवचनग्रहणम्‌ । स्वाध्यायाधीनं हयथेज्ञानम्‌, अथेज्ञानायत्तं 
च परं श्रेयः, प्रवचनं च तद्‌विस्मरणाथं धमेन्रद्धर्धेथं च, अतः स्वाभ्यायप्रव- 
चनयोरादरः कायैः। 


व्यवदहिताडवाकेन संबन्माह-विज्ञानादेवेदयादिना । अपरविद्यालहकारितया 
तत्फलेनेव फाठवत्वसिङयथघत्तराडवाकारम्भ इत्यथः । ‹ लोकिकसं्यवहारः ` विवाहादि । 

पुनः पुनः स्वाध्यायप्रवचनग्रहणस्य तात्पयंमाह--सवैरेतेरिति । किमिति यलतोष्व- 
ये ए तत्राऽ-स्वाध्यायाधीनमिति। 

त्रयाणाद्षीणां मतभेदोपन्यासेन स्वाध्यायप्रवचनयोरेवाऽऽदरं विटणोति--सत्य- 
मित्यादिना ॥ 

इति शीमत्परमहंसपसििजकाचार्य॑भ्रीमच्छुदधानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तेत्तिरी- 
योपनिषच्छंकर भाष्यरिप्पणे रिक्षावल्लयां नवमोऽनुवाकः ॥ ९ ॥ 


(१) १. ८. (२) वचन-पाठः (२ ) मनुष्यविवाहादुत्सवेषु क्रियमाणं वध्याहिपूजनं मानुषम्‌--इति 
सा. माष्ये ! (४) पुण्योपचयहेतुतात्तयोः । 


२८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ िष्षावह्ी 


तप इति तपोनित्यः पौरंशिष्टिः । स्वाध्यायपवचनें एवेति 
नाको मोदरल्यः । तद्धि तप॑स्तद्धि तपः ( १ ) ॥ 
प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च षट्‌ चं ॥ 
इति छष्णयजुेदीयतेत्तिरीयोपनिषदि रिष्टावस्स्यां नवमोऽनुवाकः ॥ ९॥ 


अथ शिक्षावल्त्यां दशमोऽनुवाकः । 
( ब्रह्मज्ञानप्रकाडाः ) पि 
अह वृक्षस्य रेरिवा । कीति; पूषठं गिरेरिव । उष्वेप॑वित्रो वानि 
सत्यमिति--सत्यमेवानुष्ठातव्यमिति सत्यवचा, सत्यमेव वचो यस्य सोभ्य 
यथे क॑, सत्यच्रचाः, नाम वा तस्य, रथीतरो रथीतर-( स्य) गोधरो 
प्ररासत्वेन मतभेदः राथीतराचायो मन्यते | 
तप इति ठप एव कतेन्यमिति--तपोनित्यस्तपसि नित्यस्तपःपरः, तपोनित्य इति 
वानास-पौरुरिष्टिः पुरुदिष्टस्यापत्यं पौरदिष्टिराचार्यो मन्यते स्वाध्यायप्रवचने 
एवानुष्ठये इति नाको नामतः, मुद्रछस्यापत्यं मोद्रल्य आचार्यो मन्यते । तद्धि 
तपस्तद्धि तपः-हि यस्मास्स्वाध्यायप्रवचने एव तपः, तस्मात्ते एवायु्ठेये इति ! 
उक्तानामपि सत्यतपःस्वाध्यायप्रवचनानां पुनच्रंहणमाद र्थम्‌ ॥ 
इति श्रीमत्परमहंसपरि्ाजकाचायेगोषिन्दभगवत्पूज्यपादरिष्यश्रीमच्छकरभगवतः 


@ च (न 


कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छि्षावष्टीभाष्ये नवमोपनुवाकः ॥ ९ ॥ 
"अहं चरष्चस्य रेरिवा" इति स्वाध्यायाथौ मन्त्राम्नायः; स्वाभ्यायश्च विद्योत्पत्तेः 


जहयश्फलति- -ध्रकरणात्‌, .विद्याथं हीदं प्रकरणम्‌; न्‌ चान्याथेत्वमतग- 
ययौ मन्नः म्यते; स्वाध्यायेन च विद्युद्धसस्वस्य विद्योत्पत्तिरवकल्पते । 


अहं शृ्चस्योच्छेदीत्मकस्य संसारब्श्चस्य रेरिवा परेरथिताऽन्त्थाम्या- 
मनवान्नय आस्म त्मना । कीतिं; ख्यातिरभिरेः पृष्ठमिषोचिद्ता मम । ऊष्वैपवि- 
वियप्काशकः अः--उर्व कारणम्‌, धविक्नं पावनम्‌ ज्ञानपकादयं परमं जहम 
स्वाध्यायार्थं इति जपाथेः । “ इषे त्वेति शोखां छिनत्ति ” इतिवदन्यत्र विनियोजकं 
~~ रत जपाः! इत त्वात शला नति” इातिवदन्यत्र विनियोजक 


(१) मन््रख्रह्मभूतः (२ ) तुल्यम. गी. १५. २-४.; कठ. उ. ६. १ ८३) चे.उ. २.१. भ्ये 
उ्वैः = परमातममूतः ( ४ ) उाकयेत्थवुददृततिदवारा मवहानेन पविम्‌ । (५) हिरण्य. शरौ. सु. १.२. 
ठर्य-आप. शरौ. स्‌. १. २. १०. । स्थत भेदलक्षणे ¢ समेषु वाक्यभेदः स्यात्‌ » (जै, सू . २. १. 
४७.) -“‹ इषे तवो त्वा ” ( ते.सं. १. १. १. ) भादिष्वेकमनेकरं वा यजुरिति संराये प्रशेषपागनुगद्यात्‌ 


व 


“‹ इषे ल्वोजें ला ” इत्यनयोरन्योन्यसन्निदितयेरेव शाखाच्छेदने चानुमासने च विनियोगदेका्तमा 


१० दमोऽलुवाकः | ब्रह्म+०४प् हः २९ 


^> द्रविण सव॑चेसम्‌ अमतो 
नीव स्वमृत॑मसि । द्रविण स्वचसम्‌ । सुमेधा अरतो- 
कित; । इति त्रिशङोवेदांदुवचनम्‌ ( १ )॥ 
यस्य सवौत्मने मम, सोऽहमुध्वैपविच्रः ! वाजिनीव--वाजवतीब वाजमन्न 
तद्ति-सवितरीत्य्ैः; यथा सवित्गरृतमात्मतत््ं विद्धं भसद्धं शतिः 
स्मतिरातेभ्यः, एवं स्वदत शोभनं विशुद्धमात्मतत््वमस्मि भवामि । 


दरविणं धनं सवयैसं दीसिमत्‌-तदेवाऽऽत्मतरवम्‌--भस्मि इत्यनुवतेते; बह्य- 
जञानं वाऽत्मतस्वपकाशत्वात्‌ सवचसम, द्रविणमिव द्रविणम्‌, मोश्चखखेतुत्वात्‌ः 
अस्मिन्पक्षे प्राप्तं मया ° इत्यध्याहारः कतेव्यः। सुमेधाः शोभनामेधा, स्ज्ञलक्षणा 
वा यस्य भम सोऽहं सुमेधाः संसारस्थत्युतपस्युपसंहारकोदराखयोगात्छुमेध- 
स्त्वम्‌ । अत षवामरतोऽमरणधमोऽक्षितोऽक्षीणोष््ययः › उशतो वा ; अस्तेन 
वोक्ितः सिक्तः“ असृतोक्षितोऽहम्‌ ” इत्यादि ब्रा्मणम्‌ इत्येवं निशङ्ऋ- 
चेबरह्यभूतस्य अरह्मविदो वेदो वेदनमातमेकत्व विज्ञानम्‌ , तस्य पास्िमनु केचनम्‌- 
वेदालुबचनमात्मनः छृतद्त्यताख्यापनारथं वामदेववत्‌; तिदाडूनाऽ्ेण दृरोनेन 
दृष्टो मन्त्रान्नाय आत्मविचाप्रकादाक इत्यथः । 


अस्य च जपो विद्योत्पच्यर्थो ऽवगम्यते । ' ऋतं च '"-इत्याटितर९य्दसा- 
आर्वनदेतवः दनन्तरं च बेदाजुवचनपाठदेतदवगस्यते । एवं श्रोतस्मातेषु 


मणिके 


छ्यादिप्रमाणमपि नोपलभ्यत त्याद--न चान्यारथैत्वमिति । ^ अक्षितमसि ” इत्यादिव- 
दुपासनाधिषिरेषत्वं वा वक्तं न शक्यते--ञानसाधनक्रियाविषेःपरक्रान्तत्वादियथेः। 


[2 +) 


‹ अह इक्षस्य  इतिमन््स्यपिन्लिशड़ः, पडछन्दः, परमात्मा देवता, बरह्मवियाथे जपे 


~~~ ``----=---------------- 
वाक्यैक्यादेकं यजुरिति पूर्वपक्षयित्वा, ५ इषे सेति राखामाच्छिनत्ति १५ ऊर्जँ लेत्यनुमां इति च्छेद- 
नानुमार्जनयेदेन विनियोगादर्थमेदमानास्षपाएस्य चदृष्टधतरेनापि संभवात्‌ तद्रद्िविवात्यस्थराब्दसव 
पतीकमहणेन लक्षणानुपपततवाक्यभेदस्य न्याव्यत्वादनेकं यजुरिति राडान्तिम्‌-सं. वातिंकयैका" २७७. 
(१) दिविधं हि द्रविणम्‌ मानुषं दैवं च । तत्र चष्चुषा दयमान घुनणेरजतादिकं मानुषम्‌; 
श्रोत्रेण श्रूयमाणं वेद प्रतीयमानं बह्ञानादिकं देवम्‌ । अत एत वाजसनेयिनः कसमश्चिदुपासने च्चः 
ओ्ओो्योमालुषदैववितदष्िमामनन्ति-“ चछ्ु्मालुषं वित्तम्‌ । चष्चषा हि तद्विन्दते । भेर दैवम्‌ । 
नण दि तच्रणोति ° तर. उ. १,४.१७.-इति । तत्र दैविततमभिभतय सवचेसमिति विद्ते । वचो 
बलं तोगात्सवर्चसम्‌, बलवत्त्वं च दैववित्तस्य ब्रह्मज्ञानस्य सव॑संसारनिवत॑कत्ादपपत्नम्‌ । (२ ) 
षड्मावनिकाररदितः ( २) महान्‌-निषण्ड २.३.५. (४) ! रक्षि माति ; ०अमिति ।-इत्यतेवनेबो- 
पसंदारतमकः पाठः स्यात्‌ । (५) सखानुमावप्रकरीकरणमेव तदयचनम्‌ ( ६ ) ऋ. सं. ४.९७. १.5 पष्ड, 
२०१. बु.उ. १,४.१०. ज.स्‌. २.२.३२. ७) नवमानुवके. (८) एकादशाुवाके (९) छां.उ.२.१५.६. 


३० तैत्तिरीयोपनिषत्‌  [ रिष्षाबही 
अहश्सद्‌ ॥ ` | 
इति कृष्णयजर्वदीयतैत्तिरीयोपनिषदि शि्षावल्ल्यां दरामोऽलुकाकः ॥ १० ॥ 


अथ शिक्लावत्ल्यामेकादराोऽनुवाकः । 
( अनुशासनम्‌ ) 
वेदमनूच्याऽऽ्चार्योऽन्तेवासिनमलुश्ास्ि । 


नित्येषु कसु युक्तस्य निष्कामस्य परन्रह्मविविदिषोराषोणि दरोनानि प्रादु- 
रट श्थास्म।दिविषयाणीति ॥ | 
इति श्चीमत्परमदहंसपरिनाजकाचार्येगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्नीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावह्टीभाष्ये द््रमोऽकवाकः ॥ १० ॥ 


^ वेदमनृच्य ` इत्येवमादिकर्तन्यतोपदेशारम्भः प्राग्रह्यविज्ञानाक्नियमेन कतै- 

शब्दय ्ानहेतवः व्यानि ओतस्मातेकमोणीत्येवमथेः+--अयशासनशचुतेः पुरुष 
वर्माधि सुमुष्वणा यावदा- संस्काराथंत्वात्‌; संस्कृतस्य हि विद्युद्धसक्वस्या ऽऽत्मन्ञान- 
सदानं नियमेनकर्तन्यानि मञ्जसेवोत्पयते ! “ तपसौ कलट्मषं हन्ति वियययाऽग्रतम- 
द्यते ” इति हि स्मृतिः; वक्ष्यति च-“ तपसा ब्रह्य विजिज्ञासस्व ' इति । अतो 
विदयोत्पत्यथैमनुष्ठेयानि कमणि, अजशास्तीत्ययुदासनदाब्दात्‌; अुशासना- 
विनियोगः । न केवलमस्य जपो विद्याथैः, पूर्वोक्तानि कर्माप्यपीत्याह-- ऋतं चेत्यादि ॥ 

इति शीमत्परमर्दसपरित्राजकाचार्य॑भीमच्छुद्वानन्दपृज्यपादशिष्यानन्दज्ञानरिर चिते तैत्तिरीयोप- 
निषच्छोंकरभाष्यरिष्पणे शिक्षावर्ल्यां दशमेऽनुवाकः ॥ १० ॥ 


उत्तराडवाकस्य तात्प्यमाह-बेद मनुच्येत्यादिना । विबयोत्पत्यर्थं नित्यनेमित्तिकान्य- 





(१) “तमेतं वेदानुवचनेन बराह्मणा विविदिषन्ति येन दानेन तपस्ाऽनारकेन"' (व. उ. ४.४.२२.) 
* --इति प्रवृत्तिरूपाणां वेदानुवदनादीनां विविदिषेत्पादनद्वारा बहिरङ्गसाथमत्गावगमात्‌, “शान्तो दान्त 
उपरतन्ितिश्वः समादितो भूतवाऽऽस्मन्येवात्मानं परयति” ८ चर. उ. ४. ४.२२. )--इति नितू- 
त्तिरूपाणां शमदमादीनां विबोतपत्तो साधनघ्वेन विधीयमानतयाऽन्तरङ्गसाधनल्ावगमात्‌, यज्ञादीनि शम- 
दमादीनि च विदा स्वोदयत्तावयेक्षते । “कषायपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः। कषये कर्मभिः पके ततो 
ञानं प्रवते “ ॥ ““ मावितैः करणेश्चायं बहुससनारयोनिषु । आसादयति शुद्धाः मोक्षं वै प्रथमाश्रमे ” ॥ 
,-मोष्षषमे २२९-२९.; “श्रत्यग्विविदिषातिद्धय वेदानुवचनादयः । ब्रह्मवाप्तै तु तत्त्याग ईप्सन्तीति शते- 
वलात्‌ > 1-सं. वातिके. १४.; “ न कर्मणामनारम्भात्रष्कम्यं पुरुषोऽश्वते ” ।  आररक्षानेयों कर्म 
कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते 2 ॥ भ. गी. ३.४; ६. ३. “ धमौ्सुखं च ज्ञानं 
च “--इत्यादिवचनेभ्यो ज्ञानमतयन्तोृष्टपण्य॑कायम्‌ । (२) संस्कारे नाम खाभ्रयस्य प्रागुद्धूतावस्थास- 
मानावस्थान्तरापादकोऽतीन्धियो धर्मः । ( ३) मु. १२. १०४.८४) तै. उ. २.२. । 


१९१ एकादोऽलुबाकः | 'अनुस्चासनम्‌ | | ३१ 


सत्यं वद्‌ । धम चर । 
 खाध्या्यान्मा प्रमदः । आचायाय भियं धनमाहृत्य 
प्रजातन्तु मा व्यवच्छेत्सीः । 
तिक्रमे हि दोषोत्पत्ति; पागुपन्यासाच कर्मणां; केवलब्रह्मविद्यारम्भाच्च पूवं 
कमप्युपन्यस्तानि; उदितायां च विद्यायाम्‌ “ अभयं प्रतिष्ठां विर्दते ” “न बि- 
मेति कुतश्चन", “किमहं साधु नाकरवभ्‌"-इत्येवमादिना कमेनैष्किश्चन्यं दशो 
यिष्यति--इत्यतोऽवगम्यते पूर्बापचितदुरितश्चयद्वारेण विदो्प्यथोनि कमोणी- 
ति; मन्नवणोच-“अविद्या मृत्यु तीत्वों विद्ययाऽमृतमद्यते" इति । ऋतादी- 
नां पूवत्रोपदेश आनथेक्यपरिहाराथः, इह तु ज्ञानोत्पच्यथेत्वात्कतेव्यनियमाथः 
वेदमन्‌च्याध्याप्याऽचार्योऽ्तेवासिनं रिष्यमनुशास्ति-ग्रन्थग्रहणाद्‌यु प- 
अधीतमेदस्य कै आाच्छासिति तदध ग्राहयतीत्यथेः। अतोऽवगम्यते--अधीत- 
व्यातुसचासनम्‌ ` वेदस्य धममेजिन्ञासामङ्त्वा गुरुकुखान्न समावर्तितव्यमिति; 
“ बुदधुा कमीणि ”--इति स्सूतेश्च । 
वदयान्यरष्ेयानीयेको नियम उक्तः; प्रागेव चवुष्ेयानीति नियमान्तरमाद- प्रार्च्च्य ष्ट 
कर्मणामिति । संग्रहवाक्यं वि्टणोति--केवलेत्यादिना । अविदया क्मेणा खलत्युमधर्मं 
तीत्वो-इति मन्त्रोऽपि विदोतपत्तः प्रागेव कमावष्ानं सृचयतीत्यथेः “कतं च स्वाध्यायप्रवचने 
च इत्यादिना धूरवत्रकरमादष्ठानक्तमेव, अतः पोनस्क्त्यमित्याशङ्याऽऽह- ऋतादीनामिति। 
विचारमकृत्वा युरकुटान् निवर्तितव्यम्‌, कित्वध्ययनतिधेरथोवबोधद्वारेण परुषार्थपयंवसायिता- 
सिदयथेमक्षरयहणणानन्तरमथावबोधाय प्रयतितव्यमित्याह-्रभ्थग्रहणादव्विति | षेदम- 


धीत्य लायाद्‌--इति स्एतिरप्येतच्छतिविरुदेताह--यतोऽवगस्यत इति । 





( १ ) २.७. (२ ) २.९. (३) २.९. (४) “्रतयकर्रवणतां बुद्धेः कमीण्युत्याय शुद्धितः कृताथान्य- 
स्तमायान्तप्रावृडन्त घना इव ॥ तस्मान्सुसुष्चभिःकार्यमात्मह्नामिर षिभिः । निलयं नेमित्तिकं कर्मं सदैवाम- 
विङुदधये"-ने.सि. १.४९-५०. (५) ई. ३.११. (६) उपासनादेव स्वाराज्यश्रवणादानथै्यं कर्मणामाश- 
कय तत्परिहारार्थं ८ कतं च “-इत्यादिरमुवाकः ९; “वेदमनूच्य--इत्यादिस्तु नियमदयािदय्थ इति न 
पुनरक्तिरियरथः (9) आप. घ. सु, २.२१. ५. बुधा कमणि य॒त्कामयेत तदारमेत--इति समग्रसूत्रपाढः। 
(८) ९. अनुवाक. (९) “वेदानधीत्य वेदाङ्गं साङ्खोपाङ्गविधानत्तः । खायाद्िध्युक्तमागेण बह्मचय॑न्रतं चरन्‌?॥ ` 
इति योगियाज्नवलयसहितायाम्‌-१.२०-३१. ; ५ वेदं वेदा तथा वेदान्‌? वेदान्‌ वा चतुते दिनः । अधी 
त्य चापिगुम्याथ ततः स्नायाचथाविषि ॥ दर्म पु, उत्तरभा. १५-१.; ठु्य--“वेदमधीत् खास्यन्‌”- 
आप. ग.सू. १२.१. गो. गरस. २.६. १.५ बो. गर परिभषा-सु. १.१२. 





३२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ 


सत्या भमंदितव्यम्‌ । धमोन्न र॑दितव्यप्‌ । कुशटान्न पम 

दितव्यम्‌ । भूत्यै न प्रमदितव्यम्‌ । स्वाध्यायभवचनाभ्यां न 

अम॑दितव्यम्‌ (१) । देवपितुकायोभ्यां न भरम॑दितव्यम्‌ । मात- 

देवो भव । पितृदेवो भव । आचाथदेवो भव । अतिथिदेवो भव। 
कथमनुशास्ति ? इत्याह- सत्यं बद ' यथाप्रमाणावगतम्‌ , वक्तव्यं च वद्‌ । 


भतुशसनसमह- तद्म चरः धमे इत्यजुष्ेयानां सामान्यवचनं सत्यादिविरोः 
-कतेच्यसारम्‌ घायद्‌ शात्‌ । 
स्वाष्यायादध्ययनात्मा प्रमदः प्रमादं मा कार्षीः । आचायीयाऽचायार्थं 
सङदनुधितश्ेतसम- प्रियमिष्टं धघनमाहत्याऽनीय दत्वा  विद्यानिष्कयाथम्‌ , 
षयोः प्ररित्वागरूपं॑ आचार्येण चायुक्ञातोऽचुरूपान्‌ दारानाहत्य , प्रजातन्तुं पजा- 
प्रमादं निषेधति । सन्तानं मा व्यचच्छत्यौ, अरजासन्ततवििकिते उलप्य 
अलुत्प्मानेऽपि पुत्रे पुत्रकाम्यादिकमणा वदुत्पन्तौ प्रयत्नः कतव्य इत्यभि. 
भाय,--प्रजा्रजन-पजाति-जयनिदेरासामथ्यांत्‌; अन्यथा ‹ प्रजनश्च इत्ये. 
रलेप;२।८घ्९४५ 
सत्यान्न प्रमदितव्यं प्रमादो न कतेन्यः, सदया प्रमदनमनच॒तप्रसङ्,-- प्रमा. 
दाब्दसामथ्यौत्‌ , विस्मृत्याप्यनृतं न चक्तव्यमिलयथैः; अन्यथाऽसत्यवदनप्रति- 
षेध एव स्यात्‌ । तथा धमोन्न प्रमदितव्यम्‌---शमे' शब्दस्याुष्ठेयविषयत्वात्‌ , 
" अननुष्ठानं प्रमादः, स न कतव्यः; थचुष्ठातव्य एव धर्मं इति यावत्‌ । एवं कुरा- 
कादात्मरक्षाथौत्कमैणो न प्रमदितव्यम्‌ । भूतिर्विभूतिः, तस्थे भूत्यै भूत्यथोन्म- 
इखयुक्तात्कमेणो न प्रमदितव्यम्‌ । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितम्यम्‌ 
स्वाध्यायोऽध्ययनम्‌ ; पवचनमध्यापनम्‌ , ताभ्यां न प्रमदितव्यम्‌ - ते हि निय- 
मेन कतेव्ये इत्यथः । | 
तथा देवपितृकायम्यां न प्रमदितव्यम्‌, दर्वेपित्ये कर्मेणी कर्तव्ये । मातदेवो 
मव्य दे्रत- माता देवो यस्य स त्वं मातृदेवो मव स्याः। एषं पितुदेव आचा- 


£ क 


हद्या पूजनीयाः यैदेघोऽतिथिदेवो सव.--देवतावदुपास्या एवैत इत्यथैः । 
वक्तव्यमिति--वचनाहेम्‌--परस्य हितमित्यथैः। 


( १ ) खध्यायोऽध्येतन्यः-ते. आ- २. १५. ७. शत- जा. ११.५.६.७. (२ ) “८अनृतवदनविषये 
दोषश्च ” इत्यधिकः पाठः! कादौयुदरितुस्तकेः--“ येाऽनृतमभिवदति समूलो वा एष परिशुष्यति ” 
( प्र. ३. ९. १. वक्यव्युलमः ) । “« न सत्यात्परमो, धमो नानृतात्पातकं परम्‌ ” ( शा.प. १६०.२४. ) 
इति स्यृतेः--इति च तत्र टिप्पणी । ( ३ ) अनुष्टातव्यः । णवं दु "इति पाठः1 (४) पौराणिकं विना- 
-यकनतानन्तत्रतादिकं देवकायेम्‌; प्रतिसावत्सस्वि पितिकार्थम्‌ । | 





१९ एकादखोऽनुवाकः | अनुकासनम्‌ ३३ 


यान्यनवधानिं काणि । तानि सेवितव्यानि | 
नो इतराणि । यान्यस्मा२९ सुचरितानि । 
तानि त्वयोपास्यानि (२)! नो इतराणि । 

ये के चास्मच्छर्याध्सो ब्राह्मणाः | 

तेषां त्वयाऽऽसनेन भ्व॑सितव्यम्‌ | 


यान्यपि चान्यान्यनवद्यान्यनिन्दितानि रिष्टाचारणर्क्चणानि कमणि, तानि 

निन्वानिन्यकर्मविवेकः सेवितव्यानि कतैन्यानि त्वया; नो कर्तभ्यानीतराणि 
सावद्ानि रिष्टकृतान्यपि'। यान्यस्माकम्‌-भाचा्याणां सुचरितानि राभनच- 
रितान्यास्नायाद्यविरुद्धानि, तान्येव त्वयोपास्यान्यदृष्टाथोन्यतु्ेयानि, नियमेन 
कततन्यानीत्येतत्‌ ; नो इतराणि विपरीतान्याचायेङतान्यपि । 

ये के च-अविकशषेषिंता आचायत्वादिध्मैरस्मदस्मत्तःशरर्यासः प्रास्यतराः-- 

मदापुरषततवप्रकारः ते च ब्राह्मणाः, न स्चत्रियांदयः+ तेषामासमेनाऽऽसनदाना- 
दिना त्वया प्रश्वसितव्यम्‌-प्र्वसनं प्रश्वासः, श्रमापनयः-- तेषां अमस्त्वया 
ऽपनेतव्य इत्यथः; तेषां वाऽऽसने गोष्ठीनिमित्ते समुदिते, तेषु न प्र्वसितव्यं 
प्रश्वासोऽपि न कतैव्यः, केवलं तदुक्तसारघ्राहिणा भवितव्यम्‌ । 





(१) ये के च~अविशेषिताः-संबन्धिनोऽसंबन्धिनो वा ठव । विशेपरिताः-इति पठे रेोकमरसिद्धा 
इत्यथः । (२) अन केवित्‌-ृहदारण्यक्षे दप्तनारकरनराह्मणस्य क्षत्रियमजातरा्रं रति “ स होवाच गार्य 
उप तवा यानि ” ( २.१.१४ ) इत्युपगमामिधानदशचैनात्‌, तथा केकेयं कषत्रियं प्रति प्राचीनहालादीनां षर्ण्णा 
मुनीनां वेश्वानरविद्याखाभायोपगमप्दृत्तिददैनाच्‌ ८ छं. उ. ५.११ ), उत्तमं ब्राह्मणं प्रत्यपि विदयोत्कष॑वतः 
क्षत्रियस्य गुरुत्वमस्ति-इति मन्यन्ते । अन्ये तु--“श्रतिलोमं वै तचद्राह्मणः क्षत्रियमुपेयात्‌ › ब्रह्म मे वक्ष्यतीति! 
व्येव ला ज्ञपयिष्यामि” इति क्षत्रियेणाजातराघ्रणा युरूत्मङ्गी्त्य गायं प्रति विज्ञापनदञ्च॑नत्‌, तथा प्राची. 
-नञ्ालादीनपि कैकेयेन ८“ तान्हानुपनीयेवेतदुवाच ” इल्युपसदनमन्तरेणेव वैश्वानरविदयाभिधानदरछानात्‌ + 
उन्तमेनाभिदितमपि यगुरुलं क्षत्रियादिना नाङ्गीककन्यम्‌-इति मन्यन्ते । आपत्काले (ब्राह्मणस्याब्रह्मणादि- 
चोपयोगः, अदुगमने, शुश्रूषाऽऽसमातिः? इति गौतमः १,७.१२; तथैव आपस्तंवः २.४.२५२. 
“अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते । अनुत््या च शुश्रूषा यावदध्ययनं ुरोः ॥ नाब्राह्मणे युरो शिष्ये 
वासमात्यन्तिकं वसेत्‌। बराह्मणे चाननूचाने काकषन्‌ गतिमनुत्तमाम्‌” ॥ इति मनुस्पर. २, २४१--२, १५४-५ 
एवमादिभिर्निषेधाद्राह्मणस्य कषत्रियं प्रस्युपगतिरयुक्तत्यथः । ^ आचायंस्तूहापोहयहणधारणदचमदमदयानुप्रहा" 
दिसम्पन्नः, रन्धागमः, टष्टदृष्टमेगेष्ठनासक्तः, यक्तसर्वकर्मसाधनः, ब्रह्मवित्‌ , बरह्मणि स्थितः, अभिननवृत्तः, 
दम्मदरपकुहकसाव्यमायामात्सर्यीनृताईैकारममतवादिदोषविव्ितः, केवरूपरानुग्रदभयोजनः, विद्यापयोगी~- 
इति व्याख्यात आचारव॑श्चन्द आचायः उपदेशसादहसरीगचयप्रबन्धे । 

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7 


३४ ` तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ शिक्षाः 


श्रद्धया देयम्‌ । अशद्धयांऽेयम्‌ । श्रिया देयम्‌ । 

हिया देयम्‌ । भिया देयम्‌ । संविदा देयम्‌ । 
अथ यदि ते कमषिचिकित्सा वा एतविचिकिंत्सा वा स्यात्‌ 
(३) | ये तत्र बाह्मणः संगरधिनः। युक्त आयुक्ताः । अट्क्ा 
घर्षफामाः स्युः । यथा तै तत्र॑वतेरन्‌ । तथा तत्र॑ वर्तेथाः । 
अथाभ्याख्यातेषु । ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः । युक्तां आ- 
युक्ताः। लक्षं धमैकामाः स्युः । यथा त तेषु वर्तेरन्‌ । 
तथा तेषु वर्तेथाः । । 


किंच यत्किचिदेयं तच्छृद्धयैव दातव्यम्‌, अधद्धयाऽदेयं न दातव्यम्‌ ; 
दानप्रकारः भरिया विभूत्या देयं दातव्यम्‌ ; हिया रञ्जय च देयम्‌; 
भिया च मयेन, संविदा च संविन्मिज्ञादिकार्यम्‌ । 


मथेवं व्तंमानस्य यदि कदाचित्ते तव श्रोते स्मतं घा कर्मणि, घुत्ते वाऽऽ 
संदिग्धयनैनि्भयोपायः चारलक्षणे विचिकित्सा संशर्यः स्याद्‌ भवेत्‌ , ये तज त- 
स्मन्देशे काठे वा ब्राह्मणाः“ तत्र ' कमौदौ ‹ युक्ता ' इति व्यवहितेन संबन्धः 
कतेन्यः--संमरदिनो विचारक्षमा, युक्ता अभियुक्ताः कमेणि वृत्ते वा, आयुक्ता 
अ-परघयुक्ता, अक्षा अरूक्षा अक्रूरमतयः, धमेकामा अदष्रा्थिनोपकाम- 
हता श््येतत्‌-स्युभेवेयुः, ते यथा (येन प्रकारेण जाह्यणाः) तत्र तस्मिन्कर्मणि 
चुत्ते वा चतेरन्‌ , तथा त्वमपि वतथाः ] 

अथाभ्याख्यातेष्वभ्युक्ता दोषेण संदिह्यमानेन संयोजिता केनचित्‌ , तेषु 


निवाय ल न्ब: च यथोक्तं सवमुपनयेत्‌-धे तत, इत्यादि । 


एवं कतेम्यमधञपदिस्याद्ानकारे सखत्पत्नसंशयनिषटत्यर्थं शिष्टाचारः प्रमाणयितव्य 
इयाद--अथेवमिलयादेना । अ-परप्रयुक्ता इति--स्वतन्तरा श्यथः । अभ्युक्ता अभि- 
त्रस्ता इयथः ॥ 

॥ ( १ ) स्वपिश्चया दीनधनेषु दानं हृष्ट छस्नयेति यावत्‌ । (२ ) राजादिमयेन, शाङ्मीलया वा, 
कपिण्यापवादभेन वा । ( ३ ) विवाहादौ प्रसिद्धो लोकिकसंन्यहारः, संविनमत्रीति चोच्यते । (४) मति- 
विभ्रमात्‌ । 





११ एकादशोऽनुवाकः ] अनुरासनम्‌ ३५ 


एषं आदेशः । एष उपदन; । एषा २५५४ । एतदलुश्नासनम्‌। 
एवमुपासितव्यम्‌ । एवमु चैतदुपास्यम्‌ ( ४ ) ॥ 
स्वाध्यायमवचनाभ्यां न परम॑दितन्यं तानि त्वयोपास्यानि 
स्यात्तेषु वर्तरन्त्पप्त च॑ ॥ 
इति कष्णययुेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि शिक्षावर्ल्यामेकादशोऽलुवाकः ॥ १९ ॥ 


पष भादर विधिः! एष उपदेशाः पुजादिभ्यः पिच्रावीनाम्‌। एषा वेदोपनि- 

उपसंहारः षदवेद्‌रहस्यम्‌, वेदाथ इत्येतत्‌। पतदेवायुश्ासनमीश्वरवच- 
नम्‌, आदेशवाक्यस्य विधेरक्तत्वात्‌ "सर्वेषां वा भरमाणमूतानामनुशासनमेतत्‌। 
यस्मादेवम्‌, तस्मादेवम्‌, यथोक्तं सवमु पासिंतव्यं कतेन्यम्‌। “ एवमु चेतदु- 
पास्यम्‌ः, उपास्यमेव चेतत्‌, नानुपास्यमितिः आद्रार्थं पुनवचनम्‌ ॥ 


(विद्याकमेविवेकः--कमेणा मोक्चपाधनल्मङ्गकुबेताम्‌ › ज्ञानसाघनत्वानङ्गी 
कुवैताम्‌ , समुचचयवादिनां च मतनिरासेनः ज्ञानहेतुत्वसिद्धान्तः ) 


£ क 000 


अत्रैतच्चिन्त्यते विद्याकर्मणो्विवेकाथैम्‌- (१) किं कर्मभ्य पव केवटेभ्यः परं 
कममभ्य उत विद्यायाः श्रेयः १ (२) उत विद्यासव्यपेक्चभ्यः ! (३) आहोस्विद्धि्या- 
परं रव इति चिन्त कमेभ्यां संहताभ्याम्‌ १ (४) विद्याया वा कमौपेक्षायाः१८५) 
उत केवलाया एव विद्यायाः !--इति । 

आओव्यादवाके केवङाया विद्याया निःभेयससाधनत्वखक्तमपि स्छटीकतुं, कमेविधिञपठभ्य 
प्रसङ्गात्‌ पुनर्विचारयितुखपक्रमते--अत्रेतन्िन्त्यत इत्यादिना ! विवेका्थामिति परथक्फ - 
ठत्वज्ञापनाथेमिदयथैः । “भूतं भव्याथोपरिर्देयते " इति न्यायेनाऽऽत्मज्ञनस्यापि कमकरेसं- 





(१)° सत्यं वद-ऽत्यारभ्य तथा तेषु वर्तेथाः--इत्यन्तो योऽयं मन्थसन्दर्भः स एष अदेशः श्रौतो विधिः। 
-"-भददेशास्य समीपवर्तिलास््मातौ विधिरुपदेशः । स्पृतीनां वेदमूकतया तत्सर्मापवार्वितलम्‌ । अप्रयक्चति- 
मूलाघु स्फतिष्वपि “सत्यं वदः इत्यादिवाक्रयाथं एवमेवोपलभ्यते । येयं सत्यं वद-इप्याद्क्तिः सेषा वेदोपनि 
षत्‌-वेदरहस्यं विध्यथवादमन्त्रा्मके वेदे विधिरूपः सारभागः“सायणाचा्यभाष्ये.(२) सत्यादुपासितव्यं 
कतैव्यतया बुद्धौ ध्यातव्यम्‌ । ततश्च यथा व्याख्यातं तथा कुयीदित्येतदुपास्यमित्यनेन रिवक्षितमेत्यथः-इति 
पदद्वयस्य विदोषो दथितस्ते, उ. वातिकयीश्नायाम्‌-१, १०, ८२. (२ ) मष्योपोद्धते । ८४ ) शाबरभाष्ये 
४.१. १८; तुल्य २. १. ४ भूतस्य मन्या्थैतायां दृष्टार्थता । ६. १. २. ^ भूतं द्रव्यं, भव्यं कर्म; भूतस्य च 
भव्याथता न्याय्या * । शाक्ञदीपिकायां “ भूतं च स्वग॑पशादि द्रव्य मन्याय कर्मणे । उपदेश्य न भूताय 
मव्यकमोपदेशनम्‌ ” ॥ ; संक्षेप. १. २९५) ४८२-४. 


३६ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ रिक्षावही 


(१) तत्र केवङेभ्यः केभ्य एव स्यात्‌, समस्तवेदाथंश्चानवतः कमोधिकारात्‌, 
कर्णां मेक्ष- ५“ वेदः कृरस्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना “ शति स्मर. 
साषनता-गक्षः णात्‌ अधिगमञ्च सहोपनिषदर्थनाऽऽत्मक्ञानादिना--“विद्वान्‌ 
यंजते ”,“ विद्धान्‌ याज्ञयंति * इति च विदुष पव कमेण्यधिकारः प्रदृद्यते 
स्वै; “ ज्ञात्वा चानुष्ठानम्‌ ” इति च । ऊत्स्नश्च वेदः कमोथे इति हि मन्यन्ते 
केचित ; कमेभ्यथ्येत्‌ परं भरेयो नावाप्यते, वेदोऽनर्थंकः स्याव्‌। 

न, नित्यत्वान्मोश्चस्यः नित्यो हि मोश्च इष्यते । क्मकायंसय त्वनित्यत्वं पसि- 
नत मोक्ः करमपताषन' द्धं रोके; क्मभ्यश्येर्द्रेयः, अनित्यं स्यात्‌ , तच्चानिष्टम्‌ । 

काम्यग्रतिषिद्धयोरनारम्भात्‌+आर न्धस्य च कम॑ण उपभोगेन श्यात्‌, नित्या- 
जुष्ठानाश्च प्रत्यवायालुत्पन्तेः, क्ाननिरपेश्ष एव मोक्षः- इति चेत्‌, नः शोषकमंसं- 
भवात्‌ › तन्निमित्ता शरीरान्तरोत्पत्तिः प्राोतीति त्युक्तम्‌; कमेरोषस्य च 
नित्यायु्ठानेनाविरोधात्‌ श्चयायुपपत्तिरिति च । यदुक्तम्‌ 'समस्तवेदाथज्ञानवतः 
कमौधिकारात्‌ › इत्यादि- तच्च न, श्चुतन्ञानम्यतिरेकादुपासनस्य । श्चुतज्ञानमा- 
त्रेण हि क्मेण्यधिक्जियते, नोपासनमपेश्चते । उपासनं च श्चुतज्ञानाद्थौन्तरं 
-स्कारतया कर्मेविषिशेषत्वात्‌, श्ुतस्यापि फटस्यार्थेवादमात्रत्वाते, कमेभ्य एव परं 
शरेय इति पू्वेपक्षः । 

सिदान्तमाह--न नित्यत्वादित्यादिना] यर्थप्वध्ययनविविप्रयुक्तः कृत्स्नो वेदाथं एकेन 
विचारपितव्यः, तथाऽप्यध्ययना्धो प्रतिवाक्याध्ययनं प्रतिवाक्याथैविचारं च व्यापारभे- 
वात्‌, तत्प्रयुक्त्याऽभ्युदयकामस्य कमो पयोगिवाकयार्थज्ञानवत्वमात्रेण कर्मण्यपिकारसंभवात्‌, 
ब्रह्मसाक्षास्कारस्य तत्रादपयोगित्वात्‌, न समस्तवेदाथज्ञानवतः कमोधिकारे प्रमाणमस्तीत्याह 
- तच्च नेति। यद्यपि चाध्ययनविषिप्रयुक्तो बेदान्तविचारोऽपि कृतो गुरुकुल एव, तथाऽपि ऋ 


------------------------[----- -~-- "__ 

(१ ) मदस्य. २.१६५ (२ ) ते.सं. २.२. २.१,२ इत्यसक्कत्‌ । तुलय-ज्ञते च वाचनं न ह्यविद्वानि 
हितोऽस्ति--इति जे. स. ३. ८.१८, शाबरभाष्य च । ८ ३ ) † तुलख्य~ण्वं विद्वांसो यजन्ते च याजयन्ति 
च-रे.बर्‌.४.४.२ (४) ¶ तुक्य भ्यदव वियति हि". स्‌. ४,१.१८ ८५ ) प्राभाकराः ( £ ) “तद्य 
येह फर्म जितो लोकः क्षीयते"--( छां. उ, ८.१.६ ) इति न्यायानुगरीतश्चतिवियेषात्‌--इत्यषिकः पाठः का. 
सु.पुस्त.(७) १.३. (८) तुख्य-““वपि कृत्स्वेदाध्ययनविषि्रयुक्तो विचारो वेदार्थमेव विषयीङर्यात्‌ ,तथा 
उम्यनन्यथासिद्धेन सूत्रगतथमंगहणेन वेदाकदेरविषयः संपद्यते; न्‌ चैवमध्ययनविधिवरिरिधः सामान्यरूपस्य 
विः परतिवाक्याध्ययनं प्रतिवाक्यविचारं च व्यापार भेदेन वेदागैकदेशविचारेऽपिं चरितार्थलाव्‌; यथा चक्षुषा 
रूपं पदयेदिति विषेमीलरूपददनमात्रेणापि चरितार्थता तद्त्‌ । अथ तत सर्वरूपदक्चनस्याशक्यलात्संको- 
चस्तहय्राप्यविस्क्तेनानयिकारिणा वेदान्तानां विचारयितुमराक्यल्वादेव सैकोचोऽस्तु । न चैवमध्य॒यनेऽपि 
संकोचप्रसङ्गः । तत्र विरक्तेरधिकारं पतयप्रयोजकल्ात्‌ ›? । वि. प्र. सं. प. १२०; तथा विवरणपृ, १२८. । 
ओमदप्पयदीक्षितानां वादनक्षत्रमाखायां “ अध्ययनविभेश्च ज्ञानफरकातवनिराकरणवादः” द्रष्टव्यः सुधीभिः । 


११ एकादशोऽुवाकः | कयाकर्मविवेकः ३७ 


विधीयते मोक्षफलम्‌ ; अथौन्तरप्रसिद्धिश्च स्यात्‌, “रोतन्यः” इत्युक्त्वा त~ 

द्यतिरेकेण “मन्तभ्यो निदिध्यासितव्यः” इति यत्नान्तरषिधानाव्‌ , मननानेदि- 
क “ . ४ 

ध्यासनयोश्च प्रसिद्धं श्रवणज्ञानादथोन्तरत्वम्‌ । 


समस्तवेदाथज्ञानवतोऽधिकारः,--उपासनासाध्यस्य बह्मसाक्षात्कारस्य परथग्भावादिदयाह- 
श्युतक्षानेति । छतादुश्डुठे विचारिताद्वाक्यात्कमौलषटानोपयोगि यज्जानैम्‌, तावन्मात्रेण कर्म॑ 
201 < +" ` - 


(१) अत्र श्रीकण्ठमाष्ये (१. १.४) कयक्षिते आमद्धगवत्पादैः । श्रीकण्डचा्यां भगवत्पदेभ्यः 
भराचीना इति केचित्‌ ; अप्र तु ते तत्मकालीना इति मन्यन्ते ! अन्धगौरवदोषमनादत्य › भत्यन्ते- 
पयोगित्वात्तद्धाष्यभगोऽत्र मुत“ ननु , जह्मणि वेदवाक्यदेव ज्ञाते तउज्ञानविधिःमयोजनः, तत्मयो- 
जनस्य पूरज्ञानदेव सम्भवादिति चेत्‌ › न । . वक्येन परोक्षसेन श्वाते ब्रह्मणि तत्साक्षात्काराय ज्ञानवि- 

 येरपपततेः । कथं भेदः १-इति चेत्‌ , यच्छब्दजन्यं न तत्साक्षात्कारदेतुः ; कितु उपास्तनारूपं ज्ञानमेव । ` 
तथाच श्रूयते: ध्याला सुनिर्गच्छति भूतयोनिं समस्तपाक्षिं तमसः परस्तात्‌ › ( के. उ. ७) , 
८ ज्ञामनिर्मथनादेव पादौ दहति पण्डितः ` ( कै. उ. ११) इत्यादिषु, ‹ ज्ञत्वा देवं सुच्यते सवे पाडः ` 
(शवे. उ. १. ८.), ‹ ईं तं ज्ञात्वा अग्रता भवन्ति ` ( शे. उ. २. ७. ) इत्यादिषु च 1 तथाहि ‹ ओेततव्यः 
्ुत्िवावयेभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिमिः। ज्ञाता च सततं ध्येय एते दैनदेतवेः ‡ इत्यत्र श्रवणमननसंपक्नजञाना- 
विनाभूतं निदिध्यासनं ब्रह्मणः साक्षात्कारो निमित्तमिति स्मृते । अतः उपासनारूपज्ञानं मोक्षफरं विधीयते । 
“भातमन्येवत्मानं पयेत्‌ कृ. उ. ४.४.२३. )› शशम्युएाकाशमध्ये ध्येयः", (अथवेशिखा..) ^त्नलानिति 
दान्त उपासीत ( रं .उ.२.१४.१. ) (इति प्राचीनयोग्योपास्स्वः ( तै. उ. १.६) इत्यादिषु च । तथा श्रह्म- 
विदाभनोति प्रम्‌ " (तै. उ. २. १ ) इत्यादिषु बह्मस्वरूपोपासनातत्पलखदिकमुपदिदयत्ते । अन्यथा सत्यत्वादि- 
विरिषटन्रह्मणा सह कथ सकलकामावाधिः फलं ताटराब्रह्मसाक्षात्रणं च सिद्धयति । तस्मात्‌ “स्य ज्ञानमनन्तं 
ब्रह्मः (तै. उ. २.१); “आनन्दो ह्यः (ते.ड. २.६.) सत्यात्म प्राणारामं मनञनन्दम्‌ + सान्तिसमदधमम्‌- 
तम्‌” ( तै. उ.१.६.); शतं सत्यं पर रह्म पुरषं कृष्णपिङ्गलम्‌ । उ्यरेतं विरूपाक्षम्‌ ` ( महाना.३.१२.१.) 
इति सत्यज्ञानानन्तरूपं स्वात्मारामयुपश न्तसकरोपद्रवकलद्कं सकलमङ्गलात्मकं परमराक्त्यविनाभूततया दब- 
लरूपलेन श्ष्णपिङ्गरं विरूपाक्ष त्रिोचनै बह्म उपकरमादितात्पथलनिमिरूप्यते । “यों वेद निदितं गुदयायाम्‌” 
(ते. उ. २.१), इति प्राचीनयेग्योपास्" ८ तै.उ. १.६.) इति ज्ञानाविनामूतं तदुपासनं च विधीयते । '्सवी.- 
न्कवामानः (ते. उ. २.१.) इत्यादिषु सकल्कामावापिव्रह्मणा सहोपास्कानामवगम्यते । अते निष्कामनिजध्‌- 
-मोपितो निषिदधकाम्यकर्मरहितो यथाश्चतिस्पतिचोदितकमोनुषठानसम्पत्नचिन्तशुदधिः रमाघनुगृहीतपरमरिवभक्ति- 
भावित एव मुमुचुः श्रतिसारेभ्यः शिवाभिधेयं परं ह्म विदिता ^तसुपातीतः इति ज्ञानो पसतनायिधिरुपपन्नः ” । 
(२) बरु, उ. २.४. ५. (3) “न च वयं श्ानवर्मणोः सत्र समुचयं प्रत्याचक्षे । यत्र प्रमोजयप्रयोजकभावेो 
(निमित्तनेभित्तिकभवो) ज्ञानकर्मणो स्तत्र नास्मपित्रापि सग्येत निवारयितुम्‌"? -यथा चोरधिया खाय गदी 
मतः पलायते, एवं बुदधयादिस्पेणात्मानंगृरदयीलवा कम करोति । तेन त्त्र कर्मपवृत्तिनिमित्तत्वाञ्जानं कमङ्गमि- 
त्यथः । आत्मज्ञानस्य तु कमं प्रृतत प्रयोज्यप्रयोजकमावामावान्न तेन समुच्चयः । शु न चोर इति 
तत्त्वज्ञानं यथा नाङ्गमेवमात्मतत्त्वविज्ञानमकर्व्रह्माहस्मीति ज्ञानं कमंप्रवृत्तौ नाङ्गमित्यर्थः-ने. सि. १,६०-१. 
कर्मानुष्टानक्रारीनं वेदनं तत्कमै फल एत्ातिश्यं जनयति । कर्मसरूपयेदाङ्गविरेषप्रयुककरमाधिकारादिविशेष- 
ज्ञानस्य देहादिव्यतिप्तित्मन्ञानस्य च कम॑विरेषाधिकारिण्यपेक्षितत्ेऽपि न प्रमात्मतत््वज्ञानं तत्रपेश्यते--~ 
अनुपयोगात्‌, अधिकारेरोधाच । 


३८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ रिक्षाबह' 


` €) एवं तर्हिं वियासन्धपेश्षेभ्यः कमेभ्यः स्यान्मोक्चः, विद्यासाहितानां चं 
` अनकर्मणोरकक्गिमा- कर्मणां भवेत्कायौन्तसरम्भसामथ्यैम्‌ 1 यथा स्वतो मरण- 
न समानत च च्वरादिकायौरम्मसामथ्योनामापि निषद्भ्यादीनां न्तरा 
नु भवनभिति रादिसखंयुक्तानां कायोन्तरारस्भसामथ्यम्‌ , णवं विद्यास- 
यश्च हितैः कमैभिर्मोक् आरभ्यते--इति चेत्‌, न, आरभ्यस्याः 
नित्यत्वादित्युक्तो दोषः ! वचनाद्‌ारभ्योऽपि नित्य एवेति चेत्‌, न, ज्ञापकः 
त्वाद्धचनस्य । वचनं नाम यथाभूतस्याथेस्य ज्ञापकं, नाधिद्यमानस्य कव । ब 
हि वचनशतेनापि नित्यमारम्यते, आरज्धं चाऽविनारि भवेत्‌ । 


ण्यपिक्रियते, न ब्रह्मसाश्षात्रारफलखपासनमयेक्षते,- व्यतिरेकभावादियथः। अध्ययनविधि- 
व्यापायेपरमेऽवयं तथाभूतं जद्मोपासनमेव नास्ति, मानाभावा्--इति न वक्तव्यमित्याह- 
उपासनं चेति ! एतच्च कममीमांसान्यायीङ्खीकारमत्रेणोक्तम्‌ । वस्तुतश्च श्रोतव्यंविधि- 
प्रयुक्त एवोपनिषद्विचारारम्मो भिक्नाधिकारः । कमेकाण्डविचारोऽप्युत्तरविधिप्रथक्त रुवेति 
प्रकटार्थे प्रतिष्ठितम्‌ । 

केवर कमे मोक्षसाधनम्‌--इति पक्षं निरस्य, विदासखचितं मोक्षसाथनम--इति पक्षान्त- 
रमाश्चङ्कय निषेषति--पवं तर्हीत्यादिना । “ न च पुनरवितेते ” इति वचनादारम्योऽपि- 
मोक्षो नित्यः-इति न शक्यं वक्तम्‌ । प्रसिदधपदाथयोग्यत्वखपादाय वचनस्य सं सगेज्ञापकः- 
त्वाघ्‌ । न चाऽऽरभ्यस्य नित्यत्वे योग्यत्वं प्रसिदम्‌, अन्यथा वचनस्य कारकत्वप्रसङ्गात्‌- 
« अन्धो मणिमविन्दरव “ इत्यादिष्वपि योग्यताकल्पनप्रसङ्गादित्याह--न, ज्ञापकत्वादि- 
त्यादिना | । 

(१) “यदेवे विद्या करोति”-छां. उ. १. १. १२० इति वाक्याञ्जञानस्य नित्यनैमित्तिकादिकिमाङ्गत्म्‌ । 
“विविदिषन्ति यज्ञेन" बु. उ. ४-४-२२ इति वक्येन कमणो ज्ञानाङ्गत्वम्‌ । ^“ विद्यां चाविचां च यस्दवदोभयं 
सष्ट ` -ई. उ, ११. इति वाच्येन ज्ञानकर्मणोः समग्रधानता ! ( २ ) “ आतमयाथाल्यानवबोधादेव हितपरे्ता 
दुःखजिदासा च भ्वति; न पुनः सालमेव-यूयं कतोरो मोक्तारश्च, युष्माक प्राप्यं परिदाय चस्ति, तस्माद्च- 
ध्माभिद्वितं पर्सित्त्यमहितं च मिहातितन्य, यूयं वणां्रमवयोवस्थापिशेषवन्तः-इति कर्तवादिकमुत्पादयति 
बोधयति वा । विंतु स्यमेवाध्यागोपित्क्त्वभेोक्तृलवर्णा्रमवयोवस्थाकिशेषवतां पुंसां स्वत्त एव प्रप्सितस्व्‌ 
हितस्य जिहापितस्य चाहितस्य प्राप्ये प्रिदाराय च साधनं जिज्ञासमानानाभिदं साध्यमिदं च साधनमिति- 
साध्यसाधनसंवन्धमावरं यथावस्थितमरकैवत्‌ प्रकारयति श्षाखम्‌, न पुनः परवृततिनिवृत्तिजननेऽपि शाखस्य व्या- 
पारः । तत्र तूदासीनमित्यः “नै. सि. चन्द्रिका. १. २९.; घ्र. स्‌ . १. १.२. “८कर्तमवर्तुमन्यथा वा 
कतु शक्यं लोकं वेदिकं च करम इत्यादि म्य र्व्यम्‌ ; तथा उप. साहक्षीगचपरबन्धे ४२ वाक्यम्‌ । 
८२ ) अनुष्ठेयतया मृत्ह्मो०-पाठः । (४) अध्ययनविभेरथै्ञानपर्यवसायिलात्‌-इति न्यायः । (५) ब्र. 
ख, २.१-४ भाव्यं समालोचनीयम्‌ ; तुल्य च संक्षेप, १३१२, भामती १.१.२ तथाहि~'भाश्रमाविश्ितित्य- 
दि. ( ९ ) छं. उ. ८,१५.१ (७) ते. आ. १,११-५. 


११ एकादशोऽनुवाकः |] विद्याकमेविकेकः ३९ 


( ३ ) एतेन विद्याकर्मणोः संहतयोमोक्षारम्भकत्वं भ्र्युक्तम्‌ । विद्याकमेणी 

समसमु्यनिरसः मोक्षपरतिबन्धहेतुनिवतैके-इति चेत्‌, न, कमेण फलान्तर- 
द्श्षनात्‌। उत्पत्तिसंस्कारविकाराक्षयो टि फं कमणो दश्यते, उत्टाद्ि ,खबि- 
परीतश्च मोक्चः। 

गतिश्चतेराप्य इति चेव्‌-“ सुयेद्धारेण,” “ तयोष्व॑मांयन्‌ » इत्येवमादिग- 
तिश्वुतिभ्यः प्राप्यो मोक्षः, इति चत्‌.- । 

न, खवंगतत्वात्‌, गन्तुभिश्चानन्यत्वात्‌, आकाशादिकारणत्वात्सवंगतं जह; 
बरह्माव्यतिरिक्ताश्च सवे विज्ञानात्मनः अतो नाऽऽप्यो मोक्षः! गन्तुरन्यद्धिभिन्न- 
देशं च भवति गन्तव्यम्‌। न हि यने बाव्यतिरिक्तं यत्‌, तत्तेनैव गम्यते; तद्नन्य- 
त्वपासिद्धिश्च, “ तत्खष्टं तदेवादुषाविश्चत्‌ ^ क्षिजज्ञं चापि मां विद्धि” इत्ये 
वमादिश्चुतिस्सृतिशतेभ्यः। 

गत्येभ्वयोदिश्चुतिषिरोध इति चेत्‌-अथापि स्यात्‌, यद्यप्राप्यो मोक्षः, तदा 
गतिश्चुतीनाम्‌, “ स एेकधा' “स यदि पितृरोककामो भवति", “खीर्भिंवो या- 
नैव" इत्यादिश्वुतीनां च कोपः स्यादेति चेत्‌- 

न्‌, कायेबरह्माविषयत्वात्तासाम्‌ । कायं हि बरह्माणि खयाद्यः स्युः, न कारणे- 
“एकमेरवाद्धितीयम्‌^“यत्र नान्यत्पदयति” "तत्केन कं पदयेत्‌" इत्यादिश्ुतिभ्यः। 
ति। अनित्यत्वादिदोषप्रसङ्गेनेत्यथः । मोश्षोति । मोक्षस्य प्रतिबन्धदेतुरविदाऽधमोदिः, तन्नि- 
वतेके विद्याकर्मणी, न स्वरूपोत्पादके; ततः स्वसूपावस्थानस्य नित्यत्वम्‌, प्रध्वंसस्य च 
कृतकस्यापि नित्यत्वं प्रसिदधमित्यथः । “ भिद्यते हदथंयन्थिः ” इयाटिश्वतेः केवठविद्यासा- 
ध्येवाविद्यानिटत्तिः, न तत विवायाः सहकायेपेश्षा; कमेफठं त्वन्यदेव प्रसिद्धमित्याइ--न, 
कमण इति ] ° उत्पत्तिः ' पुरोडाशादेः, ° संस्कारो ' व्रीह्यादेः, ° विकारः ' सोमस्य, ° ओति? 
वेदस्य--कमेफाठं प्रसिद्धम्‌ । आत्मस्वरूपस्य तु मोक्षस्यानादित्वात््‌, अनापेयातिश्यत्वात्‌, 
अविकार्यत्वात्‌, नित्याप्तत्वा्च कमेफलाद्वेपरीदयमित्य्थः। गतिश्वुतेरिति 1 अर्चिरादिगति- 
अवणात्‌, जद्माण्डाद्हिःस्थितबरहमप्रापिमोक्षः, ततो नित्याप्तत्वमसिद्धमित्यथेः । गत्या प्रातिः 
विः संयोगरुक्षणा तादात्म्यडक्षणा वा  नोभयथाऽपीत्याह-न, सर्वगतत्वादिति। 

गत्यादिभतेस्तात्पर्यं शङ्पूषैकं दशेयति--गत्येश्वर्यत्यादिना । सखचयमभ्युपगस्य 

( १ ) अ, उ. २-११-ूर्वदारेण ते विरजाः प्रयान्ति । (२ ) छा. उ. ८. ९. ६, कट. उ. २.३. १९ 
(३) ते. उ. २.६. (४) भ. गी. १.२. (५) छं. उ. ७-२६-२ (६) जं. उ. ८ २-१८७) छा. 


इ. ८-१२-३ (८) छा. उ. ९-२-१ (९) छं. उ. ७-२४-१ (१०) ब. उ. ४-१५-१५. ( ११ ) खं. उ. 
२-८. ( १२ ) वल्य-संकषेप्रा. १.३०६. (१२) शिरपूर्व॑स्य--पः । ( १४) गला-पाठः। 


४० तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ शि्षाबही 


विरोधाच्च विद्याकर्मणोः समुच्चयायुपपात्तः भविटीनकन्नीदिकारकविदेषत- 
विदयाक्मससुचया- स्वविषया {है विद्या तद्धिपरीतकारकसाध्येन कमणा विरू 
नुपपतिः ` ध्यते । न ह्येकं वस्तु परमार्थतः कांदिविरेषवत्‌, तच्छ्रभ्ं 
च,--इत्युभयथा दरं शक्यते । अवद्यं ह्यन्यतरन्मिथ्या स्यात्‌; अन्यतरस्य 
च मिष्यात्वपसङ्गे, युक्तं थत्स्वाभाविकाज्ञानविषयस्य द्वैतस्य मिथ्यात्वम्‌ ,- 
नयघ्रं हि द्वैतमिव भवति", “भृत्योः स सत्युमाभोति" “अथ यं्ान्यत्पद््यति'*- 
तदल्पम्‌" “अन्यो.ऽसार्वन्यो ऽहमस्मि ” “ उद्रमन्तरं कुरुते, भथ तस्य भयं 
भवति, "--इत्यादिश्वुतिष्ातेभ्यः । सत्यत्वं चकत्वस्य “ कधेवालुदै्व्यम्‌ „ 
“एकमेवाद्वितीयम्‌”, “्हेवेदं सर्वम्‌ ^, “भलवेदं सर्वम्‌” शइत्यादिश्चतिभ्यः। 
न च संप्रदानादिकारकमेदादरौने कमोपपद्यते; अन्यत्वदश्येनापवादश्च विध्या 
षये सदखदाः श्रयते; अतो विरोधो विद्याकमणोः; अतश्च समुकशलुरल्िः। 
तत्र--यदुक्तम्‌, संहताभ्यां विद्याकर्मभ्यां मोश्च इति, अनुपपन्नं तत्‌| 

विदितत्वात्कमंणाम्‌, श्चुतिविरोध इति चेत्‌--यद्युपमृद्य क््रादिकारक- 
विरोषमात्मेकत्वविज्ञानं विधीयते, सपोदिभ्ान्तिविन्ञानोपमरदंकरण्ज्वादिविषय- 
विज्ञानवत्‌, पाकतः कर्मविधिश्चुतीनां निर्विषयत्वाद्विसेधः, विहितानि च कमोणि 
स च विरोधो न युक्तः-पमाणत्वाच्छरृतीनामिति चेत्‌- | 

न, पुरुषाथापदेशरापरत्वाच्छतीनाम्‌ । विद्योपदे शापस तावच्छृति, संसाराः 
तुरूषो मोक्षयितव्य इति संसारहेोरविदाया विचयया निचृत्तिः कतैन्या- 
इति विद्यापकाडहकत्वेन प्रत्ता, इति न विरोधः । 





कमकायं किचिन्मोक्षे न संभवतीत्युक्तम्‌, सोऽपि न संभवतीत्याह--विरोधाच्वेत्यादिना । 
संग्रहवाक्यं विरटृणोति--विद्योपदेशापया तावदेत्यादिना । 
यदि कंवोदिकारकेभेदस्य सत्यत्वांशमपवाध्य अशचज्ञानखपदिदयते, तदा मिथ्याथतवात्कम- 
विधीनामप्रामाप्ंस्यादित्याह-- विहितत्वादिति । शङ बिषणोति-यदीत्यादिना । 
अध्ययनविधिगृहीतानां भतीनां पुरषार्थोपदशेकत्वेन प्रामाण्यं वक्तव्यम्‌, न वु भेदसत्य- 
त्वेन । ततः प्रसिद्धिसिदधं॑कारकादिभेदमथक्रियासम्थमादाय प्रडत्तानां प्रामाण्यं न विर 
ध्यत इत्याह--न, पुरुषार्थेति । 
( १.) च. उ. ४-१५.१५. (२) कठ. उ. २-१० (३) छां. उ. ७-२४-१ (४) ब. उ. १-४-१० 


(५) ते. उ. २-७ (९) बरु. उ. ४-४-२० (७) छ. उ. ६-२-१ (८) न. उ. ता. ७ (९) छ. 
उ. ७-२५-२. । । 


११ एकादशोऽनुवाकः ] विद्याकर्मविवेकः ४१ 


एवमपि कन्नीदिकारकखद्भावप्रतिपादनपरं रासं विरूभ्यत पवेति चेत्- 

न, यथाप्राप्तमेव कारकारसितत्वमुपादाय, उपात्तदुरितश्चयाथं कमणि विदः 
-धच्छाखं मुमुश्चुणा, फलकाथिनां च फलसाधनं, न कारकास्तित्वे व्याप्रियते । 
उपचितदुरितप्रतिबन्धस्य हि विद्योत्प्तिर्नावकरपते ! तत्क्षये च विच्योत्पत्निः 
स्यात्‌, ततश्चाविद्यानिडइृत्तिः, तत आत्यन्तिकः संसारोपरमः। 

अपि चानात्मद्िनौ ह्यानात्मविषयः कामः! कामयमानश्च करोति कमोणि। 
तत्फलोपभोगाय दरारीरादयुपादानलक्षणः संसारः ! तद्यतिरेकेणाऽऽत्मेकस्व- 
द्दिनो विषयाभावात्कामानुत्पत्तिः, आत्मनि चानन्यत्वात्कामानुत्पन्तौ स्वा- 
त्मन्यवस्थानं मोश्चः--इत्यतोऽपि विद्याकमेणोर्विरोधः। 

(४) विरोधादेव च विद्या भोक्षं प्रति न कमीण्यपेक्षते । स्वात्मरखामे तु 
जानं गरषानं" कर्म यण- पुवौपचितरधतिबन्धापनयद्धारण विदयाहेतुत्वं प्रतिपद्यन्ते 
मूतभियेतत्पक्षनिरासः कमाणि भित्यानि,--इत्यत एवास्मिन्प्रकरण उपन्यस्तानि 
कमोणीत्यवोचाम । पवं चावियोधः कमेविधिश्ुतीनाम्‌ । 

“८ ज्ञानादेव तु केव- ८ ५ ) अतः केवखाया एव विद्यायाः परं श्रेय इति सिद्धम्‌! 
ल्यम्‌?-इति सिदरान्तः 

पवं तद्यीश्चमान्तययपपत्तिः; कमेनिमित्तत्वाद्वियोत्पत्तः, गादैस्थ्ये च विहि- 
तानि कमाणि--इ््येकाश्चम्यमेव, अतश्च यावज्ञीवादिशरुतयोऽसकूरुतराः स्युः। 

न, क्मानिकत्वात्‌- न दाश्चिदोजादीन्येव कमणि । बह्यचयेम्‌, तपः, सत्यवदनम्‌, 
सवौण्येवाश्रमक्मीणि दामः, दमः, अदहिसा--श्त्येवमादीन्यपि कमोणीतराश्चरमपर- 
विचोवत्तावेक्षितानि सिद्धानि विदोत्पत्तो साधकतमान्यसंकीणेत्वाद्धियन्ते, 
ध्यानधारणादिछक्षणानि चः वक्ष्यति च-“ तपसा ब्रह्य विजिज्ञासस्व ” इामे। 


(6 


पूर्दं सत्यमिथ्याविषयत्वेन विदाकर्मेणोर्विरोधमादाय सखच्वयो निरस्तः, इदानीं काम्य- 
कामिविषयत्वेन विरोधमाह-अपि चेत्यादिना । 

समसञ्चचयं निरस्य युणप्रधानभविनापि सख्यं निरस्यति- विरोधादेव चेति । 
निया चेतराणि स्वफडे नापेक्षते विर्दत्वाप्‌, तरिदण्डीधमं इवठगमन, कथं तिं विवासं 
निधाने कमणां पाठः {इयत आह--स्वात्मलामे त्विति। 

कमणां विवासापनत्वं श्चत्वा गाहस्थ्यमेवेकमदेयम--इति प्रयवतिषटन्ते कमेनडाः-- 
एवं तर्दति श्वतिस्णतिष्वाशमान्तराणामपि विहितत्वाधिशेषात्‌, तदीयकमे कमे- 
-लाधिरोषाब । ग्राम्यधमैरागिणमितैतचोयमित्याह-न, कमानेकत्वादिति । असंकीणे- 

(१२) ते. उ. २.२. 


४२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ | शिक्षावही 


जन्मान्तरङृतकमेभ्यश्च प्रागपि गा्हस्थ्यादिद्योत्पत्तिसेमवात्‌, कमौर्थत्वाच्च 
गाहैस्थ्यग्रतिपत्ते, कर्मसाध्यायां च विद्यायां सत्याम्‌, गाहैरथ्यप्रतिषत्तिरनि- 
कैव । छोकाथत्वाञ्च पु्रादीनाम्‌ , पुत्रादिसाष्येभ्यश्च-अयं लोकः, पितृखोकः, 
देवटोक इव्येतेभ्यः- न्या तकांमस्य, नित्यसिद्धात्मरोकदर्चिनः कमभि 
परयोजनमपदयतः, कथं प्रडत्तिरुपपद्यते ? प्रतिपन्नगाहस्थ्यस्यापि विद्योत्पन्तो 
विदयापारिपाकादिस्कतस्य, कमेखु प्रयोजनमपद्यतः, कमेभ्यो निच्त्तिरेव स्यात्‌- 
^“ प्रनजिष्यन्वां अरे ऽहमस्मात्स्थानादस्मि “ इत्येवमादिश्चुतिखिङ्दशेनात्‌। 

कम परति श्चुतेयैत्नाधिक्यदशेनादयुक्तम्‌--इति चेत्‌-अच्निहोतरादिकमं प्रति 
चुतेरधिको यत्नः, महांश्च कमेण्यायासः, अनेकसाधनसाध्यत्वाद िहोत्रादीनाम्‌, 
तपोब्रह्मचयीदीनां चेतराश्रमकमेणां गाहैरथ्येऽपि समानत्वात्‌, अल्पसाधना- 
वेदष्टदप्ण न युक्तस्तुल्यवदिकत्प आश्रमिभिस्तस्य, इति चेत्‌-न, जन्मा 
न्तरङृताुग्रहात्‌ 1 यदुक्तं * कमणि श्चुतेरधिको यज्ञः ` इत्यादि, नासौ दोषः । 
यतो जन्मान्तरकृतमप्यञ्चिहोतरादिलक्षणं कमे, ब्रह्मययोदिलक्चषणं च, अनुग्राहक 
मवति विद्योत्ति प्रति, येन जन्मनैव विरक्ता द्यन्ते केचित्‌, केचित्तु कर्मसु 
पदृत्ता अविरक्ता विद्याविद्धेषिणः, तस्माज्ञन्मान्तरक्ृतसंस्कारेभ्यो विरक्ताना- 
माश्नमान्तर प्रतिपत्तिरेवेष्यते । 

कमंफट्वाहुस्याचच--पुरस्वगेन्रह्मवचैसादिटक्षणस्य कर्मफङस्यासंख्येय- 
त्वात्‌, तत्प्रति च पुरूषार्णां कामबाहुल्यात्‌, तदथः शवुतेरधिको यत्नः क्मैसूपप- 
दयतेः आरिषां बाहुल्यदद्येनात्‌-इदं मे स्यादि मे स्यादिति; उपायत्वा्च- 
उपायभूतानि हि कमणि विद्यां प्रतीत्यवोचाम ! उपाये चाधिको यत्नः कतै- 
व्यो नोपेये । 

© $ ई [५ ~ क ४ 

कमनिमित्तत्वाद्धियाया यत्नान्तरानथक्यमिति चेत्‌-कमेभ्य पव पूर्वोप- 
त्वादिते । दिंसाथमिभितत्वादियथः । इतश्च कमणो विद्यासाथनत्वेऽपि न गारंस्थ्यमाव- 
द्यकम्‌, इत्याइ-जन्मान्तरेति । कामिनां गारैस्थ्यस्याचयत्वेऽपि, न सवैरदयत्वम्‌,. 
इत्यत्र हैत्वन्तरमाह--रोकाथत्वाचेत्यादिना । 

गाहस्थ्यस्यानावद्य कत्वेन वेकल्पिकमवष्टानखक्तम, तत्रातुल्यवठत्वेन विकल्पमाक्षिपति--. 
कम भति श्रुतेरिति) “ न जन्मान्तरङ़तादयहात्‌ "इति परिदारभाष्यं विणोति--यदु- 
्मियादिना | कमेणि यलाथिक्यस्यान्यथालिद्धत्वाद्रिकल्पविधातकत्वं न संभवतीयरथः । 

इदानीं शृदस्थाश्रमकमणां बहिरङ्त्वम्‌ , संन्यासाश्मकमंणां त्वन्तरङ्घाधिद्यासाधनत्वम्‌ , 


(२.बृ*उ. १.५. १६. (२) बृ.उ. ४.५. >. 


१२ द्वादरोऽतुबाकः † विद्याकमेविकेकः ३ 


अथ रिक्षावल्ल्यां दादशरोऽववाकः । 
( शान्ति--उपकारपरामशेमन्बः ) 

शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वयेमा । श्रं न इन्द्रो बहस्पतिः । 

शं नो विष्णरसक्रमः । नरो बरह्मणे । नम॑स्ते वायो । त्मेव भर्यघं 

ब्रह्मासि । त्वामर प्रत्यकं ब्रह्मावादिषम्‌ । ऋतम॑वादिषम्‌ । सत्यम 
वादिषम्‌ । तन्मामाीत्‌ । तदक्तारमावीद्‌ । आवीन्माम्‌ । आवी 

्क्तार्॑‌ । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ( १) 
चितदुरितप्रतिबन्धश्षयादेव विदयोत्पद्यते चेत्‌-कमेभ्यः प्रथगुपनिषच्छ्वणादिः 
यत्नोऽनथक इति चेत्‌- 

न, नियमाभावात्‌; नहि प्रतिबन्धक्षयादेव विचोत्पद्ते, न त्वीश्वरप्रसादतपो- 
घ्याना्युष्ठानात्‌--इति नियमोऽस्ति ;-अर्िसाब्रह्मचयोदीनां च विं भ्तयु- 
प्कारकत्वात्‌, साक्षादेव च कारणत्वाच्छरवणमनननिदि ध्यासनानाम्‌ । अतः 
लिद्धान्याश्चमान्तराणि । स्वेषां चाधिकारो विद्यायाम्‌ , परं च धेयः केवलाया 
विद्याया एवेति सिद्धम्‌#। 

इति श्रीमत्परमहंसपरिवाजकाचायेगोविन्दभगवल्यूज्यपादशिष्यभीमच्छंकरभगवतः 
छतो तेत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावद्टीमाष्ये एकादशोऽ्वाकः ॥ ११ ॥ 


^ शं नो मित्रः * इत्याद्यतीतविदाप्राप्युषसगेप्ररामनाथौ . शान्तिः पठिता । 
शान्ति इदानीं तु वक्ष्यमाणब्रह्मविदयाप्राप्त्युपसर्गोपद्ामनाथौ शान्तिः 


इति विशेषं दशयित चोवञद्वावयति-कमेनिमित्तत्वादित्यादिना ॥ 
इति श्रीमत्परमहंसप्रि्रानकाचार्यशीमच्छुद्।नन्दपूज्यपादरिष्यानन्दन्ञान विरचिते तेप्िरीयोपनिषच्छं- 
करमाष्यरिप्यणे दिक्षावल्ल्यामेकादोऽलुपाकः ॥ ११॥ 


टां नो भिज्ञ इति । तद्परं ब्रह्म मामपरविद्या्थिनमावीदरक्षदिखरथः। 
शान्तिह्वयस्यापोनसक्त्यमाह- शां नो मित्र इति । इदानीं पराविवयार्थिनमप्यवत, साधा- 


04 


# विचाफले मोक्षे कर्मनेरपेश्षयम्‌ , विदायाः स्वोत्पत्तौ कमौपेक्षा, विष्ितुभिरेवाभमसिद्धिः » अनाश्र- 
भिकर्म॑णामपि विदयदितुखं च र. सु. २.४.२५,२६, २२ २६-इत्यत्र चिन्तितानि । ‹ बारप्रियेण मृदुवाद- 
कथापयेन ` नयोक्त्या चास्याथैजातरय प्रसाधनं शंकरदिग्विजये भीमदाचायमण्डनमिश्रसंवादाख्ये समै 
द्रष्टव्यं रसिकैः । 


४४ तेत्तिरीयोपनिषत्‌ [ शिक्षाव्ी 


( निरणविद्याविन्रसन्तः ) 
ची न्द तेजस्विना 
सह नाववतु । यह नो' भुनक्तु । सह वीयं करवाव । तेजखिना- 
यथीतमस्तु मा विंद्िषव । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तः । 
सत्यम॑वादिषं पश्च च ॥ 
६. यश्ढन्द॑सां ¶ यभ्योपित्यतं [क . श भ, 
धं नः पार सह नो यद्न्द॑स भूः स यः पथिन्योमि्यृतं चाद ेदमनू- 
च्य शं नो दराद्ौ ॥ शं नों मह इत्यौदित्यो नो तराणि जयो -वि\शंतिः॥ 
॥ इति कष्णयञर्वेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि द्वादयोऽतुवाकः ॥ १२ ॥ 
शिष्षाव्ही समाप्ता ॥ 
पठ्यते-- शं नो मिः ` इति, ' सह , नावबलु ' इतिच । शंनो मिच्रःः 
इत्यादि पूवेवत्स्पष्टम्‌ । सह नाववतु-नो शिष्याचायो सह एव अवतु रश्चतु । 
(स्‌ # 4९ वे्यादिनि निन्त सामर्थ्य 4 
सह्‌ नो अनक्तु भोजयतु । सह वीयं 8ि सामथ्यै करवावहे 
नि्वैतेयावहे । तेजस्विनौ तेजस्विनोरावयोरधीतं स्वधीतं अस्तु-अ्थै- 
ज्ञानयोम्यमस्त्वित्यथः ! यद्धा नावावयोरधीतं तेजसू्योजोवदस््वित्य्थः। मा 
विद्धिषावहे विद्याग्रहणनिमित्तं रिष्यस्य, आचायस्य वा, प्रमादङृतादन्यायादधि- 
देषः मासः, तच्छमनायेयमारीः ^ मा विद्विषावहै ' इति-मेवेतरेतर विद्वेषमाप- 
चावे ।  रान्तिः "--इति तरिवैचनमुक्ताथेम्‌। वक्यमाणविदयाविघ्रप्ररामनार्थैयं 
शाम्तिः--अविघ्नेन स्वात्मविचयाप्रािराशास्यते, तन्मुखं हि परं श्रेय इति ॥ 
इति शरीमत्परमहंसपरिवाजकाचायंगोविन्दभगवत्पूञ्यपादशिष्यश्रीमच्छैकरभगवतः 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषच्छिक्षावहीमाष्ये द्वादशोऽडवाकः ॥ १२ ॥ 


रण्येन मया पूं प्राथितत्वादित्यथः । असाधारण्येन परविवयोपसगेशान्त्यथेमाह-- सह ना- 
विति } नावावयोस्तेजस्विनोरधीतं तेजस्व्यस्त्विति योजना। 
इति श्रीमत्परमहेसपरि्राजकाचारयरीमच्छुद्वानन्दपून्यपादशिष्यानन्दज्ञानवरिरचिते वै्तरीयोष- 
निषच्छांकरभाष्यरिप्पणे रिक्षावल्चयां द्राददोऽनुवाकः ॥ १२ ॥ 


~~~ ----~--~--~-----~--~--~- ~ ~ 


(१) अत्र रिक्षावट्कयवसान इयं शान्तिद्वययोजना वातिकतद्रकामिप्रायेण कृता । एवमेव माभ्यपाठः संग- 
च्छते, नान्यथा । (२ ) इदं शमिल्यारभ्य दवादशेलन्तं वल्लीगतानुवाक्नानामाप्रतीकदर्धनेनानुवाकगणनम्‌ । 
८३) इदमनुवाकगत्वाक्यशतकराद्भरतीकम्रददोनेन वाक्यगणनम्‌ । तुख्य-यु. ७ रिप्पण्यौ १,२. (४) ज्ञानं. 
योग्यस्तित्यर्थः-इति पठन्तम्‌ । यदवा नावावयेोरथीतं तेजस्व्योजोवदस्तितयरथः--इति पाठः केषुचिःपुस्तकेषु 
नोपलभ्यते) ( ५) ‹ तेजस्विनः “-धोजना' पदयरदितोऽपि पाठ दस्यते इुत्रचिद्‌ । (२ )-°न्दाभिन्य 
क्तरूपाऽवि०--इति पठः । # तैक्तिीयारण्यककरमेण के 
{ < तेत्तिरायारण्यकक्रमेण सप्तमग्रपाठकेस्य समाधिरर । 


अथ ब्रह्म-आनन्द्‌-वहीश 
( ब्रह्मविदाप्रकाश्ः ) 
प्रथमोऽनुवाकः 


( जह्मसूतरम्‌ ) 
ॐ ब्रह्मविदाप्रोति परम्‌ । 


संहितादिविषयाणि, कमेभिरविरुद्धानि, उपासनान्युक्तानि ; अनन्तरं चान्तः 
बरह्मविवा विषयः सोपाधिकात्मदहेनमुक्तं प्याहतिद्धारेण स्वाराज्यफल्म्‌ 1 न 
चेतावता.ऽद्योषतः संसारवबीजस्योपमर्दनमस्ति, इत्यतो ऽशेषोपद्रवबीजस्याज्ञा- 
नस्व निचरत्यथैम्‌--विधूतसवांपाधिविष्ेषत्मदशेनाथम्‌--इदमारभ्यते ^ बह्म 
विदासोति परम्‌ * इत्यादि । 

पयोजनं चास्या ब्रह्मविद्याया अवियानिवत्िः, ततश्याद्यन्तिकः संक्षाराभावः। 
अग्रानिवत्तिः वक्ष्यति च--“विद्धन्न बिभेति कुतश्चन इति ; संसारनि्ित्ते 
पयोजनम्‌ च सति, ' अमयं प्रतिष्ठां चिन्दते ` इत्यनुपपन्नम्‌; ““ कृताकृते 
पुण्यपापे न तपतः ” इति च । अतोऽवगम्यते-उ तधि सयीतमब्रह्मवि 

टे्तादवादपवैकमानन्दवह्दधास्तात्पयेमाह--संहितादीत्यादिना । नह यथा पूर्वं 
“ आप्नोति स्वार्यज्यम्‌ ” इत्यपरविदाफालखक्तं संसारगोचरमेव, तथा परविवाफलमपि 
 सोऽइहते सवोन्कामोन्‌ “ इति सवविषयसाध्यानानन्दान्संसारगोचरानेव दशेयिभ्यति,. 
कथमात्यन्तिकः संसाराभावः ? इत्यत आह-- प्रयोजनं चास्या इति ! सवेकामरब्देन 


% ^ सेयं तत्तिरीयोपनिषनिविधा-सांहिती, वारुणी, याक्निकी चेति । ततर थम-्रपार्के संहिता- 
ध्यायस्येक्तवात्तदरूपोपनिषत्‌ सादिती; दितीयतृतीययोः प्रपाठक्रयोयां ह्मविचाऽभिदिता, तस्याः संप्रदायप्र- 
वरतैको वरुणः, तरमात्तदु भयरूपोपनिषद्वारणी। चतुर्थप्रपाठके यशञोपयुक्ता अपि मन्त्रास्तत्र ततरान्नाताः, भतस्त- 
दुपोपनिषदा्ञिकी ( मदानारायणोपनिषत्‌ ) । तासां ति्रणां मध्ये वारणी सल्याः--तस्यां परमपुरुषाथस्य 
ब्रह्मभापिरक्षणस्य साक्षुदेव साधनमूताया ब्रह्मविद्यायाः प्रतिपादित्रलात्‌ ” । “या तु देशविशेषे श्रह्मवरिव्‌-- 
इत्यारभ्य नवानुवाका इति प्रसिडिः, सा तध्यापकेः पाठसौकयाय परिकस्पिता, न त्वथनुसारिणी । ते दिं 
(तदप्येष. शोको भवति'~इत्यस्याः प्रतिज्ञायाः शछोकपाऽस्य च मध्ये तं तमनुवाकं समापयन्ति । न चैतयुक्तम्‌- 
कस्यचिदप्यर्थस्य पर्यवक्तानाभावात्‌ । तरमादितरदेगताध्यापक प्रसिद्धया कत्ल्ोऽप्ययमेक एवानुवाकः। "येषां 
नवानुवाककर्पना, तेषामप्येकवहीतप्रसिदिरास्ि, ‹ ब्रह्मव्टी "इत्येवं तेर््याहृततात्‌ । मगवद्धिभोष्यकारे 
रपि.आनन्दव्टीः व्याहृतम्‌ । अतो बहुस्कन्धयुक्तवहीवद्वहुविधावान्तरपएमेदयुक्तोऽप्येक एवायमनु 
वाकः--इति भरीसायणाचाय भाष्ये 

(१) तै. उ. २. ९८२) तै. उ. २.७ ३ ) तै. उ. २. ९८४) ए. २१. (५) ते.उ.२.१ 


४९ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ब्रह्म-भानन्द्-बही 


धय ८८८ न्तिकः संसायभाव इति । स्वयमेव च प्योजनमाह--ब्रह्मविद्‌ा- 
ओति परम्‌ इति--भआद्‌ावेव संबन्धपरयोजनक्षापनाथेम्‌ । निहो तयो संबन्ध- 
प्रयोजनयोः , विद्याभ्रवणग्रहणधारणाभ्यासा्थं प्रबतेते । श्रवणादिपुवेर्क हि 
विद्याफलम्‌, “ ्रोतंम्यः, मन्तव्यः, “इत्यादिशचुत्यन्तरेभ्यः । ब्रह्मविद“ बह ` 
इति वक्ष्यमाणटक्षणम्‌, बृद्धतमत्वाट्ह्य, तद्वेत्ति विजानातीति ` बह्मविद्‌-- आ 
रोति भ्राक्नोति परर निरतिदायम्‌ ; तदेव बह्म परम्‌-न ह्यन्यस्य विज्ञानाद्न्यस्य 
प्रातिः, स्पष्टं च श्ुत्यन्तरं ब्रह्मपा्िमेव ब्रह्मविदो द्दीयति “सं यो ह वै तत्परमं 
ऋय द्‌ अश्वेव भवति » शत्यादि । . 

नु सवगतं सवैस्याऽऽत्ममूतं बह्म वक्ष्यति, अतो नाऽऽप्यम्‌-आपिश्चा- 
न्स्यान्येन, परिच्छिन्नस्य च परिच्छिश्नेन इष्टा; अपरिच्छिन्नं सवोतमकं च 
ऋ, इत्यतः परिच्छिश्चवदनात्मवश्च तस्याऽऽतिरमुपपन्ना । 

नायं दोषः । कथम्‌ !{-ददोनादशनपिक्चत्वाट्रद्यण आप्त्यनाप्त्योः । परमा- 
थतो तस्व रूपस्यापि सतोऽस्य जीवस्य, भूतमात्राङृतबाह्यपारेच्छिन्नान्नम- 
॥र-द हिः, तदासक्तचेतसः-प्रृतसंख्यापूरणस्याऽऽत्मनोऽन्यवहित- 
अ्नेतिरोपचरिकलम्‌- स्यापि बाह्यसंख्येयविषयासक्तचित्ततया स्व॑रूपाभौवद्‌- 
हमरधिनीम सलरूपा- देनवत्‌--परमाथेत्र्स्वरूपामावद्रेनरक्षणयःऽविद्यया, 
भिव्यक्तिः ____ अन्नमयादीन्बाह्याननात्मन भात्मत्वेन श्रतिपन्नत्वात्‌, अन्न- 
निरतिश्चयानन्दाभिष्यक्तिर्विवक्षिता, सा च स्वभावानन्दानमिव्य्तिरूपाविद्यानिषेत्तियेवेत्ति न 
संसारमोचरं फठमित्यथः । आयवाक्यस्यावान्तरतात्पयंमाह-- स्वयमेव चेति । विध- 
येव केवखया मोक्षः साधयितुं शक्यते। ब्रह्मविदितिविशेषणात्संबन्ध्ञोपनस्य, पुरषाकाङ्- 
कषाविषयतया परप्रापनिः प्रयोजनं विदाया इति ज्ापनस्य वा, इत्रोपयोगः {इत्याशङ्कय 
यज्ञादिपरित्यागेन वेदान्तश्नवणादावेव स॒खश्चणा प्रवार्तितव्य॑-दटाह-निज्ञतयोक्षति । 
परदष्देनोक्छष्टषचच्यते, कथं ‹ बरह्म ` इति व्याख्यायते ए तत्राऽह~-न दति । 

‹ आप्नोति ` शब्दस्योपचारिकमथं दर्शयितुं शङडाछ्तेन खल्याय बाधकमाद- नयु स्ै- 
गतमित्यादिना । 

° परमाथतो ब्रह्मस्वरूपस्यापि सतो जीवस्य“ "अविदया""'ब्रहमानाप्तं स्यात्‌ * इति 

ङ, उ. २, ४.५. "्ुहब्रहि वृदो"? = द्धि 

न 
भज्येत, तथाच वस्वन्तरक़तपरिच्छेदररहितमेतर बह्मशष्दवाच्यं मवितुमहेति । ब्रहत्तमलत्‌-पाठन्तरम्‌ । 
(३) स. उ. ३.२.९. (४) ब्रह्मविदद्वान्‌ पर बह्म प्रपरोतव्यि¶ संबन्धो न सिध्यति, यदि जह्मज्ञानं जह्मप्रा- 
पिर्ताधनं न स्वात्‌ तस्मच्छरधौ नुपपत्या सावनलतिद्धिएििैः । ( ५) शञानस्य-पाठः । (६) ज्ञान- 
स्य~पाठः । (७) 'पनित्यतरेत्याह-परः । 


१ प्रथमोऽनुवाकः ] ब्रह्मरक्षणम्‌ ७ 


वि अलुन्यासूवान- ) 
तदेषा | सत्य त्रानर्मनन्तं बयं । 

मया्यनात्मभ्यो नान्योऽहमस्मीत्यमिमन्यते; एवमविद्ययाऽऽ्मभूतमपि जह्याः 
नाप्त स्यात्‌ । तस्यंवसवेधययाऽनाप्षत्रह्मस्वरूपस्य-प्रङतसंख्यापूरणस्य, आः 
त्मनो ऽबिययाऽनाप्तस्य सतः, केनाचेत्स्मारितस्य पुनः स्वस्यैव विदययाऽऽप्ियै- 
था--तथा श्चुत्युपदिष्टस्य सवातमन्रह्मण आत्मत्वद्रनिन विद्यया तदासिरुपप- 
खत एव ॥ 

श्रह्माविदाम्रोति परम्‌" इति वाक्यं सूज्रभूतं स्वस्य वट्द्यथेस्य । (९) ^ बह्य- 

कततत्पर्यम्‌ विदाभ्नोति परम्‌" इत्यनेन वाक्येन वेद्यतया सूचितस्य 
ब्रह्मणोऽनिधीरितस्वरूपविशोषस्य सर्वतो व्याचृत्तस्वरूपविशोषसमपणसमथ- 
स्य लश्चणस्याभिधनेन स्वरूपनिधौरणाय- ८२) अविशेषेण चोक्तवेदनस्य 
ब्रह्मणो वस्यमाणरश्चणस्य विशेषेण प्रत्यगात्मतया ऽनन्यरूपेण विक्षेयत्वाय- 
(३) रद्लटिव्गए्ट टं च ब्रह्मविदो यत्परप्रा्िलक्षणमुक्तम्‌, स सवोरमभावः सवै. 
संसारधर्मातीतन्रह्मस्वरूपत्वमेव, नान्यत्‌, शत्येतत्प्वशेनाय-पषगुदाहियते- 

तदेषाऽभ्युक्तेति--“ तत्‌ ' तस्मिन्नेव ्राह्मणवाक्योक्तेऽथे ˆ पषा ` ऋरगम्युक्ता- 
ऽऽख्राता | 
संबन्धः । भूतमात्राभिः-भूतांशैः कुता ये बाह्याः परिच्छिन्नाश्चात्रमयादयः, तदात्मददिनं इत्य- 
विद्याया विक्षेपकत्वरूपञक्तम्‌; परमार्थं ब्रह्मस्वरूपं नास्तीत्यभावदश्चनमावरणटक्षणं चिर 
यस्याः सा तथोक्ता । स्वरूपेऽप्यप्रहणविपयेयौ भवत इत्यत्र दृष्टान्तमाह~- प्रकृतेति । प्रकृ- 
तसंखूयापूरणस्य दशमस्य नवैव वयं वतोमह इति विपयेयः, स्वरूपादक्षेनं च यथेत्यथेः। 
अदर्शननिमित्तामनािं विविच्य, दर्शननिमित्तामासिं विदृणोति-तस्यैवमिति ॥ 

आदं ब्राह्मणवाकयं व्याख्याय, उत्तरं मन्तरं संक्षेपतोऽ्थकथनेनावतास्यति-ब्रह्मविदाभरोती- 








( १) °सं-फटः । ( २) ०मल्वण्-पाठः। 
शरीषियारण्वमुनिकृते अहथुतिप्रकारे तेत्तिरीयकवियाप्रकाशः 

ह्यवट्यां जहव्रिदां तित्तिरिः प्राह यामिमाम्‌ । वक्ष्ये सुखावबोधाय क्रीडतत्र सुसृक्षवः ॥ १॥ 
दद्यौदपित्मेधातिः कर्मीमिषडुजन्मसु । अनुष्ठितैर्ीविदिषा जायतेऽन्तिमजन्मनि ॥ २ ॥ 
ततो योगं समभ्यस्य संहितोपासनादिभिः । एकारे साधितेऽथास्य विद्यां सूत्रयति श्चतिः ।। २ ॥ 
सूतरातपूर्वं सान्तिमन्त्रो जपायात्रोपवार्भितः । जपेन विध्न द्वेषायाः शम्यन्ति मनसि स्थिताः ॥ ४ ॥ 
जह्मवित्‌ परमेतीति सूत्रं सवर्थसृचनात्‌ । चयं ज्ञानं फलं चेति सर्वैऽथांः सूचिता इह ॥ ५॥ 
ज्ञेयं रह्म तदीया धार्ञानं स्याद्रहमत। फलम्‌ । सूत्तव्याख्यानरूपायाम्न्येतदविरदीकृतम्‌ ॥ £ ॥ 





° सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म -दति ब्रह्मणो छक्षणाथे वाक्यम्‌ । सत्यादीनि हि 
जऋहासरूपल्क्षणम्‌ ओणि विरोषणाथोनि पदानि विकेष्यस्य ब्रह्मणः; विद्रोष्यं 
ब्रह्म, विवक्ठितत्वादेयतयाः; विशेषणविशेष्यत्वदिव सत्यादीन्येकविभक्त्यन्ता- 
नि पदानि समानाधिकरणानि; सत्यादिमिल्िभिर्विंरोषणैर्विंशोष्यमाणं जह्य 
विरेष्यान्तरे$्यो निधौयेते ! पएवं हि तज्जातं भवति, यदन्येभ्यो निधी. 
रितिम्‌-यथा रोके नीरं महत्सुगन्ध्युत्परुमिति । 

नु--विरेष्यं विशेषणान्तरं व्यभिचरद्विरोष्यते,-यथा नीं रक्त चोत्पल- 

लक्णस्य रक्षणम्‌ मिति, यद्‌ ह्यनेकानि द्रव्याण्येकज्ञातीयान्यनेकविरोषण- 
योगीनि, तदा विशेषणस्याथीवत्वम्‌, न हकस्मिन्नव वस्तुनि, विरदोषणान्तरायो- 


त्यादिना । सेतो भ्यादृततो यः स्वरूपविषेषः, तत्समपणे समथस्य लक्षणस्याभिधानेन स्वरू- 
पनिषोरणाय'“*एषगुदाहियत इति संबन्धः । बृहत्वाद्धघ्येति व्युत्पत्तिबटेनास्ति किमपि महद्र 
सित्वत्यविशेषेणं प्रतीयते; ततो रक्ष्योदेशेन क्षणविधानमिति प्रसिदिरुपपयते। अभ्याढृतादि- 
ब्ध्षरब्दवाच्यतया सजातीयम्‌, घटादि विजातीयम; तस्मात्छजातीयविजातीयम्यावतेकतया 
सत्याहिलक्षणस्य रक्षणत्वप्रसिदिरपपद्यते । ठष्णाभिधानद्वारेण स्वरूपविशेषप्रतिपादने 
तात्पयम , इति वाक्यस्य व्यथेतादोषः परिहतः । पूर्वत्र ब्रह्मविदित्यनेनाविकेषेणोक्तं॑वेदनं 
यस्य ब्रह्मणः, तस्य॒“ यों वेद निहितं गुहायाम ` इत्यनेन प्रत्यगात्मतया वेदनं वक्तैन्यमिः 
त्येवमथो च्युदाहियत इत्याद-अविरेषेण चेति । 
आपातप्रतिपत्नं विशेषणविशेष्यभावमादाय पदानि विभजते-सत्यादीनि हि चरीणी 
ति। विरशेषणाथोनीति-व्याटत्यथोनि । कुतो विशेषणविशेष्यभावप्रतीतिः!? इत्यत आह- 
विरेषणविशेष्यत्वादेवेति । ' नीठं महत्छगन्धयुत्परम्‌ ” इत्यादौ सत्येव विकेषणविशे- 
ष्यभावे समानापिकरणतयेकविभक्त्यन्तानि प्रसिटानि, एतान्यपि च तथाभूतानि नाना- 
थेगतविक्ञेषणविशेष्यभावनिबन्धनानीति गम्यत इत्यथः । विशेषणविशेष्यभावस्य फकलमाह- 
पवं हीति । | 
वि्ेषणविशेष्यभावमाक्षिपति-नन्विति । नीरुत्वं भ्यभिचरदुत्पलं रक्तमपि संभवति, 
( १) ठल्य-सामन्यरक्षणं त्यक्त्वा विंशेषस्येव लक्षणं । न शक्यं केवरं व्तुमितोऽप्यस्यन वाच्यता॥ 
श्लो. वा- शब्दपरिच्छेदे २ शोकः ( २.) कर्तव्यम्‌-पाठः । (२ ) ब्रह्मणो विषाः सत्यादयः, तैदा जहम 
विक्ञेषितम्‌? तदा सत्यादिविरदधम्योऽसत्यजाब्यपरिच्छिकेभ्यो निरतं ब्रह्म सिध्यति । य॒था नीलमुत्पलम्‌ , 
रक्तमुत्परम्‌ इत्यादिप्रयोगे व्यक्त्यन्तरभ्ये व्याव समुत्प छ्मवगम्ये, तथा यदन्येभ्याऽसत्यादिभ्यो व्ववृत्तमवधा- 


थते तद्रहम-श्येवं व्यवत्त्वे सति, सविदेकतानं परिपूर्णं तदिति हात भवति; व्यवतिशचेत्र जञायते, तदाऽ- 
सृतादिभ्यो व्यावृत््यतिद्ेः, न ब्रह्म चचां स्यादित्यर्थः । 


( 


॥ 
। 


॥ 
( 


८ 
४ 
१ 
४ 
॥ 
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५ 
| 
। ॥ 

॥॥ 


४९. 





९ प्रथमोऽचुवाकः | 


गात्‌; यथाऽसावक आदित्य इति, तथैकमेव च ब्रह्म, न अह्यान्तराणि, येभ्यो 
विशेष्येत नीटोत्पटवव्‌। न, लक्षणाथेत्वादिदवणना--नायं दोषः । कस्मात्‌? 
यस्माटक्षणाथप्रधानानि विदेषणानि, न विरोषण्रधानान्येव । कः पुनैश्चणल- 
क्ययोर्विरोषणविरोष्यंयोर्विरोष इति ? उच्यते-समानज्ञातीयेभ्य एव निवर्त- 
कानि {ह्णन विज्ेष्यस्य, लक्षणं तु सवत पव, यथाऽवकादादात्राक्यद्ा- 
मिति; लक्षणा च वाक्यमित्यवोचाम । 


इति नीरं वितेषणं धटते; न तथा सत्यत्वादिकं व्यमिचरद्व्ान्तरं कोके प्रसिद्धम्‌; ततः 
सजातीयस्य व्यवच्छेयस्याःलाक्रिि८५।£िश्ेष्यभावो न घटत इत्यथः । विश्चेषणविकषेष्य- 
भावस्य तात्पर्येणाप्रातिपाषत्वात्‌,अग्याकृतादिषशालरीयद्रह्मपदाथन्यवच्छेदेनानिर्वाच्यविरेषणावि- 
शेष्यभावसंभवाघ्र, तद्ररेण ब्मलक्षणं विवक्षितमित्याह--नेति । संग्रहवाक्यं विरटणोति-- 
नायं दोष इत्यादिना । सवेत पवेति-सजातीयाद्धिजातीयाच्च-यथा महाभूतत्वेन 
सदृश्मावात्पुथिव्यादे, विसदृशाच्राऽप्मादेः । आकाशस्य ध्यावतंकमवकाकदातृत्वमिदय्ः । 
एतदुक्तं भवति--अतिव्याप्त्यादिरषितो व्यावतेको धर्मों रक्षणं न्यायविशेष इति मीमांस- 
कराः । बह्मपदन्युत्पत्तिबठेन यदविश्चेषतः प्रतिपन्नं विचिन्महदस्तीति तप्‌ सस्यं ज्तानमनन्तभ्‌ः 
अनृतजडपरिच्छेदविरोधिस्वरूपम्‌'-इति विशेषतः प्रतिपत्तव्यमिति विशेषावगतिशेषभूतं टक्ष- 
णम्‌; प्रमतिस्तु प्रमाणदेवेति। तार्किकाः पुनठेक्षणं केवडव्यंतिरेक्यदमानमाचक्षते, तदा रक्ष. 
णादेव स्वभावविशेषप्रमितिः, यथा--युणवद्रव्यमितिलक्षप्याहुणाश्नयत्वयोग्यस्वभावविकेषस्य 
प्रमितिः क्षामान्यप्रतिपन्नस्य दरव्यपदाभिषेयस्य भवति; यद्रा ग्यवहारसिदधिः फलम्र--गुणव- 
इन्यमिति भ्यवहतंग्यं युणवत्ताप्‌, न यदेवं न तदेवम्‌, यथा रूपम्‌; तथा सत्यत्वादिमद्भघ्नेति 
म्यवहतंन्यं सत्यत्वादिमस्वात्‌, न यदेवं न तदेवम्‌, .यथा धट इति; एतच खण्डनंयुक्त्यसद- 
मानमपि व्यवहाराङ्गं भव्रतीति नातीव सष्षमेक्षिका कायां । 





८ १) ०्योवावि०--पाठः । ( २ ) सर्वं हि रक्षणमितपदार्थन्यवच्छेदकम्‌ ( न्या. वा. १. 
१. १४. ); व्यात्रत्तिव्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनम्‌ । त्त्र व्यदार ( कब्दग्यवहारः, रब्ददयक्तियदः ) 
रक्षणज्ञानस्य भरयोजनं, यथा-साल्लादिमान्‌ गोः-इति कश्षणज्ञाने सतति, य॑ यं सास्नादिमन्तं पिण्डं पदयति, 
तं तं गो्ब्दनाच्यं परलेत्ति-इति । व्याततः प्रयोजनले सर्वं लक्षणं (अभिषेयलन्यावतकतवादिवर्जम्‌ ) व्यति- 
रेकदेतुर्मवति । तच्च ‹ व्यावृतति्धवदयरो वा ठक्षणस्य प्रयोजनम्‌ ° इति परोक्तमेकं पक्षमाभित्योक्तम्‌, न तु 
स्वमतम्‌-रक्षणवाक्यमन्नस्य सिद्धान्तिभिरखण्डाथताम्युपगमात्‌ । तुर्य संक्षेप, शा. १. ५१५-५२०. (३) 
“लक्षणाधीना तावहक्ष्यस्थितिः, रक्षणानि चाऽनुपपत्नानि, ज्ञानाधिकरणादिलक्षणनिरूपणदरारेण चक्रका्या- 
पत्तेः"-इति खण्डतखण्डलाये प्रथमपरिच्छेदे । तदर्थस्तु किं ज्ञानम्‌ १-३ति रशे ज्ञानत्वयोगीति नि्ांच्यम्‌। , 
पुनः विं ज्ञानत्वम्‌ १-इत्यनुयोगे स॒खाबवृरत्तिरात्मविेषगुणदृत्तिजतिरेति निर्वाच्यम्‌ 1 जातिरेव का१-इत्य- 

४ 


५८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्मआनन्द-बही 


सत्येदिषाब्दा न परस्परं संबध्यन्ते पराथत्वात्‌^ विदेष्याथां हि ते । अत 
चव एकको विरोषणराब्दः परस्परं निरपेक्षो ब्रह्मशब्देन संवध्यते-- सत्यं अहयः 
«कान जह्य, ` ° अनन्तं ब्रह्म ` इति । 


पुनविंशचेषणविशेष्यभावपक्षमवर्म्न्याऽऽइ--सत्यादिशब्दा इति । “ सत्यं बरह्म  इत्यु- 
क्ते, तास्थन्याहतिः परिच्छेदव्या्टततिश्च यद्यपि रम्यते, जडस्य परिच्छिन्नस्य सवंस्यानृत. 
त्वात्‌ ; श्ञानं बह्म इत्युक्ते चारृतपरिच्छेदव्यादत्तिलम्यते स्वप्रकाशस्य बाधाविषयत्वात्‌, प- 


रिच्छेदग्ाहकप्रमाणाविषयत्वाक्र; ठक्षणमपि वेकलिपकमदुष्टम्‌ ;--तथाऽपि मन्दम- 
तिन्यत्पादनाय स्यात्‌ 1 


सुयोगे चानुवरतिन्ञानासाधारणं कारणमित्यभिषानीयम्‌-इति क्ञानसिद्धौ जातिसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तदविरोषभूत- 
्ञानतवस्य सिद्धिः, तत्सिद्धौ च ्ञानतिद्धिरिति चक्रकम्‌ । आदिशब्दात्तयैव ज्ञानसिद्धौ ज्ञानत्वसिद्धिः, 
तत्सिद्धौ च ज्ञानसिद्धिः-इत्यन्योन्याश्नयः । ज्ञानसिद्धो ज्ञानतिषिरित्यात्माश्रयश्ेतति । तथा लक्षणानि र्षया- 
धिकरणानि वाच्यानि; ततश्च विमधिक्रणमिति प्रभे इदप्र्ययविषय इति कथनीयम्‌ ; कः प्रत्ययः १--इत्य- 
नुयोगे च प्रत्ययत्वयोगीति वाच्यम्‌ ; श्न प्र्ययत्वम्‌ १--इत्यनुयोगे च छखाधव्रत्तिरात्मविशेषगुण्रत्तिजा- 
तिविदोष इत्युत्तरम्‌ ; क आत्मा {--ति जिज्ञाप्तायामालमत्वाधिकरणम्‌ › पुनरथिकरणमिहप्रत्ययविषय इति 
चक्रव, पूैवदेवान्योन्याश्रयात्माभयौ चेत्यादिः-इति तत्र टिप्पणी । ह्ञाताधिकरणेति कशंकरमित्रसंमत्तः पाठः । 
तदर्थस्तु “ क्षणेन हि गन्धवत्त्वादिना ज्ञाते रक्ष्ये -पथिवीस्वरूपेऽधिकरणे प्रतिवन्ध-( व्यापि ) बठेन व्यव 
हाररूपमितःए्मेदरूपं वा साध्यं साधनीयम्‌ । तत्र रक्षणज्ञानमन्यलकष्यसाधारण्येन भवदप्यकिधित्करमिति 
व्यावृत्त्या तञ्जञानसुपेयम्‌ ; तदि लक्षणव्यावृत्तिरक्षयाीना, तदारन्योन्याभ्रयः; रक्ष्यपरतन््रलक्षणा- 
न्तराधीनते चक्रकम्‌ ; रक्षणे लक्षणान्तरम्‌, तत्रापि रक्षणान्तरभित्यपरावृत्तावनवस्था; एवं भवदप्यकषि- 
निचत्करमिति । एव॑ जखादिसाथारण्येन ज्ञातायां एथिव्यामितःभेदसाधनमकिन्चित्करमितिन्यावृत्तायां तस्यां 
तत्साधनं वाच्यम्‌ > तव्धावृतिर्यदि प्रकतरक्षणाधीना, तदान्योन्याभयः; क्षणान्तरेण चेत्तदा प्रकृतलक्षणा- 
सुषयोगः, तदपि लक्षणं व्यादृत्तायामेव तस्याभित्यपोऽधो धावन्त्यनवस्था । एवे प्रतिबन्ध व्यासि ) ज्ञानसा- 
ध्यज्गानादावप्यूह्यस्‌ ` इति श्चंकरमिभव्याख्यायम्‌ । 


() रीकिकरष्टयनुसारिणमेकलक्षणपरलवपक्षमुपपादयति-सत्यारिशब्दा इति । केकरे हि सत्यमिदयुकते व्यव्‌- 
हारावाधितमा् प्रतीयते, न तु ब्रहमव; एवं श्ानमिल्युकते दत्तिस॑वलितिमेव प्रतीयते; अर्नेतपदेन च कालचपरि- 
च्छिन्नमेव । अतेोऽतिप्र्क्ता्थकलेन प्रयेकं लक्षणत्वासंमवाद्िचिषटे राक्तानां पदानां, शदे लक्षणया वृत्ति- 
मङ्गीकृत्यैकरक्षणपरत्वमुक्तम्‌ । भन्यव्यावृत्तिमुखेनेकार्थपर्यवसायिनां पदानां लक्षयाथीभेदेऽपि व्यवच्छेयभेदा- 
दपुनरुका्थसंभवात्‌, न पदान्तपवेवर्थ्म्‌ । ततरेतावान्‌ विषो वातिकङृद्धिर््तः--सत्यज्ञानपदे सत्यत्वं ज्ञान 
सं विषाय, अथादितरग्यादृक्तिं बोधयतः; अन॑तपदं तु साक्षादेव परिच्छिन्ततां वारयतीति । पै सति धर्म 
धर्भभावादिरूपो मेदो न प्रसज्यते । यतः सत्यपदं ब्रह्मणि अमसतक्तमसत्त्व॑वारयति, ज्ञानपदं जडस्य, 
अनन्तपदं तु परिच्छिन्नत्वं वारयति, तत एवं व्यावृत्तिपत्त्वात्‌ “ नीलयुत्यटम्‌ ° इत्यादिवाक्यस्य य॒था युण- 
गुणिमावर्ससगपरत्वं विशिष्टपरत्वं वा भवेति, तथाऽस्य वाक्यस्य न बोध्यम्‌ , क्षिं त्वखण्डा्थपरत्वमेवेत्य्थः 
वुख्य-सश्चप, त्रा. १,१७८-१८८ 








१ प्रथमोऽतुवाकः | ब्रहक्चमम्‌ ५१ 


सत्यमिति--यद्वपेण यन्निशितं तद्वधं च व्यभिचरवि,-क्त्सत्यम्‌; यद्वपेण 
` श्रहम सत्यम्‌ यन्निश्चितं तद्रपं न्यभिचरति, तदृतमिस्युच्यते ! अतो वि- 
कारोऽन्रतमर-“वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌,” पवं “सदेव 

सत्यंम्‌“--इत्यवधारणात्‌ ; थतः "सत्यं जह्य' इति ह्य रि? तेयति । 
“ अतः कारणत्वं पापं ऋ्यणः । कारणस्य च कारकत्वम्‌, वस्तुत्वान्ुदद 

जह ज्ञानम्‌ चिद्रपता च प्राप्ठा--अत इदमुच्यते ञानं जह्य' इति । ञानं 
कसिरववोधःः--भावसाधनो ज्ञानशब्दः--न ज्ञानकते, ब्ह्मविदोषणत्वात्सत्या- 
नन्ताभ्यां सह । 

नहि सत्यताऽनन्तता च ज्ञानकरठत्वे सत्युपपयेते । ज्ञानकर्तुत्वेन हि विक्रि- . 
यमाणं कथं सत्यं भवेदनन्तं च ? यद्धि न कुतश्चित्मविभन्यते, तदनन्तम्‌ । 
क्ञानकतृत्ये च क्ेयज्ञानाभ्यां परविभक्तमित्यनन्तता न स्यात्‌--“यत्र" "“" नान्य- 
द्विज्ञानाति ख भूमा । अथ" "यच्नान्यद्धिज्ञानाति तदल्पम्‌" इति श्चुत्यन्तसत्‌। 

‹ नान्यद्विजानाति * इति विशेषपतिषेधादात्मानं विज्ञानाति-इति चत्‌, नः 
भूमलक्षणविधिपरत्वाद्धाक्यस्य-- य नान्यत्पदयति इत्यादि भूस लक्षणविः 
धिपर वाक्यम्‌ । यथाप्रसिद्धमेवान्योऽन्यत्पद्यतीत्येतदुपादाय यत्र तन्नास्ति, 
ज भूमेति भूमस्वरूपं त्र ज्ञाप्यते; अन्यग्रहणस्य प्राप्प्रतिषेधाथेत्वात्‌, न स्वा- 
त्मनि श्ठियारस्तित्वपरं वाक्यम्‌ । स्वात्मनि च भेदाभावादिज्ञानाय्चपपत्तिः । आ- 
त्मनश्च विक्ञेयत्वे, ज्ञाजभावप्रसङ्ः--क्ञेयत्वनेव विनियुक्तत्वात्‌। एक एवास्मा 
ज्ञेयत्वेन ज्ञातृत्वेन चोभयथा भवति--इति चेत्‌, न युगपत्‌, अनंशत्वात्‌-नदि 
निरवयवस्य युगपज्जञेयज्ञातृत्वोपपत्तिः ! आत्मनश्च धटादिवद्िज्ञेयत्वे, ज्ञानो- 
पदेशानथेकषयम्‌ । न हि घटादिवत्पसिद्धस्य ज्ञानोपदेरोऽथवान्‌ । तस्मात्‌, 
ज्ञातत्वे सति, आनन्त्यातुपपक्तिः; सन्मात्रत्वं चायुपपन्नं ज्ञनकतत्वादिविश्चेष- 


सत्यादिपदाथेन्याख्यानपूवकं प्रत्येकं व्यवयमाह-सत्यामेति--यद्रपणेत्यादिना । 

भावसाधन इति-भावब्युत्पत्तिकः । क्रियासामान्यं यद्यप्यन्यत्र भव उच्यते, तथा- 
-उप्यक्न निर्विशेषं चिन्मात्र भावब्युत्पच्या उक्ष्यते, सत्यादिशब्दसंनिधानात्‌--इति द्ष्व्यम्‌ । 

“ विरेषनिषेधः ेषास्यदङ्ञाविषयः' इति न्यायेन, प्रासङ्धिकं स्वज्ञात॒त्वे तात्पयेमाशङ्कध 
भिषेषति--नान्यद्धिजानातीत्यादेना । क्त्वं, कमेत्वं चेकक्ियावच्छिन्नं धम्यं 


(१) छां. उ. ६. १.४ (२) °सदेउ सोम्य ` इति प्रकृत्य ^ तत्सत्यम्‌ --इति नवकृत्वः शतम्‌ 
“चछ. उ, ९. २. १--६. ८. ७८२ ) छ. उ. ७, २४. १ 


धूर्‌ .. तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्‌-बह्वी 


वत्वे सति; सन्मराज्नत्वं च सत्यम्‌, “ तत्सत्यम्‌ इति श्चत्यन्वरात्‌ 1 तस्मा- 
त्तैत्यानन्तदाग्दाभ्यां सह विरदोषणत्वेन ज्ञानशब्दस्य प्रयोगात्‌, भावसाधनो 
कानदाब्दः । ` ज्ञानं जह्य ` इति कतूतवादिकारकनिवृत्यथम्‌, गृदादिवद्‌- 
चिद्रपताभि्रत्यथं च प्रयुज्यते । 
ज्ञाने जहा ' 7८४८०।२ प्राप्तमन्तवत्वम-रोकिकस्य ज्ञानस्यान्तवत्वदश्ै- 
रहम मन्तम्‌ नात्‌; अतस्तन्नित्यथमाह--“ अनन्तम्‌ ` इति । 
सत्यादीनामनृतादिधमेनिवृत्तिपरत्वात्‌, विररेष्यस्य अह्यण उत्पकादिवदध्र- 
सिद्धत्वाव्‌- 
^ खुगतृष्णाभ्मलि स्नातः खपुष्पकृतरोखरः। 
पष वन्ध्यासुतो याति शदाश्शङ्गधनुधेरः” ॥ 
इतिवच्छरन्याथेतेव मापा सत्यादिवाक्यस्येति चेत्‌, न; ठक्षणार्थत्वात्‌। 
सत्यादिवाग्यस्य न श्ू- विदोषणत्वेऽपि सत्यादीनां छश्चणाथेमाधान्यम्‌--इत्यवोः 
न्धाथेता-हय वस्तुव चाम । शर्ण हि रध्य, अनथकं छश्चषणवचनं, अतो ठञ्च 
णाथेतवान्भन^्५।म ह न श्यारथैतेति । विरोषणाथेत्वेऽपि च सलत्यादीनां स्वाथौ 
परित्याग पव] 


भिन्नाधिकरणं प्रसिद्धम्‌, स्वात्मनि च भेदाभावाघ्‌, निरुपपत्तिके स्वज्ञातृतवे तात्पर्यं कल्प- 
पठं न शक्यत इत्याह-- स्वात्मनि चेति । 

सत्यादीनि भ्याटस्यथागीत्यक्ते तत्र शदङ्ुते- सत्यादीनामिति । प्रमाणान्तरसिदञ- 
त्यादि विशेष्यं दष्टं, जहम तु प्रमाणान्तरासिदम्‌-पदमात्रस्याप्रमाणत्वात्त्‌, स्त्यादीनां च 
व्याेत्यथेत्वात्‌, असदर्थं वाक्यं स्वादित्य्थः । सिद्धत्वमत्रेण विशेष्यत्वे क्षंभवति, प्रमा- 
णान्त्राविश्चेषणमनथेकं केवङव्यतिरेकाभावात्‌; मिथ्या्थस्य रज्जसपदेः सदाधिष्ठानसदक्ष- 
नात्‌ प्रपच्चस्यापि दुद्यत्वादिदेतुभिरमिथ्यात्वेनावगतस्य सदधिष्ठानतवं संभाव्यते; तस्य प्रप- 
च्वाधिष्टानतया संभावितस्य स्वरूपविशेषलक्षणाथमिद्‌ वाक्यम्‌, ततो नासद्त्वमित्याह- न 
टक्षणाथत्वादिति । विरेषणा्थत्वमम्बपगम्याऽद--विशेषणार्थत्वेऽपि चेति । "नीडं 
“ मह्‌ ' इत्यादिविकेषणपदानि स्वाथसमपेणेन तदिरुडग्यावतेकानि प्रसिढानि, तथा सत्य- 
शब्दोऽप्यनायित्तसत्वे व्युत्पन्नः, ्ञानदरण्द्‌ः स्वप्रकाशे विषयसंवेदने, ° अनन्तोऽयमाकाशः ” 
इत्यादो चानन्तदाग्दो व्यापके--ततः स्वा्थसमर्पणेन विरोपिग्यावतैकतवान्न व्याहत्तिमात्र- 
पयेवघ्ानमित्यर्थः। । 





भि १ १11 1117117 मा 


(१) ते.उ. २ €; छां. उ. ६. <. ७. (२) ९ 


१ प्रथमोऽनुवाकः | ब्रह्मलश्णम्‌ ५३ 


शून्याथत्वे हि सत्यादिशब्दानां विदोष्यनियन्तृत्वाय 5; ! सत्या्यथैरथं- 
वच तु तद्विपरीतधमेषद्धो षिहेष्येभ्यो ह्मणो विरोष्यस्य नियन्तृत्वसुपपद्यते। 
जहयदाब्दोऽपि स्वार्थनाथैवानेव । तरानन्तब्ोऽन्तवत्वप्रतिषेधद्वारेण विदो- 
अणम्‌ ! सत्यज्ञानशब्दौ तु स्वाथैसमपणेनैव विदोषणे भवतः 1 

° तस्माद्वा एतस्मादात्मनः" इति अहाण्येवाऽऽत्मदराब्दप्रयोगादवेदितुरात्मेव 
मसगयद्रहमणे-  बह्म-“ एतमानन्दमयमात्मानसुपसंकोमति “इति चात्मतां 
ऽनन्तल्म्‌ वशयति; तत्पवेशाञ्च--“ तत्सष्का तदेवार माविरैएत्‌ = इति 
च, तस्येव जीवरूपेण शरीरप्रवेशं ददीयति ! अतो वेदितुः स्वरूपं ब्रह्म 1 

पवं तह्यीत्मत्वाज्जानकरैत्वम्‌--आत्मा ज्ञातेति हि प्रसिद्धम्‌, “ सोऽ- 
नित्यानन्तस्व- कामंथत ” इति च कामिनो ज्ञानकतृत्वप्रसिद्धिः; अतो 
तन्त्रं ह्म ज्ञानकर्त॑त्वाज्जितैह्येत्ययुक्तम्‌, अनित्यत्वप्रसङ्ाय्च; यदि 
नाम क्षपिन्नीनमिति भावरूपता ब्रह्मणः, तथा.ऽप्यनित्यत्वं प्रसज्येत, पारतन्त्यं 
च, धात्वर्थानां कारकापेध्चत्वात्‌, ज्ञानं च धात्वथे; अतोऽस्यानित्यत्वं परत- 
न्ता च। न, स्वरूपान्यतिरेकेण काथत्वोपचारात्‌-भात्मनः स्वरूपं जपते 
ततो व्यतिरिच्यते, अतो निस्थैव; तथाऽपि बुद्धेरुपाधिलश्चषणायाशचक्षरादिद्वारे- 
विंषयाकारपरिणामिन्या ये शब्दाद्याकारावभासाः, त॒ आत्मविज्ञानस्य 
विषयभूता उत्पद्यमाना एवाऽ.ऽत्मधिज्ञानेन व्याप्ता उत्पद्यन्ते । त +दास्मवि- 
ज्ञानावभासाश्च ते, वि्ञानरदाब्दवाख्याश्च धात्वथभूता आत्मन एव धमी 
विक्रियारूपा इत्यविवेकिभिः परिक्प्यन्ते । 


विच विशेषणस्य व्यावर्तकत्वं सति ष्यावत्य घटते, अतो विरेषणत्वाहपपच्येव सदथैतवं 
वाच्यमित्याह--ुन्यार्थस्वे हीति । यबोक्तं अहमशब्दोऽप्रसिदाथ इति तत्राऽऽह--ब्रह्म- 
शब्दोऽपीति । “ बह बृहि ठौ ” इति धातेति शब्दो निष्पततो दौ महत्वे वतेते । 
-तच्च महत्वं देशतः काठतो वस्तुतश्वानवच्छिन्रत्वं संकोचकमानान्तराभावान्निरतिशयमदत्वस- 
“पन्ने धर्मिणि पयंवस्यति । ततो वन्ध्यादतादिशब्दविखक्षणो ब्रह्मशब्द इत्यथः । सत्यादिषु 
व्रि विशेषणेष्ववान्तरभेदमाह--तच्रानन्तेति । 

अनन्तमित्यनेन चाऽपतमेक्यं ब्रह्मण उक्तमित्यभिगरत्येक्ये शाणतास्पयं दशेयति-तस्मा- 
द्धा इत्यादिना । ब्रह्मण आल्मेक्यं चेद्विवक्षित, तं ज्ानक्षब्दस्य भावसाधनत्वव्याख्यानं 
हयेतेत्याद- एवं तीति । इतश्च भाव्युत्पत्तिरसंगतेत्याह--अनित्यस्वप्रसङ्गश्वेति 

( १) तै. ३. २. ८. (२ ) ०अआत्मतां ददीयति० । इति केषुचिदादरदीपुस्तकेषु नोपरुभ्यते । ( २) तै. 
उ. २. ६. (४) च. उ. १. २. ४३ तै. ३. २. ९. (५) १. ५१ 


४४ , तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ऋऋहम-आनन्द्‌-कही 


"वंतु .जहणो पिलाने, तत्सवित्कादरावदभ्नयुष्णत्ववश् व्रह्मसवरूपाव्यतिरिक्तं 
स्वयमेव तत्‌ ; न तत्‌ कारणान्तर सव्ययेश्चम्‌+--जित्यस्वरुषत्वात्‌ । सवैमाः- 
कानां च तेनाविभक्तदेशकाटत्वात्‌+कालकारादिक्रारणत्वात्‌, निरतिरयसुष्म- 
त्वाञ्च न तस्यान्यदविक्षयं सुक्ष्म, व्यवहितं, विभृ, भुतं, मवत्‌, भविष्यद्धा ऽसितः 
तद्गह्य; मन््वणाञ्च-- 

“अपाणिपादो जवनो हीत, प्यत्यचध्चुः स श्णोत्यकणेः । 

स वेत्ति वेद्यं, न च तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरण्यं पुरषं महान्तम्‌ ” ॥ इति; 

« नाहि विज्ञातुर्विक्ञतेविपरिलोपो विद्यतेऽविनारितवान्न व॒ तद्धितीयमसितिं" 
इ्त्यादिश्चतेश्च ! 

विश्ातुस्वरूपान्यत्तिरे कात्करणादिनिमित्तानपेक्षत्वाञ्च अह्यणो ज्ञानस्वरूप 
त्वेऽपि नित्यस्वषसिद्धिः अतो नेव धात्वथस्तत्‌-अक्रियारूपत्वात्‌ । अत पव च 
न ज्ञानकते ! ` 

संसदेव च न ज्ञान ' शब्दवाच्यमपि तद्रह्य । तथाऽपि तदाभासवाचकेन 

बहमणोऽवाच्यलम्‌ बुद्धिधमेविरोषेणै श्ञान' शम्देन तहश्षयते, न तूच्यते, 

त्तिमदन्तःकरणोपदितत्वेनाऽऽत्मनो शातृत्वं, न स्वतः, कायंत्व च त्ानस्यान्तःकरणष्टस्यु- 
पदितत्वेन, तत आत्माभिनरतवेऽपि ब्रह्मणो न ज्ञानकतुतं, नापि कायेतवं प्रसज्यत 
इत्याह--न स्वरूपेति । 

नित्य चेज्ज्ञानं, तदि तत्र ब्रह्मणः कतेत्वाभषे कथं सवेक्नत्वमित्यत आह~-सवभा- 
वाना चतं । प्विदन्यवधानमेव दं वषयस्य सिद्धिः सवच सवित्स्वभावेन जक्ष 
णाऽन्यवहेतामाते सवज्ञ ब्रह्मोपचयंत इत्यथः । नित्यं ज्ञानं बरह्मणि विदत इत्यत्र मन्त्रस- 
मतिमाह- मन््वणञ्चेति | 

रह्मानित्यं, ज्ञानत्वा्टोकिकन्ञानवदित्यादि चोदयमप्युक्तन्यायेन निरस्तमित्याद--विक्ञात- 
स्वरूपेति । रोकिकञ्चानस्य करणादिसापेक्षत्वादनित्यत्वम्‌ । आत्मस्वरूपं तु ज्ञानं न 
करणादिसपिक्ष-सकलकरणव्यापारोपरमेऽपि उषुपे भावात्‌ ; अन्यथा षुधिस्िद्धयदपपत्तेः 
परामशंसंभवग्रसङ्गाप्ः-अतः श्वुतितात्पयंगम्येऽ्ये न॒ सामान्यतोदृ्टस्य प्रवेश्च इति भावः। 
आत्मनः स्वरूपभूतं शानं कारकसाध्यं धात्वथत्वारिति चासिदमित्याह-अत इति । 
नत्यात्मस्वस्ूपत्वदेवेत्यथः । अत पव चेति ! नित्यत्वादेव ज्ञानस्य, न तत्र कर्तत्वमपि 
ह्मण आपाद्यितु शक्यते । 

लोकिकानित्यज्ञानविकक्षणत्वादेव च ज्ञानशब्दवाच्यमपि ब्रह्म न भवतीत्याद--तस्मादेव 


(१) %.उ. ३. १९. (२) ब. उ. ४. ३. २०. (२ › दिषवेण-परठः 





रै 


१ प्रथमोऽलुवाकः ] पदत्रयस्य ब्रहमरक्षकत्वम्‌ | पष्‌ 


काग्दप्ृन्तिहेतुजात्यादिधमेरदितत्वात्‌; वथा “ सत्य * छष्देनापि-सवेविशे- 
षप्रत्यंस्तमितस्वरूपत्वाट्रदह्यणः, बाह्यसत्तासामान्यविषयेण सत्यदष्देन रकश्य- 
ते~' सत्यं बह्म ` इति, न तु ˆ सत्य * शब्द्‌ वाच्यमेव ब्रह्म । एव सत्यादिश्षम्द्‌ा 
इतरेतरसंनिधावन्योन्यनियम्यनियामकाः सन्तः सत्यादिशब्दवाच्यान्निवतेका 


चेति । कथं तर्हि ज्ञानं ` बह्ेति प्रयोगः ! तत्राऽद-तथा.ऽपीवि | चब्दस्व प्रदरतिहेतवो 
जांयादिधमां “गौः, “श्रध " इत्यादौ, तदभावाच्छन्दान्तरेणापि वाच्यं न भवतीत्याद-- 
तयेति ! तथा ‹ सत्य ' शब्देनापि न वाच्यं ब्रह्मेति शेषः। एतत्सग्यति-सर्वविशेषेति । 
सत्ता यस्यास्ति तत्सत्यमिति लोकरूदिः । सत्ता चादगतरूपं सामान्यं, भ्याश्ताः सत्तावि्चे- 
षाः । क्ष चायमचटृत्तव्याटत्तमावो न वस्तु परस्परायेक्षसिदत्वा्,-अतो यस्मिन्नयं 
ग्याटत्तावुत्तभावः काल्पितः, तदव्याटेत्तानदगतं त्रह्म रुक्ष्यतं इत्यरथः । एवमेकैकस्य 
शब्दस्यार्थखक्त्वा वाक्यायेमाह--एवं सत्यादीति । यथपि सत्यादिशब्दानां ब्रह्मणा 
सख्योऽन्वयः, तथाऽप्यरुणयेकहायन्यादिर्वैत्पा्िकान्वयेनेतरेतरसंत्रिधावन्थोन्यस्य उकत्तिनिया- 
मका भवन्ति--्ानेन विशेषणात्‌ ‹ सत्य शब्दो न जडे कारणे वतेते, सत्येन विशेषणात्‌ 


( १ ) °लरात्सत्यानन्तस्रामानाधिकरण्यात्तथा। ० त्वात्सत्यानन्तररब्दाभ्यां सामानाधिकरण्यात्तथा इति वा 
पाठः । (२ ) प्रत्यस्तमितभेदं यत्सत्तामत्रमगोचरम्‌ । वचसमालसंवेचं तज्जनं ब्रह्मसंङितम्‌ ॥ 
तच विष्णोः प्रं रूपमरूपाख्यमनुत्तमम्‌ । तदविधरूपवेरूप्यलक्षणं परमालनः ॥ 
--विष्णु. पु. ६. ८,५२-४. 
(३) “गौः, श्ुञ्कः, “चलः, णडित्थः'-इलयादौ चतुषटयीक्षब्दानां पदरुत्तिः-इति “ऋत्छः इति शिवसतरे महा- 
. भाष्ये । “ष्ठीगुणक्रियाजातिरूढयः शब्ददेतवः । नात्मन्यन्यतमो ऽमीषां तेनाता नमिषीयते" ॥ ने. सि. २. 
१०३. कचित्ठयर्थः संबन्धः शब्दप्नुत्तिनिमित्तम्‌, यथा-राजपुरुष इत्यादिः; कचिहूणयोगः, यथा-शुक्छः 
पट इत्यादिः; क्वचिच्ियायोगः, य्था-पाचक इत्यादिः, क्वचिञ्नतियोगः; यथा गोः, अश्वः, पुरुष इत्यादिः; 
कचिद्रूिः, यथा-काशः, चोः, अभमित्यादिः । पतेषां शब्दपवृततिनिमित्तानाम्‌-अन्यतमस्याप्यात्मन्यस- 
ङ्तात्‌-अगुणत्वात्‌, मविकरियत्वाद्‌, असामान्यलात्‌, प्रमाणन्तरायोग्यतवेनागृददीतसंबन्धत्वाच--अभावा- 
न्नाभिषेय भालित्यथः। तुल्य-संक्षेपक्चा, १, २३९. (४ ) अनेकपदात्मके वाक्ये एकपदप्राधान्येनान्वयस्य 
वक्तव्यत्वात्‌ प्रतिपदाथ प्राधान्ये चान्वयाप्रतिपत्तेः, वाक्यप्रयोगवेयथ्यापातात्‌, अस्य च वाक्यस्य ब्रह्मलक्षु- 
णपरलात्‌, लक्षणानां च रक्ट्या्थत्वात्‌, तद्राचिपदपराधान्येनान्वयात्‌ युक्तोऽयमुक्तो विभाग इति मावः। 
ययेवं, ° सत्यं ब्रह्म ›, ‹ ज्ञानं ब्रह्म ? इति प्रकरेणान्वयः स्यातः; तथाच सत्यादीनां परस्परमेकलासिद्धः, 
एकनह्मसवरूपलक्षणता तेषां न स्यात्‌+अनिकस्यैकस्वरूपलायोगात्‌-इत्याशङ्कथ तेषां एकाथीवच्छेदकतया 
मिथ कल संद्टन्तमाह- यथा ‹ अरुणया पिङ्गक्षयैकहायन्या सोमं कीणाति--(ते, सं. ९. १. ९.७. 
७. १. ९.२. जै. स्‌, ३. १, १२. ) इत्यत्र ऋयनाचिना क्रीणातीतिक्रियप्देनारुणादिपदमेककयावच्छे- 
दकतयेकवाक्यमावं गच्छति, तददेकसयैव बह्यवस्तुनो लक्षकतया सत्यादीनां विरेषणलाद्वि्येषणानां च 
लक्षकाणां रक््यस्वरूपैकपर्ववसाननियमादुक्तमेषामेकलम्‌ । तुल्य-रसंकषेप. शा. १, १७५६. 


४1 


4६ कैचिरीयोपमिषत्‌ . [ ब्रह्म-आनन्द्-वही 


` ओ वैद निहितं गुहायां फे व्योमन्‌ । ` -" 

ब्रह्य ठश्चणाथीश्च मवन्तीति; अतः सिख “यतो वाचो निवतेन्ते । अप्राप्य 

भनसा संह ”, “ अनिर ऽनिटयने ” इति च-अवाच्यत्वं, नीरोत्पलवदवा- 
क्यार्थत्वं च ब्रह्मणः । 

(व्या्यातं ब्रह्म यो वेद्‌ विजानाति निहितं स्थितं गुहायाम्‌, (१) गूहते 

-स्षवा-इदौ मव्या- संवरणार्थस्य, निगूढा अस्यां क्ञानलेयज्ञातृपदाथा इति गुहा 

छतं परमं न्येम = बुद्धिः, गूढावस्यां भोगापवर्गौ पुरषाथोविति वा, तस्यां- 


‹ङ्ञान › श्ष्दो न विषयसापेश्वे ञे वतेते, श्ञानेन विशेषणान्न “ अनन्त * शब्दो ज्ञातुव्य 
तिरि वर्तेते, ततश्च सत्यादिक्षब्देन यदोक्िकैः वाच्यं, तद्विरक्षणेन भवितव्यम्‌-इति संभावय- 
न्दः सकलठ्लोकिकाध्यासाविष्ठानं ब्रह्मत्वेन रक्षयन्तीत्यधेः । ततः किं फठ्तीयत आद-- 
अतः सिद्धमिति 1 वाचकञ्चक्त्या बोधकत्वानङ्गीकारात्‌ “अवाच्यत्वम्‌ ' सकटानिषव्यवच्छे- 
देनेकस्यैव रुक्यतवाम्युपगमाच युणयुण्यादिसंमेदरूपवाक्याथेवेलक्षण्यं च ब्रह्मणः सिदधमिदयथः। 

बौ काथ यदमतं परमं व्योमान्या्ृताख्यं, तस्मिनिहितमिति ' सधमीदरयं चैय- 


(१) ते. उ. २-४,९. (२ ) तै. उ. २.७. (२ ) आत्मनो बुद्धिसाक्षिणो केयं परं बहयतयक्ते त्योभैदनु- 
द्विरुपजायते, तच्िवृ्त्यथं वुद्धौ बाह्याकापिक्षया प्रकृष्टं यदाकाशम्‌, तत्रे निदितं बहोत्युच्यते; तथाच जञेयं 
-जह्म साक्षिणि तावन्मात्रमवदिष्यते, सोऽपि साक्षो ह्ममात्रम--इति म तवेभेदशङ्कास्ति । ( ४) तत्त्व- 
. मस्यादिमदवाक्यस्य, तथा सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रहमत्यायवान्तरवाक्यस्य पदधर्मः सामानाधिकरण्यं प्रथमं भवति। 
अपूर्यायुपदानमिकार्वरृ्तितं सामानाधिकरण्यम्‌ । इह॒ पदानामेकव्रिभक्त्यन्ततयेकार्थवोधानुयुणव्यापारव- 
त्वात्‌ सामानविकरण्यं प्रथमं प्रवयेतव्यम्‌ । सति च तरिमन्सामानाधिकरण्ये वाच्यपदार्थानां प्रस्पर- 
विरेषणविरोष्यमवेनान्वयः स्थात्‌ । वाक्यवृत्तेरनवगमे वाक्यार्थानवगमात्‌, अथन्वियावगमस्य प्रदान्वया- 
चगमानन्तयम्‌ । विशेषणविशेष्यमायो नाम व्यावत्त॑कव्यावत्त्य॑मावः । यतो विशेषणविशेष्य सजातीयादर्व्या- 
वयते; अथोद्िशेषणान्यपि तदेकनिष्ठया नियम्यन्ते; अन्यथा तद्विेषणत्वायोगात्‌ । वाच्यपदाथैवितेध- 
स्फूता वाच्यपदार्थः सह वाक्यतात्र्यविषयस्याखण्डेकरसनहणो रक्ष्यलक्षणसंबन्धः । इत्तात्न हि गामा- 
नयेत्यादिरन्दाः त्रियाकारकसं सग प्रतिपादयन्ति । ‹ उद्भिदा यमेत ` इति चेद्धि्गरब्दयेरेका्थत्वेऽपि 
नियोगाकां्ा विते । नीलसुत्पलमित्य्र गुणगुणिनेभैदामेद प्रतिपा । पकार्थपरतिपादकेष्वप्यनयेषु ब्देषु 
लिङ्गसंख्ये अवजर्मयि । वेदान्तास्तु न तथा संसर्ग वा, साकांक्षाथं वा, मेदाभेदौ वा, रिङ्गसंख्याविरिष्टं वा, 
प्रतिपादयन्ति । किन्तु अभिधावृत्या रक्षणातर सया, जददजदलक्षणया, उपाधिद्वारा वाऽखण्डेकरसमेव जगत्का- 
रणस्नामान्यानुवदेन प्रतिपादयन्ति । ज्ञानानन्दशब्दो व्यक्त्य शापरित्यागेन मुख्यङ््त्या वतैते; एकादिरब्दास्तु 
जहरक्षणया, तत्त्वमसीत्यादयो जश्दजदद्क्षणया; सवेज्ञादयास्तूपाभितः । तुल्य-नै. सि. ३, ९, . 

हञात्यं जहम यत्तक्किमिति चेत्तस्य लक्षणम्‌ । सत्वं ज्ञानमनन्तं यत्त्रहमेत्यवगम्यताम्‌ ॥ ७ ॥ 
माकाशादि जगत्सवमनुतं मायिकत्वतः । नानृतं जहम तेनैतत्सत्यमित्यभिषीयते ॥ ८ ॥ 


प्ट्नोह्सत८ःः | ब्रह्मवेदनम्‌ ४७ 


परमे शक्रे व्योमन्व्योरन्याक्राशोऽव्याङताख्ये- वद्धि “ परमं व्योम ' “पतस्मि- 
न्यु खल्वक्षरे गाग्याकाश्ः ” शत्यक्चरसंनिकषोत्‌; (२) गुहायां व्योमन्‌-इवि वा 
अन्याकृतमेव गुदा सामानाधिकरण्यात्‌, अनव्याङ्ताकाद्छमेव गुहा; वक्रापि 
निगूढाः सवे पदाथोस्िषु काटेषठु कारणत्वात्सुक्ष्मतरत्वाश्च, तस्मिश्नन्तनिंहितं 
इदयाकाश ख॒ जह्य; (३) हादैमेव तु पंरमं भ्योमेति न्याय्यं, विन्ञानाङ्गत्वेनं 
परमं व्योम व्योम्नो विवश्चितत्वात्‌। 

`धिकरण्येन व्याख्यातम्‌ । व्योमश्ब्दस्य भूताकाशे रूटिं परित्यज्य, किमित्यन्याकृतविषयत्वं 
व्याख्यातम ? तत्राऽऽह-- तद्धीति । शूताकाश्चस्य कायेतवेनापरमस्वात्‌, अन्याकृताकारास्य 
कारणत्वेन परमत्वविश्षेषणसंभवात्‌, शाखान्तरे श्ातंपथे चक्रेण बह्णा सामीप्याव- 
गमात्‌, अभ्याङकृतं व्योमश्ब्देन खक्ष्यत इयथः । एवं परामिप्रायेण व्याख्याय स्वाभिप्रायं 
व्याच्े--हादमेव त्विति । इदयावच्छिने भूताकाशे या गुहा, तस्या-उदो- साक्षितया 
निहितम" अभिव्यक्तं बरहि व्याख्यानं युक्तम्‌-दर्भेदेन ब्रह्मण आपरोक्ष्यकाभाघ्‌ ; अन्यथा 
समशिरूपेऽव्याकृते मायातचेऽवस्थितं ब्रहमेत्युक्ते बरह्मणः पारोक्ष्यं प्रसज्येत, पारोक्ष्येण च 
शानं नापरोकषसंसारध्यासनिवर्तकम्‌ । तस्मादपरोक्द्षटचेतन्याभेदेन बरह्मणः स्वहदये प्रत्यक्ष 
ताया विवकितत्वाद्धदयाकारमेव विज्ञानशेष्रूतं विवक्षितामित्यथंः। 


जगस्नडं स्वतः र्पू्तिरादितयाद्रह् तु स्वयम्‌ । स्फुरतीत्यजटं तेन ज्ञानमित्यभिषीयते ॥ ९॥ 
जटं घयचन्तवत्स्यादेशकालादिवस्तुभिः । न देद्यादिकृतोऽन्तोऽस्य बह्मानन्तं ततः स्पृतम्‌॥ १० ॥ 
देशकालाबन्यवस्तुत्रयं मायाविञ्ंभितम्‌ । बहा सत्यं मायिकेस्तेः परिच्छिततं कथं भवेत्‌ ॥ ११॥ 
जडानृतपरिच्चछिन्नभ्यादृत््यव पदत्रयम्‌ । लक्षक स्यादखण्डस्य यतत्रह्येति बुध्यताम्‌ ॥ १२ ॥ 


-तेत्तिरीयकविवयाप्रकाशः 
( १) च॒.उ. ३. €, ११. (२ ) हृदयपुण्डरीकस्य मध्ये स्वागुष्टपरिमितो यः प्रसिद्ध आकाशः, स एवत्र 
परमं व्येमभित्युच्यते । जागरणग्यवहारेतु, स्सन्यवहारदेतु देहमध्यवत्यकारों बाह्याकासौ चक्षय सर्वदुःखर- 
हितयोः सुधुप्तिसमाध्योः स्थानत्वेन हदयाकाशस्येक्छष्टलं युक्तम्‌ । तसिमन्नाकादोऽवेखिता बुद्धिर्या, 
तस्यां ज्ञातृञेयज्ञानरूपत्रिपुटीन्यवहारस्य आान्तिविवेकाभ्यां संपादितयोर्भोगमोक्षयोश्च निगूढत्वात्तया 
बुध्योपलमभ्यत्वेन जहम तत्र निदितम्‌ 1 तत्र हि प्रत्यग््रह्मास्ति । तुल्य“ सर्वत्रापि स्थितं बह्म बुद्धवे- 
-वोपरभ्यते । गुहायां निष्ितं तेन बुद्धिस्थं वेद ईरितम्‌ ” ॥ आत्मप. १०. १८६. तथाचोक्तं 
-योगमाष्ये ( ४. २२. ) “ न पाताठं न च विवरं गिरीणां नैवान्धकारं कुक्षयो नोदधीनाम्‌ । गुहा यस्यां 
निदितं जहम शाश्वतं बुद्धिवृत्तिमविरिष्टं कवयो वेदयन्ते 2 ॥ “ गुदाहितं गहरेषठं पुराणम्‌ ” ( कठ. उ. 
२. १२. ) इत्यादिष्तिषु, यस्यां गदायां याश्वतं बह्म निहितमिष्यक्तं सा गहा, न पातालादि-किन्तु 
मविशिष्टां ( चित्तादात्मयापन्नां ) बुडधिद्ति-ज्ञानवृ्तिमेव पण्डिताः पदयन्ति-इति सक्षेपाथः; पंचदरीः 
2२. २. (२) °नोपासतनाङ्गलेन-इत्यधिको पटः । 


५८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ऋ्ह्म-आनन्द 


सोऽुते सवान्कामान्त्छह | जरणा `विपथितेति | 


,.,.--यो वै स बहिधीं पुरुषादाकाहाः,....-यो वे सोऽन्तः पुरुष आकीं | 
शः... --.योऽयमन्तहेद्य आकांदाः...' इति श्चुत्यन्तरात्मसिद्धं हार्दस्य व्योः! 
परमत्वम्‌ । तस्मिन्ादं व्योन्नि या बुद्धिगहा, तस्यां निहितं बह्म- तद्धत्या षि-, 
जहावेदनम्‌ विक्ततयोपरभ्यते--इति । न ह्यन्यथा विशिदे शकाटसंव 
न्धो ऽस्ति जह्यणः, सवेगतत्वान्निर्विञेषत्वाच्च । ॥ 

स पवं ब्रह्म विजानन्‌, किमित्याह--अश्ुते . भुङ्क सवोन्निरवशेषान्कामान्‌ 
पमपुरष्- काम्यभोगानित्यथेः । किमस्मदादिवत्पुज्नस्वगोदीन्पयीयेण ! 
प्रपराति नेत्याह--सखह युगपदेकक्षणोपारूढ नेवेकयोपरग्घ्या सवितु- 
प्रकाङ्वन्नित्यया, ब्रह्मस्वरूपराव्यतिरिक्तया,. यामवोचाम ‹ सत्यं ज्ञानमनन्त ” 
ति । एतत्तदुच्यते-ब्रह्मेभा सहेति 1 बह्मभूतो विदान्तरह्मखरूपेणेव सवौन्का- 


यदुक्तं भूताकाक्षस्य परमत्वादपपत्तिरिति तत्राऽ्ह--यो वा इति 1 नह निदितश्चब्दः- 
स्थिति श्रते, कथं विविक्ततया स्छुटतयोपठम्भाभिप्रायेण ध्याख्यायते ! तत्राह--न दीति।, 
अन्यथेति 1 उपलस्मघ्यतिरेकेण । 








( १) शां. उ. २. १२. ७-८-९. (२ ) अविद्याध्यस्तवुद्धिसम्बन्धकतकतृत्वादिधभवत्वादातने बुद्धौ 
निदिततवोक्तिः ¦ अथवा सलिकबुद्धिदत्या ‹ जह्मास्मि 2 इतिवाक्योत्थया ब्रह्मणो ददन बुदधिस्थसुक्तम्‌ ।' 
(२३) तद्यादृ््या-वाणीविखसमुद्रितपुस्तके पाठः । (४) निरवदिष्टन्‌ कामान्‌ मो०--इति -पाठः 1. 
(५) सवेश््रह्मरूपेण । इवं तृतीया “ पुत्रेण सदाऽऽगतः --इतिवन्न सदयोगलक्षणाः, अपितु ‹ शेतच्छत्रेण 
राजानमदराक्षीत्‌ इत्यादिवत्‌ ; इत्थंभावे तृतीया । सदशन्दस्य युगपदथलेऽपि योगपदस्य मेदसयपेक्षला- 
दप्रसक्तिरितिचेत्‌-न, “ अदं ह्मासमि ` इति ्ञानाद्ञाननितर्या तत्करा्यांसत्यपरिच्छेदादिनिव्त्तेः साक्षा. 
त्कृतन्रह्मा ब्रह्मविदात्मरूपेण ब्रह्मरूपेण च सर्वानानन्दान्‌ योगपचेनासुभवति । 

तादृग्ह्म कथं विद्यादिति चेदभिधीयते । गृदायां परमे व्योन्नि चितं बह्म तु वेद यः॥ १२॥ 
देादस्यन्तर्‌ः प्राणः प्राणादभ्यन्तरं मनः 1 ततः कर्ती ततो मोक्ता गुहया सेयं परंपरा ॥ १४॥ 
प॑चकोक्गुशयां यदज्घानं कारणं स्थितम्‌! तन्ोम परमं तस्मितनिगुढं ब्रह्म तिष्ठति ॥*१५॥ 
जीवे च॑तन्यमेवात्र निगढमिति चेत्तदा । तस्यैव ब्रह्मतां विचयाउजीवलभ्नान्तिहन्ये ॥ १६ ॥ 
स्वतो ब्रह्मेव चेतन्यं जीवलवं प्राणधारणात्‌ । कोदातादात्म्यविभ्रान्त्या भात्यस्य प्राणधारणम्‌ ॥१७॥. 
, व्ष्यमाणविवेकेन त्त्तादाल्यमपोहयते । बह्मसाकृतिस्ीहग्बोधेनैव न चान्यथा ॥ १८ ॥ 
वाह्यं जगत्प॑चकोशांश्वपेोह्यन्तुखास्य धीः । बह्म साक्षात्करोव्येव सर्वोपाधिविवार्जतम्‌ ॥ १९ ॥ 
सोपाध्येव बदिर्टथा भति ब्रह्म न तावता । अपैति जीवता तस्मादन्तर्द्टयैव बुध्यताम्‌ ॥ २० ॥ 
बदिरैषि्जगद्धानं तस्य सत्यत्वधीरपि । विवेकात्सत्यताऽवैति जगद्धानै तु योगतः ॥ २१॥ 
बदिदैष्टवेपयातामन्तरैष्टया यदीक्षते । निगूढं जीवचैतन्यं तद्रहयेति यपद्यति ॥ २२ ॥' 
१.92) 


१ प्रथमोऽनुवाकः ] परपरापिः ५९ 


मान्सहाद्युते, न यथोपोधिङ्कतेन स्वरूपेणाऽऽत्मना जरसुयेकादिवत्मतिदिम्ब- 
भूतेन स सरिकेग धमोदिनिमित्तयेश्चांश्चक्षुरादिकरणपिक्षांश्च सान्‌. कामा- 
न्प्ययेणाद्युते रोकः! कथं तर्हिं १ यथोक्तेन प्रकारेण सवेक्षेन, सवेगतेनः, सवो- 
त्मना, नित्यन्रह्ात्मस्वरूपेण धमोदिनिमिच्चानपेश्षाश्चक्षुरादिकरणनिरपेश्षाशच 
सर्वौन्कामान्सहैवादनुत इत्यथैः । पिपथिता मेधाविना स्वैहेन । तद्धि 
वेपश्चित्यं यत्सर्व्षत्वं, तेन सवेक्ञस्वरूपेण बह्मणाऽद्ुत इति । इतिशब्दो ` 
मन्त्रपरिसखमाप्त्यथेः ॥ 


सवं एव वलुथरथो ‹ ब्ह्मविदामोति परम्‌ * इति ब्राह्यणवाक्येन सूत्रितः, स 
उत्तरन्यसंगतिः च सूतरितोऽथः संक्षेपतो मन्त्रेण व्याख्यातः, पुनस्तस्यैव चि- 
स्तरेणाथनिणेयः कतैव्यः--इ्युत्तरस्तदवत्तिस्थानीयो श्रन्थ आरभ्यते-^तस्मा- 
द्वा एतस्मात्‌! इत्यादिः । ॥ 

तत्रं च ' सत्यं ज्ञानमनन्तं बरह्म ` इत्युक्तं मन्त्रादौ; तत्कथं ' स्यं › “ अनन्तं ' 
ह्मण आनन्त्यप्रपः चेति १ अत आह्‌ । तत्र अिविधं ह्यावन्त्यं-देरातः, कारतः, वस्तु 





अविदयावस्थायां ये सखविरेषा दिरण्यगभौयुपाधिष् मोग्यत्वेनाभिमताः, तेषां सवेषां ब्रह्मा- 
नन्दान्यतिरेकात्‌, अ्रघ्लीभूतो विद्वान्सवानेवाऽनन्दानश्चत इत्युपचारेण बहैवचनमित्यथः ॥ 


ठत्तमदवदत्युत्तरयन्थावतारणाय- स्मै पवेत्यादिना । 

(१) न तथा यथा-व्‌[. वि. पाठः! (२) स्वैपदाथोनां त्रिधा परिच्छिन्नलात्‌, बह्मणोऽपि वस्तुखेन 
विभक्तत्वात्‌+ रज्जसर्पवदेव सत्यल्वायोगात्‌, असत्यतवदिव जडत्वात्‌ , कोरापचकविलक्षणं सत्यज्ञानानन्तानन्द्‌- - 
तकं निर्धिरेषं निमयं बह्मलिलयुक्ते मन्थो न सिध्यति-इति चेत्‌, न-सव॑जगत्कारणतवाद्रह्मणलि- - 
विधमानन्लं सिध्यति; अतश्च सत्यत्वं, श्ञानत्वं च तस्मिश्पपदयते । तचानन्तयं सर्वकारणलवक्रतमनन्तरमेव 
प्रकायकरियेते। (३) अविचावस्थावयामुपाध्यगच्छेदाद्विमक्तवदमिव्यत्तरबहू्तिः । 

ष्टे तस्मिन्परपरप्त्या विदुषोऽतिरयोऽत कः। इति चेद्युगपत्स्वकामाप्तिरधिका भवेत्‌ ॥ २२॥ 
काम्यन्ते विषयानन्द निखिलः प्राणिभिः सदा ! ब्रह्मान॑दस्य ते स्वँ छेदा इत्यपरा श्रतिः ॥२४॥ 
आनन्दहेतवो बाह्या विषया इति विभ्रमात्‌ । कामयन्ते बहिरैष्टया विषयाम्प्राणिनोऽखिलः ।२५। 
अभीष्टविषये म्पे धीः प्रत्यावृत्य हृदतपर्‌ । बह्मानैदं क्षणं भुक्ता बाह्यं कामयते पुनः ।! २६ ॥ 
क्षणिकत्वषिरातास्य पूणैस्यापयुपचयते । विषयानंदता भान्त्या ब्रह्मानन्दो हि वस्तुतः । २७॥ 
घन्तर्ष्टया विवेकी तु ब्रह्मानन्दं सदेक्षते । अन्तर्भवन्ति क्षणिका; सवै तस्मित्निरन्तरे ।॥ २८ ॥ 
त च्दविद्रहमरूपेण सवान्कामान्‌ सादुत । श्येषोऽतिरयो ब्रह्म-प्रपिरूपं फं तम्‌ ॥२९॥ 


-तेत्तिरीयकविव्याप्रकाशःः 


६० तैत्तिरीयोपनिषत्‌ 





रु 


आकादावत्कारुतोऽप्यन्तवत्वम्‌, अकार्यत्वार ; कार्यं हि वस्तु काकेन परिच्छि, 


चते, यकाय च बह्म, तस्मात्काङतोऽस्यानन्त्यम्‌ । तथा वस्तुतः । कथं पुनव 


ऽप्यानन्त्यम्‌ । 
कथं पुनः सवौनन्यत्वं ब्रह्मणः इति ?--उच्यते, सवैवस्तुकारणत्वात्‌-सर्वेषां 
.हि वस्तूनां काटाकादादीनां कारणं जह्य । कायोपेक्षया वस्तुतो.ऽन्तवन्छ- 
मिति चेत्‌, न;अनृतत्वात्कायवस्तुनः- नहि कारणम्यतिरेकेण कायं नाम वस्तु- 
तोऽस्ति, यतः कारणवुद्धिर्विनिवतंत; “वाचारम्भणं चिकारो नामधेयं मुत्तिके- 
व्येव सत्यम्‌, एवं “सदेव .--सत्यम्‌ इवि श्युत्यन्वरात्‌। तस्मात्‌--आकादादिका- 
-रणत्वात्‌-देदातस्तावदनन्तं ब्रह्म । आकाश्गे ह्यनन्त इति प्रसिद्धं देशतः, 
तस्य चेद्‌ कारणं, तस्मात्सिद्धं देशत आत्मन आनन्त्यम्‌-न ह्यसर्वगतात्स्ै- 
गत." पचभनं कोके किञचिदुदयते । अतो निरतिदायमात्मन आनन्त्यं देशतः, 
तथाऽकार्यत्वात्काखतः, तद्धिन्नवस्त्वन्तराभावाच्च वस्तुतः । अत एव निरः 

तिहायसत्यत्वम्‌। 


आकाश्चादिकारणत्वाभिधानेनाऽऽनन्यय्प्रपञ्चः कियत इति समनन्तरयन्थतात्पयं दयितं 
पूवोक्तिष्वथेविरेषमडवदति--तज्र चेति । वस्व॒त आनन्त्यं व्याख्यातुं वस्तुनोऽन्तवस्वं 
तावदाह--भिन्नं हीत्यादिना 1 

विस्तरेणोक्तमानन्त्यं संकषिप्याऽऽह--तस्मात्सिद्धमिति । देशतोऽनवच््छिनस्याऽऽका- 
दस्य कारणत्वाव्यापकत्वात्रिरतिश्यमात्मनो देशत आनन्यम्‌ , अकायंत्वाच्च कार्त आ- 
न्त्यम्‌, तयतो प्याव्तेत तस्य एथगसत्वात्‌, कायेस्योपारानादन्यत्र सतत्वायोगाद्वस्व॒तोऽष्या- 


( २) प्रसक्त, परसक्तव ०--पाढो ( २ ) विनिवृ्तिः-पाठः 1 (३) छां. उ, ६. १. ४, ८४) तुल्य-- 
^ यदानन्त्वंमततिश्ञाय शृतिस्तस्मिद्धये जग । तत्कार्यत्वं प्रपचस्य तदरमत्यवधारय ।। > वाक्यदर्तौ २३. 


१ प्रथमोऽलुबाकः | सृष्टिः-त्रह्मकिवतेः ६१ 


( व्याख्यानम्‌ ) 
` तस्पाद्रा एतस्मांदासनं आङाश्ञः संभूतः । आका- 
सटः श्ाद्वायु; । वायोरभि । अगेराप॑ः । अदभ्यः परथिवी । 
पृथिव्या ओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम्‌ । अच्नातपुरषः । 
तस्मादिति भूटवाक्यसुतनितं ‹ ब्रह्म * परामश्यते; , पतस्मादितिमन््वाक्ये- 
महयातमनेरैेयम्‌ नानन्तरं यथाङुक्ितम्‌ । यद्भह्याऽऽदो ब्राह्मणवक्येन सूति- 
तम्‌, यच्च “ सत्यं ज्ञानमनन्तं अह्य › शतयनन्तरमेव ठश्चितम्‌, तस्मदेतस्माद्रह्य- 


एवं सुष्टिवाक्यतात्पयेखचकस्वा पदानि विभजते तस्मादित्यादिना । अन्यकायेषयेन्ते 





१ ^ ब्रह्मविदामोति परम्‌ > इति जह्मज्ञानमाघ्रा्रह्यप्राप्तिश्रवणात्‌ , “ जह्मणा विपश्चिता ` इति च ब्रह्मविदो 
विपथे बरह्मणा सामानाधिकरण्यश्रवणाद्रह्यातमोखियावगमात्‌ पर्वोक्तसामानाधिकरण्यसाम्यात्‌ 
° तस्मात्‌ * इत्यतोक्ताभ्यां तदेतच्छब्दाभ्यां समानाधिकरणाभ्यां ब्रह्मात्मनो भेदरूपं प्रत्यक्वं ब्रह्मणो भातिः 
तेन तस्मन्नेतच्छब्दप्येगेपपत्तिरित्यथः । किंधास्मिन्वग्ये ब्रह्मण्यात्मदाब्दप्रयोगो दयते; स चाऽऽत्मदेः 
स्येव बरह्मणो युज्यते, प्रवीचोऽन्यत्रातमरब्दप्रयोगायोगात्‌ । भतो युक्तं बह्मासनेरैक्यम्‌-इति वार्विकर्ीका- 
२. १२८. तस्मदवैतस्मादित्यक्ते सति, ऋचा सूत्रेण च प्रतिपादितिमेकमेव वस्तदयक्तं भवति । अथवा परो- 
क्षगाचिना तच्छब्देन राखगम्यो जह्यत्वाकारोऽभिधीयते । वैसब्दस्तस्मिन््रह्मणि सवेवेदयान्तप्रसिद्धिमदरदीनारथः ! 
म्रयक्षवाचिनैतच्छब्देनापरेक्षानुभवगम्यः प्रत्यगत्मल्ाकारोऽभिधीयते । तदेव विस्पष्टयितुमात्मन इत्युच्यते ।. 
त्रस्मदितस्माशितपदद्वयसामानाधिकरण्येन प्रत्यग्रह्मणोस्तादात्मययु्यते । एतदेव पू्ैस्यामप्युचि “जह्मणा वि- 
पश्ित्ता ° इति सामानाधिकरण्येनोदाह्म्‌-इति सा. भाष्ये। सूप्ववग्ये मन्त्रे च सत्यादिरुक्षणोऽयमानग्दात्मा 
समीरितः, स मेदासंभवन्निभेदोऽदयो भवति । त्त्र युक्तिस्तियं सृषटिवाक्यप्रदार्शैता-कारणाद्धिन्रस- 
ताकलामावः कार्यस्य प्रसिद्धः ! ततो ब्रह्मण एव विश्वकारणले प्रतिपादतिऽद्यतव स्रं भवति । यतः सर्वत्र 
काये कारणानुगमः. प्रसिद्धः, तेन सद्रूपं गगने स्थितम्‌ गगनादिकं चेोत्तरोत्तर्रेति । अपरं तलत्र कये या 
कारणस्थितिः सा तादात्म्यसंबन्धेन--मेदसदिष्णुरमेदः इतिक्षितेन बोध्या । अत्र भेदस्तु कल्पितः । परि- 
णामिनः कारणस्य युणाः कयै ददयन्ते--इति नियमेन यदि ज्ञानमात्मनो युणोऽमविष्यत्‌, तदा मृतेषु टष्ट- 
मभविष्यत्‌ ; परंतु तत्‌ स्वरूपमेवात्मनः, न गुणः, अतो न दृदयते । तदभावादात्मनो विवतपादानतेवः 
ज्ञायते । विवर्तोपादानता तु मायारबलाख्येन कस्पितेनैव रूपेण भवति । अत्र शतिः प्रदरशंनार्थतेनाऽऽकाद्या- 
दिकां कियतीमपि सषटिसुदाजहार । साक्य्येन समिधानमरक्यमनुषयुक्तं च । ब्रह्मावनेधदवार्वेन तदाभे- 
धानम्‌ । " फल्वत्सन्निधावफलं तदङ्गम्‌ --( शबरमाष्ये ४.४.१९.) इति न्यायेनात्र खश्िकथनमद्यत्वबो- 
धद्रारत्व॑ मजते ! तच द्वारलमदाभिधनेऽपि संपदे ! द्ारत्वेनोपयोगो गौडपादा वर्वैरुदाहतः-“ गृह 
विस्फुलिङ्गचेः सष्टियौ चोदितान्यथा । उपायः सोऽवताराय नास्ति मेदः कथचन ” ॥ ( मां. उ. कारिका. 
३. ५. ) इति । नहि भृष्टिरपास्यतवेन, ेयलेन वा खतन्त्रपुरुषाथौय कर्पते ! युषटिसुपासीत, युषिविच्छ्रेयः 
परप्नोति--इव्येव॑वचनाभावात्‌ । अत॒ एव श्ुतिस्मृतिपुराणागमेषु परस्परविरोधेन वहुधा कथ्यमाना सूष्टिः 
सवीपि वाप्तिककारै्ीकृता- “य्‌ा यया भवेत्पुंसां व्युत्पत्तिः प्रत्यगासमनि । सा सैव प्रक्रियेह स्यत्साघ्वीः 





&२ तेत्तिरीयोषतिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्‌ 


"णः--भत्मन मात्मशब्दवाच्यात्‌, आत्मा हि तत्सर्वस्य, “तत्सत्यं स ओत्मा^ः 
-इति श्चुत्यन्तरात्‌, अतो बरह्याऽऽत्मा । | , ५ 
तस्मादेतस्माद्गह्णः-आत्मस्वरूपाव्-भाकादाः संभूतः समुत्पश्नः। आकाशो 


परमात्मनः सवेत्रोपादानत्वात्‌ । आकाक्षभावापन्नात्परमात्मन एव वायुः संभूतः, अत एव 


~~~ 
सा चानवधिता” ॥ बर. उ. वातिके १. ४. ४०२. इदमेवं समुपडहितं बह्मगीतासु (२. २४) बहमरूपा- 
त्मनस्तस्मादेतस्माच्छक्तिमिशितात्‌। अपञ्चीकृत आकाशः संभूतो रज्जुसर्पवत्‌ ॥ ८.* "“"असङ्ञो- 
दासीनस्य परमार्थतो निरविस्य चषटत्वासंमव इत्यभिप्रेत्य तत्ध॑मावनायाऽऽद--राक्तेमिभितादिति । भ्राणि- 
कर्मपारेपाकवरशेन सिसुक्षितकायैमपन्चोन्पुखत्सवरूपपारेकधिततेन तदाधिता मायाशक्तिः, तन्मि्नितात्तदुपा- 
 विकादित्यथः । एं मायाशक्तिबलद्रह्रूपादात्मनः सकाशादपन्चीक्ृतः सृक्मशचब्दगुणोऽवकाशात्मक आकारः 
संभूतः सयुयन्नः 1" ˆ“ निभित्तकारणवाचिराब्दादपि पन्वभमी भवति--हेतो विधानात्‌ । त्थोपादानकारणवा- 
चिशचब्दादपि “८ जनिकतुः परकृतिः ” ( पा. सू, १.४. ३० ) इति स्मरणात्‌ । एतै चत्र तस्मादिति पन्चमी 
तदुमयरूपा त्तरेणोपात्ता द्रष्टव्या । बहवैव कार्यस्य जगतो निमित्तमुपादानं च । ८ सोऽकामयत बहु स्या 
गरजयेय * (तै. उ. २- ६, ) इति कामयिवृलेन सस्थैव बहुमविन चमिन्ननिमित्तोपादानस्यप्रे प्रतिपादित 
त्वात्‌ \ बादरायणोऽपि ब्रह्मण उभयरूपत्वं सत्रयामास--“परङृतिश्च प्रतिकषाटषटन्तानुपरोषाव्‌” (र. सू, १.४. 
२३. ) इति ! ये लस्परेद्रव्यलादात्मवदाकारास्य नित्यत्वे मन्यमानाः “ संभूत ” इत्यभिव्यक्तिपरतयोक्तमर्थम- 
न्यथयन्ति, ते बादरायणेनेव ^ न वियदश्चतेः ” ( त्र. सू. २. ३, १, ७) इत्यधिकरणे निरक्रताः ¡ ननु 
वियदादिकार्यप्रपन्चेनेव वस्तुना जह्मणः परिच्छेदः स्यात्‌ ; तथा ब्रह्मोपादानं सत्‌ क्षीरदभिन्यायेन जगदाकारेण 
परिणमते, अथवा शद्धटन्ययेन जगदारभते--इत्यनयोएन्यततपदङ्गीकर्तन्यम्‌ । तथाच ब्रह्मणोऽनिलत्वादिप्रसक्ति- 
शितयाज्ञक्याऽऽद-रज्जुसप॑वदिति ! न खस्पतरारम्भवादः, परिणामवादो वा विवक्षितः, येनैवं प्रसज्येत; भितु 
, विवतेवाद्‌ एव विवक्षितः । यथा रब्जुः स्वयमविक्रतैव सतती मायया सर्पाकरेण विवौते, एवं बह्मापि निधि- 
` कारमेव सत्‌ स्वमायारोक्तिविलासेन वियददिजगदाकारेण विवे । कारणस्वरूपापिरोभेन कार्येपरतिमासो वि- 
` वतेः । अते ब्रह्मणो निर्विकारत्वाविघातान्नानित्यतवप्रसक्तिरित्यथः । अयमेवार्थ बरादरायणेनापि ५ कृत्लप्रस- 
 क्तिरमिरवयवतश्चब्दकोपो वा ” ( ब्र. सू, २. १, २९. ) इत्यत्र निर्णीतः ! एवं ब्रह्मकारस्य वियददिभूत्रमै- 
 तिकमरपञ्चस्ययिष्ठने ब्रह्मणि कारणे मायाप्रकसिपितत्वेन रज्जुसर्पवदेवापिषठानादव्यतिरिक्ततम्‌ । यथा च 
सत्वाय घट्रारवोदन्नादिकं कारणमूतमुन्यतिरेकेणारुब्धसत्ताकलात्‌ प्थुवुघ्रोदराकारारिरूपपिरेषस्य तदा 
चकषटादिशब्दस्य च वाचारभ्मणमत्रलात्‌ कारणमन्मात्रमेव) न तु ततोऽन्यत्‌ । एवं बह्मकार्यस्यापि कार- 
णानन्यत्वद्रह्मणस्तक्छृतपरच्छिदो न हंकनीय इत्यर्थः" तात्पर्वशेपिका । 
१) छां. उ. ६.८.५७. (२ ) काररूपापत्नाद्रह्मणः ( ३ ) आकाशरु०-पाठः ( ४ ) वयुरूपाप- 
 न्ाद्ह्मणः; एवमग्रेऽपयह्यम्‌ । प्रमात्मेनाकाशवायाचाकारेण प्रतिभासत इत्यथः । 


१ प्रथमोऽलुगकः | अश्नषयकोदाः ६३ 


मत्तमयकोदः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । 
मोक्तमौतिकभपषसुषटिः पृथिव्यां ओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम्‌ 1 अन्नाद्रेतोरूपेण 
` धरिणतात्पुरुषः शिर"पाण्यत्याङ्विमा-- ॥ | 

सं वा एष पुरषोऽन्नरसमयोऽन्नरसविकारः । पुरुषाङृतिभावितं हि सवं- 
भ्योऽङ्धभ्यस्तेजःसंभूतं रेतो बीजं, तस्माद्यो जायते, सोऽपि तथा पुरूषाङतिरेव 
स्यात्‌-सवैजातिषु जायत जनकाङतिनियमदश्नात्‌ । 
 सर्वेषामप्यन्नरसविकारत्वे, अह्यवर्यत्वे चाविरिष्टे, कस्मात्पुरुष एव गृहते १ 
शाखापिकास्त्‌ प्राधान्यात्‌ । किं पुनः प्राधान्यम्‌ ? कर्मज्ञानाधिकारः-पुख्ष 
पुखय्रदणम्‌ पब हि शाक्तत्वादर्थित्वादपययैदस्तत्वाच्च कर्मज्ञानयोरधि- 
क्रियते-“पुंरुषे त्वेवाऽऽविस्तरामात्मा, स हि प्रज्ञानेन संपन्नतमो विज्ञातं 
प्राणमृदुपाधिषु वदति, विज्ञातं पयति, वेद्‌ श्वस्तनं, वेद्‌ टोकारोकौ, मत्यै 
तारतम्यम्‌ नास॒तमाप्सत्येवं संपन्नः; अथेतरेषां पद्रूनामदनापिपासे 
पवाभिविन्ञानम्‌ *-इत्यादिश्वुखन्तरव शेनात्‌। 
ततुणस्योत्तरत्राहत्तिः; युणशबदधयोगोऽपि भेदकल्पनया तत्तन्वत्वामिप्रायेण, न वेशेषिक- 
शरक्षवत्तत्भेदाभिप्रायेण, तस्वतो मेदे प्रमाणाभावाव्‌-इति द््न्यम्‌ ॥ 

पुरुषग्रहणस्य तात्पयंमाह-सर्वैषामपीति । “ शक्तत्वात्‌ ` इति-विधिनिषेधाविवेकसा- 
मथ्येपितत्वादिति--उकतं, त्तरतरेयकश्चतिंमातिमाद-- पुर्षे त्वेवेति । ब्राह्मण्यादिजाति- 
मति महष्यादिदेह आविस्तरामतिशयेन प्रकट आत्मा श्ञानातिश्यदकचेनादियथेः । मर्यँन 
जञानकर्मादिक्षाधनेनाक्षयफटं प्राप्तुमिच्छतीत्यथंः । येन विवेकज्ञानेन रुषस्य प्राधान्यं विव~ 
क्षितं तत्पशवारदानां नास्तीत्याह--अथेतरेषाभिति । 








क ` क) 


(१) पृथिव्या ओषधयः इत्योषधीनां पन्वीकृतशृ्वीकायवश्वणत्यन्चीक्रतमदहाभूतोत्पत्तरिदोक्तत्वेन पल्ची- 
ृतमहामूतशरीरतवाद्विराजस्तदुततत्यवोयत्तिः सिद्धा । अपि च विराजः सूत्रकायेलात्कारणस्यपि सत्रस्ोत्म- 
त्तिरिहयाभिपरता । (२) ‹यो वेद निदितं गुहायाम्‌ › इत्युक्तं गुददानिहितत्वं समथयित॒मत्मयादिभ्ब आनन्दम- 
यान्तेभ्यः पन्चञ्यः कोरेभ्यो ्रहमतत्त्वं विवेक्तकाम आदावन्नमयको रो दरयति-“ स वा एषः “-इत्या- 
दि! (३) रे. आ. २. ३. २. न विज्ञाते वदन्ति, न विज्ञातं परयन्ति, न विदुः श्वस्तनं न लकालोको, 
त एतावन्तो मवन्ति--यथापरञं हि संमवाः "> । इति वाक्यशेषः । लोकालेको-स्वगेनरलोको । तात्काकिक- 
श्ुषादिजञानोपेता गवाधादिपरवो मवन्ति, यतो ज्ञानकमांनुसरेण जीवानां जन्मानि । एतदेवाभपरत्व परले- 
कामिनं जीवं प्रति वाजसनेयिन आमनन्ति-“ तं विधाकर्मणी समन्वारभेते पूवर च ” ८ बु. उ. ४. 
४, २. ) इति । “ पुण्यो बै पुण्येन कर्मणा मवति, पापः प्रपिन ” (श्रु. उ. ४. ४.५) इति च । तदेव 
मनुष्यदेहस्योत्तमोपाधिलात्तस्मननेवाऽऽत्मन भविभावातिदयः 





क .. तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ श्रह्येमआमन्द्‌ः 


ज्लपसनैय तस्येदमेव श्चिरः। अयं दक्षिणः. पक्षः । अयरुत्तरः 
क्रः .. पत्तः । अवपात्मा । इद्‌ पुच्छ. प्रतिष्ठा |. ... 
` देष मो वति ॥ -.* “` 
| इति ङृष्णयचुर्ेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द--बह्यां 
प्रथमोऽनुवाकः ।। १ ॥ 


` सहि पुरष इह विद्याऽन्तरतमं ब्रहम संक्रामयि तुमिष्ठ, तस्य च बाह्याकाराि- ` 
शेपष्वनात्मस्वातममाविवा बुद्धि, अनाठस्म्य विशेषं कंचित्‌, सहसाऽऽन्तरतम- 
त्वगात्यविषया निराङग्बना च कतमद्राकयर, इति दष्टशरीरात्मलामान्यकट्पनया , 


तटठभनेदशनवदन्वः प्रवेशयन्नाह - तस्येदमेव शिरः} ' तस्य ' अस्य पुरष- 
पद्यस्य शवमेव हिरः ' प्रसिद्धम्‌ । प्राणमयादिष्वशिरसां शिरस्त्वद- 
सेनादिष्ापि तत्मसङ्ञो मा भूदिति--शदमेव रिर इत्युच्यते 1 एवं पक्षादिषु 
योना । अयं दक्षिणो बाहुः पृवीभिमुखस्य दक्षिणः पक्षः । अयं सव्यो 
बाहरू्तरः पक्षः । अयं मध्यमो देहमाग आत्माऽ्गानाम्‌- “मध्यं ह्ेषामः- 
सुनामातभा” इति श्रुतेः इद्‌ मिति नामेग्धस्ताचदङ्ग, तत्पुच्छं प्रतिष्ठा । प्रतितिष्ठत्यन 
यति श्रतिष्ठाः। पुच्छमिव पुच्छं अधोरम्बनखामान्यात्‌, यथा गोः पुच्छम्‌ । एत 
त्म्ृत्योत्तरेषां श्राणमयादीनां रुपकत्व तद्धि मूषानिषिक्तदतताश्रप्रतिमावत्‌। 
तदष्येष ्छोको मवति 1 तत्‌! तसिमन्नेवार्थ ब्राह्मणोक्तेऽन्नमयातमप्रकाशक ए 
छेको मन्बो भवति । | | 
इति श्रीमत्परम्हंसपरित्राजका चायेगोविन्दभगवत्पूज्यपादरिष्यश्भीमच्छ॑करभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषदि बह्--आनन्द-- व्टीभाष्ये प्रथंमोऽहवाकः ॥ १॥ 


कोर्शेपञ्चकोपन्थापस्य तात्पयमाह--स हीत्यादिना । “क्ष ` षुच्छ शब्दप्रयोगात्छ- 
पणौकारक्टक्नि दशैयति-उत्त एर तत्कल्पनया बाध्चविषयासङ्न्यपोहेन ददे रात्मनि स्थिरी- 
करणार्थं नोपास्नविधानमिह विवक्षितम । उपक्रमोपसंहारयेग्र्ातनेकत्वप्रतिपादनेनैवोप- 





( १) अस्याक्नमयस्य स्थृल्देदात्मकस्य पक्षिण उपातितव्यस्य द्येनकेकादिपक्षयाक्ररेण चीयमानस्यप्नेरिव । 
(२) दे. आ. २.३. ५. (२) अत्र भयष्ये, ट्यां च वैदिकपागनुसारिमूखानुवाकसमाप्ियथिता । एवमेव 
पुरतोऽपि ब्रहम-भानन्द-वह्यीसमापिपयंन्तं जेयम्‌ । श्रथमोऽनुवाकः” इत्यत्र श्रथमः खण्डः” इति पाठान्तरम्‌; 
एवमेव समा्तिप्य॑तं वथायेोग्यमृह्यम्‌। (४) “८ तत्र तावस्मीवभविनावस्थितस्य त्रीणि रायीरणि भवन्ति 
सथूरपु्मकारणालना । तवाननरसपरिणामरूपं षाटकौरिकं ( तगमृद्मांसमेदोऽस्थिभजञेति ). स्थूरदरीरं 


व 


९ प्रथकोऽलुवाकः ] अन्नमखक्येखः ‹ ६५ 


श्यत्‌, मध्ये यन्थस्योपासनविधो तात्प च कक्यमेङ्गयप्तङ्ाठ; अत एव “अङ्कु स्तुतिः 
पंराथत्वात्‌”-- इतिन्यायेन यथा प्रयाजादिषु फठश्चवणमेथवादः, वथाऽ्रमयादिप्रतिपत्ते- 
रपि फलश्रवणमर्थवाद्‌ एव--तत्तददिस्थिरीकारस्व एवेपएवेडदिग्रविरपपनेनाऽपत्मनः परति- 
पत्तिरेषत्वात--इति दषटन्यम्‌ । | 


इति श्रीमस्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपुज्यप्रदरिष्यानन्द्चानविरचिते तेततिरयोष्‌- 
निषच्छांकरभाष्यरिप्पणे बरह्म-भानन्द-यल्या प्रयमोऽदुवाकः ॥ १ ॥ 


4 नानानान्--- ~ 








तत्तादात्मयापक्नोऽत्नमय आत्मा भवति । ‹ स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ` इति शतो तच्छब्देन प्रकतमातमन्र 
पराग तस्यान्नमयलम्रतिपादनात्‌ । एवं प्राणादिवश्यमाणक्रेशतादात्म्येन प्राणमयादित्वमपि तस्यालनो- 
ऽषिगनतव्यम्‌ । तस्य चाह्नपरिणामरूपस्य स्थूरुशषरीरस्थाऽऽत्मल्नोपदेरेन स्वसरोरादन्यस्य पुत्रमित्रकलत्रदि- 
गत्मलश्नमो निवर्तितः । तस्य मध्येऽपि सृष्षममूतारन्यं यत्सप्तदशकं लिङ्ग, तदात्मनः सूक्ष्मशरीरम्‌ › 
तदुमयस्य हेतुभूता था मरिनिसत्तप्रवानाऽविचा सुुप्राववमासते, सा तस्यात्मनः कारणञ्षधरम्‌ । तत्र 
सृस्मसररे प्राणमयमनोमयविज्ञानमयाख्यकोशत्रयान्तमावः । आनन्दमयस्तु कारणसरीरमिति विवेकः.1> 
-तात्पयंदीपिकःा । 
अन्नरसमयद्चष्देन न प्रसिद्धमेव सरीरं प्राह्यम्‌, किन्तु विराडात्मापि ! “५ येऽत्र जह्लोपाप्तते इत्यत्र 
ध्यानोपदेशाच्छिरमादिकरपनायाश्च ध्याना्थलादिराद्देवताऽत्र अदीतव्या । पन्वविधकोक्षानां चित्यात्मकानःं 
नैरन्तयेणानुसन्धाना द्ुद्धश्ुद्तिशये विेकलुद्धिभेवति । तदाच पूर्व पर्वं कोरमपदायोत्तरसत्तरं अतिपघते । 
तदेवं सवोनपि कोडान्‌ प्रविलाप्य “ अदं नह्यास्मि "‡ इति ज्ञानान्मोक्षमधिगच्छति । ‹ सर्वाततप्रापिः, › बुद्धि- 
शुद्धिः --इतिफल्द्रयसुपास्तनस्य श्तिसिद्धत्वादविरुद्धम्‌ । 

ˆ (१) “उपक्रमोपसहारावभ्यासोऽपुवैता फलम्‌ । अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तादरयनिर्णये” ॥ इत्यखिलकेदा- 
न्तानां जह्मासैकत्वनिश्वायकानि षडा लिङ्गानि । अत्र तेत्तिरीयके-“ बरहमविदापोति परम्‌ » (२. २.) 
इत्युपक्रमः; “ जानन्दो जह्मेति व्यजानात्‌ ” ( ३. &. ) इत्युपसंहारः; “ स यश्चायं ” (२. ८. ) इत्य- 
भ्या्तः; ¢ यो वेद निदितं गुहायां ” ( २. १. ) इत्यपूरवतासूचनम्‌ ; ५ अभवं भतिष्टं विन्दते, अथ सो- 
ऽभयं गतो भवति > (२. ७. ) इति फरश्चतिः;.“ सोऽकामयत”. (२. ६. ) इत्वाबर्थवादः$ “ अस- 
ननैव स मवति । असद्रहयेति वेद चेत्‌” ( २.६. ) इति, को दयेवान्यात्‌ १ कः ्राण्यात्‌ > १ इत्युपपत्तिः । 
(२) जे. स. ४.२. १९ (३) ‹ संमिथो यजति >, ‹ तनूनपातं यजति ?, “ इडो यजति , बर्हियंजति, 
° स्वाष्टाकारं यजति इति विहिता पञ्च प्रयाजाहतयः । यस्मात्‌ ‹ ऋतवः देमन्तदििरयेरेष्येन "पञ्च, 
अतस्तदात्मका अपि प्रयाजाः प्ज्व-(शत, बा. १.४, ४. १; ते. सं. २. ६. १. १--५; तन्मन्नाः तै. ऋ. 
२. ५. ५. ऋष्ट्यः) अफरुस्य हि प्रयाजदेः कैमथैवयवस्यात्‌ ^ फल्वत्संनिधावफरं तदङ्गम्‌  ( शवरभष्ये 
४. ४. १९. ) इति न्ययन फलवदाभ्नेयादियागरषल्वं द्यते । .यस्मयाजारििषिवाक्यदेषेण ¢“ वर्मं वा एत- 
अज्ञस्य त्रियते "इति फलं शरुत, तस्य अङ्गेषु स्तुतिः पराथलात्‌ ” इति न्यमिनार्थादलम्‌ । भयाजदेर्ह 
दरोपूणेमासम्करणपर्तिलेनङ्ग्गिभावस्य गिर्णतलात्‌, युक्तं॑तदीयफकशवणस्यारथवाद्तम्‌-( जे. न्या. 
मा. वि. २.२. ११; ४. ३. १-२. इत्यदौ ). | 

एत्रव्याख्यानरूपायामच्यनन्तभितीरितम्‌ । तदानन्त्यसिष्र्थजत्कारणतोच्यते ॥ २०. 
यत्सलं नहा कोशाल्यगुहयायां न्योमनामके । भ्ञने करगे गूढ त्रसादात्राश्च गतः ॥ २१ ॥ 
९ | 


भै, 9“ + 1" ^ 


( क ५ ५“ , 
` अथं द्वितीयोऽनुवाकः 
~ ५ है _ ४ भ्त ॥ (क + -4 
भन्ये शनः अन्नाद पना; पजायन्त । याः काश्च प्रका 
~ ऋ ननैव अ : दपि ४, ` ` 
िताः। अथो अन्नैनैव जीवन्ति ।. अथैनदपि 
५९ नां % „= तस्मा 
यन्त्यन्ततः । अन्न ^.हि गतानां ज्यम्‌ तस्माद्‌ 
स भद ७, = # 
सर्वौषधमुच्यते । सवं वे तेऽगर॑पाप्सुबन्ति । येऽत्र 
ब्रह्मोपासते । अक्न^हि प्रताना उये्म्‌। तस्मा _ ` 
त्स्गोषधररंर 1 अन्नांदूत [प न जा 
षमुंच्यते । अनमदरतानि जायन्ते । जा- 
। वपन्ते (` + 1 ५ 
 ठम्यत्नैन यधेन्ते। अधतेऽत्ति च॑ भूतानि । त- 
 . (1 तदु । इति 
` स्मोदन्ने तदुच्यत इति ॥ 
अ्लद्रसादिमावपरिणतात्‌-वे इति स्मरणाथैः- प्रजाः स्थावरजङ्गममकाः 
प्रजायन्ते } याः काश्चाविरि्ठाः परथिर्वी शिताः पृथिबीमाभ्रिताः, ताः सवां 
अन्नादेव प्रजायन्ते ! अथो अपि जाता अन्नेनैव जीवन्ति प्राणान्धारयन्ति-व- 
चः त ज (9 अन्नं + अपियन्ति [ > ८ > 
न्त-इत्यथः । अथ अपि एनत्‌ अन्नं त अपिगच्छन्ति--“ अपि 
शाब्दः प्रतिदान्दा्थे-अन्नं प्रति प्रीयन्त इत्यथः, अन्ततोऽन्ते-जीवनटश्च- 
2 भ #+ . प्राणिना छ 
णाया बद्धः परिसिमत्तो । कस्मात्‌ ? अन्नं हि यस्माद्तानां प्राणिनां ज्येष्ठ 
रपमै वाय्वश्निनलोन्योपध्यन्नदेहेषु कारणम्‌ । पूर्वं पूरं भवेत्कार्यं परं परमितीक्षयताम्‌ ॥ २२ ॥ 
इन्द्रो मायाभिरमवद्वहुरूप इति शतः । आसन्माधिकरूपराणि खादीनि बह्मगातिं हि ॥ २२३ ५ 
प्रास्य रकतिर्विविभेल्येवं शचत्यंतरणात्‌ । विविधा ह्मणः शक्तिः सा च मायनरतततः ५ ३४॥। 
सत्यस्य जह्मरपत्ाच्छकतरनततोचिता । निस्तत्त्वा भासते याऽसौ माया स्यादिन्द्रजाल्वत्‌ ।। २५.।। 
मावाया विविधत्वेन तस्याः कायेषु खदविपु । नामरूपेष्नेकलवं भत्यन्योन्यविलक्षणम्‌ 11 ३६ ॥ 
भाति सवेषु सत्यतल्मेकं बद्हमगं .शि तत्‌ । सवाधिषठानधर्माचात्‌ तत्सर्वत्रालुगच्छति ॥ २७ ॥ 
सर्पषारादण्डमाला रज्ज्वां याः परिकरिपरताः । एताघु रञ्जुगं ` दैष्यं सवा्वनुगतं यथा ॥ २८ ॥ 
न्योमाद्या देहपर्यन्ताः सत्ये ब्रह्मि केरिपताः । स्वष्वनुगतं ह्म सत्यत्वं तस्व सुस्थितम्‌ 11 २९१ -, 
अध्यारोपापवादाम्यां निष्प प्रपज्च्यते । इति न्यायेन देदान्त आरोपः खादिरीरितः ॥। ४० ॥ 
. ` -तैत्िरीयकवियापकाशः 
( २) परव प्ोक्तेऽथं (पृ. ४७.) काचिद्युदाहता, तत्समुचयममिमत्यात्र "अपि" शदः प्रयुक्तः । चतु- 


दैशभिः पदेरपेतोऽयं शोकः । ईटशस्य लोकप्रसिद्धस्य च्छन्दोविशेशस्यामविऽपि वैदिक क्विदरिच्छिन्दो 
भविष्यति । ( २) "जणमाः-पाठः । ( ३) वृत्तेः-पाटः , 


२ द्वितीयोऽुचाकः | प्राणमयकोरीः ६७ 


प्रणमयकोदाः तस्माद्रा एतस्मादमस्समयत्‌ } अन्यो- 
ऽन्तर आत्मा प्राणमयः। तेनैष पणेः 


पथमजम्‌- अन्नमयादीनां हीतरेषा भूतानां कारणमन्नम्‌, . अती.ऽन्नपभवाः 
-अन्नजीवनाः, अन्नप्रखयाश्च सवौः पजाः यस्माच्चैवं, तस्मात्सवौषधं सर्वप्राणिनां 
देहदाहपशमनमन्नमुच्यते। ` 

अन्नब्रह्मविदः फटमुच्यते-सवै वे ते समस्तमन्नज्ातमाप्लुवन्ति । कै ? 
येऽन्नं ब्रह्म यथोक्तमुपासते। कथम्‌ ! अन्नजोऽन्नात्मा.ऽन्नप्रख्यो ऽहम्‌ , तस्मादन्नं 
बरह्येति । कतः पुनः सवोन्नप्रातिफएलमन्नात्मोपासनमिति ! उच्यते-अन्नं हि 
भूतानां ्येष्म्‌- भूतेभ्यः पूर्वं निष्पन्नत्वाज्ञेष्ठं हि यस्मात्‌, तस्मात्सर्वो 
सेधमुच्यते--तस्मादुपपन्ना सवान्नात्मोपासकस्य सवान्नप्रापिः । “अन्ना 
तानि जायन्ते, जातान्यन्नेन वधेन्ते ”--इत्युपसंहाराथ पुनवचनम्‌ । इदानीं 
* अन्न ' निर्वचनमुच्यते-अदयते- भुज्यते चेव यद्धतेः, अन्नमत्ति च भूतानि 
स्वयं, तस्माद्‌ भूतेभुज्यमानत्वाद्‌ भुतभाक्तृ वाञ्च “अन्नं ' तदुच्यते । इतिरा्द्‌ः 
प्रथमकोशपरिसखमाप्यथः॥ 

अन्नमयादिभ्य यनन्दमयान्तेभ्य आत्मभ्योऽभ्यन्तरतमं बह्म विद्याः पत्यगा- 


(१) सकलप्रजोत्पादादिहेतुलादन्नं ( विरा्‌ ) समष्टयात्मकं प्रथमीत्यज्नमुच्यते, तदन्नं विराडात्मकं -य 

दीरषेकालमादरनेरन्तयौभ्यामर्हग्रहेण ध्यायन्ति, ते विराडात्मरूपेण सतमेवाध्याभिकरमच्रमाप्तुवन्ति । रं 

हि सर्वं कार्यं कारणेन ग्याप्तम्‌ , प्रकृते चान्न-भत्तरूपेण विराजा सर्वमन्नं यत्ता व्याप्यते, ` ततश्ान्नोपापकस्य 

विराडात्मरूपेण सवीन्नमक्षणं संभवति । ( २ ) उष्यति दहतीति “ओषः । अन्नाकमे जाठराधीर्धातूनेव दहति 

तस्याभनेरत्नेन धानाठ्‌-पानात्‌-उपश्चमनात्तक्िसाथनादन्नमोषधम्‌ । ( ३ ) व्यष्िरूपेणाचततेः समषटिरूपेात्त 

च भूतानीति दहिविधात्तपदन्युतपत्तिः । 

अथापवादो जगतः कथ्यते ब्ह्मबुद्धये 1 त्त्रादो पुत्रमित्रादिनु्यै देहात्मतोच्यते ॥ ४१ ॥ 
आत्मा वै पुत्रनामासीप्येवमात्मत्वविभ्रमः । लकिको नुदते पुत्र श्त्या युक्तिश्च वियते ।। ४२ ॥ 
साकल्यं पुत्रभायदवैकल्यं चात्मनीक्ष्यते । इत्याह भाष्यवृत्तेन पुत्रऽस्ति स्वात्मताभ्रमः ।। ४२ ॥ 
सोऽस्यायमात्मा पुण्येभ्यः प्रतिषीयत इत्यदः । वचो वक्त्यैतेयोऽतः स्वात्मताभ्नम एव हि ॥ ४४ ॥ 
एवं व्युदसितुं देहस्येवात्वमिदयच्येते । यो देहोऽत्रमयः सोऽयमेवत्मान्यो न कश्चन ॥ ४५ ॥ 
मदीयः पुत्रभायंदिरिति भेदवमासनात्‌ । गौणी स्वादात्मता पुत्रे गयादौ सिंहता यथा ॥ ४६ ॥ 
पूवैवास्ननाया पुत्रे स्वातमत्र माति चेत्युनः । तद्रास्तनापनुच्थं देहात्मतसुपास्यताम्‌ ।! ४७ ॥ 
-शिरः पक्षो मध्यपुच्छे इति देहस्य पक्षिताम्‌ । ध्यात्वा तनिता पराप्य त्यजेतपुत्रात्मताश्चक्तिम्‌ ।। ४८ ॥ 
-थीमनुष्योऽद्मित्यस्ति पुत्रोऽदमिति नास्ति धीः । विकारोऽस्ति परिज्राजो न पुत्रसुखडु खयोः ॥ ४९ ॥ 
अक्नजो देह एवात्मा तदन्नं हमबुद्धितः ।. उपास्य सर्वमप्यन्ं स्वाभीष्टं रमते पुमान्‌ ॥ ५० स मत्‌ ५५०५ 

= ` 


&८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्मन्भानन्द्‌-बही 


तसयेपास्यस्यम्‌ स॒-वा एष पुरुषविध `एव } तस्य पुरुषविध- 
ताम्‌ 1 अन्वय पुरुषविधः । तस्य प्राणं एव 
रः । व्यानो द्षिणःः पृक्षः ।. अपान 
उत्त॑रः पक्षः । आकांश आत्मा - । पृथिवी 
पुच्छं प्रतिष्ठ | 
तदप्येष शको भवति, 
इति कृष्णयजुवेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि बह्म--आनन्द्--वल्यां 
द्वितीयोऽचवाकः ।) २॥ । 


समत्वेन दिदशेयिषु शास्रमवेदयाकृतपञ्चकोरापनयनेननेकतुषकोद्रवितुषी- 
करणनेव तदृन्तगैततण्डुटन्परस्तौति- तस्माद्वा षतस्मादन्नरसमयादित्यादि । 
तस्मादेतस्मात्‌  यथोक्तात्‌ “ अन्नरसमयात्‌ ' पिण्डादल्यो - व्यतिरिक्तो 
$न्तसो ऽभ्यन्तर आत्मा पिण्डवदेव मिथ्यापरिकस्पित भात्मतवेन प्राणमयः, प्राणो 
वायुः-तन्मयस्तत्पायः। तेन प्राणमयेनेषो.ऽक्ञरसमय आत्मा पूर्णो वायुनेव हतिः 
सख वा एष प्राणमय आत्मा पुरुषविध एव पुरुषाकार एव रिरःपश्षादिभिः 
कि स्वत पव १ नेत्याह-- प्रसिद्धं तावदन्नरसमयस्याऽऽत्मनः पुरुषविधत्वम्‌, 
तस्यान्नरसमयस्य पुरुषविधतां पुरुषाकारताम्‌ अयु अयं प्राणमयः पुरुषविधो 
भूषानिषिक्तप्रतिमावत्‌, न स्वत एव । एवं पवस्य पुवेस्य पुरुषविधताम- 
नुन्तरोत्तरः पुरुषविधो भवतिः पूर्वैः पृवेश्योत्तरो्तरेण पणः । . 
कथं धुनः पुरुषविधताऽस्येति १ उच्यते--तस्य प्राणमयस्य प्राण प्व 
शिरः! प्राणमयस्य वायुविकारस्य प्राणः मुखनासिकानिःसरणो चरत्तिविशेषः 


( १ ) सतत्वरजस्तमोगुणात्मकमायाकायलाद्ूतन्यपि युणत्रयात्मकानि । तत्र वियदादिपृक्ष्ममूतानां ये एवः 
रजौस्याः तरारब्धानि वाक्पणिपादादीनि एच कमेन्द्रियाणि । तद्रजरसमुदायारब्धः प्राणनादिज्रियाहेतः िया- 
उक्त्यालमकः प्राणः--लिङ्दारर ज्ञानशक्तिः, ियादक्तिश्ेति दयं वतेते; तयोमेध्ये क्रेयारक्तिकायभूतः ग्रा 
णाख्यः पदाथः । तस्य प्राणापानाद्याः पच इत्तयः-च्यापारविरोषाः । एवे पल्चग्राणकर्मन्द्रिवरूपप्राणमयकोरा~. 
विशिष्टस्यात्मन उपदेरोन वाह्यरयानात्मवं प्रतिपादयति श्चतिः-““ तस्मद्े 2 इति। प्राणमयस्यात्मन्यारोपित- 
ताद प्रणिमीष्येवसुच्छसादिकतृ्वेनाहप्रत्ययगम्यतवाचयात्मलं द्रष्टव्यम्‌ । भात्मत्वं नाम प्रत्यकस्वरूपत्वम्‌ । 
यतः कारणादयमान्तरो देहमध्ये वतमानोऽसुभूयते, अतो बाह्यादेदहास्माणमय्‌ ` आत्मा विवेकेन प्रत्येतव्यः । 
अत एवापतिकोवद्वहिराच्छादकत्वसामान्यादन्नविकारस्य देदस्य कोरालम्‌; ्पसुत्तरत्ापि मनोमयाबात््- 

देशेन पूतस्य पूवस्य बाह्यतया विविक्तलेनातमतभ्रमनिरासात्केद्यरूपत्वमवगन्तव्यम्‌ । ` : 


अथ तृतीयोश्वुवाकः ., , 
णम्य शकैः प्राणं ठेवा अनु प्राणन्ति | ग्रनुष्या ` पराव ये 4 
प्राणो दि भूतानामायुः. । तस्मोत्सवोयुषयु 
सर्वमेव भ 
च्यते । स्मेव त आयुयेन्तिः। ये प्राणं ब्रह्मो 
पासते । भाणो हि भूतानामायुः । क्स्मात्सवौ- 
. क 
युषमृच्यत इत्‌ । 
शिरः इति करप्यते, वचनात्‌ । सर्वं वयनादेव पश्चादिकल्पना । व्यानो 
व्यानवृत्तिदैश्छिणः पक्षः। अपान उत्तरः पश्चः । आकादा आत्मा, य आकारास्थो 
"८ त्तिवियेषः समानाख्यः, स आत्मेवा ऽऽत्मा-प्राणघ्त्यधिकारात्‌, मध्यस्थत्वा- 
दितयः पयेन्ता वृत्तीरपेशष्याऽऽत्मा-“मध्यं होषामङ्गानामात्मा" इतिश्चुतिपरसि- 
दं मभ्यस्थस्याऽऽत्मत्वम्‌ । पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठ । ‹ पृथिवी ` इति पृथिवी- 
देवताऽऽध्यात्मिकस्य प्राणस्य धारयिन्री स्थितिहैतुत्वात्‌ । “ सेषां पुरुषस्यापा- 
 नमवष्टम्य ” इति हि श्चुत्यन्तरम्‌ । अन्यथोदानचर्योध्वेगमनं, गुरुत्वात्पतनं 
चा स्याच्छरीरस्य, तस्मात्पृथिवी देवतां पुच्छं प्रतिष्ठा प्राणमयस्याऽऽत्मन;। 
तत्‌ तस्मिन्नेवाथ प्राणमयात्मविषय एष शोको भवति । | 
इति भीमत्परमहसपरिनाजकाचायंगोविन्दभगवत्पूज्यपादचिष्यश्रीमच्छकरभगवतः 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द--वहीमाष्ये द्वितीयोऽदवाकः ॥ २ ॥ 


प्राणं देवा अचु प्राणन्ति-(१) देवाः अन्न्यादयः श्राणं' वाय्वात्मान-प्राणनश- 
क्तिमन्तम्‌ भचु' तदात्मभूताः सन्तः प्राणन्ति प्राणनकमे कुवन्ति-प्राणनक्रियया 
क्रियावन्तो भवन्ति (२) अध्यात्माधिकारात्‌ देवा इन्द्रियाणि श्राणमयु प्राण- 


क = भ 0 च 


इति श्रीमत्परमहसपरित्राजकाचा्ंश्रीमच्छद्धानन्दपूज्यपादश्िष्यानन्दज्ञान विरचिते तेत्तिरेयोपनिषच्छकिर- 
माष्यरिप्पणे जह्म--आनन्द-वल्सयां द्वितीयोऽनुवाकः ॥ २ ॥ - 


पूरवपूलेकोशस्योत्तरोत्तरः कोष एनाऽत्माति व्याख्यातमापातदक्षेनेन, तदसत्‌ , आत्मकब्द्‌- 


(१) रे. आ.२.२. ५. (२) प्र. उ, २. ८. "पृथिव्यां या देवता सेषा"० इत्यादि वचनम्‌ । 
८८ पुथिवीदेवता पुच्छं सेषेति श्वतिदरनात्‌ । भसोराध्यालमिकस्यषा स्थितिषतुः प्रकीतित्ा ।°° वािकि. २ 
२. ७६ । “पुथिवीश्ब्देनावटिष्ट उदानवायुरुपरक्षयते। युख्या्थस्वीकारे हि प्राणमयकोशाधिकारो बाध्येत 
दूति सा. भष्ये व्याख्यातम्‌ । विरोधामासोऽयं “८ पृथिवीन ( पृथिवीदेवताक्ष ) उदानोऽयं प्रतिष्टा पुच्छ- 
भरितः "” इति आलस. पुरणोक्तरत्या शक्यः परिदपैम्‌ । . 


७ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ब्रह्म-आनन्द्-वही 
तस्येष एष श्ञरीरे आत्मा यः युस्य ॥ 


न्ति" र च्यप्राणमनु चेषटन्त इति वा। तथा मस्याः पशवश्च ये, ते प्राणनकमै 
णैव चेष्टाचन्तो भवन्ति, अतथ्य नान्नमयेनेव्र परिच्छिन्नात्मनाऽऽत्मवन्तः प्रा 
णिनः; दिः तर्हि 2 तदन्तभेतेन प्राणमयेनापिं साधारणेनेव सवेपिण्डव्यापिना- 
ऽऽत्मवन्तो मयष्याद यः ।. पवं मनोमयादिभिः पूवेपूवैन्यापिभिरुत्तरोत्तरेः घ- 
श्मैरानन्द्मयान्तेराकारादिभूतार्ग्धेगविद्याङ्तेरात्मवन्तः सवे प्राणिनः । तथा 
स्वाभाविकिनाऽ.ऽप्याकारादिकारणेन, नित्येन, अविर्तेन, स्वगतेन, सत्यज्ञाना- 
नन्तलक्षणेन, पञचकोशातिगेन, सबोतमनाऽ.ऽत्मवन्तः- स हि परमाथत आत्मा 
 सर्वैषामिवयेतदप्यथो दुक्तं भवति 1 ' प्राणं देवा अनु प्राणन्ति › इत्याद्यक्तं, तत्कः 
स्मात्‌  इत्याह-प्राणो हि'यस्माद्धतानां प्राणिनामोयुज्ञावनम्‌--“यावद्धच- 
स्मिब्दरारीरे प्राणो वसति 'तावदांयुः ” इति श्रुत्यन्त॑रात्‌-तस्मात्सवोयुषम्‌ , 
सर्वषामायुः स्वायुः, सवोयुरेव स्वँयुषम्‌ इत्युच्यते-प्राणापगमे भरणप्रसिद्धेः 
प्रसिद्धं हि लोके सवोयुष्ठं प्राणस्य-अतोऽस्माद्राह्यादसाधारणादन्नमयादात्म- 
नोऽपक्रम्य, अन्तः साधारणं प्राणमयमात्मानं ब्रह्मोपासते ये-अहमस्मि पाणः 
सचैभूतानामात्माऽ युः, जीवनहेतुत्वात्‌' इति, ते स्वैमेवाऽऽयुरसमिलोके यन्ति, 
नापमूत्युना भरियन्ते पराक्प्राप्तादायुष इत्यथः । शातं वषाणीति तु युक्तम्‌, “स- 
वेमायुरति” इति श्चुतिप्रसिद्धेः। किं कारणं ! ‹ प्राणो हि भूतानामार स्तस्मातसः 
वांयुषमुच्यत इति ' । यो यदुणकं ब्रह्मोपासते, स तद्रुणभाग्भवतीति विद्याफल- 
परपत्हैत्व्थं पुनवचनं श्राणो हि ` इत्यादि । 

तस्य पूवेस्यान्नमयस्येष एव शरीरेऽन्नमये भवः शारीर आत्मा । क 
तष प्राणमयः ॥ 


स्पाखख्याथत्वप्रसङ्गात्‌, प्रकृतपरामरेकेतच्छन्दकोपाच । अतः सर्वकोशाध्यासायिष्ठानमूतशि- 
-हात्मेवात्रा्तमकष्देन विवक्षित इति तात्पयमाद--तथा स्वाभाविकेनेति ! थदिति । 
आतमशग्दसामथ्याप्‌ , कल्पितस्याधिष्ठानत्वादपपततेश्ेययः। असाधार णादिति-- व्याटत्त- 
स्वरूपात्‌ । अपक्रम्य' तत्राऽऽत्मबदि हिवेयथः। साधारणमिति। स्वेन्दियताधारणम्‌- 
प्रा्कृतेना्नादिना सर्वेषां पुध्यादिदशेनादियथेः । सर्व॑भूतानामात्मेति--सत्रात्मना । 

पवस्य य आत्मा विद्धातरेष एव तस्य प्राणमयस्याऽऽत्मेति योजना ॥ 

(१) °णिने यथाऽनेकास्तुषकेद्रवास्तथा--इति पाठः । (२). कौ.उ, ३. २. (२ ) तै. जरा. २. 
१०.९. १०. शत, ब्रा २०. ४. ४.४. इत्यादा असक्रत्‌ । तुर्य-तत्रैव १०.२. २. ७, १९; १२. २. ॐ 
२२३ २२. १.२. १३२. जा. २, १७ हे. आ. २.९. १; ते. रा. २.५.७.२१.२.७ 


-प- तृतीयोऽलुकाकः |] मन्भेमय्महं "७९ 


मनोमयकोरः तस्मा ` एतस्मांखाणच्छोःः. । . अन्ोऽन्त 
आत्मां मनोमयः } तेनैष पणेः ` 


सयेपास्यलस्पम्‌ स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरषविधताम्‌ |, ` ,.. , 
अन्वयं पुरुषविधः । तस्य. यजुरेव रिरः।  ... .. 
ऋद्षिणः. ` प्रषः . | सामोत्तरः पक्षः 
आदेश्च आत्मा । अथवोद्गिरसः पुच्छं अतिष्ठा । 


तस्माद्वा एतस्मादित्याद्युक्ताथेमन्यत्‌। अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः-मन 
मनः इति संक॑ट्पविकल्पातमकमन्तःकरणं, तन्मयो मनोमयः सोभ्य 
प्ाणम्रयस्याभ्यन्तर आत्मा 

विवेकाद्वा ध्यानतो वा पुत्रा्ात्मलनिहुतौ । तथा देदात्मतां त्यक्ला प्रणाललवं विचिन्त्यताम्‌ ॥ ५१ ॥ 

न देहस्यात्मता युक्ता पूर्वजन्मन्यभावतः । पुरात्मा देहदं कर्म॑कृला प्रामरत्यदो वपुः ॥ ५२॥ 

आयुरमरणयेहैतौ प्राणे जीवात्मतोचिता । स्थिते प्राणे भवत्यायुः प्राणप्रयि तु दीयते ॥ ५२ ॥ 

देहात्मवासनालुत््यै प्राणात्मत्वमुपास्यताम्‌ । प्राणे ब्रहत्युपासीनः स्वैमायुः समदलुतते ॥ ५४ ॥ 

प्राणोऽपानः समानशवोदा नव्यानौ च वृत्तयः । एता पूवेवतयक्षमूधादीन्‌ परिकर्पयेत्‌ ॥ ५५ ॥ 

ासोऽषोगमनं इत्स देहेऽन्नस्य स्ीकृतिः । उद्वारादिविलं देहे क्रियास्तासां क्रमादिमाः ॥ ५६ ॥ 


-तेततिरीयकविवाप्रकास्ः 
८ १) पृ. ६८. (२) इदं नीरम्‌, इदं पी्तमिति विषयविवेचनम्‌ । विकं्पस्तदविपर्यय इति भेदः । 
, (२ ) वियदादिपन्वपृक्षमभूतसत्त्वाशिरारन्धानि श्रोत्रादीनि पञ्च ज्ञानेन्धियाणि; तस्स्लां्चसयुदायपरिणामरू- 
पमन्तःकरणं; तदुपादानभूतस्य सत््वस्यात्मखरूपभृतसुखप्रकासामिन्यजञकसामथ्यसद्धावात्‌, तत्कायेमन्तः 
करणमपि सवरूपसुखाभिन्यजचकवृ्त्यात्मना, सखवरूपप्रकाशाभिव्यश्कदेत्त्यत्मना च रिवा परिणमते ¦ तेत्र 
मरकाशाभिम्यजिका वृत्तिरपीषद्रजोनुवेधात्‌ संकल्विकल्पालमिका मन-संज्ञा लभते । रजःसंस्पदीविरदाच नै- 
व्ये सति निश्वयहूपा सती बुद्धयाख्यां भते । एवे मनोबुदधिभेदङत्तिमदन्तःकरणसदशृतानि चध्ुरादीन्दिया- 
ण्यपि विमैनिश्वयरूपद्िविधक्ञानजनकलेन द्विविधानि मवन्ति.! तत्रे विमरंन्ानजनकपन्वज्ानेन्दियसादित- 
मनः संजकवृत्तिमदन्तःकरणोपाविविरिष्ट आत्मा मनोमयः । स च प्रायुक्तासाणापानादिसंघातात्‌ प्राणमयादा- 
रतरल्लेन विभिन्नः---अन्तरवस्थितात्मसवरूपचैतन्याभिव्यज्ञकलतवलक्षणात्सख भावमेदात्तस्यान्तरलम्‌ । प्रणम- 
यस्तु, रजःपरिणामरूपःवात, नोदीरितं चित्मकाश्षमभिग्यनक्ति ! अत्त एव खुप सत्यामपि प्राणवृत्तो जागर 
चैतन्यस्य विदेषामिव्यक्िनै दश्यते । उ च्छरासनि श्राप्तादिक्रियापरवर्तकः सत्नन्नमयदेषटस्य धारणमेद केवरं 
करोति । तथाच प्राणवाक्यम्‌- अहमेवैतत्पवधात्मानं ` प्रविमज्येतद्वाणमवषटम्य विवारयामि 1 ?` ( प्रभ- 
उ. २. ३. ) इति । एवमनये्विविक्तरूपतान्मनेोमय आत्मा प्रणमयादान्तरः; विविक्तश्च भ्रत्येतन्यः 


--तात्यवीपिका ई. २. ४०. 





"क्‌ ` [ भरकतभनेन्दप्वही 
क्स्य यजत्र शिरः 1 =^. यन््यितश्वरवदवंलाना भन्त्रविदोषः, तलना 
मन्नाणां मने तीयवचनो ˆ यज्ञुः- शब्द कस्य शिरस्तवं श्राधान्यात्‌।-पा- 
वृततित्वम्‌ धान्यं च यागादो संनिपत्योपकारात्‌, यज्ञुषा हि हविर्दीयते 
स्वाहाकारादिना । वाचनिकी वा दिरभादिकट्पना सवेत्र । मनसो हि स्थान- 
प्रयलनाद्‌ २त्८५८ वात्यलरिषवा तत्सकलत्पात्मिका तद्भाविता इत्तिः ओओत्र- 
करणद्धारा यजुः पत्ता यज्रित्युच्यते १ पवद्क््‌ः.पव सामच।ण्वच 
यजु-ब्देन बाध्यो यजुर्वेद उच्यते, तस्यं कथमान्तरं मनोमयं प्रतिं शिरस्त्वमर {-हत्या- 
ङुग्याऽद--मनसो हीति । ययपि.यजकान्दो बा शब्दरक्ष र्दः, तथाऽपि श्तेरनतिश्च 
ङूत्वीयत्वात्‌ , तत्पामाण्याद्विशिष्टमनोटत्तियद्खःसकेतविषयगूता “यजेदमधीमहे * एतत्कमक्य 


~~न" ~~~ ~ न 





= 


( १ ) “ चल्वाि वाक्परिमिता पदानि 1 तानि विदुर्नाह्मणा ये मनीषिणः ! गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गय- 
न्ति । तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति > ॥ (तै. जरा. २. ८. <; क्र. सं. भे. १. सू. १६४. क. ४५) 
इति वाचः पादव्लुषटयमाख्यातम्‌ । परा, षरवन्ती, भ्यौ, वैखरी--इलयेवं चुरवस्थाया वाचस्तुरीय 
पाद) देखयातमकः; स. एव सरीरिणां प्रेषणध्येषणारिन्यवह्सरहेतुः---परथोत्रयाह्यात्मकं वेखयात्मिकमेषं शाद 
मनुष्यादयोऽभिवेदन्ति । स च वैखयासकः शब्दः स्वत एवैकरूपोऽपि कण्ठताव्वायभिव्यक्तिस्थानभेदा- 
त्स्वरव्यज्ञनादिमेदेन नानात्वं मजे । ““दब्दे प्रयत्ननिष्पत्तेः र) सु. २. २. २५) इत्यत्र श्षबरस्वामि- 
भिरुक्तम्‌--' महता प्रयत्नेन चब्दमुचरन्ति+-वायुनांभेरुत्थितः, उरसि विस्तीणः; कण्डे विवितः, भूधान- 
मात्य परावर्तः, चे विचरन्‌ विविधान्‌ सन्दानभिन्यनक्ति । “ तथाच शिक्वायाम्‌--“ आत्मा बुद्धया 
समेत्या्थान्मने युङ्क्ते विवक्षया । मनः काया्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्‌ ! सोदरो मूर््यमिहतो वक्त- 
माप्य मारुतः । वणौजनयत्ते इत्यादि । भत्मा--अन्तःकरणं संसकाररूपेण सखरगतान्थान्‌ बुद्धया स्ववत्या 
समेत्य पएश्बुद्धिविषयान्‌ कृत्वा तद्रोषनेच्छया युक्तं मनः करोति । तन्मनः कायां जाटराभ्निमभिहन्ति ! सो- 
ऽथिमांसतं प्रेरयति। स मारुत उर्ध्व त्रेरिति मूध्न्यमिहतः परावृत्त्य वक्रं तास्वादिस्थानं प्राप्य वणी नमिन्यनेक्ति। 
एवं च कब्दप्रयेगेच्छोत्पन्नयत्नामिहताभषिपररितनाभिप्रदेशगतवायुेगान्मू्धानं गत्वा -म्रतिनिदृत्तो वक्तं प्रप्य 
यत्नविरेषसदायः तास्पादितत्त्स्थानेषु जिहायादिस्पशेपूतकसभिहतो वर्णविशेषानभिन्यनक्तीति त एते आभ्य- 
न्तरप्रयत्नाः । ततो यत्नविरेषेगरुविवरविकासादीन्‌ करोति । त एते बह्यप्रयतनाः । एतैश्च प्रयनर्वणां यथावद- 
मिव्यज्यन्ते । ”> कुतूहल्वृत्तौ । ननु शब्दात्मकानां यजुरादीनां कथं मनोमयावयवत्वम्‌ १-इत्याराङ्कां परिह - 
रति-मनस्ष इत्यदिना । यपि यजुरादििदः ` शब्दरािरूप एव प्रसिद्धः, न मानसक्ञानरूपः, तथापि 
यज्ुरदिः स्वरूपयटिका प्रमाणत्ववटिका वा वृत्तिमोनस्येव तिष्ठति; तेन यजुरादिरब्दानां उत्तिपरताज्गीका- 
रेण भनोमयस्यावय॒वत्वसुपपन्नमित्यथै- ! भवं भावः--न केवला वरणा रदः; वितु स्थाप्रयत्नस्वराद्यदसंथान- 
विदिष्टाः; तथाच यजुरादिस्वरूपं मनेोवृत्तिघटितम्‌ ; एवं प्रमाजनकेत्वमपि न स्वरूपेणेव वेदवाक्यानां, किंतु 
मानसवृ्निरूपेणवेति । अनेन मनोमयेन प्रमाणात्मकेनाविषयोप्यात्माऽऽवरणमङ्गदार प्रकादयते । यपि यजु+ ` 
रावा वाचः, तत्स्वरूपधयकं मनश्च~एतेषां श्रमाणमूतानां स्वान्तगतमानन्दरूपमात्मानं प्रवेदयितु-प्रकाशयितु 
न प तथाप्यधिकारी मनोमयस्व स्वरूपन्तग॑तमानन्दमन्तमुेनावरणमश्चकेन जानन्सन्‌ संसारान्न. विभेति - 
(२) जं. स्‌.८.१.-२. . 





दे तृतीयोऽ्छ्काकः | 


सनोवृत्तित्वे मन्वा, इसिरेवा ऽऽ वल्यते; इति ्रौनेसो जप उवपद्यते-अन्यः 
याभ चयल्वान्भन्त्ो नाऽऽवतेयितुं शाक्यो चटादिवत्‌, इति मानसो जपो 
नोपपद्यते, मन्ञाञ्त्तिश्च उद्यते बहुहाः कमसु । ` ` 

अक्चरविषयस्मरत्यात्या मन्ाद्ततिः स्यादिति चेत्‌, न; मुख्याथौसंभवांत्‌। 
“तरिः प्रथमामन्वाह भिरूतभाः ” इति छगावृत्तिः श्रूयते! तत्रचोऽविषयत्वे तदधि- 
-षयस्मरत्याटृच्या मन्तराबृ्तो च क्रियमाणायां “जिः प्रथमामन्वाह” इति ऋगा- 
बरत्तिर्मुख्योऽथश्योदितः परित्यक्तः स्यात्‌ । 


तस्मान्मनोच्त्युपाधिपरिच्छिन्नं, मनेोडत्तिनिष्ठमात्मचेतन्यम्‌-अनादिनि- 
धनं, यज्चुःशब्दवाच्यम्‌ , आत्मविज्ञानं-- मन्ता इति । पवं च नित्यत्वोपपत्तिरवे 
चिदात्मतवद्िदस्य दानाम्‌, अन्यथावेषयत्वे रूपाद्‌ वद्‌ नित्यत्वे च स्यात्‌; चत- 
नित्यत्वम्‌ दयुक्तम्‌-“ सवे वेदा यत्रैकं भवन्ति “`स मानसीन आत्मां ” 
-इति च श्च॒तिनित्यात्मनेकत्वं वन्ती, गादपनां नित्यत्वे, समरसा स्यात्‌; 
ऋचो अश्चरे परमे व्योमन्यसिमिन्देवा अधि चिश्वे न्षिदुंः" इति-च मन्रवणेः. । 


[0 धि 


वणौ यज्वेदतयाऽ्येतन्या शत्येवं संकत्परूपा ग्राच्चेत्य्थः । श्रत्यतग्राहिकां यक्तिमप्यादई-- 
पवं चेति । अन्यथेति 1 शब्दानां -घटादिवद्धाद्यदन्यत्वे, मनोविषयत्वासंभवात््‌, ममसो 
-बाऽ्येऽस्वातन्त्यात््‌, मानो जपो न स्यादित्यर्थः । "इतश्च मनोटतित्वं मन्त्राणां वाच्मि 
त्याई--मन्त्राव्त्तिश्चेति । शब्दानां घटादिवद्भाष्यद्व्यत्वे, मन्त्राणां घटादिवदाटत्तिनापप- 
ते, करिरयैव शावत्येते । 
आहत्तितिददयहपपस्या क्रियात्वं .वाच्यमित्युक्त, तत्रान्यथाऽप्युपपत्तिमाशङ्ते-अक्षरावे- 
षयेति ! मन्त्रेभ्यः स्शतेरन्यत्वादन्याऽऽदृत्तिगौणी प्रसज्यते, अतो नान्यथाऽप्युपपत्तिरित्युक्त 
म। एतत्स्फययति-- चिः प्रथमामित्यादिना । स्ामिषेन्यः समिधो यदाऽध्वुणा हन्ते, 
तदा प्रवो वाजा अभिथवः' इत्यष्टदशष्चं सक्तं होता शंसति, ता्षां चर्चा मध्ये प्रथमाष्टचं 
-खक्तस्यान्त्यां चच होता त्रिरखत्रूयादित्याटततिः श्रूयत इत्यथः । 
मन्त्राणां मनोटत्तित्वखक्त्वा-मनोटत्तीनां सदा चिद्ाप्ततवेनेव सिद्ेः-चिदात्मतामाइ- 





(१) तै. सं. २. ५.७. १; इत. ब्रा. १, ३. २. 8; ठे. बरा. १. २. २४ ५ इत्यादा । ८२) ते. 
आ.३. ११. १. (२) ऋ. सं. १. १६४. २३९; अ. सं. ९. २०. १८ गो. जा. १. १.२२८त.जां 
३. १०. ९.४; ते. आ, २. ११. £; ने. उ. ४. <; नु. उ. उ.४. २. (४) स्षामिधेन्य ऋचो यदपि 
मूढे (तै. आ. ३.५. २. १--१२. ) दद पठिताः, तथाप्यन्तयोः पुरूषभेदरेन विकथ्पितत्वदेकदरोव । 
सम्यगिध्यते ज्वाल्यतेऽश्रियामिकीग्मिस्ताः सामिषेन्यः । तथा चोक्तम्‌--““क्रवसामिषेनी धाय्या चया स्याद- 





इति इृष्णयजुर्ेदीयतेत्तिरीयोपनिषदि क््य--आनन्द---वस्स्या _ ' 
तृतीयोऽलुवाकः ॥ २३ ॥ ` *“ ` | 


अआदेश्षो ऽत्र बह्यणम्‌, आदेष्टन्यविरोषानादिकतीति। अथवेणाऽङ्िरसा च 
ष्टा मन्त्राः, ब्रह्मणं - च शन्तिकपोष्टिकादिप्रतिष्ठाहेतर्कमैपघानत्वात्युच्छ 
अतिष्ठा । 5 

तदप्येष -छोको भवति मनेमयात्मप्रकाशकः युवैवत्‌ । 

इति आीमत्परमदहेसपरित्राजकाचायेगोविन्दभगवत्पूञ्यपादशिष्यशीमच्छंकरभगवतः ` 

कृतो वत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्--आनन्द--वीभाष्ये ठृतीयोऽवाकः ॥. ३ ॥ ` ` 


तस्मादिति । मन्त्राणां मनोटत्तित्वेनाऽत्तिषेटत इत्युक्तम्‌, परम्परया.चिदातत्वेन नित्य- 

 स्वमवि घटत इत्याई-- एवं चेति--चेतन्यरूपतवे स्ति । अन्यथेति--स्वप्रकाशाचिदात्म- 
त्वानङ्गीकारे रूपादिवद्धिषयत्वादनित्यत्वमपि प्रसज्येत । काटिदासादिवाक्यानामष्येतेन 
न्यायेन नित्यत्वापाताक्त्यामासमेतत्‌ । अस्त्वनित्यत्वमित्ि न वाच्यमित्याह-नेतदुक्त- 
मिति । “^ वाचां विरूपनित्यया ” इति श्त्या नित्यत्वस्याऽभनेदितत्वात्‌, वेदानित्यतवं युक्तं 
न भवतीत्यर्थः । वेदानां जइव्वे स्वप्रकाशेनाऽऽत्मनेकस्वं न संभवति, जडाजडयोर्विरोधात्‌,. 
अतो मनेटे्तिम्यापकचिदात्मत्वं सचचितमित्यथैः । साक्षितया मनति भवो ‹ मानसीनः ” 
अक्षरे परमे व्योमकेल्पे ब्रह्मणि क्त्वः" विधिनिषेधरूपा “निषेदुः-तादात्म्येन ष्यवस्थिताः- 
दूति च मन्त्रवणे एकत्वं दह्ेयतीत्यथः । 


“अदिष्व्यविश्ेषान्कतेव्यविक्रेषान्‌-इदमेवं कतेव्यम्र-हत्यपदिशतीत्यथेः। 


इति श्रीमतमरमहसपरिनजकाचा्यश्रीमच्छुदवानन्दपूज्यपादरिष्यानन्दज्ञानषिरचिते तेत्तरीयोपनिष- 
चछांकरभाष्यटिप्मणे बह्म-अनन्द--वहयां त्तीयोऽनुवाकः ॥ ३ ॥ 





्िसतमिन्धने' ( अम. को. ज. त्र. शो. २२. ) इति । सवनीयस्य पोः प्रोक्षणदूर््वमध्वर्युणा प्रेषितो होत्रा 

सामिभेनीरमुनूयात्‌ । तासामेकादसानां मघ्ये श्रः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्‌ › इति वचनानु्ेणावृत्तौ सत्या 

पन्वदद्च संपबन्ते । सप्तदशसंख्यायाः पूरणीयले तु “ृधुपाना अमत्यः> (कर, सं. मं. २ सु. २७ ऋ. ५): 

इत्याचपरगट्यस्य ता प्रफपोऽपि विधीयते  एवमेकरविंशतिते संपादय षण्णामप्य॒चां प्रक्षेपो विदितः । 

ताः भकषेपणीयचै एव धाय्या उच्यन्ते (रे. ब्रा. ३. २.७.) तुल्य-ते. सं. २.५. ७; जै. स. ९. १, २३. 
(१)ते.सं. २.६. ११. २.; ऋ. सं. मं. <. ७५. ६. सं. ४. ११. & 


अथ चतुर्थोऽलुचाकः 
मनोमये कः यतो वाचो निर॑तनते । अपर्य मन॑सा बह 1 
आनन्दं ब्रह्मणो दिद्रान्‌ । न विभेति कदा 
चनति। 
[भ क्वि 
तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूथैस्य ॥ 
विञानमयकोशः तस्माद्रा एतस्मान्मनोमयात्‌ । अन्योऽन्तर 
आत्मा विज्ञानमयः । तेनैष पणेः | 
यता वाचा नवततर्तं । अप्राप्य मनसा सर्ह्याद्‌ । 
तस्य - पुर्वस्य प्राणमयस्येष पवाऽ्मा शारीरः--शरीरे प्राममये भवः 
(टारीरः | कः २ य एष मनोमयः ॥ 


तस्माद्वा पएतस्मादिति पूरवैवत्‌ । अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयो मनोम 
यस्याभ्यन्तसो ‹ विज्ञानमयः ' । मनोमयो वेद्‌ाव्मेक्तः; वेदाथेविषया बुद्धि्निंश्च 


वाड्मनसयोवाङ्मनसगोचर सं नोपपद्यते, स्वात्मनि शत्तिविरोषात्‌, अतो वाङ्मनोवि- 
शिष्टान्मनोमयाद्वाचो मनसा सह निवतन्त इत्यथः। तस्य च मनोमयस्य न्रद्मणः' ऽपासनफ- 
ठभूतभाधिदेषिकमनन्दं षिद्रात्र बिभेति गभेवासादिदुः्खादित्वैथः । 

वेदार्थैति । तथाऽध्यवसायलक्षणं टोकिकमपि विज्ञानं ग्रह्यमित्यथैः । 


( १) अस्य श्षेकस्य मुख्याथऽमर ९ अनुवके भाष्य द्व्य: । कोराभ्रकरणविरोधात्‌ परजह्मपरियहोऽ् 
नोपपयते । ब्रह्मव वाद्मनसयोरविषयः, व्यतिरिक्तं सं ययोविषयत्ेनेव तेते, ते वाङ्मनसे मनोमयकोशे 
निरदिदयेते । न हि मनसः साक्षिवेचत्ेनानपक्षस्य वागदिविषयत्व, वृत्तिविरोधाच्च न स्वविषयल्वं, त्रस्य 
मह्वात्‌ तदात्मक मनसि ब्रह्मसब्दश्चोपपयतते; तस्य ब्रह्मणो मनोमयस्याऽऽनन्दयुपासनाफरं विद्वान्‌ , उपा- 
सनाते ब्रह्मानन्दं च प्राप्य हिरण्यगभावस्थायां कदाचिदपि ने वितीति मन्त्राक्षरण्यपि कोरापक्षे निविदन्ति। 
(२) वृत्तिसंघं प्राणमयं ध्याला देहात्मवासनाम्‌ । संत्यज्याथ प्राणमय त्यजेदेहवदात्मताम्‌ । ५७ ॥ 

प्राणो नाला जडत्वेन चेतनस्यात्मतोचिता । मनस्तु चेतनलेन सर्वस्य प्रतिमासनात्‌ । ५८ ॥ 

, ववक्षुराचक्ष्तपिक्षं मनो बह्माथभापकम्‌ । निरपेक्षेण मन्ता सुखायान्तरमासनम्‌ ॥ ५९ ॥ 
आत्मत्वे मनसो बुद्धा त्यज प्राणत्मवासनाम्‌ । उपासीत मनस्तच वृत्त्याख्यावयवेयतम्‌ ॥ ९० ॥ 
यज्ञुराचाश्चतुरवैदा आदेश्स्तद्तो विधिः । तद्धासके मनोवृत्तिपचके पक्षिकल्यना ॥ ६१ ॥ 
अवाङ्मनसगम्यस्य ब्रह्मणोऽप्यवबोधने । राक्तं भवेन्मनस्तच मनो ब्रह्मेति कस्षना ।) ६२ ॥ 

न अह्मणि मनोजन्यस्ूर्तिस्तस्मादगम्यता । मनस्यन्तमुंखे नय्येदविचा तेन राक्तित। ॥ ६२॥ 

-तेत्तिरीयकवियाप्रकाशः 


(३ ) ०व्यथैः । त०। इति पाठः ! (४) ०थ॒ा व्यव० इति पाठः । 


७६ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ब्रह्म-आनन्द्‌-वही : 


च्ोणलः स बरा एष पुरुषविध एवै तस्य पुरषविधताम्‌ । 
अन्वयं पुरंषविधः । तस्ये रद्धेवं रिरः । 
ऋतं दक्षिणः पक्षः । सत्ययुचरः पक्षः । योगं 
आत्मा । महः पुच्छं परतिष्ठ । " 
तदप्येष शोफो भवति । 
इति ष्णयुरवैदीयतेत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म-आनन्द-- वर्ल्यां 
चचतुरथे।ऽलुवाकः । ४ ॥ 


यास्िका विश्वान, तच्चाध्यवंसायटक्षणमन्तःकरणस्य धमः, तन्मयः--निश्वय- 
विज्ञानैः माणस्वस्वेर्नवरतित आत्मा--विज्ञानमंयः। प्रमाणविज्ञानपू्वैको हि य- 
श्ञादिस्तायते । यज्ञादिहेतुत्वं च वश्ष्यति छोकेन । 


{ १ ) इदमित्थमेवेति विषयपरिच्छेदः (२) मनोवृत्तीनां मध्यं विरिष्टं "अहं कतो इत्येवरूपं बरा्तज्ञान 
-यस्य करूत्वधमैपेतस्य वस्तुनो आइकं भवति, तद्वस्तु विज्ञानम्‌; तस्य विकारो विज्ञानमयः 1 रजोमिश्चसचे- 
गुणका्यं हि विज्ञानमरहपरत्ययपिषयाभिमन्तुरूपेण विक्रियते । तमेतमभिमन्तारं सवे जना अहंपरत्ययेन विर्यं 
कुवन्ति ¦ दविविो मनसः प्रत्ययः--इरदपत्ययः, अदंपत्ययश्चेति 1 तत्रेदरत्ययो बहिथुखतया ` प्रमातुरन्यपदाथै 
भमेयं विषयीकरोति । अहंपरत्ययस्तन्तर्मुखः प्रमातरमेव विषयीकरोति । योऽयमरदपरत्ययविषयोऽभिभन्ता सषु 
प्रमाणन्यवहरेषु म्रमाता, सोऽयमत्र विद्धानमयः । नन्वात्मैव व्यवहारस्य कतां भवतिः. न त्वसौ. विज्ञानमय 
ख्यश्चतुः केदः । मत एव भगवान्‌ बादरायणः "कतां रालरा्थवत्तवात्‌"" (ब. स्‌. २.२.३३.) इति सत्रया- 
मास । नायं दाषः-आत्मकतरुत्वस्यपाधिक्त्वात ! एतच्च “यथा च तक्षोभयथा” (जर. स्‌. २.२.४०.) इत्यव 
सूत्रितम्‌ । तिं पूर्वाक्तवाद्यन्दियान्तःकरणसमूदरूपमनोमयस्य संयोगेनैवात्मनः कर्तत्वसिद्धौ किमनेन विज्ञान 
मयेन ¶ इति चेन्मैवम्‌ । यदि ाह्मणादौ प्रसादगोचरज्ञागक्रियादाक्तयोरभावात्तक्षाऽपेश्यते, तर्हत्रापि सर्वव्य- 

 वहारगोचरज्ञानक्रियारक्तियुक्तो तिज्ञानमयोऽपेक््यते । न चासङ्गस्यात्मने आरोपमन्तरेण रक्तिं संभवति । 
सारोपश्च कचिन्मुख्यस्थेवाधारान्तरे दरयते-विरगते हि सप मुख्यं स्तं रस्नावारोप्यमाणं दृष्टम्‌; तस्मा- 
दत्रापि विज्ञानमये मुख्यं रक्तिं चिदत्मन्यारोप्यताम्‌ । सोऽयं कवृत्वशक्तियुक्तो विज्ञानमयः करणङ्क्तियु- 
्तन्मनोमयादभ्यन्तरः । नन्वेकस्येवान्तःकरणस्य तत्वस्य मनेोबुद्धयदंकारचित्ताख्याश्चत्वारो वृत्तिभेदाः । षते च 
वृत्तिविशेषाःक्षणिकाः कारुभेदेनैवोतमचन्ते“्ुगपज्ज्ञानानुतपत्तिर्मनसेो लिङ्गम्‌"(गो.स्‌-१.१.१६) इतिन्यायात्‌। 
तथा सति वृत्तिमात्रस्वरूपयोमनोमयविज्ञानमवयोर न्नमयप्राणमयवत्‌ परथक्तत्वरूपतामावाद्धित्तक्रालनिताच- 
न्तवेदिमावो न युक्तः इति चेत्‌, न; करणरूपेण कररूपेण च तयेोस्तत््वभेदाङ्गीकारात्‌ । पूर्वकता मनोवुद्धया- 
दयश्चत्वातनेऽपि करणस्यैव व्यापारविशेषः । करवैरूपं तु करणात्‌ पृथगेव तत्त्वम्‌ । त बुदधिरशब्देन, विक्ञा- 
नराब्देन, अहरब्देन च तत्र तत्र व्यवहियते। अयमेव कता मोक्ता नेयापिकादिमतिद्धो जीवात्मा । सांख्या- 
शयवमाहुः-्जतकरणं त्रिविधमिति । त््रे्धियाणमेकाददकख्यापूरकं भनोनामकमेकम्‌ 1 अहंकारतच्चं दि- 


त्तीयम्‌ । महत्तत्त्वं तृतीयम्‌ । तेष्वहंकारमेवं लक्षयन्ति-अभिमानोऽदंकार्‌ इति । स पव चितिच्छयेपितो- 
रहंकारोऽत विद्गानमय्‌ः 





. अध. पञ्चम्रोऽ्वाकः . . 
विबनमे लेकः विज्ञानं य॒ तुते । कमणि ` तरुवेऽपिं च । 
विज्ञानं देवाः सव॑ बह्म च्यष्टमुपाते । पि- 
$ देरव 1 [का ~ ई 
जञाने बरह्म चं । साः प्रमाच॑ति | शरीरं 
| पाप्मनो हित्वा । सनन्कामान्त्सभ८त इति । 
` निश्चयविज्ञानवतो हि कतेवयेष्वथैषु पूर्व शंधोतपे्यते, सा सदैकण्धान - 
प्राथम्याच्छिर इव शिरः । ‹ ऋतसत्ये * यथान्याख्याते एव । योगो युक्तिः 
समाधानम्‌, आत्मेवाऽ.ऽत्मा । आत्मवतो दि युक्तस्य समाधानवतोऽङ्गानीव श 
दधादीनि  यथाथेग्रतिपत्तिश्षमाणि भवन्ति, तस्मात्छमाधानं योग आत्मा विज्ञान- 
मयस्य । महः पुच्छं प्रतिष्ठा । महः" इति महत्त्वं प्रथमजम्‌, ^ महयक्षं प्रथ- 
मजं वेदं * इति श्चुत्यन्तरात्‌, च्छ प्रतिष्ठा कारणत्वात्‌-कारणं हि कायाणां 
[५ [१ क = © (५. 4 # च्‌ 
प्रतिष्ठा, यथा बृक्षवीरधां प्रथिवी । सेविज्ञानानां च महत्तत्ं कारणम्‌ । तेन 
तद्विज्ञनमयस्याऽऽ्मनः प्रतिष्ठा । 
तदप्येष श्छोको भवति पूवेवत्‌। यथाऽन्रमयादीनां ब्राह्मणोकतानां प्रकाशकाः. 
श्छोकाः, एवं विज्ञानमयस्यापि । | 
इति शीमत्परमदंसपसिराजकाचायेगोविन्दभगवलूज्यपादरिष्यशरीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द--वह्ीभाष्ये चतुथोपदवाकः ॥ ४ ॥ 
विज्ञानं यज्ञं तजुते । विक्ञानवान्‌ हि यज्ञं तनोति भद्धादिूनेकः । अतो 
विज्ञानस्य कवैत्वं--‹ तरुते ' इति; कमाणि च तुते । यस्मराद्विज्ञानकरतूकं 


` ` इति शीमत्यरमदंसपसिनाजकाचारयशरीमच्छुदानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरीयोप- 
निषच्छांकरभाष्यदिपपणे बरह्म-भनन्द--यल्सयां चतुथोऽनुवाकः ॥ ४ ॥ 





(१) गुरुशाखाम्यामभिदिते तत्त्वे, तदवबोधोपाययोश्च प्रमो विशासः । यपि श्द्धादयो वर्तरूपत्वान्म- 
नोमयस्य कायः, तथापि विक्चानमयस्य करतलेन क्रणतत्तिसवामिलान्मनेृत्तय एत्दीया यपि. भवन्तीत्य- 
भ्परिल् विज्ञानमयस्य श्रद्वा शिर इत्युच्यते । ८२ ) उपपचते--पढः ! ( २ ) पृ. ८ (४) अध्यात्मसाल- 
निश्चयः समाधानरूपः) दक्षिणोत्तयक्षा्यां चित्तुद्धदारोपकार्यवेन मध्यभागः ।' (५) हिरण्यगभीख्यं- 
सू्म्‌-+५८ ६ ) बर. इ. ५.४. १. यक्षम्‌ = पूल्यम्‌ ! (७) न्यायवेदेषिकादिालाणि मिथ्यालन्येव कैलवा- 
दियुक्त उपश्चीणानि । सांख्यशाछं यपर चिदात्मनि सुखे प्रदत्त, तथापि त्रवलेव पर्यवपितम्‌ । वेदान्तासतु 
तस्य मु्यात्मन दशवरतमरेषजगद्ुपलयं च प्रतिपादयन्तीति विरेषः। ` | 

` # अत्र द्वकाराकारस्य सानुदात्तः पाठोऽपि वैदिकेषु प्रसिद्धः । 


तैत्तिरीयोपनिषत्‌ क, कम न, 


तस्यैष. एव शारीर आत्मा । ` थः पूवस्य ॥ 
सर्द, तस्मादुक्तं विज्ञानमय आत्मं ब्रह्मेति किच, विज्ञानं ब्रह्म सर्व देवा इन्द्रा 
-दयो ज्येषठं-प्रथमजत्वात्‌, सवेचरंत्तीनां वा तत्पुषैकत्वात्‌, प्रथमं विज्ञानं ब्ह्मो- 
पासते ध्यायन्ति--तस्मिन्विज्ञानमये बह्मण्यभिमानं रत्वोपासत इत्यथः । त- 
स्मात्ते महतो ब्रह्मण उपासनान्छानेभ्वयेवन्तो भषन्ति । तञ्च विज्ञानं ब्रह्म चे- 
विहठानमयोप्सनस्य ददि वेद विजानाति, न केवट वेदैव, तस्माद्रह्यणयेन्न प्रमा- 
हविं फलम्‌ द्यति-बाह्येष्वेवानात्मस्वात्मा भावितः, तस्मात्तं विज्ञानमये 
ब्रह्मण्यात्ममावनायाः प्रमदनं, त्िब्रस्यथेमुच्यतेः ‹ तस्माच्चेन्न पमाद्यति ` इतिं 
--अन्नमयादिष्वात्मभावं हित्वा, केवले विज्ञानमये ब्रह्मण्यात्मत्वं भावयन्नास्ते 
(९) पपक्य चेदिव्यथैः। ततः कि स्यादिति ? उच्यते-दारीरे पाप्मनो 
हित्वा; श्चरीरायिमाननिमित्ता हि सवं पाप्मानः, तेषा च विज्ञानमये ` ब्ह्यण्या- 
त्माभिमानात्‌, निमित्तापाये हानमुपपद्यते, छत्रापाय इव च्छायायाः । तस्माच्छ- 
ररि बाननिभित्तान्सरवन्‌ पाप्मनः शरीरप्रभवान्दारीर एव दिवा, चिक्ञानमय- 


(२) सर्वैकामावा्तिः ब्रह्मस्वरूपापन्नस्तत्स्थान्सवोन्कामाव्विज्ञानभयेनेवाऽऽत्मनाः ` 


समदते सम्यग्भुङ्क इत्यथः 


तस्य पूवस्य मनोमयस्याऽऽतमेष एव दारीरे मनोमये भवः शारीरः । क 
य एष विज्ञानमयः ॥ 


--=--- "~~ 





रै च कष 


प्रथम्रजत्वादिति । दिरण्यमभाभेदनेदयथः ॥ 





= 


1 । 
५ 
4 


8 तेत्तिरीयोपनिषत्‌ [ब्रह्म-आनम्द-वहीं 


( १ ) अृत्तीनां-पाठः । ( २ ) सगुणब्रह्मविदो देहपातास्मागेव पुण्यपापत्यागः चर. स्‌. २. २. २७ . 


- इत्य चिन्तितः । 

(२ प्राणात्मवास्तनानशिे मनसोऽप्यात्मतां त्यजेत्‌ । केतुरात्मलमुचितं मनेोऽन्तःकरणं खल्‌ ॥ ६४! 
हंकतेत्यदोऽशानं विरिष्टं यस्य॒ मासकम्‌ । तत्वर्वरूपं वि्ञानमात्मतेनावगम्यताम्‌ ।। ६५ ॥! 
अहंक्रियत इत्येषोऽदंकाराख्यः स विहं । आनखाग्रममिव्याप्य स्थितो जागरणे स्फुटः ।। ६६! 
तेन चेतनवदेहो भाति सुरौ ठु॒तछ्यात्‌ । भवेत्करा्ठसमो देदसेनादंकार आत्मता ।॥ ६७ ॥ 
मदीयं मन इदयुकतेरातमनः करणं मनः । इत्यात्मानं विविच्याथ तमुपासीत पक्षिवत्‌ 1 ६८ ॥ 
अद्धाचयाः पच तत्रस्थाः करप्या मूद्धादिरूपतरः । अद्धास्तिकयमृतं बुद्धौ यथा वस्तलुचिन्तनम्‌ ॥ ६९ ।! 
यथायमाषणं सत्यं योग एकाग्रता भियः । महस्तु योगजं शनं चिन्त्या: शद्धादयोऽखिकाः ।॥ ७० ॥! 
-रौविके वैदिके कर्ववजञानं बह्म वेत्ति चेर्‌ । त्यजेदामरणं नेकेद्रहमखेके युतं जेत्‌ ॥ ७१ ॥ 


-तैत्तिरीयकवियाप्रकाश्चः 


५५.पथ्वमोऽलुचाकः | आनन्दमयकोशः. ७९ , 


आनन्दमयकोशः तस्पद्रा ` एतस्परदिहानमयात्‌ । अन्योऽन्तर-आ- 
त्मंऽऽनन्दमयः.। तेनैष पुणे; ¦ 

तस्योमस्यसवर्पम्‌ स॒ वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुसषविधताम्‌ । 

| अन्वयं पुरुषविधः, । तस्य मिरयमेव रिरः। 
` तस्माद्या पतस्मादित्युक्तारथंम्‌ । “ आनन्दमयः ' इति कायाच्ती तेः-- 
(> अधिकारात्‌ ,(२)मयर्‌श्ब्दाश्च-अन्नादिमया हि कायात्मानो भोतिका इहा 
चधिक्ताः, तद्धिकार पतितश्चायं आनन्दमयः; ' मयटरचाज विकाराथ दष्टः, यथा 
“ अन्नमयः * इत्यत्र; तस्मात्कायौत्मा “ आनन्दमयः ` प्रत्येतव्यः; (2) स्ंकरम- 
णाच-“आनन्दमयमात्मानमुपस्तंकामंति * इति वध्यति, कायोत्नां च संक्रम- 
णमन्नात्मनां द्रम्‌, संकमणकमेत्वेन च ^ आनन्दमय ' आत्मा श्रूयते, यथा अ 

चरमयमात्मानमुपसंक्रामति › इति; न चाऽऽत्मन एवोपसंक्रमणम्‌, अधिकारवि- , 

रोधात्‌; असंमवाच्च- न ह्यातमनेचाऽ.ऽत्मन उपसंक्रमणं संभवति, स्वात्मनि 
भेदाभावात्‌, आत्मभूतं च ब्रह्म संक्रमितुः; 9) शिर्भादिकतपनानुपपत्तेश्च-- 
न हि यथोक्तछक्षण आकाश्लादिकारणेऽकायेपतिते शिरमादयवयवरूपकट्पनो- 
पपदते, अश्दये ऽनात्स्ये ऽनिरक्तेऽनिलयने, अस्थूलमनणु" निति नेत्यात्मा इत्या- 
दिविशोषापोदश्तिभ्यश्च; (५) मन्त्रोदाहरणायुपपत्तेश्च--न हि, प्रियरिरयाद्य- 
वयवविरि्टे ्त्यक्षतोऽयुभूयमान आनन्दमय आत्मनि ब्रह्मणि ‹ नास्ति ब्रह्म" 
इत्याशङ्गाभावात्‌, “असश्नेव स भवति । असद्भल्ेति वेद चेत » इति मन्बोदाह- 
“ आनन्दमयः परमात्मा * इति चत्तिकारिरतं, तन्निेधरेन ष्याचे--कायौतमप्रतीति- 
रित्यादिना । ‹ संक्रामति ` इत्येतदतिक्रामतीत्यभिप्रयेण व्याख्यातम्‌ प्राप्त्यभिप्रायं क- 
स्मान्न व्याख्यायत इत्यत आह--न चाऽऽःमन एवेति । अन्नमयादीनामतिक्रमणीयतया 
प्रकृतत्वात्‌, एकस्य कठत्वकमेत्वासंभवाच, प्राप्तिः संकमण न भवतीत्यथः । आनन्दमयस्य 





(१) “भनन्दमयो जह्य" इति न युज्यते-(१) अन्नमयादिगतविकाराथमयद्‌प्रायपटितेन मया त्तस्य विका- 
रत्वावगमात्‌ ; (२ ) दिरःपक्षाचवयवयोगात्‌; ८ २ ) पुच्छेन निर्दिषटद्रह्मणस्तस्य व्यतिरकप्रतीतेः; (४ ) 
सन्नमयादिपयायेषु प्रधानानां तत्ततपरयायगतश्मेकविषयत्वददौनेन स्व॒पययुगतशटोकाविषयस्य तस्याप्राधन्यात्‌ ; 
(५) “५ ्स्येष एव शारीर भात्मा यः पूर्वस्य ® इति अन्नमयादीनामिव तस्याप्यात्मान्तरभवणात्‌ ; ( ६ ) 
५ अन्नमयप्रणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमया मे शुध्यन्ताम्‌ ” इति रोध्यत्वभ्वणाच । इति न्यायरक्षा- 
मणो आनन्दमयाधिकरणे । (२) ते. ड. २. ८. उप- संक्रमणं = बाधः । ( ३ ) अनासनां--पाठः । 
(्) तै, ३.२. ७ (५) ब. उ. ३. ८. ८.८६) चर. उ. ३. ९.२६ चतुःकृलः (७) तै. उ. २. ९. 


द० ै्तसमोषाि५,. [ब्रह-आनन्द्‌-बही 


समपयत" सा पु | प्रविष्ठा ` इत्यपि . चानुपपन्नं. पृथग्रह्मणः प्रतिष्ठाववेन 
पवाऽऽनन्द्मयः, न पर पवाऽऽत्मा। ` 

“आनन्द ` इति विद्याकमेणोः फलम्‌, तदिकार ` आनन्दमयः । स च विल्ञा- 
नमयादान्तरः, यज्ञादिदेतोर्विंशानमयादस्यान्तरत्व्ुतेः। ्षानकमणोहिं फट भो 
क्वरथेत्वादान्तरतमं स्यात्‌ । मन्तरतमश्चाऽऽनल्द्मंय आत्मा पूर्वेभ्यः । विद्या- 


~ =~ ~----------~----- 


‹भप्जत्वासंभवे हेत्न्तराण्याइ--शिरयादीस्यादिना ! आनन्दमयस्य परमात्मत्वविव- 
श्या, मन्वे तस्येवासवाजङ्ा वक्तव्याः तदसंभवाश्च नानन्दमयः परमात्मतया प्रतिपाद्यत 
इत्याह--* -८1 3६ ५ एर ततश्चेति ॥ न हि "^" ““ `मन्त्रोदाहरणञ्चपपयते, इति संबन्धः 

विशिष्टस्य विशेश्णकायत्वात्‌ , “ इष्ट्यहम्‌ › इत्युपटम्यमानो भोक्ताऽऽनन्दमय इत्यक्तम्‌। 
थं तस्व विक्षानयकादान्तरत्वम्‌ ¢ इत्यत आह--स चेति । कतरपेकषया भोक्तत्वस्योत्तर- 
भादिलं भ्रसिद्रमेव. शत्योकचमित्यथेः। रतत्सछ्यति--ज्ञानक्मणोहीति । श्ररीरादिभ्य 
आनन्दसाधनेभ्यः सकाश्चात्साध्येनाऽऽनन्देन विशिष्टोऽन्तरतमः प्रसिध्यतीत्यथः। किच, प्रिये 





( २) खुखदि क्ानकमेफलम्‌ › व्रदात्मकं यदन्तःकरर्ण, तदुपाधि यस्मत्यगात्मनो विङञानं--चैतन्याभासः, 
समेऽत्र ‹ आनन्दमय ` सब्देनोच्यते । यगत्मनः शुदधस्वमावस्यापि बुद्धौ प्रिादिपरिणामोदये सति त्दुपर- 
कतया चन्यामासो जायते, तदा तदुपाभिलादविद्याऽऽत्मा मोक्ता स्यात्‌ ! (२) यथा प्राणमयेन व्याप्त 
देहे क्रतेऽपि प्राणकार्य चल्नसुपरुभ्यते; यथा च ममेोमयेन व्यपति प्राणविरिष्टे देहे समैसिमन्तपि 
मनःकायभूतः चेतनत्वलक्षणा ज्ञानरक्तिरुपरभ्यतेः यथा च विज्ञानमयेन व्याप्ते मनःप्ाणोमयेविरिष्टे 
देहे कत्लेऽप्यहं. केतति कर्वत्वसुपलभ्यते; एवमानन्दमयेन व्यातरे षिन्ञानमनुःप्राणविरिष्टे देहे इस्तपरादा- 
दिषु सुखविंरेषा उपरभ्यन्ते । तेदेतदानन्दमयपूणत्वम्‌ । सुखवदुःखमपि हस्तादिषूपरम्यत इति चेदु- 
पलभ्यतां नाम । दुःखात्मकवृ्तिहेतुना मनोमयेन देहस्थ पृणंत्रया तदुपपत्तेः! दुःखस्य मनोमयषरमवं, युख- 
स्यानन्दमयधमंत्वम्‌ ! आनन्दो दु-खाभावो न भवति, तदनिरूप्यत्वात्‌ । दःखेन न निरूप्यते, तदःखाभवेो 
व भवतति, यथा घटः ¦ अभावत्वे तु प्रतियोगिनिरूप्यतेन दुःखस्मृतिपुरःखरमेव मरतीयेत । यद्रा, आनन्दोऽयं 
वरूपः प्रतियोम्यनिरूम्यत्वात्‌, पट्यत्‌ । यद्वा; आनन्दोऽयं मावरूपः, सातिरायत्वात्‌, दु-खवत्‌ । स चा- 

कतृत्वभोक्ततोपेतस्यात्मनो मनुःसेयोगजन्यः क्षणिके गुण इति वेशेषिकाणां मतम्‌ । बुद्धिरुवदःखेच्छा- 
दीनां नवानां तैरातमविरेषयुणलाङ्गीकारात्‌ । सांख्यास्तु मन्यन्ते-आतमनेोऽसङ्गलादिच्छाचाः भरक्ृतिगतयु- 
णत्रयपरिणामाः । त्तर सुखं सत्तयुणपरिणामः । प्रवृत्ती रजोगुणपरिणामः । ग्रमादस्तमोगुणपरिणामः-इति 
तथाच भगवताग्ुक्तम्‌--'सत्त्वं सुखे संजयति रजः कमणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमदे संजयत्युत ॥* ` 
(भ. गी. २४.९. ); न्यायेकदेरिनस्लेवमाहुः--यद्विषयुखमस्ति, तद्खानुषद्गादुःखमेव । त एते वेशिषि 
कादिपक्षाः पुरषवुद्धिभिरुतमेक्िताः । श्तिस्वात्मखरूपभूतस्य नित्यानन्दस्य खतन्त्रदरन्यस्य लेरो ` विषयानन्द 
इत्याच्टे-“ एषोऽस्य परम आनन्दः । एतस्यवानन्दस्यान्यानि मूतानि मात्रामुपजीवन्ति ” ( बु. उ. ४ 
३.२२.) इति। यचि परियमोदप्रमोदा मनसः करणरूपस्य दृत्तिविरेषतया कनैरूपदिज्ानमयंदरहिभूताः, तथाप्या- 
न्तरस्यावच्छिन्रजीवानन्दस्य, अनवच्छ्नत्ह्मानन्दस्य वो प्रतिविम्बं धारयन्तीत्यान्तरलमभिप्रेत्य ` विज्नानमया- 


दभ्यन्तर्‌ आत्माऽऽनन्दमय्‌ इल्युक्तम्‌। ` 


न ॥ ५ +~ , 4.५ - 
ध वच्वमोऽनुक्रकः ] अपोध ८. 
# 


` ^ मोदो : दण पकः । मोदं उतत कः 
अनन्द आतमा बह्म पुच्छं ग्रति .“.. 
-. . इति श्रष्णयदुवेदीयतेत्तिरीयोपमिषदि ब्रह्म--आमन्द---चल्ल्यां. . र , 
^ . .. . पञ्चमोऽतुवाकः । ५ ॥) 


कर्मणोः ` प्रियाचथेत्वाच्च । प्रियादिप्युकते दि विदयाकमैणी । तस्मा्ियादीनां 
फटरूपाणामात्मसंनिंकषोदिज्ञानमयादस्याभ्यन्तरत्वमुपप्ते । पियादिवासना- 
निदत्त ह्यात्मा आनन्दमयो विज्ञानमयाधितः स्वपरं उपलभ्यते । 

तस्यां ऽऽन॑न्दमयस्थाऽ.१त्मन इषपुत्रादिदद्यनजं प्रियं शिर इव शिरः, पाधा- 
न्यात्‌ । भद इति प्रियछोभनिमिन्तो हषः । स एवं च रषे हैः प्रमोदः । . 
आनैन्द्‌ इति शुखसामान्यम्‌, आत्मा भियाद्मनां सुखावयवानां 
तत्वात्‌; आनन्दः" इति परं ब्रह्म । तद्धि शुभकरममणा प्त्युपस्थाप्यमाने युत्रमि- 
्रादिविषयविसेषोपाधावन्तःकरणद्त्तिषिरोषे तमसाप्रच्छाद्यमाने . प्रसन्न 
ऽभिव्यज्यते । तद्धिषयसुखमिति प्रसिद्धं ` छोके । तदृत्तिषिरेषपरत्युपस्थाप- 
कस्य. कमणो ऽनवस्थितत्वात्सुखस्य क्षणिकत्वम्‌ ।- तेदयद्‌ाऽ्स्तःकरणं तपसा .त- 
मोप्रेन, विद्यया, बह्मचयेण श्रद्धया च निमरत्वमापदयते यावद्यावत्‌, तावत्ता- 
वदविषिक्ते प्रसन्नेऽन्तःकरण आनन्द विद्ेष उत्छृष्यते, विपुखीभवति 1" वशयति 
च-“रसो वे सः। रस «< छेवायं कच्ध्वाऽऽनन्दी भ॑वति । '“*“ "पष होवाऽऽन- 


च तत्साधनं चोद्य कतो विज्ञानकमेणी -अचतिष्ठति, तत- उदद्यत्वादस्याऽऽन्तयं पिद. 
मित्याह-विद्याकमेणोरिति"। ्रियादिविकशिष्टस्य स्वपने सक्षिणोपरभ्यत्वाच न खख्यात्म- 
त्वमिव्याह-प्रेयादिवासनेति। | 

यदुक्तं ्ानकमेणोः फटभूत आनन्दमय .इति, तस्य साध्यत्वमोपापिकं स्वमतादसारेणा- 
ऽअ-आनन्द्‌ इति परति । कथं तदि. विषयस्य . क्षणिकतवं, सातिश्चयल्वं , च ? 
ग्य्ञकटत्तिमिवन्धनमिलयाई--तदरुत्तिवियोषेति . । ` ब्रह्मण ओनन्दस्वभावत्वः एव किं 
प्रमाणमियतं आह~--वक्ष्यति चेति 1 अन्तःकरणश्वद्थुत्कषोदेवाऽजन्दस्य ` सातिधयत्वम्‌- 


( १) चिवंर्तितः--पाढः.1 (२ ) अतन्दः -कारणाङ्गने -्रतितिम्वितः, विम्बस्थासीयो वा; आत्मा-िरः 
पच्छयेर्मध्यकायः;- जह्म -शुद्धम्‌.। कर्मफङ्स्यानन्दस्य सातिराय॑लाशिरति्ययात्परमानन्दा्रह्णेो ऽन्तर - 
मापतेदित्याच्ङकया ऽऽह आनन्द. इति परं ब्रहेति । .( २) तथधाऽन्तः०.1. तबदन्तः० । प्राठो (४ ).०ते 
यावत्‌+ तावद्धि” प्राः .(५ ) अन्त्ररणतिश्चेष भन्द्‌ उ पठः 4 , , 


८२ | तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्-वही 


न्दयाविः" “पतस्थेवाऽऽनन्दस्यान्यानि भूतानि भराजासुपजीवन्ति ” इति च 
श्रुत्यन्तरात्‌ । एवं च कामोपशामोत्कषोपेश्षया रातर्‌ 1 रो ्तयोत्कष आनन्दस्य 
वक्ते ! एवं बचोक्छष्यमाणस्याऽऽनन्द्मयस्या ऽऽ त्मनः परमाथेब्रह्मविज्ञानपे- 
श्वया ब्रह्म परमेव, यत्यते सत्यन्ञनानन्तरक्चणं, यस्य च प्रतिपत्य पञ्चा- 
 श्रादिमयाः कोशा उपन्यस्ताः, यच्च तेभ्य आभ्यन्तरं, येन च ते सवे आत्मव- 
न्तः, तद्भह्य पुच्छं प्रतिष्ठा । तदेव च खवैस्याविद्यापरिकरिपितस्य दवेतस्यावसा- 
नमूतमद्वेतं अह्य भतिष्ठा, आनन्दमयस्थेकत्वावसानत्वात्‌ । अस्ति तदेकमानि- 
₹ ।क 2५०९५ द्ैतस्यावसानभूतमदवैत ब्रह्म तिष्ठा पुच्छम्‌ । ` 
तदेतस्मिन्नण्यथं एष -ऋछोको भवति 1 | | 
इति भरीमत्परमदंसपरिराजकाचायगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगव्तः ` 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द-- वहीभाष्ये पञ्चमोऽठवाकंः ॥.९ ॥ 
इत्यत्र टिङ्खमाद--एवं चेति ! यदि विषयविशेषजन्यस्वेनाऽऽनन्दोत्कषेः, तदा निष्कामस्य वि- 
षरयविदयेषोपभोगासंभवादानन्दोत्कषो न आ्येत । आत्मस्वभावस्यैवाऽनन्दस्य व्यजकान्तःक- 
रणञदयुत्कषोदेवोत्कषेः--इलयेवं तु सति, अकामहतत्वोत्कषादुत्कषेः संभाव्यत इत्यथः । 
उक्तप्रकारेण विषयानन्दस्य प्ातिशयत्वे सति, तद्विभिष्टस्याऽनन्दमयस्यात्र्मलवं सिडख-- 
सातिक्चयत्वेन प्रतिशरीरं भित्त्वा । ब्रह ठ तदध्यासापिष्ठानमद्ितीयमियाद--एवं चेति ! 
पएतस्मिन्नप्यथं इति । आनन्दमयस्य प्रतिष्टाभूतव्र्मप्रकाशनपर देत्यथेः। 


इति भीमत्परमदंसपरिबाजकाचा््रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तेत्तिरीयोप 
निषच्छांकरभाष्यटिप्पणे बह्म--आनन्द--वल्ल्यां पश्वमोऽलुवाकः ॥ ५ ॥ 


(१) तै. ड. २.७. (२) बरु. उ. ४. २. ३२.८२) < अनुवके. ( ४ ) अनात्मनः-पाठः  , 
(२) विज्ञानध्यानतो नद्येन्मनस्यात्मलवासना । विज्ञानात्मत्वमप्येषु॒त्यजेच्छोकटुततवेतः ॥ ७२ ।1 
शयोक तरयात्मबोधादिति शयन्ते जगो । शोकसागरममनोऽयं कर्ता तस्यात्मता नहि ।। ७२ 11" ` ` ` 
आनन्दस्यासता युक्ता सोऽत्रस्ति प्रीतिदरीनात्‌ । सदा भूयासमेवेति नित्यं प्रेमात्मनीश्यते († ७४ ।। 
भानन्देकसखमावोऽपि कतुविज्ञानसङ्गमात्‌ । निजानन्दं तिरस्कृत्य कदाचिच्छोकमाप्नुयात्‌ !। ७५ ।। 
समाभिसुप्रिमृच्छीघु विज्ञानस्य ल्ये सति । नित्यानन्दस्वरूपेऽस्मिन्छोकोऽरयोऽपि न वीक्यते।। ७६ ॥ 

. मूछयुप्त्यो्य॑दज्ञानं भाति तत्करणं धियः । कारणे बुद्धिवृत्तौ च खानन्दः प्रतिबिम्बति ।। ७७ ॥ 
दुःखं राजसधीवृत्तो सात््िक्यां ततछुखं भरे । प्रियं मोदः प्रमोदश्ेदयुच्यते धीसुखं धिषा ॥ ७८ ।! 
इष्टस्य द्रीनाछामाद्धोगाच स्युः मियादयः । ते त्रयः कारणानन्द. त्मानन्दश्च पच ते ।। ७९ ॥ 

 प्र्षिणोऽवयवाः पन्व मू्धाचास्तेषु कदिपताः । भानन्दमयकोशोऽयमुपास्यः पूर्वकोदावत्‌ ॥ ० ।१ 
अन्नप्रणमनोविज्ञानानन्देज॑निता इमे । कोशस्तेषु क्रमेण . स्युरुत्तरोत्तरमान्तराः. ॥ ८१ ।1 
विक्षानकरोदचन्यायेन : फलमुन्नीयताभिह । तदुपास्तिफरं व्वार्थीत्ततत्ववोधफ लं भवेत्‌ ॥ ८२ ।४ 
आनन्दं हय विज्ञाय त्यजेदामरणं न चद्‌ । सरे पाप्मनो हित्वा. सर्वान्कामानवाप्नुयाद्‌ ।। ८२ \\, 


अथ षष्टोऽनुवाकः 
ना . अंशव सं भवति । असद्रह्मोति वेद 
समन ` चेत्‌ । अस्ति बह्मोति दद । सन्तमेनं 
ततो विहुरिति । 

असन्नेवासत्सम एव, यथाऽसन्नपुरषाथसंबन्धी, एवं समवति-यपुरषार्थ- ` 
संबन्धी । कोऽसौ १ योऽसदविद्यमानं ब्रह्येति वेद विजानाति चेद्यदि । तद्धि 
पययेण यत्सवैविकल्पास्पदं, स्ेप्बरत्तिवीजं, सवैविरोषपरत्यस्तमितमपि, अस्ति 
तद्वहति वेद्‌ चेत्‌। | 

कुतः पुनराशङ्का तन्नास्तित्वे १ व्यवहारातीतत्वं ब्रह्मण इति ब्रूमः । व्यवहार- 
विषये हि वाचारम्भणमात्रेऽस्तित्वभाविता वुद्धि स्तद्विपरीते व्यवहारावीते ना- 
स्तित्वमपि प्रतिपद्यते--यथा घटादि्यवहारविषयतयोपपन्नः सन्‌, तदिपरीतो- 
एसन्विति प्रसिद्धम्‌; एवं तत्सामान्यादिहापि स्याद्रह्मणो नास्तित्वं प्रत्याशङ्का । 
तस्मादुच्यते--अस्ति ब्रहेति चेद्वद ' इति । 

किं पुन; स्यात्तदस्तीति विजानतः ? तदाह--सन्तं विद्यमानं ब्रह्मस्वरूपेण 
परमाथसदत्मापन्नमेनमेवंविदं विदुब्रह्यषिदः । ततस्तस्माद स्तित्ववेदनात्सो- 
उन्येषां ब्रह्मवद्धङ्ेयो भवतीत्यथः 

अथवा यो नास्त ब्रह्मेति मन्यते, स सर्वस्यैव सन्मा्गैस्य वणोश्रमादिव्यव- 
स्थारक्षणस्याश्रदधानतया नास्तित्वं प्रतिपद्यते, ब्रह्मपरतिप्त्यथत्वात्तस्य ! अतो 
नास्तिकः सः “असन्‌, असाधुरूच्यते रोके । तद्विपरीतः सन्‌, यः अस्ति ब्रह्मेति 
येदधेद स तद्ह्यप्रतिपत्तिहेतं सन्माग बणांश्रमादिन्यवस्थालक्चणं श्रदधानतया 
यथावत्परतिपद्यते यस्मात्‌, ततस्तस्मात्छन्तं साधुमागेस्थमेनं विदुः साधवः । 
तस्मादस्तीव्येव ब्रह्म पतिपत्तव्यमिति वाक्याथेः । 





अनन्दमयकोशेऽस्मिन्‌ प्न्वमावयवः तः । ब्रह्मशब्देन तद्रहम स्वात्मानन्द एतीक्यताम्‌ ॥ ८४ ॥ 
 उपरासनाचित्शुदधौ ब्रहमवत््मयक्ते ! गुहादितग्रहमगेथात्सवैकामतिरीरिता ॥ ८५ ॥ 
गुहाहितं ब्रह्म यत्तत््ं ज्ञानमिति शत्‌ । तस्य ज्ञानस्य टंदयासते कोदाः सवं जगत्तथा ॥ ८६ ॥ 
| --तैत्तिरीयकविाप्रकाशः 
( १) « असश्च शेकेऽनलुङ्ृयानन्दमर्, ब्रह्मण एव॒ मावामापतेदनयोयुंणदोषामिषानाम्यते । ब्रहम 
यच्छं प्रतिष्ठा > इलयत्र जहमण षप्र सप्रथानत्वमिति । न चानन्दमयस्यात्मनो मावा युक्त, प्रियगरे- 
दादिविङेषस्यानन्दमयस्य स्वलोकमिदरलात्‌ » ब्र, सु. भाष्ये १.१, १९ ', ` : 


४। 
८४ तेच्विरीयोषनिषत्‌  - [ ब्रह्म-आनन्द्-वही. 


तस्यैष एव सैर अपरता, । थः पूवस्य ॥ 
अयावोन्चुग्श्नाः ।  . 
तस्य पूर्वस्य विह्वानमययस्येष पव दारीरे विज्ञानमये भवः शारीर आत्मा ।: 
कोऽसौ ? य एष आनन्दमयः ॥ : | 
तं परति नास्त्यादाङ्का नास्तित्वे; अपोडसवविरोषत्वान्तु ब्रह्मणो नास्तित्वं 
प्रत्यादान युक्ता, स्वैसामान्याञच बरह्मणः । 


, आनन्दमयस्य प्रकाशचकोऽयं छोक इति केचन, तान्परत्याह--तं प्रतीति । सविकेषतया 


(१) न चत्रैकदेद्युत्तरीत्या छिथ ग्राह्यः । यथाश्ुततारथग्रहणे अनुपपत्यमावात्‌ । न च-प्राणमये '^तस्यै- 
षः ° इत्यस्य यथाश्ता््रहणं न संभवति, अत्नरसमयात्मालुक्तेः--इति वाच्यस्‌ । यस्मादन्नरसमय्‌ उदपन्ः, 
स एव मूर्कारणीभूतस्तस्यात्मा भविष्यतीति “ तथ्यैषे एव दारीर आत्मा ! यः पूर्वस्य ” इत्यनुवादबलाद- 
वगन्तुं दाक्यत्वात्‌ । स॒ च मूलकारणतया “ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः ” इति निर्दिष्ट ए ।! 
ततश्च ‹ यः पूर्य › इति ष जन्यजनकभाव ! तथाच तस्य प्राणमयस्य ‹ एष एव शारीर आत्मा ” इत्य-- 
ज्रपि जन्यजनकमवे षष्ठी । श्रारीरपदे च तस्य आवाभेदसुचकम्‌ । अयं च जन्यजनकभाव उपादानोपादेय- 
भवसूपेणापि भवतीति “ स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ” इति, “ अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः ” इत्यात्मप- 
दसामानयिकरण्यं चोपपद्यते । ततश्च यदुपक्रमे सवैवस्त्नुस्यूततया सवान्तरलं, परिपूणैलं “ अनन्त ° पदेन 
सूचितम्‌, यच्च ^“ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश्चः संभूतः > इत्यादिना विवृतम्‌, तदानन्दमयादन्यस्येवोदग- 
म्यते । गुहानिहिततरूपमान्तस्तवं यदि जह्वेणेव स्ूपेण वक्तव्यम्‌, तदाप्यानन्दमयस्य -य॒ भत्मावगत्ः,. 
तत्रैव त्यर्यैवसानं कल्पनीयम्‌ ! तथाच “* तस्मादन्योऽन्तर आत्मा > इत्यश्रवणमात्रेण नानन्दमयस्य मान्र- 
वर्णिकबहात्वं वक्तं शक्यम्‌ । वस्तुतस्तु, उपक्रमे यदरहानिहितत्वमुक्तम्‌ > तञञेवेन रूपेण । तस्य चानन्दमये 
प॒यैवसानं जीवल ख लिङ्गम्‌ । द्विभकारेण हि ब्रह्मणो युहानिदिततम्‌-यारमेशवरेण सूपेण, जवेन च । तता- 
द्यस्य “ परमे व्योमन्‌” इति प्रतिपादनात्‌ परमन्योमाधितं गुदानिदहितं जेवमेव रूपं सिध्यति । अव्र हि परम- 
व्योमब्दः परमेशरपरः । भरावह्यां समरप ब्रह्मस्वरूपं निरूप्य ¢ रौषा भागवी वाणी वा । परमे व्यो-. 
मन्परतिष्ठिता > ( २... ) इति मन््रवाक्यगतपरमव्येमशब्दन्याख्यानलेन तस्याः. सङ्गमितत्वात्‌ । तद्वव चान- 
न्दमयपर्ययि गुहानिहितं भविष्यति । अव्रापि हि “८ बह्मपुच्छं प्रतिष्ठा ” इति ब्रह्माधितत्वमवगम्यते । दाधारा-. 
रषेयमावेन चानन्दमयस्य ब्रह्मभेदोऽवगम्यते । ततश्च प्रियादिसंबन्ध आनन्दमयेऽ्छेदेनेव वर्णयितुं सार्यते । 
सानन्दमयस्य ऋवे तु तदपि छदेनैव वणैनीयं स्यात्‌ ।-त्रह्मविदामरणे आनन्दमयाधिकरणे । 

जगत्कोदाश्च दृद्यतात्सन्ति ब्रह्म न इस्यते। भतो न स्तीत्याह मूढस्तत्सत्तां वक्ति बुद्धिमान्‌ ।॥ ८७ ॥ 

ˆ जह्य नास्तीति ददवेद स्वयमेव भवेदसत्‌ । कोशात्मता दूषिता चेन्नान्य आत्मास्ति तन्मते ।। ८८ ॥ 
भानन्दमयकोरोऽपि प्रियाया नशवरा्यः । अन्ञानं च ` हञाननदरयं॑न ` ब्हमङ्गीकरोत्यसौ 11 ८९ ॥ 
अरित हेति चरेद स्वयमेवा संभवेत्‌ ! अहदयस्यापि सत्ता स्यात्सपरकाडूत्वसंभवात्‌ 11" ९० ।। 
गोणातम पुत्रभायौदिरथ्यातमान्नमयदिकः । ब्रह्मानन्दो मुख्य आत्मा क्रमेणेते.विवेचित्ताः ॥ ९१ ॥ 

` उन्तरात्मविवेकेऽस्य पूर्वीसमा देहतां त्जेत्‌ । तेनोत्तरेण पूर्वस्य पूर्णत्वदिहिदेहता ॥ ९२॥ 
सत्येवं निखिल पूर्वं रशरं हन्तिमादनः । जह्मानम्दस्तु शारीरः पूर्स्यासमेति निर्णयः ॥ ९२ ।। 

--तेत्िरीयकविदाप्रकाश < ५ ~, 
' ' | “त्ेत्तिरीयकवियाप्रकाशःः 





८२ ) स्मसाम्याद्च--पराढः ॥ * . 


६ षष्ठोऽलुचाकः |  अनुप्रश्षः ८१ 
विद्िवष्य उताविद्रानयं लोकं परय । कथचन गच्छती ३। 


[ग हि च । ष्ये 


न्तमिः आहं दिद्ानमं छोकं मत्यं । कित्सरमसतुता ३ उ । 


यस्मादेवस्‌, भ॑तस्तस्म(-", सथानन्तरं श्रोतुः रिष्यस्यालुप्रश्चा आचार्याक्तिः 
मन्वेते प्रशा असुपरश्नाः 
खामान्यं हि ब्रह्मा ऽऽकारादिकारणत्वाद्धिदुषो ऽविदुषश्च । तस्मादविदुषो- 
ऽपि ब्रह्यप्रा्िराश्षङ्न्यते (१) उतापि अविद्धानमँं खोक परमारमानमितः परेत्य 
कशचन--चनराब्दो.प्यर्थ-अविद्धानापे गच्छति प्रापनोति १(२)किवा न गच्छति ए 
इति द्वितीयोऽपि प्रश्नो द्रष्टव्यः, ' अुप्रश्चाः ` इति बहुवचनात्‌ । विद्वासं पत्य- 
न्यो प्रश्रौ-यचविद्वान्सामान्यं कारणमपि ब्रह्म न गच्छति, अतो विदुषोऽपि 
 ब्रह्मागमनमाशङ्यते । अतस्तं पति परश्वः आहो विद्धान्‌ इति! (३) विद्धान्‌ ब्रह्म- 
-षिदपि कश्चिदितः पेत्यामुं खोक समदयुते परापोति ? [समद्लुते उ इत्येवं स्थिते 
-ऽयदेशे यदीपे च कृते ऽकारस्य प्टतिः समदयुता २ उ इति । उकारं च वक्ष्य 
माणमधस्तादपङृष्य, तकारं च पूवैस्मादुतराब्दाब्यासज्या ऽऽ दो इत्येतस्मापूे- 
मुतशच्द्‌ः संयोज्य पृच्छयत उताऽऽहो विद्वानिति । चिद्रान्समद्व॒तेऽसुं खोकम्‌। 
किवा ( 9 ) यथाऽविद्धान्‌, एवं विद्वानपि न समद्युते ? इत्यपरः प्रश्चः। ... 


द्वावेव वा प्रश्रो धिद्धदाविदद्विषयो;. बहुवचनं तु सामथ्येप्रप्पश्नान्तंरापेश्चया 
रते । “असद्भद्येति वेद चेत्‌ " “ अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद ” इति श्रवणात्‌, अस्ति 
नास्तीति संरायः, ततोऽथप्राप्तः (९) किमस्ति, नास्ति? इति प्रथमो.्युपश्चः; बरह्म- 
णोऽपश्चपातित्वात्‌, (२) विद्धान्‌ गच्छति, न गच्छति ? इति दितीयः; ब्रह्मणः 
समत्वे ऽप्यिदुष इव बिदुषोऽप्यगमनमाराङ्य ८ २) कि षिद्वान्समद्युते, 
समद्चुते ? इति त॒तीयोप्युप्रश्चः 
प्रत्यक्षत्वादेखयथः । स्वेषा साधारणत्वाच्र बह्मणा ध्यवदहायत्वं सवान्प्रति भवत्‌, च्व दृदयते 
ततोऽपि नास्तित्वाशङ् जायत इत्यथः । 
` आकाश्चादिकारणत्वादिति । यूतविशिसवंजीवकारणत्वादिय्थः 


कस्य सामथ्येन प्रघ प्रशान्तरमियत आह-असड््येतीति । चेच्छब्दात्पाक्षिकसत्वा- 
वगमसामध्योदित्यथः। 





( १ ).यतो विदुषोऽविदुषश्च साधारणं ब्रह्म, यतध्धापरमेयं-अतः प्रशा भवन्तीति ° अतत दयग्दार्थः । 
सा्ारयोक्तेरनन्तरमिति ‹ भनु ` रब्दाथः । . . | 


२६ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रहम-आनन्द्‌-चही 


दतेषां प्रतिवचनाथं उत्तरघन्थ भारभ्यते । ततरास्तित्वमेव तावदुच्यते, 
उन्थप्योजनम्‌ यच्चोक्तं “ खत्यं ्ानमनन्त्‌ ब्रह्म ” इति, तथ च कथं सत्यत्व 
-उपयतिपयालेचनम्‌ भित्येतद्धक्तव्यमितीद मुच्यते--सत्वोक्त्येव सत्यत्वमुच्यते \ 
. मननम्‌ उक्तं हि “ सदेव सत्यम्‌ ” इति ! दस्मात्सत्वोक्त्येव सत्यत्व 
मुच्यते ! कथमेवमथेतावगम्यतेऽस्य ग्रन्थस्य ? शब्दायुगमात्‌ । अनेनैव ह्यथ 
नान्वितान्युत्तरवाक्यानि--“ तत्सत्यमित्याच्चतेः “यदेष आकारा आनन्दो 
न स्यात्‌ ” इत्यादीनि । 

तजासदेव अ्रह्यत्याराङ्थते ! कस्मात्‌ ? यदस्ति, तद्धिशेषतो गृह्यते, यथा 
नहासद्धाव घरादिः यन्नास्ति, वश्नोपटभ्यते, थथा रादरविषाणादि; तथा 
नोपरभ्यते बह्म, तस्मा द्विरोषतोऽअहणाश्नास्तीति । तन्न, आकाादिक्छरणत्[ 
छषणः-न नास्ति ब्रह्म ! कस्मात्‌ ? आकाहणदि हि सवै कायं ब्रह्मणो जातं ग॒- 
हति; यस्माच्च जायते किंचित्‌, तदस्तीति दष्टं रोके, यथा घटाङ्करादिकारणं ख 
दीजादि; तस्मादाकाह्ादिकारणत्वादस्ति ब्रह्म 1 न चासतो जातं किचिद्रहयते 
ख्ेके कायम्‌; असतशन्नामरूपादिका्य, निरात्मकत्वान्नोपरभ्येत; उपरम्यते 
तु तस्माद्‌ास्त ब्रह्य । अस्तश्चत्कायं म२८।५८६र दतष्डत्दट तत्स्यात्‌; 

चैवं, तस्मादस्ति ब्रह्म । 

तत्र “कथमसतः सल्लायेत “ इति श्रुत्यन्तरमसतः सजन्मासंभवमन्वाचपे 
न्यायतः, तस्मात्सदेव ब्रह्येति युक्तम्‌ । 

तद्याद्‌ मृद्रीजादिवत्कारणं स्यात्‌, अचेतनं तर्हिं ? न, कामयितृत्वात्‌-न 





सत्रं चेदुषपं बरह्मणः, तावतेव सत्यत्वं सिथ्याति, सतो बाधासंभवादित्यथः । एवमथे- 
ताते} स्वोपपादनेन ्प्यवस्तुविषयतेत्यथः । 
ह्मणः सत्वसाधनं नामासतचन्याटतिरेवेयभिपरेयासच्वशङ्काखद्वावयति--तज्ासदेवेति। . 
विप्रत्तिपन्नमाकाशादि प्त्पूवेकं, कायंत्वाघ्‌, वट्वत््‌-इति कोकिकव्याप्त्यवष्टम्भेन सत्का- 
रणं तावत्सिद्धम्‌ । तस्य च देशादिकारणतवेन देशायनवच्छिनत्वाद्भह्मपद्वाच्यतवं सिद्धम्‌ । 
तस्य विशषतोऽपरुम्भेनासच्छङ्का जायते, सा कारणत्वेन भ्यावयेते, न तु कारणत्वात्सक्ं 
साध्यत आश्रय सिद्विप्रसङ्ादिति भावः। इतोपपि जगदुपादने नासच्वाश्चङ्का कार्यैत्याद-- 
न चासत इत । 
न्यायत इति ! असदन्वयादशेनादिति युक्तित इत्यथः । 
एवमक्तत्वाशङूां निरस्य, अचेतनत्वाशङ्कां प्रथानवादिनः प्रसङ्गानिराच्े--तयदीति । 


(११ छा" उ. ६. २. २. (२ ) कारणत्वं कायपक्षया नियतप्राकालसत्त्व, तन्न यून्यस्य संभवति । ` 


£ षष्ठोऽलुबाकः | बरह्मसद्भावहेतवः . 4. 


बरह्मणः कामयितरत्वम्‌ हि कामयि्रचेतनमस्ति खोके, सर्वज्ञं है ब्रह्मेत्यवोचाम, 
अतः कामयितृत्वोपपत्तिः। 

कामयितुत्वादस्मदादिवदनाप्तकाममिति चेत्‌, न; (९) स्वातन्त्यात्‌, 
ह्मण आप्रकामतरम्‌ .ऽन्यान्परवश्ीरृत्य, कामोदिदोषाः प्रवतयन्ति, न तथा 
-८ २) खातन्यात्‌, बरह्मणः प्रवतंकाः; कामाः । कर्थं ताह, ? सत्यज्ञानं 
-(२) सधनान्तर- टक्षणाः स्वात्मभूतत्वादिद्यद्धाः, न तेबरहय प्रवत्येते; तेषां 
नक्षत ` तु॒तत्मवतेकं ब्रह्य प्राणिकमोपेक्चया; तस्मात्स्वातन्दरयं 
कामेषु ह्मणः; अतो नानाप्तकामं ब्रह्य । 

(२) साधानान्तरानपेक्षत्व च । 

यथाऽन्येषामनात्मभूता धमोदिनिभित्तापेश्चाः कामाः स्वात्मन्यतिरिक्त 


यथपि सांख्यमते चेतनस्य निविंकारत्वात्तामयिदृत्वमसिडं, तथाऽपि रोकरिकल्यामिवरेन 
कामयितृत्वादचेतनत्वाशङ्का निवत्येत इत्याह--न दीति । 

तदि रोकिकम्याप्निबटेनेवानाप्तकामत्वमपि प्राप्ममियाश्ङ्ग्याऽद--कामयित्त्वादि 
त्यादिना । जीवानामनाप्तानन्दत्वं परवश्चतवात्र, न तदसिति ब्रह्मण इत्यथः । कथभूतास्तर्ि 
जह्मणः कामा इत्याशडुगयामाद- सत्यज्ञचछक्चषणा इते-सत्यश्नन ठक्षणं स्वरूपं येषां 
तेषां ते तथोक्ताः--एतदुक्तं भवति, मायाप्रातिबिम्बितं हि चह जगतः कारणं, मायाप 
रिणामेरव कामैः कामयितु, तेषां च परिणामानामवियायनमिमूतचिब्याप्तत्वात्सत्यज्ञाना- 
त्मकत्वं, ब्ह्मतादात्म्याबाधमांयनदस्पृत्वेन दत्वम्‌ ; ततो जीवकामवेलक्षण्यं सिदमिति । 
तरि ब्रह्मणः कामाः पृण्यकारिणामप्यनि्कलप्राप्स्यवकूलाः स्यः, स्वातन्त्यादित्याशक्या- 

त्विति । 

कामस्य शरीरादिसेबन्धजन्यत्वप्रसिद्धः ब्रह्मणः षरीरादिमत्वप्रसङ्ः--इति नाऽऽशङ्नीयमि- 
त्याई-साधनान्तरानपेश्चत्वाञ्चेति । कामसंस्कारवत्या मायाया बह्मतादात्म्यात्तत्मरि- 
पामानां कामानां जह्मतादात्म्यात्र शरीरादिनिमितपेक्षाऽस्तीत्यथः | 

(१) सत्यकामः सत्यसंकल्पः-छा- उ. ८. १.५. (>) ° रिक्ताः कार्यकार०-इति पाठः । 
(२) अवणं मननं चोभे त्वज्ञानस्य साधने । उक्तनिणयपर्यन्तं॑विज्ञानं॑श्रवणाद्धवेत्‌ । ९४ ॥ 

अथ स्पदुद्धिदोषेण यतः संदेहसंभवः ! अतोऽसौ मनने ऊुयात्सदेहाः स्युखयोऽस्य हि ।॥ ९५ ॥ 

जह्मास्ति नो वेवयेकः स्यादज्ञानी युच्यते न वा! तत्वविन्मुच्यते ने वेत्यपरो संशयम ।! ९६ ॥ 

यदस्ति नामरूपाभ्यां व्याप्तं त्दियदादिकम्‌ । बह्म निर्नामरूपवान्नस्तीत्याह विमूदधीः , व ० ॥ 


८ तेत्तिरीयोचतिषत्‌ [ ग्र्भाकन्द-उही 


सोऽकामयत । ऋ स्यां परज॑यियेतिं 1 स ` तपांऽत 
ष्यत । स तपस्तप्त्वा । इदभ्सवमदृजत . । ` 


कार्यकरणसाधनान्तरपेश्चाश्च, न तथा ब्रह्मणो निमित्ताद्यपे्चत्वम्‌। कि ताह ? 
स्वारनोऽनन्याः। ` 
तदेतदाह-- 
सोऽकाभमयत--ष्तं आतमा, यस्मादाकाशः संमूतः अकामयत" कामितवान्‌ 
जण सिसक्षा कथं ? बहु प्रभूतं, स्यां भवेयम्र्‌ । कथमेकस्याथान्तरानयुप्रवेशे 
बहुत्वं स्यादिति ? उच्यते-परज्ञायेयोत्परे य । न हि पुधोत्पत्तेरिवा्थान्तरावि 
षयं बहुभवनम्‌ । कथं तर्हिं १ यात्मस्थानभिव्यक्तनामरूपाभिष्यक्टया । यदा- 
` इऽत्मस्थे अनभिव्यक्ते नामरूपे व्याक्ियेते, तद्‌ आत्मस्वरूपापरित्यागेनेव 
ब्रह्मणोऽप्रचिभक्तदेश्षकाङे सवोवस्थासु व्याक्ियेते--तदेतन्नामरूपव्याकरणं त्र 
ह्मणो बहुभवनम्‌; नान्यथा निरवयवस्य ब्रह्मणो बहुत्वापत्तिरुपपद्यतेऽदपत्वं 
वा-यथाऽऽकाशस्याद्पत्वं बहुत्वं च वस्त्वन्तरकृतमेवः; अतस्तेद्भारेणेवा" 
मत्रामतरमदं दैत ऽऽतमा बहु मवति । न ह्यात्मनो ऽन्यद्नात्ममूतं, ` तत्मविभक्स- 
देदाकाठ, सुम, भ्यवदहितं, विप्रहृष्ठ॑ भूतं, भविष्यद्वा वस्तु विदयते; त्तो 
नामरूपे सवोवस्ये ब्रह्मणेवा ऽऽत्मवती, न जह्य तदोतमकम्‌ । ते तल्पत्य 1५ 


न स्त एवेति तद्‌त्मके उच्येते । तभ्यां चोपाधिभ्यां क्ञातज्ञेयज्ञानराब्दाथादि 
सथेसंव्यवहारमभाग्रह्म । 

स आत्मेवेकामः संस्तपोऽतप्यत । तपः" इति ज्ञानमुच्यते--“ यस्यं ज्ञानमयं 
नह्मणः प्यालेचक्त्वम्‌ तपः ” दातं श्चत्यन्तरात्‌, आप्रकामत्वाच्चेतरस्याससव पतव. तः 
प्रसेः) तत्तपोऽतप्यत तप्तवान्‌ । सज्यमानजगद्रचनादिविषयामाटोचनामकः 


तद्भारेषेवेति । नामरूपशक्त्यात्मकमायापरिणामद्वरिणेव । नामरूपशकत्यातमिका ज- 
रूपा मायाकृता चेर, तदि सा प्रधानव॒त्प्थक्सतीत्यदंतहानिरित्याशू्ाऽऽद 


॥, 


हीति । आत्मातिरिक्तं किं स्वतः स्िद्यति, परतो वा !{ ना,ऽऽपः--जाब्वहानेरतिरेकहा- 


नेश्च । न द्वितीयः--प्रमासंसमोनिरूपणापत्‌ । न च भिन्रदेश्चकाल्योः संयोगादिः संभवति 
"षषी म्भ वयक 


(१) ^तस्माद्रा-एतस्मादाकाद्ः संभूतः" इत्यत्र पुरिगेनापि “त्मछब्देन ऋह्मणः.अङ्तवात्‌ पूर्टिगिनि- 
दश उपपच्ते। (२) ब्रह्मणाऽमर ९--परठः । (२) तल्य~चोदना हि भूते, भवन्ते, भविष्यन्तं, दकम, 
व्यवहिते, विप्ृष्टमित्येवंजातीयकमर्थ धक्ोत्यवगमयितु, नान्यक्िचनेन्धियम. 1 ( इब्ररभष्ये १, २,;२. ) 
(४) खु, उ. १. १. ९. ५) ०सः। स॒ तपोऽ०-इति पाटः । 


€ शक्ोऽलुवाकः | अयं ` ८९ 
यदिदं विच । तत्मष्टठा । तदेवातुपराषि्त्‌ । 


प्राणिकमोदिनिमिन्तांनुरूपामिदं १ 


रोद्‌ात्मेत्यथः } स -एवमालोच्य तपस्तप्त्वा ` 
स्वं जगदेशतः, कारतः, नान्ना, रूपेण च यथानुभवं सर्वैः प्राणिभिः खवावस्थे- 

रनुभूयमानमखृजत सृष्टवान्‌ । | 
यदिदं किंच यक्किचेदमविरिषम्‌, तदिदं जगत्या किमकरोदितिं १उच्य- 

ते-तदेव खष्टं जगदयुपाविशदिति । | 


विषयविषयिभावो वा--नियामकगवेषणाप् + न च स्वभाव एव संबन्धः--दयोः स्वभा- 
वयोः संबन्धत्वेनेवोपक्षये संबन्ध्यभावप्रसङ्गात्‌ ! न हि स्वात्मानं प्रति स्वस्यैव क्ंबन्वि- 
त्वम्‌--आत्मा्रयापातात्‌ । तथाविधाथांभावे भ्यवहारमात्प्रवतेकत्वे च मिथ्याभ्यवदहात- 


पातात्‌, अनिर्वचनीयवाद्‌ एव पर्यवस्यतीति भावः। यस्मादात्मातिरिकतं वस्तु न संभाघ्यते, 


क, क 


तस्मादात्मतादत्स्यिनेव नामरूपयोः सिदिरित्याह-भत हाते । तर्हि बरह्मणः सप्रपञ्चताप्र- 
सङ इति न वाच्यमित्याह--न ब्रह्मेति । न ब्रह्म तदात्मकम्‌-अजडत्वात्‌, तत्परिहारे 
णापि -तिदिसंभवादित्यरथः। कथं तहिं ते ब्रहमात्मके ! तत्राऽऽह-ते तदिति  स्वप्राबढड- 
नभोमक्षणवदारोपितस्याद्धभवप्रत्याख्यानेन सिदयसंभवात्‌, अनमाव्ये नामरूपे अनभवा- 


| 1 (यि णिग पणि 
| 


(१) दख्य--^“ अस्य जगतो नापरूपाभ्यां व्याकृतस्मानककत् मोक्तसयुक्तस्य प्रतिनियत्तदरकालनमित्त- 
क्रियाफलाभयस्य मनसाप्यचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सरवज्ञात्सवेरक्तेः कारणाद्धवति तद्रह्म ” 
~त. स्‌. -१. १. २. म्ये । कायेप्रपचं केचिककर्थचित्‌ स्वपरक्रियानुसारेण व्रिमेजन्ति । वेदान्तिनस्तु “रयं 
वा इदं नाम, रूपं, कम ”‡ ( ब॒. उ. १, ६. १. ); ^“ नामरूपे व्याकरवाणि “ (छा. उ. ६. ३. २.) इति 
श्रतिद्यमाधिलय वैविध्यं, विष्यं वाऽ्गीदुर्वन्ति । चेतनो हि वुद्धावाङ्ख्य नामरूपे, घट इति नाम्ना, रूपेण 
च कृम्बुप्रीवादिना, बाह्यं घरं निष्पादयति । एवमेव मूखकारणमपि नामरूपाभ्यां . खवुद्धावाविभूतमेव सरव 
पश्चाज्धनक्तीति नामरूपाभ्यामित्थं भूतं ब्याक्ृतमिदयुच्यते । केचितागो मवन्ति--यथा सदलिगादयः, न 
मोक्तारः; केचित्त मेक्तरः--यथा भाद्धवेशानरीयेषटयादिषु पित्तापत्रादयः, न क्रतोरः । वेचित्खट प्रतिनियत 
देशोत्पादाः-यथा शरष्णम्रगादयः; वेचिप्रतिनियतकारोत्पादाः-यथा कोकिलारवादयः; केचिसति- 
नियतनिमित्ताः--यथा नवाम्बुदध्वानादिनिमित्ता वलकागमीदयः; केचित्प्रतिनियतक्रियाः--यथा बाह्मणानां 
याजनादयः, नेतरेषाम्‌ । एवै प्रतिनियतफ़लाः--यथा केचित्सुलिनः, वेचिद्ःखिनः; णवं य एवं सुखि- 
नस्त एत्र कदाचिदःखिनः । सवेमेतदाकसिमिकापरनाजि याद्च्छिकत्वे च, स्वाभाविकत्वे चं, 
असवेशक्तिकतैकत्वे च न घटते । नाम्ना रूपेण चेतति. ° इर्त्थमवि तुतीया ` । चिलकारस्य च स्वस्याथस्य 
"च विषयविधयिमावादिलक्षणो यः संवन्धः, तस्मादपि चेत्यप्रपन्चस्यावभाप्तो न युक्तः । तारस्य संबन्धस्य. 
वानिरूपणात्‌, विषयविषयिभावलक्षणरसबन्धस्य रसबन्धान्तरमूलत्वात्‌, तदनङ्गीकारेऽस्य . ज्ञानस्यायमेव- 
विषय इति नियमानुपपत्तः; अवद्यं मूरभूतः संकधो वक्तव्यः १ स॒ च संयोयस्तमवायतादात्म्यादिरक्षणः 
तथा च ज्ञाना्थयेोस्ताददयः संबन्धो दूर्निरूप इति विषयविषयिमावो न युक्त इत्यथः । एवं च ““ सर्त ज्ञानम- 
नन्तै जक्ष ” (२.१. ) इत्यादिश्टतेस्सवनायनन्ता जह्मस्वरूपभूता सप्रकार या चित्‌ › तस्यामनावविर्वावद्य- 





९४ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्न्वही 


तत्रैत्िन्त्य--कथमनुपाविदादिति ! कि यः सख्य, स तेनैवा ऽऽत्मनाऽनुप्रा- 
जणो माधेकः विशत्‌, उतान्येनेति £ किः तावद्युक्तम्‌ १ क्त्वाप्रत्ययश्चरवणात्‌, 
सगमरवेशः यः खषा, खं "ए एटचादिि । 
ननु न युक्तं, मृद्धचवेत्कारणं ब्रह्म-तद्‌ात्मकत्वात्कायस्यः कारणमेव दहि का- 
 यात्मना परिणमते; अतोऽपविष्रस्येव कार्योत्पत्तरु्ध्वं पृथक्ारणस्य पुनः प्रव 
सोऽबुपपन्नः--न हि धटपरिणामन्यतिरेकेण सदो धटे प्रवेशोऽस्ति ! 
(श्ेयथा घरे न्युणोत्मना अदो ऽनुप्रवेशः, पवमनेना ऽऽत्मना नामरूपकार्य ऽयुषः 
वेश आत्मन इति चेत्‌ , श्रुत्यन्त दं ^“ अनेनं जीवेनाःऽऽत्मनाऽयुपविश्य ” 
ईति । नेवं युक्तम्‌, ध्कत्वाद्वह्मणः; सदात्मनस्त्वनेकत्वात्सावयवत्वाच्च युक्तो 
त्मकब्रह्मात्मके कथ्येते, न त्वेक्यामिप्रायेणेत्यथैः । न केवरं ब्मणो बहुरूपत्वं, मायोपाधिकं 
सवेव्यवहारास्पदत्वं चेत्याह--ताभ्याभितिं। | 
प्वेश्चस्यानिवोच्यतायोतनेन जीवस्य बरह्मात्मतायां प्रवेश्चवाक्यस्य तात्पयं दशेयितं वि. 
चारमारमते--तत्रैतश्चिन्ध्यमित्यादिना । विम सति, क्त्वाश्चत्यदरोषात्सष्टव प्रवेश 
इत्युक्तं सिद्धान्तिना । 
पूववायाद-- ननु न युक्तमिति । सुष्प्वेशाक्षेययोः पूरवापरकारीनत्वसंभवे सति 
कर्वैक्यं कत्वाश्चत्या बोध्येत, न ठु प्रवेशस्योत्तरकाठता ्षंभवति--सुष्ि्तमय एवोपादा- 
नस्य कायांत्मनाऽवस्थितत्वादित्यथेः । एतदेव विटरणोति-कारणमेव हीति । अप्रविष्ट 
यथा मयादौ देवदत्तस्य प्रवेशो दृष्टः, तथा कार्यौत्पततेरर््व प्रथकप्रवेक्ञो न संभवतीत्यर्थः । 





५०५७-9 न = न = = = 


चेत्यप्रपञ्चोऽध्यस्ततयेव प्रतीयते--त्यवद्यमङ्गीकर्तन्यम्‌ । ततश्वोपापिक एव चितो नानालवभासः । यत 

एवं शानाथयोः परमार्थतः संबन्धामावः, ततशचत्यप्रपञ्चस्य चिदरेऽध्यस्ततयैव प्रतीतिक्तन्या । तथाच 

जल्तङगबुुदादिनानाविधोपायिसंबन्धवदादेकमेव चन्द्रस्वरूपं भिन्न प्रतीयते, तथा स्वात्मन्यध्यस्तनानावि- 

धचेत्योपाधिसबन्धवदादपिष्टानम्‌त्रा चिदपि भिद्यते । अतश्चितो भेदप्रतीतिश्चेत्यघटपयदिभेदनिबन्धनैव, न त॒ 

पारमार्थिकीत्यथैः ! - - 
(१), सु; १. ४. २२. (२) अन्येन--पाठः। (३) छं. उ. ६.३. २. 

(४) विवेकी जह्मणः सत्तां भृष्टकामादिदेतुभिः । साधयन्‌ बहुधा मूं बोधयेन्मोहसुत्तये ॥ ९८ ॥ 
अकामयत सृष्टयादौ परमात्मा खमायया । बहुस्यामहमेवातः प्रजायेयेति कामना ॥ ९९ ॥ 
स्वस्येव बहुधा चोक्तेर्पादानं शरदादिवत्‌ । तथा कामयितलरे न निमित्तं ङुलाल्वत्‌ ॥ १००॥ 
निषैमेकेऽप्यात्मतत्े निभित्तलं स्वमायया । उपादानत्वसाितं माया दुर्वटकारिणी ।॥ १०१॥ ` 
असंमन्यं न मायायासुपलम्भं न साऽदंति । ततो वेदो यथ रू भुष्टिरेषा तथे्यताम्‌ ॥.१०२॥ 


सृज्यमालेचयन्‌ स्वमसजत्परमेश्वरः । 
"तेतिरीयकवियाप्रका्ः 
(९) ण्ल्मतया भ०--इत्रि पाठः । „+ „~ 


& षष्ठोऽलुवाकः | ब्रह्मणो जीवासना प्रकेदाः ९१ 


घरे अुद्श्चूणौत्मना.ऽयुप्रवेदाः, सृदभ्वुणेस्यापरविषदेशवत्त्व्चः न त्वात्मनः, 
एकतवे सति निरवयवत्वाद्पव्रिश्देशामावाच, प्रवेश उपपद्यते । कथं तर्हि 
प्रवेशः स्यात्‌ १ य्॒तश्च प्रवेशः, श्चुतत्वात्‌ तदेवासुप्राविरशत्‌' इति; (२) सौवय- 
वमेवास्तु, वर्हि सावयवत्वान्मुखे हस्तप्रवेशवन्नामरूपकार्य जीवात्मनाऽ चुप 
वेशो युक्त एवेति चेत्‌, नः अद्ून्यदेशत्वात्‌;-न हि कायोत्मना परिणतस्य 
नामरूपका्यदेशाव्यतिरेकेणाऽऽत्मद्युन्यः प्देदो ऽस्ति, यं प्रविरो्ीवा- 
त्मना ! (३) कारणमेव चेत्पविशेत्‌, जीवात्मत्वं जद्यात्‌--यथा घो सृत्पवेशे 
धरत्वं जहाति; ˆ तदेवायुपराविश्त्‌ --इति च श्रुतेन कारणालुप्रवेश्षो युक्तः । 

(४) कायौन्तरमेव स्यादिति चेत्‌,“ तदेवानुपाविशत्‌“--इति जीवात्म 
रूपं कार्य नामरूपपरिणते कायौन्तंसमेवाऽऽपद्यत इति चेत्‌, न;ः-(१) विरो- 
धात्‌, न हि घटो घटान्तस्मापद्यते; (२) व्यतिरे कश्चुतिविरोधाच्च--जावस्य 
नामरूपकाययैव्यतिरेकानुवादिन्यः श्चुतयो विरुष्येरन्‌; (३) तदापत्तौ मोक्षसे. 
भवाच्च, न हि यतो मुच्यमानस्तदेवाऽऽपद्यते, न हि शुङ्खलापन्तिवंद्धस्य 

, तस्करदेः। 

५) बाह्यान्तस्भेदेन परिणतमिति चेत्‌--तवदेष कारणं ब्रह्म शरीराद्याधार- 
त्वेन तदन्तज्जीवात्मनाऽ्धयत्वेन च परिणतमिति चेत्‌-न; बहिष्ठस्य प्रषे- 
सिदान्त्येकदेशिनां मतखद्धाव्य पूवेवादी द्षयति-यथा धट इत्यादिना । सषटरन्यस्य वा 
प्रवेशो न संभवतीति चेत्‌, कथं तदं प्रवेशो बाच्यः१-इति सिदधान्त्येकदेश्याह-कथाभिति ) 
नास्त्येवेति न वक्तम्यमित्याद--युक्तश्चेति । स एवाऽऽह गतिम्‌--सावयवमेवेति । पूवै- 
वादी दूषयति---न, अशुन्यत्वादिति । कायात्मना परिणतस्य ब्रह्मणो नामरूपात्मकं 
कायेमेव देशः, तद्यतिरेकेण न ह्यन्यः प्रदेशोऽस्ति । यत्कारणमेव कायाकारेण परि. 
णतं, तत्प्रति कायेषिशरेषो जीवैत्मा प्रवक्ष्यतीति न शङुनीयमित्याद--कारणमेव' 
चेदिति । कायविशेषस्यं प्रवेशमङ्ीकृत्य दृषणक्तमर ; स न संभवति--श्ठतिषिरोषादि- 
त्याई- तदेवेति । 

कारणपरामकेकेन तच्छब्देन कायंच्चपरक्ष्य, कायान्तरस्य तत्र प्रवेशो विधीयतेऽप्रा- 
परदेशसंभवात्‌; अतो न छतिविरोव इति सिदधान्तेकदेरिमतखद्वाम्य दृषयति-का्या- 
न्तरमेवेत्यादिना । - 
 कारणवाचकेन तच्छब्देन कायेरक्षणायामविवक्षितरक्षणा चेलपतज्येत, तदि कारण - 
पर एव तच्छब्दोऽस्त्वत्याहान्यः सिदडान्तेकदेशी-- बाह्येति । अस्मिन्पक्षे प्रेशश्चते- 

(१) अहंकारादिकायौत्मकलम्‌ । ( २ ) ०वात्मना प्र०--इति पाठः । । 





९२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [-जाननद्- 


द््ेपपत्तेः-न हि यो यस्यान्तःस्थः, स एव तत्पविष्ठ उच्यते; बहिष्ठस्ाु 
वेदाः स्यात्‌, प्रवेदाशब्दाथेस्यैवं दृष्टत्वात्‌ यथा गृहं त्वा प्राविद्रादितिः। 
(६) जखसुरंहमदिव्रतिनिभ्भनत्मवेदाः ` स्यादिति चेत्‌, न; अपं | 
असूर्तत्वाच्च--परिच्छिघ्नस्य मूर्तस्यान्यस्यान्यत्र प्रसाद स्वभावके जलाच 
सूुथैकादिषरतिविम्बोदयः स्यात्‌; न स्वात्मनः, अमूतेत्वात्‌, आकाादेकारण- 
स्याऽऽत्मनो व्यापकत्वात्‌; तदविभहृष्देशग्रातिबिम्बाधारवस्त्वन्तराभावाच् अ 
तिविम्बवत्पवेदो न युक्तः । 

णवं तर्हि नैवास्ति प्रवेश्या, न च गत्यन्तरमुपरभामहे -“ तदेकाचुभरातति 
दात्‌ ” इति श्चुतः । श्रुतिश्च नोऽतीन्द्रियविषये विक्ञानोत्पत्तो निमित्तम्‌! न' चाः 


संख्याथां न रभ्येतेत्याह-न बहिष्ठति } अन्यस्य वेदान्तिनो मतखद्वाव्य दृषयति-- 
जर इत्यादिना । ` ५ 
एवं सिद्धान्तेकदेश्षीयं निरस्य पूर्ववाद्रपसंहरति--पवं तर्दति । नैवास्ति प्रवेशो ज- 








(१) न च, अवच्छेद पक्षं “यथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वानपो भिन्ना बहुधेकोऽतुगच्छन्‌ । उपाधिनाऽक्रि 
यभेदरूपो देवः कषतरेष्मेवमजोऽयमात्मा ! ”, “ अत एव चोपमा सूथैकादिवत्‌ ” ( ज, स्‌. २. २. १८.) 
इति श्ुतिसूत्रविरोध इति वाच्यम्‌ । भाष्यकार ! अत एव ° इति सूत्र व्याख्याय, सूर्यादिवदामनः -प्रति 
बिम्बो न युज्यते-इति तदाषेपकल्ेन “ भम्बुवदग्रहणात न तथात्वम्‌ ” (च. सू. २. २.-१९. “इति सूत्र 
व्याख्याय, ततः ““ वृद्धिह्ठासमाक्तवमन्त्मावादुमयसामञ्जस्यादेवम्‌ 22 ८२० ) इति सूत्रेणोक्तानुपपत्त्या- 
तनः प्रतिनिम्बमनुपपन्नमित्यङ्गीक्ृत्यंव शतिषु स्रयादिप्रतिबिम्बोपादानस्य तात्पयान्तरवणनपरताया उक्ततवति। 
बरहदारण्यकभाष्येऽपि “ स ए इह प्रविष्ट आनाय्यः * ( बरु. ड. १. ४. ७, ) इति वक्यनव्याख्या- 
नावसरे सर्वेगतस्यात्मनः कः प्रवेदो नाम {--इति विमद्य ‹ परतिविम्बनं प्रवेशः “इति पक्षं विमृटदेरा्- 
मविनेव दूषयित्वा, देहादागास्मन उपलभ्यमान प्रवेशः, नहि पाषाणादाव्रिव -देदादावात्मनोऽनुपलृब्धिर 
स्तीति प्वेशचपदाथस्यान्यथोपपादनेन प्रतिविम्बपक्षदूषणं स्थिरीचरतम्‌ । यच्पि “ आमास. एव च 22 (ऋ 
सू २. ३. ५०.) इति सूत्रेण आमास एव चैष जीवः प्रस्यात्मनो जलसू्यकादिविटतिपत्तव्यः ` इति 
तद्धाष्येण च प्रतिविम्बपक्ष उक्त इति प्रतिभाति, तथापि परमाप्रयोः सप्तकारभाष्यकारयोरेक्व जीवस्य 
परतिविम्बत्वस्वीकारः, अन्यत्र तन्निराकरणं च न संभवतीति किंचिदनुरोधेन करिंश्विन्याख्यातव्ये प्रतिबिम्ब 
सानिराकरणस्य युक्टुक्लेन “ आभासः ` इति सूत्रे भाष्यशृद्धिरपि शरत्योपयततया प्रतिविम्वत्वस्यसिमार्थत- 
लात्‌) तदेव सूत्र, तद्धा्यं च ¢ वृद्धहासभाक्तम्‌ > इति सूष्ोक्तन्यायात््‌ « अतश्च यथानकस्मिजलसू- 
यके कम्पमनि जलमूर्यकरान्तरं कम्पते, एं नैकस्मि्ीवे कर्मफलसं्वधिनि जीवान्तरस्य क्हसंबन्धः.” इति 
तदधिकरणमष्ये प्रतिबिम्बस्य ट्टन्ततेनोक्तत्वाच्च प्रतिनिम्बस्षादस्यप्रतिपादनपरं व्याख्येयम्‌ । तस्मासतिषि- 
म्वासंभवादवच्छेदपक्षे विरेधामावात्‌ › साधकस्य सत्तवाच, अवच्छेचचतन्यस्य प्रतिविम्बपक्षेऽपि संमतत्वे- 
नोमयसंप्रतिपंन्नत्वेन लाघवात्‌ तस्यैव जीवत्वकल्पनौचित्यात्‌, सवर्गतसयं ` चैतन्यस्यान्तःकरणादिनेविच्छेदो 
उवद्यैमावीत्यावस्यकत्वादवच्छेदो जीव इति !-भाष्योत्कषदीपिका- ७. २४. (२) (२) इज्य 
^“ शयुतिश्च नः प्रमाणमरतीदिया्थविज्ञनेत्पतच्तौ ! ” शां, भा, २, २, २, . 


& ष्ठोऽ्टवाकः ] प्रेरत्चमाथेः = ९३ 


स्माद्वाक्याद्यलनवतामपि विक्ञानमुत्पदयते ! हन्त ! तहनथैकत्वादपोहयमेतद्वाक्यं 
५ तत्सुष्टा तदेवासुप्राविशात्‌ ” इति ! न, अन्यार्थत्वात्‌ । किमथैमस्थाने चचा ? 
प्रकृतो ह्यन्यो विवश्षितोऽस्यं बाक्यस्यार्थऽस्ति, स ॒स्मतेव्यः--श्रह्मविदा- 
न्ह्मस्मैकलस्वरूपानुः भ्रति परस्‌ ” “ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” “यो वेद्‌ निहितं 
गमा्थमनिवाच्यपेश् गुहायाम्‌ » इति । तद्विज्ञानं च विवक्षितम्‌; परकृतं च तत्‌ । 
वचनम्‌ ब्ह्मस्वसरूपानुभमाय चाऽऽकाराद्यन्नमयान्तं कायं प्रद्हितं, 
ब्रह्मासगमश्चाऽऽरग्धः-ततान्नमयादीतेमनोऽन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः, तदं 
न्त्मनोमयः, विज्ञानमय इति विज्ञानगुहाया प्रवेशितः; त्र चाऽऽनन्दमयो चि. 
शिष्ट आत्मा प्रदरदितः । अतः परमानन्द॑मेयलिङ्ञाधिगमद्वारेणा ऽऽनन्दविचृद्धश्- 
क्सान .आत्म--ब्रह्य षुखछं पतिष्ठा-रटोऽ६्तेव६ पदः, नि्विकट्पोऽस्यामेव 
गुहायामधिमस्तन्य शति तत्पवेरः भ्रम्यते । 

न ह्यम्यजोपटम्यते ब्रह्म, निर्विरोषत्वात्‌- विरोषसंबन्धो द्युपरुन्धिहेतुदै्, 
यथा रादोश्वन्द्राकविदिष्टसंबन्धः । एवमन्तःकरणगुहात्मसंबन्धो ब्रह्मण उपल- 
भ्विहेतुः--संनिकर्षात्‌, अवभाखात्मकत्वाञ्चान्तःकरणस्य; यंथा चाऽऽखोकवि- 


हणः, ततोऽन्यस्यापि प्रवेशो न सभवतीत्यक्तमित्याद--नं चति । ईतरस्यापि प्रवेश 
कल्पितं न शक्यत इत्याद--तदेकाच॒प्रावेश्ादेते । सा च भुतः सृष्टः प्रवेशमाह, 
सा चास्माकं मीमांसकानां प्रमाणं, ततस्तद्विरेधेनान्यस्य प्रवेशकल्पनाऽयुक्तेति भावः। 
तदं श्रतिश्चरणत्यव ब्रह्मण एव प्रवे उच्यतामत्याश्चङ्याऽऽह-- न चात । तस्मात अः 
न्धो मैणिमविन्दत्‌" इतिवदथेदल्यमेवेदं वाक्यमिति, निगमयति--हन्तेति |  शक्तेयोचरस्या- 
थस्याप्तंभवादथंश्ल्यत्वं, तात्पयंगोचरस्य वा ! नाऽऽथः--२॥ 161 ततएव र जकेऽनर- 
तस्य परतिङिम्बभाववदमूतस्यापि जद्मणोऽतिव्रोच्यावियाघ् . प्रतिरडिम्बितस्य सध्युत्तरकाल- 
मन्तःकरण्दिष प्रतिनिम्बभावसंभवादित्याह- नेति । न हितीय - इत्याद-अन्यथत्वाः 
दिति ! एतर्सव्यति--किमथभित्यादिना । सतः परमिति । इदिगदाप्रवे्ादनन्तरः 
मानन्दमय- एव विरिष्टोभथों विचेष्यस्य. चिद्यातोटिद्धं, विशिष्टस्य विश्ेष्यौव्यभिचारद्ध- 
नाप््-तदधिगमद्रररिणाऽ०नन्दविद्टस्थवसान आत्मा ऋ्यरूपोऽस्यामेव गुहायामाधगस्तव्य 
इत्यभिप्रेत्य जङे सय प्रवेश्चवदनिवोच्यः. प्रवेग्ोऽभिषीयत इत्यथः । | ~ 

बुदिगुहायामेव ज्ह्मण उपठन्धिसंभवात्‌ , तत्रव प्रवेशोऽभिधित्सित इत्याह--न होति । 
नन्वन्यत्रोपब्ध्यनह बह्म बुद्धो वा कथञ्चपठसभ्यत हत्या्ङ्कयोपाषेर्याग्यताविभषसमवादि- 

(१) ०पावगमाय--पाठः (२) न्ह्यावगमर पाठः 1 (२ ते, आ. १. ११. ५. (४) °रिङ्गविं° 
इति पाठः । (५) °रेष्वस्यान्य ०--इति पाठः । । 1 





तदनुभव । सब त्य्चाभवत्‌ । निरतं चा- 
निरतं च । निर्यनं चानिख्यनं च | चि- 
ज्ञानं चाज्ञानं च । सत्यं चानतं च सत्यः 
मभवत्‌ | 


 दिषधराद्यपरन्धिः, एवं बुद्धित्ययाटोकविरिष्टात्मोपटन्धिः स्यात्‌ । तस्मा- 
इपरुन्धिेतो ‹ गुहायां निहितम्‌ " इति भ्रक्ृतमेव ! तद्धत्तिस्थानीये त्विह पुन 
“ तत्सुष्टा तदेवायुप्राविशत्‌ इत्युच्यते । 
देचदमाकशादिकारणं कायं खषा तदनुप्रविष्टमिवान्तगंहायां बुद्धौ द्रष्ट, 
श्रोत, मन्त्‌, विक्षातित्येवं विरोषवदुपलभ्यते | स एव तस्य भ्वेश्ाः। तस्मा- 
दस्ति तत्कारणं बरह्म, अतोऽस्तित्वात्‌ , “अस्ति ` इत्येबोपटन्धन्यं तव्‌ । 

तत्कार्यमनुपरविदय किः ? सञ्च मूते, त्यच्चामू्तममवत्‌-मुतामूर्त ह्यव्याङ्त- 
परोक्षपरकष मूतीमूते नामरूपे मात्मस्थे अत्तगैतेनाऽ९त्मना व्याक्रियेते व्याकृते च 
मूतामुतेदाष्दवच्ये ते आत्मना त्वप्रविभक्तदेशाकाले इति रत्वा, आत्मा ते अम- 
ददित्युच्यते } †किच निरक्तं चानिरुक्तं च- निरुक्तं नाम निष्टृष्य समानासमा 
नजातीयेभ्यो देशकार्विरिष्टतयेद्‌ं तदित्युक्तम्‌; अनिर्कतं तद्विपरीतम्‌ । निर 
्रानिरुक्ते अपि मूताँमुतेयोरेव विशेषणे! यथा सच्च त्यच्च थत्यक्षपरेश्ष, तथा 


त्फाईइ-- विशेषेति । संनिकषीदिति-अन्तःकरणसंसगदिे देहटादिडु चेतन्याभिव्यक्तिः, 
न स्वतः--अन्तःकरणं चाग्यवधानेनेव वचेतन्याभिन्यञ्जकमन्वयन्यतिरेकाभ्यामित्यर्थः + 
यथा चास्वच्छस्वभावके घटादौ खसं न प्रतिनिम्बते, जलादौ स्वच्छस्वभावके प्रतिबिम्बते, 
तथा सस्वप्रधानस्यान्तःकणस्य प्रप्ादस्वाभाव्यादस्ते तत्र बरह्मोपठन्धिस्त्याह-मवभा- 
सात्म्कत्वाशेति ! विच यथा जाव्यसाम्येऽपि तमोलक्षणावरणाभिभवसमथं आलोकोऽङ्गी- 
क्रियते, तथा जान्वसाम्येऽप्यन्तःकरणस्येव प्रत्ययाकारपरिणतस्याज्ानरक्षणावरणाभेभव- 
सामथ्यंमङ्कितन्यमित्याह--यथा चेति । | 
‹ निख्यनं › गरहप्रासादादिग्रतसंनिवेशविशोषः; अवयवसंस्थानविशेषराहित्यभ्र “ अनिलः 


(१) त॒ल्य-च्र, उ. वार्तिकम्‌-२. ४. ४९६--६३३. खाज्ञानादेव जो भुजगे भ्रवेरः, न वस्तुतो 
ऽस्ति--इति क्गतिरिक्तसपासतत्ववत्‌ प्रतीचोऽपि स्वाज्ञानोत्थे जगति तद्रदादेव प्रवेशः, न परमा्थतः-~ 
इति प्रत्यगात्मैव वस्तु, न जगदिति सिथतमितय्थः 1 ( २.) कठ, इ. ६. १३. (३) ०त मू*--पाठः \ ` 
(४) °मूतं सं०--इति पाठः । .. . 


& षष्ठोऽनुवाकः | ्रह्य स्च. स्यत ९५ 


यदिदं किंच । तत्सत्यमित्याचसषते | 
तदप्येष शोको भवति । 
इति कूस्भय्ुनिदथसत्ि र थशनिषदि ब्रह्--आनन्द--स्स्यां 
षष्ठोऽनुवाकः ॥ £ ॥ 


निख्यनं चानिलयनं च- निलयनं नीडमाश्रयो सुतैस्येव ध्मः; अनिख्यनं त- 
द्विपरीतममूतैस्यैव धमः ! ‹ त्यदनिरूक्तानिलयनानि ` अमूर्तधरमेत्वेऽपि व्याकृ 
-तविषयाण्येव- सर्गात्तरकारभावश्रवणात्‌; त्यदिति प्राणा्यनिरूकतं, तदेवानि- 
ख्यनं च; अतो विदेषणान्यमुतेस्य व्याछ्ृतविषयाण्येदेतानि । विज्ञानं चेतनम्‌, 
अविज्ञानं तंद्रहितमचेतनं पाषाणादि। सत्यं च व्यवहारविषयम्‌-अधिकासात्‌, 
न परमाथैसत्यम्‌; एकमेव दि परमाथैसत्यं ब्रह्म । इद पुनव्यैवहारविषयमाये- 
पक्मेव परमार्थ- क्षिकं सत्यं-मुगतृष्णिकाचनरृतापेश्चयोदकादि सत्यैमुच्यते। 
स्यं जहा अनृतं च तद्विपरीतम्‌ । कि पुनः ! एतत्स्वैमभवत्‌, सत्यं 
परमार्थसत्यम्‌; क पुनस्तत्‌ ? ब्रह्म-सत्यं क्षानमनन्तं जह्य" इति परङूतत्वात्‌ 1 

यस्मात्सत्त्यदादिकं मूतोमूतेधमेजातं यत्किचेदं सवैमपिरिषठं विकारजा- 
विदलुमवसिद्ध बह्म तमेकमेव सच्छब्दवाच्यं ब्रह्माभवत्‌-तद्यतिरेकेणाभावा- 
च्रामरूपविकारस्य, तस्मात्तद्रह्य सत्यमित्याचक्चते बह्मविद्‌; । 

अस्ति नास्तीत्यसुप्रश्चः भकतः, तस्य प्रतिवचनाषिषय पतदुंक्तम्‌-आत्मा 
कृतप्करणस्य “अकामयत बहू स्याम! इति स यथाकामं चाऽकारादिकरार्यं 
फकितिम्‌ ` ` सत्यदादिरक्षणं सषा, तद्युप्रविद्य, `परयञ्रण्वन्मन्वानो 
विजानन्वह्मभवत्‌ः तस्मात्तदेवेदम्‌-आकारादिकारणं-कायस्थं -“ परमे व्योमन्‌ ` 
हृदयगहायां निहितं--तत्पत्ययावमासविशेषेणोपटमभ्यमानम्‌--* अस्ति “इत्येवं 
विजानीयादित्युक्तं भवाति 1 तदेतस्मिन्रथं ्राह्मणोक्त पषः श्छोको मन्त्रो भवति। 
-यनम्‌ ? । अनिरुक्तत्वायपूतेधर्शरेह, बह्मण एव कि न स्यादित्यत आद-त्यदत्निर््ता- 
निकयनानीति । 

‹ तत्सत्यमित्याचक्षते › शत्यस्योपपत्तिमाह-यस्मादिति । पदानि व्याख्याय, प्रक्र- 


1 





(१) लोकव्यवहारे वाप्रहितं कतिर्जुखाण्वादि । (२) व्यदहारदशायामारेपितं रजत्पैचोरादि 1 


(२) सरवानात्मकल्पना करूटस्थनरह्मचैतन्याधीना । शून्यस्य, कपुतस्य वा वूटस्थानुभवादन्यत्र स्ये. 
पलश्ध्योरसिद्धेः सचिदेकतायं दृटस्थं तत्तवमस्थेय त्यथः । 


` अथ सप्तमोऽनुवाकः . .. 
भ | 
अमुद्रा इदमपरं आसीद्‌ । त. वै सदजायत । तदा- 
त्मान ९ स्व्यमञ्ुरत । तस्मात्तत्यषृतसुच्यत इति । 
यथा पूर्वष्वन्नमयादयात्मप्रकाशषकाः  "पश्चस्वपि, एवं सवोन्तरतमात्मास्तित्वप- 
कादाकोऽपि मन्ञ; कायद्धारेण भवति। ॥ि 

इति श्रीमत्परमदंसपरितराजकाचा्यंगोविन्दभगवत्पुज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि बरह्म-आनन्द-- वहटीमाष्ये पोपलवाकः ॥.६ ॥ . - 


“असद्ध इद्मग्र मासीत्‌" असदिति व्याृतनामरूपविशचेषविपरीतर्प्रम्‌-- 
उन्याङ्तैं अह्मोच्यते, न पुनरत्यन्तमेवासत्‌--न ह्यसतः सजजन्भास्ति । इदमिति 
नामरूपविशेषवद्याकृतं जगद्‌; अग्रे-पूरवै-प्रागुतपत्ततरहयैवासच्छब्दवाच्यमा- 
जहम त्‌ सीत्‌! ततोऽसतो वै सत्‌ भ्रविभक्तनामरूपविदोषमजायवोर - 
स्वकं चम्‌ 1 कि ततः प्रविभक्तं कार्मिति--पितुरिव पुरः. ? 
तानुप्रभनिराकरणे प्रकरणस्य तात्पयं ‹ सोऽकामयत ` इयदेरकयति-अस्ति नास्तीत्या- 
दिना । तस्या इषियुहायाः परत्यया--भहं कतौ भो › इत्यादयः, त एवावभासविभेषाः, 
तव्येज्यमानम्‌--विध्ि्टस्य विषयत्वेऽपि स्वसूपप्याविषयत्वादित्यैथः। 

इति श्रमत्परमहंसपसिाजकाचायंरीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तै्तिरीयोप- . 
निषच्छंकरभाष्यरिप्पणे ब्रह्म--आनन्द--वल्ल्यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ & ॥ 





( १) तुल्य-त्र. स्‌. १. १. १५; अविक्रत-पाटः । (२) 'परमस्य-पति पाठः । 
(२) ष्टाऽध जीवरूपेण प्रविवेद्ध वपुष्ययम्‌ ॥ १०३ ॥ ` 
. . यो विज्ञानमयस्तस्मिश्वतन्यं मतिविम्वितम्‌ । तच धारयति प्राणाजीवख्यां रभते ततः ॥ १०४॥ 
मतत मूत्वेषरस्तद्द्धोग्यरूपोऽपि सोऽभवत्‌ । भग्यं. च वहुधा संच त्यन्नेत्यादिविभेदतः॥ १०५।१ . 
सत्‌ यष परोक्ष त्यत्‌ तदभावाडुभो तथा। वक्तं रक्यमदक्यं चेत्यादि दनद्रेऽस्ति भोग्यता ॥१०६॥ 
कामिलमाल्येचकत्वै ष्टुत्वं च प्रषटुता । मोग्याकारथ पज्चैते ब्रहमसद्धावेहेतवः ॥ १०७ 1 
सद्रुपः परमातमा स्यातरामिलात्सगेकामिवत्‌ । आलेचनान्मन्तिवत्सन्‌ क्षटूवाच्च कुलाठ्वत्‌॥ १०८. 
षटलातसथवत्‌ सन्‌ मोग्यल्ाचरोदनादिवत्‌ । नानुमानैरेव किन्तु वद्तमलक्षतोऽपि सन्‌ ॥ १०९॥ . “ 
. युष्सलं ह्म परवोत्तं तदेव जगदात्मना । भाति आान्तया त्तेः सर्वै बऋहयत्याचक्षते. वथाः ॥ ११० ॥* 
सर्पथारदिका भ्ान्या कसित तत््वद्दने । रञ्जुरेव यथा त्वह सकलं जगत्‌ ॥ १११॥ 
नामरूपयुतत्वेन जगत्सदरह्म नेति यतरं । . पुषैपक्षिमतं तत्र जह्मसत्तं तदीश्यताम्‌ ॥ ११२ ॥ . 
रनयं मथा सरपपारादि्वतगच्छति -। ब्रह्मस्वं पथा न्योमवायवादिषवलुगच्छति ॥ ११२ ॥. 


७ सममोऽलुवाकः ] ब्रहम ओशनन्दहेतुः ९७ 


यर तत्सुकृतम्‌ । रसो वै ` सः । .रस धवा 
ठन्ध्वाऽऽ्न्दी मवति । .. . - 
को हिवान्यांत्कः श्रा्यात्‌ । यदेष आकाक्च 
आनन्दो ज़ स्यात्‌ । एष हेवाऽ्गन्दयाति , 
नेत्याह-तदसच्छब्दवाच्यं स्वयमेवाऽऽत्मानमेवाक्रुरुत कृतवत्‌ । यस्मादेवं, 
तस्मात्तदुब्रह्ैव खुङृतं स्वयं कशचैच्यते । स्वयं कै ब्रह्मेति प्रसि रोके-- 
सवैकारणत्वात्‌। 
यस्माद्वा स्वयमेकरोत्सवे सवोत्मना, तस्मात्पुण्यरूपेणापि तदेव ब्रह्म कारणं 
ह्म सुरते पण्यम्‌ खुरूतमुच्यते । सर्वथाऽपि तु फटसंबन्धादिकारणं खुकूत 
राच्दवाच्यं प्रसिद्धं रोके यदि पुण्यं, यादे वाऽऽन्यत्‌; सा भसिद्धिर्िर चेत- 
नकारणे सत्युपपद्यते; टसः। ठठः तद्भह्य--सुकृतप्रसिद्धेरिति। 
इतश्चास्ति । कुतः ? रसत्वात्‌ । कुतो -वदन्र््हणः ? इत्यत 
आह-- 
यदवे तत्छुङृतम्‌ । रसो वै सः। * रसो नाम तृिहेतुरानन्दकयो मुरा 
जहवातीन्विरसः म्खादिः प्रसिद्धो लोके । रसमेव ह्ययं रष्वा भा- 
प्याऽऽनन्दी सुखी भवति । नासत आनन्दहेतुत्वं दं ठोके । बाह्यानन्द- 
साधनरदहित अप्यनीहा निरेषणा ब्राह्मणा बाह्यरसखाभादिव सानन्दा 
दृद्यन्ते विद्वांसः; यून ब्रह्मैव रसस्तेषाम्‌ । तस्मादस्ति तक्तेषामानन्दका- 
रणं रसवद््य । 
सुकृतमिति। कप्रत्ययः ष्ठं क्रियत शति क्माभिषायकोऽपि च्छान्दस्या प्रक्रियया छष्ठ 
करोतीति कतरि व्याख्यातः । 


कोक 


( १) चेतनवत्का०--पाठः । 

(२) अस्देवेदमग्रेऽमूत्नामरूपात्मके जगत्‌ । पश्वात्त॒ बह्मणा युष्टं सदगद्भह्मस्वतः ॥ ११४॥ 
तद्रह्यात्मानमेवेमं सचिदानन्दलक्षणम्‌ । अकार्षीजिगदाकारं स्वयमेव स्वमायया ॥ ११५ !। 
अलिति माति प्रियं चेति भततिवस्त्ववमासते । त एते सचिदानम्दा ब्रह्मगा भान्ति वस्तुषु ॥ ११६ ॥ 
नामरूपे घटादीनां प्रागमावयुते ततः । अभावं च भावत पययेणेश्यते तयोः ॥ ११७ ॥ 
आगमापायिधर्मौ यौ न तयेिरूपता । दयनोत्थानयोर्नास्ति देदवसुस्रूपत्रा ॥ ११८ ॥ 
` सत्तवासत्वे अन्यदीये भासेते नामरूपयोः । मायारूपमसत्तवं स्यात्‌ सत्ताया ब्रह्मरूपता ॥ ११९ ॥ 
जाब्रयदुःखे मगरे सतो मानानन्दो पराग । टोकिकाः सचिदानन्दा नह्मगाशवेदसतकथम्‌ ॥१२०॥ ` 

स" कनिवयभकाश्चः 


९८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्‌्री 


य॒दा हँवैष एतस्मिन्नद्धयेऽनास्म्येऽनि- 
स्कतेऽनिर्यनेऽभयं भक्षां निन्दते । 
, अथ सोऽभयं गतो भवत्ि। . ` 

इतश्चास्ति । कुतः ? प्राणनादिक्रियादशेनात्‌ ! अयमपि हि पिण्डो जीवतः 
ज्म देदयदिचे्- प्राणिन प्रणित्यपानेनापानिति; पव॑ वायबीया पदनुप्तद 
वैषयिक्नन्दहेतुः चेष्टाः संहतेः कायेकरणे्निवैत्यमाना द्यन्ते । 
वृत्तित्वेन संहननं नान्तरेण चेतनमसंहतं संमवति--अन्यतादरौनात्‌ । तदा- 
इ--यद्यदि एष आकारो “परमे व्यरोखि गुद्ायां निहितः ` भानन्दो न स्याश्न 
भवेत्‌, को ह्येव सोकेऽऽन्यादपानचेषं कुयोदित्यथैः । कः भ्राण्यात्याणनं वा 
कयत्‌; तस्म्दस्ति तद्भह्, यद्थाः कार्यकुरणभ्राणनादिचेष्ठा; तत्त एव चा- 
ऽऽनन्दो खोकस्य । कुतः ? एष हव पर आतमाऽऽनन्द्‌ ५।८्५।गन्प्‌ ५/2 सुख. 
यत्ति सेकं ४६८१२०८ । ख एवाऽऽत्माऽऽनन्दरूपोऽविद्या परिच्छिन्नो वि 
मान्यते प्राणिभिरित्यथं 

भयाभयहेतुत्वादिदधदबिदुषोरस्ति तद्बह्य । सद्धस्त्वाश्चयणेन द्यभयं अत्रति 
नासद्वस्त्वाश्रंयणेन भयनिच्त्तिरुपपदयते 

कथमभयदेतुत्वमिति ? उच्यते- 

यद्‌ दयेव यस्मादेष साधक पतस्मिन्ब्रह्मणि--फिविदिष्टे ? अदृश्ये--दृश्यं 
विदुष एव नाम द्रष्य -विकारः-दरोना्थैत्वाद्धिकारस्यः न खदयमदृदय- 
जहापराप्ि मविकार इत्यथः । एतस्मिन्नदद्येऽविकारेऽविषयभूते, 
अनात्म्येऽदारीरे-यस्माद र्यं तस्मादनात्म्य; यस्मादनात्म्यं तस्माद्निरक्तम्‌- 
विरोषो हि निरुच्यते, पिरोषश्च विकारः, अविकारं च ब्रह्म-सर्वविकार- 
हेतुत्वात्‌ , तस्मादानरु्तम्‌. । यत एवं, तस्मादनिटयनं, निर्यनं-नीड 


एकाथेवुत्तित्येनेति ऋ इ 


पकाथेचत्तितव त्तित्वेनेति । एकप्रयोजनसाधनत्वेन परस्परायत्ततेत्यः । अन्यतेति- 
गृप्रासतादिष स्वतन्त्रं ॒गृहायनारभ्यं स्वामिनमन्तरेण संहननस्थादशेनात्‌, कायेकरण- 


संधातेऽपि विलक्षणः स्वामी शरीरोपचधादिरहितोऽवगम्थते । पस च चेतनत्वेन भेदाभावा- 
द्रधेव--इति तदस्तित्वतिद्िरित्य्थः । 


( १) सप्तम्यन्त: प्रथमन्तो वा । प्रथमान्तपक्षे आकाङ्रपदमानन्दपद्रसमानाधिकरणम्‌, ततश्चाकाशा- 
मिधानः परमानन्दः परमात्मस्वभाव इत्यथः । तुक्य, स्‌.भा. १. १, २२. (२) अभीष्टविषयलामे 
सति मनो विषयामिशुख्यं परित्यज्य विषयान्तएभिल्यषोदयात्‌ पूरवमनर्मखं प्रत्यगात्मानन्दमनुभदत्रि ! सो- 
ऽय॑ रके विषयानन्द इत्युच्यते । 


७ सप्तमोऽनुवाकः ]  अमेददरदिनो ब्रह्यपाततिः ९९ 


यदा वेष एतस्पिः२ ९२५न्परं कुरते । 
अथ तस्य भयं मवति । 

ततेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य । 
तदप्येष श्ोकोभवति । 


इति कृष्णयजुवैदीयतैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द--वर्ल्यां 
सप्रमोऽलुवाकः । ७ ॥ 


आश्रयः, न निरख्यनम्‌-अनिकयनम्‌-भनाधारं, तसिमिन्नेतस्मिन्नटदये ऽनात्म्ये- 
ऽनिर्क्तेऽनिलयने सवैका्येधमेषिखक्चणे ब्रह्मणीति वाक्याथैः । अभवयमिति 
क्रियमिसेवन । अभयामिति वा लिङ्गान्तरं परिणस्यते । प्रतिष्ठां स्थिति- 
मात्मभावं विन्दते भते । अथ तदा सख तस्मिन्नानात्वस्य भयहेतोरवियाङ्- 
तस्यादरीनादभयं गतो भवति । स्वरूपपतिष्ठो द्यसो यदा मवति, तदा 
नान्यत्पद्यति, नान्यच्छृणोति, नान्याषठ५॥ि ॥। अन्यस्य हयन्यतो भवर 
भवाति, नाऽऽतमन षशवाऽऽत्मनो भयं युक्तम्‌; तस्मादात्मेवाऽऽत्मनोऽमय- 
कारणम्‌ । सर्वतो दि नि्मया ब्राह्यणा इक्यन्ते, सत्सु भयहेतुघु; तच्चायुक्त- 
मसति भयज्नाणे बरह्मणि । तस्मात्तेषामभयद्हौनादस्ति तद भयकारणं ब्रह्मेति । 
कदाऽसावभयं गतो भवति साधकः ? यदा. नान्यत्यदयति, आत्मनि चत्तरं- 
सेदं न कुरुते, तदाऽभयं गतो भवतीत्यभिप्रायः । 

यदा पुनरविद्यावस्थायां दि यस्माद षोऽविद्यावानविद्यया भत्युपस्थापितं 


मेदददनस्य वस्तु तेमिरिकद्धितीयचन्द्रवत्पश््यति; आत्मनि चैतस्मिन्‌ 
मयकारणत्वम्‌ . ब्रह्मणि उदपि, अरमट्पमप्यन्तरं छिद्रं भेददरौनै करूते- 


मेदददनमेव हिं भयकारणम्‌-अल्पमपि मेदं पद्यतीत्यथेः । अथ तस्माद्धे- 
ददह्चीनाद्धेतोस्तस्य मेददरिन आत्मनो भयं भवति । तस्मादात्मैवाऽऽत्मनो 
भयकारणमविदुषः। 

तदेतदाह-(१) तद्भह्य तु पव भयं मेदददिनो विदुष इऽ्वरोऽन्यो मत्तः 
भददश्िनो विदुष अहमन्य संसारीत्येवंविदुषः; ( २ ) मददष्टमीभ्वराख्यं तदेव 
नहा भयम्‌ ब्रह्माट्पमप्यन्तरं कुवेतो भथं भवत्येकत्वेनामन्वानस्य । तस्मा- 

( १ ) ह्यन्तरकरण०--पाठः (२ ) आलकतेन जद्यामन्वानस्य, वियान्त्ुक्तस्यापि ब्रह्मतत्त्वज्ञानरहि- 
तस्य । विदुषो मन्वानस्य, विदुषोऽमन्वानस्वेत्ि वा पदयोजना । प्रथमपक्षे विदुषः प्रत्यगार्मनः सकाञचदी* 
अन्मत्रेणापि भिन्नं ब्रहेति पयतः संमोहवद्यवपिनो मेोदादात्मैव भयं मवतीत्य्थः । । 


, अथ अष्टमोऽनुवाकः 
मीषाऽस्मादरातः पवते । भीषोदेति संय; । 
भीषाऽस्माद्थिधेनरश । गृत्युधांबति पथ्वम इति ॥ 


दिद्धानप्यविद्धानेवासी, योऽयमेकममिन्नमात्मतच्तवं न पद्यति ! उच्छेदहेतुदै 
नाद्धयुच्छेद्याभिमतस्य भयं भवति; अनुच्छेयो युच्छेदहेतुः तत्रासत्युच्छेदे 
तावुच्छे्ये न तदशैनकायं मर्यं युक्तम्‌ । सवं च जगद्भयवदद्यते । तस्मा- 
-ज्जगतो भयदरौनाद्रस्यते-चूनं तदस्ति भयकारणमुच्छेदहेतुरजुच्छेदयात्मकं, यतो 
ज्गद्धिभेतीति । तदेतस्मिक्न्यथे पष -छोको भवति । 
इति श्रीमत्परमहंसपरिाजकाचायगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्य भीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषदि बरहम--आनन्द--वहटीमाष्ये सप्मोऽहवाकः ॥ ७ ॥ 
` भीषा भयेन अस्माद्वातः पवते 1 भीषोदेति सूयः । भीषाऽस्मादाधेश्चे- 
‹ दासोऽहं तस्य देवस्य, ममाऽऽराध्यः परमेशरःइति भेदं विद्धान्कथमन्ञ उच्यते ? 
तत्राणड--असौ यो ऽयमिति ! यथा चन्द्रेदं पद्यत्रप्यविद्रादच्यते--अतच्वददित्वात्‌-- 
तथेत्यथेः । कथं तदं तस्य भयसंभावनेत्यत आह--उच्छेदेति । संहता हि परमेश्वरो 
मां हरिष्यति, नरक वा निकषेप्स्यतीति पर्यतो भयं भवतीत्यथः । बेवोच्छेदहेतुः इत 
इयत आई-अनुच्छेयो हीति । उच्छेदहेतोरप्यच्छेदयत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गातित्यत्वं वक्तव्य, 
त्व बरह्मणः, नाल्यस्य संभाव्यत इत्यरथः । 


इति भरीमत्परमहसपरिव्राजकाचधश्रामच्छुद्धानन्दसिष्यानन्दज्ञानविरचते तेत्तिरीयोपनिष- 
च्छांकरमाष्यीरम्पणे बह्म-आनन्द--वछयां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


८ १) ०तावनुच्छेे त०--इति १।८:। (२) † 
भवेत्त बरह्मसत्ताऽसिमिन्नानन्दोऽसि कथं णु । भानन्दोऽत्रभ्युपेतन्यो रसवान्मधुराद्िवित्‌ ॥ १२१ ॥ 
मूढस्य मधुराः स्याद्रसो जहम विवेकिनः । मधुरदिभुगानन्दौ बह्मविच्च तथा सुखी ॥ १२२ ॥ 
आह्यानन्दा न चदत्रे दह क्{ नाम च्टयत्‌ । प्राणाक्षणा च्टक्तवं न तत्र करणत्त्रः ॥ १२३ ॥ 
न केवर चेष्टकत्वं विषयानन्दहेतुता । अप्यदपविषयान्‌ रुग्ध्वा स्वानन्दे मस्जति क्षणम्‌ ॥ १२४॥ 
विषयानन्दपरयन्तैः कामसूष्टयादिहेतुभिः ! जह्मसत्वे स्थिते युक्तिश्िन्त्यते विदरदयोः ॥ १२५ ॥ 
` 'विदान्‌ नह्वेति यु्तशन्स॒च्येताजञोऽप्यभिङ्ञवत्‌ । जह्मरूपोऽपि बद्श्चेदक्ञोऽभिह्ञोऽपि वध्यते ॥ १२६ ॥ 
मैवं नह्मातेकयोष पपैको मोक्षकारणम्‌ । देक्यदरीं सुच्यतेऽतो भेदददीं न रुच्यते ॥ १२७॥ 
उष्वकोरे समेऽप्यस्िश्ोर्दयीं निभेति दि । खाणुदरीं निर्भयोऽतस्तत्तबोषः प्रयोजकः ॥ १२८॥ 


€ अष्टमोऽनुवाकः | आनन्द्मीमासा १५९१ 


सेषाऽऽनन्दस्य मीमांदसा मवति । 


न््रश्च । सुत्युधौवति पञ्चम इति । वातादयो है महाहीः स्वयमीश्वराः 
सन्तः पवनादिकार्यष्वायासबहृरेषु नियताः प्रवतेन्ते ! तदयुक्तं प्रशास्तरि 
सत्यन्यस्मिन्नियमेन तेषां प्रवतेनम्‌; तस्मादस्ति भयकारणं तेषां अहास्तु 
ब्रह्म, यतस्ते भरत्या इव राज्ञोऽस्माद्रह्यणो मयेन भवतन्त; तञ्च भयकारण- 
भानन्द्‌ बह्य ॥ 


तस्यास्य ब्रह्मण आनन्दस्थेषा मीमांसा विचारणा भवति । किमानन्दस्य 
ब्रह्मानन्दो जन्यः मीमांस्यमिति ? उच्यते--किमानन्दो विषयविषयिसंबन्धजनितो 
स्वाभविको वा १ छौक्षिकानन्दवत्‌, आोस्वित्स्वाभाविकः?-दसेवमेषाऽऽ नन्दस्य 
मीमांसा । . 

तत्र लोकिक आनन्दो बाह्याध्यासिकसाधनसंपत्तिनिमित्त उल्छृष्टः । स य 
विषयानन्दराा एष निर्दिश्यते ब्रह्मानन्दाचुगमाथंम्‌ । अनेन हि भरसिद्धेना ऽऽन- 
जहमानन्दालुगमः ब्देन व्याृत्तविषयनुद्धिगस्य आनन्दोऽयुगन्तु शक्यते । ककि 
कोऽप्यानन्वो ब्रह्मानन्दस्यैव माजा--अविद्यया तिरस्क्रियमाणे विज्ञाने, उत्छु- 
ष्यभाणायां चाविद्यार्या, ब्रह्मादिभिः कमेवदादयथाविज्ञानं विषयादिसाधनसं- 
बन्धवशाचच विभाव्यमानश्च रोकेऽनवस्थितो छोकिकः संपद्यते; स पवा- 
विद्याकामकमोपकषंण मलुष्यगन्धवोयुत्तरोत्तरभूमिष्वकामह तविदच्छोि- 
यपरत्यक्चो विभाव्यते-टातगुणोत्तरोत्तरोत्कर्षण यावद्धिरण्यगसंस्य ब्रह्मण 
आनन्द्‌ इति । 


तच्च भयकारणं बरह्मानन्दरूपञ्क्तं “ यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्‌ “इति, अत्राऽऽन- 

नदश रोके जन्यः प्रतिदधः, ततो विचारमारभते--तस्यास्येत्यादिना । | 

ब्रह्मानन्दस्य चेन्भीमांसा प्रस्ता, किमथस्तदिं सार्वभोमानन्दाधुषन्यासः १ तत्राऽऽह-- 
तत्न छोकिक इत्यादिना । ठोकिक आनन्दः कचित्काो प्राप्न, सातिदायत्वात्‌, .प्रि-, 


( १) समाप्तायुषां निकटे धावतीत्यथैः । | 
(२) जञतेऽपि कमकाण्डथं वेदान्तार्थमजानतः । जन्मादिमीभवत्येव वाय्वादीनां यथा तथा ॥ १२९ ॥ 
सयौ वदिरिनद्रो म॒ल्युश्वातीतजन्मनि । धर्मज्ञा भप्यत्क्ञा इदानी विभ्यतीश्ररात्‌.॥ १२० ॥ 
।  -तात्तरयायकाः प्रकारः 
(३) ‹ युवा स्यत्साधुयुवा › इत्यादिना वक्ष्यमाण सर्वभोमं मनुष्ययुवानन्द्मारभ्य जह्यानन्दावसाना एषा 
संनिषिता जनन्दस्य तारतम्यमीमांसा ‹ सैषा › इत्युक्ता.। (४) तै. उ..२: ७ | 


१०२ देक्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्‌-बह 


मलुनन्दः युवा स्यात्साधुयवाऽध्यायकः । आशिष्ठो ददो 
बचिः । तस्येयं एृथिवी सवौ वित्स्य॑ पणा 
स्यात्‌ । स एको मुषं आनन्दः । 
मह्ववगन्दः ते ये श्तं परालुष आनन्दाः ( १ )स एको मनु- 
ष्यगन्धनीमाभानन्दः । ओतरियस्य चाकामहतस्य । 
निरस्ते त्वविदयाकूते विषयविषयिविभागे, विद्यया स्वामाविकः परिपुणे एक. 
आनन्दोण्डेतो > चतीत्थतम्थं विमावयिष्यान्नाद- 
` शवा प्रथमवया; ! साद्ुयुवेति साधुश्चासो युवा चेति युनो विरोषणम्‌-- 
मतुषानन्दः युबाऽप्यसाधुभंवति, साधुरप्ययुवा, अतो विरोषणम्‌-शुवा 
स्यात्साधुयुवा ' इति; अभ्यायकोऽधीतवेदः; आरिष्ठ॒ आदास्तृतंमः ददिष्ठो 
दृढतमः; बलिष्ठ बल्वत्तमः; 7चम्यात्तिकसाधनसंपन्नः । तस्येयं पृथिब्युर्वी 
सवौ विष्ठस्य--वित्तेन, उपभोगसाधनेन दृष्टा्थनादृटार्थेन च कमैसाधनेन- 
संपन्ना पूणौ,--राजा पृथिवीपतिरत्यर्थै; । तस्य च य आनन्दः स एको 
मानुषो मनुष्याणां प्रकृष्ट एक आनन्द्‌ः । | 
ते ये शतं मायुषा आनन्दाः, स एको मयष्यगन्धवोणामानन्द्‌ः--मानुषा- 
भनुष्यगन््वानन्दः नन्दाच्छतगुणेनोक्छष्टो मन॒ष्यगन्धवौणामानन्दो भवति । म- 
ज्याः सन्तः कर्मविद्याविरोषाद्वन्धवैत्वं प्रा्ताः “ मनुष्यगन्धवोः  । ते ह्यन्तधौ- 


तस्थोकृषटते नादिदाक्तिसपन्नाः सुक्ष्मकायकरणाः; तस्मात्यतिधाताव्पत्वं 
निमित्तम्‌ तेषां, इंदप्रतिघातशाक्तसाधनसपात्तिश्च, ततोऽप्रतिहन्यमा- 


नस्य प्रतीकारवतो मयुभ्यगन्धवंस्य स्याच्ित्तप्रसादः; तत्पसाद विरोषात्छुख-. 
विरोषामिन्यक्तिः। एवं पूवैस्याः पूर्वस्या भूमेरत्तरस्यामुत्तरस्यां भूमौ भरसाद्‌- 
माणवत्‌--शति ब्रह्मानन्दादगमा्थो ठोकिकोपन्यास इत्यथः । विषयेभ्यो भ्याटेत्ता भ्याट- 
-तविषया अविषयत्रह्मातमेकत्वदर्भिनस्तद्ुदधिगोचर शयथ । प्रकारान्तरेण ब्रहमानन्दाडग- 
ममाह-रोकिकोऽपीत्यादिना । | 
मदष्यगन्धवानन्दस्योतकष्टत्वे निमित्तमाह--ते ह्यन्तधोनादीति । प्रथममकामई- 
बाद्रहणस्य तात्पयमाह--प्रथममिति । यदि प्रथमपयाय एवाकामहतोः गषत, तदा तस्यैव 
कषावमोमानन्देन ल्य अनन्दः स्यात्‌, तदा च व्याघातो भवेत-- मादषानन्दे निस्पृहो मादषा- 


(१) आह्युतभः-~पाठः । (२) तमः कषिप्रकारिषु मध्ये स्वयप्रतिरायत्वादित्यर्थः ¦ ₹०-पाठः । (३) दानां 
पर्रिघाति प्रति्षेपे राक्तिश्च साधनानि च तेषां संपत्तिः सामग्रीति यावत्‌, (४). अलुमानार्थः--पाटः । 


८ र“ल्टुदारः ] ब्रह्म किरार्कछवानन्दम्‌ १० 


कवगनथन्दः ते ये शतं मुष्यगन्धवोणामानन्दा; ! स एको दे. 
वगन्धवाणांमानन्द श्रोत्रियस्य =त८ तु; 1 
निले ते ये दातं देवान्धवाणांमानन्दाः । स एकः पि- 
वणां चेरलोकरोक नामानन्दः । भरोत्रियस्य 
चाकार्महवस्य | 
भजानन्देवनन्दः ते ये. तं पितृणां चिररोकलोकानांमानन्दाः । 
स एक आजानजानां देवानामानन्दः ( २) ।, 
श्रोतियस्य चाकामहतस्य । 
करैदेवनन्दः ते ये शतमाजानजानां देवानमिानन्दाः । स 
एकः कमेदेवानां देवानामानन्दः । ये कमणा 
देवानपियन्ति । ओत्रियस्य चाकामहतस्य । 
बिरोषतः दातगुणेना ऽऽनन्दोत्कषं उपपद्यते । प्रथमं त्वकामहताब्रहणं-- भे 
ष्यविषयभोगकामानमिहतस्य श्रोजियस्य मनुष्यानन्दाच्छतगुणेनाऽऽनन्दो 
कषां मनुष्यगन्धववेण तुल्यो बक्तन्यः--इत्ये वमथेम्‌। ‹ साधुयुवाऽध्यायकः 


आनन्दप्राप्ति- इति श्रो्नियत्वांचुजिनत्वे । ते ह्यविरिष्ठे सवेजः.अका- 
साभनत्रयम्‌ महतत्वं तु {५ धाप्टत्संएटपषंतः सुखोत्कर्षापकषोयं विषे 
भ्यते 1 अतः " अकामहतभदणः --तदिद्योषतः . २।५२. ५५९७ ।त्कषापरच्येः-- 
अकामहतत्वस्य परमानन्द प्रा्तिक्षाधनत्वषिधानाथम्‌ । ्याख्यातमन्यत्‌ । 

देवगन्धवौ . जञातित पत्र । चिररोकलोकानामिति पिवृणां विशेषणम्‌- 
चिरकाटस्थायी खोको येषां पितृणां ते चिरटोकटोका इति । * आजानः 
इति देवलोकः, त जाज्ञाने जाताः “ आजानजाः ` देवाः स्मातेकमेविश्येषतो 
देवस्थानेषु जाताः 

कदेव ये वैदिकेन कमणाऽच्धिद्द्ादिना केवटेन देवानपियन्ति । ' देवाः ' 


नन्दभोगभागी चेति- ततो मदष्यगन्धवौनन्देन वुल्यमानन्दं तस्यं दिवं प्रथमपयोये 
तदप्रहणमित्यथः । .अटजिनत्वमः अपापत्वं-यथोक्तकारित्वं-तत्ताधुपदाहभ्यत इत्यथः । 


(९) तुक्य. उ. ४. २. ३२. (२) ०ैतया विरिष्यते~पाठः। (२) वपीकूपतयकादि । (४) समव 
--( कर्मोपासना--) कारिणो देवयानमगगामिनः 1 


९० , तरैततिरयोपनिषत्‌ ` `` : [ ब्रह्म-जानन्दचही 


देवनन्दः ते ये श्तं केमेदेवानां ` देवानपिानन्दाः । स 
एको देवानांपानन्दः । भरोतियस्य चाकारमह- 


-तस्य 1 | 
इन्दः ते ये श्वतं देवानामानन्दाः । स एक इद्रस्या- 
ऽऽनन्दः ( ३ ) । शरोतियस्य चाकार्हतस्य । | 
बह्तप्यनन्दः ते ये. श्रतमिनद्रस्याऽत्नन्दाः । स एको ` 
बहस्पतेरानन्द्‌ः ! भोजियस्य चाकामहतस्य । 
भनपवयनन्दः ते ये शतं बरहस्पतेरानन्दाः । स एकः भना- 
पतरानन्द्‌ः । ओत्रियस्य चाकामहतस्य । 
हिरण्वग्मान्दः ते ये श॒ते प्रजापतेरानन्दाः । स एको बह्मणं 
आनन्द्‌; । भोश्रियस्य चाकामहतस्य ( ४) । 
इति अयस्िराद्धविभजः । “इन्द्र तेषां स्वामी । तस्याऽऽचारयो ‹ बहस्पतिः '1 
^ प्रजापतिः ' विराट्‌ । चखेोक्ष्यशारीरो ब्रह्मा समश्िव्यष्टिरुपः संखारमण्डलः- 
व्यापी । यत्रैत आनन्दभेदा एकतां गच्छन्ति, धर्मैश्च त्निमिच्चो ज्ञानं च तद्धि 
षयमकामहतत्वं च निरतिदायं यत्च, ख एष दिरण्यगभों अह्या; तस्थेष आ- 
भकमदतलं प्क नन्द्‌ः ओननियेणाच्चाजिनेनाकामदहतेन च सर्वतः धत्यक्षमुपल- 
साधनम्‌ भ्यते । तस्मदेतानि जीणि साधनानीत्य- गम्यते; तत्र ओ- 
तरियत्वाृजिनत्वे नियते, अकामहतत्वं तूत्छष्यत शति प्रङृष्टसाधनताऽवगम्यते। 
तस्याकामहतत्वप्रकषेतश्चोपरुभ्यमानः श्रोचरियप्रत्यक्षो ब्रह्मण आनन्दो यस्य 
सातियनिररिशिवान- परमानन्दस्य माजा--पकदेशाः “एतस्यैव ऽऽनन्दस्यान्यानि 
न्दयोहपायोपेयमावः भूतानि मात्रामुपजीवन्ति” इति श्चुत्यन्तसर ~स पष आन- 
अयसि । अथो वतेः, एकादश रद्रा दवादशाऽदिर्योः इन्र, प्रजोपतित्ति । यदं 
` ममांसाऽऽरन्धा, तस्य निरतिशयानन्दस्य सिदौ वाक्षयतात्पयं दश्यितमाह-तस्याकाम- 
हतत्वेति । सस्य श्रह्मणो दिरण्यमयस्याऽऽनन्दस्तदुपासकंप्रत्यक्षो ` यस्य भात्रा, स एष 
(१) ब. उ. ४. ३. २२. । (२) तै. आ. १.९. १. (२) ते. आ. १. ९.४, ७) ब्र. उ- ३, ९. ५ 
निष- ५. ९; महा. भा. आदिप. २५२२. (५) रे, जा, २.८; ८; शत्रा; ४.५७. २; ११. 
2 २. ५; का, रामा, २. २०. १५. ¡~ ^ (--. ~ 


द ५१ ५, 





८ श्लु | १०५ 
तैततरोयलाखेपनिषन्‌-ः स्‌ -व्थायं . पुरषे । यथा- 
महविग्यम्‌ ` ` सांवादित्ये । स षक | 
न्दो यस्य भावा समुद्राम्भस इव विपुषः प्रविभक्ता यत्रकतां गता-स एष 
रमानन्दः स्वाभाषिकः; अद्वेतत्वादानन्दानम्विनोश्चांविभागोऽञ 1 
तदेतन्मीमांसाफलमुपंसंहियते- 
स यश्चायं पुरुष इति । यो गुहायां निहितः परमे व्योम्न्याकाद्ादिकाय स्‌- 


क 


जीवस्य निरतिच्चया- छा ऽश्रमयान्तं, तदे वालुपविष्ठः “ स यः ` इति निर्दिश्यते; 
नन्दजहैकतवम्‌ कोऽसखो १ “अयं पुरुषे; यश्चासावादित्ये -यः परमानन्दः 
भ्रोबियप्रत्यक्षो निर्दि, यस्थेकदेश्ं ब्रह्मादीनि भूतानि सुखाहौण्युपजी- 
वन्ति, ‹ स यश्चासावादित्ये * इति निर्दिश्यते; सख एको भिन्नभदेशस्थधराका- 


लाकर कयच्‌ | 


परमानन्दः स्वाभाविक इति संबन्धः । दिरण्यगभोनन्दस्य मात्रात्वे भुत्यन्तरं प्रमाण- 
यति--एतस्थैवेति 1 न केवरं हिरण्यगमांनन्द एव मात्रा; यश्च प्राणुपन्यस्तः सावैभोमा- 
द्यानन्दः स दष यस्य मात्रा प्रविभक्ता नानात्वमापन्ना सती यत्र निरतिष्यानन्देऽकामहत- 
ब्रह्मवित्प्त्यक्षे कैवल्ये “एकतां गता' इति योजना। अकामहतप्रत्यक्षत्वाभिधानाद्धेदप्रािं निर- 
स्यति-आनन्दानन्दिनोश्चेति । प्रत्यक्षत्वाभिधानमन्ञानरसंश्चयादिव्यवधानाभावाभिप्रा्य, 





(१) “ ब्रह्मानन्दयोः सामानाधिकरण्यं न “ नीलोत्पक्वहूणगुणिमावविवक्षया । ५केवञो नि्युणश्च ” 
(शे. उ. &. ११. ) इति तेः । युणस्य गुणिना भेदाभिदयोरनिरूपणादुपपन्नं निरीणत्वम्‌ । अत्र भेदामे- 
दवा “न निर्णे द्रन्यमस्तिः इति ज्यति । मा मूत्नियौणं द्रव्यम्‌; बह्म तु न द्रव्यम्‌, प्रमाणाभावात्‌ । . 
समवयिकारणाद्रन्यमिति चेत्‌, न; गुणादीनामपि स्वगतङ्ञेयलवाच्यत्वादिषमांपादानलवात्‌ 1 गुणो नाम 
धर्मः । तथा च न निर्भर्मकः पदा्थौऽस्तीति चेत्‌, न; कस्यचिद्धर्मस्येव निर्मकताया अङ्गीकायेत्वात्‌; 
अन्यथाऽनवस्थापत्तेः । तस्मात्‌ “ न निर्युणं ब्रह्म > इति वचनं दशनप्देषमात्रम्‌ > । वि. प्र सं.पृ. २१७. 
(२ ) त्र-~बरह्मणि । (३) सैषाऽइनन्दसयेत्यादौ सातिङ्यानन्दयारा निरत्िरशयानन्दमनुमाय यद्रह् 
निरतिरायानन्दात्मवं निर्धारितं, तदत्रात्मत्वेन साक्षिप्य प्रतिपायते; किंच यो हि परमात्मा सत्यज्ञाना- 
दिवाक्येन सत्यदिलक्षणो दर्शितः, स एव ' यो वेद निहितं गुददायां › इति बुद्धौ चात्मनि बुद्धिस्वसूये 
म्विष्टे. निर्दिष्टः, स एव चात्र “ सं यश्चायं > इत्यादादुपरहियते, बहयत्मनेोरेकत्वशञानटटीकरणारथम्‌ 1: 
(४) ^“ सत्ये ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” (२, १) इत्ययान्तरवाक्येन अद्वितीयं ब्रह्म उक्त्वा ^ स यश्ार्य 
पुरुषे । यश्चासावादित्ये 1 स॒ एकः । » इत्यनेन महावाक्येन परतीचोऽद्ितीयन्रह्मलं बोधयति । ननु. 
कथं ब्रह्मणोऽदितीयत्माकासादेः द्वितीयस्य विचमानत्वात्‌ १ कथं .वा प्रतीचो ह्यत्वं तयोभैदस्ये- 
व्ानुमवात्‌ --इत्याराङ्कायां “ तस्माय णतस्मादात्मन आकादः संभूतः । > (२. १), “‹ सोऽ- 
कमयत । ” (२. ९) इत्यायः स्टयावरथवादरूपाः शतय जाकासादेः सवस्य जगृकते  बद्मणः 


१०६ वेत्ति: | ब्रहम-आरनन्द-क्ही 


नयु तन्निदेरो ˆ स यञ्चायं पुरुषे ° इत्यविरोषतो कभयात्मं न॒ युक्तो निर्देशः, 
ˆ यश्चायं दक्षिणेऽश्चन्‌ ` इति तु युक्तः, प्रसिद्धत्वात्‌ । न, पराधिकारात्‌--परो 
ह्यात्मा ऽजाधिङ्तः 8 अदश्येऽनात्स्ये ...मीषाऽस्माद्वातः पवते...संषाऽऽन- 
न्दस्य मीमांसा ` देति, न हयेकस्माद्प्रतो युक्तो निदेष्टुम्‌, परमात्मविज्ञानं च 
विवक्तितम्‌, तस्मात्पर पव निर्दिक्यते ` स एकः इति; ननु “ आनन्दस्य मी- 
मांसा * प्रङूता, तस्या अपि फटमुपसंदतेव्यम्‌-अभिन्नः स्वाभाविक आनन्दः. 
परमत्तमेव, न विषयविषयिसंवन्धजनित इति; नु तव्‌नुरूप पवायं निदेशः 
स यञ्ायं पुरुषे यञासावादित्ये स एकः ' इति भिन्नाधिकरणस्थविरेषो 
पमदेन । नन्वेवमपि “आदित्यः विदोषग्रहणमनथेकम्‌ ! नानथेकम्‌--उत्कषपिक- 
ष्पाहार्थत्वा-- द्वैतस्य हि मृतीमूतैरश्चणस्य पर उत्कर्षैः सवित्रभ्यन्तगेतः, स 
न ठ विषयविषयिमावाभिप्रायम्‌+-"अदृश्येऽनात्म्य उदरमन्तर रेते ” इत्यादिना निषेधा- 
दित्यथः। . 

मीमांसया निरतिश्चयानन्दं ज्नास्तीति निधोरितम्‌ । तस्याकामहतप्रत्यक्षत्वाभिधानाद- 
भेदसिद्धिः--न हि परानन्दः परस्य प्रत्यक्षो भवति, तस्माततिरतिश्चयानन्दशरहनेकतवं जीवस्य 
श्रह्मविदापरोति परम" इत्युपकरान्तं, मीमांसया च सिदखपसंहियत इत्यर्थः । “आदित्य! ग्रहण. 
स्याऽथिदैविकोपाधिलक्षणाथस्याविवक्षितत्वं दकलयिवं चोचयखद्रावयति- नन्विति । "थ शष 
एतस्मिन्मण्डटे पुरषं" “योऽयं दक्षिणेऽकषन्पुरर्षः” इत्यादो शरत्यन्तरे मण्डटस्थस्य दक्षिण- 
क्षस्थेनक्यस्य प्रसिदत्वातत, इहाप्यादित्यस्थेनेक्यनिदेशे दक्षिणाक्षिगरहणं युक्तमित्यथः 
अध्यात्ममाधेदवतं च लिद्ूलत्मोपास्नविवक्षायां तथा स्यात्‌, नेह तद्विवक्षितमित्याह- न; 
परेति । य एव चिदधातुनिरतिशयानन्द उत्कृष्टोपायो प्रतिबिम्बितः, स एव निकृष्टोपाधो 
एवोत्पत्तेः; तसरिमृन्नेव अवस्थानाद्‌, पुनस्तत्रैव ल्यात्‌, स्रदत्पत्तिस्थितिल्यकस्य षयदेः मृदभेदवत्‌ 
कररणब्रह्ममात्रत्या अवान्तरवाक्योक्तं ब्रह्मणेऽद्वितीयतवं संभावयामाघुः । ^ तत्यृषट । तदेवानुपाविरत्‌ “ 
(२. ६. ) इत्याचयाः श्तयः (ब्रह्मण एव जीवरूपेण प्रवेद ब्रुवन्यः, न तु वहिः स्थित्वाऽन्तगृहे प्रवेष्ट- 
देवदत्तवत्‌, जीवब्रह्मणोः अभेदं महावावयप्रतिपाचं संभवयामासुः । तथा नियमनश्चतिश्च “ भीषाऽस्मा- 
दातः पवते ” (२. <. ) इत्याद्या अत्यन्तभेदे नियाम्यनियामकमावानुपपततेः, तयोरभेदमेव संभावयति । 
तथा « स्र वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः » (२. १.) इत्यादाः त्छंपदार्थपरिदोषनरूफः श्तयः जवे- 
रोभयगतविरूदधर्मनिरासद्रारा तयोरयमेव संभावयन्ति । तथा ¢ बह्मविदाभरेति परम्‌ > (२. १.) 
इ्त्याचयाश्च भेदज्ञानस्य निरतिदायफरप्रदैनेन अभेदस्य विवक्षितत्वं ॒ज्ञापयन्त्यस्तमेव संभावयन्ति । 
इत्थं सष्टिस्थितिभलयप्रवेरानियमनतत्त्वपदाथैफलप्रतिपादयैः सप्रविधार्थवदिरमुगदीतं सन्मदावाक्यमवा- 
न्दरवाक्यपतदितै ब्रह्मणोऽदितीयतवं, प्रत्यगरतमनस्तद्रुपत्वं च प्रतिपादयति । 


( २) तुल्व-संकषेप. शा. १. २४--६..(२ ) ते. उ. २.७. .८३ ) ब. उ. २. २.३. (३) ब 
उ. २.३, ५. | . 


८ अष्टमोऽलुवाकः | ्रह्ज्ञानमेवे श्रयप्र १०४. 


मानन्दं सु य॑ एवंवित्‌ । अस्प शखेत्य । एतपरम- 
वम रपम मयमात्मानसुर्पपक्रामाति । एतं प्राणप्रया- 
पक = त्मानमुष॑संरामति । एतं मनोमयमातमानमुप- 

संक्रामति । एतं विहानमयमात्मानमु्सका- 

मति । एतमानन्द्ग८त्८८४सङरमति । 
चेतयुरुषगतविरोषोपमर्देन परानन्दमपेश्य समो भवति, न कथिदुत्कषो ऽपक- 
धो वा ताँ गति गतस्येति ˆ अभयं प्रतिष्ठां किर्दते ` शत्युपपश्नम्‌ । 

अस्ति ना दीत्थयुतशो न्याख्यातः-कायैरसलामप्राणनाभयप्रतिष्ठाभयद- 
ूवोसमन्धसंमतिः शैनोपपत्तिभ्योऽस्त्येव तदाकाशादिकारणं ब्रह्त्यपाङ्तोऽनु- 
प्श पकः । द्वावन्यावनुप्रश्रौ विदवदषिडुषोतरेहापयमािविषयो । तत्र विद्धान्‌. 
समद्छुते न समद्युत इत्युप्रश्नोऽन्त्य, तदएकरनायोच्थत । मध्यमोऽरुप्- 
शनो ऽल्त्यापाकरणदेवापाङृत इति तद्पाकरणाय न यत्यते । 

स यः कश्चिदेवं यथोक्तं बह्म, उत्सृज्योत्कषोपकषैम्‌, द्वितं, सत्यं, क्ञानमन- 
कषिर्पाण्यादिमति पुर्वे प्रतिबिम्बित इति परमानन्दमपेकय समतवं --विशि्योः स्वभते- 
कयं--षिवक्षितमित्यथेः। 

टत्तादवादपएूवैकखत्तर्यन्थमवतारयति-अस्ति नास्तीति । संदिग्धं सप्रयोजनं च 
विचारमहेति- 





_____--_-----------__- ~~ 
(१) आदितयमण्डलस्यनह्मणस्सदा्थस साक्षिणा त्वपदयैनक्यमध्यारोपितोतवषपकषकारणाविवरानिराक- 
रमेनत्र बोध्यते ! ततश्वदित्याथारवात्तदथस्योकष्टल, त्वमर्थस्य चन्तःकरणधिकरणलतवेन रागादिकल्षित- 
लािकृष्टलम्‌--इत्याका न कव्या । यथा यः सपः, स र्जुितयुच्यते; तथ बुद्धिस्थमपडष्टत्वेन करिपतं 
लंपदर्थमनृचघादित्यमण्डलस्येन प्रकृष्टतया वलिपतेन त्दा्नेकयमत बोध्यते; तथा चेतकषोपकषहीने सन्ि- 
दानन्दालकं वस्तु परििष्टं मवतीरथः । ईरो हि जीवगतमपङष्टवमपेश् रययुके व्यपद्यत । त 
जीवगतमपकृषटलं जीवानुवदेन तस ब्रह्मणा विरम्यते व्यावतेते । ब्रह्म हि जीवस्य विशेषणं त््तमपर्टलं 
बलदेव बाते । उच्छृषटत्य निक्ष परति विेषणत्वायोगाजीवगतापकर्षनिवृत्तौ च ब्रह्म खगतसुकषं परिलि- 
जति, तस्यापवर्षतपेकषाद्‌ । उत्षपकपैनवृत्ावातमनो बहलं, बहामणश्चामलं पष्यति! (२) त. इ. 
२.७, (३ ) ण्यहतुद० इति पाठः । (४ ) विचारो हि प्रमाणन्यापारस्य फलावसानलनिशचयदेतस्तवः, 
स॒ च प्रमेयमन्तरेण न प्रसपमुपलमभते, भ्रमितं च न बाध्यते-दति सद्वसतुरिष्विः । कोस्यन्तरस्ुरणं विना 
त संशयावततारः, तेन विना स विचारतः, तामृते न वस्तुततवनिर्णयः, तेन च वरना न पुरुषाथलभः-- 
इति विचारार्थतया यथापरतयत द्ैमम्यपगते, न प्रामाणिकलेन; तथा च युन एतेन व्यव इव, 
अतक्तं तत्ववुष्य व्यवहरतोऽन्प्रपिसंमवाद्‌, तत्परिहाराय पिचेऽवदयम्भाविनि क्रियमाणे, सर्वषु विरे 


१९८ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ बऋ्य-आनन्द्‌-क्डी 


आनन्दमवसंक्मण- न्तमस्मीत्येवं कै्ीत्येवंवित्‌, एवं ` रष्दस्य प्रकृतपरामशो- 
निदेशेनेव पुच्छ- -थैत्वाद्‌ । स किम्‌ १ अस््नोकात्मेतथ ष्ादृषेष्टविषयसमुदायो 
परतिषभूतनहप्रषः ह्ययं रोकः, तस्मादस्नाह्कोका. ‹ पेत्यः-प्रत्याब्रत्य- निरपेक्षो 
फर्स निदेशः भूतवेतं यथाव्याख्यातमन्नमयमात्मानमुपसं क्रामति विषयजातः- 
मन्नमयावििण्डात्मनो व्यतिरिक्तं न पदथति--सवं स्थूरभूतमन्नमयमात्मानं प- 
इयतीत्यथेः । ततोऽभ्यन्तरमेतं प्राणमयं "८।८८८त्द स्थमविभक्तम्‌, अथेतं 
मनोमयं, विन्ञानमयं, आनन्द्मयमाव्यन-. ठघ्परेमति, अथ “ अदुद्ये ऽनात्स्ये 
ऽनिरुकतेऽनिलयनेऽभयं पतिष्ठं विन्दते * । 

तत्रेतंच्िन्त्य ~ --कोऽयमेवंवित्‌ १ कथं वा संकामति ? इति-फ परस्मा- 
तदतौ दात्मनोऽन्यः संक्रसणकतों प्रविभक्तः १ उत ख एव ? इति । 
कि ततः ? यद्यन्यः स्यात्‌, श्चुतिविरोधः-“ तत्सृष्य तदेवानुव्राविद्ौर ” “ अ- 


अत्र च कसिमिन्पक्षे को. दोषः को वा राम इत्याह--रवि तत इति । उभयत्रादपपात्तिं 
संश्यकरारणमाह-- यद्यन्यः स्यादिति । चोधखसेन संशय्यावत्ि प्रयोजनमाद--यदयु- 
भयथेत्यादिना । एतदेव मम विचारारम्भकस्य स्वस्त्ययने" कल्याणं, यन्मामेकतववादिनं 





पेष्वस्तिताया अव्यभिचाराद्वि्चेषणानां न्यभिचारान्मिोग्यभिचारिणां चाचृत्त्वात्‌ सन्मत्रमेव सत्य॑न 
दरेतरूपो विदेषाकारः । पं च यथ। विचारो निणेयमन्तरेण न पयवस्यति, तथा सददरयं विना न विकटप 
प्रशाम्यति । अतः सपधारादण्डमारादिविक्येष्वनुगम्यमानतयाऽधिष्ठनलेन, पुनः सैविकट्पनिषेधवसान- 
तयाऽवधिवेनानुवतमानाविकसित्तानिषिद्धरज्जुखरूपवत्‌ , अध्यात्मादिविकरपाविष्ठानसन्मात्रलेन तत्तिषेधाव- 
पित्वेन चविकलिपततमनपों चात्मतत््वमद्वयमस्तरीव्येगोपरब्धन्यमिति तात्पर्यार्थः । 
(१) “ उपसंक्रामति ` विद्वान्‌ ‹ प्रमति ` इत्येकदेशिनामर्थः। युख्यसिद्धान्ते तु “उपसंकरमर्णः विदुषः 
कोरानां प्रत्यद्मात्रत्वेन विलपनमिति ज्ञेयम्‌ । पदार्थपरिदोधनावस्थायां प्रथमं तरिराडात्मानमात्मत्वेने प्राप्य 
तत्कार्यं पुजरपौत्रादिकं सवं तन्मात्रल्लेनापवाध्य, यथा “अन्नमयो ऽस्मिः इत्यवतिषठते, तथेवान्नमयमपि प्राणमयमा- 
वरत्वेन बाधित्वा प्राणमयात्मरूपेण विद्वान्‌ वतेते; प्राणमयस्यापि पुनरभ्यन्तरमात्मानं मनोमयं प्राप्य तेनात्मना 
ब्रह्म॑ प्राणमयं स्वसामथ्यीदेव जाति, यथा कलितः सपो रज्छु प्राप्य तत्स्वसामर्थ्यदिव सर्तवं सुन्वति 
एवमेव पूवस्य मनोमयस्य विन्नानमयात्मना प्रहाणं; विज्ञानमयस्य च पवस्यानन्दमयात्मनावस्था्न; तस्य 
चानन्दमयस्य पुच्छबहममात्रेत्वेन स्थितिः--इति पदा्थविवेकङ्ुशर निरूपयति । तथा निरूपणानन्तरं 
वाक्याद्राक्यारथ प्रतिपच कोशपल्वकमपवाध्य निर्भये जह्मणि तिष्ठतीत्यर्थः” । वार्विकटीका. २.८.४७-८ 
बुभुत्सा पुरषेऽन्येषु मनुष्येधु च योऽस्ति यः । आदित्ये चन्यदेतेषु सर आनन्दो न भिचते ॥१२६॥ 
परमास्पदलस्य ॒लक्षणस्येकरूपतः । रक्षयानन्दो न भिन्नः स्यादखण्डैकरसो ह्यतः ॥ १२७ ॥ 
पत्रं विद्वान्‌ स्वपुत्रः कोदषटपत्मकसिपतात्‌ । ब्ुस्थायाखण्डैकरसे स्वानन्दे प्रतितिष्ठति ॥ १३८ ॥ 
५ | `  -तैत्तिरीयकवियाप्रकावा 
{२ › ते. उ,:२.-६. .. , , ~"... 





८ अष्टमोऽनुवाकः ] 
न्योऽसावन्योऽदमस्मीति । न स वेद्‌ ” « पकमेवादितीयम्‌ ”, “ तत्त्वमसि 


४ 


इति । अथ स एवं “ यानन्द्भयंमात्मान- परसंक्रामति “इति .क्मकर्वुत्वा- 


यपपक्तिः, परस्यैव च संसारित्वं, पमादो वा वच्य वा। भासे दोषेन परि- 
दत शक्यत इति, व्यथां चिन्ता; अं स्मिन्पक्षे दोषाप्रापिः, तुतीये का 


पक्षेऽद््े, स प्व शाखाश्रः-इति व्यर्थैव चिन्ता । 

न, तक्निधोरणाथेत्वातू । सत्य परापतो दोषो न शक्यः परिहतैमन्यतरस्मिन्‌; 
तृतीये वा पक्षेऽदुषटेऽवध्ते व्यथो चिन्ता स्यात्‌; च त सोऽवध्रुत इति तद- 
धारणाथैत्वादथेवत्यवैषा चिन्ता । सत्यम्‌, अर्थवती चिन्ता, शाखाथावधा- 
रणाथेत्वात्‌ न्रित्तयसि च त्वं, न तु निणेभ्यसि । किं न निणंतव्यमिति 
वेद्व्चनम्‌ १ न । कथं तर्हिं ? बहूप्रतिपक्षत्वात्‌-एकत्ववादी त्वं, वेदाथेपर- 
त्वात्‌; बहवो हि नानात्ववादिनो वर्देबाह्यास्त्वतप्रतिपश्चाः अतो ममाऽपदाड्‌न-- 
न निर्णेष्यसीति । 

एतदेव मे स्वस्ययनं--यन्भाः कयोगिनमनेकयोगिबहुप्रतिपश्चमात्थ । अतो 
बादयुयत्सासमुत्ाहः जेष्यामि सवान्‌; आरभे च चिन्ताम्‌ । 





त्वमात्थ बरषेऽविप्रतिपन्नवस्तुवादित्वाप--अनेकत्ववादिनोऽप्येकस्य वस्तुनः संमतत्वापत्‌, अने- 
कवस्तुवादिनश्च बहवः प्रतिपक्षाः षन्ति ममेत्यथंतोऽपि कल्याणम्‌--अनेकत्वस्यान्योन्या- 
अयादिदोषदुषटत्वात्‌, पु्ंपक्चनिराकारणेन सिद्धान्तोपपत्तेतेत्यथः । 


(१) त्र, उ. १. ४. १०. (२) छां. उ. ६. २. १-(३) छां. उ. ९. ८. ७. (४) पक्षत्रयेऽपि 
दोषस्य सत्वात्‌, मदष्टपक्षनिर्धारणारथं विचारः कर्तव्य इत्यर्थः । (५) “ ननु सवे वादिनः द्वैतमेव परमा- 
अमवलम्बन्ते, युक्तिमिश्च बहीभिस्तदेवोपपादयन्ति, तथेव सरवैरनुमूयते च, श्रुतिमपि दैतानुयुण्येनेव योजय- 
न्ति । भवानेक एव तु अद्ैतं परमा जूते । अतो बुभतिपक्ष्वात्‌ खलतपक्षे कथं विश्वासः स्यात्‌ १--इत्या- 
राङ्कयाह-न वादिवहुैकत्वं॒॑वस्तुनिभेये प्रयोजकम्‌, रतु प्माणयुक्तिबाहुल्यमेव । नहि अन्धानां सदं 
चध्ुष्मत एकस्य रूपतिषये प्रतिवादी भवितुमर्हति । प्रमाण्युक्तिबाहुल्यं च अस्पदक्ष॒ एव । इत्र च 
ममाणयुक्त्यामासबाहुस्यम्‌। “--दहरितच्चखक्तावटी. २८. | 

शानौ कामानेति सर्वान्‌ रसो वै स इति शतम्‌ । ब्रह्मानन्दं स्फुटीकतु मीमांसाऽऽनन्दगोच्यते ॥१२१॥ 

संपूणो मानुषानन्दः सार्ैमोमे शुण्ुते । हिरण्यगर्भ सपूणो देवानन्दोऽवधीहि तो ॥ १३२ ॥ 

मध्यस्थे पूरवपुण्यानामुत्वषादरषते सखम्‌ । सवेषां यत्पुखं तत्त॒ निष्कम ज्ञानिनीभ्यते ॥ १२२ ॥ 

सवकामापिरेषाथ रसाख्यानन्द उच्यते । अध्यात्ममषिभूतं चापिदेवं चेक एर सः ॥ १२४ ॥ 

` सव स्वस्वपदे वराः कामयन्ते न तत्पदम्‌ । जानी तु दोषदषटयातर निष्कामस्तैः समस्ततः ॥ १३५॥ 
| तैत्ति) कमिया्रका्चः 


१९० तत्तिरीयोषनिषत्‌ [तऋरह्-आनन्दे-वही 


` स्तं पच तु स्यात्‌, द्वावस्य विवक्ितत्वात्‌-तद्िञ्ञानेन परमात्ममावो ह्यत्र 
दैक्ल्ाविषाक्त- विवक्षितः“ ब्रह्मविदाभ्मेति परम्‌ ” इति । न हयन्यस्यान्यभा- 
लाद, यदैत वापत्तिरुषपद्यते । नघ तस्यापि वद्धावापप च्ल । न, 
परमाः अविद्याङ्तोनात्ाभ्पाद्धथेत्वा-या हि ब्रह्मविद्यया स्वात्पपरा- 
पिरुपदि्यते, साऽदि-८०५रा साति ल1 0. आत्मत्वेनाध्यारोपितस्याना- 
त्मनोऽपोदाथो । कथमेवमथेताऽवगस्यते? विद्यामानोयदे२, -विच्यायाश्च दुष 
कार्यमविद्यानिट्िः तच्चेह वियामाजमात्मपाधो साधनमुपदिद्यतेः । माम. 
वि5)रनेलरितं चेत्‌, तदात्मत्वे विद्यामात्रसाधनोपदेशगे ऽहेतुः । कस्मात्‌ ? 
देद्यान्तरथासतो माभैविक्षानोषदेरदरेष्ना, । न हि भ्राम एव गन्ता-इति 
चेत्‌-न, देधम्योत्‌। तत्र हि श्रामविषयं विज्ञाने नोपदिश्यते, तत्पा्तिमायवि- 
घयमेवोपदिद्यते विश्चानम्‌ ; न तथेह ब मविश्षाकन्यतिरेकेण साधनान्तराविषयं 
वि्ञानमुपदिश्यते । उक्तकमोदिसखाधनापेशचं ब्रह्मविज्ञानं परधापो साधनमुपदि- 
इयत इति चेत्‌-न नित्यत्वान्मोक्षस्येत्यादिना पत्युक्तत्वाव्‌ ; श्रुतिश्च “तत्सुष्ट् 
तदेवानुप्राविशत्‌" इति कायंस्थस्य ठदात्मत्वं द्द्यति; अभयप्रतिष्ठोपपत्तेध- 
अभेदपक्ष एवाभय- यदि हि विद्यावान्स्वात्मनो ऽन्यन्न परयति, वतः “अभयं 
्रतिठेपपत्ि प्रति चिन्दते ” इति स्यात्‌, भयहेतोः परस्यान्यस्याभ- 
वात्‌; अन्यस्य चाविद्याङृतत्ये, विद्ययाऽवस्तुत्वदशेनोपपत्तिः; तद्धि दिती- 
यस्य चन्द्रस्यं सच, यदतैमिरिकेण च्चुष्मता न गृहते । नैवं न गृह्यत 


विचागरम्भखपपाय, सिदधान्तखपक्रमते--स ` एव तु स्यादिति । ओपाधिकभेदभि- 
ज्नोऽप्येवंवित्स्वतः पर एव स्यादित्यथेः। अविधाध्यासोपिताबह्मत्वव्याठटकत्तिरव बरहमप्रामिर्धिव- 
धषितेति फठवाक्यस्येवमर्थता कथमवगम्यते न पुनरप्रप्तप्रापिः{ इत्याद-कथाभिति | 
परिदहरति-विद्ामाच्रेति । अन्यथाऽभ्युपपि शङ्ते--मागैति । गन्त: स्वतो ग्रामला- 
भवेऽपि, यथा मागंज्ञानोपदेशः साधकतया जीवस्य स्वतो ब्रह्मत्वाभवेऽपि, वियोपदेशाऽम्या- 
सद्वारेण ब्रहमप्रा्तिदैवत्वात्‌, इयथः । ^त्वं ग्रामोऽसिः इति न तत्रोपदेशः, अत्राभेदोपरेश्चः 
प्रतीयते, अत॒ उपदेशवेषम्यान्न दृष्टान्तो युक्त इयाइ-न धेधसम्यदिति । यदि 
विदुषः सकाश्चादन्य इश्रो भयहैतुनार्ति, का तदि गतिव्येतिरिकेश्वरदशेनस्य इत्याश्- 
ङुन्याऽह--अन्यस्य चेति । कर्पितभेर्दविशिष्टरूपेणप्यरस्याषिदाकृतत्वे-मिध्यात्वे सति, 
विद्यया तत्रावस्वुत्वदशैनखपपयते-द्रे मम प्रशस्तेति मिथ्यैतवतः, तस्य मम चेकात्म्यमेव 





( १) जीवस्य सदा बह्ममावे ^ जह्य वेद जह्यैष मयति = इति श्चतिरतुपपेति शं्ते ! (२) श्वत्ता- 
-दाम्या०-पराठः । (३) °न्धस्यासत० इति पटः 1 





चेत्‌-न; सबोग्रहणात्‌ । जागत्स््रपवोरूषः 4 श्र गत्सस्वछेवेति चेत्‌--न 
अविद्याङ्तत्वाज्ञाग्रत्स्वप्रयोः-यदन्यंग्रहणं जाग्रत्स्वश्योः तद्विच्ाह्ठन्‌, 
विधामवेऽभावत्‌ । 

सुधुततेऽग्रहणमणप्यावेदाङृतमिति चेव्‌- न, स्वामाेकत्वात्‌; व्यस्य हि 
्ैतापदणमातमनः त्वमविश्चिया, परानपेश्चत्वाव्‌; विक्रिया न तत्त्वं, परापे 
स्वस्तःसिदम्‌ क्षत्यत्‌; न हि कांरकपेश्चं वस्तुनस्तत्वं, सतो विदोषः कारका- 


परमार्थम्‌, इति विद्दृटथा विशष्स्यासत्वमिःयर्थः ! दष्टान्तेन वैषम्यं शङकते- नैवमिति । 
यथा चन्दरकत्वदैशिना दितीयश्चन्द्रो न ग्यते, नेव ब्रह्मविदा न गृ्यते व्यतिरिक्तेश्वरः--प्रतिनि- 
यतप्रपव्चावभासस्य भोजनादिप्रटस्यदपपत्या जीवन्डखक्रस्याप्यभ्युपगमाच्‌ प्रपञ्चप्रतिनियमस्य 
चेश्वराधीनत्वास्युपगमादित्यथैः । ययपि जागरे व्यकिरिकाभासदशनं विदुषः, तथाऽपि न 
तद्धषकारणं,---न हि मायावी स्वविरचितव्याघ्राभासाद्धिभेति । अविदुषोऽपि व्यतिरेकदश्चैनं 
न सदातनमित्याह-नः सुषुतेति। षुपे व्यतिरेकाग्रहणमघत्वसाषकं न भवतीत्याह--सु 
खुप इति-ययेुकार इष्यासक्तमनस्तया तब्मतिकः वि्मानमपि न प्यति, तथा सुषुप्तेऽपि 
निरायासखखासक्ततया सदपि दवितीयं न पश्यति, न त्वभावादित्यथः। अन्यासक्तस्य तव्यति- 
रिक्तादशषनेष्पि तद्ीनमेवास्ति, शषुपे ठु न ' किचिदक्षासिषम्‌ ' इति प्रत्यया उलस्याप्या- 
त्मतादात्म्यात्‌, अज्ञानस्य च व्यतिरिक्तत्वानिषेचनाप्‌--अतस्तालिकद्ितीयाभावदेवाग्र- 
इणमित्याह-न सवोग्रहणादिति । षुत चेददपलम्भादसत्वं, तं जाग्रत्सवप्रयोर- 
पटम्भद्रैतस्य सत्तं कि न स्यात्‌--इत्यादइ- जाग्रदिति । अनात्मादावात्मत्वादिडडिर- 
विदा- तद्वाव एव द्वैतोपठम्भाप्त्‌; नोपरम्भमात्रं सच्सावकम्‌, अन्यथा शकतिरूप्यादेरपि 
स्लप्रसङ्ादित्याह-नाविद्येति । 

पूववा्याह-सुषुप्त इति । छषुपे दितीयस्याग्रहणमपि छयरूपावियाकृतं, न त॒ मेदभाव- 
निबन्धनम्‌; अतो यदुक्तं उषुपे सर्वात्मकब्रहमभूतो जीवः स्वन्यतिरिक्तमभावादेव न पर्यतीति, 
तदसदियथः । सतोऽपि द्वितीयस्याविावशादयगरहणमिति कोऽथः? कि हणप्रागभावो जायते 
उताप्रकाश्चारोपः, किंवा ग्रहणाकाराविकृतस्वरूपावस्थानम्‌ १ ना्डयः--प्राग भावस्यानादित्वा- 
भ्युपगमात्‌ । न द्वितीयः पररदवितीयस्यास्वप्रकाद्तस्वाभान्यास्युपगमेनाप्रकाश्चारोपानम्यु- 
पगमाप्‌, अप्रकाश्चारोपे च वेस्य स्वप्रकाशब्रह्मात्मताया अम्डुपगन्तव्यलरेनास्मत्समीहित- 





(१) द्वैतस्य कदाचिद्रदेऽपि वदबिद्रहव्यमिचारादक्तं मिथ्यालमिल्य्थः । (२) अवि्यामवि- , 
ऽभवात्‌- पाठः । (२) °दद्ेनाद्धिदी°- पठः । (४) तुल्य-““इषुक्षारो नरः कश्िदिषिवास्क- 
-मानसः । समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नागबुद्धवान्‌" ॥ शान्ति. प १७८. १२. 


११२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द्-व्ही 


वेश्च; विदोषञ्ध विक्रिया ! जाग्रत्स्वभ्रयोभ्य अहणं विद्धेव यद्धि यस्य नाभ्या- 
पेश्षं स्वरूपं, त्तस्य तत्त्वम्‌ ; ग ०-।८८३,.न तन्वम्‌, अन्याभावे ऽभावात्‌; 
तस्मात्स्वामचिकत्वाखयाग्रत्स्वप्रवश्च खुषुसे विरेषः। 

येषां पुनरीभ्वरोऽन्य आत्मनः, कायं चान्यत्‌, तेषां मयानिद्त्तिभयस्यान - 
मेदपष्षेऽभवमरति निमित्तत्वात्‌, सतश्ान्यस्या ऽऽत्महानायपपत्तिः, न चासत 
नुपपति आत्मलभः। सपेश्चस्यान्यस्य भयहेतुत्वमिति चेन्न, तस्यापि 
तुल्यत्वात्‌-यद्धमोदयनुसददायीभूतं निदयमनित्यं वा निमित्तमपेश्ष्य, अन्यद्ध- 
यकारणं स्यात्‌, तस्यापि तथाभूतस्य ऽऽत्महानाभावादद्धयानिबत्तिः, आत्महाने 
वा सद्सतोरितरेतरापत्तो सर्वजानाश्वास पव | किवत 

एकत्वपक्षे पुनः सनिभित्तस्य संसारस्याविद्याकल्पिवत्वाददोषः-तेमिरि- 
कदृष्टस्य हि द्वितीयचन्द्रस्य नाऽऽत्मखामो नारो वाऽस्ति । | 


सिद्धिप्रसद्लत्‌ । न ततीयः-इत्याह- न स्वाभाविकत्वादिति । अविकृतस्वरूपावस्थाने 
नाविव्कायेमर्‌, अनागन्तुकत्वादित्यथः। एतत्स्छस्यति--द्रव्यस्य हीत्यादिना । सन्मात्रं 
द्रम्यच्यते, स्वातन्त्यसिर्यभिप्रायेण, न वेरोषिकाभिप्रायेण क्रियावदूयणवत्समवायिका- 
रणं दरन्यं-मानाभावा्‌, इति दव्यम्‌ । अविक्रियेति । विक्रियाभावोपठक्ष्यं स्वरूपमनः 
पक्ष्य सिदत्वादित्यर्थः। ग्रहणादिविक्रिया न स्वाभाविकी, परापेक्षत्वात्‌, स्फटिकलोदित्यवत््‌-- 
इत्यथः । यदुक्मनपेक्य सिदत्वादविक्रियत्वमिति, तर्स्छुययति-- यद्धीति । 

एवं स्वमते चित्सत्ताव्यतिरिक्ेश्रस्य भयहेतोरभावादभयं विदुषः संभवतीत्युपपाद्, 
दतीयपक्षे तदसं भवमाह- येषामिति । सोऽन्यस्य स्वरूपे स्थिते, नष्टे वा, मा भृदुर्ध्वसो 
व्यापाततादनवस्थाना्च । तद्यसत एंव भयस्योत्पादेऽभयप्राप्निभेविष्यतीत्याशङ्थाऽऽह- न 
चासत इति । व्यतिरिके्रस्य सत्तामात्रेण न भयदेतुत्वं, विषु प्राणिकृतषमांधमाधपेश्षस्य; 
खक्स्य तु तदभावाद्भयं मविष्यतीस्याशङ्कय नेतत्सां ख्येन वाच्यम, अषमदिरिपि सतस्ते- 
नात्यन्तासत्वानङ्गीकारात्‌, नैयायिकादिमतेप्पि सति हेतो कायौत्यन्ताभावस्य दुरधारण- 
त्वात्तेनापि न वाच्यमित्याह-- न तस्यापीति । किंच सच्वेदसत्वमापदतेऽथमोदिकं, तद्या - 
त्मन्याषि कः प्रशास्त तस्मात्स्वभाववेपरीत्यं सतोऽसत्वगमनं कस्यापि मते न घटत 
श्याद-सदसतोरिति। | 

स्वमतं निगमयति--एकत्वपश्च इति। अविद्याकल्पिते भयं विया निवतंत इति वदता 
विध्याविधयोशत्मधमंत्वमिष्ट, ततो धर्मोत्पादविनाश्षयोर्विकारित्वमनित्यत्वं च प्रसज्येतेति 


( १ ) " अग्रहणाकाराविङ्कतस्व रूपावरथा त्स्य  । (२) °रात्मानात्मनोः स०-इति पठः । (२) 


एवाभ--इति पाठः । 


८ च्टमेऽतुवाकः] सकमणम्‌ ` ˆ ११३ 


विद्याविद्ययोस्तद्धमेत्वमिति चेर, ्रत्॑षत्वात-विवेकाधिवेको रूपादिवल्- 
विविधे नात त्यक्षाबुपटभ्येते अन्तःकरणस्थौ; न हि रूपस्य परत्यश्चस्य 
सतो द्रष्ुधमेत्वम्‌। विया च स्वानुभवेन रुप्यते--पूढो ऽहमवििक्तं भम 
वि्ञानम्‌! इति । तथा विद्याविवेकोऽनुभयते, उपदिश्चन्ति चान्ये्य आत्मनो 
विदां बुधाः, तथा चान्येऽवधारयन्ति, तस्मा्नामरूपपश्चस्यैव विद्याविये, नामः 
रुपे च नाऽत्मधमो--“नामरूपयोनिंवीता, ते यदन्तरा; तद्रक्ष" इत श्चुत्यन्त- 
रात्‌ । ते च पुननोमरूपे खवितयेहोरा इव कट्िते, न परमार्थतो विद्यमाने ! 
अभेदे, “दतमानन्वमयमात्माननर८ पति" इति कर्मकरतत्वाुपपत्तिरिति 
संकमणमत्विशनानम्‌ चेन्न; विन्ञानमा्त्वात्संक्रमणस्य, न जलटुकादिवत्सकमणमिरो- 
बाः. पदिश्ष्यते । रविः तर्हि ! विज्ञानम्रात्नं संक्रमणश्चुतेरथैः। 
ननु मुख्यमेव संक्रमणं श्रूयत उपसंक्रामतीति-इति चेत्‌.न;अन्नमयेऽदरौनात्‌- 
न हन्नमयसुपरसंक्रामतो बाह्यादस्माल्लोकाज्ञटूकावर््सक्रमणं दुच्यते, अन्यथा 
वा ! मनोमयस्य बहिर्निगेतस्य विज्ञानमयस्य वा पुनः परत्यादृत््याऽ.ऽत्मसंक्रमण- 
मिति चेत्‌, नः स्वात्मनि क्रियाविरोधात्‌, अन्योऽश्रमयमन्यमुपसंकामतीति 
्रङृत्य, मनोमयो विज्ञानमयो वा स्वात्मानमेवोपसंकामतीति विरोधः स्यात्‌ । 


श्ङ्ते-विद्याविययोरिति । कल्पितयोर्विद्ावियोरात्मनि भयाभयदेदुत्वसंभवान्राऽऽत्म- 
धर्मत्वे प्रमाणमस्ति, प्रत्युत वेत्वादरूपादिवदात्मधमंत्वं गास्तीत्यदमतुं श्रक्यत इत्याह-- 
न, प्रत्यक्षत्वादिति । चिन्मात्रतन्त्ाऽनादिरनिरवाच्याऽतिद्यापनकरणसूपेण परिणमते; 
तधान्तःकरणं तामसप्ताच्तिकावस्थाभेदेन भान्तिसम्यग््नानाकारेण परिणमते, तस्मिन्प्रति- 
बिभ्बितधिद्धातुः स्वोपाधिषर्मेणेव भान्तः सम्यग्दश्चीते च ष्यवदहियते, न तत्त्वतो विदावि- 
विचावत्वमित्याह--ते च पुनरिति । उक्तन्यायेन बरह्मवित्तस्वतो ब्रह्माभिन्न इत्युक्तम्‌, तव 
परोक्तखद्वाव्य निरस्यति- अभेदे, एतमित्यादिना। नाऽनन्दमयः परमात्मा, न च तत्र प्रवेशः 
संक्रमर्णं, किंत्वविषयत्रह्मात्मताज्नानेनाऽऽनन्दमयस्याऽत्मतया भान्तिगरहीतस्यातिक्रमणं बाधोऽ 
त्र विवक्षित शत्यरथैः ] १ | । . 
अन्यथा वति । नीडे पक्िप्रवेशवद्वेत्यथैः ! यथप्यन्नमये छख्यं संक्रमणं न कंभवति, 
तथाऽपि मनोबुद्धयोबदिविषये प्रत्तयोस्ततो व्यारस्य, स्व स्पेऽदस्थानं संक्रमणं दृ्ट, तथा 
दुःखिन आनन्दमयस्य स्वरूपेऽवस्थानं संक्रमणं ` मविष्यतीत्याह--मनोमयस्येति । स्वरू- 
{ २) ०न निरू%-एति पाठः ८२) भमौ । अकादो इ वे नाम ता०--इति पाठः ¦ (२) छं 


उ. ८, १४. १, निर्व॑हिता-निर्वोदम-व्याकतौ; यस्य ब्रहमणोऽतरा-मध्ये वौति । (४) टटसंयोमंरूपम्राधिः \.- 
| 4 


श तेत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-भानन्द्‌-बहीः 


` तदप्येष छोको भवति 1 
इति कृष्णयजुधनग गतर निरदि ब्रह्म-आनन्द--वस्स्यां 
अष्टमोऽतुवाकः ।। ८'॥ 


तथा बाऽऽनन्दमयस्या ऽऽत्मसंक्मणमुपपद्यते । तस्मान्न पराधिः संक्रमणं, नाप्य 
्रमयादीनामन्यतसकतैकमः पारिरोष्यादश्नमयाद्यानन्दमयान्तात्छन्यतिरिंकक 
तैकं ज्ञानमा्ं संकमणसुपपचते । ज्ञानमा्रत्वे च आनन्दमयान्तःस्थास्यैव, 
सबौन्तरस्य, आकाश्चाद्यश्नमयान्तं कार्यं खष्टाऽयुपविष्टस्य--हदयय॒हाभिसं- 
बत्धादच्नम्यादिष्वनतमस्वत्मविथधमः संकमणात्मकविवेकविज्ञानोत्पन्त्य बिन. 
श्यति। तदेवस्मिन्नविद्यावि्मनाशे संक्रमणशन्दरं प्रच्रयेते; न ह्यन्यथा सर्वगत. 
स्याऽऽत्मवः संक्रम धष ! वस्त्वन्तयाभावाच्च-न च स्वात्मन एव संश्- 
मणस्‌-न हि अद्काऽऽत्मानमेव संमति । तस्मात्‌ “सत्यं ज्ञानमनन्तं बह्म" 
कषति यथोक्तः णात्मप्रतिपत्यथेमेव बहमवनसगेपवेशरेसदखभामयसंक्रम 
णादि परिकल्प्यते जह्मणि सवैव्यवदाराविषये, न तु परमाथतो निर्विकर्पे 
ब्रह्मणि कश्चिदपि विकल्प उपपद्यते । 

तमेतं निर्तिकस्पमात्मानमेवं क्रमेणोपसंकरम्य-विदित्वा-न बिभेति कुतश्च 
नः, अभयं पतिष्ठां विन्दते इत्येतसिमिन्नर् ऽप्येष शोको भवति, सर्वस्यैवास्य 
प्रकरणस्याऽऽनन्दवद्कचथस्य संक्षेपतः प्रकारानायेष मन्त्रो भवति । 

हूति श्रीमत्परमहंसपरिराजकाचायेगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यभीमच्छंकरभगवतः 

कृतौ तेत्तिरीयोपनिषदि बरह्म--आनन्द--व्टीभाष्येऽटमोऽदवाकः ॥ ८ ॥ 


च [शि 


पावल्थानस्यानागन्वुकत्वास्प्रकमवियेधाच न तन्खख्यं संक्रमणमित्याह- नेति । ज्ञानमा- 
रत्वे वा संकमणस्य ए फठतीत्यत आह-ज्ञानमाञत्वे चेति । खख्यासंभवे गोणार्थ- 
गहणं न्यास्थमेव, अतोऽपिष्टानयाथात्म्यप्राततिपत्या विशिष्टस्याध्यस्तस्य बाधनमेव संकृमणं 
फठतीति भावः । इतश्च न सख्यं संक्रमणमन्वेषणीयमियाह--वस्त्वन्तराभावाः- 
शेति । संक्रमणस्योपचारिकित्वं भ्याख्याय प्रकरणस्य महत्तात्पर्यखपसंहारच्छटेनाऽऽह-- 
तस्मादिति। 
इति श्रीमत्परमहंसपलिाजकाचायश्रीमच्छुद्धानन्दरिष्यानन्दज्ञानविरचिते तेत्तिरीयोप- 
निषच्छांकरभाष्यरिपपणे बह्म--आनन्द--वस्च्यामष्टमोऽकुवाकः ॥ ८ ॥ 


( १ ) °मणेनऽऽत्मवि०--पाढः । (२) °रसाभ०; भरमयाम० पादौ । (३ ) संव्यवहारविषये, 
सवेन्यवहारविषये वा--पार्मातरम्‌ । . | 


अथ नवमोऽलुवाख्छः 
(निर्विकसं बह्म ) 
अह्मणोऽवाद्- यतो श्वाचो निवत्त । अप्राप्य 
मनमेव - मन॑सा सहं । आनन्दं जह॑णो ` 


| दद्रान्‌। न बिभेति कुतैशनेति। | 
यतो यस्मा्निरविकल्यायथोक्तलक्षणादद्वयानन्दादात्मनो वाचोऽमिधानानि 
द्रव्यादिसविकट्पवस्तुविषयाणि वस्तुसामात्यान्िर्विकल्पेऽद्वयेऽपि ब्रह्मणि प्र- 
योच्छमिः पकारानाय प्रयुज्यमानानि अपराप्य' अधकाद्रयैव निवर्तन्ते स्वसाम- 
थ्या द्वीयन्ते ! भनः इति प्रत्थययो-- विज्ञानम्‌; तच्च, यत्रामिधानं प्रबृत्तमतीन्ि- 
येऽप्यथे, तदथै च प्रवर्तते प्रकारानायः; यत्र च विज्ञानं, तत्र वाचः ग्रच्त्तिः 
तस्मात्सहैव राष्ट --अभिधानपत्यययोः पवृत्तिः सवं ।' 
`` तस्माद्भ्यपकारानाय सर्वथा प्रयोक्तृभिः प्रयुज्यमाना अपि वाचो यस्मा- 
विवा मयनाददिहः दप्रत्ययविषयादनभिधेयाददृद्यादिविरोषणात्सहेव भनसा 
विज्ञानेन सवेपकारानसभथैन--निवतेन्ते, तं ब्रह्मण आनन्दं श्रोतरियस्याच्ुजिन- 
स्याकामहतस्य सर्वेषणाविनिमुंक्तस्याऽऽत्मभूतं विषयविषायिसंवबन्धापिविमुक्तं 
स्वाभाविकं नित्यमविभक्तं परमानन्दं ब्रह्मणो विद्धान्यथोक्तेन विधिना न बिभेति 
कुतश्चन निमित्ताभावात्‌-न हि तस्माद्धिदुषोऽन्यद्वस्त्वन्तरमस्ति भिक, यतो 
विपेति 1 अविद्यया "यदा,..उदरमन्तरं कुस्ते । अथ तस्य भयं भवति" इति 
युक्तम्‌, धिदुषश्चाविद्याकायैस्य, तैसिरिकटृषद्धितीयचन्द्रवत्‌, नाराद्धयनिमि- 
तस्य "न बिभेति कुतश्चन इति युज्यते । मनोमये चोद्ाहतो भन्त्रो मनसो 
ब्ह्मविज्ञानसाधनत्वात्‌। तत्र ब्रहमत्वमध्यारोप्य, तत्स्तुत्यथं “न बिमेति कदाचन' 
इति भयमान्ं प्रतिषिद्धम्‌। इहाद्रैतविषये न बिभेति कुतश्चन' इति भयनिभित्त- 
मेव प्रतिषिभ्यते । 
नत्विति भयनिमित्तं साष्वकरणं पापक्रिया च । नेवम्‌ । कथमिति? उच्यते- 
८ १ ) यानि छेके द्रव्युणाचनात्मविषयेग्रेतरबुदधिसिद्धयथं पयेक्तभिः-दधवचांति प्रयुक्तानि प्रतीयन्ते 
तानि सायं परवृतिदेतोः पवदेव ब्रह्मणो मिवरन्त; तस्मान्न ब्रह्मणो वाच्यता । (२) तै. उ. २. ४. 
(३) नलु * यतो वाचो निवतन्ते । अप्रप्य मनसा सद ` इत्यादुपदेशः कथं भप्रमिथ्यात्वपयनसायी 
उ्यते-इदं हि प्रकरणमध्यारोपपवादाभ्यां निष्पपषव्रहमखरूपनिष्कषोयैम्‌ । तथादि--उपक्रमे तात्‌ 
‹ जहविदप्रोति परम्‌ * इति बह्विदस्तद्वापत्तिलक्षणा युक्तिल्क। ! न तु तस्ा्िरक्षणा । बृहदारण्यके 








११६ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ ब्रह्म-आनन्द-वही 


यपापयोः एत ह वावं न त॒पति । किमहर्साधु 
स्प्ठुतम्‌ नाकरवम्‌ । किमहं पाषभ९रि । 

एतं यथोक्तमेवंविदम्‌; इ चवेत्यवधारणार्थो । न^तपति नोद्धेजयति--न सं- 
तापयति । कथं पुनः साध्वकरणे पापञ्छिया च न तपति ? इत्युच्यते-किं 
कस्मात्साधु शोभनं कमे नाकरवं न इतवानस्मीति पञ्चात्संतापो मवत्यासन्ने 


५ सु यदाह-असतो मा सद्वमयेति मृत्युवसत्‌ सदमूते श्त्योमौऽमतं गमय अग्रत मा र्वितयेवेतदाइ ” 
( १. ३. २८. ) इति सच्छब्दोक्तामृतावाप््यर्थलक्वतरमरतामेदाभिन्धक्तयथतया व्याख्याततेन सुक्तिफल्भरतिपा- 
दकेषु वाक्येषु जह्यावाप्िश्रवणानां तद्धावापत्तिपरत्वाबगमात्‌ ! ततश्च किं तद्रह्म ? कदरो तद्रेदनम्‌ ए कीटसी 
च तद्धावापत्तेः पुरूषाथलूपता {--इत्याक्रङ्कायां «८ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म > इति खरूपरक्षणेन ब्रह्मस्वरूपं 
निधौ्यं ““येो वेद निहिते गुहायाम्‌” इति त्रह्म जीवस्वरूपेण हृदयगुहायां निवेशितं. जीवाभिन्नं धयो वेद” इतिः 
तदेदनं जीवाभेदविषयमिति पद्यं तत्फल्भूतयास्तद्धावापततरमिरतिशयपुरषार्थरूपत्वं ‹ सोऽश्लुते ` इत्यादिना 
प्रतिपादितम्‌ । तन ‹ बरह्मणा ` इतीरत्थभूतलक्षणे तृतीया । तथाच ब्रह्मणा रूपेण सवान्‌ कामान्‌ सहं युगपद- 
द्नुते । सरवैषामेदिकारुष्मिकाणां काम्यानां ऋमिकेणोपमोगेन याव्त्युखममिव्यङ्कयं तत्स बह्मसुखा्बुधिकणि- 
कृ्यमानमिति क्थियाऽमिव्यक्तं निरतियं बह्मखाम्बुधिमतुभवतीत्र्थः । न ते ब्रह्मणा सह सर्वान्‌ विषय्‌- 
भोगानस्लते-इत्यथः 1 ह्णा सह~इत्यन्वयस्य “सोऽदुते सर्वान्‌ कामान्‌ सह › इत्यवाध्ययनसंप्रदायप्रा्- 
वाक्यदिच्छेदाननुयुणत्वात्‌ । सदाथंत॒तीयया बरह्मणः करमसादिये कार्वुसादित्ये ग॒ विवक्षिते मेोग्यविषयापे- 
क्षया मोक्तृजीवपेक्षया वा अप्राधान्यप्रसङ्गेन ब्रह्मणो निरति्चयपुरुषाधंलस्य निरतिरायेश्व्यस्य वा ॒हानिप्रस- 
्गाच । न च श्सवीन्‌ कामान्‌" इत्यस्य स्वारस्यहानिः ¦ न ह्यस्मन्मते काम्ब्दः चक््वन्दनादिविषयवाची । 
्षितु तत्संबन्धाभिव्यङ्गयूसुखवाची, तेषामेव निरुपाधिककामनाविषयत्वात्‌ । ततश्च त्रैकाशिकानि सवजीवानु- 
भान्यानि सर्वाण्यपि सुखानि ‹ एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रारुपजीवन्ति ` इति शतेनह्मानन्दसि- 
िन्दुकाणिका इति ब्रह्मरूपेण स्वाभित्नमखण्डानन्दमनुभवता सवीण्यपि सुखान्धनभूयन्त एव । यथा वषु 
जीविषु भृगोलकादेरेक॑कं मागे पदयत्सु सवटग्विषया मागाः सवेजञेनानुमूयन्ते--इति न कापि स्वारस्यद्ानिः । 
प्रयत ‹ सर्वान्‌ कामान्‌ ` इत्यस्यासंकोचलामादत्ैव स्वारस्यम्‌ । तस्मात्‌ " सोऽनुते ° इत्यादेर्यथोक्त एवार्थः । 
अत्‌ एवेोपवृितं ब्रह्मगीताष--“* सोऽदनुते सकछान्‌ कामानक्रमेण सुरषभाः । विदितव्रह्मरूपेण जीवन्मुक्तो. 
न संशयः" ॥ ( २. २२. ) इति । ततश्च ह्मणो लक्षणे अनन्त्यान्तर्गतं वस्तुपरिच्छिदराहित्यं भरपचस्य 
प्रतिपन्नोपाथिगतनिषेषप्रतियोगिललक्षणमिथ्यालेनोपपादयितुम्‌ “ आत्मन भकारः > इत्यादिना ह्मणो जग- 
दुपादानलव्रतिपादनेन तत्र प्रपाध्यारोपः कृतः । ब्रह्मण उपादानलेऽपि सृष्टिनियमनादिषु निमित्तान्तरस- 
दे वस्तुपरिच्छेदः स्यादिति रङ्कानिरासाथम्‌ “ सोऽकामयत 2” इति पुष्टौ, ^“ भीषाऽस्माद्वातः पवते ” 
इति नियमनेऽपि निमिच्ततवं दितम्‌ । एवमारोपितस्य प्रपचस्य ““ यतो वाचो निवतन्ते ‡ इत्यत्रापवाद 
उपदिदयते । अस्य हि मन्तस्यायमर्थः--यथा शुक्तिकायामध्यस्तरजततादात्म्योदेलितया प्रवृत्तेन मन्ता 
सह “ रजतमिदम्‌ ` इति व्यवदारः शुक्तितपयन्तमग्राप्य, ° नेदं रजतम्‌ ‡ इति बधे सति निवतते, एवं 
नह्मण्यध्यस्तप्रपचतादास्म्योेलितया ° सन्‌ घटः, सनू पटः * इत्यदिप्रकारेण प्रदत्तेनान्तःकरणेन सह्‌ त्तर 
मवृत्ता वटपटादिराब्दा भप्यखण्डाकारपयन्तमप्रप्य “ अथात अदिशो नेति नेति ‡ (च.३, २, ३, ६. ) 
इत्यदिशभरातवाधे सति निवन्त--उति । न्यायरक्षामणिः १, १. १७ 





९ नवमोऽनुवाकः | नहाविदो न पुष््पापल्पः . ११७ 
भासमानस्य स य एवं विदानेते आत्मांन\सपरणते । 


चपनिवाकलम्‌ उभे हँवेष एते आत्मांन९ सएते । 
य प्व वेद} 
इत्युपनिषत्‌ । 
इति छृष्णयजुर्वेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द्‌--बल्ल्यां 
# नवमोऽलुवाकः ॥ ९ ॥ 


मरणकाडे; तथा किं कस्मात्यापं प्रतिषिद्धं कमीकरवं कृतवानस्मीति च 
नरकपतनादिष्ुःखमयात्तापो भवति; ते पते साध्वकरणपापक्रिये एवमेनं न 
तपतः, यथाऽविद्धांसं तपतः । 

कस्मात्युनर्विद्वासं न तपतः ? इत्युच्यते- 

स य एवंविद्धान्‌ एते साध्वसाधुनी तापहेतु इत्यात्मानं स्पृणुते प्रणियाकत, 
बरयति वा--परमात्मभावेनोमे पर्यतीत्यथः। 

उमे पुण्यपापे हि यस्मादेवमेष विद्वानेते आत्मानमात्मरूपेणेव पुण्यपापे स्वेन 


साध्वसाधुनी स्तः, प्रकाक्षेते चेति सतप्रकाश्मात्रमात्मतच्वमेव तयोः स्वरूपं, ततोऽति- 
रिक्तं यदथौनथहेतुत्वं नामविशेषरूपं, तत्त वस्तु-सतप्रकाच्यान्यत्मेनास्त्वात्‌, अप्रकाश्रमान- 
स्वाचेत्यभिपरत्याऽऽह-- स्वेन विशेषरूपेणेति । आत्मेवािवया साध्वस्ाधुरूरेण प्रतिपन्न 
आसीच्‌; इदानीं तु ये साध्वसाधुनी ममाथोनथदेत्‌ बभूवतुः, ते आत्मेव, इति श्चानेन स्वात्मानं 
साध्वसाघुकरणेन प्रीणयत्येव-लोकदृ्या निष्पदमाने पुण्वपापे दृषा हष्यति विदान 
बिभेतीयाह--स्प्णुत एवति । 

इति शीमत्परम्ईसपरिबाजकाचार्वश्रीमच्छुद्धानन्दशिष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरीयोप- 
निषच्छांकरभाष्यतिप्पणे ब्रह्म-अनन्द--चर्स्यां नवमोऽनुवाकः ॥ ९ ॥ 


( १) आत्मनो बलस्य स्वामाविकल्वाद्‌ रं विचाज्तेन वलेन !--इत्यादंक्याऽऽदह-अविचेति । आत्म 
बलस्य सखाभाविकलेऽप्यविवाकृतदौल्यस्य विद्यया निरसने स्वाभाविकबलाभिव्यक्तेः, वियाधीनमस्य बल- 
मभीष्टमित्यथैः । 

साैमोमादिकानन्दाः पुरवभ्यः रातप्तख्यया । परेऽधिकास्ते तु लेशा जह्मानन्दस्य बिन्दुवत्‌ ॥ १३९ ॥ 
तस्मादियत्ता नैवास्य वत ध्यातुं च इक्यते ¦ न बिभेत्येव तं विद्वान्‌ जन्महेतोः कुतश्चन ॥ १४० ॥ 
पुण्यं नाकरवं कस्मात्‌ पापं तु कृतवान्‌ कुतः । इति चिन्ता तपत्यजञं ज्ञानिनं न तपत्यसौ ॥ १४१ ॥ 
तापकत्वं तयोवदराुपेक्षानुष्ठितं तयोः । अत्मानं प्रीणयन्‌ बेधात्ुदृढीङुरुते धियम्‌ ।॥ १४२ ॥ 


-तेत्तिरीयकविचाप्रकादाः 


१८६ ` तैत्तिरीयोपनिषत्‌ ` .. [ ब्रह्म-नन्द्-वही 
` ( कन्तिः) ` 
सह नाववतु । सह शौ सन्त । सह वीर्यं करवावह । 
तेजसि जावधीतमस्त॒ मा विद्विषावहै । 
ॐ शान्ति; सान्ति; शान्तिः । 
हरिः ॐ | 
इति श्रीङृष्णयञुेदीयतैततिरीयोपनिषादि ब्रह -आनन्द्‌- वी 

समाप्ना ॥ २॥ 


यथोक्तमद्धेत- 


विकतेषरूपेण शून्ये त्वाऽऽ त्मानं स्पृणुत एव । कः१ य एवं वेद यथोक्तमदेत- 
मानन्दं ब्रह्म वेद्‌, तस्याऽऽत्मभाकेन दे पुण्यपापे निर्व अतापके जन्मान्त- 
शरस्थके न भवतः। | | 
दतीयमेवं यथो्ताऽस्यां वल्यां ब्रह्मविद्योपनिषत्‌ सवीभ्यो विचयाभ्यः परमरह- 
स्यं दर्दितमित्यथैः । परं श्रेयो ऽस्यां निषण्णमिति । | 
इति श्रीमत्परमर्हंसपरितराजकाचा्येगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्नीमच्छंकरभगवतः, 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि ब्रह्म--आनन्द--वटीभाष्ये नवमोऽहवाकः ॥ ९ ॥ 


ब्रह्मविदिदमेकवि < शतिरन्नादश्नरसमया्पाणो व्यानो ऽपान आकाराः प्रथिवी 
पुच्छ ९षडाषि ९ रातिः प्राणं यजऋक्सामा ऽऽदेद्ोऽथवोङ्गिरसः पुच्छं द्वावि ९श- 
तितः श्वद्धतें \ सत्यं योगो महो ददा विज्ञानं प्रियं मोदः प्रमोद आनन्दो बयं 
पुच्छं द्ावि ^ शतिरसन्नेवाष्ठावि ९ सतिरसत्षोडदा भीषाऽस्मादेकपश्चादा्यलः 
कुतथ्चैकादशा ॥ 
इति भमत्परमहंसपरितराजकाचायेश्रीमद्ौविन्दभगवत्पूज्यपादकिष्यश्ंकरभगवतः 
कृतो तेत्तिरीयोपनिषद्वाष्येब्रह्म--आनन्द-- वद्टी त्ामाप्ना ॥ २॥ 


इति श्रीमदरमदहंसपरित्राजकाचारय्रीमच्छुद्धानन्दभगवतपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञानविर चिते तेत्तिरीयोष- 
निषच्छकरभाष्यरिप्यणे ब्रह्--आनन्द--वही समाप्ता ॥ २॥ | 


भय श्मुव्ही ^ 
( ब्रह्ममीमांसा ) 
अथ प्रथमोऽनुवाकः 
हरि; ॐ | 
सह नाववतु । सह नौं नङ्क । 
प्रह वीय करवावहै । तेजसि 
नावधीतमस्त॒ मा विद्विषा । 
ॐ श्रान्तिः श्रान्तः शानिः | 


(पुराणम्‌-उपाख्यनम्‌ ) 
` भवै बरुणिः । वरणं पितरमुपससार । 


` ` अधीहि भगवो ब्रह्मेति 


सत्यं ज्ञानमनन्तं बरह्म ` आकादादिकायेमन्नमयान्तं सषा तदेवायुपरविष्ं 

आनन्दवहीतात्यरषः विशोषवदिवोपरभ्यमानं यस्मात्‌, तस्मात्‌ सवेकायेविट- 
क्षणमदद्यादिधमकमेवा ऽ५नन्दं, तदेवाहमिति विजानीयात्‌-अनुषवेश्चस्य 
तदर्थत्वात्‌; वस्थैवं विजानतः शुभाद्युमे क्मणी जन्मान्तरारम्भके न मवतः, 
इत्येवमानन्दवस्ट्यां विवक्षितो ऽथः । परिसमाप्ता च ब्रह्मविद्या । 

यतः परं ब्रह्मविद्यासाधनं तपो वक्तव्यम्‌, अन्नादिविषयाणि चोपासनं्- - 
्रखवटीपदत्तिनिमित्तम्‌ युक्तानि, इत्यत इदमारभ्यते- 

आख्यायिका विद्यास्तुतये, प्रियाय पुराय पिषोक्तेति-भृगारयै वारुणिः 
गुरूपसप्त वे ' शब्दः प्रसिद्धानुस्मारकः-भृगुरित्येवनामा प्रसिद्धो 
१लस्मायेते । बारुणिवैरुणस्यापत्यं वारुणिरं रुणं पितर ब्रह्म विजिक्षा< सुप 
ससारोपगतवान्‌--अधीहि भगवो ब्रहयेत्यनेन मन््ेणं । अधीहि-अध्यापय- 
कथयेत्यथैः । स च पिता षिधिवदुपसन्नाय तस्मे पुत्रायेतदधचनं भरोवाच-- 
जहमेषदारम्‌-- “ अन्न प्राणं चश्च; शरोत्रं मनो वाचम्‌ ” इति । ˆ अन्नं ' शरीरे, 
अन्तरङ्गसाथनम्‌ तदभ्यन्तरं च ^ प्राणं ` अत्तारम्‌, अनन्तरमुपरन्धिंसाध 
नानि 'चश्यु, रों, मनः, वाचम्‌-इत्येतानि ब्रह्मोपटब्धो ाराप्युक्तवान्‌ । 

(१) ब्र, घु२. ४; २२-२४. (२) १ नुस्मय॑% इति पाठः । | 


१२० तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [श्याम 


तस्मा एतत्योंगच । अन्नं भराणं चघुः भेत 

मनो वाचमिति } | 

तहोवाच । यतो चा इमानि मूर्तानि जारन्ते । 

येन जातानि जीवन्ति । यत्मर्यन्त्यमिर्सवि 

शन्ति । तद्वनिङ्गाखस्व । तद्रह्येति । 
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा । 


इति कृष्णयजर्ैदीयतेत्तिरीयोपनिषदि भृगुवर्स्यां 
प्रथमोऽनुवाकः ।। १ ॥ ` 


उक्त्वा च द्वारभूतान्येवान्यन्नादीनि, तं भगं होवाच ब्रह्मणो रक्षणम्‌ । कि 
तत्‌? यतो यस्माद्वा इमानि बह्यादीनि स्तस्बपयैन्तानि भूतानि जायन्ते, येन 
जातानि जीवन्ति-प्राणान्धारयन्ति--वधेन्ते, विनाद्कारे च यत्पयन्ति 
अन्प्रागादीनि यद्ह्य प्रतिगच्छन्ति, अभिर्ंबिश्चन्ति तादात्म्यमेव प्रति- 
उपलक्षकाणि पद्यन्ते, उत्पत्तिस्थितिर्यकारेषु यदात्मतां न जहति भूतानि, 
तद्भह्य विजिज्ञासस्व विषेण ज्ञातुमिच्छस्व-यदेवंरुक्षणं जहा तदन्नादिद्धा- 
जहाजज्ञासा रेण प्रतिपद्यस्वेत्यथैः 1 श्चत्यन्तरं च-“ प्राणस्य भाणमुत 
चध्चुषञ्धश्चरत शरोजस्य ओच्रमन्नस्यान्नं मनसो ये मनो षिदुः, ते निचिक्युह् 
` पुराणमग्यम्‌ ” इति जह्मोपलन्धो द्वाराण्येतानीति ददैयति। ` 
ख श्रुगुबरह्योपरन्धिद्धाराणि ब्रह्मलक्षणं च श्रुत्वा पितुः, तपो ` जह्योपटन्धि- 
मायाम तपः साधनत्वेनातप्यत तप्तवान्‌ । कुतः पुनरजपदिष्टस्यैव तपसः 
साधकतमम्‌ साधनत्व्रतिपत्ति गोः ? सावरोषोक्तः--भन्नादि बरह्मणः भ्रति- 
टृत्तादवादपूवेकखत्तरवष्टीसंबन्धमाद-- सत्यं ज्ञानमित्यादिना । तप इतिं । पदाथवि- 
वरणं वाक्याथेज्ञानसाघनमित्यथः। अधीहीति । अध्यापय स्मारय । ^ इक्स्मरणे" इति 
थाठुपागदिद्यथः । बरह्मोपरग्धाविति । लक्ष्यत्वमथेविवेकाय द्वाराणि-शषरीरादिचेशन्यथा- 
 उपपच्या हि साक्िभूतधिद्धादु्विविच्यत इति भावः। | | 
न केवरं" त्वमथेन्ञानं वाक्याथेज्ञानसाधनं, कितु तत्यदा्थजञानमपीत्यभिप्रेत्य तद॑स्य 
` (२)ब सु. १.१ १४. (२) बु. उ, ४.४. १८. (२) णजं लष्यल० पटः 1, ,. ; ¦ › ` 


# 1 


अथ दितीयोऽसुवाकः 
( अह्यविक्षाने प्रथमपयोयः ) 
मत्स नालम्‌ अन्नं ब्रहेति व्य॑नानात्‌ । अन्नादधधेव खलिि- 
मानि भूतीनि जायन्ते । अन्नेन जातानि 
जीवन्ति । अन्नं भयन्त्यमिस्विश्न्तीति । 


पत्तो द्वारं, लक्षणं च ˆ यतो वा इमानि ' इत्यादयुरवान्‌, सावरोषं हि तत्‌- ` 
साश्ाद्ह्यणो.ऽनिरदैशात्‌; अन्यथा हि स्वरूपेणेव ब्रह्म ॒निरदैटव्यं जिज्ञासवे 
 पुत्राय--इवमित्थंरूपं बरह्म-इति । न चेवं निरदिशत्‌ । किं तहिं ? साच- 
शोषमेवोतय।- । अतोऽवगस्यते नुनं साधनान्तरमप्यपेश्चते पिता जह्याधिज्ञानं 
रतीति । तपोविशेषपतिपत्तिस्तु सवेसाधकतमत्वात्‌,+-सर्वैषां हि नियतसा- 
ध्यविषयाणां साधनानां तप एव साधकतमं साधनमिति हि प्रसिद्धः खोके । 
तस्मातिपघ्ना ऽचुपदिष्टमपि ब्रह्मविज्ञानसाधनत्वेन तपः भतिपेदे भ्रगुः ! तञ्च 
तपो बाह्यान्तःकरणसमाधानं-तद्भधारकत्वाद्रह्यप्रतिपन्तेः। 
“ मनसश्चन्द्रियाणां च हेकाग्व्यं परमं तपः। 
तज्ज्यायः स्ैधरमेभ्यः स धमः पर उच्यते ॥ ” इति स्मृतेः। 
सं च तपस्तप्त्वा- . | 
इति श्रीमत्परमहंसपरिवाजकाचायेगोविन्दभगवत्पुज्यपादश्षिष्यभीमच्छंकरभगवतः 
कृतौ तैत्तिरीयोपनिषदि शयुवष्टीभाष्ये प्रथमोऽ्ठवाकः ॥ १॥ . 


यन्न ब्रह्मेति व्यजानादिज्ञातवान्‌ । तद्धि यथोक्तरक्षणोपेतम्‌ । कथप्र ? 
“अन्नाद्धथेव खल्विमानि भूताति जायन्ते ! अन्नेन जातानि जीवन्ति । अन्न प्रय- 
न्त्यभिसंविरान्तीति“ तस्मादयक्तमन्नस्य ब्रह्मत्वमित्यभिप्रायः। 
ज्षणो रक्षणखक्तवानित्यथः । सावरोषोक्तेरिति । पदाथोपरक्षणस्येवाभिषानात्‌ , असण्ड- 
वाक्ष्याथंस्याप्रातिपादनाद्‌, पदाथेभेदक्लानाच पुरुषाथोसंभवात्त्‌, -* उदरमन्तरं इर्ते 
इति निन्दित्वा; अतो वाकयाथांवगतिपयेन्तं तात्पयेण रक्ष्यपदाथविचारणमाटत्याऽद- 
शितवानित्यथः ॥ 


इति श्रीमत्मरम्सपरित्राजकाचायैशीमच्छुद्ानन्दरिष्यानन्दज्ञानविरक्ति ` तेश्निरीयोपनिष- 
चछांकरमाष्यरिप्पणे मूृगुवह्ययां अथमोऽनुवाकः.॥ १॥ 





.+ (२) मोक्षवमं २५०. ४; महा-भा.-३.२९०.२५ ~ | `" ˆ. 


१९२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ भृु-व्ही 


तदिद्हवाय॑ । पुर्यरेव वरणं पियुष॑ससार । 

अधीहि भगवो ब्रह्येतिं । त होवाच । 

तप॑सा जह्य विजिन्नासस्व । तपो ब्रह्मि । 

ख तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा । 

इति कृष्णययुर्वर्द टर द्ि्रोएनिषदि भगुवस्ल्यां 
द्वितीयोऽलुबाकः ॥ २ ॥ 


अथ तृतीयोऽनुवाकः 
( बहाविक्षाने दवितीयः पयायः ) 
पराणो ब्रह्मेति व्यजानात्‌ । प्राणाद्धचयेव खल्वि- 
भानि भूर्तानि जाधन्ते । प्राणेन जातानि 


सख एवं तपस्तप्त्वा, अन्नं ब्रहमति विज्ञाय रक्षणेनोपपत्त्या च, पुनरेव संदाय 
कार्यतक्रतत्य मापन्नो वरुणं पितरमुपससार-अधीहि भगवो बद्धेति 1 कः. 
अपरितोष पुनः सरायहतुरस्य < इत्युच्यत--अन्नं<५।८५। तद्‌ रन. । तप 
सः पुनःपुनरूपदेशाः साधनातिदहायत्वावधारणाथेः । यावद्कङ्मणो ठश्चणं निर- 
तप एव साषनम्‌ तेयं न भवतिः यावञ्च जिज्ञासा न निवतेते, तावत्तपण्वते 
साधनम्‌ । तपसैव बरह्म विजिन्ञासस्वेत्यशः । ऋज्वन्यत्‌ ॥ 
इति ओ्रीमत्परमहंसपरिनाजकाचायेगोविन्दभगत्पूज्यपादचिष्यशभीमच्छकरभग 
वतः कृतों तत्तिरीयोपानिषदि श्युवष्टीभाष्ये द्धि तीयोऽदवाकः ॥ २ ॥ 


ख च तपस्तत्त्थेि । तरदं पित्रोक्तं रक्षणं ? केदं रक्षणं वतेते ? परिपूर्णं भवती- 
त्येकागरेण चेत्ता पर्थारोच्य, ‹ अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌ ` अवते धुज्यत उपठस्यते सवैरितिः 
सवेप्रातेपत्तसाधारणं स्थुरुदेहकारणे भूतपञ्चकं विराटसं्कमन्रश््देनोच्यते, तस्य ॒स्थूके 
भौतिककारणत्वात्‌ । * यतो वा इमानि भूतानि › इतिकक्षणस्य तत्र योजयित शक्यत्वात्‌ ,. 
तद्धश्चेति प्रतिपत्रवानित्यथः ॥ 

इति भ्ीमत्यरमहसपरिनाजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दरिष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरयोपनिष- 
च्छकरमाष्यरिप्यणे .भ्गुवस्वयां दवितीयोऽसुवाकः ॥२॥ 
विराज उत्पततिदशनाच्तिस्खतिषु, लक्षणं तक्र पूरणं न. भवतीति पुनस्तपोऽतप्प्रत,. 


% चतुर्थोऽलुवाकः ] ज्ञ विकानंसाथरः ११९ 


जीवन्ति । पराणं॑भरयन्त्यभिसरिरन्तीति । 
तदवय । पुरेव वरणं पिर्तरमुष॑ससार । 
अधीहि भगवो बरहम । त शबाच । 
तर्षा ब्रह्मं विजिह्नासस्व । तपो ब्रह्मेति । 
स॒ तपांऽतप्यत । स. तप॑स्तप्त्वा । 
इति इष्णययुर्वेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि भृगावर्स्या 
तृतीयोऽनुवाकः ।। ३ ॥ । 
अथ चतुथोऽनुवाकः 
( ब्रह्मविज्ञाने तृतीयः पयोयः ) 
मनो ब्रह्मेति व्य॑नानात्‌ । मरम चैव खखि- 
मानि भूतानि जायन्ते । मनसा जातानि 
जीवन्ति । मनः भरयन्त्याभिसंषिंशन्तीति । 
द्वियं । पुनरेव परणं पितरमुपससार । 
अधीहि भगवो ब्ऋ्येतिं । तर होवाच । 
तपा ब्रह्म वि्ि्द्ध । तपो ब्रहयतिं। 
स तपांऽतप्यत्‌ । स त्प॑स्तप्वा । 
इति छृष्णययुवेदीयतेत्तिरीयोपनिषदि भृरावर्ल्या 
चतुांऽलुवाकः ॥ ४ ॥ 
विश्वाय च तत्कारणं क्रियाशििविरिष्टतया श्राणशंग्दरकषयं हिरण्यगर्भं संकल्पाध्यवतसायश्च- 
किविशिषटतया च मनोविज्ञानवाग्दक्ष्यम्‌ ‹ बरह्ोति व्यजानात्‌ ° । 
इति भीमत्यरमहसपरिाजकानार्यश्ीमच्छुद्नन्ददचिष्यानन्दज्चानविरचिते तेत्तिरीयोपनि- 
षच्छाकिरमाष्यटिप्पणे भगुवहयां तृतीयोऽनुवाकः ॥ ३ ॥ 


८१ ) ०विषृयत० इति प्राठः । (२ ) ° शक्तिर° इति पाठः। 


१२४ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ ` [गृही 


अथ पञ्चमोऽनुवाकः ,, 

( बह्यविज्ञाने चतुर्थः पयौयः ) ` 
चिन्नानं ब्रह्मेति व्य॑नानात्‌ ` । विद्नानादयेव 
खल्विमानि भर्तानि जायन्ते । चतिननानेन 

, जातानि जीवन्ति । विगानं प्रयन्त्यभिर्त 
विशन्तीति । 

` तद्विहाय । पुनरेव वरुणं पितरयुपसप्ार । 

अधीहि भगगो ब्रह्मेति । त\ होवाच । तप॑सा 

ब्रह्य विजित्नासस्व । तपो बरह्येतिं । स तपांऽत- 


ष्यत्‌ | स तप॑स्तप्त्वा | 
इति छृष्णयजुरवेदीयतेत्तिरीयोपनिषदि भृगुवस्स्यां 
पच्चमोऽतुवाकः | ५॥ ` 


अथ षष्टोऽनुवाकः 
८ ब्रह्मविज्ञाने पञ्चमः पयायः ) 

आनन्दो व्रद्येति व्यजानात्‌ । आनन्दा- 

दयेव खद्विमानि मतानि जायन्ते । 

आनन्देन जातानि नीव॑न्ति । आनन्दं 

परयन्त्यविसंविशन्तीत | 

एवं तपसा विदुद्धात्मा प्राणादिषु साकल्येन ब्रह्मलक्षणमचदय- , परनि; 

तपसैव आत्मवक्षणम्‌। दानैरन्तरयुप्रविद्य, अन्तरतममानन्दं बह्म विज्ञातवांस्वप 
सैव साघनेन भृगुः । तस्माडह्य विजिन्ञासुना बाह्यान्ःकरणसमाधानलश्चणं 
परमं तपःसाधनमनुष्यमिति प्रकरणाथंः। 


तस्यापि कायेत्वाक्षणं परिपूर्णं न भवतीति विचारय, तत्कारणं स्वततिन्त्येण निधित्य- 


जक 


( १) °तन््ये सति स० इति पाटः । 


& षष्ठोऽखुवाकः | ब्रह्मविदा , १२५ 
आनन्द आसा सेषा भागवी वारूभी विद्या । पमे व्यप्र 

न्पतिष्टिता | 

संय एवं वेद परतितिष्ति। 


अन्नैवानन्नादो भवति । यहहान्भवति ।. प्रजया 
पटुमित्रहमवचेसेन । पदहान्डीत्य ॥ 
इति ष्णयजुवेदीयतैत्तिरीयोपनिषदि भगुवस्ल्यां 


षष्ठोऽनुवाकः ॥! ६ ॥ 

अघुनाऽऽख्यायिकोमुपसंहत्य, श्रुतिः स्वेन वचनेनाऽऽख्यायिकानिन्रत्तमथे- 
माचष्- 

सेषा भागवी भ्गुणा विदिता वरुणेन परोक्ता वारुणी विद्या परमे व्योमन्ह- 
विबोपसंडहारः । द्याकाहागुहायां परम आनन्देऽदेते प्रतिष्ठिता परिसमाघ्ा- 
ऽन्नमयादात्मनोऽधिप्रदृत्ता । य एवमन्योऽपि तपसेव साधनेननेनेव क्रमे 
किाफलम्‌ । णायुप्रविदयाःऽऽनन्दं ब्रह्य वेद, स एवं विद्याप्रतिष्ठानात्परति- 
तिष्वत्यानन्दे परमे ब्रह्मणि--ब्रह्मव भवतीत्यथः 

दषं च फं तस्योच्यते- 

अन्नवान्प्रभूतमन्नमस्य विद्यत इत्यन्नवान्‌-सत्तामात्रेण तु सवां ह्यन्नवा- 
निति विद्याया विषो न स्यात्‌ । एवमन्नमत्तीत्यन्नादः, दीप्तान्निभेवतीत्यथेः। 


सवैः प्राथ्यंमानतयाऽऽनन्दश्षब्दवाच्यं मायाविरिष्टं बहति विन्ञाय-वििषटस्याविश्चि्टन्तरात्म- 
त्वाहपपत्तेः कारणत्वोषलक्षिते विद्यदानन्दं अद्नेति विन्ञातवानिदथः । 
परभूतत्वविश्चेषणमश्रतं कथं निक्षिप्यते †? इत्याशङ्कयाऽह-सत्तामाञेणेति । अर्त 


( १ ) ०यिकातोऽपसृत्य--इति पाठः । (२ ) निव््य° पाठः । ( २) नतु अत्राकप्राणमनोविज्ञानक्रमेण 
प्मपयीयान्नातस्यानन्दस्य प्रथान्यददीनात्‌ आनन्दवह्यामप्यन्नमयादिङक्रमेण प्वमपयायाम्नातस्यानन्दमयस्य 
धान्येन प्रतिपा स्थानसाम्यादनुमीयते--इति चेत्‌; न । कामाच नादुमानपिक्षा-( ज. सः १. १ 
१८. ) काम्यते-इति कामः, भ्रगुवह्याञ्नात आनन्दः । एतदष्टान्तमवलम्ब्यानन्दमयस्य प्राधान्यानुमनेऽपि 
भ्या न कायौ । इद श्रुयेवानम्दस्य उपक्रान्तव्रह्मरूपतायाः ^ आनन्दो ब्रह्मेति ग्यजानात्‌. "‡ इति 
साक्षात्‌, “ आनन्दाद्धयेव खलिमानि भूतानि जायन्ते 2 इति लक्षणमुखेन च पयेवसानप्रतिपादनात्‌ ॥ 
तदनन्तरमन्यस्य प्रतिपादनाभावात्‌ । तन तु आनन्दमथप्रतिपादनानन्तरं बरह्मप्रतिणदनत्‌ तत्रव पूर्वत्र 
दभस्रमन्यय इति केषम्धसद्धावात्‌ । (४ ) अक्नस० इति पाठः। 


` अथ सुसपोऽ्डुकाकः 
( अन्नब्रह्मोपासकनेतम्‌ ) 
अनं न निन्यात्र । तदूवरतस्‌ । 
भाणो का अन्न॑म्‌ । प्ररीरमना- 
दम्‌ । भणे शरीरं मतिम्‌ । 
श्षरीरि पाणः परतिष्ठितः. । तदे- 
तद्नषनने भ्रतिषटितमू । 


-महान्भवति ! केन भहच्म्‌ १ इत्यत आह-प्रजया पु्ादिना पशुभिम॑बाश्वा- 
दिमि्बह्यवच॑सेन शमद मन्ानादिनिमित्तेन तेजसा, महान्भवति कीत्यौ स्यात्या 
दः (चा र(नाभत्तया ॥ 

हति श्रीमत्परमर्स्षपरिाजकाचायेगोविन्दभगव्त्पूज्यपादकषिष्यशीमच्छंकरभगवतः 

कृतो तेत्तिरीयोपनिषदिं थगुवष्टीमाष्ये षशेऽदवाकः ॥ ६ ॥ 

किंच, अन्नेन द्वारभूतेन बरह्म विज्ञातं यस्मात्‌, तस्माहुरुमिवान्नं न निन्धात्‌ 
तद स्येवं ब्रह्मविदो बतमुपदिदयते। बतोपदेशोऽननस्तुतये, स्त॒तिभाक््वं चा- 
प्रस्य ब्रह्मोपरुब्ध्यु पायत्वात्‌ । 

प्राणो वा अन्नम्‌, शरीरान्तभावासाणस्य--यद्यस्यान्तः प्रतिष्ठितं भवतति, 
सत्तामात्रे विवक्षिते, चघूकरादिरपि श्रीरस्थिलाक्िप्ातेननिवानिति विचायाः फटविकषेषो 
नोः स्यात्‌, अतस्तद्भलात्परश्ूतत्वविकेषणं निक्षिपमित्यथेः । एतच दृ्टफठं ब्रह्मविदो जीव- 
न्छरस्याप्यविदाटेशवशद्ैताभासं पर्थतो नाठपपन्नम्‌; यस्येश्वरस्याठग्रहादविदुषामप्यकषा- 
दिसष्टदधिदुदयते, कित तदात्मतत्वं साक्षाददधभवतामिति ॥ 

इति श्रीमत्परमदहैसपरिवाजकाचारयश्रीमच्छुद्धानन्दरिष्यानन्दन्ञानिरात्ैते तैत्तिरोयोपनि- 
षच्छांकरमाष्यटिप्पणे भृयुबल्स्यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ £ ॥ 

अत्तमपकृष्टं प्रापतं न निन्यात्‌-“ यदृच्छग्रा चोपपत्रमयच्छ्ठञ्चतव रम्‌ ” इत्युक्तत्वात्‌, । 
ब्रह्मविदो नियमाभिधानं साधकस्याव॒ष्ठानाथेम्‌ । 

एवं वक्याथे्नने रक्ष्यपदा्थादसंधानं उद्यं साधनं, तत्फलं चोपसंहत्य, अधुना विचा- . 





( १ ) ०सप्रचा~--पाठः । (२) १ 


८ अष्टमोऽतुवाकः | ` ` उशषखना † १२७ 
स. य एतदन्नमन्ने परतिषटितं वेद मरित 
ति । अक्नैवानन्नादो भवति .। गहान्भ॑वति 
भनयां पदाभनेह्यव रे । परहान्मीत्यो । 


इति कृष्णयलुर्वेदीयतेत्तिरीयोपनिषदि भुगवस्ल्यां 
` ˆ ` ` सपनमोऽ्तुवाकः ॥ ७ ॥ । 
अथाष्टभोऽनुवाकः 
+ ( सन्नब्रह्मोपासकत्रेतम्‌ ) 


अन्नं न परिचक्षीत । तद््तम्‌ । 


तत्तस्यान्नं भवतीति । शरीरे च प्राणः परतिष्ठितः, तस्माल्याणोऽन्नं, शरीरभन्ना- 
दम्‌। तथा शरीरमप्यश्े, प्राणोऽन्नाद्‌ः; कस्मात्‌ १ प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्‌-- 
तन्निमित्तत्वाच्छरीरस्थितेः । तस्मात्तदेतदुभयं शरीरं प्ाण्ान्नमन्नादश्च । 
येनान्योन्यस्मिन्प्रतिष्ठितं, तेनान्नम्‌; यनान्योन्यस्य प्रतिष्ठा तेनान्नाद्‌ः । तस्मा- 
लाणः शारीरं चोभयमन्नमन्नादं च । 

स य एवमेतदन्नमन्ने पतिष्टितं वेद प्रतितिष्ठत्यन्नान्नादात्मनेव । किच, अन्न- 
चानन्नादो भवतीत्यादि पूवेवत्‌ । . 

इति श्रीमत्परमहंसपरित्राजक्षाचायैगोविन्दमगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छंकरभगवतः 

कृतौ तैत्तिरीयोपनिषदि भृगुव्टी भाष्ये सघ्तमोऽदवाकः ॥ ७ ॥ 


अन्नं न परिचक्षोत न परिहरेत्‌ । तद्रतं पुवैवर्स्ुत्यथम्‌-तदेवे शभाञ्चम- 
कल्पनयाऽपरिह्माणं--अपरिषहियमाणं स्तुते मदीकृतमन्नं स्यात्‌। एवं यथो- 


रासम्थस्य मन्दाधिकारिणोऽतात्रादरूपेण प्राणादुपासनं गोण साधनं विपत्त-प्राणो 
चा अन्नमिलयादिना। 


इति शरीमलरमहंघपरराजकाचारय्रीमच्छुद्धानन्दरिष्यानन्दज्ञानविरचिते तेत्तिरीयोप- 
निषच्छांकरमाष्यिप्पणे भ्रयुवह्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 





षद तैत्तिरीयोपनिषत्‌  -श्छिच्छी 


आषो.वा न्न । ज्योक्ििङादम्‌ ।. अप्सु 

ज्योतिः भतिष्ठितम्‌ । ज्योतिष्यापः परतिष्ठिताः । 

तदेतदन्गमनने प्रतिष्ठितम्‌ । ` ` 

स य एतदज्नयन्ने प्रतिष्ठितं बे परतितिष्ठति । 

अन्न॑वानन्नादो भवति । पहान्भवति प्रजया 

पञुमिंनेह्यवचेसेन । महान्फीत्यो ॥ 

इति ङष्णयजु्वेदीगरतेत्तिरीयोनिषदि भृगुवस्त्या- 
म्टमोऽलुबाकः ॥। ८ ॥ 

्तसुत्तरेष्वपि आपो वा अन्नमित्यादिषु योजयेत्‌ 1 अप्छु ज्योतिरिति अन्न्योति- 
पोरम्नान्नादगुणत्वेनोपासकस्यान्नस्य बहुकरणं तम्‌ । 


इति श्रीमत्परमर्दसपरिताजकाचायैगोविन्दभगवत्पुज्यपादशिष्यभीमच्छंकरभगवतः 
कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि शगुवहटथामष्टमोऽदवाकः ॥ < ॥ | 





अथ नवमोऽनुवाकः 

( अन्नब्रह्मोपासकवतम्‌ ) 
अन्नं बहु ईरवीत । त्त्त्‌ । 
पृथिवी बा अरम्‌ । आकाशोऽन्नादः । प्रथि- 
व्यापकाः भरतिषटितः । आआक्रारे पथिवी परति- 
षिता । तदेतदन्नमन्ने पतिंषटितम्‌ । 
सय एतदन्नमन्ने प्रतिष्टित वेद भतितिष्ति । 
अन्नवानन्नादो भ॑वति । महान्भवति प्रनयं 
पटुभिंत्रह्मवचसेन । परहान्कीत्या । 
इति कृष्णययुरवदीयतेत्तिरीयोपनिषदि भृरबर्स्या ` 

नवमोऽुवाकः ॥ ९ ॥ 


अथ दरामोऽनुवाकः 
न कंचन वसतो त्यौ चक्षीत । तदतरतम्‌। 
तस्माद्या कया च विधया बरहर भापतुयात्‌ । 


अराध्यस्मा अन्नमित्याचक्षते । 
4 मखतो 
एतद्रे मुखतोऽ्^ राद्धम्‌ । मुखतोऽस्मा 
५ भ, 
शगाध्यते । एतद्र मध्यतोंऽतर श्राद्ध । 
मध्यतोऽस्मा अन्न^ ध्यते । एतद्रा 
अन्ततोऽत्नर गदम्‌ । अन्ततोऽस्मा अन्न^ 
# ऋ, 
राध्यते (१) | य एवं वेद्‌ | 
तथा पृथिव्याकाद्योपासकस्य वसतौ वसतिनिमित्तं कैचन कंचिदपि न 
| = | क ० # # 
प्रत्याचक्षीत, वसतत्यथैमागतं न निवारयेदित्यथेः। वासे च दत्ते, अवद्यं ह्यरानं 
दातन्यम्‌; तस्माद्यया कया च विधया येन केन च प्रकारेण बहमन प्रघरया- 
त्--बहन्नसंग्रहं कुयौदित्यथेः । यस्मादन्नवन्तो विद्वासो.ऽभ्यागतायान्नार्थने- 
ऽराधि संसिद्धमस्मा अन्नमित्याचक्षते, न ˆ नास्ति ` इति प्रत्याख्यानं कवैन्ति, 
(तस्माच्च हेतोः बह्वन्नं प्रायात्‌ ' इति पूर्वेण संबन्धः । अपि जवान चान्लदानस्य 
माहासम्यमुच्यते । यथा यत्कालं प्रथच्छत्यन्नं, तथा तत्कालमेव प्रत्युंपनमते । 
कथमिति ए तदेतदाद- 
पतद्वा अन्नं मुखतो मुख्ये-प्रथमे वयसि-मुख्यया वा इत्या-पूजापुरःख- 
रमभ्यागतायान्नार्थेने राद्धं संसिद्धं प्रयच्छतीति वाक्यदोषः । तस्य कफ फर 
स्यादिति ? उच्यते- मुखतः पूरव वयांसि, मुख्यया वा ब्याऽस्मा अन्नदांयाः 
राध्यते यथादत्तमुपतिष्ठत इत्यथः । एवं मध्यतो मध्यमे वयसि, मध्यमेन चोप्‌- 
निप प क क क 
चरेण; तथाऽन्ततोऽन्ते वयसि, जघन्येन चोपचारेण-परिभवेन-तथेवास्मे 
क ॐ ई # ५  & क 
राध्यते संलिष्यत्यन्नम्‌ । य एवं वेद-य एवमन्नस्य यथोक्तं माहासम्यं वेद्‌; 
तदानस्यं च फलम्‌ , तस्य यथोक्तं फटमुपनमते । 


इदानीं ब्रह्मण उपासनप्रकार उच्यते- 


( १) °स्य यथे फलमुपनयेत्‌-उति प्राठः । 
९ 


१३० तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ भृगु-क्ी 


सेम इति गचि । योगक्षेम इति पणापानयोः। 
कमेति हस्तयोः । गतिरिति पादयोः । चिमु- 
क्तिरिति पायो । इति मातुषीः समराह्ाः । 
अथ दैवीः । वृनिरिति वृषी । बरपिति 
विद्युति (२) । यक्च इति पुष । 
ज्योतिरिति क्ष््ेषु । प्रजातिरमरतमा- 
नन्द्‌ इत्युपस्थे । सवेमित्याकशे 


क्षेम इति वाचि- क्षेमो नामोपात्तपरिरश्चणम्‌--ब्रह्य “ बाचि ` क्षेमरूपेण 
्तिष्ठितमित्युपास्यम्‌ । योगक्षेम इति-- योगः ' अुपात्तस्योपादानम्‌। तो 
हि योगक्षेमौ ` प्राणापानयोः बर्वतोः सतोभेवतो यद्यपि, तथाऽपि न प्राणा 
पाननिमित्तावेव; कि तरिं ? ब्रह्मनिमिन्तो ! तस्माडह्य योग्चे मात्मना प्राणा- 
पानयोः प्रतिषठितमित्युपास्यम्‌ । एवसुक्तरेष्वन्येषु तेन तेनाऽ.ऽत्मना ब्र्यैवोपा- 
स्यम्‌ । कमेणो जहानिवत्यत्वाद्धस्तयोः कमोत्मना ब्रह्म भतिष्ठितमित्युपास्यम्‌ । 
गतिरिति पादयोः । विमुक्तिरिति पायो ! इत्येता मानुषीभेयुष्येषु मवा माव्य 
समाज्ञाः-आध्यास्िक्यः समाज्ञा ज्ञानानि विज्ञानान्युपासनानीत्यथैः । 


अथानन्तरं देवीरदैन्यः- देवेषु भवाः-समाज्ञा उच्यन्ते । तरिरिति ष्टौ । 
चष्र्नादि द्वारेण त्रिहेतुत्वात्‌., ब्रह्मैव तुप्त्यात्मना वृष्टो व्यवस्थितम्‌-इत्यु 
पास्यम्‌! तथाऽन्येषु तेन तेनाऽऽत्मना ब्वेवोपास्यम्‌ । तथा बटरूपेण 
विद्यति ` । यशोरूपेण ‹ पद्ाषु " । ज्योतीरूपेण “ नक्षञेषु ' । “प्रजातिरय॒तम्‌ः 
असुतत्वप्राप्निः पुतेण ऋणविमोश्द्वारेण--“ आनन्दः ` छखमिव्येतत्सवंमुपस्थ- 
निमित्तंः--ब्रहेवानेनाऽऽत्मनोपस्थे ्रतिष्ठितमित्युपास्यम्‌ । सरव ह्याकाशे भ्रति 
षितम्‌ । अतो यत्सवेमाकारो, तद्रहयवेत्युपास्यम्‌ । 


उपासनमपि फटानभिसंधिनाऽउशितं उदिश्दिद्वारेण ब्रह्मन्नानायोपकरोतीत्यक्त, अस्या 
विकारेणस्त्वपवादायोपकर््याति । 





( १) मूत्रपुरीषविस्तगैः । 


१० द्रमोऽनुवाकः | उपासमाभि १३१ 


तसतिषठयुपासीत । प्रतिष्ठुवान्भवति । 
तनह इत्युपासीत । महान्भवति ! तन्मन 
इत्युपासीत । मानवान्भवति ( ३ ) । तन्नम 
इत्युपासीत । नम्यन्तेऽस्मै कामाः । तहद्ये- 
त्युं पासीत । बरह्मवान्भवति । तद्रहमणः परि- 
मर इत्युपासीत । पर्येणं भयन्ते द्विषन्तः 
 सपलनाः । पारे येऽप्रिया भ्रातृव्याः | 
तच्वाऽऽकारो ब्रह्मैव ! तस्मात्तत्सर्वस्य पतिष्ेतयुपासीत । धतिष्ठागुणापास- 
नात्मतिष्ठावान्भवति । पवं संवैष्वपि । यद्यत्राधिगतं फर, तद्वह्यैव; तदुपासना- 
तद्वान्भवतीति द्रष्टव्यम्‌ | शचुत्यन्तराञ्च-“ तं यथा यथोपासते तदेव भवति ” 
इति 1 तन्मह इत्युपासीत-“ महः ' महत्वगुणवत्तदुपासीत । महान्भवति । 
तन्मन इत्युपासीत । मननं † मनः * । मानवान्भवति मननसमथो भवति । 
तन्नम इत्युपासीत । नमनं “ नमः ' नमनगुणवत्तदुपासीत ! नम्यन्ते ्ह्ी- 
भवन्त्यस्मा उपासिरे कामाः काम्यन्त इति भोग्या विषया इत्यथः । तद्ध्य- 
त्युपासखीत । ^ बह्म  परिन्रेढ तममित्युपासीत । ब्रह्मवास्ततुणो भवति । तद्ध- 
-ह्यणः परिमर इत्युपासीत । ब्रह्मणः; ‹ परिमरः ` परिभ्रियन्तेऽस्मिन्‌ पञ्चदेवता 
विदयुद्ध्टिन्द्रमा आदित्योऽभ्निरित्येताः । अतो वायुः परिमरः, श्त्यन्तरप- 
सिद्धेः । ख एवायं वायुराकारोनानन्य इत्याकारो ब्रह्मणः परिमरः समाकारं 
-वारवात्मानें श्रह्मणः परिमरः इत्युपासीत । पयेनमेवंविदं प्रतिस्पधिनो द्विषन्तः 
अद्धिषन्तोऽपि “ सपत्नाः ' यतो भवन्ति, अतो विरोष्यन्ते छिषन्तः सपत्ना 
इति-य एन द्विषन्तः सपत्नास्ते परिधियन्ते प्राणाञ्चहति; किच, ये चाभया 
अस्य भ्रातृव्या अद्िषन्तोऽपि ते च प्रिष्ियन्ते। 


यत्र वागदै यत्फठं कार्य क्ेमादीत्यथेः 1 

महानिति । प्रजादिभिः । ब्रह्मवानिति । स्थूखमोगसाधनवान्‌ विराडिवेत्यथः । श्रुत्य 
न्तरप्रसिद्धेरिति । ° य रेवमेताः पञ्च देवता, ‹ वायुवांव संवगः ° इत्यादिशस्वन्तराद्ध- 

(१) ० पू्ेष्वपि यद्त्तदधीनं फलंति पाडः । (२ ) ? तुख्य-्र. सू. ४- ३. १५. (२ ) छा. 
उ. ४. ३. १. (४) तस्मादाका०--पाठः । ( ५) अपपठोऽयम्‌ । ^ अथातो ब्रह्मणः परिमरः । यो इ वै 
ह्मणः परिमरं वेद पयं द्विषन्तो भतृव्याः प्रिसपत्ना प्रियन्ते। यं वे ब्रह्म योऽयं पवते तमेताः पञ्चदेवता 
प्ररितरियन्ते विचुदष्टिश्वद्रमा आदित्योऽश्चिः » । दे. त्रा. <, ५. २८. 


१३२ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ [ भृगु-क्हीं 


° प्राणो वा अन्नं शसीरमन्नादम्‌ ` इत्यारभ्याऽऽकाश्ान्तस्य कार्यस्थेवान्ना" 
भात्मनोऽसंतारिलम्‌ श्नादत्वमुक्तम्‌ । उक्तं नाम, क तेन ? तेनेतत्सिद्धं मवति- 
न पयैमिनथ एव मोज्यभोक्तृत्वक्ृतः संसारः, न त्वात्मनीति; आत्मानि तु 
ान्त्योषचर्यते । । 

नन्वात्माऽपि 7 रभात्भनः कायं, ततो युक्तस्तस्य संसार इति । न, असंसा- 
रिण पव प्रवेशश्चुतेः--“ तत्खष्ा वदेवाचुप्राविदात्‌ “ इत्याकाशादिकारणस्य 
ह्यसंसारिण एव परमात्मनः कार्यऽनुपवेदाः श्रुयते, तस्मात्कायायुपविष्टो 
जीव आत्मा पर पवासंसारीः; “खष्याऽुपाविशात्‌' इति समानकतुत्वोपपत्तेश्च- 
समैरवेराक्रिययोञ्ेकब्धित्कतौ, ततः क्त्वाप्रत्ययो युक्तः । भविष्टस्य तु मावा- 
न्तरापन्तिरिति चेत्‌--न, प्वेश्यस्यान्याथेत्वेन प्रत्यास्यातत्वार । * अनेन जीवे- 
नं ' इति विरशेषश्चुतेधेमौन्तरेणायुप्रवे इति चेत्‌-न; “ तत्वमसि इति पुन- 
स्तद्धावक्तेः । भावान्तरापन्नस्यैव तदपोहाथौ संपदिति चेत्‌-न, तत्सत्यं 
स आत्मा तत्वमसि ` इति सामानाधिकरण्यात्‌ 1 दृष्ठं जीवस्य संसारित्व- 
मिति चेत्‌-न, उपटन्धुरुपठभ्यत्वाव्‌ । संसारधमेविशिष्ट आत्मोपरभ्यत 
इति चेत्‌-न, धर्माणां ्धमिणो ऽयतिरेकात्कमेत्वाजुपपत्तेः, उष्णभकादष्योदौ- 
ह्यप्रकादयत्वानुपपत्तिवत्‌ । चासादिदरोनाद दुःखित्वायुमीयत इति चेत्‌- 
न, आसद दैःखस्य चोपरभ्यमानत्वान्नोपङन्धुधभत्वम्‌। कापिरुकाणादादि- 
तर्कराख्रविसोध इति चेत्‌--न, तेषां मूखाभावे, वेदविरोधे च भान्तत्वोपपत्चेः ! 
श्रुत्युपपत्तिभ्यां च सिद्धमात्मनो ऽसंसारित्नम्‌, एकत्वाच । 
ह्मणः संहत्वं वायुद्वारकमिति वायुः “ब्रह्मणः परिमरः ' संहारसाधनामित्यथैः; । तत्कथं 
परिमरयुणवत्तयाऽऽकाशोपासनं सिध्यति १ इत्यत आह--स एष इति । 


एवं मन्दाधिकारिगोचरसपासनजातमध्यारोपावस्थायाखदिश्य, अपवादद्धटिमिभिप्रत्याः 
ऽऽद--प्राणो वा अन्नमित्यादिना । | 

भोक्तृत्वादिरक्षणः संसारः कायेगोचर इति वंरतेव जीवस्यानोपाधिकं संसारितवमिषटं-- 
तस्यापि कायता्र--इति भागवतानां मतञद्ान्य दषयति-नन्वात्माऽपीत्यादिना । 
छान्दोग्यश्रुत्यदसारेण विकारात्मना प्रवेशमाशङ्थ, वाक्यरेषविरोषमाई--अनेन जीवेने- 
त्यादिना! शरान्या देदादिमावमापन्नस्य जीवस्य ब्रह्म्यतिरिकस्येव व्रह्मृषिरुपषिदियते 


८ १) ¶, ७५, (> ) छां. उ. ६. २. २. (२) न; ' तत्सं --इति पाठः! (४) °दतस्तव- 
इति प्राठः । . | 


१० दशमोऽलुवाकः ्रहयानन्देक्यम्‌ १३२ 


मदयलैवयम्‌ स यश्च॑यं पुरुषे । यश्वासौवादिये । स एदः। 
(४) 
कथमेकत्वमिति.१ उच्यते- 
“ख यश्चायं पुरषे । यश्चासावादित्ये । स एकः। ” इत्येवमादि पूैचैत्सवैम्‌ । 


संसारित्वापोहाथो--मातबुदधिरि परयोषिति रागापोदा्था । अतः ° तत्वमसि › इत्यपदेश्च- 
स्यान्याथंत्वात्‌, न जीवस्य पारमा्िकमरसंसाखिव्रहमात्मत्वमियाशङ्ःपर तदषयति--भावा- 
न्तरापन्नस्येत्यादिना । अबाधिततत्पदखख्यसामानाधिकरण्यर रोधात्‌, बरह्मणि जीवे 
्रह्मत्वसपादनाथेत्वं कल्पयतं च श्षक्ष्यत इत्यथः । संसारित्वग्राहकप्रत्यक्षविरोधादवाितत्व- 
मसिदमित्याद--दष्ठमिति । सवैप्रमाणानामदग्रादकस्तकं इष्यते, आत्मनश्च पंसारधमेव- 
त्वस्य-तकांपरिञ्यदत्वाः-, तत्परतयक्षस्य ब्रान्तत्वाप््‌-न शान्ञक्ञानबाधकत्वं संभवती- 
त्याह- नेति । खखादेरुपरम्यतवानोपठब्दधर्म्वं संभवति, रूपादिवदित्यथेः ! संसारित- 
ग्राहकं यद्यपि प्रयक्षप्रमार्ण न भवति, तथाऽपि संसारधमेविशिष्ट आत्मा स्वचेतन्येनोपल- 
स्यते-इति स्वाभवविरोधाप्र-न श्चाब्दमसंसारित्वन्ञानं प्रमाणमिति चेत्तदपि युक्त 
कमेत्वकतूत्वविरोधादित्यथः । प्रतयक्षविरोधाभावेऽप्यडमानविरोधो भविष्यतीत्याह-ासा- 
दीति 1 जसादि सारं, कायैत्वात्‌-- घटवत्‌; अन्यस्याऽऽभयस्यासंभवात्‌, आत्मेव तदा- 
अयोऽ्मीयत इति न वाच्यम्र--उपङभ्यं नोपटब्धुर्मेः, रूपादिवत्‌, इति व्याप्त्यन्तरवि- 
रोधात्‌, जध्यासादपि कायदशैनसंभवादित्यथः । जीवस्य अ्र्मात्मत्वं प्रतिपादयतः श्ाज्ञस्य 
तकैशाल्ाविरोषादप्रामाण्यमाशङ्थ दूषयति--कापिरेत्यादिना । तकारस्य श्रुतेश्च विरु- 
द्ाव्यमभिचारित्वेन प्रामाण्यसंशयोऽपि नाऽ्शङ्कनीय इत्याह--श्चुत्युपपत्तिभ्यां चेति । 
किंच तार्किकेणापीचराधीनं जीवस्य उचित्वं दुःखित्वं च निरूपणीयं, न तनिरूपयितुं 
शक्यते,--स्वात्मनीश्वरस्य रुखदुःखहेतुत्वासंभवादित्यभिपरेत्याऽऽह-- एकत्वाचखेति । 


(१) पृ, १०५. (२) °लभ्यो नो० इति पाठः । (३) ^“ एकत्र तुल्यलक्षणविरुदधदेतुद्रयो- 
निपातो विर्द्धान्यभिचारी । यथा-जित्यमाकारं, अमूर्तदव्यतीत्‌, आत्मवदिति--एत्मनित्यमाकाद्चम्‌, 
अस्मदादिवाछयन्दियम्राह्यविशेषयुणाधारवात्‌, घय्वत्‌  । न्यायसारेऽनुमानपरिच्छेदे । “८ यत्रेकस्मिन्नेव 
धर्मिणि त्रैरूम्यादिना समलक्षणं मिथोविरुदधं च देतुदरययुपनिपतति, स रिरुद्धाव्यभिचारी । अत्र दरयो- 
रपि हेतोव्यौन्नि प्रयुक्ततेनेकाधारसरम्‌ । त्ररूम्येण तोस्यलक्षण्यं, निेतर्त्वसाधकल्वेन विरुदधत्वम्‌ । 
-नह्यत्रोभयोरपि साधक, वस्तुनो द्यात्मकलत्वासंभवात्‌ । नापि परस्परविरोधादुभयोरप्यसाधकलवं, नित्यत्वानि- 
लयत्वव्यतिरेकेण प्रकारान्तरासंमवात्‌ । न चान्यतरस्य हेतोर्धैरोषोऽवगम्यते, येनैकपक्षावधारणं स्यात्‌; ततोऽयं 
तुच्यरुक्षणविशुदवहेतुद्ययोपनिपाते विरुद्व्यभिचारी भवति । “इति तद्रीकायाम्‌ । विर्द्धाव्यभिचारिलं 
समानवल्योयतः । दृष्टं सर्वव णेकेऽसिन्न तु सिंहञ्चगाल्योः ॥ चर, उ. वारतिके-१. २. ६०. 


१३४ तेत्तिरीयोपनिषत्‌ [ म॒गु-क्ही 


ज॑वनयुरुस स॒ य एवंवित्‌ । उदात्त सत्य । एतमनमय- 

स्वासवम्‌ प्रात्मानयुष॑संक्रम्य । एतं प्राणमयमात्मानयुष- 
संक्रम्य । एतं मनोपयमात्मानमुष॑संक्रम्य 
ए विज्ञानमयपात्मानयुपंसंक्रम्य । एतमान- 
न्दमयमात्मानयुपसंकम्य । इमाोकान्कामान्नी 
कामरूप्यनुसंचरन्‌ । एतत्साम गायन्नास्ते । 


अन्नमयादिक्रमेणाऽऽनन्दमयमात्मानसुपसंकम्येतत्साम गायन्नास्ते 1 “ सत्यं 
ज्ञानम्‌ ` इत्यस्या चचोऽथो भ्याख्यातो विस्तरेण चद्धिवरणभूतया ऽऽनन्द्व- 
द्धा \ “ सोऽद्युते सर्वान्कामान्सदह ब्रह्मणा विपश्चिता ' इति तस्य फटवचन 
स्या्थैविस्तारो नोक्तः । के ते ? किंविषया वा स्वै कामाः ? कथं वा ब्रह्मणा 
सह समद्युते  इत्येतद्धकव्यमितीदमिदानीमारभ्यते । तत्र पितापुज्ख्यायि- 
कायां -वंवियारोषभूतायां “ तपः ' ब्रह्मविद्यासाधनमुक्तम्‌ , प्राणादेराकाशा- 
न्तस्य च कायस्यान्नान्नादत्वेन विनियोगश्थोक्तः, ब्रह्मविषयोपासनानि चः 
च सर्वे कामाः प्रतिनियतानेकसाधनसाध्या आकालादिकायैमेदविषयाः, एते 
द्दिीताः । एकत्वे पुनः कामकामित्वायुपपत्तिः-मेदजातस्य सर्वैस्याऽऽत्मभू- 
तत्वात्‌ । तत्र कर्थं युगपद्रह्यस्वरूपेण सवान्कामानेवेवित्समदनुत इत्युच्यते ? 
सवीतमत्वोपपत्तेः ! कर्थं सबोत्मैत्वोपपत्तेः ? इत्याह । पुरुषादित्यस्थात्मेकत्व- 
विज्ञानेनापोद्योत्कर्षापकर्षो, अन्नमयादीनात्मनोऽविद्याकल्पितान्क्रमेण संकस्या- 
ऽऽनन्दमयान्तान्‌ ' सर्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्मः अददयादिधमेकं स्वाभाविकमानन्द्‌- 
मजमगरतमभयम्द्वैतं पकभूतमापन्नः द्मह्धोकान्भूरादीननुसंचरक्निति भ्यव- 
हितेन संबन्धः । कथमयुसंचरन्‌ ? कामान्नी कामतोऽन्नमस्येति कामान्नी; तथा 
कामतो रूपाण्यस्येति कामरूपी । अञुसंचरन्सवोत्मनेर्मो लि कानात्मत्वेनाभवन्‌। 
किम्‌ ? पतत्साम गायन्नास्ते । समत्वाद्‌ ब्रह्मैव ‹ साम --सवौनन्यरूपं गाय- 
ञशब्दयन्‌-नात्मेकत्वं प्रल्यापयंलोकायुत्रहा्थ, तद्विज्ञानफटं चातीवङ्ताथत्वं 
गायन्नास्ते तिष्ठति । 


‹ स यः ` इत्यादिपदष्याखयानञ्पेष्य, उपसंक्मणक्तामगानयोरेककर्तकत्वमन्वय प्रद्षनेन 
दरितयर । इदानीं व्टीसमापिपयंन्तस्य गन्थस्य तात्पर्यं ठत्तकीतेनेनाऽऽह- सत्यं ज्ञानमि- 





( १, °^त्मलाप० इति पाठः । (२ ) ?त्मलाप० इति पाठः । 


१० दङामोऽनुबाकः ] ब्रह्मविदः सासगानम्‌ १३५ 


हार्व दारेषु हारेवु ८ ५ ) अहमनमहम 
नमहमन्नम्‌ । अषमननादोऽरेहमनादोऽरद्‌- 


मन्नादः । अ्ह< अंशकृटह ~ छर्कटह 
शयकठ़त्‌ । अहमसि परथपना ऋतारस्य । 
र्व॑देवेभ्यो अमृतस्य नारेभायि 
यो मा ददाति स इदेव मारऽऽ- 
वाः । अदहुमन्रयन्नपदन्तमारच्ं | 
अह विश्वं सुव॑नमभ्यमवारेम्‌ । 
कथम्‌? ` 
हारे हार्वु हादेवु-अहो इत्येतस्मिन्नर्थऽत्यन्तविस्मयस्यापनाथेम्‌ । 
कः विस्मय इति ? उच्यते- अद्वैत आस्मा निरञ्जनोऽपि सन्नह्‌- 
मेवान्नमन्नादश्च | किंचादमेव गछोकञूत्‌ । “ श्छोकः ` नमान्नान्नादयोः संधा- 
तस्य कती चेतनावान्‌; अन्नस्यैव वा परथैस्यान्नादाथेस्य सतोऽने 
कात्मकस्य पारा््यंन हेतुना संघातञ्ृत्‌; चविरुकति्विस्मयत्वख्यापनाथा । 
अहमस्मि भवामि प्रथमजाः प्रथमजः-प्रथमोत्पन्नः । ऋतस्य सत्यस्य-मू, 
तौमूतेस्यास्य जगतो देवेभ्यश्च पूर्वैमशुतस्य नाभिरसृतत्वस्य नाभिमेध्वं मतं 
स्थममरतत्वं प्राणिनाभिस्यथेः 
यः कथ्ित्मा माम्‌-अन्नम्‌-अन्नाथिभ्यो ददाति प्रयच्छति--अन्नात्मना 
ब्रवीति, स इदित्थमेवेत्यथः, पवमविनष्ं यथाभूतं मामावा भवतीत्य; य 
पुनरन्यो मामदसवाऽथिभ्यः काले वप्रषिऽन्नमात्त, तमन्नमदन्तं भक्षयन्तं पुर 
षमहमन्चमव सप्रत्यय भश्चयाम । अन्नाऽऽ्द्~-एव ताह विभाम, स्वात्म 


त्यादिना । अविव्यटेश्षवशेन देतावभासमदभवन्विद्वान्‌ “ सवेस्याऽऽत्माऽहम ` इति मन्यम 
नोऽणिमायेश्वर्यञचजां योगिनां यत्कामात्रतवं कामरूपत्वं च ममेवेति पश्यन्‌ युगपत्सवान्विष- 
यानन्दानद्द॒त इत्युप चयेत इयाईइ-सबोत्मत्वापत्तेरिति । 

प्रथमजो हिरण्यगमोऽप्यहम्‌ । प्ठतिस्तावेदवानार्थां । ' देवेभ्वः ' च व्यष्टिरूपेभ्यः पूष 
विराद्रूपभहमेवेत्यथैः । 

आवा इति । खोष्मध्यमपुरुषेकवचनमर । पोनःपु्येनेव्येतं मत्वाऽख्यातेड निपायत 


(१) ०वदादराधथौ इति पाठः । (२) ०वं सर्वाल्या०--पाठः। 


९२६ तैत्तिरीरो०धर्‌  [ भृरा-वही 


घुवने ज्योतीः । य एवं वेद॑ । 


इत्युपनिषत्‌ (६) ॥ 
इति कृष्णयसुवैदीयतैत्तिरीयोपनिषदि मृगुवस्स्या 
दरमोऽलुवाकः ।}! १० ॥ 


त्वपरासर्मोश्ात्‌, अस्तु संसार पव, यतो मुक्तोऽप्यहमन्नभूत अदयः स्याम- 
न्यस्य । एवं मा भेषीः-संन्यव-रविलयत्वात्सवैकामारानस्य 1 अतीत्यायं 
संन्यवहारविषयमन्नाश्रादादिरक्षणमविद्याङतं विद्यया बह्मत्वमापन्नो विद्धान्‌; 
तस्य नैव हितीयं वस्त्वन्तरमस्ति, यतो बिभेति, अतो न सेतव्यं मोक्षात्‌ । 
। पवं तर्हि किमिदमाद-महमन्नमहमन्नादः ' इति १ उच्यते । योऽयमन्नान्ना- 
दादिरक्चषणः सेन्यवहारः कायैभूतः, स ॒संग्यवहारमात्रमेव, न `परमाथेवस्तु 
स पिर्वभूतोऽपि बह्मनिमित्तः--ब्रह्मव्यतिरेकेणासन्निति इत्वा ब्रह्मविद्याका- 
यस्य~ब्रह्ममावस्य-स्तुत्यथमुच्यत--अहमश्नमहमन्नमहमन्नम्‌ । अहमन्नावो 
उहमन्नादो ऽहमन्नादः ` इत्यादि । अतो मयादिदोषगन्धोऽप्यविद्यानिमित्तो 
ऽवियोच्छेदाद्भह्यभूतस्य नास्ति, इत्यहं विश्वं समस्तं भुवनं-भूतेः संमज- 
नीयं ब्रह्मादिभिः--मवन्तीति वाऽस्मिन्भूतानीति श्भुवनम्‌' अभ्यभवामभिभवामि 
परेणे्वरेण स्वरूपेण । 

सवने ज्योतीः-सुवरादित्यः, न' कार उपमाथैः--आदित्य इव सङृद्धिमात- 
भस्मदीयं ज्योतीञ्यांतिः- प्रका इत्यथः । 

इति--वह्टीद्धयषिहिता--उपनिषत्‌" परमात्मन्ञानं,-तामेतां यथोक्तामुप- 
विदुष एव सर्वा- निषद्‌ शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षः समाहितो भूत्वा ' शगुव- 
सलालुमबः न्तपो महदास्थाय य एवं वेद्‌, तस्येदं फरं यथोक्त भोश्च इति ॥ 

इति श्रीमत्परमरईसपरित्राजकाचायेगो विन्दभगवत्पज्यपादशिष्यश्रीमच्छकरभगवत 

कृतो तैत्तिरीयोपनिषदि अगुवल्यां दश्षमोऽहवाकः ॥ १० ॥ 


दूयवतीति व्याख्यातम्‌ । अभिभवामि" उपसंहरामीत्यथः । ईशरात्मताज्ञानेनाहंबाधेद्धैतं, 
ततो नास्ति मयकारणमित्यथंः। 
‹ न ` कार वार्थे ॥ 
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यभीमच्छुद्धानन्दरिष्यानन्दज्ञानविरचिते तैत्तिरीयोप- 
निषच्छांकर माष्यरिप्पणे भ्गुवट्यां द्मोऽलुवाकः ॥ १० ॥ 
(१) आद्यः -पाढः । (२) अन्नस्य- पाटः । (२ ) र, ३. ४. ४. २२. . 


१० दशमोऽलुवाकः | सान्तिः १३७ 


स॒ह नाववतु । स॒ह नौ युनक्तु । 

स॒ह वीय करवावहै । तेजस्वि 

नावधीतमस्तु । मा विष्वा | 

ॐ शान्ति; शन्तिः क्रान्तिः | 

हारिः ॐ ॥ 

इति छृष्णयलुरवेदीयतेत्तिरीयोपनिषत्‌ समाप्ना ॥ ३ ॥ 
भृगुस्तस्मे यतो विश्चन्ति तद्विजिज्ञासस्व अयो- 
दक्ान्नं भाणो मनो विज्ञानं द्वादश्च दादशाऽप्न- 
न्दो दशाननं न निन्यादन्नं न परिचक्चातान्नं 
बहु ङुर्वीतिकादरोकादशा न कंचसैकषष्दंशा ॥ 


इति श्रीमत्परमहंसपरि्राजकाचायं भरीमद्रोविन्दभगवत्पज्यपादाशिष्यश्रीमच्छकर- 
तेतिसयोपनि ८ + 
भगवतः कृतो षदराष्यं समाप्तम्‌ ॥ 





न्म त्तिरीय अ 
तत्तिरीयकमाष्यस्य शंकरस्य द्रदीयस्ः। 


स्फुटार्थबोधकामेभ्यो निरमायि खटिप्पणम्र ॥ 


इति शीमत्परमईंसपरिराजकाचायभीमच्छुद्धानन्दङ्गिष्यानन्दज्ञानाविराचितं 
तेत्तिरीयोपनिषच्छांकरभाष्यरिप्पणं समाप्तम्‌ ॥ 


समाक ङृष्णयजुर्वेदीया तेत्तिरीयोपनिषत्‌ । 





देदेन्दियक्ते पुण्ये पापे चात्मतया सदा । पद्यन्‌ सवात्मतां स्वस्य गायन्‌ सास्नाऽवतिष्ठते ॥ १४२ ॥ 
अहमन्नं तथान्नादः श्छोकक्रचेतयोऽप्यदम्‌ । इति सर्वात्मतां गायन्‌ जीवन्मुक्त इतीर्यते ॥ १४४ ॥ 
जीवन्मुक्तयवसानाया विचयाया सुख्यसाधनम्‌ । विचारो ब्रह्मणस्तेन भूरात्रैहमाववुद्धवान्‌ ॥ १४५॥ 
सत्यं तपो दमः शान्तिदानं धर्मः प्रनाप्नयः । सधे यागयोगौ न्यासभ्चतेबुभुत्सताम्‌ ॥ १४६ ॥ 
न्यासोऽधिकं तपो म्यासी यु्षीतात्ानमोमितति। योगिनस्तस्य देहांसा योगद्गैरखिकैः समाः ॥१४० 
अहेोरात्रािकाछास्तु समा दर्चादियागकैः । जीवनं सत्रतुल्यं .-+न्मुच्यते योगिसेवकः ॥ १४८ ॥. 
स चोत्तरायणे प्रेत अदित्यं प्रप्य सुच्यते । अयने दक्षिणे प्रेतशचन्द्रं प्रप्य न मुच्यते ॥ १४९ ॥ 


अ ऋ क (अ 


तैत्तिरीयकविचयायाः प्रकश्िनोपसेविनः । वुभुत्पूननुगरहणातु विवाती्ेमदेशवरः ॥ १५० ॥ 


इति शरीषिदयारण्यञ्चनिकृते अभूतिप्रकाशे वेत्तिरीयक- 
विवाप्रकाक्षः समाप्रः॥ 


ॐ तत्सद्भह्यणे नमः । 
अथ रौकरा- प्सन्‌ तैत्तिरीयोपनिर दीपिका । 
नषि सी पं 
वक्ष्येऽधुना श्चकरपिशसूपवाचा विनिर्णीतसमस्तवाक्यम्‌ । 
कृष्णं यदधस्तित्तिरिनामचिदं पदाथशुदधधर्थमतीव साधम्‌ ॥ १ ॥ 
कर्माणि विचित्राणि नित्यादिक्षणानि पूषेयुक्तानि, तेनिःभेयसमपद्यन्नहज्ञानायोप- 
निषद्मारभमाणो वेदो ब्रह्मज्ञाने च महतामपि देवः क्रियमाणान्विघ्रानवरोक्य तत्प्शान्तये 
बह्मविद्ा्थिनेदं पठनीयमित्यभिप्रायेण प्रथमं पठति-रों वं नोऽस्मभ्यं गिः प्राण- 
टत्तेरहाभिमानिनी देवता, द्रां इं, वरुणोऽपानरतते रात्रेशवाभिमानिनी देवता न इत्यद- 
षडः। हां नो ष्याख्यातम्‌ । भवतु भूया । इदं पदं शंपदेन सवेव संबध्यते । अयेमा 
चष्कष आदित्यमण्डलस्य चाभिमानिनी देवता । शां नो व्याख्यातम्‌ । इन्द्रो बाहोबेरस्य 
चाभिमानिनी देवता । बृहस्पतिवांचि खुदो चाभिमानिनी देवता शं न इयषङ्गः । शं नो 
व्याख्यातम्‌ । विष्णुः पादाभिमानिनी देवता तद्विशेषणमुरुक्रमः। उरं प्रचुरं रमणं यस्य स 
उसकरमः सवैव्यापीलथैः । अथवा स्वतन्त्रमिदं पदम्‌ । उर्करमो विराट्‌ सवात्राभिमानिनी 
देवता । श न इत्यदषदङ्धः । | 
एवं स्थूरसष्षमाभिमानिनीदेवताः प्रा्येरानीमव्याकृतज्नानक्रियाश्षक्त्यभिमानिनीं देवतां 
नमस्करोति-- नमो नमस्कारः! ब्रह्मणेऽन्याकृताभिमानिने । तस्यादत्पादिताकायेस्याकिंचि- 
त्करत्वात्कायाभिमानिनं तदभितनं एुननभसकरोति-नमो नमस्कारः । ते ठुभ्यं वायो हे 
करियाशक्तिप्रथानक्तानक्रियाराक्त। 


नद प्रतिपादस्यैव नमस्कारः करणीयो न चां प्रतिपाद इत्यत आह--त्वमेव 
्ञानक्रियाक्षक्त्यभिमान्येव न लन्थत्‌ । परत्यक्षं शाल्नस्य प्रत्यक्षं स्वयेप्रकाशमानत्वेन 
बुदधयादेः साक्षित्वेन वा ब्रह्माग्याकृताभिमामिदेशकालवस् परिच्छेदधन्थप्वरूपम्र । असि 
भवसि । 

नद यथं त्र्य कं तवेत्यत आद-त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म कायामिमानिनमेव भवन्तं 
स्वयंप्रकाशं कारणाभिमानिस्वरूपं वदिष्यामि तवं ्रह्मासीति गुरुणोक्ते कायैकरणामिमानि 
चेतन्ययेरेक्यमवगत्याहं बरमस्मीति वदिष्यामि कथयिष्यामि । 

नन्विदञपचरितं मां प्रति भवतोच्यत इत्यत आद-ऋतमदश्चरितं ` वदिष्यामि 
कथयिष्यामि । 


री 








२ सौकरानम्दक्रता [ शीक्षावही 


नड भवताष्ठपचरितेऽप्युच्यमाने नेतादृश वस्तुखृत्मिदयत आह-सत्यम्‌ ¦ « इदं 
सर्वं यदयमात्मा ” “एकमेवाद्धितयिंम ” “ नेह नानाऽस्ति रविच॑न “ “ तत्वमसि ” “ अहं 
बह्मास्मि » इत्यादिराखेभ्य रेक्यम ( क्येना ) वगम्यमानमबाधितं वस्तुसवरूपञचदकनि- 
शावन्न ममेवेदण्तं किंतु सवेप्रमाणसिद्धमबाधितस्वरूपमित्य्थः! वदिष्यामि कथयिष्यामि 
यस्मात्तत्तस्मान्मां भवन्तं ब्रह्मरूपेण प्रतिपादयन्तमवतु कायेकारणोपाषिभेवान्पाल्यतु । 
ने भवतः शिष्यस्य वाक्षायमनसां प्रसन्नानामध्यात्मादिदुःखेरहपधातोऽस्त॒, गुरोश्च विष- 
ययो मङ्लाचरणे तात्पयैदहीनत्वादित्याशद्धू्य गुरुविषयेऽपि स्वय प्राथेयते । यस्मादरुमन्त- 
रेण न विद्या भ्या शिष्येण तत्तस्माद्वक्तारं विदायाः कथयितारं गुरुमित्यथः । अवतु 
पराख्यतु । यस्मादनन्तरं तस्मादिति पणित्वा भौतं तच्छब्दद्वयमपि ब्रह्मपरं वा व्याख्येयम्‌ । 
तच्छब्द्रहिते वाक्यद्वयं गुवात्मनो रश्षायामादराथडपक्माषिपययेणाध्येति-अवतु मामवतु 
वक्तारं व्याख्यातम्‌ । यपि युसे्यावबोपेन ब्रह्मेव शिष्यश्च साधनचतुध्यसंपननः स्वयमप्रम- 
त्स्तथाऽपि दैवकृतानामतिसष््माणामपराधानां भूयसां सत्वेनाऽऽध्यातमिकापिभोतिकाधिदै- 
विकदुःखागमनाद्भश्मविधोत्पादस्य विधातः स्याच्छिष्यस्य । ततो दुःखत्रयविधातार्थं त्रिः शा- 
न्तिपदं पठति ऽशान्तः शान्तिः शास्तिः वाक्षायमनसमन्येन्दरियाणां त्रिविधमपि 
दुःखखपरतिं गच्छठु ब्रह्मविद्याधिकारिणो ममेत्यथेः । 
यश्चपीतः परपर «“ ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌ ” इत्येवोपक्रमणीयं, तथाऽप्यत्यन्तजदिखस्य 
नाऽऽत्माषगतिरित्यन्तरखखत्वं संपादयितुं फलेन प्रलोभ्य कानिंचिदुपासनानि प्रथमत उच्य- 
न्ते । नन्वेव चेदथातः संहिताया इत्याद्यारस्भणीयं न पुनः रीक्चामित्यादिकम्‌ । सत्यम्‌। 
तथाऽ्प्युपनिषदामथन्ञानप्राघान्याद्यथाकरथंचित्पाठेनाथन्लानं करणीयमितिशङ्ानिवारणार्थं 
दीश्चामित्यादिकं प्रथमं पठ्यते । न पुनरन्यः कश्चनोपयोगः । श्ी्ां यथाऽस्मिनेव पदे धि. 
क्षामित्येवं शिकार एकमात्र (त्र उ) चायेमाणेऽ्थौधिगतिनं ्नवैदिकी पार्शचद्धिः। न च वेदे 
तत्तद्रणेस्वरादिहीनस्य पदस्य वाक्यस्य वोपादेया्थां मवति, प्रत्युत दृष्थविनाश्षस्तत्तदुपनि- 
षदामपि वेदत्वात्तत्तच्छाापारकप्रसिद्धवणेस्वरादिरक्तपदाद्यवारणेनाथन्ञानं करणीयमिव्येत- 
दथं छान्दस्या प्रक्रियया शीक्षामिति पाठः । शिक्ष्यन्तेऽनया बणांदयः, रिक्ष्यन्ते इति व्णादय 
एव वा रिक्षा! तां शिक्षां व्याख्यास्यामो विविधमासमन्ताबक्तं कथयिष्यामः । वर्णो ऽका- 
रादिः। स्वर उदात्तादिः । माता हस्वादिः। बलं प्राणस्यानप्रयलैः। साम॒ समता दुत- 
वि्म्बितात्यथिकातिन्यूनादिवजनेनेकरूपतयोचारणं व्याप्रीटिनयतूलीडनमित्य्थः । 
(२) बर. उ. २.४.१५. ४.५.७. (२) छां. उ. ६.२. २. (३) चु. उ. ४.४. १९. (४) 
छां. उ. ६. ८.७. (५) ब. उ. १, ४. १०. ( ६ ) वर्णानामिति शेषः! यथा व्याघ्री स्वापत्यानि सुते 


त्व दशनाभिधातत्रणाचङ्त्वैव खलात्स्थलान्तरं नयति, तथा स्थानादिषु षीडनमक्रलैव वणौचारणं सामदा- 
न्दनं गृह्यत इति भावः । 





२ दवि्ायोऽलुबाकः ] तैत्तिरियोपनिषहीपरिका ३ 


संतानः संततिः संहिताया नियतक्रमे पदे वाक्यं चेत्यर्थः! इतिः समाप्रो धिक्षायाः। उक्तः 
कथितः हीश्चाध्यायः ि्ाऽषीयतेऽवगम्यतेपनेनेति शीक्षाध्यायः ॥ 
इति श्रीमत्परमसपरिनाजकाचार्य्रीमच्छंकरानन्ददिरिचितायां पदार्थबोकन्यां तोक्ैरीयोपनि- 
षदीपिकायां शीक्षावद्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥ १ ॥ 


अथ दितीयोऽनुवाकः 


इदानीं देदटीप्रदीचन्यायेनोक्तवक्ष्यमाणयोः साधारणं मङ्लाचरणं करोति शिष्यरूपो 
वेदः शिष्यशिक्षाथेम्‌ । सह समं नावावयोरशिष्ययोः । यद्राः--अस्यायं शिष्योऽस्यायं 
गुदरित्यध्यापनाध्ययनजन्या कीर्तिरस्त्विति शेषो वक्ष्यमाणे च । सह नो व्याख्यातम्‌ । 
ब्रह्मवर्चसं रहम ब्राह्मणस्वजातिः, तदीये तेजो ब्ह्मवचेसतं स्वाभमावष्टानपरो दीधोष्मन्ता- 
वावां मूयास्वेत्यथेः । अथ शीक्षाध्यायकथनानन्तरभ्र । अतः कृतमङ्लानामपि नान्तखेख- 
त्वमन्तरेण न्हम्ञानोत्पत्तिरस्मात्कारणात््‌। संहिताया नियतक्रमपदवाक्यरूपायाः । उप्‌- 
निषदं सामीप्येन नितरामिष्टाथंगमकत्वादनिष्टस्य शिथिलीकृत्य विनाश्कारित्वा् ताह- ` 
षया इडरुपनषत्ताप्‌ । व्याख्यास्याम व्याख्यातम्‌ । पञसु पञ्चस्ख्याकान्तेष । 
अधिकरणेवष्वाधारेदु । अधिकरणान्याह-अधिरोकं डोकमयिकृय । अधज्योतिषं 
ज्योतिरपिकृत्याधिस्योतिरथिज्योत्रिरेवापिञ्योतिषमर । आधेविद्यं विद्यामधिकृत्य । अधि- 
प्रजं प्रजां पत्रादिसंततिमयिकृत्य ! अध्यात्ममात्मानं शरीरमधिृत्य । ता अधिरोकादाः । 
महासंहिताः पदवाक्यसंहिताख चिन्त्यमाना महत्यः संहिता महासंहिताः । इति--अनेन 
प्रकारेण । आचश्चत आ समन्ताद्यक्तं कथयन्ति संहिताविदः। 

अथ तासां महासंहितात्वकथनानन्तरम । अधिरोक व्याख्यात । संहिताया उपनि- 
षदं व्याख्यास्याम इतीदमत्र वक्ष्यमाणेष्वपि चुं पयायेष्वडवत॑ते । प्रथिवा प्रासद्धा भूः 
पूवेरूपं पूवस्य पृववणस्य रूप स्वरूपं पूर्वेवेण पृथिवीद्िः करप्यीयेयथः । यीः स्वगंखकृ 
उन्तररूपञत्तरवर्णेस्य स्वरूपय॒त्तरवणे स्वगेलोकदृष्टिः करणीयेत्यथः । आक्राड्याऽन्तारः- 
कषरोकः संधिभुसगंलोको संपीयेते अस्मिनिति संधिभेध्यं पूरवोत्तरवणयोन्तरटेऽन्तरिषू- 
िः करणीयेयथैः। बायुजैगतप्राणक्ञिटोकयुद्रवतीं संधानं स्वयिते पूवांततरं रूपं अननति 
संधानं संबन्व इत्यर्थः पू्धोत्तरणयोः संबन्धे वायुदृष्टिः करणीयेस्यथः। यथा---“इषं ला” 
इत्यत्र षकारस्योपरि योऽयमेकारः सोभ्वं प्रथिवीरूपो यथ्चोपरितनस्तकारोऽ्ता युककलत्मिक- 

स्तयोवेणयोभध्यदेश आकाभात्मकस्तस्मिन्देशे संहितानिमित्तो द्विभविनाऽऽपादितो योऽन्यस्त- 


(१) देहरी गृ्ारासनतमदेशः। तत्र निहिते दीपो दरान्तःदेरं तदाभूत चत्वर च प्रका्ययतिः तथेदं 
मङ्कलमुचवक्षयमाणयोः साधारणं श्ेयमिति तातयेम्‌ । (२) ते. सं. १, १, १. १ 


ट रोकरानन्दकरता [ दीक्षावछी 


कारः स वाय्वात्मकं इति थ्यायेत्‌। एवञुत्तरेष्यप्युपास्यावयवेषु चष योज्यम्‌ । इतिः समा- 
स्त्यः प्रकृतोपनिषदः । प्रकृताङपनिषदमाह--अधिरोकं व्याख्यातम्‌ । 

अथचतुषटयमपि स्वापेक्षया पूर्रोपासतनानन्तयेमाई । अच्चिभोमः। आदित्यश्न- (त्यः 
स्वः?) मण्डर । आपो नीराणि। विुत एव वैद्युतोऽचिरप्भवः। चायो ॒दः। यन्ते- 
वासी शिष्यः विद्या ऽऽ चा्येणोच्यमाना । प्रवचनं गुरुशिष्ययोः प्रकरषणोच्ारणं विद्यावाः। 
माता जननी । पिता जनकः! प्रजा पुत्रादिः । मजननत्पत्ति प्रजायाः। अधरा हनु- 
रधरोष्टमारभ्य चिबुकफलकाकान्ता । उत्तरा हनुरुतरोध्मारम्याऽऽनासामूलम्‌ । वाग्व्णो- 
शरारणश्चक्तं ताल्वादिस्थमिद्धियम्‌ । जिह प्रसिद्धा । अन्यत्पयोयचतुष्टयेऽप्यन्त्यं पदं 
खक्त्वा समानपाठं पूवेवद्याख्येयम्‌ । इतिमेहासंहितापरिसमाप्त्यथेः । इमा अषिठोकादा 
महासंहिता व्याख्यातः 

इदानीं पञ्चानामपि फठमाद- योऽधिकारी । एवं पूवोतरस्पेणैता अधिकाय! 
, महासंहिता व्याख्याता विविधमासमन्ताद्यत्तं कथिता वेद्‌ जानालयपासीतेत्य्थः । 
संधीयते संबध्यते । प्रजया एत्रदिर्षणया । पद्युभिगेवादिभिः । ब्रह्मवचचंसेन बरा्मण- 
जालयचितेन तेजसा । अन्नायेन--अन्नं च तदाद चान्नाद्यं, तेन व्ीहियवादिनत्यथः । सुव- 
जण सगेण डोकेन कमेफठेन । प्रजादिभिः संपन्नो भवतीत्यर्थः ॥ 

एति श्रीमरमदंसपररानकाचार्य॑रमच्छंकरानन्दविरचितायां पदा्थवोधिन्यां तेत्तिरी- 
योपनिषददीपिकायां रं क्षावल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाकः ॥ २ ॥ 


अथ तृतीयोऽनुवाकः 

अथ यः कश्चन दुमा नासो मे पोत्पादनमन्तरेण बह्म बोढुं शक्त इति मेधाकामस्य मेधाकर- 
ज्ञपमन्तरानाई--यः प्रसिढ ओकारदछन्दसां गायत्यादिच्छन्दस्विनाख्गादिभेदानासुषभः 
शरेष्ठः । विश्वरूपः सवेरूपः पणेथ्िव शङ्ङः सवस्मिजजगति व्यवस्थित इत्यर्थः । 
छन्दोभ्य उत्तम्य कगादिभ्यः । अधि-अपिकः सवव्यापकत्वात्‌ । अमुता- 
त्स्वयं प्रकाशमानादात्मनः । संबभूवोत्पत्तिकमकरोत्‌ । छन्दोभ्योऽदटतादिभिः सामाना- 
िकरण्याङ्गीकारेणापिकः सम्य्व्तत इति व्याख्येयम्‌ । सो.ऽ्टतजष्छन्दःलारभूतः। मा 
माम्‌ । इन्द्र इन्द्रस्य परमात्मनो वाचकत्वादिन्धरः । मेधया शतधारणशक्त्या । स्पृणोतु, 
प्रणयत मेषासंयत्नं करोत्वियथः । 

मेधासंपत्तेः फलयूतामारिषमाद--अमतस्य तजनकस्य बरह्मणोऽईं तदस्मीति तादा- 
त्म्ेन । देव हे देव । स्वयंप्रकाथस्याऽत्मनः प्रकाशकत्वेन धारणो धारयिता भूयासं 
भवानि । मेषाप्रप्तरपि शरीरारोग्यादिकमन्तरेणामावादतस्तदपि प्रा्थयते-दरीरं स्थूढो 


३ तृतीयोऽलुबाकः ] तैत्तिरीयोपनिषहीपिका । प 


विनास्षी देहः मे ममाधिकारिणः। विचषेधां विचक्षणं नीरोगमित्यथेः । भूयादितिषुरष 

[ वि ] परहिरणामेनात्र वक्ष्यमाणे चठषङ्ः । जिह्वा कगिन्वियावारभूता मे ममाविक्यारिणः 
मधुमत्तमा च्या मधुत्वं प्रियहितस्षत्यभाषित्वं वेदायतनं तस्या अस्ति सा मधुमती । 
अतिशयेन मधघुभती मधुमत्तमा । कणौभ्यां शओत्रास्याम्‌ । भूरि ह । विश्चुवं व्यक्णवम- 
-त्सा्ात्काराथं तच्छवृणमस्त्रिययेः । 


इदानीर्मोकारस्यात्यन्तं ब्रह्सामीप्वमाद--ब्रह्मणः सत्यज्ञानादिरक्षणस्य कोदाः सह्ग- 
स्येव भ्याप्य व्यवस्थित आवरणविशेषः । यथा कोचः खद्गेन संश्ठतः, एवं ब्रह्मणा संश्तः 
प्रणवः । असि भवति । प्वमूतोऽप्यवियादु्टिभिनांवगन्वुं शक्यत इत्याद-मेधया 
-कोकिकश्चुतथारणया द्रथा । पिहित आटतः। यस्मदेवगुणकस्ततस्तं श्चुतम्‌ « इं सवं 
-यदयमात्मा ” ^“ अहं ब्रह्मास्मि * इयादिभिवणपथमागतम्‌ । मे ममाधिकारिणः । गोपाय 
र्षा इर । आत्मताक्षत्कारफएठावसानं कर्वियर्थः। 


मेधाविषयेऽथचसंधानपुरःषर मन्त्रजपञक्त्वा मेधावतोऽपि बहिखंलस्य निःीकस्य न 
प्रत्यक्प्रवणता । ततः कामस्य भरीकयान्मन्त्रान्प्रणवप्रतिपादकान्तहोमरिङ्नाद-आ- 
वहन्ती समन्तात्प्रापयन्ती । वितन्वाना विविधं विस्तारयन्ती । कुवांणा इवती । चीर- 
-मनेककालम्‌ । अन्तीरमितिपदच्छेदे क्षिप्रमिति व्याख्येयम्‌ । आतमनः स्वस्याः भियोऽवस्था- 
नमिति शेषः । वासा सि वल्लाणि । ममास्यार्थिनः। गावश्च प्रसिदाः । चकारोऽ्ादी- 
नामठक्तानां सखच्रयाथेः । अन्नपाने च--अव्यत इत्यन्तं पीयत इति पानमन्न च पानं 
चात्रपाने । चकार उक्तवासोगवात्रपानसङबयाथः । स्वेदाऽचारभ्याऽत्मसाघ्षात्कारम्‌ । 
आत्मनधिरं कुवाणा वास्तजदिकं सवेदा वहन्ती वितन्वाना च मम गृहेऽ्वस्थानं करोत्विति 
शेषं पूरयित्वा व्याख्येयम्‌ । 


# 


नन्वहं मेधाया दाता, कथं भियो दातेत्यत आह~तत इति। यतो मेधाया दाता तस्मात्‌। 
अयं भावः--भीः प्राकृतैरपि राजादिभिदोठुं शक्या, मेधा तु भवन्तमन्तरेण ब्रह्मणः कोड 
न केनचिदातुं श्षक्या । ततोऽतिदुकंभस्य मेषादेदावुत्रह्मणः कोश्षस्योकारस्य कियान्ीदाना- 
धेखयमः मे मम शीकामस्व । रियं मदुषटहे यामात्मनधिरमवस्थानं छबोणामन्रपानवा- 
दीन्प्रापयन्तीं तामेव विस्तारयन्तीमावह्‌ प्रापय । छोमशामजादिलोमभिलोमवतीं चेतन- 
मण्डठबहुलामित्यथंः । पट्ुभिगेवाशादिभिः सह समम । स्वाहा मदीया वाक्स्वशब्द्‌- 
वाच्यां भियमावहेति थामा तां स्वाहेव स्वाहा । स्वाहेतिददेनादोमाथेताऽस्य मन्वस्य वक्ष्य- 
माणानां चावगस्यते। होमद्रम्याणि च स्वस्वग्रृद्येष्ववगन्तम्यानि । मन्तरेण स्वस्थानि [ १] 
-क्षीराज्यबिल्वादीनि वा । प्रणवात्मा च देवताऽन्धरादिकं तु यथायोगमवगन्तव्यमर । 


६ रौकरानन्द्कृता  शीक्षाबही 


य मा मां भीकामं यत्त्वायन्तवत्राऽऽगच्छन्तु । अह्यचारिणोऽध्ययनार्थिनो माण- 
वकाः सवो दिक्ष्ववस्थिताः । स्वाहा व्याख्यातम्‌ । बरह्मचारिणामागमने प्रयोजनमाह~ 
याः । अत्रे धर्मशब्देन षीं ङुक्धितो भवति-- यश्स्वी । जने के । असानि भवानि ॥ 
स्वाहा व्याख्यातम ¦ अत्रापि प्रयोजनमाद--श्रेयानतिश्येन प्रस्यः। वस्यसो वड़- 
मत्तरात्सकाशात्‌ । व चत्र देवं माहे वित्तम । असानि भवानि । स्वाहा व्याख्या- 
तम्‌ । तत्रापि प्रयोजनमाद--तं ब्रह्मणः कोश्चगूतमर ! त्वा लामोकारम्‌ । भग समयधम॑सान. 
वराग्येधयेयक्षःभीणां निवासभूत आकारो बरह्मकोशयो भगः, तत्तंबोधनं हे भग प्रविराहि 
प्रवेक्ं करवाणि । स्वाहा व्याख्यातम्‌ । 


नद यदि मत्प्विष्टस्तवं तिं मत्तो भित्तः सखद प्रविशः सखद्रादिव भित्र मत्स्यस्तथा 
च तद्वदेव भवतो न कोऽपि पुरुषार्थं इयत आह-स मया प्रवेषव्यो बरह्मणः. कोश्चभूतो भवाः 
नकारः । भा मां तादात्म्येन त्वदुपासकम्‌ । भग प्रविश स्वाहा प्रवेशं §रु । आवयो. 
रदपचरितं तादात्म्यमस्त्वित्यथेः । व्याख्यातमन्यत्‌ । 

नह-- तवं कतौ भोक्तेत्यादिससारधर्मंवान्मयेरेण कथमभमिन्नः` स्या इयत जाह--त- 
स्मिन्मदभिन्न ओकार इरे । सहसराखे सहस्मनन्ताः श्रब्दाथात्मनो टक्षस्य भवतः 
शब्दाथेविवतेरूपाः शाखा यस्य स सहसशाखस्तस्मिन्‌ । निमग हे भग । नेमजिना संब- 
न्धः । अहं वस्तुतस्त्वदभिन्न इदानीमविव्यापटलपिनद्धाक्ष उपाक्षकः । त्वयि श्न्दायेरहित 
ओंकारे बह्मणि “ अहं ब्रह्मास्मि ” इति बोधेन निस्रजे निमाञ्मि कतत्वादिकमविवकृतं न 
वस्तुत इति क्ञानेना ऽ.ऽत्मानं परिशओोधयामीयर्थः । स्वाहा व्याख्यातम्‌ । 

तथा च अह्मचारिणामागमनं परंपरया मोक्षदेवरित्यकत्वेदानीं तदेव दृष्टान्ताभ्यां 
मन्व्ान्तरेण विरिनि--यथा येन प्रकारेण । आपो नीरवाराः । प्रवता--उचा- 
हेशात्पतन्त्यो निन्नदेशगामिन्य इत्यथः । प्रवतेतिदतीयापक्षे प्रणवता मागेणेति व्याख्येयम्‌ । 
यन्ति निश्रदेशं गच्छन्ति । अपां सेत्वादिना प्रतिबन्धो दृष्टस्ततो दृ्टान्तान्तरमाह-यथा 
दृधन्ते । मासाः प्द्वयात्मकाशैत्रादयः । अहैसरमहानि जरयति स्वङुक्षिनिक्षेपेण यः 
संवत्सरस्तम्‌ । यन्तीत्यउवतेते। एवं दाधन्तिके मां शीकामम । ब्रह्मचारिणद्छात्राः ॥ 
धातः दे घातः सवे्षटत्वास्प्रणवस्य धातृत्व२। आयन्त्वागच्छन्वु । स्वेतः सर्वाभ्यो 
किस्य: । स्वाहा व्याख्यातम्‌ । | 

, नन्विदं सर्वं मत्तादात्म्यार्थ; मम तव च कः सेबन्य इत्यत आह-प्रतिवेशाः स्वग्रदस- 

मीपस्थं गृहं प्रतिवेशः । तद्वचेतन्यरूपेण जीवोपाधेरतिसंनिहितत्वात्प्रणवग्रेतन्यात्मा प्रति- 
वेशः \ आसि भवति । यतस्ततः प्र मा मां त्वदुपासकम्र, भाहि प्रभादि--प्रकाशय 


|, 


£ चतुरथोऽ्ठुवाकः ] तैत्तिरुवोपनिषदीषिका । ७ 


आत्मानम्‌ । प्र माः पदयस्व प्रपयस्व । अहं ब्मास्मोति साकात्कारबोषेन मदूपमागच्छे- 
त्यथैः। अत्र स्वाहान्ता अधे मन्त्राः । एतैः सवेर्भनतररेकादशसंख्यकेरधथमिः पाठ ख । 
स्वाहान्तैलिभिश्च होमाथं स्वाहान्तत्वेन पटित्वा होमः करणीयः । जपस्तु य॑ ६८० 
रित्यवगन्तव्यम्‌ ॥ 


, इति श्रीमत्यरमङंसपरिनाजकाचार्यभीमच्छंकरनन्दविरचित्तायां पदाथगोधिन्यां 
तोैरीयोपनिषदीपिकायां शीक्षावल्लयां तृतीयोऽनुवाकः ॥ ३॥ 


अथ चतुथां ऽनुबाकः 

पुवेमोकारस्य सदशश्राखस्वखक्तं तदेतत्प्रषानश्चाखा सिदद प्राधान्यं च भूरादिव्याह- 
तीनामस्मिन्प्रपन्ने । ततो व्याहतयो हदिस्थाः। ताख्पासनं स्वाराज्यफलठमाह--भूभू्ोकः, त- 
तस्थः प्रपञ्चो रितिशब्धामिषेयः। भुवो .ऽन्तरिषटोकः । तत्स्थः प्रपन्नो चव इत्यच्यते । सुव 
स्वगेः, तत्स्थः प्रपञ्चः खवरित्युच्यते। इत्यनेन प्रकारेण । वै स्मर्यमागाः। एता इदानाडकताः 
तिस्रनिसंख्याका वेद्रयात्मिकाः । त्याहृतयः-अगिकारीषटं विविषमासमन्तादरन्ति 
प्रयच्छन्त्यपिकायंनिष्टं वा विविधमासमन्ताद्वरन्ति विनाश्षयन्तीति ग्याहतयः। तासां भूखुवः- 
खबरिति तिसणाम । उ अपि ह किङ । स्म प्रवेदयत इत्यनेन संबध्यते । एतां वक्ष्वमा- 
णां चतुर्थीं चठःसंख्यापूरणीम । माहाचमस्यो मादांध्रासौ चमसोपरलक्षितानेकयागसं- 
पन्नश्च महाचमसः, तस्यापत्यं माहाचमस्यः । प्रवेदयते प्रकषण निवेरेतवान्ज्ञात्वोक्चवानि 
त्यथः । ऋ्वेरदस्मरणखपासनाथेमिति संप्रदायविदः! तामाह-महस्तजः स्वयंप्रकाश्चम्‌ । 
इत्यनेन प्रकारेण । आवेदन कः प्रकषं इत्यत आह--तन्महः । ब्रह्म देश्रकाल्वस्तुपरिषच्छे- 
दद्यल्यं तस्मित्ियं टिः करणीयेत्यथेः । य द्वघयत्यक्तं स प्रसिदडो वक्ष्यमाण आत्पाऽस्म- 
त्यत्ययाटम्बनः प्रधानसूत इत्यथः । अ्खान्युपसजनभूतानि । अन्या मूराया देवता व्याह- 
त्यपिष्ठाघ्यः । अहं महो जद्मरूपमस्मि मम भूरा न्याहतिदेवता अङ्भनीत्पुपासनं करणीय- 
मित्यथः। 

न॒ भूरादि श्ददेषु का देवता इत्याशद्ुःथ व्याहतीनामथमाद-भूः प्रथमा व्वाद्यतिः 
इतिरकरणाथः। वे स्मरणाथम्‌ । अर्यं प्रत्यक्षो रोको भ्ररोकः । भुव इत्यन्तरिष्म्‌। 
सुवरित्यसौ रोकः । अन्तरं यावाभूम्योरन्तराटस्थो डकः । असौ परोक्षो कोकः 
स्वगलोकः । सुवःखवरितिन्याहतिपयायद्वयेऽपीतिश्दावदकरणाथों । महश्रतुथीं भ्याहतिः। 
इति्डकरणाथेः । आदित्यशनन्दर ( स्यः सयः १ )-मण्डराभिमानी जगत्प्राणः, आदित्यस्य 
महोग्याद्व्यात्मनोधास्यमानस्य मद्लञ्धपपादयति । आदित्येन वावाःऽदित्येनेव । सवे 
निखिलाः लोका भरदयाः। मीयन्ते पूज्यन्ते सवेग्यवहारक्षमा भवन्तीत्यथः, 

(२) त्मन उपास्य०-पाठः । 

१० 


ट ङ्त्व ` { शीक्षावही 


इदानीं व्याहृतीनां ज्योतिवायरूपतामाई--भूरिति वा अञ्चः । मुव . श्वि वायुः। 
सुवरित्यादित्यः । मह इति चन्द्रमाः । चन्द्रमसा वेवं सवोणि ज्योतीषि 
महीयन्ते । अग्रिवाय्वादित्यचन्द्रमसः प्रसिदटाः । रतेभ्यों भ्वतिरिक्तानि सवीणि ज्योतीषि 
नक्षत्रादीनि । अग्न्यादीनां स्श्दान्तमपातित्वेनेषां देवरूपत्वेन चन्द्रमस उपभोगेन तेन पही- 
यमानत्वमविरुढम्‌ । वायोश्च तेजन्ताक्षात्कारणत्वाञ्ज्योतिलयसाहित्येन पाठो ज विरः 
अन्यत्प्यायचतुषटेऽपि पूवैवव्याख्येम्‌ । . 

इदानी व्याहृतीनां अनदप्रपञ्चात्मकत्वमाह--भूरिति वा ऋचः। भुव इति सखामानि। 
सुवरिति यजूषि] मह इति बरह्म ! जणा वाव सवे वेदा भदीयन्ते । अथौद- 
सारेण पादबद्धाक्षरा ऋचः। सामानि ऋचः एव गीतिमलयः । यर्जष्यविवक्षितच्छन्दोरूपाणि 
गव्यानि । अत्र सान्नो द्वितीयत्मे य्धषस्वृतीयत्वे च वाचानिर्वः कारणमास्येयम्‌ । अथवाऽन्त- 
रिश मन्धवोणां निवासत्वेन गीतिप्राषान्यात्तत्साम्येन सानन द्वितीयत्वं यज्ञःस्थितकमंता- 
ध्यत्वात्स्वगेस्यं तत्कर्मसंबन्धा्जषस्वतीयत्वं चेति । ब्रह्मो कारो ब्रहमकोशत्वात्तेनैव स्व 
कमादयः पूज्यमाना दृष्टः । शरेषं पदांयचतश्येऽपि पूववद्याख्येयम्‌ । ` 
` इदानीं व्याहतीनां क्रियात्मकत्वमाई-भूरिति वे भ्राणः । भुव इत्यपानः । सुव- 
` रिति व्यानः। मह इत्यन्नम्‌ । अन्नेन वाव सरव प्राणा मही यतते । प्राण उच्छरासकमां। 
अपानो निःधासकर्मा | व्यानःप्राणापानसंधिस्थो वीवंवत्कमेहेतुः+अन्नमदनीयम्‌, अन्नेन प्राणा 
उक्ताशक्वरादयश्च । हेष पर्यायचतुध्येऽपि पवैवयाख्येयम्‌ । अयं रोकं इत्यादिकखक्त व्याहति- 
चतुध्यपयोयचतुध्येऽपि पाठस्य वेषम्याभावात्‌ । तत्राऽऽयेन पयायेण रूपनामकर्मत्मवं जगन्नेघा 
क्मेणामविभक्तानामादियः कारणमित्युक्तम्‌ । नामक्रियारहितस्य रूपस्य त्रेधा विभक्तस्य चन्द्रः 
कारणमिति हवितीयेनोक्तम । रूपक्निपारदितस्य नाज्नल्ेधा विभक्तस्य प्रणवः कारणमिति 
तृतीयेनोक्तम्‌ । सूपनामरदितस्य कमंणन्ञेधा षिभक्तस्यातरं कारणमिति चतुथेनोक्तम्‌ । तेन 
व्याहृतीनां सर्वात्मकत्वं सिद्धम्‌ । 

तदिदानीं संकपेणाऽऽह- ताः प्रसिढाः । वै स्मयंमाणाः। पताः पृवोंक्ता व्याहृतयः । 
चतस मूर्यैवः8वर्मह इति चतुसंख्याकाः । चतुधौऽयं लोकोऽभिकैत्वः प्राण इति चतु- 
ष्प्रकारा भूर्याहतिः। अन्तरि वायुः समान्यपन इति चवुष्प्रकारा युवोभ्याहतिः। 
ठोक आदित्यो यजंषि व्यान इति चतुष्प्रकारा खवन्याहतिः। आरियश्वन्दरमा अह्मान्नमिति 
चतुष्प्रकारा महोन्याहतिरिति चतसशवुष्प्रकाराः । तदेतदाह--चतस्श्चतस्नो शूराधाश्र- 
तल्शवतुःतंख्याकाः । पुनरप्ययं लोक इत्यादिनेकेकाऽप्यवान्तरमेदाशवुःसंर्याका । व्याह. ` 
तयो व्याख्याताः । ता एकेकाश्वुष्प्रकारा इत्युक्ता भूराया नियतप्रकारा य उपा्तको वेद्‌ 
जानात्युपासीतेखयथः । स प्रत्येकं नियमेन चातुरवधयेन चतसृणामालाङ्गभावैनोपासषको वेद्‌ 





५ पच्चमोऽलुवाकः ] तैत्तिरीयोंपनिषरीपिका -९ 


जानात्यपास्त श्तयः । ब्रह्म देशकाठवस्तुपरिच्छेवश््यं महोव्यायात्मस्मेनोक-। अन्मणि 
शते को काभ इत्यत आह-- सर्वे नलिका अस्मे महो ब्रह्मादमादित्यथन्द्मा श्लान्म- 
ङीथूतो मदीयान्यङ्गाबि भूरायास्तिसखो व्यादतय शृत्युपासकाय देवास्तदङ्शूता अग्न्यो 
वागादयश्च विश्च इव राक्ते प्रधानाय बर्टिं ददमीष्टरूपरसादिकम्‌ । आवहन्त्या 
भ्रापयन्ति । 
इति श्रीमत्परमहस्परितराजकाचायश्रीमच्छफरानन्द विरचितायां पदर्थवोधिन्या 
तत्तिरीयोपनिषदीपिकायां सीश्चवल्यां चतुथोऽनुवाकः ॥ ४ ॥ 


अथ पञ्चमोऽनुवाकः 


नतु महो ब्रह्मात्मा कत्र कथयपास्यत उपासनातः केन द्वारेण निर्मच्छति निर्गतो वा कैन 
-र्पेण त्र स्थित्वा देवदत्तं बिं गहणातीत्याशङ्थ तदेतत्सवै दक्षेयदि-स परोक्षः ! यः 
प्रसिद्धः। एष प्रत्यक्षः । अन्तहँदये हदयस्य प्ाकारस्य मांपखण्डस्याधोखखस्योध्व- 
नारस्य पञ्चच्छिदरस्य कदम्बकुखमकेसरेरिव सर्वतो नाडीभिः परितस्य मध्य आका- 
दोऽवकाश्चः । तस्मि्राकाशेऽयं प्रत्यक्षः स्व्यप्रका्मानो महोभ्याहत्यात्मकः । पुरूषः 
पए्रिशियोऽपि । परिपूणव्रह्मरूपो मनोमयो मनःप्रपानः । अश्रुतो मरणश्चल्यः । हिरण्मयो 
भास्वरः सवेक्ञ इत्यथः । 

कुत्र कथखपास्य इयनयोरुततरं जातश्र । अथ केन द्वारेण निगेच्छतीत्यस्योत्तरमाह- 
अन्तरेण तालुके ताछकयोमेध्ये । खसबिङस्यान्तर्जिदयामूकस्योपरि स्थितौ वामदष्षिणभागौ 
-ताट्के इत्युच्यते । यः प्रिद योगश्चाज्े । एष प्रलम्बिकाकरणग्रवीणजिहायस्पश्चनप्र- 
त्यक्षः परे चष्वष्प्तयक्षो वा । स्तन इव वत्सतरीपयौधरो यथा । अवलम्बते ऽवड. 
, स्बनं ङुरते ठम्बमानस्ति्ठतीत्यथः। खा ताङ्कयोरन्तरस्थस्तनमध्यवार्तिनी शन्द्रयोनिरिन्द- 
स्याऽजनन्दात्मनो योनिरपटव्धिस्थानम्‌ । कायबरह्यप्रानो निगंमनकारणं चेन्द्रयोनिः ! यत्र 
यस्मिन्पदे । असो प्रसदः । केशान्तो मृधोनमारम्योपरिघदशास्युरुपरिमितो देशः । ` 
केदान्तः--कथाधरेशश्च केशा ब्रह्मविष्णुमदेश्वरस्तेषामन्तो विनाश्रकारणमित्यथंः । केशान्तः 
परुषो बोव इत्यथेः। विवतैते-बोधरूपापरित्यागेनासत्यस्य मानाकारस्य शरीखतरवस्य ` 
साधिदेवादेस्तदमिमानदेश्वाऽऽकारेण परिणमते ! अथवा केशानां प्रसिद्धानामन्ते न आबो 
अटमित्वथेः । यस्मिन्देशे विशेषेण वतते व्यपोह्य भिचा । शीषकपाडे शीष्णा मृधः 
कपाठे शकटे । विनिगेता या नाडीति शेषः । एष स्तन इवावठम्बते तन्मध्यवार्तिनी 





भ 


( १) “वथाऽयस्योपरि केरानामभावादग्रमन्तदग्देनोच्यते, तथा मूल्ादभोऽपि तदभावान्मूमपयन्त्च- 
ब्दनाच्यम्‌?" । 


१० रोकरानन्दङृता ,  शीक्षाव्ही 
यत्रासो केशान्तो विवतते तत्र प्रतिठितामति श्चेषः । तत्रोपपत्तिव्येपोद्य शाषंकपारे विनिम 
ता यासेन्द्रयोगिरित्यन्वयः। अनया कार्थं बह्म गच्छन्गच्छतीत्यथेः। अनेन शमने भागे उक्तः। 

इदानीं तत्तब्याहत्यात्मकस्तेषु तेषु भ्याहटतिप्रकारेषु स्थित्वा देवदतं गृह्वन्ध्यात्मपरिच्छे- 
दक्षन्यः स्वाराज्यं करोतीत्याह-भूरिति । उक्तोऽथों व्याइतेः। इति शब्दश्च व्याहृत्य- 
डकरणार्थः। अथो प्रथमन्याहत्यात्मके । प्रतितिश्चति प्रतिशं प्राप्नोति । इदं पदं वक्ष्यमा- 
मागेष्वपि तरिषु पर्यायेषु योजनीयम्‌ । भुव इति व्याख्यातम । वायो द्वि तीयन्याहतिरूपे । 
सुवरिति व्याख्यातम्‌ । आदित्ये त॒तीयम्याहतिरूपं । मह इति व्याख्यातम्‌ । ब्रह्मणि 
काय बह्मण्यन्तःकरणदयदो ब्रह्मकषानोत्पादास्परे जद्मणि वा । अत्र यद्यपि मह इति चन्द्म- 
सीति वक्तव्यं प्रायपाठात्तथाऽप्युपास्याङ्ञाङ्िजातं सव बभ्याप्रोतीत्येतदृशंयिठमनास्थावादेन 
चन्द्रमसं परित्यज्य मह इति बरह्म तद्धधयेति वोररीकृत्य मह इति ब्ह्मणीत्याह । 

व्याहत्यपासानामातरानियौणब्रहमप्रापतिरिति शङूानिवारणाथंमाह--आभ्रोति प्राप्रोति । 
स्वाराज्यं स्वयमेव राजते दीप्यत इति स्वराट्‌ तस्य भावः स्वाराज्यम्‌ । नड केवल्बरहमप्रा- 
पिर्येतादृश्यवेत्यत आह--आभरोति प्राभ्नोति । मनसस्पति मनश्वब्दोपराक्षितस्य ज्ञान- 
कियाक्षक्तेरन्त्करणस्य पति पाठयितारम्‌ । स्वोपीधकत्वाभिमानेन हैरण्यगभमित्यथः । 
तं प्राप्य क्रियाक्ञानकरणानां तदत्प्रसभवतीत्याह-- वाक्पतिर्वागिति करमेल्दियमान्रस्योप- 
रक्षणम्‌ । वाचः पत्तिवौक्पातिः 1 चकषुष्पतिः आओजपतिः स्पध्य । चष्टःभोत्रयोर्महणं त्व- 
ग्राणरसनानाखपरक्ष णार्थम्‌ । विज्ञानपतिविज्ञानं उदिस्तस्य पतिर्विक्तानपतिः। विज्ञान- 
श्दोजन्याकृतव्वतिरिक्तस्य सवेस्योपलक्षणथः । 

अपेक्षितं सर्वमप्युकत्वेदानीं “ महो ब्रह्म॒ तासिन्रयं पुरुषः › इत्यादिनोपास्यत्वेनाकं 
यदुत्यतनब्रहम्ञनेः प्राप्यमङ्गीभूतं वक्तुमारभते संक्षेपेण प्राचीनयोग्यस्य पितुरूपा श्रुतिः 
स्वुत्रस्योपासनाथेम । एतदे तस्मिन्ब्याहत्युपासने प्रधानश्तम्‌ । ततो भवति तस्मात्का- 
रणाद्धवति । उक्तमिति शेषः। आकााद्ारीरमाकाशोऽन्याकृतं क्षरीरमिव स्वं यस्य॒ तदः. 
काशशरीरम्‌ 1 ब्रह्य तद्धबेति-महाव्याहत्यभिनं यदुक्तं देश्काल्वस्वुपरिच्छेदश्चन्यम्‌ । स- 
त्यात्म सत्यो बोधरदित आत्मा चिदानन्दस्वभावो यस्य तत्सत्यात्म । ग्राणारामं प्राणे 
स्वारमत इति प्राणारामं सवेप्राणिस्थितमित्यथेः । तटस्थत्वशङ्कं वारयति मनञ्जानन्दं 
मनस आनन्दो यस्य तन्मनञआनन्दप्‌ । तर्हिं दुम्लीत्याशङ्याऽऽह-श्ान्तिसमरद्ध चान्तिदंः- 
खोपरतिस्तया सद्धं संपन्न सवेदुश्वद्यन्यमित्यथैः । 

नन्वस्तु सर्वव्रो्कृ्टं तथापि सवोभदान्मरणमप्यस्येवत्यत आद-अंस्रतं मर णदल्यम् । 
यदभेदादन्यस्यापि मरणमपगच्छति तोऽस्य कास्काटस्य मरणमित्यथेः । इत्यनेन प्रका- 
रेण तददमस्मीत्यवगन्वुमशक्तशरे त्माचीनयोभ्य प्राचीनेषु कादयपादिषु योग्योऽधिकः पा- 


६ षष्ठोऽनुवाकः | तेत्तिरीयोपनिषरहीपिका ११ 


चीनयोग्यः सर्वेभ्य उत्कृष्ट इत्यथः । तस्य संबोधनं प्राचीनयोग्य । उपास्स्व मदतन्यादति- 
रूपमिदमहमस्मि ममाङ्घानीतरा यथोक्ता व्याह्तयः इति; शासखरास्तरप्रसिदं वा * मनो- 
मयः प्राणशरीरः ° इत्यादिरूपं व्याहत्यपासनाभ्यतिरिकिद्धपास्स्व विजातीयप्रत्ययश्चन्येन 
स्षजातीयप्रत्ययप्रवादेण यथोक्तषमं साष्चातकुर्वित्य्थः । अथवा को दिरण्यगमंप्रा्तो एर्वे 
इयाश्चङ्कय व्याख्येयम्‌ । ततो दिरण्यगभंप्राप्ेरनन्तरखत्पत्तरहमजान एतदक्ष्यमाणं जघ्न 
भवति । अस्मिन्पक्ष इत्यारभ्य प्राचीनयोग्यपितुवाद्यं दव्यम्‌ ॥ 


इति श्रीमत्परम्सपलिाजकाचार्य्रीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदार्थोषिन्यां 
तैतिरीयोपनिषदीपिकायां शीक्षावर्स्यां पषमोऽनुवाकः ॥ ५ ॥ 


अथ षष्ठोऽनुवाकः 

चतसणां व्याहतीनापांस्तन उक्ते तदनन्तरभाविर्गी पञ्चसंख्यायुररीकत्य पच्चभ्‌- 
तात्मकविराटप्रासिफटं पाङ्खपासनमाह-पुथिव्यन्तरिक्चं शयोर्दिशो.ऽवान्तरदिशः 
स्पष्टाः पृथिव्यादयः पच्च पदाथोः । त्रिलोकी प्राच्यादयश्रतख आग्रेय्यादयश्वेति पञ्चकं खक- 
पाङ्म । अभ्रिवयुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि, स्पष्टा अग्न्यादयः पच्च पदाधाः 
इदं देवतापाङ्कम । आपो नीराणि । ओषधयो व्रीद्याद्याः । वनस्पतयोऽदष्पाः फल- 
बन्तोऽत्थादयः। आकाशो भूताकाशः। आत्मा भोतिको देहोऽिदेवादिः। इतिः त्ष- 
माप्तो । अधिभूतं भूतानि एथिव्यादीन्ययिकृत्योच्यमानमधिभूतम्‌ । लोके देवानामपि भूत- 
विकारत्वेन भूततच्वमङ्गीकृत्याधिभूतमित्युपसं हारः । 

अथाधिभतपाडुकथनानन्तरम्‌ । अध्यात्ममात्मानमिमं स्थूदेहमधिकस्यं । पाङ्कष 
च्यत इति शेषः। प्राण उच्छासकम धछत्तडयिकारी । व्यानः प्राणापानयोः संधिस्थो वीय- 
वत्कमहेतुः । अपानो निन्वासकमां मलमूत्रादिविसगंहैतुः । उदानः सवत्तधिषु कौटव. 
दवस्थितः। यचल्ने हिकादिः प्राणापानादीनामप्यनवस्थितिः सवे प्राणवन्धनमूध्वेगामी मरण- 
हेठः। समानो ऽशितस्य पीतस्य चाऽपादमस्तवःं समं यथायोगं नयनं करोतीति समानः! इदं 
प्राणादिपञ्चकं वायुपाङ््‌म्‌ । चक्षू सूपग्राहकमिन्दियम्‌ । श्रोत्रं शभ्दपराहकामिन्दियम्र । 
मनः सापारणक्ञानकारणम्‌ । वाग्बागिन्दियमभिवदनकारणम्‌ । त्वक्स्पश्तोपठण्धि- 
कारणमिन्दरियम्‌ । इदं चक्रादिपच्चकाभिन्दियपाङ्म्‌ । चमे त्वगिन्ियाधिष्टानमापादमस्तकं 
व्याप्य व्यवस्थितम्‌ । मांसमनत्रस्य मध्यमः परिणामो मदुलो घनीभूतः । स्नावा धमनिः, 
जाताविकवचनत्वान्नाढ्य इत्यथः । अस्थि प्रसिद्दः =तं शरीरश्चालार्वलस्तम्भादिखूयम्र । 
भञ्जा स्थिरमांसयोरन्तरावस्थोष्णकाठीन्नीतरगप्रदेशस्थघुताकाराऽस्ध्नोऽन्तगेता । इव 


(१) छा, उ. २३.१४२ (२) र्ण कार~-पाटः। 


१२ । दौकरानन्द्कृता { चीक्षावही 


चमोदिषच्चकं वाठपाङ्भ्‌ । एतदुक्तं एथिष्यादिकं मजान्तम्‌ । अधिविधायाधिकृत्य 
पद्चकखपरुभ्येत्यथः । ऋषिवेदो वेदाथ वा । अवोचटुक्तवान्‌ । पाड प्चाक्षरप- 
डिन्डन्दोरूपय । वै भ्रसिदं पञ्चसंख्यातयेन । इदं पथिव्यारिकम्‌ । सार्व निखिकं 
पाड्धेनेव पञ्चसेख्याकरान्तेनैव पादुः पञ्चसेख्याकरान्तम्‌ । स्पृणोति प्रीणयति । पोष्यो. 
षकादिकं सर्वं पाङ्कमिखथेः। पाकः बा इदं सर्वं॑यृतस्ततः पाङेनैव पाडः स्पणोतीति 
योजनीयम्‌ । इत्यनेन प्रकारेण । स्वयं पञ्चात्मको विश्वं चेदं पञ्चात्मकं सवेणाभिन्नं पञ्चा- 
त्मकं स्वात्मानं जानतस्तादृण्विराटूप्रक्िफकमथेसिद्धमिति तिरनोक्तवती ॥ 
इति श्रीमत्यरमदंसपरित्राजकाचार्श्रीमच्छरैकरानन्दविरचित्रायां पदाधबेधिन्यां 
तेततिरीयोपनिषदीपिकायां श्ी्षावल्यां षष्टोऽनुवाकः ॥ ६ ॥ 


अथ सक्तमोञ्लुवाकः 

पञ्च्तख्यासामान्याता ङूमिदं प्वेमित्युक्तं, तेन सवोत्मकं बह्म हृदिस्थं ब्रह्मणश्च को- 
शमभूत ओकारः पूवेखक्तः । इदानीं तत्कोक्षत्वोपपादनाथं नररोकारस्योपासनमाह--ॐ 
ब्रमवाचकः । इतिरौकारादकरणाथे- । ब्रह्म वाच्यम्‌ । अभिधानाभिषेययेोस्तादात्म्याद्वा- 
चके वाच्यस्य दृष्टिः करणीया । शाखग्राम इव विष्णोरित्यथेः । नड सति सास्य ओंकार- 
नह्मणोरोकारे तदृष्टिः क्रियमाणोचिता स्यादन्यथाऽन्धगोराङ्ग्न्यांयमात्रमित्यत आह-ओ- 
मिति । भ्याख्यातम््‌ । इद £ सर्वै विविधप्रत्ययगम्यं कार्यकारणादि निखिकम्‌ । अयम- 
थः--शब्दप्रपञ्चः साोऽप्योकारेण व्याप्न इति नात्रोपपादनीयं किंचिदस्ति । शब्दाथयोस्ता- 
दारस्य विप्रतिपत्तावापि वाचकत्वटक्षणेष्विनाभावे न विवादः । यथेनाविनाभूतं तत्तस्व कायम्‌ , 
यथा भरूमाग्न्योः । कायकारणयोः साम्यं यथा मृदधटयोः । तत ओंकारस्याऽऽत्मनश्च सवौ- 
भित्रत्वादस्ति साम्यमित्वोकारोपासनाथमोंकारो लोकिकवैदिकव्यवहारकारणत्वेन स्तूयते । 

ओंमिति व्याख्यातम्‌ । एतदोकराराभिवानम । अयुङ्ति गच्छ, पिव, पेत्यादिवचन- 
मद ॒भूत्यदेरङ्गीकारवचनमोमितिकरणमवकृतिराह । ह॒ किर । स्म प्रसिदम्‌ । व 
स्मय॑माणम्‌ । अपिरभ्युबये । न केवट लोकिकव्यवहारकारणमोकारः, किंतु वेदिकस्थापि । 
° ओ ` ओमित्यथंः। श्रावय हविषः परित्यागार्थं मन्त्रं देवान्भावय । इति--अनेनः 
प्रकारेण । उक्ते वेदिके कमैण्युत्िज आश्रावयन्ति स्मन्तदिवान्मन्वरभ्ववणं कारयन्ति ॥ 
आभेति व्याख्यातम्‌ । सामानि गीतिसदिता ऋचः । गायन्ति यज्ञकरमण्यन्यत्र चः 
पठन्ति ¦ ओं व्याख्यातम्‌ । शौ शं छतं तदेवो ९ शोमित्यदकरणार्थः । शख्ञाणि श- 

( १) यथा कत्यचिदन्धस्य स्वेष्सितस्थलं गन्तुमशषक्लुवानस्य हस्ते केनविद्दुष्टेन बहीव्द॑स्य लाङ्गुलं 


दत्तवेष त्ामीन्सितस्थलं प्रापयिष्यतीदयुक्ता परस्थापितोऽन्धो मोक्षभयद्ोपुच्छं दढं गृह्‌, लाङ्गूल्यहणम~ 
सहमानेन इकवराकण्टकोपलादिषु जवात्धावमानेन गवा व्यापायते स एष गोलाद्गूलन्यायः । 


८ अष्टमोऽनुवाकः ] . तैत्तिरीयोपनिषदीयिका १३ 


कभ्दाभिधेयारृग्विकेषान्‌ । छ «सन्ति पठन्ति यशकमेष्यन्य्र च । भिदि म्पारूयातम। 
अध्वयुयाज॒ष ऋतिू । भ्रतिगरं गरणं बा्मन+कायानां विहितं भ्यापारमललं मर, तेव 
संबद्धं प्रतिगरः कम॑, तं प्रति कर्मणि कमेणीत्यथः । गृणाति शन्दं करोति । प्रतिगरं 
यजर्विशेषं वा प्रतिगणाति पटति 1 अस्मिन्पक्न ओमित्यवायति शेषः! ओनमिति श्या 
ख्यातय्‌ । अह्या-करत्िभ्विकनेषः । प्रसोत्यदजानाति । ओमिति व्याख्यातम्‌ । अग्रिहोषं 
जहोतीत्छकत होत्रादिना स्षमीपस्थोऽ्निहोतरं नित्यं काम्यं वा कमोनुजानाति जडुषीत्यदशां 
प्रयच्छति । ओमिति व्याख्यातम्र । ब्राह्यणो ऽध्येष्यमाणः । प्रवस्यन्पाग्थ प्रकर्षेण 
वचनं करिष्यन्‌ । आह्‌ घृते । 

अओंकारवदने कारणमाह-- ब्रह्म वेदम्‌ ! उपापरवानिं स्वाधीनत्वटक्षणेन सामीप्येन 
पराप्रवानि । इति-अनेनाभिप्रायेण । चड़ किमभिप्रायमात्रमित्याशङ्धुय नेत्याह-जह्य वेद- 
मेव । उपाप्नोति स्वाधीनत्वसामीष्येन प्रा्रोत्येव न त्वभिप्रायमात्रम्‌ । अत्र फठं च त्रह्न- 
्ानोत्पादद्वारेण सवौत्मत्वप्रापतिरदक्ताप्पि द्रव्या । अथवा ‹ ओमिति ब्राह्मणः ` इत्या- 
दिकं फलवचनम्‌ । अस्मिन्पक्षे ्राह्मणः साधनचतुध्यसंपन्नः संन्यासी प्रवक्ष्यन्प्रकषेण 
‹ तत्वमसि ' ‹ अहं ब्रह्मास्मि  इत्यादिवचनजातं वक्ष्यन््रह्म सत्यत्ानादिलक्षणम्‌ ॥ 


इति श्रीमत्परमंसपरिनाजकाचायंशभीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदार्थबोधिन्यां 
तेत्तिरीयोपनिषदीपिकायां शीक्षाव्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


अथाऽष्टमोऽनुवाकः 


नद--एवमप्य{८जरैए्याप्संसता न स्यादस्ति च इखक्षा, कि तेन करणीयमित्या- 
शङ्कुथ कर्मैव तेन करणीयमित्याह-- ऋतं च यथाशाल्ञकरमविषयं ज्ञानम्‌ । चकारः स्वाध्या- 
यप्रवचनाभ्यां सखच्याथः । स्वाभ्यायप्रवचने च स्वाध्यायोऽध्ययनं प्रवचनं ब्रह्मयज्ञोऽध्या- 
प्रन वा । चकारोऽनयोरुक्तेन सत्यायः । सत्यं मनःकायाभ्यामद्टीयमानं कमं सत्यवचनं 
वा ! तपः कृच्छचान्द्रायणादिरूपं स्वपमंढत्तित्वं वा । दमो बाचचेनरियनिग्रहः । शमोःऽन्तः- 
करणोपशमः। अस्मयलयः पच्च वा । अह्नं नित्यं श्रोतं कर्मं सायेप्रातहोमोपठक्ितम्‌ 
अतिथयोऽज्ञातकुठगोत्रा ब्राह्मणादयोऽशनायर्थं॑दशदितिधिमन्तरेणापि गृान्समागताः । 
अतिथिकरब्दितिसोमोपरक्षितयागा वा । मानुषं पत्रादिविवाहादो बन्ध्वादीनां यथोचितं पूज- 
नम्‌ 1 प्रजा पुत्रादिका । प्रज्ञनः प्रनननस्तो भार्यागमनमित्यथः । प्रज्ञाति; पोत्रायुत्पततिः 
ुत्रायादरूपा प्रिया च भायां तादृशश्च वरः कन्यायै । एवं पोत्रपोत्यादेरपि संपादनीयमि- 
स्यथः ! अत्रतमित्यादो संपादनीयमिति दादशस्वपि पयययिष्वेकवचनद्विवचनवहूवचनानुसारे- 





( १) छा. उ, ६. ८. ७. (२) ब्र. उ. १. ४..१०. 


१४ रकरानन्दकृता ` . [ शीश्एवही 


णाध्याहरणीयम्‌ । सवत्र च स्वाध्यायग्रवचनयौीः पारस्तत्रात्यन्तमाद्रदक्रनाथः । शेषमेकाद्‌ 
ज्स्वपि पयाये समानपाटद्तमिति पयांयवद्याख्येयम्‌ 1 


इदानीष्टषीणां मतान्यत्रोपन्यस्यति-सत्यखक्तमर । इति--एव । सत्यवचाः सत्यः 
वादी, नामधेयं वा; राथीतरो रथीतरगोत्रः । अनु्ेयं मदत इति, अत्र वक्ष्यमाणऽपि यथा. 
योगमध्याहरणीयम्‌ 1 तप इति तप एव ! तपोनित्यस्तपहि नित्यं वर्तत इति तपोभित्यो 
नामधेयं वा; पौरुरिष्टिः पर बहूवेरं मातुपित्राचायैः रिष्टः पुरुशिषटस्तस्यापत्यं पौरुशिष्टिः । 

पूरवैपश्षखक्त्वा सिदान्तमाह-स्वाध्यायपवचने ! भ्याख्यातम्‌ । एवं न तवन्यत्सत्यं 
तपो वा । इतीत्थमर । नाको नामतः भौद्धस्यो खदं शाल्राथानिर्णयरूपां गठति स्रवतीति 
शुद्ररस्तस्यापत्यं मोदल्यः । अस्य पक्षस्य ॒सिदान्तत्वङपपादयति- तत्स्वाध्यायप्रव. 
चनावनम्‌ । हि यस्माप्र्‌ तप उक्खपठक्षणमिदं सलयस्यापि । तस्मादिदमेवाधिकमिति 
षः ¦ अस्व पक्षस्याऽऽदरार्थं द्विर्वचनम्‌ । तद्धि तपो ष्याख्यातम्‌ ॥ 


जते श्रीमत्परमसपरिनाजकाचार्॑श्रीमच्छेवरानन्दविरचितयां पदाथबोधिन्यां 
तैत्तिरीयोपनिषदीपिकायां दीक्षावट्यामष्टमोऽनुवाकः ॥ < ॥ 


अथ नवमोऽनुवाकः 

नद--अध्ययनस्य ब्राह्मण्यजातिप्रयुक्तत्वेन कतैम्यतया सिदत्वात्न तस्य करणीयता, अ- 
ध्यापनस्य चानियत्वान्न तस्यापि । नित्यः स्वाध्यायः स्वाध्यायप्रवचनकब्दाभ्यां प्रतिपा- 
ऽतः शिष्यते ! न चासावपि कतुं शक्योजनेककायेन्यग्रत्वात्‌ । न चाशक्मं विदधाति 
विषिः। ततः स्वाध्यायप्रवचने एवेति यरिकिचिदेतदि्याश्चङूय तन्मन्त्रमातरं नित्यं जपनीयम्‌ । 
अन्यत्तु यथाशक्ति । तावताऽशक्यत्वाभावादित्यभिप्रायवानाह--अहं नित्यस्वाध्यायस्य 
कतो । बु्चस्योध्वैमूकस्यावाक्शाखस्य वनस्पत्तरधिदेवादिभिन्रस्य स्थूसष्मश्चरीरस्ये- 
त्यथः । रेरिवा प्रेरयिता । कीर्तिः स्ववणौभमोचिताद्ानकारित्वेन विद्यया चेहा 
पण्यं यश्चः। पष्ठमत्यच्छतं शङ्कं ठोकद्वयदशेनस्य विषयः । गिरेरिव पर्व॑तस्य भेरोयेथा 
तथा । मम स्यादिति शेषः । ऊर्ध्वपवित्र उध्वं कारणं पवित्रं ब्रह्न यस्य मम देहादि 
तयातस्य सोऽदमूथ्वेपवित्रो उधोऽप्यहमेवेत्यथैः । वाज्ञिनीवं वाजोऽन्नं देवानां सेहि- 
तादिरूपं प्रपिद्धमस्मदादीनां चास्यारतीति वाजी सविता तस्मिन्यथा । स्वमूतं 
रोहितादिरूपमानन्दात्मस्वरूपं वास्मि । द्रविणं घनं हिरण्यादिरि (कं ) वाऽ्जन्श- 
त्मस्वरूपमर .। सवचैसं वचैस्तेनो ब्रह्मसाक्षात्कारस्तेन तह वतत इति सव्वं एव 
सवचेसम्‌ । सुमेधाः इष्ट मेधा तच्वम॑तिः “अहं ब्रह्मास्मि" इत्यादिश्चतधारणर्पा यस्थ स 





( १) छ. उ, ६. ८. ७. (२) इ. उ. १, ४. १०. 


१० दङ्ामोऽलुवाकः] तैत्तिरीयोपनिष्दीपिंका १५ 


छमेधाः। अयुतोक्षितः - अस्तेन युरकटश्षष्योक्ितः सेचितः, अतो मरण्न्योऽ्षितो 
विकारान्तरहीनो वा तथा मम स्यादिति । अध्यादाराभाव सास्म्यञ्चानं कीर्तिरप्यहमस्मोति 
व्याख्येयम्‌ । श्तिराद-इति-अनेन प्रकारेण । स्वधमनि्स्याऽऽषेदशेनरसंपननस्य त्रिराङो- 
राध्यात्मिकाषिभौतिकाधिदेविका दुःलस्वरूपाः शङौ यस्य स तरि्रङुः । तस्य शशं सं- 
सारतपिः संतप्तस्य परमवैराग्यं प्रा्स्येत्यथैः । वि्ष्कुनामो वा । वेदायुवचनम्‌-- अहं 
संसारस्य प्रेरयिता, यशः ८ स्य >) संसारोऽवियया, वस्ठुतस्त्वानन्दात्मस्वरूपो बअह्साक्षा- 
त्कारवान्युरुकटाक्षपातेनेति वेदनं वेदः। तमनु पश्नाह्चनमर अहं चुश्चस्य' इत्यारभ्य 
“अगुतोश्षितः इत्यन्तं वेदादवचनम्‌ ॥ 

| इति श्रीमतरमदंसपरिनाजकाचायश्रीमच्छंकारानम्दविर चितायां पदार्बोधिन्यां 

तेतिरीयोपनिषदीपिकायां शीक्षावल्ल्या नवमोऽनुवाकः ॥ ९ ॥ 


अथ दरामोऽनुवाकः 

सत्यादीन्यतेयान्यन्तसरखेन ८ ण ) ख॒सश्चणा। तानि र्वि सति खखषत्व एवादष्ेयानि नेतरः 
त्याशङ्क्य ख॒॒चत्वेऽखखष्वत्वे वोपनयनमारभ्याऽऽब्ह्मसा्षात्कारमारमशानं वा स्ववणोभमो- 
, चितानि कममांणि करणीयानी्येतदर्थं युस्कुङत्प्रवसतो बह्मचारिण हदखपदेश्यमाचायेणेत्यभि- 
प्रायेणाऽऽह--वेदश्गायन्यतमं, स्वालामात्रं वा । आदरो नेकवचने द्वौ त्रीशतुरे वा साङ्ग. 
विशोपविदा ( वेदोपवेदा ) न्‌। भनूच्य तदुपयनमन्क्स्वा । आचायः शिष्यञधपनीय कत्प- 
रदस्यादिसदितस्य वेदस्य क्ता । अन्तेवासिनं छायावदपरित्यागिनमाह्वानेनाध्ययनस्य कतो 
रमित्यादिशिष्यलक्षणसंपन्रं शिष्यमयुशास्ति वेदवचनमदशासनं करोति अदशासनं ङया- 
दित्यः । सत्यं यथाप्रमाणदृष्टं हितं प्रियं च वचनम, वदोचारय । ध्म स्ववणौश्नभवि- 
हितं कमं चर आचर । स्वाध्यायानित्यस्वाध्यायात्‌, मा प्रमद्‌; प्रमादं मा का्षीः। 
आचायीय मं, परियमिषट, धनं गोधनादि, आहत्य समस्तविष्ानिष्यार्थ, सदृशन्दारा- 
स्वीकृत्य प्रजातन्तुं एत्रपोत्रादिसंतति, भा व्यवच्छेत्सीव्येवच्छेदं मा कार्षीः ! तपो 
तरादथं दु्टथोऽदृष्टायेश्रोद्मः करणीय इयथः । 

सत्यादीनां कतेम्यतोक्ता, तेषामन्येषां, च करणीयता, तेषामेव कदाचिद्धारणीयतेति इटि 
वारपिठमाह--सत्यादुक्तान्न प्रमदितभ्यं प्रमादो न करणीयः! निरन्तरं तदेवाठ्ेयमित्य- 
यैः। षमोदुक्तात्न पमदितव्यं भ्याख्यातम्‌ । कुदालास्ेमकरातवर्मणो्ृषा्थाज्न प्रमदितव्यं 
व्याख्यातम्‌ ! भूय भतेरेथयात्। न भमदि तव्यं व्याख्यातम्‌ । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां 
नित्यस्वाध्यायाधीताविस्यतो दृष्ाथोध्यापनायाभ्याम । न प्रमदितव्यं व्याख्यातम्‌ । यदपि 
° स्वाध्यायान्मा प्रमदः ” इत्यनेवेव स्वाध्याये प्रमादरादित्यं पराप्तं तथाऽपि सवेभ्यः कतन्येभ्यः 


(१) णवे सवौलन्ञा पाटः । (२) शस्पृतिद० पाठः 1 





१६ कंकरानन्द्कृता [ सीक्षाव्डी 
सवराध्याये महान्यलः करणीय शत्येतदथं एनः स्वाध्यायेस्याह । देवपितृका्याभ्यां देवकारं 
देपोणंमासादि पित॒काय पिण्डपितुय्ञादि, अथवा देवकायं दृदधिभाद्वादि पिचूकायं सृतभा- 
दादि तास्या्‌ । न प्रमादेतव्यं व्याख्यातम । मातृदेवो माता देवो यस्य स मादृदेवो भव 
भूयाः ! पितृदेव पिता देवो यस्य स ॒पिद्देवो भव भूयाः । आचायदेव आचाय 
देवो थस्य स आचायदेवो भव भूयाः । अतिथिदेवो ऽतिथिेवो यस्य सोऽतिथिदेवो भव 
भूयाः । जननीजनकाचायांतिथीनामभीषटदेव तावत्पस्वियां इर्वस्तद्क्तकारी कमणा मनसा 
वाचा तदिध्मेव चेष्टं इर, मा प्रमादेनापि तदनिषटचेशटमिदययथेः । 

# ननु यद्य्पू्ैः कृतं तत्करणीयम्‌ । तथा च जामदग्न्यः स्वजननीं जघान, शनःशेषः 
स्वजनकं तत्याज, याज्ञवस्क्यस्त्वाचारय, गोतम इन्दरमतिर्थिः बह्मा स्वतां जगाम, इन्द्रजिसीर् 
ब्राह्मणं जघान, क्षत्रियो बर्देवः खरां पपौ, सोमो गुरोभायां जहार, इत्यादि महतामाचारा- 
सारादहमप्यवषशस्यामीत्यत आह--यानि प्रसिद्धानि, यनवदययानि-अदुष्ानि महताम- 
प्याचरितानि शाने ठोके वा निन्दारहितानीत्यथेः। कमणि लोकिकानि वैदिकानि च कतं. 
म्यानि तान्यु कान्यनिन्दितानि महतामपि । यथा जामदग्न्यः पितुवचनं चकार, छनशेपो 
निश्वामित्रस्योपकारं न विसस्मार, याज्तवस्क्यस्तपसाऽऽदित्यमवाप्य श॒ङ्कानि यञषि प्रतिपेदे, 
गौतमः स्वभायाजारयापीन्द्राय प्राणपयन्तं कोपं न चकार, त्रद्मा पुत्रोत्पस्यथं महान्तञ्चमं 
चक्र, इन्द्रश्च व्रिखोकीस्वास्थ्यार्थ निन्दितां इत्यामपि स्वीचकार, बर्देवश्च गेषोऽपि देवत्रा- 
दणकायार्थं शकशोणितश्सीरमपि स्वीचक्रार, सोमो गुरोगरीयसीं कीतिं चकार--इत्यादीनि 
त्वया सरेवितव्यानि-अनुयानि । 
नद्--पिठुवं ( तुव ) चनकरणादीन्यचशस्यामि महद्भिः कृतत्वान्मातु्वं ८ तुव ) धादीनि 
चेत्यत आह--नो निरेयाथः, इतराणि मातुवे ८ त॒व ) धादीनि सेवितव्यानीत्यनुषद्गः । 
चनु तदन्यः कृतान्यवयानि कर्माणि नानुास्यामि, किंतु मदूगुरुभिभवद्विः सेवितानि सवौ- 
ण्यपि वेदैवोक्तानि “ अधिहोवं होति ” “ न कांचनं परिहरेत्‌ ” शत्यादन्यनुषस्यामीत्यत 
आह- यानि प्रिदानि, अस्माकमाचायांणां वेदानां वा सुचरितानि विदितानि कर्मा- 
ण्वस्मामिरनुष्ठीयमानानि “ अग्निहोत्रं जह्यात्‌ ” इत्यादीनि वेदैरुक्तानि वा शोभनानि शोकद्ध 
यश्नेयस्करत्वेन । तानि उक्तानि खचरितानि । स्वया रिष्येणोपास्यानिं निरन्तरमनु- 
छेयानि । 

निन्दितानामाचायैः कृतानां वेदेरुक्तानां वाऽनरषयत्वमाह-नो इतसाणि । न परदारग- 
मनादीन्यपास्यानीत्यदषङ्कः । ये के च संबन्थिनोऽसबन्धिनो वा तवे । ये के चास्मदस्मत्त- 
स्त्वदाचायेम्यः । श्रेया सोऽतिश्चयेन प्ररस्याः केचन । तदि कं क्षत्रियादय इत्यत आद-- 


(१)ते. सं. १.५. ९. १.८२ )? (३)? 


१० दश्चमोऽलुवाकः ] तैतिरीयोधनिषहीपिका १७ 


ब्राह्मणा जाणत्वजात्यापकान्ताः '। तेषाछक्तानां जाद्षणानाम्‌ । त्वया.ऽस्च्छिष्येज । 
आसनेना.ऽऽसनोपलक्षितसत्कारकरणेन प्रश्वसितव्यमासनदानादिना स्वथ्दमागतानां 
प्रासः श्रमापनयः करणीयः । अथवा तेषामासन उपवेक्षने समायामित्वथः ! न्‌ प्रश्वि- 
त्यं परशासोऽपि न करणीयः, किमुत वातादिकम्‌ । केवलं तदु्तयाहितया स्थेयमित्यथेः ! 
श्रद्धया ऽ ऽस्तिक्यद्ध्या । देशकाठपात्रसंपत्तो सत्यां विभवादसारेण गोभूहिरण्याश्नपाना- 
दिकं यथोचितं देयं दातव्यम्‌ । न विपर्यय इत्याह-अश्चद्धया नास्तिक्यबदया । अदेयं 
न देयम । भिया विभूत्या । देयं दातम्यगर । द्विया खन्या । देयं दातन्वम्‌ । भिया 
भीत्या । देयं दातव्यम । संविदा मेत्यादिकरणेन । देयं दातव्यम्‌ । भियादिनिमिततेषु 
दानेष्वास्तिक्यदटिपएरःसरमेव देयं, न तु नास्तिक्यबुदयेति तात्पयथः। 

अथ महदुपदेशानन्तरभ्‌ । यदि पक्षान्तरे । कथंचित्ते तव शिष्यस्य मदुक्तं कर्मंजातमनु- 
तिष्ठतः । कमेविचिकित्सा वा कमस्गिहोत्रादिषु संध्यावन्दनादिषु वा श्रोते स्मातषु 
^ उदिते जहोति ” “अनुदिते होति" “सावित्रीं जरीदेवतां पुरषदेवतां वा” इत्यादिवाक्येभ्यो 
विचिकित्सा संशयः । वाराब्दो धिषर्ययाथों विपर्ययो वा । इत्तविचिकित्सा वा टत्तमाचारः 
कुरुपरम्परागतस्तस्मिन्विचिकित्सा संशयः । यथा केंषाचिन्मातुलछताविवाहमांसमक्षणादिकं 
किंचिदपरषां नेदयादिदशषनेन । वाशब्दो विपर्यया्थः । वैदिके लोकिके च कर्मणि संशयोत्पादे 
विपरीतप्रटृत्तिव पण्डितमन्यत्वेनेयथः । स्याद्धवेत््‌ । तदा ये प्रसिद्धा नीरागद्वेषा यथाश्च- 
खाहयायिनः । तन्न तस्मिन्देशे, यत्रे भवतो निवासः । ब्राह्यणा ब्राह्मणत्वजायाऽऽकान्ताः । 
संमस्धिनः संम रागदवेषोत्छक्यराहित्येन शाल्नाथनिर्णयः, स येषां नियमात्ति ते संमर्धिनः। 
युक्ताः कमोदषटानयोगरता नित्यमित्तिकादशनशीठा इत्यथः । आयुक्ता अ-~परप्रयुक्ताः 
शाल्ञा्थस्य वचनेषचषठाने चान्यभीतिरहिता इत्यथः । अद्दरष्षा अरुक्षाः कणकटोरवचनपरानि- 
कारिबदधिरहिता इत्यथैः । धमेकामा चमं एव कामोऽभिठाषो येषां ते घमंकामाः । स्यु- 
भवेयुः! यथा येन प्रकारेण । ते यथोकविशेषणविचिष्ट जाह्मणाः तञ्च तस्मिन्कमोणि इत्ते 
वा । वतैरन्त्ति इर्वीरन्यथाऽदतिष्टन्तीत्य्थः । तथा तेन प्रकारेण । त्वमपि त्न कमाणि इत्ते 
वा । वतेंथा टत्तिं रु तद्वचदहतिषेत्य्थः । अथ--अथवा तेष्वभ्याख्यातेष्वभ्युक्ता 
दोषेण संदिद्यमानेन संयोजिताः केनचिन्तेषु । भ्याख्यातमन्यत्‌ । 

एष ^ सत्यं वद्‌ ” इत्यारभ्य तथा ^ तेषु बतेथाः › इत्यन्त आदेश्च; कर्तव्याथः सत्या- 
दिलक्षणः । तत्कथनेनेष उक्ताथो वाक्यसंदभे उपदेशः पिद्रादिवचनरूपः । एषोक्ता 
वाक्यसंततिर्वदोपनिषदरेदरहस्यबद्िः। एतदुक्तं वाक्यजातम्‌ । अनुशासनं गक्ञामि- 


॥िर्विवीयम # 


वाऽक्ञाभूतम्‌। दतद्थानदष्ठाने महतो दुःखस्य प्र्ेर्विधीयमानत्वात्सलेदखच्यमानत्वद्विद्‌- 





(२). ब्रा. ५.५.४. (२)? 


९१८ | दाकरानन्द्क्रता | ब्रह्म-जानन्द्-बही 


-सारत्वादकरणे दुः्लप्रतेेत्य्ः । यत एवं तत एवखक््रकारं सत्यादिकम । ऽपासि- ` 
तव्यं नित्यं निरन्तरमा बह्मललानादा रमशानाद्राऽदष्ठातव्यमर्‌ । एतदेव न त्वन्यदवुेथमेव 
चैतद एनराह-एवमु च एवमेव । चकारोऽवगतिसञचरयार्थः । अवगत्य चेतत्सत्यवदना- 
अभ्याख्यातिष्ु वतनान्तम्‌ । उपास्यखपासनीर्यं नित्यमद्ेयमित्यथः ॥ 


इति श्रीमत्परमदहसपरिनाजकाचार्यशीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदाभरबोधिन्यां 
तेत्तिरीयोपनिषद्ीषिकायां दीक्षावहयां ददमोऽनुवाकः ॥ १० ॥ 


अथेकादरोऽनुवाकः 


अध्ययनव्याख्यानोपक्रमोपसंहास्योः शान्तिः पठनीयेति शशिष्यान्दिक्षयितं प्रपाठकान्ते 
व्ष्यमाणविद्योपरग॑सान्र थमपि कृतायाः शान्तेः फरं दरोयतुक्तामेव शान्तिमचवाकेन पुनः 
पटति कानिचित्पदान्यन्यथयित्वा-रौ नो भिः रौ वरुणः । शां नो भवत्वयेमा । हौ न 
इन्द्रो वृहस्पतिः । शं नो विष्णुरखकरमः ! नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव 
परत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्चं जह्यावादिषम्‌ ! ऋतमवादिषम्‌ 1 सत्यमवा- 
दिषम्‌ ! तन्मामावीत्‌ । तद्धकतारमावीत्‌ 1! आवीन्माम्‌ । आवीद्वक्तारम्‌ । ॐ 
शान्तिः दान्तिः शान्तिः । वदिष्यामीतिपदस्थङेऽवारिषमवत्विति पदस्थरु आवीदिति 
विशेषः| रोषं रमित्यारभ्य शान्तिरित्यन्त समानपाठं समानार्थम्र । अवादिषसुक्तवानस्मि । 
आवीत्पाटनमक्रोत्‌ । | । 

टत श्रीमत्परमहसपरित्राजकाचा्यभीमच्छयरानन्दविरचितायां पदर्धवोकिन्यां 


प 


नेत्तिरीयोपनिषदीपिकायां दीक्षावल्वामेकाददोऽनुदाकः ॥ ११ ॥ 
इति श्रीमत्परमदहंसपरित्राजकाचा्यश्रीमदानन्दात्मपूञ्यपादश्चिष्यस्य शीकंकरानन्दस्य 


[ब 


कृतो तेत्तिरीयोपनिषदीपिकायां पदाथेोधिन्यां शीक्नावष्टी समाप्ता ॥ २ ॥ 





अथ बह्य-भनन्द-वह्ी 
अथ प्रथमोऽनुवाकः 


यदर्थं पूर्वः प्रपाठकः प्रटत्तस्तां ब्रह्मविदां विवश्ठस्तस्यामत्यन्तमादरार्थं प्रकारान्तरेण पुनः 
शान्ति पठति- सदह समम्‌ । नावावाम्‌ । अवतु साधनज्ञानेन त्र्य रक्षतु । सह 
व्याख्यातम्‌ । भुनक्तु फल्जनिन पाल्यतु । सह स्मं॑वीर्य वि्यतेजोऽतिशयो जीबन्यु- 
कतिटक्षणस्त करवावह करवाव । तेजस्वि वीर्यवत्तमं नावावयोः ¦ अधीतं रुर्ख- 
सादवगतम्‌ । अस्तु भवतु । अथवा तेजसिनावावां भवावेति शेषः । . तेजस्विनोरिति वा 


१ प्रथमोऽलुबाकः ] तै्तिरीयोषनिषदीपि्छा १९ 


व्याख्येयम्र ! अधोतमस्तु तेजस्वीति शेषः । छ बहुना मा विद्विषावहै प्राणिभिः पर- 
स्परं वा विदधेषं मा करवाव । ॐ शास्तिः शान्तिः शान्तिः। व्यारूयातम । 

पर्वप्रपाटकारम्भे सचितत्रह्मविद्याया इदानीं से्रेण फटमाहाभिकारिग्रटत्तिसिदये-- ज्य 
विद्धहमह्षक्षात्कारवान्‌ । आप्नोति मोषं प्राप्तकण्टस्थाभरणवत्प्राप्रोति ! धरं जष्ेदहमस्मीत्य- 
विव्यातत्संस्कारशन्यत्वेनालण्डेकगरसमात्मानमवगत्य स एव भवतीत्यथः । तत्तत्र ज्मणि 
बह्मविदः परपराप्नो च पषा वद्ष्यमाणमन्तरभूता । अभ्युक्ता सवतः सवप्रकाश्चकत्वेन 
कथिता । वेदुरुषेणेति शषः । सत्यमनृतनकाराथविलक्षणम्‌ । तहिं भावरूपं जढमित्यत 
आह--ज्ञानं जडविकक्षणम्‌ । यद्यभावमावविटक्षणो भावाविकेषस्तर्हिं षटादिकमपि तथेत्यत, 
आह--अनन्तं देशकाल्वस्तुपरिच्छद्न्यम्र ! एतावत्येवोच्यमानेऽभावः स्यात्ततोऽस्य व्यव- 
च्छेदाथमाह-सत्यमिति । सत्यमनन्तमित्युच्यमाने जडमपि स्यात्तव्यारस्यरथं ज्ञानमित्याह। 
यद्यपि ज्ञानमनन्तमित्युच्यमाने न सत्यपदस्य कृत्यं ्तानस्यासद्विरक्ष णतवात्‌ ! तथाऽपि ज्ञान- 
मप्यसदिति सर्वासद्वादिनः संमिरन्ते ! तत्पक्षाधिक्षेषार्थ सत्यमित्याह । 

अयं भावः- येनापि सवीसस्वमड्गीक्रियते तेनाप्यङ्गीक्रियत एव सत्रम्‌ । अन्यथाऽस्- 
स्याप्यदपपत्तेः । तयोर्निरयेक्षत्वादिभ्यो देवभ्यः क्ष्वस्येवाङ्गीकारः करणीयो नसिख- 
स्येति । जडवेलक्षण्यं च स्वयैप्रकाश्मानानन्दात्मन रएवावियायाः सकार्याया जाड्ये सति 
दुःखानात्मत्वदश्षनात्‌ । एवं चञ्ज्ञानमित्येवास्वु, कृतमनन्तपदेनापीति न मन्तव्यग्र । अन्तः. 
क्रणाविव्याटत्योरापि ज्ञानक्ब्दाभिषेयत्वात्तदेव श्ञानमिदमपीतिद्दिनिवारणाथेमनन्तपदस्यो- 
पयोगात्पदत्रयमिदं स्वरूपटक्षणमसैण्डकरसार्थं प्रकृ प्रकाशशन्दर इत्यादेवत्‌ । 

इदानीं रक्ष्यपदमाह लक्षणाथसमथंकम्‌ । अर्य वृहतेधौतोरथंरतमम्ययिकम्‌ । आधिक्यं 
चासजडान्तवद्वैरक्षण्यमन्तरेण नोपपद्यते । तत इदं सत्यं ज्ञानमनन्त योऽधिकारी वद 
जानाति । निहितं लेकिपरं गुहायां डडावधिदेवाधिथूताध्यात्मभेदेन व्यवस्थितायाम्‌ । सा 
च कुत्रेत्यत आह-परभ उत्कृष्टे भताकाकात्‌ , उयोमन्ब्योस्न्यन्याकृते इद्धिकारणेऽविश्रा- 
काान्तःकरणटृत्तावभिष्यक्तमेवोक्तलक्षणं बह्म सर्वोऽप्यपिकायंहमस्मीयवगच्छतीत्यथः । ख 
ब्रज्ञानी । अनते तादात्म्येन प्राप्रोति । सर्वान्कामान्निखिटान्कामनाविषयान्‌ । सह 
युगपत्कममन्तरेणेत्यथः । केन स्पेण युगपत्सवान्कामान्प्राप्रातीयत आह--्रह्मणा ब्रह्म- 
तादात्म्यरूपेण । ब्रह्मणोऽपि कि रूपमित्यत आह-विपञ्ि ता स्वयंप्रकाश्मानन्ञानेकसरू- 
पेण । इतिमन्त्रपरिसमष्चो । 


ब्रह्मणः स्वरूपरक्षणयुकत्वेदानीं जगजन्मादितरस्थलक्षणं दि कृत्वा मन्त्रेण सक्षेपेणं 
व्याख्यातं सृङ्ञं॑विस्तरेण व्याकरिष्यस्तच्वपदा्थयोरेक्यना ऽऽत्मनो जगत्कारणत्वमाद-- 
तस्मात्सयज्ञानानन्तरक्षणाद्रह्मणः । वै आत्मत्वेन स्मयैमाणात्यसिदयात्‌ । एतस्माद्ुदे- 


२० दकरानन्दकृता | बह्म-आनन्द-क्टी 


ष्टः सवरयप्रकाशरमानात्‌ । आत्मनो ऽस्मच्ठब्दप्त्ययव्यवहाराटम्बनात्‌ 1. आकाडाः शन्दयुण- 
त्वेन प्रसिद्धो ऽतरकाश्च; संभूत उत्पततः । इदं पदं यथारिद्गं यथावचनं पुरुषान्तेष्वहवतते । 
आकाशादुक्छत्‌ । वायुः शबदस्पकषणो नभस्वान्‌ } वायोरुक्तादग्रिः अदस्पदरूपयुणस्ते- 
जोधातुः । अग्चेरुकादापः श्न्दस्यनञंसूपरयुणाः द्रवास्मिकाः । अद्धघ उक्ताभ्यः परथिवी 
अब्दस्पैरूपरसगन्धगुणा कठिना भूमिः । पृथिव्या उक्ताया ओषधयः फकपाकान्ताः । 
ओषधीभ्य उक्ताभ्योऽक्नमदनीयं प्रसिद्ध । अन्नादुक्तातयु रुषः स्पूरदेहः परुषशब्दामिेयः। 

इदानीमेव -पुरषद्कररीकृयाऽऽत्मनः कोक्षप्चकातीतं रूपं पिव्षन्प्रथमं कोशानाह--सख 
उक्तः पुरुषः । चै प्रसिद्धो हस्तपदादिमानेष प्रत्यक्षः । पुरुषो व्याख्यातम्‌ । अन्नरसमयः 
अत्तस्याद्चमानस्य यो रसः सारभूतः शकश्चोणितस्पस्तस्य विकारोऽत्रसमयः । तस्य 
पुरुषस्य पक्षिणः । इदमेव प्रसिद्धं मस्तकमेव । शिरो मस्तकम्‌ ! अयं दक्षिणो खजः । 
दक्षिणो दक्षिणमागस्थः। पक्षः प्रम । अयं वामो ुजः। उत्तरो वामभागस्थः । पृक्षः 
"पत्रम्‌ । अयं गर्मारम्याऽ्काटिस्यरं देशः । आत्मा ऽ.ऽस्तरा धीः । इदं कटिस्थकादधःस्थतं 
-पादद्यष । चुच्छं ठाङ्गलम््‌ । ठाङ्गस्य शृच्छत्व उपपातः--प्रतिष्ठा भ्रतितिष्टयसमक्नि- 
{ति प्रतिशाऽऽवार इयथः । पक्षिणोऽपि पृच्छाधारत्वमस्माभिरदृ्टमपि प्रतिष्ठेति वचनसाम- 
्यौत्कल्पनीयम्‌ । तदपि तस्मन्ुकतेऽप्यथें पक्षिण्येव वक्ष्यमाणः । शोको मन्त्रः । भवति 
स्पष्टम्‌ ॥ 

इति शीमत्परमदहसपरिमाजकाचार्यश्रीमच्छंकरानन्दविरिचितायां पदारथबोधिन्यां 


क कष भ 


तैतिरीयोपनीषटीपिकायां गह्म-आनन्द-वल्ल्यां अ्रथमोऽनुवाकः ॥ १॥ 


अथ द्वितीयोऽनुवाकः 

अन्नाददनीयात्‌ । वै प्रसिद्ात्‌ । परजा जन्तवः प्रजायन्ते स्पष्टम्‌ । याभकाश्च याः 
निखिलाः स्वेदजाण्डजजरायुजोद्विजा शत्यः । पुथिवीं न्यण्डान्तवदहिवर्तिनीं भूं भिताः 
आभिताः। अथो अपि । अत्रजाः सत्योऽन्नेनेवादनपिनैव अदयमानेन जीवन्ति प्राणान्धार- 
यन्ति । अथ जीवनकमंक्षयानन्तरम्‌ । पनदृन्नमप्निभूमिश्रकीटादिरूपम्‌ । अपियन्त्यपिग- 
 च्छन्त्यत्ते विरीयन्त इत्यर्थः! अत्ततो ऽन्ते । तथा च न प्रत्यक्षविरोधोऽपि सति शरीरतः 
प्यस्यानभिधानात्‌ । अन्नं चतुर्विधप्राणिजातेशरीरस्थोत्पत्तिस्थितिख्यकारणमदनीयम्‌ । हि 
यस्मात्‌ । भूतानां चतुर्विधानां प्राणिनाम्‌ । ज्येष्ठमतिक्षयेन रं कारणमित्यथः ! तस्मा- 
ततः । सर्वौषधं सवैस्य प्राणिजातस्योषधं छनुदोगस्य वारणम्‌ । उचयते कथ्यते । 

इदानीमन्नमयस्य पक्िवत्कार्ग्याकदर्थीकृतस्य .कारणान्रप्रशंताप्रसङ्धेनाऽऽत्मज्ञानाभिखल- 


(१) बृद्धिका०-पाठः ! - 





२ द्वितीयोऽ्लुककः | तत्तिरद2< ल + २४ 


त्वां कठेन प्रलोभ्या्ोपासनमाद-सर्व निचि धै प्रसिद्धं ते वक्यमाणाः। अश्नमदनीयम्‌ । 
आप्युवन्ति प्राभुवन्ति । य उपासकाः । अन्नमदनीययं । बरह्म सवेस्मादथिकं ब्ह््ानेने- 
त्यर्थः ! उपासत एकरूपेण प्रत्ययप्रवाहेण साषात्छर्वते । पूवैमन्स्य सर्वभूतकारणल्वाथ- 
खक्तमिदानीं तदेव ब्रह्मतादात्म्योपासनोपपत्तये ब्रह्मसमानवमंत्वं दशयित एनः पठति- असनं € 
हि भूतानां व्येष्ठम्‌ । तस्मात्सर्वोषधमुच्यते ! यथा बघ् भूतानां ज्येश्मवगतं सद्वव- 
रोगोषधञ्च्यते, तथा य॑स्मादन्नं भरतानां ज्येष्टं तस्मात्सर्वोषथखच्यते । व्यारूयातच पदाः । 
अपि च यथा बरह्मणो भूतानि जायन्ते ब्रघमणि तिष्टन्ति च तथाऽ्नादद्नीयात्‌, भूतानि 
चतुर्विधान्यण्डजादीनि । जायन्त उत्पचन्ते । जातान्युत्पक्नानिं । अन्नेनादनीयेन । चधेन्ते 
दि गच्छन्ति । ततो ब्रह्मणा समत्वाधक्तमलस्य ब्रह्मणा तादात्मयेनोपासनमिति भावः । 

इदानीमत्रशन्दार्थमाह--अद्यते भक्यते । भूतेरिति शेषः । अत्ति च भक्षयत्यपि । 
, चकारः कर्मकदेनयुतपत्योरत्रेशब्दे सखुक्रयाथः । भूतान्यण्डजादीनि । तस्माद्तोऽयतेऽत्त 
च भूतानि ततः अन्नमनरदं तद्न्नसुच्यते कथ्यते । इतिः प्रथमकोशपरिसमाप्त्यथः । 

 तस्मादुक्ताष् । वै प्रसिद्ाद । एतस्मात्पत्यक्षा्‌ । अन्नरसमयादश्नरसविकारा- 
त्स्यूलदेहा् । अन्यः प्रथग्भूतः । अन्तरोऽभ्यन्तरः। आत्मा ऽऽत्मद्दाभिधयः । प्राण- 
अयः प्राणविकारः । तेन प्राणमयेन । एषं प्रत्यक्षः स्थूलो देहः। पूणः परिपूर्णः प्र प्रसिदः। 
वै स्मयमाणः । पष साक्िपरतयकषः प्राणमयः । पुरुषविध प्व परुषाकार एव । ूषा- 
निषिक्हुतताप्ररसो यथा तादृगेव न त्वन्यादुशषः । 

तर्हिं कि पुरषः पुरषान्तरसदृश इति चोभयमपि स्वतन्तरमित्याशदूःय नेत्याह-तस्य 
पूर्वस्य पुरषविधतां परषसदटृश्ताम्‌ । अजु पश्रात्‌ । अयं तस्मादुत्तरः । पुर्षविधः 
पुरुषसदृशो न तु स्वतन्त्र इत्यथः । ततः पूवेवदस्मिश्रपि कल्पना कतुं उकरेति भावः । 
तस्य प्राणमयस्य । प्राण पवोच्छ्तकारिणी प्राणद्टततिरेव न त्वन्यत्‌ । शिरो मषा । 
व्यानो दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः 1 आकाशा आत्मा } पृथिवी पुच्छं 
प्रतिष्ठा । तदप्येष च्छोको भवति } व्यानापाने पूरवप्पाठके व्याख्यातो । आकाश आ- 
काकस्थः समानः। एथिवी पृथिवीस्थः सव॑प्राणकीलभूत र्ध्वगाम्थुदानः अनेन हि सवे प्राणा 
धियन्ते स्वटेतिसंकोचेन । वाय्वधिकारादाकाशण्थिवीशग्रौ यथाक्थंचित्समानोदानविषयो 
नीतौ । अथवा खख्या्थतेवानयोः शब्दयोरस्तु । तथा च श्तेः कोरेष्वनास्थेति व्याख्येयम्‌ । 
व्याख्यातमन्यत्‌ ॥ | 

इति शीमत्परम्हं्परिव्राजकाचारवश्रमच्छंकरानन्दविरचितायां पदा्थबोधिन्यां 
तैत्तिीयोपनिषरीपिकायां ब्रह्म-आनन्द व्यं द्वितीयोऽुवाकः ॥ २॥ 





( २ ) बह्मध्यनेन- प्राहः । 


२२ * रोकरानन्दकृता [ बरह्म-आनन्द्-क्ही 


अथ त॒तीयोऽनुवाकः 


प्राणं उख्यप्राणं देवाश्रदयदयोऽप्यादयः । अयु प्राणमद । प्राणन्ति चेष्टन्ते । 
मनुष्या मडजाः । पररावश्च गवायाः । चकारः सर्वैशरीरसंग्रहाथः । ये प्रसिद्ार्थाः। श्राणो 
खरू्यप्राणः । हि यस्मात्‌ । भूतानामण्डजादीनाम्‌ । आयुज्ञीवनकारणम्‌ । अनेन देहे- 
न्दियात्मवादो निराकृतः । तस्मावस्मादाघुस्ततः ! सवौयुषं सवायुरेव सवांरषम्‌ । उच्यते 
कथ्यते । इदानीं मन््रोपासनवतप्ाणोपारनाफलं प्राणोपासनं चाऽऽह-- स्वमेव निलिखमेव ! ` 
ते वक्ष्यमाणाः । आयुजीवनकारणं शतसंवत्सररूपं । यन्ति गच्छन्ति । ये प्राणं ब्रह्मो 
पासते । प्राणं उख्यप्राणम्‌ । व्याख्यातमन्यत्‌ । अन्नवत्प्राणस्यापि ब्रह्मसमानतां वतु पुनस 
क्स्वाभिषानम्‌--प्राणो हि भूतानामायुः 1 तस्मात्सवाोयुषमुच्यते ! म्याख्यातम्‌ । 
ह्मणो वथा सर्वां तद्वसप्राणस्यापीत्यथैः । इतिः प्राणकोशषपरिसमाप्त्य्थः । “ तस्यैष 
एव शारीर आत्मा यः पुवैस्य ” एतदनन्तरं यदपीतिकब्दः पठनीयः प्राणकोशस्यात्र ` 
परिसमासः, तथाऽप्यस्य वाक्यस्यात्नमयादधिकत्वाच्छङ्कोत्तरत्वाचैतस्मा्पूवेपाट इतिशब्दस्य । 
अथवा पाटक्रमादरथक्रमस्य बीयस्त्वादत्र पठितस्यापि तदनन्तरं संगतिरवगन्तव्या । 

नड--पूवेस्मात्युरुषादनन्यः प्राणमयस्तस्य तदन्तःपातित्वादरस्तपादादिदित्यत आह-- 
तस्यान्रमयस्य । एष एव समनन्तरोक्तः प्राणमय एव । श्लारीरः शरीरे भवः। आत्मा 
सवेन्यवहारकारणत्वेनाऽऽत्मा । यः प्राणमयः । पू्ेस्य प्राणमयात्ूवैस्य । तस्य पूवस्य 
यः प्राणमय एष एव शारीर आ्मित्यन्वयः । अयं मावः- प्राणो न च स्थूक्ञरीरान्तः 
पाती ! तथा च सति नासापुटनिगतस्तद्वदेव चा्चषः स्यादिति । तस्मद्धा एतस्मात्पराण- 
मयात्‌ ! अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः । तेनैष पुणैः । स॒ वा एष पुरुषविध 
एव. तस्य पुरुषविधताम्‌ । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य यञ्चुरेव रिरः । ऋम्द- 
क्षिणः पक्षः । सामोत्तरः पक्चः। आदेशा भामा । अथवोह्धिरसः पुच्छं प्रतिष्ठ । 
तदप्येष श्छोको मवति । प्राणमयादुक्तात्‌ । मनोमयो मनोविकारः । तस्य यजञयैङुर्विष- 
या त्तिः । ऋगम्विषया एत्ति: । साम सामविषया इत्तिः। आदेशो यजनरेक्सामछ ब्राह्मणमा- 
देशस्तद्धिषया टत्तिः। अथेवाङ्धिरसोष्य्वणाऽङ्धिरसा च दृष्टा मन्वा ब्राह्मणानि च तद्विषया 
त्तिः । अन्यतूर्वेण समानपाठमर । अत्रमयाथस्थङे प्राणमयं प्राणमयार्थस्थरे मनोमये 
चोक्त्वा पूर्ववव्याख्येयम्‌ ॥ | 

इति शीमत्परमहंसपसि्राजकाचार्यश्रीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदर्थवोधिन्यां 
` तेततिशेयोपनिषदयीपिकरायां बरह्म-भानन्द-वस्सयां ठृतीयोऽलुवाकः । ३ ॥ 


४ चतुर्थोऽलुवाकः ] तेत्तिरीयोषनिषदीपिका । ` २३ 


अथ चतुर्थोऽनुवाकः 


अत्र हि मनोमयस्य चतुर्वद्टति प्राधान्यखक्तम्‌ । वेदाश्च बह्मप्रकासकत्वान्न बरह्मणो भिन्नाः । 
ततो वेदेभ्योऽभिन्नं स्वस्य जगतः कारणं विशेषतश्च मनसः “ तन्मनोष्ठौरुत ” इतिवचनान्म- 
नसाऽप्यगम्यरूपं ब्रह्म वदन्मनोमयं स्तोति- यतः सर्वस्य जगतः कारणाद्रिसेषतश्च मन॑स 
सत्य्तानानन्दरूपाद्रद्मणः। वाचो यजुक्रक्सामदेश्षाथवाङ्किरत्तरूपा अन्याश्च । निव- 
तेन्ते-- ब्रह्म वक्ष्याम इति संकठ्प्य प्रटत्तास्तस्मिन्ब्रहमाणि प्रवेश्षमलममाना “नेति'' वदन्यो 
वाराङ्कना इव राजगृहाभ्याक्षायथागतं (मैटेत्य श्रटसंकल्पा भवन्ति । निदतिस्तु प्राप्रावप्राप्नो 
च संकाल्पितस्य दु । तथा कर प्राप्य निवतेन्त इत्याशङ्य नेत्याह--अप्राप्यारग्ध्वाऽ- 
नन्द्मित्यन्वयः। नद गागगम्यानामपि जातीचम्पककेतकीङ्समादिगन्यमेदानां मनसाऽ्वग- 
तियंथा तथाऽरसित्वत्यत आह--मनसा यजरादिपच्रटत्तिमता । सह समम । आनन्दं 
दिरण्यगभस्याऽनन्दादप्यतिशयमनन्तमानन्दं ब्रह्मणः सत्यज्ञानादिलक्षणस्य । षष्ठीयं 'शिला- 
पुत्रकस्य शरीरम्‌" इतिवद्याख्येया । विद्धान्सा्नात्कारवान्‌ 1 हक्षात्कारेणापगताविक्रो 
द्वितीयाभावान्न बिभेति भयं न गच्छति । कदाचन कदाऽपि । यस्मदितादृशषं बद्मास्य 
कारणं तस्मादतिशरे्े मनोमय इति भावः । इतिरमन्त्रसमाप्तौ । अथवा मनोमयक्रोशपरिस- 
माप्त पूर्ववदवगन्तव्यम्‌ | 

प्राणस्येवेकदेशो मन इति शङ वार्यति-तस्येष एव शारीर आत्मा यः पूवस्य । ` 
पूर्वस्य प्राणमयस्य । यः प्रसिद्धो मनोमय रुष एव शारीर आत्मेत्यन्वयः । व्याख्यातः 
पदार्थः । अनेन प्राणस्या$त्मतवं निवारितम्‌ । तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात्‌ । अन्यो- 
ऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः । तेनैष पुणः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य. 
युरुषविधताम्‌ । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य अद्धेव शिरः । ऋतं दक्षिणः पक्षः! 
सत्यमुत्तरः पक्षः । योग आत्मा 1 महः पुच्छं प्रतिष्ठ । तदप्येष छोको भवति 1 
अनोमयादुक्तात्‌ । विज्ञानमयो बुद्िविकारः । श्रदाऽऽसितक्यसंपन्नदिटत्िः । ऋते शालाथ- 
विषये मानसव्यापारविषया दतिः । सत्यं तस्मित्रेव वाक्रायाभ्यामद्टीयमाने तदिषया उत्तिः। 
योगः शाक्लाथविषये संदेहविपयरहिता उक्तिः! महः--भनया हि यागाधदुष्ठाने मनोभास्वर- 
बुधि तं प्रथमजं महत्तखाख्यम्‌ । पाणमयाथेस्थठे मनोमयं, मनोमयाथस्थरे विज्ञानमयं 
पटित्वा शेषं समानपाःं पूवेवद्ाख्येयम्‌ ॥ 

इति श्रीमत्परमहंसपरिराजकाचायश्रीमच्छंकरानन्द विरचितायां पदाथोषिन्यां 


तेत्तिरीयोपनिषदमीपिकायः ब्रह्म-आनन्द-वल्ट्यां चतुथोऽनुवाकः ॥ ४॥ 





(१) ब्र. उ. १.२. १. (२) त्रु. उ. २. ३.६. 


२४ दाकरानन्द्कृता [ ब्रह्म-आनन्द्‌-बही 


अथ पञ्चमोऽनुवाकः 


विज्ञाने दिः । यज्ञं द्णंदिकिं तनुते विस्तारयति । कमणि वैदिकानि भोतानि 
स्मातोन्यधिदोत्रसध्यावन्दनादीनि, ठोक्िकानि च कृषिवाणिज्यादीनि । तयुते विस्तारयति । 
अपि च यक्तविस्तरेणाम्यु्रयाथोवपिचो । विज्ञाने क्ंविस्तारदेरविज्ञानं इदि देवा 
वागादयोऽप्यादयश्च । स्व निलिलाः । बह्म सत्यज्ञानादिरक्षणं उयंष्मतिश्येन ददं कार- 
णमियथेः । उ्येषठत्वं विज्ञानस्य ब्रह्मणश्च सास्यं तयोस्तादात्म्योपाप्तनाथंखक्तमित्यवगन्त- 
व्यम्‌ । उपासते ्ह्तादात्म्येनोपासनं इवते । विज्ञानं ब्रह्म भ्याख्यातम्‌ । चेश्वदि । 
वेद्‌ देवढ तिरिकोऽपि जानत्पुपासीतेयथेः । तस्माद्विज्ञानन्रद्योपासनात्‌ । चेयदि । न 
प्रमाद्यति प्रमादं न गच्छति बहिेखो,न भवतीत्यर्थः । शारीरे स्थूलश्षरीरे । पाप्मनो 
दिरण्यगभेप्रासिप्रतिचन्धका रणानि । हित्वा पर्स्यञ्य । सवौत्रिसिरन्‌ । कामान्काम- 
नाविषयान्‌ । दिरण्यगभतदास्म्येन समद्छते सम्यक्प्राप्नोति । इतिमेन्वक्षमाप्तौ विनज्ञानम- 
यकोश्चसमापतो वा पूवेवत्‌ । 


तस्थेष एव शारीर मात्मा । यः पूर्वस्य । तस्य पूवैस्य मनोमयस्य यो विज्ञानमय 
एषं एव शारीर आत्मेत्यन्वयः ! व्याख्यातः पदाथः । अनेन मनस आत्मत्वं निवास्तिम्‌ ¦ 
तस्माद्वा एतस्माद्िज्ञानमयात्‌ । अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः । तेनैष पूणैः। 
` ख वा एष पुरुषाविध एव । तस्य पुरुषविधताम्‌ 1 अन्वयं पुरुषविधः । तस्य 
प्रियमेव शिरः । मोदो दक्षिणः पक्षः! आनन्द्‌ आत्मा } बह्म पुच्छं प्रतिष्ठा । 
तदप्येष श्छोको भवति । विज्ञानमयादुक्ताव्‌ । आनन्दमय अआनन्दविकारः सोपाधिका 
नन्द्‌ इत्यथेः । प्रियं एत्रादिदशेनजन्यं सम्‌ । मोदः पत्रादिसंभाषणसहासनादिजन्यं खम्‌ । 
प्रमोदः सदहाऽऽसनादौ स्थितानामपि पत्रादीनामन्यादविधेयत्वजन्यं खखम्‌ । अभीष्टविषयस्य 
दशनं लाभो भोगश्च प्रियमोदप्रमोदा इयथः ¦ आनन्दः उखसामान्यं प्रियमोदप्रमोदेष्वहगतं 
खखं ब्रह्म--निरतिश्य आनन्दो यस्य मत्राञ्धपजीवन्ति ब्रह्मादयः । यथा देहावयवाः पादयोः, 
प्राणभेदाः एथि्याङदने वा, वेदाश्च त्रयोऽपि मन्तन्राह्यणरूपा अथवाङ्किरख दृ्टकमेसाथन- 
त्वेन, यथा बुिभेदाः प्रथमजायां हिर्ण्यगर्भडुटो च प्रतिषटितास्तद्रत्छलसामान्यविशेषा 
निरतिश्यखसेकस्वभावे सत्यक्ञानादिरूपे ब्रह्मणि सवौयारे प्रतिषटिताः । स्थूडस्य देदस्याध्या- 
त्माधिभूतापिदेवभेदभिननस्य ब्रह्मणः प्रथमकोशत्वम्‌ । सुष््मस्य स्थूकत्मभूतस्याज्ञानका्स्य 
न्विाज्ञानशक्तेशतुधा भिन्नस्य सकारणस्य कोशचतुष्टयत्वं च । सक्ष्मोऽपि विभागः स्व्यं 


कि हि क 


प्राणनिमित्तं हि स्थूठ्रयीरस्य सर्वन्यवहारं मत्वा स्थुलशरीरात्मभूतः प्राणः क्िया्त्तिर्दि- 





( १) ख. °क्तो ज०। 


६ षष्ठोऽलुवाकः | तैत्तिरीयोपनिषहीपिका | २५ 


तीयः कोशः । प्राणस्यापि मनसेतस्ततो नीवमानत्नाद्धाखनेव शत्सेभचटीवदस्य । ततोऽनि- 
-अयात्मिका क्ानशक्तिः प्राणात्मभूता मनओआख्या दतीयः कोद्य: । मनसोऽप्यनिश्वयात्मनो 
निश्वयपरतन्त्रत्वान्निश्वयास्मिका इदिर्मनआत्मभूता चतुथः कोश्चः। इदेरपि छखपरतन्व्रत्वा- 
-दवस्थात्रये कायैकारणोपाध्यवच्छिननं सुखं पञ्चमः कोशः । तत्रापि प्रियमोदप्रमोदा जागरण - 
स्वप्रंनाः, आनन्दः सौषुतेऽव्यकृतोपाधिः । इतः परं भूतभोतिककार्यस्य कारणस्य चाभावा- 
दकारयैकारणे ब्रह्म स्वैस्याऽऽवारभरतं कोश्चपञ्चकवाक्प्रटात्तिकारणनिमित्तं प्रथमस्प्रेण सचि- 
तम्‌ । मन्त्रेण च व्याख्यातखक्तवती श्चुतिरित्यथेः । मनोमयार्थैस्थठे विज्ञानमयं, विज्ञानम- 
-यार्थस्यरे आनन्दमयं च पठित्वा शेषं समानपाटं पू्वव्याख्येयम्‌ ॥ 


इति शीमतपरमदसपलिनाजकाचार्य्॑रीमच्छंकर नन्दविरचिततायां पदथबोधिन्यां ॥ 
तैत्तीयोपनिषदपिकायां अहम -आनन्द-वत्त्यां पश्चमोऽनुत्राकः ।। ५ ॥ 





अथ षष्टोऽनुवाकः 


आनन्द्रह्मणोरमेदाद्वष्याभिषानमेवाऽऽनन्दामिधानमिति मन्वानः पठति-असन्नेवाति- 
खमान एव जनेरत्तातोऽभिभूतपेत्यर्थः । स वक्ष्यमाणः । भवति सखपष्टम्‌ । असद्वियमानं 
खरविषाणसममित्यथः । ब्रह्मा ऽ.ऽनन्दमयस्य पुच्छे कारणं चेत्युक्तेनासवप्रकारेण । वेद्‌ 
जानाति ! चेद्यदि । अस्ज्ञानादन थक्त्वा तत्छज्नानादथमाई--आस्त वधते सवस्य 
कारणत्वेन स्वात्मत्वेन च । ब्रह्मो क्तम्‌ । इत्युक्तेन स प्रकारेण । चेद्यदि । वेद्‌ जानाति । 
सन्तं विद्यमानं वाचा मनसा कयन च पूज्यमित्यथः । एनं ब्रह्मास्तितवज्ञानिनमर । तता 
अ्मास्तित्वक्ञानात्कारणात्‌ । विदुर्जानसिति । सवे जना इति शेषः । इतिमन्त्रसमाप्त्यथम- 
नन्दमयकोरपरितमाप्त्यर्थं वा पुतेवत्‌ । तस्यैष पव शासर अत्मा । यः पृचस्य। 
तस्य पूर्वस्य विज्ञानमयस्य य आनन्दमय एष एव शारीर आत्मेत्यनयान्याख्यातंः पद्ध 

अथ कोशपञ्चकाधाखघ्लास्तित्वगास्तित्वविज्ञानफलकथनानन्तरम्‌ । अता ब्रह्मण 
सर्वात्मत्व यतोऽस्तिनास्तिप्रत्ययो च कतं खरकावस्मात्कारणात्‌ । अयुपश्चा जह्यण(- 
ऽस्तिस्वनास्तित्वे च तज्ज्ञानिनो बहमप्रप्तावप्राप्तो च संदेदमड प्रभाः प्रष्टव्या ईप्सितार्थविषयाः 
शब्दसंदभाः । पव्यन्त इति शेवः । उतापि ! अविद्धान्ब्ह्मणि संदेहविपर्ययज्ञानवान्‌ । अपु 
मानन्दमयक्रारणभूतं पृच्छरूपं चास्तिनास्तित्वाम्यामनिश्चितं वस्तुृतेन । रोकं टोक्यमानं 
स्वयप्रकारस्वेन तञक्ञानिभिः । व्रेत्य परटोकमागत्य शरीरं परिदयञ्येत्यथः । कश्चन 
कोऽपि । गच्छति प्राभरोति । ष्डत्तिर्विचारा्थौ । आहो पक्षान्तरे, विदधान्त्रह्मणि 
संदेहविप्ययरहितज्ञानवान्‌ । अमुं लोकं प्रेत्य व्याख्यातम । कथ्ित्कोऽपि । सम- 








१ कि 1 1 पष 


(१) ०अज आ०।(२) षुत व्या-पाठः ¦ ३ ° सूर । 


२६ रीकरानन्दङृता  [ ब्रह्म-आनन्द-बही 


इ्नुता २ समश्ठते व्याप्नोति । प्छतिनिचाराथां । ड अपि । अयं भावः--यथस्ति 
सत्यज्ञानादिक्षणं ब्रह्म तहि प्राप्तम्यमविदुषाऽपि । न शक्ञानसंशयविपरययरवस्वुनोऽन्थथा- 
त्वम्‌ । सर्वात्मकं चदविद्वानर प्राप्रोति विद्वनपि न प्राष्डयान्नियामकाभावात्‌ । अथ नास्ति 
तत्तर्हि षिदुषाऽपि न प्राप्तव्यप्र । न हि नरविषाणादिकै तस्मिन्संदेदविपयेथस्दितन्ञानिनाऽपि 
प्राप्तुं शक्यम्‌ । अथक्षेषविशेषड्न्यमप्यनेन प्राप्यते तर्यविदुषा न प्राप्यत इति न नियामक 
प्रयाम इति । अनेनोक्तश्छोकाथस्याऽश्षेपः कृतः । | 

आस्त विहदविहुषोः प्राप्यप्रापती । बरह्मणोऽविददध्ाप्त्या यत्तस्य नासितित्वमापादपिः 
तुमिष्टं तज्वगत्कतरणत्वकथनेन पूवोकेन एनः केनचिद्धिशेषेणाभिधीयमानेन निराढुवन्व- 
पक्षमथदादत्ते--स सपरमन्त्राभ्यां बह्मत्नेनोक्त आत्माऽनन्दमयस्य कारणभूतः पुच्छभू- 
तश्च प्रसिद्धः । कथमसो नास्तोत्यथः । नढ॒ सतां चेतनानां किंचित्कारित्यं॑दृष्टमस्य तस्मिः 
न्मत्यस्तित्वं कथं अदधामीत्यत आह-अकामयद कामनामङ्करत । कामनाविषयमाह- 
चह स्यां नाना भवेयम्‌ । नानाभवनेऽप्युपायमाह--प्रजायेयोत्पयेय । इत्यनेन प्रकारे 
गमां कामनां कृत्वा । स कामी तपः पयारोचनमिदमनेनेत्थमियादिरूपम्र । अतप्यतः 
म॒ञ्यंविषयमकरोत्‌ । स काडकस्तापसः । तप उक्तम । तप्त्वोक्तविषयं कृत्वा कार्थ 
कारणादिकं प्रथमं विचावे नित्य चैत्यः । अनन्तरम्मिदं विविषप्रत्ययगम्यं कार्यजातं 
भूतभोतिकं चेतनाचेतनात्मकम्‌ । सवं निखिलम्‌ । असृज्ञतोत्पादितवान्‌ । सवेश्दा- 
यमाह-- यदिदं किच ! यव्किचेदं प्रसिडमस्तिनास्तीत्वादिप्रत्ययगस्यं यक्किमपि । 
तत्का्यजातमर । सूष्टोत्प्च । तदेव स्वसृष्टमेव । अयमेवकारो देहटीप्रदीपन्यायेन 
लदढना प्राविशदित्यनेन च संत्रध्यते । अनु कायेसुधिमन्वेवाप्रविष्टोऽपि' सवेत्रावस्था- 
नादाकाश्वत्पावित्पवेशामकरोदेव । प्रविष्टशब्दप्रत्ययाविषयोऽगूदित्यथैः । 

तदु कायं सुषटमड प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा । कि तरस्य एवायं सप्रपासिद्यृहं निमि 
ततर प्रविद्धं स्थितः । तथा चाऽऽत्मनो बहुभवनोपायः प्रजायेयेति दृष्टो विपरीत इत्याश- 
डय नेत्याह-- सच्च तेजोत्ररूपमपि । त्यच्च ॒वाय्वाकाशरूपमपि । चक्रारो तदूबुदि 
सछच्चि्ठनः ! अभवत्स्पषटम्‌ । इदं करियपदं वक्ष्यमणिष्वपि चतुष्ट पयायेषु संबध्यते 
निरक्तं चानिख््तं च । निःशेषशक्तं निरक्त, घटः प्रथुढधध्नोदराकार इत्यादि । तद्विपसी- 
तमनिर्क्त, जातोचम्पककेतकीकुम गन्वभेदादि । चकारो पूर्ववत्‌ । निलयनं चानिर- 
यनं च, आश्रयोऽनाशभयश्र । चकारो पूर्ववत्‌ । विज्ञानं चाविज्ञानं च । स्रतिसंशय- 
विपयेयनिश्वयारि विज्ञानं तत्कारणं वा चिन्मात्रं वा । तद्विपरीतमविज्ञानभ्‌ । चकास 


(मोक मकण ज = 


(२) भ्न स०। 


७ सप्रमोऽलुवाकः | तैत्तिरीयोपनिषदीपिका २७ 


हितं सत्यं ध्यवहारतो वा बाधरदहितम्‌ । तद्धिपरीतमनृतम्‌ । चकारो पूर्ववत्‌ । अस्ति- 
नास्तीतिप्रत्ययविषयः प्षवैकायेकारणवगो त्रद्म च अ्रह्मेवाभूदिय्थः । नद~ स सर्वकारणं 
सवमभूदित्येतावत्प्रतीयते न त॒ तदसत्यं नेति वचनादित्यत आह-सत्यं सवकाधश्चल्यं 
भावरयं ब्रह्म । अभवदुक्त मूतामूतादिकमभवत्‌ । असतः सर्वात्मते सर्वमिदं स्वैः प्रत्ययैर- 
-सदिति प्रतीयेत नरविषाणवन्ध्यापुत्रादिवत्‌ । ततो नासत्स्वा्मकं कित सदेव । प्रतीतेर- 
विश्वासे जीवनादिभ्यवहारस्यापि दुरुभत्वमित्यथेः। 

कि सदादिकं दक्षविधं तदृ्दयक्च्येतावदेव सत्यमभवदित्यासङ्कघ नेत्याह--यदिदं 
किच, उक्तमदक्तं॑चोत्प्क्ष्यमाणं यक्किचेदं निखिलमपीत्यथंः । तक्निलिलमपि सत्या- 
द्ह्मणोऽमिन्ं तस्मिन्रध्यस्तत्वेन प्रतीयमानं प्रसिद्धम्‌ । सत्यं सत्यशब्दाहं व्यवहारक्षमत्वन 
मूतोूतैत्वेन च । मूतौमू्विभागो भूतपश्चकर एव । तेजोवन्ानि मूर्तानि ! वास्वा्छशाव- 
मतौ । कार्यकारणयोरपि भृतोमूतेत्वे एवमवगन्तय्ये । कार्यं सवैः प्रपञ्चो भूतभोतिकरूपो 
मूं स्थृलत्वात्कारणतः अविद्या त्वमूर्तं तद्विपयेयादप्रतीयमानत्वन वा । इति-अनेन प्रक्ा- 
रेण । आचक्षते कथयन्ति ब्रह्मविदः । तत्‌ तत्र सवेकायशन्ये ब्रह्मण्यपि युकत्वभ्च- 
या्थस्तच्छब्दः । बरह्मणः सत्यतवेऽन्यस्य चास्त्यत्वे युक्तिश्वेयम्‌ । ब्रह्मव्यतिरित्तं॑यत्सत्य 
तत्नित्यमनित्यं वा १ अनित्यत्वे कार्यता कायेत्वे चासत्यत्वमनिच्छतोऽपि प्रामादिकस्व- 
जिद्ाचर्वेणवदगतथर । नित्त्वेऽप्यसरेगतत्वेऽपि जाच्यत्वेऽपिं भेदे स एव दोषः । तस्माद्ध्नेन 
-सत्यं न त्वन्यत्‌ । ब्रहमण्यथ्यासात्तत्सत्यशनदाहम्‌ । यथेदंतायामध्यसतं रजतामिदैशब्दार्ेम्‌ । 
पष शोको भवाति व्याख्यातम्‌ ॥ 

इति श्रीमत्परमदहसपरिनाजकाचार्यशरीमच्छैकरानन्दविरचितायां पदार्थकेथिन्यां 


अथ सप्तमोऽनुवाकः 
असद्े सत्येऽध्यस्तं सत्यशब्दाई सन्नामरूपकमोर्मकत्वेन स्थवीयो उद्धिविषयत्वात््‌ 1 
तद्रहितमसस्सत्यज्ञानादिलक्षणं ब्रह्म शानप्रसिद्धं विद्रस्प्रसिद्ं वा नामरूपक्रियाहीनं जगत्कारणं; 
सद्वा इति वक्तव्येऽसस्वभमस्य नामरूपकरियाहीनत्वेनोत्पादादिति कथनाथमसद्रा इया । इदं 
,विविधप्रत्ययगम्यं निशम्‌ । अग्रे विचोत्पत्तः प्राक्‌ । आसी द्धश्य । अविधाश्बर्‌ इष्य जगत्का- 
रणमेवाऽसीन्न तु का्यजातमिखयथैः। ततो ऽसच्छब्दाभिषेयात्कारणात्‌ । वै एव प्रसि वा ¦ 
सत्सच्छब्दाभिषेयं स्प्टनामरूपक्रमं । अजायतोदपयत । तदविद्याश्बर जगत्कारणम्‌ । अ 
 विदयात्मानमेकं चिदानन्दस्वभावम्‌ । स्वयमरात्माऽविद्यायां आश्रयो विषयश्च । जङ्कुरुत 
बहुधा कृतवान्‌ । तस्मादात्मन आत्मनैव बहधा करणात्तंदद्िथाश्रयविषयभूतमानन्दात्मस्व- 


( १) ततोऽवि०--पाठः ) 


२८ रोकरानन्दकरत। [ ब्रह्म-आनन्द्-बह्ी 


रूपम्‌ । सुृतम्‌-स्ारथभ्ये सोः प्रयोगः । स्वेन स्वकृतवत्सवकरतं स्वकृतमेव परोक्षेण चकते 
पण्यमुच्यते कथ्यते देवैः । इतिर्भन््रसमप्तौ । 

नद--श्रह्मविदाप्रोति परम्‌” इत्युपक्रान्तम्‌ । तत्र कि ब्रहमेयाशङ्ायां सत्यादिरक्षणं त- 
त्स्रूपमभिधाय तत्प्रतिपच्यर्थं च तस्याऽऽकाश्चादिकारणत्वामिधानप्रसङ्खेन कोदपञ्चकमवताय 
पञ्चमकोश्चाधारन्रह्मास्तित्वनास्तित्वज्ञानास्याम्थानथंयोरमिधानेन प्रभेषु समागतेषु सत्रिण. 
गराथमिदं "सोऽकामयत इत्यारभ्य छक्रतम्‌' इत्यन्तञ्चक्तमस्तुं । तत्तथाऽपि सवैकारणत्रह्मावा्ठो 
न पुरायं आनन्दावाप्ेरेव तथात्वादियित आद--यत्प्रसिद्धं जगत्कारणम्‌ । वे स्मयेमाणं 
तद्धघ्म । सुरृतमवियावाः स्वात्मरूपमव कमकभावेन कृतवत्‌ । रस आनल्दद्वः स्वयं- 
प्रक्राशमानानन्द्‌ इत्यथः । वे प्रसिद्धो वेषयिकषखरूपेण ्र्वप्रियतमत्वेन वा स्मयंमाणो 
वा । सं मोक्षे मावीदनीं परेश्च एव प्राणिनां रसः- रसं इकृताभिनरमानन्दात्मस्वरूपम्‌ +. 
हि यस्मादेव । रसं ठब्ध्वेति द्वास्यां शृद्कखान्यायेन सचध्यते । रसमेव न त्वन्यत्‌ । अय- 
मधिकारी ¦ छुन्ध्वा प्राप्येव न त्वन्यथा । आनन्दी प्रत्यक्प्रकाशमानानन्दात्मस्वरूपः । 
भर्वति स्पष्टम्‌ । तस्मात्ुरषाथां बरहमपरातिरित्यथः। ` | 

नदु--उकृतस्य ब्रह्मण आत्माभित्रस्याऽनन्दत्वं भवतोच्यते । प्रतीतिश्र विपसतेया- 
श्य तदुत्तरत्वेनान्यथाठपपत्तिमाह--कं आत्मनोऽनानन्दत्व आनन्दात्मव्य्तिरिक्तः । हि. 
हेत्वर्थः । एव नाम । कस्तु नामान्यादपानचेशं इयाद्‌ । को व्याख्यातम्‌ । प्राण्यातप्माण-- 
चं कुर्यात्‌ । यद्येष स्वयप्रकाशमानः । आकाशः आकाशवत्सर्वगत आकाकचशब्दाभियेज 
यो वा । देशकाख्वस्तुपरिच्छेदशल्य इत्यथः ! आ काश्च इति सप्म्यन्तत्वपक्षे हादाकाशेऽवि- 
चमारबलित इति व्याख्येयम्‌ । आनन्दः परमप्रमाठम्बनत्वेनोपठक्षित आनन्दात्मा । न्‌ 
` स्यान्न भवेत्‌ । अवमथः--आत्मकामाय स्वां रोक्रिक्यो वैदिकषयघरेयः । प्राणधारणमपि । 
आत्मा चेदुःखं दुःलत्ताधनं वा स्यात्तदानीं टधिकतजन्यदुःखवदयेयः स्यात्‌ । दुःखसाधने 
वाऽऽलार्थं भायोदिकं प्रियं न स्या । ततः उखलत्वं परिशिष्यते । अभावस्यासक्वे क्षे ना- 
ऽऽत्मनो दुःखाभावत्वं प्रतीतिषिरुढम्‌ । खलस्यापि जायमानस्य वेधस्याऽऽत्माथेत्वेन प्रियता 
हृष्ट । न तु स्वरूपेण । अन्यथा वै्यादिगतस्यापि तस्य प्रियता स्यात्‌ । तेन नित्यस्वयंप्रका- 
शमानानन्दत्मा परमप्रेमाकम्बनतवेनाङ्ीकरणीयः । परमप्रेमालम्बनत्वं च तदथैलोकिकयेदि- 
कजीवेनचेष्टान्यथाडपपत्या कल्प्यते ¦ आस्मनीऽनानन्द्तवे म काऽपि चेश स्यादिति । नड-- 
यथयमानन्दस्वेरूपस्त्हिं किमथमयमानन्दार्थं कः साधनमादत्त इयत आह-एष आकार 
भनन्दात्मा स्वयंप्रकाशमानोऽप्यनायविथाटतः साधनस्ताध्यादिभविन व्यवस्थितो हि यस्मा- 
तस्मादिति शेषः । एव एषश्देन संबध्यते । एष एव सधनं साध्यं च वस्तुतोऽजातात्मयाथा- 





(१) स्तुतत्तथा। तथाऽपि--पाठः । (२) ° न्य॒च्ेष्टं । 


७ सम्रमोऽलुबाकः ] तैत्तिरीयोपनिषदीपिका । २९ 


त्म्यः साघनतार्तम्येनापसारिताविदातारम्यादाविभूतात्मल्लतारतस्यरूपंः । अविग्यादश्चाया- 
मानन्दयातिं, आकीटपतंङ्कमात्रह्न च निलिरं जगदायोनिप्रादुर्भावादामोषषसाबात्कारा- 
जराऽऽनन्दयति । आनन्दात्मनि साक्षात्ते न साध्यसायनारिभावः । तत्साक्षात्तारणालमा- 
कसाध्यसाघनादेरपि वस्तुतस्तगात्मकत्वात्तस्येव खस्रदादृत्वमविरुडमित्यर्थः । 

नठु--आत्मनोऽस्तितवे स्थिते विद्धानेव कदा कथं प्रपरोतीयत जह--यद्‌ यस््पिन्काठे। 
1 यस्मादिदुषो बहमप्रापनो नियामको हेवर्दिनोच्यते । अद्मसादात्कारवच्वेनापगताविदत्वा- 
दियर्थः। पव--अयं पार्थ॑सतारथिवत्काठवाचिना विद्वद्वाचिना खाभवाचिना च संबध्यते । 
यदेव न त्वन्यदा । पष विद्वानेव न त्वन्यः । पतस्मिन्नामनो भदरहिते सये रते । 
अदटर्ये बाह्यन्तरेन्द्ियज्ञानाविषये । अनात्स्य आत्मन इदमात्म्यं तरिविधं शरीरं न यस्वा- 
सावनात्म्यस्तस्मिन्‌ । 

नड--सवैश्ञानाविषयोषडारीरोऽपि वफगोचरः पदाथा नरविषाणादिदंशयत इत्यत आह- 
अनिसक्ते निरक्तिदयन्ये वाचामगोचर इत्यथैः । नड--वाचामगोचरेऽपि साभयः पदार्थो 
दृष्ठ यथाऽविथा सदसग्ुक्त्यविषयेत्यत आह--अनिटयने निरुवनमाश्रयस्तदीने । 
नचु--प्राकृते प्रखये तत्रैव प्रविश सर्वोऽपि विन्दत इत्यत आह--अभयं भयं प्रकृतिस्थाः 
संस्काराः प्रकृतिश्च भयानकंसंसारदैतुत्वात्तच्छरन्यमभयमित्य्थः। अभयं यथा तथेति व्याख्ये- 
म्‌ । प्रतिष्ठामिदमहमस्मीति तादाए्म्येन प्रतिकूटसंस्कारराहित्यरक्षणेन प्रकषेण स्थितिम्‌। 
विन्दते भत एव । अथ तदा सोऽस्मिन्प्रतिशं प्राप्नो विद्वान्‌ । अभयं गतः-मयमवि- 
यातत्संस्कारा दतरूपास्तच्न्यमभयं स्वयंप्रकाश्चमानानन्दात्मस्वस्पाविभोवं गतः प्राप्तः । 
भवति स्पष्टम्‌ । जीवन्युक्तः सवेदा भवतीत्यथः । 

नद्ध विद्वानाविद्धानपि ब्रह्मणि प्रतिशत एव तस्य सवांधारत्वात्ततोऽविदुषोऽपि प्रेतस्य 
बहमप्राततिः स्यादित्यत आह--यदा यस्मन्काङे । हिर्हेतौ । यस्माद्भह्ाणि प्रतिितोऽप्यवि- 
द्रान्ब्रह्माहमस्मीति ब्रह्म न प्रतिपद्यते निधिस्थ इव जात्यन्धो निधिम्‌ । एव पूववत्‌ 1 एष 
प्रसिद्धः संदिहानो विपयेस्तोऽक्ञानी च । एतस्मिन्तात्मामिते ब्मणि । उद्पि । अरम- 
सपम्‌ । अन्तरं भेदम । कुरुते स्पष्टम्‌ । अथ तदा तस्य संदिग्धस्य विपयेस्तस्याज्ञानि- 
नश्च ! भयमविवातत्कायतर्संस्वःरजन्यमध्यात्मापिभूताविदेवभेदभित्रं वाचि मनसि काये- 
ऽसदयदुःखकारणं जन्मादि । भवति अरहयेव संदेहविपययाज्ानेरक्तभयरूपं भवति खगिष 
सपौद्याकारेः । नव अविदुषस्तथाऽस्त, यस्तु शल्लीये कर्मण्यधिकृतो विद्धास्तस्य बह्मविद्‌ 
इव ब्रहमप्रा्तिरित्यत आद--तत्तक्तं ब्रह्म भयस्पम्‌ । तुशब्दः शङ्धानिवारणाथः । शल्ीय- 
कमेण्यधिकृतस्य विदुषो ्रह्मविदश्च न साम्यं भिताभित्रबुदधित्वेन विष्डत्वातच्‌ । पव तदेव 





( १ ) विविधं । (२) ०यस्थस्या० पाठः। 


३० रंकरानन्द्कृता [ ब्रह्म-भानन्द्-वही 


न त्वन्यत्‌ । भयं व्यारूयातम्‌ । विदुषः कर्मविदाविदः । अमन्वानस्याईं ब्रघनास्मीत्य- 
भेदेन मननरहितस्य । इदमेव वैषम्यं कर्मब्रह्मविदोः । तत्तत्राऽऽत्मतवेनाच्चाति ब्रह्मणि भयेक- 
रेऽपि । एष शोको भवति । व्याख्यातम । अपिचन्दखचिता युक्तिः स्ंक्षपेणेयम्‌ । 
अदत, माता, पिता, बन्ध्वादि वाभ्विपरीतरूपमपि स्वस्येष्टकारित्वेन स्वयं विपरीतग्रहीतं 
तदनिषटमङ्षर्वदपि स्वस्यानिध्कारि दुष्टं यथा तद्वद्धष्यापि ॥ 
इति श्रीमत्परमहंसपसिाजकाचायश्रीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदार्थवोधिन्यां 
तै्तिरीयोपनिषदीपिकायां बह्म-भानन्द-वदयां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


अथाऽष्टमोऽनुवाकः 

भीषा भत्वा 1 अस्माद्भघ्षण आत्मत्वेनाज्नानात्‌ । वातो वायुः । पवते वाति । 
भीषा भीस्या । उदेत्युदये गच्छति । सुय आदित्यः। अस्मादित्यडवतंते । भीषाऽस्मा- 
द्रथख्यातम्‌ । अद्धिश्च वह्िरपि दहनादिकं करोतीति शेषः । इह्दरश्च त्रिलोकीनाथोऽपि 
वरिलोकी भनतीति शेषः । आयश्रकारोऽखक्रानां सवेषां महतां व्यापारसञ्क्चयाथेः । द्वितीयो 
मीषाऽस्मादिति संबन्धाः । सुत्युः स्थावरजङ्मधरिनाश्कारी । धावति सर्वेषामभावाय 
सवोन्प्रति गच्छति । पञ्चमः पञ्चसंख्यापूरणो भीषाऽस्मादित्यदषङ्कः। इतिः छोकसमासो । 

नद--ग्रकृता ब्रह्मप्रभा व्याख्यातास्तत्रेव बरह्मप्रा्नेरपरुषरथत्वे शङ्किते प्रसद्धाद्वह्मण 
आनन्दरूपत्वखक्तम्‌ । सौऽयमानन्दौ दुःखामात्रो भावो वा सातिशचयस्ततोऽरुषार्थ इत्याशङ्का 
ऽऽह-सा प्रतिदा । एषा वक्ष्यमाणा । आनस्दस्य भावरूपस्य खस्य मीमाध्सा 
बरह्मविदां उखकारित्वेन पूनितो विचार आनन्दस्योत्कषवचेनाभाव्रलव्याशत्तिफरो बह्मान- 
न्दस्य सवैस्मादधिकतवेनापरषाथेत्वव्याटत्तिफकः । भवति स्पशम्‌ । 

युवा षोडरवषमारभ्याऽऽपठ्तिदशनखपघातमन्तरेण मध्यमं वयो योवनं तद्वानक्षीणेन्दि- 
यशक्तिरियधैः ¦ स्याद्वेत्‌ ! यौवनेऽपि स्वभावतः शरीरस्येन्दरियाणां वा वैरूप्यं संभावितं 
रोगादिनिमित्तं वा तत्निवारणार्थमाद--साधुयुवा कन्द्समानरूपः सन्‌ योवनसेपन्नः । 
तादृशोऽपि मखो मा भृदित्याह-अध्यायकोऽधीतसाङ्खोपाड्वेदः स्वेज्ञ इत्यथः । तादृशो- 
ऽपि केवरं स्वोदरंभरिरतिमन्दो वा तद्य तन्त्रेण वारयति--आश्िष्ठोऽतिशयेनाऽऽशा- 
 स्ताऽतिश्येनाऽ्रकारौ च । अथाप्यतिमन्दत्वाद्यर्थजीवित वेत्यत आह--ददिष्ठो- 
ऽतिश्येन दृदोऽविकृतवाक्रायमना इत्यथः । तादृशोऽपि बठदीनः स्यादित्यत आइ-- 
बलिष्ठ ऽतिदयेन बठसंप्नः । एवंशरूतोऽपि वित्तदहीनः स्यादित्यत आह-तस्योक्तविशषेषण- 
विशिष्टस्य । इय॑सपद्वीपान्धिवटयटोकमेखट। । पृथिवी भूमिः । सवौ निखिला । 
वित्तस्य वित्तेन ष्दृषटलकरेण गोदिरण्यादिना । पूणां परिषरणां । स्याद्ववेत्छवंडक्षण- 
सपृत्रस्य चक्रवातन त्यथः । स सवटक्षणसंपन्नस्य चक्रवतिनो जायमान आनन्दः । एकः 


८ अष्टमोऽनुवाकः ] तेत्तिरौयोपनिभ्टपिका ३१ 


'एकत्वसंख्याक्रान्तः । मायुषो मदष्यष् भवः । यानन्दौो वरूपः ्स्रात्मा ¦ नातः परं 
-मवध्याणां छसमित्यथेः । ते परोक्षाः। ये प्रसिद्धाः! शातं भतसंखूयाका मानुषा आनन्द्‌ए 
व्याख्यातम्‌ । वचनं तु विशेषः । 

स परोक्षः प्रसिदः । पक एकत्व्र्यक्रान्तः। मचुष्यगन्धवौणां मदष्याः सन्तो 
-जन्मान्तरे गन्धर्वत्वं प्राप्ता मदष्यगन्धर्वा अन्तरिक्षलोकनिवासिनोऽन्तपौनादिश्षकिमन्तत्ते- 
षाम्‌ । आनन्दः उलात्मा । अस्माकं चक्छवर्विनां यथोक्तयुणविशिष्टानां श्षतयगुणखं मष्य- 
:गन्धवीणां परमं छलमित्यथः । श्रोियस्य चाधीतवेदस्याप्यट्राजिनत्वं चात्राथसिदमिति 
न पठितम्‌ । भोत्रियत्वं च शक्रवर्तिनोऽस्य च समानम्‌ । चकारो मदष्यगन्धवानिन्दसञ्- 
यार्थः। मवष्यगन्धवोनन्दप्राप्तो कारणमाद-अकामहतस्य यथोक्तयुणदिसिष्टचक्रवर्तिश्ठस- 
कामेनानिपातितस्य तदभिलाषरदितस्येत्यथः । 

यो हि यत्राभिकाषरहितस्तस्य तद्धिषयग्रप्रेः ्रतयुणं छं भवतीयत एव प्रथमे पये 
-ओतरियस्य चाकामहतस्येति न पठितम्‌ । , 

ते ये शतं मनुष्यगन्धवोणामानन्दाः । स एको देवमन्धयोणामानन्दः ! ्रो- 
त्रियस्य चाक्रामहतस्य । ते ये रातं देवगन्धवाणामानन्दाः । स एकः पितृणां 
चिररोकरोकानामानन्दः ! श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । त ये शतं पितृणां 
चिरसोकखोकानामानन्दाः । सं एक आज्ञानजानां देवानामानन्दः । श्रोत्रियस्य 
चाकामहतस्य । ते ये रातमाजानजानां देरानामानरदाः । स पकः कमेदेवानां 
देवानामानन्दः । ये कमेणा देवानपियन्ति ! ्रोियस्य चाकामहतस्य । तेये 
शातं कमेदेवानां देवानामानन्दाः । स एको देवानामानन्दः श्रोजियस्य चाका- 
महतस्य । ते ये शातं देवानामानन्दाः । स एक इन्द्रस्याऽ.नन्द्‌ः ! ओंजरियस्य 
-चाकामहतस्य । ते ये शातमिन््स्याऽऽनन्दाः ! स एको ब्रृहस्पतेरानन्द्‌ः। 
आनियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः । स पकः प्रजापते- 
रानन्दः। श्रोत्रियस्य चकामहस्य । ते ये हतं प्रजापतेरानन्दाः । स एको बरह्मण 
` आनन्दः । श्रोजियस्य चाकामहतस्य । देवगन्धर्वाणां देवाश्च ते गन्धवोश्च देवगन्धवो- 
स्तेषां चाऽऽकल्पगन्धवेशरीरप्रातिदेतुूतकमपयामित्यथेः । पितृणां, पितुविशेषणं चिरलो- 
` कटोकानां चिरादीर्चस्यायिनो ठोकाः क्मंफठविगेषास्ते येषां लोकास्तत्स्थामिनः चिररो- 
` कौलोकास्तेषामनेककाठस्थायिनामित्यर्थः। आजानजोनां कल्पादादुत्पत्रानामाजाने देवलोके 
जाता आजानजास्तेषां, विशेषणमिदम्‌ । विकशेष्यमाह--देवानां बोतनात्मक्रानाम्‌ । कमदे- 


( १ ) °लोकाः स्मा्ैकमौनुष्टानपरा देवलयकं प्राघ्तात्ते । ( २) णनां शौतकमीनुषठात्रारोऽविद्रंसो 
` देवव ्राप्ताः क० । 


३२ रंकरानन्द्रता [ ब्रह्म-भानन्द्-वही, 


वानाम्‌ इदं शतिरेव व्याकरिष्यति । पूर्ववद्वशेषणखकस्वा विशेष्यमाह--देवानामाजा- 
नभ्य ३त्कृष्टानां योतनात्मकानाम्‌ । कमेदेवानाभित्येतब्याकरोति । ये प्रसिद्धा या्तिकाः। 
कमेणाऽपनिहोत्रायश्वमेधान्तेन देवान्योतनात्मकानपियन्ति प्राघ्ुषन्ति देवत्वखचपगता इत्वंथः । 
देवानां व्रयन्िश्त्तंख्याकानां हविशचैजामग्न्यादीनाम्‌ । इन्द्रस्य त्रिलोकीपल्ः ८ तेः ) शक्रस्य । 
बृहस्पतेरदेवयुरो- । प्रजापतेर्विराजः । जह्मणो दिरण्यगमंस्य । नव पर्यायेषु प्रायः समा- 
नपाठम्‌। शेषं पूं पूर्वं तदायथैत्वेन व्याकृत्य यथोचितं गन्धवादिपेयांजनीयम्‌ । अकामहतत्वं 
च पूर्वपुवेविषयत्वेन हिरण्यगर्भस्य यावानानन्दस्तावानानन्दो निरतिश्यवेराग्प इति 
तात्पयोथः । दिरण्यगभादुत्कृ्टस्य ब्रह्मानन्दस्य वाङ्मनक्षयोरगोचरत्वादिरण्यगमभीनन्दमेव 


जद्मानन्दसखद्रस्योदबिन्दुसमं दिङ्मात्रह्क्त्योपरराम तिः । अतः पर स्वर्य॑प्रकाश्चान- 
न्दाल्ेव पमाणं नाहमिति शतेरमिप्रायः । 


अनेन भावरूपो निरतिशयश्च ब्रह्मानन्द उक्तः । तथाऽपि स द दिरण्यगभिपि परतो 
देहायुपाधिस्थो वा नास्मदादिरूप इत्यत आई -सः परोक्षो दिरण्यगमोदुत्कृश आनन्दः । 
यञ्च प्रसिदोऽपि, अयं स्वये प्रकाशमानः । पुरुषे पञ्चकोश्षात्मके पुरषशब्दा- 
भिषिये पुच्छत्वनोक्तः । यञ्च प्रसिद्धोऽपि, असौ परोक्षोऽस्मदादीनां प्रत्यक्षश्च 
विदुषः । आदिय आदित्यमण्डठे । चकारो पुरुषादित्ययोवाचारम्भणमाहतुवाक्यद्वय- 
गतो । सं आदित्ये पुरषे च वतमानः । एको भेदरदितः । विदुषो ब्रहमप्रापिरुक्ता यदेत्या- 
दिना यद्यपि, तथाप्पि तच्वमसीतिनोक्तं तदर्थं प्रासतङ्धिकमेक्यमभिधाय पुनस्तत्प्रा्तिमाह- 
सोऽधिकारी । यो यः कथन । एवंविदादित्ये पुरषे च ब्रह्मानन्दमभेदेन विद्वान्‌ । अस्मात्‌ 
प्रत्यक्षात्‌ । लोकादृटदृष्टसाघनफकात्मकात्‌ । प्रेत्य प्रकरवेणाऽ्ऽगत्य खतवदत्राभिकाष- 
दन्य इत्यथः । एतखक्तमन्नमयमन्नाविकारम्‌ । आत्मानमिन्दियद्वास विषयप्रापकम्‌ । 
उपसंकामति, अन्रमयमध्यात्मापिदेवमेदाभिननमप्यध्यस्तं वस्तुतस्त्वहमेवेदामिति सामीप्येन 
सम्यगवगच्छति । पतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति एतं भनोमयमत्मानमुपसं- 
क्रामति } पतं विज्ञानमयमात्मानमुपसंकामाति । पएतमानन्दमयमात्मानसुपसं 
अमति ! स्पष्टम्‌ । पयोयचतुश्यमन्रमयवथाख्येयम्‌ । सवौत्मत्वज्ञानेनाऽऽनन्दं ब्रह्म प्राप्नो 
तीयः । तद्‌पि तस्मिन्पञ्चकोशाषिष्टाने पुच्छरूपे ब्रह्मणि रसे सवौनन्दातिशाधिन्यधिदै- 
वादिभेदशचल्येऽहमस्मीत्यनगतेऽपिशब्दायो हि यदात्मा भवति प्षोऽसां तस्मान्न बिभेति । न च 
अह्मणोऽन्यदत्रास्ि किचिद्धश्माऽत्मा चाये ततो नास्य भीतिः इतधिदिति य॒क्तिरेक्ता । पष 
शोको मवति व्याख्यातस्‌ ॥ 


इति भरीमसरमदंसपरिनाजक्षाचार्यश्रीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदाथबोधिन्यां 
तेततिस॑योपनिषदपिकायां जह्म-आनन्द-वहयामष्टमोऽनुवाकः ॥ ८ ॥ 


( १) उक्टानां ( २) °थः। देवाः समुच्चयद्धारिणे देवयानमा्मगामिनेो देवाः । देवानां 


९ नवमोऽनुवाकः | तैत्तिरीयोपनिषीपिका ३३ 


अथ नवमोऽचवाकः 


यतो वाचो निवतेन्ते । अप्राप्य मनसा सह ! आनन्दं ब्रह्मणो विद्धा्रबिभे- 
ति कुतश्चनेति ¦ कुतश्चन कस्मादपि । शेषं समानपाठं मनोमयपयायवद्यख्येयम्‌ । पूरं 
गतो मनस्तः कारणादिति व्याख्यातं मनोमयपययप्रसङ्धात्‌ । इदानीं संकोचे कारणामावात्स- 
वैकारणादानन्दात्मन इति व्याख्येयम्‌ । नद-भीतिरदिताः सन्ति षहः पृण्यात्मानः 
संसरिण इत्यत आह--एतं त्रहमविदं ह प्रसिदं वावैव न तपति तापं न 
करुते न संतापयतीय्थः । मानक्प्रत्यय इति शेषः । कुत्रेत्ययमभिनयेनाऽऽह--ददेः 
शोकजे विचारे किमहं क्षीणशक्तिः । साध्यु शोभनं पुण्यात्मकं कमं । नाकरवं न 
कृतवान्‌ । आः कष्टमिति रेषः । किमहं व्याख्यातम्‌ । पापं शरत्यादिनिन्दितं कमम । 
अकरवं कृतवान्‌ । आः कष्टमिति शेषः ¦ इत्यभिनयाथंः ! अनेन प्रकारेण भयरहिताना- 
मपि संसारिणां एण्यपापास्यां भीतिनास्य स्पटत्यभिप्रायः । 


नहत कि लोकायतिक इत्याशङ्य नेत्याह--सोंऽधिकारी । यः प्रसिदः ! एवं 
विद्धानहमेव निरतिश्चयज्ञानानन्दो न मत्तोऽन्यत्किविद्रस्तुभूतमस्तीति ज्ञानवान्‌ । एते पुण्य- 
पपे ! आत्मानमानन्दात्मरूपं नेनं स्पृणुते प्रीणयति 1 शक़तदुष्कृते अहमेवास्मीत्यवग- 
च्छतीत्य्थः । ततो न ठोकायतिकसम इत्याह--उपे पुण्यपापे ¦ हि यस्मदेवैष विद्वाने- 
वेते आत्मानं स्पृणुते व्याख्यातम्‌ । सवोत्मत्वाटु्यपापाहष्टानानद्ानजन्यः न संतापो 
न व॒ लोकायतिकवन्नास्तिक्येनेत्यर्थः । तदेतदाह-य एवं वेद प्रसिदोऽधिकाथुक्तमानन्दरूपं 
निभेदमात्मत्वैन जानाति । य एवं वेदेष एवैते उभे आत्मानं स्पते हीत्यन्वयः । ततो 
लोकायतिकाद्विलक्षण इति शेषः । इतिरानन्दबष्टीसमा्रादुक्तात्मन्ञानादकरण्थां वा । 
उपनिषस्सवैकारणं सवधारभूतं निरतिशयानन्देकस्वभावं निरभेदमपगतसमस्तग्रपद्रं त्रह्म- 
हमस्मीति सामीप्येन नितरां गमयित्वाऽहंममादिबन्धनानि शिथिटीकृत्याविवां सकार्यं ससं- 
स्कारन्सादयति विनाक्षयतीर्युपनिषद्धश्नविगा प्रतिपादको न्थ वोपनिषेत्‌ ॥ 
इति श्रीमयरमहंसपरित्ाजकाचाय्रमच्छंकारानन्दविरचितायां पदाथबोधिन्या 
तेततिरीयोपनिषदपिकायां ब्रह्म-आनन्द-वर्स्यां नवमोऽनुवाकः ॥ ९ ॥ 
इति श्रीमत्परमहंसपणित्राजाचार्यानन्दात्मपूज्यपादशिष्यस्य भीकंकरानन्दस्व कृतो 
पदार्थबोयिन्यां तेत्तिरीयोपनिषरीपिकायां बरह्म-आनन्द्‌~वष्ठी समाप्ना ॥ २ ॥ 





अथ श्वैरव्ही 
अथ प्रथमोऽनुवाकः 


इक्ता ब्रह्मवि । ब्रह्मावगतो चोपाया अन्नमयादयः पञ्च कोशाः । तांधेत्तथाऽवगन्तुमशकतः 
कुतधित्पमतिबन्धात्‌, तस्य तत्प्रतिबन्धकारणापाकरणभूतानि तप आदीनि । तपसि कारणे 
च ब्रहमु्टिं विधातुं प्रसङ्ादुपासनांन्तराथमपीयं वष्टयारम्यते । तत्राऽऽख्यापिका गुरूपदे- 
शव्रहमषिवाङ्गतं दयितं विदां स्तोतुं च । भ्ृशुनोमतः वे प्रसिद्धः । वारुणिवेरुणस्य- 
पत्यं वाखणिः । वरुणं वरुणनामानं पितरं शगोजनकमुपससार शाह्नृष्ेन मार्गेण 
विद्ाथं समीपमागतवान्‌ । आगत्य चेदमृच-अधीह्यध्ययनं कुरु । अयमथेः--स्मरसि 
त्वे रह्म, ततो मद्यं वद । भगवो भगवन्‌ हे पुजावन्‌ । ब्रह्मातिक्रयेन शं जगजन्मादिकार- 
णभित्यनेन मन्त्रेणोपससार । अनन्तरं पिता तस्मे गव एतदरक््यमाणं प्रोवाच प्रकरै 
णोक्तवान्‌ । अन्नमथतेऽत्ति च शरीरमध्यात्मादिभेदभिन्रम । प्राणं शरीरान्तवतिंतवेन वायु- 
मत्तारमेव क्रियाशक्तिम 1 इदानीं ज्ञानक्रियाशक्तीनि भोगसाधनान्याह-- चक्षू सूपग्रहणका- 
रणम्‌ । श्रोतं शब्दोपभ्धिकारणम्‌ । ऽपलक्षणमिदं त्वग्रसनघ्राणानाम्‌ । मनः सर्वैकरण- 
-साधारणमन्तःकरणं ज्ञानशक्ति । वाचं दक्तन्यक्रारणमभूतीम्‌ । ऽपरक्षणमिदं पाणिपादपापू 
पस्थनाम्‌ । इत्यनेन प्रकारेण । अयमथः-भोग्यं भोक्ता भोगसाधनं चेति समग्रोऽपि 
प्रपञ्चस्तं ब्रह्मक्ष्णं च कथयिष्यामि । यावच्ास्याऽऽत्मज्ञानं न भविष्यति तावत्पण्डितंमन्यः 
कचित्कवचिद्धक्नोपासनं करोतु । तेनोपासनेन क्षीणपापो (१) ब्रह्मवगन्तुं शक्यते न त्न्यथेति। 
तदभिप्रायेण श्रतिराह--तञ्चपदिधप्रपञ्चम्‌ । ह किट । उवाचोक्तवान्वरुणः । ` यतो ऽभि- 
्निमित्तोपादानात्‌ । वै प्रसिद्धानि । इमानि िविप्रत्ययगम्यानि । भूतान्थाकाशादीनि 
स्वेदजादीनि च । जायन्त उत्पयन्ते । येन जीवनकारणेन जातान्युत्प्नानि सन्ति 
जीवन्ति प्राणधारणोपटक्षितां स्थिति इुवेन्ति । यष्टयस्थानं धरस्येव गरत्‌ । प्रयस्ति 
गच्छन्ति स्वस्वकार्यस्वमावं परित्यजन्ति सन्तीत्यथः। अभिसंविशन्ति सवैतः सम्य्‌- 
कप्वेशं इवेन्ति । तदुक्तक्षणं जगजन्मर्यितिध्वंसकारणम । विजिज्ञासस्व विशेषेण 
“ अहं तदस्मि › इति न्ाठ्मिच्छां रु जानीदहीत्यथः । नद मया बह्म पृष्ट, भवताऽन्यदुच्यत 
ह्यत आह-तदु्तरक्षणं ब्रह्म ब्रहमकब्दाभिषेयं नान्यदित्यथः। इतिः पितुव॑चनप्तमापन । 

स श्रतपितृवाक्यो भरुः । तपः पथाोचनमन्नादिषृक्तेषु लक्षणाक्रान्तं कतमदित्येवं - 
पर । अतप्यत कृतवान्‌ । अथवा स्वधमंवृत्तितवं तपः कृच्छरचानदरायणादि वा | अस्मिन्पक्ष 





(१) ०भूतम्‌-प़रटः । 


३ तृतीयोऽनुवाकः]  तैत्तिरीयोपनिषदीपिका ` ३५ 


तप्ता छदान्तःकरणस्य मन इन्द्रियाणां चकाय्यं जायत इति भ्याख्येयम्‌ । स तापसो 
श्रगुः । तप उक्सरूपम्र । तप्त्वा संपाद । 
इति श्रीमत्यरमदंसपरिनाजकाचाश्रोमच्छेकरानन्दविरचितायां पदाथनेधिन्यां. 


अथ दितीयोऽनुवाकः। 
अतिस्थवीयबुदित्वेनान्नं ब्रह्मान्मेव ब्ह्मलक्षणाक्ान्तं अघ्शब्दामिषेयम्र । इत्यनेन प्रका- 
रेण व्यज्ानादिशेषेणावगतवान्‌ । । 

तद्विज्ञानप्रकारं तिगद-अन्नादुकतात््‌ । हि यस्माच्‌ । पएवात्रादेव न स्वन्यस्मात्‌ । 
खलु निधितम्‌ । इमानि भूतानि जायन्ते ¦ अन्नेन जातानि जीवन्ति । अन्नं पय- 
न्त्यभिसंविहान्ति--भ्याख्यातम । यत्पदस्थलेऽन्रपदमिति विशेषः । इत्यनेन प्रकारेण । 
तदन्नं ब्रह्मरूपं विज्ञायावगत्य प्रत्यक्षणोपपस्या चाननस्य नाशमवटोक्यात्तताब्रह्मलश्षणाभ्यां 
संशयाविष्हदयः । पुनभैव एव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवा ब्रह्मेति । 
त होवाच-- व्याख्यातम्‌ । वरुणं पितरखपससावेत्यन्वयः । तपसा व्याख्यातेन 
त्वया स्वयं ्ञतेनोपायेनेत्यथः । व्रह्म विजिज्ञासस्व पयालोचनेन ब्रह्मणोऽचगत्ति कर । 

इदानीषपायषपेयदृष्टया स्तोति--तपो ब्रह्म ब्रह्मप्रतिप्छपायभूतं तपौ ब्रह्मोपेय- 
मित्यनेनाथदिदखक्तम्‌-- त्रहमज्ञानाथिना वित्यानित्यवस्तुविवेकांदिकं साधनं संपादनीयम्‌ । 
तत्संपादयिद॒मशक्तशेत्तस्मिन््रहमदृधिं इ्यादित्तिः । अन्थाऽच वक्ष्यमाणपयायत्रये च तपो 
्रहमत्यभिधानं व्यथं स्यात्‌ । स तपोऽतप्यत ¦ स तपस्तप्त्वा | 

इति श्रीपल्रमहंसपशिव्ाजकाचायश्रीमच्छैकरानन्दविरचितायां पदाथबोधिनयां 
तैत्तिशयोपनिषददीपिकायां भयुयल्यां द्वितीयोऽतुवाकः ॥ २॥ 


कै 


अथ ततीयोऽनुवाकः 
प्राणो ब्रह्मेति न्यजानात्‌ । प्राणाद्येव खल्विमानि भूतानि जायन्त । 
प्राणेन जातानि जीवस्ति । प्राणं प्रयन्त्यभिसंविरान्तीति ¦ तद्धिज्ञाय ! पुनरेव 
वरुणं पितरमुपससार ¦ अधीहि भगवो ब्रह्मेति ¦ त^ हयवाच । तपसा ब्रह्म 
विजिज्ञासस्व ¦ तपो ब्रह्मेति ! स तपोऽतप्यत ! स तपस्तप्त्वा ॥ 
इति श्रीमयरमदईैसपरिाजकःचार्श्रमच्छकरानन्दविरचितायां पदाथवोधिन्यां 
त्तरीयोपनिषदपिकायः भृयुवल्लयां तुतीयोऽदुवाकः ॥ २ ॥ 


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८ १ ) ०दिनाऽनुसंषानं-पराहः । 


३६ दकरानन्द्कृता [ भृगु 


अथ चतुर्थाऽनुवाकः 
मनो ज्येति व्यजानात्‌ ! मनसो ह्येव खद्विमानि भूतानि जायन्ते । मनसा 
जातानि जीवन्ति । मनः प्रयन्त्यभिसंविान्तीति ! तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं 
पितरमुपससार ! अधीहि भगवो ब्रह्मेति ! त< होवाच । तपस्ता ब्रह्म विजिज्ञा 
सस्व } तपो ब्रह्मेति } स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ * 


इति श्रीमत्पर महंसपशिनाजकाचायंश्रीमच्छकरानन्दविर चितायां पदा्थवोधिन्वां 
तेत्तिरीयोपनिषदीपिकायां भ्रगुव्स्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४ ॥ 


अथ पञ्चमोऽनुवाकः 


विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्‌ 1 विन्ञानाच्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । 
विज्ञानेन जातानि जीवन्ति । विक्ञानं पयन्त्यभिसंविरान्तीति । तद्विज्ञाय । 
पुनरेव वरणं पितरमुपससार ! अधीहि भगवो ब्रह्मेति ! त५ ह्योवाच । तपस 


द्यं वजल्ासस्व । तपा ह्यते } स तपोऽतप्यत । स तपस्तन्त्वा॥ 
इति श्रीमत्परमहसपरिनाजकाचायधीमनच्छंकयनन्दविरचितयां पदाथबोधिन्यां 
तेत्तिरीयोपनिषटीपिकायां भगुवल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥ ५ ॥ 


अथ षष्टोऽनुवाकः 

आनन्दो जह्चति व्यजानात्‌ ।! आनन्दाच्येव खदिवमानि भूतानि जायन्ते । 
आनन्देन जातानि जीवन्ति! आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविरन्तीति। 

यथाऽत्रस्य विनारित्वं दोषो ब्रह्मत्वे, तथाऽचेतनत्वं प्राणस्य, अनिश्वयात्मकत्वं मनसः, 
सुखदुःखभोक्वृत्वं विज्ञानस्य च दोषः! यथपि चष्ठुः भत्रं मनो वाचमित्युपदिष्टं न विज्ञा- 
नमिति, तथाऽपि क्रियाक्तीनां वागादीनां ज्ञानक्षक्तीनां च च्चरादीनां प्राणमनःसमानयो- 
गक्षिमत्वात्फथक्तदिज्ञानं च नोक्तम्‌ । मनसोऽपि विज्ञानतन्त्रत्वान्मनक्ताऽमिधीयमानसत्वेन 
विज्ञानमप्य्थदुक्तमेव । ततस्तद्बनं दोषदृष्ट्या पितरं प्रयागमनं चेत्यविरुटम्‌ । प्राणमनो- 
विज्ञानानि प्राणमयमनोमयविज्ञानमयकारणान्यानन्दश्वाऽऽनन्दमयकारणम्‌ । पृच्छं च तस्य 
बह्मशब्दामिपेयो खख्यः । ततोऽस्य दश्षेनानन्तरं पितरं प्रत्यागमनाभावः । स तप इत्या- 
` रभ्येतीत्यन्ताः प्राणमनोविज्ञानानन्द्पयोयाश्वत्वारोऽपि समानपाट अन्नपर्यायवद्याख्येयाः । 

इदानीमाख्यायिकासिद्धमर्थं श्रुतिराह षिवयास्ठतये--सा प्रसिद्धा । एषेदानीछक्ता ! 
माभेवी शयुणाऽवगता भागवी । वारुणी वरुणेन प्रोक्ता वारणी । विद्या तब्र्म- 
विया । परम उच्छृ । व्योमन्वयोस्न्यानन्दात्मनि । प्रतिष्ठिताऽवस्थानं प्राप्ताऽनन्दात्- 
-न्येव पयंदितेत्यथः। 


८ अष्टमोऽतुवाकः ] तैत्तिरीयोचनिषद्‌ पका ३७ 


इदानीमानन्दात्मविज्ञानोक्तं फटमाह-{ ख प्रसिडः \ ] योऽधिकारी । एवमत्रप्राणमनो- 
विक्नेम्योऽन्तरतम आनन्दोऽदमस्मीति । वेद्‌ जानाति साक्षात्कतेतीत्यथेः । प्रति 

तिष्ति--एवं ज्ञानवान्सोऽयमविद्यासंस्कार्न्यो ब्रह्मण्येवावतिषते । अथवेवं प्रचिपत्तम 
शक्तोऽनादिकोशपञ्चककारणे ब्रहृ कयात्‌ । सोऽप्यन्तःकरणद्यदिद्वारापस्मिन्डरीरे असी 
रान्तरे वा प्रतितिष्ठति । 

य एषं वेदेत्यनेनात्रादि ्रहमदृ्ेरप्यभिधातुं शक्यत्वात्तादृशस्य प्रोमनाथे दृष्टं फठान्तर- 
मप्याह--अन्नवाननित्यमत्रसंपत्तः । अन्नादोऽनरमष्चको नीरोग इत्यथः । भवति स्पष्टम । 
महानधिकः । भवाति स्पष्टम्‌ । कयं प्रजया पत्रादिसंतत्या । पष्ुभिगेवादिभिः । ब्रह्म 
वचेसेन ब्राह्मणजात्युचिततेजसा । न केवटमेवै कितु महानषिकः । क्थे-कीत्यो 
यक्सा । प्रथमो महच्छन्दस्तास्मिन्विद्यायिक्यमाह । द्वितीयस्व॒ प्रजादीनां कीत्येन्तानाग्र ¶ 


» इति शीमत्मरम्हंसपस्निजकाचार्श्रीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदाथगेधिन्यां ` 
तेततिरीयोपनिषदीपिकायां श्रगुत्स््यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ ६ ॥ 


अथ सप्तमोऽनुवाकः 

इदानीमस्यानव्रह्मोपासतकस्य व्रतमाह--अश्चमदनीयं न नि्द्यातनिन्दां न कुर्यात्‌ । तद- 
-तानिन्द्नं व्रतं त्रतथारणम्‌ । पृवंमन्नमन्नादश्च यथास्थितखपासनीयमिति सिदवत्कृत्येदानीं 
वेपसीत्यमाद-- प्राणौ घे पश्चटृततिरेव । अन्नमदनीयम्‌ । शारीरं स्थूलो देहः। अन्नादमन- 
भक्षक , अन्नाश्रयत्वात्र । प्राणे पच्चटत्तो शरीरछक्तं॑तदधीनस्थितित्वेन प्रतिष्टित 
प्रतिष्ठं प्राप्रम्‌ । 

इदानीं वेपरीयमाह-- शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः स्पष्टम्‌ । तदुक्तम्‌ । एतच्छसर प्राणरूपं 
प्रत्यक्षम्‌ । अन्नमदनीयम्‌ । शरोरं प्राणश्च अशने शरीरे प्राणे च प्रतिष्ठितमवास्थतं वशत्‌ 
णीदिष्विव गहं, गृहे च वैश्तणादिं ! स प्रदः यों यः कव्वनोपाक्तकः । पतदन्न- 
सन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानच्नादो भवति । महान्भवाते । प्रजया 
पद्ुसित्रह्यवचेसेन । महान्कीत्यां । एतदक्तमन्ने प्रतिशतं वेद जानाति जानीयादित्यथः ' 
व्याख्यातमेतत्‌ ॥ 

एति श्रीमत्परमदहसपरिाजकाचारभभीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदा्बोधिन्यां 


| > > सने प 


तत्तिरीयोपनिषदीपिकायां भृगुवहछयां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥ 


क 
अधाष्टमोऽनुवाकः 
अन्र्तं न परिचक्षीत दीयमानमन्नं न निराङयात्पात्रस्थं बा न परित्यजेत्‌ । तदबा- 





( १ ) जैवं । अथ चैव॑-पाढान्तर। 


३८ रंकरानन्दकृता [ भृगुव्ही ` 


परित्यागक्षणं चतं त्तधारणम्‌ । इतः परं मनो विज्ञानं, चोति वक्तव्यं यथपि, तथाऽपि 


तयोरपि भूतकार्स्वाल्पमाणकब्देन वादुभूतमङ्गीकृरयान्रशदेन भतिकं भृतप्रङ् प्रस्तावयति- 
आपो वा, अन्नम्‌ ! ज्योतिरन्नादम्‌ । अप्ु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्‌ । ज्योतिष्यापः 


प्रतिष्ठिताः । तदेतदश्नमन्ने प्रतिष्ठितम्‌! ख य पतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद्‌ प्रति 


तिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया पष्ठाभिब्रह्यवचंसेन ।' 


महान्कीत्यी । जपो द्रवात्मिकाश्चवुयणाः। ज्योतिः प्रकाशां तरियुणम्र । शोषं प्राणश्चरी- 
रपयांयपत्समानपाटें व्याख्येम्‌ ॥ 
इति श्रीमद्परमदहंसपरिवाजकाचायं भरीमच्छंकरानन्दविरचितायां पदाथबोधिन्यां 
त्तिरीयोपनिषदीपिकायां भयुवर्ल्यामषटमोऽतुवाकः ॥ < ॥ 
अथ नवमोऽनुवाकः 

अन्नखक्तं बहमधिक शचाजोक्तैरुपायेयोजनादिभिः कुर्वीत स्पघरम्‌ । तद्न्रबहुकरणं व्रतं 
वरतधारणम्‌ । पृथिवी वा अन्नम्‌ ! आका्योऽन्नादः। पथिव्यामाकाशः चति एतः) 
आकाशे पथिवी प्रतिष्ठिता ! तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्टितम्‌ । स य एतदन्नमन्ने प्रति- 
षितं वेद्‌ प्रतितिष्ठति । अन्नवनन्नादा भवाति । महन्भवाते । भ्रजया पद्यु 
म्ह्यव्यसेन । महात्कीटयी ! एथिवी कठिना पञ्चगुणा । आकाशदिद्रास्ा शब्दगुणः; 
शेषं समानपाठमन्ञ्योतिः पर्यायवथाख्येधम्‌ ॥ | 

इति शीमलरमहंसपरिव्राजकाचा्य्॑रीमच्छंकरानन्दगिराचितायां पदाथबोधिन्यां 
तेत्िरीयोपनिषदीपिकायां ययुवल्यां नवमोऽनुवाकः ॥ ९ ॥ 
अथ दश्ामोऽनुवाकः 

न कंचन कमपि च्ण्डालान्तं ब्राह्मणादि वसताववय रत्रौ त्वदुग्रहे वासं करिष्याः 
मीति वस्ततिनिमित्तं समागतम्‌ । प्रत्याचक्षीत न निरक््वीत । तद्धसतिनिमित्तं समागता. 
निवारणं चरतं त्रतधारणम्‌ । एमेतान्युपासनानि सत्रतानि स्षमानफरत्वादिच्छापिकत्पार्थानि 
उक्तफाठकाम उक्तेष्वन्यतमञ्पासनं कुर्यादिखवगम्यते । अत्र च भूतपश्चकस्य भौतिकस्य 
च परस्परपकार्यो पकारकभावकथनेन सवोद्धेते पयेवसानं तदर्रितमिति तास्पयथिः 

इदानीं ब्रह्मज्ञानोत्पदि सश्रदमन्नदानं कारण, 'तथाऽ्नमन्तरेण कतुंमश्क्यं वसतावप्यपर- 
व्याख्यानं नात्रमन्तरेण स्यात्‌ । न हि पु्णोदरा अप्रथिता वसत्य गरहस्थस्य गहेष्वागच्छ- 
न्तो दृश्यन्ते । वितु छधातौ एव । ततोऽन्नरसपादनार्थं गहस्थाश्नमवातिना अञश्चणाऽपि 
महान्‌ यत्नः करणीय इत्याद-तस्मायस्मादन्नमन्तरेण नं पुरुषा्थसिद्िगेहस्थस्य, ततो 
यया कया च येन केनापि विधया-उपायप्रकारेण याजनाथन्यतमेनेत्यथः। बहधिकमने 


(१) अप्राथतान्नः- प्राहः । 


१ 


र . 
१० दञ्चमोऽलुवाकः । हेचिरीयोपह्हीपका । ३९ 


त्रीद्यादिकं प्राप्नुयादवेत्‌ । यथप्यततं बहु इर्वतित्यनेनेव तदुक्तं तथाप्ये तद्तमित्यभिषा- 
नादुपासनाङ्गोऽयै नियमविधिरितिहदधिनिवारणार्थं स्वातन्त्येणं पुरषा्थत्वं दश्चेयिं उन. 
राह । नड--अन्नं स्वोपभोगग्येव संपायं न त्वन्यस्मै दानाय, प्रमाणाभावात्‌, इत्यत आह- 
अराधि संसिद्धम्‌ । अस्र गहे समागतायातिथये । अच्लमदनीयम्‌ । इत्यनेन प्रकरेण 
स्वभावोदीन्प्रति । आचष्ते कथयन्ति विद्वांसो गृहस्थाः ! अनेन गा > 
प्रमाणमन्नदाने कथिता । 

इदानीं दीयमानेऽत्रे दे्षकाठपात्रघद्धासत्कारादिसंपत्तिरङ्मित्येतदे यथा दत्तं तथैव 
फठं भवतीत्याद--एतदव प्रसिद्म्‌। मुखतो उखे खख्ये देशे कारे पत्रे च खरूयया अद्वप 
णिपातसत्कारादिरूपया छत्या खख्यमन्नमदनीयम्‌ 1 राद्धं संसिदं दत्तमित्यर्थः । यदि तद्य 
मुखतो खख्ये देशे काठे खख्ग्रयाः त्या ख्यं खख्याय । अस्मा अत्रस्य दत्रे । अन्न- 
मदनीयम्‌ ! राध्यते संसिदः मवति । एतदे मध्यतोऽ्न ९ राद्धम्‌ । मध्यतोऽस्मा 
अन्न ९ राध्यते ! पतद्धा अन्ततोऽच्न £ राद्धम्‌ । अन्ततोऽस्मा अन्न ९< राध्यते । 
मध्यतो मध्यमदेकषे काठे पात्रे च मध्यमया ट्या मध्यमम्‌ । अन्ततोऽन्ते जधन्यदेे काठ 
पात्रे च जघन्यया शच्या तिरस्कारादिरूपया जघन्यम्‌ । व्याख्यातमन्यत्पयोयद्वयेऽपि । यत्र 
देके यस्मिन्काठे यद्रणौभमिणे यादृश्चाचाराय यस्मिन्वयसि यदत्तमन्रमन्यद्वा दातुरपि तसि. 
नदेशे तस्मिन्काडे तद्रणीभ्रमिणस्तादृश्ाचारस्य तस्मिन्वयसि तादृशं तदत्नमन्यद्वा संपत 
इत्यथः । 

इदानीं यथोक्तविकशेषणविशिष्टस्य दाने यत्फटखत्कृषट तदेव तदानशनेऽपीत्याह- योऽनदानस्य 
फलाभिज्ञः । एवखक्तेन प्रकारेण । वेद्‌ात्रदानफछत्तमखपास्ते । सोपि उखतोऽतं रुभत 
इति दोषः । तस्मान्घलतोऽतं देयमिति संदभर्थः । एवमन्नप्राणमनोविद्ानानां कायेरूपेण 
केनचित्कारणस्पेण चोपासनान्ुक्त्वेदानीमानन्दस्य ब्रह्मण उपासनान्याह--क्षेमः प्राप्तस्य 
रक्षणम्‌ । इत्यनेन प्रकारेण । वाचि बागिन्दिये मदीया वेम्न्ह्मरूपेत्युपासीत । तदुपास- 
नाच क्षेभमरूपं फठमिति तात्पयार्थः । अत्र क्रियापदादन उपसीतेत्यध्याहारः । फलादशने 
च गुणादरूपं फठमिति सर्वत्रावगन्तम्यम्‌ । 


योग्चेमः--अप्राप्तस्य प्रापनं योगः, प्राप्तस्य परिरक्षणं क्षेमः 1 तदुभयसरूप आनन्दो 
योगक्षेमः । इत्यनेन प्रकारेण । प्राणापानयोः ! स्पष्टम । कमे भ्यापाररूपं ब्रह्म । इत्यनेन 
प्रकारेण । हस्तयोः स्पष्टम्‌ । गतिगमनब्यापाररूपं बरह्म । इत्यनेन प्रकारेण । पादयोः 
स्पष्टम । विमुक्तिमंरविमोचनव्यापारर्पं ब्म इत्यनेन प्रकारेण । पायो शुदेन्दिये । 





१ ) गुदस" (२) ब्रह्मणाः ( २ )  दस्थारति प्रमा । (४ ) कथितम्‌ । (५) वान ब्रह्म । 
१२ | 


४० ई/कृरानन्दकृता [ भृगवः 


इत्यध्यात्मोपासनासमाप्त्यथः । मानुषीमंदष्यसंबन्विनीः। समाज्ञाः सम्यगाज्ञा उपासनाः | 
जानीयादिति शषः । 

अथ मादष्युपासनाकथनसमनन्तरमर । दैवीदेवसंबन्थिनीः । समाक्षा इत्यदषङ्ः ! कथ. 
यामीति दोषः । तुपतित्ेहयाश्नपानजा वटः । इत्यनेन प्रकारेण । बुष व्ष॑करखमेधोदरानिे 
ता नीरधारा । बलं ब्रहमभूयसामप्यभिभवकारणं सत्वम्‌ । इत्यनेन प्रकारेण । 
विद्युत्यचिरप्रभायाम्‌ । यहा; कीरतसूं बरहम । इत्यनेन प्रकारेण । पटु. गवादि& । 
ज्योतिः प्रकाशरूपं बर्न । इत्यनेन प्रकारेण । नक्तरेषडपेषु । प्रजाति्रह् .प्रजननरूपम्‌ । 
अश्ृतं बरह्म प्रियाठिङ्गनददोनादिरूपं मेथुनं श्द्रडलस्यम्‌ । आनन्दो अद्म भेधुनक्रियानिदे 
त्तिजं छलं एत्रफलम्र । इत्यनेन प्रकारेण । उपस्थ उऽपस्थेन्दिपे । खर्वं निखिलमाक्षाश्‌- 
दिवाकायजातं ब्रह्म । इत्यनेन प्रकारेण । . आकारो भूतुकाशेऽम्याकृतेः वा । तद्ध । 
भ्रतिष्ठा प्रतितिषटत्यस्मिन्कायेकरारणजातमिति प्रतिष्ठा सवांार इत्यर्थः । इत्यनेन प्रकारेण । 
उपासीतोपास्न कयात्‌ । 

तत्र फठमाह--प्रतिष्ठावानाषासान्भवति स्पष्टम । तन्मह इत्युपासीत । महा- 
नभवति । महो व्याहतिरूपं तजो वा । महान्सरवस्मादभ्यधिकः! व्याख्यातमन्यत्‌ । तन्मन 
इत्युपास्ात । मानवास्भवति । मनः संकस्षविकत्पात्भ न । मानोऽभिमानो मन्न वा 
तद्वान्‌ । अभेमानपक्तेऽ्खण्डिताभिमान इत्यथः । व्याख्यातमन्यत्‌ । तन्नम इत्युपासीत ¦ 
नमो नमनगुणवत्‌ । व्याख्यातमन्यत्‌ । 

तत्र फलमाह नस्यन्ते नता भवन्ति प्राघ्ुवन्तीत्यथैः । अस्मै बरह्म नम ॒इत्युपासकाय । 
कामाः कामनाविषयाः पुत्रादयः तद्भ्ेत्युपासीत । ब्रह्मवान्भवति ! रह परिषदं वेदरूपं 
वा । तद्धन्ब्र्मवान्‌ । पारेटदपक्षे स्वयं परिददौ भवतीत्यर्थः । व्याख्यातमन्यत्‌ । तद्धब्म(?) । 
ब्रह्मणाऽसङ्गादाखनस्य । पारेमरः परिभियन्ते विधद्रध्न्द्रमा आदित्थोऽप्रिरस्मिनिति 
वायुः पारेमरस्तजनक आकाशोऽपि परिमरः । अथवा सर्मैविनाशकः काटः परिमरः । 
बरह्मणा सबद्धश्च स इत्याकाशः । परिमरगुणविदिष्टः कार एव वा । सवोपतंहारकाय 1 
डाते अनेन प्रकारेण । उपासीतोपासनं र्यात्‌ । पर्येणं सवंत उपासक न्नियन्ते 
विनश्यन्ति । द्विषन्तो द्वेष इवैन्तः । सपत्नाः कामादयो बाह्या वां श्रैरिणः। 
सपत्नीमाठजा वा । स्वस्य प्रिया अप्यसाधुतवादज्ञानाद्वा । परि सर्वतः । ये प्रसिद्ाः 1 
आप्याः कणनेत्रमनोदाहकाः । स्वस्य भ्रातव्या वैरिणो द्विषन्तोऽपि, अयमस्माकं 
वैरी, अस्यानिषटमस्माभिः करणीयमित्युपासके संकल्पवन्तंः, ऽपासको चैते मपि वैरिण 
§ति संकल्पं करोति ये वैरभङरवाणेष्वपि, ते सवे विनदयन्तीत्यथः । 





(१) अपि सा०। (२) सुकस्पयन्तः-पाढः। 


१० दशमोऽतुवाकः ] तैत्तिरीयोपनिषहीपिका ४१ 


एवमानन्दे बरहमण्युपासनान्पुक्त्वेदानीं स्थिरयतेसभधिकारिण. परभ्व पूरववहयुक्तमेवा- 
पिदेवादिभेदरदितमानन्दात्मानमाह--स यश्चायं धुरूषे ! यश्चासावादित्ये ! ख एकः। 
स य एवंवित्‌ । मस्मा्ोकास्मेत्य । एतमश्वमथमत्थानः- ५संकरम्य ! पतं प्राण- 
मयमात्मानसुपसंकस्य । एतं मनोमयमात्मनछयुपसक्रम्य । एतं पिद्टाठटटटा- 
त्मानसमुपसंक्रम्य ! एतमानन्दमयमात्मानः पसंक्रस्य । व्याख्यातं पूरववछ्कथाम्‌ । 
इयांस्व॒ विशेषः । पूर्व विदेहक्ेवत्यस्याभिषानात्यच्कभेः- उटः प्रयोगः । इदानीं ह जीव- 
"न्छक्तेरभिधानाततष्वेव ल्यपः प्रयोगः । 

इमान्ध्रगदीलयीकान्कमैफटभूतान्‌ ! कामान्नी कामं यथामिटापमन्रमदनीयमस्या- 
स्तीति कामान्नी । कामरूपी कामं यथाभिलाषं रूपमस्यास्तीति कामरूपी । अनुसंचर- 
न्नात्मसाक्षात्कारमद ईमष्टोकान्सम्यक्चरन्पयेटन्माल्षेण श्रीरेणाऽऽधिकारिकेण वा । 
एतदरक्ष्यमाणं रोकावग्रहाथम्र । साम समलप्रतिपादफं वचनं संसारश्ला्पितान्प्राणिनो 
निरीक्ष्य शशं करुणाक्तान्तमना गायत्न्यन्नतान्कब्दान्कु्वेन्‌ । दग्धपर्न्यांयेन श्वरीरं 
ग्रहीत्वाऽस्ते तिष्टति । अतः संगच्छत हे जना मा संसारे पततेति श्रुतेः करुणावत्या 
मातुरिामिप्रायः। हारेखु हारेषु हारे लोकत्रयीस्थान्तंबोधयति वचनत्रयेण ! अहो 
अहो अहो इति पठतिः पदत्रयेऽप्याश्रयोथां । अहम्‌-आनन्दात्माऽसङ्खोदासीनोऽनायनिवो- 
च्याविद्या । अन्नमदनीयद्धपमोग्यमित्यथः । इदं शूर्टोकस्थान्प्रति । अहभसमं जननं 
व्याख्यातम्‌ । अन्तरिश्स्वलोकस्थान्प्रति व्चनद्रयम्‌ । अहं व्याख्यातम्‌ । अन्नादो.ऽतर- 
मत्तीत्यन्नादो भोक्ता । इदं भूकोकस्थान्प्रति । अहमन्नदोऽरेहमन्नादः--भ्याख्यातम्‌ । 
इ्दमन्तरिकषस्वराकद्वयस्थान्प्रति । 

इदानीं कीर्तिकारित्वमपि श्वस्येवेति रोक्वयीस्थान्प्रति पूवेवत्कथयति-अहथ-छोक- 
छृदद^ "छोकक्ृदह^ छकृत्‌ । शोकः कीर्तिस्तां करोतीति -छोककृत्‌ । व्याख्या- 
तमन्त । पूर्वं वाक्यत्रयेण संबोधनेनाननात्रादश्छोकङ्घत्वमात्मन उक्त्वा रोकत्रयीं भ्रति 
विभागेन इदानीमविभागेन कायैकारणरूपत्वमात्मन आद-अहमानन्दात्मा । अस्मि 
भवामि । प्रथमजाः प्रथमजो हिरण्यगर्भ इत्यथः । ऋतार स्य- ऋतस्य मृतामूतांत्मकस्य 
सस्य प्रपञ्चस्य कतां प्रथमत इत्यर्थः । ऋता इति प्टुतिराश्वयांथो । 

नढ--संसारातपूवं देवाः प्रतिदा इत्यत आद-पूच॑ प्रथमः । देषेभ्यो विराडवयव- 
भूतेभ्योऽन्यादिभ्यः । भसृतस्यामरणधर्मिणो वेदस्य । नादेभायि नामिमेध्यं वेदरहस्य- 
मित्यर्थः । अत्रापि नकार प्ठतिराशव्याथां । कायेकारणदीनोऽसङ्गोदा्ीनोभदं वेदगम इत्येव- 


[क गगण णण 


( १ ) यथा दग्धोऽपि पटः विंचित्कालपर्यन्तं स्वाकारं न जहाति, तथा हानापनिदग्धकमां वासनाक्षयेण 
नष्टमपि शरीर धृत्वा करुणाक्रान्तो गाय्नास्त इत्रि भावः 1 । 


४२ दकरानन्दकृता [ भृगुवद्धी 


रूप इति यो ऽस्य दाताऽत्मनो वा स्वाभित्रस्थय तखमसीत्यादिवाक्येभ्यो दाता श्वषा- 
भ्यः संसारतापतपेभ्यो वा मा माम । अन्नमानन्दात्सरूपं वा ददाति प्रयच्छति । स 
उक्तो दाता । इदित्थं दानं क्वन्‌ । एवमनेन दानेन । आरेवा-अवोपवतीत्यथः । अका. 
रप्टुतिराशर्याथां । मां सवौभित्रमपि रेक्षयतीति । 

नद--अनने दीयमाने कथं भवान्दत्त इत्यत आह-अहमन्नं व्याख्यातम । नह-- 
अन्नस्य दानेनाऽतमनो वा अन्रभक्षणजं । कृतं भवतु दातुः । यस्य तु तस्मिन्नमभिखाषः स 
तु त्वामन्रमात्मानं वा परस्मे मा प्रयच्छतु । भक्षयतु स्व्थं॑कामम्रं कोऽस्यानथं इत्यत ' 
आह--अन्नमदनीययं मां तदूपमात्मानं वाप्दत्वा । अदन्तं भक्षयन्तम्‌ । आरेश्चि--अगरि 
भक्षयाम्यत्नभक्षकम्‌ ¦ अकारे ष्डतिराश्रयांथा ! सवाभिनोऽप्येवं भक्षयामीति । 

नच यथा त्वमेनं भक्षयसि तथा त्वामप्यन्यः । यथा मण्डूकः शुद्र जीवं तं सपः सर्प 
मकरो विश्वस्य विचित्र्क्तिभूत क्रान्तत्वात्ततो न भवतः प्रातिः पह्षार्थं इत्यत आह-अह- 
मानन्दात्मा विश्वं निखिकं भुवनं भवन्त्यस्मिन्भूतानीति भवनं भवनमेव अवनम्‌ । अवि- 
दातत्का्यतत्संस्कारजातं काययेकारणरूपमित्य्थः । अभ्यभवामस्यभवं स्वक्मीयेनाऽनन्दास्म- 
रूपेण देश्काल्वस्तुपरिच्छेदश्चन्येन चरमंखत्तिसाक्षात्कारविषयेण निखिरुमिदमालरूप- 
कारणेन परिभवामि । अतो न मम कश्चन भक्षकः कित्वहमेव ` सवस्य । ततो न मत्परा 
धिरपरषार्थ इत्यथः । 

नड-सवभेदेऽन्येभ्यः कस्त्वय्यतिशय इत्यत आह--सुवन । छवणेस्तत्समानवर्णं 
आदित्य इव वणः । ज्यों तीज्योतिः प्रकाशः स्वयप्रकाशानन्दरूपोऽहं ततो म॑स्यतिशय 
इयथः । इदानी छतिराह-योऽयिकारी । एवसखक्तप्रकारमानन्दात्मानम्‌ । वेद्‌ जानातिं 
सक्षात्करोतीत्यथः । सोऽपी्म्टोकानित्यादिनोत्तं फं प्रप्ोतीत्यभिगप्रायः । इत्युपनिषत्‌ । 
व्याख्यातं पूर्ववल्ल्थाम्‌ ॥ | 

इति श्रीमत्परमहंसपरिानकाचर्शीमच्छकरानम्दविरनितायां पदर्थवोधिन्यां 
तेतिशेोपनिषदीपिकायां मृगुवल्ल्यां दशमेऽुवाकः ॥ १० ॥ 

हते श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचायेश्रीमदानन्दात्मपुञ्यपाद शिष्यस्य 

श्रराकरानन्दभगवतः कृतो पदाथेवोधिन्यां तेत्तिरीयोपनिषदयी- 

पिकाया भृगुवह्टी समाघ्रा ॥ ३ ॥ 











( १ ) त््रक्षणजं-पाठः। 


. 


( परिशिष्टे ) 
--०0०-- 

८ १ ) जन्यदरदध।ध.तत्द्छट 
अनेकभेदसिन्नानि तथा श्ाख्ान्तराणि च । 
निर्ममे संकरः साक्षात्संवज्ञः संग्रहेण तु 1 
अधिकारिविभेदेन नैकस्येव सदा द्विजाः । 
तकैरेते हि मार्गस्तु न हन्तव्या मनीषिभिः ॥ 
यथा तोयप्रवाहाणां समुद्रः परमावधिः । 
तग्रैव सर्वमागोणां साक्षालिष्ठा महेः्धरः ॥ 
एकरूपा परा मुक्तिस्ततस्तद्विषया मतिः । 
एकरूपा भवेन्नैव नानारूपा भविष्यति ॥। 





वेदान्तः शंकरं साक्षानिर्विशेषदरयात्मना । 


वक्ति मागीन्तरान्नेवं ततो विद्या तु वेदज्ञा ॥ 
अतो मागौन्तराल्लाता मतयो मुनिसत्तमाः । 
अविद्या नैव विद्याः स्युरिति सम्यङ्निरूपणम्‌ ।। 
तस्मान्मागौन्तराणां तु प्रामाण्यं वेद्वित्तमाः । 
मुक्तेरन्यत्र नामैव क्रमेणैवाच् मानता ॥ 
अतो वेदस्थितो मर्त्यो नान्यमां समाश्रयेत्‌ । 
वेदमागैकनिष्ठानां न किंचिदपि दुरंभम्‌ ॥ 
अत्रैव परमा मुक्तिथक्तयश्चात्र पुष्कटाः । 
अतोऽधिकारिभेदेन माग मानं न संखयः ॥ 
इश्वरस्य स्वरूपे च बन्धेतौ तथेव च । 
जगतः कारणे मुक्त ज्ञानादौ च तथेव च ॥ 
मागीणां ये विर्द्धांशा वेदान्तेन विचक्षणाः । 
तेऽपि मन्दमतीनां च महामोहाब्रतात्मनाम्‌ 
वाञ्छामातानुगुण्येन प्रवृत्ता न यथाथतः ॥ 
दद्रीयित्वा तरणं मर्त्यो धावन्तीं गां यथाऽमरहीन्‌ । 
द्यित्वा तथा ्ुद्रमिष्ठं पू सदेश्वरः । 
पश्चात्पाकानुगुण्येन ददाति ज्ञानसुत्तमम्‌ ॥ 

- सूतसंहिता. ४. २२. ६-२३- 


(२) 


(२) अद्रोदश्नस्य मतान्तरे दगोधः । 

स्वसिद्धान्तम्यवस्थासु द्वैतिनो निध्िता इढम्‌ । 

परस्परं विरुष्यन्ते तैरयं न विरुध्यते ॥ 

अद्वैतं परमार्थो हि द्वैतं तद्वेद उच्यते । 

तेषासुभयथा द्वैते तेनाथ न विरुष्यते ॥ 

-माण्ड्क्योपनिषत्कारिका ३. १७-१८. 
प्रपच्चस्य मिथ्यात्वं, जीवपरमास्मनोरेकलं, तस्य चाऽऽत्मनः सखिदानन्द्रूपलवं,. 

आद्वितीयतवं चेत्येतस्मिन्नथे ताद्दरेदान्तानां तदनुसारिणां स्सृतीतिहदासपुराणानां चेदं- 
पयैमविवाद्म्‌ । अन्येषामपि तेथिकानामीदम्बिधन्यवहारमङैतां प्रायेणेतदभिमत-. 
मेव। तथाहि-तत्र सांख्यपातःखररवास्तावदात्मनः सचिदरूपत्वमङ्ीडवेते । यथपि 
व्यवहारदशायां प्रकृतिप्राक्रतख्क्णप्रपश्वस्य सत्यत्वमातनानात्वं च व्यवहरन्ति, . 
तथापि कैवल्यदशायां स्वरूपप्रकाराव्यतिरेकेण तस्य सर्व्यानवभानं वर्णयन्ति । 
आत्मयाथास्म्यज्ञानरश्चणायाःप्रकृतिपुरुषिवेकख्यातेि कैवल्यम्‌ । तथाविधज्ञानो- 
त्तरकाडं प्रकृतिप्राकृताथौतमकं जगत्केथा न भातं चेत्‌, तदस्तित्वं कथं निश्चीयेत? 
-ज्ञयसिद्धे्ञोनाधीनत्वात्‌ । अत आत्मयाथास्म्यज्ञानेन निवर्तितमेव तत्‌ । तस्माख- 
पच्चस्याज्ञानस्य ज्ञाननिवत्यैत्रेन मिथ्यात्वमभ्युपगन्तव्यम्‌ । ज्ञाननिवत्यीनां श॒क्ति- 
रूप्यादीनां मिथ्यात्वददौनात्‌ । किंच “कृतार्थं ॒तं प्रति नष्टमप्यनष्टं तत्साधारण~ 
स्वात्‌? इति पात जरं सूत्रम्‌ ( २. २२. ) । अनेन च प्रकृतिप्राकृतात्मकं जगन्मु- 
्तापेक्षयानष्टं, तदितरापेक्षया विदयमानमेवेति पुरुषविरोषापेक्षया तस्याभावस- 
द्वाव प्रतिपाद्येते । तच्च तन्मिथ्यात्वेऽवकस्पते । पुरुषविरोषम्पेश्षयैकस्यैव वस्तुनः 
सद्धावाभावयोः शुक्तिरूप्यादौ ददीनात्‌ । तत्र हि काचकामङादिदोषदूषितनेत्रः 
पुरुषः शुक्तौ रूप्यसद्भावं प्रतिपद्यते। तदितरस्तु शुक्तिस्वरूपमेव जानंस्तत्र रूप्याभा- 
बमवगच्छति । न हि पारमार्थिकं घटादि पुरुषविरोषं प्रति सद्भावासद्धावौ युग- 
पदप्ाप्नोति । तस्मात्स्वरूपज्ञानपयैन्तमनुवबतेमानस्य तत॒ उ्वैमप्रतिभासमानस्य 
प्रपन्चस्य वेदान्तिनामिव साख्यादीनामप्यविरोषान्मिथ्यात्वं सिद्धम्‌ । अथापि 
कस्मान्न व्यवहरन्तीति चेत्‌, ओतुबुद्धिसमाघानाथमिति ब्रूमः । स खट प्रथमत एव 
सर्वै मिथ्यदयुक्ते, कथमेतद्भटते !--इति व्याङकितमनस्को भवेत्‌ । तन्मा भूदिति 
सत्यत्वन्यवहार एव केतखम्‌ । आत्मनानात्वस्य जीवश्वरभेद्स्य च सुक्ताबनवभात- 


(३) | 
तेनैव प्रपच्चवन्मिथ्यातप्‌ । यदि व्यवहारदरायामेक एवाऽऽमित्यमि्ीयेत, तदा 
तत्तदुपाधिपरिकस्पनेन जीविश्वरव्यवस्था युखदुःखादिव्यवस्था च प्रयाससमथैनीया 
स्यादित्यमिप्रायेणैव तन्नानात्ववणेनम्‌ । युक्तौ तु बेदान्तिनामिव सांस्यादीना- 
मपि केवखात्मस्वरूपप्रतिभास एव संमत इति परमार्थतोऽद्विर रसनः 
सिद्धम्‌ । व्यवहारमात्र ओपाधिकं सामाविकामिति केवरं विवादः । 

आनन्द्रूपत्वं च पातखख्सूत्रमाष्यकारोदाहृतत्वाजैगीषन्योपाख्यानादवगस्यते 
{ ३. १८. ).1 जैगीषव्यो हि परमयोगीश्सो योगमदिन्नाऽणिमावहैशर्य प्राप्य 
उन्‌ ब्रह्मसगोन्‌ संस्मृत्य तत्र सर्वत्ोपरतो दिव्यज्ञानेन सा्ात्छृते स्वातमतच्ते 
कृतप्रणिघानः परमर्षियोगैचरयैप्राप्राखणिमादिषु किं सुखमनुमूतं त्वया १-इति 
ष्टे न किंचिदिति प्रयुक्तवान्‌ । अणिमाद्या विभूतिः केवरुपुखासिका, कथमेवं 
वदसि !-इति पष्टः सन्नवोचत्‌-सत्यम्‌ । सांसारिकदुखापेक्षयाऽणिमायैश्वयेम- 
धिकलुखावहम्‌ । कैवस्यापेक्षया तु दुःखात्मकमेवेति । एवं चात्यन्तानुकरूरवेदयत्व 
मात्मन उक्तं भवति । एतदेवात्मने आनन्दरूपं नाम, तथाप्यानन्दरूप इति न 
व्यवहरन्ति । सुखेष्वेवानन्दशब्दस्य व्युदत्तेः । 

इत्थं नेयायिकवैरोषिकादीनामपि मते ज्ञानान्मोक्षः। मुक्तस्य खन्यतिरिक्तानात्म- 
-रक्षणजगतोऽप्रतिपत्तिः समानेवेति तैरपि सांख्यादिवदात्माद्वितीयलवं प्रपश्चमिथ्या- 
त्वं चावर्यमङ्खीकाैम्‌।ब्रहेन्द्रादिपदादपि ओ्रयस्तेन मुक्तः प्राध्येमानत्रादत्यन्तानु- 
कूल्येद्यतवं च । नतु ते नबुणानामत्यन्तोच्छेदो मेक्ष इति युक्तौ ्ञानस्याप्यभावमि 
च्छन्ति। सत्यम्‌। भत्मस्वरूपचेतन्यस्यात्यन्तनिर्विकस्पकतवात्तेषामनवभानाभिमानः 

अत॒ एव शुत्यवादिनोऽनवभानमास्मेवं नास्तीति प्रतिपन्नाः । शाखन्ञरघ्या 
-प्रातर्गजाभावज्ञाने संत्येव यथा टौकिकजनस्याददीनाभिमानो ग्राहकविज्ञानस्य 
'निर्विकल्पकत्वात्‌, एवमेवात्मस्वरूपयैतन्यस्यात्यन्तनिर्विकरपक्त्दाैषिकराना- 
भावविषयमेव मुक्तौ ज्ञानराहित्यवणेनम्‌ । शत्यवादेऽप्ययमेवाभिप्रायो योभ्यः । 

विज्ञानवारिनस्तु क्षणिकज्ञानप्रवाह आत्मेति वणेर्यन्ति । तेषां मतेऽपि सांव्रतस्य 
विषयोप्रवस्य विदया विनिघत्तौ विुदधज्ञानसंतानोदयो सक्तिः । उक्तं हि-धीसं 
ततिः सुरति निर्विषयोपरागेति । संतानो नाम नानाव्यक्तीनां नैरन्तर्येण बतं- 
नम्‌ । तबानुभवदशायां से्रेयं दीपञ्वाठेतिवदेकतेनानुभूयमानत्वम्‌ । तथा चानु- 


(४) 


भक्त आत्मन एेक्ये सिद्धे युक्तया यत्तस्य क्षणमङ्खसम्थनं, तद्राह्यथेक्षणिकुत्वसा-. 
धनाय--यत्सत्‌ तरक्चणिकमितिव्यापरेरनैकान्तिकत्वपरिह्यरेण समथैनाथेम्‌ । न च 
प्रयोजनवसा्रस्तुनोऽन्यथात्वं शाख्चकतां कथं प्रतिपादयेदिति शङ्कनीयम्‌ । यतो 
माद्रः खप्रकाञञविज्ञानाकार एव टादिः, न तु बाह्य इति बाह्याथाँस्तित्रमपल्पतये 
बोद्धान्निराकर्तु स्वालुभवसिद्धं ज्ञानस्य खप्रकारातं परित्यभ्य धि खएषेटःपाहुः । 
तथा सति ह्ययं घट इत्यादिज्ञानेषु ज्ञानव्यक्तेरपरत्यक्षुतवापरत्यक्षतेन प्रतीयमानो 
घटाद्याकारो बाद्या्थस्तस्येवेति तेषामभिप्रायः । एवं रिक्त रेऽपि योऽहमदराक्षं 
स एवेदानीं खश्चामीति पूर्वोत्तरशणयोरेकलत्वप्रतिसंधानेनाऽऽत्मनः स्थायितवे सानुः 
भवसिद्धे यत््रणभङसमथने, तदुक्तपयोजनायैवेत्यस्मदुक्तार्थतादपर्यं नेव व्याहन्यते । 
मीमांसकानां शाखं तु भिन्नविषयत्वा्यथोदीरितास्पस्रूप नं विरुणद्धि । 
तथाहि-बेदाप्रमाण्यवादिनो बोद्धान्निराङ्रत्य तदपामाण्यं समथेयमाना भाट 
प्रामाकराश्च वेदोक्तं यागहोमादिकं निरवद्यं स्वगौदौ तत्फटमुपभोक्त देदाति-. 
रिक्तः कशिदात्मा कतां भोक्तास्तीति तन्नास्तितवादिनश्चावाकादीन्निराचक्ुः । 
कतैत्वमोक्तृतवविदिष्टातमखहूपप्रतिपादनस्येव स्रशाखप्रतिपाद्ययागदानाद्योपयि- 
कत्वात्‌ तावन्मात्रसवरूपमात्मनसतैः प्रतिपादितम्‌ । न त्वौपनिषदं कतरैतवमोक्तृला- 
दिसवेविक्रियादिरदहितं रूपम्‌ । तदवगमस्य स्का प्रयोजनाभावात्‌ । तदुक्तं भग- 
वद्धिमोष्यकारेः--““ अनुपयोगादधिकारविरोधाच ” इति ( ब्र, स॒, १,१,१,) | 
ननु कत्रोसस्वरूपप्रतिपादनं तदृतिरिक्तस्वरूपास्िखनिषेधपरं कस्मान्न भवति १ 
तदसिताङ्गीकारादिति ब्रूमः ! तत्र तावद्भट्राचायौः-- 
| इत्याह नास्तिक्यनिराकरिष्णुरात्मास्तिता भाष्यकृद्त्र युक्त्या । 
टृटस्वमेतद्विषयश्च बोधः प्रयाति वेदान्तनिषेवणन ॥ 
च्छो. वा. आ्मवदे १४८. 
गरुमतानुसारिणा भवनाथेनाप्यक्तमथेवादाधिकरणे--अथवा न वेदान्तानां 
चोदनैकवाक्यता । «अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" ( त्र, म्‌, १,१,१, ) इति साखा- 
न्तरस्थितेरिति । तस्मान्मीमांसकानामप्युपनिष्देकसमधिगम्यमद्वितीयत्रह्मात्मेकत्व- 
मभिमतमेवेति तच्छाश्मप्यस्मदुक्तेऽ्थे पयैवस्यति । एवं शखान्तरमागमान्तरं चा- 
स्मिननेवार्थे योजनीयम्‌ । 
-तात्पयंदीपिका. ४.८.२४-९. 


तैतिरीयोपनिषत्‌-अवतरणद्लुची, 





खनुर्वन्‌ विदितं कमं ... 


अभ्चिमीठे पुरोहितम्‌ 
सथिदत्रै जुहुयात्‌ 
अशचिदत्रं जुद्योति 

यङ्गेषु स्तुति; पराथतवात्‌ 


अत ण्व चोपमा सूर्यकादिवत्‌ 
अथ त्रयो वाव लोकाः .. 


छथ य॒त्रान्यत्पद्यति... तदल्पम्‌ 
अथाऽत अदसो नेति नेति ... 
अथाऽतो धर्मजिज्ञासा 

अथाऽतो ब्रह्मणः परिमरः 
सनुदिने जुहोति . 

अनेन जीवेनात्मनातुप्रव्दिय =.“ 
अन्धगोलाङ्गरन्याय 

मन्ध। मणिमविन्दत्‌ 


अन्योडसावन्योऽदमसि 
अपाणिपादो जवने अहता 


अप्रतीकालम्बनान्नयवीति बादरायणः 


सनब्राह्मणादध्ययनमापत्काके °“. 
अम्धुवदय्हणात्॒ न तथात्वम्‌ 
अयमात्मा जह्य 

अरुणया पिङ्गक्येकहायन्या -“. 
सविया मृ्यु तीत ... 
अष्टौ वसवः ५ र 
सस्तीवेवोपलब्धन्यः ... 
अस्थूलमनणु ~~ = 
जहमेतैततपश्वधात्मानं प्रविमज्य 
अहं ब्रह्मस्मि ~ ` 
आकादादौ सत्यता तावदेका ^ 
-आचारयस्तूहापोद- 
अलमन्येवात्मान पद्येत्‌ 


मस्म. २१.४४ 
छा. उ. २.१७.६. 
म सं. १.१.९१. 
ते. सं. १.५.९.१. 
ते. स्‌. ४.२.१९. 
ज, सू. २.२.१८. 
ल. उ. १.५.१६. 
द्वा. उ, ७. २४.१. 

ह इ. २.२.९६. 

. सू, १२.२.१. 
ते. आरा, ८.५.२८. 
चे, चा. ५.५.४. 
छी. उ, ६, २. २. 
न्यायः 
२ 
ते. आ, १.२२.५. 
त्र, उ, १.४.१०. 
न्वे, उ, ३.१९. 
त्र. सु. ४.२.१५. 
मदस्मृ. २. २४२१-२ 
ज्र. सू. ३.२.१९ 


स. शारीरके. १. १७८. 
उप. साह. गचप्रबन्धे 
वू. उ, ४.४.२२. 


र तैत्तिरीयोपनिषत्‌ 


आत्मेति तूपगच्छन्ति महयन्ति च॒ „^ 


। + + कन 


यत्मेवेदं सवम्‌ 


आनन्दविग्रदमपास्तस्तमस्तदुःखम्‌ “~ “^ 


आप्तकाम आत्मकामः ~. 
आभास एत्र च 

आर्रषषो्नेयगं .. 

इदं सवे यदयमात्मा... ... 
इन्दरषरर्दसख ~ ~ ~ 
इषुकारो नरः कश्ित्‌ 

इषे ठेति साखां च्छिनत्ति 


इषे तोता “+ 


उ्ृष्टटधिरभक्ष्टे फलवती 
उर्दित जुहोति 
उद्रीथन्यायः ... 
छजै लेत्यनुम्टि ... 


ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्‌ „~~. 


कट्रषाणा मूधो „„ „= ^ 
ऋतं सत्यं पर्‌ ह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्‌ ,.. 
एकत्र तुल्यलक्षणविरुद्धदेतुद्रयोपनिपातः ... 


पक्यैवानुद्न्यम्‌ „~ = „~ „~ ~~ 


एकमेवाद्वितीयम्‌ „.* 

काद्य रद्राः ^ + 

यतस्मिन्व खल्वक्षरे गाग्यीकाराः 
पतस्येवाऽऽनन्दस्यान्यानि भूतानि 
एतनैवायतनेनैकेतरमन्वेति 

एं विद्वांसो यजन्ते च याजयन्ति च 
एषोऽस्य परमानन्दः „ „~ 


ओधामेदवेति ~ = „न न+ 


= 4 
11, 
4, 


" सं. २.९.१.२; शत. ्ा. १,४.४.११. 
बु, उ. २०४.५४.५.७. 

ते. सं. २.४.१२.१ शत. ब्रा. १.५.२.१०. 
शान्ति, प, १७८.१२. 
हिरण्य. भो. स्‌, १.२ आप. श्रो. स्‌. 


ते. जा. ५.५.४. 

ज. स्‌. २.२.९. 

हिरण्य. भो. सु. १.२. आप. ओ. सु. 
२१.१.१०. 

क. स. १.१६४.३२९; अ. सं. ९.१०.१८; 
गो. जा. १.१.२२; ते. जा. ३.१०.९.४; 
ते. आ. २.११.१; ने. उ. ४.८; नृ. उ. 
ता. उ. ४.२. 

१ सि. को. १०. 

महाना. उ. १२.१. 

न्यायसारेऽनुमानपस्च्छिदे. 

ज. उ. ४.४.२०. 

छं. उ. ६.२.२१. 


ते. आ. १.९.४५. 


बू. उ. २.८.१९१. 

ब. उ. ४.२.२२. 

प्र. उ, ५.२. 

ठे. जा. ४.४.२. 

ब. उ, ४.२.२२. 

अत. ब्रा. ४.२.२.१२; आश्व. शो. स- 
५.९.४९ 


कथमसतः सरनायेत ^. 
कती द्ालार्थैवच्तवात्‌ 

कमेणा पित्खोकाः 

कृषायपक्तिः कमौणि 

कामाच नालुमानपक्षा 
करत्लप्रसक्तिर्निरवयनतद्चब्दकोपो वा 
केवलो निर्युणश्च ... 


्ष्जञं चापि मां विद्धि 
ख्या प्रकथने ..* 


गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्‌ 

गौः शुश्चलो डित्थः 

-षक्षिडः ख्याञ्‌ + 
चक्षुमौनुषं वित्तम्‌ „. = „+ 
चत्वारि वाकेपरिमिता पदानि ““. 


अवतरणसुची 


-चोदना हि भूतै, भवन्तः भविष्यन्तम्‌ ... 


© 
जनिकदुः ग्रकृति „^. 
जायते, अस्ति, विपरिणमते .“. 


ज्ञाते च वाचनं न ्यदिन्‌ विहितोऽस्ति | | | 


ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपार 


ज्ञाननिर्मथनदेव पाङ दहति पण्डितः ... 


ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां .. 


तच विष्णोः पर रूपम्‌ 
तञ्नलानिति दान्त उपासीत ... 
ततः परिवृत्तौ कर्मफलरेषेण ... 
ततः रोषेण .^ 

तत्केन कं पयेत्‌ ... 
"तत्त्वमसि ... 
-तत्सत्यम्‌ 

तद्य इं रमणीयन्वरणाः 

तयथा रङ्छुना „~ ^~ 
तयेह कर्मजितो रोकः क्षीयते 


तपसा म न्ति क्रिियागूतमदनुते ... 


छा उ, ६.२.२. 

त्र, सु- २.३.२२. 
बु, उ. १.५.१६. 
मोष्वधमे. २२६.२६. 
ज. स्‌. २.१.१८. 
ज. सू. २.१.२६. 
न्वे, उ. ६.२१. 


भ. गी. १२.२. 

चा. वा. २. ५०. 
कट. २.१२. 

महाभा. कछ शिवसूत्र 
पा. घ्‌ २.४.५४. 

बु. उ. १.४.१७. 


तै. बा. २.८.८.; ऋ. सं. म॑. १, १६४. ४५. 
शावरभा. १.२.२. 


पा. स्‌. ९.४.२०. 


"कै, उ. १२, 


शाकति-प१. २०४.८. 


विष्ण. पु, ६.८.५४. 
क्रा. उ, २.१४.१. 
आप. ध. स्‌९२.२.२. 
, धृ, सूर २.११.२९. 
बु, उ, २.४.१४.४.५.२५. 
छ. इ. ६.८.७. 
छां. उ. ६.८.७. तै. उ. २.६. 
शख, उ, ५.१०.७. 
ख. उ. २.२२.३. 
छां. उ. ८.१.६. 
ते. सं. २.६.१.२.; श्रत. त्रा. १.४.४.१०. 
ब. उ. १.२.९. 
मलस्य. १२.१०४. 


ट देनिसोधदिषत्‌ 


तमेतं वेदानुवचनेन ^ = र 
तँ यथा यथोपासते तदेव भवति ~ „~ 
तं पिबाक्मणी समन्वारभेते .. „~ „^~ 
तयोर्वमायन्‌ ५ ~ „~ ~ 
तस्मान्युुष्ठमिः कार्यम्‌ . ~ ~. 
तस्य वाचकः प्रणवः ५ „~. 
तन्दानुपनीयेवेतदुवाचे 

श्रयं वा इदं नाम, रूपं, करं „~. 
त्रिः प्रथमामन्वाह .“. ,०. ,. ,.. 


दर्धपटन्यायः ^ = „~ 
दासोऽदं तस्य देवस्य „~ 
देदरीप्रदीपन्यायः ... .„ 
देदादभ्यन्तरः प्राणः 

दादश आदित्याः 


धममत्सुखं च ज्ञानं च 

धर्मण पापमपनुदति 

ध्यात्वा युनिर्गच्छति भूतयोनिम्‌ 
न कर्मणामनारम्भाननेष्कर्म् 


न काच्चनं परिहरेत्‌... 
न च पुनरवतेत्े ... 


न च वय्‌ ज्ञानकर्मणोः सर्वत्रेव समुचयं परत्याचक्ष्म् 


न पातालं न च विवरं 

न वियदश्चतेः .. 

न सत्यात्परमो धमो नानृतात्पातकं परम्‌ 

न सखाध्यायवदाप्यता .. 

नहि विज्ञातुर्विजञतिर्विपर्लिपः... 
नामरूपयोनिरवंदिता... 

नामरूपे व्याकरवाणि 

नेति „= 

नेतिनित्यासा ~ „^ = „^, 
नेह नानाऽस्ति किंचन „~ „= „^ 
प्वपदा पचतः पातो यज्ञः... 


पश्च्षिरा 3) 2 9) 29 99 


ब. उ. ४.४.२२. 
खहुल. उ. २. 

बू. उ*४.४.२ 

छां. उ. <८.९.६; कट. उ. २.२.१६. ८६.१६.) 
ने. सि. १.५० 

यो. सुर १.२७. 

छ. उ. ५.११.७ 

बु. उ. १.६.१ 

ते. सं. २.५.७.१. क्षत. बा. १.२.२.६; रे. 

जरा. १.२.२५५. इत्यादौ 


न्यायः 
? 


न्यायः 

पेचदशी. २.२. 

बरु उ. २.९.५.; निघ. ५.९; आदिपवे, 
६५. १४-१५. 

१ 

महाना. उ. २२.९१. 
* उ. ७. 


भ. गी. २.४. 
१ 


छा. उ. ८.१५.२. 

नै. सि. १.६. 
योगभाष्ये ४.२२. 

ज. सू०.२.२. १. 

ज्ञा. प. १६०.२४. 

सं. शारीरके. १.२०६. 
बु. उ. ४.२.२०. 

छा. उ, ८.१४.१. 
"छां. उ. ६.२.२. 

घ्र, उ. २.२.६. 

ब. उ. २.२.२६. इत्यादौ 
बर. उ. ४.४.१९. 


ते. आ. १.२.८. 
ते. सं. ६.१.१. 


पञ्चुकामः व 

पाङ्क्तो यज्ञः >> 

पार्त वा इदं सर्वम्‌. 

पापः पापेन „^“ 

पुण्यो वै पुण्येन केरमणा भवति 
पुरुषे व्वेवाऽऽविस्तरमात्मा ... 
पृथुपाजा अमर्त्यः ,.. 
ृष्ठात्परस्परयुजा प्रतिपत्तिेषा -.. 
प्रकृतिश्च प्रतिक्ञाषटन्तानुपरोधाद्‌ 
प्रगीतमन्व्साध्या स्तुतिः स्तोत्रम्‌ 
प्रजापतिलौकानभ्यतपत्‌ 
्रतिपत्तेरपारोक्यात्‌ ... 


प्रतिमे वै तचद्राह्मणः क्षत्रियसुपेयात्‌ „. 


प्रत्यवप्रवणतां बुद्धः ... 
्रत्यग्विविषापिद्धये 
प्रत्यस्तमितभेदं यत्‌... 
प्रनजिष्यन्‌ वा अरेऽहमस्मात्‌... 
प्राणस्य प्राणमुत चचुषश्वष्ुः -.. 


फल्वत्सन्निधावफ्ं तदङ्गम्‌ . 


बेदियजति ~ 
बालप्रियेण मरदुवादकथापथेन 
बुदूवा कमौणि 
बहत्वाद्रदणत्वात्‌ ,„* 
बुडदि वृद्धो 

ज्रह्मटष्टिरुत्कषात्‌ ,,“ 
जह्न्प्रवरायाश्रावयिष्यामि 
ब्रह्मरूपात्मनस्तस्मात्‌ 

ब्रहवेदं सवम्‌ कि 
जाह्मणस्यानाह्यणाद्विबोपयोगः ... 


भव्याय भूतमुपदिदयते 

अषितः करणेश्चायं बहुसंसारयोनिपु 
भावे यथा तथाऽमावः 

भिचते हृदयम्रन्िः ..* 


भूतं च स्वरगपधादि व्यं भाव्याय कर्मणे... 


अवतरणसूची 


ते. सं. २.४.९. ताण्ड्य. ब्रा. २१.६.२. 
ब. उ. १.४.१७; रे. त्रा. २.२३; ५.१९. 


ते. जा. १.१०. 
ञे. उ. ४.४.५९. 
त. उ. ४.४.५. 
रे. आ. २.२.२. 
ऋ. सं. म॑. २.२७.५. 
सं. क्षारीरके. १.१७६. 
ज. सु. १,४.२३. 

. सं. माष्ये ३.२.७. 
खं. उ. २.२३.२. 


ते. सं. २.६.१.४ शत. ना. २.४.४.१२. 


वादनक्षत्रमाडय १ 
अप. ध. सु. २.२१.५. 


विष्णु. पु. १.१२.५०२.२.२१. 


धा. पा. १. ५७२६-७ 
त्र. सु. ४६५. 
आप. भो. ष्‌. २.१५.२. 
ब्रह्मगीता. २.२४. 
4 ३. ता. उ. ७. 


. घ. ९. १.७.१-२; अप. च. सूर २.४. 


२५--२७. 
से. शासीरकेः १.२९५. 
मोक्षम. २२९.२६. 
न्यायकु. १.१०. 
खं. उ. २.८. 
शाल्लदीपिका. ६.१.९१. 


द 


मूर द्रव्यं, मव्यं कर्म, भूतस्य च भनव्यार्थता न्याय्या ... 


भूतं मन्यप्रधानं भवति 
भूतस्य भन्याय 

भूतं भन्यायोपर्दिरयते 
भूतस्य भव्यार्थतायांदृषटाधंता 


मध्यं ह्येषासङ्गानामात्मा 
मनसश्वेन्धियाणां च 

मनो ब्रह्मयुपासीत् 

मनोमयः प्राणशरीरः 

मन्त्रो दीनः स्वरतरो वेतो ग... 
महवक्ं प्रथमजं वेद ,५, 
खगतृष्णाम्भसि स्नातः 

मत्योः स मृत्युमाप्नोति 
मर्ोदविस्फुलिद्गायैः 


य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः .. 
यच्चामरोति यदादत्ते 

यत्र नान्यत्पदयति ... 

यत्र... नान्यद्विजानाति 

यत्र हि देतभिव भवति 

यथा च तक्षोभयथा ... 

यथा ह्ययं ज्योतिरात्मा किस्वान्‌ 
यदानन्त्यं प्रतिकाय शतिः 
यदृच्छया चोपपन्नेमयात्‌ 

यदेव विचया करोति 

यदेव विद्ययेति हि ..* 

यद्रदयो रसविद्धं... 

यया यया भवेदपुंसां व्युत्पत्तिः 
यस्य ज्ञानमयं तपः... 
यावद्धयस्मिन्दारीरे प्राणे वसति 
युगपञ्ज्ञानानुतपत्तिर्मनसो लिङ्गम्‌ 
योनिः समुद्रो बन्धुः 
योऽनृतमभिवदति समूलो वा ... 
योऽयं दक्षिणेऽश्वनपुरष 

योऽयं पवते तमेताः पदेवताः परित्रियन्ते 
यो वै स बरही पुरूषादकाश्च 


तैत्तिरीयोपनिषत्‌ 


शवरभाष्ये ६.१.१. 

सं- शारीरके. १२.१४२. - 
चछाखदी. १२.४८२. 

डवरभाष्ये. २.४.४०२४.२.१८. 
शाल्लदी. २.१.४. 


प. आ. २.२.५. ॥ 

मोष्षधर्ते. २५०.४. वनपवै. २६०.२५ 
स्रं. उ. २.१८.१. 

छां. उ. २.१४.२. 

पा. शि. ५२; महाभा. १.१.१. 

स. उ. ५.४.१२. 

0, 

कंठ. उ. २.१०. 

मां. उ. कारिका. २. १५. 


त. उ. २.२.२. 
लिङ्क-पु. ७०.५६. 

छं. उ. ७.२४.१. 

च्रं. उ. ७. २४.१. 

बु. उ. २.४.१४८४.५.१५ 


वाक्ष्यवरत्तो. २२ 
ओमद्वाग. ११. १८. २५. 
द्ग उ. १.१.१० 

अ. ष्‌. ४.१.१८. 
स्वात्मनिरूपणे. ५८. 

ब्र. उ. वार्तिके. १.४.४०२. 


छं उ, २,१२.७, 


अवतरणसुची 


रसविद्धमयः शम्‌ 
लक्षणः ्षैयायार . 
लक्षणाधीनां तावहक्ष्यस्थितिः ,.. 
रक्षयथनिष्ठसुपरब्धम्‌ ` 

वच परिभाषणे 

वस आच्छादने 

वस निवासे 

वह प्रापणे 

वाचारम्भर्णं विकारो नामधेयम्‌ 
वाचा विरूप नित्यया 


वामदेववत्‌ .„ ^, 


वायुर्वाव संवर्गः 

विचयं चापिचयां च .. 

विद्वान्‌ यजते 

विद्वान्‌ याजति 

विविदिषन्ति यज्ञेन „~. 

विेषनिषेधः शेषाभ्यनुज्ञाविषयः 
विदित्रस्यानमुष्नात्‌ 
वृदविद्रास्तमाक्त्वमन्तमावादुमयसामश्ञस्यादेवम्‌ 
वेदं वेदौ तथा वेदान्‌ . 

वेदमधीत्य स्नास्यन्‌ ^ 


वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तन्यः „~ 
ठेदानधीत्य वेदाङ्ग 
व्याघ्रोपत्रहरणवदपीडनम्‌ =“ 
व्यावृत्तर्व्यवहारो वा रक्षणस्य प्रयोजनम्‌ 


रान्दे प्रयत्ननिष्पत्ेः 

शमुराकाश्चमष्ये ध्येयः ~ ~~ 
रन्तो दन्त उपरतसितितिष्ठुः ... 
राखस्यानतिरङ्यत्वात्‌ 

रतिश्च नः प्रमाणमतीद्वियथैविज्ञानोतत्तो 
ओतव्यो मन्तन्यो निदिध्यासितव्यः 


पष्ठागुणत्रियाजात्रिरूढयः “~ 


सूत-सं. ४.२९.२०. 


पा. स्‌, ३.२.१२६. 
खण्डने १ 
सं. शारीरके. १.५१५. 


चा. पा. २.५३. 

%) १2 २.१३. 

ॐ3 2 १.१०२०. 

” =» १,१०२९. 

छ. इ. ६.१.४. 

ते. सं. २.६.११.२ ऋ. सं. ८.७५.६; 
मे. स. ४,११.६ 

क. सं- ४.२७.१३ ए. उ. २.१; वृ. उ.१.४ 
१०. अ. सू. ३.२.२२ 

ख. उ. ४.२.२१ 

३. उ. १९१. 

ते. सं. १.७.१; २.२.१.१,२ 

2 33 २.२.२९. 


स्मर. २.२१९. 

ज्र. मू. २.२.२० 

कू. पु. सत्तरभा. १५.९१. 

आप.गर.स्‌, २२१; बोर. सु. २.६. 
९ बो. गर. परिभाष्‌. १.१२ 

वस्म. २.१६५. 

योगियाह्-सं. १.२०-२९. 

न्याय 


ले. सू. १,२.२५. 
अथवेशिखा. उ 

त. उ. ४.४.२२. 

ने. स्‌. ४.१२. 

त्र. सू शा. भा. २.२.६. 
वर. उ. २.४.५. 


ते. सि. ३. १०३. 


८ ततिरीयोपनिषः | 


षष्टीनतियणक्रियादि्ि 


स एकवा 
स एष इह प्रविष्ट भनखग्रभ्य 

सत्त्वं सुखे स्यति 

सत्यकामः सत्यसंकस्पः 

सदेव... सत्यम्‌ ... 

स बह्म त्यदित्याचक्षते 

समने षरम्‌ 

समिषो यजति 

समेषु गक्यभेदः स्यात्‌ 

स यदाह असतो मा सद्भमयेति 

स यदि पितृखोककामो मवति ... 

सयो ह वै तसरं रह वेद नहयेप भवति 
सर्वत्रापि स्थितं नह्य ,.. 
सवैमायुरेति 


सवं एते पुण्यलोका भवन्ति 
स्वँ वेदा यत्पदमामनन्ति 
सवै पदा यकं भवन्ति 


सै हि रक्षणमितरपदाथ्यवच्छेदकम्‌ ... 


स होवाच गा््यं उप ता यानि 
सामान्यलक्षणं त्यक्ला विरेषस्येव लक्षणम्‌ 
सावित्री खीदेवतां पुरुषदेवतां अ 

सर्बदरारेण ते विरजाः प्रयान्ति 

सैषा पुरुषस्यापानमवषटभ्य 

सोऽश्रुते सकलान्‌ कामान्‌ 

खिभिवां यतेव 

स्वगकाभः 

खाध्यायोऽ्येतव्यः 

स्वाहाकारं यजति 


हृदयस्यामेऽव्ति „.“ 


सं. शारीरके. १.२२९. 


छ. ३, ७.२६.२. 
बर. उ. १.४.७. 
भ. गी-१४.९. 
छं उ. ८.१.५. 
छा, उ. ६.२.१-६.८.७. 
चु. उ. २.९.९. 

सामवेदे 
ते. सं. २.९.१.१; शत. बा. १,४.४.९ 

. स्‌. २.१.४७. 
व. उ. १.२.२८. 
छं, ३. ८.२.१. 
मु. उ, २.२.९. 
आत्मपु. १०.१८६ 

जा, २.१०.९.१०. अ. उ. २,११.२; 
को. उ. ४.८; क्त. ब्रा. १०.४.४.४. 

छां. उ. २.२३.२. 
कट. उ. ५. २५. 
ते. आ. २.१२१.१. 
न्पाय-वा. १.१.१४. 
ब. उ. २,१.१४. 


€ 


शे. वा. शब्दपरिच्छिदे २. 


च्छक 


छां. उ. ८.१२.२. 

तै. सं. २,५.६; ७.४.१. 

ते. आ. २.१५.५; शत. त्रा, ११.५.६.७ 
ते. सं. २.६.१.६. 


ते. सं. ६.२.१०.५. 


षणी 


अकामहतत्वं प्रकृष्टसाधनम्‌ 


अधीतबेदस्य कर्न्यानुशा- 
सनम्‌ 
अध्यात्मपञ्चकचयम्‌ 
अध्यारोपापवादोपदेशः 
अनुप्रभाः ... 
अनुव्याख्यानम्‌ 
अनुशासनम्‌... 
अनुरासनसंग्रहः 


अन्नप्राणादीनि उपलक्षकाणि 


अन्नत्रह्मोपासकव्रतम्‌ 
अन्नमयकोशः 
अन्तमयस्य कार्यतवप्रतीत्या- 
ऽपरसिोषः 
अन्नमयोपासनाप्रकारः 
अन्नस्य ब्रह्मत्वम्‌ 
अमेददशिनो ब्रहमप्रातिः 
अभेदपक्ष एव अभयप्रतिष्ठा 
अगिद्यानिवृत्तिः प्रयोजनम्‌ 
आजानजदेवानन्द 
आत्मज्ञानस्य तापनिवारक- 
त्वम्‌ ,.., 
आत्मनोऽसंसारित्वम्‌ 


` आधिमोतिकयुणपञ्चकतयम्‌ 


१२ 


अनुक्रमणिका 


८ 


२०-२५ 
२३ 


११०११२९ 


८५- ८६ 
४9 
२०-३५ 
२२९ 
१९० 
१२९६-८ 
६-६ 


१२९१ 
६४ 
१२१ 


.,, ९९१०० 


११० 
४५ 
१०२ 


आथ्यात्मिकं तपः साधकतमम्‌ 
आनन्द आत्मा ,.. 
आनन्दमयकोशः ,,. 
» -उपासनारूपम्‌ 
आनन्दमयसक्रमणफलम्‌ ..... 
आनन्द प्राप्तिसाधनत्रयम्‌ . .. 
आनन्दमीमांसा , 
आनन्दवह्ीतासयां्थः ,. . 
आनन्दैक्यवेदनफलम्‌ ... 
ञग्रोतेरोपचारिकत्म्‌. ... . 
आष्रदसनहेतवः 
आसोग्यादिहैतुमन्तर 
आश्रमकर्मणामुपयोगः 
आह्वानम्‌ .... 
इन्द्रानन्द्‌ः ... 
उपकारपरामशमन्त्रः ,,. 
उपनिषद्थः ब्रह्मविद्या .. 
उपनिषन्निवैचनम्‌ 
उपस्थानम्‌ ... ... 
उपाख्यानम्‌... ... 
उपासकधर्माः 
उपासनाफलम्‌ 
उपासकष्य नित्यकर्म॑णामुपा- 
सनेन सह्‌ समुचय; , ,. 


५२) 


प. 
उपासकस्य स्वरूपप्रतिपत्ति- 
द्वारम्‌ ... ,.. २० 
उपास्यब्रहमस्वरूपम्‌  ... २० 
पदिकामुष्मिकफटसिद्धय उ- 
परासनाविधिः ... १२ 
ओकारवाच्यत्रह्मोपासना , .. २४ 
कर्मकाण्डार्थः ,.. २ 
कर्मणां मोक्षसाधनतापक्षः त- 
न्निरासश्च .. ३६ 
कर्मणो ज्ञानाङ्गत्वनिरासः. .. ४१ 
कमदेवानन्दः १०२ 
कमसु प्राशस्त्यन मतमदः २८ 
कर्मावधिः ,.. ... ३० 
केवल्कर्मणां मोक्षसाधनत्व- 
खण्डनम्‌. .. .. ३ 
गुदाशब्दारथाः ५६-७ 
चिरखोकलोकपित्रानन्दः . . . १०३ 
जीवन्मुक्तस्य सवत्सिक्यम्‌. , . १२४ 
ज्ञानकर्मणोन्चिविधसमुञ्चयनि- 
रासः ... ०, ३८ 
ज्ञानकर्मसमुचयनिरासः ...  ३९-४० 
ज्ञानस्य कमाङ्गत्वम्‌ .. . ३८ 
ज्ञानादेव कैवल्यम्‌ ... ४१ 
तप एव ब्रह्मज्ञानसाधनम्‌. .. १२२-१२४ 
तै, उ. महावाक्यम्‌ १०९ 


दानप्रकारः ,., +. ३४ 


दष्टादष्टोपकारी ग्रन्थपाठनियमः 
देवगन्धर्वानन्दः, . . 

देवानन्दः 

द्ेतम्‌-मायामात्रम्‌ 
द्वेतागहणमात्मनः स्वतःसिद्धम्‌ 
द्तादैतचचां ,.. 


१, 
९ 
१०३ 
१०४ 


८८ १ १९० 


१११ 


१०८,११० 


निन्दितपुरुषाग्यवहार्यत्वे निणयोपायः ३४ 


निन्ानिन्यकर्मविवेकः . .. 
निरणविद्याविन्नशान्तिः 
निर्विकदयं ब्रह्म 

परप्रा्तिः 

परमपुरुषार्थः. .. 

परमं व्योम ... 
परमश्रेयउपायचिन्ता 
परोक्षापरोक्षे मूतौमूर्त 
पाड्न्तषट्कस्योपासना 
पुण्यपापयोस्तापहेतुत्वम्‌ .... 
पुराणम्‌ ... ... 
एरथिव्यादयुपाधिव्रह्ोपासनाविधिः 
प्रजापत्यानन्दः 

प्रणवोपासना, ,. 
प्रतीचोऽद्वितीयत्रह्मत्वम्‌ .... 
प्रवेरावचनहेतुः 
परवेरावचनार्थः 
प्राणभदुपाधिषर तारतम्यम्‌, .. 
प्राणमयकोशः 


२२ 
४४ 


-उपास्यस्वरूय 
प्राणो ब्रह्म ... 
बहस्पत्यानन्द 
ब्रह्म अनन्तम्‌ 
; आनन्द्हूतुः . 
% एकमेव परमाथसत्यम्‌ . 
त्रह्-जिन्ञासा 
-ज्ञानप्रकाराः 
्रह्ज्ञानम्‌ ..... ,.. 
ब्रहमज्ञानमेव ब्रह्मप्रा्तिः ... 
ब्रह्मण अवाङ्मनसगोचरत्वम्‌ 
, अवाच्यत्वम्‌ 
„ आनन्त्यप्रपञ्चः 
“ आघ्तकामत्वम्‌ 
 कामयित्ृत्वम्‌ 
 , जीवात्मना प्रवेशः ... 
नामरूपव्याकरणम्‌ . . . 
५ पर्यालमेचकत्वम्‌ . .. 
मायिकः सर्गपरवेशः. . . 
सिसक्षा ॥ 
ब्रह्म देद्ादिचेष्टायैषयिकानन्दद्ु 
,) नित्यानन्तस्तन्तरम्‌ 
ब्रहमप्रा्िनांम स्वरूपामिव्यक्तिः 
 ब्रह्मपातिप्रभ्ाः 
बह्मबोध-द्वारम्‌ .. 
-अन्तरङ्खसाधनम्‌ .... 
ब्रह्ममीमांसा 
ब्रह्मयज्ञसिद्धयर्था मन्त्रः . . . 


बरह्यटक्षणम्‌ ,.. 
ब्रह्मविज्ञानसाधनम्‌ 


(३) 


९० 
८८-९ 
८९ 
५२ 
४६ 
८५ 
१२० 


9१ 


, १९१९१२० 


२८ 
४ ७-- ४ 
१२१९-४ 


ठु 

ब्रह्मविदः सामगानम्‌ ... १३५ 
;; न पण्वपापलेपः ११७ 
ब्रह्मविद्या १२५ 
ब्रह्मविद्य प्रकाशः ४५-११८ 
ब्रह्य विद्याविषयः ४५ 
ब्रह्म विद्रदनुभवसिद्धम्‌ .. ९५ 
्रहमेदनं परमपुरुषाथैः ... ५६-८ 
ब्रह्म सच त्यच्च ९५ 
ब्रह्य सत्यम्‌ ... ५.१ 
ब्रह्मसद्धाव ८२३-६ 
र्न सुकृतम्‌-स्वयंकतू-पुष्धम्‌ ९६ 
ब्रह्मसूत्रम्‌ ५५ 
्रह्स्वरूपरुक्षणम्‌ ४८ 
ब्रहमात्मनैक्यम्‌ ६१ 
बरह्मतमेक्यम्‌. ... ,,, १३२ 
ब्रह्मानन्दस्य जन्याजन्यबिचारः १०१ 

% विषयानन्ददवार- 

ऽनुगमः .., ,,. + 
ब्रह्मानन्देक्यम्‌ १३३ 
ब्रहैवातीन्द्रियरसः ९७ 
भाष्यस्य संप्रदायपूवेकत्वम्‌ १ 
भाष्योपोद्धातः १-६ 
मूतसष्टिः ... * ६२ 
गुवह्छीप्रवृत्तिनिमित्तम्‌ ११९ 
भेददरशनस्य मयकारणत्वम्‌ ९९ 
मेददरिनो विदुषो ब्रह्मभयम्‌ ५ 
सेदपक्षे नामयप्रतिष्ठा ११२ 
मोक्तुभोतिकम्रपञ्चसष्टिः. ६३ 
मङ्लाचरणम्‌ ,„, १ 


मनो बह 
मनःस्वरूपम्‌ 
मनुष्यगन्धर्वनिन्दः 
सनोमयकोशः 
-उपासनारूपम्‌ .... 
मनोमयत्वादिगुणकग्रह्मोपास- 
नाफलम्‌ 
सन्ाणां मनोवृत्तित्वम्‌ 
मन्त्रान्नाय आत्मविद्याप्रका- 
रकः ,.. 
महापुरुषरसवापेकारः 
माादिदेवतापूजा 
मानुषानन्दः . .. ,. 
मीमांसकाः-केवख्कमंणां 
मोक्चसाधनत्वम्‌ 
मधादेतुमन्त्रः 
लक्षणलक्षणम्‌ 
रोकादिविषय उपास्यावय॒व 
वादयुयुत्सासमुत्साहः 
वायुरूपत्रह्मणे नमस्कारवदन- 
क्रिये ,.. 
विक्षानं ब्रह्म... 
विज्ञानमयकोशः 
-उपासनाद्िविधफलम्‌ 
` -उपासनारूपम्‌ 
विद्ष एव ब्रह्मप्राप्ति 
विद्याकमविवेकः 
विद्याकमसमु्यवादनिरासः 
विद्यातत्फटोक्कषरप्राथंना ... 


विद्याफम्‌ ,, . ०, १२५. 
विद्या भयनाहहतुः ..., ११५ 
छवियावि्शान्तिप्राथना ... ७ 
विद्याविद्ये नात्मधर्मौ ११३ 
विद्यासंप्रदायप्रवत्यथ मन्त्राः १४ 
वेदस्य नित्यत्वम्‌ ७६३ 
व्याहुत्युपासना १६ 
सान्तिः .७,४३२४४,१ १८, १३७ 
शिष्टाचारपरित्यागनिषेधः. , . २ 
रिष्यसंपादकहोमार्था मन्त्राः १४ 
रिष्यसंपादको मन्तः १५ 
ओीकामस्य होमार्थमन्त्रा; .. . १४ 
संहिताविषयं स्थूलोपासनम्‌ १० 
संहितोपासनम्‌ १०--१२ 
सगुणब्रह्मोपासनम्‌ २०-२६ 
संक्रमणपदार्थः- विज्ञानम्‌, 

वाधः ११२३-४ 
सत्यादि प्रद्रयस्य नह्मटक्षक 

त्वम्‌ ०. ५.४ 
सत्यादिवाक्यस्य न श्ूल्या- 

थता ... ,.. ५२ 
संदिग्धधर्मनिर्णयोपायः .. . ३४ 
संप्रदायप्रवत्तिजनितकी्िप्रदौ 

मन्त्री ... ९५ 
सातिरायनिरतिरायानन्दयोसु- । 

पायोपेयभावः १०५. 
सष्टिः- बह्मविवतः ६१-२ 
हिरण्यगभनिन्दः १०४ 
दिरण्यगर्मोपासनम्‌  ... २२ 





प. प्तौ, 
र २ 
५ ८ 
४. १६ 
1 ६ 
ध्‌ 1 
२१ ९ [। 
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८ १४ 
११ ११ 
१९०५ १९ 
» २१ 
"१९१ १७ 
१२ टीकान्ते 
» २ रिम्पण्यां 
९४ ६० 
» ६१ 
१५. १५७ 


शुद्धपाठा अधिकपाठभेदा 





आरन्धफल्योश्चोपभोगेन 
'न्नेव जन्मन्यु 
शुद्धाश॒द्धयोः. 

# इति शतुनौनुपपत्तिः- “अकुर्वन्‌ विहितं कर्मः इति 
कममम्यः, कर्मारभ्यः 

# इति न संमवति- 
अपि अभावः 

# कतुत्वोपरमे 

# "वल्यां 

आचाय च 

% 'सेयोजनेन अवतु ¦ 

% संहिताश्च महा 
यस्य तस्येद 

% "नेति संधानम्‌ | 

# विरचिते 

ॐ तै. सै, 

* 'विदिततत्वः 

% दिकं विज्ञानं 

*एवंमां 

* विधातः माभा 


^ 
५, 


१६ १ रिप्पण्यां # तुल्य 
१७ २ टिप्पण्यां * चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह ¦ 





# इति चिहितः पाठः शधो शेयः । चिहरदितः पाठभेदः । 


(६) 


१4 > पूगेण 
१९ > अस्ति | व्याहूत्यनुबाके ^ता यो वैदः 
१६ > अस्म अङ्कने बलमा 
२३ > वाऽऽत्मा 
> # श्वारमणमाक्रौडा 
४ टिप्पप्यां * २. २३. २ ` 
१० ॐ रथीतरसगोत्रः 
९ > अनुष्टेयसिति 
१२ > सिक्तः, अमृतोक्षितोऽहम्‌ । इतीत्यादि ब्राह्णम्‌ । 
४ रिप्पणी अनपेक्षिता । 
२० > ^तेषु-अभ्याख्याता अभ्युक्ता 
: ‰ संयोजिता; 
९ > वाच्यस्य 
५ ॐ प्रद्यते 
% कर्मणः 
१७ > प्यति 
८ *# ततः तत्फटोपभोगाय 
९ > ननुप्पत्तो 
२५ ‰ कीर्णानि विद्यन्ते 
१२ संसारनिवृत्तावसत्यां 
६ ‰ तस्यैव 
१५ > श्योगीनिचः 
२ < "मेव ब्रह्म 
२ ॐ यन्निश्चितं तत्तद 
१ ॐ च सत्यम्‌ 
४ कर्थादि 
१५. विरोषरणत्वे 


(७) 


५३ १ प्रसङ्गश्च; 
2 १९ > मास्याश्च 
६६ १४ > ग्रति दीयन्ते 
६७ १३ ॐ“ अन्न › उब्दनिवेचन 
७१ ९ मनोमयो यथान्नमयः ; 
७३ ७ समत्यावृत्तो च क्रियमाणायां 
७४ ५ > अतिदेष्टव्य' 
१ १ > अतिदिशतीति 
७७ £ श्पूर्वेया श्रद्ध 
” > सा तस्य सरवै 
,८० २९ > वैरोषिकरादि' 
८ १ ९ >ःश्चिते 


८२ ११ "तामापन्नः 
८४ ६ कास्त्यारङ्का 
> ७ सर्वसमत्वाचच 


८£& १२ शन नास्ति 
१८ ‰ सजन्मा 


८७ ११ किच यथा 
८८ ५ कार्यकारण 
८९ ६ -मवशिषम्‌ 


९० प्रान्तनाभि * संप्रवेशः 
१०६ टिप्पण्यां ‰#(४) बु, उ 


१०८ तैत्तिरीयकविद्याप्रकाशच्छोकाः ६५८९ परष्ठेऽपेक्षिताः 
१०९ + १०८ प्षठेऽपेश्चिताः 
१३१ ९ > गगुणोपासनात्‌ 

दीपिका 


९, रिष्पण्यां >» सायण