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सहसस्योपक्रतिप्रयोगकरणे निन्यं ऊनी नादयः. कोन्यः सर्पिदाडितों विजयराजैन्द्रात्वर: पृण्यवान् है ॥ १ ॥
जन्म म~ १८८४ भरतपुर । चू. पा ) प्रन्याखपद = ` उदयपुर (मेवद ' क्रियाद्धार स ~ “ जावरा | म'लत। 3
= ढद्रीक्षा स० १९-०४ उठयपुर / मेवाद ) अ्रीपूल्यपदवी मं ** 5५ आहोर मारव निर्वाण १ 3" :: गाजगढ़ ` मालत
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आजार-प्रदर्शनम् ।
र. पा>>>_>«>»
सत्रिदितसृरिकुल्तनिल्नकायपान-सकलज्ञेनागमपारद श्च -ाबाह््रह्यचा
री-जङ्मयगप्रध।न-परातःस्मरणीय-परमयागराज -क्रियाशद्धय पका रक - श्री
सोधमंबृहतगागच्छ। य--(सतपटाचाय -जगदयञ्प-गरुद ब-नट्।रक श्री १००८
प्रज्न श्री मदूवि जयराजन्दसरी चज) मढ़ाराजने 'श्रीअजिवानराजन्द प्रक्रत
मागध) महाकोश का सक्लल्ननकाये मरुधरदेरोय श्री सलियाणा नगर में सवत्
एए के अ खिनशक्कद्विताया के दिन शुभ लग्न भ॑ आरम्भ किया । इस
मान् सकदान हाये में समय समय पर कोशाकरत्ता के. मुख्य प्टघर शिष्य.
श्रीमद्धतचन्दसुरी नी महागजने जी आपको बहुत सहायता दः) | इस
प्रकार करं।ब साढ़े चोदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह
प्राक्त बृढ्त्वाष हवत् {९८६० चत्र- शुक्तः १३ बुधवार क देन श्र) सूयपुर
( सूरत--गुज़रात ) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) छुआ |
गव/ज्षियर रियासत के राजगढ़ (माल्तवा) में गुरुनिवाणोत्सब के दर-
(यान सवत् १ए६३ पोष-शुक्ता १३ के दिन मढ़ातपस्वी--सुनि ध्रीरूग्व-
जयज), सुनिश्रीदोपविज्ञयज।, मुनिश्रीयतीन्डविजयज), आदि सुयोग्य
सुनि महाराजाओं की अध्यकता भें मालवदशीय-छोटे वनने याम-नगन के
प्रतिष्ठित-सद्ग॒हस्थों की सामाजिक मिरटिंग में सतानुतत स यद प्रस्ताव
पास हुआ कि-म्ुम-गुरुदव के निमाण किये हुए 'अभिषानराजनद्र! प्रकत
मागधं) महाक्राश का जन जेनतर समानरूप स ज्ञाज्ञ पक्त कर सङ, इस
लिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, ओर छइसके छपाने के ज्ञि रत्नान
(मालवा) में सेठ जसुजी चतुजनीत्-मिश्रीमल्लजी मथगाल्ाल्लज), रूप-
चदजी रखचदासजीत्-जागीरश्च जे, वी साज) जवरचंद जी त्-प्यारचंद जी और
गोमाजी गेजीरचंदजीत-निहालबंदजी, आदि प्रतिष्ठित रूद्गुहस्थों की
दख-रेख मं श्री ख[निधानराजन्ठ्-कायःलय ओर “श्र।मेनप्रताकर प्रिटिंग चरन
स्वतन्त्र खाल्लना चाहिये | कोष के सराधन ओर कायोलय के प्रबन्ध का
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समस्त--जार महुम--गरुदेव के सुयोग्य- शिष्य मु निश्री दी प विजयजी ( श्री म-
घिजयजूपन्द्रसरिजी पौर मनिश्रीयतोन्धविजयजी को सोपा डाय ¦ बस
प्रस्ताव पास होन के बाद सं० १९८६४ श्रावशस दि ७ के दिन उक्त कोश को
छपाने के छ्य रतक्षाम मे उप्यक्त कायालय ओर प्रेस खोल्ला गया और
उक्त दोनों पृज्य--म निराजों की देख--रेख से कोश ऋमशः उपना शुरू हुआ,
हा सण २९८२१ संत्र-व।द ५ गस्वार क दन पणं उप जाने क। सफलता
का प्राप्त हुआ ।
इस महन् कोश के मुरखूणकायमे कुवादिमतमतंगजमटभञ्जनकेसरी -
कलिकाल्लसिद्धान्तशिरोम णि--प्रातःस्मरणीय---आचाये - श्री सद्धन चन्दसू रि-
जी महाराज, जपाध्याय--श्री मनमोहन विजयी सद्ाराज , रूच्चारित्री-
मुनिश्रीटीकम विजयजी महाराज, पृणंगुरुदेवसेवादेवाक-मु निश्री हुकुम विज-
यजी महाराज, सत्क्रियावान-महातपस्वी-सु नर) रूप (विजयजी मद्ाराज,
साढ़ित्यविशारद-विद्यानूषण-श्री न जय नुपन्डसृ रिज) महाराज , व्या
ख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-सुनिश्रीयतीन्द्रवि जयजं) महाराज, कानी ध्यानी
मोनी मदातपस्वी-सुनिश्च)डिम्मत(वजयजी, सुनिश्री-ल्क्मी विजयजी,
मुनिश्री-गुल्लावविजयजी, सुनिश्रः--दषेवि्यजी, मुनिश्री--हंसविजय जी,
मुनिश्र।--»म्ृतविजयजी , आदि मुनिवरोंने अपने अपने विद्वार के
दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेशाद् दे कर तन, सन
छीर धन से पर्णं सहायता पढ़ोंचाइ, ओर स्वयं भ) अनेक जॉति
परिश्रम जताया हैं, अतएव उक्त भुनिवरों का कायोलय आज़ारी हे
[भ [ (क 9 अ २ ¢ दः चत [कप 9 स
जिन जिन याम-नगरों के सोधमेव्रदत्तप।गच्ीय-श्रीसघ ने इस
रे ७ ^} श
मदान् कोषाकझ्नन-कार्य से याथिक-सदायता अदान की है, डनकी शुनः
सुवृणाक्वरी नामावली एस प्रकार ढें--
श्रीसोघमब्हत्तपो गच्छी य श्री सेघ-मालवा---
श्रीसंघ-रतलाम । श्रीमघ-रवांगरोद् । आरीसच-राजगह् ।
)) जावरा । ,, वारोदा-बड़ा | ». झावुवा |
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याना 95955 सन
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हु » . खाचरोद ! » सुजाखेड़ी। १» कसी | |
„ भन्दसोर। )) खरसाद-बदी। » आलीराजपुर | |
४ , सीतामऊ। ) ष्टीरोला-बड़ा। )) ईगनोद। | 7
(५ „ निम्बारेड़ा। ++ मकरा्रन। » राणापुर । ||
ॐ १) इन्दौर | १) बरड़िया | 9 पारां। | ६५
५१ „+ ' उज्जेन । ७४. (मष्ोपचलाना। ,, टंडा। १
मे ». महेन्दपुर। „+ पटलावदिया | + बाग) ष
५ | „ नयागाम। _ ) पिपलोदा | „ स्ववासा । ;
व है नीमच-सिटी | कै दशाई (6 + रंभापुर।
५ ) सजात। ) बड़ो-कड़ाद | १४ अमला। ती
+ „„ नारायणगढ़। ५» पघामणदा | +» बोरीश |
= „ बघरड़ावदा। + राजोदं | ~ \
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५ शर सोषमड्दृत्तपोगच्लीयसघ-गुजरात-- ~
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अ्रीसंघध-अहमदाबात् | ओसखव-धिरपुर (थराद)। अ्रीसंघ-ढीमा।
» बीरमगाम। +» वाव । ४. दूधवा। ४
„ सूरत | 9 भोरोल। + वात्यम ।
„ साएंद। ७ घानेशा। + वासण।
„ बम्बई। „+ धोराजी। „„ जामनगर । ।
, पालनपुर । + इवा। + खभात।
श्रो सोधमंबृद्तत्तपो गच्छी य-संघ- मा रवाड---
के फेक के जेट ने के के के के के नेट के 3: ॥ के के जे के वे जे ४ ४
शत
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५ श्रीसंघ-जोधपुर । श्रीसंघ-भीनमाल । #ीसघ-शिवगंज।
ट | + आहोर। , सांचोर । 9 कोरटा। |
५ „ जालोर। » , बागरा | » फतापुरा। ५:
१ „ भेंसवाड़ा । „„ धानपुर। + जोगापुर | ५५
| „ रसणिया | ». आकोली। , भारुदा। न
| + मांकलेसर | #. साथू। + पोमावा।
१ | „ देवावस | +, सियाणा। # बीजापुर । ध
५ ,„ विशनगढ । ,„ काणोदर । ५» बाली। ¢
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# श्रीसंघ-गोल । अश्रीसंघ-संडवारिया । ओऔसंघ-सांडिराव | |!
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४ „ साहेला | )) चलदूठ । » खुड़ाला। है
च ) आलासण् | + जावाल | » राणी | |
| ०» रद्तडा। 0 सिरोही । „ खिमाड़ा। | |
¢ , धाणसा | ,„ खिरोड़ी। ) कोशीलाव | |
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५ „+ भोदरा। » गुडाबालोतरा। » एंदला का जुड़ा । |
५ | +» ` थलव्राड् | » लि + चं'णोद्। |
। | „ मेंगदावा ३ ».. तखलगढ । „ इडसी। |
| „+ सराणा | „ सोदरिया। » र्थोबला। |
ह „ द्वाघएल। „ गोवाडा । ) जोयला | ।
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् इनके खिबाय दूसरे भी कई गावाकेस्धोंके लरफःसे मदद मिली हें, उन
४. सभी का कार्याद्यय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है।
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श्रसोधरसव्रहनपागच्छीय-श्रीमद्रिजयध्रनचन्द्रमृरिजिी महाराज ,
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िद्र्कोरजनमोदक्रर प्रसन्न, शुश्रत्रतं सुकविकरवर्साद्ि लासम ।
हृदध्वान्तनाञकर ण प्रमर्स्प्रताप, वन्द ऋलानिधिसमं घननन्द्र सरिम ॥ £ ॥
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पाटनपुर ) उपाध्यायपद ४ -: - खाचरोंद (म > स्थगारोट ` 200 20
हि ऋ 9 7 8 ए त 2 7.7 97 ०. +या. आन मर = 0 क मी मा आम न +, ' आ + 4 ह,
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ग्रतिदीक्षा ५!" ` ` चानेरा
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१५ उपर्र० ०२३:
५ ५४7: ७४:१५
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॥ श्रौ वीतरागो जयति ॥
श्रीअभिधानराजेन्दः ।
सिग्विद्धमाणसाि, नमिरूण जिणागमस्स गहिऊझण।
सारं छुट्टे भागे, भवियजणसुहावहं वोच्छु ॥ १॥
---> >&=
म-म-पु०। मा-कः । यमे, समये, मधुसूदने, वाच० । मन्त्र
मन्दिरे, माने, सूर्ये, चन्द्रे, शिवे, विधो, मायाविनि, ब॒था-
सन्ते. मारणे, प्रतिदाने, एका० । स्त्रीकरटे, बहौ, सत्यवादे
जड, कष्टे, सत्साक्षिणि, मदे, कपिलवर्य, पिज्ञलवर्ण, बन्धने
च । एका० । मौलो, मोघवृत्तो, नपुसकजने च । न० ! एका० ।
मञअ-मद्-पुं° । अहङ्कारे, “ अवलेश्रोऽहंकारो , मओ
मरष्नो मरप्फरो दप्पो । ” (८६) पाइ० ना० ५५ गाथा ।
मआई-देशी-शिरोमालायाम् , दे० ना० ६ वग ११५ गाथा ।
मई-मति- खी । मन-क्किन । मनने मतिः । ज्ञान, अवधिमनः-
पय्यौयकेवलजातिस्मरणभदाश्चतुधौ । । आचा० १ श्रु० १ अ०
१ उ० । ज्ञा० । नं०। मननं मतिरवबोधः । सा च मतिज्ञाना-
उ<दि पश्चचेति श्राचा० १ श्रु० १ अ० १ उ० । आ० म०।
सूत्र० । मननं मतिः। पदा्थैचिन्ता55त्मके मानसे व्या
पारे,आचा० ९ श्रु०५ अ० ६ उ० । कर्थाश्विदर्थपरिच्छित्तावपि
सृद्मधमौ “४लोचनरूपायां वुद्धौ, न० । विशे० । बुद्धो, स°
११ अङ्ग । श्राचा०। स्था० । सूज ० । | अवबोधशक्कों, विशे० ।
अभिनिवेशे, दश० £ श्र° २ उ० । मनसि च । सूत्र० १ श्रु० ४
अ०२ उ०। इच्छायाम् , स्मतौ, क्विच । शाकभेदे च । वाच०।
श्राभिनिबोधिकन्ञाने, स्था० ६ ठा० । आए० चू” । प्रव० । (त
डक्कव्यता “आमिणिवोहियणाण' शब्दे दवितीयमागे २५५ पृष्ठ
गता) बुद्धौ , “ मेदा मई मनीसा, विज्ञाएं धी चिई बुद्धी ।”
(४२) पाइ० ना० ३१ गाथा । मतिः स्मरतिः सन्ना चिन्ताऽभि-
निबोघ इत्यनथौन्तरम्। सम्म० २ कार्ड । आचा० ।
चउव्विहा मई पणणत्ता । तं जहा-उग्गहमई,ईहामई, अ-
वायमरई, धारणामई । अहवा-चटच्विहा मई पणणत्ता | तं
जहा-अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगस-
माणा, सागरोदगसमाणा ॥ ३६४ ॥
मनने मतिः तत्र सामान्याथस्याशेषविशेषनिरपेक्तस्यानि
देश्यस्य रूपाः ऽदेरेव इति प्रथमतो ग्रे . परिच्छेदेनमव-
ग्रहः, स पव मतिरवग्रहमतिः, एवं सर्वत्र, नवरं तदथैविशे
चा ऽऽलोचनमीहा, भरक्रान्तार्थविशेषनिश्चयो ऽवायः , ऋवम-
ताथैविशेषधरणं धारणेति । उक्त च-- सामन्नत्था--
क भेयमग्गहरमिदेदा । स्स्सावगमो ऽवा
महद सण
आओ. अविच्चुई धारणा तस्स ॥ १॥ ” इति । तथा श्ररञ्जरम्।
उदकुम्भो ऽलञ्जर मिति यत्प्रसिद्धं तत्रोदकं यत्तत्समाना प्रभू-
ताथअ्रहणोत्परत्तणधरणसाम््याभावेनाल्पत्वाद स्थिरत्वाखच ,
अरज्जरोदकं हि संक्तिप्त शीघ्र निष्ठितं चेति । विदरो-नदीपु
लिना55दौ जलार्थो गर्तः, तज यदुदकं तत्समाना ऽल्पत्वादप-
रापराथोंहनमा्रसमथैत्वाद् कगित्यनिष्ठितत्वाच्च, तदुदकं,
ह्यल्पं तथा ऽपरापरमल्पमल्पे स्यन्दते , , अत एव क्षिप्रम
निष्ठितश्वेति , सरउदकसमाना तु विपुलत्वात् बहुजनोप-
कारित्वादनिष्ठितत्वाच्च प्रायः सरोजलस्याप्येवभूतत्वा-
दिति, .सागरोदकसमाना पुनः सकलपदाथविषयत्वेनात्य-
न्तविपुलत्वादत्तयत्वादलन्धमध्यत्वाच्च , सागरजलस्यापि
हयवम्भूतत्वादिति । स्था० ४ ठा० ४ उ०। “ सच्छंदबुद्धि
मइविगप्पियं । ” तत्रावग्रहे बुद्धिः, श्रपायधारणे मतिः। ने०।
मनुते-अवगच्छुति जगत्त्रये कालत्रयोपेते यया सा तथा ।
सूत्र० १ श्रु० ६ श्र ° । लोकालोकान्तगैतसृदमव्यवटहितविभ्र-
कष्टातीतानागतवक्तमानपदाथो 5 ऽविभौवके केवलज्ञाने च ।
सू्र० १ श्रु० ११ अ० । आचा० । प्रातिभवोधे, आचा०
१ ध्रु० ५ अ० ६ उ० । अध्यवसाये, आचा० १ श्रु० ८ अ०
८ उ०। मातिरवायो, निश्चय इत्यथः । स० ५ अङ्ग । परवा-
धु पन्यस्तसाघनस्यापूवौपूर्वदूषणोहा ५ ऽत्मके ज्ञानविशेषे, ब्०.
४ उ० । मननं मतिः । यद्धा-मन्यते इन्द्रियमनोद्धारेण नियत
वस्तु परिच्छियतेऽनयेति मतिः । योग्यदेशावस्थितवस्तुविः
षये इन्द्रियमनोनिमित्तावगमविशेषे, कर्म० ४ कर्म० । भ्रव० ।
मइअ-देशी-भत्सिते, दे०्ना० ६ वर्ग १४ गाथा।
मइअन्नाण-मत्यज्ञान-न० । मिथ्यादषटमतिज्ञाने, “ मिच्छ-
दिट्टिस्स मई मइअन्नाणएं | ” आ० चू० १ अ०। .
मइअन्नाणस्स णं भते ! केवदए विसए पणणत्ते ै। गोयमा!
से समासओ चउव्विहे पण्णे | तं जहा-दव्वश्रो, खेत्तओ
कालओ, भावओ। दव्वओ णं मइअणएणाणी मइअणणाण-
परिगयाई दव्वाईं जाणइ, पासइ, एवं० जाव भावओ मइ-
अण्णाणी मइअणणाणपरिगए भावे जाणइ, पास ।
( मइअणणाणस्लेत्यादि ) (मइ अणणाणपरिगयाई ति) मत्य-
श्ानेन मिथ्यादशनसंवलितेनावग्रह्य5<5दिनोत्पत्तिक्यादिना
च परिगतानि-विषयीकृतानि द्रव्याणि यानि तानि तथा ,
जानात्यवाया ऽ ऽदिना पश्यत्यवग्रदहादिना । भ० ८ शु० २ उ० ।
महओग्गह-मत्यवग्रह-पु० । भावावग्रहभेदे, ्ाचा० २श्ु० २
चू० ७ आ० र ॐ०।
| भईद-सृंगेन्द्र-पुं? । खग इन्द्र इव सिदे, वाच० । नं०।
| भश्गुण-मतिगुण-पुं । दुद्धिप्योये, स० २ अङ्ग ।
। अहर परर -स रिद् शान --उ > । मनखुदधेमेत्या था दशेने मेय
मसहदंसण
स्य॒ परिच्छेद्न मतिदशनम् । बुद्धेः परिच्छेदन, बुद्धा
प्रमेयस्य परिच्छेदने च । भ० १५ श०।
महनाख-मतिज्ञान-न०। क्षायते ऽनेनेति ज्ञानं मतिरूपे ज्ञानं म-
तिश्ञानम्। विशे० | आभिनिवोधिकन्नाने, आ० चू० १शअ०।
प्रव० । कम्मै० । पं० स०। न० । विशे० | द्वव्यभावेन्द्रिया 5 5लो-
कमतिज्ञाना 55वरणक्तयोपशमा 5 ४दि्सिामग्रीप्रभवरूपा ऽ ऽदि-
विषयग्रहणपरिणतिश्चावग्रहा 55दिरूपा मतिज्ञानशब्दवाच्य-
तामश्नुते सम्म० २ कार्ड ।
मइनाशविड-मतिज्ञानाबित्- त्रि । मतिल्ञानेन वेतीति म-
तिशानविद् । मतिज्ञानेन वेदितरि, विशे० ।
महनाशावरण-तिज्ञानाऽऽवरण-न०। मतिज्ञानमावियते ये-
न तत् मतिज्ञाना55वरणम् । ज्ञाना55वरणीयकर्मभेदे, पे०
-सं० ५ द्वार ।
महनाणि( न् )-मतिज्ञानिन्--प° । आभिनिवोधिकल्ञानिनि,
विशे ।
महपत्तिया-मतिप्राप्निका-खी° । आचार्य्यरोहणात् निगत-
स्योदेदगणस्य चतृषु शाखासु खनामख्यातायां ठतीयशा-
खायाम् , कट्प० २ श्रधि० ८ क्षण ।
महभग-मतिभङ्ग-पु० । मतेबुद्धेभज्ञे विनाशो मतिभङ्गः। बुद्धे-
्विस्यृतो, स्था० १० ठा०।
महभगदोस-मतिभङ्गदोष-पु० । मतेवुद्धेभङ्गो विनाशो विस्ख-
त्यादिलक्तषणो दोषो मतिभङ्गदोषः। दोषभेदे, स्था० १० ठा०।
महमत-मतिमत्-पं० । मननं मतिः सर्वपदार्थज्ञानम् , तद्धि-
द्यते यस्यासौ तथा । केवलिनि,श्राचा० १ श्चु° ८ अ० ९ उ०।
श्राव० । सूत्र० । ज्ञानान्विते,आचा० १ श्च ° £ श्र ० उ० । मतिर-
स्यास्तीति मतिमान् । विदुषि, श्राचा० १ श्च° १ अ० ५ उ०।
पञ्चा०। घ० । मतिमान् श्वुतसंस्छृतवुद्धिः । । आचा० १ श्रु० २
अ० ४५ उ० । विवेकिनि, सूत्र० १ श्रु० ३ अ० ४ उ० ।
आचा० । बुद्धिमति, दशे० १ तत्त्व । मनने मतिः। सा
शोमना यस्यासौ मतिमान् । प्रशंसायां मतुप् । शोभनम-
तियुङ्क, सूत्र० १ श्र० १० आ०।
महमोहणी-देशी-खरायाम्, दे० ना० ६ वर्ग ११३ गाथा ।
महय-मतिक-न० । उस्तवीजा+ऽच्छादनसाधने काष्ठमय वस्तु-
विशेषे, मतिकमुप्तबीजा ऽऽच्छादनम् । दश० ७ अ० । मतिकं
येन छरा क्षेत्र ख्यते । प्रश्न० १ सम्ब० द्वार ।
महरा-मदिरा-खी०। मद्-किरन । “ माध्वीकं पानसं द्राक्त,
खाजूरं तालमैक्तवम् । मैरेयं मात्तिकं राङ्क; मधूकं नारिके-
लजम् ॥ १ ॥ मुख्यमन्नविकारोत्थ, मद्यानि द्वादशैव तु । ”
इत्युक्ते मदययसामान्ये, वाच० । वारुएयाम् , ग० १ अधि० ।
“ कायवरी पसरणा, हाला तह वारुणी महरा । ” पाइ०
ना० ६४ गाथा | मत्तखञ्जने च । रक्छखदिरे, पुं० । वाच०।
महरेय-मेरेय-न० । वारुएयाम् , “ मइरेअ महुवारो, सी
सरआओ मह अवक्करसो (१०७) ” पाइ० ना० ६४ गाथा ।
मइल-मलिन-जि० । मल-्स्त्य्थे इनच् । मलीमसे, प्रश्न०
३ आशअ्र० द्वार । “ मलो जस्स विज्जइ ते महल । ” नि०्चू०
१ उ० | तं० । मलिनः शरीरेण वस्वा मलीमसः । कू १
२ ).
ऋअभिधानराजन्दरः।
है शी ५६ मद जा क
उ० २ प्रक०। “ मलमइल पंकमइला, घूलीमइला न ते नरा
- मइला । जे पावकस्ममइला, ते मइला जीवलोयाम्मि ॥ १॥ ”
घ० र० १ अधि० १० गुण । दुषिते, कश च । अन्धकारे ,
“ काले मइले जञ पि य, वियाण तं अधयारं ति। ” सृत्र० १
श्रु० १ अ० १ उ० | अस्वच्छे, “ मइल मलीमसं ( ६०१ ) »
पाइ० ना० २५६ गाथा । कलकल-गततेजसोः, दे०ना० «
वग १४२ गाथा ।
महलश-मलिनन-न० । मालिन्यकरणे, “ परदारं , गच्छति
त्ति मदलि ति।” परश्च० २ आश्र० द्वार । स्था०।
मरलणशा-मलिनना-खी० । परतिसवायाम्, अतिसेवनाया
एकार्थिकान्याधिकत्य-- 'पडिसेवणा मदलणा ! ” ओघ० ।
महलारंभिण्-मलिनाऽऽरम्मिन्-पु। यदस्थे, "करोति मलि-
नाऽऽरम्भी । ” ध० २ अआधि० ।
महलिय-मलिनित-त्रि० । शरीरा ऽऽदिमलेन क्लेदिते, पि० ।
कठिनमलयुक्ते च । भ० ६ श० ३ उ०।
महद्चिया-मतल्चिका-खी० । तेतलिपुरस्थकनकरथचरपतेरमा-
व्यस्य तेतलिपु्रस्य पोट्धिलायां भाय्यीयामुत्पन्नायां स्वनाम-
ख्यातायां दारिकायाम् , ज्ञा० १ श्रु० १४ अ० । ( वक्कव्यता
° तेतलि ` शब्दे चतुथभागि २३५३ पृष्ठे गता । )
मइविगप्पणाविगप्य-मतिविकल्यनाविकल्प- पै । मतिबुद्धि-
स्तस्या विकल्पना विकल्पः क्लृपिभेदस्तथा। बुद्धेः कलृप्तिभे-
दे, औ० ।
मइविहल-मतिविहल-पुँ? । जयपुरनगरस्थस्य विकरमसेनचर-
पतेः स्वनामख्याते मान्त्राणि, दश० ३ तत्त्व ।
मइसंघडणा-मतिसंघटना-स्त्री० । मतः-मतिज्ञानस्य संघ-
टना रचना, मत्या बुद्धया वा संघटना र॑चना तथा । ज्ञानस्य
रचनायाम् , बुद्धया रचनायां च । सूक १ श्चु° १ झअ० १ उ०।
मइसपया- मतिसपद्- स्त्री ०। संपद्भेदे, दशा० ४ अ०। घ०
र० । स्था०। प्रव । ( मतिसपद्धेदाः “ गणिसएया › शब्दे
तृतीयभागे ८२६ पृष्ठे गताः )
मइसहिय- मतिसहित्-त्रि० । मत्यनुगते, “ मतिस्ते ति वा,
मतिश्रणुगतं ति वा एगट । श्रा० चू० १ अ०।
महसार-मतिसार- पुं । जम्बुद्वीप ऽपरविदेदपुष्करविजयच-
स्पानगरीस्थस्य सखुरसिद्धनरपतः खनामख्याते मन्विरि, “इदेव
जम्बृदीवे दीवे श्रवरविदेदे पुक्खराविजण संपाए णयरीए सुर
सिद्धो नाम राया, मइसारो नाम मती हुत्था। ” ती० & कल्प ।
महमूयग-मतिमूचक-पु० । पापे, “ रहस च अणरहस्सं. करेइ
मइसयगो पुरिसो ।” पं० भा० ४ कल्प | पं० चू०।
मइहर-देशी-पग्रामप्रधाने, दे० ना० ६ वग १२२ गाथा।
मई-देशी--भश्रे, दे० ना ६ वग ११३ गाथा।
मउ-दु-लि०। ख-दुः। कोमले,अजु ० । कस्मे ० ज्यो०। कल्प० |
मउंद-पुकुन्द-पुं० । बलदेवे, ''मउंद्मदेइ वा । ” रा०। बाद्य-
विशेषे च । “ मद्दामंद्सठाणुसंठिए। ” भ० २ श० ८ उ ।
पञ्चा० । ाच्छ०।
(
मउश्र
द
अभिधानराजन्द्रः।
)
भउयटियय
सउगज-देशी-दोने, दे° ना० ६ वर्म ११४ गाथा ।
मरर्या-मृद्ठीका- खो० । खद् -ईकन् । द्राक्षायाम्, वाज०।
आचा० १ श्चु० २ आ० ५३०।
मउड-प्ुकुट-न० । पुं! “उतो मुङ्लाऽऽदिष्वत्*॥८।१।१०७॥
इति प्राकृतसूजेणा ५ ऽदेखकारस्यात् । पा० १ पादं । किरी-
टेज्ञा० १ श्वु० १ अ० । सूत्र० । प्रव० । ओ० । मस्तकाऽऽभ-
रणविशषे च । रा० | प्रश्व० | आ० म०। मुकुरं सुवो $$
दिमयशेखरक इति । श्रो०। सूत्र° । विपा०। सुकुटाश्रतुरख्राः
शेखरविशषाः, किरीटास्त एव शिखरज्रययुक्ताः । श्रो० ।
प्रश्ञा० जो० । करप० । आ० च्० ! आ० म० ! भ० । अ-
अलिमुकुलिते उत्थिते बाहुद्वये च । श्रञ्जलिमुकुलितं बाहु-
दयमुच्छित मुकुट उच्यते, सच हस्तद्वयप्रमाणः । यदाह
बृहद्धाष्यकृत-मउडो उण दोरयणी-पमाणतो होइ हु
सुणेयव्वो । ” बु० ४ उ० ( श्रोडेलकोश-गुजराती )“कबरी
कुंतलहारो, धम्मिल्लो केसहत्थओ मउडो ( ६३)” पाइ०
ना० ५७ गाथा । किरीटे, “ मडली मउडो किरीटो य”
( २५१ ) पाइ० ना० ११६ गाथा ।
मउडट्टाण-मुकुटस्थान-न० । मस्तकप्रदेशे च । स०३४ सम०।
मउडदित्तसिर युकुटदीप्तशिरस्-पु० । खकुटेन दीप्ते शिरो य
स्य सः । तस्मिन् , कटप० १ अधि० ३ क्षण |
मउडी-देशी-ज्रटे, दे” ना० ६ वश ११७ गाथा ।
मउडीकड-युकुटी(मोली)करत- पु । । अबद्धपरिधानकच्छे,ल०
११ सम० । उपा० । परिधानवासोऽखलद्धये करीपदेशना ऽ
बलम्बयति, अग्ने पृष्ठे चोन्मुक्ककच्छो भवति । दशा० ६ अ०।
मउण- मौन-न० । मुनेर्भावः | मुनि-अण्। “अउः पौराऽश्दौ
च ॥८।६।१६२ ॥ इति प्राकृतसृत्रेणोकारस्य अउरादेशः ।
भ्रा० १ पादं । वाग्व्यापारराहित्ये, वाच०। मोन वाक् संयमः ।
आर म०१ अ० ।आचा०।व्य०। प्रति° । आव०। सूत्र०। स्था०।
“मूतोत्सर्ग मलोत्सग, मैथुने स्नानभोजनम् । सन्ध्यादि-
कम्म पूजां च, प्रकुयोत्पञ्च मोनवान्॥ १॥ ” घ० २ अधि०।
मुनेरिद मोन, सुनभीवो वा मौनम् । श्राचा० १ श्रु० ५
अ० ४ उ० । सयमे, आचा० १ श्रु० २ झ० ६उ० । सूत्र० ।
उत्त०। संयमाजुष्ठाने, आचा० १ श्रु० ५ अ० ३ उ० । मौन-
मशषसावयायुष्ठानवजेनम् । आचा० १ श्रु० ४ अ० ३ उ० ।
“सुलभ वागनुझारं, मोनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्रलेष्वपरवृत्तिस्तु,
योगनां मोनमुत्तमम्। ” अष्ट० १८ अष्ट० । मुनीनामाचारे,
उत्त १४ श्र ० । साधुधम्मै, उस० १४ अ०. । सम्यक्त्वे, च०
१ श्रधि०। प्रति० । मुनेः कम्मे मौनम् । तच्च सम्यद्धचारि-
रमिति । उत्त० १५ श्र ०।
जं मोण तं सम्म, ज सम्मं तमिह होइ मोणं ति।
निच्छयओ इयरस्स उ, सम्म सम्मत्तहऊ वि ॥६१॥
मन्यते जगतच्िकालावस्थामिति मुनिस्तपस्वौ, तद्भावो
मौनमविकले सुनिवृत्तमित्यथः; यन्मौनं तत् सम्यच्छ सम्य-
कत्व यत् सम्यक्त्व तदिह भवति मोनामति । उक्त
्ाऽऽचारङ्गे- ' ज मोरा ति पासहा, तं सम्भ ति पासहा,
अ खम्मे ति पासहा, ते मोर ति पासष्टा । ” इत्पादि । नि-
आयल; परमाथेन निमश्चयनयमतेनेव एतदेवमिति-- जो
|
जह वायं न कुणइ, मिच्छद्दद्ो तत्रो हु को अन्नो ?। वहेद्
य मिच्छत्तं, परस्स सकं जरेमाणो ॥ १॥ " इत्यादिवचन-
-उआामारयाद् । इतरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्व, सम्यक्त्व
देतुरप्यदेच्छाशनभीत्यादि, कारणे कार्योपचारात् | श्रा०।
तथा---
जे सम्म॑ ति पासहा, तं मोणं ति पासहा, जं मोशं ति
पासहा, तं सम्म ति पासहा ॥
( समे ति पासद इत्यादि ) सम्यगिति सम्यगज्ञानं, स-
भ्यक्त्वं वा तत्सहचरितम् , अनयोः सह भावादेकग्रहरणे दिती-
यब्रदरं न्याय्यं यदिदं सम्यगज्ञानं सम्यक्त्वं बेत्येतत्पश्यत तन्
सनेभौवो मौन संयमाजुष्ठानमित्येतत्पश्यत; यच्च मौनमि-
त्येतत्पश्यत तत् सम्यग्ज्ञानं नेश्चयिक सम्यक्त्वं वा पश्यत,
ज्ञानस्य ॒विरतिफलत्वात् । सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्किकार-
रएत्वात्सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकता 5ध्यवसयेति भावार्थः ।
सर्वज्ञोक्ते प्रचचने च । च्राचा० १ श्रु० ५ श्र ० ३ उ०।
मउणचगय-मौनचरक- पुं०। मोन -मोनवतं तेन चरति मौ-
नचरकः । स्था० ५ ठा० १ उ० । परिवाजकभेदे, श्रौ ।
मउणपय- मौनपद-न° । मुनीनामिदं मौनम् । तच्च तत्पदं
च मोनपदम् । सेयमे, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र ०।
मउशेद-मोनीन्द्र-पु° । वीतरागे, वीतरागप्रवचने च । न०।
द्वा० ८ द्वा० ।
मउरिंदपय-मौनीन्द्रपद्-न० । सयमे, सूत्र० १ श्रु० २ आ० २
उ०। सर्वज्ञप्रणीते मार्गेच । सूत्र० १ श्रु० १३ अ० ।
मउय-मृदुक त° । कोमले, आचा० १ श्रु० ५ ० ६
उ० | औ० । व्य० | भ० । रा० श्राव० । उत्त० । जी० ।
सद॒क मार्देवगुणोपेतमकर्कशम् । ज० २ वक्त० । तं०। औ०।
खदुनेषटस्वरेण यद्वीयते तन्मरदुकम् । अनु० । मधुरस्वरे गेय-
भेदे च । स्था० ७ ठा०। “ कोमलयं सुहफंसं, सामालं पेलवं
मउय (१५६) ” पाइ०ना० ८८ गाथा ।
मउयत्तया- मृदुत्व-न० । “ त्वादेः सः ”॥ ८। २। १७२ ॥
इति प्राकृतसत्रेण क्त्वान्तात्तल् । मार्दवे, प्रा० २ पाद् ।
मउयफासणाम-दुकस्यशनामन्-न० । नामकम्मेभेदे, यदु-
दयाज्जन्तुशरीरं हंसरुता ऽदिवेन्सटदु भवति तन्ड्दुस्पशीनाम ।
कम्मै० १ कमें०। ।
मउठयफासपरिणय-सृदुकस्पशपरिणत-त्रि० । हंसख्वाउदिव-
त्स्पर्शपरिंणतमेदे, प्रश्ा० १ पद ।
मउयरिभियपयसंचार-सदुकरिभितपदससंचार-न०। खद् सदु-
ना स्वरेण युक्तं न निष्ठरेण तथा यत्र स्थराक्तरेषु घो-
लनास्वरविशेषेषु संचरन् रागे तोता प्रतिभासते स पदस-
चारो रिभित उच्यते शखदुरिभितः पदेषु गेयनियद्धेषु
संचारो यत्र गये तत् मदुरिभितपदसंचारम् । गयभदे,
जी० ३ प्रति ४ अधि० । स्था०।
देव-
मउयहियय-सदुकहृदय-पुं० । कण्डलवरद्वीपस्थङडलपे-
तस्थे स्वनामख्याते नागकुमारे, द्वी० ।
बा
२
शतै) ध. ४ ^ 3 ~ ~ च | ~+# = +~
पु
क
4५" ~+ स
मह
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> क ~| ॥,। [| ॥ ।
` याम् . किरीटे, “ अउः पौराऽऽदौ च ”॥ ८। १। १६२॥ इति
( ४
क.
आमभधानराजन्द्र: |
) #
भखा्तं
मउर-गरुकुल-पुं०। न०। “उतो मुकुला55दिष्वत्” ॥८।१।१७०॥ |
इति प्राकृतसत्रेणा <देरकारस्या-5त््वम् | प्रा० १ पाद । कुड- |
मले, कलिकायाम् , औ० । “ कुंचल-कुंपल-कोरय- |
छारय-कलिआ उ मउले ति ( ८८ ) ” पाइ० ना० ४४ |
गाथा । रा० । देहे, आत्मनि च । वाच० । श्रपामार्गे, दे०ना०
६ वर्ग ११८ गाथा ।
मउल-म्ुकुल-पुं? | न० । ˆ मउर ' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद् ।
मउालि-मोली-पुं? । खी० । मूलस्यादूरभवः इञ् । चूडा,
प्राकृतसत्रेणोकारस्या ऽउरादेशः । प्रा०१ पाद । मोलिः शेखर
इति । स्था० ८ ठा० । मौलिमुंकुटविशेषः । उपा० २ |
-आ० । मोलिः शिरोवेष्टनविशेषः । ध० २ अधि० । सयतके
शघु च। अशोकवृत्ते, पुं० भूमो, खी० । डीप् । वाच० ।
मउलि ( ण )-मुकुलिन्-प० । सुकुलं फणाविरहयोग्या शरी- |
रावयवविशेषा55कृतिः, सा विद्यते यस्य स मुकुली। फणा,
करणशक्रिविकले अहिभेदे, प्रशा० १ पद् । प्रश्न० । किरीटे,
“ मउलो मउडो किरीडो य (२५१) ” पाइ० ना० ११५ गाथा ।
से किः तं मउलिणो ?। मउलिणो अणेगविहा पण्णत्ता | तं
जहा-दिव्वागा, गोशसा, कसादीया, वदउला, चित्तलिणो,
मडलिशो, मालिणो, अही, अहिसलागा, वासपडामा, जे
यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं मउलिखो ॥
एतेऽपि लोकतो ऽवसेयाः । प्रज्ञा० १ षद् | जी०।
मउलिय-म्रुकुलित-त्रि० | मुकुलं-कुड्मलम्-कालिका सजाता |
श्रस्येति मुकुलितः। कलिकोपेते, रा० । आव० । ज० । मुकुला-
<5कृतीकृते । श्रो० । ““श्रजलिमउलियदहत्था ।” आ० म० १
अ०। “ संवेज्ञिअं मठालिआ |” पाइ० ना० १८२ गाथा ।
मउली-देशी-हृदयरसोच्छलने, दे० ना० ६ वर्ग ११४ गाथा ।
मऊ-देशी-पर्वते, दे
मऊर-मयूर-पुँं० । मी-उरन । लोमपतक्तिभेदे, प्रज्ा० १ पद् ।
पा० । मयूराः स्वकलापवर्जिता इति । प्रश्च० १ आश्र० |
द्वार । प्रा० । रा० । स्था०। “ मोर केकादरणे । ” अनु० । मो-
रग्गीवाइ वा । रा० । प्रज्ञा०। ज०। स्त्रियां डीष । विद्याभदे
च । सा हि मयूरीरूपेण प्रतिवादिप्रयुक्ता वादिनमुपसर्ग
यतीति । कल्प० २ अधि० ८ क्षण् | आ०क० | अनु० । जी० । |
मङऊरंग-मयूराङ्क पु । निधिस्थापके स्वनामख्याते राजनि,
नि० चू० १३ उ०।
० ना० ६ वर्ग ११३ गाथा ।
मङउंगचूलिया- मयूराङ्गचूलिका- खी । आमरणविशेषे,
च्य० रे उ०।
मऊरग-मयूरक-न० । स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र कुरडषु
राज्नगत्य भगवान् महावीरो गतः | स्था० १० ठा०। कुण्ड
| ले, ० ४ उ० । मयूरपिच्छनिष्पश्ने सस्तारका ५ ऽदौ च । त्रि० ।
आचा० २ झु० १ चु० २ आ० ३े उ०।
भऊउरचंदगागार-मयूरचन्द्रका 5 5कार-त्रि० । मथूरचन्द्रकसः
|
दश, “मयूरचन्द्रका 55कारं, नीललोहितभाखुरस् । प्रपश्य-
न्ति अदीपा5<5दे-मैरडले मन्द्चक्तुषः ॥ १॥ ” घो० ५ विव०।
मऊरापिच्छ-मयूरापिच्छू-न० । मयूरपुच्छे, “ मोरपिच्छुकयमु-
द्धयं ” कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
मउरसिदा-मय्रशिखा-खी०। मयूरस्येव शिखाऽस्याः । स्व-
नामस्याने महोषधिभेदे; ती० ६ कर्प । मयूरचरडा $ऽद्यो 5
प्यत्र । वाच० ।
मऊह-मयूख-पुँ०।माड--उख मया ऽ-ऽदेशः। “न वा मयूख-लव
ण-चतुग्गुण-चतुर्थ-चतुदेश--चतुर्वार--खुकुमार-कुतृहलो-
दूखलो-लूखले ” ॥८।१।१७१॥इति प्राकृतसत्रेणा55देः स्वरस्य
परेण सस्वरव्य जनेन सह श्राद्धा । प्रा० १ पाद । त्विषि,
किरण, शिखायाम्, शोभायां च । वाच० । ““ अस् रस्सी
पाया, करा श्रऊद्या गभत्थिखो किरणा । ” (७३) पाइ० ना०
४७ गाथा ।
| म-मा--अव्य०। एव-पर-सम-भुत्र मा-मनाक् एम्ब पर स-
माणु धबु म मणाउं ” ॥८।४।४१८॥ इति प्राकृतसतेणापश्षंशे
मा इत्यस्थ म इत्यादेः : प्रा० ७ पाद् । निषेवे, वाच० ।
मंकारअर्, ~. --मकौराजयोग- ° । अल॒स्वारो 5लाज्षाणिको
मकार इत्यथः, त<यःुयोगो मकाराजुयोगः । शुद्धबवागजयो-
गभेदे, मकाराजुयोगो यथा-“ समरं वा महाश व सि । `
सूत्र माशब्दो निषेधे । । अथवा-“ जणामेव समे भगवं
महावीरे तेणामेवेति ¦ ” अज सूत्रे आगामिक एव, येनैवेत्य-
नेनैव विवक्षितप्रतीतेः । स्था० १० ठा०।
मंकुणहत्थि ( श् )-मत्कुणहस्तिन्--पुं० । गएडीपदजन्तुमेदे,
प्रश्ञा० १ पद् ।
मेख-मङ्ख--पु० । चित्रफलव्यग्रकरे भि्छकविशेषे, भ० १५
श. । मङ्खा्चि्रफलकटस्ता भिश्छुका गौरीपुत्र इति प्रासि-
द्धा: । कल्प० १ अधि०५ क्षण। अनु० । क्ञा० । प्रश्न० । जञ० ।
रा०।च्रो० । आ० म० । श्रा० चू० । बृ०। स्था० । मङ्खः
केदारको यः पीटसपदश्य लोकमावजयति । पि० । अण्डे,
दे० ना० ६ वरी ११२ गाथा ।
मंखत-प्रक्षत्-त्रि० । स्रत्तणं कुर्वति, नि० चू० १७ उ०।
मंखपेक्खा-मड्खप्रेत्ञा-स्त्री० । ये चित्रप॑ट्टिका55द्हिस्ता
भिक्षां चरन्ति ते मङ्स्वाः, तेषां भेत्ता मङ्क्ता । । मझभेक्षण,
जी० ३ परति ४श्रधिञ।
मखलि-मदख लि-०। गोशालकपितरि, मङ्खल्यभिधाने
मड्ख , स्था० १० ठा० । “ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स
मखलिसाम मश्व पिया होत्था ` भ० १५ श० । कर्प० ।
आ० च | आ० म० । सथा | क्ष० ।
मंखलिपुत्त-मइ्खलिएुत्र-पुं> । मङ्खल्यभिधानमङ्खपुतर
गाशा कक, 'ह्था० । भर
मंखसिप्प-मदख शिल्प--पुं० मङ्खकलायाम् “मंखसिर्प्प अ-
दिज्िआओ | आ० म० * ° ।
मंखावत-अच्षयनत्-त्रि० । झ्क्षएण कारयांत, नि० चू० १७ उ०।
2)
_संग
अभिधानराजन्द्रः।
मगल
मंग-मङ्क-पुं° । मङ्ग्यते-पाण्यते स्वर्गो ऽपचगों बाऽननेति
मङ्गः। “ पुन्नास्ति घः ” ॥ ४५। ३। १३० ॥ इति ( सूत्रेण ) करणे
घञ ध्स्म, आ० म० १ अ०। विशे० । दशे० |
मेगरिया-मङ्करिकरा -खी० । वाद्यभेदे, अष्टशतं मङ्गरिकाणाम् .
अष्टशर्त मङ्गारिकावाद कानाम् । रा०।
मगल-मङ्ल-पु० । मागि श्लच् । स्वनामख्याते अङ्गारके ग्र
है, स्था० ६ ठा० । वाडिछतावाछो, कल्प० १ अधि० १ क्षण ।
कल्याण, पञ्च!० ८ विव० । मङ्गले श्रेयः कस्याणभमिति ।
पा० । सहशे , दे० ना० ६ वर्ग ११८ गाथा । अशेखावाक्ये ,
सूच्र० १ श्ु० ७ अ० । गानावेशेषे, पञ्चा० ८ जिव०। भ०।
ज्ञा० । विष्नक्षये, मज़ले विष्नक्षयस्तद्योगान्मब्नलम् । स्था०
३ ठा० ६ उ०। दुरितोपशमहेतो स्वस्तिका ऽ ऽदिके , , औ० ।
नि०। पश्चा० ! भ०। दशा०। रा० । प्रश्च०। चे० प्र०। |
सिद्धार्थद्ध्यक्षतदूवो हुरा5उदिके, औ० । नि०। म० । विपा०।
रा० | ज्ञा० | मङ्गलानि च खुवरणचन्दनदध्यक्ततदूवासिडाथ-
का; 5दशैस्पशना 55दीनि । सतुत्र० २ श्रु० २ ऋ० | पश्चा० ।
सियकमलकलससुत्थिय-नंदावत्तवरसल॒दामाण ।
तेसि पि मंगलाणं, संथारो मंगल आहिये ॥ १५॥
शितः-शुश्चः कलशो विवाहा 5५द् ुत्सवे य! मरङ्वते तस्येव
सा ङ्गलिक्यत्वाद् ग्रहणं, शितकलशश्च कमलं च स्वस्तिकस्थ न- |
न्दावत्तैश्च वरमाल्यदाम च खितकलशकमलस्वरस्तिकनन्दाव- |
तवरमाल्यदामानि तेषाम् , एतानि च लोके माद्धस्यतया रूढा- |
नि तथापि तेषामपि सङ्लानां मध्ये सस्तारक्ो ऽधिकं मङ्लमि |
ति भावः) सथा०।
तह मंगलाइ सोत्थिय-सुवण्णसिद्धत्थगाईणि ।२१६॥
मङ्गलानि नाम--स्वस्तिकखवर्शीसद्धा्थका 5 ऽदीनि पूर्व
देवेभेगवतो मद्जलबुद्ध्या प्रयुक्षान ततो. लोकेऽपि तथा
वृत्तानि । । आ० म०? अ०। देश० मा भूद गलो विघ्नो गालो
चा नाशः शाखस्येति मज्ञलम् । श्राचा०९ श्रु० १ झ० १ ड०।
चु० । दर्श० । अन्थाऽ 5रम्मा 5 5दो विष्नोपशसाय कत्तव्य इष्र- |
देवतानमस्कारे , सूत्र० १ श्चु° १ आ० १ उ०। पश्चा० ।
मड़लशब्दप्रूपएामाह ---
नामं ठवणा दविए, भावाम्मि य मंगल मवे चउहा।
एमव होई नंदी, तेसि तु परूवणा इखिमा ॥ ४ ॥
मङ्गलं चतुर्धा-चतुःप्रकारं भरवाति । तयथा-नाममङ्गलम् , |
स्थापनामङ्गलम् , द्रव्यमङ्कलै, भावमङ्ले च । णवमेव
नामा ऽऽदिभेदेन चतुःपरकारो भवति नन्दिः । तेषां च-नाम- |
मङ्गला ऽऽदीनाभियं वक्ष्यमाणस्वरूपा प्ररूपणा ।
तामेवा 5 5ह---
शगम्मि अणेगेसु य, जीवदव्वे य तच्विवक्खे वा ।
मंगलसन्ना नियता, त सन्नामंगल होइ । ६ ॥
एकस्मिन् जीवद्रव्ये तद्विपक्ते वा अजीवद्रव्ये , अनेकेषु |
वा जीवद्व्येष्वजीवद्रव्येषु वा या मङ्गलमिति संज्ञा नि
यता-- नियमिता तत् “ नामनामवतोरभेदोपचारात् । ” |
सल्लामङ्ल-नाममङ्गलं भवति । उक्तं नाममङ्लम् ।
ध स्थापनामङ्गलमाद--
जा मगल त्ति ठउवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा।
२
तत्थ पुण असन्भावे, मंगल ठवणागतो अक्खो ॥ ७ ॥
जे चित्तमभिचिविहिया, उ घडादी ते य हंति सब्भावे ।
तत्थ पुण आवकहिया, हवति जे देवलोगेसु ॥ ८ ॥
या मङ्गलामिति स्थापना खद्धावतो वा सद्धूता $ ऽकारानिवेश-
नेन,असतो वा सद्धूता 5 ऽकारस्या ऽमावतो विहिता सा स्था-
पनामङ्गलम्। तत्र पुनरसखद्धावे स्थापनामङ्गलं स्थापनागतो 5-
त्तः। उपलक्षणमेतत् वराटका ऽ ऽदि वा । इयमत्र भावना--अ-
त्षवराटकाऽऽदिषु या मङ्गलमिति स्थापना विहिता न त्र
कश्चित् मङ्गलायुगत आकार इत्यसद्भावतः स्थापनामङ्गलम् ।
ये त॒ चित्रभित्तो -चित्रकुड्य विदिता घटा.ऽऽदयः.श्रादिशब्दात्
स्थालाऽऽदिपरिग्रहः, से खद्धावे सद्भावतः स्थापनामङ्गलानि
भवन्ति । तत्र ये देवलोकेषु चित्तमिसौ विदिता घटा55दय-
स्ते स्थापनामङ्गलानि यावत्कथिकानि भवन्ति, श्रथीदापन्ने
यानि मसुष्श्लोके सानीत्वराणि यावत्काथिकानि नाम शाश्व-
तिकानि, इत्वरारखयशाश्वतानि ।
दव्यमङ्गलमाह-
उत्तरगुशनिष्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई ।
तं दव्यमंगल खलु, जह लोए अद्र मंगलगा ॥६॥
इह उत्तरगुणनिष्पन्ना मूलगुणानेप्पन्नापेक्तया, ततः प्रथ-
सतः तद्धाव्यते। मूलो नाम-पृथिवीकायाऽऽदिजीवस्तस्य गु-
णात्-प्रयोगात् एुद्लानों द्व्या ऽऽदित्वेन व्यापारणात् निष्प-
केसूलगुणनिष्पञ्ञ दव्या 55दि,तस्मादुत्तरगुणेन परापरपरयागे-
ण् चकदणडसूजोदका ऽऽदिपुरुषप्रयत्ननेवयथः। य निष्पन्नाः स-
लक्षणा--लक्षणसस्पन्ना अच्छिद्वा--अखरण्डा वारिपरिपूर्गाः
पड्मोत्पल्षप्रतिचछन्ना इत्यादिलक्तणोपताः कुम्भाऽऽदयः, च्रादि-
शब्दात--स्थाला 5 ऽदिपरिग्रहः। तत् द्रव्यमङ्गलं भवति, यथा
लोके अरो मङ्गलानि ।
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गतय अण, तेय च द्वे उ सगल होइ ।
तच्विवरीयं भावे, ते पिव नंदी भगवती उ ॥ १० ॥
तत्पुनरनन्तरोज्ग द्रव्यमङ्गलमनेकान्तिकमनात्यन्तिकं च भ-
वति । तथाहि--न पूरीकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलाय, चो-
रस्य कर्षकस्य च शकुनतया रिङ्कं घटं परशंसति शकुनविदो,
ग्रहप्रवेश पुनः पूणैम्। उक्तं च-““चोरस्स करिसगस्स य, रित्त
कुडय जणो पसंसेइ । गेहपवेसे भन्न, यन्नो कुभो एखत्थो उ
॥१॥''तत एवमनेकान्तिकम्। नाप्यात्यन्तिकंभयथा कोऽपि शो-
भनेद्रैव्यमङ्गलेर्विरनिर्मतस्तेन चाग्रे किञखिद्तोभन दषे, यन ता-
नि सवीरयपि प्राकृतानि प्रतिदतानि, तत एवमनात्यन्तिकः-
सिति । उङ्क दव्यमङ्गलम्। अधुना भावमङ्गलमाद-तद्धिष-
रीतमेकान्तिकमाव्यान्तिकं च भावे भावविषये मङ्गलम् । तथा -
दि- न तत् भावमङ्गलं कस्यचिद्भवति, कस्यचिन्न , भवति-
कि तु-सर्वस्या ऽविशेषेण भवतीवयेकान्तिकम् । न च केनाप्य-
न्येन प्रतिहन्यते, इत्यात्यन्तिकं, तच भावमङ्गल भगवान्
नन्दिर्वच्यमाणो ऽवगन्तव्यः । गाथायां खीत्वं प्राकृतत्वात् ।
वृ० १ उ० १ प्रक०। आ० म० । ओघ० ।- आ० चू० ।
दशा० । प्रज्ञा० । विध्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मक्र
=
(^ ^
मंगल
)
आभिधानराजन्द्र! |
मंगल
लबाद्धपार ग्रहाय स्वता मङ्गलभतस्याप्यस्या5दमध्याचसा- |
नषु मज्ञललमाभधातव्यम् , आदमड्ल ह्यावेध्नन शास्त्रपारग
मनाथम
|
|
मध्यमज्लम--अवगृहातशास्थतरास्थराकरणाथम- |
शअरन्तमङ्गलम्-शष्यम्राशष्यपरम्परया शास्त्रस्या5व्यवच्छेद्- |
नाथम् ।
उक्कञ्च (भाष्यकारेः)-
“ तं मंगलमाईप, मज्के पत्नतण य सलत्थस्स ।
पढम सत्थत्थावि-ग्घपारगमणाय निदिं ॥ १ ॥( १३ )
तस्सवय यञ्यत्थ, मज्भिमय अंतिम पि तस्सेव ।
अव्वोच्छित्तिनिमित्त, सिस्सपसिस्सादइवंसर्स ॥२॥ (१४)”
भ्रज्ञा० १ पद् ।
त्र परः प्रश्नयात-किमर्थ मङ्गलव्रहणमित्याद--
विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवयोग निजराऽधिगमो ।
भत्ती पभावणा वि य,निवनिहि विज्ञाइ आहरणा |।२०॥।
मङ्गले प्रकृते सति रोगा ऽऽदिविष्नापशमो भवति, तदप- |
ग्रतिवन्धना ऽ ऽचार्यणा- |
शमे च प्रतिवन्धकाभावात् महता
योगः भारमभ्यते, तथा ऽनुयोगप्रारम्भे च शिष्यस्य शरस्त्रग्न-
हणे महती श्रद्धा उपजायते, श्रद्धावतश्च शाख्यावधारणे म-
हानादरः, कता ऽऽद्रस्य शाख्विषयेऽनवरतसरुपयोगो, यदा
यदा चोपयोगस्तदा सम्यगज्ञानत्वात् महती ज्ञानाऽऽवरणी-
यस्य कर्मणो निजरा, ज्ञाना 5 ऽवरणकमेनिर्जरणा ऋ स्फुटः स्फु-
रतरः शाख्रस्या ऽधिगमः.अधिगतशासरस्य च गुरो शाखे प्र-
वचने च निष्कृत्षिमा भक्किरल्लसति,ततः परभावना तां दष्रा$
न्येषामपि तथा श्रद्धा 5 ऽदीनां करणात.यदि पनन क्रियत मङ्गले
तत एषां विष्नोपशमा 5 ऽदिभावानाम् अग्रसिद्धिः अच्ोदाहर-
णानि दृष्टान्ता चृपनिधि वेद्या ऽऽदयः, श्रादिशब्दाद्योगो,मन््ा
श्च परिगृह्यन्ते । तत्रेयं न्रुपदृष्यन्तस्य भावना-यथा कोऽपि पुर-
षः कार्यांथीं राजानमधिगन्तुकामो मल्लभरतानि पुष्पाऽऽदी-
न्यादाय तत्समीपञरुपगच्चुति । उक्तं च-' पुप्फषुडियाएँ जंपइ,
गोरसघडआओ करेइ कज्जाई। मणिर धम्मि पयलिते, सानु ऽग्गह
होति सव्वगदा ॥ ९ ॥ ” उपत्य चाञ्जलि करोति, पादयो-
च परिपतति, ततो राजा तुष्यति, तुष्टे च तस्मिन् य-
स्तदधीनो ऽथः स सिद्धयति । । अथैवम॒पचारं न करोति,
तदा न तुष्यति, तोषाभावे च तदधीनस्या प्रसिद्धिः , एवं
निधिमुत्खनितुकामो विद्यां मन्त्रं वा साघयितुकामो यदि
द्व्यत्तेत्रकालमावयुक्कमुपचारं करोति,तद्यथा-द्रव्यतः-पुष्पा-
-5ऽदिषु, के्रतः-श्मशाना ऽ ऽदिष, कालतः-ङष्णपन्तचतुदेश्या
दिषु, भावतः-प्रतिलोमाजुलोमोपसगीसदहिते, तदा निधि वि-
द्यां मन्त्र वा साधयति । द्रव्या ऽऽदुपचाराभावे ते निध्यादयो
न सिध्यन्ति, तस्माद्यो यत्रोपचारः स तत्र क्तव्यः ।
पतदेवा ऽऽद--
जे! जेण विणा अत्थो, न सिज्भई तस्स तव्विहं करणं ।
विवरीय अभविण य,न सिज्भई सिज्कई इहरा ॥ २१ ॥
यो ऽर्थो येन विना न सिद्धश्चति तस्य निष्पत्तये तद्धिधं करण-
मवश्यसुपादातव्यम् । यथा घटं साधयितुकामेन चक्रदरडमू-
त्पिरडा $ ऽदिकम्। यतो विपरीतैः करणैः,सब्यैथा करखाना-
मभावेन च, सा धिकृतो ऽर्थो न सिद्धति यथा घटे साधयितु-
|
कामस्य, विपरीत तुरीवेमाऽऽय॒पकरणोपादाने, सर्वथा
चक्रदरडखृत्रोदका ऽ ऽ्दीनामुपक्ररणानाम्भावे वा घटः :
इतर था--अविपरीतोपकरणसद्धावे सिध्यति, यथा घरं
साधयितुकामस्य यथावस्थितानां चक्रदणडसजोदका.$ ऽ
नामुपादाने घटं, न सिध्यन्ति च मङ्गलमन्तरेण
विघ्चोपशमाञऽदयो भावा इति मङ्गलापादानम् । पुनरप्या-
द--यदि शाख्रस्याऽऽदिमध्यावसानेषु महल ततः सा-
मथ्यांदिदमायातमपान्तरालद्या ऽमङ्गलामेति ।
अत्रा5+5ह--
जइवि य तिट्ठाणकर्य, तह वि ह दोसो न वाहएं इयरो ।
तिसमुब्भवदिद्व ता, सेसं पि हु मंगल होई ॥ २२ ॥
यद्यपि चिषु स्थानेष्वादिमध्यावसानरूपेषु कृतं मङ्गले तथा$
पि इतरो ऽपान्तरालद्यो मङ्गलत्व (त्व)लक्षणो देषो न वाधते,
तस्येवामःवात् । कथमभाव इति चेदत आह -( तिसमुन्भवे-
त्यादि ) जिथ्यो गुडसमिनिपृतेभ्यः समुद्भवो यस्य समो-
दकः,तद्द॒ृष्टान्तात् ,शष्मणि (हु) निशितै मङ्गल भवति | इय-
मत्र भावना-मोदक इव सकलं शाखं द्विधा विभज्यते ,
तत्रा5<दिमो भाग आदिमह्नलेन मङ्गलीरकूतो,मध्यमो मध्यम-
्लेनान्तिमो ऽन्तिममङ्गलन, ततः कुतो ऽपान्तरालद्वया ऽमङ्ग-
लत्वप्रसङ्गः । स्यादेतत्, यदिदं शाखमभारब्धमेतदादिमध्याव-
सानेषु सवौ 5 ऽत्मना मङ्गलं, ततो यद्यन्यत्तस्य मङ्गलमुपादी-
यते तदा ऽनवस्थाप्रसङ्गः । कृतेऽपि मङ्गले पुनरन्यतमे मङ्ख-
लमुपादेयं, विशषामावात्ततराप्यन्येदिव्येव मङ्ला 5 ऽनन्त्यप्रस-
क्ेः। अथ नन्दी मङलं शाखे पुनरमङ्गल केवलं तज्न्या मड़-
लीक्रियते, नन्वेवं तर्हिं यदा नन्दीव्याख्यानमर्ूत्वा शाख
व्याख्यातुमारभ्यते तदा शाखम् श्रमज्गलत्वाच्च न ज्ञान,ज्ञा-
नाभावाच्च न कक्तव्यस्तस्थामुपयोग इति ।
अवा 5 5ह--
नविय हु होय5्णवत्था,न वि य हु मंगलममंगलं होइ।
अप्पपराभिव्वतिया, लोणुणहपदीवमादि व्व ॥ २३ ॥
नापि च (हु) निश्चितं भवत्यनवस्था, यतो नन्दी शाखादन-
थौन्तरभूता, शाखे च स्वतः समस्तमङ्गले, न च तस्य मङ्ग-
लक्तस्य सतो ऽन्यत् मङ्गलमुपादीयते, ततो नानवस्था-
प्रसङ्गः । यदा-ऽपि नन्या व्याख्यानमर्त्वा शास्त्रमार भ्यते, त-
दाऽपि तच्छा मङ्गलमिति तदमङ्गल न भवति । एवं ता-
वन्नन्या अअनथौन्तरतायाममङ्गलत्वमनवस्था च परिहृता ।
सम्प्रत्यर्थान्तरत्वमधिकत्य परिहियते-यद्यपि शाख।द थीन्त-
रभूता नन्दी तथा.ऽप्यमङ्गलत्वमनवस्था च न भवति । कथामि-
त्याह--( अप्पपरेत्यादि ) नन्या आत्मना5पि मक्नललशास्त्र-
मपि च मकलीकरोति । शास्त्रमप्यात्मना5पि मङ्गल नन्दी-
मपि च मज्लीकरोति । एवमात्मफ्राभिव्यक्किता दयोरापि
मङ्गलयोरेकीभूतयोः खुष्ठुतरो मङ्गलभावो भवति | कथमि-.
वेत्यत आह-'* लोणुण्दपदीवमादि व्व । ” यथा द्वयोलैव-
णयोरेकीभूतयोः खष्डुतरो लवणभावो, इयोवा उष्णयो
रेकज्रमिलितयोः सुष्छुतरभावो, यथा च दयोः प्रदीपयो
समीचीनतरः प्रकाशभावः, श्रादिशब्दात्-मधुरशीतलस्नेहा-
5 ऽदिद्रव्याणां परिग्रहः। एवमिहापि द्वयोमे क्ललयोरेकी भूतयोः
खुष्डुतरो मङ्गलभावः। स्यादेतत्। एवमपि प्रसज़त्यनवस्था,त-
अभिधानराजन्द्रः)
मगल
तीया ऽ ऽदिमङ्लोपएादाने खष्डुतरमङ्गलभावोपपत्तेः, न प्रसज
ति, प्रयोजनाभावात्तथालोकव्यवहारदशीनात्। तथाहि-लाके
कस्यचिदातुरस्य शक्ररापलद्वयमोषधे केनाऽपि एभ्रष्ग्वरणा
पदिशि, तत्र॒ यद्यपि तृतीया 5ऽदिशकंरापलप्रत्तपे विशि-
छरतमो मधुरभावो भवति, तथाऽपि तन्न प्रक्षिप्यते, प्रयोज- |
नाभावात्, एवामिहाप्यन्यस्तृतीया 5 ऽदिकं मङ्गले नोपादीयते- |
प्रयोजनाभावदिति । वृ० १ उ० २ प्रक०।
अथ तृतीय मज्नलद्वारमाधिकृत्या 5 5ह--
बहुविग्घाईं सेयाईँ, तेण कयमंगलोवयारेहिं ।
श्रेत्तव्यों सो सुमहा-निहि व्व जह वा महाविजा।।१२॥
“अ्रयांसि बहुविघ्लानि भवन्ति महतामपि । ” दति वचः
नाद् येन बहुविघ्नानि श्रेयांसि भवन्ति, तेन कारणेन परमश्रे-
योरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारेरेव स आवश्यकाजुयोगो भ्र-
इहीतव्यः । एकवत् ? ,
महाविद्यावद् वा । इति गाथार्थः ॥ १२॥
क्व चुनस्तन्मङ्कलं शाखस्येष्यते ?, इत्याद--
तं मेगलमादंए, मज्के पञतए य सत्थस्स ।
पढमं सत्थत्थाऽवि-ग्घपारगमणाय निदि ।॥१२॥
तद् मङ्गलं शखरस्याऽऽदौ क्रियते,तथा मध्ये, पयेन्ते चति । |
अथेकेकस्य करणफलमाद-प्रथममङ्गल तावच्छाखार्थ-
स्याऽविष्नेन पारगमनाय निर्दिष्टम् । इति गथा ऽथः ॥ १३ ॥
तस्सेव य थजत्थ, मज्िमय अंतिम पि तस्मे ।
अव्वोच्छित्तिनिमित्तं, सिस्पपसिस्साहवंसस्स ॥ .१४॥
तस्येव शास्रस्य पथममङ्गलकरणा ऽनुभावादविष्नेन पर-
स्परामुपागतस्य स्थेयांर्थ-स्थिरता 55पादनार्थ मध्यमं मङ्ग
लम् , निर्दिष्टामिति वत्तते, अन्तिम पीति ` अन्त्यमपि मङ्ग
ले तस्येव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्लसामर्थ्येन स्थिरीभरूतस्या
-ऽउयवचिद्तिनिमिचम् , कस्य, योऽसौ शाखाथः ?, इत्याह-
शिष्यप्रशिष्या ऽ ऽदिवशगतस्येव्य्थः । शिष्यप्रशिष्या 5ऽदिवंशे
शाखाथस्या ऽव्यवच्छेद निमित्तं चरममङ्ग लमिति भावः । इति
गाथार्थः ॥ १४॥
श्त्राऽऽह-
मगलकरणा सत्थं न मंगल अह च मगलस्सावि |
मंगलमओड5णवत्था, न मगलममगलत्ता वा ॥ १५॥
प्रेरकः प्राह-भो आचार्य ! त्वदीयं शाखं न मङ्गल प्रा-
प्नोति । कुतः ? इत्याह--मह्नलकरणात् श्रमङ्गले हि मङ्गल-
मुपादीयते, यत्त स्वयमेव मङ्गले तत्र कि मङ्गलविधानेन?, न
हि शक्लीक्रियते, नापि स्निग्धं स्नेष्यते ; तस्मात् तन्मङ्ग-
लोपादानान्यथाऽयुपपत्तेः शाखे न मङ्गलम् । अथ् महल
शाखम्, मङ्गलस्या ऽपि सतस्तस्या ऽन्यद् मङ्गले किथत इत्य- |
भ्युपगम्यते; अत एवं सति तद्यनवस्था-मङ्गलानामवस्थानं |
न क्वाचित् प्राप्नोति । तथाहि-यथा मज्लस्याऽपि सतः शा-
खस्या ऽन्यद् मड़लमुपादीयते, तथा मङ्गलस्याऽपि तद्रूपस्य
सतोऽन्यव् मङ्गलमुपादेयम् , तस्या ऽप्यन्यल् ,अपरस्याप्यन्य- |
त्, इत्येवमनवस्था श्रापतन्ती केन वार्यते!अथ शाखे यदुपात्त
षि =
इत्याह-शोभनमहारस्ना 5 ऽदिनिधिवद्
भगत
मङ्गलं तस्यान्यमङ्गलकरणाभावत इयं नेष्यत । तत्र दूषणमाह-
( न मेगलामेति ) शासखरमङ्गलीकरणाथमुपात्तमङ्गलस्या 5-
नवस्थाभयना ऽन्यमङ्गलाकरणेन तद् मङ्गल न स्यात्,
अन्यमङ्गलाभावात् , शाखरवत्। इत्यथः । इदमुक्तं भवाति-
यादि मङ्गलस्याऽपरमङ्गलविधानःभावेना ऽनवस्था नेष्यते. त-
हि यथा मङ्गलमपि शाख्रमन्यमङ्गलेऽकृते मङ्गले न भ
वति, तथा मङ्गलमप्यन्यमङ्गल ऽविदिते मङ्गल न भवेत्,
न्यायस्य समानत्वात् । तथा च किमनिष्टं स्यात्?.इत्याह-अ-
मङ्गलता मडस्गलाभावः-शास्त्र यद् मङ्गलमुपात्तं तदन्य,
मङ्गलशन्यत्वाद् न मङ्गलम् , तस्य च मङ्गलत्वाभावे शा-
स््रमपि न मङ्गलम् , इति व्यक्त एव मङ्गलाभाव इति म ।
वाशब्दः पत्तान्तरस्चकः, अनवस्था, मङ्गलाभाषो ६ ॥
इति गाथा ऽथः ॥ १५॥
| अलोत्तरमाह--
सत्थत्थन्तरभूय-म्मि मंगले होज्ज कप्पणा एसा ।
सत्थम्मि मंगले किं,अमंगल काऽणवत्था वा ॥१६॥
शार्त्रा55दावावश्यका 5 5दे थौन्तर भूते भेदवति मङ्गले उपा-
दीयमाने भवद्-घटेत परेण विधीयमाना “ मंगलकरणा सत्थ
न मंगले इत्यादिका कल्पना-दोषो स्पेक्तालक्षणा; शाखे त्वा-
वकश्यकाऽऽदिके परमम ङ्गलस्वरूपे ऽभ्युपगभ्यमाने,तद्धिन्ने म
ङ्गगले चा ऽनुपादीयमाने हन्त ! किममङ्गगलम्, का वा5नव-
स्था त्वया प्रेयैते ? तस्मांदाकाशरोमन्थमेव परस्य दोषोद्धा-
वनःपाते भावः} | आह-यदि शाखे स्वयमेव मङ्गलम् , तर्डि
“ते मेगलमादैए०(१३)' इत्यादि(भाष्य)वचनात् मङ्गलं तत्र कि-
-मिःयुपादीयते ?। सत्यम्,किन्तु 'सीसमइमंगलपरिग्गहस्थमेक्त
तदभिदहाणे | इत्यादिना वदयते सर्वम्रोत्तरम्, मा त्वरिष्ठाः ।
इति गाथार्थः ॥ १६ ॥
अथ समथवादितया ऽथीन्तरभूतत्वमपि
मङ्गलस्याऽभ्युपगम्य समथयन्नाद--
अत्थतरे वि सइ म-गलम्मि नामंगलाइशवत्थाओ ।
सपराणुग्गहकारिं, पईव इव मंगल जम्हा ॥ १७ ॥
शास्त्रादर्थान्तरे भेदवत्यपि मङ्गले ऽभ्युपगम्यमाने सति ना $
सङ्गलता शाखस्य, नाप्यनवस्था । कुतः?, इत्याह-यस्मात् स्व-
परालुग्रहकारि मङ्गलम्, प्रदीपवत् , यथाहि प्रदीप आत्मान-
प्रकाशयानः स्वस्या ऽनुभ्राहको . भवति, गृहादरवर्तिनस्त
घटपटाऽऽयथौनाविष्कुर्वाणः परेषामलुग्राहकः संपद्यते,न तु
स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्ततेःयथा च-लवणे रसवत्यामात्मनि
च सलवणतामुपदशयत् स्वपरालुग्राहकं भवति, न त्वात्मनः
सलवणतायां लवणान्तरमपत्तते । पवमथान्तरभूतं मङ्गलम-
पि निजसामथ्यौच्छाख. खा ऽऽत्मनि च मङ्गलतां व्यवस्थाप-
यत्स्वपरानुग्राहकं भवति । ततो मङ्गलाव् मड़लरूपताप्राप्ती
शाखस्य तावद् नाऽमङ्गलता । यदा च मङ्गगलमात्मनो
मङ्गलरूपतायां मङ्गलान्तरं ना ऽपेत्तते , तदाऽनवस्थाऽपि
दूरोत्सारितेव । इति गाथाथेः ॥ ९७ ॥
पुनरन्यथा परः प्रेरयाति--
मगलतियतरालं, न मंगलमिहत्थओ पसर्च ते ।
जई वा सव्वं सत्थं, मंगलमिह कि तियग्गहशं!॥१२८।'
( ८ )
मेगल
श्चभिधानराजन्द्रः।
मगल
इट मज्ञलविचारप्रक्रम , अथेतो ऽथौपत्या णतत् (ते) त्व
आचाये ! प्रसक्लं-प्राप्म् । कि तत् ? इत्याट--मङ्गलाना-
माददिमध्यावसानलच्तण त्रिकं मङ्लतिक तस्या ऽन्तराल-
दयलत्तणमपान्तराले न मङ्गलाभेति । यदाहि--त॑ मंगलमाई-
ए मज्मे पञ्ञतप य सत्थस्स । ` इत्यादिवचनादादिमध्याव-
सानलक्तशेषु ष्वेव नियतस्थानेवु मङ्लमुपादीयते, तदा |
तदव्याप्रमन्तरालद्धयमथीपच्येदा 5म इले प्राप्नोतीति भावः ! |
पर णवा ;ऽह-यदि वा-सिद्धान्तवादिन ! एवं श्रयास्त्वं यदुत- ¦
सवमेव शास्रं मङ्गलमिति प्रागेवोक्तम् , अतः किमव प्रेये- |
इत्यादिना किमिद म~ |
लतरिकग्रटणे कृतम् ?। न हि सर्वेस्मिन्नपि शस्त्र मङ्गले |
तत /। इन्त तर्हिं ' तं मगलमारईए० '
“आदो मध्ये४वसाने च मङ्गलम् ` इत्युच्यमानं युक्चियुक्त-
त्वमनुभवात । तस्मादपान्तरालद्धयस्या ऽम द्ग लत्वे वा अंति-
पद्यस्व, मङ्गलत्रयग्रहणे वा मा कृथा इति भावः! इति गा-
थाथेः॥ १८ ॥
च्राचायेः प्राऽऽद--
सत्थ तिहा विहत्ते, तदन्तरालपरिकष्पशं को ? ।
सव्वं च निज़रत्थ, सत्थमओज्मंगलमजुर्त । १६ ॥
बुद्धया शास्त्र जिधा विभक्कं तस्य शास्त्रस्यान्तराल तद-
न्तरालं तस्य परिकर्पन कुतः समवति ?-न कुतश्चिदि- |
व्यथः । यथा हि-सपृरे माद का $ ऽदिवस्तुनि जिखण्ड विकः- |
ल्पितेऽन्तराल न सभयति , तथाः ऽजापि , इति कस्याऽम-
ङ्लता स्यात् ? इति । यदि नाम शास्त्र त्रिधा विभङ्कम् , त-
थापि कथं तस्य सवेस्यापि मद्गलता ? इत्याद-सव चाऽ
वश्यका55दि शास्त्र निजराथ कमीपगमरूपा निजरा अथः-
भयाजनमस्थति निर्जराथम्् , तथा च सति तपावत् स्वय-
मेव मङ्ग्लमिदमिति सामधथ्योदवगम्यते । यदि नाम निरज |
राथत्वान् तपावत् स्वयमवा ८ 5वश्यका55दिशास्त्र मज्ञलम :
ततः किम् ?, इत्याह-अतो ऽवङ्गलरःयुक्कम् , यतः सर्वमेव |
शास्त्र मङ्गलम्, श्रता मङ्गला $$ नि तास्मिस्थिधा विभङ्ग य~ |
दुच्यत-* अपान्तरालदयममड्ल- ( , तदयुक्कमित्यथः । यदि
हि शास्र स्वये मङ्गल न भवत् तदा न्यसङ्गलाऽव्याप्त्वा-
त् क्वापि तदमङ्कल भवत् . यदा तु सवेमपि खयमव त-
द् मङ्गलम् , तदा क्वर्प तस्या मङ्गलता न युक्केति भावः ।
इति गाथाथः ॥ ६ ॥
अधथ प्ररकः प्राऽऽद--
जई मेगल सयं चिय, सत्थ तो किमिह मगलग्गहर? । |
सीसमइमगलपरि-ग्गहत्थमत्त तदभिहाणं ॥ २० ॥
यदि टि स्वयमेव शास्त्र मद्गलमिष्यते तदा ' ते मंहुलमाईए
मस्त इत्यादि वयनान् किमिह मह्ठलग्नहरां क्रियते?,स्वत एव
मदले मझलविधानस्या 5नथेऋत्वादिति भावः । इति परण
ग्रसिते गुरुराह- सीसे' त्यादि, शिष्यस्य मतिः शिप्यमतिस्त-
स्या मद्धलपरिग्रटःसाधथः-प्रयोजनमस्य्र तत् तथा तदश्रमेव
शिष्यर्मातम झलपरियग्रहाथमात्र तदभिधाने मद्धलानिधान-
नित्यथः। इदमुक्र अवनि-शाखरादनयोन्तर भतमव मङ्गलमु-
पादीयत, ना £यौन्तरमिति प्रागेवोक्तम् , नन्दिर्हिं मद्नलत्वे-
ना ऽचिध्रास्यत, सा च पश्चज्ञाना 5 5समिका, तनः शास्त्राययाव
श्यका 5 ऽदीनि सवांरय पि श्रुतज्ञानरूपतया नन्यन्तर्मतान्येव,
चक
~ 333 नल ली --- लत
नान्देरपि श्रतरूपत्वेनः 5 वश्यक ऽ ऽदिशाख्पान्तगेतेव । तस्माद्
नन्दरमैद्धलेत्वना ऽभिधाने शाःखान्तगेतमेव मज्गलमभिहितं
भवति । तत्रापि नाऽमङ्गलस्य सतः शाखस्य मङ्गलता-
55पादनार्थ तदभिधानम् , कन्तु--शिष्यमीतमङ्गलपारिय्-
हाथेम् , श्थिष्यो हि तस्मिन्नभिहिते ‹ मङ्गलमेतच्ाखम् `
इत्यवे सवमतो ठन्मङ्कलकाथरिग्रदे करोतीति भावः । दाति
गाथाः ॥ २० ॥
आह-किं मङ्लमधि मङ्गलवुद्ध्वा गृहीतमेव स्वकायं क-
रोति, नान्यथा ?। वमेतत् , इत्याह--
इह मंगल पि मंगल-बुद्धीए मंगल जहा साहू ।
मगलतियनुद्धिपरि-गग्हे विं नणु कारणं मणिआ।।२१॥
इट लोके , म द्रलमपि सद् वस्तु मज्नलबुदछुथा ग्रह्ममाणम-
सिनन्यमानं वा मङ्गलं भकति | यथा साधुः, साधुहि स्व-
ये मद्गलभतोऽपि तदुछत्या गह्ममाण एव प्रशस्तचेतोतू-
ज्ञर्भव्यस्य मजलकाये करोति , अमङ्गलबुद्धया तु गृह्यमाण
मङ्गलमपि तत्कार्य न करोति, यथा स एवं साथुः का-
लुष्ये(पहतचेतोच्रन्तेरभव्यस्य ! ञ्जा ऽद कश्ित्-नन्वेवं स-
त्यऽमङ्गलमप्यसाध्वादिकं मङ्कलतुदन्या गृह्यमाण तत्कार्य
करिष्कति, न्यायस्य समानत्वात् । तदयुक्कम् , असाधोः स्व-
तो मदङ्गलरूपताया अभावात्, सत्यमाशिर्दिं सत्यमणितया ग्रू-
ह्यमाणो ब्रदीतुर्गोरवमापादयति, न त्वसत्यमणिः सत्यमणि-
तया , इत्यल प्रसद्धेन । । आह--यचेवम् , तहांकमेव म द्ल-
मस्तु, तेनापि हि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहः सत्स्यति ,
कि मङ्गलत्रयकरणन ?, इत्याह-- मंगलातिये' त्यादि,
मङ्गल्ये हि कृते शिष्यस्य वुद्धौ तत्परिग्रहो भवति । ते-
नाऽपि किमिति चत् ?: इत्याह--न तत्रापि ` पढमे सत्थ-
त्थाविग्घपारगमणाय निदिट्रं' इत्यादिना कारणे-निमित्त प्रा-
. गेव भणितं किमिति विस्मार्थते ॥ न च वक्कव्यमेकेनेव म-
द्गलन तत् कारणत्रयं सत्स्यति, यतो यथैव शाखं मङ्गल-
मपि सद् मङ्गलवुद्धिपरिग्रदमन्तरेण मङ्गलं न भवति साधु-
वत् , तथा शास्या ऽऽदि-मध्या-ऽवसानानि मङ्गलरू-
पारायपि मङ्गलवुदधिपरिग्रहं विना न मङ्गलकाय कुर्वन्ति ,
इति मङ्गलत्रयाभिधानम् । इति गाधार्थः ॥ २९ ॥
तदेव मङ्गलाभिधानमुपपत्तिभिव्यवस्थाप्य मङ्गलशब्दा्थ
निरूपयितुमाद-
मगिज्जणएऽधिगम्मड् , जण हिअं तेण मंगल दोर् ।
अहवा मगो धम्मो, तं लाइ तयं समादत्ते ॥ २२॥
^ समगि-रगि-लगि-वगि-मगि ` इत्यादौ मगिगेत्यर्थों धा-
तुः, च्रतस्तस्या ऽलचप्रत्ययान्तस्य मङ्ग्यते ऽधिगम्यते सा-
ध्यते यतो हितमनेन तेन कारणेन मङ्गले भवति । श्रथ-
वा-मङ्ग इति धर्मस्या $ऽख्या, ' ला ` श्रादाने धातुः, ततश्च
मङ्ग लाति समादत्ते इति मङ्गल धर्मोपादानदतुरित्यथः ।
इति गाथार्थः ॥ २२॥
अहवा निवायणाओ, मंगलमिट्ठत्थपगइपच्चयओ ।
सत्थे सिद्धं ज जह, तयं जहाजोगमाओज्ज ॥ २३ ॥
अथवा निपातनाद् मङ्गलमिति साध्यते । कथम् ?, इ-
त्याद-दइष्टा्ग्रङतिप्रःययतः, तत्रेष्टा विव्तितो ऽथ यासां
मसगल
- ~~~
ममङ्गलम् , स्थापनामङ्गलम् , द्रव्यमङ्गलम् , भावमङ्गले च ।
इति ग(थ(ऽथः ॥ २७ ॥ विशे० ।
आह विनेयः-ननु सामान्यन दव्यलक्तषणमचगतम् ,
पर द्रव्यमङ्गले किमभिधीयते ?, इति
प्रस्तुतं निषेद्यताम् , इत्याह--
आगमओ।5णुवउत्तो, मंगलसदाणुवासिओ वत्ता ।
| नन्नाणलद्धिस॒हिओ, वि नोवउत्तो चि दो दव्ब ॥ २६ ॥
इद द्रव्यमङ्गले तावद् दविधा भवति-श्गमतः-ऋगममाधि-
स्य, नाञ्मागमवश्च-नो अयममाधिय, तत्राऽऽगमो मङ्गल-
शब्दाथेज्ञानस्वरूपो ऽजाऽभिप्रवः, तमाश्रित्य ' द्रव्यं ' द्रव्यम-
ङ्गलमिति पर्यन्ते सम्बन्धः। का5सो ?, इत्याह-वक्का मङ्ग-
खशब्दाथेप्ररूपकः । कि सर्वोऽपि ?, न, इत्याह-अनुपयुक्कः
: । कि विशिष्टः ?, इत्याह-मङ्गलशब्दायुवा-
सितः मह्नलशब्दाथेज्ञाना 55वरणक्षयोपशमसंस्कारानुरज्ञित-
अनाः; तज्ज्ञानलब्धिमानिति यावत्। नु यदि तज्ज्ञानलब्धि-
| मांस्तर्हि किमिति द्रव्यम् ?, इत्याह-' तन्नाणे' त्यादि,
| लन्धिसहितो ऽपि मङ्ग नशब्दाथक्ञाना 5 ऽवररक्षयीपशमवान-
। पि; नोपयुक्कस्तत्र मङ्गलशब्दार्थ यस्मादसी, “तो त्ति" त-
(
तदुपयोगश्ः
स्माद् द्रव्यमङ्गलम् । इदमुक्तं भवति- श्रजुपयोगो द्रव्यम् '
इति वचनाद् मज्ञलशब्दाथ जानन्नपि तत्राजुपयुक्कस्तं प्ररूपयं-
स्तज्ज्ञानलब्धिसदहितो ऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलमेव
गाथा-ऽथैः॥ २६ ॥
३
णिरप =
|
( ६
असिधानराजन्द्रः
ता इृष्टाथीः प्रकृतयः | तद्यथा-' मि मरडने,' “मन खाने “मः
दी हष ' ‹ भुद-मोद-स्वम-यातिषु ' ‹ मह पूजायाम् ` इत्येव
अदि, प्रत्ययस्त्वेतासां परू तीनां सवेत्र अलच् ' एव वि
घीयते, ततो मङ्ग लभाति रूप निपात्यते । व्युत्पत्तिस्त्वेवम्
ङ्क यतेऽलङ् क्रियते शास्र मनेनेति मङ्गलम्, तथा मन्यते
क्षायते निश्चीयते विष्नाभावोऽनेन, तथा माद्यन्ति हृष्यन्ति
अदमनुभवन्ति, मोदन्ते, शर्ते विष्नाभावेन लिष्प्रकम्पतया
सुप्ता इव जायन्ते, शास्त्र ध्य पारं गच्छुन्त्यनेनेति, तथा मह्य
न्ते पूज्यन्ते ऽनेनेति मङ्गलमिति । प्वमादि व्याकरणशास्त्र
यद् यथा निपातने सिद्धम्, तद् यथायोगं यथासम्बन्ध-
सत्र स्वधिया ऽऽयोज्ये लक्तणङ्ञेः । इति ग\था-ऽथेः ॥ २३॥
मं गालयई भवाओ, मंगलमिहेवर्माइ नेरुत्ता ।
भसति सत्थवसओ, नामाह चउव्विहं तं च ॥ २४॥
अथवा--मां गालयति भ्रवादिति मङ्गलं ससारादपनय-
तीत्ययेः । इद मज्ञ लविचा रे एवम्गदि नेरुक्ताः शब्द विदः शःख-
धेशतो ब्याकरणालुस्गरेश भाषन्त-मङ्कनतब्दा्थं व्याचक्त-
से । आदिशब्दात्-शास्त्रस्ण भा भूद् गलो-विष्नो5स्मादिति
मङ्लम् , अथवा-शास्तरस्य मा भृद् गलो-नाशो ऽस्मिन्निति
मङ्गलम् , सम्यग्बशेदा ऽऽदिमागैलयनाद् वा महुलमित्यादि
ह ष्टञ्यम्, इत्यजे विस्तरेखं । इह तर्व-पर्याय-भेदेव्यीख्या,
तव ते शब्द थरूप प्, तत्तावद् निर्णीतम् । पयोयास्तु मज्ञ-
लम्, शान्तिः, विष्नविद्रावणमित्यादयः स्वयमेव द्व्या ।
मर्दस्तु स्वयमेव निरूपयितुमाह -'नामाईइ चउव्विहे ते चेति
तच्च मङ्गन नामाऽऽदिमेदतश्चतुर्विषं भवति ।
सगल
शत्रा $ऽह कथित्-नयु कोऽयमागमो यमाधिव्य
द्रव्यमङ्ग लमिदमभिधोयते ? । अत्राच्यत-म-
क्गलशब्दाथक्ानमजा-ऽऽगमः । तर्हिं प्र-
यते, किम् ?, इत्याद --
जई नाशमागमो तो, कह दस्वं दन्वमागमो कह णु १ ।
आगमकारणमाया, देहो रदो यतो दध्वं ॥ ३० ॥
यदि मङ्गलशब्दाधक्ञानमागमः. तर्हिं तदक्का असो कथं
द्रव्यमङ्गलम् १. श्रागमस्य भावमङ्गलत्वेन प्रष्यमङ्गलत्वायुप-
पत्तेः ! खश द्रव्यं द्रव्ययङ्कलमसो तर्हि श्रागमः कथम् {यना
ऽअखबसः-श्ागममाभित्येत्यु च्यते द्ये श्रागमस्या ऽभावात् ,
भावे बा भावमङ्गलत्वप्रसङ्गात् । तस्भादागमतो दरव्यमङ्गल-
भिति दूरविरुद्मिदम् । इति पोणोक्के आचायेः प्राह-आग-
मे त्यादि, इदमुझँ मवाति-झआगमत इत्युक्केनेतद् भावता बो द्ध-
ञ्यं यदुत-न साक्तादेवः ऽऽगमो ऽत्रास्ति कि तर्हिं १. आग-
मरस्यं मङ्गलशब्दा थक्ञानलत्तणस्य यत् कारण-निमत्त तदेवेह
विद्यत इत्यवगन्तव्यम् । कि पुनस्तदागमस्य कारणमा <-
वसेयम् १,३त्याद-अनुपयुङ्कस्य वक्तुः सम्बधी आत्मा जीवो
देह: शब्दश्च, जीवशरीरे हि ताषदागमस्य कारणम् , तदा-
घारविरहितस्या ऽऽगमस्या ऽ सम्मवात् । शब्दो ऽपि अत्याय्य-
शिष्यगतः ऽ ऽगमस्य कारलमेच, खमन्लरेण तस्याभावात् ।
यञ्च कारणम् तद् द्रव्यं भवत्येव “ भूतस्य भाविनो वाभाव
स्य हि कारणं तु यज्ञोके, तद् द्रव्यम्० ” इत्यादिवचनात् ,
इत्याह-तो त्ति" यत एवम् , स्मरद् द्रव्य . दव्यमङ्गलांमद्-
सित्यथः । यद्यागमकारणमवेर विध्यते, तर्हिं कथमिदमागमो
येनाऽऽगमतो द्रघ्यमङ्गलं स्यात् ? इति चत् । उच्यते-आग-
मस्य कारणभूता आत्मा ऽऽद्योऽपि कारणे कार्योपचारादा-
गमत्वेनोच्यन्ते, भवासि च कारणे कार्यव्यपदेशः, यथा “तन्दु
लान् वर्धति प्रञजन्यः। ` सस्मादागमतो द्रव्यमङ्गले म विरू
ध्यते । इति गाथा ऽथः ॥ २०॥
अथ “ नल्थि नये विहरं, सुत्तं ्रत्थो य जिणमप किचि ।
आसज्ज उ स्मेयारं, नयेण य विसार श्रो वया ॥१॥” इति
घचनाज्जिनमते सर्वेऽपि पदाथा नयोर्चैचार-
` खीयाः, इत्यतो द्रव्यमङ्गलमापि नयाव-
चारयन्नाट--
एगो मगलमेगं, शगा णेगाईं शगमनयस्स ।
संगहनयस्स एकं, सव्वं चिय मंगल लोए ॥ ३१॥
वक्ष्यमाणशब्दा थेस्य नेगमनयस्य मतेनैको ऽखुपयुक्तो मङ्गलश-
ब्दाथप्ररूपक एकं द्रव्यमङ्गलम् , अनेके त्वयुपयुङ्ास्तरंपररूपका
अनेकानि दव्यमङ्गलानि । श्रयं हि नयः सामान्यं विशेषांश्चा$
भ्युपगच्छत्येव, त्र विशेषवादित्वपन्ते एको 5नुपयुक्त पकं द्र-
व्यमज्गलम् , नके त्वनुपय॒क्का अनेकानि द्रव्यमङ्गलानीत्युपप-
द्यत एव,विशेषाणां पृथग् भिन्नत्वादिति। संच्रहनयस्य तु वक्ष्य-
माणस्वरूपस्य केवलसामान्यवादिनो मतेन सर्वस्मिन्नपि लोके
पकमेव द्रव्यमङ्गलम् , सर्वेषां द्रव्यमङ्गलत्वसामान्याद्रव्यति-
रिक्वत्वात् , व्यतिरेके चा ऽद्रव्यमङ्गलत्वप्राघ्तः, सामान्यस्य च
जिभुवने5प्येकत्वात् दति गाथा ऽयः॥ ३१॥
एतदेवा 55ह--
एकं निं निरवय-वमकियं सव्वग् च सामं ।
( १० )
भगल
छभिघानराजेन्द्रः।
सगल
निस्सामननत्ता्यो, त्थि विसेसो खपुप्फं ब ॥ ३२॥
, पकम्-अदवितीयत्वादेकसङ्ख्योपेते सामान्यम्। एकमपि त्त |
शक्र स्यात् , तत्रा55ह-नित्यमनपायि । नित्यमप्याकाशवत् |
सावयवं स्यात् , तज्निरवयवत््वे सवितुरुदया5स्तमना5- |
यागात् , इत्यत्रा 5 ऽह-निरवयवमनंशं, पूवौपरकोटिश्ल्यत्वा- |
दिति । निरवयवमपि परमाणुवत् सक्रियं स्यात् , अत
आह--अक्रियं क्रियारहितम् , परिस्पन्दविनिभूङ्कत्वादिति ।
अक्रियमपे दिगादिवत् सर्वगतं न स्यात् , अतराऽऽह-सर्वगे
च सकललोकाऽवापस्रसत्ताकम्। इदमित्थं भूतं सामान्यम |
वाऽस्ति, न तु विशेषः कंश्वनाउपि विदयते । कुत इत्याह--
निःसामान्यत्वात्-सामान्यविराहितत्वात् खपुष्पवत् , यच्चा-
शस्त तत् खामान्यविरदितं न भवति, यथा घटः । तस्मा-
दकस्माद् द्रन्यमङ्गलसामान्यादव्यतिरिङ्कत्वाद् तच्यतिरेके
चाद्रव्यमङ्गलताप्रसङ्गात् सामान्यस्य च तिभुवनेऽप्ये-
कत्वादेकमेव संग्रहनयमते द्रव्यमङ्गलम् , इति स्थितम् ।
इति गाथाऽथः ॥ ३२॥
अत्र विशषवादिनयमतस्थितः कथिदाह-नयु कथमने-
कानि द्रव्यमङ्लानि न सम्भवन्ति ? , यथा हि वनस्पति-
रित्युक्के वृत्त-गुल्म-लता-वीरुदादयो विशेषा एव प्रतीयन्ते;
न पुनस्तदातिरिक्कः कश्चिद् वनस्पलिः, एवमिहापि द्रव्य
मङ्गलमिन्युक्तेऽलुपयुक्कतत्परूपकलक्तण विशेषा एवाउवग-
मयन्ते, न तु तदधिकं किञ्चित् सामान्यम् . अतः किं श:
न्य इवा ऽस्मिन् जगत्येवमाभिधीयते-' निस्सामन्नत्ताच्नो, न-
त्थि विसेसो खपुष्फं च । ' इति ? , इति विशेषवादिना भक्ते
सामान्यवादि संग्रहः पा ४ऽह- नयु यत एव वनस्पतिरित्युङ्क
चृह्ञा $ऽदयः प्रतीयन्ते, अत एव ते तदनर्थान्तरभूताः, हस्त-
स्येवा ऽङ्गुलयः, इह यस्मिन्नुच्यमाने यत् भ्रतीयते, तत् ततो
व्यतिरिक्तं न भवति, यथा हस्त इत्युक्ते ऽङ्ुल्यादयः प्रती-
व्यतिरिक्ता प्रतीयन्ते अप 2 |
यमाना हस्ताद् न ४ न्ते च वनस्पतिरि-
त्युक्के वृत्ता55दयः, इत्यमी न वनस्पतिव्यतिरिक्ाः, ततो न |
सामान्यादतिरिङक्कः कोऽपि .विशेषः समस्ति, इत्येकमेव
सर्वत्र द्रव्यमङ्गलमिति । श्रथोपपत्यन्तरेणा ऽपि सखामान्य- |
वाद्यव वृक्ता ऽ ऽदीनां सर्वेषामपि वनस्पतिस।मान्यरूपतां सम-
थेयनज्नाह--
चूओ वणस्सइ च्चिय, मूलाइगुणो त्ति तस्समूहो व्व ।
गुम्मादओ वि एवं, सव्वे न वशस्सइविसिट्ने ॥३३॥
चूतः--आम्रो वनस्पातिरेव वनस्पातिसामान्य न व्याभि-
चरतीत्यथः, इति प्रतिज्ञा, मूल-कन्द-स्कन्ध-त्वक्-शाखा-
प्रवाल-पत्र-पुष्प-फल - बीजा 5 ऽदिगुणत्वादिति देतुः, चूतस- |
मूहवदिति दष्टान्तः, इह यो यो मूला ऽदिगुणः स स वनस्प-
तिसामान्यरूप एव, यथा चूतसमूहः, मूला + ऽदिगुणश्च चूतः, |
तस्माद् वनस्पतिसामान्यरूप एव,गुरमा ऽ ऽदयो ऽप्यवे वाच्याः,
तथाहि--विशषवादिना विशेषतया ऽभ्युपगम्यमानो गुरमो-
पि वनस्पतिखामान्यरूप पव, मूलादिगुणत्वाद् युल्मसम्-
शत् , इति | एवमन्येषामपि लता-ऽऽदिविशेषाणां वनस्पति-
्रामान्यादव्यतिरिक्कत्वे साधनीयम् । तद्धश्तिरेके सर्वत्र म
मयत्वा 5 ऽदिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम् । तस्मात् सामान्यमेवा-
ऽस्ति, न विशेषाः । इति गाथा ऽथः ॥ ३३ ॥
किञ--
सामनाउ विसेसो, अन्नोऽणन्नो व होज्ज जई अण्णो ।
सो नत्थि खपुष्फ पिवऽ-शष्पो सामन्नमेव तयं ॥२५॥
भो विशेषवादिन् ! सामान्याद् विशेषोऽन्यो वा स्यात् ,
अनन्यो वा ?, इति विकल्पद्धयम् | यद्यायो विकल्पः , तर्हि
नास्त्येव विशेषः, निःसामान्यत्वात् , खपुष्पवत्-इह यद्
यत् सामान्यविनिमुक्गं वत् तद् नास्ति, यथा गगनारविन्दम्,
सामान्यविरहितश्च विशेषवादिना विशेषो ऽभ्युपगम्यते, त-
स्माद् नास्त्येवा-ऽयमिति । अथाऽनन्य इति द्वितीयः पक्तः
कक्तीक्रियते, दन्त ! तर्हि सामान्यमेवाऽसौ; तदनन्यत्वात् ,
सामान्या 5ऽत्मवद् यद्-यस्मादनन्यत् तत् तदेव.यथा सामा-
न्यस्यैवाऽत्मा; अनन्यश्व सामान्याद् विशेषः, इति सामान्य-
मेवा ऽयमिति । यदि च-अतिपत्तपातितया सामान्येऽपि वि-
शेषोपचारः करयते, तर्हिं न काचित् क्वचित् त्तिः, न द्यप-
चारेणोच्यमानो भेद्स्तात्तिकमेकत्व॑ बाधितुमलम् , तस्मात्
साभाच्ययेवा ऽस्ति न विशेषः । इति सग्रहनयमतन सर्वैत्रैक-
मेव द्रव्यमङ्गलम् । इति माथः ऽथः ॥ ३४ ॥
तदेवे संग्रहेण स्वाभिमते सामान्ये भतिष्ठिते विशष-
वादिनो नेगमव्यवहारावादतुः--
न विसेसत्थंतरभू-अमात्थि सामष्पमाह ववहारो ।
उवलंभव्ववहारा-भावाओ खरविसासं व ॥ ३५॥
` ननु भोः सामान्यवादिन् ! भवतहऽपि वनस्पतिसामान्य
बकुला ऽशोक-चम्पक-नाग-पुन्नागा-+ऽप्र-सज्पै- ऽना 5.५ -
दिविशेषभ्यो ऽथौन्तरं वाऽभ्युपगम्येत, अनथॉन्तरं वा ?।
यद्यथौन्तरम् , तर्हि नास्त्येव तद् विशेषव्यतिरेकेण , उपल-
व्धिक्षणप्राप्तस्य तस्योपलम्भव्यवहाराभावाद् , सखरविषाण-
क्त्। कः एवमाह ? , व्यवहारनयः, उफ्लक्तणएत्वाद् बि-
शषवादी नैगमश्च ! पतौ हि लोकव्यवहारालुयायिनौ, तद्-
व्यवहारश्च प्रायो विशेषनिष्ठ एव , इति विशेषानेव स-
मथयत इति भावः । अथाुपलन्धिलत्तणप्राप्त तदभ्यु-
पगम्यते, तथाऽपि नास्ति, विशेषेभ्यः सवैथा ऽन्यत्वात् +
जगनकुसुमवदिति । अथ विशेषेभ्यो ऽथौन्तर तदिति दिती-
यपत्तः , तर्हिं विशेषा एवं तत् , तेभ्यो ५नथौन्तरभूतत्वात् ,
विशषाणामात्मस्वरूपवदिति । यदि च-विरशेषष्वपि सामा-
न्योपचारः क्रियते, तहिं न काचित् क्षतिः, न झोपचा-
रिकमेकत्वं तात्विकमनेकत्वं बाधते । इति गाथा ऽथः ॥२५॥
चतदेव समथयते-
चूयाईएहिंतो, को सो अण्णो वणस्सरं नाम ?।
नत्थि विसेसत्थंतर-भावाओ सो खपुप्फं व ॥ ३६॥
चूता ४ऽदिभ्यो विरेषेभ्योऽन्यः को नाम वनस्पतिः, यो
बरण-पिण्डी-पादलेपा 5 5दिके लोकव्यवह्ारे उपयुज्येत १, न
को ऽपीत्यथः । तस्मात् समस्तलोकसेव्यवदाराजुपयोगि-
त्वाद् नास्ति सामान्यम् , सखपुष्पवत् इति पूर्वोक्षमवार्थ
निगमनद्वारेणाउ5ह--' नत्थीत्यादि ' तस्माद् नास्त्यसौ सा-
मान्यवादिना.ऽभ्युपगम्यमानो बनस्पतिः सहुपेभ्यो विशे-
वेभ्यो ऽथौन्तरभावात् ; खपुष्पवत् सदपेभ्यो दि विशेषे-
(| १९ )
सगल
भ्यो ऽथोन्तरं भवत् असद्पमेव भवति तथाभूतं च |
नास्त्येव खपुष्पवत् । इति गाथा-ऽथः ॥ ३६॥
कि पुनः कारणे यन नेगमञ्यवहारो विशेषान् समथ
यतः ?, इत्याह--
ज नेगमववहारा, लोञखन्ववहारतप्परा सो य |
पाएण विसेसमओ, तो ते तम्गाहिणो द् बि ॥ ३७॥ ।
यद्-यस्माद् नैगमग्यवहारो लोकव्यवहारतत्परौ , स च |
लोकव्यवहारस्त्यागाऽऽदाना 5 5दिकः प्रायेण विशेषमयो-वि
शेषनिष्ठ ए५ दश्यते, सामान्यस्य ब्रणपिरज्यादो लोके ऽयुप,
योगात् । * वने ` “सेना ` इत्यादौ क्वचित् कथित् कथ-
शित् सामान्यस्याऽपि इश्यते उपयोगः , इति श्रायोग्रह-
म् । यत॒ एवम् , तस्मात् तौ नैगमव्यवहारौ द्वावपि
तद्आहिणों विशेषाभ्युपगमपरो । इति गाथाऽथेः ॥ ३७ ॥
अन्न परः प्राऽऽह--
तेसि तुन्लमयत्ते को णु विसिसोउइभिहाणओ अन्नो ?
तुन्नते वि इहं ने-गमस्स वत्थंतरे भओ ॥ ३८ ॥
तयोनैंगमव्यवहारयोस्तुल्यमतत्वे उङ्कन्यायेन विशेषवा,
दितया सदशाभिप्रायत्वे सति णु" चितके , अभि-
चाने नाम ततो ऽन्यस्तद् वजयित्वाऽपरः को विशेषः ? ,
ऋाभधानराजन्द्रः।
न कश्चिदित्यर्थः । एको नैगमः , अपरस्तु व्यवहार इत्ये-
वमनयोनौमेव भिद्यते न त्वभिग्राय इति भावः । आ-
चाय आद- तुल्लत्ते ' इत्यादि , इह विशेषा.ऽभ्युपगमे य-
दपि नैगमस्य व्यवहारेण सह तुल्यत्वं सदशाभिप्रायत्वम् ,
तथाऽपि तदस्मिन् सत्यपि वस्त्वन्तरे सामान्या+ऽदिके भदो
नानात्वमस्त्येव । इति गाथा-ऽथेः ॥ ३८ ॥
अथवा नेगमव्यवहारयोरनेन तुर्यमतत्वा $ ऽख्यापनेन
सामान्यविशेषग्राहकस्य नेंगमस्य संग्रहब्यवहारनय-
दये ऽन्तभौवः सूचितो द्रष्टव्य इति दशैयन्नाट-
जो सामष्पग्गाही, स नेगमो सगरं गओ अहवा ,
इयरो ववहारमिओ, जो तेण समाणनिदेसों ॥ ३६ ॥
अथवेति प्रकारान्तरेण समाधानमुच्यत इत्यथः । तच नै- |
गमस्तावत् सामान्यं मन्यते विशेषाश्च । ततो यः सामान्यत्रा-
ही नैगमः स संग्रह गतः पापतो ऽन्त श्रत इति यावत् , इतर--
स्नु विशेषग्राही स व्यवहारनयमितः प्राप्तो न्तर्मतो यो नैग-
मनयस्तेन सह व्यवहारनयस्या ऽये समाननिर्देशः “ ज नेग-
गववहारा०!(३७) इत्यादिना तुल्यनिर्देशः, ततश्च ‹ तरसि तुल्ल-
मयत्ते को णु विससो०” (३८) इत्यादिना यदेकत्वै परेण प्रेरित
तदस्माकं न त्ततिमावहति, नेगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्धये $-
न्तभौवस्येष्त्वेन सिद्धसाधनादिति भावः । यदेवे नैगमः
सङ्खयायास्बुस्यति, तथा च सति षडेव नयाः प्रसजन्तीति |
चत्। मा ओऑत्सुक्य भजस्व, सर्वमत्रार्थ पुरस्ताद् वदयामः ।
इति गाथाऽथः ॥ ३६॥
श्रथ ऋजुसूत्रनयमतेन द्रव्यमङ्गले विचारयितुमाद--
उज्जुसुअस्स सय सपय च ज मगल तय एक ।
नातीतम णुष्पन्नं, मंगलमिद्रं परकं व ॥ ४० ॥
ऋजु श्रतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिदहारेण वाऽ-
कुटिल वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रो नयस्तस्य स्वकमात्मीय-
संगल
मेव, तथा साम्प्रते च वत्तमानक्तणभाव्यव यद् द्रव्यमङ्गल
तदेवेकमभिमतम्। अनभिमतभ्रतिषेधमाद-नातोतम् , अति-
क्रान्तसमयभावि, ना$प्यनुत्पन्नं भविष्यत्समयभावि द्रव्यम-
ङ्लम् , अस्येष्टम्। ^ परक्त च ` परकीये वा यद् द्रव्यमङ्गल
तदप्यस्य नेष्टम् , विवद्घितेकपरज्ञापकस्या ऽ ऽत्माने विहाय यत्
परस्िन् वर्तेते तदपि दव्यमङ्गलमसो नेच्छतीत्यथः । मन्दम
तिशित्ताऽववोधाधश्चः४नभिमतपरतिपेधः, अन्यथा हयाभिमते
कथितेऽनभिमतमर्थापत्तितो गस्यत एव । इति गाथाऽथः ।
॥ ४० ॥ ।
अमुमेवार्थ प्रयोगोपदशैनद्वारिर. समर्थयज्नाह--
नातीतमणुप्पन्नं, परकीयं वा पओओअणाभावा ।
दिह्वतों खरसिंगं, परधणमहवा जहा विफलं ॥ ४१॥
अतीतमजुत्पन्न वस्तु नास्तीति प्रतिज्ञा, प्रयोजनस्य विव-
जक्षितफलस्य तत्राऽभावात् सर्वेप्रयोजना5करणादित्यथ इ-
त्यये हेतुः, टष्टान्तस्तु खरशकह्वलम्। असत्वे चातीतानागतयोद्ध
व्यमद्गलता दूरोत्सारितेव, धर्मिसत्व एव ध्मौणामुपपद्यमा-
त्वादिति ।.दितीयप्रयोगः क्रियते--परकीयमांपे यज्ञदत्तस-
म्बन्ध्यपि वस्तु देवदत्तापेक्तयः नास्त्येव, प्रयोजना ऽकरणात्
खरविषाणवदिति हेतुदष्टान्तों तावेब,अथवा-यथा परस्य य-
ज्ञदत्तस्य धने देवदत्तापेत्तया विफलं प्रयोजना साधकं सदना-
स्ति, तथा सर्वमपि परकीय नास्तीति द्वितीयो दृष्टान्तः । दति
कुतः परकीयस्याऽपि द्रव्यम ङ्गलत्वम् ?\ इति गाथा ऽथः ॥४१॥
शब्द्-समभिरूढे-वम्भूतास्तु विशुद्धनयत्वादागमतो
द्रव्यमङ्गलं नेच्छन्त्यव कस्मात् ?, इत्याह--
जाणं नाणुवउत्तो5-णुबउत्ता वा न याणई जम्हा |
जाणंतोऽणुवउन्तो, त्ति विति सदादयोऽवत्थुं ॥ ४२ ॥
(जम्हा ) इति यस्मात् जानन्नववुध्यमानो, “ मङ्गलं ' इति ग-
म्यते, नानुपयुङ्घो न तज्ज्ञानोपयोगशन्यो भवति, ज्ञायकस्य
ज्ञानोपयोगनान्तरीयकत्वात् । अजुपयुक्तो वा तत्र न तज्जा-
नीते न तस्य ज्ञायको5सों व्यपदिश्यते; अज्ञायकत्वाभिमत-
वत् काष्ठा ५ ऽदिवत् वेत्यर्थ:। तस्माजानन्ननुपयुक्तश्वति एतद-
प्यवस्तु असदभाव इति यावत् , एतद् छुवते शब्दा ऽदय:
शब्द-समभिरूढेवम्भूतनयाः । इति गाथाऽथ, ॥ ४२॥
अत्राऽथै उपपत्तिमाह--
हेडः विरुद्धधम्म-त्तणा हि जीवो व्व चेअणारहिओ |
न य सो मंगलमिट्टं, तयत्थसुन्नो त्ति पावं व॥ ४३॥
जानन्ननुपयुङ्कश्चेत्येतदवस्तु इत्यस्यामनन्तरातिक्रान्तगा-
थापयन्तकृतप्रतिज्ञायामय हेतुः । कः ?, इत्याह--' वि-
रुद्धधम्मत्तणा हि त्ति ` विरुद्धौ धर्मौ यत्र तत् तथा
तद्धावस्तस्माद् विरुद्धधर्मत्वादिति । दष्टान्तमाद-यथा जीः
वश्चतनारददितः । इदमुक्तं भवति-यथा जीवश्चेतनारहि-
तश्च माता च बन्ध्या चत्यादि विरुद्धधमौध्यासादवस्तु. एवं
ज्ञायकश्चा ऽनुपयुक्कश्चत्येतदप्यवस्त्वेव । भवतु वां ज्ञायको5- .
जुषयुक्कश्च. तथाऽपि नास्माकमसो मङ्गलत्वेनेष्टः, तदर्थशन्य- ‹
त्वाद्-मङ्गला शशल्यत्वात् , पापवदिति । भावमङ्गलग्राहिणो
ह्यमी कथं द्रव्यमङ्गलमिच्छ्ान्त ?, इति भावः। इति गाथा-
ऽथः ॥ ४३ ॥
५
संगल
तदेव विचारितं नयेदैव्यमङ्गलम् तथा च सति समर्थि-
तमागमतो दव्यगङ्गलम् । अथ नो श्रागमतस्तद्-
भिधीयते । तच्च क्षशरीरभव्यशरीर्तदन्य-
तिरिक्कभेवात् तिधा । तत्र क्षशसर-
मव्यशःैरलस्षणभददयमाद--
मंगलपयत्थजाणय-देहो भवस्स वा सजीवो त्ति ।
नोआगमआओ दव्य,आगमराहिओ ति जं भशिं ॥४४॥
8 वैति नो आगमतो झशरीरं द्रव्यमङ्ग-
लमित्य थे: कः ? , इत्याह--मङ्गलपदाथज्ञस्य देहः , इदमुकँ
भवाति-इह मक्नललपदार्थः पूर्व येन स्वयं सम्यग् विज्ञातः,
परेभ्यश्च प्ररूपितः, तस्य सम्बन्धी जीवविप्रसुक्तः सिद्धाशिला-
तलाऽऽदिगलो देदो.ऽतीतकालनयायुवस्या ऽतीतमङ्गलपदाथ-
झाना55धारत्वाद् नोआगमतो द्ब्यभङ्गलसुच्यते । नोश-
व्दस्थेद सवैनिषेधश्रचनत्कात् , श्रागमस्य च सर्वथाऽतराऽ-
भावाद् नोआगमता द्रश्व्या, श्रतीतभङ्लपदा्थज्ञानलक्तणा-
<5गमपर्यायका रणत्वात् तु द्रष्यमङ्गलता, यथा 5तीतघुता 55
धारपर्यायकारणत्थाद रिक्लघृत्कुस्मे घृतघदलेति । “ भवस्स
व त्ति ` वाशब्दो द्वितीयफ्क़ टामच्चये, भव्यस्य च मङ्गलप-
दार्थज्ञानयोग्यस्य सम्बन्धी ` देहः ' इति व्च॑ते, स जीवः स-
चेतनो नोआगमतो भ्रव्यशरीरद्रव्यमज्ञलमिस्यथः । इदमत्र
ददयम्--य इदानी भज्जज़पदार्थ न जानीते , भविष्यति तु
काले ज्ञास्यात; तस्य सम्बन्धी सचेतनो देहो भविष्यत्काल-
नया अनुवृत्या भविष्यन्मङ्गलप दार्थक्ञाना ऽ ऽधारत्वाद् नोश्राग- |
मतो भ्व्यश पिरद्वृंब्यमज्ञलमिति । अत्राऽपि नोशब्दस्य सर्व-
निषेघषरत्वात् ; आगमस्य चदानीमभावाद् नोआगमता
समवखेया । भविष्यत्काले मङ्गलपदाथेज्ञानलक्षणस्या < ऽगम- |
स्य »रणत्वात् तु दव्यमजझनलता, यथा भविष्यद्घ्रताऽऽधारप-
यौयकारणत्वाद् रिक्नघ्रृतकुम्मे घ्रृतघटता। नोआगमत इत्ये-
विद्वुग्वन्नाह-- आगमराहिओ ` इत्यादि, नोशब्दस्य स-
वैनिषेयवचनत्वाद नोआगमत इत्यंनेनेतदुक्क भवति, किम् ?
इत्याह -मङ्गलपदाथेज्ञस्य भव्यस्य च सम्बन्धी अचेतनः स-
चेतनश्च देहे! बतेनानकाजे सर्वथेवरा55गरभराहेतः । इति
गाथा-ऽथे ॥ ४७॥
तदेवे सवग्निषधवयनत्वे नोशब्दस्थैवमुदादहरणभुपदशिी
तम् , यदि वा-दैःशनिषधपरे ऽपि नशब्दे एतत् स-
वध्यत पवेति दर्शयज्न।ह--
अहवा नो रसम्मी, नो्रागमग्रो तदेगदेसाओ ।
भयस्प भादिशो वा-ऽऽगमस्स अ कारणं देहो ॥४५॥
अथवा ना ` इति नाशब्टः ' देसस्मि सि ` देशानिचधवय-
नो विवदयत इव्यर्थः । ततःध नोआगमत इति कोऽघः ? ,
इत्याह-तदेकदेशादागमेकं दिशादागमेकदेशमाशि त्य द्रव्यम-
ङ्लामित्यथः । कि पुनस्तत् ? इति चत् । म द्लपद थक्ञस्याऽ-
चेतनः , भव्यस्य तु सचत नो देह दत्यजुवतेमाने रपम्बध्यते ।
कः पुनारेहा 5 ऽगमस्यकद्ःणा यमाश्रित्य नामागमनो दरव्यम
छलमिदे स्यात् ? इत । शाभ्रो च्यत-यथाक्ता ज्ञभव्य शराररूपो
दद एवा ऽत्राऽऽगमेकदेश : । ।नयु जडस्य देदस्य कथमागम-
भूयस्से "त्यादि
कदगता्.? ; इति । अत्रा.5.5ह- - , यद् -यस्माद्-
क 4
अभिधानराजन्दः
ऋ)
|
५. १ काल
चेतनो देहो भूतस्याऽतीतस्य मङ्गलपदाथन्ञानलत्तणस्या 5.5
गमस्य कारणे हेतुः,खचेतनस्तु भव्यदेहः भाविनो यथोक्घस्या-
-5ऽगमस्ब कारणम् , तस्माद् निजका्यैस्या ऽ ऽगमस्थैकदेशे-
चतत एव, कारणं हि कायस्यैकदेशे बतैत एव , यथा सत्ति
का धटस्य । श्रभेद एवं घरट-गरत्तिक्योरिति चत् ।
नैवम् , भदयोरेव जेनेरिषत्वात् , यद्यति सम्मतो-“ नात्थि
पुढवीविसिद्धि , घडो त्ति ज तेण जुज्जर अणरणो । जे
पुण घडो त्ति पुव्वं , नासी पुटवी तच्रो अरणो ॥ ५२ ॥ ”?
श्राह-- ननु मङ्ग गलपदाथक्ञानस्य परिणामिकारणं जीव एव,
ततस्तस्य स्वकार्येकदेशे द्वाक्तिरस्तु , यथा झ्त्तिकायाः ,
शरीर त्वागमस्य परिणामिकारणं न भवति , अतः कथ त-
स्य॒ तदेकदेशव्रुत्िता ?। सत्यम् , किन्तु अरुणरणाणु-
गयारे, इम च तं च त्ति विभयणमज्ुत्तं । जह खीरणाणिया-
र०” इत्यादिवचनात् संसारिणो जीवस्य शसेण सहा ऽ-
भेद एवं व्यवहियते, अतो जी्यस्य परिणाभिकारणत्वे श-
रीरस्याऽपि तद् विवक्षयते,इत्यस्या ऽ ऽगमेकदेशता न विरुध्य-
ते । भवत्वेवम् , तथाऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलम् प्रग् यदुक्तं ते-
न सहा ऽस्य को भेदः ? , तत्रा ऽपि दि-“ आगमकारणुमाया
देहो सदो य ” इति वचनाच्छरीरमेय द्वव्यमङ्गलसुक्कम् ,
अत्रा5पि च तदेव; इति कथं नैकत्वम् ? सत्यम् , किन्तु-पा-
गुपयोगरूप एवा 4ऽगमो नास्ति, लाज्धतस्तु वियत एव, अ-
च तूभयस्वरूपो ऽपे नास्ति , कारणमात्रस्यैव सत्त्वात् । इ-
ति गाथार्थः ॥ ४५ ॥
तदेवं दर्थतं ज्षशरीर-भव्यशरीरलक्षण नोआगमतो
दृव्यमज्ञलभदद्यम् । साम्प्रते ज्शरीर-भव्यश'-
रोण्यतिरिक्लस्वरूप तन्न ती यभेर्द दर्शयज्नाह--
जाणय-भव्वसरराऽ-ईइरेत्तमिह दव्वमंगल होई ।
जा मंगन्ना किरेआ, तं कुणमाणो अणुवउत्तो ॥४६॥
इह॒ तावद् भावतः-परमाथेतो मङ्गजं दिविधम्-जि-
नध्रणीत आगमः, तत्प्रणीता मङ्गल्या प्रत्युपेक्षणा55-
दिक्रिया च | इतश्च पू्वैमागमतो नोश्रागमतश्च यद्
द्रव्यमङ्गलमुक्ठं तत्सवैमागममङ्गलापेन्तमेव , क्षशरीर-
भव्यशरीरव्यतिरिङ्कं तु दव्यमङ्गले मङ्गल्यक्रियामेवा ऽऽश्नि-
त्य भाणिष्यत दति परिभावनीयम् । अथ गाथार्थो व्या-
ख्यायते--तञ झशशीर-भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्कमिद द्व-
व्यमङ्गले भवति । कः ? , इत्याह--अजुपयुक्तः तां कवौ.
णो या । किम् ?, इत्याह--या प्रत्य॒पेत्तण-प्रमाजेना ऽ ऽदिका
ल्या क्रिया । इदसुकक भवति--यो ऽजुपयुक्ो जिनपरणीतां
मङ्गलरूपां प्युपेत्तणा ऽऽदि क्रियां करोति, स नोआ-
गमतो ज्ञशसीर-भग्यशरीरा तिरिष्क द्रव्यमङ्गलम् , उपयो
गरूपो ऽत्रा$ऽगमो नास्तीति नोश्चागमता । शशरीर-भव्य-
शसीरयोक्षीनापेत्ता द्रव्यमङ्गलता, अच तु क्रियापक्ता, अ-
तस्तदव्यतिरि क्त्वम् , श्रनुपयुक्कस्य क्रियाकरणात् तु द
व्यमङ्गलत् भावनीयम्, उपयुक्तस्य तु क्रिया यदि श
ह्यत तदा भावमङ्गलतेव स्यादिति भावः । इति गाथा-
ऽथः ॥ ४६॥ |
अथ प्रकारान्तरेखाऽपि प्रस्तुतमज्ञललमाह--
जे भूयभावमङ्गल- परिणामं तस्स वा जयं जोर ।
( १३ )
मगल
अआआभधानराजन्द्रः)
जे वा सहावसोहण-वजन्माशगुण सुवष्पार् || ४७ ॥ |
स॑ पिय हुभावमंगल-कारणओ मंगल ति निहिट । |
नोआगमओ दव्वं, नोसदो सन्वपाडिसेहे ॥ ४८॥
नोआगमतो क्षशरीर-भव्यश्रीरव्यतिरिक् द्रव्यं द्वव्य-
महुलमित्यथथ इति दितीयमथेरत्तराथ सबन्धः । पक
तत् ? , इत्याह-यद् भूतभावमङ्गलपरिणामम् , श्ट भगव-
मङ्गलशब्देन चरणकरणक्रियाकलाऐउडमिप्रेतः, तस्य परि-
शमने परिखतिः प्रवृत्तिभौवमङ्गलपरिखामः, भूतः पूव स- |
जतो भावमङ्गलपरिणामो. यस्य तद् भूतभावमङ्गलपरि- |
रामम् , सांप्रते तु तच्छन्यम् , तत्पुनः कस्यापि शरीरं
जीवद्रव्ये वा , तद् नोश्मागमतो क्षशरीर-भव्यशरीर-
व्यतिरिक्त द्रन्यमङ्कले वोद्धव्यम्। ` तस्स वा जयं जाग्ग
षत ` सजथवष-तस्य-यथोक्तस्य भावमङ्गलिणमस्य खद्
यग्यमरं शरीरं जीवद्रग्यं वा , तद् नोश्रागमतो शश-
रीरभव्यशरीरव्यातिरिक्त द्रव्यमङ्गलम् । श्रथवा-यत् स्व-
भावत एव शोभनवणौ ऽ <दिगुणं खवर 5 ऽदिकं वस्तु, आदि-
शब्दाद् रत्न-दध्य-ऽत्तत-कुखुम-मङ्गलकलशा ऽऽदिपरि्रहः,
तदेतज्ज्ञ-मव्यशरीरल्यतिरिक्कं द्रव्यमङ्गलम् । ननु कथ तद्
मङ्गलम् ?, इत्याह- ते पी ' त्यादि, इयस्मादर्ध , यस्मात्
तदपि-खुबणोऽऽदिकं कस्यापि भावमङ्गलकारणत्वाद् मङ्ग-
ले निर्दिष्टम् । यच्च कारणे तद “ भूतस्य भाविनो वा , भा-
त्रस्य हि कारणे तु यल्लोके । तद् दव्यम् ” इत्यादिव-
चनाद् द्रव्यतयर ऽपि व्यपदिश्यते, अतो द्रव्यमङ्कल भवति ।
नोशब्दः सवैप्रतिपेधे, श्रागमस्येद स्वथेवा ऽभावादिति ।
पूव ज्ञ-भव्यशरीरयोाः केवलमागमाभावापेत्त द्रव्यमङ्गलत्व-
सुक्कम्, अत्र तु क्रियाउभावमाश्रित्य इति भावनीयम् । इति |
गाथधाऽथः ॥ ४७ ॥ ८ ॥
तदेवे प्रतिपादितमागमतो नोञ्मागमतश्च द्रव्यमङ्गलम्। अ-
थ भावमङ्गलमुच्यते, तस्य च लक्षण नामस्थापना-द्रव्या-
णामिव भाष्यकृता केनापि कारणन नोक्तम् । तचत्थमवग-
न्तव्यम्-
भावो विवज्षिताक्रिया-5नु भूतियुक्नो हि वै समाख्यातः
सर्वज्षरिन्द्रादिव-दिहेन्दना 55दिक्रिया 5जुभवात् ॥१॥”इति।
श्त्राऽयमथः-- भवनं विवज्षितरूपण परिणमने भावः; अ-
थवा-भवाति विवक्षितरूपण सपद्यत दति भावः। कः पु- |
नरयम् ?, इत्याह-वक्कर्चिवत्तिता इन्दन-ज्वलन-जोावना ऽऽदि-
काया क्रिया वस्या अनुभूतिरनुभवने तया युक्को विवक्तिति- |
क्रियाऽनुभूवियुक्कः, सवेज्ञेः समाख्यातः । क इव ?, दइत्याट-
इन्द्रा ऽऽदिवत्-स्वगौधपा ऽऽदिवत् , , आदिशब्दादू-ज्वलन-
जीवनाऽऽदिपरिग्रहः। सोऽपि कथ भावः?, इत्याद -इन्दनादि- |
क्रिया प्लुभवात्' इति, श्रादिशब्देन ज्वलन-जीवना५ऽदिकरि
यास्वीकारः। विवक्तितिन्दुना ऽ ऽदिक्रिया ऽन्वितो लोके प्रसिद्ध
यारमार्थिकपदार्थों भाव उच्यते । भावश्चालतौ म॑ङ्गलं च
मावमङ्गलम् , भावतो वा परमाथतो मङ्गलं ` भावमङ्गलामिति
श्रस्तुतयोजना ।
पतदपि दिविधम्-श्रागमतश्च, नोआगमतश्थ ।
तत्राऽऽगमतस्तावदाद-
ऋषययुहदुयटवरनो, आगमग्रो मावमगलं होड। ^ यउबउत्तो, आगमओ भावमगलं होई । /
मगल
नोआगमओआ भावा, सुविसुद्धा खाश्याइआ || ४६॥
मङ्गले च तऊ्छुतं च मङ्गलशुते; मङ्गलशब्दा थैश्षानमित्यथः,
तस्मिन्नुपयुक्रो ` वक्का ` इति गम्यते, आगमतो भा-
वमङ्गल भवति । छच्राऽऽह- नयु मङ्गलपदाथज्ञानोपयो
गमात्रण कथं सर्वोऽपि वक्ता भावमङ्गलमुच्यते ?, तदुपया
गमात्रस्येव तदूपताया युक्रिषङ्गतत्वात्, न ह्यग्निज्ञानोपयु ङ्का
माणवको 5ऽग्निरेव भवितुमदेति, तदाद -पाका 5 ऽदिक्रियाकर-
णएप्रसङ्गादिति । । अजोच्यते-उफ्योंगः, ज्ञान, सवेदने, प्र-
त्यय इति तावदनथौन्तरम्, अर्थाउमिधानप्रत्ययाश्व
लके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः, वाह्यः प्रथुवुध्नोदरा $ऽकारा-
ऽथो ऽपि घट उच्यते, तद्धाचकमभिधानयपि घसो ऽभिधीय-
ते, तज्ज्ञानरूपः पत्ययोऽपि घटो व्यपदिश्यत इत्यथः । त-
थाहि लोके वक्तारो भवन्ति-किमिदं पुरतो दश्यते ? ,
घरः। किमस वक्ति १,घट म्; किमस्य चेतसि स्फुरति ?,घटः
प्व च सति यद् घट इति ज्ञान तद्व्यतिरिक्तो ज्ञाता
तन्नक्षणो गृह्यते , अन्यथा यदि ज्ञानह्ानिनोरव्यतिरेको
न स्यात् तदा ज्ञाने सत्यपि ज्ञानी नोपलभेत वस्तुनिवहम ,
अतन्मयत्वात् , प्रदीपटस्तान्धवत् , पुरुषान्तरचद् वा । न
चा-ऽनाकारं तज्ज्ञानम् , पदाथौन्तरवद् विवत्तितपदाथस्या-
-5प्य परिच्छेद प्रसङ्गात् । अपि च-घटा ऽऽदि्ञानतद्धतोन्य-
तिरेके बन्धाऽऽदयभावः प्राप्नोति, यथा हि झ्ानाउज्लान-
सुख-दुःखा ऽऽदिएरिणामस्या ऽन्यत्वे श्राकाशस्य बन्धा ऽ ऽद
यो न भवन्ति, एवं जीवस्याऽपि न भवेयुरिति भावः ॥
आह--यदि घटोषयोगानन्यत्वाद् देवदत्तोऽपि धटः, अ-
गन्यु पयोगानन्यत्वाञ्च माणवको ऽप्यागनः, तर्हिं जलग $ ऽदरण-
दाह-पाका ऽऽ थक्रियाप्रसङ्गः। तदयक्रपम् , न हि सर्वौऽ-
पि घटो जला55हरणं करोति, नापि समस्तो .ऽप्यग्निदाट-
पाका ऽ ऽ्थक्रियां साधयति, कोशेऽवाङ्मुखीरूतघटेन भ-
स्मच्छन्नवद्धिना च उयभिचारात् । न चाऽसौ न घट
नाग्निवा, लोकथ्रतीतिवाधाप्रसङ्गात् । तस्माद् मज्ञलपदार्थ-
ज्ञानापयोगाऽनन्यत्वादागमतस्तदुपयुक्रा भावमङ्गलमिति
स्थितम् ॥ नोआगमतस्तु आगमस्य सर्वनिषधमाधित्य
खुविशुद्धः प्रशस्तः क्षायिकनल्तायोपशामिका ऽऽदिको भावो
भावमङ्गलम् , भाव एवं मङ्गलं मावमङ्गलमिति कृत्वा ।
उपलक्तषणव्याख्यानादागमवज॑ज्ञानचतुष्टय-दशन -चारित्राणि
च नोश्रागमतो भावमङ्गलतया . वाच्यानि, भावतः पग- -
माथतो मङ्गल भावमङ्गलमिति रत्वा । इति गाथा -
थः ॥ ४६ ॥
प्रकारान्तरेणाऽपि नोश्रागमतो भावमङ्गलमाद-
अहवा सम्मइंसण-नाणचरि त्तोवओगपरिणामो ।
नोआगमओ भावो, नोसदो मिस्सभावम्मि ॥ ५० ॥
अथवा-प्रतिक्रमण-प्रत्युपत्षणा $ऽदिश्ियां कुवौणस्य यो
ज्ञान-दशन-चारित्रापयोगपरिणामः, स॒ नोआगसतो भा-
तो भावमङ्गलं भवति । नाशब्दश्चाऽ्र मिश्रवचनः, य-
स्माद् नासो ज्ञान-दशैन-चारिओपयोगपरिणामः केवल
पवा ऽऽगमः, चारित्रा 5 देरपि सद्भावात्, ना$प्यनागम एव,
ज्ञानस्या ऽपि विद्यमानत्वात् , इति मिश्रता । इति गा-
थाऽथः ॥ ५० ॥
«६४ कटी
अमभिधानराजन्द्र
मगल
संगल
अथा 5न्यन प्रका रेणा 5 ५ह--- |
अहवेह नमुकारों-इनाणकिरिआविमिस्सपारिणामों ।
म्
नेगम भ्र, जम्हा से आगमो देसे ॥ ५१॥
च्रधचेह नोआगमतो मावनङ्धलाप्िकारे नमस्करणं न-
प्रस्कारो ऽदैदादिष्रलतिरिव्यथैः, ख श्रादियेषां स्तोताऽऽदीनां
ते ननस्काराऽऽदथस्तेवु ज्ञानो पयोगो नमंस्कारा 5 ८दिज्ञानम ,
क्रिया शिरसि करकमलमुकुलविधाना $ ऽदिका, नमस्कारा-
5ऽदिज्ञान च क्रिया च नमस्काराऽऽदिज्ञानक्रिये वाभ्यां वि-
भिश्रश्चासौ परिणामश्च । सख किम् ? , इत्याह- नो" इत्यादि,
चेत्यवन्दना 5 यवस्थायां यो नम्नस्कारा55दिज्ञान-क्रियामि-
थितपरिणामः खं नोआगमतो भावमइले भण्यत इत्य-
थेः। कुतः ?, इत्याइ--यस्मात् ( से) तस्थैव भावतः परिणा-
मस्याऽऽगमो नभस्कारा ऽऽदिश्चानोपयोगलन्ञणो देशे एक-
देशेऽवयवे वर्तते, नोशब्दश्चेदैकदेशवचनः । इति गा-
थाऽथेः॥ ५१ ॥
तंदेवमुपदार्शित नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदतश्चतर्विवं म-
लम् । पतेवु च नामा ऽऽदिमद्गलेष्वाय्रयस्याऽन्यो ऽन्यम-
भेदं पश्यन् चरः प्रेरयति--
्रभिहाणं दव्यतं, तत्थसुनत्तणं च तुन्नाईं।
को भाववजिआशणं, नामाईणं, पहविसेसों ? ॥ ५२ ॥
भावय्जितानां भावमेक्त वर्जयित्वा शेषाणां -नामा ऽऽदीनां
नाम-स्यायना-द्रव्याणाभित्यथेः, कः प्रतिविशेषः ?; न कश्चि
दित्यथेः । कुतः ? इति चेत्। उच्यते-यत एतानि लिष्वपि
तुल्यानि। कानि पुनस्तानि १, इत्याह-अमिधान तावद्
नाम जिष्वपि तुल्यम् , नामक्ति पदाथ, स्थापनायां, द्रव्ये च
मङ्गलाभिधानमात्रस्य सर्वत्र भावात् । तथा द्रव्यत्वमपि
विष्वपि तुल्यम् , यतः-“ जस्स शे जीवस्स वा जीवस्स
वा मेगल ति नाम कीर्इ |” इत्यादि वचनाद् नामनि तावद्
द्रव्यमेवाऽभिसंवध्यते, स्थापनाःयामपि “ यत् स्थाप्यते ”
द्राति वचनाद् द्वव्यमेवा55योज्यते, द्रव्य तु द्रव्यत्वं विद्यत-
पव, इति तिष्वपि द्रव्यत्वस्य तुदयता । तथा तदर्थश्ल्यत्वं
च भावःथशल्यत्वं च तेष्वपि समानम् , वाम-स्थापना-
द्रव्येषु भावमङ्गलस्यःऽभावात् । तस्मादभिधान-द्रव्यत्व-भा-
वाशशन्यत्वानां समानत्वाद् नाम-स्थापना-दव्याणं परस्प-
रमभेदः, भावे तु तदथश॒ल्यत्वं नास्ति; इत्यतएवताऽसौ ना-
माऽऽदिभ्यो विशेष्यत इति भावः । इति गाथाऽथः ॥ ५२॥
परेरेवमविशेे प्रेरित यो विषः,
तमभिधित्खुः सूरिराह--
आगारो5मिप्पाओ, बुद्धी किरिया फलं च पाएण |
जह दीसइ ठवशिदे, न तदा नामे न दर्ब्विदे ॥ ५३॥
यथा स्थापनेन्द्रे श्राकारो लोचनसहस्त्--कुणडल-किरीट-
शची सनिधान-कर्कुलिशधार्ए-सिद्ा सनाऽध्यासना ऽऽदि-
जनितातिशयो देदसौन्दर्यभावो दश्यते, तथा स्थापना क्तश्च
यथा सद्भतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, तथा द्रष्डुश्च यथा
तदाकारदर्शनादिन्द्रवुद्धिर्षजायते; यथा चैनमुपततवमानानां
तद्धाक्रिपरिरातबुद्धीनां नमद्कर्याऽऽदिका क्रिया स बीदयते,
फल च यथा प्रायेशोपलभ्यते पुबोत्पत्यादिकम् , न तथ
नामेन्द्रे; नाऽपि द्वव्येन्द्रे ठतो नाम-द्रव्याभ्यां तावद् व्यक्त
एव भेदः स्थापनाया इति भावः । इति गाथा ऽथः ॥ ४३ ॥
तदेवं स्पष्टतया लच्यमाणत्वादादाविव नाम-दव्या-
भ्यां स्थापनाया भेदमभिघत्य नाम-स्थाप-
नाभ्यां द्रव्यस्य भेदमाभिधित्सु राह--
भावस्स कारण जह, दव्वं भावो अ तस्स पजाओ !
उवओऔओोगपरिणइमओ,न तहा नाम न वा ठवणा ॥५४॥
यथा 5लुपयुक्नवक्कुप्रश्नतिकं समधुदरव्येनद्राऽऽदिकं वा द्वव्य
भावस्योपयोगरूपस्य भविन्द्रपरिणतिरूपस्य वा यथासं-
ख्येन कारणं निमित्त भ्वति, यथा च~ |
मच्च त्ति उपयोगमयो भावेन्द्रपरिशतिमयश्च भावो यथास
ख्यन त॑स्याऽनुपयुङ्कवक्ठपश्चतिकस्य सशधुद्रव्यन्द्राऽऽदिक-
स्य वा द्रव्यस्य पयायो धम भवति, न तथा नाम, नाभ्यि
स्थाषनति । इदमुक्तं मवति-यथा नुपयुक्तो वक्का द्रव्यं कदा-
चिदुपयुङ्कत्वकाले तस्योपयोगलक्तणस्य भावस्य कारण
भवति, सोऽपि वोपयागलक्तणो भावस्तस्याऽनुपयुङ्कवङ्त्-
रूग्रस्य द्रव्यस्य पयोयो भति, यथा वा साधुजीवो द्वब्येन्द्रः
सन् मावेन्द्ररूपायाः परिणतः कारणं भवति, साऽपि वा भावे-
न्द्रपरिणातिरूपो भावस्तस्य साधुजीवद्रव्यन्द्रस्य पयाया भव-
ति,न तथा नाम-स्थापने । श्रतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेद्ः,नाम्नस्तु
स्थापना-द्रव्याभ्यां भदः सामध्योदिवाइवसीयत इति । तदेवे
यद्यपि परप्रेरितप्रका रेण नाम-स्थापनाद्रव्याणामभदः, तथा-
प्युक्रूपेण प्रकारान्तरेख भेदः सिद्ध एव, नदि दुग्धतक्रा ऽऽ-
दीनां श्वतत्वाऽप्दिनाऽभेदेऽपि माथुयौऽदिनाःऽपि न मेदः, श्चन-
न्तधमौध्यासितत्व्छद् वस्तुन इति भावः। इति माथा ऽथेः॥५८७॥
तदेवे भेदग्याख्यापन्े समर्थिते भूयोऽप्यफरेण प्रकारे-
; णाऽ-ऽह परः-
इह भावो च्चिय वत्थु, तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं १ ।
नामादओ वि भावा, जंते वि ह वस्थुपजञाया ॥५५॥
इह नामा ऽऽदिषिचार पच्छान्ते भाव एव वस्तु, विवत्तिता-
्थक्रियासाधकत्वात् , उभयसम्मतवस्तुवत् ; न हि भावेन्द्र-
वद् विवत्तितार्थसाधनसम्था गोपालदारकाऽ ऽया नमेन्द्रा-
ऽऽदयः+शरतः किमव शेषेभौवाधशल्येनौमाऽऽदिभिःन कि-
थिदित्यर्थः श्रजोत्तरमाद--“नामादश्रो ' इत्यादि । इदमुक्तं
भवति-यदि सामान्येनैव भावों वस्तुत्वेनःऽभ्युपगम्यते,
तदा सिद्ध लाद्धथता, यतो नष्मएऽऽक्योऽपि, आदिशब्दात् `
स्थापना-- द्रव्यपरिग्रहः, भावाः; भावविशेषा इत्यथैः । कु-
तः?, इत्याद-यद्-यस्मात् तेऽपि-नामाऽऽदयो वस्तुनः फ्यी-
या धर्माः.तथाहि-अविशिष्टे इन्द्रवस्तुन्युश्चरिते नामा.ऽऽदि-
कं भेदचतुष्यमपि प्रतीयते--किमनन नामिन्द्रो विवक्षितः
आहेोस्वित् स्थापनेन्द्रः,द्रव्येन्द्ः, भवेन्द्र वा ?, इति । ततः
सामान्यस्येन्द्रवस्तुनश्चत्वारे ऽप्यमी पयौयाः,इति नामा55द-
यो भावविशषा एव, इति भावस्य वस्तुत्वसाधने न किग्िद्,
नः क्तूयते पवयः, भेदः, भाव इत्यन थोन्तरत्वात् । श्रथ ॒वि-
शिष्टार्थक्रिया साधक भावेन्द्रा$ऽदिकं भावमाशित्य वस्तुत्वं
साध्यते,तथाऽपि न काचित् क्षतिः, यतो भावेन्द्रा5देभावस्य
विशिशधेक्रियानिवेतकत्वे नाभेन्द्राऽऽदिपयौयाणामपि वश्
सिध ` ` - 27१३८ त्रइंका#याएशर०कथमकापे कः
च न्यः
` १५ )
संगल
डृष्टव्यमेव, द्रव्यरूपतया पयोयाणां परस्परमभदात् । इति
गाथाएथे: ॥ ५५॥ `
अथवा-भावमक्न ला 5एद्कारणत्वात् नामाऽऽदीन्यपि
भावसङ्गलाऽऽदिरूपारयेव, इति दशयन्नाट-
अहवा नामं ठवणा दव्वाहं भावगैगलेऽगाई ।
पाणण भावमंगल-परिणामनिभित्तमावाओ ॥५६॥
अथवा नाम-स्थापना-द्रव्याणि भावमङ्गलस्येवाऽङ्गानि का
रणनि | कुतः?, इत्याह-"पाएण इत्यादि ' भावमङ्गलपरिणामो
भावमङ्गलापयोगो भावमङ्गलसाध्वादिपरिखतिरूपो वा,
सचिमित्तभावात् तत्कारणत्वादिव्यथैः । यश्च॒ यस्य कार-
खे तत् तद्व्यपदेशं लभत एव, यथा “ श्रायुधतम् ' ` रू-
पको भोजनम् ' इत्यादि \ क्लिएकमंणां केषाञ्चिद् नामा55दी-
नि भावमङ्गलकारणानि न भवन्त्यपि, इति भरायोग्रहणम् ।
मज्नललविचारश्चेह प्रकान्तः , तेन भावमङ्गलकरणानि
नामा दीन्युज्ानि, यावता भावेःद्राऽऽदेरपि तानि कारण-
त्वेन द्रष्टव्यान्येव । तस्माद् भावमङ्गला.+ऽदिकारणत्वाद् नामा
$ऽदीन्यपि तद्रूपाणयेव, इति भावस्य वस्तुत्वसराधने नामाऽऽ
वीनामपि तत्कारणत्वात् तद् न क्षुयते। इति गाथाऽथः ॥५६॥
अथ नामाऽऽदीनां भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणान्याह---
जह मंगलाभिहाणं, सिद्धं विजयं जि शैदनामं च |
सोऊण पेच्छिङण य,जिणपडिमालक्खणाईणि। ५७।
परिनिव्वुयमु शिदेह, भव्वजइजन सुवन्नमछाई ।
अभिधानराजेन्द्रः ।
|
दद्ध भावमङ्गल परेणामो होड पाएण ॥ ५८ ॥
यथेत्य॒दादरणोपद नाथः , तद्यथेत्यथः । सङ्गलमिति श-
ब्द् रूयमभिधानम् , तथा सिद्ध! सिद्धा ऽभिधानम् , विजया-
ऽभिधानम् , जिनेन्द्र $ऽदिनाम च केनचिदुचरितं श्र॒त्वा
कस्यचित् प्रायेण सम्यग्दशनाऽऽदिको भावमङ्गलपरिणामो
अवति, इति नस्ने भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम् । तथा
प्रेक्य चाऽवलोक्य जिनभ्रतिमालच्तणाऽऽदीनि जिनप्रतिमास्व-
स्तिकाऽऽदीनीलयथः, ्रादिशब्दादनगारपदा ऽ ऽदिपरिग्रदः
भगवमङ्गलपरिणामो भवतीचयत्राऽपि सदध्यते । पतन्तु स्था-
पनाया भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम् । श्रथ द्रव्यस्य त-
त्कारणत्वे दष्टान्तमाह--परिनिर्तो मुक्ति गतो योऽसौ
सनिस्तदेहम् , तथा भवग्ययतिमेविष्यदूयतिपर्यायो योऽसौ
जनस्तम् , तथा खुवशमास्या ५ऽदि च दष्टा प्रायेण सम्यग्द-
शना $ऽदिभावमङ्गलपरिणामो भवतीति । श्रतस्तत्कारणत्वाद्
नामा 5ऽदीन्यपि भावमङ्गलगनि, इति स्थितम् ! इति गाथा-
दया थे: ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
ननु नामा ऽ-ऽदौन्यपि यदि भावमङ्गलानि, तहिं कि तान्यपि
तीर्थकराऽऽदिवत् पूज्यानि ?, इत्याशङ्न्या ऽऽद--
कि पु तमणेगंतिय-मबन्तं च न जओडमिहाणाई।
तव्विवरीअं भाव, तेण विसेसेण तं एज ॥ ५६ ॥
नामाऽ ऽदीन्युपयुक्तयुक्या भावमङ्गलानि । कि पुनः ?, यो
विशेषः स उच्यते-तदभिधानाऽ.ऽदिश्रयमनैकान्तिकम् स-
मोदितफलसाधने निश्चयाऽभावात् , वथा५ऽव्यन्तिकं च
यतो न भवति , आत्यब्तिकप्रकर्षप्रातततथाविधविशिष्टफल-
खाधकत्वाभः्व् । भावे-भावविषयं -तु महृलमुक्तलिप-
मंगल
रीतस्वरूपम् , तेन विशेषतो यथा तत् पूज्यम्, नेवमि-
तराणि | इति गाथा5थेः ॥ ५६ ॥
तदेवं भिन्नवस्तुषु विशषतश्िन्त्यमानानां नामा ऽदीनां प्रधा-
नतरभावो दशितः, सामान्यतः पुनर्विचिन्त्यमानाना सववस्तु-
. घु प्यकं चतुणमप्यमीषां सद्भावः प्राप्यत पव, इति दशय
जाह--
अहवा वत्थुभिहाणं, नामं ठवणा य जो तदागारो ।
करणया से दवं, कज्ञावन्न तय भावो ॥ ६० ॥
अथवा सर्वस्यःऽपि घर-पटा+ऽदिवस्तुनो यदा 5 5त्मीयमाभि-
धानं तदू नाम, यथोध्वैकुरडलेष्वायतचृत्तग्रीवो घटः, श्राता-
नवितानीभृततन्तु सन्तानः पट इत्यादि । स्थापना पुनयैस्तस्थे-
व स्वस्य वस्तुनो निज श्राकारः। भाविकपाला 5 5दिकार्या पक्ष-
या तु या (से) तस्य सवेस्याऽपि वस्तुनः कारणता-देतुता तद्-
द्रव्यम्, “भूतस्य भाविनो वाःभावस्य दि कारण तु यज्ञोके ।
तद् द्रव्यम्" इति वचनात्। खत्पिडा4ऽदिवस्तुनस्तु कार्या<-
पन्ने जन्यत्वा $ ऽपन्नं तदेव घटा ऽ ऽदिकं सर्व वस्तु भावो ऽभिधी
यते; भवनं भाव इति कृत्वा । इत्थं सर्वे वस्तु चतुरूपाऽविनाभू-
तं दृष्टम्, एवमेव सम्यग्दशनव्यवस्थानात् , स्वैनयसमुहा 5 5-
त्मकत्वाज्िनमतस्य । वदेवं सर्वस्याऽपि वस्तुनश्चतूरूपतायां
किमुच्यते 'इह भावो चिय वत्थु,तयस्थसुन्नेद्दि कि ब सेसेहि |”
इत्यादि ?, नहोकस्मिश्नेव वस्तुन्येककाले विद्यमानानां पर्या-
याणां मध्ये ' अय वस्तु ' 'अपस्स्त्ववस्तु , इति वक्षं शक्यते,
द्रव्यरूपतया सर्वेषामपि तेषामेकत्वादिति मावः ।
याथाउथेः ॥ ६० ॥ विशे०। त
तदेवमवसितं प्रासङ्किकम् । प्रकतमुच्यते, तचचेदम्-पूव नो-
आगमतो भावमङ्गलं नशब्दस्य सवेनिषेधवचनत्वे विशः
क्ञायिका 5ऽदि्माव उक्तः, मिश्रवचनत्वे तस्य शानदशनचा-
रिओओपयोगः,पएकदेशवचने पुनस्तस्या ऽन्नमस्काराऽदिज्ञान-
क्रियाविमिश्रपरिणामः प्रोक्तः । साम्प्रतं नाशब्दस्येकदेशवा-
. चित्वे नोश्रागमतो भावमङ्गल ज्ञानपञ्चकरूपा नन्यपि भव-
तीति दर्शयज्नाइ--
मंगलमहवा नन्दी, चउव्विहा मेगलं च सा नेया |
दव्वे त्रसम्ुदओ, भावम्मि य पच नाणाई ॥ ७८ ॥
सूजस्य सूचकत्वाद् नोश्रागमतो भावमङ्गलस्येव च ॒भस्तु-
तत्वाद् मङ्गलशब्देनेह नोञ्रागमतो भावमङ्गलमिति द्रष्टव्यम् ।
श्रथवाशब्दस्तु पृबौक्तपक्ल्रयापेत्तया विकल्पार्थः, ततश्वायम-
ेः-यदि वा नोआगमतो भावमङ्गलमन्यद् दष्टग्यम्। कि तत् १,
इत्याट- नन्दी, नन्दनं नन्दी, नन्दन्ति सम्ठद्धिमवाप्नुचन्ति भ-
व्यप्राणिनो ऽनयेति वा नन्दी,दये च सत्रे सामान्योक्तावपि व्या-
ख्यानतो विशेषग्रतिपत्तरिद ज्ञानपञ्चकरूपा गृह्यते । सामा-
न्यसूपेण तु चिन्त्यमानाऽसौ मङ्गलवद् नामा ऽ ऽदिचतुर्विधा भ-
वति। एतदेवा 55ह-“चउव्विदेत्यादि तवर नन्दी,इति यत् कस्य-
चिद् नाम क्रियते सा नामनन्दी । श्रक्ताऽऽदिषु स्थापिता स्था-
पनानन्दी । द्रव्यनन्दी तु दिविधा-श्रागमतः, नोश्रागमतश्च ।
तत्रा$ऽगमतो नन्दीपदाथेज्ञो ऽचुपयुक्कः,नोश्रागमतस्तु श्-भव्य-
शरीरोभयव्यतिरिक्ता दब्यनन्दा द्वादशप्रकारस्लूर्यंसमुदयः ।
तद्यथा-'संभा-सुगुन्द-महल,कडंब-भल्लरि-हुडुक-कंसाला ।
काहल-तलिमा वंसो, संस्मे घरवो य वारसमो ? ॥ १.॥
इद च दव्वे तृरसमुदओ' . त्यनेन क -भव्यशरीरणष्यतिरिक्ा
दरव्यनन्दी सत्र ऽपि दर्शिता, . नामनन््यादिस्वरूपे; तु पूर्वो- .
( १६.
_ भंगल_
अभिषधानराजन्द्र। |
_संगलावहबिजथय
कनाममङ्गला 5 ऽनु सारेण सुझ्षयत्वाद नोक्रमिति । भावनन्य-
पि दिघा--श्रागमतः, नोश्रागमतश्च । आगमतो नन्दिषदार्थ-
जञस्तत्रोपयुक्कः । नोआगमतस्त्वाह- भावम्मि येत्यादि !
भवे भावनन्दां विचायमाणायां पुनः * नोआगमतो “भाव
नन्दी ' इति शषः । का चुनरियम् ?, इत्याह-पश्च ज्ञानानि
|
।
श्रागमस्य ज्ञानपञ्चकेकदेशत्वात् नोशब्दस्य चेहाप्येकदेश- |
वाचित्वादिति भावः । इयमेव चेह नोआगमतो भावमङ्गल-
स्वेन प्रस्तुतगाथा ऽऽदौ निर्दिष्ठा इति गाथाथैः ॥७८॥ विशे० । |
न० | आ० म० । ्राचा०। आए० च० । दशा० । प्रव० । प० ब०।
जी० | भ० । जीत० | सम्म० । ज० । ग० । चै० से० । क० प्र०।
चु० । दर्श०। ध० र० । स्था० । उत्त० । ( “ तित्थयरे भगवते › |
9 शब्दे
^ |
दर्टन्यः ) मङ्गल द्विचा--नतिरूपं, स्तुतिरूप च । तदप्ये- |
इति श्रावश्यकस्य मध्यमङ्गलग्रस्तावः * सामाइय
केकं त्रिधा--कायिकं, वाचिकं, मानसिकं च । दशा” १
० । अहदादीनां नमस्कारे, महा० ३ अअ० । पञ्चा
आहंदादिके च । श्राव ।
चत्तारि मंगला-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साहू |
मंगलं, केवलिपज्त्तो धम्मो मंगलं ।
चत्वारः पदाथो मङ्गलमिति, के पते चत्वारः ?, तायुपदशै-
यज्ञाह-अरिहँंसता मेगल' मित्यादि, श्रशोका 5 ऽष्टमहाप्राति-
हायौ ऽ ऽदिरूपां पूजामहैन्तीत्यहैन्तस्ते ऽन्तो मङ्गले सितं,ध्मा-
ते येषां ते सिद्धास्ते च सिधा मञ्गलं.निवौरसाधकान् योगान
साध्रयन्ति इति साधवस्ते च मङ्गले, साधुग्रहणादाचायों पा-
ध्याया गृहीता एव दष्टव्याः, यतोन हि ते न साथवः, धार-
यतीति ध्मः । केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः, केवलिभिः
- सर्वज्षेः प्र्षत्तः प्ररूपितः केवलिप्रज्नप्त., को ऽसौ ?, धर्मः श्चुतध-
मैश्ारित्रधमेश्व मड़लम ,अनेन कपिला ऽ <दिश्रक्नसघर्मव्यवच्छे -
दमाह । अदैदादीनां च महुलता तेभ्य एव हितमङ्गलात्सुख-
प्राप्ते। आव० ४अ०। “ अ्रहेन्तो मङ्गले मे स्युः, सिद्धाश्च
मम मङ्गलम् । साधवो मङ्गलं सम्यग् , जेना धम्मो ऽस्तु
मङ्लम् ॥५॥ न° । पा० । “भगलजयसदकयालोप ।'' ओ० |
भ० । पश्चा० ।
मगलकेड-मङ्गलकेतु- पु०। विदेहमङ्गलावतीविजयस्थमङ्गला-
लयाया नगय्यौः स्वनामख्याते चृपे, “ इदेव. विदेहे मगला-
चईविजण मेगलालयाए नयरीण मगलकेड नरवई ।” दशै°
१ तत्त्व !
मगलग- मङ्गलकः- न० । स्वस्तिका ५ ऽदिके, “अट्डु षट्ठ मंगलगा
पणणत्ता ¦ तंजहा-सौत्थियासिारिवच्छुणंदियावषत्तवद्धणाणयभ-
द्+सणक्रलसमच्छदप्परा । ` रा०। ।
मगलचेहय-मद्गलचेत्य- न० । यृहद्धारदेशा55द्निष्कुटितप्र-
तिमा ऽ 5दिके, जीत० ।
मगलजयसदकयालोय- मङ्गलजयशब्दकृताऽऽल्ोक- पु° ।
यस्य दशोने लोकैजेयज़यशब्दः कियमाणो ऽस्तीति क्ञेयम् |
तस्मिन् , करप० १ श्रधि० २ क्षण ।
मगलडू-मङ्गलार्थ- ननि” |। मदड्जलिनाथ्येते प्राप्तुं साधयितुमि-
ष्यते.दइति मङ्गलाथः। अथवा-श्रथ्येते गम्यते साध्यत इत्यर्थो,
अङ्गलस्या्थौ मङ्गलाथैः । मङ्गलस्ाध्ये, विशे० ।
मगलदीव-मङ्कलदीप-पुं० । भांझल्यदीप, पञ्चा० ८ विव०।
मगलपडिसरण-मङ्गलग्रतिसरण-न० । मङ्गलकङ्कर्, ध० ३
अधि० । पञश्चा० ।
मंगलपाहिया-मड्गलपाटिका-स््री ०। वैतालिक्यां वीणायाम्,
“बेयालिए वीणाण । ” प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या
वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपारिक्ा तालाभावे च
वायत इति विताले तालाभावे भवतीति बैतालिकी | जी०
३ प्राति० ४ अधि० ।
मेगलपायच्छित्त-मङ्गलग्रायाधित्त-न० । भङ्गगलं दध्यक्षतच-
न्दनाऽऽदि तदेव प्रायश्चित्तामिव ग्रायश्ित्तम , दु-खध्नाऽऽदि
प्रतिघातकत्वेनावश्यकर्त॑व्यत्वात् । ढुःस्वप्ना दिप्रतिघाता -
या55वश्यकत्तेव्ये देध्यत्ततचन्द्ना ऽऽदिके, श्रौ ०। विपा०।
मगलपुर-मङ्गलपुर-न० । मालवदेशस्थे स्वनामख्याते पुरे,
ती० ३१ कल्प ।
मंगलभत्तिचित्त-मड्भलभक्तिचित्र-जि० श्रष्टानां मङ्गलानां
भक्कया विच्छित््या चित्रमालेखो यस्य । मङ्गलविच्िदत्या ले-
खिति, जी० ३ भ्रदि० ४ अधि० ।
मंगलसइ-मड्भलशब्द-पुं०। मङ्गलमियेवेरूपो मङ्गलभूतो
वा विजयसिद्धचादि शब्दो मङ्गलशब्द्ः । मङ्गलामित्याकारके
शब्दे मङ्गलभूत विजयसिद्धथादिशब्दे , मङ्गलध्वनो च ।
“सोड मङ्गलसदे, खउणम्मि जहा उ इट्टुसिद्धि त्ति । ” पश्चा०
८ विव०।
मेगला-मङ्ला-खी० । दुर्गायास् , हरिद्रायाम् , दूदोयाम् ,
पतिब्रतायाम् , वाच । खुमतिजिनस्य जनन्यां च । प्रव० ११
द्वार आव० । स० । ने० ।
मगलालया-मङ्गलाऽऽलया-खी० मङ्गलावतीविजयन्तेत्रस्था-
यां खनामख्यातायां नगय्यीम् , “ इदेव विदेदे मंगलाघईजबि-
जए मंगलालयाए नयरीपए मंगलकेऊ णर वरं । ` दश० ९ तस्व ।
^“ धायईखेड दीवे पुव्वविदेहे मेगलालयाप शयरीए मगला-
वईविजए शंदिणामो संनिवेसों। ” श्राण्चू० १ श्र° ।
द्शौ० ।
म॑गलावई-मङ्गलावती-खी° । शम्बुदधी पविदेदपुष्कलावती-
विजयपुरडरीकिणी नगरीनपतेर्वज्रसेनस्य धाररयपरनाम-
घयायां स्बनामख्यातायाम् अग्नममाहिष्यास् , आण०चू०१अ० ।
आ० म० । दशारपुरनगर चृपतेदंशाणभद्रस्य स्वनामख्या-
लाथामश्रमटिष्याम् , , आ० चू० १ झ०।
दो मंगलावई | स्था० २ ठा० ३ उ०। ५
मंगलावईकूड-मड़लावतीकूट-न० । जम्बुद्ी पसोमनसवन्तस्का-
रपर्वतस्थे खनामख्याते कटे , मङ्गलावती विजयदेवस्य मङ्ग-
लावती करूटमिति । ज० ४ वक्त । स्था० ।
मगलावरषिजय- मङ्गलावतीविजय- प° । जम्बष्टीपसौमन-
सवक्तस्कार पर्वतमङ्गलावतीकरूटस्थे स्वनाश्रष््याते देवे,
स्था० ७ ठा० । सखनामख्याते चक्रवार्तिविज्ञयक्षेत्रेच । च० ।
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[वि
(६१७९)
संगलायहविजय
अशभिघधानराजेन्द्र। ।
3. मज
मंगलावईविजए रयण लेचया रायहाणी । ज० ४ वक्त । |
|।
“धातकीखंडे दीवे पुव्वविदेहे मंगलावईविजए खणंदिग्गामो।” |
द्ा० म० १ अ०। आ० चू०। `
मेगलालयाण णयरीए । `
तीविजयं नाम चक्रवर्तिविजयामिति । स्था० ८ ठा०।
मेगलावतत मङ्गलाऽपवत्ते पं" वनाम मंगुल मङ्गल जि । सुन्दरे, दश० ३ तत्व । आ० म०।
दो मगलावत्ता । स्था० २ ठा० ३ उ० |
मगलावत्तविजय- मङ्गलाऽऽवतेविजय-न०। विजयक्षेत्रे, ज०। |
कहि शं भते ! महाविदेहे वासे मंगलाबत्ते णामं वि-
जए पष्पत्ते ?। गोयमा ! णीलवतस्स दक्खिरेण सीताए
उत्तरेणं शलिणक्डस्स पुरच्छिमेणं पंकावईए पच्चच्छि-
भेण एत्थ णं मंगलावत्ते णामं विजए पष्पत्ते । जहा |
कच्छस्स वेजए तहा एसो वि भाशिअव्बो ० जाव मंग-
लावत्ते अ इत्थ देवे परिवसइ, से एणएणड्टरेणं० | ज०
वक्ष ० ।
मंगल्ल- मङ्कल्य-त्रि° । मङ्गले साधुम॑ङ्गल्यः । ज्ञा० १ श्रु० १ |
अ० । अनथेप्रतिघातके मङ्गलकारिशि , भ० १ श० ५
उ० । मङ्गल्यं दुरितोपशमसाधु । भ० २ श०१ उ० ।
ज्ञा० । मङ्गलाय दितं यत् | रुचिरे च । चन्दने , मङ्गला-
गुरुणि , खण, सिन्दुरे, दध्नि च।
चराडी । अश्वत्थ, विस्वे , जीरके , मसूरके , नारिकेले, क-
पित्थे, रीटाकरञ्जे च । पु० । वाच० ।
माङ्गल्य -न० । मङ्गलमेव मङ्गलाय हितं प्यञ । मङ्गले, मज्ञ-
लसाधने च । वाच०। दुरितक्तये, साधुर्माङ्गस्यः । स्था० &
ठा० । अनर्थप्रतिधातके, रि० । भ० ६ श० ३३ उ० । औ०।
मगी-मङ्गी-खी० । षद्जग्रामस्य सप्तसु मूच्छेनासु प्रथम-
मूच्छैनायाम् , स्था० ७ ठा०।
मेगु-मङ्-पु०। सखनामसख्याते आचार्य्य, आ० क०।
तत्कथा चैवम्-
“ मथुरामागमन्मङ्क--राचायैः श्रुतपारगः ।
धर्मो पदेशवान् लब्ध्वा, भविकश्रतिवोधकः ॥ १ ॥
सख्द्धाः श्रावका भक्त्या, भोज्यानि सरसानि च ।
सुखनावस्थितिस्तत्र, तस्या ऽभूत्सर्वकालिकी ॥ २॥
ऋद्धिरससातरूप, ततो ऽभूद्रौरवत्रयम् ।
नित्यवासी स त्राऽऽसी-दतो लौल्याद्धिशेषतः ॥ ३ ॥
आयुःच्तये स सत्वाऽभू-न्ते निधमने पुरः ।
ज्ञात्वाऽवधेः खं शिष्यान् स्वान् , सक्ञाभूमिमुपागतान्॥ ४॥ |
इृष्टा प्रासारयदीघा, जिद्दां बोधयितुं खुधीः ।
तेष्वेकः सात्विकः साधु-रूचे त्वं कोऽसि गुद्यक !
- सख ऊचे वो गुरुत्वा, लोल्यादीद द खुरो ऽभवम् ।
नित्यवासं ततो यूयं, परित्यज्य कृतोद्यमाः ॥ ६॥
विहरध्वं क्रियानिष्ठाः, लमध्वं मा स्म दुगतिम् ।
श्र॒त्वा शुरूचचा ऽदष्र-प्रत्यया गौरवेषु ते । ७ ॥
५
देव विदेहे मंगलावईविजए |
दशै° १ तत्व । स्था० । जम्बूमन्दर- |
पूयेस्यां शीताया महानद्या दत्तिणस्यामुत्तरस्यां च मङ्गलाव- |
` सर्वमङ्गलमङ्गल्ये ` इति |
॥४॥ |
|
|
|
तदेवा ऽऽवेद्य भव्यानां, व्यदाधुस्त्यक्षगोरवाः। ` आ०क०४अ०।
श्राय्यससुद्रस्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य्ये, आर्य-
समुद्रस्यःऽपि शिष्यमार्य्यमड्ढ वन्दे, किभूतमित्याह--
भगे करं करगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं ।
वदामि अज्ञमंगु, सुयसागरपारगं धीरं ॥३०॥ नं० ।
( व्याख्या ' अज्जमंगु ` शब्दे प्रथमभागे २११ पृष्ठे गता । )
व्य० } उपा० । “इय मंगुल आयरिए,मंगु लसीसे मुणेयव्वे ।'"
स्था० ४ ठा० ४ उ०।
मेयुवायग -मङ्कवादक - पु । महुवादनकारके,आण०चू० १अ० ।
| मंगुस-मङ्खस- पुं०। भुजपरि सर्पभदे, प्रज्ञा० १ पद् । सूत्र०।
मंच मश्च. पु०। ' मचि ` उच्छये, घञ् । खद्रायाम् , स्तम्भ-
न्यस्तफलकमये ( ज्ञा० १ श्रु० १ आ० ) वंशनिर्मिते उच्चा-
ऽऽसने, मञ्चः स्थणानामुपरि स्थापितवशकटकाऽऽदमया
लोकप्रसिद्धः । बृ० २ उ० । आचा० । “ अकुट्टो होइ मचा।
स्था० ३ ठा० १ उ० । भ्र० | प्रक्तणकद्र॒ष्ट्रजनोपवशनानामत्त
मालके, झा० १ श्रु० १ अ० । ओ० । दश० । मञ्चा मञ्चस-
दशः । यागभेदे,सू०प्र० १२ पाहु०। स्वार्थ कन् । तत्रव,वाच० |
मंचाइमंच-मश्वातिमश्व-पुं० । मञ्चो महात्सवाविलाकनज-
नानासुपवेशननिमित्तमालकः, अतिमञ्चस्तस्योएरि मालकः।
मालकोपरिवर्सिनि मालके, “ मंचाइमंचकलिए । " कल्प”
१ अधि० ५ क्षण । श्रो० । दशा० । ज्ञा० मञ्चान् व्यवहार-
प्रसिद्धान् द्विता ऽऽदिभूमिकाभावतो ऽतिशायी मञ्चो मञ्चाः
तिमञ्चस्तत्सदशो योगाऽपि मञओातमश्चः। चन्द्रसूय्ययान
क्षत्रयोगेन जायमानेषु वृषभालुजाता55विकेषु दशस योगेषु
स्वनामख्याते चतुथं योन, सू०प्र० १२ पाहु० ।
मंचिया-मश्विका खी । आसनभेदे, “ निवेशयात्र तन्वङ्गि,
सत्वरं वरमश्चिके | " आ० क० १ श्र०।
| मंजरी मञ्जरी- खी० । मञ्जु अच्छाति । ङीष् । अभिनवो रू-
तायां खकुमारायां पल्लवाङ्कररूपायां बल्लय्योम् , वाच० ।
श्नो० । आचा० । ङीवन्तस्तु तन्न । मुक्रायाम् , तिलकल-
तायाम् , तुलस्यां च । वाच० |
| मंजरीगुंडी-मज्जरीगुएडी-खी० । वल्लीमिदे, “ ( ३४५ ) तो-
मरिगुंडी य मंजरीगुंडी” पाइ० ना० १३६ गाथा ।
मजार माजार पु | सज-आरन् । “ वक्रा55दावन्तः ॥८।१।
२६॥ इति प्राकृतसत्रेणानुस्वारः । प्रा० १ पाद 4 विडाले,
रक्नचित्रके, खद्दासे च । ततः संज्ञायां कन् । मयूरे, वाच० ।
म॑जिदट्दोणी-माज्िष्टद्रोणी- खी° । मजिष्ठरागभाजने, भ
८ शद उ०।
| म॑जिया- मल्जिका- खी० | मध्यवरतिंनि मागे, श्रा० म० १ श्०।
मजु मञ्जु-जि० । मनोहरे, वाच० । पिये, जी० ३ प्राति० ७
अधि० । रा० । ज० । कोमले, भ० ६ श० ३३ उ० | कल्प०।
अतिकोमले, ' मंजुमंजुणा घोसेण पडिबुज्कभमाण । ” भ० ६
ॐ व्
शा०३३ ड० । कट्प° | औ०। खुन्दर, पाइ०ना० ८८ गाया ।
र
१.२ (
मजुघोास
१८७)
अभिधानराजेन्द्र ४ ।
मजुघास- मञ्जुधाष ० । मज्जु प्रयो घोषा यस्य सः | रा०।
कणमनःसुखदायधघाषापत , ज० १ चक्त०। जी०।
।
|
|
मेजुल मञ्जुल त° । मञ्ज उलच् । मनोहरे, वाच । कोम- |
ल. ज्ञा० १ श्रु० १ आ०। विपा० । स० | नि० ! प्रश्न० | भ०।
“अदु मेजुलाई भासति ।” मञ्जुलानि-पशलानीति । सूत्र ० १
श्रु० ४ अ० १ उ०। मञ्जुलाः सुर्लालतवर्णमनोहरा इति। |
कल्प० १ अधि० ३ क्षण | पाइ०ना०।
मजुलप्पलाव -मञ्जुलग्रलाप -त्र० । मञ्जुलो मधुरः पलापो |
जल्पा यस्य सः । मधुरजल्पे, परश्न० ४ आश्र० द्वार ।
मंजुस्सर -मज्जुस्वर-त्रि० । मञ्जु; प्रियः स्वरो यस्य । जी°
3 प्रति० ४ अधि० । तं० । रा० । करमनःसुखदायिस्वरोपे-
न , ज० १ वक्त० ।
मजूसा मञ्जृषा-खो० । मनज-उषन् । पाटेकायाम् , वाच०। |
वारसदाहा म॑जुससाटया जारहवीदइ मुदे |” स्था०६ ठा० । |
आवब० । जम्बरमन्द्रपृवस्या शाताया महानया उत्तरस्या |
स्वनामख्यातायां राजधान्याम् , स्था० ८ ठा० । ज० । मञ्ज्- |
पायाम् , वाच० !
दो मंजूसा | या० २ ठा० ३उ०।
मंडग-मणडक-पुं० मडि-रवुल् । पिष्टकभेदे, वाच० । मण्ड-
काः सृक्राणकामयाः । बृ० १ उ० २ प्रक । समितिमायाम्
बृ० १ उ० २ प्रक०। दक्षिणापथे कुडवा्ंमात्रया महाप्रमाणो
मगडकः क्रियते स हेमन्तकाले अरुणोदयवेलायायग्नीष्ि-
काया पक्त्वा ध्रलीजङ्घाय दीयते । बु० १ उ० ३ प्रक० । इत्यु-
क्लक्तणे पदार्थ, वाच० ।
मडण मण्डन पु०। मरडयति मडि ल्युः। अ्रलङ्कारके, वाच ०
शाभाकाराण, स० । भावे ल्युट् । भूषायाम , न०।
वाच० । मण्डन कडणाऽऽदाभारात । अचु० । उत्त०।
मंडणशधाई-मण्डनधात्री खी० । मणिडकायाम् , तदपे धा-
जीभेदे च | ज्ञा० १ श्रु० १ अ० | नि० चू०।
मडव ( ग )-मण्डैप( क )- प° । न०। मडि घञ् ¦ मरडं भू-
घां पाति रक्तति । पा-कः । मडि कपन् वा । जनवि-
श्रामस्थाने, देवा $ऽदिगरदे, वाच० । श्रो० । यज्ञाऽऽदिमरडपे,
प्रश्ष० ३ सम्ब० द्वार | नागवज्लीद्रात्ताऽऽदिभिवष्ते स्थाने,
उक्त० १८ अ०। ओ० । जी० | छायायथ परादिमये श्राश्रय-
विशेषे,जी० ।
तस्स शं वशणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बह-
वे जाइमडवगा जृहियामंडवगा मद्िया्मडवगा णवमा-
लियामडवगा वासंतीमेडवगा ददिवासुयामडवगा सुरिलि-
मंडवगा तब्रालीमेडवगा मुहिया्मडवग। णागलयामडवगा
अतिपुत्तमंडवगा अ्रप्फोयामंडवगा अ्मत्तामडवगा मालु-
यामंडवगा सामलयामडंवग। निच्चं कुसुमिया निर्च°जाव |
पढिख्वा | जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रश्न० | स्था०।
मशडोरपत्यं मारडवः। गो्रभेदे,तद्रो त्रापत्ये च । स्था० ७ ठा०।
जे मंडवा ते सत्तविहा पप्मत्ता तं जहा-ते मंडवा
तेआरिट्ठा ते संपुत्ता ते हेरा ते एलावच्रा ते कं-
डिल्ला ते खारायणा। स्था० ७ ठा० ।
मण्डपानक सरि, त्ि० । निष्पाठयाम्, शक शिम्बीमिदे, खी० ।
. विष्कम्भ उच्यते ।
हे मडलपगरण
वाच । अअद्धगव्युतठतीयान्तग्रीमान्तररहिते ग्रामे, न० !
रा० । स्वार्थं कन् । तत्रैव, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। औ० ।
मंडविय-माणडपिक-पुं० । मएडपाधिपे, औ० ।
मंडव्यायशू-माखडव्यायन-पुं० । गोभेदे, तद्गोत्रापत्य च |
चं० प्र० १० पाहु० १६ पाहु०पाहु० । खृ० प्र० | अ०।
मंडल-मणडल-न० । मडि कलच् । चक्रवाले, स्था० ३ ठा० ४
उ० । चक्रा55कारेण वेशने, मएडला ऽ ऽकारेण विहिते पदार्थ,
दादशन्रपचक्रे, गोले , वाच० । मण्डले इत्तमिति | ज्ञा० १
श्रु० & आ० । देशे, स्था० ४ ठा० ३ उ० | ^“. मण्डल पति
विसयमंडले ।” आव० £ अ०। मण्डलमिक्लितं क्षेत्रम्। स्था०
७ ठा० । समुदाये, स० ३४ सम० । यत्र द्वावपि पादौ समो
दक्तिणवामतो 5पसाय्य ऊरू प्रसारयति यथा मध्ये |
भवति श्नन्तरा चत्वारः पादास्तन्मरडलम् इत्यु क्कलच्तणे यो-
धानां स्थानभेदे, व्य० १ उ० । आ० म० । आए० चू० । नि०
चू० । उत्त० । मण्डल सर्वता कृत्तिः इत्युक्कलच्तणे सेन्यव्यूड-
भदे, छृत्रिमरेखासन्निवरोन रचिते पदार्थ, यथा ग्रहमरडल
स्वैतोभद्रमरडलमिति । बिम्बे, वाच० । स्दुध्यौऽऽदीनां म-
रडले, सू० प्र०।
अथ मरडलनिष्पत्तिखरूफ्माह--
रविदुगभमणवसाओ, निष्फज्जइ मंडलं इहं एगं ।
तं पुण मंडलसरिसं, ति मंडलं वुच्चइ तहा हि ॥ १३॥
रविद्विकभ्रमणवशाज्निष्पयते मरडलम् इह! एकं, त-
त्पुनवत्ताऽ $कारतया मणडलसदशामिति हेतोव्यंवहारेण
मरडलमुच्यते । सूया ऽ ऽदीनां मार्गे, मरड> । स्था० ।
सूया ऽऽदीनां मरडलविष्कम्मे , मर्डलशब्देन मराडल-
परिमाणे परिमाणवत उपचा-
रात् । स्रू० प्र० १० पाहु० १९ पाहु० पाहु० । मण्डलप-
रङ्पणे , सूण०्प्र० १ पाहु० ६ पाहु० पाहु० । चत्ताऽऽकार
हृद्विशिेषरूप कुष्ठरोगभेदे , पि० । “ ससारे से न अ-
चछुइ मेडले । ” मरडले चातुगंतिकसंसारे। उत्त० ३१ श्र ० ।
आदर्श च । वाच० ¦ “अंकामया मंडला । ” मण्डलानि यत्र
प्रतिविम्बसम्भूतिः । रा०। कुक्कुरे, दश० ५ ० १ उ०।
सपभेदे च । पुं०। स्त्रियां गौरा० डीष् । गरडदूर्वायाम्,
वाच ० । शुनि, “ (६२) साणा भसणा इंदमहकासमुआ मंडला
ककल पाद० ना० ४१ गाथा।
मंडलग्ग-पुं° । न° । मण्डलाग्र-न०। खडगे, (५४) “खग्गो
असी किवाणं, करवाल मेडलग्गं च । ” पा० इ० ना० ३७
गाथा । “ जह णाम मडलग्गण | `" सूत्र० १ श्रु० ३ आअ० ४
उ० | खड़्गविशेषे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
मंडलज्कयण-मणउला ध्ययन-न० । बन्धदशानां पञ्चमेऽध्य-
यन, स्था० १० ठा० |
मंडलपगरण-मण्डलग्रकरण-न० । विनयकुशलविरचिते च-
न्द्रा $ऽदिमर्डला 5 ऽदिविचारपरतिपादके ग्रन्थे, मएड० ।
पशमिअ बीरर्जिशदं, भवमंडलभमणदुक्खपरिमुक्कं ।
चदादमंडलाई- बिश्रारलवयुद्धरिस्सामि ॥ १॥ मण्ड०।
("१९ `)
अनिधानराजन्द्रः।.
मडलसक्रमण
तवगणगयणदिशसर सृरीसरविजयसेण सुपसाया ।
नरखित्तचारिचदा-इयाण मंडलगमाईणं ॥ ६८ ॥
एसो विआरलसेी, जीवाभिगमाइआगमेहिंतो ।
विणयकुसलेण लिहिओ, सरणत्थं सपरगाहाहिं ॥६६॥
स्वकृतपरक्कतगाथामिः स्मृत्यर्थ लिखितो विचारलेशः न नू-
तनो विहितः, कि तु भ्रीमुनिचन्द्रसरिक्तमएडलकमेव प्राति-
सस्कृतं जीवाभिगम।(5ऽदिगाथाभिः कतिभिः नूृतनाभिश्च,
शेष स्पष्टम् ॥ ६६ ॥ मणड० ।
मंडलपय-मण्डलपद-पुं° । मणडलरूपं पद् मणडलपदम् । सू
स्यो ऽऽदिमरड स्थाने, सू० प्र० १ पाहु० ७ पाहु० पाहु^ ।
मंडलपवेस-मणडलग्रवेश-पुं० | अक्लखलकप्रविष्टस्थेकस्य म-
ज्लस्य यज्ञभ्यं भूखएड तन्मण्डले , तत्र वत्तेमानस्य प्रति-
इन्द्िनो मल्लस्य निपाताय यः प्रवेशः स मण्डलप्रवेशः ।
स्वभण्डले वत्तपानस्य मटलस्य निपाताय प्रतिद्न्दिनो
मटलस्य तन्मण्डलप्रवेशे,
सूय्यस्य दत्ति गेषु उत्तरेषु च रडलेषु च सञ्चरतो यथा
मरडलान्ममरएडले प्रवेशः भवति तथा व्यावर्येते तद्ध्ययन
मण्डलप्रवेशः । उत्कालिकश्रुतभेदे, न० । पा० ।
मंडलमज्छत्थ-मण्डलमध्यस्थ्-ति० । मरडलमध्यभागवतिं-
नि, ज्यो० १५ पाहु० ।
मेडलरोग-मण्डलरोग- प° । वड़स्थानग्यापके रोगे, ज० २
वत्त० । जी ०,
मडलपई-मण्डलपति-खः०। देशकाय्यनियुक्रे,ज० ३ वच्त०।
मंडलवेत- मणडलवत्- न” । मणडलं मरडलपरि श्र मणमस्या-
स्तीति मरडलवत्। चन्द्रा ऽऽदिविमाने , सू प्र० १ पाहु० ७
पाहु०पाहु० ।
मंडलवत्ता-मण्डलवत्ता- खी ० । मण्डल मण्डलपरिश्नमणम-
स्यास्तीति मरडलवचन्द्रा ऽऽदिविमानम् , तद्भावो मरडलव-
त्ता । चन्द्रा ऽभदेविमान, तत्राभेदोपचारात् चन्द्रा $ऽदिचमा-
नान्यव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्त । स्दू० प्र० १ पाहु० ७ पाहु० |
पाहु०।
मंडलवरभद-मण्डलवरभद्र-पुं० | कुएडलवरद्वीपस्थे देवे, स्०
प्र० १६ पाहु०।
मंडलवरमहाभद-मणडलवरमहाभद्र-पुं० | कुएडलवरद्वीपस्थे
देवे, सू० प्र० १६ पाहु० ।
मंडलसंकमण-मण्डलसङ्क्रमण न । सूर्य्या5 ऽदीनां मण्ड-
लान्मरडलान्तर सङ्क्रमे, चे०्प्र० ।
ता कहं ते मंडलाओ मंडल संकममाणे संकममाणे सूरिए
चारं चरति आहिता ति वंदेज़ा। तत्थ खलु इमाओ दु- ¦
वे पडिवर्त्ताओ पष्पत्ताञ्रो, तत्थेगे एवमादंसु-ता मंडलातो |
मंडलं सकममणे संकममाणे सूरिए भेदघातेणं संकामति
एगे एवमाहेसु । एगे पुण एवमाहंसु-ता मंडलातो मंडलं
सकममाणे संकममाणे सूरिए कलकलं सिमर, तत्थ जे |
ककि
५३ |
पि० । यत्रा ऽध्ययने चन्द्रस्य
| ते एवमाहेसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे
सूरिए भयघाएणं .संकमइ, तसि शं अयं दोसे, ता जऽ-
शंतरेणं मंडलातो मंडलं सकममाणे संकममाणे सूरिए भे -
दघाएणं संकमति, एवतियं च णं श्रद्धं पुरतो ण गच्छति,
पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेद, तेसि णं अयं दो
से, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडल सकममाणे
सूरिए कप्पकलं खिव्बेंढति, तेसि णं अयं विसेसे- ता जे5-
शंतरेणं मंडलातो मंडल संकममाणे सूरिए कष्पकलं निव्वे-
ठेति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमा-
णे मडलकालं ण परिहवेति, तेसि णं अयं विसेसे, तत्थ
जे ते एवमाहसु-मंडलातो मंडलं सकममाणे सूरिए काप्पकलं
निव्वेढति, एएणं णएणं शेयव्वं णो चेव णं इतरेणं शे
त्व्वं । ( सूत्रम् २२)
( ता कहमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! मगड-
लात् मरडलं सङ्क्रामन् सूथश्चारं चरति, चारं चरन आख्या-
त इति वदेत्। किमुक्तं भवति ?-कथं भरगवन्नष सुर्यश्चारं चरन्
मरडलान्मरडलं सक्रामन् आख्यात इति। रत्र हि मर्डलान्म- '
रडलान्तरसक्रमणमेव वक्रव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्य-
स्य भावार्थो भावनीयः। एवमुङ्घ भगवानाह -(तत्थ खलु इत्या-
दि ) तत्र मणडलन्मण्डलान्तरसंकरमणविषय खल्विमे द
प्रतिपत्ती प्ञते । तद्यथा--तत्रेके एवमाहुः--' ता ` इति
पूवयैवत् स्वयं भावनीयं, मणडलादपरमण्डल सक्रामन-सक्र-
मितुच्छिन सूर्यो भेदघातेन सक्रामति, भेदो मरडलस्य म
रडलस्यापान्तरालं तत्र घातो गमनम् , एतच्च प्रागेवोक्रं, तन
सक्रामति, किमुक्तं भवति ?-विवक्तिते मण्डले सूर्येणा ऽ०य-
रिति खति तदन्तरमपान्तरालगमनन दवितीयं मरडलं सक्राम-
ति, सक्रम्य च तस्मिन्मरडले चारं चरतीति । अज्नोपसं-
हारः-(पगे एवमाहँसु ) एके पुनरेवमाहुः ` ता ` इति
पूव्वेवत् , मर्डलान्मर्डल सक्रामन् सक्रतुमिच्छन सूर्य-
स्तदधिदृतमरडलं प्रथमत्तणादृद्धमारभ्य करीकलं निर्वेष्टयाति
मुञखति, इयमत्र भावना-भारत ऐरावतो वा सूर्यः खसस्था-
ने उद्वतः सन्नपरमर्डलगतं कणं प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यी-
कृत्य शनः शनराधिकतं मण्डल तया कयाचनापि कलया
मुञ्चन् चारे चरति, यन तस्मिन्नटोरा्रेऽतिक्रान्ते सति अ-
परानन्तरमरडलस्या ऽ ऽदो वत्तेते इति, करकलामेति च क्रि-
याविरोषणं द्रषएव्यम् । तच्चेवे भावनीयम्-करीमपरमर्डल-
गतप्रथमकोटिभागरूप लच्यीरृत्याधिकृतमर्डलं प्रथमक्तणा-
दृद्ध क्षण क्षणे कलयाऽतिक्रान्ते यथा भवति तथा निर्वेष्र-
यतीति, तदवे प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतच्वं तदुपदशी-
याति--( तत्थेत्यादि ) तत्र तषां द्वयानां मध्ये ये एवमाहुः--
मरडलान्मरडलं सक्रामन् भद घातन सक्रामति तेषामयम् अ-
नन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवा ऽऽह-येन यावता कालेन अन्त-
रेण श्रपान्तरालेन मरडलान्मणडलं सक्रामन् सूर्यः भेदघातेन
सक्रामतीत्युच्यते, एतावतीमद्धां पुरतो द्वितीये मरडले न
गच्छति । किमुक्तं भवति ?-मरण्डलान्मणडले सेक्रामन् या-
वता ऊालेनापान्तराल गच्छति तावत्कालानन्तरं परि-
व.
अनभिध्रानराजन्द्रः।
मडलसकमण
[
संडलिअणुवजीवंत
श्रमितमिष्टे द्वितीयमरडलसत्काटोरा्रमध्यात् जुख्यति, ततो
द्वितीये मरडले परिश्रमन् पयैन्ते तावन्तं काले न. परिश्र-
मेत् , तद्रतादोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , एवमपि को दोष
$्त्याह-पुरतो द्वितीयमरडलपयन्ते अगच्छन् मरडलकालं |
परिभवति, यावता कालेन मण्डल परिपूर्ण परिश्रम्यते, त-
स्य हानिरुपजायते, तथा च सति सकलजगद्धिदितप्रति-
नियतदिवसराच्निपरिमारव्याघातप्रसङ्गः । [ तेसि मयं
दोसे त्ति ] तेषामयं दोषः ( तत्थ इत्यादि ) त्रये ते |
वादिन एवमाहुः-मण्डलान्मणडल सक्रामन् सूयो ऽधिरूत-
मण्डल कर्णकल निर्वेश्याति मुञ्चति तेषामये विशेषो गुणए-
स्तमेवा ऽऽद-( जरत्यादि ) येन यावता कालनापान्तरालन
मर्डलान्मर्डलं सक्रामन् सूर्यः कणकलमाधकृत मरडलं
निर्वेटयति,पतावतीमद्धां पुरतोऽपि द्वितीयमरलपयैन्त ऽपि
. गच्छति । इयमत्र भावना--अधिछृत मण्डल किल कणकले
निव्वेष्टितमतो ऽपान्तरालगमनकालो ऽधिकृतमरण्डलसत्क ए- |
वा<5होरात्रे न्तभूतस्तथा च सति द्वितीय मण्डले संक्रान्तः
सन् तद्गतकालस्य मनागप्यहीनत्वात् यावता कालेना5पा-
न्तराल गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छाति ततः कि-
मित्याद-युरतो गच्छन मरडलकाले न परिभवति, याव-
ता कालन प्रसिद्धेन तत् मणडलं परिसमाप्यते तावता काल-
न तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति, न पुनमनागपि मण्डलका-
लपरिहाणिस्ततो , न कथ्चित्सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदि-
वसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः , एष तेषामेवेवादिनां
विरोषो गुणः , तत इदमेव मतं स्माीचोनं नेतरदिव्यावेदय-
ज्नाट-( तत्थेत्यादि ) त्ये ते वादिन एवमाडुः-मण्डलान्म-
ण्डलं सक्रामन् सूर्यो ऽधित मण्डल कर्कले निर्वेष्टयाति,
पतेन नयेनाभिप्रायेणामस्मन्मते5पि मण्डलान्मण्डलान्तरसे-
क्रमरं ज्ञातव्यं , न चैवम् इतरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्न-
त्वात् । च० प्र० २ पाडु० २पाहु० पाहु०। सृ० प्र० ।
मंडलसंटिई-मणडलसंस्थिति-रि०। मणडलसंस्थाने, स्०प० ।
ता कटं ते मंडलसंटिती आदिता ति बदेज्ञा ! तत्थ खलु
इमातो अदु ८पडिवत्तीओ पष्पत्ताश्नो,तत्थेगे एवमाहसु-ता
सव्वा वि मडलवता समचउरंससंठाणसंटठिता पष्पत्ता, एगे
एवमाहंसु १, एगे एण एवमाहंसु-ता सव्वा वि शं मंड-
` लवता विसमचउरंससंटाणसंठिता पष्यत्ता, एगे एवमा-
हंसु २, एगे पुण एवमाहंसु-सव्वा वि णं मंडलवया सम
चउकोशसंठिता पष्यत्ता, एगे एवमाहंस ३, एगे पुण
एवमाहंसु-सव्वाईवि मंडलवता विसमचउक्कोशर्सपिया
पप्तत्ता, एगे एवमाहसु ४, एगे पुण एवमार्हसु-ता स्वा
तरि मैडलवता समचक्कवालसंखिया परणणत्ता, एगे एवमा-
हंसु ५, एगे पुण एवामाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता वि-
समचक्कवालसंटिया पष्त्ता, एगे एवमाहसु ६ , एगे पुण
एवमाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता चक्कऽद्धवालसंटिया
पप्तत्ता, एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वा
लक
रि मंडलवता छत्ता55गारसंटिया पश्तत्ता,एंगे एवमाइंसु ८, '
तत्थ जे ते एवमाहंसु ता सव्या (वे मंडलवता छत्ताकारसं-
ठिता पश्चत्ता, एतेणं णुएणं णायव्व णो चेव श हतरेहिं,
पाहुडगाहाओ भाशणियव्वाओ । ( सूत्र-१६ )
( ता कहं ते मंडलसंठिई इत्यादि ) “ताः इति पूवेबत् , कथं
भगवन् ! 'ते! त्वया मणडलसंस्थितिराख्याता दति भगवान्
वदेत् , एवं भगवता गोतमेन प्रश्ने छते सत्येतद्विषयपरतीर्थि-
कथ्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाथ प्रथमतस्ता एवापदश-
यति-( तत्थ खलु इत्यादि ) तत्र तस्या मण्डलसंस्थितों
विषये खल्विमा वक्ष्यमाएस्वरूपा शष्ट प्रातिपत्तयः प्र-
ज्ञप्ताः, तद्यथा--तत्र. तेषामष्टानां परतीर्थिकानां मध्ये एके
प्रथमे तीथौन्तरीया एवमाहुः, 'ता' इति तेषामेव तीर्थान्त-
सयाणमनेकवक्कव्यतोपक्मे क्रमोपदशेनाथः , ( सव्वा दि
मंडलवय त्ति ) मण्डल मण्डलपरिश्रमणमेषामस्तीति
मरडलवन्ति चन्द्रा ऽऽदिविमानानि तद्भावो मरडलवत्ता,
तजा $भदोपचारात् यानि चन्द्राऽऽदिविमानानि तान्येव
मरडलवत्ता इत्युच्यन्ते , तथा चाऽ ऽह-सवौ अपि सम-
स्ता मणडलवत्ता मरडलपरि भ्रमणवन्ति चन्द्रा ऽऽदिविमाना-
नि, समचतुर ख संस्थानसंस्थिताः प्रज्षत्ताः। अज्ोपसंहारः--
( पगे एवमादेखु ) एवं सवोरयुपसंहारवाक्यानि भावनीया-
नि॥१॥ एके पुनरद्धितीया एवमाइः-सवो अपि मरडलवत्ता वि-
षमचतुरसख्रसंस्थानसस्थिताः पज्ञप्ताः ॥ २॥ तृतीया एव--
माहुः सवा अपि मरडलवैत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्र-
ज्ञता: ॥३॥ चतुथो आहुः-सवौ अपि मरडलवत्ता विषमचतुः-
कोणसस्थिताः प्रज्ञघ्ताः ॥४॥ पञ्चमा आहुः-सवौ अपि मरड-
लवत्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञाः ॥ ५॥ षष्ठा आहुः--
सवौ अपि मरडलवत्ता विषमचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ता:॥६॥
सप्तमा आहुः सवौ श्रपि मरडलवत्ताश्चक्राद्धैचक्रवाल-
संस्थिताः प्रज्ञा: ॥ ७ ॥ अष्टमाः पुनराहुः-सवौ अपि म-
रडलवत्ताष्ुत्राऽ५कारसस्थताः भ्रज्ञप्ताः--उत्तानीकतच्छ-
ाऽऽकारसंस्थिताः॥८॥ पवमष्टादपि परप्रतिपत्तीरुपदश्यं स-
प्रति खमतसुपदिदशेयिषुराह- ( तत्थ इत्यादि ) तत्र ते-
घामष्टानां तीथौन्तरीयाणां मध्ये ये एवमाहुः सवौ अपि
मण्डलवत्ताश्छ॒ुतआ ऽऽकारसंस्थिताः प्रज्ञत्ता इति, एतेन नयेन,
नयो नाम प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयो ऽभिप्रायविशेषो, यदा-
हुः समन्तमद्राऽऽदयो-“नयो ज्ञातुरभिशयः।' इति । तत एतेन
नयेन-एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्रा ऽऽदिविमानज्ञान
ज्ञातव्यं, सर्वेषामप्युत्तानीकृतकपित्थाङंसस्थानसस्थितत्वा-
न्न चेव नेव इतरेः शषेनेयेः तथावस्तुतच्वाभावात् ( पाहुड-
गाहाओ भाणियव्वाश्चो त्ति) अज्ञापि अधिकृतप्राभ्रृतप्रा भ्ृता-
भप्रातिपादिकाः काञ्चन गाथा वसेन््ते , ततो यथासंप्रदाय
भणितव्या इति । सू० प्र० १ पाहु० ७ पाहु० पाहु० ।
मंडलि ( श् )- मण्डलिन् प° । मण्डल कुरडलनमस्त्यस्य
इति । सर्प्प, विडाले, वरवृक्ते च । वाय० । अहीनाम-
न्तगते मुकुलिसण्पभेवे » प्रन्मा० १ पद् । कोत्सगोजान्तगते
गोजमेदे, स्था० ७ ठा० ।
मंडलिअणुवजीबंत-मए्डल्यलुपजीवत्-पु० । कारणतो सएड-
ल्यभोक्क(रि साधो, पर ष० २ द्वार ।
१,
एभ्यः
| ४.
सडलिउच जीविन
भंडलिउवजीवेत-मणडल्युपजीवत्-पु° । मण्डलीभोक्करि सा-
धो, “दुविहो य होई साइन, मडलिउवजोवश्चो ख इयरो य । ""
पे० व० २ द्वार।
मंडलितकि ( ण् )-मण डलि 7कियू-पुँं> । मणडल्युपजीवके,
ख १ उ० २ प्रक० ।
मेडलिबध-मणडलिवन्ध-ए|ं?। मराडलमिज्ञित कतरम् , तत्र
अन्धो ना ऽस्मात्प्देशाद् गन्तव्यमित्येवंबन्धनलष्तणं पुरुषम-
ण्डलपरिचारणलक्तणा वा मरडलिवन्धः । द्रडातिभेदे,
“पराडलिवन्धम्मि होइ वियाओ । ” स्था० ७ उखा ।
आ० म० । श्रावण ।
मंडलिय-मारडलिक-पु° । स्वमणडलमात्राधिपतो , आ०
म १ अ० । राजानश्चक्रवार्तिवाखदेवाः मारुडलिकाः ,
शेषा राजानः) स्था० ३ ठा० १५ उ०। माण्डलिकः
सामान्यराज़ा अल्पर्थिकः । जी० १ प्रति० ! प्रल्मा० !
महाराजे , प्रश्न ५ आश्र० द्वार । भराडले चक्वालं
तदस्त्यस्य सख मारडालिकः। प्राकारवलयवद॒दास्थिते, स्था०
३ ठा० ४ उ०। |
मैडलियखधायार-माण इलिकस्कन्धावार-पुं? । स्शसान्यन्रष-
तश्रामनिवेशे, प्रज्ञा० ? पद् ¦
मंडलिययञ्जय-माण्डलिकपर्व्वत-पुं° । मरडलं चक्रवाल
तदस्ति येषां ते मास्डलिकाः प्राकारवलयवदयस्थिताः, ते
च ते पथैताश्च मारडलिकपयैताः । मरडलेन व्यवस्थितेणु
मायुषोखराऽऽदिषु पयेतेषु, स० ८५ खम० ।
त्रो मंडलियपव्यया प ता । तं जहा-माझुसुत्तरे, कुंड-
लबरे; रुयगचरे । स्था० २ ठा.०४35० ।
मंडलिया-मण उलिक।(- खी ० । बातटयःम् , उत्त० ३६ आ० ।
जी० । श्राचा०।
मडलियावाय-मणडलिकावात- धुर । वातोलीरूपे बादरवा-
युकायभेदे, श्राचा० १ श्चु° १ ० ७ उ० । भ० । उत्त०।
मरण्डलिकावातो मएडलिकामिमूलत आरभ्य ्रचुरतराभिंः
सभिश्रो वातः जी० १ श्रति० । थङा०।
मेडली-मण्डली-खो० । आवलिकाविशेषे, या विच्छिन्ना |
पकान्त भवति मरडली सा ऽऽवलिका, या पुनः स्वस्थान
णव सा मण्डली । उ्य०।
अधुना मरडलीमधिकर्त्याद--
एमेव मंडर्लाए वि पुव्वाहियनह धम्मकहि वादी ।
अहवा पहएणग सए, अहिज॒माणे बहुसतेवि ॥१०३॥ |
यथा अवस्तादावालकायामुक्कप्ू , एवमव मरडटयामपि
द्वष्टव्यम्। सा मएडली कवं भवतीतिचेदुच्यते-पूर्वा घोते नष्टे
उज्ज्वाल्यमाने, छर्मकथायां धर्मकथाशासखेषु, बादे बादैशा-
छषु उज्ज्वाल्यमानेष्वधीयमानेषु वा, अथवा-प्रकीर्णकश्रुते
ज्ञयीयमाने बहुश्नतेषएपि बडुश्रुतविषये5पि मरडली भवाति।
क्श्लाप्याभाव्ण्मावलिकायामिव; अथ कथमायलिकायामिय
मख्डुल्यामपि द्रष्टव्यमिति । व्य० ४ उ० । (१०४ गा०) श्रस्याः
ध्याण्यर, 'खेत्त' शब्दे तुतीयभागे-७६७ पूछ गता । )
६
अभिधानराजन्दः ॥
संडिय
मंडलीवेसग-मण्ड्लीवेशन-न० । मणडलीप्रवेशने, घ० ३
अधि० ।
मंडावग-मरडापक-पुँं? मरडनक्सेरि, ' मउडा5<5दिखणा मंडे
तिजेते मएडापकाः । ! नि० चू० ६ उ०।
मंडावण-मणडापन-न ? | मसडनकरणे, आचा०२ श्रु० ३ चू०।
मंडावण धाई-मण्डापनधात्री-ख्री० । धात्रीमेदे, आचा० २
श्रु० रे चू०।
मंडिय-मण्डित-जि० । मडि-क्ः। भूषिते, औ०। भ० । अ-
लंक॒ते, आचा० २ श्रु० २ चू० ४ अ० | ओ० । स्वनामस्याते, `
चोरे, उत्त० । तत्कथा चैवम्-
विज्ञागयडे नयरे मंडितो नाम तुरणातो परदव्वद्दरणपसत्तो
श्रासी, सो य दृटुगंडोमि त्ति जणे पगासेतो जाणुदेसेल
शिक्षमेव अदयालेवलिस्तेण रायमग्गे तुरखागस्स सिप्पमुव-
जीवति, अकमतोऽवि य दंडधरिणणे पाएण किलिस्ततो
कटि वि चंकमति, रत्ति च खत्ते खणिऊण दव्यजाये घेत्तृण
खुगरसानिहिए उज्ञाणेगदेसे भूमिधर, तत्थ रिक्खिवात,
तत्थ य स भगिणी कन्नगा चिद्धि, तस्स भूमिघरस्स
मज्भे कूवो, जे चु सो चोरो दव्वेण पजलाभेड सहायं दभ्व-
वोढ़ारं आणेतितं सा से भगिणी श्रगडसमीवे पुव्वणत्था-
खणे णिवे लेड पाय लोय जक्खेण पाए गिरिदऊण तभ्मि कवे
पक्खिवइ, ततो सो तत्थव विचद्भइ, एवं कालो वच्ति,
नयरं मुसतस्स चोरग्गादाते ण॒ सक्किति गिरिदड, तओ
नयरे उवरतो जाता । तत्थ मूनदेवो राया, सा कहं राया .
खबु्तो ?--उद्धेरीष्ड नयत सब्वगणियापदाणा देवद-
क्षा नाम गणिया, तीप सर्द्धि अयलो नाम वाशणियदारओ
विभव्सपएणो मू नदेरो य ' सवश्लद, तीप मूलदेवो इद्धो,
गणियामाऊप अयलो, सा भरति- पुत्ति ! किमेपस जू-
इकारेण ति ?, देवद ताए भएणति--अम्मो ! एस परिडतो
तीण भण्णइ--कि एस श्रम्द अव्भाहियं विण्णाणं. जाखति,
अयलो बाहत्तरिक जापंडिओं पव, तीए भ्रएणति--बच्छ !
यल भण--देवदत्ताए उच्छु खाइडे सद्धा, तीए गंतूश
भणितों, तेण चितियं-कआओ खु ताई श्रदे देवदत्ताए पण-
तितो, तेण सगड़े भेऊण उच्छुयलट्टीण उचणोये, ताए
भरणति-किमहं हत्थिणी ?, तीए भाणयं-वश्च मलदेवे
भर्-देवदत्ता उच्छुं खाइडं अधदिलसति, तीए गतृ सह
कहिये, तेण य कर उच्छु तट्टीओ छन्ने गंडज़ीतो काड
चाउज़्जायगादिसु वासियाओ काडं पेलियाओ, तीर भ
रणति-- पिच्छ विएणणं ति, सा तुरिद्क्का ठिया, सू जदेवस्स
प्श्योसमावणणा श्र दते भणति-अर्ड तदा करभि जडा मू-
लदेवं गिरिदस्सि त्ति, तेण अट्टलयं दीणाराण तीए भाडि-
सिमित्तं दिन्न, तीण गंतुं देवदता भरति -त्र ज अयलो तुमे
सम॑ वसिद्दी, इमे दीणारा दत्ता , अवरण्हवेलाए गंतुं
भणति-श्रयलस्स कल्ञं तुरियं जाये तेण गाम गतो त्ति, देव-
दत्ताए मुलद्रेवस्ल पेसिये, श्रागतो भूलदेवो, तीए समासे
अच्छुदइ, गणिया माऊण अयलो य अप्पादेतों, अज्नाओ
पविद्वो बहुपुरिससमग्गो वेदिडं गष्भगिद मूलदेवो अइ-
संभमेण सयणीयस्स हिद्ठा णिलुका , तेण लक्खितो ,
देवद्साए दासचेडीओ सेवुसाश्चा अदलस्स सरीर<5ब्मगादि
घेतु उबद्धिया, से। य तम्ि चे सयशणीण
( २८२
अिधानराजन्द्र: |
मंडिय
मडिय
भणड-इत्थ चेव सयणीण दिये अन्भगेदि , ताओ भणेति-
विणासिजई सयणीये, सो भणद-च्रदं पत्ते उकरिद्रुतः दा-
हामा, मया एवं सुविणो द्विद्टौ, सथणीयञऽज्मगणडब्दलण्
र्हाणादि कायञ्, ताहि तधा कय, ताहे रुहाणगोल्लो मू
लदेवो अयलेन वालेखु गहाथ कंड्डि तों, सलत्तो य 5णेण-वच्च
मुका ऽक्षि, इयरहा ते अज्ञ अहे जीवियस्स विदसामि, जदि
मया जारिसो होज्ाहि ता एवं म॒च्चेज्जाहि (त्ति) अयलाःऽ-
मिदितो तश्रो मूलदेवो अवमाणितो लज्जाए निग्गओ उञ
णीए, पत्थयणविर दितो वेन्नायड जतो पत्वितो, एगो से
परिसो मिलितो, मूलदेवेण पुचिछतो--काहि जसि? , तेण
भरणएति--विरणायतडम्मि, मू लदेवेण भरएणएति-दो ऽवि समं |
वच्चामो त्ति, तेण सलत्त-एवं भवउ त्ति,दो ऽवि पट्टिया, अत
राय श्रडवी, तस्त पृरिसस्स सबलं अत्थि, मू लदेवो विच
इ--एसो मम सवलेण संविभागं करहि त्ति, इरिद सुते प
रे ताए आसाए वच्चति, ण॒ से किचि देश, तश्यदिवले छि-
रणा अडवी, मूलदेवेण पुरिच्छतो-आत्थि एत्थ अज्भासे गा
मो £, तेण भरणाति--एस णाइदूरे पेथस्स गामो, मूलदेवेण |
भणितो-तुम कत्थ वससि ?, तेण भरणएति-श्रमुगत्थ गामे
मूलद्वण भाणता-ता खाई अह एय गाम वाम, तेण स्तर |
पथा उर्बादद्रा, गच्रा त गामं मूलदेवो,तत्थऽशेण भिक्ख हि
डनेण कुम्मासा लद्धा,पवरणो य कालो वदति, सोय गामा-
तो निग्गच्छुद, साहू य मासखमणपारणणण मभिक्खानिमित्त
पविसति, तेण य संवेगमावण्णेणं पराए भत्तीए तेह कुम्मा
ठयानलन्ना |
साह सा साधू पाडलामतः, भाणय च5श गू- धन्नाण खु न- |
गण,क्राम्मासा हांत साहुपारणण। देवयाए अहासासाहेया- |
ण भरणात-पुत्त ! एतीए गाहाए पच्छुद्धे जे मग्गसितं देमि,
' गाणयं च देवदत्त,
ए भगणति-अचिरेण भविस्वति त्ि,ततो गतो मूलदैवा बे-
नायड, त्थ खत्ते खएंतो गहितो,बज़्काए नीणिज्जद, तत्थ
पण अप॒त्तो राया मओ,आसो अहिया सिओ , म् लदेवसगा स-
दंतिसहस्से च रज्ज थे ॥ १॥ ` देवया- |
मागता,पद्विदायणं गज्जे अहिलित्तों राया जाओ,सो परिसो |
सदाविश्रा,सा अणण भणितो-तुज्के तणियाए आसांत आग- |
ताअह,इहरहा अह अ्रतराल चवाववज्ज ता,ते ण॒ तुज्फे एस म- |
गामा दत्ता,भा य मम सगास एज्जखुत्त,पच्छा उज्जएाणए
रा ररणा सद्धि पाति संजाएति, दाणमाणसंपूतिय च काउ देव- |
दत्त अणरण मर्गिता.तरा पच्चुवगार सरेधिरण दिरणा, सलदेवे
ण अतेउर दृढा, ताण समे भागे भुंजति । अद्या अयलो पायव
हणण त्था ‡ गना, सुक्के विज्जञत भेड जाति पाए दव्वरपूमणा
णिठाणाणिताणिजाणमाणेण म लदेवेण सो गिएहावितो, तुम
देव्वे खूमिये ति पुरिसलेहि बद्धिऊण रायसयासमवरीतो,
मृलदवेण भण्णात-तुम मम जाणासि ?। सो भणति-तुम
गाया, का तुमे न जाणइ ?, तेण भराणइ-अहे मलदेवो, सक्ता
ग्ड विसज्जितो, एवं सलदेवाो राया जाता | ताहे सो अगएं
णगरा ऽ 5रक्खिये ठवाति, सा ऽचि न सक्को चारं गिणिहउ, ताहे |
सलदेवो सय णोलपड पाउरशिऊण राक्ति शिग्गतो, मलदेवो |
अणज्जेतो एगाए सभाए णिव्विण्णो अच्छाति, जाव सो मांडे
यारा आगंतृण भणाति-को दत्थ अन्छति ?, मृलदेवेण म-
शेय च्रहं कप्पडितो, तण भरणद-षहि मणूसे करेमि, स॒-
लदेवो उद्धता, एगाम्मि ईसरघरे खत्त खयं , सुबह दञ्वजायं
णीणेऊण मूलदेवस्स उवरि च डाविडउ पद्या नयरवादिरय,
जातो मलदेवो पुरतो, चारो आखण कह्िपएणं पिदुश्चा एड,
सप्ता भूमिधर, रोरो ते दव्य रिहिशिउमारद्धा भिया
अण भगिणी-एयस्स पाहुणयस्स पायसोय देदि. ताण कृव-
तड सन्निविष्ट आ सण साशिविशितो,वताए पायकायलक्वेण पा-
श्रा गहिओ क्े छूहामि त्ति,ज्ञाव अतीव खुकुमारा पाया ता-
प नाये-जहेस कोई भूयफुज्वरज्णा विहलियगो, तीए अखुकं-
पा जाया,तओ ताए पायतज सज्जितों ण॒स्लाति,मा मारिजि-
हदिलि- क्ति,ततो एच्छा से। पतातो,ताए बो तो! कतो-णट्टो रटे
त्ति,सो आप्र कह्िङण सग्गतो लग्गो, मु जदेवो रायप्पदे अइ-
सह्चिकिटटूं गाऊण चच्च र सिवंतारितो सिति; चोरो |
एस पुरिसो त्ति काउं कंकग्गेए असिणा दुहा काऊण पडि/ने -
यत्ता, गतो भूमिघरं , तत्थ बवसिऊण फ्हायाए रयणीए त-
आओ निग्गंतूण गतो वीहि, अतरावणे तुएणागत्त करात, रा-
यणा पिलहि सद्दावितों, तेश चितिय-जडा सो परिसा णण
न महरेतों, अवस्खे च सो एस राया भविस्सइ त्ति, तेहि
पुटि आलितो, रायणा अन्भुट्टाणेण पूइतो , आसखे
शिंवलावितो स बहु च पित्र आभासि्ड सेलत्तो-मम
भगिणीं देदि त्ति, तेणु दिक्ला, विवाहिया, रायणा भोगाय
स सपदत्ता, कइखु वि दिणेसु गयखु रायणा मडश्रो भ-
शिओ--दृव्बेण कजञ्जति, तेण सुवं दव्वजायं ददेरणे, रा-
यणा सपृर्तो, अएणया पुरो मग्गितो, पुण्णेऽवि दिरणे, त-
स्सयचोरस्स अतीव सक्कारसम्माणं पडजति, एएण प-
गरिण सव्व दव्वं दवावितो, भगिणी से पु व्छाति, ताए भरण-
ति--इत्तियं वित्त, तश्रा पुञ्वाकेदयलकसखारुंसारेण सव्वं
दवावेऊण मडितो सूताए आरोवितो। ” उत्त>पाई० ४ अ० $
बाराणसीनगय्पों तिन्दुकवनस्थे स्वनामख्याते यन्ते, उत्त०
१२ आ० । ( तत्कथा ` हरिकेसीबल ` शब्दे वच्यते )
स्वनामख्यात महाक्मरस्य षष्ठे गधरे च । कल्प २
अधि० ८ क्षण । स० । “ मगहाजणवएण मोरियसरिणवेसे
मेष्डय-मोरिया दो भायरो । ” आ० चू० १ अ० | विशे० ।
अथ षष्ठगणधरवक्कञपरतां विभाणिषु राह--
ते पव्यइए सेउं, मंडिआ। अगच्छ जिणसयास |
वच्चामि ण॒ वंदामी, बंदित्ता पञ्जुगसामि ॥ १८०२ ॥
व्याख्या पूर्ववत् , नवरं मण्डिको नाम षष्ठो द्विजोपाध्यायः
श्रीमाज्जिनसकाशमागच्छुतीति ॥ १८०२ ॥
ततः किमित्याह--
अभद्र य जिशेणं+ जाइ-जरामरणविप्पमुकेण ।
नामेण य ग।त्तेण य,सव्वणणू सब्वद रिर्सी णं ॥१८०२॥
आभट्टो य ' इत्यादि, व्याख्या पूर्ववत् ॥ १८०३ ॥ इति
नामगेत्राभ्यामाभाप्य पृष्ठः भगवान् महावीरो बन्धमोक्तौ
ठ्यवस्थाप्य बन्धमोत्तयोभावाभाव तेशय माशिडकस्य निरा-
रतवान् । विशे० |
तदेवं भगवता छिन्नस्तस्य सशयस्ततः किमित्याह--
च्छिन्नम्मि ससयम्मी, जिशेख जरमरणशविष्पपुक्ेख ।
"ऋण: ~ (प
(8 त )
माय
सो सपशे। पच्प्रडयः,अ द्राट्टू हि सह खडियसण हिं । १८६ ३। मंड्क्कौ मण
व्याख्या पृञ्चचत् , नवरम् श्रद्धचतुधेः शिष्यशतः सह भरव
जितो ऽयादाति ) एवश० । आ० म०।
मेडिय च्लि मण्डितकुक्षि-त० । राजणदे नगराद् बिः कः
डाथ मगिडतकुतक्षियने , उत्त २० अ० |
मंडियपुत्त-मणि डक पुत्र पुः । मरिडकापरनामथेये महावी
रस्य षऐ्ठे गणघरे , भ० ३ श० २ उ०। “ थेरे मंडियपुत्ते
रो अददां सपणलयाई वाएइ । ” कट्प० २ अधि
क्षण | स० । आ० म०। ( एतद्वक़व्यता चैधमोकखसिद्धि
शब्दे पश्चमभाग १२४० पृष्ठ गता । )
मंडी -मणडी-खी० | अग्रकूरे , आब० ४ अ०।
मंडीपाहुडिया-मण्डीप्राभू तिका-त्की० । “ मंडीपाहुडिया सा
हम्मि आगए अग्गक्रम डी य! अन्नम्मि भावयणाम्म, का-
उ तो देश साहुस्स ॥ १॥ ” इत्युक्नलक्षण वस्तुनि, आव०
४ आ०।
मंडु-मण्डु-ए०। स्वनामख्याते मुनौ, स्था० ७ ठा० ।
ते
=
मड्क्क मरटक १० | मरडयति उचोसखमयम् । माड-उक्् ।
तैला ४ऽदौ ॥ ८ । २।६८ ॥ इति प्राकृतसजेण दत्वम् । भ्रा
२ पाद । भेके जलजन्तुभेदे, धश्न० ९ आश्र० द्वार | आ०म०।
छ नध्रानराजन्द्रः |
मण्डकः शालूर दात | व्य० ७ उ०। राजग्रटनगरस्थां नन्दा |
मणिकारः अ्रेष्ठो मुत्वा मण्डूको भृत्वा ततः सोधमकल्पस्थ-
णवतेखकविमानस्थददुरांहानस्थो ददुर्देवो यथा
जातस्तथा ज्ञाताध्ययनानां तयोदश ऽध्ययन । ज्ञा० ९ श्रु०
आ3 । ( दर्दुरकथा * ददुर
गता)
मंडक्क्रजाइआसीविस -मणइकजात्याशीविष -ए०। जात्याशी-
विषभेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । आण०्म० । ( वक्तव्यता |
* आसीविस' शब्दे द्वितीयभागे ४८६ पृष्ठ गता )
मडक्कञ्छयण-मण्डकाध्ययन- न° । ज्ञाताल्ययनाना त्रया-
दशे5ध्ययने, तञ्च राजगरृहनगरस्थो नन्दो मणिकारः श्रेष्ठी ख
त्वा मणडूको भूत्वा दर्दुरदेवो जात दति ( ज्ञा० १ श्रु० १अअ०
गरन० | स० | आव९ । श्रा० चू० । ) उक्तम् ˆ ददर ' शब्दे
चतुथमागे २५५१ पृष्ठे )
मंडक्क इ मण्डूकप्लुति खी० । मरुड्कवदुःपलुत्य गमने,आ-
व० ५ आ० | “ मडुक्कगदसरिसो खलु, अहिगारो होइ सुत्त-
रुष" मटडकः शालूरः स यथोत्प्लुत्य गच्छति । उ्य० ७ उ०।
मंडक्कपुत्त-माण्डूकप्लुत्य १० । मण्डूकप्लुत्या या जातो यो
. गः स माणडूकप्लुत्यः । ग्रहाएा नज्ञत्रयाभन जायमान कूषभा- |
नुजाताऽऽदिषु दशसु योगेषु दशमे योग, स तु ग्रहेण सह वे
पितवयः, अन्यस्य मरड्कमप्लुतगमनातस्म्भवात् । उक्नल च-स्- |
यचस्द्रनकत त्राणि प्रतिनियतगतीनि ग्रहास्त्वानियतगतय इति ।
खू० प्र० १२ पाहु०।
मंडकियासाग -शण्डूकिकाशाक- पु? | शाकभेदे,उपा० रत्म०।
शब्दे पश्चमसाग २४५१ पृष्ठ
भल
लक आप
गदी सखरा० । मणड्क इद ` पएएयपस्त्यस्य अच् ।
गारा› ङोष्। माज्जिप्टायाम् , आदित्यभक्तायाम् , दात्तायाम्,
प्रगटमनायि कायाम् , मार ऋयाषिति , वाच० । हॉरितवन-
स्पतिभदे, प्रज्ञा” १ पद | महोषालिस्दे च | तो» ६ रूल्प।
संहुग-मंडुक पु? | स्वनामख्याते आवके, भ० १८ श०७ उ०।
( कथा * मडुग ` शब्दे वर ते)
मत मन्त्र -पुं? | सत्रि--अच्। गु्तभाषण रहालि कक्तेब्या-
वधा रणार्थयुक्नो, वाच ० । “रहस्लिये वा मत मंतात | १ आ० ,
चा2रश्रु०शच्ृू०२आ०रेउ०। राजा5४दिकारया 55लोचने, घ० २
अधि० । ज्ञा० | भूता5 <दिनिग्रह का रके ,(घ०२ अधि०।) ॐका
राऽऽदिस्वादापय्यन्त हो कारा 55द्विर्णविन्यासा5 त्मके शब्द
मदे वाच० । उत्त> १५ श्र । मन्त्राः प्रणवप्रश्ातका श्र
क्तरपद्धतयः एप > । मन्तो देवाधिष्ठितो5साथना वाउत्षर-
रचनाविशेषः । पश्चा० १३ विव० । ज्ञा०। प्रव० । प०।
व्य०। ग० । दश०। रा० । पाटमात्रसिद्धः पुरुषाधेष्ठान्त
वा मन्त्रः । घ० ३ अधि० | “ मेतो पुण होइ पढियालिद्धा। "'
पं० भा० ९ कल्प | पं० चृ० । पं० व ० । नि० तञ ०।
विद्यामन्त्रयोः स्वरूप प्रतिपादयन्नाट--
हत्थी विज्ञाऽभिहिया, पुरिमे मतो त्ति तव्यिसिसो य ।
विज्ञा ससाहण। वा, साहशरहितो भवे मतो ॥
स्री विद्या अभिह्दिता, पुरुषो मन्त्र इति श्रये तद्धिशाषः एव
द्यामन्तरयोर्विरेषः। इयमत्र भावना-- यत्र मन्त्रदेवता खरा सा
विद्या ( विद्यास्वरूपम् * खुधदेवया ` शब्दे वद्यते ) यत्र
पुरूषो देवता स मन्त्र दति । | अथवा-साधनसाहता व्रिद्या,
साथनरहितो मन्त्र: | शावराऽऽदिमन्त्रवत् इति तद्विशिषः।
आ० म० १ आ०। प्रणवनमःपूर्वके स्वाहान्ते तत्तन्नामरूप
जिना55दिमनत्रे | द्वा० ।
मन्त्रन्यासो5हँतो नाम्ना,स्व्राहान्तंः प्रणवाऽऽदिकः(१४)
तथा ऽईतो <घिकृतस्य नाम्ना मध्यगतन प्रणवा$आद्कः
स्वादान्तश्च मन्त्रन्यासो विधीयते, मननत्राण्चेतुत्वनास्यवप
रममन्त्रत्वात् । द्वा० ५ द्वा० ।
४ यदाह--
मन्त्रन्यासश्र तथा, प्रणनमःपू्कं च तन्नाम ।
मन्त्रः परमे ज्ञेयो, मननत्राे ह्यतो नियमात् ॥ ११॥
अन््रन्यासश्च तथा जिनविम्व' कारयतव्यतयाञऽभिप्रत
मन्त्रस्य न्यासो विधेयः, कः पुनः स्वरूपेण मन्त्र इत्या
द-प्रणवनमःपू्कं च तन्नाम ॥ मन्त्रः परमो क्षयः, ` प्रणव
ञकारो नमःशन्दश्च तो, पुर्वावादी यस्य तत्प्रणवनम पू
वकं, तस्य विवत्तितस्य ऋषभा; ऽदेनौम तन्नाममन्त्रः' परस
प्रधानो ज्ञयो वदितव्यः । किमित्याह-मननत्राणे छातों नि
यमात् | हियस्ादतः प्रणवनम -पूयरकान्नासत्र: सकाशात् शा-
नर्ते नियमाद् भवत दति कृत्वा मन्त्र उच्यते. तन्नाम
बति ॥ १९ ॥घोा० ७ विव । थ० । “ याउक़ुमाराइरण
आहवे शियाणिएहि मतद ¦ "` एतजानज -स्वकोयस्वकायः
मन्त्र: प्रणवनमःपूवकस्वाटन्ततन्नामरूपः । पश्चा०
विव० ¦ स्मारं चतुष्रशिकिलाऽन्तरते कलाःसद्, कर्प >
आधि० ७ त्श | प्रषन^ । आर । ज॑टाडरस्णमारूडा
हे
|,
( २
अमिधानराजन्दः |
_पताउं
दिपन्जशस्आउउत्नके पाए उतभेरे, स्या ६ ठा०। “ पगे म~ |
से अटिज्जति, फयनूयजिदेडियों । “यङे केजन पोपादया
न्नन््त्रानामि वारकानाथवैणानिति । खूड० १ श्रुण्द ऋ>।
आचा० ।
मंतज मग-मन्त्र जुम्भक -पुं? । जुम्मकदेदभेदे, भ० १४ श
८ उ०।
भतण-मन्त्रश- रः । सुप्तताष णे,विच्या रण च। श्राचा०२ श्रु
१ चू> २ अ० ३ उ०।
मंतत्मास-मन्त्रन्यास-एु? । मन््त्राखाशज्ञेकु न्यासे, छू» २,
आचध> |
भरतदोस-मन्त्रदोष-पुं। उत्पादनादोषभेदे , यक, कार्मणं
मोहन यन मन्ते साधधित्याः कुकादर्या आहाराडडदे-
के गृहाते तदा मन्ञरोषख्गेदशः । उत्त> २७ 2,
्तपय-मनजपद्- > । विद्यापमाजनविधों, राजा55द्शुत्त-
भाष ये, “खाएउवडे मेक्परर गोये ।
डं जस्तुजओवितोपनईई मने पात् । खूब० १ शु०
१४ आ० | ४
मतपिंड-मन्त्रपिर इ-पु । मन्ते एवाषः पिएडो मन्तरपिएडः।
उत्पा इनारोषनरे, आवा० १ श्रु> १ अ> ६ उ० । घ०।
पञ्चा० जीत०। पिं० । ( उदादरणा$ऽदि मन्वपिर्डभोजने |
भायशितं च “ दिज्जामंतपिड ' शब्दे वच्यते )
संप्रति मन्विषये मुरुण्डराजोपलाक्षितपाद॒लिप्तोदा-
दर्णमाद-
जह यह पएसिणो जा-णएस्मि पालि तओ भमाडेड् ।
तह तद सीधे प्रियणा, पणस्सह मुरुंडरायस्स ॥४६८॥
घतिष्ठानपुरे मुरुएडो नाप राजा, पादलिप्ता नाम सूर
यः, अन्यदा च शुरुणडराजब्य बभुवातिश्येन शिशेदेद-
ना,न केनाऽपि वियामन्ता+ऽदिभिरुषशमयितु शक्यते,
तत श्राकारिता राक्ना पादालिक्ताः ख्यः, रुतास्तेषामा- ,
गतान। मदती प्रतिपात्तः, कथिते चाऽऽकारणकारणे शि-
रोवेदनायाः, ततो यथा लोको न जानीते तथ्ा मन्त्र ष्याः
यदधः प्रायरणमध्य निजदात्तिणजायुष्शिरसि पाश्वतो नि
जदत्तिणएट ज्तप्रदेशितो यथा यथा आम्यते तथा तथा सक्ष
शिरावेदना अपगच्लाति , तततः क्रमेणापगता सकला ऽप
शिसवेदेना , जतः ऽत्तिश्यन सूररीणामुपासक., त्तो विपुल
भक्कपान। 5 ऽदिकं तेभ्थो दु्तबान्।
अच दोष(नाह---
है] } ४ = र्गा
<डिरेतथमणःः, सो वा आज व से करेजाडे ।
पंवाजीविय्मःई, कस्मणुगारी भ कयं ॥ ४६६॥
श्र ऋष्यानके न कोऽपि दो जातः, पादलिप्तप्रीणां
मुरुण डरा प्रत्यप कारित्वात् , केवल प्रागुक्रवेद्याक्थानक
इस मन्त्रै ऽप अयुज्रमान सम्भावयन्ते दाषः शतस्तदुष-
द्रशने क्रियते ., त्यं . गाथा प्रागव व्याख्येया , नवर
* भद . बीय तति ' पुप्रमालब्ननमांधकृत्य द्धितीयम्-आअपवा-
देप भवेद् , खड़ूघा55द्पियोजने मन्त्रो ऽपि श्योक्रन्य शि
भादः । चिर ।
मेष्या -मन्त्प्रध।न-ए ०! मन्तरेण प्रधानः उत्तमः,मन्त्रो वां
प्रधानवुत्ततं यस्य सः! मन्त्रेणोसमे,उत्तम्रमन््जोपेत च; रा०।
मन्जाश्च हरिणेगमेष्यादिमन्जा: । औ> |
मंतवाय-मन्त्रवाद-पुं० ¦ द्वासप्ततिकला न््तर्गते कलामेंदे ,
| कट्प> ६ अधि० ७ कण् |
| मतराय-मन्रराज-> । भधाने मन्ते, थो ८ विव०।
भतसत्थ-मन््शास्च-न०) जीगेद्धग्लगारूडाऽऽदिक पापश्रु-
तभे, स्था? ६ हा> ! खछुत्र० |
| मंतसाला-मन्त्रशाला-आ ० । मन्जजूददे, नि० कछू० = उ० १
मंतसिद्धू-मन्त्रसिद्धूऐ० ! खिद्धभेदें, आण्यू० १ अ०।
| साम्प्रतं मन्नासिदे सनिदशेनसुपदशयति- |
?” ज्ष॒ राजा5डदिना सा- |
साहीणसब्यर्मतो, बहतो, वा पहाणमंतो वा ।
नेओ ख मंतसि द्वो, खंभाऽऽगरिसो व सातिसओ ॥
स्वायीनलवंमन्डे बहुमन्ञो वा पयानेकमन्ञो वा केयः ख
मन्त्रसिद्धः, क इव स्तम्भा ऽष इद सातिशयः | एष गा-
या-ऽच्षयाथः । श्रा म० १ अ०।
लकमोपुर पर ताश्िन् , श्रोविलासो नराविषः ।
शब्दा ऽ ऽदिविषया ५ ऽखङ्कः, खतते विललाख यः ॥ है ॥
दा तेनाम्यदा साध्वी, रूषातिशयशालिनी ।
नागच्लन्ययय रम्भा $, रल्लाररशसिखा इव ॥ २॥
तद्धपदशंना ऽऽदषिघ्त-श्िक्तेदःस्तःपुरे स तास् ।
तदैव मिलितः सङ्घः, शासितु तं महीपतिम् ॥ ३॥
राज्ञः सौधाड़णे तस्य, महास्तम्मशतोद्धतः ।
सखवम्मीयाः घतिच्छन्दो, मएडफ्ः सोधमणएडनम् ॥ ४ ॥
साधुञ्धको मन्ञखिडः, सहःघमध्ये5५४स्त शाक्रिमान् ।
श्रायकपं स तस्तम्भान् , मन्शक्त्या खमरडपान् ॥ ५॥
उत्पलु्र्योम्नि सर्वे ते, स्सम्भाः सोधगतास्ततः ।
गन्तुकामा इव सदा, जायन्ते स्म चलाचलाः ॥ ६ ४
कान्दिशी कस्तदा राड, समागत्य कृताञ्जलिः ।
साध्वीं तामपैयामास, सङ्घं चाप्तमयम् मुहुः ॥ ७ ॥ आ०
क० १ ध०।
मैतसोय- मन्त शोचं-न० । विद्याशौ5<5चात्मके शोचभदे, स्था०
४ ठा० रे उ० |
मंताइविहाण-मस्त्रा5६द्विधान-त० । मन्त्रादीनां -मन््र-
विद्याप्रभुतीानां प्रतियद्ध्वरूपाणां विधाने-साधनविधिः। म
म्बा $ (दिसाधनविधों, पञ्चा० ३ विक० ।
मरताहसरण-मस्त्राऽऽदिखरण्--न० । मन्त्रविद्या55दिष्याने ,
चा? ५ विव० ।
मैताउं-म॒त्वां>अज्य ० ! अवध्वा्येतयर्य, सखूज०१ हु० १० ऋण
व ठ
(८ २५ )
झताजाग
अभिधानराजन्द्रः
मंदकुमारय
संताजोग-मन्त्रयोग-पुं? । मन््ज्राणां योगो व्यापारो मन््रयो-
गः । मन्जव्यापारे, मन्ञरश्च योगश्व तथाविधद्रव्यसंयोगों
मन्त्रयोगः । मन्चरसहिते द्वव्यसंयोगे च । `“ मंताजोगं
काउं ।” ग० २ अधि०।
मंताणुओग-मन्त्रालुयोग-पुँ० । चेटकाऽऽदिमन्त्रसाधनाभि-
घायके पापशाखे, स० २६ सम० ।
मताहिराय-मन्त्राधेराज- प° । हिमाचलस्थे जायापाभ्वे
हिमाचले जायापाश्वे मन््त्राधिराजः श्रीर्फुलिङ्गः । तीण |
४४२ कप ।
मेति ( ख् )-मन्त्रिण-पुं० । मन्त्रयते णिनिः । राज्याथि-
छायके अमाये, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । श्रा०म० । ओओ० ।
रा०।“ अप्रवृत्तिगतं भूपं, छन्दोव्रर्या स्तुवन्ति ये । लक्ष्मी ह-
तिकतोपायाः, शत्रवस्ते न मन्त्रिणः ॥१॥ `` सङ्घा० १ अधि०
१ प्रस्ता०।
मंतिपरिसा-मन्त्रिपरिषद्-स्त्री० । राज्षे राहस्यिकायां पर्षदि,
व° १ उ० १ प्रक०। ( परिसा ` शब्दे पश्चमभागे ६५१ पृष्ठे
विरतिः ) ८
मंतिय-मान्त्रिक पु । मन्ता, उत्त १ अ० ।
मंतु-मन्तु-पुं० | मन-कु-तुद च । अपराधे, मनुष्ये, प्रजापतौ,
वाच०9 । कोधे थ। “ कि पुण मतुप्पहरणेखु ।” मंतुप्पहरणा
कोहप्पहरणा षयः । नि० चू० २ उ०।
मंथ-मन्थ-ु ० | मन्थ-करणे घञ् । द्रव्यतो द्धिमन्थनद्र्डे,
भावतः कौकुचिकाऽऽदिके कट्पपरिमन्थो, स्था० । इह
च मन्थो द्विधा- द्रन्यतो, भरावतञ्च । यत आह-' द्-
व्वभ्मि मेथवो खल्, तेणा मथिल्ञ जहा दिये । द्
दिवुज्ञा खलु कप्पो, मंथिज्लइ कुक्कयाईहि ॥ १ ॥ ” स्था०
६ ठा०। मन्थ इव मन्थः, केवलिना सखमुद्धातसमये दक्षिणो-
त्तरादिग्द्ययप्रसारणात् लोकान्तम्रापिणि, मन्थवत् क्ियमा-
णे जीवभ्रदेशसङ्घाते च । स्था०
साप्पिषाऽभ्यक्घः.शीतवारिपरिप्लुतेः। नात्यच्छी नातिसान्द्रश्च
मन्थ इत्यभिधीयते ॥१॥ `" इत्युक्के पेयमेदे, सूयं, अकंनुत्ते, ने-
अमले; किरणे च । भावे घ्रञ् ¦ आलोडना + ऽद, वाच० ।
मथ।रया-मन्थनका-खा० । लघुमन्थनद्रड, सूत्र० १ श्रु० १
अ० १ उ०।
मथर-मन्थर-न० । मन्थ--करच् ।
मन्थानदरडे च । पुं०। वक्रे, नीचे ,
कोषे, फले , वाधे,
जड , मन्दे, वाच० |
“बिलंबते' वरिलस्वितो दी्धकालभावी । पञ्चा० ६ विव० । कै-
ॐ
कय्या दास्याम् , स्त्री० वाच ।
मंथु-मन्थु-पुं वर्णै, आचा० २ श्रु० १च्० १ अ० ८ उ०।
वदरा5<5दिचूर्ण,दश० ४ अ० १३० । प्रश्न०। उत्त० । श्रवा ०।
दध्नः सम्बन्धिन्यवयवविशेषे, तद् पे विक्ृतिभेदे च । दध्नः स-
म्बन्धी यो मन्थुः इति नाम्ना प्रसिद्धो ऽवयवः स विकृतिरिति ।
बृू० १ उ० २ प्रक० |
मंथुजाय-मन्थुजात-न० । चूर्णमात्रे, “से जं पुण मंथुजायं
जारेज्वा। तं जहा--डंबरमंर्थु वर, णग्गोहमंथु वा, पिलाखुमं-
9
ठा०। आ० म० । सक्रभिः |
थु वा आसोत्थमंथु वा अण्णयरं वा तहप्पगारं मेयुजाये }"
आचा० २ श्रु० १ च० २१ आ० ८ उ०।
मद्-मन्द-त्र° ! मद-श्चच् । जड, मूख, सूच० १ श्रु० ९ आ०
१ उ० । रा० । “तत्थ मदा विसीयाते ` सूत्र० २ श्रु० हे आ०
, १ उ० | उत्त०। अज्षे,सद्वुद्धिरहिते,मन्दः सदसद्धिवकाऽपटः।
सूत्र० ९ श्रु० १ आ० २ उ०। दश० | श्राचा०) ग०। मन्दा ज्ञा-
ना55वरणाीयेनावशब्धा इति । खुत्र० १ श्रु० ३ अ० १७०। अ-
लसे, बु १ उ० ३ प्रक०। पा०। अशक्ले, सत्र० १ श्रु० ३ आ०
१ उ० । अल्पसस्तवे, खूत्र० १ शु० ३ आअ०१ 3०। “भन्दा जड़ा
लघुप्रकृतयः ।” सूत्र० १ श्रु० ३े अ० १ उ०। अर्पे, उत्त० १८
अआण० । पं० ब० | सदो, अभाग्ये, रोगिणि, स्वतन्त्रे, खल.वा-
० । मन्द इव मन्दः । मिथ्यात्वमहारोगग्नस्ते च । उत्त०
८ अ०)
सो खलु सोचो मंदो, मंदो एण दन्य भवेखं ¦ (ब°) ।
अथ मन्द् इति कोऽथः ?, इत्याद-मन्दंः पुनद्रेव्यभावेन
द्रव्यतो भावतश्च मन्दो भवतीत्यर्थः ।
ण्केक पण उवचए,अवचयाम्म भाव उ अवचए परात् |
तलिना वुड़ी सेड़ा, उभयमश्रो केइ इच्छंति ॥ ७०६॥
द्रव्यमन्दो, भावमन्दश्च । एकैकः पुना्द्धिधा-उपचये,अपच-
ये च । अ्रत्रोपचयद्रव्यमन्दो नाम-यः परिस्थूरतरशरीरतया
गमना ऽऽदिव्यापारं कन्तु न शक्नोति, अपचयद्रव्यमन्दस्तु
यः कृशशरीरतया कमपि प्रयास न कतेमाचष्ट , उ
पचयभावमन्दः पन्यो बुद्धेखुपचयेन यतस्ततः कतुं नोत्स-
हते । अपचयभावमन्दस्तु यो निजसदजवुद्धेरभावेनान्यदी -
याया वुद्धेरजुपजीवनेन दितप्रवृत्तिनिवृत्ति न न कतुंमीश! ख
बुद्धेरपचयेन भावतो मन्दत्वादपचयभावमन्दः । अत्र चाः
नेनैव भावतो ऽपचयमन्देन प्रकृते, शेषास्तु शिप्यमतिविका-
शनाथं प्ररूपिताः । अथवा-तलिना-सच्मा- कुशाग्रीया बु
दिः श्रष्ठा ततः सा सूदमतन्तुव्यृतपरीवदन्तःसार वत्वेन
प्रचितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमातिः स उपचयभावमन्दः, य~
स्त॒ परिस्थुरमतिः स बुद्धेः स्थूलसृत्रतया स्थूलशाटिका-
या इव शअन्तर्निःसारतालन्षणमपचयमांधक्त्याऽपचयभावम-
न्दः, इत्यतः केचिदाचार्या उभयमपचयमन्दमिच्चन्ति | ।
प्रथमनव्याख्याना पेक्षया निवबुद्धिकं , द्वितीयव्याख्यानपत्ते
तु परिस्थृरवृदधिकमपचयभावमन्दमत प्रस्ताव गृहन्ताति
भावः । बृ० १ उ० १ प्रक० । तृतीयायां दशायाम् ,
स्त्री० । स्था० । उक्तं च-“ तइये च दसे पत्ता, आ-
णुप्र॒व्वीएँ जो नयो । समत्थो भुजिड भोगे, जद स
अत्थि घरे घुव ॥ १ ॥ ” इति भोगोपाजनेतु मन्द् इति
भावना । स्था० १० ठा०।
मान्ध--त० । मन्दस्य भावः ष्यञ् । रोगे,मन्दतायां च । सूत्र
१ श्रु० ४ ० १ उ० ।
मंदकुमारय-मन्दकुमारक - पु” । उत्तानशय बालके,प्रज्ञा०। उ-
त्तानशयायां बालकायाम्, खी ० । “मेदकुमारप वा मंदकुमा-
रिया वा। ” मन्दकुमारक उत्ताशयों बालको, मन्दकुमारि-
का उत्तानशया बालिका | प्रज्ञा० ११ षद् |
8 २६
आचधानराजन्द्रः
मदत ॥
)
|
मदर
मंदकख-मन्दक्ष-त० । मन्दं-संकुचितमक्ति यस्मात् अच् ।
लच्वायाम् , वाच० | ब० ४ उ०।
मद्ग-मन्दक-न० । गयमेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
मंदगइ-मन्द गति-ख््री० | मन्दगमने, मन्दगमनोपेते , तरि०। |
स्रु प्र० 4 पाहु० १ पाहुण्पाहु० ।
मदग्गिकदिय-मन्दाग्निक्यथित-ति° । मन्दमाग्निना क्वा
ते,अत्यग्निना क्वथितं हि विरसं विगन्धा ऽऽदि च भवतीति
मन्दाग्निक्वथितं गन्धेन विशिष्यत । विशे० ।
मदघम्म-मन्दधम्म- पुण । धे मन्दो मन्दघ्मः । राजदन्ता- |
ऽऽदिदशनात् धर्मशब्दस्य परनिपातः । सयमाशिथिले, व्य
३ उ० । श्रा० चू०। ( “ दुब्वलचारिय
२५६३ पृष्ठे एष उदाहतः )
मंदधी-मन्दधी-पुं? । ख#° । मन्दवुद्धो, षो० ६ विव० ।
मदपरिणाम-मन्दपरिणाम्-पुं० । मन्दः परिणामः परिणति
येस्य । ईंषल्लच्यमाणस्वरूप, आचा० १ श्रु० ३ अ० १ उ०।
मंदपुष्प-मन्दपुएय-त्रि० । न््यूनभाम्ये, आ० म० ३ अ० । प्र-
शन० । उत्त० ।
मेदबुद्धि-मन्दबुद्धि-प° । सद्वुद्धिविकले, बु०१उ० हे प्रक०।
पश्चा० । आ० म० | अल्पप्तों, पं० व० १ द्वार । मन्दबुद्धि-
श्र मिथ्यात्वोदयात् । प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
मंदभग्ग-मन्दभाग्य-लि० । न्यूनभाग्ये, आव० ४ अ० | उ-
० ।
मदमई- मन्द मति-ि० । अल्पमतो, सूत्र । “ ये मय्यवज्ञा
व्यधुरिद्धबाधा, जानन्ति ते किञ्चन तानपास्य । मत्तोऽपि
यो मन्दमरतिस्तथा ऽर्थी, तस्योपकाराय ममैष यत्नः ॥३॥इहा-
पसदसंसारान्तर्गतेना ऽखुमता ऽवाप्या ऽतिदुलैभं मनुजत्वे
खकु लोत्पत्तिसमग्रेन्द्ियसमाग्रयादुपेतेनाप्दैद् दशैनमशेष कर्मो
चिछत्तये यतितव्यम् , कर्मोच्छेदश्च सम्याग्विवेकसव्यपेत्तोऽ
सावप्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति, श्राप्तश्चा ऽ ऽत्यन्तिकादा-
घत्तयात् , स चाहन्नव, श्रतस्तत्प्रसीता $ ऽगमपरिक्लाने यत्नो
विधेयः,श्रागमश्च द्वादशाड्रा55दिरूपः,सो5प्यायराक्तितमिश्र-
रेदेयुगीनपुरुषानुग्रदवुद्धया चरणकरणद्रन्यधमकथागणिता-
जुयोगभेदातुधा व्यवस्थापितः, तत्रा $ऽचाराङ्गं चरणक-
रणप्राधान्येन व्याख्यातम् : श्रधुना ऽऽवसराऽऽयातं द्वव्यप्रा-
श्वान्यन सृत्रङता 5 ऽस्य द्वितीयमङ्गं व्याख्यातु मार्यते इति।
नु चार्थस्य शासनाच्छास्त्रमिर्द,शास्त्रस्य चाशषप्रः
न्त्यथमादिमङ्गलं तथा स्थिरपरिचयार्थ मध्यमङ्गलं शिष्याप्र-
शिष्याविच्छेदार्थ चान्त्यमङ्गलमुपादेयं तच्चेह नोपलभ्यते स-
व्यमेदत् , मङ्गले दीष्टदेवतानमस्काराऽऽदिरूपम् ,अस्य च प्र
शेता सर्वज्ञः, तस्य चापरनमस्का्याभावाद् मङ्गलकरणे भ्यो
जनाभावाश्च न मङ्गलाभिघधानम्.गणधराणामपि तीथकहूदुक्का-
जुवादित्वान्मङ्गलाकरणम् , अस्मदाद्यपक्षया तु सर्वमेव शा-
ख मङ्गलम् ।
श्रथवा-नियक्रिकार पवा भावमङ्गलमभिधातुकाम आइ-
तित्थयरे य जिणपरे, सुत्तकरे गणहरे य णभिङणं ।
मूयगडस्स भगवओ, सिज्जुनि कित्तइस्सामि।॥ १ ॥
चतुथंभागे |
होपशा |
|
गाथापूरबाद्धनद भावमङ्गलमभिदित, पश्चद्धन तु चेत्ता
चुवे कारेप्रत्रर्यथ पयोजना 5ऽदित्रयामाति । । तदुक्कप-- उ-
क्वाय ज्ञातसम्बन्धे, श्रोतु श्रोता प्रवत्तते । शास्त्रा55-
दो तेन वङ्कञ्यः, सम्बन्धः स प्रयोजनः ॥ १॥ ' तत्र सूत्र
कृतस्येयाभिघेयपदम्, निर्युक्रि कीत्तयिष्ये इति प्रयोजन-
पदम्, प्रयोजनप्रयोजन तु मोत्तावािः । सम्बन्धस्तु पयो-
जनपदाचुमेय इति पृथक् नोक्कः । तदुक्कर--* शास्त्र प्रयोजनं
चेति, संबन्धस्या ऽ$श्रयावुभौ । तदुक्त्यन्तर्मतस्तस्मा-द्धि-
श्रो नोक्कः प्रयोजनात् ॥ १॥ ” हात समुदायाः । अ-
घुनाऽवयवा्थैः कथ्यते--तत्र तीर्थं द्रव्यभावभेदाद्
द्विधा, तत्रापि दव्यतोथं नयादेः समुत्तरणमागः ,
भावती तु सम्यगदशनज्ञानचारिजाणि, ससारा्णवादुत्ता-
रकत्वात्, तदाधारे वा, सङ्घः प्रथमगणधरो वा, त-
त्करणशीलास्ती धङ्रास्तान् नत्वेति क्रिया । तवरा +न्येषामपि
तीथ क्रत्व पम्भवे तदव्यवच्छेदाथेप्राह--जितवरानिति रा-
गद्धषमोदजितो जिनाः, पवम्भूताश्च सामान्यकेवलिनोऽपि
भवन्ति, तद्व्यवच्छेदाथमाह--वराः प्रधानाश्चतुखिशद-
तिशयसमान्वितत्वेन, वतान्नत्वेति, एतेषां च नमस्कारकर-
शमागमार्थो पदेष्टरत्वेनोपए कारित्वात्, विशिष्टविशेषणापादाने
च शाखस्य गोरवाऽऽधानाथ, शास्तुः प्राघान्यन हि शा-
खस्याप प्राधान्ये भवतीति भावः। अथास्य सूचनाःसूञ
तत्करणशीलाः सूत्रकारास्ते च स्वथवुद्धाऽऽदयोऽपि भव-
न्तीत्यत आह-ग ण॒ध राः,तां श्व नत्वात, सामान्या<5<5चार्याणां
गणधरत्वेऽपि तीथैकरनमस्कारानन्तरोपादानाद्वोतमा55दय
एवह विवक्तिताः । प्रथमश्चकारः सिद्धा 55च्युपलक्षणाथेः, द्वि-
तीयः समुचितो । क्त्वाप्रत्ययस्य क्रियान्तरसब्यपेक्षत्वात्ता-
माह--स्वपरसमयसूचने कृतमनेनेति सूत्ररूतस्तस्य , म-
दाथवस्वाद्धगवांस्तस्य , अनेन च सर्वक्ञप्रणीतत्वमावेदि-
ते भवति । सूत्र० १ श्चु° १ ० १ उ०।
मदमण-मन्दमनस्-चि०। मन्दं मन्दस्येव बा मनो यस्य खः
नाव्यन्तधीसे मन्दमन्मः। मीरे, हस्तिभेदे, पुरुषभेदे च । पुं०
स्था० ४ ठा० २ उ०।
मदया-मन्दता-खा० । मन्दस्य भावः तल् † कायजडता-
याम्, अलसतायाम् , पा० ।
मंदर-मन्दर-पु ? ॥ मेरौ, नि० चू० १९ उ० प्रन्ना०। ति० ।
स० । नि० । प्रश्न० । ज० । रा० । “ दो मेदरा। ” स्था०र
ठा० ३ उ० । मेरौ, ज० ।
सम्प्रति महाविदेदवषस्य पूर्वापरविभागकारिणं मेरं पृ-
चलछुश्नाह-
कहि णं भते ! जंबुद्दीवे दीवे महादे वासे में-
द्रे णामं पव्वए प्पत्ते {। गोयमा ! उत्तरकुराए द्-
क्खिणेणं देवकुराए उत्तरणं पुव्वविदेहस्स वासस्स
पच्चच्छिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरच्छिमेणं जबु-
दीवस्स दीवस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ शं जंबुद्दीवे दीवे
मद्रे णामं पव्वए पष्पते ।
( कि रमित्यादि ) ध्रश्नः प्राग्वत् । उक्तरसत्रे गो-
| २७
अभिधानरः जेन्द्रः।
कै
सदर
मद्र
तम ! उत्तरकुरूणां दक्षिणस्यां देवकुरूणामुत्तरस्यां पूर्व
विदेहस्य वर्षस्य पश्चिमायां पश्चिममहाविदेहस्य वर्षस्य
पूर्वस्यां जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरो नाम पवेतः प्रज्ञप्तः ।
उद्धूमुत्वम्-
~ 4 2 उच्चत्तेणुं कै क
शवणउतिं जोअणसहस्साई उडं उचत्तेणं एगं जोअण-
सहस्सं उव्वेहेणं ।
नवनवांतियोजनसहस्थाणि ऊद्धोंच्चत्वेत एक योजनसह
स््रम॒ुद्वेघन स्वाग्रेण पूर्ण लक्षमित्यथः, वक्ष्यमाणचूलास-
त्कानि चत्वारिंशद्योजनानि त्वधिकानि , उच्छयचतुथांशो
भूम्यवगाहस्तु मेरुवजपवतेषु जय इति ।
उद्धेधविष्कम्भो-
मूले दसजेयणसहस्साईं णवई च जोअणाई दस |
य॒ एगारसभाए जोअणस्स पिक्खंभेण॑ धरणिअले
दसजे।अणसहस्सई विक्खेभेणं तयणंतरं च शं मायाए
मायाए परिहायमाणे परेहायमाणे उवरेतले एगं जेअण-
सहस्सं विक्खंभेणं ।
मूले-कन्दे दश योजनसहस्नाणि नवति च योजनानि दश
चैकादश भागान् योजनस्य विष्कम्भेन १००६० अशाः १०,
पकादशरूपेण छेदेन कमादपचीयमानविष्कम्भो ऽसौ धर-
शीतले समे भागे दशयोजनसदस््राणि विष्कम्भेन मूल-
तो योजनसहस््रमूर्दैष्वगमने मूलगतानि नवतियोज-
नानि दश च एकादश भागा योजनस्य तुत्रद्धुरि-
त्यथः, तदनन्तरं मा्रया माया उद्गमने उच्चत्वस्य यो
जनेकादशांशबद्धया विष्कम्भंस्य योजनेकादशांशदानिस्तथो-
श्त्वेकादशयोजनचरच्या विष्कम्भेकयोजनदानिः, एवमेका-
दशयोजनशतन्रृख्या योजनशतदानिः, तथा एकादशयोजनस
इस्मवृद्या योजनसहस्म्रह्मनिरित्येवेरूपेण परिमाणेन परिदीः
यमाणः परिदीयमाणः उपरितले शिरोभाग यत्र चूलि-
काया उद्धवस्तत्र एकं योजनसहस्नं विष्कम्भेण, समभूतल-
तो नवनवातियोजनसहस्नाण्यूईध्वगमने प्ृथुत्वगतनवयो-
जनसदस्नाणि तुञडरित्यथः।
श्रथास्य परिधिः--
मूले एकत्ीसं जोअ्रणसहस्साई एव य दसुत्तरे जोअण-
सए तिथि अ एगोरसभाए ज।अणस्स परिक्वेवेणं ध-
रणिअले एकत्तीसं जोअणसहस्साई चच तेवीसे जेअण-
सए परिक्खेवेण॑ उवरितले तिष्ि जोअणसहस्साई
एगं च वावईं जोअणसयं किंचिंविसेसाहिअं परिक्सेवेशं
मूले वित्यिण्णे मज्फे संक्खित्ते उरं तणुए गोपुच्छ -
सठाणसंटिए सव्वरयणामए अच्छे सरटे त्ति। ;
मूले एकर्त्रिशद्योजनसहस्म्राणि नव च शतानि दशो-
तराणि त्रीश्वैकादशभागान् योजनस्य परिक्तेपण, धर-
णीतले पकच्चिशयोजनसदस्राणि षद् च च्रयार्विशत्यधि-
कानि योजनशतानि पारिक्तेपण उपरितले त्रीणि योजनस-
इस्राणि पकं च द्वापष्ट्यधिकं योजनशतं किश्जिद्धिशषाधिकं
परित्तेपेण, अथा<55च्यपारिधिगणितं मूले विष्कस्भस्य स~
च्छेद॒त्वाद्विषर्मार्मात दश्यते-मूले च एवष्कस्भो दशयोजनस-
हस्प्नाणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्य ६००६०.
‰ तत्र योजनराशावकादशभागकरणाथमेकादशभिरणिते
उपरितनदशभागक्तेपे च जाता एकादश भागा लक्तमे-
कमेकादश च सहस्राणि १११००० ततोऽस्य राशेवैगकरणे
जातम्-एकको दिकसिको द्विकः पककः षट् च शू.
न्यानि १२३२१०००००० ततोऽस्य दशभिगुणने जातानि सप्त-
शल्यानि १२३२१००००००० च्रथाऽस्य वगमूुलः ऽऽनयने ल-
ब्धखिकः पञ्चक एककः शृन्यमेकको द्विकः ३५८६०१२, आअ-
थास्य योजनकरणार्थ ११ मागः लब्धं योजन ३६६१०,
अश २, शेषम् ५७५८८५६ | ७०२०२४, अद्धोभ्याघिकत्वादपे द-
त्त अशाः३, समभूतलगतपरिधावपि ३१६२२, योजनानि अ-
उाशष्टांशानामद्धौ भ्यधिकत्वाद्रप दत्ते ्रयोविर्शातर्योजनानि,
शिखरपरिधो चार्द्धतो न्यूनत्वादंशानां सूर किञ्चिदधिकत्वं
न्यवेदि, अत एव मूते विस्तीणों मध्ये संक्षिप्त: उपारे तलुकः
ऊध मेखलाद्वयाविवत्तया उदस्तगोपुच्छा 45कारेण सस्थितः
सवौ 5 ऽत्मना रत्नमयः, इदं च भायोवचनम् , श्न्यथा-कारड-
जयविवेचने आद्यकाएडस्य पृथ्व्युपलशकंरावञ्न मयत्वं तृती-
यकारडे जाम्बूनदमयत्वं च भाष्यमाणं विरुणद्धि, शेष
रागवत् ।
श्रथात्र पद्मवरवेदिका5 $द्याह--
से णं एगाए पठमवरवेइअ।ए एगेण य॒ वणसंडेण स-
व्यओ समता संपरे'क्खित्ते ब्तओ सि ।
( से णे पगापः ) इत्यादि व्यक्रम् , श्रज चा55रोहे5वरोहे
च इष्टस्थाने विस्तारा ऽऽदिकरणानि सृते ऽयुक्कान्यपि उत्तर-
अन्ये बहपयोगानीति दश्यन्ते-तत्र क. दादारादे करणमिदम्
ऊद गतस्य यत्र योजनाऽऽदौ वस्ताराजिक्ञासा तस्मिन् यो-
जना5 एदिके पकादशाभभक्रे यज्लब्धं तस्मिन् कन्दविस्तारा-
द्पनाते यद्वशिष्ट स तत्र प्रदेश मेरुग्यासः । तथादि-कन्दा-
द्योजनलन्तम् द्धं गतस्ततो योजनलत्ते धियेते तस्मिन्नेकादश-
भिभक्क लब्धानि नवतिशतानि नवव्यधिकानि योजनानां द-
श चैकादश भागा योजनस्य श्रस्मिन् कन्दव्यासात् दश यो-
जनसहस्थ्नाणि नवत्यधिकानि दश चेकादशभागा याजनस्ये-
व्यवे परिमाणादपनीयते शष योजनसहस्रम् , एतावानत्र प्र-
देशे मेरूपारेतले व्यासः, श्रथवा-योजनसहस्रमारूढस्ततो
योजनसदस्रे पकादशभिर्भक्के लब्धानि नवतियोजनानि
दश च एकादश भागा योजनस्य श्रस्मिन् पूर्वोक्तात् कन्द-
व्या साच्छोधिते शष दश योजनसदस्राणि, पवमन्यत्रापि भा-
व्यम् । श्रथ शिखरादवरोदे करणं, यथा मेरुशिखरादवपत्य
यत्र योजना ऽऽदौ विष्कम्भजिन्ञासा तस्मिन् योजना5<5दिके
पकाद शभिर्भङ्के यज्ञब्धं तत्सहितं तत्र प्रदेश मेरूयासमान,य-
था शिखराद्योजनलक्तषमवतीरीस्ततो लक्षे एकादशभिरभङ्क
लब्धानि नवातिशतानि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागाः
अस्मिन् योजनसहस्ञ्ममक्षेप जातानि १००६०-१; इयान् क-
न्दे व्यासः । अथवा--शिखराश्नवनवातियोजनसहस्राएय
दती शस्ततस्तेषामेकादशभिभौगे शते लन्धानि नवसहस्ना-
णि तानि सदस्रसदितानि जातानि दशसहस्माणि एतावान्
4
8 भभानराजन्द्रः।
मठर. (र
सदर
धरणीतले विस्तारः, पवमन्यत्रापि, अथ मेरो मूलादारोहे |
मोलितो 5वरोहे च विष्कम्भविषयकहानिद्ृद्धिज्ञानार्थ करण-
मिदम-उर्पारितनाधस्तनयोरविस्ता रयोरवेंश्लेषे रते तयोर्मध्य-
वर्तिना पयतोच्छयेण भक्ते यल्लब्धं सा दानि्ृ्धिश्च । तथाहि
उपरितने विस्तारे योजनलदस््रम् त्रधस्तानाद्योजन १००६०
७ इत्येबंरूपाच्छीथिते शेष ६०६०- % सवरीना्ं योजनरा-
शिमेकादशगुणीरूल्य अधस्तना दश भागाः पर्ेप्या जातम्
"=" अस्य च भजनार्थ मध्यवार्तिनि। पवैतोच्छये
१००००० इत्येवंरूपे एकादशगुणीकृते जातं % शत्य ५ |
अत्र छेदराशेरेकादशगुणत्वाद्भधागाप्राप्तो उसयोल॑क्षे-शत्य ५ |
णापवर्त छते जातम् ज । इयती प्रतियोजन हानिकरै- |
द्धिश्च , तथा इदमेव लब्धमरद्ध कायम् पककस्याद्धांसंभवा- |
त् छेद एव द्वियुणीक्रियते जातम् रू इय मेरोरेकस्सिन्
पाश्च वृद्धिहानिश्वेति । अथोचत्वपरिज्ञानाय करणमि- |
दस--मेरोयत्र-मूतला55दो प्रदेश यो यावान विस्तारः त- |
स्मिन् मृलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं तदेकादशर्भिर्गुणित |
सत् यावद्धवति तावत्यमाण उत्तः । तथाहि-शि- |
खरव्यासो योजनसहस्थ तास्मिन् कन्दव्याप्तात्पूवॉक्वाच्छो-
धिते शेष नवातिसदखाणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा |
योजनस्यन्येतदात्मकं योजनराशिरेकादशामिगुस्यते जातम् |
६६६६० ये च द्शेकादश्मागास्तेऽपि एकादशभिशुख्यन्ते जा-
तम् ११० तस्येकादशभिभागे हते लब्धानि दश योजनानि
पूराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं योजनानां लकम् , पतावदधोवि-
स्तारोपरितनविस्तारयोरन्तरे उच्चत्वम्,एव मध्यभागा 5<वा
वप्युच्चत्वपरिमाणं भावनीयमिति । नन्विह कस्मादेकादश- |
लक्षणः छेदः कस्माद्वा तेन शेष शुरयते ?। उच्यते-पकाद शानां |
योजनानामन्ते एक योजनम् एकादशानां योजनशतानामन्ते
पकं ये7जनशतम् एकादशानां योजनसहस्लाणामन्ते पकं |
योजनसहस्र चख्यति, तत एकादशलक्तणः छदः, तेनोच्चत्व- |
परिज्ञानाय विस्तारशपष गुरयते, अन्यथा-योाजनानां दश- |
सहस्माणि नवत्यथिकानि दश चैकादश भागा याजनस्येत्येवं
विस्तारात्कन्दादारोहस धरणीतले न्वातिया जनानि दश चे- |
कादशभागाः कथं चख्ययुररात, नयु मखलाद्वय प्रत्येक परितः |
पञ्चयाजनशतविस्तारयानन्दनसामनसवनयोः सद्भावात् प्र- |
त्यकं याजनसदस्स्य युगपत् जटिः,ततः किमित्यकादशभाग-
परिदणः ?।उच्यते-क गत्या समाधेयमितिं । का च करग-
तिरिति चदुच्यत-.-मन्दरादारभ्य शिखरं यावदेकान्तऋजुरूपा
यां दवरिकायां दन्ता। `दपान्तराले क्वाऽपि कियदाकाशं त-
>सर्च करीगत्या मेरोराभा - मिति मेरूतया परिकल्प्य गाणितज्ञा
२ {= कादशभागपरिदरण परिवर्णयन्ति अये चार्थः श्री-
जिनभद्गगाणित्षमाश्रमणए ज्येंरपि विशषणवचत्यां लवणो दाधि-
घनगशितनिरूपणावसर <ष्टस्तद्धारेण ज्ञापित एवेति।
सम्प्रत्येतद्वतबनचद्ठव्यतामाह--
मेदरे खं भंते ! पव्वए कड् वणा पष्पत्ता १ । गोंअमा !
कत्तारे वणा पणत्ता । तं जह. - महसालवणे १, शंद्णवशे
२, सोमणसवणे ३, पंडगवणे ४ । |
( मंदरे णमित्यादि ) प्रश्नसू्र व्यक्तम्, उत्तरसत्रे चत्वारि
चनानि प्रशप्तानि। तद्यथा-भद्र : सद्गूमिजातत्वेन सरलाः |
शालाः साला वा-तरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशाल भद्रसालं
वा.अथवा-भद्राः शाला चृत य तद् भद्रं शालम् | नन्दयति
श्ानन्दयति देवा55दीनिति नन्दनम् ¡ सुमनसां देवानामिदं
सौमनसं देवोपभाग्यभूभिकाऽ $सना 5 :दिमत्त्यात्। एएडते-श-
च्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सदवनेष्वतिशायितामिति
णकृप्रत्यये पएडकम् , इमानि चत्वायपि स्वथान मरू परिक्तप्य
स्थितानि । ज० 8 वद्त० । ( नन्दनवना ऽ ऽदिवक्कञ्यता नन्दनं-
वना55विशब्देषूक्ता । )
अथ मेरौ कारडसख्याजिश्लासुरगौ तमः पृच्छति-- `
मदरस्स णं भते ! पव्वयस्स कई कडा पष्यत्ता || गोअमा |
तओ कंडा पश्यत्ता । तं॑जहा-हेद्विल्ल कंडे, माज्किमिल्ले कंडे,
उबारेले कंडे | मंद्रस्स णं भतं ! पव्वयस्स हिषे कंडे
कतिविहे पष्पत्ते ? । गोअमा | चउज्यिहे पष्यते | ते
जहा- पुढदवी १, उवले २, वड्रे ३, सकरा ४। माज्कपिले
शं भते ! कंडे कतिविहे पष्एते १ । गोअमा ! चउचव्वहे
पष्प । त जहा-अके १, फलहे २, जायरूवे ३, रयए ४,
उवारेलले कंडे कतिविहे पणणत्ते । गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते
सव्वजवृणयामणए । मंदरस्स शं मते ! पव्वयस्स हे-
ट्विछ्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पणणत्ते !। गोअमा ! एगं
जोअंणसहस्सं बाहललेणं पण्णत्ते । मज्मिमिल्ले कंडे
पुच्छा १ गोयमा ! तेवद्ठ जोअणसहस्साई बाहल्लेणं
पष्एते । उवरिल्ले पुच्छा ?। गोयमा ! छत्तीस जेअणसहस्साई
बाहल्लेणं पण्णत्ताई । एवामेव सपुव्वावरेणं मंदरे पव्वए
एग जे.अणसयसहस्सं सन्वऽग्गेणं पणणत्ते | (घत्र- १०८)
(मदरस्स णएमित्यादि) मेरोभदन्त ! पवैतस्य कति कार्डानि
प्रज्षप्तनि ? | कारड नाम-विशिष्टपरिणामालुगतो विच्छेदः प-
वतक्षेत्रविभाग इति यावत् | गौतम ! जीणि कारडानि धक्ञ-
प्तानि। तद्यथा--अधस्तने कार्ड, मध्यमे कारडम् , उपरि-
तने काण्डम् । श्रथ भथमं काण्डं कतिप्रकारमिति पच्च
ति--( मदरस्स इत्यादि ) प्रश्नः प्रतीतः । निरवेच नसूतरे
पृथ्दी-सत्तिकाः, उपलाः-पाषाणाः, वज्ञाणि-दीरकाः, शर्क-
रा:ः-करक रिकाः, पतन्मयः कन्दो मन्दरस्य | पतदेव हि प्रथमं
कार्ड सहस्रयोजनप्रमाणं , नु प्रथमकारडस्य चतुः
कारत्वात् तदीययोजनसदस्रस्य चतुर्विभजने एकेकप्रका-
रस्य याजनसदस्रचतुर्थोशप्रमारण्ते्रता स्यात् तथा च स-
ति विशिष्टपरिणामान्त॒ुगतविच्छेद्रूपत्वात् त एव काराङ्स-
ख्यां कथं न वर्द्धयन्तीति ? उच्यते--क्वाचित्पृथिवीबहले
कर्वाचदुपलबइ ले कर्वाचद्वज्रचडुलं क्वचिच्छुकंराबहुलम्। इद्-
मुक्तम्भवत्ति-उ्तचतुषटयमन्तरेणान्यत्किमष्य ङ्करत्ना+ऽ दिकं न
तदारम्भकमिति अतो नेयत्येन पृथिव्यादिरूपविभागाभावान्न
काण्डसंख्यावर्द्धनावकाश इति । मध्यकाण्डगतवस्तुपृच्छाथ-
माह-( मज्मिमिल्ले इत्यादि ) श्रङ्करत्नानि-स्फटिकरत्नानि,
जातरूपं सुवर्ण, रजतं रूप्यम् । श्रभ्रापीयं भावना--क्वचि-
दङ्कवहुलमिव्यादि । श्रथ तृतीय कार्डम् (डवरिरट्जे इत्यादि )
श्रना ष्यङ्क: । उत्तरसजे पका ऽ ४कारं भदरद्िते सौ 5-5त्मना
इ २६ )
झंदर
जम्बूनदं रक्तसुवर्ण तन्मयमिति । कारडपरिमाणद्धार मेरूप- |
रिमाणमाह-( मद्रस्स णुमित्यादि ) भगवन् ! मन्द्रस्या5-
धस्तन कारडं कियद्धाहल्येन-उच्चत्वेत प्रशप्तम् ? । गौतम !
पक योजनसहस्तं याहल्येन पक्षम् । मध्यमकाण्डे पृच्छा
प्रश्नपद्धतिवोच्या, सा च-“ मंद्रस्सख शे भते ! पव्वयस्स
मज्भमिज्ले कंडे केवश्यं बाहज्लेएणं परणएत्ते ?। ” इत्यादिरूपा
स्वयमश्यूह्या । गौतम ! रिषि योजनसहस्थाणि बाहल्येन प्र-
श्प्तम्, अनेन भद्रशालवन नन्दनवनं सोभनसवबनं हे अ-
स्तरे चैतत् सब मध्यमकाराडे अन्तभूतमिति, यत्त॒ समवा-
याङ्गे श्चषटन्निशत्तमे समवाये द्वितीयकाण्डाविभागो5छात्रि-
शत्सहस्रयोजनान्यु च्चत्वेन भवतीत्युक्तं तन्भतान्तरेणति ।
पवसमुपरितने काराडे पृच्छा क्षया, षदाच्रशयोजनसहस्नाणि
बाहल्येन प्रश्नत्म् , पवसुक्करसीत्या ““ सपुव्वावरेणं ” पूर्वापर-
सीलनेन मन्द्रपर्वतः एक योजनशतसदस्ने सवौग्रेण सर्व-
सङ्ख्यया पक्षपः । नलु चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा शिरःस्था
खालिका मेरुप्रमाणमध्ये कथे न कथिता ?, उच्यते-च्ष-
अच लात्वेन तस्या श्रगणनात् , पुरुषोच्छुयगणने शिरोगतके-
शपाशस्येवेति, इये च सूत्रजयी एकाथपतिवद्धःवेन समुदिते-
खाऽरखि । ज० ४ वक्ष० । स० । सू० प्र० | सं० ग्र० । जी०।
समयत्षेत्रे पञ्च मन्दराः प्रकृत्ता:। स० ३६ सम० । ( अस्य
यबोडश नामानि ' मेर ' शब्दे वच्यन्ते )
धायइखंडगाणं मंदरा दसजेयणसयाई उव्वेहेणं धर-
ितले देव़णाई दसजेयणसहस्स/ई विक्खभेण उवरि द-
सज,यणसय.ई भिक्खभेणं पण्णत्ता । पुक्खरवरदवड़गाणं
मेदरा दसजं.यणा एवं चव ।
(मेद्र त्ति) पूर्वापरौ मेरू, तत्खरूप सूरतः सिद्धं, विशेषत
उच्यते--
^“ घायदस्ेड मेरू, चुलसीइसहस्सऊसिया दो वि ।
श्रोगाढा य.सरस्से, होति य सिदरम्मि वित्थिन्ना॥ १॥
मूल पणनउदसया, चउणवइसया य हंति धराशियले | `इति !
स्था० १० ठा०। (मन्द्रादन्येषामन्तरम् 'अतर' शब्दे प्रथम-
२ भागे ७३ पृष्ठे उक्तम् । ) ( श्रवाधा “अबाहा ` शब्दे प्रथम-
भागे ६८२ पृष्ठे गता। ) मन्दरवक्रव्यतापरतिवद्धे दी धेदशानाम-
मे ऽध्ययने, स्था० १० ठा० । मन्दर प्यैतदेवे, ज० ४ वक्त॒० ।
श्रयादशभनिनस्य प्रथमशिष्ये, स० ।
मंदरकूड-मन्द्रकूट-पुं० । न० । जम्वृमन्दरपर्वतस्थनन्दनवन-
स्थ कूटे, स्था० ६ ठा० । जम्बूमन्दरपश्िमदिशि रुचक्रवरप-
यैतस्थ स्वनामख्याते कृटे, स्था० ८ ठा० ।
मेद्रच्रलिया-मन्दरनचूलिका- खी० । मन्दरे-भरो चूलिका ।
मेयः पएडकवनमध्यगे शिखरविरेषे, स्था० ।
दो मंदरचूलियाओ | स्था० २ ठा० ३उ०।
चूलिका क्वेत्याइ--
पंडगवणस्स बहुमज्मदेसभाण एथ शं मंदरचूलिआ-
शाम च(लं पण्णता, चत्तालीसं जोअणाई उड़ उच्चत्ते-
श मूल वारस जाअणशाई विक्खभेणं मज्फे शद जोअणाई
विक्खभेणं उर्प्पि चत्तारि जोअणाई विक्खेभेश मूले सा-
इरेगाई सत्ततीस जोअणाई परिक्खेवेणं मज्के साइरेश।ई प-
द्र
सभिधानराजेन्द्रः। _
_ संदरचूलिया_
शवस जोअणाई परिक्सेवेणं उत्प साहरेगाई बारस
जे,अणाई परेक्सेेशं मूले वित्थिष्पा मज़्फे संखित्ता उ-
पि तजुआ गोएच्छसंडाणसं ठित सब्यवेरालिआमई अच्छा
साशं एगाए पडमवरवेदयाए ० जाव संपरिक्खित्ता
इति उःष्प बहुसमरम जे भूमिभांग ° जाव सिद्धाय
यणे बहुमज्कदेसभाए कसं आयामेण श्रद्कोसं वि~
क्संभेरं देषणगं कोस उड उचततणं ्रणेगखमसय
०जाव धूवकइच्छुगा ।
( पंडगवरण सति ) पणडकवनस्य मध्ये इयोः चऋबालबि-
च्वस्भयोर्विचाले अवान्तरे मन्दरस्य-मेयेश्चलिका शिखा
इव मन्द्रचूलिका नाम चूलिका प्रशाप्ता, चत्वारिंशतं यो-
जनान्यूड्रोंच्व बेन मूले द्वादश योजनानीत्यादिसूत्र प्रा-
ग्बत् । केवले सवा55त्मना चेड्येमयी नोलवणंत्वात् , साप्र-
ते सूत्र 5नुक्काएप वाचयितृणामपूर्वाथेजिल्लार्पीयषया चू-
लिकाया इष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय श्रसङ्गव्यापायो
लिख्यते,यथा-तत्राधोमुखगमने करणामिदं चूलिकायास्सर्वो-
परितनभागादवपत्य यत्र योजना ऽऽदावातिक्रान्ते विष्कम्म-
जिज्ञासा तस्मिश्नतिक्रान्ते योजना .ऽऽदिके पञ्चभिर्भङ्के लब्ध-
राशिश्रतुर्भियुतस्तत्र व्यासः स्यात् , तत्र उपरितलाद् विश-
तियोजनान्यवलीरस्ततो विशतिः ध्यते तस्याः पञ्चमिभोः
ग लब्धाश्वत्वारः ते चतुर्मिः सहिताः अष्टौ एतावाजुपरित-
लादू विशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, पवमन्यत्नापि भावनी-
यम् , यदा तृद्धैमुखगत्या विष्कम्भाजज्ञासा तद्ाऽयमुपायः
चूलिकाया मूलादुत्पत्य यत्र योजनाऽ दो विष्कम्भजिक्ञासा
तस्विन्नतिक्रान्तयोजना ऽ ऽदिके पञ्चभिरभ॑ङ्के यल्लब्धं तावत्पमा
रे मूलविष्कम्माद्पनीते अवशिष्ट तत्र विष्कम्भः | तथाहि-
मूलात्किल विशतिर्योजनान्यु्वं गतस्ततो विशतिधियते
तस्याः पञ्चभिभागे (हृते) लब्धानि चत्वारि योजनानि तानि
मूलविष्कम्भाद् दवादशयोजनप्रमाणादपनीयते, शषाणयष्ट,
एतावान मूलादूडू विशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्य-
च्रापि भावनीयम् । यथा मेरौ एकादशभिरंशरेका 5शः एकाद-
शभिरंशरेक योजने व्यासस्य चीयते ऽपचीयते,तथाऽस्यां प-
अ्भिरंशरेकों ऽशः पञ्चभियोजनेरेकं योजने व्यासस्येति तात्प-
याथः । अत्र धीजम्-द्वादशयोजनग्रमाणाच्चूलाव्यासादारोदे
चत्वारिंशद्योजनेषु गतेषु अष्टो योजनानि उच्यन्ति, अव-
रोहे च तान्येव वर्धन्त, ततस्रे राशि कस्थापना-०० । ८ । १।
मध्यराशाचन्त्यराशिना गुणिते एकेन गुणिते तदेव भवतीति
जाता अष्ठो अस्य रारश्चत्वारिशता भजने भागा5प्राप्ता दयो
राश्योरष्टभिरपवते जातम् । २ । श्रधास्या वर्णकसत्रम-
५ सा णे एगाप पठमवर ०जाव ” इत्यादि प्राग्वत् । अथा-
स्यां बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णन सिद्धायतनवरीन चाति-
देशना 55ह-(उध्पि बहुसम इत्यादि) श्रस्याश्चालिकाया उप-
रि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः । स च यावःपद्करणा
त् “से जदाणामण श्र्णलगपुक्खरेद वा ” इत्यादिको भाह्यः,
तथा तस्य॒ बहुमध्यदेशमागे लिडायतन वाच्य, कोशमाया-
मेना विष्कम्मेन देशोन क्रोशमुश्वत्वेन अनेकस्त-
स्मश॒तसंनिषिष्टमित्य।{दकः सिद्धायतनवणंको वाच्यो, याव.
(36)
_मंदरचुलिया
असिधानराजन्द्रः।
- मस
दूपकड्च्खुकानामष्टोत्तरं शतमिति । ज॑० ४ वक्ष० । स्था०।
नि० चू० । स० । “ मंदरचूलियाए सिहराम्मि | ” आ०
म० २ अ० ।
मंदराय-मन्द्राज-पएुँ० । राजमेदे, अक्षत्रिये कुलविशेषश्रवत्ते-
के, आ० म० १ आ० ।
मंदलेस्सा मन्दलेश्या-खी० । ईषदुष्णरश्मी , खू० भ” १६
पाहु० । जं० । द
मंदवाय- मन्द्वात- प° । अमहावातेषु,मन्दाः शनेःसंचारिणो
वाताः | भ० ५ श० २ उ०।
मदा-मन्द्रा-ख्ी० । वषेशता35युष्कस्य पुरुषस्य तृतीयदशा- |
याम् , तं० दश० । ( खा च "दसा" शब्दे चतुथभागे २४८४
पृष्ठे दर्शिता ) व
मंदाइय-मन्ायित-न० । मध्यभागे सूच्छैना+ऽदिगुणोपततः
या मन्दमन्दघोलना $ ऽत्मके गयभेदे, ज० १ वत्त० ।
मदाय-मन्द-न° । शनेःशब्दार्थ, “मंदाय मदायं पव्वदयाए |
शनेः शनैः प्रवजितायाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० | मेदायं
मंदायमतिमन्द्कम्। आ० म० १ अ० । मन्दकमध्यभागे
सकलमूच्छैना-5:दिगुणोपेत मन्दे मन्द् सचरन् । अथवा-
मन्दम्-श्रयते गच्छति परिघोलना 5 ऽत्मकत्वान्मन्दायम् ।
गेयभेदे, ज० १ वच्च० । आ० म० । रा०।
मंदार मन्दार पुं | कल्पवृक्ते, “ मेदारदामरमणिज्ञभूयं । ”
करप० १ श्रधि० १ क्षण |
मदार्मजरी-मन्दारमञ्ञरी-खी० । पुष्करद्वीपाद्धं मङ्गलाव-
तीविजये तमाललताया नगय्यौ राज्ञः समरनन्दनस्याग्रमदहि-
ष्याम् , दशै० ३ तत्त्व ।
मदारसिह- मदारशिख पुं । भरतवर्षीयचोलदेशवरत्तिकञ्चन-
स्थलनगरस्थे स्वनामख्याते साथवाहे, दश० ३ तच्व ।
|
मेदावत्थ-मन्दावस्थ-तरि० । विपाकदारुणे, पंण्च० ४ दार । |
मंदिय-मन्दिक- प° । धर्मक्रियायामलक्त, उत्त० = अ० । चमै-
कतयैम्यत्ययते , उत्त० ८ अ०।
मंदिर मन्दिर न° । गृहे , प्रश्ष० ४ आश्र०द्धार। आ० म० |
द्वी० । स्वनामख्याते सन्निवेशे, “ मदिरे सान्निवेशे अग्गिभू-
ती णाम माहणे | ” आ० चू० १ अ० । उत्त०। वेश्मनि,उत्त०
६ आअ०। प्रज्ञा० ।
मंद्रिपुर-मन्द्रिपुर-न० । शान्तिनाथस्य तीथकरस्य प्रथम-
भित्तालाभस्थाने, श्रा० म० १ अ०।
मदिरमउड- मन्दिरमुकुट-न० । चन्द्रावल्यां प्रतिष्ठिते भ्रीच-
न्द्रपरभे, ती० ४३ कर्प ।
मेदुरक-न० । देशीवचनम् । मन्दु-सुख तेन रक्तं वृषभा ऽऽदिश
व्दकरणं मन्दुरक्षम् । देवता $ऽदिपुरतो बषभगर्जिताऽऽदिक-
रणे, उपा० १ अ०।
मेदोञअरी- मन्दोदरी -खी० । लक्लेश्वररावणभायांयाम् , ती०
४० कल्प ।
मेधादन-मन्धादन-पु० । मेषे, खत० १ श्रु० ३े अ० ४ उ० |
सेस मांस न° । पलले, प्रश्न० १ आश्र० द्वार। तं । घ०।
दत्य धातौ , तं०। शरीरावयवे , स० । पिशिते , उत्त० ५
अ० । प्रश्न० ।
श्रावकेण जिविधे मांस त्याज्यम्ू--
मांसं च त्रिधा-जलचरस्थलचरखेचरजन्तूद्भधवभेदाच्चर्स्म रु
धिरमांसभेदाद्वा , वद्धत्तणमपि महापापमूलत्वाह्वज्यम् ,
यदाहुः--
“ पचिदिय वहभूओ, मेसं दुग्गंधमसुइबीभच्छे ।
रक्खपरितुलिश्रभक्लग-मामयजणयं कुगइमूल ॥ १ ॥
आमासु श्र पक्ताखु श्र, विपच्चमाणासु मस्पेसीखु ।
सययं चिश्च उववाश्रो, भणिओ अ निगोअर्जाबाण ॥ २॥”
योगशास्रेऽपि- |
“ खयः समूार्च्छतानन्व-जन्तुसन्तानदृूषितम्। `
नरकाध्वनि पाथेय, को5श्षीयात्पिशित खुधीः ?॥ १॥ ”
सद्यो जन्तुविशसनकाल एव समुदिता उत्पन्ना अनन्ता
निगोद्रूपा ये जन्तवस्तेषां सन्तानः पुनःपुनभेवनं तेन दू-
पितमिति तद्वात्तिः । मांसभक्तरुस्य च घातकत्वमेव ।
यतः--
“ हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्त्ता भक्तकस्तथा ।
केताऽनुमन्ता दाता च, घातका एव यन्मयुः ॥ १ ॥ ”?
तथा भक्तकस्थैवान्यपरिदहारेण वधकत्वे यथा--
“ ये मक्तयन्त्यन्यपले, स्वकीयपलपुष्टये ।
स एवं घातको यज्ञ, वधको भत्तकं विना ॥ १॥ ” घ० २
अधि० । च० प्र०। स्था०। प्रव०। मांस विङूतिः-““ जल-
थलखहयरमंसं, चस्म वस सोणियं तिहेयं पि। आइज्न ति-
ननि चलचल, ओगाहिमर च विगईओ ॥४॥ ? आदिमानि
चीरि चलचलेत्यवे पक्वानि विकातिरित्यथः | स्था० ४ ठा० १
जउ० | पं० व० । मांसं निर्दोषमिति बोद्धाः-मांस काल्किकमि-
त्य॒पदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणान्निदोर्ष मन्यन्ते, बुद्धसंघा ऽ५५-
दिनिमित्त चाऽऽरम्भं निदौषमिति। तदुक्कम्-'“मसनिवत्तिका
उ सेवददं कक्रिग ति धरिमिया । इय चदऊणा $ऽरम्भे, परव-
चखा कुणइ बालो ॥१॥ ” न चैतावता तन्निर्दोषता। न हि लू-
ताऽऽदिकं शीतलिकाऽऽद्यभिधानान्तरमात्रेणान्यथात्वं भज-
ते,विष वा मधुरकाभिधानेनेति । ((हिंसामूलममेध्यम् इत्यादि
जजोकः 'अद्गकुमार' शब्दे प्रथमभागे ५५७ पृष्ठ गतः।) मांसं
न मच्तणीयम्, शाखनिषिद्धः वात्, “न मांसभक्षण दोष” इति
मतखणडनम्--घर्मवादसुपदशैयता सूरिणा यथा हिसा ऽऽ-
दीनि तत्तन्त्रव्यपेत्तया युज्यन्ते यथा विचारितमथ मांसभ-
ज्ञणा ४ऽदिकं हिंसा 55दिनिवृत्तेरपि कुतीर्थिकेरदोषतया स्यु-
पगतं तक्तत्तन््रव्यपेक्षया धर्म्मवादोपदशनाथैमेव विचारयि-
तुमुपक्रमते | तत्र मांसभक्षणमघिंक॒त्य तावदाह--
भक्षणीयं सता मांसं, प्राण्यद्गत्वन हेतुना ।
ओदना55दिवदित्येवं, कश्चिदाहातितार्किकः ॥१॥
भक्तणीये भोक्नब्य सता विदुषा मांस पिशितमिति प्रति-
ज्ञा केन देतुनेत्याह-प्राएयज्ञत्वेन हेतुना जीवाचयवत्वद्धितोः,
श्रोदना ऽ ऽदिवदिति भक्कभशरतिकं यथा,इत्यन्वयद्टान्तः, इति-
शब्दः प्रयोगाथैसमाप्ती, प्रयोगआैवम-यद्यत्प्राए्यह्ञ तत्तद्धचयं
इष्टमोदनवत्,प्रारयङ्गे च मांसमिति,मांसस्य च भारयङ्गतया `
प्रत्यक्षसिद्धत्वान्नासिद्धो हेतः, श्रोदनस्य ञकेन्द्रियपार्यङ्कतवे
(इ ( २
भ्रस
न पतीतत्वान्न देतुविक ज्ञो दष्टान्तः। एवापित्यनेन्तरोक्कप्रकारे-
ण कश्चित्कोऽपि.सोगत इत्यर्थः । अतिशय वांस्तारक इत्युप |
हासवचने, प्रायः शुष्कतक्कैप्रधानत्वात्तस्य, अधिकृतप्रमाण-
स्यवा प्रमाणा55भासत्वादिति ॥ १ ॥ |
शुष्कता द्विकः = स्य पूर्वपत्तदूषणत आह--
भक्ष्याभल््८5यवस्थेह-शाखलोकनिबन्धना ।
सेव मावतो यस्मत्, तस्मदेतदसाम्प्रतम् ॥ २॥ |
ननु मक्तणीय मांस भरारायङ्गत्वादित्यतत् स्वतन््रसाधन, प्र-
सङ्गसाधन वा ?। स्वतन्त्रसाधनपत्ते ओ्रोदनादिवदित्ययं साघ-
नविकलो दृष्टान्तः, वनस्पत्यायेकेन्द्रियाणां बौद्धस्य प्राणि-
त्वेनासिद्धत्वात् , ततश्च दृष्टान्ते भ्रारयङ्गत्वलत्तणसाधनस्य
भच्यत्वलक्तणसाध्येन व्याप्यत्वा्लद्धेरसिद्धान्वयाऽभिमानो
-ऽनेकान्तिको हेतुः । प्रसज्ञसाधनपत्ते त्विदमुच्यते-भच्यं भ- |
त्त णीयमोद्ना ऽ ऽदि. अभव्य मधुमांसपलारड़ादि तयोव्येवस्था |
मयादा भच्याभच्यत्यवस्था, उपलत्तणत्वादस्य पेयापेयग-
म्यागम्या ऽ ऽदिपरिग्रहः । इदा ऽस्मिन लाके, शास्त्रमाप्वचन
लोको लोकव्यवहारः,तौ निबन्धने देतुयैस्याः सा तथा, नतु |
प्राण्यज्ञेतरमात्रनिवन्धना, सवैव निरवशषेव, न तु काचिदेव,
भावतः पारमार्थन,यस्मात्कारणात्तस्मादेतदनन्तरोङ्कं “भक्त-
णीयं सता मांसम्। इत्यादि खाघनमसाम्प्रतमयुक्रमिति ॥२॥
असाम्प्रतत्वमेव ठेतोरनैकान्तिकतोपद्शन- |
तो भावयज्ञाह--
तत्र प्राणयङ्गमप्येक, भदयमन्यत्त नो तथा |
सिद्धं गवादिसतृत्षीर-रुधिराउड्दो तथेक्षणात् ॥३॥
तत्रेति तयोः शास्त्र लोकयोर्वाक्योपक्षेपमात्रार्थो वा तत्र
शबः प्रारायङ्गमपि जीवावयवो 5पि,आस्तामप्राएयक्लषमपि,एफकं
करिञ्चिचिद्धच्यं मोञ्यम् अन्यत्तु परं पुनर्नों तथा तेन अकारेण,
अभच्यमिव्यथेः। सिद्धं प्रतिष्ठितम् । कुतः सिद्धसित्याद-गवा-
दीनाम् , आदिशब्दात् मातृप्रभ्रतीनां, सच्छोमने अभिनवप्र- |
सवधनुसत्कादन्यत् , क्षीरं च, पयो रुधिरं च लादतमादि्य-
स्य तत्तथा, तत्र गवादिसत्त्ञीररुघिरा 55दो विषये , आदि- |
शब्दात् गवादिमृत्रमांसा55दों च, तथा तेन भच्याभच्या ऽऽ
दिप्रकारेण, ई्तणादवलोकनात्। तथाहि-गवां त्तीरं मत्र वा
पेयतया शाख लाकं च न निषिध्यते,रुूधिरमांस तु नासमन्य
ते, ततश्च प्राण्यकूं सद्धच्य चापलब्धमतः सपन्तावपक्लव्रात्ति-
त्वादनेकान्तिका देतु रति ॥३॥
किं च-प्रसङ्गसाघन हि पराभ्युपगमानुसारेण भ
वात, नचाऽस्माङ् प्रार्यज्ञमात रूत्या मास- |
मभक्यमित्यभ्युपगमः, कि तु तदुत्थ- |
जीवापेक्तयादि दशीयित॒माह--
प्राण्यड्रत्वेन न च नो5-भक्षणीय त्विदं मतम् |
कि त्वन्यजीवभावेन, तथा शासप्रसिद्धितः॥४॥
प्राण्यज्ञत्वेन जीवावयवतया देतुना , न च नैव नो ऽस्मा-
कम् ,अभक्तणीयमभोज्यमिदं मांसेमतं सम्मतं,किं तुकि पुन
अन्यजीवभावेन मांसस्वामिव्यतिरिङ्कप्राणिसमुत्पादेन हेतु-
ना, श्रभक्तणीयमिदं मतमित्यावर्च॑ते । । अन्यजीवभाव एव कु
सिद्धः ?,इत्यत्रा55द-तथा तेन प्रकारेण जीव संसङक्किलत्त-
अभिधानराजन्दः ।
मस
रन, शाख प्रसिद्धितः श्रात्मा ऽऽगमप्रतिष्ठितेः; प्रसिद्ध शछ्याग `
मे मांसस्य जीवससक्किनिमित्तत्वम् । यदाद -““ आमाखु य ८
| ककार य, विपच्चमाणाख मसपसाख । आयेकतियमुववाओं "
भणिओ य निगोयजीवा एं ॥ १.॥” एतेन च ज्छोकेन परस्प-
रमतानभिज्ञताऽऽपादनतो 5धिक्तअश्रमाणस्य असहुसाधना
निराकृतेति ॥ ४ ॥
श्रथा.ऽचिरूतटेतोरेवानिष्राथसाधैकतां दर्शयज्ञोौह--
भिक्षुमांसनिषेधोडपि, नचेयं युज्यते कचित् |
अस्थ्याद्यपि च भ्यं स्यात्, प्राण्यङ्गत्वाविशेषतः॥ ५॥
भिक्तोवोद्धविशषस्य मांसं पिशितं तस्य निषेधो वर्जने
भिक्लमांसनिषेधः, स किल भवन्मतेन भिक्तौरतिपृज्यत्वा-
दवश्यं युक्तो भवति, सोऽपि, श्रास्तां गवादिमांसनिषेधः
च नेव, एवं प्रारयङ्गत्वेन मांसभक्तणाभ्युपगमे सति, थु-
ज्यत घटते, क्वचित् कुजचित् देशान्तरे कालान्तरे पुरु-
षान्तरे वा । श्रस्ये <ःभ्युञ्चयमाह-श्रस्थिकीकसमादियस्य
तत्तथा, तदपि च न केवलं भिच्लुमांसाऽऽदि यत्किल भक्त-
यितुभशक्यमस्थिशृङ्गखुरा ऽदि तदपि च भ्यं भक्तणीय
स्याद्धवेत्। कुतः ?, इत्याह--प्राएयज्ञत्वस्थ जीवावयवत्वस्य
हेतोराविशेषस्तुल्यत्वं मांसे श्रस्थ्यादौ चेति भ्रार्यङ्गत्वा-
विशेषस्तस्मादतो ऽभच्यस्य भक्ष्यत्वा55पादनेन विरुद्धो .हेतु
रिति ॥ ५॥
त्रैव दुषणान्तरमाट--
एतावन्मात्रसाम्येन, प्रवृत्तियंदि चेष्यते |
जायायां स्वजनन्यां च,खीत्वात् तुल्यैव साऽस्तु ते ॥६॥
पतदेव पएतत्परिमाणमेव एतावनमाजे, तेन साम्यं सा-
दश्यम् पतावन्माच साम्यं तेन,प्राययज्ञत्वमाजसाडश्येनेत्यर्थ: ।
भवरत्तिमासभक्तणा 55दो अवस्तेने, यदीव्यभ्युपगमे, चशब्दः पु
नरः, इष्यते भवता5मिमन्यते, तदा किमस्त्वत्याह--जा-
यायां भार्यायां, स्वजनन्यां चा55त्मीयमातरि च स्रीत्वाद-
कुनात्वेन हेतुना, तुल्येव समानेवाभिगमरूपा पल्यारूपा
वा सा भवृत्तिरस्तु भवत्, ते तव, खरीत्वाविशेषाद् छयो
रपि, यथा प्रारायङ्गत्वाविशेषान्मांसौदनयोरिति ॥ ६ ॥
प्रकरणा थनिग मनाया ५ 5ह--
तसाच्छात्न च लाक च+समाश्रत्य वदेद् बुधः
सवत्रव बुधत्व स्या दन्यथान्मत्ततुल्यता ॥ ७॥
यस्माद्ध ब दुक्कसाधनमनन्तरोक्कन्यष्येन बहुदोषदुर्श तस्मा-
त्कारणाच्छाखं चा ;ऽप्तवचन, लाकं च विशिष्रजने,समाधि-
त्याज्ञेरृत्य, वदेत् ब्रयात् , कोऽसो ? बुधः परिडतः, कव वि-
षय ?, इत्याह--सवत्र न मांसभक्षणविषय एवाउपि तु स-
वस्मिन्नपि विष्य, अन्यथा हि बुकाणस्य लोकरूढिनि-
राकूताऽऽदयः पक्तदोषाः प्रासञ्जेयु!, एवं व्रुवाणस्य को गु-
ण इत्याह--एवमनेन घकारेण लोकशाखसमाश्रयण्पूवक
वदनलक्षणन, बुधत्वं परिडतत्वं, स्याद्धवेत्। विपयैये कि स्या-
दित्याह--अन्यथा अ्रन्येन प्रकारेण लोकशाखानपेच्तता-
वदनलच्तणन, उन्मत्ततुल्यता ग्रहग्रहीतसमानता, स्यादिति
गम्यते । श्राह च~“ सतां पथा वृत्तस्य, तेजोचृखी रवेरिव ।
यदच्छया प्रदृत्तस्य, रूपनाशो श्त बायुवत् ॥१॥' इति ॥७॥
| | ३२ )
मंस
अयिध्ानराजन्द्रः।
इति बोद्धाभ्युपगता55प्ततचननिषिद्धत्व॑ मांसभत्तण॒स्य ।
दर्शयन्नुपसहारा थमाह---
शादे चाऽऽ््ेन वाप्प्येत-निषिद्धं यत्नतों नज्ु ।
लझ्ढाज्वतारसृत्राउडदी, ततोऽनेन न किञ्चन् ॥ ५ ॥
न केवलं लोक, ्स्मच्छाख चेदं निषिद्धः शाखे चाऽऽग-
भे चाऽऽप्तन ज्ञीणरागा 55दिदोषेण खगतन काऽपि युष्माक
पिन केवलमस्माकमेव, एतन्मां समक्ष ण (निषिद्ध निवारितं,
यत्नत आद्रेण, नन्वित्यच्तमायां, क्व शाखे निषिद्धामत्याह-
लङ्गा ऽवतारस् जाऽ ऽदौ निशाचरविनयनाय लङ्कायामवतारः,
सूच्यते तथागतस्य यत्र तन्नज्ञाउवतारसूज, तदादो, वच कि-
लोक्कम्-““न आरयङ्गसमुत्थ, मोदादाप शङ्खन््रणैमश्चीयात् ।”?
श्रादिशब्दाच्छीलषशला ५ऽदिपारेम्रदः। "लत इति यस्मादेवं त-
स्माद्नेन मां सभक्तसमथेनेन, न॒ किञ्चन नास्ति किञ्चन,
भवतो ऽपि प्रयोजनमिति शष इति ॥ ८ ॥ हा० १७ अछ० ।
तदेवे मांसं न भक्तणीयं, लोकशास्थविरेधादिति घमवा-
दतो व्यवस्यापिते यः काश्चिद्सहमान आह-“ न मांख-
भक्तण दोषः ” इति तन्मतभ्रस्तावनाया ऽ ऽद-
अन्योऽविखश्य शब्दाथ, न्याय्यं स्वयपुदी रतम् ।
पूर्व्यापरविरुद्धार्थ-मेवमाहात्र वस्तुनि ॥ १॥
अन्यः--पूर्वेपक्तीकृतबोद्धादपरो द्विज इत्यथः, अविम-
श्यापयोलोच्य, शब्दार्थ मांसमित्यस्य ध्वनेरभिधेयम् । श्राह
इति संबन्धः, किभूतं शब्दार्थमित्या ऽद न्याय्ये न्यायादनचेत- |
म् , तथा स्वयमात्मना उदीरितं प्रतिषादिते“मांस भक्तायिता” |
इत्यादिना श्लाकेन । कथमाहेत्याह पूतस्य पृर्रौक्कस्य"“मां स भ- |
प्यिता 'इत्यादेर्मासभक्तणनिषेधार्थस्य, अपरेण श्रपरोक्तेन्'न |
मांसभक्षण दोषः" इत्यनेन “प्रोक्षितं मन्तयेन्मांसम्।''इत्यादि- |
ना वा। अथवा- न मासभक्तण दाषः ” इत्यस्य पूर्वस्य नि-
छृक्तिस्तु महाफलेत्यनेनापरेण सह विरुद्धो विसवायर्थो ऽभि-
धयो य॑त्र तत् पृवापर्रविरुद्धार्थ क्रियाविशेषणं चेदम् , एव-
मिति वच्यमाणप्रकारम ,, आइ--न्नवीति, अत्र मांसभक्तरे,
वस्तुनि पदार्थ इति ॥ ९ ॥
यदाह तदेक दृशैयति--
न मांसभक्षणे दोषो, न मये नच मेथने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निन्र्तिस्तु महाफला ॥ २ ॥
(न ) नैव मांसभक्षणे पिशिताशन दोष इति दूषणं कम्म
अन्धलत्तणः, अस्यव चाऽ ऽचपदाथैस्य पूवैश्लोकेन परस्ता-
वना कृता तत्प्रसङ्गेन च शेष पदत्रये श्कोकस्याधीनमिति
तस्य व्याख्या-तथा ( न ) नैव मये मधुनि, पीयमाने इति
गम्यते, ( न ) नेव, चशब्दः समुच्चयार्थः । मथुने अन्नह्म-
चर्ये,क्रियमाणे दाति गम्यते । कुत पतदेवमिव्याद-यतः भ्रचत्ति
स्वभावः, एषा मांसभत्तणा ऽ ऽदिकाऽनन्तरोक्ता, भूतानां प्राणि |
नां,निवृत्तिविस्मणं पुनर्मासभक्षणा 5 5द्भ्य इति गम्यते। महद् |
बृहत् फल साध्यमभ्युदया$ऽदिकं यस्याः सा महाफलेति ॥ २॥ |
योऽसो स्बयमुदीरितो मांसशब्दार्थस्तमा ह--
मां स भक्ष|येताउमुत्र, यस्य मांस मिहादम्यहम् ।
एतन्मोंसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मर्नीषिणः ॥ ३ ॥
पाभिति भक्तक आत्मान निर्विशति, स इति भच्यमारो जीव
|
|
4
£ भ्य
भक्तयितेति स्वस्तनी्थमपुरुषकवचनानिर्देशः,ततो भक्तायि
ष्यत इत्यर्थः तन् वाऽयं शीलार्थकः। मुज जन्मान्तरे कि विः
धेय इत्याह-यस्य पश्वादे्मासं पिशितमिदास्मिन् जन्मनि अ-
ममि थत्तयामि अहमित्यात्मानं भक्तको निर्दि शति,एतदनन्तरोः
दितं भक्तणलक्षणं, मांखस्य पि{शतस्य,मांसत्वं मांसशब्दब्यु
त्पत्तिनिमिक्तं, निरखक्कमित्यथैः। प्रवदन्ति भ्रति पादयान्ति, मनी
रिणो निरुह्विधिक्शला इत ॥ ३॥
तेन च मांसभमक्षणापायप्राप्तिश्रतिपादनेन मांसभक्तले दो-
घोऽस्तीति व्यक्षमेवो क्ततः कथमुङ्कम् ““ न मांसभक्षणे दो-
” इस्येतदेवा 55ह--
इत्थं जन्मेव दोषोऽत्र, न शाल्ाद् बाद्यभक्तणम् |
प्रतीत्येष निषेधश्च, न्याय्यो वाक्यान्तराद्रतेः ॥ ४ ॥
इत्थमनेन कारेण भक्तकस्य भत्तितेन भक्षणीयत्वप्राप्तिलक्ष-
शेन यज्जन्म उत्पत्तिस्तदेव,किमपरदोषगवेषणन,दोषे दूषणम-
नर्थावाप्तिरित्यर्थ:, शत मांसभक्षण,ततः कथमुक्म-'न मांस
भक्तणे दोब-।” इति हृदयम् | अत किल परः पाह-(न) नवं य-
द्धक्तकस्य भक्तेणीयत्वप्राप्मासभक्तण दाष इति! कुत इत्याह-
यतः शास्त्रादागमाद्,वाह्मभक्षणं बहिभूतमांस्तदने,प्रती त्या 5५
धिल्य एषो 5नन््तरो क्ल इत्थ जन्मरूक्षणो दोषो,न पुनः शाखीय-
मांसभक्षणे,लथा निषधश्च मांसभक्षणप्रतिषधो ४पि,' मांस भक्त
यितेत्यादिनिरुक्ततलप्राण्िशास्त्राद्राह्ममक्तणमेव प्रतीत्य न्या-
य्य उपपन्नः,कथे !,चाक््यान्तरात् “मांसभक्षायिता” इत्यादिवा
कयापच्तया यदन्यद्धाक्यं तद्धाक्यान्तरे,तस्माद्वतेः परिच्छित्ते
मासभक्तणस्येति गम्यम् | | अथवा-'इत्थ जन्येव दाषो ऽत्र इत्येक
तावद् दूषणं, तथा अपरं (न, नव शास्त्राद् वाह्यभक्तणे परतीव्येषो
उनन्तयाक् “न मांसथक्तण दोष "इत्येव लक्तषणा निषधो सांसभ-
च्णलक्तणे दोषप्रतिपेधः,चशब्दो दृषणान्तरसमुञ्चयार्थो, या-
य्यः सङ्गतः वदयमाणब्रोक्तिता ऽऽ दिवशेषमां सादन एव दाष-
निचेधो न्याय्यः.शाखरो क्त्वादेव न पुनः सामान्येनेति भावः।
कुत एतदिति चेदिव्यत आह-वाक्यान्तादतेरिति “न मांस-
भक्तणे दोष इत्येवविधात् सामान्यत एवं मांसादनदोषाभाव-
प्रतिपादनपराद् वाक्यायदन्यत् प्रोक्षित भ्॑षयेदित्यादि वक्ष्य-
माणं वाकयं तद्वाक्यान्तरं तस्माद् गतेः परिच्छित्तेः शाखो-
करत्वेन मां खादनविशेषस्य निर्दौपतयाऽवगमादिव्यथैः ॥ ४ ॥
पतदेव वाक्त्यान्तरभाद-
प्रोक्षिते भक्षयेन्मांसं, बाह्मणानां च काम्यया |
सथावेधि नियुङ्कस्तु, प्राणानामेव बाऽत्यये ॥ ५॥
प्रोक्षित वैदिकमन्तराभ्युक्तिते,मक्तयेदश्नी यात् ,मां सं पिशितं,
ग्राह्यणानां द्विजानां, चशब्दो विशेषणसमुष्वये, काम्यया इ-
च्छया द्विजभुक्लावशेषं प्राति तदयुक्षया, विधिनन्यौयो या यञ
यागश्राद्धाघूरैका 55दौ प्रक्रिया,तस्यानतिक्रमेण यथाविधि, -
तत्र यागविधिः पशुमेधाश्यमेधा ५ ऽदिविधायकः, ्राद्धविधि
श्राद्शाखविहितः, शास्त्रविधिस्तु मांसविशेषापक्तोऽयम्-
ओरज्रेणेह चतुरः, शाकुनेन तु पश्च वे।
षरामासान् छागमांसेन, पार्षतीयेन सप्त वे ॥ १॥
दशमासांस्तु तप्यन्ते, वराहमददिषा ऽऽमिषः ।
कृमेशशकमांसेन, मासानेकादशेव तु ॥ २ ॥
सवत्सरं तु कृष्यन्ति, पयसा पायसेन तु । /
हक ३३६ )
मस
श्वनिधानरःजन्द्रः।.
मस
आधूर्णकविधिस्तु याज्ञवल्क्योक्रो ऽयम् “ महोत्ते वा महाज
खा, श्रोत्रियाय पकल्पयेत् । "' इति । तथा नियुक्तस्तु गुरुभिः
उयरेपारित एवं, नियक्कशब्दस्य वा यथाविधीति विशेषणे,
तुशब्द एवकारार्थः, तथा प्राणानामेकेन्द्रिया ऽ ऽदीनामेव न तु
द्रव्या ऽऽदीनां, वाशब्दः पत्तान्तरद्योतकः, अत्यये विनाश,
उपस्थिते इति शषः । मांस भक्तयेदित्यञुवत्तते । श्रात्मा हि-
रत्तणीधः । यदाह-'सब्बंत एवा ऽ ऽत्माने गोपयेत् । "' इति ।५।
प तेक्रमेवाथमनुवाद दररेणा ऽ ऽश ङ्क्य दूषयन्नाह-द्विती-
यत्याख्यापक्तया पुनरुत्तरश्लोकस्यवं पातना-भवदापादित
चव शाखरायमांसमक्तणे दोषाभावो ऽस्माभिराभिधीयते,
सामान्यनात परमतमाङ्कय दृषयज्नाह--
अजैवासावदोपषश्रे-ज्िवृत्तिनाउस्य सज्यते ।
अन्यदा भचणादत्रा-भक्षणे दोषकीत्तनात् ॥ ६ ॥
अत्रेव-अनन्तराभिहित एव प्रोक्षिता 5५दिविशषणमांसभतक्त
रे अन्यत्र तु दोष एव, असो यो “न मांसभक्तणे दोषः" इत्यनेन
चचसा 5भ्युपगतो5दोषो दोषाभावश्चद्यय्ेवं मन्यसे, तदि-
ति शषः । कि दृषणमित्याह-निवृत्तिर्विरतिः ( न) ने-
चास्य मांसभक्तशस्य, सज्यत प्राप्नोति | कुत इत्याद-श्रन्य
दाऽन्यस्मिन् प्रो्तिताऽऽदिमां सविशेषेणाभावकाले, अभक्ष-
शाद्नभ्यवहरणात् ,उक्तविधिव्यतिरेकेण हि मांसं न भच्यते,
अतो मांसभक्षणस्याप्राप्ते: निवृक्षिनोस्य प्रसज्यते दरःयुच्यते,
पाप्तिपूविको टि न्षिधः सफलो भवतीति । श्रथ प्रोक्षिताउ5- |
दिविशेषणसद्भावे निवृत्तिसविष्यतीति । "निवृत्तिस्तु माफ |
ला रात वचः सफलोभावष्यता त्यत्रा55ह-अ्रत्र प्रात्तताऽऽ
ृदावशेषणसद्धावे ऽयत्तणे 5नशने मासस्य दाषकात्तनाद दृष- |
शाभिधानान्निचरत्तर्नास्य प्रसज्यते इति प्रकृतमिति ॥! ६॥
दोषकीक्तेनमेव दशेयन्नाह--
यथाविधि नियुक्तस्तु, यो मांस नात्ति वे &जः ।
स ग्रेत्य पशुतां याति, सभवानेकशतिम् |} ७॥
योग्यो विधिः शाखीयन्यायो यथाविधि तेन नियुक्तो युक्तो
व्यापारितो वा गुरुभि्यथाविधि नियुक्रः,तुशब्द
तस्य चेवं प्रयोगः-विधिना मांसमखादन निदोंष एव यथा-
>« भ ^ >
वोधे नियुक्कः वुनर्यो ऽनिर्दिष्टनामा मांसं पिशितं ( न) नेव |
अत्ति भुङ्के, वै इति निपातः वाक्यालङ्कारा्थः.द्विजो विध
स इति द्विजः,प्रेत्य परलोके,पशुतां तियेग्मावं,याति प्राप्रोति,
कियतो भवान् यावदित्याह--संभवनानि संभवा जन्मानि,
तान् सम्भवान् , एकेनाधिका विशतिस्तामिति ॥ ७॥
पाल्तिता 5ऽदिविशेषणभावे मांसस्य भक्तणे प्रवृत्यभावेन
निवरचेरफलत्वात् प्रोत्तिताऽऽदिविशेषणस्य च तस्या-
भक्तये दोषकीत्तेनात् ; “ निवृत्तिनां5स्य
सज्यते ” इति यदुङ्घं तत्र षरकीये-
परिदारमाशङ्क्य परिहरक्लाह--
4 त ५८ [प [भे #
पारेव्रज्यं निवृत्तिश्रे-बस्तदग्र/तपात्तितः |
फलाभावः स एवाऽस्य, दोषों निर्दोष॑तेत्र न ॥ ८ ॥
परिवाजोः भावः पारिवाञ्यं मस्करित्वं,
त्याग इत्यथः! तदेव
६
ब्दः पुनः शब्दाथैः, |
|
|
गदस्थभ्राव- |
निच्रत्ति निबन्धनः वाद् निष्श्विन्ना- ।
प्ोत्तितः ऽऽदिविशषणं मांसं भक्तणीयमेव , तस्माच्च पार
व्राज्यपतिपत्तिद्धारेण निवत्तत इव्येवं प्राप्तिपूर्विका निदृत्ति-
मासभक्तणएस्य स्यात् , सा च महाफलेति , अतो ' निव
तिना ऽस्य सज्यते ` इत्याचायवचने परेण दूषितम् । अन्न
दूषणमाद--यः कोऽपि तदश्रतिपत्तितः पारित्राज्याप्रतिपः
त्तिमाअत्य फलाभावः अभ्युदयाऽऽदिप्रयोजनाप्राभिः, स
एव किमपरदोषगवेषणन,अस्य मांसभक्षणस्य दोषो दूषणम् ।
ततः किमिल्याह- निर्दोषता निदूषणता, एवशब्दस्यान्यत्र स-
चन्धान्नव नास्त्यवातः कथमुच्यते-'“न मांसभक्षणे दाषः 'दति।
तथा- नजरा त्तस्तु महाफला इत्यत्र विशषण काञ्चदुच्यत-
ननु निच्ात्तार्निरवद्या, वस्तुनो विधीयमाना महाफला,सावद्या
वा ? । यदि निरवद्या तदा यत्याश्रमा ऽऽदेरपि नवृत्तिरज्ञीक-
तव्याः तस्य निरवद्यत्वान्न चेतदिश्म श्रथ द्वितीयः पक्तस्त-
दा मांसभक्षणस्य सावद्यत्वन सदोषताप्राप्तरिति ॥ ८॥ हा०
१८ अष्ट० ।
तथा स्मात्तौ अ्रपि-
“ न मांसभक्तणे दोषो, न मचे न च मेथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥ १ ॥ ”
इति शलोकं परन्ति । अस्य च यथाश्रु ताथव्याख्यानेऽसवद्ध-
प्रलाप एव, यस्मिन् हि अलुष्टीयमाने दोषो तास्त्यवःतस्मान्नि-
चत्तिः कथामेव महाफला भविष्यति ?, इज्या 5ध्ययनदाना 55
देरपि निवृत्तिप्रसड्ञातू तस्मादन्यदेदम्प्यमस्य श्लोकस्य ।
तथाहि-“ न मांसभक्षण कृते दाषः " आप तु दोष एव, ए-
वे मद्मेथुनयोरपि । कथं नाऽदोषः ?, इत्याह-यतः प्रवृत्तिरे-
चा भूतानां-प्रवत्तेन्ते उत्पद्यन्ते<स्यामिति प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्था-
ने, भूतानां जीवानां, तत्तज्ञीवर्संसाक्कढतुरित्यर्थः । प्रसिद्धं च
मांसमद्यमेथुनानां जीवससक्किमू लकारणत्वमागमे--
“° आमासु य पकांखु य, विपच्चमाणासखु मंसपेसीसु ।
आयंतिअमुववाओ, भणिओ उ निगायजीवारणं ॥ १ ॥
मज महुसम्मि मंसम्मि, नवरणीयाम्मि चउत्थए ।
उप्पज्ञंति अणंता, तव्वरणा तत्थ जतुणो ॥ २
मेद्रसश्ना ;5रूढो, नवलक्ख हणइ खुहुमजीवाणं ।
केवलिया पन्नत्ता, सद दियव्वा सया काल ॥ ३ ॥”?
तथाहि--
« इत्थीजोणीए सं-भवंति बेइंदिया उ जे जीवा ।
इक्तो व दो व तिन्निव, लक्खपुदुत्त च उक्रोसं॥ ४ ॥
पुरिखण सह गयाए, तेखि जी वाश होइ उदवरं ।
वेणुगदिडतेणे, तत्तायसलागनाएरणं ॥ ५॥
संसक्कायां योनौ द्वीन्द्रिया पते, शक्रशोरितसमवास्तु ग-
भेजपश्चेन्द्रिया इमे--
“पघरतचिंदिया मणुस्सा, एगनरशुत्तनारिगष्भस्मि
उक्छासख नवलक्खा, जायाते एगवेलाए ॥ ६ ॥
नवलकखाण मज्भे, जायइ इक्कस्स दरद व सम ची ।
ससा पुण एमेव य, विलये वच्च॑ति तत्थेव ॥ ७ ॥ ”
तदेवं जीवो पमर्दटे तत्वाश्न मांसभक्तण ऽऽदिकयद्ु मिति प्र-
योगः । श्रथवा-भूतानां पिशाचघ्रायाणामषा श्रद्धाक्तः त ए-
चात्र मांसखभक्षणा ऽदो प्रवत्तन्त.न पुनर्विवकिन इति आवः । त-
देवं मांसभत्तणा ऽेदष्रतां स्पष्टीकृत्य यद्ुपंद्छठ्य तठाह-नि-
रे ३४ )
भ्रम
अनिधानराजन्द्रः ¦
मस
वृत्तिस्तु मदाफला ।” तुरेवकाराथैः, “तुः स्याद्धेदे ऽवघारणे |
इति उखनात्। ततश्चैतेभ्यो मांखमक्तणा.ऽऽदिभ्यो निवृत्तिरेव
मद्यफला खगापवर्गफलप्रदा; न पुनः प्रवृत्तिर्पीत्यथ: । अत
पव स्थानान्तरे पठितम्-
“ चे वरै ऽश्वमेधेन,यो यजेत शतं समाः |
मासानि च न खादे्य-स्तयोस्तुल्यं भवेत् फलम् ॥ १ ॥
पकरात्रोषितस्यापि, या गतिब्रह्मचारिणः ।
न सां करतुसहस्रेण, ाप्तं शक्या युधिष्ठिर ! ॥ २॥
मधपाने तु कतं सूत्रानुवादैः, तस्य सवविगर्दितत्वात्। ता-
नेवे्रकारान्थान् कथमिव वुधा ऽऽमासास्तीर्थिका बेदितुमई-
न्ति इति कृतमातिप्रसज्ञेन | स्या०।
मांसार्थ गच्छेत्ू--
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा ० जाव समाणे से जं पुण जाणे-
ज्ञा-मंस वा मच्छे वा मजञिज्ञमाणं पेहाए तेन्नपू्यं वा आ-
एसाए उवक्खडिज़माण पेहाए णो खद्धं खद्धं उवसंक-
मित्तु ओमासेज़ा, ण्यत्थ गिलाणणीसाए ॥ ५१॥ |
स पुनः साधुयेदि पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-मासं वा मत्स्यं
वा, भज्यमानमिति पच्यमानं तेलप्रधान वा पृष, तच्च किमथ
फरियते इति दशेयति-यस्मिन्नायाते कम्मरयादिश्यते परि-
जनः स श्रादेशः, प्राघुशकस्तद्थ संस्क्रियमाणमाहारं प्रेर्य
लोलुपतया (नो) नैव(खद्धं खद्ध ति)शीघ, शीघ्र, दिवैचनमाद-
रख्यापनाथैम् उपसक्रम्यावभाषेत् याचेत, अन्यज ग्लानाऽदि-
कायोदिति । आचा० २ श्रु० १ चू० १ आ० १ उ०।
मांसार्थ मांसस्थानं गच्छति--
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा मंसादियं वा मच्छादियं वा
मंसखल वा मच्छखलं वा अहिणं वा पहेणं वा स-
मेलं वा हिंगोलं वा अणणयरं वा तहप्पगारं विरूवरूव वा
हीरमाणं पेहाए सीए असाए ताए पिवासाए तं रयर्णि
अण्णत्थ उवाइणावेह, उवायणावंत वा साइजइ ॥१८६॥
जम्मि पगरणे मेसं आसादीए दिति पच्छा ओदणादि
ते मंसादी भणति । मंसाणं वा मच्छे वा आदावेव पकरणे
करति, तं च मंसादिए आणीएसु वा मंसेसु आदावेव अस्
वयस्स मंसपगरणं करंति, पच्छा सयं परिभुजति , ते या
मंसादी भणंति । एवं मच्छादिय पि वत्तव्वं । मंसखले जत्थ
` मंसाणि सोज्भति, एवं मच्छुखल पि! जमन्नगिहातो ्राणि-
जति ते आहेणं, जमन्न गिह णिज्ञाति ते पहेणग। अहया-
ज बहूघरातो बरगिह णिज्ञति तं पटेणएग सव्वाणमाद्य[-
ण ज दिति णिति त्ति तं दिगोल, हुज्जाति वा तं हि-
गोल । अहवा--जे मतभत्त वा करुणादियं द्विगोले, घीवाह-
मसं समेलो गोट्टीए या मत्तं समेल भर्णति । शहवा-
कमा ऽऽरम्भे सुरदासिता जे ते समेलो, तेसि जं भक्त तं सं-
मले गिद्ालो उज्ञानादिखु दीरत नीयमानमित्यथैःः, पेहा प्रे-
कष्य तं लक्ष्यामीत्यसी ,अह॒वा-ओदना ऽदि अखितुमिच्छा ,तवा-
शि द्वाक्तापानका 5 दि पातुमिच्छा पिपासा । अदवा-साण प-
देखाए प्रतिग्रयायेत्य्थैः ज ति साह तभ्मि दिखे पगरख म~
विस्सति त॑स्सश्चारतो जा रयणी, ते जो अत्य प्रतिश्नयं,
उवातिखावेंति, नयवीत्यथः, अस्त वा नयंदं खादिज्जति,
तस्स चउझुरु, आणादिणो व दोखा , , आयसंजमदविशहणा
उक्लसूत्रार्थः । श्यं निज्जुत्ती, सा व पायसो गतार्थैव ॥
गहहा--
मंसाइपगरणा खलु, जेत्तियमेला उ आहिया सु्ते ।
सेजायरेतराण व, जे तत्था सागते भिक्खू । १६६ ॥
ते पगरणं सज्जातरस्ख सेज्जातरेतरस्ख जे भिक्खू तत्थ
रासा तत्थासा ते अरणं वसदि आगते आणऽऽदयो दोसः
भवन्ति ।
शृ्ा-
ते रयि श््छत्तो, उवातिणा एतरे तु तत्थव ।
सो आणा अरणवत्थं, मिच्छत्तविराहण पवे ॥१६७॥
मसाण व मच्छाण व, गच्छता पारियम्मि वयगादी।
र.
से ्ाशेति संखर्ड पुण, खलगा वा जहि य सोर्सिति १६८
सेज्जायरभत्तो सेज्जायरपिंडो अकांप्पशओ काउ अन्नवस-
हिं गच्छति, इयरे तु तत्थ गंतु वसंति, परिवयद्वा मंसाण
व गधों गचछमाणा संखर्ड करेति, कात्तियमासादि
श्ममेसभक्खणवते गहिते तम्मि वुन्न मखादिपगरणं काड धि-
ज्जातियाण दाड पच्छा सय पारोति | अहवा--मंसादिभ-
क्सखणविरतिव्वतं घेत्तुं तस्स रक्वणद्रा श्रादिपट सखाड क~
रेति, श्राणिष वा मसे संखाड़े करेति, खलगे । जत्थ । मंसे-
सोर्सिति ।
गाधा-
रहें दारगइ-त्तगाण व धुदृत्तगाण व पहेशं ।
वरइत्तादि बहश, पदेश शिति अष्छत्थ ॥ १६६ ॥
समेलो य रातो, जं वा अत्थारगाण पकरेति ।
हिंगोल ज भिजति, सिवटुं व सिवाहकरडं वा (१२००
हीरंतं णिज्जत, कीरंतं वा वि दिस्य तु तदासा।
अष्पत्थ वसति गतु, उवस्सश्रो होसिओ एसो॥२०१॥
सेज्ञायरस्स पिंडो, गादिति तेण श्रणण हिं वसति ।
इतरेसु परिजयद्वा, अणागय वसति गंतूज ।। २०२ ॥
गताथी, तत्थ गच्छुमाणस्स अतरा छक्कायविरादणा, कट
गविसमादिएहि वा आयबदिराहणा ।
इसे य दोसा तत्थ--
दुषि य दोपि णिविद्वा, मम्मत्ता य तत्थ इत्थीओ ।
दई त्ता कोउय सरणे इयराण रमणादौ ॥२०३॥
दुप्पाउय दुल्लियच्छे घा दुक्ञीतं श्च आउडा दुरिणविडा
विम्भला णिम्भरा मला मदक्खरं सि स्वेयणा सविकारचे
कारी उम्मक्ता भुसभोगिणों ताओ दद् ढं सति करणं, इ-
यराण कोउयं तलो चडिगम 75 5दि करेज्ज जम्हा पते दो-
सा सम्दा तत्थ गंतब्ख ।
„चन
> चः
(3 ३५ )
वितियपदेण कः गच्लेजा
असिबे ओशोयरिए, राय ए ब गेल ।
अद्वाण रोहए वा, अप्परिखामेसु जयणशाएं।| २०४॥
आतसखिवाप5विसखु ससकरणेस जति गीयत्था कतो पणगप-
रिदाणीए वस्चिद्विता सेव गिराहेति ।
, ज्ञतो' सश्नाति--
परिणामेसु य अच्छति, आराउलछम्मेश जाह इतरेसु ।
जे दोसा एन्वुकता, या इतेरे कारणे जयणा ॥ २०५॥
श्वगीयत्था चि वि परिखाममा तो अज्छाति, अड अगीतो
अपरिणजा्भी य को सेआयरसखडीते आयरितों अलति--
श॒त्थ कड्ड जणाउले भविस्सर , तो निग्गच्छामों , अश्ववस-
हीए रामो अ , सेज्ञाव रस्ट्खड्ीए पुण संवासभदया भवि-
स्सति कार्ड अश्नवसदीए वि धवा । नि०ख० ११ उ०।
यह स्थिक मांस न प्राह्यम--
ङे भिक्खू वा भिक््खुणी वा से ऊं पुण जाणेज्ञा-बहु-
आट्टविय मेंस वा मच्छे चा वहुकंटर्क अस्सि खलु पडि
गाहितेसि अप्पे सिया भोयशजाए बहुठ॒ज्कियधम्मिए
तहप्पसारं बहुअट्टियं वा मेंस वा मच्छे वा बहुकंटगं
खाभे सते” जाव शो पडिगाहेजा । से भिक्खू वा भि-
क्सुणी वा०जाव समाणे सिया णं परो बहुअ ट्विएणं मंसे
वा मच्छेणं वा उवशिमंतेज्ञा-आउसंतो समणा ! अभिकं-
खसि बहुअट्टियं मसं पडिगाहित्तए ?, एयप्पगारं शिग्ोसं
सेला शिसम्म से पु्भरामेव आलोएजा-आउसो ति वा
भहंणि त्ति वा णो खलु मे कप्पह बहुअट्टियं मेसं प-
डिगाहेचए, अभिकंखसि से दाउं ० जावइय तावदयं पो-
गलं दलयाहि, मा य अट्टियाई मे सेवं बद॑तस्स परो अ-
भिद तो पडिग्गहगंसि बहुअट्टियं मंसं परिभाएत्ता
शिहददु दलएजा , तदप्पगारं पडिग्गई परहत्थंसि वा
परपायासि वा अफसुयं अणेसणिजं ° लाभे संते ° जाब
शो पडिगादेजा । से आह पडिगादिए सिधा त॑ शो दित्ति
वण्ज़ा गो शरणिं त्ति वएक , से तमायाय एगतमवङ्-
मेजा २ , श्रहे आराम॑सि वा अ्रहे उवस्सयसि वा अप्पंडे
०जाव संताणए मंसर्ग मच्छमं मोचा अट्टियाईं कंदए
गहाय से तमायाय शुमतमपकमेखा २ अरे भामभेडि-
लसि वा ०जाव पमजिय पमजिय परिट्ठवेज्ञा ।
चवं मांखसूत्रमपि नेयम् अस्य योकायाने ८ 5 5युफ-
शमनाथ सद्रैयोपदेशतो बाहपरिभोगेन म श्चाना$5-
चुपकारत्वात फलवद् ष्टं , आुमिग्धाज बहिःपरिभोमार्थे,
नाभ्ययहारार्थ , पदावभोगवदिति । रषं गृहस्था ऽऽम-
ग््रणा ऽ-ऽदिविधिपुद्रलसूत्रभपि खुगयमिति वदेवमादिना छे-
बसृत्राऽभिप्रायण ग्रहे सत्यपि कराटका ऽऽदिपिविष्ठापनवि-
घिरापि सुगम ति | आचा० २ श्रु० १ घू० १ आ० १ उ०।
भस __ ग्रभिषानराजन्द्र
मंसल
|
साधोमोसभक्षणाधिकार:---
बहुअट्टिय पुग्गलं, अणिमिस वा बहुकंटयं । (७३ )
सह्स्थिक वुद्रलं-मांसम् अमिमि् घा मत्स्यं षा बहु-
कणटकम्, श्रयं किल काला ऽऽदपेन्षया ग्रहणे प्रतिषेधः ।
श्रन्ये त्वभिद्धति-वनस्पव्यधिकारात्तथाविधफलाभिधानम्
पते इति । दश० ४ श्र० १ उ० । ( श्रमजमेसासी
सिया ) अमद्यमांसा5शी भवेदिति योगः, श्रमधपो ऽमांसाऽ-
शी च स्यात्, प्ते च मद्यमांसौ लोकाऽ$गमप्रतीते
प्व, ततश्च यत्केचनाभिद्धाति--आरनालारिष्ठा 5 5द्यपि स-
धानार् शरोदना.+ऽदयपि प्राण्यङ्गत्वाच्याज्यमिति । तदसत्
श्मीषां मद्यमांसत्वायोगात् , लोकशास्त्रयारप्रसिद्धत्वात् ,
सखन्धानप्रारयङ्गत्वतुल्यत्वादिना त्वसाध्वी, श्रतिप्रसङ्गदोषा
त् , दबत्वस्नीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमना 5ऽदिप्रसङ्गा-
तू । इत्यलं प्रसङ्गेन , श्रक्षरगमनिकामाजप्रक्रमात् । दश०
२ श्० “ पिसिश्रं खुल्ले मस । ” पाइण्मा० ११३ गाथा ।
“ हिसे वाले मुसावाई, मारज्ञे पिरे सदे । भुञ्जमाने खुरई
मसे, सेयमेयं ति मन्नद् ॥१॥ ” उत्त० २ श्र ° । ( धन्वन्तरि-
रातुरार्भ मांसमुपदिशति इति ' उवरदत्त ` शब्दे दितीयभाग
६८४ पृष्ठे उक्तम् ) क्वचिच्छमणा मांसभक्तकाः “ कम्मि य
विसप शज्ञंति समणा भगवन्तो जहा मेसं न खाये ति,
कम्िह वि पुण एस मंसभक्खाभक्खावियार एव णत्थि । ""
नि० ० १ उ० । गोक्षीरपाणडरमांस शोणितमिति दती
योऽतिशयस्तीथकूतः । स० १ सम०। श्रौ० । फलानां वि
भागे, प्रज्ञा० १ पद् ।
मंसकच्छम-मांसकच्छप-पुँ० । मांसबहुले कच्छपभेदे, प्रशा०
१ पद्।
मसखल-मांसखल-न० । मांखशोषणस्थाने, नि० चू० १०
उ० । यत्न संखडीनिमिस मांसं चित्त्वा विस्वा शोष्यते,
शुष्कं वा पुञ्जीकृतं स्थाप्यते । ्ाचा० २ श्रु० १ चू० १ अ०
४ उ० |
मंसखायग-मांसखादक-पुँ० । मांसभक्षके पारध्यादौ , नि”
झू० £ उ०।
मंसग-मांस-न० । पलले, उस २ झ० ।
मंसगढिय-मांसग्रथित-जि० । मांसाडुरागतन्तुभिः सन्दर्भिते,
उच० ४ श्र०।
मेसच्ऋ्सु- मांसचक्षष्-षु° । छद्नस्थे ज्ञानचक्तूरादिते , दश०
४ आ० ।
ससपेसिया-मासपेशिका-खी० । मांसखरडे , दशा० १०
ख० | नि० च० | आ० म०।
मंसबुद्धि मांसदृष्टि- खी० । पललवर्षण, यत्र वृष्टौ मांसख-
रडानि पतन्ति | मांसवृश्टियस्मिन् शाख चिन्त्यते तस्मिश्च ।
सृश्च० २ श्चु० २ अ० । परच०।
मंसमक्खण-मांसमचणशर-न० । पिशिताशने, ह० १८ ऋष०
मंसल-मांसल-जि० । “ मांसा5 देवा ” ॥ ८।१। २६ ॥ इ-
|. स्थनुस्वारस्य था लुग | सांसोपविते. भा० १ पाद । ^“
हट ३४ )
ममल
ल ऽग्गदत्थी । ” मांसलावग्रदस्तो वाऽग्रभागवर्तिनो हस्तो
यासां ता मांसलाग्रहस्ताः । जी० १ प्रति०। कटप० । “ सं
सलसटियपसत्थाकवउलद णुय ¦` मांसल उपचतमासः सास्थ-
तो विशिष्रसस्थानः प्रशस्तः शुभः शादूलस्येव दिपुलो बि
स्तीर्णा नुश्चिवुकं यस्य ख तथा । जी० रे प्रति० ४ अधि० |
श्रो०। “ (१२६) रुदा पीणा थूला, य मसला पीवरा थोरा
पाई० ना० ७३ गाथा ।
मससुहा-मांससुखा-खी० । मांसखुखकारिण्यां सवाधनाया-
म्, ध० १ आध०।
मससोन्ल- मांस शूल्य-न० । शले पच्यन्त इति शल्यानि, मां-
सस्य शल्यानि मांसशल्यानि | मांसखणडेघु, उपा० ३ आ०।
मंसाइया-मांसादिका-खी० । मांसमादौ प्रधाने यस्यां सा
मांसाऽऽदिका, तां मांसनिवृत्ति कतुकामेः पूणोयां वा नि
वृत्तो, मांसप्रचुरायां संखड़ों कृतायामू, आचा०ण २ शु०
१ चू० १ अ० ४ उ० । नि० चू० । जम्मि पगरणे मसं
आसादीए दिज्जाति पच्छा ओदणादि तं मंसादी भरुणति, म-
साण वा मच्छे वा आदावेव पकरणे करंति तद मंसादिण
आशणीएस वा मंसेसु आदावेव जणवयस्स मंसपगररं
करेति पच्छा सय परिभुजति, ते वा मसादी भणति । नि०
चू० १० उ०।
मसाणुणारि ( र् )-मांसानुसारिनू-पुँ” । मांसान्तघातु-
व्यापककिश्विच्छोणितानुसारिणि वरे, स्था० ६ ठा०।
मेसाय-मांसाद-पं० । मांसान्येवाग्निना प्रताप्य भक्तके
नारके, सूत्र० १ श्रु० ५ आ० १ उ०।
मंसासि ( ण् )-मांसाशिनू-पुँ! मांसखादके, खत्र° १ श्रु० ५
अआ० १ उ०।
मंसु-श्मश्रु-न० । “ वक्राऽऽदावन्रः ” ॥ ८। १। २६॥ इति
सत्रेणान॒ुस्वारा55गमः । प्रा० १ पाद । कूचरोमणि, स्था० ३
ठा० ४ उ० । तं० । प्रश्न० ।जी० । श्रौ० । ज्ञा० । उत्त० ।
“ (२३७ ) मसू खुड्ट च मासुरी कुच । ” पाइ०्ना० ११२
गाथा ।
मंसुन्न मां सवत्-पु०। उपचितमांसवति,“आल्विल्लोल्लाल-वन्त-
मन्तेत्तर-मणा-मतोः” ॥८।२।१५६॥ इति मतुत्र उल्ना55देशः ।
प्रा २ पाद् ।
मकरंडग -मकराणडक-पुँ? रा०। । जलचरविशेषाण्डके, जे०
२ चक्ष० ।
मकरकेउ-मकरकेतु-णुं० । कगचज०-” ॥८।१ । १७७॥ इ-
त्यादिसत्रण पेशाच्यां कलोपनिषेधः । मकरध्वजे , प्रा०
१ पाद ।
मकारिआ मकरिका खी | मकरा55कारे आभरणविशेषे ,
जे० २ वक्त । मकरजलजन्तुभायायाम् , श्रा० चू० १ श्र०।
मकाई मकायेन्- पुं । राजग्रहवासिनि स्वनामस्याते गृदषः
तौ, अम्त० ।
अ,भध्रानराजन्द्रः)
।
|
|
|
।
।
पट मस्म णं भते | अज्छयणस्स के अट्टे पत्ते १ । एं |
झक्ग्वण
खलु जंबू ! तेणं कालेणं तें समएणं रायगिहे नगरे गुणसि-
लए चेतिते,सेणिण राया, तत्थ शं मकाई नामं गाहावती प-
रिवसइ अड्डे ° जव अप रेभूते। तेर कालेणं तेशं समरणं स-
मणे भगवं महावीरे अ।दिगरे युणसिलए० जाव विहरति,
परिता निग्गया तते णं से मकाई गाहावती इमीसे कटाते ल-
ड्ज्ड्रे समाणे जहा पष्प तीए गंगदत्ते बहवे इमो वि जदुपुक्त
कटुव उवेत्ता पुरिससहस्सवाहर्णाए सीयाए निक्खते°जाव
अणगारे जाते इरियासमिते०, तते श से मकाई अणगारे
समखस्स भगवओ। महावीरस्स तहास्वाणं थेराणं अंतिए
सामाइयमाइयाई एक रस अंगाई अहेज़(ते,सेसे जहा खदग-
। स्स, गुशरयण तवोकम्यं सोलसवासाई परियः पाउणेत्ता
तहेव बिएल सिदे ॥ ६ ॥ अन्त० १ श्रु० ६ वर्ग ।
मकुंद-मकुन्द-पु० । मुरजे वाद्यविशेषे,त्रा० म० १ अ० रा०।
मकडकरण-मर्कटकरण-न०। मकेटसुदिश्य यत्किञ्चित् क्रिय-
ते तादृशे स्थाने , , आचा० २ श्रु० २ च० ३ श्र०।
मकडग-मर्कटक-पुँ? । सूदमजीवविरोषे , आचा० ९ श्रु० १ चू०
१ अण० १ उ०। कोलिके, बूृ? ४ उ० | वानर च ।बृ० ४ उ० ।
मकडतंतुचारण-मकेटतन्तुचारण-पुं? । कुब्जब॒क्ान्तरालभा-
विनभःप्रदेशेषु, कुब्जवृत्ता5रदिखेवन्धमर्कटतन्त्वा55लम्म-
नपादोद्धरणा निक्तेपावदाता मक्करतम्तून् छिन्द्तो यान्तो म-
कंटतन्तुचारणाः । चारणभेदेषु, ग० २ अधि० ।
मकडबंध-मककंटबन्ध-पुँ? । नाराचसंहानिनः शरी रावयवबन्ध-
प्रकारे, स्था० ६ ठा०।
मकडसंतार-मर्कटसन्तान-पु० ।मर्कटः कोलिकस्तस्य स-
न्तान( जालकम् । लूतातन्तुजाले, ध० २ अधि० । आचा० ।
कोलिकाजाले, आव० ४ अ० । आण०्यू० । आचा०।
मकन-मागण-पु° । “चूलिकापैशाणिके तृतीयतुर्ययोराद्-
दवितीय" ॥ ८। ४। ३२५॥ इति गस्थाने कः, णस्य नः। वारे,
प्रा० ४ पाद ।
मक्षार-मस्करिनू्-पु° । मस्करो ज्ञान गतिवौ ऽस्त्यस्य इनि ,
मा कर्तु कर्म न्षिद्ं शीलमस्य इनिः। “मस्करमस्करिणौ वेणु
परिव्राजकयो : `” ॥६१।१५४॥ इति इनिः । परिव्राजके, विधा
नेन स्वकर्मपरित्याजके, चन्द्र च । वाच ।
माकार- पु । ठकतीयचतुथकुलकरकाले महत्यपराधे दातव्ये
दण्ड, स्था० ७ ठा० । कल्प० । ति० ।श्रा० म० | जं०।
मक्कुण-मल्कुण- पुं । खेदजे, 'माकण' 'खटमल ' इतिख्याते
जन्तुभेदे, श्राचा० १ श्रु० १ श्र ° ६ उ० । उत्त० ।
मकोडय- मत्कोटक -‡° । रृष्णवर्े, 'मकोडा › “ चीटा !
इतिख्याते जन्तुविशेषे, नि० चू० १ उ० । स्था० । आ५ म०।
मक्वण- प्रक्षरण -न० । नवनीते,स्था० ४ ठा० १० । आचा०।
व° । नि० । तेला55दिना गात्रस्य स्निग्ध ताऽऽपादने, नि०
ह 2७ )
उ०। “मखेज् वा ्भिलिगेज्ज वा । ” आचा०२ श्रु० २ च्०६
आ० । मेखत्ति अन्भगेति पक्म्मि सकले मक्लेत्ति, पुणो पु
रो अब्भंगणं । अहवा-थोवेण अष्भंगएणं बहुणा मक्खणे ति
अभ्येजनघ्रत्तणयोभेंदः । नि० चू० ३ उ०।
मक्खलि( ण )- मस्करिन्-पुं° । “ सषोः स्याने सोऽग्री
मे ॐ, ८। ४। २८६ ॥ इति मागध्यां सकरस्य वा सः । परि-
ब्राजके, प्रा० पाद् ।
मक्खिअ-म्रक्षित-त्रि० । स्तहमादिते, “मक्खन तुप्पे । ”
(७५२ ) पाइ० ना० २३३ गाथा।
मविखय-म्रक्षित-जि० । स्नेहिते, ध० २ अधि० । ( श्नक्त-
णविषयं सूत्रम् “ अब्भंगण ` शब्दे प्रथमभागे ६८६ पृष्ठ
गवम् ) प्ृशथिव्यादिनाउवगुण्ठिते, प्रव० ६७ द्वार । पि०।
आचा।० | एषणाया द्वितीयो श्रत्तितो दोषः । स द्विविधः-
सचित्तन खररिटत श्राहारोऽचित्तेन खररिटतश्चाऽऽदारो
भवति, तदा श्रत्तितदे,ष उक्कः । उत्त० २४ श्र ० ! स्था०। ध०।
पं० चू० श्राचा० । आए० चू० । पि०। मक्खियं तुप्पे” (७५२)
पाइ०ना०२३३ गाथा म्राक्षित अविकृतिप्रायश्चित्तम् । जीत ०।
( प्राक्षितद्धारम् एसणा ' शब्दे तृतीयभागे ४५ पृष्ठ गतम् )
माक्षिक-न० | मक्तिकासचितमधुनि, स्था० & ठा०। जीत०।
मगदुमईजहॉ-पारसीकः शब्दः | दोलताबादसुलतानजन-
न्याम् , ती० ५८ कल्प ।
मगर-मकर-प० । जलचरविशेषे, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार |
रा०। सू प्र०। ओ० । प्रज्ञा०। महामत्स्य , उत्त० ३६
अ० । आ० म०। स० । तं । विपा०। च० प्र० । ज्ञा० । आव०।
सूत्र० । पज्ञा० ।
से कितं मगरा १। मगरा दुविहा पष्पत्ता। तं जहा-सोंड-
मगरा, मच्छमगरा य। सेत्तं मगरा | प्रज्ञा० १ पद् । जी ०।
मकरा इव मकरा जलविहारित्वात् धीवरेषु , प्रश्न० २
च्राश्र० द्वार ।
मगरंद-मकरन्द-पुं० । पुष्परसे, द्वा० ८ द्वा० ।
मगरज्मय-मकरध्वज-पुं० । कामदेवे, ज° २ वक्त ।
मगरमच्छ -मकरमत्खय-पु०। मत्स्यभेदे, जी० १ प्रति० । प्रजञा०।
मगरमुह-मकरगुख न । पादाउ5भरणविशेषे, ओ० ।
मगरास-मकराऽऽसन-न०। श्रासनमेदे , येषामधो लिखि
ता मकरा भवन्ति । रा०।
मगह-मगध- पुं० । राजग्रहनगरप्रतिबद्धे ग्रायजनपदे, प्रज्ञा०
१ पद् । सूत्र० | स्था०।
मगहपुर-मगधपुर-न० । राजये, श्रा० च्० १ आ०।
अगहसिर-मगधश्री-खी०, । राजगरदराजस्य जरासन्धस्य
स्प्रनामख्यातायां गशिकायाम् , श्राव० ४ आ० | आ० चू०।
मगहपुदरी-मगधसुन्दरी- खी०। राजगृहराजस्य जरासन्ध
स्य रुघनामख्यातायां गाणिकायाम् श्राव० ४ अ०। श्रा० चू०।
मगदसेशा-मगधसेना-खो । राजये स्वनामख्यातायां ग, |
१०
शछ्रभिधानराजेन्द्रः।
चू० ३ उ० | पथुषितेन तेलाउ5दिना न श्रत्तणीयम् । घृ० ५ |
सर्ग
शिकायाम् , श्राचा० । राजगृहे नगरे मगधसेना गाणका,
तत्र कदाचिद्धनः साथवाहो महता द्रव्यनिचयन समन्वित
प्रविष्ठः, तद्र पयोवनगुणगणद्रग्यसपदाक्तिष्चया मगधसेनया+-
सावभिःपरितः,तेन चाऽ-ऽयव्यया ऽऽ क्तिप्तपानसेनासा नावला-
किताऽपि, श्रस्याश्चा$ऽत्मीयरूपयोवनसोभाग्यावलपान्मह-
ती दु.खासिका-ऽभृत् , ततश्च तां परिम्लानवदनामवलोाक्य
जरासन्धेता भ्यधायि-कि भवत्या दु.खाखिकाकारणम् ?, केन
वा सामुषितेति | सा च्ववादीत्-श्रमरणात। कथमसावमर
इत्युक्ते पया सद्भावः काथितो निरूपितो यावत्तथेवाद्याप्यास्त
इत्यतो भोगार्थिनो5र्थ प्रसक्ता अजरामरवत् क्रियासु प्रवत्तन्त
शति | गआ्राचा० १ श्रु० २ अ० ५ उ०।
मरहाहिव-मगधाधिप- प° । मगधानां देशानामधिपे, “ से-
णिआओ मगहाहियो ।” उत्त० २० श्र ० ।
मंगुसा- मड्गुसा-खी० ० | भुजपरिसपंविशेषे, ' खाडदिल्ल ' त्ति
सभाठ गते । “मंगुसपुच्छे व से मसू । उपा० २ अ० |
मगुक- मदगुक-पुं० । जलपाक्षभदे, स्र १ श्चु० ११ श्र०।
मग्ग-गंगू-धा०। सपण, “शकरा ऽ ऽ दीनां द्वित्वम् `` ॥८।४।२३०॥
इत्यन्तस्य द्वित्वम् । मग्ग । मङ्गति । मा० ७ पड । पश्चात् ।
दे० ना० ६ वर्ग १११ गाथा ।
मार्ग-पु० । मृज् ण॒दधौ, खजन्ति शुद्धीभवः्त्यननातीचारक-
ह्मषप्र त्तालनादिति मा्गः। ““ज्यञ्जनाद् घञ् ”॥५।३।१३२॥ इति
पाप । आगमे । व्य० १ उ० । प्रवचने, विशे० ।
मार्गशव्दा थमाह--
मजिखई सोहिज़इ, जणं तो पवयणं ततो मग्गो।
अहवा सिवस्स मग्गो, मग्गणमन्नेसशं पथो ॥१३८१॥
ततस्तस्मात्पवचन मार्ग उच्यते । येन, किम् ?, इत्याह-मृजू
शुद्धौ, ज्यते शोध्यते ऽनेन कर्म मालिन आत्मा, तस्माद्धेतोः ।
श्रथवां-मारगे मागो ऽन्वेषणं पन्थाः शिवस्येति ॥ १३८१ ॥
( विशे० ) इति व्युत्पत्तेः । ध० र०। आ० म०। म०।
मार्मस्वरूपमाद-
मामः प्रवर्तकं मानं, शब्दो भगवतोदितः ।
समिग्राशटगीताथाऽऽ-चरणं चेति स द्विधा ॥ १॥
मागे इति-धरवतकं स्वजनकेच्छा जनकञ्ञानजननद्वारा प्रवृ
मानं प्रमाणं, स च भगवता सवज्ञनोदितो विधि
:, सविम्माः संवगवन्तः,अःराठा श्रभ्रान्ताः, गीताथोः
स्वभ्यस्तसत्राथीः, तेषामाचरणं चेति द्विधा विधेरिव शि-
षा ऽ चारस्यापि प्रवर्तकत्वात् । तदिदमाह धर्मरत्नप्रकरण-
त्--““ मग्गो आगमणीई, अहया संविग्गंबड्ुजणाइण्णं । ”
इति ॥ १॥
द्वितीयाऽनादरे हन्त, प्रथमस्याप्यऽनादरः |
ज तस्यापि प्रधानत्व, साम्प्रतं श्रयत यतः ॥ २॥
तीयेति-द्वितोयस्य शिष्ठा $ऽचरणस्य श्रनादरे प्रचतृक्तऊ
त्वेनानभ्युपगमे, हन्त प्रथमस्यापि भगवद्धचनस्यापि अ-
ना३र एव । यतो जीतस्यापि साम्प्रतं प्रधानत्वे व्यवहारप्र-
ति ॥दकशाखप्रसिद्ध श्रूयत. । तथा च जीतप्राधान्या ऽनादरे
तत्मतिपादकशास्त्रानादराउअक्कमव नास्तकत्वमिति भा-
बः॥ २
(द)
मर्गं श्रत्निधानराजन्द्र!! 0०८०: “ # माह क्
डे सतामुक्का5५-चारेणा55गममूलताम् । । आयं ज्ानाप्परं मोहा-शेषो विश्दोऽनयोः ।
पथ प्रवतेमानानां, शख्क्या नान्धपरम्परा || ३२ ॥। | शएकत्वं नानयेबुक्तं, काचमाशणिक्ययोरिव ॥ ८ ॥ |
अनुमायेति-उक्का 55चा रेण संविग्नाइशठभीतार्था 5 5चारेण, | शयःमिति- डानं वच्वज्ञानम् , मादो गारथमग्नता ॥ ८
श्रागममूलतामनुमाय, सतां मागौजुसारिणां, पाथ महाज- देशयद्धिः $साऽऽकार-लःपदायुष्मिकै भयम् |
नानुयातमार्गे, प्रवतेखनानामन्धपरम्पय न शङ्कनीयः । रल्थ | वारय द्धिः श्रमः ग्छीय--रुदहिणः साधुसङ्गतिम् ।६॥
चात्रा55गमबोधितेशेपायताकत्वमेवानुमेयम्, आधगमग्रहणं | दशेदद्धिसरिलि -आसकब्मिकं प्रेत्य प्रत्यवायविषपाकफलस ॥ ६ ॥
चान्धपरम्पराशङ्काव्युदासप्यति ना-ऽऽगमकरपनो चर दिच्य- | ५
ठह यतनार-प्यतृपश्य। द्वरुत्तम भ |
थेबोधकल्पनाद्वारव्यवधानेन प्रवर्तकतायाः शब्द छाघारणएय- | श ५,
| |)
॥ 9
ततिः, अप्रत्यक्षणा55गमेन प्रकताथस्य बोघयितुअशक्यत्वा- | नकल दान, सथापयद्धियथा वथ
त्, व्यवस्थितस्य चानुपारेथतेः सामान्यत चठ सदसुमा- | इल्यस्ववमि ति-श्रपिना आगमे यतीनां तांषेधो द्योत्यते,
५८. | श्त ~ न्म्य ॐ पर
नात् | तदिदमुक्कर-- आयरणा वि हु आरा चि। " वरु | ऑिपश्यद्धिमेन्चमाने: ॥ १० ॥
५ ऽऽलम्बं ~ न =, =. क~ षः
उपपात्तक्न शिष्टा55चारेणव विध्यथसिद्धावा एमानुमान अ ष्टाऽऽलम्बगो त्स -वग्धमीनेष मनिः ।
भगवद्गइमानद्वारा समापत्तिसिद्धये इति द्रष्टव्य ॥३॥ | इत्थं दोषादसंभिमै- हा बिश्व \वडाभ्बेतम् ॥ १९॥
सूत्रे सद्वेतुनोत्सृष्ट-मपि क्वाचिदपोद्यते | अपुष्ठाति व्यङ्गः ॥ ११ ॥
हितदेऽप्यनिषिद्धेऽ्, किः एननास्य मानता || ७॥ | अष्यष शिथिलोछापो, न श्राव्यो गृहमेधिनाम् ।
सूत्र इति आणमे, उत्सश्मणि उत्सरीश्यीकृत- | र्मोऽथं इत्यदोथ्युक्त, दतर तदुणशवर्णनात् ॥ १२॥
प्रप, सद्धेतुना पृष्टेना3४लस्ठ्चेन, कर्वाचदपोयते अपवाद- | अपोति--एपोउाप शिश्विलानास, उल्लापः यदुत न श्राव्यो
विषयीक्रियते, दितदेऽपीष्टसाघनेऽपि, अनिषिद्धे सूजावा-| शदमाचनाम् सुत्माउथः, इत्यदा वच्चनमयुक्तम् , सूत्र-भगव-
रिते, कि पुनरस्य शिष्टा5चारस्य न आनता भ प्रमाण- | त्यादा तेषा ग्रहमांधनामाप केषाञचदृगुणवणनात् , “लद्धट्ठा
ता॥४॥ | गहिअद्गा ” इत्यादिना साधृूक्कस॒दमार्थपारेणामशक्किमत्त्वप्रति
उदासीनें ऽय भवत्वस्य मानता, चारित्रं तु काप्णसहस्ने- | पादनात् , सम्यकत्वप्रकरणप्रासद्धाउयमथः ॥ १२ ॥
णापि परावर्तयितुमशक्यमित्यत आह-- तेषां निन्दाऽल्यसाधूनां, बहाचरणमानिनाम् |
क [> [क गे (क थ्य र [न
निषेधः सर्वथा नास्ति, विधि सर्वथाऽऽगमे । ्रबृत्ताऽङग'कृताऽत्यगे, मिथ्यादग्गुणद् रौन ॥ १३ ॥
अयं व्ययं च तुलये-ल्लाभाऽऽकाटर्त बशिग्यथा ॥५॥ | तेषामिति- तेषामसविग्नानाम , अल्पसाघूनां विरलानां
कर | # 4 [+ (= आर 3 > ६ 4 [च ४.
निषेध इति-सूत्रे विधिः नपेधो दि. गोणमुख्यभादेन मिथः- | 8 सचिन कस 3 ४ सक
संबलितावेव प्रतिपायेते, अन्यथानेकान्तमर्यादाउंतिकमग्र- | रामः, स्ताकाः पुनरत सावम्नत्वाभमानना दास्मका
सङ्गादिति भावः ॥ ५॥ ` | इत्यभिमानवताम् , निन्दा अज्ञीकृतस्य मिथ्याभृतस्याऽपि
तित व वहाचीरीस्या ऽत्यागेऽभ्युपगम्यमाने मिध्यादशां गुणदर्शि-
प्रवाहधारापतितं, ई ध दश्यते | नी प्रवृत्ता, सम्यगढगपेक्तया मिथ्यादशामेव बहुत्वात्। तदा
अत एवं न तन्मल्या, दूषय।न्त वेषश्रतः ॥ ९ ॥ ह-बहुज णपवितिभिच्जे,इच्छं (स्थं) तेण इद लोइओ चेव ।
प्रवाह्यित--शिष्ट सम्मतत्वसम्देद ऽपि तद्दूषणमन्गाय्यं, कि | धम्मो न उज्मियव्वो, जण तहें बहुजणपवित्तो ॥१॥” ॥१३॥
पुनस्तन्निश्चय इति भावः | तदिदमाह" जे च विडिओ ण इदं कलिरजः पवे-भस्म भस्मग्रहोदयः।
खुत्ते, ए य पडिसिद्धे जणम्मि चिररूढं ! स मडइविगप्पियदो- खेलने तदसं भग्न राजसेवा धुनोप्ितम् ॥ १४ ॥
सा, ते पि ण॒ दूसंति गीयत्था ॥ १॥ ” ॥ ६॥ व ५
संविग्नाऽऽचरणं सम्य-कल्पप्रावरणाऽऽदिकम् । समुदाय सि
# न नि | तः ( ‡
विपर्यस्तं पुनः श्राद्ध-ममत्वग्रभृति स्वृतम् ॥ ७ ॥ क्थ 2
५ सं बिग्नेरप्यगी तार्थः, परेभ्यो नातिरिच्यते ॥ १५ ॥
संविग्नेति-सविग्नानामाचरणे सम्यक् साधुनीत्या कल्पप्रा
वरणाऽऽदिकम् । तदाह-- समुदाय इति-समुदाये मनाग्दोपेभ्य ईंषत्कलहा ऽ ऽदिरूपे
“« अन्नह भणियं पि स॒ुए,किची कालाइकारणाविक्ख । भ्यो भीतेः, स्वेच्छावहारिभिः स्वच्छन्दचारिभिः, सविग्ने- '
श्रादश्नमश्नट खिय, दीसइ संविरगगी एदि ॥ १॥ रपि वाह्य(ऽऽचारप्रघानेरपि, श्रगीता्थेः, परभ्यो ऽसविग्न-
कप्पाणं पावरणं, अगोश्रच्चाश्रोः भोलिश्नाभिकखा। ` भ्यो, नातिरिरच्यते नाथिकीभयते ॥ १५॥
उवग्गहियकडाहय-तुंबयमुहदाणदोराई ॥ २॥ ” इत्य दि ।
वि {न्त् % (मन्यताम् ।
स्तमसविग्ना$ऽचरणं पुनः भ्राद्धममत्वप्रभ्नाति स्शृत- वदन्ति गृहिणां मध्ये, पर्ानामन्व म्
न यथ च्छन्दतयाऽऽत्मान-मवन्द्यं जानते न ते ॥ १६ ॥
“ जह सड्ेसु ममत्ते, राठाइ असुद्धउवद्दिभत्ताई | वदन्तीति--परदोष॑ पश्यन्ति, स्वदोर्ष च न पश्यन्तीति
णिदिद्ववसद्दितू ली-मखूरगाईण परिभोगे ॥ ९॥ ” इति ॥ ७ ॥ । महतीयं तेषां कद् थनेति भावः ॥ १६॥
( ३१
भिधानराजन्दरः
गीताथपारतन्त्येण, ज्ञानमज्ञानिनां मतम् |
विना चभष्मद धर-मन्धः एथि कथं त्रजत् १ ॥ १७॥
गीता्थोति-मुख्यं ज्ञान गोताथानामेव तत्पारतन्ज्यलक्षणं
गाणमेव तदगीतार्थानामिति भाषः ॥ १७ ॥
तच्ष्यागेनाफलू तेषां, छद्वो-खाऽऽदिकमप्यहो ।
जिपरीत एलं वा स्या-जोभिङ्ग इतर वारिधा ॥ १८॥
तादेति-तरयागेन गीतायपारतन््यपरि दारेण,
ग्ना5भासानां शुद्योह्छा5एदि्किमप्यफल विपरीतफले वा
स्यात् , बारिघावित नोभङ्गः ॥ १८ ॥
यदि नामेतेषां नास्त ज्ञान, कथं तर्हिं मासक्तपणाऽऽदि-
दुष्क रतपो5नुष्ठात्त्वामित्यसल आह---
अभिन्नग्रन्थयः प्रायः, कुतेन्तोउप्य तिदृष्करम ।
वाह्या इबातता मूदाः, ध्याइज्ञातिन दिताः ॥ १६॥
अमभिन्नति-अभिन्नग्रत्थयो 5कृतअ्रन्थिन्ेदाः, प्रायः कुर्वन्तो-
5प्यातिदुष्करं मासक्तपणा ऽ ऽदिकं बाल्या इवाबताः खाभावि-
कव्॒तपारियामरहिलाः, मूढा श्रक्षाना < व्राः, ध्वाद्लशातेन
चायसदष्ान्तन दाशिताः । यथा हि केचन वायसा निम-
लसालिलपुणसरित्फरिसरं परित्यज्य मरुमरीचिकासु जल-
त्वश्रान्तिभाजस्ताः प्रति प्रास्थिताः , तेभ्यः कचनान्येर्नि-
षिद्धाः प्रत्यायाताः सुखिनो बमूठुः, ये च नाऽऽयातास्ते
मध्याह्ाकताएतरलितः पिपासिता एवं मताः, एवं सभु
दायादपि मगरग्दोषभीत्या ये स्वम्नत्या विजिदीषयो गाता-
अनिवारितः पत्यावतन्ते, तेऽपि ज्ञानाऽऽदिसपद्धाजने भव-
न्ति, अपरे तु-क्षानाऽदिगुणेभ्योऽपि श्श्यन्तीति । तदिद-
माट-“ पायं अभिन्नगेठी, तवाइ तह दक्र पिकुव्वेता।
बज्भ ञ्च णते साह; धंखाऽऽदरणेण चिन्नेया ॥ १॥ ” आ-
गमे ऽप्युक्कम्--“ नममाणा वेगे जीवश विष्परिणामेति । "”
द्रब्यतो नमन्तो प्येके सयमजीवितं विपरिणामयस्ति, ना-
शयन्तीत्यतद थः । इति ॥ १६ ॥
वदन्तः प्रत्युदासीनान्, परुषं परुषाऽऽशयाः ।
विश्वसादाकृतेरेत, महाफापस्य भाजनम् \। २० ॥
वदन्त इति--उदासीनान् मध्यस्थान शस्तापरायणान् प्र- |
न कुवत को-
ति, परुष “ भवन्त पव सम्यक् क्रियां
ऽयमस्मान् प्र्युपदेशः ” इत्यादिरूपं वचनं, वदन्तः,
परुषःऽज्ञाना ऽवेशादाशयो यषां ते तथा, एते श्राङ्तेराका-
रस्य, विश्वासान्मदापापस्य परप्रतारणलक्तणस्य भाजन भ-
वान्त, पामराणा गुणाऽऽभासमात्रणव स्खलनसंभवात्॥२०॥ |
य तु स्वकभद्षण, प्रमाद्यन्ताऽ।4 धाामकाः |
संविग्नपाक्तिक स्तेऽ पि, मार्गान्वाचयशालि
ये स्विति-ये तु खकर्मदोब्रण कीर्यान्तरायोदयलन्तशेन,
श्रमाद्यन्ताऽपि क्रियासु अवसोदन्ताऽपि, धार्भिका धर्म-
निरताः, साविग्नपात्ति का- 4. ` , ते ऽपि, मागंस्या-
न्वाचयो भावसाध्वपेक्तया प्रष्ट जग्नता लक्ष एः तन शालन्त ह-
है ७११
स्येवंशीलाः | तदुक्लप -- लब्भिहिसि वेण परं ति'॥ २६१ ॥
चाग
ता तत
तेषां संचि- |
‡॥ २१॥ |
मग्ग
सुसाधुग्लानिभेषज्य-्रदानाम्यर्चनाऽऽदिकाः ॥ २२ ॥
शुद्धाति-- एतषां संविश्नपाक्तिकाणां, शुद्धप्ररूपणव मूले-
सवगुणानामाद्यमुत्पात्तस्थान, तदपक्तयतनाया एव तषां नि-
जरादेतुत्वात् । तदृक्कम्-'"होणस्स व खुद्धपरू-वगस्स साव-
ग्गपक्खवाइस्स । जा जा हवि जयणा,सा सा स निजरा
हाई ॥१॥ "` इच्छायागसभवाच्चा ऽत्र नतराङ्गवकल्य प फल
वकस्य, सम्यग्दशनस्यवात्र सह कारित्वात् । शाख्रयाग पव
सम्यग्दशनचारे्रयोद्यास्तुस्यवदपक्षणात् । तदिदमुक्रम-
““दंसणपक्खोा सावय, चरित्तभट्टे य मदधम्मे य । दं सणचार-
त पक्खा.समणे परलागकांखम्मि ॥१॥” उत्तरसंपद उत्कृष्टस-
पदश्च खुसाधूनां ग्लानेरपनायकं यद्धषज्य तत्प्रदानं चाभ्यचन
च तदादिकाः॥ २२॥
आत्माउथ दीक्षणं तेषां, निषिद्धं श्रूयते श्रुते ।
्ञानाऽऽ्यथऽन्यदीक्ञा च, स्वो पसंपच्च नाहिता ॥२३॥
श्रात्माथामति-श्रात्माध स्ववेयावृत्त्याद्यथ, तषां सविञ्नपा-
क्षिकाणां दीक्तणं श्रुते निषिद्धं श्रुयते । “अत्तद्रा न विदिरक्ख-
इ ” इति वचनात् । ज्ञाना ऽ ऽद्यथा<न्यषां भावचरपारणामव-
्पृष्ठभावनामपुनवन्धका ऽ ऽदीन दीक्षा च तदथ तषां स्वाप-
संपञ्च नाहेता नाहितकारिणी, श्रसद्भहपारेत्यागाथमपुनब
न्धका 55दीनामपि दीक्षणाधिकारात् ¦ तदुक्लषम- सइअपुण-
बंधगाणं, कुग्गहविरहं लहुं कुणइ ” इति तात्त्विकानां तु
तास्विकेः सह योाजनमप्यस्या ऽऽचारः । तदुक्कर--“ देइ खु-
साइण बादेड ति ”॥ २३॥
ना5व्वश्यका55दिवैय «ये, तेषां शक्यं प्रकुर्वताम् ।
अनुमत्यादिसाप्राज्या-द्धावाऽभ्वेशाच्च चतसः ॥२४॥
नेति-आवश्यका ऽऽदिवेयथ्यं च तेष.स्ववीयांजुसारेण शक्यं
स्वाचारं प्रकर्व॑तां न भवति । तःकरण पवाऽऽचारप्रीत्येच्छा-
योगनिवीहात्। तथा ऽनुमत्यादीनामनुमोदनाऽऽदानां साघ्रा-
ज्यात् सवथा ऽभङ्गात् । चेतसश्ित्तस्य भावा55वेशादर्था 55-
द्युपयोगाश्च ्रद्धामेधा ऽ द्यु पपत्तेः ॥२४ ॥
द्रव्यत्वेऽपि प्रधानत्वा-त्तथाकल्पात्तदक्ततम्।
यतो मार्गग्रवेशाय, मतं मिध्यादशामपि ॥ २५॥
द्रव्यत्वे ऽपीति-तदावश्यकस्य भावसा ध्वपेक्षया द्रव्यत्वे ऽपि
प्रधानत्वादिच्चाऽऽद्यतिश्चयेन भावकारणःवाद् द्वव्यपदस्य
क्वचिदप्रधानार्थकत्वेन क्वचिञ्च कारणाथकःवनानुयोगद्धा-
रवरत्तो व्यवस्थापनात् तथाकट्पात् तथा~+-ऽचारात् , तदाव-
श्यक तंषामक्षत, यता मार्गप्रवेशाय मिथ्यादशामांपि तदाव-
श्यक मतं गीतार्थेरज्ञीकृतम , अभ्यासरूपत्वात् , श्रस्खलित-
त्वा5डादगुणगभतया द्रव्यत्वापवणनस्यतद्थद्यातकत्या---
च्च ॥ २५-॥
मार्ममेदस्तु यः कथि-निजमत्या विकल्प्यते |
सतु सुन्दरबुद्ध्याऽपि, क्रियमाणो न सुन्दरः ॥ २६ ॥
मागेति--व्यङ्कः ॥ २६ ॥
निवतेमाना अप्येके,वदन्त्याचारगोचरम् ।
आख्यांता मार्गमप्येको,नोज्छजीवीति च श्रुतिः ॥२७॥
निवर्तमाना इति--पके संयमा्निव्तमाना रपि, श्राचार-
( ४० )
मग्ग अभिषधानराजन्द्रः | मग्ग
मार्ग: ु्नरत्थममूत एवेति । ” यदाचारखूज्रम-_“नियट्ट- | भावत्थयद्व्वत्थय-रूवो सिवप॑थसत्थवादेए ।
माना वगे आयारगोञ्यरमादक्खं ति । ” अन्न सयमाज्ञि-
द्गाद्वा निवत्तेमानाः, वाशब्दादनिवतमानाश्च लभ्यन्ते । उ
भयथा ऽप्यव सीदन्त एव योजिता यथास्थिता $ऽचारोक्त्या
हि तेषामेकेकवालता भवति आचारहीनतया नतु द्वितीया
5पि। ये तु हीना अपि वदन्ति-““पवम्भूत पवाःऽ ऽचारो+-
स्ति यो5स्माभिरनुष्ठी यते, साम्प्रतं दुःषमानुभावेन बलाउ5द्य-
पगमान्मध्यभूतेव वर्तनी श्रेयसी, नोत्सर्गावसर इति । ”
तेषां तु दवितीयाऽपि वालता बलादापतति, गुएवदोषायु-
वादात् । यदागमः--'“ सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमा-
णा श्रसीला। श्रणुवयमाणस्स बि-तिआमंदस्स बालया ॥
॥ १॥ ” तथा मामक आख्याता न चोञ्छजीवीत्यपि श्रुति-
छ । तदु स्थानाङ्ग-- आधाइत्ता णाम एगे, णो उंछुजी-
वी ” इति ॥ २७ ॥
असयते सयतत्वे, मन्यमाने च पापता |
भ णेता तेन मार्गोऽयं, तृती योऽप्यव शिष्यते ॥ २८ ॥
श्रसयत इति-असंयते सयतत्वं मन्यमान च पापता भणिता,
“असंजए सजयलप्पमारे पावसमणु ति वुच्च ३ ” इत पापश्च-
मलीयाध्यवनपाठात्। श्रयते यथास्थितवक्करि पापत्वानुक्के:।
तन कारशेनायं सविग्नपन्तरूपस्ततीयो ऽपि मागो ऽवशिष्य-
ते साधघुश्राद्धयारिव सावग्नपाक्तिकस्याप्याचारेणाविसवा-
दिववृचिसम्मवात् । तदुक्क़र-“सावज्जजोगपरिव-जणाइ स-
व्युत्तमो अ जदधम्मो । वीश्रो सावगधम्मो, तइओ साविग्गप-
कसको ॥१॥ यो गा ५ 5ख्यो मार्ग: संविगनपात्ति काणां नासम्भ-
वी मेत्यादि समन्वितवृ त्ता 5 :दिमत्त्वेनाध्यात्मा 5 <दि प्रवृत्यवा-
धात् श्रविकल्पतथाकाराविषयत्वन नेतद्धमों मागः “कप्पाक-
ष्य परिनि-ट्विअस्स ठाणेसु पचस ठिअस्स | सजमतववद्टगस्स
उ, अविगप्पणएं तटक्कारा ॥ १ ॥” इति वचनात्। साधुवचन
एवाविकस्येन तथाकारश्रवणादिति चन्नेतद्वचनवलादन्यत्र
लम्यमानस्य विकट्पस्य उ्यवस्थितत्वेन व्याख्यानात् । व्यव-
स्था चये संविग्नपाक्तिकस्य वचनेऽविकल्पेनेव तथाकारोऽ
न्यस्य तु विकल्पनवेति । विवेचित चदे सामाचारीप्रकरण-
ऽस्माभः ॥ २८ ॥ :
साधुः श्राद्ध संविग्न-पक्ती शिवपथासत्रयः |
शषा भत्रपथा गेहि-द्रव्यलिज्ञिकुलिज्ञिनः ॥ २६ ॥
साधुरिति-व्यक्तः ॥ २६ ॥
गु च गुणरागी च, गुणदेषी च साधुषु ।
श्रयन्ते व्यक्धुत्कृ्ट मध्यमाधमबुद्रयः ॥ ३० ॥
गुणीति-उयक्कः ॥ ३० ॥
ते च चारित्रसम्पक्व-मिथ्यादशनभूमयः ॥
अतो द्योः प्रकृत्यव, वर्तितव्यं यथावलम् ॥ २१ ॥
त चात-ठयक्रः॥ ३२ ॥
इत्यं मगस्थिताऽऽचर-मनुमृत्य प्रवृत्तया ।
मागदःजाय लभ्यन्ते, परमः 5नन्दसम्पदः ॥ ३२॥
> \ दर?“ 2 द्रा)
शन्थामान ~ च:
सन्दश्णुणा पर्णाओ, दुविहों मग्गो सिवपुरस्स ॥८॥
तत्र भावः शुभपरिणामः प्रधाने यत्र स्तवे सख भावस्तवः।
यद्वा-भावेना.ऽऽन्तरपीत्या तथाविधकम्मैत्तयोपशमायेक्तया
सर्वविरतिदेशविर तिप्रतिपत्तिस्वभावेन स्तवो भावस्तवः,द-
व्येए वा वित्तव्ययेन जिनमवनविम्बपूजा ऽऽदिकरणरूपः स्त-
वो -दन्यस्तवः, भावस्तवश्च द्वव्यस्तवश्व॒ भावस्तवदु्य-
स्तवो तयो रूपं स्वभावः स्तवरूपः शिवो मोक्तः पारमार्थिक-
निरूपद्रव्यस्थानं स्य पन्था मागैः शिवपएथस्तस्य साथवाह
इव साथवाहस्तेन मोक्तपथनायकेनेत्यथैः । तस्याऽपि लोक-
रूढ्या नानात्वे विशषयितुमाह--सर्वज्षेन सवैविदा प्रणीतः
प्ररूपितः, तदन्यकथने हि विखवाददशैनात् , दिविध द्विप्-
कारो मागः पन्थाः, कस्येत्याह-शिव एव पुरं शिवनगरं तस्य
्रयमाशयः। यो हि प्रयोजननिष्पत्तो भवमेवावलस्ब्य बहिद्रै-
व्यव्यातिरेकेण प्रवस्ते, भगवती मरुदेवी स्वामिनी यतयश्च
स्वभावेन भावशद्धाध्यवसायेन सस्यगविद्विततच्वा अविदि-
त्वो वा वैरखामिमाया (जा)द्वित्सदनुष्टाने प्रवर्तत ख द्विवि-
धो<5पि भावस्वरूपो मोत्तमाग इति । दर्श० ४ तच्च । मोक्षपुर-
्राएकत्वान्मागीः । । आवश्यके, विशे० । आ० चू० । अअनु०। -
जनेः पद्भ्यां णले पथि , चा० २ श्रु० १ चू० हे
अ० १ उ०। स०। सूब०। ज्ञा० । अष्ट० । दरश० । मो-
क्षपथे, आचा० २ श्रु० ४ आ० २ उ० । उत्त० । सम्यग-
दशैना ऽ ऽदिके, सूछ० २ श्रु० ६ आऋ० | पश्चा० । सम्यगदशनप्र-
शमा 55दिके, घ० ३ अधि० । दर्श० | आ० चू० । श्राव० ।
मोक्ते, उत्त० २१ अ० । नरकातिर्यङ्मनुष्यगमनषद्धता, आ-
चा० १ श्रु० ५ आ० २उ०।
प्रशस्तो ज्ञाना 55दिको भावमार्गस्तदाचरणं चाजाभिधेय-
मिति, नामनिष्पन्न तु नित्तेप मार्ग इत्यस्याघ्ययन-
स्य नाम, तन्निक्तपाथं नियुक्किकदाह--
णामं ठवणा द बिए, खेत्ते काले तहेव भावे य।
एसो खलु मगगस्स य, िक्सेवो छव्विहों होइ ॥१०७॥
फलगलयदोलणवि- त्रज्जुदवणविलफसमग्गे य ।
खीलगअयप क्खिपहे, छत्तजलाकासदव्वेम्मि ॥ १०८॥
खेत्तम्मि जम्मि चेत्ते, काले कालो लद हवई जो उ।
भावभ्मि हेति दु विहो+पसत्थ तह अष्पसत्थो य ॥१०६॥
दु विहभ्मि वि तिगभेदो,ेञ्रो तस्स उ विशिच्छओ दुविहो
सुगतिफलदुग्गतिफलो, पगयं सुगत फले शितथं ॥११०॥
दुग्गहफलवादीणं, तिनि तिसड्ा सताई वाद्।शं ।
खेमे य खेमस्वे, चउकगं मग्गप्रादीसु ॥ १११॥
नामस्थापनाद्रग्यन्तेत्रकालभावभदान्मागस्य षोढा निक्षेपः,त
श्र नामस्थापने सुगमत्वादनादत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरि-
कं दृब्यमागेमधिकृत्या35ह-फ लकेर्मागेः फलकमारोः यत्र कवे-
माऽऽदिमयात् फलकैगम्पते,लतामार्गस्तु यत्र लताउवलम्बेन
गस्यते, अन्दो लन॒मार्गो ऽपि यत्रा 5न्दो लनेन दुगेमतिलङ्घ्यते,
वेत्रमा्गो यत्र वेजलतोपष्टम्मेन जलाऽऽवौ गम्यते इति, तथ-
| था. - चारुदत्तो वेत्र लतोपष्टम्भन वत्रवतीं नदीमुत्तीय परकू-
(५ ४१
अशभिधानराजन्द्र।
सग्ग
ले गतः, रज्जुमार्मस्तु यर रज्ज्वा किश्विदातिदुर्गमातिलकृध्य-
है, 'दवने ति" यानं तन्मार्गो दवनमारीः, बिलमागो यत्र तुगु
हा ऽ ऽद्याकारेण विलेन गम्यते, पाशप्रधानो माः पाशमागे
पाशकरुट वागुरान्वितो माग इत्यथः, कीलकमागों यत्र वालु
(कटे मरुका 5 ऽ दिष्वेषये कीलकाभिज्ञानेन गम्यते,श्रजमागों
यत्र अजेन-बस्त्यन गम्यते, तत् यथा सखूवणैभूम्यां चारुद्-
स्तो गत रति,पत्तिमागों यल भारुण्डा ऽ ऽदिपत्तिभिर्देशान्तरम-
चाप्यते, छुत्रमार्गो यत्र छ्ु्रमन्तरेण गन्तु न शक्यते, जलसागो
यत्र नावादिना गम्यते.श्चाकाशमागों चिदयाधरा 55दीनाम् ,अ-
ये स्वो ऽपि फलकाऽऽदिको ' द्रव्ये ` द्रव्यविषये ऽवगन्तव्य इ-
ति। क्षेत्रा55द्मार्गप्रतिपादनाया 55ह-क्षेत्रमागं पर्यालोच्य
मानं यस्मिन् ततरे ग्रामनगरा ऽ 5दो प्रदेशे वा शालिन्तेत्राऽऽदि
केवाक्तेत्रे यो याति मागें यस्मिन्वा क्तेतरे व्याख्यायते सक्षेत्र-
मार्गः, एवं काले ऽप्यायोज्यम् । भावे त्वालोच्यमाने द्विविधो
अवति मार्गः, तद्यथा-परशस्तो ऽप्रशस्तश्चेति । प्रशस्ताप्रशस्त-
भेदप्रतिएादनायाऽऽद-'द्विवधेऽपि' प्रशस्ताप्रशस्तरूपे भाव-
मार्गे प्रत्येक त्रिविधो भेदो भवति, तत्राप्रशस्तो मिथ्यात्वम-
विरतिरज्ञानं चेति, प्रशस्तस्तु सम्यग्दर्शनशानचारित्ररूप इ
स्ति, "तस्यः प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य भावमार्गस्य ` विनिश्चयो !
निशयः फलं काय निष्ठा दवेधा। तद्यथा-प्रशस्तः खुगतिफलः,
प्रशस्तश्च दुगगतिषल इति । इह तु पुनः “ परस्तावः ' अधि-
कारः ' सुगतिफलेन प्रशस्तमार्गेरति | तञप्रशस्तं दुगैति
फल मग प्रतिपिपादयिषुस्तत्कतंन्निर्दिदिक्लु राह--दुगतिः फ-
लें यस्य स दुगातफलस्तद्वदनशीला दुगतिषऽलवादिनस्तेषां
ग्रावादुकानां जरि त्रिषष््यधिकानि शतानि भवान्ति, दुर्गति-
फलमार्गोपदेष्रत्वे च तेषां मिध्यात्वोपहतदष्टितया विपरी-
तजीवःऽऽदितत्वाभ्युपगमात् , तत्सख्या चेवमवगन्तव्या,
तयथा--““ श्रसियसयं किरियार , अकिरियवाईण दोह
चुलसीई । श्ररणाणिय सत्तट्टी , वेशइयाणं च बत्ती-
सं॥ १॥ "तेषां च स्वरूपं समवस्लरणाध्ययने व
च्यत इति । साम्प्रतं मार्ग भङ्दारेण निरूपयितुमाह ,
सच्यथा--एकः त्तमो मार्मस्तस्करसिदव्याघ्रा 5 ऽदुपद्रवर-
हितत्वात् तथा ्ेमरूपश्च समत्वात्तथा छायापुष्पफलवद्वू-
त्तोपेतजला ऽ$श्रया.ऽऽकुःलत्वाच १, तथा परः त्तमो निश्चोरः
किं त्वक्तमरूप उपलशकला ऽऽकुलगिरिनदीकरटकगर्ताश-
ता55कुलत्वेन विषमत्वात् , तथा(ऽपयोऽत्तेमस्तस्कराऽऽदिभ-
योपेतत्वात्तेमरूपश्चोपलशकला+ऽयभावतया समत्वात्, त-
थाऽ-न्योनक्तेमो नापि क्षेमरूपः सिहव्याघ्रतस्काराऽऽदिदो-
घदुष्रत्वात्तथा गत्तापाषाणनिम्नोन्नता55दिदोषदुश्त्वाओति,
एवं भावमागों ऽप्यायोञ्यः, तयथा-ज्ञानाऽऽदिससन्वितो द्र
व्यलिङ्गापेतश्च साधुः क्तेमः क्तमरूपश्च, तथा क्तेमो ऽत्तेमरूपस्तु
स एव भावसाधुः कारणिकद्रग्यलिङ्गरहितः,ठतीयभङ्गकगता |
निहवाः,पर तीर्थिका गरदस्थाश्चरमभङ्गकवर्तिनो द्रषव्याः। एव-
मनन्तरोक्तया प्रक्रियया “चतुष्ककं" भङ्गकचतुष्टयं मागौदिष्वा-
योज्यम्, श्रादिग्रदणादन्यत्रापि समाध्यादावायोज्यमितिः।
सम्यगभिथ्यात्वभ्रागैयोः स्वरूपनिरूपणायाऽऽद--
सम्मप्पणिओ मग्गो, णाणे तह दंसणे चरिते थ ।
चरगप रिव्वायादी-चिणणो मिच्छत्तमग्गो उ ॥ ११२॥ |
इद्धिरससायगुरुयः, ज्ञीवरनिकायघ्रायनिरया य |
६१
|
ग्गं
जे उवदिसंति मग्ग, कमग्गमग्गस्सिता ते उ ॥११३॥
तवसंजमप्पहाणा, गुणधारी ज वयति सब्भावं |
सग्वजगजीवहि्य, तमाह सम्मप्पणीयमिशं | ११४॥
पथो मग्गो शाओ,विही धती सुगती दियं तह सहं च।
पत्थं सयं शिव्वुइ, शिव्वाणं सिवकरं चेव ॥ ११५॥
सम्यगृज्ञाने दशन चारित्रे चत्ययं त्रिविधोऽपि भावमा-
गे; 'सम्यग्दषश्िभिः' तीधकरगणधरा ऽ दिभिः सम्यगवा-य-
थावस्थितवस्तुतत्त्वनिरूपणया भ्रणीतस्तेरेव च सम्य-
गाचीरं इति, चरकपरिवाजकाऽऽदिभिस्तु ‹ श्राचीणैः'श्रा-
सेवितो मार्गो मिथ्यात्वमागों ऽधशस्तमार्गो भवतीति । तु-
शब्दो ऽस्य दुरीतिफलनिवन्धनत्वेन विशेषणार्थ इति । स्व-
यूथ्यानामपि पाश्वेस्था 5 5दीनां षड् जलीवनिकायोपमदैकारि-
णां कुमागौं55श्रितत्वे दशयितुमाह-ये केचन अपुष्टधर्माण
शीतलविद्दारिणः ऋद्धिरससातगोरवेण “ गुरुकाः ` गुरुक-
मौर आधाकमो 5 5टद्युपभोगा भ्युपगमेन षदजीवनिकायव्या-
पादनरताश्व अपरेभ्यो मार्ग! मोक्तमार्भमात्साजुचीरमुपदि-
शन्ति। तथाहि-शरीरामिद्माय धमैसाधनभिति मत्वा काल-
संहनना5<दिहानेश्वा55धाकमी ऽ ऽदुपभोगोऽपि न दोषाये-
व्येव प्रतिपादयन्ति, ते चेवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमागों-
स्तीथिकास्तन्मागा ६ऽधिता भवन्ति | तुशब्दादेतेऽपि स्वथू
थ्या पतदुपदिशन्तः कुमागीश्रता भवन्तीति किषुनस्तीर्थै-
का इति । प्रशस्तशाखप्रणयनेन सन्मार्ग ५ऽविष्करणाया 55
ह-तपः सबाह्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकारं, तथा- सयमः सप्तदश-
भेदः पञ्चा ऽऽश्रवविरमणाऽऽ्दिलक्तस्ताभ्यां प्रधानास्तपः से
यमम्रधानाः, तथा<5श्ादशर्शी लाह्सहस्त्राणि गुणास्तद्धारिणो
गुणधारिणो ये सत्साधवस्त एवंभूता यं “सद्धावे' परमार्थं
जीवाजीवा 5 ऽदिलत्तणे "वदन्ति" प्रतिपादयन्ति, किभूतं -एस-
वैस्मिन् जगति ते जोवास्तेभ्यो हितं-पथ्यं तद्गक्तणतस्तेषां
सदुपदेशदानतो वा तं खन्माग सम्यङ्मागन्ञाः ‹ सम्यग् अ-
विवरीतत्वेन प्रणीतम् आहुः ` उक्तवन्त इति । साम्प्रते
सन्मागस्यकार्थकान दर्शायतुमाह--देशाद्धिवक्षितदेशान्त-
रप्रात्तलत्तणः पन्थाः, स चह भावमागाधिकारे स-
म्यक्त्वावाप्तरूपोऽवगन्तव्यः १, तथा- मास › एति
पृवस्मादद्धेशद्धचा विशष्टतरो मागः , स॒ चद सम्यग्-
क्षानावाप्िरूपा ऽवगन्तव्यः २; तथा “ न्याय ` इति
नश्चयनायनं-वेशिष्टस्थानप्राप्तिलक्षण यास्मन् सति स न्या-
यः. सख चह सम्यक्चारित्रावाप्तिरूपो5वगन्तव्यः, सत्पुरुषा-
णामय न्याय एवं यदुत अवाप्तयोः सम्यग्दशनक्ञानयोास्तत्फः
लभूतन सम्यक्चारे्रण यागो भवतीत्यतो न्यायशब्देनाश्
चारत्रयागोऽभधोयत इति ३, तथा विधिरिति विधा-
न वाघ: सम्यराज्ञानादशनयेगयागपयेनावाक्षिः ४, तथा घृ-
तिराति धरणे धतिः सम्यगदशने सति चारिऋवस्थाने मा-
षतुपा ऽदाविव विशिष्टज्ञानाभावाद्धिवक्षयेवमुच्यते ५, त-
था खुगातारयात शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाच्ारित्राच्चेति
खगातः क्ञानाक्रयाभ्यां मोक्षः `इति न्यायात्खुगतिशब्देन ज्ञा
नाक्रय आंभधायंते, दशनस्य तु ज्ञानाविशेषत्वादत्ैयान्तभा-
वा;वगन्तव्यः ६, तथा हितमिति परमाथतो मक्त्यदासि.च-
कश्ग्ण वा।हत तच्च सम्बगदृन् मद्धाम नह म्यः गखुग्रनतः 7
| 7 ~ ॥ ३ इइइल्नइुु॑ुचच॒॑ुञुल......___]२]_२!_. ८
+
ध ७२
श्रभिधानराजेन्द्रः।
| न्तगेतसूक्मव्यवाहितविप्रकृष्ठतीतानागतचर्तमानपदार्थ्व ऽऽकि
भर्ग
मिति ७,अत्र च संपूर्णानां सम्यर्दशंना ऽ ऽदीनां मोक्षमार्गत्वे
सति यद्धयस्तसमस्तानां सात्तमारीत्वनाषन्यासः स ग्रधानाप-
सजनयविवत्तया न दाषायाति । तथा सुखमिति खुखटतुत्वा- |
त्सुखस-उपशमशेरयाम॒पशामक प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिबाद्र-
सूच्मसंपरायरूपा शुणतयावस्था ८, तथा पथ्यमिति पाथ-
' भोक्षमार्ग हितं पथ्यं, तच्च ज्ञपकश्नेय्यां पूवोकं गुणत्रय ६,
तथा श्रय इत्युपशमश्राण्मस्तकावस्था , उपशान्तसर्वमोहा-
बस्थेत्य्थः १० तथा निर्वातहतुत्वान्षियूतिः क्षोणमाहावस्थे- |
त्यथः मोहनीयविनाश5चश्य॑ निन्रुतिसद्धावादिति भावः
११, तथा निर्वाणमिति घनधघातिकर्मचलुष्टयक्षयेण केवल-
शानावाप्तिः १२, तथा "शिवे" मोच्तपदं तत्करणशील शलेश्य-
बस्थागमनभिति १३, पवभतान मोक्तमागत्वेन किञ्चद्धेदा-
देयेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदि वते फर्योयशब्दा एका
थिका मोक्षमारीस्येति । गतो नामानिप्पन्नो निश्चिपः | सूज ०६ |
श्च० ११ अ० । उत्त० । दशे० । भ०। इह माभैः चेतसो.ऽवक्र-
गमने, युजङ्गमर्नालिकायामलुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाधिप्रशु- |
णः स्वरसवाही ्षयोपशमविशेषः देतुस्व रूपफलशुद्धा सुखस्य
थः, नास््मिन्नान्तरेऽखति यथादितगुणस्थानावाधिमों मैविश्म- |
तया चेतःस्खलनेन प्रतिवन्धो पफ्तसः साजुबन्धत्तयोपशमतो |
यथोदितगुणस्थानावाष्धिः, अन्यथा तदयोमात् क्लेष्टदुःखस्य
तत्र॒ तत्वतो बाधकत्वात्, साजुबन्ध क्लिएमेतादेति त- |
न््त्रगर्भ:, तद्धाधितस्यास्थ तथागमनाभावात्, भ्ूयस्तद्छुभ-
योपपत्तेः, न चासो तथाउतिसंक्ञिश्टस्तत्पाप्ताविति प्रवचचलप-
रमगाद्यम्,न खलु भिन्नग्रन्थे सूयस्तद्धन्ध इति तन्त्रयुकत्युपफ्ततेः।
एवमन्यनिवृत्तिगमनेनास्य भेदः, सिद्ध चेतत्पवुत्यादिशब्द्-
वाच्यतया योगाचायौरं.घ्क्त्तिपराक्रमजयानन्द ऋतंभर मेदः
कर्मयोग इत्यादिविचिजवचनश्रावणादिति, न चदे यथोचित-
मागाभावे, स चोक्कवद्धगक्द्ध्य इति । ( सूत्र १७) ल० । यो०
विं० । रा० | ध० | द्वा० | प० मा०।
तदनन्तरं सू्रायुगमे श्रस्खलिता ऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुखार-
यितव्य, तच्चेदम्-
कयरे मग्गें अङ्खाए, मादशेणं मईमता १।
जं मर्गं उज्जु पावित्ता, ओह तरति दुत्तरं ॥ १॥
तं मर्गं णुत्तर सुद्ध, सव्यदुक्ख विमोक्खणं ।
जाणासि णं जटा भिक्व् !, तं णो वृहि महाम्ुणी ।२।
जह णो केइ पुच्छिज़ा, दवा अदुव माणुसा |
तेसि तु कयरं मग्गे, आइक्खेज़ कहाहि णो ॥ ३ ॥
जई वो कड एच्छिज्ञा, देवा अदुव माणुसा ।
तेसिम पडिसाहिजा, मग्गसारं सुणह मे ॥ ४ ॥
विचित्रत्वात् चरिकालविपयत्वाच्च सृत्रस्या 5गामुकं प्रच्छकमा-
थ्रित्य सूजमिद प्रवत्तम् अता जम्वूस्वामी खुधमेस्वामिनमिद-
माह,तद्यथा-कतरः किभूतो 'मार्ग:' अपवरगावाप्ति सम र्थो 5-
स्यां जिलोक्याम आख्या तः प्रतिपादितो भगवता जै लोक्योद्ध-
रणसमर्थनेकान्तद्वि तैपिणा मा हनेस्थेबसुपदेशप्रब्ृत्तियस्या
ऽसौ माहनः-तीथकत्तन,तमेव विशिनाए-मातिः लोकालोका- |
भर्ग
भौविका केवलब्लाना 5 5ख्या यस्यास्य सौ मतिमांस्तेन,यं फ्रश-
स्तं भावमार्ग मोक्षगमन प्रति 'ऋजु' ग्रणुण यथादस्थितपदा्थ-
स्वरूपनिरूपणद्वारेणाद क्रं सामान्यविशेषानित्यानित्या5 ऽददि-
स्याद्धादसम्राश्रयणात्,तदेवभूतं माग ज्ञानदशैनतयश्चारिज्राऽऽ
त्मकं प्राप्य लब्ध्वा संसारोदरदिवरकर्ती प्राणी! सम्रफ़्सामग्नी-
कः ओघसमिति भवोधं ससारसगुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तरं, तदुत्त-
रणसामग्र्या एव दुष्प्रापत्वात्। तदुक्लम- माशुस्सखेत्त जाई-
कुलरूबा ऽऽरागमाउयं बुद्दी । सवणोग्गह सद्धा स--जमा ख
लायसम्मि दुलहाई ॥ १॥” इत्यादि । स एव प्रच्छंकः एुनरप्या-
ह-यो सो मानैः सस्वाहिताय सर्वक्षनो पदिशेःशषेकान्तकादि
ल्यवक़तारहितस्त भाग, नास्योसरः-प्रधघानो5सतीत्यजूत्त-
रस्तं शुद्ध:-अबदातो निर्दोषः पूवोफरव्याहतिदायादगमात्सा-
` बचालुष्ठानोधदेशामावाद्धा ताति, वश्च सवशि अशषाणि
वहुभि्भयैरुपचितानि दुःखकारणत्वाद् दु.खानि--कमोखि
नेभ्यो विमोक्तए--विसोचर्क तमेवंभूते मागमठुत्तरं नि-
दोष सवैदुःखन्तयकारण् हे भित्तो ! यथा त्वे जानीष “खा
इति वाक्यालङ्कारे तथा ते मायं सर्वेक्षपणीर्त ‹ नः ` स्मा-
क् हे महामुने ¦ बृहि ' कथयेति ॥ २ ॥ यचप्यस्मप्कमसा-
धारणगुखोपलब्धेयुष्मःपत्ययेनेव रदतिः स्यात लथाप्यन्ये-
चां मार्ग: किभूतो मया ऽ ऽख्येय इत्यभिप्रस्यवानाह-यदा क-
दाचिच् 'नः अस्मान. ' केचन' खुलभबश्थयः ससारोद्धिडपः
सम्यग मागं पृच्छेयुः, के ते ?-' देवा: चतु्निकायाः, तथा म-
छुष्या:--अतीताः, गाइस्येन तयोरेव अश्चसद्धावात्तदुपादमने,
तेषां पृच्छतां कतरं मार्गमहम् ' आहख्यास्ये ' कथयिष्ये,तदेत-
दस्माकत त्वे जानानः कथयेति ॥ ३॥ एवं पृष्टः सुध्मेस्वास्या-
इ-यदि कदाचित् "वः" युष्मान् केचन देवा मनुष्या वा स-
सारभ्शन्तिपराभग्नाः सम्यगमाग पृच्छेयस्तेषां पृचछताम्
इममिति वक्ष्यमाणलक्षणं.. षडजीवानिकायग्रातिषादनगर्भे
तद्धक्ताप्रवणे मार्गं ' पडिसाहिज्ेति ' प्रतिकथयेत् , मार्ग-
सारम् मार्गपरमार्थ यं भवन्तो:5न््येषां प्रतिकादयिष्यान्ति त-
त् 'मे! मम कथयतः रुत यूयामिति, पाठान्तरं वा“ कि
तु इमं मग्गे, आदक्खेज सणेह मे ।' इति उक्तनाथम्ः ॥४ ॥
पुनरपि मागौभिष्टवं कुर्वन् खुधर्मस्वाम्याह--
अणुपुव्वेण महाघोरं, कासवेण पवेहय ।
जमादाय दर पुव्वं, समुदं ववहारिणो ॥ ५ ॥
अतर्रिसु तरंतगे, तरिस्सति अणागया ।
तं सोचा पडिवक्खामि, जतवो तं सुणेह मे ॥ & ॥
पुढकीजीवा पुढो सत्ता, अउजीवा तहाऽगणी ।
वाउजीवा पुटो सत्ता, तणरूक्खा सबीयगा ॥ ७ ॥
अहावरा तसा पाणा, एवं छक्राय आहिया ।
एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजञई ॥ ८ ॥
यथाऽहम् 'अजुपूर्वण' अनुपरिपाल्या कथयामि तथा शरुत,
यदि वा-यथा चानुपूव्या सामस्रया वा मार्गो ऽवाप्यते तच्छ
खुत,तद्य था- पढामल्लु गाण उदए इत्याद् तावद्यावत् बार-
सावेद्दे कसाए,खावए उवसा मए व जोगि । लब्भई चरित
| ४३ )
श्भिधानराजन्द्रः। | ग्ग
सरस
दभो" इत्यादि, तथा "चत्तारि परमेगाणीत्यादि । ` किभूतं
मागे ?, देर विशिनषि- कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्य-
बलेयत्वात् ' महाघोर' महाभयानऊं ` काश्यपो' महावीरब-
पैमानस्वामी तेन ‹ प्रवेदिते ' प्रणेत माग कथयिष्यामिति ।
अनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह-यं शुद्ध मार्गम् ˆ उषादाय '
ग्रहीत्वा (इत हति) सन्मागोयादानात् ` पूर्यम् ' आदावेवाजु-
छितत्वाद दुस्तरं संसारे मह पुरुषास्तर न्ति, अस्मिन्नवार्थ
रान्तमाह -~उयवडारः-परयक्रखविक्रयल्तणो विद्यते यषां
ते ठयवहाएिणः सांयात्रिकाः, यथा ते विंशष्टलामपथनः क~
िश्रगरे प्येयासवो यानपात्रेण दुस्तरमाप ससद तेरन्वि, ए-
बे साधवो ऽप्यात्यान्वकेकाान्तकरूएवाधस्ुखेपिणः सम्यग्दशना-
-5ऽदिना मागेख मोत्तं जिगमिणवो दुस्तर भवो तरन्तौति॥५॥ |
आगंधिशेषणायाह-य माग वृत महापुरुषाचीएंमजयमिचारि-
शमाधित्य पूचस्मिषटनादिके काले वेदो ऽनन्ता: सत्वा अश-
षक्मैकचवरविधयुक्का भवौध-स सारम् झताजुः' तीरवन्तः,
साम्प्रतमप्येके समग्रसासग्री काः सख्येयाः सर्वास्तरन्ति,महा
विदेहा ऽ ऽदो सयदा सिदिसद्धावाद्धतंमानत्वं न विरूष्यते,त-
था अनागते च काले अपयेवसाना 55 त्मके 5नन्ता एव जीवा-
स्तरिष्यन्ति । तदेवे कालत्रय ऽपि संसारससुद्रोत्तारकं मोक्ष- |
गमनेककाररी प्रशस्तं भावमार्गमुत्पन्नदिन्यक्षानेस्तीयरूद्धि-
रुपदिष्ट , ते चाह सम्यक् श्रुत्वाऽवधाय क्ष युष्माकं शु-
श्रुषुणां प्रतिवदयामि ` प्रतिपादयिष्यामि, खुधर्मस्वामी
जम्बूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येघामपि जन्तूनां कथयतोत्येत-
दशयितुमाद- दे जन्तवो ऽभिमुखीभूय, तं चारित्रमार्ग मम
कथयतः शृणुत यूध, पर्मार्थकथने ऽव्यन्तमादे रोत्पादना्थै-
मेवमुपन्यास इति ॥ ६॥ चारित्रमार्गस्य भाणातिपातवि-
रमणमूलत्वात्तस्य च तत्परिज्ञानपूवैकत्वादतो जीवस्वरू-
पनिरूपणाथमाद-- पृथिव्येव पृथिव्याधिता वा जोवाः पू-
ध्वीजीवाः , ते च प्रत्येकशरीरत्वात् ‹ पृथक् प्रत्येक
सचस्वा जन्तवो ऽवगन्तव्याः , तथा श्रापश्च जीवाः , एव-
मग्निकायाश्च , तथाऽपरे वायुजीवाः, तदेव चतुमेहाभूत-
समाश्रिताः पृथक सत्वाः परत्येकशरीरिणोऽवगन्तव्याः, एत
एव प्रथिग्यप्तेजावायुखमाधिताः साः प्रत्येकशरीरिणः ,
वच्यमाणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरत्वेनाप्रथक्त्वमप्यस्ती-
यस्यार्थस्य दशनाय पुनः पृथक् सत्त्वग्रट णमिति । बनस्प-
तिकायस्तु यः सूदमः स सर्वोऽपि निगोदरूपः साधार-
णो, बादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्चेति , तत्र प्रयेकश-
रीरिणोऽसाधारणस्य कतिचिद्धेदान्निर्दिदिछ्तु राह-तत्र तला-
नि-दर्भवीरणा 5 5दीनि वृत्ताः-चृताशोका ऽऽदयः सद वीजैः-
शालिगोधूमा ऽ ऽदिभिर्वतैन्त इति सबीजकाः , पते सर्वेऽपि
वनस्पतिकायाः सच्वा श्रवगन्तव्याः , , अनेन च बोद्धा55-
दिमतनिरासः कतो ऽवगन्तञ्य दति । पतेषां च पृथिव्या-
दीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिस्वरूपनिरूपणमाचारे प्र-
थमाध्ययने “ शस्नपरिज्ञाऽऽख्ये ” न्यक्तेण प्रतिपादितमिति
नेह प्रतन्यते ॥ ७॥ षष्ठ॒जीवनिकायप्रतिपादनाया5ऽह- तज
पृथिव्यप्तजोवायुबनस्पतय पकन्द्रियाः सूच्मबाद्रपर्याप्ताप-
याप्तकमेदेन प्रत्यक॑ चलुर्विधाः , ‹ श्रथ ' श्रनन्तरम् ' अ-
परे ' श्न्ये सन्तीति अरसाः--द्विज्विचतुष्पश्चन्द्रियाः कू-
.मिपिपीलिकाश्रमर मनुष्या 5 5दयः,तत्र दितिचतुरिन्द्रियाः प्र-
त्येक॑ पर्याप्तका3पर्यांप्तकभेदात्पडिथाः, पञ्चन्द्रियास्तु संश्य-
संक्षिपर्याधकाएप्याप्कभेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्नया
नीत्या चतुदैशभूतग्रामा55त्मकतया षड्जीवर्न'काया व्या
ख्यातास्तीश्करगणधरा ऽऽ दिभिः, ' एतावान एतद्धदाउ<-
त्मक एवं सक्ेपलो “ जीवनिकायो ` जीवराशिभेबति, 6
रड ओद्धिजसस्वेद जाऽ ऽदेर रवान्तभीवाज्नापरो जीवराशिर्वि -
द्यते कश्िदिति ॥ ८॥
तदेख षड़जीवनिकायं प्रदश्य यस्तत्र विधेये तद्शयितुमाह-
सज्वाहिं अशुजुत्तीहि , मतिम पडिलेहिया ।
सस्ये अरक्कंतदुक्खा य, अतो सत्रे न हिंसया ॥ ६ ॥
एयं खु णाणिणो सारं, ज न हिंसति कंच ।
अहिंसा समयं चेव, एतावतं विजाशिया ॥ १० ॥
उड अहे य तिरियं, ज कड तसथावरा ।
सव्वत्थ विरतिं भिज्ञा, संति निव्वाणमाहिय ॥ ११ ॥
पभू दोसे निराकिचा, ण विरुज्फेज केणई ।
मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अतस ॥ १२ ॥
सवौ याः काश्चनानुरूपाः--एथिग्याद्विजीवानिकाय साधन-
त्वेनानुकूला युङ्कयः-साधनानि , यदि वा-अलिद्धाविरुद्धानै-
कान्तिकर्पारेहारेण पक्तधर्मत्वसपक्त सत्वविपक्षव्याबृत्तिरूप-
तया युक्लिघेगता युक्तयः अनुयुक्कपस्तामि रनुयुक्केमि: मांति-
मान. सह्विविकी पृथिव्यादिजीवनिकायान, 'प्रत्युपेद्य ` पया-
लोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः ' श्र
कान्तदु.खा ' दुःखद्धिषः खुखलिप्सवश्च मन्वानो मतिमान्
स्वीनपि प्राणिनो न हिंस्यादिति । य॒क्कयश्च तत्प्रसाधिकाः
सक्तेपेशमा इति--सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विदमलव-
णोपला५ऽदीनां समानजाती याङ्करसद्धावाद्,अशोंविकाराङ्-
कुरवत्। तथा सचेतनमम्भः, भूमिखननादविङूतस्वभावसभ-
वाद्, दर्दुरबत्। तथा साऽ त्मकं तजः, तद्योग्याहा5 5रवृज्या
वृद्धशरुपलब्धेः,बालकवत्। तथा सा ऽ ऽत्मको वायुः, अपराधिरि-
तनियततिरश्चीनगतिमच्वात्,गोवत्। तथा सचेतना वनस्पत-
यः,जन्मजरामरणरोगा ऽदीनां समुदितानां सद्भाव।त्,ल्लीवत्,
तथा ज्ञतसंरोहणा ऽदहारोपादानदोौहदसद्धावस्पशै संकोच सा -
याह्स्वापपरबोधा $ऽश्रयोपलर्पणाऽ ऽदिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पते-
ञ्ैतन्यसिष्धिः । द्वीन्द्रिया 55दीनां तु पुनः छृम्यादीनां स्पष्टमे-
व चेतन्यं, तद्ेदनाश्चोपक्रमिकाः स्वाभाविकाश्च समुपलभ्य
मनोवाक्तायैः कृतकारिताचुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीडा-
कारिण उपमदौन्निवर्तितव्यामिति ॥ ६ ॥ पतदेव समथयन्ना-
ह-खुशब्दो वाक्यालङ्कारे ऽवधारणे वा, “एतदेव श्ननन्तरो-
कं प्राणातिपातनिवतन ‹ ज्ञानिनो ' जीवस्वरूपतद्धधकर्मव-
न्धवेदिनः "सारे ' परमाथतः प्रधानं, पुनरप्यादर ख्यापनाथम-
तदेवा $ ऽद-यत्कञ्चन प्राणिनमनिष्टदुःख सुखाषिण न हिनास्ति,
प्रभूतवेदिनो ऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञाने यत्प्राणातिपा-
तनिवतेनमिति, ज्ञानमपि तदव परमाथता यत्परपीडातो नि-
बरतने, तथा चोक्रम्--“किं ताए पाढयाप पयकोडीए पला-
लभूयाए। जांत्थाक्तियं ण णाय, परस्ख पीड़ा न कायव्या ॥१॥
( ४४ )
चर्म
ञअनिध्यानराजन्द्रः।
सब्ग
` संदेवमाहिसाग्रधांनः समयः-आगमः संकेतों वोपदेशरूपस्त-
मरेवेभतमहिसासमयमेतावन्तमेवं विज्ञाय किमन्यन वदना
` परिज्ञानेन ?, एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्तोर्दिवाक्षितकारिस-
भाप रतो न िस्यात्कञ्चनेति ॥ १० ॥ साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपा- |
तमधिकृत्या55ह--ऊध्वैमधास्तिय कू च ये केचन जसाः-तेजोा-
बायुद्धीन्द्रियाऽऽदयः तथा स्थावराः-पृथिव्याद्यः, कि बहुनो
क्लेन ?,“सर्वत्र' प्राणिनि जसस्थावरसूचमवाद्रभेदाभिन्ने"विरति"
. श्राणातिपातनिवुत्ति "विजानीयात् ` कुयात् , परमाथत एव-
छ ज्ञाता भवति यदि सम्यक् क्रियत इति, एषैव च भा-
णातिपातनिद्वृत्ति: परेषामात्मनश्व शान्तिदेतुत्वाच्छान्तिवत-
ते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन विभ्यति , नाप्यसों भ-
कान्तरे ऽपिऽकुतश्िद्धि मेति, अपि च-निवौणप्रधानेककारण-
त्वान्निर्वासमपि प्राणातिपातनिबृत्तिरेव, यदि वा-शान्तिः-
` उपशान्वतः, निदतिः-निवौर् विरतिमांश्चाऽऽतसैदध्याना-
भावादुपशान्तिरूषो निर्दुतिभूतश्च भवति ॥ ११॥ किञा-
न्यत्--इन्द्रियाणां पभवतीति प्रभुवेश्येन्द्रिय इत्यथैः, यदि
घां-+संयमा 5 5वारकाणि कमौरयाभिभूय मोक्षमार्ग पालयि-
तब्ये प्रभुः--समर्थः , स एवेभूतः प्रभुः दूषयन्तीति दोषा |
मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् “ निराकृत्य ” अ- |
पनीय केनापि प्राणिना साधं “न विरुध्येत ` न केन-
चित्खह विरोध कुयीत् , चिविधेनापि योगेनेति मनसा
वाचा कायेन चेवान्तशो-यावज्ञीवं, परापकारक्रियया न |
विरोधे कुयौदिति ॥ १२ ॥
उत्तरगुणानधिरूत्याऽऽह--
संवुड़े से महापन्ने, धीरे दत्तसणं चरे ।
एसणासामिए शिच॑, वजयते अणेसणं ॥ १३॥
भूयाई च समारभ, तमुद्दिस्सा य जं कड ।
तारिस तु स भिर्टेजा, अन्नपाणं सुसंजए ॥ १४ ॥
पूईकम्म न सेविजञा, एस धम्मे वुसीमओ ।
ज किचि अभिक्रखेजा, सव्यसो तं न कप्पए ॥१५॥
दशतं णाणएुजाेजञा, आयगुये जिददिए |
ठाणाई संति सड़ीणं, गामेसु नगरेसु वा ॥ १६ ॥
आश्रवद्धाराणां रोधनेन्द्रियनियोधेन च संचुतः स भिक्षुमह-
ती परज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञो-विषुलबुद्धिरित्यथः, तदनेन जीवा
जीवा ऽऽदिपदाथौभिज्ञताऽऽवादिता भवति, "धीरः! श्त्ताभ्यः,
च्ुत्पिपासा 5 ऽदिपसीषहे त्ताभ्यते,तदेव दशयति-श्रादारोप. |
धिशय्या $ऽ दिक स्वस्वामिना तत्संदिष्टन वा दत्ते सव्येषणां च- |
रति पषरणीयं गृह्णातीत्यथः, एषणाया पषणायां वा गवेषणण्र-
हणग्रासरूपायां चिविधायामपि सम्यगितः समितः, स सा-
धुर्नित्यमेषणासमितः सन्ननषणां वजजयन् , परिव्यजन्संयमम- |
जुणालयेत् ,उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः
समितो द्रष्टव्य इति ॥१३॥ अनेषणीयप रिहा रमधिछत्या ऽद
अभूषन् ,भवन्ति, भविष्यन्ति च प्राणिनस्तान् भूतानि प्राणि-
नः "समारभ्य सरस्भसमारस्भा55रस्मैरुपतापयित्या ते साधु
््उददिश्य'साध्व्थं यत्कृते तदुपकल्पितमादहारोपकरणाऽऽदि-
कं 'ताडशम'आधाकर्मदोषदुष्टखुसंयतः'खुशपस्थी तदन्नं पा-
नकं वा न भुञ्जीत , तुशब्दस्येवकाराधैत्वान्नवाभ्यवहेरेद् ,
पवं तेन मार्गो ऽचुपा्ितो भवति. ॥ १४% फिश्व--आधाक-
|
मो + ऽद्यविशुद्धकोस्यवयवेनापि संपृक्ं पृतिकर्म,तदेवस्भूतमा-
हारा$ऽदिकं "न सेवेत' नोपभुञ्जीत,पएषः अनन्तरो क्लो धर्म: क-
रपः स्वभावः छुसीमओ त्ति' सम्यकसंयसवतोऽयमेवायुष्ठान-
कल्पो यदुताशुद्धमाहारा ऽ ऽदिकं परिहरतीति,किञ्च-यदप्य-
शुद्धत्वेनाभिकाङ्कत्-णुडमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्कत किञ्िदप्या-
हाराऽऽदिकं तत्, सर्वेशः'सर्वग्रकारमप्याहारोपकरणपूतिक-
मेमोक्लु केरपत इति ॥१५॥ किञचान्यत्-घमेश्द्धावतां श्रा-
मेषु नगरेषु वा खेटकवैटाऽऽदिषु वा 'स्थानानि'च्राश्चयाः'स-
न्ति' विद्यन्ते, तत्र तरस्थाना ऽऽशितः कश्चिद्धमीपदशेन किल
धर्मश्रद्धाजुतया प्रारयुपमदेकारिणी धमबुऊथा कूपतडागसख-
ननपपासत्रा ऽऽदिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः
कच्रौ किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीयेवे पृष्ठो पपृष्ठो वा तदुपरो-
धाद्धयाद्वा तं प्राणिनो घन्तं नाञुजानीयात् , किभूतः ? सन्-
?--“आत्मना' मनोवाक्कायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः: तथा 'जिते-
न्द्रियो' वश्येन्द्रियः सावयानुष्ठान नानुमन्येत ॥ १३॥
सावद्यानुष्ठानानुमति परिहतुंकाम आह--
तदा गिरं समारब्भ, अत्थि पृण्णं ति णो वए |
अहवा शत्थि पुरणं ति, एवमेयं महब्भय ॥ १७ ॥
दाणऽदरूया य जे पाणा, हम्म॑ती तसथावरा ।
तेसि सारक्खणट्टाए, तम्हा अत्थि त्ति शो वए ॥१८॥
जेसि तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविह।
तेसि लाभतराय ति, तम्हा णत्थि, त्ति णो वए ॥ १६॥
जे य दाशं पससंति, वहमिच्छंति पाणिणं ।
जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥ २० ॥
केनचिद्राजाऽऽदिना कूपखननसत्रदाना ऽ ऽदिप्रचत्तेन पृष्ठः
साधुः-किमस्मदयुष्ठान अस्ति पुएयमाहोस्विन्नास्तीति ?, ए-
वेभूतां गिरं ' समारभ्य निशम्या ऽऽधिल्य अस्ति पुण्यं नास्ति
वेयेवसुभयथाऽपि महाभयामिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नाजुम-
न्येत ॥ १७ ॥ किमथ नानुमन्येत?, इत्याह-अज्नपानदाना थैमा-
हारमुद्क च पचनपाचनाऽऽदिकया क्रियया कूपखननाऽऽ-
दिकया चोपकल्फ्येत् , तत्र यस्माद् ‹ हन्यन्ते ' व्यापाद्यन्ते
अ्रसाः स्थावराश्च जन्तवः तस्मात्तेषां ‹ रत्तणार्थं ” र-
। च्तानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितिन्द्रियोऽज भवदीयानुष्ठाने
पुए्यमित्येवे नो वदेदिति ॥ ६८ ॥ अथव नास्ति पुरुय-
मिति वयात् , त्देतदपि बूयादित्याह- येषां जन्तू-
नां छते ‹ तद् अन्नपाना ऽ ऽदिकं किल धमेवुद्धथा “ उपक-
रपयन्ति ` तथाविध प्रारयुपमदैदोषदुष्टे निष्पादयन्ति , त-
ल्िपेधे च यस्मात् “ तेषाम् ` आहारपानाथिनां ततः
लाभान्तरायोा ' विघ्नो भवेत् , तदभावेन तु ते पीञ्यरम् ,
तस्माःकरृपसखननसच्रा ऽऽदिके कर्मणि नास्ति पुण्यामित्ये-
तदषि नो वदेदिति ॥ १६॥ एनमेवार्थ पुनरपि समासतः
स्पष्टतरं विभाणिषुराह--ये केचन भ्रपासत्रा5४दिकं दाने
बहनां जन्तृनासुपकारीति कत्वा ' प्रशसन्ति ' श्लाघन्ते ; ते !
परमाथानभिश्षाः प्रभूततरप्राशिनां तःप्रशेसखाद्वारेण “ षध `
प्राखातिचातमिच्छन्ति, तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेखानु-
पयत्तेः, येऽपि च किल खुद्मधियो वयमिययेवं . मन्यमाना
स्क
मि किि
|| ४५ )
धग ॥
अभिधानराजन्द्रः
आगमसऊद्धावानभिज्ञाः प्रतिषेघन्ति' निषेधयन्ति ते ऽप्यगी-
ताथा; प्राणना जरात्तच्चद वतेनोपायावेध्न कुचन्तात ॥२०॥
तदेषै राक्ता अन्येन चेश्वरेण कृपतडागयागसत्रदा-
ना55युद्यतेन पुरयसद्भावं पृष्ठेम मुक्षुभिय-
द्विघयं तदशायितुमाह--
दुहओ वि ते ण् भासेति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो।
आये रयस्स हेचा शं, निव्वाशं पाउणंति ते।। २१ ॥
निच्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चदिमा |
तम्हा सदा जए दते, निव्वाणं सधए गुणी ॥ २२॥
वुज्ममाणाण पाणाणं, किचताण सकम्पुणा ।
आधाति साहु तं दीं, पतिट्टेसा पवुचई ॥ २३ ॥
आययुत्ते सया दते, चिन्नसोए अणासवे ।
जे धम्मं सुदमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥ २४॥
यद्यास्त पुरयमियवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्वानां सच्मबाद्रा-
रां सवदा घरखत्वाग एव स्यात्, प्रीणनमात्र तु पुनः स्वल्पानां |
स्दरपकालीययतोऽ स्तीति न वक्तव्यं नास्त ` षुरयमिवयेचं |
प्रतिषेधोऽपि तद्थिनामन्तरायः स्यादित्यतो ‹ द्विधाऽपि !
आर्त नास्ति वा पुण्यमित्येव “ते” मुसुत्तवः साधवः
पुनने भाषन्त, कि तु प्रषः सद्धिर्मोने समाश्रयणीयं, निबन्धे
त्वस्माकं द्विचत्वारिशदोषबवर्जित आहारः कर्पते, एवंवि-
धविषये मुमुत्तणामाधिकार पव नास्तीति । उक्तं च-
^“ सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधचले वारि पीवा भ्रकामे,
व्युच्िन्नाशेषदठष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति ।
शोष नीते जलधे दिनकरकिरशेयौन्त्यनन्ता विनाशे
तनोदासी नभावे जति म॒निगराः कूपवप्रा ऽऽदिकायं ॥१॥
तदेवमुभयथाऽपि भाषिते'रजसः कर्मण आयो' लाभो भव-
तीत्यतस्तमायै रजसो मोननानवद्यभाषरोन वा "हित्वा त्य-
क्त्वा ते'अनवद्यमाषिणो “निवाणं' मोक्ष प्राप्लुवन्तीति ॥२१॥
अपि च-निततिनिंवौण तत्परम प्रधान येषां परलोकार्थिनां
बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान् निवोणवादित्वेन प्रधाना- |
नित्येतद् दशान्तेन दशेयाति-यथा “ नच्षत्राणाम् › अश्वि-
न्यादीनां साम्यत्वप्रमाणप्रकाशकत्वरधिकश्चान्द्रमाः, एवं प-
रलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये स्वगेचक्रवर्तिसपन्निदानप-
रित्यागेनाशेषकर्मत्तयरूपं निवोणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त
पव प्रधाना नापर इति, यदि वा-यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः
` पधानभावमयुभवतिं एवं लोकस्य निवाण परम प्रधान-
प्रित्येच ‹ बुद्धा ' त्रवगततच्वाः प्रतिपादयन्तीति, यस्माच
लिवाणं प्रधान तस्मात्कारणात् ` सदा"
ˆ यतः `
न्तो “मुनिः ` साधु
वाणाथ सवाः क्रियाः कुयादिव्यथः ॥ ॥ कि-
आान्यत्-संसारसागरस्राताभिर्मिथ्यात्वकषायप्रमादा.ऽऽदि
कः, ' उल्यमानानां ` तदाभमुखे नोयमानानां तथा स्वक॑मां-
नकवाणमाभसचययत्
(94
दयन नकृ त्यमानानामशरणानामससता पराहतकरताऽका- |
` रणवत्सलस्तीथरदन्यो वा गणधरा ५ऽचाया 5 आदकस्तेषा
माध्वासभूतं ' साधु ' शाभने द्वीपमाख्याति, यथा समुद्रा-
न्तःपरतितस्य जन्ताजलकन्ञाला ऽ ऽकुालतस्य मुमूर्षोरातिञ्रा
न्तस्य विध्रामहेतु द्वीप कश्चित्साघुतत्सलतया समाख्याति
शः
सर्वकालं |
प्रयतः प्रयत्नवान् इन्द्रियनोडान्द्रयदमनन दा-
नि- |
एवं तं तथाभूतं ' द्वीपे ` सम्यग्दशना + 9देकं संसार भ्रमण-
विश्रामदेतुं परतीर्थिकेरनाख्यातयृवमाख्याति, एवं च छृत्वा
प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठा-संसारभ्रमणविरतिलक्षएषा सम्यरः दशना
5 ऽखचासिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकषण तत्वज्ञरुच्यते प्राच्यत
इति ॥ २३ ॥ किभृतो 5सावा श्वासद्वीपा भवति ?, कादार्वध-
न बाऽसावाख्यायत इव्यतदाद-(श्रायगुत्त इत्यादि) मनावा-
क्रायेरात्मा शुश्तो यस्य स थ्रात्मगुप्स्तथा सदा सर्वकालमि-
न्द्रियनोदन्दियदमनेन दान्तो वश्यान्द्रया धर्मध्यानध्यायो व-
त्यथः। तथा चिन्नानि जोटितानि ससारखातांसि यन स तथा-
एतदेव स्पष्टतरमष्द- निरत आश्रवः प्राणातिपाताऽऽदिकः
कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य पवेभृतः स शुद्धं स-
मस्तदोषःऽपेतं धर्ममाख्याति । किभूत धम ?-प्रतिपूर्ण निर-
वयवत्तया सर्वविरत्याख्ये मोक्तगमनकदेतुमनीदशमनन्यसद-
शमाहिलीयामिति यावत् ॥ २४ ॥
एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सया 55ह--
तमेव अविजाणंता, अवबुद्धा बुद्धमाशिणो ।
बुद्धा मो त्तिय मन्नता, अंत एते समादिए ॥ २४॥
ते य बीओदर्ग चेच, तमुद्दिस्सा य जं कटं ॥
भोचा काणं भियाति, अखेयज्नाउसमाहिया ॥ २६॥
(तमेवेत्यादि) तमेवेभृतं शुद्ध परिपरमनीदशं धर्ममजानाना
अप्रबुद्धा अविवेकिनः परिडतमानिनो वयमेव प्रतिबुद्धा धर्म
तत्त्वमिव्येवं मन्यमाना भावसमाधेः सम्यगदशंनाख्थादन्ते प-
यन्ते ऽतिदुरे वतेन्त इांति,ते च सर्वेऽपि परतीर्थिका द्रष्टव्या इ-
ति ॥२५॥ किमेति ते तीर्थिकाभावमागैरूपात्समाघदरे वत-
न्त इत्याशङ्क्या 55ह-( ते वीच्रादगमित्यादि)ते च शाक्या
ऽदय जीवाजीवानभिक्षतया बीजानि शालिगोधूमाऽऽदीनि
तथा शीतोदकमपाशु(खु)कोदक,तांश्चोदिश्य तद्भक्केय दाहारा-
दिकं कृते निष्पादिते तत्सवैमयिवेकितया ते शाक्या55दयो
भुक्त्वा ऽभ्यवहत्य पुनः सातद्धिरसगोरवाऽऽसक्रमनसः स-
ङःव्रभक्ताऽऽदिक्रियया तदवाप्तिकृत आत ध्यानं ध्यायन्ति । न-
द्यदिकसखेषिणां दाखादासधनधान्या ५ऽदिपरिग्रहवतां धर्म-
ध्याने भवतीति । तथा चोक्कम्-
“ ग्रामत्तत्रगरदा 4ऽदी नां, गवां पेष्यजनस्य च |
यस्मिनपरिग्रहा दष्ट, ध्याने तजर कुतः शुभम् ? ॥१॥''इति ।
तथा-
“मोहस्या 55यतने धृतेरपचयः शान्तः धतीपो विधि-
व्यान्नेपस्य सखुहन्मदस्य भवनं पापस्य वासरो निजः ।
दुःखस्य प्रभवः खुखस्य निधनं ध्यानस्य कष्टा रिपुः.
प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्रशाय नाशाय च ॥ १ ॥ ”
तदेवे पचनपाचना $ ऽदिक्रियापरव्रत्तानां तदव चायुप्रत्तमा-
णानां कुतः शुभध्यानस्य सभव इति । श्राप च-त तीर्थिका
धर्माधमाविवेके कतव्य ग्रखद्ञा श्रनिषुणाः। तथाहि-शाक्या
मनोज्ञा 5 5हा रवसातिशय्या ऽ ऽसनाऽ दकं रागका रणमपि शु-
भध्याननिमित्तत्वनाध्यवस्यान्ति तथा चोक्कम-'मणुणणं भा-
यणा भुच्चा। इत्यादि तथा मांस कक्किक मित्युपदिश्य सेज्ञान्तर-
समाश्रयणान्ेदोपिं मन्यन्त, बुद्धसंड-घा 5 एदिनमित्त चारम्भ
निदोषामात। तदुक्रम्मंसनिवा त्त काउं,सवइ दातक्रग ति ध-
ण भया। इय चदङणाऽऽरभ,.पत्ववणपा कुणद बाला ॥१॥ न
चतावता तान्नदोषिता | न डि लृता 5 5दिकऊ शीतलिका< दभि
(4,
रग
४६ )
अमिधानराजन्द्रः ।_
दर्म
धानन्तरपात्रणान्य यथात्वं भजत, विषे वा मघुरकापिधानने-
ति । पवमन्यामपि कापि जा 5 5दीनामाविभावतिरोभावाशति
घानाभ्यां विताशोत्पादावाभिघद्तामनेपुणयसाविष्करणीयम्, |
तंदिव ते वराकाः शाक्या ऽऽ्दयो मनोक्षाप्देष्टभोजिनः सफरि- |
ग्रहतयाऽऽतध्यायिनो 5 छसमादिता मोक्षमार्गा35ख्यात् लाव-
समाधेरसत्रततया दूरेण वतेन्त इत्यथः ॥ २६ ॥
यथा चेते रससातागा रवतया53तैध्यायिनों भवन्ति तथा
ष्ान्तद्वारेण दशयितुमाह--
जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिह ।
शच्छेसण भिययति, काणं ते कलुसाधम् ।! २७॥
एवं तु समणा <े,भिच्छदिटः अणारिया |
विसएसण भिय यंति, कंका वां कछुसाहमा ॥ २८ ॥
यथत्यदाहरखापन्यासाथः यथा" येन प्रकारेण ` ढ-
ङ्ादणः ' पक्तिविशषा उऊलाऽऽशयाऽऽधयः च्रामिष-
जोविनो मत्स्यप्राति ध्यायन्ति, प्वंभूतं च ध्यानमार्त- |
(4 3 >
रोद्रध्यानरूपतया ऽत्यन्तकलुपदधमे च भवतीति ॥ २७ ॥
दा्टान्तिकं दर्शायतुमप्ह--एवमिाति यथा ढड्भा55ृखों म-
त्स्यान्वेषणपरं ध्यान ध्यायन्ति तद्ध्यायिनश्च कलुषाधसा |
भवन्ति पवमेद मिथ्यादए्यः श्रमणाः ` पक्के शाक्याऽ$- |
दयो ऽनार्यकमेकारत्वात्सारम्मपारग्रहतया अनायः सन्तो
दिवयाणां-शब्दा 55दीनां ्रासि ध्यायन्ति तद्ध/यायिनश्व कङ्ा
इवं कलुषाधमा भवन्तीति ॥ ८ ॥
किञ-
सुदं मग्गे पिराहिता, इहभेगे उ दुम्पर्तः |
उम्मग्गगता दुक्खं, घायमेपति तं तदा ॥ २६ ॥
जहा असापिरिं नार्व, जद््रंधो दुरूहिया ।
इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयति ॥ ३० ॥
एबं तु समणा एन्. भिच्छुदिद्दी अणारिया ।
सोयं कसिणमावन्ना, अआगतारो महम्भयं ॥ ३१॥
इम च धम्ममादाय, कासवेण पवेदित् ।
तरे सोयं सहाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए ॥ ३२ ॥
° शुद्धम् ` अवदात निदोषं ` माग ` सम्यग्देशनाऽऽदिक-
मोक्तमार्ग कुमार्गप्ररूपणया “ विराध्य ' दुषयित्वा ‹ इह '
अस्मिन्ससार माक्तमागेपररूपणाधस्तावे वा ` एके ' शाक्या
55दयः स्वदशनानुरागण मटामोदाऽऽकुलितान्तराऽऽत्मा
नो दुरा पापापादानतया मतिर्येषां त दुष्टमतयः सन्त उन्मा-
गण-ससापरावतरणरूपण गताः-प्रवरत्ता उन्मार्गगता दुःख
यतीति दुःखम-श्रष्रप्रकारं कमोऽसातोदयरूपे वा तदूदुः-
खे घ्रात चान्तशस्त तथा-सन्मार्गविराधनया उन्मागेग-
मनंच ` पएषन्ते ` अन्वेषयान्ति दुःखमरणे शतशः प्रा--
ययन्तीत्यश्रः ॥२६॥ शाक्थाऽऽदीनां चापाये दिदशैयिशुत्ता-
वद् टश्रान्तमाह-यथा जात्यन्धः आख्लाविर्णी ' शतच्छुद्रां
नाचमारुद्य पारमागन्तुमिच्छति , न चासौ सच्चद्रतया
पारगामो भवति, ५ तहिं 2, अन्तराल पएव--जलमध्य
एवं विर्षादति-निम्ल्ञ तीथः ॥ ३० ॥ दा्ारितिकमाद-
पएवमय श्रमणा ' एक ' शाक्याऽऽकया मिथ्यादउयों 5नायाः '
भावज्ञातः-कर्मो ऽ5ष्वरूपे 'कत्स्ने' संपूर्णमापज्ञाः सन्तेस्ते
मंहाभंये! पौनवुन्येन संसारपयेटनया नारकी ऽऽदिस्वभा-
वे दुख ‹ श्रागन्तारः ' श्चागयनशाला भवन्ति, न तेषां
संसाराइधेरास्राविर्णी नावं व्यवस्थितानामियोच्चरण भव-
तीत भीर्दः॥३१॥ यतः शाक्याऽऽदयः अ्रमणाः समिथ्याद-
छया ऽनायाः छतः स्लोतः समापन्ना महाभयमागन्कारे मद-
न्त वत इदस॒पादिश्यत इमामाति प्रत्यक्षाउ5सआन्नकांचित्वादि-
हुमनन्तरं वद्य्माणलत्तएं सर्वलोकप्रकर्ट च दुगेतिनिने-
धन शोभनगतिधाःरणात् ' घम ' श्रुतचारिि ऋ ऽ-ऽस्य, चश-
ब्दः पुतशब्दार्थ, स च पूर्वेस्माहयतिरेके दशयति, य-
स्मारकोदोदानियणीतधमस्थः ऽऽ दातासे महाभय गन्तरि
भवन्ति, इमं दुनयैमम् आदाय ' सूदीत्वा फाश्यफन !
श्रि दधेमानस्वाएपेनः * फ़्देदिते” श्णीतं ˆ तरेत् ' लङ्ये-
द्धःवद्यतः संसारपयटनस्वभावे, तदव विशिनधि-' म
हार" दुरूत्तरत्वान्पायखषलकं, कथाहि-तदन्त्वर्दिनो
अन्ते गर्भाद्र्भ अन्मतो जन्म मरसान्मरणे दुःखाद दुः-
खनित्येवमरधदडवटीन्यायेनायुम्वन्तो ऽनन्त्मपि कालमासते।
तदेवे काश्यपप्रणीतथर्मी ऽऽ दानेन सता आत्मनस्थाएं--नर-
काऽऽदिरत्ता तस्मै आत्मत्राणाय रिः-समन्तात् ( वेत् ) प-
रििजत्सयमानुष्ठायी भवेदित्यथैः , कवचित्पश्चाधस्यान्यथा
पाठ: कुञ्जा भिक्खू गिलाणस्स, अमिलाए समादिः । "
° भिच्ुः ` साधुः ग्लानस्य वेयादृत्त्यम् श्रग्लानः ` श्रष-
रिश्रान्तः कुयौत्सस्यकसमाधिना ग्लानस्य वा समाधषु-
त्वादयाज्नाति ॥ ३२ ॥
कथं सयमायुषएाने परिवरजेदित्याद-
विरए गामधम्मेर्हि, ज केर जगई जगा |
तेति अ उवमायाए, थाम कुब्व परिव्वए ॥ ३२ ॥
अइमाणं च मायं च, तं परिन्परय पंडिए ¦
सव्पमेयं शिराकिचा, शिव्याशं संघए णौ ॥ ३४ ॥
संधए साहुधभ्मं च, पावधम्मं शिराकरे ।
उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ख पत्थए ॥३५॥
जे य बुद्धा अतिकंता, जे य बुद्धा अणागया |
संति तसिं षडटाशं, भूयाणं जगतो जहा ॥ ३६ ॥
ऋमधमः-- शब्दा 5 5दयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोश्लेत-
रेष्वरक्द्धिष्ठाः खन्त्यके केचन ' जगति ` पृथिव्यां ससारो-
द्रे जगा! इति जन्तवो जोवतार्थैनस्तषां दुःखद्धिषा-
मात्मोपमया दुःखमनुः्पादयन् तदक्षण सामथ्यं कुर्यात् , तत्
कुरवश्च संयमानुष्ठान परित्रजदिति ॥ ३३ ॥ सयमावध्नका-
रिणामपनयनाथमाद--श्रतीव मानो.ऽतिमानश्चारिजिमति-
रम्य यो वतते, चक्रारादेतदेश्यः काधोऽपि पारेगृ्यते,
पवमतिमायां, चशब्दादतिलोभे च, तमवेभूत कषायत्रातं
सयमपरिपन्थिने ' परिडतो ` विवेको परिक्लाय सर्वमेनं से-
सारकारणभतं कथाय समूढं निराकृत्य निवोणमनुसन्धयेत् ,
सात च कष्तयकदम्जके न सम्यक् सयम: सफलता प्रति-
पद्यते । तदुक्र म् -“सामरणमणुचरंत-स्सख कसाया जस्स उक्क-
डा हाति। मराणाम उच्छपप्फं,व निष्फ ले तस्स सामरणे॥९॥›
~+
( ४७ )
ग्ग
अऋमिधानराजन्द्रः ।
वरम्
तन्निष्फलत्व च न मोक्तसभवः, तथा चोक्रम्-
“ सं लतादपलायनप्रातिभुबो रागाऽऽदयो मे शिता-
स्तृष्णाव.घनवध्यमानमखिलं कि वेरिस नेदं जगत् १।
खलत्यो ! अआ जराकरेण परुषं केशेषु मा मा अदर
रेदिव्यादरमन्तरेण भवतः कि नाग 5 ऽभिष्याम्यहम् १ ॥२॥''
इत्यादि । सदेवमेदेभूतकषायपरिव्यागादच्छिन्नप्रशस्तभा-
घानुसंघनया निर्वाणानुसंघानमेव श्रेय शति ॥ ३४ ॥
किच-साधूनां धर्मः त्तान्त्यादिको दशविधः सम्यग्द्-
शनज्ञानचारिताऽऽख्यो बा तम् ` असुसन्धयेत् ' वृू-
दविमापादयेत् , तद्यथा-भ्रतिक्षणमपूवज्ञानग्रहणेन क्ञानं
तथा शङ्का ऽदि दोषपीर्हारेण सम्यग्जञावाऽऽदिषदाथोधि-
गमेन च सम्यग्दशनम् अस्खलितमूलोात्तरशुणरूपूर्णपाल-
नेन परस्य इमपूबीभिग्रदग्रहणेन ( च ) चारित्रे ( च ) दुद्धि-
मापादपेदिति, पाठान्तरं वा-' खददे साधुधम्मे च ` पृवो-
क्विशेष एविशिए्ट साधुधर्म मेत्तमागेत्वेन श्रदधीत निःश-
ङ्कतया गृह्यात् , , चशब्दात्लम्यगजुपालयेज्च, तथा पाप-
पापोपा दानकारणं धर्म प्रारयुपमर्देन धचत्तं निराकुयात् ,
तथोपधान--तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्यु-
पधान जीरयः, तदेवंभूतो भिच्छः क्राधं मानं चन पार्थयेत् न
चधेयेद्धेति ॥ ३५॥ अयेवंभूतं भावमाग कि वर्धमानस्वा-
भ्येवोपदिषटटवान उतान्ये ऽषीव्येतदाशङ्क्या 55ह-ये बुद्धाः-
तीर्थरूतो ऽत्पीते ऽनादिके कालऽनन्ताः समातक्रान्ताः ते सर्वे
व्येवभरतं भावमारगप्ुपन्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भवि-
ष्यदनन्तकालभाविना ऽनन्ता पव ते<प्येवमेषो पन्यसिष्यन्ति,
चशब्दाद्र्तमानकालभाविनश्च संख्येया इति । न केवलमु-
पन्यस्तवन्तो ऽनु्छितवन्त्चेव्येवदशयति--शमनं शान्तिः
भावमाभेस्तेषामतीतानागतवतैसानकालभापिनां बुद्धानां प्र-
तिष्ठानम्-श्राचारो बुद्धत्वस्यान्यथाजुपपत्तेः, यदि वा-शा-
न्तिः-मोत्तः स तेषां प्रतिष्ठानम--आधारः, ततस्तदवा-
धिश्च भावमागैमन्तरेण न भवतीवयतस्ते सर्वे ऽप्येने माव-
मार्गमुक्त्न्तो ऽयुष्ठितवन्तश्च [ इति ] गम्यते । शान्तिप्रति- |
छानत्वे दटान्तमाह-भूतानां' स्थावरजङ्गमानां यथा (जगतीः
चिना अतिष्ठानम् , एवं ते सऽपि वु द्वाः शान्तिप्रतिष्ठाना
इति ॥ ३६ ॥
प्रतिपन्नमावमार्गेण च यद्धिघेयं तदरशयितुमाह--
अइ शं वयमात्रन्नं, फ़ासा उच्चावया फुसे ।
र तेसु विशिदृप्ते ज्ञा, वाएण व महाभिरी ॥ २७ ॥
संवुड़े से महापन्ने, धरर दत्तेसणं चरे ।
निव्युड़े कालमाक वो, एवं (य) केवलिणो मयं ॥३८॥
अथ ' भावमागप्रातपस्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नक्तं सन्तं
स्पशाः-परोषटापसगेरूपाः “उश्च वचाः" गुरु लधवा नानारू- |
पा वा ‹ स्पृशेयुः ' श्रिद्रवयुः. सच साधुत्तराभ-तः से- |
सारस्वमावमपत्तमाणः कमानजेरां च न॒तरनुकूजप्रातकू ज- |
विहन्यात्. नव संयमायुष्ठा नान्मनागापि विचलत् , कमव ?, |
मटावातनव महागारः-मखाराति | परापटापसगजयश्चाभ्या-
सक्रमण विधयः, श्रभ्यासवशन दि दुष्करमपि सुकरं भवति। |
अजञ च दष्टान्तः, कथथा-कच्िद्रापस्तदद जातं तरं कमुलत्ति-
ष्य गवान्तिकं नयत्यानपाति च , ततोऽसावनेनेव च क्रमेण
ककि
प्रत्यहें पवसदमानमपि वत्समुरिक्िपन्नभ्यासवशाद् द्विदायने जि-
हायणमप्यत्क्तिपा्त, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनेः शनेः परी-
षहोपसगेजय विधत्त इति ॥ ३७ ॥ साम्पटमधष्ययना्थसृप-
संजिहीपुरुक़शष्मघिकला5द-स साधुः एवं सवता ५ऽधब-
द्वारतया संवरसंबृतो महती प्रज्ञा यस्या सो यदापक्षः-सस्यग्द्
शनक्ञानवान् , तथा थीः-बुद्धिस्तया राजत इति धोरः परी-
बहोपसर्गाक्तोभ्यो वा स एवंभूतः खन् परे दत्ते सत्याहारा-
दिके पणां चरेद विविधया ऽप्येषणुया युक्तः सन् सयममनु-
पालयेत् , तथा !गघृत इव निकेतः कणयोपशमाच्छीतीभूतः
“ काले ' सृत्युकालं ' यावदभिकाङ्कत् 'एतत्' यत् मया प्राक
पतिपादिते तत् 'केवलिनः ' सवनस्य तीथेकृतो मतम् ।
एतच्च जम्बूस्वामिनमुदिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तेतधत्वया
मामेस्वरूपे प्रहितं तन्मया न स्वमनोषिकया कथितं, कि
तर्हिं ?, कवलिनो मतमेतदिवयवे भवता ग्राह्यम् ॥३८॥ सत्र १
` श्चु० ११ अ० (अन्ययूथिकानां मागं प्रवेदयतीत्युक्रम 'अणण-
उत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४७२ पृष्ठ ) ( ऋज्वादिमागंदशान्तेन
पुरुषचातुर्विध्यम् ' पुरिसजाय ' शब्दे पञचमभागे १०२२ पृष्ठ
उक्तम् ) । आकाशे, भ० ७ श० २ उ० । गोणालु-
ज्ञायाम् , न०।
मग्न-जि० । बुडिते , अष्ट० ।
तत्र॒नामस्थापने सुगम , द्रव्येण धनमदिरापाना5-
दिना भञ्नः द्रव्यात् धनक्राञ्चनात् मम्ः द्रव्ये शरी-
राऽष्दौ सस्नः। श्रथवा- द्रव्यरूपः मग्नो द्विधा--त्रा-
गमतः मग्नपदाथज्ञाता अदुपयक्काः , नोश्रागमतो झश-
रीरभव्यशरीरे पूर्ववत् , तद्ग्यतिरिक्कस्तु मूढः शल्यः जडः ।
भावमग्नो द्धिविध:-अशुद्धः, शुद्धश्चेति । । तत्र अशुद्धः क्रो--
धा ऽऽदिमग्नः विभावभाविताऽऽत्मा। शुद्ध: छ्विविधः-साधकः,
सिद्धश्च । तत्र साधकः वस्तुस्वरूपाभिसुखखः श्राद्यनयच-
तुष्ये तु निरनुष्ठानदग्धा ऽ ऽदिदोषवर्जितविष्युपेतद्रव्यसाघधनः-
अरवृत्तिपरिणतवस्तुसखरूपसाधनरुचिवतः भवति । शब्दा $‡-
दिनयमन्नस्तु सम्यग्दशनज्ञानचारित्रा ५ऽात्मसमाधिमस्नः
संपूरोवस्तुस्वरूप निरावरणे मझ!ः निष्पन्नः | अत्र दि गुण-
स्थाना.ऽऽदिविशुद्धस्स्वरूपा 5 ऽनन्दमग्नत्वमीदयते- तत्र मन्न-
लक्षणं गदश्नाद-
प्रत्याहत्येन्द्रियव्यूहं, समाधाय मनो निजम् |
दर्धश्चिन्मात्रविश्रान्ति-मेत्र इत्यमिर्घयते ॥ १ ॥
प्रत्याहयेन्दिय इति । इन्द्रियाणां स्पशनरसन-
घाणचक्षुःओजत्ररूपाणां, यो व्यूदः समूहस्तं प्रत्याहृत्य प्र-
व्यादारं कृत्वा , विषयसंसारतो निवार्य, “ प्रत्याहारस्त्वी-
न्द्रयाणां विषयेभ्यः समाहटतिः ” इति वचन्रात् । निज स्वी-
ये मनः, चतनावीधकत्वविकल्परूपं समाधाय समाधो
स्थापयित्वा विषयनितेघम् ्रात्मद्रव्येकाच्रतारूपे कत्वा,"स-
माधिस्त वदेवाथमात्रामासनपूर्वकम् । '" आत्मसखरूपभासने
कल्वरूपसमाधिः , तत्र मनः कृत्वा, चिन्माते श्ानमात्रे आ-
त्मनि, मुख्यतः दशनज्ञानमय एवं आत्मा. “ उवउत्तो ना- -
खदसणगणहि ” इति वाक्यात् । ज्ञानस्वरूपे स्वद्रव्यं वि-
श्रान्त दधत् मड इति श्रभिध्वीयते कथ्यते, इत्यनेन ऋ-
नादितः श्रयं जवः पुद्ध लस्कन्धजवणगन्धरसस्पशेरसा $ऽदिष
( ४८ )
मरग _
अगि धानराजन्द्रः।
मग्ग
मनोक्ञेधु स्वजना; ऽदिघु च भ्रमन् विकल्पकोटिकोर्टि पराप्त
इष्टान् चिषयान्निच्छुन् अनिष्टान् विषयान् श्रनिच्छन् वा-
तोद्धतशुष्कपलाशवत् रमति । कदाचित् स्वपरविवेक-
रूप भेदन्नान प्राप्य अनन्तज्ञानद्शना 4 ऽनन्दमय स्वीये भावं
स्वत्वतया निर्धार्य इदं विषयसङ्गा 5ऽदिकं न मम नादम् अ-
स्य भोक्ता उपाधिरेव एषः, न हि मम कनचत्वं भोक्कुत्वं ्रा-
हकत्वे च , परवस्तूनां मया हि स्वरूपश्चष्टनदं विहितं , |
साम्प्रत {जना5ऽगसमाञ्जनन जातस्वपराववकेन तघु रमणाऽ ऽ
स्वादन न ग उप्त विचाये स्वरूपानन्तस्भावगुणपयोय- `
स्याद्वादानन्ता 5ऽत्माने विश्रान्त प्राप्तः, श्रात्मानन्ता$-ऽनन्द्-
सम्पन्नमय ज्ञात्वा, परमात्मसत्तास्वरूप मगज्नः भवति, स सश्र: ¦
अशभिवीयत इति ॥ १॥
य आत्मानुभवमञ्नः स कीडग् भवति ?, तदाह--
यस्य ज्ञानयुधासिनधौ, परनब्रह्मशि मग्रता |
विषयान्तरसचार स्तख हालादलोषमः ॥ २ ॥
यस्यति--यस्य जीवस्य श्रनादिविभावविरतस्य ज्ञान
श्ुधासिन्धो परव्रह्मणि ज्ञानाश्रतसमुद्ररूपे परमात्मसमा-
घो भन्रस्य तस्य जीवस्य विषयान्तरे वरगन्धाऽ ऽदो संचारः
प्रवर्तने हालाहलोपमः--महाविषभज्ञणतुल्यः । यो हि श्रख-
तस्वादमन्नः स विषमविषं भोक्कु कथं प्रवत्तेते १, मालती-
भोगमन्नः मधुकरः करीराऽऽदिखु न वसति, एवं शुद्धनिःस-
कृनिरामयनिद्वन्द्वस्वीया55त्मज्योतिमझः अनन्तजीवेष्ेषु
स्वयम् अनन्तवारभुक्कमुङ्केषु, वस्ततः अभोग्येषु स्वगुणा-
ऽऽवरणदेतुभृतेघु विषयेषु, तस्य मनः न सचरति न प्रवत्तते |
इति तच्वम् ॥ ~ ॥
पुनस्तदेव दयोतयति-
स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्वावलोकिनः ।
करत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥ ३ ॥
“सखभावसखुख इति । ” “ स्वभावे ` सहज सुख खट जाऽ ऽत्य-
. न्तिकेकान्ता ऽऽनन्दं तत्र "मन्नस्य' तन्मयस्य, * जगत् ` लोकः
तस्य तत्वं तदधम, यथार्थतलया विलोकिनः दर्शनशीलस्य
पुरुषस्य, श्नन्यभावानां परभावानां रागा ऽऽदिविभावानां ज्ञाना-
वरणा ऽदिकमेणां बाह्यस्कन्धाद्ा नानिक्तेपाणां कर्त्ये न,कि
तु ज्ञायकस्वभावत्वात् , सात्तित्वमव, तत्र क्चैत्वम् एकाधि-
पल क्रियाकारित्व, तत् , जीवे जीवगुणानामेव, चतनवी-
यपपकरणकारकचक्रोपकरणन । यतो हि प्काधिपत्यक्रि- |
` याशन्यत्वेन धमौ ऽ दिद्रव्येषु न कत्वं, जीवस्यापि कत्तै-
त्वे स्वकायैस्य । न दि जीवः कोऽपि जगत्कर्ता, कि त॒ ख-
कीयपरिणामिकगुणपयोयपरतरत्तरेव कत्ता न, परभावानां त
` कत्तृत्वे असदारोपसिध्यभावा 55दयो दोषाः. ज्ञाता लोकालो-
कस्य, अत एव नाय परभावानां कर्ता, कि तु खभावमृढोऽशु- ।
` परिणतिपरिणतः। श्रशुद्धनिश्चयन रागा $ऽदि बिभावस्य,अ-
शुद्धव्यवहा रण ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मणां कर्ता जातोऽपि स
एव सहजसुखरुचिरनन्ताविनाशस्वरूपसुखमयमाव्मानं ज्ञ(-
स्वा,आत्मीयपरमाऽऽनन्दभोगी,न परभावानां कत्ता भवात,कि
` ठु ज्ञापक पव ! त्र प्रस्तावना'श्रय हि आत्मा स्वनिःसपत्नस-
द्वाद्गितया स्वीयविशषस्वभावानां सशुणकरणेन सलत्यशचिम-
तामपि स्वगुणकरणा ऽवरणेन ज्ञानचेतनावीयी 5 ऽदिश्तयोपश-
मानां च परानुयायिनां तत्सहकारेण कर्तृत्वा ५ ऽदिपरिणामानां
परकटीत्वा ऽदिविभावधरिणमनेन परकन्तत्वे जातेऽपि तेषामे-
व गुणानां स्वभावसेसुखीभवने कत्तु त्वा 55दीनां पराड्त्तिः,तन
सम्यगदर्शनशानचारित्रपरिणतेः स्वरूपसाधनकतत्वाऽ ऽदि
कुयैन् , गुणकरः पूर्ती: साधनकतैःवे विधाय गुणप्रदुक्तिरूप
शुद्ध कत्तेत्वा5एदिक कराति, श्रत पव साधकानां सन्मुनीनां
स्वरूपसंमुखानां न परभावकत्तेत्वम् इति, कि तु ज्ञायकत्वमेव
अन्न पत्तः, तहिं सुनौनां परभावाक नत्वे उक्ते हेतुद्धयजन्थक-
ठ रतां कंतः^,तत्राऽऽद-खस्भावमग्नानां सधकमुनीनाम्
अनभिसधिजवीयैतदनुगतचेतनता कमैवन्धकचैत्वमस्ति, त-
थापि स्वा ऽयत्ताभिशुणप्रच्त्तीनां स्वभावायुगतत्वात् अकच
त्वम् , श्रथवा-एवभूतसिद्धत्वाऽस्वादा ऽ ऽनन्दमग्नानां तु न
चरभावकन्तं ता। अथवा-सस्यग्दशेनाऽऽदिशुखपरा क्षो वस्तुस्व
रूपविवरणेन स्वरूपाजुगतस्वशाङ्गत्वेन श्माव्मनः परभावक-
चुत्वे नास्त्येव, ज्ञायकत्वमेकेति । । अतः स्वरूपरसिक्रानां स-
वैभावज्ञापकत्वं कठैत्वे स्वपरिणामिकभावस्य, अतः स्वाऽऽ
त्मानम् एकान्ते निवेश्य, अनादि श्रान्तिजं परभावकचत्वभोक्क
त्व आहकत्वा 55दिक निवारणीय स्वरूपाखरडा $ ऽनन्दकतै
त्वा ऽऽदिकं करणीयम् | इति गाथाथः॥२३॥
परब्रह्मणि मग्नस्य, शछथा पौद्रलिकी कथा ।
क्वामी चामीकरोन्मादाः,स्फारा दाराऽऽदराः क च ।४।
परव्रह्मणीति--पर ब्रह्मणि परमा ऽऽत्मनि मग्नस्य तन्मयस्य
स्वरूपावलोकनरमणर क्स्य, पो द्रलिकी पुद्गलसवन्धिनी. क~
था नाम वात्तौ, ` श्लथा ` शिथिला इत्यथः । परन्वेन अग्मा-
ह्यत्वेन अभोग्यत्वेन निधौरात् यस्य कथाऽपि श्लथा तस्य ग्र-
हः कुतो भवति ?, अत एवं अमी चामीकरोन्मादाः तस्य क्व
शुद्धा ऽऽत्मगुणसपद्वतां चामीकर ग्रह एव नः परत्वात् ; पाप-
स्थानदेतुत्वात् कुत उन्मादः ?, च पुनः स्फारा देदीप्यमानाः
दाराः वनिता तस्या आदराः क्व ? इति कुतः, नैवेति । स्व-
भावसुखभोगिनां पो द्रलिकभोग पव न तर्दिं मोघा कुरागप-
खी च्रशद्धविभावनरी दाराकरी त्राऽऽदरः कथं भदति ९नै-
वेति | इति गाधा्थैः ॥ ४॥
तेजलिश्यांबिद्र द्रया, साधोः पर्यायबृद्धित
भाषिता भगवत्पादैः; सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥ ५ ॥
तेजोलेश्या, इति-तेजोलेश्या चित्तसुखलाभलक्तणा ज्ञाना 4 5-
नन्दा ५ऽस्वादा 5 5श्लेषरूपा तस्याः विचद्धिः विशेषतः बद्धना,
साधोः निग्नेन्थस्य,पयायवुद्धितः चारि्पयोयविच्रद्धितः,भव
वत्पादैः भाषिता उक्ता, भगवत्यादौ पञ्चमाङ्गे सा निमैलखुखा-
-$ऽस्वादरूपा इत्थभूतस्य, आत्मज्ञानमग्नस्य रत्नच्रयेकत्वली
लामयस्य वाचयमस्य युज्यते-घटतेनान्यस्य मन्दसवेगिनः।
शत्र प्रस्तावना,तत्र प्रथमं सयमस्वरूपमुच्यते-श्रात्मनि चा-
रित्रनामगुणः अनन्तपर्यायो पेतानन्ताविभागरूपः अस्ति । त-
थाच विशषाऽऽवश्यके-दानादेलन्धिपञ्चकं चारित्रं सिद्धस्या-
पीच्छुन्ति, तदावरणस्य तत्राप्यभावात्, , आवरणाभावे च त-
दसच्चे क्षीणमोदाऽऽदिष्वपि तदसतवप्रसङ्गात् ततस्तन्मते चा-
रित्राऽऽदीनां सिद्धावस्थायां सद्भावः । चारित्रं च चारित्रमो-
( ४६ )
सग्ग
दात्त तच्च तत््वअ्रद्धासम्यग्ज्ञानपूर्णो 5नन्दे दाऽ्जवभावपञ्चाः |
तापा ४ ऽदिक्तयोपशमावस्थागते च चारिजमोदपुद्रलषु उदय. |
प्राप्रषु मुक्रषु अचुादतपु विष्कम्भितषं केषा चेत् पदशभएगता
नीतेषु चारित्रगुणवभागानाम् आविभावो भवांते, तत्र सव. |
जघन्यसयमस्थाने सवौ ऽ $काशप्रदेणानन्तयुणतुल्यचारित्रप- |
योयप्राग्भावः प्रथमे सयमस्थानम् "`ते कित्तिया पण्सा,सव्वा
ऽऽगासस्स सग्गणा होइ। ते तिक्तिया पएसा,आंविभागाओं अ-
नेतगुणा।९। प्रथम संयमस्थान सर्वोत्कषदेशविरातावशुद्धस्था- |
नतः अनन्तगणविशुद्ध,द्वितीये सयमस्थान प्रथमस्थानात् अ- |
नन्ततमे मागे यावन्तः अविभागाः तावत्तं आवभागच्द्धाभः
वन्ति.प्व तृतीयम् ,एवे चतुम् एवमनन्तभागवरद्ध्या अछुल-
मात्रा 55काशक्षेत्रस्य अड्डलासेख्यभागा55काशप्रंदेशप्रमाण- |
समानि स्थानानि भवन्ति,इद प्रथमे करडकम्। ततः परम् अ-
सख्यातभागवृद्धिरूपं द्वितीय कएडकम् । प्रथमं संयमस्थानं |
ग्रथमे कर डकं.चरमसयमस्थाने ताचन्तो विभागाः.तषाम् अस
ख्याततमे भागे यावन्तः अिभागास्तावन्तोघकाः क्षयोपश-
मा भवन्ति, तद् द्वितीये कण्डके प्रथम समयस्थानःततः अ-
सेख्येयानि स्थानानि अनन्तभागवरद्धिरूपाण असख्यमागभ्र-
देशराशिप्रमाणानि द्वितीये करडकम्। ततः परम् एकम् अस-
ख्यातभागवृद्धिरूप पुनः असंख्येयानि अनन्तभागवुद्धिरूपा-
श तृतीयं करडकं,तत एकम् असंख्यातवृद्धिरूपम,एणवम् अन-
न्तभागान्तरिताङ्कलासख्येयभागमाचम् च्रसख्यभागच्राद्धिरूप-
म् अङ्कलासेख्ययभागकणडकमानस्थानरूपं द्वि तीयं स्थानम् ।
ततः सख्यातभागवृद्धिरूपे प्रथमं सय्मस्थानम् | ततः पुन
छनन्तभागवृद्धिरूपाणि असंख्येयानि, ततः पुनः एकम्
असंख्यभागवृद्धिरूप, ततः असख्ययानि अनन्तमागव-
द्विरूपाणि, एवम् अड्ठुलमाज्रक्षेत्रासख्यभागप्रेद्शमानक-
श्डकेवु गतेषु एकं सख्यातभागब्रद्धिरूप स्थानम् , एव-
महछुलासंख्येयभागतुल्यानि संख्येयभागवृद्धिस्थानानि गता-
नि, एवं सख्यातगुणव्रद्धयसख्यातगणचुद्धःयनन्तगुण-
चृद्धिरूपाणि असंख्येयानि संयमस्थानानि भवान्ति । ततः
पर स्थानमसेख्ययगुणसयमस्थानमाने भवति एकान्तरं
तानि असख्ययानि अनन्तभागव्रद्धिरूपाशि सयमस्थानानि
भवन्ति। सर्वसयमस्थानसख्यालाकसमानाः अलोके असंख्ये-
याऽलोकाऽऽकाशाः कट्प्यन्त, तावल्प्रदेशराशितुल्यानि सेय-
स्थानानि भवन्ति उत्तरोत्त रनिमलानि आदितः श्रनुक्र-
मसयमस्थानाऽऽरोदी नियमात् शिवपदं लभते प्रथमम् एव
उत्क्रष्टमध्युमसंयमस्थाना55 रोही नियमात् पतति । एवं प्रथ- |
मस्थानतः अनुक्रमण सयमक्तयापशमा तस्य चारत्रपयो-
यनिमैलत्वेन चारि खुखस्वरूपे भगवतीवाक्यम्। श्रालापश्च |
भगवत्याम्-"“जे इमे अजत्ताए समणा निग्गेथा विहरंति
पपण कस्स तऊलसं वीतीयंति ? । गोयमा ! मासपरियाए |
समणे निग्गथ वाणमेतरारं देवां तेऊलेस वीतीवयंति । |
दुमासपरिआए समरे णिग्गंथे असुरिदर्वाज्िआरं भवणवा-
सीर तेऊलेस चीतीवयंति । पलं अभिलावेणं तिरगसपरि- |
आए समणे णुग्गर्थ असखुरकुमाराणं देवाणं तेऊलेस वीतीव
यति । चउमासपरिआए गहगणणक्खत्ततारारूवारं जोइसि-
आरं तेऊलेस वीतीवयंति। पंचमासपरिआए चंदिमसूरिया-
ण जोइसियाणं तेऊलेस बीतीवयति । छुम्मासपारिआए सो-
आ भधानराजन्द्र
~ तेऊले० । सत्तमारूषारिश्माए सरकुमारमार्ि [ ।
ग्ग
दाण तेऊले० । अद्बडमासपरिआए वंमलोागाणं लतगाणं त-
ऊलेस चीतीवयेति । णवमासपरिआए महाखुक्तसदस्सा-
राणं देवाणं तेऊ० | दसमासपरिआए आणय-पाणयआर रण-
च्चुयाणं देवाणे तेऊ०। इक्कारसमासपरिआए गेविज्ञावमाणा-
शौ देवाणं तेऊ० | बारसमासपरिआए समर निग्गंथे अणुत्त रा-
ववाइयाणं देवाणं तेऊलेसे वीतीवयंति, तण पर खुक्रं खुका
सिजादइष्ट भवइ । तओ पच्छ सिज्मति० जाव अन्त करात
सवं सते ! । "अस्य रीकायां लेश्याप्रक्रमादिद्माह- जे इम `
इत्यादि । ये इम प्रलयत्ताः “अज्ञत्ताए ति , , आयतया-
पापकर्मवदिभूततया , अद्यतया अधुनातनतया , वत्तमा-
नकालतया इत्यथः । ` तऊलेसंति ` तजालैश्या खुखा-
लिका, तेजोलेश्या टि प्रशस्तनश्यापलकत्षणे , सा च--
सखासिकाहेतरिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलश्याश-
न सुखासिका विवच्यते, ˆ वीतीवयंति ` व्यातव्रजान्त
व्यतिक्रामन्ति । ` असुरिदर्वाज्ञयाएं ति' चमरवालवार्जता
नां "तेण पर" ततः पर, ततः सवत्सरात्परतः, 'खुक्काति शुक्ला
नामाभिन्नवृत्तो ऽमत्सरी,कृतज्ञः,खदारम्भी,दि तायु वन्धो. नर
तिचारचरण इत्यन्ये, “सुक्काभिजाति त्ति ` शुक्लाभिजात्य पर-
मश॒ङ्गमिव्यथः, यत पएवाक्म् आकिञ्चन्य, मुख्यं ब्रह्मातिपरं
सदागम विशुद्ध सर्वशुक्कमिदे खलु नियमात् , सवत्सगादुध्वम्
एतच्च भ्रमणाविशेषमेवा 5 श्रित्योच्यते, न पुनः सर्व एवविधा
भवति, अर मासपयौयेति सयमश्रणिगतसंयमस्थानानां मा-
साऽऽदिपर्यायगतसंयमभावोधङ्गनेन तत्प्रमाणसयमस्थानो-
ल्ङ्गी खनि््राह्य इति | अत्र परम्परासंप्रदायः--जघन्यत
त्कृ यावत् श्रसख्येयलोका 5 ऽकाशप्रमाणेषु सयमस्थानपु
ऋमाक्रमवर्तिनित्रन्येषु मासतः द्वादशमाससयमधमाणस-
यमस्थानोज्लङ्गनोपरितने वत्तमानः साधु्रगदेवतातुल्य सु-
खम् अतिक्रम्य वर्तते इति ज्ञयम्। उक्तं च-'मासा 5 ५दिपयाय
द्वा, द्वादशभिः प्रं तजः । प्रा्चोति तत्र चारित्री, सवदयेभ्य
उत्तमम् ॥ ९ ॥ ” चमावदस्त्जाश्त्खखलाभक्तण वृत्ता
ह्येवम् आत्मसुखन्रद्धिः आत्मज्ञानमग्नस्य भवति ॥ ५॥
ज्ञानमग्नस्य यच्छम, तद्वक्तुं नैव शक्यते ।
नोपमेयं प्रियाऽऽश्चेषे नापि तच्चन्दनद्रवेः ॥ ६ ॥
ज्ञानमरनस्यात-ज्ञानमगनस्य आत्मसुखापला ब्थयुक्तस्य यत्
शम सुख स्पशज्लानानुभवा55नन्नद् तत् वक्रं नव शक्यत,
अतीन्द्रयत्वात् वागगाचरत्वात् , तद् अध्यात्मसुख त्रया
- मनाज्ञे्रवानता दस्या--गआ्राच्छषः, आलक्षनः, तथा चन्द
नद्रवेः चन्दनविलेपनैर्नोपमीयते । यतः स्मक्चन्दना ऽ ऽदिज
सुख वस्तुतःन सुखम् , आत्मसुखभ्रश्टः सुखबुद्ध्या आ्रारापत,
लाके पुद्रलसंयोगजम् आरोपसुखे, जात्या दुःखमेव । उक्घ
च विशषा ऽ ऽवश्यके--
“ जन्ता च्चिद् पच्चक्खे, सोम्म ! सुह नत्थि दुकखमवदं ।
तप्पडियारविभत्त, तो पुरणफलेति दुख ति ॥ २००५ ॥
विसयखुं दु कखे चिय, दुकखप्पाडियारउ त्तिगिच्छि ठव ।
तं खुदरमुवयारओ्रो,न उवयारो विणा तश्चं ॥२००६॥ (विशे)
सायाऽलाय दक्ख, तल्विरहम्मि य स्ह जस्रातस।
ददादिण्स्तु दक्ख. सकर दो हादयाभावा | ~८२९॥
ह ५० )
ग्रग्ग अचिधानराजेन्द्रः। मग्गणट्टाण
(एतासां गाथानां व्याख्या ' शिव्वाण ` शब्दे चतुथभागे
२१२५ पृष्ठे गता ) |
उक्तं च--
“° ऑत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा,
किलश्चाति लब्धपरिपालनद्वत्तिरेव ।
नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय,
राज्यं स्वहस्तधृतदरडामवा 5ऽतपतच्रम् ॥ १ ॥ ” इति । -
तस्मात् ससारः सर्वदुःखस्वरूप एव, सखवाभाविकाऽ नन्द्
एव सुखे, यावत् इन्द्रियसुख खुखबु द्धिः तावत् सम्यगदशन-
ज्ञाने न म्नः, इति तत्त्वाथवृत्तो, अतः अध्यात्मखुख पुद्रला- |
< जेषजसुखन नोपमीयते ॥ ६ ॥
शमशैत्यपुषो यस्य, विग्रुषोऽपि महाकथा ।
किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सवा ङ्गमग्नता ? ॥ ७॥
. शमरशत्यपुष इति-शम उपशमः रागद्रेषाभावः, तत्त्वा5५- |
स्वादकत्वम् आत्मनि निर्धार्य इष्टानिष्टे वस्तुनि राग(ऽ दीनां
शान्तिः, न हि गा ऽऽद्यो वस्तु ररिणामाः, किन्तु विभावजा
अशुद्धा श्रान्तिपरिणतिः, न हि पुद्दला55दीनां शुभाशुभप-
रिणितिः कस्यापि जीवस्य निमित्ता, किन्तु पृरगलनपारिणा-
मिकत्वेन, अथवा-वर्णा ऽदिकर्मविपाकाद्वा । तत्र रागद्वेषक्ता |
तु भ्रान्तिरेव | उङ्क च- कणगो लोदो न भणइ, रागो दोलो
कुणंतु मज्भ तुमं । नियतत्तविलुत्ताशे, एल चरणा अपरिणा-
मा ॥१॥ "स्वरूपस्य स्वा ५ऽयत्तत्वात् स्वभोग्यत्वात् परवस्तुसं-
योगविद्योगाभ्यामिष्टानिएठतोपाथिः | एवं शमस्य शेवं शीतल- |
न्वम् अतप्तत्वे, तस्य पुष/ पोयकस्य यस्य पुरुषस्य शमशेय-
पुणः विप्रुषः विंन्दुमात्रस्यापि महाकथा महावात्ता, शमशेत्य-
विन्दुरपि दुलभः, यस्य ज्ञानपीयूष तच्वज्ञानाग्ुत स्वोज्ञमग्न-
ता तत्र तास्मन स्थाने कि स्तुभ. कि वर्णयामः? , तस्य वर्णन क-
नम् असमथ, वयमिति । यो हि खरूपन्ञानानुभवः सः अ-
तिप्रशस्थः | उक्के च--
* लब्प्रइ खुरसामित्तं, लब्भइ पहुआत्तण न संदेहो ।
दको नवरि न लब्भइ, जिशिदवरदेसिओ घम्मो ॥ १॥
धम्मो पवित्तिरूवो, लब्भइ कइया वि निरयदुक्लभया ।
जो नियवत्थु सहावो, सो धम्मो दुललटो लोए ॥ २॥
निश्रवत्थुधम्मसवणे, दुलहं वुत्त जिणिदि्राणए खुं ।
तप्फासणमेगत्त, हंति हु कसि च धीराणे ॥ २॥'"
अतः वस्तुस्वरूपधर्मस्पशेनेन परमशीतीभूतानां परमपू-
ज्यत्वमेव ॥ ७ ॥
यस्य दृष्टिः कृयवृष्टिः, गिरः शमसुधाकिरः ।
तस्मै नमः शुभज्ञान ध्यानमग्नाय योगिने ॥ ८ ॥
« यस्येति ` तस्मे शभक्ञानध्यानमग्नाय योगिने नमः, शभे
नाम शुद्धे यथाथपरिच्चेदन, भेदज्ञानविभङ्कस्वपरत्वेन स्व-
स्वरूपैकत्यानुमवः, तन्मयत्वं ध्याने तत्र मग्नाय, तस्मे यो-
गिने मनोवाकायरोधकाय, रत्नत्रयाभ्यासशुद्धसाध्यख- |
साधकाय नमः । कस्य ?, यस्य दिः कृपाबृष्टिः परम
करुणावर्षिणी, यस्य गिरः वाचां समूहः शमसुधाकिरः
क्रोधा $ऽदिपरित्यागः शमः, स पव सखुधा अम्ठ॒तं, तस्याः
किरः किरखं सचनै (यस्य ) तच्छीला दृष्टिः कृपामयी वाक्
शमता.ऽश्तमयी, तस्मे योगिने नम्र इति । श्रत्र भावना-अ-
नादिमिथ्वात्वासयमकषाय योगचापटयविध्च त्ता 4 ऽत्मष्वमा-
¶
वानाम् , इष्टानिष्टपरभावग्रहणा ग्रहणर्रसकत्वेन तत्पाप्त्यप्रा-
धो रत्यरत्यशुदाध्यवसायमग्नानां जीवानां कुतः स्वरूपम-
सनता ?, अतः -शङ्का<ऽयतिचारवियुङ्कावासदशेनो हि जीवः
शद्धा ऽ शयः, चिभरुवनमप्युपदटतमो हमदेन्धनज्यलितकर्मदद-
नक्वथ्यमानमशरणमवलोक्य गुखाऽऽवरणाद् दुःखोदिग्नः
निर्धारिततत्त्वश्रद्धान: आश्रवानिवृत्तिसंवरेकत्वप्रतिज्ञामारुह्म
डढीकरणार्थ पश्चविशतिभावनाभावितान्तरात्मा द्वादशानु-
प्रत्ञास्थिरीकृता ध्यवसायः, पूवेकमनिज्ञराभिनवाग्रहणा 55-
विभोवभूतस्वरूपसंपदानु भवमग्नाः सुखिनः, अत एवा-
ऽऽगमश्चरवणविभावविराततच्वावलाकनतच्वेकाग्रता ऽ ऽद्युपायेः
स्वरूपानुभवमग्नत्वम् एव कार्य, संसारे कर्मक्केशसततत्वम-
वगस्य | ससागोद्धिग्नन विरागमार्गाचुगप्रवर्सिना आत्मस्व-
रूपाऽविभांवदेतुषुं सम्यगदशनङ्ञानचारितेषु वर्तितव्यामि-
त्यथः॥ ८ ॥ अष्ट० २ अष्ट० ।
मग्गओ-मार्गतस्ू-अव्य० । पश्चादित्यरथ, “मग्गच्रो पच्छा"
( ६६४ ) पाइ० ना० २७४ गाथा । “ अतो डो विसगौस्य ”
॥८।१। ३७ ॥ इति विसगौस्य डो इत्यादेशः | धा० १ पाद् ।
पृष्ठतः इत्यथ, भ० ६ श० ५ उ० । श्रा० चू०।
मग्गओपडिवद्ध-मार्गतःप्रतिबद्धू-जि० । स्था० ३ ठा०२३० ।
( अथस्तु ` पव्वज्ञा ' शब्दे पञ्चमभागे ७३० पृष्ठे गतः )
मग्गंतराय-मागौन्तराय- पुं । मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्धिष्नकरणे,
स्था० ४ ठा० ४ उ०।
मग्गगामि(ण)-मार्मगामिन्- प° । कल्याणएघ्रापकपथयायि-
नि, उत्त० २५ अ० । यो० वि० । द्वा०।
मग्गज्कयण-मार्गा ध्ययन-न० । भावमार्गप्रातिपादके सत्रकू-
ताङ्गस्यैकादये ऽध्ययने, सूत्र० १ श्रु० ११ अ०। आशण्चू० ।.
मग्गण-मार्गूण-न० । माग्येते उनेनेति मार्गणम् । अन्वयधमेप-
योलोचनतो 5न्वेषणे, ज्ञा० १ श्रु० २ आ० । आभोगने मार्ग
र मोषणमिति हेक्राथीः । उक्त च-आशभोगरणं ति वा मग्ग-
णं ति वा मोसरं ति वा पगु 'व्य०२०श्नो०।आण्च्०।माग-
णमन्वयधर्मा 55लोचने, यथा-स्थाणौ निश्चेतब्ये इह वल्ल्यु-
त्स्णा.$ऽदयः स्थारुधर्मा घटन्त इत । औ०। प्रश्न०।सर्ूता-
थविशषाभिमुखमेव तदूध्यैमन्वयव्यतिरेकघमौन्वेषणे, न ।
“तत्थ वियालसं ति वा मग्गण सि वा दहरे ति वा एगटट। ”
ञ्मा० चू० ६५ अ०। भ०। ^ कणशओ सिलीसुहो म>ग्गणो
इस् सायओ सरो विसिहो (५९) ” पाइ०ना० ३६ गाथा।
मग्गणट्वटाण -मागेणास्थान-न० । जीवा<5<दीनां पदार्थाना-
मन्वेषणं मार्गणा, तस्याः स्थानान्थाश्रया मार्मणास्थाना-
नि । गत्यादिषु, प्रव० २२४ द्वार ।
अत्र चेयं मार्मणास्थानप्रतिपादिका बृहद्रन्धस्वामित्वगाथा-
“गइ इंदिए य काप, जोण वेप कसा नाणे य ।
सजम दंखण लेखा, भव समे सक्षि श्राहारे ॥ १॥ ”
तजर गतिश्वतुधी-नरकगतिस्ति्यग्गतिमेनुष्यगतिदेवगतिरि-
ति। इन्द्रियं स्पशनरसनप्राणखक्षु:ओजमेदात्फश्चथा,इम्द्रिय-
ग्दखेख च तदुपसकिता एंकेग्द्रियल्लीस्कियजीम्द्रिययर्ुरिन्त्रि
यय द्म्दरिया गृष्न्ते। कायः घोढा-पृथिष्यत्त शोल्तशुक्कश्वति-
त्रसकायमेदात्। योगः पञ्चदशधा -सत्यगशेखेभः,जसस्यगणो
| ४५१ )
भग्गण्डाण अआभधानराजन्द्रः। मग्गणद्वाण
पवन =
वक्र
योग॑:,सत्यासत्यमनोयोगः,असत्याखरषामनोयोगः.सत्यवाग्यो |
गः, असवयवाग्योगः,सत्यासत्यवाग्योगः, द्रारत्यामापावाग्यो- |
गः.देक्रियकाययो गः,य्राहारककाययोगः, आओ दा रे कका ययो-
गः, वेक्रियमिश्रकाययोगः ,आहा रकमि भ्रकाय यो ग:, ओदारि-
कामिश्रकाययोगः,कार्मणुकाययोग इति । वेदस्थिधा-स्त्रोवेद:,
पुरुषवेदो, नपुंसकवेदश्च । कषायाः क्रोधमानमाया लो भा:। ज्ञा-
ने पञ्चधा-मतिन्ञान, श्रुतज्ञान-मवधिज्ञाने,मनःपर्यायज्ञानं,के- |
चलज्ञान च । जश्ञानअहणंन चाह्ानमपि तत्परतिपत्तभूतम॒फप्लक्ष्य- |
ते, तच्च त्रिविधम-मत्यज्ञान श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञान चति | शा
नमा्गणास्थानमण्रधा । सयमश्चारित्र तत्पञ्चधा-सामायकं
छेदोपस्थापने परिहारविशुद्धिकं खदमसरम्पराय यथाख्यातं च |
संयमग्रहणन च तत्प्रातपत्तभ्रूता दश्सयमा-ऽसयम् सूच्यत
इति संयमः सप्तधा । दशन चतुर्विधम् चत्तदनमचक्तदंश- |
नम्रवाधिदशने केवलदशने च । लेश्या षोढा-कृष्णलेश्या |
नोललश्या कापोतलश्या तेजालेश्याः पद्मलेश्या शुक्लज्ञश्या ।
भव्यः तथाविधानादि पारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यो
भ्रव्यग्रहणन च तत्प्रतिपक्षभूतो ऽभव्योऽपि गृह्यते । सम्य-
कत्वे चिधा--त्तायोपशमिकमो पशामिकं त्षायिकं च, सम्य-
कत्वग्रहणन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं सासादनं मिश्र च
परिगर्यते । सज्ञा विशिष्टस्मरणा ५ ऽदिरूपमनोवज्ञानसदित- |
न्द्रियपञ्चकसान्वतः, तत्प्रतिपत्तभूतः सवो ऽप्यकाद्रया ऽ ५-
दिरसन्ी, सोऽपि संज्षिग्रहणिन सूचितो द्रष्टव्यः । आहारय-
ति ओजोलोमप्रक्षेपा 55हाराणामन्यतममाहारमित्याहारकः । |
ननु ज्ञानाऽऽदिषु एकमथमज्ञाना ऽऽ दिप्रतिपक्त्रदणे कृतम् ? ,
उच्यते-चतुदशस्वपि मागणस्थानेषु प्रत्येक सवसांसारिक-
सच्वस ङहार्थमिति । कम० ३ कर्म० !
उत्तरभदानाद--
सुरनरतिरिनिरयगई, इगवियतियचडउपशिदि छकाया ।
भूजलजलणानिलवण-तसा य मणवयणतणुजोगा।। १०॥ |
इह गातिशब्दः प्रत्येक संबध्यते ततः सुरगातिः, नरगातिः,
तिथगगतिः, नरकगातिः । ( कर्म० ) इहापीन्द्रियशव्दस्य प्रत्य-
कं संबन्धात् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचत॒रिन्द्रियपश्चेन्द्रि-
या इति | षघदकायाः-भू: पृथ्वी,ज लमापः,ज्व लने-तेजः,अनिलो
वायुः (वण त्ति) वनस्पतिः्रसा-दीन्द्रियाऽ१द्यः, ततः परत्ये-
के कायशब्दस्य योगात् पृथिव्येव कायः शरीरं यस्य सः
पृथ्वीकायः, एवमप्कायः, तजस्कायः, वायुकायः वनस्प-
तिकायः, चसकाय इति । चः समुचय । योगशब्दस्य पत्ये-
कं सम्बन्धात् जयो योगाः । तथाहि-मनोयागः, वचनयोग
तयुयोगः | कम० ४ कमे० ।
वेयनरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति ।
मइसुयवहिमणकेवल-विहंगमइसुअनाणसागारा ॥११।
वदशब्दस्य प्रत्यकं सम्बन्धात् जया वेदाः,नरवदः,ख्रोवदः,नपुख
क्वदः।(कम०)मानकषायः,मायाकषायः,लाभकषायः,शात श-
कषायाणामनन्तायुबन्ध्यादिवडुभेदस्ूचनाथः,सृत्र च “मा
यालोभ त्ति” हस्वत्वं भ्रारूतत्वात्“यइङयवदीत्यादि '' इडाव~ |
धीत्यत्र श्रक्रारलोापात् ज्ञानशब्दस्य च प्रत्येक संबन्धात् एवं घ-
यागः-मतिज्ञान,श्रुतज्ञानम् , अवधिज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं, केव. |
लज्ञाने,तथा विभङ्गमत्यज्ञानश्चुताऽज्ञानानि,पतानि पञ्च ज्ञानानि |
जारयन्नानान साकारयाणख चत्तन्त दात वाक्याथ | कम० ४
कम० । ( सन्नि त्ति ) विशिष्टस्मरणा 5५दिरूपमनोविज्ञानभाक
सन्ञी, इतरो 5संज्ञी सर्वो 5प्यकान्द्रिया 55दिः ॥ १३॥
आहारेयर भया, सुरनरयविभगमइसुओहिदुगे ।
सम्मत्ततिगे पम्हा--सुकासन्नीसु सन्निदुगे ॥ १४ ॥
आओजो लोमप्रत्तेपा55हाराणामन्यतममाहारमाहारयतात्या -
हारकः.इतरोःनादहारको विग्रहगत्यादिगतः।(मेय त्ति)चतुईश-
मोलमार्गणास्थानानामिमेवाऽन्तराश्चतुराऽऽ्दि संख्या भदा भव-
न्तीति शषः.सर्वेऽपि द्विषषठिमेदाः। तथादि-गतिश्चतुद्धा,इन्द्रिय
पञ्चघा,कायः षपोढा.योगसिधा वेदखिधा,कषायश्चतुद्धौ,ज्ञान-
पञ्चकूमनज्ञानतरिकमिति,ज्ञानमष्टधा, सयमपञ्चकं देशसयमासं
यमसहितं सप्तधा, दर्शन चतुद्धी, लश्या षाढा, भव्या ऽभव्य
श्चति भव्यमागणास्थानं द्विधा, सम्यकत्वत्रयमिध्यात्वमिश्च-
सासादनभेदात्सम्यक्त्वमार्गणास्थाने षोढा,संक्षिमागणास्था-
न सप्रतिपक्ते द्वधा,आद्ारकमार्गणास्थान सप्रतिपत्ते द्वेघा ,स-
वे प्येते एकज मीस्यन्ते तत उत्तरभदाः द्वाषष्टिरिति | अत्र
गाथा-चउ १ पण २ छ २३ तय ४ तय ५ चउ ६, अड ७
सग ८ चडउ € छुचत्च १० ११ छग १२ दो १३ द्वानह्न
१७४ । गदयादइमग्गणाण, इय उत्तरभेय वासट्टरी॥ १॥
इत्येवमुक्ता गत्यादिमार्गणास्थानानामवान्तरभेदाः । कर्म०
४ कर्म० । पंण्स० । दशे । प्रव० | साम्प्रतमतप्वेव
जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह--“ सुरनरयविभंग ” इत्या-
दि, खुरगतो नरकगतो च सल्ञिद्धिकं पयोघप्तापर्याप्तलक्षणं भ-
वति । अपर्याप्तश्चेह करणापर्याप्तों ग्रह्मत, न लब्ध्यपर्याप्त:, त
स्य देवनरकगत्योरुत्पादाभावात्। तथा विभङ्ग-विभङ्गज्ञानः
मतो मतिन्ञाने, शेते श्रुतज्ञान, ( ओहिदुगि त्ति) अवधि-
डिके-अवधिज्ञाना 5्वधिद््शनलक्षण, सम्यक्त्वत्रिके क्षायो-
पशमिकन्तायिकोपशमिकलक्षणे, प्मलेश्यायां, शुक्रलेश्यायां,
सल्लिनि च, सल्ञिद्धिकमपर्याप्तपयाप्तलत्तणे भवति , न शे-
पाशि जीवस्थानानि तषु मिथ्यात्वा ऽ ऽदिकारणतो मतिज्ञा-
नाऽऽदीनामसम्भवात् । अत एव च हेतोरिहापयाप्तकः क-
रणापर्याप्तको ग्रह्मयत , न लब्ध्यपयीप्तकः, तस्य मिथ्याहृष्टि-
त्वादश्युभलेश्याकत्वाच्चेति । आद-त्तायकन्तायोपशाम-
कौपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्को लभ्यत ?, उच्यते-
इह यः कश्ित्पूवैवद्धा ५ऽयुप्कः क्षपकर््नेणिमार भ्यानन्तानुब॒-
न्ध्यादि्सिप्तकक्षयं कृत्वा त्तायिकसम्यकत्वम॒त्पाद्य गतिचतुष्र-
यस्यान्यतर स्यां गताबुत्पद्यते तदा सो ऽपयांप्तः क्षायिकस-
म्यक्त्वे प्राप्यते,त्तायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्कश्च देवा ऽऽदिभवे-
भ्यो ऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्ती थैकरा 5 <द्रिपर्याप्तकः सुप्रती त
एवं । ओपशामिकसम्यकत्व॑ पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरखु-
रस्य द्रष्रव्यम् । इहोपशामिकसम्यक्त्वमपर्याप्तृस्य केचिन्ने-
च्छन्ति, तथा चते प्रा55हुः “न तावदस्यामेवाप्यांप्ताव
स्थायामिद्ं सम्यकत्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविध-
विश्ुड भावात् । अथेतत्तदानी मोत्पादि, यत्तु पारभविकं
तद् भवतु, केन विनिवार्यत इति मन्येथाः, तदपि न युक्ति
युङ्कमुः्पश्यामः, यतो यो मिथ्यादष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यकत्व-
मोपशमिकमवाभ्नाति स तावन्त द्वावमापन्नः सन् काले न क-
रोत्यब । यदुक्कमागमे--“ अखुवंधोद्यमाउग--बंध कालं च
( 4 )
मग्गखादटण "^
सासलो कुलई । उवसमसम्मदिट्ठटी चउर्टमिक्त पि ना
कुखइ ॥ १ ॥ 9” उपशमश्रण्मत्वा 5नुत्तरसुरषूत्पन्नस्यापया-
प्कस्यथतज्लभ्यत इांते चन्नन्वेतदपि न वह मन्यामहे, तस्य
प्रथमसमय एव सम्यक्त्दपुद्रलोदयात् क्षायोपशमिर्क स-
म्यक्त्व मवति न त्वोपशामिकम् । उक्तं च शतकबृहच्चरणो-
“ जो उवसमसम्मादिट्टी उबसमसेढीए काले करेइ सा प-|
ढमसमए चव सम्मत्तपुंज उदयावलियाए छोदूण स- |
म्मसपुग्गले वेणइ, तेण न उवसमसम्मदिट्री अपज्ञत्तगों
लब्भइ। इत्याद । तस्मात्पयाप्तसाज्ञलत्तणमकमव जाव
स्थानकमत्र प्राप्यते इति स्थितम् । अपरे पुनराइः-' भवत्ये- |
वापयोप्तावस्थायामप्योपशमिकं सम्यकत्वं, सप्ततिचूणयादि- |
चु तथाउमिधानात् । सप्ततिचूर्णों हि गुणस्थानकेषु ना-
मकमेणी बन्धोदया 5 5दिमार्गणा 5वसरे अविरतसम्यगदष्ररु-
दयस्थानाचन्ताया पश्चविशत्युद्यः सप्तःवशत्युदयच्च द्व |
कानाघरूत्याक्कः, तत नारकाः त्तायक्रवद्रूसम्यगदरष्याः, |
देवास्तु जिविधसम्यगदश्योडपि । तथा च तद्- |
ग्रन्थः--“ परणवीससत्तवीसो--दया देवनेरइण पडुच्च
नेरइगो । खयगवेयगसम्मदिट्री, देवो तिविदसम्मदि-
ट्री वि ॥१॥ ” पञ्चविशव्युदयश्च शरीरपयासि |
निवेतेयतः । तथाहि--निर्माण॒स्थिरास्थिरगुरुलघुशुभाशुभ- |
तेजसकार्मणवणगन्धरसस्पशेकचतुष्कदेवगतिदेवायुपूर्वी प--
अखन्द्रियजातित्रसवादरपयोक्चकं खुभगदुभगयारकतरमादेयाः ।
नादेययोरेकतरं यशः्कीत्यैयशकीत्योरेकतरमित्येऋअविशतिः,
ततः शरीरपयोप्ल्या पर्याप्तस्य शेषप्यौप्तिभिरपयापप्तस्य वे- |
क्रियद्धिकोपघातप्रत्यकसमचतुरस्तरलक्षणप्रकृतिपश्वकक्षेपे दे-
वाउलुपूव्येपनयने च पञ्चविशतिभवति । ततः शरीरफ्यो- |
प्त्या पर्याप्तस्य शषपयौ्िभिः पुनरपर्याप्तस्य पराघातप्रश
स्तविहायोगतिक्तेपे सप्तरविशातिभवति । ततो ऽपर्याप्तावस्था-
[ देवस्योपशमिकं सम्यक्त्वमुक्रम् ! तथा पञ्चसं्र-
हेषपि मार्मणास्थानकेषु जीवस्यानकचिन्तायामौपशमिकस-
म्यक्त्वे “उवसमसमम्मि दो सन्नी इत्यनेन ग्रन्थन संज्ञिद्धिक-
मृक्रम् । ततः सप्ततिचृरर्यभिप्रायेण यञ्चैसग्रदाभिप्रायेण चा-
स्माभिरपि ओ्ओपशमिक सम्यक्त्वे संशिद्धिकम॒क्कं, तत्त्व तु के- |
वलिनो विशिष्टवहुश्रुता वा विदन्तीति ॥ १४ ॥
तमसन्नित्रपज्ञजुयं, नरे सवायर अपज्ञ तेऊए ।
थावर इगिदि पदमा+च्ड कर असनि दु दु विगले ॥१५॥
तत्पूवोक्तं संशिद्धिकमपर्याप्ता5संज्ञियुतं नरे-नरेु लभ्यते-
जातावेकवचनम् । अयम थेः-इह द्वये मजुष्याः-गर्भव्युत्का-
न्तिकाः, सम्मूच्दिमाश्च । तत्र ये गर्भव्युत्कान्तिकास्तेषु य-
शोक्तं सक्लिदधिकं लभ्यते, ये तु वान्तपित्ताऽऽदिष सम्मूच्छे-
न्ति तेऽन्तमुहत्तौ $ऽयुषो ऽ संज्ञिनो लब्ध्यपर्याप्तकाश्च द्रष्टव्याः।
यदाहुः श्रीमदायैश्यामपादाः भ्रज्ञापनायाम्--“कटि णं भते ! |
संमुच्छिममणुस्सा समृच्छति ? । गोयमा ! अंतो मरणुस्स
असस्स फ्लयालीसाए जोयणसयसदटस्सेखु अड्डाइज्ेसु दी-
पश्नरससु कम्मभूमीखु तीसाए श्रकम्ममूमीसु
चप्च्लाण अतेरदीवेस गठभअवकंतियमंणुस्साणं चेव उच्चारे
खु व्रा पासवशेसु वा खेलेसु वा सिंघाणंसु वा वंतेखु वा
पित्तेखु वा सुकेस वा सोणिएस्रु वा खुकपुग्गलपरिंसाड
आमभधानराजन्द्र: |
मग्गणाद्गण
सु वा विशयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेस वा नगर-
निद्धमणेखु वा सव्वेखु चव अखुइद्डाणसु इत्थ श समु-
च्दिममणुस्सा ससुच्छति अगुलस्स असखभागमित्ताषः
आओगाहणाए अस्री मिच्छादिट्वी अज्नाणी सव्वाहिं पज-
त्तीाहिं अपज्जत्ता च्रतोमुडत्ताउया चेव काल करंति त्ति!”
तान सम्माचज्छममनुष्यानाअित्य तृतीयमप्यसंश्यपर्याप्त--
लक्षण जीवस्थान प्राप्यत इति । सवायरअपज्जत्ताउए `"
इति तदेवेत्यन॒वत्तते, तदेव पूवोक्गं साज्ञद्धिक सह वाद-
रापयौप्तन वसत इति सवादरापर्याप्त तेजोलेश्यायां ल--
भ्यते । एतदुक्तं भवति-तेजोलश्ययां जि जीवस्थानकानि
भवन्ति, सक्यपयी प्तः, सक्ञिपयौ प्तः, बादरेकेन्द्रियापर्याघ्श्व |
बादरो ऽपय घ्षः कथमवाप्यत इति चत् ?, उच्यते-इह भवन-
पतिन्यन्तरज्यातिष्कसोधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषु
मध्य उत्पद्यन्ते । यदाद दुःषमान्धकारनिमग्नाजनप्रवचनभ्र-
दीपो भगवान् जिनभद्रगणित्तमाश्रमणः--
“ पुढवीच्राउवणस्सदई--गन्भे पज्जत्त सखजीवेसु ।
सग्गच्चुयाण वासो, लसा पांड्सेहिया ठाणा ॥ १ ॥”
ते च तेजोलश्यावन्तः, यदभाणशि-
“ किरा नीला काऊ, तऊ लसा य भवणदतरिया ।
जोइससोहस्मीसा-ण तउलसा सुरयव्वा ॥ १ ॥ ""
यज्ञश्यश्च भ्रियते तल्लेश्य एवं अग्रऽपि समुत्पद्यते ।
“ यल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जय ” इति वचनात् ।
अतो वाद्रापयौप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलश्याऽवाप्यत
इति सिद्ध जीवस्थानक जयं, तजोलश्याया्मिति कायद्धारे
स्थावरेषु पृथिव्यत्तजोवायुवनस्पतिलक्षरषु; इन्द्रियद्धारे
एकेन्द्रिये च प्रथमानि चत्वारि जीवस्थानानि सूच्मे-
केन्द्रियापर्या ससच्मेंकेस्द्रियपर्याप्वादरैकेन्द्रया ऽपर्याप्तवाद -
रैकेन्द्रियपयाप्षलक्षणानि भवन्ति। असल्लिनि संक्िव्य-
तिरिक्के कोलिकनलिकन्यायेन प्रथमशब्दस्य सम्बन्धात्यथमा-
नि आदिमानि दादश जीवस्थानानि पयांप्तापयांप्तसूच्मवाद-
रेकेन्द्रियद्धिजिचितुरसंश्षिपश्वीन्द्रयलक्तणानि भवन्ति । सर्वै-
घामपि विशिष्टमनोविकलतया सशलि््रतपत्तत्वाविशेषात् ,
संशिप्रीतिपक्तस्थ चा 5संशित्वेन व्यवहारात्। “दु दु विगल त्ति"
विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु दवे दे जीवनस्थानके
भवतः। तव द्वीन्द्रियेषु दीन्द्रीयो ऽपर्यांप्तः पर्याप्त इति द्वे ,
चीन्द्रियेषु अीन्द्रियो ऽपयां्ः पर्याप्त इति दे, चतुरिन्द्रियेषु
चतुरिन्द्रियो 5पर्याप्तः पर्याप्त इति दवे ॥ १५ ॥
दस चरम तमे अजया-हारगतिरितणुकसायद्अनाणे ।
पटमतिलेसाभवियर- अचक्खुनपुमित्थि सव्वे वि । १६।
से त्रसकाये चरमाण्यन्तिमानि पर्याप्तापयौप्तद्धित्रिचतुरस
ज्लिसीज्ञपञ्चेन्द्रियलत्तणानि ईश जीवस्थानानि भवन्ति , द्वी-
न्द्रिया ऽ ऽदीनामेव सत्वात् श्रयत श्रविरते सवोण्यापे जोव-
स्थानानि भवन्ति । तथा आहारके ( तिरि क्ति ) तिथग्गतो,
तजुयोगे काययोगे कषायचवुश्ये, इयोरज्ञानयोमत्यञ्ञानश्च-
ताज्ञानरूपयोः प्रथमजिलेश्यासु ङृष्ए नीललेश्याकापोतलेश्या-
लक्षणासु , भव्ये , इतरस्मिन् अभव्य, (चक्खु सि) अच-
कुर्दशने ( नपु चि ) नपुसकवेदे (मच्छ सि) मिथ्यात्वे सर्घा-
रयपि चतुईशापि जीवस्थानकानि भवन्ति, सर्वजीवस्थांन-
या कारन
+= का
3 नोः क
|
( ४६ )
कव्यापक्त्वादयता ऽ ऽदीनामिति ॥ १६ ॥
पजसन्नी केवलदुगे, संजयमणनाणंदेसमणभीसे ।
पण चरम पज वयणे,तिय छ व पजियर चक्सुंभ्म ॥ १७॥
( पजसान्नि त्ति ) पयोप्तसशि लक्षणमेब जीबस्थान भवति ।
कफ्वेत्याह-केवलादे के केबलज्ञानकेवलद्शनलक्षणे, सयमेषु
सामाथधिकच्छेदोपस्थापनप' रेहार्र वशुद्धिकसूचह्मस म्परा यय-
थाख्यातरूपपञ्च कार रलंयमव त्सु (मणनाण त्ति) मनःपर्याय-
ज्ञाने, ( देत ति ) देशयते देशविरते, भ्रावके इत्यथः, ( मण्
चति ) मनोयोगे ( मील ति) भिश्रे सम्यगमिथ्यादष्टो । तत्र
केवजद्धिके सयमेषु मन.पयौयक्षाने, देशविरते च सोशि-
पयोप्त तत्तत जीव व्यान बिना नान्यजीवस्थानकं संभव-
ति, तत्र सर्चाविरतिदेशाविरत्यो रभावात् । मनोयोगे5-
प्येतदन्तरेणान्यञ्जीवस्थानकं न धरते, तत्र मनः्सद्धा-
वाऽयोगाव् । मिश्रे पुनः पर्यापसाक्षिव्यातिस्केण शेषं जीव -
स्थानक तथाबिधपरिणामाभावादेव न सम्भवतीति । तण
पञ्च जीवस्थानानि चरभार्यन्तिमानि पयौप्तान पयाप्त-
द्ीन्द्रियपयौशत्रीन्द्रयपयौप्तचतुरिन्द्ियपयोप्तासक्षिपशेन्द्र -
यपर्याप्त वक्षिपश्जन्द्रियलक्षणानि ( बख्णे त्ति ) खचनयोंगे वा- |
ग्यागे भवान्ति,न शेषाणि, तषु वाग्योगासम्मवात्। (तिय छ
व पज्जियर चक्खुम्मि चति) उच्ुदेश्न त्रीणि जीवस्था- |
हैं .!है ..:. 5 'आमधानरॉाजन्दः।
नानि पर्याप्ततत्तुरिन्द्रियषयोप्तासशिपश्वेन्द्रियपरयांघ्तसंशिप- |
ञेन्द्ियरूपासि, नान्यानि, तेषु चक्तुष एवाभावात् शत्रव |
मतान्तरेण विकल्पमाह
-षट् वा जीवस्थानानि चक्तुदंशने |
भवन्ति । कथभित्याद--( पज्जियर त्ति) पृवैष्रदार्श- |
तपयोप्तनिक सतरमप्याप्तप्तद्दितं षड भवन्ति ।
4 ।
मुक भवरति--अपयंग्ष पर्योप्त वर्तु रन्द्रिया लेक्षिप श्ले। +द्व यस- |
ज्लिप्श्वन्द्रियरुपाणि षट जीवस्थानानि चक्षुदैशेने भव-
न्त, चतुरिन्द्रया55दीनामि'न्द्रयपयोप्त्या पयोप्तानां शेषप
याप्स्यपेन्ञया अपयोध्तानामपि आचार्यान्तरे श्र्षुदेशना भ्युपग- |
मात् | यदुक्तं पञ्चसंग्रदमूलरीकायाम्--* करणपर्याप्तेष च-
लखिन्द्रयाऽऽदिष इन्द्रियपयातप्तो सत्यां चज्ञदैशीनं भवाति ।
ति ॥ १७ ॥
थीनरपार्णंदे चरमा,चउ अणहारे दु सन्नि छ अपज्ञा ।
ते सुहुम अयज्ञ विणा, सास णे इन्त गुणे बुच्छे ।।१८॥।
स्त्रीवेदे नरवेदे पेञ्चन्द्रिये च चरमारायन्तिमानि पर्याप्ता +
पर्याप्तासंजिसंन्निपञ्चन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि |
भवन्ति । यद्यपि च सिद्धान्ते श्रसंलिपर्याप्तोऽपयोत्तो वा
सर्वथा नपुलक पवोक्कः। तथा चोकं श्रीभगवत्यां--“ तेण
भते ! श्रसन्निपर्चन्दियतिरिक्खजो णिया किं इत्थिवेयगा, पु
रिसवेयगा, नपु खगवयगा ?। गोयमा ! नो इत्थिवेयगा, ना
पुग्सिवेयगा, लपु सगवेयग ज्षि।” तथा ऽपोह खीवुखलिङ्गा- |
5ऽकारमात्रमङ्गीकृत्य खोवदे नरवेदे लासंशी निर्दिष्ट इत्यदा-
षः। उक च पश्चसंग्रहमूलटीकायाम- यद्यपि चासाक्षिपर्या-
षापयीप्तो नपुलको तथापि खीपुश्तलिङ्गाऽऽकारमात्रमङ्गी-
त्य र्रीपु सावुक्ताविति । ”. अपर्याप्त >ओ्रेद करणापर्यासको
गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्कः, लब्ध्यएंयोप्त कस्य सर्वस्य नषुंसक-
त्वात्। अनाहारके- दुसन्नि छु अपज्ज त्ति ।” द्विविधः सकी
लेश्यास, आहारके भव्य, मतो मतिज्ञान,
मग्गण्टराण
पर्याप्तापर्यांप्तलक्षणः, षट् अपर्य सराश्चेत्यष्टौ जीवस्थानानि
भवन्ति । श्रयम्थः--श्रपयो्तसूच्मबादरकेन्द्रियद्वित्रिचतुर-
सक्िसंन्निपर््न्द्रयलक्तणानि रूस जीवस्थानानि, अनाडारके
विग्रहगतावेकं दो त्रीन्वा समयान् यावदादाराखम्भवात् संम-
वन्ति “विग्गहगइमावन्न,, केवलिणो समुदया अजोगी अ ।
सिद्धा य अणाहारा, >सा आहारगा जीवा ॥ १॥ ” इति-
वचनात् | संशिपयोप्तलत्तणं जीवस्थानकमनाहारके केवलि
समुद्धातावस्थायां तृतीयचतुथपञ्चमसमयेषु लभ्यते । उक
कार्मणशरीरयोगी,ठ॒तीयके पञ्चमे चतुर्थ । समयत्रये
च तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात्॥ १ ॥ ” (त सुम
अपज्ज विणा सासि त्ति ) सास्वादने रूम्यकत्वे तान्येव
पूक्रानि षट् अपय प्तपर्याससं क्ञद्धिकलन्षणाम्यष्टौ जीव-
स्थानानि सृच्मा पर्याप्त विना सप्त भवन्ति । पतदुह्कं मवति-
अपयाप्तबादरे केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरि न्द्रियासष्िप े-
न्द्रियसंक्ञिपञ्चेन्द्रिर पर्याप्तापयौ प्त लक्ष्णानि सक्त जीवस्थान-
कानि सास्वादन सम्यक्त्व भवन्तीति । यत्तु सृच्मेकन्द्रिया-
पयोप्तलत्तण जीवस्थाने तत् सास्वादने सम्यक्ते न घटा-
मियक्सि । सास्वादनसम्यक्त्वस्य मनाक शुभपरिणामरूप-
त्वात् । महां ङ्गिष्टपारिणामस्य च सच्मेकेन्द्रयमध्ये उत्पादा-
भिधानात् । सूत्रे च सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतर्वात् , प्राकृते
दि लिङ्ग व्यभिचा पि । यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतरूक्षणे--
“ लिङ्गं व्यांभचार्यपीति । ” उक्तानि मागणास्थानकेषु
जीवस्थानकानि । कम० ४ कर्म० | गुणस्थानकानि
“ गृणद्ाण ' शब्दे तृतीयभाग ६२४ पृष्ठ गतानि । )
अधुना मार्गणास्थानप्वव यागानाभाधःखुः प्रथमं तावच्यो-
गानव स्वरूपत श्राह-
सेयर मीस अस मोस मण वह विडव्वियाऽऽहारा ।
उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे ॥ २४॥
कर्म० ४ कम० । ( योगव्याख्या ' जाग ` शब्दे चतुथभागे
१६१३ पृष्टे गता )
साभ्प्रतमतानव मार्मणास्थानेषु निरूपयन्नाट-( कम्म-
मणहारि त्ति ) व्यवच्छुद्फल हि. वाक्यमताऽवकश्व--
मवधारयितव्यम्। तच्चावधारणसिदेवम्- कामणमेवैकम-
नाहारके न शषयोगा असम्भवादिति । न पुनरेवं कामण
मनादटारकेष्वेवेति, श्रादारकेष्वपि उत्पत्तिप्रथमसमये कामेण-
योगसम्भवात्। “जाएरं कम्मपणं, आहारेई श्रणोतरं जीवो ।”
दति परममुनिवचन्रामारयात् । नापि कार्मणमनाहारकेषु
भवत्यवेत्यवधारणमाधेयम् , श्रयागिकेवल्यवस्थायामनादा-
रकस्या ऽपि कार्मणकाययोगाभावात् “ गयजोगो उ अजो-
गी" हति वचनात् । पवमन्यत्रापि यथासम्भवमवधारण-
विधिरनुसरणीय इति ॥ २४॥
क
नरगह प।णाद तस्र तयु, अचक्खु नर नपु कसाय सम्मदुगे |
सान्न छलेसाहारग, भव मइसुओहिंदुगे सब्वे ॥ २५॥
नरगतों मनुष्यगतों, पञ्जेन्द्रिये, तरल त्रसकाये, तनुयोगे,
अचक्षुदेशने, नरे नरवेदे पुंवेद इव्यर्थः, ( नपु त्ति ) नपुस-
कबेदे कपायेष क्राधमानमायालोभेषु, स म्यक्व्वद्धिके क्षायो-
पशामिकत्ता यिकलत्षणे, संश्लिनि मनोविशज्लानभाजि, षटस्वपि
श्रुते श्रुतज्ञान,
„~~~
४ )
~
_सग्गलद्दाण अभिधानराजन्द्र: |
(27000 3002 पा
ह्ारकद्धिकमपि, यत आधद्वारकंद्धिक चतुदेशपूर्वेविद एव
भवाति “ आहःरगदुर्ग जायइ चउद्सपुव्चिण ” इति ब- |
चनात् | न च स्त्रीणां चतदैशपूबौधविगमो ऽस्ति, स्रीणामा- |
गमे दृष्टिवादाध्ययनप्रतिषेथात् । यदाह भाष्यसखुधासुधांशुः-
“ तुच्छा गारवबहुला, चालिदिया दुष्वला धिदैण य !
श्य अइसेसज्कयणा, भ्रूणावादों य नो थीण ॥ १॥ "इति ।
भूतवादो दृष्टिवाद्ः, तशा श्रयते सास्वदने अज्ञान-
अवधिद्विकि अवधिक्षानावधिदशनरूपे,सर्वे पञ्चदशापि योगः |
भवन्ति । एतेषु सर्वेष्वपि मार्गणा स्थानेषु यथासंभव सवै- |
योयप्रात्तः । यत्तु क्वापि-च्रोगा अकम्मगा 5 5हारगेरु ” इति
पदं दश्यते, तन्न सम्यगवगम्यते । यत ऋजुगतों विश्रदगतौ
चोत्पात्तिप्रथमसमये -“ जोएण कम्पपणं, आहदारेई अतर |
जोवा । तेण परं मोसेणं जावर खरीरस्स निप्फत्ता ॥ १ ॥ ” |
इति सकलश्रुतधरप्रदरपरमसुनिवचनप्रामारयादादारकस्या- |
|
पि सतः कार्मणकाययागा ऽस्त्येद | अथोच्येत--शछा माणं श-
शीतमिति निश्चवयनयवशात्प्रथमसमये ष्योदारिरूवुदलः सु-
हामाणा गृदीता एव, ततो दितीया 55द्खिमयेष्विव तदानी-
मप्योदारिकमिश्रकाययोग इति । तदेतदयुक्लं, सभ्यग्बस्तु-
तत्वापरिज्ञानात्। यतो यद्यपि तदानीमौदारिकाऽऽदिषुद्रला
गृहाप्राणां गहीता पव तथाऽपि न वेषः गृहा माणानां स्व- |
ग्रहणक्रियां प्रति करणरूपता, येन तन्निबन्धने योगः घरि-
कल्प्यते, कि तु कर्मरूपतेव, निष्पश्नरूपस्य सत उत्तरकाल
करणभावदशनात् । न हि धटः स्वनिष्पादनाक्ियां प्ति क-
मरूपतां करणरूपतां च प्रतिपद्यमानो श्यत | द्वितीया ऽऽ-
दिसमयेषु पुनत्तेषामपि प्रथप्समयग्ृ ही तानाम॒न्यपुद्द लोपा-
दाने प्रति करणभावो न विरुध्यते निष्यन्नत्वाद् , अतस्तदा-
नीमोदारिकमिश्चकाययोग उपपद्यत एवं ! अत पवोक्तम्-
“ तेण परं मीखणं ति । ” तस्मादाद्ारकस्याप्युत्पत्तिप्रथम-
समय कामेणकाययोग इति । अऋतः--“जोगा श्कम्मगा 5
हारगेखु ” इति पदं चिन्त्यमस्तीति ॥ २५॥
तिरि इच्छ अजय सासण,अनाण उपसम अभव्य मिच्छेसु ।
तराऽऽारदुगृणा, ते उरलदुगूण सुरनरणए ॥ २६ ॥
( तिरि त्ति) तियेग्गतों , /खियां खवेदे, श्र-
यते विरतिहीने सास्वः ईनसम्यक्त्वे ( श्रनाण त्ति )
श्चज्ञानतिके मत्यज्ञान श्रुता 'ज्ञानावभज्ञ लक्षण, उपशमे श्रौ-
पशमिकसम्यकत्वे , श्रभव्ये ` सिद्धिगमनानुचितषु , मि-
ध्यात्वे मिथ्यादृष्टिष, योदश योगा भवन्ति । के इत्याह-
्रादारकद्धिकेन श्रादारकमिश्रलक्तलेन ऊना हीना
श्राहारकदविकोनाः। अयमत्रा ऽऽशयः-गनोयोगचतुष्टयवाग्यो-
गचतुण्यौदर्णरेकौदारिकमिश्रवेक्छियवैक्रियमिश्रका्मणलणा -
योगा भवान्ति , तत्र कारमणमपान्तरालगतौ उत्पत्तिप्रथ-
मसमय पव,श्रोदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, पयोप्तावस्था-
यामोदारिकं मनोवागयोगचतुष्टयं च । तथा तिरश्चामपि के-
पाओिद्वैक्रियलब्धियोगतो वैक्रियमिंश्र वैक्रियं च घटत एव ।
यत्तु आहारकट्धिकमाहारका5 5हारकामिश्रलक्षणं तन्न स-
स्भवत्येव तिरश्चां, तत्र॒ सर्वविरत्यसम्भवात् , सर्वविरतस्य
हि चतुदेशपुव्यवेदिन श्राटारकद्धिक्रं सभवति, ““ आहार च-
उद सपुव्विणा ” इत्यादिवचनप्रामारयादिति । तथा इह
खं वेदा द्रव्यरूपो द्रणएव्यो, न तु तथारूपाध्यवसायलक्षणो
भावरूपः, तथा विववत्तषणात् । पवमुपयोगमारगणायाम-
पि द्रष्व्यम् । पराक च गुणस्थानकमार्गणायां सर्वोऽपि
चदा भावस्वरूपों ग्रहीतः, तथाविवक्तेणादेव , अन्यथा
तेषु प्राक्रगुण प्थानक स डग्ख्यायोगात् , सये(गिकेवटयादावपि
द्रव्यवेदस्य भावात् । द्रव्यवदश्च बाह्यम्राकारमाजम् । ततः
कपु जयादश यागा आहारकद्विकोना भवन्ति, न चुनरा-
|
|
धिके च त्रयोदश योगा श्राहारकद्धिकोना भवन्ति । श्रा-
हारकद्धिः पुनरेतेष्वद्वानत्वादेव दृरापास्तम् । तथा-ओऔप-
शमिकसस्यदत्वे आहारकद्धिकोनाख्रयोदश योगाः, आ-
हारकं त्वक्नापि न धटामियर्ति, यत श्रोपशमिकसम्यकवे
प्थमसम्यकत्योत्पादकाले उपशमक्रेश्पारोहे वा भवाति न
च प्रथमसम्यक्त्वोत्पादेकाले चतुदैशपूर्बाधिगमसंभवस्तद-
भवाच्च कथमाहारकद्धिकभावः आदुर्भावपद्वीमियर्त्ति ?, उ-
पशमश्रेरयारूदस्त्वाहारकद्धिकं नाऽऽरत एवं, तस्याप्रमत्त-
त्वाद् । आहारकाऽऽरम्भकस्य लु लब्ध्युपजीवननोत्सुक्य-
भावतः प्रमादबहुलत्वात् । उक्कं च-““ आहारकं मत्तो,
उष्पापर न अप्पमत्तु क्ति "” श्रादारकस्थितश्चोपशमश्रेशि
नारभत एव , तथाखभावत्वादिति । तथा-श्रभव्ये मि-
थ्यात्वे च चतुदेशपुवोधिगमाभावादेव श्राहारकदिकवजा-
ख्रयोदश योगाः । त एवं धृवोक्ाख्रयोदश योगा श्रौदारि-
कब्विकेनोदारिकादारिकमिश्रलक्षणन ऊना हीना एकादश
योगाः सुरे खुरगतौ नरके नरकगतौ भवन्ति । तथाहि-
मनावाग्योगचतुष्टयवैक्रियवेक्रियमिश्रकामंशलक्षणा एकाद-
श योगाः सरेषु नारकेषु च धरन्ते । तत्र कार्मणमपा-
न्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमय पव, वेक्रियमिश्रमपर्याप्ताव-
स्थायां, पर्याप्तावस्थायां तु वैक्रियं मनोवाग्योगचतुष्टयं च ।
यत्पुनसौदारिकद्धिकं तद्भवप्रत्ययादेव देवनारकाणां न सं-
भवति , श्राटारकदधिकं तु सुरनारकाणां भवस्वभावतया
विरत्यभावेन सर्वविरतिग्रत्ययचतुरदशपूर्वाधिगमासम्भवादे-
व दूरापास्तमिति ॥ २६॥
कम्मुरलदुगं थावरि, तें सविउव्विदुग पंच इागे पवसे ।
श्रस्सन्निचरमवश्जुय, विउच्विटुगूख चउ विगले ॥२७॥
कामैणमौदारिकद्धिकम् श्रोदारिकोदारिकमिश्रलक्षणमिति
अयो योगाः। क्वेत्याह-(थावरि स्ति) स्थावरकाये पृथिव्यत्तजोव-
स्पतिकायसूपे वायुकायिकस्य पृथग् भणिष्यमानत्वात् ।श्रयम
च भावः-स्थावरचतुष्के कामेणोदारिकद्धिकरूपाख्रयो योगा भ-
खन्ति। तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पततिप्रथमसमये वा! श्रौ-
दारिकमिश्च त्वपर्याप्तावस्थायां, पर्याप्तावस्थायां ५ ४
मिति। ते पू्ोङ्वाख्यो योगाः स्वेक्रियद्धिकाः सह के-
न वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्ष णेन वत्तेन्त इति सबैक्रियद्धिकाः सन्तः
पञ्च भवन्ति। केत्याह-(इति ति) सामान्यत एकेन्द्रियपवने,वा-
युकाये च । तश्र का मणोदारिकद्धि क लक्ष णयो गत्रयभावना । प्रा-
ग्बत् वैक्रियदिकभावना त्वेवम्-इह किल चतुर्विधा वायवो वा-
न्वि। तद्यथा-सूदमा अपयोप्ताः, सृदपाः पर्याप्ताः.बावरा अपयां-
साःःयादराः पयांसाश्च। त्र बाद्रपयाप्तानां केषा्चदेकियल-
ग्धिसम्भवो ऽस्ति सानघिरृत्य वैकरियं वैकियमिश्च अ लभ्य
ते। ननु कथमुच्यते केषाञ्जिद्रेकरिय लाब्घिसस्मयो5स्ति १, या- .
बता स्वऽपि बादरपर्यापवायवः सबैक्रिया एव, अवैकिया-
|
| | ¢ 4
भअभिधानराजन्द्रः।
मणवहश्उरला परिहा-री सुहुमि नव ते उ मीसि सबिरव्वा।
क
शां चेष्ठाया एवाप्रशसेः । उक्कं ख~“ केष भसति सब्दे वेऽ -
ब्थिया बाया शारि, लजेउब्वियाल ४ २७० ग पवसल-
इ सि।” सद्शुद्क. सम्वरालिखान्सा , अवेकि-
याखागऋपि तेषां स्वभा वव चेश्रोपप से: | यदाद भगवान्
ओीदरिभद्रसूरिरतुयोगह्वारटी कायाम्-“बाउकाइया चडव्वि-
हा खुहुमा पत्नत्ता अपज्लसा बायरा पंजंता अपजत्ता, तत्थ
तिन्नि खसी पत्तेयं असखेजलोगप्पप्राणप्पण्सरासिफ्माण -
मिष, जे पुर बादरा प्सा ते पवरा संखेजइभागमित्ता,
तत्थ कव तिरं रासीणं वेडव्धियलद्धी कषेव नत्थि बायरप-
जजचसाणं पि शरसखिखदभागमिलाणे श्रत्थि खि पि लदी
रस्थि तश्चा वि पलिश्रोवमासखजभागसमयमिक्ता सपयं पु-
द्रम वेडञ्वियवत्तिरो, तथा-जेण सव्वेखु चेव उडहलो-
अहस चला वायवो धिज्ंति तम्हा श्रवेउव्विया वि वाया
खाय नि धित्तव्य खभावेण तेसि वाइयव्यं ति।” बाताद्वायु-
सिति कृत्वा ( तिरं रासीर ति ) अयाणां राशीनां पर्याप्ताउ-
फ्योप्तसूच्मा उपर्याप्तवादरवायुकायिकानाम् | तथा त एव पूर्वो-
कर: पञ्च काभमेणौदारिकद्धिकवैक्रियद्विकलक्तणयोगाश्चरमा
चतुथैः असत्यामृषारूपा वाग् वचनयोगश्वरमवागतया
युक्ताः षड योगा भवन्ति । क्वेत्याह-श्रसक्ञिनि संश्लिव्यतिरि-
क्रं जीवे । तत्न कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च
श्रोदारिकमिश्रमपयीप्रावस्थायां, पर्यासावस्थायामोदारिकम्
बादरपयौप्तवायुकायिकानां वेक्रियद्धिकं, चरमभाषा शङ्खा $5-
दिद्वीन्द्रियाऽऽदीनामिति ते एव पूर्वोक्ताः षड् योगा वेक्रिय-
द्विकेन वेक्रियवेक्रियमिश्रलक्षणनाना दानाश्चत्वारो भवन्ति ।
क्वेत्याह-विकलेषु द्वान्द्रियत्रीन्द्ियचताररेन्द्ियेखु । कोऽथः ?, |
तत्र का्मेणोदारिकादेकभावना पाग्बत्। चरमभाषा च अ-
सत्ययस्रषारूपा शङ्का ऽऽदीनां भवात, शेषास्तु भाषा न भव-
भ्त्येव, “ विगलेसु श्रसश्चमोस त्ति " वचनादिति ॥ २७ ॥
कम्युरलम।स विशु मण,वह समहय डेय चक्खुमणनाणे ।
उरलदुगकम्म पढमं-तिम-मणवह केवलदुगम्मि ॥२८॥
कामेखमौवारिकमिश्च विना शेषाखयोदश्च योगा मव-
न्ति, क्वेस्याइ--ममोयोगे, वाग्योगे, सामायिकसयमे, चेदो-
यस्थापनसंयमे, चज्षुदेशने, मनःपर्यायज्ञान च । भावना सु-
केव । यौ तु कार्मणीदारिकामेश्री तो तेषु सर्वथा न
सभवत पब, तयोरपयांपतावस्थायां भावात् ,मनोयोगवाग्यो-
गसामायिकच्छेदोपस्थापनचक्तदैशैनमनःपर्यायक्ञानानां च
कस्यामवस्थायामसम्भवात्। तथा ( उरलद्ग क्षि) औदा-
रिकदिकमोदारिकौदारिकमिश्चकार्मणकराययोगौ सयो--
ग्यवस्थायामेव समुद्धातगतस्य वेदितव्यौ “ मिश्रीदा--
रिकयोक्का , सप्तमषष्टद्धितीयेषु का्मेणशरीरयोगी, चतुथ-
के पञ्चम ठृतीये ॥ १॥ ” इति । प्रथमान्तिममनोयोगौ तु-
हझविकलसकलविमलकेवलज्लानकेवलदर्शनबलाबलो कितनि -
खिललोकालोकस्य भगवतो , मनःपर्यायशानिभिरूनुत्त रखु-
रा55दिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात् , ते हि
अगव॑त्पयुक्तानि मनोद्रव्यासि मनःपर्यायज्ञानेनावधिक्ञानेन
बा पश्यन्ति, इष्टा च ते विवक्तितवस्त्वालोचना$ऽकारान्य- '
ाभ्डुपस्या लोकस्थकूपा55दिक वाहामथं पृष्टमवगच्छुन्ति,
अथमान्तिमबाम्योनौ तु देशमा ५ऽदिषु व्यावृतस्य तस्यैव
भगवो टष्टव्याविति ॥ रद ॥
~~~ ~ न + करन कक + » रथ» >33>3-+3 ५» नफन-+3 रन ५+०००> 3००
मरगंणशट्राण
देसे सविउब्विदुगा, सकम्युरलमिस्स श्रहखाए ॥ २६॥
परिहारविशुद्धिक सृच्मसम्पराये च नव योगाः । के ते इत्या-
इ-मनोयोगश्चतुद्धा वाग्योगश्चतुद्धा श्रोदारिकं चति ।
यत्वादारकद्धिकं वेक्रियद्धिक का्मणमोदारिकामिश्च च सच
खभ्भवत्येव । तथाहि--आहारकद्विक चतुईशपूृब्बंबदिन
पच भवति , “ श्रादारं चउदसपुव्विणो इति वचनात् ।
परिहारविशुद्धिकसयमप्रातिपत्तिः पुनरुत्कषंतो धप्यधीतकि-
च्िन्न्यूनदशपूवैस्यैव तथेव सिद्धान्ते भयाजुशानात् तत्कथं
पारेदारविशाद्धकस्याहारकद्विकसभवः ?, नाऽपि तस्य
वैकरियदिकसम्भवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुल्लानाजि-
नकरिपकस्यैव तस्याप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलसयमधोरा-
खष्टानपरायरत्वात् , वेक्रिया55रस्मे च लब्ध्युपजीवनेनोत्सु-
क्यभावात् प्रमादसम्भवात् ,अत एव सच्मसम्परायसयमे $-
` प्याहारकद्धिकवेक्रियद्विकलक्तणानां चतुर्णा योगानामसंभ-
वः । सूच्मसम्परायसयमेोपेतस्याप्यत्यन्तविशुद्धतया निस्तर-
ङ्गमदोदधिकल्पत्वेन वैक्रिया ऽऽदिप्रारम्भासम्भवात् , कामण
मोदारिकमिश्र चापयौप्ता55द्यवस्थायामेवति संयमद्धय5पि
तस्याभावः । ते पुनः पूर्वोक्ता नव योगाः सवाक्षेयाः सह
वैक्रियेण वत्तेन्त इति सवैक्रिया वैक्रियसदहिताः सन्तो द-
श॒ योगा मिश्रे सम्यग्मिथ्यादष्ठा भवन्ति । यैक्रिये
देवनारकापेक्तया, यत्तु वेक्रियमिश्च तन्नेवाप्यते, तस्यापर्या-
प्तावस्थाभावित्वात् , मिश्रभावस्य च “न सम्ममिच्छो कुखइ
कालं । ” इति वचनप्रामारयादपयाप्तावस्थायामसम्भञेह-
त् । स्यादेतद्धेक्रियलन्धिमतां मयुष्यतिरश्चां सम्यगमि-
थ्यादृशां सतां वेक्किया4ऽरम्भसभवेन कथ वैकियमिश्र
नावाप्यते ? , इति, उच्यते- तेषां वेक्िया ऽऽरम्भासम्भवा-
त् , श्रन्यतो वा कुतश्ित्कारणातपूरवा $ ऽचार्येरोतन्नाभ्युपग-
म्यत इति न सम्यगवगच्छामस्तथाविधसम्पदायाभावा-
ल् , श्रतोऽस्माभिरपि तन्नष्टामिति । देश-देशविरते त॒ पव
नव पूर्तोक्ता स्वेक्रियाद्धकाः बैक्रियतन्मिअर्साइताः सन्त
एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामस्वड्ा 55दीनां वेक्रिय-
लण्धिमतां वेक्रियाद्वकसम्भवाल्। तथा त दव गव पूर्वोक्ताः
सका्मणोदारिकामिश्राः सह कामलोदारिकमिश्चाभ्यां व्त-
न्ते इति सकामेरोादारिकमिश्राः सन्त एकादश यागा यथा-
ख्यातसंयमे भवन्ति । | अयमर्थ:--मनोयोगचतुश्यवागयोग-
चतुश्यकार्मणादारिकाद्धिकलक्षणा एकादश योगा यथा-
ख्याते भवन्ति । तत्न मनोवागचतुष्कोदारिकयोगाः सुझा-
ता एव, का्मणमोदारिकामेश्र तु यथाख्यातसंयमर्श्राकुल-
ग्रहस्य भगवतः केवलिनः सम्भवति, तस्य हि समुद्धात-
गतस्य ठृतीयचतुथपश्चमसमयेषु कामेश “कामेणशरीरयोगी,
चतुर्थ पञ्चमे तृतीये च ! "इति वचनात् ,द्वितीयषष्टसप्तमसम-
येष्वोदारिकमिश्रम् मिश्रोदारिकयोक्ला सप्तमषष्टद्धितीयेषु”
इति वचनादवाप्यत इति यथाख्याठ्संयमे दयोरपि सम्भ-
वात् । कमे० ४ कमे० । अभिहता आगैणास्थानेषु योगाः ।
साम्पतमेतेष्वेबोपयोगस्वरूपनिरूपणपूर्वक-
मुषयोगानभिधित्सुराह--
२
तिझनाल नाख पश चट, दं सखवार जिय लक्खजुबओोगा
।
(४५६ )
_ मरगणट्ठाण
छ्रभिधानगाजन्द्रः।
विरु मखनाण दुकवेल, नव सुरतिरिनिरयअजएस।३०। |
च्रीरायज्ञानानि मत्यज्ञानश्रतान्नानविभङ्गरूपा्ि
मतिज्ञानघ्रुतज्ञाना ऽवधिज्ञानमन .पर्येवशानक्रेव लज्ञान लक्षणा-
नि प । ( कमे० ) चत्वारि दशनानि चक्षुईशना<5चक्षुद-
शनावधिदशीनङकेवलदशनरूपाणि, इत्येवं डादश उपयोगाः ।
{ कर्म० ) ( जियलक्खण त्ति ) पराङतत्वाद्विभक्कि नोपः, जीव-
स्था55त्मनो लक्षण लच्यते ज्ञायते तदव्यवच्छदेनति लक्षणम- |
साधारणस्वरूपम्। ( कम > ) (विखु मणनाणेत्यादि ) विना
मन.पयायज्ञान केवलाद्धक च केवलक्ञानकेवलदशनलच्लए्
शषा नबोपयागा भवन्ति, सुरे-खु प्गतों, ( तिरति) ति |
यग्गतो, नरके नरकगता,अय ते विरतिहीने । एतेषु सवेष्वपि |
दि सवबिरत्यसभवेन मन.पर्यायज्ञानकेवलषद्धिकासभवा- |
दिति ॥ ३० ॥
तस जोय वेय सुक्रा-हार नर पर्णिदि सान्ने भति सञे।
नयशेयर पण लसा, कषाय दत के्रलदुमूणा ॥३१॥
असेषु यागु मनावाह्ञायरूपेषु, वेदेषु दृव्यवेद्रूपस्थीपुन-
पुंसकलक्षणषु, शुक्नश्यायाम् , ्राहारकेषु, नरगतो, पञ्च-
न्द्रयषु, सोलज्ञषु ( भवि त्ति) भव्यघु च स्वं द्वादशा-ऽप्युप
यागाः सभवान्त, एतु सर्वेष्वपि सम्यकत्वदेशांवरातस्स्व
विरत्यादीनां सम्भवात् , ( नयणं ति) चच्ञु शने, ( इयर
त्ति ) अचन्तुरशन, पञ्चसु लश्याखु ₹ष्टनालकापाततजः-
पद्मलश्यासु, कपायषु क्राघमानमायालाभषु दशापयोगा भव
न्ति। कं इत्याह-कवलद्धिकनाना हीना ज्ञानचतुष्टयान्नानात्रि-
कदशनज्निकरूपाः, न तु केवलद्धिकं चक्षुदंशना5<5दिसद्भावे
अनुत्पादासस्य ॥ ३१॥
चठउारेंदियस|न्नि दुअ-नाणदंसणइग पिति थावरि अचक्खु।
तिअनाण दसणद्गं,अन।णतिग अभवि मिच्छदगे।३२। |
चतुारान्द्रय श्रलाज्ञ(न चत्वार उपयागा भवान्त । के
त इत्याह-टयज्ञानरशन ढे अक्ञान मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपे, दे |
दशन चकु शना ऽचचुरेशनलत्तणे इत्यथः । तथा--त एव |
पू्वाक्काश्वव्वार उपयागाः ( अचक्खु त्ति ) अचचक्षुषश्च
रेशनरादेताः सन्त्र थो भवन्ति । केप्वित्याह-( इग तत्त)
सामान्यत पकान्द्रयपु द्वी न्द्रियषु जीन्दरियषु स्थावरेषु पृथि
व्यम्बुतजोवायुवनस्पातपु । कोऽथः ?-एकद्वित्रीनिद्रय स्थाव-
रघु नत्यज्ञानन्रुताऽज्ञानाऽचचुदरनरूपासख्रय उपयागा भव- |
न्ताीत्यथेः , न शपाः , यतः सम्यकत्वाभावान्मदिश्रतन्ञान(5
सम्भवः, सवविरत्यभावाच्च सन.प्यायज्ञानकेवलन्ञानकेव
लदशनाऽ भावः । यत्पुनरवधिद्धिकं विभङ्गक्ान च तद्भव
प्रत्ययं शुणप्रत्ययं चति । न चा ऽनयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः सं-
` भवति. , चचक्षुईशनोपयोगाभावस्तु चचुरिन्द्रियाभावादेव
, सिद्ध:। तथा- त्रयाणामन्ञानानां समाहारस्व्यज्नानमन्नान-
रयं मत्यज्ञानध्रुताज्ञानविभङ्गरूव. दगीनद्धिकम्-- चतु {शना
चक्षुईशनलक्षणमित्यत पश्चापप्रोगा भवन्ति | क्वेत्याह-अ-
ज्ञानत्रिके मत्यज्ञानशुताज्ञानविभइरूप । यक्त्नज्ञानत्रिके अब
घधिदर्शने षृर्वा 5 चार्थः कृताश्चत्कारणान्नष्यत, तन्न सम्यग-
वगच्त्रामस्तथाचिध्रसप्रदायामवात् । अथ च सिदास्ते प्र-
- निशायत , तथाच पल्म्रिसुद पृथेदशितयच, नदभिप्रायाद-
४
$
ज्ानान |
सग्गए दू ण
स्मामिरापि नोक्लामरेति । अभवं अभव्य, मिथ्यात्वादके मि-
थ्यात्वे सास्वादन च षञ्चेःपयागा अज्ञानत्रिकदर्शनद्विकरूपा
न शेषाः, अवदातसम्यक्त्वविरत्यभावादिति ॥ ३२ ॥
केवलदगे नियदुर्गंनव तिअनाण विश खश्यअहखाए |
दसशनाशतिगं दसि मीये अन्नाण मास तं ॥ ३३॥
केवलद्धिफे केवलज्नानकेवलद्शन लक्षण निज्ञांदिकं कवल-
ज्ञान केवलदशनरूपमुपयागद्धिकं मवति , न शपा दश ¦
क्ञानदशंनव्यवच्छदेनेव केवलयुगजस्य सद्भावात् , “ न
इम्मि उ छाउमात्थिए नाणे ” इति वचनात् । तथा ज्ञायिके
सस्यक्त्वे यथाख्याते च संयमे नवोपयागा भवन्ति | के त
इत्याह--अज्ञानत्रिक मतिश्रुताक्नानविभङ्गक्ञानलक्तर विना ।
यतः ज्ञायिकयथाख्यातयोरज्ञानत्रिकं न भवत्येव, तस्य मि-
थ्यात्वानिवन्धनव्वात् , निमूलतो मिथ्यात्वक्तयेणोपशमेन च
क्तायिकसस्यक्त्वय शाख्यातो^पादात् , अत एव तयोनवेवाप-
योगा भवन्ति । तथा देश देशविरते घट उपयोगा भवन्ति। कथ-
मित्याद-दशेनज्ञनात्रकं, चिकशब्दस्य प्रत्यकं सवं. धः, दशन-
त्रिकं चक्षुदेशनाचउत्षुदंशनावधिद््शनरूपे, ज्ञानत्रिकं मतिश्ु-
तावधिज्ञानरूपमिति, न शेषाः, मिथ्यात्वसर्वविरत्यभावात् ।
मिश्रे तदेव दशैनञ्लनावेकमन्ञानमिश्चं द्रष्टव्य, मतिज्ञा म-
त्यज्ञानभिश्न श्चतन्ञानं श्चुता ऽज्ञानमिश्रम् , श्रदधिन्ञानं विभ-
ङ्क्ञानामिश्च, दशेनधिक चेति मिध्चेऽपि षडपयोगा. सिद्धा
भवन्ति । इह चावधिदशनमागमाभिपायेणोच्यते, श्रन्यथा
पतेष्वेव मार्मणस्थानकेषु गुणस्थानकमागणायाम्-““ अज-
याइ नव मदसुश्रोदि दुगे । ” इत्यक्लामिति ॥ ३२ ॥
मणनाणचक्खुवज़ा,अणह।रे तिन दं सण चङ नाशा ।
चउन।णसंजमे।वस-मवेयगे ओ।हिंदंसे य ॥ २४ ॥
मन-पर्या यज्ञानचक्षुदेशनवज्जोः शेषा दशोपयोगा अना-
हारक भवन्ति३ यच्च मनःपर्यवज्ञानचक्षुदेशन तच्चाऽना-
हारक न सभवति, यलो ऽनाहारको विग्रहगतौ केवलसमु-
द्धातावस्थायां च, न व सदानी मन-प्योयज्ञानचक्षुदशनस-
म्भव इदि । तथा जीणि दशनानि चक्षुदंशनाचक्षुदंशनावाधि-
दर्शनरूपाणि, चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमन.पयोयल-
त्षणानीत्येवे सप्तोपयोगा भवान्द। क्वेत्याह-- चतु शब्दस्य
प्रत्यकं सवन्धाञ्चतुषु ज्ञानेषु मतिन्ञानश्रुतज्ञानावाधिक्ञानम-
, नःपयोयज्ञानेषु । तथा-- चतुषु सयमेषु सामायिकच्छेदाप-
स्थापनपरिदारविशुद्धिकसदमसपरायेषु, श्रौ पशामिके सम्य-
कत्वे, वेदके क्षायो वशमिकापरपयौये, श्रवधिद्धिक शवधिज्ञा-
नावधिदशनरूपे, 'चः' समुखये । न शेषास्तत्सद्धावे मत्य-
ज्ञाना ऽऽदीनामसम्भवात् । इहाप्यवधिदर्शने मत्यज्ञाना 5 5द्युप-
योगप्रतिषेधो बहुश्र॒ता55चार्याभिप्रायापेक्षया द्रष्टव्यो ऽन्यथा
हि मत्यज्ञानाऽऽदिमतामपि सूत्रे साक्तादवधिदशैने प्रतिपा-
दितमेव, प्रज्ञ.्सूत्र च प्रागेवोक्तमिति ॥ ३४ ॥ उक्ता मार्गणा-
स्थानेषूपयोगाः ।
अथ योगेष जोवगुखस्थानकयोगो-
पथोगानधिङ्त्य मतान्तरमाद-
दो तेर तेर बारस,मशे कमा अद्र दु चउ चउ वयशे ।
चउ दु षश तिन्नि काए, जियगुणजोगोवओ गन्ने ॥३ ४॥
| | ४७ )
_भग्गणद्वाण 2
शभिधानराजेन्द्रः।
मग्गदसग
अन्ये तु आचायः ( मणि त्ति ) मनोयोगे दे जीवस्थानके
योदश खुणस्थानकारनि, योदश योगाः, इादेशोपयोगा
इति इत्थं कमेण यथारख्यमित्यर्थः । अत्रायमभिपायः
प्राग् योगान्तरसरहितो ऽसःटहेतो वा स्वरूपमाजेणव काययः-
गा55-दिर्विवक्षितस्तन तत्र यथोक्रगाणस्थानेका.ऽऽदिवक्रव्य-
ता सर्वाऽव्युपपद्यते । इह तु काययोगाऽ.दिर्योगान्तरवि- |
रहित एवं विवच्यते | यथर मनोयोभवाग्योगविरदितः काय-
यागः, मनोयागंविरदहितो वाग्योगः । वतो मनोयोगे ढे श-
:>्तमे जीषस्थानके, अयोगिकेवलिचर्शितानि त्रयोदश गुण-
स्थानानि, कार्मणादारिकामिश्रवर्जिलासत्रयोदश॒ योगाः ,
कामणादारिकामिश्रै हि कश्ययोग्डवपर्याप्तावस्थायां के-
वालसमुद्धातावस्थायां वा । न च तदानी मनोयोगः,
श्रपयोक्तांवस्थायां मस एवाभावात् , केवलिसमुद्धा-
तावस्थायां तु पयरेजनाभावात् ।
चचसी तु तदा सूथा न व्याषारयति , प्रयोजनाभावात् ”
तथा--वचने मनोयोग्रविरहिते वाग्योगे कमादष्ठौ जी-
चस्थानानि
ज्िपञ्चन्द्रियरूपाशि, दे गुणस्थाने मिथ्यात्वसाखादनलक्षणे,
चत्वारो योगाः कार्मणौदारिकमिश्रौदारिकासत्यास्रषावाग्यो-
गरूपाः चत्वार उपयोगा मत्यक्ञानश्रुता उज्ञानचक्षुदंशना5चक्तु-
देशनलक्षणाः । चाग्योगे हि मनोयोगविरदितखभावो द्वी-
न्द्रियाऽऽदिष्वेषा ऽसंह्विपञ्चन्द्रियपयन्तेषु सम्भवति नान्येघु। |
ततो यथोक्ान्येव जीवस्थानका $ ऽदीनि तत्र सम्मवन्तिन ऊ-
नाधिकानि। तथा केबलकाययोगे चत्वारि पयोप्तापर्याप्तसू-
उमबादरेकेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि , द्वे आद्ये ग्ुण-
स्थानके भिथ्यादष्टिसाखादनलक्षण , पञ योगा वेक्रियद्धि
कोदारिकद्विककार्मणरूपाः + चय उपयोगा मत्यज्ञानश्रता-
ज्ञानाचक्षुईशनस्वरूपाः केवलकाययोगो हि एकेन्द्रियेप्वेवा- |
वाष्यते » व जीवस्थानका55दीनि यथोक्रान्यव घटन्त
इति ॥ ३५ भिहितं योगेष्वकीयमतम् ।
साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लश्या श्रभिधित्सुराट--
चसु लसासु सटां, एर्गिदि असंनिभूदगवणेसु ।
पटमा चरो तिन्नि उ, नारयविगलग्गि पवणेसु ॥३६॥
चड्लेश्यासु सखस्थानम् सवाः स्वाः ल्या भवन्ति.यथा कष्ण-
लश्यायां कष्णलेश्या इत्यादि । सामान्यत एकेन्द्रियेष श्रसंज्लि
भृदकवनेघु रकवनेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रथमाः कृष्णनीलकापोत- |
तेजोलेश्याश्वतसत्रो भवान्त, भवनपांतेव्यन्तरज्यातेष्कसोंघ-
मंशानदेवा टि स्वस्वभवच्युता एतेषु मध्ये समुत्पयन्ते,ते च
तेजोलश्यावन्तः, जीवश्च यज्लेश्य एव व्रियते श्रग्रे ऽपि तज्ञ |
श्य एवोत्पद्यते, “जल्लेसे मरइ तल्ञेसे उववजई । ” इति ब-
चनात् । तत वतषामपर्याप्तावस्थायां कियत्काल तजोलश्या
` भवति; नारकेषु विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्दरिकृषु, अ-
ग्निषु तजस्कायेषु,पवनपु वायकायिकेष,प्रथमा स्तिस्त्रः कृष्ण-
नीलकापोतलेश्या भवान्ति नान्याः, प्रायो5मीषामप्रशस्ताध्य-
वसायस्थानोपेतत्वात् ॥ ३६ ॥
दखायसुहुमकेवल दुगि सुका छावि सेसटाशसं ।
श्रमस्ऽगतगुणा ॥२७॥
नरानरयदवातारया, थावा
श्न
उक्र च-“ मनो- |
पयीक्तारएयौपर्ढ्द्रिय्जीन्द्रियचतुरिन्द्ियासं-
|
|
यथाल्यातसयमे, सृच्मसम्परायसंयमे च केबलद्विके-केवलः-
शानकेवलदशनरूप शुक्ललेश्येव न येषलेश्यः, यथा सल्थातस-
यमा +ऽदावेकान्तविश्चद्धपरिणामभावात् तस्य च शुक्ललेश्या-
-ऽविनाभूतत्वात्। शषस्थानेषु सुर गतौ तिर्यग्गतौ पञ्चेन्द्रिय
सकाययोगत्रयवदत्रयकषायच तुष्टयमतिन्ञानश्रुतन्नानावधि -
ज्ञानमनःपय्यायज्ञानमयज्ञानश्रुताक्ञानविभङ्लल्ञानसामायक-
च्छेदोपस्थापनर्पारिहारविशुद्धिकदेशविरताविरतच क्ष॒दर्शना 5
चक्षुर्दशनावधिद्शनभव्याभव्यक्षायिकत्षायो पशमिकापशामि-
कसास्वादनमिश्रमिथ्यात्वसंक्यादारका ऽनादारकल्तशेकच-
त्वारि शत्सु शषमागणास्थानकेषु षडपि लेश्याः । उक्ता मार्ग
रास्थानेषु लेश्याः । कर्म० ४ कर्म० । ( अल्पबहुत्वविषयः
* अप्पायहुय ` शब्दे प्रथमभागे ६३६ पृष्टे गतः ।)
मग्गशा-मार्मणा- खी० । ‹ गग ' अन्वेषण । अशषसत्त्वापी-
डया न्वेष, ओघ० । पि० । निपुणबुद्धश्यान्वषणे , पिं० ।
मार्गणे जीवा 4 ऽदीनां पदार्थानामन्वेषणं सव मागा । भ्रव०
२२५ द्वार । अन्वयधमान्वेषण , न० | आण्म० ।
“ चडव्विधा मग्गणा, तीए इमो दिद्वतो ताव भराणति-
चउव्विहं पुण मग्गणं भरितं , तत्थ दिद्वंतो घडा, णो
घडो, श्रघडा, संपुरणा ध्रड़ा । तस्सव देसा णा घडो घ्रडव-
तिरित्तं दव्वे, अघडो णो अघडो घडदेसा न व्यातिरिक्कं
शरण दब्बं,एवं णमोक्कारस्स वि चतुव्विधा मग्गणा । आ०
चू० १ ० । विशे० । नं० | याचने, आव० ४ अ० !
मर्गणास-मार्गनाश-पुं० । ज्ञाना55दर्माक्षमार्गस्य नाश, द-
श० ३ तत्त्व ।
मग्गशुसारि-मार्गा नुसारिन् पु०। ज्ञाना ऽदि्रया नु सारिणि,
पञ्चा० ११ विव० । घो० ।
मग्गत्थ-मार्गस्थ-पुं० । सद्धिराचीरमागेव्यवस्थित, सूत्र०
२श्रु० १ श्र०।
मण्गद(य)-मागीद-पुं° । मार्गों विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रव-
णस्वरसवाटी क्षयापशमविशषस्तं ददातीति मार्मदः।
रा० | इह मागो भुजङ्गमनलिका५ऽयामतल्यो विश्गृ-
णस्थानावाप्िप्रवणः स्वरसवादटी क्षयापशमविशषः, हतु-
स्वरूपफलणुद्धा सखुखत्यन्य, श्रांसन्नसति न यथाचत-
गुणस्थानावाप्तिः, मागविषमतया चतःस्खलनन प्रतिवन्धाप-
पत्तः, मागश्च भगवद्भ्य एवेति, माग ददतीति मागदाः।
घ० २ श्रधि०।
मागदय-पु। माग सम्यग्दशनज्ञानचारित्रा ऽ ऽत्मकं परमपद
पुरपथं दयत इति मार्मदयः । स० १ सम० । भ० । श्रौ० |
जी० । मोत्तमागस्य दायक लिने, कट्प० १ अधि० १ क्षण ।
मग्गदूसग-मार्गदूषक पु । ज्ञाना ऽ ऽदिमामविराधके,प०्व० ।
मागदूषकमाद--
शाणाइविविहमग्गं, दूसइ जो जे अ मग्गपाडिवप्य |
अबुहो जाईए खलु, भापड सो मग्गदूसो ति ॥१६५७॥
ज्ञानाऽ-ऽदित्रिविधमाग पारमार्थिकं दूषयति यः काश्चत्
य च मार्गप्रतिपन्नाः साध्वस्तोश्च दृषयाति श्रवुध्ः-श्रविद्धान
जात्यैव परमार्थेन भरयने. स॒ चेबंभूते मार्गदूषकः पाप
ह्नि । प~ च ४ द्वार ।
ध श्ट )
+
_ अभिधानराजन्द्रः ।
सधर्वं |
अथ मार्गद्ूषणामाह--
नाखा55दितिविहमग्गे, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना ।
अवुहा पंडियमाणी, समुद्वितों तस्स धायाए ॥
ज्ञाना ५ऽदिकं विविधे परमार्थिकमार्ग स्वमनीषाकल्पतेन्ञा-
तिदुषणेर्दूषयाति, ये च तस्मिन् मागें प्रतिपन्नाः साध्वाद-
यस्तानपि दूषयति अबुधस्तु ज्ञानविकलः, परिडतमानी |
दुर्विदग्धः, समुत्थित उद्यतः, तस्य पारमार्थिकमार्गस्य घां- |
ताय--निर्लोठनायात । पषा मार्गदूषणा । बृ० १ उ० २
ग्रक० ।
मग्गदूसणश -मार्गदूषण -न० । भावमार्गस्य तत्पातिपन्नसाध्वा-
दीनां च दूषणे, घ० ३ अधि० ।
मंग्गंदेसशा-मार्गदेशना-ख्त्री० । ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य
मुक्किपथस्य देशने, कर्म० १ कर्म० । पं० चू० ।
मग्गपडिवत्तिहेउ -मार्गप्रतिपत्तिहेतु -एु०। शिबपथाऽ ऽश्रयका
रण, पञ्चा० १६ विव०।
मग्गभंग-मार्गभड़-पु० | पदवीलोपे, जी” १ प्रति०।
मग्गवडिय-मार्गपतित -पु०। मार्गश्षेतलो ऽवक्गमनभुजङ्गन-
लिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः खरसवाही
क्षयोपशमविशेषस्तत्र श्रविष्ठा मार्गपतितः । भव्य, विश० । |
ल० । योगव० । ध० । द्वा० ।
मग्गविड-मार्गवित्-पु० । मार्गज्षे, सूज० २ श्रु० १ अ०।
मग्गविष्यडिवत्ति-मारविप्रतिपातति-खी० । उन्मागेमतिष--
त्तो, बू०।
मार्गविप्रतिपक्तिमाह--
जो पृण तमेव मग्गं, दूसेउमपंडिओ सतकाए ।
उम्मग्गे पडिवज्जइ, अकोविअप्पा जमालि व्व ॥५२६॥
पुनस्तमेव पारमाथकं मार्गम् श्रसद्धिदूषयित्वा अपरिडत ६
सदृवुद्धरदितः सन् स्वतकंया-स्वकीयमिथ्यात्वावकल्पन
देशत उन्मार्ग प्रतिपद्यते अकोविदात्मा सम्यक्शास्त्रार्थप-
रिज्ञानविकलो, जमालिवत् , यथाऽसौ भ्रगवद्धचन क्रियमाणे
कृतमिति दूषयित्वा कृतमेव कृतमिति अरतिपन्नवान्, एषा
मार्गविप्रतिपत्तिः । | बृ० १ उ० २ प्रक० । पंण्व० । ध०।
( जमालेः शाखार्थविषयः ˆ जमालि ` शब्दे चतुर्थभागे
१४०८ पृष्ठ गतः । )
मर्गसार- मार्मसार -प०। मार्गपरमार्थे, सूत्र० १ श्रु० ११ अ० ।
मार्गशी © + गशिरोनक्षत्रयुक्षपाशमासी २
मग्गसिर -मार्गशीर्ष ष । सगशिरोनक्षत्रयुक्षपारीमासीघटिते
मासभेदे, स्था० ३े ठा० ४ उ० | आण०्म० | प
मग्गसिरकीड-मार्गशीर्षकीट-पुं० | चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०
१ प्रति० । प्रज्ला० । “
मग्गमिरी-मागीशीर्षी -खी° । सूगशिरसि भवाऽमावास्या |
पूर्णिमा वा। म्रौगशीर्षमासभाविन्यां पूर्रिमायाम्,अमायां च ।
च० प्र० १० पाहु० ५ पाहु०पाहु० ।
[} # मग्गाइकत १८ अद्धयोजनमतिक्रान्वे ।
-त- मागौीतिक्रान्त-न० । अरदधेयोजनमतिकरान्ते, भ०।
जणं शिग्गंथो वा णिग्गंथी वा ०जाव साहमं पडिग्गा-
| हित्ता परं अद्धजोयशमेराए वीदकमाबदत्ता आहारमाहा-
| रेह, एस शं गोयमा ! मग्गाऽहकंते पाशभोयशे । म० ७
| श० १ उ०।
| मग्गाउगुसारिणी-मार्गालुसारिणी-स््री० श्रागमनीत्या षीः
णाऽ-ऽद्यनुसारिण्यां क्रियायाम् , ध० र०।
मग्गो आगमनीई, अहवा संविग्मबहुजणाऽऽइननं ।
उभयाणुसारिणी जा, सा मग्ग5णुसारिणी किरिया |८०।
सुग्यते प्रन्विष्यते उमिमतस्थानावाघ्तये पुरुष: स मार्ग::; स
| चं द्रव्यभावभेदाद् देधा-द्रव्यमा्गो ग्रामाऽ्देः; भावभागें
| भुक्रिषुरस्य, सस्यगज्ञानदशनचारि रूपः ज्ञायोएशामिकभाव-
रूपो वा, तेनेद्ाधिकारः, स पुनः कारणे कायौपचारादाग-
मनीतिः सिद्धाम्तभरखिता ऽऽचारः । अथवा-संविग्नवहुजना-
5ऽचीरीमिति द्विरूपो ऽवगन्तव्यं इति । ध० र० ३ अधि० १
लक्त० ।
मग्गाणुसारित्त-मार्गीनुसारित्व-त० । आमपारतन्ञ्ये, पे०
, ब० २ द्वार । प्रति० । सर्वत्र दीक्तेणवर्तितायाम् , पं०बच० ४
द्वार | सिद्धिपथमुत्कलद्धात्तिचारित्र , फ्था० ११ विव० |
ज्ञाना5<दिज्रयानुसारितायाम् , षो० १ विव० ।
मग्गाणुसारिया-मार्गानुसारिता-ल्ली ० / ल०। असद्अह॒बि-
जयेन तस्वानुसारितायाम्, च० २ आधि० । मोक्षमार्गालुसर-
रे , पञ्चा० ४ विव०।
मग्माणुसारियामाव-मग्गानुसारिताभाव-पु° । सिद्धिपथा-
नुकूलाध्यवसाये, पश्चा० १६ विव०।
मग्गाभिमुह-मार्गाभिमुख-पुँ० । मागैशवेतसो ऽवक्रगमने भुज-
ज्ञनलिका ऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवछः स्वरस-
वादी क्षयोपशमविशषदेतुस्वरूपफलशुदधश्वभिमुख इत्यथैः,त-
दभिमुखभावाऽऽपन्नो मागौभिसुखः | घ० १ अधि० | यो०
विं०। मार्गप्रवेशयोग्यमावा55पन्ने, 7० १४ द्वा० ।
मग्गिऊण-मार्गयित्वा-अव्य० अन्विष्येत्यर्थे, नि० चू०२ उ०।
मग्गु-ददगु-पुं० । । “क-ग-ट-ड-ल-द-ष-श-ष-स--क-पा-
मूर्ज लुक” ॥८।२ । ७७ ॥ इति दलुक । लोपे गस्य
दित्वम् । प्रा० २ पाद । जलवायसे, सूत्र० १ श्रु० ७ आ०।
मग्गुग-मदूगुक पु । जलवायसे, जै० २ वक्त० । ।
| मघ-मघ-पु° ॥ महामे , प्रज्ञा० २ पद् । आ० म०।
मघमधंत -मधमघायमान-त्रि०। अतिशयेन सरभो , ज्ञा० ₹
श्रु० १ अ० | चे० प्र० । श्राण्म०। रा०। बहूलगन्धे , स०।
बहुलसौरभ्ये , स० २४ सम० । श्रो । # |
मघवं -मधघवत्-पु०। मधाः-मद्दामेघास्ते 5स्य वशे सन्त्यसौ म-
धवान् । भ० हे श० २ उ०। जी० । इन्द्रे, कल्प० ९ अधि० १
क्षण आ०म०। भारते वसमाना ऽवसर्षिणीतृतीयचक्रवर्तिनि,
ति० । स० ।
चरता भारहं वासं, चकवड्टी महिष्िए ।
पव्वजमब्शवगओ, मघवं नाम महायसो ॥ २६ ॥
( ५६ )
_ अनिधानराजन्द्रः। मच्छ
मघव _
_____- ~~~ ~]
पुनमंघवानामा ठतीयचक्वत्तीं प्रवज्यां दीक्षाम् अभ्यु
चगतः चारिषं प्राप्तः, कीरशो मघवा ?, महाद्धिंकः चतुदेशर
त्ननवनिशानचारो ‡ -वर्द्धियारी वा, पुनः कीदशो ?,।
महायशः विस्तीशकीशिः । त्र मघवाऽऽख्यस्य चक्रिणः |
दश्शान्तः--इहैब भरतत्तेत्रे श्रावस्त्यां नगर्या समुद्रविज्ञयस्य |
राल्लो भद्रादेव्याः, कुल्लो चतदेशमहास्वप्नखचितो मधवा-
नामा समुत्पन्नः स च यौवनस्थो जनकेन वितीरौराज्यः कमे-
ण प्रसाधितभरतक्षेत्रस्दृतीयश्रक्रवर्ती जातः, सुचिरं राज्यम-
जुमवतस्तस्य अन्वददा भवलिरक्ृता जाता, स एवं भावयि
तं अदृत्तः- येऽत्र प्रतिवन्धदेतवो रमणीयाः पदार्थः ते अ-
स्थिराः । उक्तच-
& हियइच्छिया उ दारा,सुआ विशीया मणोरमा भोगा ।
विउला लच्छी देहो, निरामओ कीदजीवित्ते ॥ १॥
अक्पडिबेधनिमिच,एगाईवत्थु नवरस व्वं पि।
कइवयदिणावसाण, मिरे भोगु उव न हि किचि ॥२॥”
ततो ऽद घमकमेणि उद्यमं करोमि, धमे एव भवान्तरा-
गामी, पवमादिकं परिभाव्य पुत्रनिहितराज्यो मघवा च-
क्री परिवजन् कालक्रमेण विविधतपश्चरणेने काले छंत्वा
सनत्कुमार कल्पे गत इति । उस्० १८ श्र० । क्वचिदृन्यत्रा-
ऽपि नस्य मः। “भवद्धगववोः' ॥ ८। ४।२६५॥ इतिसूप्रा्त-
मिल्यर्थः, “ मघवं पागसासरे ।” प्रा० ४ पाद् ।
मधा-मधा-खी० । पिठ्देवके नक्षत्रे, सू० प्र० १० पाहु० ४
पाहु० पाहु० । जं०। षष्ठनरकपृथ्व्याम् , स्था० ७ ठा० । त-
मिस्त्रतया षष्ठनरकपृथ्वीतुल्यत्वात् कृष्णराजी , भ० ६
श० ४ उ०।
मघोणश-मघवन्-पुं० । मघा महामेधास्ते$स्य वशे सन्त्यसौ
मघवान । उत्त० २श्र०। गोणा दित्वाद् रूपसिद्धिः । इन्द्रे,
आ० २ पाद् । ततीयचक्रवर्तिनि, प्रव० २०८ द्वार ।
मच्च-मद्-धा० । हर्ष, “ बजदतमदां खः ” ॥ ८। ४ । २२५ ॥
इत्यन्त्यस्य दिरुक्रश्चः (श्च) | मखई । माद्यति । पा० ४ पाद् ।
मचिय-मत्ये-पुं० । मलष्ये मरणधर्मिणि, आचा० १ श्रु०३ श्र°
` २ उ०। मत्यषु भवे, जि० । सत्र १ श्रु० ८ श्र०। “ मणुआ
नरा मणुस्सा; मश्वा तह माणवा पुरिसा । ” ( १०० ) पाइ०
ना० ६० गाथा ।
मच्चु-सृत्यु-पुं० । व्याधिकल्पे, चं० सू० २ सूत्र । यमराक्तसे,
ज्ञा० ९ श्रु० ६ अ० । उत्त० । मरणे, आचा० १ श्रु० ३ अ० १
उ० ! प्रश्न० । उस० ।
मच्चुजय-सृत्युज्ञय-पुं० | परमेष्ठिनि, शिवे च। यो वि० ।
मच्चुग्घ-सृत्युध्न-पुं०।र्॒त्युअयजपोपेते चिञ्रतपसि,यो०वि०।
श्रथ तत्तपः प्रा55ह--
तपोऽपि च यथाशक्कि, कर्तव्यं पायतापनम् ।
४
तच चान्द्रायणं कृच्छू, मृत्युध्नं पापशदनम् ॥ १२१॥
. लपोऽपि च, कि पुनः प्रागुक्तमलुष्ठानम् । यथाशक्ति यस्य
. याजती शष्ठिस्तया कक्तेब्य विधेयम् । कीरशमित्याह-पा-
यतापनं स्मूस्थादिप्रसिद्धं तथाविधापराघ्वशमुत्पन्नाऽश-
अकम्मैतापकारि, कच्च तत्पु नश्चान्द्रायरं, कच्छं , मृत्युष्न,
पायसूदनम् इति चतुष्यकारम् ॥ १३९१ ॥ यो० थिं० ।
मासोपवासमित्याह-त्युप्रं त॒ तपोधनाः ।
सृत्युज्ञयजपोपेत, परिशुद्धं विधानतः ॥ १३४ ॥
मासं यावदुपवासो यन्न तत्तथा, इत्येतदाहः-उक्कवन्तो रू-
त्युप्ने तु र॒त्युप्रनामक पुनस्तपः, तपोधनास्तपःप्रघानमु-
नयो, सत्युञजयजपोपेतं पञ्परमेष्ठिनमस्काराऽ ऽदिरूपमरत्यु-
अयसज्ञमन्घ्रस्सरशसमन्वितम् , परिशुद्धामिहलोका5<5शेसा-
ऽऽदिपरिहारेण विधानतः कषायनिरोघन्रह्मचयदेवपूजा ऽऽ-
दिरूपाद्विघानात् ॥ १२४ ॥ यो ०० ।
मच्चुभय-सृत्युभय--न० । मरणभीतों, औ० ।
मच्चुमुह-सृत्युमुख-न० । ्युवदने,“णाणागमो मच्चुमुहस्स
आत्थि । ” आचा० ९ श्रु० ४ आ० २ उ० । (अन्न व्याख्या
‹ धम्म ' शब्दे चलुर्थभागे २६६७ पृष्ठे गता । )
मच्छु-मत्स्य- प° । पृथुरोमणि, सूत्र० ९ श्रु० १ ऋ० हे उ० ।
मीने, स्था० ४ ठा० ४ उ ।
तिविहा मच्छा पष्यक्ता । तं जहा-अडया, पोयया, संघु
च्छिमा । अंडया मच्छा तिविहा पणणत्ता। तं जहा-इत्थी)
पुरिया, शपुंसगा । पोयया मच्छा तिविहा पणणत्ता । ठ
जहा-इत्थी, पुरिसा, शपुंसगा । ( षट्च १२६ )
श्ररुडाजयाता अएडजाः, पोतं वख तद्धज्ञरायुवेखितत्वा-
जाताः, पोतादिव वा बोहित्थाञ्चषताः पोतजाः, संमूर्चिछमा
श्रगसजा इत्यथः, सम्मूर्चिछ्ममानां स्त्रयादिभेदो नास्ति, नपुः
सकत्वात्तेषामिति, स सूत्रे न दर्शित इति । स्था० हे ठा०
१ उ० | सूत्र० । रा० । ज० । उत्त । “सउला सहरा मीणा.
तिमी भसा अणिमिसा मच्छा । (६०)”पाइ० ना० ४० गाथा ।
मकरे, भ० १२ श० ६ उ० । चे० प्र० !
से कि त॑ मच्छा है सच्छा अणेगविहा पष्यत्ता । ते जहा-
सण्हमच्छा खवच्नमच्छा जुगमच्छा विज्कमडियमच्छा
हलिमच्छा मगरिमच्छा रोहियमच्छा इलीसागरा गा-
ग्रा वडा वडगरा गब्भया उसगारा तिमितिमिंगिल्ला
ण॒का तेडलमच्छा कशिकामच्छा सालिसत्थियामच्छा
लेभशमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावश्ने तहप्पगारा
सेत्त मच्छा । प्रज्ञा० १ पद । जी० |
महामत्स्य भ्रृत्पन्नस्य॒तन्दुलमत्स्यस्य न
मुहर्तिक्यायुःस्थितिरप्यान्तमुंहर्तिकी , तत्कर्थ मिलतीति
प्रश्ने, उत्तरम-महामत्स्यश्वृत्पन्नमत्स्यस्य गभस्थितिरायुः-
स्थितिश्रेकस्मिन्नेवान्तमुँहते भवति, परं गर्भस्थितेरन्त--
मुट््तस्य लघुत्वान्न १ । कि ८
समयादारभ्य घटिकाद्यं न्तमुंदइत्त, द्-
त्वाह्लघुत्वमिति ॥ १५० प्र ॥ सेन० २ उल्ला० | स-
मुद्रमभ्ये मत्स्यो जातिस्मरणेन त्वा सम्यक्त्व देशविरति
च प्राप्नोति, ते पाप्य षश्चासत्कालमनशनं करोति कि वा
कियत्काले सम्यक्त्वदेशविरती श्राराघ्यतीति प्रश्ने, उत्त-
रम् , कश्चिच्च कालाम्तरेलो-
आअरतीति ज्ञायते, निश्यादत्तरामि ठ न रष्टानीति । ५ भ्रः !
(४६०९)
मच्छ
ञ्ा भेधघानराजन्दरं
९ मज्ज
सेन० ४ उल्ला० |
मस्त(क)-न० । मस्तके, कल्प० १ श्राध० २ क्षण |
मच्छेडग-मत्स्याउएडक-पुं० | मीनारडे, श्रा म० १ अ० ।
मच्छडिया-मत्स्यशिडका-खी० । खणडशर्करायाम् , जे० २
चक्ष० । प्रश्न० । जी० । अनु० । प्रज्ञा ०।
मच्छडी -मत्स्याण्डी-खी° । खरडशर्करायाम् , ज० २
वत्त । जी० ।
मच्छध- मत्स्यवन्ध- षु०। केचर्त्त.व्य० ३ उ०। स्था०। विपा०।
मच्छखल- मत्स्यखल-न० । यत्र संखडीनिमित्तं मत्स्यं छित्त्वा
चित्वा शोष्यते शुष्को वा पुञ्जीरत श्रास्ते । तादृशे स्थाने,
आचाए० २ श्रु० १ चू० १अ० ४ उ० | नि० चू० ।
मच्छखाय-मत्स्यखाद -पु° । नदीहदसमुद्रेषु बसतां मत्स्या-
नां खादके, नि० चू० ६ उ० ।
मच्छमगर-मत्स्यमकर-पुं० । मकरभेदे, प्रशा० १ पद् ।
मच्छर-मत्सर-पुँ० । असहनयुक्काहज्ञारे, अष्ट० २२ अष्ट० ।
परसम्पद्सहिष्णुतायम् , अव० ४१ द्वार । मत्सरः कोपः
यथा साधुभियोचितः कोपं करोति, सदपि मार्गितं न ददा-
ति। अथवा-अनेन तावद्रङ्कण याचितेन दत्तं, किमहं ततो
न्यूनः, ? इति मात्सयांददाति “ चर परोन्नतिवेमनस्य मात्स- |
य, यदुक्कमनेकाथसंग्रहे श्रीदेमसूरिभिः-“ मत्सरः परसप-
त््य-क्षमायां तद्वति क्रुधि ।"' इति तृतायः ३। ( ५८ श्छोक )
घ० २ अधि० । स्था० । सूत्र० । कोपे, प्रव० ६ द्वार ।
मच्छरसिय- मत्स्यरासित-त्रि० । मत्स््यरससंरूष्ट , विपा० १
श्रुण ८ आ०।
मच्छरित्त-मत्सारित्व-न० | परगुणानामसहने, प्रश्न० ३ संव०
द्वार । परप्रशंसा सदि ष्शुत्वे, षो० ४ विव० |
मच्छरिय- मात्स्य न० । परगुणा5सहिष्णुत्वे,ाव० ६ अ०।
मच्छरिया-मत्सरिकता-खी० । मत्सरो ऽसहनं साधुभियौ-
चितस्य कोपने, तन रङ्कण याचितन दत्तमहं तु कि ततोऽपि
हीन इत्यादिविकट्वो वा, सोऽस्यास्तीति मत्सरिकस्तद्धावो
मत्सरिकता । पश्चा० १ विव० | आ० चू० । मत्सरः कोपः,
स विद्यते यस्येति म्रत्सरिकस्तस्य भावो मत्सरिकता, तया
ददाति चरति चतम् , कोऽभिप्रायः ?, श्पर्गितः सन् कुष्यति,
सदपि वस्तु न ददातीति । श्र थवा-- अनेन तावद् द्रमकेण मार्गि-
तेन दत्तं मुनिभ्यः, किमदं ततोऽपि निकष इति मात्सर्यात्
परगुणासहनलक्षणादद्ती ऽतिचारश्चतुर्थः । तथा-कालस्य
साधूनामुचितभित्तासमयस्यातीतमतिक्रमः, श्रदित्सया+ऽना-
गतभाजनपश्चाद्धाजनद्वारेणोल्लङ्न्न कालातीतम् । श्रयं
भावः-उचित) यो भिस्राकालः साधूनां, तं लङ्खयित्वा प्रथमं
वा युज्ञानस्य गरृदीतातिथिसविभागनियमस्यातिन्नारः प-
अमः । पते दाषा श्रतिथिधिभागेऽतिथिसंविभागबते इति ।
प्रव० ६ द्वार | परगुणाऽसदिष्णुतायाम् , स्था० ४ ठा० ४
उ० । अपरंणेद दत्त किमदे सस्मादपि पणो हीनो वा
तो ऽदमपि ददामीयेवं दानप्रवत्तकविकल्पे, ङपा० १ अ० । |
““हस्वात् ध्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले'"
। प्रर-
मच्छल-मत्सर-पुं० ।
॥ ८ । २१ ॥ इति स्सख्य च्छः । रस्य लः । मच्छुलः
गुणासहने, घा० २ पाद् ।
मच्छसपुल-मत्स्यसपुल- प° । दाधिवाहनस्य कञ्चुकिनि,
{न° चू० १ उ० |
माच्छय- माक्िक-न० । मधघुनि, आव० ६ श्र० । विरो० |
मात्स्यिक-पुं० । मत्स्याः परयमस्येति मत्स्यैश्चरति वा । कै-
वत्ते, सूत्र० २ श्रु० २ ० ।
मच्छियमल्न- माक्तिकमघ्ल- पु० । । अट्टनमल्लस्य सोपारकनगरे
युद्धे पराजेतरि स्वनामख्याते मज्ञ, उन्त० ४ ० । ते०।
आए चू० । ज्ञा० । श्राव |
मच्छिया-म्िका-खी० । “ छोऽच्यादौ "' ॥८।२ । १७ ॥
इति क्षस्थ चछुः । ग्रा० २ पाद । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० २
० । मि० ० ।“सचब्छियाचडगरपहकरेण |” मल्तिकानां प्र-
सिद्धानां चटकरप्रधानो विस्तरवान् प्रसरकः समूहः तथा ।
अथवा-यद्धा-मक्तिकाणां चटकराणां तदृञन्दानां यः प्रहरकः
स तथा। विषा० ९ श्रु० १ अ०।
मच्छुव्वच-मत्स्योदवृत्त-न० । बन्दनकदोषभेदे, बृ० ।
श्ष्टमं दोषमाद--
उट्ित णिवेसंतो, उव्वत्तति मच्छड व्व जलमज्मे ।
वंदिउकामो वऽ, ससो व्व परियत्तती तुरियं ॥
उत्तिष्ठन्निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्धत्तते उद्धे-
ह्वयति यत्र तन्मत्स्योद्क्तम। अथवा-एकमाचाऊूं $ऽदिकं व-
न्दित्वा तत्समीप एवापरं चन्दना कञ्चन वन्दितुमिच्चं त
त्समीपं जिगमिषुरुपविश्ट पव भष इव त्वरितमङ्ग परावृत््य य
र गच्छति तद्धा मत्स्योद त्तम् । बृ० ड०। च्राव० । ्चा० चू०।
| मच्छेसशा- मत्स्येषणा- खी° । मत्स्यप्राप्तों, “ मच्छेखणे कि
यायाति, काण ते कलुसाधमं । "` खूत्र० १ श्ु° ११ श्र०।
मज़-मद्य-न० । ^ द-य्य--यों जः" ॥८।२। २४ ॥ इति
संयक्लस्य यस्य ज्ञः । ग्रा० २ पाद । गुडधातकीप्रभवे (उपा०
८ अण० ) मधुनि, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ० । खुरा55दो, स्था० द
ठा० । मदिरायाम् , ध० २ अधि० । “ मज पुण कट्टापिट्टणि
प्फन्न ।” स्था० ४ ठा० १ उ० । मद्यं दिभेदं काष्टपिष्टनिष्पन्न-
त्वेन । भव० ४ द्वार । प० व० । ओए० । पश्न० । “ चिक्तत्ञा-
न्तिजा्यते मद्यपाना-श्ित्त्नान्तेः पापचर्यामुपैति । चापं ₹-
त्वा दुगि यान्ति मूढा-स्तस्मान्मदं नैव पेयं न देयम् । १ ॥”
स्था० ४ ठा० १ उ० | द्वा० ।
मद्यं पुनः प्रमादाड़ं, तथा सच्चित्तनाशनम् ।
संधानदोषवत्तत्र, न दोष इति साहसम् ॥ १ ॥
मद्यतीति मद्यं सीधु, पुनःशब्दः पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तर-
वाक्यार्थस्य विरोषद्योतनार्थः । तथादि- मांसं जीवसंसक्ति-
निमिसं , मद्यं पुनः प्रमादाङ्गं प्रमदनं पमादोऽश्चभजीयप-
रिणामविशेषस्तस्याङ्गं कारणम् । अथवा-प्रमादो मद्या5अदिः
यदाह--“ मजे विसय काया, निहा बिगहा य पंचमी
भरिया । पप पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥ १ ॥ ”
तस्याङ्मवघयवः पञ्चावयवरूपत्वा्स्य , लथति विशे--
चणसमुश्चये, सच्छुभ यश्चखं मनः, तन्नाशयाति प्रध्यंसयतीति
| ६१ )
मखं
सश्चित्तनाशनम् , तथा सन्धाने जलमिधितबडुद्रव्यसेस्थापने |
ये दोषा जीवसखक्त्यादयस्ते विद्यन्ते यत्र तत्संघानदोष-
चत् , यद्यदेविघे,मद्य, त मये (म)नास्ति दोषो दुष क-
मवन्धादित्येवं दत इति गम्यते । साहसे घाश््थम् | अथवा-
तत्र भदे गुडधत््यादिसधानस्पे न दोषोऽस्ति पापप्राप्ति-
लक्षणः । क इवेस्याह-सन्धानदोषवत् काञ्जिका ऽ ऽदिखन्धान-
दावत् । अयमभिष्रायः, यथा-ञ्रारनालाऽ ऽदौ सन्धानवति
पीयमाने कम्मेबन्धलक्षणो दोषो नास्त्येवे मदेऽपि दोषो ना- |
स्तीति एतद्भदतस्तस्य च साहसत्वे, चित्तश्रमनिबन्धनाना-
मतिबहनां मद्यपानदोषाणां भत्यत्तत एबोपलभ्यमानत्वात् ।
यथोरम्-
« चैरूप्ये ब्याधिपिए्डः खजनपरिभवः कायैकालातिपातो , |
विद्वेषो श्ञाननाशः स्खतिमतिदटरण विप्रयोगश्व सद्धिः ।
पारुष्ये नीचसवा कुलबलतुलना कमकामाथेहानिः,
कष्ट भोः घोडरेत निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ।१।”इसति ।
अथवर कियन्तस्ते दशेयिष्यन्त इत्याह--
कि चह बहुनोक्रेन, प्रत्यक्षणव दश्यते ।
दोपोऽस्य वर्तमानेऽपि, तथा भण्डनलक्तणएः ॥ २ ॥
किमिति प्रतिकेधे,ततश्च न किञ्ित्पयोजनमित्यथैः स्यात्+वा-
शब्दोऽयशा थः । इह मद्यपानदूषणविषये ,बहुना-प्रभूतिन, उक्केन
अरितिन. “मय पुनः प्रमादाङ्गम्'(१)इत्यादिना यतः प्त्यत्तेरोव,
एवशब्दस्यापिशब्दाथत्वादध्यक्षप्रमाणेनापि, न केवलमलुमा-
नाऽऽदिना,दश्यते उपलभ्यते;दोषो दूषणम् अस्य मद्यपानस्य;
वर्वमाने ऽपि काले, न केवलमतीतकाले द्वारकावर्तादाहा5-5- |
दि श्रूयते, तथा तत्प्रकारं सदपौसमञ्जसवचनग्रसरमुपपतत्म-
भूतप्रहरणप्रहारम॒ुपरममाणनरविसरं यद्धरडनै सभ्रामस्त-
देव लक्षण रूपं यस्य स तथेति ॥ २॥ |
न केवले प्रत्यक्तगाचरा मद्यपानस्य दोषाः, श्चुतगोचरा अ-
पील्येतदर्शायितुमाह--
श्रयते च ऋषिर्मद्यात् , प्राप्तज्योतिमहातपाः ।
स्वर्गाड्रनाभिरात्तिप्तो, मृखवननिधनं गतः ।। ६ ॥
श्रयते च पुराणकथासु श्राकरयेते च, न केवल भरडनमेव
दश्यते । कोऽसौ श्रूयते?.इत्याद-ऋऋषि्निरविंसन्धश्वेद(१वि-
शषलक्तणरन्म्यात्-सीधुनः सकाशान्निधनं गत इति संब-
न्धः । कफिविशिष्टो ऽसावित्याह- प्ाप्मवाप्ते ज्योतिस्तेजो
ज्ञानरूपमष्टविधमहद्धिरूपं वा येन स प्राप्तज्योतिः कथ-
मित्याह-यतो महातपाः। पुनः किम्भूतः ?, सन्नित्याद-ख-
गङ्गनाभिः नाकनितम्बिनीभिराक्तिघ् श्रावितः सन् मूर्त |
बद् बालिश इव, निधने विनाशे गतः प्राप्त इति ॥ २ ॥
पतदेव दशीयन् भ्छोकपञ्चकमादट--
कश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः सुरखियः ।
ज्ञोमाय प्रेषयामास, तस्याऽऽगत्य च तास्तकम् ॥ ४ ॥
विनयेन समाराध्य, वरदाभिभरुखं सितम् ।
जगुमेधं तथा हिंसां, सेवखाऽक्म वेच्छया ॥ ५ ॥
स एवं गदितस्ताभि-दैयोनरकंदेतुताम् ।
आलोच्य मद्रूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् ॥ ६ ॥
मदं प्रपद्य तद्भोगा-अष्टधर्भस्थितिमंदात् ।
१६
मभि घानेराजन्द्रः ।
सज्च
विदंशाथमजं इत्वा, सर्वमेव लकार सः ॥ ७ ॥
ततश्च अष्टसामर्थ्यः, स मत्वा दुर्गतिं गतः ।
इत्थं दोषाऽऽकरो मध, विज्ञेयं धर्मचारिभिः ॥ ८ ॥
पषां गमनिका-कश्चित् को5प्यनिर्दिश्नामा ऋषियालतण-
स्वी किल दारव्यां वसन् तपः -श्रनशना $ ऽदिकम् अतिघोरं
तपस्तेपे तप्यते स दिव्य वर्षसहस्ल यावत् , ततो भीवतो मह-
क्षपो ऽनेन कृतं माभितो नाकिनिकायनायकपदाद् पातयिष्य-
तीति भावनया भयसुपगत इन्द्रः शतमखः, ततः खुराखियः
नाकिनितम्बिनीस्तिलात्तमाप्रमुखाः क्षोभाय क्षोमणनिमित्ते
तस्येव्यस्येर सबन्धाचस्य-छषेः प्रेषयामास स्वगौत्तत्रारण्यां
प्रेषितवान् । ताश्च तत्तेजसा तद्धनप्रवेश कतैमशक्ुव-
न्त्यो वनाद्रहिस्तदभिमुखहतविकसितकुखमग्रकारा मस्तक-
न्यस्तदस्तकमलसंपुटमतिभ्रणम्य तद्भतगुणगानप्रधानद्त्य -
भ्वन्धं विदधुः । ततोऽसौ तदक्तिघ्ान्तःकरणश्चित्रलिखित
इव बभूव । ततस्तत्समीपसुपजग्मुः । श्रागत्य स च समीपी-
भूय च ताः खुरखियः तकम्-ऋषिम्॥४ ॥विनयेन विविघचादु-
चचनाञ्जलिकरणपाद पतना-ऽऽदिना समाराध्य प्रसन्नमानस
विधाय वरस्याभिलापिता्थस्य दाने वरदाने तस्य ,अभिमुस्व-
स्तं स्थितं सञ्जातं जगुर्नानाविधशपथदानपुरस्सरसुङ्कवत्यो,
यदुत मद्ये मधु, तथेति समुश्चये, हिसां प्राणिवधे, सेवस्व
भजस्व, अन्नह्म वा मेथुन वा वाशब्दो विकल्पाथेः, इच्छया
द्या यदेते तदित्यथैः॥५॥ स ऋषिरेवमनेन प्रकारेण गदि-
त्मे ऽभिदितस्ताभिः सुरस्त्रीभिद्देयोहिंसा 5अह्मणोनेरकह्देतुतां
निरयवन्धनताम् आलोच्य स्वशास्त्रानुसारेण निमश्चित्य, तथा
मद्यरूप मद्रिस्वभाव, चशब्द आलोच्येति क्रिया5नुकर्षणा
अः। किंविधमित्याह-शुद्धानि निद्दोषाणि कारणानि निमित्तानि
गुड्घातकीजलप्रश्नतीनि,पूर्व मद्यावस्थायाः प्राक्ताले यस्य त-
त्था ॥६॥ ततो मद्य मदिरां प्रपद्य तत्पास्यामीत्यब्लीकृत्य,तस्य
विचित्रचि्रमणिखर्डमणिडिततपनीयभाजनन्यस्तस्य सौर-
अ्यातिशयसमारङूष्रषट्पदपरलावनद्धगगनमर्डलस्य करण
षटचरुणचक्रलाम्पस्यप्ररष्टताकारकस्य ताभिः ससस्भ्रममु-
पनीतस्य मद्यस्य भोग आसेवनं तद्धोगस्तस्मात् नष्टा घमेस्य
कुशलाजुष्ठानलक्षणस्य स्थितिव्यैवस्था यस्य स तथा; ततश्च
मदाआित्ताविच्युतिलक्षणाडदिदंशार्थ मद्यपानोपर्देशाथमजं छागं
हत्वा विनाश्य सर्वमेव निरवंशेषमपि यत्ताभिरभिषितमनभि-
दिते च पापमजपिशितपचननिमित्तमिन्धनाथेमाराध्यदेवता-
दारुमयप्रतिमास्फोटन55दि तच्चकार कृतवान स॒इत्यसा-
चृषिः।७।ततशछ मद्या ऽऽसवनानन्तरं पुनर्भरष्टसागथ्यों निदतत-
पोवीयैः स ऋषिमुत्वा प्राणान् परित्यज्य दुगैति नरकरूपां ग-
तः प्राप्त इति दृष्टान्तः । श्रथ प्रक्ततयोजनाया55ह-इत्थमने-
नोक़लप्रकारेण दोषा 55करो दूषणोत्पत्तिभूमिमंद मदिरा विशेय
ज्ञातव्यं धर्मचारिभिः कुशलाजुष्ठानसवाशीलैरिति: ॥८॥ हा०
१६ अष्ट० । 4
मयऽपि प्रकटो दोषः, श्रीरीनाशाऽऽदिरेहिकः ।
सन्धानजीवमिश्रत्वा-न्महानायुष्मिकोऽपि च ॥ १७ ॥
मये ऽपीति-मयऽपि मन्धुन्यपि प्रकटो दोषः; श्रीलेचमीः, ही-
सा श्रादिना विवेकाऽ ऽदिच्रहः, तन्नाशादेहिक इद्दैय विपा-
कथ्रदृशैकःःतथा 5 ऽमुष्मिकोऽपि परभवे विपाकप्रदर्शको5पि,
ं स्ज्
(६ }
अजशिधानराजेन्द्रः !
सज्वणविहि
अदान् दोषः, सन्धानेन जलमिश्रितबहुद्वव्यसंस्थापनेन जी- | सत्वो मरणा ऽन्ते ऽपि-चरभकालेऽगि ना5:राधयाति सेबरं-
उमिश्रितत्वाज्ीवसंसाङ्किमच्वात्, सन्धानवत्यप्यारनाला5<- |
दाविव नात्र दोष इति चेन्न शाखेणौतद्दुषटत्वबोधनात्। त- |
दाउ5ह-“ मद पुनः परमादाङ्ग, तथा संख्िक्तनाशनम् । स
धानदोषवत्तत् न दोष इति साहसम् ॥ १ ॥ ” मद्यस्याति- |
दुष्टत्वं च पुराणएकथास्वपि श्रूयते ।
तथाहि-- |
“ कश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः छुरस्थियः ।
च्तोभाय प्रेषयामास, तस्या55गत्य च तास्तकम् ॥ १ ॥
, विनयेन खमाराध्य, वरदाभिमुख स्थितम् ।
जगुम॑य तथा हिसां, सेवस्वाब्रह्म वेच्छया ॥ २ ॥
ख ष्टवे गदितस्ताभि- दैयोनरकटेतुताम् ।
श्रालोच्य मख रूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् ॥ २ ¢
मय प्रपद्य तदधो ग-न्रश्धर्मस्थितिमदात् !
विदंशार्थमज दत्वा, स्वैम्रैव चकार सेः ॥ ७ ॥
ततश्च श्रष्टसामध्यैः, सख मत्वा दुगति गतः।
इत्थ दोषाकरो मद्य, विज्ञेय धर्मचारिभिः ॥ ५ ॥ ?
इति ॥ १७ ॥ द्वा० ७ द्वा० । दश० ।
प्रतिषेधान्तरमाद--
खरं वा भेरगं वाउ वि, अन्ने वा मज़ग रसं | |
ससक्खं न पिष भिक्खु, जसं सारक्खमप्यणो ॥ ३६ ॥
खरां वा-पिछ्ठा ऽदिनिष्पज्ना, मेरकं वापि प्रसन्ना 5 5ख्यां,सु,
राप्रायोग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा माद रसे सीष्वादेरूप, स-
साक्तिकं टद; परित्यागसाक्ति केवलिप्रतिषिद्धं, न पिवेद्धिक्षः,
अनेना ऽ ऽत्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्तिभावात् । कि-
मिति न पिवेदित्याह--यशः सेरक्तन्नात्मनो, यशःशब्देन
सयमो ऽभिधीयते, अन्ये तु-ग्लानापवादविषयमेतत्सूजम-
ल्पसागारिकविधानेन व्याचक्तते इति सूत्रा्थः ।
अत्रेव दोषमाह--
पियए एगओ तेणो, न मे कोड वियाणइ ।
तस्स परस्सह दोसाई, नियडिं च सुणेद मे ॥ ३७ ॥ |
पिवत्यको धम्मैसहायविप्रमुक्कः अल्पसागारिकस्थितो वा,
स्तेनश्चोरो ऽसो भगवददत्तव्रहणात् च्न्यापदेशयाचनाद्वा, न
मां कश्चिज्ञानातीति भावयन्, तस्येत्थंभूतस्थ, पश्यत दोषा-
नैंहिकान्, पारलोकिकॉश्व, निरतिं च मायारूपां, शृरुत |
ममेति सूत्राथैः।
वड सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो ।
अयसो य अनिव्वाणं, सयय च असाहुया ॥ ३८ ॥
वद्धैते शोणिडका तदत्यन्तामिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावादं |
चेव्येकवद्धावः प्रत्युपलब्धापलापेन बद्धैते तस्य भिन्तोः। इदं |
च भवपरम्परादेतुः, श्रजुबन्धदोषात्। तथा अयशश्च स्वयत्तप-
रप्तयोः, तथा अनिवौरं, तदलाभे सततं चाऽसाधुता लोके
व्यवहारतः, चरणपरिणामवाधनेन परमार्थत इति सूज्राथः । |
किच--
निच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेद्दि दुम्मई ।
तारिसो मरखंते वि, न आराहेह संवरं ॥ ३६ ॥
ख इत्थेथूलो नित्योद्धिग्नः सदाउप्रशान्तः यथा स्तेनश्लौरः
आत्मकमेभिः खदुश्चरितेः दुम्भातिदष्बुष्धिः तारशः क्लिश्ट-
चारित्र, सदैवाकुशलवुद्धथा तद्रीजाभावादिति सत्रार्थः }
तथा--
आयरिए नाराहेह, समरे याऽवि तारिसो |
भिहत्था वि शं गरिहंति, जेण जाति तारिसं ॥४०॥)
च्राचाय्योच्छऽऽ्यघधयति,्ञ्ुद्धमावत्व्यत् , श्रमणांश्वापि ता
दशान् न(55राघयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्थाः अष्येन दुध्र
शीलं गरन्ते कुत्सन्ति , किमिति ?, येन जानन्ति तादशं दुश-
| शीलमिति गाथार्थः।
एवं तु अगुणप्पेही, गुणाएं च विवजओ ।
तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवर ।॥ ४१ ॥
एवम-उक्केन पकारेण, श्रखुरपेच्ती गुणान् प्रमादा:<दीन
ग््तते तचर्चु्लख्य ख इत्यथैः, तथा गुखानां चष्छमादाऽऽदीनां
स्वगतानामनासवनेन परगतानां च प्रद्धेषण विवजकः व्या-
गी, तादृशः क्लिएचित्तो, मरणान्तऽपि नाऽऽराधयति स-
वरं--चारित्रमिति गाथाः ¦ दश० ५ आ० २ उ० ।
(मद्यस्य कल्पिकाप्रतिसेवना * मूलशुणपडिसेवणा ` शब्दे
वच्यते ) ( उसि , शब्दे वसतौ खुराकर्म्म इति प्र-
स्तावे मयप्रतिसेवा )
निसदू--धा० । उपवेशने, “नेः सदो मज्यः ” ॥ ८। ७।१२२॥
इति निपूर्वस्थ स्मेव इत्यादेशः । निष्यते । “त्ता
एत्थ शिम्छद । ” प्र० ७ पाद । ““मुजरुग्धुसलुञ्छ पुञ्छपुंस-
फुसचुसलदडलरोसाणाः ” ॥ ८ । ४ । १०५ ॥ मजरेते
नवाऽऽदेशा भवन्ति । उग्धुसखद । पत्त- मज्द | मारं । प्रा०
४ पादं । “ मज्जेराउडूणिउड्बुड्खुप्पाः ” ॥ ८। ४। १०१ ॥
मजतेरेते अदेशा भवन्ति । । आउडुइ। शिउड्द । बुडूइ ।
खुण्पद । पत्ते- मज्द । मति । प० ४ पाद ।
मज़इत्ता-मज़यित्वा-अब्य० । स्नपयित्वेत्यथै, स्था० २ ठा०
१ ० । ज्ञा०।
मजगरस-माद्यरस-पु° । सीध्वादिरूपे मद्यजे रसे , दश०
५ आ० २ उ०।
| मज्जण्ु-मज़न-न० । स्नाने ˆ घ० २ अधि० । व्य० । प्रव !
नि० चू० । मजने वसन्ता.ऽऽदिपवैणि । अन्यत्र वा स्मीणां
जलक्रीडायां सामान्यतो मलदाहापशमनार्थ स्नाने वा । बृ०
१ उ० ३ भ्रक० । ज०। उपा० ( 'आरंद ` शब्दे दितीय-
भागे १०६ पृष्ठे खरम् )
मज़णग-मजनक-न० । स्नाने , प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
मज़णगमहोच्छव-मजनकमहोत्सव-पुं० । कन्यानां स्नान- `
महोत्सवे, स्था० ७ ठा०।
मजशगय-मजनगत-ि० । स्नानं कुवैति , ० ४ ० ।
मज्ञणधरग-मज्ञनगरहक-न० ! स्नानगेदे , मजनग्रद्मणि
खेच्छुया यत्र मजने कुर्वन्ति । जी० ३ प्रति० ७ अधि० ।
रा०। दशा० । क्ा०।
मजशधाई-मजनधात्री-खी° । स्नापिकायाम् , ज्ञा० १
श्रु० १ अ०। नि० चू० । आचा०-ै। |
मज़ण॒विदि-मजनविधि-पुँ० । मजने खाने तस्य विधिः
(4 ६२ )
मंज्जणाविहि ५
अभिधानराजेन्द्रः ।
सज्भरण्ह
प्रकारस्तैला भ्यज्ञना5<दिप्रिक्रियापुरस्सरं स्नानम् । छ० ९ उ०
२ प्रक० । स्नानयोग्यप्रक्रियायाम् , बु० १ उ० ३ प्रक० ।
मज़पमाय-मदमप्रमाद-पुं? | पमदने प्रसादः । प्रमत्ते, ताइ-
शसदुपयोगाभाव इत्यथैः । मद्ये खरा + ऽदिस्तदेद अमादकार- |
त्वात् प्रमादः । मद्यप्रमादभेदे, स्था० ६ ठा०।
मज़र-माजोर-पुं० । “माजोरस्य मजर वल्बरौ ” ॥ ८। २
२३२॥ इति मा जौरस्य मजर वज्जर इत्यादेशौ वा भवतः ।
मज्जरो । वज्जरों। पत्ते--माज्जौरः । विडाले, प्रा० २ पाद् ।
मज़व्-मद्यप-पु० । वाखपूञ्याजनपुत,ति०। ती० पफीतमये,विः
'पा०शश्नु ०६श० ।“सोडड मज्जवं।' (८२५) पाइ०ना०२७८गाथा ।
सज़ा-मजा-सख्जी० । बहुश॒क्रकरे षष्ठे धातो , तं०। “ अज्जो-
रुहवोदाणो , हरित तह तंदुलेज्जगंतण य | मत्थुलपोर-
गमज्जा--रपोइवज्ली य पालक्का ॥ १॥ ” (? ) तै०।
मजाआ-मयोदा-खी० । “ च-य्य-यों जः ” ॥ =।२।२४ ॥ इ-
उतिसंयुक्वस्थ जः | प्रा० पादं ! साधुनां व्यवस्थायाम्, आ०
म० १ ० ! नि० च० । प्रश्न० । “गणधरमेव वरेती, जम्हा-
जचेख होति मज्जादा । ” पं० भा० ५ कल्प । दशम्यां गौ-
रायुज्ञायाम् , नै० । पे० चू० ३ कल्प ।
म॒ज्ञायामूलीय- म्यादामूलीय -पुं° । मर्यादा साधूनां व्यव
स्था, तस्या यन्मूलं तत्र भवो मयांदामूलीयः । मर्यादामूल-
भूते इच्छुकारे, आ० म० १ अ०।
मज़ार-माजीर-पु० । विडाले, ज्ञा० १ श्रु० १७ अ० । विशे०।
प्रश्न० विरालिकाएभिधाने वनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा० २ पद ।
मज्जारकडय-माजोरकृतक-न० ॥ विडालनिवैतिते 9 “मज्जा
रकडए कुछुडमंसए । भ० १ श० & उ० । केचिद्यथाश्रुतमथै-
माडः, न्वे त्वाइमौजौरो वायुविशषस्तदुपशमनाय छृतं-सं-
स्तं माजीरकृतम् । अपरे त्वाहुः-माजौरो विरालिकाभिधा
नो वनस्पतिविशेषः,तेन छतं भावितम्। भ० १५ श०। भ्रज्ञा०।
मजारखहयमंसा-माजोरखादितमांसा- खी० । शाजौरेण खा.
दितं भक्तितं मांसं यस्यास्सा । विडालभाक्तितमांसायाम्,पि०।
मजारपाइया-माजरपादिका-खी० । बलयवनस्पातिभेदे ,
अआचा० १ श्रु० १ आअ० ५ उ०।
मरजाररडिय-माजीररटित-न० । विडालशब्दे, माज्=-
तप्ररूपणायाम् , यथा हि माजौरः पूवं महता शब्दः
ति पश्चादेव शनैः शनैरारटति तथा प्ररूपणा माजौररांर
ल्पा । व्य० ३ उ०।
मज्जारी-माजौसी- खी०। विडाल्याम् , “मज्जरीओ («
ओ । ” पाइ० ना० १५० गाथा ।
मज़ावग-मजक-पुँ० । मज्जयन्ति ये ते मज्जकाः । स्नापके-
खु, नि० चू० € उ० ॥
मज़ावेत्ता-मज़यित्वा-अव्य० । स्नापयित्वेत्यर्थे , स्था० ३
ठा० १ उ०। | ठ
मजिआ-मार्जित-जि० । शुद्धे, “ मन्जिश्र रष्टायं । ” ( ७८२ )
पाइ० मा० २३८ गाथा ।
मसखिआ-मार्जिदा-ओऔी० | खुगन्घिवस्तुमिञ्िते दुग्घे, “मज्जि
श्रा रसाला उ । ” ( ७७२ ) पाइ० ना० २३७ गाथा ।
मजिलय-मजिलक-पुं० । परस्परसद्दोद्रभ्रात्घु,ब० रे उ० ।
| मञ्भ-मध्य-न०। “ द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पुः '' ॥८।२।
६० ॥ इति चतुथस्योपरि तृतीयः । पूवीन्तयोरन्तरे , अनु० ।
सूत्र । “ मध्यग्रहणे आद्यन्तयोग्रहणम ” इति न्यायात् ।
विशे० । मध्यं द्विधा-सद्धावमध्यम् , असंद्धावयध्यं च । बृ०
१ उ० ३ परक ०। नि० चू०। उद्रदेश, औ० “ अतो मज्के। ”
(६६२ ) पाइ० ना० २७७ गाथा। मध्यभागे, भ०। “ मज्भं-
तियमुहक्तोसि मूले य दूरे य दीसाति त्ति ॥ ” मध्यो मध्यमा-
ऊन्तो विभागों गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः सं यस्य
मुहत्तेस्यास्ति स मध्यान्तिकः, स चासौ मुट्त्तेश्वेति मध्या-
न्तिकमृहृततेस्तत्र मृले च श्रासन्न देशे द्रष्टु स्थानपिच्तयः दू-
रे च व्यवददितदेशे द्रशुप्रतीत्येप्षया सर्यी ददयेते, दष्टा हि
मध्याहे उदयास्तमनदरशनापेक्तया ऽ ऽसन्ने रचि पश्यति योजनश-
ता्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्वात् , मन्यते पुनरुट्यास्तम-
यप्रतीत्यपेत्तया व्यवहितमिति । भ० ८ श० ८ उ० ¦ प्रश्न ० ।
रागद्धषयोरन्तराले,सूत्र० १श्रु० १शअ० ४ उ०।“ में मइ मम मह म-
हं मज्जः मज्मं अम्द श्रम्हे ऊूसा”॥८। ३। ११३॥ अस्मदो ङन्सा
षष्ठथ्रेकक्चनेन सहितस्य एते नवाऽऽदेशा भवन्ति । मज्भ ।
मम । प्रा०३ पाद। “ णे णो मज्क अम्ह अम्ं श्रस्टे श्रम्टा
अम्हाण ममाण महाण मम्हाण आमा ` ॥८। ३। ११७॥
अस्मद आमा सहितस्येते एकादशाऽऽदेशा भवौन्त। “ मे मद
मज्मः इत्यादि । अस्माकम् । पा० ३ पाद। “ साध्वसध्य-
हां ज्मः “ ॥ ८। ४। २६॥ साध्वस सयुक्कस्य ध्यह्ययोश्च ज्मो
भवति । मज्भम । प्रा०७ पादं । “डूस्ड्योर्टे:” ॥ ८। ४ । २५०॥
अपक्रशे स्थ्रियां वत्तेमानान्नाम्नः परयोङखरङसि इत्येतयोरदे
इत्यादेशो भवति । मज्भहे। ' पा० ४ पाद् ।
मज्छगय-मध्यगत-न० । श्राचुगामिकावधिज्ञानभेदे, न° ।
से किं तं मज्छगयं | मज्छगयं से जहानामए केड पुरिसे
उक वा चड़ालिय वा अलातं वा मशि वा पर्वं वा जोई
वा मत्थए काठ समव्वहमाणे सयव्वहमाणे गच्छिजा, से
तं मज्कगय ॥ १० ॥ |
( मध्यगतं चेति ) इह मध्यं प्रसिद्धं दरडा55द्मिध्यवत् ,
ततो मध्ये गत मध्यगतम् , इदमपि चिधा व्याख्येयम् , आ-
त्मप्रदेशानां मध्ये मध्यवर्तिभ्वात्मषदेशेष गतं स्थितं मध्यग-
तम् । इदै च स्पधकरूपमवधिज्ञानं सर्वदिगुपलम्भकारण म-
ध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवलेयम् । अथवा-सर्वेषामप्यात्मप्र-
देशानां क्षयोपशमभावे<प्यौदारिकशरीरमध्यभागनोपलब्धि-
स्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् । उक्तं चूर्णों श्रोरालियसरीरमज्मे
फडुगविसुद्धीाओ सव्वायप्पएसविसुद्धीओ वा सव्वदिसोषलं-
भत्तणओ मज्छगड त्ति भन्नति । ” श्रथवा-तेनावधिज्ञानेन
यदुद्योतित क्षेत्र सवोसु दिक्लु तस्य मध्ये मध्यभागे गतं स्थि-
ते मध्यगतम् , अबधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात्।
आह च चूर्णिकत्- अहवा--उवलद्धिखेत्तस्स अबहिपुरसो
मज्भरगड त्ति श्रतो वा मज्कगओ ओही भन्न |” ले० ।
मज्कगार-मण्यकार-पु०। मध्य एवं मध्यकारः , कारश-
ब्दस्य स्वार्थिकत्वात् । ज्ञा० १ श्च० १ ऋ० । स्था०। अनु०।
मनज्फजिन्भा-मध्यजिद्वा-खी° । जिद्याया मध्यभागे, स्था०
८ ठा०। ।
मज्कएह-मध्याह-पुं? ।“सध्याह्षे हं: ॥८।२।८४॥ इति मध्या
रा
8 ६४ )
मज्करह
दस्य लुग्वा । 'मज्मरो ! मज्भन्नो ।' दिनमध्ये, पा० २ पाद ।
स्था० | आ० म० । “ रविस्स गतिपरिणश्मस्स मर्भे दरि-
|
सरणं सो मज्मएहकाला भवति । | आ० चू० १ अ०।
मज्भत्थ-मध्यस्थ-पु० । मध्ये रागद्धेषयोरंन्तराले तिष्ठतीति
मध्यस्थः ! सर्वजारक्कदिष्े, व्य० १ उ० । पेण्व० । रागद्धेष-
त्यक्नधीके, प्रव० २३६ द्वार । बृ० । आव० । सर्वेषु स्वेषु
समचित्त, प्रव० ६५ द्वार । रागद्धेषरदिते, ध० १ अधि० | |
श्राचा०। दुःषमालुभावेन बला ऽऽ्पगमान्मध्यमूतेव वत्तैनी
श्रयसी नोत्संगोवसर इति । उङ्क दि-“ नात्यायतं न शिथिल,
यथा युञ्जीत सारथिः । यथा भद्र बहत्यत्र, योगः सर्वज्
पूजितः ॥ १॥ ” आयाए १ श्रु० ६ अ० ४ उ० । मध्यस्थः
समः य आत्मानमेव परे पश्यति । | आ० म० ९ अ०। अत्युत्क-
टरागद्वेषविकलतया समचेतसो मध्यस्थाः । देशै° तत्त्व । |
स्थीयतामयुपालम्भं, मध्यस्थनान्तराऽऽत्मना ।
कुतर्ककर्करक्षेपे-स्त्यज्यतां बालचापलम् ॥ १॥
मनेऽवत्सो युक्निगवी, मध्यस्थस्यानुधावति ।
तामाकर्षति पुच्छेन, तुच्छाउड्ग्रहमनः कपिः ॥ २॥
नयेषु स्वार्थसव्यषु, मोघेषु परचालने ।
समशील मनो यस्य, स मध्यस्थो महामुनिः |! ३ ॥
स्वस्वफ्कृताऽऽपेशाः, स्वस्वकर्म थुजो नराः।
न रागं नापि च देष, मध्यस्थस्तेषु गच्छंति ॥ ४॥
मनः स्याद् व्यापृतं याव-त्परदोषगुणप्रहे ।
कार्य व्यग्रं वरं ताब-न्मध्यस्थनाऽऽत्मभावने ॥ ५॥
विभिन्ना अपि पन्थानः, सुद्र सरितामिव ।
मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्लुवन्त्येकमक्तयम् । & ॥
स्वाऽऽगमं रागमात्रेण, देषमात्रात्पराऽऽगमम् ।
न श्रयामस्त्यजामो वा, किं तु मध्यस्थया दशा ॥७»॥
मध्यस्थया दशा सर्वै-ष्वपुनर्न्धकाऽऽदिषु ।
चारिसजीवनीचार-न्यायादाशास्महे हितम् ॥८।। अष्ट ०
१६ अष्ट ० ।
मौनशाले , दश० ५ तत्य । मध्यस्थो मौनशीलः
स्वग्रतीतानपि कस्यापि दोषान्न गृह्णाति , तद्ग्रहणाद्धि
श्रभूतलोकविरोधितया धर्म्म्ततिसम्भवात् ; श्रथवाऽतिती
बरागद्वेषघमोहोपशमतया यथावस्थितवस्तुस्वरूपपर्यालो-
चको मध्यस्थस्तदन्यदशाश्च नेदशाः सम्भवन्ति। यत उकङ्गम्-
“ रत्तो दुद मृढो, पुव्वि कुग्गाहिओ य चत्तारि । उवएसस्स
अणरिहा, अरिहा पुण होइ मज्छत्थो ॥ १॥ ” दशे
२ तस्व । सं्बशिप्येषु समचित्ते , ग० ६ अधि० ।
विशे० । ध० र० । सर्वत्र लुख्यचित्ते , तथादहि-“ उवसम-
सारवियासे, षादिज्जद नव रागदोसेिं । मज्भत्थो हिः.
यकामी, असग्गहं सव्वहा चयइ॥ ७३॥ ” घ॒० र० २ आर्थि०
६ लक्त० । “ घठमौलीखुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोंद्माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ १॥ ” श्राव°
४ अ० | आसंसारमशुमतां मध्ये ऽन्तभैवतीति मध्यस्थो लो-
भः | सुत्र० ९ श्रु० १ अ० है उ० । यो० विं०।
__ अभिधानराजन्द्रः |
दि कप मम मम मज्भमबुदि
मज्भत्थभावणा-मा ध्यस्थ्यभावना-स्त्री०।प्रकर्षवशप्नवृत्तशु- (
ऊध्याने, जीवा० १ अधि० |
मज्भत्थभावभूय-समध्यस्थभावभूत-जि० । मध्यरू. 7दं भा-
पत्ते, स्था० ८ ठा०।
मज्भत्थवयणया--मध्यस्थवचनता-खी० । अनिश्चितवच-
नतायाम् , स्था० ८ ठः०।
मज्भत्थसोम्मदिद्वि-मध्यस्थसौम्यदष्टि-एं० । एकादशगुरं
प्राप्त श्रावके, ० २० |
सम्प्रति मध्यस्थसौम्यदशष्टिलक्षएमेकादरश
गुणमाभिधित्खुराह-
मज्भत्थसोम्मदिद्ठि, धम्मवियारं जहाष्टेयं मुणइ ।
कुणइ गुणसंपश्रोशं, दोसे दरं परिचय ॥१८ ॥
मध्यस्था क्वचिदशने पक्षपातविकला, सौम्या च प्रद्दे-
, षाभावाद् दण्िदैशैने यस्य स मध्यस्थसौोम्यदशिः । सवेत्रारक्त
दविष्ठ इव्यर्थः, धर्मविचार नानापाषरडमर्डलीमर्डयषोपनि-
हितधमैपरयस्वरूपे यथावस्थितं सगुणनिगणाल्पवडगुणत-
या व्यवस्थितं कनकपरीक्तानिपुणविशिष्टकनकाधिपुरुषव-
त् मुणति ' बुध्यते, श्रत एव करोति विद्धाति शुणसंप्रयो-
गे सुणेक्षोना 5ऽदिभिः सह संबन्धदाषान् गुणप्रतिपक्षभूतान-
( दूरं ति ) दूरेण परित्यजति, परिहरति सोमवसुब्राह्मणव-
स्। घ० र० १ अधि० ११ गुण |
मज्भदेश-मध्यदेश-पुं । दक्िणभरवाद्धं मध्यभागे, ति०।
मज्मदेसभाग-मध्यदेशभाग-पुं० । मध्यश्चासौ देशभागश्च
देशावयवो मध्यदेशभागः । देशम भ्या ऽवयवे, स्था० ७ ठा०
> उ० । >
मज़्कम-मध्यम-जि० । अन्तरालवार्सिनि, चत्वारिंशद्धर्षभ्यः
परं यावत् सप्ततिरेकेन वर्षणाना तावन्मध्यमे वयः । ब्य० ३
उ०। द्वा० ।
मज्छमबुद्धि-मध्यमबुद्धि-पु° । मध्यमविवेकसम्पने, षो० १
विव० ।
मध्यमवुदधिचरितं पुनरेवम्-
« श्मस्त्यत्र भरतक्तेत्रे, पुरं क्तितिप्रतिष्ठितम् ।
तत्र कमैविलाखा $ऽख्यो, राजा वीयनिधानभूः ॥ १॥
तस्य प्रणयिनी ज्येष्ठा, यथाथा शुभखुन्द्री ।
श्नन्या ऽकुशलमाला ऽऽख्या, शालव सकला-ऽऽपदाम् ॥ २ ॥
तयोमेनीषिवाला$ऽस्यो, पुत्रौ पेमपरौ मिथः ।
स्वदेहोद्यानमन्येद्य-स्तौ गतौ क्रीडितुं सुवा ॥ २ ॥
ताभ्यामवर्शि तत्रैकः, पुमानुद्बन्धतत्परः ।
बालः पाशमपास्या ऽथ, पप्रच्छोहन्धकारणम् ॥ ४ ॥
अमुना प्ररिनितेनाल-मित्युषत्वोल्लस्बयन् पुनः ।
गिवा्य सारं पृष्टो, बालेनेवै स ऊचियान् ॥ ५ ॥
स्पराना.$ऽख्यस्य मे भद्र !, भवजस्तुरभूत्सखा ।
खमे ख्ार्मनोश्चेः, स गेचीगन्यव्ा $करोस् ॥ ६ ॥
(
सज्भमवुद्धि
ततः प्रश्नति जज्ले5 सो, चरुख्यतप्रेमा ममोपरि ।
ललना तूलिकात्यागी, खदुस्तपतपोरतः ॥ ७ ॥
अज्ञीकृतबहुक्लेशः, केशलुञनलालसः ।
भूकाषटशय्याशयनः, प्रान्तरूच्ताशनो भरणम् ॥ ८ ॥ युग्मम् ।
स्फ़जदुजस्वलध्यानो, जशञानोत्साहितभावत्तः ।
मां मुक्त्वा मदगम्यायां, स ययो निवतो पुरि ॥ ६॥
ततो मित्रवियुक्केन, मयेदं भोश्चिकीर्पितम् ।
श्रुत्वात तद् ददप्रमा, प्रातो बालोउभ्यधादाते ॥ १० ॥
मित्रवात्सल्ययुक्वानां, खड सोदादशालिनाम् ।
परोपकारशीलानां, युक्घमेवद्धवादशाम् ॥ १९ ॥
यतः-
निजस्य विरहे स्थातु, क्षणमप्युचित न टि ।
मनास्विनामितीवाशु, दिवसेनास्ति मीयते ॥ १२ ॥
अहो ते मित्र ! वात्सल्य-महो ते स्थिररागिता ।
टा तवे कृतक्षत्य-महो ते सादस ट्टम् ॥ १६३ ॥
भवजन्तोः पनरटो, क्षणरक्रविरङ्कता ।
अहो हृद्यकाठिन्य-महो मोढ्यमजुत्तरम् ॥ १४॥
तथापि धीर ! धीरत्व, कत्वा दहित्वा तथा शुचम् |
स्वःस्थ्य धदि मुदे देहि, मम मित्र भवाऽधुना ॥ १५ ॥
स्पशना-ऽप्यास्यदित्यस्तु, भवजन्तुरिवासि में ।
ततस्तेन व्यधान्मेत्रीं, बालः प्रीतान्तराऽऽत्मना ॥ १६ ॥
सदागमत्याजितत्वा-न्नूनं नेष शुभा ऽऽशयः।
मनीषिणेति विदधे, बदहिधच्या त्वसौ सखा ॥ १७॥
तौ त चत्तान्तमाख्यातां, मातापिजोर्यथास्थितम् ।
ततो राजाऽभवद् भूरि-दरषद्र् मविहङ्गमः ॥६२॥
उवाचा-ऽकुशला हृष्टा, साधु साध्वसि पुत्रक !।
यत्त्वया सर्वसोख्यानां, खानिरेष सखा कृतः ॥ १६ ॥
श्रथ युग्मम्-
तुषार इव पद्मस्य, स्वभौयुरिव शीतगोः ।
स्पशनो ऽयं सखा सोख्य-कारणे मे खतस्य न ॥ २०६
एवे विषादविवशा-ऽचिन्तय्च्छुभखुन्दरी ।
कि तु नाचीकथत्किश्चिद्, गाम्भीयात्स्वसुते प्रति ॥ २१ ॥
स्पर्शनमूलशुद्ध्यर्थ, परेद्यवि मनीषिणा ।
आहय रहसि प्रोक्ता, बाधो नामाङ्गरल्तकः ॥ २२ ॥
भद्रस्य मूलशुद्ध मे, शीघ्र ज्ञात्वा निवेदय ।
यदाज्ञापयति स्वामी-त्युक्त्वाऽसरौ निरगात् ततः ॥ २३॥ |
तनाऽऽत्मीयः प्रभावाऽऽख्यः, प्रेषि फ्रणेधिपुरूषः ।
अस्तुतार्थाय साऽन्यदयु-यात्वा ऽगाद् बोधसन्निधो ॥ २७ ॥
नतः कृतावनामोऽसो, बोधनाप्राचिछि सादरम् ।
सभाव ! कथया ऽ ऽत्मीयं, वृत्तान्तं सा ऽप्यथा ऽऽख्यत ॥ २५॥
इतस्तदा हि निर्गत्य, बाह्यदेशषु वंश्रमम् ।
मया न चाऽपि गन्धोऽपि, प्रस्तुतार्थस्य तेष्वथ ॥ २६॥
“आगामा 5न्तरदेशेषु, तत्र चापश्यनुल्ल्वणम् ।
पुरं राजसचित्ताऽऽख्य, समन्तात् तमसा ऽन्वितम् ॥ २७ ॥ |
चुर तास्मन्नदं यावत्, प्राप्ता राजकला ऽन्तिकम ।
ताचदुज्ञासताऽकारड, पव कालादलध्वनिः ॥ २८ ॥
अथ चिभिर्विशपकम्-
बह्लासडभारुइसंव्यापि, स्फ़ू्जद्घणघणारवाः ।
लाल्या58दभूपा बष्ठटना, एमथ्यामाना 5 5<दयो रथाः ॥२६॥
१७
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|
|
६५ )
श््रागनधारराोजर
सज्मभवा
गजितार्जतजीमूताः, ममत्वाद्या मतकृजाः ।
देषा ५ 5पूरितदिकूचक्रा:, अज्ञाना 5 ऽ्ास्तरङ्गमाः ॥ ३० ॥
अन्ये करणसङ्कद्--पोटनिव्यं ढसादसाः ।
चलुगरहातनानास्रा--श्चापलाऽ शाः पदातयः ॥ ३९ ॥
प्रासपेद्दर्ष कन्दर्प -पटहो दोषा क्षणात् ।
प्राचलादचलस्थामा, परमप्यमित वलम् ॥ ३२ ॥
पृष्टा मया ऽथ विपया-ऽमिल्लापस्येव पुरुषः ।
विपाकाऽऽख्यः समाचख्यो, राज्ञः प्रस्थानकारणम् ॥ ३३॥
भो भद्राऽजाऽस्ति वेरिभ--कृम्भानिभदक्सरी ।
सुख्यश्वरटचकरस्य, नरेन्द्रा रागक्रसरी ॥ ३७ ॥
तस्या ऽस्ति मन्तौ विषया-ऽभिलाषा नाम विश्रुतः।
चण्डमात्तराडवत् पाढः, प्रतापा ऽ 4कान्तावटपः ॥ ३५॥
रागकेसरदेवेन, स मन्त्ीशा ऽन्यदा मदा ।
ह्लिगदे जगदतन्मे, वश्यं करु विशारद् ! ॥ २६ ॥
उप्रेमित्युकत्वा महामन्त्री, विश्ववश्यत्वटेतवे ।
स्पशना ऽऽदीनि पञ्च स्व-माुपाणि समा 5ऽदिशत् ॥ ३७ ॥
मन्त्रिणाचे ऽन्यदा दव !, दवशासनतो मया ।
स्वमानुपाण प्रप्यन्त, जगत्साधनहतव ॥ ३८ ॥
तेः साधत जगल्प्रायो, ग्राहितं दवशासनम ।
केवले श्रयते कश्चि-त्सस्यानामीतिसङ्घवत् ॥ ३६ ॥
तेप्राम॒पद्रवकरः, स्फुटो द्धरपराक्रमः।
सन्तापनामा चरटः, कूटः कपरपारवः ॥ ४० ॥
भूयो भूयः पराभूय, तानि तन कियान् जनः ।
देवभुक्र्वदिःस्थाया, प्रक्िप्ता निवतो पुरि ॥ ५९ ॥
तन्मन्त्रिवचन श्रुत्वा, कोपा ऽऽखोपाखणेत्तणः।
तस्योपरि स्वये देवः, प्रतस्थे रणकर्मण ॥ ४२ ॥
इतश्चास्मारि दवन. तातपादाभवन्दनम् ।
तरज्गणव पाथाध-ववले च क्षणात्ततः ॥ ४३ ॥
विपाकोऽथ मया नाथ !, सम्भ्रमादभ्रान्तचक्तपा ।
पृष्टः काऽस्य नरन्द्रस्य, पितात मम कथ्यताम् ॥ ४४ ॥
इंषाद्विहस्य स प्राच, ननु माहा महाचृपः
जिलोकीख्यातमहिमा, दध्यो वृद्धा ऽन्यदेति सः ॥ ४५ ॥
पाश्वस्थितोऽपि वर्येण, क्षमो ऽहं रा्तितु जगत् ।
तना धुना प्रयच्छामि, साघ्राज्यं निजसूनवे ॥ ४६ ॥
राज्यं देवाय दस्वाऽथ, शेते मोहो निराकुलः ।
तथाऽपीदं जगत्तस्य, प्रभावेशेव वत्तते ॥ ४७ ॥
तदेष मोदराजस्ते, कथं प्रण्रव्यतां गतः ।
व्याहारि हारि वचनं, ततस्ते प्रत्यदो मया ॥ ४८ ॥
भवता भद्र ! पापोऽहं, साधु साधु प्रवोधितः।
परं निवेद्यतामग्रे, किमभूत्सो ऽप्यथावदत् ॥ ४६ ॥
गत्वा सारपरीवार-युक्का देवः पितुः कमो ।
ननामेने च वृत्तान्तं, मूलतो ऽपि व्यजिज्ञपत् ॥ ५० ॥
मोहो 5वोच त हे वत्स !, यन्मदङ्गस्य वाध्यते ।
पामाव्याप्तमयस्येव, तत्सारं किल सम्प्रति ॥ ५१ ॥
तत्वे तिषठ निजे राज्य, सुचिरं प्रतिपालय ।
सन्तोपशञुघाताथ-मदे यास्यामि सङ्गर ॥ ५२ ॥
देवः श्रुतौ पिधायाऽऽख्य-दाः ! शान्तं पातकं ह्यदः ।
श्नन्तकालसस्थाय, तानीये भवताद्रपुः ॥ ४३ ॥
|
ध
मन्फम्बुदि
अभिधानराजन्द्रः |
मज्कमबुद्धि
देवेन वार्यमाणोऽपि, मोहः सवौभिसारतः।
स्वयं चचाल भद्वेदं, राज्ञः परस्थानकारणम् ॥ ५४ ॥
इत्युक्त्वा स ययो तूख, चित्ते दध्याद् पुनः ।
अये ! स्पशनसशुद्धि-लंब्धेयं सकला मया ॥ ५५ ॥
कि त्विदं घटते नायं, यत्सन्तोषात्पराभवम् ।
स्पशेनस्या ऽऽह स पुन-स्तमाचख्यौ सदागमात् ॥ ५६ ॥
तत्तस्यानुचरः कोऽपि, सन्तोषो भवता दयम् ।
एवं वितकंयन्नागात् , प्रणामे स्वाम्यतः परम् ॥ ५७ ॥
बोधेनामिदधे साधु , प्रभावायुष्ठितं त्वया ।
तेनैव सहितो बोधा, ययौ पाश्वं मनीषिणः ॥ ५८ ॥
क्ता नतिः कुमाराय, तं चत्तान्ते न्यवीविदत् ।
भावे पूजयामास, प्रीता ऽ ऽत्मा चृपनन्दनः ॥ ५६ ॥
मनीषिणा ऽन्यदा प्रोचे, स्परना ऽऽ ख्याहि कि तव ।
चक्रे खदागमेनेव, मित्रेण विरहो ननु ॥ ६० ॥
तत्रा $ऽसीत्किमुतान्यो ऽपि, स स्माहाऽऽसीत्परं सखे |
कतं तत्कथया यन्मां, स कदथैयते भृशम् ॥ ६९ ॥
कत्तो हि सेव सर्वस्यो-पदेष्टैव सदागमः ।
भयः कि तस्य नामेति, ते प्रच्छ नृपात्मजः ॥ ६२ ॥
भयविद्धल उचे$सो, तस्याहं क्रूरकमंणः ।
नामाऽप्युञ्चरितं नेश-स्ततो ऽवादीद् नरेन्द्रस्ः ॥ ६३ ॥
त्वया नैवास्मदभ्यर्णो, भीतिः काया मनागपि |
भद्र ! न द्यचिरित्युक्त, मुखदाहः प्रजायते ॥ ६४ ॥
अथ ज्ञात्वा ऽतिनिबन्धं, स्पशनः स्माह दैन्यभाक् ।
सन्तोष इति दुर्नाम, तस्य पापशिरोमणेः ॥ ६५॥
नरेन्द्रनन्दनोदध्या-वियता सकलो ऽप्यहो ।
प्रभावानीतच्रत्तान्तो, घटाकोटिमरीकत ॥ ६६ ॥
अन्यदा स्पशनः सिद्ध-योगिवत्तत्पुरे ऽविशत् ।
बालो.ऽ्त(व यशीभूतो, मनीषी तु तथा न हि ॥ ६७ ॥
[ ` सवैः प्रवन्धो.ऽये, स्वस्वमातोर्निवेदितः।
उवाचाऽकुशला वाल,वत्सेदं साधु साध्वभूत् ॥ ६८ ॥
स्वस्त म~ रवाक्य -वैभाषे शुभसुन्दरी ।
वत्सास्य षापामत्रस्व, सम्बन्धस्त न सुन्दरः ॥ ६६ ॥
सोऽभ्यदादेवमेवेत-न्मातः ! किः क्रियते परम् ? ।
प्रतिपश्चमकाले हि, सतां दातु न युज्यते ॥ ७० ॥
शुभसुन्दर्यथावोच-द्हो ते वत्स ! सन्मतिः ।
श्रो ते नतवात्सल्य-महो ते नीतिनेपुणम् ॥ ७१॥
तथाहि--
नाकारड एव मुञचन्ति, सदोषमपि सज्जनाः ।
अतिपन्न गृहे स्थायी, तञ्प्ेदाहरण जिनः ॥७२॥
यस्तु मूढतया काले,प्राप्तेषपि न परित्यजत् |
सदोषं लभते तस्मा- त्संक्षयं नात्र संशयः ॥ ७३ ॥
कमेविलासराजोऽपि, तज्ज्ञात्वा दायेतामुखात् ।
तुष्टो मनीषिणो गाढ, रुष्टो बालस्य चोपरि ॥ ७४ ॥
श्रभूत्यक्कान्यकत्तैव्यो, बालः स्पशनदोषतः ।
वेलसन्खद्वपस्मारो-त्सारमारितचेतनः ॥ ७५॥
न्मूलशुद्धिमाख्याय, बालः प्रोक्तो मनीषिणा ।
पशेनेऽत्र रिपौ श्रातः !,मा विश्चम्भे कथाः क्वचित् ॥७६॥
लो जजल्य दे बन्धो ।, निःशेषसुखदायकः ।
पे चरवयस्यो मे,कथं शत्रुस्त्वयोदितः ? ॥ ७७ ॥
अकार्यकरणोयुक्को, निषिद्धं पार्यते न हि ॥ ७८॥
अकार्ये दुर्विनीतेषु, परवृत्तपु ततः सदा ।
न किश्विदुपदेशव्यं, सता कायो5वधीरणा ॥ ७६ ॥
इत्यालोच्य स्वयं चित्ते, दहित्वा बालस्य शिक्तणम् ।
स्वका्यकरणोयुञ्का, मनीषी मोनमाश्चितः ॥ ८० ॥
अथ सामान्यरूपाऽऽख्या, प्रिया तस्येव भूपतेः ।
अस्ति मध्यमवुध्याख्य-स्तस्याश्च तनयो नयी ॥ ८१ ॥
तदा देशान्तरादागा-त्स दष्टा स्पशेन सुदा ।
चालं पप्रच्छ कोऽयं ना, स ऊच तस्य वल्गितम् ॥ ८२१
ततो बालस्य वचना-त्स्पशनो मध्यमाङ्गके ।
प्राविशत्तन जज्ञेऽसो, बालवद्धिदलाशयः ॥ ८३ ॥
मनीषी तत्तु विज्ञाय, मध्यमाय न्यवेदयत् ।
मूलात्स्पशनसंशाद्धि, स दध्यौ सशया ऽऽकुलः ॥ ८४ ॥
एकतः स्पशसत्सौ ख्य-मन्यतो श्रातवःरणम् ।
न हि जानाम्य सम्यक्, कि विधातुं ममोचितम् ? ॥ ८५॥
तत्पृच्छामि सदा सौख्य-जननीं जननीमिति ।
ध्यात्वा निवेद्य चत्त स्वे, कृत्य पप्रच्छ तां ततः ॥ ८६ ॥
जगाद लाऽपि माध्यस्थ्य-मधुना धेहि नन्दन ! ।
कालान्तरे तु बलिने, पत्ते निरदोषमाश्रयेः ॥ ८७ ॥
यतः-
सशया ऽ ऽपन्नचित्तेन, भिन्ने का्यद्धये सता |
कार्यः कालबिलस्वो ऽज, दृष्टान्तो मिथुनद्धयम् ॥ ८८ ॥
तथाहि--
पुरे कस्मिन् ऋजोः राज्ञः, प्रगुणा नाम पत्न्यभूत् ।
तस्याश्च तनयो मुग्धो, वध्रश्चाऽकुरटिलाभिघा ॥ ८६ ॥
पुष्पोच्चयकृते ऽन्य्यु--स्ते मुग्धाऽकुटिले मधो ।
स्वगदोपवने ऽयातां, गृदीत्वा हेमशर्पिके ॥ ६० ॥
कः पूर्व पूरयच्छप-मित्याशयपरो मिथः।
दूरं दूरतरं जातो, चिन्वानो कुसुमोच्चयम्॥ ६१ ॥
इतश्च व्यन्तरयुगे, तजागात्केलिलालसम् ।
देवी विचक्षणा नाम, देवः कालज्ञसक्ञितः ॥ ६२ ॥
देवो देवानुभावेना-नुरक्को 5कुटिलां प्रति ।
स॒ग्धं प्रति पुनदेवी, देवो5वादीत् प्रियामथ ॥ ६३ ॥
प्रिये ! गच्छ पुरो याव-द्भधपालोपवनादितः ।
पुष्पाएयादाय पूजार्थ-मेष आयामि सत्वरम् ॥ ६४ ॥
संकेतं च तयोज्ञोत्वा, विभङ्गेन सुरः त्तणात् ।
विधाय मुग्धरूपे स्वे, पुष्पे्॑त्ता च शर्पिकाम् ॥ ६५॥
आगादकुटिलापाश्वें, जिता5सि त्वं प्रिय! भणन् ।
विपज्ञां तां च सभाष्य, निनाय कदलीगहे ॥ ६६ ४
पव विचक्षणा .ऽप्याश्व-कुटि लारूपध्यारिणी ।
रतायै मुग्धकं निन्य, तदेव कदलीगरृहे ॥ ९७॥
सद्धीच्य सग्धधीरुग्धो, वितकौकुलिताऽ जनि ।
वभूव विस्मयस्मेरा-ऽक्ाटेलाऽकुटिलाशया ॥ ६८ ॥
दध्यौ देवा्गना केय, द्वितीया इं मम श्रिया !
तत्परसख्रीकृता 55सहूं, हन्म्येने पुरूषाऽघमम् ॥ ६६ ॥
स्वैरिणी दयितां चेमां, पीडयामि खड तथा । ।
असौ यथा नरे ऽन्यत्र, विधत्त न मनोऽपि हि ॥ १०० ॥
यद्धा स्वय सदाचार-भ्रष्टस्य मम नोचितम् ।
कतुमेतादश कर्म, तद्वरं कालयापना ॥ १०१ ॥
ध्यात्वा तिष्वद्छलाऽप्येवे, कालक्तपपरा ऽभवत् ।
= ---- --
(६७ )
_ मज्ममवुदि
क्षणे परक्रीड्थ तत्रागा-त्स्वगेदे तञ्चतुष्टयम् ॥ १०२ ॥
तं दृष्टा सप्रियो राजा, प्रीत श्राख्यादहा खतः ।
वधश्च में द्विगाणिता, वनदेव्या प्रसन्नया ॥ १०३ ॥
सकलेऽपि पुरे हषा-न्महोत्सवमचीकरत् ।
तेषां चलुणमप्येवं, ययो कालः कियानपि ॥ १०४ ॥
अथ तत्र पुरे मोह-विलया ऽ ऽस्य सुकानने ।
सूरिः प्रबोधको नाम, ज्ञानवान् खमवासरत् ॥ १०४ ॥
श्रय लोका नरेन्द्रा $ऽद्या, बन्दनाये सुनीशितुः ।
नि्ययुभगवांस्तेभ्य, इति चक्रे खुदेशनाम् ॥ १०६ ॥
शल्ये कामाः विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः ।
कामाथनापरा जावा, अकामा यान्ति दुर्मतिम् ॥ १०७ ॥
तच्छण्वतोरुरोबौक्ये, तयोदेवीसुणवेणोः ।
मोहजाले प्रविध्वस्त, जाता सम्यक्त्ववासना ॥ १०८ ॥
श्त्रान्तरे तयोदेहात् , रृष्णरक्काउणुसआयेः ।
निगेतेर्भीषणाऽ४कारा, घटितैका नितस्बिनो ॥ १०६ ॥
सा च भागवतं तेजा-5सहन्ती पषदो बहिः ।
गत्वा परामुङूखी भूया $-वतस्थे दुःस्थिता-ऽऽशया ॥ ११० ॥ |
अथोत्थायावदद् देवः, सप्ियो भगवन्नहम् ।
कथमस्मान्महापापा-न्मुच्ये प्रोचे मुनीश्वरः ॥ १११ ॥
नायं भो भवतोदोषः, कि त्वस्याः पापयोषितः !
काऽसाविति गुरः पृष्टः, प्राह्मम्बंतकिरा गिरा ॥ ११२ ॥
भद्रौ ! विषयच् (तृ)ष्णेय, दुजया जिदशेरपि। `
रजनोव तमिस््नस्य, सर्वदोषततेः पदम् ॥ ११३ ॥
शद्धस्फटिकसङ्ाशो, स्वरूपण युवां पुनः ।
एषैव सर्वदोषाणां, कारणत्वेन संस्थिता ॥ ११४ ॥
इह स्थातुमशक्रेति, दरमेषा स्थिता ऽधुना ।
भवन्तौ मत्समीपाच, निगच्छुन्तो प्रतीक्षते ॥ ११५ ॥
तौ प्रोचतुः कदा स्वामिन् !, मोतो नो भविता ऽनया ।
शरुः भरा ऽऽह भवे नात्र, परं भावी भवान्तरे ॥ ११६ ॥
किन्तु सम्यकत्वमाहात्म्या-न्नात्यन्त नो वियाधिका ।
प्रतिपन्नं ततस्ताभ्यां, सम्यक्त्वं मोत्तसौख्यदम् ॥ ११७ ॥
ऋजुराद प्रगणा देवी, स मुग्धो ऽकुटिला तथा ।
अथो विन्ञापयामासु-गीरं स्वस्वविडम्बनाम् ॥ ११८ ॥
अत्रान्तरे तदङ्गेभ्यो, निगैतेः परमाणुभिः ।
घाटेत वर्णतः श्वेतं, डिम्भमेकमदम्भकम् ॥ ११६ ॥
रक्षितानि मया यूयं, वुवाणमिति चोअकैः ।
पश्यदगुरोमुखाम्भो ज॑,सर्वेषां पुरतः स्थितम् ॥१२०॥ युग्मम् ।
दवितीयं कृष्णवणोभ, डिम्भ तदनु नियैयौ । |
ततो जातं महाकृष्णं, डिम्भरूपे ठतीयकम् ॥ १२१ ॥
श्राहत्य तच्च शुक्लेन, वर्द्धमान निवारितम् ।
ततो दे अपि ते कृष्णे, निरते गुरूपर्षदः ॥ १२२ ॥
गुरः प्रोवाच भो भद्राः !, न दोषो बोऽच्र कश्चन ।
अजश्ानपापाभिधयोः, कि त्वसो ऊष्यडिस्भयोः ॥ १२३ ॥
तथाहि-- `
यत्र चेदिवमश्षाने, युष्मदेहादिनिर्गवम् ।
पतदेव समस्तस्य, वोषचृन्दस्य कारणम् ॥ १२४ ॥
अनेन वसेमानेन, शरीरे जन्यो यतः ।
कार्याकायं न जानन्ति, गम्यागम्याऽऽदिकं तथा ॥ १२५ ॥
सतः पापे निबध्नन्ति, बुःखद्न्दोलिदायकम् ।
असु पूवं सितं डिस्मे, तदाजवमुदाहृतम् ॥ १२६ ॥
[~~
_ अभिधानराजन्द्रः |
मज्भमबुद्धि
अज्ञानाद् वद्ध॑मानं हि, पापं वोवायंता5मुना ।
राक्षितानि मया यूय-मत प्वेदमाख्यत ॥ १२७ ॥
यतः--
घन्यानामाजेव, येषामेतच्वेतसि वत्तेते ।
श्रज्ञानादाचरन्तो ऽपि, पापे ते स्वल्पपातकाः ॥ १२८ ॥
तदेवेविघभावानां, द्राणां युज्यतेऽ धुना ।
अज्ञानपापे निद्धौय, सम्यग् धर्मनिषेवरम् ॥ १२६ ॥
उपादेयो हि संसारे, धर्म एव वुधैः सदा ।
विशुद्धो मुक्कये सर्व्वं, यतो ऽन्यद् दुःखकारणम् ॥ १३० ॥
अनित्यः प्रियसंयोगः, दष्याशोका ऽऽदिसङ्कलः।
अनित्य योवने चापि, कुत्सिता 5ऽचरणा ५ऽस्पदम् ॥ १३१॥
नित्यं सर्वमेवेह, भवे वाद्धितरङ्गवत् ।
छतो वदत कि युक्ता, क्वचिदास्था विवेकिनाम् ? ॥ १३२॥
श्रुत्वेति राज्ये सस्थाप्य, शुभा ऽऽचाराभेध सुतम् ।
प्रावाजीटलुभूपालो, जायापुत्रबधूयुतः ॥ १३३ ॥
ततस्ते ऊष्णरूपे दे, डिम्भे तुरी पलायिते ।
शुक्करूप पुनर्डिम्भं, प्रविष्टं तनुषु क्षणात् ॥ १३४ ॥
कालज्ञेन ततध्ित्ते, सभार्येण विचिन्तितम् ।
पश्याहो घन्यता-ऽमीषां, यैः पराप्त बतमाहेतम् ॥ १३५ ॥
वये तु दैवभावेन, व्यर्थ केना55त्र वश्चिताः।
यद्वा सम्यक्त्वसंप्राप्त्या, खुधन्या वयमप्यहों ॥ १३६ ॥
सहषावथ तौ सूरेः, प्रणम्य चरणद्वयम् ।
तेनायु शिष्टौ स्वस्थाने, प्रापतां देवदम्पती ॥ १३७ ४
इदं पुत्र ! मया तुभ्य, कथित मिथुनद्धयम् ।
संदिग्ध.ऽथ टि तत् काल-विलम्बो गुखभाजनम् ॥ १३८ ॥
यदादिशति मामम्बा, क्ती ऽहं तत्तथेवदहि। `
इति जल्पन्मुदा मध्यः, प्रपेदे जननीवचः ॥ १३९ ॥
बालो ऽप्यथ स्वमित्रेण, मात्रा ऽकःशलमालया ।
अधिष्ठितो ऽभवद्वाढ-मरूत्यकरणा $ ऽतः ॥ १४० ॥
कुविन्दहुम्बमातङ्ग-जातीयास्वपि तद्धशः ।
अतिलोल्येन नारीषु, प्रावततैत निरन्तरम् ॥ १४१ ॥
ततश्च गतलज्गो ऽये, पापिष्ठः कुलदुषणः ।
पव स निन्यते लोके-म च पापान्निवर्व॑ते ॥ १७२॥
श्रथ निन्दापरे लोके, स्नेहविज्वत्षमानसः ।
लोकापवादभीरुस्त, मध्यवुद्धिरभाषत ॥ १४२ ॥
आतनों युज्यते कन्तु, तव लोकाविरुद्धकम् ।
अगस्यागमन निन्य, सपाप कुलदूषणम् ॥ १४४ ॥
स प्राऽऽह विग्रलन्धोऽसि, नूनं बन्धो ! मनीषिणा ।
नाहों ऽयमुपदेशानां, मौन्यभूदिति मध्यमः ॥ १४५ ॥
श्रपरेद्यमधघौ बालः, सम मध्यमवुद्धिना ।
ययौ लीलावरोद्यान-संस्थिते कामधामानि ॥ १४६ ॥
तत्र चैक्षिष्ट पार्वस्थ, गुप्तस्थानव्यवास्थितम् ।
कामस्य वासभवने, मन्दमन्द् प्रकाशकम् ॥ १४७ ॥
कुतूहलवशेनाथ द्वारे सस्थाप्य मध्यमम् ।
मध्ये पविष्टः सहसा, स बालस्तस्य सखद्मनः ॥ १७८ ॥
तत्र कामस्य शयने, कोमलामलतूलिके ।
भिच्रास्बादोषतो बालः, शेते स्म. गतपुरयकः ॥ १७६ ॥
इतश्च तत्रैव पुरे, बहिरङ्गनरेशितुः ।
शत्रुमदेलनास्ना 5 भूल् , प्रिया मदनकन्द्ल्वी ॥ १५० ॥
सा55गत्य तत्र कामोऽय, शय्यास्थ इति भक्तितः ।
स्पृशन्ती सर्वगाजेषु, तं बालकमपू पत् ॥ १५१ ॥
( ६
_अभिधानराजन्द्ः
_मज्ममवुद्धि _
ययो स्वमन्दिरे राज्षी, प्रपूज्य चे रतीश्वरम् । ,
वालस्तु तस्याः सस्पशी-वश्यो ऽभृन्नषएटचेतनः ॥ १५२ ॥
मया कथं नु लभ्यय-मिति चिन्तापरायणः ।
अलपोदक मीन इव, तत्रास्थाच्च स दुःस्थितः ॥ १५३ ॥
बालः कि चिरयत्येष, इति मध्यमब॒द्धिकः ।
प्राविशत् कामधामान्त-स्तदवस्थं ददश तम् ॥ १५७ ॥
उत्थापितस्ततो ऽनन, यावदाद न किञ्चन,
| तत्रत्य-व्यन्तरेण न्यवध्यत ॥ १५५ ॥
अपात्यत महीपीठे, स्वाज्ञीणमपात्यत ।
बहिरतक्ते5५पि लोकेभ्य-स्तद् वृत्ते च न्यवेदयत ॥१५६॥
तता गाढ़तरं प्राथ्ये, व्यन्तरान्मध्यब॒ुद्धिना ।
लोकेश्व मोचितो बालो, निन्ये च निजमन्दिरे ॥ १५७ ॥
मध्यवृाद्धमथो बालो-5प्राक्षिद् बन्धा ! किस त्वया ।
व्युदैक्ति वासभवना-च्नियान्ती काऽपि नायिका ॥ २५८ ॥
स प्राहाऽदाश यद्यव, हे भ्रातस्ताह कस्य सा?)
स स्माटाऽव भूपस्य, देवी मदनकन्दली ॥ २५६ ॥
तदारूङ्यावदद् वालः, कथे सा मादशामितलि !
मध्यमन तदाकूतं, ज्ञातमुक्क च तं प्रात ॥ १६० ॥
श्रातः ! केयमविद्या ते, यदेव तप्यसे किस ? ।
त्वया ऽधुनैव व्यस्मरि, यत् कच्छेणासि माचितः ॥ १६२ ॥
तच्छुत्वा वालको जज्ञ, कल्ललश्यामला55ननः ।
अयोग्यो ऽयमिति क्षात्वा, मध्यमो मानमाश्रयत् ॥ ६६२
इतश्चास्तामिते सूये, निःखत्य निजमन्दिरात।
गन्तु प्रवत्रते बालो-ऽभिमुखे नुपवेश्मनः ॥ १६३ ॥
श्रावस्नेहविमूढा 4 ऽत्मा, मध्यस्तत्पृष्ठतो ऽलगत् ।
केनाऽपि पुरुषेणा ऽथ, वालो ऽवध्यत निश्चलम् ॥ १६५ ॥
प्रक्षित आरडन व्योम्नि, तता मध्यस्तमन्वगात् ¦
रे रे क्व यासि यासीति, प्राप्तः प्राप्त इति छुचन् ॥ १६५ ॥
गृहीतबालः स पुमान् , त्षणे-(भूददशेनः।
आतृप्राप्ताशया मध्य-स्तथापि च वलेन हि ॥ १६६ ॥
वेश्मन् सप्तमे चादि, पुर प्राप कुशस्थलम् ।
नोदन्तमा्रमप्याप, खायुजस्य परे क्वचित् ॥ ६६७ ॥
ततो ्रातृवियोगा $ऽन्तैः, करटवद्धप्शलो वट ।
पतन् नन्दनसंन्ञेन, राजपुत्रेण वारितः ॥ ६६ ॥
पृष्टश्च नन्दनायाऽऽख्यत् , तं दृत्तान्तमशेषतः ।
स उचे भद्र ! यद्ववं,तहींएं सिद्धवत् तव ॥ १६६ ॥
तथाहि--
हरिश्चन्द्रो पो ऽ्रास्ति, स चारिभिरभिद्रतः
स्वचरं रतिकेल्या $ ऽख्ये, मित्रे प्रोचे कृताञ्जलिः ॥ १७० ॥
सखे ! कुरु तथा शत्रु-विघातं स्याद्यथा मम ।
ततो चपाय स ददौ, विद्यां शजुचिघातिनीम् ॥ १७१ ॥
ततः षारामासिकीं राजा, पूर्व सवामचीकरत् ।
श्रना वत्तते भद्र !, साघधनावसरः खलु ॥ १७२ ॥
तन्न हामाथमानीत, आकाश रतिकोलिनां ।
इता5प्म दन कोऽपि, पुमान् लक्षणलाक्तितः ॥ १७३ ॥
पापे पाप तदङ्गाख्#-पललस्तपणापरः।
विद्यां प्रसाद्य राट् चक्र, पश्चात्सवां दिनाए्रकम ॥ १७७ ॥
राजा 5धुना तु रक्तार्थ-मर्पिता स्ति पैव सः।
मध्यमः प्रा55ह ययव, तर्द ते द्शया55शु मे ॥ १७५॥
तनाप्यदर्शि चर्मास्थि-शपाक्षमुपतद्य तम् ।
|
~
भज्ज्रम वु
मध्योऽयानत कारुण्यात् ,सो5पि चास्मे समापयत् ॥६७६॥
उक्कश्च मध्यमस्तेन, राजद्रौद्यमिदं नच ।
इतो5पसर शीघं ५ आत्मान राक्षत -ऽस्म्यदम् ॥ १७७ ॥
भदप्रासाद इत्य श्त्वा, गलमादाय स्वौजसः |
मीतभीतेः.ऽपचक्राम, कमात् पा-ऽऽप स्वएत्तनस ॥ १७८ ॥
कथ कथमपि प्रऽऽप, वलितां बालकस्ततः ।
आख्यन्नस्द्लवन्मध्य-बुद्धः स्वे वृत्तमच्चकेः ॥ १७६ ॥
मनीष्यपि तदाः तजा--55गसज्ञोकानुवृत्तितः।
तत्कुरज्यान्तरितो 5श्नोषी--त्सर्वे बालविचेष्टितम् ॥ १८० ॥
ततस्तमाह है ऋतः}, कथित ते मया पुरा ।
यदेष स्पशैनः यापः, सर्वदोषनिकेतनम् ॥ १८१ ॥
चालो ऽप्यजल्दद् चादि, यदि वामायतेच्तणाम् ।
घप्लुयां कोमलस्फ्शों, तन्मे दुःखे न किञ्चिन ॥ १८२ ॥
द्भ्यो मनीषी तच्छत्वा, ही (हि) बालोऽयं वराककः ।
नेवापदेशमन्जाणां, खलदष्ट इवोचितः ॥ १८३ ॥
कि च--
पक हि सत्तरमल सहजों विवेक--
स्तलछद्धरवे सह सकसातै द्वतीयम |
छतद्द्वय भुवि न यस्य स तस्वतो प८घ---
श्तस्याप्यमागचलने खलु को ऽपरायः ? ॥१८४ ॥
मध्यबुद्धिरथोत्थाप्य, भक्कस्तेन वचल्विना
; त्वयाऽपि विनष्व्य, विलग्ननास्य पृष्टतः ॥ १८४ ॥
मनीषिणमसो प्राचे, एदकोशीः
अयप्रभ्नाति बालस्य; सह्लीउत्याजि मया5नथ्च ॥ १८६ |
इृदानीमाश्रायिष्यामि, वृद्धमागानुगामितास ।
ताञ्जाल
जलाञ्जलिमजत दस्य, सकलक्लेशसंहतेः ॥ १८७ ॥ |
नुगो भविष्य चे-च्दमिवाषं पुराऽपि हि ।
सादष्ये तदा भ्रात-र रदेखा दशाम् ॥ १८८ ॥
न्याः पुरयभाजस्ते, ये हि छुद्धालुगाः सदा ।
= ~ च हसेः त्तं
छा दुगबत्य,
स्वयं [सर्द चत सताम् ॥ १८६ ॥
दससुविधेयं च महतां,
प्रिया न्याया वृक्तिम लिनमसुभन्लेउप्यसुकर सम । ॥
असन्त नाभ्यथ्योः खुद्ृदपि न याच्यस्तनुधनः
सता केलोदिष्र विषममासिघारावतमिदम् ? ॥ १६० ॥
परं ममापि घन्यत्वे, किश्वनाद्यापि विते
यद्दं त्वामवाभूवे, बुद्धमार्गानुगासुकः ॥ १६१ ॥
किच--
रागा ऽऽदिषिः समं याति, शान्त स्मर्ता ‡शनः।
चत्ते प्रसन्नतां स्वान्तं, धुवं वृद्धानुगामिनाम् ॥ १६२॥
श्रो मातेव हितकृद् , दीपिकेवाथेदशीनी ।
नेरी गुरुवाणीव, पुसां बृद्धादुगामिता ॥ १६३ ॥
माताऽपि विकृति यायात् , कदाचिदेवयोगतः |
न पुनवृंद्धसदेय, कदापि विदिता सती ॥ १६४ ॥
घद्धवाक्यास्रतस्यन्द--खन्दरे तस्य माशसे ।
नराजमरालीय, सुस्थरा स्थातमश्नुताम ॥ १६५ ॥
यो वरृद्धमरडलीं मन्दा ऽ-मुपास्यव सर्मादते ।
तच्च विज्ञात॒मत्युच्चे:, स इच्छद्रमने करः ॥ १६६॥
बुद्धापदेशातग्मांश, प्राप्य यस्य मनोम्बुजम् ।
` न प्राबाधि कथं तज, गुणलन्मीः समाश्रयत् ? ॥ १६७ ॥
( ६६ )
ऋ मध्रानराजन्द्रः
कथ तस्य वराकस्य, पाप्पङ्ः प्रहीयतास् ।
चृदधवागवारिभेर्येन, ना ऽत्मा प्राक्ालि कर्हिचित् ॥ १६८॥
चुद्धोपजीबिनां पुसां, करस्था एव सपदः ।
कि कदापि विषीदन्ति, फलैः कल्पद् भाजिनः ॥ १६६ ॥
वृद्धोपदेशबोहित्थेः, सत्काष्टेशुणयान्त्रितेः ।
तीयेते दुस्तरो<प्येष, भविके राशसागरः ॥ २०० ॥
' मिथ्यात्वाउदिनभोत्तुक्ष-श्टज्ञलमभज्ञाय कल्पते ।
देहिनां चुृद्धसेचोत्थ-विवेककुलिशो खयम् ॥२०१॥
नृण तमिखमश्चान्त, तीयते त्तणमञजतः ।
चुद्रानुसेवया नून, प्रभयव प्रभाषते: ॥ २०२॥
प्केव वृद्धसत्सेवा, स्वातिदशि्निपेतुषी ।
स्वान्तशुक्षिषु जन्तुना, ग्रसते मोक्किकं फलम् ॥ २०३ ॥
विश्वविद्याखु चातु, विनयेष्यतिकोशलम ।
कलयन्ति गतक्लेशे, चद्ध सेचापरः नराः ॥ २०७ ॥
शरीरा $ऽदहारसंखार-कामभोगेष्वपि स्फुटम् ।
विरज्यति नरः कतिर, बद्धे स्तच्वे प्रबोधितः | २०४ ॥
ज्ञानष्याना+ऽदिश्न्योऽपि, चद्धान् यदि महीयते !
विलङ्घ्य भवकान्तारे, तदा याति मदादयस् ॥२०६॥
कुवेन्नपि तपस्तीच, विद्न्नप्यखिले श्रुतम् ।
ना ऽ-ऽखादयति कल्याण, चेद् चृद्धानवमन्यते \ २०७ ॥
न तल्लोके षरं धाम, न तत्सो ख्यमखांरंडतस् !
यद् वृद्धवरिवस्याकृ-पक्षाउ5प्नोति युरुषः स्तणात् ॥ २०८ ॥
यामाप्य जायते चरं, स्वप्नेऽपि न हि दुर्गति
चिरं विजयतां सेषा, वृद्धपादानुगामिता ॥ २०६ ॥
एवे तस्य वचः श्रुत्वा, मनीषी मोद्मेदुरः
स्वे धामाऽगमदेषोऽपि, यमेकमरतो ऽभवत् ॥ २१० ॥
बालस्त्ववाक्कामित्राभ्यां, प्रेयेमाणों मुहुसूडः !
शत्रुमदेनरादसोधघं, प्रदोषे 5गाद् दुराशयः ॥ २११॥
तदा मण्डनशालायां, देवी मदनकनन््दली !
आउत्मान मणडयन्त्यासीद, विविचेवरवर्णकेः ॥ २१२
स चापा दैवयोगेन्त-यिशद्वासगदे दु तम् ।
अस्वाप्सीन्सप्शय्याया-महो स्पशी शत रुवन् } २१ २
देतस्च त्रपमाच्छन्त, दषा बाला भयाऽ+कुलः।
शय्याता न्यपतद् भूमा, ज्ञातश्चासा मदाभ्रुजा \॥ २१४५ ॥
क्रुद्धो रार् स्वनरं प्रा, रे रे पप्र नराऽधमः।
सोघेऽत्रेव कदर्यो हि, सर्वामपि तमस्विनीम् ॥ २१५॥
ततस्तन निवद्धो ऽस्मै, स्तम्थे दस्भालिकराटक ।
उत्सिक्ृस्तप्ततदेश्च, क गप्थिरति ताडितः ॥ २१६॥
श्रङ्कल्यन्रषु विज्षिप्ता-स्तस्यां :<यस्यशलाकिकाः।
क्रन्दतोऽस्य वराकस्य, सा ययो सकला निशा ॥ २१७ ॥
प्रातः क्रन॒पा5<5देशाल , तस्या; ऽरच्तकपूरुषाः।
आरोपयन खरे5कर्ण, चूरीगेरिकयुराडकम् ॥ २१८ ॥
शिरोध्रुतकलिञरं च, निम्बपत्रस्नजाओितस ।
कश्चित् केशेषु दधे ८थ, भल्लूकमि य लुब्धकः ॥ २१६ ॥
जघानाऽन्यश्चपेटाभि- भूता ऽतै मिव मान्तिकः । ;
यष््थान्यो ऽताडयद् गेह-प्रविष्टभिव कुक्कुरम् }¦ २२० ॥
एवं विडम्बनापूर्व, ज्लामयित्वा ऽखिले पुरे ।
पादप सायमुद्वन्ध्य, पुरा55रक्षो 5विशल् पुरम् ॥ २२१
अथो दैवनियोगेन, व्रषटितस्तस्य पाशकः ।
` भ्राततश्च क्षिता वालः, क्षणात् संप्रातचतनः ॥ २२२ ॥|
श न । श्ट
सज्भमबद्धि
स्वर्मान्दरे शनेरागात् , प्रच्छन्नस्तस्थिवान् सदा ।
गाढभीत्या नरेन्द्रस्य, न नियाति स्म कुजचित् ॥ २२३॥
इतश्च तत्पुरोद्याने, खविलासा 55हये वरे ।
प्रबोधनरतिर्नाम, मुनीन्द्रः समवासरत् ॥ २२४ ॥
उद्यानपालकमुखात् , श्रुत्वा गुवोगप्म मुदा ।
अधिएष्टितः स्वया मात्रा, मनीष्याह्यास्त मध्यम् ॥ २८५ ॥
सोऽपि बाले हठेना5पि, समाहूय चयो ऽप्यथ ।
तजोद्यानवरे जग्मु-भूरिकोतुकसङ्कले ॥ २२६ ॥
प्रमादशखरा ऽभिख्ये, यव्ये तज्र जिनेशितुः ।
विस्वं युगा ऽऽदिदेवस्य, नतो मध्यमनीषिणों ॥२२७॥
देवदक्तिणभागस्थं, तो नत्वा ते मुनीश्वरम् ।
शुद्ध शुश्चवतुधेम, क्मममेप्रदशेनम् ॥ २२८ ॥
छम्का कुमित्रदोषण, स बालः शन्यमानसः।
सुर ग्राम्य इवानत्वा, श्रात्रोः पाश्वेसपाविशत् ॥ २२६ ॥
इतश्च जिनसद्धक्न-सुबुद्धिसचिवेरितः । |
समे मदनकन्दल्या, चेत्ये तज्रा.ऽऽगमन्नुपः ॥२३०॥
नत्वा जिन युरूखापि, राजा ऽश्रौषीत् सुदेशनाम् । +
सुब॒द्धिस्तु जिनाधीशे, स्तोतुमित्थ प्रचक्रमे ॥ २३१ ॥
जय देवाधिदेवा $ ऽधि -व्याधिंेधुयनाशन ! ।
सयदा सर्वदारिद्रश्य-मुद्राविद्वावणक्षम | ॥ २३२॥
अरगरयपुरयकारुणय-परया ऽ ऽपणचरुषध्वज ! ।
जय सरन्देदसन्दोद-शेलदम्भोलिखन्चिम ! ॥ २३३॥
स्परत्कषायसन्ताप-संपातशमनास्ुत ! |
जय संस्तारकान्तार-दावपावक पावन ॥ २३४ ॥
सदा सदागमास्भोज-विवोधनदिनग्रभुम्। |
नत्वा नत्वा भवे भावि, भविनः पतन खलु ॥ २३५ ॥
ये देवदेव संभीर--नाभे ! नाभेय ! भूरिभिः
दगुणः श्वं नियच्छन्ति, ते मुक्ताः स्युमेदटाद्धतम् ॥ २३६ ॥
देव ! त्वज्ञामसन्मन्जो, येषां चित्ते चकास्ति न।
मोहसपदिष तषां, कथ यातु क्षय क्षणात् ॥ २३७॥
परि स्पृशन्ति ये निव्ये, त्वदीये पदपङ्जम् ।
तेषां तीर्थेश्वरत्वा 5एदि-पदवी न दवीयसी ॥२२८॥
नमः लदशैनज्ञान-वीयो ऽ ऽनन्दमयाय ते । कप
अनन््तजन्तुसन्तान-त्राणघ्रवणचेतसे ॥ २३६ ॥ \-
प्व युजा 5<दिवीर्थशे, य स्तुवन्ति सदा नराः। :
देवेन्द्रवन्दवन्यास्ते, प्राप्नुवन्ति महोदयम् ॥ २४०॥
इति ती थपाति स्तुत्वा, सचिवेशः प्मादभाक ।
त्वा च सूरिपादाब्ज-मश्रोषीदेशनामिति ॥ २५१ ॥
यथा नरास्िघाः त्रेया, जघन्या मध्यमोत्तमाः ।
तेषु च प्रथमे रक्काः, स्परीने दुःखदायके ॥ २७२ ॥
समतावर्भिनो मध्याः, सदा तद्द्विष उत्तमाः।
क्रमेण नरकखगे-शिवा 5 5ख्यगतिगामिनः ॥ २७३ ॥
मनीषिमद्यराजा5 उद्या-स्तत् श्रुत्वा भाविता भ्रशम । `
वालस्त्त्रैकमनास्तस्थो, पश्यन् मदनकन्दलीम् ॥ २४५॥
मित्रास्वाप्ररणाद देव्याः , सखमुख सेप्रधावितः ।
अये स एव वालोऽय--सित्थुच कुपितो चपः ॥२४५॥
सतो राजभयाश्षष्टः , कामा55वेशः स बालकः |
नश्यन् भग्लगति भमो, न््यपतद्वतचेतनः ॥ २४६॥
आथ राशा गुरुः पृष्ठः, क पुमानत्र इदशः ॥
प्रोदस्पर्शनदो ष णे>त्यूचे सा रापि स्फुटम | २४७ ॥
८८
( ७० )
_मज्भपत्रुद्धि_ 003
आभिधानराजन्द्रः ।
धराधीशः पुनः प्रोचे, भाव्यस्य किमतः परम् ?।
गुरुः प्रा35ह क्षणादेष, रूच्छात् प्रास्यति चेतनाम् ॥२७८॥
इतो नश्यन कर्मपूर-प्रामा $ऽसन्न सरोव रे ।
श्रमखिन्नशरीरश्च, स्नानायष निमङ््दयति ॥ २७६ ॥
तत्र स्नानकृते पूव--मृवतीणा स्वपाक्रिकाम् ।
स्पृशन्नकेन वाणेन, चणडालेन ठनिष्यदे ॥ २५० ॥
नरकेषु तता गन्ता, ततास्तयच्वनन्तशः ।
भूयो ऽपे नरकष्वेवं, ्रमिष्यत्यव सर नो ॥ २५१ ॥
श्रुत्वेति मान्त्रणं प्रोचे, न पातिः क्राभदुद्धरः ।
भा मो निर्वासय क्षिप्रं, मदेशात् स्पशने झासुम् ॥ २५२ ॥
व्याघुख्थ यदि वा गच्छेत् , तदा लोदविनिर्मिते ।
यन्त्रे ्तिस्त्वा तथा पिष्या यथाऽयं भस्मसःद्धवेत् ॥ २५३ ॥.
श्रथ स्पृष्टमभाषिष्ठ, सूरिर्भो मजुजाधिप ! ।
नान्तरङ्गजनध्वंसे, बाह्योपायः प्रवर्तते ॥ २५७ ॥
` ब्रभाषे भूपतिभुयो, भक्कितस्तं गुरं प्रति !
स्वामिन्नुपायः कस्तर्हि, प्रोचे ऽनू चानयुङ्गवः | २५५ ॥
ज्ञानदशीनचारिवब-तपःसखन्तोषलत्तणम् ।
सुयन्त्रमप्रमादा $ ख्यं, साधवो वाहयन्ति यत् ॥२५६ ॥
तदेवा 5 ऽन्तरवैसीभ-ध्वेसे पञ्चाननायते ।
अटष्टपारसंसार-वार्डः भ्रवहणायते ॥ २५७ ॥
यतिधर्मक्रियासङ्को, वत् श्रुत्वा चपमध्यमों ।
सम्यकत्वमू लमनघं, गृदि धर्म समाश्रिती ॥ २५८ ॥
गाढं विज्ञपयामास, मनीषी तु मुनीश्वरम् ।
भगवन् ! देहि मे दीक्ता, मवाम्भोनिधिमन्यिनींम् ॥ २५६ ॥
वत्स ! मा स्म प्रमादीस्त्व-मेवमुक्ते च स्शरिणा ।
लतो मनीषिणे प्रोचे, राजा विस्मितमानसः ॥ २६० ॥
पसीद मदग छेदि, मुदं देदि क्षणं च मे ।
येनाहं ते महाभाग !, कुर्वे निष्कमणोत्सवम् ॥ २६१ ॥
ततो राजा5नुवृत्त्येष,ययो नूपनिञेतनम् ।
ददानो राज्ञ आनन्दे, ततरास्थात् सप्तवासरीम् ॥ २६२ ॥
अथ पञ्चभिः कुलकम्--
दिनात्ततो ऽमे चादि, कृतस्नानविलेपनः ।
श्ामुक्करत्नालङ्कारः, सदशांश॒कशोभितः ॥ २६३ ॥
प्रधानस्यन्दना 55रूढः, सार थीभूतभूपतिः ।
जङ्गमः करपशाखीव, दददानमनुत्तरम् ॥ २६४ ॥
वीज्यमाश्चामराभ्यां, श्वेतच्छत्रेण राजितः ।
बैतालिकैः स्तृथमान--निविडव॒तसंस्तवः ॥ २६५ ॥
अत्यद्भुतगुण्राम रामणीयकरज़िते |
तदैवापागतेर्देवेः, स्तूयमानः सुरेन्द्रवत् ॥ २६६ ॥
निषादिसादिपादाति-रथिकामात्यमध्यमैः ।
अन्वीयमानः स प्राप,स्थान सूरिपवित्रितम् ॥ २६७ ॥
ततो रथात् समुत्तीय, मनीषी पातकादिव ।
प्रमोदशख रा उभिख्य-चे त्यद्वारे शितः त्तणम् ॥ २६८ ॥
अत्रान्तरे नुपस्यापि, मनीषिचरित मुदा ।
परिभावयतः सम्यक्, निर्मलेनानतरा55त्मना ॥ २६६ ॥
चारित्रपिखामो ऽभूत् , कर्मकटप्रषवारिव्ः ।
श्रो बृद्धायुगामित्वं, देदिनां सर्वकाम ुक् ॥२७०॥ (युग्मम्)
ठतः सुबुदथमात्याय, देव्यै मध्यमवुद्धये ।
स्वामन्तेभ्यश्च भूनाथो, निजाभिप्रायभाख्यत ॥ २७१९ ॥
~
॥
४ 96 माज्मिश_
अचिन्त्यत्वाच्च महतां, संनिधेः खनिधरिव ।
सर्वे ऽपि जातचारित्र-परिणामास्तमृचिरे ॥ २७२ ॥
साधु साधु दितं देव !. युक्तमेतद्धवादशाम् ।
ससारे छात्र निःसारे, नान्यश्चारु विवेकिनाम् ॥ २७३ ॥
वयप्प्येतदेवेद, कतुमीहामहे- भो ! ।
तत् श्रुत्वा मुमुदे राजा, कैकीवाम्भोधरध्वनिम् ॥ २७४ ॥
राजचिह्न पंशाद्राज्ये, कृत्वा युत्र सुलोचनम् ।
ततो डुपानुगाः सर्वे, प्राविशन् जिनमन्दिरे ॥ २७४ ॥
जिनं संपूज्य सूरिभ्यः, काथितं तैः स्वचिन्तितम्।
साधु साधु महाभागाः |, इति प्रोवाच तान् गुरुः ॥२७६॥
ततः प्रवचन क्न, विधिना सारिणा स्वयम् ।
ते सर्व दीक्षिता पद, चान्घशिष्यत सादरम् ॥ २७७ ॥
तथाहि--
चत्वारि परमाङ्गानि, दुलेभानीह जन्मनाम् ।
मायुषत्वे श्रुतिः श्रद्धा, सयम वी्यमुत्तमम् ॥ २७८ ॥
पनां समग्रसामग्री, सपाप्य कथमप्यहो ।
भवद्धिन दि क्तव्यः, प्रमादो ऽ मनागपि ॥ २७६ ॥
ततस्तैः प्रणते: सवे-जजल्ये सूरिसंसुखम ।
एवमेतदितीच्छामः, कुमः पृज्यायुशासनम् ॥ २८० ॥
प्रहृष्टः स्थविरर्विभ्य-स्त सर्वै ऽप्यथ सूरिभिः ।
अआर्पिता श्रा्थिकाभ्यस्तु साध्वी मदनकन्दली ॥ २८१ ॥
काले विहत्य भूयांस-मागमोङ्घन वर्त्मना।
पर्यन्तका ले सप्रात्े, विधाया ऽऽराधनावििम् ॥ २८२ ॥
सर्वै ऽपि विमलध्यानाः, प्रतनूभूतकर्मकाः ।
मध्यमाऽऽद्ा गताः स्वर्ग, मनीषी तु शिवे ययौ ॥ २८३ ॥ `
बालस्य तु यदादिष्टे, भदन्तैभावि चेष्टितम् ।
तत्तथैवास्िलं जज्ञे, नान्यथा मुनिभाषितम् ॥ २८४ ॥
“ एवं चद्धाचुगत्वप्रगुणगुणजुषो मध्यबुद्धार्वेशुद्ध,
ज्छोक॑ कुन्देन्दुश््चे त्रिदिवशिवफलं धर्मकमौ55द्यवेत्य ।
भो भव्याः ! दुःखकक्षक्तयद्वदहने पुख्यकन्दाम्बुदाभे,
सपत्सपत्तिवीजे सकलगुणकरे धत्त यत्ने तद्र ॥ २८५ ॥ ?
ध० र० १ अधि० १७ गुण ।
मञ्छमा-मध्यमा-ख्ी० । बीरलिनेन्द्रस्य केवलोत्पात्तिस्थाने
मध्यमपापायाम् , आ० म० १ झ० ।
मज्मलोग -मध्यलोक-पुँ० । लोकस्य मध्यः, अस्य सकललों-
कमध्यवर्सित्वात् । मेरौ, जं० ४ वक्ष० | स०।
मज्छसंघयणचउक-मध्यसंहननचतुष्क-न० । मध्यानि म-
ध्यमानि प्रथमान्ति मवजानि, संहननानि अस्थिनिचया<55त्म-
कानि तेषां चतुष्कं द्वितीयत॒तीयचतुथपश्चमसंहननच-
तुष्कं, तानि चत्वारि-ऋषभनाराचसहनने नाराचसंहनन-
मद्धैनाराचसहनने, कौलिकासहननमिति । कर्म० २ कमे० ।
मज्छागिडई-मध्याऽऽकृ ति- खरी ०।मध्यमसंस्थाने,कमे०३ कर्म ०।
मज्छागिडचउक्क-मध्य (ऽऽ कृ तिचतुष्क-न०। मध्या मध्यमा-
श्नाद्यन्तवजौ आकृतयः सख्यानानि मध्या $ऽकृतयस्तासां चलु-
ष्कं द्वितीयठतीयचतुथेपञ्चमानां संस्थानानां चतुष्क, तानि
चत्वारि-न्यग्रोधपरिमरडलसंख्यानं, सादिसख्वाने, बामन-
सस्थान, कुम्जसस्वानमिति । कमे० २ कर्म० ।
मज्किम-मध्यम-पत्रि० । मभ्यमाविनि, उच ४ ऋ । म
० । चच्ये कायस्य
॥ ` पा
यमवयसि, सूत्र ० १ श्रु ७
( ७१
मज्किमि
_ _ _ अभिधामराजन्द्र।। |
सडगगिह
मध्यमः! “ वायुः समुत्थितो नाभे-सख्ये हटि समाहतः ।
नाभि प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्ुते ॥ १॥ ” इत्युक्क-
लक्षण स्वरभदे, स्था० ७ ठा० | अनु० ।
मज्किमउवरिमग-मध्यमोपरितन-पुं०। ग्रेवेयकदेवभेदे,स्था०
६ ख०।
> । अन्तरा लभवे, “पुरिमपच्छिमवज्ञा
मॉम्मिमगा वावीसं अरहंता भगवता चाउज्जामं धम्म,
पभाविति । ” स्था० २ डा० १ उ०।
मभिमगजिण-मध्यमजिन-पु° । अजिताऽऽदिषु जिननरेनद्रे-
चु, न०।
मञ्िमपावा-मध्यमपापा-स्ली० । बीराजनेन्द्रस्य केवलो-
त्पत्तिस्थाने, आ० चू० १ अ०। आ० म०।
मज्मिमपुरिस-मध्यमपुरुष-प० । बाखदेवेषु, तेषां तीथकर
चक्रिं प्रतिवास्छदेवानां च वला ऽऽद्यपेक्तया मध्यमवर्तित्वा-
त्। स० । स्था० । ( मध्यमपुरूषाः “ इत्थी ' शब्दे द्वितीयमा-
गे ६१६ पष्ठ गताः )
मज्मिमबुद्धि-मध्यमबुद्धि-एु० । ( कथा * मज्कमबुद्धि ` श-
व्देऽस्मिन्नेव भागे ६४ पृष्ठे गता ) कर
मज्किममज्मिमगे विज्जग-मध्यमम ध्यमंग्रेवेयक- ० । ग्रेे-
यकदेवभेदे,स्था० ६ ठा०।
मज्मिमवय-मध्यमवयस्-एँ० । परिपक्वबुद्धिके, आचा० १
श्ु० ८ आअ० ३ उ०।
मज्मिमसंघयण-प्रध्यमसंहनन-न० । ऋषभनाराचनाराच- |
मध्यनाराचकीलिकारूपेषु आद्यन्तरहितेषु संहननेषु, कर्म०
३ कमे० । ~
मज्मिमहेट्टिमगेविज्जय-म ध्यमाधस्तनग्रवेयक-ए ० प्रेवेयक-
देवभेदे, आ० चू० १ अ०।
मज्मिमिय-माध्यमिक-एँ० । शल्यवादप्रतिपादके बौद्धमेदे,
सम्म० |
मज्मिमिल्ल-मध्यम-ऐ;ु० । मध्यवर्तिनि, “चउरुत्तरमज्कि-
मिन्लाउ त्ति । ” आत्मा5छुलेन चतुरखुत्तरमङ्कुलशतं मध्यमाः
पुरुषाः | अनु० ।
मज्मिमिल्ला-मध्यमा-स््री० | सुस्थितसुप्रतिबुद्धा भ्यां निगे-
तस्य कोटिगणस्य चतु््यौ शाखायाम् , करप० २ अधि०
स्च्तण।
मटिआ-मृत्तिका-ल्ली० । “ वृत्तप्रवृत्तस्वत्तिकापत्तनकदर्थिते
ट:?॥ ८। २। २६ ॥ पषु संयक्कस्य टो भवति । प्रा० २ पाद् ।
मृत्स्नायाम् , , ओ० । स्क्तिकामय पात्रभेदे, स्था० ।
मद्िओवलित्त-म्रत्तिकोपलिप्त-त० । सतक्तिकया5वलिपते आ- |
हारे, आचा० २ श्रु० १ अ० ७ उ०। "४
मह्िया-मृत्तिका-खी० । पृथिवीकाये, प्रश्न० ३ सम्ब०्द्वार ।
विषाः ! शः> चू० । रा० । आव० । श्राचा० । स्था० ।
उत्त० । कमे, दश० ५ आ० १ उ०।
मद्दियापाणय-मत्तिकापानक-न० । कुम्मकारसस्वान्धिनि ष
- प्तिकामिध्रिते पानके, भ० ३ श० २ उ०।
मद्टियापाय-मृत्तिकापात्र-न? । शरावघटिका ५ दिके शएम-
ये पात्रे, स्था० ३ ठा० ३ उ०। नि० चू० । आचा० ( मृतिका-
पात्रविषयः ‹ पत्त ' शब्दे पञ्चमभागे ३६६ पृष्ठे गतः )
मद्दियाभक्खण-मृत्तिकाभक्षण-न० । खद्धक्षणे, खद्भक्षणं
श्रावकेण त्याज्यम्। तथा सृज्जातिः सवी ऽपि म्त्तिका ददै-
राऽऽदिपश्चेन्द्रियप्राणयुत्प्निनिमित्तत्वा $ऽदिना मरणा55
दयनथकारित्वात् व्याज्या,जातिग्रहणे खटिका ऽ-ऽदिसूचकं, त-
द्वत्तणएस्याऽऽमाश्रया $ऽदि दोषजनकत्वात् झ॒द्अहरं चोपल-
क्षणं,तेन सुधा ऽऽद्यपि वजनीयं,तद्धक्तकस्यान्त्रशाटा ऽ ऽदयनथ-
सम्भवात्.सखद्धक्तणे चासङ्ख्येयपूथिवीकायजीवानां विराध-
ना ऽऽद्यपि लवणमप्यसङ्ख्यपूथिवीकाया ऽ ऽत्मकमिति सचि-
तते त्याज्य,प्राशुकं ग्राह्य,पाशकत्वै चारन्यादिभ्रवलशखयोगेनेव,
नान्यथा, तत्र पुथिवीकायजीवानामसङ्ख्येयत्वेनात्यन्तसृच्म-
त्वात् । तथा च पञ्चमाङ्ग १६ शतकठतीयोदेशके निर्दिष्टा ऽ
यमथेः-- “ वञ्रमय्यां शिलायां स्वर्पपथिवीकायस्य वज्रलो-
श्केनेकार्विशतिवारान् पेषणे स्यके केचन जीवाय स्पृष्टा
अपि नति। ध० २ आधि० |
मदु-मृष्ट-ि० | शुद्ध, ओ० ! मसृणे, जी० ३ प्रति० ४ श्रधि०।
मसृणीकृत, सू० प्र०२० पाहु० । ज्ञा० । तेलोदका५ऽदिना ये-
षांशरार केशा वा सृष्टास्तेषु, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। अनु० |
च० प्र० | सूत्र० लपनिका.ऽऽदिना समीकृते, आचा० २ श्रु०
१ चू० २आअ० १ उ०। यष्ट इव मसृर्णीकृत इव ष्टः सु-
कुमारशाणया पाषाणप्रातिमावत् प्रमाजानिकया शोधिते,
आ० म० १ आअ० | औं० । जी० । प्रज्ञा० । रा० । जे० |
स्था० । घृष्ठा खुकुमालीकृत, कल्प० ३ अधि० ६ क्षख।
मटकन्नज्ञ-मृष्टकरीय--न० । चित्रितकरणा55भरणे , उपा०
१ अ०।
मदरगंड-मृष्टगणड-न०। ख्टौ -खष्टाकूतौ गरड येस्तानि। उ-
ज्लिखितकपोलेषु,ओ० । जी ०२ भ्रति श्रधि०। “मद्ठुगंडतले”
स्ट गरडतले करपीटके कणा 5 ऽभरणविरोषो यस्य सः ।
भ० २५ श०।
मड- मृत-चि० । जीवविमुक्के, कल्प० १ अधि० ७ क्ण ।
मडझआ-मृतक-ज्रि० । ^ प्रत्यादों डः ” ॥ ८ । १। २०६॥ इति
तस्य डः । मडश्रो । जीव विमुक्ते, भा० १ पाद।
मडंब-मडम्ब-न० । श्रद्ध ठृतीयगव्यूतान्तग्रामान्तररद्िते च्रा-
वासे, प्रज्ञा० १ पद् । सर्वेतो दूरवत्तिसन्निवेशान्तरे, भ०१ श०१
उ०। जी० । दशा० । “जोअणमज्मंतरे जस्स गोउला ऽ ऽदीि
शऽत्थि तं मडवं । ” नि० चू० ५ उ० । ओऔ० । प्रश्न० । ग०।
श्रद्धठृतीयगव्यूतान्तच्रौमरदहितानि ग्रामपश्चशत्युपजीव्यानि
वा मडम्बानि | जञ० २ वक्ष० । ग्रामेयक मडम्बस् । सूचज० २
श्रु० २ अ। यत्र ग्रामा5<दि योजनाभ्यन्तरे सदिक्तु नास्ति
तन्मडम्बम् । ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । स्था० । आचा० । मडस्वं
नाम-यत्सर्वतः सवोखु दिक्तु चिन्नमद्धेदतीयगव्यूतिमयांदा-
यामविद्यमानग्रामा 5 5दिकम् । बृ० १ उ०२ प्रक०। यस्य पाश्बत
आसन्नमपरं ग्रामनगरा ऽऽ दिकं नास्ति तत्सवेतश्छिन्षजना ऽ
श्रयविशेषरूपं मडम्बमुच्यते । | अनु० श्राचा०। जी ० । स्था० ॥
मडगागिह-मृतकग्रृह-न० । म्लेच्छानां गुहाम्यन्तरे शतक
परिष्ठापनस्थान, “मडगागिह साम मेच्छाखं घरम्मंतरे अख्ये
छदं विज्ञाति न दुजति तं मडगगिद्दं । ” नि० छू० ३ ० |
( ७> )
मटगच्छार
शद्भिधानराजन्द्रः।
मडगच्छार-मृतकत्षार-09० | आभनवद्रच पुञ्जीकृते म्छतके,
नि० चू० ३ उ०।
मडगलण-म्रतकलयन-न० । स्तकस्यापार दवकुल,
अस्स उवरि जे देवकुल ते ले भरणति । "`
६६
मड- |
नि० चू० हे उ०। |
मडगवच- मृतक्वचस्-न° सतक क्वथितभागे, नि०चू०३ड०। |
मडभ-मडभ- पुं०। कुब्जे, व्य० ३ उ० । न््यूनाधिकप्ममाणे,
स्था० ६ ठा० |
मडभकोड्ू-मडभकोष्ट-न० । वामनसेस्थाने, स्था० ६ ठा० । |
मडय- मृतक -न०। खृतक्देदे,आं० म० १ अ० । आचा०। (सूत- |
कं मरुदेव्याः प्रथमसिद्ध इति देवः पूजिते ततों लोक5ाप झु-
तकपूजा प्रव॒ृत्तेत्यक्नम 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे ११२७ पृष्ठे )
मडयचेइय-मृतकचैत्य-न० । सझतका55लये, यत्र झुतकानां |
प्रतिमाः स्थाप्यन्त । आचा० २ श्रु० २ चू० ३ अ० ।
मडयथूभिया- मृतकस्तूपिका-खा० । दग्धस्इतकापार कताया
सचत्वरायां स्तूपिकायाम् , आचा० २ श्रु २ चू० हे आ० |
मडयदाह-मृतकदाह-ए० | श्मशाना5 दा, यत्र झतका दह्यत । |
आचा० २ श्रु० २ चू० ३ ०)
मडाइ-मृताइदिन-त्रि०। खन जीववियुक्रमत्तीति । ज्ञा० १ श्रु
६२ अ० । प्रासुकभोजिनि,स० २ श० १ उ० | खता ऽदिनि,भ० । |
स्ता ¶दिनिग्रन्यवक्रव्यता--
मडा शं भते! नियंठे नो निरुद्रभवे, नो नि- |
रुदरभवपवंचे, णा पहीणसंसारे, णो पहीणर्ससारवेय- |
रिज, णो वोच्छिन्नसंसार, णो वोच्छिन्नसेसारवेय- |
णिज्ञ, नो निद्िय्ध, ना निद्धियऽद्रकरणिजे, पुणरवि इ- |
त्थतं हव्वमागच्छति ? । हता ! गोयमा ! मडाई शं
नियंठे °जाव पुणरवि.हत्थत्त हथ्यमागच्छड | ( सत्र
८७ )से ण॑ भते ! कि वक्तज्य सिया १ । गोयमा !
पाणति वत्तव्य॑ सिया, भृतति वत्तव्य॑ सिया, जीवेति वत्त-
व्वं मिया, सत्तेति वत्तव्वं मिया, विन्नू ति वत्तव्वे सिया,
वेदेति वत्तव्व॑ मिया, पाणे भए जीवे सत्त चिन्नू वेए
ति वत्तव्वं सिया । से केणड्दरणं भेत ! पारेति व-
त्व्वं सिया ०जाव वेदेति वत्तव्वं सिया ? । गोयमा !
जम्हा आशति पाणेति वा उससति वा नीससंति
वा तम्हा पाणेति वत्तव्व॑ सिया, जम्दा भूते भवः
ति भविस्सति य तम्हा भए ति वत्तव्य॑ सिया
जम्दा जीवे जीवइ जीवत्तं आउये च कम्मं उवजी-
वई तम्हा जीवेति वत्तव्वं सिया, जम्हा सत्त सु-
हाऽसुहेटिं कम्मेहिं तम्हा सत्तेति वत्तव्वं सिया, ज- |
महा तित्तकड्यक्सायअंबिलमहुरे रस जाणइ तम्हा वि-
न्न् ति वत्तव्य॑ सिया, वेद्ड य सुदृदुक्खं तम्हा वेदे- |
ति वत्त्वं सिया, से तेण
उ्ट्वेग ०जाव पाण ति वत्तव्वं |
सिग्रा ०जाव वेदेति बत्तव्चं सिया। ( सूत्र-८८ )
मडाई शं भंते! नियंठे निरुद्धभवे निरुद्धभवपवंचे ०जाव
निड्टियकरणिजे णो पुणरवि इत्थत्तं हव्वमागच्छति ? ।
दृता ! गोयमा ! मडाई णं नियटे °जाव नो पुणरवि
इत्थत्त हव्वमाच्छति, से णं ते ! कि ति वत्तव्वं सि-
या १ | गोयमा ! सिद्धे ति वत्तव्वं सिया, बुद्धे ति व-
त्व्वं सिया, युत्ते ति वत्तव्वं सिया, पारगए ति वत्तव्वं
सिया, सिद्धे बुद्धे त्ते परिनिव्वुडे अतकडे सव्वदुक्ख-
प्पहीे ति वत्तव्वं सिया, सेवं भते ! भते ! त्ति भगवं गो-
यमे समणं भगवं महावीरं वंदइ,नर्मंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता
संजगेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।(सृत्र-८६)
( मडाई ण भते ! नियंठे ' इत्यादि ) सृताऽदी-प्ासुकभाः
जी, उपलक्तणत्वादेषणीयाऽदी चेति दश्यं, निभ्रन्थः साधुरि-
त्यथः हव्वं ' शीक्रमागच्छुतीति योगः | किविधः सन ?, इ-
त्याह--- नो निरुद्धभवे ति ` श्ननिरुद्धा ऽग्रतनजन्मा , च-
रमभवः प्राप्त इत्यथः , अयं च भवद्धयप्राप्तव्यमोत्तो5पि
स्यादित्याह-' नो निरूद्धभवपवचे त्ति ` भाक्षव्यभवविस्तार
इत्यथैः । श्रये च देवमचुष्यभवप्रपञ्चापेत्तयाऽपि स्यादित्यत
आहर---' णे पहीणलंसारे त्ति ` अप्रहीणचतुर्गातिग-
मन इत्यथैः , यत एवमत एवं “ नो पदीणससारवेय-
यणिज्ञ त्ति ` अप्रत्तीणसंसारवेद्यकम्मा, अयं च सरूच्च-
दुरीतिगमनतोऽपि स्यादित्यत आह-- नो वोच्चिन्नलसारे
त्ति ' अच्नुटितचतुर्गतिगमनाजुबन्ध इत्यः, अत एव “नो वो-
जिछन्नसंसारवेयाणेज्े त्ति !* नो ` नैव व्यवब्छिन्नम--अ-
युबन्धव्यवच्छेदेन चतुर्मतिगमनवेयं कम यस्य स तथा,
अत प्व ' नो निद्धियद्रु त्ति अनिष्ठितप्रयोजनः, अत एव
“ नो निद्धियदुकरणिज्े त्ति" नो ' नेव निष्ठिताथौनामिव
करणीयानि-कृत्यानि यस्य स तथा, यत पवेविधो $सप्कतः
पुनरपीति, अनादों संसारे पूर्व प्राप्तमिदानीं पुनर्विशुद्धचर-
णावासेः सकाशादसम्भावनीयम् “ इत्थत्थं ति ` इत्यथम् ,
एनमथेम----अनेकशास्तियेड्नरनाकिना रकर्गातगमनलक्षण
( इत्थत्त इति ) पाठान्तरम् , तत्रानेन प्रकारेणत्थ तद्भाव
इत्थत्वम् , मनुष्या:६द्त्वामिति भावः । अनुस्वारलोपश्थ
प्राकृतत्वात् , (हव्वं ति ) शीघ्रम् । ( आगच्छुइ त्ति) प्राप्नोति ।
अभिधीयते च-कषायोदयात्परतिपतित्कर्णानां चारि्रवतां
ससारसागरपरिश्रमणम् , यदाद-'* जई उवसंतकसाश्रो,
लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं” इति । स च ससारचक्रगतो
मुनिजीवः प्राणाऽऽदिना नामषद्रेन कालभेदेन युगपच्च वा-
च्यः स्यादिति विभणिषुः प्रश्नयज्नाह-- से णो ` इत्या-
दि, तत्र ‹ सः ` निग्रन्थजीवः, किशब्दः प्रश्न , सा-
मान्यवाचित्वाच्च नपुखकलिङ्गन निर्दिष्ट इति, पएवमन्व-
थयुक्रतयव्यथैः, वक्तव्यः स्यात् , पाङृतत्वाच्च सूत्रे नपु
सकालिङ्गताऽस्येति , श्रन्वर्थयुक्कशब्देसच्यमानः किमसो
चक्कव्यः स्यात् ? , इति भावः । अब्रात्त स्मू- पारेति
वत्तव्वं ` इत्यादि , तत्र प्राण इत्येतत्त भ्रति वक्तव्यं स्यात्
यदाच्छासा 5 5द्मिक््वमाजमाश्रित्य तस्य निर्देशः क्रियते, एष
भवना $ ऽदिधर्मविवक्तया भरताऽऽदिशब्दपञ्चकवाच्यता त--
स्य कालभदन व्याख्यया, यदा तूच्छासा ५ 5दिधिमैंयुंगपदसी
विवच्यते तदा प्राणो भृतो जौवः स्वयो विज्ञो वदयि-
० ०2
।
न,
५७
सडाइ अभिषानराजन्द्रः । सडक
|
" = "क क द ° "2 "र.
।
|
।
।
।
तेत्येतत्ते प्रति वाच्य स्यात् , अथवा--निगमनवाच्यमेवेद- |
मतो न युगपत्पत्तव्याख्या कायति । । ' जम्हा जीवे ` दइ
व्यादि , यस्मात् ` जीवः ` आत्माऽसो “ जीवति ` भा-
शान् धारयति “ तथा ' जीवत्वम् ` उधपयोगलक्तणम् आ
युष्कं च कमे “ उपजीवति ` श्रजुभवति तस्माज्जीव इति
वक्तव्य स्यादिति । ` जम्हा सत्ते खुभा5सखुभोहिं कम्मेहि `
सक्रः-श्र'सक्रः, शक्तो वा--समर्थ
च्टाखु , अथवा सक्रः-सबद्धः शुभाशुभेः कर्मभिरिति ।
अनन्तरोक्रस्येवाथस्य विपर्ययमाह--“ पारगए त्ति ` पार-
गतः ससारसागरस्य भाविनि भृतवदित्युपचारादिति
|
|
।
|
|
|
खन्द्राख॒न्दराखु |
£ परंपरागए त्ति ' परम्परया--मिथ्यारष्ख्यादिगुरस्था- |
नकानां मनुष्याऽऽदिसुगतीनां वा पारम्पर्यण् गतो भवाऽस्भो- |
धिपार प्रांत परम्परागतः ! इहानन्तरं सयतस्य ससा-
रचरद्धिहानी उक्ते सिद्धत्वं चेति! भ० १ श० १ उ०।
मडासय-मृताऽऽश्रय-पु° । खतानामाश्रयः । श्मशाने, सत
स्तोकस्थाने च । नि० चू० ३ उ० ।
मीडअ-मर्दित-जि० । “४
कपर्द-मर्दिते दस्य ” ॥ ८। २। ३६॥ इति दस्य डः । मंडिओ ।
संघुष्टे, प्रा० २ पाद् ।
| मद्डक- मट्दुक-पु° । जग्रह वास्तव्यं स्वनामस्याते भगवतो
मटावाराजनस्य श्रावक, भट)
तत्थ खं रायगिदे नर मद्डए णामं समणोवासण षरि
सम्मदं-वितर्दि-विच्चदै- छदिः |
|
||
|
।
|
|
वसइ, अड्डे °जाव अपारिभूए अभिगय ° जाव विहर । |
तष्ट णं समे भगवं महावीरे अण्णया कयाह पुव्वा- |
णुपुव्वि चरमाणे °जाव समोसदे परिया °जाव प |
उज्ञवासई । तए शं मडडणए समणोवासए इमीसे कहाए |
लद्ध्ड समाणे हड्तुद्रे जाव दियए णहाएं ० जातं
सरीरे सयाच्रो गिदाओ पडिथिक्खमई, पडिणिक्कमडइ-- |
त्ता पायविहारचारेणं रायगिह शयरं ०जाव णिग्गच्छ- |
अद्रसामते- |
इ, णिग्गच्छडत्ता तेसि अध्मउत्थियाणां
शं वीईवयति । तए शं से अणणउत्थिया मदडयं सम-
वासयं अटूरसामते वीदवयमाणं पासइ , पासइत्ता
अष्पमष्ं सदावेंति, सदावेत्ता एवं. वयासी-एवं
खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह इमा कहा अधिउप्पकडा इम |
च शं मदडुए समणोवासए अम्दं अद्रसामंतेणं वीईबय- |
ति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह॑ मदडयं सम- |
शोवासस एयमद्रं पुच्छित्तए त्ति कट्ठ अध्ममण्णस्स ॐ
तियं एयमट पुडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता जणेव मट्डए स-
मणोवासए तेणेव उवागच्छंति , उवागच्छित्ता मड्डय॑
समणोवासगं एवं बयासी-एवं खलु मदडया ! तव
धम्मायरिए धम्मोवदेसणए णायपुत्ते पंचत्थिकाए पणण--
|
वेद-जहा सत्तमसए अण्णत्थियउदेसए ० जाव से |
कहमेय मदडुया ! एवं ? | तए शं से मड्डुए समणो |
बासए ते अण्णउ त्थिए एवं वयासी- जई कर्ज कजद्
१६
त 9:
जाणामो पासामो , अह कञ्ज ण कजद ण॒ जाणामो शं
पासामो ! तए णं अण्णउत्थिया मददुयं समणोवासयं
एवं वयासी-केस शं तुमं मड्डुया | समणोवासगा शं
भवसि, जणं तुमं एयमद्रं ए जाणइ, ण पासइ । तए शं
से मद्डए समशोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-अ-
त्थि णं आसो ! वाउयाए बाति ? ¦ टता मदटुया !
- वाति । तुव्भे णं आसो | बाउयस्स वायमाणस्स स्वं
पासह ? । णो इणज्ट्रे "समद्टे । अत्थि शं आउसो ! षाण-
सहगया पोग्गला ? । हंता अत्थि | तुब्भे श आउसो !
घाणसहगयाण्ण पोग्गलाणं स्वं पासह ? णो इण्टर समद्र
अत्थि णं आउसो ! अरणिसहगण अगणिकाणए ? । हंता
आत्थि तुब्भे णं असो ! अरणिसहगयस्स अगणिका-
यस्स स्वं पासह १ | शो इणट्रे समद्र । अत्थि णं आउ-
सो | सथुदस्स पारगयाई रूवाई १ । ₹ंता अत्थि । तुन्भे
णं आउसो ! सथुदस्स पारगयाई रूवाई पासह ? । शो
इणे समद ! अस्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रू-
वाई १ । हंता अत्थि । तुन्भे णं आसो ! देवलोगगयाई
रूवाई पासह ? । णो इणट्टे समद्र । एवामेव आसो !
अहं वा तुन्मे वा अछो वा छरमत्थो ण जाणइ, ण पा-
सह, तं सव्वं ण भवसि, एवं भे सुबह लोए ख भविस्स-
तीति कदु ते अष्पउत्थिए एवं पडिहणति, एवं पडिह-
णेत्ता जणेव गुणसिलए चेहए जेव समे भगवं महावीरे
तेशेव उवागच्छ्ड , उवागच्छइत्तः समणं भगवं महावीरं
पंचविहेणं अभिगमेणं त्र भि जाव पज्जुवासइ ! मडूयादि
समे भगवं महावीरे मदड़य समणोवासयं एवं वयासी-
सुटठु शं मडडया ! तुमं ते अणणउत्थिए एवं वयासी साहू
शं मइया ! तुम्हं ते अण्णरत्थिए एवं वयासी-जे णं म-
ड्या ! आईं वा हेउ वा पसिणं वा बागरणं वा अण्णाय॑
अदिं असुअं अ्र्मतं अविणएणातं बहुजणमज्के आधवेइ,
पत्मवेइ० जाव उवदेसेइ, से णं अरिहंताण आसादणयाए
वदद , अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए उडद +
केवली णं आसादणयाए वइइ, केवलिपष्पत्तस्स धम्मस्स
आसादणयाए बड्ड , तं सुट णं तमं मद्डया ! ते अ-
प्यउत्थिए् एवं वयासी-साहु सं तमं मड्डया { ० जाव
एवं वयासी । तएं शं मदडए समणोवासए समरणं भग-
वया महावीरेण एवं वृत्ते समाे हद्रतुदरे समणे भगवं म-
हावीरे मटड़यस्स समणोवासगस्स तीसे य ° जाव परि-
सा पडिगया । तए णं मदडए समणोबासए समणस्स
भगवआओ महावीरस्स ° जाब शिसम्म हड्डतुई पसिणाई
पुच्छई, पुच्छइत्ता अड्भाई परियाति, परियाइत्ता उड़ाए उ!ट्-
( ७४ )
मसडडुक
अभिधानराजन्द्रः । े म.
ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ ०जाव पडिगए
मेते | ति भगवं गोयमे समर भगवं महावीरं वंद, ण |
मस, वंदइत्ता णमेसित्ता एवं वयसी-पभू णं भदे !
मड्डइए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं० जाव प-
व्वहत्तए ?। णो इणट्टे समद्र । एवं जहेव संखे तहेव अ- |
रुणाभे ० जाव अंत करेहिति |
“ पर्व जहा सत्तमे सप । ” इत्यादिना यत्सूचितं तस्या- |
उर्थनेशो द्श्यते-कालोदायिसलादए्यिसेवालादायिप्रथृतिका- |
नामन्ययूथिकानामेकर संहितानां मिथः कथासंलापः समु-
त्पन्नो , यदुत महावीरः पञ्चास्तिकायान् धर्मास्तिकाया 5<-
दीन् प्रज्ञापयति । तवर च धमौधर्माऽऽकाशपुद्धलास्तिकाया-
नचेतनान् जीवास्तिकाये च सचेतनं तथा धमोधमौ ऽऽकाश- |
जीवास्तिकायानरूपिणः पुद्धलास्तिकायं च रूपिणं प्रज्ञाप-
यतीति । “से कटमेयं मरणे एव ति ।” श्रथ कथमेतद्धमास्ति-
कायाऽऽदिवस्त्, मन्ये वितकौ थैः, एवे सचेतनाचेतनाऽदिना
रूपेणादश्यमानत्वेनासम्भवस्तस्यति हृदयम् ।““श्रवि उप्पकडे
सि" श्रपिशब्दः सम्भावनाथै उत्-परवल्येन प्रस्तुता प्रकटा वो-
त्पकृतात्प्कटा वा;अथवा,अविद्वद्धि रजानद्धिः प्रकृता प्रस्तुता
वा अविद्वत्पकृता । जइ कज्जं कजद जाणामो , पासा-
मो त्ति। "यदि तैद्धमास्तिकायाऽऽदिभिः कार्य खकीये क्रि-
यते , तदा तेन कार्येण तान् जानीमः पर्यामश्चावगच्छा-
म इत्यथः | धूमेनाभिमिव ,अथ कार्य तैन क्रियते तदा न
जानीमो न पश्यामश्च,च्रयमभिभ्रायः कार्याऽऽदिलिङ्गद्वारेणवा-
वागशाम्तीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, न च चम्माीस्त-
काया 4ऽदीनामस्मत्प्रतीतं किञ्चित्कार्या ऽ ऽदिलिङ्गं दश्यत इति |
तद्भावात्तान्न जानीम एवं वयमिति । अथ मद्दुकं धर्म्मा-
स्तिकाया ऽऽद्यपरिज्ञानाभ्युपगमवन्तमुपालम्भायितुं यत्ते प्राहु
स्तदाइ-केस श इत्यादि । क एष त्वं मद् दुक ! श्रमणोपा-
खकानां मध्ये भवसि , यस्त्वमेतमर्थ श्रमणोपासकन्ञेयं ध-
मोस्तिकाया 5 ऽद्य स्तित्वलक्तणे न जानसि न पश्यसि, न क-
श्चिदिव्यर्थः । श्रथैवसुपालब्धः संन्नसो यन्तैरदश्यमान-
त्वेन घमौस्तिकाया ऽऽयसम्भव इत्युक्घ, तद्धिघटनेन तान् प्र-
तिहन्तामदमाह-'अत्थि स' इत्यादि । 'घाणसहगय त्ति ।'घ्रा-
यत इति घ्राणो गन्धगुणस्तन सदगतास्तत्सहचरिता--
स्तद्वन्तो घ्राणसदहगताः 'अरणिसहगए त्ति। 'अराणिरग्न्यथ |
निर्मन्थनीयकाष्ठ तेन सहगतो यस्स तथा। “ तं खदु ण मडडु-
या तुमं ति।' खरत्वं दे मड्ड्क ! येन त्वयाऽस्तिकायान् जा-
नता न जानीम इत्युक्रमन्यथाऽ जानन्नपि यदि जानीम इत्य-
भणिष्यस्तद्ा ऽददादीनामाशातनाकारको 5भविष्य स्त्वामिति ।
पूर्व मडड॒कश्रमणो पासको-५रुणामे विमाने देवत्वेनोत्पत्स्यत
इत्युक्म । भ० १८ श० ७ उ०।
मडू-मृद् -धा० । मर्दने, गरदो मल-मढ-परिहृद्ट-खड्-चडु-
मइ-पन्नाडाः ” ॥ ८। ४ । १२६॥ मरृदनातेरेते सप्ता55देशा
भवन्ति । सुदेनाति । प्रा० ४ पाद० ।
छ-मठ-पुँ०./ “ठो दः" ॥ ८। ११६६ ॥ ” खरात्परस्या<-
लेषेँक्तस्थानावेशस्थ-ड्रू भवति । इति ठस्य ढः । शतिनामा-
श्रय, प्रा १ पाद्।
मद-धा० । मदने, “ मदो मल-मंद-परिदट्-खङ्-चड्-मदु-
पन्नाडाः ”॥८।४। १२६ ॥ मुद्नातेरेते सप्ता ऽ देशा भवति ।
मृद् धातोमेढा ५ऽदेशः । मढइ । आ० ४ पाद् |
| मण-मण-न० । साद्धंशतगद्याणनिप्पन्न मानभेदे , तं० ।
८८ अ यवस्त्येको [~ अ (~
. पट् सषपेयवस्त्वेको, गुड्जेकावयवेस्त्रीमिः ।
गुञ्जात्नयेण बल्ल: स्याद् , गद्याणस्ते च षोडश ॥ १॥
पलं च दशगद्ारे-स्तेषां सादधशतेमणम् | ” तं० । कल्प०
१ आधिं० १ क्षण ।
मनस्-न० । मन ज्ञाने इत्यस्य धातोरखुचप्रत्ययान्तस्य' म~
नः । अन्तःकरणे, दश० -१ अ० । श्राचा० । सू्० । श्राव!
छमो० । स्था०। सङ्कल्पञ्यापारवति, स्था० ३ डा० ३ उ०
उत्त० । आव० । चित्तं मनो विज्ञानमिति पयौयाः । अनु० ।
शत्र मनःकररएव्याख्यानायाऽजहद-
मणण व मन्न बाऽ-णेण मणो तेण दव्वओ तं द ।
तजोग्गपोग्गलम्य, भावमणो भण्णए मता ॥३४२५॥
“मन ज्ञाने ' “ मयु बोधने ` वा मननम् , मन्यते बाउनेनेति
मनस्तन मन उच्यते- तञ्च द्रव्यतो द्रव्यमनस्तद्योग्यपुद्ध-
लमयं दष्टव्यम् । भावमनस्तु मन्ता जीवो भख्यते । द्दमु-
कं भवति-मनो द्विविधम--द्वव्यमनः, भावमनश्च । तत्र
यत् तदयोग्येमेननयोग्येमेनोकगेणाभ्यो गृीतैरनन्तेः पुद्ले-
निकृत्तं तद् द्रव्यमनो भणयते । यत्तु तज्जन्यं मनने चिन्त-
ने तद् भावमनोऽभिधीयते । इद तु तद्व्यतिरिक्कत्वाद्
मन्ता जीवो भावमनस्त्वेनोक्त इति ॥ ३५२५ ॥ विशे० ।
इरा० म० । आ० चू० । ने० |
तिविहे मणे पष्यते । तं जहा-तंमणे, तयन्नमणे, शो
रमणे । तिविहे श्रमणे पन्नत्ते तं जहा-णो तं-
मरे, णो तयनमणे, अमणे । ( सूत्र-१७५ ) स्था० ३
ठा० ३उ०।( र, ! शब्दे व्याख्या )
आत्मा मन, अन्यद् वा मनः १--
आता भते ! मणे अरणे मे १ | गोयमा { णो अता
मणे, अघे मणे, जहा भासा तहा मणे वि० जाव शो
अजीवाणं मणे । पुनि भते ! मणे मणिज्जमाणे म-
णे ?। एवं जहेव भासा पुच्ि भते ! मणे भिजर्,
मणिजमाणे मणे भिजई,मणसमयवीदकंते मणे भिजह १)
एवं जेव मासा । कइविहे णं भते ! मणे पष्पत्ते !
गोयमा ! चउव्विहे मणे प्ते । तं जहा-सचे ०जाव
असचामोसे | ( सूत्र-४६४ )
( श्राया भते} मणे इत्यादि ) पतत्सृत्राणि च भाषासू-
च्रवन्नेयानि । केवलमिह मनोद्रव्यसखमुदयो मननोपकारी म-
नःपयौत्तिनामकर्मोदयखम्पा्यो, मेदश्च तेषां विदलनमात्र-
भिति । ( अनस्तरं मनो निरूपितं, तथ्य काये सत्येव भव-
तीति कायनिरूपणाया ऽ $इ-( आया मेते ! कायेव्यादि )
{ ७५ ). ।
सण अजिधानराजेन्द्र। । __सण
आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात्, न ह्यन्येन कृतमन्यो-
उनुंभवत्यक्ता35गंमप्रसज्ञत् , अथान्यः आत्मनः कायः कायै-
कदेशच्छेदेषपि संवेदनस्य सम्पूरोत्वेनाभ्युपगमादिति भ्र
श्नः, उत्तरम्-त्वात्माऽऽपि कौयें: कथश्चित्तदव्यतिरेकात्त्ोर-
नीरवत् श्रगन्ययःपिरडवत् , काञ्चनोपलबद्धा , शरत एव
कायस्पशें सत्यात्मनः संवेदने भवति, अत एव च कायेन
छृतमात्मना भवास्तरे वेते ऽस्यन्तभदे च अकृता55गमप्र-
सङ्ग इति । ) भ० १३ शं० ७ उ० ।
अत्थाणेतरचारि य, नियतं चित्तं ति कालविसयं तु ।
अर्थ शब्दा +ऽदाविन्द्रियव्यापारादनन्तरं चरति व्याभियत
इत्येवंशीलमर्थानन्तरचारि,इन्द्रियैः प्रथमं व्यावृत्ते पश्चाद् म- |
नो व्याप्रियते इति भावः। नियते नियताथविषयं नेककालमने-
कविषयमित्यर्थः, चित्त मनः। पुनः कथस्भूतमित्याह-त्रिका-
लविषयं त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्ये विषयो यस्य तत्तथा ।
खु० १ उ७ १ परक०।
मेनेसो ऽप्राप्यकारिता--
गेतुं नेएणं मणो, संबज्मइ जग्गओ व सिमिणे वा ।
सिद्धमिदं लोयम्मि वि,अमुगत्थगओ मणो मे त्ति ।।२१३॥
“ग॑तु' देहाद् निर्गत्य ज्येन मेरूशिखरस्थजिनपतिमाऽऽदिना
सम्बयते सेश्लिष्यते म॑नः। कस्याम्बर्थायाम् ?, इत्याद-
जाग्रतः, स्वप्न वा श्रजुभवसिद्धे चैतद् , न च ममेव
किन्तु सिद्धमिदं ल्केकेऽषि, यतस्तत्रा ऽप्येवं वक्तारो भवन्ति-
मुत्र मे मनो गतमिति । अतः प्राप्यकारि यनः । इति
चेरकगाथाऽथः॥ २१३ ॥
अत्रोत्तरमाद-
नाउणुग्गहोवधाया-भावाओ लोयण व सो दहरा ।
तोय-जलणाहवचितण काले ज॒जज दोहिं पि ॥१२४॥
न ' ज्येन सह सपृच्यते मनः ` इति गम्यत । कुतः ? ,
इत्याह-- श्रणुग्गहो-वघायाभावाडउ त्ति शेयक्तानुग्रहो--
पधाताभावात्, लोचनवत् । यदि तस्य ज्ञेयेन सह संपर्कः
स्यात् तदा कि स्यात् ?, इत्याह--' सो इहर त्ति ` तद् मन
इतरथा-श्लेयसंपर्क ऽभ्युपगम्यमाने, च्रोय-ज्वलनाऽऽदिविषय-
चिन्तनकाले द्वाभ्यामप्यनुग्रदोपघाताभ्यां युज्यते-तोय-
चन्दना 5 ऽदिचिन्तनकाल्वे शेत्या ५ ऽय्नुभवनेन स्परशनवदनुग्र-
हाते, ददहन-विष-शख्ा 5 ऽदिचिन्तनसमये तु तद्धदेवोपदन्ये-
तेति भावः, न चैवम्। तस्माज्ञोचनवदथाप्यकार्यैव मनः । इति
मीथाऽथः ॥ २१४ ॥
किञ्च-मनसः प्राप्यकारितावादिनः
प्रष्टव्याः । किम् ?, इत्याद--
दव्वं भावमशो वा, वएज़ जीवो य होड भावमणो ।
देहब्बावित्ततओ, न देहबाहिं तओ जत्तो ॥२१५ ॥
इद मनस्तावच् द्विधा -द्रव्यमनः, भावमनश्चेति । शतः
खूरिः परं पृच्छति--' दृव्वं ति द्रम्यमनः, मावमनो वा,
खजद् गच्चेव् मेर्थादिविषयसन्निधो' इति गम्यते । कि-
मनेन पृष्टेन । इति चेत्। उमयथाऽपि दोषः । तथादि-भाव-
मनखधिन्ताक्ञानपरिलामरूपत्वात्, तस्य॒ च जीवादव्य-
तिरिक्वत्वाजीव पव मावमनो भवति । जीवश्चेति चकारः |
“तओ ` इत्यस्या ऽनन्तरे सबन्धनीयः | ततो ऽयम्थः-सकश्च
स च भावमनोरूपो जीवो देहमातव्यापित्वाद् देदाद् न
बहिर्निःसरन् युक्रः, इह ये देहमात्रवृत्तयः, न तषां बहिर्निः-
सरणमुपपद्यते, यथा तद्गबतरूपा55दीनाम् , देदमावृत्तिश्च
जीवः । दात गाथाऽथः ॥ २९५॥
देहमात्रव्यापित्वस्या सिद्धि मन्यमानस्य परस्य
मतमाशङ्मानः सूरिराद-
सन्वगड त्ति च बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ त्प |
सब्वासच्वग्गहण-प्पसंगदोसाइओ वा वि ॥ २१६ ॥
श्रथ स्याद् बुद्धिः परस्य-सर्वगत आत्मा, न तु देहमात्र-
व्यापीच्रमूतत्वात् ,आकाशवदिति । अजञ्र गुरुराह-तदेतन्न |
कुतः ?, इत्याह-भावप्रधानत्वाल्लिर्देशस्य कठृत्वाभावा $4-
दिदोषत इति--सर्वगतत्वे सत्यात्मनः कृत्वा ऽ ऽद्यो गोपा-
ज्गनाऽऽदिप्रतीता अपि धमौ न घटेरन्निति भावः। तथाहि-
न कतौ ऽऽत्मा, सर्वगतत्वात् , आकाशवत् । आदिशब्दा-
दभोक्का, असंसारी, अज्ञः, न सुखी, न दुःखी आत्मा, तत
एव हेताः, तद्वदेव, इत्याद्यपि दष्व्यम् । आह परः-नन्वा-
त्मनो निष्क्रियत्वात् कर्तृत्वा ५ ऽयभावः साङ्ख्यानां न बाधाये
कल्पते । तथा च तेरुक्तम-- अकर्ता निगुणो भोक्ता55-
त्मा ” इत्यादि । पएतदप्ययुक्कम् , तस्य निष्क्रियत्वे प्रत्यत्ता $ऽ-
दिप्रमाणोपलब्धभोक्तत्वा ऽऽदिक्रियाविरोधप्रखङ्गात् । प्रक-
तेरेव भोगाऽऽदिकरणक्रिया, न पुरुषस्य, आदर्शप्रतिविम्बो-
दयन्यायेनव त्र क्रियाणामिष्टत्वादिति चत् । एतदप्यस-
ङ्गतम् , भ्रकृतेरचेतनत्वात् । “ चेतन्ये पुरुषस्य स्वरूपम् ।”
इति वचनात् श्रचेतनस्य च भोगा ऽऽदिक्रियाऽयोगात् , त्र-
न्यथा घटा ऽऽदीनामपि तत्पसङ्गादिनि। न केवलं कतृत्वा-
55द्यमावतः सर्वगतत्वमात्मनो न युक्तम् , किन्तु सवौऽ-
सर्वग्रहणध्रसङ्गतो ऽपि च तदसङ्गतम् । इदमुक्तं भवति-
आत्मनः, समग्राजिभुवनगतत्वे ्राप्यकारित्वेना ऽभ्युपगतस्य
तदव्यतिरिक्स्य भावमनसोऽपि सर्वगतत्वात् सर्वाथपराप्तः
सर्वेग्रहणप्रसज्ञः, तथा च सर्वस्य सर्वज्ञत्वप्रसक्रिः। अथोक्तन्या-
येन प्राप्रानपि सवौ थौनभिहितदोषभयात् न गरृहणातीत्युच्य-
ते। तहिं सवार्थाग्रदणपसङ्गः-ग्राह्यत्वनेष्टानप्यर्थान् मा ग्रहीद्
भावमनः, प्राप्तत्वाविशेषात् , अग्नाह्यत्वेनेशर्थवदिति भावः ।
- अथ प्राप्तत्वाविशिष्टत्वेषपि कांश्चिद्थानेतद् ग्रह्माति, कां-
द् नेत्युच्यते । तर्द व्यक्लमीश्वरचेष्टितम् , न चैतद् यु-
क्लिविचारे क्वचिदप्युपयुञ्यत इति । । आदिशब्दात्-सर्वग-
तत्वे ्रात्मनोऽन्यदपि दूषणमभ्यृह्यम् । तथाहि-यथा5हुष्ठा-
4 दौ दहनदादाऽऽदिवेदनायां मस्तकाऽऽ्दिष्वप्यसावनुभूयते,
तथा सवैत्रापि तत्प्रसङ्गः, न च भवति--तथाऽनुभवाभावा-
त् , अननुभूयमानाया श्रपि भावाभ्युपगमेऽतिपरसङ्गात् ।
किञ्च--सर्गतत्वे पुरुषस्य, नानादेशगतसखरक्चन्दनाऽङ्गना-
ऽऽ्दिसस्परशे ऽनवरतसुखासिकाप्रसङ्गः; वह्धि-शस्त्र-जला ऽदि-
सम्बन्धे तु निरन्तरदाह--पाटन-ङ्घिदना ऽ ऽदिपरसङ्गश्च ।
यत्रैव शरीरं तत्रैव सर्वमिदं भवति , नाऽन्यत्रेति चेत् । कु-
तः ?, इति वक्तव्यम् । श्राज्ञामाजरादेवेति चेत् । न, तस्वेहा-
विषयत्वात् । सहकारिभावेन तस्य तदपेत्तणीयमिति चेल् ।
न, नित्यस्य सहकायपे्लाऽयोगात् । । तथाहि--अपेक््यमाणु-
न सहकारिणा तस्य कश्चिद् विशेषः क्रियते, न वा? ।
यदि क्रियते, स किमर्थान्तरभूतः, श्रनर्थान्तरभूतो वा १ ।
| ५०००१ इुइुुुुु_ुुुुु॒तुतु............._््गम
बा
व]
( ७६
अभिघानराजन्द्रः। _
)
भण
यदादयः पत्तः, तर्हिं तस्य न किञ्चत् कृत स्यात् । अथापरः,
तर्हिं तत्करणे तदव्यातिरिज्स्या 5 ऽत्मनोऽपि करणप्रसङ्ात् ,
कृतस्य चाऽनियत्वात् तस्या ऽनित्यत्वग्रसङ्गः । अथ मा भू-
देष दोष इति “न क्रियते ` इत्यभ्युपगस्यते । हन्त ! न
तहिं स तस्य सहकारी, विशेषाकरणात् । श्रथ विशेषम- |
कुर्वन्नपि सह कारीष्यते , तर्हिं सकलत्रेलोक्यस्याऽपि सह-
कारिताप्राप्तिः, विशषाऽकरणस्य तुल्यत्वात् , इति वथा
शरीरमातापेत्ता, इत्यादययत्र बहु वक्तव्यम् , तत्तु नोच्यते,ग्रन्थ
गहनताप्रसङ्गात् । तस्माच्छसीरमाचरचरुत्तिरेवा 4 ऽत्मा, न सर्वे-
गत इति | अतस्तदव्यतिरिक्कस्य भावमनसो न शरीराद् बहि-
निःसरणमुपपएद्यत इति स्थितम् | इति गाथा थः ॥ २१६ ॥
थ द्रव्यमना वषयदश बजताात ब्रयात , वज्रा ऽन्याह्--
ट्व्वमणो विष्षाया, न होइ गंतुं च कि तपो कुण्ड ?।
अह करणभावओं त- स्स तेण जीवो वियणिजा ।२१७।
काययागसहायजावग्ृहाताचन्ताश्रवतकमनावगणा-$न्त+---
पातद्रवव्यसमृहा 55त्मक द्रव्यमनः स्वय वनल्चलात् न भवत्यव,
अचतनत्वात् उपलश्चक्लवत् , इत्यता गत्वा पं मवाद
एवष्यद्ग एक तद् वराक करातु :, तत्र गतादाप ततस्मादथा-
वगमाभावादात भावः | पराशय्षप्रायमाशकुत--- अह कर-
गत्यांद अथ मन्यस यदाप दृत्यमनः स्वय न काञ्चनाः
नाति, तथाऽपि करणभावः, करणत्वे तस्य द्रव्यमनसः प-
दीपा5 5देरिव वस्तुनि ग्रकाशायितव्ये समारूत । ततो जीवः क-
ती तन द्रव्यमनसा करणभरूतन विजानीयादववुध्येत मेबो-
दिकं वास्त्विति । अज्न प्रयोग:--बहिनिंगंतेन
प्राप्य विषयं जानाति जीवः,
चन्द्र-सूयौ ऽदिप्रभयेव । इति गाथाऽथः ॥ २१७ ॥
अज्नोत्तरमाह--
करणत्तशओ तणुसं-टिएण जाशिज़ फरिसणेण व ।
एत्तो चिय हेऊओ,न नीड बाहिं फरिसणं व || २१८ ॥
को वे न मन्यते, यदुत श्रथपरिच्छदे कतंव्य आत्मनो द्रव्य-
मनः करणम् ? ¦ किन्तु करणं द्विधा भवति-शरीरगतसन्तः-
पमनसा |
|
करणत्वात् , प्रदीप--मणि--
करणम्,तद्र हिभूते बाद्यकररणे च। त्रदं द वयमनो ऽन्तःकरण्- |
मेबा55त्मनः | ततश्च ˆ करणत्तणड त्ति ' स्स्य स्यूचामाच्-
त्वात् , पकदेशन समुदायस्य गम्यमानत्वाचयान्तःकरणत्वा--
दित्यर्थः , तनुसास्थितिन श्सीराद् बहिर्निंगतेन जीवस्तेन
जानीयाद् मवौदिविषयम् , स्पशनेन्द्रियेणेव कमलनाला ऽऽदि
स्पशम् । प्रयोगः-यदन्तःकरणे तेनं श्समरस्थेनेव विषय |
जीवो गृह्णाति, यथा स्पशनन , अन्तःकरणं च द्रव्यमनः ।
परदीप--मणि-चन्द्रश्सरयप्रभा ऽऽदिकं ते बाह्यकरणमात्मन इ
ति साधनविकलः परोक्कदृप्टान्तः। आह-लनु शरीरस्थमपि |
तत् पद्मनालतल्तुन्यायेन बहिद्वेव्यमनः कि न निःसराति ? , |
इत्याह-' पत्तो चियत्यादि ` इत एवान्तःकरणत्वलक्षणारे-
तोवदिने निगच्छति द्रव्यमनः, स्पश रवत | प्रयागः-यदन्तः- |
करणे तच्छुरीराद् विने निगच्छु^ » यथा प्पशनम् । इ-
ति गाधाऽथः॥२१८॥
तदेवे भावमनसो द्रव्यमनसश्च वदिश्चारितऽऽकभ्लवादप्रा- '
प्यका्यव मन इन्युक्कम् । स श्रते नाण॒ग्गहोबघायाभावाओं |
लायण् व ।' इत्यादिना मनसो ऽप्राप्यकारितायाम् , अनुग्नहो-. |
पघाताभावात् इति यः पुव हेतुरुक्तः,तस्य परोऽसिद्धं सस॒-
दइ्ावयन्नाह--
नज उवधाओ से, दोव्वक्नों-रक्खयाइलिगेहिं ।
जमणुरगहो सर हरिसा-इएहि तो सो उभयधम्मो ।२१६।
इह सुतनष्टा 55दिके वस्तु चिन्तयतः, अत्यातै-रोंद्रघ्या-
नप्रचृत्तस्य च * से ` तस्य मनस उपघातो ज्वायते5जुमीयते ।
केः?, इत्याद दौबैल्योरःच्ता ५ऽदिलिङ्कः द्यस्य देद्ापचयरू-
पम् , उरःच्तमुरोविधातः, हृदयवाधेति यावत् । आदिशब्दा
द् वात्रकोपवैकल्या ऽ ऽदि परिग्रहः ! अनुग्रहश्च ययस्मात् त-
स्ये्सगम-विभवलाभा ऽऽदिकं वस्तु चिन्तयतो दषा 5 ऽदि
भिरखमीयते । तच वदनविकाश-रोमाश्चो दमः ऽ+दिचिद्-
गम्यो मानसः प्रीतिविशयो दषः, आदिशब्दाद देदोपचयो-
त्सा ऽदि्रडः ! तत् तस्मात्कारणात् तदमनरपधाता.ऽयु-
ग्रहलक्तणोभययमेकमेव । यमच भावाथैः-यः शोकाऽऽय-
तिशयाद् देदोपचयरूपः, आआतोऽऽदिष्यानातिशयाद हृदरो-
गाऽऽदिसरूपश्चो पघातः, यश्च पुत्रजन्मा55यर्भाशप्राप्तिच्चि-
न्ताससुद्धतदषा ऽ ऽदिरयुग्रदः, स जीवस्य भवश्नपि चिन्त्य-
मानविषयाद् मनसः किल परो मन्यते, तस्य जीवात् कथ-
खिदव्यतिरि कत्वात् ! ततश्चैवं मनसो ऽजुय्रहो पध्ातयुङ्घत्वात्
` तच्छन्यत्वलक्तणो देतुरसिद्धः इति गाथा-ऽथः ॥ २१६ ॥
तदेतत् सर्वे परस्य ऽसब दभाषितमेवेति दशयज्लाह--
जई दव्वमणो5तिबली, पीलिज्ा हिदिनिरुद्धवाउ व्व ।
तयखुग्गहेण हरिसा-दउ व्व नेयस्स कि तत्थ १।२२०।
यदि-नाम द्ववयसनो मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्रलसमूदरूपम -
तिशयवलिष्ठमिति त्वा शोका-५ऽदिसमुद्धतपीडयए जीवं
कमता ऽ ऽप दद दोवल्या 5 ऽद्यापादनेन पीडयत् ,हश्निरुद्धवा-
युवत् : हृद यदे शा ऽ ऽश्रितनिविडमरुद्ग्रस्थिवदित्यथः यदि च
तस्येव द्रव्यमनसोा मनस्त्वपरिणतेष्टपुद्धलसंघातस्वरूपस्या-
उनुग्रहेण जावस्य हषा ५ ऽदयो भवेयुः, तर्हि ज्ञेयस्य चिन्तनी-
यमवीदम्नसो 5नुग्रहोपघातकर णे किमायातम् ?। इक्मञ्
हृदयस-मनस्त्थपरिणतानिष्टपुद्वलनिचयरूप॑ द्रव्यमनोाऽनि-
छचिन्ताप्रवतनन जी चस्य देहदोरयल्या55द्यापत्त्या हान्निरुद्ध-
वायुवदुपघात॑ जनयति , तदेव च शुभपुद्रलपिरडरूषं
तस्या 5नुकूलाबिल्ताज़नकत्वेन दषा ऽ ऽद्यभिनिवृस्या भेष--
जवदुग्रहं विधत्त इति । शलो जीवस्येलावयुम्रदो-
प्रातो द्रष्यमनः कराति, न तु मन्यमानम्बादिकं ज्ञेय म~
नसः किमप्युपकणर्ययति । शतो द्रव्यमनसः सकाशादा-
त्मन पएबा्रदापधातसद्धावात् मनसस्तु क्षयात् तदन्ध-
स्या ऽप्यभावाद् मस्तकाऽऽघातविष्टलभुतेनेवा ऽसवङभापि-
रा परण देतारसिद्धिरुद्धाविता | क्षत गाथा-ऽथः ॥ २२० ॥
श्राद-नन्वलोकिकमिदे, यद्-द्रव्यमनसा जीवस्य:
ददाप्रचयदौर्बस्या ऽ ऽदिरूपावयग्रहोपधघातौ
ज्यते, तथा प्रतीतरेवाभावात् ,
` शत्याशङ्कथाऽऽह--
इट्टा शिट्वा55हारब्भव- हारे होति पुद्टि-हाणीओ ।
जह तह मणसो ताओ, पोग्गलगुणउ ति को दोसो।२२१।
नयु किमिहाउलौकिकम ?, यतो भवतो लोकस्य च स-
। ३6
>>
मण ४ ४
चालगोपालस्य तावत्पतीतमिद यदुत--दण्ो मनाऽभर
आनराजन्द्ः)
चितो य आहारस्तस्याऽभ्यवद्टारे जन्त्नां शरीरस्य पु- |
शिमंवाति, यस्त्वनि ऽनभिमतं आहारस्तस्या 5 भ्यवहाः
हानिर्भवतीति । ततश्च ˆ जह त्ति ` यथा इष्टाउनिष्टाउ5-
हाराभ्यवहारे तत्पुद्धेलालु भावात् पुष्टिहानी
वत तथा यदि द्रव्यमनोालत्षणात् मनसोऽपि सकाशात्
“ ताउत्ति ` ते पुष्िदानी पुद्लगुएतः पुद्लानुभावाद्
भवतः, तहिं को दाषः
इषा ऽनिष्रपुद्धलमयत्वात् तदनुभावाजन्तुशरीयाणां पुण्र -
दानी जनयति, तथा द्रव्यमनाऽपि तन्मयत्वाद् यदि तेषां
त निर्वेतर्यात, तदा कि क्ष्यते, यन पुद्धलमयत्वे समाने-
ऽपि भवतो +त्रेवा-ऽत्तमा ?, इति भावः। तथा चोक्कम्-“ चि-
न्तया वत्स ! ते जातं शसीरकमिदं छशम् ¦ ” इति । चिन्तैव
तरिं काश्या ऽ ऽदुपधाता ऽ ऽदिजनिकेोति चत् । न, तस्या अपि
द्रव्यसनःप्रभवस्वात् , , अन्यथा चिन्ताया ज्ञानरूपत्वात् ,
ज्ञानस्य चाऽऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च नभस इवोपघाता5<-
दिहेतुत्वायोगात् , ' जमणुग्गहों--वधाया, जीवाणं पोग्गले-
.हितो ।' इति वक्ष्यमाणत्वात्च इति गाथा-ऽथः ॥ २२१॥
अथोपसंहारगर्भ प्रस्तुतार्थविषये स्वा-
भिप्रायपरमाथध दर्शयज्ञाह--
नउ आगसिउं वा, न नेयमालंबइ त्ति नियमोऽयं ।
तप्षियकया जऽणु-ग्गहावधाया य ते न5त्थि ॥२२२॥
इह न शरीराद् 'निगीन्तु' (निर्गत्य) द्रव्यमनो मेर्वादिक शेयम-
थमालम्बते गृह्णाति, नापि तच्छरीरस्थमव * श्रागसिडं ति `
आक्रष्ठुम ( आकृष्य ) हठात् समाङूष्या ऽ त्मनः समी-
पमानीय शेयमालस्वत इति, अये नियमो ऽस्माभिभुजसु-
भदत वता |
१, न कश्चिदित्यथैः । यथाऽऽहार |
न्क्िप्य विधीयते-प्राप्पकारीद न भवतीति नियम्यत इति |
तात्पयंम् । ` तरणेयकया जे 5खणुग्गहो-वघाय त्ति'यों च त-
ज्ञयक्रता तच्च त्ख्य ख तसञ्ज्ञय तकता, मनतसाऽचु-
ग्र पघ्राता पररनल्यत, तां तस्य न स्त पवाति च निय-
स्यते । इति गाथाऽथः ॥ २२२ ॥
, कि पुनन नियम्यते ?, इत्याह--
सो पुण सयञ्ुवधायण-मणुग्गहं वा करेज को दोसो !।
जमणुग्गहोवधाया, जीवाशं पोग्गलेहिंतो ॥ २२३ ॥
' स ` इति प्राकृतत्वात् पुल्निज्ञनिर्देशः, एवं पूवेमसरज्ञा- |
5पि च यथासंभव द्रष्रव्यम् ! तद् द्रव्यमनः पुनः स्वयमा- |
त्मना शुभा5शुभकर्मवशत इश्टाइनिष्टपुद्लसंघातघटितत्वा-
दनुग्रहोपघाता मन्तुः कुयात्, को दाष
नषद्धारः, क्नयक्तयोरेव तस्य तयोरस्माभिर्निषिध्यपान-
त्वादिति भावः। जीवस्याऽपि तौ द्रव्यमनःङृतौ किमिति
?-न चय तत्र |
न॒ निषिध्यते ? , इत्याह-- जमरणुग्गहो इत्यादि ` यद्य- |
स्मात्कारणादनअहोपधघातों जीवानां
प्रव, इश्टाउआानशशब्द--रूप--रखस-गन्ध-स्पशापशभागा 5 ए-
पदलेभ्य इत्ते य-- |
दघु तथादशनता5स्थाउथस्य नपद्धमशकयत्वादत्यथः । |
ट ननु शब्दाऽऽद्य इषाऽनष्रपुद्रला 4ऽत्मक्ा इात
पःयत्ता 5 ऽदि प्रमाणसिद्धत्वान् प्रतीमः. द्रव्यमनस्तु यदिदं कि- |
श्दुध्यः ? दान | अवाच्यत-यागनत्तावादिदं
>
प्रत्यक्षत एव
मपि भवद्धिरूदघ्रुष्यते तदिष्रा ऽनिष्युद्रलमयमस्तीति कथं |
\ ¢
मण
पश्यन्तः अवोग्दाश्शिनस्त्वनुमानात् । तथाहि--यदन्तरेण
यद् नोपपद्यते तदशनात् तदस्तीति प्रतिपत्तव्यम् , यथा
स्फार दशनाद् ददनस्य दाहिका शक्तकिः, नापपद्यते चेष्टा5-
निपुद्रलसंधाता 5 ऽत्मकटव्यमनोज्यतिरेकेण जन्तृनामिष्टा 5
निष्टवस्तुचि.तन समुपलन्धो बदनघ्रसन्नता-दे ददौवैल्या ऽऽ
ततस्तदेन्यथाऽनुपपत्तरस्ति यथोक्तरूप द्र-
व्यमनः । चिन्तनीयवस्तकृतातेतो मविष्यत इति चेत् । न, ज-
ल-ज्वलनोदना 5:दिवचिन्तने क्द-दाद-वभक्तापशमा 55दिप्र- ,
सङ्गादिति । "चिन्तया वत्स ! ते जात, शरीर कामिदं कृशम्
इत्यादिलोकोक्रश्चिन्ताज्ञानरृतौ ताविति चेत् । तदप्ययु-
क्तम् , तस्याऽमूर्तत्वात् , अमूर्तस्य च कंतृत्यायागात्ः ,
आकाशवद् , इत्युक्रत्वात् ; “ चिन्तया वन्स ! ” इत्यादि-
लोकोक्तश्च कार्य कारणशक्त्यध्यारापणापचार कल्यान ।
खदा ऽऽदस्तदृद् भूतिरिति चत्। कोऽयं नाम खदा 4 ऽदिः !।कि
तान्यव मनाद्रव्यारि, चिन्ता ऽऽदिज्ञानं वा ?। श्राद्यएक्त, सि-
इसाध्यता । द्वितीयपत्तस्तु विहितोत्तर एव । न च निरं
तुकावेतो , सर्वदा भवना.४भवनप्रसङ्गात् . “नित्ये सच्वम-
सत्वे वा, हेतोरन्यानपेन्तणात् । । अपत्तातों हि भावनां, का-
दाचित्कत्वसभवः ॥ १ ॥” इति । न च जीवा +ऽदिक एवाः
न्यः कोऽपि तयोर्देतुः, तस्य सदा ऽवस्थितत्वन तत एवं स~
वेदा भवनाऽभमवनप्रसङ्गात् । एवमन्यदपि सुधिया स्व
या समाधानमिह वाच्यम् , इत्यलमतिविस्तरेण । तस्मा-
दुक्रयुक्रिसिद्धं पुद्रलमयं दरव्यमनो मन्तुः खयै कुयादनुभ्न-
होपधातौ , क्ेयकृतौ तु तौ मनसो नस्त एवं, इति न त-
त्पराप्यकारि । इति माथाऽथः ॥ २२३॥ ।
श्राह--ननु जाग्रदवस्थायां मा भृद् मनसो विषयप्राप्ति
स्वापावस्थायां तु मवत्वसो, अ्रनुभवसिद्धत्वात् , तथा
अमुत्र मेरशिखरा ऽऽदिगतजिना ऽऽयतना 5 ऽदो मदीये मना-
गतम् › इति खुप्तः स्वन्न ऽनुभूयत एवं तथा च-- गत् न-
एण मखो, संबज्कइ जग्गओ व सिमिणे दा। ' इति मया प्रा-
गवोक्रम् , इत्याशङ्कथ स्वप्न ऽपि मनसः प्राप्यकारितामपा--
कलुमाह--
सिमिणो न तहारूवो, वभिचाराश्रो अलायचकं व |
वभिचारो य सदंसण-मुवघायाणुर्गहाभावा ॥२२४॥
इह ' मदीयं भनो ऽमुत्र गतम् ` इत्यादिरूपो यः सुप्तेरुप-
सभ्यते खद्मः, स यथोपलस्यते न तथारूप एव ` खप्नोप-
लन्धमोदकस्तथाविधपरमा ऽ ऽचार्वैरिव परेन सत्य एव मन्त-
व्य इत्यथः | कुतः ? , इत्या-व्यभिचारात्-अन्यथात्वद्-
शेनात् | किवद--यथा न सत्यम् ? ; इत्याह--अलातचक-
मिव--अलातमुल्मुकं तदृद्त्ताऽऽकारतया आशु श्रम्यमाणं
अान्तिवशाद्चक्मपि चक्त्या प्रतिभासमाने यथा न ख-
त्यम् , अचक्ररूपतःया एव तत्रा ऽवितथत्वात् , श्रमणों-
परम स्वभावस्थस्य तथेव दशनात् : पय स्वघ्नाऽपि न स-
न्यः, तदुपलदधस्य मनोमेरुगमना 4 ऽदिकस्या ऽधस्या उसत्य-
त्वात् । तदसत्यत्वं च परनुद्धस्य स्वप्नोपरम तद्भावात्। तद-
वश्च तदवस्थायां देद स्थस्थैव मनसा ऽनुभूयमानत्वादिति ।
आह- नन् स्वभ्रावस्थायां मर्चादों गत्वा जाद्रदवस्थायां निदृत्तं
तद् भावप्यति, इति व्यभिचारात् दर्न्यासिद्धा हतुः : इत्याश
ने प्रहापघाता,
=
( जदं
ग.
अभिधानराजन्द्रः)
|
घा 5 5ह- वभिचारो यत्यादि ` यो मया व्याभिचारो हेतुत्वे- |
नोक्कः,स चेत्थं सिद्धः। कथम्?, इत्याह-.सदसणमिति'विभक्रि- |
व्यत्ययात् स्वदशनादित्यथैः , स्वस्या ऽ ऽत्मनो मर्वादिस्थित- |
जिनगरहा ऽऽदिगतस्य दशने स्वदशैनं तस्मादति, एतदुक्तं |
भवति-यथा कदाचदात्मीयं मनः स्वप्ने मेवादो गतं क- |
शित् पश्यति, तथा कोऽपि शरीरमात्मानमपि नन्दन |
तर्कुखुमावचया ऽदि कुवेन्ते तद्रतं पश्यति, न च तत् त- |
भेव , इहस्थितेः खुप्तस्य तस्याऽतव दशनात् , दयोश्चा ऽऽ.
त्मनोरसम्भवात् , कुखुमपरिमला ऽ ऽदयध्वजनितपरिश्रमा-
-5ऽद्युश्रदोपधाताभावाञ्च । इति गाथा5थेः ॥ २२४ ॥
पतदेव भावयन्नाद--
इह पासुत्तो रच्छ, सदेहमन्नत्थ न य तओ तत्थ ।
न य तगयोवधाया-णुगगहस्वं बिबुद्धस्स ॥ २२५ ॥
इह जगति प्रसुप्तः कश्चित् स्वदेहमन्यत्र॒ नन्दनक्ना.ऽ दौ |
गते स्वपने पश्यति ¦ न च तकोऽसौ देदस्तत्र॒नन्दनवना-
5<5दावुपपद्यते, इहस्थितैरन्यैस्तस्या ऽतरैवोपलम्भात् , इत्याद्य-
नन्तरोक्कयुक्घेः । न च विबुद्धस्थ सतस्तद्रतयोरन्यत्र ग-
मनगतयोरन्यत्र गमनविषयोरनुग्रहोपधघातयो रूप कुसुमप-
रिमल-मागपरिश्रमाऽ ऽदिकं स्वरूपमुपलभ्यते। तस्मात् खा- |
पावस्थप्यामपि नाऽन्यत्र मनसो गमनम् , देहगमनदशनेन
व्यभिचारात् । इति गाथाऽथः ॥ २२५ ॥
अन्न विबुद्धस्य सतस्तद्वतानुग्रहोपघातानुपलस्मादित्य-
स्य हेतोरसिद्धतेद्धावनार्थं परः प्रा55ह--
दीसंति कासइ फुड, दरिसविसाद्ाऽऽदयो विबुद्धस्स ।
सिमिणाणुभूयसुखदु-क्खरागदोसाइलिंगाई ॥ २२६ ॥
{द कस्याचेत् पुरुषस्य स्वप्नोफलम्भानन्तरं विबुद्धस्य
सतः स्फुट व्यक्त श्यन्ते दर्विषादा ऽऽदयः, श्रादिशब्दा-
दुन्माद-माध्यस्थ्या ऽ ऽदिपरिग्रदः । कथैभूता ये दर्ष-विषा-
दाऽऽदयः ? इत्याह- सिमिरखेत्यादि ` स्वप्ने जिनस्नात्रदशै-
ना55दौ यदनुमूतं सुख, समीीदिताऽथौ ऽलाभादौ यदनुभूते
दुःख, तयोर्विषये यथासख्यं यो राय-देषो तयोललिज्ञानि
चिह्वानि दषैः-स्वम्रानुभूतखुख रागस्य लिङ्गं , बिषादस्तु त-
दनुश्रतदुःखद्वेषस्य लिङ्गमिप्ति भावः ।
तत्र--
“ स्वप्ने दष्टो मया5द्य जिभुवनमहितः पाश्वनाथः शिशुत्वे ,
द्वात्रिशद्धिः सुरेन्द्रेरहमहमिकया स्नाप्यमानः सुमेरो ।
तस्माद् मत्तोऽपि धन्यं नयनयुगमिदै येन साक्षात् स दष्टो,
द्रष्टव्यो यो महीयान् परिहरति भयं देहिनां सस्म्रतो ऽपि ॥९॥
इत्यादिकः खप्नानुभूतसुखरागलिदुं हषः ।
तथा--
« श्राकारत्रयतुङ्गतोरणमणिप्ेङ्कत्पमभाव्याहता-
नष्टाः क्वापि रवेः करा द्रुततर यस्यां प्रचएडा अपि ।
तां जैलोक्यगुरोः सुरेश्वरवतीमास्थानिकामेदिनीं,
डा! यावत् प्रविशामि तावदधमा निद्रा ज्ञयं मे गतां॥ १॥”
इत्यादिकः खप्नानुभूतदुःखरद्वेषलिङ्गं विषादः , अत्यन्तकामो-
देकाऽऽदिलिङ्गमुन्मादः, मुनेस्तु माध्यस्थ्यम् , इति “ तिवु-
डस्याउनुग्रहोपघातानुपलम्मांत्” इत्यसिद्धो हेतुः। इति गा
थाऽथेः ॥ २२६ ॥
अचजोकस्त रमाह---
न सिभिणविण्णाणाओ, हरिस वैसायादयो विरुज्क॑ति। '
किरियाफलं तु तित्ती--मदवहर्बधाऽऽ्दश्रो नत्थि ।२२७
स्वप्ने खुखायुभवा ऽ ऽदि विषयं विज्ञान स्वप्नविशान॑ तस्म
दृत्पद्यमाना दष-विषादा ऽऽदयो न विरुध्यन्ते-न तान् वये
निवारयामः जाग्रदवस्थाविक्षानहर्षा 55दिवत् ,तथादि-दश्य-
न्ते जाग्रदवस्थायां केचिद् स्वमुत्येक्तिसखुखाडमवादिजलानाव्
हृष्यन्तः, द्विषन्तो वा । ततश्च दष्टस्य निषेदुमशक्यत्वात्
स्वप्नविक्ञानादपि नेतश्निषेध ब्रूमः । तिं किमुच्यते भव-
द्धिः ?, इत्याह“ किरियेत्यादि ' क्रिया भोजनाऽ-ऽदिका त-
स्याः फलै दृप्त्यादिकं तत् पुनः स्वप्नविज्ञानाद् नास्त्येव,
इति ब्रूमः । तदेव क्रियाफलं दश्छेयति-* तित्तीत्यादि ” तत्र
ठभिबुयुत्ता ४ ऽदुपरमलत्तया, मदः खुरापानाऽ-ऽदिजनितङि-
क्रियारूपः, वधः शिरश्छेदा55द्सिमुद्भृतपी डास्वरूपः, बन्धो
निगडा+ऽदिनियन्त्रणस्वभावः, शदिशब्दाज्लज्वलनाऽऽ-
दिप्रवेशात् क्केददादा-+ऽदिपरिग्रहः । यदि ह्येतत् वृष्त्यादिकं
भोजना-ऽऽदिक्रियाफलं स्वप्नविज्ञानाद् भवेद् तदा विषय-
प्राप्तिर्पा प्राप्यकारिता मनसो युज्येत, न चैतदस्ति, तथो-
पलम्भस्यैवाभावात् । इति गाथा.६ऽथः ॥ २२७॥
अथ स्वप्नायुभूतक्रियाफलं जाग्रदवस्थायामपि षरे
दर्शयज्षाह--
सिमिणे विसुरयसंगम-किरियासंजरियवंजणविसग्गो।
पडिबुद्धस्स वि कस्सइ,दीसइ सिमिणाणुभूयफलं ।२२८।
स्दप्नेऽपि सुरताथीयाऽसौ कामिनः कामिनीजनेन, कामि-
न्या वा कामिजनेन सह सद्गमक्रिया तत्स जानितो व्यञ्जन-
स्य-शुक्रयुद्रलसंघातस्य विसर्गो निसर्गः स्वप्नानुभूतसुरतस-
कछुमक्रियाफलरूपः प्रतिबुद्धस्यापि कस्यचित् प्रव्यक्त एव ह-
श्यते, तदशनाञ्च स्वप्ने योषित्सङ्गमक्रिया श्नुमीयते, तथाहि
यत्र उ्यञ्जनविसर्गस्तत्र योषित्सङ्गमेनापि भवितव्यम् , यथा
वासभवना5-5दौ, तथा च स्वप्ने, ततोऽज्रापि योषित्प्राप्त्या
भवितबग्यम् ; इति कथं न प्राप्तकारिता मनसः ?, इति भावः इति
साथाऽथैः ॥ २२८ ॥
श्रथ योषित्सङ्गमे साध्ये उ्यञ्जनविसर्गहेतोरनेका-
न्तिकतामुपदशेयन्नाह--
सो अज्मवसाणकओ, जागरओ वि जह तिव्वमोहस्स।
तिव्व5ज्कमवसाणाओ, होह विसग्गो तहा सुमिशे ।२२६।
स्वप्ने योऽसौ व्यञ्जनविरूभः सख तत्पाप्तिमन्तरेणाउफि तां
कामिनीमहे परिषजामि हत्यादिस्वमत्युत्मेक्तितर्तीवाध्यवसा-
यकृतो वेदितव्यः । कस्येव ?, इत्याद-जाग्रतोऽपि तीक्षमोह-
स्य प्रबलवेदोदययुक्षस्य कामिनीं स्मरतश्चिन्त्तो इढें ध्या-
यतः परत्यक्तामिव पश्यतो बुद्धया परिषजतः परिभुक्तामिज
मन्यमानस्य यत् तीवाध्यव सानं तस्माद् यथा व्यध्जमधिस-
गों भवति, तथा स्वप्नेऽपि नितम्वि्नीप्रात्िमन्तरेणा.ऽपि स्व-
यमुत्येक्तिततीवाभ्यवसानादसौ मन्तव्यः, अन्यथा तत्क्षण ए-
ब प्रबुद्धः सश्चिहितां भ्रियतमाशुपलमेत् , तत्तानि अ स्व-
प्नोपलम्धानि नख-दन्त-पदाऽ.ऽदीनि पश्येत् , न वेषम् ;
तस्मावनैकान्तिकता हेतोः । इति गाथाउथे। ॥ २२६ ॥
ञ्ख-
सुरयपडिवत्तिरइसुह-गम्भ दाशाई इहरहा होजा ।
सुमिखसमागमयुवहए,न य जरो ताँ तो बिफला।२३०।
इतरथा स्वप्ने सुरतक्रियया योऽसौ व्यञ्जनविगैः स यदि
+- कः मदकण्यः
( ७६ )
मण
अभिधानराजन्द्रः।
मण
योषित्प्राप्त्यव्यभिचारी स्यात्, तदा खुरतोपभुक्कयुवतरपि
खुरतक्रिया ऽमुकेन सह मयाऽनुभूता' इवयवेरूपा सखुरतः
प्रतिपत्तिः स्यात् ,तथा रातिखुख गभौ ऽऽधाना ऽऽदिकं च भ-
वेत्, श्रादिशब्दादुदरवृद्धि-दोहद-पुत्रजन्मा ऽ ऽदिपरिग्रहः ।
यतश्च नैतानि तस्याः समुपलभ्यन्ते, अतो विफलेव सा स्व-
प्नखुराताफ्रिया,विशिष्टस्य परि भक्रकामिनीगभो ऽऽधाना ऽऽदि
फलस्याऽभावात्। इदमुक्क॑ भवति-न स्वम्रे योषित्पातप्तिपूर्विका
` विशिष्टा खुरतक्रिया,नापि विशिष्ट गभा ऽऽधानाऽऽदिकं तत्फ-
लेया तु तीव्रवेदोदयाऽऽविभूता ऽध्यवसायमात्रकता निधुव
नक्रिया सा व्यञ्जनविसगेमाञरूपशेव फलेन फलवती न वि
शिष्टन. इति तदपेक्षया सा * विफला ` इत्युच्यते । अतो य
योक्काविशिष्टफलाभावात् फलमाज्ञाद् योषित्माप्त्यलिद्धश्च न
आप्यकारिता मनस इतिभावः । इति गाथाऽथः ॥ २३० ॥
पुनरप्याह परः-
नणु सिमिणओ वि कोई,सचफलो फलइ जो जहा दिद्धो ।
ननु सिमिणम्मि निसिद्ध,किरिया किरियाफलाई च।२३१।
नयु स्वप्नोऽपि कश्चित् सत्यं फलं यस्याऽसौ सत्यफलो
दश्यते । कः ?, इत्याह-यो यथा येन प्रकारेण राज्यलाभा 55
दिना दृष्टस्तनेव फलति-- राज्या ऽऽदिफलदायको भवती-
त्यथः, तत् किमिति स्वप्नोपलन्धे मनसो मेरुगमनाऽऽदि-
कं सत्यतया नेष्यते ?, इति भावः। श्रत्रोत्तरमाद- नन्वित्या-
दि, “नन्वयुङ्कापालम्भो ऽयम्, सर्वथा स्वप्नसत्यत्वस्याऽस्मा-
भिरनिषिध्यमानत्वात्। तर्हिं कि निषिध्यते ? , इत्याद-
स्वप्ने क्रिया मेरुगमनाऽऽदिका, अध्वश्रमकुसुमर्पारिमला ऽ5-
दीनि क्रियाफलानि च, इत्येतद् दयमस्माभिः प्रागुक्कयु-
ककः सत्यतया निषिद्धम् । इति गाथा-ऽथः ॥ २३१ ॥
तर्दि कि तत् , यत् स्वप्ने भवद्धिनै निषिध्यते ?, इत्याह-
ज पुण विण्णाणं त-प्फलं च सिमिणे विबुद्धमेत्तस्स । |
सिमिणयनिमित्तभावं, फलं च तं को निवारेइ १।२३२॥
यत्पुनः स्वप्ने जिनस्नात्रदशेना ऽ ऽदिकं विज्ञानं, यच्च स्व-
स्ने विवुद्धमादस्य च रषौ 5ऽदिकं तत्फले,तदनुभवा + ऽदिसि-
द्रत्वात्को निवारयति ?, तथा यो भविष्यत्फलापेल्षया
स्वप्नस्य निमित्तभावः स्वप्ननिमित्तभावस्ते चको वा नि-
वारयति ?, यच्च तस्मात् स्वम्रनिमित्तादवश्यमभावि भ-
विष्यत्फलं तदपि को निवारयति ?.। यदेव हि मेरुगमन-
क्रिया ऽऽदिकं युक्त्या नोपपयते तदेव निषिद्यते, न त्वेता-
नि विज्ञानाऽऽदीनि, युकत्युपपन्नत्वात्। न चैतेरभ्युपगतेरपि
मनसः प्राप्यकारिता काचित् सिध्यतीति भावः। इति
गाथा-ऽथेः ॥ २३२ ॥
किमिति पुनः स्वप्नस्य निमित्तभावो न निवार्यते ? , इ-
त्याशङ््ा 55ह-
देदष्फूरणं सहसो-इयं च सिमिणो य काइयाईशि |
सगयाई निमित्ताई, सुभाऽसुभफलं निवेएंति ॥ २३३ ॥
स्वस्मिन्नत्पनि गतानि स्थितानि स्वगतानि निमित्तानि,
एतानि शास्त्र लोकेऽपि च प्रसिद्धानि भविष्यच्छुभा-
शुभफल निवेदयन्ति । कानि पुनस्तानि ?, इत्याह--का-
यिकम् , श्रादिशश्दराद् वाचिकम् , मानसं च । पतान्यव-
ऋषेण द्शयाते-काषिक बाहादों देदस्फुर्णं भविष्यव्छु--
भा5शुभफलं निवेदयति, वाचिकं तु सदसोदितं सहसा-
+कस्मादेवोदित खहसोदितं सदसेव तत् किमपि वदत
आगच्छति यत् , भविष्यच्खुभा-ऽशभफलमावेदयति, मा-
नसं तु निमित्त स्वप्ने, इत्येतानि को निवारयति ? ,
लोक-शाखभ्रसिद्धस्य , युकत्युपपन्नस्य च न्पिद्धमशक्य-
त्वात् । इति गाथाऽथेः ॥ २३३ ॥
श्राह-नयु स्त्यानदधिनिद्रोदये वतैमानस्य दविरददन्तोत्पा-
टना55दिप्रवृत्तस्य स्वप्ने मनसः प्राप्यकारिता तत्पूर्वको व्य-
अनावग्रहश्च सिद्धति । तथाहि-स तस्यामवस्थायां “दि-
रददन्तोत्पाटना.+ऽदिकं सर्वमिदम स्वप्ने पश्यामि इति म-
न्यते, इत्ययं स्वप्न: मनोविकल्पपूर्विकां च दशना55च्युत्पाट-
नक्रियामसौ करोति । इति मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वैकश्च
मनसो व्यञ्जनावग्ररो भवत्येव , इत्याशङ्कथा 55ह--
सिमिणमिद मन्नमाण-स्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया |
होज़ व न उ सा मणसो,सा खलु सोइंदियाईण ॥२३४॥
* होज प ` इत्यत्र वाशब्दः पुनरर्थे, तस्य चर व्यवहि-
तः सम्बन्धः कायैः । तद्यथा--श्नन्तरोङ्घयुक्गिभ्यः स्वप्ना-
वस्थायःमपि विषयप्राप्त्यभावाद् मनसो व्यज्जनावग्रहो ना-
स्ति, स्त्यानगद्धेः पुनः स्त्यानगद्धिनिद्रोदये पुन्वतेमानस्य
जन्तोरित्यथः,मांसभक्तण-दशनोत्पाटना ऽऽदिङुर्वतो गाढनि-
दादयवशीभूतत्वन स्वप्नमिव मन्यमानस्य भवेद व्यञ्जना
वन्रहता-स्याद् व्यञ्जनावग्रह इत्यथः न वयै तत्र निषेद्धारः ।
सिद्धं तहिं परस्य समीहितम् । सिध्येत् , यदि सा व्य-
अनावग्रहता मनसो भवेत्; न पुनः सा तस्य । कस्य
तर्द सा? , इत्याह--सा खलु प्राप्यकारिणां श्रो्ाऽ्दी-
न्द्रियाणां श्रवण-रसन-घ्राण-स्पशनानामित्यथः , इदमुक्तं
भवति--स्त्यानद्धिनिद्रोदये प्रक्लणकरङ्गभूम्यादौ गीता 4५-
दिकं शरवतः श्रोतरन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहो भवति, कपूरा-
-4ऽदिकं जिघ्रतो घ्रारेन्द्रियस्य, श्रामिष-मादकाऽऽदिकं भ-
कषयतो रसनेन्द्रियस्य,कामिनीतयुलताऽऽदि स्पृशतः स्पर्शने-
न्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहः संपद्यते । न तु नयन-मनसोः,वदि-
क्लरिका+ऽदिविषयकृतदाह-पाटना ऽ ऽदिप्रसङ्गन तयोर्विष-
यप्राप्त्यभावात् , तामन्तरेण च व्यञ्जनावग्रहासम्भवादिति
भावः । इति गाथा ऽथः ॥ २३४ ॥
श्राद-नयु स्त्यानदधिनिद्रोदये स्वप्नमिव मन्यमानः कि को-
ऽपि चेष्टां काञ्चित् करोति, येन तत्करणे व्यञ्जनावग्रहः
स्याद् ? इत्याशङ्क्य स्त्यानदधिनिद्रोदयोदाहरणान्याद-
पोग्गलमोयगदन्ते, फरुसगवडसालभजणे चेव ।
थीणद्वियस्स एए, आहरणा होति नायव्वा ॥ २३४ ॥
स्यानद्धिनिद्रादयवर्तिन एतानि पोद्रला ऽऽदौन्यदादरणानि
ज्ञातव्यानि भवान्त । तद्यथा-'पोग्गलेत्यादि ।' तत्र समयपरि-
भाषया पौद्वलं मांसमुच्यते , तदुदाहरणं यथा--एकस्मिन्
ग्रामे कुटुम्बिकः कोऽप्यासीत् , स च मांसग्रद्ध आमानि,
पक्वानि, तलितानि, केवलानि, तीमना ऽ ऽदिमध्यग्रत्तिप्तानि
च मांसानि भक्षयति । अन्यदा च गुणातिशायिभः स्थ-
विरैः कैश्चित् प्रातिबोधितो. दाच्ञां कक्षीकृतवान् । तेन
च व्रामानुश्रामे विहरत काचित् क्वाचित् प्रदेश मां-..
सलुग्धेः कैश्चिद् विक्त्यमानी महिषः सखमीक्ताओ्चके । वं
| <
श्मनि ध्ानराजन्द्र
म्ण
च संवीक्य तदा।मपभक्षणं तस्याऽप्याभलाषः समजायत ।
)
मष्
चाऽभिलाषोऽस्य भुञ्जानस्य विचारभराम गतस्य चरमा,
सत्रपो रुषी, प्रतिक्रमणक्रियां, प्रादोषिक्रपोरुषौ च कुबेतो न |
कि बहना ?
स्त्यानद्धिनिदोदयो जातः | तदुदये चोत्थाय ग्रामाद् बहिम-
हिपमण्डलमध्य गत्वाऽन्यं महिषमेक॑ विनिहत्य तदामिष
भक्तितवान् । तट॒द्वरितशेपे च समानीयो पाश्रयोपरि क्षिप्त्वा
सुप्तः । समुत्थितश्व प्रत्युषसि स * मयेत्थंभूतः खमप्नो दृष्ट
इत्यवे गुवैन्तिक आलोचयामास । साधुभिश्यापएाश्चयो्पर
चदमिषमदश्यत । तेतः स्व्यानद्धिनिद्रोदयो ऽस्या ऽस्ति इ-
ति ज्ञातम । तथा च सङ्गन लिङ्गमपहत्य विसर्जितो ऽसौ ॥
इति स्त्यानड्धिनिद्रोदय प्रथममुदादरणमिति ॥ १ ॥ श्रथ दि
तीये मोदकादाहरखुम्ुच्यते-यथा एकः कोऽपि साधुर्भित्तां प-
यैटन् कचिद् गदे परलकाऽऽदिज्यवस्थापितानतिभ्रचुरान् सुर
भिस्लिग्धम धुरमनोज्ञान् मोदकानद्रात्तीत् । तेन चाध्वस्थितेन
ते खचिरमुद्दीक्षिताः ।न च किमपि तन्मध्याज्नब्धम्। तत
सोउप्यविच्छिन्नदद्भिलाण एवं सुष्वाप । स्त्यानद्धिनिद्रोदय
च रजन्यां तद गरदं गत्वा , स्फोटयित्वा कपाटानि, मोदकान्
खच्छया भक्षयित्वा, उद्वारितांस्तु पतद् ग्रहके ज्षिप्त्वोपाश्रय-
मागत्य पतद् ग्रहकं स्थाने मुक्ःवा प्रसुप्तः । उत्थितेन च त-
श्रेवा55लोचितं गुरूणाम् । ततः प्रत्यपक्षणासमय भाजनाऽ५-
दिप्त्युपेक्षमाणन साधुना पतद्ग्रहके दृष्टास्त मोदकाः । त-
(नदत
तो गुचौदिभिज्ञोतोऽस्य स्त्यानद्धिनिद्रादयः | तथव च सङ्गन |
लिङ्गपायाल्धिकं दच्वाऽयमपि विसाजतः ॥ २॥ दन्तादाहर
गौ तृतीयमुच्यते,.यथा-एकः साधुर्देवा द्विरदेन खदितः क
थाप पलाय्योपाश्रयमागतः। तं च दन्तिन प्रत्याविच्छिन्न-
केप पव निशि प्रसुप्तः स्त्यानद्धिनिद्रोदयश्च जातः, तदु
दये च वञ्जकऋपमनाराचसह ननवतः
त्वा तं हस्तिने ध्यापाद्य दन्तद्धयमुः्पास्य स्वोपाश्रयद्वारे
क्षिप्ता सप्तः | प्रवुद्धन च ' खप्नोऽयम् ` इत्यालाचि
तम् । दन्तदशन च ज्ञातः स्त्यानद्धिनिद्रादयः । तथव च
्लिद्ध ग्रहात्या सघन विसर्जितः ॥ ३ ॥ 'फरुसग' शब्दन स-
मययसिदचा कुम्भकारोऽभिधीयत , तदुदादरण चतुधमु-
चयत-एकः कुम्भकारो महति गच्छे प्रघजितः। श्नन्यदा
च सप्तस्या 5स्य स्त्यानद्धिनद्रादयो जातः। ततोऽसौ पूं
यथा मसक्तिकापिण्डानत्राट्यत् , तथा तदभ्यासादेव साधू:
नां शिरांसि बार्टायत्वा कबन्धः सहवकान्त उर्भाञ्चकार ।
ततः शेषाः केचन साधवाऽपसखताः | प्रभात च ज्ञात स-
म्यगव सर्व तच्चष्टितिम् । सहनन तथव विसाजतः ॥४॥
श्रथ बरटशालाभञ्जनादाहरणं पञ्चममच्यत, यथा-कोऽपि
साधुर्रामान्तराद् गोचरचर्या विधाच प्रतिनिवृत्तः। स
चोष्ययाउभिहता भतभाजनस्तपिता ब॒भुक्षितश्छायार्थी
मागेस्थो वटघत्तस्या5धथस्तादागच्छन्नतिनीचेवीर्तिन्या त-
च्छाखया मस्तक घट्टितः,गा्ठ च परितापितः, अव्यवच्छि-
सकोपश्व प्रसप्तः स््यानदधिनिद्रोदय राजः गत्वा वटशाखां
भङ्त्वोपाश्रयद्वारे क्तिप्त्वा वुनः प्रसुप्तः । * खप्नो दृष्ट
इत्यालोचिते स्त्यांनदश्चदय च ज्ञात लिङ्गापनयनतः *संघेन
विसर्जित इति ॥ ५ ॥ पतान्युदादरणानि विशेषता ।
नशी थादव यानि । इति गाथाऽथः ॥ <६५॥
केशवाधवलसं पन्नता |
समय निगद्यत । अता नगरकपाटानि भडकत्वा मध्ये ग~ ¦
तदभिलापवर्त्यैव प्रसुप्तो5<्सों ततः |
तदेवे ' गतु नेएण मणो, सवर्भड् जग्गओ व सिमिणे वा
इत्यादिपूर्वेप्षगाथायाः प्रथमाधमपाकृतम् । सांप्रतं * सि-
मियं लोयम्मि वि, अमुगत्थगओ मणो मे त्ति ।' एतदुत्तरा-
डंमपाकुवैन्नाद--
जह देहत्थ चक्खु, जे पह चंदं गये ति न य सच्च |
सूदं मणसो वि तहा,न य रुढी सच्चिया सव्वा ॥२३६॥
यथा देहस्थ देहादनिरगतमपि चच्चुः ' चन्द्रं गतम् ` इति
जल्पति लोकः, न च तत् सत्यम् , चक्तुषो वह््यादिदशंनन
तत्कृतदाहा5 ऽदि प्रसङ्गात् : तथा तनैव प्रकारेण मनसोऽपि
निर्निबन्धने ख्ढमिदं यदुत--अमुत्र गते मे मनः: इति।
रूदिरपि सत्या भविष्यति, इत्याद न च रूढिः सर्वाऽपि
सत्या, “ वटे बटे वेश्रवण-श्चत्वरे चत्वरे शिवः । पर्वत
पवते रामः, सवेगो गधुसूदनः ॥ १ ॥ " इत्यादिकायां
असत्याया अपि दशनात् । इति गाथाऽथः ॥ २३६ ॥
तदेवं विषयप्राप्ती निषिद्धायां मनसोउसद्ग्रहममुश्चन् परः
प्रकारःन्तरेणा $पि तस्य व्यज्ञनावग्रह प्रातिपादयन्नाह--
विसयमसंपत्तस्स वि, सविजञद् वंजणोगगहो मणयो ।
जमसंखेज़समइओ, उवश्रोगो जं च सव्वसु ॥ २२७ ॥
समएसु मणोदव्वा-ई३ गिण्हए वेजणं च दव्वाईं ।
भणियं संबंधो वा, तेण तय जज्ञए मणसो ॥ २३८॥
विषयं मरुशिखराऽऽदिकै,जला ऽनला 5 ऽदिकं वा, असंप्राप्त-
स्यापि अप्राप्य गृह्णतो ऽपीत्यथैः । किम् ? , इत्याह--संवि-
` द्यते यज्यते व्यञ्जनाचग्रहो मनसः। कुतः ?, इत्याह-' जम-
सेखेज्लसमइओ उवश्रोगोा' यद् यस्मात् कारणात् “ च्यव-
माना न जानाति ” इत्यादिवचनात् सर्वाऽपि छुझस्थाप-
यागा ऽसङ्ख्ययेः समयर्निदिष्टः सिद्धान्त, न न्वक-दयादि-
भिः। ` जच सब्वसु समयस मणोादव्वादई गिरहए त्ति । '
यस्माच्च तेषूपयोगसम्बन्धिष्वसङ्ख्ययेषु सर्वेष्वपि प्रत्ये-
कमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवगैणाभ्यो गृह्णाति जीवः;
द्रव्याणि च, तत्सम्बन्धो वा प्रागत्रेव भवद्भिः व्यज्ञनमु-
क्रम्, तेन कारणन तत् तादृशे द्रव्य,तत्सम्बन्धो वा व्यञ्जने
व्यञ्जनावग्रह इति हृदयम् , युज्यते घटते मनसः । य-
था हि श्रोत्राऽऽदी्द्रयणाऽसङ्ख्ययान् समयान् यावद् ग्रह्म-
माणानि शब्दा ऽऽदिपरिणतद्रव्याणि, तत्सम्बन्धा बा व्यञ्ज-
नावग्रहः, तथाऽत्राऽप्यसङ्ख्ययसमयान् यावद् गृह्यमा-
णानां मनाद्रव्याणां, तत्सम्बन्धस्य वा किमिति पक्षपात
परित्यज्य मध्यस्थेभरूत्वा ऽसौ नेष्यते ?.इति किल परस्याऽभि-
प्रायः | इति गाथा-ऽथः ॥ २२३७ ॥ २२८ ॥
तदेवं विषयासप्राप्षावपि भद्गधन्तरेण मनसो व्यञ्जनाव-
ग्रहः किल परेण समर्थितः । साम्प्रतं विषयसम्धा-
प्त्याऽपि तस्य ते समर्थयन्नाह--
देहादणिग्गयस्स वि, सकायहिययादयं . विचितयओं ।
नेयस्स वि संबंधे, वंजणमेव पि से जुत्त ॥ २३६॥
दहाच्छरीरादनिगतस्या ऽपि म्वाद्यथमगतस्या ऽपि स्वस्था
नस्थितस्यापीत्यथः. स्वकाये, स्वकायस्य, घा हृदया $ऽदिक-
मतीवसन्निहतत्वादतिसवद्ध विचिन्तयतो मनसो योऽसौ
ज्ञयन स्वकायास्थतहृद्या ऽऽदिना सबन्धस्तस्प्राप्िलक्षणस्त-
( ८१
अभि धानराजन्द्रः
मश
स्मिन्नपि शेयसबन्धे, न केवले ' विसयमसंपत्तस्स वि सं
विज्जद ` इत्याद्यनन्तरसमर्थितन्यायेन , दृत्यपिशब्दा्थ
किम् ?, इत्याह ब्यञ्जने ब्यज्ञनावग्रहः से ' तस्य मनसो
युक्तं घटमानकम् , पवमप्यनयाऽपि प्राप्यकारित्विभङ्ग्या ।
इति गाथा ऽथः ॥ २३६ ॥
तदेवं प्रकारद्वयेन मनसः परेण व्यञ्जनावग्रहे समधते,
श्राचार्यः प्रथमपक्ते तावत् प्रतिविधानमाद--
गिज्भस्स वंजणाणं, जं गहणं वंजणोगगहो स मच्यो ।
गहणं मणो न गिज्भं, को भागो वंजणे तस्स १ ॥२४०॥ |
इह-' विसयमसपत्तस्स वि संविज्जइ ` इत्यादि यत्परेणो-
क्कम् , तद् निजाऽसत्पत्त-परकीयसत्पक्तविषयगप्रसपेन्महा-
राग-दवेषग्रहग्रस्तचे तोविहू लतासूचकमेबावगन्तव्यम् , श्र-
सव्रद्धत्वात् ।. तथादहि-श्रो्र-घ्राण-रसन-स्पशैनेन्द्रियच-
तुश्यग्राह्यस्य शब्दगन्धा 55दावषयस्य सबान्धखना व्यज्ञनाना |
तद पपरिखणतद्रव्याणां यरग्रदणमुपादाने स व्यञ्जनावमग्रहो
स्माकं समत इति पराऽपि जानाव्यव, प्रागसकृत्पातिपा-
दितत्वादिति । मनोद्रव्यारयपि तर्हिं मनसो ग्राह्याणि भ-
विष्यन्ति, ततस्तस्या प थ्रोत्रा 5 ऽदेरिव व्यञ्जनावत्रहो भवि-
ष्यति; अतः किमसबद्धम् ?, दत्याह- गहणं मणो न गि-
ज्मं ति ` चिन्ताद्रव्यरूपं मनो न प्राह्यम् , किन्तु ग्रहणं गृ-
ह्यते ऽवगम्यते शब्दा 5 ऽदि र्थं ऽननाति ग्रहणम्-अर्थपरिच्छेदे
करणमित्यथः । ग्राह्यं तु मरुशिखराऽऽदिकं मनसः सुप्रती-
तमेव । अतः को भागः-कोाऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनो- |
द्रव्यराशेव्यं जजन व्यञ्जनावग्रदेऽधिरूत ?, न काऽपात्यथ
ग्राह्मवस्तुग्नहणं हि व्यञ्जनावग्रहो भवति । न च मनाद्र-
च्याणि ब्राद्यरूपतया गृद्यन्त, किन्त करणरूपतया, इत्य-
सवद्धमेव पराक्रम् । इति गाथाः ॥ २४० ॥
याच * देदादाणिग्गयस्सवि, सकायहिययाइये ` इत्या-
दना मनसः प्राप्यकारता प्राक्तका, साझाप न युक्का , स्व- |
कायहदया<5.9.दका एद मनसः खदश पच, यच यास्मन् दश-
ऽचतिष्ठत, तत् तेन संवद्धमेव भवति, कस्तत्र विवादः ?
कि हि नाम तद् वस्त्वस्ति, यदात्मदेशना ऽसंबद्धम् ? । एवं
हि प्राप्यक्रारितायामिष्यमासायां सवमपि ज्ञानं प्राप्यकायंव
स्वैस्याऽपि तस्य जीवेन संबद्धत्वात् । तस्मात् पारिशेष्याद्
बाह्याथोपेच्तयेव प्राप्यकारित्वाऽप्राप्यकारित्वष्वन्ताः युक्ता
सच मनसाऽप्रामे एव गृह्यते, इति न तत्र व्यभिचारः ।
मवतु वा मनसः खकीयहदया<55दिखिस्तायां प्राप्यकारिता
तथाऽपि न तस्य व्यञ्जनावग्रहसंभव इति दर्शयनज्नाह--
तदेसचितणे हो-ज़ वंजणं जइ तओ न समयम्मि ।
~ ४ ~~ 4 तमत्थ # =< + # #
पढम चव तमत्थ, गरखहजञ न वजण तम्हा ॥ २४१ ॥
स चासौ ख्कीयदृदया ५ऽदिदेशश्च तस्य चिन्तने तस्मिन्
सति स्याद् मनसो व्यञ्जने व्यञ्जनावग्रहः। यदि किम् ?
त्ति ।' यदि तद् मनः प्रथम पव सम्य ते खकीयह्ृदया.ऽऽदि
कमर्थ न ग्रह्लीयाद-नावगच्छेदिति । पतच नास्ति, यस्माद्
मनसः प्रथमसमय पवां ऽवग्रहः समुत्पद्यते, न तु श्रोत्रा
ऽ ्दन्द्रियस्येव प्रथमं ग्यञ्जनावग्रहः तस्य टि क्षयोपशमा-
पाटवेन प्रथममर्थानुपलब्धिकालसंभवाद युक्तो व्यञ्जना-
वग्रहः,मनख्रस्तु पडक्तयापशमत्वाच्वन्तुरिन्द्रियस्यवा ऽथौनु
पलम्मकालस्यासमतेन प्रथममेवार्थावग्रह पदोपजायते ।
२१
इत्याद-' जई तओ न समयम्मि । पटमे चेव तमत्थं गरे |
|
|
॥
4
शरञ्च प्रयोग:-इह यस्य शेयसंबन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो ना
स्ति न तस्य व्यञ्जनावग्रहो दष्टःयथा चच्छुषः नास्ति चाथ-
संबन्धे सत्यजुपलन्धिकालो मनसः, तस्माद् न तस्य व्यञ्ज-
नावग्रहः, यत्र त्वयमभ्युपगम्यते न तस्य क्ञयसेवग्धे खत्यजु-
पलन्धिकालासभवः, यथा ओ्रोतस्येति व्यतिरेकः । त-
देवं परोक्कपक्तद्वये ऽपि धनसो व्यञ्जनावग्रहे निराङत्योपस-
हरति-' न वैजणं तम्ह तति ' तस्मादुक्कपकारेण मनसो नव्य-
जनावग्रहस्भवः । इति गाथा ऽथः ॥ २४१ ॥
कस्माद् न मनसो व्यञ्जनावग्रह इत्याशङ्कश्वा ऽत्ार्थं विशेष-
वतीमुपपत्तिमाद-
समए समए गिणहइ, दव्वाई जेण झुणइ य तमत्थ ।
न चिंदिओपओगे, वि वंजणावग्गहेऽतीते ॥। २४२ ॥
होह मणोवावारो, पटमाश्रो चव तेण समयाओ ।
होड तदत्थग्गहणं, तद ष्पहा न प्पवत्तेज्ञा ॥ २४३ ॥
समए समए त्ति ` प्रतिसमयमित्यथ्थः , इदमुक्घं भवति-
मनाद्रव्यग्रदणशक्रिसपन्ना जीवः कस्यचिदर्थस्य चिन्ताव-
सरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति, तं च चिन्तनीयम-
थे प्रतिसमय ` मुणद त्ति ` जानाति येन कारणेन, तेन
प्रथमसमयादेव भवति तस्य चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमि-
ति दवितीयगाथायां सवन्यः, प्रथमसमयादेवाऽ थौववोध
प्रवतत दत्यथः, अथोनुपलान्धकालस्त्वेकोऽपि समया ना-
स्ति, अतो न मनसा व्यज्जनावग्रहसंभव इति भावः॥
आह नन्वपवरका५ऽदिव्यवस्थितो यदेन्द्रियव्यापाररदित
केवलेन मनसाऽ्यीन पर्यालोचयति तदा मा भूद् मनसो व्य
ब्जनावग्रहः, यस्तु श्रोत्रा ऽऽदीन्द्रियव्यापारे मनसोऽपि व्या-
पारस्तत्र प्रथममनुपलव्धिकालस्य मवद्धिरपीप्यमाणत्वात्
किमिति व्यज्जनाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नेष्यते ?, इत्याश-
ङ्क्याऽऽद-“ज सिंदिओवआगे,वि वंजणावग्गहे ऽतौते ) हाइ
मणोवावारो तति । ' यच्च यस्माच्च कारणादिन्द्रियस्य ओ-
जाऽ देरुपयोगेऽपि-शब्दा 55द्यथग्रहणका ले 5 ऽपीत्य्थः । कि
म् ?, इत्याद-व्यञ्जनावग्रह ऽकीते सति मनसो व्यापारो भ-
वति । इदमुक्तं भवति-न केवल मनसः केवलावस्थायां प्रथ-
ममथोवग्रह एव व्यापारः.किन्तु ्रोजाऽऽदीन्द्रियोपयोगका-
लेऽपि तथैव । तथादि-श्रो्राऽऽदीन्द्रियोपयोगकाले व्याभ्रियते
मनः; केवलमथीवमग्रहादिेवा 55रभ्य न तु व्यञ्जनावग्रहकाले ।
श्मथौ ऽनवबोधस्वरूपो हि व्यज्ञेनावग्रहः, तदवबोधकारणमा-
अत्वात् तस्य, मनस्त्वथौवदोधरूपमव, मलुते5थोन मन्यन्त
-ऽथौ अनेनेति वा मन इति सान्वर्थाभिधानाभिधयत्वात् ।
किञ्च-यदि व्यञ्जनावघ्रहकाले मनसो व्यापारः स्याद् तदा
तस्यापि व्यञ्जनावग्रदसद्भावादष्टाविशतिभेदभिन्नता मतार्बि-
शीर्येत । तस्मात् प्रथमसमयादेव तस्याःथग्रहणमेष्टव्यम् । श्र-
न्यथा किमत्र वाधकम् ?, इत्याह--' तदर्णद्ा न प्पवत्तज्ज-
त्ति। "यदि हि प्रथमसमयादेव मनसो ऽथेग्रहणं नष्यते तदा
तस्य मनस्त्वेन प्रवृनिरेव न स्याद् नुत्पात्तिरेव स्यादित्यर्थः ।
यथा हि-खाभिधेयानयौन् भाषमारैव भाषा भवति, नान्यथा
यथा च-खविचयभूतानथानववृध्यमानानेवा परवध्यादिशाना-
न्यात्मलाभ लभन्ते, अन्यथा तेषामप्रवृत्तिरेव स्यादिति । एवं
सविवयभूतानथौन् प्रथमसमयादार भय मन्वानमेव मनो
भवति,अन्यथाभ्वध्यादिवत् तस्य प्रन््तिरेव न स्यात्। तस्पात्
तस्याःनुपलब्धिकालो नास्ति, तथा च नव्यह्जनावश्रद्द इति-
( ८५ )
मण म
स्थितम् | नचतन् स्वमनीपिकया युक्रिमातमुच्यत, आग
म्न ऽपि व्यञजनावग्रहे ;तीत एवेन्द्रियापयोग मनसो व्यापारा-
मिधानात। तथा चाक्गं कटपभाष्य--" अत्थाणंतरचारी, चि.
न्ते निययं तिकालविसयं ति । अत्थे उ पडप्परण, विणओगे
इंदियं लहइ ॥१॥” रत्र व्याख्या--अर्थ-शब्दा 55दों श्रात्रा55
दीन्द्रियव्यञ्जनावग्रदेण ग्रही ते $नन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चर-
ति प्रवर्तत, इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यञज्जनावग्रह-
काले तस्य प्रत्रत्तिरिति भावः, त्रकालविषय चित्त, सांप्र-
नकालविषये त्विन्द्रियम् । इत्यले विस्तरेण ॥ इति गाथा-
5थः ॥ २४२ ॥ २४३ ॥
श्रमुमच मनसा 5नुपलब्धिकालासेभवे सयुक्तिकं भावयज्नाह-
नयाउ चिय जे सो, लहइ सर्वं पद्व सद व्व ।
तणाजुत्त तस्साऽ संकप्पियथजणग्गहणं ॥ २४४ ॥
प्रतिसमय मनाद्रव्योपादानं ज्ञयाथावगमश्च मनसा भवत्येव, |
न पुनस्तस्यानुपरलन्धिकालः सभवति | कुतः ?, इत्याह-- यद्
यस्मात् कारणात् ' सो ` इतिप्राकूतशेस्या नपुसकमाय मनः
सम्बध्यत, ज्ञायत इति ज्ञेयम् , चिन्तनीयम् , वस्तु तस्मादव
स्वरूपमाःमसत्तास्वभावे लभत, नाऽन्यतः
सअचिध्रानराजन्द्रः।
|
|
॥ तता याद |
तदव ज्ञये नावगच्छृत् , तर्हिं तस्मादुत्पत्तिरप्यस्य कथ |
स्यात् इदमफक भवाति--सान्वथाक्रयावाच् कशब्दा भ-
चया हि मनःप्रभ्रतयः, तद्यथा--प्रनुत मन्यत वा मनः,
धरीपयताीति प्रदीपः, शब्द्रयाति भाषत इति शब्दः , दहती-
नि दहनः, तपतीति तपनः । पतानि च विशिष्टक्रियोकर्त-
न्वप्रधानानि मनःपभ्रतिवस्तूनि यदि तामेवा ऽथमननधदीप-
नभापणा £ऽदिकामशक्रियां न कुयुः तदा तेषां स्वरूपटहानिरेव
स्यात । तस्माद् यथा प्रदीपनीय-शब्दनीयचस्त्वपक्षया प्र-
दाप-शब्दाभिधानप्रवृत्तः प्रदीप-शब्दयोरथयोरप्रदीपनमश-
ब्दने चायक्रम, तथा मनसा ऽपि मननीयवस्तुमननादेव मना-
५म्रिधानप्रद्धत्तस्तदमनने न युक्रम् , ततः किम् ?, इत्याह-
नेवम् , तनो ऽसकल्पितान्यनालाचितानि , अनवगतानी
न याचन् , , असंकल्पितानि च तानि शब्दाऽ ऽदिविषयमा-
चन परिणितद्रव्यरूपाणि व्यञ्जनानि च तषां ग्रहणमसं-
करिपितव्यञ्जनग्रदरा तस्य मनसा 5युक्लम , किन्तु-सकल्पि-
तानामवा $श्राचनग्रदद्धारेणा ऽवगतानामेव तेषां शब्दा ऽदि
द्रव्याणां ग्रहणं युक्षम् | तस्माद् न मनसो<5नुपलाब्धिका-
लाऽस्ति, नथा च न व्यजञ्जनावग्रहसेभव इति स्थितम्
दनि गाधाश्रः ॥२५४॥ विश० । उत्त०। ( इंदिय' शब्दे द्विती
अभाग ५५७ पृष्ठ नयनमनसारप्यप्राप्यकारितोाक्ता ) ( युग~
पद् ज्ञानायुत्पत्तिमनसा लिङ्गमिति ` दोकिरिय ' शब्दे
चतथैभाग २६३६ पृष्ठ व्याख्यानम् ) श्रथ ““ युगपन् क्ञानानु- |
त्पनिभ्ननसोा लिङ्गम ” दात वचनादात्मन्द्रियविषयसन्निधा
पि यता युगपन् क्वानानि नापजायन्त ततो $वसीयते श्स्ति
तत्कारणे. यस्तथा नद् नुत्प्तिरति ततूकारणे मनः सिद्धम् ।
ननु तदनुन्पत्तिमनःप्रतिवद्धा कुतः सिद्धा, यतस्तस्यास्तद्-
जअ भीयन | अथा 5 5त्मनः सर्वगतस्य सर्वार्थैः सयन्धात् पञ्च-
मिश्चान्द्रयरात्मसबद्धः स्वविधयसबन्ध पकदा किमिति यु
नपस ज्ञानानि नात्पदयन्ते । यद्यणु मना नेन्द्रियैः सबन्धमनुभ- |
चन् तनसद्भांव तु यदेकनेन्द्रियेणेकदा तत्सबध्यत न तदाऽ
परणु, तस्य सृद्मत्वादात सद्धा युगपत् ज्ञानानुत्पात्तमना-
मण
निमित्ततिःनन्वेवे तस्या ४ ऽत्मसयोगसमये श्रा्सज्ञकन नभ-
साऽपि सयोगात् सयुक्कसमवायाविशपात्खुखा $ ऽदिवन्-
शब्दोपलबन्धिरपि तदैव स्यात्. निमित्तस्य समानत्वऽपि युग-
पत् ज्ञानानुत्पत्तावपरं निमित्तान्तरमभ्युषगन्तव्यमिति नातो
मनःसिद्धिः । न च करशष्कुस्यवाच्छन्ना ऽ $काशदशस्य श्रो-
अत्वात्तेन च तदैव मनसः सवन्धराभावान्नायं दाषो, निरंशस्य
नभसः प्रदेशाभावात् न च सयागस्याव्याप्यद्धात्तत्व, तस्य
पद् शत्यपद शानामत्तमुपचारतस्य व्यपदशमात्रानबन्धनस्था-
धाक्रयायामुपयागामावात् । न हयुपचारता7ाञ्चत्वा माणवकः
पाकानवत्तनसमथा दण्रा,नच कणशष्कुल्यवाच्छुनज्ननभाभागस्य
तथावधस्याप शब्दापलाब्वहतुत्वमुपलभ्यत एवातवाच्य
तदुपलब्धेरन्यानिमित्तत्वात् :कि च-चन्तुराचयन्यदमेन्द्रियसव-
न्धात् रूपाऽऽदिज्ञानात्पत्तिकाल मनसः सम्बद्धसंबन्धात् मान-
सज्ञान कि न भवेत्? न च तथाविधादष्टाभावादित्युत्तरम् अट -
प्रनिमित्तयुगपञ्ज्लानायुः्पात्तिप्रसाक्केतो मनसा ऽनिमत्तताभा-
वात् श्रश्वविकल्पसमय गादशेनाचुभवात् युगपज्ज्ञानानुत्प-
्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिका ? न चाश्वविकल्पगोदशेन-
योयुगपदनुभवः5पि ऋरमोत्पात्तिकल्पना ,अध्यक्षाविरो घात्:न चो-
त्पलपत्रशतव्यतिभेद्वदाशुब॒त्ते: ऋमेषपि योगपद्यानुभवामि-
मानः । अध्यक्तसिद्धस्य दृष्टान्तमात्रेणान्य था कक्तेमशक्केः, अ-
न्यथा युक्लशङ्खाऽध्दौ पीतविश्रमदर्शनात् स्वश ऽपि तद्भ्रा-
न्तिभवेत् । मूत्तस्य शच्यग्रस्यौत्तराधर्यत्यवस्थितमुत्पलपत्र-
शतं युगपद् व्याप्तुमशङ्कः , कममेदे ऽप्याशुचृत्तस्तव याग-
पद्याभिमान इति युक्कम् । श्रात्मनस्तु त्यो पशमसन्यपेत्तस्य
युगपत् खपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयमसूत्तेस्याप्राप्ता ्थग्राहि-
णो युगपत् खविषयग्रहण न कश्चिद् विरोध इति कि न युगपद्
ज्ञानोत्पत्तिः । न च मनोऽपि शच्यग्रवन्मृत्तमिन्द्रियाणि तूत्प-
लपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न् युगपद् व्याप्त
सममिति न यगपञ्ज्ञानात्पत्तिः, तथाभूतस्येवासिद्धेः । त-
थाहि-सिद्धे तद्धिश्रमे मनःसिद्धिः, तत्सखिद्धो च युगपञ्ज्ञानो
त्पत्िविश्रमसिद्धिरितीतरेतरा $ऽश्रयत्वान्न मनःसिद्धिः । स-
म्म०रकारड । (विशेषस्तु 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे १६३८ पृष्ठे)
सर्वविषयमन्तःकरणं युगपज्ज्ञानाजुःपत्तिलिङ्ग मनः,तदपि द्र-
व्यमनः पोद्रलिकमजीवग्रहणेन गृहीते, भावमनस्त्वात्मगुण-
त्वात् जीवग्रहणेनेति।सूत्र० १श्रु०१२अ०।“एगे जीवा णं मणे"
स्था०। मनन मनः श्रौदारिकाऽऽदिशसीरव्यापा्यी 55ह तमनो
द्रव्यसमूहसाचिव्याज्ीवव्यापारो मनोयोग इति भावः।मन्यते
वा श्रनेनेति मनो मनोद्रव्यमूाजमेवेति,तञ्च सत्याऽऽदिभदाद-
नैकमपि सक्लिनां वा श्रसख्यातत्वादसख्यातभेदमप्येकं म-
ननलक्षणत्वन स्वमनसामेकत्वादिति । स्था० १ ठा० ।
“ पगे मणे देवासुरमणुआरं तसि तसि समयसि । ” तत्र
मन इति मनोयोगः, तच्च यस्मिन् यास्मिन् समये विचायते
तस्मिन् तस्मिन समय कालविशेष एकमेव, वीप्सानिर्देशेन
न कवचनापि समये तत् द्यादिसख्यं सम्भवतीत्याह--एक-
त्व च तस्थैकरोपयोगन्वात् जीवानां स्यादेतत् नकोपयोगो
जीवो युगपच्छीतोष्णस्पशंविषयसवेदनद्यदशेनात्, तथा-
विधभिश्नविषयोपयो गप रुषद्वयवत् । श्चन्नोच्यते- यदिदं शी- `
तोष्णापयोगद्य तत्स्वरूपेण _ भिक्षकालमपि समयमन-
सोरतिसूच्मतया युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्यगपदेवेति ।
आह च-- समयाटिखुहमयांओ, म्नसि गवं च भिन्न-
। दन
भण आभधानराजन्द्र: |
कालेपि) उप्पलद्लसयवेह , व जट व तमलायचकं ति
॥ १॥ ” यदि पुनरेकत्रोपयुक्कं मनो5थान्तरमांपि संवेदयति
तदा किमन्यत्र गतचेताः पुरो ऽवस्थितं हस्तिनमपि न वि-
पर्यीकरोंतीति श्राह च-- अन्नविणिउक्तमन्न, विणिओ-
ग लहइ जइ मणा तशं । हत्थि पि ठिये पुओओ, किमन्न-
चित्ता न लक्खद् ॥ १॥ `` इति । इह च बहु वक्तव्यमास्त तत्त॒
स्थानान्तरादवसय्मिति । अथवा-सत्यासत्याभयखभावा-
चमदरूपाणां चतुणा मनायागानामन्यतर एव भवत्वकदा-
द्यादीनां विराधनासम्भवादिति, केषामित्याह-( देवासुरम-
णुयाणं ति ) तत्र दीव्यन्तीति देवा वेमानिकज्योतिष्काः । ते
चन सुरा असुरा भवनपतिव्यन्तरास्त च मनोजाता म-
जा मनुष्यास्त च देवासुरमनुजास्तषाम् | स्था० १
टा० । मनोयोगन मनस्त्वेन परिणामितानि वस्तुप्रवर्तकानि
द्रव्याणि मनांसीव्युच्यन्ते । अनु० । कमे । सशयप्रतिभा-
स्वभ्नज्ञानो हास्सखुखा ऽदिक्तमेच्छा ऽदयश्च मनसा लिङ्गानि । |
सम्म० २ काराड । “ इङ्गिताऽकारितेक्ञयेः,
तन च । नेत्रवक॒त्राविकारेश्व गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥ १ ॥ ” अ-
नु० श्रा० क० । “ शुभाशुभानि सर्वाणि , निमित्तानि
स्युरेकतः । एकतस्तु मना याति, तद्विशुद्धं जयावहम्
॥ १॥ ” ज्ञा० १ श्रु० १६ अ० । द० प० । मनःपर्यायज्ञान,
क्रियाभिभाषि- |
मनो जीव इति बोंद्धमतनिरासः यथा-- मणं च मणजी |
विया वयंति ति । '` न केवलं पञ्चव स्कन्धान् मनश्च मन-
स्कारा रूपा 5 ऽदिज्ञानलक्तणानामुपादानकारणभूतो यमाश्रि-
त्य परलाकाऽभ्युपगसम्यत बाद्धः, मन एवं जावा यषा मत ।
नत मनाजावा
रलोकासिद्धेः, तदासिद्धिश्चावस्थितस्येकस्या 5 ऽत्मनो $सत्वा-
त् मनामाजा $ ऽत्मनः क्षणान्तरस्थैवात्पादनात् च्रङूताभ्याग- |
मा55दिदोषप्रसज्ञात् कथश्विदनुगामिनि तु मनासि जीवत्वा-
भ्युपगमः सम्यक् पक्त पवेति । प्रष्न० २ आश्र० द्वार ।
कल्प०।
मणइच्छियं मनईप्सित-त्रि० । मनसीष्टे, “ मणइच्छियाचि-
त्तत्था, नायव्वो होइ इत्तारिओं | "` (११ ) मनासि इंप्सित इ
श्रश्चित्तो ऽनकप्रकारो ऽथः स्वगौपवर्गा ऽऽ दिस्तजालश्याऽदिवी-
त णव मनाजावक्राः , अलाकवाहता |
चषा आसवथा5ननुगामान मनामात्ररूप जाव काल्पतशपषः
यस्मात्तन्मनदाप्सताचत्राथम्,इत्वारक प्रक्रमाद्नशनाऽजख्य |
तपो ज्ञातव्यम् । उत्त ३० अ०।
मनणएगत्तीकरण-मनएकत्वीकरण न° । चित्तस्य नानाव्या-
पारविकल्पमाला $ ऽकुलस्येकाग्रता ऽपादने, दर्श ० १ तत्त्व ।
मरणंसि-मनस्विन्-त्रि० । “
अतः समृद्ध्यादो वा ”' ॥ ८।१। |
। १४॥ सम्रद्धिइत्येवमादिषु आदेरकारस्य दीर्घां भवति । |
माणंसी । मणेसी ॥ स्वमना 5नुगे, प्रा० १ पाद् ।
मणग-मनकः- पु०। दशवेकालिककर्तशय्यम्भवस्य पुत्र, कल्प
२ अधि० ८ क्षण । श्रयं च गर्भगत पवाऽऽसीदययदाऽस्य
पिता शय्यम्भवः प्रवव्राज, पश्चादष्रवर्पोऽयमपि त-
दन्तिके प्रव्रजितः, षरमासावशपाऽभध्युष तं ज्ञात्वा
तदर्थसकलश्रुतनिस्यन्द भूते दशवंकालिक्रनामाध्ययने नू-
|
मणगुत्ति
ने रचायित्वा पाटयामास पिता, ततः स काले स्वगतः।
ज० इ० ।
मणगपियर -मनकापित-पुँ? । मनका 55ख्यापत्यजनके, दश ०?
श्र० । श्रीशय्यंभवसूरो, “ मणगपियरे णमेसामि । `` कल्प० २
अधि० ८ क्षण । >
मणगुत्त-मनोगुप्त-त्रि० । मनोनियन्त्रणया सवरत , मनोगु-
प्त्या गुप्तः । उत्त० १२ आ० ।
मणगुत्तया मनोगुप्रता- खा । मनसा ऽशुभपदाथाद् गापन
उत्त० ।
मणगुत्तयाए णं भते ! जीवे किं जणयइ १ मणगुत्तयाए
शं जीवे एगऽग्गं जणयई, एगऽगगचित्ते णं जीवे मणगुत्ते
संजमाऽऽराहए् भवडई ॥ ५३ ॥
है भदन्त ! मनागुप्ततया जीवः कि जनयति ?। तदा गुरुराह-
है शिष्य ! मनोगुप्ततया जीव एकाग्र धर्मे एकान्तत्वम् उपा-
ज्यति एकाग्रचित्तो जीवो गुप्तमनः सन् सयमस्या $ऽराध-
कः पालको भवति । उत्त० २६ अ०।
मणगुत्ति मनोगुध्ि -खी० । मनोनियन््रणायाम् , उत्त ०। मना-
गुप्तिखिधा-त्रातरोद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालवियोगः प्र-
थमा १, शाख्रानु सारिणी परलाकसाधिका घमध्यानानुवान्ध-
नी माध्यस्थ्यपारणतिद्धितीया २, कुशलाकशलमनोच्रात्तान-
रोधन योगनिरोधावस्थाभाविन्यात्मारामता तृतीया ३। तदुक्के
वशषणत्रयेण यागशास्त्र-' वमुक्ककल्पनाजाल समत्व खुघ्र
तिष्ठितम् , आत्माराम मनस्तञ्ज्ञ-्मनोगुप्तिरुदाह ता ॥१॥”
पएवेविधा मनोगुप्तिरित्यथः। घ०३ अधि० | नि० चू० । द्वा० ।
सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य |
चउत्थी असच्चमोसाओ, मणगुत्ती चउव्विहा ॥ २० ॥
मनोगुप्तिश्चतुर्विधा-प्रथमा सत्या मनोगुप्तिः, तथा द्विती-
या असत्या मनोगुप्िः, तथेव तृतीया सत्याम्रषा मनो-
गुप्तिः। तथा चतुर्थी त्रसत्या्रपामनो गुप्तिः । यत्सत्ये वस्तु
मनसि चिन्त्यत जगति जीवतच्वे विद्यते इत्यादिचिन्तनस्य
योगस्तद्रपा गुप्तिः सत्यामनोगुप्तिः प्रथमा १, यत् असत्ये
वस्तु मनासि चिन्त्यत जीवो नास्ति इत्यादि चिन्तनस्य
योगस्तद्रपा गुप्तिः च्रसत्यामनोगुष्तिः द्वितीया २, बहनां
नानाजातीयानाम् आघ्रा ऽऽदिव्त्ताणां वन दृष्टा आम्रा-
णामेव वनम् एतत् वतते स तत्सत्यं पुनमृषायुक्तम्-
एवं इत्यादिचिन्तनयोगस्तद्रुपा गिः सत्याखषामनोगु
मिस्ततीया ३, यतोऽत्र काचित् सत्या चिन्तना काचित्
मषा चिन्तना केचित् तत्र बने आम्राः सन्ति तन सत्या,
केचित् तत्र बने धवखदिरपलाशा ५ऽदयो वृत्ता शपि स-
न्ति तेन ृषाऽप्यस्ति चतुर्थी ४, श्रसत्यामरुषा या चिन्तना
सत्या ऽपि नारित यत आदेशनिर्देशा $ ऽदिवचने मनासि चि-
न्त्यते दे देवदत्त ! घटम् आनय, अमुक वस्तु मह्यम् आ-
नीय दीयताम् , इत्यादि चिन्तना व्यवहाररूपा तद्रृपा गुप्तिः
असत्यासृपामनोगुप्तिश्चतुर्थी यत एषा चिन्तना सत्याऽपि
नास्ति स्पा एपि नास्ति व्यवहाराचिन्तना इत्यथः । उत्त २४
अ” । पनागुपो, आ” क०।
(८४ ?
श्रभिधानराजन्द्रः)
_मणगुत्ति
_ मणदुष्पाशिहाण
“ ्चावको जिनदासा55र्ूयः, प्रतिमां सर्वराज्िकीम ।
भ्रपन्नो यानशालायां , दुःशीला तस्य च प्रियः ॥ १॥
लोदकीलकयुकपादं , गीत्वा तज्पमाययों।
अज्ञानात्तत्र पत्येहो, लोदपादं निवेश्य खा ॥ २॥
अनाचारं प्रकुर्वाणा--5विध्यत्कीलेन तत्पदम् ।
वेदनां सो ऽधिसदे तां , न दुध्यीने मनोऽप्यगात् ॥ ३॥ ”
आ० क० ४ अ० ।
मशगुलिया-मनोगुटिका- ी° । पीटिक्रायाम् , मनोगुलि-
का नाम पीठिकेति | जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०।
मशजीविय- मनोजीविकः- पुं । मन प्व जीवो येषां ते मनो
जीवास्त एव मनाजीविकाः । मनस श्रात्मत्ववादिषु, पञ्च० २
श्राश्रवद्वार । (ते च “मण शब्दे ऽजुपदंमव प्रतित्षिप्ताः )
मरणजोग-मनोयागं प° । मनसा सहकारिकारणभूतेन योगा
मनोयोगः विशे० । मनोविषयो वा यागो मनोयोगः । कमे०
४कर्म०। दश० श्रोदारिकव्यापाराद् वृत्तमनोद्रव्यसमूहसा-
चिव्याज्ीवन्यापारे, “ तह तणुवावोराहिय-मणदव्वसमूह-
जीववावारा। सो मणजोगो भण्णइ, मन्नद नयं जश्रा तणं।१।”
` न० । श्रो० । कर्म० । स्था०। “` हितं मितं प्रियं तथ्य-मनवद्यावि-
सश्य च । यन्मुनिवक्कि वाग्योगः, शेषतद्धामवजेनात् ॥ १॥ ”
मनोयोगः पुनरय,मनसः कुशलस्य यत्। " जी त०। मनःसम्ब-
न्ध.द्वा० २४ द्वा०। कप्र०। स्था०। तत्र मनोयागश्चतुध्र(,तद्यथा-
सत्यमनोयागः १,असत्यमनोयोगः २,सत्या ऽखत्यमनोयोगः ३,
श्रसत्यागरपामनोयागः४,तत्र सन्ता मुनयः पदार्था वा तपु यथा-
सख्यं मृक्रिप्रापकत्वेन यथावस्थित तच्वचिन्तनन च दितः
सत्यः यथा श्रस्ति जीवः सदसदपः कायप्रमाण इत्थादिरूपतया
यथावस्थितवस्तुविकट्पनपर इत्यश्ः,सत्यश्चासो मनायोगश्च
सन्यमनायागः । तथा सत्यविपरीता ऽसत्याः यथा-- नास्ति
जीव पकान्तसद्धूतो विश्वव्यापीत्यादिकुबिकल्पचिन्तनप-
रः । श्रसन्यश्चासो मनोयागश्च श्रसत्यमनोयोगः २, तथा
मिश्रः; सत्याऽसत्यमनोयोगः । यथा इह धवखदिरपला-
श्लाऽऽदिमिश्रषु उदुष्वशोकव््तेषु अशोकवनमेवेदमिति
यदा विकल्पयति तदा तत्राशोकबरक्ताणां सद्धावात्सत्यो -
ऽन्यपामपि धवस्रदिरपलाशाऽ 5दीनां तत्र सद्धावादसत्य इ-
नि सत्या ऽसत्यमनोयोग इति, व्यवहारनयमता पेक्षया चै-
क्षमच्यत , प्ररमारतः पुनरयमसत्य पव यंथाविकल्पिता-
थोयोगात् । न विद्यत सत्य यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते झूषा
क्षत्र सो 5मृपः, श्रसत्यश्चासावमूषश्च ते नया ऽ ऽदिभिन्नरिति
कर्मधारयः श्रसत्यारषश्चासौ मनोयोगश्च श्रसत्यासूषमनो-
याणः । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठा 4ऽशया सवै-
शतौनुसारण करिञ्चिद्धिकट्पते यथास्ति जीवः सदसव्रूप
इत्यादि, तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात् , यसु वि-
प्रतिपत्तो-सत्य वस्तुप्रतिष्टाशया स्वश्षमतात्तीर्ण किश्विद्
विकल्पन यथा नास्ति जीव एकान््तनित्यो वेत्या*
दि तदसत्यामिति परिभाषितं, विराधकत्वात्, यत्पुनव-
स्तुप्रतिषठाशामन्तरेण स्वरूपमाअप्रतिपादनपरं व्यवहार-
पतित किञ्चिद्धिकल्पने--यथा हे बवदत्त ! घटमानय , गां |
दहि मष्टामित्यादि, तदेतत्स्वरूपमात्रप्रातिपादन ध्योयहारि-
क्रं विकूटपज्ञाने न यधरोक्रलक्तण सत्य नापि मूषत्य-
सत्या खषमनोयोग इति व्या स्यातश्चतुद्धफ मनोयोगः । कर्म
४ कर्म०।
मणजोगि ( ण् )-मनोयोगिन्- पु । खमनस्के जीवे, स्था०
४ ठा० ४ उ०।
मशणण-मनन-न० | चिन्तने, विश० | सर्वेपदार्थपरिनज्ञाने,
आचाए० १ श्रु० ८ अ० १ उ० । सम्यक् परिच्छित्तौ, सूत्र
हैं श्रु० १४ आ० |
| मणणाणि-मनोज्ञानिन्-एँ० । मनःपर्यायक्वानिनि , प्रव० ?
द्वार ।
मणणाणिलाद्वि-मनोज्ञानिलब्धि-त्रि० । मनोज्ञानिनो मनः-
पयीयज्ञानिनो लान्धः । मनःपयौयज्ञानरूपे लान्धिभेदे,तश म-
नःपयोयज्ञाने विमलमतिरूपमिद गृष्यते, छजुमतेः पृथक् ल-
न्धिरूपत्वात् । । आ० म० १ आ०।
मणखिव्वात्ति-मनोनिवत्ति- खी०। निर्वत्तिभेदे , भ०।
कईविहा णं भते ! मणणिव्वत्ती पष्पत्ता १। गो
यमा ! चउच्विहा मणणिव्वत्ती पष्पत्ता | तं जहा-सच्च-
मणणिव्वत्ती °जाव असच्चामोसमणरिव्वत्ती । एवं
एभिदियव ज्ञं विगलिदियवज्ञ ° जाव वेमाशियाणं । भ०१६
श॒० ८ उ०।
मण णिव्वुतिकर-मनोनिवतिकर-जि० । मनसः निदरैतिकरः
खुखोत्पादके, रा० ।
मणदव्व-मनोद्रव्य-न० । मनोवर्गणागते मनस्त्वेन प--
रिणमिते द्रव्ये, विशे० । “ मणदव्वाणि णाम--जाणि मण-
पाओग्गाणि दव्वणि गहिताण ताणि मणदव्वाणिं भरण-
ति। ” श्रा चू० १ अ० । मनश्चिन्ताप्रवत्तके द्रव्ये, विशे० ।
मणतुद्िजणण-मनस्तुष्टिजनन- न° । चित्ततोषविधाने, प-
० ६ विव० ।
मशदंड-मनोदण्ड-पुं०। वरडभेदे,स्था०२डा०१३०।(व्यास्या
'दृंड' शब्दे चतुर्भाग २४२१ पृष्ठे) मन एव दण्डो मनोदर्डः
बा दुष्पयुक्केना ऽ ऽत्मदरडो दण्डन मनोदरड पव । स०३ सम०।,
मनसा “ तत्थ मणदंडे उदाहरणं-कोकणपए पगो खतो सो
जउह्जाण अहोसिरो विमतो श्रत्थति साधुणो श्रहो खतो
खुभञ्भाणोवगतो लति वेदति, चिरेण सलाय देतुमारयो ।
साहि पुच्छितो भणति । खरो घातो घायति जदि तेहि
मम युत्ता सपत्ते वल्लराणि पलीवेज्जा ताप तसि वरि--
सारत्ति सरिसापए भूमीए खुबहसालिसपदा भवेज्जञ स्ति ।
पते चितिये मे श्रार्यारणणे बारितो दितो, पवमादी जे अ-
सुभे मणो चितेति सो मणवंडो । ” आ० चू० ४ अ० |
मणदुकड-मनोदुष्कृत-त्रि० '। दुष्कृतानिमिश्षे, आय० रे
म । घ०।
| मखदुप्पशिहाण -मणदुष्परणिधान-न० । मनसो दुएं भरणि -
धानं प्रयागो दुष्यणिधानम् । रृतसाम्ायिकस्य गृहे कले--
व्यतां कथयतां सकृद्दुष्कृतपारिचिस्तने , उपा० १ अ० ।
आचा० ।
सामाइयं तु कां, परिचितं ओ य चिषए सङो |
(५ =!
~~~
अआमध्ानराजन्द्रः :
मणदुष्पणिहाण
अट्टवसटोवगओ, निरत्थयं तस्स सामयं ॥ ३१३ ॥
सामायिकमित्येवं कृत्वा श्रात्माने संयम्य परचिन्तां संसा-
रे इतिकल्तव्यताविषयां यस्त॒ चिन्तयति श्रावक आत्तवशा-
संश्च स उपगतश्चति समासः आत्तिध्यानसामर्थ्यना55त्तः ,
उप-सामीप्येन गतो भवस्येति भावार्थः । निरर्थकं तस्य
सामायिकमना्माचन्तावतः निष्फल सामायिकमित्यर्थः ।
आपत्मचिन्ता च सदध्यानरूपति ॥ ३९६३ ॥ श्रा० । पञ्चा० ।
मणपज्ञत्ति-मनःपयाप्षि-खरा० । पर्याप्िभेदे , यया पुनमनायो-
ग्यवरणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्या ऽऽलम्ग्य च मु
आति सा मनःपर्याप्ति। कर्म० ६ कर्म० | प्रव०। प्रज्ञा० | प०स०।
मशपज्ञवण।ण- मनःपयेवज्ञान-न० । मनसो मन्यमानमनो
द्रव्याणां पर्यवः-परिच्छृदो मनःपर्यवः, स पव ज्ञान, मनःपर्या-
याणां वा तदवस्थाविशेषारां ज्ञान मनःपयवज्ञानम्। भ० ८ श०
२ उ०। क्म०। बृ०। घ०। प०्स० । स्था० । सू्० । श्रा०म० ।
मणपज्जवणाणे द विहे पन्नत्ते त जहा-उज्जुमई चेव,
विउलमई चव |
स्था० > ठा० १ उ० । पा० । प्रज्ञा ० | ज्ञानभेदे, विशे० ।
अथ मनःपयोयज्ञानविपयां व्युत्पक्तिमाह--
पजयणं पजञ्ञयणं, पञ्ञाआ वा मणम्मि मणसो वा ।
तस्स व पञ्ञायादि-ज्नाणं मणपज्जवं नाणं ॥ ८३ ॥
( पञज्ञवणे तन ) अब गत्यादिष्वितिवचनादवने गमनं वद्-
नमित्यवः , परिः-स्वताभावे, पयैवने' समन्तात् परिच्छेदन |
पर्यवः । क्वायमित्याट-( मणम्मि मणसो व ति ) मनसि |
मनोद्रव्यसमुदाय ग्राह्य, मनसा वा ग्राह्यस्य सबन्धी पर्यवः
मनःपर्यवः , स चासो ज्ञाने च मनःपर्यवज्ञानम् । अथवा-
( पज्जयणं ति ) ' अय वय मय ' इत्यादि दणडरूध्रातुः, अयने
गमन वेदनमित्ययः, परिः सर्वतो भाव. पर्ययने सवनः परि-
च्छेदने पर्ययः ।क्व पुनरसा ?, इत्याह-( मणांम्म मणलो व
त्ति) मनसि प्राष्य , मनसो वा ग्राह्यस्स सम्बन्धी पयया
मनःपर्ययः, स चासौ ज्ञान च मनःपर्ययज्ञानम । ( पज्ञाओ
घत्ति) श्रथवा--इण् गतो, श्रयनम् श्रायः. लाभः प्रािर्गात
पयायाः; परिस्तथेव , समन्तादायः पयायः । क्व ?. इत्याह--
( मणम्मि मणसो व त्ति ) मनसि प्राष्य, मनसा वा ग्राह्मस्य
पयायो मनःपयायः। स चासो क्षाने च मनःपयांयज्ञानमृः। णवे
तावज्ज्ञानशब्दन सह सामानाधिकररयमङ्गीरूत्याक्रम । श्र
थ बयाधकररायमङ्गीकृत्या $ऽह-( तस्स वत्यादि ) वाणब्दः
पत्तान्तरसचकः , तस्येति-मनसः. पयायाः, पर्यवाः. पर्षया
धम्मा इत्यन थान्तरम् इति । श्रादिशब्दात्पयवपययपारिग्रह ः।
ततश्चा ऽयम्थः.श्रथवा-तस्य मनसो प्रा्यस्थ सवन्धिना था
छयवस्तुाचन्तनाचुगणा य पयायाः, पयवाः, पययास्तषा तषु
खा इदमित्थभूतमनन चिन्तितम् इत्यवरूपे ज्ञान मनःपर्ययक्षा
ने, मनःपर्यवक्लान, मनःपर्यायज्ञाने चति क्ानशब्देन सह व्याधि
करणः समासः। श्रत पव"'पायच नाणसददो,नामसमाणाहिगर-
णो5 ये |" इत्यत्र प्रायों ग्रहएं करिष्यतीति गाथा 5 थेः विरा? ।
अथ ज्ञानपश्चकभणनक्रमा ५ एयातस्य मनःपर्यायज्ञानस्य
प्रस्तावनां कतुमाह--
ओहिविभागे भणियं,पि लद्धभिसामनझनभओ मणोणाणं ।
विसयाइविभागत्थं, भणई नाणकमाऽऽयातं ॥ ८०६ ॥
९
है
मणपजञ्जवणाए |
प्रकटार्थव ॥ ८०६ ॥
तदेवै प्रतिज्ञातं मनःपर्यायशानमाह--
मणपज्वणाणं पण, जणमणपरिचितिय5त्थपागडरणं |
माणुसखेत्तानिबद्धं, गुणपत्चइयं चरित्तवग्रो. || ८१० ॥
मनःपयायज्ञाने प्रागानिरूपितशब्दार्थम् । पुनःशब्दो ऽवधि-
ज्ञानादस्य विशेषद्यातनाथः । इदे हि रूपिद्रव्यनिवन्धनत्वक्ता-
योपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वा 55दिसाम्ये ऽपि सत्यवधिज्ञानात्स्वा-
म्यादिभेदेन विशिष्टामिति । तत्र विषयमाधित्य स्वरूपत इदं
प्रतिपादयति-जायन्त इति जनास्तेषां मनांसि जनमनांसि नैः
परिचिन्तितो जनमनःपरिचिन्तितः स चासावर्थश्च तं प्र-
कटयति-- प्रकाशयति जनमनःपरिर्चिन्ततार्थप्रकटनम् ।
मानुषक्तत्रमद्धततीयद्वीपसमुद्रपारिमारो तन्निवद्धं. न खलु
तद्रहिभूतप्राणिमनांस्यवगच्छतीति भावः । गुणा विशिष्ट-
दि प्राप्िक्तान्त्यादयस्त एव प्रत्ययाः कारणानि यस्य॒ तद्गु-
णप्रत्ययम् । चारि्रमस्यास्तीति चारितर्बास्तस्य चारित्र
` वत एवद् भवात, तस्याप्यप्रमत्ताद्धप्राप्तत्वाऽद्समयाङ्क-
विशेषविशिष्टस्येव इति नियैङ्किगाथा ऽथः ॥ ८६० ॥
अथ भाष्यं तत्र पुनःशब्दार्थ तावदाह--
पुणसदो उ विसेसे, रूविनित्रंधाईं तुन्नभावे वि।
इृदमोहिन्नाणाओ, सामिविसेसाइणा भिन्नं || ८११ ॥
गताथेव ॥ ८११ ॥
श्रथ कस्य तद्भवाति ?, कियस्क्तत्रविषयं चत्याह--
तं संजयस्स सव्व-प्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमओ ।
समयसखेत्ताबभितर-सन्निमणोगयपरिप्माणं ॥ ८१२ ॥
प्रकटा ऽथा ॥ ८१२ ॥ विश० |
जाणइ य पिहुजणो वि हु, विफुडमागारेहि माणसं भावं |
एमेव य तस्सुवमा, मशदव्वपगामिए अत्थे ॥ ३६ ॥
पृथग्जनो ऽपि लोको, हु निश्चितमाकारेर्मानस भावं जा-
नाति, पवमेव तस्याऽपि मनःप्यायज्ञानिना मनाद्वव्यप्रका-
शित<र्थ उपमा द्रव्या । किमुक्कं भवाति?-थथा प्राकृता'लाकः
स्फुटमाकारेर्मानसं भावे जानाति, तथा मनःपयवन्लान्यांप
मनाद्रव्यगतानाकारानवलाक्य तं तं मानस भावं जानाति ।
बृ ६ उ० ट प्रक ।
से कि ते मणपज़वनाणं | मणपज्ञवणाण णं भते ! किं
मणुम्साणं उप्पज़इ, अमणुस्याणं ? | गायमा ! मणुस्साणं,
ने।अमणुम्साणं । जइ मणुस्साण किं संग्रुच्छिममगुम्सारां,
गब्भवर्कातियमणुम्साणं ?। गायमा / ना मयृच्छिममणु-
स्सागं उप्पज्ञ .गव्भवक्रौनियमणुस्माणं । जद गब्भवर्कंति
यमणुम्मःगं कि कृम्मभृमेयगन्भवकतियमणुम्माणं, अ-
कम्मभू भयगव्भव कं तेयमणुम्माणं, अंतरदी वगगब्मवर्क -
तियमणुस्साणं ? | गायमा ! कम्मभृमियगब्भवर्केति-
यमणुस्पाशं ना श्कम्मभूमियगन्मवकंतियमणुम्माशं
नो श्रतरदीवगगम्मत्रकंनियमणुम्पागं । जह कम्मभूमियग
(
म्णपल्रचरखाण
ठभवकृंतियपणुम्पाणं कि मखिज्ञवासाऽऽ्डयकम्मभूमियग-
व्भृप्रकतियपणुम्पाणं अरमयिजपरासाउयकम्मभूमियगन्भ-
वकतेयमणुम्पाशं ?। गयम ! सखिज्ञव्रासाउयक-
भूमियगब्भवक तियमण॒स्साण , नेअमंखिज्वासाउयक-
स्मभूमियगव्भवकंतिय मणुस्साणं । ज़ संखिज्ञवासाउयक-
स्मभू मियगब्भवकेतियमणुस्साणं कि पज्जत्तगर्सखिज्ञ-
वासाउयकम्भू मियगव्भवकंतियमणुस्साणं, अपज़्त्तगर्स-
खिज़व्रास[उयकम्मभू मियगब्भवकं तियमणुस्साणं ?। गो-
यमा! पञ्ञत्तरसंखिज़वासाउयकम्मभूमियगब्भवर्कतिय -
मणुस्साणं, ने अपज़तगर्सखिज़वासाउयकम्मभू मियगब्भ-
वकंतिय मणुस्साणं । जइ पज्ञ तगसंखिज्ञवासाउयक म्मभू मि-
यगब्भवकंतियमणुस्साण कि सम्महिद्विपज्जत्तगसंखिज्ञवा-
साउयकम्मभूमियगव्मक तियमणुस्साण, मिच्छ ट्वि पज्त्त-
गर्सखिज्वासाउयकम्मभूमियगवब्भवर्कतियमणुस्साणं, स-
म्मामिच्छदि द्विपज्जत्तगस खिज़वासाउयकम्म भू मिय गवभव-
क्रंतियमणुस्साणं ? | गोयमा ! सम्महिद्विपज्ञ त्तरमाखिज्ज-
वासाउयकंम्मभू नियगब्भवर्क तयमणुस्साणं नो मिच्छा-
दिद्विपज़त्तगर्सखिज्जवासाउयकम्म भू मियगब्भवकं तियम -
गुस्साणं नो सम्मामिच्छदि द्विपज्ञत्तरर्स खिज़बासाउ-
यक्रम्मभू मियगव्भकतियमणुम्साण । जड सम्मद
प्नत्तगम{व ज्ञवासाउयकम्मभृमियगन्भवकरं तियमणुस्सा
कि. मेजयमम्मटद्टिपज्त्तगसंख ज्वासाउच्रकम्मभूमिय-
गत्मवक्रीतयमणस्यागं अ्रमजयमम्मटिद्टिपज्ञत्तगखिज्ज-
वासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्माणं सजयाऽमजय- '
मम्मटिद्धिपज्ञनगसं िज्ञवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतिय- |
मणुम्माणं ? । गोयमा ! संजय॑सम्म दिद्विपज़त्तगसंखिजवा-
साउग्रकम्म भमियगब्भवक्तियमणुस्साणं, नो असंजयस- ,
म्महिद्विपज़ त्गस खिज्जवासाउयकम्म भू मियगब्भयवकति -
यमगुस्माणं , ना
स्िजवरासाउयकम्मभूमियगव्भवकंतियमणुस्माणं । जह
मृजयमम्मटिद्धिपज्जत्तगमंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भ -
वक्रतियमणुम्माणं, कि पमत्तसंजयमम्मदिद्िपजत्तग -
मेण्विज्वासाटयक्रम्मभमियगव्भवक्रतियमगुम्माणं अ-
पमन्नमंजयमम्मटि ट्रिपज्ञत्तगअ सं खि ज्जवासा उय क म्म भू मि-
यगव्मवक्रनियमगस्माणं ?। गोयमा ! अपमत्तमं
जयमम्मदि ट्विपज्ञ त गर्साखिजवासाउयकम्मभूमियगव्मव कं -
तियप्रण॒स्साणं, ना पमत्तसंजग्रसम्मदैिद्विपज्जत्तगसंख -
ज्जवासाउयकम्मभूमियगव्भवक्तियमगुसम्साण । जह् |
अपम त्तसं जय पम्मद्वि द्रिपज्ज तगर्सखजवासाउयकम्मभूमि - |
आआमभधानराजन्द्र च ; ॥
समजयाऽमजयसम्मटि द्िपज्जत्तगसं - ,
)
मणपजवणाण
यगव्भवर्कतियमणुस्साणं कि इड्रीपत्तअपमत्तसंजयस-
म्मदिद्विपज़त्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगब्भवकंतिय --
मणुस्साणं अरणिङ्ीपत्त्रपमत्तसंजयसम्मदिद्धिपज्जत्तगसं -
खिज़वासाउयकम्मभू मियगब्भवकंतियमणुस्साणं ? गाय-
मा ! इड्रीपत्तअपमत्तसंजयसम्महिद्विपज़त्तयसंखेजवा
सा55उयकम्मभूमियगब्भवकंतियमणुस्साणं नो अणिड्री-
पत्तअपमत्तसंजयसम्मदिद्ठि पज़ त्तगसंखेजवासाउयकम्मभू -
मियगब्भवकंतिय मणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुपजञइ ।
( सृत्र--१७ )
शमथक तत् मनःपयायज्ञानम् : एव ॥शष्यण प्रश्न कृत
सात य गातमप्रएनभगवान्नवचनरूपा मनःपयायज्ञाना-
त्पत्तिविषयस्वामिमागणाद्वारेण पूवस्ूजाऽऽलापकास्तान
"वतथप्ररूपणाशङ्काव्युदासाय प्रवचनवहुमानावनय जनश्र-
द्धाउभिवुद्धय च तदवस्थानव देववाचकः पठति-' जावइया
तिसमयाहारगस्स ` इत्यादि निर्युक्षिगाथासूत्रामिव, ' मण- _
पञ्ञवनाणं भंते ! , इत्यादि मनःपर्यायज्ञान ` प्राग्निरापित-
शब्दाम् ` सो ` इति वाक्यालङ्ारे. ` भत त्ति ` गुढ्वीम-
न््रण, ` क्रिमिति ` परप्रश्ने, मनुप्याणामुत्पद्यत इति प्रकटा-
थममनुष्याणामुन्पद्यत इति, * अमनुष्याः ' देवा ५ऽदयः तेषा-
मुत्पयते ?, एवे भगवता गौतमेन प्रश्च छत सति पर-
र्दन्त्यमदटिम्ना विराजमानस्िरिलाकीपतिभ्रगवान् बद्धेमान
स्वामी नर्वचनमभिघत्त-- गायमा ! मरुस्साणे ` इत्यादि ।
ह गोतम ! सत्र दीधत्वं ` सेलोपः संवाधन हस्वा दति ` ( डा-
दीर्धा वा ॥5।३।३८॥) इति प्राकृतलक्षणसत्रे वाशब्द्स्य लच्या-
नुसारेण दीधत्वसचनात् अवसेयं,यथा'-भो वयस्सा !' इत्या-
दो.मचुष्याणामुत्पद्यत नाउ्मनुप्याणां,तपां विशिए्चा रित्रप्राति-
पक््यसम्भवात् | अञ्ञा55ह-ननु गौतमाऽपि चतुददशपूर्वधरः
सवीत्तरसन्निपाती संभिन्नश्रोताः सकजप्रज्ञापनी यभावपरि-
शानकुशलः प्रवचनस्य प्रणता सर्वज्नदेशीय एवं | उक्तं च--
“ संखातीते व भवे, साहइ ज वा परो उ पुच्छेज्ञा।न
यर अणाइसेसी, वियाणई पस छुठमत्थो॥ १ ॥ `"
ततः किमथ प्रच्छति ?, उच्यत--शिष्यसंप्रत्ययाथ, तथा-
हि- तम स्वरिष्यभ्यः प्ररूप्य तषां सेप्रत्ययाश्च तत्समक्ते
भूयो ऽपि भगवन्तं पृच्छति, अथवा-इन्थमेव सव्ररचनाकल्पः.
तता न कश्िदाप इति । पुनरपि गौतम आह--यदि
मनुष्याणामुत्पद्यत तर्दिं कि संमूर्च्छिममनुष्याणामुत्पद्यते,
कि वा--गव्मव्युल्कान्तिकमनुष्याणामुत्पद्यते १। तत्र * मू-
च्छी' माहसमुच्छुययोः | संम॒च्छने संमूच्छी भावे घजञ्प्रत्य-
यः, तन नियत्ताः सेमूच्छिमाः, ते च वान्ताऽऽदिसमुद्धवाः,
तथा चाङ्क प्रन्नापनायाम्--* कटि णे भेत ! संमुच्छिम-
मणुस्सा संमुच्छाति ?। गायमा ! श्रनामणुस्सखत्ते पणया-
लीसाए जायणसयसहस्सखु अहाइजसखु दीवसमुदसु पन्न-
रसस्तु कम्मभूमोखु तीसाण अकम्मभूमीसु छुप्पएणाए अंतर-
दावेखु गब्भवक्रातियमणुस्साणे चव उद्चारेसु वा पासवणख
वा खलखु वा सिघाणखु वा वंतेंसु वा पित्तसुवा सुक्केसु वा
सारस वा स्ुक्रपाग्गलपरिसाङडखु चा विगयकले--
(0259.
मणपञ जवणाण
वरेखु वा थाीपुरिससंजोएस वा गामनिद्धमणखु वा
नगरनिद्धमझेसु बा सव्वेखु चव अरुइद्टाणसु पत्थ ण समु-
च्छममरुस्सा समृच्छति अगुलस्ख असंखज्जइभागमेत्ताए
आओगाहणाए असरणणी मिच्छादिद्ी अरणाणी सबव्वाहें पज्ञ-
त्तीहिं अपज्जत्तगा अताम॒हुत्ताउगआ चेव काजल करंति।
इति । तथा म्मे व्युत्कान्तिरुत्पत्तियेंषां ते गर्भव्युत्का-
न्तिक्राः, अथवा-गभाद् व्युत्कान्तिः--ब्युत्कमरं। निषऋमणं
अआभभधानराजन्द्र: |
येषां ते गमव्युत्रान्तिकाः, उभयत्रापि गर्भजा इत्य- ।
शः । भगवानाह नो संसूर्चिछिममनुष्याणामुत्पद्यते , ते- ।
घां विशिष्टचारित्रप्रातिपत््यसम्भवात् , कि तु-गर्भग्युत्करान्ति-
कमनुष्याणाम्, एवं सर्वेषामपि प्रश्नानिवैचनसत्रषणां भाव।-
था भावनीयः ,
नवर काषवाणज्यतपःसखमानुष्ठाना 55- |
दिकर्मप्रधाना भूमयः कस्मभूमयो भरतपश्चकेरवतपश्चक- |
महाविदेहपश्चकलक्षणा: पञ्चदश ताखु जाताः कम्मेभूमि-
जाः, कृष्यादिकम्मेरहिताः कर्एपादपफलोपभ्गप्रधानाः |
भूमया
ञत्चकरम्यकपञ्चकेररायवतपञ्करूपाखिशदकःम्मेभूमयः ता-
सु जाता अकम्म॑भूमिजाः, तथा श्रन्तरे-लल्णसमुद्रस्य मध्ये |
द्वीपाः श्न्तरद्धी पाः एकारुका 55दयः षद् पञ्चाशत् तषु जाता |
न० ) ( श्रथ लवणसमुद्रस्य मध्ये षदप- |
ञ्चाशदनन्तरद्धीपा वत्तन्त कि प्रमाणा वा ते किस्व- |
अन्तरद्धीपजा
रूपा क इति “ अतरदीव ` शब्दे प्रथमभाग ८६ पृष्ठ
गतम् ) * संखेज्जवासाउय त्ति ` सङ्ख्येयवर्पायुषः
पूवैकोखयादिजीविनः असङ्ख्येय वर्षायुष:--पल्यो पमादिजी -
विनः ` तथः पज्जत्तगत्ति ` पणोप्तिः-आहारादिपुद्न लग्न हण-
परिणमनहेतुरात्मनः शक्षिविशषः, स च पुद्धलोपचयात् ,
किम॒क्लं भवाति ?-उत्पात्तिदेशमागतेन येन ग्रहीता आहारा-
दिपुह्नलास्तेषां तथा अन्येषा च प्रतिसमयं ग्रह्ममाणानां त-
त्सम्प्रक्तः वद्रपतया जातानामपष्टम्भन यः शाक्तिविशषो जी
वस्याऽऽदायऽऽदिपुद्रलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहे-
तुर्यथ।द रान्तर्मतानां पुद्धलविशेषाणामवष्टम्भना 55 हारपुद्ग ल-
खेलरसरूपतापादनटेतः शाक्किविशषः सा पर्याप्तिः , पयो प्तयो
विद्यन्ते यषां त पयात्ताः ' अभ्रादिभ्यः ' ॥७।२।४६॥ इति मत्व-
थींयो ऽप्रत्ययः। ये पुनः खयोग्यपयाप्तिपरिसमाप्तिविकलाः
ते अप्योप्ताः, ते च द्विविधा-लब्ध्या, कररोश्च, तत्र ये ऽपर्य
ज्ञक्रा एव सन्तो च्रियन्ते न पुनः स्वयोग्यपयौप्तीः सर्वा श्रपि
समयन्ते ते लन्ध्यपयांप्तकाः, तेऽपि नियमादाहारशरीरे-
न्द्विएपयांसतिपरिसमाप्तावेव ध्रियन्ते, नार्वाक्, यस्मादागामि
भवायवंद्धूा प्रियन्त सर्वं पव देदिनः, तच्चादारशरीरान्द्र-
यण्योप्तिपयाप्तानामेव वध्यत इति, ये पुनः करणानि शरी-
रेन्द्रियादीनि न तावश्निवैत्तेयन्ति अथ वश्यं निरवेननयि-
ष्यन्ति ते करणापर्याप्तका
प्यः, उभयेषामाप विशिष्टचारित्रप्रातिपत््यसम्भवात् , तथा
सम्माद्दाटटट त्त ' ' सम्यक--अविपरीता हांष्टः--ज़िनप्रणी-
तवस्तुप्रातपाच्यषा त सम्यग्रष्टय:, मिथ्या--विपरोता ह-
प्रियेषां ते मिथ्यादष्टयः सम्यक् च मिथ्या च दृष्टियेषां ते
सम्यगमिथ्यादष्टयः येषामकरिमन्नपि च वस्वनि तत्पयाये
षा मतिदोर्बट्यादिना पकान्तेन सखम्यकपारज्ञानामथ्याल्ञाना- |
भावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते स-
म्यगमिध्याद्ठयः, उक्कं तु शतकबृद्दस्यू्णों--' जहा ` नालि-
हेमवतपञ्चकहरिवपपञ्चकदेवकुरुपञ्च कोत्त रकुरुप- |
इहोभयेषामप्यपर्याप्तानां प्रति--
मणपञ्जव ताण
केरदीववासिस्स खहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स श्रोयणा-
इए अरणगावहे दाइप तस्स उवार नर्डनय निंदा, जच्रा
तण सा आयणाइओआ आहारा न कयाइ दद्र नाव सुआ
पव सम्मामच्छादिट्रिस्स वि जोवादइपयत्थाणं उवार न य
रुई नाव निद ' ति, तथा “ संजय ' त्त * यम ' उपरम,
सयच्छान्त स्म सर्वसावद्यययागभ्यस्सम्यगुपरमन्त स्मात
सयताः. “ गन्यथकम्मरायाघ्रार `` ति कत्तार कप्रत्ययः. स~
यताः-सकलचारात्रणः श्रसयताः--श्रावरतसम्यगदषए्यः-
सयतासयताः-दशावरांतमन्तः. तथा ` पमत्त ` त्ति प्रमा-
द्यन्ति स्म माहनोयादिकम्मादयप्रभावतः सञ्ञ्वलनकषा-
यानद्रादयन्यतमप्रमादयागतः सखमयागपषु सोदान्त स्मात
प्रमत्ताः, पूववत् कत्तार क्रप्रत्ययः. त च प्राया गच्छवासन
तषां क्वाचद नुपयागसम्भवात् . ताद्वपरीता श्रप्रमत्ताः.तच
प्राया जनकल्पिकपारि हारविशुद्धिकयथालन्द काट्पकप्रति-
माप्रतिपन्नाः. तषां सततोपयागसम्भवाद्. इ तु य गच्छवा-
सिनः तन्निगता वा प्रमादरहिताः ते 5प्रमत्ता द्रष्टव्याः, तथा
* इष्धिपत्तस्से ' त्यादि. ऋद्धीः--श्रामर्षोपध्यादिलक्तणाः प्रा-
प्रा ऋद्धिप्राप्ताः। ( न० ) तथा आमर्षोंपध्यादीनामन्य--
तमामृद्धिमवध्युद्धि वा प्राप्तस्य मनःपयायज्ञानमुत्पद्यत
नान्रद्धिप्राप्तस्य , अन्य त्ववध्यद्धिप्राप्तस्येवाति नियममा-
चक्तते,तदयुक्कं,सिद्धप्रा भ्रताउ5दाववधिमन्तरेणापि मनःपर्या-
यज्ञानस्यानेकशो ऽभिधानात्। अजा 55ह-मनुष्याणामुत्पयंत
इत्युक्के सामथ्योदमनुष्याणा नात्पद्यते इत्यनुमायत. ततः क-
थमुच्यते-'नो अमरुस्सारं उप्पञ्जद इत्यादि .निरथकत्वात?।
उच्यते--इह तरिधा विनेयाः | तद्यथा--उद्घ्राटितज्ञा, मध्य-
बुद्धयः , प्रपश्चितज्ञाश्र । तत्र ये उद्धटितज्ञाः. मध्यवुद्धया
वा ते यथोक्ल सामथ्येमववुध्यन्ते. य पुनरदाप्यव्युत्पन्नत्वात्
न यथोक्लसामथ्यावगमकुशलास्ते प्रपश्चितमवावगन्तुर्मी-
शते, ततस्तेषामनुग्रहाय सामथ्यलभ्यस्या ऽपि विपक्ञानिष-
धस्या ऽभिधानं , महीयांसो टि परमकरूणापरीतन्वात् अ-
विशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवत्तन्त. तता न कश्चिद् दापः ।
द्रव्यतः क्षत्रतस्तदाद--
तं च दुविह उप्पज़इ, । ते जहा-उज्जुमइ य, वि-
उलमई य । ते समासओ, चउव्विहं पप्तं । तं जहा-
दव्वयओ, खत्तञ्रो, कालओ, भावो । तत्थ दव्वओ
शं उज्जुमई णं अशते अणंतपएसिए खंधे जाणट,
पासइ , त चव वेउलमई अन्भाहयतराए् ब्उलतराण
विसुद्धतराए बितिमिरतराणए जाणद, पासई्, खेत्तओं णं
उज्जुमई अ जहन्नरण अगुलस्स असखजयभाग उक्ासमण
अंह ०जाव इमीसे रयणप्पभाए पुदवौए उवरि
महद्िल्ले खुडुगपयरे उड ०जाब जेइसस्स उबरिमतले
तिरियं ०जाव अतोमणुस्सखित्त अद्भाइज़ेसु दीवस-
मुद्देस पत्चनरससु कंम्मभूमासु तीसाए अकम्मभूर्मासु छं
प्यज्षाए' अतरदीवगेसु सन्निपंचिदियार्ण अपजत्तयाणं
मणोगए भवे जास, पासइ, तं चव विउलमई अड्डा
ज्ेदिमगुलेदिं अव्महियतर॑ विउलतरं विसृद्धतर
(
सणपज्जवणाण
वितिमिरतरागं खेत्त जाणइ, पासइ, कालग्रो णं उज्जुमई
जहन्लेणं प्लिओवमस्स असंखिजइभाग उक्कोसेण-
वि. पलिओवमस्स असंखिज्ञइभाग अतीयप्रणागय वा-
कालं जाणइ, पासइ, तं चव _बिउलमई अब्भहियतराग
विउलतरागं विसुद्धतरागं॒वितिमिरतरागं जाणइ , पा-
सई, भावओ शं उज्जुमई अरणंने भावि जाणइ, पासइ,
सनव्वभावाणं अशंतभाग जाणई, पास, तं चव विउलमई
अब्भहियतराग बिरलतरागं विसुद्धतरागं पितिमिरतरा-
प्प्प
छ[भनधानराजन्द्रः)
|
गं जाण॒इ,पास३- “मणपज़वबणाण पण, जणमणपरिचिंति- |
अत्थपागडणं | मायुसखित्तनिबद्धं, गुशपचइय चरित्ततओं |
॥ ५७ ॥ ” सत्तं मणपज्जवनःणं । [ सत्र- १८ ]
तत्र मनःपयायज्ञानब्राउ्धघाप्तानाम् अशग्रमत्तसयतान्ास् उन्प-
म्नात द्वघा उत्पद्यत, तद्यथा-ऋजुमातसश्थ, पुलमातख्,
तत्र मनने मतिः.स्वेदनमित्यथः। ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी म- |
तः ऋजुमातः.घटाञ्ननाचान्तत इत्याद सामान्या-उकाराध्य-
वसायानवन्धनभूता कातपयपयायावाशश्मनाद्र व्यपाराच्छ
त्तारत्यथः। उङ्क च भाष्यक्ृता- 7रजुसामन्न सम्म त्तगाहणा |
रिजुमई मणोणारणं। पाये विसेसविमुदे,घरटामित्ते चितिय मुणइ
॥१॥” चार् छृदप्याह -'"उञ्जु णे विससचिसुह उबलहइ.नाइव
बहुविसेसविसिद्ठुं अत्थे उदलभइ त्ति भणियं हाई घडोउणण ,
चिंतिउत्ति जाणइ त्ति । "`
श्रा ऽनन चिन्तितः,स च सवः पाटलिपुत्रकः अद्यतनो म-
हान् श्रपवर कस्थितः फल पिहित इत्याद्रध्यवसा यहेतुभूता प्र-
भतविशिणए्रमनाो द्रव्यपरि च्छत्तिरित्यथः। श्राह च भाष्यकृत्-
चशब्दः खगतानकद्रव्यत्तचाऽऽद्वि- |
भदसूचकः । तथा विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्चपुलमतिः,
“विपुले वन्थुविसेसण-नाणंतग्गाहिणी मई विपुला | चितिय- '
मणुसरइ घडे,पसंगओ पजञ्ञवसणरहि॥ १॥ 'चारिकृदप्याह- ' बि-
पुला मई विपुलमई बहुविससगाहिणीति भाणियं होइ,
जहा ऽश घडा चितिआओ ते च॑ देसकालाइअणगपज्जायवबि-
ससाविसिट्ट॑ जाणइ । ” इति । चशब्दः पूर्ववत् , अस्यां च व्यु
न्पत्तौ स्वतन्त्रमव ज्ञानमभिधये.यद्वा-पुनस्तद्वानमिधया वि-
वच्यत तदैव व्युत्पतिः-ऋल्वी-सामान्यग्रादिणी मतिरस्य स
ऋजुमतिः, तथा विपुला--विशपग्रादिणी मतिरस्य स विपु-
लमतिः। तन्मनःपयायन्नाने दिविधमपि' समासतः ` सन्षपण
चनुविधं प्रज्ञप्त.तद्यथा-द्रव्यतः.च्तजनः.कालतः.मावतश्छ। तज
द्रव्यता गर्मिति वाक्यालङ्कार, ऋजुमतिरनन्तान अनन्तप्रदे-
रिकान श्रनन्नपरमागवान्मकान् स्कन्ध्रान विशिष्टकपरिणा- |
मर्पारगनान श्रदतृनीयद्वीपसमद्रान्तर्वत्तिपयौप्तसाञ्ज्ञपञ्च-
न्द्रियमनस्न्वन परिणामितान युद्धेलान पुद्रलसमुदानित्यश्र
जानाति सान्नान्कारणा वगच्छति, पासइ त्ति डद मनस्त्वप
रिगते! स्कन्धरगालाचितं वाद्यम घटाःदिलक्षण साक्तादध्य-
क्षता मनःपय्याय॑न्नानी न जानाति, किन्तु-मनाद्रेव्याणामरच त |
श्रारू पपरिरामान्य्रानुपपत्तिता :नुमाननः, श्राट च भाष्य-
क्रत जागइ वञभ -खुमाणरण। इत्थ चतदद्धीकत्तव्ये, यना मूत्त-
दरव्यालम्बनमवदं मनःपर्यायश्नानमिष्यत, मन्तारस्त्वसूत्तमाप
ध्मास्तिकायाऽऽदिक मन्यन्त.लना सुमानत पव चिन्तितमर्थ- |
गववुध्यन्त,नान्य धति प्रतिपत्तव्यम् । ततस्तमधिछृत्य पश्यती
दिट्ंता |
८4
भचषञ्जवणाण
त्युच्यते, तत्र मनानिमित्तस्याचनुदेशनस्य सम्भवात् । आह
च चूरिंकृत्-' सुशित्थ पुण पच्चक्खश्रो न पक्खड जण मणो
दव्वालवर मुत्तममुत्तं वा, सा य छुडमत्थो ते अणुमाणओ
पक्खड श्रता पासणया भणिया' इति । श्रथवा-सामान्यत ए-
क रूपऽपि ज्ञान त्षयापशमस्य तत्तद् द्रव्या 5 ऽदप्षवेचित्यस-
म्भवात् ञ्रनकाविध उपयागः सम्भवति यथा चव ऋजुमति-
चपुलमातरूपः तता वा शष्रतरमनाद्रव्याऽऽकारपारच्छदाप-
त्तथा जानातीत्यच्यत,सामान्यमनोरूपद्रव्याऽऽकारपरिच्चृदा-
पक्षया तु पश्यतीति | तथा चा ऽऽह चूर्णिकृत्- अहवा छुठम-
व्थस्सं पगविदखश्रोवसमलंमे वि विविहोवओगसंभवों भवर,
जहा एत्थेव उजुमदविपुलमश्णमुवञ्रोगो अश्रा विसेससाम-
न्नत्थसु उवजुजई जाणइ पासइ त्ति भणिये न दासो "इति ) अत्र
एग्विहखच्रोवसमलंमे वि त्ति सामान्यत एकरूप 5पि क्षयोप-
शमलम्भे ऽपान्तराले द्रव्या ऽ ऽयपेक्षया त्षयापशमस्य विशषस-
म्भवाद् विविधोपयोगसम्भवो भवतीति,तदेव विशिष्टतरमनो-
द्रव्याऽकारपरिच्चृदापत्तया सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरि-
च्छेदो व्यवदारतो दर्शनरूप उक्कः,परमार्थतः पुनः साऽपि ज्ञान-
मव.यतः सामान्यरूपमपि मनाद्रव्याऽ $कारप्रातिनियतमेव प-
श्यति. प्रातनियतविशपषग्रह णाऽऽत्मकं च ज्ञान न दशनम् ,अत ए-
च सत्र ऽपि दर्शन चतुविधमवाक्त,न पञ्चविधमपि.मनःपयायद-
शनस्य परमाशता ऽसम्भवर्णदति | तथा तानव मनस्त्वन परि-
णामितान् स्कन्धान विपुलमातिः अभ्यधिकतरान-अद्धत॒ती -
याह्ुलप्रमाणभूमिक्षेत्र्वर्तीमभः स्कन्धरधिकतरान्.सा चाऽध-
कतरता दशताऽपि भवति.ततः सवासु दिन्ञु अधिकतरताप्र-
तिपादनाथमाह-विपुलतरकान् प्रभूततरकान्.तथा विशुद्धत-
रान्, निर्मलतरान , च जुम ददक्तया<दीवस्फुटतरप्रकाशानित्य
थः। स च स्फुटः प्रतिभासो श्रान्तो भप सम्भवति.यथा-द्वि-
चन्द्र प्रतिभासस्ततो ्रान्तताऽ-शङ्काव्युदासाय विशेषणान्तर-
माह-वि्तिमिरतर कान् विगते तिमिरं तिमिरसंपायो भ्रमा ये
घु ते वितिमिरास्ततो द्योः । प्रकृष्ट तरप्॥ ७। ३।५॥ इति त-
रप्प्रत्ययः | ततः प्राकृतलक्षणात्स्वार्थ कः प्रत्ययः,पवे पूर्वेष्वपि
पदेषु यथायोागे व्युत्पत्ति द्रटव्या,वितिमिरतरकान्-खवथा
भ्रमरहितान् , अथवा -अभ्यधिकतरकान विपुलतरकानिति
द्वावपिशब्दावेकार्थों विश्ुद्धतरकान् वितिमिरतरकानेता-
वप्यका्थौ, नानादेशजा दि नेया भवन्ति, ततः कोऽपि
कस्याऽपि प्रसिद्धा भवति तेषामलुग्रहा थम एकार्थिकप-
दापन्यासः । तथा क्तत्रतो, णमिति वाक्यालङ्कारे, ऋजुम-
तिरधो यावदस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उर्पारितनाधस्त-
नान् क्ुल्लकप्रतरान | अथ किामदं क्षुल्लकप्रतर इति ?। उ-
च्यत-इह लोका ऽऽकाशप्रदेणा उर्पारितनाधस्तनप्रदेशराहित-
तया विवक्षिता मगडका-55कारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्यु
च्यन्ते, तत्र ति्थगलाकस्य ऊरद्धधो ऽपत्तयाऽ्टादशयोजन-
शतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वो लघुक्षुज्लकप्रतरों, तयोम॑ध्यभा-
ग॒ जम्बृद्रीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूभिभांग मरुमध्यष्ट-
प्रादशिकों रुचकस्तञ गोस्तना ५ ऽकाराश्चत्वार उपरितनाः प्र-
दशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एप एवं च रुचकः सवासां दिशां
विदिशां वा प्रवत्तकः, पएतेदेव च सकलतिथग्लाकमध्यं, तो
च द्वा सवेलघरू प्रतरावङ्कला ऽखङ्ल्ययभागवादहस्यावलोकसे-
वर्तितों रज्जुप्रमाणो । तत पएतयोरुप्रयन्ये न्य प्रतराः ति-
येग अछुलासडूख्ययभारादुदथा वद्धेपानास्तावद् द्रष्टव्या
(
मणपज्नवणाण
यावद्द्धलाकमध्यम् , तत्र पश्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत उ-
पय॑स्येषन्ये प्रतरतस्तयगङ्कुलासङ्ख्ययभागहटान्या हीयमा-
नास्तावदवसेया याबवल्लाकान्ते रज्जुप्रमाणः प्रतरः , इह
ऊर्द्ध्वलोकमध्यवार्तिन सर्वोत्क्ण पश्चरज्जुप्रमाणं प्रतरमव-
घीरूत्यापन्ये उपरितना अधस्तनाश्व कमेण हीयमानाः ही-
यमानाः सवं ऽपि ज्ुल्ककप्रतरा इति व्यवहियन्ते यावज्लोका-
न्ते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणप्रतर इति, तथा तिर्यग्लो-
कमध्यवर्तिसर्वलघुक्षुल्लकप्रतरस्याधास्तियंगड्ढुःला ऽसङ्ख्यय -
भागवृद्धया वद्धमानाः वद्धेमानाः प्रतरास्ताचद्रक्कव्या
यावदधोलाकान्त सर्वोत्कृष्टः सप्तरज्जुप्रमाणः प्रतरः ,
ते च-सप्तरजुप्रमाणम् प्रतरमपक्ष्या5न्य--उपारेतना
सर्वेऽपि कमेण हीयमानाः क्ुल्लकप्रतरा अभिधीयन्त
यावात्तियंग्लाकमध्यवरत्ती सर्वलघुः चुल्लकप्रतरः , एषा लुलल-
कप्रतरप्ररूपणा । तत्र तिर्यग्लोकमध्यवत्तिनः सर्वलघुरज्जुप्र-
माणात् ननुल्लकप्रतरादारभ्य यावदधो नवयोजनशतानि ताव-
दस्यां रल्लप्रभायां पृथिव्यां य प्रतराः ते उपरितनचुज्ञकप्रतारा
+
अआभधानराजन्द्रः।
भरयन्त, तषामपि चाध स्ताद् य प्रतरा यावद्धालाककटग्रामपषु |
स्वान्तिमः प्रतरः तेऽघस्तनचनुल्लकप्रतराः,तान् यावद धःत्तेत्रत
ऋतुमतिः पश्यति,अथवा-अ्रधोलाकस्य उपरितनभागवार्तिन
चुल्लकप्रतरा उपरितना उच्यन्त, ते चाधोलोककग्रामव्तिप्र-
तरादारभ्य तावदवसेयाः यावत्ति्यगलाकस्यान्तमोऽधस्तनः
ग्रतरः, तथा तियग्लोकस्य मध्यभागादारभ्या 5घोवात्तिनः क्षु-
ज्ञकप्रतरा अधस्तना उच्यन्ते,तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उ-
परितनाधस्तनाः तान् उपरितनाधस्तनान् यावत् ऋजुमतिः
पश्यति । अन्य त्वाहुः-अधोलोकस्योपरिवार्त्तिन: उपरितनाः.ते
च सर्वतिर्यग्लोकवर्सिनो, यदि वा-तियेग्लाकस्याधो नवयोज |
नशतवत्तिनो द्रव्याः, ततस्तेषामेवो परितनानां क्ुल्लकप्रतरा-
णां सवन्धिना य सवोन्तिमाधस्तनाः नुल्लकप्रतराः तान् याव
त्पश्याति, अस्मिश्व व्याख्याने ति्यग्लोकं यावत् पश्यतीत्यापद्य -
त.,तञ्च न युक्तम् , , अधोलोकिकग्रामवात्तिसंश्षिप अन्द्रियमनोद्-
व्या5परिच्छेदप्रसज्ञात्। अथवा-अधोलोकिकग्रामेष्वपि संल्लि-
पश्चन्द्रियमनो द्रव्याणि परिच्छिनात्ति यत उक्कम-''इहाथो लों-
किकग्रामान् ,तियेग्लोकविवार्त्ति न: मनोगतांस्त्वसो भावान
वत्ति तद्गत्तिनामपि॥१॥ 'तथा' उड्ड जावेत्यादि'तथा ऊध यावत्
ज्यातिश्रक्रस्यापरितनस्तियंग यावदन्तोमनुष्यक्तेत्र-मनुष्य-
लोकपर्यन्त इत्यथः। एतदेव व्याचऐ्ट-अधत तीयेषु द्वीपेपु पञ्च
दशसु कर्म्मभूमिषु तिंशाति चा5कर्म्मभूमिषु षद्पञ्चाशत्स-
ङ्ख्येषु चान्तरद्वीपेषु साञ्ज्ञनां.ते चापान्तरालगतावपि तदा
युष्कस्वेदनादभिधीयन्ते नच तेरिदहाधिकारस्ततो विरोषणमा
द-पञ्चन्द्रियाणां, पञ्चन्द्रियाश्चापपातन्ञत्रमागता ईन्द्रियपर्या-
प्विपरिसमाप्तों मनःपयौप्त्या अपयाप्ता अपि भवाम्तन। नचते
प्रयाजनमतो विशषणान्तरमाह-पर्याप्तानाम्. अ्रथवा-संश्ििनो
हेतुवादोपदेशन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्त, ततस्तद्यवच्छदा
अ पश्चान्द्रयग्रह एं त चापर्याप्तक्ा श्रपि भवान्ति ततस्तद्यव-
च्छेदार्थ पर्याप्तप्रहरो तषां मनागतान् भाषान जानाति
पश्यति , तदेव मनोलग्धिसमान्वितजीवा ४ ऽधारक्तत्रे वि-
पुलमतिरद्धं ठतीयं॑यषु तानि श्रद्धतृतीयानि अ्रद्भुलानि
तान च क्लानाधिकारादुच्छयाङ्कुलानि द्रष्टव्यानि । यत उ-
क्तं चूर्गिकृता--' श्रहादज ऽगुलग्गदरणमुस्सह ऽगुलमाणश्रा
नाणविसयस्लणश्रा यनदास सि । तरद्धलृतीयेरङ्कलर -
२३
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मणपज़वशणाएण
भ्यधिकतरं तञ्चकदेशमपि भवाति, तत आह--विपुलतरं वि
स्तीणंतरम्। अथवा-आयामविष्कम्भा भ्याम भ्याधकतरं बाद
ल्यमाश्रित्य विपुलतरम॒ अधिकतरम्, ्रातशुद्धतरं वितिमिर-
तरमिति च प्राग्वत् ,जानाति पश्यति तात्स्थ्यात् तद्यपदेश इ
तितावत् क्षेत्रगतानि मनोद्रय्याणि जानाति पश्यतीत्य्थः।(का
लश्रो मित्यादि ) सुगम, यावदुक्रस्वरूपमनःपर्यायज्ञानप्रति-
पादिका गाथा | तस्या व्याख्या-मनःपयायज्ञानं प्राझ्िरूपितश-
ब्दाथ. पुनःशब्दा विशेषणाथः। स च रूपिविषयत्वक्तायापश-
मिकत्वप्रत्यक्तत्वाऽऽदिसाम्यऽप्यवधिज्ञानादिद मनःपयायन्नान
स्वाम्यादिभदाद्धिन्नमिति विशेषयति । तथाहि--अवधि-
ज्ञानमविरतसम्यगृदष्रपि भवति द्रव्यताऽशषरूपिद्रठ्य-
विषय, क्तेत्रतो लोकविषपयं कतिपयलोकप्रमाणक्तेत्रापक्षया
अलाकाविबय च , कालतोऽतीतानागतासङ्ख्ययात्सष्पि-
रयवसा्पिणीविषयं . भावतो ऽशेषेषु रूपिद्रग्यषु प्रतिद्रव्य-
मसंख्ययपयायविषयं मनःपर्यायज्ञान पुनः संयतस्या :परमत्त-
स्यामर्षोषध्याद्यन्यतम्िंप्राप्तस्य द्रव्यतः संज्षिमनाद्रव्यविष-
ये,क्तेत्रतो मनुष्यक्तवगोचरम् .कालता5तीतानागतपल्यापमा-
संख्ययभागविषये,भावता मनौद्रव्यगतानन्तपर्यायालम्बनं ,त-
तोऽवधिज्ञानाद्धिन्नम् . एतदेव लेशतः सत्रकदाह-'जनमनःपरि
चिन्तिताभप्रकटने ' जायन्ते इति जनाः तेषां मनांसि जन-
मनांसि तैः परिचिन्तितश्चासावर्थश्च जनमनःपरिचि-
न्तितारथस्तं प्रकटयति प्रकाशयति जनमनःपरिचिन्तिताधपर
कटनं,तथा मनुष्यक्तत्रानिबद्ध.न तद्रहिव्यवम्थितर्प्राणद्रव्यम-
नाविषयमित्यथः, तथा गुणाः-क्ञान्त्यादयः, त प्रत्ययः-काररौ
यस्य॒ तद् गुणप्रत्यय, चारित्रवतो5प्रमत्तसंयतस्य । न” ।
तदेव त्षत्रतस्तद्धिषय उक्तः, अथ द्रव्यतः. कालतः, भा
वतश्च तद्धिषयमाह--
मुणइ मणादव्वाई, नरलाए सो मणिज्जमाणाई ।
काल भूय-भावस्स, पालयाऽसाखज्ञभागाम्म ॥८१३॥
दव्यमणापजाए, जाणइ पासइ य तग्गणणतं |
तणावभासिए उण, जाणह वज्के5्णुमाणणं ॥८१५॥
स मनःपर्यायज्नलानी मुणाति-अवगच्छाति । कानि ?, इत्याह-
मनश्चिन्ताप्रवतंकानि द्रव्याणि मनोद्रव्याणि । तानि कि
मनायाग्यान्यप्याकाशस्थान जानाति ? । न, इत्याह - नर -
लाके तिर्यग्लाके मन्यमानानि सन्निभिर्जावेः काय-मना-
यागन गृहीत्वा मनायोगेन मनस्त्वन परिणमितानोत्यशः।
तदयं द्रष्यता विषय उक्रः। श्रथ कालता भावतश्च तमाद-
* काल ` इत्यादि. भावतस्तावल्वानाति. पश्यात च । कान ?.
इत्याह-चिन्तानुगुणान सवपयायराश्यनन्तभागरूपानन्ता -
न रूपा ऽदीन् पयायान् | कस्य सवान्धिनः ?. इत्याह-मन-
स्त्वपरिणतानन्तस्कन्धसमूहमयस्य द्रव्यमनसः, न तु भा-
वमनसः, तस्य ज्ञानरूपत्वात् . बानस्य चामूनत्वात् , छ-
द्मस्थस्य चामूतेविषया5यागादिति । तांश्च नटरनानव मना
द्रव्यस्थितामव जानाति.न पुनश्चिन्तनीयवाह्मप्रटा 5 5दिवस्तु-
गतानिति भावः ।.न च वक्कव्यमत मनादट्रव्यसर्बान्धिन
पव न भवाम्ति. किमेतद् व्यवच्छुदपरण तटनग्रहणन ? , इ-
ति. मनाठठयाणि दृष्ठा पश्चादनुमानन त ज्ञायन्त , इत्य
तावता मनाद्रव्येरपि सह सत्रम्धमात्रस्य वदयमानत्वान ।
एतद्वा 57ह-तन द्रस्य मनसा 5वभाखितान प्रकाशितान वा-
(४६७6
अखशभिधानराजन्द्रः ।
ग्ागफ्स्ज़वणाएण
ह्याश्विन्ततीयघटा ; *दीननुमानन जानाति, खत एवं तत्परि- '
द्रव्याणि. तस्मादेवेविधेनद् चिन्तनीय-
माव्यम दत्य चिन्तनाय्वस्तूनि जानाति न
सत्लदेन्ययेः । चिन्तको दे मृतनसमूत च वस्तु चिन्त-
येत्। न च छुद्मथ्थो:मृत सान्तात् पश्यति. ततो ज्ञायत
उ मानादेवे चिन्तनीय वस्त्ववराच्छात । कियति कस्मि
श्च काल मनोद्रव्यपर्यायानसो जानति इत्याह-
` काल भूयेत्यादि ` भूृत5तीते, मविष्यत्ति चाऽनागत प-
स्योपमासडूख्ययभागरूप काले य तषां मनाद्रव्याणां भूता
व्यनीनाः. माविष्यन्तश्चा ऽनागताश्चिन्ताचुगुणाः पयायास्तान-
जानातीति ॥ ८२३ ॥ ८१४ ॥
रछुतान्येतांन मना
अच्तुना
अत्र चान्तर * ते समासआ च उच्विह पन्नत्ते, ते जहा-
दव्यओ, खत्तश्रा. कालओ. मावओो । दव्वओ ण उजु-
मड श्रणत श्रणलपणसिण सेध. जायाद् पासइ ।
इत्यादि नन्दिसत्र भभटितम् । तत्र मनःप्यायक्ञाने पटुत्तया,
पशमप्रभवत्वाद विशषमव गरृहनदुत्पद्यत , न सामान्यम् . अ-
ना ज्ञानरूपमवेदम् . न पुनरे दर्शनमास्ति , सति च त--
स्मन पश्यतीत्युपपद्यते, इति कथमिहाक् * पासइ ` इति ? ,
इति चतसि संप्रधाय प्रा: 5ह-- |
सा य किर अचक्खुदं -सरणण पासइ जहा सुयन्नाणी ।
जुत्त सुण पराक्य, पच्चक्ख न उ मणानाणे १।८१५॥
सच मनःपर्यायन्नानी किलाऽचक्तदशनन पश्यति. यथा |
भ्रतज्ञानी कपाश्चिद् मतना ऽचन्ुर्दशनन पश्यतीति प्रागुक्कम्।
था चपृश्रमभिहितम- उवउन्ना खुयनाणी , सव्व दव्वाई
जार जहत्थ । पासइ य केइ सा पुण, तमचक्खुद्दसणरण
लि॥ १॥ ” इत्यादि. इदमत्र हृदयम्-- परस्य घटा ऽऽदकमथ
चिन्तयतः सान्तादव मनःपयीयनज्ञानो मनोद्रव्याण तावजा-
नाति, नान्यव च मानसनाचच्ुदंशैनन विकल्प्यत, चत
स्तदपक्षया ' पश्यति इतीत्युज्यते । तनतश्चंकस्यैव मनःप-
यशयज्लानिनः प्रमातर्मनःपयायज्ञानादनन्तरमेव मानसमच-
कषुदेशनसुत्पद्यत, इत्यसावक एव प्रमाता मनःपयौयज्ञानन म- |
नाठव्याणि जानाति,तान्यव चा5चक्तंदेशनन पश्यतीत्यभिधी
यत इति । श्रत्र कश्चित् प्रगरकः प्राह-' जुत्तमित्यादि' “मतिश्रुते |
परेक्षम' इति वचनात् पराक्षा विषये श्रुतज्ञानम्, अचक्षु्दश
नमपि मतिभदत्वात परोक्षा थविषयमेव ,इत्यतो युक्लं घटमानक
श्रतज्ञानविषयभून मरू-स्वर्गा 55दिके परोक्त5थ5चनक्षुदंशनम
तस्याऽपि तदालम्बनत्वेन समानविषयत्वात् ।कि पुनस्ताहिं न-
युक्रम? , इत्याह-' न उ इत्यादि“ अवाध-मनःपयाय-
कलानि प्रत्यक्षम ।"' इति वचनात् षुनः प्रत्यत्तार्थविषयं म-
नःपयायज्ञानम | अतः परोक्षार्थविषयस्या ऽचन्ुदेशनस्य क-
थे तत्र प्रैयत्तिर भ्यु पगम्यत . भिन्नविषयत्वात् ? ॥ ८१५ ॥
अत्र सारिराह--
जई जुज्जए परोक््खे, पच्चक्खे नणु विसिसओं घडइ । |
नागं जई पचक्वं, न दंसणं तस्म को दसो १।८१६॥ |
यदि पराक्ष ऽध पचज्ञदंशनस्य प्रव्रात्ति र भ्य पगम्यते,तार्डि प्रत्य
त्त सतरामस्ययमङ्गाकनतव्या.वशप्रण तस्य तदनुग्राहकत्या- |
त्. चता प्रत्यक्षापलब्धघठा 5 धदवादात | अनत्ना5दद-का व न
सणपज्जवणाण
मन्यत , यत् प्रव्यक्ता ऽशः खुतरामचक्तुर्दशनस्या 5नुग्राहक-
दति ?. केवल प्रत्यक्तमनोद्रव्याशग्राहकत्वादित्थे मनःएयौ-
यज्ञानस्य प्रत्यत्तता युज्यते , न , पुनरचन्नुदशनस्य , म-
तिभदत्वन तस्य पगत्ताधग्रादकत्वात् । तनः प्रत्यक्षक्षानि-
त्वे मनःपर्यायज्ञानिना विरुध्यत, इत्याशङ्कया ऽह नाणे जई `
इत्यादि । यदि मनःपर्यायज्ञानलक्षणं ज्ञाने प्रत्यक्षार्थग्राह-
कत्वात् प्रत्यक्तम् , न त्वचचुरदशनलक्तणे दशेने प्रत्यक्तम् , . प-
राक्षाथग्राहकत्वन पराक्ताथत्वात् : तरिं हन्त ! तस्य मनःप-
यायज्ञानिनः परत्यक्तक्ञानितायां का दाषः-को विरोधः ?,न क-
शित् , भिन्नविषयत्वात् , अवधिज्ञानिनश्चन्ुर्द शना 5चक्षुदंशन-
वदिति । न ह्यवधिन्ञानिनश्चन्लुरचचुर्द॑शेनाभ्यां परोक्षमर्थ प-
शयतः परत्यत्तज्ञानितायाः कोऽपि विराधः समापयत,.तद्धदिद्ा-
$पि । तस्माद् मनःपयोयज्ञानी स्वज्ञानन मनाद्रव्यपयीयान्
जानाति, मानसन त्वचक्षुदेशनेन पश्यतीति स्थितम् ॥८१६॥
अन्य तु पश्यति ` इत्यन्यथा समर्थयन्ति, इति दशयति-
अन्नेऽवदहिदं सणञ्रा, वयति न य तस्स तं सुए भाणिय |
नय मणपज्ञवदं सण- मन्नं च चउप्पयाराओं ॥८ १७॥
अन्य त्ववाधदगीननाऽसे मनःप्यायक्ञानी पश्यति , मनः-
पर्यायज्ञानन तु जानातीति वदन्ति । एतच्चा ऽय॒ज्कमेव, इत्या-
ह-न च-नेव तस्य मनःपर्यायज्ञानिनस्तदवधिदगीने श्रुते $-
भिदितम्। न हि मनःपर्यायज्ञानिनो ऽवाधिज्ञान--दशेनाभ्या-
मवश्यमव भवितव्यम् , ्रवधिमन्तरेणा ऽपि मति-श्रुत-मनः-
पयायलक्तणज्ञानत्रयस्या 5 ऽगमे प्रतिपादितत्वात् । तथा चाह-
“ मणपज्नवनाणलद्धीया रो भते ! जीवा कि नाणी, अन्ना-
णी ? | गोयमा ! नाणी . नो श्रन्नाणी | अत्थेगइया तिन्ना-
णी, अत्थेगइया-चउनाणी। ज तिन्नाणी ते आभिशणिवोहियस-
य-मणपज्ववनाणी, ज चउनाणी ते आभिशिवोहिय-सुय-ओ-
हिमणपज्जवनाणी। ” तदेवे मनःप्यायज्ञानिनो ऽबधिनियम-
स्याऽभावात् कथमवधिदशैनना ऽसो पश्यतीत्युपपद्यते ?।
श्रधव मन्यसे-किमेतेवहभिः प्रलपितैः !, यथा-अवधेदैशनम् ,
तथा मनःपर्यायस्याऽपि तद् भविष्यति, ततस्तनाऽसौ प-
श्यति, इत्युपपत्स्यत पवः इत्याशङ्का ऽऽह न य मणे' व्यादि
न च-नेव चतुष्प्रकारा्च्लुरादिदशनादन्यत् पञ्चमे मनःप-
यायदशीन श्रुते भणितम् , यन पश्यतीत्युपपत्स्यते । तथा चा-
ऽह -'* कइविहे शा भते ! दंस पणणत्ते गोयमा ! चउव्वि-
है पणणत्ते । तं जहा-चक्खुदं सण, अचक्खुदंसण, ओहिदंसण
केवलदंसणोे।” इति । तस्मात् पञ्चमस्य मनःपयायदशीनस्या-
नुक्कत्वात् ' तेन पश्यति ` इत्येलदपि नोपपद्यत इति ॥ ८१७ ॥
श्रभिप्रायान्तरमाशङ्कमान श्राह--
अहवा मणपज्जवदं-सणस्स मयमोहिदं सणं सप्पा ।
बिन्भगदं सणस्स व, नणु भाणियमिदं सुयाईयं ॥८१८॥
श्रथवा-कश्चिदेवं मन्येत-यथा विभङ्गदशीनमवधिदशीनमेवा-
च्यत . तथा मनःपयायदशनस्या $प्यवधिदशनमिति सक्षा 5-
. भिमता भविष्यति । === | भवति-- चश्लुरादेदशनचतुष्टया
-$ऽधिक्षयेना ऽचुक्रमपि यथाऽवधिदशने ऽन्तभूतं विभङ्गदश-
नमिष्बत , तथा मनःप्यायदशनमपि भविष्यति । ततः तेन
मनःपर्यायक्ञानी पश्यति इत्युपपत्स्यत णवेति । अन्न सूरिराह-
नन्वेतन् धुतातीतमागमविरुद्ध मेव त्वया भणितम् ॥ ८१८ ॥
4
५
॥
|
कुतः 2, इत्याह--
जेण मणोनाणविओ, द। तिष्ि व दंसणाईं भणियाई ।
जइ आहिदेसण ह।-ज्ञ (ज नयमण ता ति। प ॥८१६॥ |
यस्माद्-भगवल्यामाशीविपादशक्र मनःपयायज्ञान-चक्तु-
रचच्षुदेंशनलज्षण द दर्शन, चचक्षु-रचक्षु-रवधिदर्शनलक्ष-
णानि जीणि वा दशनानि प्रोक्तानि-्या माति-श्रुत-मनःप-
यायज्ञानत्रितयवांस्तस्य दे दर्शन, य॑स्तु माति-श्रुता-5वचि-
मनःपयोयज्ञानचतुष्टयवांस्तस्य त्रीणि दशनानीति भावः ।
तस्मादुत्सज मनःपयोयज्ञानवता 5वांधदर्शनर्सशितदर्शना5-
भिधानम्। यदि पुनारित्थ स्यात्, तदा मति-श्रुत-मनः-
पयायन्ञानञ्यवता ऽपि दशनानि नियमात् चीरायवः स्यः, न
तु क्वापि द्व. तस्मात् श्रुतातीतमिदर्पमति ॥ ८१६ ॥
` अन्य त्वाहुः, किम् ? . इत्याह--
अन्ने मणोानाणी, जाणइ पासइ य जोाऽवहिसमग्गो ।
इयरो य जाणइ चिय, सभवमत्तं सुएऽभिदहियं ॥८२०॥
श्मन्य तु मन्यन्त-योा ऽवधिज्ञानयुक्ता मनःपयायज्ञानी चतु-
ज्ञानीत्यथः, असो मनःपर्यायज्ञानन जानाति , अवधिदर्श-
यज्ञानन जानात्येव . न तु पश्यति, तस्याऽवध्िदशनामा-
नन पश्यति । यस्त्ववधिरधद्धितस्थिज्ञानी स मनःपया- | . ५ ता १
स | मणपज्ञवणाणनजिण-मनःपयवज्ञानजिन- पं । रागढषमा
अ;
रसिधानराजन्द्रः
वात् । श्रता मनःपर्थायज्ञानमात्रमाश्रित्य संभवमात्रतों जाः
नाति , पश्यति चति नन्दिसूत्र $भिहतामति ॥ ८२० ॥
अन्य तु `-जानाति, पश्यति ` इत्य--
न्यथा समथयान्त , इत्याह--
अन्ने ञं साउगारं, ते ते नाणंन दंसणं तम्मि ।
॥
जम्हा पृण पचक्ख, पच्छ तो तण तन्नाणौ ॥ ८२१ ॥ ,
अन्य त्वाहुः यद्-यस्मात् पदुक्तयापशमध्भवत्वाद् मनः-
पर्यायज्ञानं साकारमेवोत्पद्यत ` ताति ` ततस्तज्ज्ञान
मव, तन जानात्यवत्यथः, न पुनस्तत्र मनःपयाबज्ञान 5-
चधि-केवलयोगिव दशनमास्ति । तरदं ` पश्यति ` इति
कथम्. इत्याट--यस्मात् पुनः. प्रत्यक्त मनःपर्यायज्ञान.
* ता त्ति ` ततः प्रत्यक्त्वात् तनव मनःपर्यायज्ञानन पश्य-
त्यसों तज्ज्ञानी--स चासो ज्ञानी च तज्ज्ानी, मनःपर्या-
यज्ञानीत्यथः । इदमुक्तं भवाति-- दाशर प्रक्षण ` प्रकृ च
चर प्रत्यत्तस्यवापपद्यत . प्रव्यक्त च मनःपयायज्ञानम् . अ- |
तस्तन पश्यतात घटत ण्व । साकारत्वन तु तस्य ज्ञान-
त्वात् ` नन जानाति ` इति
स्माद् दशनाभाव ऽपि यथाक्रन्यायात् ` मनःपयायज्ञाना जा
नाववादमव सद्धम्। त- |
नात , पश्यात इत्युपपद्मत पवात् । एतदाप मूलटाका- |
क्रता दृषितमव , तद्यथा--ननु मनःपयोयज्ञान साकारत्वन
द्वानत्वाद् दर्शन नास्ति . अथ च ` प्रत्यक्षत्वेन दृइयते:नेन
वस्तु इति वरुद्धवेयं वाचायुक्रिः, साकारात्वन निषिद्ध-
स्यापीट दशनस्य ` दश्यत ऽननति दशनम् ` इति व्युत्प-
न्या सामार्थ्यादापत्तः । कञ्च, ` जानाति ` इत्यननाऽत्र
साक्ारत्यै स्थापितम् , ' परयति ` इत्यनेन च दशनरूढन
शब्दना5नाकार त्व व्यवस्थाप्यत , अता एवरुूद्धाभयधमप्रा- |
प्व्याडाप न कञटतादातं ॥ ८२१ ॥
आदह--यद्यमी सर्व5पि पूर्वाक्ता अन्येपासवाउमिग्रायाः, स- |
|
` प्रायानत्र प्रकटयानत ? ,
॥
मणपदुदुबंदए_
दोषास्थ केऽपि कथश्ित्, तद्याचायस्य कोउभमिप्रायः ?,
इत्याश ङन्या 5 5ह--
भष्मइ पन्मनत्रणाएं, मशपज्जवनाणपासणा भणिया ॥
ता एवं पासए सा, संदह हउणा कण {॥ ८२२॥
भगयत स्थितः पक्ताऽत्र । कः ? , इत्याह-प्रश्ञापनायां तरि-
शत्तमपद मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकृष्टक्षणलक्षणा साक्रारापया
गविशपरूपा पश्यता प्रोक्ता . तयवासा मनःपयांयज्ञानी
पश्यति ` इति व्यपदिश्यते । तत् कन किल हेतुनाउमिप्रा-
यान्तरवादिनां सन्दा ऽर, येनाऽपराऽपरान निजनिजाःभिः
तस्येव प्रंकारस्याऽऽगमोक्रन्वन
निद्।पत्वादिति भावः । प्रक्तपगाश्रा चयं लच्यते, चिरन्त-
नटीकाद्वये ऽप्यगरदीतत्वात् , केषुचिद् भाप्यपुस्तक्ष्वदभ-
नाच कवलं कपुचिद् भाप्यपुस्ततरपु दशनात्. किश्वित्सा उभि-
प्रायत्वाच्चा 5स्मामिग्रहीता । इति द्वादशगाथा ऽशः । सत्प
दप्रूपणता ऽ दया ऽस्यापि : अवधिवद् वाच्याः, केवलमप्र-
मत्तसंयता ऽस्यात्पाद स्वामी, तदयु सारण सर्वत्र नानात्वे स्व-
यमभ्यृद्यम् ॥ ८२२ ॥ विशे० । श्रा० च ० । भ० | आ० म० ।
प्ज्ञा० । सम्म० । रा०। >+ मनःपयोयज्ञानस्यापि ।
दान जयतीति जनस्तत्र मनःपर्यवज्ञानप्रधानो जिनो मनः-
पर्यवज्ञानजिनः तादश जिन, स्था० २ ठा५ ४ उ५।
। मणपञ्ञवणाणावरण-मनःयय।यज्ञानाऽऽवरण न । मन॑सः
पर्याया वाद्यवस्त्वालाचनप्रकाराः धमा मनःपर्यायास्तेषु ते-
पां वा सम्बन्धि ज्ञान मनःपर्यायज्ञानम् , तस्याऽऽवरण मनः-
पर्यायज्ञाना ऽ ऽबरणम् । ज्ञाना 5 5वरणकर्म भदे, कम ०६ कम० ।
मणपडिचारग-मनःपरिचारक-प° । मनस्यवापास्थतान। खा
रामुपभाक्रारि. स्था०।
-द् इदा मणशपरियारगा पण्णत्ता । त॑ जहा-पाणए चथ,
अच्चुए चेव |
अनन्ता55दिपफु चतुर्षु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन््ती-
ति। स्था० २ ठा० ४ उ० | प्रज्ञा० |
मणपडिसंलीण--मन:प्रातसलीन-४० ।
नाकशलमनानिरोधन च मनः प्रतिसेलीन यस्यसः. मनसा
या प्रानसलीना मनःप्रातसलानः। प्रातसलानमद, श्या ४
छा २ उ०।
कशलमनउदीरखणे -
मणपदट्टवंद्श-मनःग्र[4ष्टवन्दन-नें०। कनाचद् गुखन हानस्य
चन्यस्य तथव मनसाकृत्य सा5रूर्य वन्दन, आर चू०३ र ।
नवममाहर--
अष्पपरपत्तिएर्ण , मणप्पदासो अणेगउड्र/णो ।
भनःप्रद्ष: अनकास्थाना <नकानामित्तो भवाते सच सवाः
ध्यात्मपधत्ययेन . -परप्रन्यन वा स्यात् । तवाड5उत्मथ्रत्य-
यन यदा शिप्य एव गुरुणा किश्ित्सरापमार्भाहतो भवति ।
परप्रत्यथयन तु यदा तस्यव रिप्यस्य संवान्धिनः सुह
समुखे सगणा क्रिपप्याप्रयमुङ्तं भवलील्यवप्रकारणान्यरति
स्वपदप्रत्ययः कारणान्तर्मनसः प्रदपा भवतीति चेतर
तन्मनसा पडिष्टसुच्यद ¦ बृ० > उ< ` ऋख< ` घ । अद०।
है
मणपल्हायजणण
न भणादुकला _
मणपल्हायजणण मनः प्रहाद जनन ० । अन्तःकरणहपों- ।
त्पादक, उत्त० १६ अ०।
मणपवणजइवेग-मनःपवनजायिवेग-त्रि० । मनःपवनजयी
वेगो यस्य तत्तथा । शीघ्रवेगे, श्रो । उपा० ।
मणपसिणविज्ञा मनःप्रश्नविद्या -खी० । मनःप्रक्षितार्थोत्त- |
रद्रायिन्यां विद्यायाम् , स० १० अङ्ग ।
मणप्पओगपरिणय-मनःप्रयेगपरिणत-त्रि० | मनस्तया प-
रिणते, भ० ८ श० १ उ० ।
मणप्पञ्रास मनःभप्रद्धेप-पुं० । मनो जाते दष, “ पुल्वि च इ-
शिंह च अणागये च, मण॒प्प्लोसो उण म5त्थि को ई। जक्खा
हु वयावाडियं करेति, तम्हा हु णप णिहया कुमारा ॥ १॥ ”
उत्त० ११ आ० । सूत्र० ।
मणयं-मनाक्-अव्य० । “मनाको न वा यं डिये च ॥ ८। २। |
१६६ ॥ मनाक्शब्दस्यार्थ डयम् डियम् च प्रत्ययो वा भवतः ।
"मरय । मणियं। मणा ।' इषदश्,मन्दे च । प्रा० २ पाद । “मण-
ये इंसि” ( ७७७ ) पाइ० ना० २३८ गाथा ।
मणवहकायसुसंवुड -मनोवाककायसुसंबत-त्रि० । तिखूमिगु-
पघिमिमुप्त, दश० १० आ० ।
मणवग्गणा-मनावगणा-खरी०। मनोारूपतया परिणमय्या55-
तस्य च निसृष्टषु मनःप्रायोग्यद्रव्येषु, पं० से० ५ द्वार । ( ता-
श्च ` वर्गणा ` शब्द वच्यन्ते )
मरणवण-मनावन- न° । चित्ताद्यान, अष्ट १७ अए० ।
भरगविणय-मनोपिनय- पु०। मनसा विनया ऽदं कुशलप्रदृत्या- |
दी. स्था० ७ ठा० । ( ` विणय ' शब्द भदः )
मणविप्परियासिया-मनाविपयामिका-खो° । अप्रशस्तस्य
मनसा चिन्तन, “मणोविप्परियासिया। ” यदप्रशस्तमनसा
चिन्तितम् ` कड, पुण आउलमाउलाए। ”
सगविग्यि मनावीयं न“ अकुशलमनोनिरोधे, कुशलमनस- |
~+
श्च प्रवत्तन, मनसा वा एकत्वीभावकरण, सूज० ६ श्रु०
अ०।( ` बीरिय ` शब्द् इदे व्याख्यास्यत )
मणमकिलम-मनःसक्लश पु ।
मर्नास, मनसो वा सकले, स्था० १० ठा०।
मणमेजम-मनःसयम-पुं०। मनसो द्रोदेष्याभिमानाऽऽदिभ्या |
निम्नत्ता, घर्मध्यानाऽऽदिषु च प्रव्त्तो, प्रव० ६६ द्वार ।
मणमय्च-मनःमत्य -न० । मनसः सत्य मनःसल्यम् । मनःसय-
म, पा०।
मणमचविद-मनःपत्यविद्रम- प° । मनसः सतयं मनःसंयमः,
स्र चाकशलस्य मनसा निगोधः कुशलमनःप्रवत्तनलत्तणस्ते
चि सम्यगासवनता जानातत मनःसत्यावद्वान् । मनः-
सयत , पा०।
मणममघ्ाहरपया-मनःसमन्वाहरणता-खरी ° । मनसः स-
मिनि "सम्यक्, अनु इति--स्वावस्थानुरूपण श्राङति
सारणा, आरामाशिहितभावाभिस्याप्त्या वा द्ररगो -सन्नेयगे
आठध्चण० ४ अआ} |
अरतिरतिरागद्धलक्षण |
मनःसमन्वाहरणं, तदेव मनःसमन््वाहरणता । मनसः स्थि-
रत्वा ऽ ऽपादने, भ० १७ श० ३ उ०।
मणसमाहारणा-मनःसमाधारणा-खी० । मनसः शुभस्था-
नेः स्थिरत्वन स्थापन, उत्त० |
मणसमाहारणयाण णं भते ! जीवे कि जणयद?। मणस-
माहारणयाए शं एगउंग्गं जखणयह्, एग्ऽग्गं जखइत्ता नाणप-
ज़बे जणयइ,नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ,मिच्छत्त
च निजरड ॥ ५६ ॥
दे भदन्त ! मनःसमाधारणया जीवः कि जनयति ?, मन-
सः सम्यक्प्रकारेण च्रा-मयीदया सिद्धान्तोक्कमा्मम् श्रभि-
व्याप्य वा धारणा स्थापने मनःसमाधारणा तया जीवः कि
फलमुत्पादयति ?। तदा गुरुराह-हे शिष्य ! मनःसमाधारणया
मनसा मर्यादाया रक्षणन एकाग्रय धर्म स्थेय जनयति, ध-
में एकाग्रयमुत्पाद्य ज्ञानपयैवान् जनयति विशिष्टान् मति-
ज्ञानथ्र तज्ञाना 5 ऽदीनां पय्यायान् तच्वावबोधरूपान् विश-
षान् जनयति पुनः सम्यक्रत्वविशुदधि जनयति, मिथ्यात्वं च
निञ्जरयति निवारयति ॥ ५६४ उत्त २६ आ० |
मणसमिई-मनःसमिति-खी० । मनसः कुःखलतायां समि-
तिः मनःसामितिः | समितिभेदे, स्था० ८ ठा०। |
मणसमिय-मनःसंमित्-त्रि० । मनसः सम्यक् प्रवत्तेके,कल्प०
१ अधि० ६ क्षण । सूत्र०!
मणसिला- मनःशिला खी०। “वक्रा ऽऽदावन्तः' ॥८।१।२६॥
ग्रथमादेः स्वरस्यान्त शआ्आगमरूपो ऽनुस्वारः । “ मरोसिला ”
क्वचिन्न-'मणसिला । ` प्रा १ पाद । पृथ्वीविकारविराष,
प्रा० १ पाद ।
मरसिला-मनःशिला-खी० । मणसिला "
१ पाद्।
मणस्सि -मनस्विन्- तरि । स्वमनस्तन्त्र. “आ श्रामन्त्य सो वे-
नो नः ” ॥=।५।२६३॥ शोर सेन्याम् इना नकारस्या ९ ऽमन्त्ये
सो परे आकारो वा भवति । भो मणस्सिया । प्रा० ७
पाद् ।
मणहर मनोहर -जि० । मनांसि श्रोतृणां हरत्यात्मवश नय-
तीति म॑नोहरः, लिहा ऽ भ्देराकतिगणत्वादच्रपरत्ययः । रा०।
ज०! “रातो ऽद्वा ऽन्यो +न्यप्रकोष्ठा 55तोद्यशिरोवेदनामनो हर -
सरारूहे क्तश्च वः ” ॥८। ९ । १५६॥ इत्याता+त्वे वा तत्स-
ज्ञियागे तु यथासंभव वकारतकारयोवा ६ ऽदेशः । मणहरं।
मणाहर । प्रा० १ पाद् । मनोनिवृत्तिकरे, रा०।
मणा-मनाछू-अव्य० । ईषद् भ, ` एवे परं० ” ॥८। ४। ४१८॥
इत्यादिसत्रेण दसतेण मनाको । मणा । ` “ विहावि पणट्रद वेकुड-
उ.रिद्धहि “जणसामन्नु । कि पि मणाउ महुपिच्रहा, ससि
अराहरइ न शन्न ॥१॥ आ० ४ पाद्।
म्रणाणुकुला मनोऽुकूला- खी°।पतिमनोऽजुकूलूत्तिकाया
, भे० १२ शा० (वि मणागणुशूलदियदच्छयाश्रा 8
[वे
॥
शब्दार्थे, प्राण
म्
07
मणाएणुक़ला
मनोपनुकृनाश्च ता हृरयेनेष्लिताश्वेति कर्मधारयः | भ० ६
श> ३२ उ०।
सणाम-मनोऽम- ति° । मनसा म्यते गम्यते सोभाग्यता
शनुस्मयत हति मनाऽ्मः । स्था० ८ ठा० । ज्ञा०। प्रज्ञा०।
|
श्रभिधानराजन्द्रः।
माणयार
सम्बान्धनी स्तृपिका शिखरं यस्य तन्मणिकनकस्तृपिका-
कम् । चण प्र० १६ पाहु० | जी० । सू० प्र०.। स० ।
। मणिकप्पिया-मणिकशिका-खो० । काश्यां गङ्गातर स्वनाम-
| आव ० | मनसाऽम्यत-प्राप्डत पुनः पनः समस्मरणता यत्त |
=मनाऽमम्। श्रा०। विपा०। रा०। करुप० । दशा०।
मनआशय- जि० । निरूक्तोवशात् मन श्रापः सदेव भोज्यतया
जन्तूनां मनांस्याप्नात्त । जी ० १ प्रति० । प्रव० । पुनः पुनः
स्न्दरत्वातिशयरन्मक्ारम, भ० ६ श० ३३ उ० | स० । मनः-
प्रिया । स्था० २ ठा० ३ उ०।
मणामतर-षनापतर ० । द्रष्ट् णां मनांस्याप्चुवन्त्या-
त्मवशतां चयन्तीति मनआपास्ततः प्रकर्षतिवक्तायां तरप-
प्रत्ययः , प्राकृतत्वाअ पकारस्य मकारे मणामतराः । अ-
तिरावतमरब्ग्राधिषु, आ०्म० १ अ० । स्था० | जी० | रा० । |
आओए० । ज०।
ख्यात लोकिकर्तार्थं, यत्र कमठतापसः पाश्वैस्वामिना परा-
स्तीकृतः । ती० ३७ कल्प ।
माणिकम्म-मणिकम्मन्-न० । मणिषु निष्पादितस्वस्तिका-
-;ऽदिचित्रकम्मंखु, श्राचा० २ श्रु० २ चु० ५ अ० । कल्प० |
मशणिकूड-मणिकूट-न० | रुचकवरपर्वतर्पश्चिमदिक्कूटे द्वी ।
मणिकोट्टिमतल-मणशिकुट्टिमतल-न० । मणिबद्ध छूमितले,
जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
मणिकर्खंडिय-माणिक्यख एिडक-ए० । रलपरीक्षके , महा०
२ चाल० ।
| मणिचूड-मणिचूड-पुं०। गन्धारदेशीयरत्नवाहफुररणाज विद्या
मखामता-पनञ्!पता-खी० । मन श्राप्नुवन्ति मनसि सदा |
रमन्त इति मनआपः ,
याम् , प्रज्ञा० ३४ पद ।
मणाल-मृखाल-न० । पद्मकन्दापारिवात्तिन्यां लतायाम् ,
आचा० २ श्रु० १ चृ० १ श० ८ उ०।
मणि-मणि-पुं० | ख्ो० । रत्नवेडूयेनीला $ ऽदिके, श्राचा० १
तद्भावस्तत्ता
आ०॥। प्रव० । जी० । द्वा० । जात्यरत्न, दश० ६ श्र० ।
भ० | नि० चृ० । प्रश्न० | रा०। कर्केतना55दिके, रा० ।
। स्पृहणीयता- |
धरे .उत्त० ६ अ० | (णमि शब्दे चतुर्थभागे१८०८्पृष्ट कथाश्च )
मशणिनाग-नशणिनाग-पुं० । राजग्रह नगर महातएस्तार-
प्रभनाम्नि प्रस्नवण पूज्यमान स्वनामख्याते नाग. विश० ।
आए० म० | आए० चू० । स्था०। | आ० क० ।
मणिजाल-मणिजाल-न० । मणिमय दामसमूद्दे . जे० १
बक्त० । रा०।
=: | मशणितोरणा-मणितोरणा-स्त्री० । जस्वृद्धीपे पुष्कलाएवतीवि-
श्रु० २ आ० ३ उ० | स । चन्द्रकानता55द्रित्नाविशेष, स० | |
यथा मचकर्माणनरासिहा 5 5द्या: | विश० । ज्ञा० | चेव्प्र० । |
| मशिपडिमा-मणिप्रतिमा -स्वी० । माणिमयरत्नप्रतिमायाम ,
अनु० । इन्द्र नीलव यपद्मरागा 4 5दिके, सूत्र० २ श्रु० १ अ० |
पृथिवीकायविका रेषु, भ० १२ श०#८ उ० । उत्त० । ( मणए-
यः खुगन्धयुक्ला भवन्तीति ` भरह ` शब्दे पश्चमभाग १४०४
पृ विस्तरतः प्रतिपादितम् )
जय स्नामख्यात पुरीभेदे, उत्त० ६ श्र०।
मणिदत्त-मणिदत्त-पु । भारते वर्ष गहितकनगरे स्वनाम
ख्यात यत्त, नि० १ श्रु० ५ चर्ग र अ० |
व्य० ६ उ०।
| माशपदिया-मशिपीटिका- खी० मणिमयपीटिकायाम , यत्र
सशिञ्रग-मण्यद्क- पुं । मणीनां-मणिप्रधानानामाभरणानां |
कारणत्वान्मरयङ्ञाः । प्रव० १७१ द्वार मणयो वा शङ्गान्य- |
वयवा श्रस्यात । स्था० ७ ठा० । आभरणदायिनि स्ुष-
मसुषमाजान कल्पवुत्ते , स० १० सम० । ति० । स्था०।
` भवणरुक्खसु आइण्णसु । ” स्था० १० ठा० |
मणिअड-मरणणीयक-ए;ु० | मालावयव मणा, “ प्राइव मुणिह
चि भतंडी,त मासिञ्रडा गणात । | अखइ निरामद परमपद. रज्ञ |
वि लड न लहंति॥ १॥ "` प्रा० ४ पाद।
स्या5ष्टम कूट, स्था० ६ ठा० | जं> ।
दो मणिकंचणकूडा | स्था० २ ठा० ३ उ० |
माणिकंच णरुप्पवष्म-म शिकाश्चनरूप्यवणं-चि०। मणिका श्वन
रूप्याणामिव वर्णशश्छाया यषां त । रत्नकाञ्चनरूप्यच्छा-
यपु, पं०व० २ द्वार।
मणिकणगर-मणिकनक न० । , मणकनकमये, जी० ३
अरति ४ आधि० । `` मरिक्ररगशूमियाने । मणिकरनकानां
२४
जिनमृत्तयः स्थाप्यन्त ता मणिपीटिकाः । रा० | जी ० । ज ।
स्था०। भ० |
माशिप्पभू-मणिग्रभ-ऐ:ुँ० । गन्धारनाम्नि देश रत्नवाहलयर
खनामख्यात विद्याधरेन्द्रं, उत्त० € अ० । अवन्तिरा--
जपालकखुतरा्वद्धेनपुत्र कोशाम्बाराज, श्रा० क० ४ झ० ।
( तत्कथा 'अरण्णायया' शब्दे प्रथमभागे ४६४ पृष्ठे दर्शिता )
मणिप्रमो नाम राजा | श्राच० ४ अ० | आ०्च० । अयोध्या-
राजस्य दरिश्चन्द्रस्य पर्गाक्षेके खनामकदवे, ती० ३७ करप ।
मशिकंचणकूड-मशिकाआनकूट-न० । झुक््मिवर्धधरपर्वत- | मेणिवंध-माशणिवन्ध-पुँ" । मशिवैध्यत यच । चन्ध यञ् ।
प्रकोष्टपाणयोम ध्यस्थे करग्नन्था , सन््धचलचणा 5 5करे पर्वत भेद
च । प्रज्ञा० ? पद | वाच० |
| मणिमय-मणिमय-त्रि० | मणिप्रचुरे. मणिविकारे च । रा० ।
मणिमेहला-मणिमेखला-खी० । रत्नकाञ्च्याम् , ज्ञा० १
श्रु० १ आ०।
| मणियार-मणिकार-पऐुँ० । राजये नगे खनामख्याते के
णिनि, श्राव ६ श्र । झा० चू० |
मणिग्यण
म्रणिरयण-मशिगन्न-न । निगद्यत तउज़ाता जाता
यदुत्कृष्टम। ` ईनि वचनान्माराजान्युन्कष्र स्था 3 ठा | स० ।
श्रा०च । `` मणिरयणविभत्तिचित्ता । ` मणयश्चन्द्रका-
न्नाऽष्याः रनानि कर्केतना55दीनि नयां भाक्ताभावाच्छ-
त्िभिधथित्रा नानारूपा श्राश्चयवन्तावा । जी० ३ प्रात
४ अधि०। रा० प्रश्न० । बुद्धगच्छीयसा मशु भर्सारशिप्य. ग
> अधि० ।
मणिरह मणिगथ-पु० मालवदेशायसुदशनपुगराज् मदनरखा
उयष्ठ.उत्त०: अ (` समि' शब्द चतुधमाग १८०७ पृष्ट कथाक्ता)
मणिलक्ंखण भाणिलचण -त० । ग्त्नपरीज्षागन्थोकूकाकपद-
मत्तिकापद कश रा हित्यश के रता स्वस्व वर्ण चित फल दा यत्वा -
$ऽदिमरणिगुणदापविख्ान.जे० ~ वज्ञ" | आ०। स^ । खब० |
मणिवंसग- मिबेशक्ध-न५ ¦ मण्या ्पाणमया चैशा वर्षा
तानि मणवशकानि | मामयवशयुक्रषु. ज० ट वच्ते° । जी० ।
मरणिवडग मणिब्रू्तक-न“ । मणिप्रघांन भाजनल्णापया-
गिघृता 55दिपात्र. ज~ २ बच्त० ।
माणिवय[-मशिपदा-सखत्री० । पुरीभदे.
ता राया.सेभूतिविजय श्रणगार पडिलामिए० जाव लिख । `
बिपा० २ थु? अ |
मरिवियया-मणिविजया[-स्त्री० । भारतवप ८तिप्रप्चीनायां
स्वनामिकायां नगर्याम् . यत्र पणभद्रस्य दवस्य पृचजन्मा-
55साीत् । नि श्रु० ३ वर्ग ५ च ।
मणिमलाग्--मणिशलाचछा-ख'* ।
शलाका । मद्यमद. जा ३ प्रति ४ आधि० । ने ।
माणिहियय--माणिहद य-प० । शङ्घिवरस्य परस्तान् स्थितस्य
द्वापनदस्य उच. द्वा ।
मणीसा मनीपषा--स््वी० | वद्धा. अनु« । ~
सा, विन्नारों थीं चिर बुद्धी । (४० )
गाथा | ।
मणृ-मनु--पु^ । मनृष्यारणं परमसलपुरुत, यदपत्यानि म
माणिवया गयरी.मि-
माणिशजाकेव मण्ण-
महा मई मणा-
` घाइब्ना० >;
नृध्या उच्यन्त । श्रा म० ; श्र । मनुना प्रणीत अ्न्ध च ।
विश० । मन्ध. मनाॉरॉत मनुष्यस्य सज्ञा | वाच ।
मणुद् -मनुज-पृ* ' नर. ` मरणुआ नगा मनणुस्सा. मच्चा
तह माणवा प्रस्ता ` ( {५५ ) पाइ० ना० >० साथा ।
मणुज्ञ-मन।जञ-- पि" । म्बृन्दर. `` मुद्रे गाहे रम्मे. अरटिरामे
बंधुर मसुञ्जच। नदर कंने खुहये. मणारम चारु ग्म-
णिउज्ञ ( 7८) पाट ना १४ गाथा |
मण़ाम-मनोज्ञ -ि^ । मनस्ना तायत उपादीयत इति मनो-
अम । ते । मनना न्नःसवदनन शाभनतया आयन डानि
मनाञजः. विपा ~= श्रु“ * श्र“ । मनसा तायन्त खुन्दरतया
अनन्पनानम | मावयतः सुन्दर, भ ६ श०
श्म | स्वरूपतः गमन, स्थरा ६ २“ । मनाज्ञाः
मनना मतः वल्लनाः सवस्याव्युधनाक्रः सवदा च शाभ-
नन्वधर्कषादव निरूक्राबा घिता । स्था० ८ ८4 ३ उ. |
व प्ठवनवा ज्राकम््दं ५ त ।
छा« । नन्दना ऋूचला नम्य
~
३३ उ“ | जै ।
हा“ ?
आमभधवानराजन्द्र: |
मपुस्स
विपाके्पि सुखजनकतया मनसः प्रद्ठदादहतुत्वात । ज्ञा०
२ परनि } मनसो खचित. नि~ चू० २ उ० । बृ० । श्रा"
म) जी५। पं०्व० । प्रज्ञा । रा०। ज० । विश \+
मनारम. ज्ञा १ श्रु० र श्र । आव० । घ्र , श्राव ४
अआ० । प्रव | आचा० । " मणुणणं भोयरी भाच्चा , मस्छुराण
सयणा {ऽसो । मणुराण ति अगारे ति, मणुगणं यणः
मुणणी ॥ १॥ सत्र० श॒ु० ३ अ० ४ उ० । अमिलष-
लाय . स्था? ठा० । सृत्र० | शुभम्वरूप .स्था० ६ ठा० ।
सृत्र० । मनाविनादकारिण . कल्प५ १ शण ३ चरण । से-
भागिके . व्य र उ०।
मणुष्मतर-मनोज्ञतर-त्रि० | मनाशशब्दात्प्रकर्षाविवक्षायां तर-
प् । आतिमना 5नुकुल, रा० | जी ३ प्रति० ४ आधि० |
मगुष्मेप्र गसेपउत्त-मनोज्ञमम्प्रयागसम्पयक्र-न० । मनो-
क्स्य घना 5 5द: सम्प्रयागा-यामस्तन सप्रयुक्गायः स नथा ।
आत्तेध्यानभद . ग५ १ आधि० ।
प्रणुएसग्या-मनोज्ञसखरता-स्त्री ० । उधरतभावो ४प स्वा
लम्बनप्रीतिजनका मनाज्ञ: स्वरा यस्य स म्रनाज्नस्वग--
स्नद्धावस्नत्ता । मनाज्ञस्वरवत्व. प्रज्ञा० २६ पद ।
मगणुतिग्याणुपुव्वी मनुजनियमानुपूवौ स्थी० । मनुजानपृ-
व्याम . तियगानुपृव्या च | कम“ २ कमे !
मणुदग मनुजद्विक-न० । मलुजगतिमनुजानयूववी रूषे मनु-
जापललित उय . कमे० ५ कर्म ।
मणुपुव्वग-मनुपूवेक पु | वेनाच्यपफवत मनुविद्याप्र थाने
विद्याधर. आ० च० रे अर ।
प्रणुय-मनुज-पुं० । मनाजातो मन॒जः | मनुष्य . स्था० रे
ठा० । उत्त० । स्वृत्र५ । नर . सत्र श्रु आअ०२ उ० ॥
ते० । मनुष्याश्चतुर्मेंदा: । तलैथा-संम॒च्छुनजा:. कमभूमिज्यः,
अकमेभूमिजाः . अन्तरमामिजाश्चात । आजा० टश्च र
छ ? उ० | मथा० | भ० | ओ० ! मव्य . स्था० ६ ठा० ।
श्रीध्रयोसम्य मनजा यक्षाह, मता5न््तररणःण्कराः घवलवर्णास्त्रि-
नत्रा घ्रषभवाहनश्वतुभुजा मातुलिज्कगदायक्लदाक्षिणपाणि-
ढया लकुलकाक्षस्त्रयक्नवा मपाणिद्ध यश्व । प्रय० २६ द्वार । स०।
मणुयगइ-मनुजग।/ति-स्थी० । मनुष्याणां गातिः मनृष्यन्वस-
पादिझा वा गानि: | यनिभदे . स्था ४ ठा० ३ उ५।
मण॒यगइसहगया--मनुजगतिसहग॒ता-ख्ी० । मनष्यगत्या स
ट यासामुदयस्ता मनुजगातिसहगताः । नथाविधास क-
ममप्रकातिषु, कर्म £ कमण ।
मणुयतिग मनुजत्रिक-न” । मनुजगतिमन् जानपूर्वीमनु जा-
5 यु्क्तेग मनुप्याप लान्ति चिक्र , कर्म० २ र्म ।
मशायये(नि मनुजयानि खी ०। मनप्यजानीनाभु-पत्तिस्थाने,
प्रश्न २ आश्रव॒द्धार ।
मणस्स-मनुष्य-पु० । मर्नारिति मनुप्यस्य सकला । मनारप-
त्यानि मनष्याः | जातिशष्दा ४य राजन्य!९ऽदिश्ब्दवत् | जो०
६ प्रति । नि च० | नरे , प्रश्न २ सम्य द्वार । मनुजे,
ज्ञी० ३ अति० ४ आधि५ । खूघ<८ | उख |
अद, ५,
असिध्ानराजन्द्रः |
मणुस्म
मनुष्यभेदा:--
से कि त॑ मंणुस्सा ? मणुस्सा दुविहा पष्पत्ता | तं जहा-
संमुच्छिममणुस्पा य, गव्भवकंतियमणुस्सा य । से करके
तं संमुच्छिमस णुस्सा १ कटि शं भते ! संमुच्छिममणुस्सा
संमुच्छेति । गोयमा ! अता मणुस्सखेत्ते पणयाली-
साए ज,यणसयसहस्ससु अड्राइजेसु दीवसमुदेसु पष्मरससु
कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवणसु
गब्भवकंतियमणुस्स।णं चव उच्चारेसु वा पासवर्णेसु वा खे-
लसु वा सिंघाणएसु वा वतेसु वा पित्तेसु वा पूएस वा सो-
गिएसु वा सुकेस वा सुकपोग्गलपरिसाडेसु वा विगय-
जीवकलेवरेस वा थीपुरिसर्सजे।एसु वा नगरनिद्धमणेसु
वा सन्यसु चेच असुइद्ठ|णेसु , एत्थ णं संमुच्छिममरु -
स्सा संमुच्छृति, अंगुलस्स असंखिज्जइभागमेत्ताए ओगा-
हणाए असर भिच्छदिद्ी अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तोहैं
अपज्ञत्तगा अंतोमुहृत्ताउया चेव काल॑ करेति । सत्त
संमुच्छिममगस्सा । स किं ते गब्भवकंतियमणुस्सा ?। ग-
ञ्भवर्कतियमणुस्सा तिविहा पष्पत्ता । तं जहा कम्मभूम-
गा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा |
(सकि तमित्यादि ) अत्रापि सम्मूर्लिछममनुष्यविषये
प्रवचनवहुमानतः शिष्याणामपि च साक्ताद्धगवतदमुक्र
मिति बहमानात्पादनार्थमङ्गलान्तरीतमालापक पठति-
“कटिरे भत! इत्यादि सुगम, नवरं ` सब्वेसु चेव
श्रसखुदद्राणिसु त्ति । "" अन्यान्यपि यानि कानिचित् मनुष्य- |
ससगंवशादशुचिभूतानि स्थानानि तषु सर्वेष्विसि। उक्काः |
समृ््छिममनुप्याः। श्रघुना गमव्युःक्रान्तिकमनुष्यप्रतिपा-
दनार्थमाह-( स कि तमिल्यादि ) `कम्मभूमिगा इति--कर्म
कृषिवाणिज्या 55दि मोक्षानुष्ठान वा, कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते
कमेभूमाः, च्रापत्वात् समासान्ता ऽप्रत्ययः. कम भूमा एव क्म. |
भूमकाः. पवमकर्मा--यथाङ्गकमेविकला भूमियेंषां ते अकर्म- |
भूमास्ते एवा 5कर्म भूमकाः, अन्तरशब्दा मध्यघाची: श्रन्तरे |
लवणसमुद्रस्य मध्य द्वीपा अ्रन्तरद्वीपाः तद्गता अ्रन्तरछ्ीप- |
गाः.' अस्ति पश्चानुपूर्वी रति न्यायस्यापनार्थम् । प्रज्ञा० ९ पद।
अनु ० श्राचा०। ( कर्मभूमकमनुष्याणां व्याख्या `कम्मभूमग-
शब्दे तृतीयभाग ३३६ पृष्ट गता ) ( अश्रकर्मभूमकमनुष्यारां
यक्रञ्यता 'अकम्मभूमग' शब्दे प्रथमभागे १२० पृष्ठे गता)
( श्रन्तरद्वीपमनुप्यवक्रव्यता ` श्रतरदीव ` शब्दे प्रथम-
भाग ८६ पृष्ठ गता ) (श्रायमनुष्यव्याख्या ` श्रा (य) रिय'
शब्द् द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठ गता ) ( म्लेच्छमनुष्याणां
व्याख्या ` मिलकर ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भाग बद्यत )
से कि ते मणुस्सा {। मणुस्सा दुविहा पष्त्ता। तं |
जड़ा समुच्छिममणुस्सा य, गग्भवक्षतियमणुस्सा य | कहि ।
शं भते ! संच्छिममणुस्सा संपच्छंति १ गोयमा ! श्रता |
गरले = जान कोति। तेति लं भि । जीवान कति |
)
| मणुस्स
सर्र रग! पापत्ता | गोयमा ! तिनि सरीरगा पत्मत्ता | तं
जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए । सत्तं संमुच्छिममणुस्सा।
से कि तं गन्भवकंतियमणुस्मा !। गब्भवकंतियमणुस्सा
तिविहा प्पत्ता | ते जहा कम्मभूमया, अरकेम्मभूमया,
अतरदीवजा, एवं मणुस्समेद्। भाणियन्यो जहा
पष्मवणाए तहा निरवसेस भाशियव्य॑०जाव छउमत्था
य, कवल य | ते समासतो दुविहा पष्पत्ता । तं जहा-प-
उजत्ता य, अपज़त्ता य | तमि शं मेते ! जीवाण क
ति सरीरा पप्पत्ता | गोयमा ! पंच सररया पष्पत्ता | तं
जहा-ओरालिए ०जाव कम्मण | सरीरोगाहणा जहष्पं
अंगुलस्स असंखेज्जइभागा, उकोसेण तिपष्पि गाउयाई
छच्चेव संघयणा छस्संठाणा। तेंणं मंते ! जीवा कि
काटकसायी ०जाव लोभकसार्यः, अकसायी ? गोयमा !
सव्येवि। तेणं भते ! जीवा कि आहारसन्नोवउत्ता,
लोभसन्नावउत्ता, नोसज्नोवउत्ता ?। गोयमा ! सव्वे वि।
तेशं भंते जीवा कि कणहलस्सा य ० जाव झ
लेस्सा | गोयमा ! सव्ये वि । सोइंदियोवउत्ता ° जाव
नोइंदिश्रोवउत्ता वि, सव्ये समुग्घाया पष्पत्ता । तं जहा-व-
यणासयुग्धाते ०जाव केवलिस म॒ग्घात, सन्नी वि, नामन्नी,
असन्नी वि, इत्थिवेदा विं ०जाव -अबेदा षि, पंच प-
ज्जत्ती, तिविहा दिर, चत्तारे दंसणा, शाणी वि,
अष्पाणी वि, ज णाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी, श्र-
त्थगतिया तिन्नाणी, अत्थेगतिया चउनाणी , अन्थ-
गतिया एगणार्णी । जे दुष्पाणं। ते नियमा अभिरिषे।हि-
याशाणी, सुयणाणी य | ज िप्माणी ते त्राभिशिबे।{हिय-
शाणी, सुय णा, ओ।हेणाणी य | अहवा-आा।भे णित्रा--
हियणाणी, सुतण।ण।,मणपज्ञवणाणी य । ज चडउणा 4
शियमा आभिशिषोहियणाणी, सुयणाणी,+ श्र.हिणा्णं,
मणपञ्जवणाणी य । जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी,
एवं श्रष्माणी वि, दुख, तेञ्रपाणी, मणजोगी वि,वड-
कायजोगी वि, अजोर्गी वि, दृवेहउद्श्रागे , आहाग
हृदि सि । उववातो नेरइएहिं अध सत्तमवजहिं तिरिक्ख-
जोशिएहिंतो, उववाओ अखज्रासाऽऽउअवज्र्हि मणु-
- एं श्रकम्मभूमगञ्यतरदीव गश्च रखञवासाउयवञ्जदि, दव-
हिं सर्व्वेहि, ठिती जहप्पणं अंतोमुहुर्त, उकमेण तिश्म
पलिओवमाईं, दुविहा वि मरति, उन्बड्ित्ता नरइयादिस्
०जाव अणुत्तरोववाइएस श्रत्थगतिया सिज्क॑ति० जाव
श्रतं करेंति.। ते शं भंते ! जीवा कनि गहया, कनि झागति-
या पष्तत्ता | गोयमा ! पंचगतिया, चउञ्नागतिया, परिना
संखेज्जा पप्मत्ता | मेनं मणुम्पा | ८ सत्रे ४? )
| ६६ )
णार. - - १
आाभधानराजन्द्र। ।
मणुस्स
अथ के त मनुष्याः ?। सारिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्नप्ताः
तद्यधा-सम्) च्खुममनुप्याञ्च,गभल्युत्कान्तिकमनुप्याश्च,चश-
ब्दा स्वगतानकभदसूचका, तत्र क्षमू)च्छुममनुष्यप्रातपादना- |
धमाह-'कहि य मत ! ' इत्यादि । क्व भदन्त ! संमूर्चिछमम-
नुष्या: समृच्छान्त ?। भगवानाद-गोतम ! * श्रतो मणुस्सखे- |
त्त ०जाब कराति ` हात । ( जी० ) ( तेसि णे भते ! इत्यादि ) |
शरासास त्रींण ऑंदारिकतेजसकाम्मेणानि, अधगाहना ज-
घन्यत उत्क्षतश्चाहुलासडन्ख्ययभागप्रमाणा, सहननसंस्थान-
कपाय लश्याद्धायाण यथा द्वीन्द्रयाणाम् । द्ानद्रयद्वारे पञ्चे-
न्द्रियाणि,संक्षिद्वा र्वेदद्वार अपि द्रान्द्रयवत्. पयाप्तिद्वारे अ- |
पयाप्तयः प्च द।द्रद्शनज्ञानयागापयागद्धाराशणि ( यथ.) पृ-
यवीकायिक्रानाम् , च्रादारा यथा द्वीन्द्रयाणाम् , उपपातो
नरायक्दरेवतजावाय्वऽतख्यातवपष 5 5युष्कवर्ज्य भ्यः स्थिति
जघन्यतः उत्कर्षतो 5प्यन्तमुह त्तेप्रमाणा नवरं जघन्यपदा-
दुत्कृष्टमाथिकं वदितव्यं, मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता
आप प्रियन्त , श्रसमवहताश्च अनन्तरमुधछ्ठत्य नरायकद्रे--
वासंख्येयवर्षायुप्कवर्जषु शपचु स्थानघ्रूपपयन्त , श्रत एव
गत्यागातद्वार दयागोतक्रा ।कगातक्रास्तयङ्मचप्यरगत्यप
सया , पत्ता: प्रत्येकशर्गीरि णा 5सेख्येयाः प्रन्नप्ताः। टे श्रम- ।
ण् ! हे आयुप्मन् !। उपसंहार माह-(सत्त समुच्चिममखुस्सा) |
` उक्काः समूर्रिममनुष्याः। अ्रधुना गमेव्युल्क्रान्तकमनुष्याना
ह-स्रधकेते गर्भव्युत्कान्ति कमनु ध्या: सूरिराह-गर्भव्युत्का-
स्तिकमनुष्यास्त्रिविधाः प्रन्नप्ताः, तद्यथा-कम्मभूसकाः ,अकर्म-
भूमकाः,अन्तरदीपजाः | तत्र कर्म-कृषिवाणिज्या दि माक्ताचु-
छाने वा.कम्मप्रधाना भूमियेषां त कर्मभूमाः.श्रा्धत्वात् समा-
स्तान्नाऽप्रत्ययः। कम्मभूमा एवं करम्मभूमभकाः एवमकर्मा यथा
क्रकम्भविकला भूमियपा त अकम्मभूमास्त एवाकमभूमकाः,
श्रन्तरशब्दा दरा मध्यवाता श्रनतर-लवणसमृद्रस्य मध्ये द्वीपाश्च,
ब्तरद्वीपास्तद्व ता अन्तरद्रापगाः। (पव मरुस्सभ्षआ भाणय
व्वा जहा पाणवणाएं इत ) पवम्र्-उक्रन प्रकारण मनुष्यभदो |
भणितव्या यथा प्रज्ञापनायां, स“चातिवहुग्रन्थ इति तत एव
पारेभावनीयः । ( त समासता इत्यादि ) पर्याप्तापर्याप्तसत्रे
पार्मसदडध. गमीरा $ ऽदिद्ारकलापचिन्नायां शर्गरद्यार पञ्च
शमीराणि | तद्यथा-आओदारिक वक्रियमाटारक्रं तजस का-
स्मणे चर, मनुप्यषु सवभावसम्भवात् , श्रवगाहनाद्वार अघ्र-
म्पता एवगाहन। 5हुग ता 5 सेख्यय भाग मात्रा , उत्कर्ष तर््रीरि
गव्युतानि । सहननद्वार षडपि सदनानि , सस्थानद्रार--
घड़पि सस्थानानि , कषाय द्वारे कराधकषायिखाऽपि मानक-
व्ायिणा दपि सायाकयांख्णाऽपि लोभकपायिणा ऽपि श्कषा-
यिणा एप. वोलरागमनुष्याणामक्रपाथत्वाम् , सन्नाद्ार-
दारसंन्नापयुक्रा भयसंज्ञापयुक्का मथुनर्सज्नापयुक्रा लाभ
सज्ञाधयुक्राः, नासशापयुक्ताश्र ननश्चभता बीतराभमनुष्याः,
व्यव्द्ारनः
"तस्य सज्ञादशकना ऽपि विप्रयुक्त॒त्याल | उक्त च-- निवा-
गसाधरकं सव, यं लाकात्तरा55श्रयम् ! संज्ञालोका55-
लेश्याद्वार-कृष्ण-
*श्रया स्वा, भवाडुकुरजले परम ॥ १॥ ""
` पद्मलश्याः
लश्या नोललश्याः कापातलश्यास्तजालेश्याः
शुक्ललेश्या अलश्याश्व, तत्रालश्याः षरमशुकलध्यायना $-
यामिक वालिनः 4 इन्द्रिश्रद्धार-थात्रान्द्रि ख्रापयुक्ताः यावत्स्पश-
जन्द्रियोपराक्ा
नाहइन्द्रियापयुक्राश्य , तत्र नाहस्ट्रियाप--
सर्व एवं चारित्रिणा, लाकरात्तराचत्तलाभात् |
युक्काः कवलिनः, समुद्घातद्धार--सप्ताउपि समुद्घा--
ताः, मनुष्यषु सवभावसम्भवात्। समुद्धातसंग्राहिका चमा
गाथा-' वेयणकसायमरणे-तिए य चउन्विप य ्रादार।
कवलियसमुग्घाप,सत्त समुग्धा इम भणिया ॥१॥” सचिद्धार -
साज्िना 5पि नासक्ञिनोऽसक्निना ऽपि, तत्र नोसेचिनः असंश्षिनः
केवालिनः। वेदद्वारे-स्त्रीवेदा आप पुरुषवेदा अपि नपुसकवे-
दा अपि अवदाः सक््मस पराया 5 5द्यः , पयोघिद्दारे-प श्र पयो-
प्तयः पञ्च अपर्याप्तयः, भाषामनःपयाप्त्योरेकत्वेन विवक्षणात्
द्टिद्धार-जिविधदष्टयो 5पि। तद्यथा-केचिन मिथ्यादष्टयः क
चित सम्यगरष्टयः, काचत् सम्यगामिथ्यादृष्टयः | दशनद्वारे-
चतुर्विधदर्शनाः, तद्यथा--चक्षुदंशना अचचुदशना अवधि-
दर्शनाः कवलिदशनाश्च , ज्ञानद्वारे-श्लानिना उज्ञानिनश्व ,
तत्र॒ मिथ्यादष्टयो ऽज्ञानिनः सम्यगदष्टयो श्लानिनः ,
( माणाणि पंच तिणिण अणणाणाणि भयणाए इति ) ज्ञाना-
नि परञ्च मतिज्ञाना55दीनि, अज्ञानानि जीणि मव्यज्ञानाऽदी `
नि, लानि भज़नया वक्तव्यानि, सा च भजना णव-काचत्
द्विज्ञानिनः काचित् त्रिल्लानिनः कचिच्चतुक्ञानिनः काचिद-
कल्लानिनः, तश्र य द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिनिवोधिकनज्ञा-
निनः श्रु तज्ञानिनश्च, य जिज्ञानिनस्ते मातिज्ञानिनः श्रुतज्ञानि-
नो ऽवाधिज्ञानिनश्च, अथवा--श्राभिनिवोधिकक्ञानिनः श्रुत-
ज्लानिनो मनःपर्यवज्ञानिश्च श्रवधिन्ञानमन्तरेणाऽपि मनः
पर्यवज्ञानस्य सम्भवात् । सिद्धप्राभ्ृुता 55दो तथाऽनेक-
शो ऽभिघानात्, य चतुक्ञोनिनस्ते श्याभिनर्वाधकन्ञानिनः
श्रुतज्ञानिनो धवाधज्ञानिना मनःपयवन्ञानिनश्च , य पकनज्ञा-
निनस्ते केवलज्ञानिनः , कवन्ञानसद्धावे शप्ञानापगमात् ,
““ नद्रम्मि उ छाउमत्थिप नाण `` इति ब्रचनात् , नु केवल-
ब्लानप्रादुर्भावे कथं शषज्ञानापगमः ?, याचता यानि शेषारिए
मल्यार्दौनि ज्ञानानि स्वस्वा;ऽवरणच्तयोपशमन जायन्त
ततो निमूलस्वस्वा ४ऽवरणविलये तानि सुप्तरां भवयुश्चारित-
परिणामवत् । उक्तं च--“ आवर्णदेसब्रिगमे, जाई विज्ञे-
ति म्दसुया 5 5ईणि श्रावरणसव्वविगम, कह तादे न होति
जीवस्स ? ॥ १॥ ` उच्यत-इद् यथा जात्यस्य मरकता-55-
दिमशमलीपदिग्धस्यथ यावन्नाद्याऽपि समूलमलापरगमस्तावन्
यथा यथा देतो मलविलयस्तथा तथा देशता ऽभिर्व्याक्रिरु-
प्रजायन,सा च काचरत् कदाचित् कथश्चिद्धचतीत्थनकप्रकागा,
तथा 5 ऽत्मना ऽपि सकलकालकलापावलभ्वि निखिलपदाथसा -
थपरिच्छेवकरणकप/र माथकरस्वरूपस्याऽ पि श्रएवरणमलपरः
लतिरोहितस्य ग्रावश्नाद्यापि निखिलकमेमलापभमस्ता वद्यथा
यथा बशतः कर्ममलाख्छुदस्तथा तथा तस्य षिश्ञप्तिरुज्ज़-
स्भत, सा च क्वचिन-कदाचिस् कथब्घिदनकप्रकारा । उक्र
च~ `मक्रावद्धमसच्याङ्क-यथा इभकप्रकारतः | कमिद्धान्मदि-
क्षास स्नथा ऽनकथ्रकारतः।?। "सा चा 5नकप्रकारता मातिश्रता
४ऽदिभवम वसया । तना यथा मरकतादिमणरशपमलापग-
मसंभव समस्तास्षष्टदृशव्यङ्रिव्यवच्छदन , परिस्फुटरूपका-
भिव्याक्रिरुपज्ञायत लद्वदात्मना ऽपि ज्लानवृशसखाररिश्रप्रभाय-
ता निःशषक्श ऽ ५करलप्रहाणावशपषदशजशामध्यथरछुदन धकरूपा
अतिपरिस्फुट। स्वयस्तुपयाय प्रफश्वसाक्षास्कारिणी विशपिर-
प्ल्लाति , पक्ष शर-' यथा जास्यस्य रत्नस्य निःशफ्मलहाशित: ।
स्कृटकरूपा उभिव्याक्त विंज्ञाप्तिस्तक्षदा त्मनः १' इति।यअजशानि-
4.
नस्त द्वय ज्ञानिनः,व्यक्लानिना वा, नत्र य द.थज्ञानिनस्त मत्य
ज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च, य व््यज्ञाग्स्निम्त मव्यज्ञानिनः, श्रता
ज्ञानिना विभङ्गज्ञालिनश्च.यागद्धारे-खषनोायागिनो.वागयोगिनः,
काययागिना ऽयागिनश्च, तत्राउयानिनः शेलेशामवस्थां प्र-
श्रनि धानराजन्द्रः।
तिपन्नाः, उपयोगद्वा रमाहारद्वारं च द्वीन्द्रियवत्.उपपात एते- |
प्वधः सप्त्मनरका 5ऽदिवजंभ्यः । उङ्क च-' सत्तममहिनेरइ- |
या, तेऊ बाऊ अरांतरुब्बद्या म् दि पावे मारुस्स , तदेव |
~
संखाउया सव्व ॥ १॥” इति । स्थितिद्वा र-जघन्यतः स्थिति.
रन्तभुहत्तमुत्कपंतस्रीणि पल्मापमानि, समुद्धातमाधिकृत्य
|
मर सप्रचन्तायां समवहता पि सत्रयन्त. श्रसमवहता अपि। |
च्यनबद्वारे-अनम्त रमुद्वत्य सवंषु नेरयिकेषु सर्वेषु च ति- |
यग्याप्रनिषु सर्वेषु मचुप्यषु सर्वेषु दवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्य- ।
वस्ारषु गच्छन्ति ` अत्थगतिया सिज्केति ०जाव श्रते करे
ति `` इति । अस्तीतलि निपाताऽ्त बहुबचनाथः,सन्त्यकका य |
निहितार्था भवर्ति। यावत्करणात्-''बुज्फाति,सुच्चति, परि-
निव्यायंति, सब्वदुक्खाणमसंत करेति । ” इति द्र व्यम् । तत्र
अशिमा 5 5चेश्बर्या $5पत्या तथाविधमनुष्यर्त्यापत्तया निष्ठि
साथा इतिं अरददविदाऽपि केश्वित् सिद्धा इष्यन्ते, तता मा-
भदेतेष् सप्रत्यय इति तदपाहाया55ह-बुध्यन्त निरावरणत्वा
त् केचलावबाधन समस्तं वस्तुजातम् , एत चासिद्धा आपि
भवरंश्केवलिन एवम्भूता वत्तन्त, तत्र मा भृदेतष्वव प्रती-
तरित्याह- मुच्यन्त ` पुरायापुणयरूपण रच्छ कर्मणा,
पत. ऽपि चापि निवृत्ता एव परोरप्यन्त-मुक्रिपदे प्राप्ता श्रपि-
तीर्थनिकारदर्शना ऽ ऽदिदाऽऽगच्छृन्ति,दइति वचनात् ,ततो भू-
त्द्धाचरा मन्दमतीनां थीरित्याह-' परि निवांन्ति` विध्यातस-
मस्तकम्महुतक्ह परमाणवो भवन्ति इति । क्रिमुङ्क भवति ?-
सर्वदुःखानां शरीरमानस्भदानामन्त-विनाशे कुर्व्वन्ति, श्रत
एव गत्यागतिद्धार-चतुरागतिकाः पञ्चगतिकाः, सिद्धिगता-
वपि गमनात् , ` परीत्ताः ' प्रत्यकशगीरिणः सङ्ख्येयाः सं-
ख्ययकाटप्रमाणत्वात् प्रज्ञाः ह श्रमण [हे श्रायुष्मान् ! उप- |
संहारमाह--' सत्त मणुस्सा । ` जी० १ प्राति । आचा० ।
स्था० । सूत्र ० | पे० सं० । ति० । ( दर्डकग्रतिवद्धा अधि-
कारा श्रन्दक्रिया$दयाऽन्ताक्रियाऽऽदिशब्देषु )
हरिवर्षा $ ऽदिषु त्रिषष्टिरातरिन्दवे योवनम्-
हरिवासरम्मयवामेसु णं मणुस्पा तेवद्भिए राइदिएहिं
सेपत्तजोव्वणा भवंति । ( स० ६३ सम० ) देवकुरुउत्तर
कुरासु णं मणुया एगूणपन्नं राईदिएहिं संपत्तजाव्यणा
मवत | स० ४६ सम० |
सम्प्रति मनुष्यस्य सचित्ता ऽदिभदात् च्िविधस्या-
प्युपयागमाह--
सचित्ते पव्वावण, पंथुवएसे य भिक्वदाणाऽऽ |
सीसउद्ठिग श्रत्ते, मीसऽद्विसरक्वपह पुच्छा ॥ ५१ ॥
सचित्त इति-षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभदात् सचित्तस्य मनुष्यस्य
याजन पथि पृष्ठ उपदेशः कथने,तथा भिन्ताऽदानम्.श्रादि
शब्दाद्रसत्यादिदानं चोपयोगः, ( क्रित) अचिचन्य शि-
रसो ऽस्थि,तद्धि लिङ्गे उबयाधिविशेषापनोद्ाय घवित्या दयत,
२५
अ मणुस्सखेत्त_
यद्वा-कदाचित्काश्वित्परि रु राजा55दिः साधूनां विनाशाय
कृतादययमा भवत् । ततस्त साधवः शिरा ऽस्थिकमादाय कापा-
ंलकबषण नेष्टा दशान्तरं ब्जितामच्छुन्तीति तन प्रया-
जन, तथा मिश्रस्य मयुप्यस्यापयागः, ( अद्विसराक्ख त्ति )
अस्थिभिराभरणकस्पैभूपितस्य सरजस्कस्य सरक्ञाकस्य
वा भस्मायगुरिठतवपुष्कस्येत्यथेः , कापालिकस्य पार्श्व
यत् पथि विषये प्रच्छुनम् । पिं० । ( अश्नरेतनविषयस्तु
* बाउकाइय ` शब्दे वच्यते ) “ ननु पनरिदमतिदुलभ-
मगाधसंसारजलाधिविश्रष्टमभ् । मानुष्यं खद्योतक-तांड
ज्ञताविलसितप्रतिमय् ॥ १ ॥” सूत्र० १ श्रु० १५ श्र०।
& पम्रानुष्यकात्परिश्रए्ट-लैभ्यते न मजुष्यता । ” आ० क० १
श्र० । ( मनुष्यत्वस्य दोलेभ्यम् ` चउरंग ` शब्दे तृती-
यभागे १०५१ प्रष्ठ उक्तम् ) ( मनुष्यशरीराणां जघन्योत्कृष्ट पदे
सख्या ` सरीर ` शब्दे )
छ/्यहा मणुस्पगा पापत्ता । तं जहा जवृदीवगा, धा-
यई+उदीवपुराच्छमद्धगा, धायइ५डद्।वपचच्छिमद्धगा,
पुक्वरवरद\वडपुर च्छमद्धगा, पुक्खरवरद।वड़पच्चच्छि-
मद्भगा, अतरदीवगा । अहवा-छव्विहा मणुस्सा पा्यत्ता |
तं जहा-सयुच्छममणुस्सा त०३ कम्मभूमगा१, अकम्म -
भूमगा २, अतरदीवगा ३। गन्भवक्कतिश्नमणुस्सा (० रे-
कम्मभूमिगा १, अकम्मभूमिगा २, अंतरदीवगा ३।
( घ्रूत्र- ४६० ) स्था०& ठा० ३े उ०।
वारस मुदुत्तगब्भ, इश्रर चउवीस विर उक्कोसो । ` ए-
तद्विरदकालः समूच्छजमनुष्याणां कियता कालन भव-
तीति प्रश्चः, श्रत्रात्तरम्--इट मनुष्या द्वाविधाः--सम्मच्छ-
जाः, गन्भजाश्च | तवाऽ शाः कदाचिन्न भवन्त्यव. जघन्य-
तः समयस्यात्कृष्रतस्तु चतुर्विंशतिमृहृत्तान्तरकालस्य प्र-
तिपादिवत्वात् , उत्पन्नानां तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तमु-
हृत्तस्थितिकत्वन परतः सर्व्वेषां निर्लेपकत्वसम्भवात् ,
यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको द्वो जया वा. उ-
त्कृष्तस्तु ग्रसङ्ख्याताः, इतरे तु सङ्ख्यया भवन्तीव्य-
जुयोगद्वारच्रत्ता । असत्वं-त्रसत्वेनोःपात्तिः, सततमनवरतं
जघ्रन्यत एकं समयमुत्कषत श्रावलिकाऽसङ्ख्ययभागे का-
ल, परतो ऽवश्यमन्तरम् । आप च-आस्ता सामान्यन जस-
त्वम् , किन्तु-द्वीन्द्रियाखोन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियास्ति्यकपञच-
न्द्रियाः सम्मूछेजमनुष्या श्रग्रतिष्ठाननरकावासनारकव-
ज्जाः शेषाः प्रत्यकं नारका अनुत्तरखुरवच्वाः शषाः
प्रत्यकं दवाश्च निरन्तरमुन्पद्यमाना जघन्यत एक समय-
मुत्कशत आवलिकाया ्रसङ्ख्ययमागं कालम् , इति पश्च-
सग्रटकरत्ता ४८ पत्र एतदतक्षरानुसा रणात्कश्रतः कदाच-
दावालिकाया श्रसङ्ख्ययभागक्रालानन्तरं सम्मूछेजमनुष्पा-
णा चतावशातमुटन्टसावयरहकालः सम्भवतात । € श्र०।
सन० २ उक्ला
मणुस्सक्वेत्त-मनुष्यक्षेत्र-त? । मानुपात्तर पर्वत सीमाके मनु
ष्याणां क्षेत्र, जा० ३ प्रात ४ श्रध । ( मनुष्यक्षेत्र द्वा स-
मुद्रो गत ` समुद् ` शब्द ट्रफ्त्यम )
समयखत्त णं भत ! कवतियं आयामविक्छमश् कवति-
मणुन्मग्वत्त
ये परेक्ठवणं प्त ?। गयमा ! पणयार्ल(सं जोयणसत-
सहस्माई आयामधिक्खं भण एगा जोयणकार्डी ०जाव अ-
ब्भितरपुक्खर5द्धपारिओओ से भाशियव्यों ०जाव अठणपष्म ।
( समयखत्त मित्यादि ) मनुष्यक्षेत्र भदन्त ! कियदायाम- |
॒वष्कमस्भन कयत्पारक्षपण प्रज्नप्म्, भगवानाद-गातम . पश्च-
अनिधानराजन्द्रः)
चत्वा.शद् याजनशतसहस्थाण आयामावष्कमस्भन,एका या- |
जनकारी दवाचन्वारिशत्शनसदस्राणि . त्रिशत् सहस्नाणि दे
योजनशते एकोनपश्चाश किञ्चिदिशेषाधक परित्तेपेण
परज्ञप्तम् |
सम्प्रति नामानिमित्तमभिधित्सुराद-
स केणड्टरणं मंते, ! एवं वृच्चति--माणुसखेत्ते, मा-
णुसखेत्ते ! | गोयमा ! माणुसक्खित्ते ण॑ तिविहा मणु-
स्सा परिवर्सति। तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अं-
तरदीवगा । से तणड्टरणं गोयमा एव वुच्चात--माणुसखत्त |
माणुसखेत्ते ।
( स केणद्रणमित्यादि ) श्रथ कनार्थेन भदन्त ! एवमु- |
च्यत-मनुष्यक्षेत्र मनुध्यक्षत्रामाति ? भगवानाह-गोतम ! मनु
प्यक्षत्र त्रावधाः मनुष्याः परिवसन्ति | तद्यथा-कर्मभूमका |
अकमभूमका अन्न्तरद्यापकाश्व | अन्यच्च मनुष्याणा जन्म-
मरण चात्रव कछंत्र न तदबाहः, तथाह-मन्ष्या मनष्यक्षेत्र-
स्य बाहजन्मता न भूता न भवन्ति न भविष्यान्ति च | त
था याद् नाम कनाचत् दवन दानयनन एवद्याधरस वा पल
चानुबद्धबरानयोतना थमवरूपा चुद्धि क्रयत यथा 5य मन- |
प्या 5स्मात् स्थानादुत्पाम्य मनुष्यक्षत्रस्य बहिः परक्तिप्यतां
यनाद्धशाषं शुष्यति,म्नियते वा इति तथाऽपि लोका 5न॒भाव्रा
दव सा काचनाप वुद्धिभूयः परावत्तते, तथा सदरणमेव
न भवाति, संहृत्य वा भूयः समानयति , तेन सेहरणतो
ऽपि मनुप्यत्तत्राद् बहिमेनुष्याणां मरणमधिरृत्य न भूता |
न भवात न भविष्यन्ति च | येऽपि जङ्ाखारिणा विद्याचा-
रिण वा नन्दीश्वरा ४ ऽदीनपि यावद् गच्छन्ति तेऽपि तच ग- |
नान मरणमश्न॒वन्ते, कि तु मनुप्यत्तत्रमागता पव , लेन |
मानुफात्तरप्वतसो मार मनुष्याणां सवान्ध क्षेत्र मनुष्यक्त- |
अमिति | जी० ३ प्रति० ४ आअधि० २ उ०।
सम्प्रति मनुष्यक्तेत्रततसमस्तचन्दा ऽऽदिसङ्ख्यापरि- |
माणमाह--
मणुस्पलेत्त शं भते ! कह चेदा पभासेंस वा, पभासंति |
वा, पभासिस्मति वा? कड् मूरा तवईसु वा, तवति वा, |
तवरस्मति या? गोयमा !-
‡“ बत्तीमं चेद मयं, बत्तीसं चव ब्वरियाण सयं ।
मयले मणुस्सलोये, चरेति एए पभासेता ॥ १ ॥
णकारम य सहस्मा, छषि य सोला महम्मदाशे तु।
छ मया छष्पउया,णक्त्ता तिणि य ॒सहस्फ |} २ ॥
अडसीह सतसहस्मा, चसालीस हस्म मणुयलोगम्मि।
सत्त.य सता अशूणा, तारागणकोंडिकाडीण ।! ३ ॥ ”
)
हट मणुससखत्त
सामं सोभेसु वा,सो भे सफमन्तिवा,सोमे सो भिस्संति वा।
एसो तारापिंडा, सव्वसमारेण मणुयलोगम्मि ।
बहिया एण ताराओ, जिखहि भिया असंखेज्ञा ॥१।
. एवय तारग्ग, जे भियं माणुसम्मि लोगम्मि |
चारं कलंवुयापु-प्फयीटेयं जोइस चरइ ॥ २ ॥
रविंससिंगहनक्खत्ता, एवया आहिया मणुयले।ए |,
जसि नामायोत्त, न प्रागया पर्णवेहिंति ॥ ३ ॥,
छावट्टी पिडगाई,. चंदाइञ्चा मणुयलोगम्मि |
दो चेदा दो मूरा, हवति एकेकए पिडए ॥ ४ ॥'
छावद्टी पिंडगाई, नक्णत्ताणं तु मणुयल्लोगम्मि |
छप्पन्न॑ नक्खत्ता, य दूति इकिकए पिडए ॥ ५ ॥
वद्र पिडगाईं, महग्गहाणं तु मणुयक्लागम्मि ।
छावत्तर गहसयं, च हइ एकेकए पिडए ॥ ६ ॥
चत्तारि य पंतीओ, चदाइचाण मणुयलोगम्मि ॥
छावद्विय छावद्विय, होई णएकेकिया पती ॥ ७ ॥
दप्पे पंतीच्रा, णक्वत्ताणं तु मणुयलोगम्मि ।
छावद्टी छावड्टी, होड य एकेकिया पती ॥ ८ ॥
छावत्तरं गहाणे, पंतिसयं होड मणुयलेगम्मि ।
छावद्टी छावट्टी, य होति एकेकिया पती ॥ & ॥
ते मरु पडियडंता, पयादिणाऽष्वत्तमंडला सव्वे ।
अणव द्टियजोगेहि, चदा खरा गहगणा य ॥ १० ॥
शक्खत्ततप्रगाणं, अबट्टिता मंडला मुणेयब्वा ।
ते वि य पदाहिशाव--त्तमेव मरुं अणुयरति ॥ ११ ॥४
रयशियरादिणयराणं, उड़े य अहे य संकमों नत्थि ।
= मंडलसंकमणं पुण, अब्भतरबाहिरें तिरिश ॥ १२॥
रयणियरदि णयराणं, णक्लत्ताणं महर्गहाणं च । |
चारविसेसेण भवे, सुहदक्खविही मणुस्साण ॥ १३ ॥
तेभि पविसंताणं, तावक्खेत्त तु वडते शियमा।
तेणेव कमण एणो, परिहायति निक्खमंताणं ॥ १४ ॥
तेपि कलंबुयापु-प्फसंटिता होति तावक्खेत्तपहा ।
श्रता य संकुया बा-हि वित्थडा चेदष्राणं ॥ १५॥
केण वडूति चैदो, परिहांणी केण होति चदस्स ।
कालो वा जोणहा वा, केणऽणुभाविण चदस्स १॥१६॥
किणहं राहुविमार्ण, शिचं चंदेण होइ अव्रिरहियं ।
चउरंगुलमप्पत्तं, हटा चदस्स ते चरति ॥ १७॥
वाटं वार्वाई, दिवसे दिवसे तु सुक्रपक्खस्स ।
जे प्रिवड़ह चदा, खवेति तं चव कालेण ॥ १८ ॥
पणखरसहभागेण य, चंदं एश्णरसमेष तं वरइ ।
पप्परसइभागेण य,एणो वि तं चवऽतिक्रमति ॥ १६ ॥
एवं उति चटो, परिहाणी एव होति चंदस्स ॥
(७४६५)
मणुस्म ग्वत्त
कालों वा जाण्दा वा, तेणउणुभविशण चदस्प ॥ २० ॥
अर मणस्पवेते, हव॑ति चारोबगा य उववण्णा।
पंचविहा जःतियियः, चदा सूरा गहगणा य ॥ २१॥
तण परं ज यपा, चदाइचगहतारणक्यत्ता ।
सत्थ गती णपि चारा, अपबद्विता ते मुणेयव्वा ॥| २२॥
दो चदा इह दवि, चत्तारि य साये लवणतोये ।
धायइसंडे दी, बारस चंदा य सूरा य ॥ २३ ॥
दो दो जंबुरद्दीवे, ससिस॒रा दुगुशिया भवे लवण ।
लावणिगा य तिगुणिगा, ससिसूरा धायईसंड ॥ २४॥
धायइसंडप्पभिई, उदिडतिगुणिता भवे चदा |
अ इल्लचद सहिता, अणतराणंतरे खेत्त ॥ २५॥
रिक्खग्गहतारग्गं, दीवसपुद्दे जहिच्छसे णाउं ।
तस्म ससीहि गुणितं, रिक्खग्गहतारगाणं तु ॥ २६ ॥
चदाता खरस्स य, सूरा चदस्स अतरं होति।
पण्णससहस्स इ, तु जोयणाणं अणूणाई ॥ २७ ॥
सूरस्स य सरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतर होति ।
माणुसनगस्स बहिया, उ जायणाणं सयसहस्स ॥ २८ | |
सरंतरिया चदा, चदतरिया य दिणयरा दित्ता |
चित्ततरलसागा, सुहलसा मदलसा य ॥ २६ ॥
अट्टर्साई च गहा, अड्टावीस च होंति णक्खत्ता।
एगससीपरिवार, एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ ३० ॥
छाव ट्सहस्साई, व चेव सयाइ पंचसयराई ।
एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं ।॥ ३१ ॥
माणुसनगस्स बहिया, तु चदसूराणऽ्वद्रिता जगा |
चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण होंति पूसेहिं॥ ३२ ॥
( सृत्र-१७७ ) जी ० दे ग्रति० ।
(आसां व्याख्या ' जोइसिय ' शब्द् १५६२ पष्ठ गता )
मणुस्सता-मनुष्यता-स्त्री० । मनुष्यभावे , स्था०।
चउहिं ठाणे जीवा मणुस्सताए कम्मं पंगरेंति । तं
जहा--पगइभदयाए, पगतिभमिणीययाए, साणुकरासयाणए,
अमच्छरियाए । ( सूत्र-३७३ )
प्रक्त्या स्वभावेन भद्रकता परानुपतापिता या सा प्र-
कृतिभद्रकता तया सानुक्राशतया-सदयतया मत्सरिकता- |
परगुखासदिष्णुता तत्प्रातिषेधा ऽमत्सरिकता तयति | स्था०
४ ठा० ४ उ०।
मणुस्सलोय-मनुष्यलोक-पुं? । मचुष्यक्तेत्र यावदयं मानु-
चात्तरः पवतस्तावदास्मन्लाक दांत ! अय मनुष्यलाक इ-
ति । जो० ३ प्राति ४ श्राधः । सू०प्र० |
तिहिं ठाणे दर्विदा माणसं लोग हव्वमागच्छति | तं
जहा--अरिदतेहिं. जायमाणेहिं , अ्रिहतिदिं पव्यय-
छ [भधानराजन्द्रः।
मणोदुन्यिा
माणहिं, अरेहंता्ं णाणुप्पायमश्मिसु । एवं सामा श-
। या तायत्तीसगा लोगपाल। देवा अशामहिसीओ दवी-
आओ परिपोववन्नगा देवा अशशीयाहि।ह देवा आयर-
क्या दया मररसं लोग हृज्यमागचब्छंति । ( ग्र
१३४) ॥ 'खा० ३ 57० १ ४० । चउहिं टठा-
सेदि देवदा माणुस लोग हव्यसागच्छेति एवं ज-
हा त्टख ० जाब लोगंतिता दया मसं लम
धृव्यमागच्छज्जा त जहा-अरदहिैं. जाययास ददं
० जवर श्रिता परिशिव्याखम &म.सु । ( सूत्र-२२४ )
| स्था० ४दटा०३३०।
| मणुस्सवग्गुरा-मरष्यवागुरा- ली"
॥ ~अ
मणुस्सरेणि पपरिकम्म-मदुष्यश्रशिकरःपरिकमन्- न” । देर
| ए्रवादस्य परिकमेसूत्रभंद, स० १२ अड्ढ ।
| मरणस्सिद-मनुष्यन्द्र पु? । मनुष्यषु परमश्व त्वात् राजः
नि, ओ०। रा०। “ सरांकुमारों मणु।स्सदः, चक्तवटरा म
हिड्डिओ । पुत्त रज्जे ठवेऊण ,सा वे राया तत्र॒ चर
॥ १॥ ” उत्त> १८ ० । स्था०।
| मणुस्सी- मुपी- खो° । मनुर््याखियाम् . जी ०२ प्रति” ४
अधि० । स्था० ( उत्तरकुःरुमनु जीनां बणकः. ` उत्तरकुरा ”
शब्द ।द्वतायभाग ७५८ पृष्ठ गतः )
| मर् मन् स््ा० । मनुपू वेकाणा वतादयावद्याधराणा प्व
यायाप् , श्रा? च० १ अ० |
। सुगवन्धने , विपा
| मणूस-मनुष्य-पु? । ˆ कगचज०"' ॥८११॥१७७॥ इति यलोपः ।
“ लुप्त-य-र-व-श-ष-सां, श-प-सां दीधः `" #८। ६।४३॥
१ति यलापे उता दीघः | ऋ० १ पाद । मनुज. उत्त० १० श्र.>।
मणूसजक्ख-मनुष्पयक्ष-पुं० । यक्त, भका ६ पद ।
मशे-पणे-श्रव्य० । "भय विम" ॥॥ ८ । २। २०७ ॥ 'सणे
इति विम प्रयोक्कव्यम् । मणे शरः । प्रा० « पाद् |
मणेयय-मनो गत--त्रे° । मनस्येव या गतेः, न बहिर्वच्चने-
न, श्रप्रकाशनात् | भ० २ श> १ उ० | कट्प०.। रा० | मनासि
चर्ताल गन [स्थत मनागतम् । उत्तः, है अ० । मनसि
स्थित , उत्त. श्र०। श्रवटिःप्रश्ठापरित, म० & श
३३ उ० । मनोधिकारे , नि? १ श्रु० ३ वग ४ श्र०। विषा? ।
क्ा० । “ सखोगए सैकष्प खमुपरस्जिः था । ” प्विपा० १ श्रु०
१ श्र० । मनेष्णता मनसः व्यवास्थता ब्रार्शाप च्चस्ा प्र
कारितस्वरूष इत्यथः । श्रा म० ६ श्र ५.।विपा० ।
मणोञ्ज-मनोज्ञ-चि०। “ ज्ञा जः ” ॥=।२।८३॥ इति बः स~
म्बन्धिना अस्य लुग्वा भवति । मेम् । मणाराणे । प्रा० २
पाद् । मनाभ्नुकुल सुन्दर, प्रज्ञा» १ पद ।
मणो5शुकूल- मनेः नुकूरा--त? \ सनसो 5मिलकिसे, बृ० ३ उ० !
नता च । मलरा मनर दु
|
म्ण दरया ९77
( १०० )
सणोादुटिया अमिधानराजन्द्रः ण्ड्ली
खिता दुशशखतात्व दु,खकारेत्ये मनोदुअखता । मान- | दृूएकस्य ”॥=।४।२८५॥ “ ही ही संपन्ना म, मणालधा
जद ख. स्था० ७ ठा० | | पियवयस्सस्स । `` द्रा० ४ पाद ।
मणोत्रेध ए-मनोव्न्धन -त २ । मनत आसक्लिडितों , “ मणा-
वन्ध णगेहि । ” मनोबन्धनानि मज्जुला5एलापस्मिग्धा-
बलोकनाजह्ञप्रकटना 5 एदीनि | यथा--' णाह ! पिय! कंत !
सामिय !, ! जियाओ तम सदह प्रा त्ि। जीए जी-
याम अं , पठवसि ते म सरीरस्स॥ १॥ ” सूत्र० १ श्रु०
४ आ० उ० ।
मणो5 भिराम -मनाउभिराम-जिं० । मनो 5मिविशधिना बहुका-
ले यावद्रमबाति भनो उइभिरामम । मनसश्थिरराचिर, ओ० ।
मणोसिलय-मनःशिलक-एऐु० ।
मणोमाण सिय -मनोमानसिक -ति० । मनामानासिकमिति म- |
नस्येव न वहिवैचनाऽ दिधिः पकाशितत्वाद् यन्मानर्सिकं
दुःखम् । भ० ५ श० । मनस्यव वत्तमान बचसा5प्रकटिते
दु:ख, नि० १ श्रु० { वम £ अ० | ज्ञा० । रा०।
मणोरम-मनोरम- ० । मनोऽन्तःकरणे रमयदीति म-
नारमः। सूत्र० १ श्रु० ६ अ० | मना रमयन्निदशेसानन्तरम-
नुचिन्त्यमानमाह्दादयति मनारमम् । उत्त १६ अ० । म-
ना, उत्त० € आ० | स्था०
पतया रमयतीति मनोरमः । मेरूपवत, सू०प्र० ५ पाहु० ।
चण प्र० | ज०। स० । मनश्चित्त रमत धतिमप्राप्नाति यस्मि
स्तन्मनारम् । मनारमा भिधान मिथिलाचेत्ये , “ मिदि
लाए चइए वच्छ , सीयच्छाए मणोरमे।
उत्त० ६ श्र० । पुरिमतालाभिधनगर खाभिधानके आ-
राम, उत्त० १३ अ० महोरगभदे, प्रज्ञा० १ पद्ध । कि-
श्नरमदे , प्रज्ञा० १ पद । ख्चकनामकद्वीपदव , सू० प्र०
१६ पाहु० । द्वी० । तृनीयत्रवयकविमान, न० ! प्रव० १६४
द्वार | अप्रमदखलाकन्द्रस्थ पारियानिके विमान, ज० ५
वत्त० । श्रो० । पक्तस्य द्वितीयदिवसे, कट्प० १ अधि०
६ क्षण | स्था० । चण प्र० । दक्तिणपूर्वस्थ रातिकरपवै-
तस्यात्तरस्यां दिशि शक्रा5ग्रमहिप्या अह्जकाया राजधा-
न्याम् , जी० ३ प्रति ४ अधि० । म्था० । ऋषभदेवस्य
निष्क्मणांशविक्रायाम् , स० । “ ताति देवार्ण अदृरसामंते
द्विया ताई उपाजाई० जाव मएरमाई उत्तरवेउव्वियाई रू-
चाई उबदे नमाण उददेलमाणे उवाचट्र/त । ` मनः स्वस्वा-
प॒भाग्यदवसम्बन्धि रमयन्ति प्रतित्तणमुननरात्तरानुरागसे- |
पृक्ते जनयन्तीति मनाग्माणि । प्रज्ञा० ४४ पद |
मणःरह-मण।रथ- प° | कथामद प्राप्यतत्यव मना 3भलाष
संथा० | आ० | नालन्दासमीपे स्वनामस्यात उद्यान, यज ना-
लन्दी यमध्ययने भगवता प्रन्नमम | स॒त्र० २ श्रु० श्र०। श्रा०
म० {` अवी ` शब्द प्रथमभाग २५७ पृष उद्ाहन गतांस-
मोपव्राह्मण, श्रा० च० १ श्र० | श्राचा०। ` मणारहसपत्ति-
जाया । कल्प० ? आध० ५ स्षण।
। मनांसि देवानामप्यतिसुरू-
दति मूलम् ।
उदकसीमावासि्नि वलन्ध-
रनागराज , जी० ३ प्रति० ४ अधि० । स्था०।
मणासिला-मनः शिक्षा -र्त० । प्रथ्वीविकारभद, उत्त० ३६
अ० । प्रज्ञा० चा सृत्र० । मनःशलस्य वलम्धरना-
रराजस्याऽऽवासयचत उदकसीमनामक स्थितायां राज-
धान्याम् , जी० ३ प्राति० ४ अधि० ।
मणोसिलासमुग्ग-मन/शिलासमुहक-ऐ_;ँ० । मनःशिला 55-
धारविशषे, जो० ३ प्राति० आध ।
मणोसुहया-मनःशुमता--ख्री ० । मनसः शुभता मनःशुभता,
साऽपि साता5नुभावकार णत्थात्सातानुभाव उच्यत इति ।
सातवेदनीयकमणो ऽनुभावे, स्था० ७ ठा० |
मणोसुहिया-मनःसुसिता-खरी” । मनसि खसे यस्याऽसा
मनःसरखस्तस्य भावा मनःसुखिता । सुखितमनसि, प्रज्ञा०
२३ पद ।
मणोहर-मनोहर-पु° । मनश्चित्तं दरति टष्टमात्रमाक्तिपति
मनादरम् । उत्त० १६ अ० । जं० । नि० चू० । जा०। स्था०।
मनो हरतीति मनोहरम् । “ लिहा 5 ऽदिभ्यः ” ॥ ५।१।५०॥
इत्यचप्रत्ययः । ने० । आ० म० । रा० । उत्त० । मनानिवृति-
करे,चित्ता 5 5हादके, कल्प० ३ अधि० १ क्षण । प्रज्ञा०। आ-
म० । लोकात्तररीत्या तृतीयदिवसे.चं० प्र १० पाहु० १४
प्राहु० पाहु० । कट्प० \ ज० ।
मणोाहरी-मनोहरी-खी° । अ्रपरविदेदे सलिलावतीविजये
ब्रीतशोकानगरी राजज़ितशत्रोभौयौयां तञ्चत्यबलदेवमातरि,
आ० चू० १६ आअ० । “ पसि चउवीसाप तित्थकराण
चउर्व्वासं सीयाओ होत्था । ” ताखका मनोहरी । स० । .
मणोहुआस-मनोहुताश-पुं०। मन एवं दुःखकारणत्वाद् हु-
ताशा मनाहुताशः । चित्ताग्नी, आव० ४ अ० ।
मणत्- मन्यमान-ति° । जानातत, त० ।
मणठ-देशी-शठठे, बन्ध इति केचित् । दे० ना० ६ षग १११
गाथा।
| मण्डल-देशी- शुनि, दे० ना? ६ वग ११४ गाथा ।
मरण।रुइ-मनोरूचि- धि० । मनला रूचिनपिल्य यस्य स म--
न(रुचिः। नि्भलचित्ते, ' मणासर चिद्रइ कमासयद्ना |” मनः
स्त्री रचिनेंमेल्य यस्य स मनारुचिः निम नचित्तः। श्रथवा-प्र-
नता शुतश्चिसस्य रुचिघ्रस्य स मनारुचिः। उन० ५ श्च० ।
मखालथु -मन।(रथ पु" | मनःकामनायाम् , "दी दी षि-
मएडसी- मण्डली(-खी० । श्रनेकविधमणडन्याम् , सेन० ।
““सृत्ते अत्थे भोअणे , काले आवस्सए श्र सज्भाए।
संधारणए वि अ जज सत्तेया हुंति मंडलिओ ॥ १॥ ""
पताद्राथाङ्गसप्तमरडलीसत्या पनस्थानकानि कानि; भवन्ती-
ति प्रश्न, उत्तरम् प्रातः स्वाध्यायकरणे सूत्रमणडली १, व्या-
ख्यानम्रधपारूषी वाऽ्थमणडली २,भो जनमरणडुली प्रतीता ३,का-.
लप्रवदून कालमणडली४,उभयकालप्रतिक्रमणमाघश्यकमण्ड-
ली५,स्वाध्यायप्रस्थापन स्वाध्यायमराडली ६,संस्तारकविधि-
भरने सस्तारकमण्डली ज्ञायते७। कि च-वृतीयग्रहरप्रतिलेख- `
नादशमागणभर्डली प्रर्नोत्तरसमुखयवचनादावश्यकसरड-
ल्यन्तभूतेति बाध्य । ८६ प्र० । सन ० २ उज्ञा०।
( १०६)
मण्डी अभिधानराज-द्रः मत्तग
मण्डी दशो-पिधानिकायाम् , दे० ना० ६ वग १११ गाथा । भत्तग-मत्तक-पुं० | भागिनय.बृ० ४ उ० । ` मत्तं वा ।` आचा०
मपमाण- मन्यमान तरि०। जानति, श्रभ्यवस्यति, सूत्र० ६ र श्रु० { चु०१ आअ० ६ उ० |
त्रक-न० । उच्चा रा 5 ऽदिसन्क कषुन्लमाजन, ठय = उ०। प० ब०।
श्रु० १ अ० ३ उ० | आचा०। मात्रक ॥ { चुल्लभा ०।प०व
माप(-मति -खी० । मनने, स्था० । सूत्र० । परः प्ररयाति- ननु तीश्रकेरस्तावन्मात्रकं नानु लात,
एगा मना । कथामिति ? चत् . उच्यत-- `
प्राकृतत्वाद् मनने मतिः,कथञ्चिदथपरिच्छित्तावपि सृच्मधः दवे एगं पायं, भणिश्रं तरुणो य एगपाना उ ।
मा ‡ ऽलोचनरूपा वद्धिरिति यावत् । आलोचनमिति केचित्। अप्पोवही पसत्थो, चोएड न मत्तओं तम्हा | ३७५ ॥
अथवा-' मन्ना मन्नियव्वे।' अभ्युपगम इत्यथः । सूजद्वय ˆ उपकरणदरत्यावमोदरिकायामकं पात्रमुक्रम् | तथा चा 5 5ग-
सामान्यत वक् था ११" स मः-" एग वत्थे एग पाए वियत्तोवगरणे साइज़इ |” तथा
म।भिय- मानित तरि” । पृजित, जी० १ प्रति० । यो भिचुस्तख्णो युगवान् स एक़पात्रो भवत् | तथा चाऽ
मपि मन्पे अव्य० । वितर्के, नि० ९ श्रु० ३ वर्ग ४ अ०। चारसूत्रम्--“" जे भक्ू तरुणे जुगवं बलव स एग पाय
« कि मरे कल्ञइ ?। ” मन्ये निपाता वितर्काथः | क्रियते भ~ धारेज्जा । ” अल्पोपधिश्न प्रशस्तः । तथा च दशवैकालिक-
0 सूत्रम्--* अप्पोवर्ही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इस्ि-
~ रो पसत्था । यत एवमतो न मात्रकं ग्रहीतव्यं, गाथा-
- मृत्स्ना -स्त्री ० । स्त्तिकायाम् , अष्ट० ७ अष्ट० । 9 त 58५6
मएहा-हत् हि १५ | या पुस्त्व प्राकृत्वादिति परः प्रयति ।
मतन-मदन- पं । “ तदोस्तः ” ॥ ८। ४।३०७ ॥ पेशाच्यां अ
तक्रारदकारयोस्तो भवति । मतन इति । प्रा० ४ पाद । / चू- | जिणकप्पे य॑ सुत्त, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एमं ।
लिकापैशाचिके तृतीयतुयैयोराद्यद्ितीयो ' ॥ ८। ४। ३२५॥ 9 8 न 0
इति दस्य तः | मदनः । मतनः। कामदेवे, प्रा० ४ पाद् । नयमा राण पणा, वातजञआ मत्तओ हाई ॥२७६॥
मतिमं-मतिमत्-पु” । मनुते ऽवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयो- , हे नोदक ! यदेकपात्राऽ ऽदिप्रतिपादकं सूत्र तज्जिनकल्प-
४५ ध निगल स्व पति विषयं मन्तव्यम् । तथाहि-यः सप्रतिग्रहों जिनकल्पिकः त-
धा फंललशाना 55 स्या सति वति | स्थविराणां पुननि
मान् । केवलिनि, सूत्र० १ 2 १ 20:60 | यमात् द्वतीय मात्रकं . भवति * एकं पाये जिणक-प्पि-
मतुय-देशी । मत्वर्थीय, उक्त च-- मंतुयत्थम्मि मुणेजह , याणा थराण मत्तओ बीओ । `` इति वचनात् ।
आलइल्ल मणं च मतुय च । "` श्राव० ४ श्र०। चो विस र हट
मत्त-मत्त-त्रि० | सुरा55दव्मिद्वति, उपा० ८ अ० । आचा० | नणु दव्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसओ दमत्तो वि।
~ = ह हा
मद्कलिते,जी० ३ प्रति १ अधि० १ उ०। प्रीतमाद्रा55दों, अप्पावहा दुपत्ता, जण तिप्पाभेति बहसद्ो ॥२७७॥
पिं० | मदिरामदभाविते, बृ० १ उ० ३ प्रक०। ज्ञा० । दत, यच्च द्रव्यावमौद्रिकायामेक॑ पाजमुक्क तत्र दया
कप अल पात्रयाद्वारण , ननु द्रव्यावमादरिका कि न भव-
अमत्र न०। भाजनविशेषे, भ० ८ श० ६ उ०। ति ?.। त्रिप्रश्नतीनामग्रहगात् भवत्यवति भावः | य-
खाभिहितम--'' ज भिक्खू तरुण ` इत्यादि | तक्र
मात्र-न०। कांस्यभाजनाऽऽद्युप्रकरणमात्राया श्राधारविशेष,
याद सवणापि साधुनकमव पात्रकं धारयितव्यम् , तत
अनु० । भाजने, आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ७ उ० | सृत्र०। । कि तरुणा55दिभिर्विशषणशमिहितेः ? श्रता ज्ञायत तरूणा
भाजनापकरणे, स्था० ३ ठा० १३० । कांस्यभाजने, भ० ५ दावशपषतोऽभिधानाद् माघ्रकमपि सामर्थ्यादनज्ञातम । यद
श० ७ उ०। मदने, स्था० १० ठा० । मत्तमहमिव गुलगु- पि “ अप्पावही `` इत्यादि अभिहितं, तत्र च द्विपात्रः पा
लिते । ` उप्रा० २ श्र०। ¢ च्रह्वयापतः श्रल्पापाघरव भवात, यताखप्रभ्ानिप्वव पदा-
मत्तगय- मत्ताङ्गक-पु० । मत्तं-मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह षु बहुशब्दा वततत, श्रता प्रहीतव्य मात्रकम् ।
मत्तशब्देनोच्यते, तस्याङ्गभूताः-कारणभ्रताः तदेव श्रवयवो _ श्रथ न गृहाति तत इम दाषाः--
यषा ते मत्ताङ्गकाः । खुखपेयमद्यदायिषु कल्पवृत्तेषु, सथा० ७. अग्गहण वारत्तग, पमाणहाणों वि साहि अजवाए ।
ठा० । जे०१ रा० । स०। परिभागग्गहणविति-यपयलक्खणाह मुहं जाव ॥३७८॥
मन्ताङ्गद् पुं । मत्तं मवस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरा, तहृदाती- मात्रकस्या ग्रहण दाषा वक्तव्याः, वारलगरृष्रान्नश्चात्र भव.
ति मत्ताङ्गदः। प्रव० १७१ द्वार । स्था०। मन्तगपसु मज्ञे। ति.प्रमाणहीनाधिकप्रमाण च वाषाः ,शाधिमीजकरपरिभागे श्रा.
तं०। तत्र मक्ताड़दानां फलानि विशिष्टानि विशिष्टबलवीर्य- | याश्विक्षम अपघादों ही नाधिकधार णलज्षणः, परिभागः कारणो
कान्तिहेतुविख्रसार्परिणतरससुर्गान्धविविधपरिपाका $ 5 5--._ मात्रकस्य यथाऽ मिधीयते । ग्रहणद्वितीयपदलख्तणा5 5ढीनि
गतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि स्फुटित्वा स्फुटित्या मद्य मन्तीति मुस यायत् यानि प्रातिग्रहद्धारागयाभहितानि तदतत्सवं व~
त च वृत्ता विमलवाहनकुलकरकाल व्युच्चिश्नाः । च्रा० म० क्रव्यामति द्वारगाथासड़्क्तपार्थ: |
१ श्र०। श्रथेनामेव विवरीचुराह--
मत्तंड- मात्तण्ड- पुं । सयं, पति० | दे० ना०। मत्तं अगण्दणं गुरुगा, मिच्छ्न अप्पपरपरिचाओं |
२६
( १०९ )
_मत्तग |
संसत्तर्गहणम्मी, संजमदोसा सवित्थारा ॥ ३७६ ॥
सात्रक याद न गरृह्धात ततश्चतुगुरुका प य आमभनवश्राद्धा-
अ! भध्रानराजन्द्रः |
स्ते तनव प्रातग्रहण भाजन पुनानलपन च कुवाण रष्टा द- |
दृष्टथमाणा5मीति मिथ्यात्वं गच्छेयुः | यदि प्रतिग्रह आचा-
या55दीनामथाय गृह्णाति, ततश्चा 5 5त्मपारित्याग:, अथा 5 ५-
त्मना यह्माति ततः परषामाचायो 5 ऽदीनां परित्यागः कृता भ
वात | सस्क्क भक्क पान वा प्रत्युपाक्तत याद प्रातग्रह ग्रह्मा-
ति । ततः सयमदाषाः सावस्तराः छुक्काय चउसु लहुगा
श्त्याद वस्तरसाहेता वक्कव्याः ।
अथ वागत्तगरष्टान्तमाह--
वारज्नग पव्वजा, पुत्तो तप्पडिम देव बलि साहू।
परियरणेगपडिग्गह, आतमणुव्वालणा छेओ ॥३८०॥
^ बारत्तगपुरं नगरं, तत्थ अभयसेणों राया, तस्स श्रमच्चो
वारत्तगा नाम, सा पत्तगवुद्धा, घरसार पुत्तस्स दाउ नास
रिय पत्वद्श्रो, तस्स पुत्तण परउमत्ताए दवकुल कारत्ता |
रयहरणमुहपाज्तियपडिमा ठविया, तत्थ य सत्तागारो पव-
ज्षिआ, तत्थ य एगो साह एगपडिग्गहधारी पडिग्गहए भि-
क्ष घ्रत्तं ते भोक्त तत्थेव पडिग्गहे पुणा पाणगे घत्तु सन्न
चोसरिउ तेणव पडियरिश्रा दिद्धा, तेहि निचछूढो, तस्स अ-
न्नसिच साहणं वोच्छुश्रा तत्थ जाश्रो।
थेः-वा ग्त्रकण प्रश्नज्यायां ग्रहीतायां पुत्रस्तस्य वारत्रकस्य प्र-
अश्र गाथा-+त्तरा- |
तिमां देवकुले ऽचीकरत् । तत्र च वली प्रवर्तिता, साधुञ्चे- ¦
करन प्रतिग्रहेण भित्ताथमायात्, प्रतिचरणे च कुवौणस्तनेव
प्रतिग्रदेणाचमने निर्लेपन कुवौण दृष्टा तस्योद्धालना-निष्का-
शना कृता, तस्यान्यषां च साधनां व्यवच्छेदः कृतः । एवे मा-
श्रकस्याऽग्रदणे उड्डाहो भवेत् ।
अथ प्रमाणदारपाह--
जो मागहओ। पत्थो, सविमेसतरं तु मत्तगपमाणं ।
दोसु वि दव्वग्गहणं, वामावासासु अहिगारो ॥३८१॥
या मागधदशोद्धवः प्रस्थः दा असईआओ पसई,
दो पसईओ |
य सदया हाड, चउसेदयादि पत्थो ।' इति क्रमनिष्पन्नस्ततो `
मागधप्रस्थात् सविशषतरं मात्रकप्रमाणे भवति । तन चमा
त्रकणा द्वयारपि ऋतुबद्धवर्धावासयों गुरूग्लाना $ऽदियोग्यभ- |
क्रपानद्रत्यस्य ग्रहगो क्रियन । अन्य तु वक्ते ( दोखु वि
लि) प्रतिग्रह भक्त. मात्रक पानकं ग्रह्मत । वर्पावासे तु विशे
घता मा्रकणाधकारः, यता वपासु प्रथममेव यत्र धर्मला-
मयति तत्र पानकं ग्रह्मति । यतः कदाचित् वर्ष नि- |
पतन्. यन ग्रहाद् गै चरितुं न शक्यते, ततः पानकेन
विना प्रतिग्रहा लपङ्ना भवति । अथवा--व्षावासे
भक्त. पाने समस्यत इति कृत्वा मात्रकण तस्य शाधनं
कायम । र
प्रकारान्तेरण मात्रकप्रमाणमाह--
सुक्कल्श्राद णस्म, दुगाउअद्भाणमागओ साहू |
भजति एगद्राणे, एवं खलु मत्तगपमाणं ॥ ३८२ ॥
शुप्कादनस्यान्यभाजनग्रहीतन तीमननाद्रस्य भरतं यदेक- |
स्थान एकवारे द्विगव्युतमात्रादध्वन आगतः साधुभुङ्क्घ,
पतन् खलु मात्रकप्रमाएं मन्तम्
|
यदि वा--
भत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भारिओ ।
पज्ता साहुस्स उ,वितियं पि य मत्तयपमाणं ॥३८३॥
भक्कस्य वा पानस्य वा च्रनयारेकतरस्य यद् भरतं सदेकस्य
साधाः पयाप्त भवति, एतत् द्वितीयमपि मात्रकपरमाणमवग-
न्तव्यम् ।
अथ हीनद्वारमाह--
उहरस्समे दासा, ओभायणे ` खिसणा गलते य ।
दप विराहणा भा-णभेद) ज॑ वा गिलाणस्स ॥३८४॥
डहरस्य-यथोक्कपमाणाल्ञघुतरस्य मावकस्येमे दोषाः । लद्य-
था--श्रपश्राजना तल्लघुतरं मात्रकमतीव श्ियमाण ष्टा
लोको बूयातू--अहो अमी बुमुक्तादुःखभग्नाः प्रव्रजन्ति ।
अथवा-भक्लपानं परिगलद्विलोक्य अहो अमी च सन्तुष्टा एवं
सिच्यमाना अपि न गणयन्तीति खिसां कुर्यात् । अतिमकश्रत
च गलति षट्कायानां विराधना, श्रथ परिगलनभयात्तत्र-
वोपयोगं ददाति ततः स्थाप्या ऽ ऽदो प्रस्खलनस्य माजनभदो
भवत् । यद्वा-ग्लानस्योपलक्तणत्वाद् बालब्द्धा ऽऽदीनां च तेन
डहरमाजत्रकेणापर्याप्त भवति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ।
तथा--
पडणं पावते से, पुदवीतसपाणतरुगणादीणं ।
अ्रणिज्ञते गामं-तराउ गलणे य छकाया ॥ ३८५ ॥
डहरमात्रके आकरटभ्रेत लपरङूतीकारणतया ऽपावृते उ-
दारिते पृथिवीरजख्रसध्राणितसरुगणा ऽ ध्दीनां पतने भवेत् ।
अथवा-ग्रामान्तरादतिप्रभूत तस्मिन्नानीयमाने परिगलति ष-
टाया विराध्यन्ते। ४
अथा ५धिकद्धारमाह--
अहियस्स इमे दोसा, एगयरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि ।
सहसा मत्तगभरणे, भारादिविगिचणियमादी ॥३८६॥
प्रमाणाधिकस्य मात्रकस्य इमे दोषाः--एकतरस्य भक्क-
स्यवा पानकस्य वा प्रतिग्रहे भृते सति पश्चान्मात्रके
ग्रहणो कुयीत्, सहसरा वा तस्य मात्रस्य भरणे कृते भारेण
स्थाणुकरट का ऽ ऽदीनि न प्रत्तत, तत्रा55त्माविराधना । ई्या-
या श्रशोधने संयमाविराधना । अन्यश्व-द्धयोरपि प्रतिग्रहमा-
त्रकयो भृतयोर्विवेचने च पारिष्ठापनं भवेत् । तत्र षट्कायविरा-
घना । श्रथ न परिष्ठापयाति, ततो ऽतिप्रचुरेण भत्तितेन ग्ला-
नत्वे भवेत्, यत एवमादयो दोषा अतः प्रमाणयुक्क॑ ग्र-
हीतव्यम् । ध
श्रथ शोधिद्वारमाह--
जई भोयणमावहती, दिवसेणं तत्तिया चउम्मासा |
दिवसे दिवसे तस्स उ,वितिएशाऽऽरोवणा भणिया।३८७)
यति-खावतो वारान् एकदिवसेन मात्रकं भोजने भक्कपा-
नमात्मनो योग्यमावहाति, आनयतीत्यर्थः। तावन्ति चतुलै
घूनि। श्रथ दिवसे दिवसे मारकं परिभुङ््केःततो द्वितीयप्राय-
श्ित्तेना ‡ऽरोपणा भणिता । किमुक्ल भवति ?-दवितीये दिवसे
मात्रकं यावतो वारान् परिमुङक्रे, तावन्ति चतुगुरुकाणि, एवं
तृतीये पडलघु, चतुर्थ षड्गुरु, पञ्चमे केदः, ष्ठे मूल, स-
घम श्रनवस्थाण्यम्, शरणम पाराल्चिकम्। गतं शोधद्वारम् ।
( १०३ )
मत्तग
अथा<5पवादद्वारमाह---
अणे गारवे लुद्धे, असंपरत्ताएँ जाणणए ।
अआभध्ानराजन्द्रः।
लहुगो लहुगा गुरुगा,चउत्थो सुद्धो उ जाणग्रो ॥३८८॥
इयं यथा प्रतिग्रहे तथा मात्रकेऽपि वक्तव्या ।
परिभोगद्वारमाद-
वाले वुड्डे सेहे, अयारेयागिलाणखमगपाहुणणए ।
दुल्लभसंसत्तअसं-थरंतअद्भाणकप्पम्मि || ३८६ ॥
बालस्य बुद्ध स्य शेत्तस्य श्राचार्यस्य ग्लानस्य त्षपकस्य
्ाघूणकस्य च प्रायोग्यं मारके गृह्यते । यद्वा-बाल-
ब्रृद्धाऽऽदयः प्रतिगृहं दिर्डापयितु न शक्नुवान्ति , |
तस्ते मात्रके भक्तमानयेयुः , भुज्लीरन् वा, गउचछसा-
महवया
मच्ता-अव्य० । ज्ञात्वत्यथ , सूत्र० १ श्रु० २ श्र० २उ० |
` एत्र मत्ता अखुत्तर धम्मामण |`
२ उ०।
मत्तिया-मृत्तिका-ख्री° ॥ पृथ्वीकाये, प्रज्ञा० १ पद | दश
सूत्र ० है श्र ०२ अण०
। मत्तियावई- मृत्तिकावती-ख्री० । दशारदेशराजधान्याम् ,प्र-
धारणे वा दुलेभद्रव्यं घृता55दिकं मात्रके ग्रह्ीयात्। यत्र |
वा भक्कपानं संसज्यते तत्र॒ मात्रके गृह्यते , तद्धि ससङ्घ |
मात्रके शोधयित्वा प्रतिग्रहे प्रक्षिप्पते । अवमराजद्वेषा-
-5ऽदिषु चासस्तरणे प्रतिग्रहे भरेत अन्यस्मिन् लभ्यमाने
मारके गद्यते । श्रध्वनि कट्पो ऽध्वकल्पः, कट्पग्रहण का-
रणे विधिना अध्वाप्रतिपन्न इति ख्यापनार्थ, तत्रासस्तरणे
प्रतिग्रहे भते सति मात्रकंऽपि गृह्यते । श्रथ ग्रहणद्विती- |
यपदद्वारद्धयेन ग्रहणे नाम को मात्रकं गृह्णाति, तत्र निवचनं
यथाप्रतिग्रहे द्वितीयपदे पुनर शिवा ऽऽदिभिः कारणेय॑ंथाकू- |
| मदणसलागा-मदनशलाका- खी० । सारिकायाम् . जी” हे
दपपरिकमेवहु परिकर्मणी ग्रहीतव्य, लक्षणा ऽऽदीनि द्वाराणि |
तमात्रकस्य यत्र सभवस्तत्र गन्तुमशक्कः स्वस्थान पवा
प्रतिग्रहे इव मन्तव्यानि ।
अल्पपरिकमेणि सपरिक्मणि च पात्र लपप्रदान सभव-
ति, अतस्तद्विषयं विधिमाद-
हरिए बीए बले जुन्ने, वत्थे खाणेजतद्िए ।
पुटवीसंपातिमासामा, महॉवाए महियामिते ॥ ३६० ॥ |
पुव्वण्े लेवदाणं, लवग्गहर तु सवरं काउ ।
गाथाद्रयमपि पीठिकायां सप्रपञ्चे व्याख्यातामिति । बृ० हे
उ० । श्रो० । विशे० । सूत्र० | व्य०। नि० चू० | आ० म० । |
कटप० ।
मत्तगय-मत्तगज- पुं० । उन्मत्तमतङ्गजे, तै०। “मत्तगयमद्रमु- |
हागिइसमाणा । ” मत्ता यो गजस्तस्य महदतिविशाल य-
न्मुख तस्या ऽ$रङूतिराकारस्तत्समानास्तत्सदृशाः । जी० ३
प्रति० ४ श्रध०।
मात्रगत-तरि० । पात्रगते, भाजनस्थिते, पञ्चा० १३ विव०। |
मत्तजला-मत्तजला-खो० । जम्बूद्ीपे मन्दरस्य पूर्व शी-
ताया महानद्या दक्षिणकूले वत्सावताविजये ऽन्तनंचयाम् ,
ज० ४ वत्त० ।
दो मत्तजला । स्था० २ ठा० ३ उ०।
मत्तली-देशी- बलात्कारे, दे० ना० ६ वश ११३ गाथा ।
मत्ता-मात्रा-खी० ० मर्यादायाम् , उक्त० ६ अ० । अश,
विशे० । ब्ववच्छेदे, आव० ४ अ० । परिच्छेदे, स्थ्य०
ठा० १ उ० । नि० च० । अल्पे, पाण ना० १६४ गाथा ।
झञ्ञा० १ पद्।
| मत्तुआ-देशी--लज्जायाम् दे० ना० ६ वरी ११६ गाथा ।
मत्थगोवहाण मस्तकेपधान-न० । शाषोंपवर्हण , जी०
१ प्रति० ।
मत्थय-मस्तक-न० । शिरसि, नं०। आ० म० १ अ० ।
मत्थयसल-मस्तकशूल- न०। मुद्ध श्ल, ज्ञा० १ श्रु० १३ अ० ।
मत्थुलिंग-मस्तुलिंग-न० । मस्तकस्नहे, तं० । “* मत्थुलिड्ले-
ति। ” मस्तकभेजकम् । अन्य त्वाहुः- मेदः पिप्फिसा 5 ४दि
मस्तुललिङ्गमिति । तं० । प्रश्न० । भ० । स्था०।
मद्-मद-पुं० | माने, श्राव० श्र ० । मनस उन्मादे. अष्ट०
२६ श्रष्० । हथष्मात्रे, भ० १२ श० ५ उ० । श्रव
लेपे, नं० । मदोदयादात्मोत्कर्षपरिणामे , , आ० चू० ४
अ० | स०।
प्रति० ४ अधि० । प्रज्ञा० ।*
मदणा-मदना-
ग्रमदिप्याम् , स्था० १ ठा०। सोमाग्रमाहप्याम् . भ० १० श०
४ उ० । वल्वैराचनन्द्रस्याग्रमदिष्यां च । स्था० ४ ठा० १
उ० | भ०।
मदणिज्ञ मदनीय-त्रि० । मदनादयकारराण-.स्था० £ ठा2 )
ख्रा० । शक्रस्य दवन्द्रस्य स्वनामख्यातायाम-
| महश-मदंन-न० । परिमन्थन, विशे० । श्रा” । न” चू० ।
लेवस्स आणणा लि पणा य जतणा य कायव्वा॥२६१॥ |
स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र छुदमस्थविहारेण विहरन् वीरजिनो
यक्तदेवा 5 5यतने प्रतिमया स्थिता गोशालकश्च कदर्थितः `
श्रा० म० १ अ० | श्रा० चू० ।
मदल-मर्दल-पुं० । मुरजे, रा० । गृदके ,
अ० | जी० | मदले, स्था० ७ ठा०। महाप्रमाण मुरज, श्रा
रा० । आाण०्म० १
म० १ अ० | आ० | ने० श्रा० चू० ।
महव-मादव-न० । ख दुरस्तन्धस्तस्य भाव कम था मादे--
वम्। नीचेवृत्तो श्रयुत्सक, प्रव० ६८ द्वार । मानपारत्याग
आव० ४ अ०। स्था०। जात्यादिभावे5पि मानत्याग, दश० १०
` छ ! स्था०। ज०। पा०। मौनपरिहारे , उत्त०२६ श्र ।
रा० । मानोदयनिरोधे , , ओ० । मानाभाव, कस्प० १ श्राध० £
क्षण । स्था० । श्राव० । प्रश्न०। श्रनङ्गविजय, भ० १ श० ६
उ०। माननिग्रहे, शा० १ श्र० ९ अ० । श्रा० । श्रा० चू० ।
स० । मानस्तब्धतापरित्यागे, आचा० ९ श्रु० ६ अ० ४
उ०। स॒०
~ मदवजुत्तया- मादैवयुक्तता खरी ।. खदुस्पशं्वे, बृ० रे उ०।
महबया- द्धी ० । मादुब-न० | मानपरद्धार. उच 5६ अथ ।
है
मदवपा
मादवफल प्रश्नपृवकमाह-मार्दबे हि मानत्यागरूप .
तन्नु नयस्य कारणे, धम हि विनयस्य प्राधान्यम्+-
महवयाए शं भत! जीवे कि जगयह ?। मदवयाए शं
जाव अगुाम्सयत्त जणयह अणुस्मयत्तग जीव मिउ-
महवसपन्न अद्ठ मयद्राणाह निद्र ॥ ४६ ॥
है स्व्रासन ¦ मादवबन कामलपरिगामन जीवः कि जन-
यान 2 शुरूुराह--ह शिष्य ! माईदवेन मरानपरि हारण जीव
अनुत्खतन्वस् अनहडगकारित्वप् अहड्जागभाव॑ जनयति
अनुस्सतत्वन-अहऊक्ारा 3भावन जीवा सदुः कोमलः स-
ऋकलभ्रव्य-ज्ननमन सन्तायहतन्वात खता भावतश्चव सर
लाउवनमनशा लः, दाभावो' मादव, खदसुणमार्दबगणयों-
रय भदः-अवसर अवनमने-सदुगुणः , यत्सवंदा कामल
व्वभवन तन् मादेवम् । यद्रा-- कायन मानत्यागो सद॒गुण
मनसा म्रानपारहारो माय, ताभ्यां सम्पन्ना भवात सय
का सनात. ताडशः सन् अष्टो मदस्थानानि निष्ठापयति ज्ञप
यति ॥ ४६ ॥ उक्त० २६ अ०।
महवसपप्म-मादेवसम्पन्न- त्रि० | अन्तःकरगतो : पि कोमल-
तायुक्र, उन” २६ अ० ।
हक ; -= = --
मदाव्रस -मादव न” । सदुभाच. सर्वत्र पश्रयवच्व, विनघ्रता-
ग्राम् . यत्र^ * श्र० २ अ०।
साट विक्र पु” | साईवसस्तव्धता तद् विद्यते यस्य स मार्दवि-
कः | ० र् उ० २ प्रक० । स्तन्धताविकल, बृ० ४ उ०। अ-
सानिनि, पं० भा० हे कल्प | पं० चु० |
मादवित-त्रि० । संजात॑ मारदबमस्यति तारकादिदशना$५-
दितचप्रत्ययः | मादवापत, ब्य० १ उ०।
महत्रिया-प्राद विता-स्घो० । सज्ञातमार्दवतायाम् , व्य०५उ०।
मादिअ-मर्दिंत त्रि० | निईदलिते, पाइ० ना० २०६ गाथा० ।
सई माद्र -क्ली० ! वसुदेवस्यान॒ुजायां भगिन्याम् . अन्त० १
श्रु १ थर्ग० य । शिशुपालमातरि , सूत्र० शरु ० शश०
2 ॥
मटग-मदगु पु । जलवायस, भ० ७ श० ६ उ० । ग्राहभदे,
जा० > धान० ।
मधु-मधु- म्य. प्रक्ष०/५ सव्र द्वार । प्रज्ञा० ।
मधुपर मधुपुर न स्वनामरयात पुरे, मथुरायां चित्रकर-
युजा कथा कथयिनुमारभ-मधुपुर वरुणश्रेष्ठी एककरप्रमारों
देखकुलमकागयने | उत्त £ झर०।
मधुगईइ-मधुमती '-खरी० । पुरीमदे, ती० १ कल्प।
मधुर -मधुर-त्रि० । रसनाखुखावह, जि० चू० १ उ०। श्रवण-
सुखकर
मधुरगतणफल-मधुरकतणफल - न° । मधुर तृणनरडल,
स मधुरगतणफलाणि |” ज्यो० २ पाहु० ।
9 स०।
मधुरोदग-मधूर|दक-त? ! मधुर पानके, नि” च~ १ उ०।
४६ च-
है -.+ 4
चअ[भव्रानराजन्द्रः।
मधूला -मधूला खी” । पादगण्ड, बृ० ३ उ० | नि० चू० ।
मन्तु-मन्यु-पु० । "` मन्यो न्तो वा” ॥८।२।४४॥ मन्युशब्दे सयु
क्स्य न्ता वा भवान्ति । मन्तू । मन्नू । कोधे, प्रा० पाद् ।
मन्थर--द्शा-बहुकुसुम्भकुटलेषु, दे० ना० ६ वर्ग १४५
गाथा ।
मन्धाञ्च-च्राच, देशी-दे° ना० ६ वर्गं ११६ गाधा।
मन्नल्ली-देशी-सारिकायाम् , द० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा ।
मन्भ--मभ्र--धा०। गत्यथ, आचा० २ श्रु० १ ०३ अ० १ उ०।
मब्भीसा-मा भेर्षीः-क्रियापदम् । मा भा रित्यस्य मन्भीसेति
स्त्रीलिज्ञम । ˆ सत्थावत्थहं आलवणु, साहुवबि लोड करेइ ।
आदन्नह मव्भीसडी, जो सज्णु सा ॥” प्रा० ४ पाद् ।
मम--अरस्मद--पञम्यकवचनम् । `` मे मइ मम मह मह मञ्ज
मज़्भम अम्ह अम्ह डझसा (॥८। ३। ११३॥ इति ङसा सहि
तस्यास्मदा ममाऽऽदेशः । प्रा० ३ पादं ।
ममए-अम्मद्-कतीयेकवचनम् । ^ मि म ममं ममए ममाई मइ
मण मयाइ ण टा ॥८।३।१०६॥ इति टासटितस्यास्मद्ः 'ममए'
उत्यादशः । प्रा० ३ पाद्।
ममं-स्रम्मद् -द्वितीयकवचनम् । “ णे णे मि अ्रम्हि अम्ह मम्ह
में मम मिये अह॑ं अमा '॥८। ३। १०७ ॥ श्रस्मदः अमा-
सहेते दश आदेशा भवान्ति । ममे । माम । प्रा० ३
पाद । अहाराजस्य चिशत् मुहत्ताः तेषु पञ्चविशतितमो
ममः | ज ७ वन्त ।
ममकार--ममकार--षरु० | ममत्यस्य करण ममकारः | पञ्चा
२० विव । वखपात्रोपाश्रयाऽऽदिघु ममताकरण, ग० २
अधि०। स्वपदा्थभमिन्नषु पुद्लजीवा 5 :दिषु इदं ममति परि-
राम, अष्ट० ४ अष्ट० ।
ममत्त-ममत्व--न० । ममेतदिव्येवेरूप भावे, आतु०। नि० चू० ।
मूच्छायाम , सथा० | आचा० । 26४
“ घुजा में भ्राता मे, स्वजना में ग्रहकलजञ्वर्गों मं ।
इति कृतममशब्दं, पथ॒मिव ः्युजेन हरति ॥ १॥
पुत्रकलत्रपरिग्रह--ममत्वदोषनरों व्रजति नाशम् ।
कृमिक इव काशकारः, परि ग्रहाद् दुःखमाप्नोति ॥ २॥
आचा०१ श्रु० २ अ० १ उ०। “ ममाहमिति चेष यावदभिमा
नदाहज्वरः,कृतानतमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः।' सत्र०
£ श्रु० १ आअ० १ उ० । आब० | “ न सा महं ना वि अहं पि
तीस, इच्चच ताओ विणइज्ज रागं।” ( न सा महं णो वि चहं
पि तीस न्ति) पल्थ उदाहरणं-'णगा वाणियदारगो,सो जायं
उज्मिता पव्वइओो, साय उदाणुप्पही भूओ इमे च घोसाति-
“ण सा महे णा वि अहं वि तीस।” सो चितइ-सावि मम
अहं तासि सा ममाणुरत्ता । कहमहं तं छुट्टह्मामि त्ति काउं
गहियायांरभंडगणवत्थों चेव संपद्टिओ | गओ य त॑ गामं,
जन्थ सा, साइणिटावाणत ड सपत्तो, तत्थ य सा पुव्वजाया
पाणियस्स आगता, साय साविया जाया, पव्वदउकामा
य, ताप सो नाश्नो, इयरो, तं ख॒ याणति, तण सा पुच्छिया-
अमुगधूया कि मता. जीवइ वा ?, सा चिंतेइ जद सास-
श्रातो उप्पव्वयामि, इतरहा न। ताण णातं, जहा-एस प-
व्वज्ञो पयहिउकामा, तो दोबि ससार भमिस्सामि त्ति।
य
( १०५ )
भ्मत्त
भागप चर तार-ला अनस्त दन्ना. तञ्च सा त्रातउमारद्धा,
सच्चे भगवनांह साहाह अरं पाढिओआ,जहा-' ण॒ सा महं णो
विहंफितीस'' परमसवेगप्रावर्णा, भणिये च णण-पडि-
पणियत्तामि | तोए वरश्गपांडओ त्त णाऊण अणुसासिओ-
अणिच्चं जाविये, कांमभोगा इत्तारिया । एवं तस्व केव--
नषद्त्तं घम्प्रे परिकेहि, अखु लड़ा जाणाविच्रा य, पॉडि-
गग्मा आयारयसगात. पव्व ज्ञाए थिरी भूझआ, एवे अप्पा सा-
हारयव्या जहा तण ` इति सूत्रार्थ:। दश० २ अ०।
ममत्षरहिय-ममत्वरशित-तरि० । निस्सङ्ग. पश्चा० > विव० |
“भावियाजिणवयणाणं , ममत्तर्राहयाण न5त्थि हु विससो ।
अप्पार्णाम्म पराम्मि य, ता वज्ञ पीडमुभआ वि ॥१॥ ` इति ।
साच ६ आअ०।
ममाइ अस्मद् ततीयेकवचनम् । "` मि म ममे ममए ममाद
मद मण मयादरेद्धा ` # ८। ३। १०६ ॥ इव्यस्मदः रासहि-
तस्य ` ममाइ ` इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद)
ममायिन्- ति । ममदमहमस्य स्वामीव्येवमध्यवसायिनि
अयत्र० * श्र० २ ० २उ०।
ममाइयमइ-ममायितमति-त्रि० । ममायित मामकम् , त्रम
फतिर्ममायितमांत:। परि ग्रहाध्यवसायकलुषित, `" ज ममायितम
ति जहाति । `` आचा० ९ श्रु० २ अ० ६ उ०।
ममाछ-अस्मद-' ण णा मञ्ज ” ॥5८।३।११४॥ इत्यादिसत्रे-
रा४ऽम( सदितस्यास्मद। मनाणाऽऽदेशः । षष्ठीवहुबचने,
ग्रा ३ पाद ।
ममायं -मसायम्-मामकःपु° । ममायमिति ममकारं कुर्वति,
नि० च०।
ज भिक्वृ वा भिक्खुणी वा ममायं वंदइ, वंदंत वा सा-
इज्जः ॥५५॥ ज भिक्खू वा भिक्खुणी वा ममायं पसंसइ,
पसंसंत वा माइज्जई ॥५६॥।
सद्ध सत्र ममाकारं करेंत ममाओ |
गाहा--
आधहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल. गामे ।
पडिसह व ममत्त, जो कुणती मामओं सो उ ॥ ६६ ॥
उत्करणा 5 <दिसु जहासंभवय्ं पडिसहे करेंति-मा सम उव-
करगो काद् गेरहतु, एवं अर तंसु वि वियारभूमिमादिएसु प
इड्सह सगच्छुपरगच्छुयाणं वा करेति, आहारा५5दिसु चेव
सञ्च मम त्ति करेति भावपडिवंधे , एवं करतो माम-
आ भवति, विविधद्सगुर्णाह पड़वद्धा मामश्रो इमो ।
गाहा-
अह -जारिसओ दसा, जय गुणा एत्थ सस्सगं(णादी ।
सुदरअभिजातजणो, ममाइ शिक्रारण वद॑तो ॥१००॥
ह त्ति य जारिसो दसा सुक्खवाविसरतडागोवसा-
भिला एरिसा अण्णा णत्थि सुहविहारा, सुलभवर्साहभत्ता-
घकरणादिया य वहुसखुणा, सा भिक्खुमादिया य बहु सख
स्सा िन्फञ्जति य. ग(महिसपउरत्तणता य पडरमगोरस.स-
रीररा चस्थादिएहि खुदरा जणा अभिज्ञायक्षरता य कु-
लीरा , रा साहुमयद्यकारी , एसादिणाई सुर्णाह भावप-
ॐ
असशभिधानराजन्द्रः ।
| मम्मण
डिवद्धा शिक्रारणआओ वादयति, प्रसंसर्तात्यथः । नि० चूं०
१२ उ०।
ममायमाण ममायमान- जि । ममीकरोति ममेदमिव्येव
व्यवस्थापयति ममायमानः । सूत्र० २ श्रु० ६ अ० । ममदमि-
त्याचरति.आचा० १ श्रु० २ अ० ३ उ० | ममत्वेना55चरराति ।
आचा० ६ श्रु० ८ अ० ३ उ० | ममीकुर्वति स्वोकुर्वति , आ-
चा० १ श्रु०६ अ० २ उ०। ममायामिति स्नेह कुबाति , द-
श०२चू०।
ममासुन्तो-अस्मद्-पश्चेमी बहुवचने, "` ममाम्हों भ्यसि '॥ =
५ ३। ६९२ ॥ च्रस्मदा भ्यसि एतावादेशों स्तो, भ्यसस्तु य-
थाप्राप्तम् । प्रा० ३ पाद।
ममाहिन्तों-अस्मदु--' ममाखन्तो ` इत्यस्यार्थ, ध्रा० ३ पाद ।
ममसुन्त।-अम्मद्-` ममाखुन्ता ` इत्यस्यार्थ, प्रा० ३ पाद् ।
मम्म-पु०- मर्मन् न । श्चियन्तऽनन राजाऽऽदिविष्दधनोच्चारि-
तनति मर्म । उत्त० १ अ०।“स्नमदाम-शिरो-नभः'` ॥८।६।३२॥
इात प्राऊते वा पुस्त्वम्।' मम्मा। प्रा” १ पाद् । मरणहंतो,
पगा गईदा, सो एगण कंडण आहदो निर् डुर मम्मप्पद-
स लग्गकंडप्पहारेण पंडितों |” आ० म० १ अ० | शङ्खा
णिक्म 5 5दिके शरीरावयव, ते० । सूत्र० १ श्रु० & आ० |
प्रश्न० । उत्त०।
मम्मका -देशी-उत्करठायाम् ६ वर १४३ गाथा ।
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» ३० ना०
| मम्मग-मर्मंग ममक न० म्मे गच्छन्तीति मर्मगाः।मर्म स्पार्शि
निःसूत्र० १ श्रु० ६ अ ०। “न लवेज्ज पुद्टो सावज्ज न तिरट न
मम्मये । "` न आलपेत् सावद्य, न च मर्मकं ममेरूप साथुने
त्रयात् , प्रियते ऽननेति मम, लोकराजविषरद्धाऽदिकम् अ-
थवा-ममेणि गच्छतीति मर्मगे, यस्मिन कर्मणि प्रकरीभूत.
सति मनुष्यस्य मरणमेव स्यात् तदपि बाक्यमात्माधवा,
आअथवा>पराथ वा, अथवा--उभयाथम , अथवा--अन्तरण्
प्रयोजन 'वना$पिच न वदत्! उत्त० १ आ० ।
मामक-एु० | कुशीलभदे सतत्र० १ श्रु०। ४ आअ० १ उ०।
| मम्मड-मम्मट-09० | काव्यप्रकाशकार, प्रात० ।
मम्मण-मंम्मन-त्रि० | अव्यक्के, नि० है श्ु० रे वग ४ अ० ।
अव्यक्नवाचि, प्रश्न० २ आश्र० द्वार । मन्मनमिव मन्मने ची
स्फुट, ध्रश्न० १ आश्र० द्वार आचा०। मन्मनः पुनर्भाषमा-
णाऽन्तरा ऽन्तरा स्खलति, यदि वा-तस्य भाषमाणस्य वाक
चिरेण निगच्छति । व्य० १० ० । अर्थापाजनप्रसिद्ध वणि-
जि, तं० । | मदन-रोषयोः, दे० ना० ६ वग १४१ गाथा ।
-मस्पणक्रथा चयम्-
४ घुरे राजग्रह नाम. श्रणिकस्तत्र भूपतिः ।
सुनन््दाचिल्लण राक्या-वभया ऽमात्यपुङ्गवः ॥ १ ॥
मम्मणा भृद् बलिक त्र, तन क्कशन भूयसा ।
प्रभूतमाजिते द्रव्य. किञ्चिन्न व्ययिते पुनः॥ २॥
मेल मल काटिशस्त-न्निजसौ धशिरोग्रृह |
पकं निमापयामास. स्वसारत्नमैय द्रषम ॥ ३ ॥
दितीयः किस झदुना धस्त, तत्केंते सिन्तयी 5 5तुरः ।
अत्रान्तर 5भवद्धषां, नद्या पूरः समागमत् ॥ ४॥
(* १४०६; }
सकोपीनांशुकः काष्टा-घिरूदा काष्सन्छणम् ।
तत्पूनेये नदीपूरा-द्धपवत्यय्याचकर्े सः॥ ५ ॥
तदा राजा सराज्ञीका, वातायनगता ऽभवत् ।
राज्ञी दषा तथास्थे ते. सामो नपमम्यधात् ॥ ६ ॥
सत्य श्रयत ण्य. सरिद्घितिदर्शकन राजानः ।
मर तनि मगन्ति ददे, रिक्ले हश्या5डपि नत्तन्ते॥ ७ ॥
राङ्क कि मद वत्ति, तथोङ्गः दद ! वीचयताम |
रङ्कः क्रिपयनरय नदया-मुद्ध लुमवयुच्यत ॥ ८ ॥
रू राज्ञा:5द्वायितः प्रातः, पृष्ठः क्शम्य कं(रणम्।
तेनेक्रः देव ! मव्य ऽपि, वुफ्युस्म न पूर्यते ॥ ६ ॥
च राज्ञा ग्रहाण त्व. भद्र ' भठ्शत मम ।
स उवाच न तेः कार्य, प्रयाश्रिममव मे ॥ १० ॥
कीडशस्तेडस्ति भूपे स, गट नात्वा तमत्तयत् ।
राजाऽवदन्नम यद्र ! , काशनाप्यप.पूयत॥ ११ ॥
सलोऽवग नापूर्यय याव--त्तावद् देव ! न मे खुखम |
तदथ भिक्तुधाणडानि, प्रेष्यन्त प्रकरता कृषिः ॥ १२॥
आझारम्यत वृघाभ्वम--दास्यादः पोषण सया |
सज्ञा ऽमरयन नद्यव. क्रियत ऽत्पकन कश्रम् ? ॥ १३ ॥.
खाऽवकर क्श्सदटे मङ्ग, व्यापाराऽन्यास्ति नाधुना ।
वास्वधामहा धत्व, तदथ ऽद ऋगाम्यदः॥ १४ ॥
जधऽवादीन्पदहामाग !, पूर्यता त मनारथः ।
त्क्मेवास्य समर्थोऽसि, पूरणाथप्रहे न तु ॥ १४ ॥
ऊृतमाइालिक: नन ,स्वसोध 5 थागमन्न॒पः ।
कालना55पूर तनासा--चवधासद्धषऽयमाटशः ॥ १६॥
घ्या० क० ?े आअ०।
अस्पणमग--मन्मनपरक -पुं० | यस्यानुवदतः खच्यमानामिव ब- |
चने स्वलात स मन्मनम्कः। सूकरमेद .घ०३अधि०।ग०। आब०।
मब्मह--मन्मथ-पुं० । कामदव, पाइ० ना० ७ गाथा ।
~ भम्माण -मम्माण- पु” । स्वनामख्याते शेन यत्खन्युत्थ-
रन्नर्वोजाडः शन जये सवन् १०८ वर्ष परतिमामक्रारयन् ।
ता० १ कठप | १
मम्मी--दशी-- ख । मातुलान्याम् , दे०्ना०६ वगः द्र्गाथा ।
मम्द-अध्मद्- णे ऐ मि अश्मि अम्ह मम्ह मे मम मिम अं
श्वा ` ॥८।३। १०७॥ इत्यस्मदाऽमा सह मम्हाउ<केशः ।
सतीयकवनच ने, प्रा० ३ पाद |.
मय-मत-त्त2 | समान पवाऽऽगमे श्राचा्याणामभिप्राये, भ० १
शा५ ३ उ० । निजेऽभिप्राये, विशे० । सुत्र० | श्रभिप्रते, सत्र
५ श्र १५ अ> । अनुमते, जि० | ओ० | द्र, दश० ४ अ० ।
श्श्निप्राये
मद-पुं? । अहंड्वांर, दशैः ४ तरव । कुलवस्थृश्वर्यविद्या
“रूपा 55विभिरहद्भवारकर णे, परप्रध्षनिबन्धने वा । ध“ ९ श्रः
धि. | सुरापाना;ऽदिजनितविक्रियायाम् , विशे० । गर्व, द्
श» १ नरव । आ० मः | प्रव० । सण | आतु० । 4
मदवर्जनार्थमाद-- `
“न बाहिर॑ परिभवे, अत्ताणं न समुकसे ।
सुअलभे ण मज्ञिज्ञ।, जंचचा तवस्प्ियुद्विए ॥ ३० ॥
न घाहामात्मनो ऽन्यं परिभवेत् , तथा आत्मान न समुत्क-
अयन्, सामान्येनेत्थेमूक्तेऽदपिति, श्रुतजाभार्यां न मादयत,प-
(८०१) समझा मय पाइ० ना० २४२ गौथा। |
खाोमधानगाजन्द्र। |
|
|
रुडता लाब्धमान अहामत्यव तथा जात्या तापस्व्यन बुद््था
व, न माचनात वत्तंत, जातसपन्नस्तपस्वा बाद्धमानह-
मयतम. उपलक्षण चतत्कुलवलरूपाणा, कुलसपन्नां ऽद बल-
सपन्ना 56, रूपलपन्ना 5हामत्यव न माद्यत । इाति सूत्राथः ।
दशा० ८ ० २ ३० ॥
मृत-पुं० । त्यक्लपाण, जी०।
अहिमडेति वा गोमडति वा सणगमड़ेति वा मङ्धार मडे-
ति वा मणुस्ससडात वा म्रोहसमडात वा मूसगमडात जा
श्रसिमडत वा हत्थमङ्ष्द वा साहमडात वा वग्गम
वा वरगमडात वा इनप्नव्यमड़ात वा मयकुहियाचरावण टू --
कुणिमवावष्पद् विभिगंध ।
अहिम्ुत इति बा. अदिमरलो.नाम सता 5हिदेहः, एव सर्वत्र
भावनीय, ग्न इति वा अश्वमस्तृत इति वा माजीरस्रत इति
वा हस्तिस्ृत दति वा सिहस्झत इति वा ज्याघ्रमत इति च्म,
द्वी पः-चित्रकः, स्वरः श्रदिश्चासोा. मृतश्च अहिसुत इत्य्वं
विशेकणसमासः, इह मस्तक सद्यः संपन्न न विगन्धि भवति,
तन आहर-- मयक्रुदियाविणट्ुकुणिमवावरण दुव्भिगेधे । `
इत्यादि । मनः सन्. कथितः । जा०.३ पति १ उ० |
म्यग-मतङ्क- प° । श्रीवीरज़िनस्थ शासनयत्त. मतङ्गः यत्तः.
श्यामवरः गजवाहनो द्विभुजो नकुलयुनदत्तिणमुजो, कमर
करघुतवीजपूरकश्थेति । प्रव २६ द्वार ।
| मयगतीरदह- म्रतगङ्कातं।रदृद- पुर । मनगङ्गा यत्र गह्लादेशें
जल व्यढमासौदिति. तत्तीरे हदः । वाराणस्यां स्थिरज लहंदे
वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरच्छिमदिसिभाणए सोगाप म-
हाणइंण म्यगन्तीरष्टटनामं दहे दोध्था "` ज्ञा० १ श्रु० ३ आ०।
मयंतर -मतान्तर -न०। एकस्या 55चार्यस्य मताद् विरुद्ध मते,
“मयंत्तरेहि कंसा मोहणिज्ल कम्मे वेइजजइ । `` भ्र० । मतं
समान एवा55गर्मे आज्ायोणाममभिप्राय:, त्र चः सख्िद्धसेन-
दिवाकरो मन्यने-केवलिनो शुगपज्ज्ञानं दर्शक ख, अन्यथा
तदावरणातक्तयस्य निरथकता स्यात् . जिनभद्रगणित्तमाश्रमण
स्तु भिनज्नसमये ज्ानदशने,जीवस्वरूपत्वात् ,तथा:तदाबर णक्त«
योपशमे समानेऽपि, ऋमेणक म्प्तिश्चुताप्योगे, न न चेकतरो प-
योगे इतरक्षयोापशमाभावः, तम्त्तयोपशमस्योत्कृष्टतः षटषाष्टि
सागरोपमप्रमाणन्वादतः क्रि. त्वमिति ?, इह च समाधिः-
यदेव मलमष्मामा श्नुप्छानि तदव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पु-
नस्पद्धणीयम् , अथ चावहश्र॒तेन-नतदवसातु शक्यते तदेवे
भावनीयम्-श्राचायाणां सम्प्रदीयाऽ{दिदाषादयं मतभधा,
जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्ध च, रागा ऽऽदिषविरदितत्वांत् ।
आह य~-““श्ररुवकयपराखुग्गह -परायणा ज़ जिणा जुगप्पय-
रा । जियरादोसमोहा, य<5णक्षहायाहणा नेख ॥ १॥ "' भ० १
श० ३ उ०।
मयग मृतकः पु | शच, चधा० २ श्र०।
| मयगगा-भरतगङ्खा- खरा? । व्यडऋलदेशावनिछज्नञायां गङ्गायाः
म्, ज्ञा० ६ श्रु° ३ आ० । “ समुद अला दगा, पविलइ, तत्थ
वरिसे बरिस अणणरणं मग्गण वहहु, वौपण गगा मयगगा
अछ । आ० म० १ ० । श्रा० चू० ।
मयगल- मदकल-जि० । मदमभिगरहाने; “ गरे मयगल- '
सलिलगयनिकम | ` चे० प्रण ६ पादू ६ पाहु० पाहु० | ह-
स्तिनि, “पीलू गणओ मयगलो मायंगो सिंचुरो करेणु य। दो-
घट्टा देती वा-रणो करी कुंजरों हत्थी ॥६॥” पाइ० ना० ६
गाथा |
मययु म्मिय-मदगुल्मित-त्रि०मदघूर्णितचेतने.बु०१उ० २प्रक०।
मद्रं -मदस्थान-ते० । मदर्भदेषु. मदो-मानस्तस्य स्था-
न पयोयमदर सदस्थानानि | श्राव ४ श्०।
अ मयदुणा पष्एत्तः। | त जहा-जाइमद ,कुलमद ,वल मद
रूवमद,तरमद,सुयमद ,लाभमद ,इंसारयमद ,॥|( खजत्न्र-६ ० ६)
मदस्थानानि मदभदाः. इह च दोषा जात्यादिमदान्मत्तः
पिशाच्रवद्धवति दुःखितः. इह जात्यादिटीननापरिभव च
निःसेशये लभत इनि । स्था० ८ ठा० । सृत्र०.। आच० ।
आ० ० । यता ऽनादोा ससार पर्यटताऽखुमना ऽटष्टाऽऽ-
यत्तान्यलरकूदु चाचचानि स्थानान्यनुभूतानि तस्सान्क थश्ि-
दुच्चावचा ५5दिक मदस्थानमवाप्य पतिडता हेयापादेयतच्च-
क्षो न दव्यन्-न हष विदध्यात् । उक्लं च--
* खर्यखुस्तान्यपि वेशः, प्राप्तान्यटता मया तु ससार ।
उच्चे: स्थानानि तथा, तन न म विस्मयस्तघु ॥ \॥
( सूत्रक्कताड़े )
जई स्पा ऽवि णिज्जरमआ . पर्डिसिद्धों अद्ुमाणमहणहिं।
अवसस मयद्भाणा, परिहारियव्वा पयक्षणं ॥ ४४॥ `"
नाप्यवगीतस्थानावाप्रा वेमनस्ये विदध्यात् । । आह च-'णो
कुप्प। ` अटणष्रवशात्तथाभूतलोकासमत जातिकुलरूपबल-
लाभाऽऽदिकमधममवाप्य न क्रध्यतू-न ऋाध कुर्व्वीतं कतरं
नीच घ्थाने शब्दाः४दिक वा दःखं मया नानुभूतामित्यवमवगस्य
नाडेगवशंगन भाव्यम् , उक्कं च--
^“ अआवमालात्परग्रेशा-दधदन्धघनक्षयात् ।
ध्राप्ता रोगाश्च शोकाश्थ, जात्छन्तरशतप्वाप | १॥ |
से ते य अविम्हइं, असोइड पॉडिएण य झखेत । |
रूका हु दुमो वमियहि-अणएर हियये घरंतेख ॥२॥
क्
|
स्ता च्व नाम अला. अणाहसालालआओ दाइ ॥ ५
एकरास्मन्ता जन्मन् नानाभूतावस्था उच्चावचाः क्म |
बशया 5सुमवात । आचा० ट श्रु २ आ० ३ उ०।
साम्प्रते पर निन््दा दोषमधिकत्याह---
जः परिभवइ पर जणं, संसारे प्रिवत्तई सहं |
अदु इंखिशिया उ पाविया,इति संखाय मसी श मज़ई | २।
नियुक्षिकदह- |
जह ताव निज्ञरमच्रा, पडिनिद्धो अट्टमाणमहणेहिं |
अविसेसमयद्ठ।णा, परिहारियव्वा पयत्तेर ॥ ४४ ॥
आधप्प्रानमशथन हद्धि अचशधा णग तु मदस्थान
जात्याद्यान भयत्नन सुतरा पारह क्तव्यानाने ।४४। ज्ध् पार
इत्याद, र: काश्वदाववका पारसवात अवज्ञयात पुणे जनम
अन्य लाकम् ख्रात्मन्यातप्रक्क.सत-कृतन कमेणा'स्सार चतु
गीनिलक्तणे भऋद्वावरघ्चर्ः न्यायन पारवत्तत श्रमति,म- _
हद् अतयथ सहान्त वा काल क्वाचत् चरम इत पाठः ।
शअ्रदुत्त अथ्शब्दा नपातः, नपातानामनकाथत््वात् दरश
इल्यस्यथाथ चत्त, यतः परफारमवाद्ात्यान्तकरः ससारः |
अतः ' इंखिशुया ` परनिन्दा, कुशदस्पेवकारायथन्वात्
हं!ऊण चक्रदद, पुदटटदइवनती विम्लषेड्रच्छत्ता। |
[नि ( ११५
स्ाभधानरोजन्द्रः।
_ मयणसलागा
` पापिङेव ` दोषवत्यव . अथवा-स्वप्थानादधमस्थाने पा-
तिका. तत्रह जन्मनि सुघरो छन्त. परलोकोऽपि पुरोहि-
नस्या ऽपि श्वा ऽ ऽदिषुन्पत्तिरि्त.इव्यवे ` सख्याय ` परनिन्दां
दाषवती ज्ञात्वा मुनिजात्यादिभिः यथाऽदं विशिष्टकुलो-
द्धवः श्रुतवान् तपस्वा. मास्तु मत्ता दीन द्ात न. माद्यत
॥ २॥ सत्र १२ श्च० २ श्र० २ उ०।
मयण-मदन-पु काम , अभिलाणमात्रे च । स्था० ४
खा० १ उ० | आचा० । “ आणा जस्स हिन्ड्या , सासे
सव्व हारिहगोहि पि। ला वि तुद रूप्णजलख; मयणों
मयणे पिव विलीणा ॥?॥ "पञ्ा०४ विव० !“मच्णसरापूरग |
कर्प १ अधि० ३ त्त । मघुना विरतिरपउघयजे, प
व० २ द्वार । विश्वपुर धघरणन्द्रा पुरक श्रेष्टपुत्रे, ग०२
अधि० । ( स्पर्शनन्द्रियविषयादि.वार कथा ) मीने. (७२३)
सत्थय मयर पाई० ना० २२८ माथा । कामदवे, पाइ०
ना० ७ गाथा ।
` मयणकंचणा-मदनक;ञवना - ० / पुष्कलाव्तीविजय एु-
रीभद, दश० १ तत्त्व ।
मयणकंदली -मदननन्दलयी- खी० । दस्तिनापुरराजस्य जि-
तशबत्राआयायाम् , दशै १ तत्व ।
मयणजक्घ-मदनयज्ञ-पु० । स्वनामख्याते यक्त, यमाराध्य
द्विमुखराजपतल्नी चनमाला मदनमज्र्री सुषुव | उत्त> &£ अ० +
मयणपरवसा-मदनपरवशा--ख्रो० | मन््मथविहलायाम त । `
मयणवहूसर -सदलबद्ृत्सव-त० । भरतवेताह्यपर्वतस्योक्त*
राचच्छाधरश्णा स्वनामख्यान नगर, दश० १ तत्त्व ।
मयशरंजरी-शदनमज्जरी-स्थो ० कास्पिल्यरा जीद्ध मुखपत्त्ां
चरड,
यूर्रहा-मंदन्रथ[-ख्रा० ।
पुरराजसाणिरथस्य श्रातुयुगवाहुमार्यायाम् , नाम्बङदारा
मातएि, उत्त० ६ श्र ती० । ( रर शब्द चतुथमाग १८:
पृष्ठ कथाका ) ंखद्पुरराजस्य रत्नस्य भायायाम्र .
सङ्घा ? अधि० ६ प्रस्ता०।
मयणवल्लट मदनरल्ुभ- १ । स्वनामख्यात चारजत्रश्नथान
दर्श० ३ तत्व ।
{द्याठस्टावन्तोरःजस्थय भायायापि् तं & आ> ।
मालवमरण्डलमण्डनसुदशन
म्द.
` मयणवां्ध{-मद नवाज्छा -ख्री० । कामाभिलाषे, * मुण्ड शि-
रावदनमनदनिष्रगन्धि.मक्तःऽटनेन भरणं क्दनो दरस्य | गाज
मे (~ $ 9: ५ # ० ५ | क =
मलन मलिन गतलवेशाम, चित्रं तथाऽपि मनसा मदन
प्सतं वाञ्छा | १॥ ” सूतब० १ श्रु० ४ अ० ६ उ०।
मयणवाराणसी--मदनव।राण्सी-्ी० । वाराणस्था: स्वना-
मख्याते भाग ` मदनपुत ` इति प्रलिद्धे, ती० ३७ कठष !
मयणसरापूरग-मदनशराऽऽपूरक-पु। मदनवाणसुतौर , "म
यणसरगापूरगं पिय चंदा । मदनस्य कामस्य शरापूरामिव ।
तूणीरमिव । यम्रथेः-यथा घनुदध॑.<स्तू रीर आप्य सुदिता नि
शङ्क स्रगाऽऽदिकं शराविंध्याति,एवं मह्ना ऽपि चन्द्रोदयं प्राप्य
निःशङ्कः जनान बा कव्या कुः लीक प्रति । कल्प › १ आछशि० ३क्तुण।
मयशसलागा-मदनशलाका[-खा० । सा! काप्िजात्ा, ज्०
१ बक्ष > | रा० | आ० म< ¦ ज्ञी | दे< ना०।
( शै०्द )
सथणमाला
मयणसाला-मदनशाला--खा०। । सारकावशप, प्रश्न० १
आश्र० द्वार | आ० | आ० च्र०।
मयणा-मदना--स्त्री० । पतक्तिविशषे आव० १ श्र०।
मयणावली-प्दनावली-स्तरी० । हश्तिनागपुरराजपद्मात्तर- |
पुजमदापरद्मस्य भायायाम् , ती० २० कलय ।
द्मभिध्रानगाजन्द्रः।
मयणाहि--मृगनाभि-खी० । कस्तू पाम् , ( ३७६ ) मयणा- |
ही कत्थूरी ” पाइ० ना० १७७ गाथा ।
मयरिज-मदनीय-न० । “ इद्वहलम् ” ॥ इति हैमबच-
नात्कत्तेयनीय: प्रत्ययः । | मदयतीति मदनीयम् । मन्मथज- |
नने, जी० २ प्रति० । मन्मथवद्धन, ओ० ।
मयशणिवरस-देशी-काम , दे० ना० ६ वर्ग १५६ गाथा |
मयपतिश्ना-मरतपतिक्रा-ख्र० । विधवायाम , ओ० |
मयापेंडरिविेयण-मृतपिण्डनिवेदर्न--त० । खतभ्यः शमशाने
तृतीयनवमाऽ ऽदिषु दिनषु पिएडानिवेदन, जी० ३ प्रति० ४
अआधि० |
मयरक-मकराह्रू-न ० | मकरचिहे, ० ।
मयरद्धय-मकर ध्यज-पुं? । कामदेवे, पाइ० ना० ७ गाथा ।
मयरदहिय-मद्रहित--चि> । मदरहितों विशिष्टजातिलाभकुले-
श्वयंबलरूप तपःश्रुता 5 55द्सिस्पत्समान्वतावषि निरहड्जारे,
कर्म० १ कर्म० ।
मयरासण-मकरा55सन-न४ । यषामासनानामधोभाग मकरा
ब्यवास्थिसास्तंषु , जा० ३ प्रति? ४ अधि० ।
मयय माण-मृतसमान--पु | शवकल्प , ° १ उ० ३ प्रक० ।
भयहर-महत्तर-पु ? । गच्छमहाति, नज कड आयारिएड त्रा |
मयहरणइद वा अगीयत्थेइ वा श्रायरियगुणकलिण्ड वा
मयदरगुणकलिषटदइ चा भविस्सायरिण्ड बा भविस्समयहर-
णद् वा । ' महा० ४ श्र०।
मयह रिया-महत्तरिका--स्त्री० । झुख्यसाध्व्याम् , तां विना-
भ्रमणयों न तिष्ठन्तीति । ग० ३ आधि० ।
मयाह-अस्मद-- मि म ममे ममप ममाइ मद मण मयाइ शे
टा” ॥।३।१०६॥ इत्यस्मद्ः टासहितस्य 'मयाइ' इत्यादेशः। |
धा० ३ पाद ।
मयाणुष्प/-मतानुज्ञा-ल्वी० । निग्रहस्थाने , सूअ०
¢ श्रः |
मयालिंकुमार--मया लिकुमार-पऐ० । भ्रेणिकस्य धारयां जाते
स्वनामख्याते सुते वीरान्तिके प्रवज्य षोडश वर्षाणि प्रतज्यां
पालयित्वा वैजयन्ते ` कल्प उपपर्य मदाविदेदे सेत्स्यति ।
अणख्यु० १ वनै २अ०। कृष्णस्य रुक्मिणी सेभरवे पुज,स खारिष्टने
मरा नतक प्रव्रज्य शठ अये सिद्ध
= 0
८
~*अ०।
मस[ली-रेशी--निद्राकरी लताविशेषे , ध्रै था? ६ षर
५९९ गाथा |
मस्य--मथु--त० । “ ज-य-र्या यः / ॥ ८। ७ । २६२ ॥ मागध्यां
ज़थयां स्थाने यो भवतोति चस्थाने यः | सुरायाम् ,
श्रा० ४ पाद् ।
। श्रन्त० १ श्रु० ४ वगे |
सरण
मर--म्-था० | धर णत्यागे, “ वरस्या ऽरः ` ॥ ८। ४।२३५॥
धातारन्त्यस्य ऋवणस्या ५5रा 55दशो भवाति। मरइ । स्रियन।
प्रा० ४ पाद् । "तृतीयस्य भिः "` ॥८।३।६५१॥ वहुनाधिकाराद्
मप्स्थानीयस्य मारकारलापश्च। "नमरं `न श्य इत्यथः।
प्रा० ३ पाद ।
मर-पुं? । मरणे मरः, स्व॒रान्तत्वादप्रत्ययः । प्राणवयाग,
विश० । आचा० ।
मरगच्-मरकत-न० । “ मरकत-मदकले गः कन्दुक त्यादेः-”
॥८। १। १८२५॥ इति कस्य गः । मरगच्रे। प्रा० १ पाद्।
उद णिच्चलनिप्पंदा, भिसिणीपत्तस्पि रेहह वलाश्रा ।
णिम्मलम रगअभाअण-परिट्टिया सखस्ुत्ति ठव ॥१॥' नीलर-
त्ने, घ० २ अधि० । ज्ञा० । उत्त० । रत्नविशेषे, जी० ३ प्रति०
४ अधि० । सृत्र०। श्री०।
मरइ-देशी- गवं, द° ना० ६ वर्म १३० गाथा ।
मरण--मरण--न ० । प्रातानयता ऽयुःपृथगभवने, द्वा० १४ द्वा० ।
आयुःत्तये , , आचा० १ श्रु° २ अ० २ उ०। दशाविधप्राणवि-
प्रयागरूप ( श्रा० म० १ अ० | प्रज्ञा० | | आचा० । ल० | सू
प्र०।) मृत्यो, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार श्राचा० । ने०।
एग मरणे ञ्रतिमसारीरियाणं ।
पकं {मरणे सत्युरन्तिमिशारीरिकाणां चरमदेहनां,
मरणेकता च सिद्धत्व पुन्मरणाभावादिति । स्था० १
ठा० । आव० । तयङ्मचुष्ययारायुष्क्तय सूत्र० २
श्रु० १९ आ० | सर्वथा क्षय, तं० । पञ्चत्व, तं०।
घाड़िये मरणमित यदुक्ल त्र नामस्थापन प्रतीते प~
यत्यनादत्य शेषचतुष्टयमाद । अन्य त्वत्र नामा ऽऽदिषडविध-
नित्तपादेशाभिधायिनीमपि गाथामधीयते, तत्र नामस्था-
पने प्राग्वत् ,द्वृंव्या 5<दिचतुष्टयाभिव्य जना श्रमाह--
दव्यमरणं कुसुभा55-इएसु भावि आउक्खओ प्रुणेयव्तो।
अहि भवतन्भविए, ए्शुस्सभ विएण अहिगारों ॥२०६॥
द्रष्यस्य मरण द्रव्यमरण, कुसुम्भा55दिकेषु, आदिशब्दा-
दन्नाऽऽदिपरिग्रहः, यद्यस्य स्वकायेसाधने प्रति समर्थ रूप
तत्तस्य जीवितमिति रूढं, तदभावस्तु मरणे, ततश्च कुसु-
म्भा ऽदरज्जनाऽदि स्वकार्यसाम थ्यं जी वितत, तदभावस्तु मरणं
तथा च लोक मते कुखम्भकमरञ्जकं , खरतमन्नमव्यञ्जनामि-
त्याद्युपदिश्यते, क्षत्रमरख तु यस्मिन् क्त्र मरणम शाङ्ग
नीमरणाऽऽदि वरयते क्रियते वा यदा वा तस्य शस्याऽऽयुः
रपत्तित्तमत्वमुपहन्यते तदा तत् क्तेत्रमरणे, कालमरणे य-
स्मिन् काले मरणमुपवरयतुं क्रियते वा, कालस्य वा ग्र-
होपरागा5 5दिना चृष्रथादिस्वकार्याकरणम् , पत च खुगम-
त्वासस्वता द्रव्यमरणाभिन्नत्वाच्च नियुक्किकृता पृथग् ना-
क्क, यन्तु निक्षेपगाथायां षड़िध इति वचनात् अनयोभेदे-
नाभियाने तहिवाक्तितवस्त॒वैशिष्यद्शकं, न हि ताभ्यां
बिना नियतदेशत्वा 55दिक वस्तुनो वैशिप्र्धमाण्यातं शक्य-
सिति, ' भावे ` भावविषय नित्तप श्रायुषो- जीवितस्य
कथ -^्वंसः झायु:क्षयो मूितव्यो ` क्लातव्यो , मरण-
मित्यपस्कारः, सदषि च जिवियम-' श्रोहि ति श्रोघमरण-
स्मान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागा $ ऽत्मकं भवति, भव-
सरणे-यज्ञारका धवेनैेर का पद्भ्रवविषयतया विवक्षितम्, 'स- '
स्भविय् क्षि द्धाचकमर एु यस्मिन्नव मजुष्यभधाऽदौ मतः पु-
| 4.
( १०६ )
भरण [भि
नस्तरस्मिन्नेबोत्पय यन्प्रियते इति व्याख्यानिकाऽभिप्रायः , |
बद्धस्तु व्याचक्तते--' तं भावमरण दुविहे-ओघमरणं, त- |
ब्भवमरणं च । तथा तद्भवमरणस्वरूप च-- जो जम्मि |
भवग्गहणे मरइ। ` तत्र च “ओहे तन्भवमरणे ' इति |
पाटो लक्यत । इह चेषां येनाधिकारस्तमाह-* मखुस्स- |
भावपएणो ति ` मचुष्यभवभाविना भवमरणान्तवीर्चिना म-
जुष्यभविकमरणनाधिकारः प्रकृतम्। इति गाथा ऽथः ॥ २०६ ॥
(१) सम्प्रति विस्तरतो मरणवक्कञ्यताविषय
द्वारगाथाद्यमाह--
मरसखविभत्तिपरूवण, अणुभावो चव तह पएसग्गं।
कई मरइ एगसमयं ?, कइसुत्तो वावि दक्तिके १।२१०॥
मरणम्मि इकमिके, कडभागो मरइ सव्वर्जीवाण १।
अशुसमय संतरं वा, इकिक किच्चिरं कालं ॥ २११॥
त्र मरस्य विभक्रिः--विभ।गः, तस्य परूपणा--प्रदश-
ना मरणविभक्रिपरूपणा, कार्येति शषः । अनुभागश्चध-रसख
स च तद्विषयस्या55युःकम्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात् , मर- |
णे हि तदभावा5ऽत्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम्, प
वति पूरण, तथा प्रदेशानां -तद्विषया ऽऽयुःकम््मपुद्ध ला ऽऽत्म
कानाम् , अग्ने--परिमाण प्रदेशाग्र, वाच्यमिति गम्यते।*क
ति' किर्यान्व मरणानि, अज्ञीकृत्य इति शेषः । प्लियत-
माणांस्त्यजति , जन्तुरिति गम्यते । ' एगसमये ति । ` खु-
ब्व्यत्ययात् एकस्मिन् समये “ कदखुत्ता एत्ति ` ” कातिकू-
त्वः कियतो वारा , * वा ' समुच्चये , अपिः पूरण, ‹ एके-
की ति ' एकैकस्मिन् वक््यमाणभेदे, मरणे `त्रियत इति योज्य-
म् , ` मरण ` वक््यमाणभेद पएवेकेकस्मिन् ` कतिभागो ति ' |
कतिसङ्ख्यो भागा स्रियते, “ सवैजीवानाम् ` अशेषजी- |
वानाम् ' अखुसमये ति ' रतिसमये निरन्तरमिति याव-
त् । अन्तरं-व्यवधान सहान्तरेण वत्त॑त इति सान्तरं, वा |
विकल्प, किमुक्रं भवति ?--पषु कतरच्चिरन्तरे सान्तरे वा? |
=. कियसूपरिमारं ~ |
तथेकेक “ कियच्चिरं ` कियत्परिमाणे काल सम्भवतीति |
गाथाद्वयाक्तराथः॥ २१०--२११॥ उतच्त०पाई० ५ श्र ०।
( २) ्िविधमरणम्- |
तिवि हे मरणे पण्णत्ते | तं जहा-बालमरणे, पंडिय- |
अरणे, बालर्पडियमरणे । बालमरणे तिविहे पण्णत्ते । तं .
जहा-ठिअलेस्से, संकिलिट्ठलेस्से, पज्जवजातलेसे । फूंडि- |
यमरणे तिविहे पणणत्ते तं जहा-टितनलेस्से, अस किलिटटले- |
से,पज्ञवजातलेसे । वलपं डियमरणे तिविहे पन्नत्त | तं जहा-
ठिअलेस्से ,असंकिलिइ लेसे, अपज़वजातलेसे ।(सूत्र २२२)
घाला 5श्वस्तद्धद्यों वतते विरति साधकविवेकविकलत्वास् ख
यालाउसयतस्तस्य मरखं बालमरणम , पश्बवाम्रतरे,केवल-पड़ि
धातागत्यथत्वन ज्ञानाथत्वाद्दधितिफलेब फलवद्धिशानसंयु- |
कत्वात् परिडतो-बुद्धतस्वः सयत इत्यथ; । तथा अधिर- ,
तत्वन बाललत्घात् चिरवत्येश च पणिडसत्वाष्रालपरिडिवः
सयतास्षयश्च इति । स्थिता-श्रवस्थिता अविशुद्धश्नन्त्यस-
ङ्क्किश्यमाना च लश्या कृष्णा ऽऽ दि्यस्मिम् तत् स्थिवलेश्यः,
सैक्लिश-संक्लिश्यमाना सङ्कशमागच्छन्तीलयथः,सा लश्या ग्र-
.- ।
अभिधानराजन्द्रः।
न 9 2084
स्मिन् तत्तथा तथा, पथवाः-पारिशप्याद्धिशद्धविशपाः प्र-
तिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्धश्ा वर्तमानेत्यथः ।
सा लश्या यस्मिस्तत्तथाति, श्त्र प्रथमं कृष्णा ऽ ऽदिलेश्यः स-
न् यदा कृष्णा ऽ ऽदिलेश्येष्वेच नारका ऽ दिषृत्पद्यते तदा प्रथमं
भवति, यदा तु नीलाऽऽदिलेश्यः सन् रष्णा + ऽदिलेश्य-
पृत्पद्यते तदा द्वितीयं, यदा पुनः कृष्णलेश्या 55दिः सन नी-
लकापातलेश्यषुः्पद्यत तदा छतीयम् ! उक्र चान्तयद्वयसवा-
दि भगवत्यां यदुत-' सखे रगुण भत ! कर्टलस, नीललस
०जाव खुक्लेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरशएसु उववज्जइ ? ।
हंता गोयमा ॥ से केणट्वेणं भते ! एवं बुश्ईइ ?। गायमा ! ल-
साटाणेखु सकिलिस्समाणेखु वा विसखुज्छमाणेखु वा काउल-
स्स परिणमइ, परिणमेत्ता काउलेसेखु नरदपसु उववञ्जइ
त्ति ।"' एतदनु सारेणोत्तर सूत्रयोरपि स्थितलेश्याऽऽदिविभागा
नेय इति परिडतमरणे सङ्ङ्किश्यमानता लेश्याया नास्ति स- «
यतत्वादेवेत्ययं बालमरणाद्धिशेषः, बालपारेडतमरणे तु स-
किलश्यमानता विशुद्धश्मानता च लश्यायाः नास्ति
श्रत्वादेवेत्ययं विशेष इति । एवं च परिडतमरणं वस्तु
तो द्विविधमेव, सकिलिश्यमानलेश्यानिषेधे ऽवस्थितवद्धेमान-
लश्यत्वात्तस्य इति, त्रिविधत्व तु व्यपदेशमातत्वादेव. वालप-
रिडतमररी त्वेकविधमेव, सकिलश्यमानपर्यवजातलेश्यानि-
वेधे श्रवास्थतलेश्यत्वात्तस्येति, त्रेविध्यं त्वस्यतरव्यावृत्ति-
तो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरित्ति स्था० ३ ठा० ४ उ० । प्रव ० | स०
(३ ) सप्तदशविघमरणानि-
आवीचि ओहि अंतिय, बलायमरणं वसइमरणं च ।
अतोसल्ं तब्भव, बाल तह पंडियं मीर्स ॥ २१२ ॥
छउमत्थमरण केवलि, वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च ।
मरणं भत्तपारित्मा, इंगेणि पाओवगमणं च ।॥ २१३ ॥
बृह च मरणशब्दस्य प्रव्यकमाभसवन्धात् श्राचीचिम-
मरणम् १ श्रवधिमरणम् २, ` श्रतिय त्ति ` आर्षत्वाद-
त्यन्तमरणम् ३, ` बलायमरणति ` तत एब वलन्मरणम् ।
४, वशासैमरस्णे च ४, शन्तःशल्यमरणम् ६, तद्धवमर--
णम् ७, बालमरणम् ८, तथा-परणिडितमरणम् ६, मिश्रम-
रणम् १०, छुप्मस्थमरणम् ११, केवलिमरणम् ६२, ` बेहा-
णसं ति ` तत पव वैदायसमरणम् ६३, गृध्पृष्ठमरणे च
१७, ‹ मरण भत्तिपरिणण त्ति ' भक्कपरिज्ञामरणम् १५, इङ्गिनी
मरणम् १६, पादपोपगमनमरणं च १७ । इति गाथाद्वयार्थ
॥ २१२--२१३ ॥ उत्त० पाह० ५ श्र ०)
(४ ) श्रप्रशस्तमरणानि--
दो मरणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं शि
ग्यंथाणं शो शिच्चं वालिया, णा शिच्च 'कित्तियाई
शो. शिच्च पूइयाईं, णो ।शेच्च पसत्थाइई, शा शिच
अब्भणुन्नायाई भर्वति | तं जदा-बलायमरण चव, वस-
मरणे चेव १, एवं शियाणमरणे चव,तब्भवमरण चव् २,
गिरिपडणे चव, तरुपडशे चव ३,जलप्पवेम चच,जलशप्यवय
| चेव ४, विसभक्खसणे चवे, सन्धोवाडण चव ५ | दा मरणाई
° जात शो. शिच्चं अब्भशुझायाई भवंति, कारणश पुख
अप्पड़िकुद्गाई । तं जहा-वेद्दाणस चव, गिद्धपद्र चच £ ।
{ ११० )
रश !
(दरा मरणाई इत्यादि) कण्स्या अआअयम् , नत्रर द्र मरणे
श्रमणन भगवता महावोरेण श्राभ्यन्ति- तपस्यन्तीति श्रम- |
णास्तेषां. ते च च शाक्या 55दयो5पि स्युः| यथाक्कम्-णिग्नथ
१ सक्त २ तावस ३. गरुय ४ आजीब ५ पंचहा समणा । `
इति | तद्व्यवच्छृदाधमाद-निरना ग्रन्थाद्-बाह्याभ्यन्तरादि-
ति निर्रन्थाः-साधवस्तषां ना ` नित्यं ` सदा वर्णित
नांस्तयाः प्रवत्तेयितुमुपादेयफलतया नासमिहिते कीत्ति-
ते-नामतः संशब्दिति उपादेयधिया ( बछुदयाई क्ति )
उ्यक्रवाचोङ्के उपादेयस्वरूपतः , पाठान्तरेण-' पूजिते वा `
तत्कारिपूजनतः ` प्रशस्ते प्रशोसिते स्छाघित ` शेखु `
स्तुतौ इतिवचनान् । ` श्रभ्ययुज्ञात ' अलुमते यथा कुरुत-
ति । ( बलायमरणं ति ) बलतां-संयमाल्निवत्तेमानानां प-
रीषटा 5 :दिवाधितत्वात मरण बलन्मरणम् , ( चसट्टमरण
ति) इन्द्रियाणां चशमधीनता स्तानां-गतानां स्निग्धदीपक-
लिकावलोकना 5 ऽकुलितपतद्काऽ 5 4दीनामिव मररं वशात्तेम- *
रणामिति । श्राद च--'' सजमजागावसन्ना. मरेति जे ते
चलायमरयो ते इद्यविसयवमलगया. मरति ज ने वसद
तु ॥ ४॥ `` इति,। ( एवं नियाणत्यादि ) एवमिति ` दो म-
रण समरे ` इत्याद्यभिलापस्यात्तरसत्रष्वपि सूचनार्थः,
ऋद्धिमागाऽदिप्राथेना निदाने तत्पूर्वकं मरणो निद्रानमरणौ ,
यस्मिन् भव वक्तेते जन्तुस्तद्धवयोग्यमवा ८ +युवेद ध्वा पुनरि
यमाणस्य मर्गा तद्भवमरणम | णतच्च सङ्ख्यानायुष्कनर-
तिरश्चामव, नषामव हि नद्धवायुर्बन्धो भवतीति । उक्र
च--'' मात्ते अकस्ममृमम-नरतारए खुश्गण य नेरइण ।
ससाणएं जीवाणं. नव्भवमस्य तु केसिंचि ॥१॥" इति
(लत्थावाडण न्ति) शस्त्रण-क्षु रिका 5 5दिना अवपाटने-विदा-
रण म्वशुरीरस्य यास्स्तिच्छुस्त्रावपाटनम' ॥ ४ ॥ ( कारण
चुणेत्यादि) शीलभज्जरक्षणा ५ ५दों पाटान्तर तु-कारणन “अ्प्र-
निकुष्ट! अनियारित भगवता, वृक्तशाखा 5 ६दावुद्व दत्वाद वि-
यसि-नभासि. मव चेहायसे घाकृतत्वेन-' तु वेहाणसे ;
स्युक्रामाति, गृधः स्पृ 9 --स्फ्शीने यस्मिन तन गरधस्पृष्र, यदि
खा गृभ्राणां भच्य पृषटमुपल्तणत्वादुदराऽथ्दि च तद्धच्य-
करिकरभा 5दिशरीराड्घवशन महासत्त्वस्य मुसूर्पा्यस्मिस्त-
त् गृ्रस्पृषटामनि । गाथा ज~" गद्भा 5:दिभक्खण ग--हुप-
इुमव्वध्रणा ८८दिवद्रासे । पन दवाच्चिऽचि मरणा, कारण--
जाव अणुल्लाया ॥ १॥ इति ।
८४) अप्रशस्तमरणानन्तरं तन परशस्तं भव्यानां भवतीति.। '
तदाहद- ।
दा मरणादे समणे् मगवया महावीरेणे सम-
शाणं निगगधाणं णिच्च वश्णियाइं० जाव अब्भ-
णुन्नायाई भवंति । तं जहा-एाञ्यावगमे चव, भत्तप-
जचक्खाणे चव ७ | एओवगमणो दु विदे पने । तं जहा- |
हारम् चव, अर्गाहारिमे चव , शियमं अप्पडिक्मे ८।
भत्तप्च्चक्खाग दुवे पन्नत्ते | तं जहा-णीहारिमे चव,
८,अ्णीहारिम चव, णियमे सपडिकमे ६ ।( सूत्र-१०२ )
(दा मब्णाई इन्यादि) दा कृक्तस्तस्यव दधुन्नर्पाततस्याष-
गमनमत्यस्सनिश्चण्तया उवस्थाने थर्स्मिस्तस एादपोपगमन
भक्त
श्रभियानराञन्द्रः।
7 -
-भोजने तस्यैव नचष्टाधा अप पादपोप्रगमन उव |
मरण
थ्रत्याख्यानं-वर्जने यरस्मिस्तत् भक्कप्रत्याख्यानमिति । ( न
हारिमे ति ) यद्दसतेरेकदेश विधोयते तत्ततः शरी-
रस्य निहैरणाज्निस्सारणाल्निहौरिसम . यत पुनर्गिरिकन्द-
राऽऽदौ नद् निर्हरणादनिर्हारिमम् ( णियमे ति ) विभक्त
परिणामान्नियमादप्रतिकर्म--शरारप्रतिक्रियावज पादपो-
पराममनमिति । भवति चाज गाथा-'सीहा 5 5दिखु श्रभिभू-
आओ, पायवगमणो करेइ धथिरचित्तो । आर्डाम्म बहुप्पंत
वियाणिड नवरि गीयत्था ॥ १॥ `" इति । इदमस्य व्याघा-
तवदुच्यते . निर्व्याघात तु यत् सूतन्रार्थनष्ठित उन्सगतो
द्वादश समाः(मासाः)कृतपरिकर्मा सन काल एव करोतीति ।
तहिधिश्चायम्--
चत्तारि विचित्ताई, विगई निज्जूहियाईं चत्तारि ।
संवच्छुरे य दुन्नि उ, पएरतरियं च आयाम ॥ १ ॥
नाईइविगिद्भा य तवा. म्मा परिमियं च आयाम॑े ॥
विय छुम्मासे, होाइ विगिद्भु तवाकम्मे ॥ २॥
वास कोडीसहिये, आयामं काउ आखुपुड्वाए।
सप्रयणादरणुरूवं, एत्तो अद्धाइ नियमे ॥ ३
यतः-
४ देहम्मि असंलिहिए, सह सा. धाऊहि खिज्जमाणोहिं ।
जायइ अद्टज्भाणं. सरीरिणो चग्मकालम्मि ॥ ४॥ ""
किञ्च-
८ भावमवि सेलिहेई, जिणप्पणीएण भाणजोगेणं ।
भूयत्थभावणाहि य. परिवड्डइ वाहिमूलाई ॥ ५ ॥
भावड़ अमवियप्पा, विसेसओ नर्वारे तस्मि कालम्मि।
पये निग्गुणत्त, संसारमहासमुद्स्स ॥ £ ॥
जम्मजरामरणजला, अणाइम वसणसावयाइन्ना ।
जीवार दुकखहेऊ., कटं रादौ भवसमुद्दो ॥ ७ ॥
घन्नो5हे जण मए, अणोर प्रारम्मि नवरमयम्मि ।
भवसयसहस्सदुलहं, लद्धं सद्धम्मजाणे ति ॥ ८॥
यस्स पभावेण, पालिज्जतस्स सद पयत्तेरा ।
जस्म ऽतर वि जीवा, पावति न दुक्खदागच्च ॥ ६ ॥
चितामणी अउव्यो, एस अपुव्यो य कप्फरुक्वा क्ति |
एये परमो मता, एये परमा ऽऽमयं एस्थे॥ १० ॥
पन्थ, वेयावडिये, गुरुमाईण महा ऽखुभावायो ।
जासि पभात्रणयं, पत्त तह पालय चच.॥ ६१॥
तेसि नमो तसि नमो, भावस पुणो वितसि चव नमो ।
श्रावक्रयपरदियरया, ज पप्य दिति जीवार ॥१२॥ "इत्यादि ४
“सालहिऊण 5प्पाणं, णयं पञ्चप्पिणेत्त फलगाई।
गुरुमाइए य सम्म, खमाविङ भावसखुद्धीप ॥ १३ ॥
उबवृहिऊण स्स, पडिवद्ध तम्मि तह विससणं ।
धम्म उञ्जमियव्वे, सजोगा इट विश्योशता ॥ १४॥
अह वेदिऊण देवे, जहाविहिं सेसए य गुरुमार ।
पतच्चक्खाइत्त तओ, तयेतिए सञ्वमाहारे ॥ १५॥
समभावस्मि ठियप्पा, सम्प्र सिद्धतमणिधमग्गेे ।
गिरिकदरम्मि गतु, पायवगम्रणे,. अह करेइ ॥ १६ ॥
सन्वत्थापडिबद्धा, दंझाययमाद टाणमिह ठाउं।
जावल्जीवं चिद्धुर, निच्चद्रोः पायवसमाणो ॥ १७ ॥
पढ़मिल्लयसंघयणे, मदाखुभाकाः करति एवमि ।
पाये सुहभावच्चिय, शिच्चलपयकारणं परमे ॥ १८ ॥४
भक्तपरिज्ञा 5 णलतणे, चउव्विद्ा 55द्ारत्रायनिप्फन्ने ६
( ११२१ )
सरण
सपडिकम्श नियमा,जहा समाही विणिददिट ॥ १६॥' इति । |
इज्कितमरणे त्विह नोक्त, द्विस्थानकानुरोघात् . तज्लक्षणं
घदप-+' इंगियदेसाम्मि सयं, चउव्विहा55हारचायानि-
प्फन्न । उव्वत्तणादइजु त्त,न 5ण्णेण उ इंगिणीमरणं ॥ १॥' द्रति ।
स्था० २ ठा० ४ उ० |
( ६ ) पश्चविधमरणानि--
कइविहे रं भते ! मरणे पष्पत्ते १। गोयमा ! पंचविहे
मरण पष्पत । तं जहा-अवीचेयमरण, ओहिमरणे, आ- |
दितियमरणे, बालमरणे, पंडियमरण । अ वीचियमरणे णं '
भत ! कई विह पष्पते ?। गोयमा ! पंच विहे पष्पत्ते । तं जहाद -
व्वाऽऽ्वीवचियमरणे, खत्तवी चियमरणे, कालावी चियमरणे,
भवावीचियमरणे,भावावीचियमरणे । दव्वावीचियमरणे णं
आामभंधानराजर
भते ! कइविहे पष्पते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । . तं |
जहा-शरइयद व्यावीचियमरणे, तिरिक्वजोणियदव्वावी-
चियमरणे,मणुस्सद व्वावीचियमरणे,देवदव्याकीचियमरणे।
से केणश्टरणं भते ! एवं बुचई्-शेरहयदव्वावीवियमरणे |
णेरइयदव्वावीचियमरणे ?। गोयमा ! जण्णं णेरइया गेरइ-
ए दव्वे वद्ठमाणा जाई दव्वाई णरइयाउयत्ताए गहि-
याई बद्धाई पुद्ठाई कडाई पढ्ढवियाई निविद्ठाई अभि- |
णिवेट्ठाईं अभिसमणएणागयाई भवति,ताई दव्याई अवीची |
अशुसमय शिरतरं मरंतीतिकद्द, से तेणड्टरणं गोयमा !
एवं वुच्चर-णरहयदव्यावी।चियमरणे, एवं ०जाव देवद-
व्ववीचियमरणे । खेत्तावीचियमरणे शं भते ! कई- |
विहे पप्पत्ते स्। गोयमा ! चउव्विहे पप्तत्ते, त॑ जहा-णेरइ- |
यखेत्तावीचियमरणे ०जाव देवखेत्तावीचियमरणे । से के- |
णछ्डेणं भते ! एवं वुच्चई-णेरहयखेत्तावीचियमरणे खे- |
रइयखे त्तावीचियमरणे ?| गोयमा ! जष्पं शरहया णेरइय- ।
खत्ते बड़माणा जाई दव्याई णरहयाउयत्ताए, एवं जेव
दव्वाबीचियमरणे, तहेव खेत्तावीचियमरणेडवि, एवं० |
जाव भावावीचियमरणे । ओहिमरणे शं भते ! कडविहे
पष्पत्ते | गोयमा ! पचविहे पष्पत्त | तं जहा-दव्बोहिमरणे,
खेत्ताहिमरणे ०जाव भावोहिमरणे । दव्बोहिमरणे णं भते!
कड विहे पष्पत्ते | गोयमा ! चउव्विहे पप्मत्ते तं जहा-श-
रहयदव्योदिमरणे ०जाव देवदव्योहिमरणे । से केणड्टरशं
भते ! एवं बु चद शेरदयदव्योहिमरणे णेरहयदव्वोहिमरणे ?। ¦
गोयमा
जप्यं शरहया शरइ्यदव्वे वटमाणा जाई द-
व्वाहं संपयं मरेंति जघ णेरइया .ताईं दर्व्वाई श्रणा- |
गए काले पुणो बि मरिस्संति,से तेण5द्वेणं गोयमा ! जाव
दब्बोहिमरणे, एवं तिरिक्वजोशिय ० मणुस्स० देवदव्वो-
हिमरणे वि। एवं एएणं गमणएणं खेत्तोहिमरणे वि कालो- ¦
हिमरणे वि भवोहिमरणे वि भावोहिमरणे वि। आंदिंतिय-
मरणे णं भते ! पुच्छा !। गोयमा ! पंचविहे पष्पन। तं जहा-
सरत्त
दव्वा55दिंतियमरण खेत्तार्दि तियमरणे जाव भावादिंति-
यमग्ण | दव्खा।द्(तयमरणं ण भत . कह्दावह पछ्मत्त १
गायमा ! चउन्विह पापे । तं जहा-शरइयद व्वाह्तिय-
मरणे ०जाव देवदव्वाईतियमरणे । से केणड्टरणं मेत [
एवं वुच्चई- गरहयद व्वाईतियमरण शरहयदव्वाईतिय-
मरणे ॥ गोयमा ! जपो शरइयाणं णरइयदव्य॑ वइमाणा
जाई दव्वाई संपयं मरति, जणं शरइया ताइ दव्वाई अ-
णागए काले णो पुणो वि मरिस्संति,से तेण5्ट्रेणं ० जाव मर-
णे,एवं तिरिक्ख ० मणुस्स ०देवादिं तियमरणे , एवं खत्ताइईति-
यमरणे वि । एवं० जव भावादिंतियमरण वि । बाल-
मरणे णं भते ! कडि टे पष्यत्ते ?। गोयमा ! दुवालस विदे
पष्पत्ते । तं जहा-बलयमरणं जहा खदणए ० जाव गिद्धपिदट ।
पंडियमरणे णं भते ! कडपिहे पपत्त १ ग।यमा ! दुविहे
पष्पत्ते । त॑ं जहा--पाओवगमणरो य, भत्तपचक्खाणे य ।
पाश्रेवगमणे णं भते ! कड्विहे पछ्तात्ते ग।यमा ! दुविहे
पष्पत्त । तं जहा-शीहरिमे य, अणीहारिमे य °जाव शि-
यमा अपडिकमे । भत्तपच्चक्खाणे णं भते ! कइविहे
पण्णत्ते | एवं तं चव णवरं णियम सपटिकमे। सबं भंत ।
भते ! त्ति। [ सत्र-४६६ ] भ० १३ श० ७ उ०।
सम्प्रत्यतिवहुभददशनान्मा भूस् कस्यचिदश्र-
द्वार्नार्मात सम्प्रदायगर्भ निगमनमाह--
सत्तरसविहाणाई, मरणे गुरुणो भणंति गुणकलिआ ।
तेसि नामाविभात्तिं, वुच्छामि आहाणुपृव्वीए ॥२१४॥
सप्तशश--सप्तदश संडुख्यानि विधीयन्त-विशषाभिंव्यक्कये
क्रियन्त इति विधनान -भदाः. ` मरण ' मरणावषयाण
“ गुरवः ' पूज्यास्ती थक्हुणभ्रदादयों भणन्ति ` प्रतिपाद-
यन्ति.गुशेः-सम्यग्दशनज्ञाना ऽ ऽदिभिः कलिता -युक्रता गुणक-
लिताः, न तु वयमव इत्याकृत, वच्यमाणग्रन्थसम्वन्धना-
थैमाह-' नेषां ` मरणानां नाम्नाम--अभिधानानामनन्तर-
मुपदुशितानां विभाक्रः--श्रथलो वभागा नामविभाक्रस्तां
' बच्य ' श्रभिधास्ये, ' अथ ` इत्यनन्तरमव, श्यानुपृ्व्या--क्र-
मेणेति गाथा ऽथः ॥ २९४ ॥
यथाप्रतिज्ञातमाह--
दणुसमयनिरंतरमवी इस न्निपं ते भशंति पंचविह।
दब्बे खित्ते काले, भवे य भावे य मसारे ॥ २१५॥
* अखुसमय ` समयमाधिन्य, शदे च व्यवहिनसमया 5 5श्र-
यरताऽपीति मा भृद् ्रान्तिरन अःह--निरस्सरे, न सान्त-
रम् , अन्तराला ऽसम्भवात् , कि तंदर्थायधम ?--' श्रवाइ-
सनियं ति ' प्रारटतत्वाद्-श्रासमन्ताङ्कीश्रय इख वीचयः प्रति.
समयमनुभूयमाना ऽ ऽयुषा ऽपगाऽ- सुर लिकादरयान पूर्वपूर्वा $:-
युककलिकविच्युतिलक्षसा ऽवस्था यार्स्मिस्टदा5 4वी चि. तश्चा
वबीचीति संज्ञा सञ्जाता श्रस्मिस्तारक्ाऽऽदिः वान् `नद्धम्य स~
आतम् ' ˆ तष्टकाऽऽदिभ्य इतच.' (पा० /-२-४६) इत्यने
( ११२ )
क. थ
अआभध्रानराजर
भरण
त्यातील सितम्. अथवा-वीचिः-विच्छुदस्तदभावादवीचि
तत्सेश्वचितम . उभयत्र प्रक्रमान्मरणे, यद्वा-सेक्लितशब्दः प्रत्य-
कर्माभसम्त्रध्यत, ततश्च शरचुसमयसेन्ञित-निरन्तरसल्ितम्
अवीचिसंश्ितामाति एकार्थिकान्येतानि, “ तद् ` इत्यावीचिः
मरणे ` भणति ` प्रतिपादयन्ति ` पञ्चविध ` पञ्चप्रकारं,
गणध्रा ऽद्य इति गम्यते | अनेत च चारतन्त्यं द्यातयति,
तदेवा 5 5ह-दव्व त्ति द्रव्या ऽऽवीचिमरणे `खत्त त्ति' क्षेत्रा-
<5वीचिमरणं ` काल त्ति ` कालाऽऽचीचिमरण ` भवय त्ति"
भवाऽऽवीचिमरणे च, भावे य.नि'भावाऽधवीचिमरणे च.से- |
सार इदत्याधारनिर्देश:,त जेब मरणस्य सम्भवात्, तत्र द्रव्याः |
<4-वीच्प्मिरणं नाम यन्नारकतियग्नरामराणामुत्पत्तिखमयात् |
प्रञ्रात नज्ञानजा 5 5यु कम्मदालक्ानामनुसमयसनचुभवनाद्व-
चरन, त नारक्राऽ द् भद्ाखतुकवधम्, एव जारका55दग- |
तिचातुर्विध्वापक्षया तद्विषयं त्तत्रमपि चतुद्धव, ततस्तत्प्रा-
धान्यापक्तया क्षा ऽऽवीचिमरणमपि चतुर्धव, "काल त्ति' य
शा ऽ ऽयुष्ककाला गृह्यत, न त्वद्धाकालः, तस्य देवा +ऽदिष्व
सम्भवात्, स च देवाऽ पयुष्ककाला ऽ ऽदिधदाचतुर्बविधः, तत-
स्तत्प्राधान्यापक्तया काला ऽऽवोचिमरणमपि चतुर्विधम्.प्व-
नारका 55दिचतुर्विधभवा5पक्षया भवाऽऽवीचिमरणमपि चतु
दैव, तेपामव च नारका 5 5दीनां चतुर्विधमायुःक्षयलक्षणं भावं
प्राध्रान्यनाऽपच्य भावाऽ ऽवीचिमरणम पि चतुद्धैव वाच्यमिति
गाथाऽथः॥ २१५ ॥
अधुना अवाधिमरणमाह--
एमव ऑहिमरण, जाणे मआ। ताख चव मरह पुणा |
पवमव ` यथाऽऽवाचमरणं
द्र व्यत्तत्रकालमवभाकवम- |
दतः पञ्चविधं, तथा अवधिमरणमर्पीत्यर्थः। तत्स्वरूपमाह-- |
यानि मतः, सम्प्रतीति शषः, तानि चैव “ मरद पुणा त्त
च्ापरत्वात्तिङ्ञ्यत्यय्रन मरिष्यति पुनः। किमुक्तं भवातिः--अ- |
वथिः-मयीदा,नतश्च यानि नारका ऽऽदिभवानिवन्धनतया-$5-
युःक्मदलिकान्यनुभूय व्रियते, यदि पुनस्तान्यवानुभूय म-
रिष्यति तदा तदद्रव्यावधिमरणेः सम्भवति हि ग्रहीतोज्मि-
तानामपि कम्मेदलिकानां पुनग्रहणम्, परिणामवेचिच्याद् ,
पनरे ज्ञाऽ ऽदिष्वपि भावनीयस ।
पश्चार्दना 5ऽत्यन्तिकमरणमाद--
एमव आइयंतिय -मरण न वि मरइ ताइ पुणो ॥२१
'"पवमव' श्रवधिमरणवदात्यान्तिकमरणमपि,. द्वव्या55दि-
भदतः पञ्चविधं.विशषरू्वयम्--' ण वि मरइ ताद पुणा तत्त
श्रपिगय्दस्मेबकागाश्रन्वाद् नेव तानि द्रया दीनि पुनज्नियते
इृदगुङ्कभवाति-पानि नरक्राऽऽयायुष्कतया कमदालक्रान्य- |
नभय खियते, तावा न पुनस्तान्यदुभूय मरिप्याति, एवं
क्षत्रा:८टिप्यपि बाचये.तीरया[प चामन्यावाच्यचध्यात्यान्तकः
मर्ग्याति प्रत्यके पञ्चानां द्रब्या 5 ५ठीनां नारका $ 5दिगातिभदे-
न चनुर्विधत्याद चिर्शालभदानीति गाथाऽऽथः॥ २१६॥
स्वाम्प्रतन तननन्पग्णमादट--
सेजमजागविसजा, मरति ज तं बलायमरणं तु ।
इंदियविसयवसगया, मरति ज ते बसई तु ॥ २१७॥
संग्र पये गाः->स्सेयसव्यापारास्तैस्तेपु वा विषणणाः सयम-
योगाधिषणणा अतिदुश्वर तप्रश्चरणमाचारतुपक्तमाः बते च
माक्रमणक्युवन्तः कर्थाश्वदम्माकाप्रितों सुक्तिरस्त्विति ` वि-
चिन्तयन्तो च्ियन्ते यत्तद्रलतां--संयमाननिवक्तैम्रानानां म-
रणं बलन्मरणं , तुर्वेशिषण , भग्नवतपरिणतीनां बति-
नामेवेतदिति विशेषयति, अन््येषां हि संयमथोगानामेबा-
सम्भवात् कथ तद्विषादः? तदभावे चत्र तद्विति । पश्चा-
दन वशार्चमाह--दन्द्रियाणां--चचुरादीनां विषयाः-मनो-
झरूपा 5 ऽद्य इन्द्रियविषयास्तद्धशै गताः-पाप्ता डान्द्रियविष-
यवशगताः स्निग्धदी पकलिका ऽचलोकना ऽऽ कुलितपत दभवत्
भ्रियन्त यत्तद्धशात्तमरणे , कथञ्चिद् द्वव्यपर्या ययोरभदादेवमु
च्यत, पव पूर्वत्रापि भावनीय, तुशष्द णषामप्यध्यवसानमे-
दतो वेचिञ्यख्यापनाऽथ इति गाथाः ॥ २२७ ॥
अन्तःशल्यमरणमाह--
लज्जाइगारवेण य, बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरिअं ।
जन कहंति गुरुणं, न हु ते आराहगा दहति ॥२१८॥
गारवपंकनिवुड़ा , अइयार॑ जे परस्प न कहंति ।
दंसणनाणचरित्ते ससल्लमरणं हवइ तसिं ॥२१६॥
तत्र 'लज्जया अनुचिताजुष्ठानसंव रणा $ ऽत्मिकया "गौरवेण
च ` सात{दरसगोरवात्मकेन,मा भून्ममा 5 ऽलोचनादैमाचार्य-
सुपउपतस्तद्न्दना£ऽदिना तदुक्कतपोऽचुष्टानाऽऽसखवनेन च
ऋद्धिरससाताभावसम्भव इति , बहुश्रुतमदेन वा-बहु-
श्रुतो ऽदं तत्कथमल्पश्रुतो ऽयं मम शल्यमुद्धरिप्यति ? , कर्थ
चाहमस्य वन्दना ऽऽदिकं दास्यामि ? अपश्राजना हि इयं
मम इत्यभिमानन, श्रपिः पूरणे , ये गुरुकम्मोणो न कथय-
न्ति ना 55लोचयन्ति,केषाम्? ,--- सुरूणाम' आलोचनाहो णा-
माचार्या अदीनां, कि तद् ?-दुश्वरितं-दु सरल छितम् , इति सम्ब-
न्धः, "न हु' नैव 'ते! अनन्तरमुक्करूपा आराधयन्ति--अविक-
लतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शना5दीनि इत्याराधका भव-
न्ति,ततः किमित्याह-गोरवे पङ्क इब॒ कालुष्यह तुतया तस्मिन्
निवुड़ा'-दइति प्राकतत्वान्निमग्ना इव निमग्नाः तत्काडीकृतत -
या , लज्ञामदयोरपि प्रागुपादाने यदिद गोरवस्यवापादा-
ने तदस्यैवातिदुष्टताख्यापनाथम् , ° श्रतिचारम् ` श्रपरा-
धय * परस्य ` श्राचा्याऽऽदः न कथयन्ति, किविषयम् ? ,
इत्याह -'दशनज्ञानचारित्र-दशनन्लानचारित्रविषय, तत्र दशे-
नचिषये शङ्धाऽ:दि.श्चानविपय कालातिक्रमाउ*दि,चारित्रविष-
ये सामित्यननुपालना $ ऽदि .शल्यांमव शल्य कालान्तर ऽप्यनि-
एफलविधाने परत्यवन्ध्यतया, सह तेन सशल्य, तच्च त
न्मरणं च सशल्यमरणम्--शअन्तःशल्यमररो भवति , ` त-
! गोरवपङ्कनिमग्नानामिति गाथाद्धया्थः ॥२१८-२१६॥
अस्येवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापपन् फलमाह--
एयं ससन्नमरणं, मरिऊण महब्भए दुरंताम्मि ।
सुइरं भरते जीवा, दीहे संसारकंतारे ॥ २२० ॥
« पतद् ` उक्रखरूप सशल्यमरण यथा भवति तथेत्यु-
पस्कारः , सवुच्छ्ययाद्वा पतेन सशलयमरणेन “ सत्वा '
त्यक्त्वा प्राणान् , क ?--जीवा इति सम्बन्धः । किम् ?-
सुचिर श्रन्ति ` बहुकाले परन्ति, क्व !--ससारः का-
न्तारमिवातिगदनतया सेसारकान्तारः, तस्मिन्निति सरट-
क्कः । कीटाशि ?-मददद्धये यस्मिन् तन्महाभयं तस्मि , तथा
दुःखेनान्तः- पन्ता यस्य तद् दुरन्तं तस्मिन , तथां ' दी `
( ११६ )
भरण
अनादों केषपाञ्चिदपयवसिते चेति तत् सवथा परिहत्तैव्य-
भवेति भावः । इति गाथाऽथः ॥ २२० ॥
तद्धवमरणमाह-
मोत्तं यकम्मभूमग-नरतिरिए सुरगणे अ नेरइए ।
सेसाणं जीवां, तन्भवमरणं तु केसिं चि | २२१॥
मुक्त्वा ` अपहाय, कान् ?-
त्ति ` सत्वात् श्रकम्मेभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादिषृत्प-
ह्षतया नरतिर्यञ्श्च अअकम्मभूमिजनरति्यश्चस्तान् , तेषां
हि तद्धवानन्तरं देवेष्वेवात्पादः , तथा ' सखुरगरणंश्च `
स्ुरनिकायान् , किमुक्ल भवति ?-चतुर्निकायवा्तिनोऽपि दे
वान् , निरयो-नरकः तस्मिन् भवा नैरायिकाः, इहापि च-
शब्दानुवृ त्तस्तांश्व मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्ध-
वानन्तरं तिग्मनुप्यष्वेवोत्पत्तेः, * शेषाणाम् ' एतदुद्वरितानां
कम्मेभूमिजनरतिरश्चां जीवानां ` प्राणिनां तद्धवमरणे , ते-
षामेव पुनस्तत्रोत्पत्तः , तद्धि यस्मिन् भवे वत्तेते जन्तुस्तद्ध-
ओआआभधानराजन्द्रः
|
अकम्मभूमगनरतिरिषप |
वयोग्यमवा $ ऽयुवेद्धा पुनस्तत्क्येण प्रियमाणस्य भवति, तु- |
शब्दस्तेषामपि सङ्ख्येयवर्षा ऽ शयु षामवेति विशेषख्यापकः,
श्मसङ्ख्येयवर्षाऽ ऽयुषां हि युगलधार्मिकत्वादकमैभूमिजा- |
नामिव देवेष्ववोत्पादः, तेषामपि न सर्वेषां , किन्तु ' केषा- |
त् ' तद्भवोत्पादानुरूपमेवा55युःकम्मोंपाचिन्वतामिति
गाथाऽथः॥ २२१ ॥
अन्नान्तरे प्रत्यन्तरेषु मो त्तगओहिमररं' इत्यादिगाथा दश्यत, |
न चास्या भावाथेः सम्यगववुध्यते, नापि चार्णिक्रता सो व्या- |
ख्यातेति उपेदयते । सम्प्रति वालपरिडतमिश्र मर णस्वरूषमाद-
अविरयमरणं बालं, मरणं विरयाण पंडियं बिंति।
जाणादि बालपंडिय- मरणं पुण देसविरयाणं ॥२२२॥
विरमणं विरतं -दिंसाऽरृताऽ देरुपरमणं न विद्यते तद् येषां |
तेऽमी श्रविरताः तेषां--सृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्रतिप-
द्यमानानां मिथ्यादशां सम्यग्टशां वा मरणमविरतमरणं-
चालमरणमिति ब्रुवत इति सम्बन्धः । तथा“विरतानां ' सर्वसा-
वद्यनिवृत्तिमभ्युपगतानां मरणं 'परिडत' मिति प्रक्रमात्पणिड-
तमरणम् , “विति त्ति' बुवते ती धकरगणधरा ऽऽद्यः, जानीहि
* बालपरिडतमरणमिति ' मिश्रमरणं, पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया
विशेषं द्यातयति, देशात् सर्वविषयाऽपेक्तया स्थूलघ्राणिन्यप-
रोपणा ऽ दर्विरता देशविरतास्तेषामिति गाथा ऽथः ॥ २२२ ॥
पवं चरणद्धारेण वाला +ऽदिमरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्धारिण
छद्यस्थमरण-कबलिमगणे प्रतिपादायितुमाद--
मणपजवोहिनाणी, सुअमइनाणी मरति जे समणा ।
छउमत्थमरणमेय, केवलिमरणं तु केवालिणो ॥ २२३ ॥
मनःपर्यवज्ञानिनो ऽवधिज्ञानिनश्च , क्षानिशब्दस्य प्रत्येक-
मभिसम्बन्धात् , श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्थ ' प्नियन्ते ' धा-
णांस्त्यजन्ति ये ' श्रमणाः ' तर्पास्वनः छादयन्तीति छुझानि- |
झाना55वरणा55दीनि तेषु तिष्ठन्तीति चद्यस्थाः तेषां मरणं
छद्यस्थमरणमेतत् , इद च प्रथमतो मनःप्यायनिर्देशो वि-
शद्धिरतप्राघान्यमङ्गाकूत्य चारित्रिण पव तदूपजायत इ-
ति स्वामिरूतग्रधान्यापेत्तो वा, पवमवध्यादिष्वपि यथा-
योग स्वधियैव हेतुरभिधेयः केवलिमरणौ तु ये केवलिनः--उ-
त्पन्नकेवलाः सकलकर्म्मपुद्रलपरिशाटतो ध्रियन्ते तज्केयमि-
२६
मरण
ति शषः, उभयत्राभेदनिर्देशः प्राग्वदिति गाथाऽथः॥ २२३ ॥
साम्प्रतं बेंहायसग्रृधपृष्ठ (स्पृष्ट) मरणे अभिधातुमाह--
गिद्धाइभक्खणं गि-द्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं ।
एए दुन्निवि मरणा, कारणजाए अणुप्माया ॥ २२४ ॥
मृद्धा: ` प्रतीतास्ते श्रादिर्येषां शक्ानकाशिवाऽऽदीनां
तेभक्तण गम्यमानत्वादारमनः तदनिवारणा ऽऽदिना -तद्ध-
चयकरिकरभाऽऽदिशरीरानुप्रवशन च गृध्राऽऽदिभक्तणं ,
तत् किमुच्यत इत्याह--' गिर्दधापट्ू त्ति ` ग्धः स्पृर्ट--
स्पशाने यास्मस्तद्गरध्स्पृष्टम् , यादिवा--गरधाणां भक्ष्य पृष्ठ
सुपलक्तणत्वादुदरा $ ऽदि च स्तयास्मिस्तद् गृध्पृष्टम् , सद्यल-
कृकपृणिकापुटप्रदाननाप्यात्मान गृधाऽऽ्दिभिः पृष्ठाए5दो भ
क्षयताति, पश्चाननिर्दिंष्टस्यापि तारस्य प्रथमतः प्रतिपादन-
मत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कम्मनिजरां प्रति प्राधान्यख्या-
पनार्थम् , ` उब्बंधणाइ वहासं ति ` उत्-ऊङ् वृत्तशाखा-
ऽदो बन्धनमुद्धन्धनं तदादिययस्य तरूागिरिभ्रगुप्रपाताऽभ्देरा-
त्मजनितस्य मरणस्य तदुद्धन्धना.ऽ ऽदि ' वासं ति ' प्राक्ृत-
त्वा्यलोपे वैदायसम् , उद्धद्धस्य दि विद्ायस्येव भवनमिति
तत्प्राघान्यविवक्तयेत्थमुक्तम् । आह-एवं ग्रृूध्रप्रष्टस्याप्या-
त्मघातरूपत्वाद्वैदायसिकेऽन्तभीवः, सत्यमेतत् . केवलम-
ल्पसत्वैरध्यवसातुमशक्यताख्यापनार्थस्य भेदेनापन्यासः ,
ननु-- भावियजिणवयणाणे, मयत्तराहियाण णत्थि हु वि-
सेसो । अत्ताण॒म्मि परम्मिय, तो वज्ञ पीडमुभए वि ॥१॥”
इत्यागमः, एते चानन्तरोक्रे मरणे श्रात्मविध्रातकारिणी, तथा
चा .ऽऽत्मपीडाहेतुरिति कथ नाऽऽगमविरोधः ? , अत एव
च भक्कपारेक्ञानाऽऽदिषु पीडापारिहाराय "चत्तारि विचित्ताई,
विगदं णज्जू०॥ ६८२ ॥ इत्यादि संलेखना विधिः पानकाऽ ऽदि-
विधिश्च तत्र तत्राऽभिदितः, दशीनमालिन्यं चाभयत्रेत्या-
शद्क्या ऽह“ पत ` अनन्तरोक्के ' द्वे अपि ` गृध्पृष्टवहा-
यसा ऽऽख्ये मरणे 'कारणजाते' कारणप्रकारे दशनमालिन्य-
परिहाराऽऽदिके उदायिनरपाजुखततथाविधाऽ ऽचाय वत् श्नु-
ज्ञते, तीथेरृद्रणधरा + 5दिभिरिति, अनेन च सम्प्रदायानुसा-
रितां दशीयन्नन्यथाकथने श्रुताऽऽशातनायां अतिदरन्तत्वमा-
ह । इति गाथाऽथैः ॥ २२४ ॥ उत्त०पाई० ५ श्र ० ।
(७ ) साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराक्रमेतरभदाद्
द्विविधमिति दशयितमाह--
सपारेक्कमे य अपरे क्कमणए य वाघाय आखुपुव्बीए |
सुत्तत्थजाणएण, समाहमरय तु कायव्वे ॥ २६४ ॥
पराक्रम: सामथ्यं सह पराक्रमेण वत्तत इति सपराक्रम-
स्तस्मिश्व मरणो स्यात्, तद्िपर्यये चापराक्रमे-जहाबलपरि
त्तीणे तद्धक्कपरिज्ञाङ्गतमरणपादपापगमनभेदात् त्रिविधमपि
मरणं सपराक्रमेतरभदात् प्रत्यकं दवेविध्यमनुभवति, तदपि
व्यांघातिमतरभेदात् द्विधा भवेत्. तत्र व्याघातः सिदव्याघ्रा-
55दिकृतो ऽव्याघातस्तु प्रवज्यासूत्ारथग्रहणा ऽ ऽदिकया ऽनुपूः
व्या विपकृत्रिममायुप्कत्तयमनुभवतो या भवति सो ऽव्याघान
इहा 5नुपृर्वी त्यक्लं, तत्र परमार्थोपक्तपणापसंहरति व्याघातना-
5नुपूर्व्या वा सपराक्रमस्या ऽपराक्रमस्य वा मरण समुपस्थिने
सति सूत्रा.थक्षन कालक्षतया सर्माधिमरणमव कर्तव्य, मक्कप-
रिज्ञङ्गितमरणपादपापगमनानामन्यतरद् यथासमांध विघर्य॑
न वेहानसा 5 ऽदिकं बालमग्णं कत्तव्यमिति गाथा ऽ थ:॥२६४४
(शध.
मरण
तत्र सपराक्रममरणे दृष्टरान्तद्वारेण दर्शायितुमाह--
सपरकममाएसो, जद मरणं होइ अ्रज्ञयइराणं । ~
पायत्रगमणं च तहा, एयं सपरक्षमं मरणं ॥ २६५ ॥
सह पराक्रमण चतत इति सपराकमे,कि तत् -मरणम् . श्रा
दिर्यत-इत्यादशः आचार्य पारम्पर्यश्र॒त्यायातो बृद्धवादो यमैं-
तिद्यमाचक्तत.ख आदेश: 'यथा' इत्युदाहरणापन्यासाथेः,यथे-
तत्तथा 5न््यदष्यनया दिशा द्रष्टव्यम्, ` आयेवेरा '
मिना यथा तषां मरणमभूल् तथा पादपोपगमने च , एतच्च
वैरखा- |
अमभिधानराजन्द्र। ।
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।
॥
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स्पएराक्रमे मरणमन्यत्राऽप्यायाज्यमिति गाथाऽथः ॥ २६५॥ |
भावाधस्तु क्रथानकादवसेयः, तच्च परतिद्धमव, यथाऽऽयवे- |
राचस्यलकयार्टहनश्यङ्गवरः अमादादवगता 55सकन्नम् त्या भ
सपराक्रमरव रथा 5 वत्ताशग्वाराण पादपापगसनमकारीलति ॥
साम्प्रतमपरराक्रम इश यत॒माह---
श्रपरक्रममाएमा, जह मरणं हाई उद हिनामाणं |
पाञ्रवरगमऽचिं तहा, एयं अपरक्मं मरणं ॥ २६६ ॥
न वदयत पराक्रमः-सामथ्यमास्मान्त्यपराक्रम.क तत् ५
मर. तच्च यथा जङ्धघ्ाचलपार च्ताणानासुद्धाधनाम्नाम्
आयसमुद्गाणा मरणमभूद . अयमादशो-दृष्टान्ता चद्धवादा- |
+ऽयात इत , पादपापगमनेापे तथेवाष्ष्देश जानायादू
यथा पादप्रापगमनन तषा मरणमभूादात, एतद-अपराक्म
मरणं यदायसमुद्राणां सञ्जातमवमन्यत्राप्यायाञ्यमिति गा- |
श्रा्तराधः । भावाथस्तु कथानकादवसयः, तच्चदम--आ- !
यसमुद्रा आचार्याः प्रकृतिकृशा एवा ऽसन् , पश्चाच तेज-
ङ्घ्ावलपरिक्तागेः शरीराल्लाभमनयपेच्य तत्तित्यक्षुभिगेच्छ-
स्थरवानशने विधाय प्रतिश्रयेकदेश निरिम पादपाप-
गमनमकारि ॥ २६६ ॥
साम्प्रते व्याघ्रातिममाद--
वाघाइयमाएसो, अवरद्ो हुज-अन्नतरएणं ।
तोसलि महिसीइ हओ, एवं वाघाइयं मरणं ॥ २६७॥ |
विशेषणा 5 5घाता व्याघधातः-सिंहा:5दिकृतः शरीरविनाश- |
स्तेन निर्वृत्त ततर चा भवं व्याघ्रातिम, कश्चित्सिहा $ ऽयन्यतरे- |
रापराद्धा भवद-तन यन्मरणं तद्याघ्रातिमे, तत्र बृद्धवादाऽऽ- |
यात आदशा दष्टान्तः, यथा-नासलिनामाऽऽचा्या महिष्या- |
5 ऽगड्ध्रश्चतुर्विध्राऽऽदट्ारपरिन्यागन मरणमभ्युपगतवान् पतद् |
व्याध्रातम मरणामात गाथा 5 क्षरा थे: भावाथस्त कथानका
दवसयः, तच्चदम-तासालनामाऽऽचायां 5ररायमा हेघा भ
आरब्यथः:, तासालदश वा बह्व्या माहप्यः सम्भवान्त, ताभ, |
श्र कदाचिदकः साधुग्टव्यन्तर्वन््यारब्ध:ः, स च ताभिः
चुद्यमाना ऽनिवाहमवगम्य चतुर्विधा 5 “हारे प्रत्याख्यातवानि
ति। आचाए ९ श्रु०ण ८ अ० १ उ०।
` रनास्प्रनमन्त्यमरगत्रयमार-
मत्तपरिष्पा डगिरि, पाञ्च वगमं च तिष्ि मरणाई ।
कनममञ्फिपजद्रा
/ धिडमघयणेण उ विसिद्ठा ॥२२५॥ |
मङ्ग भाजने नस्य परिज्ञा-ज्ञपरिज्ञयाऽनकधदमस्माभि- |
भक्रपूचमतद्धतुकरं चा ऽवद्यमिति पारिज्ञाने, पत्याख्यानपरिज्ञ- |
या च ˆ सव्वं चं अनयपाणे,
उवद्रा ान्भतरं च उर्याद, जावलजीवं च बोसिरे ॥१॥ ""
चउच्विहं जा य बाहिरा |
॥
मरण
इत्यागमवचनाच्चतुर्विधा {हारस्य वा यावञ्जीवमपि परि
त्यागा ऽऽत्मकं धत्या ख्याने भक्कपरिज्ञाच्यते , इड यत-प्रति-
नियतप्रदेश एव चष््यत अस्यामनशनक्रियायामिति इज्लिनी,
पादेः-श्रघःप्रसप्पिमूला ऽऽ त्मकः पिवात पादपा-वृत्तः, उप-
शब्दश्चोपमरतिवत्सादश्ययेऽपि दश्यत , ततश्च पादपमपग-
च्छृति-सादश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमे, किसुक्कं भवति !
यथव पादपः क्वचित् कथाञ्चिन्निपतितः सममसममि-
ति चाविभावयन्निश्चलमवा५स्ते, तथा-ऽयमपि भगवा-
न॒ यद् यथा खमविषमदेशष्वङ्गमुपाङ्ग वा प्रथमतः पति-
तं न तत्ततश्चल्यात । तथा च परकीरंक्त्-
“ णिच्चल िप्पड़कम्मो, णिक्खिवए जञ जाहि जहा श्चेगं ।
पचे पादावगम, णीहारि वा अणीहारि ॥ १॥
पाओवगम भिय. सम विसम पायवो जहा पडतो ।
रवर परण्पश्मागा, कंपञ्ज जहा चलतरू ठव ॥ ५४४ ॥
चः समुच्चये | इह चेवेविधानशनोपलक्तितानि मरणान्यप्ये
वसक्लानि, अत णवा ऽह- तरीणि मरणानि, एतत्खरूप च यथ-
दं विधय यच्चा सपरिकम्मे अपरिकम्मं च इत्यादिकं स्प
कार एवोत्तर तपामारानाम्नि तिशत्तमाध्ययन ऽचिधास्यत-
इति नियुक्ता नोक्कम् । दारानिर्देशाच्चावश्ये किश्विद्ाच्य-
मिति मत्वदमाद-'करणस त्ति' सूचःवात् कनिष्ठ--लघु ज-
घन्यमिति यावत् , मध्यमं-लघुज्येष्टयोम॑ध्य भावि, ज्ये
छम-अतिशयदवुद्धमुत्कष्टमित्यथः, एषां इन्दः तत एतानि,
धरतिः-सयमं प्रति चित्तस्वास्थ्यं सहनन--शरीरसामथ्य
हतुः वज्र ऋपभनाराचा$ऽदि ताभ्यां, भाङ्तत्वाच्चकवचननि-
देशः, समादारा ५ऽश्रयणाद्वा,तशब्दात्सपरिकम्मा ऽपरिकम्म
ताऽ ऽदिभिश्च विशषणर्विशिष्टानि-विशेषवान्ति, इदस॒क्लं भवति-
यद्यपि ्रितयमप्यतत्--
^“ धीरेण ऽवि मरियव्वं, कापुरिसेण वि अवस्स मरियव्वे ।
तम्टा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तण मरिड ॥ १॥
ससाररगमज्म, धीवलसनद्धवद्धकच्छातो ।
हंतूण मोहमल्ञे, हरामि आराहणपडाग ॥ २॥
जह पच्छिमसम्मि काले, पबच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं ।
पच्छा निच्छुयपत्थे, उवामि अब्भुजझये मरणं ॥ ३॥ ”
इति शुभा 5 ऽशयवानव प्रतिपद्यत,फलमपि च विमानिकता-
मक्रलत्तणं चयस्या ऽपि समाने, तथा चोक्कम्--"* एय पच्च-
क्खाण, अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म । वेमाणिओ व देवा,
हवेज्ज अहवाउवि सिज्मिज्ञा ॥ १॥ तथापि विशिष्टवि
शिप्टतरंविशिष्टतमध्चातिमतामेव तत्याप्तिरिति कनिष्ठत्वा55-
दिस्तद्वधिशेष उच्यले, तथाहि-भक्कपरिज्ञामरणमार्यिका 5 5दी-
नामर्प्यास्ति, यत उक्कम--' सव्वावि य॒ अज्ञओ, सव्वेऽवि
य पटमसंघ्रयणवज्ञा । सव्व वि देसविरया, पच्चक्खारेण
उ मरति ॥ ९॥ ” अत्र हि प्रत्याख्यानशब्देन भक्रपरिकेवा-
क्रा, तत्र प्राक् पादपापगमना ऽधद्रन्यधाऽभिधानात् , इंड्लि
नीमरण तु विशिषटतरध्रतिसहननवतामव सम्भवतीत्या-
यिकाऽऽदिनिषधत एवाऽवसीयते, पादपोपगमन तु नाम्नैव
विशिषतमध्रतिमतामेवेच्युक्रप्राय , ततश्च वज्जऋषभमा-
राचसहनानिनामवतत् , उक्र हि पढमभम्मि य संघयणे,
बद्रेत सलकुडुसामाणे । तेरखि पि य बोच्छेओ, चोदसषु
( ११५ )
भरण श्राभवानराजन्द्रः | मरण
व्वीण बोच्छेण ॥ ५५० ॥” कथ चान्यथवविधविशष्रध्रातिसं-
हननाभावे-- ।
“ पुव्वभवियवेरेरो, देवो साहरइ को ऽवि पायाले । ।
मा सो चरिमसरीरे-ण वेयणे के पि पावेज्जा ॥ १॥ ”
तथा--
“ देवो नहेण नयइ, देवारएणं व इंदभवरं वा ।
जहिये इट्डा कंता, सव्वसुहा हंति अणुभावा ॥ २॥ |
उप्पणण उवसग्गे, दिग्व माणुस्सए तिरिक्खे य ।
सव्वे पराजिणित्ता, पाश्रोवगया परिदरति ॥ ३॥
पुञ्वावर उत्तरा, दाहि वाणि“ श्रावडतदि ।
जह नवि कंपइ मरू, तह फाणातान वि चलेति ॥ ४॥
इति मरणविभक्तिकूदुक्गं मटासामथ्य सम्भवि, किश्ष--
धकरसवितत्वाच पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्व, इतरयोश्चा-
विशिष्टसाधुसवितत्वादन्यथात्वं, तथा चा5व्रादि--
^“ स्वे सव्व5द्धाए, सव्वररणू सब्वकम्मभूमीसखु ।
सव्वगुरू सव्वदिया, सव्वे मेरूखु अहिसित्ता ॥ १॥
सव्वाहिं लद्धीहि, सव्वेऽवि परीसदे पराजित्ता ।
सब्वेऽवि य तित्थयरा, पातोचगया उ सिर्धिगया ॥ २॥
अवचसेसा अणगारा, तीयपडप्पराण ऽणागया सत्व ।
केती पातोवगया, पचक्खाणिगिशि केती ॥ ३॥ ”
इति कृत प्रसङ्गनेति गाथाऽथः ॥ २२५ ॥
इत्थ प्रतिद्धारगाथाद्वववर्णनात् मूलद्वारगाथायां मरणवि-
भक्कि्ररूपणाद्वारमनुवणितम् , अधुना5नुभावप्रदेशाग्रद्धा- |
रद्धयमाह--
सोवकमो अ निरुव-कमो अ दुविहोऽणुभावमरणम्मि । |
अआउगकम्मपएस ग्गणंतणंता पएसेहिं ॥ २२ ॥ -
सदोपक्रमेण- श्रपवत्तनकरणा $ऽख्येन वर्तत इति सोपक्र. |
मश्च, निरत उपक्रमान्निरुपक्रमश्च द्विविधो,द्वेविध्य चोक्रभे-
देनेव, कोऽऽसो ?-अनुभागः,क्ब?-'मरणे इत्यथात् मरणविष-
याऽऽयुषि,तत्र हि सप्तभिरष्टभिवौ 5 + कषैगेवामिव मरुषु जल- |
गरद्ूषग्रहणरूपेर्यत्पुद्धलोपादानं तदलुभागो5तिदढ इत्यपवते
यितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते, यत्तु षड्भिः पञ्चभिश्चतु-
भिव श्रागदीत--दलिकं तदपवतैनाकरणनोपक्रम्यते इति
सोपक्रमे, न चेतदुभयमष्यायुःच्तया५ऽत्मनि मरण सम्भ-
चति, तथा.पति याति च इत्यायुस्तन्निवन्धनं कम्मे आ-
युःकम्म तस्य विभक्तुमशक्यतया प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा- ।
स्तेषाम्र-परिमाणमायुःकम्म॑प्रदेशाग्रम्, श्चनन्तानन्ताः-- |
श्रनन्तानन्तसङ्ख्यापरिमिता मरणप्रक्रमेऽप्यथीदायुःपुद्ग- |
लास्तद्विषयत्वाञ्च मरणस्यैवमुपन्यासः, किमेतावन्तः कू-
त्स्नेऽप्यात्मनि ?, श्रत श्राद-' पएसेहिं ति' प्रक्रमात् सुब्ब्य-
त्ययाच्चा ऽ ऽत्मप्रदेशेषु, श्रात्मप्रदेशो शक्षेकस्तत्प्देशेरनन्ता-
नन्वैरावेष्टितः संवेष्टितः, तथाच बुद्धव्याख्या-' इदाणि
पदे ऽग्ग--श्रणताणता श्राउगकम्मपोग्गला जेद्दि एगमेगो
जीषपपसो आवेदिय परिवेढितो । ” इति गाथा ऽथः ॥२२६॥ |
[८ ] सम्प्रति कति श्रियन्ते पकसमयनेति द्वारमाह--
दुभि व तिनि व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरण म्मि ।
कड मरह एगप्मय-सि विभासावित्थरं जणे ॥२२७॥
सब्बे भवत्थजीवा, मरंति अ।वीहईझ सया मरणं ।
ओ।हिं च अःउ्ंतिय,दुनि वि एयाई भयणाए ॥२२८॥
हं च अइच्र।ते्र, बालं तह पंडेअ च मौस च |
छउमं केबरलिमरणं, अन्नुनेणं विरुज्फ॑ति | २२६ ॥
द्ववा जीणि वा, वाशब्दस्योत्तरत्राुवृत्तः चत्वारि वा
पञ्च वा मरणानि वच्यमाणविवत्तातः प्रकमादेकास्मिन् स-
मय सम्भवन्ति, श्रावीचिमरणे सतीति शेषः , अनेन
चास्य सततावस्थितत्वमेतदविवत्तया च तद्द्धयादिभेदप-
रिकल्पनेत्याह--कति भ्रियन्त एकसमये ? , इति चतुथ-
द्वारस्य विशेषण भाषणे विभाषे विभाषा-व्याख्या वि-
विधेवा प्रकारेभौपणं विभाषा-मेदाभिधान तया विस्तरः-
प्रपञ्चस्तं विस्तरं जानीहि जानीयाद्धा , निगमनमेतत्
स्तुतमेवाथ प्रकटयितुमाह-'सर्व ` निरवशेषा: , तत् कि
मुक्किभाजो 5पीत्याह-' भवस्थजीवाः ” भवन्त्यस्मिन् कर्म्मव-
शवतिनो जन्तव इति भवः, तत्र तिष्ठन्ति भवस्थाः, त च
ते जीवाश्चेति विशेषणसमासः , भ्रियन्ते , आवीचिकम-
वाचिकं वा मरणमाध्रियति शेषः , यद्धा-विभक्रिञ्यत्यया-
दावीचिकेन मरणेन प्रियन्ते । सदा ` सर्वकाल, ` ओ-
हि च त्ति ` अवधिमरणं , चशब्दो भिन्नक्रमः , ततश्च
दयतिय त्ति ' आत्यन्तिकमरणं च , द्वे श्रप्यत ` भ-
जनया विकल्पनया , किपुक्ल भवति ?--यद्यप्यावीचि-
मरणवत् अरवध्यात्यन्तिकमरणे श्रपि चतसृष्वपि गतिषु
सम्भवतः तथा-ऽप्यायुःत्तयसमय पव तयोः सम्भवान्न स-
दाभावः, श्रत च्रावीचिकमरणमेव सदेःयुक्कम् , श्रनेना-
वीचिमरणस्य सदाभावेन लोके मरणत्वेनाप्रासिद्धिः श्रविः
चत्ताया हतुरुक्र इति. भावनीयम् । सम्प्रति ` दान्नि वि '
इत्यादि व्यक्कीकरोति--' ओहि च श्रादयंतिय त्ति, ` च.
शब्दो भिन्नक्रमः , ततो ऽवधिमरणमात्यन्तिकमरसं च
“ चालं ` वालमरण च, तथतयुत्तरभदापेक्षया समुच्चय ,
परिडतं च ` परिडतमरणे. मिश्र च बालपरणिडतमरण च
चशब्दाद् वेटायसगृधपृष्ठमरणे. भक्कपरिक्षेज्ञिनी पादपोपग-
मनानि च, भअन्यान्यन परस्परेण विरुध्यन्त, युग-
पदसम्भवात् , तत्र चाविरतस्यावभ्याव्यन्तिकमरणयोः अ-
न्यतरद्रालमरणं चति द्व. तद्धवमरणन सह तचरीखि, वशार्तेन
चत्वारि, कथश्चिदात्मघाते च वेदायसगध्रपृषएठयारन्यनरेणख
पञ्च | श्राह--वलन्मरणान्तःशल्यमरणे श्र पि बालमरणभदा-
घव , यत श्रागमः-* बालमरणे वुवालर्सावहे पन्नत्त । तं
जहा-वलायमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरण, तन्भवमरण
गरिपडण, तरुएडण, ज जप्पवेस, जलणप्पवस. विसभक्ख-
श, सत्थोवहणण, वेहाणसे, गिद्धपट्टू तति । ` पनघु च यद्यपि
गिरिपतना 4ऽदिषद् कस्य वेदायस पवान्तभौवः तथापि वल-
न्मरणान्तःशल्यमरणयोः प्रक्षप कथं नोक्रत्तद््याविगाधः !,
- उच्यते, इहाविरतस्येव घालम॑रणे विवत्तिनम् । उक्त दि--
‹ अविरयमरण वालमरणे ` अनयास्/्वेकत्र संयमस्थानभ्या
निवर्तनम् , अन्यत्र मा्लन्यमा तरं विवत्तित, न तु सर्वथा वि
रतेरभाव पवति कथं बालमरणे सम्भवः ? , तथा द्यस्य
मरणमपि विरतानामद रूढमिति गक्रसङ्ख्याविराधः, ए-
च देशविरवस्याऽपि दघादिभङ्गमावना कायौ , नवरं बाल-
मरणस्थाने बालपरिडतमरणे वाच्ये, विरतस्य त्ववध्या-
स्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् पणिडनमरखे चेनि दे , छुष्रस्थ-
केवल्मिर्णयाश्चान्कतरदिति त्रीमि , मक्रपरिश्रङ्गिनीषाद-
(0088६
आमभधानराजन्द्र। ।
भरण
पोपगमनानामन्यतरेण सह चत्वारि काराणक्स्य तु
दायसग्रुप्नएष्टयास्थान्यतरंण सह पश्च, टखढसयम प्रत्यवमुं- !
क्रम्, शाथलसयमस्य त्ववध्यात्यान्तकमरणयोरन्यतरत् , |
कुतश्रित्कारणाद्वेहायसग्रूधपृष्ठयोश्रान्यतरदिति दवे कथ-
खिच्छल्यसम्भवे चान्तःशल्यमरणेन सह जीणि, बलन्मर-
शन सह चत्वारि, छुझस्थमरणन तु पञ्च, परिडतमर-
णस्य यथाक्रमक्रपरिज्ञानाऽ१दीनांवा विशुद्धसयमत्वादस्या $-
भाव पएवति । आट--विरतस्यावस्थाद्वयऽपि तद्धवमरण-
प्र्तषप कथ न पष्ठटमरणसम्भवः ? , उच्यत-चिरतस्य देवे-
प्ववाःपाद इति तत्रवात्पत्यभावान्न तद्धवमरणसम्भव इति
गाथात्रया5थ
एकसमय इति द्वारम् ।
इदानी कातिकृत्वो त्रियते पकक्रास्मिन् ?, इति द्वारमाह--
संखमसंखमर्णता, कमो उ उकिकगम्मि अपसत्थे ।
सत्तड़्ग अणुवध।, पसत्थए केवलिभ्मि सई ॥ २३० ॥
* सखमसखे ति ` च्रापत्वात् सङ्ख्याः-सङ्ख्याताः अअ
सड़ख्या-अविद्यमानसडःख्या अनन्ता--अपर्यवासिताः,वा-
रा इति प्रक्रमः | कमा उ त्ति! क्रमः-परिपाटी, तुशब्द्श्
कार्यास्थतेरल्पवहुत्वा ऽपेक्तषया ऽयं ज्ञय इति विशेषद्योतकः |
॥ २२७ । २२८। २५६ ॥ गते कति च्रियन्त ,
भ्रातपादनात् ,शेषाणां त्वायुषो ऽन्त्यसमय पएबैकत्र भावादनु-
समयतानाभिघान , बहुसमयविपयत्वादनुसमयनायाः । तथा
च दृद्धव्याख्या-' पढम जाव आउे घरइ सेसारी पगस-
मयं जहि मरइ” 'न च मास पायोवगया' इत्यागमन विरोधः,
तत्र पादपापगमनशब्देन निश्चएताया एवाभिधानात् , मरण-
स्यतु तत्राप्यायुस्तुटिसमय एव सद्धावात्.तुः परण । गतम-
चुसमयद्वारम् ॥ इदानी सान्तरद्वारमाद-तत्र प्रथमचरमयोर-
न्तरं-व्यव धान ' नास्ति ' न विद्यते, प्रथमस्यावीचिमरणंस्य
सदा सम्भवात् , चरमस्य भवापच्तया केवलिमरणस्य पु-
नमेरणाभावादिति भाव इति गाथाऽथः॥ २३६ ॥
शेषाणामपि किमेवमित्याह--
( + 0 ७ संतरनिर॑तरो (~<
सेसाणं मरणाणं, नेओ संतरनिरंतरो उ गमो |
साई सपजवसिया, सेवा पढमिनल्लुगमणाई ॥ २३२ ॥
शेषाणां मरणानाम्-अवधिमरणा 5 ८दीनां पञ्चदशानां ज्ञेयः,
| * सदान्तरेण-व्यवधानेन वर्तत इति सान्तरः, निष्कान्तो-
* इक्रकगम्मि त्ति' पकेकस्मिन् अप्रशस्ते ' बालमरणा55- |
दो निरूप्यमाणा, तत्र सामान्यन पञ्चन्द्रियाविरतदेशविरता |
च सङ्ख्याताः, शेयाः प्रथिव्युदकराग्निवायुद्रीन्द्रियतीन्द्रि- |
यचतुरिन्द्रियाः ्रसङ्ख्याताः, वनस्पतयाऽनन्ताः, पत हि
कायस्थित्यपत्तया यथाक्रम बहुवहुतरबहुतमस्थितिभाज
इति कृत्वा । प्रशस्ते कति वारा रियत ?, इत्याह-' सत्त द्रुग
त्ति सप्त वा5ष्ट वा सत्ताष्टास्ते परिमाणमस्यति सत्ता-
एकः, को ऽसो ?-- श्रनुवन्धः ` सातत्यन भवनं तन्मर-
शानामिति, तताउयमर्थ:-सप्त वा अषप्ट वा वारा भ्रियत,
क्य ?-* प्रशस्तक ` सर्वविरतिसम्बन्धिनि पणिडतमरण, इह
च चारित्रस्य निरन्तरमवा'्त्यसम्भवात् तदत एवं च प्र
शस्तमरणभावारदर्धाद् व्यवधानमपि देवभवेराश्रीयत, “के
चलिनि' यथाख्यातचारि्रवति समुत्पन्नकेवले, ' सड ति '
सकृद् एकमव मरणमिति गाथा ऽथः ॥२३०॥ उक्तं कतिकृत्वो
सित एककस्मिन्निति द्वारम् |
[६] सम्प्रति कतिभाग पकरकस्मिन्मरणे भ्रियत इति द्वारमाह-
मरणे अणतभागो, इकिक मरइ आइम॑ मोत्तुं ।
अखुसमया55ई नेयं, पटमचरिमंतरं नत्थि ॥ २३१॥
" मरण ' प्रागुक्करूपे श्ननन्तभाग पकैकास्मिन् प्रियते, कि
सर्वस्मिन्नपि ? नत्याह-' आदिमम् › श्रावीचिमरणे , त-
स्यैवा$ऽयन्वान्, ` मुक्त्वा ` ' अपहाय, इयमत्र भावना-शप
मरणस्तामिना हि सर्वजीवापक्षया श्रनन्तभाग प्वति ते-
प्वनन्ता भागा न्रियत इल्युच्यते , श्रावीचिमरणस्वामिन-
स्तु सिद्धविरहिताः सर्व एव जीवाः, ते चानन्ता इति
कृत्वा नन्तभागीनाः सर्व जीवा भ्रियन्त इत्युच्यते | उक्क |
कातिभागो प्रियते पककस्मिननिति द्वारम् ॥ अधुनाऽनुस
मयद्वारमाद ` अरणुसमय त्ति ` समये समयमनु अनुसमय
वीप्लायामव्ययीभावः, ततश्चानुसमये-सततम्, * आदि '
भ्रथममावीचिमरणं ' ज्ञयम् ` श्रवयोद्धव्यम् , यावदायुस्तस्य
<न्तरान्निरन्तरश्च , तशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात् । उङ्क
हि-“ तुशब्दो विशेषणपादप्रणावधारणसमुच्येषु, ” को-
ऽसौ ?-गम्यते अनेन वस्तुखरूपमिति गमः प्ररूपणा,
इदमुक्तं भवति--यदाऽन्यतरद्रालमरणा.ऽऽदिकं प्राप्य श्रियते
स्त्वा च भवान्तरे मरणान्तरमनुभूय पुनस्तदेवा 5 भ्नोति तद~
सान्तर्खमति प्ररूपणा, यदा तु वालमरणाऽऽदिकमवाप्य पु-
नस्तदेवाव्यवदि तमाप्नोति तदा निरन्तरे भवति , तत्प्ररूप-
कत्वाचट गमोऽपि सान्तरो निरन्तरश्चत्युक्कः ॥ सम्प्रति
गाथापश्चार्धन कालद्वारमाद सादीनि च सपर्यवसितानि
च सादिसपर्यवसितानि “ शेषाणि ' षोडश वच्यमाणाप-
क्षया अवधिमरणा ५ <दीनि, एकसामायिकतायास्तेषामाभिहि-
तत्वात् , प्रवादापत्तया तु शेषभज्ञापलक्षणमेतत् , प्रवाह-
तो5पि भज्ञत्रयपतितानि शेषमरणानि सस्भवन्ति । तथा
च वृद्धाः-“ बालमरणाणि अणाइयारि वा अपज्वासि-
याणि वा, अणादियाणि वा सपज्ञवलसियाशि वा, पंडिय-
मरणाणि पुण साइयारिए सपञ्ञवसियाणि ।” मुकत्यवाप्तो
तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः । पढमिल्लुगं ति ` प्रथम-
कम्-द्ावीचिमरणम् ‹ अनादि ' आदिराहितं प्रवादापेत्त-
यति भावः,प्रतिनियता 5 5युःपुह ला ऽ पेक्षया तु साद्यपि सम्भ-
वति , उपलक्तषणत्वाच्चास्यापयर्वसिते च श्रभव्यानां , भ-
व्यानां पुनः सपयवसितमिति गाथा ऽथः ॥ २३२ ॥
सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दरौयन्नात्मोद्धलयपरिदारा-
याऽह भगवान् नियुक्किकारः--
सव्वे एए दारा, मरणविभत्ती विद्रा कमसो |
सगलणिउणे पयत्थ,जिणचउदसपुन्ि भासंति ॥२३३॥
सर्वाणि ` ' अशषाणि “ पतानि ` अनन्तरमुपदर्शितानि
द्वाराणि ` श्रधप्रतिपादनमुखानि ' मरणविभक्तैः ' मरण-
विभक्त्यपरनाम्नो ऽस्येवाध्ययनस्य ‹ वरतानि ' प्ररूपिता-
नि , मयेति शषः | कमस त्ति ` प्राग्वत् क्रमतः, |
एवं सकलाऽपि मरणतवक्कव्यतोक्नका, उत नेत्याह-सकलाश्व
समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः ता-
न् पाथान् इह प्रशस्तमरणा ऽ दीन् जिनाश्च -केवलिनः च-
तुदगीपूर्विणञ्च--प्रभवा ५ऽदयो जिनचतुदशपूर्विणो * भाषन्ते '
{ १९७ )
भरेण
ख्यक्रमभिदधति , अहं त॒ मन्दमनिन्वान्न तश्र बवर्णायत |
दमि हत्यभिप्रायः ) स्वये चतदश्एषूर्बित्व $ यञ्चतुर्दशपू
च्यपादागे तेकैपरप्रपि शरस्श्नष्दिकत्वेन शेषमहात्म्य- '
ख्यावगवरमदुएमेद । आार्यमरश्वर बह द्वार्गाथाह्॒यादार भय
लक्ष्यन्त इर्ति पर्या उनबकाश एव ) शति गाथाथः ॥ २३३ ॥
(१०) इहव प्रशस्ता ऽश्रक्स्तमरणविभागमाद--
एगंतपसत्था ति ए हत्थे मरणा जर्ण पर्णत्ता ।
मत्तपरिषषै; इंमि।ण. शउवगमणं च कमजिटं ॥२३४॥
एकान्तन-नियमने प्रशस्तानि-श्लाध्यानि. ` अणि ` चिः
सङ्स्यश्नि, ` र ` पतष्वनन्तराभिदहितयु, मरणषु सरणा
ञ्नि केवालाभः, ' प्रज्ञप्रानि ` प्ररूपितानि ¦ तान्येवा
5 5ह-भक्रपर्दरन्न, इद्गिनी. ` पाथवगमणो च` इति। पादपापग-
मन च । इदमपि जये किमकरूपम् ? , इत्याह-कमण-पार-
चास्या ज्यषए्टम--च्रतिशयप्रशस्य क्रमज्यष्र, यथात्तरं प्रधान-
रिति भावः | शपमरणान्यपि यानि प्रशस्तानि तेषामन्रैवा. |
न्तभोवः ¦ इतराणि कानिचित् कथञ्चित प्रशस्तानि, अप
राणि तु सर्वथेवा ऽप्रशस्तानि । इति गाथाथेः ॥ २३४ ॥
इह च यना ऽधिकारस्तदाह --
इन्थं पुण अहिगारा, णायव्यो होड मणुञ्रमरशणं ।
मुं अकाममरणं, सकाममरणेण मरियव्वं ॥ २३५ ॥
' शत्र ` एनेषु मरणणषु, पुनःशब्दो वाक्यापन्यासा्थः, च्रांध-
। » कारा,ज्ञातव्यो भवति मचुजमरणेन । किमुक्तं भवति ?-मनुष्य-
| भवसम्भविना परिडतमरणा ऽ 5दिना, तान्यव प्रत्युपदेशप्रयु-
| त्तः | सम्प्रत्युक्काथसंक्षेपद्धारेणापदेश सव॑स्वमाह-मकत्वा अ-
। काममरण बालमगणा<5<5द्यमग्रशस्तम् , ` सक्ाममरणन '
भक्कपरिन्ना 55दिना प्रशस्तेन, मर्तव्यम् , इति गाथार्थ:॥२३४५॥
गता नामानिष्पन्ननिक्तपः ।
रम्प्रति सत्रानुगमे सृत्रमुच्रारणीय, त्चदम्-
अप्पवसि माहं मे, एग तरइ दुरुत्तरं |
तत्थ एमे महापाष्प, इम पण्टमदाहर ॥ १ ॥
्मणा-जले विद्यत यत्रासावणवः, “अरासा लोपश्वथ” ( पा०
४-२-१०६ बाकम्) इति वप्रत्ययः सक्रारलापश्च, सचद्र
ब्यतः-जलधि:, भावतश्च-ससारः.पतास्मिन. काटा ?- मदाः
दसि त्ति मटानाघ्रः-प्रवादा द्रव्यता-जलसम्बन्धी . भावत-
स्तु-मवपरस्पगाऽऽन्मकः, प्राशिनामत्यन्तमाकुलीकरणहत
चरका 5 ८दिमतसम्॒हा वा यस्मिन् स मटाघः तस्मिन .महत्तवे
-उभयत्राऽगाघतया अदृष्टपरपारतया च मन्तव्यम्। तत्र
किम ?. इत्याह-'एक इति! असहायो रागद्धषाऽऽदिसदभा
चांवरहितो, गोमतमा 5दिरित्यर्थः ' तरति परे परमाप्नाति.त-
| ल्कालापक्तया वत्तेमाननिर्देशः ।दुरुत्तरं त विभक्रि्यःययाद्
दुरुत्तर दु खनोत्तरितुं शक्र. दुरु तर्रामति क्रियाविशषणे वा,
| न हि यथाऽसौ तरति तथा 5परे्गुरुकर्मेभः सुखनव तीर्यत,
श्न एवं एक इति'सङ्ख्यावचना वा. एक पव-जिनमतप्रानि-
पन्ना:, न तुचरकाउ5 डदमताउका लतचतलाउन्य तथा तागस्तु
माशत हांत | 'तत्रात गातमा55दा तरणप्त्रत्तः. 'णक् इत
तथाविघतीर्थकरतामकर्म दियादनुत्तरावा स्विभूतिरद्धिती य:।_
किमुक्न॑ भवति “-र्ता थैकर:,
३०
स ह्यक एव भरत सम्भवतो
आर भसधानराजन्द्र। |
ति। ` महापण्ण ति ` मद्वती-नि रावरणतया अपरिमाणा प्र-
ज्ञा कवलज्ञाना ऽत्मिका सवित् अस्यति महाश्रज्ञः। स किम्: ,
इत्याद - इमम् ` श्चनन्तरवच्यमारो हृदि विपरिव्तमानतया
प्रत्यक्ष प्रक्रमात्तरणापायम् , ` पटं ति ` स्पष्टम् -श्रसन्दिग्ध-
म। पठ्यते च-' पराहं ति ` पृच्छुधत इति-प्रश्नम् , प्रण्ठव्या थ-
रूपम 'उदादर त्ति ` भूते लिद , तत उदाहरेदू-उदाह्मतवान ।
परयत च-' अणणवासि महोधसि, एग तिरण दुरुत्तर ' दति ।
अन्न खुच्डयत्यये विशषः, ततश्च-श्ररशवाद् महौ घाद् दु रुत्तरात्
तीणी इव तीरः--तीरप्राप्त इति योगः, एको घातिकर्म्मसा-
हित्यरहितः, ` तश्नेति सदवमनुजायां परिषदि, एकः--अ-
द्वितीयः, स च तीथैकृदेत्. शषं प्राग्वत् | इति सत्रार्थः॥ १॥
यदुदाह्नतवांस्तदेवा 5 ६ ह--
सन्ति मण् दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया ।
्रक{ममरणं चव, सकाममरणं तहा ॥ २ ॥
सन्तीति धाकंतःवात् वचनव्यत्ययेन स्तः-विययेते , ' मे '
प्रत्यक्ष: चः पूरण. पल्छत च-- सेति मण त्ति ` स्त प्त
मकारो 5 लाक्ष शिक्ः, एवमन्यत्राऽपि यत्र नाच्यत तत्र भा
घनीयम । ' द्वे ` द्विसङ्ख्येः तिष्ठन्त्यनयोज्ञन्तव इति रशन
` आ्राख्याते ` पुगातनतीकरद्धरपि काथित, अनेन तीथकृतां
परस्प वचना 5व्यार्हतरूपदर्शिता त च कीडश ?-' मारणं
तिए [त्त ` मरणमव श्न्ता-निजनिजाऽ युष. पयन्ता मरणा-
न्तः तस्मिन भव मारणान्तिक. त पव नामत उपदशर्यानि---
अकाममरणम ` उक्ररूप. श्रनन्तगवन्यमाणरूप च, वच्य
माणापत्तया चः समुच्चसे, एवति परण. ` सकाममरणम् '
उक्तरूपं वद्यमारस्वरूपे च तथा । इति सूत्राथः ॥ २॥
कषां पुनारेद कियत्काल च ?, इत्यत आह--
बालाणं अकामं तु, मरणं असति भत्रे ।
पंडियाणं सकामं तु, उक्क।सण सतिं भव ॥ हे ॥
बाला इव वालाः सदसद्धिवकावकलतया तपाम् 'अकाम त'
क्षि। तशब्दस्येवकाराथैत्वात अकाममेव मरणम् . असकृद्ू-
वारंवारं भवत् . तदि विषयाभिष्वज्गना मरणर्मानच्छुन्त
एच भ्रियन्त. तत एव च भचा 5टयदीमर्टान्त ` पंरशिडतानां
चारित्रवतां ` सह कामन-अभिलाषण वर्तत इति सक्रामं
सकामांमव सकामं मरणे प्रति असेत्रस्ततया, तथात्व चात्म-
वभ्रतत्वान् तादशं मरणस्य । तथा च वाचकः-- सञ्ज
ततपाध्रनानां, नित्यं वतानयमसयमरतानाम् । उत्सवभतं
मन्य, मरणमनपराधत्रत्तीनाम्र् ॥६॥ ” न तु परमार्थतः
तषां सकामं सकामत्वे. मरणाभिलापस्याऽपि निषिद्धन्वात् ।
उङ्घंदि-- मा मा विचिनज्जा. जीबामि चिरे मरा-
मिय लहु ति। जइ इच्छसि तरिडि ज. ससारमटादाहिम-
पारं॥\६॥ `` द्रति । तुः पूवाएसया विशषद्यातकः. तच्च
` उत्कर्षण ` उत्कर्षोप लाक्षित , कवालस्रम्बन्धीत्यथः । अ-
कवालिनो दि संयमजीवधिले दीर्धामच्छेयर्गैंप , सुकत्यवा-
पिरतः स्यादिति । केक््लिनस्तु तर्दाफ नेच्छन्ति, श्रा-
स्तां भवर्जीविया्शिति } तन्मरखस्योम्कर्षण सक्ामना. न
कृद् ' एकवारथ्ेद भवर् , आद्यन्यनः त यनः श्रिणः स
प्वा5४ वा दाशन् भर्त्या 5 3कूतस । शत खुआथ ॥२५.
८ ११द )
मरणं
यदक्र- स्तददमद्ध स्थान तत्राऽयं तावद्ाह---
तत्थिमं पढम ठाणं, महावीरेश देसिय।
कामगिद्धि जहा वाले, भिस करसि कुब्वति ॥ ४ ॥
° लत्रेति ' तयोरकाममरणुसकाममरणा 5६ख्ययोः स्थानयो-
मध्य, ` इद्म् अतन््तरमभियास्यमानरूप, ` प्रथमम् आशय
स्थानम्, 'महावीरेणति' चरमतीथेक्रता, ` तत्रैको महाप्र-
छः इति मुकुलितोक्केरभिव्यक्त्यथमेतत् , ` दशितं ` प्रू-
पितम् । कि तत् ?, इत्याद -' कामयु-` इच्छा मदना<5 5स्मकेषु
ग्रद्ध:-' अभिका्कावान् कामग्रद्ों, ` यथा" इत्युपप्रदश-
जाथ
बालः इत्युक्करूपा, भ्रश्धम् अत्यथ, कसा राद्रा- |
शि, कम्पो इति गम्यते | तानि च प्राणव्यपरोपणा55दी- |
इन, कुठवात त्तिः करोति-क्रियया5मिनवंतेयति » शार्तेव-
वश्यक्वाबपि क्ररतया तन्दुलमत्स्यवन्मनसा छृत्वा च श्रक्र- |
मादकाम एव भ्रियते | दति सूत्राभ्यः॥ ४॥
इदमव ग्रहणकवाकय प्रपञ्चयतुमाह-
ज गिद्ध कासभोगेसु, एग कूडाय गच्छ ।
न मे दिदे परे लोए, चक्खुदेडा इमा रती ॥ ५॥.
“यर इति-अनिर्दिशस्वरूपो, गृद्ध
स्यन्त इति भोगाः, ततश्च, कामाश्च त भोगाश्च काममोगाः, त
घु-अमिलषणी यशब्दा 5 दिषु, यद्वा-कामौ च शब्दरूपा5ःख्यो |
भोगाश्च स्पशरसगन्धा55ख्या: कामभोगाः तेषु । उक्तं हि--
:, काम्यन्त इति कामाः.मु- |
कामा दुविहा पणणत्ता-सद्दा, रूवा य ।' ( कामानामनकविध- |
त्यम् 'काम' शब्द
तुनीयमाग ४३१ प्रष्ठ गतम्) भागा तिविहा |
पण्णत्ता । ते जहा-गंघा, रसा,फासा य ।' इति (कि स्वरूपाः |
भगा इति'मोग' शब्दे पञ्चमभागे १६१० पृष्ठ उक्तम् ) ( काम- |
भगाः कातावेधा हात ` काममाग शब्द दृतायभागः ४5२ पृ
घ्र विस्तरः ) पकः
छअभिध्रानराजर
कश्चित् क्ररकमा तन्मध्यात् कूटाख्व |
करट प्रभूतप्राणना यातनाहतुत्वान्नरक इत्यथः । यथव ष्ट |
कटानपातता सगा व्याधरनकथा हन्यत, एव नरक्रपातता5
पि जन्तुः परमाधारमिकेरिति, तस्मे कूटाय, “गत्यथक्मणि |
११८
द्वितीयाचतुथ्यों ०" ।(पा० २-३-१२)इत्यादिना चतुर्थी , गच्च
लि' याति | यद्धा-यो गृदधः"कामभोगेष्विति' कामेषु. ख्ीसङ्ग
यु नागेषु धूपनविलेपना 5 ऽदिषु स'एक: सुहृदादिसाहाय्यर-
दिनः क्रटाय गच्चति, श्रथवा-कूट द्रव्यतो, भावतश्च। तत्र |
दरव्यतो सुगा४ऽदिवन्धनम्, भावतस्तु-मिध्यामाषणाऽऽदि
लस्मे गच्छुतीत्यनेकाथत्वासल् प्रवर्तते, स हि मांसाऽऽदिलो-
लुपतया गा ऽदि वन्धनान्यारभते, मिथ्याभाषणाऽऽदीनि
चा5 5सवत इति, प्ररितश्च केश्चिददति-न मे दात | न मया
"षः अवलोकितः, कोऽसो !--परलाको' भूतभाविजन्मा$ऽ |
समकः,कदारिीद्रषयाभिरतिरप्यवंपरिघ्रेव स्यात् ?- श्रत आह-
खत्तुपा लाचनेन दृष्शा-प्रंतीता, चच्ु्ृष्टा 'इयम' हाति। तामेव प्र-
स्थक्षां निर्दिशति-रम्यते 5स्यामिति रतिः.स्पशना ५ऽदिसम्भो-
गज़निता जि चप्रद्वाच्तः। तस्यायमाशयः--कर्थ दृश्टपरित्याग
ता5दृए्परिकल्पनया$5त्मानं विप्रलभेयम्। इति सूता थः॥५॥
पुनस्त दाशयमवाभिव्यश्रयितुमाट--
हत्था55गया इम कामा, कालिया जे अणागया।
का जाझाइ पर लोए १, आत्थि वा नऽ्णत्थवा पुणा ॥३६।
हसान्त तना : वृत्य मुख प्रन्ति वा घात्यमनेनाति दस्तस्तम्
आगताः--प्राप्ता: हस््ता55गताः, उपमा्था 5ज् | दतो
हस्ता $ऽगताः इव स्वाधीनतया, क पत ?--इमे' प्रत्यक्षोप ल-
भ्यमानाः काम्यन्त इति कामाः-शब्दा 55दयः, कदाचिदागणः
मिनोाऽप्यवविधा एव स्युरित्याट- काल सम्भवन्तीति ऋ{-
लिका+--अश्रनिश्चितका लान्तर प्रा प्यो य ` श्रन््क्ताः' भावि-
जन्मसम्बन्धिनः, कथ पुनरमी अनिश्चिठप्राप्तय इत्या
को जाणद् त्ति ' उत्तरस्य पुनःशब्दस्येद्द सम्बन्धनात तः
पुनजानाति ?, नेव कश्चित्, यथा--परलोकाऽस्ति नास्ति
वति । अये चास्याऽऽशयः-परलाकस्य सुकृता ऽ ऽदिकम्पगां
चा 5स्तित्वनिश्चयेडपि-को हि हस्तगते द्वव्ये, पादगामि करः
ध्याति' इति न्यायतः क इव दस्ता ऽ ऽगतान् कामानपहाय का -
लिककामा ऽय यतत, तच्वतस्तु परलाकनिश्चय पव न सम-
स्ति, तत्र प्रत्यक्षस्या5प्रव्॒त्त: श्रनुमष्नस्य तु प्रवृत्तावपि
गोपालघाटिका5दिधूमादग्न्यनुमानवदन्य था 5ष्युपलस्थना लि-
श्रायकत्वासम्भवान्न ततस्तदस्तिन्वनिश्चयो, नास्तित्वनि -
श्या वा, किन्तु-सन्देद एवं न त्वयमचे विवेचयति-यथा $
बाप्ता अपि कामा दुरन्ततया त्यक्कमुचिताः, दुरन्तत्वं च तषां
शल्याविषा ऽऽदिभिख्दादर्णेः प्रतीतमेव । तथा च चच्यति--
“ सर्ले कामा विसे काम, क्रामा श्रासीविसावमा । काम
पत्थमाणा, अकामा जति ठुग्गाति ॥ १॥” न हि विषा 55दी नि
मुखमधुरारायप्यायतिविरसखतया विवेकिभिन दीयन्ते । यदःय
परलोकसन्दहा भिधान, तदपि न पापपरिदहारापदथ्छ प्रा
वाधकं, प्म फरुष्नस्यडेव चोर पारदारका 5 ४दिषु महाउनथ
हेतुतया दशनात् । परलाकनारस्तित्वा ऽनिश्चये च-तता-फफे
तथा5नर्थहेतुतया सम्भाव्यमानत्वाद्ल्मीककर प्रवेशना ऽदि
वत् प्रत्ताबद्धिः परिदरतु्भुक्कितत्वातू न च परलोकास्तित्बे प्र-
ति सन्देदः । तन्निश्चायक्राऽनुमानस्य तदहजातबालकस्तना
भिलापाऽऽरदिङ्गवलात्पन्नस्य तथाविधाध्यत्तवदव्यभिचारि-
त्वन तज तत्र समधथितत्वादित्यल प्रसङ्गन । इति सूच्रार्थ॥६५॥
अन्यस्तु कथाञिदःपादितग्रत्ययोऽपि कामान्
परिहतुमशक्नुवन्निदमाद-
जेण सद्धिं दोक्खामि, इति बाले पगब्भइ।
कामभोगाऽणुरागेणं, केस संपडिवजइ | ७ ॥
ज्ञायत इति जनो -लोकः, तेन “ साध ” सह भविष्यामि;
किमङ्गे भवति ?--बहुजनो भागाऽऽसङ्गी तदहमपि तदति
गमिष्यामि, यद्वा--' दोक्खामि त्ति भोक्यामि-फालायि-
च्यामि, यथा ह्ययं जनः कलात्रएऽऽषेकं पालयति तथा5हम-
पि, नः दयान जनोऽज षति, बालः-अज्ञः ‹ प्रगल्मते '
धाए्-थमवलम्बते , अलीकवाथालतया च स्वये नष्टः परा-
नपि नाशयति, न विवेबयति. यथा-किमुम्मारगीभ्रस्थितेऽ
नाविवेकि जनेन बहुनाऽपि ? मम विवेकिनः प्रमार्णीकृते-
न. ?, खक्कतकर्मफलभुजो. हि जन्तवः, ख चैवे कामभो-
गेषु-उक्कखूयपु श्रनुगागः--श्रभिष्वङ्गः कामभोगाजुरागः-तेन
क्लेशम्' इद परत्र च विविधवाधा 5ऽत्मकं , सम्प्रतिपद्यते
प्राप्तोति । इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥
. यथाच कामभागा ऽनुरागेण क्श संप्रतिपद्यते सथा वक्कुमाद-
त्रो दंड समारमभति, तसेसु थावरेसु य।
अट्ट/।ए य अणइाए, भूयग्गामं विहिंसह । ८ ॥
लत ` इति : कामभागनुरागास् {स इति ) स धाध्व-
(५१
प्रण शछ्नसिधानराजन्द्रः। मरण
खन् दरडयते सयमसर्वैस्वापहरणेना $ ऽत्मा अननति दण्डः ।
नोदण्डाऽदिस्तं ' समारभते ' प्रवर्तत इति , केषु /--त्रस्य
न्ति-ताफा+ऽदुपतप्रो छाया ऽ ऽदिकं प्रत्याभिसपेन्तीति चसा
द्वीन्द्रियाऽ्दयस्तषु.तथ। शीता55तपा 5 5च्युपहता आप स्था
नान्तर प्रत्यनाभिसर्पितया स्थानशोलाः स्थावरास्तेषु च, अथः- |
प्रयोजन वित्तावाप्त्याऽऽदिः तदर्थमर्थाय, चस्य व्यवहित-
सम्बन्धत्वात् अनथोय च-यदात्मनः सखुहृदादेवा नोपयु
ज्यते , ननु किमनथमपि कश्चिदएंड समारभत , एवमेतत्
थाविधपशुपालवत् । तत्र॒ सम्प्रदायः-यथकः पशुपाल
प्रतिदिन मध्याद्वगते रवो अजासु महान्यग्राधतरं समा- |
भितासु “ तत्थुत्ताणतो णिविरणो वेणुविदलेण श्रजोद्रीरं
कोलास्थिभिः तस्य वटस्य पत्राणि चिद्रीकुवन तिष्ठति ,
एवे तेन स वटपादपः प्रायसश्छिद्वपत्रीकृतः , अज्नया तत्थे- |
गो रष्यपुत्ता दातियधाडितो तच्छायसमस्खितो पच्छ
य तस्स वडस्स सर्वाणि पत्राणि छिद्वितानि तो तण
सो पसुपालतो पुच्छितो-कणयाणि पत्राणि छिद्दीकयाणि ?
तण भणणइ--मया , एयाणि क्रीडापूव चिद्ितानि , तेण
सो वहुणा दव्वजाएण विलोभेडे भणणंति-सक्केसि जस्साहे |
भणामि तस्स अच्छीणि छिंद्ेंड ? तेण भणणाति-छुड अ-
ब्भासल्था होडे तो सक्रमि | तेण यरे नाता , रायमग्गस- |
ज्लिविट्ट घरे ठवितो , तस्त रायपुत्तस्य भाया राया, सो
तण मग्गेण अस्सवादरणियाप शिज्ञदं , पण॒ भरणति-ए- |
यस्स अच्छीरि पाडेहि त्त तण य गालियधणुणण
लस्स णिग्गच्छमाणस्स दा वि अच्छाणि पाडियाणि , प- ¦
च्छा सा रायपुत्तो राया जातो, तण य सो पसुपालों '
भरणति-व्रहि वर , कि ते प्रयच्छामि ? तण भरणति- |
मरउ तमेव गाम देहि जत्थ श्रच्छामि , तेण सो दििरणोा , ।
पच्छा तेण तस्मि पच्चतगामे उच्छू राबिओ तुंबीतों य, |
निष्फरणर तुंबाणि गुल सिद्धिउ ते गुडतुबय भुक्त्वा २
गायति सः-'अट्टमई च सिकिखज्ञा, सिपकिखयं ण णिरत्थयं । |
अद्टमटपसाणण, सुजए गुडतुवयं ॥ १॥ ” तेण ताणि वड-
पत्ताणि अणट्वाए चिदियाखि, श्रच्छीणि पुण अट्टाए पाडि-
याणि।” दण्डमारभत इत्युक्लं, तत्किमसावार म्भमाज एवाव-
तिष्ठत इत्याह-- भूयग्गाम त्ति ` भूताः--प्राणिनस्तषां ग्रा-
मः-समृदस्तं विविधैः प्रकारेहिनास्ति--व्यापादयंति,अनेन
च दृरुडजयव्यापार उक्कः । इति सूत्राथः ॥ ८ ॥ |
किमसौ कामभोगानुरागेणेतावदेव कुरुते ? , उतान्यद-
पीत्याह--
हिंसे बाले घुसावाई, माइन्ने पिसुणे सदे ।
यजमाणे सुरं मस, सेयमेयति मन्नइ ॥ & ॥
इहिंसनशीलो दिख: अनन्तरोङ्कनीत्या, तथेवविधश्च सन्नसौ
` बालः ' उक्करूपो “ सषावादीति ` अलीकभापणशीलः ,
` माइल्ले त्ति ' माया-पर्वञ्चनापायचिन्ता तद्वान् , ' पिशुनः '
परवोषोद्घाटकः ' शठः ” तन्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूत- |
मात्मानमन्यथा दरीयति, मिडकचोरवत् । ( तच्छूलारोपण- |
कथा "मय ` शञ्देऽ स्मिन्नेव भागे २१ पृष गता) अत एव
च भुञ्जानः ˆ खुरा ' मदे “ मांसं ' पिशितं * श्रयः ' प्रशस्यतर-
मेतदिति मन्यते, उपलत्तणत्वात् भाषते च-“ न मांसभक्तणे
१ ष्ठु, २-याति, ३-तिष्ठामि, ४- वुम्भ्य+ ५- पकत्वा ।
दोषो, न मये न च मैथुने । `" इत्यादि, तदनेन मनसा वचसा
कायेन चासत्यत्वमस्येक्लम् | इति स्तुबाऽथः॥ ६ ॥
पुनस्तद्धक्कयता मेवा 3 5ह--
कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु ।
दुह मलं संचिणइ, सिसुनागु व्य मद्यं ॥ १०॥
कायस ति ' सूत्रत्वात् , , कायेन-शर्रीगेण, वचसा-वाचा
उपलन्तणत्वात् मनसा च * मत्ता ' त्तः, तत्र कायमत्तो मदा-
न्धगजवत् यतस्वतः अवूत्तिमान् , यद्धाउहो अहं बलवान् रूप-
वान् वा, इतिचिन्तयन् बच ला स्वगुणान् र्यापयन , अहो शरद
सुस्वर इत्यादि वा चिन्तयन् , मनसा च मदाऽऽध्मातमानसः
'अहो अहमवधारणाशक्किमानिति वा मन्वानो 'चित्ते' द्रविण
° गृद्धो ` गृद्धिमान् , चशब्दो भिन्नक्रमः , ततः खीषु च
गृद्धः, तत्र वित्ते गृद्ध इति अवत्ता55दानपा रेग्रहोप लक्षण , त-
द्भावभावित्वात्तयो:,ल््रीपु गरद्ध इत्यनेन मेयुना5 5 सेवित्वमुक्कं,
सदि लियः ससारसवंस्वभूता इति मन्यते, तथा च तद्र
चः--* सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः ।
अस्मिन्नसारे ससर, सारं सारङ्गजाचनाः॥१॥ तदाभ-
रतिमांश्च मेधुनाऽऽसेञ्येव भवति,स एवंविधः किम ? इत्याद-
° दुहओ त्ति ' दिघा(-द्ाभ्यां रागद्वेबात्मकास्यां वदिरन्तः-
भनररयात्मकाभ्यां वा प्रकाराभ्यां, सुत्रत्वाद् द्विविधे वा इद्दलो-
कपरलाङ्वदनीयतया पुएयवापात्मकतया वा, मलम् श्र्र-
प्रकारे कम्मे ` संचिनोति ' वध्नाति, क इव किमित्याह--
' शिशुनागा ` गरड पदो ऽलस उच्यते, स इव स॒त्तिकां, स हि
स्निग्धतनुलया बही रेखुभिरवगुएड्यत , तामेव चाश्नीते,
इति वहिरन्तश्च द्विधाऽपि मजलसुपचिनोति,तथाऽयमपि. षन
द्दान्ता ऽभिघानेत्वयमभिप्राया-यथाऽसौ वदिरन्तश्चोपचि
तमलः खरतरद्विकरकरनिकरलंस्पशैतः शुष्यन्िटेव क्लिएय-
ति विनाशं चाप्नोति,तथाऽयसष्युपचितमलःसआ्राशकारिकर्म-
वशत इदेव जन्मनि क्लिश्यति विनश्याति च । इति सूत्रार्थ:॥११॥
अमुमेवार्थ व्यक्की कतु माह--
तओ पुट्ठो आरयकेण, गिलाणो परितप्यति ।
पर्भाओ परल।गस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणों || ११ ॥
'तआ त्ति तकः, ततो वा द्रडा55रम्भणाद्रपाजितमलत:,
स्पृष्टः, केन 7 आतक्षेन' आशुधघातिना शलविश्ाचिका<55दि -
रोगण तत्तद् दुःखोदया ऽ ऽत्मकेन वा ग्लान' इति मन्दोपगत
दर्पा वा. पर्रीति-सर्वप्रकारं तप्यते । किसुश् भवति ?--बाि-
रन्तश्च खिद्यते, प्रभीत ` इति प्रकषण अस्तः, कुतः ?---
परलोगस्स त्ति ` परलाकात् .खुञ्व्यत्ययेन पश्चम्यर्थ षष्ठा
किमिति ?- क्रियत इति क्म-क्रिया तदनुप्रेज्ञत इत्येवंशीज
कमी नुप्रत्ती, यत इति गम्यते, करस्य ?-त्रात्मानः, स टि <
साऽलीक्भापणादिकामात्मचेष्टां चिन्तयन् न किञ्चिन्मया श्रुः
भमाचीित, कितु-सदेवाजरामरवच्चे्रेताभिति चिन्तयन -
स्या ऽतङ्कतच तनावपि खिद्यते , भवति हि यि्याक्रुलितन्-
तसो ऽपि प्रायः प्राणोपरमसमयेऽउुतापः । तथा चाऽह -
भवित्रीं भूतानां परिणतिममालोच्य नियतां
पुरा यद्यत्किख्ि्धिदतमशुभ् योचनमदात् ।
पुनः प्रत्यासन्ने महति परलाकंक गमने
तदेवेक घुसा व्यथया जसयजांणेवपुषाम् ॥ १
995 दावे
सूखऽथः॥ १९ ॥
. १२० )
भरत
अभिधानराजन्द्रः।
मरण
श्रमुमेवाय व्यक्रीकतैमाह--
सुयाम रए ठाणा, असीलाणं च जा गती |
बालां कूरकम्माणं, पग।द। जत्थ वेयणा ॥ १२॥
' खुय क्ति ' श्रतानि--आकर्णितानि ` म' इति। मया ` न-
रष ` सीमन्तकादिनाम्नि, कानि? ठाणाः
|
इति लि- |
छूब्यत्यथेनोत्पत्तिस्थानानि घटिकाऽऽलयाऽऽदीनि येष्बातिस- ¦
स्पीडिताडग्ग/--दुःख मारृष्यमाणा: वहिर्निप्कामन्ति जन्त-
वः, यद्वा-तरके-रत्नप्रभादिनरकपुृथिव्यात्मके स्थानानि
खीमन्तकाधरतिष्ठादीनि कुम्मीचेतरण्यादीन वा , अथवा-
स्थानानि-सागरोपमा ऽ ऽदिरस्थित्यात्मकानि , तत्किमियता 5
वि परितप्यत इत्यत आह--' शीलानाम् ` अविद्यमान- |
सदाचाराणां या गातिनेरका 55त्मिका सा च श्रुतति खम्ब-
न्धः, कीदशानाम ?-* वालानाम् ` अज्ञानां “ ऋरकमणां '
हिस्त्नसषाभाषका दीनाम् , कीदशी गतिरित्याह-प्रगाढा ना-
म अत्युत्कटतया निरन्तरतया च प्रकर्षवत्यो, `
रामौ, वदन्त इति बघदनाः-शीताष्णशाल्मस्याश्लषणादयः ,
लदयमस्याशयः-मभेवेविधानुष्ठा(नस्यदश्यव गतिः । इति सू-
च्राथः॥ १२॥
तथा--
तत्थोववाइय खाणं, जहा म तमणुस्सुयं ।
आहाकम्मेहिं गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्यति ॥१३॥ |
` तत्रति ` नरकषु उपधाने भवमोपपातिकं ' स्थाने '
स्थितिः ˆ यथा ` येन प्रकारेण, भवतीति ओष
यत्र ' यस्यां |
में म~ |
या तदित्यनन्तरोक्परामर्श ' अनुक्षतम् ' अवधारितं, गु- |
रूमिरुच्यमानामिति शषः, श्रोपपातिकमिति च ववतो ऽस्या- |
यमाशयः-यतरि गभजत्वं भवेत् भवेदपि तदवस्थायां छे- |
दभेदादिनारकदुःखान्तरम् , ओपपातिकत्वे त्वन्तमुदै्तौन-
न्वरमव तथाविधवेदनादय इति कतस्तदन्तरसम्भवः ?.
तथा च--' -आहाकम्महिं ति '
श्यान्मर्नाति गम्यत, तदुपलाक्षितानि कमारि, आधाकर्माणि नैः
पआराधाकर्यशिः-स्वकृतकमैमिः,यद्वा आ्रारपस्वात् ,आहे क्ि' आ- |
, कर्मीणीति गम्यत, ततस्नरेव कम्माभिः, ' गः
परक्रमाप्षरक ,यहा-' यथा कर्मभिः '
ध्याय कृत्वा
उचछुन ` यान ,
द्माचानमाधाकरणम् , |
गमि- |
ध्यपराणसत्यनुरूपे तीवरतीयतरादयनुभावान्वितैगच्छुस्तदनुरू- |
पंद्रेव स्थानं , सा दति वालः, ' पश्चाद् ' इत्यायुषि हीयमाने
परितष्यत ` यथा घिडममामसदनुष्टायिनं, किमिदानीं
मन्दभाग्यः करामि ?, इत्यादि शोचते । इति सूआथः ॥१२॥
अममवाथ रृष्टान्तद्धारण टढयन्नाह-
जहा सागडिओ। ज।णं, , समं हिच्चा महापह ।
तेसं मरशमातिष्यो, अक्खभग्गास्म सोयह | १४ ॥
“ यथा ' हत्युवाहरणापन्यासार्थ: । शक्नोति शक्यते वा
धान्यादि कमनन सोढुमिति शकटः तम चरति शाकटिकः |
गनजीमबाहक' ' जाएं लि ` जानपवबुष्ियमानः
पनादविरदिते “दत्वा `
रतीणातया प्राधान्यन च पन्थाश्च महाफ्थः,
चयापानक्ते `"
“ विषमम् ` उपजा ४5 केस 5 "साग प-थानम्'आओतिरणो पसि
^ समम् ' उ
~ ~
व्यक्त्या, कम् ?--महाश्चासो वि-
५4 ऋषक्पूरदवषृ: ~
-----
( पा? ५-४-७५ ) इत्यकारः समासान्तः, तै |
अवतीरः--गन्तुमुपक्रान्तः, पठ्यते च--* ओगाढों त्ति '
तत्र चाऽवगाढ आरूढः अपन्नः इति चैकोऽथः, अश्नीते न-
वनीतादिकभिव्यत्तो--घूः तस्य भङ्गो-- विनाशः अक्तभज्ञः त
स्मिन् , पाठान्तरतश्चा त्ते भग्न, शोचते यथा-धिङ्् मम परि-
ज्ञाने यज्लानन्नपीत्थमपायमवाप्तवान् । इति सजलाः ॥ १४॥
सम्प्रत्युपनय माह--
एवं धम्मं विउक्करम्म, अहम्मं पडिवज़िया ।
वाले मच्चुमुह पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयह ॥ १४ ॥
* एव भिति ` शाकटिकवत् ` धर्म ` क्षान्त्यादिक यति-
धमं खदाचारात्मकं वा ` विउक्रम्म त्ति ` व्युत्क्रम्य वि-
शेषेणोल्लङ्घ्य न धर्म्मो ऽधम्मः, नञविपक्तेडपि बत्तेत इति
धर्मप्रतिपक्तः. ते -हिसा ऽ ऽदिकं ' प्रतिपद्य ` अभ्युपगम्य 'बा-
लः ` अभिदितरूपः: | मरणं-खत्युस्तस्य मुखमिव मुख
मत्युमुखं--मरणगोचरं * प्राप्तो ` गतः , किमित्याह--श्रक्ते
भग्न इव शोचति, किमुक्कं भवति ?-यथा-अन्तभद्ग शा-
काटिकः शोचति, तथायमपि स्वकृतकर्मणामिहैव मारणा-
न्तिकवदनात्मकं कलमनुभवन्नात्मानमनुशाचति, यथा हा
क्रिमेतज्ञानता 5पि मयेवमनुष्ठितम । इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥
शाचनानन्तरं च किमसौ करातोत्याह--
तश्रो से मरणं तम्मि, बाले संतस्सई भया |
अकाममरणं मरै, धुत्त वा कक्िखा जिए ॥ १६ ॥
'तत' इति श्रातङ्गात्पत्तौ यच्छोचनसुक्क तदन्तरं 'से' इति स
मरणमेवान्तो मर णान्तस्तस्मिन् , उपास्थित इति शषः, "बालो"
रागाद्या ऽकुलितचित्ः*सं्रस्यति समुषद्धि जते विभेताति थीव-
ल्, कुतः ?-*भयात्' नरकरगतिगमनसाध्वसाद , अनेनाकाम-
त्वसूक्घं, स च किमवेविघात् मरणाद्विमुच्यते ? उत नेत्याह-
अकामस्य-अनिच्छतो मरणमक्ाममरणे तेन , स्त्र चा- |
षेत्वाद् द्वितीया, ' ्रियते ' भ्राखंस्त्यजति . क इव कीडश
सन. ?-- श्व इक ` द्यूतकार इव , वाशब्वस्योपमा्थत्बा-
त् , ' कलिना ' एकन, प्रक्रमात् दायिन, जितः सन्नात्भानं
शोचति,यथा ह्ययकेन दयेन जितः ,सन्नास्मान शोधयति
तथाऽसावपीत्वरेविंपाककटुभिः सडुकलशंबहुलेमनुजभा-
मर्दिव्यसु्ख हारितः शोचन्नव चत्रियत । इति सत्रार्थः ॥ १६ ॥
प्रस्तुतमेवा थ निगमयितुमाह--
एर्यं अकाममरणण, बालाणं तु पंवेइय ।
इत्तो सकाममरणं, पंडियाण सुह मे ॥ १७॥
ष्टतद् ' श्नन्तरमेव दुष्कृतकमंणां परलोकाद्धिभ्यतां
न्मरणमक्ग तदकाममरजे , वालानामेव , तुशब्दस्येवाथैः
त्थात् , ' प्रवेदिते ' प्रकषण प्रतिपादितं, कीथङ्द्रणधरा $
दविभिरिति गम्यते । परिडतमरणप्ररुतावनाथमाह--' इत्तो
सि ` इतः-त्रकाममरणादनन्तरं सकाममरणे परिडतानां स-
स्यर्षि ' शरुतं ` आकरीयत क ' मम, कथयत इत्यु .
स्कारः । इवि सूत्रासैः ॥ १७ ॥
यथाप्रतिशातमाहँ--
मरण पि सपुप्माणं, जहा मे तमशुस्सुयं ।
चिष्पसरण्णमणाधायं, संजयाणं बुसीमओ ॥ १८ ॥
। (2२१५४)
| अभध्रानराजन्द्र मरण
मरणमाप शास्ता जावतामत्यापशब्दाथः, ` पुण क-
माण शुभ , इत्यस्माद्धातोः ` उणादयो वहुलम् ` (पा०२-२- |
१ ) इति बहुलवचनाद्धावे क्यपि पुरायम् . उक्तं हि--
“ पुण कम्माणि निर्दिष्ट: , शुभविशेषप्रकाशको धातुरयम् । |
भावप्रत्यययागा-द्विमक्रिनिरदेशसिद्धमतद्र पम् ॥ १॥ ” ` सह
तन वत्तन्त इति सपुरायास्तषां न त्वन्येषामपरायवतां , कि
सवेमापि ?, नत्याह-- यथा ` येन प्रकारेण ' में मम,
कथयत इति गम्यते, तदित्युपक्तपः, तत्रोपात्तम् * अनु
श्रुतम् ` अवधारितं, भवद्भिरिति शषः, खुष्ड-- प्रसन्नं म
रणसमये 5प्यकलुष कपायकालुष्यापगमात् . मनः-- चतो य-
घात सुप्रसन्नमनसः महासमुनयस्तषा ख्यात स्वसवद्नतः |
प्रसिद्धं सुप्रसन्नमनः ख्यातम्, यद्धा-' सुप्पलन्नहि अक्खाये'
त्र च सष्ठ प्रसन्नैः पापपङ्कापगमनेनात्यन्तनिर्मलीभूतेः ,
शषती क्रा द्ध {रांत गम्यते , आख्यातम् । प्यते च-- वि
प्पसरणमणाघायं ति ` तत्र च विशेषेण विविधेर्वा-भावना.
ऽऽदिभिः प्रकारैः प्रसन्ना-मरणऽप्यपहटतमोहरेणुतया ऽनाकु
लचतसो विप्रसन्नाः, तत्सम्बन्धि मरणमप्युपचाराद्धि-
प्रसन्न , न विदयते आघ्रातः तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिना-
मात्मनश्च विधिवत् सालखितशरीरतया यस्मिस्तदनाघात ,
केषां पुनरिदम् ? . उच्यत--* सयतानां ` समिति- सम्यग
यतानां--पापापरतानां , चारिचिणामित्यश्ः । ` बुसीमता
त्ति ` आपेत्त्वादश्यवतां वश्य इत्यायत्तः . स चेहा55त्मा
इन्द्रियाणि वा . वश्यानि वियन्त यषां ते अमी वश्य-
चन्तः तेषाम् , अयमपरः सम्प्रदाया्ः--* वसंति वा सा-
हुगुणाह वुखीमेतः, अहवा बुसीमा--सविग्गा तसि ति'
पतचार्थात् परिडतमरणमव , तता ऽयमश्रः--यथेतत् सय- |
तानां वश्यवतां विप्रसन्नमनाघ्रातं च सम्भवति, न तथा-
ऽपुराय प्राणिनाम् । ˆ` अन्ते समाहिमरणं, अभव्वजीवा ण
पावेति त्ति ` वचनात्. विशि्याग्यताभाजामव तत्प्राप्ति-
सम्भवात् । इति सताः ॥ १८ ॥
यथा चेतदेव तथा दर्शायितुमाह--
न इम सत्सु क्खृसु,) ण इम सव्वसु गारिसु |
नानासीला य गारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो ।१६।
^ न ` इत्यवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नेव ` इदम् ` इति प-
णिडतमरणं, ` सन्वसु भिक्खृखु ति ` सूत्रत्वात् सर्वेषां
भिज्ञणां परदत्तोपजीविनां बतिनामिति यावत् , किन्तु-क-
पाञ्चिदव परोपाचतपुरयानुभाववतां भावभिक्षुणां , तथा
च-ग्रहस्थानां दुरापास्तमव , श्रत एवा5:5हनेदं परिडत
मररो ' सव्वखु गारिसु त्तिः सर्वेप्रामगारिखां ग्रहिणां ,
चारितिणापज तत्सम्भवात् , तथात्वे च-तेषामपि तत्त्व-
ता यतित्वाद , उभयत्र विषयसश्नम्यन्ततया वा नयम्-
यथा चेतदवे तथापर्पक्तत आह--नाना अनकविधे शील
चतं स्वभावा वा यपां त नानाशीलाः , ` अगारस्था
गरहस्थाः, तषां हि नेकरूपमव शील किन्त्वनेकभद्ञसम्भवा
दनकविध. दयाविरनिरूपस्य तस्याचकध्राभिधानात्
वैचिरतिरूपस्य च तण्वसम्भवात् . ` चिपमम् ` आतदुले
त्तया तगहन वसग वा शालमपा व्रपमश्ालाः, क
सव 5प्यानदाननाउावक लया शा त्रणा
१-अत्र पूवाद्ध चतुथ-पत्सम-पष्ठा; पाः,
35
त ?--भत्तवः.न
उत्तरा ऽषट चः |
वा तत्काले भ्रियन्त जिनमतप्रतिणा मपि. लीधान्तरीया
स्तु दूरोत्सारिता ण्व, तयु हि गराटणस्तावदः्यन्तं नानाशी-
ला एवं, यतः-केचिद् ग्रह + ऽश्रमःतिपालनमव महाचतमि-
ति प्रतिपन्नाः, श्रन्य तु-सप्तशिक्षापदशतानि गृरद्णां बताम
त्याद्यनकधव ब्रवत, भित्वा ऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव ,
यतस्तघु केपान्िःपञ्चयमनियमा 4 ऽत्मकं व्रतमिति दशनम् ,
अपरेषां तु कन्दमूलफलाशितेव इति , श्रन्यपामात्मतस्वपरि.
ज्ञानमेवेति विखदशणीलता, न च तपु क्वचिदविकलचाि -
सम्भव इति सर्वत्र फरिडतमरणाभावः । इति सूत्राथः ॥१६॥
(११) विषमशीलतामव भिक्ष्णां समथयित॒माद-
संति एगेहि भिक्खृहि, गारत्था संजमुत्तरा |
गारत्थेहि य सब्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥
"सन्ति" विद्यन्ते ' एकेभ्यः ' कुप्रचचनभ्या भिन्षुभ्यः ` गा
रत्थ त्ति ` सूत्रत्वादगारस्थाः, सयमेन-देशविरत्याःमकना-
त्तराः-- प्रधानाः सयमोत्तराः, कुप्रयचनभिक्षवा टि जीवा-
द्यास्तिक्यादपि बहिष्कृताः सवथा ऽचारितरिणश्चति कथ न
सम्यगदशा देशचारि त्रिणा गृदिणस्तभ्यः सयमात्तराः सन्त॒?,
पव सत्यगारस्थप्वेव तदस्त्वित्यत आह-- अगारस्थेम्य-
शच सर्वेभ्य इति अनुमातिवर्जसर्वोत्तमदेशविरतिप्राप्ते भ्यों -
पि साधवः संयमात्त णः, परिपूर्णसयमत्वात्तपाम | तथा च
बद्ध सम्प्दायः-'* एगो सावगा साहु पुच्छति-सावगाणे सा-
हणे किमतरं ? , साहुणा भरणात-- परि सवमदरंतरं , तता
सो आउलीहआ पुणा पुच्छाति-कुलिंगीण सावगाण य कि-
मंतरं ? , तेण भदुणति-तदेव सरिसवमंदरं ति , ततो संमा-
सासितोा, जता भरिय--“ देसक्रदसविरया, समणाणं सा-
वगा सुविदियाणे । जसि परपासडा , संमवि कले न
च्ैगधति ॥ २ ॥ `` तदनन तषां चारिजाभावदशनन परिडत-
मरणाभाव एव समर्थितः | इति सूत्राथः ॥ २०॥
(१२) ननु कुप्रवचनभिक्तवो ऽपि विचत्रलिङ्गधारिण पवति
कथं तभ्योऽगारस्थाः सयमात्तराः ?-अत आह--
चीराजिणं निगिणिणं, जडीसंघाडिमंडिणं ।
एयाई पि न ताति, दुस्सीलं परियागतं ॥ २१॥
चीराणि च-चीवराणि अजिनं च-स्रगादिचमे चीराऽजिन
शिगिणिण ति ` सूत्रत्वान्नाग्ल्य ' जड़ त्ति ` भावप्रधान
त्वान्निर्देशस्य जटित्व, सङ्गारी-दसख्रसदातजानता, ` माड
ति ' यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यत ततः प्राग्वत् , मु-
रिडत्वम् , “ एतान्यपीति ` निजनिजप्रक्रियाचिरचितवति-
वेषरूपाणि लिद्गान्यपि. कि पुनर्गाहस्थ्यमित्यापिशब्दाथ : ।
किमित्याह--नैब चायन्त भवाद् दुष्कृतकर्मणा वात गम्यत,
कीटशम?-दष्णील' दुराचारम् , परियागये ति पर्यायाऽऽग-
तं-प्रव्॒ज्यापर्यायप्राप्तम, आषेत्वाच्च याकारस्यकस्य लाप
यद्धा-दस्सीले पारयागयं ति मकारो ऽलात्षणिकः.ततो दुः-
शीलमव दण्रणौीला ऽत्मकः पयायस्तमागते दुःशीलपयाया 45-
गतं. म हि कपायकलुषचतसो वदटिवकवरुलिरतिकष्हतुरपि
नरका 5 दिकुर्गातानवारणाया 5ले, तता न लिङ्गघारणा $
विशिष्रहतुः | इति स्दूत्ाथधः ॥ २१ ॥
(१२) आट-कथ गरृहायमाच.ऽप्यमीषां दुर्मतिरिति ?, उच्यत-
पिडालण व दस्सालो, नरगाआ न मुच्चइ ।
१--स मा श्वस्त | सतं!|माप | ३ अप।त्त |
१२२ )
मरण
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कमति दिवं ॥२२॥ |
पिडालप व त्ति ' वाशब्दाऽपिशब्दा्थः, ततश्च ` पिडिस-
हात ` पिरडयते तत्तद् गृदेभ्य च्रादाय सङ्ध्ात्यत इति पि-
गडः तमवलगति-- सवने पिरडावलगो, यः स्वयमाहाराभा- |
चतः परदत्तापजीवी साऽपि, आस्तां ग्रह्दिमानित्यर्थः ।
दुःशीलः प्राग्वत् , ` नरकान् ` स्वकर्म्मोपस्थापितात् सीम-
नतकादन मुच्यत, श्रत्र चादाहरणं तथाविधद्रमकः, तत्र च |
सम्पदायः-* गायागिहे णयर एगो पिंडोलओ उज्ञाणियाएं
विशिग्गए जरो भिक्स डद, ण य तस्स केणइ किचि दि-
राणो, सो तसि चभारपन्वयकडगसन्निविद्भाण पव्वतोवरि च-
दऊण महति मालयं सले चालेइ, एएासिे उवरि पाडमि
त्तिराहज्भाई विच्ृटिञण ततो सिलातो निवडितो
सिलातले सचरारणयसव्वकाता य मरिऊण श्प्पद-
ल शरण समुप्पन्ना। ।” तर्हिं किमत्र तत्वतः ।
खृगतिदेतुरित्याद --` भिक्लाण् व त्ति" भिन्षामक्ति अकति
चा भिक्नादा भिक्ञाको, वा विकल्पे, श्रनेन यतिर्क्कः । गे
तिष्ठति ग्रहस्थः स वा. शामन निरतिचारतया सम्यग्भा-
वानुगततया च वर्त-शीले परिपालनाःमकमस्यति खुबतः,
` ऋति ` गच्छति ' दिवं ` देवलोकं, मुख्यता मुक्रिदेतु- |
त्वेऽपि वतपरिपालनस्य दिवं ऋमतीत्यभिधाने जघन्यतो-
सपि देवलोकप्राप्तिरिति ख्यापना्थम् , उक्तं हि अविरा-
हियसामणण-स्स साहुणो सावगस्स य जहणणों । उववा-
तो सोहम्म, भणितो तेलोकदंसोहि ॥ १ ॥ ” अनेन वतपरि-
पालनमेव तत्वतः खगातिदेतुरिव्युक्घम् । इति सूवाथैः ॥२२॥ |
{ ६४) यद्बलयागाद्रहस्था ऽपि दिव ऋमाति तदक्कुमाह-
अगारिसामादयंगाई, सदी काएण फासए ।
पासहं दृहओ पक्ं, एगराई न हावए ॥ २३ ॥
अगारिणा-ग्रहिणः सामायिकं-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपे ।
नस्याङ्गान-निःशङ्कताकालाध्ययनाखुबता ऽऽ दिरूपाणि अ-
गारिसामायिकाङ्गानि, सद्भि त्ति' सृत्रत्वात् श्रद्धा-रुचिरस्या
ऽस्तीति श्रद्धवान् , कायेनेत्यपलन्तणत्वान्मनसा वाचा च
` फासद त्त स्पृशात सवत , पाषण पाषः, स चर धम-
स्य त धत्त इति पापधः-श्राहारपोषधाऽऽदिः, तं" दुहतो
पक्से ति ` तत एव योरपि सितेतररूपयोः पक्तयोश्चतु-
देशीपूर्शिमास्यादिषु तिथिषु ` एगराई ` ति अपेगैम्यमान-
त्वादेकरात्रमपि, उपलक्तणत्वाचेकादेनमपि, “न हावए ति
न हापयति-न हानि प्रापयति, राज्िग्रहएं च दिवा व्याकु-
लतया कतमशक्चुवन रात्रावपि पोपध कुयात् , इह च
सामायिकाङ्गत्वेनेव सिद्धः, यदस्य भेदेनापादानं तदादरख्या-
पनाथमवृष्मव, यद्धा-यत एवं गरृदस्थोऽपि खुबतो दिवं
क्रामति अतो5गारी सामायिकाङ्गानि स्पृशेत् पाषधे चन
हापयदित्युपदेशपरतया व्याख्येयम् । इति सृताः ॥ २३॥
प्रस्तुतमेवा थमुपसहते माह--
एवं सिक्खासमावन्नो, गिहवासेडवि सुव्व्रो ।
मुचति डवि -पव्वा्।, गच्छ जक्ख -सलोगय ॥ २४॥
" द्वम् ` अमुनोक्नन्यायेन, शिक्षया-बतासेवनात्मिकया
समापन्नो-युक्तः शित्ता समापन्नो, गरृहवासेऽपि आस्तां प्रव-
आमभधानराजन्द्रः ।
|
च्यम् ?, विकरणशक्केस्तत्रापि स्वात् ।
ज्यापयाय इत्यपिशब्दार्थः, ˆ सुव्रतः ` शोभनवतो, मुच्यते--
१-उस। निकास | २ निङत्म ।
मरण
कुतः -छविः-त्वक् पवाणि च-जायुकृर्पराऽ ऽदीनि दुविपव
तद्यागादादारिकशरीरमपि छुविपर्व ततः. तदनन्तरं च
च्छेद् यायात् यत्ताः-देवाः समानो लोको स्येति सलोक-
स्तद्धावः सलोकता यक्षैः सलोकता यत्तसलोकता ताम् ,
इय च देवगतावव भवतीव्य्थादेवगतिमिति, श्रनेन च प-
गिडतमरणावसरे ऽपि भ्रसङ्गता बालपरिडतमरणमुक्कम् ।
इति सूत्रा थः ॥ २४॥
(६५) साम्प्रतं प्रस्तुतमेव परणिडितमरणं फलोपदर्शनद्वारेणाह-
अह जे संवुड़े भिक्खू- दृण्हमगयरे सिया ।
सव्वदुक्खप्पहीणे वा, देव वावि महिड्डिए ॥ २५॥
° समथ ` इत्युपप्रदर्शने, य' इत्यनुद्दिष्टनिर्देश, "स्रत ` इति
पिदितसमस्ता $ऽश्रवद्धारः, ' भिच्चु ` रिति भावभिच्लुः, सच
दयोरन्यतरः-पकतरः, ' स्यात् ” भवेद् , ययोद्धेयोरन्यतरः
स्यात् तावाह-सवौणि-श्रशेषाणि यानि दुःखानि-चुत्पि-
पासेष्टवियोगानिष्टसयोगादीनि तैः प्रकर्षेण-पुनरखजुत्पत्त्या-
त्मकेन हीनो-राहितः सवंदुःखप्रदीणः, स्यादिति सम्बन्धः ।
यद्वा-सर्वदुःखानि प्रहीणान्यस्येति सर्वदुःखप्रीणः, आ-
हिताग्यादेराक्वतिगण॒त्वात् निष्ठान्तस्य परनिपातः, स च
सिद्ध पव, ततः स वा देवो वा, अपिः सम्भावने, सम्भवति
हि सहननादिवैकल्यतो मुक्त्यनवापो देवोऽपि स्यादिति ।
कीटग् ?-महती ऋद्धिः-खुखादिसम्पदस्येति मदार्दैकः
इति सूजाः ॥ २५॥
( १६ )आह ग्रह्णीमो देवो वा स्यादिति यत्र चासं
देवो भवति तत्र कीदशा श्रावासाः ? की-
दखशाश्च देवा ? इत्याह--
उत्तराईं विमोहाई, जुडमताणुपुव्वसो ।
समाइष्पाइ जक्खेहिं, आवासाइ जसंसिणो ॥ २६ ॥
दीहाउया इड़िम॑ता, समिद्धा कामरूविणो ।
अहुणोववन्नसकासा, भुजो अचिमालिप्पभा ॥ २७ ॥
° उत्तरा ` उपरि वर्तिनो ऽनुत्तरविमानाऽऽख्याः सर्वोपरि-
वर्तित्वात्तेषां, विमोदा स्च अल्पवेदाऽ ऽदिमोहनीयोदयतया
विमोहाः, अथवा-मोहो दविधा-द्रव्यतो, भावतश्च।
द्रव्यतोऽन्धकारो, भावतश्च मिथ्यादशेनादिः , स द्विवि-
धोाऽपि सतततरत्नोयोतितत्वेन सम्यमदशनस्यैव च तत्र
सम्भवन विगतो येषु ते विमोहाः, दुतिः--दीिरन्याति-
शायिनी विद्यते येषु ते दुतिमन्तः ; ` अखुपुव्वसो त्ति ?
प्राग्वदनुपूवेतः ऋमेण विमोहादिविशेषणविशिष्ठाः, सोध-
मांदिषु छानुत्तरविमानावसानंषु पूर्वेपूवापेक्तया प्रकर्षव-
न्त्येव विमोहत्वा55दीनि, “ समाकीर्ाः ` व्याप्ताः, यक्षे: "
देवः, श्रा--समन्ताद्रसान्ति तेष्वित्यावासाः , प्राकृतत्वाञ्च
सर्वत्र नपुंसकतया निर्देशः, ` देवास्तु तवर ˆ यशखिनः '
इलाघान्विताः, ' दीर्घ '--सागरोपमपारिमिततया आयुरेषा-
मिति दीर्घायुषः , ऋद्धिमन्तो ` रत्नादिसम्पदुपेताः, * स-
मिद्धा ` अतिदीप्ताः “ कामरूपिणः ` कामः--अभिलाष-
स्तेन रूपाणि कामरूपाणि तद्धन्तः , ' विविधवेक्रियशक्त्य- `
न्विता इत्यथः । न चेतदनुत्तरेष्वनुपपन्नं सनेन विशेषणमिति वा-
श्रघुनोपपन्नसङ्का-
१--दे| णह मझयरं इति-एठ।न्तरम् ।
( १२१ )
मरण
अभिधानराजन््रः।
मरण
शाः ` प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरषु हि वर्णद्य॒त्यादि
यावदायुस्तुल्यमेव भवति । ` भूयो ऽचिमालिप्रभा ` इति , |
भूयःशब्दः प्राचुयै , ततः प्रभूता ऽऽदिव्यदीप्तयो , न छोक-
स्थैवाऽऽदित्यस्य तादृशी द्युतरस्तीति भूयोग्रहणम् । इति
सूत्रार्थ' २६ ॥ २७ ॥
( १७ ) उपशेहतुमाह--
ताणि ठाणाईं गच्छंति, सिक्खित्ता संजमं तवं ।
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा ॥२८॥
* तानि ` अभिहितरूपाणि तिष्टन्त्येषु, सुकृतिनो जन्तव
इति स्थानानि--आवासा < ऽत्मकानि, ई गच्छन्ति ॥ यान्ति र
उपलत्तणत्वाद्रता गमिष्यन्ति च , उपलक्षणं चेतत् सोध-
मा ऽऽदिगमनस्य, तत्राऽपि तषां कषाश्चिद्रमनसम्भवात् । 'शि-
्तित्वा ' अभ्यस्य, ' संयमे ` सप्तदशभेदे, * तपो ` दः्दश-
मेदं , क इत्याह--* भिक्खाए वा गिहत्थे व त्ति ` प्रा-
ङृतत्वाद्वचनव्यत्ययेन भित्ताको वा, गृहस्थो वा भावतो
यतय पवति यावत् , , अत एवाह- ज › इति य, शा-
न्त्या--उपशमन परिनिवृताः--शीर्ताभूता विध्यातकषा-
याःनलाः शान्तपरिनिवृताः, यद्धा--ये केचन ` सन्ति '
विद्यन्त परिनिवृताः , श्त च देवो वा स्यादित्येकवच-
नधक्रमेऽपि यद्रहुवचनाभिधाने तद्व्याप्त्यर्थ ततो न य
- एक एवेश्वरायनुग्रहीतः स पव सम्यग्दशनाऽऽदिमानपि
दिवं क्रामति किन्तु सर्वोऽपि इत्युक्घं भवति । इति सूत्रा-
थे; ॥ २८॥
एतच्चा 55करार्य मरणेऽपि यथाभूता महात्मानो
भवन्ति तथाऽऽदह--
तेसिं सुच्चा सपुज्ञाणं, संजयाणं वुसीमओ ।
ण संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सुआ ॥ २६ ॥
* तषाम् ` श्ननन्तराभिदहितसखरूपाणां भावभिक्षुणां , ‹ श्रु-
त्वा ` श्राकरा्य, उक्ररूपस्थानावासिमिति शषः | कीदशाम ?।
^ सत्पूज्यानां सतां पूजाहांणां सती वा पूजा येषां ते
सत्पूजास्तेषां , “ संयतानां ' संयमवतां , बुसीमश्रो त्ति '
प्राग्वत् , ' न सत्रस्यन्ति ` नोद्विजन्ते, कदा ?-मरणे मर-
रेन वान्तो मरणान्तस्तस्मिन् श्रावीचीमरणाऽपेत्तया वा5-
न्त्यमरणे , प्रारूतत्वाञ्च परनिपातः । समुपस्थित इति
शेषः । “ शीलवन्तः ` चारिणो, * बहुश्रता ` विविधा ऽऽग-
मश्चरवणावदातीकृतमतयः, इदमृक्रं भवति-य पवाविदि-
तधार्मिकगतयो ऽनुपार्जितधर्माणश्च त॒ पव मरणादुद्धिज--
न्ते , यथा-क्वा ऽस्माभि्त्वा गन्तव्यमिति, उपार्जतध-
मौणस्तु धर्मफलमवगच्छुन्तो न कुतो ऽप्युद्धिजन्ते, यथा-
क्वा ऽस्माभिरृत्वा गन्तव्यम् । यदुक्कम-- चारितो निरुपकिल
ष्टो, धर्मो हि मयेति निर्वृतः स्वस्थः । मरणादपि नोद्धिजते ,
ङतरूत्यो ऽस्मीति धम ऽऽत्मा ॥ १ ॥ ” इति सूत्रार्थः ॥ २६॥
इत्ये सकामाऽकाममरणस्वरूपमभिघाय
शिष्योपदेशमाद--
तुलिया विसेसमायाय, दयाधम्भस्स खंतिए ।
विप्पसीइज्ज मेधावी , तहाभूएण अप्पणा ॥ २० ॥
“ तोलयित्वा ' परीक्षयात्मानं, धूतिद्ा क्था 5 5विगुणान्वितामि-
ति गम्यते । * विशेष ` प्रकरमाद्धक्कपरिज्ञा $ऽदिकं मरणभेदं
° आदाय ` बुद्धया गृहीत्वा ऽभ्युपगम्यति यावत् , दयाप्र-
धानो धम्मों दयाधम्मौ-दशविधयतिधमरूपः, तस्य सम्ब-
न्धिनी या क्ञान्तिस्तया, उपलन्तणत्वात्-मादंवा + ऽदिभिश्च ।
* विप्रसीदेत् ` विशेषेण भ्रसन्ना भवेत् , न तु मरणादुदि-
जतेति भावः । * मेधावी ` मर्यादावर्त्ती , “ तथाभूतन '
उपशान्तमोदोदयेन , , यदिवा-यथेब मरणकालात्पागनाकु-
लचता अभूत् , मरणकाले ऽपि तथेवावस्थितन तथा भूतना-55-
त्मना स्वयमयमपरकट्पाऽपि विप्रसीदत् कषायपङ्कापग-
मतः स्वच्छतां भजत् , न तु कतद्वादशवपसंलखनतथाविधत-
पस्विवन्निजाङ्लीभङ्गाऽऽदिना कषायितामवलम्बत मधावी ।
कि कृत्वा ?- तोलयित्वा बालमरणपरणिडतमरणे, ततश्च
* विशेषं ` बालमरणात् परिडतमरणस्य विशिष्टत्वलक्षणम ,
“श्रादाय' गृहीत्वा, तथा दयाधरमस्यति चशब्दस्य गम्यमा-
नत्वात् दयाधर्म्मस्य च-यतिधम्मस्य विशप-शषधर्म्मा-
तिशायित्वलक्तणमादायेति सम्बन्धः । ' कया विप्रसीदेत्?- '
क्तान्त्या , तथाभूतेनति निष्कषायेणा ऽऽत्मनो पलात्तितः । इति
सूजराथेः ॥ ३० ॥
विप्रसन्नश्च यत् कुयोत्तदाह--
त्रो कले अभिष्पेए, सड़ी तालीसमंतिए ।
विणणएज्ञ लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए ॥ ३१ ॥
* तत् ` इति कषायोपशमानन्तरं, “ काल ` मरणकाले,
° श्रभिप्रेते ` श्रभिरुचित , कदा च मरणमभिप्रेतम् ?, यदा-
योगा नोत्सप्पन्ति । ` सहि त्ति ' प्राग्वत् : श्रद्धावान् , ता-
दृशामिति भयोत्थम् , * अन्तिके ' समीपे गुरूणां मरणस्य वा,
* निनयेद् ` विनाशयेत् , कम् ?- लुनाति लीयन्ते वा
तेषु यूका इति लोमानि तेषां हर्षो लोमहरष॑स्त-रोमा्च,
हा ! मम मरणे भविष्यतीति भयाभिप्रायसम्पाप्यं, कि
च- भदे ` विनाशे, “ देहस्य ' शरीरस्य, काक्लेदिव काह्ले-
त् , त्यक्ततत्परिकम्मत्वात् । । अथवा--' तालिसन्ति' खुब्व्य-
त्ययात् तादशो यादृशः भ्रवज्याप्रतिपत्तिकाले संलेखना-
काले वा अन्तकालेऽपि तादृशः श्रद्धावान् सन् , उक्तं
दि-“ जाए सद्धाए णिक्खतो, परियायद्भाणमुत्तमे त-
मेव श्रणुपालेज्ज त्ति । ” इंदशश्च परीषटापसगीजं लोम-
हर्ष विनयदिति सम्बन्धः । इति सूत्रार्थः ॥ २३९१॥ `
( १८ ) निगमयितुमाद-
अह कालम्मि संपत्ते, आधायाय सथुच्छयं ।
सकाममरणं मरति, तिएहमन्नयरं मुणी ॥ ३२ ॥
° श्रथेति › मरणामिध्रायानन्तरं, * काले ` इति मरणकाले,
संप्राप्त णिप्फादइया य सौसा ` इत्यादिना कमेण समा-
याते, “ श्राघायाय त्ति ' आषेत्वात् आघातयन , खलेखना-
दिभिरूषक्मणकारणैः समन्ताद् घातयन्--विनाशयन् , कं?
समुच्छुयम--अन््तः कामेणशरीरं ‹ बहिरोदारिक ” यद्वा-
समुस्सतं ति ' खुच््यत्ययात्समुच्छयस्या ऽऽधाताय-विना-
शाय, काले सम्प्राप्त इति सम्बन्धनीयम् । किमित्याह-स-
कामस्य-उक्रनीत्या साभिलाषस्य मरणे-सकाममरणे, तेन
ध्रियते, याणां -भक्कपरिक्षङ्गिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण ,
सूष्रत्वात् सर्वत्र विभक्लिव्यत्ययः । मुनिः ' तपस्वी । इति
सृत्राथेः ॥ ३२ ॥ उत्त ० ५ अ० ।
| १२४ )
मरण
(१६ खाम्प्रतमुप्सेहररति-एवमुक्कनीत्या तेषामकान्तवादिनां
न स्वाख्याता धम्मा भवात, नाप शास्त्रप्रणयनन सुब्रज्ञापता
भवति । कि स्वमनीषिकया भवतद माभधीयत ?, नत्याह-
यदिवा-क्रिम्भूतस्तर्दि सुप्रज्ञापितो धर्म्मों भवतीत्याह--
से जहेये भगवया पंवेइये, आसृपन्नेण जाणया, पा- |
सया, अदृवा-गसुत्ती वओगोयरस्स ति वमि। सब्वत्थ |
समयं पावं, तमव उवादकम्म एस मह क्विगे विया- |
हिए । गामे वा, अटूवा रण, नव॒ गामे, नव रण्ण, ध- |
म्ममाऽऽयाणह । पवेइयं माहणण मइमया । जामा तिन्नि |
उदाहिया । जसु इमे आयरिया संवुज्भमाणा समुद्ठिया |
जे णव्वुया पावाह कम्माहे आणयाणा ते वियाहया |
( सूत्र-२०० )
तद्यथा-'इद' स्याद्वादरूपे वस्तुना लक्षण समस्तव्यवहारा 5-
चुयायि क्वचिदष्यप्रतिहते, ` भगवता ` श्रीवद्धमानस्वामि- |
ना, प्रवदितम | एतद्भा-श्रनन्तराक्कं भगवता प्रवदितमिति ?
किम्भूतनात दर्शयाति-आशुप्रक्षन निरावरणत्वात् सततो-
पयुक्ननेत्यथः । कि यागपतद्यन ?, नति दर्शयाति-' जानता
ज्ञानापयुक्नन, तथा--' पश्यता ` दर्शनापयुक्कनेतत्प्रवदितं ,
यथा-नषामेकान्तवादिनां धर्म्मः स्वाख्याता भवति । अथवा
गुप्तिवोग्गाचरस्य-भाषासमितिः काय्न्यतत्प्रवदिते भगवता।
यदिवा -आस्तिनास्तिश्वाघ्रुवा ४ ऽदिवादिनां वादायान्थितानां
अयाणां तिषष्र्याधकानां प्रावादुकशतानां वादलाव्धिमतां |
प्रतज्ञाहतुदष्रान्तापन्यासद्भारण तदुपन्यस्तदूषणापन्यासन |
च तत्पराज्याऽऽपादनतस्सम्यगुत्तरं दयम। अथवा गुप्तिवा ग्गा-
चरस्य विधयत्यतदहं व्रवीमि । वच्यमाणं चत्याह-तान वादि-
ना वादार्याल्थितानव व्रयाद्-यथा भवतां सर्वेषार्माप प्राथिव्य-
पस्रज्ञावायुवनस्पत्यारम्भः छतकारितानुमतिभिरनज्ञाता ऽतः
सर्वत्र सम्मतम् अभिप्रतमप्रातिषिद्ध, 'पाप पापानछाने, मम
नु नतत्सम्मतामत्यतद्दशीयितुमाह-'तदव' एतत्पापानुष्ठानमुप- |
सामीप्यना ऽतिक्रम्य-ओआतलङ्घ्य,यतादहं व्यर्वास्थतो5त एप
मम बविवका व्याख्यातः। तत्क थमहं सवा :प्रातिपिद्धाऽऽस्रवद्वारः |
सभाप्रणमापि करिच्य ?, आस्तां तावद्वाद इत्यवमसमनाज्ञाव- `
वक्रं करातीति । अज्ा 5ह चादकः-कथे तीर्थिकाः सम्मतपापा
श्रज्ञानिना मिथ्यादष्टया 5चरित्रिणा $ तपंस्विनो वति ?, तथा
हि-त 5प्यक्रष्ठभामिवनवासिना मूलकन्दाऽऽदारा बृत्ता5<5दिनि-
चासिनश्चति। अज्ा 5हा ५ पचायः-नाररायवासा ५ <दिना धर्मः, ।
अपि तु-जीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानष्ठानाच, तच्च तषां |
नास्तीत्यत ऽ समनाज्ञास्त इति । कि च-सद सद्धिव किना हि ध- |
मः.सच-ग्राम वा स्यात् अथवा-अरणय. नेवाधारो ग्रामा, ने- |
बारराये धर्म्मानमित्त, यता भगवतां न वासमितरद्वा55श्रित्य |
धर्मः प्रचेदितः. श्रपिनु जीवादितच्वपरिज्ञानात् सम्यगनुष्ठा- |
नाच्च, अतस्तं धर्ममाजानीत । ` प्रवदिते ' काथितं, ' माहणरण
तत भगवता, किम्भूतन ?, मतिमता मननं सर्वपदा्थपरिज्ञाने
मतिस्तद्धता मतिमता, कवलिनव्यथः । किभूतो धम्म: प्रवदि-
त इत्याह- यामा' बताविशषाः, बय उदाहताः। तद्यथा-प्राणा-
तिपाता सृषाबादः परिग्रदरश्चति, अवत्ता 5 ५दानमैथुनयोः परि
ग्रह पएवान्तभ्यवात् जय ग्रहणं । गादवा-यामा-वयाविशषाः,
अभिधानराजन्द्रः।
मर्ण
तद्यथा-अष्टवर्षादातजिशतः प्रथमः,तत ऊरद्ध॑माषष्ट: द्वितीयः,त
तः उद्ध ठृतीय इति अतिबालबृद्धयाव्युदासः। यदिवा-यम्यते
उपरम्यते ससारश्रमणादेभिरिति यामाः ज्ञानदर्शनचारित्रा-
णीति,त ' उदाहृता ` व्याख्याताः । यदि नामेव ततः किम् १.३ -
त्याह -'यचु' श्रवस्थाविशपयु ज्ञानादिषु वा, ` इमे दशाया "
अपाकृतहेयधर्म्मा वा, सम्बुश्यमानाः सन्तः समुत्थिताः,
के? य' नित्रृताः ` क्रोधाऽदपगमेन शीतीभूताः पापषु
कर्मसु ` आनिदाना ` निदानराहिताः, त व्याख्याताः प्रति
पादिता इति ।
(२०) क्व च पुनः पापकम्मेस्वनिदाना इत्यत आहर--
उडं अहे तिरियं दिसासु सव्वओ. सव्वावंति च
शं पाडियक जीवेहिं कम्मसमारभेणं तं परिन्नाय ,
महावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिज्जा ,
नवन्ने एएहिं काएाह दंडं समारंभाविज्ा, नवन्ने एएहि
काएहिं दंडं समारभंतेऽवि समणुजाणेजा , जे वऽ
एएहिं काह दंडं समारंभंति , तेि पि वयं लज्ञा-
मो, ते परिन्नाय महावी, तं वादंडंअन्नेवानोादं
उभी दंडं समारंभिज्ञासि त्ति वेमि । ( खूत्र-२०१ )
विमाक्ताध्ययनादशकः ८-१ |
ऊद्धमधस्तियर्दिक्तु ' सवतः ` सर्वे: प्रकारेः, सवा याः
काश्चन दिशः, चशब्दादनुदिशश्च, ' णे ` इति वाक्या-
लङ्कार, 'प्रत्यकं जीवपु एकेन्द्रियसृच्मतरा 55दिकेषु, यः क-
म्मसमारम्भः जीवानदिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमार-
म्भः, रे इति वाक्यालङ्कार, तं कम्मसमारम्भ, ज्ञ-
परिज्ञया ज्ञात्वा, प्रच्याख्यानपरिज्नया प्रत्याचक्षीत | कोऽ
सो ?- मधावी ` म्यादाव्यवस्थित इति , कथं प्रत्याच-
त्तीत ?-इत्याट-नेव स्वयमात्मना, ` एतु ` चतुर शभूतग्रामा-
वस्थितषु, ` कायेषु ` प्राथवीकायाऽ दपु. 'दरडम् उपम-
समारभत, न चापरण समारम्भयत् , नेवान्यान् समा-
रभमाणान् समनुजानीयात् , य चान्य दण्ड समारभन्त
सुब्व्यत्ययेन ततीयाथ षष्ठी । तराप वये लजाम इत्ये-
व कृताध्यवसायः सन् , तञ्जीवघु कम्मसमारम्भे महत
नथीय , परिज्ञाय , ज्ञात्वा, ` मधावी ` मर्यादावान् , तथा
पृवाक्त दण्डम् , अन्यद्रा-मरपःवादा ऽ ऽदिकं दरडाद्विभेतीति
दरडभीः सन् , ना दगड प्रारयुपमदा ऽ ऽदिक,समारभथाः+क
रणात्रिकयोंगातजिकेण परिहर दिति । इतिर्राधकारपरिसमाप्तो
व्रवीमि । इति पूर्ववत् ¦ विमात्ताध्ययन प्रमादेशक इति ।
(२१)साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यत, अस्य चायमाभिसम्बन्धः-
इहानन्तरोदेशके ऽनघ्रसंयमप्रतिपालनाय कृशीलपरित्यागा-
ऽभिंदितः , स चतावता ऽकल्पनायपारत्यागस्त न सम्पृण-
तामियाद् श्रता ;कल्पनोयपरित्यागा्थामिदमुपक्रम्यत^ इत्य-
नन सम्बन्धना 5 ऽयातस्यतस्यादशकस्या $ ऽदिसलम--
से भिक्खु परिकमिज्ञ वा, चिद्िज वा, निसीहज् वा,
तुयट्विज़ वा, सुसाणंमि वा, सुनागारंसि वा, गिरिगु -
हसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुभाराययणंसि वा, हुर-
त्था वा किनि विहरमाणं, तं भिक्सुं उवसंकमित्तु,
(१२४ )
भ्रण
गाहावई बृया-आउसंतो ! समणा !
अदराए असणं
अह खलु तव
चा पाणं वा खाइमं वा साइम॑ वा
वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबले वा पायपुच्छण वा पा- |
णाइ भूयाई जीवाई सत्ताई समारन्भ समुदिस्स कयं
षामिचं अच्छिजं अणिमिद्रं अभिहडं आहट चएमि,
आवसहं वा सपम्युस्सिणोमि, स भूजह वसह, आउसंतो !
समणा ! भिक्खु ! तं गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे |
आउसंतो गाहावई !
खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्टाए
नो खलु ते वयणं आठढामि, नो
आमभधानराजन
अपणं वा, पा० ४ वत्थ वा, प० ४ पाणाई भू० ४ वा
समारब्भ समुद्दिस्स कीय पामि अच्छिज्ञ अणिसिट्टं अ- |
भिहडं अहद्रं चेएसि,आवसहं वा समुस्सिणासि,स विरसो
आउसो ! गाहावई !। एयस्स अकरणयाए । (सत्र-२०२)
स-कतसामायिकः सर्वसावद्याकरणतया प्रातज्ञामन्द्रमा-
रूढा, भत्तसशाला मच्चु, मत्ताथमन्यक्ायाय वा, पराक्रम- |
त॒ ववहरत् , तद्धा ध्यानव्यग्रा, ।नषपादद्»वा अध्ययनाध्याप- .
नश्नवणश्रावणा 55दत:, तथा-श्रान्तः क्वच्चिदष्वना5<5दों
त्वग॒वत्तन वा विद्ध्यात् । क्चैतानि विदध्यादिति दशैयति-
“श्मशान वा शवानां शयन श्मशान पितृवने तस्मिन् वा
तत्र च त्वग्वत्तन न सस्मवत्यतो यःजसम्भवं पराक्रमणाद्या- |
योज्यम् । तथाहि-गच्छुवासिनस्तत्र स्थानाऽऽदिकं न कल्प-
त, प्रमादस्खालता55दां व्यन्तराष्य पद्रवात् तथा जनक
ट्पाथ सत्तभावना भावयताशपन प्वनमध्य नवासा
चज्ञातः, प्रातमाप्रातपन्नस्य तु यत्व सूयाऽस्तसुपयात तत्र
व स्थानम् । जनक्राटपक्रस्य वा तद्प्तया श्मशानसत्रम ;
एवमन्यदषि यथासम्भवमायोज्यम् । शून्यागारे वा, गिरिगु- |
हायां वा, ' हरत्थाव ' त्ति नन्यत्र वा ग्रामादेहिः, तं भिच्चै
क्वाचदधिटरन्त, गृह प्रतिरुपसक्रम्य विनेयदेश गत्वा, ब्रूयाद् '
वंददिति । यच्च व्रयात्तदशयितुमाद-साधु श्मशाना 5 5दिषु प-
रिक्रमणाऽऽदिकां क्रियां कुवाणमुपसङ्कम्य-उपत्य.पृवस्थिता
चा ग्रहस्थः श्रक्कातभद्रका भ्युपतसम्यकत्वा वा साध्वाचारा5 |
कोविदः साधुमुद्दिश्येतद् व्रूयात्-यथरेते लब्धापलब्धभाजिनः
स्यक्कारम्भाः सानुक्राशाः सत्यशुच्चय एतषु निक्षिप्तमक्तयमित्य- |
तो5हमेतेभ्यों द्वास्यामीत्यभिसंघाय साथुमुपतिष्ठते,.वक्ति च-
आयुष्मन् ! भोः श्रमण ! अहं ससाराराव समुत्तितार्षुः.ख- |
लुः' वाक्यालङ्कार, 'तवार्थाय' युष्मान्निमित्त, अशने वा पानं
चरा खादिम वा स्वादिमेवा तथा वस्र वा पतद्ग्रहं वा कम्ब- |
ले वा पादपुज्छनं वा समुद्दिश्य-आश्रित्य, कि कुयादिति
शयाति-( 'पाणाई' इति चतुष्पदीव्याख्या स्व स्व शब्दे ।) तान्
प्राणा 55दीन् समारभ्य उपमये, तथाहि--अशना55द्यारम्म
आगण्युपमदा5वश्यभावा, पतच समस्त व्यस्त वा काश्चत्यात- |
पत्रेत.इये चाविशद्धिकाटगृदीता, सा चमा-- आहाकम्स
दासिय-मीसज्जा वायरा य पाहुडिया । पृदश्न-च्रञ्छायरगा,
उग्गमको-डी अ छुब्मेआ ॥ १॥ ” विशुद्धिकार्टि दशै
यति-- ऋतं ` मूल्येन ग्रहीतं, “ पामिश्यति ' अपरस्मादु-
व्शिपमुधतकं ग्रहीतं,बलात्कारितया वा न््यस्मादाच्छिद्य रा-
मरण
जोपखष्ठो वा अन्यभ्या गृहि भ्यः साधादास्यामीव्याच्छिन्या-
त्। तथा-- अनिरूष्ट ` परकीये यत्तदन्तिक तिरति न
च परेण तस्य निखष्र-दत्त तदनिसखष्, तदवंभूतमपि
साधादीनाय प्रतिपद्यत । तथा-स्वग्रृहादाहृत्य ` चएमि '
त्ति, ददामि तुभ्य वितरामि, एवमशनाऽऽदिकमुददिश्य व्र
यात् | तथा-- आवसर्थ वा ' युष्मदाश्रय, समुच्छुणोमि-
आदेरारभ्या 5पूर्व करामि, सस्कारं वा करानि, इत्यव प्राञ्ज
लिरवनतात्तमाङ्गः सन अशना ऽऽदिना निमन्यत् । यथा-भु
ङन्दवाशनाऽऽदिकं, मत्सेस्क्रता 5 ५वसथ वस इत्यादि । द्विवच-
नवहुवचेन अप्यायाज्ये । साधुना तुरसतत्रार्थवशारदेनादी-
नमनस्केन प्रतिषाधितव्यमित्याह--आयुष्मन ! श्रमण ! भ
त्ता! तं गृहपति समनस-सवयसमन्यथामूत वा प्रत्या-
चत्तीत । कथमिति चदशेयति--यथा आयुष्मन् ! भो गर
हपत ! न खलु तवेवम्भूते वचनमहमाद्रिये , खलुशब्दा-
ऽपिशब्दार्थे, स च समुच्चय , नापि तवतद्धचने * पारि-
जानामि ' आसवनपरिज्ञानन परिविदधऽटमित्यथः । य-
स्त्वे मम कृत ऽशना ऽ ऽदिप्रारायुपमर्देन विदधासि,यावदावस-
थसमच्छूये विदधासि , मो आयुष्मन् ! ग्रहपते ! विरतः-
श्रहमवम्भूतादनृषटानात् । कथम्?-एतस्य-मव दुपन्यस्तस्या-
करणतयेत्यतो भवदीयमभ्युपगमं न जानऽदामिात ।
(२२) तदवे प्रसद्याऽशना ५ ऽदिसस्कारप्रातिषधः प्रतिपादिता
यदि पुनः कथ्चिद्धिदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छुन्लभच विदध्या
तदपि कुःतश्चिदुपलभ्य प्रतिषिधयदिव्याह--
से भिक्खु परिक्रामिज वा °जाव हुरत्था वा कहिंची विहर-
माणं तं भिक्खुं उवसंकमित्त गाहावई आयगयाए पेहाए,
असझां वा पा०४,बत्थं प०वा ४,०जाव आहइद चणएड। आव-
सहं वा समुस्सिणाइ,भिक््खू परिघासेडं,तं च भिक्षू जाणि-
ज्ञा सहसम्मइयाए परवागरणेण अन्नेसिं वा सुचा त्रयं खलु
गाहावई मम अद्राए असर वा पा०४,वत्थं वा प०४,० जाव
आवसहं वा समुस्सिणाई, तं च भिकवू पडिलेहाए आग-
मित्ता ्राणविज्जा अणासेवणाए तति वमि । (सूत्र २०३)
तं भिक्चु क्वचित् श्मशाना५ध्दो विदरन्तमुपसङ्करम्य प्रा-
ञजलि्वन्दित्वा ग्रहपतिः प्रकृतिभद्र काऽऽदिकः कश्चित्. .आत्म-
गतया व्रत्या 5नाविष्कृताभिग्रायः,केनचिद्लक्ष्यमाणाो यथा-
अहमस्य दास्यामीत्यशनाऽऽदिकं प्राण्युपमर्देनाऽ$रभेत ।
किमथमिति चदशीयति- तदशना ऽदिकं भिक्तु ` परिघास-
यितु ` भाजयते, साधुमोजनाथमित्यथेः । श्रावसथे च
साध्भिरधिवासयितुमिति, तदश्नाऽऽदिकं साध्वथ नि-
ष्पादितं भिच्युः "जानीयात्" परिच्छिन्यात् | कथमित्याह-स्व-
सन्मत्या परव्याकरणेन वा तीथकरापदिष्टापायन वा, अन््ये-
भ्यो वा तत्परिजनाऽऽदिभ्यः श्रुत्वा, जानीयादिति वत्तेत
यथा श्रये खलु गृहपतिर्मदथमशना 5 ऽदिकं श्रारयुपमरदेन वि-
धाय मह्य ददात्यावसथ च समच्छणात, ताद्धच्चुः सम्यक्
त्यपेचय' पर्यालाच्य. अवगस्य च ज्ञात्वा. ` क्ञापथत् ते ग्र-
हपतिम, श्रनासवनया यथा-अनन विधाननापकाट्पतमाहा
राऽऽदिकं नादे-भृञ्ज, एवं तस्य ज्ञापन कयात्. यद्सो श्रा-
वक्रस्तता लशतः पिरडनि्यू क्रि कथयद् , अन्यस्य च प्र-
हु १२६ )
सरण
कातिभद्गधकस्योह्मा 5 5दिदोषानाविर्भावयत् , प्राखुकदानफल
च परूपयत् . यथाशक्रिता धर्म्मकथां च कुयात् । तद्यथा--
( काल दश क०, दान सत्पुरुष०, दुःखसमुद्रं प्रा०, अ-
तत्यथा स्छाकत्रर्यी ` दाण ' शब्दे ४ भाग २५६० पृष्ठ ऽस्ति )
इत्यादि, इतिर्राधकारपरिममाप्ता, ब्रवीर्मात्येतत्पूरवोक्तम् ।
वक्ष्यमाणं चेत्याह--
असिधानराजन्द्रः)
भिक्ु च खलु पुद्ठा वा, अपुट्टा वा, जे इम आहच्च गं- |
था वा फुसंति | स हंता, हणह, खणह, छिंदह, दहह, पयह,
आलुपह , विलुपह,
धीरो पद अहियासए | अदुवा--आयारगोयरमाइक्खे त-
कियाणमणेलिस | अदुवा-वइगुत्तीए गेयरस्स अणुपुव्वेण
सम्म पडिलेहए,आयततगुत्ते बुद्धेहि एय पवेइय । (सृच्र-२०४)
"चः' समुच्चय, `
सहसाकरिह, विप्परामृसह, ते फास |
खलुः' वाक्यालङ्कारे, भित्षणशीलो भिचुस्तं |
मिक्तु,प्रट्रा कश्चित्/यथा-भो सिक्तो ! भवदशथमशना $ऽदिकमाव- |
सथ वा सस्करिष्यऽननुज्ञाताऽपि तेनाऽसो तत्करोत्यवश्यम- |
यं चाठुभिवलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते । अपर स्त्वीषत्साध्वा- '
चआरावाधज्ञा5ता पुरैव छुद्यना ग्राहायेष्यामीत्यभसन्धथाया $- '
शना दक वद्ध्यात्। स च तदपारभागे श्रद्धाभज्ञात् चाटुश-
ताग्रह णाच्च राषाऽऽवशान्निःखुखदुःखतया लोकज्ञा इत्यन॒श- |
याच्च राजानुसुष्टतया च न्यक्कारभावनातः अ्रद्धेघमुपगतो
हननाऽऽदिकभपि कुर्यादिति दशयति-एकाधिकारे बहूतिदे-
शादय इम प्रश्नपूवकमप्रश्नपूर्वकं वा आहारा ऽऽदिकं “ग्रन्थात्
महदा द्रव्यव्ययाद् आहन्य ढाकित्वा,श्राहतग्रन्था वा,व्ययी-
कृतद्रव्या वा, तदपरिभोग ` स्पृशन्ति ” उपतापयन्ति, कथ-
मिति चदशयति-'स' ईश्वरा 5 ५दिः पद्धि्ठः सन् , हन्ता सखतो-
ऽपरा हनना ५ऽदौ चादयति। तयथा-हतेने साधु दरडा 5 5-
दिभिः ` क्षणुत ` व्यापादयत चिन्नदस्तपादा४ऽदिकं, ददत
अग्न्यादिना, पचत उस्मांसा५ऽदिकं, च्रालुम्पत वरा ४४-
दिकं, विलुम्पत सर्वस्वाएहारेण , सहसा कारयत-आशु
पञ्चत्वे नयत , त्था-विविध परासरशत नानापीडाकर-
णवाधयत, ` तान् ` चेवम्भूतान् ' स्पशौन् ` दुःखविशषान् ,
धीरः" ्रत्तःभ्यः, तेः स्पराः “स्पष्ट: सन्, अधिसहेत । तथा-
अपर: चुत्पिपासापरीषहेः; स्पृष्टः सन्नाधिसटेत । न तु पुनरू- |
पसः परीप्रहेवा तर्जितो विक्लवतामापन्नस्तदुद्देशिका ५ एदि-
कमभ्यपेयात् । अनुकू ले्वा सान्त्ववादाऽदिभिरूपसर्भितो ना-
<55दद्यात। आप तु-सति सामथ्यं जनकाट्पकादन्य आचार- |
गाच्रमाचक्तातत्याह--नानाविधोपसगजनितान् स्पर्थान-
शिसदत । 'श्रथवा' साधूनामाचारगाचरम्--्ाचारःयुष्ठा-
नविषयं : मृलात्तरगुणभेदाभिन्नमाचक्तात । न पुनर्नयेद्रेव्य-
†वचारम् । त्रापि मूलगुणस्थयाथसमुत्तरयुणान् तवि पि-
गडेषणाविशुद्धिमाचक्षीत । अन्न च पिग्डेषणासत्राणि प-
ठितव्यानि । अपि च--“ यत्स्वयमदुःखित स्या-न्न च
परदुःखे निमित्तमूतमपि । केवलसुपग्नरहकरं , धम्मूते त-
द्धवेदेयम् ॥ १॥ `` कि सवस्य सव कथयेत् ?, नति दश- |
याति-' तर्क॑यित्वा ' पर्यालोच्य पुरषे, तद्यथा-- कोऽयं पुरूषः
कञचनतोाऽभिगरदीताऽनभिगृदीता मध्यस्थः भ्रकृतिभद्रको
१--ब्था कुली भावन् |
44 म्र
वत्यवमुपयुज्य यथाह-यथाशाक्लि चाऽऽवदयत | सत्यां च
शक्ता पञ्चावयवेनान्यथा वा वाक्येन 'अनीटशम्' अनन्यस्-
दशे.स्वपरपत्तध्यापनाव्युदासद्वारणपऽऽवदयादिात । अथसा
मथ्याविकलः स्यात् कुष्यति वा कथ्यमान5सावनुकूलप्रत्य-
नीकस्ततो वाग्गुप्तिविधेयेत्याह--सति सामथ्यं शृरवतिं
चा दातरि श्राचारगोचरमाचक्तीत । ‹ श्थवा ` इत्यन्यथाभा-
व तु वाग्गुस्त्या ` ' व्यवास्थितः सच्त्महितमाचरन् ` गा-
चरस्य ` पिगडविशुद्धश्यःदराचारगाचरस्य ` श्रानुपुव्या !
उद्वमप्रश्नाऽऽदिरूपया,सम्यग शुद्धि, प्रत्युपेत्तेत । किम्भूतः
श्रात्मगुत्रः सन् , सततोपयुङ्क इत्यथः । नेतस्मयोच्यत इ-
व्याह-- बुद्धः ` करप्याकटप्यविधिज्ञैः, ‹ एतत् ` पूर्वाङ्ग ,
प्रवदितम् | ( अत्रेतने सव्याख्यं सूबद्धयम-- दाण ` शब्दे £
भागे २४९२ पृष्ठ, ` संज्भिमेश ति ` सतं चर धम्म शब्दे
४ भागे २६७५-२६७६ पृष्ठ गतम् )
(२३ )केचि सु मध्यमवयसि समुत्थित ऋषि परीषेन्द्िये-
ग्लःनतां नीयन्त इति द्शैयितुमाद--
च क / ५ + ००. प खच्विदिः [त
अआहारावचया दहा, परीसहपभगुरा पासह एगे =
एहि परिशिलायमाशहिं । ( घ्त्र-२०८ )
आहारणापचयो यणां ते आहरॉपचयाः , क ते ?--दिल्यन्त
इति देहाः, तदय प्व तु स्लायन्त ध्रियन्ते वा. तथा-' परीष-
दप्रभञ्िनः' परटषहः स्द्धर्भङ्गुरा दहा भवन्ति,वतच्ा 5 5हा-
रोपचितदेदा अपि प्रप्नपएरीयला वाता ५ऽदिक्ताभेण वा पश्यतः
यूयम्, ' एके ' क्लीदाः, सर्चीरिन्द्रियेग्लायमानेः क्लीबतामीयुः ।
तथाहि-चुत्पीडितो न पश्यति, न शृणोति, न जिघतीत्यादि ६
तत्र केवलिनो ऽप्याहारमन्तरेण शरीरं स्लानभावं यायाद् ,
श्ास्तां तावद्परः प्रकतिभङ्गुरशरीर इति । स्यान्मतम्--
श्केवल्यकृताथैत्वात् चुद्रेदनीयसद्धावाचखा ऽऽदारयति,दया-
-5ऽदीनि बतान्यजुपालयति । केवली तु नियमात् सेत्स्यतील्य-
तः किमथ शरीरं धारयति ?-तदधरणार्थ चा.+ऽहारयतीति ?,
अज्रोच्यते-तस्या ऽपि चतुष्कम्मसद्धावान्नैकान्तेन कृतार्थता,
तत्कृते शरीरं विश्रयात् , तद्धरण च ना 5ऽहारमन्तरेण चु-
ददनीयसद्धावाच्ेति । तथादि-वेदनीयसद्धावात्तत्कृता
एकादशा ऽपि परीषटाः केवलिनो व्यस्तसमस्ताः परादुष्ष्यन्ति
इत्यत च्रादारयव्यव केवलीति स्थितम् । अत श्रादारग्ते
ग्लानतेन्द्रियषएणामिति प्रतिपादितम् ।
(२ ) विदितवेदयञ्च परीषहपीडितोे ऽपि कि कुयौदित्याह--
ओए दयं दयह, जे संनिहाणसत्थस्स खेयच्रे से भिक्छ्
काले बले मायने खशने विणयन्ने समयने परिग्गहं
अममायमाणे कालेणुट्टाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता निया ।
( सत्र २०६ )
“आजः, एको रामा ऽऽदिरिदिकः सन् , सत्यपि क्षुत्पिषासा5
दिपसीषदे ` दयामेव दयते ` कृषां पालयति , न परीषदेस्त-
जितो द्यां खरडयतीत्यथैः । कः पुनर्दयां पालयतीत्याद-यों दि
लघुकर्मा सम्यङ्धनिधीयते-नारका ऽदिमतिु न तत्सन्रिधा-
ने कर्म, तस्य स्वरूपनिरूपकं शाखं तस्य, खेदज्ञो-न्पुणो,
यदि बा--सज्निनस्य-कर्म्मणः शर -स्त्यमः सन्निधान
सख तस्य, खेद्शः-सम्यक् संयमस्य वेत्ता, यञ्च संयमाकांधङ्खः
( १२७ )
भरर
अभिधानराजन्द्रः ।
स मभिक्तुः.का लज्न: उाच्ता5नाचताउक्सरज्ञ:,एतान च सत्रा |
एण लाकावजयपञ्चमाद्णकव्याख्याजुसारण नतव्यानात।
तथा-वलज्ञा मात्रज्ञः त्षणन्ञा विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहमम- |
त्वेन श्चरन् कालनोत्थायो प्रतिज्ञः उभयतः छत्ता, स
चेवम्भूतः संयमानुष्ठाने निश्चयेन याति नियौतीति । ( अग्ने-
तनं सव्याख्यं सूत्रम-- सीयफासपरीसह ` शब्दे--चतुर्थो-
देशकस्य चत्वारि सव्याख्यानि सूत्राणि च “वत्थ ` शब्दे
वच्यन्ते )
( २५) यः पुनरल्पसच्वतया भगवदुपदिषठं नैव सम्यग
जानीयात्स पएतर्दध्यवसायी स्यादित्याद-
जस्स णं भिक्खुस्प एवं भवइ-पुट्टी खलु अहमंसि ¦
नालमहमंसि सीयफार्स अहियासित्तए, से वसुमं सव्व
समन्नागयपन्नणणं अप्पाणेण कड अकरणयाए आउद्े |
तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थाऽवि तस्स |
कालपरियाए, सेऽवि तत्थ विग्रंतिकारए , इच्च
विमोहाऽऽयतशं हियं सुहं खमं निस्मेसं आणुगामियं ति |
बेमि। ( सूत्र-२१५ )
° शम् ` इति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्तोमेन्दसेहननतया |
पवम्भूतोऽध्यवसाया भवति । तच्था- स्पृष्टः खल्वटमस्मि |
रोगा ऽ ऽतङ्केः शीतस्पर्श ;ऽदिभिव स्ञ्यादुपसर्गैवी, ततो म-
थे वितते कर्स भये ४ ५
मास्मिन्नवसरे शरीराविमोत्ते कत्तु श्रयो; ' नालं ' न समर्थोऽ-
हमस्मि, 'शीतस्पश' शीताऽऽपादितं दुःखविशष, भावशीत- |
स्पश वा स्व्यादयुपसर्गम् ' अध्यासयितुम् ` अधिसादुम्, इ-
त्यतो भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सगेतः क्तं युक्त-
म्;नच तस्य ममाऽसिच्नवसरेऽवसरो यतो म कालक्षपा 5 स-
हिष्णुरुपसर्गः समुन्थिता रोगवेदनां वा चिराय सादु ना-
लमतो वेहानसं गाद्धपृष्ं वा ्रापवादिकं मरणमत्र साम्प्रत-
म् । न पुनरुपसर्गितस्तदेवा भ्युपेयादित्याह-'स' साधुः.वखु-
द्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्याऽसौ वुमान् , “सर्यस
मन्वागतपज्ञानेना ऽ ऽ त्मना कथित् ' अधकटाक्षनिरीक्षणादु-
एसरगीखम्भवे सत्यपि तदकरणतया आ-समनन््ताद्धत्तो-व्यव-
स्थित आवृत्तः, यदिवा-शीतस्पर्श-वाता ऽ ऽदि जनितं दुःख-
विशेषमसद्िष्णुस्तच्चिकित्साया च्रकरणतया वसुमान् , स- |
वैसमन्वागतप्रज्ञानना ऽऽ त्मना आवृत्तो-व्यवस्थित इति । स
४९ सरितो 4 दिवदनां 4 | ००९ | 94
चोपस् वाता55दिवेदनां चाऽसदिष्णुः कि कुयौदित्याह- |
रतौ, यस्माच्चिराय वाता 5 ऽदिवेदनां सोहुमसहिष्णुः,यदि- |
वा--यस्मात् सीमन्तिनी उपसगेयितुमुपस्थिता विषभक्तणो- |
द्रन्धनाद्युपन्यासनाऽपि न मुञ्चति, ततः“ तपस्विनः › प्रभूत-
तरकालनानाविधोपायोपा्लज्िततपोधनस्य, तदैव श्रेयो यदा |
[9 निने त्नीको ~ (~ |
“ एकः ` कश्चित् , निजैः सपत्नीको ऽपवरके प्रवेशितः,आरूढ- |
ग्रणयप्रेयसीप्रार्थितस्तन्निर्ममोपायमलभमान श्रात्मोद्रन्धना-
य विद्ायोगमनं तदा ‡ऽदद्यात् , विषं वा भक्तयेत् , पतनं वा |
क्याद् , दीधकाल वा शीतस्पशौऽऽदिकमसदिष्णुः खुदशैन- |
शब्द् |
वत् प्राणान ज्यात् । ( सुदर्शनकथाम “ खुदंखण
बदयामि ) ननु च वेहानसा ऽ ऽदिकं बालमरणमुक्त, तच्चाऽ-
नर्थाय, तत्कथं तस्याऽस्युपगमः ?, तथा चा55गमः-- इच्चे-
पणे बालमरणेण मरमाणे जीचे अणंतेहि नेरदयभवग्ग-
| ८.
की नर के 2522
दणि अप्पाणं संजोएद ० जाव अरणाइय च णे श्रणव-
यग्गे चाउरंते ससारकंतारं भुज्जो भुज्जो परियट्द ्ति। '
श्रत्राच्यते- नेष दोषो ऽास्माकमार्तानां, नैकान्ततः कि
श्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मेथुनमेकं विदाय । अपि तु
द्रव्यत्तत्रकालभावानाश्चित्य तदव प्रतिषिध्यते, तदेव चा-
भ्युपगम्यते, उत्सर्गो ऽप्यगुणाया ऽपवादो ऽपि गुणाय काल-
ज्ञस्य साधोरिति । पतदशयितुमाद--दीधकाले संयमप्राति-
पालनं विधाय.संलेखनार्विधना कालपर्यायेण भक्रपारेज्ञाऽ5-
दिमरणं गुणायेति । एवंविथे त्ववसरे ` तत्रा ऽपि ` वेहानस-
गार्धपृषठाऽऽदिमरणेऽपि कालपयौय एव, यद्धत्कालपयांय-
मरणं गुणाय, एवं चेहानसा ऽ ऽदिकमपीत्य्थः । बहुनाऽपि
क।लपर्यायेण यावन्मात्र कर्मा ऽसौ त्षपयति, तदसावल्पेना-
<पि कालन कर्म्मक्षयमवाप्नोतीति दर्शयति-सोऽपि ` वेहा-
नसा ऽ 'देर्विधाता, न केवलमालुपूर्व्या भक्तपरिजश्ञा 5 5देः कत्तं
व्यपिशब्दार्थः * तत्र ' तस्मिन् वेदानसाऽऽदिमरणे ‹ विश्र-
तिकारणए त्ति ` विशेषणान्तिव्यन्तिः--अन्तक्रिया तस्याः
कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिन्नवसरे तद्वेटानसा-
ऽऽदिकमोत्सर्भिकमेव मरण, यतो ऽननाप्यापवादिकेन मर-
नानन्ताः सिद्धाः, सःस्यन्ति च, उपसजिही्णुराह-- इत्ये-
तत् ` पर्वोक्के वहानसादिमरणं, विगतमोहानां- श्रायतनम् '
आश्रयः कसंव्यतया, तथा-' दितम् ' अपायपरिहारतया,
था-'सुख' जन्मान्तरे $पि रखटेतुत्वात् , तथा-' क्तम ` युक्त
प्राप्तकालत्वात् । तथा-निःश्रयसं कस्म॑त्तयदेतुत्वात् , तथा-
्रानुगाभिकं * तदल्ित-पुरयाऽचुगमनात् , इति-त्रवीमि-
शब्दौ पृयवद् । विमोक्षाध्ययनस्य चतुर्थोदिशकः समाप्तः ।
आचा० १ क्षण ८ अ० ४ उ०। ( भक्रपरि ज्ञा 'भत्तपच्चक््खाण'
शब्दे पञ्चमभागे १३५८ पृष्ठे गता )
(२६) तस्य च भिक्षोरभिग्नहविशेषात् सपात्रमेकं वख
धारयतः, परिकार्स्ितमतेलेघुकमस्मतया एकत्वभाव-
ना.ऽध्यवसायः स्यादिति दर्शायतुमाह--
जस्म शं भिक्खुस्स एवं भवई | एग अटमंमि, न में अ-
त्थि क्}, न याऽ्मवि कस्स वि, एवं स एगागिणमव अ-
प्पाणं समभिजाणिज्जा । लाघवियं आगममाण तवे से अ-
भिसमष्पागए् भवह ०जाव समभिजाणिया । (सूत्र-२१६)
° णम् ` इति वाक्यालङ्कारे , यस्य भिक्तोः, ˆ एवं ` इति व~
च्यमाण भवति , तद्यथा-एको ऽहमस्मि संसरि पर्यटतो न
मे पारमार्थिक उपक्रारकत्त्वेन द्वितीयोऽस्ति, न चाहम-
न्यस्य दुःखापनयनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्वकृतकर्मफ-
लश्वरत्वात्पराणिनाम् । । एवमसौ साधुरेकाकिनमेवा ऽ ऽत्मान-
मन्तरात्मानं सम्यगभिजानीयात् । नास्या 55ऽन्मनो नरका 44
दिदुःखत्राणतया शररयो द्वितीयो ऽस्तीत्येवं सन्दधानो यवूय-
द्वोगाऽऽदिकमृपतापकारणमापद्यते , तत्तदपरशरर्णानरपे-
त्तो मयेवेतत्कृते, मयेव साढव्यमिव्यतदध्यवसायी सम्यग-
धिसहते । कुत॒ पएतदधिसहते ? इत्यत श्राह--* लाघ-
वियं ' इत्यादि चतथौदेशकवद्रतर्थम् । यावत् ` सम्मत्त-
मेव समभिजाशिय त्ति ` । इष्ट द्वितीयोदेशके उद्रमोत्पादनेष-
शाप्रलिपादेता । तद्यथा-'“ आउसंता | समणा ! ग्रहं खलु
तव अट्वाए असर वा पाणं वा खादमं वा साइम॑ वा वत्थ
५ | रद )
सरण ऋ ध
या पडिग्गह वा कम्बल वा पायपुंकुण वा पाणाई भूयाद्
जीवाई सत्ताई समारब्भ समुटिस्स कोय पाम अच्छे-
ज अरिसिद्र आदद् चेएमि । `` इत्यादिना ग्रन्थेनात । त-
शा-श्रनन्तरादेशके ग्रहरोषणा प्रतिपादिता । “सिया यस
णवे वयतस्स वि परो अभिहटड असणो वा पाणं वा खाइ-
मवा सादरम वा आदद दलएज्ञा । "` इत्यादिना च्रन्थन ।
( ततो ग्रासेषणा ऽवशिप्यत, अतस्तत्प्रतिपादकं सूत्रम् भो-
यण ' शब्द पञ्चमभागे १८६२७ पृष्ठ सव्याख्यमुक्रम )
(२७) तस्य चान्तप्रान्ताशतया ऽपाचतमासगश्ाणतस्य
जरदस्थिखन्ततः क्रियाप्वसीदत्कायचेण्टस्य
शरीर परित्यागवुद्धः स्यादित्याह--
जस्स श भिक्खुस्स एवं भवई, से गिलामि च ख
लु अहे, इमंसि समए इमे सरीरग अणुपुव्वण परिव -
टित्तए से अणुपुव्वेण आहांरं॑ संवद्धिज़्ा । असुपुव्यण
आहारं सवद्टिता--कसाए पयणुए किच्चा--समाहियच्रे
फलगावयद्रा उद्य भमक्खृ आभानवुडच्च । ( स॒त्र- २२१)
णम् ` इति वाक्यालङ्कार, यस्यकत्वभावनाभावितस्य
भिन्नारादारापकरणलाघ्रच गतस्य, ` एवं ` इति वच्य-
माणा ऽभिध्राया, भवति । । स ` इति तच्छब्दार्थ, तच्छ
ब्दो 5पि वाक्योपन्यासार्थ, * चः ` शब्दः. समुच्चय, ` खलुः `
अवधारण, श्रं चाऽस्मिन् ` समय ` अवसर संयमावसरे ,
* ग्लायामि ` ग्लानिमव गता रुक्ताऽऽहारतया तत्समु-
स्थन वा रागण पीडिताऽता न शक्नामि रूक्षतपोभि-
रभिनिष्ठप्त, ' शीर कमा-नुपूरव्या ` यंथष्रकाला 5 5वश्यकक्रि-
यारूपया, "परिवादु' नालमह क्रियासु व्यापारायतुम्. अ-
स्मिन्नवसरे इदं प्रतित्तण शी्यमाणत्वाच्ुरीरकमिति मत्वा
स भिक्षुः, आनुपृव्या चतुर्थषष्ठा ऽऽचाम्ला ऽ धदकया आ-
हारं संवत्तयेत' साक्तिपत्, न पुनद्वादशसवत्सरसलखना ५-
जपूर्वीद गृह्यत, ग्लानस्य तावन्मा्रकालस्थितरभावाद् । अ-
तस्तत्कालयोग्यया 5 5नुपूव्या द्रव्यसलखनाथमादारं नि-
रुन्ध्यादिति । द्रव्यसेलखनया संलिख्य च यदपरं कु-
यीत्तदाट--पष्टाण्मदशमद्वादशा $ऽदिकया 5 5नुपृर्व्या 5 5हारं,
सवर्य कषायान् प्रतमून छृत्वा -सर्वकाले हि कषायतानवं
विधेयं, विशषतस्तु सलस्वनावसर इत्यतस्तान प्रतनुन कृ-
त्वा सम्यगादहिता-व्यवस्थापिता अच्चा शरीरं यन स समादिः
ताच्चः,
सम्यगाहिता-जनिता लण्या यन स समाहिता श्यः, अतिविशु-
द्धाध्यवसाय इत्यथः । यदिवा-अर्चा क्राध्राध्यवसायाऽऽत्मि
का ज्वाला समाटिता-उपसमिता अचा यन स तथा, "फल
कम्मत्तयरूप. , तदेव फलकं तना ५ ऽपदि-ससारश्रमणरूपा-
यामश्चः-प्रयोजनं फलकापदर्थः स विद्यत यस्याऽसो फलका-
«पदर्थीा, यदिवा-फलकवद्धास्थादिभिरुभयता वाहाताऽभ्यन्त-
रतश्चांचकृष्रः फलकावकृष्ट इत्यवे चिग्रृह्या ऽ $षत्वात् 'फलगा-
चयद्टी' इत्युक्त, यदिवा-तस्यमाणोा ऽपि दुवचनवास्यादाभिः
कषायाभावतया फलकवदवतिपष्ठत तच्छ्ीलश्चति फलक्राव-
स्थायी, वासीचन्दनकल्प इत्यथः । स॒ पवम्भूतः प्राताद्न
साकारभक्रप्रत्याख्यायी बलवति गागावगे उत्थाय अभ्युद्यत
मरणाद्यमे विधाया-भिनिरयृत्तास्चः शगीरसन्तापरादितो श्रति-
आामभधानराज जेन र
नियमितकायव्यापार इत्यथः । यदिवा-अर्चा-लेश्या ¦
५ ८
महापुरुषा ऽ ऽचीरमागौनुचिधायीद्भित
संहनना55द्युपतो
मरणे कुयीत् ।
) कथ कुयोदित्याह--
अणुपविसित्ता गामं वाणग्रं वा खडं वा कन्बडं वा
मंत्र वा पट्टणं वा दाणमुहं वा आगरं वा सन्निवेस वा ने-
गमं वा रायहाशि वा तणाई जाइज्ञा, तणाई जाहत्ता से
तमायाए ए्गतमवकमिज्ञा, एगंतमवकमित्ता-अप्पंडे अ-
प्पपाण अप्पबीए अप्पहरिए अप्पासे अप्पादए अप्पुत्ति-
गपणगदगमट्टिक्मकडासंताणए पडिलेहिय प०(२)पमजि-
य प०(२) तणाई संथरिज्ञा,तणाई संथरित्ता-इत्थवि समए
इत्तरियं कुना, तं सच्च॑ सच्चवाई ओए तिज्ने छिन्नकह-
कहे आईयड्रे अणाईएण चिच्चाण भउर॑ कार्य संविद्य
विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्मि विस्सभणयाए भरवम-
णुचित्न तत्थावि तस्स कालपरियाए० जाव अणुगामिय
ति बेमि | (सृत्र-२२२) विमोक्ञाध्ययने पष्ठ उदशकः ।
('गार्म' यावत् 'रायदहाणि' इत्यादि शब्दाथाः स्वस्वशब्दे )
पतष्वतानि वा प्रविश्य तृणानि याचत, ततः किमित्याह-स-
स्तारकाय प्राखकानि दर्भवीरणा ऽ ऽदिकानि क्वचिद्-ग्रामा
5 5दो, तृणस्वामिनमशापिराणि तृणानि याचित्वा स तान्या-
दाय ` एकान्त ` गिरिगुदादो. अरपक्रमेद्- गच्छेत् , एकान्तं
रहो ऽपक्रम्य च प्राखुकं महास्थरिडले प्रत्युपेत्तत । किम्भूत
तदशंर्यात-स्रपान्यरडानि कीरिक्राऽऽदीनां यत्र तदल्पारड
तस्मिन् , अल्पशब्दा5त्राभाव वक्तेत, अराड़करहित इत्यथः।
तथा-श्रट्पाः प्राणिना-द्वीन्द्रियाऽऽदया यस्मिन् तत्तथा,
तथा-अल्पानि वीजानि नीवारश्यामाका $ ऽदीनां यत्र तत्तथा
तथा-अल्पानि हरितानि-दूवौप्रवालाऽऽदीनि यत्र तत्तथा,
तथा-'अल्पावश्याये ` ' अधस्तनोपरितनावश्यायविप्रड्वर्जि-
त, तथा-'अल्पादके' भोमान्तरित्तादकरहिते, तथा-. उत्तङ्क
पनकोदकमत्तिकामर्करट सन्तानरष्टित ` तज्रात्तिङ्कः-पिपीलि-
कासन्तानकः, पनको-भूम्याद् बुल्लिविशषः, उदकमत्तिका-
आचराप्काया55६।कंता स्त्तिका, मर्करखन्तानका--लूता-
तन्तुजाल , तदेवम्भृते महास्थरिडल तृणानि संस्तरेत् । कि
कृत्वा ?-- तत् सर्थारडलं चन्लुषा ` प्रत्युपक्ष्य (२) वीप्सया
भ्रशभावमाद । एव रजाहरणाऽऽदिना ` प्रस्रज्य ' (२)अज्ञापि
वीप्सया भ्रशार्भता साचता । सस्तीयै च तृणान्युच्चारप्रस्र-
वणभ्रामे च प्रव्युपच्य पूवा भमषसस्तारकगतः करतललला-
टस्पर्शिध्रतरजाहरणः कतसि नमस्कार श्रावात्तितपञ्चनम-
स्कारो जापि समये, अपिशब्दादन्यत्र वा समय, ` इत्वरम्
इति, पादपापगमनाःपत्तया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिद्गित-
मरणमुच्यतःन तु पुनरि त्वरं साकारे पत्या ख्यानम् । साका-
रप्रत्या ख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिका 5 ऽदरसम्भ-
वात् । कि पुनर्यावत्काथिकमक्षप्रत्याख्यानावसर इति । इत्वरं
हि रोगाऽ 5तुरः श्रावक्रा विधत्त । तद्यथा-यद्यहमस्माद्रोगात्
पञ्चचेरदोभिर्मुक्रः स्यां ततो भोच्ये,नान्यथेत्यादि । तदेवमित्व
रम इह्नितमरण, ध्रातिसेहनना ऽ ऽदिवलापतः स्वकृतत्वग्व-
सना 5 ऽदिकया यावज्लीवं चतुर्विघा ऽ 5हारनियमं कुयादिति।
( १२६ )
| १ ९/४//:ल्% ५ नही]
उक्त च--
“« पच्चक्खइ आहारं, चडउव्विहं णियमआओं गुरुसमाव । |
इागियदेसम्मि तद्ा,चिड पि हु नियमओं कुण्ड ॥ |
|
उव्वत्तद् परिअतक्तद, काडइकम्माई ऽवि अप्पणा कुणइ ।
सव्वामिह अप्पणच््चिश्य. ण श्न्नजागण धितिबलिओ ॥ २॥
तच्चेङ्कितमरणं किम्भूतं किम्भृतश्च प्रतिपद्यत इत्याह-तद्-
इङ्कितिमरणं सद्धा दिते सत्य, सखुगतिगमनाविसवादनात्
सर्वज्ञापदेशाच्च सत्य-तथ्यम् , तथा स्रताऽपि सत्य वदतु
शीलमस्यति सलत्यवादी.यावज्जीवे यथोङ्क(नुष्ठानाद्-यथाऽऽ
रोपितप्रतिज्ञाभारनिवहणादित्यर्थ:,तथा ओज:ः' रागद्वेषरहि-
तः, तथा ' ततीणः ` ससारसागरं, भाविनि भूतवदुपचारात्ती-
रवत्तारी इत्यथः, तथा ` छिना ` अपनीता ` कथ ` कथमपि
या * कथा ` रागकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथेक-
थः,यदिवा-कथमहमिज्ञितमरणप्रतिमां निर्वेद्िष्ये इत्येवंरूपा
या कथा सा छिन्ना येन स छिन्नकर्थंक थः, दुष्कराचुष्ठानवि-
धायी हि कथकथो भवति,स तु पुनर्महापुरुषतया न व्याकुल-
तामियादितिःतथा-आआ-समन्तादतीव इता-ज्ञाता परिच्छिन्ना
जावादया ऽथा यन सो भयमातीतार्थः आदत्ताथो वा, यदिवा-
श्रतीताः-सामस्त्येनातिक्रान्ताः अर्थाः प्रयोजनानियस्यसतः
अिधानराजन्द्रः।
था, उपरतन्यापार इत्यथः : तथा-ञओआ्आ--समन्तादतीव इता- |
गतो ऽनायनन्त ससार आरतातः न आतीतः अनातीतः; अ-
नादत्तो वा संसारो यन स तथा, ससारारव पार गामीत्य्थः।
स एप्रम्भूत .इज्ञितमरणं प्रतिपद्यत, विधिना ' त्यक्त्वा ` घरा-
उभत्य सख्यमेव भिद्यत इति भिदुर प्रतित्षणएविशरारु ` काये `
कर्मवशाद् ग्रहीतमोदारिक शरीरं त्यक्त्वा, तथा ` सविधूय '
परीषहोपसग्गान् प्रमथ्य ` विरूपरूपान् ` नानाप्रकारान सो- |
ट्या “कस्मिन् सवेज्ञप्रणीत आगम 'विखम्भरतया' विश्वासा- |
स्पदे तदुक्ताथावसवादाध्यवसायेन भरवे-भयानकमनुप्राने
क्गीवेदुरध्यवसमिङ्कितमरणाख्यमयुचीरीवान अयुष्ठितवा- |
निति, तच्च तन यद्यपि रागातुरतया व्यधायि तथापि तत्का-
लप्रयायागततुल्यफलंमति दश्यित॒माद-तत्रा ऽपि रागपी-
डादितङ्गितमरणाभ्युप्रगम ऽपि, न केवले कालपयायणेत्यपि-
शब्दार्थः, “तस्य कालज्ञस्य भिक्तारसावव कालपर्यायः, क-
मर्मक्षयस्योभयत्र समानत्वादिति, आह च -सवि तत्थ वियं-
तिकारए' इत्यादि पूर्ववद्गतार्थम , इति-व्रवीमिशबव्दवपि क्षु-
रणा थौविति विमोक्ताध्ययनस्य षष्टादेशकः समाप्तः ।
( २८ ) साम्प्रते सप्तमव्याख्या प्रतन््यते-अस्य चायमाभि- |
सम्बन्ध:-इहानन्तराइशक एकत्वभावनाभावतस्य श्रात-
सहननतादयुपतस्याह्ञतमरणुमाभाहतम , इह तु सवक्त्व-
भावना प्राततमाभानप्पाद्यत शत कत्वा ऽतस्ता प्रतिपाद्यन्त
तथा वागश्ष्रतरसहननापटश्च पादपापगमनमा पे वदध्याद्-
त्यत्तञ्चल्यनन्न सम्बन्यनायातस्यास्याद्शकस्यादसूचम्-
ज भिक्खु अचले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भ-
वह चाएमि अहं तणफास अ हियासित्तए सीयफास्स अ-
हियासित्तए तेठफास अहियासित्तए दं समसगफासं अहि- |
यासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, |
देरिपाडच्छायणं चहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं
से कप्पेह कडिबंधरणं धारित्तए।( सत्र २२३ )
३३
आ्ट07 20 4 ४ हक 5 दा
यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपज्नो उभिग्नहविशषादचलो-दिग्वासाः
पयुपरतः-सयम व्यवास्थतो 'णम् शत वाक्यालङ्कार `तस्य
भिक्षो:ः ` एव ` प्मति-वच्यमाणो ऽभिप्राया भवति,तद्यंथा-श-
क्ता म्यहं तृखस्पशमपि सो दुं ध्रतिसहननाद पतस्य वराग्यभा-
चनाभावतान्तःकरणस्या ऽऽगमन प्रत्यक्तीकृतनारकतियग्व-
दना ऽनुभवस्य न म तृणस्पशौ माति कलविशषःभ्युयतस्य
किञ्चित् प्रतिभासत, तथा-शीतोष्णदेशमशकस्पशमधिसा-'
डुमिति, तथा एकतरानै अन्यतरांञ्चाचुकलप्रत्यनीकान् विरू-
परूपान् ` स्पर्शान् ` दुःखविशेषानध्यासयितु-लोडुमिति, कि
त्वहं हीः-लज्जा तया गुप्तप्रदेशस्य प्रच्छादनं हीप्रच्छादनम् ,त-
च्चा त्यक्तं न शक्नामि,णएतच्च प्ररुतिलज्ञालुकतया साघनवि-
रूतरूपतया वा स्यात् , पवमेभिः कारणैः ' स ` तस्य क-
ल्पत-युज्यत * काटि वन्धने ` चोलपट्टक कत्तुम् स च विस्त
रेण चतुरङ्कलाधिको दस्तो दैर््येण काटिप्रमाण इति गणना-
प्रमाणनकः । चुनरेतानि कारणानि न स्युः तता 5चल एव पया -
ऋमत।
एतत्प्रतिपादायितुमाह--
अदुवा तत्थ परकर्मतं अज्ञे अचलं तशफासा फुसन्ति
सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसगफासा
फुसन्ति एगयर अन्नयरे विरूवरूवे फास अहियासई, अचल
लाघावियं आगममाण °जाव समभिजाणिया सत्र- २२४)
ख पव कारणसज्ाव चे सात वस्र वञ्र्ाद् | अथवा-नवासा
{ज हात तताऽचल ष्व पराक्छमत, त चच तत्र सयम्ऽचल
पराक्रममाण भूयः-पुनस्तणस्पशौः स्पृर्शान्त-उपतापर्यान्ति,
तथा-शीतोष्णदशमशकस्पशः स्पृशन्तीति,तथेकतरानन्यत-
रांश्च विरूपरूयान् स्पर्शांनुदीर्णानधि सदत असावचेलो5च-
ललाघवमागमयन्नित्यादि गता यावत् ` सम्मत्तमव सम-
भजा सिय त्त `
(२६ ) कि च--्रतिमाप्रतिपन्न पव विशिष्टममिग्रहं गृह्णी
यात् ,तद्यथा-अहमन्येषां प्रतिमाप्रातिपन्नानामव कि्विद्यास्या-
म, तभ्या वा ग्रह्माष्यामात्यवमाकार चतुभाकहुकयाभश्रहाव-
शषबमाह---
जस्स शं भिक्खुस्स एवं भवइ-अंहं च खलु अन्नेसि
भिक्खृणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम॑ वा
आहइ दलइस्सामि आहड च साइजिस्सामि | १ । जस्स
णं भिक्ख॒स्स एवं भवइ-अह च खलु अन्नेसिं भिक्वृं
असणं वा पा०४ अहद्रं दलइस्सामि अहडं च नो साइजञि-
स्सामि।२। जस्स णं भिकलुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अ-
सणं वा पा०४ अष्टं नो दलईस्सामि आहड च साइज़ि-
स्सामि ।३। जस्स णं भिक्खुस्स एवं मवई अहं च खल
अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पा०४ आहइ नो दलइस्सामि
्राहडं च नो साईजिस्सामि।४। अदं च खलु तण अहाइ-
रित्तेण अ्रहसणिजेण अ्रहापरिग्गदिएणं असणेण वा पा०४
अभिकड्ख साहम्मियस्स कुजा वेयावाडयं करणाए्, अहं
वाऽवि तेल अहाईरित्तेण अहेसणिज्ञण अहापरिग्गहिएण
( 9 ३० )
श
श्रसिधानराजन्द्रः।
मरण
असशेण वा पाणेण वा० ४ अभिकख साहम्मिएहिं की- |
रमाणं वेयावडियं साई ज्ञस्सामि लाघवियं आगममाणे°
जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया ( सूत्र २२५ )
पतच्च पूर्व व्याख्यातमेव, केव लामेह सस्कृतनोच्यते | यस्य
भि्तारेवं भवांत-वक्ष्यमा णम् , तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्योा
भिच्लुभ्यो ऽशनादिकमाहत्य दास्याम्यपराहते च स्वादयि-
च्यामीत्यको भङ्गकः २: तथा-यस्य भित्तारव भवति तदथ्य-
श्रा-श्रहं च खट्वन्यभ्या ऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहतं
च नो स्वादायष्यामीरत दवितीयः २; यस्य भित्तारेवं भवति
तद्यथा--अहं च खल्वन्यभ्यो ऽशनादिकमाहत्य नो दास्या-
भ्यपराहृत च स्वादयिष्यामीति तृतीयः ३; तथा-यस्य भि-
क्तारेवं भवति-तद्यथा-श्रहं च खल्वन्यभ्यो भिच्खुभ्यो ऽशना-
दिकमाहत्य नो दास्याम्यपराहत च नो स्वादयिष्यामीति
चतुथः ४। इव्यव चतणामभि्रहाणामन्यतरममिग्रहं ग्रह्ीया-
त् ; अथवा-एतेषामेवाद्यानां याणां भङ्गानामेकपदेनेव क
श्थिदभिग्रहे ग्रह्ीयादिति दशयितुमाह--यस्य भिक्तारेवभू-
तो ऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यशग--अटं च खलु तन यथा- |
धतिरिक्लेन-आत् मपारभागाधकन, यथषणायन यक्तषा ग्रात-
माप्रातेपन्नानामघषणायमुक्कम-तद्यथा-पश्चस श्राभ्बातकासु अ
अहः द्वयाराभग्रहः तथा यथापारगृहातन-आत्माथ स्वारूत-
नाशनादिना निजरामाभकाडूकय साधास्मकस्य वयाद़ृत्त्य
कुयाद: यद्याप ते प्रांतेमाप्रातपन्नत्वादकत्र न भ्ुज्ञत तथाऽ- |
प्यकाभ्रग्रहापादेतानुष्टानत्वात् साभागका भरयन्त अत-
स्तस्य समनोज्ञस्य करणाय उपकररणार्थ बेयावृत््य कुयौमि- |
स्येबंभूतमभिग्रह कश्चिद् गृह्णाति । तथा ऽपरं दशेयितुमाह-- |
वाशब्दः पूर्वस्मात् पक्तान्तरंमाह-श्रपिशब्दः पुनःशब्दार्थ,अहं
वा पुनस्तन यथातिरिक्केन यश्रैषणीयेन यथापरिगरदीतिनाश-
नेन पानन खादमेन स्वादमंन निज्ञरामभिकाङ्क््य साध |
फिमिके: क्रियमाणं वैयावुत्ये स्वादयिष्यामि-अमभिलषिष्यामि
यो वाऽन्यः साथम्मिको ऽन्यस्य करोति ते चानुमोदयिष्या-
मि-यथा सुष्टु भवता तमवे भूतया वाचा, तथा कायन
च प्रसेन्नदष्टिमुखन, तथा मनसा चति; किमित्यवं करोति {-
लाघविकम् ` इत्यादि गताम् ।
( ३० ) ` तदेवमन्यतराभिनत्रहवान् भिच्ुरचेलः सचलो वा
शसीर पीडायां सत्यामसत्यां वा आयुःशषतामवगस्योद्यतमर-
र विदध्यादिति दशेयितुमाद--
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं
इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुन्वेणं परिवहित्तए, से अ-
शुपुव्वेणं , आहारं संवद्टिज्ज, संवद्धिज़ा कसाए पयणुए |
किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्टी उड्ढाय भिक्खु अभिनिव्यु- |
डच्चे अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा ०जाव रायहार्णे
वा तणाई जाइज़ा ०जाव संथरिजा इत्थऽवि समए कायं
च जोंग च ईरिये च पच्चक्खाइज़ा , ते सचं सचा-
दरं ओए तिने छिन्नकहंकदे आइयड्े अणाईए चिच्चाणं |
भउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि |
विस्पंभणयाएं भेरवमणुचेने तत्थ्ऽवि तस्स कालपारियाए, '
लेखनाक्रमश्चत्वारि' विकृशानी त्यादि
से5वि तत्थ विअन्तिकारए इच्चेयं विमोहाऽऽययणं हियं
सुहं खम निस्ससं आणगामिय ति बेमि | ( स्त्र-२२६ )
शमिति वाक्यालङ्कार, यस्य॒ भित्तारेवम्भूतो वक्ष्यमाणो5-
भिप्रायो भवति, तद्यथा--ग्लायामि खेल्वहमित्यादि यावत्तु-
णानि सस्तरेत् , सस्तीयै च तृणानि यदपरे कुयोत्तदाहइ-अ-
त्रापि समये अवसरे न केवलमन्यत्रानज्ञाप्य सस्तारकमा-
रुह्यू सिद्धसमक्ते खत एव पञ्चमदाबतारोपणे करोति, तत्र-
चतुर्विधमप्यादारं प्रत्याचष्रे, ततः पादपोपगमनाय कायं
च-शरीरं प्रत्याचत्तीत, त्यागे च-श्नाक्खनप्रसारणोन्मेषनि-
मेषादिकम् , तथेरणमीर्या तां च सृच्मां कायवाग्गतां मनो-
गतां वाऽप्रशस्तां प्रत्याचक्तीत, तच्च सत्यं सत्यवादीत्याद्य-
नन्तरोदेशकवन्नेयम् । इति-जवीमिशब्दावपि च्ुणणाथाविति
विमोक्ताध्ययनस्य सप्तमोदेशकः समाप्तः | ७ | उक्कः सप्तमो-
देशकः ।
(३१ ) साम्प्रतमष्ठम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-
इहानन्तरोदेशकेषु रोगाऽ ऽदि सम्भवे कालपयौयागतं प-
रिज्ञद्गितमरणपादपोपगमनविधानमुक्कम् , इद तु तदेवा-
चुपूर्वीविहारिरां कालपयौयागतमुच्यत इत्यनेन सम्बन्धे-
नायातस्यास्यादेशक्रस्यादिसजमुच्यत--
अनुष्ठुप--
अणुपुव्वेण विमोहाई, जाईं धीरा समासज्ज ।
वसमनन््तो मइमन्तो, सव्पं नच्चा अणेलिस ॥ १ ॥
दावह पि वडत्ताण, बुद्धा धम्मस्स पारगा |
अशुपुब्बीइ संखाए, आरम्भाय तिउइई ॥ २॥
कसाए पयर् किच्चा, अप्पाहारे तितिक्वएण ।
अह भिक्खू गिलाइजा, आहारस्सेव अतियं ॥ ३ ॥
जीविये नाभिकंखिज्ञा, मरणं नाऽवि पत्थए ।
दृहओडबि न साज्ञेज्ञा, जीविए मरणे तहा ॥ ४ ॥
आजनुपूर्वी क्रमः, तद्यथा-प्रनज्या-शित्ता-सूत्रा-ऽथेग्रहणपरि-
निष्ठितस्येकाकिविहारित्वमित्यादि, यद्वा--आजलुपूर्वी-सं-
, तया--आनुपूव्यां या-
न्याभिदितानि, कानि पुनस्तानि ?-- ` विमोहानि ` विगतो
मोहो येषु येघ्रां वा येभ्यो वा तानि, तथा-भक्कपरिज्ञ-ङ्गितमर-
र-पादपोपगमनानि यान्यवभूतानि यथाक्रममायातानि धी-
राः--श्रक्तोभ्याः समासाद्य-प्राप्य वसु-द्रव्यं सयमस्तद्वन्तो
वखुमन्तः, तथा मननं मतिः देयोपादेयटानापादानाध्यवसा-
यस्तद्वन्तो मतिमन्तः,तथा सवं कृत्यमकृत्यं च ज्ञात्वा यद्यस्य
वा भक्तपरिज्ञानादिकं मरणविधानमुचितं धृतिसहननादययषे-
त्तया ऽनन्यसदशम् अद्वितीयम् .सर्व ज्ञात्वा समाधमजुपालय
दिति॥९॥ कर च-द्वे विधे भ्रकारावस्येति द्विविधे तपो बाह्यम-
भ्यन्तरे च, तद्धिदित्वा-आआसेव्यः यदिवा -मोत्ञाधिकारे विमो
क्रव्य द्विविधे, तदपि वाद्यं शरीरोपकरणादि ्रान्तरं रामादि
तद् टेयतया विदित्वा त्यक्त्वेत्यर्थः,हेयपरित्यागफलत्वात् ज्ञा-
नस्य, ' ण॒ ' मिति वाक्यालङ्कारे , के विदित्वा ? ` बुद्धा
अवगततच्वाः धम्मस्य श्च तच!रित्राख्यस्य पारगाः सम्यग्वे-
त्तारः, ते बुद्धा धर्मखरूपवेदिनः , ‹ आजुपूर्व्या ' प्रवज्यादि-
क्रमेण सयममनुपाटय मम जीवतः कश्चिद् गुणो नास्तीत्यतः
न ~
( १३१ )
सरण
अभसिधानराजेन्द्र। ।
मरण
शरीरमोक्ता ऽवसरः प्राप्तः, तथा-कस्मै मरणायालमहामित्यवे
‹ ज्ञात्वा ` आरम्भखमारम्भः शरीरधारणायाऽज्रपानाद्यन्वेष-
णा.ऽऽत्मकस्तस्मात् चुख्यति-श्पगच्छतीत्यथः, सुब्व्यत्ययेन
पञ्चम्यर्थे चतुर्थी, पाठान्तरं वा * कम्मुणाओ तिञ्जट्दे' कमो
शभेदं तस्मात् च्रुटायेष्यतीति भुख्यति “ वत्तमानसामीप्ये
चत्तेमानवद्धा ' ( पा०-३-३-१३१ ) इत्यनेन भविष्यत्कालस्य
खत्तमानता ॥२॥ स चाभ्य॒द्यतमरणाय सलेखनां कुवन् प्रधा-
नभरतां भावसलेखनां कु्यादित्येतदशयितुमाह-कषः-संसार-
स्तस्या ऽऽयाः-कषाऽऽयाः कोधादयश्चत्वार स्तान् प्रतनूुन क-
त्वा ततो यत्किञ्चनाश्नीयाएत् तदपि न प्रकाममिति दशेयति-
* अल्पाहारः ' स्तोक्ाशी, षष्ठा्टमादिसलेखनाक्रमायातं तपः
कुव्वन् यत्रापि पारयेत् तत्राप्यल्पमित्य थैः । अल्पाहारतया च
ऋरोधोद्धवः स्यादतस्तदु पशमो विधय इति दर्शयाति-तितिक्त-
त-श्रसदशजनादपि दुभौषितादि क्षैमते, रोगातङ्क वा सम्य-
क् सहत इतिः तथा च सलेखनां कु्वैन्नाहारस्याटपतया
छथ ' त्यानन्तर्य 'भिक्षुः' “मुमुज्ञः ग्लायेत् ` आहारेण विना
ग्लानतां जत् ,क्षण क्षण मूच्छे-प्लाहारस्येवान्तिकं पर्यवसा-
ने बजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादिसंलेखनाक्रमे विदाया-
शने विदध्यादत्यथः, यदिवा-ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्या-
न्तिकं-समीपे न बजत् , तथाहि-आहारयामि तावत्कति-
चिष्दिनानि पुनः सलेखनाशेषे विधास्ये ऽहमिव्यवे नाहारान्ति-
कमियादिति ॥ ३ ॥ कि च-तत्र सलखनायां व्यवस्थितः स-
वदा वा साधुर्जीवितं-प्राणधारणलक्षण नाभिकाछ्लेत् , नापि
कुद्रेदनापरीष सहमानो मरणं प्राथयेद् । 'डभयतो<5पि' जी-
विते मरणे वा, न सङ्गं विदध्यात् ॥ ४ ॥
(३२) जीविते मरणे च तथा क भूतस्तर्टिं स्यादित्याह-
मज्भत्थो निज्जराऽपेही, समाहिमणुपालए ।
अन्तो बर्हं विउठास्सिज्ज, अञ्मत्थं सुद्रमेसए॥ ५॥
जं किंचू-वकमं जाणें, आऊखेमस्समप्पणो ।
तस्सेव अन्तरद्वाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पणिडए ॥ ६ ॥
गामे वा अदुवा रण्णे, थडिलं पाडेलेहिया |
अप्पपाणं तु विन्नाय, तणाई संथरे गुणी ॥ ७ ॥
श्रणाहारो तुयद्विज्जा, पुट्टी तत्थऽदहियासए ।
नादवेलं उवचरे, माणुस्सेहि वि पुद्रषं ॥ ८ ॥
रागद्ेषयोर्मध्य तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा-जीवितमरण-
योर्निराकाङ्घतया मध्यस्थो नि्जरामपेक्नितु शीलमस्येति निः
जरापेत्ती , ख पवंभृतः समाधि-मरणसमाधमनुपालयेत्-
जीवितमरणा ऽऽसशारदितः कालप्यायेण यद् मरणमापद्यते
तत् समाधिस्थो ऽनुपालयेदिति भावः । अन्तः कषायान्
बहिरपि शरीरोपकरणादिकं ग्युत्खज्य श्रात्मनि--श्रधि-श्र-
ध्यात्मम्-श्रन्तःकरणं तच्चुद्धं सकम॑द्धन्द्रोपरमाद् विस्नोत-
सिकारदितमन्वेषयेत्-प्राथयेदिति ॥५॥ कि च-उपक्रमणमुप-
कमः उपायस्ते यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? ' आयुः-
केमस्य › श्रायुषः क्तेमे सम्यक् पालने तस्य, कस्य सम्ब- |
न्धि तदायुः ?--आत्मनः, एतदुक्क भवति--श्रात्मायुषो
ये क्तेमप्रतिपालनोपल्ये जानीत त॒ त्तिप्रमेव शिक्षेत्--
श्यापारयत् परिडतो--बुद्धिमान् , तस्यैव सलेखनाकालस्य
शअन्तरद्धापए ` त्ति श्चन्त्रकालेऽ द॑ सालिखित एव देदे देदी
यदि कश्चित् बातादित्तोभात् श्रातङ्कः आशुजीवितापहारी
स्यात् , ततः समाधिमरणमभिकाङ्घन तदुपशमोपायमेषणी-
यविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात् , पुनराप सलिखेत् . यदि-
वा-आत्मनः श्रायुःक्षेमस्य जीवितस्य यत्किमप्युपक्र-
मणम्--आयुःपुद्ललानां सवत्तेन समुपस्थित तज्नानीत
ततस्तस्यैव सलेखनाकालस्य मध्ये ऽव्याकुलितमति
्तिप्रमेव भक्कपरिज्ञानादिकं शिक्तेत--आसेवेत पाण्डितो-
बुद्धिमानिति ॥ ६ ॥ सलेखनाशुद्धकायञ्च मरणकालं
समुपस्थितं ज्ञात्वा कि कुयौदित्याद-- ग्रामः प्रतीतो ग्राम-
शब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलाक्षितः, प्रतिश्रय पव स्थरिडल
सस्तारकभुवे प्रत्युपेक््य, तथारण्ये वेत्यनेन चोपाश्रयाद् ब-
दिरित्येतदुपलक्तितम् , उद्याने गिरिगुदायामरण्ये वा स्थ-
रिडले प्रत्युपेक्य-विज्ञाय चारपध्राणं-प्राणिरहितं भ्रामादि-
याचितानि प्राखुकानि दर्भादिमयानि तृणानि सस्तरेत्
मुनिः ` यथोचितकालस्य वेत्तेति ॥ ७ ॥ सस्तोयं च तृणा-
नि यत्कुर्यात्तदाह-न विद्यते आहारो<स्येत्यनाहारः, तत्र
यथाशक्कि-यथासमाधाने च भिविधे चतुविर्थ वा55हारं
प्रत्याख्यायारोपितपञ्चमदावतः ज्तान्तः--त्तामितसमस्तप्रा-
णिगणः समखुखदुःख श्रावार्जेतपुरयप्राग्भारतया मरणाद-
बिभ्यत् सस्तारके त्वग्वत्तेने कुयात् , तत्र॒ च स्पृष्टः परी-
घहोपसर्गैस्त्यक्नेहतया सम्यक् तानध्यास्येद्-श्रधिसदेत ,
“तत्र' मानुष्येरनुकूलप्रतिकूलेः परीषटोप सर्गैः, स्पृशे- व्याप्तो,
नातिवेलमुपचरेत्-न मयांदोज्नइ्ने कयात् , पुत्रकलघ्रादि-
सम्बन्धाद् नात्तैध्यानवशगो भूयात्,प्रतिकूलेवां परीषहोपस-
गैंने ऋोधनिप्नः स्यादिति ॥ ८॥
पतदेव दर्शायितुमाह--
संसप्पगा य जे पाणा, जे य उडमहाचरा ।
भञ्जन्ति मससोशिथं, न छणे न पमज्जए ॥ & ॥
पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओं न वि उन्भमे।
आसवेहिं विविततेर्हि, तिप्पमाणोऽदहियासए ॥ १०
गन्थेहिं विवित्तेर्हि, आउकालस्स पारण |
परगहियतरगं चयं, दवियस्य वियाणओ ॥ ११ ॥
अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण सादिए ।
आयवज्ज पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा ॥ १२ ॥
ससप्पेन्तीति ससप्पंकाः-पिपीलिकाक्रोष्टादयो ये प्राणाः-
प्राणिनः, ये चोध्वेचरा-ग्रधादयः, ये चाघश्चराः बिलवा-
सित्वात् सर्पादयस्त पवेभ्रता नानाप्रकाराः “ भुञ्जन्ते '
अभ्यवहरान्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः, तथा शोणितं म-
शकादयः , तांश्च प्राणिनः श्राहारार्थैनः समागतानव-
न्ति-सखुकुमारवद्धस्ता $ ऽदिभिने त्षणुयात्- न दन्यात् , न
च भक््यमाणं शसीरावयवे रजोहरणादिना प्रमा्जयेदिति
॥ ६ ॥ किच-प्राणाः--प्राणिनो देह मम दिंसन्ति,
न तु पुनक्ञानदशनचारित्राणीत्यतस्त्यक्रदेदाशेनस्तानन्तरा -
यभयाद् न निषेधयेत् , तस्माच्च स्थानान्नाप्युद्श्रमेत्-
नान्यत्र यायात् ; किभृतः सन् ? श्राश्रवैः- प्राणातिपातादि-
भिर्विषयकषायादिभिवौ ‹ विविक्तः ' प्रथगभृतैरवियमानै
( रु ३२ ).
भरण
चभिधानराजन्द्रः)
मरण
श्ुभाऽध्यवसायी तेभच्यमाणोऽप्यस्रतादिना तप्यमाण इव
सभ्य ॐ सत्तां वदनां तेस्तप्यमानो वा5ध्यासयेदू-अधिस-
त ॥ १० ॥ कि च- ग्रन्थेः सवाह्याभ्यन्तरैः शसीररागादि-
भः * विविङ्केः ` त्यक्केः सद्धिग्रन्थेवां अज्ञाउनड्रप्रविष्टरात्मानं
भावयन् धर्मशुक्लध्यानान्यतरोपेतः “ आयुःकालस्य ` ख-
त्युकालस्य ° पारगः ` पारगामी स्यात् , यावदन्त्या उच्छास-
निःश्वासास्तावत्तद्धि दध्याद् , एतन्मरणविधानकारी सिद्धिः
विविष्पं वा प्राप्नुयादिति,गतं भक्रपरिज्ञामरणम्॥ साम्प्रत-
मिक्षितमरणं ज्छोकार्धादिनोच्यते तद्यथा-- प्रयटीततरकं
चेदम्' प्रकर्षण ग्रृही ततर प्रग्महीततरं तदेव प्रग्रृहीततरकम् ,
€ इदमिति ` वक्ष्यमाणामिज्ञितमरणम , पतद्धि भक्कप्रत्या-
ख्यानात् सकाशा न्नियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानादिज्ञित- |
प्रदेशसस्तारकामात्रविदहाराभ्युपगमाच्च विशिष्टतरध्रतिसं-
हननाझपेतेन प्रकर्षेण गृह्यत इति, कस्येतद्धवति ?- द्रव्य-
सयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकस्तस्य ` विजानतो ` गी-
तार्थस्य जघन्यतोऽपि नवपृवविशारदस्य भवात, ना +न्यस्य-
ति, अत्रापीक्षितमरण यत्सलखना-तणसस्तारादिकमभि-
हितं तत्सर्व वाच्यम् ॥ ११॥ अयमपरो विधिरित्याह-- अ
ये स ` इति सोऽयम् ' अपरः ` अन्यो भक्तप्रत्याख्यानाद्धि- |
न्न इक्धितमरणस्य ˆ धर्म्मो ` विशेषो ‹ ज्ञातपुत्रेण ` वीरवद्धे- |
मानस्वामिना सुष्ट्राहितः-उपलब्धः स्वाहितः,अस्य चानन्तर
वच्ष्यमाणत्वात् पत्यन्ञासन्नवाचिनदमभिधानम् , अव्रापी-
ङ्गितमरणे पवज्यादिको विधि संलेखना च पूवैवद् द्ष्टञ्या ।
तथापकरणादिकं दहित्वा स्थरिडलं पल्युपेक्यालोचितप्रतिकरा-
न्तः पञ्चमदात्रतारूदश्चतुर्विधमाहार भरत्या ख्याय सस्तारके
तिष्टति, अयमत्र विशषः-आत्मवर्ज प्रतिचारम्-अङ्गव्यापारं
विशषण जच्यात्-त्यजत् ' जिविघत्रिविधेने ति-मनोवाक्रायः
कृतकारितायुमतिभिः सखव्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत् ,
खयमव चो द्र ्तनपरिवर्तन कायिकयोगादिकं विधत्ते ॥ १२ ॥
( ३३ ) सर्वथा प्राणिसरन्तणे पोनःपुन्येन विधयमिति
द्शीयितुमाद--
हरिएसु न निवजिजा, थण्डिलं मुणिया सए |
वि्ओसिज्ञ अणाहारो, पुद्रा तत्थऽहियासए ॥ १३ ॥ -
इंदिएहिं गिलायन्तो, समिथे श्राहरे मणी ।
तहा विसे अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ १४ ॥
अभिकमे पटिक्रमे, सङ्कुचए पसारए ।
कायसाहारणड्ट्टाए, इत्थं वाऽवि अचेयणो ॥ १५ ॥
परिकमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्ठे अहायए।
उण परिकिलन्ते, निसीइज्ा य अतसो ॥ १६॥
हरितानि -कृरवाङकरादीनि तेषु न शयीत, स्थरिडलं मत्वा श- |
यीत,तथा-स बाह्या भ्यन्तरमुपाधि व्यत्सज्य त्यक्त्वापनाहार: |
सन् स्पष्ट: परीषहापसर्गें: “ तत्र ` तस्मिन् सस्तार के व्यव-
स्थितः सन् सर्वमध्या लयेद् अधिसहेत ॥ १२३ ॥ कि च--सख
हानाहारतया मुनिग्लीयमान इन्द्रिः शमिनेो भावः शमि-
ता-समता तां साम्यं वा॒श्रात्मन्याहारयेद्-व्यवस्थापयेत्-
नाऽ ऽसतध्यानोपगतो भूयादिति यथासरमाधानमात्त, तद्यथा- |
सङ्ाचननिर्विरणो द स्तादिकं प्रसारयत् .तनापि निर्विएण उप-
विशत् , यथेङ्गितदेशे सञ्चरेद्धा, तथाऽप्यसो स्वकृतचेष्त्वाद-
गद्ये एव । किंभूत इति दशयाति-अचले यः समादितः, यद्य-
प्यसाविद्कितप्देशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाऽप्यभ्यु-
चतमरणाद् न चलतीत्यचलः, सम्यगादिते-व्यवस्थापितं ध-
स्मेध्याने शुक्कध्याने वा मनो येनं स समाहितः,भावाच लितश्रे-
ज्ञितप्रदेश च ङ्कमरणादिकमपि कुयौदिति ॥१४॥ पतद् दर्शाय-
तमाह-परज्ञापकापेक्तया ऽभिमुख क्रमणमभिक्रमणम्-सस्तार-
काद् गमनमित्यथेः, तथा-प्रती पे-पश्चादभिसुख क्रमणे प्रतिक्र-
मणमागमनमित्यः.नियतदेशे गमनागमने कुर्यादिति यावत् ,
तथा-निष्पन्नो निषरणो वा यथासमाधाने भुजादिकं सङ्काच-
येत् प्रसारयेद्धा, किमथेमेतदिति चद् दशीयति-कायस्य शरी-
रस्य प्ररूतिपेलवस्य साधारणार्थ, कायसाधारणाचच्च तत्पी-
डाकृतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायः स्थितिक्ञयाद् मरण यथा
स्यात् , न पुनस्तेषां महासत्त्वतया शर्गरपीडोत्थापितच्ि-
त्तस्यान्यथाभावः स्यादिति भावः ननु च निरुद्धसमस्त-
कायचेष्टस्य शुप्ककाषटवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपु-
रय प्राग्भारो ऽभिदित इति, नाये नियमः , सविश्यद्धाध्यवसा-
यतया यथाशक्त्या 55 रोपितभारनिर्वाहिणः तत्तल्य एव कम्म-
त्तयः अत्राप्यसो, वाशब्दात् तत्र वा पादपोपगमनेऽचतनव-
त्सक्रियो ऽपि निष्किय एवं, यदि वा-अत्रापि इङ्कितमरणे
<चेतनवच्छुष्ककाष्टवत्सवैक्रियारहितो यथा पादपोपग-
मने तथा सति सामर्थ्य तिष्ठेद् ॥ १५॥ एतत्सामथ्यांभाव
चेतत्कुर्यादित्याह यदि निषरणस्या ऽनिषरणस्य वा गातरभङ्गः
स्यात् ततः परिक्रामेत् चङ्क्रम्याद्-यथा नियमिते देशेऽकुरि-
लया गत्या गताऽऽगतानि कुयात् ,तेनापि श्रान्तः सन् अथ-
वोपविष्टस्तिष्ठेतू ‹ यथा यतो ` यथाप्रणिहितगात्र इति ,
यदा पुनः स्थानेनापि परिकलममियात् तंद् यथा-निषरणो वा
पर्यङ्कण वा श्रद्धे पयङ्कण वोत्कुटुकासनो वा परितास्यति तदा
निषरणः स्यात् ,ततराप्युत्तानको वा पाश्वेशायी वा दरडायतो
वा लगरडशायी वा यथासमाधानमवति्ठेत् ॥ १६ ॥
कि च--
असीणोऽणेलिसं मरणं, इंदियारिण समीरए ।
कोलावासं समासज, वितहं पाउरे सए ॥ १७॥
जआओ वज् समुप्पज्ने, तत्थ अवलम्ब ।
तउ उकसे अप्पाणं, फासि तत्थ5हियासए ॥ १८ ॥
अयं चा-( ययतरे ) त्तरे सिया, जे। एवमणुपालए ।
सव्वगायनिरोहेऽवि, ठाणाओ न वि उन्भमे ॥१६॥
अयं से उत्तमे धम्मे, पव्वद्राणस्स पर्गहे ।
श्म चिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिद्र माहणे ॥ २० ॥
‹ आसीनः '--श्राधितः, कि तत् ?- मरणम् , किभू-
तम् ,-- श्नीदशम् ` श्रनन्यसदशमितरजनदुरध्यवसे-
यम् , तथाभूतश्च कि कुयौदिति दर्शयाति-इन्द्रियाणी-
शामिष्टस्वविषये भ्यः सकाशाद्रागद्वेषाकरणतया सम्यगीर-
थेत्-प्रेर्येदिति, कोला-घुणकीटकास्तेषामाबासः कोलावा-
सस्तमन्तधुणक्ततमुदेहिकानिचितं वा ` समासाद्य ' ल-
ष्ध्वा तस्माद्यद्धितथम्-श्रागन्तुकतदुत्थजन्त॒रदितमषधरम्भ-
१३३ )
रण अभिधानराजेन्द्रः।
मरण
नाय प्रादुरेषयेत्-परकटं भ्रत्युपेक्तणएयोग्यमशुषिरमन्वेषयेत्
॥१७॥ इक्गितमरणे चोदनामभिधाय यन्निषेध्यं तदशयितुमा-
ह-'ज श्रो गाहा' "यतो" यस्माद जुष्ठानादवष्म्भनादेवज्नवद्वज्
शुरुत्वात्कस्मै, श्रवद्ये वा पापे वा तत्समुत्पद्ेत प्रादुःष्यात् ,
न तत्र घुणत्ततकाष्ठादाववलम्बेत । नावष्टम्भनादिकां क्रियां
कयात् , तथा “ततः' तस्मादुत्तेपणापक्तेपणादेः काययोगाद् |
दुष्प्रणिहितवाग्योगादात॑ध्यानादि मनोयोगाच्चावद्यसमुत्प-
त्तिदेतोरात्मानमुत्कषद् -उत्कामयेत् । पापोपादानादात्माने
निवर्तेयादिति यावत् । तज च धतिसेहननाद्युपेतो 5प्रतिकम्म-
शरीरः प्रवद्धैमानथुभाभ्यवसायकर्डको ऽपूवोपू वपरिणामा-
रोही सर्वज्ञप्रणीतागमा नुसारेण पदाथैस्वरूपनिरूपणाहितम-
तिः अन्यदिदं शरीरं त्याज्यमिव्येवे कृताध्यवसायः सवौन्
स्पशौन दुःखविशेषाननुकूलप्रतिकूलोपसगपरीषहापादि-
तान्, तथा वातापित्तशछेष्मद्वन्देतरप्रोद् भूतान् कम्मेच्तयायो-
चतो मयैवैतदवद्य ङतं सोढव्यं चेत्येतद्ध्यवसायी अध्यास-
येद्-अधिसेत, यतो यन्मया त्यक्त शरीरकमेतदेवोपद्रवन्ति-
न पुनर्जियृक्तित धम्मौचरणमित्याकलय्य सवैपी डासदिष्ुभे-
वेदिति ॥१८॥ गत इक्कितमरणाधिकारः ॥ साम्प्रतं पादपापग-
सनमाधिव्याह-(श्रय गादा) अ्ननन्तरमभिधास्यमानत्वायो ऽ
यं प्रत्यत्तो मरणविधिः स चा55यततरो न केवले भक्कपरिज्ञा-
याः, इद्कितमरखविधिरायततरः, शय च तस्मादायततरः
दति चशब्दाशः। आयततर इत्याङ्भिविधो सामस्त्येन यत
ऋयतः । श्रयमनयोरतिशयेनायत श्रायततरः। | यदिवा--अ-
यमनयोरतिशपेनात्तो-ग्रहीत आतक्ततरः, यत्नेनाध्यवसित
इत्यः । तदेव मये पादपोपगमनमरणविधिरात्ततरो दढतरः
स्याद् भवेत् । अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रवज्यासलेखनादिकमुक्क
तत्स द्रव्यमिति । यद्यसावायततरः ततः किमिति दशैय-
ति-यो भिक्षुः "एवम् उक्कविधिनेव पादपोपगमनविधिमनुपा-
लयेत् सर्वगाजनिरोधेऽपि, उत्तप्यमानकायोऽपि मूच्छेन्नपि
मरणतमुद्ध(तगतो वा भदयमाणमांसशोणितोऽपि कोष्टुगर
अ्रपिपीलिकादिभिमदासत्त्वतया 55 शासितमहाफलविशेषः स-
स्तस्मात्स्थानात् प्रदेशात् द्रव्यतो भावतोऽपि शुभाध्यवसाय-
स्थानान्न व्युद्ख्रमेत्ू--न स्थानान्तरं यायात् ॥ १६ ॥ किं
चअ-अयमित्यन्तःकरणनिष्पन्त्वात्पत्यक्तः * उत्तमः ` प्रधानो
मरणविधिः सर्वोत्तरत्वादधर्म्मो-विशषः पादपोपगमनरूपो
भरणविशेष इति । उत्तमत्वे कारणे दशैयति-' पृ्वेस्थानस्य
ग्रह" इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी । पूस्थानाद्धक्कपरिजञेद्गितमरणरू-
यात्प्रकथण ग्रहोऽत्र पादपोपगमने प्रग्रदीततरमेतदित्यभः।
तथाहि---अत्र यदिङ्गितमरणानुभतं कायपरिस्पन्दन तदपि
निषेध्यते श्रच्दन्नमूलपादपवन्निश्े्टो निष्क्रियो दह्यमान. |
दयमानो वा विषमपनितो वा तथवास्ते न तस्मात्स्थानाञ्
लति, चिलातपुत्रवत् । एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थान, तश्च
स्थणिडलं तत्पृवविधिना प्रत्युपेदय तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थ- |
णिडले विदरेदिति । श्रत्र॒पादपोपगमनाधिकाराद् विहरणं
तद्धिधिपएलनमुक्रम्। तश्च स्थानात् स्थानान्तरसंक्रमणम्। पः
तदेव च दशैयति-तिषठेत् सर्वगात्रनिरोघे ऽपि स्थानान्तरास
क्रमणे कुयादित्यथैः । कोऽसौ ?'माहणे' ति साधुः। स हि
निषणणो निषराण ऊध्वैस्थितो घा निष्प्रतिकम्मा यद्यथा नित्ति |
=. इव न चालयेदिति यावत् ॥ २० ॥
छ
पतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाह--
अचित्तं तु समासज्ञ, ठावए तत्थ अप्प |
वोसिरे सव्वसो कायं, न मे दहे परीसहा ॥ २१ ॥
न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम--अचेतन जीवरहितामि-
त्यथः । तञ्च स्थरिडलं फलकादि वा * समासाद्य ` लब्ध्वा
फलकेऽपि समर्थः कश्नित्काष्ठ वाऽवष्टभ्य तत्रा 4 ऽत्मानं स्था-
पयत् । व्यवस्थाप्य च त्यक्कचतुर्विधादहारो मरूरिव निष्प्रक-
स्पः कृतालोचनादिपरिकर्मा गुरुभिरनुज्ञातो व्युत्खजत् ।
* सर्वशः ' स्वीत्मना ' कायं ' देहम् । व्युत्सष्टदेहस्य च यदि
केचन परीषहोपसर्गाः स्युस्ततो भावयत्-' न मे देहे परीष-
हाः' मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यङ्कत्वात् , तद-
भावे कुतः पर्यीषहाः ?; यदिवा-न मम ददे परीषदाः । स-
म्यक्तरणेन सहमानस्य तत्छृतपी डयाद्वेगाभावात् , , अतः
परीषहान् कर्मशत्रुजयसहायानितिकृत्वा 5परीषहान् एव
मन्येत ॥ २१ ५
ते पुनः कियन्ते काले सोढव्या इत्याशज्जाव्युदासार्थमाह--
जावज्ीवं परिसहा, उवसग्गा इत्ति सखाय ।
संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥ २२ ॥
* याव्चीवं ` यावत् प्राणधारणं तावत् परीषहा
उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् “ सङ्ख्याय ` ज्ञात्वा तान-
ध्यासयेदिति । यद्वा--न मे यावज्जीवं परीषटोापसगौ इत्ये
तत् सङ्ख्याय-ज्ञात्वा ऽधि सहेत । | यदिवा- यावज्जीव' मिति।
यावदेव जीविते तावत् परीषहोपसगजनिता पीडति,तत्पुनः
कातिपयनिमेषा ऽवस्थायि । एतद्वस्थस्य ममान्तमल्पमेव-
त्यत पतत्सङ्ख्याय--क्ञात्वा सव्रता यथानित्तिप्तच्यक्तगात्रो
देदभदाय शरीरत्यागायोत्थित इति छृत्वा “ प्राज्ञः ` उ-
चितविधानवेदी, यद्यत्कायपी डाकायुपतिष्ठतते तत्तत्सम्यग-
धिसदहेत ॥ २२॥
पवम्भूते च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादिभोंगेरुपनिमन्त्रयेत्
तत्प्रतिपादनाथमाद-
भेउरेसु न रजिजा, कामेसु बहुतरेसु वि ।
इच्छालोभं न सेविज्ञा, धुघवन्नं संपेहिय ॥ २३ ॥
भेदनशीला भिदुराः शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्वपि
“न रज्येत्'न रागे यायात् । पाठान्तरं वा-'कामेखु बहुलेसु वि"
इच्छामदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु -श्रनल्पष्वपीत्यथैः । यद्यपि
राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयत् तथापि तत्र न गा-
ध्थमियात् । तथा इच्छारूपो लोभ इच्छालोभः चक्रवर्ती
नद्रत्वाद्यभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसो निञजरापेत्ती न
सेवेत, सुरद्धिदशनमोहितो ब्रह्मदत्तवन्निदान न कुयौदित्य-
थः । ( ब्रह्मदत्तकथा 'वंभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे १२७१ पृष्ठ
गता ) तथा चागमः--' इह लोगाऽऽसंसप्पश्रोगे १ परलो-
गासंसप्पओगे २ जावियाससप्पश्रोगे ३ मरणासंसप्पओगे ४
कामभोगाससप्पश्नोगे ५ ” इत्यादि, “ वरीः ` सयमो मोक्ता
वास च सृच्मो दुक्षयत्वात्; पाठान्तरं वा ' धुववन्न ` मि-
त्यादि। धृवः-श्रव्यभिचारी स चासों वशश्च धुववरीस्तं संप्र-
च्य भुवां घा शाश्वतीं यशःकीर्ति पर्यालोच्य कामच्छालोभ-
, विक्षेपं कुयादिति ॥ २३॥
( १३४
अभिधानराजन्द्रः
मरण
भरण
कि च-
सासएहिं निमन्तिजा, दिव्य मायं न सहहे ।
ते पडिवुज्क माहणे, सवै नूम॑ विहृणिय ॥ २४ ॥
शाश्वता यावज्जीवम् अपारक्तयात् प्राताद्नद्ा- |
नाद् वाऽथास्तस्तथाभरूतावभव काञ्धान्नमन्बयत् तत्प-
तब॒ुध्यख-यथा शराराऽथ धन सग्यत तदेव शरीर-
मशाश्वतामात | तथा ददव्यां मायां न क्रद्दथधीत। तद्यथा- यदि |
काश्चिदवो मीमांसया प्रत्यनीकतया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा
कातुकादिना नानद्धिदानतो निमन्त्रयेत् , तां च तत्कृतां
मायां न श्रदधीत | तथा बुध्यस्व--य था देवमायेषा, अन्यथा
कुतो ऽयमाकरस्मिकः पुरुषो दुलभमेतद् द्रव्यं प्रभूततरमेवंमृते
क्षेत्र काले भावे च दद्यात् ?; एवं द्रव्यादिनिरूपणया देव-
मायां बुध्यस्व इति । तथा देवा ऽङ्गना वा यदि दिव्यं रूप वि
धाय प्रार्थयेत् तामपि बुध्यस्वेति । ˆ मादे › त्ति साधुः
स्वम् ` अशपं “ नमे ` ति कम्मं मायां वा तत् तां वा ' वि-
धूय ` अपनीय देवादिमायां बुध्यस्वति क्रिया ॥ २४ ॥
+ किश्व--
सव्वद्रेहि अगुच्छिए, अआआउकालस्स पारए | |
क # ५ विमे $ # + [> वेमि |
तिंतिक्ख परमं नचा, विमोहन्नयरं हियं ।॥। २५॥ तिबेमि। |
सर्वे च तऽ्थाश्च सवीर्थाः, पञ्चधकाराः कामगुणास्तत्सम्पा-
दका वा द्रव्यानचयास्तेस्तेषु वा श्रमूरिलतः-ञ्ननध्युपपन्नः।
आयुःकालस्य यावन्मात्रं कालमायुः संतिष्ठते असो आयुः-
कालस्तस्य पार म्-आयुष्कयपुद्रलानां क्ष्यो-मरणं तद्वच्छती
ति पारगः। यथोक्रावधिना पाद्पोपगमनव्यवस्थितः प्रवद्ध
मानशुभाध्यवसायः सखरायुःकालान्तगः स्यादिति । तदेवं पाद-
पापगमनविरशधि परि समापय्योपसदारद्वारेण जयाणामपि म-
रणानां कालक्तत्रपुरूपावस्थाश्रयणात् तुल्यकक्ततां पश्चार्धेन द-
शर्यति-तितिच्त-परीषदोापसगौपादितदुःखविशेषसहने तत्
अयाणामपि परमं-प्रधानमस्तीति ज्ञात्वा-अवधाये “ विमो-
हान्यतरं हित ` मिति | विगतो मोहो येषु दानि विमोहानि।
भक्कपरिक्षे-क्लितमरण पादपापगमनप्तन तपामन्यतरत् काल- |
क्षत्रादिकमाश्रित्य तुल्यफलत्वाद्धितम् अरभिप्रेता्थसाधनादतों
यथाशाक्ति त्रयाणामन्यतरत् तुल्यबलत्वाद् यथावसरं विधेयम्। |
इतिः अधिकारपारिसमाप्ता, ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाविचारा-
दिकमनुगतं वच्यमाणं च द्रष्टव्यमिति । आचा० १ श्रु० ८ अ०
८ उ० । ( मारणान्तिकसमुद्धातवक्तव्यता “मारणंतियसमु-
ग्याय शब्दे ) ( ` संथार' शब्दे 'संलेहणा' शब्देऽपि च किचिद्
वच्याम ) ( अन्मुज्ञयमरण शब्दे प्रथमभागे ६६३ पृष्ठे अब्भु- |
द्मतमरणवक्कव्यता ) |
यत एवं ततः कि कत्तेव्यम् ? इति गुरुरुपदेशमादट--
तम्हा चद गविज्भं, सकारणं उज्जुएण पुरिसेणं ।
जीवों अवेरहियगुणो, कायव्यों मुक्ख॒मग्गम्मि ॥६८॥
तम्हा ` तस्मात्कारणात् चन्द्रकवध्य--वामदक्तिणाव्त-
श्रमदष्टवक्र[$४रकमध्यनिर्गच्छदृ डू मुखशरप्रयोगतो भूस्थकु
एडक्रागततलान्त प्राताव्राम््रतगगनस्थाधोमरुखपुत्तालकावा
मलातच्रनरूपच्चन्द्रक्स्तद्रप वध्य राघावेघ इत्यथः । साध्य- |
मित्यध्याहारः । केन पुरुषेण । किंभृतेन उयुक्तेन-उद्यमवता |
साबधाननेत्यथः। कथ ? सकारण स्वर्गापवर्गादिश्रीलाभहतो-
रित्यर्थः । यथा राधावेधः सकारणे राज्यादिलाभकूते के-
नापि साध्यते एवं चन्द्रक्वेध्यमिवानशन सकारण मोक्षा-
दिलाभरूते सावधानन साघधयितव्यमिति भावः। तत्साधनो-
पायञ्चायमित्याह--' जीवो ` जीव आत्मा अविरदितगुणोऽमु-
क्ल्लानदशनचा रित्रगुणः क्सैव्यः। क्व ? मोक्षमार्गक्लानदशनचा
रित्रतपोरूपे | तद्व्यवास्थितो हि चन्द्रक्वेध्यसमां प्रान्ताया-
धनां साधयतीत्यर्थः ॥ ६८ ॥ आतु० । ( अ विशषः ' अण-
सय ` शब्दे प्रथमभागे ३०२ पृष्ट गतः ) ।
(३४ ) अत्र मरणविधिर्जिनपतिप्रकाणेकान्तर्गते दशमे `
मरणविधिग्रकीरके उक्तस्तद्यथा--
तिहुयणसरीरिवंद, सष्पकयणरयणमंगलं नमिउं ।
समणस्स उत्तमे, मरणविहीसंगहं वुच्छ ॥ १ ॥
सुणह सुयसारनिहसं, ससमयपरसमयवायनिम्मायं ।
सीसो समणगुणऽड, परिपुच्छह वायगं कंचि ॥ २ ॥
अभिजाइसत्तविकम-सुयसीलवियुत्तिखंतिगुणकलियं ।
आयारविणयमदव -विज्ञचरणागरमुदारं ॥ ३ ॥
कित्तीगुणगव्भहरं, जसखाशे तवनिहिं सुयसमिद्ध ।
सीलगुणनाणदं सण-चरित्तरयणाऽऽगरं धीरं ॥ ४ ॥
तिविहं तिकरणसुद्धं, मयरदियं दुविहटाणपुणरततं ।
विण्येण कमविसुद्धं, चउस्सिरं वारसावत्तं ॥ ५ ॥
दुञ्राणयं अहाजायं, एयं काउण तस्स किंडकम्मं |
भत्तीइभरियहियओ, हरिसवसुन्भिन्नरोमचो ॥ ६ ॥
उवदेसहेउकुसलं, ते पवयणरयणसिरिषरं भणइ ।
इच्छामि जाणिउं जे, मरणसमाहिं समासेणं ॥ ७ ॥
अग्युज्जुयं विहारं, इच्छ जिणदे सियविउपसत्थं ।
नाउं महापुरिसदे-सियं तु अच्भुज्जुयं मरणं ॥ ८ ॥
तुज्मित्थ सामि सुअजल-हिपारगा समणसघनिज्ञवया ।
तुज्मं खु पायमूले, सामन्न॑ उजमिस्सामि ॥ & ॥
सो भरियमहुरजलहर-गंभीरसरो निसन्नओ भणइ ।
सण दाणि धम्मवच्छल-मरणसमाहिं समासेणं ॥१०॥
सुण जह पच्छिमकाले, पच्छिमतित्थयरदे सियमुयार ।
पच्छा निच्छिय पच्छ, उर्विति अब्थुज्जुयं मरणं ॥११॥
पव्वज्ञाई् सव्वं, काऊणा5ब्लोअणं च सुबिसुद्धं ।
द् सणनाणचरित्ते,निस्सल्लो विहर चिरकालं ॥ १२ ॥
आउच्वेयसमत्ती, तिगिच्छए जह विसारओ विज्ञो ।
रोगाऽऽय॑काऽऽगदिओ्रो, सो निरुयं आउर कुणइ ॥१२॥
एवं पवयणसुयसा-रपारगो सो चरित्तसुद्धौए ।
पायच्छित्त विहिन्नू , तं अणगारं विसोहिइ ॥ १४ ॥
( सम्यक्त्वा ऽ ऽराधकाविषयिका अज्ञत्याश्वतस्म्ो गाथा: आ-
राहणा' शब्दे द्तीयभागे ३८५ पृष्ठे उक्ताः । )
अरहतसिद्धचेदय- गुरुषु सुयधम्मसाहुवग्गे य ।
( १३५ )
अभिधानराजन्द्रः।
४ 9
मरण
आयरियउवज्भाए, पव्वयणे सव्वसंघे य ॥ १६ ॥
एएसु भत्तिजुत्ता, पूयंता अहरहं अणष्पमणा ।
सम्मत्तमणुसरंता, परित्तसंसारिया हुति ॥ २० ॥
सुविहिय इम पडष्प, असदहंतेहिः ऽणेगर्जविरहिं ।
बालमरणाणि तीए, मयाईँ काले अशणताई ॥ २१॥
एगं पंडियमरणं, मरिऊण पुणो बहूणि मरणाणि |
न मरंति अप्पमत्ता, चरित्तमाराहियं जरि ॥ २२॥
दुविहम्मि अहक्खाए, सुसंबुडा पुव्वसंगओ युका ।
जे उ चयंति सरीरं, पडियमरणं मयं तेहि ॥ २३ ॥
एयं पंडियमरणं, ज धीरा उवगया उवाएणं ।
तस्स उवाए उ इमा, परिकम्म विहीउ जुजीया ॥२४॥
जे ङुम्म(केस)संखताडण - मारुत्जि्रगगणपंकयतरूणं ।
सरिकप्पासुयकप्पिय-आहारविहारचिट्टागा ॥ २५ ॥
निच तिदंडविरया, तिगुत्तिगुत्ता तिसन्ननिस्सन्ना |
तिविहेण अप्पमत्ता,जगजीवद यावरा समणा ॥ २६ ॥
( अज्ञत्या वक्कव्यता ' आराहग ' शब्दे द्वितीयभागे २७७
पृष्ठे उक्ता तत एवावसेया । )
फार्साह ति चरित्तं, सव्वं सुहसीलयं पजदिरुणं ।
घोरं परीसहचमुं, अहियासितो धिइवलेणं ॥ ४५ ॥
सदे स्वे गंधे, रसे य फांस य निग्धिणधिईए ।
सव्वेसु कसाएसु य, निर्हेतु परमोस्या होहि ॥ ४६ ॥
चइऊण कसाए इई दिए य सव्ये य गारवे हंतु |
तो मलियरागदोसो, करेह आराहणासुद्धिं ॥ ४७॥
दंसणनाणच रित्ते, पव्वज्जाईसु जो अईयारो ।
तं सव्वं आलोयहि, निरवसेस पणिदियप्पा ॥ ४८ ॥
जह केटणएण विद्धो, सव्वेगे वेयणदिओ होड ।
तह चव उद्धियम्मि उ, नीसल्लो निव्वओ होइ ॥४६॥
एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेण दुक्खिओ होड ।
सो चव चत्तदासो, संविसुद्धो निव्वओ होइ ॥ ५० ॥
रागदोसाऽमिहया, ससन्नमरणं मरंति जे मृढा ।
ते दुक्खसन्नबहुला, भमंति ससारकंतारे ॥ ५१ ॥
जे पुण तिगारवजढा, नीसल्ना दंसणे चरिते य ।
विहरंति मक्कसंगा, खवंति ते सब्बदुक्खाई ५२॥
सुचरमवि सकिलिद, विहरितं फाणसंवरविदहीणं ।
नाणी संवर जुत्तो, जिणद अहोरत्तमित्तेणं | ५३ ॥
ज निजरेद कम्म, असंवुडो सुबहुणा वि कालेणं ।
तं संवुडो तिगुत्तो, खबेइ ऊसासमित्तेण | ५४ ॥
सुबहुस्सुयाउवि संता, जे मूढा सीलसंजमगुणेहिं ।
न करंति भावसुद्ध, ते दुक्खनिभेलणा हति ॥५५॥
जे पुण सुयसंपन्ना, चरित्तदोसेहि ˆ नोवलिप्पंति ।
ते सुविसुद्धचरित्ता, करति दुक्खक्खयं साहू ॥ ५६ ॥
पुव्वमकारियजोगो, समाहिकामोऽवि मरणकालम्मि ।
न भवह परीसहसहो, विसयसुहपराइओ जीवो ॥५७॥
तं एवं जरतो, महंतरं लाहगं सुविदिएसु ।
द् सणचरित्तसुद्ध, निस्सल्नो विहर तं धीर ! ॥ ५८ ॥
इत्थ पुण भावणाओ, पंच इमा हति संकिलिट्ठाओ ।
आराहिंत सुविदिया, जा निचं वज्ञिशिज्ञाओ ॥ ५६ ॥
कंदप्पा देवकिव्विस-अभिग्रोगा आसुरी य संमोहा ।
एयाओ संकिलिट्ठा, असंकिलिट्टा हवइ छटा ॥६०॥
कंदप्पा कोङुहया, दवसीलो निशच्च हासणकहाओ ।
विम्हाविंतो उ परं, कंदप्पं भावणं णड ॥ ६१ ॥
नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहूणं ।
माई अवष्पवाई, किव्विसियं भावशं कुणइ ॥६२॥
मताऽभिग्रोगं कोउग, भूईकम्म॑ च जो जणे कुणइ ।
सायरसइड्डिहेडं, अभिओगं भावं कुणइ ॥ ६३ ॥
अरणुवद्धरोसवुग्गह- संपत्त तहा निमित्तपडिसेवी ।
एएहि ` कारणेहि, आसुरियं भावण कुणइ ॥ ६४ ॥
उम्मग्गदसणा णा-ण-दूसणा मग्गविप्पणासो अ |
मोहिण मोहयत -सि भावणं जाण संमाह ॥ ६५ ॥
एयाउ पंच वज्िय, इणमो छद विहर तं धीर ! ।
पंचसमिओ तिगुत्तो, निस्संगो सव्वसंगेहिं ॥ ६६ ॥
एयर्पे भावणाए, विहरविशुद्धाइ दीहकालम्मि |
कारण अतसुद्धि, दंसणनाणे चरिते य ॥६७॥
पंचविहं जे सुदि, पचविहविवेगसजुयमकाउ ।
इह उवणमंति मरणं, ते उ समाहिं न पार्वति ॥६८॥
पंचविहं ज सुद्धि, पत्ता निखिलेण निच्छियमईया ।
पचविहं च विवेगं, ते हु समाहिं परं पत्ता ॥६६॥
लहिऊणं संसारे, सदल्लहं कहं वि माणुसं जम्मं ।
न लहंति मरणदुलह, जीवा धम्मं जिणक्खायं ॥७०॥
किच्छाहि पावियम्मि वि, साम्ये कम्मसत्तिओसन्ना ।
सीर्यति सायदुलहा, पकासन्नो जहा नागो ॥ ७१ ॥
जह कागणीई हें, मणिरयणाणं तु हारए कोडि ।
तह सिद्धसुहपरुक्खा, अबुहा र८(स) जति कामस ॥७२॥
चोरो रक्खसपहओ, अत्थ5्त्थी हणइ पथियं मूढो ।
इय लिंगी सुहरक्खस-पहआओ विसयाउरों धम्मं ॥७३॥
तसु वि अलद्भधपसरा, अवियण्हा दुक्खिया गयमईया ।
समुविंति मरणकाले, पगामभयभेरवं णरग ॥ ७४ ॥
धम्मा न कओ साहू, न जेमिओ न नियसियं सर्द ।
इणिह परंपरासु- त्ति य नेवय पत्ता सुक्खाई ॥ ७५ ॥
साहूशं नोवकयं, परलोअच्छेयसंजमो न कओ ।
| १३६
अभिधानराजन्द्रः ।
भरण
दुहओ वि तओ विहलो,अह जम्मो घम्मरुक्खाणं ॥७६॥
दिक्खं महलेमाणा, मोहमहावत्तसागराऽभिहया ।
तस्स अपडिकमंता, मरति ते बालमरणाई ॥ ७७ ॥
इय अवि मोहपउत्ता, मोह मत्तृण गुरुसगासम्म ।
आलोइय निस्सल्ला, मरिउं आराहगा तेऽवि ॥ ७८ ॥
इत्थ विसेसो ष्य, छलणा अवि नाम हृज्ञ जिणकप्पो । |
कि पुण इयरमुणीणं, तेण विह देसिओ इणमो ॥७६॥
अप्पविहीणा जाह, धरा सुयसारभरियपरमत्था ।
ते आयरियविदिनन, उविति अब्थुज्ञयं मरणं ॥८०॥ |
आलोयणाइ संले-हणाइ खमणाई काल उस्सग्गे ।
उग्गासे संथारे, निसर्ग वेरग्ग युक्खाए । ८१ ॥
भाणविसेसो लसा, सम्मत्त पायगमणयं चव ।
चउदसआओ एस विही, पढमो मरणम्मि नायव्वों ॥८२॥
विशणओवयारमाण-स्स भजणा पूयणा गुरुजणस्स ।
तित्थयराण य आणा,सुयधम्माराहणाऽकिरेया ॥८३॥
छत्तीसा ठाणेस य, जे पवयणसार रियपरमत्था ।
तेसि पासे सोही, पन्नत्ता धीरपुरिसेहिं | ८४ ॥
वयछककायछकं, वारसगं तह अकप्प गिहिभाणं ।
पलियंक गिहिनिसिजा,ससोम पलिमजण सिणाणं ।८५।
आयारवं च उवधा-रवं च ववहारविहिविहिन्नू य।
उव्वीलगा य धीरा, परूवणाए विहिणणू य ॥ ८६॥
तह य अवाय विंहिएरणू ,निज्ञवगा जिणमयम्मि गहियत्था
श्रपरिस्साई य तहा, विस्सासरहस्सनिच्छिड्ा || ८७ ॥
पढम॑ अट्टारसगं, अदर य ठाणाणि एव भणियाणि ।
इत्तो दस ठाणाणि य, जसु उदरावणा भणिया ॥ ८८ ॥
अणवट्ट तिग॑ पारं चेगं च तिगमेय हि गिहीभूया |
जाणंति जे उ एए-सुअरयणकरंडगा घरी ॥ ८६ ॥
सम्मइंसणचत्तं, जे य वियाणंति आगमविहिन्न् ।
जाणंति चरित्ताओ, अनिग्गयं अपरिसिसाओ ॥ ६० ॥
जो आरंभे वट्टब, चिअत्तकिच्चो अणणुतावी य ।
सोगो य भवेदसमो, जख्वटावणा भिया ॥ ६१॥
एएस विहिविहण्णू , छत्तीसा ठाणएसु जे री ।
ते पवंग्रणसुहकेऊ, छत्तीसगरुण त्ति नायव्वो ॥ &२॥ |
तसिं मेरुमहो यद्िि-मेयाशि-ससि-सर-सरिसकप्पाणं ।
पायमूले य विसोही, कराणिज्जा सुविहियजणेणं ॥६३॥ |
काइयवाइयमाणसि -यसेवण दुप्पश्रोगसंभूयं ।
जो अइयारो कोई, त॑ श्रालोए अगृर्हितो ॥ ६४ ॥
श्रमुगम्मि इड काले, अयुगत्ये अमुगगामभावेशं ।
जं जह निसेषियं खलु, जेण य सव्वं तहाऽऽलोए ॥।६५॥
मिच्छार्दसणसन्लं, भायासन्लं नियाणसल्लं च ।
भरण
तं संखेवा दुविहं, दव्वे भावे य बोद्धव्वं ॥ ६६ ॥
वि(ति)विहं तु भावसल्लं, दंसणन।णे चरित्तजोगे य |
साच्चत्ताऽचित्तेऽवि य, मीसए याऽवि दव्वम्मि ॥६५७॥
मुहुम पि भावसल्नं, अणुद्धरित्ता जो कुणइ कालं ।
लज्जाए गारवेश य,न हु सो आराहओ भणिओ ॥६८॥
तिविहं पि भावसल्लं, समुद्धरित्ता जो कुणइ काल ।
पव्वज्जा परम्म, स होइ आराहओ मरणे ॥ &£६ ॥
तम्हा सुत्तरमूलं, अविकूलमविदुयं अणुव्विग्गो ।
निम्मोहियमणिगूढं, सम्मं आलोअए सव्वं ॥१००॥
जह बालो जपंतो, कज्ञमकज्ज च उज्जुयं भणइ । +
ते तह आलोइज्जा, मायामयविप्ययुक्तो उ ॥ १०१ ॥ '
कयपावो5वि मणूसो, आलोइय मनिंदिउं गुरुसगासे ।
होड अइरेगलहुओ, ओहरियभरु व्व भारवहों ॥ १ ०२॥
लज्जाए गारवेण य, जे नाऽऽ्लोयति गुरुसगासम्मि ।
घभ्मं तं पि सुयसमिद्धा, न हु ते आराहगा हुंति॥१०३॥
जह सुकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वार्ह ।
तं तह आलोयब्बं, सुदधुऽवि ववहारकुसलेण ।॥ १०४ ॥
ज पुव्वं तं पुव्वं, जहाणुपुव्वि जदकमं सव्वं |
अलोईज्ज सुविहिओ, कमकालविहिं अभिंदंतो।॥ १० ५४॥
अत्तपरजोगेहि य, एवं सयुवद्िए पञ्मोगेहिं ।
अम्ुगेहि य अगयुगेहि य, अमुयगसंठाणकरगणे हिं || १०६॥
वष्येहि य गंधेहि य, सदफरिसरसरूवगंधेहिं ।
पडिसेवणा कया पज्जञ-वेहि कया जहि य जहिं च ।१०७।
जो जोगओ अपारिणा-मओ-अ दंसणचरित्तअइयारो ।
छट्टाणबाहिरो वा, छट्ठाण 5ब्भतरो बाऽवि ॥ १०८॥
तं उज्जुभावपरिणउ, रागं दोसं च पयणु कारणं |
तिविहेण उद्धरिज्जा, गुरुपामूले अगूहिंतो ॥१०६॥
न वितं सत्थं च विसं,च दुप्पउत्तु व्व कुणइ वेयालो ।
ज तं व दुष्पउत्त, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥ ११० ॥
जं कुणइ भावसल्ल, अणुद्धियं उत्तमट्टकालम्मि ।
दुल्लहवोहीयत्त, अणंतर्ससारियत्त च ॥ १११ ॥
तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणन्भवलयाणं ।
मिच्छादंसणसल्चं, मायासन्ं नियाणं च ॥ ११२ ॥
रागेण व दोसेण व, भएण हासेण तह पमाएखं ।
रोगेणाऽऽयकेण व, वत्ती पराभिग्रोगेणं ॥ ११२॥
गिहिविज्जापडिएण व, सपक्खपरधम्मिओवसग्गेणं ।
तिरियजोणिगएण व, दिव्व मरूसोवसम्गणं ॥११४॥
उवहीइ व नियडीह व, तह सावयपिल्लिएण व प्रेणं ।
अप्पाणं भएण य, परस्स छंदाणुवत्तीए ॥ ११५ ॥
सहसकारमणाभो-गओ अ यं पवयणाऽदिगारेशं ।
नि ^ =
( १३७ )
अआभधानराजन्द्रः ॥
मरण
सन्निकरणे विसोही, पृष्मागारो य पन्नत्ता ॥ ११६ ॥ |
उज्जुअमालोइत्ता, इत्तो अकरणपरिणामजोगपरिसुद्धों | |
सो पयणुइपइकम्मं, सुग्गइमग्गं अभिमुहह ॥ ११७॥ |
उक्हीनियडिपइट्टी, सोहिं जो कुणशह सोगईकामो ।
माई पालिकुंचंतो, करेइ वृदं खयं मूढो ॥ ११८॥
आलोयणाऽऽइदासे, दस दोग्गई बंधे परिहरंतो |
तम्हा आलोइज़ा, मायं युत्तण निस्ससं ॥ ११६ ॥
ज म जाणंति जिणा, अवराहा जसु जसु ठाणेसु ।
ते तह आलोएमी, उवद्टिओं सव्वभावेणं || १२०॥
एवे उवद्ियस्स वि, आलोएएउं विसुद्धभावस्स |
ज किंचिऽवि विस्सरिय, सहसाकारेण वा चुकं ॥१२१॥
आराहओ तह वि सो, गारवपरिकुचणामयविहूणो ।
जिणदे सियस्स धीरो, सदहगो मुत्तिमग्गस्स ॥ १२२ ॥
आकंपण अणुमाणण, जं दिद बायरं च सुहूमं च ।
छनं सदाउलगं, बहुजणअव्वत्ततस्सेवी ॥१२३॥
आलोयणाएँ दोसे, दस दुग्गइवडणा पयन्तं ।
आलोइज़ सुविहिओ, गारवमायामयविहृणों ॥ १२४॥
तो परियाग च बलं, आगमकालं च कालकरणं च ।
पुरिमं जीयं च तहा, खित्तं पडिसेवशविहिं च ॥१२५॥
जोग्गं पायच्छित्त, तस्स य दारण विति आयरिया ।
दंसणनाणचरित्ते, तवे य कुणमप्पमाय॑ति ॥ १२६ ॥ |
अणसणमूणोयरिया, वित्तिच्छेओ रसस्स परिचाओ ।
कायस्स परिकिलेसो, छट्ठी सलीणया चव ॥ १२७॥
विणए वेयावचे, पायच्छित्ते विवेगसज्छाए ।
अन्भितरं तवविर्हि, छट्॑ कारण वियाणाहि ॥ १२८ ॥
बारस विहम्मि तवे, अब्भितरबाहिरे कसलदिट। |
नऽवि अत्थि नऽवि य होहि,सज्कायसमं तवोकम्मं १२६। |
जे पयणुभत्तपाणा-सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए । |
जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥१३०॥ |
छट्ठ5ट्टरमदसमदुवा-लसेहिं अवहुस्सुयस्स जा सोही । |
तत्तो बहुतरगुणिया,हविज्ज जिमियस्स नाखिस्स ।१३१।
कललं क्टंऽपि वरं, आहारो परमि्र अ पंतो अ ।
नय खमणो पारणए, बहु बहुतरो बहुविहो हाई ।१३२। |
एगा5हेण तवस्सी,हविज्ज नत्थित्थ संसओ का5ई । |
एगाऽहेण सुयहरो, न होड धन्तं पि तुरमाणों ॥१३३॥
सो नाम अणसणतवो, जेण यणोऽ्मगलं न चित ।
जण न इदियहाणी, जण य जोगा न हारयति ॥१३४॥ |
ज अन्नार्णी कम्मं, खबेह बहूयाहि * वासकाडीहिं |
तं नास) तिहिं गुत्तो, खबेइ ऊसासभित्तेशं ॥ १३५॥।
भरण
नाणे आउत्ताणं, नाणीशं नाणजोगजुत्ताणं ।
को ? निज्ञरं तालिज़ा, चरणे य परकमताणं ॥ १३६ ॥
नाणेण बजणिजञ, वजिजइ किजई य करणिज्ञं ।
नाणी जाणइ करणं,कजमकर्ज च वजेउं ॥ १३७॥
नाणसहियं चरित्त, नाणे संपायगं गुशसयाणं ।
एसा जिणाण आणा, नऽस्थि चरित्तं विणा णाणं ।१३८।
नां सुसिक्खियव्वं, नरेण लद्रण दुल्लहं बोदिं ।
जो इच्छ नाउं ज, जीवस्स विसोहणामग्गं ॥ १३६ ॥
नाणेण सव्वभावा, जती सव्वजीवलोअम्मि |
तम्हा नारं कुसल-ण सिक्खियव्वं पयत्तेण || १४० ॥
न हु सका नासेउं, नाणे अरहंतभासिय लाए ।
ते धन्ना ते पुरिसा, नाणी य चरित्तजुत्ता य ॥ १४१॥
बंध मुक््ख गइरा-गयं च जीवाण जीवलोयम्मि ।
जाणंति सुयसमिद्धा, जिशसासणचेइयविहिण्णू| १ ४२॥
भं सुबहुसुयाणं, सव्वपयत्थेस पुच्छणिज्जाणं ।
नाणेण जोवयारे, सिद्धि पि गएसु सिद्धेख ।॥ १४३ ॥
कि ? इत्तो लट्टयर, अच्छरयरं व सुद्रतरं वा ।
चदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयम्॒हं पलोएंति ॥ १४४ ॥
चदाउ नीई जुण्हा, बहुसुयम्ृह्ाउ नीह जिणवयणं ।
ज सोऊण स॒विहिया, तरंति ससारकतारं ॥ १४४ ॥
चउदसपुव्वधराणं, ओहीनाणीण केवलीणं च |
लोगुत्तमपुरिसाणं, तसि नाणं अविन्नाणं ॥ १४६ ॥
नाणेण विणा करणं, न होड नाऽपि करणहीणं तु ।
नाणेण य करणेण य, दोहि वि दुक्खक्खयं होड ॥१४७॥
दढमूलमहाणंमि वि, वरमेगोऽवि सुय्सालसंपण्णो ।
माहु सुयसीलविगला, काहिसि मारो पवयणम्मि।१४८।
तम्हा सुयंमि जोगो, कायव्वो होड अप्पमत्तेण |
जणऽऽप्पाण परंऽपि य, दुक्खसमुद्दाउ तारेइ । १४६ ॥
परमत्थंमि सदिद, अविणद्वेंसु तवसंजमगुणेस ।
लब्भइ गह् विसुद्धा, सरीरसारे विणट्रुमि ॥ १५० ॥
अविरहिया जस्स मई,पंचहि समिईहि तिहि वि गत्तीहिं।
य कुणइ रागदोसे, तस्स चरित्त हवई सुद्धं ॥१५१॥
उकोसचरित्तोडबि य, परिवडई मिच्छभावण कुणइ ।
किं ! पृण सम्महिद्टी, सरागधम्म॑मि वडंतो ॥ १५२॥
तम्हा घत्तह दोसु वि, कां ज उज्ञमं पयत्तें |
सम्मत्तमि चरित्ते, करणंमि य मा पमाएह ॥ १५३॥
जवे य सुहत नासइ, जाव य जोगा न ते पराहीणा |
सद्धा जाव न हाई, इंदियजोगा अपरिहीणा ॥ १५४ ॥
जव य खेमसुभिक्ख, आयरिया जाव अत्थि निज्ञवगा |
:३ गाखरहिया, नाणचरणदंसशभमि रया || १५५ ॥
( १३८ )
[ क
अभिधानराजन्द्रः।
मरण
ताव खम काउं जे, सरीरनिक्खवणं विउपसत्थ ।
समयपडागाहरणं, सुविदियददं नियमजुत्तं ।॥ १५६ ॥
हंदि अशिन्चा सद्धा, सुई य जोगा य इंदियाई च ।
तम्हा एयं नाउं, विहरह तव संजम॒ज्जुत्ता ॥ १५७॥
ता एयं नाऊरणण, ओवाय नाणदंसणचरित्ते |
धीरपुरिसा5णुचिष्मं, करिंति सोहिं सुयसमिद्धा ॥१४८॥ |
अब्भितरबाहिरय, अह ते काऊण अप्पणो सोहिं ।
तिविहेण तिविहकरणं, तिविहे काल वियडभावा ॥ १ ५६॥
परिणामजोगसुद्धा, उवहिविवेगं च गणविसग्गे य। |
अज्ञाइ य उवस्सय-वज़णं च विगईविवेगं च ॥ १६० ॥
उग्गम-उप्पायण ए सणा विसुद्धि च परिहरणसुद्धि ।
सननिहि सनिचर्यमि य, तववेयावच्चकरण य ॥१६१॥
एवं करतु सोहि, नवसारयसलिलनहतलसमभावा ।
कमकालद व्पज्ञव-अरत्तपरजोगकरणे य ॥ १६२ ॥
तो ते कयसोहीया, पच्छित्ते फासिए जहाथाम्मं |
पुप्फाऽकिन्नगम्मि य, तवंमि जुत्ता महासत्ता ॥१६३॥ ।
तो इंदियपरिकम्म, करिति विसयसुहनिम्गहसमत्था। |
जयणाइ अप्पमत्ता, रागदसे पयणुयता ॥ १६४ ॥
पुव्वमकारियजोगा, समाहिकामा वि मरणकालम्मि ।
न भवंति परीसहसहा, विसयसुहपमाइया अप्पा ॥१६१५॥ |
इंदियसुहसाउलओ, घोरपरीसहपराइयपरज्को ।
अकयपरिकम्मकीवो, मज्द आराहणाकाले ॥१६६॥ |
वाहंति इंदियाईं, पुच्वि दुनि थ य मियप्पयाराई ।
अकयपरिकम्मकीव, मरणेसु असंपउत्त पि ॥१६७॥
आगममयप्पभाविय-इंदियसुहलोलुया पहट्टस्स ।
जइ वि मरणे समाही, हुज्ञ न सा होइ बहुयाणं ।१६८॥ |
असमत्तसुओ वि मणी, पुच्वि सुकयपरिकम्मप रिहत्थो ।
संजमनियमपदनं, सुहमत्तहिओ समझेइ ॥१६६॥
न चयति किंचि कारं, पुच्वि सुकयपरिकम्मजोगस्स ।
खोह परीसहचमू धिदवलपरादइया मरणे ॥१७०॥
तोते वि पुव्वचरणा, जयणाए जोगसंगहविहीहिं ।
तो ते करति दंसश-चरित्तसइ भावणाहेउं ॥ १७१ ॥ |
जा पुव्वभाविय किर, होड सुई चरणदंसणे बहुहा ।
सा होड बीयभूया, कयपरिकम्भस्स मरणम्मि ॥१७२॥
तं फासेहि चरितं, तुमं पि सुहसीलयं पमुतृणं ।
स्वं परसहचगरु, अर्हिय।सन्तो धिड्लेणं ॥१७३॥
सदे स्वे गधे, रसे य फासे य सुविहियजणेहिं |
सज्वेसु कसाएसु अ, निगगह परमो सया होहि ॥१७४॥
सव्व रसे पणीए, णिज्जू हेऊण पंतलुक्खेहिं । |
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अप्पयरेणुवहाणे-ण संलिहे अप्पगं कमसो ॥१७५॥
संलेहणा य दुविहा, अन्भितरिया य बाहिरा चेव ।
अन्भितरियकसाए, बाहिरिया होई य सरीरे ॥१७६॥
उग्गमरप्पायण ए सणाविसुद्धेण अष्पपाशेशं ।
मियविरसलुक्खलूहेण, दुब्बलं णसु अप्पागे ॥१७७॥
उन्नी शेहि य,अहव न एगंतवद्धमाणेहिं ।
सलिह सरीरमेयं, आहारविहिं पयणुयंतो ॥१७८॥
तत्तो अणुुव्वेणाऽऽ- हारं उवह सुञ्रोवएसेणं ।
विविहतवोकम्मेहि य, इंदियविकीलियाईहिं ॥१७६॥
तिविहाहि एसणाहि य, विविहेहि अभिग्गहेहि उम्गेहिं।
संजममविराहिंतो, जहाबलं॑ संलिहसरीरं ॥ १८० ॥
विविहाहि व पडिमाहि य, बलवीरियजई य संपहोई सुहं।
ताओ वि न वादिति, जहक्षमं सलिहतम्मि ॥ १८१ ॥
छम्मासिया जहन्ना, उकोसा वारिसेव वरिसाईं ।
आयंबिलं महेसी, तत्थ य उक्ोसयं बिंति ॥ १८२॥
छट्रऽरमदसमदुवा-लसहि , भत्ति ˆ चित्तकट्टेहिं ।
मियलहुक आहारं, करोहि ˆ आयंबिलं विहिणा ॥१८३॥
परिवष्टिओवहाणो,णहारुविरावियवियडपासुलिकडीओ।
संलिहियतसुसरीरो, अज्भप्परओ यणी नित ॥१८४॥
एवं सरीरसंले णाव बहुविह पि फासितो ।
अज्भवसाणविसुद्धि, खणं पि तो मा पमाइत्था॥ १८५॥
अज्भवसाणविसुद्धी, विवज्ञिया जे तवं विगिद्टमावि ।
कुर्वति वाललसा, न होइ सा केवला सुद्ध ॥१८६॥
एयं सरागसंले-हणाविहिं जइ जई समायरई |
अज्मप्पसंजुयमई, सो पावर केवलं स॒द्धि ॥१८७॥
निखिला फासेयव्वा, सरीरसंलेहणाविही एसा ।
इत्तो कसायजोगा, अज्भप्पविहिं परम वुच्छे ॥ १८८॥
कोहं खमाई माणं, महवया अज्ञवेण मायं च ।
सतोसेण व लोहं, निजिण चत्तारि वि कसाए ॥१८६॥
कोहस्स व माणस्स व, मायालाभेस वा न एएसि ।
वच्चइ वसं खणं पिहु, दुग्गइगइवड्रणकराणं ॥१६०॥
एवं तु कसायऽग्गि, संतोसेण त॒ विज्कवयेव्यों ।
राग्गदोसपवत्ति, वज्जेमाणस्स विज्काइ ॥१६१॥
जावंति केड ठाणा, उदीरगा हति हु कसायाणं ।
ते उ सया बजतो, विमृत्तसंगो मुणी विहरे < | १६२॥
सतोवसंतधिहमं, परीसहविंहिं च समहियासंतो ।
निस्संगयाई सुविहिय !, सलिहमोहे कसाए य ॥१६३॥
इडाशिदरसु सया, सदफरिसरूवरसगंधेहिं ।
सुहदुक्खनिव्विसेसो, जियसंगपरीसहो विहरे ॥१६४॥
समिईसु पंचसमिओ, जिणाद्दितं पंच इंदिए सुडू ।
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( १३९ .)
मरण अभिधानराजन्द्रः। मरण _
सन्नासु आसवेसु अ, अड्डे रुद अ तं विसुद्धप्पा ।
रागदोसपवंचे, निज्जिणिउं सव्वणोज्जुत्तो ॥१६६॥
को दुक्खं पाविज्ञा ?, कस्स य दुक््खेहिं विम्हओ हुज्ञा (|
को व न लभिज मुक्खं १, रागदोसा जई न दुज्ञा ॥१६७॥
नवितंकुणइ अमित्तो, सुद विय विराहिओ समत्थो वि ।
ज॑ दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य॥१६८॥
तं मुयह रागदोसे, सेये चिंतेह अप्पणो निच्चं ।
जं तेहि ` इच्छह गुणं, तं वुकह बहुतरं पच्छा ।॥१६६॥
इह लोए आयासं, अयसं च करति गुणविणासं च ।
पसवति य परलोए, सारीरमणोगणए दुक्खे ॥ २००॥
धिद्धी अहो अकज्ज, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं |
फलमउलं कड॒यरसं, ते चेव निसेवए जीवो ॥ २०१ ॥
तं जइ इच्छमि ग॑तं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स ।
तो तव संजमभडं, सुविहियागेणहाहि तुरंतो ॥ २०२॥
बहुभयकरदोसाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं ।
न हु वसमागंतव्त, रागदासाण पावाणं ॥ २०३ ॥
जे न लहइ सम्मत्त, लद्ब॒ण वि जं न एड वेरग्ग |
विसयसुहेसु य रज॒इ, सो दोसो रागदोसाणं ॥ २०४ ॥
भवसयसहस्सदुलहे, जाइजरामरणसागरुत्तारे |
जिणवयणंमि गुणागर!,खणमवि मा काहिसि पमायं २०५
दवि ` पजञवेहि य, ममत्तसंगेहि ` सुदु वि जियप्या ।
निप्पणयपेमराग।, जई सम्मं ने मुक्खत्थं ॥२०६॥
एवं कयसंलेहं, अब्भितरबाहिरंमि सलेहे ।
संसारम्क्खबुद्धी, अनियाणोदाणि विहराहि॥ २०७ ॥
एवं कहियसमाहिय, तहविह संवेगकरणगंभीरो |
आउरपचक्खाणं, पुणरवि सीहाऽवलाएणं ॥ २०८ ॥
न हु सा पुणरुत्तविही, जा सवेगं करेइ भप्मंती ।
आ।उरपचक्खाणे, तण कहा जोइया भ्रुज्ञो २०६ \
एस करेमि पाणमं, तित्थयराणं अणुत्तरगर्णं ।
सव्वेभिं च जिणाणं, सिद्धाणं संजयाणं च ॥ २१० ॥
जं किचि वि दुच्चरियं, तमहं निंदामि सच्चभावेशं ।
सामाहयं च तिविहं, तिविहेण करेमऽणागारं || २११ ॥
अब्भितरं च तह बा-हिर॑ च उवहिं सरीरसाहारं ।
मणवययकायऽतिकरण-सुद्धोहं मित्ति पकरेमि ॥२१२॥
बंधपओसं हरिसं, रइमरई दाणयं भयं सोगं ।
रागदोसविसायं, उस्युगभावं च पयहामि ॥ २१३ ॥
रागेण व दोसेण व, अहवा अकयसया पडिनिवेशं ।
जो मे किंचिवि भणिग्रो, तमहं तिविहेण खामेमि।२१५४।
संग्वेस य -दब्बेसु य, उवद्भिओ एस निम्ममत्ताए |
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आलंबणं च आया, दंसणनाणे चरित्ते य ॥ २१५ ॥
आया पच्चक्खाणे, आया मे संज॑मे तवे जोगो ।
जिणवयणविरिविलग्गो, अवसेसविहिं तु दंसेहि । २१६॥
मूलगुण उत्तरगुणा जे मे ना55राहिया पमाएणं ।
ते सव्वे निंदामि, पडिकमे आगमिस्साणं ॥ २१७ ॥
एगो सयं कडाईं, आया मे नाणदंसणवलक्खो ।
संजोगलक्खणा खलु, सेसा मे बाहिरा भावा ॥२१८॥
पत्ताणि दुहसयाईं। संजोगस्साणुएण जीविेणं !
तम्हा अरंतदुक्खं, चयामि संजोगसंबंध ॥ २१६ ॥
अस्संजममष्पाणं, मिच्छत्तं सव्वओ ममत्त च |
जीवेसु अजीविसु य, ते निदे तं च गरिहामि ॥२२०॥
परिजाण मिच्छन्तं, सव्वं अस्सजमं अकिरियं च |
सव्वं चव ममत्तं, चयामि सव्वं च खमेमि॥ २२१ ॥
जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेस जसु ठाणेस ।
ते तह आलोएमि, उवद्टिञ्रो सव्वभावेणं ॥ २२२ ॥
उप्पन्ना उप्पणुन्ना, माया अणुमग्गओ निहतव्वा ।
आलोयणनिंदणगरि-हणाहि न पुणो त्ति या बिइय २२२
जह बालो जंपंतो, कज्ञमकज्जं च उञ्जुयं भरद ।
तं तह .आलोयव्वं, मायं मुत्तृण निस्सेसं ॥ २२४ ॥
सुबह पि भावसल्लं, आलोएऊण गुरुसगासम्मि ।
निस्सल्लो संथारं, उवेइ आराहओं होइ ॥ २२५ ॥
अप्प पि भावसल्ल, जणलोयंति गुरुसगासम्मि ।
धतं पि स॒यसमिद्धा, न हु ते आराहगा हंति ॥२२६॥
न वितं विस च सत्थं, दुष्पठत्तो व कुणइ वेयालो ।
जतं व दुप्पउत्त, सप्पु व्व पमायञ्रो कुविओ।॥ २२७ ॥
ज कुणइ भावसल्ल, अणुद्धियं उत्तमटूकालंमि ।
दुल्नहवोहीयत्त, अणंतससारियत्तं च ॥ २२८ ॥
तो उद्धरति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं ।
मिच्छादंसणसल्लं, मायासल्नं नियाणं च ॥ २२६ ॥
कयपावोऽवि मणूसो, आलोइय निंदिय गुरुसगासे ।
होड अइरेगलहुओ, ओहरियभरु व्व भारवहो ॥२३०॥
तस्स य पायच्छित्तं-जं मग्गविऊ गुरू उबइस्संति |
तं तह अरणुचरियव्वं, अणवत्थपसगभीएणं ।। २२३१ ॥
दसदोसविष्पमुकं, तम्हा सव्व अमग्गमाणेणं ।
जं किचि कयमकज्जं, आलोए तं जहावत्तं ॥ २३२॥
सव्वं पाणारभं, पच्चक्खामि ति अलियवयणं च ।
सव्वं अदिन्नदाणं, अन्वभपरिग्गहं चव । २३३ ॥
सव्वं च असणपाणं, चउव्विहं जा य बाहिरा उवही |
अरन्भितरं च उवहिं, जावज्जीवं वोसिरामि ॥ २३४ ॥
कंतारे दुन्भिक्खे, आयंके वा महया समुप्पन्ने ।
| . ॥ | > मम
( १४० )
श्रभिधानराजन्द्रः।
भ्रण
भरण
ज पालिय न भग्गं, तं जाणसु पालणासुद्धं ॥ २३४ ॥ |
रागेण व दोसेण व, परिणामे वा न दूसियं ज तु ।
तं खलु पच्चक्खाणं, भावविसुद्धं युेयव्वं ॥ २३६ ॥
पीयं थणयच्छीरं, सागरसालिलाउ बहयरं हुज्जा। |
ससारे ` ससरतो, मारणं अन्नमन्नाणं | २२७॥
नऽस्थि किर सो पएसो, लोए वालऽग्गकोडिमित्तोऽवि | |
संसारे संसरतो, जत्थ न न जाओ मओ वाड्वि ॥२३८॥ |
चुलसीई किर लोए, जोणीणं पम्नुहसयसह स्साई |
इकिकम्मि य इत्तो, अणतखुत्तो समुप्यक्ञों ॥ २३६ ॥
उड्डमहे तिरियम्मि य, मयाणि बालमरणाणि 5णंताणि। |
तो ताशे सभरतो; पंडियमरणं मरीहामि ॥ २४० ।।
माया मित्ति पिया मे, भाया भज त्ति पुत्तथूया य ।
एयाणि5चिंतयंतो, पंडियमरणं मरीहामि ॥ २४१॥
मायापिदवंधू्ि, संसारत्थेहि_ पूरिओ लोगो ।
बहुजोणिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च ॥२४२॥
इको जायइ मरह, इको अणुहवह दुकयावेवागं ।
इको अणुसरई जीओ, जरमरणचडग्गरगुविलं ॥२४३॥ |
उव्वेवशयं जम्मणश-मरणं नरणएसु वेयणाओ य । |
एयाणि संभरंतो, पंडियमरणं मरीहामि ॥ २४४ ॥
इक पंडियमरणं, छिंदह जाईसयाणि बहुयाणि ।
ते मरणं मारियव्वं, जण मओ मुकओ होड ॥२४५॥
कइ्याणु तं सुमरणं, पंडियमरणं जिणेहि पन्नत्ं ।
सुद्धो उद्धियसल्लो,पाओवगर्म मरीहामि ॥ २४६॥
संसारचकवाले, सव्वे वि य पुग्गला मए बहुसो ।
आहारिया य परिणा-मिया य न य तेसु तित्तो हं ।२४७।
आहारनिमित्तेणं, मच्छावच्ंतिऽणुत्तरं नरय ।
सचित्ताहारबिहिं, तेश मणसाऽवि निच्छामि।॥२४२॥ |
तणकटरेण व अग्गी, लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं ।
न इमो जीवो सक्ता, तिप्पेड कामभोगेहिं ॥ २४६॥
लवशणयगुहसामाणो, दुष्पूरो धणरश्रो अपरिमिजो ।
न ह सको तिष्पेड, जीवो संसारियसुहेहिं | २५० ॥
कप्पतरुसंभवेसु य, देवुत्तरकुरुवसपसएसुं ।
परिभोगेण न नित्ता, ण य नरविज्जाहरसुरेसु ॥२५१॥
दविंदचकवट्टि-त्तणाई रजाई उत्तमा भोगा ।
पत्ता अणतखुकत्तो, नयहे तित्ति गओ तेहि ॥ २५२ ॥
पयखीरुच्छुरसेसु य, साऊसु महोदहीसु बहुसो5वि ।
उववस्ञो न य तण्हा, चिन्ना ते सीयलजलेहि ॥२५३॥
तिविहेण वि सुहमउले, जम्हा कामरहविसयसुक्खाशं । |
बहुसे वि समणुभूयं,न य तुह तण्हा परिच्छन्ना ॥२५४॥ |
जा काइ पत्थणाओं, कया मए रागदोसवसएण | ।
पडिबंधेण बहुविहा, तं निदे तं च गरिहामि ॥२५५॥
हंतूण मोहजाले, छित्तूण य अड्ठकम्मसंकलियं ।
जम्मणमरण 5रहईं, भित्तण भवाण मुचिहिसि ॥२५६॥
पच य महव्वयाई, तिविहं तिविहेण आरुहेङणं ।
मणवयणकायगुत्तो, सज्जो मरणं पडिच्छिज्ञा ॥२५७॥
कोहं माणं माय, लोहे पिजं तहव दासं च ।
चइऊण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२५८॥
कलहं अब्भक्खाणं, पेसुननं पियपरस्स परिवायं ।
परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२५६॥
किणहं नीलं काउ, लेसं काणाणि अप्पसत्थाणि ।
परिवज्जतो गुक्तो, रक्खामि महव्वए पच ॥ २६० ॥
तेऊ पम्टं सुक्र, लेसा ाणाणे सुष्पसत्थाणि ।
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२६१॥
पंचिंदियसंवरणं, पंचेव निरुभिरुण कामगुणे ।
अच्चासायणविरओ, रक्खामि महव्वए पंच ॥२६२॥
सत्तमयविष्पमुको, चत्तारि निरुम्भिङुण य कसाए ।
अट्टमयट्टाण जड़ो, रक्खामि महव्वए पच ॥२६३॥
मणसा मणसच्चविऊ, वायासचेण करणसच्चेण ।
तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२६४॥
एवं तिदंडविरओ, तिकरणसुद्धो तिसल्निस्सल्लो ।
तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पच ॥२६५॥
सम्मत्त समिईओ, गुत्तीओ भावणाओ नाशं च |
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ॥२६६॥
संगं परिजाणामि, सष्टं पि य उद्धरामि तिविहेणं ।
गुत्तीओ समिईओ, मज्भं ताणं च सरणं च ॥ २६७॥
जह खुहियचकवाले, पोयं रयणभय्यं समुईमि।
निज्ञामया धरिंती, कयरयणा बुद्धिसंपन्ना ॥२६८॥
तवपोश्रं गुणभरियं, परीसहुम्मीहि धाशियमाइदधं ।
तह आरार्हिति तिङ, उवएसवलंबगा धीरा ॥२६६॥
जई ताव ते सुपुरिसा,आयारो वि य भरा निरबयक्खा ।
गिरिकुहरकंदरगया, साहंति य अप्पणो अदं ॥२७०॥
जद ताव सावयाकुल- गिरिकंदरविसमदुग्गमग्गेसु ।
धरणियं धिहवद्धकच्छा, साहंति य उत्तमं अदं | २७१॥
कि पुण अणगारसहा-यगेण वेरग्गसंगहबलेशं ।
परलोएण ण सका, संसारमहोद हिं तरिं ॥२७२॥
जिणवयणमप्पमेयं, महुरं कन्नाऽमयं सुणंताणं ।
सका हु साहुमज्का, साहं अप्पणो अद्र २७३॥
धीर पुरिसपापत्तं, सप्पुरिसानिसेबियं परमघोरं ।
धन्ना सिलातलगया, साती श्रप्पणो शुं ।२७४॥
बाहे इन्दियाईं, पृञ्जमकारिय पडटचारिस्स |
भरण
( १४१ ).
अभिधानराजन्द्रः। मरण
अकयपरिकम्मकीवं, मरणेसु अ संपउत्तम्मि ॥२७५।।
पुव्वमकारियजोगो, समाहिकामो वि मरणकालम्मि | `
न भवह परीसहसहो, विसयसुहपराइओ जीवो ॥२५७६॥
पुच्ि कारियजोगो, समाहिकामो य मरणकालम्मि ।
होड उ पररीसहसहो, विसयसुहनिदारिओ जीवो ॥२७७॥
पुच्वि कारियजोगो, अनियाणो ईटिङण सुहभावो ।
ताहे मलियकसाओ, सजो मरणं पडिच्छिज़ा ॥२७८॥
पावाणं पावाणं, कम्माणं अप्पणो सकम्माणं |
सका पलाइउं ज, तवेण सम्म पउत्तेणं ॥ २७६ ॥
इक पंडियमरणं, पडिवजई सुपुरिसो असंभंतो ।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अतं अणताणं ॥ २८० ॥
किं तं पडियमरणं, काणि ब आलबणाणि भणियाणि ।
एयाईं नाऊणं,कि आयरिया पसंसति १।२८१॥
अशसणपाउवगमणं, आलंबणभकाणभावणाओ अ |
एयाईं नाशं, पडियमरणं पससति ॥२८२॥
इंदियसुहसाउलओ, घोरपरीसहपराइयपरज्को ।
अकयपरिकम्मकीवो, मुज्कइ आराहणाकाले ॥२८३॥
लज्ञाएँ गारे , , बहुसुयमएण वाऽवि दुच्चरियं ।
जे न कर्ति गुरुणं, न हु ते आराहगा हंति ॥ २८४॥
सुज्भइ दुकरकारी, जाणइ मग्गे ति पावए कित्ति ।
विणिगूहित्तो निदं, तम्हा आलोयणा सेया ॥ २८५ ॥
अग्गिम्मि य उदयम्मि य, पाणेसु य य पाणबीयह रिएसुं ।
होई मओ सथारो, पाडिवज़इ जो अरसं भंतो ॥ २८६॥
नऽवि कारणं तणमओ,संथारो नऽति य फासुया भूमी।
अप्पा खलु सथारो, होइ विसुद्धो मरतस्स ॥ २८७॥
जिणवयणमणुगया मे, होड मई भाणजोगमद्ीणा।
जह तम्मि देसकाले, अमूठसन्नो चए देह ॥ २८८॥
जहि होई पमत्तो, जिणवयणराहिओ अणायत्तो ।
ताहे इदियचोरा, करेति तवसजमविलोमं ॥ २८६॥
जिशवयणमणुगयमई, ज बेलं होई संवरपविद्धो ।
अग्गी ब वायसहिओ, समूलडालं डहइ कम्मं | २६० ॥
जह उह वायसहिओ, अग्गी हरिएऽवि रुक्खसंघाए ।
तह पुरिसकारसहिओ, नाणी कम्मं खयं नेइ ॥ २६१॥
जह अग्गिम्मि व पवले, खडपूलिय खिष्पमेव कामेह ।
तह नाशीऽवि सकम्मं, खवेड ऊसासमित्तेणं ॥ २६२ ॥
न हु मरणम्मि उवग्गे, सको वारसविहो स॒यक्व॑धो ।
सब्वो अणुचिंतेउं, धतं पि समत्थचित्तेशं ॥ २६३ ॥
इकम्मिऽपि जम्मि पए, सवेगं कुणइ वीयरागमणए |
वच नरो विग्धं, तं मरणं तेण मरितव्वं | २६४॥
३६
इक्म्मिऽवि जम्मि पए, सवेगं कुणइ वीयरागमणए ।
सो तेण मोहजालं, चिद इ अज्कृप्पजोगेण ।॥ २६५ ॥
जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वाऽऽयरेण करणिजं ।
तसबायरभूयदियं, पथं निव्वाण मग्गस्स ॥ २६६ ॥
समोऽहं ति य पढम, बीयं सव्वत्थ संजओउऊम्हि त्ति ।
सव्वं च बोसिरामी, जिशेहि जं ञं पडिकट्ट ।। २६५७ ॥
मणसाऽवि ऽचितणिज्ञ, सव्वं भासर्णेऽभासणिजञं च '
काएण य ऽकरणिज्ञ,वोसिरि तिविहेण सावज्ञं ||२६८:'
अस्संजमवोसिरणं, उवहिविवेगो तहा उवसमो अ |
पडिरूवजोगविहिओ, खतो य॒त्तो विवेगो य ॥ २६६ ॥
एयं पचक्खाणं, आउरजणआवहईसु भावेणं ।
अष्पतरं पटिवन्नो, जपतो पावइ समाहिं ॥ ३०० ॥
मम मगलमरिहता,सिद्धा साह सुयं च धम्मो य।
तेसिं सरणोवगओ, सावजजं वोयिरामि त्ति ॥ ३०१ ॥
सिद्धे उवसंपत्नों, अरिहंते केवली य भावेण ।
इत्तो एगत्तरेणऽवि, पएण आराहओ होई ॥ ३०२ ॥
समुदन्नवेयणो पुण, समणो हिययम्मि कि निवेसिज्ञा {।
आलंबणं च कां, कारण युणी दुं सहइ ॥ ३०३ ॥
नरएसु ऽणुत्तरसु अ, अणुत्तरा वेषणाओं पत्ताओ।
वईतेश पमाए, ताओ्रो वि अणंतसो पत्ता ॥ ३०४॥
शएयं सयं कयं मे, रिणं व कम्मं पुरा असाय तु ।
तमहं एस धुणामि, मणम्मि सत्तं निवेसिज्ञा ॥ ३०५ ॥
नाणाविहदुक्खेहि य, समुदनेहि उ सम्म सहणिजं ।
न य जीवो उ अजीवो, कयपृव्वो वेयणाई हिं | ३०६ ॥
अग्थुञ्जयं विहारं, इत्थं जिखदे सियं विउपसलत्थं ।
नाउं महापुरिससे- विर्यं ज अग्थुज्जयं मरणं ॥३०७॥
जह पच्छिमम्मि काले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं ।
पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ अब्भुज्य॑ मरणं ॥ ३०८ ॥
छत्तीसमडियाहि य, कडजोगी संगहबलेणं ।
उज्जमिऊर्ण वारस-विहे य तवनियमठाणेण ॥ ३०६ ॥
संसाररंगमज्फे, धिवबलसंनद्धबद्धकच्छाओ ।
हंतूण मोहम, हराहि आराहणपडागं ॥ ३१० ॥
पोराणयं च कम्मं, खदेड़ अन्नन्नबंधणायाई !
कम्मकर्लकलवर्ि, छिंदइ सथारमारुढो ॥ २११ ॥
धीरपुरिमेहि” किय, सप्पुरिसनिसेवियं परमधोरं ।
उत्तिप्मो5म्हि हु रंगं, हरामि आराहणपडागं ॥ ३१२ ॥
धीर ! पडागाहरणं, फरेहि जह तसि देसकालम्मि |
सुत्तत्थमणुगुरितो, घिइनिच्चलबद्धकच्छाओ । ३१३ ॥
चत्तारि कसाए ति-प्थि गारवे पंच इंदियग्गाम |
जिणिउं परीसहसहे, हर्तहि आराहुणपड़ागं || ३१४ ॥
~ ~ --------
( १४२ )
अशिधानराजन्द्रः ।
सरण
भरणं
जई इच्छसि तरिर जे, संसारमहोअहिमपारं ॥ ३१५॥
जई इच्छसि नीसरिउं, सव्वेसिं चेव पावकम्माणं ।
जिणवयणनाणदंसण-चरित्तभावुज्जुओ जग्ग ॥३१६॥
देसणशनाणचरित्ते, तवे य य आराहणा चउक्खंधा ।
सा चेव होड तिविहा, उकोसा मज्मिम जहप्मा ॥३१७॥
आराहेऊण विऊ, उकोसाराहणं चउक्खंधं ।
कम्मरयविष्पमुको तेणेव भवेण सिज्मिज्जा || ३१८॥
आराहेऊण विऊ,"मज्मिमआराहणं चरक्सभं |
उकोसेण य चउरो, भवे उ गंतूण सिज्किज़ा ॥ ३१६॥
आराहेऊण विऊ, जहण्णमाराहणं चउक्खंधं ।
सत्तऽडभवग्गहणे, परिणामेऊण सिज्मिज्ञा | ३२० ॥
धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेणऽवि अवस्स मारियव्वं ।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिडं ॥ ३२१ ॥
एय पचक्खाणं, अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म ।
बेमाणिओ व देषो, वेज अहवाऽवि सिन्िजा।२२२॥
एसो सवियारकओ, उवक्रमो उत्तमऽटकालम्मि।
इत्तो उ पणो वुच्छं, जो उ कमो होइ अवियारे ॥३२३॥
साहू कयसंलेहो, विजियपरीसहकसायसंताणो ।
निज्जवए मग्गिज्जा; स॒यर्यणसहस्सनिम्माए ॥२२४॥
पचसमिए तिगुत्त, अणिस्सिए रागदोसमयरहिए ।
कडजोगी कालण्ण् , नाणचरणदं सणसमिद्धे ॥३२५॥
मरणसमाहीकुसले, इंगियपात्थियस भाववेत्तारे ।
ववहारविहिविहणएरणू , अब्थुज़यमरणसाराहिणो'॥३२२६॥
उवएसहेउकारण गुणनिसढा णायकारण विहण्णू ।
विष्मणणाणकरणो-वयारसुयधारणसमत्थे ॥ ३२७॥
एगंतगुणे रहिया, बुद्धीई चउव्विहाईं उकवेया।
छेद पव्वइया, पच्चक्खाणंमि य विहण्णू ॥३२८॥
दुणहं आयरियाणं, दो वेयावच्चकरणणिज्जुत्ता ।
पाणगवेयावच्चे, तंवस्सिणो वत्ति दो पत्ता ॥ ३२६ ॥
उव्वत्तण परिवत्तण, उचारुस्सासकरणजेोगेसु ।
दो वायग त्ति णज्जा, अ सुत्त करणे जहल्लेणं ॥ ३३०॥
असदृहवेयणाए, पायच्छित्ते पडिकमणए य ।
जोगा55थंकहाजोगे, पच्चक््खाणे य आयरिओ ॥३२१॥
कप्पा5कप्पविहिणरा् , दुवालसंगसुयसारही सव्वं ।
छत्तीसगुणोवेया, पच्छित्तवियारया धीरा ॥३३२॥
एए ते निज़बया, परिकहिया अदर उत्तमटरमि ।
जरस गुणसंखाणं, न समत्था पायया वुत्तं ॥३३३॥
एर्सियाण सगासे, पूर्णं पवयणष्पवाईणं ।
पडिवज़िज्ज महत्थं, समणो अग्भुज्जयं मरणं ॥३३४॥
न य मणसा चितिज्जा, जीवामि चिरं मरामि व लहंं ति। |
आयरियउवज्भाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य ।
जे मे किया सकाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥३३५॥
सव्वस्स समणसंघ-स्स भावञ्रो अंजलि करे सीसे ।
सञ्वं खमावायित्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥३३६॥
गरहित्ता अप्पाणं, अपुणकारं पडिकमित्ताणं ।
नाणम्मि दसणम्मि अ, चरित्तजोगाऽइयारे य ।२२३७॥
तो सीलगुणसमग्गो, अणुवहयक्खो बलं च थाम च |
विहरिज्ज तवसमग्गो, अनियाणो आगमसहाओ।३ ३ ८।
तवसोसियंगमगो, संधिसिराजालपागडसरीरो ।
किच्छाहियपरिहत्थो, परिहरई कलेवरं जाह ॥३३६॥
पञचचक्खाई य ताहे, अन्नन्नसमाहिपत्तियमित्ती ।
तिविहेशाहारविहिं, दियसुग्गइकायपगईए ॥३४०॥
इहलोए परलोए, निरासओ जीविए अ मरणे य |
साया5णुभवे भोगे, जस्स थ अवहड्डणाईए ॥ ३४१ ॥
निम्ममो ` निरहंकारो, निरासयो ऽकिंचणो अपडिकम्मो।
वोसइविसइंगो, चत्तचियत्तण देहेणं ॥ २४२ ॥
तिविहेणऽवि सहमाणो, परिसहे दृसहे अ ऊसग्गे |
विहरिज्ञ विसयतण्हा-रयमलमसुभं विहुणमाणो।३४ ३।
शेहक्खए व दीवो, जह खयमुवरणेइ दीववट्डिम्मि ।
खीणाहारसिणेहो, सरीरवा् तह खबेइ ॥ ३४४ ॥
एवं परज्का असई, परकमे पुव्वभणियस्रीणं ।
पासम्मि उत्तमड्ट्टे, ङुज्ञा तो एस परिकम्म ॥२३४५॥
आगरसमुट्विय तह, अज्करुसिरवागत्तणपत्तकडए य ।
कट्टसिलाफलगंमि व, अणभिजयं निष्पकप्पंमि ।३४६।
निस्सधिणातणंमि व, सुहपडिलेहेण जतिपसत्थेणं ।
संथारो कायव्वो, उत्तर पुव्वस्सिरो वाऽवि ॥ ३४७ ॥
दोसुत्थ अप्पमाणे, अधकारे सममि अ शिसिड ।
निरुबहयेमि गुणमणे, वणंमि गुत्ते संथारो ॥२४८॥
जुत्ते पमाणरइओ, उभउकालपडिलेहणासुद्धो ।
विहिविहिओ संथारो, आरुहियव्वो तिगुत्तेणं ॥३४६॥
आरुहियचरित्तभरो, अन्लेसु उ परमगुरुसगासम्मि ¦
दव्वेसु पज्जवेसु य, खित्ते काले य सब्बम्मि ॥३५०॥
एएसु चेव ठाणेसु, चउसु सव्वो चडउव्विहाऽऽहारो ।
तबसंजसु तति किच्चा, बोसिरियव्वो तिगुत्तेणं ॥ ३५१ ॥
अहवा समाहिहेऊं, कायव्वो पाणगस्स आहारो ।
तो पाणगं पि पच्छा, बोसिरियव्वं जहाकाले ॥३५२॥
निसिरित्ता अप्पाणं, सनव्वगुशसमनियम्मि निजवए ।
सथारसनिविद्धो, अनियाणो चेव विहरिजा ॥३५३॥
इहलोए परलोए, अनियाणो जीविए य मरणे य ।
वासीचदणकमप्पो, समो य माणाऽवमाणेसु ॥ ३५४॥
( १७२ )
भरण भिधानराजन्द्रः।
मरण
अह महुरं फुडवियडं, तहप्पसायकरणिजविसयकयं ।
इज कटं निज़वओ, सुसमनाहरण्देड ॥ २३५५ ॥
इहलोए परलाए, नाणचरणदंसणम्मि य अवायं ।
दंसेइ नियाशमि य, मायामिच्छत्तसछेण ॥ ३५६ ॥
बालमरणे अवाय, तह य उवायं अवालमरणम्मि ।
उस्सासरज्जुवेहा-णसे य तह गिद्धपट्टे ॥ ३५७ ॥
जह य अणुद्धियसल्लो, ससल्लमरणेण केइ मरिऊण ।
दंसणनाणविहृणो, मरंति असमाहिमरणेणं ॥ ३५८ ॥
जह सायरसे गिद्धा, इत्थि अहंकारपावसुयमत्ता |
ओसन्नबालमरणा, भम॑ति ससारकंतारं ॥ ३५६ ॥
अह मिच्छत्तससन्ना, मायासछिण जह ससल्ला य |
जह य नियाणससहा, मरति असमाहिमरणेणं ।२६०।
जह वेयणावसङा, मरति जह केइ इंदियवसडा ।
जह य कसायवसट्टा, मरंति असमादिमरणेणं ॥२६१॥
जह सिद्धिमग्ग दुग्गइ-सग्गग्गलमोडणाणि मरणाणि।
मरिऊण केइ सिद्धिं, उविति सुसमाहिमरणेणं ॥३६२॥
एवं बहुप्पयारं, तु अवारयं उत्तमष्ट्रकालम्मि ।
दंसंति आवयण्णू , सल्लुद्धरणे सुविहियाणं ॥३६३॥
दिंति य सिं उवएसं, गुरुणो नाणाविहेहिं हेऊहिं ।
जेण सुगई भयतो, संसारभयदुओ होई ॥ ३६४॥
न हु तेसु वेयं खलु, अहो चिरम्मि त्ति दारुं दुक्खं ।
सहणिज्जं देहेणं, मणसा एवं विचितिज्जा ॥ ३६५ ॥
सागरतरणत्थ मई, इयस्स पोयस्स जए धूते ।
जो रज्जुमुक्छकालो,न सो विलंब त्ति कायव्वो ॥३६६॥
तिन्नविहूणो दीवो, न चिरं दिष्य जगंमि पचक्खं ।
न य जलरहिओ मच्छ, जिअइ चिरं नेव पडमाई ॥३६५७॥
अन्नं इमं सरीरं, अननोऽहं इय मणंमि ठाविज्जा।
जं सुचिरेणऽवि मों, देहे को ? तत्थ पडिबंधो ॥३६८।
दूरत्थं पि विणासं, अवस्सभावं उवद्ियं जाण ।
जो अह बड्ड कालो,अणागओ इत्थ आसिण्हा ।२३६६।
जं सुचिरेण वि होहिइ, अणावसंतम्मि को १ बमीकारो।
देहे निस्संदेहे, पिएऽवि सुयणत्तणं नऽत्थि ॥२७०।
उवलद्धो सिद्धिपहो, न य अणुचिष्मो पमायदोसें ।
हा जीव ! अप्पवेरिय !, न हु ते एयं न तिप्पिहिइ ।।२७१॥
नऽत्थि य ते संघयणं, घोरा य परीसहा अहे निरया ।
संसारो य असारो, अहप्पमाच्रो अ तं जीव ! ॥३७२॥
कोहाऽऽहकसाया खलु, बीयं संसारभेरवदुहां ।
तेस पमत्तेसु सया, कत्तो खुक्खो य मुक्खो वा ? ॥३७३॥
जाओ परव्वसेण, संसारे वेवणाओ घोराओ ।
पत्ताओ नारगत्ते, अहुणां ताओ विचिंतिज्जा ।३७४॥
इरिह सयं वासेस्स उ, निरुवमसुक्खावसणमुहकडय ।
कल्लाणमोसहं पिव, परिणामसुहं न तं दुक्खं ।२७५॥
संबधिवेधवेसु अ, न य अणुराओ खण पि कायव्वो ।
ते च्चिय हुति अमित्ता, जह जणणी बंभद स्स ।३७६।
वसिऊण व सुहिमज्के, वच्चइ एगाणिओ इमो जीवो ।
मुत्तण सरीरघरं, जह कण्हो मरणकालम्मि ॥२७७॥
इरिह व मुहत्तेणं, गोसे ब व सुए व अद्धरत्ते वा |
जस्स न णज्जइ बेला, कदिवसं ? गच्छ जीवो ॥३७८॥ `
एवमणुचितयंतो, भावणुभावाणुरत्तसियलेसो ।
तदिवसमरिउकामो, व होई ाणम्मि उज्जुत्तो ॥३७६॥
नरग-तिरिक्खगईसु य, माणुसदेवत्तणे वरसंतेशं ।
ज सुहदुक्खं पत्तं, तं अणुचितिज संथारे ॥२८० ॥
'नरएसु वेयणाओ, अणोवमा सीयउण्हवेराओ ।
कायनिमित्तं पत्ता, अणतखुत्तो बहुविहाओ ॥३८१॥
देवत्ते माणुस्से, पराहिओगत्तरं उवगएणं ।
दुक््खर्परिकिलिसविही, अणंतखुत्तो समणुभूया ॥२८२॥
भिन्िंदिय पंचिंदिय-तिरिक्खकायंमि5णेगसंठाणे ।
जम्मणमरणरहडं, अरशंतखुत्तो गओ जीवो ॥ रे८३॥
सुविहिय ! अईयकाले, अणंतकाएसु तेण जीवेणं ।
जम्मणमरणमणंतं, बहुभवगहणं समणुभूयं ॥२८४॥
घोरम्मि गन्भवासे, कलमलजबालअसुइवीभच्छे ।
वसिओ अशणंतखुत्तो, जीवो कम्माणुभावेणं ॥ ३८५ ॥
जोणीमुहानेग्गच्छ-तेण संसारे इमेण जाबिण ।
रसि्यं अइवीभच्छं, कडीकडाहंऽतरगएणं | २३८६ ॥
जं असियं वीभच्छ, असुई घोरम्मि गब्भवासम्मि ।
तं चिंतिझण य सय॑, युक्खमि मई निवेसिज्ञा ।॥३८७॥
वासिऊण विमाणेसु य, जीवो पसरंतमणिमऊहेसु ।
वसिच्रो पुणो वि सुचिय,जोणिसहस्संऽधयारेसु ॥३८८॥
वसिऊण देवलोए, निच्चुजोए सर्यपभे जीवो ।
वसह जलवेगकलमल-विउलवलयागुहे घोरे ॥२८६॥ '
वसिऊण सुरनरीसर-चामीयर रिद्विमणहरघरेसु ।
वसिओ नरगनिरंतर-भयभेरवपजरे जीवो ॥३६०॥
वसिऊण विचित्तेसु अ, विभाखगणभवशणसोभसिहरेस ।
वसई तिरिएसु गिरिगुह-विवरमहाकंदरदरीसु ॥२६१॥
भत्तूण वि भोगसुहं, सुरनरखयरेसु पुण पमाएण ।
पियह नरणएसु भेरव-कलंततउतंबपाणाई ॥ ३६२ ॥
सोऊण मुइयणरवइभवे, अ जयसदमगलरवोषं ।
सुणइ णरणस दुहपर-मक्रदुदामसदाईं ॥२६२॥
निहण हण गिएह दह पय-उब्बंध पव॑ वंध रुधाद्धार्हि ।
फाले लोले बोले, थूरे खारेहि से गततं ॥ २६४ ॥
8 १४४ )
५
अशभिधानराजन्द्रः ।
मरण
बेयरणिखारकलिमल-वसल्ंङुसलकरकयङुलसुं ।
वसिओ नरएसु जीओ ,हण हण .घणधोरसदेसुं ।२६५॥
तिरिएसु व भेरवसद् -पक्खणपरवक्खणच्छणसणएसु । |
वसिग्रा उचव्वियमाणो, जीवो इडिलम्मि संसारे ॥२६६॥ |
मणुयत्तणे5वि बहुनिह-विशिवायसहस्सभेसशघणंमि ।
भोगपिवासाणुगओ, वसिओ भयपंजर जीवो ।२३६५७॥
वसियं दरीसु वसियं, गिरीसु वसियं समुदमज्भेसु ।
रुक्ख 5ग्गेसु य वसियं, संसारे संसरंतेण ॥३६८॥
पीयं थणअच्छीरं, सागरसलिलाओ बहुयरं हुज्जा ।
संसारंमि अणंते, माईणं अष्पमघ्याणं ॥ ३६६ ॥ |
नयणोदगं पि तासिं, सागरसलिलाओ बहुयरं दुजञा | |
गलियं रुपयमाणीणं, माईणं अष्पमष्याणं ॥४००॥
नअत्थि भयं मरणसमं, जम्मणसरिसं न विजणए दुक्खं । |
तम्हा जरमरणकर, छिंद ममत्तं सरीराश्रो ॥ ४०१॥
अननं इमं सरीरं, अष्पो जीवु त्ति मिच्छियमईओ ।
दुक्खपरिकिलेसकरं, छिंद ममत्त सरीराश्रो ॥ ४०२ ॥ |
जावहयं किच दृं, सारीरं माणसं व संसारे ।
पत्तो अणंतखुत्तो, कायस्स ममत्तदोसेणं ॥ ४०३ ॥
तम्हा सरीरमाई, अब्भितर बाहिरं निरवसेसं ।
छिंद ममत्तं सुविहिय |, जई इच्छसि मुचि दुहाणं ।४०४।
स्वे उवसग्गपरी ` सहे य तिविहेण निजिणाहि लद । |
एएसु निद्धिएसं, होहिसि आराहओ मरणे ॥४०५॥
मा हुय सरीरसंता-विओ अ ते भादि अट्टरुद्दाई ।
सुद्रंघवि रूवियलिंगे, वियट्रुद्याणि स्वंति ॥४०६॥
मित्तसयबंधवाइस, इट्टाणिट्टेस इदियज्त्थसुं ।
रागो वा दोसो वा, ईसि मणेणं न कायव्वो ॥४०७॥
रगाऽभऽ्यकेसु पणो, विउलासु य वेयणा्सेँइन्नासु ।
सम्म अहियासंतो, इणमो हियएण चितिजञा ॥४०८॥
ब्रह पलियसागराई, सड्भराश मे नरयतिरियजाइसु । |
किं? पुण सुहावसाणं, इणमो सारं नरदुहंति ॥ ४०६ ॥ |
सोलस रोगाऽऽयंका, सहिया जह चकिणा चड़त्थेणं ।
वाससहस्सा सत्त उ, सामष्पधरं उवगएणं । ४१० ॥
तह उत्तमऽदूकाले, ददे निरवक्खछयं उवगएशं ।
तिलछित्तलावगा इव, आयंका विसदियव्वान्रो ॥४११॥ |
पारियवायगभत्तो, राया पट्टीइ मद्धो महो । |
|
अच्चुणह परमन्न, दासी य य सुकोवियमणूसा ॥४१२॥ |
सा य सलिलुल्ललादहिय मसवसापसिथिग्गलं पिततं ।
उप्पहया पट्टीओ, पाई जह रक्खसवहु व्व ॥४१३॥
तेण य निव्वेएणं, निगगंतृणं तु सुविहियसगासे ।
आरुहियचरित्तभरो, सीहो रसियं समारूढो ॥४१४॥
तमि य महिहरसिहरे, सिलायले शिम्मले महाभागो ।
वोसिरई थिरपदन्नो, सव्वाहारं महतखू य ॥४१५॥
तिविहोवसग्गसहिउं, पडिमं सो अद्रमासियं धीरो ।
ठाई य पुव्वाऽभिखुहो, उत्तमाधिइसत्तसंजुत्तो ॥४१६॥
सा य पगतंतलोहिय-मेयवसामंसल परीपद्टी ।
खज़इ खगहि ` दूसह, निसइचंचुप्पहारेहिं ॥४१७॥
मसएहिं मच्छियादि य, कीडीहि वि मंससंपलग्गाहिं।
खज्ञतो वि न कंप, कम्मविवार्ग गणेमाणों ॥४१८॥
` रत्ति च पयइ विहसिय, सियालियाहिं णिरणुकंपाहिं ।
उवसग्गिजर धीरो, नाणाविहरूवधाराहिं ॥४१६॥
चिंतेद य खरकरवय-असिपंजरखग्गझुग्गरपहाओ ।
इणमे न हु कटूयरं दुक्खं निरयउग्गिदुक्खवाओ ॥४२०॥
एवं च गओ पक्खो, वीओ पक्खो य दाहिणदिसाए ।
अवरेण5वि पक्खो वि य, समइकंतो महेसिस्स ।४२१॥
तह उत्तरेण पक्खं, भगवं अविकंपमाणसो सहई ।
पडिओ य दुमासंते, नमो त्ति वृतु जिशिदाणं , ४२२॥
कंचणपुरंमि सिट्टी, जिशधम्मो नाम सावओ आसी ।
तस्स इसे चरियप्य, तउ एयं कित्तिमग्मणिस्स ॥४२३१
जह तेण वितथ मुणिणा, उवसग्गा परमदृसहा सहिया।
तह उपसर्गा सुविहिय !, सहियव्वा उत्तमइंमि ।।४२४॥
निष्फेडियाणि दृष्पि पि,सीसाऽभ्वेदेण जस्स अच्छीणि ।
न य संजमाउ चलिओ,मेअजो मंद्रगिरि व्व ॥४२५॥
जो कुचगाऽवराहे, पाणिदया कुंचर्ग पि नाऽऽद्क्खे ।
जीवियमणुपेहतं, मेयज्ञरिसिं नमंसामि ॥४२६॥
जो तिहि पएहि धम्म, समहगओ संजम समारूढो |
उवसमविवेगसंवर, चिलाइपुत्त नमसामि ॥ ४२७ ॥
सोएहि ` अइगयाओ, लोदियगंधेण जस्स कीडीओ ।
खायंति उत्तमगे, तं दुकरकारयं वदे ॥४२८॥
देहो पिपीलियाई, चिंलाइपुत्तस्स चालणि व्व कओ |
तणुश्रोऽवि मणपश्रोसो,न य जाओ तस्स ताणुर्वार।४२६।
धीरो चिलाइपुत्तो, मूहेगलियाहिं चालणि व्व कओ ।
न य धम्माओ चलिओ, तं दुक्ररकारयं वंदे ॥४३०॥
गयसुकुमालमहेसी, जह दड़ो पिइवशमि ससुरेण ।
न य धम्माओ चालिओ, त॑ दुकरकारयं वंदे ॥४२१॥
जह तेण सो हुयाऽसो, सम्मं अईरगद्सओ सहिओ ।
तह सदहियव्वो सुविहिय !,उवसग्गो देददुक्खं च ॥४३२॥
केमलामेलाऽऽहरणे, सागरचद्ाष्दाह , नभसेण ।
आगंतृण सुरत्ता, संपइ संपाइणो वारे ।॥ ४२२ ॥
जायस्स खमा तया, जो भावो जा य दुकरा पडिमा ।
( १४५ .)
मरण अभिधानराजन्द्र:। मरण.
तं अणगारगुणागर !, तुमे पि हियएण चिति ।४३४। |
सोऊण निसासमणए, नलिणिविमाणस्स वष्पणं धीरो ।
संभरियदेवलोग्रो, उज्जणि अवंतिसुकुमालो ॥ ४३५ ॥
षिचुण समणदिक्खं, नियमुज्िय सव्वदिव्व्राहारो । |
बाहिं वंसकुडंगे, पायवगमणं निवन्नो उ ॥ ४२६ ॥
वोसइनिसट्ंगो, तहिं सो श्ुल्लुंकियाइखइओ उ । ,
मदरगिरिनिकंषं, तं दुकरकारयं वदे ॥ ४३७ ॥
मरणंमि जस्स सुकं, सुकुसुमगधोदयं च देवेहि ।
अज्ञ वि गंधवई सा, तं च कुडंगी सरदार ॥ ४३८ ॥
जह तेण तत्थ युणिणा, सम्म समणेण इंगिणी तिरा । |
तह तृरह उत्तम, तं च मणे संनिवसह ॥ ४२६ ॥
जो निच्छएण गिणहइ, देहच्चाएवि न अद्यं कुणइ । |
सो साहेइ सकज्ज, जह चंदवर्डेसओ राया ॥ ४४० ॥
दीवाभिग्गहधारी, दूखह घणविणयनिच्चलनगिंदो ।
जह सो तिननपडप्पो, तह तरह त॒म पहन्नम्मि ॥४४१॥ |
जह दमदेतमहेसी, पंडयकारवयुणी थुयगरहिओ ।
आसि समो दुण्हं पि हु, एव समा होह सव्वत्थ ।४४२।
जह खदगसीसेरि, सुकमहाफाणसंसियमशेरिं ।
न कओ मणप्पओसो, पीलिज॑तेसु जतम्मि || ४४३ ॥ |
तह धन्नसालिभद्दा, अणगारा दो वि तबमहिड्डीया ।
वेभारगिरिसमीचे, नालंदाए समीर्वेमि ॥४४४॥
जुअलसिलासंथारे, पायवगमणं उवगया जुगवं ।
मास अरूणगं ते, वोसटनिमटसव्वंऽगा ।। ४४५ ॥
सीयायवऽऽभडियऽगा, लग्गुद्धियमसण्हारुणि विणट्ठा |
दोऽवि अणुत्तरवासी, महसिशो रिद्विसपषा ॥ ४४६॥
अच्छरय-च लोए, ताण तहिं देवयाउणुभावेण ।
्रज्ञऽवि अट्विनिवेर्स, पकिव्व सनामगा हत्थी ॥४४७)।
जह ते समं सचम्मे, दुबलविलग्गेऽवि णो सयं चलिया । |
तह अहियासेयव्वं, गमणे थरवपिमं दुक्खं ॥ ४४८ ॥
अयलग्गाम कुडबिय, सरहयसयदेवसमणयसुभद्दा ।
सव्वे उ गया खमग्, गिरिगुहनिलयनियच्छीय ।४४६॥। |
ते तं तवोकिलत, वीसामेऊण पिखयपुव्वागं ।
उवलद्धयुष्पपावा, फ़ासुयसुमहं करेसीह' ॥ ४५० ॥
सुगहियस्रावयधम्मा, जिणमहिमाणेसु जशणियसोहर्णा |
जसहरमु॒णिणो पासे, निक्खता तिव्वसंवेगा || ४५१ || |
सुग्रिहियाजिणवर्बशाउमय -परिपुट्टा सीलस॒रहिगंधडड़ा ।
विहरिय गुरुस्सगासे, जिणवरवसुपुज्जदित्थस्मि ।४५२॥
कणगाज्वलिशुत्तावलि-रयणावलिसाहकीलियकलंता | |
काहीय सर्सवेगा, आयबिल उट्माणं च॥ ४४३ ||
२३७
सरिया य मणोहर- सिहरंतरसचरतपुक्खरय ।
इकरचलणपंकय-सिरसेवियमालंहिमवतं ॥ ४५४ ॥
रमशिजहरयतरुवर-परहुअसिहि ममर महंर्यारिविलोले ।
अमरागेरिविसयमणहर,जिणवयणसकाणणुदसे!।४ ४ ५॥
तस्मि सिलायलपुहवी, पंच वि देहट्विइस मुशियत्था ।
कालगया उबवष्मा, पंच वि अपराजियविमाण ॥४५६॥
ताओ चइऊण इर, भारहवासे असेसरिउदमणा।
पंडनराहिवतणया, जाया जयलच्छिभत्तारा ॥ ४५७॥
ते कण्हमरणदूसह-दुक्खसमृप्पन्नतिव्वसंवेगा ।
सद्धियथरसगासे, निकर्खता खायकित्तीया ॥ ४५८ ॥
जिट्टो चरदसपुव्वी, चउरो इकारसं5-गवी आसी ।
विहरिय गुरुस्सगासे, जसपडहभरंतजियलोया ।॥४५६॥
ते विहरिऊुण विहिणा, नर्वारे स॒र॒द कमेण संपत्ता ।
सोऽ जिणनिव्वाणं भत्तपरिन्न करेसी य । ४६० ॥
घोरा5भिग्गह धारी, भीमो कुंत5ग्गर्गहियमिक्खाओ ।
सत्तंजयसेलसिहरे, पा ओवगओ गयभवोधों ॥ ४६१ ॥
पुव्वविराहियवंतर-उवसग्गसहस्समारुयनरगिंदो ।
अविकंपो आसि पुणी, भाईणं इकपासम्मि ॥ ४६२॥
दो मासे सैपु, सम्मं धिव्धणियवद्धकच्छाओ ।
ताव उवसग्गिग्रो सो,जाव उ परिनिव्वुओ भगवं ।४६३।
ससा वि पंड्पुत्ता, पाओवगया उ निव्वुया सव्व !
एवं धिदसंपष्या, त्रे वि दुहाओ पुति ॥ ४६४ ॥
दंडो वि य अणगारो, आयावशभूमिसंटिओं वीरो ।
सहिऊण बाणधायं, सम्म परिनिव्वुओ भगवं ४६५
सेलम्मि चित्तकूडे, सुकोसलो सुदट्टिओ उ पडिमाए |
नियजणणीए खइओ, वग्धीभाव उवगयाए ॥ ४६६ ॥
पडिमायगओ अ मी, लंबेस ठिओ बहूसु ठाणेसं ।
तह वि य अकलुसभावो, साहु खमा सव्वसाहूणं ।४६७॥।
पंच सया परिवुडया, वद्ररिसी पव्वए रहावत्ते ।
म्ण खुडगं किर, अन्नं गिरिमस्सिओ स॒जसो ।।४६८॥
तत्थ य सो उबलतले, एगागी धीरनिच्छयमइओ ।
वासिरिञण सरीरं, उण्हम्मि ठिआ वियप्पाणों ।४६६॥।
ता सो अइसुकुमालो, दिणयरकिरण5ग्गितावियसशीरो ।
हविषिंड व्व विली णो, उववष्पो देवलोयम्मि | ४७०॥
तस्म य सरीरपूर्य, कासीय रहेहि लोगपालाओ ।
तेर रहावत्तगिरी, अज्ञ वि सो विस्परश्रो लोए ॥४७१॥
भगवं पि वइरसामी, विश्यगिरिदेवयाइकयपूओं ।
सषूरप्नोत्थ मरणे, ठुजरभ॑रिएण सक्ेण ॥ ४७२॥
(इयसुविहियंदेहो, पयाहिखं कुंजरेण तं सेलं ॥
कर सीय सुरबरिदो, तम्हा सो ई जरावत्तो । ४७३॥
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( १४६ )
मरण
अभिधानराजन्द्रः।
व
तत्ता य जोगसंगह-उवहाणक्खाणयाम्मि कोसंबी |
रोहगमवंतिसेणो, रुज्मेह मणिप्पभों भासों || ४७४॥
धम्मगस॒र्सीलजुयलं, धम्मजसे तत्थऽरष्पदेसम्मि।
भन्तं पचक्खाइय, सेलम्मि उ वच्छगातीरे ॥ ४७५ ॥
निम्मम निरहंकारो, एगागी सेलकंदरसिलाए ।
कासीय उत्तमं, सो भावो सव्वसाहणं || ४७६ ॥
उण्हम्मि सिलावडू, जह तं अरदष्पएण सुकुमालं | |
विग्धारियं सरीरं, अणुरचितिज्जा तमुच्छाह ॥ ४७७ ॥
गुब्बर पाओवगओ, सुबुद्धिणा णिग्धिणिण चाणको।
दड़ो नय संचलिओ, साहू घिदर्चितणिज्जाओ ॥४७८॥
जह सो5विसप्पएसी, वोसट्टनिसिट्ठ चत्तंदेहो उ ।
वंसीपत्तेहिं विनि-ग्गएहि आगासमुक्खित्तो ॥४७६॥
जह सा बत्तीसघडा, वोसट्टनिसट्टचत्तदेहागा ।
धरा वाएण उ दी-वएण विगालिम्मि ओलइया ॥४८०॥
जतेण करकणण व,सत्थेहिं व सावएहि विविहेहिं।
देहे बिद्धस्संते, ईसि पि अकप्पणारुमणा | ४८१ ॥
पडणीययाई केसिं, चम्मंसे खीलएहि निहणित्ता।
महुघयमाक्खियदेहं, पिवीलियाणं तु दिज्ञाहिं ॥४८२॥
जण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
सुब्बइ हु ससंवेगो, इत्थ इलापुत्तादि तो ।॥ ४८३ ॥
समुइस्मसु य सुविहिय !, घोरेसु परीसहेस सहणेशं ।
सो अत्थो सरणिज्ञो, जऽधी्रो उत्तरऽञ्छयणे ॥४८४॥
उञ्जेणि दत्थिमित्तो, सत्थसमग्गो वणम्मि कटं ।
पयहरो संवरण-चिल्लगभिक्खावणसुरेयु ।। ४८५ ॥
तत्थेव य धणामित्तों, चल्लगमरणं नई तण्हाए ।
निच्छि्ययुऽणज्जत- विंटियच्विस्सारणं कासि ॥४८६॥
माणि-चंदेण विदिष्पस्स, रायगिदिपरिसहो महाघोरो ।
जन्तो हरिवंसविहू, सणस्स वृच्छं जिरिदस्स ॥४८७॥
रायगिहनिग्गया खलु, पडिमापडिवन्नगा मुणी चउरो ।
सीय विहय कमेणं, पहरे पहरे गया सिद्धिं ॥ ४८८ ॥
उासिणे तग्ररहन्ग-चपामसएसु सुमणभदरिसी |
खमसमंण अजरक्खिय,अचेल्लय यत्ते य उजेणी।।४८६॥
अरई य जाइस्करो, भव्यं! अ दुलहबोहीओ |
फोरसबीए कहिओ।, इत्थीए थूलभदरिसी ॥ ४६० ॥
कुन्नइरंमि य दत्तो, चरियाइपरीसहे समक्खाओ । |
मिट्टिसुयतिगिच्छणरणं, अगुलदीवो य वासाम्मि ।४६१॥ |
गयपएुरकुरुदत्तसमओं, निसीहिया अडविंदेसपडिमाए। |
गाविकुविएण दड़, गयसुकुमालों जहा भगव ॥४६२॥ ।
तो अणगारा घिज्ञा-इयाह कोसंबिसोमदत्ताइ । |
पाश्चोवगयाणःदेशे, सिज्ञाए सागरे दढा || ४६३॥ ।
महुराइमहुरख मओ, अक्ोसपरीसहे उ सविसेसो ।
वीओ रायगिहम्मि उ, अज्जञणमालारादि दतो ॥४६४॥
कुम्भारकड नगरे, खदगसीसाण जतपीलणया ।
एवं विहे कटिजई, जह सहिये तस्स ससेदं ॥ ४६४ ॥
तह णणाणवृत्त, गीए संपटियस्स समुयाणं ।
तत्ता अलाभगम्मि उ, जह कोहं निज्ेणे कणो ।४६६।
किपिपारासरटंढो, बीय तु अलाभगे उदाहरणं ।
कणहबलभदमन्नं, चहऊण खमान्निओ सिद्धा ॥४६७॥
महुरा जियसत्तुसुओ, अणगारो कालवेसिओ रोगे ।
मोग्गन्लसलसिहरे, खड किल सरासियालेण ।।४६८॥
सावत्थी जियसत्तू तणवो निक्खमणपडिमतणफासे ।
वीरिय पविय विकच, सलसणकडूणासहणं ।४६६॥
चपास॒ शदगं चिय, साहुदुगुछाइजन्नखउरंगे ।
कोसंबी जम्मानिक्खमण- वेयं साहुपडिमाए ॥५००॥
महुराइ ईददत्तो, सकारा पायछेयणे सड़ो |
पन्नाइ अज़कालग, सागरखमणो य दिद्वंतो ॥५०१॥
नाणे असगडताओ, खंभगनिधि अणहियासणे भदो ।
दंसणपरीसहाम्मिउ, आसादभूर उ आयरिया ॥५०२॥
चरियाए मरणंमि उ, समुइणणपरीसहो भुणीएवं ।
भाविज्ञ निउणजिणमय-उवएससुईइअप्पाणं ॥५०३॥
उम्मग्गसंपयायं, मणहत्थि विसयसुमरियमणंतं ।
नाणंकुसेण धीरो, घरेइ दित्तंपि व गईद ॥ ५०४ ॥
एए उ अहाघ्ररा, महिड्डिएको ब भाणिउं सत्तो १। -
कि बातिमूवमाए, जिणगणधरथेरचरिएमुं ॥ ४०५ ॥
कि चित्तं जह नाणी, सम्महिद्टी करति उच्छाहं ।
तिरिणहिवि दुरणुचरो, कहिवि अणुपालिओ धम्मो ४०६
अरुणसिहं दुशं, मच्छोसप्मी महासमुदंभि ।
हाण गहिउ त्ति काले, भसात्ति संवेगमावत्मो ॥५०७॥
अष्पाणं निंदंतों, उत्तारेझणं-महन्नवजलाओ ।
सावजजोगविरओ, मत्तपारेष्यं करेसी य ॥ ५०८ ॥
खगतंडभिन्देहो, दूसदसूरग्गितावियसरीरो ।
कालं काऊण सुरो, उववन्नो एव सहणिज्ञं ॥ ५४०६ ॥
सो वानरंजूहवई, कंतारे सुविहियाऽणुकपाए |
भासुरवरबुदिधरो, देवो वेमाणिओ जाओ ॥ ५१० ॥
तं सीहसेणगयवर-चरियं सोऊण दुकरंऽरषमे £ |
को हु णु तवे पमायं, करेज़ जाओ मणुस्सेसुं ! ॥५११॥
भ्रुयगपुरोहियडको, राया मरिऊण सल्लइवणमि ।
सुपसत्थगंधहत्थी, बहुमयगयभेलणों जाओ ॥५१२॥
सो सीहर्चदमुणिवर-पडिमापडिबोटि्मो सुसंवेगो ।
पाणवहाउलियचोरिय-अब्बं भपरिग्गहनियत्तो ॥५१३॥
( १४७ )
मरण 9 श्मभिधानराजन्द्रः सरण
रागदासनियत्तो, छट्रक्डमणस्स पारणे ताह | | सव्वाऽवि अ अज्जाओ,सब्वेडवि य पठमसंघयणवज्ञा ।
आसासऊणं पड, आयवतत्त जलं पासी ॥ ५१४ ॥ सव्वे य दसविरया, पचक्खाणण य मरंति ॥ ५४१ ॥
खमगत्तण निम्मंसो, धवणिसिरो जालसंतयसरीरो । | सब्वसुह्पमवाओ, जीवियसाराओ सव्वजशिगाओ।
विहरिय अप्पप्पाणो, मुणिउवएसं विचितंतो ॥ ५१५॥ | आहाराओ रयणं, न विजरए उत्तमं लोए \॥ ५४२ ॥
सो अन्नयाणिदाहे, पंकोसन्नो वणं निरुत्थारो । ` | विग्गहगए य सिद्धे, मुत्त लोगंमि जम्मिया जीवा ।
चिरवेरिएण दिद, कुकडसप्पेण घोरेणं ॥ ५१६ ॥ | सव्वे सव्वाऽवत्थं, आहारे हुति आउत्ता॥ ५४३ ॥
जिणवयणमणुगुशितो, ताहे सव्वं चर्डव्वहाऽऽ्हारं । | तं तारिसगं रयणं, सार॑जं सव्वलोयरयणाणं ।
वोसिरिऊण गरदो, भवे जिशे नमंसीय ॥ ५१७॥ । सव्यं परिचइत्ता, पाओवगया पविहरंति ॥ ५४४ ॥
तत्थ य वणयरसुरवर, विम्हियकीरंतपूयसकारो । | एयं पाञ्चावगर्म, निप्पडिकम्मं जिणेहिं पन्नत्तं ।
मज्भत्थो आसी किर, कलहेसु य जज़रिज्जंतो ॥५१८। | तं सोउशं खमओ, ववसायपरकमं कुणई ॥ ५४५ ॥
सम्मं सहिऊण तञ्र, कालगओ सत्तमेमि कर्प्पमि । | धीरपुरिसपन्नत्ते, सप्पुरिसनिमेविए परमरम्म |
सिरितिलयंमि विमाणे, उकोसठिई सुरो जाओ ॥५१६॥ धण्णा सिलायलगया, निरावयक्खा शिवज्ञति ॥५४६॥
सुयदििवायकटियं, एयं ्क्वाणयं निसामित्ता। | सुव्वंति य अणगारा, घोरासु भयाणियासु अडवीसुं ।
पंडियमरणंमि मई, ददं निवेसिजभवेणं ॥ ५२० ॥ गिरिकुहरकंदरासु य, विजणेस य सुक्वटट्सुं ॥ ५४७ ॥
जिणवयणमणुस्सटा, दोऽवि भ्रुयगा महाविसा घोरा । धीधणियबद्धकच्छा, भीया जरमरणजम्मणसयाणं ।
कासीय कोसियासय, तरस भतं मुइंगाणं ॥५२१॥ सलसिलासयणत्था, साहंति उ उत्तमद्ाई ॥ ५५४८ ॥
एगो विमाणवासी, जाओ बरविजपंजरसरीरो | दीवाददहिऽरप्पसु य, खयरा वहियास पुणरवि य तासु ।
बीआ। उ नद णकुल, बलु त्ति जक्खो महि ड ।॥५२२॥ कमलसिरीमहिलादिसु, भत्तपरिन्ना कया थीस ॥५४६॥
दिमचृलसुरुप्पत्ती, मदगमहिसी य धूलमद्। य । | जई ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमकडगदुग्गासु ।
| वेरोसवसमे कहणा, सुरभावे दंसणे खमणो ॥५२३॥ | साहिंति उत्तमट्ट, घधिइधणियसहायगा धौरा ॥ ५५० ॥
| बावीसमाणुपुच्वि, तिरिक्वमणुयावि भेसणडाए । | कि पुण अणगारसहा-यगेण अमन्नसंगहबलेणं ।
| विसया5णुकंपरक्खण, करेज़ देवा उ उवसग्ग ॥५२४॥ | परलोए य न सका, सहेउं अप्पणो अदं १॥ ५५१ ॥
| संघयणधिईजुत्तो, नव दस पुव्वी सुएण अगा वा। | समुइननेसु अ सुविहिय !, उवसग्गमहब्भयेस॒ बिविहेस ।
| इंगिणि पाओवगमं, पडिवज़इ एरिसो साह ॥ ५२४५॥ | हियएण चितणिजं, यण निही एस उवसग्गो ।॥ ५५२ ॥
निचल निप्पडिकम्मो, निक्खिवए जं जहिं जहा अंग । किं जायं जइ मरणं, अहं च एगागिओ इहं पाणी ।
एयं पाओवगमं, सनिहारिं वा अनीहारिं ॥ ५२६॥ | वसिओ हूं तिरियत्ते, बहुसो एगागिओ ऽरण्ये ॥५५३॥
( अन्नत्याः पादोपगमनविषयिका अष्ट गाथाः ' पाओवग- वसिऊण वि जणमज्मे, वई एगागिओ इमो जीवो ।
मण शब्दे बृहत्कल्पोक्ताः सव्याख्या गतास्तत एवावगन्तव्या:) | मुत्तर सरीरघरं, मच्चुमुहाउःकड्िझो सतो ॥ ५४४ ॥
देवोनेहेण णए, देवागमणं च इद गमणं वा । | जह वीहंति अ जीवा, विविहाण विहासियाण एगागी।
जहिय॑ इड कंता, सव्बसुह्दा हुंति सुहभावा ॥५३५॥ | तह संसारगएहिं, जीवेहिं विहेसिया अनने ॥ ५५४ ॥
उवसग्गे तिविहेडबि य, अणुकूले चव तह य पडिकूले | सावयभया5भिभूओ, बहुसु अडर्वासु निरभिरामासु ।
सम्मं अहियासंतो, कम्मक्खयकारओ होइ । ५३६ ॥ | सुरहिहरिणमहिससयर-करवोडियरुक्खछायास ।॥५५६॥
एयं पाओवगमं, ई गिणि पडिकम्मवप्पियं सुत्ते । गयगवयखग्गगंडय-वग्धतरच्छच्छभल्नचरियासु ।
तेत्थयरगणहरेहि य,साहृहि य सेवियमुयारं ॥ ५३७ ॥ भल्लुंकिकंकदीविय, सचरसन्भावकिषसु ॥ ५५७ ॥
सब्बे सब्बउद्भाएं, सव्वन्न् सव्वकम्मभूमीसु । । मत्तगईदनिवाडिय-मिन्लपुलिंदावकुंडियवणास ।
सव्बगुरू सव्वहिया, सव्व मेरूसु अहिसित्ता ॥ ५३८ ॥ वसिओड5हं तिरियत्ते, भीसणसंसारचारम्मि | ४५८ |
सव्वाहिउवि लद्धी हि, सव्रेऽवि परीसहे पराइत्ता । कत्थ य मुद्ध(मगत्ते, बहुसो अडवीसु पयईविसमास्र ।
सव्वेऽवि य तित्थयरा,पाओवगया उ सिद्धिगया॥॥५३६॥ वग्धपहाव डेएण, रसियं अइभीयहियएण ॥ ५५६ ॥
अवसेसा अणगारा, तीयपड्प्पन्नणागय। सव्वे । | कत्थइ अइदुप्विक्खो, भीसणविगरालघरवयणोाऽहं ।
केई पाओवगया, पचक्खाणिगिणि केई | ५४० ॥ । आसिमहं वि य विग्घों, सरुमदिमतगरनिदवन्यो ॥५६०॥
( १४८ )
अभनष्रानराजन्द्रः
क ~ कक
कत्थइ दुव्विहिएहिं, रक्खसंवेयालभूयरूवेहिं
छलिओ वहिओ थ अहे, मणुस्सजम्म॑मि निस्सारा।५६२१।
पयई कुडिलम्मि कत्थइ,संसारे पाविऊण भूयत्त ।
बहुसो उव्वियमाणों, मए दि वीहाविया सत्ता॥५६२॥
विरसं आरसमाणो, कत्थइ रस्ये सघाइओ अह ये |
सावयगहणंमि व, भयभीरूखुशिय चित्तो ऽदं ।५६३॥
पत्तं विचित्तविरस, दुक्खं संसारसागरगएयं ।
रसियं च असरणेणं, कयं तदंन॑तरगएणं ।। ५६४ ॥
तहया कीस न हायद, जीवो जह॒या संसाणपारिविद्धं । |
भल्लुकिकंकवायस-सणएसु ढोकिजए दह ॥ ५६५॥
ता तं णिज्ञिणिऊर्ण, देहं मुत्तण वच्चए जीवो ।
सो जीवो अविणासी, भणिओ तलकदं सीदि ॥५६६॥
तं जइ ताव न मुई, जीवो मरणस्स उच्वियतोऽवि ।
तम्हा मज्जन जुजह, दाउण भयस्स अप्पाणं ।।५६७७॥
एवमणुचितयंता, सुविहिय ! जरमरणभावियमईया ।
पावंति कयपयत्ता, मरणसमाहिं महाभागा ॥ ५६२८ ॥
एवं भावियचित्तो, संथारवर॑मि सुविहिय ! सयाऽवि । |
मवेहि भावणाओ, बारसजिणवयणदिद्वाओं ॥५६६॥ |
इह इत्तो चउरंगे, चउत्थमग्गं सुंसाहुधम्म॑मि । |
वज्नेह भावणाओ, वारसिमो वारसंगविऊ ॥ ४७० ॥
समणेण सावएण य, जाओ निच्चं पि भावशणिज्ञाओ। |
दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमइंमि ॥५७१॥
पढमे अणिच्चभावं, असरण ये एगयं च अन्नत्त | |
संसारमसुभया5वि य, विविहं लोगस्सहावं च ॥५७२। ¦
कम्मस्म आसवं सं-वरं च निज्ञरणमुत्तमे य गुणे। `
जिणसासणंमि बोहिं; च दुल्लहं चितए महमं ॥ ४७३ ॥ |
सव्वद्राणाइ असा-सयाई इह चेव देवलोगे य ।
सुरअसुरनराईणं, रिद्विषिसेसा सुहाई वा ॥ ५७४ ॥
मायापिदहहि ` सहव-इ्िएहि ` मित्तेहि पुत्तदारेहिं |
एगयआओ सहवासो, पीई पणओ वि अ अणिच्चो ॥५७५।।
भवरणेहिं व वर्णाहि य, सयणा55सशजाणवाहणाईहिं ।
संजोगो वि अणिचो,तह परलोगेहिं सह तेहिं ॥ ५७६ |
बलवी रियसूवजोव्वण, सामग्गिसुभगया वपूसोभा ।
दहस्स क = आरू, असास्य जीवि चव | ५७७ ॥
जम्मजरामरणभये, अभिदुए विविहवाहिसंतत्ते ।
लोगम्मि नऽन्थि सरणं, जिंगिदवरसासणं मुत्तं ॥५७८॥ |
आसेहि य हत्थीहि य, पव्वयमित्तेहि निच्चमित्तेहिं। |
सावरणपहरणेहि य, बलवयमत्तेहिं जेहिहिं ॥५७६॥
महया भडचडगरपह करेण अवि चक़नद्विणा मच्च् |
भरण
न य जियुपुव्वो केश 5३, नीइबलेणा5वि लोगंमि।। ५८०॥
विविहेहि मंगलेहि य, विज्ञामंतोसहीपओगेहिं |
न वि सका तारेउं, मरणाणऽवि रुप्ससोएहिं ॥ ५८१ ॥
पुत्ता मित्ता य पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य।
न समत्था ताएउं, मरणा सिदाऽवि देवगणा || ४८२॥
सयणस्स य मज्कमगओ, रोगाभिहओ किलिस्सई इहेगो ।
सयणोऽवि य से रोगं,न विरिंच नेव नासेह् ॥ ५८३ ॥
मज्भमि वधवाणं, इको मरइ कलुणरुयंताणं ।
नय णं ग्रनेति त्रो, बंधुजणो नेव दाराई ॥ ५८४ ॥
इको करेइ कम्मं, फलमवि तस्सकओ समणुहवरई ।
इको जायह मरइ य, परलोयं इक््कओ जाई ॥ ५८५ ॥
पत्तेयं पत्तेयं, नियगं कम्मफलमणुहवंताणं ।
कोकस्स जए सयणो?,को कस्स व परजणो भाशेत्रो? ५८६
को केण सम जायइ, को केण समं च परभवं जाई |
को वा करेइ किची, कस्स व को कं नियत्तेइ १॥ ५८७ ॥
अणुसोअह अप्मजण, अन्नभवं तरगयं तु बालजणो |
न वि सोयह अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥ ४८८
अन्न॑ इमं सरीरं, अरन्नोऽदं बंधवाऽविमे अन्ने |
एवं नाऊण खम, कुसलस्स न तं खमं कां १।५८६॥
हा ! जह मोहियमहणा, सुग्गहमग्गं अजाणमाणेणं ।
भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥ ५६० ॥
जोणिसयसहस्सेसु य, असयं जायं मयं वश्णेगासु ।
संजोगविप्पओगा, पत्ता दुक्खाण य बहाशि ॥५६१॥ .
सग्गेसु य नरगेसु य, माणुस्से तह तिरिक्खजोणाीसं ।
जायं मयं च बहुसो, संसारे संसरतेणं ॥ ५६२ ॥
निन्भत्थणाऽवमाणण, वहबंधणरुंधणा धणविणासो ।
ऽशेगा य रोगसोगा, पत्ता जाईसहस्सेसुं ॥ ५६३ ॥
सो नऽत्थि इहोगा सो,लोए बालऽग्गकोडिमित्तो वि ।
जम्मणमरणाऽबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्त ।५६४।
सव्वाणि सव्वलोए, रूवीदव्वाणि पत्तपुव्वाणि ।
दहोवक्खरपरिभो-गयाई दुक्खेसु य बहूसु ॥ ५६४ ॥
संबंधिबंधवत्ते, सव्वे जीवा अणेगसो मज्मं ।
विविहवहवेरजणया, दासा सामी य मे आपी ॥५६६॥
लोगसहाबो धी धी, जत्थ व मायामया हवइ धृया ।
पु्तोऽवि य होड पिया, पिया5वि पुत्तत्तणमुबइ ॥५६७॥
जत्थ पियपुक्तगस्सऽवि, माया छाया भवंतरगयस्स ।
तुदा खायह मंसं, इत्तो कि कट्टयरमन्न ! ॥ ५६२८ ॥
धी ससारोजषहियं, जुवाणश्रा परमरूवगव्वियओ ।
मरिऊण जायई किमी, तत्थेव कलेवरे नियए ॥५६६॥
बहुसो अणुभूयाईं, अइयकालम्मि सव्वदुक्खाई ।
„ (२५९)
_ अभिधानराजन्द्रः।
सरण
पाविहिइ एणो दक्खं,न करेहिइ जो जणो धम्मं ।६००। |
धम्मेण विणा जिणदे-सिएण नन्नत्थ अत्थि किचि सुहं ।
साशं वा कञ्ज वा, सदेवमणुयाऽसुरे लोए ॥ ६०१ ॥
धम्मं अत्थं कार्म, जाणिय कज्ञाणि तिनि मिच्छति |
ज तत्थ धम्मकज्ञ, तं सुभमियराणि असुभाणि ।६०२।
आयासकिलेसाणं, वेराएं आगरो भयकरो य |
बहुदुक्खदुग्गईकरो, अत्थो मूलं अणत्थाण ॥ ६०३ ॥
किच्छाहि पाविउं जे, पत्ता बहुभयकिलेसदासकरा ।
तक्खणसुहा बहुदुहा, संसारविवड्रणा कामा ॥६०४॥
नऽत्थि य इह संसारे, टां किचिऽवि निरुवदयं नाम ।
ससुराऽसुरसं मणुए, नरएसु तिरिक्डजाणीसुं ॥६०४५॥
बहुदुक्खपीलियाणं, मईमृढाणं अणप्पवसमाणं ।
तिरियाणं न5त्थि सुहं, नेरहयाणं कओ ? चेव ॥६०६॥
हयगब्भवासजम्मण-वाहिजरासरणरोगसोगेहि ।
अभिभूण माणुस्से, बहुदोसेहिं सुहमत्थि ॥ ३०७॥
मंस5ट्वियसंघाए, मुत्तपुरिसभरिये नवच्छिदे ।
असुं परिस्सवते, सुहं सरीरम्मि कि ? अत्थि ॥६०८॥
इंट्टजणविप्पओगो, चवणभयं चेव देवलोगाओ ।
एयारिसाणि सगे; देवाऽवि दुहि पार्विति.॥६०६॥
इसाबविसायमको-हलोहदोसेहि. एचमाईहिं ।
देवाऽवि समभिभूया,तेसु वि य कहं/सुहं अस्थि ।६१०।
एरिसयदोस एष्य, खुत्तो संसारसायरे जीवो ।
ज अचिर किलिस्सह, तं आसवहेउञअं सव्वं ॥६११॥
रागद्रोसपमत्तो, इंदियवसओ रेड कम्माईं ।
आसवदारेहि अवि- गुहेहि तिषिहेण करणेणं ॥६१२॥
धिद्धी मोहो जेणिह, हियकारों खलु सपावमायरह ।
न हु पावं हवइ दिय, विसं जहा जीवियऽत्थिस्स ॥६१३॥
रागस्स य द।सस्स य, धिरत्थु जे नाम सहृहंतो वि ।
पावेसु कुशइ भावं, आउरविज्ञ व्व अहिएसुं ॥ ६१४ ॥
लोभेण अहव घत्थो, कर्ज न गणइ आयअहिय॑ पि ।
अइलोहेण विणस्स, मच्छ व्व जहा गलगिलिओ । ६१५।
धम्म अत्थ कार्म, तिष्िऽनि बुद्धो जणो परिय ।
ताईं करेइ जेहि उ, किलस्सई इहं प्रभवे य॒ ॥६१६॥
हति अजुत्तस्स विणा-सगाणि पंचिदियाणि पुरिसस्स ।
उरगा इव उग्गविसा, रिया म॑तोसहि विणा ॥६१७॥
आसवदारेहि सया, हिंसाईएहि कम्ममासवह ।
जह नावाइबैणासे, छिद्देहिं जल॑ उयदिमञ्फे ॥६१८॥
कम्माऽऽसवदाराईं, निरुंभियव्वाईं इदि याई च |
हंतव्वा य कसाया, तिविहं तिविहेण मुक्खत्थं ॥६१६)॥
ताप आसवा मूलओ हया हुति ।
प्र
पप
|
5...
अहिया55होरे एके, रागा इव आउरजणस्स ॥ ६२० ॥
नाणेण य कारणेण य, तवोबलेण य बलानिरुभति |
इदियाविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जृहिं ॥६२१॥
हति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धणिय नियमियाई ।
नियगाणि इदियाई, जणो तुरगा इव सुदं ता ॥६२२॥
मणवयणकायजोगा, जे भिया करणसष्पिया तिप्ति।
ते जुत्तस्स गुणकरा, हंति अजुत्तस्स दोसकरा ॥६२३॥
जो सम्म भूयां, पासइ भूए अ अप्पभूए य |
कम्ममलेण न लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो ॥६२४॥
धरा सत्तहियाई, सुणंति धण्णा करंति सुणियाई ।
धष्पा सग्गइमग्गं, मरंति धएणा गया सिद्धि ॥६२५॥
धण्णा कलत्तनियले-हि विप्पमुका सुसत्तसंजुत्ता ।
वारीओव गयबरा, घरवारीग्रोऽवि निष्फिडिया ॥६२६॥
धण्णा उ करति तः, संजमजेगेहि कम्ममट्ट विहं ।
तवसलिलेणं मुशिणो, धुखंति पोराणयं कम्मं ` ॥६२७॥
नाणमयवायसहिओ, सीलुज्ञलिओ तवोमओ अग्गी ।
संसारकरणबी ये, दहईइ दवग्गी व तणरासि ॥ ६२८ ॥
` इणमो सुगइगइपहो, सदे सि उक््खओ जिणवरेहिं ।
ते धन्ना जे एयं पह-मणवज पवज्ञति ॥ ६२६ ॥
जाहि य पावियरव्व, इह-परलोए य होड कछायं ।
ता एयं जिशकहिय॑; पडिवजह भावओ धम्मं ॥६२०॥
जह जह दोसोवरओं, जह जह विसएस होह वेरग्गं ।
तह तह वियाणयाहि, आसन्नं से पयं परमं |:६३१॥
दुर्गो भवकतारे, भममाणेहिं सुचिरं पणट्वेहिं।
-दिद्रा जिणोंबइट्टी, सुग्गइमग्गों कह वि लद्धो ॥६३२॥
माणुस्सदेसकुलका-लजाइइंदियबलोवयाणं च ।
विन्नाणं सद्धा दं-सणं च दुलहं सुसाहणं ॥ ६३३ ॥
पत्तेस वि एएसं, मोहस्सुदएण दुल्नहों सुपहो ।
कुपहबहुयत्तेश य, विसयसुहेणं च लोभेणं ॥६३४॥
सो य पहो उवलद्धौ, जस्स जए बाहिरे जणो बहुओ ।
संपत्तिचिय न चिरं, तम्हा न खमो पमाओ भे ॥६३१५॥
जह जह ददप्पदष्पो, समणो वेरग्गभावणं कुणइ ।
तह तह असुं आयव-हय व सयं खयमुवेइ ॥ ६३६ ॥
एगअहोरत्तेश5वि दडङपरिणामा अणुत्तरं जति ।
कंडरिओ पुंडरिओ, अहरगईउड्डगमणेसु ॥ ६२७ ॥
बारसऽवि भावणाओ, एवं संखेवओ समत्ताओ।
भावेमाणो जीवो, जाओ समुवेइ वेरग्गं ॥| ६३८ ॥
भाविज़् भावशाओ, पालिज़ वयाई रयणसरिसाई ।
पढ़िपुप्तपावखमणे, अइरा सिद्धिं पि पावहिसि ॥६३६॥
कत्थह सुहं सुरसमं, कत्थदई निरओवमं हवडइ दुक्खं ।
( १५० )
चरत च्रयिधानराजन्द्रः।
कत्थइ तिरियसर्च्छि, माणुसजाई् बहुविचित्ता ॥६४०॥
दद्र ण5वि अप्पसुहं, माणुस्सं णगदोससंजुत्त । |
ट्व हटयमुवइद्, कज न मुण्ड प्रटजणा ॥ ६४१ ॥
जह नाम पट़णगच्रा, संते यमि पृढभावणं ।
न लहति नरा लाहं, माणुसभावं तहा पत्ता ॥६४२॥
संपत्ते बलविरिए, सब्भावपरिक्वणं अजाता | |
न लहति बादिलाभं, दुग्गइमग्गं च पार्वति ॥ ६४३ ॥ |
अम्मापियरों भाया, भज्जा पुत्ता सरीर अत्थोय। |
भवसागरम्मि घर, न हूति ताण च सरणं च ॥६४४॥ |
नवे माया नञवे य पिया,न पुत्तदारा न चव बंधुजणो। |
नवियधरन वि धन, दुक्खमुइन्ने उवसर्मति ॥६४५॥ |
जइ्यासर्य णेज़गओ, दुक्खत्तो सयणर्वधुपरिदीणो । |
उव्बत्तइ परियत्तइ, उरगो जह अग्गिमञ्छम्मि ।॥६४६॥ |
असुइ सरीरं रोगा, जम्मणसयसाहणे छुहा तण्हा । |
उरं सीयं वाओ-पहाभिघाया यऽणेगविहा ॥६४७॥ |
सोगजरामरणाई, परिस्समोदीणया य दारिदं । |
तह य पियविष्पओगा, अप्पियजणसंपओगा य ।६४८। |
एयाणि य अणणाणि य, माणुस्से बहुविहाशि दुक्खाणि।
पचक्खं पिक्खेतो, को न मरइ त विचितंतो ! ॥६४६॥ |
लड॒ण वि माणुस्म, सुदल्नहं कड कम्मदोमेणं । |
सायासहमणुरत्ता, मरणसमुद्ऽवगादिंति ॥ ६५० ॥
तेण उ इहलोगसुह, मुत्तूणं माणसंसियमईओ । |
विरतिक्खमणभीरू, लोगसुइकरण दोगुंछी ॥ ६५१ ॥ '
दारिदृदुक्खवेयण, बहुविहसीउण्हखुप्पिवासारों ।
अरइभयसोगसामिय-तकरदुब्भिक्खमरणाई ॥६५२॥
एएसिं तु दुहाणं जे पडिव्क्ख सुहंति त॑ लोए।
जे पुण अचतसुहं, तस्स परुकखा सया लोया ॥६४३॥ |
जम्स न छुहा न तणा, न य सीउण्हं न दुक्खमुकिट।
न य असुडयं सरीरं, तस्सऽसणाईस॒ किं कर्ज १।६५४॥
जह निबदुगप्प्नो, कीडो कड्यंऽपि मनए महुरं । |
तह मुक्खसुहपस्क्वा, ससारदृहं सहं विति ॥ ६५५॥ |
ज कडयदुपुप्पन्ना कडा, वरकप्पपायवपरुक्खा |
ति विसालवल्ली, विसे व सग्गो य मुक्खो य ॥६५६॥ |
तह परतिन्थियकीडा, विसयविसंकुरविमूढदि द्रीया |
ज़िणसासणक्रप्पतरू वरपारुक्खरसा कालस्मात। ६५७
तम्हा सुक्खमहातरु, सासयसिवफलयसुक्खसत्तेणं |
मुत्तण लागमप, प[डयमरणण मारयव्व ॥६५८॥
जिणमयभाविअचित्तो, लागसुई मलविरेयणं काउं ।
धम्म॑मि तआमभाणे, सुकर य मई निवेसह ॥६५६॥
सुणह-जह जिशवयणाम-य भावियदियणण भझाणवावारो।
मरणवि भत्ति
कराणजा समणण, ज काण जस भायव्व || ६६० ॥
एय मरणावभत्ति, मरणावेसाहिं च नाम गुणरयणं ।
मरणसमाही तदयं, संलहणस॒य चउत्थं च ॥ ६६१ ॥
पंचम भत्तपरिष्पा, छट्टं आउरपच्चक्खाणं च ।
सत्तम महपचक्खाणं, अट्टम आराहणपडष्पो ॥ ६६२ ॥
इमाओ अद्र सुयाओं. भावा उ गहियमि लस अत्थाओ ।
मरणविभत्ती रइये, बियनाम मरणसमाहिं च ॥ ६६३ ॥
इति मिरिमरणविभत्तोपडष्पयं समत्तं ॥ ८ ॥
द्० प० १० प्रक० । ( कन प्रकारेण श्रियमाणो जोवा वधत
हापयात चात ` खदग ` शब्द तृतीयभागे गतम् ) । ( न
काचिदकाल म्रियन्त, इति हिंसा न दोषावहेति “हिंसा `
शब्द नराकारष्यत )
चोइसरज्जूलोए, गोयम ! बालऽग्गकोडिमित्तं पि |
तं नउत्थि पणं जत्थ, अणंतमरणे न संपत्ते ॥१॥
महा० ५ अ० ।
ण य संसारंमि सुहं, जाइनरामरणदक्खगहियस्स ।
जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाएउ ॥ १॥
महा० ६ अ० | ( मरणभेदाः “ मरणविभात्तिं ” शब्दे )
मरणत-मरणान्त- पु०। मरणरूपा न्ता मरणान्तः | स० ३२
सम० । यावच्चरमोच्छासः । ध० २ अधि० । चरमकाले,दश०
५ अ० २ उ०। “ मरणंते बीति ” (३६ गाथायाः व्याख्या
मज्ज ` शब्दे गता )
मरणकाल-मरणकाल- पुण | मरणेन विशिष्टः काला मरण-
कालः । अद्धाकाल एव, मरणमेव वा कालो, मरणस्य काल-
पयांयत्वान्मरणकालः । तृतीये कालमेदे, भ० ।
से कि ते मरणकाले १ मरणकाले दु विहे पष्पत्ते । तं जहा-
जीवो वा सरीराउ । सरीरं वा जीवाउ । सत्तं मरणकाले
( सत्र-२४७४ )
( जीवो वा सरीरेत्यादि ) जीवो वा शरीरात् , शरीरं बा
जीवात् वियुज्यत इति शषः। वाशब्दो शरीरजीवयोरवधिभा-
वस्येच्छानुसारिता प्रतिपादना्थाविति। भ० ११ श० ११ उ०।
मरणजयज्भवसिय-मरणजया ध्यवसित-न० । खुभटभावतु-
स्य, मत्तेव्य वा जयो वा प्राप्तव्य इति प्रवृत्तसुभटाध्यवसाय-
सदश, ( गाथा-५२० ) पं० ब० २ द्वार ।
| मरणदुक्खपडिकूल- मरणदुःखप्रतिकरूल- पु° । मरणलक्तणस्य
दुःखस्य, मरणदुःखयोव प्रतिकूलाः प्रतिपन्थिनः। मरणक्के-
शपारेपान्थघु, पश्न० १ आश्र० द्वार ।
| मरणदेसकाल-मरणदेशकाल- पु । मरणप्रस्तावे, ( गाथा-
११ ) ते । (व्याख्या ` धम्म ` शब्दे चतुथभागे गता)
मरणभय-मरणभय- न° । मरणमायुष्कक्षयलक्षणं तदेव भयं
मरणभयम् । भयस्थानभदे, ( सूत्र-७ ) स० ६ सम० । स्था०।
मरणविभात्ति मरणविभक्कि- खी० । मरणानि-प्राणत्यागलन्त-
णानि । तानि च द्विधा-प्रशस्तानि श्रप्रशस्तानि च । तेषां
विभजन-पार्थक्येन स्वरूपप्रकटनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा
मरणाविभाक्किः । ने० । आगमबाहश्योत्कालिकद्धाविश श्रुतभेदे,
( २४१ )
भरणवि भत्ति
“ मरणविभत्ति ति ” मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि अनुस- |
मयादीनि वर्तन्ते यत्र-य थोक्लम--
“आवीद १ ओहि२ श्रातय ३-वलायमरणं७वसट्टमरण च ५। |
अन्तोसलन्न ६ तब्भव >-बाल॑ं ८ तह पंडिये ६ मीस १० ॥१॥
छुठमत्थमरणर १कवा ल१२-वहाणस श शगेद्धपट्टम रण च १४।
मरण भत्तपारेणणा १५-इंक्षिणि १६ पाओवगमणं च१७।२।'' |
तत्राःवीचिमरणम् आ-समन््ताद्वीचय इव वीचयः प्रतिसमय
मनुभूयमानायुषो ऽपरा +परायुदंलिकोदयात् पूर्वपूवोयुदीलि-
कविच्युतिलक्षणावस्था यास्मिन् तदावीचिमरणम्। अथवा-
यचीचिविच्छेद्स्तद्भावा द्वीचिस्तज्लक्षएं मरणमवीचिमरण-
म् । ओहि त्ति श्रवधिमरणम् , अवधिर्मयादा | ततश्च यानि
नारकादिभवनिवन्धनतयाऽऽयुःकम्मंदलिकान्यनुभूय ियते,
यदि पुनः तान्येवानुभूय मरिष्यति नदा तदवधिमरणम् । सं
भवति हिनग्रहीताज्कितानामापि कम्मेदालकानां पुनग्रेदणे
परिणामवचिग्यादिति। “ श्रतिय त्ति ” आव्यन्तिकमरणम्-
यानि नारकाद्यायुष्कतया क्मदलिकान्यनुभूय त्रियते, शृतो |
चा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति ।
वलवन्मरण-वशात्तेमरणस्वरूपे यथा--
« सेजमजोगविसन्ना, मरन्ति जे तं वलायमरणं तु ४।
इदियविसयवसगया, मरन्ति जे तं वसं तु ५॥ ५॥ ”
अन्तःशल्यमरणस्वरूप यथा--
« लज्ञाए गारवेण य, बहुसुयम एण वावि दुच्चरियं ।
जे न कहन्ति गुरूणे, न हु ते आराहगा होन्ति ॥ १॥
गारवपड्लूनिबुड्टा, अइयारं जे परस्स न कहिन्ति ।
दंसणनाणचारित्ते, ससल्लमरणं हवइ तेसिं॥ २॥
पय ससल्लमरणं, मरिऊणं महाभए दुरंतंमि ।
अभिधानराजन्द्रः !
मरीड
मरमाश-म्रयमाण-ज० । प्राणास्त्यजात, भ० १८ श०३उ० ।
मरहद्-महाराष्ट् -पु०। ““प्रहाराष्ट'ः॥ ८। १। ६६ ॥ इाते स्-
आान्महाराशरशव्द आदेराकार स्याद्वा भवाति | मरहट्लं। मर्द ।
प्रा० १ पाद। “ महाराष्ट् हरोः'॥ ८। २। ११६ ॥ महाराष्टर-
शब्दे हरोव्येत्ययो भवति । मरहट्गु | प्रा० २ पाद | नमंदाया
दक्षिण कावेयाश्रोत्तरे देशभदे, स चानायदेशत्वेन परिग-
णितः ( सूत्र-४ ) प्रश्न० १ आश्र० द्वार |
मराल-मराल-पु०। हंसे, “ ज्ञानी निमजति ज्ञाने, मराल इव
मानस" श्लोक-( १) अष्ट ५ च्र्ट० । आव० । जड," म-
सिर सरणिआ मद्र, मदं अलसं जड मराल च । खल निडुआ
सदर, वीसत्थ मथर थिमिच्च ॥१५॥” पाइ० ना० १५ गाथा ।
हंसे, “ धयरद्धा कायस्बहंसा धवलसउणा मराला य `
पाइ० ना० ५६ गाथा ।
मराक्लि-मराल्लि- पुं | ध्रियत इव शकटा 5ऽदौ
राति च ददाति लतादि लीयते च मुवि पतनेनेति मरालिः ।
| गाथा ( सूत्र ७ ) दुश्पशों, गवि, श्रभ्व च । उत्त० १ श्र०।
| मराली-देशी-सारसी-दूती-सखोषु, दे ना० ६ व° १५२
गाथा ।
मरिउं-सृत्वा-अव्य० । सखतिम् श्राव्य इत्यथ, ( गाथा-४२ )
पञ्चा० १५ विव० ।
मतुम्-अव्य० । मारणं कतुमित्यर्थ, तं०।
मरिएव्व-मतेव्य-न० | ` तव्यस्य इन्व उं एवा ॥६।४।४२८॥
अपकभ्रेश तव्यप्रत्ययस्येते आदेशाः स्युः । इत तव्यत इणव्वा-
योजितो
सुचिरं भमेति जीवा, दीहे संसार कंतारे ॥ ३॥-६॥ ”
तद्धवमरणस्वरूपमिदम्-
४ मोक्तु ्कम्मभूमग-नरतिरिष्ट खुरगणे य णुरइए ।
ससार जीवाणं, तब्भवमरणं तु कासिचि ॥ ७ ॥
तस्मिन्नव भवे उत्पद्यमानानामिति भावना ।
श्रथ बालादिमरणसक्षकस्वरूपे यथा-
“श्रविरयमरणं बालं ८, मरणे विरयाण परिडयं वैति ६।
जाणाहि बालपरिडय , मरणं पुण देसविरयाणं १० ॥ ९ ॥
मणपज्जवोहिनाणी, सुयमइणाणी मरन्ति जे समणा।
छंडमत्थमरणमेये ११, केवलिमरणे तु केवलिणो १२।२।
गिद्धादिभक्खणं गि-द्धपट्ट १३ उब्बन्धणाइवेहास १४।
पप दुन्नि वि मरणा, कारणजाए अखुन्नाया । ३। "।
पा० । ( विशेषः खस्वस्थानादवगन्तव्यः )
भरणवसाण-मरणाऽवसान-न० । प्राणवियोगसमये, विपा०
१ श्रु० १ शअ्र०।
मरणाऽऽसंसप्पग्राग-मरणाशंसाप्रयोग-पु° । अपश्विममार-
शान्तिकसलेखनाया अतिचारभेदे,उपा० १ श्र०। श्रा०। श्राव०।
कथचित्कर्कशत्तेत्रे छतानशनः प्रागुक्तपूजायभावे छुधात्तों वा
चिन्तयति,किमिति शीघ्र न न्रियेऽहमिति मरणाऽऽशेसाप्रयो-
गः । घ० २ अधि० । आव० (अत विशेषः“ श्रासंसप्प-
अआोग 99 शब्दे )
मरणास-मरणाशा-खी० । कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्ति-
संमावनायाम् , ( सुत्र-४३६ ) ० १२ श० ५ उ०
देशः । कर्तव्ये प्राणत्याग, “ पड गृरहे/प्पणु धु मई, जइ
प्रिड उव्वारिजद । महु करिण्व्वड कपि णवि, मारप्टव्वेड
परं देजई् | प्रा० ४ पाद् ।
मरिस-मृष-घधा० । मषणे, “ वृषादोनामार ? ॥८ ।४ । २३५॥
वृषा5 5दीनां धात्नास्रवसेस्यारिरित्यादेशो भवाति | मार-
सद । झष्यते । प्रा० ४ पाद् ।
मरीइ-मरीचि-पुं० । किरणे, आ० म० १अ० । रा० श्रं०।
स्था०। स० | आए० चू०। सू० प्र० । ज०। जातमात्रो मरोचिमु,
क्रवानित्यतो मरीचिमान् मरीचिः ! अभेदोपचारान्मतुपो लो-
पाद्धेति । | आ० म० १ श्र° । मरीचिनामके भरतचक्रवातपुत्र
कल्प० १ अधि० २ क्षण । ऋषभपोत्र, आ० म० १ अ०।
अह भणइ नरवरिंदो, तायइ मीसि त्ति आइपरिसाए !
अन्नोऽवि कोऽवि होही,भरहे वासम्मि तित्थयरो॥४२२॥
अथ भणति नरवरेन्द्रा भरतः | तात श्रस्या पतावत्या
पषद्ा मध्यात् न्यो ऽपि-पकतयो गप काश्चद्ावष्यात भारते
ब तीथकरः
स्वाम्युक्तमाह--
तत्थ मरीई नामं, आइपरिव्वायगो उसभनत्ता।
सज्छायभाशजुत्तो, एगंते कायइमहप्पा | ४२२ ॥
तं दाएइ जिखिंदा, एवं नरिंदेण पुच्छिओ संतो ।
धम्मवरचकवट्टी, अपच्छिमो वीरनाम्ु त्ति ॥४२३॥
तत्र समवसरणेकदेशे मरीचिर्नाम आदिः प्रथमः परिषा-
५ १५२ )
आमभ्रधानराजन्द्र
सरीह
जकः ऋषभस्य नप्ता-पोत्ः स्वाप्यायध्यानयुङ्कः पकान्ते ध्या-
यति महात्मा तं दशयति जिनेन्द्र: ! एवं नरेन्द्रेण पृष्रः सम्
पष धर्मवरचक्रवर्सी अपम्धिसो बीरनामा भविष्यतीति शेषः। |
आ० म० र आ० ।
इदानीं प्रकतां मरीचिवजक्कन्यतां पृच्छतां कथयतीत्यादिना |
प्रतिपादयति-- ।
पुच्छेताण कहेई, उवद्ठिए देह साहुणो सीसे ।
गेलन्नि अपडिअ्रण,कविला इत्थं पि इहये पि ॥४३२७॥
गमनिका-प्रच्चृतां कथयति । उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः
शिष्यान् ग्लानत्वे5प्रतिजागरणं कपिलः अत्राऽपि इहाऽपि।
भावार्थ:,स हि पागव्यादरीतस्वरूपो मरीचिभगवति निरै-
ते साधुभिः सह विहरन प्रच्छतां लोकानां कथयति-धर्म्म
जिनप्रणीतमेव धम्माल्तिप्तंश्च प्रान उपस्थितान् ददाति
साधुभ्यः शिष्यानिति। श्न्यदा स ग्लानः सचरत्तः। साधवो ऽ
प्यसयतत्वान्न प्रतिजाग्रति । स चिन्तयति-निष्ठिताथौः ख-
ल्वेते। नाऽसेयतस्य कु्वन्ति,नापि ममेतत् कारयतु युज्यते ।
तस्मात्कञ्चन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति (श्रा०म०) ( अत्रा
न्यद्क्कव्य ` कविल ` शब्दे तृतीयभागे ३८७ पृष्ठ गतम् )
अरीचिनाप्यनेन ससारोउमिनिवंतक्तितः ।
जिपदीकाले च नीचगोत्रकम्भेवद्धमिति । अमुमेवार्थ
प्रतिपादयन्नाद-
दुब्भासिएण इकेण, मरीई दुक्डसायरं पत्तो ।
भमिओ कोडाकोड, सागरसरिनामधजाणं ॥४३८॥
वुरभाषितेन एकेनोक्रलक्तणेन मरीचिदुःखसागरं प्राप्तः। भ्रा-
न्तः कोटीनां कोरी कोटिकोरी ताम् । केषामित्याह-( साग-
रसरिनामधल्ाणं ति ) सागरसदशनामधयानां सागरापमा-
नामिति गाथाऽथः।
तम्मूलं संसारो, नीआगोत्त च कासि तिवईमि।
अपडिकंतो बभे, कविलो अंतद्धियो कहए ॥ ४३६ ॥
तन्मूल-दुर्भाषितभूले ससारः सञ्जातः । तथा स एव
नीचेगोत्र च कृतवान् निष्पादितवान्न् , त्रिपद्यां प्राग्ब- |
रितस्वरूपायामिति । ( अपडिक्कंतो वंभ त्ति) से मरी-
चिश्च्रतुरशीतिपूवेशतसहस्नाणि सवौयुष्कमजपाल्य तस्मात्
दुमौषिताद्-दवौचा अग्रतिक्रान्तो शनिवृत्तः ब्रह्मलोके दशसा-
गरोापमस्थितिर्दवः सञ्जात इति । आ० म० १ अ० । ( अन्न
कपिलविषयकं वक्तव्यं ˆ कविल ` शब्दे ठृती यभागे ३८७ पृष्ठ
गतम् )
इक्ख गयु मरी, चउरासी अ बंभलेगंमि ।
कीसिउ वुल्लार्गमि, (ग्य) असीहमाउं च संसरि ।४४०।
गमनिका--दच्वाकुषु मरीलिरासीत् । चतुरशीति च पूवे- |
बह्मलोके |
कल्पे देवः संवृत्तः । ततश्चायुष्कक्षयाच्च्युच्वा ( कोसिडको- |
ज्ञागेस ति) काल्लाकसन्निवेसे कोशिको नाम ब्राह्मणो बभूव । |
( श्रसीतिमाडे च ससारे तति ) स च तच्राशीतिं पूर्वशतसह- |
शतसटहस््ारायायुष्कं पालयित्वा ` वंभलोयम्मि
स््रारयायुष्कमसुपास्य ( ससार क्षति) तियग्ज़रनारकामर-
भवानुभूतिलक्षण पयाटित इति गाथाः ।
|
ससारे कियन्तमपि कालमटित्वा स्थूणायां नगयां जात
इति । अमुमेवार्थ "धृणा" इत्यादिना प्रतिपादयति--
थूणाइ पूसमित्तो, आं वावरत्तरं च सोहम्मे ॥
चेह अग्गिजोश्रो, चोवट्टीसाणकरप्पंमि ॥ ४४१ ॥
स्थृणायां नगर्या पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः संजातः ( आउ
वावत्तरिं च सोहंमे त्ति ) तस्यायुष्कं द्विसप्ततिः पूर्वशतस-
दस्रारयासीत् । परिवाजकदशीन च प्रत्नज्यां ग्रहीत्वा तां पाल
यित्वा कियन्तमपि काले स्थित्वा सोधम्य कल्पे ऽजघन्या-
त्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति । ( ' चेइयअग्गिल्ञोओ चोबद्री
साणकप्पम्मि ` त्ति ) सौधर्मच्युतः चेत्यसन्निवेशे असि
द्योतो ब्राह्मणः सञ्जातः तत्र चतुःषष्िपूर्वशतसदसखरारया-
युष्कमासीत् । परिवाट् च सञ्जाता सृत्वा च ईशाने देवो ऽ-
जधन्योत्कृष्टस्थिातिः सचृत्त इति गाथाऽथः ।
मदिरे अग्गिभूइ, छप्पणा उ सणंकुमारमि ।
सेअवि भारद।ओ, चोच्रालीसं च माहिंदे ॥ ४४२ ॥
गमनिका-ईशानात् च्युतो(मदिरे इति)मन्दिरसन्निवेश श्रभ्चि-
भूतिनामा ब्राह्मणो बभूव । तत्र पट्पञ्चाशतपूवंशतसहस्रा-
णि जीवितमासीत्। परिवा जकश्थ वभूव | सत्वा (सणकुमार-
भ्मित्ति) सनत्कुमार कल्प विमध्यमस्थिति्देवः समुत्पन्न इति
( सेअबि भारद्ाए चोयालीसं च मादिदे त्ति) सनत्कुमार
चच्युतः श्वेताम्ब्यां नगर्या भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्न इति।
तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूवेशदसहस्राणि जीवितमासीत् ।
परिवाजकश्चाभवत् , मत्वा च माहेन्द्रे कल्पऽजघन्योत्कृ-
स्थितिदेवों बभूवेति गाथाथः।
संसरिञ् थावरो रा-यगिहे चउतीस बंभलोगंमि ।
छस्सु वि पारिव्वज,भमभिओ तत्तो अ संसारे ॥ ४४३ ॥
गमानिका--माहेन्द्राच्च्युत्वा , सखत्य कियन्तमपि काल
ससार, ततः. स्थावरा नाम ब्राह्मणो राज्ञगृहे समुत्पन्न
इति । त्र च चतुखिशत् पूर्वशतसहस्थाण्यायुष्क॑ परि-
बाजक आसीत् । सत्वा च ब्रह्मलोकेऽजघन्यो्कृष्टस्थिति-
दैवः संजातः। एवं षदखपि वाराखु परिव्राजकत्वमधि-
ऋत्य दिवमवाप्तवान् ( भमिश्रो तत्तो श्र ससारे ) ततः
बरह्मलोकाच्च्युत्वा श्रान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति
गाथार्थः।
रायगिह व्रिस्सनंदी, विसाहभूई अ तस्स जवराया ।
जुबर्पो विस्सभूहे, विसाहनंदी अ हअरस्स ॥ ४४४ ॥
रायगिह विस्सभूई, विसाहभूइसुओ खत्तिए कोडी ।
वाससहस्सं दिक्खा, संभूअजइस्स पासंमि ॥ ४४५ ॥
भावार्थः खल्वस्य गाथाद्वयस्य कथानकादवसेयः। तचेदम्-
“रार्यागिहे नगरे विस्सनंदीराया । तस्स भाया विसाहभूता।
सो य जुवराया । तस्स जुवरण्णी घारिणीप देवीए विस्सभू-
तीनाम पुत्तो जाओ । रणो ऽवि पुत्तो विसाहनंदि त्ति । तस्स
चिस्सभूतिस्स वासंकोडी श्राऊ। तत्थ पुण्फकरंड्क नाम
उल्ञाणं। तत्थ सो विस्सभूती श्रनेडरवरगता सच्छृदसुदं पवि-
यरद । ततो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीस दासचेडीश्रो
( २५३ )
सरीह
पुप्फकर डप उज्ञाण पत्ताण पुष्फाण य आणात । पच्छात
य वरस्सश्रात कीडत तासि अमारसो जाओ । ताह सा-
अ।भनध्रानराजन्द्रः।
दाति जहा-एव कुमारा ललई । कि अम्ह रज़ण वा बलेण वा |
जइ वसानदा न भुजइ पवावह भाष । अम्ह नाम चव ।
र्ज़ पुण जुवरन्ना पुत्तस्स जस्सारसर लालय | सा तास |
आतिण साड देवी ईसाए कावघरं पविद्भा । जइ ताव रायाणए
जीवतए एसा अवत्था जाहे राया मता भविस्सइ ताह
इत्थ अम्हे का गणदि त्ति? । राया गमइ। सा पसाय न
गिरहद कि में रज्जण तुमे वत्ति । पच्छा तेण अमच्चस्स
सिदे । तादे अमच्चो वितं गमेति तह वि न ठाइ। ताहे
अमच्चो भणइ--राये ! मा देवीए वयणातिक्कमो कीरड ।
मा मारेदिइ अप्पाणं | राया भणति को उवाओ होज्जा। |
उज्जाण अरणो अतीति । |
ण॒ य अम्हं वस अन्नलम्मि अभिगत
तत्थ वर्संतमासे ठिशां। मास जसु अच्छुइ । श्रमच्चो
भणइ-उवाओ कज्जइ जहा अमुगो पच्चेतराया उक्कद्टो अ-
णज्जता पुरिसा कूडलेहे उबरणेतु पएवमेतण कयगण कूड-
लदा रचा उदद्वाविया । तादे राया जत्ते गिरहइ । त॑ वि-
स्सभूतिणा खयं | ताहे भणति । मए जीवमाण तुब्भे कि
निग्गच्छुह ? ताह सो गओऔ। तादे चव इमो अदयओ | सो
ग्रो | तं पच्चंतं जाव न कि चि पेच्छुड अहुमरं तं ताद
आहिंडित्ता जादे नत्थि कोइ अतिक्कमइ । तादे पुणरावि
पुप्फकरंडयं उज्जाणमागओ। तत्थ दारवालादंडगाहिअग्गह-
त्था भरति-मा अर्ह सामी ! सो भणति। कि निमित्त । पत्थ
विसाहनंदी कुमारों रमइ । तता पयं सोऊण कुवि्मा वि-
स्सभूरई । तेण नायं केण अहं निरगच्छाविश्रा त्ति । तत्थ
कविदरुलता अणेगफलभरसमोणया सा म॒द्विप्पहारेण आ-
हया । तादे तांद कविं भूमी अत्थुया ता भणति--एवे
अहं तुव्भ सीसाणि पांडता । जई अहं महल्नपिउणो गो-
रखे न करता । अहेम छुम्मण नीणिओ । तम्हा अलाहि
भोगाहिं । तओ निग्गओ भोगा अवमाणमूल ति । अज्जसे- |
भयाण थराणं अतप पव्वइओ । ते पन्वदयं साड तादे रा-
या सततडरपरियण जुवराया य निग्गञ्रा | त तं खमावेति ।
ण य तेसिं सो आणात्ति गएहइ। ततो बहुहि छट द्रुमादिणहिं
अप्पाणं भावेमाणों विहराति । एवं सो बिहरमाणो महुरं न-
गरि गओ । इओ य विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुराए पिड-
च्छाए रन्न अग्गमहिसीए धूया लद्धल्लिया | तत्थ से रायमग्गे-
आवासा दिज्ञो । साय विस्सभूती श्रणगारो मासखमणपार-
रंश हिंडंतो ते पएसमागते जत्थ ठाणे विसाहनदी कुमारों अ-
त्थद्।तांह तस्स पुरिसे कुमारो भणझइ | सामि!त॒ब्भे एयं न या-
ण॒ह?सो भणति। न याणामि। ताहिं भणइ । एस सो विस्सभरती
कुमारो। ततो तस्सतं दट्दुग रोसो जाओ । पल्थेतरे सदया
गावीण पेज्लिओ पडिओ। ताहे तेहिं उक्कुद्िकलयलो कओ | |
इमे च तदि भणिय । तं बलं तुब्भ कविद्रुपाडणं च कदि मयं ? |
ताहे तेण ततो पलोइय दिट्लो य णण सा पावा। ताह श्रमरिसे
शोत गाविश्ग्ग सिंगाहिं गहाय उद स वहति । सुदव्वलस्स वि
सिघस्स कि सियालोहिं बलं लघिज्जइ ? ताहे चेव नियत्ता इमो
दुरप्प्रा अज्ज वि मम्र रोस वहइ । ताहे सो नियाणो करेइ | जद
इमस्स तवानियमस्स वभचरस्स फलमलत्थि तो च्रागमसाण श्र- |
परिमियवलो भवामि। तत्थ सो अणालोइयपडिकंतो महासुके
५ । तत्थुकोसठितीओ देवा जातो | ततों चइऊण पोय-
&
मरी
णथरे णगर पुत्ता पयावदस्स मिगावईए दवीप कुच्छिसि उव-
वसो । तस्स कट पयावती नामे? तस्स पुत्वि रिउसत्तु त्ति नामं
होत्था। तस्स भाप दवीप अन्नए ययल नामं कुमारे हात्था। त-
स्स य अयलस्स भगिणी मियावती नाम दारिया अतीव रूव-
वती । सा य उम्मुक्तवालभावा सव्वालकारविर्भूसिया पिउ
पायवंदिगा गया । तेण सा उनच्छंगे निवेखिया, सा तीस स्व
जोव्वणे य अंगफासे य मुच्छिआ | तं विसञ्जत्ता पडरजण-
वये वाहरइ । तादे भणइ । जे एत्थ रयणे उप्पज्जइ तं कस्स ?।
त भर्णति-तुब्भ एवं तिन्नि वारा साहिते सा चडी उवद्वाविया ।
ताह लज्जिया निग्गया तेखि सर्व्वास कुव्वमाणाणं गंधव्वेण
विवादेण सयमव विवाहिया । उप्पाइयाणरं भारिया । सा भ-
दापुत्तेण च्रयलण समं दक्खिणापहे मादहस्सरि पुरि निवेसेइ,
मह तीए इस्सरीए कारिअ ति माहेस्सरी,अयले माय ठवऊण
पिउमूलमागश्रो । ताहे लाएण पयावतीनाम कय । पयाअणे-
ण॒ पडिवरणा पयावति त्ति ” । वदे ऽप्युक्कम् “प्रजापतिः स्वां
दुदितर्मकामयत् ” । तादे महासक्षाञ्रो डइऊरण तीए मिया-
बतीप कुच्छिसि उवव श्रा । सत्त खुविणा दिट्धा। सुमिणपाटगेहिं
पटमवासदेवा आइट्टो।कालेण जातो तिखि य स पिट्ठकरं डग सति
तिविटृट नाम कयं। मायाए परिमाक्खिओ उर्टतेल्लर्णत जा -
व्वणगम रुप्पत्तो । इत्तो य महामंडलिच्रा आसग्गी राया । सा
निमित्तियं पुच्छुइ । कता मम भयं तिएतण भणियं जा चडमदं
दूये आधरिसहि त्ति । । अचरंते य महावलगं मार सीं एत । तता
ते भयं ति। तण खुय जहा पयावतिपुत्ता महावलगा । ताहे
तत्थ दूयं पेसेइ,तत्थ श्रेतेउरपेच्छणयं वद्दइ तत्थ य दृतो पवि-
टरो राया उद्रो । पच्छयणे मग्गे कुमारा पेच्छगेण अक्खित्ता
भरति। का एस ? तेहि भियं जहा आसग्गीवरणो दूओआ। त
भरंति। जादे एस वच्च ज्ञा तादे कहेज्ञाह । सो राइणा पूएऊण
विसज्जिओ | पधाविश्ों अप्पणो विसयस्स कहिये कुमारा-
रो । तेहि गतृण अद्धपहे हओ । तस्स जे सहाया
ते सब्बे दिसो दिसि पलाया । ररणा सुय जहा श्राध-
रिसिओ दूओ , संभंतेण निपत्तिश्रो । ताद रराणा विउण
तिउणे दाऊण मा हु रणो सादिञ्जखु ज कुमारे कयं ।
तेण भणिय न साहेमि | तादेजत पुरश्रा गया तेहि सिद
जहा आधरिसिओ दुआ | ताह सो राया कुविच्रो | तेण दू-
पण नायं । जहा-रम्नो पुव्वे कहिएल्लय । जहावत्त सिद्धं । तता
आसग्गीवेण अन्ना दुओ पेसिओ । पच्चपयावई गतृण भरणा
हि-मम सालि रक्खाहि भक्खिज्जमाणं । गता दूआ। रक्षा
कुमारा उवलद्धा । किह अकालमच्चू खबलिओ। तण अम्ह
श्रावारपः चेव्र जत्ता आणत्ता । राया पहाविओ। त भणंति-अ-
ग्ट वच्चामों | ते रुंभता मड़ाए गता | गंतूण खात्तप भात ।
किह अन्ने रायाणो राक्खियाइया । ते भणंति-आसहंत्थिर-
हपुरिसपागारं काऊण केच्चिरं जाव करिसणं पाविट | ति
विद ह भणति-कोप्यांच्चरमच्चृदं ? मम तं पपसं दरिसेह | त-
हिं कहिये-एयाए गुदाए तादे कुमारो रहण तं गुं पविट्टी
लोगेण दोहि वि पासेदिं कलयलो कओ । सीहो वियेभतो
निग्गओ । कुमारो चितई-पस पादि अहं रहेण । विस-
रिसं जुद्ं आंसक्खेडगहत्था रहाओ श्रादन्ना । ताहे पुणो वि-
चिंतइ-एस दाढाणखायुद्धा अहमसिखेडगेण । पवमावि श्र-
१ बलात् +२ अगवत; | २ तिथ ।
( १५४
निधानराजन्द्रः
सरोह । |
समंजसं। ते पि अणण असिखेडगग छृद्धिय । सीटस्स अमारिसो
जाओ | एगे ताद रहेण गसुहमतिगतो एगाणी .विविय नमि श्रा
रुणः, तति आयुद्गाण विशुकारे । अरणं विशिवाण्णम
चयण एत-मदय। अवदालणएरं उककई काऊण सपत्ता महया
तांद कःमारेय ण्गण हत्थेण उवारिज्ञो ओट्टो एगेण हेट्टिले ग-
हिआ | तओ तेण जुगणपडगा विव दुहा काऊण सुक्का। ताह
लागेण उाक्टकलयला कओ। अहासान्िहियाए देवयाणए आ-
भरणवत्थकुसमवरिस वरिसिये । ताद सीहो तण -अमरिस्सण
फुरफुरेतो अच्छुड । एवं नाम अं कुमारण्ण जुद्धण मारिआ
त्ति!तंच किर काले भगवआ गोयमसामी रसरः आसी।
तरण भण्णति-मा तुमे अमरिसे वहाहि | एस नरसीहो तुम मि-
याधथिवों । ता जनि सीहा सीहेण मागिओ को एत्थ अवमा-
णो । ताणि सो वयरणारणि मधुमिव पिवति।सा मारत्ता नरण्सु
उववरणा । सा कुमारा ते चम्मे गाय नगरस्स पहांविआ | ते
य गामज्ञण मणइ-गच्छुटद् मा ! नस्स द्राडयगीवस्स कहेह
जहा-अच्छुसु वीसस्था। तेहिं गेतृगे सिट । स्द्ा दूय विसरजद।
पण पुत्त तुम मम च्रःलग्गण पट्ुवेहि । तुमे महज्ञो। जाद पच्छा-
मि, सद्धारमि,.रञ्जाणि य दामि | तर भिय अच्छेतु कुमारा.
सय चच खे श्रालग्गामि त्ति ¦ ताहे सो भणति-कि न पर्स ?
अओ जुद्धसज्जो निग्गच्छाति । सा दुओ तेहि गनृणे सिट्द .रूट्टा
दये विसज्जद। ताहि आधरगिसित्ता धांडिओ। ताद सो आस-
ग्गीवा सब्वबलेण उवाद्रश्रा | इयर वि देखत टिया । स्व
काल जुज्किकूण हयगयरहनरादिक्खय च॒ पिच्छिऊण कु-
मारण दुश्रो पेसिआ। जहा-अहं च तुमे च दाज्नि वि जुद्धे लेप-
लग्गामा । कि वा बद्ुएएण अकारिजणण मारिणणे ? एवं टाउ
त्ति । विदयदिवस रादि सपलग्गा । । जाहे आउहाणि स्ीणाणि
तादे चकते मुयइ तं तिविट दुस्स ठुंबण उर पडिये। तणव सासं
चिन्न, देवाह च घुट्टं, जहेस तिविर्ट पदमा वाम्डुदेवा उप्प-
को ज्षि । तो सव्वे रायाणो पणिवायमुवगया उयदय अड्ड-
भरहे,कोडियसिला दंडवाहाहिं धारिया। एवं रहावत्तपव्वय-
समीवे जुछमासी । एवं परिहायमाण वल कराण किर
जाखुगाणि जाव किह वि पाविया । तिविद ट चुलसीति वा-
ससयसहस्साई सव्वाउ्य पालइत्ता काले काऊण सत्तमाए
पुढवीण अप्पतिट्वाण नरण तत्तीसं सागगोवमाद्टितिओ नेरइ-
आओ उववन्ना । ` अयमासां भावाथः |
द्रत्तगाथस्त्वाभिधीयत--राजयगृटे नगर
मा राज़ा अभत् । विशाखभूतिश्व तस्य॒ युवराजनि ।
तस्य॒ युवराजस्य धारिणीदेव्या विश्वभ्रति-नामा पुत्र
श्रासीत् | विशाखनन्दिश्चनरस्य राज्ञ इत्यथः । तत्रेत्थर्माध-
कता म्गीचिजीवः ( गायागिह विस्सभृद त्ति ) राज-
गरट् नगर विश्वभूतिनामा विशाखभूतिखुतः त्तत्रियो ऽभवन् ।
नवे च वधकोस्यायुप्कमासीत् । ता्मिंश्च भय वर्षसहस्त्र
दत्ता प्रवज्या कृता सम्भतयतेः पाश्वं । तत्रव--
गनामिउ महुराण, सनिअ।णो मासिएण भत्तेरं |
महसुक्र उववागा, तचरा चुओ पोअणपुरंमि ॥ ४४६ ॥
गर्मानका-पा र्णके प्रविष्टा गात्रासितां मथुरायां निदान च~ |
कार। स॒त्वा च॒ सनिदाना 5नालाचिताप्रतिक्रान्ता मासिक्रेन
भक्तन महाशुक्रे कल्प उपपन्नः उत्क्रष्टाम्थितिर्टस इति । नतो |
मष्टाशुक्राच्च्युतः ५।तनपृर नगर ॥
विश्वनान्दिना- `
) |
| सरीड
पुत्ता पयावरस्स, मआवइदाबऊाच्छसभूआ ।
सारण } ताड त्त, आई आसा दसाराण ॥ ४७७ |
गमानिका-घुत्रः प्रजापते गाक्षः सगावतीदेवीकुत्तिसम्भूतो
नाज्ना जिपृष्ठ: “आदि: प्रथम आसीत् दसाराणं,तत्र वाखुदे-
चत्व च चतुरशीतिवर्षशतसहस्थारणि पालयित्वा5घःसप्तमन-
रकप्रथिव्यामप्रतिष्ठान नरक त्रयास्त्रशत्सागरोपमास्थातिना-
रकः सज्ञात इति |
अमुमेवा्थ प्रतिपादयज्नाह--
चुलसीदमप्पड्ट, सीहो नरएस तिरियमणणएसु ।
पिच्रमित्तचक्रवदी, मृच्राई विदेहि चुलसीइ ॥ ४४८ ॥।
गम्ानिका-चतुरशीतिवषशतसहस्थाण वासुदवभवे खल्वा-
युष्कमासीत् । तदनुभूय अप्रातिष्ठान नरकं समुत्पन्नः तस्माद-
प्युद्चरत्य सिंहो बभूव । गृत्वा च पुनरपि नरक पवात्पन्न इति ।
(तिरियमणुणसु त्ति) पुनः कातिचिद्धवग्नहणानि तिर्यस्मनुष्य-
पृत्पद्य ( पियामित्तचकवद्ीी मआइविदेहि चुलसीइ त्ति ) अप-
गविदह मूकायां राजधान्यां धनज्जवनपतंद्धार्णादिव्यां प्रिय
मित्राभिधानश्कवर्ती समुत्पन्नः । तत्र चतुरशीतिपूवेशतस-
हस्जाण्यायुष्कमार्सीदिति गाथा ऽथः ।
पुत्ता धर्णजयस्स, पुट्टिल परिआउकोर्डि सव्वद्र ।
णंदण छत्तग्गाए, पणवीसाउं सयसइस्सा ॥ ४४६ ॥
शमनिका-तज्ा सो प्रियमित्रपुओ धनंजयस्य धारणीदेव्यः-
ग्य भृत्वा चक्रवनतिना भागान भुक्त्वा कथाचित् सज्जानसवयः
सन् (पुट्टिलो दति) प्रोष्टिलाचार्यसमीप प्रनाजितः ( परियाउ-
काडिसव्वट्रु त्ति) प्रव॒ज्यापर्यायो वर्षकोटिबेभूव । स॒त्वा
महाशुक्रे कल्प सवौ विमान सप्तदरशसागरापमास्थितिर्देया 5
भवन् | ( ंदण छुत्तर्गाएण एण्वीसार्डट लयसहस्से त्ति )
ततः सर्वार्थसिद्धाच्च्युन््वा छ॒त्राग्रायां नगयों जितशच्ररृपत-
मद्रादव्या नन्दना नाम कुमार उत्पन्न इति । पञ्धविशतिव-
पेशतसहस्राणयायुष्कमासीदिति गाथाः ।
लत्र च वाल एव राज्य चकार । चतु्वेशानवषसदस्राणि
राज्य कृत्वा ततः--
पव्वज् पुल सय सहस्म सव्वत्थ मासभत्तण ।
पुष्फुर्तार उववष्पा, त्यो चुओ माहणकुलंमि ॥४५०॥
गमनिका--राञ्यं विहाय प्र्रलज्यां कृतवान ( पाटिल त्ति)
प्राणठिलाचायान्तिके ( सयसहस्सं ति ) वषशतसहस््रे या-
वदिति । कथम् ? . सवत्र मासभक्कन अनवरतमासापवास-
नति भावाथः । श्रस्मिन् मव विशतिभिः कारणेस्ताथकरना-
मगात्र कम्मे निकाचायत्वा मांसकया सलखनया 5ऽन्मान
क्षपयित्वा षाण्रिभक्तानि विदाय आलाचितप्रातिकान्ता मन्वा
( पुप्फुर्तार उवचन्ना त्ति ) भ्राणत कल्प पुष्पात्तरावतंसकं
विमान विशतिसागरापमास्थतिर्देव उत्पन्न इति ( तत्ता
चुओ माहणकुलेमि त्ति ) ततः पुष्पात्तरात् च्युता ब्राह्मणकः
गड़ग्राम नगर ऋषभद त्तस्य ब्राह्मणस्य दवानन्दायाः पन्न्याः
कुत्ता समुत्पन्न इति गाथा ऽथः ।
कानि पुनर्विशातिकारणानि ? येस्ती थकरनामगोज कम्मं
तनोपनिबद्धमित्यत आह--
अरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेरबहुस्सुए तवस्सीसुं ।
वच्डलेया एएमिं, अभिक्वनाणोावञ्मागं य ॥ १७६ \
( १५५ )
_ मरीडह अभिधानराजन्द्रः मल
दंसणविशए आव- स्सए य सीलव्वए निरइआरो । | सरुदेवज्कभयण-मरुदेवा ध्ययन-न० । कल्पकिरणावल्यां मरू-
खणलवतवचियाए, वेयावच्चे समाही य ॥ १८० ॥ | देव्यध्ययनं विभावयन् वीरः सिद्धि गतः। तत्र मरूदेव्यध्ययने
- १ ~ कया रीत्या विभावितं तत्सम्यक प्रसाद्यमिति प्रश्च, उत्तरम-
खि ग्गहण ओ. ष [न | +० 0 ०- है
६280 ५ 0 (868 | कल्पसत्रावचूर्णों मरुदेव्यध्ययन विभावयन्-प्ररूपयान्नित्येव
एएहि कारणेहि, तित्थग्रत्त लहइ जीवो ॥ १८ | व्याख्यातमस्ति न तु विभावनरीतिः। २० प्र०। सन ०? उल्ञा० ।
पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सव्वेऽवि फासिया ठाणा । मरुदेवा-मरुदेवा- खरो०। नाभिकुलकरपटन्याम्, आ० म० १
मज्मिमएहि जिणेहिं, एकं दो तिष्षि सव्वे वा॥॥१८२। | अ०। आ० चू० श्रो० । ऋषभदेवमातरि, ति० । आ० क०
( आव० ) रीका खुगमत्वान्न गृहीता । ब्रन्थादेवावसेया । | स्था० | कर्प० । प्रव । स० । । आव० ।
अ 4 = | मरुदेवी-मरुदेवी खी० । प्रथमती थैकरमातरि, (गाथा ६२४)
माहणकुडग्गाम, कोडालसगुत्तमाहणो आत्थ | | ॥ 303
तस्स धरे उवव्णो, देवारंदाएँ कुन्छिसि ॥ ४५७॥ | १० वे० ३ द्वार । (यद ६
| मरुपक्रदण- मस्प्रस्कन्दन-न० । मरोधावत्वा मरणाथमधः
रस्या व्याख्या ! पुष्पोत्तराच्च्युतो ब्राह्मणकुण्डआमे नगरे
| कुर्देने नि० चू० १९ उ०।
ऋषभदत्ता भस्त । तस्य गह , = (
कोडालसगात्रव्राह्यणः ऋषभदत्ताभिधानो 4 दे 7
उत्पन्नः दवानन्दायाः कुक्ताचात गाथाऽथः। आव० १ अ०।
कत निच) न दश्यत ) मरणवुद्धःचा ऽधः पतने, नि०चू० ११ उ०।
हि]
मरीइकवय -मरीचिकवच -न० । किरणजाले, रा० ।“मरीइकव- | मेरुप्पवाय-मरुप्रपात-3० । नजलदशप्रपात, ज्ञा” £ शर ६
यंविशिम्मुयमाणे” मरीचिकवर्च किरणजालपरिक्तेपं विनिमु- अ । ्र०। | ५
आन | रा०। । मरुय-मरुक-पुं० ! विप्र, जीत० । आ० चू० | आ० म०। णि
मरीडया- मरीचिका - स्री । मरीचिः किरणजालः सेव मरी- | चू० । पा० । गन्धद्रव्य गान्धिकप्रसिद्धे,ज्ञा० १ श्रु० १७ अ०।
| = भ पे ~ =
चिका! ्रा० ! गत्ष्णायाम् . जलवदवयासमाने किरणे, | रा०। आग्नयापरनामकंषु लाकान्तकदवषु, स्था०।
= ५0 ४522 | मस्या देवा दुषिहा पष्यत्ता त॑ जहा--एगसरीर चव
मरीय-मरी च--पु ०। स्वनामख्याते कटुफलबृुक्ते,तत्फल च । न० । बिसरीरे न्व
कल्प० ९ आध० ॐ क्षण् । प्रज्ञा० । । आ० म० । मरुता देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः (स्था०) ते चेकशरीरिणा
= क 6 ~ =)
जलत श्र १६ ८ ८. ˆ कार्मणशरगीरत्वान् > <~ ^ और
मरू-मरू-5० । नजलदश, जा० £ श्रु० {६ अ | आ०। विग्रहे कामंणशरीरत्वात् तदनन्तरं वेक्रियभावात् । दविशरा-
च्रा० म० । यत्रारूढेरधस्तले न श्यत तावदुच्चः पर्वते. नि० रिणः । ढयोः शरीरयोः समाहार द्विशारं तदस्ति येषां त
चू० ११ उ०। तथा । ( सूत्र--८० ) स्था० २ ठा० २ उ०।
मरुग-मरुक-ए० | ब्राह्मण, वृ० १ उ० २ प्रक० | धिग्वणं, दश मरुयग-मरुवक्-पुं० | वकजातिविशेष, ज्ञा० १ श्रु० ८ अ०।
६ अ० ४ उ० | मरुयवसभकप्प--मरुकबृष भकल्प-पुं० । देवनाथभूते. पर्न”
श _
मरुगाहरण मर्काटरण-न० । ब्राह्मणोदादरणे समयप्रसिद्धों, ४ आश्र० द्वार ।
( गाथा-४८) पञ्चा० १५ पिव । ( तद्धत्तम द्वितीयभागे मसुजवृषभकल्प- पु । देशोत्पन्नगन्धभृत अद्ञीकृतकार्यनि-
४२६ पृष्ठ ) ॥ वादक. प्रश्न० ४ आश्र० द्वार ।
मरुता-मरुता-स्त्री० ! खनामख्याताया श्राणकमहाराजाग्रम- मरुल-देशी- मूत, प्रेते, दे० ना० ६ वर्ग २१४ गाथा |
टिष्याम् , सा च वीरान्तिके प्रव्ज्य विशातिवर्षाणि श्राम- मरो-देशी-मशके.उलके च । दे० ना० ६ वर्ग १४० गाथा ।
राये परिपाल्य सिद्धाति | अन्त० ७ वर्म ५ स्र |
अ मल- मृद्-धा०। मदेन, “मृदो मल-मट-परिटदट -खड़-च ड -
मरुत्थल-मरुस्थल-न० । दशविशष, ( सत्र ०-२११ ) कल्प० १
मड्पन्नाडाः ८।४।१२६ इत स्दूनातमला ऽ ऽदेशः । मलद ।
अधिण० ७ क्षण ! । सदनात । प्रा० ४ पाद ।
मरुद व -मरुद व् पु? | अस्यामवसर्पिण्यां भरत जातानां पञ्च- ~ 64
अर्दन - मरुद् -पु कप कक मल--अस्प्री० | पापविट्किट्वेषु, इह मलाः प्रक्रमाचित्तस्मैव
सम्वान्धिनः परिग्रह्मन्त, ते च रागादयो रागद्वेषमाहा:
जातिसंग्रहीताः | वर्यक्रिभदेन भूयांसः | णा० ३ विव० |
स्वद्. दृ० ना० ६ वर्ग १११ गाथा | द्रव्यमलः शरीरसभवः.
भावमलः कमजानतः। करप० १ आधि० ६ क्षण | जाविस्य
ज्ञानावरणादिकम्मश्लपर्निमित्तभाव, या०वि०। पाप. अ
म० १ अ०। * कम्माति वा खहाति वा वोरतिवा कलुर्सात
वा वाच्छति वा वरति वा पंका त्ति वा मला [त्तवा एन
| _ _ एगहड्धया' नि० चू०२० उ०। पृववद्धं कममलम्। थवा नक्रा
१ नोट--स।मिलेास | 79 म० | । जात भ्रनप्र् , अथवा सयाषगणाप्रक मत्वम् । त्० ' सष्च० । प्रज,
दशकुलकराणां मध्य यादा कुलकरे,(सूत्र-२८) ज ० श्वक्ष० ।
अवसर्पिरायां भरतजयु सप्तकुलकरेपु पष्ठ कुलकर, ( सूत्र-
६५२ ) स० १५४७ सम० । कल्प० । स्था” | आ० चू० । ति० ।
एरवत वष आगमिष्यन्त्यास॒त्सर्पिएयां भविप्यति णकोनविश
तीथकर, ( ५६ सूत्र ) स० १५६ सम० । ध्रव० । शत्रं जया
ताथ.शच्रुञ्जयः सिद्धक्षत्र तीथराजो मरुदेवा भगीरथ इत्ति प-
यायाक्कः। ती० १ कर्प । मज्लनाजिनसमकालिक एरवतज ती- `
थकर , ति०।
-औ
{4457
म्ल
असमिधानराजन्द्रः ।
मलयगिरि
मलस्तु योग्यता योग-कषायाख्यात्मना मता ।
अन्यथाऽतिप्रसङ्गः स्या-ज्ञीवत्वस्याविशेषतः ॥ २७ ॥
मलस्तु योगकषायाख्यात्मनो योग्यता । तस्या एव बहुत्वा-
ल्पत्वास्यां दाषोत्कर्षापकर्पोपपत्त; अन्यथा--जीवत्वस्यावि-
शाषतः सर्वत्र साधारणत्वादतिप्रसङ्गः, मुक्रष्वपि वन्धापात्ति-
लक्षणः स्यात् ॥ २७ ॥ द्वा० १२ द्वा० । रयो मलोपकमप्या-
योगो रयोवद्धा मलो पुव्वोवचितो मला आग । अहवा धा-
रया वज्ञमाणा मलो पुव्बोवचित सला अवाबट्टो रया नि-
काइओ मलो । अ्रहवा-इरियावटहिते रयो सपरादयं मलो
आए० चू० २ आ० । अतिचारे
नामचेैन लाके कराति । बाह्यमललिप्तः पुनन कराति । व्य०७
उ०। (असज्भाइय शब्दे प्रथमभागे ८३४ पृष्ठ प्रसङ्गतः किचि-
दुक्कम्) वाद्याङ्गसमुत्थ स्वदेहवारिसम्पकीत्कठिनीभूते रजसि,
श्राव ४ अ० | श्रा० म० । ज्ञा०।
मलच्र- देशी०। गिर्येकदेशे, पवने च । दे० ना० ६ वरौ १४४ गा-
था । “ मलओ उज्जाणं आरामो ” पाइ० ना० १३८ गाथा ।
मलंपिअ देशी-गर्विष्ठे, दे ना० ६ वरौ १२२ गाथा ।
मलन मर्दन-न० | विनाशे, यो० विं० । अस्थिषु खुखत्वादि
ना शरीरस्य संबाधने, स्था० 3 ठा० २3 । बृ० । फालने,
स० ११ अङ्ग |
मलपंकपुव्वय -मलपडूपूर्वक-न० । श॒क्रेतोजनिते, उत्त० १
आ०। “ मलपंकपुव्वयंति'' जीवशुद्धयपहारितया मलवन्मलः
स चासों “पावे वज्ञ वरे पंके पणपः य त्ति ” बचनात्पड्डश्व
कर्ममलपङ्कः / स पूर्व्व काययोत् प्रथमभावितया कारणमस्य- |
ति मलपङ्कपू्व्वकम् । यद्धा- माओं य पिऊ खुक्रं ति ” वच |
नात् रक्तथ॒क्रे एव मलपड़े, उत्त १ ० ।
मलपरिसह-मलपरीषह- पुं०। मलः प्रस्वेदजलसम्पर्कतः क-
ठिनीभूत॑ रजः स एव परिषहो मलपरीषहः ( ६६१ भाथा )
प्रव०८६ द्वार । जज्लपरीषदहापरनामके परीषहभेदे, भ० ८
श० ८ उ०। “ मल त्ति ” स्वेदवारिसंपर्कात्कठिनी भूतं रजः
मलो ऽभिधीयते" स वपुषि स्थिरतामितो ग्रीष्मे सतापजनि-
तघर्मजलाद्रंतां गतो दु गन्धिमहान्तसुद्रेगमापादयति । तदप
नयनाय कदाचिदभिषेकाभिलाष कुयात् । | आव० ४ अ०।
मला हि “ग्रीष्मा55तापपरिक्लिन्नान् , सवौङ्गीणान्महामुनिः।
नोद्धिजेत न सिस्नासे-न्नादर्तयेत् सहेत तु ।” ध० ३ अधि० ।
मलपरिसहविजय-मलपरःषहविजय- पुं° । श्रप्कायिकादिज-
न्तुपीडापरिद्ारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पटुरविकिरण-
प्रपातजनितप्रस्वेदवारिसम्पकलग्नपवनानीतपां शुनिचयस्य
मलापनयनासङ्कट्पितमनसः सजज्ञानदशनचारि्र विमलस-
लिलम्रक्षालनेन कर्ममलनिराकरणाय नित्यमुयतमतर्मलपी-
डासहन, पे० से० ४ द्वार ।
मलय मलय पुं । चन्दनदर मोत्पत्ति प्रसिद्धे गिरौ, ज० ३
वक्ष० । ज्ञा० रा० । जी । । औ० । नि० । मलयोद्धव-
त्वान्मलयम् । श्रीखराड, जी०३ प्रति० ४ अधि० । आ० म०।
प्रज्ञा० | भद्विलपुर मलया ( आर्यक्षेत्रम ) प्रव० २७४ द्वार ।
सूत्र० । नवके आस्तरणविशेषे, मलयदेशोत्पन्नचस्त्रविशषे
मलयोत्पन्नपट सुते, अचु° । आचा०।
[व
(१
अभ्यन्तरमललिप्तो $पि देवा- |
। मलयकेड-मलयकतु- पु° । स्वनामख्यात साथवाहसुते, दशे०
३ तत्व ।
| मलयकेदु-मलयकेतु- पुं । खनामख्याते राक्षसकुमारे ,
“ अय्य पशे क्खु कुमाले मलयकेदू ” प्रा० ४ पाद् ।
मलयगा(ग्गा)म-मलयग्राम- 3० । स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र
छुञ्मस्थविहारेण विहरन् वीरस्वामी पिशाचादिरूपेणोपस-
भितः । | आ० चु० १ अ०।
| मलयगिरि-मलयगिरि- पु° । सप्ततिकाख्य-षष्ठकर्मग्रन्थकमे-
| श्रङृतिपञ्चसंग्रहञ्यातिष्कररडप्रज्ञापनाजीवाभिगमाद्यनकग्र -
न्थवृत्तित्तत्रसमासाद्यनेकग्रकरणकारके स्वनामख्यात
कर्म० १ कर्म० ।
षष्ठक्मग्रन्थस्यादिमवृत्तानि-
अशेषकर्मांशतमस्समूह-क्षयाय भास्वानिव दीप्ततेजाः ।
प्रकाशिताशेषजगत्स्वरूपः,प्रभुः स जीयाल्िनवद्धमानः ॥१॥
जीयालजिनेशसिद्धान्तो , मुक्किकामप्रदीपनः ॥
कुश्च तयातपत्तानां, सान्द्रो मलयमारुतः ॥ २ ॥
चूरेयो नावगम्यन्त, सप्ततमन्दबुद्धिमिः ॥
ततः स्पष्टाववोधाथ, तस्याष्टीकां करोम्यहम् ॥ २ ॥
क्षहार्निश चूरीविचारयोगा न्मन्दोऽपि शक्ता विचरति विधातुम्
निरन्तरं कुस्भनिकषयोगाद्भामोऽपि कूप समुपेति घर्षी म्।४॥
कर्म० ६ कर्म०।
तथान्तिमवृत्तम्-
प्रकरणमेतद्विषमं, सप्ततिकाख्यं विवररवता कुशलम् ।
यद्वापि गलयगिरिणा, सिद्धि तेनाश्नुतां लोकः ॥१॥
क्म० £ कर्म० ।
“ बह्मथमल्पशब्दं, प्रकरणमेतद्विन्रणवतामखिलम् ।
यदवापि मलयागरिणा, सिद्धि तेनाश्नुतां लोकः ॥ ३॥
पं० सं० ५ द्वार ५ प्रक०।
“ दुवो धातपकष्ट-व्यपगमलेष्वेव विमलकीर्तिभरः ।
रीकामिमामकार्षी-न्मलयगिरिः पसलवचोभिः ॥ १ ॥
ठउ्य० १० उ० |
“ ज्योतिःकररडकमिदं, गम्भीरां विचररवता कुशलम् ।
यद्वापि मलयागरिणा, सिद्धि तनाश्नुतां लोकः ॥ २॥
ज्यो० २१ पाहु०।
जीवाजीवाभिगमं, विव॒ण्वता5वापि मलयागिरिणेह ।
कुशल तन लभन्तां, मुनयः सिद्धान्तसद्राधम् ॥ ३॥
जी० १० प्रति० ।
एनामतिगम्भीरां, करमप्रकूति विच्रुरवता कुशलम् ।
यद्वापि मलयागिरिणा, सिद्धि तनाश्चुतां लोकः ॥ ६ ॥
क० प्र०।
नत्वा गुरुपदकमलं. प्रभावतस्तस्य मन्दशक्गिरपि ।
श्रावश्यकनियुक्क, विघ्णोमि यथागमं स्पष्टम् ॥ ३ ॥ आ०
म० १ आअ० । श्रीमलयगिरिकृतः श्रीश्रावश्यकवृहदत्तिप्रथ-
मखरडः समाप्तः । श्रा० म० १ अ० १ खराड।
नन्दयध्ययन पूर्व, प्रकाशित येन विषममभावार्थम् ।
तस्मे श्चीचूर्णिङृत, नमोऽस्तु विदुषे परोपकृते ॥ १॥
मध्ये समस्तभूपीठे, यशो यस्याऽभिवरद्धैत ।
तस्मै श्रीहरिभद्राय, नमश्रीकाविधायिने ॥ २
। -षृत्तिवा चूरिर्वा, रम्यापि न मन्वमेधसां योग्या " 0
( १५७ )
मलयगिरि
अआआभनधानराजन्द्रः।
मह्नदाम
अभवदिह तन तेषा-मुपक्ततये यत्न एष कतः ॥ ३॥
बह थमर्पशब्द, नन्यध्ययनं विवृरवता कुशलम् ।
यद्वापि मलयागिरिणा, सिद्धि तेनाश्नुतां लोकः ॥४॥ ने० ।
रत्वा प्रज्ञापनारीकां, पुरायं यद्वापि मलयगिरिरनवम् ।
तन समस्तो ऽपि जनो, लभतां जिनवचनसद्रोधम् ॥ १॥
जयति हरिभद्रस्रि-एीकारद्दिव्रतविषमभावाऽथः ।
यद्धचनवशादहमपि, जातो लेशेन विचृतिकरः ॥ २ ॥
प्रज्ञा० २६ पद् ।
सूयपज्नपिमिमा-मतिगम्भीरां विव्रता कुशलम् ।
यदवापि मलयरि णा, साधुजनस्तन भवतु कृती ॥ ३ ॥
सुण प्र० २० पाहु०।
चन्द्रप्रक्नप्िमिमा-मतिगम्भीरां विचरता कुशलम् ।
यदवापि मलयगिरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥ ३३ ॥
मलयगिरेः समयो गुरुपरंपरादिकं च न ज्ञायते तथाऽपि-
हरिभद्रसरेरबोकतन इति ज्ञायते । च० प्र° २० पाहु० ।
मलयप्पभसूरि-मलयग्रभसूरि-पुं० । चन्द्रगच्छीय-मानतुज्ञ-
सूरिशिष्ये, अयं विक्रम-सवत्-१२६० विद्यमान आसीत्
अनेन स्वगुरुकते सिद्धजयत्युपरि टीका कृता । जै०इ० ।
मलयय-मलयज- पुं०। मलयो नाम देशस्तत्संभवो मलयजः।
मलयदेशोद्धवे चन्दने, स्था० ५ ठा० ३ उ० । बृ० ।
मलयरुह-मलयरुह--न० । चन्दन, “ ( ३७७ ) मलयरुढं च-
दने च इकंगे `' पाइ० ना० १४७ गाथा ।
मलयवई-मलयवती- खी० । काम्पिल्यदुहितरि ब्रह्मदत्तच-
क्रवर्तिभायायाम् , उत्त० १३ श्र०।
मलयवुत्ती- देशी-रजस्वलायाम् , देना ०६ वर्ग १२५ गाथा |
मलवद्धी- देशी-- युवत्याम् , दे० ना० ६ वर्ग १२४ गाथा |
मलहर-देशी- तुमुले, दे०्ना० ६ वर्ग १२० गाथा |
मलार मलार पुं० । मलमिवारा प्राजनकविभागो यस्यासौ
मलारः । गलिगवे, सम्म० ३ कारड़ |
मलावधसि-मलापऽध्वंसिन्- त्रि मलबदत्यन्तमात्मनि लीन-
तया मलो 5्रप्रकारं कमे तदपध्वसते इव्येवं शीलो मला ऽप-
ध्वंसी । | मलविनाशकृत् जीविते बृदयित्वा लाभान्तरे लाभ-
विच्छेदेऽन्तर्वदिश्च मालाश्रयत्यान्मल श्रौदारिकंशररम् ,तद-
पध्वंसी । च्रष्टकम्मल्षणमलस्यापध्वंसको- निवारको मला-
पध्वंसी । उत्त० ४ श्र० । ओद्ारिकशसीरमोचके,उत्त० ४ अ० |
मलिअ-देशी-लघुक्षेत्रकुर॒योः, दे० ना० ६ वर्ग १४४ गाथा ।
मलिण-मलिन-त्रि० | कलुषे, प्रश्न० २ आश्र० द्वार। “ म-
लिणवत्थे ” मलिनानि वस्राणि यस्याऽसौ मलिनवस्रः ।
दशै० ३ तत्त्व!
मलिम्पुय-मलिम्लुच-पुं० । तस्करे, अष्ट० १४ अष्ट० !
मलिय-मालितं-तरि०। अधःकृते, सथा०। कृतमानभङ्ग.ग्रौ०।
षुरुषाभिलषणीययोपिदङ्गमदैने, न० । ज्ञा० १ श्रु० ६ अ०।
मलियकणटय-मलितंकण्टक--न० । मलिता मानभज्जनादि-
त्यथः करटकादयो यत्र राज्ये तन्मलितकराटकम् । स्था० ६
डठा० । मलिताः उपद्रवे कुर्वाणा मानम्लानिभापादिताः '
०
कराटका यत्र तन्मलितकर्टकम् । मालितदायादे,रा० । सूत्र०।
मलियशत्त-मलितशत्र-न० । मलितास्तद्गतसेन्यत्रासापाद्
नतो मानम्लानिमापादिताः शत्रवो यत्र तन्मलितशत्नु ।
मलिताः कृतमानभङ्गाः शत्रवा ऽगोत्रजा यत्र राज्ये तत् । श्र-
गोत्रजशचु रहिते, सूत्र० २ शु० १ अ० | ओ ।
| मलीमस-मलीमस-त्रि० । मलिन, “ ( ६०२ ) मइले मलीम-
से ` पाइ० ना० २५६ गाथा।
पननान्यसं ~ ~
मलुस्सगग-मलोत्सगं- प° । पुरीपोत्स्गे, “मृत्रोत्सग, मलो-
त्सग-मेथुन स्नानभोजनम् । सन्ध्यादिकम्मपूजां च कुयौ-
जजाप च मानवान् ॥१॥ घ० २ अधि० । ( श्रत्र विशेषता
वक्तव्य * थडिल ` शब्दे चतुर्थभागे गतम् )
मल्ल मल्ल - पुं।भुजयु द्वकारिणि,ज० २ वक्ष० | विपा०। मौष्टि-
कयुद्ध कारिणि, श्रो० । नि० चू० । बलयुक्के, आ० म० । कुड्या
वष्टस्भस्थाणों, बलहरणाश्रिते छिक्त्तराधारभूते ऊर्ध्वा $$-
यत वा काष्ठे, भ० ८ श० ६ उ० | काठिनीभूते रजासि, ओ० ।
संथा० । एकविशतितमे भविष्यत्ती थंकरे नारदजीवे, ती० २०
कल्प ।
माल्य-“श्रधो-म-न-याम्'॥८।२।७८॥ इति यकारलोपः । त-
दनन्तरम् ,अवशिष्टस्य-अनादो शेषादेशयोदित्वम् ॥८।२।८६॥
इति लकारस्य द्वित्वम्। मास्यम्। मल्ञ। प्रा० | जात्यादिकुस
म, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। उत्त० । ग्राथतपुष्पे, ज्ञा० १ श्रु० १६ श्र०।
चउव्विहे महे पष्पत्ते | तं जहा-गंथिमे बेढिमे पूरिमे स-
घाइम । ( सूत्र-३७४ )
मालायां साधु; मास्य पुष्पम्। तद्रचनापि माल्यम् ग्रन्थः स-
दर्भः सूत्रेण ग्रन्थने तन निर्वृत्त ग्रन्थिम मालादि । वेष्टन वेष्स्ते-
न निवृत्त वेष्िमं मुकुटादि , पूरणन-निर्वृत्तं पूरिमे म॒न्म-
यमनेकच्छिद्रं वंशशलाकादिपअरं वा यत् पुष्पैः पूय्यैत इति ।
संघातेन निर्वृत्त सङ्घातिमम्। यत्परस्परतः पुष्पनालादेसं-
घातेनोपजन्यत इति । स्था० ४ ठा० ४ उ०। सूत्र० । पुप्पध्वाजि,
घ० २ अधि०। प्रश्न० । पुष्पदामनि, श्रा० म० १ आ० ।
ग्रथितपुष्पमालायाम् ,जी० ३ प्रति० ४ आधि० । पश्चा०ओऔ०।
मालायाम् , (३५० ) “ मज्न माला दाम `” पाइ० ना० १४०
गाथा |
मल्लई- मल्ल फिन् -प० | राजविशेष, औ० । भ० । रा०।
मल्लकिद्ट-मल्लाकिट्ट न° । एकादशे देवलोकविमानभेदे, स°
२१ सम० |
मन्नखेड -मन्नच्वेडा-ख्री० । म्तक्रीडायाम् , द्श० १ तत्त्व ।
मन्नग-मन्नक पं? । न० । शरावे, नं० । ज्ञा० | नि०चू० । वि-
शे० । खण्डशरावे, भिक्ताभाजने, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ०।
मल्नजुञ्छ महययुद्धः न । मन्नयोहस्ताहस्तियुद्धे,औ० । ज्ञा०
मछजोय-माल्ययोग-पुँ? नवमालिकावक्लचस्पकपुन्नागा 5-
शोकमालतीविचकिलादिषु ग्रथनाहैकुसुमेषु, आचा० १ श्रु०
१ आअ० ४ उ०।
मल॒दाम माल्यदामन् -त० । मालाये हितानि माल्यानि पुष्पा-
नाट- छिस्वरंणि-बंश।दिमयानि ब्र(दनापारभूतानि करिकिःजानि |
( १४८ )
मल्लदास
अभिधानराजन्द्रः
मवि
'णि। तेषां माला इति । ज्ञा० १ श्रु० ।कुसुममालासु, प्रश्न० ३
अआश्र० द्वार। पुष्पस्नाजि, औ० | आ० म०। भ०।
उल््लदामकलाव-माल्यदामकलाप--पुं० । पुष्पमालासमूद्दे
मल्लरायकलाव त्ति” पुष्पमालासमूहा इति । जी० ३ प्रति०
ॐ अधि० । ओ० । रा०।
मल्लदिष्प-मल्लदत्त-पुं° । मज्लीती थेकूवनुजे विदेहवरराजपु
ज, स्था० ७ ठा० । ज्ञा० ।
इहल्लपेहा-मल्लप्रेज्ञा-मल्लानां प्रेत्षणके,जी० ३प्रति०७ अधि० ।
इल्लय- देशी--अपूपभेद-शराव-कुसुम्भरक्त-चषकेषु, दे०ना०
< वर १४५८ गाथा ।
अन्लराम्-मन्लराम-षं० । कस्मिश्चित् परिवत्त गोशालकजी- ।
शरीरे, “ विष्पजटामित्ता मह्नरामस्स सरीरगं अखुप्पयि-
स्सामि ” भ० २५ श०।
अन्लवाहई-मल्लवादिन्-पु* । मल्लननामक जिनानन्दर्खारिशिष्ये दर्खारिशिष्ये,
वल्लभीषुरराजशिलादित्यसमतक्ते
विजयेन वादिविरुदमाप्त खनामख्याते आचाये, पह्मचरित्र-
नामकं रामायणमनेनेव रचितम् | विक्रमसवत् ३१४ वधैऽय- |
१
प्रासीत् । जे इ०।
मल्वाणि-देशी-खी०) “मातुलान्याम् (८७०) मल्ञाणी मामी "
पाइ० ना० २५२ गाथा ।
मन्लाणी-देशी-स्त्रो०मातुलान्याम् , दे०ना०ध्वग'११२ गाथा।
प्रछि-मज्लि-कऔी० । परीषहादिमल्लजयाश्िसक्वान्माज्लः । तथा
गर्भस्थे मातुः सुरभिकुसुममा ल्यशंयनीयदोहदो देवतया पू-
रित इति मल्लिः । ध० २ आधि०। “ इयाणे मल्लि तति ` इ
परिषहादिमज्लजयात् प्राकृतशैल्या ऋन्दसत्वाच्च मल्लिः ।
तत्थ सब्वेहिं पि पर्मसहमल्ला रागदोसा य 'निहय त्ति' सा-
मन्न । । आ० चु० ।
विशेषस्त्वेवम्--
व्रसुरदि मल्लसयणंमि , डोहलो तेण होइ मल्लिजिशो
( १०८६
गञ्भगपः ५. सव्योडगवरखुरभिकुसुममज्नलसयणिज्ञ दो-
दला जातो। सो य देवताए पडिसमाणिआओरो दोहलो तेण सख
मल्लि" त्ति णामे कते । । आव० २ अ० । त्रस्यामवसपिण्यां
जाते भारतवर्धकोनविशतितमे तीथकर, अनु० । स्था० ।
मह्निपू्वभवः-
जबर ! तेणं कालेणं तेणं समणएणं इहेव जबुद्दीवे दीवे
महावदेहे वासे वासे मद्रस्स पच्वयस्स पच्चच्छिमे शं
निसदस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरणं सीयोयाए महाणदीए
दाणिणण सुहावहस्स यक्खारपव्वतस्स पचचाच्छिमेणं पच-
च्छिमलवणसमुद्दस्स पुरच्छिमेणं । एत्थ शं सलिलावती-
नामे विजए पन्नत्ते । तत्थ णं सलिलावतीषिजए वीय--
सोया नामे रायहाणी पप्मत्ता, नवजोयणवित्थिन्ना० जाव
पच्चक्खं देवलोगभूया । तीसे णे वीयसोगाए रायहाणीए
उनरपुराच्छमे दिसिभाए इंदकुंभे नामं उज़ाणे तत्थ शं
स्वगुरुविजेतुबोद्धाचायस्य |
|
|
वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राया । तस्येव धारि
णी पामोक्खं देविसहस्सं उवरोभे होत्था । तत शं सा धा-
रिणी देवी अभ्नया कदाई सीदं सुमिणे पासित्ता शं पडि-
बुद्धा ° जाव महब्बले नाम दारए जाए उम्मुक० जाव
भोगसमत्थे । तते णं तं महव्बलं अम्मापियरा सरिसि-
याणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचर्हं रायवरकन्नासयाणं
एगदिवमेणं पाशि गर्हार्वेति । पंच पासायसया पंचसता
दातो° जाव विहरति । थरागमणे इंदकुभे उज्ञाणे समो-
सदे परिसा निग्गया । बलो वि निग्गओ धम्मं सोच्चा णि-
सम्म ज नवरं महब्बल कुमार रज्ञ ठवेति° जाव एकार-
संगवी बहूणि वासाणि सामप्मपरियायं पाउणित्ता जेणेव
चारुपव्वए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे, तत शं सा कमल-
सिरी अन्नदा सीरं सुमिणे ०जाव बलभदो कुमारो जाग्र ।
ज॒यराया याऽवि होत्था । तस्स शं महव्बलस्स रना इमे छ-
प्पियवालवंयसगा रायाणो होत्था । तं जहा-अयले १,
धरणे २, पूरणे ३, वसु ४, वेसमणे ५, अभिचंदे ६, सहजा
यया० जाव संहिच्चा ते शित्थरियव्वे त्ति कट् अन्नमन्न-
स्सयमद्रं पटिसुणेति । तेण कालेणं तेणं समएण इं-
दकुंभे उज्ञणे थरा समोस्दा, परिसा णिग्गया मह-
व्वले शं धम्म सोच्चा ज नवरं छष्पियबालवयसए
आपुच्छामि बलमेदं च कुमारं रज ठवेमि° जाव छप्पि-
यबालवयंसए आपुच्छति । तते णं ते छष्िय बालवय॑सणए
महब्बलं राय एवं वदासी-जति णं देवाखुष्पिया ! तुब्भे
पव्वयह, अम्हं के अने आहारे वा० जाव पव्वयामो । तते
शं से महव्वले राया ते छष्पियबालवयंसए एवं वदासी-
जति शं तुन्भे मए सद्वि° जाव पव्वयह तो णं गच्छः
जेट पुत्ते सएहिं एहिं रजिं ठवेह॒पुरिससहस्सवाहि-
णीओ सीयाओ दुरूढा ०जाव पाउब्भवंति । तते णं से
महब्बले राया छप्पिययालवयंसए पाउब्भूते पासति पा-
सित्ता हट तुट्टे कोईबियपुरिसे सदावेह सदावेदत्ता बलभ
दस्स अभिसेओ, आपुच्छृति | तते शं से महब्बले० जाव
महया इड्रीए पव्वतिए एकारस अंगाई बहूहिं चउत्थ०
जाव भवेमाणे विहरति । तते णं तेसिं महब्बलपामों-
क्खाणं संत्तरह अशगाराणं अन्नया कयाइ एगयओ स -
हियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुन्नावे समुप्पज़ित्था जणणं
श््दं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्म॑ उवसंपज़ित्ता णं बि-
हरति । तए शं श्रम्हे्हिं सब्बे तवोकम्मं उवसंपजित्ता
शं बिहरित्तए त्ति कट्ट अप्यमप्मस्स एयमट्टू पडिसुशे-
ति पडिसुणित्ता बहूहिं चउत्थ ० जाव्र . विहरति । तते शं
से महब्जले अणगारे इप्रेशं कारणेणं इत्थिणामग,यं .
( १५६ )
मल्लि
अधिधानराजेन्द्रः
लिलि
कम्म निव्वत्तेसु जति री ते महन्वलवजा छ अणगारा च- |
उत्थं उवसंपज्ञित्ता शे विहरंति ! ततो से महब्बल अणगारे
छं उवसंपजजित्ताखं विहरइ | जति शं ते महन्बलवजा अ-
गारा छदं उवसंपजजित्ता शं विहरंति ततो से महन्बले
अशगारे अद्म उवसंपजित्ता शं विहरति । एवं अट्टम तो
इसमे अह दसम तो दुवालसं । इमेहि य शं वीसाएहि य
ऋारणेहिं आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं
निच्वत्तिसु । त जहा-
अरहंत सिद्धं पवयण, गुरु थरं बहुस्सुणं तवस्सीसु ।
वच्छन्नयां य तेसि, अभिक्खणाणोवश्रोगे य ॥ १॥
दंसण विणए आव-स्सए य सीलव्वए निरहयारं ।
खणलवं तव चियाए, वेयावच्चे समाही य ॥२॥
अपुव्वणाणगहण, सुयभक्ती पवये पभावशया ।
एएहि कारणेहि, तित्थयरत्त लहई जीओ ॥३॥ "
तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा मासि्यं भि-
क्खुपडिम उवसपजित्ता शं विहरति ° जाव एगराहयं उव-
सेपजञित्ता णं विहरं ति । तत श ते महन्बलपामोक्खा सत्त | ५ 50040 03305 कक
कि 8 ८ । तस्स णं फएग्गुणसुद्धस्स चर त्थिपक्खेणं जयंताओं विमाणा
अणगारा खुडागं सीहनिकलियं तवोकम्म उवसपजि-
सा शं विहरंति ( जुद्रकसिंहनिष्कीडिततपस्स्वरूपम् 'सी-
ह शिक्वीलिय शब्दे वच्यामे ) तए शं ते महब्बलपामो
क्खा सत्त अणगारा खुङागं सीहनिकीलियं तवोकम्म दोहिं
संवच्छरेहिं अट्रावीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्त जाव आणा
ए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवते तेशेव उवागच्छति
उवागच्ित्ता थेरे भगवते वदंति नमंसति वंदित्ता नमसि-
सा एवं वयासी-इच्छामो णं भते ! महालयं सीहनिकी-
लियं तहेव जहा खुङागं । नवरं चोत्तीस इमाओ नियत्त-
ए एगाए परिवाडीए कालो एगेशं सवच्छरेणं छहिं मासे-
हिं अहारसदहि ` य अहोरत्तेहिं समप्पेति ( विस्तरतः महा-
सिंहनिष्क्रीडितस्वरूप महासीहशणिकीलिय' शब्दे वक्ष्यामि)
सव्वं पि सीहनिकीलियं छहिं वासेहिं दोहि य मासेहिं
वारसहिं य अहोरत्तेहिं समप्पेति तए णं ते महब्बलपा-
मोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिकीलियं अहासुत्त |
०जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागछंति |
उवागच्छत्ता थेरे भगवते वदंति नर्मसति वंदिसा शमं
मित्ता बहूणि चंउत्थ ° जाव विहरंति । तते शं ते महब्बल-
पामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेण सुका भुक्खा
जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरूदंति |
दुरूहतित्ता ° जाव दोमासियाए सेलेहणाए सवीसं भत्तसय |
चतुरामीतिं वाससयसहस्सातिं सामष्पपरियागं पाउशंति |
पाउखंतित्ता चुलसीतिं पुन्सयसहस्सातिं सव्वाउयं पाल-
इत्ता जयते विमाणे देवत्ताए उववन्ना | ( सत्र ६४ )
|
तत्थ शं अत्थेगतियाशं दवाणं बत्तीसं सागरोवमाईं
ठिती। तत्थ शं महव्बलवज्ञाणं छणहं दवाणं देख
शाईं बत्तीससागरोवमाई ठिती । महब्बलस्स देवस्स प-
डिपुन्नाईं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती । तते णं ते महब्बल-
वज्जा छप्पियदेवा ताओ देवलोगाओ अउक्वणएणं टिः
इक्खएणं भवक्खएणं अशणंतरं चयं चइत्त। इहेव जबुद्दीवे दीव
भारहे वासे विसुद्धपितिमातिवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्ते-
ये कुमारत्ताए पच्चायासी, ते जहा-पमिबुद्धी इक्खागु-
राया चदच्छाए अंगराया संखे कामिराय। रुप्पी कुणाला-
हिवती अदीणसत्तू कुरुराया जितसनू पंचालादिवरईै, तत
शं से महब्बले देवे तिहिं णाणेहिं समग्गे उच्चट्ठाणट्विएसु
गहेस सोमासु दिसासु वितिमिरास विस॒ुद्धास जई तेसु सउ-
णेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पिंसि मारुतंसि पवायंसि
निष्फन्नसस्समेदणीयंसि कालंसि पमुइयपर्कीलिएस जणव-
एस अद्वरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवा-
गएण जे से हैमताणं चउत्थे मासे अद्म पक्वे फर्गुणसद्ध
श्रो बत्तीसं सागरावमट्टितीयाओ अशंतरं चयं चत्ता इहेव
जंबुदीवे दीव भारंहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स
र्नो पभावतीए देवीए ङुच्छिसि अहारवकंतीए सरीरवकं-
तीए भववकंतीए गब्भत्ताए वकते, तं यणि च णं चोदसम-
हासुामिणा वन्नओ । भत्तारकहणं सुभिणपाद गपुच्छ( ° जाव
विहरति । तते शं तीसे पभावतीए देवीए तिणह मासाणं बहु-
पडिपुन्नाणं इमेयारूते डाहले पाउब्भूते धन्नाओं शं ताओ
अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धव-
न्नेणं मन्लेण अत्थुयपचत्थुयंसि सयणिजंसि सन्निसन्नाओं
सपछ्तिवज्नाओं य विहरंति, एग च महं सिरिदामगंडं पाड-
लमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगद मणगद्णोजको -
जयपउरं परमसुहफासदरिसणिज्ञ महया गधद्धशि पुयंत.
अग्घायमाणीओ डोहलं विखेति । तते श तीसे पभावतीए
देवीए हमेयारूव डोहलं पाउब्भूतं पासित्ता अहासब्निहिया
वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय ० जव दसश्द्धबन्न `
मन्नं कुंभग्गसों य भारग्गसो य कुंभगस्स रत्नो भवर्णास
वा० साहरंति | एगं च शं महं सिरिदामगंडं० जाव मुयंते
उवशंति। तए शं सा पभावती देवी जलथलय० जावर
मन्नेणं डोहलं विणेति | तए णं सा पमावती देवी पसत्थ-
डोहला ० जाव विहरह | तए शं सा पभावती देवी नवण्हं
मासां श्द्रदमाण य रत्तिदियाशंज से हमताणं पदम
मासे दोचे पक्खे मग्गमिरसुद्ध तस्स शं° एकारसीए पु-
व्वरत्तावरत्तकालसमयासि अस्मिशीरक्खत्तणं उच्चटा
[9
( १६० )
भलि
अभिधानराजन्द्र: |
मल्लि
ण०जाव पथुहयपक्ीलिएसु जणवएस आरोयाऽऽरोयं |
एकूशवीसतिमं तित्थयरं पयाया । ( प्रत्र -६५ ) |
तेणं कालेणं तेण॑ समएणं अहोलोगवत्थव्वाओ अट |
दिसाकुमारीओ मयहरीयाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीण ज- |
म्मणं सव्वं नवरं मिहिलाए कुंभयस्स पभावताए अभि-
लाओं संजोएयव्यो ° जाव नेदीसरवरे दीवे महिमा । तया
णं कुंभए राया बहूहिं भवणवति० ४ तित्थयर० जाव क-
स्मं० जाव नामकरणं, जम्हा शं अम्हे इमीए दारियाए |
माउए मन्नसयणिजंसि डोहलेऽवि ति तं होड शं णामे-
रं मल्ली । जहा महाबले नाम० जाव परिवह्िया |
“ सा वद्धती भगवती, दियलोयचुता ग्रष्मोवमसिरीया।
दासीदासपरिवुडा, परिङ्षिन्ना षीदमहहिं ॥ १ ॥
असियसिरया सुनयणा, विंबोट्री धवलदं तपंतीया |
वरकमलकोमलंऽगी, फुल्लुष्पलगंधनीसासा ॥ २॥ ”
(घ्त्र-६&)। तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मु-
कवालभावा० जाव स्वेण जोव्वशेण य लावन्नेण य अ
तीव अतीव उकिट्टा उकिटसरीरा जाया याऽवि हात्था । तते
गश सा मल्ली दसृणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपु-
लेण ओहिणा आभोणमाणी आभोणमाणी विहरति, तं
जहा-पाडिबुद्धि >जाव जियसत्तं पंचालाहिवई । तत शं सा-
मल्ली कोडवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता तुव्भ श
देवाणुप्पिया असोगवशियाए एगं महं माहणधरं करेह
तअ्रशगखभसयसन्निविद्रं , तस्स शं मोहणघरस्स बहुम-
ज्मदेसभाए छ गव्भघरए करेह । तसि णं गब्भ-
घरगाणं बहुमज्मदसभाए जालघरये करेह । तस्स
शे जालघरयस्स बहुमज्मंदेसभाए मणिपेढिय करेह० |
जाव पच्चप्पिणंति। तते शं मन्ली मणिपदियाए उवरि अ~
प्पणो सरिसियं सरित्तय॑ सरिव्वयं सरिसलावन्नजोव्वण--
गुणोववेयं कणगमई मलत्थयच्छिडं पउम्रुप्पलपिहाणं पडिमं
करेति करेत्ता जं विपुलं असं पाणं खाइमं साइम
आहरेति ततो मणुन्नाओ असणपाणखाइमसाइमाओ
कल्लाकर्चिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामतीए मत्थय-
लिङ्ाए ° जाव पडिमाए मलत्थयेसि पक्खिवमाणी पक्खि-
वमाण विहरति । तते शं तीसे कणशगमतीए ० जाव मत्थ-
यचिङ्काए पडिमाए एगमेमेसि पिंडे पक्खिप्पमाण पक्खि-
प्पमाणे ततो गंध पाउव्भवति। से जहा नामए अडिमडे न्ति
वा०जाव एत्तो अशिट्ठतराएं अमणामतराए । (सूत्र-६७)
तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसलानाम जणवए, तत्थ
शं सागेए नाम नयेरे तस्स णं उत्तरपुरच्छिम दिसीभाए, |
एत्थ शं मर्ह एगे णागधरणए होत्था । दिज्वे सच्चे सचोवाए
~क
संनिहिअपाडिहरे । तत्थ णं नगरे पडिबुद्धिनाम इक्खा-
गुराया परिवसति, पउमावती दवी, सुबुद्धी अमे सामद॑-
ड०, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाई नागजन्नए
याऽवि होत्था । तते णं सा पडमावती नागजननमुवद्धियं
जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि° करयल० एवं वयासी-एवं `
खलु सामी ! मम कलं नागजन्नए याऽवि भविस्सति तं
इच्छामि णं सामी ! तुब्भेहिं अब्भगणुन्नाया समाणी नाग-
जन्नयं गमित्तए | तुव्भेऽवि णं सामी ! मम नागजन्नयंसि
समोसरह । तत णं पडिवुद्धी पउमावर्ताए देवीए एयमदरं
पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा रन्ना अब्भगु-
न्नाया हट्र ° कोडंवियपुरिसे सदवेति कोडंवियपुरिसं स-
दावित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुष्पिया ! मम॒ कलनं
न।गजष्पए भविस्सति तं तुब्भे मालागारे सदावेह सदा-
| वेदित्ता एवं वदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कलं ना-
गजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया जलथलय°
दस5द्धवन्न॑ मल्लं णागधरयंसि साहरह एग च शं महं सि-
रिदामगंड उवणेह । तते णं जलथलय ०दसउद्धवन्नेणं महेशं
णाणाविहभत्तिस विरइयं हंसमियमउरकोचसारसचक्वा-
यमयणसालकोइलकुलोववेयं इहामिय ° जाव भत्तिचिन्तं `
महग्धं महरिहं विपुलं पुण्फमंडवं विरएह | तस्स णं बहुम-
ज्भदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं °जाव गेधद्धणि यत .
उल्लायंमि अ।लंबह ओलंबेहित्ता पउमावातिं दवि पडिवाले-
माणा पडिवालमाणा चिद्रृह | तत शं ते कोडविया ०जाव
चिट्वंति | तते णं सा पउमावती देवी कलनं को्ुविए एवं
वदासी-खिष्पामव भो दवाराप्पिया ! सागेयं नगरं स-
न्भितरवाहिरियं आसितसम्मज्ञितोवलित्तं ०जाव फच्च-
प्पिणंति । तते णं सा पउमावती दोच्चं पि कोडुबिय०
खिप्पामेव लहुकरणजुत्तं ° जाव जुत्तामव उवड्भवेह । तते शं
तेऽवि तहेव उवद्भा्वेति । तते णं सा पउमावती अतो अं-
तउरंसि णहाया०जाव धम्मियं जां दृरूढा, तए णंसा
पउमावई नियगपरिवालसंपरिवुडा सागयं नगरं मज्मं म-
उं शिज्ञाति णिज़ित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवाग-
च्छति उवागच्ित्ता पुक्खरणि ओगाहइ आगाहित्ता जलम
जणं ° जाव परमसुहभूया उलछपडसाडया जातिं तत्थ उष्प-
लाति ०जाव गणहति गरिहित्ता जेव नागघरणए तेशेव
पहरेत्थ गमणाए । तते शं पठमावर्तीए दासचेडीओ
बहुओ पुष्फपडलगहत्थगयाश्रो धृवकडच्छुगहत्थगयाओओ
पिरतो समगागच्छंति, तते शं पठमावती सब्वड्डिए जे-
शेव नागधरे तेणेव उवागच्छति उवागच्ित्ता नागघरयं
अशपविसति अशुपतिपित्ता लो पहत्थगं उवागच्छ ति ° जव
( १६१ )
मल्लि |
धृवं डहते धृवं डह्िित्ता पडिबुद्धि , पडिवालेमाणी प-
डिवालेमाली चिट्ठाति | तते णं पडिबुद्धी एहाए हत्थिखंध-
वरगते सकोरंट ०जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहजोहमहया
भडगचडकरपहकरेहिं साकेयनगरं मञ्भं° णिग्गच्छति णि-
रगच्छित्ता जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता
हत्थिखंधाओ शिग्गच्छति शिग्गच्छित्ता पचचोरुहति पद्चो-
रुहित्ता आलोए पणामं करेइ करेत्ता पुप्फमंडव अणुपाधिसति
अणुपविसित्ता पासति तं एगं महं सिरिदामगंड । तए
शं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुरं कालं निरिक्खह
निरिक्खित्ता तसि सिरिदामगंडंसि जायविम्हए सुबद्धं
अमं एवं वयासी-तुमनं देवाणुप्पिया ! मम दोचेणं ब-
हणि गामागर ° जाव सन्निवेसाई आर्दिंडसि बहूणि राय-
ईसर °जाव गिहातिं अणुपविससि तं अत्थि णं तुमे किं
चि एरिसए सिरिदामगंडे दिद्ठपुव्वे जारिसए शं इमे
पठमावतीए देवीए सिरिदामगंड ?, तते णं सुबुद्धी पडि-
बुद्धं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया
कयाई तुब्भं दोचणं मिहिलं रायहाणि गते । तत्थ शं मणए
कुंभगस्स रो धूयाए पठमावईए देवीए अत्तयाए मन्नीए
संवच्छरपडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंड दि दरपुष्वे। तस्स
शं सिरिदामगंडस्स हमे पठमावतीए सिरिदाममंड सयस-
इस्सतिमं कलं ण अग्धति, तते शं पडिबुद्धी सुबुद्धि अ-
मचं एवं वदासी- ेरिसिय। णं देवाणुप्पिया ! मल्ली विदे-
हरायवरकन्ना जस्स णं सवच्छुरपटिलेदणर्यसि सिरिदाम-
गडस्स पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिम पि
कलं न अग्धति !, तते णं सुघुद्धी पडिबुद्धि इक्खागुरायं
णवं वदासी-विंदेहरायवरकन्नगा सुपइट्टियकुम्मुन्नयचारुच-
रणा वन्नओ, तते खं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स अमचस्स अंतिए
एयमदं सोचा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सदावेह
सदावित्ता एवं वयासी-गच्छाहि शं तुमं देवाणुष्पिया !
मिहिलं रायदाणि तत्थ णं कुंभगस्स रन्न भूयं पभावती-
ए देवीए अत्तियय मच्च विदेहवररायक्पगं मम भारियत्ता-
ए वरेहि जतिषियणशंसासयं रज्जुस्सुका, तते ण से
दृए पड़िबुद्धिणा र्ना एवं वृत्ते समाणे हद्र° पडि
सुर्णेति पडिसुशिचा जेेव सए गिरे जेणेव चाउम्घंटे
` आसरहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छिसा चाउरग्घटं
आसरह पडिकप्पावेति पडिकप्पावेत्ता दुरूढे ०जाव हय-
गयमहया भडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छति णिग्गच्छि-
त्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी
तेशेव पहारेत्थ गमणाए । (पत्रं ६८) ज्ञा०१ श्रु० ८ अ० |
( अजञ्र अरहश्नकवक्तन्यता अरहणणुय' शब्दे १ भागे व्या-
स्याता तत एवावसेया )
४१
अभिधानराजेन्द्रः। _
माल्लि
तेणं कालेणं तेशं समणएणं ङुणाला नाम जणवए होत्था।
तत्थ शं सावत्थी नामे नगरी होत्था । तत्थ णं रुप्पी कुणा-
लाहिवई नामं राया होत्था । तस्स शं रुप्पिस्स धूया धारि-
णीए देवीए अत्तया सुबाहुनाम दारिया होत्था। सुकुमाल-
पाणिपाया स्वेण य जोव्वणेणं लावण्णेण य उकिट्ठा उकि-
इसरीरा जाया याअंबि होत्था । तीसे णं सुबाहुए दारियाए
अन्नदा चाउम्मासियमज्ञणणए जाए याऽवि होत्था । तत शं
से रुप्पी कुणाला5हिवई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासिय-
मज़यणं उवट्टियं जाणति, जाणित्ता कोइंबियपुरिसे सदा-
वेति सदावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाउणुप्पिया ! सु-
बाहुए दारियाए कट्चं चाउम्मासियमज़णए भविस्सति, तं
कच्न तुब्भे णं रायमग्गमोगादौसि चरकंसि जलथलयद-
स5द्धवन्नमल्लं साहरेह जाव सिरिदामगंडे ओलइन्ति। तते
शं से रुष्पी कुणालाहिवती सुवन्नगारसेणिं सदावेति स-
दावेत्ता, एवं वयासी-खिप्यामेव मो देवाणुप्पिया | राय-
मग्गमोगादंसि पूरष्फ्मडवंसि णाणाविहपंचवन्नेहिं तंदुलेहिं
णगरं आलिहह, तस्स बहुमज्भंदेसभाए पडयं रएह रएह--
इत्ता०जाव पञ्चप्पिणंति । तते शं से रुप्पी से कुणालाहिवई
हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड० अंते-
उरपरियालसंपरिवुडे सुबाह दारियं पुरतो कट्ट जेणेव
रायमग्गे जेणेव पष्फमण्डव तेणेव उवागच्छति उवाग-
चिछत्ता हत्थिखंधातो पचोरुहति पचोरुहित्ता पुप्फमंडवं
अरणुपविसति अणुपविसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थामि -
मुहे सनिसन्ने । तत शं ताग्रो अंतेठरियाओ सुबाहुं दारि-
ये पइयंसि दुरूदेति दु०त्ता सयपीतएहिं कलसे ण्हार्णेति
शत्ता सव्वालंकारविभूसिय करेंति रत्ता पिउणो पायं वंदिरं
उवेंति। तते णं सुबाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव `
उवाच्छति उवागच्छित्ता पायग्गहणं करति । तते शंसे
रुष्पी राया सुबाहु दारियं अंके निवेसेपि निवेसित्ता सुबा-
हुए दारिथाए स्वेण य जोव्वणे०जाव विम्हिए वरिसधरं
सदावेति सदावित्ता एवं वयासी- तुम शं देवाणुष्पिया !
मम दोचेण बहूणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि,
तं अत्थि याई ते कस्स रन्नो वा ईसरस्स वा कहिं चि
एयारिसए मजणए दिद्वपुत्वे जारिसए णं इमीसे सुबा -
हुदारियाए मज़णए १ तते णं से वरिसधरे रुप्पि करयल०
एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्या तुब्भेणं दो -
शं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धृयाए
पभावतीर देवीए श्रत्तयाए मन्नीए विदेहरायकन्नगाए म-
ज्ञणणए दिदे । तस्स शं मज़णगस्स हमे सुबाहुए दा-
रियाए मज़णए सयसदस्सदमं पि कलं न अग्धेति ।
मन्लि
तण णं स रुप्पी
मई सोचा णिसम्म सेसे तहेवय मज्जणगजाणितहासे
गया वरिसधरस्स अंतिए -एय- |
दूयं स्विति सदव्रत्ता एवं वयासी-जेणेव मिहिला |
नयरी तेणेव पहारित्थगमणाण ३ । ( सूत्र ७१ )
तेणं कालेण तेणं समणणं कासी नाम जणवए हात्था, |
तत्थ णं बाणारसी नाम नगरी हात्था । तत्थ णं सख |
नामं कासीराया होत्था । तत शं तीसे मल्लीए विदेहराय-
वरकन्नाए अन्नया कयाई तस्य दिव्वस्स कुडलजुयलस्स
संधी विसंघडिए याऽवि होत्था । तत णं स कुभए राया
सवन्नगारसेणिं सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वदासी-तुब्भ णं
दवाऽणुष्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संर्धि संघा- |
उह), तए णं सा सुवन्नगारसेणी एतमई तह त्ति पडिसु- |
शेति पडि०त्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेणठेति गेण्टित्ता |
जेणेव सवन्नगाराभिसियाओं तणेव उवागच्छति उवाग-
` च्छित्ता सुवन्नागारमिमियासु णिवेसेत्ति णिवेसित्ता बहुहिं
आएहि य ० जाव परिणाममाणा इच्छति, तस्स दिव्वस्स
कुंडलजुयलस्स संधिं घडित्तए णा चव णं संचाएंति संघ-
डित्तए,तते ण सा सुवन्नगारसणी जव कुंभए तणव उवा- |
गच्छंति उवागच्छित्ता करयल० वद्धावत्ता एवं वदासी ए-
वं खल् सामी ! यज्ञ तुब्भे अम्हे सदावह सद वेत्ता° जाव |
संधि संघाडेत्ता एतपरासं पचाप्पिणह । तते शं अम्हे तं दिव्वं |
कुंडलजुयलं गणहामो जव सुवन्नगारभिसियाग्रो ° जाव |
नो संचाएमी संघाडित्तए । तते णं म्ह सामी ! एयस्स
दिव्यस्स कुंडलस्स अन्ने सरिसय कुंडलजुयलं ' घडमो ।
तते णं स कुभए राया
अंतिण एयमद्रं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं
भिररड
कलायाणं भवह ? ज णं तुव्भे इमस्म कुंडलजुयलस्स
नो संचाएह संधि संघाडेत्तण ?, त सुवन्नगारे निव्विसए
आशणवीत्ति, तते शंत सुवन्नगाग कुंभर्ण रणणा निव्वि-
सया आणत्ता समाणा जशव सातिं सातिं गिहाति तेणेव
उवागच्छति उवागन्छिता मभडमत्तवगरणमायाग्र( मि
हिलाए गयुहाणीए मज्मं मज्केणं निक्वामंति निक्व-
मित्ता विंदहस्स जणवयस्स मज्क॑ मज्केणं जेणेव कामी-
जणवण जणव बाणारसीनयरी तेणव उवागच्छति उवा-
गच्छित्ता अग्गुज्ञाणंनि सगडीसागर्ड मोएन्ति मोएड्त्ता
महत्थं ०जाव पाहुईड गदति गेणित्ता बाणारसी-
नयरीं मज्क॑ मन्फणं जंशेत्र संखे कासीराया तेणेव
उबागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं अम्हे
णं सामी! प्रिहिलातो नयर।ओ कुंभएणं रना नि-
तीसे सुवन्नगारसेणीए |
अ।नधानराजन्द्र |
निडाले साह एवं वदासी-म केशं तुब्भे
)
४ | र्त्त
व्विसया अणत्ता समारा इहं हव्वमागता तं इच्छामो
णं सामी ! तुब्भ बाहुच्छायापरिग्गहिया निन्भया
निरुच्विगा सुहं सुहेणं परिवसिउं । तत णं संखे कासी-
राया ते सुवन्नगारे एवं वदासी- किन्न तुब्भे देवाणुप्पिया !
कुभणणं रत्ना निच्विसया आणत्ता ?, तत शं ते सुव
नगारा संख एवं वदासी-एवं खलु सामी ! कुभगस्स
रन्न धूयाए पभावतीए दवीए अत्तयाए मन्नीए कुंडलजु-
यलस्स संधी विसंघडिए, तत णं से कुंभए सुवन्नगारसेणि
सद्दावेति सदावित्ता° जाव निव्विसया आणत्ता, तं एए
णं कारणेणं सामी ! अम्हे कुभएणं निव्विसया आणत्ता,
तत णंसे संखे सुबन्नगोर एवं वदासी-केरिसिया णं दे
वाणुप्पिया ! कुभगस्सधूया पभावती देवी अत्तया मल्ली
वि० तंते णं ते सुवन्नगारा सखरायं एवं वदासी-णो
खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधव्व-
कन्नगा वा ०जाव जारिसिया णं मन्नी विदेहवररायकन्ना ।
तते शं स संखे कुंडलजुअलजणितहासे दृतं सदवेति°
जाव तहैव पहारेत्थ गमणाए । ( स्त्र-७२ )
तेशं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था | हत्थिणा-
उरे नगे अदीणसत्त नामं राया होत्था °जाव विहरति ।
तत्थ ं मिहिलाए कुंभगस्स पुत्त पभावतीए अत्तए मह्टीए
अशणुजायए मदि न्नए नाम कुमारे ०जाव जुवराया याऽवि
होत्था । तते णं म्टदिन्न कुमारे अनया कोइंबियपुरिसे
सदावेति सदावित्ता ०गच्छह णं तुब्भ मम॒ पमोदवणंमि
एगं महं चित्तसभं करह अणशेग °जाव पचप्पिणति । तते
शं से मछदिले चित्तगरसेि सद्दावेति सद्दावित्ता एवं व-
यासी-तुब्भे रं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हावभावविला-
सविव्वोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह चित्तेहित्ता ० जाव
पंचप्पिणह । तत ण सा चित्तगरसेणी तह ति पडिसुणेति
पडिसणित्ता जेणेव सयाह गिहाई तशव उवागच्छति
उवागच्छित्ता तूलियाओ वन्नए य गर्हति गेण्हित्ता ज
शेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अणुप-
विसेति अणुपविसित्ता भूभिभागे विरंचति विरंचित्ता भूमिं
सज़ेंति सज़ित्ता चित्तसभं हावभाव ०जाव चित्तेडं पयत्ता
याउंवि होत्था | तत ण एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चि-
त्तगरलडी लड़ा पत्ता अभिसमा्मागया, जस्स शं दुप-
यस्स वा चउपयस्स वा अप्यस्स वा एगदेसम॒वि-
पासति तस्स णं देसाणुसारेण तयाखुरूव निव्वत्तेति,
तए श से चित्तगरदारए मछीए जवणियंतरियाए जालंऽ-
तरेण पायंऽगुद्रं पासति । तते ण तस्म ण चित्तगरस्स-
इमयारूवे °जाव सयं खलु ममं म्ौए वि पार्यऽगुदाणु-
ऋ = क
॥
(७६३ )
माल्ल
अधभिधानराजन्द्रः
मल्लि
(रण सारसग ° जवि गुशविवयसूव निव्वत्तित्तए , एवं
संपेहेति संपेदित्ता भूमिभागे सज्ञेति सज़ित्ता मल्लीएऽवि |
पायंउगुट्टा5णुसारेण ° जाव निव्जत्तेति । तते णं सा चित्तग-
रसेणी चित्तसभं ० जाव हावभावे चित्तेति चित्तित्ता
जेणेव मल्दिने कुमारे तेणेव उवागच्छ० जाव एतमाणत्तियं
पचप्पिणं ति । तए णं मल्नदिने चित्तगरमेशि सकारे स-
कारित्ता विपुलं जीवियाऽरिहं पीडदाणं दलेइ दलयित्ता |
यडिविसजेड । तए णं म्न दिने अन्नया एहाइ अंतेउ रपरिया-
लसंपरिवृडे अम्मधाईए सद्धं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवा- `
गच्छति उवागच्छित्ता चित्तसभं अणुपविसई अणुपविसि-
त्ता हावभावविलासविव्वोयकलियाई स्वाई पासमाणे पास-
माणे जेणेव मन्नीए बिदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवे शिव्व-
त्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं से मल्नदिन्ने कुमारे
मन्नीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवं निव्वतियं पासति |
पासित्ता इमेयारूवे अब्भत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था-एस
शं मल्ली विदेहवररायकन्न त्ति कट्दु लज्ञिए वीडिए विअडे |
सणियं सणियं पच्चोसकइ | तए शं मल्नदिन्नं अम्मधाई
पचचोसकंतं पासित्ता एवं वदासी -किन्नं तुमं पुत्ता ! लजिए
वीडिए विअडे सणियं सणियं पचोसक्रड् ?
पल्लदिन्ने अ्रम्मधातिं एवं वदःसी- जुत्तं णं अम्मी ! मम
जघवाए भशिणीए गुरुदेवयभूयाए लज्रशिज्ञाए मम चि- |
त्तगरणिव्वत्तिय सभं अणुपविसित्तए ? तए शं अम्मधाई
मल्नदिन्नं कुमारं व०-नो खलु पुत्ता ! एस मल्ली, एस शं |
मन्लीविदेह ० चित्तगरएणं तयाणु॒रूवे शिव्वत्तिए । तते श |
मन्नदिल्ले अम्मधाईए एयमट्ठ सोचा असुरुत्ते एवं वयासी- |
केस शे भो चित्तयरए अपस्थियपत्थिए ०जाव परिवज्धिए |
जे श मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए °जाव नि- |
व्वात्तिए त्ति कट तं चित्तगरं वज्क॑ आणवेइ | तए श सा
चित्तगरसेणी इमीसे कहाएं लद्भड्ड्रा समाणा जेणेव मन्न-
तते णं से |
दन्न कुमार तणव उवागच्छद उवाग।च्छत्ता करयलप- |
रिग्गहिय ०जाव वद्धविइ वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं |
खलु सामी ! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्ौ
लड़ा पत्ता अ(भेसमन्नागया, जस्स णं दुपयस्स वा ०जाव
णिव्वत्तेति तं मा णं सामी ! तुब्भे तं चित्तगरं वज्क॑ आ-
शवेह । तं तुब्भे णं साम ! तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाऽ-
णुरूव दंड निव्वत्तेह तए शं से मल्नदिन्ने तस्स चि- |
त्तगरस्स संडासगं छिंदाबेइ छिंदावेइत्ता निव्विसयं
आशणवबेइ । तए श से चित्तगरए मन्नदिन्ने णं णिव्विसए
अणत्ते समाणे संभेडमत्तावगरणमायाए मिहिलाओ णय-
रीओ णिक्खमइ णिक्खभित्ता विदेहं जणवयं मज्क॑ म- |
ज्केणं जणव हत्थिणाउरे नयरे जणेव कुरुजणवण जणव
अदीणसन्न राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भड-
णिक्खेवं करेइ करित्ता चित्तफलगं सज़ेइ सज़ित्ता मछीए
विदेह ° पार्यऽगुद्ाऽणुसारेण रूं णिव्वत्तइ णिव्वत्तित्ता क-
क्तरंसि छुब्मइ छुभित्ता महत्थे ३, ०जाव पाहुडं ग-
णहइ गेणिहत्ता हत्थिण पुरं नयरं मज्कं मज्फणं जव
अदीणसत्त राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तं कर-
यल °जाव वद्धाविइ वद्धावित्ता पाहुंड उवणेति उवणित्ता
एवं खलु अहं सामी ! मिहिलाओ रायहाणीओ कुभगस्स
रन्नो पुत्तेणं पभावतीए देवीए अत्तएणं मल्लदिन्नणं कुमा-
रेशं निव्विसए आणत्ते समाणे इह हव्यमागणए तं इच्छामि
शं सामी ! तुव्भं बाहुच्छायाषरिग्गहिए ०जाव परिवसि-
त्तए। तते णं से अदीणसत्तू राथा तं चित्तगरदारयं एवं व-
दासी- किनं तमं दवाणुप्पिया ! मल्लदिष्पणं निव्विसए
आशणत्त १, तए शं से चित्तयरदारए अदीणसत्त्राय एवं
वदासी-एवं खलु सामी ! मल्नदिनने कुमारे अष्पया कयाई
चित्तगरसेणिं सद् विड सद्ा (वे) वित्ता एवं वयासी-तुब्भे शं
देवाणुप्पिया ! मम चित्तसभं तं चव सव्यं भाणशियव्वं०
जाव मम संडासगं छिंदावेइ छिंदावित्ता निव्िसयं आण-
वेह, ते एवं खलु सामी ! मल्नदिननेणं कुमारेणं निव्विसए
आणत्ते। तते णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवे वदा-
सी-से रिसए णं देवाण॒प्पिया ! तुमे मन्नीए तदाणुरूवे
रूवे निव्वत्तिए ! , तते शं से चित्तग० ककक््खंतराओ चि
त्तफलय णीणेति णीणित्ता अदीणसत्तस्स उवणेइ ० न्ता
एवं वयासी-एस णं सामी ! मरज्लीएऽवि ° तयाणुरूवस्स
सूवस्स केड आगारभावपडोयारे निव्वत्तिए णो खलु
सका केणइ देवेण वा ०जाव मल्लीए विदेहरायवरकष्ष-
गाए तयाणुरूवे स्वे निव्वत्तित्तए । तते णं अदीणसत्त्
प।डरूवजशितहासे दूयं सदिति सदावित्ता एवं बदासी-
तहव ०जाव पहारेत्थ गमणयाए । ( सूत्र-७३ )
तेणं कालणं तेणं समणएणं प॑चाले जणवए कंपिह्लपुरे न-
यरे जियसत्तू नाम राया पंचाला5हिवई, तस्स णं जितस-
ततस्स धारिणीपामोक्खं दे विसहस्सं आरोहे होत्था । तत्थ
णं मिहिलाए चोक्खा नामं परिवाहया रिव्वेद °जाव प-
रिशिद्विया याऽवि होत्था । तते णं सा चोक्खा परेव्वाइया-
मिहिलाए बहूणं राईसर ० जाव सत्थवाहप भिती णं पुरतो दा-
णधम्मं च तित्थाभिसेय च सोयघम्म॑ च आघवेमाणी पष्प-
वेमाणी पस्वेमाणी उवदंसेमाणी विहरति । तते णं सा चो-
क्खा परिव्वाइया अनया कयाई तिदंडं च कुंडियं च ०जाव
धाउरत्ताओ य गणड गे रिदत्ता परिव्वाइगा 5 ऽवसाय पडि-
^
( १६४ )
मल्लि
निक््खमह पदिनिक्खमित्ता पविरलपरिव्वाइया सद्वि संपरि-
वुडा मिहिलं रायहाशं मज्मं मज्फेणं जणे कुंभगस्स र्नो
वणे जेणेव कष्पतेउरे जेणेव मल्ली विदे ह ° तेणेव उवागच्छइ
उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए दब्भोवरि पञ्चत्थुयाए
मिसियाणए निसीयति निसीयतित्ता मल्लीए विदेह ° पुरतो
दाणधम्मं च °जाव विहरति । तते शं मल्ली बिदेहा चो-
क्खं परिव्वाइयं एवं वयासी-तुब्भे णं चोक्खे ! कि मूलए
धम्मे पञत्ते १, तते श सा चोक्खा परिव्वाइया मद्वि वि-
देह एवं वयासी-अम्हं शं देवाणुषिए ! सोयमूलए धम्मे
प्पवेमि, जण्णं अम्हं किंचि असुई भवद् तष्छ उदएण य
मट्टियाए ०जाव अधिग्घेणं सग्गं गच्छामो । तए शं मल्ली
षिदेह ° चोक्खं परिव्वाइय एवं षदासी-चोक्खा ! से ज-
हानामए के पुरिसे रुदिरकयं बत्थं रुदिरेण चेव धोवेज्ञा
अस्थि शं चोक्खा ! तस्स रुदिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं
धोव्वमाणस्स काई सोही ! नो इणट्ढे समद्र एवामेव चो-
क्खा ! तुब्भे णं पाणाइवाएणं °जाव मिच्छादंसणसधेणं
नऽत्थि कई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स बत्थस्स रु-
दिरेशं चव धोव्वमाणस्स । तए शं सा चोक्खा परिव्वाइया
मन्नीए विंदेह» एवं वुत्ता समाशा संकिया कंखिया विह
(ति) गिच्छिया भेयसमावष्पा जाया याऽवि होत्था। मह्ीए
शो सेचाएति किंचि वि पामोक््खमाइक्खित्तर तुसिणीया
संचिट्ठति । तते णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ
हीलेति निंदति खिंसंति गरह॑ंति अप्पेगतिया हेरुयालंति
अप्पेगइया मुृहमकडिया करेति अप्पेगइया वग्घाडीओ करें-
` ति अप्पेगहया तजमाणीओ निच्छुमंति। तए णं सा चोक्खा
मर्ए विदेह ° दासचेडियाहिं ०जाव गरहिज़माणी ही-
लिज़माणी आसुरुत्ता ०जाव मिसिमिसेमाणी मन्नीए विदेह-
रायवरकष्माए पञ्चसमावज्ञति, भिसियं गण्दति गेरिह-
त्ता कप्ततेउसओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता मिहि-
लाओ निग्गच्छति निग्गच्छित्ता परिव्वाइया संपरिवुडा
जेशेव पंचालजणवए जेणेत्र कंपि्टपुरे बहूएं राईसर-
०जाव परूवेमाणी विहरति । | तए णं से जियसत्त अन्न-
दा कदाई अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवृडे एवं °जाव
विहरति । तते णं सा चोक्खा परिव्वाइया संपरिवुंडा
जेव जितसत्तस्स रप्पो भवणे जणेव जितस तेणेव उ-
वागच्छह उव गच्छितत अणुपविसति अणुपविसित्ता जि-
यस्तं जणशं बिजएणं बद्धावेति । तते शं से जितसत्तू चो-
क्वं परि °एज्ञमाणं पासति पासित्ता सीहासणाओ अ-
ब्युद्ेति अब्भुट्टित्ता चोक््ख॑ सकरिति सक्रारित्ता असणेणं
उवशिमतेति | तते णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए०
अभिधानराजन्द्रः |
मल्लि
जाव भितियाए निविसइ, जियसत्तुं रायं रज्ञ य य ०जाव
अतेउरे य कुसलोदं तं पुच्छह । तते शं सा चोक्खा जिय-
सततुस्स रत्नो दाणधम्मं च °जाव विहरति । तते णं से
जियसत्त् अप्पणो ओरोहंसि ०जाव विम्हिए चोक्खं एवं
वदासी- तुरम शं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाऽऽग्र ०जाव
अडह, बहूण य रातीसरागिदहातिं अणुपविससि, तं अत्थि
याई ते कस्स वि रन्नो वा ०जाव एरिसए ओरोदे दिद
पुव्वे जारिसिए णं इमे मह उवरोहे १? तएणं सा चो-
क्खा परिव्वाइया जियसत्तं ( एवं वदासी )-ईर्से अ-
वहसिय करेइ करित्ता एवं वयासी-एवे च सरिसए शं
तमं देवाणुप्पिया तस्स अगडदद् दुरस्स १, के णं दे-
वाणुप्पिए ! से अ्रगडदद् दुरे !, जियसत्तू से जहानामए
अगडददूदुरे सिया । से शं तत्थ जाए तत्थेव बु अष्पं
अगड वा तलागं वा दहे वा सर वा सागरं बा अपास-
माणे चेवं मप्णद- अयं चव अगडे वा ०जाव सागरे वा,
तए शं तं कवं रषये सामुदए दद् दुरे हव्वमागए । तए शे से
कूबदद् दुरे तं साम्रहदद्दुर एवं वदासी-से केस ं तुमं देवा-
णुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागणए १, तए शं से सामुदरए
दद् दुरे तं कूवदद् दुरं एव वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !
अहं सागुदए दद्दुरे, तए णं से कूवदददुरे तं सायुदयं दद्दुरं
एवं बयासी-के महालए शं देवाणुप्पिया ! से सुद १, तए श
से साभुदए दद्दुरे तं कूबदद् दुरं एवं वयासी-महालए शं
देवाणुष्पिया ! सयुदे । तए ण से दद्दुरे पाएणं लीहं कड
कड्डित्ता एवं वयासी- ए महालए शं देवाणुण्पिया ! से
समुद्दे १, णो इणे, समद्र, महालए णं मे सदे । तए णं
से कूवदद् दुरे परच्छमिष्छाओ्रो तीराओ उप्पिडित्ता णं गच्छ
गच्छित्ता एवं वयासी-ए महालए णं देवाणुप्पिया ! से
समुद्दे १, णो इणट्टे समद्ठे | तहैव एवामेव तुमं पि जिय-
सत्तू अन्नेसि बहूं राईसर °जाव सत्थवाहपभिईणं भज
वा भगिणीं वा धूयवा सुण्टं वा अपासमाशे जाणेसि
जारिसए मम चव शं ओरोहे तारिसए णो अप्मस्स तं
एवं खलु जियसत्तू ! मिहिलाए नयरए कुंभगस्स धृता
पभावतीए अत्तिया मल्ली नामं ति स्वेण य जुव्वणेण ° जाव
नो खलु अप्मा काई देवकना वा जारिसिया मही । बिदे-
इवररायकष्पाए चिष्पस्स वि पायं5गुट्टस्स इमे तवोरोहे
सयसहस्सतिमंऽपि कलं न अग्घइ त्ति कड जामेव दिसं
पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तते णं से जितसत्तू
परिव्वाइयाजणितहासे दूयं सदावेति सदावित्ता °जाव
पहारेत्थ गमणाए ६ । ( सूत्र--७४ )
तते णं तेसि जियसत्तुपामोक्खां छणहं राईणं दया
( १६४ )
अझभिधानराजन्द्र। ।
मल्स्लि
ना -------------------~~-------- ---------------- ---
य दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति उवाग-
ज्छित्ता भमिहिलाए अग्गुज्ञाणसि पत्तेयं पत्तेयं खधावार-
निवेस करति करित्ता मिहिलं रायहाी अणुपविसति
अणुपतिपित्ता जणे कुभणए तेणेव उवागच्छति उत्राग-
च्छित्ता पतेयं पतेयं करयल० साणं सां राणं वय-
गणार्ति निविदं ति-तते णं से कुंभर तेधि दूयाखं अतिए
एयमट्रं सोचा आ सुरुत्ते ° जाव ॒तिवलियं भिउर्डि एवं
वयासी-न देमिणं अहं तुब्भ॑ मरि विदेहवरकं ति
कदुते छष्पि दूते अप्कारिय असम्माणिय अदरिणं
णिच्छुमावेति । तते णं जितसत्ुपामोक्खाणं छण राईणं
द्या कुंभएणं रज्ना असकारिया अम्माणिया अवदरिणं
रिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जाणवया
जणेव खयातिं सयाति णगराई जेणेव सगा सगा रायाणो
तेशेव उवागच्छरति उवागच्छित्ता करयलपरि° एवं वयासी -
एवं खलु सामी ! अम्हे जितसत्तुपामोक्खाणे चं श्ईणं
दूया जमगसमगं चव जरेव मिहिला ०जाव अवद्दा-
गेण निच्छुभावेति ¦ तण देह श सामी! कुंभए मल्ली
ति, साख साणं राईणं एयमद्ं नर्दति । तते णं से जि-
थ्रपत्तुपामोक्खा छप रायाणो तेसि दूयाणं अतिए एयमद्
सोचा निसम्म आसुरुता अप्मप्रप्मस्स दूयसंपेसणं करति
करित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणु/्पिया ! अम्हं छं
राईणं दृथा जमगसमगं चेव ०जाव निच्छूढा, तं सेयं
खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह कुभगस्स जतं गणहित्तए त्ति |
कड अप्ममामस्स एतमद्रं पडिसुणोति पडिसुणित्ता णाया |
सद्धा हत्थिखधवरगया सकोरंटमछदामा ०जाव सेयव-
रचामराहिं० महया हयगयरहपवरजोहकलियाए चाहउरं- |
गिर्णाए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा सब्विड्डीए ०जाव रवेण |
सएहिं सए नगरेहिंतो ०जाव निगच्छति निगगच्छित्ता
एगयओ मिलायाति २ त्ता जेणेव भिहिला तेरेव पहारे
त्थ गमणाए। तते णं कुभए राया इमीसे कहाए लड्भ5्ट्टे स-
माणे बलवाउयं सदवेति सद्यवित्ता एवं वदासी-खिप्पा-
मेव भो देवाणु प्पिया | हय ०जांव सेषं सन्नाहेह ०जाव
पत्नप्पिणंति । तते णं कुंभए एहाते सप्द्धे हत्थिख॑धवरगए
सकोरंटवरदाममल्लनए सेयवरचामरए महया ° मिहिल म-
ज्क॑ मज्केण शिज्ञाति २ त्ता विदेह जणवयं मज्क॑ मज्के-
शं जेव देसअंते तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता खं-
धावारनिवसं करेति करित्ता जियसत्तुप्पामोक्खा छप्पि य रा- |
याणो पडिवालेमाणे जुज्मसज्जे पडिचिद्रति । ततेणंते
जियस तुपामेक्खा छप्पि य रायाणों जेणेव कुंभए तेणेव
डे
|
|
उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता कुंभएणं रत्ना सद्धिं संपलग्गा
याऽवि होत्था। तत शं ते जियसक्तपामोक्खा छप्पि रायाणो
कुभयं राय हयमहियपवरवीरघाइयनिवर्डिय चिंघद्धयप्प-
डागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसि एडिसेहिति । ठते शं
से कुंभए जितसत्तपामोक्खेहि छहिं राईहिं हयमहित०जाव
पडिसेहिए पमाणे अथामे अचवले अवीरिए०जाव अधं
रिस्णिजमित्ति कट सिगध तुरियं ° जव वेइय जेणेव मि -
हिला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपवि-
सत्ति अणुपविसित्ता मिहिलाए दुबारातिं पिहेइ पिहेत्ता
रोहसजे चिट्ठति, तते णं ते जितसत्तपामोक्खा छष्पि रा-
याणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता
मिदिलं रायहाशि शिस्सचारं शिरुचारं सन्वतो सर्मताश्रा
रुभित्ता णं चिट्ठंति। तते णंसे कुभए भिहिलं रायहार्णि
रुद्रं जाणित्ता अब्भतरियाए उवद्ाणसालाए सीहासण-
वरगए तेसिं जितसत्तुपामोक््खाण छणह रातीण छिद्दागणि
य विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहूहि आएहि
य उबाएदि य उप्पत्तियाहि य ° ४ बुद्धीहिं परिणामेमाणे
परिणामेमाे किचि आय॑ वा उवायं वा अलभमाणे ओ-
हतप्रशसकप्पे ° ०जाव मियायति। हमं च रे म्न विदेहरायव-
रकषएएगा एहाया °जाव बहूहि खुजञाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए
तेशेव उवागच्छई उवागच्छित्ता कुभगस्स पायगगहणं कर
ति। ततेणं कुंभए मद्वि बिदेहराय० शो आहढाति
नो परियाणाई तुधिणीए संचिटृति । तते शं मल्ली
वि० कुंभग एवं वयासी-तुब्भे शं ताओ ! अछ्दा
मम एज़माणं० जाव निवेसेह । किए तुब्भ अज्
ओहतमणसंकप्पा मकियायह १, तते ण॑ कुंभए मर्धि
पिदेह° एवं वयासी-एर्व खलु पुत्ता ! तव कज जितस-
त्तुपामुक्खेहि छदि रातीहिं दूया संपेसिया तेण मए अस-
कारिया०जाव निच्छूढा,तत शं ते जितसत्तुपाम॒क्खा तेसि
दूयाणं अंतिण एयमड सोच्चा परिकुषिय। समाणा मिहिलं
रायहारें निस्संचारं०जाव चिट्ठ ति। तते णं अह पुत्ता तेसि
जितसत्तपामोक्खाणं छणहं राणं अंतराणि अलभमाणे०
जाव भियायामि । तते णसा मल्ली विदेहरायवरकष्पगा
कुंभय राय एवं वयासी-मा शं तुब्भे ताओ ! ओहयम-
शर्सकप्पा०जाव मियायह । तुब्भे ण॑ ताओ ! तेति
जियसत्तुपामोक्खार्ण छण्ई राईशं पत्तेयं पत्तेय॑रहसियं
दूयसंपेस करेह । एगमेगं एवं वहह-तव देमि मरि विदेह
रायवरकणरण ति कट्टु संकराकालसमयंसि पविरलमरुसंसि
निरसंतसि पडिनिसर्वसि पत्तेयं पचेय भिहिलं रायदाणि
-------+र-~
अखुप्पवेभेद् २ गब्भधरणएछु अखुच्पवरेसह मिहिलाए रय
( १६६ )
मल्लि
अभिधानराजन्द्रः।
।
हाणीए दुवाराई पिधह पिधेत्ता रोहसजे चिट्टह, तते णं कुंभए
एवं वयासी-तं चव °जाव पवेसेति रोहसज्ञ चिट्रति। तते श
ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्नं पाउन्भूया ० जा-
व जालंऽतरेदिं कणगमयं मत्थयाच्छिडं पउयुप्पलपिहाणं
पडिमं पासति । एस णं मल्ली विदेहरायवरकष्ष त्ति कडु
मल्लीए विदेह ० स्वे य जोव्वणे य लावे य मुच्छिया
गिद्ध ० जाव अञ्फोववष्पा अ्सिमिसाए दिद्वीए पेहमाणा
पेहमाणा चिट्ठं ति। तते णं सा मल्ली विदेह ० ० णहाया०जाव
पायच्छित्ता सव्यालंकार० बहूहिं खुज्ञाहिं ०जाव परि-
क्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेव उ-
वागच्छइ उवागच्छत्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ
तं पउमं अवणेति । तते शं गंधे णिद्धावति से जहा-
नामए अहिमंडति वा ० जाव असुभतराए चेव । तते शं
ते जियसततुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया
समाणा सएहिं सएहिं उत्तरिजएहिं आसाति पिहेंति पि-
दित्ता परम्युहा चिट्टँति। तते णं सा मल्ली विदेह० ते
जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किषं तुब्भे देवाणुष्पिया !
सएहिं सएहिं उत्तरिज्ञेहिं०ण जाव परम्मुहा चिट्ठह ? ,
तते शं ते जितसत्तपामोक्खा मल्लि विदेह० एवं वर्यति
एवं खल देवाणुष्पिए !। अम्हे इमेणं असभेणं गंधणं
अभिभूया समाणा सएहिं सएहिं० जाव चिट्ठामो । तत
णं मल्ली विदेह ते जितसत्तपामुक्खे० जई ता देवा-
गुप्पिया ! इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्लाकल्लि
ताओ मणुप्माओं असण पा० ४ एगमेगे पिंड पक्खि-
प्पमाशे पक्खिप्पमाणे इमेयास्वे अ्रसुभे पोग्गलपरिणामे
इमस्स पुण अरालियसरौरस्स खेलाऽऽसवस्स वेताऽऽसव-
स्स पित्ताऽऽसवस्प सुकसोणियपूया55सवस्स दुरूवऊसास-
नीसासस्स ॒दुसूवयत्तपूतियपुरीसपुणणस्स सडण ० जा-
व धम्म॑स्स केरिसए परिणाम भविस्सति ९, तमा णंतु-
न्भ देवाणुष्पिया ! माणस्सएसु कामभोगेसु सज़ह रज्जह
गिज्भह मुज्कह अज्कोववज़ह । एवं खलदेवाणुष्पिया !
तुम्हे अम्मे इमाओ तचे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलि-
लावतिंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामो-
क्खा सत्त वि य वालवयसया रायाणो होत्था, सह जा-
या ०जाव पत्यतिता | तए णं अहं देवाणुष्यिाया ! इमेणं
कारणेणं इत्थानामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि जति णं तुब्भ
चात्थं उवसपजित्ता णं विहरह । तते णं अह द्रं उवरसप
ज़ित्ता णं विहरामि, सेसं तहेव सव्वं । तते णं तुन्भे देवाणु-
प्पिया ! कालमासे कालं किचा जयते विमाणे उववष्पा
तत्थ शं तञ्मे देमृणातिं वत्तीसातिं सागरोवमाई दिती. त-
ते शं तुब्भे ताओ देवलोयाओ अंतरं चये चदत्ता इदेव
जबुदीवे दीवे ०जाव साईं साईं रज्ञातिं उवसंपज़ित्ता
| शं विहरह । तते ण॑ अहे देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोया-
ओओ अ।उक्खएणं ०जाव दारियत्ताए पचायाया ।
“कि थ तयं पम्हुई, जं थ तया भोजयंतपवरंमि ।
बुत्था समयनिबद्धं, देवा ! तं संभरह जातिं ॥ १॥ ”
तते श तेसि जियसत्तृपामोक्खाणं छण्ह रायां मन्नीए वि-
देह ०अंतिए एतमद्ं सोचा शिसम्म सुभेशं परिणामेणं पस-
त्थं अज्कवसाणेणं लसा विसुज्ममाणीहिं तयावरणि-
ज्ञाणं ° ईहावृह ०जाव सणि जाइस्समरणे समुप्पन्ने। एयमई
सम्मं अभिसमागच्छेति । तए णं मल्लौ अरहा जितसत्तुपा-
मोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पष्मजाइस्समरणे जाणित्ता गब्भ-
घराणं दाराई विहाडावेति । तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जे
णेव मछी अरहा तेणेव उवागच्छ॑ति उवगच्छित्ता तते शं
महव्वलपामोक्खे सत्त वि य वालवर्यसा एगय्मो अभि
समन्नागया याऽवि होत्था । तते णं मछीए अरहा ते जित-
सत्तुपामोक्वे छप्पि य रायाणो एवं वयासी-एव खलु अहं
देवाणुप्पिया ! संसारभयउ व्यिग्गा ० जाव पव्वयामि तं तुञ्भे
शं कि करेह किं ववसह ०जाव कि भे हियसामत्थे १,
जियसत्तु ०मल्िं अरहं एवं वयासी-ज ति शं तुब्भे देवाणुप्पि-
या ! संसार ०जाव पव्वयह अम्हे णं देवाणुप्पिया ! के अरणे
आलंवणे वा आहारे वा पडिबंधे वा जह चव णं देवाणुप्पि-
या ! तुब्भे अम्हे इझो तचे भवग्गहणे बहुसु कज्ञसु य
मेदीपमां °जाव धम्मधुरा होत्था तहा चैव णं देवाणु-
प्पिया ! इरिह पि ०जाव भविस्सह, अम्हे वियणशंदे-
वाणुप्पिया ! संसारभउव्विग्गा ०जाव भीया जम्मणमरणा-
शं, देवाणुप्पियाणं सद्धिं ०मुंडा भवित्ता०जाव पव्वयामो।
तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे एवं बयासी-ज
णं तुब्भे संसार °जाव मए सादं पव्वयह तं गच्छह
शं तुब्भे देवाणुप्पिया ! । संएहिं सएहिं रजेहिं जेट्टे पुत्ते
रज्ञे ठावेह ठवेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दु-
सूह, दुरूढा समाणा मम अतिय पाउब्भवह । तते शं
ते जितसत्तपामोक्खा मल्लिस्स अरहतो एतमड पडिसु-
रीति | तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तु ° गहाय जेणेव
कुभए तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु
पाडेति। तते णं कुंभए ते जितसत्तु ° विपुलेणं असण पा०४
पुष्फवत्थगंधमल्लालकारेणं सकारेति °जाव पाडविसज्ञे-
ति, तते णं ते जितसत्तपामोक्खा कुंभएणं रघ्या वि-
सज्ञिया समाणा जेणेव साई साईं रज्ञातिं जणेव न-
गरातिं तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता सगाई रजति
( १६७ )
मल्लि अभिधानराजन्द्रः |
उवसंपजित्ता विहरंति । तते णं मल्ली अरहा संवच्छ-
राऽवसाे निक्लमिस्सामि त्ति मणं पारेति । (सूत्र-७५)
तेशं कालेणं तें समणएणं सकस्पाऽऽसणं चलति,तते णं
सके देविदे देवराया असणं चलियं पासति पासित्ता ओहि
पउंजति पडंजित्ता मरि अरहं श्रोहिणा आभोएति आ-
भोइत्ता इमेयास्वे अञ्फत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था-एवं
खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगस्स ०मछी
अरहा निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेति, तं जीयमेय॑डती-
यपच्चुष्पन्नमणागयाणं सकाणं० ३ अरहंताणं भगवंताणं |
निक्डममाणाणं इमेयासूवं अत्थसंपयाणं द लित्तए, तं जहा-
“ तिष्पेव य कोडिसया, अट्टासीदिं च होंति कोडीओ |
असीति च सयसहस्सा, इंदा दलयति अरहाणं ॥१॥ ”
एवं संपहेति संपेहित्ता वेसमणं देव सदविति सद्दावित्ता०
एवं खलु देवाणुप्पिया ! जबुदीहे दीवे भारहे वासे ०जाव
असीति च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह शं देवा-
णुप्पिया ! जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुभगभवणं सि इमे-
यास्वं अत्थसंपदाणं साहराहि साहरित्ता खिप्पामव मम
एयमाणत्तियं पचप्पिणाहि। तते णं से वेसमणे देवे सकेशं
देविंदेण एव वुत्ते हट करयल ०जाव पडिसुणेइ पडिसु-
णित्ता जभए देवे सदा वेह सदावित्ता एवं वयासी- गच्छह
श तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! जम्बुदीवं दवं भारहं वासं
मिहिलं रायदाणि कुंभगस्स रत्नो भवसि तिन्नेव य कोडि-
सया अट्रासीयं च कोडीओ असीयं च सयसहस्साई अ-
यमेयारूव अत्थसपयाणं साहरह साहरित्ता मम एयमाण-
त्तियं पच्चप्पिणह । तते णं त जंभगा देवा वेसमणेणं° जाव
सुणेत्ता उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अप्रकमंति अवकमित्ता०
जाव उत्तरवेउव्यियाई रूवाई विरउव्वंति विउव्यित्ता ताए उ-
किट्टाए ०जाव वीईवयमाणा जेणेव जबु्दीवे दीवे भारहे वासे |
जणेव मिहिला रायहाणी जणेव कुंभगस्स रप्यों भवणे तेणे-
व उवागच्छंति २ त्ता कुंभगस्स रनौ भवणंसि तिनि कोडि-
सया ०जाव साहरंति साहरित्ता जणेव वेसमणे देधे तेणेव |.
उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल ०जाव पच्चापिणंति,
तते णं से वेसमणे देवे जेव सके देविदे देवराया तेणेव
उवागच्छह उवागच्छित्ता करयल ० जाव पचचाप्िणति ।
तते णं मल्ली अरहा कल्लाका्चं ०जाव मागहओ पायरासो
ति बहणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य ॒पहि-
याण य करोडियाण य कप्यडियाण य एगमेगं हिराम-
कोड अद्र य य अणूणातिं सयसहस्सातिं इमेयारूव अत्थ-
सपदाणं दलयति, तए णं से कुंभर मिहिलाए रायहाणीए
तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देंसे बहुओ महाणससालाओ |
मल्लि
करेति,तत्थ णं बहवे मणुया दिप्मभइभत्तवेयणा विपुलं अ-
सण ० 9उवक्खडंति उवक्खडत्ता ज जहा आगच्छंति त°
पथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पास-
उत्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्थ-
स्स सुहासणवरगत ० तं विपुलं असणं पा०४परिभाएमाखा
परिवेसेमाणा विहरंति, तते शं मिहिलाए सिंघाडग०जाव
बहुजणो अष्पमष्पस्स एवमातिक्खति एवं खलु दवाणु-
प्पिया ! कुभगस्स रष्पो भवणसि सव्वकामगुणियं किमि
च्छियं विपुलं असणं पाणं ४ बहूणं समणाण य० जाव
परिवेसिजति,
, “वरवरिया घोसिज्ति, किमिच्दछियं दिज्ञए बहुविहीयं ।
सुर्रसुरदवदाणव-नरिंद महियाण निक्खमणे ।॥१॥ ”
तत णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया
अटसि च होंति कोडीओ असीति च सयसहस्साई
इमेयास्वं अत्थसंपदाणं दलदत्ता निक्खमामि त्ति मण
पहारेति । ( सत्र-७६ )
तें कलशं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए
कप्पे रिट विमाणपत्थडे सए सएहिं विमाणेहि सएहिं
सएहिं पासायवार्डिसएहिं पत्तेय पत्तेय चरं सामाणिय-
साहस्सीहिं तिहि परिसाहिं सत्तहिं अशणिएहिं सत्तहिं अ-
णियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि
य बहूहि लेगतिएादं देवेहि सद्धिं संपरिवृडा महया हय-
नट्ट गीयवाइय ° जाव खें थजमाणा विहरई, तं जहा-
““सारस्स य माइच्चा, वर्दी वरुणा य गदतोया य ।
तुसिया अव्वावाहा, अग्गिच्चा चव रिट्ठा य॥ १॥
तते शं तेति ले यतियारं दवाणे पत्तेये पत्तेय आसणातिं
चलंति तहेव० जाव अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं
करेत्तए ति तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहतो
संबोहणं करेमि त्ति कडु एवं संपेहेंति संपेहित्ता उत्तरपुर-
च्छमं दिसीभाय० वेउव्वियसयुग्धाएणं समोहणं ते स-
मोहणित्ता संखिज़ाईं जोयणाई एवं जहा जभगा० जाव
जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रनो भवशे
जेशेव मन्नी अरहा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अं-
तलिक्वपाडेवन्ना सरसि खिशियाई ० जाव वत्थातिं पवरप-
रिहिया करयल ० ताहि इट्टा ०एवं वयासी-बुज्कभाहि भगवं!
लोगनाहा पवत्तेहि धम्मतित्थ जीवां हियसुहनिस्सेयस-
करं भविस्सति त्ति कटं दोच्च पि तच्च॑ पि एवं वयति
वइत्ता माघं अरहं व॑दति नमस्ति वंदित्ता नमंसित्ता जा-
मेव दिसि पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया । तते शं
मल्ली अरहा तेहि लोगतिएहिं देवेहिं संबोहिए स-
8 १६८ )
सर्ति
च्छित्ता करयल० इच्छामि शं अम्मयाओ, तुब्मेहिं
अब्भणुपष्माते मुंडे भवित्ता °जाव॒पव्वतित्तए, अहासुह
देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करह । तते शं कुंभए कोडंबि-
यपुरिसे सदृविति सद।वित्ता एवं वदासी-खिप्पामेव अट
सहस्सं सोवध्मियाणं ०जाव भोमेज्ञाणं ति, अ्रष्य च महत्थं °
जाव तित्थयराऽभिसेयं उबड्ठवेह °जाव उवटूरवेति। तेणं का-
लेणं तेणं समएण चमर असुरिंदे ०जाव अच्चुयपज्वसाणा
आगया, तते णं सके देविंदे देववाया आभिओगिए देवे
सदावेति सद्दावित्ता एव वदासी-खिप्पामेव अट्ट सहस्सं सोव-
पियाणं ०जाव अघ्यं च तं विउलं उवद्धवेह °जाव उवड्॒ वेंति,
ते वि कलसा ते चेव कलसे अणुपविद्ठा । तते णं से सके
देविंदे देवराया कुभराया मल अरहं सीहःसरसि पुरत्थाऽ-
भिमुह निवेसेह अड्डसहस्सेणं सोवष्पियाणं ०जाव अभि-
सिंचंति । तत शं मन्लिस्स भगवओ अभिसेए वमाश अ-
प्पेगतिया देवा मिहिले च सर्ब्भितरं बाहिं जाव °सव्वतो स-
मता परिधावति, तए णं कुंभए राया दोच्च पि उत्तराव-
कमणं °जाव सव्वाऽलकारविभूसियं करेति करित्ता कोडुंवि-
यपु रिसे सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव मणोरमं
सीयं उवद्रुवेह ते उवड्ववेति, तते शं सके देविंदे देवराया
आभिओगिए० खिप्पामेव अणेगखभ ° जाव मणोरम सीय
उबडंवह ° जाव साऽवि सीया तं चव सीय अणुपविद्वा | तते
शं मन्नी अरहा सीहासणाओ। अञ्युटति अब्यु्टित्ता जेव
मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता मणोरमं
सीय अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरमं सीं दुरूहति दुरू-
हित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सनिसनने, तते णं कुं-
भए अद्वारससेणिप्पसेर्णीओ सदेति सदावित्ता एवं ब-
दासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! णाया ० जाव सव्वालंकार-
विभूसिया मल्लिस्स सीय परिवहह ०जाव परिवहंति। तते णं
सके दर्विदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लंं उबरिज्ल वाहं
गेण्हति, इंसाणे उत्तरिन्न उवरिघ्नं बाहं गेणहति, चमर
रादि शिं हट्टं, वली उत्तरे हेद्ल्नं अवरसेसा देवा ज-
रारि मणोरमं सीयं परिहरति |
““पुच्वि उक्खित्ता माणु-स्सर्दितो हट्टरोमकूवेहिं।
पच्छा दवति सीय, असुरिदसुरिंदनार्भिदा ॥ १॥
जलचवलकुडलधरा, सच्छद विउव्वियाऽऽभरणधारी ।
देववददाण विदा, वहंति सीय जिशिदस्स ॥ २॥ ”
तः णं मप्यिस्स अरहओ मणोरम सीये दुरूढस्स इमे अ-
इद ग्रगलगः पुरतो अहाणु ० एव निग्गमो जहा जमालिस्स। |
अभिधानराजन्द्र! |
माणे जेणेव अम्मापिश्ररो तेणेव उवागच्छति उवाग- |
तते सं मदन्निस्प अरहतो निक्वममाणस्स अप्पेगहया देवा '
श्ल्लि
मिहिल आसिय० अब्भितरवासविहि गाहा०जाव पधावंति,
तत श मल्ली अरहा जणव सहस्संववण उञ्जाणे जणव
असागवरप।यव तणेव उवा गच्छइ उवागच्छित्ता सोयाओ
पच) रुहति प्चारुदित्ता आभरणा ऽलक।रं पभावती पडि-
च्छति । तते णं पल्ली अरहा सयमेव पेचप्रुहिये लाय क-
रति, तते णं सके देविंद देवराया मन्निस्स केसे पडिच्छति,
खीरोदगमप्ुद्द पक्खिव३ । तत ण पल्ली अरहा ण॒मे।5-
त्यु णं सिद्धाणं ति कट्ठु सापाइयचरित्त पडिविज्ञति, ज
समय च णं भ्वी अरहा चरितं पडिवज्ञति, तं समयं
चर देवाणं माणताण य णिग्घासे तुरियनिणायगीय-
वातियनिग्घेसे य सकस्स बयणमेदसरणं तिलुके या5-
वि हांत्था । ज॑ समय च णं मल्ल अरहा सामातियं च-
रित्ते पडिवन्न तं समयं च णं मल्लिस्प अरहतो माणु-
स्सधम्माञ्यो उत्तरेर् पणपज्ञवनाण ससुप्पन्न । मन्ली श
अरदा जस देमंताणं दाच्च मास चउत्थ पक्षे पोयसुद्ध
तस्म ण॒ पोससुद्धस्स एकारसीपक्खणं पञ्यऽएदकालस-
मयंसे अट्मणं मत्तणं अपाणएण अस्सिणीहिनक्ख-
त्तं ज।गघरुवागणएणं तिहि इत्थासएड अब्भितरियाए
परिसाए रिदिं पुरिससएहि बादिरियाए् परिसाए सद्धिं
भंड भवत्ता पव्यइए, पन्लि अरह इम अद्र रायकुमारा
अणुपव्वःसु; त जहा--
^“ ंदे य णंदिभित्ते, सुपित्त' बलमित्ते' भाणमित्ते य।
अमरवतिं अमरसेणे, महसेणे चव अट्टमए ॥ १॥ ”
तए शं से भवणवइ-बराणमंतर-जोइसिय--वेमाणिया
मन्लिस्स अरहतो निक्मणमद्िमं करेति करिता जेणेव
नदीसरबरे ° अद्भाहियं करति करित्ता° जाव पडिगया । तते
णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वतिए तस्सेव दिवसस्स
पुव्या5 (पच) वरण्कालसमयंसि असोगपरपायवस्स अहे
पुढविसिलवद्य॑सि सुहासणबरगयस्स सुहेणं परिणमेणं
पसत्थेहिं अज्कमवसाणे हिं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्क-
माणी हिं तय वरणकम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अ-
णुपविद्वस्स अशते ०जाव केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने ।
( सूत्र-७७ )
तेण कालेणं तेणं समणएणं सव्वदेवाणं आसणातिं च-
संति समोसढा सुखेति अट्टाहियमंहाम ० नंदौीसरं जामेव
दिसं पाड ०कुंभए वि निगच्छति | तते णं ते जितसत्तु-
पागुक्खा छप्पि य० जट पुत्ते रज्ञे ठावेत्ता पुरिससहस्सवा-
हिणीयाओ दुरूढा सब्बिद्शीए जेणेव मंछी अर०जाव पज्जु-
वासंति, तते णं मल्ली अरर० तीसे महालियाए कुंभगस्स
तेसिं च जियसत्तुपामुक्खाणं धम्म कहेति परिसा जामेव
(१६६ )
मच
दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । कुंभए समणो-
वासए जाते, पडिगए पभावती य । तते णं जितसत्तू
छप्पि रायाणो धम्म सोचा आलित्तए णं भते ! ०जाव पव्व-
इया, चोहसपुव्विणो अणंते केवले सिद्धा । तते णं मल्ली |
अरहा सहसंववणाओ निक्खमति निक्खमित्ता वहिया
जणवयविहारं विहरइ, मललिस्स णं भिसगपामोक्वा अट्टा- |
वीस गणा, अट्टावीसं गणहरा होत्था | मन्लिस्स णं अरहओ |
चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उको० बंधुमतिपामोक्खाओ
पणपषप अज्ञियासाहस्सीओ्रो उको० सावयाणं एगासत-
साहस्सी चुलसीतिं सहस्सा० सावियाणं तिनि सय-
साहसीओ पण्णद्रं च सहस्सा छस्सया चोदसपुव्वीणं वी-
से सया ओहिनाणीणं वत्तीसं सया केवलणाणीणं पणतीसं
सया वेउव्वियाणं अट सया मणपज्ञवनाणीणं चोदस सया
वाइंणं वीस सया अणुत्तरोववातियाणं । मछिस्स अरहओ
दु विहा अतगडभूमी होत्था, तं जहा-जुरयतकर भूमी परिया-
यंतकरभूमी य ०जाव वीसतिमाओ पुरिसजुगाओं जु्य-
तकरभूमी, दुवालसपरियाए अतमकासी । मी णं अरहा
पणुवीसं धरणतिमडं उचत्तणं वण्णणं वियंगुसमे समचउ-
रंससंठाणे वज्ञरिसिभनारायसंघयणे मज्भदेसे सुदं सुहेणं
रित्ता जेणेव सम्मेयपव्वए तेणेव उवागच्छ उव्राग-
चिछत्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुववण्णे मछीण य एगं
वाससत अगारवासं पणपण्णं वाससहस्सातिं वाससयऊ
अआआभधानराजन्द्रः
भसाण
डिबुद्धी इक्खागराया नदच्छाए अगराया रुप्पी कणालाऽ-
हवई सख कासीराया अदाणसत्तू कुरुराया जयसच्त पचाल-
राया | स्था० ७ ठा० |
श्री मल्लिजिनस्य द्वादशपर्षदामवस्थितिदेशनादों सर्वजिनव-
त्किवा भिन्नत्वमिति प्रश्ने, उत्तरम्-देशनाकाले द्वादशषष-
दामवास्थतिस्सव्वजिनसमाना वेयाव्रच्यं तु साध्व्यः कु्व्य-
न्तीति । १४६ प्र० | सन० ३ उल्ला०।
मल्लिक-रमाह्लिक -पारसाकः शब्दः । स्वामान, ता० ३६ कर्प !
मल्लिजिण-मछिजिन-पुँ० । एकोनविशे अवसर्पिणीती थेकरे,
प्रव० २७ द्वार । आ० चू० ।
मल्लिज्कपण-मल्ल्य ध्ययन-न० । श्रीज्ञातासूत्र 5शमाध्ययन
अदीनशजत्न॒राजस्य मल्लीसखरूपा 5वगमाशधिका रे, तए रे सि मन्न-
दिन्न कुमार तस्स चित्तगरस्स सडासगे लिदावति, "इत्यत्र स-
दंशकशब्देन किमुच्यते? तस्य कि छेदितम् ? वृत्तो व्याख्यात न
(ल ~ = | “अ ० [ > ^
दश्यत । आवश्यकवृत्त्युपदेशमालादो घट्टीवृत्ति श्राद्धविधि-
प्रमुखग्रन्थषु सगावतीसवन्ध संदेशक एवं लिखितोऽस्ति
परं सदेशकस्यवाथः कः ? तेन तस्याः स्तर प्रसाद्य इति
परश्च, उत्तरम्-सदेशकशब्देनात्राङ्गष्टप्रदेशिन्योरग्रमृच्यते यतो
विशेषावश्यकवृत्तो चित्रकरसम्बन्धाधिकारे निर पराधस्यैक
चित्रकरस्याडुग्गुष्ठप्रदोशन्यो रग्रे छेदित शतानीकनरपति-
नेत्युक्कमस्तीति । १७१ प्र०। सन० ३ उल्ला० ।
मल्लियच्छ-मलिकाक्ष-त्रि० । माक्षिका-विचक्िलस्तद्धदत्तिणी
यस्य स मज्ञिकाक्षः । शुकलात्त, हस्मिलामउलमज्लियच्छा-
श "" ।आए० ।
राति कवालपारयाग पाडणत्ता पणपण्ण वाससहस्साई मलिया-मल्निका-खरी° । विच किलपुष्प य॑ज्ञाक वलीति प्रास-
सव्याउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पदमे मासे दोच्ेे पक्खे
चित्तसुद्धे तस्स णं चतसुद्धस्स चउत्थीए भरणी ए णक्खक्तणं
अद्भरत्तकालसमयंसि पंचहिं अरज्ञियासणएदहिं अब्भितारियाए
परिसाए पंचहिं अणगारसएहिं बाहिरेयाए परिसाए मासि- |
एं भत्ते अपाणएणं वग्धारियपाणी खीणे वेयणिज्ञे आ- |
उए नामे गोए सिद्धे एवं परिनिव्वाणमहिमा भाशियव्वा ज- |
हा जबुद्दीवाम तोए, नंदीसरे अट्टाहियाओ पडिगयाओ । एवं |
खलु जव ! सम भगवया महावीरेणं अट्टमस्स नायज्क-
यणस्स अयमदरे पष्पत्ते त्ति वेमि। (सत्र७८)ज्ञा० १ श्र०य्अ०।
मही णं अरहा पणवीस धरा उडं उच्चत्तेणं होत्था |
( स० २५ सम० । ) म्चिस्स ण॑ अरहओ पणपन्नवास- |
सहस्साई परमाउ पालइत्ता सिद्धे बुद्ध °जाव सव्वदुक्ख- |
प्पहीण । स० ५४ सम० |
मल्लिवक्तव्यता प्रतिबद्ध अप्टमे ज्ञाताध्ययने, स० १८ सम०।
आए चू० । भरतवर्ष भविष्यत्यकानविशे तीथकरे, ( समवा- |
याङ्ग त्वय विवादशब्दनोक्कः । परव ० ७ द्वार ) प्रश्न० आवण ।
मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मंडे भवित्ता अगाराओ
अणगारिय पव्वइए, तं जहा-मद्टिविदेहरायवरकण्णगा प-
४३
द्वम्। ज० ३ वक्ष० । ज्ञा० | आ० । उत्त० । स्नानमाज्नकावे-
शष, आ० म० १ आ० | कटप० । प्रज्ञा० ।
| मल्नियामंडव-मालिकामणएडप-एं० । मल्लिकामय मरडपे, जी०
३ प्रति० ४ अधि० ।
मल्लिणाय-मक्लिज्ञान-न० । मल्ली एकोनाविशतितमजिनस्था-
नोत्पन्ना तीर्थकरी सेव ज्ञानम्। ज्ञाताधम्मकथाया अष्टमे 5 ध्य-
यने, ज्ञा० १ श्रु० १ आ० |
मल्नलिसिश-मल्लिपिण-पुँ० | नगिन्द्रगच्छीये उद्यप्रभसारिशिष्ये,
सच १२१४ शकर वत्तेमान आसीत् | स्याद्वादमज्र्खम् -अन्य-
योगव्यवच्छेदिकां रीकां च्र व्यरीरचत् | ज० इ० ।
मल्हरणं-देशी-लीलायाम् , द० ना० £ वग० ११६ गाथा |
मस-मप-पुं० । चणकाकृतों शर्ररोत्थे कृष्णवर्ण गोलमांसे,
अनु० ।
मसग-मशक-पं०। चतुरिन्द्रियजन्तों,उत्त० ३६ अ०। आचा०।
विश० | आ० क० | जं० । प्रश्च० । श्रौ० | ज्ञा० ।
मसगघर-मशकग्रह-न० । खनामख्याते मशकनिवारणे पर्य-
ड्च्छादनवस्त्र, ज्ञा० ६ श्रु० १ अ० |
मसाण-श्मशान--त० |" शादेः श्मश्रुश्मशा ने
इत्यादेलुक । मसाणं। प्रा” २ णाद |
22
दिलुवन, दश० १०
[व ४ दल जि 9 |
( १७० )
मसाण
« पश्मवणं पिउवणे मसारो च'"पाइ० ना० १५८ गाथा।
मसाणपाल--श्मशानपाल--7० । शवदादस्थानरक्तक, "उज्ज
{त स्म श्मशान सा, रक्ककम्बलवाए्टतम् | श्मशानपाला मात-
ङ्गः, ध्रच्य पनन्यं तमपयत् ॥१॥ आ० क०४अ० । श्राव ।
मसाणपिउ-श्मशानापत-पु०। स्वनामख्याते यत्ते, “ मसा-
णमज्के मसाणपिउनाम जक्खो अइप्पसिद्धों अत्थि ”
दशे० १ तत्त्व ।
मसाणसामंत-श्मशानसामन्त-पु० । श्मशानसमीपे, स्था०
२० ठा०।
मसार-मसार-पुं० | मर्रणीकारके पाषाणविशेषे, शा० १ श्रु०
? आ०।
मसारगन्न मसारगन्ल-पुं० । | रत्नविशेष,ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। |
रे | महअर-देशी-गहरपतो, दे० ना० ६ बगे० १२३ गाथा ।
उत्त०। सूत्र० | रा० | प्रज्ञा० | ज० । श्रा० म० | स्था०।
मसारगलछ॒कांड-मसारगल्लकाणड--न० । मसारगज्नप्रभ रत्नप्र-
भाया नरुकपृथ्व्याः कारडे, स्था० १० ठा० |
अभिषधानराजन्द्र! | |
|
ममि-मपि-(षी)-खी० । कज्जले, भ० १५ श० । जञ० । मषी- |
प्रधाने भाजन, ज्ञा० ६ श्रु० ८ आ० । मनुष्योपलक्तिते लखन-
जीविनि, पुं० | तं०।
मसिगुलिया- मर्ष गुलिका-खी०। घोलितकज्लगुटिकायाम , |
जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
ममिण -मसण- मख्ण खगाङ्ग ल्यु यङ्ग घृष्ट वा” ॥८।११३०॥ |
डात ऋत इद्धा । मासरण। मसी) ग्रा० १ पाद। कोमलत्व-
जि, रा० । सुकुमारस्पर्श, बृ० ३
उ०। आ० | अपरुष, आ० । |
॥न० चू० ६ उ०। सझुच्ण, स्था० ८ टठा०२ उ०। वश रम्य, द°
ना० ६ वगे ११८ गाथा। मन्दे
अलस जड़ मरालेच । खेले निहआओ सदर. वीसत्थ मथर
मिच्च ॥१५॥” पाइ० ना० १५ गाथा | कामले, पाइ० ना० ६१
गाथा ।
ममिणित्र -मसृशित-चि०। चिक्र, “रोसाणीओ मसिशणिआं”
(६६४) पाइ० ना० २२४ गाथा । ।
मसीद-मसीति- श्रये पारसीकः शब्दः । श्रल्लोपासनस्थाने
यवनानां दवालय , श्रीवस्तुपालन चतुःषष्टिमंसीतयः का-
रिताः , दत्तिणस्यां श्रीपर्वतं यावत् पश्चिमायां प्रभास वा-
चत् उत्तरस्यां कदार यावत् पृवस्यां वाराणसी यावत् ।
ती० ४१ कलठ्प।
ममीमरमा-मषीमृपा--ख्री० । मपीप्रधाना मूषा । मपीप्रधाने
ताम्रादिधातुप्रतापनभाजने, मषी च === ==. इन्दे । कज
लान्दुरुविशपयोाः, पुं० | शा० १ श्रु० ८ अ०।
मसर मसूर पु । स्वनामख्यात धान्यभेंदे,आचा० १ श्रु० १
श्र“ ५ उ० | प्रच० । प्रज्ञा०। भिलिङ्ग, चणकिकायाम , इत्यन्ये ।
(सूत्र २४६)॥ भ० ६ श० ७ उ० । मसत मालवादिदेशप्रसिद्धा
धान्यविशपाः । जञ० २ वत्त ० । विशे० । प्रश्ना० | मसूरः चणकः।
दशा० ६ श्र°। “मसूरा चणइयाओ ।` स्था० ५ ठा० ३ उ०।
लामयुक्क पक्तिभद्, प्रशा० १ पद् ।
, मासण माणश मद्रु, मद् |
दश० ५ तत्त्व । ज्ञा० कट्प० । चमध्र॒त कपादेपूण दूरे बल्वलग-
दिकादेके, बृ० ३ उ०। ॥
मह--काडन््--धा०। ग्ृद्धो, “काल्लराहाहि लक्काहि लङ्ख वश्च-
वंफ-मह सिह विलुम्पाः ” ॥ ८।५। १६२॥ इति काङ्घतमेटादेशः।
मह इ | कंखइ। प्रा० ४ पाद । “मे मद मम मह मह मज्मः मज्ज
अम्ह अम्हं ङसा""॥ ८। ३। ११३ ॥ श्रस्मदो ङ्सा षष्ठ्यक-
वचन मदादेशः । मह | मम । प्रा० ३ पाद् ।
मह-मदहपूजायामिति धातोः किपि महः। गा० | आ० म० २
अ० । प्रतिनियतदिवस्भाविन्युत्सवे, जे० २ वक्त ।
महत्-चि०। विस्तीरी, च०प्र० १७ पाहु० | सूत्र० । विशाले
रा०। प्रवले, आचा० १ श्रु० ५ अ० ४ उ० । प्रधाने, श्राव
अ०। उत्सव, न०। “छर मरे (८३८)” पाइ०ना० २४८ गाथा ।
महइमहालय-महातिमहाल(ता-खत्री ०)य-त्रि। महती चासा-
वतिमहती चति महातिमहती तस्ये । आलवप्रत्ययश्वेह् प्राकृ-
तप्रभवः । महान्तश्च तेऽतिमदालयाश्चति मदातिमहालयाः
अथवा-लय इव्येतस्य स्वार्थिकत्वान्महातिमहान्त इत्यथैः ।
स्था० ३ ठा० ४ उ०। रूढिवशादतिमहाति, ध० ३ अधि०।
“तप रौ ते थरा भगवता तसि समणावासयाणं तीसे य
महइमहालियाए परिसाए चाउज्ामं धम्म परिकहेति ”
भ०२ श० ५ उ०। रा० | स्था० । महामहान्त इति वक्कव्ये
समयभाषया “ महइमहालया `" इत्युङ्कम् । स्था० ४ ठा० २
उ० । विपा० ( “ महइमहालया ” इति पदं * कुरा”
शब्दे तृतीयभाग ४८६ पृष विस्तरतः व्याख्यातम् )
दो कुराओ पपत्ताओ्रो । देवकुरा चथ, उत्तरझुरा चेव ।
तत्थ ण दो महतिमहालता महद् दुमा पष्पत्ता । तं जहा-
कूडसालमली चव, पउमरुक्खे चेव । ( ६२०८ ) स्था०२
ठा० ३ उ०।
महतिमहालियं महती चासो अतिमहालिका च गुर्वी महा-
तिमहालिका श्रत्यन्तगुरुका इत्यथैः । विपा० १ श्चु° ३आ० ।
अतिमहत श्राद-
तओ महइमहालया पष्पत्ता। तं जहा-जबुद्दीवे मंदरे,मंदरेसु ।
सयंभुरमणे समुद्दे, समुद्देसु | बंभलोए कप्पे, कप्येसु । (२०५)
द्विरुच्चारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्वेग्रुरुत्वख्या-
पनाथम् । ्रव्युत्पन्नो वा श्रयमतिमहदरथे वर्तेत इति ( म-
दरेखु तति ) मेरूणां मध्ये जम्बृद्धीपकस्य सातिरेकलक्तयोज-
नश्रमारत्वाच्छेषाणां चतुणा सातरेकपञ्चाशीतियोजनस-
हस्मप्रमाणत्वादिति । स्वयभूरमणो महान् सुमेरोरारभ्य त
स्य शेषसवेद्वीपसमुद्रे भ्यः समधिकप्रमाणत्वात् तेषां तस्य
च क्रमेण किचिन्न्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति ! बह्म-
लोकस्तु महान् तत्प्रदेशे पञ्चरज्जुप्रमाणत्वाज्ञोकविस्तरस्य
तत्प्रमाणतया च विवक्तितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । स्था
हे ठा० ४ उ०।
| महई -महती-ख्ी० । वाद्यविशेषे, रा० । प्रौढायाम्, सूत्र० १
श्रु० ४ अ० १ उ० | मदाविष्रयायाम्, प्रशंन० ४ अआश्रं० द्वार ।
॥+०५#"- जधीक आए: ८“ जाली का
( १७१ )
मद्रे
परशत्तायाम्, व्रपा० ६ श्रु० ३ अ० । भ्र०। सर्वधमोनुष्ठा-
नानां बृहत्त्याम्, प्रश्न० ˆ महति क्षि ” सर्वंधर्मानष्ठानानां
बृहती, श्राह च-“ एकं चिश्र एत्थ वयं, निहिट जिणवरेहि *
सब्वदि । पाणाऽतिवायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खा य"
॥ १ ॥ प्रश्न० १ सव० द्वार ।
महगो -देशौ--उष्ट् , दे° ना० ६ वरी ११७ गाथा।
महंत महत्- तरि ° । शीघ्रादित्वात्तथारूपम् । प्रा० २ पाद् । बृ-
हत्तरे, सू्०२ २ श्रु० २ अ० । विस्तीर्णे, सूत्र० १ श्र० ५ अ०
, उ० । महाविस्तीरै, विशाल, गुरुके, प्रश्न० ४ संव०
द्वार । प्रशस्त, विपा० १ श्रु० ३ श्र०। सूत्र०।
तत्र महच्छब्दनिक्तपार्थ नियुक्रिक्दाद--
शाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य |
एसो खलु महेतम्मि, निक्खेवो छव्िहो होति ॥१४२॥ |
{ रामे ठवणत्यादि ) नामस्थापनाद्रव्यत्तत्रकालभावा ऽ4-
स्मका महति षड़िधा निक्षेपा भवति-- तत्र नामस्थापने,
खुक्ञाने । द्रव्यं महदागमतो, ना आगमतश्च । श्रागमतो ज्ञाता |
तत्र चानुपयुक्कः, नाश्रागमतस्तु-ज्ञशरीरभव्यक्तरीरव्यतिरिङ्ग
सचित्ताऽचित्तमिश्रमेदात्जिधा । तत्रापि सचित्तद्रव्य म-
इत् ओदारिकादिकं शगरम्, ततोदारिकं याजनसदखपरि-
माणे मत्स्यशरीरम् , वेक्रियं तु याजनशतसदसखपरिमाणम्
तजसकामण तु लाकाऽऽकाशधमाण,तदतदादारिकवाक्रियतेज-
सकामेणरूपे चतुर्विध द्रव्यं सचित्तमदद्। । अचित्त महत्-सम-
सअभिधानराजन्द्रः।
स्तलाकव्याप्यचित्तमहास्कन्धः.मिध्रे तु तदव मत्स्यादिशरी-
रम्. त्तत्रमहत् लाकाकाश.कालमहत् सवा-द्धा, भावमहदाद-
यकादभावरूपतया षादा | तजादायका भाव सवससारषु
विद्यत इति छत्वा वदहूाश्रयत्वान्महान भवति | कालतोऽप्य
सो त्रिविधः। तद्था-ञ्ननाद्यपथवंसितोऽभव्यानाम्, श्रनादि-
सपयवसितो भव्यानां, सादिसपयवसिता नारकादीनामिति
क्तायिकस्तु कवलज्ञानदर्शनात्मकः सादयपयवसितत्वात्,काल
तो महान ्तायोपशमिका ऽप्याश्रयवदुत्वादनाद्यपर्यवसितत्वा
च प्रहानिति । आपशामिकाऽपि दर्शनचारित्रमोहर्नायालुदय-
तया शुभभावत्वेन च महान भवति । पारिणामिकस्तु सम- |
स्तजीवाजीवाश्रयत्वादाश्रय महत्वान्महानिति । सान्निपाति- |
को ऽप्याश्रयवहुत्वादेव महानिति । सूत्र० २
महदभिधित्खुराद--
शमं ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाणे * पडभावे |
एएसि महतां, पडिवक्खे खुड़या हंति ॥१७८ ॥
नाममहत्-महदिति नाम,स्थापनामदत-मटदिति स्थापना,
दव्यमदान्-श्रचित्तमहास्कन्धः। दश० ३ आअ० | त्नागमता
ज्ञातानुपयुक्तो द्वव्यमहत्, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीर-
श्रु° २ श्र०।
व्यतिरिक्तम् द्रन्यमहत्, श्राचत्तमहास्कन्धः द्रडादकरणन ।
यश्चतुर्भिः समयैः सकललाकमापूरयति | ( उत्त०्पाई ६
अ० ) क्षेत्रमहल्लोकालोकाकाशम् , कालमहान-अती तादिभदः
सम्पूर्ण: कालः । प्रधानमहत््-सचित्ताचित्तमिश्रभदात् , स- |
क ५ चिवि दिपदचतुष्पदापदमे [>~ [|
चित्त धम्, दचतुष्पदापदभदात् । तत्र द्विपदानां |
तीथकरः प्रधानः, चतुष्पदानां हस्ती, श्रपदानां पनसः,
[क्य ॐ मि # रू 4 यांदिवि
अचित्तानों वेडूर्यरत्नम् मिश्राणां तीथकर एव वेडर्यादिवि-
मरन
भूषितः प्रधानः इत्यत एव चेतषां महच्वर्मिति प्रतीत्य महद्
आपेतक्तिकम् , तद्यथा-आमलकं प्रतीत्य महत् विल्वम् . विल्वं
प्रतीत्य कपित्थमित्यादि । भावमदत्त्रिविधम् , प्राघान्यत
कालतः श्राश्रयतश्चेति । प्राधान्यतः त्षायिको महान मुक्लिहे-
तत्वेन तस्यैव भ्रधानत्वान् , कालतः पारिणामिकः जीवत्वा
जीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिज्ीवा अजी-
तया परिणमन्ते श्रजीवाश्च जीवतयेति, श्राश्रयतस्त्वौ-
दयिकः प्रभूत ( ससारि ) सत््वाश्रयत्वात् , सर्वसंसा
रिणामेवासो विद्यत इति । दश० ३ आ० | प्रशुस्व, र ।
महायामे, श्रो० । महच्छब्दस्य बहवोऽथाः । तथाहि-
महच्छब्दो बहुत्वे, यथा महाजन इति । अस्ति बृहस्वे, यथा
महाघोषः । श्रस्तोव्यर्थे, यथा महाभयमिति । श्रस्ति प्राधान्य
यथा महापुरुष इति तत्रेह प्राधान्ये वतमाना गृहीत इति |
पतान्नयुक्रिकारो दशेयितुमाह--
पाहन्ने महसदो, दव्वे खेत्ते य कालमवे य ।
तत्र महावीरस्तव इत्यत्र या महच्छब्दः स प्राधान्य वर्तमाना
गहीतः, तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्तत्रकालभावभदात् षोढा !
प्राधान्ये नामस्थापने छ्षुरण, द्रव्यप्राधान्यं ज्ञशरीरभव्यशसी `
रव्यतिरिक्तं सचित्ताचित्तमिश्रमेदात् तरिधा । सचित्तमपि
दिपदचलतुष्पदापदभेदात् त्रिधैव । तत्र द्विपदेषु तीश्रकरचक्र
वत्यादिकम् ,चतुष्पदषु हस्त्यश्वादिकम् ,अपदेषु प्रधाने कल्प
वृत्तादिकम्,यदिवा-इहेव ये प्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शरुत्कृष्टा
पोण्डरी कादयः पदार्थाः, अचित्तचु-बेड्डर्यादयों नानाप्रभावा
मणयो,मिश्रेषु तीथकरों विभूषित इति । क्षेत्रतः प्रधाना-सि
दधिः धर्मंचरणाश्रयणान्महाविदेहं च.उपभोगाज्ञीकरणन तु द -
चकुर्वादिकं क्षत्रम् , कालतः पधान त्वेकान्तसखुषमादि, या व,
कालविशषो धमचरणश्रतिपत्तियाग्य इति । भावप्रधानं तु
त्तायिको भावः ती्थकरशरीरापत्तयोदयिको वा, तत्रह दय-
नाप्यधिकार इति । सूत्र० १ श्रु० ६ श्रः । आण०्म० ।
दीर्ध, ज्ञा० १ श्रुण ८ अ०। महत्त्व. सत्त्वरजस्तमोरूपान्ध -
धानान्महान-बुद्धिरित्यथः । सूत्र० ६ श्रु० १ श्र० १ उ० ।
महत्त्व मरारपि महत्तरशरीरकरणसामर्थ्यम् ,तथा प्राप्तिभूमि
छस्याङ्कल्यग्रण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादिस्पशनसाम र्थ्यमिति
यागशास्त्रवृत्तों-'“ कफाविप्रमलामश-- सर्वौ षधिमहद्धयः
इत्यस्य व्याख्याने प्रोक्तमस्ति परमव्रोत्कर्षताऽप्युन्सेधाङ्-
लमानन लक्षयोजनप्रमाणस्य वैक्रयशसीरस्य सभवान्मेरो
रपि महत्तरशरीरकरणं , भूमिष्ठस्याङ्कल्यग्रेण मे्व्यग्रादिस्य -
शने कथ घटत ? इति प्रश्न, उत्तरम्-यद्यपि “ सरीरमुस्सटं ;
गुलेण तह त्ति '' उत्तधाङ्कलेन शरीरमानमुक्रमास्ति , त -
थापि तत्प्रायिकं सभाव्यते तन न काप्यनुपपत्तिः । अन्यथा
भूमिष्ठस्याङ्खट्यत्रेण मरुपवताग्रादिस्पशांसभवात्। कि च -य
द्यकान्ततः शसीरमुत्सधाङ्कुलनेव स्यात् , तदा प्रज्ञापनापा-
ङ्गादावुक्रा दादशयाजनप्रमाणशरीरा ऽसालिकाजीवा मडा-
विदेदादिचकरिणां प्रमाणाडुलेन द्वादशयोजनप्रमाणस्य स्क-
न्धावारस्य विनाशहेतुः कथं सभवति | कथं वा कृतलक्षयो-
जनवैक्रियरूपेण सौं धर्मदेवलोकं गतेन चमरेन््द्रेण एकः पादः
पद्मवरवेदिकायां सुक्को ऽपरश्च सुधर्मोसभायामित्यादिक भ-
गवत्यायुक्लं सभवतीति । ६ प्र०। सन० २ उल्ला० ।
इ । १७२ )
सहततर
अभिधानराजन्द्रः ।
महग्गह _
महंततर-महत्तर-त्रि० । आयामता महाँत,भ० १२ श० ३ उ०।
महंतमलय- महामलय-पु० । महाँश्वांसों मलयश्व महामलयः।
विन्ध्य, स्था० & ठा०।
सहंतर महदन्तर-न०। विवर, “ एवं सच्चामहत्तरं ” महद्-
न्तरं धर्मावशेषकर्मणो वा विवरं ज्ञात्वा, यदि वा-मनुष्याये
चेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा । सत्र १ श्रु०ण २
अ० २ उ०।
महाविकम-महाविक्रम- तरि०। महान् विक्रमो विहारक्रमेण प्र-
भूतन्तेत्रव्याक्िरूपो येषां ते तथा । प्रभूतं क्षेत्र विह॒तवत्सु,ने० ।
महंऽधकार- महान्धकार पु । तमस्काये,स्था०४ ठा० २ उ०।
महातमोरूपत्वात्तस्य । भ० ६ श० ५ उ०।
महक्खंधवग्गणा महास्कन्धवगेणा- खी” । पुद्रलस्कन्धादि-
विख्रसा परिणामेन टउङ्ककृटपवैतादिसमाधरितयघु पुद्ररषु ,
पे० सं० ५ द्वार ।
महक्खया-महाख्या- खी० । एकत्र पटे सप्तसप्ततिप्रतिमा-
प्रतिष्ठायाम् , घ० २ अधि० ।
महगोव- महागोष- पुं । अहेति , विशे० ।
अडवीए देसयत्तं, तहेव शिज्ञामया समुद्ृम्मि ।
छक्रायरक्खणऽदट्रा, मह गोवा तेण वुच्यति ” ॥ २६५६ ॥
विशे० । (व्याख्यातैषा * अरिहंत' शब्दे प्रथमभागे ७देयपृष्े)
महग्गह- महाग्रह प° । श्रङ्गारकादिषु भावकेतुपयैवसानेषु
चन्द्रपरिवारभूतेषु ग्रहेषु, स० ।
एगमेगस्स णं चदिमघ्रियस्स अट्टासीह अद्रासीई् मह-
प्गहा परिवारो पष्पत्ता ।
पएकेकस्यासंख्यातानामपि प्रत्यकमित्यर्थः । चन्द्रमाश्व सूर्य-
च चन्द्रमःसूर्य तस्य, चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्यथः । अष्टाशीति
महाग्रहाः, पते ` च यद्यपि चन्द्रस्येव परिवारा ऽन्यत्र श्रयते
कथााप सृयैस्यापीन्द्रत्वादेत एव पारवारतया अवसया
इात । स० ८८ समण० |
सख्याता महाशत्रहानाह---
दो इंगालगा, दो वियालगा, दो लोहितक्खा, दो सशि-
चरा, दो आहुणिया, दो पाहुणिया, दो कणा,दो कणगा,
दो कणकणगा, दो कणगविताणगा, दो कशगसंताणगा,
दो सोमा, दो सहिया, दो आसासणा, दो कज्ञोपगा, दो
कव्वडगा, दो अयकरगा, दो दुंदुभगा, दो सखा, दो सख-
पन्ना, दो सखवन्नाभा, दा कंसा, दो कसावन्ना,दो कंस-
न्नाभा,दो रुप्पी, दो रुष्याभासा,दो णीला,दो णीलोभासा,
दो भासा, दो भासरासी,दो तिला, दो तिलपुप्फवष्पा, दो
दगा,दो दगपचवन्ना, दो काका,दो कर्कधा,दो इंदग्गीवा,
दो धूमकेऊ, दो हरी, दो पिंगला, दोबुद्धा, दो सुक्का,
दो बहस्सती, दो राहू, दो अगत्थी, दो माणवगा, दो
कासा, दो फासा, दो धुरा, दो पम्म॒ुहा, दो-वियडा, दो
विसंधी,दो नियल्ला,दो पंइन्ना,दो जाडियाइलगा,दो अरुणा,
दो अग्गिल्ला, दो काला, दो महाकालगा, दो सोत्थिया, दो
सोबत्थिया, दो वद्भमाणगा, दो पूसमाणगा, दो अकुसा,
दो पलम्बा,दो निचालोगा,दो शिच्चुज्ञाता, दो सयंपभा,
दो ओओभासा, दो सेयकरा, दो खमकरा, दो आभकरा, दो
परभकरा, दो अपराजिता, दो अरया, दो असोगा, दो
विगतसोगा, दो विमला, दो वितत्ता, दो वितत्था, दो
विसाला, दो साला, दो सुव्वता, दो अणियट्टा, दो एग्-
जडी, दो दुजडी, दो करकरिगा, दो रायग्गला, दो पुप्फ-
केतू , दो भावकेऊ। ( सूत्र ६० )
अज्ञारकादयो 5श्ाशीतिग्रेहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मद्द॒ए-
पुस्तकेषु केषुचिदेव यथोक्कसंख्या सवदतीति सूर्यप्नज्नप्त्य-
जुसारेणासाविह सवादनीया । तथाहि,तत्सूत्रम- तत्थ खलु
इमे अद्बासीई महग्गहा पन्नत्ता, तं जहा-इंगालप १ वियाल-
प २ लोहियक्खे ३ सरिच्छरे ४ ४ आहुणिए ५ पाहुणिण ६ क-
णे ७ कणप ८ कणकणए € कणावयाणए १० कणसताणु-
ए १९ सोमे १२ सहिए १३ अस्सासणे १४ कलजोयषए १५ क-
ब्बडण १६ श्रयकरण १७ दुंदुभए १८ सखे १६ सेखवरणे २०
सखवन्नाभे २१ कंसे २२ कंसवर्णे २३ कंसवन्नाभे २४ णीले
२५ णीलाभासे २६ रुप्पी २७ रुप्पोभास २८ भासे २६ भास-
रासी ३० तिले ३१ तिलपुप्फवरणे ३२ दगे ३३ दगपंचवण्ण
-३४ काण ३५ काकंधे ३६ इंदग्गी ३७ ध्रमकेऊ रे८ हरी ३६
पेगले ४० बुह्े ७१ सुक्के ४२ बहस्सई ४३ राह ४४ अगत्था४५
माणवगे ४६ कासे ४७ फास ४८ धुरे ४६ पमुहे ५० वियड ४१
विसंधी ५२ नियज्ने ५३ पयले ५५ जडियाइल्लए ५५ अरुणे ५६
अग्गिन्लण ५७ काले ५८ महाकाले ५६ सात्यिए ६० सोवत्थि-
ए ६१ वद्धमाणगे ६२ पलेवे ६३ शिच्चालाए ६५ निच्चुज्राए
६५ सयंपभे ६६ ओभासे ६७ सेयकरे ६८ खमकरे ६६ आभ-
करे ७० पभकरे ७१ अपराजिए ७२ अरए ७३ असोगे ७४
वीयसोगे ७५ विमले ७६ वियत्ते ७७ वितत्थे ७८ बिसाले ७६
साल ८० सखुठ्वप ८१ अनियद्टी ८२ एगजडी ८३ दुजडी ८४
करकरिए ८५ रायर्गले ८६ पुप्फकेडः ८७ भावकेऊ ८८ ”'
स्था० २ ठा० ३ उ०।
अज्ञारको १बिकालको रलोहिताक्षः ३ेशनेश्वर: ४ आधुनिकः ५
प्राधुनिकः६ कणः७कणकः८कणकणकः ६ कणवितानकः १०क-
णसनन््तानकः १ १सोमः १ ९सहितः १३ आश्वासनः१७ कार्यापगः
१५कबु रकः १ ६अयस्का रकः १७दुन्दुभकः १८शडन्खः १६ शङ्ख-
नाभः२०शड-खवर्णा भः* १ कंसः २९कंसनाभ:२३कंसवर्णा भः२७
नीलः २५ नालावभासः २६ रूपी २७ रूपावभासःर२८भस्मः २६
भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुप्पवेः ३२ दकः रे३े दक-
वर्णः ३४ कायः ३४ काकन्ध्यः ३६ इन्द्राञ्निः ३७ धरमकेतुः ३८
हरिः ३६ पिङ्गलः ४० बुधः ४१ शुक्रः ४२ वृहस्पतिः ४३ राहु
४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६, कामस्पशः ४७ धुरः; ४८
श्रमुखः ४६ विकटः ५० विसन्धिकल्पः ४१ प्रकल्पः ५२
जटालः ५३ अरुणः ४४ अज्िः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७
स्वस्तिकः ५८ सौर्वस्तिकः ५६ वधमान: ६० प्रलम्बः ६१
निव्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयम्प्रभः ६५ श्रवभासः
६४ फ्रेयस्फरः ६६ त्तमङ्करः ६७ आभइरः ६८ प्रभङ्करः ६६
७ ०» प० धन न
~ ----~ ~ -------- निजता --------
र
उम
( १७३ )
4हग्गह अभिधानराजन्द्रः। _ सहरण्णवा
अरजाः ७० विरजाः ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विततः
७४ विवस्थः ७५ विशालः ७६ गालः ७७ सुतः ७८ आनि-
चुक्तिः ७६ एकजटी ८० द्विजरी ८१ करः ८२ करकः ८३
राजा ८७ अगलः ८५ पुष्पः ८८ भावः ८७ केतुः ८८ । कल्प०
१ अधि० ६ क्षण ।
इदं संग्रहणीगाथाभिनियन्त्रितम् , तथादि--
“४ इंगालए वियालप, लोहियक्खे सरिच्छुरे चेव ।
आहुणिए पाहुणिए, कणगसनामाउ पंचेव ( ११)॥ १॥
सामे सहिए आसा-सणे य कज्जोवए य कव्वडए ।
अयकरए दुंदुहए, संखलनामाउ तिन्नेव (२१)॥ २॥
तिन्नेव कंसनामा, णीला रुप्पी य होंति चत्तारि ।
भास तिलपुष्फवन्ने, (दगे य) दगपण (पंच) वरणे य कायका-
कंधे ( ३६) ॥ ३॥
इंदग्गि घूमकेऊ, हरि पिंगलए बुहे य सके य।
बहस्सइ राहु अगत्थी,माणवए कास फासे य ( ४८ ) ॥४॥
श्रे पमुद्े वियडे, विसाधि शियले तदा पयल्ले य ।
जडियाइलए अरुणे; अग्गिलकाले महाकाले ( ५६ ) ॥ ५॥
सोत्थिय सोवत्थिय व-द्धमाणंग तहा पलवे य ।
निच्चालोप णिच्च-जोप, सयेपभे चव श्रोभासे (६७) ॥ ६॥
सेयंकर खमंकर, आमंकर पभेकर य बोद्धव्वे ।
अरप विरष य तहा, असोग तह वीयसोरे य (७५) ॥ ७ ॥
विमल वितत्त वितत्थे, विसाल तह साल सखुब्बए चेव ।
अनियद्टी एगजड़ी, य होइ विजडी य बोद्धव्वे ( ८९ ) ॥ ८ ॥
क़रकरए रायग्गल, बोद्धव्वे पुप्फं भावकेड य (८८) ।
अट्टासीइ गहा खलु, णेयव्वा आखणुपुब्बीए ॥ € ॥ "”
स्था० २ ठा० रे उ० |
महग्घ-महार्घ-त्रि० | महामूल्ये, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। आव० ।
उत्त० । “ महग्घवरपट्टणुग्गयं” महाघो बहुमूल्या घरे प्रधाने
पत्तने वस्त्रत्नोत्त्पत्तिस्थाने उद्भता निष्पन्ना ततः कर्मधारय-
स्तम् । कट्प० । प्रश्न० । सथा०। दश० । बहुमूल्ये, विपा०
१ श्रु० ३ उ० | सू० भ्र० | करट्प० । आ० म० । भ्र०। महतां
योग्य, भ० १५ श० । आ० म्र०।
महऽग्यय-महाधंक-चि० । महती श्रघौ यस्य स महाः महा-
थे एवं महाधकः । बहुमूल्ये, उत्त० २० श्च ० ।
महचंद-महाचन्द्र-पं° । स्वनामख्याते शाभाज्जनीपुरीराजे, |
विपा० १ श्रु ४ ० । जिनदासपितरि, सोगन्धिकानगसरा-
ज, विपा० २ श्रु० ६ आ० ।
महच-महाच-महाच्य--माहत्य-पुं०। महार्चो महायो वा मा-
हत्ये महत्त्व तद्योगात् माहत्यः गुणगुणिनोरभेदापचारात् ।
ईश्वरे, स्था० ३ ठा० १ उ० | भ०।
महचपरिसा-महाच्यपरिषद्-ख्री° । महाचानां-सततपूज्या-
नां मदाच वा परिषद् महाचप्ररिषद् । प्रधानपधदि, पूज-
नीयानां पदि च | भ० १ शु० १ उ०।
महज्जुइय-महायद्युतिक-त्रि० । महती द्युतिः शरीरगता55भर-
शगता च येषामिति महादयु तयः । भ्रज्ञा०२ पद् । म्रहती चु-
तिस्तपोद्रैशिजा लेश्या वा श्रस्येति महाद्यातिः । उत्त ० १
० । स्था० । जी० | आ०। श्रा० म०। रा० | खू० प्र०। ज०।
99
च० प्र०। स्था०। ज्ञा०। उत्त० | शरीराभरणाद्यपेक्षया अतिद्यु-
तो, तपोदीक्षिसमुत्पच्नलश्यायुक्र च च | भ०१ श० ७ उ०। स्था०।
मह5ज्भयण-महा5ध्ययन-न० । महान्ति च तान्यध्ययनानि
च पूवैश्चुतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्त्वादेतेषामिति । सूत्र ० २ श्रु०
१ आअ०। आ० चू० । पुरडरीकादिप्रभ्रतिषु सूत्ररृतो दवितीय -
स्कन्धस्य सप्तस्वध्ययनघु, बृ० ६ उ० । स्था०।
महद्भि-महद्ि खी । यावच्छक्तितुलितायां परिवारादिका-
याञ्द्धो, रा०। *
महड्डिय-महाड्विंक-त्रि० । महती ऋद्धिविंमानपरिवारादिका
यस्य स महद्धिकः । जी० ३ प्रति २ उ० । श्रनुत्तरवेमानिका-
दौ, दश० ६ अ० ४ उ०। विमानपरिवारादिकाया ऋद्धेर-
त्यदूभुतत्वात्। आ० म० १ अ० । भ० | औ० । ऋद्धिविकुर्व-
णतया सहिते, उक्त० १ आअ० । श्रौ० । विमानपरिवारादिस-
म्पदुपेते, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । सू०प्र० । ज० | महती महाप्र-
माणा प्रशस्या वा ऋद्धिश्चक्रवर्तिनमपि योधंयदित्यादिका
विकरणशक्तितस्तृणा पग्रादपि हिरएयकोटिरित्यादिरख्पा वा
सम्ठृद्धिरस्याति । उत्त० १ आअ०। सप्राप्तषद खणडराज्ये, उत्त०
१ अ० । महती ऋद्धिश्ुत्रादिराजचिह्वरूपा यस्य सः । क-
ल्प० १ अधि० १ क्षण | महती ऋद्धिरावासरत्नादिका यस्य-
स महद्धिकः । स्था० २ ठा० ३ उ०। महती ऋद्धिः सखुखादिस-
म्पदस्य स महद्धिकः। उत्त ५ अ० । बृहद्धिभूतिके, उत्त० १३
अ० । ग्रामस्य नगरस्य वा रत्ताकारिणि, बु० ६ उ० । व्य० |
महेश्वरे, पश्चा० ८ विव०। (लेश्यादिक्मेण यथोत्तरं महद्धि कः
त्वं यथा अरवौगटपद्धिकत्वामिति ‹ लस्सा ` शब्दे वच्यते )
मह-मथन- प° । मथने,विनाशके , पिठ॒गेहे, दे० ना० ६ वर्ग
११४ गाथा ।
महणदेवी-महणदेवी-खी० । स्वनामख्यातायां कान्यकुब्जे-
भ्वरखुतायाम् , “सा च जनका कुञलिकापद गुजरधरित्री-
मवाप्य तदाधिपत्यं मुक्त्वा स्रुता सती तत्रैव देशाधिष्ठात्ी
समजनि ।” ती० ४१ कर्प ।
महणसिंह-महणिंह--पु०।(विक्रमसवत्-१ २७३)अब्बुदतीथा-
दतलज्ञस्य पितरि, ती० ७ कल्प । ( अनत्र विस्तरः -श्रव्वुय'
शब्दे प्रथमभागे ६८६ पृष्ठ गतः “ तत्रा55द्यतीथैस्योद्धता ?
इत्यादि ४६ श्लोकेन )
। महणिगा(या)-महणिका-खरौ° । कान्यकुब्जेश्वरखुतायाम ,
गुजरदेशाधिष्ठाञ्यां देव्याम्, ती० २५ कर्प ( अजत्यवर्शनम्
“ अरिट्ठणमि ' शब्दे प्रथमभागे ७६७ पृष्ठ कृतम ।)
महणिज-महनीय- त° । पूज्ये, अवन्तिषु प्रसिद्धस्याभि-
नन्दनदेवस्य स्वनामख्याते सेवके, “ महनीयाभिख्यो मे दुः-
स्वाङ्कुलीयं भगवदुदेशेन कृतवान ।'' ती० ३१ कल्प ।
महप्मव-महार्णव-पुँ० । महासमुद्र , व° ४ उ०।
महष्पवा-मह्णैवा-खी" । मारवा इव यावद्रहदकत्वान्मटा-
रीवगामिन्यो वा यास्ता महारवाः | “इमा पच महरणवा-
गंगा जमुणा सरऊ एरावई वा कोसी मही ।” प्रति | ग० ३
अधि० । स्था० । नि० चू० । ( पञ्च मदारवाः ' णदइसतार '
शब्दे व्या ल्याताश्चतु्थभागे १७३६ पृष्ठ । )
( १७४ )
मक्तत्तर
अभिधानराजन्द्रः।
महृष्प
प्रहत्तर--मटत्तर-ज०। अय मदान् अय महानथ मनयारातिश-
यन महान्महत्तरः “आतशायन तरप्रमपाविति तरप् प्रव०४
द्वार । पन्ये, स्था० ४ ठा० १ उ० | कञ्चुकिभिन्ने अन्तःपुरर-
क, ओ० । ग्रामकूटे ग्राममहत्तरे, नि० चू० २ उ०।
महत्तरकप्प-महत्त रकल्प-पुँ० । पूज्यस्थानीये, औं० ।
महत्तरग-महत्तरक--पुं० । अन्तःपुरकार्यचिन्तके, भ० ११ श०
१९३ उ० । “ जे रण्णो समीवं अतेपुरिया णयति त्राणंति वा
रिउणाहाये वा कटति कुविय वा पसादेति कटति य रण्णो
विदिते कारणे अणणतो ऽवि य अग्गितो काड वयति ते महत्त-
रगा" अन्तःपुररत्तके, ओ० । ग्रामग्रधाने,उय० ७ उ०।तदाधि-
तजनापेक्षया उत्तमे, ज्ञा० १ श्रु° १ ० । विपा० । ज० ।
गुरुतरत्वे, आ० म० १ अ० । राज्यकायैकारकं, उय० ।
महत्तरकलक्षणमाह--
गंभारो महृवितों, कुसलो जाइविणयसंपन्नो ।
जुबरण्साए सहितो, पच्छड कजा महत्तरओ ॥
यो गम्भीरो लब्धबुद्धिमध्यभागों, मार्दीविता मार्दबो-
पतः । संजातं मार्दवमस्येति तारकादिदर्शनादितचूप्रत्ययः ।
कुशलः सकलनीतिशास्त्रदत्तो जातिविनयसंपन्नो युवराजेन स-
हितः सन् प्रेत्षत कार्याण राज्यकार्याणि स महत्तरक इति ।
ठय० १ उ७०।
महत्तरा-महत्तरा- खी ० । प्रवत्तिन्याम् , , आव० ६ अ० ।
महत्तरागार महत्तराकार-पु° । पत्याख्यानापवादभेदे,पचा ०५ |
चिव० । प्रव० | आव० । पे० व० । ( विशेषार्थः “पुरिम शब्दे
पञ्चमभागे १०१० पृष्ठे गतः )
मह तरिया-महत्तरिका-खी० । प्रधानतमायाम् , स्था० ६ ठा०।
महत्तरिका नाम दिशाकुमारिका । तुल्यविभवादिकुमारिका-
शामनतिक्रमणीयवचनायां दिक्कुमारिकायाम् ,आ०म० १अ०।
मत्तो अस्मद् -पञ्चम्येकवचनम् डर्गस । “मइ मम मह मज्जा
ङसौ "*॥८।३।११९॥ इति अस्मदः पञ्चम्यकवचने मदादेशः ।
ङसेस्तु त्तो आदेशः | प्रा० ३ पाद ।
मह5त्थ-महाथै-त्रि० | महान परिमितो द्रव्यपयांयात्मकतया
थॉ<डमिधेय यस्य तन्महार्थम् । उत्त० १३ अ० । महान्प्रभूतो5
अृः-फलं स्वरूपाद्यभिधय यस्य तन्महार्थम | महागोच रे, पा०।
महान् प्रधानो देयोपादेयप्रतिपादकत्वेनाथों यस्मिस्तन्महार्थ-
म् । दश० २ अ० । महाप्रयोजने, ज्ञा०१ श्रु० १ अ० । बृहदाभि-
शये, पश्चा० ७ विव० । भ० । विपा०। पे० सं० । कमे० । ने०।
पशञ्चा० । चे० प्र० । सामायिके द्वादशाहृपिण्डार्थत्वात्ू । आ०
म० १ आ० । अल्पाक्षरलपिदादशाहूसंग्राहित्वात्। आ० म०१
अ० । महानर्थो-श्ञानवेराग्यादिकों यस्मात्स महाथेः | मो-
च्तपथे, त । विशे० । ‹ महत्थ त्ति ' महानर्थो यस्य स महा-
थः । आ० म० १ अ० (:सिद्धपपदिं महत्थं' १ इत्यादिगाथाः
कम्म' शब्दे ततीयभाग २६१ पृष्ठ व्याख्याताः)
मर् ऽत्थत्त महाथेत्वं- न° । बृहदाभघयतायाम् , , ओऑ०। स०
२५ सम० |
मदऽन्थसरूवा-महा्थरूपा- खी० । महान् द्वव्यपर्यायभेद्स हि-
ता निश्चयग्यवहारसदितश्चाथों यस्य तन्महाथ तादशं रूपं
|
यस्याः सा महाथरूपा | महाथैलक्तणायाम् , उत्त० १३ श्र ० ।
महऽत्थरूवा वयणप्पभूया,
, गहाणुगीया नरसंघमज्के ।
ज भिक्रखुणो सीलगुणोववेया,
इह जयते समणो5म्हि जाओ ॥ १२ ॥
उत्त० १२ अ०।
महत्थार-देशी-भाण्ड, भोजने, इति सातवाहनः । दे० ना० ६
वग १२५ गाथा । ।
महदह-महाहद् -पु° । वषैधरपर्वेतोपरितनेचु हदेषु, स्था० २
ठा० ३ उ० । ( श्रत्रत्या सवौ वक्कव्यता * दह ` शब्दे च-
लभागे २४८६ पृष्ठे गता )
महऽदि- महार्दि ख्री०। श्र्दगतौ, याचने च इति वचनादर्दि-
यौञओा । महती ज्ञानोपष्टम्भादिकारणविकलत्वादपरिमाणा
शअरदिंमहारर्दिः। परिग्रहे, पश्च ५ आश्र० द्वार।
महददम-महाद्रम-पुं० । बलेर्वैरोचनेन्द्रस्य पदाल्यनीकाधि-
पतो, स्था० ७ ठा०।
महद्धण-महाधन-चि०। महामूल्ये,बृ० ३ उ०। औ० | आचा०।
| महन्द-महान्तः-जसि विभक्नों रूपम् | अधः क्वचित् ॥८।४
२६१॥इति शारसन्यां तस्य दः | महन्दो । विशाले,प्रा०७पाद ।
महपंचभूय-महापञ्चभूत-न०। महान्ति च तानि सर्वेलोकव्या-
पित्वाद् भूतानि महाभूतानि । पृथिव्यत्तजोवाय्वाकाशास्ये-
चु भूतेषु, सूज ० १ श्रु० १ अ० १ उ०।
महपाण-महापान--न० । अतिदीधकालिके ध्याने, तं० ।
महापानशब्दस्य व्युत्पालिमाह--
पियई त्ति व अत्थपए,मिणइ त्ति व दो वि अविरुद्रा। २५७
पिवतीति वा मिनोतीति वेति द्वावपि शब्दावेतावविरुद्धौ
तत्त्वत एका थौवित्यथः । तत एवं व्युत्पत्तिः । पिवति अथ-
पदानि यत्र स्थितस्तत् पाने, महश्च तत्पान च महापान-
मिति । व्य० ६ उ०।
श्रथ महाप्राणध्याने कः कियन्तं कालमुत्कर्षतस्तिष्ठतीति
` प्रतिपादनार्थमाद-
वारस त्रासा भरहा-ऽदहिवस्स छच्वेव वासुदेवाणं ।
तिष्पि य मडलियस्स, छम्मासा पागयजणस्स ॥२५६॥
महाप्राणध्यानमुत्कषतो भरताधिपस्य चक्कवर्तिनो दादश
वर्षाणि यावत् , वाखुदेवानां बलदेवानां च षडवत्य्थः | त्रीणि
वर्षाणि मारडलिकस्य, षरामासान् यावत्प्रारूतजनस्य । व्य ०
६ उ० । स्वनामख्याते ब्रह्मलोक॒विमाने , उत्त० १८ अ० ।
महप्ओआ-महापूजा- खनौ ०।प्रभावनादिना बृहद्वन्दने,सर्वाज्ञाभ-
रणविशिच्ाङ्गपत्रभङ्गारचनयुष्पग्रहकदलीगरहपुतजिकाजलय --
न्त्रादिरचनानानागीतनृत्याद्यत्सवे्मदापूजा । ध० २ अधि० ।
महऽऽप्प-महात्मन्-पु०। महा न्नमला नष्कषाय आत्मा यस्य
स महात्मा । अकष्णायांण, उत्त० १२ अ० । सम्यगात्म-
भावपरिणने, अछ० ३२ अछए० । आचा०। दश० ¦ महाना-
त्मा । यस्य स महात्मा । अजुग्रहपरायणतया महोंदारे, घ० १
अधि० । स्था०। महाजुभावतायाम् , ज्ञा० १ श्रु० १६ अ०।
के: कि + ॥ , ,॥ >
( २७५ )
व
ह अभिधानराजेन्द्र १।
मह्यल
महानचिन्त्यशक्त्युपेत श्रात्मा-स्वभावो यस्य स महा--
त्मा । तीथेकरे, ने । । आ० म० १ अ० । ्रहान्प्रशस्यो वि-
शिष्टवीय्योँज्ञसित श्रात्मा अस्येति महात्मा। उत्त० १२ अ०।
आ० म०।
महप्पगन्भ-महाप्रगल्भ पं । स्फारे, प्रश्न १ आश्र०
द्वार ।
महप्पवास- महाप्रवास- पु° । दीधनिद्रायाम् , , आचाए० १ श्रु०
२० ४ उ० ¦
महप्पभ महाप्रभ पुण । इच्छवरद्वीपदेवे, स्० प्र° १६ पाहु० ।
द्वी० ।
महप्पिय-महाप्रिय-त्रि०। अतिवज्लभे, दश० १ अ० ।
महन्बल-महाबल- पुं । पवैतादुत्पाटनसामथ्योपेते, ज्ञा० १
श्रु० १ अ०। स्था० । विशिष्टशारीरप्राणे, औ० । कल्प० १
अधि० १ क्षण। भ०। ओ० । प्रज्ञा० | हस्तिनापुरराजस्य
चलस्य पुत्रे, भ० ।
तत्कथा चैवम्-
तेशं कलशं तेणं समणएणं हत्थिण।(ग)पुरे णामं णयरे होत्था,
व्पञ्ो, सहसंववणे णामं उज्ञाणे, वष्मओ, तत्थ श ह-
त्थिण।(ग)पुरे णामं णयरे बले णामं राया होत्था,वष्पत्रा,त-
स्स श बलस्स रप्यो पभावरईणामं देवी दोत्था,सुकुमाल वष्प- |
ओ, ०जाव विहरइ । तए श सा पभावई देवी अष्पया
कयाई तंसि तारिसगंसि वासरं से अड्मितरओ सचित्त- |
कम्मे बाहिरओ दूमियघट् मदर विचित्तउन्नोगचिल्लिलतले
सामाकारं लीलायंतं जभायतं नहयलाओ उवयमाणं निः
ययवयणपतिकंतं तं सीह सुविणे पासित्ता ण पडिवृद्धा।
तए शं सा पभावई देवी अयमेयास्वं अरालं ° जाव सस्सि-
रीयं महासुविणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हद
| तु०जाव हियय। धराहयकलवपुप्फगं पिव समूससियरो `
।
मणिरयणपणासियंधकारे बहुसमसुविभत्तदेसभाए पंचवष्प-
सरससरभिमुकपुप्फपुजोवयारकालिए काला(गु)गरुपवरकुं- |
दरुकतुरुकधूवमघमघंतगधुदयाभिरामे सुगंघवरगंधिए गंध-
बद्डिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि स/लिंगणवद्ठिए उभ-
ओ। विव्वोयण दुहओ उन्नए मज्केण य गभीरे गंगापु लिण-
वालुयउदालसालिसए ओयविय खोमिय दुगुनल्लपट्टपाडिच्छ-
यणे सुविरश्यरयत्ताणे रत्तसयसंवुडे सरम्भे आईणगरूयबू- |
रणवणीयतुल्लफसि सगधवरङ्सुमचष्पसयणोवयारकलिए |
अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमार्णी ओहीरमाणी |
अयमेयारूव उरालं कन्नाणं सिर धष्प मगलं सस्सिरीयं म- |
हासविणं पासित्ता श पभिबुद्धा, तं जह-हाररययखौरसाग-
रससंककिरणदगरययमहासेलपंडुरतरेरुरम णिजपिच्छणिजं |
थिरलट्टपउट्ट बट्टठपीवरसु सिलिट्ट विसिट्ठ/तिक्खदढा विड विय-
मुहं परिकम्मियजच्चक मलको मलमाइयसो मं तलइउड रत्तुप्पल `
पत्तमउयसुकुमालतालुजीहं मृसागयपवरकणगतावियआव-
त्तायंतवट्डतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरुपडिपप्प-
विउलखंध मिउविसयसुहुमलक्खणपसत्थवित्पिप्मकेसरा-
डोवसोभियं ऊसियसुनिम्मियसुज|यअ्फोडियलांगूल सेम
मकूवा तं सुविणं ओगिएह्इ ओगिशिहत्ता सयणिज्ञाओ
अब्भुट्टेर अब्श्रुट्टित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अवि-
लंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स र्पो
सय शिजे तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता बलं राय॑
ताहि इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुणणाहिं मणामाहिं
उरालाहिं कन्नाणाहिं सिवाहिं धप्पाहिं मंगन्लाहिं सस्सिरी-
याहिं मिउमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संल० २ पडि-
बोहेह पडिबोहेत्ता बलेणं रष्य। ग्रन्भणुण्णाया समाणी
- णगाणामणिरयणभत्तिचित्तासि सिंहासणंसि शिसीयई णि-
सीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं
ताहि इट्टाहिं कंताहिं० जाव सलवमाणी सं०२ एवं वयासी-
एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज तसि तारिसगंसि सय-
णिजजसि सार्लिंगणं तं चेव ° जाव णियगवयणमतिवयंतं
सीह सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं शं देवाणुप्पिया !
एयस्स ओरालस्स० जाव महासुमिणस्स के मध्षे कन्नाण
फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तए णं से बले राया पभाव-
ईए देवीए अंतिए एयमद्रं सोचा शिसम्म हड्डतुट्ठा० जाव
दिय धाराहयणीवसुरभिङसुमचंचुमालदयतणुयरस
सियरोमकूवे त॑ सुमिणं ओगिएहइ ओगिएिहत्ता इहं प-
विसद पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं महंपुव्वएखं
बुद्धिविष्पेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहणं करेड
करेत्ता पभावतिं दर्विं ताहि इद्ार्दि° जव मंगलाहिं
मिउमहुरसस्सिरीयाहि संलवमाणे सलवमाणे एवं
वयासी-ओरालेण ं तुम्मे देवी ! सुविणे दिदे कन्ना-
णेणं तुम्मे देवी सुविणे दिद्रे° जाव सस्सिरीएणं तुम्हे.
देवी ! सुविणे दद्ध आरोग्गतुट्टिदीहाउकन्लाणमंगलका-
रएणं तुम्हे देवी ! सुविणे दिद्ठे अत्थलाभो देवाणु-
प्पिए ! भोगलाभो देवाणुष्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए !
रज्ञलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम्हे देवाणुप्पिए ! ण-
वण्हं मासां बहुपडिपुष्पाणं अद्धऽटरराईदि याणं विइकं `
ताणं अम्हं कुलकउं कुलदीवं ङलपव्वयं इलबडिसयं
कुलतिलयं कुलकित्तिकरं ुलनदिकरं कुलजसकरं ङला-
धारं कुलपायवं कुलविवड्रणकरं सुकुमालपाणिपायं अही-
णपडिपुष्पपंचिंदियसरीरं ० जाव ससिसोमाकारं केतं पियदं-
सणं सुस्वं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि। सेऽवि य
[त~
|
!
„ ( १७६
आभधानराजन्द्र। |
महब्बल
|
णं दारए उम्मुकबालभावे विष्ायपरिणयमित्ते जोव्वणग-
मणुप्पत्ते घरे वीरे विकते वित्थिष्पविपुलबलवाहणे रज्ञवई ¦
राया भविस्सई | तं उराले णं तुम्हे देवी ! सुविणे दिदे
०जाव आरोग्गतुट्टि ०जाव मगलकारएणं तुम्हे देवी ! सुविणे |
दिद्ठे त्ति कट्ट पभावतीं देवीं ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूहिं ० जाव
दों पि तच्च पि अणुबृहह । तण शं सा पभावई देवी बल- |
स्स रष्षा अंतिए एयमट्ं सोचा शिसम्म हड्ठतुड्ड करयल |
०जाव एवं वयासी-एवमेय देवाणुष्पिया ! तहमेय देवा- |
णुप्पिया ! अ वितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेय दे-
वाणुष्पिया ! इच्छियमेय देवाणुष्पिया ! पडिच्छिय- |
मेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! |
से जहेये तुम्हे वदह ति कटरुतं सुमिणं सम्म प-
डिच्छद पडिच्छित्ता बलेणं रप्या अब्भणुणणाया स-
माणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दा5जसणाओ अ-
ब्युड्रेड अब्भट्रेत्ता अतुरियमचवल०जाव गईए जेणेव
सए सयणिज्ञ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयणिज्ञसि |
शिसीयति शिसीयित्ता एवं वयासी-मा मे से उत्तमे पहाणे |
मंगल्ले सुमिणे अष्पर्दिं पावसुभिणेदिं पडिहम्मिस्सद त्ति
कड देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहि धम्मियाहिं |
` कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडि० २ विहरइ |
तए शं से बले राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेह सदावेत्ता एवं |
बयासी-खिष्पामेव भो देवाणुष्पिया!अज्ञ सविसेसं बाहिरियं
उबड्भाणसालं गंधोदयसित्तसइयसंमजिओवलित्त सुगंधप- |
वरपंचग्रष्पपुष्फावयारकलियं कालागरुपवरकुंदरुक ०जाव
गंधवद्टिभूय करेह कारावेह करित्ता कारवित्ता य सीहा-
सणं रय विह सीहासणं रयावेइत्ता तमत ° जाव पदच्चप्पि- |
शह । तए णं ते कोडवियपुरिसा ०जाव पडिसुशेत्ता |
खिप्पामेब सविसिस बाहिरियं उवद्ठाणसाल °जाव प-
बप्पिणंति। तए णे स बले राया पच्चूसकालसमयंसि स-
यणिज्ञत्रो अन्भुद सयणिजात्रो अन्युद्त्ता पाय- |
पीढाओ। पच्चोरुहह पायपीटाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अदू- |
णसाला तेशव उवागच्छड उवागच्छित्ता अह्डणसालं अणु- |
प्पविसइ जहा उववाइए तहेव अटरणसाला तहेव मज्छणघरे |
०जाव ससि व्व पियदंसणे नरव मज़णघराओ पडिणिक्ख- |
मई पड़िनिक्खमित्ता जेणेव बादिरिया उबड्डाणसाला |
तेणेव उवागच्छट्त्ता उवार्गाच्छित्ता सीहासणवरंसिे पुरत्था- |
ये सण्हपट्ठभत्तिसयचित्तत्ताणं इहामियउसभ ०जाव भत्ति-
चित्त अब्भितरिय जवाणियं अंछावेइ अंछावेत्ता णाणाम
णिरयणमभंत्तिचित्त अत्थरयमिउमस्रगोच्छगं सेयवत्थपच्चु
त्थं अंगसुहफासुयं सुमउयं पभावईएण देवीए भदासणं
रयावेइ रयावेत्ता कोडवियपुरिसे सद्यावेह सदावेत्ता एवं
वयासी खिप्पामेव भो देवाणुष्पिया ! अट्रंऽगमहानिमित्त-
सुत्तत्थधारणए विविहसत्थकुसले सुविणलक्ख णपादणए सदा-
वेह । तए णं ते कोइंवियपुरिसा ०जाव पडिसुणेत्ता बल-
स्स र्पो अंतियाग्रो पडिणिक्खमंति पडिशिक्खाभित्ता
सिग्ध तुरियं चवलं चंडं वेइय हत्थिणापुरं शयरं मज्ज म-
ज्केणं णिग्गच्छेति णिग्गच्छित्ता जेणेव तेसि सुविशल-
क्खणपाठगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छेति उवागच्छित्ता
ते सुविशलक्खणपादए सदार्वेति । तए णं ते सुविणलक्ख-
णपाठगा बलस्स रप्मो कोडवियपुरिसेरिं सदाविया समा-
णा हट्तुद्रा णदाया कयवलिकम्मा °जाव सरीरा सिद्धऽ-
त्थगहरियालिया कयमगलयुद्धाणा सएहिं सणि गिंहेहिंतो
शिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता हस्थिणापुरं णयरं मज्म॑
मज्केणं जेणेव बलस्स रप्यो भवणवरवडिंसए ते-
णेव उवागच्छेति उवागच्छित्ता भवशवरवडिसए प-
डिदुवारंसि एगओ मिलंति एगओ मिलित्ता जेणेव बा-
हिरिया उवदह्वाणसाला जेणेव बले राया तेणेव उवाग-
च्छति उवागच्छित्ता करयल ०बले रायं॑ जएणं वि-
जएण वद्धावेति तए णं ते सुविशलक्खणपाढ्गा बलेणं
रप्पा वंदि यपूडयसकारियसम्माणिया समाशा पत्तेय पत्तेय
पुव्वष्पत्थेसु भदसणेस॒ शिसीयंति । तए णं से बले राया
पभावई देवें जवणियतरियं ठावेइ ठावेत्ता पृष्फफलप--
डिपुष्पहत्थे परेणं विणशएणं ते सुत्रिणलक्खणपाटणए एवं
वयासी-एवै खलु देवाणुष्पिया ! पभावई देवी अज्ञ तंसि
तारिसगंसि कासघरंसि °जाव सीहं सुविणे पासित्ता शं
पडिबुद्धा । तं णं देवाणुप्पिया | एयस्स उरालस्स ° जाव
के म्ये कन्नाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?। तए शं ते
सुविणलक्वणपादगा बलस्म रप्मो अंतिएण एयमद्रं सोचा
शिसम्म हड्टतुड्टा तं सुविणं ओगिण्हंति तं इहं अणुपवि
संति अणुपाविसित्ता तस्स सुविशस्स अत्थोग्गहणं करति
करेत्ता ते अध्यमणेणं सद्धं संचालेति संचालेत्ता तस्स
स॒ुविण॒स्स लड्ठ उ्टा गहियट्टा पुच्छियट्टा विशिच्छियट्टा अ>
भिगयद्ठा बलस्स र्पो पुरश्रो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणे
भिमुंहे णिसीयई खिसीयित्ता अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे
दिसीभाए रट महासणाहं सेयवत्थपच्चुत्थयाई सिद्धत्थग- |
कयमंगलोवयाराई रयावेइ रयावेत्ता अप्पणो अद्रसामंते |
णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिजं सहग्धवरपइणुग्ग- |
उ०२ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविण-
सत्थसि वायालीसं सुविणा, तसिं महासुविणा, वावत्तरि
सव्वसुविशा दिट्धा, तत्थ शं देवाणुप्पिया ! तित्थगरमाय्रो
( १७७ ˆ)
महटञ्चल
वा चकव्रद्ि झयरों वा तित्थगरंसि वा चक्रव्रट्टंसि वा
गन्भे वकममाणंमि एतेसिं तीसाए महासुविणाणं इमे
` चउदस मह।सुषिणे पासित्ता णं पडिवुज्कंति । तं जहा-
ˆ“ गय उसभ सीहअभिभेय-दामसर्सी दिणयरं यं कुंभ | |
पउमसरसागरपिमा-णभवणरयणच्चुयमिहिं च ।! १॥ ""
वासुदेवमायरो वा वासुदवंमि गढ्भ बकममारंसि एणमिं
चउदसण्टं महासुविणार्ण अपयर सत्त महासुषिणे पासि- |
तता ण पडिवुज्छंति । वलदेवमायरा वा बलदेव॑सि
गन्भं वकममांसि एएसि चउदसण्टं महासुविणाण
आमयरे चत्तारि महासुप्रिणे पासित्ता णं पडिवुज्कंति ।
अभिधानराजन्द्रः ।
मेडलियमायर। वा मंडलियंसि गव्मं वकममाणंसि एएसे |
चउद्दसण्ह महासुविणाणं अ्पयरं एर्ग महासुविय पासित्ता
शं पडिवुज्कंति | इमं च णं देवाणुप्पिया ! पभावईए
देवीए एगे महासुविणे दिद्ठे तं ओराले शं देवाणुप्पिया ! |
पभावईए देवीए सुविणे दिद ०जाव आरोग्गतुद्विदीहाउ-
कल्लाणमगलकारएणं देवाणुप्पिया ! पभावईए दवीए सु-
विणे दिद्र, अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगलाभो देवाणु-
प्पिया ! पुत्तलाभों रज्जलाभो देवाणुप्पिया ! एवं खलु देवा- |
णुप्पिया ! पभावई देवी णवरह मासां वहुपडिपुणणाणं |
° जाव वीदकताणं तुन्भं कुलकरेड ०जाव दारगं पयाहि-
सि।सेविय शं दारण उम्मुकवालभावे ०जाव रज़बई
राया भविस्पह, अणगार वा भावियऽऽप्पा । तं उराले णं
देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दि °जाव आ-
रोग्गतुद्िदीहारकल्लाण ०जाव दिद्ठे तए णं से बले.
राया सुविणलक्खरपादगाणं अतिए एयमदट्रं सोचा णि-
सम्म हट करयल ०जाव कद्रु ते सुविणलक्खणपादगे एवं
बयासी -एवमेयं देवाणुषपिया ! ०जाव से जहेयं तुब्भे
वदह त्ति कट् तं सुविणं सम्म पडिच्छह पडिच्छि-
तता सुविणलक्वणपाटए पिठलेणं असणपाणखाइमसा-
इमपुप्फवत्थगंधमल्लाऽलकारेणं सकारे सम्माणेइ सकारे-
त्ता सम्माशत्ता विपुलं जीवियारिहं पीददाणं दलयइ द- |
लयइत्ता पटिप्रिसजह पडिविसजेत्ता सीहासणाओ अन्भु-
दंड अन्भुद्ित्ता जेव पभावई देवी तेणेव उवाग- |
च्छु उवागच्छित्ता पभावतिं दर्वि ताहिं इट्राहिं०जाव
सलवमाणे स० २ एवं वयासी-एवं खलु दवाणुष्पिये ! |
सुविणसल्थंमि वायालीसं सुविणा तासं महासुविणा वा-
वत्तरिं सव्वसुधिणा । तत्थ णं देवाणुपिए ! तित्थयरमा-
यरो वा चकवद्धिमायरों वा तं चव० जाव आयर
एग महासुविणं पासित्ता णं पडिवुञ्भंति | इमे शं तुम्हे
देवाणुष्पिणए ! एगे महासुविणे दिद्वं जाव रजबई राया
५५
| न ~= ~~ ~ ना
0 9 05-/ 222
भविस्पड अणगारे वा भाविय5्प्पा, त॑ ओआराले शं तुम्हे
देवी ! सुविणे दिद्वे ० ति कटं पभाव्ति देवि ताहि इद्राहि
०जाव दों पि तच पि अरणुवृहई । तए णं सा पभावई देवी
बलस्म राग श्रियं एयमद्रं सोचा शिसम्म हट्रतुदुकर-
यल ०जाव एवं वयार्सी-एवमेय द वाणुप्पिय। ! ° जावर
ते सुविणं सम्म पडिच्छह् पभिच्छित्ता बलणं रण्णा अ-
ब्भगुएणणाया समार्णी णाणामणिरयणमभत्ति०्जाबव अब्भु-
ट्रेंड अतुरियमचबल ०जाव गण, जेणेव सए भवण
तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता स्यं भवर्ण अणुप्पविड्रा ।
तए णंसा पभावई देवी एहाया कयवलिकम्मा० जाव
सव्वाऽलेकाररिभूसिया तं ग्भ णाउड्सीतेहिं णाऽइउण्टिं
ना5इतित्तेहिं णाउइडकइुएहिं णाउड्कसाएहिं णाउइअंविलेहिं
णाउड्महुरहिं उउ्भयमाणसुहेहिं भोअणच्छाद णगंधमन्ने हि
ज तस्स गब्भस्स हितं भितं पत्थं गब्भपोसणं तं दस य
काले य आहारमाहारेमाणी विचित्तमउएहिं सयणासणेहिं
पतिरिकस॒हाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला
सपुपदे।हला सम्माणियदोहला अव्रमाणियदेहला बो-
च्छिप्दोहला विणीयदोहला ववगयरोगसोगमोहभयप-
रित्तासा तं गन्म सुहं स॒ुहेणं परिवह । तए शं सा पभावं
देवी णवर्हं मासाणं॒बहुपटिपुपाणं अद्भ बट माणराइंदि--
याणं वीइकंताणं सुकुमालपाणिपायं अ्रहीणपडिपुष्पपंचि
दियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं ° जाव ससिसोमाकारं
केतं पियदंसरं सुरुचं दारगे पयाता | तए ण॑ तीसे पभाव-
ईए देवीए अगपडियारियान्र पभ्मावर्ति देविं पस्य जा-
णित्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्यद् उवाग-
चित्ता करयल० जाव वलं रायं जणएणं विजएणं वद्धा
वतिं जएशं परिजएणं बद्भावेत्ता एवं वयासी- एय खलु दे-
वाणुप्पिया ! पभावई देवी शवण्ट॑ मासाः बहुप-
डिपुष्पाणं ० जाव दारग पयता, तं रायष्पं॑देवाणु-
प्पिया ! णं पियट्याए पियं शिविदेमो पियं मे भवउ ।
तए ण॑ से बले राया अगपडियारियाणं अंतिए एयमई
सोचा णिसम्म हद्स्तुड़ः जाव घाराहयणीव ° जाव रोमकूबे
तासि अंगपडियारियाणं मउडवर्ज़ जहामालियओमोय
दलयइ दलदत्तास तं रययमयं विमलसलिलपुष्परभिंगारं
पडिगिरटड पड़ गिरिहत्ता मत्थए धृव मत्थए ध।वित्ता
विउलं जीवियारिहं पइदाणं दलयह पीडद।णं दलदत्ता
सकारेइ सम्माणेड् सम्माणइत्ता पडिविसज्ेइ । (सत्र ४२८)
तए णं स बले राया कं।इंवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं
वयासं, खिप्पामेिव भो दवाणुपिया ! ह+थिणाउरे शयेर
च।रगसाहणं करट चारग “करत्ता माणुम्माणप्पमाणवद्ुयं
: १७८
अभिधानराजन्द्रः ॥
मरच्यतल
करह माणु० करेत्ता हत्थिणाउर णयरं सब्मितरं बाहियियं
असियसम्मज्जिओवलित्तं जाव करेहि य कारवेहि य
करत्ता य कारवत्ता य जूबसहस्सं वा चकसहस्स वा पू- |
यामहामहिमसक्ारं वा ऊसवेह ऊसवेत्ता ममेयमाणत्तियं |
|
पच्चप्पिणह । तए शं से कोइंवियपुरिसा बलेणं र्णा एवं |
वत्ता समाणा० जाव पच्चप्पिणंति तए शं से बले |
राया जणव उवदराणसाला तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता |
तं चव °जाव मज़णघराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमि- |
त्ता उम्मुक उकरं उकिट्ठ अदिज अमेजं अभडप्पवेस अदं- |
उकादंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज़कलियं अशगता -
लाचराणुचरियं अणु द्धयमुयंगं अमिलायमल्लदामं पमदिय- |
पक।लियं सपुरजणजाणवयं द सादिवसे टिडवडियं करति । |
तए ण॑ से बल राया दसदियाए टिडवडियाए वइमाणीए
सतिएय साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाएय दाए य |
भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य सतिणए य साहस्सिए
य सयसाहस्सिए य लभे पडिच्छमाणे य पडिच्छावेमाणे |
य एवं विहरइ । तए णं तस्य दारगस्स अम्मापियरो
पटमे दिवस् टिडवडिय करति, तइए दिवसे चंदसरदंसाव- |
णियं करेंति,छड़े दिवसे जागरियं करति, एकारसमे दिवसे
वीइकेते णिव्वत्त असुइ जाईइकम्मकरण संपत्ते वारसाऽह- |
दिवम् चउलं जरसे पाणु खाईमं सामे उवक्खडाबेंति
उवक्यडावत्ता जहा सिव ०जाव खत्तिए य॒ आमंतेड
अमंतेत्ता तओ पच्छा एहाया कयत्रलिक० तं चव °जाव
सकार।ते सम्माणतरत्ता तस्य व मित्तणाइ °जाव (रा
इण य) खात्तयाण य पुरआ अज्जयपज्जयपिरपज्ञयागयं |
बहुपु।रसपरंपरप्परूढ कूलाऽणुस्वं कुलसरिस कुलसंताशतं- |
तुविवद्धणकर अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्पण्णं नामथेज्ज |
करेंति। जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स र्पो पत्ते पभाव्ईष
दर्वीए अत्तए तं होठ शे अम्हे इमस्म दारगस्स नामधेज्ज
महब्बले तए शं त्स्य दारगस्स अम्मापियरों नामधेज्ज
कराते महब्बल इति | तए शे से महब्बले दारए पंचधाईप-
रिग्गहिए | ते जहा-खीरधाई एवं जहा ददप्यरप्न्जाव शि |
व्वायणिव्याघाय ति सुरं सुदेणं परिवड्ति | तए से तस्स |
महब्यलस्स दारगस्स अम्मापियरों आणुपुन्त्रेण टिडवदियं
च चदखरदसणावणिय वा जागरियं वा नामकरणं वा
परगामरणं वा पयचेकामणं वा जमावर्ण वा पिंडवद्धर वा
प्र्पावर्ण वा कष्प्रहणे वा सेवच्छर पडिलेहरां वा चो- |
लेःयणगं वा उवणयर्ण च आप्पाणि य बहू णि गन्भाऽऽधा- |
ग तम्मणमादियःडं कोउयाई करेंति । तए रो तं महब्बल |
कुमार अम्भापिआरों साहरेगद्वसग्गं जाशित्ता सोभणं।से
१-२२ दंद्बान् |
महञ्बल
तिहिकरणमुद्ुत्तसि एवं जहा दटदप्यइष्य ०जाव अल
भोगसमत्थे जाए याऽवि होत्था । तए शं तं महब्बलं
कुमार उम्मुकवालभावं अलं भोगसमत्थं विजाशित्ता
अम्मापिच्ररा अट पासायवर्डेसए कारेति। अन्धग्गयमूसि-
यपहसिए इव वस्त्रो, जहा रायप्पसेणइजे ° जाव पडिस्वे,ते-
सि शं पासायवाडिसगाणं बहुमज्भदेसभाए एत्थ णं महेगे
भव कारंति। अशगखंभसयसष्ि वेदं वष्यओ } जहा राय-
प्पसेणइज़े,पेच्छाघरमंडवसि ° जाव पडिरूवे । (खत्र-४२९) ¦
तण शं तं महव्वलं कुमारं अ्रम्मापियरो अरष्पया कयाई सोभ-
रंसि तिहिकरणदेवसणक्खत्तमुहुत्तंसि णहायं कयवलिक-
म्मं कयक्रोउयमगलपायनच्छित्तं सव्वालंकाराविभूसिय पम-
क्वणं णएहाणं गीयवाइयपसो हणइं गतिलगकंकणआविहयब-
हवर्णीय मंगल सुजंपिएहि य वरकोडय मंगल्लेवयारकयसं -
तिकम्म सरिसियाणं सरित्तयाणं सणग्व्वियाणं सरिसलावष्छ-
स्वजोव्वणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउयमंगलफाय-
च्छित्ताणं सरिसएिं रायङलेदहिं आशिन्लियाणं अद्रष्डू-
रायवरक्छणं एगदिवसेशं पाणि गिरहाविंसु । तए शं
तस्स महव्बलस्स कुमारस्स अम्मापियर अयमयास्व पी-
तिदाणं दलयति, तं जहा-अट्ट हिरष्रकोडीओ अद्र
सुवष्मकोडीओ अद मउड मउडप्पवरे अट कुंडलजोए कुं-
डलजुयप्पवरे अद्र हार हारप्पवरे अद्र अद्धहारे अद्धहारप्पवरे
अदर एगावलीओ एगावलिप्पवराओं एवं मुक्तावलीओ
एवं कणगावलीओ एवं रयणवलीओ्रो अद्र कडगजोए
कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए अट खामजुवलाईे खोमजु
वलप्पवराई एवं वडगजुवलाईं एवं पट्टजुबलाई णं दुगु-
ल्नजवलाई अद सिरीओ अद्र हिरीओ एवं घिईओ कित्ती-
ओ बुद्धीओ लच्छी अट नंदाई अद्र मद्।ई अड तले
तखप्यवरे सब्वरयणामए शियगवरभवखकेड अद्र भए
अयप्यवरे अद्र वए वयप्पवरे ( दस गोसाहस्सिदणं वए
णं) अट नाडगाई नाडगप्पवराई वत्तीसव्रद्रणं नाडएण
अद असि आसप्पवरे सव्यरयखामण सिरिघ्रपडिसख्वए
अदर हत्थी हत्थिप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपाडेख्वए
श्ट जाणाई जाणप्पवराई अड्ठ जुग्गाई जुम्गप्पवराई एवं
सिवियाओं एवं संदमाणीआ एवं मिल्नाओ थिन्नाओ
अट्ट वियडजाणाई वियडजाणप्पवराईं अड रहे षारेजा-
णीए अद्र रहे मेगामिए अह्र आसे आसघच्पवरे अद्र
हत्थी इत्थिप्पवरे अद गामे गामप्पवरे ( दंसकुल-
साहस्पीएणं गमि ण) अद्र दासे दासप्पतरे, एवं दासी-
१--दशः गो सहल्रेणः एकौ ब्राज: |
२--दश कुलसद्दस्तेय एको अमम, ॥
( १७६ )
महेज्बल
_ आशभ्रधानराज ह5 |
430५ महञ्वल
ओ एवै किंकरे एवं कंचुदज एवं वरिसहरे एवं- |
महत्तरए अड सोवाध्पिण ओवलंबणदीवे अद्र रुप्मए ओ-
` बलवणदीवे अद्र सुवष्परुप्पमए आओवलंबणदीबे अदु
सोवष्पिए उक्चणद।बे एवं चेव तिप्पि वि अट्ट सोवष्पिए
पेजरदीतरे एव चव तषि वि, अट्ट सोवष्पिए थल अद
रुप्पमणए थले अट सोवष्परुप्पमए थाल अट सोवध्पियाओ
पत्तीओं ३ अट सोवणियाई थासि ( घोसि ) याई ३ अद्र
सवष्पिपई मगल ई अट्ठ सोवण्णियाओ तलियाओ ३ अट |
सोवप्पिय।च्रा कव्राचियाओं ३ अद्र सोवएणमए अपवडणए |
अट सोवप्पिषाञ्रो अ्रवक्राञ्च ३ श्ट सोवरण्णिए पा- |
भिसियाओ ३ अद्र
यपीढए ३ अड सोचश्णियाओं
सोवध्मियाओं करोडियाओ ३ अद सोवण्णिए पल्लके ३
अट सोवण्णियाओं पडिसेज्ञाओ ३ अट हंसा55सणाई अद्र
कोंचासणाई एवं गरुडासणाई उण्णतासणाई परणयास-
णाइ दीहासणाई भद्दासण[इ पक्खासणाई मकरासणाई
अड पठमासणाई अड दिसासोवत्थियासणाई अट तन्न |
-समुग्गे जहा रायप्पसेणइज़० जाव अदर सरिसवसमुग्ग
अद्र खुजञओं जहा उववाइए ०जाव अदर पारिसीओ अदू
छत्त अट्ट छत्तघारीओं चर्डीओं अट चामराओ त्रट् चा- |
मरधारीओ चेर्डाओ अदर तालियंटे अद्र तालियंटधारी- |
ओ। चर्डाओ अट करोडियधारीओं चर्डीओ अहर खीर- |
घाईओ० जाव अद अक्धाईओ अद्र अगमद्ियाओं अद्र |
उम्मदियाओं अट्ट णहावियाओं अट पसाहियाओं अद्र
चदश अद्र चुणणगपसीग्रो अद कोडाक रीओ
अट दवकार्रीओं यद्र
अदर को इंविणीओ अद्र महाणसिणीओ अद्र भडागारि-
उवत्थाणियाग्रो अद्र नाडदजाग्रो |
णीओ अट अब्भाधारिणीओ अट्ट पुप्फधारिणीओं अद्र
पाणधारिणीओ अट बलिकारियाओं अट सज्ञ।कारियाग्रो
अड अब्भितरियाओं पडिहारीओं अद्र बाहिरियाओ प |
डिहारीओं अद मालाकारीओ अदर पेसणकारीओं अण्णं
वा सुबह हिरएएं वा सुवण्णं वा कंसं वा दूस वा
विउलधणकणग० जाव सतसावदेज् अलाहि० जाव
आसत्तमाओ कुलबंस।ओ पकामं दाउं प्रकामं परिभोत्तुं प- |
काम परिभाएउ | तए ण से महब्बले कुमारे एगमेगाए
भज्ञाए एगमेगं हिरप्मकोर्डि दलयइ । एगमेगं सुवण्णका-
डि दलयइ । एगभगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ । एवं
तं चष स्प°जाव एगमेगे पेसणकारिं दलयदह । अण्णं च |
सुबह हिरप्म वा सुवण्णं वा ०जाव परिभाएड । तए शं
से महब्बले कुपारे उप्पि पासायवरगणए जहा
जमाली
विहरद । (स्तू०४३०) तेणं कालेणं तेण समएण विमलस्स |
अरहओ पञ्माप्पए धम्मघोसे णाम॑ अणगार जाइसंपण्णे
वण्णओ,जहा केसिसाभिस्स,०जाव पंचहिं अणगारसएहिं
सदधि संपरिवृडे पुव्वाउ्णुपुत्बि चरमाणे गामाउशणुगांम
दृइज़माणे जणेव हत्थिणाउरे यरे जेष सहसंबवणे
उज्ञाणे तेणव उवागच्छंड उवागन्छित्ता अहापडिस्वं उग्गहं
उगेण्इ उगिशिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे
०जाव विहरइ । तए शं हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडगति-
य ०जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं तस्स महब्बलस्स
कुमारस्स तं महया जणसदं वा जणवृहं वा एवं जहेव ज-
माली तहेव वि(इ)त्ता तहेव कंचुइजपु रिसे सदावेई । कंचूइज़-
पुरिस। तहेव अक्खाई, णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स
अआगमणगदहियबिशिच्छए करयल ० जाव शिग्गच्छह । एवं
खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओं पउप्पए धम्म-
घोसे णामं अणगारे ससं तं चव ०जाव सोऽवि तहेव, रह-
वरेण ।शेग्गच्छई । धम्मकटा जहा कसिसामिस्स, सोऽवि
तहव अम्मा पियरं ्रापुच्छह । णवरं धम्मघासस्स अण-
गारस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओं अणगारिय पव्व-
इत्तए,तहेव वुत्तपडिवु त्तयाओं णवरं इमाओ यते जाया ! वि-
पुलराजकुलवालियाओ कला ०सेसं तं चव ° जाव ताहे,
अकामां चव महव्वलं कुमारं एवं वयासी- तं इच्छामो ते
जाया ! एगादिवसमवि रजसिरिं पासमि, तए णं से
महव्वल कुमार अम्मापिउययणमणुवत्तमाणे तुसिणीए
संचिट्ठ३ । तए शं से बले राया कोइंवियपुरिसे सद्वेइ ।
एवं जहा सिवमभदस्स तहेव रायाभिसेओ भाशिअव्यों०
जाव अभिर्सिचई, आमभिस्सिचइत्ता करयलपरि ° महन्वलं कु-
मारं जणं विजणएणं वद्भावेति जएणं विजणएणं वद्धवेत्ता
एवं वयासी-भण जाया ! किंदमो कि पयच्छामा ९,
ससं जहा जमालिस्म तहव ०जाव। तए णं से महब्बले
अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिएण सामाइयमाई-
याईं चउद्सएव्वाईं अहिजइ, आ।हज़ित्ता बद हं चउस्थ०
जाव विशित्तेद्ट तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावमाणं बहुप।डे-
पुष्पाई दुवालसवासाई सामष्मपरियाग पाउणइ, प।उशणित्ता
मासियाए संलेहणाए सं भत्ताईं अणसणाए आ।लेइ-
यपाडकंते समाहिपत्ते कालामासे कालं कचा उड्ढे चंदि-
मघ्ररिय ०जहा अम्मडो ०जाव बंभलं,ए कप्प देवत्ताए
उबवाणग, तत्थ णं अत्थेगहयाणं दवाशं दस सागरोब -
माई ठिई पत्ता, तत्थ शं महन्यलस्स वि दवस्स दम
सागरोवमाईं दिई पष्पत्ता, से णं तुम्म सुदंसणा ! वंभले,ग
कप्प दस सागरावमाह [देव्य।इ भागभ।गाह भजमाण व
जय पिया भहभपपभपपपिपभत*तपर ऊफझ#-_'“»|।ख; 23 जज अल ले
१०प्रपोच्च; पशिष्य इयथः: | २-विदित्वा |
4 १८० )
पच्चायाए । ( प्रत्र -४३१ )
तए ं तुम्म॑ सुदसणा ! उम्मुकत्रालभावेणं विष्प।यर्पर-
णयमेत्तेणं जोव्यणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थराणं अ्रतियं
कवलिपष्पत्त धम्म निसंते, सेडवि य धम्म इच्छिए पडि
च्छिण अभिरुदए् । तं सुद णं तुमं सुदंसणा ! इ-
दारि पिकरमि । से तेणड्डरणं सुदं सणा ! एवे वुच्चइ
अत्थि णं एतसि पलिश्नवमपागरावमहई खण्ड वा
अवचणड वा, तए णं तस्प सुदंसणस्स सद्धिस्स
समणस्स भगवआओं महावीरस्य अतिए एयमट्ट सचा णि-
सम्म सुमेणं अज्भवसाणेणं सुभेण परिणामणं लस्साविसु-
ज्भमाण हिं तया (णाणा) बर शिज्ञाणं कम्माणं खश्रवस-
मणं इहापाहमग्गणगसणं करमाणस्स सप्पी पुव्ये जाइसरणे
समुप्पप्म । एयमट् सम्म अभिसमेति। तए णं ते सुदमण
सेद्री समणेणं भगवया महावीरेण सेभारेयपुन्भवे दगु -
शाणि य सङ्पंपरेगे आशंदसंपुष्णणयणण समणं भगवं
महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयादिणं वंदति णम॑सति
वंदित्ता णमंसित्ता एवं वसासी-एवमेतं भते !
अगभिधानराजन्द्रः।
हरित्तए | तओ चव॒ देवलोगाओं तआ्राउक्खएणं अणतर
चयं चइत्ता इदेव वाणियगाम णयरे सद्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए
०जाव से |
जहेये तुज्फे वद ह त्तिकदु उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं अवक्र -
मड । ससं जहा उसभदत्तस्स ०जाव सब्वदुक्खप्पहीणं, |
णवरं चउद सपृव्वाहं अहिजइ बहुपडिपुष्माई दुवालसवा- |
साईं सामप्मपरियाग पाउणइ, ससं ते चव स्वं भंते।
भते ! त्ति। (बरूत्र-४२३२) भ० ११ श० ११ उ०।
( षनद्याख्या पादमात्रव्याख्यानपरत्यन॒ुपयोगित्वादुपक्षिता )
सत्तमस्स उक्खेवओ महापुरणयरं रत्तासोंगं उज्ञाणं
रत्तपालजक्खे बल राया सुभदा देवी महब्बल कुमार रत्त-
वईपाम।क्खाओं पंच सया काप। पाणिगगहणं तित्थगराऽऽ-
गमणं ° जाव पुव्वभव। मणिपुरं णयरं णागद त्त गाहावई इंद-
पुरअणगार पडिलाभिते० जाव सिद्धं | विषा० २श्रु०७ अ०।
वीरंगतापितारि राहीडकनगरराज, नि० १ श्रु०४ वर्म १ अ०। |
` सम्मदंसण ` शब्द उदाहरिप्यमाण साकेतराजे, आ० चू० ४
आ० । भरतक्तेत्र भविप्यति षढ्ठे बासुदेये, ति०। मल्लिजिनस्य
पृवेभवजीदे साविलावर्त/बिजय बीतशाोकानगरीराजवलस्य
पुत्र, शा०१ श्रुण्पअ०। स्था८। अपरबिद्ह गान्धिलावतीविजय
गन्धमादनवक्तस्कारपजते गन्धारजनपद् गन्धसमृद्धनगरस्य
राज्ञः शनवलस्य नप्तरि अतिवलस्य पुत्र,आव० १अ०।आ्र०म०।
भहब्भय-महाभय-न० । आतभातों, प्रश्न०श्ञ्राश्रणछ्ठार। म
हद्थये यस्मादसा मद्दाभयः | महाभयहेतों, जि० ॥ प्रश्न० १
अश्र० द्वार । भयहेतुत्वाद दुःखमव महाभयम् । तञ्च मर-
रकारणमिति महदिल्युच्यते । | आचा० १ श्रु० २ अ० ४ उ०।
मदश्च तद्धयं च च महाभयम् ,नातः परमन्यदस्ति महाभयम् |
महल्लउदड्
श्राचा० * श्रु० १ अ० ६ उ० | उत्त० । पॉन-पुन्येन रूंसा-
रपयेटनतया नरका55दिस्वभावदु:स्, प्रश्ष० ५ सव द्वार।
महाभयं परिग्रहस्य यद्भवति प्रकृतिरियं परिग्रहस्य--
से अप्यं वा बहुं वा त्र वा धूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंत
वा एतेसु चव परिग्गहावंति । एतदव एगसि महन्भयं भव-
ति ( सत्र १४६ ) आचा० १ श्रु° ५अ० ३ उ०।
महन्भूय म( हड्भ )हाभृत--न० | अमहतो महता भवने मह-
दूभूतम् । मह्न भवने, स्था० ४ ठा० १ उ०। सृत्र० | महा
भूतानि सवलोकञ्यापित्वान्मदच्वविशेषणम् । पृथिव्यादिषु
भूतेषु, आ० म० १ अ० | सृत्र०।
महभदप डिमा-मह।भद्र॒प्रतिमा-स्त्री०। प्रतिमाभदे, पुव्वाए दि-
साए अहोरत्तं,एवं चरस वि दि्सासु चत्तारि अहोरत्ता ४८५
गा० टा० 'प।डमा भद् महाभा ` (४६६ गा०) आ०्म०१ अ०।
महम्मद्साह-महम्मदशाह-9७० । पारसाकः शब्दः । स्वनाम
ख्यात यवनराज, ती० ४८ कल्प ।
महया-महती--खी° । | अतिशयेन महत्याम् , रा० | ओ० । म- `
हता बृहता त॒तायान्तमेतत् । । ओ० । सूत्र० ६ श्रु० अ० २
उ० । महाप्रमाणा याम , रा०। “ महया भडचडगविदपरि-
किखत्त० ” महाभटानां विस्तार वत्सघेन परित्तित्त इत्यथः ।
भ० ७ श० ६ उ० | ज० । * महया महिदकुभसमाणा ” अ-
तिशयन महान्तो महन्द्रकुम्भसमानाः । कुम्भानामिन्द्रः इन्द्र-
कुम्भः राजदन्तादिदगीनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वानपातः । महांश्चा-
साविन्द्रकु्भश्च तस्य समानाः, महेन्द्रकुम्भसमानाः । जी०
३ प्रति० ४ अधि० । “ महया वासिक्रच्छत्तसमाणा ” महा-
न्ति महाप्रमाणानि वारपिकाणि-व्षाकाले यानि पानीयरत्त-
णा<थ कृतानि तानि वाधिकाणि, तानि च तानि छुत्राणि च
तत्समानानि । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०। नि० चू० ।
महया $ ऽहयणट्रगीयवाइयतंती तलतालतांडय घरणमुइंगप-
इप्पवाइयरवणे ` ( सूत्र ५६७+ ) स्था० ८ ठा० ।
महर इशी-श्रसमर्थे, दे० ना० ६ वर्ग ११२ गाथा ।
महारिसी-महर्पि--पुं० । महामुनौ, पञ्चा० १२ विव० । साधौ
सूत्र० १ श्रु० ३ ३ अ० २ उ० । ऋषय पएवान्यतरलब्ध्युपता
महर्षयः । “ आमोसाहिविप्पोलहि ” इत्यादयण्ाविशतिवि-
धलञ्ध्युपता महषयः । लब्ध्युपतषु साधुषु, पा० ।
मह रिह -महाह-त्रि० । महच्च तदर्हं च महाहंम् । स्था०८ ठा०॥
महतां वा याग्यम् । भ०६ श०३३ उ०। विपा०। महान्तमुपभो-
क्लारमहाति, यदिवा-महम्-उत्सवे क्षणमहतीत महार्हम् । उ-
त्सवयोाग्य, रा०। महतां योग्य, महं वा पूजामहति। महान वा
श्रहः पूजाऽस्यति । प्रशस्ततया पूज्य, विपा<धश्नु ०२अ०। स०।
महल्न-महत् त्रि० श्रतिशयमहति , , आब० १ अ० । ज्ञा०।
बृहाति, बृ० ३ उ० । दीघे, ओ० | आ० म०। महता चत्ता
न् प्रदय नेवं वदेदू-यथा प्रासादयाग्या श्रमी वृत्ता इति ।
यत्त वदेत्तदाद-'* महज्लपहाए सुकला `` पव वदत् । । आचा०
४४
२ श्रु० १ चू० ४ अ० २ उ०। वृद्ध निषह-पृथुल- मुखर -जल-
धु, देन्ना० ६ बग० १४३ गाथा ।
महल॒उह म्रहार- न | ऊहशतसहस्प्ररूयायां सख्यायाम् -ज्या०
२ पाहु०।(स्पष्टतया काल' शब्दे तृतीयभागे ४७६पृष्ठ प्रोक्तम )
ऋ ० क
(4:
आभधानराजन
_ महल्उहंग_
महल्नउहंग-महाहाङ्ग-न०। महाब्टटशतसहस्परूपायां संख्या- |
याम् , ज्यो० २ पाहु० | ( 'काल' शब्दे ३ भागे स्फुटीभूतम् )
-महन्नग-महत्-त्रि०। ज्यष्ठ, `` महल्लगे वा बुद्ध वा ” दश० ५
० ३ उ०। आण० म० । आचा० ।
महद्चियदुवारिया-महाद्रारिका--खी° । बृहद्द्वारायां वसतो,
आचा० २ श्रु० (4 चू १ ० २ उ०।
महाल्ियाविमाणपविभत्ति-महाविमानप्राविभङ्गि- खी । महा
ग्रन्थार्थ विमानप्रविभक्त्यास्ये ग्रन्थ, स्था० १० ठा० । पा०।
|
महव्वय-महाव्रत-न० । महा न्ति-ब्ृहान्ति च तानि बतानि च |
नियमता महाव्रतानि । महत्वे चेषां सर्वजीवादिविषयत्वेन |
महाविषयत्वात् | पा० । सूत्र० । ने० । घ | आव० । श्राचा०।
महच्च तदूत्रत च महाव्रतम् , महच्च चास्य श्रावकसम्बन्ध्य- |
खुत्रतापक्तषयति। सर्वथा हिसात्यागेषु,घ०३आधि० | आचा० |
आणातिपातादिनिव्रृत्ति लक्षणेषु,आव०४ अ० । प्रव० । स्था०।
पचं महब्वया पणत्ता | तं जहा-सव्वाओं पाणाऽइवायाग्रो
चेरमण, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं ° जाव सव्वाओ प-
रिग्गद्ाओ वेरमणं। ( खत्र-३८६ )
( पंच महव्वयेत्यादि ) “ पश्चाति ” संख्यान्तरव्यवच्छेदस्तेन
न चत्वारि प्रथमपश्चिमतीथयोः पञ्चानामेव भावात् ,महान्ति
चरृहन्ति तानि च तानि बतानि च-नियमा महाव्रतानि । महत्त्व
चेषां सर्वजीवादिष्वेषयत्वेन महाविषयत्वात् । उक्लं च-“* पढ-
मम्मि सन्वजीवा, बीए चरिमे य सव्वदव्वाईं ससा महव्वया
खलु, तदेकदेसेण दव्वाणे'\॥९॥ इति । तषां द्रव्याणमेकदेशेने-
त्य्थः। तथा-यावज्ञीबं त्रिविध त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूप-
त्वाच्च तेषामिति। देशविरतापेक्षया महतो वा गुणिनो वतानि
महदूबतानीति, पुलिज्ञनिर्देशस्तु प्राकृतत्वादिति। प्रज्नप्तानि-
तथाविधशिष्यापक्षया प्ररूपितानि महावीरेण आद्यती-
थंकरेण च न शेवरित्येतत् किल खुधम्भस्वामी जम्बूस्वामिन
प्रतिपादयामास । तद्यथा-स्वस्मात्-निरवशपात्-जसस्थाव-
रसूक्ष्मबादरभेदमिन्नात् : कृतकारितानुमतिभेदाचत्यथः ।
अथवा-द्रव्यतः षपड़जीवनिकायविषयात् , क्षेत्रतस्त्रिलो कस-
म्भवात् , कालता5तीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्धे-
परसमुत्था नतु परिस्थूरादेवेति भावः। प्राणानामिन्द्रियो-
च्छराखायुरादीनामातपातः प्रासिनः सकाशाद्विश्रशः प्राणाति-
पातः, प्रारिप्राणवियाजनमित्यर्थः । तस्माद्धिरमणम् सम्य-
रज्ञानश्रद्धानपूवकं निवत्तनमिति । तथा सर्वस्मात् सद्धावश्र-
तषेधा १ ऽसद्धावोद्धावना २ ऽथौन्तरोक्रि ३ गहाभेदात् ४
छृतादिमेदाच्च । त्र थवा द्रव्यतः स्व धमौस्तिकायादिद्रव्यवि-
चयात् _त्तत्रतः सर्वलोकालोकगोच्रात् .कालतोऽतीतादे राच्या
दिव्तिना वा, भावतः कष्रायनोक्रपायादिप्रभवात् । सपा अ-
लीके वदन वादो म्रषावादस्तस्माद्धिरमणं विरतिरिति, तथा
सर्वस्मात् ङ तादिमेदात्। अथवा-द्रव्यतः सचेतनाचेतनद्रव्य-
विषयात् , त्तत्रतो व्रामनगराररयादिसम्भवात् , कालतोऽती
तादे राज्यादिप्रभवाद्वा,भावता रागद्धेषमोदसमुत्थात्। श्रदत्तं
स्वामिना अवितीणं तस्या+ऽदाने ग्रहणमदत्ताऽ“दानं तस्माद्वि-
रमणामति, तथा सवेस्मात् छृतकारितानुमतिभदाद् , अथ
६६
)
५0९ टेव
वा-द्रव्यता दि्यमानुषतेरश्चमेदात् रूप-रूपसदगतमभदाद्वा ।
तत्र रूपाण निर्जीवानि प्रतिमारूपारयुच्यन्त, रूपसदह गतानि
तु सजीवानि । भूषणाविकलानि वा रूपाणि, भूषणसहितानि
रूपसहगतानीति । क्तत्रतस्िलाकसम्भवात् , कालतो ऽतीता
द् राज्याद्समुत्थाद्वा,भावता रागद्वेषप्रभवात् | मिथुने स्त्रीपुं
सद्रन्द् तस्य कम्म मेथुन तस्माद्विरमणार्मिति, तथा सर्वस्मात्
रताद्: । अथवा-द्वव्यतः स्द्रव्यविपयात् , क्तेत्रतः लाकस
म्भवात् ,कालताः तीतादे,राज्यादि प्रभवाद्वा, भावता रागद्धष-
विषयात् ; परिग्रह्मयते आदीयते परिग्रहणे वा परिग्रहस्तस्मा-
द्विरमणमिति । स्था० ५ ठा० १ उ० । उत्त० । “ पंच महन्व-
राइभाहणच्छुट्टाई ` । प्रव० ७ द्वार। ( एतानि सभावना-
नि `पाणाइवाया' 55दिशब्देषूक्कानि) आण०चु० | प्रव०। श्रङ्ग०।
श्राव० । पश्चा० | ( अन्तर्ग्रहे महाव्रतानि नाख्यातव्यानीत्यु-
क्रम् ` श्रतरागेद ` शब्दे प्रथमभागे ८८ पृष्ठ ) ( पाक्षिकप्र-
तिक्रमणविधिगताति सूत्राणि ` पडिक्रमण ` शब्दे पञ्चम-
भाग २६४५.प्ष्टे उक्तानि) । केषां तीर्थ पञ्च केषां वा च-
त्वारि महावतानीति ˆ बय ' शब्दे वच्यते ) ( सौगतानां दश
महावतानि इति “ पलंव ' शब्दे ५ भागे ७१५ पृष्ठे उक्तम् )
महावतानां फलानि--
0 ट
वैरत्यागोऽन्तिके तस्य, एलं चाउक्ृतकर्मणः ।
रत्नोपस्थानसद्ीय- लाभो जनुरनुस्म्रतिः ॥ ६ ॥
तस्या ऽदिसाभ्यासवतो ऽन्तिके संनिधौ वैरत्यागः सहज-
विरोधिनामप्यहिनकुलादीनां दिंसात्वपरिहारः, तदुक्कम--
( श्रहिसाप्रतिष्ठायाम्--“ तत्सनिधौ वैरत्यागः " पाद २
स्० ३५ ) सत्याभ्यासवतश्चाकृतक्मणो ऽविदिताचुष्ठानस्यापि
फलं तद्थोपनतिलक्षणाक्रियमाणा हि क्रिया यागादिकाः फले
स्वगादिकं भरयच्छन्ति । श्रस्य तु स्यं तथा प्रकृष्यते, यथा-
कृतायामपि क्रियायां योगी फलमाश्रयत तद्धचनाच्च यस्य
कस्यचित् क्रियामकु्व्वताऽपि फलं भवतीति । तदाह-( स-
व्यप्रतिष्टायाम-- क्रियाफलाश्रयत्वम् ” पाद २ सू ३६ )
अस्तेया भ्यासवतश्च रत्नोपस्थाने तत्प्रकर्षान्निरभिलाषस्यापि
सन्यतो दिक्कानि रत्नान्युपतिष्ठन्त इत्यथः । ब्रह्मचर्यांभ्यास-
वतश्च सता निरतिशयस्य वीयस्य लाभः, वीर्यनिरोधो हि
ब्रह्मचय, तस्य प्रकषौच वीर्य शरीरन्द्रियमनस्खु प्रकर्षमाग-
च्छतीति ( श्रपरिग्रहाविषयिका व्याख्या ` परिग्गह ` शब्दे
५भागे५५६ पृष्ठ) | द्वा० २१ द्वा० । आ०्चू० । दश०।( परथमे म-
हावतम् प्राणातिपातविरमणम् तच्च ` पडिक्तमण ` शब्द
पञ्चमभागे २८५ पृष्ट दशितम् ) ( द्वितीय महाव्रतं सरषावा-
दविरमणं तच्च * मुसावायवेरमण ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे
दश्यते ) ( तृतीयं महावतम अदत्तादानाविस्मणं तच्च * अ-
दत्तादानविरमण' शब्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठ गतम् ) ( चतुर्थ
मेथुनविरमणं तच्च ' बंभचेर ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे १२५६
पृष्ठ उक्कम ) ( पञ्चमे महावतं परिग्रहाविरमण तच्च * परिः
ग्गहवेरमण ` शब्दे पञ्चमभागे ५५७ पृष्ठ गतम् ) ।
इचेयाईं पंच महव्वयाई राइभोयणवेरमणछट्टाई अत्तहि-
यष्ट्राए उवसंपजित्ता णं विहरामि । ( खत्न-६ ) ।
( इच्चेयाई इत्यादि ) इत्यतान्यनन्तरादितानि पञ्चे महा-
2
अभिधानराजन्द्रः।
अतानि रातिभोजनविर्मणषष्टानि | किमित्याह-आत्महिताय |
आत्महिता मोत्षस्तद थम ,अननान्यार्थ तच्वतो ब्रताभावमाहँ,
तदमिलापानुमत्या हिसादावनुमत्यादिभावात् , 'उपसंपतद्य
सामाप्यनाज्ीकृत्य व्रतानि विहरामि साथुव्रहारण तद- |
भाव चाङ्गीक्ृतानामपि त्रतानामभावात् । दाषाश्च हेसा-
पदक्तृणाम् अलायु जहाच्चृददारद्रचपरडकदुखतत्वादयो |
वाच्या इति । दश० ४ अ० ।
` अत्रान्तरे सप्तचत्वारिशदधिकयत्याख्यानभङ्गकशताऽधि- |
कारः । तत्रयं गाधा--
“ सीयाल भगसयं , पच्चक्खाणेमि जस्स उवलद्धं ।
सो पच्क्खाणकुसला , खसा सव्वे अकृसला उ ॥ १॥ |
दश० ४ ॐ० ।
सप्तचत्वारणदधिकभङ्गशतं वच्यमाणलक्तषण, प्रत्याख्याने-
प्रत्याख्यानविषयं, यस्यापलव्धं भवति स इत्थंभूतः ध्रतयाख्या-
ने कुशलो-निपुणः,
इति गाथासमासार्थः ।
अवयवार्थस्तु भज्ञकयो जनाप्रधानः स चेवं द्रष्यः-
“ तिन्नि तिया तिन्नि दुया, तिन्नि केका य हंति जोएसु ।
तिदुण्कंतिदु ण्कं,तिदु एक चव करणाई ॥१॥ "`
जयसख्िकाः (३३३) तयो द्विकाः (२२२) चयश्चैककाः (११९)
शेषाः स्वे अकुशलाः-तदनभिज्ञा |
भवन्ति । योगेषु-कायवाङ्मनोव्यापारलक्तणषु जीणि ढ-
यमक त्रीणि द्वयमेक॑ त्रीणि यमेकं चैव करणानि म-
नावाक्षयलक्षणानि इति पद्घटना । भावाथस्तु स्थापनया |
निर्दिश्यत । सा चयम्--
३३३-५२२-१११ काऽ भावना ? न करेमि न कारवमि क-
३२१-३२१-३२१ रंत पि अज्न न समखुजाणामि मणय वा-
१३३-३६६-३६६ । याए काणणे ” एकरा भदो । इयाणि वि- |
तिश्रा-ण करेइ न कारवेइ करंतं पि अन्न न समणुजाणाइ
मणेण वायाए इक्को भंगो। तदा मणेणं काएणं विदश्रौ भगो । |
तहा वायाए काएण य तइझो भगा । विद्रा मूलभेओ
गआओ । इयि तइओ-ण करइ ण कारवद् करंते पि अ-
न्न न समणखुजाणइ मणेण एक्रो, वायाप विईइओ, काएएं
तद्रो , गआओ ततिच्रो मूलभेओ । इयाशणि चउत्थो-ण
करेइ ण॒ कारवे मणे बायाण काणणे इक्को, ण॒ करेइ
करंतं णारुज्ञाणद विद्रा , ण कारवेइ करंतं णाणुजाणइ
तइओ,गआओ चउत्थो मूलभेश्रो । इयाणि पचमो-ण करेइ
ण॒ कारवेइ मणणे वायाए पक्को, ण करद करत णाणुजाणइ
विदश्य, ण कारवद् करंतं णाणुजाणइ तइओ, एए तिन्नि |
भगा मणेणे वाणाए लद्धा, अन्न वि तिन्नि मणेण काएण
य लब्भति, तटा अवरे वि वायाए काएण य लब्भति तिन्नि,
एवभेव सव्व एण णव, पंचमो ऽप्युक्तो मूलभेदः इयाणि छट्टी - ण
करेण कारवद् मणो एको , तहा ण॒ करेइ करंतं णाणुजाणद
मणे वदञ्रा, ण कारवइ करत णाणुजाइण मनसत तृतीयः 9 |
णवे वायाए काएणण वि तिन्नि तिन्नि भगा लब्भति। एते वि |
सव्व णव । उक्तः षष मूलभदः । सप्तमो ऽभिधीयते-ण॒ करेइ
मणे वायापए काण पक्रो, एवं ण॒ कारवेइ मणादीहहिं
वितिच्रो, करतं णाणुजाणई, तातिओं । सप्तमोऽप्युक्तो मू-
लभदः । इदानोमण्रमः-ण करद् मरणे बायाए एको, मणेणं
)
४ मह
काएण य वितिओ, तदा वायाए काएण य तइओ, एवे न
काग्वेइ एल्थे पि तिन्नि भगा, एवमेव करंतं णारु 5जाणइ ए-
त्थ पि तिन्नि भगा, एए सव्व णव । उक्तो5ष्टमः । इदानीं
नवमः-ण करेइ मणं इका, ण कारवेइ वितिश्रो, करते
णाणुजाणइ तइओ, एवे वायाए वितिये, काणण वि होड
ततियं, एवमते स्वे वि मिलिया नव, नवमो ऽप्युक्कः ।
आगतगुणनमिदानी क्रियते--
“ लद्धफलमाणमेयं, भगा उ दवति (च) ऊणपन्नास ।
तीयाणागय संपति, गुणियं कालण होइ इम ॥ ९ ॥
सीयालं भगसय, कह कालातिएण होति गुणणा उ ।
तीतस्स पडिक्कमणं, पच्चुप्पन्नस्स सवरणे ॥ २
पञ्चक्खाणे च तहा, होइ य एसस्स एस गुणणा उ ।
कालतिएणं भखियं, जिणगणधरवबायएदि च ॥ ३॥ ”
इति गाथाथः | दश० ४ अ०।
साम्प्रते यतनाया अचवसरस्तथा चा55ह--
से भिक््खू वा भिक्ुणी वा संजयविरयपडिहयपच्च-
क्खायपावकम्म दिया वा राओ वा एगओ वा परिसाग-
ओ वा सुत्त वा जागरमाणे वासे पुढविं वा भित्ति वा
सिलं वा लेल वा ससरक्खं वा कायं ससरक्खं॑वा वर्त्थ
हत्थण वा पाएण वा कटण वा किलिंचण वा अगुलि-
याए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलि
हेजा न विलिदेजा न षड्जा न भिंदेज़ा अन्न न आलिहा-
_ वेज्ञा न विलिहावेजञा न घट्टावेज़ा न भिद विज्ञा अनने आ-
[सहत तवा पालहत वा घटत वा यदत वान समणुजा-
णजा जवजवाए तावह तावहख मणण वायाए काएणख
न कररमि न कारवेमि करत पिअज्न न समणुजाणामि
तस्स भते ! पडिकमामि निंदमि गरिहामि अप्पाणं वोसि
रामि। ( सृत - १० )
से' इति निर्देश स योऽसो महावतयुक्का, भिच्वौ भिक्षुकी
वा आरारम्भरपारत्यागाद्धम्मकाययपालनाय, भित्तणशीलो भिक्षु
एवे भिच्लुक्यपि पुरुषोत्तमो धम इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्धिश-
चणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति, आह-संयतविरत-
प्रतिहतप्रत्या ख्यातपापकम्मा-तत्र सामस्त्यन यतः सेयतः
सक्षदशप्रकार संयमोपेतः । विविधम्- अनेकधा द्वादशविधे
तपसि रतो विरतः । प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति-प्रतिहते
स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनवृद्ध्य-
भावन पाप कमे ज्ञानावरणीयादि यन सर तथाविधः।' दि-
वा वा राजो वा एको वा परिषद्गतों वा खुप्तोवा जाग्रद्वा,
रारो सुप्तो दिवा जाग्रत् , कारिक एकः, शषकाले परिषद्गतः,
इदं च वच्यमाणे न कुयोत् । ( स पुढवि वा इत्यादि ) तद्य-
था-पृथिवी वा, भित्ति वा, शिलां वा, लोष्ठ वा, तत्र पृथिवी-
लोष्टादिराहिता, भित्तिः-नदीतरी, शिला-विशालः पाषासः,
ला्ठः-प्रसिद्धः। तथा सह रजसा-आरण्यपांशु लक्षणन वत्तत
इति सरजस्कस्तं सरजस्कं वा काय 'कायामिति' देदं तथा स-
रजस्क वा वर्त्रं चो लपट्टकादि “एकग्नहणे तज्जातीयग्रहणम””
इति पात्रादिपरियग्रहः, एतात्किमित्याह-हस्तेन वा पादेन वा
4 व
0 2
( १८३ )
महव्वय
॥ अभिधानराजन्द्रः
काषछटन वा कालञ्तन वा-क्षुद्रकाष्ठटरूपण अङ्खल्या वा शला |
कया वा अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तन वा शलाकासं
श्रातरूपण (णालिंहिज्ज त्ति) नालिखत् न न विलिखत् । न घट्ट-
यत् न भिन्यात् तत्र इषत्सरृद्धा लखन, नितरामनकशा वा
विलखने, घटन चालन.भदो विदारणम् .एतत्स्वयं न कुयात्,
तथा अन्यमन्यन वा नालखयन्न विलखयत् न घटयेत् न भद
यत् । तथा अन्य खत एव आलखसन्त वा वालखन्तवाध |
डयन्त वा भन्दन्तवा न समचुजानायादत्याद् पूववत् ।
दश० ४अ०। (अग्रतन सत्रम॑आउककाय शब्द द्वतीयभागेर७ |
पृष्ठ गतं तद्व्याख्याऽप ॥काचित्तज ) पतत् किमित्याह- |
( नामुसेज्ञ त्ति )नाम्षत् न संस्पृशेत् ना55पीडयेत् न प्रपी
डयेत् ना55स्फोटयेत् न प्रस्फोटयत् ना ऽऽतापयत् न प्रता-
पयत् । तत्र सकृदीषद्धा स्पशनमामषणम् , अता ऽन्यत् सस्प
शनम् । एवं सकूदीषद्धा पी डनमापौ उनमतो+न्यत् प्रपीडनम्
एवं सङकृदीपद्वा स्फोटनमास्फाटनम् , अतो ऽन्यत्प्रस्फोरखनम्,
एव सङूदीषद्धा तापनमातापनम् विपरीत प्रतापनम् , एत-
त्स्वये न कुयीत् , तथा अन्यमन्येन वां नामर्षयेत् न संस्पर्श-
यत् नापीड्येत् न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोययत्
नातापयत् न प्रतापयेत् , तथा अन्य स्वत एव आस्रषन्तं वा
सस्परशन्त वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्त
वा प्रस्फोरयन्ते वा आतापयन्ते वा प्रतापयन्तं वा न सम-
जुजानीयादित्यादि पूवैवत् ।
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खा-
यपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ
वा सृत्ते वा जागरमणे वा से अगरणि वा इगालं वा
मुम्मुरं वा अच्चिवा जालं वा अलायं वा सुद्धागणि वा
उकं वा न उजेजा न घट्टेज़ा न उज़ालेज़ा न पज्ञालेज्ञा न
निव्वावेज्ा अन् न उंजविज़ा न घट्टावेज्जा न उज्ालावेज़ा
न पज्जालावेज्जा न निव्वावेज्जा अने उजंतं वा घट्टत॑ वा
उज्ञालतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणज्जा जावज्जीवाए
तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कार-
वेमि करंतं पि अन्न न समणुजाणामि तस्स भते ! पडि
कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि। सत्र-१२।
( जाव जागरमाणे व त्ति ) पूववदेव ( से अगरिं वेत्यादि)
तद्यथा-आग्न वा अङ्गारं वा मुमुरं वा अर्चिर्वा ज्वालां वा
अलातं वा शुद्धाग्नि वा उल्कां वा इहा5यःपिण्डानुगतो5
ग्निः, ज्वालारहितो5ज्ञारः, विरलाग्निकणं भस्म मुमुरः, मूला-
ग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः, प्रतिबद्धा ज्वाला, अलातमु-
ल्मुकम् , निरिन्धनः शृद्धा ऽग्निः, उल्का गगनाग्निः, एत-
त्किमित्याह--(न उजेज्जा) नात्सिश्चेत् (न घट्टेज्जा ) न घट्ट-
यत् न उञ्ज्वालेयत् न निर्वापयेत् ! तत्रोञ्जनमुत्सचने, घट्टने
सजातीयादिना चालनम् , उज्ज्वालने व्यजनादिभिवृ द्ध्या-
पादन, निवापी विध्यापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् , तथा
अन्यमन्येन वा नोःसेचयेत् न घटयेत् नोज्ज्वालयेत् न निवी
पयेत् , तथा अन्य खत एव उलत्सिञ्चयन्ते वा घट्टयन्तं वा
उज्ज्वालयन्तं वा निर्बापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि
पूर्वत् ।
0 महव्वय
से भिक्ख वा भिक्खुणी वा सैजयविरयपडिहयपच्चक्खाय-
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा
सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअं-
टेण वा पत्तेण वा पत्तभगेण वा साहाए वा साहाभगेण वा
पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चलेण वा चलकषेण वा
हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वाऽवि पु-
ग्गलं न फएूमेजा न वीएज्ञा अननं न फूमावेज़ा न वीया-
वेजा अन्न॑ फूमंत वा वीयेतं वा समणुजाणेज्ञा । जाव-
ज्जीवाए तिविह तिविहेण, में वायाए काएणं न करेमि
न कारवेमि करंतं पि अन्नंन समणुजाणामि तस्स भते!
पडिक्रमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१३॥
( से भिक््खू वेत्यादि-यावत्-जागरमाण वा) इति पूर्ववदेव ।
( से सिएण वेत्यादि ) तद्यथा सितेन वा विधवनेन वा ता-
लवृन्तन.वा पत्रण वा शाखया वा शाखाभङ्गन वा पेहणेन
वा पहुणहस्तन वा चलेन वा चेलकर्णन वा हस्तेन वा मुखे-
न वा | इह सितं चामरं, विधवनं-व्यजन, तालब्रन्तं तदेव
मध्यग्रहरणाच्छिद्ं द्विपुरं, पं पद्मिनीपतवादि, शाखा वृक्षडाले
शाखाभङ्ग तदेकदेशः, पहुणं मयूरादिपिच्छं, पेहुणदस्तकस्त
त्समूहः, चल-वख, चलकणस्तदेकदेशः, हस्तमुखे प्रतीत
एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कायं स्वदेहमित्यथैः, बाह्ये वा
पुद्रलम् उष्णोदनादि,एतात्किमित्याह-(न फूमिज्ञा इत्यादि) न
फूत्कुयात् न व्यजत् । तल फूत्कररण मुखन चमन,व्यजन चम
रादिना वायुकरणम्, एतत्स्वयं न कुयौत् , तथा अन्यमन्यन
वा न फूत्कारयेत् न व्याजयत् । तथा अन्यं स्वत एव फूत्कु
वन्तं वा व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ।
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा सजयविरयपडिहयपचचक्खायः
पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा-
सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइट्टेस वा रू-
देसु वा सूढपड्टसु वा जाएसु वा जायपइट्टेसु वा हरिएसु वा
हरियपइ्ट्टेस वा छिंल्ेसु वा छिन्नपहट्ेस वा साचित्तेसु
वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेज़ा न चिट्ठेजा
न निसीइज़ा न तुयदेज़ा अन्नं न गच्छावेज़ा न चिट्ठा-
वेज्ञा निसीयावेज्ञा न तुयझावेजा अननं गच्छतं वा
चिट्ंत वा निसीयंतं वा तुयइंतं वा न समणुजाणेज्ञा जा-
वर्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए काएणं न करे-
मिन कारवेमि करत पि अन्न न समणुजाणामि तस्स भते!
पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि | १४।
( स भिक्खू वेत्यादि-यावत्-जागरमाण वति ) पूववदेव ।
( से वीएसु वत्यादि ) तद्यथा-बीजेषु वा बीजग्रातिष्ठितंषु वा
रूढदपु वा रूढप्राताष्ठतषु वा जातषु वा जातप्राताष्ठ तेषु वा
हरितषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा चिन्नषु वा छिन्नप्राताप्ठ-
तेषु वा सचित्तेषु सचित्तकोलप्रतिनिध्रितषु वा, इट वाज
शाल्यादि तत्प्रतिष्ठितम् श्रादारशयनादि ग्रृह्मत । एव सर्वत्र
वदितव्यम् । रूढानि स्फुटितबीजानि, जातानि स्तम्वीभूतानि,
| २८७ )
महत्य
छ्मभिधानराजन्द्रः।
सहाकण्हा
हरितानि दूवादीनि, छिन्नानि परश्वादिभिज्तक्षात् पृथक सथा- | सट्ठटाचत्ता य होते महसेणा । गदभसयमेगं पुण, प-
पितानि, आद्राशि अपरिणतानि तदङ्गानि ग्रहमन्त, सच्ति- |
त्तान्ययडकादीनि, काला घुणः तन्प्रतिनिधितानि तदुपारिव-
त्तीनि दार्वादीनि गृह्यन्ते । । एतपु किमित्याह-- न गच्छेजा'
न गच्छत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्वत्तेत। तव्र गमन-
मन्यतो ऽन्यत्र, स्थानमेकत्रैव, निषीदनम् उपवशन, त्वग्वत्तन
स्वपनम् , एतत्खये न कुयात् । तथा ःन्यमेतेषु न गमयेत् न
स्थापयेत् , न निषीदयेत् . न स्वापयत् । तथान्यं स्वत एवं | 9 <
म € ४ = महा-मघा-स्त्री० | पिठदेवत्य नक्ततरभेदे,
गच्छुन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्त वा स्वपन्तं वान समनु-
जानीयादित्यादि पूर्ववत् ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयवरिरयपडिहययचक्खा-
यपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा
पिपीलियं वा हत्थसि वा पायासि वा बाहुसि वा ऊरुंसि वा
उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा केंब-
लसि वा पायपुंछणसि वा रयहरणंमि वा गोच्छगंसि वा उ-
डर्गसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सिज़गंसि
|
॥
वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगांर उवगरणजाये |
तञ्म। संजयामेव पटिलहिय पडिलेहिय पमज्िय पमजिय |
एगतमवणेज्जा नो णं संघायमावज्जेज्जा ॥ सत्र-१५ ॥
( से भिक्खू वा इत्यादि--यावत्-जागरमाणे व त्ति) पूर्वव- |
(न
देव ( से कीडे वा इत्यादि
वा पिपीलिकां वा, किमित्य/ह-हस्ते वा पादे वा बाहों वा
ऊरुशि वा उदर वा वस्त्र वा रजाहरण वा गोच्छुके वा उण्ड
क वा दण्डक वा पीठे वा फलक वा शय्यायावा सस्तारक |
वा अन्यतरस्मिन वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उ-
पकरणाजात कीटादिरूप वसं कथांचदापातत सन्त सयत एव
सन्प्रयत्नन वा प्रत्युपक्ष्य-पान पुन्यन सम्यक् पअ्रमस्तज्य पानः- |
पुन्यनव सम्यक्कामल्याह-पकान्तं तस्या नुपघातक स्थान
अपनयत् पारव्यजत् नेन लस सघातमापादयेत् नेन बस |
) तद्यथा-कीटं वा पतङ्गं वा कुन्धु |
संघातं परस्परगावसस्पशैपीडारूपमापादयत् प्रापयत् । | अ- |
नन परितापनादिप्नतिषेध उक्ता वेदितव्यः। ' एकग्रहण तज्जा- |
तीयग्रहणाद अन्यकारणानुर्मातप्रतिषेधश्व, शेषमत्र प्रक-
टार्थमेव | नवरम-उराडकं-स्थारण्डले, शय्या--संस्तारिका व
सतिर्वेत्युक्ना यतना | दश० ४ अ० । ( मदाघ्रतामां विषयः |
£ सामाइय ` शब्द वच्यते )
महसउाणपूअणाए पु -महाशक्रानए तनारपु पु० | क्ष्णवासु
दव, क्रष्णापत्वारणया महाशकुनिपूतनाभिधानाया वद्याध- |
ग्याषितों विकुर्वितगन्त्रीरूपाया गन्त्रीसमारो पितवालावस्थ- |
करष्णया कृष्णपक्तपातिदेवतया विनिपातितत्वात् | प्रश्न” ४ |
आश्र० द्वार ।
महसिव-महाशित्र-पुं० ।
आच० २ अ० | सत० ।
महसेण- मह मेन-पु* ।
घष्ठवलदेववासुदेवयो:
ऋषभपुत्राणां सप्तचत्वारिंशत्तमे
पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण .। चन्द्र प्रभस्वामिाजि-
नस्य पितरि, आव० १ श्य० । प्रव० । ति० । बलाभि-
बलमित्तभारुमिज्ञा,
लराज़ान् पूर्वानन्तरे श्रवन्तीराज, “
पितरि, |
डिवरणो तोसगो रायाः `` ॥ ६१५ ॥ ति० ।
महसेशवण महासेनवन- न । स्वनामके उद्याने, यत्र॒ उत्प-
केवलो वीरप्रभुः सेश्रस्थितः। आ० म० १ अ० । “ उप्पत्त-
म्मि अरत, नद्ठाम्मि य छाउमत्थिए णे । रातीए संपत्ता, म~
हसेणवरं तु उज्ञाणे ॥१॥” श्रा० चू० १ अ० । महसेनवनो-
द्यानलक्तण क्त्रम् । विशे० । ति० ।
“५ दो महाऊ दो
महानक्खत्त सत्त
४४
फग्गुगीऊ । ” अनु० । स्था० ।
तार परणत्त `` स० ७ सम० । स्था०।
महाइसाई महातिशायिन्- ति । अचिन्त्यशक्कों, जी० १ प्रति०।
र 9 पु हा . . __ महाकदिय- --पु० । व्यन्तरदेवभेदे , प्रज्ञा० २
सृत्ते वा जागरमाणे वामे. कीडं वा पयंग वा कथुंवा, महाकंदिय-महाक्रन्दित ४
पद् | औ० ।
महाकच्छ--महाकच्छ -पुं० । ऋषभ्देवसदप्रतरजिते भिक्ता$-
लाभात्तापसत्व गत विनमिपितरि कच्छुश्रातरि, आश्चू०
१ अ० | दशे० | आ० क० । आ० म० | कल्प० | जम्बृद्धीप-
मन्दरस्य पूर्वे शीतोदा या उत्तरे चक्रवत्तिविजये,स्था० ८ ठा०
दा महाकच्छा | था० २ ठा० ।
कटि णं भते ! महाविंदेह वासे महाकच्छे णामं विजये
पष्पत्ते । गोअमा ! णीलवतस्स॒वासहरपव्वयस्स दाहि-
शेणं सीआए महाणईए उत्तरेण पम्हकूडस्स वक्खारपव्व-
यस्स पचत्थिमेणं गाहावइण महाणइए प्रत्थिमेणं एत्थ
शं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पष्पत्ते । सेसं
जहा कच्छविजयस्स णवरं आरिट्ठा रायहाणी ०जाव
महाकच्छे इत्थ देवे महिड्डिए अद्रो अ भाणिश्रव्वो ।
अथ तृतीयं विजयं प्रश्नयज्ञाह-कहि णमित्यादि, स्पष्ट
नवरं यावत्पदात्-' तत्थ रा अरिट्वाए रायहाणीए महाकच्छे
रामे राया समुप्पज्ञद, मद्या हिमवत ०जाव सव्वे भरो
सवणे भाणिश्रव्वं । शिक्रलमणवज्ं ससं भाणिश्रव्वं °जाव
भुज माणुस्सए खटे,महाकच्छणा मधेजे इति ग्राह्मम् इटशे-
नामिलापनाथों महाकच्छुशब्द्स्य भणितव्यः । जे० ४ वक्त०।
महाकच्छा-महाकच्छा -आा० | आंतकायस्य महारगन्द्रस्या-
5ग्रमाहिष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ०। भ०।
महाकट्टू -महाकष्ट-त्रि० । दुरजुचरे, घो० १ विव०।
महाकडिल-महाकडिल्ल-न० । गहने, पं०ब० ४ द्वार ।
महाकणह महाकरृष्ण -पुं° । खनामख्याते महाकृष्णायाः कु-
मारे , नि० १२ श्रु० १ बगे १ श्र० । स च श्रणिकान्महा-
कृष्णायामुत्पद्य वर्तय पर्यायात्पष्ठ लान्तककट्प उत्पद्य च-
तर्दशसागरोपमारयुत्कृष्टस्थितिकमायुरनुपाल्य ततश्च्युतो
महाविदेदे सेत्स्यतीति । नि० १ श्रु० १ वरग ६ अ०।
महाकणहा - महाकृष्णा खी० । स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहा-
राजभायायाम् , नि० १ श्रु० १ वर्ग १ श्र० । श्रन्त०।
सा च वीरान्तिके प्रव्॒ज्य द्रं सर्वता भद्रमुपसपद्य सिद्ध
ति । अन्त० र श्रु० ३ वग १ अञ।
( १४ )
महाकष्प
महाकप्प महाकल्प पु० ॥। गाशालककालपत कालपारमाण
भद्, भ० १५ श० ॥। |
महाक्प्पसय-महाकल्पश्रतं- न० । स्थविरादिकल्पप्रतिपादकं
` कल्पश्रतभदे, ने० पा० । आ० म०।
महाकमल-महाकमल-_० | चतुरशातक्मलाङ्गशतसहस्लरू
प सख्याभेदे. ज्या०२ पाह ०। (काल शब्द् ३े भाग स्फुरितम्) |
महाकम्म-महाकम्मन्- पुं । महान्ति गुरूणि स्थित्यादाभ-
स्तथाविघपमाणाद्यभिव्यङ्गयानि कम्माणि यस्य सः महा
कमी । स्था० ४ ठा० ३ उ० । स्थिव्याद्यपच्तयाऽलघुक-
मार. भ० ६ श० ३ उ०।
महाकम्मतर महाकमेतर -त्रि० । अतिशयेन महत्कमं ज्ञाना-
चरणादिकं यस्यस तथा । भ० ७ श० १० उ० । श्रतिशयन |
महान्ति कमाोरणि ज्ञानावरणादीनि वन्धमाश्रिय यस्य सः । |
ग्रभूतक्मवन्धकं, भ० ५ श० ६ उ० ।
महाकल्लाण-महाकल्याण--न० । परमश्रयास, पश्चा० धशबवब०।
महाकहा-महाकथा-खा० । श्रवन्धन महाजनस्य तक्त्वद्शना- |
याम् , भ० ७ श० १० उ०।
महाकाय महाकाय-वि० । महान्-प्रशस्तः कायो यस्य स
मदाकायः । भ० १४ श० २ उ०। महाशरीरे, उपां० २ आ०।
ब्रहदेे, श्रो । महान कायो यपां त महाकायाः, यो जनलत्त-
श्रमाणशरीरविकुर्वणात् । सूत्र० २ श्रु० ७ अ० । औ-
त्तराहाणां महोरगाणामिन्द्रे, प्रज्ञा २ पद । महोरगभदे,
प्रज्ञा० १ पद् | भ० | स० | स्था०।
महाकाल महाकाल-पु° । अतिश्यामवर्ण परमाधार्मिके देवे,
यो नारकाणां छछल्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वणेतश्च
महाकालो भवति स महाकालः। भ० ३ श० ७ उ०। प्रश्न० ।
श्रव० । | आव० | स०। श्रा० चू० ।
कप्पंति कागिणीमं-सगा णि छिंदति सीहपुच्छाणि |
खाबवाते य नरहइएण, महाकाला पावकम्मरए ॥ ७७॥
महाकालाख्या नरकपाला पापकमेनिरतान् नारकान् ना-
नाविधेरूपायेः कद यान्त , तद्यथा--काकिणीमांसकानि
श्छच्णमांससराडानि कट्पयन्ति नारकान् कुर्वन्ति । तथा
( सीहपुच्छाणि त्ति ) पृष्ठीवर्धास्तांश्छिन्दान्ति, तथा ये प्राक्
मांसाशिनो नारका आसन् तान् स्वमांसानि खादयन्तीति ।
सत्र० १ श्रु० ५ आ० १ उ० \ निधिभदे, जे० । श्रा० चू०
दुश० । ति० । प्रव० | स्था०। ( निधयस्तु ` णिहि ` शब
४ भागे २१५१ पृष्ठ दर्शिताः ) एकोनषश्टितमे महाग्रहे, स्था०।
दो महाकाला | स्था० २ ठा० ३ उ० | कल्प० | चं०
ग्र० | घ्ू० प्र° |
केतुकस्य महापातालस्याधिपतौ देवे, स्था० ४ ठा० २ उ०।
प्रव० । ऑत्तराहाणां पिशाचानामिन्द्रे, भ्रज्ञा० २ पद ।
स्था० । पष्ठ पिशाचनिकाये , प्रज्ञा० १ पद् । सप्तमनरकपथि-
व्यां खनामख्याते महानरके, प्रज्ञा० २ पद् । सृत्र० | स्था०।
जी०। स० । महारुद्रभदे . लोकिकदेवे, श्राव० ६ अ० । उज्ज-
चिनीश्मशाने, अन्त० १ श्रु० ३ वर्ग ८ अ० | तत्रस्थे महा-
देवलिद्गे , सथा० ।
४७
यनिधानराजन्द्रः।
|
|
महागद
श्रा० म०। ( तदुत्पत्तिः ` अणिस्सिश्रावहाण ` शब्द
प्रथमभागे, ३३६ पृष्ठ ) अप्रमदेवलोके स्वनामख्याते वि-
माने, स० १८ सम० | प्रभञ्जनस्य वायुकुमारन्द्रस्य वल-
स्वस्य द्वीपकुमारन्द्रस्य च दाक्तिणलोकपाले, स्था० ४ ठा० १
उ० । महाकाल्या अये महाकालः । श्रणिकस्य राज्ञा महाका -
द्यामग्रमदहिप्यां जाते पुत्र, स च्॒सेग्राम झत्वा चतुधनरकप्र-
थिव्यामुत्पद्य महाविदेहे सत्स्यतीति । नि० १ श्रु० १ वग
! अ०।
महाकालं5तर महाकालान्तर-न० | स्वनामख्यात स्थाने, यत्र
पातालचक्रवर्तौ पाश्वनाथः | ती० ४३ कल्प ।
। महाकाली महाकाली खी° । अ्रणिकभार्यायां महाका-
लमातरि, खुमतितीथकरस्य शासनदेव्याम् , नि० ६ श्रु० ६
वर्ग १ आअ० | ( तद्धणनम् ` तित्थयर ` शब्दे चतुर्थभाग २२६८
पृष्ठ गतम )
महाकिणहा महाकृष्णा खी० । रक्काख्यमहानदीसकृत नदी-
भेदे, स्था० ५ ठा० ३ उ०।
महाकिरिय-महाक्रिय- तरि । महती क्रिया कायक्याद्का
कर्मवन्धदेतुथस्य स महाक्रियः। प्रभूतकायिक्यादिक्रियाकृ-
ति, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
महाकिलेस-महाक्लेश ति° । महान क्णो यस्मिन् स म-
हाक्लेशः। अतिक्लेशसाध्य, उत्त २३ अ० ।
महाकुट्ट महाकुष्ट -न० । धात्वन्तःप्रवेशाद्सा ध्यत्वाच्च मह-
त्कुष्ठामिति । तथाविधकुष्ठरोगे, सत्त महाकुष्ठानि , तद्यथा--
श्ररुणोटुम्बरनिश्यजिह्कापालकाकनादपांर्डरीकद द्र कुछा--
नि। आचा० १ श्रु० ६८ ० १ उ० |
महाकुमद- महाकुयुद न° । सप्तमदेवलोकबिमानभेदे, स०
१७ सम० ।
| महाकुमुय महाङुमुद -न० । सख्याभेदे, सा चैवम्-चतुरशीति
महाकुमुदाङ्गशतसद स्रारायकं महाकुमदम् । ज्यो० २ पाहु०।
महाकुमुयंग- महाकुपदाङ्ग न०। सख्याभदे, सा चेवम-चतु-
रर्श।तिकुमुदशतसटहस्रारयकं महाकुमुदाङ्गम् । ( विशेषतः
"काल शब्दे तृतीयभागे ४७८ पृष्टे वातम् ) ज्यो० २ पाहु० |
महाकुल महाङुल- प° । महत्कुलमिच्वाक्वादिकमस्येति ।
इच्वाक्वादिकुलोत्पन्ने, सूत्र० १ । महच्च
तत्कुलमिति । इभ्यकुलादी, न० । नि० चू० = उ०।
महाखंदग -महाखन्दुक-पुं० । पष्ठे भूतनिकाये, भ्रज्ञा० १ पद् ।
महागंगा-महागड़ा खी० । गोशालकपरिभाषिते सप्तगज्ञा-
त्मके मानभेदे, 'सत्त गंगाओं एगा महागंगा ।” भ० १५ श०।
| महागर महाकर पुं । युहत्खनों, महाकरा ज्ञानादिभावर-
त्नापेत्षया । दश० ६ श्र ० १ उ०।
महागह महाग्रह-पुं? । ग्रहभेदे, महाग्रह्मश्व॒ मनुप्यतिरश्चामु-
पातालुग्रहकारित्वात् । स्था०।
| अ महागहा ष्पता । तं जहा -चेंदे १, र२, सुके३,
| बुह ४ बुहस्मदै ५, अगारए ६, मणिनर ७, करटः ८ |
|
श्र ८ आ०
शनन
@ १८६ )
श्रभिधानराजन्द्रः।
महाजम्म
महागद
स्था० ८ठा० । ( अत्र * महग्गद ` शब्देऽ स्मिन्नेव भागे
विशेषतो वार्णितम )
महागिरि- महागिरि पुं । गौतमगोत्रस्य स्थूलभद्रस्य
शिष्य पेलापत्यगोत्रे स्थविरे, “ थरस्स रो श्रजथुलभदस्स
गायमसगुत्तस्स इम दा थरा अतवासी श्रटावश्चा अभिन्नाया
दात्या । त॒ जहा--थरे श्रज्महागिरि एलाव्चसगोत्त
थर अजाखुहत्थी वासटसगुत्त । ” मदागिरिर्दशपूर्वी
सधु: । कल्प २ अधि० ८ क्षण । श्राव
। शि- |
ष्या द्वा स्थूलमद्रस्य. महागिरिख॒हस्तिनों श्रा क० ४ |
अ०। श्रा चू० । अश्वामत्र , यो हि महागिरिशिष्यस्य को-
डिन्यामिधानस्य शिष्या मिथिलायां नगय्यों लक्ष्मीग्रहे चे-
त्य निहवा जातः | स्था० ७ ठा०। बिशे० । आ० म०। आ०
चु० । उत्त० | ध० र० | उल्लुकातीरस्थे घनगुप्त-गुरो, विशे० ।
मरौ, सृत्र० १ श्रु० ११ अ० । ( अज्नत्यो विशेषः * अज्ञमहा-
गार शब्द प्रथमभागे गतः। )
महागिह महाग्रह-न०। इभ्ययूहे, महाकुले च। गि०्चू०८उ०।
महागुण महाग्रुण-पुं० । महांश्चासौ गुणश्च महागुणः । सक-
लगुणाऽऽधारत्वात् । महावते, पा०।
महागुरु महागुरु ति । कापुरुषेदुवेह, आचा०२ श्रु० ४ चू० |
महागोव महागोप- पुं गोपो गोरक्षकः, स चेतरगोरक्षके भ्यो
5तिविशिष्टत्वान्महानिति महागोपः उपा० ७ श्र ० । अतीव
गारक्षण कुशले, व्य० ३ उ० । आ० म० | आए० चू० | क०।
(विशेषता वगीन 'णमारिह' शब्दे चतुथभागे १८४५२ पृष्ट गतम् )
महाघोर-महाघोर ० । अतावराद्र, जी० १ प्रति०। महा
भयानक, सूत्र० ६ श्रु० ११ अ० | स्था०।
महाघोस महाघोष -पुं०। ओदीच्यानां स्तनितकुमाराणामि- |
| महाजुद्ध-महायुद्ध-नत० । परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्ध,
न्द्रे, स्था० ४ ठा० १ उ० | भर० | स० | यस्तु भीतान् पलाय-
मानान् नारकान् पश्टनिव वाटकेषु महाघोष कुवैज्निरुणाद्धि
स महावाषः | पञ्चदश परमाधार्मिकनिकाये, भ० ३ श० ७ |
उ० । प्रश्न । स्था० । प्रव० । आब० | स० | आ० चू० ।
भीए य पलायंते, समंततो तत्थ ते शिरुंभीति ।
पसुणो जहा पसुबहे, महघोसा तत्थ शरइए ॥ ८४ ॥
( भीए इत्यादि ) महाघ्रापाभिधाना भवनपव्यसुराधमवि
शषाः परमाधार्भिका व्याधा इव परपी डोत्पादननवा ऽतुल ह- |
पमुद्वहन्तः क्रीडया नानाविधरूपायेनारकान् कदथयानि
तांश्च भीतान् प्रपलायमानान ख॒गानव समन्ततः-सामस्त्यन |
तत्रेव-पीडात्पादनस्थान निरुम्भन्ति-प्रतिवध्नन्ति, पशन-
वस्तादिकान् यथा पशुवधे समुपस्थित नश्यतस्तद्धधकाः प्र
तिवध्नन्त्यवे लत्र नरकावासे नारकानिति | सूत्र० १ श्रु०५अ०
१ उ० । भारतवर्धेऽतीतायामुत्सर्पिरयां जात सप्तमकुलकरे,
स० । ए्रवतवपं भविष्यति द्वाविश ती थकरे,स०। तुतीयदेव-
लोकविमानभेदे. न० । स० ६ सम० ।
महाचद -महाचन्द्र- पुं | परवत वर्ष भविष्यव्य्रमे ती थकरे,
“ सिरि चदे दढकेत्,महाचेदे य केवली । दीदे
ति०।
स० १५६ सम० ।
पास य अग्हा, समाहि पडिदिसंतुम।''
महाचीण-महा्ची(न)ण--पुं० । चीनदेशमुख्यभागे, कर्प० १
अधि० ७ क्षण |
महाजत--महायन्त्र-न०। इच्चादिपीडनयन्त्रे,उत्त० १६ अ० ।
महाजंबू-महाजम्बू खरी० । जम्ब्वाः खुदशानायाः शेषलघुज-
म्ब्वपक्षया प्रधानजम्ब्वाम् , जी० ३ प्रति० ४ श्रधि०।
महाजक्ख- महायक्त- पुं० । अरजितनाथस्य शासनयत्ते,प्रव०२६
द्वार । ( तत्स्वरूपवरीनम् 'जिणजक्ख' शब्दे चतुर्थभागे )
महाजण महाजन-पुं० | विशिष्टपरिषदि,दश०१अअ०। सूत्र०।
महाजय-मटाजय-त्रि०। महाञ्जयः क्मशत्रुपराभवनलक्तणो
यस्मिन्नसौ महाजयः । महतां क्म ऽसीणां विनाशके, उत्त०
१२ अ०।
महाजस-महायशम्-पुं2। महद् विस्तरं सर्वस्मिन्नपि जगति
विस्तृतत्वाद्यशः च्छाघाऽस्येति महायशाः। चे०प्र०१७ पाहु०।
स्० प्र० । उत्त० । श्रपरिमितकीर्तौ, उत्त० १२ श्र ° । ज्ञा०।
ज० । जी० । भुवनत्रयगतख्यातित्वात् । आ०्म०१अ० | आ०
चू० । बृहत्प्रख्यातिके, भ० १ श० ७ उ० । विख्यातसदगुण,
दश० € अ० २ उ० | स्था० | दश० । स्था० । भरतपोत्र आ-
दित्ययशसः पुत्र, स्था० ८ ठा०। आ० चू० । आ० म०।
एरवतवर्ष भविष्यञ्चतु्थ ती करे, स० ।
महाजाइ-महाजाते-स्रा० । गुस्मभद्, श्रज्ञा० १ पद् | जे०।
| महाजाण-महायान-न० यान्त्यनन माक्तामाति याने चारम्,
तच्चानकभवकोटिदुलभ, लब्धमपि भ्रमाद्यतस्तथाविधक-
मोदयात्स्वप्नावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छुब्देन वि-
शष्यत, महच्च तद् याने च महायानम् । मोक्षसा धके चारिते
यदिवा-महद्यान सम्यगदर्शनचारित्रादित्रय यस्य स महायान
मात्तः । मान्त, पु° । आचा० १ श्रु० ३ श्० ४ उ०।
जी० ३ प्रात० ४ अधि० २ उ०।
महाजुम्म-महायुग्म-न० | महान्ति च तानि युग्मानि महायु-
ग्मानि । महारारिषु, भ० ।
कद ण भते ! महाजुम्मा पष्पत्ता ?, गोयमा ! सोलस
महाजुम्मा पापत्ता,ते जहा-कडजुम्मकडजुम्मे १,कडजुम्म-
तेओगे २, कडजुम्मदावरजुम्मे ३, कडजुम्मकलिग्रागे ४,
तेओगकडजुम्मे ५,तओगंतेओगे ६, तेओगदावरजुम्मे ७,
तेश्रोगकलिच्रागे ८,दावरजुम्मकडजुम्मे &,दावरजुम्मतओ
गे १०,दावरजुम्मदावरजुम्मे १ १,दावरजुम्मकलिओगे १२,
कलिओगकडजुम्म १ २,कलिओगंतओगे १ ४७,कलिओगदा-
वरजुम्भ १५, कलिओगकलिआओगे १६,से केणउट्वेण भते !
एवं वुच्द-सोलस महाजुम्मा पष्पत्ता। तं जहा- कडजुम्मक-
डजुम्म ०जाव कलिओगकलिओगे १ गोयमा ! जस
रासीचउकणएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्ञवसिए जे श
तस्स रासिस्स अवहारसमया तेऽवि कडजुम्मा से ते कडजु-
म्मकडजुम्मे,१,ज णं रासीचउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे
तिपषज्ञप्रयिए,ज शं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा
( १८७ )
का ८ 00
से तं कडजुम्मतेओगे २, जे णे रासीचउकणएणं अवहारेणं
अवहीरमाणे दुपज्ञर सिए,ज णं तस्स रापिस्स अवहारसम-
या कडजुम्मा से तं कडजुम्मदावरजुम्मे ३, ज णं रासीच-
उकएणं अवरेण अवहीरमाणे एगपज्ञवपिए,ज णं तस्स
रासिस्य अवहारसमया कडजुम्मा से तं कडजुम्मकलिग्रो-
गे ४, जे णे रासीचरउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउ-
पज्ञवसिए,ज णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगे से त॑
तेओगकडजुम्मे ५, ज णं रासीचउकएरण अवहारेण अव-
हीरमाणे तिपज्ञबसिए,ज श तस्स रासिस्स अवहारसमया
तेओया से तं तेओगतेओंगे ६ ज णे रासीचउकएण अव-
हारेण अवहीरमाणे दुपज्ञवसिए,ज णं तस्स रासिस्स अव-
हारसमया तेओया से त॑ तेओगदावरजुम्म७,ज णं रासीच-
उकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्ञवसिए, ज णं त-
स्स रासिस्स अवहारसमया तेओया से ते तेमोगकलि-
आगे ८, जे णं रासीचरउक्रएणं अवहारेण श्रवहीरमाशे
चउपजवसिए, ज णं तस्स रासिस्स अव्हारसमया दाव-
रजुम्मा से तं दावरजुम्मकडजुम्मे €, जञ णं रासीचउक- |
एण अवहारणं अवहीरमाणे तिपज्वसिए, ज शं तस्स
रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मते-
ओगे १०, ज णं रासीचउकएण अवहारेणं अवहीरमा- |
शे दुपजवसिए, ज शं ॒तस्स रासिस्स अवहारसमया
दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मदावरजुम्मे ११,ज शं रासीच- |
उकणएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं
तस्स रामिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से ते दावर-
जुम्मकलिओगे १२, ज णं रासीचउकणएण अवहारेणं
अवहीरमाणे चउपज्ञबसिए, जे णं तस्स ॒रामिस्स अव
हारसमया कलिओगा से तं कलिग्रागकडजुम्मे १३,
जे णं रासीचउकणएणं अवहरेणं अवहीरमाणे तिपज्जव-
सिए, जे शं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा
से तं कलिओगंतेओंगे १४, ज णं रासीचउकएणं अ्रवहारेणं
अवहीरमाणे दुपज्जवसिए,ज शं तस्स रासिस्स अवहारस-
मया कलिग्रोगा से ते कलिओगदावरजुम्मे १५,ज शे रासी-
चउकएणं अवहारेण अवंहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं
तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से तं कलि-
ओगकलिओंग १६, से तेण5द्वेएं >जाव कलिओगकलि-
ओगे। ( स्त्र-८५५ ) त.
( कइ रो भते! इत्यादि ) इह युग्मशब्देन राशावशषा
उच्यन्ते, ते च चुल्लाका श्रपि भवन्ति, यथा पाक् प्ररूपिता
अतस्तद्व्यवच्छेदाय बिशेषणमुच्यते । महान्ति च तानि
युग्मानि च महायुग्मानि, ( कडजुम्मकडजुम्मे त्ति) यो
राशिः सामायिकेन चतुष्कापहारेणापहियमाणअश्चतुःपर्यवासि-
अभिधानराजन्द्रः।
|
2 _ सहाणई
तो भवत्यपहारसमया श्रपि चतुष्कापहारेण चतुःप्यवसिता
पवाऽसो राशिः कृतयुग्मा इत्यभिधीयते । । अपडियमाण-
द्रव्यापेक्षया तत्समयापेक्षया चेति द्विधा कृतयुगमत्वादेवम-
न्यत्रापि शब्दार्थो योजनीयः । स च किल जघन्यतः षोडशा
त्मकः, परषां हि चतुष्कापहारतश्चतुरग्रत्वात्समयानां च
चतुःसख्यत्वादिति १, ( कडजुम्मतेश्राप त्ति) यो राशिः
प्रतिसमयं चतुष्कापहारेणापटहियमारशसखि पर्यवसानो भ-
वति तत्समयाश्चतुःपयवसिता एवासावपहियमाणापेतक्षया
ञ्योजः, श्रपदारसमयापेत्तया तु कृतयुग्म एवेति कृतयु-
ग्मञ्योज इत्युच्यते । तश्च जघन्यत पएकानविशतिस्तज्र
दि चतुप्कापहारेण अ्योऽवशिष्यन्ते , तत्समया-
श्चत्वार पवेति २, एवं राशिभेदसत्रालि तद्विवरणसूत्र-
भ्यो ऽवसेयानि । इ च सर्वत्राप्यपहारसमयापेक्तमाद्य पदम्
श्रपहियमाणद्रव्यापेन्ते तु द्वितीयमिति, इह च तृतीयादार-
भ्योदाहरणानि कृतयुग्मद्वापरे राशावष्टादशादयः। कृतयुग्म-
कल्याज सप्तदशादय ,-स्त्रयोजकूतयुग्मे द्ादशादयः,एपां चतु-
ष्कापहारे चतुर प्रत्वात्ततसमयानां च जित्वादिति। उ्योजत्र्यो-
जराशो तु पञ्चदशादयः, योजद्धापरे तु चतुदैशादयः, उ्यो-
जकल्योज ्रयोदशादयः, बरापरङृतयुग्मेऽ्रादयः, द्ापरञ्याज
राशावकादशादयो, द्वापरद्वापरे दशादया, द्वापरकल्योज न-
वाद्यः, कल्यो जक्तयुग्मे चतुरादयः,कल्याजब्योजराशौ स-
पादयः, कल्योजद्धा परे षडादयः. कस्योजकल्योजे तु पञ्चादय
इति । भ० ३५ श०।
महाटवणिया-महास्थापनिका- खी ° । शवपरिष्टापनिकाया-
म् , ध० ३ अधि० ।
महाडड-महाडड-न०।चतुरशीतिलक्षगुरितिषु उटितेषु,ज्यो°
२ पाहु० । ( काल' शब्दे तृतीयभागे ४७८ पत्र स्फुटितम् )
महादक्रा-महादक्षा-खी ॥ भेशवाद्ये, भ० ५ श० ४ उ०। जी०।
महाण-अस्माकम्-त्रि०। “ णे णो मज्क अम्ह श्रम्दं अमदे
अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्काण् छ्रामा'' ॥८।३। ११४ ॥
इत्यस्मद्ः श्रामासहितस्य मराणाऽऽदेशः । प्रा० ३ याद ।
महाणई-महानदी- .सत्री० । गुरुनिस्नगायाम् , स्था० ५ ठा० २
उ० | श्रा० म० । विस्तीणनद्याम् , नि० चू० १२ उ० । महा० |
ज० (कुत्र कति महानद्य इति “ जंबूदीव ` शब्दे चतुर्थभागे
१३७६ पृष्ठ गतम् )
मन्द्रदक्तिणतः षद् , उत्तरतः षट् महानद्यः--
जबूमंदरदाहिणेणं छमहाणईओ पण्णत्ताओ,तं जहा-गेगा
सिंधू रोहिया रोहियसा हरी हरिकंता। जंबूमंदरउत्तरेणं छ
महाणईओ पप्पत्ताओ,तं जहा-णरकंता णारिकंता सुवष्य-
कूला रुप्पकूला रत्ता रत्तनई | स्था० ६ ठा० ३ उ०।
जंबूमंदरदाहिणेणं चुल्नहिमबंताओ वासहरपव्वयाओं पउ-
मदहाओ महादहाओ तओ महाणदीओ पवहंति । ते जहा-
गंगा सिंधू रोहियंसा । जबूमंदरस्स उत्तेरेणं सिहरीओ वास-
हरपव्वयाओ पोंडरीयद्हाओ महादहाओ तओ महाणदौ-
= द्द )
सराण
यरी भधानराजन्द्रः
महाएणज़र
अआ पवहाते। त जहा-सुवन्नकूला रत्ता रत्तावती । स्था० ३ | महाणगरी-महानगरी-ख््री० ! तीथभूते पुरीभदे, महानगया-
ठा० ४ उ० |
( सिन्धुमहानद्या विस्तारपूर्वकवक्कव्यता “ गगा ` शब्दे तृ- ।
तीयभाग ७८५ पृष्ठ गता )
गत्तारत्तततीओ णं महाणदीओ पवाह सातिरेगे चउवीसं
कास वित्थारेणं पा्मत्ताओं स० २४ सम० |
जवृमंदरदादिशेणं गंगासिधूओ महाणईओ दस महाणईओ
समप्पंति | त॑ं जहा-जउणा १ सरऊ २ आवी ३ कोसी ४ |
मही ५ सिध ६ वितत्था ७ विभासा ८ एरावई € चंद-
भागा १०। जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तारत्तईओ महाणईओ
दस महाणईओ समप्पेंति, त॑ जहा-किएहा महाकिणहा नीला
महानीला तारा महातारा इंदा० जाव महाभागा । स्था०
१० ठा० ३ उ० |
|
मुद्ररडावहार श्रीमदादिनाथः | ती० ४३ कर्प ।
महाणडा-दशा--रुद्र, द० ना० ६ वग १२९१ गाथा।
महाणय-महानद्-पु° । बह्मपुञ्रादों प्रभूतजलवाहिनि नदे
महानयसोयपांडय समुद मतिगये तच्च मच्छुमगरेहि चिन्न ।'”
आ० मण० १ आअ०।
महाणरग-महानरक- प° । बृहदायामविष्कम्मे निरये, जी० |
सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया-
महाणरगा पापरता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महा-
रोरुए अपइट्टाणे । जी० ३ प्रति° १ अधि० २ उ० |
महाणरगसरिस-महानरकसदश- ० । रोरवादितुस्ये, दश०
१ च्चू० ।
| महाणलिण-महानलिन--न० । चतुरशीतिनलिनाइशतसह-
(गज्ञामहानदीवक्कव्यता गंगा' शब्दे ततीयभागे ७८५पृष्ठे गता) |
जवृरमदरस्स दादिणेणं सिंधुमहानदी पंच महाणईओ सम-
प्येति। तं जहा-सतद् विभासा वितत्था एरावई चंदभागा २।
जेबूमंदरउत्तरेणं रत्तां महाणई पंच महाणईओ समप्पेंति | तं
जहा-किणहा महाकिएहा नीला महानीला महातीरा । जंबू-
मदरस्स उत्तरेण रत्तावई महाणई पंच महाणईओ समप्पेति
इदा इंदसेणा सुसणा वारिसेणा महाभागा ४। (सत्न-४७०)
स्था० ५ ठा० ३ उ०।
जेबुद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवण- ¦
समुदं समप्पेंति | त॑ जहा-गंगा रोहिया हरी सीता णरकंता
सुवन्नकूला रत्ता | जबूद्दीवे दीवे सत्त महानदीओ पञ्च |
त्थाभिमृहीओं लवणसमु समप्पेंति | त॑ जहा-सिंधू रोहि-
यसा हरिकंता सीतोदा णारिकंता रुप्पकूला रत्तवई। स्था० |
७ ठा० २३ उ०।
जब्दी णं दीवे चउदस महानईञ्रो पुव्वावरेशं लवण `
समुरं समप्पंति। ते जहा-गेगा सिंधू रोहिआ रोहिअंसा हरी
हरिकंता साया सीओदा. नरकंता नारिकंता सुबागकूला |
रुप्पकूला रत्ता रत्तवई | स० १४ सम० |
सीआसीओयाणं महाणईओ मुहमृले दस दस जोश |
णाई उच्हण पष्मत्ताओ | स्था० १० ठा० ३ उ०।
महाणंदियावत्त-महानन्ययावर्त-पु घोषस्य स्तनित-- |
स्था० ४ ठा० १ उ० | भ०। विमा- |
कुमार स्यात्तरादिकुपा ले,
नभेदे, न० । स० १७ सम०।
महाणगर-महानगर-पुं० । प्रभूतलोकावासे नगरे , पश्च० १ |
श्राश्र° द्वार ( महानगरपागारकवाडफलिदभूयं ति) महा
नगरामिव महानगरं विविधसखुखहेतुत्वसाधम्यीद्धम्भः तस्य |
प्राकार इत कपाटमिव परिघामिव यत्तन्महानगरप्राकारक- । यस्य । बृहत्कर्मक्षयकारिणि, स्था० २ ठा० अ की लि
पाटपरिघभूताधाति । प्रश्न ७ सच> द्वार |
स्ररूपायां सेख्यायाम् , ज्या० २ पाहु०। ( 'काल' शब्दे ३ भागे
४७८ पत्र स्फुटी भूतम् ) सप्तमदेलोकांवमानभेद्, स० १८ सम०।
महाणस-महानस-पु? । रसवत्याम् , आ० चू० १ अ०।
महाणसिणी- महानसिनी- खी० । रसवेतीकारिकायाम् , भ०
१९ श० ११ उ०।
महाणसिय-महानसिक-त्रि० महानसे नियुक्ता मटानसिकाः।
सूपकारेपु, ज्ञा० १ श्रु० ७ अ०। आव० ।
महाणाग-महानाग-एऐ;ु० | प्रधानसप्प, आव० ४ अ० | उत्त०।
स्था० ।.कश्चित्तपकः प्रस्तुतपारणकः सक्षुल्लकः समारन्धभि-~
्तार्थश्रमणकः कथचित्मारितमरट किकः चुल्लकप्ररिता ऽप्र-
तिपन्नतद्वचनः पुनरावश्यककाल स्मारिततदथः समुत्पन्न
कोपः चुल्लकोपघातायाभ्युत्थितो वेगादागच्छन् स्तम्भे आ-
पतिता मृतो ज्योतिष्केषृत्पन्नो ऽनन्तरं च्युतो जातिस्मर
दष्टिविषसरप्पतयोात्पन्नः | सप्पंदएसतपुत्रेण च सर्पेषु कुपि-
तन राज्ञा ऽऽदिषएटजनमार्यमाणेषु नागपु नागविनाशकनरेण
केना ऽप्योषधिवलादाकृष्यमाणो दृष्टकोपविपाकतया च
मदृदृष्टिविपेण मा धघातकपुरुषविध्रातो भवत्विति भाव-
नया पुच्छतो निर्गच्छन् यथा निगेमे च खगङ्यमानः
| कोपलक्तणभाव्रापायं परिहतवानिति। तथा स एवानन्तरे ना-
गदत्ताभिधानराजसुततयोत्पन्नो बालत्व एव प्रतिपन्नप्रच-
ज्या त्यन्तसविद्मस्तिर्यग्मवाभ्यासाच्ात्यन्तन्लुघालुरादिलयो-
दयादस्तसमय्यं यावद्धा जनशीलो $साधार णगुणावार्जितदेव-
ताभिवन्दितो ऽत एव तद्रच्छगतमासादित्तपकचतुष्रयस्येष्या-
विषयीभूतो विनया तषामुपदर्थितस्वाथोनीतभाजनः तेश्च
मत्सरा द्वा जनमध्यनिष्श्र तनिष्टीवनो 5त्यन्तोपशा न्ताचित्तवु-
ज्षितया सजातकेवलः पुनदेवताबन्दितस्तपार्मीप क्षपकाणां
सवगदेतत्वन केवलज्ञानदशनससखद्धिसेपादक्रः कोपरूपे भा-
वापायं परिजहारेति । अथवा-कापादिलक्षणो भावापाया
भवति त्षपकस्येवति । स्था० ४ ठा० ३.३० |
महाशिज्ञर महानिर्ज़र-जि० । महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा
जजान कक
१-पाभनाव: |
( १८६ )
महाणिल्नर
ख्रभिधानराजन्द्र: |
महाणिसीह
पंचहिं उणेहिं समणे निग्गंथे महानिज्ञरे महापज्वसा-
शे भवर, तं जहा-अगिलाए आयरियवेयावच्च करेमाणे १, |
एवं उवज्कायवेयावच्च करेमाणे २,थेरवेयावच्च करेमा ०३,
तवस्सिवेयावच्च करे० ४, गिलाणवेयावच्चं करेमाणे ।॥५॥
पंचहिं ठाणेहिं समणे निरग्गथे महानिज्ञरे महापज्वसाणे
भवइ | ते जहा-अगिलाए सेहवेयावच्च करेमाणे १, अ-
गिलाए कुलवेयावच्च करेमाणे २, अगिलाए गणवेयावच्च
करेमाणे ३, अगिलाए संघवेयावच्च॑ करेमाणे ४, आगि-
लाए साहम्मियवेयावच्च करेमाणे ॥ ५ ॥ ( सत्र-३६७)
महानिजरा बुहत्कर्मच्तयकारी महानिजेरत्वाच्च महदा-
त्यन्तिकं पुनरुद्ध वाभावात् पर्यवसानमन्तो यस्य स तथा।
( अगिलाप त्ति ) श्रग्लान्या अखिन्नतया बहुमानने-
त्यथः, आचार्य: पञ्चप्रकारः । तद्यथा--प्रवाजनाचार्यो, दि-
गाचार्यः, सूतस्यादेशनाचार्यः, सूतस्य समुदेशनाचार्यो,
चाचनाचार्यश्वेति | तस्य वेयादुत्ये व्याच्रतस्य शु. उयापारवतो
मावः कम वा वेयावृत्यं, भक्तादिभिः धर्मोपग्रदकारिवस्तु-
मिरूपग्रहकरणमाचार्यवेयावत्यम् , तत् कुबौणो विदधदिति
सवसत्तरषटदेष्वपि, नवरमु राध्याखः-सूजदाता । स्थविरः स्थ-
रीकरणात् । अथवा-जात्या पाष्टवार्षिक', पयायेण विशति-
वर्षपर्यायः । श्रुतन समवायधारी, तपस्वी-मासक्तषपकादिः ।
ग्लानः-अशक्का व्याध्यादिभिरिति। तथा ( सेह त्ति) शैक्ष-
को ऽभिनचप्रनाज्तः। साधर्मिकः समानधमी लिङ्गतः प्रव-
चनतश्चति । कुलम्-चान्द्रादिकं साधुसमुदायविशषरूषे प्र-
तीतम् , गणः-कुलसमुदायः। संघों गणसमुदाय इत्यव सूलद्ध
यन दशविध वैयाच्तच्यामाभ्यन्तरतपाभदभूत प्रातपादत- |
मात ! उङ्क च--' आयारेय उवज्काए, थर तवस्सां गला-
णुसेहाणं । साहाम्मिय कुल गण सघ-सगयं तमिह काय-
व्व ॥ १॥ `` इति । स्था० ४ ठा० १ उ०।
तिहिं ठाणेहिं समणे निर्गथे महानिज्ञरे मदापजवसाणे
भवई, त जहा-कया णं अहं अप्प वा बहुये वा सुर्ये अहि-
जिस्सामि, कया णमहमेकन्नविहारपडिम उवसंपजित्ता णं |
विहरिस्सामि, कया णमहमपच्छिममारणंतियसंलेहणाभू- |
सणाभूसिए भत्तपाणपडियाइक्खए पाओवगए कालमण--
चकंखमाणे विहरिस्सामि, एवं समणसा सवयसा सकायसा
पागडेमाणे (पहारेमाण) णिग्गंथे महाणिजंर महापजवसाणे
भवडई । तिहिं ठाणेहिं समणोवासते मदाणिज्जर महापज्ज-
वसाणे भवति, ते जहा-कया णं अहमर्प्प वा बहुं वा
परिग्गहं परिचइस्सामि १, कया णं अह मुंडे भवित्ता आ- |
गाराओ अणगारियं पव्वयिस्सामि २, कयाणं अहं अ~ |
पच्छिममारणंतियसंलेहणामूसणा कूसिए भत्तपाणपडि -
।
याइक्खए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरिस्सामि ३, |
एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडैमाणे (जागरमाणे) |
समणेावासए महारिजरे महापज्जवसाणे भवइ । (सू०२१०) |
४८
( तिरीत्यादि ) खुगमम् । नवरम्- महती निज्रा कर्मक्ष-
पणा यस्य स तथा । महत्-प्रशस्तमाव्यन्तिकं वा, पयवसान -
म्-पयन्त.समाधिमरणतो-ऽपुनमेरणतो वा जीवितस्य.यस्य
स तथा | अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, (पव स मणस त्ति)
एवमुक्रलत्तणत्रय, स इति-साधुः (मणस त्ति) मनसा, हस्द
त्वे प्रातत्वात्, एवं सवयस त्ति ) वचसा ( सकायस त्ति,
कायेनेत्यथः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणेरि-
व्यथः । अथवा-स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन्-पयौलोचयन्
कचित्तु “पागडेमाणे त्ति ” पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यक्कीकु्व-
निलयः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि जीणि
निजेरादिकारणानीति दर्शयज्नाह--“ तिही ” त्यादि, क-
राख्यम् । स्था० २ ठा० ४ उ० ।
महाणिज्ञामग-महानिर्यामक-पु° । अदेति, भवसमुद्रपार-
गामित्वात् तेषाम् । | आ० चू० १ अ०।
महाशिदा--महानिद्रा- खी० | मिथ्यात्वाज्ञानमय्यां निद्रायाम्,
प्राचा० १ श्रु० ३ ० १ उ०।
महाणिमित्त महानिमित्त- न° । शास्त्रविशेषे, ज्ञाण १ श्रु० १
अआ०। “ महाणिमित्त जहा भोमुप्पातं खुविणं अतलिक्खे श्रगं-
सर लक्खणं वजणं । " आ० चू० १ आ०।
महाणिरय-महानिरय-पु० । इहत्पममाणे नरक, स्था० ।
अहोलोगे णं पंच अणुत्तरा महईमहालया महाणिरया पष्प-
त्ता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्टाणे ।
(श्रहोलोगे त्ति) सप्तमप्राथिव्यामनुत्तराः-सर्वो त्कृष्वे दनादि-
त्वात्ततः परं नरकाभावाद्धा, महच्च च चतुणां क्षेजरतो<प्यसं-
ख्यातयो जनत्वात् । स्था० ५ ठा० ३ उ०।
महाशिल महानिल- पु । महावाते, अष्ट० २२ अष्ट० ।
महाणिसीह-महानिशीथ-न० । निशीथग्नन्थाद् बन्धा थौभ्यां
महत्तरे ग्रन्थ, पा० । न०।
सुयं मे आउसेतेणं भगवया एवमक्खायं इहं खलु छउ-
मत्थसंजमकिरियाए वइमाणे जे णं केड साहू वा साहुणी वा
से ं इमेणं परमत्थतत्तसारसब्भूयत्थपसाहगसुमहत्थाति-
सयपवरवरमहानिसीदसुयक्खंधसुयाऽणुसारेणं तिविहं ति `
विहेणं सव्वभावंतरंतरेहि णं णीसल्ले भवित्ता णं आयदि `
यड्ट्वाए अचतघोरवीरुरगा कट्टतवर्सजमा5णुट्टाणेसु सव्व -
पमायालबणविप्पयुक्रे । अणुसमयमहणिसमणालसत्ताए
सययं अणुचिष् अणुष्पपरमसद्भासंवेगवेरग्गमग्गगणए शि `
पियाे अशणिगृहियबलवीरियपुरिसकारपरकम अगिलाणी-
ए वोसटटचत्तदेहे सुणिच्छिए एगग्गचित्तो ्रभिक्खणं अभि-
रमिज्जमाणो णं रागदोसमोहविसयकसायनाणालंबणा अ-
शेगप्पमायं इड्विससायागारवरोह5टज्काणपिगहामिच्छत्त-
विरइदृटरयोग्रणायघणसेवणाकुसीलादिसंसग्गी पेसुप्मज्फ-
क्वाण कलद जात्यादि मयमच्छरामरिसममीकार अहंका-
9
2 ६६० )
मटाणसा
` आअभिधानराजन्द्र। |
महादाण
रादिअणेगमयमिष्मतामसभावकलुसिएणं हियएगं हिंसाउ- | विव० । प्रज्ञा० ! विशि्येक्रियादिकरणाऽचिन्त्यसामर््य, भ०
लयचारक महु णपाररगहाऽऽरभसकप्पाद गायर अज्कमव-
सिए घारपयडमहाराहघणावकपष्पपावकम्ममललवखबवालए |
असंवुडा55सवदारे एकं खणलवमुदुत्तणिमिसणिमिसद्ध-
्भतरतरमविसन्न विरत्तज्ञा । महा० १ अ० ।
महानिसीहस्स चउत्थ5ज्कयरण । अत्र चतुश्राभ्ययन बहव
खद्धान्तक्राः कावदालापक्रान सम्यक् श्रदथत्येच तरश्रद्धा-
नरस्माकमाप न सम्यक् श्रद्धानम् , इत्याह हारभद्रसारः-न,
पुनः सवसवद् चतुथाध्ययनम् , अन्यानि वा अध्ययनानि अ-
स्येव कतिपयः परिमितेरालापक्ररश्रदध्रानमिव्य्थः, यत
स्थानसमवायजीर्वाभिगमप्रज्ञापनादिषु न कर्थाच्चा दिदमाचच्ष्ये
यथा प्रतिसन्तापस्थलमस्ति, तदगुटावासिनस्तु मनुजास्तेषु
च परमाधामिकाणां पुनः पुतः सप्नाष्रवारान् यावदुपपातः,
तेषां च तेदारुगेर्वजरगिलाघरट् सपुेर्गिलितानां परिपीड्यमा
नानामपि सेवत्सरं यावत्पाणव्यापत्तिन भवतीति । बुद्धवा
दस्तु पुनयथा तावदिदमाष सूत्र, विकृति तावद, प्रतिष्ठा
प्रभूताञ्चा्र श्रुतस्कन्धा, अथाः खु्रतिशयेन सातिशया
गणधराक्कानि चह वचनानि | तदेवं स्थित न किचिदाशङ्क-
नीयम् । महा० ५ अ०।
“ चत्तारि सहस्साई, पच सयाओ तहेव पन्नासं |
चत्तारि सिलोगा वी, महानिसीहामि पाएणं ” प्रति०।
(चेइय' शब्दे तृतीयभागे १२२६ पृष्ठ एतत्प्रामाण्यमुक्तम )
महाणिहाण-महानिधान-न० । गर्तेषु कृपणनिहिते घने,कलूप०
१ अधि० ४ क्षण ।
^~ ^~ ५ 0 + 9 ७५९ [> [न
महाणिहि-महानिधि-पुं०। चक्रवत्तिनां नेसर्गिकादिषु निधिषु,
स्था० ८ टा०। ( नव महानिधयः ˆ शिदि ' शब्दे चतुर्थभागे,
२१४१ पत्र उक्काः ) स्था० € ठा० | ज० । ति० ।
महाणील-महानील--पु० । रत्नविशेषे,जी ०३ प्रति ० अधि० ।
महाणीलमीरिस- महानीलस टश जि ० । महानीलं यत्किमपि
वस्तुजाते लोकप्रसिद्धं तन सदश, जी० ३ प्रति० ४ अधि०।
महाणीला-महानीला-खी० । रक्वानदीसङ्गते महानदीभेदे,
स्था० ५ ठा० ३ उ०।
महाणुभाग-महानुभाग पुं० । महानचुभागो विशिष्टवैक्रिया-
दिकरणविपयाऽचिन्त्या शक्तियस्य। चं० प्र० २० पाहु०। महा-
माहात्म्यसहिते, उत्त० १२ अ० | व्य० । अचिन्त्यसामर्थ्य
ज्ञा० १ श्रु० १ श्र० । व्य० । शद्भतशापानुग्रहाविषय-
सामथ्यसद्धावात् । आ० म० १ ० । महाप्रतापे
प्रज्ञा० ८ पद् । भ० । नि० । महाप्रधाने, ग० १ अधि० । अचि-
न्त्यशक्रियुक्र, ओओ । | आब० । आ० म० । स्था० । ज्ञा० । चे०
प्र० । अचिन्त्यातिशये, उत्त १२ अ० । स्था०।
महाणुभाव महानुभा(नोव- पु” । महानतिशायी अनुभागः
स्वगापवरीप्रदानादिलक्षणे यस्य सः । पा०। महानुभावो म-
हिमा यस्य स तथा | कलट्प० १ अधि० १ क्षण | सूत्र०। महा
६ अ० | अचिन्त्यशक्तिक , पो० १
प्रभाववांत, सुृत्र० १ नरु
१ श० ७ उ० | सू० प्र० । दर्श० । हा० ।
महातमप्पभा-महातमःप्रभा-खी० ० । महातमसः प्रभा यस्यां
सा महांतमःप्रभा । अतिशयकृष्णद्रव्योपलक्षितेत्यर्थ: ।
अनु० । महातमसो5तिशायितमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र
सा महातमःप्रभा। सप्तमनरकपृथिव्याम् , प्रव० १७२ द्वार ।
महातव- महातपस्- तर । महत् प्रशस्तमाशेसादिदोषरदित-
त्वात् तपो यस्य स तथा । जञ० १ वक्त० । सख प्र० । प्रशस्ततप-
सि, विपा० | रा० ओं० । च० प्र० । ज्ञा०।
| महातवस्सि महातपस्विन्- पुं । विशिष्टतपोधने, हा० ।
महातवोवतीरप्पभव- महातपस्तीरम्रभव-न० । राजयदस्य ब-
हिर्वेभारपर्व॑तस्यादूरे उष्णजले प्रस्रवणे,भ०रश०५३८० स्था०।
आए० म०। आ० चू० । विशे० । “ महातवावतीरण्पभवे त्ति ”
( व्याख्या ऽस्य 'अणणउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४५६ पृष्ठ गता )
महातीरा-महातीरा-खी० । रक्ताख्यमदहानदीसंगते नदभेदे,
स्था० ३ ठा० २ उ० | ध०। |
महाथंडिल-महास्थरिडल-न० | शवपरिष्ठापनभूमौ, बृ० १ उ०।
( क्षेत्रप्रत्युपेत्ञणायां महास्थरिडलप्ररूपणा “ विहार ` शब्दे )
महाथल-महास्थल॒-न० । मथुरायां लोकिकतीर्थभूते स्वनाम-
कं स्थले, ती०।
महादाण-महादान-न० । उत्तमविश्राणने, पञ्चा० ८ विव०।
दीनतपस्यादौ गुवेनुज्ञया दाने, पञ्चा० २ विव० । हा०।
प्रकषवतः पुरयाचुबन्धिपुरयस्य ती थैकरत्वं फलमुक्तं, तीथ-
करस्य च पुरायप्रकषेरूपत्वन जगद् गुरुत्वादानेन महता भाव्ये,
सख्यावच तत्तस्य श्रयत इति कथं तद्ानस्य महत्वमिलयधु-
नोपदर्शयज्ञाह--
जगद्गुरोमहादानं, संख्यावच्चेत्यसंगतम् ।
शतानि त्रीणि कोटीनां, घत्रामेत्यादि चोदितम् ॥१॥
जगद्गुरो भुवनभतुमिनस्य.महादानम्-अतिशायिवितरणम्
वरवरिकारूपम् .सख्यावच्च परिगणितम् , चशब्दः समुच्चये ।
इति पतदसंगतम्-विरुद्धम् । तथादहि-महादान चत् सख्या-
चत् कथे ? सख्यावत् महादान कथमिति ? स ख्याचत्वं तस्य
कथं सिद्धमित्यारेकायामाह-यतः “शतेत्यादि इह च शतानि
जीणि कोरीनामित्यतः परमित्यादीति पदं द्रष्टव्यम् , ततश्च
शतानि जीणि कोटीनामित्यायेव प्रभृति श्रादिशब्दाद्-““ अ-
ट्वासीई च होति कोड्रो ` इत्यादेः परिग्रहः । सूत्रमर्थसूचन-
परं बचने चोदितम् । ' संवच्छरे दिन्नं ` पाठान्तरेण शास्त्र
इत्यादि चोदितमिति । तत्र शास्त्र-आगमे , शेषं तथैवेति
परवच इति ॥ १॥
एवं जिनस्य महादानविरुद्धताममिधाय बुद्धस्य महादान-
साङ्गत्यमभिधातु पर एवा55ह--
अन्येस्त्वसंख्यमन्येषां, खतन्त्रे पूपवण्यते ।
तत्तदेवेह तदङ्ग, महच्छब्दोपपत्तितः ॥ २ ॥
श्न्येस्त्वपरः, पुर्नाजनापक्षया बोद्ध: ,असंख्यम-अविद्यमा नप-
रिमाणम् , श्नन्यपां जिनाद् परेषां बोधिसत्वानां, खतन्त्रषु ख-
(१६९)
महादाण
अभिधानराजन्द्रः।
महादाण
कीयशास्रषु, उपवरायत-प्रतिपाद्यते । | तद्यथा-' एंते हाटकरा
शयः प्रवितताः शलप्रातिस्पद्धिनो, रत्नानां निचयाः स्फुरन्ति
किरणेराक्रम्य भानोः प्रभाम् । हाराः पीवरमाङ्किकौघरचि-
तास्तारावलीभाखुरा, यानाद विजदाय वस्रगृहतः स्वैरं
जनो गच्छति ।'" "तदितः तस्मात्तदेव वुद्धदानमसंख्यातमेव ।
इह दानविचारे तदित "महादान ` युक्क-सगतम् , कुत इत्या-
ह- महच्छुब्दोपपत्तितः महा धनस्य तत्रैव वुद्धदान उपपद्य-
मानत्वात् , संख्यातदानापेक्षया असंख्यातदानस्यालुपचरि-
तमहत्त्वसिद्धरिति ॥ २
ततः किमत आह--
ततो महायुभावत्वा-त्तषामेवह युक्रिमत् ।
जगद् गुरुत्वमखिलं, सर्वे हि महतां महत् ॥ ३ ॥
यतो बाधिसच्वानां महच्छुब्दोपपात्तितः महादानं युक्लं तत-
स्तस्मान् महादानयोगात्,मदयाचुभावत्वात-अचिन्यशक्रियु-
क्त्वात्,तपामेव-वोधिसच्वानामेव न जिनस्य, इदास्मिन लो-
कं युक्रिमत्-सोपपत्तिकम्, कि तदिव्याह-जगद्भरुत्वं भुवनभ-
दत्वम्, किभूतमित्याह-अविद्यमानं खिलं गुरुत्वाविषयो यत्र
जगद् गुरुत्वे तद खिलम् , सर्वव्यापकं संपूर्णामाति यावत्कुत
पतदेवामत्याह-सव-नरवशष द्ानादाक्रयाजालम्, ह य- |
स्मात् महताम्-महासच्वानाम्, महत् सातशय भवात । अता
महादानयोगात्त एव महानुभावा जगद् गुरवश्च भवन्ति नान्य |
इति । इह च तेषामिति धर्मी,जगद्गुरुत्वे साध्यं,महाजुभावव-
च्व हेतुः, महतां महदिति च हेत्वाॉसद्धितापरिहार इति ॥३॥
पूर्वपक्तमुपसहरन्नाह--
एवमाहेह सूत्रा, न्यायतोऽनवधारयन् ।
कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य, न्यायलेशोऽत्र दश्यते ॥ ४ ॥
पवम्-अननन्तरोक्प्रकारम्, आह-बते पूर्वपक्तवादी, इह-प्र-
क्रमे सूरस्य ( तिन्नेव य य कोडिसया ) इत्यादेरागमस्यार्थों5-
भिधघेयः सृत्रा्थस्तमनवधारयान्नति योगः । कि सन्यैथाऽ-
नवधारयन्नेत्याह--न्यायतो-न्यायमाशधित्याथौपत्तिगम्यम-
मित्यर्थः । अनवधारयन् अनवबुध्यमानः , कश्चि-
दित्यसवद्धभापित्वात् अनिर्दिश्यमानः सोगत इति भावः।
मादाद् -अज्ञालात् । यत एवं ततस्तस्मात्कारणात्तस्य-म॒ढ-
वादिनो, न्यायलेशो युक्षिमात्रा, अत्न-दानव्यातिकरे, दशय
ते-अभिधीयत इति ।
तत् परतिपादनायेवा 5 त
महादानं हि संख्याव-दथ्येभावाज्जगद्गुरोः ।
सिद्धं वरवरिकात-स्तस्याः सूत्र विधानतः ॥ ५ ॥
महादानम--अतिशायिविश्राणनम् , टिशब्दा दानमहत्त्व-
भावनार्थ: | यत् सख्यावद्-विद्यमानपारिमार,तद् अथ्यभा-
वात्त्-प्रया जनिना विद्यमानत्वान्न पुनरौदार्याभावाद् द्रव्या- |
भावाद्वा,जगद्गुरोः-भुवननायकस्य जिनस्य, कुत एतदवग- |
तामत्याह-सद्ध-नरणींतम्, "वरे व्ुणुत २ इत्येवमाख्यानं वर
वारका, तस्या वरवारकाता हेतोः । न च तस्या अप्यासिद्धि-
रत्याह-तस्या वरवारकायाः सूत्रे नियेक्तिर्म आगम वि-
थानताो विहितत्वात् , तथाहि--
लिंव|डगतियवबउक, चचरचउनुहमदापहपडेख ।
दारेसु पुरवरा, रत्थाम॒हमज्भयारेसु ।
वरवरिया घोसिज्ञइ, किमिच्छिये दिज्ण बहुविहीए ।
सुरअखुरदेवदाणव-नारिंद्माहियाण निक्खमणे ॥ ५॥ "इति ।
अथ वरवारेकया दीयमानमथ्यभावात्तत्सख्यावदिति कुतः
सिद्धमित्यत्राऽऽह--
तया सह कथं संख्या, युज्यते व्यभिचारतः ।
तस्माद्यथोदिताथं तु, संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥
तया-वरवारेकया, सह-साद्ध, कथं-केन प्रकारेण न कथ
चिदित्यथैः। सख्या-परिमाणे,युज्यत-सेगच्छृते कुत इत्याह-
व्याभचारतो--विसवादात् श्रर्थसद्धावे सतीति गम्यम् ,
तथा हे-आंथनः प्रभूता महेच्छाश्व दान वरवरिकया दीयत
इति कथ तन्नियतसख्यं भवितुमहेति । यस्मादेव तस्माद्यथो-
दिताथ तु अ्ननन्तराऽस्मदुक्कप्याजनमेव, तथाविधा्यभावप्र
तिपादनाथपरमेव सख्यासेग्रहणं * तिन्नव य कोडिसए
इत्याददानसख्याविधानमिष्यतामभ्युपगम्यतां न पुनरौदा-
याभावद्रव्याभावाभ्यामिति । ननु यदि तीथकरानुभावा-
दशपदे हिनां सन्तोपभावादथ्यभावः स्यात्तदा सख्या-
करणमप्ययुक्कम् ? अल्पस्यापि दानस्यासभवादित्य्ोच्यते-
देवताशेषाय इव सवत्सरमात्रेणाप्रभूतप्रारिग्राद्यत्वादुक्तमव
सख्यावत््वामिति, अनन मादान सख्यावच्त्यसङ्गतमिवयत-
त्परवचो निरस्तमिति ॥ ६॥
अथ यदुक्तं ततो महानुभावत्वादित्यादि तदुपदशयन्नाद-
महानुभावताऽप्येषा, तद्भावे न यदर्थिनः |
विशिष्टसखयुक्रत्वात् , सन्ति प्रायेण देहिनः ॥ ७ ॥
महानुभावता ऽपि-अतिशायप्रभावताऽपि न केवलं देहिनां
सन्तापसपत्संपादनन सख्यापतमेव दान महादानमित्यापिश-
ब्दाथः | एषा-एपव वच्यमाणस्वरूपा न॒पुनर्देहिनामसंख्यात-
वत्तावतरणरूपा । तामवाह-तद्भावे-जगद्गुरुसद्भाव (न)नेव
यादिति यदेतदर्थिनस्तुच्छुतया परमार्थनशीलाः सन्तीति स-
वन्धः | कुत इत्याह-विशिष्टखुखयुक्कत्वादपेकत्तया सातिशयान-
न्द्संपद्पेतत्वात् , खुखे च सन््तोषो,यदाह-सऊज्ज्ञानं परमं मि-
ज-मज्ञाने परमा रिपुः। सन्तोषः परमं सो ख्य-माकाङ्घादुःखमु
त्तमम्॥१॥” सन्ति-भवन्ति, प्रायेण-वाहुस्येन, अनन च नि-
खुपक्रमकमैजनितघनाद्ानवाञ्छास्तद्धाव 5प्यार्थिन कचित्
सभवन्तीत्यावेदयति । भवति चैवम्, यतः-'.जगत्प्रिये सुरूप
च, शाशनो रश्मिमण्डले | सत्यप्यम्भाजिनीखरड, न विकाश
प्रपद्यत `" ॥ १॥ अत एव सख्यातदानसभवोऽन्यथा तद -
सेभव एव स्यादिति । देदिनः- प्राणिनः, दृश्यन्ते च द्रव्या
प्रभावविशेषाः, यतः" समुद्रच्छत्यसो कोऽपि, हेतर्मगनमरड
ले । यस्मात्प्मुदेतप्राणि, जायते जगतीतलम् ॥ १॥
देवमसंख्येयदानस्य महादानत्वाभावादसंख्ययदानदायिनां
महानुभावत्वासिद्धे रासद्धो हेतुरि्व्याभिटितमिति ॥ ७ ॥
तथा--
धर्मोदयताश्च तद्योगा-त्ते तदा त्वद शिनः ।
महन्महच्यमस्येव मयमेव जगदवरः ॥ ८ ॥
घमायताश्च-कुशलाचुष्ठाननिरताश्च भवान्ति, न केवलमन-
धिन उति चशब्दार्थः। तद्यागाजगद्गुरुसंवन्धात्,ते-द्हिनः,
हु १६२ )
महादाण
अभिधानराजेन्द्रः।
महादेवं
तदा तस्मिन् जगद् गुरुकाले,त था तत्त्वदर्शिनो भवन्ति । अथवा
कुतस्ते धर्माद्यता इत्याह--यतस्तत्त्वदर्शिनः,तत्त्वे च“ क्लेशा- |
यासपराः प्रायः, प्राणिनां बाह्यसंपदः। एकान्तेन परायत्त,
सुखसन्तोष इष्यते॥ १॥ ” इत्यादिकम् । ततश्च किमित्याह-
महदू-अंतिशायि, महत्त्वं-माहात्म्ये महानुभावत्वम , अथवा
महद्भुयो महता वा महत्त्वे महन्महत्वम्,अस्य जिनस्येव,व्यव-
च्छेदफलत्वाद्दचनस्येति नान्येषां बोधिसत्वादीनाम्। एवमन-
न्तरोदितया नीत्या सख्यावदानतो महादानदायित्वेन महाजु- |
भावतेत्यवेरूपया अयमेव जिनपतिरेव न तु बोधिसत्वो जग-
द्गुरुभुव +भक्तेति। श्ननेन च बोधिसच्त्वलक्षण धाम्मिणि म-
दाजुभावत्वलत्तणस्य हेतारसिद्धतोक्ता, महायुभावत्वनिवन्ध- |
नमहादानस्यामहत्चख्यापनात्। जिनलक्षणे च धर्म्मिणि महा-
दानताख्यापनतो महानुभावत्वदेतोः सिद्धताभिधानेन जि-
नस्य जगद्गुरुतोक्का, अतो निरस्तं ततो महानुभावेत्यादि दू- |
घणुमिति ॥ ८॥ हा० २६ अष्ट० । न््यायात्तत्स्वल्पमपि हि |
भृत्यानुपरोघतो महादाने दीनतपस्व्यादों गुर्वनुज्या दानम् ,
( अन्यत्तु ` दाण ` शब्दे चतुथैभागे २४८६ पत्रे व्याख्यातम् )
महादाम महादामाम्थिन्- पुं०। ईशानेन्द्रस्य देवस्य ठृषभा-
नीकाधिपतों, स्थां० ५ ठा० १ उ० ।
महादिसा-महादिशा- खी०। पूवेदक्तिणपश्चिमात्तरदिच्छु.ताञ्च
मरुपर्वते स्चकस्थाने गास्तनाकाराश्चतसखरो द्विप्रदेशादयों |
दव्युत्तराः शकराद्धैसस्थाना महादिशः पूर्वाद्याश्वतस्त्रः ।
अआचा० १ श्रु० १ अ० १ उ०। आ० म०। भ०।
बहादम-महाद्रम- पु० । जम्न्बादिषु, जम्बृद्धी पादिनामानिवन्घ-
नषु शाश्वतवृत्तेषु, स्था०
* कुरा ` शब्द् ५८६ पृष्ठ गता । ) अष्टमदेवलोकावमान-
भेदे, स० १८ सम०।
महादुममेण महाद्मसेन- पु । श्रणिकस्य धारण्या जात
पुत्र, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य सवाथासिद्ध उपपद्य महावदहं
सल्स्यति । | अणु० २ वगै ६ श्र०।
महादेव- सहाद व- षु लोकप्रसिद्धया शिवे, बीतरागदवे.दा०।
महादवस्य च तात्वक महत्त्वमाखलजनासुलभस्भावश्या-
डप्रतशय भ्यः,त चापायापगमन्नानवचनसुखप्रदतुत्तय । तत्र चा-
पायापगमातिशयपूर्वकत्वाच्छेषाणाम्, तमव तावत्तस्य च्छा
कटद्दयना55ह---
= [२ ©
यस्य सक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सवथा ।
न च द्रषोाऽपि सेषु, शमन्धनद बाऽनलः ॥१॥
न च मोहो5पि सऊज्ञान-च्छादनो5शुद्धवृत्तकृतू ।
त्रिलोकख्यातमदहिमा, महादवः स उच्यत ॥ २
यस्य दवताविशेषस्य रागो नास्त्यव महादव ख उच्यत
इति सवन्धः तत्र॒ यस्य कस्याप्यानद्धारताभधघानस्य
( अस्य वक्कव्यता तृतीयभागे |
पारगतसुगत रिदरदिरर्यगभोददेवस्यात सामान्यानद्- |
शः, पतन् च माध्यस्थ्पमात्मनो दा शतम , आह च- ` पत्तपाता |
नम वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। युक्िमदचन यस्य, तस्य काय
परिग्रहः ॥१॥” माध्यस्थ्यदशनेन चा 4 ऽत्मीयवचासर श्ातृ-
णामुपादेयतावुद्धिरुपद्विता, यस्माद्नाग्रदादेव वक्कुः सकाशा
त्तत्ताधिगमों भवाति | यदाह-“आश्रही वत निनीषति युक्ति,
तत्र यवर मतिरस्य निविष्टा | पक्तपातरहितस्य तु युक्ति-यैत्र त-
त्र मतिरेति निवशम् ॥ १ ॥ ” रागस्याव्यभिर्चारेतस्व रूपप्र-
तिपादनाया ऽऽह-समिति-सामस्त्येन क्शने विवाघन क्लिशः
विवाधन इति वचनात्। संक्लेशः-आत्मनः स्वाभाविकस्वा-
स्थ्यवाधन, तं जनयति उत्पादयतीति सङ्कशजननः । अथ
व्यभिचार एव विशेषणमथवद्धबति, न चासंक्लेशजननो ऽपि
र" 7} ऽस्ति येना $सो व्यवच्छिद्यत न चाधिरूतमहादेवस्य प्र-
क{रान्तरेणापि रागो विवच्यते इति विशेषणमनर्थकम् ? नेवम-
विदितस्वभावस्य स्वभावाविभौवनाय विशेषणस्याभिमतत्वा-
त्। यथा परमाखुरप्रदेश इति,को 5सावित्याह-जीवस्वरूपो पर-
ञ्जनाद्रागो ऽभिष्वङ्गलत्तणः,नास्त्यव-न विद्यत एव, इदं चावधा-
रणं रागांशस्याप्यभावप्रतिपादना्थम् .सख चोपशान्तमोदाव-
स्थायामुदयापेक्षया,कदाचिद् रागभेदापेक्षया वा स्यादतः ख-
त्ताद्यपे्तया ऽपि तद्यवच्छेदा थमाह-सर्व था सर्व: ्रकारेर्वन्धो-
दयसत्तालक्रेर्विषयरागस्नेद रागदष्िरागसूयेद्ैव्य्ेत्रकाल -
भावाभिष्वङ्गस्वभावैर्वेति। तथा न च नैव देषो 5प्यप्री तिलक्तणो
न केवले रागो नास्त्यव द्वेषोऽपि नास्त्येव सर्वथत्यपिशब्दाथः ।
केष्वित्याद-सत्वषु प्राणिषु सत्वत्रहणे च प्रायः सव्यवहारादहै-
प्राणिनां प्राणविषयस्येव क्रोधमानात्मकद्वेषस्य दशनात् ,
प्राणिषु चुनरसो महामोदविज़म्भितमव । उक्त च “ कि
एत्तो कड्ुयरं, मूढो ज धाणुगेमि अप्फुडिओो | थाखुस्स तस्स
रूसइ , न अप्पणो दुप्पउत्तस्स ॥ १॥ ” अत एव रागस्य
विषयविश्षानभिधाननोपादाने कत, तस्य संव्यवहाराहै-
प्राणिनामपि जीवाजीवविषयतयोपलम्भात् । जौवाजीववि-
पयत्वादेव महाविषयतया प्राघान्याद्रागस्यादा बु पादानम्।
न्वप्रीतिमात्रलक्षणस्यद्वेबस्यानिष्टस्फ्शोदिबिषयेष्वप्राशिष्वपि
दशनाद् ,देवताविशेषस्य च स्वविषयस्य द्वघाभावस्य विवक्ति-
तत्वान्न युक्ल॑ सत्वग्रहणमिति ? नेवम् ,अनेन हि प्रतिपन्थिरूप-
प्राणिविषयद्धपाभावप्रतिपादनेन निखिलजनविदितसपन्न-
निपातनादिफलद्वषवतीनां पराभिमतदेवतानां महत्त्वाभावस्य
वक्तामिष्त्वाद्। यस्य च प्रतिपन्थ्यप्रतिपन्थिष्वपि पाणिष्वपि
दवेषो नाऽस्ति तस्याप्रारिघु खुतरामसो न सभवतीति। कि-
स्वरूपा द्वेष इत्याह-शम उपशमः क्तान्त्यादिभावः सं ण्वन्धनं
दाद्यं दा्वादि तस्य दहने दवानल इव, "दबानलो-व-
नाग्निः' शमेन्धनदवानलः । इदमपि सखरूपविशेषणे न तु व्य-
वच्छेदक॑ सर्वस्यापि द्वेषस्यैवेरूपत्वादिति तथा न च नेव
मोहो $पि मूढताऽपि,न केवले रागो द्वेषश्च नास्ति सर्वथा मो-
हो ऽपि नास्त्यव सर्व्वथा यस्य स महादेवः, इति । प्रकते मो-
दमेव स्वरूपतो विशेषयज्नाह-सल् शाभने यथावत् पदाथै-
परिच्छेदितया तच्च तत् ज्ञान च बोधः सजक्ञानम् । सतां
वा सद्भूतानामर्थानां ज्ञान सज़ज्ञानं, तच्छादयितुमावरीते
शील धर्मो वा यस्य स तथा । सज़्ज्ानच्छादकत्वादेच अर्द्ध
कटमषकलङ्गाङ्कितं चत्त वर्तने चेष्ेतं करोति शरीरिणां वि
वधाति यः सो 5शुद्धव॒त्तकत् । किम्भूतों 3$सो महादेव इत्याद"
त्रया लाकाः सखमाहतासखिलोकं जिभुवने, तत्र ख्यातः श्र
सिद्धो महिमा महत्त्व यस्य स जिलोकख्यातमहिमा । ज्ि-
लोकख्यातमहिमा च भवत्यव निखिलनरानिकरनाकिनि>
कायनायकलाककद्शनसमथरागादिरिपुनिकरनिराकरणस=
( १६३ )
महदिव
सर्थसकलपुरुषचक्रचूडामणे: पुरुषविशेषस्य । यदाह-*राग-
द्वपमहामोहेः, कदार्थितजगज्जनेः । नाभिभूत मनो यस्य,
महिम्ना तस्य कः समः
तिस्ततिमोदमदकान्तिखप्नगातिष्विाति वचनादीव्यते स्तूयत
इति देवः स्तवनीयः । सख च प्रत्तावतामसाधारणगुणगण-
माणिक्यमकरनिकेतनायमानत्वेन मानव स्तवनीय इति ।
महांश्चासो देवश्चेति महादेवः । स-इति असावेवोच्यते अ-
भिधीयते,महदिवस्वरूपवदिभिने पुना रागादिरिपुपराकृतप
राक्रम इति । अथ सर्वेप्राणिनां रागादिमच्वापलब्धन स-
चथा तदभावः कस्यापि सम्भवतीति ? नवं सर्वेध्राणिनाम-
आभ्रधानराजन्द्र ।
`" दिव-क्रीडाविजिगीषाव्यवहार दु- |
चुपलब्धः प्रातानयतप्रारयुपलब्धश्व व्याभचारत्वात् ।क |
च स्वात्मन्यपि क्वचिहद्धिषयविशेष रागाद्यभावदशनात् ,
कस्यापि सार्वदिकः सावत्रिकः सर्वथा च रागाद्यभावो भ-
वन्न विरुध्यत । आह च--'टण्रा रागादयसद्धावः, क्वचिदर्थे |
यथाऽऽत्मनः । तथा सर्वत्र कस्यापि, तद्भावे नास्ति वाधक-
म॥१॥” तथा रागादयो भावाः सम्भाव्यमानसवथाक्तयाः द्
शतः त्तयोपलब्धेः, ये पाद्रलिकभावा अल्पबहुबहुतरादेक्तये-
ण॒ देशतः च्षयवन्नस्त सवतः त्षयवन्ताऽपि दण्टाः, यथा रावि
करावारिका घनपङ्क्कयः देशतः त्तयवन्तश्च रागादयोऽतः |
सभाग्यमानसर्वथात्तया इति । आदह च--“ दे शतो नारशिनो
भावा, ष्ठा निखिलनश्वराः । मघ पङ्क्त्यादयो यद्ध-देवे रा-
गादयो मताः"
तस्य चित्तवृत्तिरूपत्वन दुर्विज्ञयत्वात्कथ तद्भवान् पुरुषविश-
घाऽवगन्तव्य ? इत, श्रचाच्च्यत-तस्य स्वरूणाञचारेताच ।
तथाहि-यस्य रूपमत्कामिनीकामनायुधमनत्तमालं चरितं च
शङ्गारादिरसापरिकरितमेकान्तशान्तरसानुरञ्ञितज्यान्तरा- |
रिजयवन्नासमञ्जसं च स एवासाविति प्रतिपत्तव्यम् ।
यदाह--
“रागो ऽङ्गनासङ्गमनानुमेयो,
दवेषो द्विषदारणदोतिगम्यः।
सोहः कुच्रत्तागमदाषसाध्यो
नो यस्य देवः स स चेवमहन ॥ १॥
शाङ्गरादिरसाङ्गारे-न दुन देदिनां दितम् ।
एकान्तसान्ततोपेत-मादैत वृत्तमद्धतम् ॥
देवतान्तराणां तु यगाद्यभावाुंचतरूपचारितत्वे खुप्रासि-
द्धमेव | तथाहि-
बरह्मा लनशिरा हरिदेशि सरुक् व्यालुप्तशिक्षो दरः
११
सूया ऽप्युल्लाखताऽनला ऽप्याखलमुक् सामः कलङ्काङ्तः।
स्वनोथोऽपि विसरस्थुल खलु चपुःसस्थरूपस्थः कृत
सन्मागस्खवलनाद्धवान्त विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ १
तथा--
यद् ब्रह्मा चतुराननः समभवदवा हरिवोमन
शक्रा गुद्यसह सखरसकुःलतनयच्च त्तयी चन्द्रमाः।
याजह्ादलनामवापुरहया राहुः शिरामाजत्रतां
तृष्णे ! दावे! विडम्बनयमणखिला लाकस्य यप्मत्कृता ॥२॥”
तथा “ ब्रह्मा क़नशिरा
रन कुर्वन्ति स्म | तत्र च तेरुक्तरहों महेश्वरस्य न ज्ञायते
मातापितरावाति, न तावस्य वभूवतुरिदं च देववचनमुप- |
शत्य ब्रह्मणः पञ्चममुखन गदभमुखाकारेण समत्सरमाभिटि- |
४६
॥ १॥ अथ सभवत्यप्यात्यन्तिकरागादययभावे |
ल इत्यतत्कथमत्राच्यत-किलेकदा च- |
यां्रशदवकोख्या मिलिताः, तत्र च ते परस्परं मातापितृव- |
महादव
तम ,यदुत मय्यपि सर्वपदार्थज्ञातरि जीवाति सति क एवं छु-
वत.यथा महेश्वरस्य पितरों न ज्ञायते,य तो 5हं जानामि | ततः
सतस्य तो वक्रमारभे । ततो महेश्वरेणाप्रकाश्यप्रकाशनार-
स्भकुपितेन कानिषठिकानखशुक्रिकरवालव्यापारणन निखिल-
खुरसमूट समन्ते राटीत निकृत्तं तद् ब्रह्मणा गदे मशिर इत्यं
ब्रह्मा लृनशिराः। अन्य त्वाहुः किल-बह्मवासदवयारात्ममद-
वाचिषयो विवादः समजनि । विवदन्तौ च तो महादेवमुर्पास्थ-
तो । महादेवेन चाभिदितावल भवता विवादेन.य एव मदीय-
लिङ्गस्यान्तं लभत स एव युवयोमहांस्तदन्यस्त्वितर इति ।
ततो वाखुदबो ल्लिङ्गस्यान्तापलम्भनाशधरमधघस्ताद्रतवान्, स
च प्रभूत यावन्महावेगन गत्वा5पि अधराप्ततदन्तः पातालव-
ज्ञानिना च गन्तुमशक्रस्तत्सन्तापादेव च कृष्णीभूतशरीगः
प्रतिनिवृत्य महादेवान्तिकमाजगाम, निचेदितवांश्च यथा ना-
स्ति भवल्लिङ्गस्यान्त इति । ब्रह्मा तृपारि्रात्तथेव गतो 5प्राप्तत-
दन्तच निर्विरणो लिङ्गमस्तकान्नि पतन्ती मालामासादितवान।
तां चासो पप्रच्छु.कुता भवतीति । तयाक्कं महेश्वरलिङ्गमस्त-
कात् । कियांश्च ते कालः। ततः समागच्छन्त्या तयोक्ल॑ षरमा-
7:। तता ब्रह्मणाक्रमहं लिङ्गतापलम्भाय प्रस्थितः कि तु भव-
त्या यो मार्ग: षडभिमांसेरातिक्रान्तस्तस्यर्तवटुत्वान्निविरणा-
5हं निवत्तिष्य । ततो मह दिवपृष्रया त्वया साच्यं दातव्यम ।
तयाऽपि प्रतिपन्न ततस्तां ग्रृहीत्वा शम्भुसमीपमाजगाम। स-
मागत्य चोक्कवान् , लब्धो मया लिङ्गान्तः । पपा च संप्रत्ययार्थ
ततो माला मयाऽऽनीता। ततः पृष्ठा ऽसो,तया 5प्युक्कम वम तत्त-
तोऽनन्तमपि मललिङ्ग सान्ते व्ववस्थापयत एताविव्यसद्दू तभा-
पणकुपितन शम्भुना कनििकानखकुटारे ब्रह्मणो गरभशि-
रो लूनम,माला त्वस्पृष्यतया शापितति । ““टरि्टशि सरूक,
इत्यतदेवं श्रयत । । किल-दुर्वासा महर्पिस्वेशी कामितवान्.तया
चासावुक्रः। यदपूवंण यानन त्वं स्वर्ग समागच्छसि ततोऽहं
भवन्तमिच्छामि,तन च प्रतिपन्नमेतत् | गत वांश्चासौ वाखदे-
वसमीपं,कृता च तन तस्य प्रतिपत्तिः । पृष्टश्व तना 5 5गमनका-
रणम् , उक्गं च तन स्वगे ऽटे गन्तुमिच्छामि। ततो भवता ख
भार्यण गारूपधारिणा रथारूढो ऽहं स्वर्गे नेतव्या, न च ग-
च्छता पञ्चाद्धागो निरूपणीयः । प्रतपन्ने च तथा तद्धक्िभ-
याभ्यां वासुदेवेन.नेतु च प्रवृत्तः । ततः खरीत्वात्तथाविधगम-
नशक्रिविकलां लक्ष्मी प्राजनकदण्डन मुनिः पुनः पुनः प्रणुणो-
दत स्नेदादसह मानेन वासुदेवेन तदभिमुखं निभालित, तेन
च प्रतिपन्नवेतथ्यकारित्वात् कुपितेन वाखुदवो लोचने प्राज-
नकदरडन प्रणोदित इव्येवं हारिलोंचने सरोगः सच्रत्त इति ।
अन्ये त्वाहुः-किलैकदा वासुदेवः सरित्तटे तपस्यति स्म । तत्र
च तापसी काचित् स्नाति स्म।तन च तस्या निरावरणाया
अङ्गषु सकामा दृष्टिनिवेशिता । तयाऽपि च लक्षिता ऽसो, ततः
शापन सरागलाचनः कृत इति । "व्यालुप्तशिश्चो हर' इत्यतत्पु-
नरेव, किल-दारुवनाभिधान तपावने तापसाः परिवसन्ति स्म।
तदुरजघु च मक्ताथ महेश्वरा .गरहातसमस्तस्वकायालङ्गारा
घरटारङ्ारतुम्बुरुभङ्काररवमुखरितदिक्चक्रवालः सप्ाग-
च्छति । तापसीश्च खदशनजनितकामविकाराः परिभुङ्क्ते स्म
तताऽन्यदा ऋषिभिविज्ञातस, तथाविधव्यतिकरेः कापाति-
रेकाच्छापन तल्लिङ्गस्य च्छदः छृतः। तत्र च निखिलजनानां
च्छेदो ऽभवत् प्रजानुपत्तिश्च । तता दवेरकाल एव सटारो
मा भूदिति तापसाः प्रसादितास्त च लिङ्ग तथव चक्र: । उक्र-
| १६४ )
श्भिधानराजन्द्रः।
मरादव
महादेव
वन्तश्चदम्, * पूवकाल सदा स्तब्धमासीदितस्तु भोगाथत्व
एव स्तन्धाभविष्यतीति' ततो जना अपि लिङ्गवन्ता जाताः
श्रजोत्पात्तश्चति । “ सूर्यो ऽप्युल्िखित इति ” एतदव, किल-
सूर्यस्य र.-पदवीनामा भाय 5ऽसीत्तस्याश्च यमाभिधान
चु ऽभृत् । सा च आदित्यतापमसहमाना स्वकीयस्थाने
स्वप्रतिच्छायां व्यवस्थाप्य समुद्रतटे . गत्वा वडवारूपेण
तिष्ठात स । प्रातच्छाया च शनश्चरभद्रााभधान अपत्य ज- |
नितवती । अन्यदा यमेन वदिस्तादागतन भोजने याचिता
प्रतिच्छाया,सा तु तन्न दत्तवती । ततः कोपात्तन पार्षिणप्रहा-
रेण प्रहता, तया च तत्पादः शापेन क्षयीकृतः तेन च पितु
स्तन्निवदितम् .सो ऽप्याचिन्तयत्। कथ स्वमातेचे करोति। ततो
नून नेयमस्य मातलयालोचयता दृष्टा तन्माता वडवारूपा । ,
ततः सूर्यस्तत्र गत्वा तामनिच्छन्तीमपि वलादेव बुभुज ।
तव चाश्विने देवौ जातौ । तया च रोषारुणनयनावलाकन-
नाऽस कुष्ठीकृतः | ततश्च सूयो निरुजाथ घन्वन्तरिमुपतस्थो ।
स चोवाच । न शर्गरोज्लेखन विना तव प्रगुणता ऽस्ति, तत
सूयण तनृज्ञखना थ देववद्धंक्छिरभ्यार्थेतः । स उवाच, सहि-
ष्णुना भवितव्यं.नो चच्यच्यामि त्वाम्, तनोक्कमेवमस्तु । ततो
मस्तकादारभ्य जानुनी यावदुल्लेखन कृत गाढे पीडितन सूर्यण
सीत्कारः कृतः | तत उल्लेखनादसो विररामेति । | एवमनिच्छ॒-
द्योषिद्धोगलक्षणात् पुरुषमागस्वलनादसो विपदं प्राप्तवानि- |
ति। अन्ये पुनरित्थमाहु:। वडवारूपां स्वभार्यामुपमुज्य तत्पि-
तुरूपालम्भ दत्तवान ,यथयं त्वद् दुहिता मां विहायाऽन्यत्र ति
छाति । स उवाच । त्वज्छुरीरतापमसहमाना क्रि करोत्वियं
वराकी । ततो यद्यनया त प्रयोजने ततः शरीरमुल्लेखय, तत
सूर्यो दववद्धेकिमुपतस्थौ । शप्र तथेव । * अनला +प्यखिलभ- |
च भ, ¢ हा [>~ ( फड3... 3 ४. 3 नर ५
क् एवमुच्यते,किल-कश्चिदषि: स्वकीयाटजावस्थितं वैश्वानरं |
भक्रिभरणाहततिथिः पूजयति स्म । स चान्यदा मदीयभा्या
भवता रक्षणायत्याभधथाय श्रयाजनन बाहगतः | ततः कन- |
चटापषणा ५5गत्य वश्वानरसमक्तमव सापभक्का, त्तणान्तर स
मागता5उसा, तन चाजह्लताकारानपुणतया परपुरुषसावतात |
लाक्तता5सा | प्रष तन वश्वानरः, सा च,यथद्द कः समागत
आसीत्ततस्ता न क्राचदुचतुः । ज्ञानापयागन च ज्ञाता
ऽसाठुपपा स्तन, तता रत्तणायस्यारत्तणात् प्र्छतच्चानव- |
दनात् कापता5सा वश्वानर प्रात् सवभक्षका भवत्वव् शाप |
च दत्तवान्) ततश्ाशच्यादरप्यसा यसो भक्षणस्वभावचा जाता.+यच्च
किल वैश्वानरा भुद्क तत् स्वं देवानामुपतिषएठति, मुखे ह्यसो
देवानाम् ,ततश्च देवेर शुच्यादिरसास्वादना दुद्धिगनेज्ञाननोपल-
व्धशापव्यतिकरैरागत्य स मुनिः प्रसादायतुमारभे । न चासो
प्रससाद,तथापि देवानुचरत्या वैश्वानरस्य सप्त जिद्धाः कृताः ।
ततो ऽसौ सप्तार्च्चिरूच्यते । तत्र द्वाभ्यामादहतीरेवासो भङ्क्त
ताश्च देवानाममरतत्वनोपतिष्टन्ति । पञ्चभिस्तु सर्वभक्षक
एवावस्थापत इति । * सामः कलङ्काह्कित इति !
पुनेर्वे, किल- चन्द्रं बरहस्पतिसमीपेऽध्येतु गतो देवाचार्य-
त्वात्तस्य, तन च तदृगरदे ऽधीयमानेन तद्धार्योपभक्ता, ज्ञा-
ते च तद् कृटस्पतिना, शापितश्चासों तेन, यथा-रे गुरुत- |
सग . कलाङ्कना काल भावतव्यामांत । स्वनोथो भगसहस्प
सकुलतनु: पुनरत्र सच्रत्तः । किल-गांतममुनराहेल्यानामा
भायो वभूव, तद्रपाक्तिपचेताः सरपातिस्तद॒टजे प्रविश्य तां |
र प समागतो मुनिः। सोऽपि तद्भयान्मार्जाररूप छृत्वा |
तत् |
तदग्रहान्निगैत्य स्वर्ग गतवान् । मुनिस्तु नायं प्राकृतो विडा-
लः.ततःकोभ्यमिति पर्यालोचय न्निन्द्रं ज्ञातवान्। ततः कोपाद-
साविन्द्रदेहे भगसहस्तं शापन विददितवान , खच्छात्रांश्व त~
दुपभोगाय प्रेषितवान् । मुनिस्तु न ययौ, देवैस्त्वसावृषिः प्र-
सादितस्तन च भगा लोचनीकृता इति । “ब्रह्मा चतुमुख' एवं
जातः, किल-ब्रह्मा महो द्याने तपस्यति, ततक्षोभणार्थ च रूप-
स्य तिल तिलमादाय कृता तिलोत्तमा, अतस्तां प्रेपयामास ।
अन्याश्वच तस्य समाधिष्वंसनाय पृवाभिमुखस्थितस्या-
ग्र गीतन्त्याद्षपचारं चक्रुः । तत्राक्तिप्तलोचनमानसं वीस्य
दक्षिणतो गत्वा तथैव ताः चक्रुः । स च ध्वस्तसमाधरपि ल-
ज्ामानाभ्यां तदभिमुखो भवितुमशक्युवेस्ताः प्रति द्वितीय
मुखे कृतवान् , एवमपरस्यां दिशि गताखु कतीयमसुत्तरतो म-
ताखु चतु्मुपरि च गतासु पञ्चमे गर्दभमुखम् , एवं पञ्च-
मुखः सजातः । शम्भुना च गईभशिरसि च्छिन्न चतुमुख
इति । हरिस्तु वामन एवं, किल-वलदीनवस्य बन्धनाथं वि-
ष्णुवामनो भूत्वा मटिकानिमित्त पदत्रयमाज्रां भुवे तमेव या-
चितवान् । वालिना च प्रतिपन्न तदान पदत्रयण जिलोकमा-
कम्य स्थानवजितं ते पाताले निहितवानिति । क्षयी चन्द्रमाः
कंथमत्राच्यत, करिल-दत्तस्य सप्तविंशति दुदितरस्ताश्च चन्द्रे.
ण परिणीताः, तासु च मध्ये रोहिएयामासक्लो5लो शषाभि-
स्त्वपमानितांभः पितुर्निवदितम् ,तन च कुपितेन शापात्तयी
कृतो ऽसा पुनर्देवेः प्रसादितन चानुग्नहादेकत्र पत्त बृद्धिमानि-
ति। नागाः पनरेवं द्विजिहाः, किल देवैः क्षीरससद्रमथनाद-
स्रतमुःपादित,तस्य च कुरडानि भ्रतानि दर्भश्चाच्छादितानि।
सप्पौस्तद्रक्षणे नियुक्काः, तत पकान्तमाकलय्य तैस्तत्पातुमा-
रब्धे, दर्मेश्व॒ ताजिहा द्विधाक्ताः। अन्य त्वाहुः अम्गतपानभ्र-
तानां तपामिन्द्रेणए वज्क्तेपात् जिद्ाभेदो विदित इति । * रा-
होः शिरोमाजता' पुनरेवम् दैवैः किलाग्ृतस्य कुरडानि भ्रता-
नि, विष्णुश्च तद्र्ञायां नियुक्तः । ततश्च कार्यान्तरव्यात्षिप्तस्य
तद्राहृणा पातुमारब्धे, विष्णुना च त तथा वीच्य चक्रक्तेपेण
तच्छिरच्छेदः कृतः, पीता खतत्वात्तच्चिरो ऽजरामरं सवृत्तमि-
ति । व्याख्यातं "ब्रह्मा लूनाशेरा इत्यादि वृत्तद्धयमिति। तथा-
स एष भुवनत्रयभ्रथितसेयमः शङ्करो,
विभाति वपुषाऽधुना विरहकातरः कामिनीम् ।
अनेन किल निर्जिता बयामिति प्रियायाः करं,
करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः
तथा--
दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा शस्त्रस्य कि भस्मना ।
भस्मा 5था5स्य किमङ्गना यदि च सा काम परिद्वेष्टि किम ॥
इत्यन्योन्याविरुद्धांचश्ितमिदं पश्यन्निजखामिना,
भङ्गी सान्द्रशिरावनद्धपरुष घत्ते5स्थिशेष वपुः ॥ १ ॥
एवमपायापगमातिशयद्वारेण महादेवत्वमुक्रमथगुणाति-
शयादिप्रतिपादनतस्तदेवा ६ ५ह--
यो वीतरागः सर्वज्ञो, यः शाश्वतसुखे श्वरः ।
क्लिप्टकमंकलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा ॥ ३ ॥
यः पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् ।
यः स्रष्टा सर्वनीतीनां, महादेवः स उच्यते ॥ ४ ॥
॥ ९ ॥
" उ>फ्बेन
@ , ॐ;
श्सिधानराजन्द्रः।
मटादेव
_ महादेव
यो वीतरागः स महादेव:उच्यते क्रिया सव्वत्र योज्या । तत्र
"य `इति अनिर्दि्टनामा,.'वि'इति विशेषेण इतो गतो नरो रागः
भेम यस्य स वीतरागः, द्वषक्षय एव च सति रागक्तयो भवती-
ति वीतद्वेष इत्यपि दृष्टव्यम् । तथा सर्व समस्तं द्रव्यप्रदेश-
पर्यायरूप वस्तु जानाति विशेषग्रह णतः समस्तावर णक्तया-
चिभूतकेवलसेवेदननाववुध्यत इति सर्वज्ञः । सर्वज्ञत्वाव्यभि- |
खरितत्वात्सवदार्शैत्वस्यति सर्वदर्शात्यपि दश्यम् । ननु राग- |
द्वेषमोहाभावः पराक् प्रतिपादित पव, तत्प्रतिपादने च वीतरा-
गत्वसरवज्ञत्वे शरवगत पव तत्स्वरूपत्वादेतयोरिति, किमिद
चीतरागसर्वज्ञत्वो पादाननति ? अ्रत्राच्यत-यत एव रागादयो
न सन्त्यत एव बीतरागः सर्वज्ञश्च,यत इत्येवं हेतुफलभावेन म-
लत्तयात् पीतवरणप्रकषवत्कनकामित्यादिन्यायन गुणातिशय-
विवक्षणाददोषः, एवविधन्यायस्य वाक्येषु सद्धिस्तत्र त-
्राऽऽधितस्य दशनाच्चति | अथवा-केश्िद्वेराग्यज्ञानादयः
भ्राता इष्यन्त, त च कवल्यावस्थाया प्रङ्ूतावयुक्कत्वा- |
द्विनिवत्तेन्ते इति, तन्मतव्य पाहाशत्वाददोषः | तथाहि--ज्ञा-
नवेराग्यादयश्चैतन्यस्वभावाः,चेतन्यं चात्मनो रूपम्-' चैतन्य
परूषस्वरूपम् `` इति वचनादिति कथं तान्नत्तिः श्रन्ये
चुनराचायाः-'* यस्य सक्लशजनन ` इत्याद श्लोकद्ठय-
मह॑च्छुझस्थावस्थामा श्रित्य व्याख्यान्ति यतः सक्लशजन-
नानि रागादिविशेषणानि तस्यामेवावस्थायां व्यवच्छेद-
फलानि भवन्ति । तथाहि-यस्य सक्लशजनन एव रागा
नास्ति, शमेन्धनदवानल एव च द्वेषः, सज्ज्ञानाचउछादनाशु-
इच्रत्तकारक एवं च माहा नास्ति, न पुनः सत्तागततत्क-
मदलिकरूपो ऽपि स महादेव इति । “यो वीतराग ” इत्यादि
तु भवस्थक वालनमााश्नरव्यात । नचु महत्त्व छु्मस्थावस्थाया- |
मयुचिते ततो महत्तरावस्थान्तरस्य सद्भावात् ? नेवम्-पव
हि सिद्धत्वलत्तणस्य महत्तमावस्थान्तरस्य सद्धावात् केव-
लिनो ऽप्यमहच्वप्रसङ्ग इति । अन्यथा वा कथचिदपांनरू-
क्त्य भावनीयम् । इह च वीतश्चैगग्रदहणन सरागादीनां म-
हदेवत्वप्रतिषध उक्कः | तत्र च भावना प्रागुपदर्शिता । स-
वज्ञ इत्यनन च कपिलस्य महादेवत्वमपाङक्त, तस्य च त- |
न्मतेनेव सर्वज्ञत्वासंभवात्। तथाहि--“ वृद्धयध्यवसितमर्थं
पुरुषश्चेतयते ` इति तन्मतम् । बुद्धेश्च प्रकृतिविकारतया के-
वल्यावस्थायां प्रकृतिनिवृत्तो, निवृत्तित्वात्पदार्थमात्रचेतना-
ऽपि तस्य न स्यात्, कि पुनः सर्वज्ञत्वम। न चैष पत्तों ज्या-
यान् , चतनात्मकपुरुषा भ्युपगमे हि चेतनाव्याघातकारि-
भरक्ृतिवियोगे पुरुषस्य सर्वेज्ञत्वेनेवाभ्युपगन्तुं युक्कत्वादिति ।
तथा श्रननेव च वुद्धस्यापि मदादेवत्वे किचिज्ज्ञानत्वा
्तन्निवारितम् । यदाहुस्तच्चिष्यकाः--सवं पश्यतु वा मा
वा, इष्टम तु पश्यतु । कीट संज्ञापरिज्ञानं, तस्य नः कोपयु- |
ज्यते ॥ १॥ ” इति । कि च किचिञज्ञत्वमपि तस्य न घटते
पकास्याप्यर्थस्य सकलसख्परपर्यायविशपितस्या सर्व्ञत्वन
ज्ञातुमशक्यत्वात्। यत श्राह--*“ पको भावः सर्वथा यन
दष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दष्टाः । सर्वे भावाः सर्व म येन
दृष्टाः, पको भावः सर्वथातेनद्रः
सभवत्यव सत्तासाधकप्रमाणामग्राद्यत्वात् , तस्य शशविषा
। १ ॥ ` अथ सर्वज्ञान |
रवत् | यदाह -''सर्वज्ञो ऽसाविति ह्यत-त्तत्कालेरपि चाद्भिः |
तज्श्लानशेया वज्ञान-शन्यन्ञातु न शक्यते ॥ १॥ `` इति ? नैव
सत्तासाधकप्रमाणामग्राह्यत्वस्यासद्धत्वादादह च-तथाहि--ये |
अपचयधर्माणस्ते अत्यन्तक्तयिणों 5पि सभवन्ति यथा साम-
ग्रीविशेषाद्ख्ररत्नमालादयः, अपचयधर्मकाश्व ज्ञानावरणाद
योऽतः सवैथा क्ञायिणो ऽपि सभवन्तीति, तषां चात्यन्ताप-
चय सर्वक्षत्वादयो भवन्त्येव । न च ज्ञानावरणादीनामपचय-
धमेत्वमासिद्धं स्वसन्तानेऽपि क्षानादेरुपचयविरषाजुभूत्या
तदावरणापचयविशपस्य सिद्धिरिति । उक्ल॑ च- दोषावर-
णयोहानि-र्निःशपास्त्यतिशायनात् । कचिद्यथा स्वदेतुभ्यो,
चहिरन्तम्मेलादयः ॥ १ ॥' तथा-य एत बन्धमोक्तषपरलो-
कादयो ऽतीन्द्रियभावास्ते कस्यापि भत्यक्ताः अनुमानगोचर-
त्वाद्, यथा ऽगन्याद्य इति । उक्लं च-““ सूच्मान्तारितदूरार्थाः,
भत्यत्ताः कस्याचिद्यथा । अनुमेय त्वतों 5ग्न्यादि-रिति सर्वज्ञस
स्थितिः ॥१॥” इति । एवं च॒ तउज्ञानशेयविज्ञानशल्यैरप्य-
चमानना ऽवगम्यते असावचतुर्वेदिना चतुर्वेदीवेति । तथा
यः शाश्चतखुखश्वरः' क्रिया पूववत्, पुनर्यच्छब्दोपादान-
मवस्थाविशेषो पदशैकम् । अयमभिप्रायो,वीतरागत्व सर्वज्ञत्वं
च रागादित्तयादाविभूतं भवस्थकवलाद्यवस्थायां महत्त्व-
कारणे, शाश्वतखुखश्वरत्वादि तु विशपणतरय भवातीता-
वस्थायां महत्वकारणामिति । तजर शभ्वन्नित्यं भवतीति शाश्च
तम्, तच्च तत्सुखे च निवौणजनितानन्दरूपम् ,अपरस्य शा-
श्वतत्वायुपपत्तरिति शाश्वतसुखम् । तस्यश्वरः स्वामी.सयं
तत्प्राप्तत्वाच्छाश्वतसखुखेश्वरः । नु सर्वस्यापि वस्तुनः त्ताणि-
कत्वात्कथं सुखस्य शाश्वतत्वम् ? श्रवाच्यते-न हि सर्वथा
वस्तुनः क्षणिकत्वमुत्पादविनाशधोव्यरूपत्वात् । इह च बहु
वक्कव्यं तत्त॒ पश्चदशाष्टकादवसेयमिंति । न च तथाभूतखुख-
स्यासभव एव, खखावरणस्यापचयद शननात्यन्तिकस्यापि
तदपचयस्य सभाव्यमानत्वादिति च पृवमुङ्कप्रायामिति, नन
च विशेषणन भ्रातच्तणत्तयाघ्रातवस्तुवादि परि काट्पतदेवस्य न
महत्वम्, तन्मतेन एवंविधसुखाद्यभावात् , तदभावे च महत्त्व
व्युदासः । तस्य कल्पनामात्वादिति । तथा किलष्टाः क्लेश-
स्वरूपभवदेतुत्वन क्लशिकाः, याः कर्मकलाः-ज्ञानाव रणाद्य-
च्र्रकारकमाशास्तभ्यो ऽतीतो ऽपतो यः स क्रिष्टकर्मकलातीतः।
अनेन च ये मन्यन्त-.ज्ञानिनो धमेतीथस्य, कर्तारः परम
पदम् । गत्वा गच्छान्त भूया ऽप, भव तीथानिकारतः ॥१॥
इति । तत्संमतदेवस्य महच्वव्युदासः । किल्रकर्मकलाभावे
हि भवावतारासभावाद् । आह च-“अज्ञानपांशुपिहितं, पुरा-
तने कमेवीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिपिक्घ, मुञखति जन्मा-
न्तर जन्तोः ॥१॥ अशभस्वरूपभवावतारिणश्च स्वकीयती-
धनिकारासदिष्णोः प्राकृतस्येव कीटशे महच्वामेति । तथा
सर्वथा सवैः प्रकारैः निष्कलः सर्वशरीरावयवविरदितस्तद-
भावे हि खुखसभवो, यदाद-शरीरमनसोरभावे दुःखाभावः,
शरीरत्वेन च दुःखसभवे कीदशं महत्त्वम् अनन च यच्छुरी
रतो ऽस्य महत्त्व प्रतिपन्नाः “विश्वतश्चचुरुत विश्वतो मुखो
विश्वता बाहुरुत विश्वतः ” इत्येतस्य वाक्यस्य श्रयमाणा-
थौभ्युपगमात्तन्मत व्युदस्तम् , एवविधस्यासंभवात् , तद-
सभवश्च विश्वस्य सर्वतश्चच्लुषेव व्याप्तःवात्तदन्यपामवय-
वानामनाधारत्वनाभावप्रसङ्गात्, तेरेव वाक्यान्तरेणान्यथा-
विधस्य महत्त्ताभिधानन स्वमतविराधाच । आह च-“अपा-
रिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचच्ुः स श्रणात्यकरीः । स
वेत्ति विश्व न च तस्य वत्ता,तमाहुरग्ये पुरुष महान्तम्"॥२॥
श्नन्ये तु व्याख्यान्ति-' किलष्टकमकलातीतो ` घातितघ्रानि-
(२६६४)
सअहादव हर
आमभ्रधानराजन्द्र: |
कमा भवस्थकेवली, सवश्वा निष्कलः क्षीणभवोपग्राहिकमो
सिद्धकेवलीति । तथति विशेषरणसमुच्ये । तथा यः पूल्याऽ-
भ्य्यनीयः सवदवानां निःशषभवनपययादीनाम्.वीतरागत्वा-
दिग्युणयुक्ना हि पूज्यत एव देवादिभिः । तत्पूज्यत्वनेव च
तत्य्रतिमानामपि परूजनीयत्वम् । अथवा सर्वे अखिला हरिह-
रादयो देवाः-स्तुत्या यपां-तदशीनर्प्रातपन्नानां समुहापेक्तया,ते
सर्वदेवा वोद्धादयस्तषां यः पृज्यः।यतः ते निज निज शास्तारं
पूजयन्तो ऽप्युज्लत्तणे महादेवमव पूजयन्ति । तथाहि-तदुपदे-
शात् स्वर्गापवर्गसंसग। भविष्यतीति मन्यमानास्तमच्चयान्त ।
उपदशद्यापयाविसवादी , तत्परिज्ञान वीतरागद्धपत्वे च
सत्यव भवति नान्यथा । ततश्च सर्वज्ञत्वादिगुणमध्यारोप्य
स्वशास्तारं पूजयन्तीत्यतः परमार्थतः स एव पृजितो भव-
तीति। ततः सुप्ठुक्तम यः पूज्यः स्वदेवानाम् इति। तथा यो
ध्यया-ध्यातव्यः, स्वयागिनां-निःशेषाध्यात्मचिन्तकानाम् ।
यागिनो ऽपि दि वीतरागत्वादिगुणगोरवोपगतमेव ध्यायन्ति, |
लथाविधश्चाक्कप्रकारणाटन्नेवाति । तथा यः सखणए्रा-उत्पादकः
प्रकाशनद्वारेण, सर्वनीतीनां-समस्तनगमादिनयानां सामादि- |
नीतीनां घा। न च च ऋषभेणव सामादयो लोकव्यवहारार्थ नी-
तयः्स्त्रष्टा इति स एव महादेवों न त्वाजतादय इति वाच्यम् ? |
सर्चस्य वाग्विषथस्य पूर्वगतश्रुतः तरप्युपदभ्रितत्वात्तेऽपि |
नीतिस्प्रष्टार एवति “महादेवः स उच्यत इति व्याख्यातमेव | |
अध्रतत्पूर्वसुक्कमपि पुनः कस्मादिदितम् ? अज्ञोच्यते सर्वै- |
भावानां द्विविधं रूपे.व्यावहारिक पारमार्थिक चति,तत्र पार- |
मारधिकमदादेवत्वख्यापनाशथमिदमुक्रामति ॥ ४ ॥
अधिकृतमहादेव लक्तणान्तरण ल्त्तायतुमाद--
एवं सद्धत्तयुक्रन, यन शास्रमुदाहतम् ।
शववत्म पर ज्यात खिकोटीदोपवर्जितम ॥ ५ ॥
पवमित्यनन्तराक्कप्रकारे.यत्सद त्तमनिन्दितवत्तनं रागद्वेषत्त-
यकरणादिकं भवावस्थाचितं न पुनः शा शवतसुखश्वरत्वा दिसि
द्वावस्थोचितं सिद्धावस्थायां शास्त्रादाहरणा भावा लू ,तन युक्क
सगतो यो ऽसावेवं सद्धत्तयुक्रः तन देवताविशषेण । येन-अनि-
्दिष्रनाम्ना, शिक्ष्यन्त पदार्था अननाति शास्त्रमागमः, उदाहतं
प्रणीतम्,किभूतामित्याह-शिवस्य मोत्तस्य वत्मंव वत्म-पन्थाः |
शिवचत्म । तथा परम्-अनन्यसाधारण, ज्योतिरिव ज्योतिः
श्रदीपा महामाहतमःपरलप्रतिहतिपन्मलत्वात् , तथा तिरूषु
कोटीषु च्रादिमध्यान्तलक्तणशाख विभागेषु य दोषाः पूर्वा पर-
विशाधादयःअथवा-तिस्षु कोरीषु शास्त्रहेम्नःकषच्छेद्ता-
प्रू परपर्तालत्षलास्ु य दाषास्तरशुद्धय/ तवाजत एवराहत |
यक्तत्तथा,स महादवउच्यत दात प्रक्रम: | इह चर एव सद्धत्तयु
क़नत्यन्नन कोसुक्राद्ाच्रतासमञ्जसाचुषएारवता शास्त्राणां म-
हादवत्वस्य नषव उक्कः । रागादिजन्यासमञ्जसचष्रावताम-
पि महत्त्वकल्पर्न सवस्यापि तत्यसङ्गात्। आह च “कामायुष- |
क्स्य रिपुप्रहारिण:,प्र्पा क्षना5जुग्रहशा पकारिण:। सामान्यपु-
चगसमानर्वामिणो, महन्त्वकलप्ता सकलस्य तद्धवेत ॥१॥” शा
ख्रमुदादतमननत्वनुदाहतमपि ये शाखमभ्युपगच्छन्ति तन्म-
तमपास्तम् ,वद्न्ति च तद्वादिनः-तथा ""तास्मन् ध्यानसमा-
पन्न, चिन्तारन्नवदास्थिते । निस्सरन्ति यथा कामे,कुङ्यादि-
भ्याऽपि देशनाः॥॥ `` तन्निरासश्चेवम्-* कुञ्यादिनिःखतानां
तु, न स्थादाप्तापदिष्ठता | विश्वास न ताखु स्या-त्कनमाः
कीर्तिता इति ॥ १॥” कि च यद्यपि तस्य भगवतो ऽचिन्त्यपु-
रयसभारतया अतिशयाः सन्ति तथापि वक्कत्वतिरोधनाऽ-
स्तीति । कि वक्रत्वव्याघ्रातकारिणा कुड्यादिनिगतदेशनाक-
ल्पान्नति उदाहतं शाखे शिववत्मल्यनन पुरुषानुदाह्नतस्याप्रा
मारयमाविष्कराति तस्यासभवादेव , तदसेभवश्चवम्-या या
वचनरचना सा सा पोरूपयी द्रा यथाकुमारसभवादिः,वच
नरचना च वेद इति । तस्मात्पोरुषया ऽसाविति । विरुद्ध च वि
वत्ताताल्वादिव्यापारपुरूषधर्मजन्यवचनस्वरूपस्य वदस्या-
पारुषयत्वम् । यदाह-'* ताटवादिजन्मा ननु वरावर्गो, बरणौ
तमको वद इति स्फुटं च | पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्या-
दपोरूषयो ऽयमिति प्रतीतिः ॥ १॥ ` शास्त्र शिववर्त्मत्यनेन
तु य शास्स्याप्रामारयमाश्चितास्तन्मतमपास्तम् । य हि म-
स्यन्ते प्रत्यक्षगोचरे<र्थ वचनस्य व्यभिचारदथीनान्न त-
त्प्रमाणम् , न चतदयुक्कं खुनिश्चिताप्तप्रणीतस्येव व्रचनस्य प्र-
माणत्वाभ्युपगमात्,न चतरवचनस्य व्याभिचारमुपलभ्य स-
वैवचनानाम्रामार्यं व्यवस्थापयिते युक्रम,इतरथा-मसीचि-
कानिचयचुम्बजलावभासिप्रयत्तमसव्यमवलोकितमिति स-
कलाध्यत्ताणामप्रामारायपरसङ्गः । तदधरामाणय चानुमानम-
पि न प्रमाणं स्यात् , प्रत्यक्तपूवकत्वाद्चुमानस्य । तथा च
द्वे एव प्रमाण--प्रत्यक्षम, अनुमान चेति वचन व्याहति-
मापचतति । । उक्र चागमप्रामारयवादिभिः--
स्वर्गाद्यतीन्द्रियगतौ वच एव मानं,
यनान्यमानविपया न भवन्तित दि।
कि चागमाभिदितमव समशयन्ति
नापूवमथमनुशासति साधनज्ञाः ॥ १ ॥
त्रिकोरीदापवजितमनन तु यत् पर्गक्षाक्षम न भव--
ति न तच्छिववरत्मेत्युक्क॑े भवाति , अपरीक्षाक्षममपि धर्म~
शास्त्र केश्चिदभ्युपगतम् , यदाहः-- ,
पुराणं मानवो धर्मः, साङ्गो वेदश्िकित्सितम् ।
आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥
इहाथ ऽन्य वदन्ति-.
शास्ति वक्तव्यता काचि-त्तनदं न विचार्यते ।
निर्दोष काञ्चनं चत्स्या-त्पर्यक्ताया विभेति किम् ॥ १॥
आप्तशास्त्रिकेः पुनराप्ततचनमेवमनूद्यते--
निकषच्चृदतापाभ्यां, खुवरणामव परिडतेः ।
परीय भिक्षवो ,! ग्राह्म, मद्वचो न न तु गोरकत् ॥ १॥
शाखरगतकपादिपरीत्तात्रयस्य च खरूपमिदम् , विधिप्र-
तिवेधः कषः । आह च--
पाणवहायाईणं, पावट्भटाणाण जो उ पडिसेहो ।
भाणज्भयणाईणं, जो य विही एस धम्मकसो ॥ १॥
विधिप्रतिषेधयोरवाधकस्य सम्यक् तत्पालनोपायभूतस्या-
चछटानस्याक्रिष्छेदः। यदाद-
वज्भा5रुदट्भाणेणं, जण न वाहिज्जए तयं नियमा ।
संभवइ य पारखद्ध, सो पुण धम्ममि चुश्रोत्ति ॥ १॥
वन्धमोत्तादिसद्धावनिवन्धनाः्मादिभाववादस्तापः। उक्त च-
जीवाइभाववाओ, बन्धाइपसाहगो इटं तावो ।
एणहिं खुपरि खद्धो, धम्मो धम्मत्तणमुवेड् ॥ १ ॥
कप।दिशुद्धयस्त्ववम्-मनोवाक्ायकरणकार णायुमाताभि ~
रर्थानर्थाश्रयेणाजन्मसच्मवाद्राणां ` प्राणातिपातादीनां प्र
॥ हात!
१० ५
[नाशा 4 ~ 2४ डक 5
( १६७ )
दअभिधानराजन्द्रः।
मादव
तिपेधो रागादिनग्रहप्रतिग्रहदेत॒भूतयोश्च ध्यानतपसोर्वि-
घियैत्र शास्त्र तत्कषशुद्धम् । | आह च--
खुहमो असेसविसआओ , सावज्ञ जत्थ अत्थि पडिसेहो ।
रागादइविउडणसदे , भाणाइ य एस कससुद्धो ॥ १॥ ”
यवर पुनरेवंविधो प्रतिपेधविधान भवतो, न तत् कषशुद्धम्,
यथा--
प्राणी प्राणिज्ञाने, घातकचित्त च तद्वता चष्टा ।
प्राणेश्व॒ विप्रयागः, पञ्चाभरापद्यत हिसा ॥ १॥
तथा अनस्थभ्लां जन्तूनां सकटभरवध एका हिसा। य-
रव विसवादस्तदव चासव्यमिर्य्या
नात्यन्तिकः, यथा--
अप्टवर्गान्तिक वीज , कवर्गस्य च पूवेकम ।
वह्विनोपारिसंयुक्तं, गगनन विभूषितम् ॥ १॥
अहमित्यथः । /
एतदेव परं तत्व, यो ऽभिजानाति तत्वतः ।
ससारवन्धनं चिच्वा, स गच्छत् परमां गतिम् ॥ १॥
इत्यादि स्वरूपश्च विधिन रागादिविकुटरनसहः यतः-खुचिर-
मप्यतद्धयानध्यायिनस्तदुत्तरकाल रागादयः स्वरूपस्था एव,
रागादीनां पुनरेदिकामुष्मिकापायजनकत्वाचिन्तयितुस्त दुत्त-
रकालमपि त प्रतनवो भवन्तः सवथा न भवन्त्यपीति रागा-
दयपायध्यान श्रेष्ठो विधिः । अत एव ध्यानान्तरत्यागन ध्यान
विधिरेव सद्धिरभिधीयत--
रागदासकसाया-सवादाकिरियाखु वद्यमाणाणं ।
इहपरलोगावाए, कराए भावज्ञ परिवज्जी ॥ १॥
अय द पापप्रातपघा
तथा छदण्यद्ध शास्त्र यत्र समितिगुप्त्यादिकमुक्रविधिप्रति- |
चधापायभूत तदनुष्ठानमुपदश्यत । आह च--
एएण न वराहिज्जइ, संभवइ य तं दुगे पि नियमेण ।
एयवयणेण खद्धा, जा सो छेणण खद्धो त्ति ॥ १॥
तदशथ॒द्ध, प्राणिसरत्तण--शुभध्या नक रण-विशुद्धापिरडग्रह-
शोषृपायभूतवस्त्रपात्राद्युपकर णर्प्रीतषेधप्रवरणं
मिवति | अथवा-देवताराधनाय साधूनां सगीतकरणाद्युपदे-
शप्रवण॒म् । आह च--
जह देवाणे संगीअ-याइकज्जम्मि उज्जमो जइणो ।
कंदप्पाईकरणं, असज्जवयणाभिहाणं च ॥ १॥
तापशुद्ध पनः ।
आत्मा5स्ति सपरिणामी, वद्धः स तु कमणा विचित्रेण ।
मुक्तश्न तद्योगात् , दिसाऽदिसादितद्धतुः।
बोटिकशास्प्र- |
इत्यादिभाववादः प्रधानम् , एवंविध द्यात्मादिवस्तनि स- |
ति विधिप्रतिषधादिकं सवमुक्रूपमुपपद्यत, न पुनरनन््य-
थाविध इति । तदन्यथाविधवस्तु प्रणयनभ्रवरं त॒ शास्त्र ता-
पाशुद्धामिति । तदेवे यनेवविध शाच्रमुदाहलं महादेवः स
उच्चत इति । एतम मुखवृच्या वदताऽनेन स्छाकेन गोणबू-
त्या नानाविधाऽथ उक्त इति ॥ ५॥
ननु यो वातरागः स कथमाराध्यत ? नतावत् स्तुत्यादिभि
सरागत्वप्रसङ्गात् .नापि निन्दादिभिः स्तवादीनां वेयश्यप्रस
ङ्गात् , उपच्तयाउप्याराधने स एवं दोष इत्याशङ्क्या 5 5ह-
यस्य चाराधनापाय:, सदाज्ञाभ्यास एवं ।हे
यथाशङ्रिविधानन, नियमास फलग्रदः ॥ £ ॥
५८
न केवलम् यन शाखमुदाहते स महादेव उच्यते यस्यचदे-
वविशपस्या ऽऽराघनोपाय आज्ञाभ्यास एव स महादेव उच्य-
त, इति चशब्दाशः, क्रियासवन्धश्चति । श्राराघन-प्रसादनम्,
आराधनमिवा55राधने तत्फलप्रसाधकत्वात् , न पुनराराध-
नमव सरागत्वप्रसङ्गात् । प्रसादाभाव5पि च प्रसादफलसि-
दविवेस्तुसखभावत्वाद् । | आह च~
“वत्थुसभावो एसा, अचितचितामणी महाभागे ।
थोऊरं तित्थयर, पाविजजइ वेछिओ श्नत्था ॥ १॥
तथा--
उवगाराभावंमि वि, पुजारी पूयगस्स उवयारो ।
मंताइसरणजलगणाइ, सवण जह तहदह पि ॥ २॥
तत्रापाया हतुराराघनापायः, सदा-सर्वस्मिन्नपि दुष्पमा-
दिकालऽपि, अनन किल विशिष्टकाल एवाज्ञायाः कन्त शक्य-
त्वात्तदैव तदभ्यास आआराधनापायः । दुःपमायां त्वनागामिक
प्रवृत्तिरप्युपायस्तत्रा ऽऽ ज्ञाया ्रभ्यसितुमशक्यत्वादिति यस्य
मतिः स्यात्तन्मते परत्यस्तम् । यत आहर-“' समयपवित्ती
सन्वा, आणावज्भात्ति भवफला चव । तित्थयरूद्देसण वि,
तत्तओ सा तदुदेसा ॥१॥” आज्ञायन्ते श्रधिगम्यन्त मया-
दया अभिविधिना वा अरथा यया सा आज्ञा-आगमः, तस्या
अभ्यासो ्रहण-भावना-पारतन््यलक्तण आज्ञाभ्यासः। स
एव न पुनस्तद्धक्रिता ऽपि तदाज्ञापता प्रव्र॒ात्तिः, पूजादिक तु त--
दाज्ञाभ्यास पव तस्य द्रव्यस्तवरूपत्वात् । हिशब्दो वाक्या-
लक्लारार्थ: । ननु यथाक्रस्या 5 5ज्ञा भ्यासस्यातिदुष्कर त्वात् ,
कालसंहननादि दापवतामनाराधनप्रसङ्ग इत्याशङ्गाखामाट-
यथा-शक्रि, शक्कः-शरीरसामथ्यस्यानतिक्रमो यथाशक्तकि,तेन
शक्केरनुल्लइ् नेना 5गोपायनेन चत्यथः । एव हि वीर्याचारःछृतो
भवाति | आह च-'अणिगृहियबलविरिओ, परक्रमइ जो जह
त्तमाउंतो। जुजइ य जहाथामं, नायव्वो वीरियायारों ॥७३॥
( नि० चू० १ उ० ) आज्ञाभ्यासस्यव विशेषणा थमाह-विधा-
नेन विधिना द्रव्यत्तत्रकालभावानुवत्तनलक्तणना $ ऽयव्ययतु
लनारूपेणा ऽ ऽगमिकन्यायनति भावः। आह च-““ तम्टा स-
व्वाणुन्ना, सव्वयनिसहों पवये नत्थि । आये वयं तुलञ्जा,
लाहाकंखि व्व वाणियओ ।” नत्वाऽ ऽनज्ञाभ्यासना 5 5राधितो
यद्यसौ फलप्रदा,5नाराधितस्तर्हि न तथा स्यादिव्येवं विष-
मवृत्तिरसों स्यादित्यत आह-नियमाद-अवश्यभावन, "स
इति स एव च आज्ञाभ्यासो-यस्य संबन्धी, फलप्रदा ऽभिप्र-
ताशसाध्रको महादेवः स उच्यत इति प्रकृतम | अतस्तस्य-
फला प्रदायिच्वात्तदाज्ञाभ्यासस्येव च फलप्रसाधकत्वात् कु-
तो विषमच्र्तित्वदाप इति ॥ ६ ॥
णतदेव दृष्टान्तेन समर्थयन्नाह--
सुवैद्याचनाथद् दचाधेमेवति संक्षयः ।
तद्रदव ह तदक्याट्, श्रुवः ससारसक्षयः
खुवद्यवचनात्-भिषग्वरोपदशाद्, यद्चन प्रकारण व्याधेः-
कुटादि रागस्य, भवाति-जायत, सक्तयः-सामस्त्यनापुनर्भावि-
तया विनाशः, तद्धदव-तनव प्रकारेण तथवेत्यथ:ः | तस्यदव
विशषस्य वाक्यमुपदेशस्तद्वाक्यं तस्माद्. ध्रवा-ऽवश्यभावी
संसरणं ससारस्तस्य सच्तया ऽत्यन्तविनाशः ससारसं्तया
भवात । टट गासाग्शःटन भनत्ताज़तान्तरसचरणमुच्यते
|| ७ ॥
(र.
_ महादेव _
_ अभधानराजेन्द्रः
मसहापउम
तन च परलाक्सत्तावादेता । तत्र चदं प्रमाणम्-“ काय महापहारेकतर महाप्रतिरिङक्कतर -त्रि० । महत्प्रतिरिक्क विजन-
कार्यान्तराज्जातं, कायत्वादन्यका्यवत्। जन्मदमपि काय-
त्वे, न व्यतिक्रम्य वत्तेत । जन्मच ज्ञानसन्तानवि-
शषरूपमतस्तद्र प्रव तदुपादानकरणभूतं जन्मान्तरमनुमी- ।
यत न पित्रादिरूपम् , तस्यापादानकारणत्वे हि तद्ध- |
मौनुगमप्रसङ्ग इति ॥ ७ ॥
प्रकरणाथमुपसहरन् विवेचितगुणमहादेवनमस्करणायाद-
एवंभूताय शन्ताय, क्ृतकृत्याय धीमते |
महादेवाय सततं, सम्यग्भक्त्या नमो नमः ॥ ८ ॥
एवम्भूताय-अनन्तरोक्करूपां गुणसपदे प्राप्ताय न न परपरि-
काल्पताय, शान्ताय-रागद्वेषापशमवबत, अनुवादरूप चदे
विशेषणमिति न पुनरुक्ता $ ऽशङ्कनीया । तथा कृतानि-वि-
हितानि, न तु विघयानि समाप्तथ्रयाजनत्वाल्कृत्यानि-का- |
याणि, यन स कृतकृत्यस्तस्मे । तथा धीः-केवलज्ञानलक्षणा
बुद्धिर्यस्य स्ति स धीमान् तस्मै धीमते, एतदप्यनुवादपरमेवा
अन्येस्तु-धी मते सच्ववते इति व्याख्यातम् । महादेवाय-- |
अनन्तरानिर्णीतस्वरूपाय सततमनवरतं, सम्यगिति प्रशेसा- |
थां निपातः। सम्यक् चासौ भक्तकिश्व-प्रीतिविशेषः सम्यग्भ- |
स्तया सम्यगभक्त्या,"नमो नम इति' नमस्कारो ऽस्तु। द्विषै-
चनेन तु भक्किकृतं सश्रममुपदर्दितवानिति ॥८॥ हा०१अष्ट०।
मटादवी- महादेवी खी० । काङ्तीयराजविशषपुञ्याम्, ती०
४६ कल्प ।
महादोस-महादोपं- पुं । महान्तश्च ते दोषाश्च महादोषाः।
दारूणदुःखट तुत्वाल्प्रकृष्टदूषरघु, पा० ।
महाधणु-महाधनुष पु । बलदेवस्य देवक्यां जाते स्वनाम- |
ख्याते पुव, स चारिषएटनमरन्तिके प्रबज्य देवलोके उपपद्य |
महाविद॒हे सत्स्यतीति । नि० ४ वग० ६ अ०।
महाधम्मकहि(ण) महाधम्मैकथिन् पुं । तीथकृति, उपा०।
तआ्रागणएश देवाणुप्पिया ! इहं महाधम्मकही १, से केण
दवाणुष्पिया ! महाधम्मकही ? सम भगवं महावीरे म-
हाधम्मकही । से केणट्रेणं समणे भगवं महावीरे महाध- ।
म्मकही ? एवे खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे |
महइमहालयंसे संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे खज्ञ- |
माणे लिज्ञमाणे भिजमाणे लप्पमाणे विलुप्पमाणे उ-
म्मग्गपडिवन्न सप्पहविप्पणट्ट॑ मिच्छत्तवलाभिभूए् अड्ट- |
विहकम्मतमपडलपडाच्छने बहूहि अद्ृहि य ०जाव वा-
गरणहि य चाउरंताओं संसारकन्ताराओं साहत्थि वि- |
तथेह, स तेणंद्रणं दवाणुप्पिया ! एवं वुच्चई--समणे
भगवं महावीर महाधम्मकटी | उपा० ७ श्र°।
महा धायईरुक््ख महाधातकी वृक्ष पु०। धातकीखरडनामनि-
वन्धन शाश्वतनव्रत्त, स्था० १० ठा० ।
महापटद्रा महाप्रतिष्ठा-स्त्री०। जिनबिम्बप्रातिष्ठाभदे, षो०
७ बिच० ।
महापडण- मटाप्रतिज्ञ चरि । दडढव्रताभ्युपगतव्राति, उत्त० | ¢ २
। देवाणुप्पिया ! महापउमस्स रन्नो दु वि नामधिजे देवसेणे ।
>?» ० |
मतिशयन यषु ते तथा । अत्यन्तजनरहितेषु ,भ० १३ श०४ उ०।
| महापउम- महापद्म पुं । जम्बूद्ीप आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां
भविष्यति प्रथमती करे, स० ।
महापद्मर्तार्थकृत्कथा चैवम्--
एस णं अज्ज ! सणिए राया भिभिसारे कालमासे
कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुदर्वीए सीमेतए नरणए `
चउरासीइवाससहस्सद्विइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उवव-
ज़हिति, से णं तत्थ नरइए भविस्सति | काले कालोभासे
०जाव परमकिएंह वन्नेणं, से णं तत्थ वेयं बेदिहिति
उज्जलं ०जाव दुरहियासं, से णं तच्रे। नरगाओ उव्बद्धित्ता
आगमिस्साए उस्सप्पिणीए इहेव जबुद्दीवे दीवे भारहे वास
। वेयडडगिरिपायमृले पुंडसु जणयतसु सयदुवारे नयरे संझुइ-
यस्स कुलगरस्स भद्दाए भारियाए कुच्छसि प्रमत्ताए पच्चाया-
हिति | तण णं सा भदा भारिया नवरहं मासाणं बहुपाडपु-
नराणं अद्भट्टमाण य राइंदियाणं विइकंतां सुकुमालपाणि-
पायं अरहीरपदिपुन्नपचिदियसरीरं लक्खणवंजण ०जाव
सुरूव दारगे पयाहिति, जं रयणि च णं से दारण पया-
हिति ते रयणि च णं सयदुवारे नगरे सर्ब्भितरबाहिरए
भारग्गसो य कुभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वा-
से वासिहिति । तए णं तस्स दारयस्स अम्मापियरो इकार-
समे दिवसे विइकंते °जाव वारिसाहे दिवसे अयमयास्वं
गोण गुणनिप्फन्न नामाधेजं काहिति । जम्हा णं अम्हं इम-
सि दारर्गेसि जातंमि समाणेमि सयदुवारे नगरे
सभितरबाहिरिए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य
रयणवासे य वासे वुद्र तं होड णं अम्ह इमस्स दारगस्स
नामधिज्ञं महापउमे । तए ण तस्स दारगस्स अम्मापियरो
नामधिज्जं कादिति महापउमेत्ति। तए णं महापउमं दारे
अम्मापियरो साइरेगे अट्ववासजायगं जाणित्ता महता राया-
भिसेएणं अभिसिंचिहेंति, से णं तत्थ राया भविस्सइ ।
महया हिमवंतमहंतमलयमदररायवन्नञ्रो °जाव रज्ञ पसा-
हेमाणे विहरिस्सइ । तए णं तस्स महापउमस्स रन्नो अ-
नया कयाइ दो देवा महिड्डिया ०जाव महेसक्खा सेणा-
कम्मं काहिंति । ते जहा-पुन्नभदे य माणिभद्दे य | तए णं
सयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडंबियइ-
ब्भसेट्विसिणावइसत्थवाहप्पभिईओ अन्नमन्नं सदवेहिंति ।
एवं वइस्संति । जम्हा णं द वाणुष्पिया ! अम्दं महापउमस्स
रत्नों दो देवा महिड्डिया °जाव मंहसक्खा सेणाकंमं का-
रिति, तं जहा-पुन्नभद्दे माणिभदे य, तं होउ णं अम्हं
( १६६ )
भटापडम
स्सइ देवसेणे ति देवसेणे त्ति ।
एस ण मत्यद् ` जस्सालसमायारो इव्यादगाथापयन्तस्
अधिधानराजन्द्रः।
तए णे तस्स महापउमस्स रन्नो दुचे वि नामधिज्ञे भवि- |
||
॥
|
चरै सुगमं चतप्नवरम् ,एपो5ननन््तरोक्क:ःआयी इति श्रमणामन्ब- |
रम्। (भिभि त्ि)ढक्रासा सारौ यस्य स तथा । किल तेन कु
मारत्वे प्रदोपनके जयढका गहान्निष्काशिता, ततः पित्रा भिः `
म्मभिसार उक्त इति। सीमन्तके नरकेन्द्रके प्रथमप्रस्तटवत्तिनि
चतुरशीतिवरीसह स्रस्थितिषु नारकेषु मध्ये नारकत्वेनोत्पत्स्य
ते, कालः स्वरूप, कालावभासः काल पवावभासत परयता |
यावत्करणात् (गभीरलोमहारेसे ) गम्भीरो महान् लोमहर्षो
भयविकारो यस्य स तथा । भीमो विकरालः । (उत्तासरखश्चो)
उद्धेगजनकः । ( परमाकिणहे वन्नेणे ति ) प्रतीतम्, सच तत्र
नरके वेदनां वदयिष्यति, उज्ज्वलां विपक्षस्य लेशनाप्यकलङ्कि-
तां, यावत्करणात् ऋणि मनोवाक्तायलक्षणानि उपरिमध्यमा-
धस्तनकायविभागत्वात् , तुलयति- जयतीति, ज्रितुला तां,
कचिद्धिपुलामिति पाठः, तत्र विपुला--शरीरव्यापिनी ताम्,
तथा प्रगादां प्रकषवतीं, कटुकां--कटुकरसोत्पादिकाम् ,
कर्कशां--करकशस्पशसपादिकाम् । अथवा कटुकद्रव्यमिव
कटुकामनिष्टाम , एवे ककंशामपि, चरडां-वगवती भटि-
त्यव मूच्छौत्पादिकाम् , वेदना हि द्विधा, खुखा दुःखाचति।
सुखव्यवच्छेदा थ दुःखामित्याह । दुगा-पवतादिदुगेमिव क-
थमपि लक्कयितुमशक्यां , दिव्यां-देवनिर्मिताम् , कि बहूना
दुरधिसहां-सोदुमशक्यामिति । इहेव जम्बूद्वीप नासख्येय-
तमे । ( पुमत्ताए त्ति ) पुस्तया । ( पद्चायाहिइ तत्त ) प्रत्या-
जनिष्यत, ( बह॒पडिपुन्नाएं ति ) अतिपरिपू णानाम् , अद्धेम-
शमे येषु तान्यद्धौण्टमानि तपु । रात्रिन्दिवेषु-अहो राजेषु व्य-
तिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थ, खुकुमारा-कोमलो पाणी च
पादौ च यस्य स स॒कुमारपाणिपादस्तम् , प्रातिपूर्णानि खकी-
यस्वकय प्रमएखतः.प्रतिपुरयानि वा पवित्राणि पञ्च इन्द्रिया- |
ि-करणानि यस्मिस्तत्त था | अहीनम-अज्ञोपाडु प्रमाणतः प्र-
तिपूरपञ्चेन्द्रियं प्रतिपुरयपञ्चन्द्रिय वा शरीरे यस्य सः
अहीनप्रतिपूर्णप श्चेन्द्रियशरी रः, अहीनप्रतिपुएयपशञ्चन्द्रियश-
रीरो वा तम,तथा-लक्षरणं-पुरुषलक्षरं शाख्राभिदितम् , 'अ-
स्थिष्वर्थाः सुख मांस ` इत्यादि, मानोन्मानादिकं, व्यञ्जन
मषतिलकादि,गुणाः-सोभाग्यादयः, अथवा लक्षणव्यञ्जनयो ये
गुणास्तेरुपेतो लक्षणएव्यञजनगणापेतः, “ उववेश्रो त्ति । `
तु प्राकृतत्वादर्णागमतः, अथवा-उप--अपेत इति स्थिते
शकन्ध्वादिदशीनादकारलोप इत्युपपत इति , लत्तणव्यञ्च-
नगुणोपपेतस्तम् । ( दशवैकालिके चतुर्था ऽध्ययने ) लक्षण-
व्यञजनसखरूपमिदमुक्रम्--
माणुस्माणपरमाणा-दिलक्खणं वंजणं तु मसगाई ।
सहज च लक्खणं व-जण तु पच्छा समुप्पन्न ॥ ३६॥ इति । |
लक्तषणमेवाधिकत्य विशेषणान्तरमाह -"माणुम्मणि' त्यादि,
महापउम
तत्र-मानं-जलद्रोणप्रमाणता,सा ह्यवं-जलभ्रतेकुण्डे प्रमात- |
व्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुणडान्नि्गच्छाति तद्यदि |
द्वाणप्रमाणे भवति तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यत, उ- |
न्मान-तुलारोपितस्याद्धैभारप्रमाणता, प्रमाणम-आत्माहछुले- |
नाष्टोत्तरशताङ्कलोच्छयता । उक्तं च--
जलदोण १ मद्धभारं २, समुहाई समुस्सित्रो व जो नवउ ३।
माणुम्माणपमाणे, तिविंहै खलु लक्खण एयं ॥ ३७ ॥ इति ।
ततश्च मानोन्मानपरमाणैः प्रतिपूणानि-खुष्ड. जातानि सवी-
ण्यज्ञानि--शिरःप्रभ्नतीनि यस्मिस्तत् , तथाविधे खन्दरमङ्ग
शरीरं यस्य स तथा, तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपृणखुजात-
सवौङ्गखुन्दराङ्गम् , तथा शशिवत्सोम्याकारं, कान्त-कमनी-
ये, प्रिये-प्रेमावह दशन यस्य स शशिसोम्याकारकान्तप्रि-
यदशैनस्तम् । अत पव सुरूपमिति दारकं प्रजनिष्यति भ-
द्रेति सम्बन्धः| ('जरयणिच ' त्ति) यस्यां च रजन्यां
(तेरयणिच त्ति ) तस्यां रजन्यां, पुनरिति, अरद्ध॑रात्र
पव तीथकरोात्पत्तिरिति रञ्जनीग्रहणम् , ( से दारए पया-
दिद त्ति) दारकः प्रजनिष्यते उत्पत्स्यत दति, ( सन्भि-
तरबाहि रए त्ति ) सहाभ्यन्तरेण वाह्यकेन च नगरभागेन
यन्नगरं तत्र, सर्वत्र नगर इत्यथः । विंशत्या पलशतैभोरो
भवति । श्रथवा--पुरुषोत्त्तपणीयो भारो भारक इति, यः-
प्रसिद्धः, श्रग्र--परिमाणं, ततो भार पवाग्र भाराग्र तेन भा-
राग्रण, भाराग्रशो--भारपरिमाणतः , एवं कुम्भाग्रणो, न-
वरम्-कुम्भ-श्राढकषश्यादिप्रमाणतः, पद्मवर्षश्च रत्नवषश्व
वर्षिष्यति भविष्यर्ती्य्थः, ' जाव ` त्ति , करणात् ` नि-
व्वत्ते असुइजाइकम्मकरण सपन्ने ' त्ति, दृश्य ` तत्र ‹ नि-
वत्त ' निर्वेत्तित इव्यथः । पाठान्तरतः “ निवत्ते ! वा निवृत्त-
उपरते, श्रशुचीनाममेध्यानां, जातकम्मणां--प्रसवव्यापारा-
णां, करणे-- विधाने, सम्प्राप्त-श्रागते, ( वारसाहदिवसे
त्ति) द्वादशानां पूरणो द्वादशः, स एवाख्या यस्य स द्वाद-
शाख्यः, स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः । श्रथवा- द्वादशे च
तदंदश्च द्वादशादस्तन्नामको दिवसो दवादशाददिवस दाति,
(श्रयं ति) इदं वच्यमाणतया प्रत्यक्षासन्न (एयारूव ति) एत-
दव रूप-खभावो यस्य न मात्रयाऽपि प्रकारान्तरापन्नमित्यथः
कि तन्नामघय-प्रशस्तं नाम, किंविधं गौण न पारिभाषिकम्,
गोंणमित्यमुख्यमपि स्यादित्याह-( गुणनिष्फरणे ति ) गुणा-
नाशथ्रित्य प्रवधोदिनिष्पन्न॑ गुणनिष्पन्नमित्यक्तरघटना ( म-
हापडम त्ति ) तत्पित्रोः पर्यालोचनाभिलापानुकरणम् ,
(तप रा ति ) पर्यालोचनानन्तरम् , ( महापउठम दात )
महापद्म इत्यवं रूपम् । ( सारइरेगट्रवासजायगं ति )
सातिरेकाणि साधिकान्यण्रौ वर्षीणि जातानि यस्य॒ स
तथा तम् , ( रायवरणश्रो त्ति ) राजवणैको वक्तव्यः । स
चायम्-(महता हिमवतमदहेतमलयमेदरमदिदसारे ) महता
गुणसमृहेनान्तभूतभावप्रत्ययत्वाद्धा महत्तया. हिमवांश्च वध
घरपवतविशषो महांश्चासौ मलयश्च विन्ध्य इति चिकार
महामलयः स च मन्दरश्च मेरुमदेन्द्रश्च शक्रादिस्ते इव
सारः प्रधानो यः स तथा । ( अच्चतविखुद्धदीहरायक्ल-
वंसप्पस्ए ) अत्यन्तविशुद्धः सर्वथा निर्दोषः दीघेश्व पुरुष-
परम्परापक्षया यो राज्ञां भूपालानां कुललक्षणों वशः सन्ता
नस्तत्र प्रसूतो जातो यः स तथा । ( निरन्तररायलक्ख-
णविराइयेगुवंगो ) नैरन्तर्येण राजलत्तणेश्चक्रस्वस्तिका-
दिभिर्विराजितान्यङ्गानि शिरःप्रभ्रतीन्युपाङ्गानि च च अद्भुल्या
दान यस्य स तथा । (बहुजणवटुमाखपूइण सव्वगुणसमि-
द्धे खतक्तिए समुदिए त्ति ) प्रतीतम् । ( मुद्धाभिसित्त ) पित्-
पितामदहादिभिर्मद्धन्यभिषिक्रो यः स तथा । ( माउपिउसु-
जाए ) खुपुत्ो विनीतत्वादेनेत्यथः । ( द्यप्पत्त ) दया-
प्राप्नो , , दयाकारीत्यथेः | ( सीपतकरे ) मर्यादाकारी । ( सी-
( ६०० )
मसहापउस
अभिधानराजन्द्रः
मटापडउम
मधर ) मर्यादां पूर्वपुरुषक्रतां धारयति नाऽत्मनाऽपि ला-
पयति यः स तथा ( खमंकरे ) नोपद्रवकारी । ( खम
घरे ) ्तेमे घारयत्यन्यक्रतामिति यः स तथा । ( मार्ुस्सि-
दे जणवयपिया ) लाकपिता वत्सलत्वात्। ( जणवयपुरो-
हिए. ) जनपदस्य पुरोधाः-पुरोहितः शान्तिकारीत्यथः।
( सेउकरे ) सेतु मार्गमापद्धतानां निस्तरणोपाय करा-
तियः स तथा । ( केउक्ररे ) चिह्करः अद्धतका--
रित्वादिति । ( नरपवरे ) नरः प्रवरा नरा वा प्रवरा
यस्य स तथा । ( पुरिसवरे त्ति ) पुरुषप्रधानः । ( पुरिस-
सीदे ) शोयार्याधकतया । ( पुरिआसीविस ) शापसम- |
यत्वात् । ( पुरिसपुरिपुंडरिए ) पूज्यत्वात्सेव्यत्वाचच
( पुरिखवरगधहत्थी ) शेषराजगजविजायत्वात् ( अड्डे )
धनेश्वरत्वात् , (दित्त) दप्पत्वात् , (वित्त) प्रसिद्धत्वात् , (व
त्थिरणविपुलभवणसयणासणजाणवाद णाइ रणे) पूर्ववत् । (ब- |
हुधणबहुजायरूवरयए) ( आओगपआओगसंपउत्त )आयोगप्र-
ः योगा द्वव्योपाजनोपायविशेषाः संप्रयुक्लाः प्रव्निता यन स |
तथा । ( विच्छुडियपडरभत्तपाणे ) ( बहुदासीदासगोमहि-
सगवेलगप्पभूण पडिपुणणजतकोसकोट्टागारायुहागारे ) य-
न्त्राणि-जलयन्त्रादीनि,को शः-श्री गट ,को छा गारं-घान्यागार म् ,
आयुधागारं-प्रहरणकोशः (बलव) हस्त्यादिसेन्ययुक्क (दुच्ब- |
लपच्ामित्ते) अरवलप्रातिवेशिकराजः। (ओहयकंटये निहयकं-
खय मालयकटय डाद्धयकटय अकटय एव आओहयसत्तु)उपहता
राज्यापहारात् ।नहता-मारणात् ,मालता-मानभजनाद् , उद्ध- |
7 देशनिष्काशनात्कराटका दायादा यत्र राञ्ये तत्तथा,अतणच
अकराटकम ,एवं श्रवो ऽपि,नवरं शत्रवस्तभ्यो ऽन्ये (पराइय-
सन्तं) विजयवत्वादिति ( ववगय दुञ्भिक्लमारिभयविप्पमुक्त
चेम सिव सुभिक्ख पसंतर्डिबडमरं) डिम्वानि-विध्ना, डम- |
राणि-कुमारायुत्थानादीनि । (रजं पसासेमाे त्ति ) पाल-
यन् , (विहरिस्सइ त्ति) दो देवा महिड्डिया' इत्यत्र यावत्कर-
णात् “महज्जुइया महानुभागा-महायसा महावला इति ह-
श्यम्(सेणाकम्मे ति)।सेनायाः सैन्यस्य कर्म व्यापारः शच्रसा-
घनलक्षणः,सेनाविषये वा कर्म इतिकत्तव्यतालक्षणं सनाक-
मे । पृरीभद्रश्च दक्तिणयक्षनिकायन्द्रो ,माणिभद्रश्योत्तरयक्षनि -
कायन्द्रः,(बहवे राईसरत्यादि) राजा-महामाणडलिकः ,ई श्वरो
युवराजों मारडलिक्रो ऽमात्यो चा । अनन््ये तु व्याचक्षते-श्रणि
माद्यष्रावचश्वययुक्क इश्वर शत, तलबरः-पारतुषश्टनरपा तप्रद्- |
नक्षपट्टवन्धभूषितो, माडम्विकाश्छश्नमडस्वाधिपः,को टुम्बिक
कातिपयकुछुम्बप्रभुः,इभ्यो ऽ धवान् , स च किल यदीयपुञ्जीकृ
तद्रव्यराश्यन्तारता हस्त्याप नापलमभ्यत इत्यताचता; नति |
भावः। शरेषठी-श्रीदेवताध्यासितसोवरपट्भूषितोत्तमाङ्गः पुर |
ज्यष्ठा वाणक् ससनापातः नुपातानरूपता हस्त्यश्वरथपदात-
समुदायलक्षणाया सेनायाः प्रभारत्यथः ,साथवाह:-सा थना-
यकः.पतेषा दन्दः,ततश्च राजाद्यः प्रश्मातरादयषा त तथा
( देवसेण त्त ) देघाचच सेना यस्य, देवाधाएता वा सना
यस्य देवसेम इति । ( देवसणातीति ) देवसन इत्यव रूपम् ।
तए ण तस्स देवसेणस्स रन्न अनया कयाइ-सेयसखत-
लव्रिमलसननिकास चउरदते हत्थिरयणे समुप्पजिहिति
|
ज्फैणं अभिक्खणं २ अतिज्ञाहि पणिजाहि य, तए णं सय-
दुवारे नगरे बहवे राईसरतलवर ० जाव अन्मन्नं सदावि-
हिंति सदाविहित्ता एवं वइस्संति-जम्हा णं देवाणुप्पिया !
अम्हं देवसेणस्स र्पो सतसंखतलविमलसनिकासे चरते
हत्थिरयणे समुप्पन्ने य , तं होड णं अम्हं देवाणुप्पिया !
देवसेणस्स र्पो तचे वि नामधिजे विमलवाहणे, तए शं
तस्स देवसेखस्स रष्पो तचे पि नामधिज्े भविस्सइ विमल-
वाहणे । तए णं से विमलवाहणे राया तीस वासाई अ-
गारवासमज्मे वसित्ता अम्मापीईहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्त-
रेहिं अन्भणुन्नाए समाणे उदुंमि सरणए संबुद्धे अणुत्तरे मो-
क्खमग्गे, पुणरवि लोगतिएहिं जीयकप्पिए हिं देवेहिं ता-
हिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मगणन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं .
कन्नाणाहिं धन्नाहिं सिवाहिं मंगन्लाहि सस्सिरीआहि वस्गूहिं
अभिणंदिज्ञमाणे अभिथुवमाणे य बहिया सुभूमिभागे उजा-
ण एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं प-
व्ययाहिति, तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालसवासाई
निच वोसटकाए वियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति (तं
जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोशणिया वाते उप्प-
नने सेमं सदहिस्सर् खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ,
तए णं से भगवं इरियासमिए भासासमिए ०जाव शुत्तब॑भ्>
यारी अममे आकेंचणे छिन्नग्गंथे निरुवलेवे कंसपाईव मु-
कताए जहा भावणाए ०जाव सुहयहयासणेत्ति वा तेय-
सा जलते।
कंसे सखे जीवे, गगणे वाते य सारए सलिले ।
पुक्खरपत्ते कुमे, विहगे खग्गे य भारं(रु)डे ॥ १ ॥
छुजरवसहे सीदे, नगराया चव सागरमखोभे ।
चद् प्ररे कणगे, वसुधराचव सुहुयहु (य)ए ॥ २ ॥
नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंध भवह, से य प-
डिबंधे चउच्विहे पष्पत्ते । तं जहा-अडणएइ वा पोयएइ वा उ-
ग्गहेइ वा परगहिएइ वा, जे णं ज ण दिसं इच्छ तं णे ते णं दि,
सं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणुप्प्गथे संजमेणं अप्पा-
शं भावेमाणे विहरिस्सई । तस्स णं भगवेतस्स अणुत्तरेणं ना-
शेणं अणुत्तरेणं दंसणणं अणुवचरिएणं,एवं आलणएणं वि
हारेणं अञ्जवे महये लाघवे खती युत्ती गुत्ती सव्वसंजमत-
वगुणसुचरियसोवचियफलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भा-
वेमाणस्स भाणंतरियाए वट्टमाणस्स अंते अणुत्तरे नि-
व्वाघाए० जाव केवलवरनाणदं से समुप्पाज्जिहिति | तए शं
से भगवं अरहा जिणे भविस्सइ,केवली सव्वण्णू सव्वद रिसी
सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियागं जाणइ, पासइ-सव्ब-
तए शं से देवसेणे राया तं सयं सेखतलविमलसननिकासं लोए सव्वजीवाणं आगई गात । ट्य चयण उवाच् तकत
चउरदैतदत्थिरयणं दुरूढ़े समाणे सयदुवारं नगरं मज्कं म-
१--पस्तकान्नर् नास्यञ्य पाठ; ॥
4
2
^
|
अ व ~ ॐ,» *+
( २०१ )
महापडम
अभिधानराजन्द्रः। _
_ महापञउम
मणामाणसेयं सुत्त कडं परिसेवियं आ्वीकस्म,रहोकम्मं अ-
रहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगे व-
इमाणाणं सव्वलोए सच्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पा-
समाणे विहरइ । तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवल-
वरनाणदंसणेणं सद वमणुयासुरलोगं अभिसमिच्चा, स- |
मणाणं निग्गंथाणं ( ज केइ उवसग्गा उप्पज्ञेति, तं जहा-
दिव्या वा माणुसा वा तिरिक्खजाणिया वाते उप्पन्ने स-
म सहिस्सइ,खमिस्सइ,तितिक्खिस्सइ,अहियासिस्सइ । तते
शं से भगवं अणगारे भविस्सति, इरियासमिते भासा०एवं |
जहा-वद्धमाणसामी तं चव निरवसेस ° जाव अव्वावारवि-
उसजोगजुत्ते,तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेण विहरमा-
णस्स दुवासहिं संवच्छरेहिं वीतिकंतेहिं तेरसहि य पक्खे -
हि तेरसमस्स शं सवच्छरस्स अतरा वडूमाणस्स अ-
शुत्तरेणं णाणेण जहा भावणाते केवलवरनाणदसणे |
समुप्पज्जिर्हिति, जिणे भविस्सति, केवली सव्वन्न् स-
व्वदारिसी स णेरइए० जाव) पंच महव्वयाईं सभावणाई |
खच्च जीवनिकाए धम्मे देसमाणे विहरिस्सइ ।
( स्तत्यादि ) श्रयान् अतिप्रशस्यः श्वेतो वा, कीडागि- |
व्याह-शङ्खतलेन कम्बुरूपण, विमलन-पङ्कादिरदितन, संन्नि-
काशः सङ्काशः सदशो यः स शङ्खतलविमलसोनिकाशः ।
( दुरूढे त्ति ) आरूढः, (समाणे त्ति) सन् अअतियास्यति-प्र-
चेच््यति,निर्यास्यति-निगमिष्यतीति क्चिद्धत्तेमाननिर्देशो द-
श्यते, स च तत्कालापेक्ष इति । एवं सर्वत्र, (गुरुमदत्तरणएदि
ति ) गुर्वोर्मातापित्रोमहत्तराः पूज्याः । अथवा-गौरवार्हत्वेन
गुरवो महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाये ते गुरुमहत्तराः। ( पु
रवि त्ति) महत्तराभ्यनुज्ञातानन्तरं लोकान्ते लोकाग्रलक्ष- |
शे सिद्धस्थाने भवा लोकान्तिकाः, भाविनि भूतवदुपचारन्या- |
येन चवे व्यपदेशः, अन्यथा-ते कष्णाराजीमध्यवासिनो लो- |
कान्तभावित्वे च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति । |
|
जीतकल्पः-श्राचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्तणो विद्यते |
येषां ते जीतकल्पिकाः श्राचरितमेव तेषामिदे न तु तैस्ती- |
थकरः प्रतिवोध्यते स्वयं बुद्धत्वाद्धगवत इति। ( ताहि ति )
ताभिर्विवक्तिताभिः, ( बग्ग ति) वाग्भिर्यकाभिरानन्द
उत्पाद्यत इति भावः । इष्टाभिरिष्यन्ते स्म याः, कान्ताभि
कमनीयाभिः, प्रियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः,विरूपा आपि कार-
णवशात्प्रिया भवन्तीत्यत उच्यते-मनोकज्ञाभिः शुभसखरूपाभि
मनोज्ञा अपि शब्दतोऽथतो न हृदयंगमा भवन्तीत्यत आह-
(मणामाहि ति) मनः श्रमन्ति गच्छान्ति यास्तास्तथा, ताभि-
रुदारेणोदात्तेन स्वरेण प्रयुक्रत्वादर्थन वा युक्रत्वादुदाराभि
कल्यमारोग्यम् , अणान्ति--शब्दयन्तीति कल्याणास्ताभिः, ¦
शिवस्योपद्रवाभावस्य सूच कत्वात् शिवाभिः.घन लभन्ते घने |
क [ न्द भ #~ व क
वा साध्व्यो धन्यास्ताभिः, मङ्गले दुरितक्तये साध्व्यो मङ्गल्या- |
स्ताभिः, सह धिया वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकास्ताभि-
वौग्भिरिति सवन्धनीयम् ,अभिनन्द्यमानः समुल्लास्यमानः,(व
हैं“ जे काइ !
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इत्यारभ्य-' जाव › इत्यन्तं पुस्तकान्तरे |
|
हिय त्ति ) नगराद्रदस्तादिति, इतो बाचनान्तरमनुधित्य
लिख्यत । ( साइरगाई ति )। अर्द्धसप्तममीसेद्धांदश वर्षाणि
यावत् व्युत्सष्ट काये परिकर्मवर्जनतस्त्यक्त देहे परीषहा
दिसहनतः,तथा सहिष्याति उत्पत्स्यमानपृपसर्गषु, तथा भा
वतः त्तमिष्यत्युत्पन्नषु कोधाभावतः.तितित्तिष्यति दैन्याभा-
वतः,अध्यासष्यत आवचलतयात, “ जाव गुत्त त्ति ” कर-
रादिदं दश्यम--* एसणासमिपए आयाणकभंडमत्तनिक्खेव-
णासमिए” । भार्डमात्ाया आदान निक्षप च समित इत्य-
थः । ( उच्चारपासवणखेलसिघ्राणजल्लपारिद्धावणासमिषए )
खलो-निष्वीवने, सिङ्घाणो नासिकाश्लष्मा,जज्ञा-मलः, (म-
णगुत्ते वयगुक्त कायरुत्त गृत्त ) जिगुप्तत्वात् , गुप्तात्म-
त्यथः । ( ग़ुक्तिदिए ) स्वविषयष रागादिनेन्द्रियाणामप्रवरत्ते
( गुत्तवभचारी ) गुक्ष नवभिन्नैज्लाचर्य गुप्तिभिः रक्षितं ब्रह्म
मेथुनविरमणं चरतीति विग्रटस्तथा-( अममे ) अविद्यमान-
ममत्याभलापो निराभष्वङ्गत्वात् । ( आकिचरे ) । नास्ति
किचन द्रव्यं यस्य स तथा।( छिन्नग्गंथे ) छिन्नो ग्रन्थो
घनधान्यादिस्तत्प्रतिवन्धो वा येन स तथा। कचित् “ कि-
ज्नग्गथ ” इति पाटः | तत्र-कीरीः त्षिप्त:। ( निरूवलेवे ) द्वव्य-
तो निमेलदेदत्वाद्धावता बन्धदेत्वभावान्निर्मत उपलेपो य-
स्मादिति निरूपलपः.पतदवेा पमानर्खभधीयते । ( कंसपातीव-
मुक्कताए ) । कांस्यपात्रीव कांस्यभाजन विशेष इव सङ्घं त्यक्त
न लद्चमित्यथः तोयमिव बन्धदेतुत्वात्तोयं स्नेदो येन स मुक्क-
तोयः, यथा भावनायामाचाराङ्गद्धतीयश्रतस्कन्धपञ्चदशा-
ध्ययने तथाऽयं वणेको वाच्य इति भावः। कियद् दर यावदि-
त्याद-(जाव खुहुए इत्यादि) सुष्टु हुत ज्षिप्त घतादीति गम्यते
यस्मिन् स सुहुतः,सख चासो हताशनश्च वह्निरिति सुहुतहता-
शनस्तद्वत्तजसा ज्ञानरूपेण तपोारूपेण वा ज्वलन् दीप्यमानः ।
आअतिदिष्टपदानां संग्रह गाथाभ्यामाह--“ कंस ” गादा ।
“ कुंजर ' गाहा । (कंसे त्ति ) कंसपा इव ( मृकतेयि )
[ सखे त्ति ] शेख इव [ निरंगणं ] रङ्गणं रागाद्युपरञजने तस्मा-
ननिगत इत्यथः । [ जीवे त्ति ] जीव इव । [ अप्पडिहय-
गई ] सयमे गतिः प्रवृत्तिन दन्यतेऽस्य कथचिदिति
भावः । [ गगणे त्ति ] गगनमिव निरालम्बनो न
कुलग्रामाद्यालम्बन इति भावः । [ वाये य त्ति ] वायु
रिव [ अप्पडिबद्धो ] प्रामादिष्वेकरात्रादिवासात् । [ सा-
यरसलिले व त्ति ] [सायरसलिले व सुद्धहियये ] अकलुष-
मनस्त्वात् । [ पुक्खरपत्ते त्ति] [पुक्खरपत्तं पि व निरुवलेवे]
प्रतीतम् । [ कुम्मो इव गुत्तिदिए ] कच्छुपो हि कदा-
चिदवयवपश्चकन गपो भवत्येवमसावपीन्द्रियपञ्चकेनेति ।
( विहगे त्ति ) विहग इव । ( विप्पमुक्ते ) मुक्कपरिच्चद-
त्वादनियतवासा्ति । ( खग्ग य त्ति) ( खग्गिविसाणे
व॒ एगजाए ) खङ्ग श्राव्यो जीवविशषस्तस्य विषाणे
शङ्क तदेकमेव भवति, तद्वदेकजात पकभूतो रागादिस-
हायंवेकल्यादिति । ( भारुड त्ति ) भारुण्डपक्तीव । ( अप्पम-
त्ते ) भारूण्डपत्तिणोः किल पकं शरीरं पृथग्म्रीवे त्रि
पादे च भवति, तो चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निवहं लभत
इति । तनापमति ॥ १॥ ( कुजरे त्ति ) कुञ्जर इव सा-
रडीरे हस्तीव शरः कषायादिरिपून् प्रति ( वसहे त्ति )
( क्समे इव जायथामे ) गोरिवोत्पन्नदलः प्रतिशातवस्तु-
( २०२ ) +
मटापउम _
अ नधानराजन्द्रः।
महापञ्च)
भरनिवीटक इत्यथः ¦ ( सीदे त्ति ) ( सीहो इव दुद्धरिसि ) प
रीषदादिभिरनभिभवनीय इत्यथः । (नगराया चेव सि मंदरो
इव अप्पकंप ) मेरुरिवानुकरलादयुपसीर विरचालितसच्वः ।
( सखागरमखादि त्ति ) मकारो ऽलार्त्तीणकः । सागरवदच्ता-
भः सागराक्ताभ इति, सूत्रसूचा सूत्र च-सागरो इव गम्भी-
रे दधशोकादिभिरक्ताितत्वादिति । ( चदे त्ति ) ( चदे इव
सोमलेसे ) अनुपतापकारिपरिणामः। ( सूर त्ति ) ( सूरे इव-
दित्ततप ) दीप्ततेजा द्रव्यतः शरीर दीप्त्या, भावता ज्ञानन।
( कणगे त्ति ) ( जच्चकणगे पिव जायरूव ) जातं लज्ध
रूपं स्वरूप रागारिदिकुद्रर्व्यावरहायन स तथा । [ वसुधरा-
चेव त्ति ] । वसुन्धरा इव । [ सव्वफासविसहे ] स्पशौः
शीतोष्णादयो 5नुकूलेतराः । [ सुहयहुय त्ति ] । व्याख्यात-
व [ > | भ |
मवति । [ नत्थीत्यादि ] नास्ति तस्य भगवता महापद्य- |
स्याय पक्ता यदुत कुआपि प्रतिवन्धः स्नेटो भविष्यती-
ति। [ अडष इव ततिं ] । अण्डज्ो हंसादिममायमित्युल्ले- |
खन वा प्रतिवन्थो भवति । । अथवा--अण्डक मयूयोदी-
नामद रमणक मयूरादः कारणामात प्रातवन्चः स्यादात। |
अधथवा--अण्डर्ज पटसूज्जमिति वा, पोतजो--हस्त्यादि-
रयामात वा प्रतिवन्धः स्यात् । अथवा--पोतको बालक |
इति वा | अथवा-पोतक वखमिति वा प्रतिवन्धः स्यात् ।
आहारे5५पि च विशुद्धे सरागसयमवतः प्रतिचन्ध स्या- |
दिति दशैयति-[ डग्गहिए व त्ति ] अवग्हीते परिवेष-
णाथमुत्पाटित, प्रग्ृहीते भाजनाथसुत्पाटितमिति । अथवा-
अवग्रदिकमित्यवग्रहाःस्यास्तीति । वसतिःपीटफलादिः, ओ
पग्रदिकं वा दर्डकादिकमुर्पाघजातम् , तथा-- प्रकषण ग्र
डो ऽस्येति प्रग्रहिकम् . श्रोधिकमुपक्ररणे पाजादीति । अथवा-
अगण्डज वा पातज्ञ वेत्यादि व्याख्ययम्-दकारस्त्वागामिक
इति । [ जे जे ति ] यां यां दिशे, णमिति वाक्यालङ्कारे,
दुशब्दो वाऽय तदश पव इच्छति तदा विहतैमिति शषः,
तां तां दिशे विहरिष्यतीति सम्बन्धः, सप्तम्यर्थं, चयं द्वि-
तीया, तस्यां तस्यामिव्यथैः । शुचिभूतो भावशुदधितो लघु-
भूतो ऽचुपधित्वेन गोरवत्यागेन च , [ श्रणुप्पगंधे त्ति ] |
अनुरूपतया श्राचित्यन वरतेन त्वपुरयोादयादखुरपि वा |
सृचमो ऽप्यरपो ऽपि प्रगतो भ्रन्थो घनारदिर्यस्य यस्माद्वा ऽसाव- |
जुप्रग्नन्थो 5पेत्रैच्यन्त भूतत्वादरुप्रग्नन्थो वा।अथवा-[ अखु
प्पक्ति ] अअनरप्या ऽनपेणीयो 5ढठोकनीयः परेषामाध्यात्मिक-
त्वात् , ग्रन्थवद् दृव्यवत् ग्रन्थों ज्ञानादियसयथ सोऽनप्यंत्रन्थ
इति । [ भावेमाणे त्ति ] बासयक्नित्यथः । [ अखुत्तरे-
रो ति] नास्त्युत्तरं प्रधानमस्मादिति अनुत्तरस्तन । (षः
वमिति ) [ शअणुत्तरेण ति ] विशेषणस॒त्तरज्ञापि सवन्धनी-
यमित्यथः । आलयेन वसत्या (विहारेणकरात्रादिना, आजे-
वादयः क्रमेण मायामानगोरवक्रोधलोभनिग्नहा:,गुप्तिमनः प्र
भ्रतीनां, तथा सन्ये च द्वितीये महाव्रतं, सेयमश्च प्रथम
तपोगुणाश्चानशनादयः सुचरित स्॒रासवितम् । [ सोय-
विये ति ] प्राकृतत्वातू, शाचं च ततीय महाव्रतम्,
थवा -[ विय त्ति ] विच्च विज्ञानमिति इन्दः, ततश्चता
न्यवता प्व वा | [ फल त्ति ] फलप्रधानः परिनिर्वा-
मार्गो निवृतिनगरीपथः सत्यादिर्पार निवौणमार्गस्तेन ,
ध्यानयोाः शुकलध्यानद्धितीयत॒तीयभदलक्षणयोरन्तरं मध्यं
ध्यानान्तरं त्द्व धभ्यानान्तरि (, तस्यां बतेमानस्य शङ्खस्य
द्वितीयाद्धदादुत्तीर्णस्य ठृतीयमप्रास्येत्यथः । अनन्तमनेन्त `
विषयत्वाद्, अनुत्तर सर्वोत्तमत्वात्, निव्यौघातं मरा
दिभिरप्रातिहतत्वात् . निरावरणं सवौवरणापगमात् , कृतं
सवौश्रविषयत्वात्, प्रतिपूरं स्वरूपतः पोशमासी
वलमसदायम्, अत एव वरं, ज्ञानदशेनं भपरतीतम्, केव
नदशैनामिति । ( अरह तति ) अरन् अ प्रह्मप्रातिहाय॑र
पपूजायोगात् , जिनो रागादिजेत्त्वात् , केवली परिप
दित्रययोगात् , सर्वज्ञः सर्वविशेषार्थवो धात् , सर्वदर्शी
सामान्या थीववोधाच्ततश्च सह देवैश्च वैमानिकज्योति
त्तरोमेच्य श्च मनुजेरसुरैश्य भवनपतिव्यन्तरलक्षणर्यः स, स
वमत्याखुरस्तस्य लोकः पञ्चास्तिकायात्मकस्तस्य। (
गे ति) जातविकवचनमिति, पयायान् विचित्रपारि
( जाणइ पासडइ त्त ) ज्ञास्यति द्रच्यति चत्यथेः । प
देवादिग्रहणे प्रधानापेच्यमन्यथा सर्वजीवानां सर्वप्यायाः
ज्ञास्यति, श्रत एवाह--( सव्वलोपए इत्यादि ) ( चयस ति |
वैमानिकलज्योतिष्कमरणम् । उपपातं नारकदेवानां जन्म, तकं |
विमश, मनश्ित्त, मनसि भवं मानसिक, चिन्तितं वस्तु, भु
कमादनादि, कृते घटादि, प्रतिषवितम--आसेवितं प्राणिवर्ण
घादि, आविष्कर्म-प्रकटक्रियां, रह: क्म-विजनव्यापारे,
स्यतीत्यनुवत्तते । तथा-अरहा, न विद्यते रहो विजनं यरय
सर्वज्ञत्वादसावरटा, अत पव. रहस्यस्य
-ऽरस्यं तद्धजतेः इत्यरदस्यभागी, ते त कालमा श्रित्येति
शषः । सप्तमी वेयमतस्तस्सिस्तस्मिन् काले इत्यथः, ( मन
सवयसकाइए, त्ति ) मानसश्च वाचसश्च कायिकश्च मानस
वाचसकायिकं तत्र, योगे-व्यापारे, हस्वत्वे च प्राकृतत्वा+
दिति, वक्तैेमानानाम्-व्यवस्थितानां, सर्वभावान-सर्वपरि-
रामान् जानन् पश्यन्विहरिप्यति । ( अभिसमेच्च त्ति )
मिसमेत्य अवगस्य । ( सभावणाई ति) सह भावनाभिः
प्रतिबत पञ्चभिरियौसमित्यादिभियानि तानि सभावनानि।
तासां च खरूपमावश्यकान् मन्तव्यं षट् च जीवनिकायान्
रक्तगीयतया,( धम्मं ति ) एवंरूप चारित्रात्मकं, सुगतो जी*
वस्य, धरणाद्धम्मं श्रुतधर्म च देशयन् परूपयान्नति ।
अथ महापद्यस्यात्मनश्च सर्वज्ञत्वात्सर्वज्ञयोश्च मताभेदात्
भेदे चैकस्याऽय थावस्तुदशनना ऽसर्वक्ञताप्रसङ्गादिः
गवान् समां बस्तुपरूपणां दशीयन्नाह--
से जहानामए श्रजो ! मए समणाण निग्गेथाणं ४
आरम्भट्टाणे पष्यत्ते। एबामेव महापउमे वि अरहा समणा-
शं निग्गेथाणं एगं आरम्भट्टाणं पन्नवेहिति से ज
मए अज्ञो ! मते समणाणं निग्गथाणं दुविहे बंधणे |
तं जहा-पेज्ञबधणे दोसबेधणे । एवामेव महापउमे
अरहा समणाणं निग्गथाणं दुविह बंधं पन्नवेरहिंति ।
जहा-पेज्ञबंधणं च दोस्बेधणं च, से जहानामते अजो !
मते समणाणं णिग्गेथाणं तओ दंडा पष्यत्ता, तं जहा-मण-
दंड वयदंडे कायदंडे, एवामेव महापडमे वि समणाणं नि-
ग्गंथाणं तओ दंड पष्पवेहिति, ते जहा-मणोदं डं कायदंडं
वयदंडं, से जहानामए एएणं आभिलावेणं चत्तारि कसाया ,
पप्तत्ता, त जहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लो-
अन्त
व मम. नमक... मा. ओर... ओर छत. साकार“ अंअाआक--3
~> क 23
प्रर
पड्म
( २०३ }
अभिधानराजन्द्रः।.
महापउस
मे । छ जीवनिकाया पष्त्ता, तं जहा-पुढवीकाइया ० जाव
पारया, एवामेव °जाव तसकाइया । सेजहाणामए एए-
१ अभिलवेणं सत्त भयडाणा पणत्ता, एवामेव महापउ-
वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सत्त भयद्वाणे पन्नवेहिंति।
द मयट्ठाणे, णव बंभचेरगुत्ताओ,द्सविंहे समणधम्मे,
०जाव तेत्तीसमासातणाओ त्ति, से जहानामए अ-
अदंतवणे अच्छत्तर अणुवाहणए भूमिसेज्जा
कट्टसेज्जा केसलाए बंभचेरवासे परघरप्प-
मेव महापउम वि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभांवि०
व लडद्भावलद्धवित्तीोओ० जाव पन्नवेहिंति ।
(से जहेत्यादि ) ( श्त्या किञ्चिद्व्याख्या आरंभट्वाण ?
शब्दे द्वितीयभागे ३७२ पृष्ठे गता ) इतः शषमावश्यके प्रायः
प्रसिद्धमिति न लिखितम्, तथा फलकम-प्रतलम्, आयतं-
काष्ठम्, स्थूलमायतमेव, लब्धानि च सन्मानादिना, अपल-
ब्धानि च न्यकारपूर्वकतया, यानि भक्कादीनि ते्वृत्तयो नि
बोहा लब्धापलब्धवत्तयः ।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं निग्गथाणं
आहाकम्मिएड वा उद्देसिएए वा मीसजाणएद वा अ-
ज्कोयरएद वा पृडए कीए पामिच्चे अच्छिज्ञे अ-
शिसंट्रे अभिहडेइ वा कंतारभत्तेइ वा दुब्भिक्खभत्तेइ वा
गिलाणभत्तेद वा वदरियभत्तेद वा पाहुणगभत्तेइ वा
मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेद वा फलभोयणेइ वा वी-
यभोयशेड वा हरियभोयणेह वा पडिसिद्धे एवामेव म-
हापउमे वि अरहा समणाणं आहाकम्मियं वा ०जा-
ब हरियभोयणं वा पडिसेहिस्सइ, से जहानामए अ-
ज्ञो ! मए समणाणं पंचमहव्वदइए सपडिकमणे अचेल-
निग्गंथाएं पंचमहव्वइयं ०जाव अचेलगं धम्मं प-
सिज्ञायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा पडिसिद्धे, एवामेव महाप-
पडिसेहिति । से जहानामणए अज्जो ! मए नव गणा इका-
रस गणहरा एवामेव महापउमस्स वि अरहओ नव गणा
इकारस गणहरा भविस्सति । से जहानामए अजो ! अहं
तीस बासाई अगारवासमज्के वयित्ता मुंडे भवित्ता ०जाव
पाए । पंच कामगुणे प्पत्ते, तं जहा सदे गंधे स्वे रसे |
उमे वि अरहा समणाणं सिज्जायर्षिंडेड वा रायपिंडेइ वा |
पे ०जाव लद्धावलद्धवित्तीग्रो °जाव पप्मत्ताओ। एवा- |
ए धम्मे पष्पत्ते, एवामेव महापडमे वि अरहा समणाणं |
ज्नवेिंति, से जहानामए अज्ञो ! मए पंचाणुव्वइए |
तत्त सिक्खावइणए दुवालसविहे सावगधम्मे पप्मत्ते, एवा- |
मेव महापउमे वि अरहा पंचाणुव्वहयं ०जाव सावग- |
धम्मं वन्नविस्संति, से जहानामए अज्ञो ! मए समणाणं |
|
पव्वइए दुवालस संवच्छराई तेरस पक्खा छंउमत्थपरियाग
पाउणित्ता, तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाई तीस वासाई केव-
लिपरियागे पाउणित्ता , वायालीस संवच्छराईं सामन
परियाग पाउाशित्ता, वावत्तरि वासाई सव्वाउय पालइ-
त्ता सिज्मिस्स ०जाव सव्वदुक्खाणं अतं करेस्सं । एवा-
मेव महापडमे वि अरहा तीसं वासाई अगारवासमज्मे व-
सित्ता०जाव पव्वहिति, दुबालससंवच्छरादं ° जाव वावत्तरि
वासाई सव्वाउय पालइत्ता सिज्किहिंति ०जाव सब्बदु-
क्खाणमंतं काहिंति ।
जस्सीलसमायारो, अरहा तित्थकरो महावीरो ।
तस्सालसमायारो, होइ उ अरहा महापउमे ॥ १ ॥
( सू०-६६३ )
( ्रादाकम्मिपड् त्ति ) आधाय आधित्य साधून्, कर्म
सचेतनस्याचेतनीकरणलच्तणा अचेतनस्य वा पाकलच्तणा
क्रिया यत्र भक्तादो तदाधाकर्म, तदेवाधाकर्मिकम् । उक्तं च-
सचित्तं जमचित्त , साहणट्राए कीरए ज च।
अख्ित्तमेव पच्चर , आहाकम्म तयं भिय ॥ १॥ इति ।
इह च इकारः सर्वत्रागमिकः, इतिशब्दो वा ऽयमुपप्रदशै-
नार्थपरो,वा विकल्पार्थः । (उदेसियं ति) अर्थिनः पाखरिडनः
श्रमणान्निभ्रन्थान् वोदिश्य दुर्भित्तात्ययादौ यद्धङ्घं वितीर्यते
तदोदेशिकामिति,उदेशे भवमोदेशिकम् , इति शब्बाथः | यद्धा
तथेव यदुद्धरितं सदध्यादिभिर्विमिश््य दीयते, तापयित्वा
वा तदपि तथैवेति । इहाभिहितस्-
उदिसिय साहुमाई, ओमश्चवयभिक्खवियरणे ज च ।
उद्धरिश्च मीसेड, ततिय उद्देश्तियं तं तु ॥ १॥ इति ।
( मीसजाए व त्ति ) ग्रही सयताथमुपस्छृततया मिश्रं
जातमुत्पन्न मिश्चरजातम् , यदाह-““ पढम तविय गिहि-
सजय-मास उवक्खडद मीसगे ततु " इति । ( अज्को-
यरए त्ति ) स्वार्थमूलाद्ग्रहणे साध्वाद्यथ कणप्रत्तपणम-
ध्यवपूरकः, आह च--“ सद्भामूलददणे, अञ्भोयर होइ
पक्खेवो ” इति । ( पूइए क्ति ) शुद्धमपि कमोद्यवयवैरपवि-
त्रत पूतिकम् | उक्त च-“ कम्मावयवसमेयं, सेभाविज्जइ
जयंतु तं पूई। ” इति । ( कीय त्ति ) द्रव्येण भावेन वा क्रीतं
स्वीकृत यत्तत् क्रीतमिति । यतो ऽभ्यघाये “दव्याइएहि कि-
णण, साहूणट्ठाइ कीयं ठु ” इति । ( पामिश्च ) प्रामित्यकं
साध्वधमसुद्धारग्रहीते, यतोऽभिहितम्-“ पामिच्च साह,
अद्भाओ चिछुदिउ विया वेद"इति । आच्छेय्-बलात् श्रत्यादि-
सत्कमाच्छिद्य यत् स्वामी साधव ददाति । भणिते च-“श्र-
जिछज्ज वा च्छिदिय, ज सामी भिच्चमाईणे "शति । अनिसृष्ट
साधारणे बहनामेकादिना अननुशातं दीयमानस् श्राह च-
“ अणिसिट सामन्न, गाट्टियमाईण दयडउ एगस्स ” इते ।
श्रभ्याहत स्वग्रामादिभ्यः आहृत्य यदृदाति । यतो 5वाचि-
« सग्गामपरग्गामा, जमाणिये अभिहर्ड तय होइ ” इति।
एपां शब्दा्थः प्रायः प्रकट पवति, कान्तारभक्रादय श्राधा-
कमादिभदा एव । तत्र कान्तारमटवी तत्र भक्तं भाजने यत्
साध्वादयर्थ तत्तथा, एवं शषारायपि,नवरं ग्लानो रागापशा-
( २०४ )
2 मो
अभिधानराजन्द्रः।
।
न्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद्दीयते, तथा बद्देलिका-मेघा-
डम्बरं, तत्र हि वया भिन्तषाश्रमणाक्षमो भिच्लकलोकों भव-
तीति ग्रहीतमर्थ विशषतो भकं दानाय निरूपयतीति, प्राघू- |
रका श्रागन्तुकभिच्छुका एबं, तदर्थ यद्धकं तत्तथा,प्राघूरणको
वा गरही स यदापयति तदर्थ संस्कृत्य तत्तथा, मूल पुननंवा-
दीनां तस्य भोजनं तदेव वा भाजने,भुज्यत इति भाजनामिति
कृत्वा, कन्दः-खूर णादिः, एल -अपुष्यादि.,वीज-दाडिमादीनां,
हरितं-मधुरलृणादावेशेषः, जीववर्धानमित्तत्वाच्चेषां प्रति- |
बंध इति ।( पंचमभहंव्वइण इत्यादि ) प्रथमपश्चिमती-
शैकराणां हि पञ्च महाब॒तानि शपषाणां महाविदेहजानां च |
चत्वारीति पश्चमहाबतिकः । पले सह प्रतिक्मणन उभयस-
ध्यमावश्यकेन यः स तथा, श्रन्येषां तु कारणजात एव
्रतिक्रमणमिति, उक्क च--
“ सपडिक्कमणो धम्मो,पुरिमस्स ये पच्छिमस्स य जिणस्स । |
मज्मिमयाण जिणाणे, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ १॥ इति ।
तथा अविद्यमानानि जिनकल्पिकविशेषापेक्षया असत्त्वादेव,
स्थाविरकल्पिकापेक्तया तु जीरशमलिनखरिडतश्वेताल्पत्वा-
दिना, चेलानि-वस्त्राणि, यस्मिन् स तथा । धम्मश्चारित्र,
न च सति चेले अचेलता न लोके प्रतीता। यत उक्तम्-
“ जह जलमवगादंतो, बहुचेलो वि सिरवेदिंयकर्डिज्ञो ।
भन्नइ नरो अचेलो , तद सुणओ सतचेला वि ॥ १॥ ”
अतः--
“ परिखुद्धजु्नकुच्छिय, थोवाइनिययर्ण-भोगभोगेहि ।
मुणओ मुच्छाराहिया, सतहि" श्रचेलया होति ॥ २॥ ”
अनियतेरन्यभोगे च सति भोग्येरित्यथः । न च वख से-
सक्रिरागादिनिमित्ततया चररित्राविघाताया5<ध्यात्मशुद्धेः
शरीराहारादिवादिति । न हि शरीरात् यूकादिससक्तिने भव-
ति रागो वा नोत्पद्यते | उक्त च--
“ अह कुणसि थुल्लवल्था-दइएस मृच्छ धुव सरीरे वि ।
अकेज् दुल्लउतरे, कादिसि मुच्छ विससेरो ॥ ९ ॥ ” इति ।
अक्रयणीय इत्यथैः । श्रध्यात्मशुद्धथभावे श्रचेलकत्वमपिं न
चारित्राय, यथोक्रम्--
“ अपरिग्गहावि परस--तिपखु मुच्छाकसायदोसोहिं ।
अविशिग्गहियप्पाणो, कम्ममलमणंत मज्जाति ॥१॥ "` इति ।
अथ जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रय इति न वक्रव्य-
मेतत् , यतोऽभ्यधायि-
“ न परोवपसविंसया, न य छउठमत्था परोवएस पि ।
दति न य सीसवग्ग, दिक्खति जिणा जहा सव्वे ॥ १॥
तह ससहि य सव्ये, कज जद तदि सव्वसादम्मे |
पव च कशो तित्थ, न चदचेल तति को गाहो ॥२॥” इति । |
अपिच उचितचेलसद्धाव चारिजत्रधर्मों भवत्यव तदुप-
फारित्वाच्छुरीराहारादिवदिति , अथ कथ चलस्य चा-
र्जिपकारितति चैंत् ? उच्यते--शीतादित्राणतो जीवसं-
सक्रिनिमित्तवृणपरिदारादिदेतुत्वाद् , उक्तं च--
“तणगहणानलसेवा निवारणा धस्मसक्कभाणटदा ।
दद्रुं कप्पग्गहणं, गिलाणमरणउट्टया चव ॥ १ ॥” इति ।
तथा ( सज्जायरे त्ति) शरते यस्यां साधवः सा शय्या, तया
तरति भयसागरमिति शय्यातरो-वसतिदाता, तस्य पिरडा |
भक्तादिः शय्यातरपिरडः, स च अशनादिः ७ वर्रादिः ४
सृच्यादि अति । तद्ग्रहणे दोषास्त्वमी-
“ तिच्थंकरपडिकुद्धो, अन्नायं उग्गमो वि य न सुज्मे।
अविमुत्ति श्रलाघवया, दुल्लहसेज्ञाविउच्छेओ ॥१॥ ” इति ।
राज्ञश्चक्रवा्तिवासुदेवादेः पिरडो राजपिराडः, इदानीमुभयो-
रपि जिनयोः समानतानिगमनाथमाद- जस्सीलगादा'"-यौ
शीलसमाचारो स्वभावानुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचार-
स्तावेव शीलसमाचारौ यस्य स तथति । महापझजिनो हि
महावीर बदुत्तर फाल्गुनीनत्तत्रजन्मादिव्यतिकर इति । स्था०
६ ठा० ३ उ० । ति०।
अरहा णं महापउमे अद रायाणो मुंडा भवित्ता अ-
गाराओ अणगारियं पव्वावेइस्सति । तं जहा-पउमं प-
उमगुम्मं नलिलं नलिनयुम्मं पउमद्धयं धणुद्धयं कण-
गरहं भरहं ( घू०-&२५ )
( अरहा मित्यादि ) खुगमे, नवरम् । ( महापउमे त्ति )
महापझों भविष्यदुत्सर्षिरयां प्रथमतीथेकरः अ्रेणिकराज-
जीव इति । इहैव नवस्थानके वक्ष्यमाणव्यतिकर इति (सु-
डा भवित्त त्ति ) मुरडान् भावयित्वेति । स्था० ८ ठा० हे
उ० । वीरमहापद्मयोरन्तरम् ८४००७ वपषांणि ५ मासाः ।
श्राव० १ श्र०। ने० । पुप्कलावतीविजये पुरडसीकिणीनगरी-
राजे पुरडरीककरण्डरीकयोः पितरि,आआ० म० १ अ० ! दृशै० ।
(* तेतलिपुत्त ` शब्दे चतुर्थभागे २३५२ पृष्ठे कथा ) निधिभेदे,
दशै° | आ०चू०। “ वत्थाण य उप्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सव्वभ-
त्तीणे । रंगाण य धोव्वाणु य, सव्वा एसा महापउमे॥ ५॥ ”?
आए चू० १ अ० । जञ० । प्रच० | स्था०। ति० । महापद्माद्यो
निधयः । श्रा० म० १ अ० । भारते वर्ष श्रागामिन्यासुत्सर्षि-
रयां भविष्यति नवमचक्रवर्तिनि, स° । अवसार्पिएयां जाते
हस्तिनापुरराजे नवमचक्रवर्तिनि,स०७७सम ०) आव ०। ्र्०।
स्था० । ( अयमष्टमचक्रवतींति लचमीवल्लभः ) उत्त० |
चत्ता भारहं वासं, चक्रवदुी महिड्डिओ।
चत्ता उत्तमे भोए, महापउमो तवं चरे ॥ ४१ ॥
है मुने ! महापद्मो$पि अष्टमचक्री महाद्धैकः तपोऽचरत् ।
कि कृत्वा-भारतं वासे त्यक्त्वा, पुनरुत्तमान् प्रधानान् भो-
गान् त्यक्त्वा ॥ ४१॥
श्रज महापद्मचक्रवर्तिदष्टान्तः-- इदेव जम्बूद्ीप भारते
वर्ष कुरुक्षेत्र हस्तिनागपुरं नाम नगरम् , तञ श्रीऋषभवंश-
प्रसूतः पद्मोत्तरो नाम राजा, तस्य ज्वाला नाम भहादे-
वी, तस्याः सिंहस्वप्नसचितो विष्णुकुमारनामा प्रथमः
पुज, द्वितीयश्चतुदेशस्वप्नसूचितो महा पड्मनामा, द्वावपि च-
द्धि गतौ, महापद्म युवराजः कृतः | इतश्च उज्यिन्यां न-
गया श्रीधर्मनामा राजा, तस्य नसुचिनामा मन्ती, श्रन्य-
दा तत्र श्रीमुनिखुबतस्वामिशिष्यः खुब॒तो नाम खरिः स-
मवखतः । तद्वन्दनाथं लोकः स्वविभूत्या निरतः, प्रासादो-
परिस्थितेन राज्ञा दष्टः, पृष्टाश्च सेवकाः । अकालयात्रया
कार्य लोको गच्छति ? ततो नमुचिमन्विणा भणितम् । देव !
अत्र उद्याने श्रमणाः समागताः, तेषां यो भक्तो लोकः
स तद्वन्दनाथ गच्छति, राज्ञा भरितं वयमपि यास्यामः,
नमुचिना उक्कम--ताहें त्वया तत्र मध्यस्थेन भाग्यम् , य~
था ऽदं बाद कृत्वा तान्निरुत्तरीकरोमि । राजा नमुचिसहि-
( २०५ )
महापउस
अभिधानराजन्द्रः
सहापउस
तस्तत्र गतः । नमुचिना भणितम् । भो श्रमणा
धर्मतत्वे जानीथ तर्हिं वदथ ? सर्वेऽपि मनयः चद्रोऽय-
मिति कत्वा मोनेन स्थिताः, ततो नमचिभृशे रुष्टः स्-
. रि प्रति भणति-एष वयज्नञः कि जानाति ? ततः सूरि-
भिर्मखितं, भमः किमपि-"यदि ते मुखे खजति ` इदं व-
चः श्रुत्वा श्रनेकशाख्रविचक्षणन क्षुज्नकशिष्येण भरतम् , .
भगवन् ! अहमेवन निराकारष्यामे इत्युक्त्वा कुल्लकन
स वादे निरुत्तरीकृतः | साधूनामुपरि द्वेषं गतः, रात्रो च
चरव॒त्या एकाक्येव .सुरनिवधाथमागतो, देवतया स्त
स्मितः. प्रभाते तदाश्चय दष्टा राज्ञा; लोकेन चस भशं
तिरस्कृतो विलक्तीभतो गतो हस्तिनागपुरम् , महापद्मयु
राजस्य मन्त्री जातः । इतश्च पवतवासी सिहवलो
नाम राजा, स च कोट्टाधिपतिरिति महापझदेश विनाश्य
कोटे प्रविशति, ततो रुष्टेन महापद्मन नमुचिमन्त्री पृष्ठ
सखिहवलराजग्रहणे किंचिदुपाय जानासि ? नम॒चिनोक्क
सुष्टु जानामि | ततो महापद्मप्रेरितोऽसो सेन्यब्ृतो गतो
निपुणोपायेन दुर्ग भङ्क्त्वा सिहवलो बद्ध आनीतश्च
महापद्मान्तिके, महाप्मेनोक्तम् , नमुचे ! यत्तवेष्ट तन्मार्गय ।
नमुचिनोक्कम् , साम्प्रतं वरः कोशेऽस्तु, अवसरे मार्गयिष्या-
मि, एवं यौवराज्यं पालयतो महापद्मस्य कियान् कालो
गतः । अन्यदा महापद्ममात्रा ज्वालादेव्या जिनरथः का-
रितः, अपरमात्रा च मिथ्यात्ववासितया जिनधमंप्रत्यनी-
कया लक्ष्मीनाम्न्या ब्रह्मरथः कारितो, भरितश्च पद्मो-
अरे नाम राजा, यथा एप ब्रह्मरथः प्रथमे नगरमध्ये प-
रिगश्रमतु, जिनरथः पश्चात्परिश्रमतु, इदं च श्रुत्वा ज्वालादे-
ब्या प्रतिज्ञा कृता । यदि जिनरथः प्रथमं न स्मिष्यति
तदा परजन्मनि ममादारः । ततो राज्ञा द्वावपि रथौ निरुद्धो,
महापद्मन स्वजनन्याः परमामधरति दषा नगरान्निर्गतः
कनापि न ज्ञातः, परदेशे गच्छन् महाटब्यां प्रविष्रः । त्र
च प्ररिश्रमन् तापसाऽऽलय गतः, तापसेदंत्तसन्मानस्तत
तिष्ठति । इतश्चम्पायां नग्य्यो जनमेजयो राजा परिवसति ।
स च कालनरेन्द्रण प्रतिरुद्धः, ततो महान् सप्रामो वभूव
जनमेजयो नष्टः । तस्यान्तःपुरमपीतस्ततो नष्टम् , जनमेजय-
स्य राज्ञो नागवतीनाम भायी, सा मदनावलीप॒त्र्या समं
नष आगता तं तापसाश्रमम् । समाश्वासिता कुलपतिना
तत्रैव स्थिता, कुमारमदनावल्योः परस्परमनुरागो जात
कुलपतिना तन्मात्रा च तयोः परस्परमनुरागो ज्ञातः । कु-
लपतिना नागवत्या माजा च भरिता मदनावली, यथा
पुत्रि! त्वे कि न स्मरसि नैमित्तिकवचनम् ? यथा चक्र-
वर्धसिनस्त्वं प्रथमपत्नी भविष्यसि, ततः कथं यत्र तता-
सुरागं करोषि, कुलपतिना ऽपि कुमारस्य विसजनाथमुक्कम ,
कुमार ! त्वमितो गच्छ, तदानी त्वरितमेव ततो निरतः कु-
मारः, एवं मनारथं चकार । यथाऽहमेतस्याः सङ्गमेन भ-
रताधिपो भृत्वा प्रामाकरनगरादिषु सर्वत्र जिनभवनानि |
कारयिष्यामीति श्रमन् कृमाराऽथ पराप्तः सन्घुनन्द्न ना-
मनगरम् । तत्रोद्यानिकामहो त्सवे नगराज्निर्गता नरा नार्यश्च
विविधक्रीडाभिः क्रीडन्ति श्रस्मिन्नवसरे राज्ञः पट्हस्ती |
आलानस्तस्भमुन्मूल्य गृददटरभित्तिभङ्ग कुवन् नगराद्वहि-
युबतीजनमध्ये
यवती जनमध्ये समायातः । ताश्च तं तथाविधे द्रा
दूरतः प्रधावितुमसमथाः तव्रेव स्थिताः । यावदसौ ता-
*
यदि युयं |
सासु परि शुरड़ापातं करोति तावता दूरदशस्थितेन महाप-
देन करुणापृरोहदेयन हक्कितो ऽसो करी, सोऽपि वेगेन च-
लितः कुमाराभिमृखम् , तदानीं ताः सवौ अपि भणन्ति । हा-
हा 5स्मद्रक्षणार्थ प्रचृत्तो ऽयं करिणा हि स्यत,एव तासु प्रलप-
न्तीषु पश्यन्तीषु च तण: करिकुमारयाधारः सेघ्रामो वभूव ।
सर्वेऽपि नागरजनास्तघ्रा$ऽयाताः। सामन्तभत्यसाहदितो मह-
सनराजो ऽपि तत्राऽऽयातः। भणिते च नरेन्द्रेण.कुमार ! अनेन
समे संग्राम मा कुरु.ङतान्त व रुषटाऽसो तव विनाशं करि-
ष्यतीति । महापद्म उवाच । राजन् ! विश्वस्तो भव, पश्य मम
कलामित्युक्त्वा क्षणन तं मत्तकारिणं खकलया वशीरृत-
वान् आरूदश्चव ते मत्तगजे महापद्मः,खस्थाने नीतवान् , सा-
धुकारेण तं लोको पूजितवान् । यथा एष कोऽपि महापुरुषः
प्रधानकुलसमुद्ध वोऽस्ति , अन्यथा कथमीदृशं रूपविज्ञान
चास्य भवति । ततो राज्ञा खगे नीत्वा कुमारस्य विविघो-
पचारकर णपूर्वक कन्याशतं दत्तम् ,तेन समं विषयसुखमनुभ-
वतस्तस्य महापद्मकुमारस्य दिवसास्तत्र सखन यान्ति। तथा-
5पि सता मदनावलि हदयान्न विस्मारयति। अन्यदा रजन्यां
शय्यातो ऽसो वेगवत्या विद्याधय्या : पढ्तः, निद्रा्तये सा तेन
दृष्टा, मशि शयित्वा सा कुमारेण भरिता, कि त्वमेवं माम-
पहरसि ? तया भरितं कुमार ! शणु वैतादथे सुरोदयनाम
नगरमस्ति । तच्रन्द्रधनुनोम विद्याधराधिपतिरास्ति , तस्य
भायौ श्रीकान्ता वत्तेते, तस्याः पुत्री जयचन्द्रानास्नी वत्तंते।
सा च पुरुषद्वेषिणी नेच्छति कथमपि वरम् । ततो नरपत्या-
ज्ञया मया सबैत्र बरनरन्द्रा विलोक्य २ पट्टिकायां लि-
खिताः, सर्वेऽपि तस्या दर्शिता कोऽपि रुचितः | अन्यदा
मया तस्यास्तव रूपं दर्शितम्, तदशैनानन्तरमव सा कामाव-
. स्थया गृहीता, भणितं च तया, यद्येष भत्ता न भविष्यति
तदाऽवश्य मया मर्तव्यम् । श्नन्यपुरुषस्य मम यावजीवं निवु-
त्तिरेव,पष तस्या व्यतिकरा मया तन्मातृपिवोर्ञापितः। ताभ्यां
त्वदानयनाय अहं प्रयुक्का, अरविश्वसन्त्यास्तस्या विश्वासाथ
मया इयं प्रतिज्ञा कृता,ययहं तं त्वरित नाऽऽनयामि तदा ज्वाः-
लाकुले ज्वलने प्रविशामि । ततः कुमार ! यदि तब प्रसादेन
मम मरण न सम्पद्यत, यथा च मे प्रतिज्ञानिवाहो भवति
तथा प्रसाद् कुरु । ततस्तदाज्ञया नया महापद्मः सूयादय
तत्र नीतः, खचरधिपतिर्भिलितः। तेन च सुमहत तस्याः पा-
णिग्रहणं कारितः, पूजिता च वेगवति । इतश्च जयचन्द्राया
मातुलश्रातरौ गङ्गाधरमदहीधरनामानौ विद्याधरावतिप्रच-
रडौ इमे व्यतिकर ज्ञात्वा. ्रनेकभटसदितौ मदापद्यन सम
से्रामाथमागतो । महापश्चाऽपि तयोरागमनं श्रुत्वा सूरोद-
यपुराद्वहिर्विद्याधरभटपरिवुतो निगेतः, सलस्रस्तयोः सं-
ग्रामः, तदानीं महापद्मन स्यन्दना; कुञ्जरा अश्वाः खुभटाः
परबलसत्काः सवं ऽपि वाशेर्विद्धाः । भन्ने स्वे वलं दष्टा
गह्गलाधरमही घरों स्वयमुत्थितौ, मदापद्रन उभावपि हतौ ।
ततो लन्धजयः स महापद्मः उत्पन्नस्प्री रत्नवजेंसब रत्नः पाप्त-
नवनिधिद्धीत्रिशत्सदस्रमरुडलेश्वरसरवितपादपद्मः परिणीते
कोनचतुःषष्टिसदस्रान्तःपुरो दयगजरथपदातिकोशसप-
श्लो ऽ्रमश्चक्रवत्तीं जातस्तथापि षदखण्डभरतराज्य स मद्-
नावल्या रितं नीरसं मन्यते । अन्यदा तस्मिन्नाश्रमपदे गत-
स्य तस्य महापद्मचक्रिणः तापसेमदीन् सत्कारः कृतः ,
जनमेजयेनापि राज्ञा मदनावली तस्मै दत्ता, तेन षरिणीता
ष पप अअ
ले.
_महापउम
अभिधानराजेन्द्रः।
महापउठम
सत्रीरल वभूव । ततो महापद्मश्चक्रवर्ति्छद्धिसमेतो दस्तिना- |
गपुरे प्राप्तः, प्रणनाम च जननी जनकपादान् , ताभ्यामप्यधिक-
स्नेहेन प्रेज्षितः । अत्रान्तरे तत्रेव समवस्तो मुनिखुवतस्वा-
मिशिष्यो नागसूरिः,ततो निगैतः सपरिवारः पद्मात्तरराजः,
तं वन्दित्वा पुरो निषरणः, गुरुणा च तत्पुरों भवनिर्वेदज- |
ननी देशना ता, तां श्रुत्वा वैराग्यमापन्नो राजा गुरं प्रत्येच-
मुवाच । भगवन्नह राज्य खस्थे रत्वा भवद् न्तिके प्रत्नजिष्या-
मि । गुरुणा भाणितम् ,मा विलम्बं कुर्विति | गुर परणम्य नगरे |
भविष्टो राजा , श्राकारिता मन्तिणः प्रधानपरिजना विष्णु-
कुमारञ्च | सर्वषामपि राज्ञा एवमुक्रम्। मा भो ! श्र ता भवद्धि
ससारासारता अहमतावत्कालं वञ्चितः, यच्छामण्यं नाचष्ट
तवान् । ततः साम्प्रतं विष्णुकुमारं निजराज्य ऽभिषिच्य प्रन
ज्यां गृह्णामि । ततो विष्णुकुमारेण विज्ञप्तम् , तात ! ममापि
किपाकोपमेभागेः, खतम् , तव मार्भमेवानुसरिष्यामि । ततो
विष्णुकुमारस्य दीत्तानिश्चयं ज्ञात्वा पद्योत्तरराजन महापद्म
श्राकारितो भणितश्च, पुत्र ! ममेदं राज्यं प्रतिपद्यस्व, विष्णु-
कुमारोहं च प्रबज्यां प्रतिपद्यावः। अथ विनीतेन महापदेन च
भणितम् , तात ! निजराज्याभिषेकं विष्णुकुमारस्यैव कुरु,अहं
पुनरेतस्येवाज्ञापरतीच्छुको भविष्यामि । राज्ञा भणितम् , वत्स !
मयोक्ता ऽप्ययं राज्यं न प्रतिपद्यत । श्रवश्यमयं मया समं षव-
जिष्यति। तत॑ः शोभनदिवसे महापद्मस्य कृतो राज्याभिषेकः।
विष्णुकुमारस्ितः पद्मो त्तरराजः सुब॒तसूरिसमीपे प्राजितः
ततो महापद्मो विख्यातशासनश्चक्रवत्तं जातः । स्वमात्-
परमाठकारितों तौ द्वावपि रथौ तथेव स्तः । महापद्मचाकणा
तु जननीसत्को जिनरथा नगसीमध्ये श्रामितः,जिनप्रवचनस्य
कृता उन्नतिः । तत्प्भ्रति वहलोको धर्मोद्यमममतिर्जिनशासन |
प्रतिपन्नः, तन महापद्मचक्रिणा सर्वस्मिन्नपि भरतक्ततर ग्रा-
माकरनगरोद्यानादिषु कारितानि जिनायतनान्येककोटिल-
क्षप्रमाणानि | पद्रोत्तरमुनिरपि पालितनिष्कलङ्कश्रामरयः शु
डाध्यवसायन कम्मजाले क्षपयित्वा समुत्पन्नकवलज्ञानः
सप्राघ्षः सिद्धिमिति । विष्णुकुमारमुनेरपि उभ्रतपाविहार-
निरतस्य वद्धेमानज्ञानदशनचारित्रपरिणामस्य आकाशगम-
नादिवेक्रियलब्धय उत्पन्नाः । स॒ कदाचिन्मख्वत्तङ्गदेटो
रागन बजति , कदाचिन्मदनवद् रूपवान् मवति । एवं |
नानाविधलब्धिपाजः स संजातः। इतश्च त सुबताचायौः बहु-
शिष्यपरित्रुता वपारा्रस्थित्यथ दस्तिनागपुरोद्याने समा-
याताः, ज्ञाताञ्च तन विरुद्धन नमुचिना, श्रवसरं ज्ञात्वा तेन
राज्ञ विज्ञप्तम् , यथा पूर्वप्रतिपन्न मम वरं देहे । चक्रिणा
उक्नम् , यष्ट मार्मय। नमुचिना भणितम् , राजन् ! अहं वेद-
भरितेन विधिना यज्ञ कर्तुमिच्छामि, अतो राज्यं मे ददि ।
चक्रिणा नमुचिः स्वराज्यऽभिपिक्कः, स्वयमन्तःपरे प्रविश्य
स्थितः। नमुचि्यज्ञपा(बा)रकमागम्य यागनिमित्त दीत्तितो
वभूव । राज्येऽभिपिक्कस्य तस्य वद्धीपनार्थं जेनयतीन् व्ज-
यित्वा सवेंऽपि लिङ्गिनो लाकाञ्च समायाताः । नमुचिना
सर्यलोकसमक्तमुक्रम् , सर्वे ऽपि लोका मम वद्धोपनाथ समा |
याताः, जेनयतयः केऽपि ना+ऽयाताः, एवं दलं प्रकाश्य स-
बताचार्या आकारिताः, आगताः, नमुचिना भणिताः । भो
जनाचायाः ! यो यदा ब्राह्मणो वा ज्षत्रियो वा राज्यं भ्रा- |
प्नोति स तदा पाषण्डकेरागत्य रृष्ठव्यः, इयं लोकस्थि-
तिः, यतो राजराक्षितानि तपोधनानि भवन्ति । युयं पुनः |
स्तब्धाः सवं पाखराडदृषकाः निर्मयादा मां निन्दथ । आअ-
तो मदीय राज्यं मुक्त्वाऽन्यत्र यथासुख बजत । यो युष्मा-
कं मध्ये कोऽपि नगरे रमन् द्रच्यत स मे वध्यो भवि-
प्यति । खुवताचार्यैरुक्रम् , राजन्नस्माकं राजवद्धापनाचारो
नास्ति, तन वय त्वद्धद्धोपनक्ृते ना $ऽयाताः । न च वये क-
चिन्निन्दामः, कि तु समभावास्तिष्ठामः ततः स रुष्टः प्र-
तिभणति, यदि श्रमरा सक्तदिनोपरि अहं द्रच्य तमह
मवश्यं मारयिष्यामि, नजर सन्देहः । एतन्नमुचिवाक्षयं श्रु-
त्वा आचायाः स्वस्थानमायाताः सवेंऽपि साधवः पृष्टः,
किमत्र कत्तेव्यम् । ततः एकन साधुना भरित, यथा सदा
सेविततपोविशेषा विष्णुकुमारनामा मदामुनिः साम्प्रतं
मेरुपव्वैतचूलास्थो वत्तेत, स च॒ महापद्मचक्रिणो भ्राता-
ऽस्ति, ततस्तद्धचनादयमुपशमिष्यति, आचार्यरुक्त॑ तदा-
कारणाथ यो विद्यालब्धिसम्पन्नः स तत्र बजतु । तत ए-
केन साधुना उक्कम् , अहं मेख्चूलां यावद्वगने गन्तुं श-
क्वो ऽस्मि, पुनः प्रत्यागन्तुं न शक्ताऽस्मि । गुरुणा भणि-
तम्-विष्युकुमार एव त्वामिहानेष्यति, तथेति प्रति-
पद्य स मुनिराकाशे उत्पतितः । क्षणमात्रेण मेरुचूलायां
प्राप्त, तमायान्तं दृष्ट्रा विष्णुकुमारेण चिन्तितम् , किश्वि-
द् गुरुकं सङ्घकारयं समुत्पन्नम् , यदयं मुनिवेषोकालमध्ये5त्रा-
यातः । ततः स मुनिर्विष्णुकुमारं प्रणम्य आगमनप्रयो-
जनं कथितवान् , विष्णुकुमारस्तं मुनि ग्रहीत्वा स्ताक-
वेलया आकाशमार्गेण गजपुरे प्राप्तः । वन्दितास्तन गुरवः,
गुवीज्ञया साधुसदितो विष्णुकुमारमुनिरनमुचिपषदि गतः
सवैः सामन्तादभिवन्दितः, नमुचिस्तु तथेव सिंहासने त-
स्थिवान्, न मनाक् विनयं चकार । विष्णुना धर्मकथनपूर्व
नमुचरेवं भणितम् , वर्षाकालं यावन्मुनयो ऽत तिष्ठन्ति । न-
मुचिना भरितम्, किमत्र पुनः पुनवैचनध्रयासन, पञ्च दिव-
सान् यावन्मुनयो ऽत तिष्ठन्तु । विष्णुना भणितं तव उ-
द्याने भुनयास्तष्ठन्तु । ततः सजातामपंण नमुचिना एवं
भरितम्, सवैः पाषएडाधमेभंवद्धिने मद्राज्ये स्थेयम्,मद्राज्यं
` त्वरितं त्यजत, यदि जीवितेन कायम् । ततः समुत्पन्नकोपा-
नलन विष्णुना भाणितम्, तथापि याणां पादानां स्थानं दे-
हि । ततो भणितं नसुचिना, दत्त च्रिपदीस्थान परं ये त्रे
पद्या बहिद्रेक््यामि तस्य शिरश्छेद करिष्यामि । ततः ख
विष्णुकुमारः कृतनानाविधरूपो बृद्धि गच्छन् कमेण यो-
जनलत्तप्रमाणरूपो जातः । क्रमाभ्यां ददैरं कुव्यन् ग्रामाक-
रनगरसागराकौीणा भूमिमाकम्पयन् शिखरिणां शिखराणि
पातयाते स्म । त्रिभुवने क्षोम कुर्व्वन् स मुनिः शक्रेण
ज्ञात: | तस्य कोपोपशान्तये शक्रेण गायनदेव्यः ब्रेषिताः ।
ताद्व गायन्ति स्म--'"सपरसतावश्यो, धम्मवणदावओ
दुग्गइगमणहेऊ । कोवो ताश्रोवसमे, करेसु भयवं ति” ए-
वमादीनि गीतानि ता वारं वारं श्रावयन्तिस्म। स मुनि-
नमुचि सिदासनात्पातितवान् , दत्तपूर्वापरसमद्रपाद
स सवजनं भापयति स्म । ज्ञातवृत्तान्तो महापद्मश्चक्री तत्रा-
१अयातः, तन समस्तस ङ्घन सुरासुरेश्च शान्तिनिमित्त वि-
वधोपचारेः स उपशामितः । तत्प्रभ्नत विष्णुकुमारखिवि-
क्रम दंत ख्यातः । उपशान्तकोपः स मुनिरालोचितः प्रति-
क्रान्तः शुद्धश्च । यत उक्तम्-
“ श्रायरिप गच्छमि, कुलगणसंघे र चेइअविणासे ।
( २०७ )
महापडम न
श्रालोयपांडकन्तो, खुद्धा ज निजलरा विउला ॥ १॥ "`
निष्कलङ्क
ष्णुकमारः सिद्धि गतः । महापद्मचक्रवस्यपि कमेण दीत्तां
ग्रहीत्वा सुरातिभागभूद् इति महापग्मदष्टान्तः । उत्त० १८
० । ती० । ति० । श्रेशिकपुजसुकालस्यात्मजे , नि० ।
एवं सखुकालसत्कमहापद्मदेव्याः पुत्रस्य महापद्मस्यापी-
यमेव वक्कब्यता । भगवत्समीपे गृहीतत्रतः पञ्चवर्ष
जतपयांयपालनपरः पकादशाङ्गधारी
चहु तपःकम्म कृत्वा ईशानकर्पे देव
समत्पन्ना
द्विसागरोपमास्थितिकः । सोऽपि ततश्च्युतो महाविदेदे स- |
| महापम्ह--महापक्ष्म-पुं०। जम्बृद्धीपमन्द्रस्य पिमे शी-
त्स्याते ॥ न १९ श्रु° १ वगे २ अ० । विन्ध्यागार-
पादमूले पुरडेषु जनपदषु शतद्वारे नगरे खमते राज्ञा भ-
द्रायां भायोयासुत्पत्स्यमान गोशालकजीवे, भ० १४ श० ६
उ० | ( ` गासालग
कथा गता ) सक्तमदवलाकविमानभदे, नपुं० । स० ६७ सम० ।
महाहिमवदुपरि हृदे, स० ।
महापउममहापुडरीयदहाणं दो दो जोयणसहस्साईं आ-
यामेशं पष्पत्ता । ( सूते ११५ )
महापग्ममहापुरडरीकहदों महाहिमवद्राक्मिवर्षधरयोरुप-
रिवत्तिनो हीवुद्धिदेव्यानिंवासभूताविति । स० ११५
सम० । स्था० । पाटलिपुत्रनगरराजे नवमनन्दे , आण्चू०
अ०। शिखरितलक्टविशेषाधिपतों देवे, द्वी०। शक्रत्रयाखि- |
शोत्पातपर्वतराजधान्याम् , द्वी० । चतुरशीतिलक्षगाणितेषु |
मदापद्याङ्गषु, ज्यो० २ पाहु० । (काल' शब्दे स्फुटितमेतत् )
महापउमदह- महापद्महद - पुं । स्वनामख्याते हदे, स्था० ।
दो महापउमदृह । ( स्था० २ ठा० ३ उ०।)
दो महापउमदहवासिणीश्रो हिरीओ देवीओ । स्था० २
ठा० ३ उ०
( द्वो चया षट् वा महाहदा इति “ दह ' शब्दे चतुथभाग
२४८६ पृष गतम् )
महापउमरुक्ख-महापत्मवृक्ष-पु० धातकीखणडोत्तरकुरुम-
ध्यगे धातकीखर्डनामनिवन्धन शाश्वतदुृक्ते, स्था० १० ठा०। |
पुष्करवरद्वीपात्पश्चिम मरुपर्वतादुत्तरदक्तिणयोरपान्तराल- |
चृक्तविशषे, | स्था० २ ठा० ३े उ०।
महापउमा-महापत्मा-ख््री० श्रणिकपत्रखुकालस्य भायी-
याम् , नि० १ श्रु० १ वर्ग १ आअ०।
महापचक्खाण महाप्रत्याख्यान-न० । महच्च तत्प्रत्या-
ख्याने चति समासः । चरमप्रत्याख्याने, तद्ररनपरे उत्का-
लिकश्ुतविशष च । पा० । “एसत्थ भावत्थो थरक्ष्पण जिण-
कप्पण वा विहरित्ता श्रते थरकण्पिया वारसवासे सं-
लेदणं करेत्ता, जिणकाप्पिया पुण विहारणेव सलीढा, तदा
वि जहाजुत्त सलं करेत्ता, निव्वाघायं सचेट्ठा चव
भवचरिमे पच्चक्खति, एयं सवित्थरं जत्थ5ज्कयण व-
न्नजईइ तम्रज्भयरं मदटाप्रत्याख्यानामात | पा० । न०।
महापजवसाण-महापयंवसान- न०। महत्पशस्तमाव्यन्तिकं वा |
पयैवसानं पयैवसमाधिमरणान्तः,अ्रपुनर्मरणान्तो वा जीवित
स्य यस्य स तथा | तदभ्वसिद्धि गामिनि, स्था०२ ठा० 3 उ७! |
` ¡[न - ---~ = झःः&ःःःःः का
चतुथषष्ठाएमादि |
` शब्दे तृतीयभागे १०३१ पृष्ठादारभ्य |
_ _ आआभधानराजन्द्रः |
श्रामएयमनुपाल्य समुत्पन्नकेबलः स॒ वि- |
महापात्रि
महापाडिपा-महाप्रतिज्ञा-खी० । ग़ुरुप्रतिशायाम् । पश्चा०
१६ विच० ।
महापष्य-महा प्रज्ञ-त्रि० । महती प्रज्ञाऽस्येति महाप्रज्ञः ।
उत्त० ३ आ० । सम्यग्दशीनज्ञानवति, सूत्र० १ श्रु० ४
आ० २ उ० । विपुलवुद्धो, सूज ० १ श्रु ° ११ आ० ।
मह पष्पवणा महा प्रज्ञापना-खा० । महत्तरे पज्ञापनाग्रन्थे,
न० । पा०।
महापत्थाण- महाप्रस्थान-न० । मरणकालभाविनि, नि० १
श्रु० ३ वग ३ अ०। `
तोदाया महानद्या दक्षिण महापुरीराजधानीभूषितविजये
क्षेत्र, स्था० ८ ठा०।
दा महापम्हा। स्था० २ ठा०।
महापरिग्गह-महापरिग्रह-पुँ० । धनधान्यद्धिपदचतुष्पदव-
स्तुक्तेत्रादिपरिग्रहवति, । सूत्र० २ श्रु० १५४ आ० ।
महापरिग्गहया-महापरिग्रहता-खो० । अपरिमाणपरियग्रह-
तायाम् , भ० ८ श० ६ उ०।
महापरिप्पा-महापरिज्ञा-खी० । महती परिज्ञा अन्तक्तिया-
लक्षणा सम्यग्विधेयाति महापरिज्ञा । स्था०६ ठा०।
आचाराज्ञप्रथमश्रुतस्कन्धस्य सप्तमेऽध्ययने , त्चदानीं
व्यवच्छिन्नम् । । आचा० १ श्रु° ८ अ० १ उ० । प्रश्च० । श्राव०।
“ जणुद्धारेश्रा विज्ञा, आगासगमा महापरिन्नाओ ।
वदामि अज्वदरं, अपच्चिमो जो सुअहराणं॥ १॥ ”
आण क० १ अ० | आ० म० | स०।
| महापवेसणतर-महाप्रवेशनतर-पुं० । महत्प्रवेशनं गत्यन्त-
रान्नरकगतो जीवानां प्रवेशो येषु ते तथा । यत्र वहवो नैर-
यिका आगत्य प्रविशन्ति तेषु नरकेषु, भ० १३ श० ४ उ०।
महापव्वय-महापर्वत-पुं° । हिमवदादिषु वर्षधरपर्वतेषु,
श्रोघ० ।
महापसु-महापशु-पुं० । महापश॒पुरुष प्रज्ञा० २ पद । व्य०।
महापह-महापथ-पुं० । विस्तीर्णतया प्राधान्येन महांश्चासौ
पन्थाश्च महापथः । राजमार्गे, उत्त० ५ अ० । अनु० । ज्ञा० ।
जी० | आ० म०। दशा०। भ० । कटप० । श्रौ ० | रा० । प्रश्न०।
महापाडिहारिय--महाग्रातिहाय--न० | जिनानामशोकबृक्षादि-
षु प्रातिहार्यषु, ने०।
महाऽपाय-महाऽपाय-त्रि० | महानपायो यस्याः सकाशात्सा
तथा । महतोऽपायस्य हेतौ, पो० १४ विव०।
महापायाल- महापाताल-पुं° । महान्तस्तदन्यचज्ञकव्यव-
च्छेदेन पातालमिवागाधात्वाद् गम्भीरत्वात्पातालाः पाताल-
व्यवस्थितत्वाद् वा पातालाः, महान्तश्च ते पातालाश्चति म-
हापातालाः । लवणसमुद्रमध्यस्थितघु बडवामुखादिषु जल-
वाय्वाधारषु, स्था० ४ ठा० २ उ०। ( लवणसमुद् ` शब्दे
चेत व्याख्यास्यन्ते )
महापालि पहापााल्ति-खी० । पालिरिव पालिर्जीवितजलधा-
( २०८ )
महापालि
अभिधानराजेन्द्र: ।
महामणिपेद
रणाद् भवस्थितिः, महती चासो पालिश्वेति | सागरोपमल- |
क्षणायां भवस्थितौ, तस्या एव महर्याद् । उत्त १८ अ०।
महापिंगायतण-महापिङ्गायतन- पु । महापङ्गा ऽऽ स्यघ्यप-
त्ये, चे० प्र० १० पाहु० ।
महापिउ-महा पितृ -७० | पितुर्ज्यप्टश्रातरि,विपा० श्श्रु०रेआअ०।
महापीद-महापीट--पुं० । पूर्वेविदेहपुष्कलावतीविजयपुराडरी -
किणीनगसीजा ते ऋषभदेवपूर्वभवर्जीववज्ञ नाभस्य भ्रातरि
आए चू० १ अ० | आ०्म० । पश्चा०। आ० क० । ऋषभपूत्रे
^ सुबाह य महापीढों पच्चायाता!" आ० चू० १ अ०।
महापुंडरीय-महापुण्डरीक पुं० । रुक्मिवर्षधरपर्वतोपरिस्थे
बुद्धिदेव्यावासहदे, स्था० २ ठा० ३ उ०। स० | औं० । जी०
कालादसमुद्रदेवे,स्था० १० ठा० । विशाल भ्वताम्बुज,नपुं० ।
रा० । ज० । सत्तमदेवलाकविमानभेदे, स० १७ सम० ।
महापुर महापुर-न । स्वनामख्याते नगर, विपा०२श्रु०७अ०।
महापुरा महापुरा- खी° . । महापद्मविजयक्त्रराजधान्याम् ,
महापद्मो विजयो महापुरी राजपृयदमावतीवन्तस्कार
हापरं णयरं रत्तासोाग रत्तपालो जक्खो वले राया | ¢ मितापिे खन्तायोपेते
हापुरं णयरं रत्तासागे उजं | महाभिताव-महाभिताप-पु° । महामितापिते र
सुभदा देवी महावले कुमारे रत्तवती पामोक्खा शे पंच स-
या” विपा० २ श्रु° ७ अ० । धातकीखणडान्तर्गते विजयक्षेत्र
जातायां नगयौम् , स्था०।
दो महापुरा । स्था० २ ठा० ३उ०।
महापुरिस -महापुरुष- १० । प्रधानपुरुष,आसितद्वैपायनपारा-
शरादिमदर्पिषु , वल्कलचीर-तारागणर्षिग्रभ्रृतो । ( प्षां
महा परुषत्वेन वरन भारताद्विषु ) सूत्र० १ श्रु० ३े अ० ४
उ० । जात्यायुत्तमे, परश्च° ४ सव० द्वार । महापुरुषा बलदे-
वतीधकरादयः । पे० व० ३ द्वार | ओत्तराहाणां किपुरु-
घाणामिन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० । प्रज्ञा० । भ० |
महापुरिसचरित्त-महापुरुषचरित्र -न० । स्वनामख्याते ती-
थकरचरितनिवद्ध ग्रन्थे, सेघा० १ अधि० | प्रश्न० ।
महापुरिससेविय- महापुरुषसेबित- त्रि । तीथकरादिसेविते,
पे०स्० २ सूत्र ।
महापुरिसाणुचित्म-महापुरुषानुचीर्ण -जि०। महापुरुषेस्ती थे
करगणध्रादिभिरुत्तमनरेरनुचीरीमेकदाऽऽसेवनात्पश्चादप्या-
सवितं महापुरुषानुचीरम् । तीथकरादिभिराचरिते, पा० ।
सत्र० ।
महापोय-महापोत-पुं० । महावोहित्थे, आव० ४ आअ० ।
महाफलिह-महास्फटिक-न० । शिखरिपर्वतस्थ उत्तरकू-
टानामुत्तरदिशि कृटे, द्वी० ।
महाबल-महाबल-पु० । महद्व ले शरीरप्राणो यस्य स महाव-
लः । जी०३ प्राति० २ अधि०२ उ०। स्ृ० प्र०। प्राणवति, स्था०
(- डा? । त्राव | ०. 4 । प्रशस्तबले, स० । प्रवते भवि-
घ्याति अयोदश तीथकरे, ति० | ज० । स० । आब०। ती० |
भारतवर्ष भविष्यति तृतीये बलदेवे, स०। कटप० ।
महाबाद- महाबा ए०। भारतवर्षे भविष्यति द्वितीयवल-
देवे, स० । ती० । श्रोत्रेन्द्रियलम्पटस्य ब्रह्मस्थलपर स्थ-
रामस्य राज्ञा लघुभ्रातरि , ग० २ अधि० | “ महाबाहू नाम |
वासुदेवो पुच्छइ ” अपरविदेहवासुदेव,झआव० ४ अ०। आ०
चू० ॥ कटप० ।
। महाभदा-महाभद्रा-खी° । श्रहोरात्रकायोत्सशरूपायामहो-
रात्रचतुश्यमानायां प्रतिमायाम् , स्था०२ ठा० ३ ड०। क-
ल्प० | औ० । आ० म० । स्था०। ( श्रस्या व्याख्या ` पडिमा `
शब्दे पञ्चमभागे ३३२ पृष्ठे गता ) भूतद्वीपदेवे, पुं० । सू० प्र०
१६ पाहु० । स०।
महाभवोघ- गौध- पुं । चतुगतिके संसारसागरे
महाभवाघ-महाभवाघ- पु तुगातक ससारसागर, सूत्र°
१ श्रु० ६ आ०।
| महाभाग-महाभाग- प° । महांश्चासौ भागश्च महाभागः ।
भागशव्वः पूजावचनम् । महापूज्ये, सूत्र° १ श्रु० ८ अ०।
उत्त० । पञ्चा० । | आ० म०। ग० । भागोऽचिन्लया शक्किराह
च भाष्यरूद्-“ भागोऽचिन्त्या शक्किरिति ” महान् भागो ऽ-
स्य महाभागः । अचिन्त्यशक्षियुक्केजि० । आ० म० । महान्त
भजतीति महाभागः । जिनाराधके, आ० चू० १ अ०।
| महाभागा-महाभागा-खी० । रक्तावतीनदीसङ्गत नदीभेदे,
स्था० १० ठा० |
सूत्र० १ श्रु० ५ अ० १ उ०। महादुःखेककारये,खूत्र० १ श्रु० ५
० २ उ०।
महामभिसेय-महाभिषेक-पु० । ईश्वरतलवरादीनामभिषेकाणां
महत्तरोउभिषेको महाभिषेकः । राजत्वेनामिषिक्के, नि० चू०
६ उ०।
महाभीम-महा भीम-त्रि० | अतिभयानके, दशै° ४ तत्त्व । आ-
व० । ओत्तराहाणां देवानामिन्द्रे,स्था० २ ठा० ३ उ०। प्रज्ञा०।
भ० । अष्टमप्रतिवासुदेवे, स० । ति०।
महाभीमसेण-महामीमसेन-पुं० । जम्बूद्वीपभरतखणडे5ती ता-
यामुत्सार्पिएयां जाते सप्तम कुलकरे, स्था० १० ठा०।
महाभ्रुज-महा भ्रुज-पुं० । शिखरतलकूटविशषाधिपतौ पल्यो-
पमास्थतिकं देवविशेषे, द्वी० ।
महाभूयवर-महाभूतवर-पुँ० । भूतवरसमुद्रदेवे, खृ० प्र० १६
पाहु०।
महाभरव-महाभैरव-न० । मध्यमपापासमीपे उद्याने, आ०
म० १ अ० |
महाभेरी-महाभेरी-ख्त्री० । बृहत्प्रमाणायां भेर्याम् , , अनु० ।
महामइगढिय-महामतिग्र/थित-त्रि० । महावुद्धिपुरुषरचित-
सन्दर्भे, पो० ६ विव० ।
महामंडलिय-महामाणडलिक- पु । अनेकदेशाधिपतो देवे,
अनु० । जी० । प्रज्ञा० ।
महामंति-महामन्त्रिन्- पुं° । मन्तरिमरडलग्रधाने, ज्ञा० १ श्रु०
१ श्र०। भ० । श्रो० । विशषाधिकारवाति, कल्प० १ अधि०
३ क्षण । रा०।
महामगर _महामकर- प° । जलचर जीवभेदे, कल्प० १ श्रधि०
३ क्षण ।
महाम शिपेढ महाम शिपीठ-पुँ०? । बृहति वस्यथथ पीठे,जी० ३
प्रति० ४ अधि० ।
( २०६ )
_महामरुता
. अभिधानराजन्द्रः |
__ मसहालक्खो
महामरुता-महामरुता-खी° । अ्रणिकस्य स्वनामख्यातायां भहामोह-महामोह-पुं० | महाँश्वासो माहश्च महामोहः । मि-
भायायाम् , अन्त० १ श्रु० ७ वर्ग । (सा च बीरान्तिक प्रवज्य ध्यात्वे, दशे १ तस्व । भषशत दुःखचदनोये कर्मणि, दशा०
विंशातिवर्षपर्याया सिद्धा इत्यन्तरुदशानां सप्तमवर्गे सप्तमा-
ध्ययन साचतम् )
महामह-महामह-पुं० । इन्द्रमहादिषु, श्राष९ ।
के य ते पुण महामहा ? उच्यन्ते--
सादी इद महो, कत्तिअ सुगिम्हए अ बोद्धव्वे ।
एए महामहा खलु, एएसि चेव पाडिवया ॥ १३३८॥
६ श्र० । श्राचा० | रा०। ( महामोहकारणानि ` मादणिज-
दण, शब्दे वक्ष्यामि ) योगिपरिभाषया राग, स्था०२ ठा०
१ उ०।
महायत्तो-देशी-श्राच, दे” ना० ६ बर्ग ११६ गाधा ।
| महायारकहा-महाचारकथा-खी० । महत्या ्राचारकथायाः
आसाढी--आसाढपुज्निमा , इह लाडाणं सावणपुन्नि- |
माए भवति, इंदमहो आसोयपुन्निमाए भवति, ` कत्तिय
त्ति ' कात्तियपन्निमाए चेव सुगिम्दओ चत्तपुक्निमा । आव०
४ ० । नि० चू० | आचा०।
महामहद्धारमाइ--
सकमहादीएसु व, पमत्तमाणं सुराछले ठवणा ।
पीणिज्तु व अददा, इतरे उ वहंति न पटं ति ॥४१२॥
महामहा:-शक्रमहादय:ः, आदिशब्दात्सुग्रीष्मकमहादिपरि-
ग्रहः, तेघु ( ठवण त्ति ) एता गाढ्योगप्रातिपन्नास्तेषां योगो |
†नत्तिप्यत, कि कारणमिति चत्? श्रत श्राह-मा ते प्रथमतः |
सन्ते काचित् मिथ्यादष्ट्देवता छृलयत् । श्रन्यञ्च-तेष दि- |
वेषु विक्ृतयो लभ्यन्ते, ततो ये अदृढा दुबैलाः सन्ति ते- |
विङूतिपरिभागत श्रप्यायन्तामिति योगनिक्ेपणम् | य पुन-
रितरे-श्रागादयोगवादिनः तषां योगा न निल्तिप्यते फेवल-
मन्यत् नो दिशान्त नापि पठन्ति | व्य० ४ उ०।
महामाउ-महामात्- खी० । पिठज्येष्ठभावजायायाम् , मातृ-
ज्यायां सपलन्याम् , विपा० १ श्रु० ३ आ० ।
महामाठटर- महामाटर- पु०। दंशानेन्दर स्य देवराजस्य रथा 5नी-
काधिपतों, स्था० ४ ठा० २ ड० ।
महामाहण-महामाहन-पुं० । महाँश्वासो माटनश्चेति। मनः-
परभ्रतिकरणादिभिराजन्मसृदमादिभेदभिन्नजीवदननानिदृत्ते,
उत्त० २ अ०।
महायुणि-महामरुनि- प° । मयुते मन्यते वा जगतसखिकालाव-
स्थामिति मुनिः, सर्वज्ञत्वात् । महांश्चासौ मुनिश्च महामुनिः । |
अथवा-मुनयः साधवस्तेषां महान् प्रधानो महामनिः । वि-
श० । महातपस्िनि,उत्त० २ श्र ० । सूत्र० । जिनकल्पिकादों,
सूत्र० ₹ श्रु ० २ श्र० २ उ० । प्रशस्तयतौ , उत्त० २ श्र०।
यथावस्थितात्रकालवेदिनि, सूत्र० १ श्रु० १६ श्र० | श्राचा०।
आए० मण रयत , षो० १ विव०। श्रा० चू० । दर्श० ।
परमानिग्रन्थ, अष्ट० ३१ शष्र० ।
|
|
प्रतिपादक दशवैकालि रस्याभ्ययने, दश० ।
जो पुच्ि उहिट्ठी, आयारो सो अहीणमइरित्तो ।
सच्चेव य होह कहा, आयारकहाए महईए ॥ २४५ ॥
यः पूर्व स्ुल्लकाचारकथायां निर्दिष्टः उक्तः, आचारः-झ्ाना-
चारादिः, असावहीनातिरिक्को वक्कव्यः। सेब च भवति कथा,
श्रात्तेपरयादिलक्षणा वक्तव्या | चशब्दात्तदेव कुल्लकप्रतिपत्ता-
क्तं महद् वक्तव्यम् , श्राचारकथायां महत्यां प्रस्तुतायामिति
गाथा्थः। दश० ५ अ० २ उ०।
महारंभ-महारम्भ- चि । महानारम्भो वहनोष्रमरडलि-
कागन्त्री प्रवादरङषिषरढपाषणादिको यस्य स महारम्भः ।
सूत्र० २ श्र० २ श्र० । महानिच्छापरिमाणेनारूतमयौद-
या बृहदारम्भः प्रृथिव्यायुपमदनलत्तणो यस्य स महारम्भः ।
चक्रवत्यादिके, स्था० ४ ठा० ४ उ०। परञ्चान्द्रयादिव्यपरा-
पणप्रधानकमकारिशि, स्था० ३ ठा० १ उ० । स्ूब० । दशा०।
महारंभया-महारम्भता- खी ° । चक्रवतित्वादौ, स्था० ४
ठा० ४ उ०।
महारण-महारण-न० । महासंग्रामे. स० ।
महारम्म-महारम्य-त्रि० श्रतिरमणीये, पश्चा० ८ विव० ।
महारयण-महारत्न-न० | प्रधानरल्ले, महारलं वज्ज ल०।आाव०।
महारह-महारथ- पुं । | प्रकरणादत्र नारायणः-तस्मिन् , सूत्र
१ श्रु० ३ अ० १ उ०।
महाराय-महाराज-पुं । लोकपाले,नि० १ श्रु० १ वग ७आ०।
आए० म० | स्था० | भ०।
महारायत्त-महाराजत्व-न० । लोकपालत्वे, स० ७८ सम० ।
महारिट्टू -महारिष्ट-पुं० । वले4रोचनेन्द्रस्य नास्यानीकाधि-
पतो, स्था० ७ ठा०।
महारिसि- महरि प° । सयताः्मनि,श्रा० म० १ अ० । सृत्र० ।
महामुशिचरित-महामुनिचरित-न° । मदान्तश्च ते मुनयश्च | महारिह-महाह-त्रि० । मद्दाहें, तं० । ज्ञा० । महमुत्सवमदती-
महामुनयः स्थूलभद्गवज्ञस्वाम्यादयः पृर्वषयस्तेषां चरिता-
नि-च्टेतानि । महामुनिचेशितिश्रु घ० ३ अधि० ।
महामेह-महामेघ-पु० । भ्रभूतजलक्षरके षदःमेधे, अनु०।
( पत * उस्सण्पिणी ` शब्दे द्वितीयभागे ११६६ पृष्ठ दर्शिताः )
महामेहणिउर्॑ब्रभूय महामेषनिकुरम्बभूत -पुं०। महान जल-
भारावनतः ध्रावृदकालभावी मेघनिकुरम्बो मेघसमूटस्तथा
भूतो येः प्राप्तो महामेधनिकुरम्बभूतः । मदामघदृन्दो प-
जे, जी० ३ प्रति० १ उ०।
औ>।
ति महार्हः । परमोत्सवारई , जी० ३ प्रति० ४ अधि० २ उ०।
विपा० । बहुमूल्ये, प्रश्न० ५ संव० द्वार ।
महारोरुय-महारोरुक-पुं? | सप्तमनरकपृथ्वीस्वरूपे महानरके,
स्था० ५ ठा० ३ उ० | जी० | ज्यो० । खूल० । प्रज्ञा० । स०।
महारा हिणी - महारो हिणी- सख'० । स्वनामख्यातायां महावि-
दयायाम् , , आ० चू० ४ श्र०।
महालक्खो-देशी- तरुणे, दे० ना० ६ वग ६२९ गाधा । भा-
द्र पदीयश्राद्ध पक्त, द° ना० ६ वर्म १२७ गाथा ।
षयि कक .........._.____े__/ह७..!छ.
(२१० )
क क अधील
महालच्छी -महालक्त्मी-स्त्री० | महाविष्णाभीयायां पालगो-
पालस्यापरमातरि, त०।
महालय-महालय-पुं० ¦ महान महतां वा आलय आश्रितः ।
अभिधानराजन्द्रः।
राजमार्ग, भावतस्तु मदद्धिस्तीधकरादिभिरप्याधचिते सम्य- |
ग्दशनादिमुक्लिमार्ग, उत्त० १० अ० | सूत्र०। स्था०। । आचा० |
क्षत्रस्थितिभ्यां महत्सु, प्रश्न० > आश्र० द्वार । स०। “ मा
कासि कम्माई मदालयाई ” उत्त० १३ अ० । सूत्र० । उत्स-
वाश्रयभते, स० ५३ सम० ।
महालयसव्वतोभदा-महालयसर्बतोभद्रा खी । स्वतोभद्र-
श्रतिमाभदे, श्रन्त० ।
महालयं सव्वतो मदं तवोकम्मं उवसपजजित्ता शं विहरति । |
तं जहा--चउत्थं करेति, चडत्थं करित्ता सव्वकामगुणियं |
पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता छट्ठं करति, छट करि-
त्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता
अट्टम करति, अद्रुम करित्ता सव्वकामगुणियं परेति,
सव्वकामगुणियं पारित्ता दसमं करेति, दसम करेला
सव्वकामगुणियं पारेति, सव्यकामगुणियं पारत्ता दुवालसं |
करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति, सव्वका-
मगुशियं पारेत्ता चोदसं करति, चउदसं करित्ता सव्वका- |
मगुशियं परेति, सच््रकामगुणियं पारेत्ता सालसमं करेति,
सोलसम कर्ता सव्वकामगुणियं पारति, सव्वकामगु णयं
पारेत्ता दसम करति, दसम॑ करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, ¦
सव्यकागगुशिय पारेत्ता दुवालस करेति, दुवालसं करेत्ता |
सव्वकरामगुणियं पारेति, सच्कामगुियं पारेत्ता चदसं
करेति, चउद्र्स कर्ता सव्वकमगुणियं पारेति, सव्वका-
मगु.शथ पार ता स।लमं करे।ते, सोलस करेत्ता सव्वका-
मगुशिय परिति, सव्यकामगुशणियं पारेत्ता चउत्थं करेति,
चउत्थं करेत्ता सत्यकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं
~ ४“ म 0. |
पारत्ता छट्ट कर।त, छद्र कर्ता सव्यकामगाणय पारे।त,
सत्प्रकामगु.लयं परित्ता अट्रर्म कति, ब्रह्मं करेत्ता |
सब्वकामगुणिय परति, सव्त्रकामगुणियं पारेत्ता सोलसं
करेति, स।लपं करेत्त। सव्यकामगुरियं परिति, सव्वकाम
गुणियं परित्ता चउन्थं करति, चउत्थं करेत्ता सव्वकासगु- |
णियं परति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छं करेति, छट्ठ करे- |
त्ता सव्यकामगु शिये पारेति, सव्यकामगुणियं पारेत्ता अड्डू मे
करे।त,अड्टम॑ करत्ता सव्वकामगुशणियं पारेति, सन्यकाम-
गुशियं प।रत्ता दसम करति,दसमं करेत्ता सव्यकामगुशिय
परि।त, सब्वकामगु/शय पारत्ता दुवाल्म करेति, वुवालसं
कशता सव्यकामगु।शय परेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता
चेदस करे।त,चे।दसं करत्ता सब्बकामगशिय परेति,सव्व-
कामगुशिय प।रुता अद्म करति,अड्ट मं करेत्ता सव्यकाम-
_ महालयसब्य०_
गुणियं पारेति,सव्वकामगणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं
करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता
दुवालसं करेति, दुवालसं कर्ता सव्वकामगुणियं पारेति,
सव्वकामगुणियं पारेत्ता च।दसमं करेति, चोदसं करेत्ता
सव्वकमगुणियं पारेति, सव्वकामगुखियं पारेत्ता सोलसं
करेति,सोलसं करेत्ता सव्वकामग शियं पारेति,सव्वकामगु-
सयं परित्ता चउत्थं करेति,चउत्थ करेत्ता सव्वकामगुणिय
पारेति, सव्वकामगियं एारत्ता छदं करेति, छट , करेत्ता
सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगणियं पारे्तां चाद्यं
करेति, चह्टसमं करत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्व-
कामगणियं पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता
सव्यकामगशियं पारेति, सव्वकामगुशियं पारेक्षा
चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं
पारति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छट्रं करेति ,
छदं करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति, सव्वकामगुशियं
पारेत्ता अद्रमं करति, अद्रमं करेत्ता सव्वकामगुशियं
पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दस; करेति, दसमं
करेत्ता सव्वकामगांणयं पारेति, सव्यकामगुणियं पारेत्ता
दुवालसं करेति, दुवाल सं करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति,
सव्वकामगुणियं पारेत्ता छट करेति, छदं करेत्ता सव्वका-
मगुणिय पारेति, सव्वकामगणियं पारेत्ता अट्टम करेति,
दरम करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुशियं
पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुशियं
पारेति, सव्वकामगुशियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुबालसं
करेत्ता सच्यकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुशियं पारेत्ता
चोदसमं करेति, चोदसमं ऊरेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति,
सव्वकामगुणियं परेत्ता सोलसमं करेति, स।लसमं करेत्ता
सव्पकामगुणिय पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं
करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका-
मगुणियं पारेत्ता दुबालसं करेति, दुबालसं करेत्ता सव्वका-
मगुणिय पारेति, सव्वकामगुशियं पारत्ता चोदसमं करेति,
चोदसमं करेत्ता सच्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुशियं
पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं कर्ता सव्वकामगुणियं
पारेति, सव्यकामगुणिथ परेता चउत्थं करेति, चउर्त्थ
करेत्ता सव्यकामगुणिय परति, सव्यकामगुणियं पारेत्ता
छट करेति, छदं करेत्ता सच््रकामगुणियं परेति, सब्ब
कामगुशिय परित्ता अद्म करति, अमं करेत्ता सव्व-
कामगुशियं पारेति, सञ््रकामगशियं पारेत्ता दसम करेति,
दसम कर्ता, एकेकाणए, लयाए अट मासा पच य दिवसा
१२९९६)
महालयसव्व ०
चउणझहं दो वासा अट्ट मासा वीस दिवसा सेसं तहेव॒०
जाव सिद्धा । (स्त्र -२३)
अन्त०८ वगेऽ अ०। महालया श्रालयप्रत्ययस्य खार्थिकतवाद् ।
` अतिशयातिशयगुरुके, भ० १ श० १ उ० । विपा० | अनु० ।
महालो-देशी--जारे, दे० ना० ६ वर्ग ६१६ गाथा ।
महालस-महालस-त्रि० । अ्त्यन्तमलसे, महा० ३ श्र० । |
महालोहिअक्ख-महालोहिताक्ष--पुं० । बलेवैंरोचनेन्द्रस्य |
महिषानीकाधिपतों, स्था० ५ ठा० १ उ०।
महावकरऽत्थ-महावाक्यार्थ--पु° । सक्तिपततरसवेधमौत्मकत्व-
बस्तुप्रतिपादकानकान्तवादविषयार्थे, षो० ११ विव०।
महावकस्थय-महावाक्यार्थज-त्रि० । अनेकान्तविषयार्थज-
न्य, घा० ११ विव०।
महावच्छ--महावत्स-पुं जम्बूद्धीप मन्द्रस्य पूर्व शीता-
या महानद्या दक्तिण5पराजिताराजधानीयुक्के विजयक्षेत्र-
युगले, स्था० ८ ठा० । महाषत्सो विजयाऽपराजिता रा-
जधानी वेश्रमणकृटो नाम वत्तस्काराद्विः । जं० ४ चचक्त० ।
महावज्ञा-महावर्ज्या-ख्ली ० । लोकपीडया सावद्यायां वस-
तौ, पं० व० ३ द्वार । ( 'बसहि' शब्दे दशयिष्यते )
महावण- महावन-न० । मथुरायां सखनामख्याते वने, ती० ८
कल्प । उत्त ० |
महावष्प-महावग्र-पुं० । जम्कमन्द्रस्य पश्चिमे शीतोदाया म-
हानया उत्तरे जयन्तिकापुरीप्रतिवद्धे विजयत्तेत्रयुगल,स्था०
८ ठा०। आ० क०।
दो महावप्पा । स्था० २ ठा० ३ उ०।
महावराह- महावराह-पु०। | महाकायसूकरे,सूत्र० १ श्रु०७ध्र०।
महावल्ली-देशी-नलिन्याम्, दे० ना० ६ वग १२२ गाथा ।
महावाय-महावात- पं । उदणडवात, ज्ञा० १ श्रु० १० अ०।
श्रनल्पवाते, भ० ५ श० २ उ० | च्राचा०।
महावाउ-महावायु- पुं । ईशानेन्द्रस्य पीठानीकाधिपतौ |
अश्वराजे, स्था० ५ ठा० १उ०।
महाविगइ--महाविकृति-ली० । महारसे, महाविकारकारि- |
त्वात् । महाविरुतयो महारसत्वन महाविकारकारित्वान्म- |
हतः सत्वांपघातस्य काररत्वात् | स्था०।
चत्तारे महाविगईओ पश्मत्ताओ | त॑ जहा-महं मंस
मज णवणाय । ( सूत्र-२७४ )
मद्यमंद च । स्था० ४ ठा० १ उ०।
महाविजय-महाविजय-न० । महान् विजयो यत्र॒ तत्
महाविजयम् । पुष्पोत्तरनामके
कल्प० । (६ पुप्फुत्तर त्ति ) पुष्पात्तरनामकम् ( प-
वरपुणडरीयाओ त्ति ) प्रवरेषु श्रन्यश्रष्ठविमानेषु पुणडरी- |
कमिव श्वतकमलमिव अतिक्रेष्ठामित्यर्थ: । तस्मात् ( भमहा- |
अभिधानराजन्द्रः |
विजयिनि विमानमभेदे, |
~ _ _ महाष्दह
विमाणाड त्ति ) महाविमानात् । करप० १ धरधि० १
| क्षण | जी०। आ० चू०।
महाविज्ञ -महावेद्य-एं० । केवालिचतुदशपूर्ववित्प्रथृतौ भ-
वरोगनिदानवेत्तरि, आबव० ४ अ० । अ्रष्टाज्ायुवेदरूपस्य
धन्वन्तरिप्रणीतस्य॑ वेद्यकशाखस्य यथा<55म्नायमधीत॑-
वति, बृ० १ उ०।
महाविज्ञा-महाविद्या-ख््री० | महापुरुषप्रद्साविद्यायाम्, आ०
म० १ अ०।
महाविंदेह-महाविदेह-पुं० । जम्बूद्वीपमध्यगत वरप, जे०।
तद्धक्कयताभाह-- ।
कहि णं भते ! जवुदीवे दीवे महाविदेहे णमे
वासे पष्पत्ते १ । गोअमा ! शीलवंतस्स वासहरपव्वय-
स्स॒दक्खिणेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरणं
पुर (च्छि) त्थिमलवशसमुदस्स पचत्थिमेणं पचत्थिमलव-
णसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जबुद्दीवे दीवे महाषिदेह
शाम वासे पप्तत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवि-
त्थि पलिअंकसंठाणसंठिए दृहा लवणसमुद् पुद्टे पुरत्थि-
म० जाव पुट्टे, प्चस्थिमिन्नाए कोडीए पच्चत्थिमिन्नं
०जाव पुटे, तित्तीस जोअणसहस्साई चच चुलसीए जो-
अणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खभे
णं ति। तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चात्थिमे णं तेत्तीस जोअण-
सहस्साई सत्त य सत्तसद्-े जोअणसए सत्त य एगूणवी-
सइभाए जोअणस्स आयामेणं ति, तस्स जीवा बहुमज्भदे-
सभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमु पुद्धा पुर -
त्थिमिन्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्वं ०जाव पुद्रा, एवं पद्च-
त्थिमिल्लाए ०जाव पुट्ठा, एर्ग जोयश्सयसहस्सं आयामे-
णं ति, तस्स धणु उमओ पार्सि उत्तरदादिणेणं एग जो-
| अणसयसहस्स अट्टावणं जोअणसहस्साई एगं च तेरसुत्त-
| रं ज।अरणसयं सोलस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स
किंचि विसेसाहिए परिक््खेवेण ति ।
| “कहि णमित्यादि' क भदन्त ! इत्यादि सूत्र स्वय यो-
ज्यम्, नवरे महाविदेहं नाम वर्ष-चतुर्थ क्षत्र प्रज्नपत्तम ?
गोतम ! नीलता वर्भधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्रविभाग-
कारिणो दक्तिणनेत्यर्थ: ( णिसहस्स इत्यादि ) व्यक्तम् ,
नवरं पट्यङ्कसस्थानसस्थितमायतचतुरस्रत्वात्, विस्तार
्रयखिशद्योजनसहस्राणि षर् च योजनशतानि चतुरशी-
त्यधिकानि चतुरश्चकोनविशति भागान् योजनस्य विष्कम्भे-
न, निषध्यविष्कम्भाद् द्विगुणविषप्कम्भकत्वात् । अथ ब्राहादि
सृत्रत्रयमाह-( तस्स वादा इत्यादि ) तस्य महाविदेहस्य व~
प्रस्य पूवापरभागन वाहा प्रत्यक त्रयास्रशयाजनसहस्,ा-
ण॒सप्त याजनेशताान सप्तपष्रयाध्कान सप्त च ए-
कानविशतिभागान् योजनस्य श्रायामनेति । ननु ” महया
धरुप्रद्राओ, डहराग साहेशा हि धुप! ज तत्थहवद् स-
[यणि
( ६१२ )
महाविदेह 4
स, तस्सद्ध णिदिस बाहं ॥ १ ॥ ” इति वचनात् ।. मद्दतो
धनुःपृष्ठादविदेदयानां दक्तिणाद्धस्योत्तराद्ध॑स्य च सवन्धिनो
लक्षमकमष्टपश्चाशत् सद स्रा खि शतमक त्रयो दशा धक याज-
आभधानराजन्द्र
भानां षोडश च कलाः साद्धो योजन १५८६१९३ कलाः ६६ क- |
लाद च्यव परिमाणाज्ञुघः्े निषधादिसेवन्धिलक्मे- |
कं चतुविंशतिसहखाणि बीणि शतानि पदचत्वारिंशदाधि-
कानि याजनानां नव श्च कला याजन१२४३४६ कला: ६ इत्यवे
परिमाणं शाधय। ततश्च शषमिदं अयखिशत् सहस्याणि सप्त
शतानि सप्तपष्ठथाधिकानि योजनानां सत्त च कलाः साद्धाः
याजनानां ३३७६७ कलाः ७ कलार्ड \ च, एपामर्द्ध घोड-
श याजनसदस्राणि अछ्ठछो शतानि त्यशीत्याधकानि याज- |
नानां जयादश च कलाः सपादा इत्यवं रूपा वादा वि~ |
देदानां सम्भवन्ति, अत्र तु जयशिशत् सहस्नादिरूपा |
उक्रा तत्किमिति ? , उच्यते-सर्वत्र वेताढ्यादिषु पूर्वबाहा
अपरबाहा च यावती दक्षिणतस्तावती उत्तरतोऽपि
परं व्यवदितत्वन सा समील्य नाका, इयं तु समिलि-
तत्वात्समास्यवाक्रा, सूते दाक्षणबाहाप्रमाणवात्तरबाहत्य- |
नमथ वोधायतुमिति । अथास्य जीवामाद--( तस्स जी-
बा इत्यादि ) तस्य विदहस्य जीवा बहुमंध्यदेशभांग विदे-
हमध्य इत्यथः । श्रन्यषां तु वर्धवर्षधराणां चरमप्रदेशप- |
दलक्किर्जवा, स्य तु मध्यप्रदेशपङक्तिरित्यथः, इयमेव च ज-
म्बुद्धीपमध्यम् , , अत एव चायामन लक्तयोजनमाना, मध्य-
मात्परतस्त॒ जम्बृद्धीपस्य सवत्र वक्षिणत उत्तरता वा लक्षा-
न््यूनन्यूनमानत्वात्
णाति--( उत्तरदाहिणे सो ति ) उत्तरपार्श्व दाक्षिणपाश्व
वा पकं याजनलक्षम् अष्टपश्चाशत्य याजनसदस्नाणि एकं च
याजनशतं अयोदशोत्तरं पाडश चेकोनविशतिभागान
योजनस्य
शरसृचना्थ करर णान्तर
जनानां क्रोशत्रयमण्राचिश धनुःशत यादशाङ्कलान्यकम-
किल्विंद्शिशशाधिका न् परिक्तेपण, यश्चौन्यत्र सा- |
दाः षोडश कला उक्तास्तदत्र किंचिद्निशवाधिकपंदेन से- |
ग्रह्दतम .उद्धरितकलांशास्तु विवाक्षिता इति । अज्ञाधिका- |
दर्शते--जम्बूद्धीपपरिधिस्तिस््रो _
लक्षाः षोडश सहस्नराणि दे शते सप्त्विशत्यधिके यो- |
अथास्य धनुःपृष्ठमाह--( तस्स धणु |
इत्यादि ) तस्य विदेहस्याभयाः पाश्वयाः एतदेव विद्यु- |
द्वड्डुलम , योजन ३१६२२७ क्राश ३ घनंषि १२८ श्रङ्कलानि |
१३ अर्द्धाछुलम तत्र याजनराशिररद्धीक्रियत, लब्धम- |
कं लक्षमष्टापश्चाशत्
याजनानि १४८११३, यश्वक॑ याजन शष तत्कलाः क्रियन्त
लब्धाः पकानविशतिः काशत्रये च लब्धाः सपादाश्च-
तुश कलः, उभयमीलन जाताः सपादाखरयसखिशत् कलाः,
नासामद्ध लब्धाः साद्धाः
अष्टमा भागाशधक उद्धरति यानि च
नि- चतुःषणष्िधनृषि
धनुषामर्छ लब्धा-
यानि च साद्धंत्रयादशाङ्कुलानामद्धं
सटस्राल शतमक जयादशाधक |
षोडश कलाः। यश्च कलाया |
पादानानि सप्ताकुलानि तदेतत्सव॑मत्पत्वान्न विवच्चितमिति।
अधुना विदेशवर्षस्य भदाज्निरूपयन्नाह--
पी
महाच्दहण
ते जहा-पृव्बविदेदे १, अवरविदेहे २, देवकुरा ३, उ
वासं चउच्विहे चउप्पडोआरे पा्पत्ते ।
त्तरकुरा ४। महाविदहस्स शं भते | वासस्स केरि- |
महाविदेह
सए अगारभावपड।अरि पश्चत्ते ?। गोयमा £ बहुस-
मरमणिजे भूमिभागे पष्छत्त ०जाव कित्तिर्माह चव
अकित्तिमेदं चच । महाविदेद्दे णं भते ! वासे मणुञ्राणं
केरिसए आयारभावपडोआरे पष्पत्ते ?। गोयमा ! तसि
णं मणुग्राणं छष्विहे संघयणे छ/व्यहे संठाणे पंच धरणु-
सयाद उड उचत्तेशं जह्येणं अते। मुत्तं उकोसेणं पु-
व्वके।डी अउञ्रं पार्लेति पालेत्ता अप्पेगडया शखिरय-
गामी °जाव अप्पेगइया सिज्कंति ०जाव अतं करेति । से
कण्णं भते ! एवं बुद् महाषिदेहे वासे म० २ गो-
अमा! महावरेदहे शं वासे भारहेरवयहेमवयहेरप्यवयह-
रिवासरम्मगवासेर्हितो आयामविक्खम्भसटाणपरिणाहेशं
भिर्थिख्णतराए चेव ॒विपृलतराए चेव महंततराए चेव
सुप्पमाणतराए चव महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति,
महाविंदहे य इत्थ दषे महिड्िए °जाव पलिग्रोबद्धिईए
पारवसह्, स तणटरणं गाअमा « एव वुच्चई-महा।वबदह
वासे म०२, अदुत्तरं च णं गोअमा ! महाविदेहस्स वासस्स
सासए शामधेज्ञ पष्पत्ते, जं ण॒ कयाइ णाऽसि श
कयाइ नऽल्थि ण कयाई ण भविस्सइ ॥ स्ूत- ८५ ॥
( महाविदेहे णे इत्यादि ) सहाविदेहं वर्ष चतुर्विध-चत्-
ष्प्रकारं पूर्विविदहाद्यन्यतरस्य महाविदेहत्वेन व्यपदिश्यमा-
नत्वात् , श्रत एव चतुषु-पूवी परविदेहदेवकुरूत्तरकुरुरूपषु
ज्षत्रविशषेषु प्रत्यवतारः-समवतारा विचार णीयत्वन यस्य
तत्तथा, चतुर्विधस्य पर्यायो वायम् , तत्र पूर्वबिदेहो यो
मेरोज॑म्बूद्वीपगतः प्राग्विदिहः, एवं पश्चिमतः सो5परवि-
दात्तिणता देवकुरुनामा विदेहः, उत्तरतस्तु उत्तरकु-
रुनामा विदेहः । ननु पूर्वी परविदेहयोः समानत्र चुभावक-
त्वेन महाविदेहव्यपदेश्यता 5सतु, दवकुरूत्तरकुरूणां त्वक्म-
भूमिकत्वेन कथं महाविद्हत्वेन व्यपदेशः ? उच्यते-प्रस्तुत-
क्षत्रयो मरताद्यपक्तया महाभोगत्वात् महाकायमनुष्ययो-
गित्वान्महाविदेहदेवाधिष्ठटयत्वाश्व महाविदेहवाच्यता स-
मुचितवेति सर्व स॒ुस्थम् । अथास्य- स्वरूपं वर्णयितु-
माह--( महाविदेह इत्यादि ) प्राग्वत् , अत्र याव-
त्करणात् “ आलिगपुक्खरइ वा ०जाव णाणाविह
पचवसहि मरणीहिं तणाह श्र उवसोभिणए ` इति । संप्रत्यत्र
मनुजस्वरूपमाह-- महा विदेहे ण' इत्यादि प्राग्वत् , श्चाभ्यां
सत्राभ्यामस्य क्मभूमित्वमभारि, अन्य था कषकादिप्रचृत्ता-
नां तृणादीनां छृत्रिमत्वे तद्वषजातानां च मनुष्याणां पञ्च-
मगतिगामित्वे न स्यात् । श्रथास्य नामाथ प्रश्षयन्नाह-- से
केण ट्वेणमित्यादि' प्राग्वत् ,्रश्चसत्रं सुगमम् । उत्तर सूत्र-गोत-
म ! महाविदेहवर्ष भारतेरवतहैमबतहेंरणयहरिवर्षरम्यकवर्षे-
भ्यः श्रायामविष्कम्भस स्थानपरिणाटेन, समाहारादेकवद्धा-
वः।तत्राष्यामादित्रिकं प्रतीतम् , परिणाहः-परिधिः, श्रत्रच
व्यस्ततया विशषणनिदेशऽपि याजना य “सम्भवे भवती-
त्यायामन महत्तरक एव लक्षप्रमाणजीवाकत्वात् तथा वि-
प्कम्भेन विस्तीतरक एवं साधिकचतुरशीलिषदशताधि-
जी ऑन मरा छात्र
चव _ आ ` क
व क|
नक - न्क ~
( २१३ )
महाविदेह
ऋत्रयास्त्रशयो जनसहस्तप्रमाणत्वात् , तथा सस्थानेन पल्य-
रूपण विपुलतरक एव पाश्वद्धये ऽपीषयास्तुर्यप्रमाणत्वा-
त् । दहैमवतादीनां पल्य ङ्सेस्थितत्वे ऽपि पूर्वजगतीकोणानां |
सेतरतत्वेन पृवोपरेषयोर्देषस्यादिति। तथा परिणाहेन सुप्रमा-
तरक पव , एतद्धनुःपृष्ठस्य जम्बृद्धीपपरिष्यद्धमानत्वादि-
इति, अत एवं महान--अतिशयेन,विशिष्टो-गरी यान , देहः-
शरीरमाभोग इति यावत् येषां ते महाविदेहः । अथवा-म-
हार आतिशयेन, विशिष्टा गरीयान् , देहः-शरीरं कलेवरं येषां
ते तथा, इंदशास्तत्रत्या मचुष्याः, तथादि-तव विजयेषु सर्व-
दा पञ्चधनुःशतोच्छरया देवकुरूत्तरकुरूषु ज्रिगव्यूतोच्छया
ततो महाविदेहमनुष्ययोगादिदमपि क्त्र महाविदेदाः। म-
हाविदेहश्वशब्दः स्वभावाद्रहुवचनान्त एव, पतच्च प्रागे-
चोकम् । ततो बहुवचनेन व्यवद्धियते, दश्यते च क्चिदेकव-
नान्तो ऽपि, तदपि प्रमाणम् , पूवंमहर्षिभिस्तथ्वप्योगकर-
शात् । अथवा-महाविदेहनामा देवो +त्राधिपत्ये परिपालय-
ति, तेन तच्योगाद््पि महािदेह इति , शेषं प्राग्वत् । ०
४ वच्ञ० । सुथा० । प्रव० । भज्ञा० । विपा० | स० आ० चू० । |
द्वितीयभागे ७५७
पृष्ठे गता ) ( कच्छादिविजयानां वरकः कच्छा ;ऽदिशब्देषु ) |
( उत्तरकुरूवङ्कव्यता ‹ उत्तरकुरा › शब्दे
पिशाचविशेषे, पज्ञा० १ पद ।
जम्बुदीवे दीवे महाविदेहे वासे चउव्विद्े पछ्त्ते | तं ज-
हा-पुव्वविदंह, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा ।
स्था० ४ ठा० | ( महाविदेद्दे कल्याणचिन्ता 'कन्नाण' शब्दे
सुतीयभागे ३८४ पृष्टे कृता । )
महाविदेहा-महाविदेहा-स्त्री० । शर्यराद्वहिनैरपेस्येण मनो-
चत्त , द्वा० । शरीराद्वहियों शरीरनेरपक््येण मनोवृत्तिः स
महाविदेहेत्युच्यते , शरीरा5हंकारविगमात् । अत एवाक-
ल्पितत्वेन महत्त्वात् शरीराऽटंकारे सति हि बहिवृत्तिमे- |
नसः कल्पितोच्यते ! तस्याः कृतसंयमायाः सकाशात्
श्रकाशस्य शुद्धसत्त्वलक्षणस्य यदावरणं कलशकर्मादि त-
त्यो भवति , सर्वे चित्तमलाः ज्ञीयन्त इति यावत् । तदुक्क-
स-- वहिरकल्पिताबृत्तिमंहाविदेहा ततः प्रकाशावरणतक्त-
ख इति । द्वा० २६ द्वा० । ॥
महाविमाण महाविमान न० । ्रजुत्तरविमानेषु, स्था०।
उडलोगे पंच अणुत्तरा महइमहाविमाशा पष्पत्ता | तं-
जहा--बिजए, वेज्यते, ज्यते, अपराजिए, सव्वट सिद्धे ।
स्था० ५ ठा० २ उ० | सूत्र० |
महाविल-देशी-व्योम्नि , दे०्ना० ६ वर्ग १२१ गाथा ।
अभिधानराजन्द्रः
महाविस-महाविष-पुं० | महज्म्बूद्वीपप्रमाणशरीरस्यादिवि-
षतया भवनात् विषं यस्य सः । ज्ञा० १ श्रु० & आ० । प्र-
घान विषयुक्रे , , आव० ४ अ० । ज़म्बूद्वीपप्रमाण॒स्यापि शरी-
रस्य व्यापनसमर्थ विषे, भ० १५ श०।
महाविसय-महाविषय-दत्रि० । बृदद् गोचरे, पश्चा० ८ विव० । |
आव० । दशे० ।
महाविहि-महाविधि -पु०। बृदद्धिघो,सूत्र०? १ श्रु० २ अ० १उ०।
महावीर-महावीर-ए० । महांश्चासौ वीरश्च कर्मविदारणस-
4
षयि प,
महावीर
हिष्णुर्महाचीरः | त०। 'शूर' वार ' विक्रान्तो । कषायादिशत्र
जयान्महाविक्रान्ते महावीरः । आ० म० श्०। दश०। स्था०।
एगे समे भयव महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउ-
व्वीसाए तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्ध बुद्धे त्ते ०जाव
सव्वदुक्खप्पहीणे । ( घत्र-५२ )
( एग समणे इत्यादि ) एकः-श्रसदायः, छस्य च सिद्ध
इत्यादिना सचन्धः, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, भज्यत
इति भगः-समत्रेश्वयादरिलत्तणः, उद्घ च--
एश्वयस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः धियः ।
घमेस्याथ प्रयत्नस्य, षएणां भग इतीङ्गना ॥ ९ ॥ ” इति ।
स विद्यते यस्येति भगवान्, तथा विशषेणेरयति--मोक्ते
प्रति गच्छति गमयति चा प्राणिनः, प्रेरयति वा--क-
मौणि निराकरोति, वीरयति वा-रागादिशत्रून् प्रति
पराक्रमयति इति वीरः, निरुक्रितो वा वीरो, यदाह--
विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते ।
तपावीयण युक्कश्च, तस्माद् वीर इति स्म्ृतः॥ १॥ ?
इतरवीरा<पेक्षया महांश्चासो वीरश्चेति £टहावीर
भाष्योक्ठं च-
“ तिहयणएविक्लायजसो, महाजसो नामओ मदाचीरो ।
विक्छैतो य कसाया55-इ सत्तसन्नप्परा जय ॥ ९५
ईरेइ विससेण व, खिवइ कम्माइ गमयद् सिवं वा ।
गच्छद् अ तेण वीरो, ख महं वीरो महावीरो ॥ २॥ ” इति ।
अस्यामवसर्पिरयां चतुर्विशतेस्तीथकराणां मध्ये चरम-
तीथकरः सिद्धः-रृतार्थो जातः । बद्धः-केवलज्ञानेन
बुद्धवान् बोध्यम् , मुक्तः कर्मभिः , यावत्करणात् ‹ ओ-
तकड › अन्तो भवस्य कृतो येन सा ऽन्तृतः “ परिनि
व्वडे ` परिनि्कैतः कमेरूतविकारविरहात् स्वस्थी भृतः ,
किमुक्कं भवति ?--'* सब्वदुक्खपहीण ” सर्वाणि शारी-
राऽऽदीनि दुःखानि प्रक्तीणानि-प्रहीणानि वा यस्य स, स-
वेदुःखप्रत्तीणः सर्वदुःखप्रहीणो वा । सयत्र बहुबीटौ क्ला-
न्तस्य यः परनिपातः स आहिताग्न्यादिदशनादिति । इद
च तीथकरेष्वेतस्थेवेकत्वै मोत्तगमने, न छु ऋषभादीनां
देशसहसखादिपरिच्रतत्वेन तेषां सिद्धत्वात् , उक्लं च--
“एगो भगव वीरो तेत्तीसाए सह निव्वश्रो पासो |
छत्तीसएहि ` पचि" ,सएहि नमी उ सिद्धिगओ॥ १॥”इति।
स्था० १ ठा० । सत्र । कर्मदारणसहिष्णों , सूत्र० १
श्रु० १५ अर० । श्रीमद्वद्धमानखामिनि , सूत्र० १ श्रु० £
अ० | सवैलोकचमल्छरातिकारिशि, श्राचा० १ श्रु० ६ श्र°
३ उ० । आव० । आ० चू० । रा० | ग० । अने० । प्रज्ञा० ।
पा० | विशे० । स्था० । सूृत्र० । अनु० । प्रच० । ल० ।
( सपूर्णो ऽधिकारः “ वीर ` शब्दे वच्यते )
समणणं भगवया महावीरेणं अट्ट रायाणो मुंडे भवि-
त्ता अगाराश्रो अणगारियं पत्वाविया। तं जहा-““ वीरंगय
वीरजसे, संजयए शिज्जए य रायरिसी | सेयमिवे उदा-
यशे, तह सखे कासि वद्धणे ॥ १॥ "' (सूत्र ६२१) स्थः०
८ ढा ३३१।
( २२१० )
महावीर _ प
वदामि महाभागे, महामुखि मह(यसं महावीरं ।
मरनररायमाहय, तरथयर(ममस्स तत्थस्स ॥
आ० म ?
२ आ० । स्था० | पञ्चा० | भ० | ज०। आचा० ।
स० | आ० चू० । श्रीचीरती थंक्रतो द्विसप्ततिव्षोणयायुर्मान-
मक्र, तज्जन्मादिनाद्वा गर्भात्पत्तवा तदायुर्विचायेमाणं मिथो
विघ्रटत तत्किमिति प्रश्न, उत्तरम--जन्मपत्राय्रपक्षया तु
जन्मतः, परमाधतस्तु गर्भोत्पात्तित आयुःपरिमाणं गएय-
ते, द्ासप्तत्यादिवपमानप्रतिपादने तु न््यूनाधिकमासदिवसा-
नामविवक्षणान्न विसंवदताति ।
श्रीवीरो द्वाविश भवे राजा, बयोविशे भवे चक्री, चक्रिणो
देवनारका 5 5गंता भवन्त्यन्यतो वेति प्रश्ने. उत्तरम्-आवश्य- |
कवीरचरिलाद्यनुलारण सिहमवानन्तरं नारकभवादुद्च्य- |
ति्यग्मसुष्यादिभवचु श्रार्त्वा च्छ जाता राजभवस्त
स्तात्रष्वव दृश्यते नानन््यजञ, तेनादिशब्दग्रहणात्सुरादिभवो- |
ऽपि सभाव्यत इति । ११३ प्र० । सन० २ उल्ला० । निर्वा-
णावसरे श्रीवीरेण षोडश प्रहरान यावदेशना दत्ता, सा
कस्माद्दिनादारभ्य कस्मिन् दिने पणौ जातेति प्रश्न, उत्त-
रम्--चतदशीदिनादारभ्यामावास्यायाः पाश्चाद्धाटिकाद्ध-
यरात्रां देशना पणो जाता सभाव्यत, यतोऽमावास्यायाम-
कोनात्रशन्मुहतं निवांणे कथितमस्ति षोडश प्रहरास्तु ततो-
वाग जाता युज्यन्त इति । ४५० प्र० । सन ० ३ उल्ञा० ।
महावीरेण कणेशलाकाकर्पणे कथमाक्रन्दः कतः, अनन्तव-
लत्वादिति प्रश्न, उत्तरम्-ञअनन्तचलत्वं भगवतां क्षायिकवी-
यमाध्ित्येवाक्म् , अपरिमियवला जिणवरि दा इत्यत्र तथा
व्याख्यानात् , ततः प्रलपी डावशाद्धगवत आआक्रन्दसंभ- |
वेऽपि न किमप्यनुपपन्नामति । ४६५ प्र० | सन० ३ उल्ला० ।
महावीरथुइ-महावीरस्तुति-स्त्री ० । वीरस्तवनात्मके सूत्रकृ- | ¢
। महासत्थाणवयण-महाशस्रानेपतन-न० । नागवाणा;ऽदीनां
ताङ्गस्य षष्ठ ऽध्ययन, स० १५ सम० ।
महावीरभासिय- महावीर भ्।षित - न° । प्रश्वव्याकरंणानां त॒ |
तीये ऽध्ययने , स्था० १० ठा०।
महावीदि -महावीथि--स्त्री० । महती चासौ वीथिश्व | सम्यग्-
दर्शानादिरूप मोक्षमार्गे, आचा० १ श्रु० १ आअ० ३ उ०।
महावुट्टिकाय-मह।वृ्टिकाय-पुं० । प्रभूतवर्ठो, स्था०।
तिहिं ठाणेहिं महावृद्धकाए सिया | ते जहा-त॑ंसि च
शं देसासे वा पएसंसि वा ब्रह्मे उदगजोशिया जीवा
य पोग्गला य उदगत्ताए वकमंति विउकमंति चयंति उब- |
वज्ज॑ति, देवा जक्ख( नागा भूया सम्ममाराहिया भवंति |
अन्नत्थ सम्राटियं उदगपोग्गलं परिणय वासिउकामं तं
दसं साहरंतिं है अब्भवदलग च णं समुद्धिय परिणय
वासिउकामं णे। वाउकतं। बिहुण ति, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं
महाबुद्विकाए सिया। ( सत्र -१७६ ) स्था० ३ ठा० ३ड०।
महावेग-महावेग-पुं? । महोंस्गविशेष,प्रज्ञा० १ पद् । भूतनि-
कायभदे, प्रज्ञा० १ पद ।
महावेज--महाविद्य-पुं० । अष्टाङ्गायुर्ेदेचेत्तरि वैये, वृण १ उ०। |
अभिधानराजन्द्रः।
९६८ प० । सन० २ उल्ला० । |
_ महासयय_
मह वेयणतर महावेदनतर- त° । महती वदना जीवानां
यस्मात्स तथा । जीवानां महत्या वद्नाया उत्पाद्के, ।भ० ७
श १० उ० |
महावोंदि -महावोन्दि - खी०। महाप्रभावतनो,म०३ श०२ उ०।
महास-महा श्व-प० । वृहत्तुस्क्े, औ० ।
महासगाम- महासंग्राम- प° । चक्रादिव्यूहरचनापेततया से-
व्यवस्थे महारण, जञ० २ वक्त० |
महासंजत्तिय-महासांयात्रिक-पुं०। तीथेकरे,आ० चु० १ अ०
महासड्डि-महाश्रद्धिनु-त्रिण महती चासौ श्रद्धा च
महाश्रद्धा, सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स
तथा । भोगाशक्लचित्ते, अमरायइ महासट्टी ” आचा० १
श्रु० २ अ० ४ उ०।
महासद-मटाशट- पु । अतिशठे, “ जाणंति य णे तदा
पिया माइल्न महासढेये । ” सूत्र ० १ श्च ° ७ अ०।
महासष्पाह - महास्नाह-पु° । बृहत्पुरुषाशामांप वहूनां स~
च्राह, जा० ३ प्रात० ४ आध० |
महासत्त-महासच्ष-पुं० । अवेक्लव्याध्यवसायवति, पश्चा०
१२ विव० ।
| महासत्ता-महासत्ता-खी° । सर्वत्र सदिव्येवमयुगताका-
रावबाधहतुभूत सामान्य, स्था० ७ ठा० । यद्धशादवि-
शघरण सवत्र सादात प्रत्यय इात । आण्म० १ अ० ।
महासत्थ-महाशस्न-न० । नागवाणादे-देव्यास्रेषु , नाग-
वाणादया हि वाणा महाशस्त्राणि तेषामद्ध तावाचित्रशक्कि-
त्वात् । जी० ३ प्रति० ४ अधि०।
दिव्यास्थराणां प्रक्तपण, नागवाणाऽऽ्दययो हि वाणा महा-
शस्त्राणि तप्ामद्ध तविचिरशक्कित्वात् । जी० ३ प्रति°
४ अधि० ।
महासत्थवाह-महासाथंवाह-पुं? | महावणिजि,आ०चू० १अ०।
महासद्--महाशब्द् ~पु° । शुगाले, “ भुन्लकिआ भखुआ
मटासदा `` पाइ० ना० १२७ गाथा। __
महासदा-दशी-शृगाल, देग्ना० ६ वर्ग १२० गाथा ।
महासमण-महाश्रमण-प* । महातपस्िनि, द्वादशादित-
पश्चारिणि, पन्व० १ द्वार । “ भारद्ायसगोत्ते, सृयग-
डग महासमणनामे । अगुणत्तीससतेहिं, जादे वरिसाण
वोाच्छत्ति ॥ १० ॥ `` ति०।
महासम्रुद्--मटासमुद्र-पु ।
पञ्चा० ४ विव०।
महासयय-महाशतक--9० । स्फीतच्ित्ते राजगरृहवास्तव्ये
स्वनामख्याते ग्रह पतो, उपा०। `
जंबू ! तें कालेणं तेणं समणएणं राजगेहे णयरे गुण-
सिले चेइए सेशिए राया,तत्थ णं रायगिहे महासयणए
स्वयस्भूरमणादि-बृदत्सागरे,
महावेयण-मह।वेदन-न० । मदापीडायाम् , भ० ६ श० ३३० | शाम गाहावई परिवसइ, अड्डे जहा आणंदो, णवरं अद्र
( २६५ )
सहासयय
हिरषश्यकोडिओ सकंसाओ शणिहाणपउत्ताओ अद्र हिरष्पको-
डिओ सकंसाओ वुद्धिपउत्ताओ अद्र हिरष्मकोडिओ सके-
साओ पवित्थरपउत्ताओ । अट वया दसगोसाहस्सिएणं,
चएणं, तस्म शं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओं तेरस भा-
रियाओ होत्था, अहीण ०जाव सुरूवाओं । तस्स णम
हासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरियाओं अट दिरष्प-
कोडिओ अड वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था । अव-
सेसाणं दुवाससण्टं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा दिर
छकोडी एगमेगे य वए दसगोसाह स्सिएणं वए श होत्था ।
( घ्रूत्र-४६ ) तेण काले णं ते समणएणे सामी समोसद,
।भध्ानराजन्द्रः।
परिसा णिग्गया, जहा आणंद् तहा णिग्गच्छड तहेब सा- |
बयधम्मं पडिवज्ञड, णवरं अद हिरषकोडिञ्र। सकंसाग्रो-
उच्चारेइ, अदर वया रेवईपामोक्खादिं तेरसहिं भारियाहिं
अवसेसं महुणविहें पच्चक्ख।इ, ससं सव्वं तहैव, इमं
च णं एयास्वं अभिग्गह अभिगिणहद कल्लाकल्चि च णं
कष्पह मे वे दोष्यियाए कंसपाईए हिरामभरियाएं संव-
वहरित्तए, तए णं से महासयणए समणोवासए जाए अभि |
गयजीवाजाबे ० जाव विहरइ । तए णं समणे भगवं महा-
वीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ। ( सूत्र-४७ ) तए खां
तीसे रेवईए गाहावइणाए अप्यया कयाई पुव्वरत्तावरत्त-
कालसमयसि कुडव ०जाव इमयारूवे अज्भृत्थिए० ४ एवं
खलु अदं
इमस्सि दुव्रालसणह सवत्तीणं विघाएण |
णो सचाएमि महासयणएणं समणोवासएणं सद्धिं उ- |
रालाईं माणुस्सयाई भोगभोगाई अजमाणी विहरित्तए, |
तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालस वि सवत्तियाच्रो |
अग्गिष्पञ्रोएणं वा सत्थप्प ०वा विसप्प ०वा जीवियाओ
बवरोवित्ता, एयासें एगमेगं हिरण्णकोडिं, एगमेगं वयं
सयमेव उवसंपजित्ता णं महासयएणं समणोवासएण |
सद्वि उरालाईं ०जाव विहरित्तए, एवं संपेहेइ एवं संपे- |
हित्ता तासि दुवालसणह सवत्तीणं अतराणे च छि-
दणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ, तए शं
. सा रेबई गाहावइणी अएणया कयाइ तासि दुवालसरहं
सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवर्त्र सत्थप्पओएणं |
उद्वे उद्दवइत्ता छ सवत्तीओं विसप्पओगेणं उद्दवेह |
उददवेइत्ता तासि दुवालसणह सवत्तीणं कोलघरिअं |
एगमेगं दिरण्णकोडि एगमेगं
घय सयमेव पाडव- |
जइ २ त्ता महासयणएणं समणोवासएणं सद्धं उरा- |
लाह भोगभोगाई थजमाणी विहरइ। तए णं सा रेवई गा-
हावइणी मंसलोलुया मंसेसु मुच्छिया ० जाव अज्मोववप्पा
बहु।वेहेहिं मंसेहि य सोन्लेहि य तालिएहि य भजञ-
सहासयय
एहि य सुरं च महै च मेरगं च मज च सीधुं च प-
सन्ने च आसाएमाणी० ४ विहरइ ।( सत्र-४८ ) तष
णे रायगिहे णयरे अएणया कयाइ अमाघाए घुट्टे याउ-
वि होत्था, तए श सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसे-
सु मृच्छिय। कलधरण पुरिसे सद्दावेश २ त्ता एवं
वयासी-तुब्भे देवाशुप्पिया! मम कोलघरिएहिंतो वए-
हितो कलकल दुवे दुवे गोणपोयण उद्दवेह उद्दवेइत्ता
ममे उवणह, तए णं ते कोलघरिया परिसा रेवहए गा-
हावइणीए वह त्ति एयमटं विणणएणं पडिसुखति पडि-
सुणित्ता रेबईए गाहावदर्णाए कालघरिएर्दितो वणएहिंतो
कल्लाकलि दुवे दवे गोणपोयए वहेति २ त्ता रेवइए
गाहावइणीए उवर्णेति, तए शं सा रेबई गाहावइणी
तेहिं गोणमंसेहिं सोल्नहि य०४ सुरं च०६आसाएमाणी ०४
विहरइ । ( सूत्र-४६ ) तए ण॑ तस्स महासयगस्स सम -
णोवासगस्स बहूहिं सील °जाव भावेमाणस्स चोदस
सवच्छरा वडकंता, एवं तंहेव द्र पुत्तं ठवेइ ०जाव
पासहसालाए धम्मपष्पत्ति उवसंपज्ञत्ता णं विहरह ।
तए शं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लालिया विरण्ण
केसी उत्तरिजञयं विकडुमाणी वि० २ जणेव पोसहसाला
जव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छह २ न्ता
मादम्मायजणणाई सिंगारियाई इत्थिभावाईं उबदंसे-
माणी महासययं समणोवासय एवं वयासी- हं भो
महासयया ! समणोवासया ! धम्मकामया पुष्पकामया
सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकंखिया० ४ धम्मपिवा-
सिया० ४ किष्पं तुब्भे देवाणुप्पिया ! धम्मेण वा पृष्यण वा
सग्गेण वा मोक्खण वा ? जघ तुमं मए सद्वि उरालाई०
जाव ुजमाणे णे। विहरसि । तए शं से महासयणए समणो-
वासए रेबवईए गाहावइणीए एयमद्रं णो आदाई णो परि -
याणइ अणाढाइज़माणे अपशियाणमाणे तुसिणीए
धम्मज्छाणोवगए विहरइ, तए शं सा रेवई गाहावइणी
महासययं समणोवासयं दोच्चं पि तचरं पि एवं वयासी-
हंभोतं चेव भण, सोडवि तहेव ०जाव अशणादारज्ञ-
माणे अपरियाणमाणे विहरइ, तए शं सा रेवई गाहा-
वइणी महासयणएणं समणोवासणएणं अणाढाइजमाणी
अपरियाणिजमाणी जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दि-
से पाडेगया । ( सूत्र ५०) तए शं से महासयएस
मणोवासए पढम॑ उवासगपाडिम उबसम्पज्ञित्ता श विह-
रइ, पढम॑ अहससुत्त> जव णएकारस वि तए णा से
महासयए तेणं उरालेणं ०जाव किसे धमणिसंतए
जाए। तए णं तस्स महासययस्स समणोवासयस्स
अप्मया कमाई पुव्यरत्तावरक्तक/ले धम्मजागरियं जागर-
( २१६ )
महासयय
श्भिधानराजन्द्रः।
सहासयय
माणस्स अयं अज्भात्थिए० ४ । एवं खलु अहं इमेशं
उरालेणं जहा आशंदो तहेव अपच्छिममारणतियसलद-
शाभूसियसरीरे भक्तपाणपडियाईाक्खिए कालं अणव-
कंखमाणे विहरई, तए णं तस्स ॒महासयगस्स समणो- |
बासगस्स सुभेशं अज्भवसाणेणं ० जाव खओवस-
मेसं ओहिणाणे समुष्पप्य पुरत्थिमेणं लवणसमुदे जो-
यणसाहस्सिय खेत्त जाणइ पासइ, एवं द क्खिणेणं
पच्चच्छिमेणं, उत्तरणं जाव चुल्नहिमबंत वासहर-
पव्वरय॑ं जाणइ पासइई, अह इमीसे रयणप्पभाए
पुदवीए लोलुयच्चुयं ण॒रय॑ चउरासीइवाससहस्सट्विइयं |
जाजइ पासइ । ( स्त्र-५१ ) तए ण सा रेवई गाहावइणी
अष्पया कयाइ मत्ता० जाव उत्तरिजयं विकड्रेमा-
सी विकड़्ेमाणी जेखेव महासयए समणोवासए जेणेव
पोसहसाला तेणेव उवागच्छ २ ता महासयय तहेव
भणइ० जाव दोच्च पि तच्चैपि एवं वयासी-हं भो
तहेव, तए शे से महासयए समणोवासए रेवईए |
गाहावइजीए दोच्च पि तच्च पि एवं वुत्ते समाणे आसुरु-
ज्ष० ४ ओहिं पठंजइ २त्ता ओहिणा आभोणएट २ त्ता
रेवई गाहावइरणिं एवं वयासी-हं भो रेवई ! अपत्थिय- |
पत्थिए० ४ एवं खलु तुम अंतो सत्तरत्तस्स अल-
सएशं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्टदृहइवसद्टा
असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इमीसे
रयणप्पभाए पुदवीए लोलुयच्चुए शरण चउरासीइवा-
ससहस्सड्रिइएसु खेरइएसु णेरइयत्ताए उववज्जिहिसि,तए
शं सा रेवई गाहावइणी महासयएण समणोवासएणं एवं
वुत्ता समाणी एवं वयासी रुणं ममे महासयणए समणोवा- |
सए हीणे णं ममं महासयए समणोवासए अवज्भाया-
शं । अहं महासयणएणं समणोवासएणं ण॒ णजह णं अह
कैणऽवि कुमारेणं मारिजञिस्सामि त्ति कटु भीया तत्था
तेसिया उच्विग्गा संजायभया सणिय सणियं पच्चोसकड
२ त्ता जेणेव सए गिह तेणेव उवागच्छड २ त्ता आहय
०जाव भियायह, तए णं सा रेव गाहावदणी अतो
सत्तरत्तस्स अ्रलसएणं वाहिणा अभिभूया अड्ड॒दुहइवसट्टा
कालमामे काले किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लो- |
लयच्चुए णरण चउरासीइवाससहस्सट्टिएएसु शेरइएसु
नरइयत्ताए उववष्प। । ( सूत्र-५२ )। तेशं काले शं ते णं
समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरणं °जाव परिसा
पडिगय। ग।यमाऽऽइसमणे भगवं महावीरं एवं वयासी- |
एवे खलु गोयमा ! इदेव रायागिहे यरे ममं अतिवासी
महासयए णम समणावासणए ॒पोसहसालाए अपच्छि-
|
ममारणंतियसंलेहणाए भूसियसरीरे भत्तपाणपढियाइ-
क्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ, तए णं तस्स
महासययस्स रई गाहावदणी मत्ता ०जाव विकड्ले-
माणी २ जेणेव पोसहसाला जणेव महासयए तेशेक
उवागच्छह २ त्ता मोहुम्माय “जव एवं वयासी-तहेव
०जाव दोचं षि तच पि एवं वयासी-तए शं से महा-
सय सप्रणोवासणए रेण गाहावइणीए दो पि
तच्च पि एवं वृत्ते समा आसुरुत्ते° ४ ओहिं पउंजइ
ओहिं पठंजइता ओहिणा आभोणए्ड २ त्ता रेवद गाहा-
वणि एवं वयासी- ° जाव उववज्जिहिमि, णो खलु कप्पड
गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम ०जाव भूसिय-
सरीरस्स भत्तपाणपाडियाहक्ियस्स परो संतेहिं तचर्हि
तहिएहिं सब्भूतेहिं अणिद्वेदिं अकंतेहिं आप्पिएहिं अ-
मणुष्पहिं अमणामेहिं वागरसखंहिं वागरित्तत ते गच्छ
णं देवाणुप्पिया ! तुम महासययं समणोवासयं एवं व-
याहि-णो खलु देवाखुप्पिय! ! कप्पइ समणोवासगस्स अ-
पच्छिम ०जाव मत्तपाणपडियादक्खियस्स परो संति
°जाव वागरित्तए, तुमे य शं देवाणुष्पिया ! रेवई गा-
हावइणी संतेहिं० ४ अशिट्वेहिं० ६ वागरणेहिं वागरिया
ते णे तुमं एयस्य ठाणस्स आलोएहि ०जाव जहारिह च
पायच्छित्त च पहिवज्ञाहि, तए शं से भगवं गोयमे सम-
स्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ट विणणएणं
पडिसुणइ २ न्ता तश्रो पडिणिक्खमइ २ त्ता रायगि-
हं यरं मजञ्भं मज्फेणं अणुप्पविसह अणुपविसित्ता
जशेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिदे जशेव महासयष्
समणोवासए तेशेव उबागच्छह, तए शे से महासयए सम-
णोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ न्ता हट् जाव
हियए भगवं गोयमं वेदइ मसह, तए शं से भगवं गोयमे
महासययं समणोकवासयं एवै वयासी- एवे खलु देवाणुप्पि-
या | समे भगवं मह वीरे एवमादक्खई एवं भासइ एवं
पष्पपरेह एव पस्वेह- णो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया | सम-
णोवासगस्स अपच्छिम ०जाव वागरित्तए, तुमे शं देवाणु-
प्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं ०जाव वागरिया तं
शे तुमं देवाणुष्पिया ! एयस्स ॒ ठाणस्स आ।लोएहि०
जाव पडिवज्ज'हि | तपए णं से महासयए समणोवासए .
भगवश्रो गोयमस्स तह त्ति एयमद्रं विणणएणं पडिसुणेइ
२ न्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ ०जाव अहारिहं च
पायच्छित्तं पडिवजह । तए णं से भगवं गोयमे ! म
हासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाओ
२ न्ता रायगिह णगरं मज्भं मज्केण णिग्गच्छक_् २ त्ता
पटिशिक्खमह्
डि
( २१७ )
महापउम _
जैणेव समश भगवं महावीरे तेण उवागच्छह उवाग ` |
ओभधानराजन्द्रः। 9
च्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदह णमंसइ मसित्ता सं-
जमेणं क अप्पाणं भावेमाणे विहर | तए शं भगवं |
समणे महावीरे अख्या कयाइ रायगिहाओं णयराओं पडि-
णिक्खमइ २ त्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ (सत्न ५३ )
तए णं से महासयए समणोवासए बहू हिं सौल०जाव भा-
वेत्ता वीस वासाई समणोवासगपरियायं पाउणित्ता एकार-
स उवासगपडिमाओ सम्म काएण फासित्ता मासियाए
संलेहणाए अप्पाणं शूसित्ता सद्धं भत्ताईं अणसणाए
छेंदेता आलोइयपडिकंते समादिपत्ते कालमासे कालं |
किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवर्डिसए विमाणे देवत्ताए उ-
ववणणे | चत्तारि पलिओवमाई ठिई महाविदेहे वासे सि-
ज्मिहिति बुज्मिहिति णिक्खेवों | ( खत्र-५४ )
ष्म ( मध्ययन ) मपि खुगर्म तथापि किमपि तत्र लिख्य-
ते-( सकंसाओ तति ) सह कास्यन द्वव्यमानविशेषण यास्ताः
सकांस्याः ( कोलघरियाश्रा त्ति ) कुलग्रृहात्पितृग्र हादाग-
ताः कौलग्रहिकाः । (सू०४७) (अतराणि य त्ञि)अवसरान् चि
द्राणि-विरलपरिवारत्वानि विरहान् एकान्तानिति, ( मस
ते-मांसमूर्चिछता स्तद्दोषानभिज्ञत्वेन मूढा इत्यथः, मांसग्र
थिता--मांसानु रा गतन्तुभिः सदर्भिताः, मांसग्रुद्धाः--तद्धो
गेऽप्यजातकांत्ताविच्छेदाः, मांसाध्युपपन्नाः-मांसेकाग्राचि
त्ताः, ततश्च बहुविधेमासेः सामान्यैस्तद्धिशपषेश्व , तथाचाह- |
( सोल्लिएहि य त्ति ) शल्यकेश्व-शलसंस्क्ृतकेः , तलि-
तैश्व-घुृतादिना 5ग्नो संस्कृतेः, भर्जितेश्च--अग्निमात्रपक्ैः
सहेति गम्यत, खुरां च--काष्टपिप्टनिष्पन्नां, मधु चन्त्तोंद्,
मेरकं च--मद्यविशष , मद्ये च-गुडधातकीप्रभवं , सीधु
च--तद्धिशष, प्रसन्नां च-सुराविशषम् , आस्वादयन्ती-ईष-
त्खादयन्ती कदाचित् विखादयन्ती-विविधप्रकारेर्विशे-
| महासव-महा श्रव-पएुँ० ।
चेण वा खादयन्तीति, कदाचिदेव परिभाजयन्ती खपरि- |
चारस्य परिभुञ्जाना सामस्त्यन विवत्तिततद्धिरोषान् ( सु°
४८ ) अमाघातो' रूढिशब्दत्वात् श्रमारिरित्यथः ( कोलघ-
रिप त्ति ) कुलग्रहसंबन्धिनः, गाणपोतको-गो पुत्रकौ, उद्द-
बेह कि ) विनाशयत ( खू० ४६ ) ( मत्त त्ति ) खुरादिम- |
द्वती ( लुलिता ) मद्वशेन घूरता, स्खलत्पदेत्यर्थः, वि
कीणौः-विक्तिघ्ताः केशा यस्याः सा तथा, उत्तरीयकम्-उप-
रितिनवसने विकयन्ती मोदोन्मादजनकान् कामोारीपकान् , |
शुक्षारिकान--शू ज्ञाररसवतः , खीभवान कटाक्तसन्दशना- |
दीन् उपसरदशयन्ती ( हं भो त्ति ) ) आमन्त्रणम् महाशयया !
इत्यादेविरटसीतिपयवसानस्य रेवतीवाक्यस्यायमभिप्रायः।
अयमेवास्य स्वगो मोत्तो वा यन्मया सह विषयसुखानु-
भवनम् , धर्मानुष्ठानं हि विधीयत खर्गाद्यधम् , स्वगाददि-
ष्यते खुखाथम् ,खुखे चैतावदेव तावद् दष्टे यत्कामासेवन-
मिति । भणन्ति च--
हर नत्थि तत्थ सीम॑-तिर्णाउ मणहरपियेगुवरणाओं ।
तारे जज | वे-धणं खु मोक़्खो न सो माक्खो॥ १ ॥
४ न
पष्टासव
तथा--
सत्ये वच्मि दिते वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः ।
ऋअस्मिन्नसारे ससार, सारं सारङ्कलाचनाः॥ २॥
द्विरष्रवपो याषि-त्पञ्चविशतिकः पुमान् ।
अनयोननिरन्तरा प्रीतिः, स्वर इत्यभिधीयते ॥ ३ ॥ `" इति ।
[ सूत्र-५०] [ अलसए ण ति ] विसूचिकाविशपलत्तरन ।
तन्लक्षण चदम्--
“ नोध्वं जति नाधस्ता-दाहारो न च पच्यते ।
आमाशये लसीभूत-स्तेन सोऽलसकः स्मरतः॥ १॥” इति।
( हीणे त्ति ],प्रीत्या हीनः-त्यक्तःअवज्भाय ज्षि)अपध्याता
डुध्यानविषयीक्ृता ( कुमारेण ति ) दुःखमूत्युना ( सूत्र ५२)
( नो खलुकप्पश गोयमेत्यादि ) ( संतहिं ति) सद्धिर्वि-
दमानाथः ( तश्चाहिं ति ) तथ्बैः-तत्त्वरूपेर्वा ऽ नु पचारिकेः (त-
दिदे ति) तमवोक्ले प्रकारमापन्नेन मात्रयाऽपि न््यूनाधिकेः ।
किमुक्के भवातिः-सद्् भूतरिति,अनि ऐ:-अवाजिछतः ,अकान्ते
स्वरूपेणाकमनी ये: ,अप्रियेः-अप्रीतिका रकै: ,अम नो ज्षै:-मनसा
न ज्ञायन्त नाभिलप्यन्ते वक्कुमपि यानि तेः । अमन आपेः न
मनसा आप्यन्ते-प्राप्यन्त चिन्तयाऽपि यानि तैः, वचने
चिन्तने च येषां मनो नोत्सहत इत्यथः, व्याकरणः वचनवि-
शेचैः। उपा० ८ अ० । स्था०। घ० | घ० र०।
| महासरीर-महाशरीर--पुं० । बृदत्तनों , भ० १४ श० २ उ०।
लालेत्यादि ) मांसलोलाः--मांसलम्पटाः , एतदव विशि- |
महासलिल-महासलिल--वि° । बहुदके, बृ० ४ उ० । ग०।
महासलिलजल-महास लिलजल-न० । महासलिला नाम
गङ्गा ऽऽदयो महानदयस्तासां जले महासलिलाजलम् । महान-
दीजले, बृ० २ उ०।
महान्ति कमणामाश्रवद्धाराणि
वतचेन्तेऽस्यात । सूत्र० १ श्रु०ण ३ आ० २ उ० । बृहन्मि-
थ्यात्वादिकमंबन्धहेतुक , भ० ६ श० ३. उ० ।
नेरायिकाणां महा ऽऽश्रवादिकत्वमाद-
सिय त ! नेरइया मदाऽऽसवा महाकिरिया महावे-
यणा महाणिजरा ?, गोयमा ! शो इणट्े समद्र १, सिय
भते ! नरइया महाऽऽसवा महाकिरिया महवियणा अ-
प्पनिज्ञरा ? हंता सिया २, सिय भतं ! नेरइया महाऽऽ-
सवा महाकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा १, गोयमा !
णो इण्टर समट्ठे ३, सिय भते ! नेरइया महाऽऽ-
सवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिज्ञरा ?, गो-
यमा! शो इणट्टे समद्र ४ , सिय भते ! नरइया
महासवा अप्पकिरिया महावेदणा महानिज्रा ? गोय-
मा! णो इणट्टे समद्र ५, सिय भते ! नेरइया
महा55सवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिज्ञरा ?, गोय-
मा ! णो इणट्रे समद्रे , सिय भ ! नेरतिया म~
हासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिजरा ? णो ति-
णदं समद्र ७ , सिय भत ! नरातिया महासवा अप्प-
किरिया अप्पवेदणा अप्यनिज़्रा १, णे तिखट समद्र,
( ६६८ )
मटाऽऽसव
सिय भते !
अभिधानराजन्द्रः।
रइया अप्पाऽऽसवा महाकिरिया महा- `
वेदशा महानिजरा ? णो तिणट्ठे समह 8, मिय भेत!
नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावदणा अप्पनि-
जरा ? णो तिद समह १० , सिय भत { नरइया
अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिज्ञरा १ शा
तिणट्टें समद्रे ११ , सिय भेत ! नरइया अप्पासवा
महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिज्ञरा ? णो तिणद्ठे स-
मद्रे १२, यिय भते ! नेरहया अप्पासवा अप्पकिरिया
महावेयणा महानिजरा ? णा तिणट्र समट्र १३, सिय
भते ! नरतिया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेदणा अ-
प्पनिज्ञरा ? णा तिणट्र समद्र १४, सिय भते ! नर
इया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा ?
णो तिणद्ले समद्र १५, सिय भते! नेरया अप्पा-
सवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अरप्पनिज्रा ? णो ति-
ट्रे समद्र १६ , एते सोलस भगा | सिय भते ! अ-
सुरङमारा महासवा महाकिरिया महावेदणा महा-
निज्ञरा? णो तिणट्ठे समद्र, एवं चउत्थो भगो भा-
शियव्वा, सेसा पनरस भगा खोडयव्वा, एवं ° जाव
थणियकुमारा । सिय भते ! पृढविकाइया महासवा म-
हाकिरिया महावेयणा महानिजरा ? हंता सिया । एवं ° जाव
सिय भते!
प्पवेयणा त्रप्पनिज्ञरा ? हता सिया, एवं ° जाव मणु-
स्सा, वाण मतर जोहसिय-वेमाशिया जहा असुरकुमारा
सेवं भते ! भते त्ति। ( सत्र-६५४ )
ह
2.23... कि [हि ,}८*
५
६
दिधि न
४ इय स्थापना--
2
ऋ 37.22.
हिक्किनः
४४“
विय भेत !! इत्यादि
महाश्रवाः प्रचुरकमवन्धनात्, महाक्रियाः कायिक्यादिक्रि-
याणां महर्च्वात्, महावदना वदनायास्तीवत्वात्, महानिर्जराः
कर्म्तपरावदुत्वात्, एपां च चतुणा पदानां पाडश भङ्गा
भवन्ति, एंतषु च नारकाणां द्वितीयभङ्गका ऽनुज्ञातस्तेथामा
श्रवादित्रयस्य महच्वात् कर्मनिज्ञरायास्वल्पत्वात् , शषा-
शां तु प्रतिपधः | अखुरादिदवपषु च चतुश्वभङ्गाऽनुज्ञातः,त
ट मदाश्रचा महाक्रयाश्व ववाररप्रावरातयुक्कल्वात् , अटप, |
खदनाश्वथ प्रायणासातादयाभावात , अल्पानजराश्च प्रायाउशु |
भपारणामत्वात, शषास्तु नषथ्ननायाः । प्राथव्यादाना त॒
पुदविकाइया अप्यासवा अप्पकिरिया अ- |
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महासावग
[> भ ०
चत्वार्यपि पदानि तत्परिणतर्विचि त्त्वात् सव्यभिचाराणी-
ति पाडशापि भङ्गका भवन्तीति । उङ्क च-"वीपणतुन-
रइया, होंति चउत्थेण सुरगणा सव्ये । । ओरालसरीरा पु-
ण, सब्वेहि पएहि भाणियव्या” । १। इति। भ० १६४श०४उ० |
महासवतर-महा श्रवतर-त्रि० । महा श्रवतरा एवं महान्त आ-
श्रवाः पापोपादानहेतवः आरस्भादयो येषामासौरन ते म~
हाश्रवाः अतिशयन महाश्रवा महाश्रवतराः: । अतिबुहत्कम -
खु, जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ०।
महासव्वआाभदपांडमा-महासवता भद्र॒ग्रातिमा-आा० । सर्वतो
भद्रप्रतिमाभदे , , ओ० । स्वता मद्रा पुनयस्यां दशखु दिलु
प्रत्यकमहोराजत्र कायोत्सग करोति, यस्यां च दशा 5होराजाणि
मानमिति । अ्रथवा--दिविधा स्वतोभद्रा-चुद्रा, महती च
तत्र चुद्रायाः स्थापना--स्थापनोपायगाथा चयमत्॒न--
४ एगाई पंचं ऽते, ठविड, मज्भ॑ तु आइमणुपंति ।
सस कमेण ठविड, जाणा सन्वश्राभदं ॥ १॥ ”
तपोदिनानीह पञ्चसक्ततिः, पारणकदिनानि तु पञ्चविशतिः,
सवाणि दिनानि शतमकस्यां परिपाच्चां चतरूषु त्वेतदेव
चतुगुणम् । एव महत्यपि, नवरम्, एकादयः स्नान्तास्त-
स्यामुपवासा भवान्त ।
स्थापनापायगाथा त्वियम्--
“ एगाई सत्त ऽता, विड मम्भ तु आइमणुपंति |
ससक्कमेण ठविडं, जाण महासव्वओोभद ॥ १॥ ”
१२३४ ५ ६| ७) प्रण्पकक्किः
१|२|३|४|४ ४|४|६|७|१।२|३।| दितीयाप०
२|५।५।१।२ | |७।१।२।३।४।५।६। ततीयाप०
५।१।२।३।४| |३।४।५।६ ७।६।२| चतुर्थीपे०
न २।५।५ \ | |र।७।१।२।२।४ ५ | पञ्चमीष०
५।५।.२-। |२।३।४।५।६ ७ र| बषठीपण
५|६|७| १।२|२।४. शं
सप्तमाप०
इह च षण्णवत्यधिकं शतं तपोदिनानां स्यादेकोनपञ्चाशच्च
पारणकदिनानि , एवे चारं मासाः पञ्च दिनानि , चतस्टषुः
परि पारीष्वेतदेव चतुगुणामात । आ०।
महासामष्प-महासामान्य -सवेपदाथायायिन्यां सत्तायाम् › |
सूत्र० २ श्रु० ७ अ० । आ० म । विशे० ।
महासामत्थ-महासामाथ्य-न० | महासामथ्येम आद्यलेहनन-
त्रय्युक्कतया वज्रकुङ्यसमानध्रूतितया च कायमनसोः शक्को
"सिय त्ति ` स्युः-भवेयुर्नैरयिकाः- | ध० ४ श्रधि०।
क्तत
| महासामाण-महासामान - न° । खत्तमदेवलो कविमानभेदे ,स० |
१७ सम० ।
महासाल- महाशाल प° । प्रृष्टचम्पाराजस्य शलस्य श्रातरि ¶
| पृष्ठचम्पायुवराज, आ०्क० १ ऋ० । आ० म० । ती०। उत्त० ॥
महासावग-महाश्रावक पुं | दयादानप्रधाने श्रा्रके, : एवं
व्रतस्थिता भकत्या,सप्तक्षेज्यां धने वपन् । दयया चातिदीनेषु,
मद्दाभ्रावक उच्यत ` ॥ १ ॥ महत्पद्विशेषणं च अन्यभ्याऽ-
तिशायित्वात् , यतः श्रावकत्वमचिरतानामकायणुवतध्रारिः
( २१६ )
महासावग
शां च श्णोतीति व्युक्पत्योच्यते, यदाद-
“सेपत्तदे सणाई, पडदिश्रहं जइ जणा खुरई अ ।
सामायारिं परमे, जो खलु ते सावगं विति ॥१॥
श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तना-
द्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् ।
किरत्यपुरायानि खुसाधुसेवना-
दद्यापि त श्रावकमाहुरञ्जसा॥२॥ ”?
इति निरुक्काञ्व श्रावकत्वं सामान्यस्यापि प्रसिद्धम् ,विवक्ति-
तस्तु निरतिचारसकलव्रतधारी सप्तक्तेत्यां घनवपनाद-
शनप्रभावकतां प्रमां दधानो दीनेषु चात्यन्तकृपापरो
महाश्रावक उच्यते इत्यलं प्रसङ्गेन ।
इदानीं महाश्रावकस्य दिनचर्यारूपम--उक्तशेषं
विशेषतो ग्रहस्थधममाह--
नमस्करेणावबोधः, स्वद्रव्यादयुपयोजनम् ।
सामायिकादिकरणं, विधिना चैत्यपूजनम् ॥६०॥
नमस्कारेण-सकलकट्यारपुर परमेष्ठिभिरधिषठितिन
नमो
अरिहंताण `` मित्यादि प्रतीतरूपेण, अवबोधो निद्राप-
प्सिधानराजन्द्र
रिहारः, तत्पाठे पठन्निद्रां ज्यादिव्यथः । अय विशेषतो |
गृहिधमो भवतीव्येवमग्रे ऽप्यन्वयः । तथा खस्मिन--आ-
त्मनि, द्रव्यदेः-द्रव्यक्तेवकालभावानाम् , उपयोजनम्-उप-
योगकरणम् , ( ध० ) ( सामायिकादीत्यादि ) सामायिकम्-
महतं यावत्समभावरूपनवमवताराघनम्, प्रथमावश्यकं वा, |
आदिशब्दात्षाड़िधावश्यकप्रतिबद्धरात्रिकप्रतिक्रमणग्नरहयम । |
( ध० ) ( विधिनेति ) विधिना अनुपदमेब वक्ष्यमाणपुष्पा-
दिसंपादनमुद्रान्यसनादिना प्रसिद्धेन, चव्यपूजनम्-द्रव्य- |
भावभदाद् अहेर्पमतमार्चनम् | घ० २ आधि० । ( महाश्रा- |
वकस्य ग्रहिघधमंविध्यन्तगेतसामायिकविधिः “ सामाइय `
शब्दादवगन्तव्यः ) ( चैत्यपूजनविधिः ‹ चेइय › शब्दे तृती-
यभागे १२४४ पृष्ठ गतः )
महासावज्ञा-महासावद्या-खी°
गन्यादिमत्यां बसतो, आचा० । ( श्रस्या वक्लव्यता ` वसदि '
शब्दे चच्यत )
महासाहसिय-महासाहसिक--पुं° । सहसा5विमशात्मकेन व-
लेन वत्तेत, भाविनमथमविभाव्य यः प्रवर्तते स सादसिकः। |
अविमृश्यकारिणि, स्या०।
महासयाल-महाशुगाल-3० । महादहप्रमाणे शुगाले , |
(सूत्र० ) महादेदप्रमाणा |
४ अणासिया णाम महांसियाला
महान्तः श्टगाला नरकपालविकुविता श्रनशिता बुभुक्षिताः,
सूत्र० १ श्रु० २ श्र० २ उ०।
महासिलाकंटय-महाशिलाकणएटक-पुं० । जीवितभेदकत्वात् |
महाशिलाकरटकः । कूणिकचेटकसंग्रामे, नि० १ श्रु० १ |
वर्ग १ अ० | भ०।
सद्दणनमाह-
णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विष्पायमेयं अ-
रहया महासिलाकंटए संगामे, महासिलाकंटए णं भते ! |
संगामे वडमाण के जहत्था के पराजइत्था (५ -गोयमा ॥
(ह विदेहपुत्ते जयित्था, नव मन्नई नव लेच्छई कासीको-
सलगा अट्टारस वि गणरायाणो पराजयित्था । तण
| |
। श्रमणसाधुनिश्राभेदेना- |
१ १ 8५३ 0 सह ाओ 2
णं से कोशिए राया महासिलाकटकं सगामं उवबद्ठिय
जाणित्ता कोडवियपरिसे सदृविइ सद विहत्ता एवं व-
यासी-खिप्पामेव भो देवाणुष्पिया ! उदाई हत्थि-
राय पडिकप्पेह हयगयरहजोहकलियं चाउरागेणि सेशं
सप्पहिह् २ त्ता०जाव मम एयमाणत्तिय खिप्पामेव पञ्चप्पि-
णह । तए शं से कोटंवियपए्रिसा कोशिएण रष्पा
एवं वुत्ता समाणा हट्टतुद्ा० जाव अंजलि कट् एवं सा-
मी! तह त्ति आणाए विणणएणं वयणं पडिसुणंति प-
डिसुणेत्ता खिप्पामेव छेयायरिओवएसमइकप्पणावि-
कप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उववाइए० जाव भीम संगा-
मिये आओज्मं उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेंति, हयगयरह-
०जाव सप्पहेंति सप्पहेत्ता जणेव किए राया तेणेव उवा-
गच्छंति २ त्ता करयलपरिग्गहिय॑ ०जाव कशियस्ख रष्पो त-
माणत्तियं पचप्पिणंति । तए णं से कूणिए राया जेणेव
मजणघरे तेणेव उवागच्छ उवागच्ित्ा मजणधरं
अणुपविसई मज्ञणघरं रणुपविसित्ता, रदाए कयवलि-
कम्मे कयकाठयमगलपायाच्छत्ते सव्वालकारविभरसिए
सनद्धवद्धवस्मियकवये उप्पीलियसणपट्टीए पिणिद्धगे
विज्ञे विमलवरवद्धविधपडे गहियाउहप्पहरणे सकारट-
मन्नदामेणं छत्तण धरिज्ञमाणे चउचामरवालवीइयगे भ-
गल'जय जय' सदकयालोए एवं जहा उववाइए ° जाव उवा-
गच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढ़े तए ण॑ से कूणिए
राया ( हारोत्थयसुकयरइयवच्छे जहा उबवाइए० ) जाव
सेयवरचामराहिं उद्धृव्यमाणीहिं उछु ०२ हयगयरहपवरजो-
हक लियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुड़े महया
भडचडगर्विद्परिक्खित्ते जणेव महासिलाकंटए सं-
गामे तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता महासिलाक॑-
टगं संगाम॑ उयाए पुरओओ य से सके देविंदे देवरा-
या एग महं अभेजज कवयं वहरपाडिरूवगं विउच्वित्ता णं
चिट्रइ । एवं खलु दो इदा संगाम संगामेति, तं जहा-
देविंदे य, मणुस्सिदे य। एगहत्थिणा वि णं पभू कू-
णिए राया पराजयित्तए, तए शं से कृशिए राया म-
हासिलाकंटगं सगामं संगामेमाणे नव मन्नई नव लेच्छई
कासीकोसलगा अट्टारस वि गणरायाणो हयमहियपवर-
वीरघाइया वि पडियांचधद्धयपडागे किच्छप्पाणगए दिसो-
दिसि पडिसेहित्था । से केण्दरेणं भते ! एवं वृह महा-
सिलाकंटए संगामे ?, गोयमा ! महासिलाकंटए णं स-
गमे वडूमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा
तणेण वा पत्तणकटरुणवा सकराए वा अभिहम्मति
बे से जाणइ महासिलाए अहं अभिहए महासिलाए अहं
अभिहए से तेणड्टरेणं गोयमा ! महासिलाकटए संगमे ।
{+ स ६
महासिलाकं०
आमधानराजन्द्रः |
महासिलाक॑०
महासिलाकंटए णं भते ! संगामे वइमाणे कइ जणसयसाह-
स्सीओ वहियाओ ? गोयमा! चठरासीइ जणसयसाहस्सीओ |
वहियाओं । ते शं मते ! मणुया निस्सीला ०जाव निष्पच्च- |
क्खाणपेसहोववासा, सरुद्रा परिकुविया समरवहिया अणु-
वमता कालमास कालं किच्चा कटिं गया कटिं उववष्पा ?
गोयमा ! उस्सष्ं शरगतिरिक्खजोणिएसु उववष्पा ।
( महासिलाकंटए सगामे त्ति ) महाशिलैव करटको जी-
वितमदकल्वान्मटाशिलाकण्टकस्ततश्च यत्र तणशलाका-
दना5प्याभदहंतस्याश्वहस्त्याद प्त्यादेमेहाशिलाकण्टकनेवा भ्याहत-
स्य वेदना जायते स सङ्गामा महाशिलाकण्टक एवोच्यते,
द्विवचनं चोल्ञखस्यानुकरणे, एवं च किला<ये संग्राम
सजातः, चम्पाया काणका राजा बभूत्र, तस्य चाचुजा
हज्लावहलज्लाभधाना श्रातरा सचनकाभधानगन्धहास्तान '
समारूढो दिव्यकुणडलदिव्यवसनदिव्यहारविभूषितों वि-
लसन्तो दष्टा पद्मावच्यभिधाना कृशिकराजस्य भाया
मत्सरादन्तिना ऽपहराय तं प्रिरितवती, तन तो त याचितो,
तोच तद्भयाद्वेशाल्लयां नगय्या स्वकीयमातामहस्य चेटका-
भिधानस्य राज्ञोऽन्तिकं सहस्तिकौ सान्तःपुरपरिवारो
गतवन्तौ, कूणिकेन च दृतप्रषणता मारितो, न च तेन प्रे
पितौ, ततः कृरिकेन भाणितम--यदि न प्रेपयसि तौ तदा
यद्धसज्जो भव, तेनाऽपि भाणितम--एप सज्ञा ऽस्मि, तत
कूणिकिन कालादयो दश स्वकीया ऽभिन्नमातृका ्रातरौ |
राजानश्चरकेन सह संग्राम्रायाहताः,तत्रकंकस्य त्रीणि चरीणि |
दत्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानांः च, मनुष्याणां तु |
प्रत्यक (तस्र: तस्र: काटय: | कराणकस्याप्यवमव.प्वच व्यः
तकर ज्ञात्वा चरखक्नाप अषादश गरणराजाः मालत
तपा चटकस्य च प्रत्यक्रमवमव हस्त्यादपारमाणम् , तता
खद्ध सम्प्रलग्न, चक्रराज पातपन्नत्रतत्वन द्नमध्य
पकमव शर मुशझ्चात,अमाधघ्रवाणस्थ सः। तत्र च क्राणकसन्य-
गरूडव्यहमश्वटकसन्यस्थ सागरव्यूहावचारतः । ततश्च कू- |
णकस्य काला दरडनायकां युध्यमानस्तावद्गता यावशच्वचट-
कः , ततस्तनेकशरनिपातनासौ निपातितो भन्न च कृणि- |
गते च द्वे अपि बल निजं निजमावासस्थानम् । |
कवलम् ,
एणवे च दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि का-
लादयः, एकादश तु 'दिवसे चेटकजयार्थ देवताराधना-
य कूणिको 5एमभक्क॑ प्रजग्राह । ततः शक्रचमरावागतौ ,
ततः शक्रा वभार, चरकः
हरामि , नवरे भवन्तं सरक्ञामि । ततोऽसौ तद्गक्षार्थ ब-
ज्रप्रतिरूपकमभद्यकवचं कृतवान , चमरस्तु द्धौ संग्रामो
विकर्वितवान { महाशिलाकराटक रथमुशले चति ( जइ- |
त्थ त्ति ) जितवान् ( पराजयित्थ त्ति ) पराजितवान-हारि
तवानिव्यथः । ( वलि सि ) वज्री-इन्द्रः ( विदेष्टपुत्त
त्ति) कणिक एतावेब तत्र जतारो नान्यः कश्चिदिति
( नव मन्नइ त्ति ) मल्लकिनामानो राजविशेषाः | ( नव लेच्छ
इ त्ि)लच्च्छाकिनामाना राजविशषा एव ।(कासी कोसलग त्ति) |
काशी-वाराणसी, तज्ञनपदो ऽपि काशी, तत्सम्बन्धिन आ-
द्या नव, काशला अयाध्या तज्ञनपद्ा ऽपि कोशला, तत्स-
श्रावक इत्यहं न ते प्रति प्र- |
म्बन्धिनों नव द्वितीयाः । ( गणरायाणो त्ति ) समुत्पन्न प्र-
योजने ये गणे कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः
सामन्ता इत्यर्थः । ते च तदानीं चटकराजस्य वैशाली-
नगरीनायकस्य सादाय्याय गरी कृतवन्त इति । श्रथ महा-
रिलाकणयके संग्रामे चमरेण॒विक्र्चिते सति कृणिको
यदकरोत्तद शना शेमिद माद-( तए मित्यादि ) ततो महा-
शिलाकर्टकसमग्रामविकुवैणानन्तरम् । ( उदायि ति) उदा-
यिनामानम् । ( दस्थिरायं ति ) हस्तिप्रधानम् । ( षडिकः
प्पह त्ति ) सनद्ध कुरुत । ( पञ्चप्पिणह क्ति ) प्रत्यप-
यत-निवदयतेत्य्थः । ( हट्ठतुट्ट त्ति ) इद यावत्करणादेव
दृश्यम- द ट्रुतुद्ाचत्तमाणदिया नदिया पीइमणा ” इत्यादि
तत्र हृष्ठतुशम-अत्यथ तुष्ट, हृए वा विस्मितं तुश्च
तापवच्चित्त-मनो यत्र तत्तथा, तस् इष्टतुष्टचित्तं यथा
भवति इत्यवमानन्दिता ईंषन्मुखसोम्यतादिभावैः समद्धि-
मुपगताः, ततश्च नन्दिताः सम्रद्धितरतामुपगताः, प्रीतिः
प्रीणनम-श्राप्यायन मनासि यषां ते प्रीतिमनसः । ( च्रज-
लि करट त्ति) इदं त्वेवे दश्यम्- करयलपरिग्गहियं द-
सणहं सिरसा ऽवत्तं मत्थए अर्जाल कट्ट `` तत्र शिरसा अ-
प्राप्तम-असंस्पृष्टे मस्तके ऽअलि कहृत्वत्यर्थ:। ( एवं सामी !
तह त्ति श्राणापए विणएरं वयणे पडिसुणेति त्ति)
पवे स्वामिन् ! तथति आज्ञया इत्य वेविधशब्दभणनरूपोा
यो विनयः स तथा तेन, वचनं राज्ञः सम्बन्धि प्रतिशु-
ण्वन्ति--अभ्युपगच्छान्ति । ( चयार्यारिश्रावपएस मइकप्प्णा
विगप्पाहं ति ) छेको निपुणो य आचा्यः-शिल्पा-
पदशदाता तस्योपदेशात् या मतिः वुद्धिस्तस्या ये कल्प-
ना-विकल्पाः कलृपिभदास्ते तथा तैः प्रकल्पयन्तीति योगः ।
( सुनिउणहिं ति कल्पनाविकल्पानां विशेषणम् । मर्व
सुनिपुशेः ( एवं जहा उववाइप त्ति ) तज चदे सूत्रम-
वम्-( उज्जलनवत्थहव्वपरिवान्छियं ) उज्ज्वलनेपथ्येन-नि-
मैलवेषण ( हव्वं ति ) शीघ्र परिक्तिप्त- परिगृहीतः प-
रिच्रितोयः स तथा तम् । ( खुसज्ञ वभ्मियसंनद्धबृद्धकवदयं
उष्पीलियवत्थकच्छुंगवेज्गवद्धगलगवरभसणविराइयं ) व-
मणि नियुक्ता वार्भिकास्तैः सन्धः कृतसन्नाहा वार्म्मिकसन्न-
ङः, वद्धः कवचिकः सन्नाहविशषा यस्य स बद्धकवचि-
कः, उत्पीडिता गाढीकृता घक्तसि कक्षा हृदयरज्जुर्यस्य
स तथा, व्रेवयकं बद्ध गलक्र यस्य स तथा, वरभूष-
शेर्विराजता यः स तथा, ततः कम्मंधारयोऽतस्त-
म्। ( आअहियतयजुत्नं विरइयवरकरणपूरसललियपलंवाव-
चूलचामरोयरकयेऽधयारं ति ) विरचिते वरकर्णपूरे
प्रधानकर्णाऽऽभरणविशेषौ यस्य स तथा, सललितानि
प्रलम्बानि अवचूलानि यस्यस तथा, चामरोत्करेण कू-
तमन्धकारं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयो5तस्तम ।
( चित्तपरिच्छोयपच्छयं ) चित्रपरिच्छाको लघुः प्रच्छदो
वख्रविशषो यस्य स तथा, श्रतस्तम् | ( कणगघडियसुस-
गसुबद्धकच्छे ) कनकघाटितसूत्रकेण सुष्ठ वद्धा कक्षा उरो-
बन्धने यस्य स तथा, तम्। (बहुपहरणावरणभारियजुज्कमूस-
ञ्जे) बहूनां प्रहरणानामावरणानां च स्फुरकङ्कटादीनां
भृतो युद्धसजश्च यः स तथा, श्रतस्तम्। ( सच्छत्त स,
ज्ये सघटं ) ( पचामेलियपरिमडियाभिराम ) पश्चमिरा-
पीडकाभिश्चूडाभिः परिमरिडताऽभिरामश्च-रम्यो यः
न
=>
व... ममता माह. “8 अमन
( २२१
अभिधानरा ॥
महासिलाक०
महासीहणि०
ख तथा,अतस्तम्, (ओसारियजमलजुय लघंटं) अवसारित- |
म-अवलाम्बत, यमल-सम, युगलम-द्वय, घराटयाथल स ।
तथा.श्रतस्तम्, (विज्जुपिणद्धं व व कालमेहं) भास्व॒रप्रहरणा-
भरणादीनां विद्युत्कल्पना कालत्वा्च गजस्य मेघसमते-
ति । (उप्पाइयपव्वयं व सक्खे) ओत्पातिकपवैतमिव सा- |
क्तादित्यथः, ( मत्त मेहमित्र गुलगुलते ) ( मणपवणजई -
शवेगे ) मनःपवनजयी वगो यस्य स तथाऽतस्तम् । शष
तु लिखितमवास्ति । वाचनान्तर त्विदं सात्ताज्ञिखितमव
दश्यत इति । (कय्वालिकम्मे त्ति) देवतानां कृतबलिकर्स्मो ।
(कयकोउयमेगलपायच्छत्त त्ति ) रतानि कातुकमङ्गला-
न्यव॒प्रायश्चित्तानीव दुःस्वप्नादिव्यपोहायावश्यकत्तेव्य
त्वात् , प्रायाश्चत्तान यन स तथा, तत्र कातुकरान म-
घीपुराडादीनि, मङ्गलानि सिद्धाथकादाने । ( सन्नद्धवद्धव-
स्मियकवए त्ति ) सन्नद्धः सन्नटानक्या, तथा बद्धः क- |
शावन्धनतोा, वाम्मता वम्मतया,
त्कवचः कङ्टा यन स तथा, ततः कम्मधारय ॥ ( उप्पा-
लयसरासरणपाटए तत्त ) उत्पाडता गुणसारणन कता- ।
ऽवपीडा शरासनपट्टिका धनुदेशडों यन स तथा
उत्पीडिता वा वादो वद्धा शरासनपट्टिका बाहुपाइईका
येन स तथा, ( पिणद्धगेवेञ्जविमलवरवद्धचिघपट त्त )
पिनद्ध-परिदहितं, गरैवयकं-ग्रीवाभरण, यन स तथा, वि- |
मलवरो बद्धश्चिह्ृपद्टो योधचिहृपद्टो येन स तथा, ततः
कम्मेधारयः । ( गहियाउहपहरण त्ति ) ग्रहीतानि आयु-
धानि,शस्प्राणि-प्रहरणाय परषां प्रहारकरणाय यन स तथा,
अथवा-आयुधान्यत्तेप्यशस्थ्राणि खङ्गादीनि, प्रहरणानि तुत्त
प्यशख्राणि नाराचादीनि, ततो गरृहीतान्यायुधानि प्रहरणानि
येन स तथा, ( सकोरंटमल्लदामेणे ति) ) सह कोरराटप्र-
धानैः कोरणटकामिधानकुसुमगुच्छे्माल्यदामणशिः-पुष्पमा-
कताऽङ्ग नवशना- |
लाभिर्यत्तत्तथा तन, ( चउचामरवालवीइयंगे त्ति ) चतुणा
+ ल्व (~ ~ ५ |
चामराणां बालैर्वीजितमङ्गं यस्य स तथा । ( मेगलजयसद-
कयालाप तति ) मङ्गला माहुल्यो जयशब्दः कृतो-जनैर्वि-
दित आलोके दशने यस्य स तथा, “ एवं जहा उबवाइए
जाव ” इत्यननेदं सूचितम्--“ अगगणनायगदंडनायग-
राईसरतलवरमाडवियकोडंवियमतिमहामतिगणगदोवारिय-
अमच्चेडपीढमदणणगरणिगमसेट्टिसेणावइसत्थवाहदूयसं-
धिपालसद्धि संपरिवुडे घवलमहामेहणिग्गए विव गहगण-
दिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्के ससि व्व पियदंसणे नरवर
मज्जणघराओ पड़निक्खमद्र मज़णघराओ पडिनिक्ख
मित्ता जेणेव वाददिरिया उवद्वाणसाला जणामेव उदाई ह-
त्थिराया तेणामव उवागच्छुइ ” ज्षि। तत्रानके ये गणना-
यक्राः-प्रकृतिमहत्तराः,दरडनायकाः-तन््रपाला,राजामो-मा
र्डलिका, ईश्वरा-युवराजाः, तलबसः-परितुष्टनरपतिप्रदत्त-
पट्टवन्धावि भूषिता राजस्थानीयाः,
म्वाधिपाः ,कौठुम्बिकाः-कति पयकुडुम्बस्य प्रभवोज्वलगकाः,
मन्त्रिणु:-प्रतीताः,महा मन्त्रिणो-मन्त्रिमएगडलप्रधानाः, गण-
काः-ज्योतिषिकाः, भाणडागारिका इत्यन्ये । दोवारिकाः
प्रतीहाराः, अमात्या-राज्याधिष्टा यकाः, चराः-पादमृलिकाः,
पीठमद्दीः-आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यथः,
नगरमिह सेन्यनिवासिप्रङूतयः,निगमाः-कार सिकाः वणिजो
माडम्बिकाः-छिन्नमड- |
वा, धरेष्ठिनः श्रीदेवताध्यासितलोवर्णपट्टावि भूषितोत्तमाजाः,
शरद
पु र
सरनापतयो चपतिनिरूपितचतुरङ्गसेन्यनायकाः, साथवाहाः
प्रतीताः, दृता-श्रन्यषां राजादेशनिवेदकाः, सन्धपालाः-रा-
ज्यसन्धिरत्तकाः, पतपां न्द स्ततस्ते: । इह तृतीयावहुवच-
नलोपा द्रण्व्यः। ( सदधि नि ) साद्ध सहेत्यथः, न केवल
तत्सहदितत्वमेवापि तु तः स्मिति समन्तात् परिवृतः परिक-
रित इति, ( हारोत्थयसुकयरइयवच्छु ) हारावस्तृतेन हारा-
वच्छादनेन सुष्ठु छते रतिकं वत्तः उरा यस्य स तथा,
( जहा उववाए त्ति ) तत्र चेवमिदं सूत्रम-- पाल-
वपलम्बमाणपडखुकयरउत्तारेज् इत्यादि ` तत्र प्रलम्बन
दीश्रण प्रलम्बमानेन इम्बमानन पटेन खुष्डु कृतम् , उत्तरा-
यम्-उत्तरासङ्गा यन स तथा, ( महया भडचडगावद्प-
रिकिखत्ते त्ति ) महाभरानां विस्तारवत्सङ्घन पारेकारत
इत्यथः, ( आयाए त्ति ) उपयातः उपगतः ( अभेज्जकवय
ति ) परप्रहरणा भद्यावरणम् ( वररर्पाडरूव ति ) वज्रस-
दशम् । ( पगहत्थिणा वि त्ति ) । एकेना5पि गज्नलत्यथः ।
( पराजिणित्तए त्ति ) परानभिभवितुमित्यथः | ( हयम-
दियपवर वीर घाडइ्यविवडिर्याचधद्धयपडगे त्ति ) हताः-प्र-
हारदानतो, मथिता-माननिमेथनतः, प्रचरवीराः-प्रधानमरा
घातिताश्च येषां त तथा, विपतिताश्विहृष्वजाः-चक्रादिचि-
हृप्रधानध्च्जाः पताकाश्च तदन्या यपां ते तथा,ततः कम्मधार
यो ऽतस्तान् । ( किच्छुप्पाणगए त्ति ) रूच्छुगतप्राणान् कष्ट प
तितप्राणानिव्य्थः ( दिसा दिसि ति) दिशः सकाशादन्यस्या
दिशि अपमिम तदिकत्यागाहिगन्तरामिमुखनेत्य थः ,अथवा-दे-
गेवाउपदिक्, नशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषधन तहिगपादेक त-
यथा-भवत्येवम् , ( पडिसेहित्थ त्ति ) अतिषेधितवान युद्धा-
न्रिवत्तितवानित्यथः । ( सास्ट्टु त्ति ) संरुष्टा मनसा (परिकु
वियति ) शरीरे समनन््तादार्शितकोंपविकाराः । ( समरवाहय
ज्त)सग्रामेहताः। भ० ७ शु० & उ०।
महासीह-महा|सिह-ए० । जम्बूद्वाप भरतत्तेत्र अस्यामुत्साप-
ण्यां जाते षष्टे बलदेववासुदेवस्य पितरि, स्था० ६ ठा० |
महासी ह णिक्की लिय-मह।सिंह निष्क्री डित-न० । बृढ॒त्ममाणे
तपसि, ज्ञा० १ थश्रु० ८ अ० | धरव० |
ओओपपातिके चेव व्याख्यातम् । इयं च स्थापना--
+
१६ | पकादयः षोडशान्ताः पुनः पोडशाद-
२ | १ १४ | १५ | य पकान्ताः स्थाप्यन्त, तत्र द्यादीनां
३ | २ | १३ | १४ | पोडशान्तानामत्र प्रल्यकमेकादयः प-
४ | ३ | १२ | १३ | अदशान्ताः स्थाप्यन्ते, तथा ये षोड-
५ | ४ | ११ | १२ | शादय एकान्ताः स्थापितास्तेषु पञ्चद-
६ | ४ | १० | १६ | शादीनां च्यन्तानामादौ चतुरदेशाद-
७|६।६ | १० | यः स्थापनीयाः चतुदैशादिना चाभि
८ |७|८ |£ | लापेन त समुत्कीतेनीयाः। दिनमान
६ |८|७ | ८ | चेकस्यां परिपास्यामिदमत्र-दे षोड-
१० ६ |£ | ७ | शानां सङ्कलने १२३६,१३६ पका पश्चद-
११| १० ५ (६ | शानां १५० चतुदेशानामप्यवमेव १०४
१९ ६६| ४ | ५ | एकषपष्टिश्च ६१ पारणकानीति, सवेस-
१३ १२४ २ (४ | कलने च ५५८, एवं च वर्भमेकं पट च
१४| १३| २ |३ | मासा दिनान्यष्ादशोति,परिपारीचतु
९५९४ | १६ रे ण्ये चतुयुणमेतदेव-६ वर्षाणि, २
(६१४५ | म
सा, १६ दिनानि । ्ी०।
।
( २२२ )
मटासीदलि०
आमसधानराजन
महासुमि/विशण
महासिंहंनिष्क्री डित तप आह--
इग दुग इग तिगदुग चउ,तिग पण चउ छक्र पच सत्त छंग।
| पहारेत्थ गमणाणए, तए णं ते देवा भगव गोयमं पज्जुवा-
अड सत्त नव ड दस नव,एकारस दस य वारसगं १५४३३
एकार तेर वारस, चडदस तरस य पनर चउदसगं ।
सोलस पनरस सोलाई, होइ विवरीयमेक्रत ॥१५३४॥
अआधथाक्कशष [दइनसचसख्या चाह---
एए उ अभत्तड्ठा, इगसड्टीी पारणाणमिह होड !
समार्ण पासंति पासित्ता हड्ढतुद्ढा" जाव हयहियया खि-
प्पामेव अब्भ्ुट्टेति अब्भुद्ेत्ता खिप्पामेव पच्चुवागच्छति
| पच्चुपागच्छित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति
एसा एगा लइया, चउग्गुणाए पुण इमाए ॥१५३५॥ |
वरिसछग मासदुग, दिवसाई तहेव वारस हवंति ।
एत्थ महासीहनिकी-लियंमि तिव्वे तवचचरण ॥१५३६॥
(व्याख्या स्थापनास्वरूप चोपपातिकवत् ) प्रव० २७१द्वार। |
महासीहसेण -महासिंहसन -पुं० | राजगरृहे श्रेणिकराजस्य धा- |
रणिकुक्षिसभव पुत्र, “ ससा महादुमसणमाती पंच स-
व्यट्ट्सिद्धे ” श्रु २ वगे १९ अ०। (स च वीरान्तिके प्रत्र- |
ज्य पोडशवपप्यायः सलेखनया ग्रत्वा सर्वार्थासिद्ध उपपच्च
महाविददे सत्स्यति )
।
|
महासुक-महाशुक्र-पं० । सप्तमदेवलोके तदिन्द्र च । स्था० |
२ ठा० ३ उ० । अनु० । प्रज्ञा०। ( अत्रत्य पूवां प्रञ्चसूजरम् )
श्रतवासि ` शब्दे प्रथमभागे गतम् )
थ तत्स्वरूपप्रातिपादनायाह--
ते ण॑ काले ण॑ ते एं समए णं समणस्स भगवश्रो भहावीर- |
|
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रस जट अंतेवासी इद भृती णाम अणगारे जाव अदूरसामंते |
उड़ जाणू ०जाव विहरति , तए शं
तस्स भगवओ |
गोयमस्स झाणंतरियाएं वइमाणस्स इमेयास्वे अज्म |
स्थिए ०जाव समृप्पज्जित्था, एवं खलु दो देवा म-
हिड्डिया ०जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ म-
हावीरस्स अंतिय पाउब्भूया, त॑ नो खलु अहं ते दवे
जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ
वा कस्स वा अत्थस्स अद्गाए इहं हव्वमागया !
च्छामि णं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि ०जाव पज्जु-
वासामि, इमाई च णं एयारूवाईं बागरणाई पुच्छिस्सामि
ति कट एवं संपेहति सम्पेहित्ता उड़ाए उद्देति त्ता ज- |
गोय- |
रेव समे भगवं महावीरे° जाव पञ्जुवासति,
मादि । समणे भगवं महावीरं भगवं गोयमं एवं वयासी-
से णुरा तव गोयमा ! फाणंतरिय।ए वदमाणस्स इमेया-
स्वे अज्भत्थिए °जाव जेव मम अंतिए तेणेव ह-
व्यमागए से णृणं गोयमा ! अत्थ समद्ठे १, हंता अत्थि,
# तं ग् |
ते गच्छाहि ण गायमा! एए चव देवा इमा एयारूवाइ |
वागरणाई वागिति, तए शं भगवं गायमे ! समणेसं भ-
गवया महावीरेणं अन्भणुन्नाए समाणे समं भगवं महा- |
4
वीरं वेदद् शमंसति वंदित्ता शमसिना जणे ते देवा तेणेव
उवागच्छित्ता°जाव शमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु
भते ! अम्हे महासुकातो कष्पातो महासग्गतो महाविमा-
णाओ दो देवा महिड्डिया०जाव पाउन्भूता, तए शं
अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो वंदित्ता
शमसित्ता मणसा चेव इमाईं एयारूवाई वागरणाई प्रु-
च्छामो--कति णं भते ! देपाणुष्पिया शं अंतेवार्सासयाई
सिज्मिहिंति०जाव अतं करेहिति ! , तए णं समणे
भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पदे अम्हं मणसा चेव इमं
एयास्वं वागरणं वागरेति-एवं खलु दे वाणुष्पिया ! मम
सत्त अंतेवासीसयाईं °जाव अतं करेहिंति , तए शं अम्हे
समणेणं भगवया महावीरेण मणसा चेव पुद्णं मणसा
चेव इम एयास्वं वागरणं वागरिया समाणा समणं
भगव महावीरं वदामो न्मसामो २ ० जाव पञज्जुवासा-
मो त्ति कट भगवं गोयमं वदति नमसंति २ न्ता जामेव
दिसि पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए । ( षत्र-१८६& )
( त मित्यादि ) ' महाशुऋत् ` सप्तमदेवलोकात् (ाण-
तरियाए त्ति ) अन्तरस्य विच्छुदस्य करणमन्तरिका ध्यान-
स्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-अआआरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वे-
स्यानारम्भणमित्यथः । श्रतस्तस्यां वर्तमानस्य ( कप्पाओ
त्ति ) दवलाकात् ( सग्गाश्रो त्ति) स्वगाद् , देवलो कदेशात्प्र-
स्तटादित्यथः , ( ( विमाणाओ त्ति ) प्रस्तटेकदेशादिति ,
( बागरणाद ति ) व्याक्रियन्त इति व्याकरणाः भरश्नार्था
अधिकृता एव कल्पविमानादिलत्तणाः । भ० ५ श० ४ उ० ॥
महासुनि(वि)ण-महाखप्न-पुं० । महत्तमफलसूचके स्वमे ,
ज्ञा० । भ० ।
महासुविणा वावत्तरि ७२ सव्यसुविणा दिद्ठा, तत्थ णं
देवाणुप्पिया ! तित्थगरमायरो वा चकवद्टेमायरों वा
तित्थगरंसि वा चकवद्टींसि वा गन्मं वक्रममाखेसि
एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे
पासित्ता णं पडिबुज्क॑ति, ते जहा--
गय १ वसह २ सौंह ३ अभिसेय 9-
दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ भयं ८ कुंभ ६ ।
पउमसर १० सागर ११ विमाण-
भवण १२ रयणुचय १३ सिहं च १४॥ १॥
( महासुविण त्ति ) मदाफलत्बात् [ वावत्तरिं ति ] चिंश-
तो द्विचत्वारिशतश्च मीलनादिति । [ गब्भे वक्कममाणेसि
त्ति ] गर्भ व्युत्कामति--प्रविशतीव्यर्थः, [ गयवसद्दे
त्यादि ] इह च-[अभिसेय जति ] लच्म्या अभिषेकः [ वाम
त्ति ] पुष्पमाला, [ विमाणभवण त्ति ] एकमेव, तत्र बि-
_महासुमि (वि)ण _
( २९३ )
अभिधानराजन्द्रः।
मटारूमि(वि)
मानाकारे भवनं विमानभवनम् , अथवा-देवलोकाद्यो5व- |
तरति तन्माता विमानं पश्यति । यस्तु नरकात् तन्माता
भवनमिति । भ० ११ श० ११ उ०।
कातावधाः स्वपग्मा+---
कतिविदे णं भते ! सुविणदंसणे पण्णत्ते ?। गोयमा ! ,
पंचविहे सुविण॒दंसणे पप्मत्ते तं जहा--अहातच्चे |
पयाणे चितासुविणे तव्विवरीए अव्वत्तदंसणे, सुत्ते णं
भंत ! सुविणं पासति , जागरे सुविण पासति, सुत्त-
जागरे खविखं पासति १ । गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं
पासइ,नो जागरे सविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ,
( भ० ) संवुड़े णं भते ! सुविणं पासइ, अरसवड सुविणं
पासइ, सबुडाऽसंवुड स॒विणं पासइ ?। गोयमा ! संवुड़े |
ऽवि सुविणं पास, असंवुडेऽवि सुविणं पासई, सुवुडासंवु- |
डेऽवि सुविणं पासई । सवुड सुविणं पासइ अहातच्चं पासइ
अंसवुडे सुविणं पासइ तहाऽवि तं होजा अण्णहा
वा त॑ होज़ा, सवुडाऽसवुंड सुषिणं पासइ एवं चव,
जीवा णं भते ! कि सवुडा असंवुडा संवुडार्सवुडा १
गोयमा ! जीवा संवुडाऽ्वि असंवुडा ऽवि संवुडासंबुडा
वि, एवं जहेव सुत्ताणं दंदओ तहव भाणियन्वो, कड
शं भते ! सुविणा पष्पत्ता ?। गोयमा ! वायालीसं
सविणा पष्पत्ता । कड णं भते ! महासृविणा पष्पत्ता।
गोयमा ! तीसं महासुविणा पष्पत्ता । कड णं भते!
सव्वसुविणा पष्पत्ता | गोयमा ! वावत्तरं सव्व- |
सुविणा पप्पत्ता | तित्थगरमायरो णं भते ! तित्थगरंसि |
गब्भे वकममाणसि कड महासुविणे पासित्ता णं पडिबु-
ज्कंति ? गोयमा ! तित्थगरमायरो श तित्थगरासि गब्भं
वकममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चउदस
महासुबिणे पासित्ता श पडिवुज्ःति, त॑ जहा--गयउस-
भसीह ०जाव सिहं च । चकवट्टिमायरो श भते ! चक्र
विसि गन्भं वकममाणंसि कई महासुषिणे पासित्ता श
पडिवुज्भंति १ गोयमा ! चकवद्धिमायरों चकवद्टेंसि |
०जाव वकममाणंसि एएसें तीसाए महासुविणाणं एवं
जहा तित्थगरमायरो ०जाव सिहदि च । वासुदेवमायरो णं
पृच्छा, गोयमां ! वासुदेवमायरों ०जाबव वकममाणंसि
एएसिं चउद्सणह महासुविणाणं अप्मयंर सत्त महासु-
विणे पासित्ता ण पडिबुज्कंति | बलदेवमायरो वा ण पु- |
च्छा, गोयमा ! बलदेवमायरो ०जाव एएसिं चउदसरहं ।
महासुविणाणं अप्ययरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता रे
पडिबुज्कंति, मंडलियमायरो णं भते ! पुच्छा, गोयमा !
मंडलियमायरो ०जाव एएसिं चउद्सणह॑ महासुविणाणं
अश्ययरं एगं महासुविणं०जाव पडिबुज्कंति, (स्रत्र-५७८) |
समणे भगवं महावीरे छठमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे ।
दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, त॑ं जहा--एगं च
णं महं घोरसूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजिय
पासित्ता ं पडिबुद्धे १। एगं च णं महै सुक्षिल्नपक्खगं
पुंसकोइल सुविे पासित्ता णं पडिबुद्धे २। एगे च णं मह
चित्तविचित्तपक्खगं पंसकोदलग सुविणे पासित्ता णं
पडिबुद्धे ३ । एगंचणं मह दामदृगे सव्वरयणामर्य
सुविणे पासित्ता णं पडिबुड्धे ४ | एगं च णं मह सेयगो-
वग्गं सुविणे पासित्ता ण पडिबुद्धे ५।एगं च णं महे पउ-
मसरं सव्वओ समता कुसुमिय सुविणे पासित्ता श पडि-
बुद्धे & । एगं च णं मदे सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं
ययाहं तिं सुविणे पासित्ता श पडिवुद्ध ७। एग च णं
महं दिणयरं तयसा जलत सुविणे पासित्ता श पडिबुद्धे
८ । एग च णं महं हरिविरुलियवष्पाभणं णियगेणं अतेणं
माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वओ स्मता आवेहढियं परिवेधियं
सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ण्गच शं महं मंदरे
पव्वए मदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुवि-
णे पासित्ता श पडिबुद्धे १० । ज ण समणे भगवं महा-
वीरे एगं महं घोरस्वदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजि-
यं पासित्ता णं ०जाव पडिबुद्धे, तं णं समणेणं भगवया
महावीरेणं मोहरिजे कम्मे मूलाओ उग्धातिए १ । ज णं
सम भगवं महावीरे एग महं सुकष्टं ०जाव पडियुद्धे, तं
णं समणे भगवं महावीरे सुकञ्छाणोवगए विहर्इ २।
ज णं समे भगवं महावीरे एग महं चित्तविचित्त° जाव
पडिबुद्धे, तं णं समे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपर-
समयं दुबालसंगं गणिपिडगं आघयैति प्वेति परू-
वेड दंसेड निद॑सेड उबदंसेइ, ते जहा-आयारं षयगदं
“जाब दिद्टिवायं३।, ज णं समे भगवं महावीरे
एगं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं प-
डिवुद्धे, तं ण समणे भगवं महावीरे दुविह धम्मं पष्म-
वेह, तं जहा-अगारधम्मं वा, अणगारधम्मं वा ४।
जणं समणे भगवं महावीरे एगं मह सेयगोवग्ग०
जाव पडिवुद्धे तं णं समणस्स भगवश्रो महावीरस्स
चाउव्यप्पाइस्त समणसंघे पत्ते । तं जहा-समणाग्या, सम-
णीओ, सावयाओ, साविथाओ ५। ज णं समणे भगवं
महावीरे एगं महे पउमसरं ०जाव पडिवुद्धे, तं श सम-
णे ०जाव महावीरे चउव्विहे देवे पप्मब्रेइ तं जहा-भव-
वासी, बाणमतरे, जोइसिए, वेमाणिए ६ | ज श समणे
भगवं महावीरे एग महं सागर०जाव पडिवुद्धे, तं र सम~
शेणं भगवया महावीरेणं अणादिए अणवदग्गे० जाव
संसारकंतारे तिस ७ | जे णं समणे भगवं महावी रे
( २२४ )
_महाखुमि(विशण __
एगं मह दियर °
खाणदंसणे समुप्पत्म ८ | जे शं सयणेणं ° जाव वीरेणं
एगं मह हरियवेरुलिय ०जाव पडवुंद्ध , त॑ णं समणस्स
भगवओ महावीरस्स ओराला कित्तिवप्पसदसिलोया
सदेवमणुयासुरे लोगे परिभवंति-इति खलु समण भगवं
महावीरे इति खलु समणे० ६। जे णं समणे भगवं महावीरे
मद्रे पव्वए मंदरचूलियाए ०जाव पडिनुद्धे, तं शं समणे
अभिधानराजन्द्रः |
जाव पड़िबुद्धे, त॑ श समणस्स |
भगवओ महावीरस्स अरणंते अणुत्तरे° जाव केवलवर ` |
भगवं महावीरे सदेवभणुयासुराए परिसिए् मज्छगए |
केवली धम्म आधवेइ०जाव उपदेसइ । ( सूत्र-५७६ )
इत्थी वा पुरिमे वा सुविणंऽत एगं मह हयपंतिं वा गयपं-
तिं वा०जाव वसभपंतिं वा पासमाणे पासइ,दुरूहमाणे दुरू-
हइ, दुरूढमिति अप्पाणं मछाइ , तक्खणामेव बुज्भइ,
तेणेव भवग्गहणणं सिज्कइ, ०जाव अंत करेह । इत्थी वा
पुरिसे वा सुविणंते एग महे दामिशि पाईणपडीणायतं
दुहओ समुद पुद पासमणे पासइ, संवे्टेमाणे संवेछेइ,
सवेद्धियमिति अप्पाणं मण्णईइ , तक्खणामेव अप्पाणं
बुज्भड्, तेणेव भवग्गहणेणं ० जाव अंत करेइ । इ- |
त्थी वा पुरिसे वा एगं महं रज्जु पाईणपडीणायतं दुह-
ओ लोगऽते पु पासमाण पासई, छिंदमाणे छिंदइ ,
छिप्ममिति अप्पाणं म्ण, तक्खणामेव जाव ० अंत करेइ । |
इत्थी वा पुरिसे वा सुविते एगं महे किण्हसुत्तगं वा |
०जाव सुकिल्लस॒त्तगं वा पासमाणे पासइ , उग्गोवेमाणे
उग्गीवेइ, उग्गोवियमिति अप्पाणं मष्यइ, तक्खशामेव |
०जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविशंऽते एगं महं |
सीसयरासिं |
अयरा्सि वा तंवरासें वा तउठयरासें वा
वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहह, दुरूढमिति अ-
प्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्भड, दोचे भवग्गहणे सि-
जमद, ०जाव अंत करेइ । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते
एगं मह दिरष्परासिं वा सुवष्परासि वा रयणरासि वा
वहररासिं वा पासमाणे पासद, दुरूहमाणे दुरूहइ, दु-
रूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्कइ, तेणेव |
भवग्गहणेण सिज्भइ,०जाव अंत करेइ । इत्थी वा पुरिसे
वा सुविणंते एगं महं तणरासि वा जहा तेयणिसग्गे
०जाव अवकररार्सि वा पासमाणे पासइ, विक्खिरमणे
विक्खिरइ, विक्खिणएणमिति अप्पाणं मण्णह , तक्खणा-
मेव बुज्भई, तेणेव ° जाव अंत करेति, हत्थी वा पुरिसे
वा सुविणंते एगं मह सरथंभ वा वीरणथंभ॑ वा व॑-
सीमूलथंभ वा वलीमूलथंभ वा पासमाणे पासइ, उ-
म्मूलमाणे उम्मूलेइ, उम्पूलितमिति अप्पाणं मणणद्, त-
(क “१ ४ »पहासलििआ
क्खणामेव बुज्भइ, तेणेव०जाव अतं करेइ । इत्थी वा
पुरिसे वा सुविणंते एगें महं खीरकुंभ वा दाभिकुंम॑
वा घयकुंभ वा मधुकुंभ वा पासमाणे पासइ, उप्पाडे
माणे उप्पाडेइ, उप्पाडितामिति अप्पाणं मष्पह्, तक्खणामेव
बुञ्मद, तेणेव ०जाव अतं करेइ। इत्थी वा पुरिसे वा
सविरंते एगं महं सुरावियडकुंभ पा सोवीरवियडकुंभ॑ वा
शन्नकुंभ वा वसाकुंभ वा पासमाणे पासइ , भिदमाणे
भिद्इ, भिननामिति अप्पाणं मष्पई, तक्खणामेव बुज्भइ,
दाचेणं भवग्गहणेणं °जाव अतं करेइ । इत्थी वा पुरिमे
वा सुविणंते एगं मह पउमसरं कुसुमित पासमाणे पासइ,
ओगाहेमाण ओगाहइ,ओगादभिति अप्पाणं मष्मइ, तक्ख-
णामेव तेणेव ०जाव अंतं करेइ । इत्थी वा ०जाव सुविणंते
एगं महं सागरं उम्मी वीयी ° जाव कलियं पासमाणे पासइ,
तरमाणे तरइ, तिष्पमिति अप्पाणं मष्मइ, तक्खणामेव
तेशेव ०जाव अंत करेइ । इत्थी वा पुरि °जाव सुविते
एग महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाे पासति, दुरूहमा-
णे दुरूहति, दुरूढमिति अप्पाणं म्द, अणुपाविसमाणे अ-
रुपविसति, अणुपविद्रुमिति अप्पाणं मति, तक्खणामेव
बुज्कमति, तेणेव ०जाव अंत करेति, इत्थी वा पुरिसे वा
सुविणंते एगं महं विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासइ,
दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्ख-
णामेव बुज्छद, तेणेव० जाव अंत करेइ । ( षत्र-५८० )
(कटवि) इत्यादि, ( सुविणदंसण' त्ति ) स्वप्नस्य-स्वा-
पक्रियाचुगता्थविकल्पस्य, दर्शनम-अनुभवनं, तच्च स्वप्त-
मेदात्पश्चविधमिति, ( अअरहातञ्च त्ति ) यथा येन प्रकारेण
तथ्य-सत्य, तच्वं वा तेन यो वत्ततऽसौ यथातथ्यो य-
थातत्वो वा, सच दष्टार्थाविसवादी फलाविसवादी वा।
तत्र दष्राथीविसेवादी-स्वप्नः किल कोऽपि स्वप्न पश्यति,य-
था-'मह्य फलं हस्ते दत्त' जागरितस्तथेव पश्यतीति, फ-
लाविसवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुअराद्यारूढमात्मा-
ने पश्यति बुद्धश्च कालान्तरे सस्पदे लभते इति, ( पयाणे
त्ति ) प्रतनने-प्रतानो विस्तारस्तद्रपस्स्वप्नो यथातथ्यः
तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते, विशेषणङूत एवं चानयो-
भदः, प्वसुत्तरत्रापि ( चिताखुमिणे त्ति ) जाग्रद-
वस्थस्य या चिन्ता श्रथचिन्तने तत्सेदशनात्मकः स्वभ्रः
चिन्तास्वप्तः, ( तच्विवरीय त्ति) यादृशे वस्तु स्वभे रण
तद्विपरीतस्या्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स॒ तद्विपरीतस्व-
मरो, यथा--कश्चिदात्माने मेध्यविलिप्त स्वपने पश्यति
जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचन प्रा्नोतीति , अन्ये तु-तद्धिष-
रीतमेवमाहुः-कश्चित् स्वरूपेण स्त्तिकास्थलमारूदः स्व-
म्ने च पश्यत्यात्मानमश्वारूढमिति, ( अव्वत्तदंसंणे सि ) अ-
व्यक्रम्-श्रस्पष्टे, दशनम-अनुभयवः स्वभ्नाथेस्य यत्रासावब्यक्ल-
दर्शनः । स्वप्नाधिकारादेवेदमाभिधातुमाइ--' खत्ते ण ' मि-
त्यादि, ( सुत्तजागरे त्ति ) नातिसुप्तो नातिज्ाग्रादित्यथैः,
( २२५ )
मटासु(म)ण
आमभधानराजन्द्र। |
सहासणकण्हा
इद सुप्तो जागरश्च द्वव्यभावाभ्यां स्यात्तत्र द्वव्यतो-निद्रा-
चेत्तया, भावतश्च विरत्यपेक्षया, तत्र च स्वप्तव्यतिकरों नि- |
द्वापेक्षया उक्कः। श्रथ विरत्यपेच्तया जीवादीनां पञ्चविशतेः |
पदानां सुप्तत्वजाग रत्वे प्ररूपयन्नाह-' जीवा ए ` भिव्यादि,
तत्र ( खुत्त त्ति ) सर्वविरतिरूपनेश्चायेकप्रवाघधभावात् ,(जा-
गर त्ति ) सवैविरतिरूपप्रवरजागरणस दद्धावात् । (खत्तजागर |
त्ति ) अविरतिरूपसख्तप्रवुद्धतासद्धावादिति । पूर्व स्वभ्रदण्ा
र उक्ताः | अथ स्वप्रस्यव तथ्यातथ्याविभागद्शंनाथ ताने- |
वाह-' सवुड ण ` मित्यादि , संचरतः निरुद्धाश्रवद्धारः
सर्वविरत इत्यथः , शरस्य च जागरस्य च शब्दकूत एव
विशेषः-- द्वयारपि सवंविरताभिधायकत्वात् , कितु-जागरः
सर्वविरतियुक्नो बोधापेक्षयोच्यते । सच्रतस्तु तथाविधवोधो-
पतसर्वविरत्यपेत्तयेति , ( सवुडे ण खविणं पासद अहात-
च्च पासइ त्ति) सत्यमित्यथः, संच्रृतश्चह विशिष्टतर-
सचृतत्वयुक्को ब्राह्यः। स च प्रायः त्तीणमलत्वात् देवतानु-
ग्रहयुक्रत्वाच्च सत्ये खभ्रं पश्यतीति । अनन्तरं सच्र॒ता- |
दिः खमन पश्यतीव्युक्कम् । अथ सवृतत्वाद्येव जीवादिषु द- |
शयज्नाह-' जीवा ण ` मित्यादि । स्वप्नाधिकारादेवेदमाद-
* कइ ण ` मित्यादि, ( वायालीसं खविण त्ति) विशिष्ट-
फलसूच कस्वप्नापेक्तया द्विचत्वारिशदन्यथाऽसख्ययास्ते
सभवन्तीति, ( महाखुविण तति ) महत्तमफलसूचकाः
( वावत्तरि त्ति) एतषामव मीलनात् । (अतिमराइयसि त्ति)
राजेरन्तिमे भागे ( घोाररूवदित्तधर
ति) घोरे यदूप |
दीप्त च दत्त वा तद्धारयति यः स तथा, तम् । ( तालपि- |
साय ति ) ताला- वृत्तविशेषः,
स च स्वभावाद्दीर्घो |
भवति, ततश्च ताल इव पिशाचस्तालपिशाचस्तम् , पषां |
च पिशाचाद्यथीनां मोहनीयादिभिः स्वभ्रफलविषयभूतैः
सह साधम्यं स्वयमभ्यृद्यम् , ( पुंसकोदइलगं ति ) पुंस्को-
किले--कोकिलपुरुषमित्यथः, ( दामदुगं ति ) मालाद्वयम् ।
( उम्भावीईदसटस्सकलियं ति ) इहोमेयो महाकल्लोलाः घी-
चयस्तु हस्वाः, अथवा-ऊम्मींणां वाचयो विविक्कव्यानि त-
त्सहस्र कलितम् , ( दरिविरुलियतव्ररणाभेण ति ) टरिञच्-त- |
न्नील वैद्र्यवर्णाभ चेति समासस्तन-( आवेडढिय ति) अ- |
भिविधिना वषित सवेत इत्यथः । ( परिवेढियं ति ) पुनःपु-
नरित्यथः । ( उवरि त्ति ) उपरि ( गणिपिडगं ति ) गणीना- |
म्-च्रथपरिच्छेदानां पिटकमिव पिरकम्--च्राश्रयो गाणिपि- |
टकम् , गणिनो वा आचाथस्य पिटकमिव “ स्यस्वभाजन-
मिव गणिपिटकम । [च्राधव्रद्र त्ति] आख्यापयति सामान्य-
विशषरूपतः, [ पन्नवेति त्ति] सामान्यतः [परूवेइ त्ति] प्रति
सत्रमथकथनेन, [दंसेइ त्ति | तदभिधयप्रत्युपेक्ञणादि कियाद
नन, [ निदंसेद त्ति ] कथज्विदगृहृतो ऽनुकम्पया निश्चयेन
पुनः पुनर्दशेयति [उवदंसेइ त्ति | सकलनययुक्रिभिरिति, [चा
उव्वराणाटन्न त्ति | चातुवैरश्चासावाकीशश्च ज्ञानादिगुरौरिति
चातुवंणोकीणेः । [ च उत्वि देवे पन्नवेइ त्ति ] प्रज्ञापय-
ति-प्रतिवोधयति शिष्यीकरोतीत्यथः
षयानन्तत्वात् [ अखुत्तरे त्ति ] सर्वप्रधानत्वात् * यावत्कर-
णादिदं दश्यम्-' निव्वाघ्राए ` कटकुड्यादिना 5प्रतिहतत्वा-
त् ओ * निरावरणे ' क्ञाविकत्वात् , ' कसिणे ' सकलार्थग्राहक
, [ अणंते त्ति ] वि- |
त्वात् , पडपुन्न ` रशनापि खकीयेनान्यूत्वादिति! [ ख०-- |
५७
7 ~
५७६ ] [ खुविणेत त्ति ] स्वप्रान्ते-स्वभ्रस्य विभागे
अवसाने वा * गयपंति वा ` इह यावत्करणादिदं दश्यम्-
* नरपति वा एवं किन्नरकिपुरिसमहोरगगंधव्व त्ति ` ( पा-
समाणे पासइ त्ति ) पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्रः सन् पश्य-
ति--अवलोकयति , ( दार्मिण ति ) गवादीनां ब-
न्धनविशषभूतां रज्जुम् । ( दुहओ त्ति ) द्वयारपि पा-
श्वयारित्य्थः । ( सवल्लमाणे त्ति ) सवल्लयन-सवत्त-
यन् ( सवल्ियमिति अप्पाणं मन्नइ ति ) सवल्लितान्ता-
मिव्यात्मना मन्यते विभक्गिविपरिणामादिति । ( उग्गोवेमाणे
त्ति) उद्वापयन् विमोादयन्नित्यथः । ( जहा तयनिसग्ग त्ति )
यथा गोशालके, अनेन चदे सूचितम-( पत्तरासीति वा
तयारासीति वा भ्रुसरासीति वा तुसरासीति वा गाम-
यरासीति व त्ति ) [ खुरावियडकुमं ति ] खुरारूप यद्
विकटम्-जल तस्य कुम्भो यः स तथा | [ सोवीरगवियड-
कुंभ व क्ति इट सौवीरकं-काञ्ञिकमिति। भ० १६ श० ६ उ०।
महासुमिणमभावणा-महास्वप्नभावना-खी° । महास्वमानि
गजवबृषभादीनि भाव्यन्त यासु ताः महास्वप्नभावनाः । अङ्ग-
बाह्यश्रुतविशेषे, पा० । पे० व०।
महासुव्वया-महासुत्रता-खी° । भगवतो ऽरिषनेमेः प्रथमश्रा-
विकायाम् , , आ० म० १ आ० ।
महासेण-महासेन-पु० । मल्िती थकरस्या्मे गणधरे, ज्ञा
१ श्रु० ८ अ० राजगृहे श्रेणिकराजस्य धारणीकुत्तिसम्भ-
वे पुत्र, अणु० १ वर्ग २ अ० | [ “ महासीहसण' शब्दे स्मिन्नेव
भागे २८१ ऽस्य वक्कव्यतोक्का ] जम्बूद्वीप भरततक्षेत्र सुप्र-
तिष्ठितनगरे स्वनामख्याते राजनि, विपा० ९ श्रु० &अ०।
कृष्णस्य वाखुदे वस्यावस्गकपुरुषे , आ० म० १ अ० | ज-
म्बृद्धीपे भरतक्तेत्र 7तीतायामुत्सर्पिएयां सप्तमकुलकरे, स० ।
फेरवत वर्ष भविप्यति पञ्चदशे तीधकरे , स० । आ० चू०
ईशानेन्द्रस्य देवस्य नास्यानीकाधिपतो, स्था० ७ ठा० |
महासेणकण्-महासनकरष्ण -पु० । श्राणकभायाया महासे-
नकृष्णायाः पुत्र, नि० १ वर्ग ६ अ० । [स च सग्रामे मुत्वा
चतुथनरकपृथिव्यामुपपद्य महाविदेहे सत्स्यतीति निरयाव-
लिकायाः प्रथमवर्ग षष्ट ऽध्ययने सूचितम् ]
महासेणकण्हा-महासेनक्रष्णा- खी° । खनामख्यातायां श्रे-
णिकभा्यायाम् , नि० । अन्त०। [ सा च वीरान्तिके प्रवज्य
्राचामाम्ल तपःकर्मोप संपाद्य सिद्धा ] वक्कव्यता यथा--
एवं महासेणकणहा वि, नवरं आयंबिलवड्रमाणं तवो-
कम्म उवसपजित्ता णं विहरति, तं जहा--आयंबिले करे-
ति, अ।यंविलं करेत्ता चरत्थं करेति चउत्थ करेत्ता वे
आर्यबिलाई करेति बे अयंबिलाईं करेत्ता चउत्थं करेति
चउत्थ कर्ता तिन्नि आयंबिलाई करेति तिनि आयंब्रि-
लाई कत्ता चरत्थं करेति चरत्थं करेत्ता चत्तारि आयं-
बिलाई करेति चत्तारि आयंबिलाई करेत्ता चउत्थ करेति
चउर्त्थ करेत्ता पंच आयंबिलाई करति पच आयंबिलाई
करता चउत्थ करेति चउत्थं करेत्ता छ आयविलाई करे-
ति छ आयंविलाई करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थ करेत्ता,
ह ( २२६
अआभनधानराजन्द्रः।
महासेणकर्टा ४
एवं एकेत्तरियाए बड़ीए आयंबिलाई वडंति चउत्थंड--
तरियाई ०जाव अयविलसयं करेति अयविलसयं करेत्ता
चउत्थं करेति, तते णं सा महासणकयहा अज्जा आयंबि-
लवड़माण तवोकम्मं चोहसहिं वासे तिहि य मा-
सेहिं वीसहि य अहोरत्तेहि अहासुत्तं ० जाव सम्म
काएणं फासेति ० जाब आराहेत्ता जरेव अज्जचंदणा
अज्ञा तशव उवागच्छह उवागच्छित्ता वंद्इ नमंसइ वं- |
दित्ता नमंसित्ता बहुहिं चउत्थेहिं जाव भावेमाणी |
विहरति, तते णं सा महासणकणहा अज्जा तेण |
ओरालण ° जाव उवसोभेमाणी चिद्र, तए णं तीसे
महासेणकण्टाए अज्ञाए अन्या कयाऽवि पुव्वरत्ता-
वरत्तकाले चिंता जहा खदयस्स ० जाव अज्ञचंदणं
पच्छई °जाव संलेहशा, कालं अणवकंखमाणी विहरति |
|
तते णं सा महासेणकणहा अञ्जा अज्जचदणाए अज्ञाए |
अतियं सामाइयातिं एकारस अंगाईं अहिजित्ता बहुपाडे
पुन्नातिं सत्तरसवासाति परियायं पालइत्ता मासियाए स-
लहणाए अप्पाणं भूसेत्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदे-
त्ता जस्सऽदाए कीरइ ०जाव तमई आराहेति चरिमउस्सा-
सणीसार्साहि सिद्धा बुद्धा । अन्त» ८ वर्ग १० अ० ।
मसहासेय -महासेक - पु । ओत्तरादाणामिन्द्र, स्था० ¦
दो कुंभडिंदा पण्णत्ता, त॑ जहा-सेए चव , महासेए
चव । स्था० २ ठा० २ उ०।
महासेल-महाशल-पुँ० । महाहिमवाति, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। |
चताद्य, कल्प” १ आंधि० २ क्षण ।
महासोक्ख-महासोख्य--वि० । महत्सौख्यं प्रभूतसद्धेदनीयो-
द्यवसाद्यस्य स महासोख्यः । अत्यन्तखुखयुक्के, स्० प्र० २०
पाहु०। ज० । | आ० | आ० म० । जी० । प्रज्ञा० । महानदे, स्था०
२ ठा० ३ उ० । विशिष्रखुखयागादिति, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।
स्था०। च० प्र० |
महामादाम-महासादाम-पु०। बलेचैंरोचनेन्द्रस्य पीटानीका-
घिपतो अश्वगाज, स्था० ५ ठा० १ उ०।
महाह रि--महाहरि--पुं० दशमचकऋवत्तिनः पितरि, स० ।
महाहिताव-महामभिताप-त्रि० । मदादुःखात्पादक, सूज्० १ |
श्रु° ५ आ० १ उ०।
महाहिमवंत-महाहिमवत्-पुं० | देमवत्क्तेत्रस्योक्तरतः सी माका
रिणि वर्षधरपर्वत, जी० ३ प्रति० ४ अधि० | स्था० । रा० |
द्। महाहिमवंता । स्था० २ ठा० ३ उ०।
महाहिमवंतकूड -महाहिमवल्कूट -न० । मदादिमवतो वर्षधर-
पर्वतस्य खवनामकदेवभवनाधिष्ठिते कृटे स्था० १० ठा० ।
कहि णं भते ! जम्बुद्दीवे दीने महाहिमवंते णामं वासहर-
पव्यए पत्ते ?। गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हे मवयस्स
वासस्म उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पच्च-
महाहिसवं०_
त्थिमलवणसमुद्दस्स पुर्रत्थिमेणं,एत्थ णं जम्बुदीबे दीवे म-
हादिमवंते णामं वासहरपव्वए पष्पत्ते, पाईंणपडीणायए् उ-
दीणदादिणवित्थिणणे पलियंकसंखाणसटिए दुहा लव-
णसमुदं पुटे पुरत्थिमिन्नाए कोडीए ०जाव पुद्ठे पच्चात्थि-
मिन्लाए कोडीए पच्चात्थिमिन्नं लवणसमुदद पुद्टें दो जोयण--
सयाई उदरं उच्चत्तेण पासं जोश्रणाईं उव्ेहेणं चत्तारि
जोअणसहस्साई दाषि अ दसुत्तरे जोअशसए दस य ए-
गृणवी सइ भाए. जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुर-
त्थिमपचत्थिमेणं णव जोग्रणसहस्साईं दोपि अ छाव-
त्तरे जोअणसए शव य एगृणवीसइभाए जोअ-
णस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्त-
रेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुर-
त्थिमिन्नाए कोडीए पुरत्थिमिन्नं लवणसमु पुटा प-
चत्थिमिन्नाए ०जाव पूुटद्ठा तेवष्पं जोअणसहस्साई
नव य एगतीसे जोअणसए चच एगूणवीसइभाए
जोअणस्स किचि विसेसादिए आयामं , तस्स धणं
दादिणेणं सत्तावण्णं जोअणसहस्साई दोणिण अ
तेणउणए जोअणसए दस य एगृणवीसहभाए जो-
अणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए सव्वरय-
णामए अच्छे उभग्रो पासि दोहं पउठमवरवेइयाहिं
दाहि अ वणसडहिं संपरिक्खित्ते महाहिमवेतस्स शं
वासहरपव्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्ञे भूमिभागे पण्ण-
तते, °जाव णाणाविहपञ्चवष्येहिं मणीहि अ तेहि अ
उवसोभिए ° जाव असयति सयति य । ( सूत--७& )
( कहि ण भत ! इत्यादि ) सर्व प्राग्वत् , नवरं दे
योजनशते उच्चत्वेन चुद्रहिमवद्धषधरतो दिगुणोचत्वात्
पञ्चाशद्योजनान्युद्ध धेन -भूपविष्टत्वेन , मेरुवजसमयत्तेत्रगि-
रीणां स्वाच्चत्वचतुथाशेनोद्धधत्वात् चत्वारि योजनसह-
सराणि द्वे च योजनशत दशोत्तरे दश च योजनेकोनावि-
शतिभागान विष्कम्भेन हेमवतक्षेत्रता द्विगुणत्वात् , अ-
थास्य बाहादिसूत्रमाह--( तस्स त्ति ) सृत्रत्रयमपि व्य-
क्रम , प्रायः प्राग्व्याख्यातसृत्रसदशगमकत्वात् , नवरमत्रास्य
सर्वरत्नमयत्वमुक्कम् , बृहत्क्ेच्रावेचारादों तु पीतस्वशीमय-
त्वमिति तन मतान्तरमवसयम् , अननेव मतान्तराभिप्रायेण
जम्बूद्वीपपट्टादावस्य पीतवरीत्वं दश्यते , अथास्य स्वरू-
पाविर्भावनायाह--( महाहिमवंतस्स खमित्यादि ) सर्व-
जगतीपझझवरवेदिकावनखण्डकवद् ग्राह्मम ।
सम्प्रात अन्न हदस्वरूपमाद-
महाविमवंतस्स शे बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं एगे
महापउमदहे शाम दहे पष्पत्ते , दो जोअणसह-
स्साहं आयामेणं एग जोझणसहस्सं विक्खंभेणं दस
जोअणाई उत्बेहेणं अच्छे रययामयकूले, एवं आया-
मविक्खंभविहटणा जा चे पठमददस्स वत्तव्वया सा
_महाहिसबं०
( २२७ )
अभिधानराजन्द्रः।
महाहिसवं*
चेव णअव्या, पउमप्पमाणे दो जोअणाई अद्रो ०जाव
महापउमदहवण्णाभाईं हिरी अ इत्थं देवी ° जाव प-
लिओवमंद्विइहया परिवसई, से एणएणऽद्रणं गोमा ! एवं
चुर्, अदुत्तरं च ण गोअमा ! महापउमदहस्स सा-
सए णामधिज्जे पप्पत्त ज ण कयार् णाऽसि, जण
कयाइ नऽत्थि, जे ण कयाइ् ण भविस्सइ, तस्स णं
महापउमदटस्स दक्विशिन्नेणं तोरणेणं रोहिआ महा-
णई पव्वूढा समाणी सोलस पंचुत्ते जोणसए पंच
य॒ एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्व-
शणं गता महया घडमुहपवित्तिएणं प्ुत्तावलिहारसंठि-
एणं साद्रेगद। जोअणसइणएणं पवाएणं पवडइ, रोहि-
आ णं महाणई जओ पवड्ड एत्थ णं महं एगा
जिब्मिया पष्पत्ता, सा णं जिब्मिआ जोअण आया- |
मणं अद्धतेरसजोअणाई विक्खंभेणं
मगरमुहविउद्ग संठाणसंठिआ सव्ववइरामई अच्छा , रो-
हिआ रं महाणई जहिं पवड्ड एत्थ शं महं एगे |
रोहिअप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सबीस जोअणस- |
ये आयामविक्खभेणं पण्णत्त, तिपि असीए जो-
अणसए किच विसेषणे परिक्खेवेणं दस जोअणाई
उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चव वण्णओं , वइरतले
वदे समर्तीरे ° जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअप्पवायकुं--
डस्स बहुमञ्मदेसभाए एत्थ शं महं एगे रोहिअदीवे
शाम दीवे पणणत्ते, सोलसजोअणाई अयामपिक्खभेणं
साइरेगाई पप्मासं जोअणाई परिक्सेवेणं दो कासे
ऊसिए जलंताओ सव्ववहरामए अच्छे, से णं ए
गाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेण सव्वग्रो |
समता संपरिक्खित्ते, रोहिअदीवस्स श दीवस्स उर्प्प
बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते , तस्स शं बहु-
समरमणिज्स्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ शं |
महं एगे भवणे पणणत्ते, कोसं आयामेणं सेस त चेव |
पमाणं च अट्टो अ भाणिग्रव्वो | तस्स णं रोहि-
श्प्पवायकुंडस्स दक्खिरित्रेणं तोरणेणं रोहिआ
महाणई पव्वृढा समाणी हेमवर्य वासं एज्ञमाणी ए० २
सदावईं वइवेअद्भपव्व्यं अद्धजोअणेणं असंपत्ता पुर- |
त्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभ- |
जमाणी विभजमाणी अट्टावीसाए सलिल।सहस्सेहिं सम-
ग्गा अहे जगईं दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमु समप्पेइ,
रोहिआ गं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अ मुंहे अ भा-
णिअव्वा इति ° जाब संपरिक्खित्ता । तस्स णं महाप-
उमदृहस्स उत्तरिन्नेणं तोरशणं हारिकंता महाणई पव्वृढा ।
|
कोसं बाहन्नेण |
|
समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवी-
सइभाए जोञअणस्स उत्तराभिम्रही पव्णएणं गंता महया
घडमुहपवित्तिएणं गुत्ताऽऽवलिहारसटिएणं साइरेगदुजोअ-
णसइएणं पवाएणं पवडइ, हरिकंता महाणई जओ प-
वड्ड एत्थ शं महं एगा जिब्मिआ पणणत्ता, दो-
जोयणादई आयामं पण्वासं जोअणाई विक्वभेणं
अद्ध जोअण वादद्ेणं मगरमुह॒विउट्टसंटाणस ठिआ सव्व-
रयणामई अच्छा , हरिकंता णं महाणई जहिं पवडड
एत्थ स महं एगे हरिकंतप्पवायकुंड णाम कंडे प-
रणत्त, दोरिण अ चत्ताल जोअणसए आअयामविक्ख -
भणं सत्तञ्मउणटर जोयणसए परिक्खवेणं अच्छे, एवं
कुंडवत्तव्वया सव्वा नेयष्वा०° जाव तोरणा । तस्स शं
हरिकंतप्पवायकरंडस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ शं महं
एगे हरिकंतदीवे णामं दवे पण्णत्ते, बत्तीस जोअणाई
्यामविक्खभेणं एगुत्तरं जोग्रणसयं परिक््खेवेस दो
कोसे उसिए जलंताओं सव्वरयणामए अच्छे,से एं एगाए
पउमवरवेइयाए एगेण य॒ वरणसंडेणं ०जाव संपरिक्खित्ते
वण्णओ भाणिअव्यो त्ति, पमाणं च सयगणिज च
अटो अ भाणिग्रव्वो । तस्स शं हरिकंतप्पवायकुंड-
स्स उत्तरिन्नेणं तोरणेणं ०जाव॒पव्वृढा समाणी ह-
रिविस्सं वासं एजमाणी एज्ञमाणी विअडाबई वडवे
जोअणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरि-
वासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी छप्पप्पाए सलिलास-
हस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता प्त्थिमेण लवणस-
मुद समप्पेइ, हरिकंता णं महाणई पवहे परणवीसं जो-
अणाईं बिक्खम्भणं अद्धजोअणं उव्वेदेणं तयणंतरं च शं
मायाए मा०२ परिवद्धमाणी परिवद्धमाणी मुहमूले अद्भाइ-
जाई जोयणसयाई विक्खम्भेणं पंच जोअणाई उव्वेहेणं,
उभआओ पासि दोहिं पठमवरवेइआहिं, दाहि अ वण-
संडहिं संपरि।क्खित्ता । ( सूत्र-८० )
महाहि' इत्यादि, प्रायः पद्मद्रहसूत्रानुसारेण व्याख्येयम् ।
श्रथेतदत्तिणद्वारनिरीतां नदी निर्दिशपन्लाह--( तस्स णमि-
त्यादि) तस्य महापद्मद्रहस्य दात्तिणात्यन तोरणेन रोहिता
महानदी पग्यूढा--निगता सती षोडशपश्चात्तराणि योजन-
शतानि पञ्च चेकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमु-
खी पर्यतन गत्वा महाता घटमुखप्रच्रत्तिकंन मुक्कावालहार-
सस्थितेन सातिरेकद्धियोजनशतिकेन, सातिरेकत्व च रो-
हताप्रपातकुरुडाद्धघापत्तया बाध्यम् , प्रपातनं भ्रपतात,
पोडशेत्यादिसंख्यानयनं तु चतुःसदखद्धिशतदशयाजन-
तदेकोन्विशतिभागात्मकभागदशकाद्विरिव्यासात् सह-
सत्रयोजनात्मके द्रदव्यासेऽपनीते सत्यर्द्धीऊताद्भवति ,
अन्यत् सवं रोहिता शागमेन वाच्यम् । अथ सा यतः
( शश्ड )
सहाहिमवंत०_
महिंदज्कय
प्रपतति तदौस्पंद दशीयति--* रोहडिआ णमित्यादि ` प्रा |
ग्वत् । श्रथ यत्र प्रपतति तदाह- रोहिआ णमित्यावि ' ॥
प्राग्य्याख्यातप्रायम् , नवरं सविशतिकं योजनशत गङ्गाप्र- |
पातकुरडतो द्विगुणायामविष्कञ्भत्वात् , त्रीणि योजनश-
तानि अशीत्यधिकानि किञ्चिह्िशषानानि, ऊनत्वकर
शन योजनानि ३७६ क्रोशः १ कियद्ध जुरधिकस्तेन किञ्ि-
दृनाशीतिरुक्रा इत्यथः , परिक्तेपणति । अधुनास्य द्वी-
अभिधानराजेन्द्र ¦ ।
पवक्कन्यमाद--तस्स ण' मित्यादि व्यक्तम् , नवरे गङ्गाद्वीपतो |
द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् , पाडश योजनानि रोहिताद्वी-
पप्रमाणमित्यभः, ' स॒ णमित्यादि ` खुगमम् ,
दीव इत्यादि ` खुगमम् , नवरं शेप विष्कम्भादिकं प्रमाणे
तदेव, कोऽथः ?--अर्द्धकोश विष्कम्भन देशानक्रोशमुच-
त्वेनेति , चशब्दाद्राहितादेवीशयनादिवरको ऽपि, अधैश्व-
“से कणदरुंणं भन्त ! ! रोहिअदीबे ' इत्यादि , संत्रावगस्यः ।
सम्प्रात यथय लवणगामिनी तथा55ह- तस्सत्यादि `
तस्य-राहिताप्रपातकुणडस्य दाक्षिणात्यन तोरणन द्वारे-
शत्यः, रोहिता महानदी प्रव्यूढह़ा-निगता सती हैमवतं वर्ष-
स् आगच्छन्ती २ हेमवतक्तेत्राभिमुखमायान्तीत्य्थः, शब्दा-
पातिनामाने वृत्तवेताब्यपर्वतमर्॑याजनन क्राशद्धयनासम्प्रा-
प्ता-असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः, पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती हक |
मवतं वप द्विधा विभजन्ती २-द्विभाग कुर्वती २ अष्टाविश-
त्या सलिलासहस्त्रः समग्रा-पूर्णा, भरतनदीतो द्वियुणनदीप-
रिवारत्वात् अधोभागे जगती जम्बूद्वीपकोई दारयित्वा पू- |
वैभांगन लवणसमुद्रं समुपसपति, प्रविशतीत्यथः । अथ
लाघवाथ राहितांशातिदेशन रादितावक्कव्यमाह-' रोदिश्राणे |
ति ` अतिदेशसरवत्वादेव प्राग्वत् । अथास्मः दुत्तरगामिनीयं
नदी क्रावतरतीत्याशङ्कयादह-' तस्स णामाति ' व्यक्तम् ,
‹ हरिकंता इत्यादि करछ्यम् , अत्र ` सव्वरयणामई ' ति |
पाटा बह्ादर्शदछो ऽपि लिपिघ्रमादापतित एवं सम्भाव्य |
ते, ब्रदत्त्षत्रविचारादिषु स्वासां जिहिकानां वज्जमयत्व-
नेव भणनात् , जलाशयानां प्रायो वञ्जमयत्वेनेवोपपत्ते-
श्र , हरिकंता ण ' मित्यादि, व्यक्तम् , नवरं हरिकान्ताप्र-
पातकुरडं द्वे याज्ञनशत चत्वारिंशदधिके च्रायामविष्क-
म्भाभ्यां सतप्तयाजनशतानि एकोनपष्ठानि पएकोनपण्यधिका-
नि परिधिना इति , ` तस्स ण ' मित्यादि, सृत्रचरये प्रा-
कस् ायुसारेण बोद्धव्यम् , नवरं विकटापातिन चृत्तवैता-
द्ये योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमेनावृत्ता सती हरिवर्ष नाम क्षेत्र
वच्यमाणस्वरूप द्विधा विभजमाना २ षदपशाशता नदी-
सदसरैः समग्रा-परिपूर्णा , हैमवतक्तेत्रनदीतो दिगुणनदी-
परिवारत्वात् पश्चिमेन भागेन लवणोदधिमुपेति । सम्प्र- |
त्यस्या: प्रचादहादि कियन्मानमित्याह-' हरिकंता ' इत्यादि,
इरिकान्ता महानदी प्रवदे-द्रह निगमे, पश्चाविशतियोजनानि-
विष्कम्भेन श्रद्धैयोजनमुदे धन तदनन्तर च मात्रया मात्रया-
क्रमण २ प्रतियाजने समुदितयोारुभयोः पाश्वयोः चत्वारिं
शद्धनु्वृद्धधा, प्रतिषाश्व धनुर्विंशतिब्रद्ध्ेत्यथैः, परिवद्ध॑मा-
ना २ मुखमूल-समुद्र्रषेशे ऽध तृतीयानि योजनशतानि वि-
च्कम्भन पञ्च याजनान्युद्धेधन, उभयोः पाश्वयोद्धांभ्यां प-
द्वरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखराडाभ्यां सम्परिक्तता ।
६ रोहिआ- |
| महिआ-महिका-स्त्री० नीहारे,
अथैतस्य कूटवक्कचयमाह--
से केणष्टरणं भ॑ते ! एवं बुच्चह महाहिमवंते वासहरप-
व्वए वासहरपव्वए ? गोअमा ! महाहिमवंते णं वासहरप-
व्वए चुन्नहिमवंत वासहरपव्वर्य पणिहाय आयाम॒चत्तुव्वे-
हविक्खम्भपरिक्खेवे्ं महंतत्तराए चव दीहतराए चव, म-
हाहिमवंते अ इत्थ देवे महि(ट्वि)द्धिए जाव पलि्रावम्-
ट्विइए परिसवई । ( खत्र-८१ )
साम्प्रते महाहिमवतों नामाथ निरूपयन्नाह -' से केणट्वेण ”
मिव्यादि,व्यक्कम् । नवरमुत्तर सूत्रे महाहिमवान् बकष्यरपवैतः
चुद्रह्िमवन्त वर्षधरपवैतं प्रणिधाय प्रतीत्य क्षुद्रहिमवदपेक्षये-
त्यथः, योजनाया विचित्रत्वात् श्रायामापक्तया दीधतरक
पव उच्चत्वाद्यपक्तया महत्तरक पएवति, अथवा-मटाहिमवन्ना-
माऽत्र देवः पटयोपमस्थितिकः परिवसति, सूत्र श्रायामोच-
त्वेत्यादावेकवद्धावः समाहाराद् बोध्यः। ज० ४ वक्त०। स० |
जीवाभिगमे चेव व्याख्यातम्--
[ महादिमवेतमलयमद्रगिरिगुहासमन्नागयाणमिति ] म-
हाहिमवान--हेमवतत्तेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वषधरपर्वतः
उपलत्तणं शेषवर्षधरपवैतानाम् , मलयपवंतस्य मन्दरगिरे-
अ मेरुपर्वेतस्य च गुटासमन्वागतानाम् , वाशब्दा विक-
ट्पार्थाः, एंतेषु हि स्थानेषु प्रायः किन्नरादयः प्रमुदिता भव-
न्ति तत एतेषामुपादानम् , [ एगतों सहियाणं ति ] एक-
स्मिन् स्थाने सहितानां समुदितानाम् , [ समुहागयाणे ति ]
परस्परसंमुखागतानां-समुखे स्थितानाम्, नैको ऽपि कस्या ऽ-
पि पृष्ठे दसा स्थित इत्यथः, पृष्ठदाने दषविघातोत्पत्तेः ॥
जी० ३ प्रति० । ज०।
महादिलोगबल- महादिलोकबल - पु० । भरतक्तेत्रजा रजिन सः
मकालिके रैरवतजऽष्रादशे तीर्थकर, ति० ।
महिआ-मधित-त्रि० विलोडिते, विरोलिश्र मंथिओं महि-
श्र `` पाइ० ना० १६१ गाथा ।
“ सिरणहा नीहारो धूमिश्रा य
मांहआ य धूममदिसी य "' धाइ० ना० ३८ गाथा । मेघसमूहे,
* घ्रणनिवहों कालिआ महिआ ' । पाइ० ना० ६५७ गाथा ।
महिंद-महेन्द्र-५१० । शक्रादिदेवे, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। स्था०।
सूत्र । च तुथदेवलोके, तदिन्द्रे च। औ० । सप्तमतीथकर-
स्य प्रथमभिक्तादायके, सं० । नि० । [ ` ठाण ` शब्दे चतुथेभा-
गे १७०६ पृष्ठेऽये लोक उक्तः ] पर्वतविशेष, औ० । श्रा० म०।
महिंदकुंभसमान-महेन्द्रकुम्भसमान-त्रि० । महान्तो महेन्द्र
कुञ्भसमानाः, कुम्भानामिन्द्रः इन्द्रकुम्भः, राजदन्तादिद-
शनादिन्द्रशब्दस्य पृयैनिपातः-महांश्चासाविन्द्रकुम्भश्च तस्य
समानाः महेन्द्र कुम्भसमानाः। महाकलशप्रमाणे, ज० ६ वक्ष०।
महिंद्ञ्छय- मद न्द्रध्वज- पु । महेन्द्रा इत्यतिमदान्तः खम-
यपरिभाषया ते च ते ४वजाश्चति, श्रथवा-महेन्द्र स्येव शक्रा-
देध्यैजा महेन्द्रध्वजा, अत्युच्छितेष्विन्द्र ध्वजेषु, स्था० ।
तासि शं मणिपेढियाणं उवरि चत्तारि महिंदज्कभया
पण्णत्ता ।
स्था० ४ ठा० २७० । राय० । विश्वपुरे घरणेन्द्रस्य राशर
¶
च
#
( २२६ )
सहिदज्भय
पुत्रे, ग० ३ अधि० । मणिपीटिकामध्यगता महतन्द्रध्वजाः
सिद्धायतनवरकादववोद्धव्याः । ज० ४ वक्त० ।
मरहिदप्पम्ररि- महेन्द्र्भग्ररि पं” । अ्चलगच्छीये सिंह-
तिलकसखूरि शिष्य, अयमाचार्यः विक्रमसवत् १३६२ वप जातः
विक्रमसवत् १४४४ वर्ष स्वग गतः । जे० इ० |
महिंदफल महेन्द्रफल-न? । इन्द्रयव, उत्त° २ अ० ।
महिदमीह- महेन्द्रसिंह - पु” । सनत्कुमारस्य चक्रवर्तिना मि-
त्र सूरिकालिन्दीतनये, उत्त० १८ अ० । स्था०।
म्िदस्रि -महन्द्रष्ूरि पुण । घमघोषसूरिशिष्ये आतुरप्रत्या-
ख्यानवुत्तिकृति,आतु० | अयमाचायः विक्रमसंवत् १२२८ वर्ष
जातः १३०६ वर्ष स्वगतः | विक्रमसंव॒त् ६२६४ वर्ष5नेन शत-
अभिधानराजन्द्र
पदिकानाम ग्रन्था रचितः महेन्द्रसिहस्रिरित्यपरमस्य नाम । |
द्वितीया ऽपि मेन्द्र खुरिर्देमचन्द्राचार्याशप्यः, तद्रचिताऽन-
काथसङ्ग्रहग्रन्थ अनकार्धंकेटवाकरकोमुदीनाम रीका
स्ति | जै० इ० |
महिच्छु-भहेच्छु -त्रि० महती राज्यविभवपरिवारादिका स-
वातिशायिनी खच्छान्तःकरणप्रव्नत्तियस्थ सः । सूत्र० २
श्रु० २ अ०। दशा०। अधिकोपधियुक्े, स्था० ६ ठा० । प्रश्न० |
महद्र मदिष्ट-न० । तक्रसंखदष्र, विपा० १ श्रु० १ आ०।
मिद्य महद्धिक त° । महती ऋद्धिर्यस्य सः । दिव्याचुका |
रिलक्ष्मीके, उत्त० ११ आ० । प्रज्ञा० | चे० प्र०।
महिमकिरिया महिमक्रिया-ख््री० | शवदाहस्थाने म्तृतमाहा-
व्म्यकरण, “ भरो वि भगवतो यूपे काऊण चक्ररयणस्स
अट्टवाहिया महिमकिरिया "' आ० म० १ अ०।
महिमा-महिमन्-पुं० । महोत्सवे, प्रा० १ पाद् ।
महिमा खी । “` वेमाज्ञल्या्याः स्तियाम् ” ॥ ८। १। ३५ ॥
मदिमाशब्दश्च खीलिङ्गोऽपि दश्यत । महोत्सवे,पा० । पश्चा०
शविव०।वाशएणे काल पूजायाम्, आचा० २ श्रु० शआ० २उ०। |
आ०म०।महत्त्वप्राप्ता अह्ुु्यग्रणु चन्द्रादस्पशमयाग्यताया म् ,
द्वा० २६ 57० | खूत्र०
भहिय-महित-त्रि० | पूजिते, आ० चू० ४ अ०। उत्त० | विशे०।
न०। ज्ञा०। च्रा० म०। श्च) प्रज्ञा पुष्पादिभिः पूजिते, घ०२ |
अधि० । आव० | नि०। श्रा० म०। आ० चू०। स० | औ०।
नमस्कृते, आ० चु०५ अ०। सेव्यतया वाज्छिते, उत्त०३ आ०। |
अभिष्ठुते, अनु० । प्रश्न० । पूजने, न० । ज्ञा० १ श्रु० १ आ०।
मधित-त्रि० | विलाडिते, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । खियाम्-
मथिता मानमन्थनात् विलोडितेत्यर्थः । ज्ञा० १ श्रु० १६
अ० | भ०। स०। आ० म० । रा०। प्रश्न०। दधिनि, प्रव० ४ द्वार ।
महियदुय-महिकादुक-न० । घृतसम्बन्धिकिट्टे, बु० १ उ०।
महियल-महितल -न० भूतले, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
महियलपइड्लिय-महीतलग्रतिप्ठित-जि० । महीतलस्थिते ,
कल्प० १ अधि० ३ क्षण |
भ्रदिया-महिका-खी० । धूमिकारूपे अप्काये, ओघ० ।
गर्भभासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातों महिकेत्युच्य-
ते। आचा० १ श्रु० १ झ० ३ उ० । श्रा० म० । जी० ।
4
महिसी
आए चू० | कल्ल्प०। शयु । प्रव० । जी० । गर्भमासप
सूक््मवर्षे, प्रज्ञा० १ पद । दश० | भ० । नि० च्यू० । विश० ।
स्था० | आव० । आचा० ।
महिरुह-महीरूह-पुं० । वृत्त दश० १ अ ।
महिला-मिथिला-खी° । विदेह जनपदे स्वनामस्यातायां
नगर्याम् . तर समए महिला णाम णयरी हाथा चं०प्र० १
पाहु० । आव० । विशे । निह्ववानामुत्पत्तिस्थाने , उत्त० &
अ० । श्रा० क० । श्रा० चू०।
माहिला-खी०। खियाम् , वर २ उ०। आ० चू०। को० । प्रव०।
नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पयाईहिं पुरिसे मोहंति त्ति
महिलाओ ।
( नाणा० ) नानाविधेः कममिः ङृपिवाणिञ्यादिभिः शि-
टपकादिभिश्च कुम्भकार-लाटकार-चित्रकार-तन्तुवाय-
नापित-विज्ञानेः पुरुषान् [ मोहन्तीति ] मोहं प्रापयन्ति
धातृनामनेका त्वात् , विडम्बयन्तीव्यः, इति महिलाः ।
यद्वा- नानाविधः कर्मभिः मेथुनसवादिभिः शिल्पादिभि-
च॒ मस्तकादौ कवयादिविज्ञानेः , पुरुपान् बालनरान्
मोदयन्तीति आत्मसात्कुबन्तीति स्वस्वाथेपूरणायति महि-
, [ पुरि त्ति ] पुरुषान् मत्तान-उन्मत्तान् मुक्कगुरुज-
नकजननीबान्धवभगिनीमित्राविलज्ञान् कुवन्ति प्रमदाः ,
महान्त राणटि कलि जनयन्ति उत्पादयन्तीति महिलाः ।
तं० । “ रामा रमणी सीम-तिणी बह वामलोअणा वि-
लया । महिला जुबई अबला, निञ्रविणी अगणा नारी ”
॥ १२॥ पाइ० ना० १२ गाथा ।
महिलासभाव महिलाखभाव-पुं०। खीस्वभाव,घ० ३ अधि०।
महिलिया-मदहिलिका- खी । महान्तं राटि कलि जनयन्ति
उत्पादयन्तीति महिलिकाः । तं० । सियाम् , अनु० ।
महिन्न महत् वि । सर्वेभ्य ऽपि ब्ृद्धतरे, वृ० ३ उ०।
मदिद्धियाकमलसरिसोवम-मटोष्टिकाकमलसदशोपम--
त्रि० महाभाजनखरडतुस्ये, उपा५ २ श्र०।
महिवद्र- महीपृष्ठ-न० । भूतल, उत्तर पदत्वात् । “ पृष्ठे वा-
जुत्तरपदे "' ॥ ८। १। १२६ ॥ इति ऋत इत्य न | प्रा० ।
महिवाल-मरीपाल- प° । “ पो वः `॥८। १। २३१॥ इति प-
कारस्य दन्योष्ठ्ा वः । महिवालो । राजनि, प्रा० १ पाद ।
महिस-मटिष-प०। मह्यां शेते इति मदिषः। द्विखुरजीवविशष,
अचु० । प्रव । आ० म०। प्रज्ञा० ।
महिसंदो-देशी-शिश्न॒तरी, दे० ना० ६ वर्ग १२० गाथा ।
महिसकरण महिपकरण-न० । मदिषायुदिश्य किचित्कर-
ण तादृशे स्थाने , आचा० २ श्रु० २ चू० ३ अ०
महिसगाम-महिषग्राम-पुँं० । भरतक्तेत्र वैताढ्वपर्वते उत्तर-
श्रणयां स्वनामख्याते ग्राम, ती० ६ कल्प ।
महिसाशिय-महिषानीक -न० । मदिषसेन्य, स्था० ७ ठा० ।
६६
| महिसिकं-देशी-मद्िपीसमहे, दे° ना० ६ वर्ग १२४ गाथा ।
महिसी-महिषी-ख्रा० । राजभार्य्यायाम् , स्था० ४ ठा० १
( २
श्रा भधानराजन्द्र: |
_महिसी
)
महर
० । “ सारिही महिसी ” पाइ० ना० २१६ गाथा।
महिहर-महीधर-पुं० । परवत, “ ( ७६) सरलो अयलो अदी
सिलाच्चयो महिहरो धरो सिहरी ” पाइ० ना० ५० गाथा ।
मही- मही -खी० । पृथिव्याम् , उत्त २७ अ० । बृ० ।
आ० म० । मनःशिलायाम् , जैनगा० । भुवि, दश० ५
अ० १ उ० । सत्र० | मटावातात्त्तिप्तसचित्तपृथिव्याम् ,
विशे० । रत्नप्रभादिपुथिवीषु, आव० ४ आ० । समुद्रगते |
महानदीभेदे, स्था० ४ ठा० २ उ० । जे० गा० । “ बखुहा
वसुन्धरा वसुमद मही मेइणी धरा धरिणी ” पाइ० |
ना० २६ गाथा।
महीरुह-महीरुह पुं । चर्त, साही विडवी वच्छो महीरुहो
पायवो दुमो य तरू ” पाइ० ना० ५४ गाथा ।
महीवलय- महीवलय- न०। समस्तधरणीतले , दशी० ३ तत्त्व ।
महीहर-महीधर-पुं० । चम्पायां नगय्यां कालीनामपर्व-
तस्याधोभागे कुरड़नामसरोबरे हस्तियूथाधिपतों दस्ति-
नि; ती० १४ कल्प । प्रसन्नचन्द्र भूपालपुतर,द्वी० । । आ० क०।
महु-मधु न । अतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्ये , विशे० ।
आए० म० । क्षोदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । प्रव॒० । ज्ञा०।
उपा० । नि० चू० । पुष्पोद्धवे मय , उत्त १६ अ० ।
| महप्पल-महोत्पल-न० । शतपत्रे कमल, “
पश्चा० । कुसुमसम्भव काल, स्था० ७ ठा० । “ मधूणि |
तान्न-माच्छय पात्तय भामर च ” आ० चू० ६आअ०। | ध
महुमह-मधुमथ-प्० । उपन्द्र,
मात्तिकपात्तिकश्रमरभेद तरिधा मधु । पे० व०र द्वार ।
विपा० । दश० । ध० । च्रा० ` चू० । स्था० । मद्य-
विशेषे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । पञ्चा०। जी० ।
नि० चू० । च्रो० । नि० । “ इदुतोः दीधः ”॥८। ३।
१६ ॥ महि । प्रा० । “ मइरेअ महूवारो सी-
ह सर्मा महु अवक्करसों । पाइ० ना० ६४. गाथा ।
मधुन , न० । “` सारहं महु ` पाइ० ना० २२४
गाथा । वसन्तर्तौ , पुं० । “ सुरही महू वसंतो '
पाइ० ना० १४८ गाथा । “ मज्ञ महुम्मि मसेमि , न-
वणीयेमि चउत्थए् । उप्पजति श्रसखाया, तव्वष्छा तत्थ
जेत॒णो ॥ १॥ ” इत्यत्र मद्यादिचतुष्के ये जीवा उत्पद्यन्ते
ते कियदिन्द्रिया इति प्रश्ने, उत्तरम्- मय मधुनि न~
चनीते च द्वीन्द्ियाः, मांसे पकेन्द्रिया वादरनिगोदरूपा द्वी- |
न्द्रियाश्च, मनुष्यमांसे तु पकेन्द्रिया बादरनिगोादरूपा द्वी- |
न्द्रियाः सम्मूच्लिममवुष्यपञ्चेन्द्रियरूपाश्च । सम्मूच्छेन्तीति
शाखानुसारेण सभाव्यत इत ६७ प्र०। सेन० २ उज्ञा० ।
महञख-मधृक्र-न० ॥ मधक वा ॥ ८ । १ । १२२ ॥ इति
ऊत उद्वा | | मंहुओ | महओ । ' महुश्रा ` नामकच्च्तभेदे, प्रा० ।
श्रीदामाख्यपत्ति-मागधयोः, दे०ना० ६ वर्ग १७४ गाथा ।
महुअर-मधुकर-पुँं० । श्रमरे, कल्प० १ अधि०
फुल्लनचुआ , रसाऊ, भिगा भसला य महुअरा अलिणो ।
इंदादरा दुरेहा, घुअगाया छुप्पया भमरा॥ ११॥ पाइ०
ना० १९ गाथा ।
२ क्षण । |
महुआसव-मध्वासव-पुं० । मधु किमप्यतिशायिशर्करादिम-
धुरद्रब्यं, मध्विव वचनमाश्रवस्तीति मध्याअवाः । लन्धि-
विशेषकलितेषु, ये हि तथाविधलब्धिवशान्मधुतुल्यं वचनं
वदान्त | आ० चू० १ झ० | पा० | आ० म०।
महुकरसम-मधुकरसम-त्रि० । भ्रमरतुल्ये, दश० ६ ० ।
महुकरी -मधुकरी-खी० । 008४ ओओ०।
महुकुंभ-मधुकुम्भ-पुं० । मधनः क्षोद्रस्य कुम्भो मध॒कुम्भः ,
मधुभतं मध्वव वा कुम्भः मधुकुम्भः। मधुपूरिते घटे, स्था०
४ ठा० ४ उ०।
महुकेटभ-मधुकैटभ-पु ० । चतुर्थ प्रतिवासदेवे, प्रव० २११
द्वार श्राव० । ति०।
महुगुलिया-मधुगु टिका-खरी° । त्तोद्रवर्तिकायाम् , ज्ञा० १
श्च ० १ आ० ।
महघाय-मधघात--पु० । मधुग्राहकेषु, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
महुतण-मधुतृण-न० । ठणविशेषे, प्रज्ञा० १ पद् ।
अवुरुहं सय-
वत्त, सरोरुहं पुंडरीअ-मराविंद । राईवे तामरसं , महु-
प्यल पकय नालणे ॥ १० ॥ ” पाइ० ना० १० गाथा ।
महुप्पिय-मधुप्रिय-पुं० । सिद्धाथपुरे विमलश्रेष्ठिनः तिक्रक-
इकषायादिषु लम्पट पुत्रे, ग० २ अधि० |
| महुप्पिहाण-मधुपिधान-त्रि० । मधुश्रते मध्वेव वा पिधानं
स्थगने यस्यासौ मधुपिधानः।मधुना पिदिते,स्था०४खा ०७० |
“ सडउरी दसारनाहो, वइकुंठो
महुमहो उविदो य ” पाइ० ना० २१ गाथा ।
महुमहण-मधुमथन--पुं० । मधुदेत्यनाशके विष्णो, विश० ।
स्था० | आ० म०।
महुम्रुह-देशी-पिशुने, दे० ना० ६ वर्ग० १२२ गाथा ।
महुमेह-मधुमेह-पुं० | वस्तियोगे, आचा० १ श्रु० ६ अ० १ उ०।
महुमेहिय-मधुमेहिक-त्रि० । मधुमेहो वियते यस्यासौ मधु-
मेदी | मधुतुल्यप्रस्ताववाति, आचा० १ श्रु० ६ अ० १ उ०।
मधुवरमू्रानवरतप्रस्राविणि, आचा० १ श्रु० ६आ० १ उ०।
प्रश्न० । विपा०। रा० | आ० क० । द्विखुरजीवविशेष, श्रौ०।
महुयर-मधुकर--पं । अमरे, ज्ञा० १ श्रु० १६ आ०। आ०
म०। मधुकरेअ्रेमरेमेद्जलगन्धारुष्ट:--कृतमन्धकारं यस्य
स तथा । श्रौ ।
महुर-मधुर-त्रि० । श्रुतिपिशले, सूत्र० १ श्रु० ६६ अ० । क्ञा०॥
मत्तकोकिलारूतवन्मघुरस्वरे, अनु० । स्था० । भाषया को.
मले, ज्ञा० १ श्रु० € अ० । शर्कराद्याश्चित, अनु० । त्तीरद-
ध्यादिषु, ते० | खराडशर्कराद्याध्िते रसभेदे, कर्म० १ कर्म० ।
कामले, श्रौ० । विश० । आ्राह्वादनवृदणरूति, स्था० ।
एगे महूरे (खत) स्था० १ ठा० ।
मध्वादिक, दश० ५ अ० ५ ०.९ उ० । “ पित्तं वाते कफं
हन्ति, धातुचरद्धिकरा गुडः । जीवनक्लशकरृद्राल-- वृद्धत्ती-
णौजसां दितः ॥ १॥ ” ज” २ वत्त । ज्ञा० । अनु०।
श्रो्रप्रिये, रा० । अकठारे, भ० € श० ३३ उ० । का-
किलार्लवन्मघुरस्वरे, अ० १ वत्तः । राः । मधुरं
था ितीषकानकि क
( २३१९ )
भहूुर अभिधानराजन्द्रः ! महरा
त्रिधा, शब्दार्थाभिधानतः। स्था० ७ ठा० । मनोल्ञे, सूत्र० | वरेहि, जहा-साविए ! दृढसंमत्ताए जिणवदणपूयणोवउत्ता-
१ श्रु० ३ अ० २उ०। सृत्रार्थोभयेः श्चव्ये २ ० । एय होअव्वे, बहमाणएजागण चउमासयं काऊण अन्नगामे
आए० म० । बृ० । ओआ० । मधुराः-कोमलशब्दा, गम्भीरा-
महाध्वनयो, दुरवधा्यमप्यथं श्रोतृन् ग्राहयन्ति यास्ता
आहिकाः, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । “ मधुरगंभीरगाहि-
यादि मियमधुरगम्भीरसस्सिरीया" कचिद् दश्यते । तत्र च
मिताऽत्तरतो, मधुरा शब्दतो, गम्भीरा श्रथतो ध्वनितश्च स
श्रीरात्मसम्पद् यासां तास्तथा | भ० ६ श० ३१ उ० ।|
99 |
खुन्दर, ˆ“ लालच वग्गु मजु मज्ुलय पसल कल महर
पाइ० ना० ८८ गाथा।
महूरणाम मधुरनामन्-न० । रसनामभेदे , यदुद्याजन्तुश-
रीरमिष्टत्वा दिवन्मघुरं भवति तद् मधुरनाम । क्म० १ कम०। |
महुररसा-मधुररसा- ख्ी० । श्ननन्तजीववनस्पतिविशेषे,यज्ञा०
१ पद् । ¢
महूरवयण-मधुरवचन- पुं । मधुरं वचनं यस्यासा मधु-
रवचनः । रसचवद्धचने, व्य ० १० उ० । दशा० ।
महुरखयणया-मधुरवचनता-खी° । मधुरं यथावदर्थतो
विशिष्टा थवत्तया ऽथौवगादत्वेन शब्दतश्चापरूपत्वसोन्दय-
गाम्भीय्यांदिगुणोपेतत्वेन श्रोतुराह्वादं जनयति तदेवंविध
बचने यस्य स तथा, तद्धावो मधुरवचनता । वचनसम्प-
दूभद्, उत्त० १ अ० । स्था०।
महूरस्सर मधुरस्वर-पु०। कलध्वनो, ` 'महुरस्सरगीयसुस्सरा-
हं” मधुरस्वरगीतसुस्वराणि । प्रश्न० ४ सव० द्वार ।
महू(धु)रा-मथुरा- खी०। शएरलनदेशराजधान्याम्, दो महरा
आओर--दक्खिणा,उत्तरा या" आव० ४ आ०। सूत्र०। आ० म०।
शरज्ञा० | विश० । मथुरा नगरी श्रसेनाख्यो देशः । प्रव० २७५
` द्वार | आ० क० | विपा० । आ० म० । बृ० । आ० चू० । कू-
ष्णजन्मस्थान, आव० १ अ० । स्था०।
मथुराकल्पः--
सत्तसत वीसइमे , नमिऊण जिणेसरे जयसररणे ।
भवियजणमेगलकरं , मधुराकप्पे पवक्खामि ॥ १ ॥
तित्थेसु पासनादस्स, वद्दमाणंमि दुन्नि मुणिसीहा ।
धम्मरूइ धम्मघोसा, नामेयं आसि निस्संगा॥ २॥
तय छुट्टुद्ठमदसम दुवा लसम पक्र्खावबासभमास्सयदामा सअ- |
तिमासिअखमणाई कुरंता भव्वे पडियाहिता कयावि म-
हुराउरिं विहरिआआ । दीहा नव जोअणाई वित्थिरणा पा-
सद्टिञ्रजउणाजलपक्खालिश्रवरप्पयार्वभूसिञ्रा धवलद- |
रदेडलवावीकूवपुक्खरणीजिणभवणदट्रावसोाटि श्रा पढंतवि- |
विहवाउत्थिजविष्पसत्था हुत्था । तत्थ ते मुणिवरा अणे- |
गतरुकुसुमफललयाइण्णे भूअरमणाभिहाण उववणे उग्गहं
श्रणुरणविश्र वीग्रावासारत्त चउमासं कश्राववासा | तसि |
सज्भायतवच रणपसमाइगुणहिं आवज़्जिया उववणसामिणी |
कुवेरदेवया तश्रा सा राक्ति पपडीहाऊण भणइ--भयवं ! |
म्द गुणेहि अईवाहं हिट्ठा, ता किंपि वरं वरेह | ते भरणं-
ति--अम्हे निस्सेगा, न कि पि मग्गामो तश्रा धम्म सु-|
॥ श्रविरयसाविश्रा सा तदहि कया । अन्नया कत्तिश्घ-
बलटूमिरयरणीए सिजायरि त्ति आउल्क्श्रा कुवेरा मुखि-
पारणत्थे विदहरिस्सामा । तीए ससोगाए वुत्त-भयवं ! इत्थ-
व उववण कीस न सव्वकालं चिटह | साधू भणति-
“« समणाणे सउणाणे, भमरकुलाण च गोउलाणे च।
अशियाओ बसदीश्रो, सारदइयाणो च मेहाणं ” इति ।
तीए विर्णत्त-जइ एवं ता साहेह धस्मकज्ज जहादंस स-
पाडमि अमोहं देवदेसणे ति । साधूहि वुत्त-जइ ते अनिबंधो
ता संघसहिए अम्हे मेरुमि नेऊण चइयाई बंदावेहि । ती
प भणिये-तुम्हे दो जणे अह देवे तत्थ वंदाचमि त्ति ।
महुरासंघे चालिए मिच्छादिट्टी देवा कया5वि विग्घे कुणेति।
साधू भरणंति--अम्हेहि आगमबलेणं चव सत्ती, महुरा-
संघे नेड न तुह सत्ती तो अलाहि, अस्हे दुरदे तत्थ गम-
शणेणं । तओ विलक्खीभूआए देवीए भणिआओं जद एवे
ता पडिमाहिं सोहिआ मेरुआगारं काउं दावेमि, तत्थ से-
घसहिआ तुम्हे देव बंदह । सारा पडिवन्नण कंच-
ण॒घडिओओ रयणा55विचइओ अणगखुरपरिचरिश्रो तारण-
ज्भयमालालंछिंओ सिहरोवरि छुक्तित्तयसालि र॑क्ति धृभो
विस्हाविओ्रों मेहलातिगमंडिओओ, इक्तिक्षाण महलाए चाउ-
दिसि पंचवरणरयणमयाई विवाई । तत्थ मूलपाड़मा सि-
रिखुपाससामिणो पइट्ठाविया । पटापाला आ वि बुद्धा, तं
थूभ पिच्छति, परुप्परं कलटेति । अ । केइ भणंति-वाखुइले
चणो एस सयभूदेवा, अन्न भरोति-सरससिजारिश्यो नारा-
यणो एस, एवे वम-धरणिद-सूर-खदादइसु विभासा, बुद्धा
भणति-न एस धूभो कि तु बुद्धि डलक्षि, तओ मज्भत्थपु-
रिसेहि भरिच्र-मा कलहेह । एस ताव देवनिस्मिओ ता सो
देवो ससय भेजिस्सइ ज्ि। अप्पणो दव पडे सुलिहित्ता नि्ओे-
गुद्दीसमेआ अत्थह, जस्स देवो भविस्सइ तस्सव इको पडो
घडिस्सइ, अन्नेलि पडा देवो नासदिइ | सघणाऽवि सुपा-
ससामिपडा लिषिश्रा । त्थ लिश २ देवपडा समुषट्भाविच्रा
पूआ काड नवमीरत्तीए द्रिसणिणा गायताविश्रा अद्ध-
रक्त उद्डपवणो तणसक्करपत्थरजुत्तो वसरिओ, तेण स-
व्वे$वि पडा ताडिता नीया पालिया गञ्जिश्ररवेण नदा
दिसो दिसि जणा, इक्तो चेव सखुपासपडाविश्रो विम्दिञ्रा
लोआ , एस अरिहंतो देवा त्ति, सो पडा सयलपुरे भामिओ |
यमजत्ता पर्वक्तआ,तरहवरणं पारद्े,पढमणएहवणकए कलहंता'
सावया | महल्लपुरिसाहे गोलणएसु नामगब्भेल जस्स नाम
कुमारीदत्थे एइ सो दरिद्दो इसरो वा पटमं एहवरण करेउ । एवं
दसमरयणीए ववत्था कया | तओ एगारसाए दुद्धदहियघ-
यकुंकुमचंदणाईहिं कलससहस्सहिं सट्ढडा रहावेस पिच्छुन्न-
टिआ सरा रहाविंति । श्रज्ञ वि तदेव जत्ताए आविति।
कमण सबव्वहि एहवण कए पुप्फघृववत्थमहाधयआहा-
रणाहिं आरोधिति । साधृणं वत्थघयगालाईहि ति वारसीप
तीप मालावडाबिआ,णवं ते मुणिवरा देवं वंदिय सयलसघ-
माणादिआ चउमासं काड श्ररणत्थ पारणे काऊण तित्थं पया-
सिञ्च थुश्मकमाकमण सिद्धि पत्ता । तत्थ सिद्धखिन्नं जायं ।
त्रो मुणिविउअदुरिआ देवी नियं जिणवयणरया अद्धप
लिओवम श्राउश्र भुजित्ता चविऊण माणुसत्ते पाविऊण
उत्तमपय पत्ता । तीए ठाणे जा जा उप्पजजव्र सा रा कुयर
(२३२ )
। महरा
क्त भरणडद् । ताए पारराक्खज्जता श्भा वह काल उग्ध्राड
विञ्रा जाव पारससामी उप्परणा । इत्थेतेर मधुराणए रश्णा
लोभपरवसण जण दक्रारिऊण भणिओझ । पयं कणयमणि
नाम्मन्न श्रम कटखख यह भडार खबह । तश्रा सारघाड- |
अकुहाडाह जाव लाआ कट्दणत्थ घाण पादरणे ताव त |
कुहाडा न लग्गात | तास च्व घायदायगाण अगर घाया
खआामधानराज़नर | "
लग्गंति । तशा राइणा अपत्तिञ्च, तण सय वि अ घाओ दि- |
रणा कुहांडण उच्छालिश रणणो सीस छिगरे । तओ देवयाए
कुद्धाण पयडीहोऊण भणिआ--जाणवया. पाया ! किमेय- |
मादत्ते जहा राया तहा तुम्हे वि मारिस्सह । त उ तदहि,
मीण्डि धूवकडच्छुयहन्धदि देवया खामिया, देवीए |
भणिअं--जइ जिणहरं अच ता उचसग्गाओ मुह । जो
जिणपडिमे सिद्धालये वा पूइस्सइ तस्स
अन्नटा पडस्सद | आओ चव मंगलचइयपरूवणाए कप्पो
छेयग्गेथ महुराभवरणाई निर्दंसणीकयाई णड, वरिस जिणप-
डा पुरे भामयव्वा त्ति कुहा डयछट्ठी य कायव्वा। जा इत्थ राया |
भवद् तण जिणपडिमा पइट्टाविश्र जीवस्सति अन्नदा
न जीविहिति । ते सव्वं देवयावयणे
लाणटि. अन्नया पाससामी कर्वालाविहारुण बिहरंतो म-
धुर पत्ता, समासरण धम्म साहइ, दृसमाखुभावं च भा-
वया पयासइ | तद्या भगदत शन्नत्थ विहरिए संघ हक्का-
रिअ भणियं--जाव राण, जहा आसन्ना दसमा परूविओो
सामिणा लोआ राया य लाभव्रत्था हाहि त्ति अहं च पम-
त्टव काउमाढत्तं |
त्ता । जयाब राआ सा उम्घाडएण एय श्रूभ सव्यकाल सन्नाम |
राक्खिडे तओ संघाएसर
हरे पाससामी सलमईआ पुज्जिद्यव्वा। | जद य अम्ह वड
समणण अन्ना चवदवा होहा सा आब्भतरे पूञ्र कारस्सइ। |
हि ढक्कॉम, तुज्काहि वि बा-
तआा बहुगुण त अखणुमान्नअ सघण देखीए तहव कय। त्रा |
वीरनाए सिद्धि गए साहि्णाह तरससणहि वरिसारां
वप्पहद्धी सरी उप्पणणा,तण वि णहि तित्थे उद्धगि्च्ि। पास-
जणा पूआविओ । सासयपूअकर णत्थ काणणकृबकुट्टा का
राविआ । चउरासीइण णिए दा चि आउसन्रण
खसेतीआओ मुणित्ता पत्थराहि वढ्ाविग्रो उक्खिजल्नाविडमा-
ढत्ता धूभा देवयाएण सुमिणेतर वाॉरिओ
णसु त्ति, तचरा देवयावयणणे न उम्घाडिओआ ! सर्घाडञअफ्-
न उम्घाडयव्या |
उद्दा |
त्थराह पारवादश्रा अर | अज़् व दवाह राक़लणज़ाइ | बहप- |
ङिमिसहस्सांह दउलाहिे आवासाशिाआपण्साहे मणहराए
गंधउडीए चिह्लाशश्रा अवाइश्नखित्तपालाइह अ सजुत्त
पय जिणभवरं विरायाति । इत्थ नयरीएण कगहवासदेवस्स
भावातत्थक्ररस्स जम्पा, श्रजमग् आयरिअस्स जक्खभझ
स्स दाडग्रजक्खस्स य चारलीवस्स
इत्थ पच थलाई । त जहा-अक्रथल चीरथल
कुरुयले महाथले दुवालस वणाद
पड़मथल
त्थ द्उल चङ् । |
त जहा-लादवग भद्दव- ¦
ण॒ मधुवण दृह्नवण् तालवण कु गुखवय भडा रचण खइदरवरण |
का भमअवरणं कालवण बहुलावर्ण महावणे । इत्थ पंच ला-
इआतत्थाइ, ते जहा-विस्सेतिअतित्थ अखिकुंडतित्थ बे-
कुठातत्थ कालजरातव्थ चक्कतित्थे । सत्तज रिसह गि-
रिनार नाम भरूअच्छ मुणिखुब्वयं माढरण वीरं मधुराद
खुपास घराॉड्ञदुगब्भेतरे नमित्ता वि-
हारत्ता अमरसय-
साग्ट
गावालागाराम जा भुजेज्लर तण
हुंढण
प्ररं धिरे हादी, |
महुराल्ि
सविअकरकमलण सिरिवप्पटद्सूरिणा अदट्गडुसयछव्वी--
से-८२६ विक्रमसंवच्छर सिरिवीरविय मधुराए ठाविओे | इ
त्थ सिरिवद्धमाणजीवेण विस्सभूदणा अपरिमिअवलत्तणकए
निदाणं कय. इत्थ जउणावंकजउणराएण हयस्स दंडअण-
मारस्स कवल उप्पन्न महिमत्थे इंदा आगओ । इत्थ जिद्य-
सत्तुनरिदपुत्तो कालवसिअमुणी अरिसरोगद्धिओ मुग्गिल-
गिरिंमि सदेहे वि निप्पहा उंवसग्ग अहिआसिसु । इत्थ
सखरायारसी तवप्पहाव॑ं दट्ठे सामदेवादेश्मा गयडर {दक्ख
घ्रत्तूण सयं गंतुण कासिए हरिए सवलरिसी देवपुज्ञो
जाओ । इत्थ उप्पन्ना रायकन्ना निव्वुदनाम राहावेहिणों
सुरिंदस्स सयवरा जाया। इत्थ कुबरदिनज्नाए कुवेरसणा-
जणणी कुवेरदत्तो अ भाया ओहिनाणेण नाड अट्जारस-
नत्तुएहिं पडिवोहिया । इत्थ अज्ममंगू सुअसागरपारगो
इड्डिरससायगारवेहिं जक्खत्तमुवागस्म जीहा य मारणण
साधूरणं अप्पमायकर ण॒त्थे पडियाहमकासी । इत्थ केबल-
सवलनामाणो वसहपाआ जिणदाससंसग्गीएण पडिवुद्धा
नागकुमारा हाऊण वीरवरस्स भरगवआ नावारूढस्स
उवसग्ग निवारिखु । इत्थ अज्ञिआपुत्ता पुप्फचूल पव्वाविअ
संसारसायराओ उत्तारित्था | इत्थ इंददत्ता पुराहिआ गव
क्खट्ठिओ मिच्छुदिट्टी अरहा वच्चंतस्स साधुस्स मत्थय-
डवारि पायं कुणंतो सहण गुरुभत्तीए पायहीणा क्रा । इत्थ
भूअघरे ठिआ निग्ादवत्तव्वयं नियाञ्रा परिमाणं च
पुच्छिअ॒तुट्ठचित्तत सकण अञ्जरक्िखिच्खृरीः वद्या
उवस्तयस्स अन्नआ जुत्ते दारं कयं । इत्थ वत्थपूसमित्ता
घयपूसमित्तो दुब्यलिआपूलमित्तो अ लदधिसेपन्ना विश्रि
आ । इत्थ दुसहदुब्भिक्ख दुवालसवारिसिए नियत्त सय-
लसघ्रमेलिच्रश्रागमाखुगो पर्वात्तओ खेदिलायरिएण । इत्थ
देवनिम्मिञ्चथुमे पक्खक्खमणण द्वये आराहित्ता जिण-
भदखमासमरहिं उदेदिश्रा भक्खियपुत्थयपत्तत्तणेण तु
भग्गं महानिसीहं संधिओ । इत्थ खवगस्स तवण तुदा
सासणदवया तव्वण्णिअ्रपरिग्गहिओ इम तित्थं सघ
चयणाओ आरहंतया पत्ते अक्रासीदवीप् अइलाभपरच्च
संजरणं काउं सोवणिओ धूमे पच्छुत्त काउं इद्यमयं तओ
वप्पदद्टिवयणाओं अडमराएण् उवरि खिलाकलावकत्तिओ
कारि | इत्थ संखराओ कलाबई अ पंचमजम्म देवसीहक-
णयर४द्रीनामाणों समणोवबासया ग्ज़सिरि भ्रुजित्था । षव
विहाणं अणेगासि सेब्रिहाणामेसा नयरी उप्पत्तिभूमी ।
त्थ कुबेरा नरवाहणा, विया य सीहवाहणा, खित्तवालों
अर सारमेञशवाहणो तित्थस्स रक्खे कुणंति ।
“ इय एस महुरकप्पो, जिणपहसूरीहि वरिणञ्मा कं पि।
भविपहि सइ पढिआअइ, इहपरलोइयसुहत्थीहिं ॥ १ ॥
भविश्राण पुरणरिद्धी, जा जायइ महुरतित्थजत्ताए।
अस्सि कम्पति खुण, सा जायइ अवहिअमणारं ॥ २॥ ”?
इति श्रीमथुराकल्पः समाप्तः | ती० ८ कर्प ।
| महुरामिहाणा-मथुरामिधाना-ख््री० | मधुरं श्रुतिपिशलमभि-
घानमुच्चारण यस्याः सा । मथुराभिधानगाथायुक्लायाम् ,
सूत्र० १ श्रु० ६ अब | समा म०।
महुरालिअ-देशी-परिचिते, दे० ना” ६ वर्ग १२५ गाधा ।
नि मद
( २३३ )
महुलद्ि
महलद्धि-मधुयशि-खी° । यणष्यां लः ॥
इति यस्य लः । मुहलटीति ख्याते श्राषाधमेदे, प्रा० १ पाद् ।
महला मधुला-खी० । पादगणडे, “पादे गंड महुला भर्ति
3
नि० चू० २ उ० । उत्त० |
महल्ल-मम वि । मे मई मम मह महे मन्म मज्भं अर्ह
अम्हे डसा ॥८। ३। ११३॥ इति ममस्थान महादेशः । ततः।
स्वा्थैकश्च वा॥८।२।१६५॥ इति उज्ञप्रत्ययः । स च डि-
त् । मह पिउल्लओ । महुल्ले | प्रा० । म
-मधवन--न० । मथुरायां स्वनाम प्रसिद्ध वने, ती० ८
महुवण- मधु थु ]
कल्प ।
महुवार-मधुवार-पुँं? । दारुणि,
सरआओ महु अवकरसो ` पाइ० ना० ६४ गाथा ।
संगी -मधुशुड्जी -खी०। ऑषधिवनस्पतिमभेदे,प्रज्ञा०१ पद ।
महुसिंगी -मधुशुन्जी 4
महुसित्थ-मधुसिक्थ न° । मधुयुक्कं सिक्थ मुसिक्थम्।
> ॥
मधूच्छिष्टे, न०। मदने, भ० ८ श० ६ उ० | स०। आ० म०।
अलक्ककपथो यन पदेनालक्ककः कामिन्या पात्यते तावन्माव-
या लिम्पति कर्दमः स मधुसिक्थक्राऽभिधीयते। | ओघ० ।
महुसित्थजल-मधुसिक्थजल-न० | अलक्ककमार्गाव गादिकरद
मरस्योपरि वहति जले, ओघ० ।
महस्सव-महेत्सव्-पु० । बहु जनजानपदादिमेलनपूवैकमुत्स-
वस्थान, ्च्रा०: चू० ४ अ०.।
भरद -महेन्द्र--पु० । ऐरावतवर्षे भविष्यति पञ्चदशे तीथकर
प्रच० ७ द्वार ।
महेड़-देशी-पढ़े, दे° ना० ६ वरग ११६ गाथा ।
महेय(क्ख)-महेत्ञ-पुं? । ऊर्णाविशेषे, प्रज्ञा० १ पद ।
महेलापहाण-मटिलाप्रधान--पं । स्त्रीवशवार्तिषु पुरुषवु ,
पि०। (तेच ` माणपिड ` शब्दे दर्शयिष्यन्ते )
मटस-महेश--पुं० । ईश्वरे, “ महेशा नुग्रहात्केचद्
दधि प्रचच्षते । क्लेशायैरपरामृष्टः, पुंविशेषः स चेष्यते ॥६॥”
द्वा० १६ द्वा० । यो० वि० । स्था०।
मदेसक्ख-मदे शाख्य-पुं° । महेश्वर इत्याख्या यस्य सः । म-
हेश्वरत्वेन ख्यात, स्या० ८ ठा० । सू प्र० । ज़०।
हेसर-मरेश्वर-पु०। ओत्तराहाणां भूतवादिनामिन
२ ठा० ३ उ० । दश० । आवब० । शिवे, आव० ६
महेसरदत्त-महेश्वरदत्त-पुं० । कौशाम्ब्यां इृदस्पतिदत्तनाम्नो
ब्राह्मणस्य पूवैभव जीवे, स्था० १० ठा०। ( * वहप्फडदृत्त '
शब्द पश्चमभागे १२६५ प्रष्ठ कथा गता )
महेसरसरि-महेश्वरसरि-पु० । कालिकाचार्यकथा-सेयमम-
जयाख्ययोग्रैन्थयो: कत्तीरि आचाय मुनिचन्द्रसारिक्ृता55
वश्यकसप्तत्युपारेटीकाकार के दवस राशष्य, ज० इ० ।
महास-मह।५-छ० । महाश्रासावृषिश्च मरर्षिरत्यन्तोग्रतप-
श्वग्णानुष्ठायित्वादतुलपरीषहोपसगसहनाओति । यतौ ,
सूत्र” ६ श्रु £ अ० । तपाविशेषशाषितकल्मष, सूत्र०
१ श्रु० १३. अ० । खुसाधों, इश १ चू० । मोज्षेपिशणि,
५६
“ मइरेआ महुवारो सीह
स्था०
+ ज
। १ । २४७ ॥ |
अभिधानराजन्द्रः |
॥
॥
् अ क |
द्, योगसि-
अ०। |
मसहे/रग
दश० € अ० १ उ० । महान्तश्च त॒ सवज्ञत्वात्ताथप्रत्रत्त-
नादतिशयत्वाद् वा ऋषयश्च मुनयो महषयस्तैस्ती ध करै-
रितः । तीथेऋत्सु, प्रश्न० १ आश्र० द्वार | सृत्र० । अ-
युक्रलप्रतिकृलापसरसदिष्णुत्वान्महषिषु . महान् बृहत्स्व-
गांदिफलापक्षय्ग मोक्षस्तमिच्छाति-अभिलषतीति मेषी म-
हर्षिवा | सूतर० २ श्र० १ अ०। उत्त । एकान्तात्सवरूप-
त्वान्माक्षस्तमिच्छ॒त्यव शीला महेषी । उत्त० ४ अ० ।
महामुनों, आचा० ट श्रु ५ अ० ५ उ० । सूत्र० ¦ उत्त० |
महागणधरादिषु, आतु०। | ;(
महोक्ख-7 दोक्त पुं । खुवगव, जो० ३ प्रति० १ आधि०
२ उ०।
महोघ-महोघ-पुं” । अपारसंसारसागरे , सूत्र० १ श्रु० २
अ० २ उ०।
महोदग-महो[दक-पुँ० । महाजल, षो० ८ विव० । नि०।
महोदय-महोदय-पुं” । पुरयानुबन्धिपुरयविभूतिलाभ ,
घो> ८ विव०।
महोदर-महोदर-ऐ;ुँं? | बहुभोजिनि,
जई ` | नि० चू० १ उ०।
महोद॒हि-महोद्धि-पुं० । खयेभूरमणसमुद्र, सूज० १ श्रु०
द आ०।
“ महोदरो जो बहु भु-
| महोरग-महोरग--पुं> । व्यन्तरविशेषे, ज० १ वक्ष० । अ-
नु० । सथा० | भ० । “ महोरगाणं अइकाया महाका-
या "` प्रज्ञा० २ पद । उरःपरिसपभद. जी० १ प्रति० ।
महारगास्तु मनुष्यक्तेत्रवदिर्भाविना यच्छरीरं योजनसह
खरप्रमाणमुत्कषतः श्राख्यायत इति | प्रश्न० १ आश्र०्द्वार ।
सम्प्रति महोरगानभिधित्सुराह--
से कितं महोरगा ? महोरगा अणगवरिहा पप्पत्ता | तं
जहा-अत्थेगइया अगुलं पि त्रगुलपुहत्तिया वि वियत्थि
पि वियत्थिपुहक्तिया वि रयणि पि रयणीपुहत्तिया वि
कुच्छि पि कुच्छिपुहत्तिया वि धरु पि. धरुपृहत्ति-
या वि गाउयं पि गाउयपुहत्तिया वि जोयणं पि
जायरपुहात्तया वि जोयणसयं पि जोयणसयपुहत्तिया
वि जोयणसहस्सं पि, तेणं थले जाता जले तरि
चरंति, थल वि चरंति, ते णऽत्थि इहं बाहिरएसु
दविसु समुद्देस हवति, जे यावन्ने तहप्पगारा। सेतत महारगा ।
(स कितं इत्यादि ) सुगमम्, नवरं वितस्तिद्धाद-
शाङ्गुलध्रमाणा , रत्नर्हस्तः, कु सरद्विहस्तमानः, धनश्च-
तुहस्तम् , गव्यूत द्वघन सहस्रप्रमाखम् , चत्वार गब्यू-
तान याजनम् ,इृद चर वतस्त्याद--उच्छुयाडः-गुला पेत्तया
द्रष्त्यम् , शरारप्रमाणस्य पारे, न्त्यमानत्वात् , तथा-अस्ती
त ॥नपाता5त्र बहत्वाभधाया प्रातपद च सबध्यत ,
तताऽयमथः-सन्त्यक कचन मरोरगा अङगलमाप शरीरा-
वगाहनया भवान्त, तथा सन्त्येके कचन थ<छ्ुलप्रथाकत्वका
आप, अड्नलप्रथकत्व वियत यषां ते अज्ञु लप॒थाक्त्वका
ता नकस्वरात् 9 ॥ इत इकप्रत्ययः, ताप
(२३४ )
महोरणग
शरीरावगाहनया भवन्ति, अद्डलप्र्धकत्वमानशरीरावगा-
हना अपि भवन्तीति भावः. एवं
यानि । ( ते ण. इत्यादि ते- अनन्तर ःदितस्वरूपा महा-
रगाः स्थलचरविशषत्वात् स्थल जायन्त, स्नले च जाताः
सन्तो जलेऽपि स्थल इव चरन्ति स्थलऽपि चरन्ति तथा
भवस्वाभाव्यात् , यदवे ते कस्मादिह न दृश्यन्ते, इत्या-
शङ्ायामाट-( त न5त्थि इटे, इत्यादि ) ते--यथोक्लस्व-
रूपा महोरगा इह- मानुषे क्तत्रे ( नत्थि क्षि ) न स-
न्ति, कि तु वाद्यषु द्ोपसमुद्रषु भवन्ति, समुद्रष्वपि च
प्वैतदवनगयीदिषु स्थलप्न्पयन्त न जलेषु, स्थृलतरत्वा-
अभिधानराजन्द्रः)
|
शोषसूत्ारयपि भावनी- '
तू्। तत इह न दृश्यन्त । ( ज यावन्न तदप्पगारा इति) |
यपि चान्ये अड्डःलदशकादिशरीरा5वगाहनमानास्तथाप्र-
काराः सन्ति त5पि महारगा ज्ञातव्याः
( सत्त, इत्यादि ) ते समासआओ, इत्यादि
नीयम् । प्रज्ञा० १ पद ।
महारगकट- मटारगकण्ड- न° । रत्नविशषे, जी० ३ प्रति०
४ अधि० । रा० | ओ० ।
महोवगरण-महोपकरणू-न० । द्रव्यानेचये, आचा० १ श्रु०
२ अण० ३ उ० ।
द ~ ८ ~ शक 3 (9 = (८
महोसदि-महौषधि- खी” । दूर्वायाम्, लज्ञालुक्षुपे, सहदेवी
तथा व्याघ्री, बला चातिबला तथा । शङ्खपुष्पी तथा सि-
ही, अष्टमी च खुबचेला १ ॥ महोषध्यष्टकं प्रोक्तम ।
वाच० । ओषधिविशेष, ती० ६ कल्प ।
महे।सिण-महोष्श्-त्रि० | अत्युप्णे, प्रशश० १ आश्र० द्वार ।
मा-मा-अव्य० । निषध, जी० १ प्रति० | उत्त० । ज्ञा०। नि०-
चू० | तं० । | ओ० । दर्श० । प्रतिषेधे, श्राचा० १ श्रु० २ अ०
५ उ० । व्य० । नि० चू० । पश्चा० । सूत्र० | स्था० । अना-
गतप्रत्युत्पन्नकालविषय प्रतिषेथे, बृ० १ उ०। “मा य घड़े
भिद मा य भिदिहिसि ” माकारो बतमानाऽनागतकालप्र-
तिषधका, यथा-मा घटे भत्स्यति, चकारों समुचयार्थों।
शरीर, तं० । माः चन्द्रमासयोः, पु० । टे०।
माअलिआ-दंशा-मात्ष्वसार
माई मात खा० । मातारद् वा ॥ ८। १। १३५ ॥ इाति ऋत
द्द् वा । माइहरं । माउहरम् | प्रा० । जनन्याम् , पश्चा० १७
विव० । श्राचा०।
मायिन् तरि०। मायाप्रतिसवनशी ले,व्य० ३ उ० । मायाविनि,
० ना० ६ वर्ग १३१ गाथा।
। उपसंदारमाद- ¦
प्राग्वद् भाव-
व्य० १ उ० । सूत्र०। उत्त० । स्था० । परवञ्चनादिवुद्धौ, |
सत्र ० १ श्रु० १६ सण
च्ू०- उ०।
माइअंग-मात्रज्ू-न० । मातङ्ग, भ०
। स्वशक्किगुदनादेना मायावान् । |
( मादश्रगत्ति ) |
श्रानवविक्रारबहुलानीत्यथः ( मन्धुलुग त्ति) मस्तकभेज- |
कम्, अन्य त्वाहुः मदः फिप्किलादि मस्तुलुज्ञामाति ।
भ० १ श० ७ उ०। है गणवर ! गौतम ! त्रीणि मातुरज्ञानि
प्रज्नप्तान मया अन्यश्च जगदीश्वरे: मांसम-पललम् , शोणि
तम-रूघिरम ,
त्वाहमंदः-फिप्फिसादि मस्तुलिज्ञाभिति । ते० |
( मन्थुलुग ति) मस्तकभेजकम , अन््ये |
माउच्छेद
माई - श्रव्य० । माई माउउर्थ ॥ ८। २। १६१ ॥ माइमिति माउथ
प्रयाक्रव्यम् । ` माई काहिअ रोसे' मा कार्षी रोषम् । प्रा० ।
माइंदा-देशी-आमलक्याम् , दे० ना० ६ वरी १२६ गाथा।
माइगण-मातगण- पुं° । | मातुरिद् वा॥ ८। १।१३५॥ इति
ऋत इत्वम् । माइगणो । मातृसमृटे, प्रा० ।
महदण मातृस्थान-न० । मायायाम् , मातरः खियोऽभि-
धीयन्ते, तासां स्थानमाश्रयो मात॒स्थान माया । खियों
हि प्रायो मायाधिता भवन्ति । ख्रीत्वमपि प्रायो मायानि-
बन्धनम् । अथवाः-मातृशब्देन माया उच्यते, ततश्च तस्याः
स्थान विषयो मातृस्थानम् । मायिनां वा स्थानमिति मा-
यस्थाने मायेव प्रायो बाइल्येन कषांचित्तन्न सभवत्यवेति ।
पञ्चा० १७ विव० । श्राचा० | आव० । दशा० ।
माइंदेव-माठदेव पुं० । मातुरिद् वा ॥८। १। १३५॥ इति ऋत
इत्त्वम् । माइदेवो । मातरं देवत्वेन मन्यमाने, प्रा०। श्रा० क०।
माइय--मा त्रित-त्रि० । मात्रावति परिमिते,ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।
ऋत्षादिवालयक्वत्वात् | ज्ञा०१ श्रु० १८ अ० । मयूरिते, औ० ।
| माइली-देशी-खदुनि.दे० ना० ६ वग १२६ गाथा।
माइन्न-मायाविन्-पु० । परवश्चनोपायविदि, उत्त० ५ अ० ।
महाशटे, सूत्र० १ श्रु० ४ श्र० १ उ०। उत्त० । स्था०।
| मादल्नया-मायाविता-खरी° । परवञ्चनवुद्धिमत्तायाम् , भ०
८ श० ६ उ०।
मायिता-खरी०। परवश्चनवुद्धिमत्तायाम्, भ० ८ श० ६ उ०।
माइवाहय-मातवाहक - पु०। विकलन्दियजीवविशषे, अनु० ।
माई-देशी-रोमश, दे० ना० ६ वर्ग १५८ गाथा ।
| माउआ-मात॒का-ख््री० । उदत्वादो ॥ ८। १। १३१ ॥ इति
ऋत उत्त्वम् । प्रा० । सख्याम्, “ आली तह माउआ सही
अत्ता” पाइ० ना० १०८ गाथा । सखी-दुर्गयोः, दे० ना० ६
वग १७७ गाथा ।
माउओय-मात्रोजस्-न० । जनन्या च्रातैवे शोणिते, तं० ।
माउक-सृदुत्व -न० । श्नात् छशा-सृदुक-खदुत्वे वा॥ ८ ।
१। १२७ ॥ इति श्रदेः ऋत श्राद्धा । माउक। म-
उञ । प्रा । शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-सदुत्वे को वा
॥ ८ । २। २ इति सयुक्कस्य विकल्पेन ककारः । माउक्तं ।
माउत्तणं । मर्दने, कामले, प्रा० ।
माउगंत-मातृकान्त-न” । इह वसे यतो व्ययते तदादि-
भूतत्वान्माठृकेव मात॒का । श्रन्तश्चह दशान्त उच्यते |
मातृका चान्तश्च मातृक्रान्त ढन्द्धकवद्धावः । मातृकाया-
मन्त च । बृ० ३ उ०।
माउग्गाम-मातग्राम- पुं । समयपारिभाषया खीवर्गे , उर
१ उ० । पेन्व० “ माउम्गामो मरहद्वविसयभासाए वा
इत्थ माउग्गामो भरणति ” नि०्चू० ६ उ० । (* मे-
हुण ` शब्द् व्याख्यास्यत )
माउच्छ देशी-दुनि, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा ।
माउच्छंद- मात च्छन्द -पुं० । मात्रभिप्रायें, व्य० ४ उ०।
|
( २८३५ )
माउच्छा |)
माउच्छा-मातृष्वसू “ली? । मादापतुः स्वस् सिआ-छो ॥८।
२। १४२ ॥ इति स्वसखृस्थान छादेशः । परा० दु° २ पाद |
मातुमगिन्याम् , “ माउच्छा माउसिया ` पाद ना०
२५३ गाथा ।
माउजीवरसहरणी-मातृजीवरसहरणी खी ० । मग्ठ जीवस्य
रसहरणी मात॒जीवरसहरणी । नाभिजाल, त०।
माउपिउसुजाय-मातापितृसुजात-त्रि० । मातापितृभ्यां सजा. |
तो मातापित्सुजातः | समस्तगभोधानथथति-सभविदोष- |
विकल, रा०। सूत्र० ।
माउमडल- मात॒मण्डल-न० । मातुरद् वा ॥ = । १। १३५ ॥
इति मातृशब्दस्य ऋत इत्वम् , पत्तं उत्वम् | माठत्समूह,प्रा०।
मारय- मातृक त्रि० । मातृसस्व्रान्धानि, भ० १ श० ७उ०। |
स्था०।
माउयणकय- मात्रेकक -पुं० । प्ककभेदे , स्था० । ( माउय
पकप त्ति ) माठकापदैककम्--एकं मरत्॒कापदम् । तद्य-
था-- उप्पन्नइ वेत्यादि ” इह प्रवचन दृष्णिवादे समस्त-
नयवादबीजभूतारनि मातृकापदानि भवन्ति | तद्यथा-''उप्प-
पकत्वान्मातकापदानीति । स्था० ४ ठा० २ उ०।
माउयेम-मात्रङ्ग-न० । आत्तवपरिणतिप्राये, स्था० ३ ठा०
४ उ०।
माउयकाय-मातृकाकाय-पएुँ० । मातृकेति मातृकापदानि ` उ-
प्पछइ वा' इत्येवमादीनि तत्समूहो मातकाकायः । कायभेदे
( आवबण० ) ' उप्पणणइ वा घुवइ वा ` इत्यादीनि । तत्पद्सम्
कक ] र [ए
है, आव० ५ अ० । ज०। ( ` काय ` शब्द् तृतीयभागे ४५७
पृष्ट दितम् )
माउयक्खर-मातृका्तर- न” । अकाराद्यक्षरेषु, स० ।
वंभीए ण लिवीए छायालीस माउयक्खरा पष्पत्ता |
कारादीनि दकारान्तानि सक्तकाराणि ऋऋलदृल्ल इत्यवं
तदक्तर पञ्चकव्जितानि सभाव्यन्त । स० ४६ सम० ।
माउयण-सृदुत्व-न० । मदेन, प्रा० ।
माउया-मातृका- खी० | अकाराद्यक्तरेषु, स० ४५ सम० ।
जनन्याम् , पाइ० ना० । उत्तरोष्ट्ररोमणि, ज्ञा० १ श्र०
अभिधानराजन्द्रः)
|
_बंभीए रु य | माउसियावइ-माठ्स्वसूपति-पुं० । जननीमागिनीमतेरि, वि-
लेख्यांवधों, षदचत्वारिंशन्मातृकात्तराणि तानि च-क- ¦
ध्य०। |
मात्क्व मात॒का । परवचनपरूषस्यात्पादव्ययध्रोव्यलत्षणाया |
पद्त्रय्याम् , स्था० {० ठा० । बपा०। आवब० ।
माउयाणु्राग- मातकानुयोग- पुं । दरव्याजुयागमेदे, स्था०।
( माउयाणुश्रागनति) दइ
मातृकेव माका प्रवचनपुरुष- |
स्यात्पादत्ययध्रात्यलक्तणा पदत्रया, तस्या अनुयागा, यथा ।
उत्पादवज्जावद्रव्य बाल्यादपयायाणामनुक्तणमु त्पत्तिदणी-
नादनुत्पद् च वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्निप्रसङ्गादसमञ्जसाप-
त्तेः, तथा>व्ययवज्जीवद्रब्य प्रतिक्षणं बार्याद्यवस्थानां
व्ययदशनादव्ययवच्च च स्वेदा वाट्यादिप्राप्तरसखमञ्सम- |
च। तथा-यदि सवथा ऽप्युन्पादव्ययवदेव तन्न कनापि प्र- |
कारण ध्रवं स्यात्तदा अकरृताभ्यागमकर्तावप्रणाशतप्राप्त्या पू-
| है माशदिय
वद्टानुस्मरणाभिलापादिभावानामभावप्रसङ्गन च सकले-
हलोकपरलोकालम्वनानुष्ठटानानामभावतो ऽसमज्ञसमेव, ततो
द्रव्यतयाऽस्य भाव्यमिति । उत्पाष्रव्यय धोव्ययुक्कमात्मद्रव्य-
मित्यादिमीतृकापदानुयागः । स्था० ६० टा०।
माउयापय-मातकापद्--न० । अञइत्यादिकषु, सकलशब्दा-
भरययापारव्यापकत्वात्तषाम् । स्था० ४ ठा० २ उ०।
दादुवायस्स ण छायालीसं माउयापया पण्णत्ता ।
(दिद्धिवायस्स त्ति) द्वादेशाङ्गस्य (माउयापय {न ) सकलवा
इयस्य श्रकारादिमातुकाः पदानीव दृष्टिवादा थप्रसवा ने बन्ध -
नत्वेन मातृकापदानि उत्पादविगमधोव्य लक्षणानि, तानि च
सिद्धश्रणिमनुष्यश्ररयादिना विषयभदेन कथर्माप भिद्यमाना
नि षदचत्वारिशद्धवन्तीति समभाव्यत | स० ४६ सम० । दाए-
वादान्तगतसिद्धश्रेणिकादिपरिकमसलभेद, स० | आ० चू० ।
। माउल-मातुल-पुं । मातुश्रीतरि, आ० म० १ अ० | आव०।
माउलिंग-मातुलिड्ज-बीजपूरे, अणु० । घृ० | आ० म० | आ-
चा० । प्रा० । ल० प्र० । प्रव० । प्रज्ञा० | गुच्छुवनस्पांता वेशष
प्रज्ञा० १ पद् | अनु० ।
क्षइ वा विगमइ वा घुवेइ व त्ति। ” श्रमृनि वा मातृकापदा- | माउलिगपेसिया-मातलिङ्गपेशिका--खी० । वीजपृरखणड, द-
नीव अ-आ-इत्येबवमा दीनि, सकलशब्दशास्प्रार्थव्यापारव्या- |
शा० १० झ० । आ० म०।
माउवग्ग-मातृवगे--पु० । खाजन, ब् ४ उ० |
माउवाह-मातवाह-पु० । काद्रव इव प्रतीते द्वीन्द्रियजीवभद
जी० १ प्रात०।
माउसिय-मातृस्वसुक-छ? । गाणान्त्यस्य ॥ ८। १
इति अन्त्यस्य ऋतः उत्। मातृभगिनीपुत्र, प्रा० ६ पाद् ।
माउसिया-मातष्वसु-खा० । माद्।पतुः स्व सिञ्रा-खौ
॥ । १४२ ॥ इतिमातृशब्दात्परस्य स्वखृशब्दस्य स
याऽ ऽदेशः । प्रा० । मातृर्मागन्याम् , दश० ७ अ० । चपा? |
“& माउच्छा माउसिआ ` पाइ० ना० २५३ गाथा |
। १३४७४ ॥
[न
पा० १ श्रु० ३ आ० ॥
माउहर-मातग्रृह-न० । गांणान्त्यस्य ॥ ८ । १। १३६४ ॥ दात
ऋत उत् | मातृभवन प्रा० १ पाद् ।
मा्ग।देय-माकादक--3९ । मकर पुत्रााभघान अनगार, भ०
१७ श० १७ उ० | ( वीरण मार्कान्दकपुत्रस्य सवादः माः
याद् शब्दं दशायष्यत )
ते ण॑ काले णंते णं समए शं रायगिहे नगर होत्था,
वन्न, गुणसिलए चइए वन्नओं। ° जाव पारेसा पाड-
गया । तशं काले ण॑ ते णं समए णं समणस्म भवगआ।
महावीरस्य ०जाव अतेवार्स। माम।दयपृत्त नार्म अण
गरं पगइभद्दए् जहा मंडियपुत्ते ० जाव पज्जुवासमाण
एवं वयासी-से नृणं भते ! काउलस्स पुढ।बकाइए का-
उलेस्सेहितो पुढविकाइएहिंतो अणंतर उब्ब।इत्ता माणुस
विग्गहं लभति लभित्ता केवलं बो इज्कति, केवलं
रोदि वुज्कित्ता तओ पच्छा सिज्कोद ° जवर अरत
( २३६ )
मागंदिय
करेति ?, हंता ! मार्गदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए० |
जाव अंत करेति | से नृणं भते ! काउलस्से आउकाइए |
काउलेस्सेहिंतो आउकाइएहिंतो अणंतरं डब्बद्धित्ता मा- ,
णुस विग्गह लभति, लभित्ता केवल बोर्हिं बुज्कति० |
जव अंत करेति ?, हंता ! मार्गदियपुत्ता ! ०जाव अतं करे- |
ति। से नृणं भते काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चेव ०जाव
अंत करेति । सेवं भते ! भते ! नि, मार्गदियपुत्ते अण-
गरे समणं भगवं महावीरं ०जाव नमंसित्ता जेणेव समणे |
निग्गंथे तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता समणे निग्गंथे |
एवं वयार्सी-एवं खलु अज्ञों ! काउलेस्से पुढविकाइए
तहेव ०जाव अंत करेति, एवं खलु अज्ञों ! काउलेस्से |
आउकाइए ०जाव अंत करेति । एवै खलु अज्ञा ! काउ- |
सस्मे वण॒स्सइकाइए ०जाव अंत करति | तए ण ते स-
मणा निग्गंथा मार्गदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक् `
माणस्स ०जाव एवं परूुवेमाणस्स एयमद्रं नो सदर्हति नो
पत्तिय॑ति नो पर्ति एयमदट्ं असदृहमाणा अप्पन्चयमाणा ।
अपरूबेमाणा जेणेवसमणे भगवं महावीरे तेणेव उवाग-
च्छति उवागच्छित्ता समरणं भगवं महावीरं वद॑ति नमंसंति |
वंदित्ता नमंसित्ता एवं वासी एवं खलु ते ! मागंदिय- |
एते अणगररे अम्हं एवमाइक्खति ०जाव परूवेति । एवं
खलु अज्ञ। ! काउलेस्से पुटाविकाइए ०जाव अंत करेति , |
एवं खलु अज! काउलेस्से आउकाइए ०जाव अंत करेति,
एवं वण॒स्सइकाइए वि ०जाव अंत करेति । से क-
हप्रयं भते ! एवं ? अज्ञो त्ति समणे भगवं महावीरे ते स-
सणे निग्गंथ आमंतित्ता एवं बयासी -ज णं अज्ञा! मार्ग- |
दियपुत्ते अणगारे तुज्के एवं आइक्खति ०जाबव परूवेति
एवं खलु अजा ! काउलेस्से पुढविकाइए०जाव अंत करे- |
ति, एवं खलु अज्ञो ! काउलेस्से आउकाइए ०जाव अंत |
करति, एबं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए वि०
जाब अंत करति, सच्चेणं एसमद्र, अहं पि णं अज्ञ। !
णवमाइक्वामि एवं सदृहा मि एवं पचयामि एवं परूवयामि
एप खलु अजा ! कण्हलेस्से पुदविकाइए कण्हलेस्सेहिंतो |
पृदधिकाइए हितों ०जाव अतं करति , एवं खलु रज! !
न।ललेस्स दुद विकाइए ०जाव अतं करेति, एवं काउलेस्से
पि जहा पुदविकाइए ०जाब अंत करे, एवं आउकाइए |
वि, एवं वणस्पइक्राइए वि, सच्चे ण॑ एसमद्र मेयं भते ! |
भत! त्ति। समणा निरगथा समरणं भगवं महावीरं व॑दाति
नर्मसति समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नर्मसित्ता जेणेव
मा्गदियपुत्ते अणगरि तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता |
मार्गदियपुर्त अशगारं वदति नमंति वंदित्ता नमंसित्ता |
एवमहं सम्म विणणं भुजो युज। खामेतिं | (मूत्र-६१८) |
अशिधानराजन्द्रः।
_ मागंदिय
( ते र काले णमित्यादि ) ( जहा मेडियपुत्त तति ) श्रन-
नेदं सूचितम् ( पगदउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे
इत्यादि ) इह च पृथिव्यव्वनस्पतीनामनन्तरभवे मानुषत्व
प्राप्त्वा ऽन्तक्रिया सम्भवति न तेजावाय॒नाम् , तेषामान-
न्तरेण मानुषत्वाप्राप्तरतः पृथिव्यादि ऋयस्थैवान्तक्रियामा-
श्रित्य ' से नृण ' इत्यादिना प्रश्नः कृतो न तजोवायू-
नामिति । अनन्तरमन्तक्रियोक्का ।
अथान्तक्रियायां ये निजरापुद्रलास्तद्वक्कन्यताम-
भघातुमाह-
तए शं से मागंदि यपुत्ते अणगरे उद्बाय उदेति जे-
णेव समे -भगवं महार्बरे तेणेव उवागच्छति तेखेतर
उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नर्मंसइ वं
दित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी--अणगारस्स णं भते !
भावियप्पण सव्यं कम्मं वेदेमाणस्स सव्वं कम्म
निज्ञरेमाणस्स सव्ये मारं मरमाशस्स सव्वं स-
रीरं विष्पजहमाणस्स, चरिम कम्मं बेदेमाणस्स
चरिम॑ कम्मं निज्ञरमाणस्प चरिमं मारं मर-
माणस्स चरमं सर्र विप्पजहमाणस्स, मारणंतिय-
कम्मं बेदेमाणस्स मारणंतियकम्मं निजरेमाणस्स मा-
रणंतियमारं मरमाणस्स मारणंतियसरीर॑ विप्पज-
हमाणस्स जे चरिमा निज़रा पोग्गला सुहुमा णं ते
पोगगला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्व लोगं पिणंते
उग्गाहित्ता ं चिट्ठ ति १, हता ! मागंदियपूत्ता ! अणमा-
रस्स शं भते ! भावियप्पणो ०जाव ओगाहित्ता णं
चिट्ंति | छठमत्थे णं भते ! मणुस्पे तेसि निजरा-
पोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा णाणत्त वा एवं जहा
इंदियउद्देसए पढम ०जाव वेमाणिया ०जाव तत्थ शं
जेते उवउत्ता ते जाखंति पासति आहारेंति, स
तेणट्रणं निक्ववा भाणियव्यों त्ति--न पासति आ-
हारति | नेरइया शं भते ! निज्रा पुग्गला न जा-
शंति न पासति आहारेति, एवे ०जाव पंचिदिय-
तिरिक्डजाणियाणं । मणुस्सा णं भते ! निज्ञरा पोग्ग-
ले कि जाणंति पासति आहारंति, उदाहु न जाणंति
न पासंति ना55हार॑ंति ?, गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति
पासंति आहारंति, अत्थगहया न जाणंति न पासति आ-
हारंति,से कण5द्वणं भते ! एवं वचर अत्थेगइया जाति
पासंति आहारंति, अत्थेगदया न जाणति न पासति आ-
हारंति ?, गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पाप्मत्ता तं जहा-
सन्नीभूया य, असन्नीभूया य । तत्थ णं जते असनह्नी-
भूय। ते न जाति, न पासंति, आहारंते । तत्थ शं
जते सन्नीभूया ते दुविहा पण्णत्ता | तं जहा-उवउत्ता,
अशुवरउत्ता य । तत्थ ण॑ ज ते अणुवउत्ता ते
_सागंदिय _
( २३७
ऋअभध्ानराजन्द्रः।
न जारति न पासंति, आहारंति । तत्थ णं जेते उब- |
उत्ता ते जाणंति पासंति आहारंति । से तेण्ट्रेण ।
गोयमा ! एवं वुच्वह अत्थगइया न जाति, न पासं
ति, आहरेति, अत्थेगइया जाणंति पासति आहारंति,
बाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया । वेमाणिया णं भते ! ते
निज़रापोग्गले कं जाति, पासति, आहारेंति, | उदाहु-
न जाणंति न पासति न आहारंति १। गोयमा ! जहा मणु-
स्सा नवरं वेमाशिया दुविहा पष्पत्ता, ते जहा--माइमि-
च्छदिद्रीउववननगा य , अ्रमाइसम्मदिङटरीडववन्नगा य |
तत्थ ण जे ते मायिमिच्छदिद्रीउववन्नगा ते श न-
जाति, न पासंति, आहारंति। तत्थ रजते अमा-
यिसम्मदिद्रीउवन्नगा ते दुविहा पणणत्ता , ते जहा-
अखंतरोववन्नगा य, परंपरोववन्नगा य | तत्थ णे जे ते
अणंतरोववन्नगा ते श न जाणंति, न पासंति,
आहारंति, तत्थ णज ते परंपरोववन्नगा ते दुविहा
यण्णत्ता, तं जहा-पज़त्तगा य, अपज़त्तगा य। तत्थ श जे
ते अपज़त्तगा ते णं न जाणंति, न पासंति, आहारंति। ¦
तत्थ र जे ते पज्त्तगा ते दुविहा पष्पत्ता | तं जहा-
उवउन्ता य, अणुवउत्ता य | तत्थ श ज ते अणुवउत्ता
ते ण जाति न प्राति, आहारंति । ( सूत्र-६१६ )
{ अणगारस्सेत्यादिं ) भावितात्मा-ज्ञानादिभिर्वासितात्मा,
केवली चह सग्रा्यः, तस्य सवं कर्म-भवोपग्राहित्रयरूप-
मायुषो भेदेनाभिधास्यमानत्वात् , , वेदयतः-अनुभवतः प्रदे- |
शविपाकाजुभवाभ्याम् , , अत एवं सवं कम्मं भवोपग्राहि- |
रूपमेव, निजेरयतः-आत्मप्रदेश भ्यः शातयतः, तथा सर्वम-
सवौयुःपुद्रलापेक्त, मारं-मरणम् श्रन्तिममित्यथैः त्रि-
यमाणस्य-- गच्छतः, तथा सर्व-समस्त शरीरम्-ओ्रोदा-
रिकादि विप्रजदतः, एतदेव विशषिततरमाह-( चरमं
क्रम्ममित्यादि ) चरमं कम्मे श्रायुषश्चरमसमयवेद्यम् , |
ब्रेदयतः एवं निजरयतः , तथा चरमं चरमायुःपुद्गल- |
च्यापेत्तम् मार- मरणम् त्रियमाणस्य गच्छतः, तथा- |
चरमे शरीरं यश्चरमावस्थायामस्ति त्यजतः,
स्फुटतरमाह-'
ध्कत्तयलक्षणस्यान्तः-समीप मरणान्तः आयुष्कचरमसम-
यस्तज भवे मारणान्तिकम्,कर्म-भवोपग्माहित्रयरूप वेदयतः
एवं निजरयतः। तथा मारणान्तिकं-मारणान्तिकायु्दालि-
कापपेत्तम् मारं-मररण कुर्वतः, पव
चरमाः-सर्वान्तिमाः निज्नेरापुद्ग लाः-निर्जी शकर्मदलिकानि
पतदेव |
मारणंतियं कम्म ' इत्यादि मरणस्य सवांयु- |
शरीरं त्यजतः , ये |
स॒च्मास्ते पुद्धलाः प्रश्नप्ताः भगवद्धिः हेश्रमण ! आयुष्मन् ! |
इति भगवत आमन्त्रणम्, सर्वलोकमपि त ऽवगाद्य-तत्स्भा-
चत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्तीति प्रश्नः, ्रजात्तरम्-' हंता माग-
दियपुत्ते' व्यादि ( छठमत्थे णं ति ) केवली हि जानात्येव |
(हु न तद्गत किश्ित्प्ण्ठव्यमस्तीति रत्वा * छठमत्थे
त्युक्तम् । छु्मस्थश्रेह निरतिशयो ग्राह्मः ( आणत्त व त्ति) |
झन्यत्वम् । अनगारद्वयसम्बन्धिनों ये पुद्लल्लास्तेषां भदः
६9
मागंदिय
( णाणत्त व त्ति ) वर्णादिकृत नानात्वम् ( एवं जहा इोदेय
उद्देसए पदमे त्ति ) एवं यथा प्रज्ञापनायाः पञ्चदशपदस्य
प्रथमादेशके तथा शप वाच्यम , अथातिदेशश्थायं तन यत्रह
गोयमे ` त्ति पदे तत्र ` मागदियपुत्त त्ति द्रव्यम् , तस्यव
प्रच्छंकत्वात्, त्चदम्- श्रामत्तं वा तुच्छत्ते वा गरूयत्त वा
लहयत्त बा जाणति पासति ?, गायमा ! ना इण समद्र,
से केणाऽरणे भत ! एवं वुच्चद छडमत्थणं मणूले तास
निज्जरापुग्गलाणं णो किचि आणत्त घा० ६ जाति पासतिः
गोयमा ! देवेऽवि य णे अत्थगइए ज शो तसि निज्जरा-
पोग्गलारं ( नो ) किचि आणत्त वा० ६ न जाणते न
पासति ?, से तेण ्टरुणं गायमा ! एवं बुच्चइ, छुडमत्थ ण
मर्ते तेसि निज्जरापोग्गलाणं ( ना) किच आणतक्त०
वा ६न जाणद न पासइ, खमा णे त पुग्गला पन्नत्ता
समणाउसो ! सव्वलोगं पियणेत आगाहित्ता र चिट्ठाति '
एतच्च व्यक्तम् , नवरम् ( श्रोमत्तं क्षि ) अवमत्वम--ऊनता
( तच्छत्त ति ) तुच्छ॒त्वस--निःसारता , नित्रेचनसत्रे तु
( देवेऽवि यणे अत्थगइए त्ति) मनुप्यभ्यः प्रायण देव
पटुपरज्ञो भवतीति देवग्रहणम , ततश्च दवाऽपि चास्त्य
ककः कश्चिद्धिशिष्टावधिज्ञानविकलो यस्तषां निजरापुद्रला-
नां न किश्विदन्यत्वादि जानाति कि पुनमनुष्यः । एक-
ग्रहणाच्च विशिष्टावधिज्ञानयुक्लों देवा जानातीत्यवसीयते
इति, *“ जाव वेमाणिए त्ति ” श्रननान्द्रयपदपरथमादश-
काभिहित एवं ॒प्राग्व्याख्यातसत्रानन्तर वर्तौ चतुर्विशात-
दण्डकः सूचितः, स च कियद् दुरं वाच्यः ?, इत्याह-' ०जाव
तत्थ णं ज ते उवउत्ता इत्यादि ” एवं चासा दण्डकः-
४ नेरदया णा भते ! निञ्जरा पुर्गल, कि जाणंति पासति
श्रादारति, उदाहु-न जाणंति ० ” शपे तु लिखितमे-
वास्ति इति, गताथ चेतत् ,` नवरमादारयन्तीत्यत्र सवत्र
श्रोज श्राहारो गद्यत, तस्य शसीरविशेषग्राद्यःवात् तस्य
चाहारकत्वे सर्वत्र भावात् , लामादहारग्रत्तपादारयास्तु त्व
ग्मुखयाभौव एवं भावात् , यदाह--
सरि (री) रेणायादारो, तया य फासण लोमआहारो ।
पक्लेवाहारो पुण, कावलिञ्रो हाई नायव्वा ॥
मनुष्यसत्र तु सब्छिभूता विशिष्टावधिज्ञान्यादयो गृह्यन्त
येषां ते निजरापद्वलाः ज्ञानविषयाः । वेमानिकसत्रे तु वेमा-
निका-श्रमायिसम्यगृदष्टय उपयुक्तास्तान् जानन्ति ये विश
घ्रावधयो, मायिमिथ्यादृष्ट्यस्तु जानन्ति मिथ्यादष्टित्वा-
देवेति । भ० १८ श० ३ उ०।
कर्म्माधिकारादिदमाह--
जीवा णं भते! पावे कम्मे जे य कड़े ० जाव जय
कज़िस्सइ अत्थि याई तस्स केइ णाणत्ते १, हता अ-
त्थि, से केण5्ट्रेणं भते ! एवं वुच्चद जीवा शं पाव कम्म
जे य कडे ० जाव जे य कज़िस्सति अत्थि याइ तस्म
णाणत्ते ?, मार्गदियपुत्ता ! स जहानामए-केइ पुरिमे धर्णु
परामुसइ २ त्ता उसु परामुसइ २ त्ताठाणंठाइ २त्ता
अययकन्नाययं उसुं करेंति आययकन्नाययं ० त्ता उड़े वहां
उच्विहड , से नृणं मार्गदियपूत्ता ! तस्म उसुस्स उड
# १
सायादय
वहास॑ उन्बीदस्स समाणस्स एयति वि णाणत्त ०जाव
ते ते भाव परिणमति वि णाणतत ?, हंता भगवं ! एय-
ति वि णाणत्त ०जाव परिणमति वि णाणत्त, से तणऽ-
ड्रग मागदियग॒त्ता ! एवं वुच्चह ०जाव त॑ तं भावं परिण-
मति वि शाणत्त, नरहयाणं पावे कम्मे य कड़े एवं
चेव नवरं ०जाव वभाणियाणे | ( एत-६२१ )
(जीवा ण' मित्यादि) (एयइ वि ना णत्तं ति) एजते कम्पते |
यद् ाविपुस्तदाप नानात्वम्-मदा ऽनजनावस्थापक्तया, याव-
त्करणात् ˆ` वेयद वि णाणत्तं ” इत्यादि द्रव्यम्, श्रयमभि-
प्रायः-यथा वाणस्याध्वत्तिघस्यैजनादिकं नानात्वमस्ति पव | ˆ, ८3 235५
; है माडविय-माणडविक-ए० । छिन्नजाभ्रयांवशेषरूप मरडवमु-
कर्मणः कृतत्वक्रियमाणत्वका रेष्यमाणत्वरूप तीव॒मन्द्परि-
णामभदात्तदनुरूपकारय का रित्वरूप च नानात्वमवसेयाभाति |
नन्तरं कम्मे निरूपिते तच्च पुद्रलरूपामिति
पुद्दलानधिकृत्याह--
८.)
श्रा भध्रनराजन्द्रः |
पत्थओ नआ ।१। त्ति मगधदेशव्यवहत प्रस्थ.ज्ञा० १ श्रु० >
द्म | ते० आ०। ( मागधप्रस्थमानम् पत्थग' शब्दे पञ्चमः
भाग ४२६ प्ट गतम् )
मागहभासा-मागधभाषा-खी०। मगधदेशप्रचालितभाषाया म् ,
आए चु० १ अ०।
मागहिया-मागधिका-स्त्री० | मगधदेशीयगाथायाम्, औ० |
जं० | त०। स० । करूलवालुकर सङ्गतगणिकायाम् , आव० ४
अआ० | ज्ञा० |
माघवई-माघवती-ख्री० । सप्तमनरकपृथिव्याम् , स्था० ७
ठा० । प्रच० । भ० | जी० ।
च्यते । तस्याधिपतिमौरडविकः । लिन्नजनाश्रयदशस्वाभि-
नि, अनु० । ज्ञा० । भ० । स्था० । बृ० । ज० । जी० । कलर्प० |
| माडिश्र-देशी- गदे, दे० ना० ६ वर्ग १२८ गाथा ।
नरइया श भत ! जे पोग्गल आहारत्ताएं गेएह॑ति तेसि |
णं भेत ! पगगलाणं से य कालंलि कति भागे आहोरें-
ति कपि भागं निज्ञर्रोति ?
भाग हरेति अणंतभागं निज्ञरति। चकिया णं भते !
कड् तसु निजर पाग्गलसु असरत्तए वा ०जाव तुयद्वित्तए
वा ?, णो तिश समद्र अणाहरणमेयं बुइये समणाउसो !
एव °जाव वेमाणियार्ण | सवं भं | भत्ते ति । ( सृत्र-६२२)
( नरइए इत्यादि ) (सं य कार्लास त्ति ) एष्यति काल
ग्रहणानन्तरभित्यथः ( असखज्ञदमागे आहारिति त्ति) ग्रू-
, मार्गदियपुत्ता ! असंखेजइ- '
माठर-माठर-पुं०। माठरपिंगोआपत्ये,अनु०। थेरे सभूयविजण
माढरसगुत्त न(त)गरायां नगया कस्यचिदाचायस्याष्टखु शि-
प्येष्वन्यतमे शिपष्ये, व्य० १ उ० । शक्रस्य दवेन्द्रस्य रथानी-
काांधपता, स्था० ७ ठा०।
| मादरी-माठरी - खी ०। अनेकजीववनस्पतिविशेषे, परज्ञा०६द् ।
मादी-मारी--खी° । कवच, “ मादी कवये उरत्थयं ” पाइ०
ना० १२१ गाथा।
| माण-मान्-न० । मीयते परिच्छिद्यतब्ननेति मानम्। “नो णः”
हीतपुद्वलानामसंख्ययभागमाहारीकुवीन्ति ग्रहीतानामंबान- |
न्तभागे निर्जर्यान्ति-मूत्रादिवच्यजन्ति , ( चक्रिय त्ति )
शक्नुयात् ( अणाहरणमर्य बुइये ति ) अधियत 5ननेत्याघ-
रणम-आधारस्तन्निपेधा 5नाधरणम--आधरत्तैमक्षमम् , ए-
तन्नि्जरापद्लजातमुक्लं (जनेरिति | भ० १८ श० ३ उ०।
मागह मागध चि" | मगधपषु भवे मागध्रम् । मगधदेशव्यव- |
हत , स्था० ८ ठा० । मगधदशाछ्रव ,
भट्ट , ज्ञा० १ श्रु० २.आ० । मङ्गलपाटकः ` अनु० । वन्दीभूत,
जी० ३ परति ४ अधि०। सृत, आचा० १ श्रु० १ अ० १ उ०। |
( ` जायण ` शब्दे चअतुथभाग १६५७ पृष्ट व्याख्या गताः )
चारण, “ मंगलपादयमागह--चारणंवेआलिआ वदी ”
पाइ० ना० ३२ गाथा ।
मागहजोयण-मागधयोजन-न० । मगधेषु भवे मागधेमगधघ'-
दशव्यवहनतम् , नस्य याजनमध्वरमानविशषः--च्रषएरधनुःस-
दस््राणि । | मगधदशव्यवहते अध्चयमानविशष, स्था० ८
( ` मागहस्स० ` ६३० इत्यादिस्त्र सव्याख्यानम् ` जोयण'
शब्द्. चतुथभाग १६५७ प्रषु गलम् )
मागहनिन्थकुमार मागधतीथकुमार- प° । मगधदेशीयतीरथ-
ङ्रपुज, आ० म० ^ ।
मागहपत्थय-मागधाप्रस्थक पर ।
पसटद्मा + सानिया हाई।
खा० ।
& दो असईओ पसई, दो
चउसइआ ट कुडा, चडउकुडओ
व्य १० उु० | भ० | |
॥८।९।२८२८॥ इति नस्य णः! पा० । स्वलक्षण मानोन्मान,
आचा० ६ शरु० ३ अ० २ उ०। “माणे ति वा परिच्छेदे ति
वा गहरणप्पगारे त्ति वा एगद्ढा ” आ० चू० १ अ० । यथाथ-
ज्ञान, “ माने ज्ञानं यथाथ स्यात् | ” द्वा० ११ द्वा० । प्रमाण,
आवब० ४ ० । मीयत 5ननाति मानम् । कुडबपलहस्तादिके
मापनप्रकार, प्रव० ६ द्वार । दुराभानवशाराह, युक्काक्काग्रहण
च । घ० १ अधि० ।
घान्यप्रमाणे रसप्रमाणं चेति दिविध मानम--
से कि त॑ माणे ? माणे दुविहे पष्पत्ते। तं जहा--घन्न-
माणप्पमाणे अ, रसमाणप्पमाण अ । से करं तं धन्नमा-
णप्पमाणे ?, धन्नमाणप्पमाणे- दो असेईओ पसर,
पसईओ सतिया, चत्तारि सइआओ कुडओ, चत्तारि
कुडया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढगं, चत्तारि आढ्गाइ
दोर, सद्भि आढ्याई जहन्नणए कुंभ, असीइ- आढयाई
मज्मिमए कुंभे, अ'टयसयं उकोसए कुंभे, अद्र य आढय-
सइए वाहे,एएणं धष्पमाणपमाणं कि पञ्रे।अणं १,एएणं
धपमाणपमाणेणं -मुत्तो ली-मुह-इदुर-अलिद-ओचा रि-सं-
सियाणं धष्पाणं धष्पपाणण्पमाणनिव्विततिलक्खणं भवर्,
खत धप्ममाणप्पमाण । से कि ते रसमाणप्पमाणे ? ,
रसमासप्पमाणे धप्ममाणप्पमाणाओ चउभागविवड्डिए अ-
विभितरसिह।जुत्त रसमाणप्पमाणे विहिज्ञई, ते जहा--
|
|
( २३६ )
~
चउसद्धि्ा ४ ( चडउपलपमाणा ) वत्तीसिआ ८ सोलसि- |
द्या १६ अट्टमाइआ। ३२२ चउभाइया ६४ अदमाणी १२८
माणी २५६दो चउसट्ठिआओ वत्तीसिआ,दो वत्तीसिआओ
सोलसिया, दो सोलसिआओ अड्ड भाइआ, दो अट्टभाइआ-
ओ चउभाइया,दो चउभाइयाओं अद्भमाणी, दो अद्धमाणी-
श्रा माणी, एएणं रसमाणपमाणेणं कि पओेअरण १, एए- |
शे रसमाणेणं-वारक-घडक-करक-कलसिअ- गागरि-द-
इञअ-करोडिअ-कुंडिअ-संसियाण रसाणं रसमाणप्पमाणनि-
ब्वित्तिलक्खणं भवई । से त॑ रसमाणप्पमाणे | से तं माणे।।
पनरपि मानप्रमाणे द्विघा--घान्यमानप्रमाणे च, रसमा-
नप्रमाण च । तत्र मानमेव प्रमाणे मानप्रमाणं धान्यवि-
चयं मानप्रमाणं धान्यमानप्रमाणम् , तच्च--( दो असई-
श्यो ` इत्यादि अश्नुते तत्प्रभवत्वेन समस्तधान्यमानानि
व्याप्नातीत्यसतिः--ञ्रवाङ्मुखदस्ततलरूपा, तत्परि चिछ-
ज्ञ धान्यमपि तथोच्यते, तदूद्धयन निष्पन्ना नावाकारता-
व्यवस्थापितप्राञ्जलकरतलरूपा प्रतिः, द्वे च प्रसृती से-
तिका, सा च नह प्रासद्धा गृह्यत, मा गध्देशप्रासद्ध-
स्यैवात्र मानस्य प्रतिपिपादयिपितत्वाद् , अत इयं तत्प्रासि-
द्धा काचिदवगन्तव्या, चतसः सतिकाः कुडवः, ते चत्वा-
रः प्रस्थः, अमी चत्वारः आढक इत्यादि सूत्रसिद्धमेव,
यावदष्भिराढकशतेनि्वृत्ता वाहः । अत्राह शिष्यः--एते-
नाऽसत्यादिना धान्यमानप्रमाणेन कि प्रयोजनम्--किमनन
विधीयते इत्यथः, अज्रात्तरम-एणएतेन धान्यमानप्रमाणेन
* मुक्रालीमुख दु रालिन्दापचारिसेश्रीतानां ` मुक्ताल्याद्या-
धारगतानां धान्यानां धान्यस्य यन्मानम--इ्यत्तालक्षणं
तदेव प्रमाणे, तस्य निवृत्तिः सिद्धिस्तस्या लक्षण परि-
ज्ञाने भवति | एतावदत्र धान्यमस्तीति परिज्ञाने भवती-
त्यर्थः | तत्र मुक्ताली- माहा ( दा ) श्रध उपरि च सङ्गी-
शौ मध्ये त्वीषपद्धिशाला कोष्ठिका, मुखे--गन्त्या उपरि
यदीयते खुम्बादिव्यूतं, ढञओ्चनकादि तत्--इदुरं, अलिन्दकं-
कुरडल्कम् , अपचारि-दीधतरधान्यकोष्ठाकारविशषः । रस-
मानप्रमाणमाह--( स कि तमित्यादि) रसो मद्यादि-
स्तद्विषयं मानमंव प्रमाण रसमानप्रमाणम् , किमित्याह-
धान्यमानप्रमाणात् | सेतिकादेश्चतुभौगविवद्धितम्-- चतुभा-
गाधिकम् श्भ्यन्तरशिखायुक्तं यद् रसमाने विधीयते
क्रियते तद्बसमानप्रमाणमुच्यते, धान्यस्या ऽद्रवरूपत्वात्कि-
ल शिखा भवति, रसस्यतु द्रवरूपत्वान्न
शया श्रभ्यन्तरशिखया युक्कतवाश्चाभ्यन्तरशिखायुक्रमित्यु-
क्रम्, तद्यथा-चतुःषष्टिकेत्यादि, इदमुक्तं मवति--षदप-
आशदधिकशतद्धयपलमाना माणिकानाम वक्ष्यमाएं रस-
मानम्,तस्य चतुःघष्ितिमभागनिष्पन्ना अथोदेव चतुष्पलप्र-
माणा चतुःषष्िका, एवं माणिकाया पव दवाविशत्तमभागव-
तित्वादष्टपलप्रमाणा द्वािशिका, तथा म णिकाया एवं षो- |
डशभागवर्तित्वात् वोडशपलप्रमाणा षोडशिका, तस्या एवा- |
श्रमभागवर्तित्वात् द्वात्रशत्पलप्रमाणा श्रष्टभागिका, तस्या
पव चतुभौगवर्तित्वात् चतुःषष्ठिपलमाना चतुर्मागिका ,
तस्या प्वाद्धेभागवर्तिनी श्रष्टाविशतयधिकपलशतमानाऽ-
शिखासम्भ- |
बोऽतो बहिः शिखाभावात् । धान्यमानाश्चतुभां गवृद्धिलक्ष- |
अभिधानराजन्द्रः। _
|
माण.
माणिका, इदं च वहुषु वाचनाविशेषघु न दश्यत एव,
षट् पञ्चाशर्दाधकशतद्धयपलप्रमाणा साणका, द्वाभ्यां चतुः-
षष्िकाभ्यामेका द्वात्रेशिका भवतीत्यादि गताथमव, याव-
देतेन रसमानप्रमाणन कि प्रयोजनम् ?, अत्रात्तरम ए-
तेन रसमानप्रमाणन वारकघटककरकगरगरीटतिककराड-
काकुरिडकासश्चितानां-रसानां -रसस्य यन्मान तदेव प्रमाणं
तस्य निर्वृत्तिः-सिद्धिस्तस्या लक्तणे-परिज्ञान भवति,तत्राती-
व विशालमुखा कुणिडकेव करोडिका उच्यत, शर्ष प्रतीतम् ,
कचित्'कलसिप' त्ति दश्यत, तत्र लघुतरः कलश एव कल-
शिकेत्यभिधीयत, एवमन्यदपि वाचनान्तर मभ्यृह्यम् । * से
तमित्यादि,निगमनद्धयम् | अनु० । विश० । ज्ञा०। स्था०। उ-
० । आ० म० । पञ्चा० । सूच ० । व्य० । नि० चू०।
वारस अट य छकग-मार्ण भणियं जिणेहि सोहिकरं ।
अ 8 0 0 40
तेण पर ज मासा, सादष्पता पारंसडात ॥ २१६ ॥
मीयत- परिच्छद्यते वस्त्वननेति मानम् । व्य० १ उ०।
नि० चू० । अङ्कलासखयभागादिके , विशे० । स्था० । भ० ।
कर्म० । आचा० । अनु० । उदकद्वाणपरिमाणशरीरतायाम् ,
स० । जलद्वोणप्रमाणतायाम् , कथ ? जलस्यातिभृत कुण्डे
पूरूपे निवेशिते यज्जल निस्सरति तद्यदि द्वोणमान तदा
मानप्राप्तो भवति । ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। प्रव० । स्था० ।
भ० । लक्तर--मानोन्मानादि, तत्र मान जलद्रोणएमानता
जलभृतकुणिडकायां हि मातव्यः पूरुषः प्रवेश्यते । त-
त्पवेशे च यज्जलं ततो निस्सरति तद् यदि द्रोणमानं
भवति तदाऽसौ मानोपेत उच्यते, भ० २ श० १ उ० । तं०।
नि० चू०। विपा० । रा० । गुणाजुरागे, क्ञा० १ श्रु० १ अ०।
श्रो० । कल्प० । नि० | आदरे, उत्त० १६ अ० । मननमवगमनं
मन्यते ऽननति मानः । स्था० ४ ठा० ६ उ० । खुबतगुवांदी-
नामप्यतिभक्रिकारिणि, दश० १ तत्त्व । स्तम्भे, सूत्र ० १ श्रु०
१६ आ० । स्तन्धतायाम् , ध० ३ अधि० । बलादिसमुत्थ, श्रा
चा०ट६श्रु०३अअ०४उ०। गर्वं, पुं०। सूत्र० २ श्रु० ४५ आ०।
अभिमाने, सृत्र० १ श्रु० १ अ० । अहमितिप्रत्यय-
हेतौ, उत्त० ६ अ० | अहड्जारे , सूत्र० १ श्रु० ८ अ० । प्रव०।
श्राव । स्था० । (शरस्य चातुर्विध्यम् कसाय ' शब्दे तृतीय-
भागे ३६६--३६८ पृष्ठ उक्तम् )
मानोऽपि नामादिभदाच्चतष्पकारः-कम्मंद्रन्यमानः, तथेव
नोकर्म्मद्रव्यमानः , स्तच्धद्रव्यलक्ञणः । भावमानस्तु तद्धि-
पाकः। स च यतुद्धौ यथादह--“ तिण्णि सयला कट्टट्टिय
सरलल्थेभोवमो माणा ” श्रत्रादाहरणम् “ सो सुभूमो तत्थ
सवट्द । विज्नाहरपरिग्गददितो जातो, सा किर चक्कवद्दी
भविस्सद त्ति मेघनादविज्जाहरो हइत्थीरयणनियधूया पउम-
सिरिदाणनिमित्तं तस्स समीवे सया इच्छुइ । अश्या तेण
विसाद परिक्खिज़जइ । इतो य रामो नमित्तियं पुच्छद-
कतो य मम विणासो त्ति ?, तेण भणियं- जा पय सीहा-
खणे निविसिहिइ एयातो दाढतो पयड़ीभूयातो खादिति ।
ततो ते भयं । ततो तेण श्रवारियभत्त कयं । तत्थ सी-
हासखणे धुरे ठविये । दाढातो से श्रग्गतो कया तो एवे वश्चद्
कालो, इतो य खुभूमो मायं पुच्छई-कि एक्तिओं लोगो
श्न्नो ऽवि श्रत्थि ? तीप सव्व कहिये। सो तं सोऊणमभिमाणे-
ण॒ हत्थिणाउरं गतो । तं सभे पविद्भा, देवया राडिऊण नटा ।
( २४० )
४
तता दाढातो परमत्त जीयता माणा ते परिहारं ओलग्गा
मघ्रनादेण विज्ञाहरण ताणि पहरणाणि तसि चव उर्वारि
पाडिजंति । सा वासत्था भुजद् । रामस्स परिकदियं सनद्धा
आगतो परु मुयद विज्ञातो, इयरा य ते चव थाल गहाय
उद्वतो चक्करयणं जाय, तण से रामस्स सीस चिन्न । पच्छा
तण खुभूमेण माणेण एकवीस वारा निव्वेभणा पुढवी कया
गव्भा वि फालिया। आ० म० १ आअ०। श्रा० चु । आ०
क०। ( माने-यमदग्निपरशुरामक्रथा ` जमदाग्ग शब्द
चतुर्थभागे १४०० पृष्ट उक्ता ) मानफले , ( च्रचङ्कारित-
भट्रादाहरणम् 'अचेकारियभट्टा' शब्दे प्रथमभागे ६८९ पृष्ठ
उङ्गम् ) “न चासो मानः क्रियमाणा गुणाय ” सूत्र० १ श्रु०
१३ अ० मानपरिणामञनकं कमणि च । भ० १५ श० । मा-
नपिराड,
पुत्र, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
माणइत्त-मानवत्-त्रि० । आल्विज्ञाल्ञाल-वन्त-मन्तत्तर-
मणा मताः ॥ ८ । २। १५६ ॥ माणदत्ता । मानवति, प्रा०।
माणशाण-मानध्यान- न° । बाहुबालावश्वभातखसु॒भूमपशु-
रा्माग्नवशागतसङ्गमक्रादीनामिव दुध्योन , आतु० |
मारंसी-देशी-मायावि-चन्द्रवध्वोः, दे० ना० ६ वगे १४७
गाथा |
माणकर-मानकर-ए;ँ? | कथमहम भ्यार्थितः. कथयिष्यामीत्य-
वलपसर्जित, स्था० ४ ठा० ३ उ० |
माणकसाइ-मानकपायिन्-पु० । मानेन कषायिता 4ऽत्मनि,
प्रज्ञा० १४ पद् ।
स्था०३ ठा० ४ उ । ऋषभदेवस्येकसप्ततितमे |
माणकसाय-मानकपाय-पुँ० । मानरूपे काये, प्रज्ञा० १४ ¦
पद् । ( 'पडिक्रमण' शब्दे पञ्चमभागे २६६ पृष्ठे । ` कसाय `
शब्दे तृतीयभागे ३६७ पृष्ठ विस्तरोऽस्य गतः )
माणकिरिया-मानक्रिया--खी° । जात्यादिमदमत्तस्य, परेषां |
हेलनादिकरणे, स्था० ५ ठा० २ उ० । श्रभ्युन्थानविन-
यासनदानाञ्जलिप्रण्देर्मानकारापणे, आचा० १ श्रु० १ अ०
१ उ० | सूत्र०। `
माणण-मानन--न० । पूजने, आचा० १ श्रु० ३ अ० ३ उ०।
माणण5टृ-माननार्थ -पुं० । मानने पूजन सत्कारः तेनाथेः-प्र-
याजनम् माननार्थः। अभ्युत्थानविनयासनदाना ञजलिप्रग्रहेमीन |
निमित्त, श्राचा० ९ श्रु ३ अ० ३ उ०।
माणणिम्मिय-माननिधित- न । माननिभित्ते सृषाभेदे,
प्रशा? १८ पद् । मूच्छाभदे, स्था० २ ठा० ४ उ०।
माणतुगमूरि -मानतुङ्गमूरि - प । भक्कामरस्य कतरि, ' श्री-
मानतुङ्गस्रिः, कर्ता भक्तामरस्य गणभक्ता । "" ३ अ-
घि० । एतदुत्पत्तिस्त्ववम-वाराणस्यां धनदेवपुत्रः मानतु-
हुनामा दिगम्बरजेनदीत्तां ग्रहीत्वा महाकीर्तिनामा$जनि।
भगिन्युपदेशादिगम्बरेष्वषणा शुद्धि मदृष्ट्रा
पाभ ध्वताम्बग्जेनत्वेन दीक्षित एतन्नामाऽभिदध । तज्र-
व्यन दषदवेन राज्ञा मयूरभट्टादिषु ब्राह्मणेषु सुर्यस्तात्रा-
दि भारता इष्टमाप्तेषु जनण्वप्यस्ति चमत्कृतिनवति जि-
ज्ञा स्यमानन निगडबद्धाऽये सूरिभक्तामरस्तात्नं भणित्वा त-
ग०
अभिधानराजन्द्रः ।
अजितसिंहसूरि- |
| माणपिंड_
तस्तुष्टया शासनदेव्या चिन्नु निगडेणु तेनैव राज्ञा प~
रितोपित इति । ज ० इ० |
माणदंसि ( न् ) मानदशिीन्-्रि° । मानस्य स्वरूपतो
वत्तरि, परिहतैरि च श्राचा० १ श्रु० ३ अ० ४ उ०।
माणदेवसरि-मानदेवसूरि-पु० । चोलदेशे कल्याणकपुरे
१२३३ विक्रमसंवत्सरे वीरप्रतिमाग्रतिष्ठापके जिनपतिसूरि-
ज्ुद्वपितरि, ती० २६१ कर्प । प्रद्यम्नसरिशिष्यो मानदेवसू-
रिः । ग० ३ अधि० ।
माणपडिसलीण-मानप्रतिसंलीन-ति० । निरुद्धमाने, स्था
४ ठा० २ उ०।
माणपत्त-मानप्राप्त-ति० | मानमिते पुरुषे, तत्र माने ज~
लद्रोरतापरमाणम् , जलस्यातिश्रेते कुरडे पुरुष न्विशिते
यज्जल निस्सरति तद् यदि द्रोणमान भवति तदा पुरूषो
मानप्राप्त उच्यते । ज्ञा० १ श्रु० १ अ० | नि०।
माणपव्वय- मानपर्यत- पुं” पर्वतभेदे, यत्र बाहुवलिना तपः
कृतम् । आ० म० १ अ०।
माणपिड-मानपिणड- पुं” । मानो--गर्वस्तद्धेतुकः पिण्डा
मानपिरडः, प्रव० ६७ द्वार । श्रमे उत्पादनादोचे , यथा-
साधूनां समक्तं पणे कत्वा तदाऽहं लबन्धिमान् यदा भव-
तां सरसमाहारममुकग्रहादानीय ददामीत्युक्त्वा गृहस्थं
विडम्ब्य गृहणाति तदामो मानपिरडाऽऽख्यो दोषः । उत्त०
२४ अ० । आचा०। पञ्चा० ।
ज भिक्खू माणपिडं अजह श्ुंजंत वा साइज ॥६७॥
अभिमाणतो पिंडग्गहणं करति त्ति माणपिडो आणा-
दिया य ( दोषाः ) पच्दत्तं च चउलहु। $
गांहा-
जे भिक्खु माणपिंडं, भजज्ज सयं तु अहव सातिज्ञ ।
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणे पावे ॥१८२॥
कंठ्यम् ।
इमे माणपिंडे लक्खर[--
उच्छाहितो परेण व, लद्भपर्ससाहि वा समुत्त"ओ ।
अवमाणिओ परेण व, जो एसति माणपिंडो सो ॥ १८३॥
तब्वतिरित्ता परो, तण महाकुल पसूता तिपि वयणेहि
उच्छाहितो, ततो माणट्टितो जप सति सो माणपिडो । तदा
परेण चव तुमे ल्धीए श्रणरणसरिसो एवं पसंसितो समु-
त्तदश्रो त्ति माणाभिभूता। । अहवा--विविधोपाय पक्खेद हुं
भणाति-देहि मे इतो भत्ते । भत्तसामिणा वुत्त-देमि त्ति । प-
डिभणति साह-श्रवस्से दायव्वे ति। अतिमाणतो तज्ञेभो
उज्ञमे करंतस्स माणपिंडो भवति |
पत्थ इमे उदाहरणे । गाहा--
हदगद्छणंमि परिपें-डिताण उल्ला उ को णु हु पएति।
आशेज़ इट्टगातो, खुड़ो पव्वाहऽहं आशे ॥१८४॥
अत्थि गिरिफुल्लिगा णगरी, तत्थ य श्रायरिया बहुसिस्स-
परिवारी परिवसति । अणणदा इट्टगच्छुण तति इदट्रगा सत्ता ।
ऊसवो तम्मि वदरत साह परोपरि पिंडिता उल्ञावं करेति ।
को अम्हं श्रज इद्गछणे वद्टमाणे इद्दगा उप्पज्नक्तियाओ आ-
शज्जति । खुड्गो भणति-अहं आशणमि क्षि । साधू भणति”
|
[
(
माणधिड _ |
हि ` गाहा--
जति वि यता पजजत्ता, अगुलघताहिं ण ताहि मे कजे ।
जारिसियाओ इच्छह, ता आणेऽदहं ति निक्खंतो।॥।१८५॥
जइ वि तुमे ता पज्जत्ताश्रो आशणेहिसि तहा ऽवि अम्हं ताहि
गुलघयवज्नियाहिं ण कज, एवमरणा कोइ खु भणति-जा
रिसाओ तुज्कमे भणह तारिसाओ अम त्ति वोत्तं भायणे
चन्तं उवञ्रागं काउं शिग्गतो , परियट्टंतेण दिद्ठा एगम्समि घरे
पभूता उवसेवइया तत्थ आगारी।
गाहा--
४१ )
अ[नधानरान्न्द्रः।
अभासिय पटिसिद्धो,भणति अगारं अवस्सिमा मन्म ।
जति भणसि तो मे णा-साए कुणसु मोय तु ॥ १८६ ॥
तीप पडिसिद्धो, तादे खड़ा भणति-इमा इद्दगता श्रवस्से |
मर्भं भविस्सात, आहति य । अगारी पडिभणाति-जति |
एया लभसि तो तु म रखासाग्-मायं कते; मूत्रित इत्यथः । सो
खडा ततो घराओ णिग्गतो।
इम गाहा--
कस्स घरं पुच्छिऊण, परिसाए कतरोऽपरुगो य पुच्छेते
कि तो अम्हं जायसु,सो किविणी ण दाहिता तुञ्भ। १८५७]
पुच्छिए कहिये इंददत्तस्स,कलत्थ सो? इमो परिसाए अच्छाति।
ताहे परिसं गतु पच्छति-कयरो तुज्मं इंददत्तो ज्षि। तत्थ अण्णे
भराति-कं तण, सो किविणो इत्थिवसो य ण तुज्मं दाहिति।
[ ® =५ किक छ ~ ~. = ५
जति तो अम्हे जायखु दाहामों जहिच्छिये । ताहे इंददत्तेश-- |
दाति णेण भणितं,जति ण भवसि छण्हिमेसि पुरिसाणं । |
अप्पतरो तो तर्हि, परिसा मज्क॑मि जायामि ॥ १८८ ॥
ताहे खुड़ो भमणइ-जइ इमेसि चरे पुरिसाणं अणणतरो णए भ-
वसि तो त दहं इमाए परिसा मज्के किचि पणएमि,ततो तण
श्रक्षतदि य भिये कथमेते छ पुरिसा इमे खुणसु।नि०चू १३उ०। |
सम्प्रति मानपिरडस्य सभवमादह-
उच्छाहिओ परेण व, लद्विपसंसाहि ` वा समुत्तइओ
अवमाणिओ परेण य, जो एसइ माणपिंडो सो।।४६५॥
उत्साहितः-त्वमेवास्य करणे समथ इत्येवमुत्कर्षितः, प~ |
रेण-अपरेण साध्वादिना , ( वा ) विकल्पे , तथा ल-
व्धिप्रशसाभ्याम् ( समुत्तइओ ) गर्वितो, यथाऽहं यत क्रापि
ब्रजामि तत्न सर्वत्रापि लये, तथैव च जनो मां प्रशसती-
व्येवमभिमानवान् , यव्रा-न किमपि त्वया सिद्धयतीत्येव- |
मपमानितो ऽपरणादङ्कारवशाद्य एषयति पिरड स तस्य
मानपिरडः । शत्र च चुल्लकोदाहरणम्-गिरिपृष्पिते नगरे
सिंहाभिधानाः सूरयः सपरिवाराः समाययुः , अन्यदा च |
तत्र सेवकिकाक्षणः समजनि , तस्मिंश्च दिवसे सूत्रपोंरू-
ष्यनन्तरमेकत्र तरुणभ्रमणानां समवायो+भवत् , वभूव च |
परस्परं समुल्लापः, तत्र कोऽप्यवादात्-को नामेतषां मध्ये य
प्रातरेव सेवकिका आनेष्याति ?, तत्र गुणचन्द्राभिधः क्षुल्न-
कः प्रत्यवादीदू-अहमानेष्यामि ततः सोऽभाणीत्-यदि
ताः स्वसाधूनां न परिपूर्णा घृतगुडरदहिता वा ततो न
ताभिः प्रयोजनम् , तस्मायद्यवश्यमानेतव्यास्तर्हिं परिपू
घृतगुडसम्मिश्राश्वानेतव्याः , चुल्लक आह-याहशी-
स्त्वामच्छांस तादशी रानेष्यामि , एवं च कृत्वा प्रतिज्ञा, ना-
६१
माणपिंड
न्दीपात्रमादाय भित्ताश्च निजगाम । प्रविष्रश्च क्रापि कोटु-
स्विकग्रहे , दष्टाश्च तत्र प्रचुराः सब्रकिकाः घृतगुडादीनि
च प्रभूतानि प्रगुणीकृतानि, ततो ऽनक्रधा वचनभङ्गीभिः
खुलोचनाभिधाना कोटुस्विकगृदिण याचिता, तया च स-
यथा प्रतिषिद्धा-न किमपि त ददामीति, ततः संजाता-
मपेण वभणे चुल्लकन-नियमादिमाः सवकिकाः सघतगुडा
मया गृहीतव्याः, खुलोचना5पि सामध चुल्लकवचः श्ु-
त्वा सजातप्रकोपा प्रत्युवाच --यदवि त्वमतासां सर्वकिकानां
किमपि लभसे तता म नासापुटे त्वया प्रस्रवणं कृतमि-
ति। ततः क्षुज्कको इचिन्तयद--अवश्यमेतन्मया विधातव्य
म्, एवं च विचिन्त्य गृदाज्ञिययो । पप्रच्छ च कस्या-
पि पाश्च कस्यदं ग्रहम ? इंति । साऽवादात्-वष्णु-
मित्रस्य , ततः पुनरपि लुल्लकः पृच्छृति-स इदानीं
क्त वतेते ? , तनाक्रम्-पषदि , ततः पदि गत्वा
सहर्ष इव पर्षज्जनान प्ृए्वान- मो ! युष्माकं मध्य को
विष्णुमित्रः ?, लना अवादिषुः--कि साधा! तव तन प्र-
याजणएम् ?, साधुरवाचत्- तं किमपि याचिष्ये, ख च तषां
वषामपि प्रायो भगिनीपतिरिति सहासं तेरवाचि--कृप
णोष्सो न ते किमपि दास्यतीलयस्मानव याचस्व, तता
विष्णुमित्र मा मऽपञ्राजनाऽभृदिति तेषामग्रतः त्वा
बभाण-भो ! भो ! विष्णुमिब्ो ऽहं याचस्व मां किमपि,मा
केलिवचनममीषां कर्ण ऽका्षीः, ततो5वादीत् चुन्नकः--या-
चे5ह यदि त्वं महेलाप्रधानानां पररणां पुरुषाणामन्यतमो
न भवति । ततः पर्षज्जना अवादिषुः--के त पट पुरुषा मदे
लाप्रधानाः ? यषामन्यतमोऽयमाशङ्कचते । ततः चुल्लक
्राह-श्वेताङ्कुलिः, वकाड़ायकः, किङ्करः, स्नायकः, गृध इव
रिङ्खी, ददज्ञ इति, एतषां च परणामपि कथानकान्य-
मूनि-क्वचिद्रामे कोऽपि परुषा निजभार्याच्छन्दानुवर्त्ती
स च प्रातरेव जातवुभुक्ता निजभायां भोजने याचते, सा
वदति--नादमालस्यनात्थातुमुत्सहे, ततस्त्वमेव समा-
कर्ष चुल्ट्या भस्म प्रत्तिप, तत्र प्रातिवेश्मिकग्रहादानीय व-
द्वि भरज्वालय तमिन्धनप्रक्तपण , समारोपय चुल्ल्याः शि-
रसि स्था्लीम्, एव यावत्पक्त्वा कथय, तताऽहं परि-
वेषयामीति, स च तथेव प्रतिदिवसं कुरुत, तता लोके-
न प्रातरेवास्य चुल्ल्या भस्मसमाकर्षणेन श्वती भूता ऽङ्गलि-
दशैनात्सहासं श्वता ऽङ्गुलिरिति नाम छृतम् , एप भ्वता ऽङ्ग
लिः । तथा--क्वचिद्भाम कोऽपि पुरुषो निजभार्यांमुखद्
शनखुखलम्पर स्तदादेशवर्ती , अन्यदा तया भार्यया वभ-
ण-यथाऽटमालस्यन युक्का, ततस्त्वमवोदकं तडागादा-
नय, स च देवता55देशमिब भाया55दशमभिमन्यमा-
नः प्रतिवदति--यदादिशसि प्रिये ! तददे करोमि। तता
दिवसे मा लोको मां द्राक्षीदिति रात्रो पश्चिमयामे समु
त्थाय प्रतिदिवसर तडागादुदकमानयति । तस्य च तत्र
गमनागमन कुतः पदसञ्चारशब्दश्रवणतो घटभरणब॒द्ब
दशब्दश्रवणएतश्च तडागपालीवृक्तेषु प्रसुप्ता बका उत्थाया-
ईयन्ते । एप चर च्रृत्तान्ता लान विदितः, ततोऽस्याध
स्य सूचना हास्थन वकोड्ायक इति नाम कृतम | एप
वकाटडायकः । तथा-- कचिद् ग्राम कोऽपि पुरुषो भायी-
स्तनजघ्नादिस्पशलम्पटा भायाचछुन्दानुवर्ती स च प्रा
तरेवात्थाय कृताश्रेलिधग्रह्या बद्ति--दूपयत ! [क्रं करो-
( २४२ )
११ की 2
माणपिंड ` अगभिधानराजन्द्रः। साणवग
मि ?,सा च वदति--तडागादुदकगानय, ततो यत्प्रिया | दशशयात, दर्शयित्वा च भ्र॒तघ्रृतगुडसखवकिकापात्रो जगाम
समादिशनाल्युदत्वा तडागादुदकमानयात, पुनराप भण- | निजवसताविति ।
ति--कि करामि पाणेश्वारे ?,
तरडलान् कण्डय, एव॒ यावद्धाजनादुध्व मम पादान् प्र-
सा वर्दात-कुसलादाकृष्य |
क्षाल्य घृतन फाणयति , स च सवं तथेव करोति । तत |
एवं लाकेन ज्ञात्वा तस्य किङ्कर इति नाम
शितम् .
भाया ऽऽदेशवत्तीं
भवार ! स्नातुमहामच्छाम
तयाक्कम>-यद्यव तद्यामलका-
निवे- |
एप किङ्करः | तथा-क्वचिद् न्नाम काऽपि पुरुषों |
स चान्यदा निजमायौमवादीत्-प्राण- |
न शलाया वत्तय, पारघादह स्नानपातकराम्.अभ्यङ्गय त- |
लनात्मानं, ग्रहण च घटे, ततस्तडागे स्नात्वा घटे च
जलन भ्रत्वा समागच्छति । सच देवताऽ देशमिव भाया 55
देश शिरसि निधाय तथव करोति,एवं च सवदव ततो लोक-
नास्याश्रस्य प्रकटनाथ दाचतनास्य स्नायक इति नाम कतम् ।
एप स्नायकः। पिं० (मानपिग्ड ग्र इव ररङ्खात चष्रान्त
गिद्धदवर्सिखि ` शब्दे ठतृतीयभाग ८७५ प्रष्ठ गतः ) तथा क्र
चिद् ग्रामे भायामुखधरलो कनखुखलम्पर स्तदादेशकारौी काऽ-
पि परूषः, तस्यान्यदा स्वभार्यया सह विषयसुखमनुभवत
पुत्रा वभूव । स च पालनक एव स्थतानतवालत्वात् |
पुराषमुत्सजात, तन च पराषण पालनक बालवस्थाण
च खरराश्र्यन्ते, ततः सा भणात--बालस्य पुत परत्तालय
पालनक्रं वालवस्राण च । तता यात्या समादशात
त्करमात वर्देस्तथव करात, एव सवदव । तता ला-
कनतद् ज्ञात्वा हदन प्रत्तालायतु बालस्य जानातात क~ |
तत एव- |
त्वा ददेज्ञ इति नाम तस्य कृतम् । एष ददज्ञः ।
मुक्त चुल्लकन स्वैरपि पर्षजनरेककालमद्दाइहासेन हस-
द्धिरभाणि-चुल्लक ! एप परणामपि पुरूपाणां गुणानाददा-
ति तन्मेने महेलाप्रधानं यात्रिष्ट । विष्णुमित्रो ऽवादीत्-
नाद षराणा पर्पारणा समानस्तस्मायाच्स्व मामात, त- |
तः चऋुल्लकनाक्कम-दाह म घुतगुडसयुक्का
णाः सर्वाकक्राः, वविष्युमत्रणाक्कम्-ददाम । ततः क्षुल्नक
गरटीत्वा निजयू दाभमुख च(लतवान् , समागता गनजगरू-
दृद्वार, ततः क्ुल्लककनाभाण--प्रथममाप तव गृह समा-
गताऽहमासं पर तव भायया प्रातज्ञा व्यधाय यथा-न
किमापत दास्याम, तत इदाना यदुक्ल तत्समाचार,
पवमुक्रे विष्णुमित्राऽवादीत्-येव तर्द क्षणमात्रमेव ग्रृह-
पात्रभरणखप्र- |
तत |
द्वार ऽवतिषठस्व पश्चादाकारयिप्यामि, ततः प्रविष्टो ग्रहमध्ये |
मित्र:,पृष्ठा च तन निज्ञभाया-यथा राद्धाः सवकिकाः प्रगुणी-
कृतानि तगु डद नि ?,तयाक्लम-कते सर्वे परिपृरीम् , ततो
गुडे प्रलाक्य स्ताक एप गुडा नतावता सरिष्यतीति माला-
दानय प्रभूतं गुड यन द्विजान् माजयामीति, ततः सा तद्ध
चनादारूढा मालम् अपनीता तन निःश्रणः;तत आकार्य लुल्ल
कं पात्रभरणध्रमाणा ददो तस्मे सेवकिकाः घृतगुडादीनि च
दातुमारब्धानि , अत्रान्तरे गुडमादाय खुलाचना माला-
दुर्तारतु प्रवृत्ता परे न पश्यति निःश्रेणिम् , तता विस्मि-
तद्या प्रसरं यावदालाकत तावत्पश्यति च्तुल्लकाय घृत-
गुडसयुक्राः सेवकिका दीयमाना',तता ऽह मनन क्षुन्नके नाभि-
भूतत्यभिमानपूरितह्वद्या मा5स्म देहि मा स्में देहीति महता
शब्देन पूत्कुरुत, चुल्लको ऽपि तस्याः सम्मुखमवलोक्य मया
तव नालिकापुथ मूत्रित।भति निजनासापुट् ऽङ्कुटयभिनयन
एतदव रूपकाष्टकन दशैयति--
इट्गलणंमि परिपि-डियाण उल्नावको णु हु पगेव |
आशिज इट्डगाओ १, खुड़ो पचाह अशमि ॥ ४६६॥
जई वि य ता पज्जत्ता, अगुलघयाहिं न ताहि णो कज।
जारिसियाओं इच्छह,ता आशेमि ति निक्तो ॥४६७॥ ¦
ाहासिय पडिसिद्धा,भणड अगारं अवस्सिमा मन्फ।'
जई लहसि त्तो तं म, नासाए कुणसु माय ति ॥४६८॥
कस्स घरं पुच्िङणं, परिसाएऽमरुगो कयरो पुच्छित्तु ।
कि तेणञम्ह जायसु,सो किविणो दाहिइ न तुज्कम।७६६। |
दाहि ति तेण भणिए,जइ न भवसि छण्हमेसि पुरिसाणं। /
अन्नयरो तो तेऽहं, परिसामज्छमि पणयामि ॥ ४७० ॥
स्यऽगुलि वगुड़ावे,किंकर एहायए तहा ।
गिद्धा व रिंखि हद रए, एए पुरिसाहमा छो ।॥४७१॥ |
जायसु न एरिसो5हं, इडगा दहि पुव्वमईर्गत ।
माला उत्तारि गुल,भोएमि दिए त्ति आरूढा ॥ ४७२ ॥
सिइअवणण पडिलाभण,दिस्सियरी वोलमंगुली नासं ।
दु ण्टगयरपश्रासो, आयविवत्ती ख उड़ाहो ॥ ४७३ ॥
खुगमम् । नवरम् ( इद्चगछुणंमि ) सवकिकात्षणे (पगवति)
प्रभाते एव ( मोये ति ) मत्रं, प्रणयामि इति याचे, ( सिदइ-
अवणण त्ति ) निःश्ररयपनयनम् , इत्थम्भृतश्च मानपिण्डो
न ग्राह्यः, यतो द्वयोरपि दम्पत्योः प्रद्वेषो भवति, ततस्तदद्र-
व्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, कदाचिदेकतरस्य ततस्तत्रापि स एव
दोषः । आपि च-सेवमपमानिता कदाचिद्भिमानवशादात्म-
विपत्ति कुयीत् , तत उड्डाहः प्रवचनमालिन्यम् । उक्तो मान
पिण्डद॒ष्टान्तः । पि० । जीत० । नि० चू० । आचा० ।
माणमय-मानमद पु० | मानगर्व दश० € ० ४ उ०।
माणमाण-मानयत््-- त्रे० । तदनुभावमनुभवति, भ० १ शु०
४ उ०।
माणमुंड-मानमुणड--त्रि० सुरुडयत्यपनयतीति मुण्डः,मानेन
मुण्डः मानमुराडः । मुरुडभदे, स्था० १० ठा०।
माणमूरण-मानमूरण-त्रि० । मानमरदैन, आ० म० १ आ०
सर्वगवादलने, प० । घण० ।
माणव-मानव-पुँं० । मा निषेधे, नवः प्रत्यग्रो मानवः।भ० २०
श०२ उ०। पुरूष, सूत्र० (4 श्रु० १ अ० १ उ० । दश०्¢ |
आजचा० | मनुज,आचा० १ श्रु०४ अ० ४ उ०। मनुष्य,आचा०१२
श्रु० २ आ० १ उ०। ` मणुआ नरा मणुस्सा, म्या तह माण.
वा पुरिसा ” पाइ० ना० ६० गाथा । मनुप्रोक्र, “ पुराण मा
नवा धर्मः,साह्ो वेदश्थिकित्सितम् | आज्ञासिद्धानि चत्वारि,
न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ १॥ ” सूत्र० १ श्रु० ३ झअ० ३ उ०।
मनुष्य, स्वृ १ शु० ६ अ० । आचा० ।
माणवग- माणवक-पुं० । षट्चत्वारिंशत्तमे महाग्रहे, स्था५ ।
दो माणवगा | स्था० २ ठा० ३३० | करुप०। चे० प्र०। सू° प्र०
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।
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श
अक
( २४३ )
माणवग
अभिधानराजन्द्र। |
माणविजय
खुधर्मेसभामध्यावस्थितस्वाभिधाने स्तम्भे, ज्ञा० १ श्रुण ८
श्य ० । सू० प्र० । स० । जी ० । निधिभेदे, दशै० १ तच्च । आ०
चू० । नि०। |
जोहाण य उप्पत्ती, अभरणाणे च पहरणाणं च |
सव्वा य जुद्धनीई, माणवगे दंडनीई य ॥ ८
(सूज्र-६६) । ज० ३ वक्त० । ( अस्याः व्याख्या ' भरह' श- |
ब्दे ५ भागे १४६१ पृष्ठ गता ) अष्टम निधो,प्रव० २१३ द्वार ।
द्वी० । जी० । कल्प० | आ० म० | स्था० | ज० । आवब०।
भारावगण-मानवगण- पुं । वसिष्ठगोजस्य ऋषिगुप्ताननि-
रीते गण, कल्प० २ अधि० ८ चाण।
माणवचेइयखंभ-मानवचेत्यस्तम्भ-पु० । सौधमकल्पे ख-
नामख्याते चेत्यस्तम्भे , सुधमंमध्यभागे मणिपीठिकोपरि
चघष्टियोजमानो माणवको नाम चेत्यस्तम्भो ऽस्ति । । स० ।
सोहकम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे
हेड्टा उवरिं च अद्भधतेरस अद्धतेरस जोयणाशि बज्जेत्ता
मज्के पणतीस जोयणेसु वइरामएसु गोलवइसमुग्गएसु
जिणसकहाओ पप्मत्ताओं ।
सौधमंकल्पे सोधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्च पच्च
सभा भवन्ति-खुधर्मसभा १ उपपातसभा २ अभिषेकसभा ३
अलंकारसभा ४ व्यवसायसभा ५, तव खुधर्मसभामध्यमागे
मणिपीटिकोपरि षष्ियोजनमानो माणवको नाम चेत्यस्त-
म्भोऽस्ति । तज ( वबश्रामएसु त्ति ) वज्ञमयपु, तथा-गोल
वद् वृत्ता वततैला ये समृद्रका--भाजनविशषास्तेषु ( जिण-
सकहाओ त्ति ) जिनसक्थीनि ती्थकराणां मनुजलोक-
निवैतानां सक्थीनि अस्थीनि-प्रज्ञप्तानीति । स० ३६ सम०।
माणवत्तियदंड-मानग्रत्ययिकद्रड-पु० । जात्यायष्टमदस्था
नोपहतमनसः पराभवदर्शिनो दरडे, सूत्र० २ श्रु० २ आ०।
नवमे क्रियास्थान मानप्रत्यायिकमाख्यायत--
बलमएण वा स्वमएण वा तवमएण वा सुयमएण वा
लाभमणएण वा इस्सरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण |
वा मयट्टाणेणं मत्त समाणे परं हीलेति निंदति खिं-
सति गरहति परिभेवई अवमे ते इत्तरिएि अयं अहमंसि
पुण विसिडजाइकुलवलाइगुणोववेए एवं अप्पाणं समुक-
स्मे, देदच्चुए कम्मवित्तिए अवसे पयाई, तं जहा-
गब्भाओ गन्भं जम्माओ जम्मे, माराओ मारं, णरगाओ
णरगं, चंड थद्धे चचले माणियावि भवई, एवं खलुं तस्स |
तप्पत्तियं सावज ति आहिजइ, णवमे किरियाठाणे माण-
वत्तिए त्ति आहिए । ( सूत्र-२५ )
तद्यथानाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः
कुलबलरूपतपःश्चुतलानेश्वयैम्ज्ञामदाख्यैर एाभिर्मद स्थानेरन्य-
|
|
सन् जाति-
तरेण वा मत्तः परमवमवुद्ध्या हीलयाति , तथा-निन्दति |
जुगुप्सत, गदति परिभवति, एतानि चेकार्थिकानि कथ
त | माणवाई(न्)-मानवादिन्-ि”
अहावरे णवमे किरियट्टाणे माणवत्तिए त्ति आहिज्जइ,
से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा
शअिद्धेद॑ वोत्प्रेक्य व्याख्येयानीति यथा परिभवति तथा
दशेयति-इतरो ऽयं जघन्यो हीनजातिकः, तथा--मत्तः कुल-
बलरूपादिमिदूरमपश्रष्टः सर्वजनाबगीता5यमिति । अं
पुनविशि्टजातिकुलवलादिगुणोपतः, एवमात्मानं समुत्क-
पयदेति । साम्प्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह-( देहच्चए इत्या-
दि) तदेव जाल्यादिमदोन्मत्तः सान्निटेव लाके गर्दितो
भवात, त्रच जात्यादिपदद्धयादिसंयोगा दरष्व्याः, त
चव भवान्त-जातिमदः कस्याचन्न कुलमदः, अपरस्य कु-
लमदा न जातिमदः, परस्योभयम् , च्च परस्यानुभयम् इत्यवे
पदत्रयेणाण्टौ चतुर्भिः पो उशेत्यादि यावदष्रभिः पदैः पट-
पञाशदाधक शतद्वयामिति, सर्वत्र मदाभावरूपश्चरमभङ्गः
शद्ध इति । परलोकेऽपि च मानी दुःखभाग् भवतीत्यनेन
प्रदश्यते-सवायुषः त्तय देटात् च्युतो भवान्तरं गच्छन् शभा-
शुभकमंद्वितीयः कमेपरायत्तत्वादवशः-परतन्चः प्रयाति,तद्य
था-गमद्रभ पञ्चन्द्ियापक्तम् , तथा-गर्भादगर्भ विकलेन्द्रिय-
पूत्पद्यमानः, पुनर गमाद्वभमवमग्मादगभम् , एतच्च नरकक-
ल््पगर्भदुःखापत्तायामभिहितम् ,उत्पद्ममानदुःखापेक्षया स्विद्
मभिधीयते जन्मन एकस्मादपरं जन्मान्तरं जति, तथा मरणं
मारस्तस्मान्मारान्तरं ्रजति,तथा नरकदेश्यात्-श्वपाकादि-
वासाद्रत्नप्रभादिकं नरकान्तरं जति | यदिवा-नरकात्सीम-
न््तकादिकादुद्ध्व॒त्य सिहमत्स्यादावुत्पद्य पुनरपि तीव्रतरं
नरकान्तरं बजति | तदेवे नटवद्रङ्गभूमौ ससारचक्रवाल
खीपुनपुसकादीनि बहृन्यवस्थान्तरारायनुभवति । तदेवं
माना परप्रारभवे सति चरडा-रोाद्रा भवति परस्याप-
कराते, तदभावे द्यात्मान व्यापादयति । तथा- स्तब्धश्च
पलो याकञ्चनकारी मानी सन् सर्वोऽप्यतदवस्थो भव-
तीति । तदेव तत्पत्यायिकम--माननिमित्त सावद्यं कम
आधीयते सवध्यते । सूत्र० २ श्र० २ अ० | प्रव० | आव० ।
आए चू०।
उच्चगोंत्रनिमित्तमानवा-
दशल, “ पएगे गोयावादी माणवादी कंसि वा रए गिज्फे
तम्हा पंडिए ” आचा० १ श्रु० २ आ० ३ उ०।
माणविजय-मानविजय-पुं० । श्रीविजयानन्दसूरिशिष्यप-
रिडितश्रीकान्तिविजयगणिचरणसेविनि धर्मसंग्रहवृत्तिका-
रके स्वनामख्यात महोपाध्याये, ध० २ अधि० ।
श्रीमद्दी रजिनन्द्रपट्ट पद्वी सीमान्तिनी मरा ड ने ,
प्रख्यावानजानिष्ट हीरविजयः सूरिः सतामग्रणीः ।
येना5कव्वरराद प्रवोध्य विदितो दुष्कर्मकर्त्ता ऽप्यहो,
धर्मोक्त्या चिदिवस्य केशिगणिनेवादैः प्रदेशी नृपः
श्रमलमलमकार्षीत्सह्रास्तस्य पट,
विजायिविजयसनः सूरिर्ग्रप्रतापः |
महति खदसि शाहेवादिनो निष्प्रतापान् ,
रविरिव निजगाभिस्तारकान् यश्चकार ॥ २॥
विजयतिलकस्रिभूरिसरिप्रकृष्टो,
दिनमाणिरुदयाद्रों तस्य पट वभूव ।
कुःमततिमिरमुच्र प्रास्य शुद्धोपदेश-
दसेमरकिरणेयां भव्यपद्मंश्च कार ॥ २ ॥
तदीय पटे ऽभूद्िजयिविजयानन्दसगुर-
छू
॥ ९ ॥
( २४४ )
_माणविजय
अभिधानराजन्द्र: |
माणि
यशस्वी तेजस्वी मधुरवचनः सोम्यवदनः ।
कपायेनिमुक्रः रशमगुणयुक्कः खविदित-
स्तपागच्छाघीशः सकलवसुध्ाघीशमटितः॥ ४॥
जयति विजयराजः सूरिरेतस्य पट,
सकलगुणगरिष्ठः शिष्टलोकेः प्रशस्यः ।
प्रथितपृथुजयश्रीरुग्पुणयप्र भावः,
कलितसकलशाखः प्रास्तामे थ्यात्वजालः ॥ ५॥
तदनु पद्टपतिर्विहितो ऽधुना,
विजयराजतपागणभू भुजा ।
विजयमान इति प्रथिताह्यो ,
विजयतऽतुलभाग्यानिधः खुधीः ॥ ६॥
इतश्च--
विजयानन्द सूरीणां, विनेया विनयान्विता ॥
श्रीशान्तिविजयाह्वानाः, शोभन्ते परिडतोत्तमाः ॥ ७ ॥
श्राजन्मादपि शीलसत्यस्रदुताक्तान्त्यजेवाद्या गुणाः,
भूयांसो गुरुभक्रता च विपुला येषु प्रकृष्ठा अपि ।
प्रोत्साहाय गुणार्थिनां सख्वगुरुभिव्यक्लीकृता भूतल,
सर्वेत्रिखिलगच्छुकार्यविनियागन प्रसन्नात्मभिः ॥ ८ ॥
तषां विनेय उदितादरतो विवव,
अन्थे च मानविजयाभिघवाचको ऽमुम् ।
चुरणे यद ज मतिमन्द्तया भवेत्त--
न्मेधाविभिमेयि कषां प्रणिधाय शोध्यम् ॥ & ॥
सत्तकेकर्कर्शाधया $खिलदशैनेषु,
मूघन्यतामधिगतास्तपगच्छुधुयौः।
काश्यां विजित्य परयूधिकपधदा ऽग्या,
विस्तारितप्रवरजनमतप्रभावाः ॥ १० ॥
तर्कभ्रमाणनयमु ख्यविवेचनेन,
प्रोद्नोधितादिमस॒निश्रुतकेवलित्वाः ।
चक्रुर्यशाविजयवाचकारानजिमुख्याः,
ग्रन्थेऽत्र मय्युपर्क्ता परिशोधनादे: ॥ १९ ॥
बाल इव मन्दगतिः, सामाचारसीविचारदु गम्य ।
अज्राभूवे गतिमां -स्तवां हस्तावलम्बेन ॥ १२ ॥
सिद्धान्तव्याकरण-च्छृन्दः काव्याददेशाख्रनिष्णातेः।
लावरायविजयवाचक-शकरः समशोधि शासख्रमिदम् ॥ १३ ॥
वर्ष पृथ्वी गुणमुनि-चन्द्र (१७३१) प्रमिते च माधवे मासे ।
शद्धतृतीयादिवसे, यत्नः सफला ऽयमजनिष्र ॥ १४॥
कि च--
समग्रदेशोत्तमगुजरेषु
अहमस्मदावादपुरे प्रधाने |
श्रीवेशजन्मा मतिश्राभिधानो,
वरणिग्वरो 5भूच्छुभकर्मकतो ॥ १५ ॥
नित्य गेहे दानशाला विशाला,
तीर्धोज्नत्या तीथराजादियात्रा ।
सप्तक्तेज्यां वित्तवापश्च यस्य, ,
स्तोतु प्रायो ह्यस्मदायेरशक्यः ॥ ९६ ॥
साधुः श्रीशान्तिदासः प्रवरगुणनिधिस्तत्सुतो ऽभू दुदारो,
घाञ्यां विख्यातनामा जघडुसमाधिका5नकसत्कृत्यकृत्यः | |
रह्लानामन्नवस्थोपधिसावितरणाय्रेन दुष्कालनाम |
प्रध्वस्तं श॒स्तमूता बहुविधिमदहिता जातिसाधामिकाञ्च।१७। |
पुत्रन्यस्तसमस्तगहकरणी यस्य स्फुटं वाद्धके,
सिद्धान्तश्रवणादिधर्मकरणे बद्धस्पृटस्यानिशम् ।
खद्धर्मद्वयसविधानरचनाश॒श्रूषणात्कणिठन-
स्तस्य प्रार्थनया ऽस्य गुम्फनविधो जातः प्रयल्लो मम ॥१८॥
ज्ञानाराघनमतिना, विनयादिगुणान्वितन चृत्तिरियम् ।
प्रथमादर्श लिखिता, गणिना कान्त्यादिविजयन ॥ १६ ॥
धात्री संपद्धिधात्री ुजगपतिध्रता सारवा यावदास्त,
प्रोञ्ः सोवर्शशज्लोज्लिखितसुरपथो मन्दराद्विश्च यावत् ।
विभ्वे विद्यातयन्तों तमु शशिरवी आ्म्यतश्चट यावत् ,
ग्रन्थो उ्याख्यायमानो विवुधजनवरेनैन्दतादेष तावत् ॥२०॥
ये ग्रन्थाथविभावनातिनिपुणाः सम्यग्गुणग्राहिणः,
सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नहदयास्त कि खलेस्तेरिद ।
यषां शुद्ध खुभाषिताख्रतरसेः सिक्ता ऽपि चित्त भृशे,
ग्रीष्मतों मरूभूमिकाखिव पयालशो न सलच्यते ॥ २१॥
विलोक्यानेकशास्त्राणि, विदिताद् ग्रन्थतास्त्विह |
प्रेत्यापि बोधिलाभोऽस्तु, परमानन्दकारणम् ॥ २२ ॥
घ० ३ अधि० । मानोदयनिरोधे, उत्त० २६ अ०। ओ० |
मारविप्पव- मानविप्लव- पुं० । मीयते ऽननेति मानम्-कुडवा
दिपलादि हस्तादि वा, तस्य विप्लवो विपर्यासः अन्यथा क-
रणम् । मानस्य हीनाधिकत्वे, घ० २ अधि० ।
माणवी- मानवी - खी । श्रयांसस्य श्रीवत्सापरनाम्न्यां शास-
नदेव्याम् , वैताढ्यपर्वते सखनामख्यातायां विद्याधरश्रेणो,
आए चू० ९ अ० | प्रव०।
माणस-मानस-त्रि० । मनःपर्यायज्ञानयुक्के , विश०। मनःख-
। अन्तःकरण , स०
अधि० ।
सम्बन्धिनि, न० । आव० । स्था० | प्रव॒०
३४ सम० । जी० । मनोमात्रब्रत्तिनिवृत्ते, ध० २
चित्त, “ चित्त माणसे ” पाइ० ना० २४१ गाथा ।
माणसष्पा-मानसंज्ञा-खी० । मानोदयाददङ्गारात्मिकोत्सेका-
दिपरिणतिरेव सज्ञायतेऽनयति मानसेज्ञा । स्था० १० ठा०।
सज्ञाविशेषे, प्रज्ञा० ७ पद् । भ० |
माणसपज्ञाय--मानसपयौय्- पु । मानसा मनःसम्बधिनः
पर्याया विषया यस्य तन्मनःपयीयम्। मनःपयीयज्ञाने, ने०।
माणसपव्वय मानसपव्यैत-पुं । स्वनामख्याते पवते, यत्र
बाहुबलिना मानाध्मातेन केवलोत्पत्तये प्रतिमा ऽभिगृदीता ।
जआण म० १ श्०।
माणसिय-मानसिक्-त्रि० । मनसि जातं मानसिकं मनस्येव
यद्ध सते तन्मानसिकम् । ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। मनसा चि-
न्तिते, स्था० ६ खा० । नि० । मनः प्रयोजनमस्य मानासिकः
घ० २ अधि० । मनसा निषत्तः मानस एव वा मानसिक ।
मनःकृत, श्राव ० ४ श्र ० । उत्त० । कट्प० । श्रा० चू० ।
| माणसियजोग-मानसिकयोग- पुं । मनोद्रव्याणां चिन्तायां
दयापारणे, विश० ।
माणा-माना- खी०। मानाजुगतायां क्रियायाम् ,आब० रे अ०।
| मासि -मानिन्- प° । मानेन युक्तो मानी । अनु० । गर्विते
सूज० ९ श्रु० २ अ० २ उ०। नापि मानी भवेत्-न गवं विवृध्या-
त्। सूव० १ श्रु १६ श्र ० । अदङ्कारिणि, जी” १ प्रति०।
| |
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( २७५ )
माणि
जात्यादिमदापत, चे० प्र० १० पाहु० । कच्छुस्य यावत्पुष्क-
लाबतीविजयस्य दीघवेताब्यपरवतस्य स्वनामख्यातेषु कूटेषु
स्था० £ ठा० | पक्मचिजयस्य यावद् गन्धिलावतीविजयस्य
स्वनामख्यातेषु पर्वतेषु, स्था० € उा०।
| माणिअ-मानित-जि० । अनुभूते, “ अणुहआ माणिओ "'
पाइ० ना० २१३ गाथा । दे० ना० ।
माणिकी-माशिकी-स्ली० । रूतपूरितपट्टरूपायामाकुण्चि-
कायाम् , जीत० ।
माणिक-माणिक्य-पुं० । मणिभेदे, आचा० २ श्रु० ३ चु०।
कोलपाकपत्तन मन्दोदरीदेवता5वसरे श्रीऋषभदेवे,ती० ४३
कल्प । भगवतीवृत्तिकारप्रेरके दायिकसुत वणिजि, “अस्याः
अखिधानराजन
( भगवव्याः ) करणव्या ख्या-श्रुतिलखनपूजनादिषु यथाहम् । |
दायिकखुतमाणिक्यः प्ररितवानस्मदादिजनान् `" । भ०४१श०।
माणिकचद [अ ^~ क 4७ |
सूरि माणिक्यचन्दरम् रि- पृ०राजगच्छीये साग- |
रचन्द्रसूरिशिष्ये, अयमाचार्यः विक्रमसवत् ६२७६ विद्यमान |
आसीत् । पांश्वनाथचरितनामग्रन्थे व्यरीरचत् | जे० इ० ।
मारिकर्दडग- माणिक्यदण्डक- प° । मुनिसुब्रतस्वामितीर्थ
प्रतिष्ठानपुर अयोध्यायां विन्ध्याचल माणिक्यदर्डकं नुनि- |
सुव्रतः । ती० ४३ कल्प ।
माशिकदेव- माणिक्यदेव- पुं० । कोलपाकपत्तने मन्दोदरी--
देवतावसरे श्री ऋषभदेवे, ती° ४२ कल्प ।
“श्रीकालपाकप्रासाद-भरणे शरणं सताम् ।
माशणिक्यदेवनामान-मानमामि जिनर्षभम ॥ १॥”
श्रीमारिक्यदेवनमस्कारः--
“ श्रीकालपाकपुरलव्मिशिरावतस--
प्रासांदमध्यमनिषेध्यमार्धिष्टितस्य ।
माणिक्यदेव इति यः पृथितः पृथिव्यां,
तस्याङ्घरियुग्ममभिनोमि जिनषभस्य ॥ ९ ॥
तीर्थशिनां समुदयो मुदितन्द्रचन्द्रः,
कोटीरकोटितटघृष्टपदासनानाम् |
मद्दुःखदारुणदुरुत्खनशालिलेखा,
पषाय मत्तकरिणः करणं दधातु ॥
हेतूपपत्ति सुनिरूफितवस्तुतत्त्वं,
स्याद्वाद पद्धतिनिविशित दुनंयो घम ।
सत्सिद्ध्वल्लिविपिनं भुवनेकपूजां
पात्र जिनेन्द्रवचने शरणं प्रपये ॥ २॥
आएरुह्य खे चरति चचरचक्रिरौ या
नाभयशासनरसालवनान्यपु्ठा ।
चक्रेश्वरी रुचिर चक्रविरा चिहस्ता
शस्ताय सास्तु नवावट्र मकायकान्तिः ॥४॥' ती ०४६ करुप।
सिरिकोल्लपाकपुरवर-मं डणमाणिकेदेवरिसदस्स ।
लिहिमो जहखुश्र किचि कप्पमप्पण गन्वेण ॥ १ ॥
पुर्विव किर अट्वावयनगवरे सिरिभरहेसरेण णिआ्र--णिश्र-
चणर॒प्प्माणसंठाणजुत्ताओं सीढों चच लोआखुग्गहणत्थ
तण वेकारिआ सच्छुमरगयमाणिमई । जहा--जुअलखंधख
चिबुगे दिवायरो,भालयले चंदो, नाहीए सिवर्लिंग,अआओ चव
मारिकदेवु त्ति विक्खाया । सायेकालं ऽते जत्तागएहिं खरे
हि दिद्दा अपुव्वरूबि न्ति विम्हिअमणेहिं विमाणे ठाविऊण
"जौ नीया बक्खिणसेढदीए , तिहि भत्तिभरभरिश्र
४.
साणक्रदव
चत्ताह पृइज़जइ | अन्नया भमतण नारयरिसिणा वयह्गणएगो
त पाडम दटह्ूण पुषच्िछिाआ विज्जाहरा, कुओ एञ्च पत्तं।
तओ तेहि वुक्त--श्रट्रावयाञ्ना आणिश् त्ति। जप्पाभिद् ए-
सा अस्हाहिं पृडे पकता तप्पभिइ दिने दिने बह्भिया इड्डी-
प्, तं साङण नारओ सग्ग इंदस्स तप्पडिममाहप्पे कहइ।
इदेणा ऽवि सग्ग आणाविता भर्त्ताए पूइउमाढत्ता जाव मु
णिखुब्वयनमिनाहाणं अतरालं | इत्थ ऽतरे लेकाए तलुककं-
टआ रावणो उष्पराणा, तस्स भज्जा मदादरी परमसम्म-
दद्रा । तीए त रयणविवमाहष्पे नारयाश्रा साऊण तप्प-
आगणगाढाभिग्गहाो गहिआओ, ते वुत्तते मुणित्ता महारायराव
णेण इंदो आराहिओ । तणऽवि तुट्रेण समप्पिआ सा पडिमा
महादेवाए तीए तुट्दटाए तिका पूइज्जइ ।. अन्नया दसगीवेण
साआ दूवी अवहारिया, मंदादरीए अणु सिट्ठो चित्त न मुच-
ति। तश्रो खुमिण पडिमाश्रटिट्धायगेण रावणविणासा लका-
भगो चर श्ाक्खश्रा मंदो अरीए तच्चा तीण विवे सायरे खि-
वच्च तत्थ सुरेदि पृटज्ञद् । इझो श्र कन्नाणदेसे कल्लाणनयरे
सकरो नाम राया जिणमत्ता हुत्था । तत्थ केणऽवि मि-
च्छादिद्विणा वतरण कुविएण मारी विडउव्विया । अद्दणो
राया, त दुाक्खश्र नाउ देवी पउमावई रद्धि खुविरे भणई-
महाराओ रयणायराओ माणिकदेवं निच्रपुरे श्राणि-
त्ता पूएस ता दियं होइ । तओ राया सागरपासे
गतूण उववासं करइ , लवणाहियों सतुद्रा दाञण प-
यडा रायाणं भणइ--गिरहह जहिच्छाए रयणाई , रन्ना
विन्नत्त-न में रयणाइएहि कज, मंदोदरीठविआ चिव देहि
तत्त । तश्रो सुरण बिब॑ कट्टिऊप अप्पिअं, रन्नो भणियं
च-तुह देसे खुदी लोओ दाही परे पथे गच्छेतस्स जत्थ
सस्रा हादी तत्थेव चिच टादिति। त्रो पच्छिवों पच्छिवो
सासन्ना देवयापभावण अन्नद य , जुअलखेधट्टिअसगडा-
रावि वव मग्गओ आगच्छद् । दुर्गं मग्गं लेधि्
राया ससय मणे घरइ, कि आगच्छुई न वित्ति । तच्रो
सासणदेवीपए तिलंगदेस काल्लपाकनयरे दक्खिणवाणा-
रसि त्ति पंडिणहिं वरि्णिजिमाणे पडिमा टाविच्रा । पुष्वि
इणिम्मलमरगयमणिमये आसि विवे चिरकालं खारा-
श्राहिनीरसंगेण कटिणगं जायं । पक्रारसलक्खवा असीइ-
सहस्सा नवसयाई पचुत्तराई वरिसाई सग्गाओ श्राणी-
श्रस्स भगवश्रो माणिक्रदेवस्स सबुद्धादं, तत्थ राया प-
वरं पासायं कारावेद् । कि च--दुवालस गामे देवपूअ-
शट देइ, तमस्मि भयवं अंतरिक्खे ठिओ छ सयाई श्र
सीयाइं६८०विक्रमवरिसाई,तआ_॥ मिच्छ॒त्तप्पवेस नाड सीहा-
सण ठिओ नियकंतीए भविच्राणे लोअणख अमयरस व-
रिसेद । किमेसा पडिमा टंकेहि उक्किन्ना, खाणीओ वाश्रा
शणिआ, कि सक्रसिप्पिणा घडिआ , वज्जमई वा, नीलम-
णिमई वेति न निडिछुज्जइ , रंभाखंभनिभेव दीसइ । अञ्ज
वि किर भगवआओ सण्हावणोदगे दीबो पज्जलइ, तित्थाणु-
भावओ चइअमेडवाओ भारता जलसीआ राजति अ ज-
राणे वत्थाई अज्लि क्ति। एवं अणेगविहपभावा खुरस्स म-
हातित्थस्स माणिक्रदेवस्स जत्ता महसवे पश्र च जे क-
रंति, कारविति, अणुमोअंति अ ते इह लोपः परलोए अ
खुहसिरिं पाविति ।
“ माणिकंदेवकप्पा, इच एसो वननिश्मो समासं ।
यणि 3...
( २५६ )
अभिधानराजन्द्रः |
माणुसत्त
माणकदव
सिरिजिणपहसूरीहि, भामिआरं कुणउ कल्लाणं ॥ १॥ ”
इतिश्रीमाणिक्यदेवती थंकल्पः । ती० ५० कल्प ।
माणिकपुत्त-माणिक्यपुत्र-पुं० । नासिकपुरे बरह्मगिरिस्थित-
जिनप्रासादोंद्धारके पल्लीपालवंशोद्धवे ईश्वर पुत्र,ती ०९७कल्प।
माणिकसंदरसरि माणिक्यसुन्द्रसरि-पुं० | अश्वलगच्छीये
स्वनामके आचार्य, अनन मलयखन्दरीचरिञ यशाधरचरि
जे पृथ्वीचन्द्रचरित्र चति अन्था रचिताः | अयमाचायेः
विक्रमसवत्-१४६१ वं श्रासीत् । जें० इ० ।
माणिभद-माणिभद्र पं” । उत्तरयक्षनिकाये
न्द्रेस्था०ध्ठा० । |
प्रज्ञा० | दक्षिणभरते दी धवैताङ्यस्य माणिभद्राभिधानदेवस्या- |
5<5वासे चतुर्थ कूटे, स्था०६ ठा० । एरवत चर्ष दीधरवेताद्यस्य
चतुथथ करट, स्था० ६ ठा०। सोधर्मे कल्प खनामख्याते विमाने,
तद्वास्तत्य दव च | न० स्था० | भ०। पठ | आण० म० | आ० |
चू० । शत्रुज्जयताथाद्धारकारक स्वनामख्यात वाणाज, तो ० । |
नन्दिः सूरिरथाश्रर्य-श्री प्रभा माणिभद्वकः ।
धनमित्रो यशामित्र-स्तथा विकटधर्मिकः ॥ १ ॥
स॒मङ्गलः शरसन, इत्यस्योद्धारकारकाः ।
ती० १ कल्प | प्रज्ञा० । स्था०! मिथिलायां नगर्य्यां स्व- .
नामख्याते चेत्य, च० प्र ९ पाहु० | ति५।
माणिम-मान्य-त्रि० | अभ्यत्थानाज्ञाकरणादिना माननीये,
दश० १ चू |
माशणिय-मानित्-त्रि० | सम्मानित, अनु० । ज्ञा० ।
माणी-माणी-ख्री० | ऊरूलाकवास्तव्यायां दिकुमायांम् ,ति०।
माणीपुर-माणीपुर -न० । नागदत्तग्रहपत्यावासनगरे, विपा०
२ श्र ७ आ० ।
माखुम्माणप्पमाणसुजयसव्वऽगस्रद्रञऽग-मानान्मानप्रमाण
सुजातसवाङ्गस॒न्द राङ्क ति । मानोन्मानप्रमाणः सुन्दराण्यज्ञा-
नि शिरःप्रमुखाणि यत्र पवेविध सुन्दरमङ्ग यस्य स तथा ।
मानोन्मानन प्रमाणन परिपूणंसुन्दराङ्ग, कट्प०
१ क्षण | स्था । स०। विपा०। प्रष्न०। रा०। [ मारुम्मा
रापमाणपडिपुच्रस॒जातसव्वंगसुंदरगी इति ] तत्र माने
जलद्राणप्रमाणता । कथमिति चत् ? उच्यत-जलस्यातिभते
कुराडे पुरुष स्त्रियां वा निवेशितायां यजले निस्सरति तद्यदि
द्वाणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः स्री वा मानप्राप्त उच्यते ।
था-उन्मानम-अद्धभारप्रमाणता, सा चवम्-तुलायामारो-
पितः पुरुषः खी वा यद्यर्द्भारं तुलति तदा स उन्मानप्रा्तो +-
भिघीयत। प्रमाणएं-स्वाह्ुलना श्लोत्तरशतोच्छुयिता, ततो मानो
१, अधि० |
न्मानप्रमाेः प्रतिपूण न्यनूनानि सुजातानि जन्मदोषरहिता- |
एन सत्वाख अज्ञानाशरःप्रभ्नतान यान तः सखन्द्राङ्गा | रा०।
माणुम्माणेयद्राण-माननन््मानितस्थान-न० । माने-प्रस्थका- |
दि, उन्मान--नाराचादि । यदिवा-भानोनन््मानमित्यश्वादीनां |
चगाददिपरी त्ता तत्स्थानानि । मानोन्मानवसीनस्थाने, आचा० |
अन्नेण अणा- |
२ श्रु० २ चू० ४ आअ० । एगस्स बलमाणं
मीयत- इति माणुस्माणये, जहा--धन्ने कंवलसवला । श्र-
धवा-माणपत यो माखुम्माणये विज्जादिएणहिं रुक्खादीण
मिजतीति रमे । । अथवा-णम वट सिक््खावज्ज तस्स
अगाण ण मन्जता गाहता कत्वा | श्शवा-वः थपुण्फच- |
मादी वा कप्पं रुक्खादिभगो । नि० चू ९२ उ०।
| =
| माणुस- माचुष- पुं । मचुप्याणामय मानुषः । स्था० हे ठा०
३ उ० । मचुप्यभवसम्बान्धिनि, सू०प्र० २० पाहु० । प्रव०।
] ४४
आचा० । स्था० । सूत्र०। “ संसारजलधिविश्रष्ट । माचुष्यं
खद्योतक-र्ताडल्लतावलासतप्रातमम् । । आचा० १ श्च०
२ श० १ उ० । मचुष्यभवे, विशे० ।
माणुसत्त-मानुषत्व-न०। मनसि शेते मानुषः । श्रथवा-मनो.
रपत्यमिति वाक्ये मनोर्जातावश्चतों षुक् चेत्यञि प्रत्यये षु-
गागमे च माुषत्वम् । मनुजभवे, उत्त० ३ ० । सूत्र०।
ये सत्वा मानुषत्वे न लभन्ते तानाह--
सत्तममहिनरइया, तेऊ वाऊ अणंतसंघट्टो |
न लहंति माणुसत्तं, तहा असंखाउआ सब्बे ॥१३६६॥
सप्तमपृथिवीनैरयिकाः, तैजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, त-
था--असंख्यातवषायुषः सर्वे तियेड-मनुष्याश्वानन्तरमुद्-
वृत्ता माुष्ये न लभन्ति-मरत्वा ऽनन्तरभवे मनुजेषु नोत्पद्य-
न्ते इत्यथः । शषास्तु खुरनरतियैङ्नारकाः नरेषु उत्पन्ते ।
प्रव० २५० द्वार | ध० । महा० ।
गोयम् ! अन्न पि ज॑ भणसि, तं पि तुब्भ कहेमह ।
एत्थ जम्मे नरो कोई, कसिणुग्गं संजमे तवं ॥
जई णो सकई का, जे तहा वि सुगइपिवासिओ नि-
यमं । पक्खिक्खीरस्स एगवाल उप्पडणं रयहरणस्स गिह
दंसियं पत्तियं तुपरि धारिय से कणो पि एय पि न जा-
वञ्जी पालेड ता इमस्स वि ।
“गोयमा ! तुज्भ बुद्धीए, सिद्धिखित्तस्स उप्परं ।
मंडवियाए भवेयव्वं, दुकरकारि तवे तु (ए) णं ॥ १॥
वरं एयारिसं भवियं किमदं, गोयमा ! एयं पुणो तं
पुच्छामि | महा० ६ अ०।
मनुष्यादिक्रमदुलेभता ख्यापनाया-55ह नियुक्किकारः-
माणुस्सखत्तजाई, कुलरूवा55रोग्गमाउयं बुद्धी ।
समणोग्गहसद्धासं--जमो य लोगम्मि दुलहाईं | ८३१॥
इंदियलद्धी निव्य-त्तणा य पज्जत्ति निरुवहयखेय ।
धायारोग्गे सद्भा, गाहगउवओगअट्टो य । (अन्यदीया)
चोल्नग पासग घे, जूए रयणे य सुमिण चके य |
चम्म जुगे परमार, दस दिटरता मणुयलंभे ॥ ८३२॥
मानुष्यम--मनुजत्वम् , क्षेत्रम-आयेम् , जातिः-मात्समु-
त्था, कुलम्-पिकसमुल्थम् , रूपम्-अन्यूनाङ्गता, आरोग्यम्-
रोगाभावः, आयुष्कम्-- जीवितम् , बुद्धिः--परलोकप्रचणा,
श्रवण--घमेसम्बद्धम् , श्रवग्रहः- तदवधारणम् । अथवा-
श्रवणावग्रदा--यत्यवग्रहः , श्रद्धा--रुचिः , संयमश्वथ--अ-
नवद्यानुष्ठानलक्षणः , एतानि स्थानानि लोके दुलेभानि ,
एतदवाप्तो च विशिष्टसामायिकलाभ इति गाथाः | ८३९ ।
अथ चेतानि दुलेभानि। इन्द्रियलब्धिः-पञ्चन्द्रियलब्धिरित्य-
भरः, निर्वत्तना च इन्द्रियाणामेव,' पर्याप्तिः--स्वविषयग्रह-
रंसामध्यलक्तषणा, (निरुबहत त्ति) निरुपहतेन्द्रियता-क्तमम्-
विषयस्य, धातम्-सुभिक्षम, आरोग्यम्-नी रोगता,श्रद्धा-भ-
क्रिः, आहकः- गुरुः, उपयोगः-श्रातुस्तदमिमुखता, ( अद्धा य
( २४७ )
_ माणसत्त
_अभिधानराजेन्द्र: ।
त्ति) श्र्थित्वे च धर्म इति गाथाथेः | भिन्नकर्तकी किलेयम् ।
जीवो माप्य लञ्ध्वा पुनस्तदेव दुःखन लप्स्यते, बहन्तराया-
न्तरितत्वात्,
अजञ कथानकम्-वेभदन्नस्स एगो कप्पडिओ, ओलग्गओ,
बहुसु आवात्तिसु अवत्थासु य सब्वत्थ सहायो आसि, सो य
बरह्मदत्तचक्रवर्तिमिचत्राह्मणचोल्लकभाजनवत्।
रञ्ज पत्ता, बारससवच्छरिश्रो श्रभिसेमो कश्य, कप्पडिओ |
तत्थ अज्ञियावं पि ण॒ लहाति, ततो5णण उवाश्चा चितितोा, उ-
वाहणाओ धप बंधिऊण धयवाहपयहि सम पधावितो, ररणा |
दिद्धो, उत्तिर्णणं अवगूहितो, अरणे भणंति-तण दारवाले से
चमाणेण बारखन संवच्छ रे राया दिद्वो, तादराय। ते दट हण
सतो , इमो सो बराओ मम सहदुक्खसहायगो, एत्ताहे
करेमि वित्ति, ताहे भणति कि देमि त्ति ? सो भणति
देह करचोल्लपए घरे घ्रे जाव सव्वमि भरहे , जाधे [हे] णि-
हितं द्ोज्जा ताद पुणो वि तुब्भ घरे आढ्वेऊण भजामि,
राया भणति-कि ते एतेण ?, देस ते देमि, तो खे
छत्तछायाए हत्थिखधवरगतो हिंडिहिसि, सा भणति-कि
मम एद्हेण आददे ?, ताहे सो दिएणो चोल्नगो , ततो प-
ढमादिवसे राइणो घरे जिंमितो , तेण से जुबलयं दीणा-
रोय दिरणो, एवं सो परिवाडीए सब्वेखु रायउलेखु बत्ती- |
साए रायवरसहस्सेसु तसि च ज भोइया , तत्थ य णगरे
अरणगाओ कुलकोडीओ , णगरस्स चव सो कता शते क-
हिति, ताधे गामेसु तादे पुणो भरहवासस्स, अवि सो वञ्चज्ञ
श्रते ण य माणुसत्तणातो भट्टा पुणो माणुसत्तरं लहइ १।
(पासग त्ति) चाणक्कस्स खुबणरणं नऽत्थि, ताधे केण उवापएण
विढविज्ञ खुवराणे ?, ताधे जतपासमा कता, कड् भरंति-वर-
दिरुणगा, ततो एगो दक्खो पुरिसो सिक्खावितो, दीणारथालं
भरियं, सो भणति-जति मम कोइ जिति सो थाल गेण्हतु,
छह अहं जिणामि तो एगं दीणारे जिणामि , तस्स इ-
च्छाएज ते पडति श्रतोण तीरइ जिखितुं , जहा सो ण
जिप्पइ एव माणुसलभो ऽवि, अवि णाम सो जिप्पेज्जण य
माखुसातो भद्रा पुण माखुस्सत्तणं २
( धरणे त्ति ) जत्तियाणि भरहे धरणाणि ताणि सब्वाणि
पिरिडिताशि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, ताणि सव्वाणि
आइआलित्ताणि, तत्थेगा जुरणथेरी खुप्प गयाय ते विशिज्ञ
पुणोऽवि य पत्थं पूरेज्ज, अवि सा देवप्पसादेण पूरेज्ज ण य
माखुसत्तण ३।
( ज्ुए ) जधा एगो राया , तस्स सभा अट्ठखें-- |
भसतसनिविद्रा, जत्थ अत्थाणियं देति, एक्को य खभो |
अट्ुसयसिश्रो, तस्स ररणो पुत्ता रज्कखी चितति-थरो
राया
तेण ररणो सिद्ध, ततो राया तं पुत्त भणति--अम्ह जो ण
सहइ अणखुक्कम सो जूतं खेज्ञति , जति जिणति रज्ञं स्र |
दिज्ति, कह पुण जिंणियव्वं ? , तुञ्ज एगो आओ, अव-
ससा अम्हं आया, जति तुमे पगेण आएण श्द्रुसतस्स
खेभाणं एक्क अंसियं अट्ुसते वारा जिणासि ता तुञ्ज
रज्ञ, श्वि य देवताविभासा ४।
(रतणे'्ति)-जदा एगो वाणियश्रो बुह्धो,रयणाणि से अत्थि,
तत्थ य महे महे श्ररणे बाणियया कोडिपडागाश्रो उब्भेति,सो
ण उन्भवेति, तस्स पुत्ति थरे पडल्थ ताणि रयणाणि देसी-
_ + गेन
१ प्रवेशम् | २ करभोजनम् | ३ आडम्बरेण |
मारऊण रज्र गिणहामि, त च अमचेण णाय , |
साएुसत्त
चाणिययाण हत्थे विक्कीताणि, वरं अम्हेडवि कोडिपडा-
गाओ उब्भवेता , ते य बाणियगा समंततो पडिगया पार-
सकूलादीणि, थरो आगतो , खतं जधा विक्कीताणि, त अ
चाडति , लहुं रय शाणि श्राह, ताहे ते सन्वतो हिंडितु-
मारद्धा, कि ते सव्वरयणाण पिंडिज्ज ? श्रवि य देव-
प्पभावेण विभासा ५।
( ˆ खुबिणए › त्ति ) पगण कप्पडिपण खुमिणए
चदो गिलितो, कप्पड़ियाणं काथिते, ते भणंति-सं-
पुरणएचदमडलसिस पावलिय लभिदिसि , लद्धा घर-
च्छादाणियाण , अए्णण वि दद्धो, सो ण्हाइऊण पु-
प्फफलाणि गहाय सखुविरपाढगस्ल कथति, तेण भणित-
राया भविस्ससि । इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो
अपुत्तो सो य णिष्विरणो च्रच्छति, जाव आसो' अधि-
यासतो आगतो, तेण तं दट्हूण हेसिते पदक्खिणीकतों
य, ततो विलइओ प्रे, एवं सो राया जातो, ताहे सो
कप्पडिओ त सुरति, जधा तेण वि दिट्रा एरिसो खुवि-
णुओ, सो वि श्रादेसफलण किर राया जातो,सो य चिं
तेति--वच्चामि जत्थ गारसो ते पिचेत्ता खुवामि , जाव
पुणो तं चव खुमिरणं पेच्छामि, श्रत्थि पुण सो पेच्छेज्ञा
अवधि य सो ण॒ माणुसाता ६।
( चक्क त्ति दारं ) इंदपुरं नगरं , इंद्दत्तो राया , तस्स इट्टाणे
वराणं देवीं बावीस पुत्ता, अरण भणाति-एक्काए चेव देवीए
पुत्ता, राइगो पाणसमा, रणा एक्का अमच्चधूया सा परे परि-
रिंतेण दिद्लेन्लया, सा अएणता कताइ रिउयहाता समाणी
अच्छाति, रायणा य दिद्ठा, का पस त्ति ?, तहि भणितं-तुब्भे
देवी एसा , ताह सौ ताप समं रत्ति पकं वसितो, सा
य रितुण्हाता तीखे गन्भो लग्गो, सा य अमच्चेण भ-
शिपल्लिता-जया तुमं गब्भो आहतो भवति तदा मम
साहिज़सु, ताए तस्स काथित- दिवसो मुहुत्तो जे नच
रायाएण उल्लवितं सातियकारो , तण त पत्तए लिहि-
त, सो सारवेति, णवरं मासाणं दारओ सजातो, तस्स
दासचडाणि तद्दिवर्स जाताणि, ते जहा--अग्गियओ
पव्वतओ बहुलियो सागरो य, ताणि य सहजातगाणि
तेण कलायरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणिय-
प्पटाणाश्रो कलाओ गाहितोा, जाहे ताओ गाहति श्रा-
यरिया ताधे ताणि तं कडति वाउल्लेति य, पव्वपरिच-
पणे ताणि राडति, तेण ताणि ण चव गणिताणि
गदिताश्रो कलाच्रो, ते य शरणे बावीसं कुमारा
गाहिज्जता ते आयरिये पिट्ठेति अवयणाणि य भणति,
जति सो आय्यारिओ पिदट्टाति तादे गेतृण मातृण सादति,
ताहे ताओ ते आयरिये खिसेति--कीस श्राहणसि ? कि
खुलभाणि पुत्तजम्माणि ? अतों ते ण सिक्खिता । इओ
य॒ महुराए पव्वयओ राया, तस्स खुता णिव्वुती णाम
दारिया, सा ररणो अलाकिया उवणीता, राया भणाति-
जा तव रोयति भत्तारो, तो ताए भणिते--जो सूरा वीरो
विक्रेता सो मम भत्ता होड, से पुण रज्ञ दिज्वा, ताधे
सा ते बलवाहणे गहाय गता इंदपुरं नगरं, तस्स इंद-
दत्तस्स बहवे पत्ता, इंददत्तो तद्धा चितद-- रुणे अहं अ-
ण्णहिंतो राशहिंतो लट्टों तो आगता, तता तेण उस्सि-
६ पारसकूलादिस्थानानि |
( २४८ )
चरा भध्ानराजन्द्रः ]
, माणुसत्त
तपडागे नगरे कारिते, तत्थ एक्कस्मि अक्ख अट्ट चक्का-
णि, तसि पुरतो धिदल्लिया ठाविया, सा अच्छिम्म वि-
धितव्वा, ततो इददत्ता राया सन्नद्धा णिग्गतो खट ,
पुत्तदि।सा वि कगणा सव्वालकारभूसिया एगंमि पास
च्छति, सारंगोत य रायाणो त य दंडभडभाइया
जारिसो दोवतीए , तत्थ ररणा जेट्टो पुत्तो सिरिमाली
णाम कुमारो, सा भरितो--पृत्त! एस दारिया रज्जं च
घत्तव्वे, अतो विध एतं पुत्तलियं ति, ताप्रे सोाऽकतक-
रखा तस्स समूटस्स मञ्ज धरु चव गरिदिखु ण॒ तर-
ति, कह ऽवि ऽशण गदित, तण जता वच्चतु ततो वचतु
त्ति मुक्तो सरा, सा चक्के अप्फिोडिऊण भग्गा, एवे कस्सद्
एक अरगंतर वालीणा.कस्सद दोरिण,कस्सइ तिरिण,अरण-
सि बाहिरेण चव णीति, ताध राया अधिति पगतो-अ-
हा ऽहं एतद धरिसिता त्ति, ततो अमचेण भणिता--की-
स धिति करद? राया भणति-एताहिं अहे अप्पधाणो
कता, अमच्चो भणति--अत्थि शरणा तब्भ पुत्तो मम धृ
ताप तणइओ खुरिददत्ता णाम, सो समत्थो विधितु,
अभिरणाणि से कटिताणि, “कटि सो ? दरिसितों , ततो
सा राइणा अवगृहितो, भणितो सर्य-तव, एए अद्र रहचके
भत्त॒ण पृत्तलियं अच्छिम्मि विधित्ता रज़्सुकं णिव्वुतिदा
रियं सपावित्तए, ततो कुमारो ज़धा55णवह त्ति भणिऊ-
ण ठाणे ठाद, तृणधरु गरहति , लक्खाभिमुहं सरे स-
ञ्जि, ताणि य दासरूवाणि चडउदिस ठिताणि राडिति,
मरण य उभयतो पासि गदहितख्ग्गा, जति कह वि ल-
कंखस्स चुक्कति ततो. सीसं दिदितव्वे ति, साऽवि सर
उवज्भाश्रो पास ठितो भयं देति--मारिज्सि जति चु-
करसि, ते वावीस पि कुमारा मा एस विन्धिस्सति त्ति
विससउल्लठाणि विग्घाणि करति, ततो ताणि चत्तारितय
दो पुरिसे बावीस च कुमारे अरगरतेण ताण अट्ठएर्ह रहच-
कारण अतर जाणिऊण तमि लक्खे शिरुद्धापः विट्टीए अरणम-
ति अकुणमाणण सा घिइज्लिया वामे अच्छिम्मि विद्धा
ततो लोगेण उक्किट्टिसीहणादकलकलुम्मिस्सो साधुकारो
कतो, जधा.ते चक्रं दुक्से भन्तं एवं मारुसत्तणे पि ७।
( चम्मीत )-जधा एगो दहो जोयणसयसदस्सवित्थिरणो |
चम्मण णद्धा, पगे से मज्के चिङ् जत्थ जत्थ कच्छभस्स |
गीवा मध्यति, तत्थ कच्छुभो वासस्ते वासस्ते गते |
गीवं पसारे ति, तेण कह वि गीवा पसारिता, जावतेण |
छिड़ेण निग्गता, तण ॒जातिसं दिट्ठ॑ं कोमुदीए पुष्फफलाणि |
य, सो आगतो, सयशिज्जयाण दाम आणत्ता सब्वतो
पलायति, ण पच्छति, श्वि सा,ण य माणुस्सातो ८।
युगदष्टान्तप्रतिपादनाया 5 एह--
पुव्वं ते हीञ्ज जुग, अवरत तस्स होज्ज समिला उ।
जुगाद्इ।म्म पवसा)इय सस्रा मणुयलभ।॥ ८३३ ॥
जलनिधेः पृवौन्ते भवद् युगम्,अपरान्त तस्य भवेत् समिला |
तु, एवं व्यवस्थिते सति यथा यगाच्चृद्रे प्रवशः संशयितः,
दय ' एवं सशयितो मनुष्यलामो दुलभ इति गाथार्थः । |
जह समिला पब्भड्टा, सागरसलिले अणोरपारमि |
पविनेज्ज जुगगचिडं, कह वि भमेती मर्मतमि ॥८२३४॥ |
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म [णुसय-मानुष्यक-न० | मा जुष्यके लोके आर्यच्
यथा सामला प्रश्नष्टा, सागरसालल `--समुद्रपानीये,
( श्रणोरपारमिति ) देशीवचने प्रचुरा, उपचारत आरा-
द्वागपरभागरदित इत्यथः, प्रविशत् युगच्चद्रं कथमपि
श्रमन्ती भ्रमति युग इत्यवे दुलभ मानुष्यमिति गाथाथेः।
सा चडवायवी ची, पणुल्िया अवि लभेज्ञ जुगछिदद ।
ण य माणुसाउ भटा, जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥८३५॥
सा समिला चराडवातवीचीप्रारिता सत्यपि लमेत् युगच्छिद्ं,
न च माजुप्याद् श्रष्ठा जीवः प्रतिमानुष लभत इति गाथाथः॥€॥
इदानीं परमाणु १०--जहा एगो खभो महापमाणो , सो
देवेण चुरणऊण अविभागिमाशि खडाणि काऊण णा-
लियाए पक्खित्तों, पच्छा मंदरचूलियाप ठितेण मितो
ताणि णद्रासि, अत्थि पुण कोऽवि ?, तेहि चव पाग्गलदि
तमव खभ णिव्वत्तज्ञ ? णो त्ति, एस अभावो एव भद्रा माखु
सातो ण पुणो । श्रहवा-सभा अणगखभसतटहस्ससनिविद्ा,
सा कालऽतरेण कामिता पडता, अत्थि पुण कोइ ?, तहिं
चव पोग्गलेहिं करेज्ञा, णो त्ति, एवं मारणुस्से दुल्लह ॥ १० ॥
इय दुल्लहलंभ मा- णुसत्तणं पाविऊण जो जीवो ।
ण कुणइ पारत्तहियं, सो सोयई सकमणकाले ॥८३३॥
इय--एवं दुलभलाभं मानुषत्वे प्राप्य यो जीवो न
करोति परत्र हितं-धर्म, दीध्रैत्वमलात्षणिकम्, स शाचति,
सक्रमणकाल--मरणकाल, इति गाथाः ।
जह वारिमज्भछूढो, व्व गयवरो मच्छूठ व्व गलगहियो ।
वग्गुरपडिउ व्व सओ, संवट्टइओ जह व पक्खी ॥८२७॥
यथा वारिमध्यत्तिप्त इव गजवरो, मत्स्यो वा गलग्रहीतः,
बागुरापतिता वा सगः, सवत्तं जालम् इतः प्राप्तो यथा
वा पत्ती, इति गाथाथः।
सो सोयइ मच्चूजरा, समोच्छुओ तुरियणिदपक्खित्तो ।
तायारमविद॑तो, कम्मभरपणोल्लिओ जीवो ॥ ८३८ ॥
सोाऽकृतपुरयः शोचति, मृत्युजरासमास्तृतो-व्याप्तः, त्वरि
तनिद्रया प्रक्षिप्तः, मरणनिद्रयाऽभिभूत इत्यथः, चातारम् अ-
विन्दन्-अलभन्नित्यथः, कर्मभरप्रेरितो जीव इति गाथाः ।
स चेस्थे मरतः सन्-
काऊणमणेगाई, जम्ममरणपरियड्णसयाई ।
दुक्खेण माणुसत्त,जइ लहइ जहिच्छया जीवो ॥८३६॥
कृत्वा ऽनकानि जन्ममरणपरावत्तेनशतानि दुःखन माचुष-
त्वे लमत जीवा यदि यदच्छया, कुशलपक्तकारी पुनः सुखन
स्रत्वा सखुखनेव लभत इति गाथाः ।
त तह दुल्लहलभ, विञ्जलयाचंचले माणुसतते ।
लद्रण ज। पमायई, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ॥८४०॥
तत्तथा दुलभलाभ विद्यन्लताचश्वल मायुषत्वे लब्ध्वा यः
प्रमाद्यति प्रमादं करोति स कापुरुषो न सत्पुरुष इति
गाधाः । । आव० १ श्न०।
माणुसत्तण- मानुषत्व-न० । मजुजत्वे, “माणुसत्तणमागया”
प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
सूत्र० १
श्रु०१६ आ० ।
( २४६ )
माणुरधण
माणुषरेधण -माचुषरन्धन--न० । चुर्ट्यादिषु, च्राचा०।
माणुसीगब्भ-मानुपीगर्भ-पुं० । जठरसभवे गर्भ, स्था०।
चत्तारि मणुर्सीगब्भा पष्मत्ता | तं जहा- इत्थित्ताए पु-
रिसत्ताए णपुंसगत्ताए विंवत्ताए । सिलोगो-
“अप्पं सुकं बहु चायं, इत्थ तत्थ पजायदई् ।
अप्पं अयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ जायइ ॥ १ ॥
दोण्हं पि रत्तसुकाणं, तुछभाव नपुसओं ।
इत्थीओज समाञ्माग, बिंबं तत्थ पजायइ ॥२॥*
( खत्-६७७ ,)
( इत्थित्ताए त्ति ) ख्रीतया, विम्बमिति गभरप्रतविम्बे ग~ |
भोकृतिरात्तेवर्षारेणामो न तु गर्भ पवति । उक्ल च--
“अवस्थित लादितमङ्नायाः, वातेन गर्भ ब्र॒वतेउनभिज्ञाः ।
_ अभिधानराजन्द्र
गर्भाकृतित्वात्कटुको ष्णतीच्णेः,श्रुत पुनः केवल एव रक्तः ॥१॥ |
गभर जडा भूतह्न॒ते बद्न्ति, ` इत्या दि । चे चित्र्यं गर्भेस्य कारण-
भेदादिति शछाकाभ्यां तदाद-{ श्रष्पामित्यादि ) शुक्र-रेत
पुरुषसम्बन्धि, ओ्ओज-आत्तव रक्तं खी सम्वान्धि, यतर गभौ--
शय इाते गम्यत इत । तथा ख्या श्राजसा समायोगो-
चातवशन तत् स्थरामवनलत्तणस्व्याजः समायांगस्तास्म- |
न्सति विम्ब तजर गम।शय प्रजायत । अन्यरप्यत्नो क्रम---
अत एव च शुक्रस्य, वाहुस्याज्ञायते पुमान् ।
रक्घस्य खरी तयोः साम्य, क्लीवः शक्रात्तेव पुनः ॥ १॥
चायुना वड्शा भिन्ने, यथास्वे वहूपत्यता ।
वियोनिविकृताका रा, जायन्ते विक्रतैर्मलेः ।॥ २॥
इति । स्था० ४ टा० ४ उ०।
माणुसुत्तर--मानुपे त्तर-ए० । मन॒प्यक्षेत्रादुत्तरतः परतो वत्त-
त इति मानुपोत्तरः । स्था० ३ ठा० ४ उ० । पुष्करवरस्य
द्वीपस्य वहुमध्यदेशभागे मनुष्यक्षेत्रसीमाकारिण - पर्वते ,
चे० प्र० १६ पाहु०।
माञुषनगस्याचत्वादि--
माणुसुत्तेर णं भते ! पव्वते केवतियं उड उच्चत्तेणं ?
केवतियं उव्वर्देणं ? केवतियं मले विक्खंभेणं ? केव तियं
मज्क ।वकव्सखम्स
ऋतो गिरिपरिरयेणं ? केवतिय बाहिं भिरिपरिरयेणं ?
केवतियं मज्के भिरिपरिरयेणं ? केवतिय उवरि गिरिपरिर-
यण् ५4 गायमा ` माणुसुत्तरण पव्वतं सत्तरस एगवासाई
ज।यणसयातिं उड उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसये
कोस च उव्वेहण मूल दुस बावस जायशसत विक्रखभ-
श मज्के सत्तावासं जोयणसते वेक्खभेण उवारे चत्तारे
चउवीसे जोयणसते विक्खंभेणं अंतो गिरिपरिरयेण एगा
केवतियं सिहरे विक्खंमेणं ? केवतियं
ज्ोयणकाडी वायालीसं च सयसहस्साई, तीसं च सह- -
स्साइ दोपि य य अठणापत्त जोयणुसतें केचि विसेसाहिए
परिक्खवेशं › बाहिर गिरिपरिरयेणं एगा जोयणकोडी वाया-
ल।स च सतसहस्साई छर्तस च॒ सहस्साई सत्त चोद-
| = जोयणसते परिक्खेवेणं, मज्फे गिरिपरिरयेणं एगा
[ररी बायालीसं च सयसहस्साई चोत्तीसं च सह-
माणु पत्तर
स्सा खट तवास जवणसत परक्खवरण,उवारं गारपारेर ए
ण एगा जायणकाडी वायालीस च सयसहस्साई वत्तीस च
सहस्साई णव य बत्तीस जोयणसते परेक्खवणं, मले वि-
त्थिष्ष मज्के संखित्ते उप्पि तखय अता सरटे मज्के उदग्ग
बाहिं दरिसशिज्जे इमि सप्पिसणे सीह णिमाई अवद्धजवरा-
सिसटाणसंटिए सव्वजंवृणयामणए अच्छ सरटे ० जाव पड-
स्वे, उभ्या पासि दं।हि पठमवरवेदियाहिं दोहि य वण-
संडेहि सव्वतो समता संपरिक्खित्ते वएणओ। दण्ट ऽवि ॥
(माखुखत्तरे एमित्यादि) मानुषोत्तरों णमिति वाक्यालङ्कार
प्यैतः ` कियत् `-किप्रमाणम्ष्वैमुच्यसःवन ? कियदुद्धेघेन ?
कियन्मलविष्कम्भन ? कियदुर्परि दिष्कम्भन ? कियद् अ-
न्तर्भिरिपरिरयण, गिरेरन्तः परिक्तेपण ६, कियद् वहिशिरि-
परिरयण गिरेबेहिः परिच्छेदेन ? कियन्मूलगिरिपरिस्येण ?
गिरेमूले परिस्यण, एवं क्रियन्मध्यगिरिपरिरयेण? , पव
कियदुपरि गिरिपरिरयण प्रज्ञप्तः ? , भगवानाह--गोतम !
सप्तद्शयोजनशतानि एकर्विशानि ऊर््यमुच्चैस्त्येन १७२६१
चत्वारि त्रिशानि योजनशतानि क्रोशमेके च ` उद्धेघेन
उण्डत्वेन ४३० , मले दश द्वाविशत्यत्तराणि याजनशतानि
विष्कम्भेन १०२२ मध्ये सत्त त्रयोविशर्त्युत्तराणि योजनशता-
नि विप्कम्भतः ७२३, उपरि चत्वरे चतुविशत्यत्तराशणि
योजनशतानि विप्कम्भेन ४२४ पका योजनकोटी दाच
त्वारशच्छतसदस्नाणि जिशत्सहस्त्रा।ण द्वे एकोनपश्चाशद-
धिके योजनशत किञश्िद्धिशेर्षाधिके श्न्तोगरणएाररय्रण्
१४८२०२५६ , एका योजनकोटी द्वाचत्वारिशच्छुतसह-
सराणि षटत्रिशत्सदस्राणि सक्च चतदैशात्तराणि याजनश-
तानि बवहिर्भिरिपरिरयण १५२३६७९४ , पका याज-
नकोटी द्वाचत्वारिंशच्छुतसहस्थताणि चतुखिशत्सदस्नाय
श्रौ त्रयोविंशत्युत्तराण योजनशतानि मध्यगिरिपरिरयेण
१४२३४८२३. पका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छुतसहस्त्राणि
ह्वात्रिशत्सहस्थाणिय नव च द्वार्निशदुत्तराण योजनशता
नि उपरि गिरिपरिरयेण १४२३२६३२, इदं च मध्ये उपार च
गिरिपरिरयपरिमाणं -वहिभागापेत्तमवसातव्यम् , अभ्यन्तर
चिन्नरङ्कतया मले मध्य उपरि च सयत्र तस्यपरिरयपरि-
माणत्वाद् , मूल विस्तीण्। ऽनिपृधुत्वात् ,मध्य स्तप्ता मध्य-
विस्तारत्वात् , उपरि तनुकः स्ताकव।हस्यभावात् , अन्तः
च्छच्णो म्रष् इत्यथः । मध्य उदग्रः प्रधानः, यहिः दशनीयः,
नयनमनाहारी , दंषत्- मनाक् सन्नषराणः सिद निपीदनन
निषीदनात् तथा चाह-लिंहानषादी सिदवन्निपीदतीत्यव
शीलः सिंहनिषादी , यथा सिंहोंडग्रतन पादयुगलमुत्तम्थ
पश्चात्तन तु पादयुग्म सङ्काच्य पुताभ्यां मनाग लग्ना निपीः
दति तथा निषर्णश्च शिरःप्रदेश उन्नतः पञ्चाद्धाग तु निम्नो
निम्नतरः, एवं मानुपोत्तरोऽपि जम्बृद्धीपदिशि छिन्नटड़ू:,
सख चोन्नतः पाश्चात्यमांग तूपरितनभागादारभ्य प्रृथुत्य-
प्रदेशावुद्ध्या निम्ना निम्नतर इति, णतदेवातिव्यक्कमादट-
( श्रवद्धजवरासिस्टाणसंटिप इति ) अपगतमर्द्ध य-
स्य सो5पारंः स चासौ यवश्च राशिश्व अपाद्धयवरा-
शी, तयारिव यत्सस्थाने यस्य तन सितः, यथा चवा
हैं... - 7 44 ~ - -
( २५० )
एरर
राशिश्च धान्यानामपान्तराले ऊर्ध्वाधोभागन चिन्नो
मध्यभागे छिन्नरङ्क इव भवति , वदिभागे तु शनेः शने
पृथुत्ववरद्धया निम्नो निम्नतरस्तद्वदेषा ऽपि, यवग्रहण पृथ-
ग्ठ्याख्यातमन्य् केवलापाद्धंयवसंस्थानतयाऽपि प्रति-
पादनात् , उक्त
“जवुणयामआओं लो, रम्तो अद्धजवसंठिओ भमणिओ ।
सीहानिसादीएरणं, दुह्ा कओ पुक्खरदीवो ॥ १॥ ”
( सव्वजंबृूणयामणए इति ) सर्वात्मना जम्बूनद्मयः ‹ अ-
च्छे० जाव पडिरूव `
त्यादि ) उभयोः पार्श्वयोरन्तर्भागे मध्यभागे चेत्यर्थः, प्रत्य-
कमकेकभागेन द्वाभ्यां पद्मवरवदिकाभ्यां वनखराडाभ्यां च
सवेतः- सर्वासु दिज्ञु, समन्ततः- सामस्त्येन संपरित्षिप्तः
योरपि पद्मवरवदिकावनखगडयोः प्रमाणे वरीकश्च प्राग्वत् ।
साम्प्रतं नामनिमित्तमभिधन्खुराद-
से केणब्ट्रेख भत ! एवं वुच्चति-माणुसुत्तरे पव्वते माणु-
स॒त्तेर पव्वते १, गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पव्वतस्स अतो
मणुया उप्पि सुवप्पा बाहिं देवा अदृत्तरं च णं गोयमा !
माणुसुत्तरपव्वतं, मणुया ण कयाइ वीतिवइईंसु वा वीति-
आमधानराजन्द्र: |
इति प्राग्वत्। ( उभओ पासिमि- ।
॥
3 मामग
भ्वापदाः पलभोजिनो वा भोगभूमिजतिर्यञ्च इव प्रथ्वीफला-
द्याहारिणो वा भवन्तीति रश्च, उत्तरम-मनुष्यक्षेत्राद्-
दिर्वत्तिनां व्याघादिहिंसकजीवानां प्रायः पलभाजित्वं स-
म्भाव्यते , समुद्रादिमत्स्यानामिव , च तु भोगभूमिजव्या-
घ्नादीनामिव केवेलपृथ्वीवृक्ञषफलादिभोजित्षम् ! कि च-
यथा भोगभृमिजव्याघ्रादीनामल्पकषायेत्वं भोगभूमिजपू-
थ्व्यादीनां च यथा विशिष्टरसपरिणामो न तथतरषा-
मिति सम्भावनानिदानम् , एतद्धिषये विशेषाक्षराणि न
स्मरन्तीति ॥ ४७ प्र ॥ सन० २ उल्ला०। ( मानुष्यक्षेत्र
ज्योतिष्का उक्ताः ' जोइसिय ` शब्दे चतुथभांग १५६२ पृष्टे )
माणुस्सग- मानुष्यक त° । मनुष्यभवयाग्य, सूत्र० २ श्रु०
आण० । मनुष्यभवसम्बन्धिनि, । ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। चण
प्र० । मनुप्योचिते , कल्प० १ अधि० ५ क्षण । स्था० । मनु-
प्यजत्व, उत्त० ३ अ० । भ०।
मारुस्समव- मानुप्यभव - पुं । मनुजत्वे, घ० र० १ अधि०।
माणोववष्म-मानोपपन्न-त्रि० | जलद्रोरध्रमाणशरीरे, माने ,
वयति वा वीतिवरस्संति वा, णष्पत्थ चारणेहिं वा वि-
जाहरेहिं वा देवकम्मुणा वाऽवि, से तेणड्टरणं गोयमा !
अदुत्तरं च णं ०जाव शिचेत्ति |
( से केणटडणमित्यादि ) अथ केनाधैन भदन्त ! एवमुच्यते-
माचुष्रल्तरः पचतः मानुषात्तर: पव्येत ? इति भगवानार्-
| मातेग-मातङ्ग- प
गोतम ! मायुषात्तरपवेतस्य अन्तः- मध्य मनुष्याः उपरि |
खुवणा:--खुवण॒ुकुमारा दवाः, वहः सामान्यतो देवा
ततो मनुष्याणामुत्तर:--पर इत मानुषोत्तरः । अथान्यद्
कदाचदाप |
गोतम ! माचुपात्तरे पवत मनुष्याः न
व्यतिव्रजितवन्तः व्यतिवरजन्ति व्यतित्रजिष्यन्ति वा, कि |
सर्वथा न ? इत्याद-तान्यत्र चारणन, पञ्चम्यर्थे तृतीया
श्रारूतत्वात् , चारणात् जङ्गाचार णलव्धिसंपश्चात् विद्याध-
रादू देवकर्मण एव क्रियया देवोत्पादनादित्यथेः, चारणाद-
या व्यतिवजन्त्यपि मानुपात्तरे पर्वेतमिति तद्वजनम् , त-
ता मानुपाणामुत्तरः उच्चस्तराऽलङ्कनीयत्वान्मानुपोत्तरः,
तथा चाह--स एण् ऽदुरो ` इत्याद्युपसंहारवाकयं गताम् ।
जी५ ३ प्रति० २ उ० | स्था०। महामानस, ' गोसालग ` श-
व्दराक्रमहाकर्पग्रतिमायुष्कवति. भ० ६५ श० ।
च० प्र | द्वी० | स० |
माखुसुछास-माणुसेो ल्लास-पुं० । चित्तात्साहे, जी० १ भ्रति०।
माणुस्स मानुष्य-न० । मनुष्यभावे, उत्त० ३ झ०। मनुष्य-
जच, उत्त ३ अ० | ननुर-'
सारजलधियविश्रष्टम्। मानुष्य खद्यातक-तडिल्लताविलासित-
प्रतिमम् ॥१॥” आचा० १ श्रु० ५ अ० ३ उ०। सूत्र ०। मा-
सुप्य जलबुद्भुद समानम् । पं० चू० २ कर्प । चे० प्र०।
माणुस्सक्खेत्त-मानुष्यक्षेत्र-न० । कर्म भूमिकान्तर्द्वी पगानां मः
सू०प्र०। |
|
। माधव-माधव-पृ०।
पुनरिदमतिदुलभ-मगाधसे- |
| मामग-मामक-तरि° ।
चुष्याणामावासरूप अद्धतृतीयद्वीपलक्षण मनुष्य लोके, जी० |
३ प्रति० ४ अआधि० | चे० प्र०। मृक्तेत्रतहिप्रतित। लसिंहादयः |
जलद्रोणप्रमाणता सा ह्वम-जलभृते कुण्ड प्रमातव्यपरूष
उपवश्यत, ततो यउजलं कुण्डान्निगच्छति तद् यदि द्रोण-
प्रमाणं भवति तदा स पुरुषो मानापपन्न इत्युच्यते |
स्था० & ठा० ३ उ०।
। सुफाश्वस्य तीथरूतः शासनरक्षके
यक्ते , सं च नीलवर्णो गजवाहनश्चतु्रुजो विल्वपाश-
युक्नदाक्तिगपाणिद्वयो नकुलाडुशयुक्नवामपाणिद्धयश्व | भरव०
२६ द्वार । चण्डाले , प्रति०। “ वारटधानकमातद्गा ब्राह्म-
णास्तेन चक्रिरे ।” आ० क० ४ अ० । हस्तिनि, जी० ३ प्रति०
१ आधि० २ उ०। श्मशानपाले, आ० क० ४ अ०। स्था०।
मातंगमुशि-मातड्भम्म॒ुनि-ऐ;ँ० । बाराणस्यां बलनामके मातङ्ख-
जातीये साधो,ती० ३७ कर्प । ('वाणारसी ` शब्दे कथा वच्यते)
मातंजण-मातञ्जन- पुं । देवकुरुषु शीतादत्षिणकूलवर्तिनि
गजदन्तकप्वते, स्था०।
दो मातजणा । ( सत्र->< ) स्था० २ ठा० ३ उ०॥
मातिका-मातका-सखी° । उत्पत्तिभ्रमो,प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार।
मातिट्वाण-मातृस्थान-न० । माया्रधाने वचसि, सूत्र १
श्रु० & अ०।
मातुलिग-मातुलिड्भ-न० । बीजपुरे, आचा०
छ० ८ उ०। प्रन्ना० ।
मादलिया-देशी-मातरि, दे० ना० ६ वर्ग १३१ गाथा ।
श्रीपुरराजश्रीघरस्य पुरोहित , आ०
शु° १ चू
क० १ श्र०।
माभाई १ देशी -अभयप्रदाने, दे० ना० ६ बगे० १२६ गाथा।
माभीसिञ -देशी-अभयप्रदाने, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा ।
ममेदमहमस्येत्येव परित्रहा-
अहिणि, सूत्र० १ श्रु०२ अ० २ उ०। दशै०। आत्मीये,
आजचा० १ श्रु० २ अ० ५ उ० । मा मदीयं ग्रह श्रमणाः प्रवि-
शन्त्विति प्रातिषियकारिणि, घ० ३ अधि० । बू० ।
६२५१ )
सामण ही ॥ ।
मामण-देशी--मरमीकारार्थ, आ० म० १ अ० । आ० चू०
मामी-देशी--मातुलान्याम् , “ मम्मी मल्लाणी मामी ” त्रयो5-
प्यमी मातुलानीचाचकाः | दे० ना० ६ वर्ग १६२ गाथा।
मामि-अव्य० । सख्यामन््रणे, मामि दला हले सख्या वा॥
८। २ । १६५ ॥ ष्ठे खख्यामन्त्रण या प्रयाक्कव्याः। मामि
सारिसक्खराण चि | प्रा० २ पाद।
मामी-देंशी० । मातुलस्वियाम् , ^
ना० २५२ गाथा ।
मायेग-मातङ्ग-पु° । पाणे, आव० ४ अ० । आ० म० |
डाम्बे, मातज्ञीविद्याप्रधाने वैताढ्यपर्वतवासिनि विद्याघध-
रानिकाये, आ० चू० १ अ० । चरडाले, हे मायंगा त
जगमा पाणा ` पाई० नए० १०४ गाथा । हस्तिनि, “
मञ्चा मयगलो मायंगो सिधुरो करेणू य । दाघो दंती
वा--रणा करी कुंजरो हत्थी ”॥ पाइ० ना० € गाथा।
माकन्द -पु । आघ्र, “ अवा मायंद--चूअ सहयारा ”?
घाइ० ना० १४५ गाथा । १.
मायंगविज्ा-मछुज्ञविद्या-ली० । विद्याभदे,
त्तादि कथयात । स्था० १० ठा०।
मायंगी-मातडगी-स्त्री० | मातज्ञाख्यानां विद्याधरमनुष्याणां
विद्यायाम् , श्रा० चू० १ श्र० । मातज्ञाख्यान्त्यजजाति-
खियाम् , नि० चू० ६ उ० ।
यदुपदेशाद-
मज्ञाणी मामी ” पाइ० |
पीलू
अभिधानराजर
मा्यजण- मातञ्जन- पुण । जम्बूद्वीपे मेरोरुत्ते सीतया महा- |
नद्या दात्तिणक्रल स्वनामख्याते पर्वते, स्था० ४ ठा० २ उ०।
मायशाण-मायाध्यान-न० । परप्रतारणरूपा या माया तस्या
ध्यान मायाध्यानम् | परप्रतारणचिन्तने, भ्रातृद्वयाचित्तपरी- |
क्षां कुवैत्या धनश्चिया इब । आतु० ।
मायंद-देशी-आम्न, दे० ना० ६ वर्ग १५८ गाथा ।
मायंदी ( ण् )-माकन्दिन्-पुँ० । स्वनामख्याते वाणिजि, ज्ञा०
१ श्रु० १ अ० | (तस्य तत्पुत्रस्य च वक्तव्यता ' जिणपालिय '
शब्द् चतुथभाग १४६४ पृष्ठादारभ्य गता )
मायंदी-देशी-श्वेतवस्त्रायां प्रत्ाजितायाम् , दे० ना० ६ वभ
१२६ गाथा ।
भरायप्प--मात्रज्न--्र० । मात्रामन्नपानन स्वस्याद्रपूतप्रमाण
जानातीति मात्रज्ञ: । उत्त० > अ० | आचा० । सूत्र० ।
लॉल्यतो5पि मात्रापयोगिनि, उत्त० २ श्र०।
मायाप्यय-मायान्वित-त्रि० | मायाविनि,स्त्र० १श्रु० १३ अ०।
मायशिहआ-सृ गतृष्णा-स्त्री ० | सृगतठृष्णायाम् , “ मायरिह-
श्रा भला ` पाइ० ना० २३२ गाथा ।
मायद।स(न् ) मायाद।शनू- त्रे० | मायायाः स्वरूपतो वेत्तरि
परिहतेरि च | आचा० १ श्र० ३ अ० ४ ड०।
माया-माता-खरी० | जनन्याम् ,सूत्र० १ श्र० ६ अ०। नि०चू०।
भूता, ज° २ वक्त०। जनकान्मातु पृज्यत्वम्-* उपाध्याया-
दशाचाय, श्राचार्याणां शतं पिता । सहस तु पितुर्माता, गो-
शक्र ॥ १ ॥ ” ध० २ श्राधि० । नि० | स० ।
मात्रा-खी० । समयमात्रार्थमेव पारामतादारग्रदरा, न०।
(भ £ #$#»« नं) नई
साया
सत्र । भ० । श्राचा० | मायत वाऽनयांत माया । माया
हसन वश्चनामत्यथ: , स्था० ४ ठा० १ उ० | शाख्ये,
स्था० २ ठा० १ उ० | शठतया मनावाक्कायप्रवत्तन, स्था० ५
ठा० २ उ० । स्वपरव्यामारात्पाद्कं वर्चास, उत्त० ६ अण० <।
सर्वत्र स्ववीयीनियूहन,आचा० १ श्रु० १ अ० ३ ड० । पर-
वच्चनवुद्धां, ज्ञा० १ श्रु० २ अ० । सूत्र० । परवश्चनाभिप्राये,
व्य० ४ उ०। आच्रा० । आवब० । प्रशन० । आ० म० |
उत्त० | निक्ृतों, आव० ४ अ० । जी० । श्रपाच्छादने, श्रातु० ।
परवश्चनाभप्रायरण शररीराकारनपथ्यमनोवाक्कायकाटिल्यक
रण, दशै० १ तत्त्व । ज्ञा० । माया चतुर्विधा नामादिभेदतः-
कर्मद्रठ व्यमाया याग्याद भदा पुद्रला नोकमेद्रव्यमाया नचा
नप्रयुक्तानि द्रव्याणि, भावमाया नोआगमतृस्तत्कर्मद्रव्य-
वपाकलत्तणा तस्याश्चत्वारो भदाः। ^ मायाबले द गा-
मि त्ति भिढर्सिंगघ्रणवेसमूलसया ” । आ० म० १ झ० ।
"` उग्गतवसजमवश्मा- गटूफलसाह गस्स वाजयस्स ।
धम्मविसए वि खहुमा, वि होइ मायां अण॒त्थाय ॥१॥
जह माज्ञस्स महाबलभ-वाम तित्थयरनामवधेऽवि ।
तवावसयथावमाया, जाया जुवरृत्तदेउ त्ति ॥२॥ ”
ज्ञा० १ श्रु० ८ अ०। ( मायायामशठ उदाहरणम्-' पच्छित्त
शब्द् पदञ्चधमभागे १६६ पृष्ठ गतम्। )
स्त्रात्वानबन्धन का रणमाह---
से भयव : ता कयरंण कम्मविव गेणं तणं गच्छाहिवइणा
होऊण पुण इत्थित्त समजियति?। गोयमा ! मायापच्चएणं ।
से भयव ! कयरणं से मायापचए जेण पयणीकयं संसारे
वीसयलपावा य पणाविय विवुहजणे गिदे सुरदहिबहदव्वध- `
यखंडचुन्नसुसकरियस मभावपमाणपागनिषप्फणमोयगमल्नगे
इव तस्स भक्खं सयलदुक्खके साणमानए सयलसुहास-
स्स परमपवत्ततमस्स णं अहिंसालक्खणसमणधम्मस्स
विग्धे सम्मग्गलानिरयद्ारभृए सयलअकित्तिकलंफकल-
हवेराइणव।नहाणनिम्मलकुलस्स शं दुद्धरिसश्रकज्ञकज्ञ-
लकण्मसीखपपि तेणं गचछाहिवइणा इत्थी भवे णिनि-
। तए । त । ग्।यमा . ण तेण गच्छाहि तेदिएणं अणुमवि
माया कया सं णं तहा पुहवइचकहरे भवित्ता ख ॒परलोगा-
मिभूए ।णावप्मकामभागे तणमिव परि चिचाणं तं तारिसं
चोदसरयणनवनिहीतो चोसट्टीसहस्से बरजुवईणं वत्तीस
साहस्स्।्र। उ अणादिवरन रिंदछन्नउइगा मको डी ओ ०जाव
ण छखडभरहवासस्स ण॒ देविदोवर्म महारायलच्छितीय
बह पुन्नवाईए णीसंगे पव्वइए य थोवकालेणं सयलगुण।-
हथार। महातवस्सा सुयहरे जाए, जोगे णाऊर्ण सुगुरू।ह
गच्छ हवई समणुन्नाए तेव गोयमा ! तेणं सुदिटसुग्ग-
इपहण जह बडटसमणडण माणं उग्गाभिग्गह विहारत्ताए
धारपर।सहोवसग्गहियासणेण रागद्रोसक्सायविवज्जणेणं
आगमाणुसारण सुविहियगणपरिवालणेणं अजम्मसमणा-
कायपरभागवज्जणुण हकायसमारभतिवज्जणेरं ईसं पि
( ६५२ )
माया श्रभिधानराजन्द्र माया
दिव्वोरालियमेहणपरिणामविप्पञरुकणं इहपरलोगासेसाई-
णियाणमायाइखल्नविप्पमुकेणं णीसल्नालोयणणिदणगरिह- |
शणं जहोवइट्टपायच्छित्तकरणेणं सव्यथा पडिवद्धत्तेण॑ स- ।
व्यपमायालंबणविप्पमुकेण इयइणिद्दिदअवसेसिकए अणे- |
गभवसंचिए कम्मरासी अप्यगभवे तण माया कया तप्पन्च
ईशं गोयमा ! सविवागे,से भयवे | कयरा उण अन्नभवे तेण
महाणुभागेणं माया कया जीएणं एरिसो दारुणविवागो |
गोयमा ! से णं महाणुभागस्स गच्छाहिवइणो जीवेण णु-
णाहेए फललक्ख इमेव भवग्गहणा | प्रह० २ चू० |
उपधा, “ माय तत्त वा उवाहे त्ति वा एगई ` । नि० चू० १५
उ०। भ० । स०।
मायाफल पारडरार्योदाहरणे यथा-
एगा पासत्था सरीरावगरणवाउसा निचे खुकिल्लवासं
परिहिता वि चिट्भीत्त,लोगण स णामे कय- पंडरज्ज "त्ति । सा
य॒ विञ्जामतवसीकरणुच्चाडणकोउएसु य कखला जणखु
पटजति, जणा अ सर पणयसिरा कयंजलिओ चिद्दुति
अचदट्ुवयातक्कता वरग्गसमुवगया गुरु ववच्नवच३--आलाय- |
रो पयच्छामि क्षि, आलोइए पुणो विण्णवाति ण दीहे
काले अरे पव्वज्ज काउं समत्था ताहे गुरूहि अप्पं काले |
परिक्रमावेत्ता विज्ञामताइय सब्व॑ छड़ावेत्ता अणसणगं
पच्चक्खाविय आझायरिएहिं , समणा समणीओ अ उ-
भयवग्गों वि वारिऊण लोगस्स कटयव्वे सा भत्त पच्च-
क्खाएण जहा पृञ्चे वहुजणपरिवुडा श्रत्थि तद्या तहा
च्छति, अप्पसाहुसाहुणी परिवारा चिट्ठइ, तादे सा अर- |
ति करेति, तश्रा तीण लागवसीकरणविञ्जा मणसा |
आवाहिया, ताहे जणो पुष्फधूवगेघहत्थो अलंकियविभू- |
सिआ वदवदेदिं एतुमाढत्तो । तादे उभयवग्गो पुच्छि- |
आओ गुरुणा कि ते जणस्स अक्खाये, ते भणंति-णव त्ति,
सा पुच्छिया भणति-मए विज्ञाण श्रभिच्रोदश्या पति-ग॒रूदि
भणियाण वद्दति, तादे पडिक्केता सर्म्माततो लोगो आगंतु
णवे तश्रा वाराए सम्मे पडिकता चडत्थवाराए पुच्छि- |
याणं सम्ममाउद्डा भणति श्र-पुव्वब्भासा अहुणा आगच्छाति |
अणालोए उ कालमया, सोाहम्मे एरावणस्स अग्गमहिसी
जाया । तादे सा भगवश्ा वद्धमाणस्स समोसरणे श्रागया ।
धम्मकहा 5वसाणे हत्थिणीरूवं काड भगवतो पुरओ ठिच्चा
महता सदेण वातकम्म करेति , ताहे भगव गायमो जा-
या गच्छ पुच्छेति--भगवया पुव्वभवे से वागरिडउमो अरणो
वि काइ सराह साहणी वा मायं कादिति तेण एआए |
चायकम्म कये, भगवया वागरियं तम्हा परिसी माया दुरता
न कायन्व तति ॥ ग० २ अधि० । दश० । आ० क०।
श्रथ मायोदाहरणम्-
« वसन्तपुरमित्यस्ति, पुरं सर्वेोश्रियां निधिः ।
किमकं नगर ऽमुष्मिन्, वर्ते वरीनाधिकं ॥ १॥
स्वः पुरेण सम धात्रा, ज्ञाने ऽदस्तालितं पुरा ।
महर्दित्वात्क्तितों लम्न--मल्पद्ध्यां ऽन्यत्वगादिवम् ॥
जितशत्रुनपस्तत्न, प्रताप इव मृत्तिमान् ।
धस्य तजस्तमोऽरीणां, बुर्द्धि निन््ये कुतूहलम् ॥ ३॥
तत्र द्वो ्रातरावास्ता--मायो धनपतिवैणिक् ।
धनावहो द्वितीयस्तु, धनश्रीर्भगिनी तयाः ॥ ४॥
सा चाभू द्रालविधवा, भोगकर्मान्तरायतः।
ययुस्तत्रान्यदा 4 ऽचायीः, श्रीधर्मघाषस्तूरयः ॥५॥
तत्पाश्च धर्ममाकराय, कुटुम्ब प्रत्यवोधि तत्}
सा बतं ग्रह्ती स्नेहा-द्धात॒भ्यां नान्वमन्यत ॥ ६॥
साऽथ धमौ्धिनी धम-व्ययं प्राज्यं व्यधान्मुहुः। .-
्रातजाय सतः किमु वहासिनो गरम् ॥ ७ ॥
साऽथ दध्यो किमाभ्यां मे, भ्रात्रोश्चित्त पर्गाक्षय |
उपवासग्रहं श्रातू-जायां सा मायया5न्यदा ॥८॥
उवाच मलिने कि त, मस्तकं चीवरासि च।
सारिकाऽपि न चोक्ता ते, का ते शिक्षा प्रदीयते ॥ ६ ॥
श्रत्वात्तराद्धं तद्धत्ता, दध्यौ स्वैरिरयसो धुवम् ।
नो चदेवमुपालम्भ, दत्तेऽस्याः कि मम सवसा ॥ १० ॥
साऽधान्तरा गता तल्प, वारितोपविशव्यपि ।
मा मा भूस्त्वं ममासन्ना, दशारग्रं व्यजाधमे !॥ १९॥
सा ५वदात्क मया कान्त ! , दुष्कृतं कृतमादिश |
ननानुक्का लुखन्त्यस्था-भूमि रात्रि रूदत्यसों ॥ १२॥
खिन्नाड़ी निरगात्पात-ननान्दाच किमीदशी।
मा स्देत्याद नो जाने, मन्तु निःसारिता गदात् ॥ ९३ ॥
तयोक्क तिष्ठ वि(श्व)स्वस्ता, मा ममीर््रातरं जगौ ।
श्रातः किमतत्सो ऽवादी-त्काय दुःशीलया न में ॥ १४ ॥
तयाऽभाणि कुतो ज्ञाते, त्वदुपालम्भतः खसु: ! ।
उच सा श्रातरतत्त, पारिडत्य वाग्विचारण ॥ १५ ॥
स्नानान्मलिन शीष, वस्रारयत्तालनात्तथा |
शाटिका5पि न ते चोत्त-त्युपालम्भो न दोषतः ॥ १६॥
लज्जितो 5थ स्वयं तस्याः, स मिथ्यादुष्कृतं ददो ।
दद्धश्चो चेष मम भ्राता, श्वेत कृष्णप्रतीतिमान ॥ १७ ॥
दस्तं रक्तेरिति प्रोक्ता, भ्रातुजाया द्वितीयका ।
पत्या ऽचारीति साऽपास्ता, बाधितः सोऽपि वान्धवः ॥१८॥
धान्यानि खराडयन्ती त्यै हस्तं रत्तरितीरिता ।
निवृतः साऽपि साऽक्नासी-त्तथत्यस्यापि मद्वचः ॥ १६ ॥
मायाभ्याख्यानतः कि तु, सा तत्कर्मरयकाचयत् ।
साऽथाभ्यादा प्रवव्राज, सजायो श्रातरावपि ॥ २० ॥
परिपास्य घ्रतं सर्वे, गच्छन्ति स्म दिवं ततः।
श्रातरो प्रथमं च्युच्वा पुरे साकरतनामनि ॥ २१ ॥
इभ्यस्याशोकदत्तस्य, पुत्वनादपद्यताम् ।
शायः समुद्रदस्षाऽन्यः, ख्यातः सागरदत्तकः ॥ २२ ॥
च्युत्वा स्वसा गजपुरे, शह्नभ्राद्धसखुता भवत् ।
सवाङ्गखन्दरी नाम्ना, सरवेष्वङ्गघु खुन्दरा ॥ २३ ॥
यासराखषि ते च्युच्वा, नगरे कोशलापुरे ।
नन्दनस्य सुते जाते, श्रीमती कान्तिमत्यथ ॥ २४ ॥
श्नन्यदा $श्ोकवत्ताख्यः श्रेष्ठी गजपुरं गतः ।
शङ्कश्रष्ठिखुतामीत्ता-चक्र सवोङ्गखृन्दरीम् ॥ ८५ ॥
कृत समुद्रदत्तस्थ, प्रार्थिता सा ददों स ताम् ।
पुत्रमानीय तत्रा$थ, चक्र वीवादमद्धतम् ॥ २६ ॥
छत श्वशुरवासा 5गा-दन्यदा सा पितुर्गृहे ।
तामानतु जगामाथ, समुद्रः श्वाशुरान्तिक ॥ २७ ॥
उपचारा 5भवद्भूयां-स्तञ स्नानाऽशनादिकः ।
॥ ( २५४३०)
साया
दिव्यं वासग्रहे याव--ज्निशायां स प्रवेक्ष्याति ॥ २८॥
तावत् सर्वाइँसन्दर्या-स्तत्प्राक्रमोंदर्य गतम् ।
तताऽपश्यत्स नगच्छु-त्पृ्ायामथ. दाध्यवान् ॥ २६ ॥
अनिद्र॒स्तत्र तत्पस्था, दुःशोला5सो परिया स्फुटम् ।
अथायाता प्रियापान्त, न तनाल्लापिताऽपि सा॥ ३०॥
ततः सा ऽत्यन्तमुद्धिस्ना-‡गमयत्तां निशां प्रग ।
एकस्याख्याय विप्रस्य. तद्धत्ता स्वे पुरं ययो ॥ ३६ ॥
अथातो काशलपुरे, गत्वा नन्दनपुत्रिके ।
गरिष्ठः श्रीमती कान्ति-मर्ती लघुरुपायत ॥ ३२ ॥
तदाकरणयोध्रतिजेज्ञ, गतागतर्माप स्थितम् ।
सर्वाद्गसन्दरी साऽथ, प्रवव्राज क्रमण च ॥ ३३॥
विहरन्ती प्रवा्तिन्या, साफ साकतमागमत् ।
प्राग्मवश्रातृ जायते, तां प्रति प्रमतत्पर ॥ ३४ ॥
गच्छतो वन्दनाय, तत्पत तु न वत्सलो ।
अत्रान्त २ ऽस्या द्वितीय, मायाकमादयं मतम् ॥ ३५॥
भित्तार्थं साऽन्यदाऽ$ऽयाता, श्रीमर्ता वासवेश्मगा ।
गुम्फन्ती हारमुज्भत्वा, तस्ये दातु लघूत्थिता ॥ ३६॥
भित्तरुत्तीय ते हारं, चित्रकेकी तदा ऽगिलत् ।
स्वस्थानस्था च साध्वातद् , दट्टाउ55श्वयूण वास्मता ॥३७॥ |
साऽ ऽत्ताभक्ता ययो हार, श्रीमती तद नेक्तत |
पृष्टाः सरवे तया ऽवाच-न्नाजरागात्को+प्यमु विना ॥ ३८ ॥
ततः साध्व्याः प्रवादो 5भू-त्तयाज्ञापि प्रवसिनी ।
सोचे भद्रे ! विचित्रोऽयं, परिणामोऽच्र कर्मणाम् ॥ ३६ ॥
श्रीमती-कान्तिमत्यों च, हसतस्तत्प्रियो ततः |
साध्या साध्वात वादन्न्या, भाङक्क्यास्ता युवामिति ॥६०॥ |
तयोनिपरिणामस्तु, न जातो जातु तां प्रति।
साध्व्यप्युत्रस्तपाभिस्त-द् दुष्करम निरमूलयत्॥ ४१ ॥
अन्यदा श्रीमतीवास--वश्मन्यांस्त सभतृका ।
सहारस्तावदुद्धान्त-श्रित्रादुत्तीय केकिना ॥ ४२॥
ततस्तौ दम्पती दषा, हारं संवेगमागतों ।
सेव साध्वी ध्रव साध्वी, न चाख्यद् दृष्टरमप्यदः ॥ ५३॥
अथ तानि त्तमयितु, प्रवृत्तान्यखिलान्यपि ।
अत्रान्तरे बभूवास्याः, केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥ ४४ ॥
दवेश्च महिमा चक्रे, पृष्टास्ते प्राग्भव जगौ ।
तत् श्रुत्वा प्रा्रजस्तानि, मायाचण्ितिमीदशम् ॥ ४५॥
आए क० अ०। श्राचा०। ( सज्वलनी माया ' कसाय '
शब्दे ठतीयभाग ३६८ पृष्ट व्याख्याता ) मायाप्रधानाऽति-
चारो मायेवति । स्था० ८ ठा० | मयाविषय, स्था० ३ ठा० ३ |
उ० । अपराधे, “ माई मायं कटदठु आलोएज़ा। ” स्था० ८
ठा०। अविद्याप्रपश्च॑दतो , वेदान्तप्रपश्चासद्धे जगदुपादाने,
स्या०। कपटे, “माया कवड कडश्मव पाइ० ना० १५७ गा-
न
था । जनन्याम्, “ माया जणणी ” पाइ० ना० २५२ गाथा । '
मायाकारग-मायाकारक -त्रि० | परवश्चकसृगादिबन्धके,तं० ।
इन्द्रज्ालक, स्या०।
मायाकिरिया-मायाक्रिया-श्री° । कोटिल्येनान्यद्विचिन्त्य
वाचा 5न््य दा भधायान्यदाच यते यया सा ग्या | कयाभदे
च० ३ आध० | आ० चू० ॥
मायागारवसहिय -माय।(त्)गौरवसहित-त्रि० ! मातस्थान-
युक्क ऋडदश्रादगारतयुक्क , दश० ८ अ
द्ढ्र
आमभधानराजन
मायामिच्छ०
| मायाणियडिजुत्त-मायानिकृति युक्क-त्रि० | माया परवश्चनवु-
| ड्विनिंकातिवंकबृत््या गलकर्तकानामिवावस्थानम । परप्रता-
रणपर, रा०। वश्चनाभिप्रायण तदनुरूपवांहराकाराच्छा-
दनन च युक्के, व्य० ४ उ०।
मायाशिस्सिय-मायानिश्चित-न० । गपाभद ,
कारप्रभुतय आइहुः-नण्श गोलक इति । स्था० १० ठा०।
| मायातणव-मायातनय प° । निर्विशपाद्वेतवादिनि, स्या०।
। मायापडिसंलीणया-मायाप्रतिसेलीनता- खी०। मायादयनि-
। रोध. उदयप्रा्ताया मायाया वफलीकर ण, स्था०५ ठा०२ उ०।
मायापिंड- मायापिण्ड-पु*। मायया वेपपरावत्तनादिना प्र-
यथा माला-
तारणन दापयत्यात्मन भक्काददानाय च पर प्रयाजयात
यः । तास्मन्, पश्चा० १३ ववच०। उत्पादनादाषभद ,
उत्त० २४ श्र० । श्राचा०। नयम उत्पादनादाष , जीत०।
पञ्चा । प्रव० | च०। आच्ा० |
सम्प्रात मायापण्डरणए्रान््तमाह---
रायागिंहे धम्मरुई, आसादभूई ग्र खुड़ो तस्स |
| रायनडगेहपविसशण, संभोहय मायए लभो ॥ ४७४ ॥
| आंयरियउवज्कभाए, संघाडगकाणखुज़ तददोसी ।
| नडपासणपजत्त, निकायण दिणे दिश दाण ॥४७५॥
|. धूयदुए सदसो, दाणसिणहकरणं रहे गहणं ।
| लिगं मुयत्ति गुरुसि- ट विवाहे उत्तमा पगई ॥४६६॥
| रायघरे य कयाई, निम्मदिलं नाडगं तडागत्था |
। ताय विहरंति मत्ता, उवरि गिहे दोऽवि पासुत्ता।४७७॥
। वाघाणएण नियत्तो, दिस्स वि चला विरागसबोही ।
इंगियनाए पुष्छा, पजीवरणं रदरवालम्मि ॥ ४७८ ॥
इक्खागवंसभरहो, आयंसघरे य केवलालोओ ।
हाराईइखिवणगहणं, उवसरग न सो नियत्तों त्ति ॥|४७६॥
। तेण सम पव्वइया, पंचनरसय त्ति नाडए डहरां ।
| गेलन्नखमगपाहुण, थरा दिद्ठा य वीयं तु ॥ ४८० ॥
| ( विशेषत आसां कथानकानि व्याख्यानं च ` आसाढभ्षइ
| शब्दे द्वितीयभागे ४७६ पृष्ठ गतम् ) सूत्र सुगमम् । नवरं
। ( रायनङगेदपाविसणं ति ) राजबिदितों यो नटो विश्वकर्मा
तस्य ग्रृहे प्रवेशः , त्वग्दोष क॒ष्ठी । उपसर्गः-प्रश्नज्या ग्रहण
निवारणम | दहन ना ट्कपुस्तकस्य | ्रत्रवापवादभाद-( ग-
लन्नव्यादि ) ग्लानो-मन्दः, त्षपकः-मासक्तपकादिः.प्राघूरक
स्थानान्तरादायातः। स्थविरः-व॒द्धः। आ्दशब्दाद्-सङ्घकाया-
दिपरिग्रहः। तपामथौय द्वितीयमपरवाद पदमिति भावः,सव्यत
ग्लानायनिवाहे मायापिणडाऽपि ग्राह्य इत्यथः | पि० ।
मायाभत्त मातुभक्र-तरि० । बहुमानवुद्धध्रा भक्ल,विपा० १ श्रु०
| € आ०।
मायामिच्छत्तसन्न-मायामि थ्यात्वशल्य-न० । मायामिध्या-
त्वरूपे शस्ये, द० प० ।
। इहलाए परलाए, नाणचरणदंसणम्मि य अवायं |
दंसेइ नियाणम्मि य, मायामिच्छत्तसल्लणं || २५६ ॥
दु०्प० १५५१ गाथा |
[ष
( २५४ )
आाभधानरगाजन्द्र। ।
माण्यछुर
|
सायावात्तया
मायामुंड -मायाम्रुएड-ज्रि० । मायामुणिडत, था० १० ठा०। |
मायामोंस-मायामृपा-अव्य० ! माया च निकृतिमस्पा च मि-
थ्यायादा मायया वा सह स्पा मायाम्षा , प्राऊृतत्वान्मा-
यामोसम । दे। पद्वययागे. प्रच० २३७ द्वार ।
एगे मायामासे ( सत्र ) स्था० १ ठा० |
मायास्पाहय, दशा० £ आअ० |
एये च दासं दट्ट्रण, नायपुत्तेण भासिय |
अणु माय पि महावी, मायामोर्स विवज्ण ॥ ४६ ॥
दश० ५ अं० २ उ०।
मायावत्तिया-मायाप्रत्यया-स््री ० । माया-अनाजवमुपलक्षण- ।
त्वात् क्रोधादिरपि सा प्रत्ययः कारणे यस्याः सा माया-
प्रत्यया भ० १ श० २ उ० । प्रव० । मायानिदन्धने क्रियाभेदे,
स^ १३ सम०।
्रहावरे एकारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति आहि-
ज्जडइ, जे इमे भवति गृढाऽभ्यारा तमोकसिया उलूगपत्तल- ।
हुआ पव्वयगुस्या ते तअरियाऽवि संता अणारियाओ |
भासाओं वि पउंजति, अन्नहा सतं अष्पाणं अन्नहा मन्नति
अन्न पुट्ठटा अज्न वागरात, अन्न आइक्खयन्व अन्न आहइ- |
क्खात । स जहाणामए कड् पुरस अतासल्ले, ते सल्लू |
श सय णहरातं, णा अन्नण णहरावेर्ति, णो पाडावद्धंसइ,
एवमेव निण्हवेइ, अविउड्टमाणे अंतो अतो रियह, एवमेव
माई मायं कटं गो आलोएड णो पडिकमेइ णो शिदइ `
णो गरहइ णो विउडड णो विसोहिइ णे। अकरणाए अब्सुट्टेइ
णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज़इ, माई अस्सि |
लाए पचायाइ माई परमि लोए ( पणो पणा ) पत्मायाइ
निदइ गरहइ पसेसइ णिचरड ण॒ नियट्रइ शिसिरिय दंडं
छाएति, माई असमाहडसुहलेस्से याऽवि भवई, एवं खलु
तस्म तप्पत्तियं सावज्ञं ति आहिजइ, एकारसमे किरिय-
इण मायावत्तिए त्ति अ(हिए ॥ सूत्र-२७ ॥
य केचनामा भवान्त पुरुषाः , किविशिष्टाः ? गृढ
आचारा यपा त गृढा55चारा -गलक्तकग्रान्थच्छदाद्-
वतर्य नानावधघर्पायावश्रम्भमुः पाद्य पश्चादपकवे-
न्त, प्रद्यातादरभयकुमारादवत् | ते च मायाशीलत्वेनाऽप्र-
काशचारिणः, तमसि काषतु शील येषां ते तम काषणस्त
एवं च तमःकाषिकाः पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तील्यर्थ
ते च स्वचष्टयवालूकपत्रवन्लप्रवः, कोशिकपिच्छवल्लघीयां- |
सरा5।प पत्रतवद् गुरुमात्मान मन्यन्त | यादवा--काय प्रतृत्त
पब्रतवन्नात्तम्भायतु शक्यन्त
सन्तः शाख्यादात्मप्रच्छादना रथमपरभयोत्पादनार्थ चाना्य-
त चाउयदशात्पन्ना आप |
भाषाः प्रयुञ्जते, परव्यामोहार्थ स्वमतिपरिकल्पितभाषाभि- |
रपराविदिताभिर्भाषन्ते, तथाऽन्यथा
अन्यथा-साध्वाकार्ण मन्यन्ते
अन्यत्रा मातृस्थानताऽन्यदाचक्तते, यथा55म्रान् पृष्टा
कदारकरानाचत्तत , वादकालवा कश्चिन्नाथ--( न्न्याय )
व्यवस्थितमात्मानम्
वादतया व्याकरण प्रबाणस्तकेगागंमबतारयाति, यथा वा |
व्यवस्थापयन्ति च, तथा
शरदि वाजपयन यजेते ` त्यस्य वाक्यस्यार्थं पृष्टस्त-
दथानभिनज्ञः कालातिपाताशथ शरत्काले व्यावरोयति, तथा-
<न्यस्मिश्चाथ कथयितव्य ऽन्यमेवाश्माचक्तते । तषां च सवौ
धविसवादिनां कपटप्रपश्चचतुराणां विपाक्राद्धवनाय दण्ान्तं
दशेचितुमाह--( स जहत्यादि ) तत् यथानाम कश्चित्पुरुषः
सग्रामादपक्रान्ताऽन्तः- मध्य, शस्यम्-तामरादिकं यस्य
साऽन्तःशल्यः, स॒ च शल्यघटरनवेदनाभीरुतया तच्छल्य
न स्वता ` निर्हरति ` श्रपनयति--उद्धरति, नाप्यन्यनोद्धार-
यति , . नापि तच्छस्य वेद्योपदेशनाषधोपयोगादिभिरुपायैः
* प्रतिध्वसयति -- विनाशयति, अन्यन कनचित्पृष्टा वाऽ
पृष्ठा वा तच्छस्यं निष्परयोजनमव निहनुत-अपलपति, तेन च
शल्यनासावन्तवस्िना ( श्रविउटमाण त्ति ) पीञ्यमानः,
(अतो श्रता त्ति) मध्ये मध्ये पीड्यमानोऽपि रीयते ब-
जति, तत्करृतां वदनामधिसह मानः क्रियासु प्रवर्त इत्यथः ।
साम्प्रतं दा्टीन्तिकमाद--( एवमेवेव्यादि ) यथाऽसौ स-
शल्यो दुःखभाग् भवाति-एवमेवासों मायी--मायाशल्यवान
यत्कृतमकाय तन्मायया निगृहयन् मायां कृत्वा न तां
मायामन्यस्मै श्रालोचयति--कथयति , नापि तस्मात्
स्थानात् प्रतिक्रामति--न ततो निवर्तत, नाप्यात्मसान्तिकं
तन्मायाशल्ये निन्दति , तद्यवा-घिडः मां यददमेवभूतम-
काय कर्मोदयात्तत् कृतवान, तथा नापि परसात्तिकं गर्हति
आलोचनाहसमीपे गतो, नापि च जुगुप्सत, तथा ' नो विड
ति ` नापि तन्मायाख्यं शस्यमकायैकरणात्मकं विविधम्-
श्रनेकप्रकारं जोखयति--अपनयति, यदस्या ऽपराधस्य पाय-
शित्त तत्तेन पनस्तदकरणतया ( न ) नि्व्तयतीव्यशः, नापि
तन्मयादिकमकाय सेवित्वा ;ऽलोचनारीयात्मान निवेद्य
तदकायाकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठते, प्रायश्चित्त प्रतिपद्यापि नोयु-
क्विदहारी भवतीत्यर्थः, तथा नापि गु्वादिभिरभिधीय-
मानोऽपि यथाहम् तअकायैनिवहणयाग्य प्रायः चित्त शो-
धयतीति प्रायश्चित्त--तपःकमंविशिष्ट चान्द्रायणाद्यात्मकं
प्रतिपद्यत-अभ्युपगच्छाति । तदेवे मायया सत्काय॑ प्रच्छादको
-5स्मिन्नव लोके मायावीत्येव सर्यकार्थष्वेवाविश्चम्भणत्वेन
प्रत्यायाति--प्रख्याति याति, तथाभूतश्च सवस्यापि श्रवि-
श्वास्यो भवति । तथा चोक्तम्-
“ मायाशीलः पुरुषः, यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम् ।
स्वस्याविश्वास्यो, भवति तथा ऽप्यात्मदोषहतः ॥ १ ॥ ”
इत्यादि, तथापि मायावित्वादसो परस्मिन् लोके जन्मान्त-
रावाप्तो सवौधमषु यातनास्थानेषु नरकतियगादिषु पौनःपुन्ये
न प्रत्यायाति, भूयो भूयस्तेष्ववार घट घरीयन्त्न्यायन प्रत्या
गच्छतीति । तथा नानाविधैः प्रपञ्चेथेञ्चयित्वा पर निन्दति-
जुगुसते, तद्यथा--अयमज्ञ: पशुकल्पो नानेन किमपि प्रयो-
जनमिति, एव परं निन्दयित्वा ऽऽत्माने प्रशंसयति, तद्यथा-
असावपि मया वश्चित इत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति, तथा
चोक्कम-' येना5पत्रपते साधु-रसाधुस्तेन तुष्यति ` इति, एवे
चासो लब्धप्रसरो5धिक निश्चयन वा चराति--तथाविधा-
न॒ष्टायी भवतीति निश्चरति । तत्र च गृद्धः सन् तस्मात् मा-
तृथ्थानान्न निवर्तत, तथाञसो मायावलेपन दण्डं प्रास्युपमर्द-
कारिरं निखञ्य-पातयित्वा पश्चात् छादयाति--अपलपाति,
अन्यस्य वोपरि प्रक्तिपति, स च मायावी सर्वदा वञ्चन-
परायणः सस्तन्नाः सर्वाचुषठानेष्वप्यवंभूतो भवति ।
#
( २५५ )
भायावत्तिया!
अभिधानराजन्द्र। |
असमाहता--अनज्ञीकृता शोभना लेश्या यन स तथा |
आलैध्यानोपहततया असावशोभनलेश्य इत्यः | तदेवमप-
शतधर्मध्यानो 5समाहितो 5 शुद्धलेश्यश्वापि भवति । तदेवे खलु
तस्य तत्प्रत्यायिकम्-मायाशद्य प्रत्यायकं साव कर्मा$4-
धीयत | सत्र० २ श्रु० २ अ० | स्था० | आव० । भ० ; मायाव-
त्तिया दहा-श्रायवचणाकरिया, परवचणकिरिया च | आ०
चू० ४ आअ०।( किरिया' शब्दं तृतीयभागे ५३३ पृष्ठ विशष )
प्रायावि( न् )-मायाविनू्-त्रि०। माया-निकृतिः सा 5स्यास्ती
ति मायावी | मायिनि, श्राव० ४ श्र० | द्वा० श्राचा०।
मायाविजय -मायाविजय-पुं० मायाया विजयकरण्, उत्त० । |
मायाविजएणं भते ! जीवे कि जणयई !?
# म या- |
विजणएणं उज्जुभावं जणयह, मायेय णिज कम्मं न ब॑ं- |
धट, पुव्वबद्धं च निजञरई ॥ ६६॥
हभगवन् ! मायाविजयन जीवः कि फलं जनयति ? , गुरु-
राह-देशिष्य ! मायाविजयन जीवः ऋजुभाव॑ शरलत्वम् उ-
त्पादयति ततश्च मायावदनीयं कर्म न वध्नाति पूरवनिवद्ध
च कमे निजरयांत-क्षपयाति ॥ ६६ ॥ उत्त० ६६ अ०।
मरायासष्षा- मायासनज्ञा-
नृतसंभाषणादिक्रियेव सज्ञायते ऽनयेति मायासंज्ञा । मायारू-
च संज्ञाभेदें, स्था० १० ठा० | श्राचा० । प्रज्ञा० | भ०।
भायासल्न मायाशल्य--न० । माया-निङूतिः सेव शल्यम् ।
मायारूप शल्ये, स० १ सम० । भावशस्ये, दश० ५ अ० ।
मायाशल्ये पणडराया रुद्रश्चादाहरणम् । आब० ४ अ० |
मापि ( ण् )-मायिन्-त्रि०। माया5स्यास्तीति मायी। वश्चके
ज्ञा० १ श्रु० १४ अ० | स्था०।
मायोवम-मायोपम -त्रि० । स्वभेन्द्रजालसडइशे, विशे०।
मार-मार-पुँं? | मारयतीति मारः । यमे, सूत्र० १ श्रु० १ अ०
३ उ०। बहुशो श्ियन्ते स्वकर्मवशाः प्राणिनो यस्मिन् स
मारः । ससारे, सूत्र० १ श्रु० १४ श्र०। मरण, सूत्र० २ श्रु०
० । आचा० । भ० । ज्ञा० । खृङ् प्राणक्तये धातुः ।
ल्लुक्यादरत श्रा: ॥ ८। ३। १५२ ॥ शेरदेल्ञापेषु कृतेष्वा-
द्रकारस्य आः । मारइ | प्रा० ।
मारग--मारक-त्रि० । प्राणवियोजयितरि, ज्ञा० १ श्रु० २ आ०। |
आजच्ा० |
मारण--मारण-न० । प्राणवियोजन, आव ४ झ० । श्रा० |
म० । प्रश्न० । नि०।
¢. [>
मारणअ-मते-त्र० त्नः अणअः ॥ = । ४। ४४३ ॥ दति
सूत्रात् अपभ्रेश त॒नप्रत्ययस्य श्रण्र श्रादेशः । प्राणवियोज-
यितरि; प्रा०।
मारणंतिय-मारणान्तिक न° । मरणस्य सवायुष्कक्तयल- |
प्षणस्य अन्त -सगाप मरणान्त -त्रायुष्कचरमसमय तत्र
भव मारणान्तकम् । मरणान्तसमयाद्धव, स०। ६, चू० |
मारण।तेयअहियासण-मारणान्तिकाध्यासन-न० | कल्याण
प बद्धध्या मारणान्तकांपसगसहने भ० १७ श० ३ उ० |
मारणातयसमुग्धाय-मारणान्तिकसमुद्भात-पुं० | उत्पावल्येन
हनन बेद्नीयादिकर्मप्रदेशानां निज्नरणं-घात सम्-एकाभा-
[वि - =
०। माया-मायोद्यनाशुभसक्केशाद |
|
|
मारणतिय०
वेन प्रावल्येन घातः समुद्धातः । मरणमेव प्राणिनामन्तकारि-
त्वादन्तो मरणान्तः,तत्र भवो मारणान्तिकः स चासो समुद्धा
तश्च। श्रन्तरमहतरषायुष्ककमौश्रय, प्रव० २३१ द्वार | स्था०।
स० । मुमूषोरखुमत आदित्सितात्पत्तिप्रदेश आलोकान्तादा-
त्मप्रदेशानां भूया भूयः प्रक्तषपसहारात्मक समुद्धत, श्रा-
चा० १ श्रु० २आ० १ उ०।
तत्स्वरूपम-एवं मरणसमुद्धातगत श्रायुष्कमपुद्रलान प-
रिशातयति, नवरं मरणसमुद्धातगतो विक्षिप्तस्वप्रदेशो
वदनाद गादिरन्धाणि स्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूय्य विष्क-
म्भवादल्याभ्यां स्वशरीरप्रमाणमायामतः स्वशरीरातिरे-
कता जघन्यतोङ्कुलासख्ययभागम् , उत्कषताऽसस्ययानि
योजनान्यकदिगशि क्षत्र्मभिव्याप्य वतत इति वक्कव्यम् ।
प्रशा० २६ पद ।
मारणान्तिकसमुद्धातसमवदतस्योपपातः--
जीवे णं भते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समो-
हणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए
निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइ-
यत्ताए उववजित्तए, से णं भते ! तत्थ गते चव आ-
हारेज्ञ वा परिणामेज्ञ वा सरीरं वा बंधेज्ञा ?, गो-
यमा ! अत्थगतिए तत्थ गए चेवं आहारेज्ञ वा प-
रिणामेज वा सरीरं बधज्ञ वा, अत्थगतिए तओ
पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इह समागच्छति समा-
गच्छित्ता दोच्च पि मारशणंतियसयुग्धाएणं समोहणइ दो
पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणित्ता इमी से रयणप्प-
भाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्ससु अन्न-
यरंसि निरयावासंसि नरइयत्ताएं उववज्ित्तत, ततो
पच्छा आहारेज्ञ वा परिणामेज्ञ वा सरीरं वा बं-
धेज्जा, एवं °जाव अहे सत्तसमा पुढवी । जीवे णं भते !
मारणंतियसयुग्ाएणं समोहए २ जे भविए चउसदरीए
्रसुरकुमारावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि असरकुमारावा-
संसि असुरकुमारत्ताए उववज्जित्तए जहा नेरइया तहा,
भाणियव्या ०जाव थणियकुमारा । जीवे शं भते ! मा-
रणंतियसमुग्धाएणं समोदए २ जे भविए असंखेज्जे-
सु॒ पृदविकाइयावाससयसहस्सेस अस्मयरंसि पुढ़विका-
इयावासंसि पुढविकाइयत्ताएं उववज़ित्तए से णं भते!
मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेज़ा के-
वतियं पाउणेज़ा ? गोयमा ! लोयंतं गच्छेजा लोयंतं
पाउशेज्ञा, से ण॑ भते ! तत्थ गएचव आहारेज वा
परिणामे वा सरीरं वा बंधेज्जा ?, गोयमा ! अत्थे-
गइए चव तत्थ गए चव आहारेज्ज वा परिणामज्ज वा
सरीरं वा बंधेज्ज अत्थेगतिर तओ पडिनियत्तति
तओ पडिनियात्तित्ता इह हव्यमागच्छट्ट इृह हव्वमागच्छित्ता
द) चं पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणति २ नः मंदरस्स
(२४५६७)
मॉरएंतिंय०
अनधानराजन्द्रः।
पव्वयस्य पुरच्छिमेणं अगुलस्स असंखेज़भागमेत्तं वा |
संखेज़तिभागमेत्तं वा बालयं वा ब्रालऽग्गपुहत्त वा एवं |
लिक्खं जयं यवं अगुलं जाव जोयणकोर्डि वा जोयण-
कोडाकाडिं वा संखेजेंसु वा असंखज़सु वा जायणसहस्स-
सु लोगंडत वा एगपदेसियं सर्ठि माचण अर्मखज्रसु पुट-
विकाइयावाससयसहस्सेस अन्नयरंसि पुटविकाइयावाससि
पुदरविकाइयत्ताए उववज्जत्ता,तग्र पच्छा आहारेज्ञ वा परि-
णामेज़ वा सरीरं वा वधा, जहा पुरच्छिमणं मदरस्स
पव्वयस्स आलावओ भणिञ्रा, एवं दादहिणेण पच च्छिम-
शा उत्तरणं उड अहे, जहा पुटदविकाइया तहा एिदि-
याणं सव्वरमि, एकेकस्स छ आलावगा भाणियव्वा ।
जवि णं भत! मारणंतियसमप्रग्घाएणं समोहए २ त्ता जे
भविए असंखेजेसु वहंदियावाससयसहस्यसु अष्ययरंसि
बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववजित्तए से शं मते!
मालकम्म
मारा-मारा- खी०। मार्यन्त प्राणिना यस्यां शालायां सा मारा ।
शनायाम् , ज्ञा० १ श्र० १६ आअ० | मणिलत्तणवि शष, रा०।
माराभिसंकि ( न् )-माराभिशक्ञिन्--त्रि० । मरणं मारस्तद-
भिशङ्की । मरणादुद्विज, आचा० ।
मारामुक-मारामुक्न-त्रि० । मार्यन्त प्राणिना यस्यां शालायां
सा मारा-शना, तस्या मुक्तो यः स मारामुक्तः । मारणान्मार-
कपुरुषाद्दा मुक्का-विच्छाटितः । माराह्विच्छुटिते, ज्ञा० १
श्रु० १६ अ०।
| मारि-मारयित्वा-अव्य० क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः॥ = । ४।
तत्थ गए चव जहा नरहया, एवं ०जाव अणुत्तरोववाइया । ।
जीवे णं मत ! मारणतियसुग्घाएणं समाहणए सम।हणित्ता
ज भविए एवं पञ्चसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महावि-
मासु अण्णयरंसि अणुत्तरविमारासि अणुत्तरोववाइय-
देवत्ताए उबवज़ित्तए, से शे भते ! तत्थ गए चव ०जाव
आहारेज़ वा परिणामेज्ञ वा सरीरं वा बंधज । सेवं भ-
ते! भते? त्ति। ( प्रत्र २४५)
( तत्थ गए चच त्त ) नरकावासप्रापत एव ( श्राटारेज वा)
पुद्रलानाद यात् , ( परिणामज व त्ति) तेषामेव खलरसवि-
भागं कुयात् , ( सरीरं वा बंधेज्ज त्ति ) तेरेव सरीर नि-
प्पादयत् । ( अत्थगइए त्ति ) यप्तस्मिन्नव समुद्धते प्लिय- | ० एउपरिशनंवांग;पब० 7 आज
| माल माल +“ नन ह
ते ( तता पडिनियत्त त्ति ) तता--नरकावासान्समद्धाता-
द्वा, ( इह समागच्छुद त्ति) स्वशरीरे ( कवदय गच्छेज्ज
त्ति ) कियद् ` दूर गच्छत् ? गमनमाश्रित्य, ( कवडयं पाउणे-
ज्ज त्ति) कियद् दूर प्राप्नुयात् ?, अवस्थानमाश्रित्य, (श्रगु
लस्स श्रसखञ्जदभागमत्त व्यादि ) इह द्वितीया सप्तम्य-
थं द्रव्या, अङ्गुलम् इद यावत्करणादिदं दश्यम्-- विद-
न्थिवारयणिवा कुच्छि वा धरु वा कास वा जोयशं
वा जायणसय वा जायणसहस्ल बा जोयणसयसहस्स वा
इति" लागंते वा' इत्यत्र गत्वति शषः, ततश्चायमथैः-उत्पा- |
दम्थानानुसारेणाहुलासंख्येयभागमात्रादिक क्षेत्र समद्धात-
तो गत्वा, कथम् ? इत्याह--एगपएसिये सदि मात्त॒ण क्ति
यद्यप्यसेख्ययप्रदशावगादस्वभावो जीवस्तथापि नैक-
प्रदशश्रणिव्यंसख्यग्रदशावगाहनेन गच्छति, तथा स्वमा-
वत्वादित्यतस्तां मुकत्वेत्युक्षममति भ० ६ श०
गाहनति ` 'आगाहणा' शब्दे तृतीयभागे ८१ पृष्ठ गतम् )
मारणऽतिया-मारणान्तिकी-खी०। मरणमवान्ता मरणा ऽन्त
तत्र भवा मारणान्तिकी । आवब० ६ अ० । स्था० । आण्चू०।
स० | मरणान्त भवायां सलस्वनायाम् , स्था० २ ठा० १ उ०।
६ उ० । |
( मारणान्वकसमद्धातन समवहतस्य किंप्रमाणा महत्त्याव- |
|
|
|
४३६॥ इति कत्व इः । प्राणेभ्यो माचायित्वत्यर्थ, हिआ्डा जइ
वरियघणा, ता कि श्रव्भिचडाहु। अम्हाहि वहत्थडा, जड
पुण मारि मराहु ।” प्रा० ।
मारि-स्त्री०अत्यन्तजनमारके रोग,स०३४ सम०। न०। जे०।
श्रा० क० | तं चच चित्तगरं मारइ अह न चितिज्ज इतो य
भूयजणमारिं करेइ । श्रा० म० १ आअ० | व्य० । स्था०।
मारिअ-मारित्-त्रि० । प्राणर्विहीनीकृते, उक्त० १६ अ० ।
अपभ्रेशे5प्रत्ययः । “ जइ भग्गा पारक्रडा, तो सदि मञ्जु
पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा, तो ते मारिअडेण | ”
प्रा० ४ पाद् ।
मारिलग्गा-देशी-कुत्सितायाम् , दे” ना० ६ वर्ग १३१ गाथा।
मारी-मारी-खी०। मरके, “ तसि मारी विडल्विया लोगो,
मरउमाइद्धो ” | आ० म० १ आ० |
मारुअ-मारुत-पुं० । पवने, “ अणिलो गंधवहों मारुओं।
समीरो पहंजणो पवणो” पाइ० ना० २५ गाथा ।
= [3
मारुय-मारुत-३० । वाया, उत्त० २ अ० | ज्ञा० । कल्प० ।
प्रश्न० । दश० । श्राव ०।
मारुयपक-मारुतपक्क-त्रि० | वायुपक्के, विपा० १ श्रु० ८ अ०।
पश्चा० । मञ्चादिक, पि० । आचा० । श्वापदादिरत्तार्थेषु,
तद्भिशषष्वेव गन्धमालकाकारषु पर्वेतदेशिषु, इत्यन्ये । ज्ञा०१
श्रु० १ अ० | भ० । आराममज्जुमश्चेषु, द८ ना० ६ वरौ १४६
गाथा ।
मालई-मालती-खी ० ० स्वनामख्यातायां विजयसेनराजमहि-
ष्यां पुरन्द्रयशसो म(तरि, घ०र० १ अधि० १२ गुण ।
लताविशेषे, “ मालई लाई ” पाइ० ना० २७३ गाथा ।
मालंकार-मालंकार पु । बलेवैंरोचनेन्द्रस्य हस्त्यनीकाधि-
पतो, “ मालंकारे हत्थिराया कुंजराणीयाहिवइ । ” स्था० ५
ठा० १ उ०।
मालकच्छ--मालकच्छु-पु० । स्वनामख्याते
पटतवीररुजादशैनजखदखिन्नस्य सिंहसनेः
स्था० १० ठा०।
मालकड--कृतमाल--ि० । रता माला यन सः कृतमालः।
प्रातत्वात् मालकडति । मालां परिहित, तं०।
गोशालकतेजा-
रादनस्थाने,
मालकम्म-मालकर्मन्-न० । मालनिष्पादनरूप कर्मणि, आ~
च० श्ु० हु ऋ ८ ०)
~~ ८+-___++ दिक
चना
( २५७ )
मालघर
आमभधानराजन्द्र। |
सात्ाहड
मालघर-मालगह - न° । मालाख्यवनस्पातावशषणट, ज० १ माला-माल्ला-खाः । कराटसूजगलावलाम्बशङ्खेलाचशष
० ।
मालनीय- त° । परिचारणीये, ज० १ वक्त० ।
मालतीकुसुमद।|म-मालतीकुसुमदाम-त० । जातपुष्पमाला-
“५ - भ क |
मालय-मालक-3० ॥ ग्रहस्यापारतनभाग, बू० २ उ०। स्वाः
थे कः “ अक्कुड्डो होइ मंचो मालो य घरोवारिं होइ `` स्था०
३ ठा० १ उ०।॥ ज्ञा०।
मालव- मालव - प° ।
१ अधि० ६ क्षण । प्रवण
ज्ञा०। सूत्र० ।
मालवंत- माल्यवान् - पु । जम्बूद्धीपे उत्तरकुरुषु कच्छवि-
जय वत्तस्कारपर्वत, ज० ४ वक्ष० । स्था०। स०। मेरोः पूर्वो-
त्तरस्मिन् गजदन्तपर्वत, स्था० ६ ठा०।
दो मालवता । ( खत्र- + ) स्था० २ ठा० हे उ०।
कहि ण भते ! महाविदेहे वासे मालवंते णाम वक्खा-
रपव्वए पष्पत्त ?, गायमा ! मद्रस्स पव्वयस्स उत्त
रपुरच्छमेण ण।लवंतस्स॒ वासहरपव्वयस्स दादिशेण
उत्तरकुराए पुरच्छिमें कच्छस्स चक््कवद्धिविजयस्स पच-
च्छिमिणं एत्थ ण महाविदेहे वास मालवते णामं व-
भारतवर्पीये अअवन्तीजनपदे, कट्प०
। म्लच्छावतष, व्य० ४ उ०। प्र-
7० | आभरणविशेषे, ओ० । कुखुमस्रनि, श्रो* । ^ श्राली
माला राई, रिंछोली आवली पती ” पाइ० ना० ६३ गाथा |
आचा० | प्रज्ञा० । कुखमदामनि, ऋण" । समूह, ज्ञा० * श्रु०
< अ० । स्था० । ज्योत्स्नायाम् , दें० ना०६ वे १८ गाथा।
मालाउत्त-मालागुप्त-त्रि०ग्र हस्योप॑रितनभागर त्षिते,मालको
गृहस्योपरितनो भागः, अभिहितश्च- अक्कुड्डो हाइ मंचो
मालो य घरोवारिं होइ | ” स्था० ३ ठा० १ उ०।
मालाकंकम-देशी-प्रधानकुछुम, दे० ना० ६ वर्ग १३२ गाथा ।
मालागार मालाकार-पुं० । मालाग्रन्थनोपजीबिन जातिबि-
शपे, आव० ४ छ०। जे० ।
मालागारी-मालाकारी-खी°। हारि(त)गोजस्य श्री गुप्तस्थविरा-
¦ , न्निगतस्य चारणमणस्य शाखायाम्.कटप० २ आधि० = क्षण् ।
मालामउल मालामुकुट -षु° । मालाप्रधाने मुकुटे , सूत्र० २
श्रु० २ अ०।
मालारोवण-मालारोपण-न० । मालानःमुपयुपरि स्थापन ,
जी० १ प्रति०।
। मालि-मालिन् पुं ! वनस्पतिविशषे, स० ७४ सम० । रा०।
क्वारपव्वए पण्णत्ते , उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण-
व्रित्थिख्णे ज चव
गंधमायणस्स पमाणं विक्खभ।
श्र णवरमिम णाणत्तं सव्वधेरुलियामए अवसिटट तं पव |
० जाव गोयमा ! नवकूडा पष्पत्ता |
( कहि णमित्यादि ) प्रश्नसूत्रे खुगमम् , उत्तरसृवे- गौत-
। मालिख-मालीय-न० ।
म्र ! मन्दरस्य पर्यतस्य उत्तरपौरस्त्य ईशानकाण नीलवतो |
वरधरपर्वतस्य दत्तिणस्यामुत्तरकुरूणां पूर्वस्यां कच्छुना
मनश्चक्रवर्ति विजयस्य पश्चिमायामत्रान्तर. महाविदेहणु
म्रास्यवन्नाम्ना वक्तस्कारपर्व॑तः प्रज्ञप्त इति शेषः, पूवद्ति
शयोरायतः पृर्वपश्चिमयोर्विस्तीर्णः , किं वहुना विस्त-
रेण ? यदेव गन्धमादनस्य पूर्वोक्नवक्षस्कारागिरेः प्रमाणं
विष्कम्भश्च तदेव ज्ञातव्यमिति शप्र: | ज० £ वत्त ।
( माल्यवतकरूटानां व्याख्या ' कूड › शब्दे तृतीयभागे ६२३
पृष्ठे गता )
मालबंतदह- माल्यवद् दृद -पुं° ! उत्तरकुरुष स्वनामख्यात
हृदे, स्था० ५ ठा० २ उ० | जी० ।
मालवंतपरियाय-माल्यवत्पयांय -पु०। जम्बृद्धीपमन्दरस्योत्तरे
रम्यकहे रणयवतवर्ष स्वनामस्थात वरत्तवैताल्यपर्वते , स्था० ।
दो मालर्वतपरियाया । (सत्र--)स्था० २ ठा० ३ उ० |
मालवतेण-मालवस्तेन-पुं? । माल्यवत्पर्वतोपरि विषमप्रदे-
शवासिनि स्तेने, 'मालवगो पव्वगो तस्खुवारिं सव्वं विसमं
तत्थ तणया वसंति ते मालवतेणा । तेखु पाडिएस णासते
| # सम इतरे विज्षिकइतवरं। कोई भणति मालवतेणा
एडिया । नि० चू० २ उ० }
६५
जी०। दशग्रीवनिजक, ती० ५१ कल्प ।
मालिअय-मालितक-त्रि० । मालाकारके, '* श्रोरालिश्रय च
मालिअये ` पाइ० १६६ गाथा |
मालीघरग-मालिगृहक-न० । मालिवैनस्पतिविशेषः तन्मया
नि गरृहकाणि मालिग्रृहकाणि । मास्याख्यवनस्पतिगरदे, जी
३ प्रति० ४ अधि० । रा०। ज०।
श्रीगप्तस्थविरान्निगतस्य चारण.
गणस्य पञ्चमकुल, कर्प० २ अधि० ८ क्षण ।
मालिया-मालिका -स्ज्री० | मालायाम् , स््रजि,ज्ञा० १श्वु०८अ०।
मालुगा-मालुका- खी० । जीन्द्रियजीवविशेषे,उत्त ० ३६ अ०।
जी० । एकास्थिकफलीव्रत्तविशष, जी० ३ प्राति० ४ अधि० ।
प्रज्ञा० | जे० | आचा०। रा० । बल्ल्याम् .सूत्र० १ श्रु० ३ अ०
२ उ० प्रज्ञा०। देशविशेषप्रतीत वनस्पतौ , प्रज्ञा० ६ पद।
उज्ञजायिन्यामम्वर्षेब्राह्मणस्य भार्यायाम् . आव० ४ ० | आ०
क० । शरा० चू०।
मालुयाकच्छं मालुकाक क्त प° । एकास्थिकफला बुक्षविश-
षा मालुकाः प्रज्ञापनायामयिदितास्तेषां कच्तो-गहनं मालु-
काकन्तः। चिभिकाकक्त इति तु जीवा ऽभिगमचूशिक्ाकारः।
मालुकाख्यवनस्पनिगटन, ज्ञा० १ श्रु ६ ० । भ०।
मालुयामंडवग-मालुकामण्डप्क - पु०। एकास्थिकफला वृक्त-
विशा आलकास्तदुक्ता मण्डपाः । मालुकायुक्रेषु मरडपेषु ,
2० | जा०।
मालर-मालूर-न० । वद्ध. " पाइ०
ना< १४८ गाथा । कपित्थ, द० ना० ६ वग १३० गाथा |
मालाहड-माला$पहत-न० | मालाद-मसखादरपट्टत-साध्यथ
मानीते यदू भक्कादि तत्सालापहतम् | पि । मालात्ू-सिक्क क्रादे
मालरं लिस्ट विज्ञ"
( क)
सालोाहड
अभिधानराजन्द्रः |
भालाहड
रह तं-साध्वश्मानातम् मालापहतम् । प्रव० ६७ द्वार । उ-
आअस्थानादुत्ताया 55नीया 55हारादि ददत उद्रमनदाप, उत्त०
२४ श्र ० । आचा० । पि०।
मालाऽपहतद्वारमाह--
मालोहड पि दुवि, जहन्नमुकोसगं च बोद्धव्वं ।
अग्गतलहि जहन्न, तच्िवरीयं तु उकास ॥ ३५७॥
मालाऽपहत द्विविध, तद्यथा-जघ्रन्यम् , उत्कृष्टच। तत्र य-
द् भून्यस्ताभ्यां पादयोरघ्रभागाभ्यां फलकसेज्ञाभ्यां पार्ष्णि- '
भ्यां चोत्पाटिताम्यामध्चविगलितोच्च सिक्ककादिस्थितं दा-
ञ्या द्टेरगोचरं यदहीयते तञ्जघ्न्ये मालापह्ृतम । त-
द्विवरीते--जश्चन्यविपरीतं बृदन्निःच्ररयादिकमास्द्य प्रासा-
दापरितलादानीय दीयत तदुत्कर्रं मालापह्नतस ।
संप्रत्यनयोगेव दष्टन्तो सदोषो वक्तुकाम आह--
भिक जटन्नगम्मी, गरुय उकोसयम्मि दिटतो ।
अहिडसणमालपटणे, य एवमाई भवे दोसा ॥३५८॥ |
जघन्ये मालापहते भिक्षुवैन्दकों दृष्टान्तः, उल्क गरुकः
कापिलः , तत्र जघन्य मालापहते अहिद शनम्-सपद शनम्
उत्कर मालात्पतर्नामिवयवमादयो दाषा अभूवन् |
तत्र भिचुदएरान्ते गाथाद्वयनाऽऽद--
मालाऽभमिमहं ददश, आगारिं निग्गओ तओ साहू ।
तच(व्व)ज्रिय आगमणं,पुच्छ। य अदिमदाण ति।३५६। |
मालम्मि कुडे मोयग, सुगंधअहिपविसर्ण करे उका ।
अन्नदिणसाहआगम, निद्यकहणा य संबाही ॥३६०॥
जयन्तपुरे नाम नगरम् , तत्र यक्षदिज्ञो नाम ग्रहपतिः, त-
स्यभाया वसुमती, अन्यदा च तद्गृदे धर्मठचिनोम सयतोा
शिता प्रविवेश, त च नियमितान्द्रयमर क्लद्धिएमेपणास-
मितमवलाक्य समुत्पन्नविशिष्टदानपरिणामन यक्षदिन्नन
वसुमती सादरे वभण
यथा-दाह सराधव.~स्म अमुकान |
मादकानात , त चर मादका ऊध्व वलागताचचालक्ककम- |
ध्य व्यवास्थत घट षयातपए्ुन्त ततः सा तद्धद्दणा थमा तव्थ- |
ता, साधुश्च तां मालाप्रहतां भिन्ञामववुध्यमानस्तदग्रृहाज्नि-
जगाम । ततस्तत्काले तस्मिन्नव गरः
मत् । पप्रच्छु चर ते यत्तदरिन्ना यथा कि भाः--( समं ) तन
सिक्रकादानीय दीयमाना भिक्षा न जग्रह ?, ततः स प्र
भक्ताय मिक्षुराग- |
वबचनमात्सयादवमुवाच- अदत्तदाना रमा खलु वराकास्त- |
तो न लभन्त वूर्वकमेर्विनियागतो युप्मादशामीश्वराणां
दषु स्निग्वमघुगादकं पजने भाक्रुम् . कितु-तै दु गे तग्रद्ेष्व
न्तश्रान्तादिकर लब्ध्वा भाक्रव्यमिति , तता यक्षदिन्नन त-
स्मार्याप तानव मादकान वलुमती दूपिता, सा तस्मिन्नव
स्िक्रकविर्लीगत घट म(दक(नादानुमचालीत् , घटे च म-
हात्तमद्रव्यनिष्पन्नमादकगन्धाप्राणवशतः कथमपि भ्रुज-
ङमः स्मागताउवात छत, वसुमता चात्पाल्य पागणपादा- `
ग्रतलभरण यावन्मादकश्ररः कदल्लिपल्लवापमं करं परत्तिप-
ति तावद् भुजङ्गमः कामुक इव सादरं तं प्रत्यगरह्णात् ,
तता हा ! दषा दप्ति पृत्कारं कुर्वती भूभौ निपपात, द-
इश च यत्तद्धि्लन फून्कारे कुर्वन ननस्तःत्त-
दन्दशूकः,
-------- =
णादव समाहताः परममन्त्रवादिनः, समानीतानि च ना-
नाविधानि भेषजानि, तताऽद्याप्यायुर डटि तमिति मन्तरौ-
पधघप्रभावतः सा नीरुग वभूव, समाजगाम च भृयोऽप्य~
परस्मिन दिने स एवं धर्मरुचिः सयता भिक्ताये, ( ध~
मेरुचर्विशषता वृत्तम् ` धम्मरूइ ' शब्दे चतुथभाग २७३०
पृष गतम् ) उपालभ च यतक्तदिन्नन । यथा--दयाप्रधानो ध-
में: तत् कि मोः साधा ! सुविदटित ! तव तदानीं सर्प्प
पश्यता 5प्युपक्षा प्रावर्तिष्ट ?, स प्राह--नाहमद्राक्षे तदानीं
दन्द श्क्रम् , केवलमयमस्माकं सावैज्ञ उपदशा, यथा-मा ग्रा-
दिषुः साधवो ! मालादपहतां भिक्ता्मिति, ततोऽदं प्रतिनि-
चृत्तः, एवं चोक्त यत्तदिन्नः स्वचतसि चिन्तयामास--अ-
हो निरपाया भगवता विरूपादेशि भिक्षुणां घर्मः, य एव चे-
त्थं निरधाये धर्ममुपदिशति स्म स एव सरवेज्ञा न खलु
खुधाभ्यवदारमन्तरण सुधोद्रार उज्ज़्म्भते, एवं न या-
वत् ज्ञयव्यापिज्ञानमन्तरशल्थ सकलकालमनपायिनो ध्म
स्यापदेशप्रवृत्तिः, बुद्धिप्रागल्भ्ये हि वचसि प्रागल्भ्यमुपाल-
म्भि, तस्मात् स एवं सवज्ञ इति, इत्थे च विचिन्त्य भक्ति-
वशाच्छीलतपुलकजालो पशोमिततनुः सादरे घधर्मरुचिश्र-
मणमचन्दत, वन्दित्वा च ज़िनप्रणीत धम पप्रच्छ, सच
कथयामास सत्तपतः, ततो जिनप्रणीतवाक्यासरतरसास्वा-
दतः तपामवजगाम सकलमपि 'मायासूनवीयादि' सपादित-
कुवासनामये गरलम् , पश्यति च यथाऽवस्थितानि हेयोपादे-
यानि वस्तूनि, मादते च जात्यन्ध इव चच्ुलाभे स विशषत-
रम्, तता मध्याहे विशेषतो गुरुसमीपे समागत्य धमं श्रुत्वा
जातसवेगौ दम्पती अपि प्रनज्यां प्रपदात। सूत्र खुगमम्।
सप्रत्यस्सिन्नेव जघन्य मालापहतेऽन्यानपि दोषानभिधि-
त्छखुराह--
असंदिपीटमचक-जतादखलपडत उभयवहे ।
वोच्छेयपओसाई, उड्डाहमनाणिवाओ य ॥ ३६१ ॥
आसन्दी--मश्विका, पीठम--गोमयादिमयमासनम् , म-
अआकः-प्रतीतः, यन्त्रमू-ब्रीह्यादिदलनापकरणम् , उदूखलः
प्रतीतः, एतेष्बारुह्म, उपलक्तणमतत् , पा्ष्णी चोत्पास्य
ऊरध्वविगलिर्तासककादिस्थितमोदकादिग्रदणे कथमपि यदि
मञ्चकादिद्वसनतोा दात्री निपतति तहिं उभयवधः, दाच्या
पृथिव्यादिकायादीनां च विनाशः । तत्र दात्या दस्तादि-
भड़ता, यदि वा--विसस्थुलपतनतः कथमप्यस्थानाभि-
घ्ातसभवात् प्राणव्यपरो पणमपि, तया च निपतन्त्या भूम्या-
द्याश्रितानां प्रथ्वीकायादीनामपि, विनाशः । यथेतस्मे भि-
क्ञामह ददती प्रागपि महत्यनर्थे पतितात न कोऽप्यस्मै
दास्यतीति तद् शरदे तदद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्चेदः, तथा मुण्डे-
नानन परमाथतः पातितति कस्यापि गृहस्वामिनः साधु-
विधयः प्रद्धपा ऽपि भवति ¦! आदिशब्दात्ताडनादि परि ग्रहः ।
प्रद्धपदग्थो 5हि कोऽपि कोपान्धतया ताडनमपि कुयात् । को
पपि निमत्सनम्, कोऽपि वध्रमपि, तथा च-प्रवचनस्योड़ाह
सिसा यथा--साध्वथमपा भिक्षामाहरन्ती पराखुरभूत् , त-
स्मानज्नामी साधवः कल्याणकारिणः लाके चाज्ञानवादः-
एवंबिधमपि दाज्या अनश्मते न जानन्तीत्येवं मूखता-
प्रवादः ; तस्म(ञ्जयन्यसपि मालापहततमयणएये "त
ए
(२४५७५ -)
भालोहड
म्। तदेवमुक्ता जघन्यस्य मालापहदस्य सदापो दष्टान्ता
उन्येडपि च दोषा
संप्रत्युत्कषस्य तानाह--
एमेव य उकोसे, वारण - निस्सेणि गृच्विणीपडणं ।
गब्मित्थिकुच्छिफोडण,पुरओ मरणं कहणवोहं।।|३६२॥
जयन्ती नाम पुरी, तत्र खुरदत्तो नाम गृहपतिः, तस्य
भायो वसुन्धरा, अन्यदा च तद्गृहे गुणचन्द्रा ऽभिधः सा-
धुर्भिक्ताधं प्राविशत् , तं च प्रशान्तमनसमिदपरलोकनिः--
स्पृह मून घम्मेमिव समागच्छुन्तमवनच्य खुरदत्ता वखुन्ध-
रामभिहितवान्-यथा दहि साधव मालादानीय मादका-
निति, सा च तदानीमन्तवल्ली, पर पत्युरादेश देवताऽ ऽदेश-
मिच प्रतीच्छन्ती मोदकानयनाय मालाभिमुखां निःश्रणिमा
रोहूमयतिए्ट, साधुश्च न कल्पत मालापहता भिज्ञा सेयता-
नामिति तां विनिवायं तदग्रहान्निःससार, ततस्तत्त्तण एव
काऽपि कापिला भिक्ञाथ तस्मिन्नव गरे प्राविशत्, , खुरदत्तन
चसप्ष्रा-यथा--भाः कि सय॒तन मालादार्नःयमाना भित्ता
न प्रतिजगरदे ?. ततः स मात्सयवशादसवद्धं किमप्यभाषिष्ट
तततस्तस्मायपि सखुरदत्ता वसुन्धरया मादकान् दापितवान
वखन्धरा च मादकानयनाथं निःश्रणिमारोाहन्ती कथ्मपि
पादह्सनतो विसंस्थुलाङ्गी न्यपतत्, अधश्च ब्रीहिदलन-
यन्त्रकमासीत् , ततस्तत्कीलकस्तस्या निपतन्त्याः कृत्त
द्विधा पाटयामास, निगतश्च पारस्फुरंस्ततो गभः, की-
लकविदारिततया महापीडातिशयभावतः पश्यतामव स-
कललोकानां सदुःखे स्पन्दमानः पञ्चत्वमगमत् , तथा ब-
खुन्धरा च । तत उच्छलितः पापीयसः कापिलस्यावणीवादः।
अन्यदा च भूयोऽपि तस्मिन्नव गदे स एवं साधुर्भि-
क्ञाथमाजगाम । खुरदत्तश्च तमप्राक्षीतू--भगवन् ! यथा
यूयं ज्ञानचक्षुपा दात्या विनाशमवेक्षमाणा भिक्तां परिहं-
तवन्तः तथा ऽस्माकमपि कि नाचीकथत? , यन तदानीं
सा माले नाराहयेत् ततः साधुरवाचत्- नादे किमपि
जाने, कवलमयमस्माकं सावेज्ञ उपदेशः--यथा न कसर्पत
साधनां मालायहता भित्तति , ततः सपूर्ववदाचिन्तयद्ध-
मैमश्रोषीत् , प्रत्नज्यां चाग्रहीदिति । सूत्र .खुगमम् । न-
चरम् , पवमव जघन्यमालापहते इवोत्कृष्टेऽपि मालाप-
हृते ' पडतउभयवहो ` इत्यादयो दोषा वक्तव्याः । तत्र दाच्या
चधे उदाहरणम् ` वारणनिस्सणि ` इत्यादि ।
सप्रति मालापहतमेव भङ्गचन्तरेणा 5 ए-ह--
उड्डमहे तिरियं पि य, अहवा मालोहडं भवे तिविह ।
उड् य महोयरणं, भणियं कुमादम्र उभयं ॥ २६३ ॥
अथवा-मालापहते चरिविध्म् , तद्यधा-ऊध्वरम् , अधः,
तिर्यक् च । तत्र उध्वमतदनन्तराक्रमूध्यविलगितसिककादि-
रतम् ,अधो भृमिगरहादाववतरणम्-प्रवेशः,तत्राधोऽवतर-
शेन यदीयत तदप्युपचारादधोाऽवतरणम् , तथा--कुम्भा-
दिषु कुम्मोष्टिकाप्रभ्नतिषु यद्वर्तते देयं तदुभयम-ऊ-
ध्वाधरामालापहतखमभावे भणितं तीथकरादिभिः । तथा-
दि-ब्हत्तराचस्तरकुम्भादिमध्यव्यवस्थितस्य दयस्य ग्रह-
शाय यन दाजी पाष्ण्युत्पाटनादि कराति तनाध्वमालाप-
इतम् , यन त्वधो मुखे बाहुमतिप्रभूत॑ व्यापारयति तनाधा
मालापदतम् , दोषा अत्रापि पूचवद्धावनीयाः।
|.
सिध्रानराजन्द्रः
सालाहड
अज्रवापवादमाह--
ददर मिल सोवाण, पुव्वा55रूढे अणुच्चमुक्खित्ते |
मालोाहडं न हाई, ससं मालोहड हाई ॥ ३६४ ॥
दर्दरः निरस्तरका प्फलकमयो निश्श्रिविशषः, शला प्र-
तीता. सोपानानि--इष्टकामयान्यवतरणानि , एतान्यारुह्य
यददाति तन्मालापहतं न भवति । कवलं साधुरप्यपणाश-
दधिनिमत्त प्रासादस्यापरि ददरादना चटात. अपवादन
भूस्था ऽप्यानीतं ग्रह्ाति तथा पूर्वारूढः साध्वागमनादग्रनः
स्वयोगन निःश्रण्यादिना प्रासादापरि चरितो दाता यद्ददाति
साध्रुपात्रक, कथेभूते ? इत्याट--ग्रनुच्चात्तिप्त, किमुक्के
भवति - भूमिस्थः सयतो दृष्टरध: पात्रे धारयन् यावत्प्रमाण
उच्चेःस्थान स्थिता दाता पात्र दस्त प्रत्तिप्य ददाति
ताचत्प्रमाणे पृवारूढा यददाति तन्मालापहतं न भवात ।
शष तु सर्वमप्यनन्तरोक्त मालापहतमवसयम् ।
इहटानुच्चातित्तपाचान्तिप्तयाः स्वरूपमाह--
तिरियायय-उज्जुगएण, गिएहई जे करेण पार्यत ।
एयमणुच्चुक्खित्ं, उच्चुक्खित्त भवे ससं ॥ ३६५ ॥
तिर्यगायतेन-दीर्भेण , ऋजुकन-सरलन , करेण--हस्तेन
पातर दृष्टया निभालयन् यद् ग्रह्माति तदित्थमूतं पात्रमजु-
च्चात्त्िप्तमुच्यते, शप पुनस्याल्तिप्तम् , इयमत्र भावता-
यद् दृष्टरूपरि वाहु प्रसार्य दयवस्तुग्रहणाय पात्र ध्रियत तत्तथा
प्रियमाणमुच्ोत्त्तिप्तमिति, एतन चोध्वौधामालापहतव्या-
ख्यानेन तियगपि मालापहतं व्याख्यातं द्रष्टव्यम् , तत्राप्यय
टप्याकल्पविधिः- यत्पादस्याधोा मञ्िकादि दच्वा गवा-
क्षादों स्थित दानाय वाहु प्रसाथ महता कन समाकर्षति
तच्च कल्पते । यच्च भूमो स्वभावस्था गवाक्षादों स्थितमय-
त्नेन किश्चिद्राहं प्रसार्य साधोदीनाय ग्रह्माति तन्मालापहत
न भवति, अतस्तत्कट्पते । पिं० ।
निस्सेणि फलगं पीठं, उस्सवित्ता समारुहे |
मच कील च षासा्य॑, समणउद्गाए व दावए ॥ ६७ ॥
निःश्रखिम् , फलकम्-षीटम् , ( उस्सवित्ता ) उत्सत्य-ऊध्य
करत्वा इत्यथः, ्रारोटेन्मञ्म् , कीलक च उत्खृत्य, कमाराहे-
दित्याद-प्रासादम, श्रमणार्थम्--साधुनिमित्तम् , दायको-
दाता आरोहेत् , एतदरप्यग्राह्यम् । इति सूजाथः॥
त्रैव दोषमाह--
दुरुहमाणी पवडिजा, हत्थे पाय व लूसए ।
पुढवीजीवे विहिंसिज़ा, जे अ तन्निस्सिया जगे ॥६८॥
( माणि त्त) आरोहन्ती प्रपतेत् . प्रपतन्तीच दस्त
पादं वा लपयेत् , स्वक्रं स्वत एवं खरडयत् . तथा-प्रथ्वी-
जीवान विहिंस्यात् , कथचित्तत्रस्थान् , तथा यानि च त-
न्निःधितानि ( जगन्ति ) प्राणिनस्ताँश्व हिस्याद् । इति सू-
ताथः ॥
एआरिसे महादामे, जाणिरण महसिणा |
तम्हा मलोाहडं भिक्ं, न पडिगिण्ति सजया ॥६६॥
( एआरिसे त्ति) ईदृशान् श्रनन्तरोादतरूपान-महादा-
षान् ज्ञात्वा, मद्रषयः साधवः । यस्मादापकारिणीय तस्मात्
( २६० )
अमभिषधानराजन्द्रः।
वाल 0०000 2000 000
मालापहताम-मालादानीतां भिक्तां न प्रतिग्रह्ञन्ति सयताः, |
पाठान्तरं वा-“ हंदि मालोद ति, "` हन्दीत्युपप्रदर्शने इति
सृत्रार्थ: ॥ दश० ५ अ० १ उ० | पश्चा० । जीत०।
से भिक्खुवा भिक््खुणी वा ०जाव समाणे से जे पुण
जाणेजा असणं पाणं खाइम यादप खधपि वा थर्भसि
वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि दा हम्मियतलमि
वा अध्ययरंसि वा तहप्पगारंसि वा अंतलिक्खजायंसि
वा उवशणिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालाहर्ड असणं वा ०
भवर अफासुय शो पडिग्गंहजा, कवली वृया-आयाणमे-
यं असंजए भिक्ुपडियाए पीठं वा फलगं वा णिस्सेर्णि
वा उदृहल वा अह, उस्सविय दुरूदेजा, से तत्थ दुरूह-
मा पयलिज्ञ वा पवडिज्ञ वा से तत्थ पयलमाणे वा पव्-
डमाणे वा हत्थं वा पाये वा बाई वा उरं वा उदर वा सीसं
वा अणातरं वा कार्यसि इंदियजालं लूंसज़ वा पाणाणि
वा भूयाणि वा जीवाणि वा सत्ताणि वा अभिहणेज्ज वा
वित्तासेज्ज वा लेसिज्ज वा सघसञ्ज वा संघद्ेंज्ज वा प-
रियावेज्ज वा किलामिज्ज वा ठाणाओ ठाण संकामेज
वा ते तहप्पगारं मालोहडं असणं वा पाण वा खाइमे
वा साइम॑ वा लाभ सते णो पडिग्गहिज्जा |
स भिक्षुर्मि्ञाथ प्रविष्टः सन् यदि पुनरवं चतुर्विधमप्या-
हार जानायात् , तद्यथा-स्कन्ध अद्धप्ाकारे
वा शलदारुमयादा , तथा-मश्चक वा माले वा प्रासाद
वा हम्यतल वा अन्यतरास्मन् वा तथाप्रकार ऽन्तारत्तषजात
स आहारः, उपनित्तिप्तः--वउ्यवस्थापितोा भवत् , तं च त-
थाप्रकारमाहार मालादह्तामात मत्वा लाभ सात न प्रातग्र-
स्तम्भे |
ह्वीयात् केवली त्रृयात्-यत आदानमतादात | तथाह-अस- |
यतो भिक्षुप्रतिज्ञया साधुदानार्थ पीठकं वा फलकं वा निः-
श्रेणि वा उद्खले वा55हृत्य--ऊध्व व्यवस्थाप्या 55रोहेत् ।
स तत्रा55रोहन् प्रचलेद् वा प्रपतेद्धा, स तत्र प्रचलन प्रपतन्
वा हस्तादिकमन्यतरद्धा काय इन्द्रियजाले ( लूसेज्ज त्ति)
विराधयेत् , तथा-:प्राणिनो भूतानि जीवान् सत्वानभि- |
हन्याद् वित्रासयेद्वा, लेशयेद्वा-संश्लेष वा कुयात् ,
सघष वा कुयात् , तथा-सङ्घटर वा कुयात् , एतश्च कुब-
तथा-
स्तान परतापयद्धा, क्ामयेद्धा, स्थानात्स्थान सक्रामयेद्वा, |
नदतञ्जात्वा यदाद्ारजातं तथाप्रकारं मालाहतं तज्ञाभे सति |
नो प्रतिगरह्णीयादिति । | आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ७ उ०।
सुत्ते-
जे भिकखू वा भिक्खुणी वा मालोहड वा ० जाव असणं वा |
पाणे वा खाइमं वा साइम वा दिज्ञमाणं पडिगाहेज़ वा
पडिगाहत वा साइज़हइ ॥ २४८ ॥
गाहा-
मालोहडे पि तिथिहं, उड्डमहों उभयओऔ व णायच्त्र |
एकेकं पि य दुविह, जहप्ममुकोसय चव ॥ ४१ ॥
उदं मालादहड-विभूमादिसु, रहा मालोाद्ड-भूषपिघरादेखु,
मालोहड
उभयमालाह उ-मचादसखु-मञश्रणास्थतः | अहवा--काहड- .
मादिखु भूमिदितो अधोसिरा ज अग्गतले हिद्ठाउं जे उवारेइ
तं जद, पीठगादिसु जे आरोढे ओआरेइ तं सव्व उक्कोस ।
गाहा-
भिक्खु जहम्मय गरुत, उकोसयंमि नायव्वो ।
अरहिदसणमालपडणे, एवमादी भवे दोसा ॥ ४२ ॥
सिक्तो ओच्रारिउकामा साहुणा पडिसिद्धा तव्वन्नियट्टा ।
गिरहइ अहिणा उका मया.मालाश्रा ओश्रारिउकामा साइणो
पडिसिद्धा, परिव्वाश्रा य वा ओतारेती पडिया जतखीले
पाट फाडिये मया | इम उक्कोस उदाहरणा । नि० चू० १७
उ० । पं० चू० । पे० भा०। घ० । ग०।
से भिक्खू वा भिक्खुर्णी वा० जाव समामे ज पुण जा-
णेज़ा ्रसणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा कोरियातो
वा कौलजातो वा असंजए भिक्खुपडियाए उकोज़िय अव-
उज्ञिय ओहरिय आदं दलएज्ञा, तहप्पगारं असणं वा पाशं
वा खाइम॑ साइम वा लाभे संते णो पडिगाहजा । (प्रत्र ३७)
जि्तु्यदि पुनरेबभूतमाहारं जानीयात् , तद्यथा-कोष्ठि-
कातः मन्मयकुःशूलसस्थानायाः, तथा--( कोलेज्जाओ ज्ति)
अधावृत्तचाताकारात् असंयतः भिक्तुप्रतिज्ञया-साधुमुदिश्य
कोष्ठिकातः ( उक्कुज्िय त्ति) ऊध्वंकायसन्नम्य-ततः कुब्जी
भूय , तथा ( कोलेज्ञाओ श्रवडउाज्जिय ज्ति ) अधो<5वनम्य,
तथा--( ओहारिय त्ति ) तिरश्चीनो भूत्वा श्राहारमाहत्य द्
द्यात् , त्च भिज्ञुस्तथाप्रकारमधोमालाहतमितिङृत्वा ला-
भे सति न प्रतिगृह्णीयात् इति ।
अधुना प्रथिवीकायमधिकृत्या 55ह-
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जे पुण जाणेज़ा अखषणं
वा पाणं वा खाईइमं वा साइमं वा मद्ठियाउलित्तं तहप्पगारं
असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा लामभे संते
नो पडिगाहेज़ा, केवली बृया-्रायाणमयं असंजए भि-
क्युपडियाए मट्टिओवलित्त असणं वा पाणे वा खाइमे वा
साइमं वा उन्मिद माणं पुटविकायं समारभिज्ञा तह तेउवा
उवणस्इतसकायं समारंभिजा पुणरवि उर्लिंपमाणे पच्छा-
कम्मं करिज्ञा, अह भिक्खु णं पुव्वोषइड्टा एस पन्ना एस
हे एस कारणे जं तहप्पगारं मइ्िओवलित्त असण वा
पाणं वा खाइम वा सामं वा लाभ संते ना पडिगादिजा |
( से भिक्खृ वेत्य द ) स भिक्तुः ग्रहपांतकुल प्रावष्टः सन्
यदि पुनरेवे जानीयात् , तयथा-पिटरकादो खृत्तिकया ऽवलि-
प्तमाहार तथाप्रकारमित्यवबलिप्ते केनचित्परिज्ञाय पश्चात्क-
स्मभवाच्चतुर्विधमप्याहारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ,
किमिति ? यतः कवली व्रूयात्-कम्मीदानमतदिति, तदे-
व दर्शयाति--असंयतो- गर स्थः, भिललुप्रतिज्ञया खत्तिको-
पलिप्तमशनादिकम-अशनादिभाजने तच्चो छ्धिन्दन पृथिवी-
कायं समारभत् , स एव केवस्याह, तथा-तेजाबायुवनस्प-
तित्रसकाये समारभेत् दत्ते सत्युत्तरकालं पुनरपि शेषर-
ज्ञां तद्धाजनमवलिम्पन्, पश्चात्कम्म क्यात् , श्रथ भिक्त
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न्नालोहड
शां पूर्वापदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एप देतुरेतत्कारणमयमुपद्-
शः । यत् तथाप्रकार म्रात्तकापालप्तमशनादजात लाभ
सति नो प्रतिगृहीयादिति । आचा० २ श्रु० १ चू“ १ अर
७ उ० । स्था० |
भास-माप- पु०।(उडद)घान्यभदे, आचा० श्श्रु०शआ०५उ०आ०
म०। ज० | पश्चमिगुज्ञाभिः परिमिते मानावशेषे, त० । प्रज्ञा० ।
माषाः-
मासा ते भते! कि भक्वया, अभक्खेया ?। सोमिला!
मासा मे भक्खया वि, अभक्खेया वि?। से केणब्टरणं °जा-
व अ्रभक्खयावि। से नृणं ते सोमिला ! बंभन्नएसु नए-
सु दुविहा मास्रा पपत्ता, तं जहा-दनव्वमासा य, काल-
मासा य । तत्थ ण॑ जे ते कालमासा ते णं सावणा55दीया
आसादपज्जवसाणा दवालस । तं जहा- सावे भद्दवए
आ।साए कात्तए मग्गासर पास माह फागुण चत्त वश्साह
जैड्टामल आसाढ़े | त णं समणाणं निमोथाणं अभक्वया।
तत्थ ण॑ जे दव्वमासा ते दुविहा पप्मत्ता,तं जहा-अत्थमासा
य, धष्पमासा य । तत्थ स जे ते अत्थमासा ते दुविहा पप्म त्ता
ते जहा-सुवन्नमासा य, रुप्पमासा य । तण समणाण
नग्गथाण अभक्खया। तत्थणज त धन्नमासा ते दुवहा
पत्ता, तं जहा-सत्थपरेणया य, असत्थपरिणया य । एवं
जहा धन्नसरिसवा °जावसे तेणः्ट्रेणं °जाव अभक्खया
वि। भ० १८ श० १० उ० |
मास- पुण । पक्तद्रयात्मके कालविशेषे, विश्े° । आ० म०।
भ० । अनु० । कल्प० । प्रव० । ज० ! कर्म० । स्था०।
इदानीं ( भाष्यकारः ) मासनिक्षेपप्ररूपणा थमाह-
नामं ठवणा दविए, खत्ते काले तहेव भावे य |
मासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासणं ॥ १३ ॥
( नामे ति ) मासशब्द् संबन्धात् नाममासः, एवं स्थापना-
मासः । ( दविए त्ति) द्रव्यमासः
मासो, भावमासश्च, पपा षड्धा मासस्य प्ररूपणता-प्ररू-
पणस्य--प्ररूपणशब्दस्य भावः--प्रव्त्तिनिमित्तं प्ररूपणता
प्ररूपणेत्य रथ: | प्रक्मधिकारः पुनरत्र कालमासेन एप गा-
थासत्तपाधः।
साप्रतमनामव गाथां विवरीचुर्नामस्थापने सुप्रतीतत्वाद-
नाहत्य (भाष्यकारः ) द्रव्यमासादिव्याख्याना्थमाद--
, एवम् क्षेत्रमासकाल- ¦
दव्य भव्य नव्यनात्तआा य खत्तम्म जाम्म वह्मणया |
काले जदि" वप्पिज्ञइ, नक्वत्तादीव पंचविहो ॥ १४॥
द्रव्यमासा द्विधा-ञ्रागमतो, नोआगमतश्वथ | तत्राऽऽगमतो |
मासशब्दाथज्ञाता तत्र चानुपयुक्रः, नाश्रागमतस्िविधः, तद्य-
था-ज्षशरी रभव्यसरी रत द््यतिरिक्लश्व॒ । तत्र ज्ञशरीरभव्यश-
रीरे प्राग्वत्। तद्धयतिरिक्रमाद-(दव्वे भव्वे निव्वात्तिओ त्ति)
द्रव्य मासो, भव्य इति भावी एकभविकादि इह मास इति
रूप प्राकृते माषशब्द्स्यापि भवति । तत एकभविकादि-
रत्र माधो द्रण्रव्यः। तत्र पएकभलिको नाम यो देवो मचु-
६६
| 7 ------- ~~ भआ#
६? )
श्मसिधानराजन्द्र
मास
ध्याम्तिर्यङ् वा अनन्तरमुद्ृत्य मापो भविप्यति वद्धायुप्का यन
मापभवायुवरद्धम् अभिमुखनामगात्रा यो मापरभव समुत्पक्षु-
कामः समवटतः स्वदशान तत्र विक्षिपन वर्तत | अथवा--
तद्द्यातिरिक्की द्रव्यमाषो द्विधा-( निर्व्चात्तओ य॒ ज्ि ) म्-
लगुणनिवैतनानिर्वात्ततः, उत्तरगुणानिवतनानिवसितश्च। त
ज मूलगुणनिवतनानवतिता नाम-यन जीवन तत्प्रथमतया
मापमवानुगतनामगोत्रकम्मादयता मापद्रव्यप्रायाग्यानिद्र
व्याणि गृहीतानि, उत्तरगुणनिवेत्तनानिवत्तिता मापस्तम्व--
्ि्रकर्मेणि लिखितः । ( खत्तम्मि इत्यादि ) यस्मिन क्षत्र मा-
पस्य वरना स मापन्तत्रप्राधरान्यविवक्तायां त-त्षत्रमाषः ।
उपलत्षणमतत् । तन यस्मिन् न्त्र मासकल्पः क्रियतसमा
सः क्तत्रप्राधान्यविवत्तणात्तत्र क्षत्र मास इत्यपि द्रष्टव्यम )
था-यत्र काले या मासा चयते स कालप्रधानताविवक्षणा
त्तत्कालमासः, अथवा-श्रावणभाद्र पदादिकः । यदि वा-स्व-
लक्षणनिष्पन्नो नाक्षत्रादिकः पञ्चविधः-पञ्चभदः कालमासः।
( भाष्यकारः ) तानव भेदानुपदर्शयति--
नक्खत्त चदया, उउ आच य हाइ वाधव्या |
अभिवड्डिए य तत्ता, पंचविधो कालमासा उ॥ १५॥
नक्तत्रषु भवो नाक्षत्रः । किमुक्त भवति-चन्द्रश्चारं चरन्
यावता कालनाभिजित श्रारभ्यात्तरापाढानक्ष्रपर्यन्त गच्छ
ति तत्कालप्रमाणो नाक्षत्रमासः | यदि वा-चन्द्रस्य नक्षत्र
मरडले परिवत्तेनतो निष्पन्न इत्थुपरचारतो मासाऽपि नक्तत्र
म्। तथा-( चदेया इति ) चन्द्र भवश्चान्द्रः युगादों श्रावण
मास बडुलपक्तप्रतिपद् आरभ्य यावत्पाणमासीपरिसमापि-
स्तावत्कालप्रमाणञ्चान्द्रो मासः। एकपारमा सीपरावसश्चा-
न्द्रो मास इति यावत् । ञ्रथवा-चन्द्रचारनिप्पन्नत्वादुपचा-
रता मासाऽपि चन्द्रः। चः समुचये । दीधैत्वमार्षत्वान्. (उउ-
दति) ऋतुः स च किल लोकरूढ्या षष्टयहोरात्रप्रमाणी द्वि-
मासा्मकस्तस्याद्धंमपि मासः, अवयवे समुदायोपचारात् ।
ऋतुरेव अथात्परिपूरान्रिशद्होरात्रप्रमाणः । एप एव ऋतु-
मासः कममास इति वा, सावनमास इपि वा. व्यवहियते ।
उक्नं च--' एस चव उउमासो कम्ममासा सावणमासा भ-
रणड ” इति | तथा-[आदिये इति] आदियस्यायमादित्यः ।
प्रत्यत्तरपदयमादित्यदितेशया ऽणपवादा चति रयप्रत्ययः ।
व्यञ्जनात् यम्यन्तस्य सरूपे वा। इति पा्तिकस्य एकस्य
यकारस्य लोपः | स चेकस्य दक्तिणायनस्योत्तरायणस्य बा
अयशीत्यधिकदिनशतप्रमाणस्य पष्टभागमानः, यदि वा-आ-
दिव्यचारनिष्पन्नव्वादुपचारता मासाऽप्यादित्यः। ( आभि-
बद्धिए य तत्ता इति ) ततश्चतुधादादिव्यान्मासादनन्तरः पञ्च
मो मासाऽभिवद्धितः. त्रभिवद्धिता नाम मुख्यतस्तरयोदशच-
न्दर मासप्रमाणः, सवत्सरे दादशचन्द्रमासप्रमाणात्सवत्सरा-
देकेन मासनाभिवद्धितत्वरात् पर तद् द्वादशमागप्रमाणो मा-
सो ऽप्यवयवे समुदायोपचारादभिवर्द्धितः, एप पञ्चविधः का-
लमासः । तुः पूरणाः | तदेवमुक्का नामतो नाक्षत्रादयः प-
अआचापिमासाः।
सांप्रतमतपामव मासानां दिनपरिमाणममिधि -
त्सुस्तदानयनाय (भाष्यकारः) करणमाह-
गिक्वाई मासाणं, करणमिणम तु आणणोवाओं ।
जुगदिणरासि ठाविय, अद्वारसयाई तीसाई ॥ १६ ॥
[नकः
~
( ९.१.
आखश्रधान राजन
माम |
ऋनयपु चन्द्रस्य पण्वित्तनता मासा5प्याधय आधारापचा-
रान् ऋन्नः. ऋतन आदियषां त ऋत्तादयः. आदिणब्दात्-
चन्द्रमासादिपगिग्रटरः। तपासून्नादीनां मासानामानयनापाय-
करणामिदे-वच्यमाणम । तदेवाह-( जुगदिणत्यादि ) युग
चन्द्र-चन्द्रा ए-भिवर्छि त-चन्द्रा-- 5डभिवर्धधितसंवत्सर प्रमाण
दिनराशिगरहाराबर्गाशयुगद्दिनराशिस्त स्थापयित्वा, किय-
व्प्रमार्णामत्याह-अश्टादश शतानि त्रिशानि त्रिशदधिकानि
एतावान दिनराशियुंग भवतीति, कथमवसीयत इति चत्
उच्यत
दिनशतात्मकम , युग च पञ्च दक्षिणायनानि पश्चात्तरायणा-
नि सर्वसंख्यया दशायनानि, ततस्व्यशीत्यधिकं दिनशते
दशकेन गुरायते इत्यागता यथाक्ला दिनराशिरेवं प्रमारो दिन-
राशि स्थापयिन्वा।
¢ ( भाष्यकारः ) किमित्याह--
ताह हराहि भागे, रिक्वाईयाण दिनकरं ऽताणं |
सत्तद्टी-बावद्री-एगढ्ढी-सद्रिभागहिं ॥ १७॥
नता--दिनरारिस्थापनानन्तर मरन्नादीनामरन्नमासप्रभ्रतीनां ,
दिनकरान्तानां स्रयमासपयन्तानां नक्तत्रचन्द्रत्वादित्यमा-
सानामन्यथः ; दिनमानानयनाय यथाक्रम सप्तपश्टिद्ाप-
प्रथकर्पाएपफ्रिभाग:ः सप्तपप्यादिभिभागहागेरित्यर्थः भागं
( हरगाहि क्षि ) हर | तना यथाकं नक्षत्रादिमासगतदिनपरि- |
मारमा गच्छति । तच्चात्तरत्र दर्शायप्यत |
सांप्रतममसिव््धितमाख गतदिनयरिमाणानयनाय नदं
करणमिति ( भाप्यकारः ) करणान्तरमाट--
अभिवड्ियकरणं पुण, टात्रिय गायं इम तु कायव्य |
णालीससयाई, पपष्पग्राई अरणूणाई ॥ १८ ॥
अभिवकस्तितकरणमणिवर्ध्धिमासगतादिनपरिमाणानयनाय
करसौ पुर्नाग्दे वच्यमाणं कर्तव्यं-प्रयोक्तत्यमिति ग्र-
यागः | तदवाह--स्थापोयिःवा राशि कि प्रमाणमित्यत आ-
ह--एकानचत्वारिशतानि पश्चपप्रीनि पञ्वष्रयाधका-
न्यनूनानि-परिपरणानि । कपां राशिरयमिति चत् ?. उच्य-
त-अभिवर्खितमासगर्तादनचतुर्विशत्युत्तरशतभागानाम। त
थाहि-अभिवार्ड़रेतमासस्थ दिनपरिमाणमकार्तेशदहारात्रा
एकविशस्यत्तरं शते भागानाम्.्रहाराच्राश्च प्रत्येकम् एकात्रि
शान् चनुविंशःयुत्तरशनेन गुगयन्त जातान्यप्टाजिंशत् शतानि
चतुश्चत्वारिशद्धिकानि-३८४४ उर्पारतन च एकावशन्युत्तरं
शन तज प्रत्षिप्यत जाना यथ्राक्रपरमाणा राशिः २६६५ ।
( भाष्यकारः ) ते स्थापयित्वा क्रिमत्याह--
7यम्म मागहरगं, चउर्यसणं सण कायव्पं |
ज लद्धा ते दिवमा, ससा भागा मुणयव्वा ॥ १६ ॥
पनस्य अनन्तगादितस्य पञ्चपष्र्यधिक्रेकानचत्वारशच्च
तप्रमाणम्य राशख्वतुविशन-चतुलिशत्यधिकन शतन भाग
रगो , भाग च हत य अद्भा लब्धास्न दिवसा ज्ञातव्याः ।
प्रापाम्त्वद्वा उठ(द्ध/खितः अहाराजतस्य चतुविशःयुत्तरशत-
भागाः |
भाष्यम--
अहवया वि तौसह गुण, मेम तणव भागटारणं |
भदयम्मिजतु लब्भइ, ते उ मह्ना मुणयव्वा ॥२०॥
सूयस्य दाक्षणम उत्तर वा अयन ज्यशीत्याशक- |
)
सास
अथवात प्रकारान्तरद्यातने । तच्च प्रकारान्तरामदम--
लब्धदिवसानामुपरि भागास्तावत्तदवस्था प्व भियन्ते ,
श्रेव शास्त्र ब्यवहारदशनात् । अथवा--अपिः समुचये ।
समु्चयघ्रकारान्तरस्यवान्यस्य श्रयमाणत्वात् , शेष उद्ध(द्)
रिते राशो मुहत्तानयनाय ज्िंशद्गुण कृत ततस्तनव चतु-
विंशव्युत्तरशतप्रमाणन भागहारेण भक्त यत् लभ्यत ते
महत्ता ज्ञातव्याः ।
तस्स वि जे अवसेसं, वावद्रीए् उ तस्य गुणकारो |
गुणकारभागहारे, बावड्रीए य उववद्रा ॥२१॥ ( भा० )
तस्यापि महत्तस्य सवन्धि यदवशपम॒द्ध(द)रितं तस्य मह-
त्गतद्धापण्िभागानयनाय ाषष््या गुणकारः-गुणकरण-
म्। किसक्तं भवति--यदवशप तिष्टति तत्त॒ द्वापष््या गु-
रयत, ततो “ गुणकारभागदार इति ` यस्यापरितनस्य रा-
शगुणकरमभवन्स गुणकारयागात् गुणकारः । अधस्तनस्तु
गणकारश्च भागदटारश्च गुणकारभागदटारम् । समाहारो दन्द
स्तस्मिन् षष्टीसप्तम्योरथ प्रत्यभदः तत एतदुक्तं भवति-यु-
रकारभागरयाद्वापष्र्ा अपवर्तः-अपवर्तना क्रियते ।
दाह तु हए भाग, ज लड़ा तेऽवि साइ्भागा उ।
एएासमागयफल, रक्खाइण कमण इम ।२२॥ (भा०)
भागहारराशश्रतुर्वित्याधिकशतप्रमाणस्य॒ द्वाषष्याऽपव-
त्तनायां जाता हो, ताभ्यां तु द्वाभ्यां हत भागे यङा
लब्धास्ते द्विपण्ठिमागा एवं | तुरवकाराथः । म॒ह्त्तस्य ज्ञा-
तथ्या: । सां प्रतमागतप्रतिपादनाथामदमाद-( एएसिमित्या
दि ) एतेषां भागदहाराणासरत्तादीनां नक्तत्रादिमासानां दिनप-
रिमाणनयनाय भागे हरतां यत् आगतमेव फलमागतफलं
तत् क्रमण ऋक्ञादिमासपरिपास्या इदं वच्यमाणम्।
( भाष्यकारः ) तदेवाह--
अहोरत्त सत्तवीसं, तिसत्त सनत्तद्िभागनक्खत्तो ।
चंदो उ उगुणतीसं, विसद्िभागा य वत्तीसं ॥२३॥
नात्तत्रो नक्षत्रसवन्धी मासः सप्तविशतिरटोरात्राः सप्तप-
प्रिभागाः,त्रिःसप्तत्रया वाराः सक्च एकविशतिरित्यथःअ -\ ।
तथाहि-युगदिनराशिस्त्रशदाधिकाष्टादशशतप्रमाणो धयत
तस्य सप्तपष्टियग नक्षत्रमासा इति सप्तपष्ख्या भागों हि-
यत, लब्धाः सप्तविशतिरहाराञ एकविशतिरहोरात्रस्य
सप्तपष्ठटिभागाः । तथा चान्द्रः चन्द्रमास एकोनतरिशदहारावा
हवाप्रनागा अहारात्रस्य द्वातरिशत् २६। ˆ= तथादि-तस्येव
युगदिनिराशिस्त्रिशदधिका ऽषएादशशतमानस्य युग चन्द्रमासा
द्वाप्र्िरिंत, द्वापप्त्या भाग हत एतावदव लभ्यत इति ।
भाष्यम--
उदुमासों तीस दिणा, आइच्चो तीस हाड अद्ध वा |
अभिवाड़ि एकतीसा, इगर्वीससयं च भागां ॥ २४ ॥
ऋतुमासः परिपूणणानि त्रिशदनानि एकाप/ण्टियंग ऋतुमा-
सा इत्यक पष्छ्यानन्तरादितस्य धुवराशेभागहरण, णतावतो
लभ्यसानन्वात् , , आदित्यः--आदित्यमासाी भवाति ! चिश-
दहायनात्रा अहाराजस्याद़ यतः सयस्य युग मासाः घाएपस्त-
तः पण्य्च्यां ध्रवराशभी गहरण एतावल्लभ्यत इते अभिवाद्ध-
ताउमिवर्द्धितमासः एकर््रिशदहारात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य
चतुर्चिशन्युत्तरणतभागानामकावशे शतमकविशात्यांधकं "9
आमसधानराजर
| (
त _ . | ध
म् ३६। >, । तथादि-एकानचत्वारिशच्छतानां पञ्चेषप्स्य-
धिकानां ३६६५ चतुर्विशत्युत्तरण शतन भागे स्टियमाण
यथाङ्कं लभ्यत एवति ।
अथवा ( भाष्यकारः ) न भागे: सख्या कितु मुहर्त्तादि-
भिरत आह--
एकत्तीसं च दिणा, इशुतीस मुहृत्तसत्तरसभागा ।
एत्थं पुण अहिगारो, नायव्वा कम्ममासेणं ॥ २५॥
एकत्रिर्शाइनानि एकोनतरिशन्मुहर्ताः सक्षदश द्वाषष्टिभा गा
३१-२६-१७-६२ एकात्रशादनान तावत्पूृववत् , तता यदेक-
विशत्युत्तरं शतमवशप जातं तत् अहोराजरस्य विशन् मुह-
त्ता इति मुहत्तानयनाय त्रशता गुशयत, जातानि त्रिंशदाथि
कान षरात्रशत् शतान ३६३० णतपा चतुावशव्याधकन
शतन भागहरणम , लब्धा एकोनत्रिशन्मुह ता: २६, शपमवति-
छत चत॒खिशत् ३४. साद्धपामागानयनाय द्वाषष्स्या गुरायत
जातान्य कविशति शतान्य षरा त्तराणि २१०८ । तषां चतुर्विशत्यु-
त्रशतन भागो श्टियत लब्धाः परिपूर्णाः सदश १७
द्वाषणिमागाः । अत्र पुनः प्रायश्चित्तविधावधिकारः प्रकृतं
ज्ञातव्या नक्षत्रादीनां मासानां मध्य कम्ममासन।
सप्रति (भाप्कारः) भावमासप्रतिपादनाशमाह-
मरलादिवदगो खलु, मघे जो वा वि जाणतो तस्स ।
न हि अग्गनाणताऊग्गा,णाण मावा तताउणणछा ॥२
भाव-मावमासा द्विधा-आगमता, नोञ्रागमतश्च ।
नोआगमतः खलु मूलादिवद्क
फलवदकः । किमुक्त भवाति--यो धान्यमापजीवो धान्य
मापभव वत्तमाना मूलरूपतया कन्दरूपतया कागडरूपतया
पत्ररूपतया पुष्परूपतया फलरूपतया वा ध्ान्यमाषभवा-
युवेदयते स नाश्रागमता भावमापः, प्राकृत मापशब्दस्यापि
मास इतिरूपसमवादागमद आह--( जा वाऽवि जाणता
तस्स ) तस्य-मापस्य मासस्य वा यो ज्ञायको-ज्ञाता अपि
शब्दादुपयुक्कश्च स आगमतो भावमासः । “ उपयागो भाव
नित्तपः'` इति वचनात् । अत्र-पर आह (नटीवयादि) ननु यदि
मासस्य ज्ञाता तत्र चापयुक्कस्तथापि कथमसो भावमासः ?,
तहीधिज्लानाधयुक्का माणवकाः दाहपाकाद्यथक्रियाका-
रिव्वाभावात् । शत्र सूरिराह--( नाणमिस्यादि ) य~
देतदुक्रम-तदसत् सम्यग्वस्तुतच्वापरिज्ञानात , इदाद्यर्धाभि-
धानप्रत्ययास्तुल्यनामधयःः. तथाहि-घटाऽपि घट इत्यमि-
धीयते , घ्ररशब्दाऽपि , घरज्ञानमपि घट इति । पतच
सवैवादिनामविसवादस्थानम् । तता मासनज्ञानमपि मास-
शम्दवाच्यं तच्च भावा जीवगुणत्वात् । सच ज्ञानलक्षणा
भावस्तस्मादात्मनोऽनन्य इति मासज्ञानापयुक्तो भाव-
मासः अत्र र्पाड्चमासनिक्तषपमध्य कालमासनाधिकार-
स्तत्रापि कम्ममासनव्यनन्तरमवाक्तम् , शपास्त्वपाकरण-
व॒द्ध-यापन्यस्ताः | एतदव निक्षपप्ररूपणायाः पफल यत्प्रस्तु-
तस्य व्याकरणम् . अप्रस्तुतस्य निराकरणामाति | यदुक्रम्--
“*अप्रस्तुताथपाकरणात् परस्तुताश्रव्याकरणाचच्च निच्तपः फल
तत्र
वानिति ।' तदेवं मासनिन्तपप्ररुपणा कृता । व्य० ६ उ० रे
प्रक० । ज्या० । ब्रृ० । नि” चु: । दश्च” ।
नक्षत्रपु भवा नाक्षत्र: किमुक्क भवति ?-चन्द्रश्रारं चरन
याचता कालनाभिजित आरश्यात्तराणादानत्तद्रपर्यन्त ग-
~)
मूलकन्दकार्डपत्रपुष्प-
भामे
च्छति तत्प्रमाणा ना्तत्रा मासः, यदिवा-चन्द्रस्य नक्षत्र
मणडल परिवतनतानिप्पन्न इत्युपचारता मासार्धपि नन्न-
वम् ( ज० ) युगादौ श्रावणमास वहुलपक्तप्रातिपद आर
भ्य यावत् पाणमासीपारिसर्मानिस्तावन्कालव्रमारश्चान्द्रा
मासः . एकपर्णिमापरावर्तश्चान्द्रा मास डानि यावन्
अथवा-चन्द्रनिष्पन्नत्वादुपचारता मासा5पि चन्द्रः, सन
द्वादशगुणच्धिन्द्र संवत्सरः. चन्द्रमासनिप्पन्नन्वःदिति, द्धिती-
यतुयावव्यवं व्युत्पत्तिता ऽवगन्तव्यो. ततीयस्तु युगसवन्स-
राऽभिवद्धिता नाम मुख्यतस्रयादशचन्द्रमासघ्रमाणः स-
वत्सरा द्वादशचन्द्रमासप्रमाणः सवन्सर उपजायत. कि-
यता कालन सम्भवतीत्युच्यत--इह युगे चन्द्रचन्द्राभिव-
दितचन्द्राभिवद्धितरूपपञ्चसवःसरात्मकं सूर्यसवन्सरापन्न -
या परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्रानि पञ्च वर्षाणि भवान्ति
सूर्यमासभ्र साद्धत्रिशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमासश्चकरानत्रिश.
दिनानि द्वा्चिशच्च द्वापप्टिभागा दिनस्य, ततो गणिनस-
म्भावनया सूयसवत्सरसत्कतरिशन्मासातिक्रम एकश्चान्द्रमा
साञध्रकरालभ्यत.स च यथा लभ्यत तथा पूर्वाचार्यप्र-
दर्शितयं करणगा था--
चदस्स जा वसेसा,आइच्चस्स य हविज्ञ मासस्स |
तीसइगुणिओ संतों, वद् हु अहिमासगा इक्को ॥ १ ॥
अस्या अक्तरगर्मानका-आदित्यसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात्
चन्द्रस्य--चन्द्रमासस्य या भवति विश्लषः, इह विश्लप
छत सति यदवाशप्यत तदव्युपचाराद्विश्लपः. सर विशता
गुणितः सन् भवत्यका ऽधिकमासः. तत्र सूर्यमासपरिमा-
णात् साद्धत्रिणददटारात्ररूपाचन्द्रमासपरिमाणमकानात्रश-
दिनानि द्वात्रिशब्च द्वाषाए्रभागा दिनस्यत्यवरूप शाध्य-
त, ततः स्थित पश्चादिनमेकमकेन द्वाषष्टिभागन न्यूनम् . तच
दिन तशता गुरायत जातानि तिशदिनानि एकश्च द्वाप-
एभागास्रिशता गुणिता जाताः जिशद् द्वाषष्टिभागास्त ति
शहिनभ्यः शोध्यन्ते ततः स्थितानि शषाणि एकोनात्रेश-
दिनानि द्वा्जिशच्च ापष्टिमागा दिनस्य एतावर््पारमा-
रच्यन्द्रमास इति। भवाति सूयसवत्सरसन्क्तिशन्मासाति-
कम एकाऽधिकमासा, युगे च सृथमासाः पठिः तता भूया-
ऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कचिशन्मासातिक्रम द्तीया ऽधिकमा-
सा भवाति, उक्त च--
"` सट्टीएण अइआए, वद् हु अहिमासगो जुगद्धाम्मि।
वावीस पव्वसए, हवइ अ वीरा जुगऽतामि॥ १॥
अस्याप्यक्तरगमनिका-एकस्मिन युगे-अनन्तरोदितस्वरूप
पर्वणां-पक्ताणां पश्तो अतीतायां-परश्टिसंख्येषु पत्तप्वान-
क्रान्तेषु इत्यथः, एतास्मन् अवसर युगाद्ध--युगाद्धम्रमाण
एका एथिकमासो भवाति । द्वितीयस्त्वाधकमासा द्वाद्धिश
द्वाविशत्याधिके पर्वशत-पक्तशत४तिक्रान्त यगस्यान्त-
य॒गस्य पयैवसान मवति. तन यगमध्य तृतीय संबत्सर5-
घिकमासः, पञ्चम वति दा य॒गभिवद्धिनसंवन्सरौ । यद्यपि
स॒र्यवर्पपञ्चकात्मके युग चन्द्रमालठ्यवज्ञक्षत्मासाधथिक्य-
सम्भवस्तथापि नक्षत्रमासस्य लाके व्यवहारायिषय-
त्वातू, काञथः “यथा चन्द्रमासा लॉक खचिशपता
यवनादिभिश्च व्यवंहियत तथा न नक्षत्रमास ईन
ण्तपां च नन्नव्रादिसवन्सराणां मार्सादनम्रानानयनास्दि-
परमाण सवन्सराशिकार वच्यत
श्व न् न्य ग न्द द्यू पुञ्यं =
( २६७ )
अभिधानराजन्द्र ।_
मास
यगसवन्सराः पव्वाभः पयन्तं उत तात्त कात प्रातवष |
भवन्तात प्रच्छुन्नाह--' पदमस्सण मलाद् प्रथमस्य
यगा55दा प्रत्रत्तस्य, भगवन् ¦ चन्द्रसवत्सरस्य कात पवा-
णि पक्तरूपाणि प्रज्ञप्तान ?. गातम ¦ चतुावशातः पचा
॥
द्ादशमासात्मकल्वनास्य प्रा्तमास परव&यससवात् , द्वतय- |
स्य चतुथस्य च प्रश्नसत्र एवमतर आभव्ाधद्धतसवत्सर- |
सूत्र घडावशातः प्रवाण तस्य जअयादशचन्द्रमासात्मकत्वन |
प्रतिमास पवद्धयसम्भवात् ,
बाग्रमाह-एवमव प््ीपरमोलनर चतुर्विश परवेशते भव-
तीत्याख्यासम । अथ तृतीयः-- अमाससवत्सर ` इत्यादि,
ग्रमारसवत्सरः कतिविधः घज्ञप्तः ? गोतम !, पश्चविध्रः प्रज्ञप्तः,
तद्यथा--नाक्तत्र चान्द्रः ऋनुलवन्सरः आदित्यः अभिव-
ड्िंतश्व । अत्र नक्षत्रचन्द्राभिरवाझिताख्याः स्वरूपतः प्राग-
भिहिताः, ऋतवा लोकप्रसिद्धा वसनन््तादयः तद्व्यवहा-
रहेतुः सेवत्सरः ऋतुसंवत्सरः , अन्थान्तरे चास्य नाम
सावनसवन्सरः कमसंवत्सर इति । आदित्यचारण
क्षिणात्तरायणा भ्यां निष्पन्नः आदित्यसंवत्सरः । प्रमाणप्र-
धानत्वादस्य सवत्सरस्य प्रमाणमवाभिधीयत , तस्य च
मासप्रमाणाधीनत्वादादों मासप्रमाणम् , तथाहि--इह क्रिल
चन्द्रचन्द्राभिर्वद्धितचन्द्रभिवद्धितनामसवन्सरपञ्चकप्र--
माण युग अहोरात्रराशिस्म्िशद्धिकाप्रादशशतप्रमाणा भव-
ति, कथमतदवसीयत इति चत् , उच्यत इह सयस्य दात्त
णमुत्तरं वाउयने व्यशीत्यधिकादनशतात्मकम् , युग च पञ्च
दाक्तिणायनानि पञ्च चात्तरायणानि इति | सवसख्यया दशा
यनानि, ततस्व्यशीत्यधिकं दिनशते दशकन गुण्यत इत्या-
द् ~
पवसन्या ऽभवाद्धताऽपि, स- |
गच्छति यथाक्ला दिनराशिः । पवेप्रमाण [दनराश स्था- |
पायत्वा नक्षत्रचन्द्रऋत्वादमासाना एद्नानयनाथ यथाक्रम
सप्तघण्र्कपण्िपण्िद्रापण्रिलक्तषणेभागटारभाग हरेत् , तता य- |
थोक नक्षत्रादिमासचतष्कगर्तादनपारिमाणमागच्छाति, तथा
हि-यगादिनराशः १८३० रूपः , अस्य सप्तर्पाष्टयगे मासा
इात सप्तपष्म्या भागा हेयत , यज्लनव्यथ तन्नक्षतत्रमासमानम ,
तथा<स्यत्र यगादनगाश
मासा इत णकपप्रया भागहरण लब्धम ऋत॒मासमानम ।
तथा यग सयमासा: पापफ्तारात ध्ववराशः १६८२० रूप-
स्य प्रष्रया भागहार य्न तत्सयमासमानम तथाऽ
नवाद्धत वप तृताथ पञ्चम या त्रयादश चअन्द्रसासा भः
वन्ति, तद्धप द्ादशभागीक्रियते तत एकेका भागाऽभिव- |
द्वितमास इत्युच्यत, इह किलाभिवदधितसवन्सरस्य जयोदश-
चन्द्रमासमानस्य दिनप्रमाणं उयशीर्व्याधकानि जीति शतानि
चत॒श्चत्वारिशञ्व द्वापध्टिभागाः, कर्थार्मात चत् , उच्यत-च-
न्द्रमासमाने दिनानि २६९: एतद्रपे जयादशमिगुण्यत जाता
न सप्तसप्तत्युत्तराणि तरीणि शतानि दिनानां, षाडशोत्तराणि
चत्वारि शर्तनन चांणानां त च दिनस्य द्वापाप्रभागास्तता
दिनानयनाथ द्वापप्स्या भागो दियत, लब्धानि षड़् दिनानि,
तानि च पूर्रक्तदिनप मील्यन्त जातानि जीणि गतानि
यशी्याघक्रांन दिनानां चतञ्चत्वारिशच्च द्वापण्िभागा
तना वध द्वादश मासाः इति। मासाऽ<नयनाय द्वादश-
सिभागा हियते लब्या एकर्निशदहोरात्रा शवास्तष्-
म्त्यहारात्रा एकादश, त च द्वादशानां भागं न प्रयच्छन्ति
तन यप्ट एकाटण चलस्यन्गाएर० पार दापषापए्शागर्मील नाथ
उधार दा
१८२० रूपस्य एकपाएयरगे ऋत |
सास
पप्ख्या गुरायन्त तदा पूणो राशिन च्र॒ल्यात शषस्य विद्य-
मानत्वात् , तन सच्मक्षिकार्थ द्विगुणीक्रतया द्वाष्प्स्या च-
तु्विशत्याधिकशतरूपया एकादश गुणयन्ते जातस-१३६७
चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा अपि सवरनाथ द्विगुणीक्रि-
यन्त कत्वा च मूलराशो प्रज्षिप्यन्त, जातम-१४५२ एपां
द्वादशभिभांगे हृत लव्धमेकविश॒त्य॒त्तरं शतं चतुर्विशत्यु-
त्तरशतभागानाम् | एतावदाभवाद्ध तमासप्रमाणम् , एतषा
ऋमणाङ्स्थापना, यथा इदं च नात्तत्रादिमासमाने वर्ष द्वा-
दशमासा इति दशगुणे स्वस्ववर्षमान जनयन्त,
स्थापना यथा--
नक्षत्र: चन्द्रः ऋतुः सूयः अभिवद्धितः
दिन- २७ २६ 2३० ३० २१
भाग २१ ३२ ० ३० २१
"ध 4४ ९२४
नक्षत्र: चन्द्रः ऋतः सूयं अभिवद्धितः
दिन ३२७ २५४ ३६० ३६६ २८३
भाग ५ १२ ० ० ४४
० &द७ ६७ ८ © ६२
नाक्तत्रादिसचःत्सप्मानम्, स एष प्रमाणसदत्सर इति नि-
गमनवाक्यम् , एषां च मध्ये तुमासऋछ तुसवत्सरावेव
लाकेः पुत्रवृद्धिकलान्तरवृद्ध्ादिषु व्यर्वाहयेते , निरंश-
कत्वेन सुवोधत्वात् , यदाह-
& कम्मो निरंसयाए, मासा ववहारकारगो लाए ।
सरसा उ ससयाए, ववहार दुक्करा घत्त ॥ १॥ `
अत्र व्याख्या-आदित्यादिसंवत्सरमासानां मध्य कर्मस-
वत्सरसम्बन्धी मासा निरंशतया-पूरात्रिशद्हारात्रप्रमाणत-
या लोकव्यवहारकारकः स्यात्, शास्तु सूयादयो व्यवहार
ग्रहीते दुष्करा: सांशतया न व्यवहार पथमवतरन्तीति, निरंश-
ता चवम्-पष्ठिः पलानि घटिका, ते च द्धे महतः, त च च त्रिशद-
हारात्रः, त च पञ्चदश प्तः, तो द्धो मासः, त च द्वादश सव-
त्सर इति । शाखवदिभिस्तु सर्वेऽपि मासाः स्वस्वकार्येषु नि-
योजिताः | तथाहि-अत्र नक्षत्रमासप्रयोजने सप्रदायगम्यम् ।
“ वेशाख श्रावणे मार्गे, पोप फाल्गुन पव हि ।
कुर्वीत वास्तुप्रारम्स न तु शषघु सप्तसु ॥ १ ॥ ”
इत्यादो चन्द्रमासस्य प्रयाजनम् , ऋतुमाखस्य तु पूर्व-
मक्कम् , जीवे सिंहस्थ धन्विमीनस्थित ऽक, विष्णौ निद्राणे
चाधिमास न लग्नम् इत्यादा तु सर्यमासाभिवर्द्धितमास-
यारिति, पूर्व नत्तत्रसेवत्सराद्यः स्वरूपतो निरूपिताः, अत्र
त दिनमानानयनादिप्रमाणकरणन विशषण निरूपिता इति
न पौनरक्त्य विभाव्यम् । निशीथमभाप्यकाराशयन नक्षत्र-
चन्द्र्तसूर्याभिवरद्धितरूपकं मासपञ्चकस् | ज० ७ वक्त० ।
वासाणे पढमं मासं कति शक्खत्ता णेति ?, गोयमा !
चत्तार शक्खत्ता खात, त जहा उत्तरासद अभिर स-
वणो धिदा | उत्तरासादा चउदस अहोरत्ते गड, अभिई
सत्त अरहारन शइ, सवणो श्ट अहोरत्त शई, धसिट्ा
एग अहोरत्तं णेइ | तसि च श मासंसि चउरं5गुलपोरि-
सीए छायाए सूरिए अणुपरिअद्वश, तस्म णं मासस्स
चरिमदिषसे दो पदा चारि अ ॥ पोरिसी भवई ।
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। | ` == 0 5 जा हल 2
वासाणं भते ! दाच मासं कड णकक्खत्ता शेति ? , गो
यमा ! चत्तारि-धनिडूा सयभिसया पुव्वाभदवया उत्त-
राभदवया | धणिद्रा णं चउदस अहोरत्त णड, सयभिसया
सत्त अहोरत्ते णेइ, पुव्वामद्वया अदर अहोरते णेड्, उत्त-
रामहवया एगं । तसि च णं मासंसि अड्ड 5गुलपे।रिसीए
छायाए सरिए अणुरपि यइ । तस्स मासस्स चरिमे दि-
बस दो पया अद्रय अंग्रुला पौरिसी भवइ । वासां
भते ! तइयं मासं कर णक्खत्ता ति ?, गोयमा ! ति-
पि णक्खत्ता शति, तं जहा-उत्तरभदवया रेवई अस्सिणी ।
उत्तरभद्वया चउदस राइंदिए णेइ, रेवई प्रस, अस्सि-
शी एगं। तसि च णं मासंसे दुबालसंउयुलपेरिसीए छा-
याए सरिए अणुपरियद्वइ । तस्स णं मासस्स चरिभे दि-
बसे लेहड्टाई तिष्ि पयाईं पोरिसी भव । वासाणं भते !
चउत्थ मासं कति णक्खत्ता रंति ?, गोयमा ! तिण्ि-
अस्सिणी भरणी कत्तिआ | अस्सिणी चउदस, भरणी
पन्नरस, कत्तिआ एग । तंसि च णं मासंसि सोलसं5गु-
लपारिसौए छायाए स्ूरेए अणुपरिअद्दइ । तस्स णं मास-
स्प चरिमे दिवसे तिपि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी
अभिधानराजन्द्रः।
भवईइ । हेमन्ताणं भते ! पढम मासं कति णकक््खत्ता शे- |
ति ?, गोयमा ! तिप्पि-कत्तिआ रोहिणी मिगसिरं । क-
त्तिआ चउद्दस, रोहिणी पष्परस, मिगसिरं एगं अहोरत्तं
श । तमि च णं माससे वीसऽगुलपोरे्साए छायाए स्-
रिए अणुपरिअट्व३ह । तस्स णं मासस्स जे से चरिभ दि-
बसे तसि च णं दिवरससि तिपि पयां अट य अंगुलाई
पोरिसी भवइ । हेमताणं भन्त ! दोचं मासं कति णक्ख-
त्ता शेति ?, गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता शेति, त॑ जहा-
मिअसिरं अदा पुणव्वघर पुस्सो । | मिअसिरं चउदख राई
दिआई रेड, अदा अङ रोड, पृणव्वस्र् सत्त. राइदि राई
शई पुस्सो एगं राईदिअं णेइ। तया णं चउव्वीसंऽगुलपो-
रिषीए छायाए सूरिए अशुपरियद्व३ । तस्स णं मासस्स
जे से चरिमे दिवसे तंसि च णे दिवसंसि लेहड्टाई च-
त्तारि पयाई पोरिसी भवः । हेमन्तारं भते ! तच मासं
कति णकक््खत्ता णेंति ?, गोयमा ! तिप्पि पुस्सो असिले-
सा महा | पुस्सो चोदस राइंदिआई णेइ, असिलेसा पष्प-
रस, महा एक । तया शं वीसेऽगुलपेरिसीए छायाए षू
रिए अणुपरिअट्टइ । तस्स शं मासस्स ज से चरिमे दिवसे
तेसि च णं दिवसंसि तिणि पयाई अऽगुलाई पोरिसी भव । |
| # भन्ते ! चउत्थं मासं कति णकक््खत्ता रेति ?
3)
गोयमा ! तिपि णक्खत्ता शं ति, तं जहा-महा पुव्याफग्गुर्णी
६७
|| अ
मास
उत्तराफग्मुणी | महा चउदस राइंदिआई णेइ, पव्वाफग्गुणी
पारस राइंदिआई णइ, उत्तराफग्गुणी एगं राइदिश्रं णइ ।
तया णं सोलसं5गुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ ।
तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवस तसि च शं दिवस-
सि तिपि पयाई चत्तारि अगृलाई पोरिसी मवद । गिम्हा-
णं भन्त ! पढम मासं कति णएक्त्ता रीति ?, गोअमा !
तिष्ठि णक्डत्ता शति, उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता । उ-
त्तराफग्गुणी चउद्स राइंदिआई णे. हत्थो पणणरस राई-
दिआई णइ,चित्ता एगं राईदिश्रं णड | तया शं दुवालसं5-
गुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिअट्वइ । तस्स मास
स्स जे से चरिमे दिवस त॑ंसि च शं दिवसंसि लेहट्टाई
तिप्पि पयाई पोरिसी भव । गिम्हाणं मन्त ! दो मा-
से कति णक्खत्ता लेति ?, गोयमा ! तिपि शक्खत्ता शे
ति, तं जहा-चित्ता साईं विसाहा । चित्ता चउदम राइं-
दिआई शई, साई पण्णष्स राइंदिआई शइ, विसाहा एर्म
राइदिञ् णइ । तया णं अट्रंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए
अणुपरिअट्वइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तं-
सि चशे दिवर्ससि दो पयाई अद्ुगलाहं पोरिसी भवह |
निम्दाणं भन्ते ! तच्च मासं कति णक्खत्ता शति १, गो-
यमा ! चत्तारि खक्खत्ता शेति , तं जहा-विसाहा अखु-
राहा जटा मृलं। । विसाहा चउदस राइदिआई णेइ, अ-
गराहा अट राइंदिआई शई,जद्भा सत्त राइंदिआई शइ, मू-
लो एक रईदेग्रं। तया णं चउरंऽगलपेरिसीए छायाए
सूरिए अणुपरिअट्टइ । तस्स णं मासस्स जे से चरिम दि-
वसे तसि च णं दिवर्ससि दो पयाई चत्तारि अ अंगुलाईं
पोरिसी मवई । गिम्हाणं भन्ते ! चरत्थं मासं कति
क्खत्ता शति , गोयमा ! तिपि शक्खत्ता शति
तं जहा मूलो पुष्वासाढा उत्तरसाढा । मूलो चउदस
राइदि खाई शइ, पुव्वासाढा प्रस राईदिआई श, उत्त-
रासाढा एगं राइदि् णइ | तया णं वड.ए ॒समचउरंसस-
ठाणसंटिआए णग्गोहपरिमएडलाए सकायमणुरंगिआए
छायाए सरि अशुपरिअट्टइ | तस्स णं मासस्स जे. से
चरिमे दिवसे तसि च णं दिवसंसि लहद्वाई दो पयाई पो-
रिस् भवड । एतसि णं पुच्ववप्पि्र णं पयां इमा संग `
हणी । तं जहा--
“ जोग दवयतारग्ग- गोत्त टाणचन्दराविजोमो ।
कुलपुष्मिपअवर्ससा,णेआ छाया य बोद्धव्या ॥ १॥ "
( सूत-- १६२ )
दष्रायाम् वषाकालस्य चत॒मासप्रमाणस्य प्रथममास शाव-
णशलतक्षण क्त नक्षत्राण स्वयमस्तकुसननाहोराज्रपरिसमा-
पकतया कमय नयन्ति ?, द्विव.मकरत्वादस्य समाप्तिमिति ग-
( २६६ )
सास
म्यत, कोऽथः ?--वदयमाणसं ख्याङ्कस्वस्वदिनघु इमानि न-
त्त्राणि यदा श्रस्तमयन्ति नदा आ्रावशमास5होरात्रसमाप्ति
रित्यथः, तनतानि रारिपरिसमापकत्वाद्रात्रिनक्तत्रारयुच्य
न्ते, भगवानाह-- गोतम ! चत्वारि नक्षताणि नयन्ति, त
था-- उत्तराषाढा अभिजिच्छुवणो धनिष्ठा च | तत्रोत्त रा-
पाढा प्रथमान् चतुदेश अहोराज्रान् नयति, तदनन्तरमभि-
जिन्नक्षत्र सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः
आभधानराजन्द्र। |
श्रवणनक्षत्रमष्ठों अहो- |
रातान्नयति , एवं च सर्वसक्लुलनया श्रावणमासस्यकैन- |
विशदहारात्रा गतास्ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिने चर- |
ममेकमहारात्र धनिष्ठा नक्षत्र नयति । एवे श्रावणमासं च- |
त्वारि नक्षत्राणि नयन्ति । श्चस्य च नतद्धारस्य प्रयोजनं |
राजिज्ञानादों ।
“ ज नइ जया रत्ति, णकखत्त तमि णदचउब्भागे ।
सपत्त वरमजा, सज्फकायप्ओसकालामि ॥ १॥ ”?
इत्यादा, तदन॒रोधेन च दिनमानज्ञानायाह--तस्मिश्व श्रा- ।
वणमास प्रथमादहोरात्रादार भ्य प्रतिदिनमन्यान्यमणडलसं- |
क्रान्त्या तथा कथञ्चनापि परावत्तते यथा तस्य श्रावणमा- |
सस्य पयैन्तषु चतुरङ्कुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति । श्र
चाय वश्षः-बस्या सक्रान्ता यावाइनरात्रमान तचतुर्थो ऽ
शः पारुषायामः प्रहर इात यावत् अ्राषादढप्राणमाया च द्वपद
अमाणा-पारुषा, तस्यात श्रवणसत्कचतुर ज्कुलप्रत्तेपे चतुर- |
हुलाधथका पारपा भवात । माने मयोपचारादभेदनिर्हश
तन चतुरक्ुलाधकपारुष्या छाययात वशेषणविशेष्यभावः। |
एतदेवाह--तस्य श्रावशमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे च-
त्वारि चाङ्कुलानि पारुषी भवति । अथ द्वितीये मासं पृच्छति-
“ वासाण ' मित्यादि, वर्षाणां वपीकालस्य भदन्त ! द्वितीयं
भाद्रपदलक्तण मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ?
कयस्य भावाः प्राग्वद् भावनीयः । गोतम ! चत्वारि नक्त-
त्राणि नयन्ति, तद्यथा--धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा ऊ-
› शस्य वा- |
त्तरभद्रपदा च । तत्र धनिष्ठा आद्यान् चतुर्दश अहोराजान |
नयति, तदनन्तरं शर्ताभपषक् सप्ताहाराजान् नयति, ततः पर- |
मष्टावहारात्रान् प्ूवभद्रापदा नयति,तदनन्तरमकमहारा्रमु- |
त्तरभद्रपदा नयति | एवमने भाद्र पदमासं चत्वारि नक्षत्राणि
नयन्ति, तस्मिश्च मासे5ष्टाहुलपोरूुष्या--अष्टाहुलाधिकपौ- |
रुप्या छायया सूर्या 5नुपरावत्तते। श्र भावाथः प्राग्वदु भाव- |
नीयः । एतदेवाह--तस्य भाद्रपदमासस्य चरमे दिवस द्व- |
पदे अष्ट चाङ्गलानि पोरुषी भर्वात | अथ तृतीये प्रच्छति-
( वासाणे भत ! त्ति, इत्यादि ) वषाणां भदन्त ! तृतीय मासं |
कति नक्षत्राणि नयान्ति ? , गोतम ! जी नक्तत्राणि-उत्तर-
भद्रपदा रवती अश्विनी च । तत्रात्तरभद्रपदा चतुर्दश रात्रि-
न्द्वान् नयति, रवती पञ्चदश राचिन्दिवान् नयति, अश्वि
नी एकं राविन्द्व नयति। एवं तृतीय मासे त्रीणि नक्तबाणि |
नयन्ति, तस्मिश्च मास दढादशाङ्गुलपौरुष्या-द्वादशाङ्गला- |
धरकपारुष्या छायया सूया ऽचुप्ररावत्तत । भावाथ पूववत् ।
णतदवाह--तस्य मासस्य चरम दवस रखापादपयेन्तवसि
नी सीमा तत्स्थानि जीणि। पदानि पोरूषी भवात । कमुक्क
भयात --पारप्रणान नाण पदान पारुषी भवति | अथ
च् पूचछात--( वासाण[मित्यादि ) वर्षाणां बष।कालस्य
मास
भदन्त ! चतुथ कात्तिकलक्षणं मासे कति नत्तत्राणि नय~
न्ति ?, गोतम ! जीणि--अश्विनी भरणी कृत्तिका च । तत्रा-
श्विनी चतुदेशादोरा्रान् , भरणी पश्चदशाहोरात्रान् .ऊत्तिका
एकमहोरात्रे नयति । तस्मिश्च मासे षोडशाहुलपोरूष्या--
पाडशाङ्कलाधिकपोरुष्या छायया सूर्यो ऽचुपरावत्तते । भावा-
थः पूववत् । । एसदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे जीणि
पदानि चत्वारि चाङ्कलानि पोरुषी भवति । गतो वषौकालः ।
अथ हेमन्तकाले पृच्छाति-( देमन्ताण मित्यादि ) देमन्ता-
नां-देमन्तकालस्य भदन्त ! प्रथमे मार्गशीषेलक्षणं मासं
कति नक्तत्राणि नयन्ति ? गोतम ! जीणि नक्षत्राणि-कृत्ति-
का रोहिणी खगशिरश्च । तत्र कृत्तिका चतुदशाहोरात्रान् ,
रोहिणी पश्चदशाहोरात्रान् , सगशिर एकमहोरात्रे नयति ।
तस्मिश्च मास विशव्यङ्कलपोरुप्या--विंशव्यङ्कलाधिकपाखर-
ष्या छायया सूर्यो ऽनुपरावत्तते । भावाः पूवैवत् । ए-
तदेवाद-तस्य मासस्य यश्चरमा दिवसस्तस्मिन् !
दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट चाङ्कलानि पौरुषी भवतीति ।
अथ द्वितीय पृच्छृति-( देमन्ताणे भन्ते ! इत्यादि ) हे-
मन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीयं पोषनामकं मासं कति न-
च्तत्राणि नयन्ति ? गोतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति \
तद्यथा--सरगशिरः आद्रो पुनवंखुः वुष्यश्च । तत्र खृस-
शिरश्चतुर्दश रात्रिन्दिवान्नयति , आद्रा अरो राजिंदिवान् ,
पुनर्वसुः सत्त राज्रिन्दिवान , पुष्यः एक रात्रिन्दिव नयति ।
तदा चतुर्विंशव्यज्कुलपारुष्या-चतुर्विंशत्यङ्कलाधिकपोरुष्या
छायया सूर्यो ऽनुपरावक्तेते । भावार्थः पूववत् । तस्य
मासस्य चरमे दिवसे रेखा-पादप्यैन्तवत्तिनी सीमा, त-
त्स्यानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति । किमुक्ल भवति ?-
परिपूर्णानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति । । अथ तृतीयं
पृच्छुति-( देमन्ताणमित्यादि ) एतत् खुगमम् । अथ चतुर्थं
पृच्छुति-- देमन्ताणे भन्ते ! चउत्थे इत्यादि ” खुगमम् ।
अतीता मन्तः । अथ ग्रीष्मं पृच्छति- निम्हाणे भन्ते !
पदमे ` इत्यादि, तथा ` गिम्हाणं भन्त ! दो ` इत्यादे
तथा * गिम्हाणं भन्ते ! तच्चं मासे ' इत्यादि , तथा “ गि-
म्हाणं भन्ते चउत्थ ' इत्यादि , च्त्वायैपि इमानि ग्रीष्मकाल-
सूृत्राणि सुबोधानि, प्रायः प्राक्नसूत्रानुसारित्वात् । नवर
तास्मिश्चाषाद मास प्रकाश्यवस्तुनो चृत्तस्य वृत्तया समचतु-
रस सस्थानसस्थितस्य समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रो-
धपरिमर्डलसस्थानस्य न्यग्रोघपारमरडलया उपलकत्तणमतत्
शषसेस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शषसंस्थानसेस्थि
तया । आपषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तु-
ना दिवसस्य चतुभागेऽतिक्रान्ते शषे वा खप्रमाणा छाया
भवति, निश्चयतः पुनरापाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि
सवौभ्यन्तरे मराडले वत्तेमाने सूयं, ततो यत् प्रकाश्यं वस्तु
यत्संस्थान भवति तस्य छाया5पि तथासंस्थानोपजायते
तत उक्म्-चत्तस्य वृत्तया इत्यादि पतदेवाद-सखकायम-
चुरद्धिन्या, सखस्य-स्कीयस्य छायानिवन्धनस्य वस्तुनः
कायः शरीरे स्वकायस्तमनुरज्यते-अनुकारं विदधातीव्यव-
शीला अनुरज्ञिनी, द्विषडग्रहेत्यादिना, श्रीसिद्ध० “ युजरञ्ज-
द्विष० ” । ५-२-४० । इति धिनञ्प्रत्ययस्तया स्वकायमचुर-
क्विन्या यया सूर्यो -बुप्तिदिव से परावत्तेते । एतदुक्क
( २६७ )
सास
अभिधानराजन्द्रः।
भासल
भवति-श्राषादस्य प्रथमादहारात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्या-
न्यमरडलसेक्रान्त्या तथा कथंचनापि सूर्यः परावत्तेते यथा
सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुभौगेऽतित्रा-
न्त शष वा स्वाचुक्ारया स्वप्रमाणाच छाया भवतीति । शष
सुगमम् । इदं च पोरुषी प्रमाणं व्यवहारत उक्तम् । निश्चयत
साद्धेर्प्रिशता5होराजेश्वतुरड्डला वृद्धिहोनिर्वा वेदितव्या ।
ज० ७ वक्ष० । (पारुषीप्रमाणप्रातिपादकाः पूर्वांचार्य प्रसिद्धा
करणगाथा:
ख्या गताः )
अथ मासानां संख्यामाह--
एगमेगस्स श भते ! संवच्छरस्स कड मासा पष्पत्ता ।
गोअमा ! दुवालस मासा पण्णत्ता, तेसि श दुविहा
शामधेज्ञा पण्णत्ता, तं जहा-लोइआ, लोउत्तरिया य । त-
त्थ लोइआ णामा इमे , तं जहा-सावणे भद्वण० जाव
सादे, लोउत्तरिआ णामा इमे, तं जहा-
“४ अभिणंदिए पटे अ, विजए पीइवद्धणे ।
सेअंसे य सिवे चव, सिसिरे अ सहेमवं ॥ १ ॥
शवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंमवे ।
एकारस निदाहे अ, वणाविरोंहे अ बारसमे ॥ २ ॥
एकेकस्य भदन्त ! सवत्सरस्य कति मासाः प्रज्षप्ताः? |
५ ~~ == (न [०4
गोतम ! द्वादश मासाः प्रज्ञप्ताः, तेषां द्विविधानि नामधेयानि
भ्ज्ञप्तानि, तयथा-लौकिकानि, लोकोत्तराणि च । तत्र लोकः
रवचनवाह्यो जनस्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्सम्बन्धीनि लोकि- |
कानि । लाकः प्रागुक्त पव तस्मात्सम्यग्ञानादिगुणयुक्कत्वेन
उत्तराः-प्रधानाः लोकोत्तराः जनास्तषु भरसिद्धत्वन तत्सम्व-
न्धीनि लाकोत्तराणि । अत्र ज्राद्धाचवघानस्य वकाल्पकर्त्वन य- |
थाश्रुतरूपसिद्धिः। तत्र लोकिकानि नामान्यमूनि.तद्यथाश्रा
चणो भाद्रपदः याचत्करणात् आश्वयुजः कार्तिको मार्गशीष
पौषो माघः फाल्गुनश्चेत्रो वैशाखो ज्येष्ठ आषाड इति । लो-
कोत्तराणि नामान्यमूनि, तद्यथा- प्रथमः श्रावणः, अभिन-
न्दितो द्वितीयः,प्रतिष्ठितस्तृतीयो, विजयश्चतुर्थः,प्रीतिवद्धनः
पञ्चमः, भ्रयान् षष्ठः, शिवः सप्तमः,शिशिरः अष्टमः हिमवान् ,
सूत्रे च पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमबता सह
शिशिर इत्यागतं शिशिरः दिमवांश्चति, नवमो वसन्तमासः,
दशमः कुखुमसम्भवः, एकादशो निदाघः, द्वादशो वनाविंरोंह
विरोदस्थान तु वनविरोधी इति । जं० ७ वक्ष० । अवसरे,
‹ पोरिखी ` शब्दे पञ्चमभागे ११२८ पृष्ठ सव्या- |
|
“ कालमासे काल किञ्चा ”' मरणावसरे मरणे विधायव्य्थः। |
श्यौ० | ज० | स० ।
आसा णं मासे एगुणतीसदहराईदियाई राइंदियग्गणं पष्- |
त्ता,(एवं चेव)भदवए ं मास कत्तिए णं मासे पोसे णं मासे
फञ्गुण शं मासे वइसाहे णं मासे, चददिणेणं एगृणतीसं
महत्ते सातिरेगे मुहृत्तरगेणं पणणत्ता स° २६ सम० |
मासउस-मापतुष-पुं० | आगमप्रसिद्धे जडसाथौं, पद्चा० ६६
| जब । |
मासकप्प-मासकल्प-पुं० । एकत्र मासावस्थितिरूपे समाचर,
/0 तक
| आसल-मासल--च० | मास्थादंवो ॥
पश्चा० ६७ विव० । जीत० । घ० । दर्श० । पं०भा० । पं० चू०।
घ० | ओ० | बृ० । ओघ० । ( विहारशब्दे5यं व्याख्यास्यते )
मासकल्पद्वारमाह--
दुविहो य मासकप्पो, जिशकप्पो चव थेरकप्पो य ।
एकेको वि य दुविहो, अट्वटियकप्पो य ठियकप्पो ॥
द्विविधो मासकट्पः, तद्यथा-जिनकल्पः स्थविरकट्पश्च ।
पुनरेकेको द्विविधः-श्रस्थितकल्पः, स्थितकल्पश्च । तत्र म-
ध्यमसाधूनां मासकल्पः अस्थितः, पृवपश्चिमानां तु स्थितः।
ततः पृवपश्चिमाः साधवो नियमात् ऋतुबद्ध मास मासन
विहरन्ति । मध्यमानां पुनरनियमः, कदाचिन्मासं पूरयित्वा
ऽपि निगच्छन्ति । कदाचित्तु देशोनपर्वकोरीमप्येकनत्न श्रा-
सते | बृ० ६ उ०।
से गामासे वा० जाव कष्पह शिर्गथाणं हेमंतगिम्हासु
एग मासं वत्थए ॥६॥
( इति सूत्रम् वसहि शब्दे ) चिशददहारा्रमानमेकश्चतुमास
कल्पत वस्तुमिति तदनुभावा्थः । अथ यषां मासकल्यन
वहारा भवात तन्नामग्राह ग्रहीत्वा तद्विधिमभिधित्सुराह-
जिणसुद्धअहालंदे, गच्छे मासो तहेव अज्ञा ।
एएसि नार्तं, बोच्छामि अहाणुपुब्बीए ॥ ३३१ ॥
जिनक्रस्पिकानां शुद्धपरिहारिकाणां यथालन्द्कद्पिकानां
गच्छवासिनां स्थविरकर्पिकानामिव्यर्थः । तयैवारय्यारां
साध्वीनां यथा येषां मासकट्पो भवति तथेतेषां सर्वेषाम-
पि नानात्वं वच्यामि यथानुपूर्व्या यथोदिष्रपरिपाख्या | छू०
१ उ० । साधूनां मासकट्पादिविधिना बिहार एेकान्तिको 5-
न्यथा वा इति ! प्रष्ने, उत्तरम्-साधूनां म।सकटपादिवि-
हारो नेकान्तिको, यतः कारणाभावे त मासकल्पादिविधि-
नैव विहरन्ति, कारण तु “पंचसमिआ तिगृत्ता, उज्जुत्ता स
जमे तवे चरणे । वाससये पि वसता , मुणिणो आराहगा
भणिआ ॥ १॥ ” इत्यादिवचनाद्रहुतरमपि कालमेकत्र ति-
न्तीति । सेन० १ उल्ला० १५ प्र० ।
मासखमण मासक्षपण-न० । पत्तद्यात्मकमासपयन्ते निरा-
हारे, बृ० ३ उ० ।
मासशिव्वादि- मासनिवौहिन्- चि° । मासनिवेहणसमपंके ,
पं० व० ५ द्वार ।
भ सभि ततो अमिन भ | मासपष्पी-माषपणी - स्री०। ओंपधिभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
इत । अन्न प्रज्ञापतृत्ता आभनानदतस्थान आभननन््द्ः चन | नस (3
के £ ` - मास(प)पुरिवङा-मासपरिवन्ती-खी० । भङ्गदेशयाजघान्यास्,
प्रज्ञा० १ पद् । प्रश्न० । प्रव० । सूत्र० ।
मासपूरिया-मासपूरिका -स्त्री० । स्थविराज्निगंतस्यार्यरोहण-
स्योदेहगणस्य शाखायाम् , कल्प० २ अधि० ८ क्षण ।
मासपेया-माषेया- खी । मापपिष्टमय्यां पेयायाम्, आ०क०
अ०।
मासपोलिया-माषपोललिका- खी । माषपिष्टभ्ततायां पोलि-
सायाम् , स० १ सम०।
मासफल-मापषफल-न० । श्चतसपण्णेडशके, ज्या० १ पाहु० ।
। १। २६ ॥ इत्यनुखार-
( रेदि )
मसले स्मभिधानराजेन्द्रः। माहमाला
बकाए्ज्राननात्ऋछा लजज्छाजगजजलागजनूएणण्ज लूामममन रततरछ बज्ज््स्स्ट यम 2-3 पी 3 बा 54550
लोपः । प्रा० । उपचितरसे, प्रज्ञा० १७ पद् ४ उ० । जी०। | ख्यात ग्रामे , आ० चू० १ अ०। कल्प० । आचा० ।
बहले जी० ३ प्रति ४ आधि० ।
मासलोल-मांसलोल-वि०। मांसलम्पटे, उपा० ८ अ०।
माससगलिया-मांससगलिका-खी० । उडद्फलीपाणके, भ
१४ श० |
[3 देशी य ~, = ४) द ५ [न>
मासञ्म--देण- पशन, दे०्ना £ वग ६२२ गाथा।
मासिय-मासिक--ि० । मासन निवत्त मासिकम् । मास--
निष्पन्न, व्य० १ उ०। स्था० । आचा० । नि” चू० ।
मासाऽस्य परिमाणे मासमहति वा मासनिष्पन्नं वा मासि-
कम् । नि० चू० २० उ० । करप० । जे०।
मासियभिक्खुपडिमा-मासिकभिचुप्रातिमा-खी०। मासपीर. |
माणे भिक्ुप्नतिमाविशेष, तत्न हि मासं यावदेका दत्तिभङ्क- |
स्येकैव च पानकस्येति । । औ० ।
[व् मासिकी 4 [इक 4
मासिया-मासिकी--खी० । मासप्रमाणायां भिक्षुप्रातिमायाम
पञ्चा० १८ विव० । ज्ञा० | स० | आ० चू० । (' भिक्खुप- |
डिमा ` शब्दे पश्चमभागे ६५७३ पृष्ठे व्याख्यातैषा)
मासु-श्मश्रु-पुं०। आदेः श्मश्रु-श्मशाने ॥ ८। २।८६॥ इ- |
त्यादेवेर्णस्य लुक्। मास्। मंस्। मस्सू । कूर्चके, ओओष्टरोमणि,
च । धरा०।
देशी ह, क ५
मासुरी-देशी-श्मश्रणि, दे” ना० ६ वग १३० | गाथा । “मसू
खड च माखुरी कुच ” पाइ० ना० ११२ गाथा ।
माह-माघ- प | खघथघभाम् ॥ ८ । १। १८७ ॥ स्वरात्परेषा |
मसंयुङ्कानामनादिमूतानामपां प्राया हाभवति। मादो । पा०।
मा्धी पूर्रिमायुक्के, आ० म० १ अ०। प्रश्न०। जी० । कुन्दकु-
सुमे, द० ना० ६ वर्ग १श८ गाथा । माघमास, “ सिसिरो
फरगुण-मादा ” पाइ० ना० २०७ गाथा ।
माहण-माहन-ब्राह्मण-पुँ० मा दनयवं-योऽन्ये प्रति वक्ति स्वयं |
हनननिवृत्तः सन्नसौ माहनः। ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य-कुशलानुष्ठानं
वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणः | भ० १ श० ७ उ०। मा वधीरिव्येवं |
प्रवात्तियस्थासी मादनः । सूत्र० २ श्रु० २ आ०। उत्तरगुणमू-
लगुणवाति सयते, स्था० ५ ठा० २ उ०। मा हन इति परं प्र-
त्याचक्ताणे स्वयं टनननिवृत्त मृलगुणधरे, स्था० ३ ठा० १
० । साधो, श्राचा० १ श्रु० ८ अ० ८ उ० । सूत्र । झातु० ।
जीवहिसानिषिधकारिणि दर्शन ५ तत्त्व | सूत्र० । द्वि-
जातौ , सृत्र० १ श्ु० १ आ० ३ उ०। मुनौ, सूत्र० १ |
श्रु० ९ अ० २ उ०। भ०। सूत्र) तीधकृति “ मादशेशं
मइमया ``
भ० । नि० चू० । औ० । स्त्रये हनननिवत्तत्वात्परं प्रति मा
इनेति चादिनमुपलक्तणत्वादेव मुलगुणक्त इति भावः। श्रा-
चकं , मादनः श्रावकः | भ० २ श० ४ उ० । आल्चू० ।
श्राचा० | आ० म० । न° । श्रौ० । ( कि ब्राह्मण्यम् , के शि-
ष्टाः इति - मागम ` शब्द द्वितीयभाग ५६ पृष्ठ गतम् ) ब्रा- |
कणखियाम् , खी ० । “ धिच्राह्मणीधवा ऽभावे, या जीवति |
स्ता इव । धन्या मन्य जनश्श द्री ,'पतिलत्त ऽप्यानिन्दित।॥?॥'' |
स्था० ४ खा० १ उ०।
माहणकुंडरगाम-ब्राहणकुएडगण़ाम-पुं० । मगधदेशे स्वनाम- ।
(१ गाथा ) सूत्र० १ श्रु० ११ अ० | दश०। |
माहणकुल-ब्राह्मणकुल-न० । ब्राह्मणसन्ताने , करप० १ अ-
। धि०२त्षण।
माहणग्गाम- ब्राह्मणग्राम- प° । बाह्यणकुरड्रामे , कठ्प० १
| अधिण० ६ क्षण ।
| माहण्ऽज्छयण- ब्ाह्मणाध्ययन-पुं० । कौशाम्ब्यां बृहस्पति-
दक्तनामके पुत्र, स्था० १० ठा० । ( कौशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्त
| नामा ब्राह्मणः, तद्धृत्तम्-'कम्मविवागदसा' शब्दे तृतीयभागे
३४४ पृष्ट गतम् )
| माहणपुक्त- ब्राह्मण पूत्र-पु° । बाह्यणसन्ताने, स्था० ६ ठा०।
माहणवसिष्ठप्पाय-ब्राह्मणवशिष्ठन्याय-पुं० ब्राह्मण आयातो
वरशिष्टो ऽप्यायात इति सामान्यग्रहणन विशेषस्यापि ग्रहण
सत्यपि पृथगुपन्यासाथके लोकन्याये, आ० म० १ अ०।
माहणसत्थ-ब्राह्मणशास्त््-न०। ब्राह्मणसम्बान्धिनि शाख,ज्ञा०
र श्रु० ४ आ०।
माह णी-जाद्यणी-खी° । ब्राह्मण॒स्त्रयाम् , उत्त० ४ श्र° ।
आए० म०।
माहप्प-पुं०न ०।माहत्म्य-न० । णाच्ष्य थ-बच नाद्याः॥८।१।३३॥
इति पुंस्त्वं वा । मादृप्पं । माहप्पो । प्रा० | अद्भुतायां शक्को,
व्य० १ उ०। महानुभावतायाम् .उत्त० २ अ० । द्वा० । दर्श० ।
| माहमाला-माघमाला-खी "माघमास मालापूजायाम्,जीवा०।
कुग्गाहुच्छाइयसुह-विवेयपसरा रसंति एवं ऽन ।
णो माहमाल जुत्ता, सिद्धंऽते जण पडिसिद्धा ॥ ४३॥
कुग्राहेण--दुष्टाभिप्रायण, उच्छादितः-अपनीतः, शुभः-प्र-
शस्तो, विवेकप्रसरः--छृत्यानुष्ठानविभागो येषां ते रसन्ति-
| जल्पन्ति । एवम-वच्षयमाणप्रकारेण, अन्य-अपरे । तदेवाह-
(नो)-नेव, माघमाला प्रतीता, युङ्घा-सगता । किमितीत्याह-
सिद्धान्त-आगमे यस्मात्प्रतिषिद्धा-निवारितति गाथार्थः ।
तमेव निषेध दशैयितु पराभिप्रायेण
किचिदून गाथाद्धमाद-
लोइयतित्थेसु एहा-णदाणइच्चाइवयउ' ` "` ` `
लोकिकतीर्थेषु-पराभिमतपुण्यक्षेत्रेषु,अनुस्वा रो ऽत पूवैवत् ,
स्नानदानमित्यादिवचः.्रादिशब्दात् संक्रान्तिग्रहः । तत्र स्ना
नं-तत्तीर्थेषु जलादिना, दाने तु तत्सम्मतक्ते्र द्रव्यादिवितर-
रो न कार्यमिति प्रक्रमाद दश्यम् श्रावकाणाम्, अयमभिप्रा-
यः-यत् किमपि लौकिके धमा थ विधीयते पूर्वोक्तं तच्छावकैः क
संन युज्यत।माघमालामपि ते आदिशब्दाद् गरृहणान्ति इति भावः।
अन्नोत्तराद्धसाडा काचदधिकां गाथां
पराभिमतयुक्किसदितामाद-
९००७००० 22 "तं नो | “
जंजं लोए करद्, तं तं जई सव्वमकज़ ॥ ४४॥
तो जत्ता रहभमणं, उववासो देवभवणपू्याऽऽईइ ।
मा कुणह सया तुम्हा, लोए किज्जति जुत्तीतो ॥ ४५॥
तत्-- परोक्तं, नेति निष । यद्यज्ञोक-परदशने क्रियते
तत् तत् यदि सवम्--समस्तम् , अकार्य ततस्तस्मा-
----~~~-~ ----
क~त
त्, यात्राईपि-विशिष्टमहिमा, रश्रभ्रमसं-जेनस्यन्दनश्च-
॥
( २६६. )
माहमाला कक अल र उप 2 न
मणम् , आदिशद्दात्प्रातिमाप्रेक्षणकरादिग्रह। । मति निषधे, भिय विस्सटवण, विहिमागमलागनीहए || ५० ॥
कुरुत--विधत्त, कमपदे तु सवत्र स्ये सवन्धनीयम् , सदा-
सर्वदा ( तुम्हे त्ति) यूयम् । कस्मात् लाके-परमते क्रियन्त-
विधीयन्त युक्तः कारणादिति गाथाथः।
परोन्सादनपूव स्वपत्तस्य पुष्टिमाह-
एयं पि जुज्जइ चिय, जइ सका, वारियं भवेज्ज इमं |
समदए वारिताणं, अतरायं जतो भणियं ॥ ४६ ॥
एतदपि--भवदुक्रमपि न कवले मदुक्कम् , युज्यत एव-घ-
खत पव, यदि सात्तात्प्रकटम् , वारितम्-- निषिद्धम्, भवेत् '
इदम्-मालारोपणे, “माघमाला न क्रियत" इति, स्रमल्या-नि
ज्ञाभिप्रायण.वारयताम्-प्रतिषध कुर्वताम्, अन्तरायो5एमप्र
कृतिविशषलत्तणा भवतात समस्यत, यस्माद्धाणत शतक-
कर्मग्रन्थ इति शेष इति गाथाथेः ।
तदवाह--
पाणिवहाईनिरओ, जिणपूयामोक्डमगगविग्धयरो ।
अज्ञ अंतरायं, ण॒ लहइ जेणिच्छियं लाभं ॥ ४७॥ |
प्रारिवधादानरतो-जीवव्यापादनसक्ः, आदिग्रहणात् स- |
ावादादिग्रहः, जिनपजा स्वज्ञाभ्यचनम् , मोत्तमागो यथा
वस्थितशुद्धप्ररूपणादि लक्षणः, तयोविघ्करा-भज्जकः, अजय-
ति-स्वीकराति अन्तरायकर्म विशेषितस्येव फलमाह-नो नि
चधे, लभते-प्राप्नाति, यन कमंणोरपा ज़ितेन इच्छितम-आभि
लपिते, लाभम-घनधान्यादिकम् । अयमभिप्रायः-इये माघ्र-
माला-जिनपूजा न भवति, भवति वा ?, यदि न भवति ततो
ऽनिदोषा, वारयतापि युयम् , भवति चत् तता निश्चितं मद्ध- |
रितं फल भवतां हठादागच्छाति । इति गाथार्थः ।
त्रापि जीवोपदेशमाट-
मामा तुमं शिवारसु, पूयं रे जीव ! जिणवरिंदाणं ।
जई सयलसोक्खवल्ली-णमप्पणो महसि उल्लासं ॥४८॥ |
मा मति-अल्याद्रकरणाथ, वीप्सानिर्दैशो निपेधाथः, त्वम्-
भवान् , निवारय-निषेधय, पूजाम्-स पया, र जीवेत्यामन्त्रण,
जिनवरन्द्राणाम्-सर्वज्ञप्रतिकृतीनाम, यदीति स्वाभिप्रायस्- |
चकाथैः, सकलसोख्यवल्लीनां-समस्तसातलतानामात्मना-
जीवस्य-मदसि-वाञ्छुसि,उल्लञासम्-चरद्धिम् । इति गाथाथेः।
तथा कोऽयं तवाभिनिवेशो यदुत लाकिकं न क्रियते श्र
विरुद्धं तदपि विधीयते इति दशयन् विशषावश्यकोक्कां गा- |
थामाह--
जे अत्थओं अभिष्य, अण्णुत्था सहझओ वि तह चेव !
त॑मि पओ्ओोसो मोहों, विसिसतो जिणमयठियाणं ॥४६॥
^ यत्-किमपि अनवधारितरूपम्,अथतः सिद्धं यन अभिन्नम
व्यतिरिक्नोचितम् ,अन्व थात्-युक्काभिधेयात् , शब्दतोऽपि व-
चनतोऽपि, तथा चेवामिशन्लमव च तस्मिन् शब्दार्थाभिन्ने
जिनवचनमाश्रित्य प्द्वेषो-मत्सरो, मोदा मृढतेये विशेषत
आदरण जिनमतास्थतानाम्-स्ज्ञागमस्थितानाम् यथा- |
पशञश्चतानि पविआ्ाणि, सर्वेषां धम्मचारणाम् | आहसा स-
। = मेथुनवजनम् ॥१॥ इत्यादिषु। इति गाथाः
सूत्रेणव ससंबद्धां गाथामाह--
कि बाऽणुमयं हरिम दष्ूरिणे। किंवि लोइय जण ।
६८
| माहुर-देशी-शाके, दे ना०
कि वा' अभ्युच्चय .अनु मतम-सम्मतम॒ . हरिभद्गस्ररावश्य-
कादिवृत्तिकतुः, किमाप-तन्सवंतो भस्नानादिके. लोकिकम-
लोकाचोरणण, यस्माद्धणित-प्रतिपादिते विश्वम्थापन-विश्व-
स्थापनपश्चाशके । कि भणित तदाह-( विहिमागमलागनीईए
त्ति) विधान बच्य-अभिधास्य, आगमनीत्या-लोकनीत्या
वा । इति गाथाथः ।
यद्यत्र लाकग्रहणं ततः किमित्याह-
लोयग्गहणाउ सिरिअभय-स्त॒रिहि ` जं तन्थ बक्खाये ।
अविरुद्धं लोइयमवि, कीरइ पासायकरणाई ॥ ४१ ॥
लाकम्रहणात्-लाकशब्दप्रतिपादनात् , श्रीअभयद्वस-
रिभिः-भगवत्यादिशाखरव्रत्तिकारिभिः, तत्र-विस्वस्थाप-
नपश्चाशकवृत्ता, व्याख्यातम--विद्यतम् । कि तदित्याह--
अविरुद्धमू-अदृष्यम्, लोकिकमपि-इतरदशनसत्कमपि
सकलमवेत्यपिशब्दाथः । क्रियत-विघीयत,प्रासादकरणादि-
श्रीवत्सादिप्रासादविधानादि, आरादिशब्दात्-शेषाविरुद्ध परि
ग्रहः! इदमत्र हृदयम--सक्ललाकिकेर्निजदेवकुल वास्तुवि-
द्योक्कप्रासादादिः कार्यत सोऽस्माकमपि देवसदने विधीयते
न तत्र मिथ्यात्वम् ,मालापीयमस्माभिर्सस्मन आदिशछब्द क्ति
प्य॒त, अताऽनवद्या । इति गाथाथः। समाप्तोऽयं माघमाला-
प्रतिपादकः सक्तमाऽधिकारः । जीवा० ७ अधि० ।
माहविच्रा-माधविका--खी° । माध्रवलतायाम् , “
माहवि्या '” पाइ० ना० २५६ गाथा ।
माहसिणाण-माघस्रान-न० । माघमासे स्राननियमे, यदिन-
तः प्रारभ्य शेवा माघस्नानं करर्व्वते तदिनत एवारभ्य केचन
श्राद्धा अपि स्वग्रृहे उप्णादकादिना स्नात्वा जिनधासिनि गत्वा
जिनपूजां कर्वन्ति, मासप्रान्ते जिनभक्त्यर्थ राजिजागरणं
मोदकादिलम्भनिकामपि कुर्वत, माघ्रस्नानमिद मुच्यत, तत्क-
रण च मिथ्यात्वं स्यादित्युक्त्वा केचन पएतत्छृव्यंनिषेधय-
न्तः सान्ति, तत्प्रमाणमप्रमाणं वेति ? परश्च. उत्तरम्-माघमासं
यावदुष्णोदकादिना स्नानकरणं पूजाकरणे तत्परान्त रात्रिजा
गरणे लम्भनिकादिकरणे च न युक्रिमत्प्रतिभाति प्रसङ्गदा-
पादिभयादनाची त्वादिति । ३०४ प्र०। सन० ३ उन्ञा० ।
माहरयण-दशो-- वस्र, दे० ना० ६ वर्म १३२ गाथा ।
माहिद-माहेन्द्र--पु° । चतुधदेवलोके, तदिन्द्रे च । स० ७०
सम० । आ० चू० । प्रच० | स्था० ज० | प्रश्न० | अहोराजस्य
विशत्तमे मुहत्त, स० ३० सम० । ज०। ज्यो० । विश०। चे०
प्र०। अनु० ; उत्तराहाणां माहन्द्रकरपस्यन्द्र,स्था०२ ठा० ३
उ० | अनु० ।
माहिल-देशी-महिपषी पाले, दे० ना० ६ वर्ग १३० गाथा ।
इमुत्ता
माहिवाग्--देशी-शिशिरवाते, दे० ना० ६ वग १३१ गाथा ।
माही-मार्घी--खी० । मघानक्षत्र भवा पूर्णिमा माधी । मघानक्ष-
अभाविन्या ममायाम्,पूर्णिमायां च । सरू० प्र० १० पाहु०। ज०।
माहु-माहु-अव्य० । यस्माद्थ, नि० चू० १ उ०।
६ बगे १३० गाथा |
| माहुरक- माधुरक--ऐ० | श्रनम्लरस, च्रा० म० १ झ० ।
ध की रा. ~. न
( २७० )
अधिधानराजन्द्रः।
[
माहुरयचिषटि
माहुरयवरिहि-माधुरकविधि प° । अनम्लरस,उपा० । (मा
हरयविहिपरिमाणं करइ' इत्यादिना ' आरणद' शब्दे द्वेतीय
गे ६६० पृष्ठ स्दरत्रितम् ) ( माहुरय त्त )श्रनम्लरसान शा-
लनकानि । उपा० १ अ०।
माहुरवायणा-माधुरवाचना--खी । मथुराज्ञातायां वाचना-
याम् , उ्यातिष्करर्डकातिरिक्कसृजाणां माथुरी वाचना।
ज्यो० २ पाहु० ।
माहराहार--माथुराहार-पुं० । मथुरायाः परिभोग्ये तत्समा- |
सन्न देश, सूत्र० २ श्रु० ३ अ० ।
माहुरी-माथुरी-स््री० । मथुरापुरीसक्वटितत्वात् इये वाचना
माथुरीत्यभिधीयते । मधरापुरीजातायां वाचनायाम् , न०।
साच तत्कालयुगप्रधानानां. स्कन्दिलाचार्याणामभिमता
तेरेव चाथतः शिष्यवुद्धि प्रापिता इति तद डुयागात्तपामा-
चायाणां सवन्धीति व्यपदिश्यते | नं०। ( ` खदिल ` शब्दे
तृतीयभागे ६६८ पृष्ठे अत्र मतान्तरं निरूपितम् )
माहुलिंग- मातुलिङ्ग-न° । वितस्ति वसति-भरत-कातर-
भातुलिङ्ग हः ॥ ८ । १। २१४ ॥ इति तकारस्य हकारः । बी-
जपूरे , प्रा० १ पाद्। "
माहं(हिं)।दज्कमय--माहिन्द्र ध्वज-पुं० । माहन्द्रा इत्यॉतमहान्त
समयभाषया, तचत ध्वज़ाश्वति | अथ्वा-माहेन्द्रस्य श-
क्रदेध्यजा माहेन्द्रध्वजा: | महत्सु ध्वजषु, इन्द्रध्वजादिषु,
व° २६६ द्वार ।
महिसरजाया- माहश्वरजाया- खी० ० मायायाम् , अने० ।
महेसरी महेश्वरी खी । महत्या ईश्वयी कृतति माहेश्वरी ।
चिपृष्रपाचलाख्यवलदेववाखुदवनिर्वोशितायां स्वनामख्याता-
यां पुर्याम् , यत्र वज्रस्वर्पमना वोद्धानां जयोऽकारि । आ०
म० १ ० | च्रा० चू०। पश्चा० । आ० कण । प्रज्ञा० । ब्रा-
हम्यादिलिपिभदे, स० १८ सम० । ;
---- -- -
| मिच्रसिर -म्रगाशेरस्-न०। नक्तत्रभदे, अभिजितमार्द कत्वा
| मिठकालुणिया-मृदुकारुणिका-स््री० । भ्रोकहदयमादेवजनः
नान्मृद्धी चासो कारुणिकी च कारूणयवती मस्तदुकारुणिकी ।
| मिउकुंडलकुंचियकेस-मृदुकुएडलकुश्वितकेश-त्रि० । दबः
| कुरडलमिव दभोदिकुणडलकमिव कुञ्चिताश्च केशा.यस्य खः
मि-मि- अव्य । मार्दवे, आ० म०१ अ० | मीति वाक्या-
लेकारे, आ०.म० १ अ० । णे णेमि अम्मि अम्ह मम्ह में |
मम मिमे अहे अमा ॥ ८ । ३। १७० ॥ इत्यमा सह अस्मदा
मि-आदेशः | माम्-इत्यथ, प्रा० ३ पाद् । नि० चू० |
मिआ्र-मित-न० । परावतन कुतः परण वा कचित् प्ृष्टस्या-
क्षरसंख्यया पदसख्यया वा परिचिन्न , , आ० म० १ झ०। ,
ˆ“ मिश्र तुच्छ | पाइ० ना० २६४ गाथा |
मग इव तनुत्वभीरुत्वादितद्धमंयुक्त,
तच्छे.
मृग-पुं० । हरिण,
स्शा० ४ खा० २ उ०।
मिक मृगाङ्क पुर । म्ण मृगादु- म॒न्यु-ग्यङ्ग ध्र वा
॥ ८। १। १३० ॥ इति ऋत इत्वम् | मिञ्यङ्गा । प्रा० । चन्द्र,
प० व० * द्वार ।
मिअ्रग-मृदड्र-35० ।
क ॥ ८। १। १६७ ॥ इत ऋत इकाराकारों | मिअ्ंगो । पक्ते-
मुईगा । वाद्यभदे, प्रा० । ( मदग ` शब्द् व्याख्यास्यते )
मिअगंध-मुगगन्ध्-पुं? | सुपमसुषघमाका लभावानि , जे० ४
चन्न ।
दनो ~ [~= = चण्ि- प्रथड़-म दड्ढ्-- नप्तू-
द्वादश नक्तत्र समुगशिरः । ज० ७ वत्त० ।
| मिञ्रावई- मृगावती - खी । प्रथमवलदेववासुदेवमातरि, श्रा.
च० १ अ०।
| मिउ-मृदु-तरि० । प्रतजुपरिणामे , बृ० ९ उ० । बहिदुत्त्या
विनयवति, उत्त० २७ श्र० । कोमले, ने० । स्था०। विशदे,. ।
ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । रा०। मनोज्ञे, रा०। ज । अस्तब्घे,,
[3 है प (~ कर्कर ५
घ० ३ अधि० । सुकुमारे, ओ० | , तं० । जी० । उ+
त्त । स्पृश्य, तिनिसलतादिगतो खदुः । कर्म० १ कमे० ।
मिउकम्म-मृदुकर्मन्-न० । खदुसज्षकनक्तत्रेषु करणीये कार्य,
“ अरुराहा रवद चेव, चित्ता मिच्रसिरं तदा । मिउनेयाणि
चत्तारि, मिउकम्मे तख कारये ॥ १ ॥ ” दश० १ श्र०।
पुत्रादिवियोगदुःखदुःखितमात्रादिकतकारूणयरसगभैभ्रलाप~
प्रधानायां विकथायाम् , स्था० ७ ठा० | ग०।
तथा । आमुम्नकेशवति, भ० १५ श०।
मिउणाम - मृदुनामन्-न० । स्पशनामभेदे, यदुद्याज्जन्तुशरी
रं हंसरुतादिवन्खदु भवति तन्ख्दुनाम । कमऽ १ कर्म० ।
मिउपिड-मृत्पिणड-पु° । खत्तिकापिणडे, पश्चा० १ विव०।
मिउमदवसंपष्प-मसदुमादेवसम्पन्न -पु०।खदु-मनोज्ञ-परिणाम-
सखुखावदमिति भावः यन्मादेवे तन सम्पन्नाः ! कपर मार्दवा-
जुपतषु, तं० । कल्प० । रा०।
मिउमस्रग मृदमसूरक-9० । आस्तरणावशष, कटप० १ अ-
थ० ३ क्षण ।
मिउविसय-सृदुविशद्-त्रि०। कोमलविशदगुणयुक्ेषु, “भिड-
विसयपसत्थलक्खणसंवेज्लियग्गासरयाउ ” स्रदवः-कोमलाः,
विशदा--निर्मलाः, प्रशस्तानि--शोभनानि अस्फुटितत्वप्र-
भ्रतीनि लक्षणानि यषां ते प्रशस्तलक्षणाः, संवलित सचृते-
म्र यपां शखरककरणणात् ते संवेज्लिताग्राः, शिरोजाः केशा
यासां ताः । जी० ३ प्रति० १ उ०। !
मिंजा- मिज्ञा स््री० । अस्थिमध्यवर्तिनि धातौ, ज्ञा० १ श्रु०
५ आ० । च्रो० । रा० । वीजे, स्था० १० ठा० ।
मिंजिया-मिशख्लिका-स््री० । जीन्द्रियजीवभेदे, जी० १ प्रति० ॥
मिठ-मिण्ड-पुं० अकामनिजराशब्द् उक्के खनामख्याते पुर |
प, आ० म० ६ झआ० ।
मिंह-मेढु-न० । लिङ्ग, ध० ३ अधि० । मेषे, स्था० ४ ठा० १
उ० । हस्तिपके इति सभाव्यत । | आ० क० ४ अ०।
मिंदमुह-मेण्डमुख-न० । यमद्िश्वशुरपुरे, द्श० ४ तत्त्व ।
मिंढिआ[-देशी० | गङ्रिकायाम् , ““ मिंढिआओ अविलाओ ”
पाइ० ना० २१६ गाथा |
मिंदेयपह-माॉद्कमरव-9० | स्वनामख्यात अनायेदंशे, प्रव०
२७४ द्वार भ० । स्वनामख्यात सान्नवश, यत्र वीरस्वामि-
.॥
०२७३
अभिधानराजन्द्रः |
मिंदियस॒ुद
शै
__ भिगावह
नो रेगातङ्काः प्रादुभूताः । यत्र च रेवती श्राविका अवात्सी-
त्। आ० म० १ अ० |
मिग( य )- सग - पुं° | बालशिक्षके, व्य० ३ ३० । आरस्यपशौ
सूत्र० ९ श्रु १ अ० २ उ० | अज्ञानाने, सूँत्र० १ श्रु० १ अ० |
२ उ० । दर्श० । दश० । विपा० | ओ० ।
मिगकोड्ू ग-सृगको छुक-न? । यमर्दाग्नऋषिश्वशुरपुरे , आ० |
म० १ अ०।
मिगचरिया-मृगच्या-खी० । मृगभोजनपानविधौ , उत्त०
१६ श्र०।
मिगज्खय- मृगध्व्ज- प° | भृगालेख्यरूपोपेते ध्वजे, रा० ।
मिगतण्टा- मृगतृष्णा-खी० । जल्ान्तो, अष्ट ७ झष्ट०।
मिगमण- मृगमनस्-वि० । भीरौ, स्था० ४ ठा० २उ०।
मिगलुद्धय मृगलुब्धक-वे° । गानव मारायत्वा भुज्ञानघु
वानप्रस्थेषु, ्रो° । नि० ।
मिगरहिय-सगरहित-जि० । सगत्वेन रितो सगरादितः ।
गीताथौवस्थे, दशी ४ तत्व । _'
प्रिगल्रोयणा-मृगलोचना-खी० । राजीमत्याः खनामख्या-
तायां सख्याम् , कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
मिगवण-खगवन-न० । बीतभयनगरस्य बहिरुद्याने, भ० १३ |
श० ६ उ० । रा०।
मिगवार्लुकी-मृगवालुङ्क-खी° । लोकप्रसिद्धे वालुङ्गीति-
धरतीते वनस्पतो, कटु कर सत्वात्कृष्एलेश्याय। एतत्सदश आ- |
स्वादः । प्रज्ञा १७ पद् उ० ।
मिगसमान -मृगसमान-त्रि० । खरगसदशे, व्य० २ उ०।
मिगसिर मृगशिरम्-न° । सोमदेवत्य जितारे नक्षत्रभेदे , |
च० प्र० १ पाहु० । स्वृ० प्र० | ज्यो० | अनु० | स० ।
मिगसीसाऽवली- मृगशीष।वली खी ०। खगपशोः शीरपपुद्धला-
नां दीधरूपायां श्रणो, ज० ७ वक्त ० ।
मिगावई-म्रगावती-खी०। कौशाम्ब्यां नगर्यो सहस्रा नीकस्य
राज्ञपु्रशतानीकभायायां चरकराजदुहितरि उदयनरा-
जमातरि, भ० २ श० ५ उ० | आव० | आ० चु०। आ० म०।
जम्बूद्वीप इद द्वीपः, पोतवल्लवणाद धो ।
कूपस्तम्भा यत्र मेरू-गंडरगा सितपटः पुनः ॥ १॥
तत्रास्ति भरतक्तत्र, बहुधाऽन्यमनोरमम् ।
आश्चर्य खात्रपातोऽस्मि- निदानं च न कुत्राचित् ॥ २
श्रीसकेतनिक्रताभे, तत्र साकेतपत्तनम् ।
सदाचारपरो यत्र, ज्योतिश्चक्रायते जनः ॥ ३ ॥
तत्र चेशानकोणेऽस्ति, मदिनीम॒कुटो पमम् ।
खुरप्रियस्य यत्तस्या--यतने शिखराद्धतम् ॥ ४ ॥
सख च सप्रातिहायों ऽस्ति, यत्तस्तत्त द्भवद्धयेः ।
वर्ष वर्ष चित्रयित्वा, क्रियते खुमहान्महः ॥ ५॥
चित्रितश्व सदा ते स, दान्त चित्रकरं नरम् ।
चित्र्यत चन्न तज्लोक-मारिमारभतेतराम् ॥ ६ ॥
ततश्चित्रकराः सर्वे, प्राक्रमनत पलायितुम् ।
न कान्दिशीकः को वा स्या-त्छृतान्तन कटाक्तितः॥ ७॥
राज्ञा ज्ञात पलाय्येत, यदि यास्यान्ति चित्रकाः |
यत्ता रक्तावदीर्यालु -भव्ययं तद्वधाय नः ॥ ८॥
प्रतिभूः सकलावद्धा, श्रणिश्चित्रकृतां रता ।
कवलालीव यत्तस्य, कमग्राह्या महीभता ॥ ६ ॥
लखयित्वाऽथ तन्नाम, पत्रारयक्तपयद् घटे ।
प्रत्यब्दं नाम नियाति, यस्य चिच्योऽथ तन सः ॥ १० ॥
एवं च सति काशास्ब्या-श्चित्र शित्तितुमागमत् ।
चित्रकृद्वारकश्चित्र-कृतां पुरयेरिवेरितः ॥ ११ ॥
वसंस्तत्र स चिवाणि, चित्रकर्म्माणि शिक्तितः ।
तस्यासीन्मि्रमेकश्च, स्थविरीपुत्रचित्रकः ॥ १२॥
स्थविरीसखुतनामाङ्क. वर्ष तस्मिश्च पत्रकम् ।
कुम्भतो नरगादागा-ज्ञखः पतपतारेव ॥ १२ ॥
स्थाविरी सा तदाकरा्य, तत्करुणैकटुकं वचः ।
रुरोद रोदयन्ती च, रोदसी अपि दैन्यतः॥ १४॥
कि ममाशालतां दैव !, कुठारेणैव छन्तसि ।
सूनुमेमेक एवायं, स॒ते ऽस्मिन् का गतिर्मम ॥ १५॥
रुदन्ती विलपन्ती च, श्रुत्वा तां मित्रवत्सलः ।
कौशाम्बीचित्रकः स्माह, मातमौ ऽरुन्तुदे रुदः ॥ १६ ॥
माऽतः कातरतां कार्षी-धीरतां घारयाऽघुना।
चित्रयिष्याम्यहं यत्त, रक्िस्यामि सुतं तव ॥ १७ ॥
बभाफे स्थविरी भद्र !, नत्वं पुत्रो एइसि कि मम।
उद्धारं वा पिधयं का, नेत्रयोः पुत्र ! कि दयोः ॥ १
स ऊच सत्यमवेत-न्मातः किंतु निशम्यताम् ।
निजप्राणेः परप्राणां-स्त्रायन्ते पौरुष हि तत् ॥ ९६ ॥
परिधाया ऽशुके धोते, कृतषष्ठतपाः शुचिः ।
पट प्रान्तना्पुटे-नावेष्टय मुखकोटरम् ॥ २० ॥
खुगन्धिपयसा स्नात, विधाय कलशेनेवेः ।
बरकान् वर्णकस्थाना-न्यकार्षी त्कूर्चिका नवाः ॥ २६ ॥
सो$थ यत्ते प्रयल्ञन, चित्रयामास चित्रकृत् ।
भक्त्या कुवन् जिनस्येव, मरडन चन्दनादिभिः ॥ २२ ॥
चित्र निर्माय निःशेष, यत्तमत्तमयत्ततः।
तुतोष सोऽपि तद्भक्त्या, भक्किग्राह्या टि देवताः ॥ २३ ॥
यन्तस्ते स्माह तुष्टो ऽहं, तद् वरं बरख सो ऽवदत्।
वरो ऽयमेव मे देव !, मा वधीः कञ्चनाप्यतः ॥ २४ ॥
यत्तस्त पुनरप्याख्य--त्सिद्धमेत दद्ध वद्धिरा ।
परोपकारसारत्व, खस्मै याचस्व किञ्चन ॥ २५॥
सो ऽवददेव ! यस्यांश-मपि पश्यामि देहिनः |
तस्यानुरूपरूपस्य, चित्रे स्यान्निर्मितिमेम ॥ २६॥
एवमस्त्विति यत्तोक्के, ज्ञाते राज्ञा स सत्कृतः ।
ततो लब्धवरो हृष्टः, कौ शाम्बीनगरी मगात् ॥ २७ ॥
शतानीको नृपस्तत्र, चित्रमत्र जगत्लये ।
विस्ततं यद्यशश्चृते, बद्धं गुणगुरेरपि ॥ २८ ॥
श्रासी-श्रगावती तस्य, राज्ञो राज्ञी शिरोमणिः ।
लावण्यकूपे यद्वपे, क्रीडति स्मरद दरः ॥ २६ ॥
श्रथान्यदा सभासीनः, पृच्छति स्म नरेश्वरः ।
कि मे नास्त्यस्ति चान्येषा-मेतद् दृत ! निवेदय ॥ ३०॥
दूतेन भणिते देव !, नास्ति चित्रसभा तव ।
तदेव पर्च्चित्राया-ऽऽदिशचिचित्रकरान्नरपः ॥ ३१ ॥
चित्रकृद्धिः सभा बाह्या, सर्वै ्भागेन चित्रिता ।
"9 वा +~ --- ` `
( २७२ )
मिगाचई
अभिधानराजन्द्र
मिच्छत्त
देवानां मनसा कार्य-सिद्धिर्वचाचा महीभुजाम ॥ ३२॥
तस्य चित्रकृृतों यक्ष-पाश्वप्राप्तवरस्य तु ।
नृपस्यान्तःपुरक्रीडा-स्थान चिव्राथमर्पितम् ॥ ३२ ॥
तन चित्रक्ृता तजर, कदाचिज्ञालिकान्तरे ।
गरगावत्याः पदाङ्कुष्ठः, कथचिन्निरवरायंत ॥ ३७ ॥
ततस्तदनुसारेण, दव्या रूप विनिर्मिते ।
मपीविन्दुः पातारो, तस्यान्मीलयतोा दशो ॥ ३५॥
उत्सारिताऽपि तनाऽसो, पानःपुन्यात्पपात सः।
पश्चात्तनाप्यननवे, भाव्यमत्राति निश्चितम् ॥ ३६ ॥
अथ चित्रसभां पश्य-न्नपस्तदेशमागतः ।
ददशे विन्दुमूरुस्थे, देव्या रूपेऽकुपत्ततः ॥ ३७ ॥
नूनमतन मद्राज्ञी, घपितति रुषा नपः ।
त वध्यमादिशचिज-करं क्रोधो हि दद्धरः ॥ ३८॥
अथाोचुश्वित्रकाः च्मापे, देवाऽयं वरलब्धिकः ।
दापासङ्गाऽपि नास्त्यस्य, ततो दिनपतेरिव ॥ ३६ ॥
अथास्यादार्शि कुब्जास्यं, राज्ञा त सोाऽलिखत्ततः।
तथापि तज्ञन्यङ्गुष्ठा, चदयामास तस्य रार् ॥ ४०॥
साऽपि तस्येव यक्षस्य, गत्वा ऽग्र +नशना ऽपतत् ।
यक्तणोच चि जयस्त्व-मिदानीं वामपाणिना ॥ ४१ ॥
साऽथ द्वषी शतानीके, तदेवीरूपमालिखत् ।
तत्प्र्योतनरेन्द्रस्य, गत्वाऽवन्तीमदशयत् ॥ ४२ ॥
तां तन विदितां ज्ञात्वा, तदर्थी तस्य भूपतिः ।
भ्रपीदतं स्मरार्ता हि, ऋत्याकृत्य विदन्ति किम् ? ॥ ४३॥
साऽपि निभेत्स्य ते दृत, निरसार्पौन्मपीमुखम् ।
भ्रियापरिभवं सादु, रङ्काऽपि क्षमते न हि ॥ ४४ ॥
प्रयातो ऽप्यागतं वीचय, दुतं नूतनमरडनम् ।
अमपणस्ततत्तणात्त, सर्व घ्रणाभ्यवणयत् ॥ ४५ ॥
शतानीकोाऽपित ज्ञात्वा, सरता भीत्याऽतिसारतः।
कातराऽपि हि श्रः स्या-ज्ातु शग ऽपि कातरः ॥ ४६ ॥
स्रगावत्या महासत्या, रत्तितु शीलमात्मनः ।
बुद्ध कृत्वा तता दूत-नोच्यता वन्ति भूपतिः ॥ ७७ ॥
एष्याम्यहं तवोपान्ते,परं बालो ममारिभिः।
वाघष्यत स'ऊचे तां, दृष्टा मां कोऽस्य बाधिता ॥ ४८ ॥
सा स्मादाच्छीषकं सर्पो, याजनानां शते.ऽभिषक् ।
तता नमापया ऽ त्वे, वप्रं वर्मेव म परः ॥ ४६ ॥
कारयामीति राज्ञा, देव्यूचे पुनरप्यदः
अवन्त्यामिषिकाः साध्व्य-स्तत्ताभिः क्रियतामयम् ॥५०॥
चतुदश चरपास्तस्य, स्वाधीना: सवलास्ततः।
उपकोशाम्ग्यवन्तीत- स्त परंपरया धृताः ॥ ५१॥
इणष्रिकास्तैः समानाय्य, प्राकारस्तत्र कारितः।
शेः करोः पूरयित्वा, रोधसज्ञीकृता पुरी ॥ ५२ ॥
सिद्धसाध्या प्रद्योतस्य, सा विसवदिता ततः ।
दध्या चात्रेति चद्रीरः, स्वामी तत्प्रवजाम्यहम् ॥ ५३ ॥
प्रयोतश्र विलक्तास्था--दयावत्तावल्िनाधिपः।
श्रावारः समवासाषी--छरं शान्त जलेऽस्भिवत् ॥ ५४ ॥
श्रीवीरा धर्ममाचस्यो, प्रातिबुद्ों बहुजनः ।
मस्गावता च प्रद्यांतं, पृर्चछात स्म बताथिनी ॥ ५५ ॥
सा5पि तस्यां सभायान्तां, लज्ञमानो $न्वमन्यत ।
साऽथ पुत्रमुदयनं, तस्य न्यासभिवा्पयत् ॥ ५६ ॥
श्रीवीरपद्मदस्तन, प्रवव्ाज स्गावती ।
अष्टावज्ञारवत्याद्याः, प्रद्योतस्य च वल्लभाः ॥ ५७ ॥
आए० क० १ ० | ति० (उपालम्भेऽप्यस्याः कथा-) खपु-
जीकामुकस्य प्रजापतभायाभूतायां पुज्यां प्रथमवासुदेवमात-
रि, कल्प० १ आधि० २ क्षण । आ० चू० । आ० म० | ति०।
मि्गिंद-मृगेन्द्र--पु० । सिंहे, खनामख्याते दाशंनिके विदुषि
च । स्था० १ ठा०।
मिगी-मृगी- खी । सगीरूपणोापध्रातकारिरयां विद्यायाम् ,
विश० । आ० म० । करुप० ।
| मिगीपद- मृगीपद-न० । समयभाषया सखीगुद्य भगे, नि०
चू० ४ उ०।
| मिच्चु-मृत्यु-पु० । मरण मृगाङ्क सत्यु गृह्ग-र वा
|
|
|
|
॥ ८। ६।६३०॥ इति ऋत इद्वा । मिच्चू। मच्चू। मरणे, प्रा०।
मिच्छ-मिध्यात्व-न० । मिथ्याभाव, विनयश्रेश , स्था० ७
ठा० । मथ्यादाण्रत्व, पञ्चा० १० विच० । भ०।
म्लच्छ-पुं० । पारसीकादो, ' मिच्छ पडडवरणे' बृ० १ उ० ३
प्रक० । प
मिच्छकार-मिध्याकार- पुं । मिध्याकरणे मिथ्याकारः ।
मिथ्याक्रियायाम् , ध ३ अधि० । कस्याश्चत्स्खालितस्य
मिथ्या मदीयं दुष्छृतमिति भणने, बृ० १ उ० २ प्रक० ।
ध० । पञ्चा० । उपा० | आ० म० । मिथ्या वितथमनतमिति
पयायाः । आ० म० १ अ०। ( मिच्छादुकड ` शब्दे एतद्धि
घयान् प्रादुष्करिष्याम )
| मिच्छञ्छाण-मिथ्याध्यान-न० । मिथ्या विपर्यस्तरष्ित्वं
तद्ध्यानं मिथ्याध्यानम् ।
दुध्यान, आतु० ।
जमालिगोविन्दप्रभ्नतीनामिव
| मिच्छतिग-मिशथ्या(त्व)त्रिक-न० ! मिथ्यादष्टिसास्वादनमि-
श्रलक्षण मिथ्यात्वत्रये, कर्म० ४ कर्म० ।
| मिच्छत्त-मिथ्यात्व-न० । स्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले
॥ ८। २। २१ ॥ इति थ्यस्थाने छुः । प्रा० । उत्त० । विपर्या-
से, ज्ञा० १ श्रु० १२ अ० | तच्वार्थाश्रद्धाने, आव० ४ अ० ।
अतत्वाध्यवसायरूपे विपर्यस्ताववोध, सूत्र० १ श्र० ३ आ० ३
उ० | कर्म० । श्रा० चू० । भगवद्धवचनाश्रद्धाने, द्वा० १० द्वा० |
अतत्वरुचों ,ध०. ३ अधि०। विपर्यस्तश्रद्धानि;स्था ० ३ठा०३उ०।
सप्रति मिथ्यात्वमाह--( मिच्छे जिणधम्मविवरीयं ति)
(मिच्छ ति) मिथ्यात्वे जिनधमीद्विपरीतं विपर्यस्तं ज्ञयमिति
शपः । अज्ञायमाशयः-रागद्वेषमोहादिकलड्ला ड्वित देवेऽपि
देवबुद्धिः । “ धर्मज्ञा धर्मकत्तो च, सदा धमपरायणः | स-
स्वानां धर्मशास्त्रा थ-देशको गुरुरुच्यते ' ॥१॥ इत्यादिप्रतिपा+
दितगरुलक्तणविलत्तणेऽगुरावपि गुरुवुद्धिः। कर्म० १ कम०।
( जिविध मिथ्यात्वम् )-
तिविहे मिच्छत्ते पाप्त्ते।तं जहा-अकिरिया अविणए अप णे।
मिथ्यात्वं विप्स्तश्रद्धानमिह न विवत्तितम् , प्रयोगाक्र-
यादीनां वच्यमाणतद्धदानामसवध्यमानत्वात् , ततोऽत्र मि-
ध्यात्वे क्रियादीनामसम्यग्रपता मिथ्यादशनानामोगादिजनि-
तो विपर्यासा दुश्त्वमशोभनत्वाभिति नावः । स्था० ३ ठा०३
_मिच्छत्त _
शी | /.
( २७३ )
उ० । ( अकिरिया 5 दीनां व्याख्या खस्वस्थाने ) षट् मिथ्या-
त्वस्थानानि | सूज्० र श्र० १६ श्र० । उत्त०। सथा०।
शऽत्थि ण शिच्चो ण कुणइ,कर्य ण वेएर् णऽत्थि शिव्वाश।
शऽत्थि य मोक््खोवाओ, छ मिच्छत्तस्स ठाणाई् | ५४॥
श्रभिधानराजेन्द्रः।
सम्म० ३ कार्ड । ( व्याख्यातानि षडपि स्थानानि ' अण-
प्रथमभागे ४३२ पृष्ठे)
मिथ्यात्वप्रतिक्रमणम्-
मिच्छत्त-दव्वश्रो, भावञ्रो य। तत्थ दव्वश्रो--श्राग-
म--णाआगमादि य अणेगविह । भावतो पुण मिच्छत्तमो-
इणीयकम्मादयसमुत्थ तञ्च भावासददणाऽसग्गादिलिग
असुभ आयपरिणामे पराणत्त । तं तिविहं-संसायियें, अभि-
र्गहितं, अणभिग्गहित । णिमित्तं पुण एतस्स अबोधो ,
असदभिनिवेसो, ससओ वा । आ० चू० ६ अ० १६५८ गा-
थाकी टीका ।
मिथ्यात्वं च लोकिकलोकोत्त रभदाद् द्विधा । एकैकमपि देव
विष्यगुरुविषयभेदाद् द्विविधम्,तत्र लोकिकदेवगतं-लोकिक
देवानां -दरिदरब्रह्मादीनां प्रणामपूजादिना तद्भधवनगमनादिना
च तत्तदेशप्रसिद्धमनकविध ज्ञेयम् १ । लॉकिकगरुगतमपि
लौकिकगुरूणां ब्राह्मणतापसादीनां नमस्छृतिकरणे , तदग्रे
पतने, तदग्र नमः शिवायत्यादिभणन, तत्कथाश्रवणे, तदुक्त
क्रियाकरणतः कथाश्रवणवदहुमानकरणादिना च विविधम् २।
लोकोत्तरदेवगत तु परतीर्थिकसग्रहीतजिनविम्बाचना-
दिना इहलोकार्थ जनयाजागमनमाननादिना च स्यात् ३।
गत्वाय शा
लोकोत्त रगुरुगत च पाश्व॑स्थादिषु गुरुत्ववुद्धया बन्दनादिना |
गुरुस्तृपादावेहिकफला थे यात्रोपयाचितादिना चेति भदच-
वुष्टयी । तदुक्क दर्शनशुद्धि प्रकर णे--
दुविहे लोइअमिच्छे, देवगयं गुरुगयं मुणेयद््व ।
लोउत्तरं पि दुवि, देवगयं गुरुगयं चेव ॥ ३५॥
चउभेआ मिच्छुत्त, तिविहं तिविहेण जो विवज्ञइ ।
अकलक सम्मत्त, हाइ फुड तस्स जावस्स ॥ ३६॥
त्रिविधे जिविधेनेत्यत्र भावनामेवमाहुः-
पञ्च श्रणतरुत्ते, मिच्छ मणसा न चितइ करेमि ।
सयमेव सो कारउ, अन्नलेण कप व सुट्ठु कये ॥ १॥
एवं वाया न भणइ, करेइ राणो च न भणइ करेटि ।
अन्नकय न पसंसइ, न कुणइ सयमेव काएण ॥ २॥
करसखन्नभमुहखेवा-इएहि न य कारवद् च्न्नणे ।
अज्ञकय न पससइ, राणेण कयन खदु कय ॥ ३॥
ननु जिविधे त्रिविधेन प्रत्याख्यातमिथ्यात्वस्य मिध्याद- |
प्रिसंसगें कथे नानुमतिरूपमिध्यात्वप्रसङ्ग इति चेन्न, तस्याऽ- |
प्यतिचाररूपस्य वज्ञनीयत्वस्यैवोक्रत्वात् । स्वकुटुम्वादिस- |
म्बन्धिनो मिथ्यादशो वजनाशक्त संवासानुमतिः स्यादिति
चेन्न, श्रारम्भिणा सवासे आरस्भक्रियाया बल्द[त्प्रसवात् स-
वासानुमति संभवेऽपि मिथ्यात्वस्य भावरूपत्वेन तदसभवा- |
त् । अन्यथा सेयतस्स मिथ्यादष्टिनिश्राया अपि सभवेन
तत्सवासानुमतदुवारत्वादिति दिक् । यद्यपि तच्त्ववृत्त्या
श्रदवादेदवत्वादिव्रुदधा $ ऽराधने एव मिथ्यात्वं तथाऽप्य-
हकाद्यथमाप यत्ताद्याराधनमुत्सगतस्त्याञ्यमव, परम्परया
१-कायाप् न करेमि |
६६
|
मिच्छत्त
मिध्यात्वब्रुद्धिस्थिरीकरणादिप्रसङ्गन प्रत्य दुलभवोधित्वा-
पत्तेः । यतः-
श्रन्नसि सत्तार, मिच्छुत्त जो जणइ मूदप्पा ।
सो तेण निमित्तरो, न लहइ वाहि जिणाभिदिश्र ॥ १॥
रावरणकृष्णाद्यालम्बनमपि नाचितमव कालभेदात् , यत-
स्तत्समय ऽदंद्धमेस्येतरधर्मेभ्यो ऽतिशायित्वेन न मिथ्यात्व-
वृद्धिस्तादशी, सम्प्रति च स्वभावतोऽपि मिध्यात्वप्रवृत्ति-
दुर्निवारेवेति ।
श्रथ मिथ्यात्वे पञ्चविवम् , यदाह-
आशिग्गहिअमणा8शि-ग्गहं च तह अभिनिवसिश्र चव ।
संसइअमणाभोगं, मिच्छत्त पचहा पश्च ॥ १ ॥ घ० २
अधि० । ( आशिग्रहिकमिशथ्यात्वम् ' आभिग्गहियमिच्छुत्त '
शब्दे द्वितीयभागे २५२ पृष्ठ गतम् ) अनामिशग्रहिक प्राकृत-
जनानां. सर्वे देवा वन्द्या न निन्दनीया, एवे सर्वे गुरवः सर्वे
धर्मा इतीत्याद्ययनकविधम् । २। आभभिनिवशिकम् जानतोऽपि
यथास्थितं दुरभिनिविशविप्लावितधियो गोष्टामाहिलादे-
रिव ।२। अभिनिवेशो ऽनाभोगात्प्रज्ञापकदाषाद्धा वितथश्चद्धा-
नवति सम्यग्रष्टावपि स्याद्.अनाभोगाद् गुरुनियोगाद्धा स-
स्यगदष्ेरपि वितथश्र द्धानभणनात् , तथा चाक्रमुत्तराध्य-
यननियुक्का--
“ सम्मद्दिद्टी जीवो, उवट पवयणं तु सद्ृहइ ।
सदृहइ असब्भाव, अणभागा गुरुशिओगा वा ॥१॥ ” इति।
तद्वारणाय दुरिति विशेषणं, सम्यग्वक्रवचनानिवर्चनीय-
त्वं तदथः । | अनाभोगादिजनितों मुग्धश्नाद्धादीनांवितथश्र-
द्धानरूपो ऽभिनिविशस्तु सम्यग्वक्तुवंेचननिवतनीय इति न
दोषः, तथापि जिनभद्रसिद्धसनादिप्रावचनिकप्रधानविभ्र-
तिपत्तिविषयपक्तद्रये ऽप्यन्यतरस्य वस्तुनः शाखवाधितत्वा-
त्दन्यतरश्रद्धानवतो ऽभिन्विशित्वप्रसङ्ग इति तद्वारणा्थ
° जानतोऽपीति ` शाख्रतात्पयवाधप्रतिसधानवतः, सिद्ध-
सरनादयश्च स्वाभ्युपगतमथ शाखतात्पथवाध प्रतिसधाया-
पि पक्तपातन न न प्रतिपन्नवन्तः.किन्त्वविच््छिन्नप्रावचनिकप-
रम्परया शाख्तात्पयैमेव स्वाभ्य॒पगताथौनुकरूलत्वन प्रति-
सधायति न ते ऽभिनिवेशिनः । गो्ठामाहिलादयस्तु शाख-
तात्प्यवाधं प्रतिसधायेवान्यथा श्रद्धत इति न दाषः, इद-
मपि मतिभदाभिन्विशादिमूलमभेदादनेकविधम्-जमालिगो-
छामाहिलादीनाम् | उक्तं च [ चतुर्थोदेशे ] व्यवहारभाष्ये-
« मइभेएणण जमाली, पुल्वि बुग्गाहिएण गोविंदो ।
ससग्गीए भिक्खू , गोट्टामाहिलअहिणिवेसे ॥ २६६ ॥ ” त्ति
सांशयिकं देवगुरुधमेंप्वयमन्यो वति संशयानस्य भवति ।
सृन्मार्था दिविषयस्तु सशयः साधूनामपि भवति, स च
^ तमेव सच्च णीसकं, जे जिणहि पवेइअ `` इत्याद्यागमोदि-
तभगवद्वचनध्रामार्यपुरस्कारेण निवत्ते , स्वरसवाहितया
श्रनिवत्तमानश्च सः लांशयिकमिध्यात्वरूपः सन्ननाचारापा-
दक एव,अत पवाकाङ्कामोहोदयादाकष्रप्रसिद्धिः । इदमपि स-
यदशनजेनदशनतदेकदशपदवाक्यादिसशयभेदेन बहुविधम् ।
अनाभागिकं विचारशन्यस्येकेन्द्रियादेर्वा विशेषज्ञानघिकल-
स्य भवति। इदमपि सर्वाशविषयाव्यक्लबा धस्वरूप विवक्तित-
किञ्चिदेशाव्यक्रवाधसखरूपे चेत्यनेकविधम । एतेषु मध्य
आमिग्राहिका 5 इभिनिवेशिके गुरुके विपर्यासरूपत्वेन सा-
है ( २७४
अभिधानराजन्द्रः।
मिच्छत्त
चुबन्धङ्केशमूलत्वान् । शेषाणि च त्रीरणि विपरीतावधारण- `
रूपावपयोसव्यादरत्तत्वेन तषां क्रराजुबन्धफलकल्वाभावात् ,
तदुक्कं चोपदेशपदे-- |
पसो श्र पत्थ गुरुओ, णाणञ्भवसातससया एवं । |
जम्हा असप्पवित्ती, एत्तो सबव्व॒त्थ<णत्शफला ॥ १॥ |
दुष्प्रतकारा 5सत्प्रवृत्तिहेतुत्वेन एष दिपर्यालो5त्र गरीयान् |
नत्वनध्यवसायसंशयावेवंभूतातत्त्वाभिनिवशाभावात् , तयोः |
खुप्रतीका रत्वेनात्यन्तानर्थसंपादकस्वा भावादित्येतत्तात्पयौ-- |
थः। घ० २ अआधि० | बृ० | दर्श०। सूत्र० । पं०सं० | कमे०। आतु०। |
मतिभेदादिना मिथ्यात्वं भवतीति--
मतिभेया, १ पृच्वुग्गह २,
संसग्गीए य २ अभिनिवेसेण ४।
गोविंदे य ५ जमाली १,
सावग २ तव्वन्निए ३ गोदरे ४।॥ २६८ ॥
कस्यापि मतिभेदान्मिथ्यात्वे स्यात् , कस्यापि पूवेव्युद्न्र-
हात्, कस्यापि संसर्गात् , कस्यचिदभिनिवेशन , अच्नार्थे
निदशनान्याह-( गोविंदे य इत्यादि ) अत्र गोविन्दजमालि-
शब्दयोव्यंत्ययेनोपन्यासो गाधानुलोम्यात् ; परमार्थतः पुन.
रवं पाटः- जमालिर्गोविन्दश्रावकः त्वनियः आवकमिचुः
गाठ गीष्ठामाहिल, पतानि यथाक्रम निदशनानि ।
तथा चाऽऽद-
मतिभेएण जमाली, पुव्वुग्गहिएण होई गोविंदो |
संसग्गिसावगभिक्छ् ,गोड्रामाहिल अभिनिविसे ॥२६६॥ ।
मतिभेदेन मिथ्याद्टिज़ोयत यथा-जमालिःपूर्वव्युद् गृहीतेन
भवति मिथ्यादृष्टियथा-गोविन्दः, ससर्गात् यथा-श्रावक- |
भिच्छुः, अभिनिवशन यथा-गाष्ठामादिलः, पतानि च
दर्शितानि खुप्रतीतानीति न कथ्यन्ते इति । व्य० ६ उ०।
मिथ्यात्वानि--
दसविधे ।मिच्छत्ते पष्पत्त, त॑ जहा-अधम्मे धम्मसप्मा १
धम्मे अधम्मसणा २ अमग्गे मग्गसप्या ३ मग्गे उम्मग्ग-
सन्ना ४ अजीवसु जीवसन्ना ५ जीवेसु अजीवसन्ना ६ |
असाहुसु साहुसन्ना ७ साहुसु असाहुसप्मा ८ अमृत्तसु |
मुत्तसन्ना & म॒त्तेस अगरुत्तसष्प! १० । सत्र ७३४ ।
म्मे विदान ए ॐ ० [~प
तत्र श्रधर्म्मे-ध्रुतलत्तषणविरीनत्वादनागमे श्रपोरूपेयादौ ध-
म्मसक्षा--श्रागमवुद्धर्मिध्यात्वम् , विपर्यस्तत्वादिति १, ध-
म्म कपच्छदादिशद्ध सम्यक्श्रुत श्राप्तवचनलक्षणऽधम्मसे-
क्षा, सव पव पुरुषा रागादिमन्तो ऽसर्वज्ञाश्च पुरुषत्वादहमि-
वत्यादिपरमाणताऽनात्तास्तदभावान्न तदुपदिष्टं शार्त्रे धम्मं इ- |
व्यादिकुषिकल्पवशादनागमवुद्धिरिति २, तथा-उन्मागों नि- |
चरतिपुरीं प्रति अपन्थाः वस्तुनचवापेक्तया विपसीतश्चद्धानक्ञा `
नानुष्ठानरूपस्तत्र मा्गसक्ञा-कुवासनातो मार्गबुद्धिः ३, त- |
था-- मागे ऽमार्गसंक्ञति प्रतीतम् ४, तथा-श्नजीवेषु श्राका- |
शपरमारवादिषु जीवसंज्ञा-' पुरुष एबदम् ` इत्याद्यज्युप- |
गमादिति । तथा--
मिच्छ्त्त
ज्षितिजलपवनडुताशन-यजमानाकाशचन्द्रसूर्या ख्याः ।
इति मूत्तेयों मदेभ्वर-सम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टौ ॥१॥ इति ५।
तथा जविषु परथिव्यादिष्वजीवसंज्ञा, यथा न भवन्ति पृथि-
व्यादयो जीवाः उण्छासादीनां प्राणिधर्म्माणामनुपलम्भादू
घटवादिति 2, तथा असा धुपु-षडजीवनिकायवधानिवृत्ते-
प्यादेशिकादिभोजिष्वव्रह्मचारिषु- साधु संज्ञा, यथा-साधव
पते सवेपापप्रचरत्ता श्रपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्प-
रूपति ७, तथा-साधुषु--बह्मचयोदिगुणान्वितेषु असाधु-
संज्ञा, एते हि कुमारप्रबज़िता नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् सखा
नादिविरहितत्वाद्वेत्यादिविकल्पात्मिकेति ८, तथा-अमुक्लेषु
सकम्मेखु लोकव्यापारपरवृततेषु मुक्तसज्ञा, यथा-
अणिमाचष्टविध प्रा-प्यैश्वर्य कृतिनः सदा ।
छ निच्तात्मानः 4
मोदन्ते त्मान--स्तीणौः परमदुस्तरम् ॥ १॥
इत्यादिविकल्पात्मिकेति €, तथा मुक्रेषु-सकलकम्मरूत-
विकारविरहितेष्वनन्तज्ञानदशनसुखवीर्ययुक्नेपु अमुक्लसंज्ञा,
न सन्त्येवेदशा मुक्काः, अनादिकम्मैयोगस्य निवत्तायितुम
शक्यत्वादनादित्वांदेव आकाशात्मयोगस्येवेति न सन्ति
वा मुक्काः मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पत्वादात्मन एवं वा ना-
स्तित्वाद्त्यादिविकल्परूपेति १० | स्था० १० ठा० ३ उ०।
अदेवे देववुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौच या।
अधर्म घमेबुद्धिश्व|मि थ्यात्वे तद्धिपययात् ॥१॥ स्या० कर्म०।
अकार्य कृते मिथ्यात्वदाषः-
मिच्छत्तं लोञ्स्स, न वयणमेयमिह तत्तो एवं |
वितहांसवशसंका-कारणओ अहिगमेअस्स ॥५६३॥
मिथ्यात्वे लोकस्य भवति । कथमित्याह-न वचनम् एतज्ञै-
नम् 'इह' अधिकारे, “तत्त्वतः-मरमाथतः एवम् , अन्यथा ऽ
यमेव न कुर्यादिति शङ्कया, वितथासेवनया-दे तुभूतया, शङ्ा-
कारणत्वाज्ञोकस्य अधिकं मिध्यात्वमतस्य-वितथकतैरिति
गाधाः ॥५६३॥ पे० व० २ द्वार । नि० चू०। बृ०। मिथ्यामो-
दनीये कर्मणि,“ मिच्छत्त वेयंता, ज अन्नणी कटं परिकटेद ।
लिगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए ।२९१ दश०
३ श्र०। यदुदयाज्जिनप्रणाततत्त्वा श्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम् । पे०
सं० ३ द्वार। कमे० । मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्रलसखाचिव्यवि-
शेषादात्मपरिणामे, श्राव० अ०। “मिश्र तु द्रविशुद्ध , भवत्य-
शुद्ध तु मिथ्यात्वम् कमे०९ कम०। “न मिथ्यात्वसमः शत्रु-
ने मिथ्यात्वसमे विषम् । न मिधथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्या-
त्वसमे तमः ॥१॥ घ० १ अधि० । (असदायार' शब्दे प्रथम-
भागे ८४० पृष्ठ एतदाद्याः श्लोका दर्शिताः ) मिथ्याक्रिया-
चमिलाषे , आतु० । इदलोकाथम् पएकात्तनालिकेरादिपूजने
मिथ्यात्वं भवति न वा ? इति प्रश्ने , उत्तरम् रेहिकफलार्थं
दत्तिणावर्तशङ्खादेरिव एका्तनालिकेरादेरपि पूजने मिथ्यात्वै
ज्ञात नास्तीति ॥ १६ ॥ सेन० १ जल्ला०। श्राद्धानां गोत्रदेवी-
पूजने मिथ्यात्वं लगति न वा ? दति प्रश्ने, उत्तरम्-यस्य
तथाविधं चर्यं भवति तेन गोत्रदेवी न पूजनीया पव कु-
मारपालेनेव, तदभावे तु कदाचित्तत्पूजने ऽप्युश्ारितस-
म्यक्त्वभज्ञो न भवति यतो देवताभियोगेनेति सम्यक्त्वो-
( २७५ )
मिच्छत्त
घ्यारे चिरिडकाऽप्यस्तीति ॥ ३६७ ॥ सन०३ उल्ला०। चतुर्वि-
धमिध्यात्वमध्य लोकोत्तरमिथ्यात्व गुरु कि वा लोकिकम् ,
भाग् लोकोत्त राज्लोकिकं गुरुतरमिति श्रुतमभूद् , अधुना तु|
लाककाज्लनाकात्तर श्रूयत, तद्धयक्त्या प्रसाद्यमिति ! प्रश्ने
उत्तरम-प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिप्रभ्नतिग्रन्थेषु मिथ्यात्व॑ लो- |
किक देवगतं १ गुरुगतं च २, तथा-लोकोत्तर देवगतं १
गुरुगतं चेति चतुर्विधमिथ्यात्वमथ्ये इदं महदिदं लष्वित्य- |
क्षराणि तथाविधग्रन्थे न दृष्टानीति द्वव्यत्तत्रकालभावाचु-
सारेण कथ्यत इति ॥ ३६ ॥ सन० ४ उज्ञा० ।
मिच्छत्तकिरिया-मिथ्यात्वक्रिया-खी०। मिथ्यात्वमतत््वश्च-
दधानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया । अथवा-मि थ्यात्वे मि-
ध्यादशने क्रिया । क्रियाभदे, मिथ्यत्वक्रिया तु सवाः प्रक्ृती
्विंशत्युत्तरसेख्यास्तीर्थकरा ऽऽहारकशरीरतदज्गोपाङ्गत्रिकर-
हिता यया वध्नाति सा मिथ्यात्वश्प्यित्यभिधीयते । सूत्र०
२ श्रु० २ आ० | भ०।
मिच्छत्तव('ओ)उवसम-मिथ्यात्वक्षयोपश म-पुँ?। मिथ्यात्व-
स्य मिथ्यात्वमोहनीयक्मदलिकस्य त्षयेणोदीखस्य विनाशेन
सहोपशमो विपाकोदयापेक्तया विष्कम्भितोदयत्वं मिथ्यात्व-
त्षयोपशमः। मिथ्यात्वमोहनीयत्तयोपशमे, पञ्चा० १ विव० ।
मिच्छत्तपडिकमण-मिथ्यात्वग्रतिक्रमण-न० । आभोगाना-
भोगसहसाकारेंरमिंथ्यात्वगमनाज्निवृत्तों, स्था०५ ठा० ३ उ०।
मिच्छत्तपारिहणि-मिथ्यात्वपरिहाणि-ख््री० । मिथ्यात्वे जि-
नप्रणीततच्वविपरीतश्रद्ध(न लक्षणे तस्य परिहाणिः सर्वथा
त्यागः । त्रिविधज्निविधेन विथ्यात्व पत्यार्याने, घ०२अधि० |
मिच्छत्तमहष्पवतारणतरियि-मिथ्यात्वमहार्णवतारणतरिका-
स्त्री० कुवासनोदाधपरमयाने, दश ० ५ तत्त्व ।
मिच्छत्तमहामोहंधयारमूढ--मिथ्यात्वमहामोहान्धका र मूढ -
त्रि०। महश्चिसों माहथ्व महामोहः,मिथ्यात्वमेव महामोह स्त-
स्य तस्मात्तेन वा5न्धकारं सम्यकत्वस्यावरणं तस्मिस्तेन वा
मूढो मिथ्यात्वमहामोदाऽन्धकारमूढः। मिथ्यादृष्टो, दर्श० १
तत्त्व ।
मिच्छत्तादिणिवेस- मिथ्यात्वाभिनिवेश- पुं०। मिथ्यात्वाद् मि
्यादशनोदयाद् यो ऽभिनिवेश आग्रह: स तथा। भ० ६ श०
३३ उ० । विपयोास, स्था० ४ ठा० ४ उ०।
मिच्छदिड्धि- मिथ्याद्टि-पुं० । मिथ्या विपयौसवती जिना-
भिहिताथसाथाश्रद्धानवती दृष्टिदेशन यस्य सः । मिथ्या- |
त्वमोहनीयकर्मादयादरुचितजिनवचने , स० & सम० ।
मिथ्या विपरीता दष्ियैस्य स मिथ्यादष्ठिः। नं० | उदितमि- |
थ्यात्वमोहनीययविशेष , स० १७ सम० । विपर्यस्तरुचो, प- |
० ६२ विव०। शाक्यादिशासनस्थे, बृ० १ उ०। दशै० । |
अज्ञाननियतक्रियावादिके,सूत्र० १ श्रु० १ अ० २उ० । प्रज्ञा० | |
विपरीतबोधघे, औ० । सूत्र० । स्था० । उत्त० ।
मिथ्यारष्टेः स्वरूपमाह---
ह नियमा, उवडट पवयणं न सद ।
सददई असन्भावं, उवद वा अखुवइइ || २५ ॥
|
अभिघानराजन्द्रः।
मिच्छुदिट्टि
मिध्यादृष्टिः जीवो गुरुभिरुपदिष्ट प्रवचने नियमात् न श्र-
उत्ते--न सम्यग्भावेनात्मनि परिणमयति , श्रद्धत्ते चत्
उपदिष्टमनुपदि्ट वा प्रवचने तहिं , श्रसद्धूतं मिथ्या-
रूपमित्यर्थः । श्रद्धत्ते, न सम्यग् यथावदिति ॥ २५ ॥
क० ध्र०। आ० चू ॥
पयमक्खरं वि जो एगं, सच्वन्न्हि ` पवेदियं ।
नाएज़ अन्नहा भासे, मिच्छदिद्टी स निच्छियं ' ॥
महा० २ अ० । “ सृच्ोक्तस्येकस्या--प्यरोचनादक्तरस्य
भवति नरः । मिथ्याष्टिः सूत्र, हि नः प्रमाणो जिनाभिद-
तम् ॥९॥ ` श्रा० म० १ श्र०। स०। स्था०। श्राव ० । “एकस्मि-
न्नप्यर्थे, सदिग्धे प्रत्ययो 5हाति विनष्टः । मिथ्यात्वदशैनं त--
त्स चादिहेतुभवगतीनाम् ॥ १ ॥ ” तस्मान्मुमु्लणा व्यपग-
तशङ्कन सता जिनवचने सत्यमेव सामान्यतः परतिपत्तव्यं
सशयास्पदमपि सत्यमेव सर्वज्ञाभिहितत्वात् , तदन्यपदा्थ-
वत् , मतिदौर्वल्यादिदोषात्तु काट्स्नेन सकलपदाथस्वभावा-
वधारणमशक्यम् । आव० ६ श्०। घ०। आ० म०। ( मिथ्या-
दष्टिराचार्यो ऽपि भवति । मिथ्यादष्टः कि लिङ्गम् इति
पवय ` शब्दे-पञ्चमभागे ७८४ पृष्ठे प्रतिपादितम् ) सम्यग्-
दष्टक्ञोन, मिथ्यादष्टेभवेद् विपर्यासः । आव० १ श्०।
जई एवं तेण तुरं, अनाणी कोऽवि नऽत्थि ससारी |
मिच्छहिट्टीणं ते, अन्नाणं नाणमियरेसिं ॥ ३१८ ॥
यचेवमुक्लप्रकारेण संशयादयोऽपि ज्ञानम् , तेन तव “ अ-
ज्ञानी नास्ति कोऽपि संसारी जीव ' इति प्राप्तम् , भोक्ते
सर्वस्याऽपि ज्ञान परेणाऽभ्युपगम्यत इति संसारिणामेवा<-
यमतिप्रसङ्गलक्षणो दोषः, इत्यभिप्रायवता ससारी इति
विशषणमकारि । एतदुकँ भवति-- सशयादयो ऽ ज्ञानम् , नि-
णुयस्त्ववाधितो ज्ञानम् ` इति तावजल्लोकव्यवहारस्थितिः ।
यदि च-भवता संशयादीनामपि ज्ञानरूपता व्यवस्थाप्यत
तिं समुच्छिन्नो ऽयमज्ञानव्यवदहारः, ततः कथं नाऽतिप्रस-
ङ्गः ?, दश्यते च लोक ऽन्ञानव्यवहारः, स कथ नीयते?
इति । अ्रतरोत्तरमाह-( मिच्छादिट्वीणमित्यादि ) मिथ्याह-
चरीनां सम्बान्धिनस्त सशयाविपर्यया ऽनध्यवसायाः , निशेय-
श्चाज्ञानम् , इतरेषां तु सम्यग्रष्टीनां सम्बधिनस्ते ज्ञानम् ,
इति नाऽज्ञानव्यवहारोच्छेदः । अयमभशिप्रायः-लोकव्यवहार-
रूढो ज्ञाना ऽन्ञानव्यवहारो $ न विवच्तितः, किन्त-्रागमा-
भिभ्रायरूढो नेश्वयिकः। आगमे च सशयादिरूपं, निश्च-
यरूप वा मिभ्यादष्टः सवेमप्यज्ञानम् , सम्यग्दष्टस्तु तदेव
सवं ज्ञानम् , इत्येवं ज्ञाना ऽज्ञानव्यवहारो रूढः । ततश्च य-
दादौ सशयादित्वनाऽवग्रहादीनामज्ञानत्वं प्रेरितम् , तदयु-
क्रम् , न हि सशयादित्वमनज्ञानभावस्य निमित्तमागमविचारे,
किन्तु--मिथ्यारष्टिसम्बन्धित्वम् , त्वद नास्ति, स-
म्यग् द ्टिसम्बान्धिनामेवा 5वग्नहा दी नामिह विचारयितुमुप-
क्रान्तत्वात् , इति भावः, इति गाथार्थः | विशे० । “ सम्म-
ट्विट्टिपरिग्गहियं सम्मसुर्य , मिच्छुविद्टिपरिग्गद्धिय॑ मिच्छु
खुय '* अ० १ उ०।
तद् यथे प्रदीपस्य, खच्छाऽश्रपरलैगदम् ।
न करोत्यावृति काञ्चि-देवमतद्रञैरपि॥
( २७६ )
अभिधानरजन्द्रः।
मिच्छुदिद्ठि
मिच्छुदिद्ठि
एकपुञ्जी द्विपुञ्जी च, त्रिपुड्जी वा5ननुक्रमात् ।
दर्शन्युभयवॉश्वैव, मिथ्यादष्िः प्रकीतितः ॥ २॥
कर्म० १ कमे० । सम्यगडण्व्यतिरिक्वानां सवथा नि- |
जरा नास्त्येव ? काचिदस्ति-वा इति ? प्रश्ने, उत्तरम्-सम्य- |
गर्राष्टिव्यतिरिक्वानां जीवानां स्था निज्जरा नास्त्येव इति
वक्रं न शक्यत ।
“ अखुकंप5कार्मानज्जर, बालतव दाणएविणयविग्भेगे ।
सज्ागविप्पञ्यागे , , वसणयसवइंड्टिसकारे ॥ १॥ ”
इति आवश्यकनियुक्ततों मिथ्यादशां सम्यक्त्वप्राप्तिहेतु
ष्वकामनिज्जराया उक्कत्वात् केषाशविश्चरकर्पारेवाजकादी-
नां स्वाभिलापपूवंकं ब्रह्मचयपालना<5दत्तादानपरिहारादि-
भिन्नल्ललोक॑ यावद्वच्छतां सकामनिज्जराया अपि सम्भवा- |
ऋति ॥१७॥ सन० १ उल्ला० ।“ चर गपरिव्वायवभलोगो जा ”
इति वचनानुसारेण द्वादशे स्वर्ग ग्रैवेयकं च मिथ्यात्वि-
नः केऽवतरन्तीति ? प्रश्ने, उत्तरम्- द्वादशे स्वर्ग गोसाल-
कमतानुसारिण आजीविका मिथ्यादशो ब्रजन्ति, अवेयके
तु यतिलिङ्गधारिनिहवादयो मिथ्यादृष्टयो वजन्तीत्योप-
पातिकादों प्रोक्तमस्तीति १३१। सेन०३ उल्ला०। उत्सूत्रभाषिणां
सम्यगदृष्ित्वमुत मिथ्याइश्टत्वमिति परश्च उत्तरम्--उत्स्-
अभाषियणां मिथ्यादष्टित्वमाश्रित्य विप्रतिपत्तिः कापि ना-
स्ति, “ सत्रोक्तस्येकस्या-प्यरोचनादत्त रस्य भवति नरः । |
सरन० ३ |
मिथ्यादाष्टिः
उल्ला०
” इत्यादिवचनादेति
। “ तहेव काण काण
॥ २३७० ॥
~ ११
त्ति ” वचनमुद्धाग्य
न मिथ्यादष्टेमिंथ्यादष्टि्ववचनव्यवहारः कठिनवचनत्वा- |
दिति केचनापि प्रतिपादयन्तीति ? प्रश्ने, उत्तरम्-मिथ्या-
दष्टर्मिथ्यारृष्टिरिति कथन तदकथने च यथासमयं वि-
धयमिति ॥ ३७३ ॥ सेन ३ उल्ला० । “ दक्खिन्नदयालुत्तं,
पियभासित्ताइविविहगुणनिवह । सिवमग्गकारणो जे, त-
मह अखुमोञअए सव्ये ॥ १॥ ” “ ससाणे जीवाणं० ॥ २॥
एमाई अरणे पि अ० ॥ ३॥ ” पतदाराधनापताकागाथा
त्यानुसारेण मिथ्यादष्ठीनां दाक्षिए्यदयालुत्वादिकं परशस्य-
ते न वेति ? प्रशन, ` उत्तरम--एतदाराधनापताकाप्रकीर्क-
सर्बान्धिगा थात्रयमास्त तन्मध्ये यति-॥ १॥ देशविरतिश्रा-
वका-॥ २ ॥ ऽविरतसम्यग्टष्ि--॥ ३॥ जिनशासनसव-
न्धभिर्विना ऽन्येषां दात्तिरयद्यालुत्वादिकं प्रशस्यतयोक्कं, |
तता युङ्ग ज्ञातं नास्ति, यत प्त गुणाः श्रीजिनेरानेतव्याः |
३ उल्ला० । |
पव कथितास्सन्तीति ॥ ४४५ ॥ सेन
दीरविजयसूरीश्वरभ्रसादीरङूतदादशजल्पमध्ये ऽजुमोदना-
जरपाऽस्ति, तन्न दानरुचिपरु स्वाभावि विनीतपशु
अल्पकषाईपणु परोपकारीपरु भवग्यपणु इत्यादिका ये य
मार्गानुसारिसाधरणगुणा मिध्यात्विसम्बन्धिनस्तथा पर-
प्ति सम्बन्धिनश्चाचुमोदनादौ लिखितास्सन्ति, तदाश्रित्य
कचन नवीनं विपरीतार्थ कु्व्वन्त श्रयन्त, तद्यथा-
यषामसद्रदो नास्ति तेषामवते गुणा अनुमोदनयोग्याः,
परं यस्य कस्यापि जट्पस्यासङ्गहो भवति तस्यते गुणा
नाजुमोदनादा इन्यतदाध्रित्य सम्यग् नियः प्रसाद्य इति ?
प्रश्न, उत्तरम्--श्रसद्ग्रहमन्तरेणान्यषां ये मागौनुखारिसा-
धारणगुणास्ते5नुमोदनाही नाऽन्ये इति वदन्ति तदसत्य-
मेव, यता येषां मिथ्यात्वं भवति तेषां कश्चिदसद्ग्रहो$-
वश्यं भवत्यवान्यथा सम्यकत्वमेव प्रतिपाद्यते, शास्त्रमध्ये
तु मिथ्यात्वरूपासद्ग्रहे सत्यप्येते मार्गानुसारिगुणा अचु-
मोदनाहोः कथितास्सन्ति, यदुक्कमाराघधनापताकायाम्-
जिणजम्मारऊसव-करणं तह महरिसीण पारणप ।
जिणसासणंमि भक्ती, पमुह देवाण श्रणुमन्न ॥ ३०८ ॥
तिरिआण देसविरदइ, पज्ञताऽऽरादणे च अणुमोण ।
सम्मदंसणलभ, अरुमन्न नारयाणं पि ॥ ३०६ ॥
ससाणे जीवा, दाणरुदत्त सहावविणियत्ते ।
तह पयरणु कसायत्ते, परावगारित्तभव्वत्ते ॥ ३१० ॥
दक्खिन्नदयालुत्ते, पिञ्रभासित्ताइविविहग्ुणनिवहं \
सिवमग्गकाररणं ज, ते सव्व श्रणुमयै मज्ज ॥ ३११॥
इश्र परकयसुकयाण, बहणमरणुमोअणा कया एवे ।
अह नियसुचारियनियरं, सरेमि सेवेगरंगरो ॥३१२॥ इति ।
श्रहवा सव्व चिच्च वी--श्रायवयरणानुसारि ज सुकड।
कालत्तए वि तिविहे, अणुमोएमो तये सव्वं ॥ ५८ ॥ इति ।
चतुश्शरणेऽपि, अथ च मिथ्यात्विनां परपक्तिणां च दया-
म॒खः कश्चिदपि गुणो नानुमोदनीय इति ये वदन्ति तेषां स-
मा मतिः कथं कथ्यत इति ॥ १०३ ॥ सरन ० ४ उल्ला ।
चरकपरिव्राजकतामल्यादिमिथ्यारष्रीनां तपञ्चरणाद्यज्लान-
कणर कुञ्व॑तां सकामनिज्ैरा भवत्यकामनि्जरा वा इति, क-
चन वदन्ति तषामकामनिज्रेवेति सात्तरं प्रसाद्यमिति प्र-
श्च, उत्तरम्-य चरकपरिवाजकादिमिथ्यादषयो ऽस्माकं क-
स्मैक्तयो भवत्विति धिया तपश्चरणाद्यज्ञानकष्टे कुर्व्वन्ति तेषां
तक्त्वाथेभाष्यवृत्तिसमयसारसत्रवृत्तियागशास््रवृत्यादिग्य--
न्थानुसारेण सकामनिज्ञेरा भवतीति सम्भाव्यत, यतो यो-
गशाख्रचतुर्थप्रकाशवृत्तो सकामनिज्ञेराया हेतुर्बाह्याभ्यन्त-
रभदेन द्विविध तपः पोक्तम्, तत्र पट्प्रकारं बाह्य तपो, बा-
हात्वे च बाह्यद्रव्यापत्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वात्कुतीर्थिकेशहस्थेश्व
कार्यत्वाञओ्चति, तथा--लोकप्रती तत्वात्कुती थिंके श्र स्वाभि-
प्रायेणासेव्यत्वाद्वाह्मत्वामिति । विशसमात्तराध्ययनचतदेश-
सहस्त्रीबत्तो एतदलुसारेण षड़िधवाह्यतपसः कुतीर्थिकासे-
व्यत्वमुक्ं, परं सम्यंग्दष्टिसकामनिज् रापेक्तया तषां स्तोका
भवति, यदुक्ल भगवत्यष्टमशतकदशमादेशके ( देसाराहए त्ति)
यालतपस्वी स्तोक्मश मोत्तमार्मस्याराघधयतीत्य्थः, सम्य
ग्बोधरदितत्वात्क्रियापरत्वाच्चेति, तया ख माक्षप्राप्तिने भव-
ति स्तोककम्माशनिञ्जेरणात् , भवत्यपि च भावविशषा-
द्ल्कलचीर्यादिवद् , यदुक्कम:
आसंवरो अ सेय-चरो अ बुद्धो य श्रव अन्नो वा।
समभावभाविश्चप्पा, लद मुक्खं न संदेहो ॥ १ इति ।
यदि तेषामकामनिजरेवाङ्गी क्रियते तर्हि-' जीवे णे भते !
असंजए अविरए श्रपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इतो चुप
चेच्चा देवे सिया ? , गोयमा ! अत्थेगतिए देवे सिश्चा, अ-
त्थेगतिप नो देवे सिध्रा, से केण<ट्वेण ०जाव इतो चुप
चेश्वा अत्थेगतिए देवे सिश्चा श्रत्थेगतिप नो दवे सिश्रा ?
ग़ोयमा ! ज इमे जीवा अकामतण्हाए अकामछुद्दाए अकाम-
बंभचेरघासेणं अकामसीया55यवदंसमसगअन्हाणगसेयज-
ज्ञमलपंकपरिदाहेणं अप्पतरे वा भ्रुज्जतरं वा काले
द न किक ` न्क न फ
( २७७ )
मिच्छुदिद्टि
५5 क
ञअभिधानराजेन्द्रः।
मिच्छाकिरिया
ष्पा परिकिलेस्सति, परिकिलेसित्ता कालमासे काले
किच्चा अणणयरेसु वाणमतरेखु देवक्ताण उबवत्तारों
भवन्ति" श्रीभमगवतीसूत्रप्रथभशतकप्रथमादशकीापपातिकस
च्रादौ अकामनिज्ञरया व्यन्तरेषूत्पादः काथतोऽस्ति, तत्कथ
सङ्गच्ते, यतः संग्रहरयादौ-- चरगपरिव्वायवेभलामो
ज्ञा "` इति वचनात् पश्चमदेवलोके तेषामुत्पाद्स्य भणित-
त्वादिति विरोधापत्तः , दारिभद्रयामपि-
अराुकंप ऽका मनिञ्जर-बालतव दाणविणयविब्भंगे।
संजोगविप्पओओगे, वसरूसवइंड्िसकारे ॥ १॥
इत्यत्राकामानजरावालतपसाभदद्यभणन व्यथमव, एके-
नाकामनिज्ेरालक्षणेन चरितार्थत्वातू तथा-'* चउ॒हि ठा- |
शेहिं जीवा दवत्ताए कम्मे पकरेंति । तं जहा--सगग-
सजमर १ सजमासजमणं २ वालतवोकम्मेण ३ अकामनि-
जराए ` ४ “ एतद्धत्तिलेशः-सकषःयसंयमेन-सकपायचा-
रितरिण वतरागसयमिनामायुपा बन्धाभावात् १ सयमास-
यमस्य द्विस्वभावत्वादेशसयमः २,
तपःकम्प्--तपःक्रिया बालतपःकम्म तन ३, अकामेन-नि-
रां प्रत्यनभिलापेण निरा अकामनिजेरणादतुवुभुत्तादि-
वाला-मिथ्यादशस्तषां
सहने यत्सा अकामनिज्ञरा तया इति । स्थानाङ्गखूत्रचतुथै- |
स्थानके तथा--
अकामनिजैरारूपा-तपुरयाज्जन्तोः परजायते ।
स्थावरत्वे असत्वं वा, तियक्त्वं वा कथचन ॥ १०८ ॥
इत्यत्र-पुरयादात-पुरय न पुण्यश्रकातरूप, कन्तु-लाघव- |
रूपम् , तस्मात् स्थावरत्वाद्क प्राप्यत, तामालतापसादाना
तु शास्राष्वन्द्रत्वादप्रा्तः काथता भस्त, साच सक्ामान- |
, ज्जरया भवाति,यदुक्लं तत्त्वाथभाष्यनवमाध्ययनवृत्तो-'अमरेषु
तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानानि प्राप्नातीति।ननु क्षया सका-
मा यमिना ` मित्यत्र यदि यमिनाम्-यतीनामेव, सकामनि-
जरा प्रोच्यते श्रावकाणामविरतसम्यगरष्ख्यादीनां च का
गतिरिति चत् उच्यते--यमिनामिति सामान्यतयोक्केः श्राव-
कादीनामपि तारतम्येन द्वादशदेवलाकादिदायका सकामा
भवतीति ज्ञायत, श्राद्धादीनामित्यत्रादिशब्दाद्वालतपस्वि-
नामपि कथमिति चत् , शृणु , वालमसम्थ सन्मारगौप्रदाने
सकलकममच्तये वा, वाले च तत्तपश्च बालतपः, तच्चाप्नि-
भ्रवेशभ्रगुगिरिप्रपतनादिकायक्लशरूपम्,कायक्लेशश्च, * का
यकिलसो सलीणया य ” त्यागमवचवचनाद्राह्यतपः तच्च स-
मामनिज्ञराहतुरिति ॥ १०५ ॥ सम्यगदशां मिथ्यात्वदशां प-
श्पक्तिणां च तपागच्छाचा्यप्रभ्रतिभिः प्रत्याख्याने कायते
लन्मागोनुसारि भवतिनवा इति प्रश्न, उत्तरम्-तत्सर्व-
मपि प्रत्याख्याने मार्गानुसारीति ज्ञातमस्ति, परे प्रत्योख्या-
नकता यदि प्रत्याख्यानविधि न जानाति तदा तस्य तद्धिधि
्रज्ञाप्य कायते इति विरेषो ज्ञयः ॥१०६॥ सन ० ४ उल्ला० ।
मिच्छदिट्टिय-मिथ्याद ष्टिक--त्रि०। सम्यक्त्वगुणरदिते,स्था०।
दुविहा णेरइया पष्पत्ता | तं जहा-सम्मदिद्विया चव,
मिच्छदिद्विया चेव, एगिंदियवजा सब्बे |
(र सम्यक्त्व नास्ति । स्था० २ ठा० २ उ०।
भिच्छदि दिगुणडाण मिथ्यादृष्टिगुणस्थान-न० । प्रथमगुण-
\9०
| नि.
--
मिच्छराय-
मिच्छा-मि थ्या--
स्थान, पं० सं० १ द्वार । मिथ्या-विपयस्ता हाषप्ररहत्प-
णीतजीवाजीवादिवस्त॒प्रतिपत्तियस्य भक्तितहत्पूरपुरुपस्य
सित पीतप्रतिपत्तिवत् , स॒ मिथ्यादृण्टिस्तस्थ गुणस्थान
ज्ञानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्धधपकर्पकृतः स्वरूपाचा
पो मिथ्यादण्ियुणस्थानम् । ननु यदि मिध्यारष्स्ततः क-
थे तस्य गुणस्थानसभवः, गुणा टि क्ञानादिरूपास्तत्कथं त-
दष्टो विपथस्तायां भवयुरिति ?, उच्यत-इह यद्यापि सवथा
तिप्रवलमिथ्यान्वमाहनीयादयादरैन्परणीतजीवा जीघा दिंव स्तु-
प्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमता विपर्यस्ता भवाति, तथाऽपि का-
चिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिर्पक्तिराविषयस्ता, तता निगादावस्था-
यामपि तथाभूताव्यक्लस्पशमात्रप्रतिर्पा्तरविपयेस्ता भवाति-
अन्यथा जीवत्वप्रसङ्गात् । यदाह श्रागमः--* सव्वजीवासख
पिञ रो अक्खरस्स अणंतभागा निच्चुग्घाडिआ चिट्ठुइ:
जद पण सा5वि आवरिज्िज्जा, तो णे जीवि श्रजीवत्तणं
पाविज्ज क्ति। ” तथादि-समुन्नतातिवदलजीमूतपरटलन
दिनकररजनिकरकरनिकरतिरस्कार ऽपि नेकान्तन तत्प्रभा-
नाशः सपद्यत, परतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाभावप्र-
सङ्गात् । उङ्घं च-“ खुदठ वि महसमुदये , दाइ पटा चदस्-
रार ` इति । एवमिदा ऽपि प्रवलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचि-
दविपथस्ताऽपि दृष्टिभबतीति तदपक्तया मिथ्याद्ररपि गु
रस्थानसभवः । यदवे ततः कथमसो मिथ्याष्िरव मनु
प्यपश्चादिप्रतिपस्यपक्तया ऽन्ततो निगोदावस्थायामपि तथा
भूताव्यक्कस्पशमात्रप्रतिपस्यपेच्तया वा सम्यगरण्ित्वादपि,
नेष दाषः, यतो-भगवदर्हत्प्रणीतं सकलमपि द्वादशाज्ञ-
धममिरोचयमानो ऽपि यदि तद्धदितमकप्यत्तरं न रोचय-
ति तदानीमप्येष मिथ्याद्टरिवोच्यते, तस्य भगवति स-
वैज्ञे प्रत्ययनाशत् । तदुक्कम--
पयमक्खरं पि एक्क, पि जा न रोएइ खत्तनिदिटु।
सरसं रायता वि हु, मिच्छदिट्वी जमालि व्व ॥ १॥ इति ।
कि पुनर्भगवदहदमभिहितसकलजीवा 5जीवादिबस्तुतत्त्वप्र-
तिर्पाक्तविकल इति । कमे० २ कर्म०।
[क्य
मिच्छदग-मिथ्याद्विक-न० । मिथ्यादृष्टिसास्वादनलच्तणे
[क
मिथ्यारशिद्धिके, कर्म० ४ कम० ।
म्लेच्छराज-पुं० । अनार्यद्प, आब० ४ अ० |
व्य० । बिपरीते, आव० ४ अ०। लिशे०।
सूत्र० | असमीचीने, स्था० ३ ठा० हे उ० | उत्त०। स्त्र“ ।
अन० | असत्ये, उत्त० ४ अ०। “ मिच्छा माह वितहे आलेअ
असर असब्भुअ” पाइ० ना० ५२ गाथा । मिथ्या वितथम
नतमिति परयायाः । स्था० १० ठा० | प्रश्न०। ध० । विपसये स्त-
टष्ित्वि, आतु० | आ० म० । मिच्छत्तिवा वितं ति वा
असच्लच ति वा असव्वयं ति वा अकरांणज्ञ ति वा एगट्टा ।
आ० चू० ९ अ० |
मिच्छाकार-मिथ्याकार-पएुँ । रृतपातकस्य परितापरः.
प्रायश्चित्त, श्राव० ४ आ०।
मिच्छाकिरिया-मिध्याक्रिया-खी० | जिनाक्वरातावपययस-
व्यादपदाथाभ्युपगम, आ० चू० ४ श्र? ॥ श्राव ।
( २७८ ९
पअमभिधानराजन्द्रः।
.मिच्छाचार
"
मिच्छाचार-मिथ्याचार-पुं० । मिथ्याउलीको विशिष्टभाव-
शल्य आचारो यस्य स मिथ्याचारः । बाह्यक्लिशलिक्ले, “वा-
हान्द्रियाणि सयम्य, य आस्ते समनसा स्मरन् । इन्द्रयाथान्
विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यत ॥ १॥ `` षो० १ विव०।
मिच्छाणाण-मिथ्याज्ञान-त० । विपयस्तप्रतिपत्तो , प्रव० |
१०७ द्वार ।
मिच्छादंड-मिथ्यादण्ड-पुं० | मिथ्येवानपराधिष्वेव दोषमा-
रोप्य दरडा मिथ्यादरडः । अनपराधदंण्ड, खूत्र०
मिच्छादसण-मिथ्यादशेन-न° । मिध्या-विपरीतं दशने मि
थ्यादशनम्। स्था० ३ ठा० ३ उ० । मोहकर्मोदयजे,
अपन चू०
स्वार्थश्रद्धांन, स० ३ सम० । प्रज्ञा० | औ० | स्था०। अत-
त्वे तच्वाभिनिवश, तत्त्व चातत््वाभिनिवेश, सूत्र० १
अ० | मिथ्यादशन च पश्चचा-अभिश्रहिकानभिग्राहिका भिनि-
वेशिकाकाभोगिकसांशयिकमदादुपाधिभेदतो बहुतरभेदं च-
ति । स्था० १ ठा०।
मिच्छादसणे दुविहे पन्नत्त, तं जहा-अभिग्गदियमिच्छा-
दसणे चव, अणभिग्गहियमिच्छादंसणे चव । स्था०२ठा०
१ उ० | ( खस्वस्थाने व्याख्याते )
मिच्छादंसणकिरेया मिथ्याद शीनक्रिया-खी०। मिथ्यादशै-
नघ्पत्ययिक्यां क्रियायाम् , म० ३ श० २ उ०।
मिच्छादंसणकिरिया दुविहा पण्णत्ता | तं जदा-आय-
रियमिच्छादंसखवात्तिया,
चेति | स्था० २ ठा०।
मिच्छादंसणलडद्धि-मिथ्यादशनलब्धि-पुं० | मिथ्याहण,भ० |
प्ुश० २३उ०।
मिच्छादंसणवत्तिया-मि थ्यादशनप्रत्यथिकी-खस््री० । मिथ्या-
दशन प्रत्यया हेंतुर्यस्याः सा मिथ्यादशैनप्रत्यायकी । मोहाद- |
यजे क्रियाभदे, प्रति० । स्था० | आव० |
मिच्छादंसणसलन्न--मिथ्यादशनशल्य--न० । तोमरादिशल्य-
तुस्य मिध्यात्व, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । “ मिच्छादेसण-
सल्ल मिथ्यात्वदगीनम्--चविपयस्तदष्िस्तदेव तोमरादि-
शटयमिव शस्य
१ ठा० | प्रव०।
मिच्छादुकड-मिध्यादृष्कृत-न० । प्रतिक्रामामीयत्र प्रतिक्र- |
मेण, आ० म १ अ० प्रतिक्रामामीत्यत्र अतिक्रमणे मि-
थ्यादुष्क्रमभिधीयत, तच्च द्विधा । द्रव्यतो , भावत ।
तथा चाह नियुक्घिकारः-
दव्वम्मि निण्दगाई, कुलालमिच्छ ति तत्थुदाहरणं ।
भावम्मि तदुबउत्तो, मिगावई तत्थुदाहरणं ॥
द्रव्ये-द्रग्यघ्रतिक्रमण, प्रतिक्रभणप्रतिक्रमणवतोरभेदोपखा-
२श्रु०२ |
अ० । दशा० । मिथ्यात्वपूवोयां हिंसायाम् , स्था० ७ ठा०। |
£ अ० | आव७० । विपयंस्तदशने , आतु० । अत- |
श्रु०१६ |
तव्वइरित्तमिच्छादंसणकिरिया |
दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादशेनशस्यमिति । स्था० |
|
चेव निसवई पुणो पावे । पच्चक्खमुसावाई, सायानियडिप्पसे-
वेण "मिच्छामि दुकर्ड ' ति, भणमाणी अज्चंदणाए पाणु
रात् ।नह्वाद--आदशब्दादनुपयुक्कादिपार ग्रहः। तजोदाह
रणम्-कुलालमिथ्या दुष्कृतम् , तच्चेदम्-एगस्स कुंभका-
रस्स कुडीए साइणो ठिया , तत्थेगो चल्लगो तस्स कु
भगारस्स भंडाणि श्रगुलिधणुहपएणे कक्करेंहि विधई ,
कुंभगारेण पडिगयं, तेण दिदल्लो , भणिश्रो य--कीस मे
भडाणि विधसि ? , खुडगा भणइ-- मिच्छा दुक
ति ` एवं रो पुणा वि विधिऊख मिच्छा दुकड देइ ।
पच्छा कुंभगारेण तस्स खुडगस्स कण्णामोडआओं दिन्नो ।
सो भणद-दुक्खाविञ्वामि अहं, कुमगारो भरणद-मिच्छा मि
दुक ड । एबं सो पुणो २ करणामोडयं दाऊण मिच्छा मि दुकक्ड
ति करेइ । पच्छा चेल्ञगो भणइ-अहो सुंदर मिच्छादुकडं
ति । कुमकारो भणति-तुज्क वि एरिस चव मिच्छादुकर्ड
ति । पच्छा दितो विधियव्वस्स । “ ज दुक्कड ति मिच्छा, तं
गो य ॥ ६८५ ॥ ” एवे दव्वपडिक्रमस ।
भावप्रतिक्रमरे प्रतिपादयति--
( भावेमि इत्यादि ) भावप्रतिक्रमणम् । तुदुपयुक्त व `
तस्मिन्न धिकृते शुभव्यापारे उययुक्नो यत्करोति प्रतिक्रमण
तद्धावप्रतिक्रमणम् । तजोदादरण स्रगापतिस्तच्चदम-भयवं
वद्धमाणसामी कोसवीए समोासरितो, तत्थ चंदसूरा भय~
वतं वदिउ सविमाणा ओओदरणा । तत्थ मिगावती अज्जा.
उदयणमाया दिवसो त्ति काड चिरे टिया । | सेसाओ `
साहइणीओ तित्थयरं वदिंङण पडिगयाओ । चरदसूरा वि
तित्थयरं वंदिऊण पडिगया, सिग्घमेव वियालौभूयं । मि-
गावती सभता गया अनज्जचदणासगासं । पयातो ताव
पडिकंताउं मिगावती आलोएड पवत्ता । अज्जचंदणाए
भन्नति- कीस अज्जे ! चिरं ठियाउसि ? न जुत्तं नाम
तुमं कुलप्पसयाए एगागिणीपए चिर अच्छिछुयं ति, सा सन्भा-
पडिया । श्रज्चदणा ऽवि ताए वेलाए सथारगे गया, ताहे
निदा आगया पसुत्ता, मिगावतीए वि मा खुज़िहि क्षति सो
हत्थो संथारगं वडावितो । सा5वि बुद्धा भणइ-किमेयं ति
अज्ज च तुमं गच्छसि त्ति दुकड निदापमापणे न उडवि-
याऽसि मियावती तीए भणति-पस सप्पा मा ते खाहि त्ति,
हत्थो वडावितो । सा भणइ, कहि से दरिसद, अज्जचे-
दणा अपेच्छुमाणी भणइ । अज्ज ! किते आअतिसओ । सां
भणइ-आमं, ता कि छाउमत्था केवलिगो वा। सा भणइ केव-
लिगो। पच्छा अजचेदणा पाएखु पंडिऊण भणद- मिच्छामि
दुक्कड' कवली आसाइतो, एवं भावपडिकमणा पत्थ गाहा ।
जइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्सकाऊण पावयं कम्मे ।
ते चव न कायव्व, तो होइ पए पडिकंतो ॥ ६८३ ॥
आ० म० १ आ०।
संप्रति मिथ्याकारविषय प्रतिपादना थैमाह- ।
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संजमजोगे अब्भ्रु-ट्वियस्स ज किंचि वितहमायरियं।
मिच्छा एयं ति विया-णिऊण मिच्छ चि कायव्वं ६८३ `
संयमयोगः-समितिगु्तिरूपः, तस्मिन् विषये अभ्युत्यि- ।
तस्य-सखतो.यत् किचिद्धितथम्-च्न्वथा, आचरितम्-आसे- ,
बिलम्, संभूतमिति वाक्यशेषः! मिथ्या-विपरीतम् ,णतादिति ,
॥
|
तर
|
|॥
(२७६ )
ला
अभिधानराजनद्रः।
__ मिच्छासय
विज्ञाय, किम ?,
। कनैव्यम् , तद्विषये मिध्या दुष्कृतं दातव्यमित्यथैः ।
| सेयमयोगविषयायां च प्रवृत्तौ वितथासेवनमिश्यादुष्कृतं
| दोषापनयनायाल, न तृपत्य कर णविषयायां नाप्यसकृत् कर-
| शगोचरायाम् , तथाचा ऽमुमेवोत्सगे भरतिपादयन्नाह-
| जई य पडिकमियव्वे, अवस्स काऊण पावयं कम्मं |
| त॑ चव न कायव्यं, तो होइ पष्ट पडिकंतो ॥६८३॥
यदि च प्रतिक्न्तव्यम्-निवक्तितव्यम्, मिथ्यादुष्कृत दात- |
| ब्यमित्यर्थः | अवश्यं नियमेन कृत्वा पापकं कम्म, ततश्च तदेव
| पापकं कमे न कत्तेष्यम् , ततो भवति पदे-उत्समपदिषये
अतिक्रान्तः । अथवा-पदे प्रतिक्रान्त इति । किमुक्लं भव-
ति ?-सुतरां प्रतिक्रान्त इति ।
सप्रति यथाभूतस्यदे मिथ्यादुष्कृत खदत्त भवति तथा-
भ्रूसमभिधित्सुराह--
जे दुकर्ड ति मिच्छा, तं भ्रुज्ों कारणं अपूरंतो ।
तिविहेश पडिकंतो, तस्स खलु दुकडं मिच्छा ॥६८४॥
यदिति-आनर्दिष्टस्य निर्देशः कारणमिति यागः, ततश्च यत्
कारणं यद्वस्तु दुष्ट कृत दुष्कृतमिव्यवे विज्ञाय, ‹ मिच्छे ' ति
सूचनात् सूत्रमिति त्वा मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमिति शषः।
| अयः पुनरपि तत्कारणमपूरयन-श्रकु्वन अनाचरन्निति
भवः। यो वत्तत इति वाक्यशेषः । तत्र स्वयं कायेनाप्यकुवन्
| अपूरयन्नभिधीयते । तत आह--[ तिविहेश पडिक्षतो तस्स
| खलु दुक ड मिच्छा ] जिविधेन--मनोवाक्कायलक्षणन योगेन
छृतकारिताछमतिभ्दयुक्रन प्रतिक्रान्तो -नचरत्तस्तस्माद्-दु
ष्कृतकारणात् तस्येव खलुशब्दो ऽवधारणे दुष्छृत- प्रागुक्त
दुष्कृते फलदाप्तत्वमधिक्त्य मिथ्या, भवतीति क्रियाध्या-
हारः । श्रथवा-- तस्येव मिथ्यादुष्कृते भवति, नान्यस्येति ।
साप्रत यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग् भवति
तत्प्रतिपादनाथमाद--
ज दुक्डं ति मिच्छा, तं चव निसेवए पुणो पावं ।
पच्चक्खम्ुसाव३, मायानियाडप्पसगो य ॥ ६८५॥
यत्पापरूपे किचिदनुष्ठानं दुष्छतमिति विज्ञाय “ मिच्छा
मिध्या दुष्कृतदानविषयीकृतम् , यस्तदेव निषेवते पुनः पापं
स प्रत्यक्ञसटषावादी, कथम् !, दुष्कृतमेतदित्यभिघाय पुनरा-
सवनात्, तथा तस्य मायानिरतिप्रसङ्गश्च, स हि दुष्रान्तरा
| त्मा निश्चयतश्चतसा अनिवृत्त पव गुरादिरञ्जना्थं मिथ्या- |
दुष्कृते प्रयच्छति, कुतः ?,-पुनरा सेवनात्, तत्र मायैव निरू-
तिः तस्याः प्रसज्ञो मायानिकृतिप्रसङ्गः।
कः पुनरस्य मिथ्या दुष्छृतपदस्याथं इत्याह--
“मि' ति मिउमदवतते, 'छ' त्ति य य दोसाण छाये होड ।
“मि! त्ति य मेराएँ ठिओ, दु" ति दुगुंल्यामि अ्रप्पार ६८६
क त्तिकड भे पावं, 'ड' त्ति य डेवेमि तं उवसमेशं ।
एसो मिच्छादुकड, पयक्खरत्थो समासेण ॥ ६८७ ॥
मीत्यये वर्णो खदुमार्देवे वर्तेते , तब मद॒त्व॑ कार्यनम्नता ,
मादैवे-भावनच्रता, मृदु च मार्दव च खृदुमार्दैवे । ते त्रस्य स्त
इति सूदुमादेवः । श्रभ्नादिभ्यः॥७।२।४६॥ इति मत्वर्थी- |
योप्रत्ययः। तद्धावस्तरवं तस्मिन् । तथा 'छ' इत्ययं वों दो
षाणामसयमयोगलत्तणानामाच्छादने-स्थगने भवति । 'मि' |
° मिच्छ त्ति कायव्वं ' इति । मिथ्येति |
|
इत्यये वणो मयौदायां चारित्ररूपायां स्थितो ऽहमिव्यस्यार्थ-
स्य ऽभिघायकः । "दु' इत्यये वर्णो जुगुप्से-निन्दामि दृष्कृत-
कारिणमात्मानमित्यास्मिन्नर्थ वर्तते । ' क्त ` इत्ययं वणः कृतं
मया पापमित्येवम भ्युपगमा ऽं वर्तते, 'ड' इत्ययं! वणो उचेमि-
लङ्गयामि अतिक मामि, तत्-कृतं पापम् , केनत्याह-उपशम-
नेत्यस्मिन्नर्थ, पषो ऽनन्तरोक्रः प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृत-
पदस्याक्षरार्थ: । समासेन-संक्षेपण, । श्राह-कथं प्रत्यकमत्त-
राणामुक्ताथता पदवाक्ययोरेवा्धदशनात् । उच्यते-इह यथा
वाक्येकदेशत्वात्पदस्यार्थो ऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्शस्या-
पीत्यदाषः, अन्यथा पदस्याप्यक्षशुन्यत्वप्रसङ्गः प्रत्यकमत्तरे-
ष्वथीभावात् , प्रयो गश्च-यत् यत्र प्रत्यक न विद्यते तत्समुदा-
येऽपि न भवति, यथा-सिकतासु तैलम् , इष्यत च बरीसमुद-
यात्मकस्य पदस्याथस्तस्माष्टन्यथा ऽनुपपत्तेवणानामप्यथः प्र-
तिपत्तव्य इत्यल प्रसज्ेन। आ० म० १ अ०। ( मिध्यादृष्क-
तभेदाश्च-श्ष्टादशलत्ताः चतुर्विंशतिसदहस्नाः एकं शतं वि-
शतिश्च १८२४१२० भवन्ति । ते च युक्कितः “ पडक्रमण '
शब्दे पञ्चमभागे २७२ पृष्ठे दर्शिताः )
मिच्छादुकड॒प्पओग-मिथ्यादुष्कृतप्रयोग-पुं? । मिथ्यादुष्छ-
तशब्दप्रयोगे, “ जञ कहमवि पावकम्मे आसवित अकर-
शितमेय ति तदभिप्पाएण अपुणकरणतो य अन्भुद्धियं
मिच्छादुक्रड ति ` । आ० चू० १ श्र०।
मिच्छापडिवष्प -मिथ्याग्रतिपन्- वि । असम्यक् पिरडषणा-
द्याभग्रहवाते, आचा० २ श्रु० १ चू० १ श्र० ११ उ०।
मिच्छापवयण-मिथ्याप्रवचन-न० । शाक्यादितीर्थिकशास-
ने, स्था० ६ ठा०।
मिच्छाभिणिविस-मिथ्याभिनिवेश- प” असदभिनिवेशे,षो ०
११ विव० । स्था०।
मिच्छायार-मिथ्याचार- पुं । मिथ्यात्वाविरतिकषाखदुष्ट-
योगजमोत्तमार्गविपरीतसमाचारे, पञ्चा० २ विव ।
मिच्छावाय-मिभथ्यावाद्- पु° । जिनप्रणीततच्वविरुद्धत्वाद्-
सम्यग्बादे, स्था० ४ ठा० २ उ०।
| मिच्छासंठियभावख-मिथ्यासंस्थितभावन-जि० । मिथ्या
विपरीता संस्थिता स्रानुग्रहारूढा भावना-श्न्तःकरणव-
त्तिर्येषां ते मिथ्यासस्थितभावनाः । मिथ्यात्वोपहतदष्टिषु,
सूत्र० १ श्रु० २ अ० १ उ०।
मिच्छासुय-मिथ्याश्रुत-न०। मिध्यादर्ीमिथ्यादश्िप्रणीते वि-
परीता ऽथतया परिणते श्चुतज्ञाने, क्म० १ कर्म०। विशे०। न०।
से कि तं मिच्छासुअं १, मिच्छासुअं जं इमं अष्पाणिए-
हिं मिच्छादिद्विएहि सच्छंदबुद्धिमइविगप्पिअं, तं जहा-
भारहं रामायणं भीमासुरुक्खं कटिल्नयं सगडभद्दिआ-
ओ। खोड ( घोडग ) मुहं कप्पासिअं नागसुहुमं कणस-
त्तरी बइसेसिअं बुद्धवयणं तेरासिग्रं काविलिअं लोगाय-
यं सद्ठितंत माढरं पुराणं वागरणं भागवं पायंजली षुस्स-
देवयं लेहं गणिआं सउलरुअं नाडयाई, अहवा-वाव-
त्तरिकलाओ चत्तारि ग्र वेआ संगोवंगा, एआईं भिच्छदि-
[ (=
( २८० )
मिच्छासय 9 8
द्रस्प बच्छत्तपारग्गहिञ्रार् ममच्छ्ासुञख , एयाइ चव
सम्मादाडुस्स सम्मत्तपारग्गाहयाद् सम्मसुत् , अहवा-
भिच्छदिद्धिस् वि एयाईं चव सम्मसुअं , कम्हा?,
स्म्मत्तहउत्तगओं , जम्हा ते मिच्छुदिद्विआा तदहि चव
समएहिं चोइआ समाणा केड सपक्खदिद्वीओ चयति |
से तं मिच्छासुअं । ( सूत्र-७१ )
('सकित' मित्यादि) श्रथ कि तन्मिथ्याश्रुतम ?, आ
चाय आह-+मिथ्याश्रुत यदिदमज्ञानिकेः, तत्र यथा5ल््पथ
ना लोके ऽधना उच्यन्त, एवं सम्यगदष्टयो 5प्यल्णज्ञानभावा
दज्ञानिक्क उच्यन्त , तत श्राद-मिध्यादर्णिभः, कि स्व
दवुद्धिमतिविकाटिपतम् । तत्रावग्रह हत॒वाद्धिः, अपायधा
रण मातः, स्वच्छन्देन स्वाभप्रायण तत्वतः स्वेज्षप्रसा- |
स्व- |
तानुसारमन्तरेणत्यथः , वृदधमातभ्या वकाटपत,
च्चरन्दवुखिमतिविकटिपतम् । स्ववु्धि कटपनाशिरर्पा्नामितमि-
त्यथः , तद्यथा--' भारतमिव्यादि,
सगोवेगा ` भारतादयश्च ग्रन्था लाक प्रसिद्धास्ततो
लाकत एव तेषां खरूपमवगन्तव्यम् , त च स्वरूपता |
यश्रावभ्थितवस्त्वभिधानविकलतया मिध्याश्रुतमवखयाः ,
पतेऽपि च स्वामिसम्बन्धाचन्तायां भाज्याः, तथा-
चाह-- एयाई ` इत्यादि
मिथ्यादर्रीभत्यात्वपरिगरही तानि भवान्ति ततो विपरीता-
भिनिवेशव्रद्धिटेतत्वान्मिथ्याश्रुतम् , एताम्यव च भारता-
दीनि शास्त्राणि सम्यगरण्ः सम्यक्त्वपरिग्रदीतानि भव-
न्ति सम्यक्त्वेन यथावस्थिताऽसारतापरिभावनरूपेण परि- |
गृहीतानि तस्य सम्यक्श्रुतं, तद्रतासारतादशनन स्थिर- |
( ` श्रहवे ` त्यादि, )
अथवा--मिथ्याहष्टरपि सतः कस्यचिदेतानि भारता- |
तरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात् ,
दान शासत्राण सम्यकश्रतम् | 7शष्य आ्रह- कस्मात् ?
श्र।चार्यं आह-सम्यकत्वदेतुत्वात् , सम्यक्त्वंह तुत्वमव भा- ,
वयति-यस्मात्त मिथ्यादष्टयः तेरेव समग्रेः सिद्धास्तेवेंदादि- |
भिः पूर्वापरविरोधेन यथा रागादिपरीतः पुरुषस्तावन्ना- |
तीन्द्रियमभथमवधुध्यते रागादिपरीतत्वाद् अस्मादशवद् वेदे- |
चु चातीन्द्रियाः प्रायोऽथौ व्यावग्यन्त अतीन्न्द्रियाथदर्शी
च वीतरागः सर्वज्ञो नाभ्युपगम्यते, ततः कथ वदार्थग्रती-
तिरिव्यवमादिलक्षणन नादिताः सन्तः केचन विवेकिनः स~ |
त्या ( शाक्या ) दय इव स्वपक्तदण्ीः स्वदशनानि त्यजन्ति ,
भगवच्छासने प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः,तत पव् सम्यकत्वहेतुत्वाद्वे- |
दष्दीन्यपि शास्त्राणि कषाश्चिन्मिथ्यादष्रानामपि सम्यकश्रुत-
म् ( स त' मित्यादि) तदतन्मिध्याश्रुतम्। ने० । बू०।
मिच्छुकड-मिथ्यादुष्कृत-न० । प्रतिक्रमणे , महा० १ चू०।
मिच्छावणएस-मिध्यापदेश- प° । श्रसदुपदेशरूप,द्वितीये ऽति
चारे. ०।मिथ्योपदेशः-श्रसवुपदेशः, प्रतिषन्नसत्यवबतस्य हि
परपीडाकरं घचनमसत्यमेव, ततः प्रमादात् परपीडाकरणे |
उपदशऽतिचारा यथा-वाद्यन्तां खरोष्रादया, हन्यन्तां दस्य
व इति । बद्वा--यथास्थितोऽभ्रस्तथापदशः साधीयान्, वि-
परातस्त् श्रयथार्थोपदेशः , यथा-परण संदेहाप्रन्नन पृष्ठ न
तथापदशः , यद्धा-विवाहे स्वये परेण वा अन्यतराभि-
ह्धानापायापदेशः । श्रयं च यद्यपि सषावादयामीत्यत्र ब-
आआमभधानराजन्द्र
यावत् चत्तारि वया |
, एतानि भारतादीनि शाख्राणे
र मित्तणएदि
ते भङ्ग एव, न वदामीति बतान्तरे न किञ्चन तथापि सह-
साकारानाभोगाभ्यामतिक्रमादिभिवौ सपावादे परप्रवत्तेन
बतस्यातिचारः । अथवा--बतसेरक्तणवुद्धश्या परवृत्तान्त
कथनद्वारेण सपो पदेशे यच्छतो .तिचाराऽयं बतसापेक्तत्वान्मू*
पावादे परप्रवत्तनाच्च भस्नाभस्नरूपत्वाद् तस्यति द्विती
यो ऽतिचारः । ध० २ आधि० ।
। मिच्छोवजीवि- मिथ्योपजीविन् त° । मिथ्याचारप्रवृत्ते मा-
याविनि, सूत्र० २ श्रु० ५ अ०।
मिच्छोवयार-मिथ्योपचार- प° । माठ्स्थानगर्भ क्रियाविशेषे
आवच० १ ० ।
मिज्जमाणख-मीयमान-तत्रे० । तोास्यमान, आचा० । खूत्र० ।
मार्यमाण ० । हसायां बहुक्ररकमा-चोरा ऽयं पारदारिकं
इति वा इत्येवं कमणा परिच्छिद्यमाने हिंस्यमाने, सूज १
श्रु० ७ आ० ।
मिज्क- मे ध्य-त्रि० । शुचिद्रव्ये, स्था० १०
मिट्ट-मिष्ट-त्रि० । इत्कपादों ॥ ८ । १। १५८॥ इति अददे
ऋत इत्वम् । प्रा० १ पाद ।
मिणगोणस्-मिणगोनस-पुँ० | सपजातिविशेषे, व्य० १ उ०।
मिणाय-देशी-बलात्का रे, दे० ना० ६ वर्ग १२६ गाथा ।
मिणाल-मृणाल-न० । कमलनाले, आचा० ९ श्रु ०१अ०५३०॥
ठा०।
| मित्त-मित्र-न० | सुहृदि,विपा० १ श्रु० ३ आ० | कलप० । नि०।
भ० । जी० । ओ० । पश्चात् स्नहवति, स्था० ४ ठा० हे
उ० | विप० | सकलकालमव्याभिचारिहितोपदेशदायिनि,जे०
२ वक्त० । विज्ञातश्लाकपदवर्णादिसंख्य, अनु० । स्था०। ज्ञा०
उत्त० । सू०प्र० । आचा० । झहोरात्रस्य चतुर्थे मुहत्त ,
च० प्र० १० पाहु०। सूज ० । ज्यो० । स० | ज० । कल्प०।अचुरा-
घानक्तषवस्य देवतायाम् , स्था० २ ठा० ३ उ०।
चवे य य आरभडो, सोमित्तो पंचअंगुलो होई ।
चत्तारि य वईरिज्जो, दुव य सावघ्र होइ ॥ ४० ॥
द्० प० | ८६५ गाथा । जे० । मिच्रनाभ्नि देवे, जे० ७ वक्ष ०॥
डज्मितकदा रजन्म भूमिवाणिकग्रामरा जे, विपा० १ श्रु० २ अ०।
[ उज्मियय' शब्द द्वितीयभागे ७४६ पृष्ठे कथा गता ] “जग-
न्मित्रे यत्र भित्र-खमित्रान्वयपङ्कज |अध्वावबोधनिव्यूढ-
बतो 5भूत्खुब॒तो जिनः ॥ १॥” ती० १० कल्प । मातरड, पु"
“अक्को तरणी मित्तो, मत्तंडो दिणमणी पयेगो य । अदिमय-
रो पच्चृहो, दिश्रसयरो श्सुमाली त्र । ” पाइ० ना० ४ गा
था । वयस्ये, “मित्तो सही वयसो" पाइ० ना० १०० गाथा |
मांणपदाया: शास्तारे खनामख्याते राजान,वेपा०२श्रु०६अ०।
मित्तकेसौ -मित्रकेशी खी० । जम्बूद्वीप र्चकपर्वेतस्य रत्नो
चयकरृटवस्तव्यायां दिशाकुमारीमहत्तरिकायास्,स्था०्ठा०।
मित्तगा-मित्रका-खी० । बलिलोकपालसोमस्यात्रमदिष्यान् ,
स्था० ४ ठा० १ उ०।
| मित्तजख-मित्रजन-पुं० । सहवर्डितादिसुहज्ञोके ,स० । उत्त
प्रश्न० ।
मित्तणंदि- मित्रनन्दिन्-पुं? । वरदत्तकुमारपिर्तार खनाम>
ख्याते राजनि, विपा० २ श्रु० १० अ०।
4
( २८१ )
मित्तदाम _ अभिधानराजेन "अ मित्तसेण
मित्तदाम- मित्रदामन्- पुण । जम्बूद्वीपे भरतन्तेत्र अरतीताया- | पुरुषजाते एकत्र वसति सति तत्सहवासिनो मातापित्रा-
म॒त्सर्पिएयां जाते प्रथमकुलती करे, स० । स्था०। दयो दुमेनसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति । तसिश्च प्रवसात
| मित्तदव-मित्रदेव-पुं०। आरण्यकटपोत्पन्न धनदेवे, तदेव्याम्, | शान्तरे गच्छति गत वा तत्सहवासिनः खुमनसा भवान्त ।
तथाप्रकारश्च पुरुषजाता-ऽल्पेऽप्यपराध महान्त दण्ड
कर्पयतात । एतदव दशायतुमाह--द्राडस्य पाश्च दराड-
पाश्व, तद्विद्यते यस्यासा दणडपाश्वी, स्वल्पतया स्ताका-
| शखी० । उत्त० २२ श ०) 3
| भित्तदेवा-मित्रदेवा-खी० ० मित्रनामा देवो यस्याः सा । अ-
[व १, स अ ० पाड” । दी अपर पराधे5पि कुप्यति दण्ड च पातयति । तमप्यतिगुरुमिति
| पित्तदोसदंड-मित्रदेषदएड- प° । मात्रादनामल्पड' दशयितुमाद--दण्डन गुरुको दरडगुरुः | यस्य च दण्डो
| महादरण डनिवेत्तने , प्रश्न० ५ सवण द्वार । महान् भवति असों दण्डन गुरुभवाति । तथा दरडः पुर-
मित्तदोसवत्तिय -मित्रद्वेषप्र त्ययिक--पुं० | अमित्रक्रियायाम् , | स्क्ृतः सदा पुरस्कृतदराड इत्यथः । स चेवेभूतः स्वस्य
| मातापितृस्वजनादीनामल्प 5प्यपराधे तावद् यद्दरार्ड कुरुते | परेषां चास्मिन् लोके5स्मिन्नेव जन्मनि अहितः प्राणिनाम-
दहना इनताडनवधवन्यनादक तान्मत्रद्गष प्रत्यायकाक्रया- हतदर्डपातनात् , तथा परास्मन्नाप जन्मन्यसावाहतस्त-
स्थानम् | प्रव० १२१ द्वार । स० । आ० चू० ॥ श्राव । च्छालतया चासा यस्य कस्यचिदव यन कनाचदव नामत्त
पमिज्रदाषप्रत्ययिकं क्रियास्थानमाह- न क्षण त्ते सज्वलयतीति सज्वलनः, स चात्यन्तक्राधनो
अहावरे दसम किरियाठाणे मित्तदासवत्तिए त्ति आ- | वधघन्धच्छावच्छेदादिणु शाघ्रमव (५ प्रवत्तेते वः
र्सि व<प्युत्कयद्टबघतया ममाद्धारनतः प्राप्टम॥आसमाप खा -
ध रथी रा मजा बा शाह 2863 वा पकवक #ि0 470 ह॥ सिकुड ४ + कह,
घामपकुयीत् , तदेवे खलु तस्य महादरडग्रवत्तेयितुस्त्दरड-
वा सुण्हाहिं वा सद्वि सेवसमाण तेसि अन्नयरसि अ | प्रत्ययिकं सावद्य कर्मा ऽऽधीयते । तदेतदशमं क्रियास्थान
हालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुये दंडं निव्वत्तेति । तं मिचद्रोदभत्ययिकमाख्यातमिति | सूत्र० २ श्रु० ० ।
जहा-सीओदगवियडंसि वा कार्य उच्छोलित्ता भवति, मित्तप्पभ-मित्रप्रभे प° । खनामख्यात चम्पापुराश्चर , , आ०
उसिणोदगवियडेण वा कायं ओयिचित्ता भवति, अग- | क ४ अ० । आव० । आए० चू० । ( संवेगशब्दे कथा )
| शिक्राएणं कार्य उवडहित्ता भवति, जोत्तिण वा वेत्तेण वा | भित्तनल-मित्रवल-४० | खहतपक्तादरलःतान्मत्रचल में भवि-
शे्तेण वा तयाइ वा कण वा छियाए वा लयाए वा प्यति येनाहमापद खुखेनेव निस्तरिष्यामीति । आचा० १
श्रु० २ आ० २ उ०। +
| अप्ययरेण वा दवरुणश पासाई उदालित्ता भवति, दंडेण मित्तरूप-मित्ररूप- पुं° । मित्रस्येव रूपमाकारो बाह्योपचा-
वा अड्ढीणं वा मुद्ठीण बा ललुप सा च ४९ काच रकारणत्वा्यस्य स मित्ररूपः। मित्राभासे, स्था०४ठा०४उ०।
आउद्वित्ता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाएं सैवसमाशे _दु- मित्तल देशी - कन्दं, दे० ना० ६ बंगे १२६ गाथा ।
स्मणा भवति, पवयमाणे खुमणा भवति,तहप्पगारे पुरिस- मित्त मित्रव॒त्-त्रि० । मित्राणि वियन्ते यस्य स मित्रवान।
| जाए दंडपासी दडगुरुए दं पुरकड अहिए इमंसि लोगंपि | त्त० ३ आ० | सहपां शुक्रीडितादिके, उक्त २ श्र०।
अहिए परंसि लोगंसि सजले काणे पिद्धिमसि याऽवि मित्तवई-मित्रवती--खी०खदीनम्रषटिखियाम् ,आ०चु०६अ०।
भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं खावज्जति आदिज्ञेति दसमे मित्तवायग-मित्रवाचक-पुं० । स्वनामख्याते सुप्रसिद्धे शुत-
किरियट्टाणे मित्तद्रोसवत्तिए त्ति आहिए | सूत्र-२६॥ | स्थविरे, व्य० १ उ०।
तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पो मातापिवृखःस्वज- | मित्तवाहण-मित्रवाहन-पुँ? जम्बूद्धीपे भरतक्षेत्रे आगामि-
नादिभिः साद्ध परिवर्सस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेना- | न्यामुत्सीधरयां द्वितीये तीथकरे, स्था० ७ ठा० ।
नाभोगतया यथाकर्थ॑चिज्ञघुतमे ऽप्यपराधे वाचिके -दुवच- प्रितविरिय-मित्रवीर्य-पुं० । सम्भवजिनशिव्ये, ति० ।
नादिके, तथा कायिक--हस्तपादादिके, संघट्ननरूप कृते मिंचेसिरि मित्रथी पु आमलकल्पावास्तन्य स्वनामख्याते
सति खयमेव आत्मना क्राधाध्मातो गुरुतरं दणड दुःखोत्पा 49 थे ४
दकं निवेत्तेयति-करोति । तद्यथा-शीताोदके ्रिकटरे-प्रभृते, | तवक, यन जीवप्रादेशिकनिहृबाचार्यस्तिष्यग्रुप्त ०
शीत चा शिशिरादौ तस्य-अपराधकर्तु कायमधो बोलायिता कथादना प्रातच्रालतः | वश०। आ० चू०। आ० म० ।स्था०।
भवति, तथोष्णोद्कविकटेन कायं शरीरमपसिश्चयिता । तत्र॒ मित्तसेण मित्रसेन-पुं° । ख्ननामख्यात अयोध्यानगरीराज-
विकटग्रहणा दुष्णतेलन काञ्जिकादिना वा कायमुपतापरयिता जयचन्द्रामत्र, च र०। _ स
भवति | तथा ऽन्निकायेनोट्मुकेन तप्तायसा वा कायमुपदाह- मासीत् पुयमयोध्याया-मयोध्यायाम्ररातिभिः ।
यिता भवति । तथा-जोत्रेण वा वेत्रेण वा नेत्रण वा त्वचा धमकमाण निस्तन्द्रा, जयचन्दरो महीपतिः ॥ १॥
वा सनादिकया लतया व्राऽन्यतमन वा दवरकेण ताडन- लस्य प्रियतमा चारू-दर्शना चारुदशेना ।
। ; श्रसीरप्राश्वीणि (उद्दालयितु ति)चमौणि | खलश्चाननपुण्यश्री-श्रन्द्रश्वन्द्रसदक दशाः ॥ २॥
लुम्पयितुं मवति ,तथा-द्रड़ादिना कायमु पता डयिता भवतीः श्रज्ञारबहुलः श्येन-पुरोहिततनूद्धवः ।
ति। तदेवग्र्पाप्रराधिन्यपिं भटाकोधदण्डवति तथाप्रकारे तान्मत्रे मित्रसनो 5मूतू-केलिकोशूहलप्रियः ॥ ३ ॥
७५4
0”
च कर.
मिक्तमेण
एकदा तत्पुरोद्यात, दुष्यान घनपावकः।
आगादागास्यतीतादि-वेदिखारियुगन्घधरः ॥ ४ ॥
ते न्तु द्न्तुरानन्दो-क्िन्नरामाझ कञ्चुकः ।
जगाम जगतीनाथः, खुमित्रखुतसंयुतः ॥ ५॥
राजा निष्प्रातिम॑ रूप , दष्टा तस्य मुनीशितुः ।
पप्रच्छ स्वच्छुधारव , चिस्मयस्मेरलोचनः॥६॥
सत्यप्यसदश रूप , साप्राज्यविभवाचिते ।
कुतो बेराग्यतः पूज्ये-जग्रहे दुष्करं चतम् ॥ ७ ॥
गुरुराह मया दृष्ट:, सो5रघटो नराधप ! ।
सदा युक्ता वहन्नित्यं, संपूर्ण भवनामकः ॥ ८ ॥
चत्वारो रागविद्वेष-मिथ्यात्वस्मरसंज्षिताः ।
खडा सारथयस्तत्र, मोहः सीरपतिः पुनः ॥ ६ ॥
विनाऽपि चारिवारिश्यां, सबला वेगशालिनः।
महाकायाः कषायाख्या , वृषभाष्तत्र घोडश ॥ १० ॥
हास्यशोकभयाद्यास्तु, कर्कशा कर्मकारकाः ।
जुगुःसारत्यरत्यरत्याद्या-स्तषां च परिचारिकाः ॥ ११॥
दुश्यागप्रमादाख्य , तत्र तुम्बद्धये महत् ।
विलासाटलासावव्वोके-दटावभावादिकाः स्वराः ॥ १२ ॥
तत्रासयतजीवाख्यः , कृपो ऽटषएरतलः सदा ।
पापावरतिपानोय-सभारपरिपूरितः॥ ६३ ॥
पापाविरतिनीरोघ्र-मग्नपूरितरेचितम् ।
सुदीघ्र जीवलाकाख्य , घरीयन्त्रमभङ्कुरम् ॥ १४॥
पट्कार उच्चकम्रन्यु--गङ्ञान तु प्रतीच्छुकः ।
टं मिथ्याभिमानाख्य, तस्य दावेटिक सदा ॥ १५ ॥
अतिसंक्लिप्रचित्ताख्या , तत्र निर्वेहणी पृथुः ।
श्रतिद्राघ्ीयसी कुल्या, भागलोलुपताऽभिधा ॥ १६ ॥
क्षत्र विवक्षित जन्म, माला दुःखस्य सातः ।
अपरापरजन्माख्याः, कदारा गणनातिगाः ॥ १७ ॥
पानान्तिकस्त्वसद्वोधो , वीज कर्मकदम्बकम् |
दष्टा जीकपरीणामा , वापकरस्तत्र सोद्यमः ॥ १८ ॥
ततश्च-
उप्ते तनारघ्रटेन, सिक्तं निष्पत्तिमागतम् ।
श्रभूतसुखदुःखादि, सस्यं नानाविधे नरप!) ॥ १६॥
एव भवारघ्रद्माति--भ्रमणो द्वीतचतसा ।
दीक्षा तद्धयघाताय, मयाऽ ऽदायि नरेश्वर !॥ २० ॥
श्रुत्वति न्र॒पातिर्भीम-भवाद्धीतमना भ्रशम् ।
स्थस्य चन्द्रखुते राज्य , शमसाम्राज्यमादद ॥ २१ ॥
समिबरश्चन्द्रराजोऽपि, राजन् ! राज्यश्रिया तया ।
सम्यग्दशनसं शुद्धं . ग्रहिघर्ममाशिश्रियत् ॥ २२॥
नत्वा गुरुपददढ्न्द्े, निज धाम जगाम रार् |
श्न्यत्र मुनिराजो 5पि--बिजडे सपरिच्छदः ॥ २३॥
श्रन्यदा मिज्रसनन , राजाऽभाणि रहस्यदः ।
किमप्यपूव विज्ञाने, दशयामि सख ! तव ॥ २७ ॥
स प्राह दशय तिर , ततोऽसौ जम्बुकस्वरम् ।
श्रा$रसद् यथा रसु, पूर्व हि जम्चुका अपि ॥ २५॥
चुकूजुः कुककुटा उच्चेः, कृत कुक्कुटकूृजिते ।
निशीध5पि निशाप्रान्त-मुन्निद्रा मेनिर जनाः ॥ २६४
तथा ःःज्ञारसाराणि , वाक्थान्याह यथा जनः ।
ददरशालाऽपि जायत, मन्मथान्माथितों भ्रशम् ॥ २७ ॥
२८२ )
अभ्ििघानराजन्द्रः
तता राजा55ह मित्रेवे, माउतिचारीनिजं बतम् !
सविक्रारवचो वक्तु, न युक्तं शीलशालिनाम् ॥ र८ ॥
शुज्ञारसारभाषित्व-मेव म॒क्ताऽपि नोज्काति ।
यदा केलिप्रियत्वेन, तदा राज्ञा5प्युपेक्षितः ॥ २६ ॥
प्रोषितभतेस्त्रियो ऽग्र, सविक्रारगिरा ऽन्यदा ।
तथा<55ख्यद्यथा सद्यः, सा भून्मदनविह्ला ॥ ३० ॥
तां तथा सविक्राराङ्गीं, दष्ट तद्देवरः क्रुधा ।
ते बवन्ध डढेवैन्धे, रे विटो ऽसील्युदारयन् ॥ ३१॥
तदाकरय जपो मडनछु, मोचयित्वा तमाख्यत ।
जतातीचारव्त्तस्य, पुष्पे प्राक्षामिद् त्वया ॥ ३२ ॥
फले तु नरक घोरे, लप्स्यसे तीववेदनाः ।
यत्तदा वार्ता ऽप त्व, नातचारादुपारमः॥ ३३ ॥
जिन देवे गुरून साधू--स्तदयाप सख ! स्मर ।
स्व दुष्त सव, क्षमय प्राणिसंहाति ॥ २४ ॥
साऽपि प्राह सख गाढ, जन्धनेः पीडितो ऽस्म्यहम् ।
न स्मरामि ततः किचित्, प्रतीकारं कुरुष्व में २५ ॥
इति जल्पन्नसो सत्वा, गजो ऽभृद्धिन््यभूध्यरे ।
ततो बहुभवं श्रान्त्वा, कमान्मोत्तमवाप्स्यात ॥ ३६ ॥
सविकारवचो वाद्धि- कुम्भमूञखचन्द्र भूपतिः ।
राज्यं न्यस्य सुते दीक्ता, गरदीत्वा च ययो शिष्विम् ॥ ३७ ॥
इत्यवेत्य कृतिनः स्वचेतसा, मित्रसेनचरितं गतांहसः ।
च खदु च तरदुःखलत्तित, सत्यजन्तु सविकारजल्पितम् ३5४
घ० र० २ अधि० २ लक्ष० |
मित्ता-मात्रा-खी० | तुल्ये, मात्राशब्दात्तात्पयी थचिश्रान्ते-
स्तुल्यवाची । यदाह निशीथचू(णैकृत्ू-मात्राशब्दस्तुल्य-
वाचीति । व्य० १ उ०।
मित्रा-खी० । योगदष्िभेदे, मित्रादष्िस्तणाग्निकणोपमा न
तत्वतो 5भीष्टकार्यक्षमा सम्यक्छपयोगकालं यावदनवस्थानात्
अर्पवी यतया, ततः पटुबीजसस्काराध्यानायुपपत्तः विकल-
प्रयोगभावाद् भावतो वन्दनादिकार्यायोगात्। | घ० १ अधि०।
मित्रां रषिम सप्रपञ्चे निरूपयच्छद--
भित्रायां दर्शनं मन्दं, योगाङ्ग च यमो भवेत् ।
अखेदो देवकार्याद्ा - वन्यत्रादवेष एव च ॥ १ ॥
( मित्रायामिति ) मित्रायां दष्टो । दशने मन्दम्- स्वल्पो
बोधः । तणाग्निकणोद्योतन सदशः । योगाङ्ग च यमो भ-
वदिच्छादिभेदः । श्रखेदो ऽव्याकुलतालक्तणः । देवकार्यादा-
वादि श््दाद्-गुरुकायीदि परि ब्रह: । तथा तथोपनते ऽस्मिस्त-
थापरितोषान्न खेदः, अपि तु प्रवृत्तिरेव , शिरागुरुत्वादि-
दोषभाक्त्वे $पि भवाभिनन्दिना भोगकार्यवत् । अद्वेषश्चाम-
त्सरश्चा परतर त्वदेवकायीदौ तथा तत््वावेदितया मात्सर्यवीर्य-
चीजसद्धावेऽपि तद्भावाडन्कुरानुदयात् ,तथाविधाचुष्ठानमधि-
कृत्यात्र स्थितस्य हि करुणांशबौजस्येवेषत्स्फुरणमिति । १॥
द्वा० २१ छा० ( यमस्वरूपं सभेदम् ' जम ` शब्दे चतुर्थभागे
१३६१ पष्ठ गतम् ) मित्रदेवताके नक्षत्रभदे , स्था० ।
दो मित्ता । सूत्र स्था० २ ठा० ३ उ०।
बाधनेन वितकांणां, प्रतिपचस्य भावनात् ।
योगसै।कथतोऽमीषां, योग ङ्गत्वमदाहतम् ॥ २ ॥
( बाधननति ) वितर्काणां योगपरिपन्थिनां हिसादीनां प्र-
तिषक्तस्य भावनात् , वाधननाजुत्थानापहतिल्तणेन योग-
४३
मित्ता
ते इ ~= कनि न्न क्क, कैः
3
मित्ता
स्य सोकर्यतः सामग्रीसेपत्तिलक्षणादमीषामहिंलादीनां यमा- |
' ( . २६३ )
अभिधानराजन्द्रः।
मित्ता
|
नां योगाङ्गत्वमुदाहतम् , न तु धारखदीनामिव समाधेः सा- |
क्षादुपकारकत्वेन, न वासनादिवद्धत्तरोत्तरोपकारकत्वेनेव, |
कि तु-प्रतिवन्धकटिसायपनायकतयवेत्य्थः । तदुक्लम-'वि
तर्कवाधने प्रतिपक्षमावनामाति ॥ ” ( २--३३ ) ॥ ३॥
ऋरोधान्नोभाच मोहाच, कृतानुमितकारिताः ।
मृदुमध्याधिमात्राश्च, वितका(: सप्तविंशतिः ॥ ४ ॥
( करोधादिति ) ऋधः-रृत्याकृत्यविवेकोन्मू लकः प्रज्वलना- |
्मकश्चित्तधमैस्तस्मात् । । लोभः-ठृष्णालक्षणस्ततश्र । मोह- |
ख्-सवेक्लेशानां मूलमनात्मन्यात्माभिमानलत्तणः । इत्थ च
कारणभदेन त्रेविध्य दर्शित भवति । तदुक्लम--“ लोभक्रो-
चमोहमू्ल `` इति । (२--३४ पूर्वकाः) व्यत्ययाभिधानेऽप्य-
च्च मोहस्य प्राधान्यम् , स्वपरविभागपूचैकयोलोभक्रोधयो- |
स्तन्मूलत्वादिति वदान्त । ततः कारणजत्रयात् कृतानरामितका- |
रिता एत5हिसादयो नवधा भिन्ते । तेष्पे खदवा म-
न्दाः, मध्याश्चातीबमन्दाः, अधिमात्राश्च तीव्रा इति प्रत्येक
तरिधा भिद्यन्त । तदुक्लम--“ खदु मध्याधिमातराः "` ( इति
२--३४। वितकौ हिंसादयः कृतकारितानुमादिता लोभ-
ऋषधमोहपूर्वका खदुमध्यधिमात्रा दुःखाज्ञानान्तफला इति
प्रतिपक्तमावनम् ) इत्थ च सप्तविशातिर्वितका भवान्ति । अत्र
सृद्वादीनामपि भ्रयकं खदुमध्याधिमाताभेदो भावनीय इ- |
ति वदन्ति ॥ ४॥
दुःखाज्ञानानन्तफला, अमी इति विभावनात् ।
प्रकपै गच्छतामेत-द्यमानां फलमुच्यते ॥ ५ ॥
( दुःखेति ) ठुःख प्रति करूलतया ऽवभासखमानो राजसश्रित्त-
धमः, अज्ञानम्-मिथ्याज्ञानम् , सशयविपर्ययादिरूपम्। त |
अनन्ते--अपरिच्छिन्न फल यषां ते तथाक्नाः । अमी वि- |
तकी इति विभावनान्निरन्तरं ध्यानात् प्रक गच्छतां यमा-
नामेतद्धच्यमाणे फलमुच्यते ॥५॥ द्वा० २९ द्वा० । ( तत्फ-
लम् ` महव्वय ` शब्दे ऽस्मिन्नव भाग गतम्) ( परित्र- |
इविषयः “ परिग्गह ' शब्दे पश्चमभागे ५५६ पृष्ठ गतः )
इत्थं यमप्रधानत्व--मवगम्य स्वतन्त्रतः।
योगबीजमुपादत्ते, श्रुतमत्र श्रुतादपि ॥ ७ ॥
( इत्थमिति ) इत्थम-उक्कप्रका रेण, स्वतन्त्रतः-स्वाभिमत- |
पातज्जल्ादिशास्रतो, २मप्रधानत्वमवगम्य । अन्न मित्रायां
दष्टो निदृत्तासदूग्रहतया सहुरुयोगे श्रुताज्जिनप्रवचनात् श्रु- |
तमपि योगवीजमुपादत्ते तथास्वाभाव्यात्॥ ७ ॥
उक्रयोगवीजमेवाद-
जिनेषु कुशलं चित्ते, तन्नमस्कार एव च ।
प्रणामादि च संशुद्ध, योगबीजमनुत्तमम्र् ॥८॥
( जिनेष्विति ) जिनेषु-अहंत्सु, कुशलम्-द्वेषाद्रमावेन |
श्रीलयादिमच्त्तम् अनेन मनोयोगचृत्तिमाद | तच्नमस्कार एव |
=. ०० 5 ~=
जिननमस्कार एवं च, तथा मनोयागभ्ररितः, इत्यनेन वाग्यो- |
गवृत्तिमाह । प्रणामादि च पश्चाह्ञादिलक्षणम् , आदि-
शब्दान्मराडलादिग्रहः। संशद्धमशद्धव्यवच्छेदा थमेतल् तस्य
सामान्यन यथाप्रतृत्तकरणुभेद॒त्वात्तत्य च योगवीजत्वालु-
| | शा शा न [7 5 ः
पपत्तरेतत्सर्वे सामस्त्यप्रत्येकभावा भ्यां योगवीज मोक्षयो-
जकानुष्ठानकारणमनुत्तमं सर्वप्रधानं विषयप्राघान्यात्॥ ८॥
चरमे पुट्ठलावर्ते, तथा भव्यत्वपाकतः |
प्रतिबन्धाज्मितं शुद्ध-मुपादेयधिया ह्यदः ॥६॥
( चरम इति ) अदो हि एदच्च चरमेऽन्त्य पुद्नलावर्ते भव-
ति । तथा-भव्यत्वस्य पाकतो मिथ्यात्वकट्ुकत्वनिवृस्या
मनाग्मा घुयंसिद्धेः । प्रतिवन्यनासङ्गनाल्मितम्--्रादारा-
दिसज्ञादयाभावात् , फलाभिसन्धि्सदतत्वाञ्च । तदुपात्त-
स्यतु स्वतः प्रतिबन्धसारत्वात् । अत एवोपदेयधिया-
ऽन्यापाहेनादरणीयत्वबुद्धश्ा शुद्धम् । तदुङ्कम्-“ उपादेयधि-
या श्त्यन्त, सज्ञाविष्कम्भणान्वितम् । फर्लाभसन्धिरदित,
संशुद्धं द्येतदी दशम् ॥ १॥ ” ॥ ६ ॥
प्रतिबन्धेकनिष्टं तु, स्वतः सुन्दरमप्यद्ः ।
तरस्थानस्थितिकयिव, वीरे गोतमरागवत् ॥१०॥
(प्रतिवन्धेति) प्रतिवन्धे-स्वासङ्ग एका-केवला निष्ठा यस्य
तत्तथा । अदो-जिनविषयकुशलजचित्तादि, तत्स्यानास्यातका-
यव तथास्वभावत्वात् , वीरे-वर्धमानखामिनि गोतमरागवत्
गोतमीयबहुमानवत् | असङ्गशक्व्यव हनुष्ठा नमु त्त रोत्तरपरि
णामप्रवाहजननेन मोत्तफलपथवसानं भवत, दात विवेचित
प्राक् ॥ १० ॥
सरागस्याग्रमत्तस्य, बीतरागदशानिभम् ।
अभिन्दतोऽप्यदो ग्रन्थि, योगाचाैयभोदितम् ॥११॥
( स्म्यगस्येति ) शरदः शुद्धयोगवीजोपादानं ग्रन्थिमाम
तोऽपि जीवस्य चरमयथाप्रचृत्तकरणसाम््यन, तथाविध
क्षयोापशमादतिशयितानन्दाञुभवात् । सरागस्याप्मत्तस्य--
सतो यतर्वीतरागदशानिभं सरागस्य वीतरागत्वप्राप्तावि-
व योगवीजोपादानवेलायामपू्ः कोऽपि स्वानुभर्वसिद्धो 5-
तिशयलाभ इति भावः । यथोदित योगाचार्यः ॥ ११ ॥
ईषदुन्मज्जनामोगो, योगचित्तं भवोदधौ ।
तच्छक्त्यतिशयोच्चेदि, दम्भोलिग्रन्थिपते ॥ १२ ॥
( इषदिति ) योगाचित्तम--योगबीजोपादानप्रणिधानचि-
त्तम् , भवोदधौ-ससारसमुद्रे, ईषन्मनागुन्मजनस्याभोगः।
तच्चृक्के-भवशक्ररतिशयस्याद्रेकस्योच्छेदि-नाशकम् , ग्र-
न्थिरूपे पर्वते दम्भोलि-वैज्रम् नियमात्तद्धेदकारित्वात् ।
दत्थ चतत्त्फलपाकारम्भसदटशत्वादस्येति समयविदः ॥१२॥
आचायोदिष्पपि द्येत-द्विशुद्धं भावयोगिषु ।
न् चान्येष्वप्यसारत्वा-त्कटेऽकूटधियोऽपि हि ॥ १३ ॥
( श्राचार्यादिष्वपीति )-श्नाचा्यादिष्वपि-श्राचा्योँपाध्या-
यतपरू्यादिष्वपि, एतत्-कुशलचित्तादि, विशुद्धम--संशु-
दमेव, भावयागिषु--ताच्विकगुणशालिषु, यो गवीजम् , न
चान्येष्वपि-द्रव्याचार्यादिष्वाप कूटे ऽकृटधियोऽपि हि अ-
सारत्वादसुन्द्रत्वात्। तस्याः सद्योगबीजत्वा जुपपत्तेः॥१२॥
छाघनाइसदाशंसा--परिहारपुरःसरस् ।
वैयाबृत्य च विधिना, तेष्वाशयविशेषतः । १४ ॥
( जछाघनाति ) छाघनादेः-स्वकीत्त्यीदेः,या 5सत्यसुन्द्रा ५5-
शूसा-प्रार्थना, तत्पारिहारपुरस्सरम् वैयावृत्य च--व्यापूल-
(लेट (0)
आशभ्रधानराजन्द्र: |
मित्ता
|
भावलक्षणमाहारादिदानेन विधिना-सत्राक्नन्यायेन, तघु- |
भावयोगिष्वाचार्येषु , आशयावेशषतश्ित्तोत्साहातिशयात् |
योगवीजम् ॥ १४ ॥ |
भवादुद्विग्नता शुद्धीं-पधदानाग्भिग्रहः |
तथा सिद्धान्तमाश्रित्य, विधिना लखनादि च ॥ १५॥
( भवादिति ) भवात्-संसारात् , उद्विग्नता इश्टवियोगाद्यानि-
मित्तकसहजत्यागच्छालक्षणजा | णुद्धः- निर्दोष योषघदानादेर-
भिग्रहो भावाभिग्रहस्य विशिषटत्तयोपशमलक्तणस्य भिन्नग्र-
न्थेरेव भावेऽपि द्रव्याभिग्रहस्य स्वाश्रयशुद्धस्यान्यस्यायि
सभवात् । तथा सिद्धान्तम--आर्ष वचनमाधित्य, न तु
कामादिशाखाणि । विधिना--न्यायात्तघनसस्पयागादिलक्त-
शेन लखनादिकं च योगवीजम् ॥ १५॥
लेखनादिकमवाद--
लखना पूजना दान, श्रवणं वाचनोद्ग्रहः ।
ग्रकाशुनाऽथ खाध्याय चिन्तना भावनेति च ॥ १६॥ |
( लेखनति ) लखना-सत्पुस्तकेषु । पूजना-पुष्पवख्रादिभिः । |
दानम् -पुस्तकादेः । श्रवणम्--व्या व्यानस्य । वाचना--स्वय-
मवास्य, उद्धहों-विधिग्रहणमस्येव । प्रकाशना गरहीतस्य भ
व्यपु । श्रथ स्वाध्यायो वाचनाद्रस्यव । चिन्तना ग्रन्थाथ- |
ताऽस्यक भावनात चतद्भघ्चरव । यागबाजम् ॥ १६॥
बाजश्व॒त! प्रा श्रद्धा-3न्तावश्रातासकाज्ययात् ।
तदुपादयभावश्र, फल त्सुक्य वनाऽ।धकः ॥ १७ ॥
चीजश्रता--यागवीजश्रवण । परा-उत्कृषश्ा, श्रद्धा--इदमि- |
त्थमव ` इति प्रतिपत्तिरूपा । अन्तर्विश्रातासिकायाश्िित्ताश-
क्लाया व्ययात् । तस्याः बीजश्रुतरुपादेयभावश्चा द्रपरिणाम- |
श्च । फलोत्सुक्यम--अभ्युद्याशेसात्वरालक्तणम्, विनाउधि- |
का 5तिर्शायता यागबीजम् ॥ १७ ॥ |
~~~ त्प्रण = © रते
नामत्त सत्प्रणामाद -भद्रमृतरमुष्य च |
शुभा निमित्तसंयगा-ब्वज्चकादयतो मतः ॥ १८ ॥ |
( निमित्तमिति ) अमुष्य चानन्तरोदितलक्षणयोगिनो जी- |
वस्य । भद्रमृत्तः-प्रियदशनस्य, सत्प्रणामादर्योगवीजस्य-नि- |
मित्तम | णुभः-प्रशस्तः। निमित्तसयागः-सद्योगादिसम्बन्धः
सद्यागादीनामव निःश्रयससाघनर्निमिचत्वाज्ञायते । अब-
ञ्वकादयाद्-वद्यमाणसर्माघविशषोदयात् ॥ १८ ॥ |
यागक्रियाफलाख्यं च, साधुभ्योप्वक्चकत्रयम् । |
श्रुतः समाधिरव्यक्र, इषुलक्ष्यक्रियोपमः ।*१६॥ |
( यागति ) साधुभ्यः--साधूनाश्रित्य । योगक्रियाफला-
स्यम् , अवश्वकत्रयम-यागावश्चकक्रियावश्वकफला वश्चकल-
षणम् । अव्यक्तः समाधिः श्रुतः, तदधिक्रार पाठात् | इषु-
लच्यक्रियापमः-शरशरव्याक्रियासदशः । यथा शरस्य शर-
व्याक्रिया तदविसवादिन्यव,श्रन्यथा तत्क्रियात्वायागात् ,तथा
सद्यागाषञ्वकादिकमपि सद्यागाद्यविसेवाद्यवेति भावः ॥१६॥
हतुरत्रान्तरङ्कश्र, तथा भावमलाऽल्पता ।
ज्योत्स्नादाविव रत्नादि मलापगपर उच्यते |
२० ॥
( हेतुरिति )-अजञ सत्पखामादो । अन्तर ङ्गश्च हेतुः । तथा-
भाषमलस्य कर्मसम्बन्धयोग्यतालक्तणस्याल्पता । ज्योर्स्ना-
दाविव रत्नकान्लयादाविव रल्नादिमलापगम उच्यते । तत्र
खत्पुट पाकादीनामिवात्र सद्योागादीनां निमित्तत्वेनेवोपयो-
गादिति भावः ॥ २० ॥
सत्सु सखधियं हन्त, मले तीत्रे लभेत कः।
अ ङ्गृल्या न स्पृशत् पडगुः,श।खां सुमहतस्तरोः॥२१॥
(सात्स्विति) सत्सु-साधुषु, सच्वधियम्-साधुत्ववुद्धि, हन्त
तीबे-प्रबले, मले-कमवन्धयोग्यतालक्तणे-सति को लभेत
ततो लाभशक्केर्योगान्न को<पीत्यर्थः, अङ्कल्या पङ्कः खु-
महतस्तरोः शाखां न स्पृशत् , तत्प्रा्तिनिमित्तस्योचत्वस्या-
रोहशङ्घर्बा श्रभावात् । तद्धत्परकूतेऽपि भावनीयम् ॥ २१ ॥
वीक्ष्यते स्वल्परगस्य, चेष्टा चेशर्थ सिद्धये ।
स्वल्पकमेमलस्यापि, तथा प्रकृतकमणि ॥२२॥
( वीच्यत इति ) स्वल्परांगस्य मन्दव्याधेश्वेष्ठा राजसवा-
दिप्रवृत्तिलक्षया, चेष्टार्थस्य-कुडुम्बपालनादिलक्षणस्य, सि-
द्धय--निष्पत्तये , वीक्ष्यते न तु तीन्रोगस्येव प्रत्यपायाय ।
स्वल्पकर्ममलस्यापि पुंसः , तथा प्रकृतकर्माण--योगबीजो
पादानलक्षण ! ईंदशस्येव स्वप्रतिपन्ननिर्वाहक्षमत्वात् ॥२२॥
यथाग्रवृत्तकरण, चरम चदश स्थितिः
तत्चतोऽपूथमेवेद -मपूर्वासत्तितो विदुः ॥ २३ ॥
( यथति ) यथाप्रवृक्तकररेए चरमे पयैन्तवर्तिनि च । ईद ¦
शी--यागवीजापादाननिमिक्ता ऽल्पकर्मेत्वनियामिका । स्थि-
तिः-स्वभावव्यवस्था, श्रपूवस्य-श्रपूवैकरख्स्यासत्तितः-स-
ज्लिधानात् फलव्यभिचारायागात् । इदं चरमं यथाप्रबुत्ति-
करणम् । तत्वतः-परमा थतः अपूर्बमव, विदु-- जनते, यो-
गविद्: । यत् उक्लम्-- अपूर्वांसन्नभावन, व्यभिचारवियो- _
गतः । तत्त्वतो ऽपृवमवेद-मिति योगविदो विदुः॥ १ ॥२३॥
प्रवेतेते गुरस्थान-पद मिथ्यादृशीह यत् ।
श्नन्वथयोजना नून- मस्यां तस्योपपद्यत् ॥ २४ ॥
( प्रवर्तत इति ) यदिह-जिनप्रवचन, गुणस्थानपदे मिश्या-
हशि-मिथ्याइशट पुसि प्रचत्तेत अस्स्षलद्वृत्तियोगविपयी-
भवति । तस्य-गुणस्थानपदस्य, नूनम्-निश्चितम् । शस्याम्
मित्रायां इष्टौ । श्रन्वर्थयोजना-योगाथघरना। उपपद्यत । स~
स्पणामादियागबीजोपादानगुणभाजनत्वस्यास्यामेवोपपत्तेः।
तदृष्ं दरिभद्रसरिभिः- प्रथम यद् गुणस्थाने , सामान्यनो
पवशितम् । श्रस्यां तु तदवस्थायां सुख्यमन्वथयोगतः ॥ १ ॥
दाति ॥ २४॥
व्यक्त मिध्यात्वधीप्राि -रप्यत्यत्रेयञ्रुच्यते ।
घने मले विशेषस्तु , व्यक्ताव्यक्तधियोन कः ॥ २५॥
( व्यक्ति ) श्नन्यज्-ग्रन्थान्तरे,व्यक्कमिध्यात्वधीप्राप्िः-मि
ध्यात्वगुणस्थानपदुप्रकत्तिनिमित्तत्वन । इयं मित्रा दष्टिरिवो-
च्यत | उयक्घत्वेन तत्रास्या एवं प्रदणाघ् । घने-तीत्र, मल तु
सति। नु इति वितर्के । + को विशषः ?
दृश्या धियो व्यक्लाया अ्रव्यक्तापक्षया प्रत्युतातिदुष्टत्वान्न क"
थचिद् शुणस्थानत्वनिबन्धनत्वमिति भावः । विचित्रतया नि~
( २८४
मित्ता
पमधिधानराजन्द्रः |
भियभासिया.
गमस्य बहुभदत्वात् । तद्धदविशषाश्रयरन बाऽन्यत्र तथा- |
भिधानमिति परिभावनीयं सरिभिः ॥२५॥
यमः सद्योगमूलस्तु, रूचिवृद्धिनिबन्धनम् |
शुङ्कपच्चद्वितीयाया, योगश्रन्द्रमसो यथा ॥ २६॥
उत्कषादपकषाच, शुद्धथशुयारय गुणः
मित्रायामपुनरबन्धात्, कर्मणां स प्रवतेते ॥ २७ ॥
गुणाभासस्त्वकल्याण-मित्रयोगे न कथन ।
अनिवत्ताग्रहत्वना- भ्यन्तरज्वरसननिभः ॥ २८ ॥
मगधः सद्योगतो धत्ते, गुणं दोष॑ विपयेयात् ।
स्फटिकोऽनुविधते हि, शोणस्यामसमत्विषम् ॥२६॥
यथौषधीषु पीयूष, द्रमेषु स्वदर॑मो यथा ।
गुणेष्वपि सतां योग-- स्तथा मुख्य इष्यते ॥ ३० ॥
विनैन मतिमृढानां, यषां योगोत्तमस्प्रहा ।
तेषां हन्त विना नाव-युत्तितीष। महादधेः ॥ ३१ ॥
तन्मित्रायां स्थितो दृष्ट, सद्योगेन गरीयसा ।
समारुद्य गुणस्थान, परमाऽऽनन्द मश्नुते ॥ ३२॥
शिष्टा सप्तत्लाकी खगमा । द्वा० २१ द्वा०।
मित्तिय-मैत्रेय-पुं० । वत्सगोत्रावान्तरगोत्रप्रवत्तेके ऋषो,
लद्गोत्रीयेषु च । स्था० २ ठा० १ उ०।
मित्तियावद- मृत्तिकरावती- खी० । दशारदेशप्रधाननगर्याम् , |
भलूर १ श्रु० ५ आ० १ उ०। प्रव०।
मित्तिवअ-देशी--ज्येष्ट, दे” ना० ६ वर १३२ गाथा।
मित्ती-प्रेत्री-स्त्री ० | स्नदपरिणामे, ध० १ अधि० । द्वा०।
सुखचिन्ता मता मेत्री, सा क्रमेण चतुर्विधा ।
उपकारी स्वकीयस्व- प्रतिपनाऽखिलाश्रया ॥ ३ ॥
( सुखेति ) सुखचिन्ता-सुखच्छा, मेत्री मता । सा करमेण-
विषयभेदेन, चतुर्विधा । उपकारी स्वापकर््ता, स्वकीयो ऽनु-
पकत्तौ ऽपि नालप्रतिबद्धादिः,
शितः स्वाधितो वा, श्रखिलाश्च प्रतिपन्नत्वसंबन्धानिर-
त्ताः सर्व एव तदाश्रया तद्धिषया ।
स्वजनतर सामान्यगता चतुर्विधा मेत्रीति । ” द्वा० १७ द्वा०।
घा० । अष्ट० । उत्त० । स्था०।
“ जो जारिसेण मिति, करे श्रचिरेण (सो) तारिसो
होइ । कुखुमदि सह वसता , तिलावि तग्गेधिया हंति ॥१॥
आव० ३ श्र०। ११२४ । गाथाकीरीका । श्रा० चू०।
मित्तीभाव मेत्रीभाव-पुँ? । मित्रस्य भावः कर्म वा दवी ।
तस्या भावो भवने सत्ता । निष्कपटतया खझुमेत्रवन्मेत्री
करण, ध० र० | सप्रात सद्धाक्तो मेत्रीभाव इति चतुथ
भदमाद-( मि्ताभावो य सघ्माष त्ति) मित्रस्थ भाष
कर्म वा मेती, तस्या भावा भवनं सत्ता, सद्भावान्निष्क
(ल सुमित्रवन्निष्कपटमेत्रीं करोतीत्यर्थः, मेत्रीकपटभा-
चयाश्छाया 55तपयोरिव विरोधात् । उक्ल च--शाद्यन मित्र
क़लुषण धम, परोपतापन समरद्धिभावम् | सुखेन विदां प- |
७२
स्वप्रतिपन्न्च--स्यपूवेपुरुषा- |
सदुक्रम-'“उपकारि- |
रूषण नारी, वाञ्छान्त य व्यक्रमपपिरडतास्ते ॥१॥ इति । घ०
र० २ अधि० |
मित्तीवेदण मेत्री | (~ र
मित्तीवेदश-मैत्रीवन्दन--न० । नामन्ते प्रीतिमिच्छतो
बन्दने, श्राव० ३ अ० “ पमेव य मित्तीए " आव० ३ अ० ।
पवमेवेति को ऽर्थो-यथा निरोहकदोषदुष्ट वन्दते, तथा मै
ञ्याऽपि हेतुभूतया कश्चिढन्दत श्राचार्येण समे मैत्री मम
| भविष्यति इत्यथस्तदिदं मत्रीवन्देनकम् । बू० ३ उ०।
मिदुपम्ह-मृदुपक्षम-न० । मृदूनि श पच्माणि वि
कारोमाग्रभागरूपाणि यस्य तन्मरदुपच्म । कोमलदशाग्ररजो-
हरणे, बृ० ३ उ०।
| मिप्पिड-मृत्पिएड-पुं० । श्र मृदगल, मिर्प्पिडो घडस्स का-
रणे, न घडो मिर्प्पिडकारणं । अनु० !
| मिम्मय-सणमय-त्रि० । सृत्तिकानिष्पन्ने, बृ० १ उ०।
मिय-सृग-पुँ० । आटब्ये पशौ, स० ३४ सम० । सूत्र । उ-
त्त० । सामान्यहरिणे, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । भ०। प्रज्ञा०।
सूत्र० । म्रगसदशे भीरौ, स्था० ४ ठा० २ उ०।
मित-त्रि० । परिमितात्तरे, प्रश्च० २ संव० द्वार । मिते णाम
ज अक्खराहिं पदाहिं सिलोगेहि भितं । श्रा चू० १ आ० |
आवण ० । मितं--परिमितम् । जी० ३ प्राति० २ उ० | नियत-
वर्णादिपरिणामे, आ० म० १ आअ० | परिमित, भ० ११ श०
११ उ० । विशे० । वर्शपदवाक्यापेक्षया परिमिते, ज्ञा० १ श्रु०
१ अ० ! सौक्तिप्ताक्तरे, अनु० । स्था० । ज्ञा०। आव० । तं०। प-
रिचिछुन्ने,विशे० । उक्त० । स्तोके, उत्त० १ अ० । परिमाणवति
| गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादों, भ० ५ श० ४ उ०।
| मि्यक- मृगाङ्क प” । चन्द्रमसि , ० १ उ० । सुगचिद्वे वि-
माने, सु० प्र० २० पाहु० |
मियगध- मृगगन्धं पु । युगलिकमजुष्यजातिभेदे,जी ० ३ प्र-
ति० ४ अधि० । जञ० । मृगमदगन्धो, भ० ६ श० ७ उ०।
मियगमण-मितगमन--न० | प्रयोजनवशतो गमने,व्य० ४ उ०।
मियचक-समृगचक्र -_०।| मगा हरिणशगालादयः आरण्यास्ते
घां ध्वनिः-रूते ग्रामनगरप्रवेशादों सति शुभाशुभ यत्र चि-
| न्त्यत वन्मृगचक्रम् । निमित्तशाखभेदे, सूत्र० २ श्रु० २ आ० |
मियजस--मितयशस-प० । स्वनामख्याते पृष्कलावतीदिजये
नकि
मणितारणपुरी राजे चक्रवत्तिनि, उत्त० ६ श्र०।
| मियतर्हा- मृगद्ष्णा-खी०। मरीचिकायाम , ज्ञा० १शु० १अ०।
मियपशिहाण--मृगप्रशिधान-त्रि० । शगु प्रणिधानमन्तः-
रशघ़सिर्यस्यासो शेगप्रणिधानः! क खगान् द्रद्यामीत्यतद
व्यवसायिनि, सूत्र० २ श्रु० २ आ०।
मियप्पवाद-मितात्मवाद-ऐं? । संख्यातीतानामात्मनाम भ्यु-
पगमे, स्या०।
भियभासि(ख)- मितभाषिन्- पु०। मिले परिसिताक्तरं तदूभाष-
णशीलो पितभाछी | प्रस्ताव स्तोकदटितजल्पनशीले,व्य ०१३५
भियभासिया-मितभापिता- खी । प्रस्तावे स्तोकहितजल्पन-
शीलम्तायाम् , द्वा० १५ हा० । व्य०।
४, ( २८९६ }.
अभिधानराजन्द्रः |
मालिया
सप्रति (भाष्यकारः) मितभापित्वव्या ख्याना थैमाइ--
ते पुण अणुच्रसद, वोच्छिन्त मिय पभासए् मउयं ।
मम्मेसु अदूर्यतो, सिया ब परिपागवयणणं ॥ ७२ ॥
तत इह लोकहितं,परलो कह्वि ते वा पुनर्भापते,अनुद्चशब्दम् ,
न वियत उच्चः शब्दः स्वरो यस्य तत्तथा । तद् व्यवच्छिन्न
विविक्कम्मिीलताक्तरमित्यथः। मिते-परिमित प्रभूतार्थसे-
ग्राहक-स्ताकाक्तरमित्य्थः । तथा खुदुकम्-कोामले, श्रात्-
मनसां प्रह्वादकारि इत्थेभूतमांपि म्मायुवेधिततया विपाकदा-
रुणे स्यात् । श्रत आह-मर्मस अदु यन्ममारयिध्यन् इत्यथः।
स्याद्वा तथाविधं कञ्चनमरिक्तणीयमाघकत्य परुषस्य ममौ- |
नुवेधकस्य च वक्षा परिपाकवचनन-अन्यापदशन यथा दो-
घः । स्रीसवादय इद परत्र वा श्रकल्याणकारिणो यथा अमु-
कस्य, तस्मात्कुलात्पन्नेन शीलप्रमुखपु गुरष्वादरः कक्तेव्यः ।
पष मितभाषी । व्य० १ उ० ।
मियभाशि- मितमे गिन् -त्रि० । स्तोकभोालिनि. श्राव० ५ आ०।
मियमहुरमजुला-मितमभुरमज्ज॒ला- खौ” मिता अल्पशब्दा
वहर्थाश्व, मधुराः श्रोत्रखुखकारिणः, मञ्जुलाः सुलीलितवरण-
मनोहराः । ततः पद्त्रयस्य कर्मधारयः। मितम घुरमज्जु ला दि -
मियुक्कायां माषायाम् , कल्प> १ अधि० ३ क्षण ।
मियलंछण -सृगलाज्छल -त० । खगरूय चिदे , न° ।
मियलोमिय- मृगलोभिकः- न । झूगेभ्यो हस्वका स्॒गाकृत-
या बृहत्पुच्छा आटविकजीवविगशषास्तल्लोमनिष्पन्नं ऋग-
लामिकम् । खरगलामज सूत, अनु? । आ० म० | स्था०।
मियवादि- मितव।दिन्-पण । मिते परिमिताक्तरं वदितु शी- |
लमस्यति मितवादो । मितभाषिणि, बृ० ३ उ० | पा०।
मियवाहण-मितवाहन ~ पुं० | जम्बृद्धीपे भरतत्तेत्रे आगामि-
न्यामुत्सर्पिरयां मदिष्यति प्रथमकुलकरे, स० ।
मियवित्तिय -मृगवरत्तिक-पु०। झगेहरिणैराटव्यपशुमिदृ त्तिय-
सने यस्य स म्गवृत्तिकः । मझ्गमांलेराजीवके , सूत्र० २
श्रु० २ २ अ०। भ०।
मियवीहि “सृगवीथि-स्त्री० । ग्रहचारयोग्ये गगनभागे, खग-
थी चेन्द्रदबतादि स्यात् | स्था० € ठा० |
मियसंकृप्प-मृ गसंकल्प-ए० । सगेझु संकल्पो यस्यासौ सु- |
गसङ्कटपः । स्रगव्रधाध्यवसित, सूत्र० २ श्रु० २ आ० ।
मियसिंग-मृगशुद्भ-न० । स्ुगविषाण , आचा० १ श्रु० १ झअ०
२ उ०।
मियसिरा-मृगशिरम्-न०। चन्द्रदेवताके नन्तत्रभदे, स्था०।
दो मियलिराओ। (मूत्र ) स्था० २८०६ उ० | विशे०।
मिया-र्मृगा--खी० । स॒ुम्रोचनगर चलमद्रभू पस्यात्रमहिष्याम् ,
उत्त० रं८ अ०। स्ुनत्रामा{निधाननगर्याजस्य विज्यनाम्न।
.भायायाम॒ , स्था० १० ठा० |
प्ियागाम-समृगाग्रा म-पु० । खगापुत्रजन्मस्थाने आमविशेष,
विपा० १ श्रु १ अ५।
मियाचारिया--मरगाचाग्ता--खी० । गापुत्रवक्रञ्यतामति- |
चट उत्तराध्ययनाना भ को नविशे पथ्ययन, स० ३६ सम० |
यनाम्नो भायांयाः पुत्रे, स्था० १० ठा०।
जई ण भते ! समणेण भगवया महार्वरिणं
तित्थयरेणं ०जाव संपत्तणं दृहविवागाणं दस अज्कयणा
पन्नत्ता, तं जहा-मियापुत्ते य १, ०जाव अजू य १०। पढम-
स्स ण भते ! अज्भयणस्स दुहविवागाणं समणेणं ° जाव
संपत्तेण के अद्र पत्ते ?, तत ण से सुहम्म अणगारे
जेबू अणगारं एवं वयासी--एवं खलु जवृ ! तें कालं
तें समणएणं मियग्गामे नामे णर्गरे होत्था-वष्मओओ, तस्स
श मियग्गामस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छम दिसीभाए
चदणपायवे नामं उज्ञाणे होत्था, सव्वोउयवष्यश्रो, तत्थ
र सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, चिरातीए
जहा पुन्नभद्दे, तत्थ श मियग्गामे शगरे विजए नामं
खत्तिए राया परिवसइ-वन्नओ । तस्स णे विजयस्स
खत्तियस्स मिया नामं देवी होत्था अहीणवष्यओ, तस्स
र विजयस्स खत्तियस्स पत्त मियाए देवीए अत्त
मियापुत्ते नामं दारए होत्था, जातिअंधे जाइमूए जातिव
हिरे जातिपंगुले य दंड य वायव्ये य, नऽत्थि शे तस्स
दारगस्स हत्था वा प।या बा क॒न्ना वा अच्छी वा नासा
वा, केवलं से तसि अगोर्बगाणं अगई आगतिमित्ते, तते
णंसा मियादेवी तं मियापुत्तं दारणं रहस्सियंसि भूमिषरं-
सि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणौ पडिजागर-
माणी विहरइ । ( र २ )
( एवं खलु त्ति ) णएवम्--वच्यमाणध्रकारेण , खलुः
वाक्यालंकारे, ( सनव्वोउयवरणश्रा त्ति) सवरक्तुककुखुमसं चन्न
( नदणवणप्पगासे इत्यादि ) उद्यानवरनका वाच्य इति ,
( चिराइए त्ति ) चिरादिक चिरकालीनप्रारम्भमित्या-
दिवरकोपेतं वाच्यम् , यथा-पृणैभद्रचेत्यमोपपातिके ।
( अहीणवज्नओ त्ति ) ' श्रदहीणपुन्नपचिदि यसरीरे ` इत्यादि
वरीको वाच्यः, ( अत्तप त्ति) ) आत्मजः--सुतः, ( जाइअंधे
त्ति) जात्यन्धो जन्मक्रालादारभ्यान्ध एव , ( इंड य त्ति)
हरडकश्च सवावयवप्रमाणविकलः = (वायत्वे त्ति) वायुरस्या
स्तात वायवो-वातक इत्यथः , (आगई आगइमेत्ते त्ति )
अज्ञावयवानाम् श्राङति “आकारः, किविधा ए इत्याइ-आकू
तमाजम् | आकारमात्र-नाचतस्खरूपत्यथः, ( रहास्सि य
त्ति ) राहलिके--जननाविदिते ।
तत्थ शं मियग्गामे खग्रे एगे जातिअंधे पुरिसे
परिविसई, से श एगेणं सक्खुतेणं पुरिसेणं परओं
दडएणं पगेज्ञमाणे पगदिज्जमाे फुट्टटडाहडसीसे
मच्छि 7.चडगरपहकरेणं अत्पिज्ञमाणमग्गो मियग्गमि
नयरे गहै गेहे कालुष्पवडियाए वित्ति कप्पेमाणे
विहर । तेणं कलं तेश॑ स्मएणं है
मियापुत्त `
मियाधिव-मृगाधिप-पु० । सिंहे, आ० म० १ अ०।
मियापुत्त-मृ गापुत्र-पुं ० । सुगग्रामाभिधाननगरराजस्य विज- `
५
१
_मियापुत्त
।
|
|
|
( २८७ )
भगवं महावीरे० जाव समेोसारिए० जाव परिसा निग्गया। |
तए णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लद्धऽदं समाणे |
जहा कोणिए तहा निग्गंत० जाव पज्जुबासइ । तते णंसे |
जातिअंधे पुरिसे तं महया जंणसदं जाब सुशेत्ता ते
पुरिमे एवं वयास किमे देवाणुप्पिय। { अञ्ज मियग्गामे
शगरे इंदमहेइ वा »जाव निग्गच्छइ १, तते ण से पुरिसे
ते जातिअंध पुरिस एवं वयासी-नो खलुदेवाणुप्पिया !
इंदमहेइ वा०जाव शिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! |
सप्रण ०जाव विहरति, तत णं एत० जाद निग्गच्छंति, |
तते रं से अधपुरिसे तं पुरिसं एवे वयासी- गच्छामो शं
देवाणुष्पिया ! अम्हे वि समझे भगवं०जाद पज्जुवा-
सामो, तते णं से जातिअंधे पुरिसे पुरतो दंडणएणं पगढि- |
ज्जमाणे पगदिजमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेशेव |
उवागए २ चा तिक्खुत्तो आयादिणपयादिणं करेइ कर्ता
वेदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता० जाव पञ्जुप्रासति,तते णं
अभिधानराजन्द्रः। ,
समणे भगं महावीरे विजयस्स रना तीस य महइमहा-
लियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाईइक्खति जहा जीवाति |
बञ्भति परिसा ० जाव पडिगया, विजए वि गते । (स्त्र-३)
( फुद्हडाह डसीसे त्ति ) फुट्टन्ति-स्फुटितकेशसंचयत्वेन
विकीणकेशम् , ( हडाहडे ति ) अत्यथं शीर्ष शिरो यस्य स
तथा, ( मच्छियाचडगरपहयरेण ति ) माक्तिकाणां प्रसिद्धानां |
चरटकरश्रघाना-विस्तरवान् यः प्रहकरः-समृदः स तथा ।
अथचा-मत्तिकाचर कराणां तद्बुन्दानां यः प्रहकरः स तथा |
तेन ( अणिणज्जमाणमग्गे त्ति ) अन्वीयमानमागः, अनुग-
स्यमानमागोः, मलादिले हि वस्तु प्रायो माक्षिकाभिरनुगम्यत
श्वेति, ( कालुएणवडियाणए त्ति ) कारूण्यवृत््या ( वित्ति
कप्पमाणे त्ति ) जीविकां कुबोणः ! ( जाव समोसरिए त्ति ) |
इद यावत्करणात् “ पुव्वाणुयुव्वि चरमाणे गामाखुगामे
दुइज्ञमाणे इत्यादिवरीका दृश्यः, ‹ ते महया जणसदं च '
त्ति, सृ्रत्वान्महाजनशब्द् च, इह यावत्करणात् “ जणवृहं |
च जणवाले च ` इत्यादि दश्यम् । तत्र जनव्यृटः चक्राद्याका
“समूहस्तस्य शन्द्स्तद्मदाजनन्यूह पवाच्यत श्रतस्तम्, |
बोल: अव्यक्नवर्णों ध्वानिरिति, ( इंदमहेइ व त्ति) इन्द्रा
त्सवा वा, इट यावत्करणात्-' खदमहे वा रुदमदहे वा०जाव- |
उज्जाणजत्ताइ वा जन्ने बहवे उग्गा भोगा, ०जाव एगदिसि
एगाभिनुदहाः इति श्यम्
सूत्रपुस्तके सूत्ाक्तरारयेव सन्तीति, ' तपए शं से पुरिसे तं
जाइअधपुरिस एवे वयासी-ना खलु देवाखुप्पिया ! अज्ज-
मियग्गामे नयरे इंदमहे वा ०जाव जत्ताइ वा जन्न एए उग्गा- |
०जाव एगदिसि एगाभिमुहा सिग्गच्छति, एवे खलु देवाणु-
प्पिया ! समण भगव महावीरे०जाव इह समागत इह सपत्त
इहेव मियग्गामे णगरे मिगवणुज्जाण अहापडिरूव उग्गहं
उग्गिरिहक्ता सजमेण तवसा अप्पाणं भावमाण विहरति,
| # णे से अधपुरिल ते पुरिसे एवं वयासी '-इति, विजयस्स
तीसे य धम्म' त्त इदमेवे दृश्यम्-' विजयस्सरन्ना तीसे य
१. _ : - ता
इता यद्वाक्यं तदेवमनुखतव्यं, |
द मियापुत्त
महइमहालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममादक्खद् जहा
जीवा वज्ती ` व्यादि परिषद् -यावत् परिगता ।
तणं कालणं तेणं समएणे समणस्स भगवओ महावी-
रस्य जट अंतेवासी इंदभूतिनामं अणशगारे ० जाव विहरइ ।
तत णे से भगव २ गायमे तं जातिञ्रधपुरिसं पासइ २
त्ता जायसड्र ०जाव एवं वयासी-अत्थि ण॑ मंते ! के
पुरिसे जातिअंधे जातिअधारूवे ? हंता अत्थि, कहर
भते | से पुरिसे जातिग्र॑धे जातिअंधारूवे ?, एवं खलु
गोयमा ! इहेव मियग्गामे नगरे विजयस्स खत्तियस्स पत्त
मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारण जातिअंध जा-
तिअंधारूवे, नऽत्थि णे तस्स दारगस्स °जाव आगति-
मित्ते, तत णं सा मियददवी ०जाव पडिजागरमाणी २
विहरति । तते णं से भगवं गोयमे समर भगवं महावीरं
वंदइ नमंसति २ त्ता एवं वयासी- इच्छामि श भत!
ग्रहे तुब्भेहिं न्भणुन्नाए समाणे मियापूत्तं दारगं पासि-
त्तए, अहासुहं देवाणुष्पिया !, तत ण से भगवं गोयमे
समणणं भगवया महार्वीरेणं अन्भणुन्नाए समाणे हे त
समणस्प भगवओं महावीरस्स अ्रतियाग्रो पडिनिक्खमह
२ न्ता तुरियं ०जाव सोहेमाणे २ जणेव मियग्गामे ण-
गरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता मियग्गा्म नगरं मन्म
मज्केण जेव मियादेवीए गदे तेणेव उवागए, तते ण॒
सा मियादवी भगवं गोयमं एज़माणं पासइ २ त्ता हट्ढु-
तुद ०जाव एवं वयासी -संदिसंतु णं देवाणुष्पिया ! कि-
मागमणपययणं ?, तते णं भगवं गायमे मियदेविं एवं
वयासी-अ्रहषं देवाणुप्पिए ! तव पत्तं पासितु हव्वमा-
गए, तते ग सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अणु-
मग्गजायते चत्तारि पृक्ते सव्वालकारविभुसिए करेति २
ता भगवतो गोयमस्स पादसु पाडति २ त्ता एवं वयासी-
एए शे मेते ! मम पत्ते पासह, तते शं से भगवं गो-
यमे मियादेपि एवं वयासी-नों खलु देवीणुप्पिया | अहं
एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागते, तत्थ णं जे से तब जेड्टे
मियापुत्ते दारण जाइअंधे जातिअंधारूवे जं णं तुमं रह -
स्सियंसि भूमिघरासे रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागर-
माणी २ विहरसि । तं णे अह पासिउं हव्यमागए,तंते ण
सा भियदेञी भगं गोयमं एवं वयासी-से के र गेय-
मा! से तहारूवे णाणी वा तवस्सी वा जणं तव॒ एस-
मद्र मम ताव रहस्सिकए तुव्भं हन्वमक्खाए जत्रा
तुब्भे जाणह ?, तते श भगवं गोयमे मियदेविं एवं व-
यासी-एवं खलु देवाणुष्पिया ! मम धम्माऽऽयरिए समसे
भगवं महावीरें जतो ण अहं जाणामि, °जवंचणंमि-
-मियापुत्त ष 8.28
_थांदेवी भगवया गोयमेशं साद्धं एयमड्ट संलवति तावं च शं
मियापएत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया याऽवि होत्था,तते श
` सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं-वयासी-तुन्भे णं भते !
इहं चव चिट्वह जा णं अहं तुमं मियापुत्तं दारगे उवदेसमि
ति कट जणेव भत्तपाणघर तेणव उवागच्छति उवागच्छित्ता
वत्थपरियट्टयं करेति वत्थपरियट्टयं करित्ता कट्टसगडियं गि-
र्ति कट्ठसगडियं गिश्हित्ता विपुलस्स असणपाणखाइम-
साइमस्स भरति विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भ-
रित्ता तं कट्टसगडियं अणुकडुमाणी २ जशामेव भगवं गोयमे
तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी-
एह शं तुब्भे भते ! मम॒ अणुगच्छह जा णं अई तु-
न्भं मियापुत्त दारं उवदंसमि, तते शं से भगवं गो-
यमे मिय दर्विं पिट्ठओ समणुगच्छति , तते णं सा
मियादेवी तं कटसगडियं अणुकडूमाणी २ जेणव भूमि-
घरे तेणेव उवागच्छई २ त्ता, चरप्पुडेणं बत्थेण मुह
वेधेति मुहं बेधमाणी भगवं गोयमं एवं वयासी--तुब्भे
ऽवि णं भते ! मृहपोत्तियाए मुहं बंधह, तते, णं से भ- |
गवं गोयमे मियादेवीए एवं वृत्ते समाश मुहपोत्तियाए
महं बंधेति, तते णं सा भियादेवी परम्मुही भूमिधरस्स
दुवारं विहाडेति, तते गंधे निग्गच्छति से जहा नामए |
अहिमडति वा सप्पकडेवरेइ वा ०. जाव ततोऽवि णं अ- |
णिट्टतराए चव ० जाव गंधे पन्नत्ते, तते णं से मियापृत्ते
दारए तस्स विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स गंधं |
अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असणपाण ० मुच्छित्ते
तं विपुलं असणं पा० ४ आसएणं आहारेति आहारित्ता
खिप्पामेव विद्धसेति विद्धसेत्ता ततो पच्छा पूयत्ताएय |
सोणियत्ताए य परिणमति । त॑ पि य णं पूर्य च
सोणियं च आहारेति तते शं भगवओ गोयमस्स तं
मियापुक्तं दारयं पासित्ता अयमेयास्वे अज्भत्थिए
समुप्पज़ित्थां अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चि- ।
पाणं दुष्पडिकंतां श्रसुभाणं पावाणं कडाणं कम्मा- |
शं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणे विहरति । ण
म दिड्ठा शरगा वा णेरइया वा पच्चक्खं खलु श्रयं
पुरिमे नरयपडिरूवियं वेयणं वेयति ति कट मियं देविं
आपुच्छति २ न्ता मियाए देवीए गिहाओ पडिनिक्खमति
गिहा० २ त्ता मियग्गामं णगरं मज्मं मज्केणं निर्गच्छति |
२ त्ता.जणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति
२ त्ता समरं भगवं महावीरं तिक्वुत्तो आयाहिणपया-
हिणं करेइ २ त्ता वंदति नमंसति २ त्ता एवं वयासी-एवं |
खलु अहं तुब्भेहिं अब्भगुणणाए समाणे मियग्गामं नगरं
अनिधानराजन्द्रः)
(८ रद्द)
। मियापुत्त
मज्मं मज्फेणं अणुप्पविसामि जेणेव भियाए देवीए गेहे
तेशेव उवागते, तते ण सा मियादेवी ममं एज़माणं पा-
सइ पासित्ता टरा तं चेव सव्वं ०जाव पूयं च सोखियं च
आहारेति, तते णं मम इमे अज्भत्थिए समुष्पजित्था-अ-
हो णं इमे दारण पुरा ०जाव विहरइ । ( सूल -४ )
( जाइअंधे त्ति ) जातरारभ्यान्धो जात्यन्धः, स च चक्षु-
रूपघाताद॒पि भवतीत्यत आह-( जायशधारूवे त्ति ) जा-
तम्--उत्पन्नमन्धकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिता-
हुं रूप स्वरूपं यस्या 5सो जातान्धकरूपः , ( अत॒रिय ति }
अत्वरितं मनःस्थैर्यात् , यावत्करणादिदं दृश्यम्-' अचव-
लमसंभंते जुगंतरपलोयणापः दिप पुरश्रो रियति" तत्र अ-
चपले-कायचापल्याभावात् क्रियाविशेषण चेत, तथा--अ-
संभ्रान्तः--भ्रमरद्वितः, युगम--यूपस्तत्ममाणो भूभागो5पि-
युगं तस्यान्तर मध्ये प्रलोकने यस्याः सा तथा तया दृष्ख्या-
चच्युषा, ( रियं ति ) ईया-गमनं तद्धिषया मागां ऽपीर्या ऽतः
स्ताम् , (जेणव नि) यस्मिन् देशे २, 'हट्टु० जाव त्ति ' इड 'हट्टू-
तुट्ठमाणंदिए' इत्यादि दश्यम्.पकाथीश्चेते शब्दाः ३ (दव्वं ति)
शीघ्रम् ( जश्रो णे ति) यस्मात् ( जाया यावि होत्था) जाता
चाप्यभवदित्य्थः। ( व॒त्थपरियटंं ति ) वस्प्रपरिवत्तेनम् ।
(से जहा नामए त्ति ) तद्यथा नामेति वाक्यालङ्कारे ।
° अहिमडेइ वा सप्पकडेवरेइ वा ` इह यावत्करणात् गोम-
डद वा खुणदमडइ वा ` इत्यादि द्र एव्यम्, (ततो वि णे ति)त्-
तोऽपि-श्रहिकडवरादिगन्धादपि ( अशणिट्वुतराएं चव त्ति )
श्रनिष्टतर पव गन्य इति गम्यते, इह यावत्करणात् “अकं- '
तसराए चेव अप्पियतराप चव श्रमणुन्नतराणए चव अमणा-
मतराए चव ` त्ति दृश्यम् , एकार्थाश्वेते ' मुच्छिए ` इत्यत्र
* गदिते गिद्धे श्रञ्भोववन्ने' इति पदज्रयमन्यद् दश्यम् , एका-
थौल्येतानि चत्वायैपीति । “ अज्भात्थिए ` इत्यत्र ' चितिए
कप्पिए पत्थिए मणोगए सकप्य › इति दश्यम् , एतान्यप्ये-
काथानि पुरा पोराणाणं दुशचिन्नाणं ` इदाक्षरघटना-पुरा-
णानाम-जरटानां, ककखडी भूतानामित्य थः , (पुरा) पूवैका-
ले दुश्वीर्णानां-प्राणातिपातादिदुश्वारितहेतुका नाम् ( दुष्पडि-
कंताण ति ) दुःशब्दो 5भावाथस्तन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या-
दिना अप्रतिकरान्तानाम--अनिवर्स्तितांवषाकानामित्यथेः,
( अखुभाणं ति ) अखुखहेतूनाम् , (पावाणं त्ति) पापानां-दुष्ट
स्वभावानाम् , ( कस्माणं ति ) जशञानावरणादीनाम ।
से णे भेत! पुरिसे पुव्यभवे के आसि ( कि नामए वा
कि गोए वा ) कयरेसि गामंसि वा नयरंसि वा कि वा
दा कि वा भोच्वा कि वा समायरित्ता केसि वा पुरा
०जाव विहरति ?, गोयमाऽऽइसमणे भगवं महावीरे भगवं
गोयम एवं बयासी- एवं खलु गोयमा ! तशं कालेणं ते-
शा समएणे इहेव जवृदीवे दीवि भारहे वासे सयदुवारे नामं
नगरे होत्था, रिद्रत्थिमिए वन्नञ्म।, तत्थ शे सयदुवारे म-
गरे धणवई नामं राया हुत्था वश्णओ, तस्स श सयदुवा
रस्स नगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरच्छिमे दिसीभाए
विजयवद्ध माणे णाम खड होत्था रिद्धत्थिमियसमिद्ध,
न्क कः कनद रया नम
( २८६ )
मियापुत्त | 4
तस्स शं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आ-
भोए याऽवि त्था, तत्थ शं विजयवद्धमाणे खेडे इकाई
शामं रटकूड हात्था, अहम्मिए ०जाव दुष्पाडयाणंद, स
शं इकाई रदरक्ड बिजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचणहं गाम- |
सयां अहिवच्च ०जाव पालेमाे विहरइ, तए शं से इकाई
विजयवद्ध माशस्स खेडस्स पंच गामसयाईं बहूहिं करेहि
य॒ भरेहि य विद्धीहि य उकोडाहि य पराभवेहि य दिज्ञहि
य॒ भेजेहि य कुतेहि य य लछपोसेहि य आलीवणेहि य
पंथकोदेहि य उवीलेमाणे २ विहम्भमाणे २ तज्माणे २
तालेमाणे २ निद्धणे केरमाणे २ विहरति । तते णं से
इकाई रडकूडे विजयवद्धमाणस्स खडस्स बहुणं राईसरत-
लवरमा्डबियकोइंबियसेट्टि सत्थवाहाणं अन्नेसिं च बहुं
गमिन्नगपुरिसाखं बहुसु कजेसु य कारणेसु य संतेस य |
गुज्मेसु य निच्छण्सु य ववहारेसु य सुणमाणे भणति- |
न सुणेमि, असुणमाणे भणति--सुणेमि, एवं पस्समाण |
भासमाणे गिए्हमाणे जाणमाणे, तते शं से इकाई
रइकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्े एयसमायारे सुबह
पावकम्मे कलिकलुसं समज्ञिणमाे विहरति । ( सत्र-५४ )
प्रुव्यभवे के आसि' इत्यत एवमवध्येयम् ( कि नामए वाकं |
गोत्तए वा ) तत्र नाम-यादच्छिकमभिघानम् , गोत्र तु-यथा |
श्च कलं वा “कयरंसि गामंसि वा नगरसि वा कि वादा |
कि वा भोच्वा कि वा समायरेत्ताकसिवा पुरा पोराणाणं |
दु्चिन्नारे दुप्पाडक्रिताणं अखुहारां
ब्रगं फर्लचित्तिविसेसं पच्णुव्भवमाणे विहरइ
( गोयमा इ त्ति ) गौतम इव्येवमामन्त्रय इति गम्यते (ऋ-
द्वित्थिमिए त्ति ) ऋद्धिप्रधानं स्तिमितं च-निभेयं यत्त-
क्षथा, ( वरणओ त्ति ) नगरवरीकः, स चोपपातिकवद्
द्रष्टव्यः, ( अदूरसामंत त्ति ) नातिदृरे नच समीप इत्यथः,
( खेडे त्ति ) घूलीप्राकारम् , ( रिद्धि न्ति)
मिद्धे' इति द्रष्टव्यम् , (श्राभोप त्ति ) विस्तारः, (रट्टकूडे क्ति) |
शाकृटो मरड़लोपजीवी राजनियोगिकः ४ ( श्रदम्मिप न्ति)
श्रधार्मिको, यावत्करणादिदं दश्यम्-* अधम्माणुण श्रध-
सिमिट्टे अधम्मपलाई अधम्मपलंजण श्रधम्मसमुदाचारे अ- |
धम्मेरौ चेव वित्ति कप्पेमाणे दुस्सीले दुब्वए ` त्ति, तत्र
अधाममिकत्वप्रपश्चनायोच्यते-अधम्माणुए' अधस्म-श्रुतता- |
रित्राभावम् श्रचुगच्छेतीव्यघम्मोनुगः, कुत एतदेवमित्याह-
अधर्म्म एव इष्टो वल्लभः पूजितो वा यस्य ,सोउघरिमिष्ठः |
अतिशयन वाऽधर्मी धर्मवर्जित इत्यधर्भिष्ठः, श्रत एवा-
धर्माख्यायी-अधम्मप्रतिपादक : अधमख्यातिवा; अविद्यमा,
नधर्मो ऽयमि्यवं प्रसिद्धिकः, तथा5धर्म्म प्रलाकयति-उ-
पादेयतया प्रत्त य: स तथा, अत पवाधर्मप्ररञ्जनः अधर्म-
रागी,अत एवाधर्मः समुदाचारः--समाचारो यस्य स तथा
| ज््र एवाधमेण-हिसादिना चृत्ति-जीविकां कल्पयन् खन्
दुःशीलः-शुभखभावही नः , दुब्नतत्ध-ब्रतवर्जितः , दुष्प्रत्यानन्द
झ्ाधुदशनादिना नानन्यत इति । १। ( आदे वच्य ति ) आंध्र |
पावाणे कम्माण पा- |
45. |
+; ॥|
अभनधानराजन्द्रः |
रिद्धत्थामियस- |
५. मियापुत्त
पतिकम्म, यावत्करणादिदं दश्यम- पारेवच्च सामित्त भट्टि
त्त महत्तरगन्तं श्राणादसरसणावच्यं कारेमाण ” त्ति, तत्र
पुरोवत्तित्वम् अग्रेसरत्वम् ,स्वामिःवम्-नायकत्वं, भर्तत्व॑ पो-
षकत्वस,महत्तरकत्वम-उत्तमत्वम् ,आज्ञषश्वरस्य-आज्ञा प्रधान,
स्यःयत्सेनापतित्व तदाक्षेश्वरसेनापत्यं कारयन-नियागिकेर्वि
धापयन् पालयन् खयमेवति । २! (करेहि य त्ति) करैः क्षेत्रा
द्याधितराजदेयद्रव्यैः [ भरि य त्ति ] तेष्रामेव भारय
[ विद्धीहि यत्ति] व॒द्धिभिः कुठुम्बिनां वितीणैस्य धान्यस्य
द्विशुखादेभ्रदशेः, वृत्तिभिरिति कचित् , तत्र वृत्तया राजा-
देशकारिणां जीविका: [ उक्कोडाहि यत्ति ] लञ्वाभिः [परा-
भणहि य न्ति] पराभवः (देज्जदि य क्ति)अनाभवद्दातव्यः (भे-
ज्जेहि य त्ति) यानि पुरुषमारणाद्यपराधमाश्रित्य ग्रामा-
दिष दण्डद्रव्याणि निपतन्ति कोटुम्बिकान् प्रति च भेदे-
नोद्राद्यन्त तानि भयानि अतस्ते: (कुंतेहि य त्ति) कुन्तकम्-
एतावद्द्रव्यं त्वया देयमित्यवे नियन्त्रणया नियागिकस्य दे-
शादेयत् समप्पणमिति, ( लपोसहि य त्ति ) लबच्छा
चोरविशषाः समभाव्यन्ते तेषां पोषाः पोपरानि तेः , ( आ-
लीवशणहि य त्ति ) व्याकुललोकानां मोषणाथ ग्रासादिपरदीप
नकैः ( पथकोट्रेहि य त्ति ) साथपघातेः ( उवीलमाणे त्ति)
अवपीलयन् वाघधयन् । ( विहम्मेमाण त्ति ) विधम्मयन्-
स्वाचारभ्रष्टान् कुवन् ( तज्जमाणे त्ति) छतावष्टम्भान् त-
ज्यन्- ज्ञास्यथरे यन्मम इदे च इदंच न दत्से इत्यचं
भेपयन् ( तालेमाणे क्ति ) कशचपटाद्विभिस्ताडयन्
( णिद्धण कर्माण न्ति ) निद्धेनान् कुवेन विहरति ।
( तए ण से इक्काई रदधुकृटे विजयवद्धमाणस्स खडस्सख )
सत्कानां ( बहणं राईसरतलवरमाडंवियकोइंवियसेट्विसत्थ-
वाहाणं ) इद तलवराः-राजप्रसादवन्ता राजोत्थासनिकाः,
माडम्विकाः--मडम्बाधिपतयो मडम्बे च--योजनद्धय्रा म्य-
न्तरे ऽविदयमानग्रामादिनिवेशः सन्निवशविशषः शषाः प्रसि-
द्धाः । ( कज्ज त्ति ] कार्येष प्रयोजनेषु अनिष्यन्नेषु [ कार-
णेखु त्ति |] सिसाघयिपितग्रयोजनोपायषु विषयभूतेषु ये
मन्त्रादया व्यवदारान्तास्तेषु, तत्र मन्नाः-पयालाचनान
गृह्यान--रह स्यान, नश्चया-वस्तुौानणयाः, व्यवहारानव
कादास्तषु विषये ४। [ पएयकम्मे | एतब्यापारः एत्तदेव वा
काम्यम् कमनीये यस्य स तथा, [ एयप्पहाणे त्ति ] पतत्प-
ध्यानः एतन्निष्ठ इत्यथः, [ एयविज्जे त्ति ] वैव विद्या--वि-
ज्ञान यस्य स तथा [ एयसामायारे त्ति ] एतज्जीतकेल्प इ-
त्यथैः, [ पावकम्मं ति ] अशुभ ज्ञानावरणादि [ कलिकलु-
सति] कलददेतुकलुषे मलीमसमित्यथः ।
तते शं तस्स इकाईयस्स रट्टकूडस्स अन्नया कयाई सरी-
रगंसि जमगसमगमेव सोलस रोग.55यंका पडन्भूया ,
तं जहा-सासे १ कामे २ जरे ३ दाह ४, कुन्छियले ५
भगंदरे ६ । श्ररेसा ७ अजीरए ८ दिद्ठी ६, मुद्धखलले १०
अकारए ११॥ १॥ अष्छिवेयणा १२ कन्नवेयणा १३
कंदर १४ उदरे १५ कोढे १६ | तले ण॑ से इकाई रइकूडे
से|लसहिं रोगा55यकहि अभिभूए समाणे के।इंब्रियपुरिसे
सदव २ ता एवं ब्रयासी-गच्छह र तुब्भे देवाणुप्पिया !
विजयवद्धमाण खड मवाडगतिगचउकरचचरमहापटपेसु
( २६०
अजशिधानराजेनद्र!
मियापुत्त
महया २ सदेणं उम्घोसेमाणा २ एवं वदह-इह खलु
देवाणुप्पिया ! इकाई रट्कूडस्य सरीरगंसि सालस रोगा-
ऽऽयका पाउब्भूया,तं॑ जहा-सासे १ कास २ जर ३, ०जाव
कोढे १६, तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया ! विज्जों वा
विज्जपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छी वा
तेगिच्छीपुत्तो वा इकाई रट्डकूडस्स तेसिं सोलसण्दं रोगाय॑-
काणं एगमवि रोगायंक उवसामित्तए तस्य शं इकाई
रइकूडे विपुलं अत्थसपयाणं दलयति, दाच पि तच पि
उग्धोसेह उम्घोसेइत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तते शं ते |
कोइंबियपुरिसा ० जाब पचचप्पिशंति, तते णं से विजयवद्ध- |
माणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा निसम्म बहवे |
विज्जा य० ६ सत्थकोसहत्थगया सएहिं सएहिं गिहेहिंतो |
पडिनिफ्खमंति २ त्ता विजयवद्धमाणरस खेडस्स मञ्मं
मज्केणं जणव इकाई रट्रकूडस्स गिदे तेशेव उवागच्छ २ |
ता इकाई रदुकूडस्स सरीरगं परामुसति २ त्ता तेसं
गंगाणं निदाणं पृच्छंति २ न्ता इकाई रटरकूडस्स बहूहिं
अब्भंगेहि य उव्बड्रणाहि य सिखेहपाणेहि य वमणेहि य
|
वररयणाहे य अववदृहणाह य अवण्टाणं।ह य अणुवास- |
श् {ट् तै
णहि य पच्छणेदि य ॒सिरोच्थं।हि य तप्पखाहि य पुड- |
पागहि य छ्वीहि य मूलेहि य कंदहि य पत्तेहि य पुष्फेहि |
य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुललियाहि य अआस-
य वत्थकम्माह य ।नरुहेहि यसेरावह।हे य तच्छ |
हहि य भेसज्जहि य इच्छति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं |
एगशवि रागाय उव्रसमावित्तए नो चव णं संचाएंति
उवरसामित्तए । तत णं ते बहवे विज्ञा य विज्जपुत्ता य
जाह ना संचाएंति तामे सोलसणह रोगायकाणं एगमवि
रागायक उवसामित्तण ताह संता तता परितता जामेव |
दिमि पाउव्भूया तामेव दिनि पडिगया । तत शं इकाई |
रट्रकूड विज्ञहि य ६ पडियाइक्खिए परियारगपरिचत्त
निविख्णासहभसज्ञ सालसरागायंकदि अभिभृए समाणे
रज्ञयण्द्रय °जाव अतउरय मुच्छिए रजं च रद च
अ.साएमाण पत्थेमाण पीहमाणे अभिलसमाणे अट्टदहइ-
वमद अड्भाइज्ज।ई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता काल-
मास कलं किचा इमरीसे रयष्पभाए पुदवीए उकोसेशण |
सागरावम ट्वे त्तीएसु नेरदएसु नेरइयत्ताए उववन्ने, से णं
तते अर्णतरं उब्वद्धित्ता इदेव भियग्गामे शगरे विजयस्स
खत्तियस्म मियाए दीए कु च्छमि पुत्तत्ताए उववनने 4 तते
शं तीसे मियाए द् 4ए् सर्र वेयणा पाउब्घूया उज्जला०
जाय जलता, जप्पभिईं च णं मियापत्त दारए मिदाए
दबाए कुच्छामस गव्भत्ताएं उवप्रनने तप्पभिडइ् च णं मियादेवी '
मिथापृत्त
विजयस्य अशिट्वा अकंता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा
जाया याअंवि होत्था। तते ण तीसे मियाए देवीए अन्नया `
कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि कुइंबजागारियाए जा-
गरमाणीए इमे एयारूवे अज्भत्थिए ० जावे समुप्पजित्था
एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुर्व्वि इट्टा क॑० ६ घज
वेसासिया अणुमया आसी, जप्यभिदह च श मम इमे
ग्भ कुच्छिसि गग्भत्ताए उववन्ने तप्पभिईं च शं अहं
विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा ०जाव अमणामा जाया या-
वि होत्था । निच्छति श विजए खत्तिए मम नामं वा मो
वा गिरिदित्तए वा किमंग! पुण दंसण वा परिभोग वा १,
तं सेयं खलु मम एयं गब्भं बहूहि गन्भसाडणाहि य पा-
डणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा पा०४
एवं संपेहे३ संपेदित्ता बहूणि खाराणि य कड़याणि य तू-
वराणि य गन्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य
इच्छति तं गब्भ साडित्तए वा०४ नो चेव शे से गब्भे सडइ
वा० ४ तते ण सा मियादेवी जाहे नो सचाएति तं गन्भ
सडित्तए वा० ४ ताहे सता तता परित॑ता अकामिया अस-
वसा तं गन्भं दुं दुहेणं परिवहई, तस्स श दारगस्स
गन्भगयस्स चव अद नार्ल\ ग्रो अब्भितरप्पवहाओ अद्र
नालीओ बाहिरप्पवहाओं अट्ट पूयप्पवहाओ अट सोणिय-
प्पवहाञ दुवे दुवे कण्णंतरेसु दुवे दुवे अच्छितरेस दुवे
दुवे नकंतरेस दुवे दुवे धमणि्र॑तरेसु अभिक्खणं अभि-
क्खणं पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणी २ चेव चिट्ठति।
तस्स श दारगस्स गन्भगयस्स चव अग्गिए नामे वाही पा-
उब्भूए ज शे से दारण आहारेति से शे खिप्पामेव विद्ध
समागच्छति पूयत्ताए सोणियत्ताए य परिणमति, तं पियं
से पूयं च सोशियं च श्र हारति | तते णे सा मियादेवी अ-
त्रया कयाई नवर्टं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगे पयाया
जातिअंधे ० जाव आगइमित्ते । तते श सा मियादेवी ते दा-
रगे हंडे अधास्वे पासति २ त्ता भीया० ४ अम्मधाई सदा-
वेति २ त्ता एवं वयासी- गच्छह श देवाणुप्पिया ! तुमं एयं
दारगं एगते उक्ङुरूड याण उज्म्याहे तत ण सा अन्म
धाई मियादेवीए तह त्ति एयमट्ट पडिसणेति २ त्ता जेणे-
व् विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता
करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! भिया-
देवी नवण्टं मासाणं ° जाव आगतिमित्ते, तते खं सामि
यादेवी तं हंडे अधासूवं पासति २ त्ता भीया तत्था
उक्दिग्गा सैजायभया मपे सदविई २ त्ता एवं वयासी-ग-
च्छह शं तन्मे देवाणुप्पिया ! एयं दारग एगंते उक्कुरुडि-
ए उज्छादि, त॑ संदिसह ण समी! त दारग है
, 4 ७))
_मियापुत्त
अभिधानराजेन्द्र +।
मियापुत्त
एगंते उज्कामि उदाहु मा ), तते णं से विजए खत्तिए
तीसे अम्मधाईए अतिए एयमट्ट सोचा तहेव संभंते उड़ा-
ए उदेति उद्भाइता जेणेव मियादेवी तेशेव उवागच्छति
२ त्ता मियादेवीं एवं वयासी-देवाणुषिया | तुब्भ पदम
गब्भे ते जई ण तुब्भ एय एगत उक्कुराडयाए उज्कास |
ततो णं तुब्भे पया नो थिरा भविस्सति । तो णं तुम एय
दारगं रहस्सियगंसि भूमिधरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेण |
पडिजागरमाणी २ विहराहि, तो णं तुब्भ॑ पया थिरा भ-
विस्सति, तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तह
त्ति एयमट्टं विणएणं पडिसुणेति पडिसुणित्ता त॑ दारगं
रहस्सियेसि भूमिघरंसि रहस्सियभत्तपाणेणं पडिजागरमा-
शी विहरति, एवं खलु गोयमा ! मियांपुत्ते दारए पुरा पु-
राणाणं ०जाव पत्चणुब्भवमाणे विहरति । ( सत्र-६ ) ।
{ ्मगसमगं ति ) युगपत् ( ' रोगायंक ' त्ति) रोगाः-
व्याधयस्त एबातड्डाः--कष्टजीवितकारिणः । 'सासे' इत्यादि
ज्छलोकः, 'जोणिसूले' क्षति अपणाठः । 'कुच्छिसूले' इत्यास्यान्य-
चर दशनात्, ( भगंदले त्ति ) भगन्दरः ( अकारए त्ति )
अरोचकः, अछिछिवेयणा' इत्यादि श्छोकातिरिक्रम् , ( उदरे |
त्ति) जलोदरे शज्ञाटकादयः स्थानविशेषाः। ( विज्ञो वत्ति)
चैद्यशाखे चिकित्सायां च कुशलः ( विज्ञपुत्तो व त्ति )
तत्पुत्रः ( जाणुओ व त्ति ) ज्ञायकः केवलशाख्रकुशलः
( तेगिच्छुओ व त्ति) चिकित्सामात्रकुशलः, ( अत्थसंप-
या दुलयइ त्ति ) अथदानं करोतीत्यथः । ( सत्थकोसह-
त्थगय त्ति ) शख्रकाशो--नखरदनादिभाजने हस्ते गतो-
उ्यवस्थितो यपषान्त तथा, ( अवदृहणाहि य त्ति) दम्भनेः |
६ अवण्हाणाह य तत्त ) तथावधद्रव्यसस्कृतजलन स्ना- |
नैः ( अणुवासणाहि यत्ति) अपानन जटरे तेलप्रवेशने
६ वत्थिकम्मेहि य त्ति) चम्मवेष्टनप्रयागण शिरःप्रभ्रतीनां
स्नेदपूरणैः गुदे वा वत्या दिक्तेपशेः ( निरुहेहि य त्ति ) नि-
रूह: अनुवास एव केवले द्रव्यकृतो विशेषः ( सिरावेहेहि- |
य जि) नाडीवेधेः ( तच्छणेदि य त्ति) क्षुरादिना त्वच- |
स्तनूकरणेः ( पच्छणेदि य त्ति) हस्वेस्त्वचो विदारणे
(सिरोवत्थीदि य त्ति) शिरोवस्तिभिः शिरसि बद्धस्य चम-
कोशकस्य द्रव्यसंस्कृततेलाद्यापूरणलत्तणाभिः, प्रारक्रवस्ति-
कम्माणि
तद्धदाः ( तप्पणाहि यत्ति) तप्पणेः स्नदादिभिः शरीर-
हरेः ( पुडपागहि य त्ति ) पुटपाकाः पाकाविशषनिष्पन्नाः
सामान्यानि श्रचुवासनान रुहाशरावस्तयस्तु |
श्रोषधिविशषाः (छुल्लीहि य तत्त) दुल्लयो-रोदिणीप्रभ्रतयः। |
( सिलियाहि य तत्त ) शिलिकाः-किराततिक्रकप्रभ्रतिकाः
[ गुलियाहि य त्ति ] द्रव्यवटिकाः ( ओसहेहि य त्ति ) |
श्रौषधानि एकद्रव्यरूपाणि ( भसजहि य त्ति ) भैषज्या-
नि-श्नकद्रव्ययोगरूपाणि पथ्यानि चति । ( संत त्ति ) श्रा
न्ता देदखेदेन ( तंत त्ति ) तान्ताः
ति ) उभयखदेनति “रञ्जय रट य" इत्यत्र यावत्करणादिदं
दश्यम्- "कास य कारागारे य वादे य" तत्त । मुच्छिए ग-
दिप गिद्धे अ्रञ्भोववरणे त्ति ' एकार्थाः, ' आसाएमाणे ' इ
स्याद्य एकाथाः ( अद्वदुदइवसद्टध त्ति ) श्रातो मनसा
मनःखदेन . ( परितंत |
दुःखितो, दुःखातों देदेन, वशातैस्तु--इन्द्रियवशन पीडितः
ततः कमधारयः, ( उज्ला ) इह यावत्करणादिदं दृश्यम-
“ विउला कक्रसा पगाढा चेड़ा दुहा ` तिव्वा दुरहियास ``
त्ति । एकाथ पव । “ श्रणिद्धा श्रकंता अप्पिया च्रमणुन्रा
अमणामा ” पतेऽपि तथैव, ( पुठ्वरत्तावरत्तकालसमयं-
सि त्ति) पूवराआ-रात्रे: पूवभागः, अपरराजो-रात्रे: पश्चि-
मा भागस्तज्लक्षणो यः कालसमयः--कालरूपः समयः स
तथा तत्र ( कुडंवजागारियाए त्ति ) कुटुम्बचिन्तयेत्यर्थः
( अज्भात्थिए त्ति ) श्रध्यात्मिकः आत्मविषयः, इह चा-
न्यान्यपि पदानि दृश्यानि, तद्यथा--( चितिप त्ति) स्म
तिरूपः ( कप्पिपए त्ति ) बुद्धश्चा उयवस्थापितः ( पत्थिए
त्ति ) प्राथितः प्रार्थनारूपः ( मणोगए त्ति ) मनस्येव वृत्ता
बहिरप्रकाशितः, सकटपः--पर्यालोचः, “ इट्ठे ` त्यादीनि
पञ्चैकाथिकानि पाग्वत् ( धिजे त्ति) ध्येया ( वेसासिय
त्ति) विश्वसनीया ( श्रणुमय त्ति ) विध्रियदशैनस्य पश्चा-
दपि मता अनुमतेति, ( नामे ति ) पारिभाषिकी, सज्ञा
( गोयं ति) गोत्रम् अन्व्थिकी सञ्क्ञेवति (किमंग पुण
त्ति) कि पुनः * अंग ` इत्यामन्त्रणे, ( गब्भसाडणाहि य
त्ति ) शातनाः-गभेस्य खराडशो वनेन पतनहेतवः ( पा-
डणादि य त्ति ) पातनाः यैरूपायैरखरड एव गर्भः पतति
( गालशाहि य त्ति ) येगैमों द्रवीभूय क्षरति ( मारणादि
यत्ति) मरणहेतवः । ( अकामिय त्ति ) निरभिलाषाः
[ असयंवस त्ति ] श्रस्वयवशा [ अट्टनालीओ त्ति] अरौ
नाङ्यः-शिराः [अन्भितरणप्पवहाउ त्ति] शरीरस्याभ्यन्तर एव
रुधिरादि खरवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, [बाहिरप्पवहाउ त्ति]
शरीराद्रहिः पूयादि त्तषरन्ति यास्तास्तथाक्गाः, एता एव
षोडश विभञ्यन्त * अद्र ' व्यादि कथमित्याह--[ दुवे दुर
त्ति | द्व पूयप्रवाहे देच शोणितप्रवाहे, ते च क्वत्याह--
[ कन्नतरेखु ] श्रोत्ररन्धयोः एवमेताश्वतस्त्रः, पवमन्या अपि
व्याख्येयाः, नवरं धमन्यः कोष्टकहड्डान्तराणि [ आग्गियए
त्ति ] ] अग्निको भस्मकाभिधानो वाय॒विकारः “ जाइआंधे `
इत्यत्र यावत्करणात् ` जाइमूए ` इत्यादि दृश्यम् , [हुड ति]
अव्यवस्थिताज्ञावयवम् [ अधारूव॑ ति ] अन्धाकृति
* भीया ' इत्यत्रेतद् दश्यम् * तत्था उच्विग्गा संजायभया
भयप्रकर्षाभिधानायैकार्था: शब्दाः, 'करयले' त्यत्र * करयल
परिग्गदियं द्सणहं मत्थप अजालि कट्ठु' इति दृश्यम् , ` न-
वरह ' मित्यत्र “ मासाणं बहुपडिपुन्नाण ` मित्यादि दश्य-
म् , तथा-- जाइञअंध ` मित्यादि च, [ संभंते त्ति ] उत्सु-
कः [ उदरात उट्देइ त्ति] उत्थाननोत्तिषठति, [ पय त्ति]
प्रजा:--अपत्यानि, [ रहस्सिगयसि त्ति ] राहस्यिके विजने
इत्यथः । ( पुरा पोराशाणं ति ) पुरा-पूर्वकाले कृतानामिति
गम्यम् , श्रत पव पुराणानाम्-चिरन्तनानाम् , इह चर
यावल्करणात् ` दुिन्नाणे दुष्पाडिकंताण ' इत्यादि ‹ पावगं
फलयित्तिविसस ` मित्यन्तं द्रष्टव्यम् ।
मियापुत्ते ण भते ! दारण इओ कालमासे कालं किचा
किं गमहिति ! कहिं उववजजिहिति ? गोयमा ! मिया-
पुत्त दारण छव्वीसं वासाईं परमाउयं पालइत्ता कालमासे
कालं किचा इदेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयङूगिरि
(८ २६२ )
खआामभसधानराजन्द्र: |
_मियापृत्त है!
पायमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पतच्चमायाहिति, से णं तत्थ
सीहे भविस्सति अहम्मिए ०जाव साहसिए सुबह पावं० |
जाव समजिणति ८जाव समज्जिणित्ता कालमासे कालं |
|
|
|
किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुहर्बाए उकोससागरोवमट्टि- |
तीएसु ०जाव उववज्ञिहिति, से णं ततो यणेतरं उच्बद्वित्ता
सरौसवेसु उववजिहिति,तत्थ णं कालं किच्चा दाच्चाए
पुदवीए उकोमेण तिनि सागरोवमाई, से शं ततो अणतरं
उव्वद्ित्ता पक्खीसु उववज्िहिति,
तच्चाए पृषटवीए सत्तसागरोवमाई, से शै ततो सीहेसु य,
तयाऽशंतरं चोत्थीए उरगो पंचमीए इत्थीओं छट्ठी ए मणुआ
० अहेसत्तमाए, ततो 5णंतरं उच त्ता से जाई इमाई जलय-
रपचिदियतिरिक्छजाशणियाणं मच्छकच्छमगाहमगरसुसुमा
रा55दीणं अद्भधतरसज।तिकुलकोडिजेणिपमुहसयसहस्साई
तत्थ शं एगमगमि जोणीविहाणंसि अणेगसतसहस्सखु-
त्तो उद्दाइत्ता २ तत्थव भुजा २ पच्चाय{इस्सति, सेशं
ततो उच्बद्वित्ता एवं चउपणसु उरपरिसप्येसु भ्रयपरिसप्पे-
सु खहयरसु चउरेदएसु तइंदिएसु बइदिएसु वणप्फइएसु
कड्यरुक्वसु कडयदु द्विएसु वाउ ० तेड० श्राङ० पुढवी०
अंशगसयसहस्सखु त्ता, से ण॑ तता अशंतरं उब्बद्धित्ता
सुपइट्ड पुरे नगर गोशत्ताए पच्चायाहिति | से णं तत्थ |
उम्पुक ०जाव बालभावे अन्नया कयाई पढ़मपाउसंसि |
गंगाए महानईए खलीयमट्डियं खणमाण तडीए पेन्निए |
समा कालगए तत्थेव सुपडदर पुर नगरे सेट्टिकुलांसे
पुमत्ताए पच्चायाइस्सति । स ण तत्थ उम्मुकबालभाव०
तत्थ वि करालं किच्चा |
जाव जोव्वणगमणुपत्ते तहारूवाणं थराणं अतिए धम्मं |
साच्चा निसम्म मंडे भवित्ता अगाराओं अणगारियं
पव्वइस्सति, से णं तत्थ अरणगारे भविस्सति इरियासमिए०
जाव बंभयारी । से ण तत्थ बहदं वासाई सामन्नपरियागं
पाउणित्ता आलोइयपडिकंते समादिपत्त कालमासे काल |
किच्चा सोहम्मे कप्प देवत्ताए उववज्ञिहिति । से णं ततो |
अरातरं चयं चरत्ता महाविदह वाये जाई कलाई भवति
अड्डाई जहा दढपदन्न सा चव वत्तव्वयया कलाआ० जाव
सिज्मिहिति । एवं खलु जबू ! समणणं भगवया महा-
वीरेणं ०ज।ब संपत्तणं दृह विवागाणं पदमस्स अज्भयणस्स
अग्रमट्टे पन्नत्ते त्ति बमि । ( सत्र-७ )॥ १॥
'अहम्मिए' इत्यज यावत्करणादिद दृश्यम 'बहुनगरनिग्गय-
जस सुर दृढप्पह्ारी ति' व्यक्तं च च | (कालमास त्ति] मरणाव- |
सरे. 'सागगावम० जाव त्ति 'सागरापमट्टिईएसु नरइयत्तापः
दर्व्यम् ,[जादकुलका डी जो णिप्पमुद सयसहस्साई ति | जाता
पश्चेन्द्रियजातों कुलकाटीनां यानिध्रमुखानि-यानिद्वारकाणे
योनिशतसहस्ञ्राणि तानि तथा । [ जाणीबिहाणंसि त्ति ] |
योनिभदे । ( ( खलीणमट्टिय त्ति ) खलीनाम--आकाशस्थाम् ,
चिन्नतरोपरिवांत्तनी, मत्तिका्मिति (उम्मुक्क० जाव त्ति) 'उ-
म्मुकबालभावे विन्नयपरिणयमत्त जोव्वणगमणुपत्ते त्ति
दृश्यम । तत्र विज्ञ एव विज्ञकः स चासो परिणतमाचत्रश्च
वुद्धन्यादिपरिणामापन्न एव विज्ञक पारि णतमात्रः । ( अरणंतरं
चये चदइत्त त्ति) अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा च्यवन वा कृत्वा
( जहा ददपदन्न त्ति ) श्रोपपातिके यथा टदप्रतिज्ञाभिधा-
नो भव्यो वरितस्तथा अयमापि वाच्यः, कस्मादेवामित्याइ-
(सा चेव त्ति) सेव दढप्रतिज्षसस्बन्धिनी अस्या अपि वक्त-,
व्यतेति तामव स्मरयन्नाह-( कलाओ (त्त ) कलास्तेन
ग्रहीष्यन्ते दृढप्रतिझ्निव, यावत्करणाच्च प्रब॒ज्याग्रहणादिः
तस्यवास्य वाच्यम् , यावत्सेत्स्यतीत्यादि पद पञ्चकमिति
ततः सत्स्यति कृतकृत्यो भविष्यति भोत्स्यते कवलज्ञानेन
सकले ज्ञेयं ज्ञास्यति, मोचयति, सकलकम्मविमुक्तो भवि-
ष्यति, परिनि्वां स्यति सकलक्मकतसन्तापरटितो भविष्य
ति, किमुक्क भवति ?-स्वदुःखानामन्त करिष्यतीति । वि-
पा० १ श्रु० १ अ० । सुन्रीवनगरराजस्य बलभद्रस्य बलश्रीः
नामके पुत्र । उत्त० ।
नामनिष्पन्ननिक्षेप खगापुत्रीयमिति नामतो स्रगायाः
पुत्रस्य च निक्तेपमाह नियुक्तिकत्-
निक्ववो उ उ मिआए,चउकओ दुब्बिहो उ दव्वम्मि |
अगम नोआगमतो,नोआगमतो यसो तिविहो ।४०५।
जाणग सरीर भविए, तव्वहारित्त य सो पुणा तिविहो ।
एगभवियवद्भाउय, अभिमृहओ नाम गोए य ॥४०६॥
मिञ्रन्राउनामगोयं, वेयेतो भावओ मिश्रो होर |
एमेव य पुत्तस्स वि, चक्रो हाड निक्खवो ॥ ४०७॥
नवरं स्रूगाभिलापन नयम् ।
नामनिरुङ्किमाद--
मिगंदेवीपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुद्धियं जम्हा ।
तम्हा मिगयपुक्तिज्ञ, अञ्छयणं हाई नायब्य ॥ ४०८ ॥
सगा--नास्ना, देवी-अग्नमहिषी, तस्याः पुत्र:-खुतो, खृगा-
देवीपुत्रस्तस्माद्रलश्रीनाम्नः समुात्थतम्-- समुत्पन्नम् , य-
स्मात्तस्मान्सगापुत्रीयम् सृगापुत्रीयनामकं,खगाशब्देन खगा-
देव्युक्करध्ययनमिदमिति शषः, भवात-- ज्ञातव्यम्; अवबो-
द्धव्यम् , इति गाथाथेः। गतो नामनिष्पन्ननित्तपः ।
सम्प्रति सृत्रालापकनिष्पञ्ननित्तपस्यावसरः, स च सूत्रे स-
ति भवति, श्रतः सूत्रानुगम सूत्रमुच्चारणीयम् , तच्चदम्-
सुग्गीवे नयरे रम्मे, काणणुजाणसोदिए ।
राया बलभदु तति, मिया तस्सऽग्गमाहिसौ ॥ १ ॥
तेसि पत्ते बलसिरि, मियापुत्त त्ति विस्सुए।
अम्मापिऊहिं दइण, जुवराया दर्मासरे ॥ २ ॥
नदशे सो उ पासाए, कीलए सह इत्थिहिं ।
देवो दोगुंदगों चेव, निच मुइयमाणसो ॥ २ ॥
मणिरयणकुट्टिमतले, पासायालोत्रणे ठिओ ।
आलोणड नगरस्स, चउक्षतियचचरे ॥ ४ ॥
गाथात्रय प्राग्वत् ।
छ
मियापृत्त `
॥
3 ~ ~~~ - ~
( २६३ )
मियापुत्त
सुग्रीवे-सुग्नीवनाम्नि नगरे, रम्य--रमणीये , काननेः-वृ-
हद्धक्षाश्रयेवने: , उद्यानेः-आरामेः की डावनेवौ , शोभित-
राजिते, काननोद्यानशोभिते , राजा-नृपा, बलभद्र इति ना-
मनति शषः । मगा-सगानाम्नी,. 'तस्य' इति-वलभद्रस्य रा-
ज्ञः, ( अग्गमाहिसि त्ति ) श्चत्रमहिपी--प्रधानपत्नी । तयोः- |
राज्ञोः, पुत्रः-वलश्रीः-वलश्रीनामा , मातापित्विहितनाम्ना
लोक च सरगापुत्र इति, विश्रुतः-विख्यातः, ( ` अम्मापिञ
शे" ति ) अम्वा-पित्रोः, दयितः- वल्लभः, युवराजः-
कृतयोवराञ्याभिषको, दमिनः-उद्धतदमनशालास्ते च राजा
नः. तेषाम् ईश्वर:-प्रभुदेमी श्वरः। यद्वा-दमिनः-उपशमिनः,
तषां सहजापशमभावत ईश्वरा दमीश्वरः , भाविकालापक्त
चेतत् । नन्दने-लक्तणोपततया समृद्धिजनके , सः-म्रगा- |
पुत्रः, 'तुः'-वाक्यान्तरोपन्यासा्थः, प्रासादे की डति-विल-
सति, सह-समम् , सख्रोभिः-प्रमदाभिः । क इव ?-देवः-सु- |
रः , ( दागुदगो चव त्ति) चः-पूरणे , दोगुन्दग इव, दोगु- |
न्दगाश्च त्रायास्त्रशाः तथा च बृद्धाः-जयासिशा देवा नि- |
त्यं भागपरायणा दाग॒न्दगा `` इति भणान्त । निल्यम्-सदा |
मुदितमानसः एचित्तः, । सचेवं कीडन् कदाचिन्मणयश्च -
विशिषएमहात्म्याश्चन्द्रकान्तादयो, रत्नानि च-गोमयकादीनि,
मणिरत्नानि, तेंरुपलक्षितं कुट्टिमतल यस्िन्नसौ मणिरत्न- |
कुट्टिमतलः,गमकत्वाद्ग हुवी हिः, तास्मन् त्रालोकयन्त दिशो
ऽस्मिन् स्थितरित्यालोकनं प्रासादे प्रासादस्य वा55लोकन
श्रास्रादालोकनम् तस्मिन् , सर्वोपरिवर्सिचतुरिकारूपे गवा
त्ते वा, स्थितः-उपविष्रः, आलाकते कुतृहलतः पश्यति
कानि {-नगरस्य तस्येव-सुग्रीवनाम्नः, सम्बन्धीनि चतुष्क- |
त्रिकचत्वराणि प्रतीतान्येव । इति सृत्रचतुटटयाथः । |
ततः किमित्याद--
अह तत्थ अइच्छंत, पासई् समणसजय । |
तवनियमसजमधरं, सीलडू गुणआगरं ॥ ५ ॥ |
तं पेहई मियापुत्ते, दिल्ढीए अशिमिसाइ उ । |
कटिं मननेरिसं स्वं, दिद्रपुव्वं मए पुरा १॥ ६॥
साहुस्स दरिसणे तस्स, अ्रजञ्छवसाणंमि सोहे ।
मोह गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्न | ७ ॥ |
देवलोगचुओ संतों, माणुस भवमागओ ।
सन्निनाणसमृप्पन्ने, जाई सरइ पुराणय ॥ ( प्र० )॥
जाईसरणे समुप्पष्त, [मयार्पत्त माहाडुए | |
सरह पोराणिअं जाई, सामझ च पुराकयं ॥ ८॥ |
अथ-अननन््तरम् , तवर इति-तेषु ! चतुष्कत्रिकचत्वरेषु, |
( अतिच्छंत ति ) अतिक्रामन्तं पश्यति , श्रमणसयतमिति |
श्रमणस्य शाक्यादेरपि सम्भवाक्तद्यवच्छेदार्थ संयतग्रह- |
णम् ,तपश्च-अनशनादि.नियमश्च-द्रव्याद्यमिग्रहात्मकः, सय-
मश्च-उक्रस्वरूपस्तान् धारयति तपोनियमसयमधरस्तम्
अत एव शीलम-अष्टादशशीलाङ्गसदस्ररूपम , तेनाठ्यम-
| > शीलाङ्यम् , तत एव च गुणानाम-ज्ञानादीनामाकर |
इवे गुणाकरस्तम् । तमिति श्रभणसंयतम् , ( पेट इ त्ति ) |
पश्यति, , मगापुत्र:-युवराजः, उष्ट्या-डशा, ( अशिमिसाइ- |
७9
॥6 ` श
अभधानराजन्द्र
‰: मियापुत्त
उ त्ति) तुशब्दस्येबकाराथत्वादविद्यमाननिमेषयेव, क मन्य
जाने, ईदशम्-एवंविधम , रूपम-आकारः , दृष्टपूवम-
अवलाकिते मया , ( पुरा इति ) पूवजन्मान ?, शेष प्रतो-
तमव, नवरम्, अध्यवसाने इत्यन्तःकरणपरिणाम, शाभन
प्रधान, क्षायापशमिकभाववर्तिनीति यावत् , मादे क्वद्
मया दण्रम् क्वेर्दामित्यतिचिन्तातश्ित्तसद्ट् जमूच्छी त्मकम् ,
गतस्य-प्राप्तस्य, सतः । तथा ( सरति तत्त ) स्मरति.पोराणि-
कीम्, जातिम्-जन्म, श्रामरयै च-श्रमणमभावम् , पुराङूतम्-
जन्मान्तरानुष्टितम् । इति सूत्रचतुषए्टयाथः ।
एतदेवातिस्पष्टताहेतोरनु गद्तुमाह निर्यक्किरूत्-
सुग्गीवे नयरमि अ, राया नामेण आसि बलभदो |
तस्सासि अग्गमहिसी, देवी उ मिगावई नाम ॥४०७॥
तेसि दुह चि पुत्तो, आसी नामेण बलासिरी धीम ।
वयरोसमसंघयणो, जुबराया चरमभवधारी ॥४७८॥
उन्नेदमाणहिआओ, पासाए नंदणंमि सो रम्म ।
कीलइ पमदासहिओ, देवो दोगुंदगो चव ॥ ४०६ ॥
अह अन्नया कयाई, पासायतलंमि सो ठिओ संतो |
आलोएड पुरबरे, रुंदे मग्ग गुणसमग्गे ॥ ४१० ॥
अह पिच्छइ रायपहे, बोलंत समणसजयं तत्थ।
तवानियमसंजमधरं, सुअसागरपारग धीरं ॥ ४११ ॥
अह देह रायसुओ, तं सम अशिमिसाइदिद्वीए ।
कदि एरिसयं स्वं, दिदं मने मए पुव्व॑ ? ॥ ४१२॥
एवमणुवितयतस्स, सन्नीणाणं तहिं समुप्पन्न |
पुव्वभवे सामन्न, मए वि एवं कयं आसि ॥४१३॥
गाथासप्तकं स्पषटमव, नवरम् धृतिमान--चित्तस्वास्थ्य-
वान्, ( वज्रऋषभमिति ) अथोद्त्नऋषभनाराच स-
हनने यस्य स तथा, चरमभवधारी-पयेन्तजन्मवर््ती, तथा
( उरणदमाणदिय्रो त्ति ) उत्-प्रावस्येन, नन्दद्-श्रानन्दं
गच्छत् , हृदयम्- मना, यस्य स तथा , प्राङ्तत्वात् शत्-
विषथ शानचू । तथा-रन्दान-विस्तीणान् , मागान-वि-
पणिमागादीन्. गुणः-ऋजुत्वसमत्वादिभिः, समग्राः-परि¬
पूरणाः गुणसमम्रास्तान् । तथा श्रुतसागरपारगे धीरमिति
तपानिर्थमसयमधर मित्यस्य सूत्रपदस्य देतुदशेनद्वारतस्ता-
त्पथव्याख्यानम् . अननेव च भावभिच्ुत्वमुपदर्शितम् , श्रत
पवान्यस्यैव विशेपणायोगाच्छ्ुमणसयतमित्याह , सज्िज्ञान
चड़ सम्यगटशः स्म्लातिरूपमातिभेदात्मकम् । इति गाथास-
सकाऽवयवार्थः।
सम्प्रति यदसावुत्पन्नजातिस्मरणः कृतवॉस्तदाह--
विसएहि अरजंतो, रजतो संजमेमि य |
अम्मापियरं उवागम्म, इमं वयणमव्ववी ॥ & ॥
( विसएहिं ति ) खुव्च्यत्ययाद् विषयषु-मनाज्ञशब्दादिषु,
अरजन अभिष्वज्ञमकुर्वन , क ? सयमे , उक्करूप , चः--
पुनरथः, ( अम्मापियरं ति ) अम्मा ( म्बा ) पितरा, उ-
पागम्य-उपखृत्य , इदम्-श्ननन्तरवच्यमाणे, वचनम् । अब्र-
वीत् , इत्याह । इति सूत्राथः।
है ( २६४ )
श्रा नधानराजन्दरः।
मियापुत्त _
कि तदब्रवीदित्याह--
सुआरणि में पंच महव्वथाणि,
नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु |
निव्विण्णकामो मि महएणवाओ,
अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मी | ॥ १० ॥
श्रुतानि--आकर्णितानि, अन्यजन्मनील्यभिद्यायः, [मे] म-
या, ( पंच इति ) पश्चसंख्यानि, महावतानि -हिसाविरमणा-
दीनि, तथा नरकेषु दुःख च-असातम् ,इहेव वच््यमारं ( ति
रिक्खजोशणिसु त्ति ) चशब्दस्याप्रयुज्यमानस्यापि “अहरह-
नेयमानों गामश्व पुरुष पशुम् `` इत्यादाविव गम्यमानत्वात्
तियग्यानिषु च, सर्वत्र चायं न्यायो द्रष्टव्यः, उपलक्तणे चेत-
देवमनुष्य भवयोः, ततः किमित्याह--( णिष्विरणकामा मि
न्ति) निर्विएणकामः--प्रतिनिवृत्ता भिलाषो ऽस्म्यहम् ,कुतः?
महाणव इव महारवः-ससारस्तस्माद् ,
अनुजानीत--अनुमन्यध्वम् . मामिति शषः, [ पव्वइस्सामि
त्ति | श्र्॒जिष्यामि [ अम्मो त्ति] पूज्यतरत्वादिशिष्टप्रति-
यन्धास्पदत्वाच्च मातुरामन्त्रणम् .या हि भविष्यदुःखे नावेति
तत्प्रतीकारहेतु वा, स कदाचिदिन्थमवासीत् अहे तृभयत्रा
पि विज्ञ इति कथन
कां प्रत्रज्यां प्रतिपत्स्ये । इति सूत्रगभी थेः ।
अमुमवार्थमनुवादतः स्पष्टयितुमाह नियुक्किकत--
सो लद्धव।हिलाभो, चलणे जणगाण बंदिउ भणइ ।
वीसज़िउमिच्छामो, कां समणत्तणं ताया !
प्राक्षिरूपा यन स तथा, चरणान्- पादान्, जनकयोंः--
मातापित्रोः; वन्दित्वा भणति, यथा विसजंयितुम्-मुत्कल-
यतुम् ,वयमात्मानमिति गम्यते,इच्छामः-ञ्रभिलषामः, कि- |
मिति ?, यतः--[ कादं ति | बचनव्यत्ययात्ू--करिष्यामः ,
श्रमण॒त्वम--प्रव॒ज्याम् , तात इति--पितः !, उपलक्षण॒त्वा-
त+-मातश्र । इति गाथाः
इदानीं .ती कदाचिद्धागेरुपनिमन््रयेयातामित्य-
भिप्रायतः यत्तनोक्तं तत्सूच्ररूदाद-
अम्म ! ताय ! मए भोगा, भत्ता विसफलोवमा |
पच्छा कडयविवागा, अणु्ंधदुहावहा ॥ ११ |
इमं सरीरं अचं, असुई ग्रसुदसं भवं ।
असासयावासभिणं, दुक्खकेसाण भायणं । १२ ॥
असासए सरीरंभि, रई नोवलभामहं ।
पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसंनिभे | १३ ॥
सूत्रत्रय प्रतीता भेमव,नवरम्,विपमि ति-विषवृत्तस्तस्य फले
विपफले तदुपमाः । तदुपमत्वमैव भावयितुमाह-पश्चात्कटु-
क इव कटुको ऽनिषएटन्वन विपाको येषां ते तथा, श्रापातत-
णव मधुरा इति भावः | अनुवन्ध दुःखावहाः--श्रनवच्लिन्न
दुःखदायिनः । यथा हि-विषफलमास्वाद्यमानमादो मधुरम्
उत्तरक्राले च कटुकविपाकं, सातत्येन च दुःखापनत, पवम-
तऽपीति। किञ्च- -ञमी कामाः स्पर्शप्रधानाः, स्पर्शश्च श-
रीराश्रयः, तच्चदे शरीरम् , आनित्यमू--अशास्वतम् , अशु-
यतश्चवमतः-- |
दुःखध्रतीकारापायभूतां महाबतात्मि-
॥ ४१४ ॥| |
सः इति--सरगापुत्रा, लन्धः-- प्राप्ता वाधिलाभा-जिनधर्म- |
ऽहमिति | इत्थं मनुष्यभवस्यानुभूयमानत्वेन निर्वेदहेतु-
चि-स्वाभाविकशोचरदितम् ।
प्यनित्यः आवासः- परक्रमाजीवस्यावस्थानम् यास्मिन्नित्य-
शाश्वतावासस्, पुनः 'इद्मि' त्यभिध्रानमतीवासारत्वावेशस्ः |
चकम्, दुःखम्-श्रसातं तद्धेतवः क्लेशाः-ज्वरादयो रोगाः,दुः
खक्केशा:, शाकपार्थिवादिवत्समासस्तषाम् भाजनम् , यतश्च
वमता ‡शाश्वते शरीरे , रतिम-चित्तखास्थ्यम, नोपलभे न
प्राप्तो स्यहस भागयु सत्स्वपीति गम्यते, शरीराश्रयत्वात्तेषा-
मितिः भावः । शरीराशाश्वतत्वमेवाह- पश्चात् पुरा वा
त्यक्कव्ये शरीरे इति प्रक्रमः । तद्धि पश्चादिति-भुक्रभोगा-
वस्थायां, वाद्धक्यादौ, पुरा-श्रभुक्कभोगितायां वा वाल्यादो,
त्यज्यत इति, यद्धा-पश्चादिति-यथास्थित्या आयुःक्षयो-
त्तरकालं पुरा वेत्युपक्रमहेतार्वर्षशताद्यासंकालितजी वितप्रमा-
णात्प्रागपि, त्यक्गव्य-अवश्यत्याज्ये, फेनवुद्वुद्सनिभ-क्षण-
दष्टनष्रतया, अननाशाश्वतत्वमव मावितमिति न पानरुकत्य- |
म् । इति सूजरत्रयाथः।
एवे भागनिमन््रणपरिदहारमभिधाय प्रस्तुतस्यैव
ससारनिर्वदस्य हेतुमाह--
माणुसत्ते असारंमि, वाहीरोगाण आलए ।
जरामरणघत्थम्मि, खणं पि न रमामहं ॥ १४ ॥
जम्मदुक्ख जरादक्ख, रागाय मरणाण य।
अरहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जतुणो ॥१५॥
खित्तं वत्थु हिर्यं च, पृक्तं दारं च बंधवा |
चरत्ताण इमं दहं, गंतव्वमवसस्स मे ॥ १६ ॥
जह किंपागफलाणं, परिणामो न सुदरो ।
एवं युत्ताण भोगा, परिणामो न संदरो ॥ १७ ॥
सूत्रचतुध्रयं स्पष्टम् , नवरम् व्याधयः--अतीव बाधाहेत-
वः कुष्ठादयों, रोगाः--ज्वरादयस्तेषाम् आलये-आश्रये
जरामरणग्रस्त-वाद्धैक्यमरत्युक्रो डीक्ते , , अनेन माचुषत्वा-
सारत्वमेवं भावितम् , क्षणमपि--न रमे नाभिरति ल-
त्वमभिधाय सम्प्रति चतुरीतिकस्याऽपि ससारस्य तदाह, '
' जम्मे ` इत्यादिना, अज च ` अहा ` इति सम्बोधने
[ दुकखो हु त्ति ] दुःखहेतुरेव संसारो जन्मादिनिवन्धनत्वा-
त्तस्य, यत्र-- यस्मिन् , गतिचतुष्टयात्मके संसारे, क्लिश्य-
न्ति--वाधामनभवन्ति, जन्मादिदुःखरेवेति गम्यते, जन्त
--प्राणिनः, इह च दुःखाचुभवाधारत्वन संसारस्य दुःख-
हेतत्वमिति भावः । तथा--' खत्तं ` इत्यादिनष्टवियोगोऽश- `
रत्वे च ससारान्निर्वेदहेतुरुक्कः, तथा--किम्पाकः-चरज्ञ-
विशेषः, तस्य फलान्यतीव सुखादानि | अनेन चोपसंहार- «
सृत्रणोदादरणान्तरद्वारेण भोगदुरन्ततेव निर्वेदहेतुरुक्ता |
इति सूत्रचतुष्टयावयवा्थेः ।
इत्थं निर्वेददेतुमभिधाय दृष्टान्तद्धयोपन्यासतः स्वाभिग्राय-
मेव प्रकटयितुमाह--
अद्वाणं जो महंत तु, अपहिजों पत्रज्जई ।
गच्छतो से दुदी होड, छुद्दातशह्ाइपीडिओ ॥ १८ ॥
ह)
=.
पा ( २६५ ) कि
मियापत्त अभिषधानराजेन्द्र! मियापुत
† | एवं धम्मं अकारणं, जो गच्छ परं भवं । सव्वारं भपारेच्चागो, निम्ममत्तं सुदुकरं | २६ ॥
५
+ । गच्छतो से दुही होई, वाहिरोगेहि पीडिओ ॥ १६ ॥ | चउव्विहेऽबि आहारे, राईभोयणवज्ञणा |
! | अद्भाणं जो महतं तु, सपाहेज़ो पवजई । संनिहीसंचओ चेव, वजेयव्यो सुदुकरं ॥ ३० ॥
! | गच्छतो से सुही होई, छहातण्हाविवज्जि्रो ॥ २०॥ | छुहा तण्हा य सीउणह, दंसा मसगा य वेयणा ।
| एवं धम्मं पि काङणं, जा गच्छ परं भवं । अकोसा दुक्सिज्ञा य, तणफासा जल्लमेव य ॥ ३१॥
| | गच्छते से सुरी होई, अप्पकम्मे अवेयण ॥ २१॥ तालणा तज्जणा चेत्र, वहबंधपरीसहा ।
जहा गेहे पलित्तमि, तस्म गेहेस्स जो पहू । दुक्खं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ॥ ३२॥
सारभंडाणि नीणेइ, असारं अवउज्कइ ॥ २२॥ कावोया जा इमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो |
। एवं लोए पलित्तमि, जराए मरणेण य । दुक्खं बंभव्वय घोरे, धार अरमहप्पणो ॥ ३३ ॥
। | अप्पाणं तारइस्सामि, तुब्भेहि अणुमात्निओ ॥ २३॥ | सुहोइओ तुमे पुत्ता, सुकुमालो सुमजिओ |
सूत्रषट प्रकटार्थमेव, केवलमत्र प्रथमसत्रेण दृष्टान्त उक्तः,
अत्र च अध्वानम्-मार्गम् ,पथि साधु पाथेयम् सम्बलकं तय
स्याविचमाने सोऽपाथयः, प्रपद्यते--अज्जीकुरुते | क्षुत्तुष्णा- |
न दुऽसी पथ तुमं पुत्ता !, सामन्नमणुपालिया ॥ ३४ ॥
जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं त महन्भरो ।
पीडितत्वं चेह दुःखित्वभवने हेतुः | द्वितीयसूत्रेण दाष्टीन्ति- गरुओ लोहभारु च, जो पुत्ता ! हाद दुव्वहो ॥३५॥
कोापदशीने, व्याधि रागर्पाडतत्वे चात्र दुःखित्वभवन निमत्त । आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोऽ व्व दुत्तर ।
वारिद्रयादिपी डोपलक्षण चैतत्। उ रसत यन च तत्सदः | ब्राहाहिं सागरो चव, तरियव्यो (य) गुणोयही ॥३६ ॥
योक्कस्यैवा धस्य व्यतिरंक उक्कः, तत्र खुखित्व हेतुः-क्षुत् त- | 6 “ ॐ
| श्ुणाविवर्ज्ञितत्वमुक्तम । धर्म-पापविर तिरूपम् , अपिः-पूरण, | ताजुयाक चव, निरस्साए श सजम |
। कत्वा-विधाय , गच्छन्नुपलक्षणत्वाद्वतश्व सः इति-ध- | आसधारागमर चव, दुक्रर चार तवा ॥ ३७ ॥
| सक्तौ, प्रकमात्पाथयापमधर्म सहितः खुखी भवति | खुखि- | अहीवेगंतदिद्वीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे ।
| त्वे चाल्पकर्म त्वं हेतुरवेदनत्वे च । श्र च श्रस्तावान्कर्म पापे जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुकरं ॥ ३८ ॥
| वेदना चासातरूपा गद्यत, अनेन धर्मक्मकरणाकरणयोग्गु- | जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाड होइ मदुकरं ।
| शदोषदशनाद्धमकरणाभिप्रायः प्रकटितः। 'जहा इत्यादिना च दंकर चर जे ॐ
| सवरद्येन तमेव दृढयाति। अत्र च यथा सारभागडानि-महा- | तह दुकर करंड ज, तारष्प समणत्तण ॥ ३६ ॥
| मूल्यवखादीनि, ( ( णीणइ त्ति ) निष्काणयति । असारम्- जहा दुक्खं करेडं ज, होई वायेस्स कुत्थलो ।
| जरद्वस्रादि, ( अवउज्भइ त्ति) अपोहति-त्यजाति पए-- तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेशं समणत्तणं ॥ ४० ॥
बम् लोके--जगति, ( पलित्तमि त्ति ) प्रदी्त अत्याकुलीक- | जहा क 0
र ४ जहा तुलाए तालउ, टकर ग्रा
त. आत्मानम्-सारभारडतुरयम् , तारयिष्यामि-जरामरण- । ५ \ र मदर् य ।
प्रदाप्तलोकपारं नप्यामि , घर्मकरणेनेति धक्रमः, श्रसारं | तहा णिहुअ-णीसंकं, दुकरं समणत्तण । ४१ ॥
तु कामभागादे त्यच्यामडात भावः | अनन धम-- जहा भयां तरिऽ, दुकरं रयणाऽऽयरो ।
करणे विलम्बासहिष्सुत्वमुक्तम् । युष्माभिरिति दिव्वेऽपि तहा अणुवसंतेणं, दुकरं दमसायरो | ४२ ॥
पुञ्यत्वाद् वहुवचनम् , ( अखुमज्निओ त्ति) अनुमतः | यज माणुस्सए मोष, पंचलक्खणए तुम ।
अभ्यनुज्ञातः | इति सृत्रषट्रावयवार्थः । के ै
एवं च तेनोक्ते । अत्तभोगी तओ जाया !, पच्छा धम्भ चरिस्समे ॥४३॥
तं बिंत5म्मापियरो, सामन्नं पुत्त ! दुच्चरं । |. सत्रविशतिः खुगमेव । नवरम् ( तमिति ) बलश्रियम श
गुणां तु सहस्साणि, धारेयव्वा्ई भिक्खुणा | २४॥ | गापुत्रापरनामक युवराजम्, ( विति त्ति ) ब्रतः-आभि-
| धत्तः, ( श्रम्मापियरो त्ति ) अम्बापितरों श्रामरयं पुत्र !
समया सव्वभूएसु, सत्तामित्तेसु वा जगे । | दुश्चरं , ` यतस्तत्र गुणानाम् श्रामरयोपकारकारां शीलाङ्ग-
पाणाइवाय विरई, जावज्जीवा य दुकरं ॥ २५ ॥ | रूपाणां सहस्माणि, धारयितव्यानि-आत्मनि स्थापयित-
निच्चकालप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं । | व्यानि , धाक् तुशब्दस्यैवकारा्थस्यह सम्बन्धाद्धारयित-
भासियव्वं हियं सचे, निचाउत्तेण दुकरं ॥ २६ ॥ | यान्येव वतग्रहण इति गम्यते । भिक्षुणा-भिक्तणशीलन
सता, पठ्यते च -(भिक्खुणो त्ति ) भित्ताः सम्बन्धिनां
गुणानामिति योगः । तथा समता-रागद्धषाविधानतस्तु-
बिरई अव॑भचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । ल्यता , सर्वभूतेषु--समस्तजन्तुषु, उदासीनष्विाति गम्यत
शत्रुमित्रषु वा--अपकायुपकारिषु , जगति-लोके अन्न
की तय भस, घरियव्व सुदुक्कर । २८ ॥ | सामायिकमुक्कम् , तथा-प्राणातिपातविरतिः प्रथमव्रत-
धेशधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवजरां । । रूपा, ( जावज्ञीब त्ति ) यावज्ञीवम्-ठुष्करम् दुरनुचरमेत-
दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं ।
अशवजेसणिज्ञस्स, गिएहणा अवि दुक्करं ॥ २७ ॥
रण अर...
( २६६ )
आभधानराजन्द्र: |
मयापत्त
दिति शपः । नित्यकालप्रमत्त नत्यप्रमत्तग्रहण [नद्वादप्रमाद- |
वशगा हि मरषा$पि भाषतात नत्या55युक्नन-सततापयुक्नन
अनुपयुक्रस्यान्यथाउडाप भाषणसभवाद् । एतच्च दुष्कर,
||
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यच्चान्वयव्यतिरेका भ्यामेकस्याप्यर्थस्यामिथाने तत्स्पष्टता- |
थ्रमदुष्टमबेत्यव सयत्र भावनीयम् । अनन द्वितीयव्रतदुष्कर- |
त्वर्माभिहितम् । [ दंतसोहणमादिस्स त्ति | मकारो ऽलात्त- |
णिकः, श्रपिशब्देस्य गम्यमानत्वात् दन््तशोधनादराप
श्रतितुच्छस्यास्तामन्यस्य, तथा छनव्द्येणीयस्य दत्तस्या-
पीति गम्यत । [ गिराहण त्ति ] ग्रहमिति तृ्तायत्रतदुष्क-
बोक्किः । [ कामभोगरसग्णुण त्ति | कामभागाः--उक्घरू-
पास्तषां रसः आस्वादः कामभोगरसः । यद्वा--रसाः शृङ्गा
रादयः, ततः-कामभागाश्च रसाश्च कामभोागरसास्तज्ज्ञन
तदज्ञस्य हि वदनवगमात्तद्धिषया ऽभिलाप एवं न भवत् ।
तथा च--सकरत्वमपि स्यादित्याशयनेवमाशसिधानम् › अनन
अतथब्रतदप्कर त्वम॒क्कम । पारेग्रहः--सत्खु स्वाक्ारस्ताद्रव- |
जनम, तथा सवे-निरवशषा, ये आरम्भाः-द्वव्यात्पादनव्या-
चाराः तत्परित्यागः, अनेन नराकाङ्घत्वमुक्कम् । नममत्व च
गम्यमानत्वाच्चस्य, सवत्र ममत बुद्धपारहारः, अनन पञ्च
मटात्रतदुष्करताक्घा । सनिध्ीयत नरकादिष्वननात्मात सान- |
धिः, चृतादेरुचितकालालिक्रमण स्थापन स चा5सो स्यश्च |
सनिधिसञयः स चेव वजयितव्यः इत्यतत् सुदुष्करम् । |
अनन षषटबत दुष्करत्वमुक्रम् , दिवाग्रहीतदिवोभुक्तादिभङ्गच
वु्यरूपत्वात्तस्य । "लुह ` त्यादिना पर्रीधहामिधानम् , अत्र च
दंशमशकवेदना तदृभक्तणात्थदुःखानुभवरूपा, दुःखशय्या च- |
विषमोन्नतत्वादिना दुःखहेतुवैसातिः, ताडना करादिभिराह- |
ननम्, तजेना-श्रङ्कलिश्रमणभ्रल्षपादिरूपाःवधश्च-लकरटादि- '
प्रहारो, बन्धश्च-मयूरवन्धादिः.तावेव परीषहों वधबन्धपरी
घटो, याञ्चा-प्रार्थना, चकारा ऽयुक्ताशषपरी षहसमुचया थः , ।
दुःखशब्दश्वेह चुद् दुःखमिव्यादि प्रत्येकं योजनीयः , इह च
चन्धताडने बधपरीषहे ऽन्तर्भरवतः. । तजना--आक्रोशे, ` भि-
क्षाचया च भेदोपादानं च व्युत्पत्यश्मिति भावनीयम् , |
कपाताः--पत्तिविशषास्तेषामियम् कापाती, ययम-चृत्तिः-
निवेहणोपायः , यथा टि-त नित्यशङ्किताः कणकीटका- |
दिग्रहण प्रवर्तन्त, एवं भिन्नुरप्यषणा दाषशङ्कचव भिक्षा- |
दौ प्रवत्तेत सा च दुरनुचरत्वन दारयति कातरमनां- |
सीति दारुणेत्युत्तरेण यागः, अआभिधयवशाच्च लिङ्गविप- |
रिणामः, उपलक्तण चतत्समस्तात्तरगुणानामिति | यच्च
ब्रह्मवतस्य पुनदुध्ररत्वाभिघान तदस्यातिदष्करत्वख्याप-
नाथम् । उपसंहारमाह--सुखम--लातम् , तस्याचितः-- |
याग्यः, सुखोचितः, सुकुमारः--अकठिनदेहः, सुमज्ितः--
सृष्टं स्मापतः, सकलनपध्याण्लक्तण चतत् , इह च सम-
जितत्वं सकुमारत्व दतः , उभयं चतत्सखोचितत्व । अ- |
तश्च [ न हु सि' त्ति | नव, आसि--भवसि, प्रभुः-समर्थः ,
श्रागणख्यम्--ग्रनन्तरादितगुणरूपम् , [ अणुपालेउं ति ] |
अनपालयितम् , इह च संखाचितत्वाभिधानमनीदशो ही- |
दशो दुःखमपि न दुःखामिति मन्यत । पुनरप्रभुत्वमेवोदा-
हरणः समर्थयितुमाह--अविश्रामः--यज्रोद्धुतेन न विश्रस्यते |
गुणानाम्--यतिगुणानाम् , तुः-पूरणे, महाभरः--महासम्- |
हो, गुरुको लोहभार इव यो दुवेहः स वबोढब्य इति|
ते, लोकरूढ्या चतदुक्लम | यथा प्र-
तीप॑ जलप्रवाहो दुस्तरः-दुःखन तीयत इति , बाहुभ्या-
म्--( सागरा चव त्ति) सागरवच्च दुस्तरो यः सः,
तरितव्यः--पारगमनायावगाहायितव्यः काऽसौ १, गु-
णाः--ज्ञानादयस्ते उदधिरिव गुणोदधिः , कायवाङ्म-
नानियन्त्रणा चात्र दुष्करत्वे देतु: , निरास्वाद्ः- नीरसो
विषयग्रृद्धानां वैरस्यदहेत॒त्वात् ( अदीत्यादि ) अहिरि-
व एकाऽन्तो- निश्चय यस्याः सा तथा, सा चासों ह-
शिश्वेकान्तदष्टिस्तया--अनन्याक्षिप्तया , अहिपक्षे-दशा ,
श्नन्यत्र तु बुद्ध्योपलक्षितम् , एकान्तदष्टिकं वा चारितं
दुश्चरम्, विषयभ्यो मनसा दुर्निवारत्वादिति भावः,
( जवा लोदमया चव , त्ति ) पएवकारस्यापमाथत्वाद्यवा
लाहमया इव चर्वयितव्याः , किमुक्तं भवति ?-लादमयय्-
चचर्वणवत्स दुष्करे चारित्रम्। ' अग्निशिखा `-श्रग्निञ्वाला-
दीपा इत्युञ्ज्वला ज्वाला कराला वा, द्वितीयार्थं चाव
ग्रथमा, ततो यथाऽक्चिशखां दीक्षां पातुं खुदुष्करं, न्र॒भि
रिति गस्यत । यदिवा-लिङ्गव्यत्ययात् सवघात्वथत्वाच्च
करोतेः सुदुष्करा-खुदुःशका , यथा<ग्निशिखा दीक्षा पातु
भवतीति योगः । एवमुत्तरत्रापि भावना । 'ज' इति निपातः
सर्वत्र पूरणे, ` कोत्थल ` इह वस््रकम्बलादिमयो गृह्यते
चर्ममयो हि सुखनेव शियेतेति, ' क्लीबन ` निःसचखन नि-
भृतं निःशङ्कम् इत्यत्र निभतम-निश्चले विषयाभिलाषा-
दिभिरक्ञाभ्यम् “ निःशङ्कम् `-शरीरादिनिस्यत्तं शङ्ाख्यस-
म्यकत्वातिचारविरहितं वा । अनुपशान्तेन--डत्कटकषा-
येण , इह च दमसागर इत्यनन प्राघान्यख्यापनाथं केव-
लस्येवोपशमस्य समुद्रापमाभिधानम् पूर्व तु गुणोंदाधि-
रित्यनेन निःशेषगुणानामिति न पोनरुकत्यम् ॥ यतश्चवम्-
तारुण्ये दुष्करा प्रवज्या अतो मुङ्त्वेत्यादिना पितरो त्यो
पदेश व्रतः, भुज्यन्त इति. भोगास्तान् , पञचलत्तणकान् ,
शब्दादिपञ्चकस्वरूपान् , ततः इति-भागभूक्ररनन्तरम् ,
(जायन्ति) जात! पुत्र! पश्चादिति-वाद्धक्ये , (चरिः
स्ससि त्ति) चरेः । इति विशतिसत्रावयवा थः ॥ २४(०)४३ ॥
सम्प्रात तद्वचनानन्तरं यन्सगापुत्र उक्कवास्तदाह-- «
तं बिंतःम्मापियरों, एवमेय जहा फुडं ।
इह लोगे निष्पिवासस्स,नऽत्थि किंचि वि दुकरं ॥४४॥
सारीरमाणसा चव, वेयणाउ अणंतसो ।
मए सोढाईं भीमाई, असई दुक्डभयाणि य ॥ ४५ ॥
जरामरणकंतारो चाउरंते भयागरे ।
मया सोढाणि भीमाई, जम्माई मरणाणि य ॥ ४६ ॥
जहेहं अगणी उण्हो, इत्तोऽणतगुणो तहि ।
नरणएसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेहया मए ॥ ४७ ॥
जहा इदं इमं सयं, इत्त(ऽशतगुणे तरि ।
नरणएसु वेयणा सीया, अस्साया वेहया मए ॥ ४८ ॥
कदंतो कदुकुमीसु, उद्धपाओ अह।पिर। ।
हुयासणो जलंतेमि पकपुव्वे। अणतसो । ४६ ॥
मियापत्त | |
शषः। त्वे तु सुखोचित इत्यतो न प्रभुरसीत्युत्तरत्रापि
योजनीयम् ! आकाशे गङ्गाश्रोतोवद् दुस्तर इति योज्य
मियापृत्त
( २६७ )
ञअभिधानराजन्द्रः।
मियापुत्त
महादवउग्गिसंकासे, मरुमि वइरबालुए ।
कालंबवालुखाए उ, द इपुव्यो अणंतसो ॥ ५० ॥
रसतो कटुकं मसु, उड़ बद्धो अवंधवो ।
करवत्तकरकयाईहिं, लिन्नपव्वो अणंतसो ॥ ५१ ॥
अइतिक्खकेटगाइप्पे, तंगे सिंबलिपायवे ।
खवियं पासबद्वेणं, कड़ाकड़ादि दुकरं ॥ ५२ ॥ |
महाजतेसु उच्छ वा, आरसंतो सुभरव । |
पीलिओ मि सकम्मेहिं, पावकम्मो अणंतसो ॥ ५३ ॥ |
कूवंतों कोलसुणणएहिं, सामेहिं सबलेहि य ।
पाडिओ फालिओ छिन्नो, विप्फूरंतो अणेगसो ॥५४॥ |
असीहि अयसिव्रण्णेहिं, भन्नीहिं पट्चिसेहि य|
सिनो भिन्नो विभिन्नो य, उववन्नो पावकम्मुणा ॥५५॥
अवसो लोहरहे जुत्तो, जलत समिलाजुए |
चोइओ तुत्तजुत्ते हिं, रुज्को वा जह पाडिओ ॥५६॥
हुआसणे जलंत॑मि, चिआआसु महिसो विव । |
दद्धो एकतो श्र अवसो, पावकम्मेहि पाविओं ॥५७॥
बला संडासतंड दहि, लोहतुडहि पक्खिहिं ।
बिलुत्तो विलवंतोऽहं, ठंकगिद्धेहि ऽशतसो ॥५८॥
तण्ाकिलंतो धवंतो, पत्तो वेयररिं नई ।
जल॑ प्राहंति चिर्ततो, खुरधाराहिं विवाइओ ॥ ५६ ॥
उण्हाभितत्तो सपत्नो, असिपत्त महावणं ।
असिपत्तेहि पडतेहिं, छिन्नपुव्यो अशगसो ॥ ६० ॥
मुग्गरेहिं भसुंढीहिं, खलेहिं मुसलेहि य । |
गया संभग्गगत्ते हिं, पत्तं दुक्खं अणंतसो ॥ ६१॥ |
खुरेहि तिक्खधाराहिं, छुरियाहिं कप्पणीहि य ।
कष्पिञ्मो फालिओ चिनो, उकित्तो अअशणगसो। ६२। ,
पासेहिं कूडजालेहिं, मिश्लो वा अवसो अहं । |
वाहिओ बद्धरुद्रो अ, विवसो चव विवाइओ ॥ ६३ ॥ |
गलेहिं मगरजालेहिं, वच्छो वा अवसो अहं । |
उल्लिजर फालिओं गहिओ, मारिओं अ अणंतसो । ६४ |
विदंसएहिं जालेहिं, लिप्पाहिं सठणो विव ।
गहिओ लग्गो अ बद्धो अ, मारिओ अ अणंतसो ॥६५॥
कुहाडपरसुमाईहिं, वड दुमो विव । |
कुट्टिओ फालिओ चिनो, तच्छ्रो अ अणेतसो ॥६६॥
चवेडमुट्टिमाइहिं, कुमारेहि अयं पिव | |
ताडेओ कुट्टिओ भिन्नो, चुध्चिओं अ अणंतसो ॥६७॥
तत्ता३ तबलोहाई, तठऊआईं सौसगाणि य ।
पाइआ कलकलताई, आरसंतो सुभरव ॥ ६८ ॥
तुहृष्पियाई मसाई, खडाई सुन्नगाणि य ।
! जै मि सर्मसाई, ्रग्गिवष्प ईऽशगसो ॥ && ॥
७५
॥ भ,
तुह पया सुरा साहू मरआ अ महूण ये |
पाज्ओआओ में जलतीओआ, वसाआ। रु।हेराण य । ७० ||
निच्चं मीएण तत्थेणं , दृहिएणं वहिएण य ।
परमा दहसबद्धा, वेयणा वेइय[ मए ॥ ७ १ ॥
तिव्वचंडप्पगाढाओ, घोराओ अडइदुस्सहा ।
महब्भयाओं भीमाओ, नरएसु वेइया मए ॥ ७२॥
जारिसा माणुसे लोए, ताया दीसंति वेयणा ।
इत्तो अणंतगणिया, नरएसं दुक्खवेयणा ॥ ७३ ॥
सव्वभवेसु अस्साया, वेयणा वेइया मए ।
निमिसंतरमित्तं पि, ज साया नऽत्थि वेयणा ॥ ७४ ॥
सूत्ाण्येकरत्रिशत् प्रतीतान्यव । नवरम् , तद्--अनन्तरो
क्रम् , ( विति ) ब्र॒ुवन्तों-अभिद्घतो, अम्बापितरों, प्रकमा-
न्खृगापुत्र आह, यथा--पवमित्यादि, पठ्यत चसो वे
अम्मापियरो ! त्ति' स्पष्टमेव | नवरमिह अम्बापितरावित्या-
मन्त्रणपदं, पठन्ति च-[ तो चैत 5म्मापियरो त्ति] ( विति
त्ति ) वचनव्यत्ययात् ततो वरते अम्बापितरों खगापुत्र इति
प्रक्रमः, ( एवमिति ) यथोक्त भवद्भ्याम् , तथा-' एतत् '
प्रव॒ज्यादुष्करत्वे--यथा स्फुटम् सत्यतामनतिक्रान्तमवित-
थमिति यावत्, तथाऽपि इहलोके निप्पिपासस्य-निःस्पृ-
दस्य, इहलोकशब्देन च “ तात्स्थ्यात्तद्यपदेश ` इति
| . रत्वा पेदलौकिकाः स्वजनधनसम्बन्धादयो ग्रह्मयन्त ना-
स्ति-न विद्यते , किञ्चित् अअतिकष्टमपि शुभालुष्टानमि-
ति गम्यत | अपिः-सभावने, दुष्करम्-द्रलृष्ठेयम् , मोगा-
विस्पृह्ययावेवास्य दुष्करत्वादिति भावः । निःस्पृहताहे-
तुमाह-शारीरेत्यादिना , तत्राप्याद्यसत्रद्ययन सामान्यन
ससारस्य दुःखरूपःवयुक्रम् , इह च शरीरमानसयोभवा
शारीरमानस्यो वदनाः प्रस्तावादंसातरूपाः, [ दुक्खभयाण्
यत्ति] दुःखोत्पादकानि राजविड्वरादिजनितानि, ( भ-
यानि ) दुःखभयानि, जरामरणाभ्यामतिगहनतया कान्तारं
जरामरणकान्तरं तास्मिश्वत्वारो-देवादिभवा अन्ता-श्रव-
यवा यस्यासो चतरन्तः-ससारः, त्र सोढानि तदुत्थवदना-
सहनेनानुभूतानि, भीमानि-अतिदुःखजनकत्वेन रोद्राण
शारीरमानस्यो वेदना यत्रोत्कृष्टाः साढा यथत्यादिभिः सत्र,
तदाह-यथा-इह मनुष्यलोकरेऽश्चिरुष्णो ऽनुभूयत शअतः--
इत्येवमनुभूयमानादनन्तगुणः, (ताहि ति) तषु , येष्वहमुत्पन्न
इति भावः, तत्र च वादराञ्चेरभावा्पृथिव्या एव तथावि-
धः स्पशौ इति गम्यते , ततश्चोष्णाजुभवात्मकलत्वन , , असा-
तः-दुःखरूपा, वेदिता मया । पठन्ति च-( इत्तो $रतगुणा तर्द
ति) अत्रच श्रतः-इहत्याग्नरनन्तगुणा नरकेषूष्णा वेदना
वेदिता मयेति योज्यम ॥ तथा इदम्-यदनुभूयते , , इह-मनु-
प्यलोके शीतम्-तच्च माघ्रादिसेभवं हिमकणानुषक्रमात्य-
न्तिकं परिगृह्यत, इदप पठन्ति-' एतो 5णंतगुणा तर्हिं ति '
प्राग्वत् । (कंदुकुम्भाख) पाकभाजनविशषासखु लोदादिमयीषु,
हुताशने श्रग्नो देवमायारछृते, महादव ग्निना सकाशः-सद-
शः, अतिदाहकतया महादवाग्निसद्भाशस्तास्मिन , इह चान्य
स्य दाहकरस्यासेभवादित्थमुपमाभिधानम् . अन्यश्रहन्याग्न
रनन्तगण पव तत्रोष्णप्राथिव्यनभाव उक्रः । मरो इति-
( ९६६ )
मियापुत्त
अभिधानराजन्द्रः |
मिथापुत्त
मरुवालुकानिवह इव, तात्स्थ्यात्तद्यपदेशसभवादन्तभूते वा-
थत्वाच्चात पव वजद्भनवालुकानदी सम्बन्धिपुलिनमपिं वज्वा-
लुकाः तजर, यद्वा-वज्नवद्धालुका यस्मिन् स तथा तस्मिन्नरकम-
देश इति गम्यते, कदम्बवालुकायां च-तथेव कदम्बवालुका-
नदीपुलिने च महादवाश्चिसङ्गाश इति योज्यते । ऊद्धेम-उप-
रि वृक्तशाखादों वद्धः-- नियन्त्रित, माऽयमितोा नङ्खीदिय-
बान्धव इति च तत्राशरणतामाह, करपत्रम् प्रतीतम् । ऋक
मपि तद्विशिष एव, ( खदिय ति ) खिन्नम् खदः, क्रेशा 5नुभू- |
तः, क्षिपितं वा पापमिति गम्यत, (कट्टोकट्टांह ति)कर्षणा-
~प (०, [>
पकर्षणः परमार्धामिककृतेः, दुष्करम् इति- दुस्सहम् । ( उ
च्छव त्ति) वाशब्दः उपमाथ,तत इक्तुरिव, आरसन-आक- |
न्दन् , खकमंमिः--हिंसायुपार्जितेः ज्ञानावरणादिभिः, पाप-
क्ममा-पापानुष्ठानः । (कृवेतो क्ति)कृजन् , ( कोलसुण्हि ति)
सूकरस्वरूपधारिभिः श्यामेः शवलेश्च परमाधार्मिकविशषे
पातितो भुवि, फाटिता जीणंवस्त्रवत् , चिन्नो वृच्तवदुभय-
दृष्टादिभिरितिगम्यते । विस्फुरन-इतस्ततश्वलन् ( श्र सां
ति ] प्रहरणविशेषेः, पठ्यत च-( असीहि ति ] श्रसिभिः-
खद्ेः, श्रत एव--[ अतसीति ] अ्रतसीषपुष्पम् , तद्धणीमिः-
कृष्णाभिः, पटििशेश्च-प्रहरणविशषेः, छिम्नः-द्वधिधाकृतः, भि-
ज्रः- विदारितः, विभिन्नः-सृदमखराडीकतः । यद्धा-छिल्नः-
उध्वम् ,भिन्नः-तियेग ,विभिश्नः-विविधप्रकारेरू्वम् , तिक् |
च । अवतीरों-नरक इति गम्यते । पापकर्मणति देतुदशेनं पा-
पायुष्ठानपरिदाथताख्यापना्थम् । लोहरेधे--लोहमयशकरे,
[ जुत्तो छि ] युजेरन्तभावितरयथत्वाच्ाजितः परमाधा-
मिकेरिति सयत्र गम्यते । ज्वलति--दीप्यमान कदाचिदाद-
भीत्या ततो नश्येदपीत्याह--समिलोपलक्षितं युगं यस्मिन् |
स तथा, तत्र समिलायुत वा, पाठान्तरतश्च-ज्वलत्समिलायु- |
ग, (चोइओ त्ति) प्रेरितः तोत्रयोक्चैः-प्राजनकवन्धनविशे-
चेम मौ घड़नादननाभ्यामिति गम्यते, ` रोज्कः--पशुविशेष
वा समुच्चये भिन्नक्रमः, यथा--श्रोपम्य, ततो रोञभव-
त्पातितो वा लकुटादिपिट्टननेति गम्यते, हुताशने ज्वलति-
क्वत्याह-चितासु-परमाधार्भिकनिमितेन्धनसञयरूपाखु
[महिसो विव त्ति] “पिव मिव विव वा इवाथ दाति वचनात्,
महिष इव, दग्धः- भस्मसात्कृतः, पक्वः-भटित्रीकृतः, [ पा- |
वितो त्ति ] पापमस्यास्तीति भूष्ि मत्वर्थीयष्ठक, पापिकः । |
बलात्-ह खात् , स्दशः-प्रतातः , तदाकृतान तुण्डान
मुखानि येषां ते सदेशतुरडास्तः , तथा--लाहवन्निष्टु- |
रतया तुरडानि येषां ते तेर्लोहतुरंडः [ पक्खिहि ति ]
पल्िभिदङ्गृदधेरिति योगः, प्त च वैक्रिया पव,
तत्र तिरश्चामभावात् , विलुप्तः--विविध चिन्नः, तस्य चेवं
कथ्यमानस्य वडःपत्तौ का वार्त्तत्याह-ठ्ष्णया क्लान्तो
ग्लानिमुपगतस्तृष्णाक्लान्तः , [ पाहेतीति ] पास्यामीति
चिन्तयन् , [ खुरधाराहि ति | क्षुरधाराभिरतिच्छेदकतया
वैतरणी जलोर्मिभिरिति शषः, विपाटितः, पाठान्तरतश्च "वि-
पादितः' व्यापादित इत्यथः, उष्णन-वज्ञवालुकादिसम्बन्धि- |
ना तापेन,श्राभि-श्राभिमुख्यन तप्त उष्णाभितप्तः, सेप्राप्तःअ
सयः-सख डगाः, तद्धदकतया पत्राणि पर्णानि यस्मिस्तदासि-
पत्रम। मुद्दरादिभिः--आयुधविशेषेः, गता-नष्टा, आशा-प-
रिजत्राणगाचरमनोरथात्मिका यत्र॒ तद्गता्श यथा भवत्ये-
वम् , [ भग्गगत्तेटि ति ] भग्नगातजेण सता प्राप्त दुः्खाम्ति- |
|
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ति यागः, कल्पितः वस्मवत् खाण्डितः कल्पनीभः, पाटि-
-द्विधाशृतः,ऊध्व छरिकामिः, छिन्नः-खणिडतः छुरारिति ।
पश्चानुपृठवया सम्बन्धः, इत्थे च-( उक्ता य त्ति) उत्कान्त-
श्वायुःक्षय मसतश्रेत्यर्थः, पाठान्तरतो वोत्कृतः त्वगपनयनेन
प्रत्यकं वा चुरादिभिः काल्पितादीनां सम्बन्धः । पारेः-कू-
टजालेः प्रतीतेरेव बन्धनविशेषैः, अवशः-परवशः, वाहितः-
विग्रलन्धः, पठ्यते च-( गदितो त्ति ) गृहीता बद्धा बन्ध-
नेन रुद्धो बहिःप्रचारनिषेधनन , श्रनयोर्विशेषणसमासः
(विवादइतो त्ति) विपादितो विनाशित इत्यथः, तथा-गलैः-
बडिशः, मकरैः-मकराकारानुकारिभिः, परमाधार्मिकेः, जा-
लैश्च तद्विरचितेर्विक्रियैः, अनयोद्धन्द्रः-समूहवाची वा जाल-
शब्दः, तत्पुरुषश्च समासः । तथा-( उल्लिड त्ति ) श्राषैत्वाद्
उल्लिखिता गलैः, पारितो मकरेगरंदीतश्च जालेः | यद्वा-ग्ररी-
तोऽपि मकरजालैरेव, मारितश्च सर्वैरपि, विशेषण दशन्तीं
विदेशकाः श्यनादयस्तेजालैः-तथाविधवन्धनेः [लेप्पादि ति]
लपेवेज्जलेपादिभिः च्छेषद्रव्यैः [ सउणो विव त्ति ] शकुन इव
पक्तीव गृहीतो विदंशकेर्जालेश्व लस्नश्च, ज्छिष्टो-लेपद्रव्ये
बद्धः तेजौलेश्च, मारितश्च सर्वैरपि, कुट्टितः--सूच्मख-
ण्डीकृतः पाटितश्छिन्नश्व प्राग्वत् , तत्तितञ्च त्वगपनय-
नतो द्रम इवेति सर्वज्योज्यम् । [ चवेडमुद्टिमाईदि ति |]
चपटामुषादिभिः, प्रतीतैरेव, कुमारैः अयस्कारेः [ श्रये-
पिवत्ति] श्रय इव धनादिभिरिति गम्यते । ताडितः
श्राहतः, कुट्टितः इह छिन्नः, भिन्नः खरडीकृतः, चूर्णितः
ऋणचणीरूतः,पक्रमात्परमाधार्भिकेः, तप्तताप्रादीनि वेक्रियाणि
पृथिव्यनुभावभूतानि वा[कलकलंत त्ति])अतिकाथतः कलक-
लशब्दं कुर्वन्ति । तव प्रियाणि मांसानि खण्डरूपाणि (सोज्न-
गाणि त्ति ) भडित्रीकृतानि स्मारयित्वति शषः । स्वमांसानि
मच्छुरीरादेवोत्त्योत्कृत्य दौकितानि, श्द्निवर्णानि-श्रतित-
प्ततया5झिच्छायानि, खुरादीनि-मद्यविशेषरूपाणि, इहापि
स्मारयित्वेति शेषः [ पलितो मि त्त ] पायितो ऽस्मि [ जले-
तीश्रो त्ति ] ज्वलन्तीरिव ज्वलन्तीरव्युष्णतया, वशा रुधि-
राणि च, ज्वलन्तीति लिङ्कविपरिखामेन सम्बन्धनीयम् ।
[ शि्चमित्यादि ] नरकवक्तव्यतोपसेहतैसूत्रत्रयम् , श्र्रच
भीतन उत्पन्नसाध्वसेन, तथा असी उद्वेग , अस्तेन उग्ञ्च-
नात एव दुःखितेन, संजातविविधदुःखन , व्यथितन च
कम्पमानसकलाङ्गोपाङ्गतया चलितेन, दुःखसंबद्धेति वेदना-
विशेषणे सुखसरम्बन्धिन्या अपि वेदनायाः सम्भवाद् , वेदिते
ति चानुभूता, तीवा श्ननुभागतोऽत एव चरडाः-उत्कटाः प्र-
गाढाः-गुरुस्थितिकास्तत एव घोराः-रोद्राः अतिदुस्सहाः
श्रत्यन्तदुरध्यासास्तत एव च महद् भयं यकाभ्यस्ता महा-
भयाः । पठथते च--महालयाः महद्यः, भीमाः-श्रूयमाया
अपि भयप्रदाः, एकार्थिकानि वैतान्यत्यन्तभयोात्पादनायो
क्तानि, इह च वेदना इति प्रक्रमः ॥ कथं पुनस्तस्यास्तीवादि-
रूपत्वमित्याशङ्कशथ ` जारिसे ` त्यादिना इहत्यवेदनापेक्षया
नरकवुःखवेदनाया श्रनन्तगुणत्वमाह, [ वेयण॒ त्ति ] भक्रमाद्
दुःखवदना । न केवले नरक पव दुःखवेदना मयाः नुभूता
किन्तु-सवीस्वपि गतिष्विति पुनर्निगमनद्वारेणाद-* सव्वे '
व्यादिना, इह च श्रसाताः-दुःखरूपा, निमेषः-अक्षिनिमी ल-
नम् तस्यान्तरं व्यवधाने यावता कालनासो भूत्वा पुनभेवति
तन्मात्रमगि--तत्परिमाणमपि कालमिति शेषः [ यद् इति ]
=. ॐ = \ ज
~ का
"तै न्य
= ~
। (२६६ )
मियापुत्त
अलिधानराजस्ट्र! ।
मियापृत्त
यस्मात्, साता खुखरूपा नास्ति वेदना, तत्त्वतो बेषायिकखु- |
खमसुखमेव, ईष्याद्यनकदुःखानुविद्धत्वाद्धिपाकदारुणत्वाच्च । |
सर्वेस्य चास्य प्रकरणस्यायमाशयः-य पएवमहे निमेषान्तर- |
मामपि काले न सुखं लज्धवान् स कथे तस्वतः खुखोचितः |
सुकुमारो वेति शक्यते वक्कुम?,येन च नरकेष्वत्युष्णशीतादयो
महावेदना अनेकशः सोढास्तस्य महावबतपालनं चुदादिस-
इने वा कथमिव वाधाविधाये ?, तस्वतस्तस्य परमानन्दहे- |
सुत्बस्.तत्प्रचज्येच मया प्रतिपत्तव्येत्येकर्तिशत्सूत्रावयवाथः । |
तब्नेवमुकत्वा परते-
तं बिंत5म्मापियरो, दे णं पुत्त पव्बया ।
नवरं पुण साम्ये, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ ७५ ॥
तम्-खगापुत्र ब्रतो ऽम्बापितरो, छन्दः--श्रभिप्रायस्तेन स्व- |
कीयेनेति गम्यत, किमुक्त भवति ?--यथा.ऽभिरुचितं पुत्र | |
अवज--प्रवजितो भव, ` नवरम् ` इति--कक्लम् , पुनः विश-
खरे, श्रामर्य-श्रमणभावे, दुःखम्-दुःखहेतुः , निष्प्रातिकर्मता |
कथञ्चिद्रोगोतपत्तौ चिकित्साऽकरणरूपा इति सुत्रार्थः । |
इत्थं जनकाभ्यामुक्के--
सो बितऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं ।
परिकम्मं को कुई, अर्य मिगपाक्खिणं १।७६॥ |
एगभूओ अरस वा, जहा ऊ चरई मिगो ।
एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥ ७७ ॥
जया मिगस्स आर्यको, महारणएणंमि जायई।
अच्छं रुक्समूलंमि, को णं ताहे चिगिच्छई १ ॥ ७८ ॥
को वा से ओसहं देइ, को वा से पुच्छहं सुहं ।
को से भत्त व पाणं वा, आहरित्तु पणामई १॥ ७६ ॥
जया य से सही होड, तया गच्छह गोअर | |
अत्तपाणस्स अट्टाए, वन्नराणि सराणि य ॥ ८० ॥
खाइता पाणियं पाउं, वन्नरेहिं सरेहि य |
मिगचारियं चरित्ता णं, गच्छई मिगचारियं ॥ ८१ ॥
एवं समुद्ठटिए भिक्खू , एवमेव अशेगए |
मिगचारियं चरित्ता शं, उड़ूं पकमई दिसं ॥ ८२ ॥
जहा मिए एग अणेगचारी,
अशेगवासे धुवगोअरे अ ' |
एवं मणी गोयरियं पिद,
नो हीलए नो विय खिंसइजा ॥ ८२ ॥
स इति-- युवराजः, ( विति त्ति ) श्राषत्वाद् ब्रूत श्रस्वा- |
पितरौ , यथेतन्निष्प्रतिकमैतया दु-खरूपत्वं युवाभ्यासुक्तं
यथा स्फुटामिति पाग्धत् , परं परिभाग्यतामिदम्-परिक-
भ-रोगोत्पत्तो चिकित्सारूपं, कः करोति ?, न कथ्िदि-
स्यथः, क्र ?--अरराये, केषां ?, सखगपक्तिणाम , श्रथ चेते.5-
पि जीवन्ति विचरन्ति च , ततः किमस्या दुःखरूपत्व-
~ ० ॐ ष एगन्या= ^ [९
| रः भावः, यतश्चवसतः-- द ` सवं स्पष्टमव ।
नघरम् , पकभूतः--एकत्वे प्राप्तो5र०णये (वेति) बा पूरणे,
क. वा ५ न
(जहाडउ सि ) यथेव , पवामति-प्कभूतः , सयमन--
तपसा चेति , धर्मचरणदेतुः । यदा--श्रातङ्कः-श्राशुघाती
रोगो, मद्दारणय इति-महाग्रहणममहांति हारण्येडपि क-
ख्वित्कदाचित्पश्येत् , दष्टा च कृपातश्चिकित्सदपि , शयते
हि-केनचिद्धिषजा व्याघ्रस्य चक्षुरुद्धांटितमटव्यामांते ,
वत्तमूल इति-तथाविधावासाभावदश्शनम् , (कोणे ति)
सवा सन्धिलोपो वहुलम् ` इति वचनाद् अजलापे, क पनम्
तदा-श्रातङ्कात्प्तिकाल , चिकित्सति--ऑपषधायदयुपदशन
नीरोग कुरुत ? न कश्चिदित्यर्थ: , चिकित्सक चासति
को वेति-वाशब्दः समुद्य , श्रोषधे ददातीवयवमुत्तरो-
त्तराप्राप्तिर्पद्शनीया ॥ ( श्राहरित्त ति ) श्राहत्य , पणा- -
मयेत--अपेयत् “ श्रपेः पणामः ” इति वचनात् ॥
कथं तरिं तस्य नि्चहणम् ? , इत्याह-यदा स सुखी
भवति , खत पव रोगाभाव इति गम्यते , गच्छु-
ति-याति गौरिब परिचितेतरभूभागपरिभावनारदित-
त्वेन , चरणम्-श्रमणमस्मिक्षिति गोचरस्ते भक्कमिव-
भक्त तद्धच्यम् तणादि , तञ्च पाने च भक्कपानं, तस्य श्र-
शौय प्रयोजनाय , गोचरमेव वशेषत रह-बल्लरारसि-
गहनानि , उक्र च--“ गदणमवाणियदेस ररणे छेक्त च
वल्ल जाण ” सरांसि च-जलस्थानानि, खादित्वा निजम-
दथमिति गम्यते, वल्लरेषु सरःखु वेति खुब्व्यत्ययेन नेयम् ,
तथा सृगाणां चयौ -दइतश्चतश्ोत्प्लवनात्मकम् चर म-
गचयौ ताम् , मितचारितां वा परिमितभक्तणात्मिकाम् ,
चरित्वा-श्रासेव्य, परिमिताहारा एव दवि स्वरूपेशेव गगा
भवन्ति , विशषाभिधायित्वाच्च न पोनरुक्त्यम् , ततश्च
गच्छुति--याति , खगाणां चयौ-चश् , स्वातन््योपवे-
शनददिका यस्यां सा मृग्चर्या- स॒गाश्रयभूस्ताम् । श्रनेन
च सूत्रपञ्चकेन दृष्टान्त उक्कः , उत्तरेण सूत्रद्ययनात्मन्येतदु-
पसेहारः , इह च- ˆ पव › मिति झुगवत्समुत्थितः-संयमा-
नुष्ठानम् भत्युद्यतस्तथाविधा + ऽतङ्कोत्पत्तावपि न कश्चित्
चिकित्साऽभिमुख इति भावः । एवमेव-खरगवदेव , ( श्र-
शेगय त्ति ) अनेकगो यथा हासों वृत्तमूल नैकस्मिन्नेवा-
स्ते-किं तु-कदाचित्कचिदेवमघो ऽप्यनियतस्थानस्थतया
पठ्यते च-[ अशिएयण त्ति | अनिकेतनः , श्रगृहः , स
चैवं मृगचर्या चरित्वा खृगवदातङ्काभावे भक्कपानार्थ गोचरं
गत्वा तज्लन्धभक्कपानापष्टभ्भतश्च विशिष्टसम्यगाज्ञानादिभा-
वतः , शुङ्कध्यानारादणादपगताशेषकर्माश ऊध्व दिश-'
मिति सम्बन्धः । प्रकषण ऋामति-गच्छुति प्रक्रामति ,
किमुक्तं भवति ?- सर्वोपरि स्थानरस्थितो भवति , नि-
यत इति यावत् , एवं च निर्वेतिरेवेह मसगच-
यॉपमाथत उक्ता , तत्र हि शृगापमा मुनय इत इत-
अाप्रतिबद्धविहारितया विहा्त्य गच्छन्तीति ॥ मगच-
यामेव स्पष्रयतुमाद-यथा मगः ( एग त्ति ) पकः-श्र-
दवितीयः, श्रनकचारी-नैकत्रैव भक्रपानाथ चरतीव्यव
शीलः, अनेकवासः-नेकत्र वासः--श्रवस्थानमस्यास्तीति
भ्रवगाचरश्च--सवदा गोचरलब्धमंवाहारमादहारयताति ,
एवम मरगवदेकल्वादिविशेषरणविशिष्टो मुनिः, गोचयाम्-
भिक्तारनम् , प्रविष्टा न दीलयद्-श्रवजानीयात् , कदश-
नादीति गम्यते, नापि च ( खिसपञ् स्ति ] निन्देत्तथा-
विधाहाराप्राप्तों स्व परं वा इह च मगफक्षिणामुभये-
._. __ “ ! | # ।
( ३०० )
अशमिधानराजन्द्रः |
मियायुत्त
घामुपक्तप यन्म्रगस्यव पुनः पुनदृष्टान्तत्वन समथन त-
नतस्य प्रायः प्रशमप्रधानःवादात सम्प्रदाय शत सल्ला
काथः ।
एवं सरगचयौस्वरूपमुक्त्वा यत्तनाक्कं यच्च पित॒भ्यां
पित॒वचनानन्तर च यदसा कृतवांस्तदाह--
मिगचारिय चरिस्सामि, एव पुत्ता, जहासुह ।
अम्मापिऊाह ऽणु्पा अरा, जहाइ उव्र।ह त्रा ॥ ८४ ॥
मिगचारियं चरिस्सामो, सम्यदक्ख विमुक्ख शि ।
तुब्भहिं अम्ब ! 5णुण।ओं, गच्छ पुत्त | जहासुह ॥८५॥
एवं सोऽम्मापियरं, अणुमाणित्ताण बहुविह ।
ममत्त छिंदई ताह, महानागु व्व कंचुये ॥ ८६ ॥
इड़ी वित्तं च मित्त य, पुत्तदारं च नायओ।
रेणुअं व पड लग्ग, निदाणित्ताण निग्गओं ॥ ८७ ॥
गाथाचतुष्टयं स्पष्टमच । नवरम्, खगस्यव चयो-चण्टा, ।मर-
गचयौ तां निष्प्रातिकमेतादिरूपां चरिष्यामीति, बलश्चिया यु-
वराजनाक्र पितृभ्यामभाणि-एवं यथा भवतोऽभिरुचितं
तथा यथासखुख त<स्त्विति शषः, एवं चानुज्ञातः सन् जहा-
ति-त्यजति, उर्पाधम्-उपकर णमाभरणादि, द्रव्यताः भावतः
स्तु- दद्याद यनात्मा नरक उपधीयत, ततश्च प्रवजतीः्युक्कं
भवति | उक्कमवा ध सविस्तरमादह-{ सव्वदुक्खविमाकखणि )
सकलासातविमुक्गिहटतुम् ( तुव्भहि ति ) युवाभ्यामसम्ब !
उपलक्तणत्वात् पितश्च.च्रनुज्ञातः अनुमतः सन् ,तावादतुः--
गच्छ स्रगचययति प्रक्रमः,पुत्र ! यथासुखम्-खखानतिक्रमेण
श्रनुमन्य--अनुज्ञाप्य, ममत्वम्- प्रतिबन्धम्, छिनाक्ति--अप-
नयति, महानाग इव कड्छुकम , यथा<5सार्वातज़रठतया |
चिरध्ररूढमपि कज्चुकमपनयति, एवमसावपि ममत्वमनादि- |
भवाभ्यस्तमुपलक्षणत्वात् मायादीश्व ॥ अननान्तरोपाधलत्याग |
उक्तः, बहिरुपधित्यागसाह-ऋषख्धिम्--करितुरगादिसिम्पदम , |
वित्तम्-द्रव्यम्, (णायओ त्ति ) ज्ञातीन--सोदरादीन , (णि
दात्त त्ति ] नद्धयव नद्धय, त्यक्त्वात यावत् , नगतः-- |
निष्क्रान्ता ग्रहादिति गम्यत, प्रव्राज्ञतं इति याऽथः । इति |
सूत्रचतुष्टयाथः ।
एनमेवार्थ स्प्यितुमाद नियुक्तिकत्ू--
नाऊण निच्छयमई, एव करहि त्ति तहि सो भशणिओ |
धन्नोउसि तुमं पुत्ता !, जमि विरत्तों सुहसएसु ॥४१५॥
सीहत्ता निक्खमिउं, सीहत्ता चव विहरसु पत्ता [|
जह नवरि धम्मकामा, विरत्तकामा उ विहरंति ॥४१६॥
नाणेण दंसणेण य, चरित्ततवर्नियमर्सजमगुणेहिं ।
खंतीए मुत्तीए, होहि तुमं वड़माण। उ ॥ ४१७॥
संवेगजशिअहासो, मुक्खगमणवद्ध चिंधसन्नाहो |
अम्मापिऊण वयणं, सो पंजलिओ पडिच्छी य।॥४१८॥
गाथाचतुष्टय पार्ठसद्धमेव, नवरमाद्यगाथात्रयण एवे पुलश्न ! |
यथासुखम् इत्यतत्सूचितार्थाभिधानतों व्याख्यातम् , चतुर्थ-
गाथया त्ववशिष्टसूज भावाथौभिधानतः, खुखशनेभ्य हति |
वहुत्वापलक्षणं शतग्रहणम् , ( सीहत्ता इति ) | निः
ष्क्रम्य-प्रनज्य, सिहतयैव विहर पुत्र ! इति जात !, किमुक्क
भवति ?-यथा सिंहः खस्थानादिनिरपेक्त पव निष्कामति,
निष्कम्य च तथैव निरपेक्षदृत्या विहरति,ण्व त्वमपि विहरे-
ति,'नवरं' ति पर धर्म एव कामः--अभिलाणषों यषां त धर्म-
कामाः, 'विरत्तकामे' त्ति प्राग्वत् कामविरक्काः--विषयपरा-
ङ््मुखाः, 'चरित्रतपोनियमसयमगुण' रित्यत्र चारित्रान्तगत-
त्वे ऽपि तपःप्रभरतीनामुपदेशात्सामान्यविशषयोश्च कथञ्चि
द्धिन्नत्वाच्च न पोनरुक्तयम् , तथा संवेगो-मोत्ताभिलाषस्तेनं
जनितो दासो-मुखविकाशत्मको ऽस्यति सवेगजनितहाखः-
मुक््युपाया ऽयं दीक्षेत्युत्सवामिव तां मन्यमानः प्रहसितमृख
इत्यः, पठन्ति च-( संवेगजणियसद्धा त्ति ) स्प्मव,
तथा मोच्ता-मुक्किस्तद्वमनाय वद्धमिति- घतं चिह्न ध्म
ध्वजादि, तदेव सन्नाटा-दुवैचनशरग्रसरनिवारकः क्तान्त्या-
दिर्वा यन स तथा, ( पडिच्छीय स्ति ) प्रत्यषीत् , प्रति-
पन्नवानिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥
ततो5सो कीटक सश्चात इत्याह--
पंचमहव्वयजुत्तो, पंचसमिओ तिगुत्तिगत्तो अ ।
स््भितरबाहिरिए, तवोकम्संमि उज्जुओ ॥ ८८ ॥
निम्ममो निरहेकारो, निस्संगो चत्तगारवो !
समो अ सव्वभूएस, तससु थावरेस॒ आ॥ ८६ ॥
लाभालाभे सुहे दुक्च, जीविए मरणे तहा ।.
समो निंदापसंसास, तहा माणावमाणओ ॥ &० ॥
गारवेसु कसाएसु, दं डसल्लभएसु अ |
नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबंघणों ॥ ६१॥ `
अशणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अशिस्सिओ |
वासी चंद णकप्पो अ, असणेऽणसर तहा || ६२॥
अष्पसत्थहि ` दारेहिं, सब्बओ पिषहियासवो ।
अज्भप्पफाणजोगेहिं, पसत्थदमसासणो ॥ ६३ ॥
सृत्रषटू निगद सिद्धमेव । नवरम ( सब्भितरबाहिरिए ति)
सहा भ्यन्तरेः-प्रायश्चित्ता दि भिवां ही श्व-- श्रन शमा दि भिभेंदेरव-
त इति सबाह्याभ्यन्तरं तस्मिन् प्रधानत्वाच् प्रथममभ्यन्त-
रापादानम। 'निममाः-ममत्ववुद्धपरिदारतः निस्सङ्गः-सङ्ग-
हेतघनादित्यागतः , समश्च-न रागद्वषवाद्धिर्ममत्वादेरेद ॥ ला"
भेत्यादेना समत्वमेव प्रकारान्तरणाट, त्र च-'समः न ला-
भादों चित्तोत्करपभाग नाप्यलाभादों देन्यवान , जीवते मरणे
समा, नैकत्राप्याकाङन्ततावान् , [माणावमाणआओ जति] मानाप-
मानयोः.गौरवादीनि सूत्रे सुब्ब्यत्ययेन सप्तम्यन्ततया निर्दि
शाने पञ्चम्यन्ततया व्याख्येयानि , निद इति च सर्वत्र
सम्बन्धनीयम् , अबन्धनः-रागद्धेषबन्धनरहितः । अत
पव अनिश्चितः--इहलोके परलाके वाऽनिधथितो नेद लो-
कार्थ परलोकार्थ वा5नुछ्ठानबान् , ' णो इद लोगद्रुयाए तव-
मदिद्रूज्ञा नो परलोगद्रुयाए तबमहिद्वेज्ञा ' इत्याद्यागमात्।
पुनरनिश्चितासिधान च मन्दमतिविनयायेग्रहाथंमदुष्टमव
वासीचन्दनकट्प इत्यनन समःवमव विशषत आह, वासी-
चन्दनशब्दाभ्यां च तह्ध्यापारकपुरुषाउुपलक्षितों » ततश्च
| ह
|
मियापुत्त
याद किलेका वास्या तक्ष्णात, शनन्यश्च गाशाषादना च- |
न्दनेनालिम्पति , तथाऽपि रागद्वषाभावता द्वयोरपि तुरयः,
कल्पशब्दस्येह सदशपयोयत्वात् ` अनशने ` इति च न-
ऽभावे कुत्सायां वा, ततश्चाशनस्य--भाजनस्याभावे कु-
त्सिताश्चनभावे वा कट्पः, इह चेष्टता ऽधिकाराणां प्रवृत्ति-
रिति पूर्वत्र समस्तमाप कल्प इत्यनुवर्तते, अप्रशस्तेभ्यः-प्र-
शसा ऽनास्पदेभ्यः, द्वारेभ्य:--कर्मा पाजेनो पाये भ्यो हिंसादि-
भ्यः, सर्वेतः-सर्वेभ्यो य॒. आश्रवः-कर्मसलगनात्मकः स पि-
हितः-तद् द्वारस्थगनतो निरुद्धो येनासों पिहिताश्रवः,सापे-
च्स्यापि गमकत्वात् समासः, यद्वा-प्रशस्तभ्यों द्वारेभ्व: स
वेभ्यो निवर्त इति गम्यते, अत एव पिहिताश्रवः,केः पुनरय
मेवविधः ?-अध्यात्मेत्यात्मनि ध्यानयोगाः-शुभध्यानव्यापा-
रा अध्यात्मध्यानयोगास्तेः, अध्यात्मग्रहरं| तु परस्थानां ते-
घषामकिश्ित्करत्वाद् , अन्यथा 5तिप्रसड्भात् , प्रशस्तः-प्रशंसा
स्पदो , दमश्च
स श्रशस्तदमशासन इति सूत्रषट्रा थेः ।
सम्प्राति तत्फलोपद्र्शनायाह--
एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य ।
भावणाहिं विसुद्धाहिं, सम्मं भावित्तु अप्पयं ॥ ६४॥
बहुयाणि उ वासाशि , सामन्मणुपालिया ।
मासिएण उ भत्तेणं, सिद्धि पत्तो अणुत्तरं || ६५ ॥
सूत्रद्धयमुत्ताना थंमव, नवरम् , भावनाभिः--महावतसम्ब-
-उपशमः शासने च-सवेज्ञागमात्मकं यस्य
न्धिनीभिवेच्यमाणाभिरनिल्यत्वादिविषयाभिर्वा,विशद्धाभिः- |
निदानादिदोषपरटिताभिर्भावप्येत्वा-तन्मयतां नीत्वा ( अप्प-
थैति) श्रात्मानम् , ( मासीएण उ भत्तण ति) मासे भवं
मासिके तन, तुः पूरण , भक्रन-भाजनन मासापवासापल-
त्षकत्वादस्य मासोपरवासनात यावत् , , सिद्धिम-निष्ठिताथ
ताम् , सकलकर्मक्षयणाति गम्यत , अनुत्तराम-सकलसि-
दिप्रधानाम् , श्रननाञ्जनसिद्धश्चादि व्यवच्छेदमादहेति सृत्र-
इयाथः।
“डूट्टी” त्यादिसत्रकदम्बकस्य तात्पयां धमाद निर्युक्तिकत्--
इड़ीए निक््खंतो, काउं समणत्तणं परमध।रं ।
तत्थ गओ सो धीरो, जत्थ गया खीणसंसारा ॥४१६॥
खुगमेव नवरम् ,ऋद्ध्या-दीनाना थदानादिकया विभूत्या नि-
( ३०१ )
अआआभधानराजन्द्रः
मिला
ग्रप्पहाण च तेलाञ्मविस्सुत || 6७ ॥
वियाणिया दृक्खविवडणं धणं,
ममत्तवंधं च महाभयावहं ।
सदहावरहं धम्मधुरं अणुत्तरं,
धारेह निव्वाणगुणावहं मह.।॥ ६८ ॥ ति वेमि ॥
सूद्व य निगदालिद्धमव, नवरम्, सृगापुत्रस्य भापितं-स-
सारदुःखरूपतावेद्कं यनन पित्रोः पुरत उक्तम् , भवानं तपा
यत्र चरिते तत्प्रधानतपो, व्यत्यय निर्देशश्व प्राग्वत् , चरितं च-
चेष्रितम् [ गतिप्पहारं च इति ] परधानगाति च मुक्किमिति
योऽ्रः.तिलाकविश्रताम् जगत्त्रितयप्रतीताम्, अनेन च फल
लिप्सवो हि प्रत्तावन्तः प्रवर्तन्त इति काक्रा फलमाह । पत
जल्िशमनाच्च ममत्वं वन्ध इव सत्प्रवत्तिविध्रातितया ममत्व-
वन्धस्तं च, महाभयावहं तत एव चोरादिभ्यो महाभयावाप्रेः
धमां धूरिव महासच्वेरद्यमानतया धर्मधुरा-महावतपञ्का-
त्मिका तां, तथा निवौणगुणा-श्रनन्तज्ञानदशनवीयैखुखादय
स्तदावहां-तत्प्रापिकां घर्मघुराम् घारयतति सम्बन्धः । इ
च निर्वाणगुणावहत्वं खुखावहत्वे हेतुः [ महं ति ] अपरिभि-
तमादात्म्यतया महती, सूजत्वाच्चैवं निर्देश इति सूत्रद्धयार्थ: ।
इतिः 'परिसमाप्तो ब्रवीमीति पृचैवत् , उक्को5नुगमः । सम्प्रति
नयास्ते5पि ग्राग्वदेव । उत्त० १६ अ०।
| मियासण-सृगासन-न० । आसनभेदे, येघामधो सगा व्य-
वास्थिता भवान्ति । ज० १ वक्त० ।
मिताशन-त्रि० । मितभोक्करि, दश० ८ अ०। -
मिरिश्रा-देशी-कुस्याम् , दे० ना० ६ वरे १३२ गाथा ।
मिरिय-मरिच- पुं० । इः खभ्रादो ॥८।१।४६॥ इत्यादेरस्येतत्वम् ,
प्रा० । स्वनामख्याते वृत्ते, वाच० | आचा० २ श्रु० १ छू० १
अ० ८ उ०।
। मिलक्खु-म्लेच्छू-पुं० । अव्यक्लमाषासमाचारेघु, ‹ म्लेच्छ '
च्करान्तः सन् परमधघारम्-कातरजनातिशय दुर नुचरःयत्र गताः |
क्षीणससारा इति मोत्त इत्यभिप्राय इति गाथाऽवयवार्थः।
साम्परत सकलाध्ययनार्थो पसंटारद्वारेणोपदि शन्नाह सूत्रकतत्-
एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा ।
विशियईति भगस, मियापुत्ते जहामिनि ॥ ६६ ॥
व्याख्यातभ्रायमेव, संगता प्रज्ञा येषां ते संप्रज्ञाः, सेपन्ना वा
ज्ञानादिभिः; ( जहामिसि त्ति ) मकारो 5लाक्षाणिको यथव्या-
पम्याभिधायी, ऋषिः-मुनिः इति सूत्रावयवार्थः ।
इत्थमन्याोक्त्यापादश्य पुनभङ्गयन्तरणापादशन्नाह्
महप्पभावस्स मटाजसस्स,
मियाइपुत्तस्स निसम्म भासियं ।
तवष्यदाणं चरिग च उत्तम,
ब्लड
अव्यक्लायां वाचि इति वचनात् । भाषाग्रदणे चोपलक्षणम् ,
तन शिश्टासंमतसकलबव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यम् ।
परज्ञा० १ पद् | सुत्र० । श्रार्यदेशोत्पन्नाङ्कस्यानुवादको 5परिज्ञा-
तशब्दाथों म्लेच्छः । उक्लं च--
“ मिलक्खु श्रमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए ।
ख देड ख वियाणाइ, भासियं वाणुभासए ॥ १॥
एवमन्नाशिया नाणे, वयेता भासियं सयं ।
निच्छयत्थ न जार, मिलक्खु व्व श्रवाहिप ॥ २॥ ”
ने° । [ ववैरशवरपुलिन्दादिकाः ' श्रणारिय ' शब्दे पथमभा-
श् २९६ पृष उक्ताः |
[क (+ == म्लच्छ् [> -- - ४
मिलक्खुमासाविसारय-स्लच्छभाषावेशारद-9० | अनाय-
भाषानिपुणे, आ० चू० १ अ० ।
पिला - म्ले -धा० | हपक्षये, स्वरादनतो वा ॥ ८। ४। २४०॥
| िििमे्ज&&£&&&&ःषःः
अकतारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातो रन्ते 5कारागमो वा भवति।
मम मलाअइ । स्लायातं । ध्रा० | म्लचा-पत्वाया ॥८।४
१८ ॥ म्लायतः वा-पव्वाय इत्यादशा वा मवतः । पत्तवा-
|| पत्यायई । प्रा०।
(५२९)
9
मिलाण
मिलाण-म्लान-त्रि० । म्लानियुङ्ग, बाच । लात् ॥ ८ । २।
१०६ ॥ सयक्कस्यान्त्यव्य ज्जनाल्लात्पृव इद्धवति । मिलाद | मि-
लाणे । प्रा० । “ पव्वायं वखुआय, स्ाखिश्र वायं मिलाणत्थे”
पाइ० ना० ८३ गाथा ।
|
मिलायमाण-म्लायमान-त्रि० । म्लान गच्छति , स्था० ३ |
ठा० ३ उ० ।
मिलिच्छ-स्लेच्छ पुण । हस्वः संयोग ॥ ८। १ । ८७ ॥ दीर्ध
स्य यथादशनं सयागे पर हस्वा भवति । मिलिच्छे श्रना-
य, प्रा० ६ पाद ।
मिलिय-मिलित-त्रि० | सहित, स्था० १० ठा० । व्य० | समु- |
दिते, विश० । विभक्के, व्य० ६ उ० । अ्नकशासखसंबन्धीनि
सृव्रारयकत्र मीलयित्वा यत्र पटति तन्मिलितमसदशधान्य-
मलकवद् । अथवा--परावतंमानस्य यत्र पदादिविच्छेदा न
श्रतीयत तन्मिलितम् । अनु० | आ० म०।
मि श्रव्य० । इवशब्दार्थ, मिव पिव विव व्व विच्च इवा-
थवा॥८।२।६८२॥ प्त इवार्थ अव्ययसंज्ञकाः प्राऊृते वा
पत्युज्यन्त । कुमु मच । पा० १ पाद।
मिस-मिष्-न० । चुल, “ छुले अवएसो निहं च मिसे" पाइ०
ना० १४२ गाथा ।
मिसमिसंत-मिसमिसत् चरि०। चिकचिकायमाने,ओऔ० । देदी
'्यमाने, कल्प० १ अधि०
तल्मिसामसन्कामिकम् । ते० ।
मिसमिसीमाण-त्रि० । देदीप्यमाने, ज्ञा० १ श्रु० १ आ० | क्रो- |
धारर्निना दीप्यमान, भ० ७ श० ६ उ५ । क्राधज्वालया ज्व-
लिते, नि० १ श्रु० १ बर्ग १ आ० | विपा०।
मिस्स्-मिश्र -धा० । सयोजने, मिश्रर्वीसाल-मलवो ॥ ८। ४।
२८॥ मिश्रयतर्यन्तस्य वीसाल-मेलवों आदेशो वा भवतः।
चीसालइ । मेलवइ । मिस्सइ | प्रा० ४ पाद् ।
मिश्र न । संभागोत्पन्न पक्षकदेमादिके गन्धकस्तृयादिके,
ते० । सम्यगमिथ्यारष्िगुणस्थाने, प्रव० २२४ द्वार । सयुक्त,
'उक्त० १ आ० |
मिस्सकहा-मिश्रकथा- खी । सकी शपुरूपा्थ ऽभिधायके वि-
कथामभदे, द्वा० ।
(९८४ ध =
चमाथकामा: कथ्यन्त, सत्र काव्य च यत्र सा |
मिश्राख्या विकथा तु स्याद् ,भक्त््रीदेशरादगता।।२०॥
( धर्मति )यब्र सत्र काव्य च धर्माथकामा मिलिताः कथ्य-
न्त, सा पमश्रख्याक्थधा सकरी पुरुषाधाभिधानात् । वक्र
था कथालत्तणाकरादता तु स्याद् । भक्कखराद्शराड्गता भक्का- |
दिविषया । यदाह--' इत्थिकहा भत्तकहा, रायकहा चार-
जणबयकहा य ॥ न उनट् जज्ञमुद्धिय, कटा उ एसा भव विक- |
दा ॥१॥'' द्वा० ६ द्वा०।
साप्रत मिथ्रकथामाह --
धम्मो अत्थी कामो,उवहस्सइ जत्थ सुत्तकव्येसुं ।
लोगे बण समए, सा उ
१ क्षण | रा० | औ० | ते० । | आ० |
म० । ज्ञा० । मिसामसीति मिलन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र |
। भिहिआ-देशी-मेघसमूद्द ?
| मिहिया-मिहिका-स्त्री० । प्रालेये , स्था० १० ठा०। शिशिरा-
| मिदिला-मिथिला-खी० । विदेहजनपद्प्रतिबद्धे पुरीभेदे + |
कटा मीसियाणाम || २०६ ॥ |
धर्मः-प्रच॒त्यादिरूपः, श्र्थो--विद्यादिः, कामः-इच्छा म {
नादिः. उपदिश्यते-कथ्यते, यत्र सृत्रकाव्यषु-सत्रषु काव्य!
च--तल्लक्तणवत् ख, कत्याद--लाक-रामायणादिषु, के
यक्ञक्रियादिषु , , समये--तरज्ञवत्यादिषु सा पुनः कथा
मिश्रा-मिश्रानाम,सकीरषुरुषार्थाभिधानाद्। इति गाथार्थः
दश० २ अ०।
मिस्सकेसी - मिश्रकेशी -खी० ० श्रौत्तराटरुचकपवेतवास्तब्या।
यां दिकुमायाम् , , आ० चू० १ अ० । द्वी० । ज०।
मिस्सवल्ली- मिश्रवल्ली- खी । जनकसवन्ध्यादिषु, व्य० |
सप्रति मिश्रवज्ञीप्रतिपादना थैमाह-
माउम्माया पिया भाया, भगिणी एवं पिऊण वि।
पुत्तो धूया य तहा, भाउयमादी चठण॒हं पि ॥ १३६॥
अद्वेव पज्जयायं, चउवीसं भाउभगिणिसदियाणि । `
एवं इचिय माउल- सुयाद ओओ परयरा वल्ली ॥ १३७॥
मातुश्राता्पितारश्रातारेभगिनीऽच,एवे पितुरपि चत्व
वक्तव्यानि। तद्यथा-माता पिता राता भगिनी च । आ
चतुणा प्रयकं दवौ दवौ द्रष्टव्यौ । तद्यथा-पुत्रो, दुहिता च । राह
पुत्रो दुहिता, भगिन्या अपि पुत्रो दुहिता च, अष्टौ च
काणि श्रातृभागिनीसदितानि । तद्यथा-मातामद्या श्रपि-माते
पिता भ्राता भगिनी । पितामहस्यापि माता पिता भ्राता भ
गिनी । स्व॑सख्यया मिश्रकाणां चतुर्विंशतिः १
अष्टो प्रायेकाणि, श्रघ्रौ च च माल्रादिचतुश्यस्य प्रत्यक द्वधिधा-
भवनाद् । तथा च-एतावत्येब मिश्रवज्ञी । मातुलखुतादय/
परतरा वल्ली । ते च मातुलखुतादयो यदि तमपि |
तदा स लभत.शअरथाचार्यमभिधारयन्ति तदा आचौयस्य | ये
पुनः परतर स्वजना ये चान्ये ते सर्वेऽनभिधार्यतो
श्राचार्यस्य वा भवन्ति । व्य० १० उ० ।
मिस्सी भाव मिश्री भाव-पुँ० । गृटस्थपरिवाजकादीनां सह
वसतो , आचा० २ श्रु ६ चू० १ अ० ३ उ० । द्रव्यतो लिङ्ग
मात्रसद्धावाद् , भावतो गृह स्थसमकल्पत्वात् | सूल १ श्रुण
४ ० १ उ०।
॥।
दे० ना० ६ वम १३२ गाथा। ` |
दौ बातारिते हिमकणे , सूत्र० २ श्रु० ३ अ० |
स्० प्र० १ पाहु० | जे । भ० । आ० म० | सूत्र० । उक्त ॥ |
प्रय० । प्रज्ञा० । स्था०।
श्रीमल्लिनामेजिणाणु, पयपउम परणामिऊण खुरप्णयं ।
मिहिलामहापुरीए, कम्पं जपामि लसर ॥ १॥
ष्टेव भारटे वासे पुव्वदेसे विदेहा णाम जणवश्रोः
सपद काले “तीरहु” क्षि देसो त्ति भरणद । जत्थ उ पह-
गे महुरमजुलफलभारोणयाणि कयलीवणाणि दीसंति ।
पद्चिया य वियह्ियाणि दुद्धासद्धारणिए पायसं च भुजति ।
पण प बाबीकूवतलायबईओ अइमहरोदग, पागयजणा '
ऽवि सक्कयभासाबिसारया अशगसत्थपसत्थअब्भत्थिणि- /
उणाय जणा, तत्थ रिद्धित्थमियसामिद्धा मिहिला णाम
#
< । सपद जगद पसिद्धा । एयाइ नाइदूरण जणयम-
भाउणा कणयस्स नवासट्टाण कणइपुर वहद्ददइ।
मिहिलाए णयरीए कुमरायपश्मावश्सभवस्स भगवश्चा
रवप्पा देवी नेदणस्स चवणजम्मणदि क्खा केवलनाणकल्लाण
धरार जायाई । इत्थ अट्टुमस्स सिरिवीरगणहरस्स अकपि
परस्स जम्मो | इत्थ जुगबाहुमयणरेहाणं पुत्तो नमी नाम
स इत्थी तित्थयरस्स शर्मिजणस्स य विजयनि |
( ३०३ )
आभिधानराजन्द्रः |
मीसजाय
मीण-मीन-पुं० । मत्स्ये, बू० १ ड०। “ सउला सहरा मीणा,
तिमी भसा अरणणिमिसा मच्छा `` पाइ० ना० ४० गाथा ।
मीमांसग- मीमांसक -एँ० । वेदार्थतात्पर्यनिर्धारणात्मकर्मी-
मांसाशाखराध्येतरि, सूत्र० १ श्रु० १ अ० १ उ० | सम्म०।
| मीमांसा- मीमांसा-खी० । | विचारणायाम् , मीमांसकाः-चो-
या बलयमदवदयरेर पत्तेयबुद्धो सोहम्मिद्परिक्खि- |
धरवेरनिच्छुओ संवुत्ता । इत्थव लच्छीघरे चइए अज्जमहागि-
रिसीसो कोडिस्नगुत्तो आसमित्तो सिरिवीरनिव्वाणाओं
वीसुत्तरे वाससयदुगे5वालीण अरुप्पवायपुष्बे निडाणिथं
< बत्थुं पदंतो दिण्पडिवन्नो , सामुच्छेइयदिट्टि पव-
त्तिङण पावयणियथेरेहि अणेगतवायजुस्तीहि निवारिज-
इत्थ जञणयसुया ( सीआ ) महासईए जम्मभूमिद्राणे महल्लो
चडविडवीपसिद्धो । इत्थ सिरिरामसीयाणं विवाहट्टाणं सा-
स चटद्ठटात । तत्थयरमाज्ञनादचइप वरुटा दवा कुबर
| आराहयजणाण विग्घ अवहरंति ति ।
इय मिहिलाकप्पमिणे , खुरति वायति जिणपदविश्राणा ।
| तेसि खबेइ कंठ, वरमालं मुत्तिसिरिमदहिला ॥ १॥
| इति मिथिलातीर्थकल्पः। ती० १८ कल्प । उत्त० । श्रा०म०।
आव० |
मिहुण-मिथुन न" । ख-घ-थ-ध-भाम् ॥८। १। १८७ ॥
इति थस्य हः । मिहुणं । प्रा० । स्त्रीपुसयुग्मे, रा० । ज०। जी०।
स्था० । दाम्पत्य, श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ३ उ०।
गडुशदत्थया-मिधुनल्ी. त्नौ" । युगलिकखियाम् , , आ०।
< आ० । ( आसां वरकः उसह `
१३३३ पृष्ठ 5कारि )
णग-मिथुनकर-न०।सहोत्पन्ने स्म्रीपुरुषयुग्मे,स्था० १०ठा०।
दशगक्वत्त मिथुनकततत्र- न०। सदा युगलिकोत्पत्तिभूमि-
रूपायामकर्म भूमी, स्था० १० ठा० ।
-मिथुनक-न० । युगले, “ मिहुणय जुअले ” पाइ०
ना० २२२ गाथा।
-मिथःकथा- खी० । परस्परं भक्कादिविकथाकरण
मिहोसाहम्मियखामण- मिथ साध्िकल्ञामण-न० । परस्परं
सम्प्रदायः ) कल्प० १ अधि० १ क्षण ।
[~~ ~ ० ना० ६ वरं १३३ गाथा |
मीदल-मीदल-न०। वर्शकदरव्यभेदे, ल० थ० ।
शः अव्य०।परस्परं शब्दार्थे,अष्ट० १४ श्रष्ट०। घो० ।
साधर्मिके त्तषमाकारणायाम् । (सा च पर्यपणायामवश्य |
दनालक्षणा धर्म: । न च स्वेश्चः काश्चिद् विद्यते | मुक्त्यभा-
वश्चेति,एबमाश्रिता:। विशे० । सद्विचारे,बो० १६ विव०। द्वा०।
मीरा-मीरा-ख्री० । मयांदायाम् , नरकपातनास्थाने, सूत्र० १
श्रु० ४ अ० १ उ०।
| मीराकरण-मीराकरण-न० । करेद्धांरादेराच्छादने, बृ० १ उ०।
गो वि चउत्था निहवो जाश्रो | सिरिमहावीरसामिपय- |
पकयपवित्तयजलाश्रो बाणगगागं डरेनर श्रो मिलित्ता पये न- |
क कि 4 क |
रे पवित्तियंति। इत्थ चरमतित्थयरो छुव्वासारत्ते अवद्ििओ
कु्लकृड ति लोग रूढं पायाललिगाई णियलोइयतित्थाणिअ |
जक्खों अ । नमिजिणचेदए गधासी देवी भिउडिजक्खा अ
शब्द् द्धतायभाग |
नि © चू० ||
मीलण-मीलन-न० । संप्रसारे समवाये, आ० म० १ आ०।
संघाने, आचा० १ भ्रु० ३ अ० ३ उ० । घटनायाम् संयोजने,
श्रा० म० १ अ०।
मीलय-मीलक- पु० । समये एकवाक्यताकारके, सूत्र० १ श्रु
१ अ० १ उ०।
मीस-मिश्र-त्रि० लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीधः
। = । १। ४३॥ इत्यादिमस्वरस्य दीर्घः । रलोपे मिश्रम् । मीसं ।
परा । मिलित, विश० । सान्निपातिकनामनि, विशे० । श्रा-
लाचनाप्रातक्रमणलत्तणोभयाहेत्वान्मिश्चम् । व्य० १५ उ० ।
पा० । ग०। प्रायाञ्चत्तभद, स्था० ४ ठा० १ उ० | व्य०। उप-
माह शब्द उङ्कमतत् सत्यं च खषा चति वचने, यथा-धवख-
दरपलाशादामश्रषु वहुष्वशोकव्रक्तेषु अशोकवनमवेद-
मात वकरपनपरम् । अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावा-
त् सत्यता, अन्येषामपि धवादीनां सद्भावादसत्यता, व्य-
वहारनयमताप्तया चवमुच्यत, परमार्थतः पुनरिदमसत्य-
मेव, यथा विकट्पिताथांयोगात् । प्रव० २३७ द्वार | व्य० ।
मासखध-मिश्रस्कन्ध- पुं° । सचतनाचतनसकीर्णो मिश्रः ।
स चाऽसौ द्रव्यस्कन्धश्चेति मिश्रस्कन्धः । हस्त्यश्वर थख-
ड्रादिसेनाक्ले, अनु० । प्रव०।
| मीसग-मिश्रक-न० । साध्वर्थ गृहस्यार्थं वादित उपस्कृते, प्र-
श्न० ५ सवब० द्वार ।
मीसजाय-मिश्रजात-पुँ० । मिश्रण ग्रहसाध्वादिप्रशिधानल-
णपुरिस-मिथुनपुरुष-पुं० | युगलिकपुरुषे,आ०म० १अ०।
न्य° ३ उ०। अन्योन्य कथायाम् , आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। |
तकणभावेन जातमुत्पन्ने पाकादिभावमपगतं मिश्रजातमन्नाये-
व।पश्चा०१३ विव० । गरि सयतमिश्चोपस्छृते तत्र सभवलत्युत्पा-
दनादाष, दश० ५ अ० । पश्चा० | जीत० । ग०। घ०। पण
चू०। स्था० । प्रव ।
सप्रति मिश्रजातद्वारमाह--
मीसजायं जावं तिये च पासंडिसाहमीसं च |
सहसतर न कप्पइ, कप्पइ कष्पे कए तिगे ॥ २७१ ॥
मश्रजात रघा, तद्यथा-यावकर्थिकम् पाखरिडमिश्रम्
साधुमश्र च । तत्र यावन्तः केचन गृहस्थाः, अग्रहस्था वा
भिज्ञाचरा: समागामष्यन्ति तेषामपि भविष्यति कुट म्वे च-
त बुद्धथा सामान्यन भिक्षाचरयोग्य कुटुम्बयोग्यं - चैकत्र
मालत यत्पच्यत तद्यावदर्थिक मिश्रजातम् । यत्तु केवलपा-
खारडयाग्यमात्मयाग्यं चकत्र पच्यते तत्पाखरिडमिश्रम् ।
यत्पुनः कवलसाधुयोग्यमात्मयोग्यं चेकत्र पच्यते तत्सा-
( ३०४ )
वजा
श्रामकश्नन | श्रमणाना पाखारडप्वन्तभीवातरव्रक्षणात् श्रमण
आाशभधानराज़न
मिश्र पृथग नोक्लषम । एतञ्च मिश्रजातं सहस्मान्तरमपि--स- |
हस्नान्तर गतमपि-येन तत्कृत॑ तेनान्यस्से दत्त तेनाप्यन्य- |
स्मे यावत्सदखतमाय दत्ते, तताठउपि परं यदि साधवे द- |
दाति तथापि न कल्पते | भाजनशद्धो विधिमाह यन भा-
जनन तन्मिश्रं गृहीतं तस्मिन् भाजने मिश्रपरित्यागानन्तरं |
कठ प्रक्षालन त्रिगुण कृते अन्यत्ू-शुद्ध ग्रहीतुं कल्पत,
नान्यथा । ४
एनामव गाथां भाष्यक्द व्याचिख्याखः प्रथमतों मिश्रजा-
तस्य संभवमाह--
दुग्गासे त॑ समइ-च्छिउं व अद्भाणमीसए जत्ता ।
सड़ी बहुभिक्खयरे, मीसज़ाय कर कोई । ३३॥
दु-खन ग्रासा यत्र तद् दुर््रासम-दुर्भित्तम् .तस्मिन् भिक्ताच-
रसत्वायुकम्पया, यद्वा-- तद् दुर्भिक्तं समतिक्रान्तः कश्चित्
बुभुक्ताक्ट महत्पारिशाय । यदिवा-श्रध्वशीषक-कान्तारादि-
नगमरूप प्रवेशरूप खिन्नभिक्षाचरानुकम्पया । यद्वा--या- |
्ायाम्-तीशयात्रादिरूप उत्सवविशष, दानश्रद्धया काऽपि
श्रद्धी-श्रद्धावान् , वहन भित्ताचरानुपलभ्य, मिश्रजातम् पू- |
वोंक्रशब्दाथ कराति ।
सप्रति यावदथिकस्य मिश्रजातस्य परिज्ञानापायमाद-
जावतद्रा सिद्ध, नेयं ते दह कामियं जह शं |
बहसु व अपह्पंते, भणाइ अन्नं पि रंघेह ॥ २७२ ॥
काचत् किर्माप साधव ददता कयाचतू प्राताषध्यत नद्
दायमान यावदथ सिद्धम् यावन्तः कचनाप बभक्तञाचराः |
समार्गामर्यन्ति तेषासर्थाय सिद्धम्-करि तु विवक्षितम् , त- |
स्मात्तदहि यतिभ्यः, कामित यावद् ग्रह्लन्ति, तावन्प्रमाणम्,
यद्वा--पचुरषु भिक्ञाचरचु समागच्छ॒ुत्सु अग्रतनप्रमाण
गाध्यमान, अप्रभवति--अपूर्यमाणे, ग्रदनायका भणति, नै-
तावता राद्धन सारप्यति, तता ऽन्यदप्यधिकरं प्रक्तिप्य राध्नु-
हि, एवं श्रुते याखदर्थिक मिश्र परिज्ञायते, ज्ञात्वा च परिह-
तव्यमिति ।
सप्रति पार्खाराडमिश्रसा'धुमिश्रे प्रतिपादयाति--
अत्तडट्टा रंधते, पासंर्डीण पि त्रिहयओं भणह |
निग्गंथ5्ट्टा तदओ, अत्तऽद्राएऽवि रंधते ॥ २७३ ॥
आत्माथ्थ कुटुम्बाथ ग्रहिएया, राध्यमान-पच्यमान, ग्रह-
नायका यावदर्थिकमिश्रप्रवर्तकग्रृहना यका पक्तया ड्वितीया भ-
शति, यथा-पाखगिडनामप्य्थायाधकं प्रत्तिप, तथा-आत्मा- |
भ्रमव राध्यमाने तृतीया ग्रहनायका व्रत, यथा-निग्रन्था-
नामथायाधिक प्रक्षिर्पात तत एवं श्रत पाखरिडमिश्रसा- |
घ॒मिश्रयारापि परिज्ञाने भवति | सेप्राति यदुक्कमतत् मिश्रजातं |
पुरुषसहस्प्रान्तरगतर्माप न कल्पत इति ।
तद् दृष्टान्तन भावयति--
विसघाइयपिसियासी, मरह तमन्नोऽवरि खाइउं मरह ।
इय पारपरमरण, अणुमरह सहस्मसा जाव ॥ २७४ ॥
इह काऽपि वधक्रन--विषघण घातितः, तस्य पिशितं याः
श्नाति साऽपि ध्रियत, तस्याऽपि मांसे यो भक्षयति सा+
पि श्रिये, एवं परपरया मरणे तावद् श्रजु-प।श्राव्यः,पा- '
सासजाय
श्चात्या भ्रियत, यावत्ते भ्रियमाणः संख्यया सदखशो भ-
वन्ति । इत्थं सहस्मवेघकस्य विषस्य प्रभावः यत्सहस्त्रान्तर-
गतममि मारयतीति भावः।
एवं मीसज्ञाय, चरणप्पं हणइ साहसुविसुद्ध ।
तम्हा त ना कष्पर्, पृरससहस्सतरगय प ॥ ३७५ ॥
एवम् सहस्रवधकविषमिव, यावदर्थिकपाखारिडसाधुविष-
यम् , मिश्रजातमप्यकेनान्यस्मे दत्त तेनाप्यन्यस्मायित्यवं
परम्परया पुरुषसटहस््रान्तरगतमपि साधाः सुविशुद्धं चर-
णात्मान दन्ति, तस्मान्न कल्पत साधूनां सदस्नान्तरगत-
मपि मिश्रम् ।
संप्रति साधुविषय विधिमाह--
निच्छोडिए करीसेण, वाऽपि उवद्विए तओ कष्या ।
सुकावित्ता गिणहइ, अन्नचउत्थे असुक्के वि॥ २७६ ॥
मिश्र कथमपि ग्रृहीत पश्चात्तरिमस्त्यक्तं सति भाजने जि
च्छीटित अड्भुल्यादिना निरवयवे कृत । यद्धा--कर्राषेण शु-
ष्कगामयरूपण उद्वर्तित, पश्चात् जयः कल्पा दीयन्ते , तत
आतप तद्धाजने शोषयित्वा पश्चात्तास्मिन्नस्यते-श॒द्ध गृहा-
ति नान्यथा , पूतिदोष सभवात् । अन्ये तु सूरयः प्राहुः--
चतुर्थ कल्प दत्त सति अशुष्के८पि ग्रहन्ति नास्ति क-
श्चिदाषः । अयं च प्रक्तालनविधिः सर्वत्राप्यशोधिकोटिग्न-
दण वदितव्यः । पि० । श्राचा० ।
मिश्रजातग्रहण प्रायश्रित्तमाह--
ज भिक्खु वा अणतकायसंभिस्सं जुत्तं आहारं आहारेइ
अहारतं वा स(इज्द् ॥ ५ ॥
ज भिकखू वा अणंतकाता मूलकदो अल्लगपुडादि वा एव-
मादिसम्मिस्स जा भुजति तस्स चउगुरू ।
गाहासूत्रमू--
जो भिक्वृ् अषणादी, भ्रुजज्ञ अणतक्रायसंजुत्त ।
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधनं पावे ॥ ५३ ॥
आरगणादिया दासा भवंति ।
इम दोसा । गाहा-
तं कायपरिच्चययी, तेण य वत्तेण समं वयती ।
अतिखट्अणु चितेण य, विमूतिगादीणि आयाए।॥ ५४॥
इमा श्रायविराधणा । तेण रसालण अतिखट्टेण-अखुचिते-
णय विस्राततादी भवे, मरेज्ञ वा श्रजीरता वा अण्ण-
तरो रोगातंको भवेज्ञ, एवं आयविराहणा । जम्हा पते दो-
सा तम्हा ण भोत्तव्वें।
कारणे भुजेज्ञा । गाहा--
अभिवे ओमोयरिए, रायद्दुद्ढे भए व गेलण्णे ।
अद्भवाणुरोहए वा, जयण इमा तंत्थ कायव्या ॥ ५५ ॥
पूर्ववत् ।
इमा वक््खमाणजयणा | गहा न
रामं तिभागमद्ध, तिभाग आयंबिले चरत्थादी ।
निम्मिस्स मिस्सेया, परित्तणं ते य जतणा य ॥५६॥
जहा एव सुत्त बक्खमाणो जहा वा पेद भणिया, तद्या
वत्तव्वा, इमो से श्रक्खरःथो । तुम एसरिज्ञ भुजति, तिभा-
( ३०४५ )
भोसजाय
आाभेधानराजन्द्र। |
न्द्रः सुड
शेण वा ऊण एसणिज्ञे भुजति, श्रद्ध वा पसणिज्ञे, तिभा- |
शे वा एसणिज्ज आयेबिलण वा अच्छांत , चडउत्थ वा
करेति, ण॒ य अणतकायसम्मिस्स भुजति । जाहे णिम्मि- |
से ण लब्भति ताहे परित्तकायमिस्सं गेरहति । जह तं |
पिज ल्भति ताहे अणंतकाय गरहति । जाहे त पिनल-
च्भति ताहे शअणेतकायमिस्सं गरहति | जा य पणगादिज-
यणा सा दट्रुव्वा । नि० चू० १० उ० |
४ ¦ ०५५ अ - [ > ~~ #
पदमे चिय गिहिसंजय- मीसो वक्डडाई मीसं तु ॥ ६ ॥
थमत एवादित एवारभ्य गृहिसयतयोर्भिश्र साघारण-
मुपसस्कृतं साधित यत्तत्तथा , तदादि यस्य तद् ग्रृहिसयत-
मिश्रापस्कतादि । आदिशब्दादू-ग्रहियावदर्थिकमिश्रग्रहिपा- |
खरिडमिश्चग्रहः । मिश्र तु मिश्रजातं पुनः। इति गाथाथेः ।
पञ्चा० १३ विव० |
मीसदवियकप्प-मिश्रद्रन्यकल्प- पु? । सचित्ताचित्ताभयद्र- |
व्यकल्प, पे० भा० २ कल्प । पं० चू० ।
मीसनाम-मिश्रनामन्-न० । उपसरीनामसमुदाय निष्पन्ने ना-
मभदे, यथा सयतः | आ० म० १ अ०।
मीसपरिणय-मिश्रपरिणत- तरि° । तिविधयुद्धलमभेदे, प्रयोग- |
विखरसाभ्यां परिणता यथा पटप॒द्वला एव प्रयोगेण परतया |
परिणतवस्तूनि । स्था० ३ ठा० ३ उ०। ( विशषाधस्तु ' पो- |
गगल ` शब्दे पञचमभागे ११०४ पृष्ठे गतः )
मीसपुदबरी-मिश्रप्थिवी-लली० । सचित्ताचित्तोभयरूपष्थि- | =
व्याम् , नि० चू० १ उ०।
भसय-मिश्रक-पुं० । “सिद्धे णो सरणी णो सरणी णो भ
श्वो णोअभव्वों " त्ति वचनात् । सिद्धे, विशर०।
मीसालिअ-मिश्र-त्रि० | मिश्राद् डालियः ॥ ८ |
इति डालियग्रत्ययः | मीसालिअं । पक्ते-मी से । संयुक्के, प्रा०।
मीसोहि-मिश्रावधि-पुं० । आज्लुगामिकाननुगामिको भयस्व-
रूपेऽवधिज्ञान, यस्य ह युत्पन्नस्यावधेदेशों जति स्वामिना स
महेगाकार-मृद ङ्गाकार--पुं० । मदेलाकृतो, “, मुइंगाकारोवर्म
से खधे ” म्ष॑दज्ञाकारण मदेलाकृत्यापमा यस्य स सदङ्णोपम
[ से ] तस्य स्कन्धो ऽशदेशः । उपा० २ झ० ।
भुहय-पुंदित-त्रि० । हषंवति, रा०। क्ञा० । उत्त । प्रमो-
द्वति , , ओ० । +
मुइ्या-मुदिता-खी० । परखुखेऽप्रीतिपरिदारे , सन्तुष्टा ,
घो० ४ विव० ।
आपातरम्य सद्धता-वलुबन्धयुते परे ।
सन्तुष्टिमुदिता नाम , सर्वेषां प्राणिनां सुखे ॥ ५ ॥
( श्रापातति ) म्ुदिता नाम सन्तुष्टिः सा चाद्या55पात-
रम्ये--अपथ्याहा रतृप्तिजानितपरिणा मासुन्द्रसखुख कल्प, त-
त्कालमात्रर्मणीय स्वपरगत वेषायिके सुख, द्वितीया तु
सद्धतो-शोभनकारणे एहिकसुखविशेष एव परिदृष्टहि-
तामिताहारपरिभोगजनितस्वादुरसास्वादसुखकल्प , ठती-
या चानुबन्धयते--अव्यवन्छिन्नसखुखपरपरया देवमनुज-
जन्मसकल्याणप्राप्तिलक्षण इहपरभवानुगंत , चतुर्थी तु परे
प्रकरष. मोदत्तयादिसमव अव्यावाध च सर्वेषां प्राणिनां सुख
इत्येवं चतुर्विधा । तदुक्रम्--“ खुखमात्रे सद्धतावचुवन्धयु-
ते पर च मुदिता तु। `` द्वा० ६८ द्वा० ।
महयमाणस-मुदितमानस- ति” । निरन्तरहृषए्रचित्ते , उत्त
१६ आ०।
मुउल-मुकुल -न० । कुडमले, विश० । आम्रफलकोरके, स्था०
४ ठा० १ उ० | कोरकावस्थायां कलिकायाम् , ज्ञा० १ ध्रु०१
आ० । संकुचिते, आ० म० १ श्म०। जी० |
| ग्रंज-मुज्ञ-पुं०। शरपरायाम् , स्था० ४ ठा० ३ उ०। शरपत्रत्वचि,
| १७० ॥
हान्यत्र दशस्तु श्रद्शान्तरचालतपुरुषस्य पहंतेकलोच नवद्-
न्यत्र न बजति श्रसौ मिश्र उच्यत । विश०।
मुञ्रगी-देशी-कौटिकायाम् , दे० ना० ६ वर्ग १३४ गाथा ।
मुआइणी-देशी-डम्ब्याम् , दे” ना० ६ वर्ग १३५ गाथा ।
मुहग-मरदङ्ग- पुं । इः खम्रादो ॥ ८। {। ४६ ॥ इच्त्वप्राप्ती आर्षे
उकारो<पि | प्रा० । मर्दले, स्था० ७ ठा० | ज्ञा० ५ औ० | अनु०।
चे० प्र० । स्था० । प्रज्ञा० । कल्प० । भ० । लघ्कुमदेले, जी० ३
प्राति० ४ अधि० | आ० म० | रा० | नि० चू० । आचा० ।
जे० | नं० | पिपीलिकायाम् , आव० ४ अ० | “मुइंगो मुरआओ”'
पाइ० ना० २६६ गाथा ।
मुइगमत्थय-सृदड्रमस्तक्-व० । खुदज्ञानां-मदैलानां मस्तका-
नीव मस्तकानि । रुदङ्गानामुपरिभागषु दङ्गमुखपुटेखु, भ०
६ श ३३ उ० । विपा०।
यरगमालिया-देशी-कीटिकाविशषे, सथा०।
मुइंगलि(अ।)य[-देशी-पिपी लिकादों,पं० ब० १ द्वार । सङ्गा
७७
नि° चु० १ उ० । तृणविशेषे, बृ० २ उ० । सूत्र० आचा०।
धजकार मुञ्जकार-दै*खजमयो पर्करकरणोप विन अब ।
मनति मुझ्तण-पै० । काश्यपमूलगोआवान्तरमूजगोजबि-
शषभ्रव्तंकं ऋषो, तदपत्येषु च | स्था० ७ ठा०।
म्ंजपाउयायार-मुज्ञपादुकाकार-पु० खुञ्जमयपादु काकरणो-
परजीविनि शिल्पिनि, प्रज्ञा० १ पद्।
मंजमेहला-मुञ्ञमेखला--खी० । मुज्जमये कटीदवरके, ज्ञा० १
श्रु० १६ श्र०।
जापिचिय-मज्ञापिच्धित-न०। कुट्टितशरपर्णी त्वड्मये रजो-
दरण, स्था० ५ खा० ३ उ०।
पजायणा--म ञ्ञायन-पु०। मुझ्जनामकर्षिगोत्रापत्ये उत्सोन्द्
यौदौ ॥ ८ । १। १६० । इत्योत उत् । मुजायणो । प्रा० १ पाद ।
घंड-मुणड--पुं० । लु चताशरां ल, सृत्र° १ श्रु० ३ अ० १ उ०।
सुण्डितशिरसि, कल्प० ३ अधि० & क्षण | प्रव्राजिते , ओ० ।
दशा० | दश० । नि० चू० । चुरण मुण्डे , व्य० ४ उ०।
बू० | कप ० ।
पंच मुंडा पप्तत्ता, तं जहा -सोतिंदियमुंडे जाव फामि-
देयमंड २, अहवा-पंच मुंडा-पण्मत्ता, त॑ जहा-कोहसुडे
माणमुंडे गायाप्रंड़े लोभपुंडे सिर्युंडे ( सत्र-०४३ )
` ऑन नाना कक
( ३०६ }
मभिधानराजन्द्रः।
खड
मुण्डनम् मुरडः, श्रपनयनम्, स च द्वधा-द्रव्यतो, भावतश्च ।
तत्र द्रव्यतः-शिरसः कशापनयनम् , भावतस्तु चतसः इन्द्रि
यार्थगतप्रेमाप्रेम्णोः कषायाणां वाऽपनयनर्मिति मुरडलच्तण-
धर्मयोगात् पुरुपो मुरड उच्यते । तत्र श्रोत्रेन्द्रिये थ्रोत्रेन्द्रियेण ।
पादेन खञ्ज इत्यादिवत् श्रोत्रन्द्रियमुरडः शब्दे रा- |
गादिखरणडनात् श्रात्रेन्द्रिया थमुणड इति भावः, इत्येवे सवत्र । |
क्रोधे मुरडः-कोधमुणउस्तच्चेदनादेवमन्यत्रापि, तथा शिरसि |
शिरसा वा मुण्डः शिरोमुरुड इति । स्था० ५ ठा० ३ उ० । |
वा मुण
आवण० । कल्प० । अखु० । प्रज्ञा० |
मुंडकेवलि- ८ ण् )-मुण्डकेवलिन्-पुँ० । दव्यभावमुरुडनभ-
धान तथाविधबाह्यातिशयशल्ये केवलिनि , यो० विं० ।
संविग्ना भवनिर्वदा-दात्मनिःसरणं तु यः |
अत्मा संग्रवृत्तोऽसौ, सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥१६०॥
तथ्ये धम्म ध्वस्तदिसाप्रवन्ध,
देवे रागद्रषमाहादिमुक्क ।
साधो सर्वग्रन्थसन्दर्भदीने,
सवगा ऽसो निश्चलो योऽचुरागः ॥ १॥
पव लक्षणसंवेगभाक भवानर्वेदात्-ससारनेगुणयाद्च्रात्मनि-
स्सरणं तु-जरामरणादिदारुणदहनदद्यमानभवभवनोदयाहर- |
मात्मना बनप्काशन, पुनयाश्वन्तवतात्त गम्यत । आात्माथ
सम्नवृ त्त---स्वश्याजनमात्रप्रातबद्धाचत्त:,असा पूवाक्करूपः |
सदा- सततमव, स्याद्धवंत् द्व्यभावमसुणडन्प्रधाना, मुएड- |
ञ्च कवली च केवलज्ञानद्शनवान् मुरडकेवली । कवस्ये-
व तथाविधवाद्यतिशयशन्यःः, अत्र दृष्टान्तः-पीठ-महा पीठ-
|
|
|
साधुयुगलकमिति । यो० वि। [ पीठ-महापीटयोवृत्तं द्वि- |
तीयभागे १११७ पृष्ठ गतम् ] द्वा० | स्था० | आव० । मुण्डके-
वली किलक्त गो भवतीति प्रश्ने,उत्त रम्--' संविग्नो भवनिर्वे-
दा-दात्मनिःसरणं तु यः । आत्मार्थ संप्रवृत्तो5सों, सदा
स्यान्मुणडकेवली `` ॥ १॥ इति पञ्च लङ्ग्रहच्रत्तो, तदनुसारेण
यः पुनः सम्यकःवावाघ्तौ भवनेगुरयदशीनतस्तन्निवदादात्म-
निस्सरणमेव केवलममिवाड्छति, तथेव चषटत, स मुण्डके-
वली भवतीति ॥ १२८ ॥ सन० ३ उल्ला०।
डुग-म्ुणडक-न० । स्थाएडल, दश० ४ अ०।
मुंडश-मुण्डन-न० । द्रव्यतः-केशापनयने, भावतस्तु-क्रोधा `
यपनयने, पञ्चा० २ विव० । स्था० | रशिरोलोाचने, स्था० २
ठा० १ उ० | आव० । ( “ अज्रणं खुरमुंडेणं वा लुक॒सिरणण
वा होयव्व सिया इति पज्जु लणाकप्प शब्दे पञ्चमभागे २४७
पृष्ठ उक्तम् ) कर्प ३ आध० ६ क्षण ।
मुं इत्थल-म्ुण्डस्थल-न० | विंशति ती थेक्रत्स्था ने, ती ०४७कल्प।
मुंड भाव-म्ुणड भाव-पुं० । दीक्षितत्वे, भ० १ श०६ उ०। शिरो-
ॐ [व जे |
लोचे, महावीरस्वाभिना मदापञ्चन चानुज्ञातः। स्था० € ठा०।
भ उरू मुणडरुचि- पृ । दीक्षाग्रहणामिरुचों, उत्त० २० श्र०।
म डा-देरणा- श्धग्याम् , दे० ना० ६ वर्ग १३३ गाथा ।
मु डावशा-युणडापना-ख्री० । शि तलोचनन लोचे , कृ० ४
उ० । प्रक्ञा०। भ० । ( तश्रोनो कण्पद० (५) इत्यादिस्तूज
सभाष्यम् ` पव्वज्ना ` शब्द पश्चमभागे ७७२ पृष्ठे उक्तम )
मुरडापनाविधिमाह-- ४
इयाणि सुंडावणा--सोहरे दिवसे चेतियाण पुरआओ
पव्वावणि्ञे, श्रप्पणो वा सगासे उवित्ता चेइए बं- |
दित्ता परिदियचोलपटस्स रयहरणं दति । “ तहि
अति ” अस्य व्याख्या--जो धिरहत्थो श्रायरितो तिन्नि
अट्डातों गेएहति समत्थों वा सव्वं लोयं करेति अंसति
आयरियस्स थिरदत्थस्स अंतो पव्वावेति थिरहत्थो तस्स
लोयकरणं सामाइयं च इमेरिसे ठाणे कज्जति।
गाथा--
दव्वादी अपसत्थे, मोक्तु पसत्थेसु एासुगाहारं |
लग्गाति वा तुरंते, गुरुअणुकूले ब दोजा य ॥ ४५७॥
अट्विमादि अप्पसत्थदव्वा, ऊसरमादी अप्पसत्थखेत्ता रि-
त्तातिहिमादी अप्पसत्थकॉलो, दिद्विमादी अप्पसत्थो भावो
पते अप्पसत्थे मोत्तु पसत्थेखु दव्वादिणएसु पव्वाविज्ञाति ।
तस्स गुरुणो य अणुकूलेसु तारावलचेद्रवलेखु जाव य दव्वा-
दिया पसत्था ण लब्भति, ताव फासुगाहारं धरति, सन्नात-
गभया वा तुरंतो फ्सत्थलग्गबलेणं पठ्वाविञ्जति, उभयसा-
हारगे अलब्भमाण गुरुअणुकूले पव्वा्चिज्जति । अहाजातेण
ति सणिसज्ञं रयाहरणं मुह पात्तिया चोलपञ्चे प्यं अहाजाते
दातु वामपासद्धयस्स आयरितो भणाति--इमस्स साधुस्स
सामाइयस्स आरूदावण- करेमि काउस्सग्ग, अन्न भणति-
उच्चारोवणे करेति, उभयधाउवि श्रविरुद्ध , अन्नत्थूसासिएण
०जाव वोसिरामि त्ति “लोगस्सखुज्जोअगरंे” चितितो “न-
मो आरिहंताणं ति ” पाराति, “ लागस्सुज्जोयगरं ” कह्निता
पच्छा पव्वावशिज्जेण सह सामाइयसुत्त भिक्खुत्तो कडति।
पच्छा सहो-'इच्छामि खमासमणा" त्ति वदति, वंदिय प-
उभुद्धितो भणाति-सदिखह कि भणामो गुरुवयर वदितुं प-
वेद्हि,ताहे वंदिय पब्भुट्टिता भणाति--तुब्भेहि मे सामाइये
छारूहितं 'इच्छामि अरुर्साट्ट ' गुरुवयणं--नित्था रगपारगो
गुरुगुणाहि वद्याद्दि त्ति ।
गादा
तिगुणपयाहिणपादे, नित्थारो गुरुगुणेदि बडाहि ।
अणहिंडते सिक्खं, समताणीएहि ` गाहंति ॥४५८॥
तादे वेदित्ता णमोक्कारमुच्चरतो पयाहिरं करेति, पादेखु
निवडति,णवं वितियं ततियं च चारा । ताहे साधूण णिवेदा-.
दिजति,पक्रेकस्स तरतो वा समुदिताणे वदितुं सा भणाति
गुरूदि श्रारुदियं मे सामाइयं ' इच्छामि अणुसटट ' ते भणे-
ति-नित्थारगपारगो आयारियशुणेसु बट्ख, एसा संडावणा । `
नि० चू० ६१ उ०।
पव्वाविओ सिअ त्ति अ, मुंडावंड अणायरणजोगो ।
अहवा मुंडाविते, दोसा अशणिवारिया पुरिमा ॥ ५७५ ॥
तथा प्रत्ाजितः ` स्यात् ` कथचिदनाभोगादिना म॒णडयि-
त॒मनाचरणयोग्यः अनासेवनीयः, यस्त मुरडयति तस्य मु-
एडयतः च्रमुरुडनीयदो षाः निवारिता भवन्व्यवेत्यथैः । पूर्व
ये ऽपरचाजनीयास्तान् पराजयत पवं सर्वत्र भावनीयम् । इति
गायाथः। पं० व० २ द्वार । पे० भा० ¦ ( 'पव्वज्जा. शब्दे
पञ्चमभागे ७४६ पृष्ठे विस्तर उक्तः )
( ३०७ )
हा ; अभिधानराजन्द्र। । सुग्ग
-पमुएडावली-ख्जी० । झुण्डाः स्थाखुविशेषा येषु म मुकमज्ञाय- मुक्रमर्याद् त° । मर्यादारदिते, “ उाश्विडिस मु-
| | दिषो वाटादो परिघाः पारेछिद्यन्ते तेषमावा लेः | निरन्तर- कमज़ाये ` पाइ० ना० १८० गाथा ।
॥ | व्यवस्थापितानां पङ्क्तो, अणु० । | मुकय-देशी-या5सो बोदुं प्रकता तद्वर्जितानामन्यासां नि-
॥ 'प्ुंडावित्तए-मुण्डयितुम्-अब्य० । शिरोलोचेन लुशचितं कुबो- | मन्त्रितानां वधूनां विवाहे, दे० ना० ६ वर्ग १३५ गाथा ।
४ शे, बू० ४ उ० ! स्था०। मुकल-मुत्कल-जि० ॥ छुटिते, श्रग्रथिते, विशे० । श्रा० म० ।
म्रडाविय-पणिडत. त्रि० । मुणिडतस्य तस्य शिष्यत्वेनाचुमा- | उपाश्चरये समागच्छन् मुत्कलः श्राद्धः । * निसिहीति `
च + ॐ | @ € ५ ८ 9 ^~ कद +
नात् लु्चितशिरसि, भ० १५ श०। -तस्मान्नगर्छंश्च अआवस्सहीति वक्तिन वेति प्रश्ने, उत्त
मडि ४ 2 हा रम--मुत्कलः श्राद्धः ` निसिदीति › व्क न त्वावश्यकी-
| मुंडि( ण् )-मुण्डिन्--पुं० मुिडते, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। श्रो०।
ई ति ॥ २७४ ॥ सेन ० ३ उज्ञा० ।
| मंडिय-मुण्डित-त्रि० । शिरोलु खनन मुरडारूते, भ० २ श० युकलांचल- युक्रलाञ्चल-न० । छुटितवस्त्रकोण, ज्ञा० १ श्रु०
१ उ०। १६ आ० ।
भंडिवग-पुणिडवक-पु० । स्वनामख्याते सङ्घवद्धननगरराजे, । मुकला-यृत्कला-खी० । स्वतन््रसखियाम् , “ सच्छंदा उदा.
श्रा० चू० ४ अ०।(* भाणसंवरजोग ` शब्दे चतुथभागे | भा , निर्गला सुकला विसंखलया । निरवग्गहा य॒ सइरा,
१६७२ पृष्ठे कथा गता । ) | निरंकुसा हंति अप्पवसा ” पाइ० ना० १३ गाथा ।
मुंडी-देशी-नारज्याम् , दे ना० ६ वर्ग १३३ गाथा । | मुकलिय-मुत्कलित--ति० । अजुज्ञाते, दशी” ३ तत्त्व ।
मंढा-मूद्धनू-९० । ्रदद्धि-मृद्धाद्ंन्त वा ॥८।२।४१॥ | सुकवास-सुक्षपास-त्रि० । पाशान्मुक्े, उत्त० २३ अ०।
इति सेयुक्तस्य ढा वा । मेढा । मुद्धा । प्रा० । वक्रादावन्तः ॥ | मकड़ा-दशा-हक्रायाम् , दे० ना० दे वग १३४ गाथा।
८। १। २६ ॥ इत्यनुस्वारः । मस्तके, प्रा० १ पाद् । | मुकरुड- दशा राशा, दृ० ना० ६ वग १३६ गाथा।
| मुंघुर-मुमुर-पुं० | फुम्फुकादों, भस्ममिश्चिताप्निकरे, प्रज्ञा०.१ | प्रुक्ेन्लय-प्ुक्त॒-त्रि० । प्राकृतत्वात्स्वार्थे इल्लकप्रत्ययः | अन्य-
। षद् । नि० चू० । आ० म०। | जन्मनि जीवेनोज्मिते शरीरे, श्रनु०। ( 'सरीर' शब्दे बद्धानि
| अुङ्कद-पकुन्द पुं । वलदेवे, त्रनु० । मुरजविशेषे, ज० २ व- | मुक्तानि च शरीराणीति वच्यते )
॥ हे | [न श = भ ७.४५ ~
च्त० ॥ आतोदयविशेष, आनचा० श श्रु० श् ० ५ उ०। जी० । मुक््ख-प्लुरूय॑- त्र० । नादा शषाद् शयाद्धत्वम् ॥ ८ । २।८६॥
ने०। भ०। | मुक्खो । प्रा० । पधाने, स्था० १ ठा० । विशे० श्रा० म०।
मुक्-मुक़्त-त्रि० । मुत्कले,विशे० । नि०चू०। म॒ुत्कलीकृते, ज्ञा० १ गोणमुख्ययामुख्ये कायसप्रत्ययः ” स्था० १ ठा०।
शु १ श्र०। क्षिप्ते, औ० । व्यक्ते, स्था० ६ ठा०। विशे०। उच्छ | मूखं-$ अर, मृखत्व हदि सख क.
ङ्ले, दश० ८ ० । परित्यक्के, आव० ३ अ० । अन्यज- यदष्टो गुणा, निश्चिन्तो बहुभोजनो5त्रपमनाः नक्गदिवा
~
लोभे, द्वा० २७ द्वा० । निर्वेत्तिप्राप्े, स्या० | अनु० । आव । | भ्रायणामयवर्जितो खढवपुमूखः खुखे जीवति ॥ २ ॥ " उत्त०
मुक्तः परमव्रह्मवादिनां परात्मा | यो० बिं० । केषाञ्चिन्मते | २ अ०। “बाला मूढा मंदा,अयाणया बालिसा जडा मुकसवा ”
मुक्काएपि पुनः ससरति, “ दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवे परमथ्य, | | पाइ० ना० ७१ गाथा । अ
निवोशमप्यनव्धारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वये कृतभवश्च प- | मोक्त पु । परमनिःश्रेयसि, पा०। सवतः कर्मक्षयो मोक्तः।
| राथश्र--स्त्वच्छासनप्रतिटतेष्विह मोहराज्यम् ॥ १॥ ” | स्था० १ ठा० । ( मोक्षनिज्जरयोर्भदः “ णिज्ञरा ' शब्दे चतु-
सृत्र० १ श्रु० १ झअ० ३ उ०। आचा० । मोक्षप्रस्ताव, विश० । | भागे २०५६ पृष्ठ गतः )
मूक-पुं)। वादौ वा ॥ ८ । २। ६६ ॥ इति द्वित्वम् । सुको । | 4, पङ्कजे
` „ ` (त ध 2 नी | पडमस्स ईहह, सम्मत्तसहस्सपत्तस्स ॥१॥ "” । । 5
मुकजोगि(न् )-मुक़्जोगिन् -पुं० । त्यक्नज्ञारादियोगे, मुखपिसाय-मुखपिशाच -पुं० । पिशाचमेदे, रज्ञा १ पद।
णाम जेण मुक्का , जोगो णाणदंसणचरित्ततवशियमसंजमा- | मुखमंडक मुखभाए्डक-न० । मुखाभरणे, औ० ।
दिखु सो य मुक्तजागी । नि० चू० २० उ०। ,
मुकट्टहास मुक्ताइहास-पुं” । कृतमहाहासध्वनों, प्रशज्ष० ३
आश्र० द्वार ।
मुगद मह- मुकुन्द मह - प° । पष्ठी तत्पुरुषः । बलदेवोत्सवे,
आचा० २ श्रु० १ चु० १ अ० २उ०। वाखुदेवोत्सषे च ।
भ० £ श० ३३ उ०।
कषुर युक्तधुर- पु । धू+-सयम'ुरा, सा मुक्ता परित्यक्ता मुगुंस- ग्रगुंस -पु० । खाडदिलाङूतो जन्तुभेदे, प्रश्न० १ आश्र०
नस सुक्तघुरः । सयमश्र वृ ३उ०। =. _ , | द्वार | ' मुगुंसपुच्छे व तरस भुमओ ' उपा० २ श्र०।
खरमउड युक्तयुकुट -‡° । यथाक्षप्माण, मुकुटोपरिवातिनि, | मग मुद्ध पु० । ( सुग ) घान्यभेदे, जे० २ वक्त० । आचा० ।
० ४ उ० । ग्रखु- | स्था०।
ऋ _._...ऊऊ»+»3»॑ जलन क कक कक कक कक कक की की की शक कक की की शी कक कीकी फीकी की शकीफकककीककशशकस+न्
( ३०८ )
शुरगडा
द्भिधानराजन्द्रः
मुग्गडा-मुधा-अव्य ० । वथाशब्दार्थे, ते मुग्गडा हराविआ जे
परिगिट्टा ताद । प्रा० ४ पाद |
मुग्गपप्मी-मुह्ृपर्णी-ली० । साधारणबादरबनस्पतिभेदे ,
ग्रज्ञा० १ पद ।
मुगगफली- मुदफली- खी° | मूँगफलीतिख्याते भद्यफले, आ-
व० ६ ञअ० ।
मुग्गर-पमुद्दर-पुँं? । काष्ठटलाहादिमये सप्रन्थिमुष्टिकोपरिस-
ङ्गी त्ताधोविस्तीणी मल्लोपकरणे, उत्त १६ अ्र० । सूत्र० | |
मोगरेति ख्याते पुष्पजातिभेदे, कल्प० १ अछि० ३ क्षण ।
मुग्गल-मोगल-प;ु० । पारसीकशब्दः । यवनजातिभेदे, ती०
१६ कल्प।
मुग्गलिं-मोद्गलि--पुं० | मोह्लापत्ये, ननु वा यथा मौद्ग-
लिस्वातिपुत्रा भ्यां शोद्धोदनिध्वञजीकृत्य प्रकाशितः स्वरुचि-
विरचितो मार्ग: । आचा० १ श्र० २ अ० ४ उ०।
मुग्गस-रेशी--नकुले, दे० ना० ६ वर्ग ११८ गाथा ।
मुग्गसू-देशी-नकुले, दे० ना० ६ वग ११८ गाथा ।
मुग्गसेल-मुहशेल--पुं० । मुद्नप्तमाणे पाषाणविशेषे, मुग्गसेले |
नामं पच्छा मेदस्स मूले भणति । आ० म० १ अ।
आ० चू० । ने । मुद्गबद् वृत्तत्वछत्तणत्वादिधर्मयुक्त
किञ्चिद् भूतल निमश्नः किचित्पकाशश्चिकविकायमानो
वाद्राद्प्रमाणो लघ्रूपलस्वरूपो मुद्गशेलः | विशे० ।
मुग्घुरुड-देशी--राशो, दे० ना० ६ व्ग० १३६ गाथा ।
युच्छ॑भाण-पच्छाध्यान-न° । मुच्छा अत्यथ पूर्वप्राप्तस्य
राज्यादरभिष्वङ्गः । कनकध्वजस्येव दुध्यानभेदे, आतु० ।
मुच्छणा-मृच्छेना--स्ज्री० । खरविशेषे, अनु० । स्था० । ज० । |
( वक्तव्यं ' सर ` शब्द् वच्यते )
यच्छा -मृ्च्छा-खी० । दवितीय-तुय्ययोरुपरि पूरैः ॥ ८ । २
६० । इति द्वित्वप्रसङ्गे चुकारोपरि चकारः । प्रा० सदसद्धि-
वेकनारे, स्था० ।
पन्ने , आचा० २ श्रु० १ चु० १ अ० ८ उ०। मुच्छिए गढिए
गिद्ध श्रज्मोबवरणे त्ति एगट्टा । बिपा० १ श्रु० १ आ०।
व्याकुली भूते , ; अष्ट० ३२ श्रष्र० । ( मुच्छिए इति ) मून
मृच्छ सा सजाता अस्या इति मूर्च्छिता । उत्तरमन्दयां
उत्तरमन्दाभिधया गन्धारस्वरान्तर्गतया सक्तम्या मच्छेनया
मूर्छिता, तस्याः अयमाशयः । गन्धारस्वरस्य सप्त मूच्छेना `
भवान्ति , तथाहि--
“ नेदी य खुड्िया पू-रिमा य चोत्थी य सुद्धगंधारा ।
उत्तरगंधारा वि अ्र , हवई सा पंचमी मुच्छा ॥ १॥
सुट्डत्तरमायामा, छुट्टी सा नियमसो उ बोद्धव्वा ।
उत्तरमंदा य तहा, हवई सा सत्तमी मुच्छा ॥ २॥ ”
अथ किस्वरूपा मुच्छेना ? उच्यत--गन्धारादिस्वरस्वरूपा
मोचनेन गायतो ऽतिमधुरा अन्यान्यस्वराविशेषा यान् कुर्वन्
श्रास्तां श्रोतृन् मूर्छितान कराति, कि तु-स्वयमपि मूर्च्छित
इव तान् कराति, यदिवा-स्वयमपि सात्तान्मूच्छा करोति ।
यदुक्कम--
“ श्रन्नन्नसरविससे, उप्पायंतस्स मुच्छुणा भिया |
कत्ता वि मुच्छिओं इव, कुणए मुच्छे व सो व त्षि॥ १॥ ”
गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मूछुनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दा
मूलेना किलातिप्रकेप्राप्ता ततस्तदुपादानम् , तया चमु-
ख्यवृत््या वादयिता मूछितो भवति परमभेदो पचाराद्वीणाऽपि
मू्छितेत्यक्ना,सा5पि यद्यङ्क सुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न समू-
छना प्रकष विदधाति। ज० ६ वक्ष० । प्रक्ष० । अतो बहि वा
अडय भरण वा मुच्य ति वा पगु । नि० चु०१७ उ०। ग्र-
द , च्रध्युपपन्न , ममत्वबहल , सूत्र० १ श्वु० १ अ० १ उ०।
उत्त० । श्राव० । श्राचा०। मूढे, गतावैवेकचेतन्ये , ज्ञा० १
श्रु० २ अ० | सूत्र०। स्था०। पएकीभावतामापन्न, सूत्र० २
श्र० १ अ० | कामोत्कटतृष्णे , सृत्र० १ श्र० २ आअ० ३ उ०।
अत्यन्तासक्ले, सूत्र० १ श्रु० ३ आअ० २ उ० | उत्त० | स्था०।
| म्ुज्फत-मुद्यत् एत्र । मुहेगुम्म--गुम्मडों ॥ ८। ४। २०७ ॥
दुविहा मुच्छा पष्पत्ता, जहा-पिज्ञवत्तिया चेव, दोस-
वात्तया च । स्था० २ ठा० ४ उ०।
( व्याख्या स्वस्वशब्दे ) मादे, स्था० २ ठा० ४ उ०। हतनष्ट- |
पदाथशाचनायाम् ; ध० ३ अधि० । माहननाचेतनीभवन
सरक्तणानुवन्ध च । स० ५१ सम० । परिग्रह, स्था० १ ठा०।
गरद्धो, विश० | आतु० । सूत्र० ।
मूछा -धा० । माहसमुच्छायया:, प्रज्ञा० १ पद ।
मुच्छावसरणाइचेयगरुई -मूच्छीवशनश्चेतोगुरवी-स्री० । मूच्छी
वशान्नष्टचेतसि गुर्वी श्रलघुशरीरा । मूर्डिछूतत्वेन गुव्याम् , |
भ० £ श० ३३ उ०।
धच्छिऊण--मूच्छित्वा-
२ चु०।
मुच्छिजंत--मूच्छथ॑मान--त्रि० । मुच्छूनारूपेण बाध्यमाने,झआ०
चू० १ श्र०।
प्रच्छिय-मूर्छित-त्रि० | ग्रद्दे, आचा० १ श्रु० १ अ० २ उ०।
॥ + # |
अव्य० । श्रचतनां प्राप्यव्यर्थ, महा०
गाढमर्मप्रदारादिना ( श्राचा० १ श्रु० ३ अ० १ उ० ) अध्युप |
इति मुहेगुम्मगुम्मडादेशाभाव ह्यस्य ज्कादेशः । माह गच्छु-
ति, पा० ४ पाद् ।
यद्धि मुष्टि-ख्री० | एस्याऽनु्ष्टासेदष्टे ॥ ८। २। ३४॥ इति
रस्य ठः । बद्धपश्चाहुलीक हस्ते,प्रा० | आ० क० । मि० चू०।
भ० । उत्त० | स्था०। “बुक्का मुट्ठी ” पाइ० ना० २२६ गाथा ।
मुद्विजुद्ध-मुष्टियुद्ध-न० । योद्धयोः परस्परं सृष्टा हनन , जे
२ वक्तष० । स० । ज्ञा० | औ० आच्रा० ।
मुद्ठिपोत्थय -मुष्टिपुस्तक न” । चउरंगुलदीहो वा, “ बद्धा
गिइम॒ुद्धिपुत्थनो अहवा । चउरंगुलदीहाचिय , चडरंसो
होइ विन्नश्रो ॥ १ ॥ ” इत्युक्नलक्षण प्रुस्तकमदे, बृ० ३ छ०।
( चउरंगुल त्ति ) अद्भुलचतुश्यप्रमाणो दी्घों बा आकृता-
बुक्काकूतिवतुलाकारो मुष्टिपुस्तकः । श्र थवा-श्रङ्कलचतुष्का-
यामः चतुष्काणां मु्टपुस्तकः । स्था० ४ ठा० १ उ०।
दश० । जीत० । नि० चू० । झाव० ।
दिय -मौष्टिक - पुं० । मुध्टिप्रहारिणि 4 श्रनु०। ज्ञा०।
जी०। स्था०। जे० । रा० । स्लेच्छुजातीये, प्रश्षण १ आश्र०
द्वार । लघुतरे घने, भ० १६ श० १ उ०।
म्रुष्टिकृत-त्रि० । सङ्कुचिताङ्ग, विश०।
( ३०६ )
अभिधानराजन्द्र। |
मणि
युष्टक-खरा° । लघुमुष्टा, रा०।
युटटिवागरण-यु्टिव्याकरण-न० । व्याकरणभद् , कल्प० ६ |
आधण० * स्तण ।
मद्धिवाय- मुष्टिवात- पुं । अतिवेगेनायुद्धादिग्रहणाय सुष्टिब- |
न्धननोाःपन्न वाते, भ० २ श० २ उ० ।
मुण--ज्ञा-धातु० । अववोधने , ज्ञा जाण-म॒णौ ॥ ८। ४ । ७॥
जानातजाणमण इत्यादशा भवतः । जार । मुणइ | प्रा० ४
पाद् । वश्च० ।
युणल-मणाल-न० । पद्मनाले, उदत्वादों ॥ ८।६।१३६ ॥ इति |
उत्। प्रा०। जी०। ज्ञा० । | आव० । प्रश्च० । च्रो० । प्रज्ञा० | ज०। |
“* विसं मुणाल ” पा-
पद्मतन्ता , जं० १ वक्त० । प्रश्न ० |
इ० ना० २५६ गाथा ।
यणालिया-मृणालिका-खी० । पद्मतन्तो . जी० ३ प्रति० ४
अधि०। श्रा० म०। रा० । पद्धिन्याम् , ने० । ज०।
मुशि-मुनि-पु° । मृणति- प्रतिजानीते, सवेविरतिमिति मु-
निः। विरतिमति, उत्त० १२ अ० । मनुते, मन्यत वा, ज-
गतखिकालावस्थामिति म़निः। श्रतीन्द्रियज्ञानवति परोक्त
ज्ञ, श्रा० म॒० १ अ०। सूत्र०। आव०। आचा०। द्वा०।
अप्ण० । दर्श० ।
म॒निस्वरूपे निर्दिशति--सन्ति च लोके अनिगश्नेन्था निग्र
न्धा 54रापमत्ता आत्मना अशुद्धा अभिमानतः तत्वविवेकवि
कलाः तेषामेवा पदेशाय विशुद्धगुरुतक्त्वावबाधार्थ चाह | त-
्-- मन्यत जिकालविषयत्वन शआ्रात्मानमिति मुनिः । तत्र
न।मसनिः, स्थापनामनिः , खुगमः। द्रव्यमुनिः ज्ञशरीरभव्य- |
शरीरतद्व्यतिरिक्रिभदात् अनुपयुक्को लिझ्ञमात्रद्वव्यक्रियाबु-
ज्िसाध्योपयागशन्यस्य॒ प्रवत्तनविकल्पादिषु कषायनि-
वृत्तस्य परिणतिचक्र असंयमपरिणतस्य द्रव्यनिग्रन्थत्वम् ।
भावमुनिः चारित्रमोहनीयक्षयोपशमत्तायिकोत्पन्नस्वरूपरम-
णपरभावनिद्ृत्तः परिरतिविकल्पप्रवृत्तिषु द्वादशकषायोद्रे-
कमुक्कः नेगमसंन्रहव्यवहारनयेः द्वव्यक्रियाप्रवृत्तद्रव्यास्त-
ववविरक्कस्य मुनित्वम् , ऋजुसूत्रनयेन भावाभिलापसकस्पो-
पगतस्य शब्दसमभिरूढैवभूतनयेः प्रमत्तात् क्षीणमोहं्या-
वत् पारणता सामान्यावशषचक्रं स्रतच्वकत्वपरमशमता-
्रतरतस्य मानत्वम् श्र सम्यगज्ञानद्शनचाारत्रप्राग्भावयु
करस्य द्रव्यभावाश्रवविरतस्वरूपरतस्यावेसरः |
मन्यते यो जगत्सवं , स मुनिः परिकीर्तितः ।
सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मोन सम्यक्त्वमेव च ॥ १ ॥
मन्यत इात-य शमसवगानवदाचुकम्पास्तक््यलत्षणल-
क्षितो जगद् लाक , जावाजावलक्षण मन्यत , जानात |
यथाथापयागन द्रन्यास्तक्पृयायास्तकस्वभावगुणपयाोय
निमित्तोपादानका रणकायभावोत्सगापवादपद्धत्या जानाति |
स म॒निः--अवगततत्त्वः परिकीर्तितः-कथितः , श्री- |
तीथंकरगणघरेः मुनर्निग्रेन्थस्य इद मौनम् , एच्रेति निधी- |
रणे। तत् सम्यक्त्वे, यत् यथा ज्ञातं तथा कृतमिति तत् सम्य- |
कत्वम् एव मुनित्व, सम्यक्त्वं वा। पुनः सम्यकत्वम्,एव मगन |
निग्रन्थत्वम् । अन्न यत् शुद्धश्रद्धाननिर्धारितात्मस्वभावः त-
त्र अंवस्थानं चरणम् , यच सम्यग्दर्शनेन निधोरिबे सम्य-
७८
गृज्ञानेन वभक्क स्वरूपापादयत्व तच्च तथव भवात, रमण
चरण मानत्वम्, अतः सम्यक्श्रद्धागरृहातकरणं तदवभूतन-
यन सम्यकत्वम्. एवभूतनयन सम्यगमनित्वम् सम्यकस्वरू-
पम् इति ज्ञपरिज्ञाप्रत्यख्यानपरिज्ञाप्राप्तमव कायसाधकं तन
सम्यक्त्व मुनित्व श्रभदः। सम्यगर्टाष्ट्रामः यच्चतुधगुणस्थान
कसाध्यत्वन धारितं तथाकरण यत्र मुनभाव निष्पादित-
सिद्धावस्थायाम् इत्यनन शुद्धांसद्धत्वस्य धमानधारः स~
स्यक्त्वम् । श्राचाराङ्ग-' जञ सम्मत्त पासह, त माण पासह-
जे माणो पासह, ते सम्मत्त पासह, ण इम सक्त कामायरहि
पन्नत्तांह गारवावसटाह ।
“मणी माण समाधाय, धुण कम्मसरारगे ।
पतं लृहं च सावाति, वीरा सम्मत्तदासिणा ॥ १॥
तथाच पञ्चास्तिकायपु-"* जीवः चतनालक्तणः ` । तव खी
यात्मबद्धा उपि-विभावश्रस्तो $पि, सत्तया निर्मेला55नन््दी
निरधा्य--तदावरणविगमाय मोहहेतुतद्द्॒व्यास्त्रवान् हे-
यतयोपलक्षितान् हेयतया कराति इति सम्यकृत्वे मुनि-
स्वरूपम् ॥ १॥
त्माऽऽत्मन्यव यच्छु डर, जानात्यात्मानमात्मना |
सेय रत्नत्रये ज्ञपि -रुच्याऽऽचारिकता मुनेः ॥ २॥
( आत्मा इति ) श्रत्र ॒ज्ञानादिगुणानामभदकरणभूताना
ज्ञायकत्वकार्यकती आत्मा एव , अत्रापादानस्वरूपे षट्-
कारकचक्रमय एवं आत्मा । स्वयमेव कठकार्यरूपोऽपि
कारणरूपसप्रदानापादानाधिकरणः स्यमेवात व्याख्यात
भाष्ये श्रीलजिनभद्र्तमाश्रमशैः, अत एव आत्मा जीवः कते
रूपः, श्रात्मना- ्रात्मीयज्ञानवीर्यण करणभूतेन श्रात्मान
श्मनन्तास्तित्व-वस्तुद्रव्यत्व-सच्व-प्रमेयल्व-सिद्धत्वधमेकद्-
म्बकोपेतं कार्यत्वापन्नम् आत्मनि आधारभूते अस्तित्वाद्य-
ननन््तधमपर्यायपात्रभूते जानाति, सा इय जानातिरूपा भ्रव
त्तिः, सा एव रत्नत्रये सम्यगदशनज्लानचारित्रलक्षण शप्तिः-
रुचिः, आचारः-भासनन्क्द्वीराचाररूपः, पतषाम् पकता-
अभेदपरिणातिः, म॒नः श्रस्ति, इत्यनन आत्मना-आत्मान ज्ञा
त्वा, तद्राचिः तदाचरणे- मुनेः स्वरूपम् । भावना च मिथ्या
त्वाज्ञानासंयमैकत्वेन पौद्रलिकसुखं खुखत्वेन निर्धाये-ज्ञा-
त्वा च, तदाचरणप्रवृत्तस्थानन्तकाल तच्वानववोधेन दा
ज्वरपरिगतादसृत्तिकालेप इवावगुण्ठितः कमपुद्रलेन चो-
पलन्धः तन्वश्रद्धानज्ञानरमणायुभवलवो ऽपि तेनेव नि-
सगीद्धिगमादिकारणेन श्रनादिनिधनो ऽये जीवो ऽनन्तज्ञाना-
दिपर्यायालिप्ताम् सैस्वभावो ऽवगतः, निद्धारितश्च, साध्यो5
हं, साधका5हं, सिद्धा5हं, ब्लानदशनाद्यनन्तगुणमयो ऽहम्
इति ज्ञप्तिरुच्या श्राचरणरूपं मुनिस्वरूपम् | उक्त च-
““श्रात्मानमात्मना वेत्ति, मादत्यागाद् यदात्मनि ।
तदेव तस्य चारित्र, तज ज्ञाने त व नम् ॥ १॥”
पुनःहरिभद्रपूज्यैः पोडशके-
“बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमवृत्तिविंचारयाति वृत्तम् ।
श्रागम्रतच्चं तु बुधः, परीत्तते सर्वयत्नन ॥६॥ "
अतः तच्यैकत्वं चारित्रम् ॥ २
पुनस्तदेव द्रढयति--
चारित्रमात्मचरणाद , ज्ञान वा दशनं मुनेः |
११४
( ३१० )
माण
आमभधानराजन्द्र। |
मणि
शृद्धज्ञाननय साध्यः, क्रियालाभात् क्रयानय ॥ ३॥ |
(चारित्रमिति) आत्मचरणात्-आत्मस्वरूपरमणात् परभा
वप्रवृत्तित्यागात् : चारि त्रम्-श्नात्मस्वरूपाववो धः, ज्ञाने-स्वी-
यासख्ययप्रदशव्यापकत्वेन सहजलन्तणज्ञानादययनन्तप्यायः
अहं नान्य इति निद्धारः । दशनम्--इत्यनन आत्मा ज्ञानदश
|
|
नापयागगणद्ध यलक्षणः । एवम् उक्तं च भाष्ये- आत्मनो |
गुणद्धयमव व्याख्यानयन्ति" इति तन्मते-ज्ञाने स्थिरत्वं चा-
रिव, तन ज्ञानचारित्रयारभद एव, ज्ञानमवात्मपरिणाममयी
वृत्तिः । सम्यक्त्वम्-श्राखवरोधः, तच्वज्ञानेकता चारित्रम् , |
एवं व्यापारभदात् ज्ञानस्यैवावस्थात्रयम् । उक्तं च-
“ एवं जिणपणसत्त, सदृहमाणस्स भावओ भावे ।
पुरिसस्साभाणि वाण, दंसणसदो हवइ जुत्तो ॥ १॥ ""
तथा च क्रियानये क्रियालाभात् साध्यनिष्पादनाय इति
प्रथम च क्रियानयसाध्य तत्त्वप्राग्भावे च सव ज्ञाननयसा-
ध्यमस्ति, वस्तुतः ज्ञानप्रव॒त्तिरेव चरणं ज्ञानमयमेवात्मध-
त्वात् , , अतः ज्ञानस्वरूप एवात्मा ॥ ३॥
यतः प्रवृत्तिन मणो, लभ्यते वा न तत्फलम् ।
अताचिकी मणिज्ञप्ति-मेशिश्रद्धा च.सा यथा ॥ ४॥ |
(यतः प्रवृत्तिरिति) अशुद्धज्ञान निष्कलत्वं द्रढयति, यथा-
अतात्तिकी मरणिज्ञप्ति:-अमणो मरयारापे, अमणों माणिश्रद्धा
तस्मिन् तत्फलं न लभ्यत-न प्राप्यत, यतं: मणः सकाशात्
मरिप्रत्रत्तिः विपापहारादका भवर्तात्यर्थः | उक्त च--
पुल्लव मुदा जह स असार, आयंतए कूडकहावण वा ।
राढामणी वेरुलवप्पगासे,अम्हग्घठ होइ य जाणएसु ।१।४॥ ”
तथा यतो न शुद्धात्म-स्व्रभावाचरणं भवेत् |
फलं दोषनिवृत्तिवाँ, न तन् ज्ञानं न दशनम् ॥ ५॥ |
(तथा इति)तथा-तन प्रकारण, यतः-एकान्तद्रव्याचरणचा-
रित्रात् , शुद्धात्मस्वभावाचरणं-शुद्धः परभावरदितः याऽस |
आपत्मस्वभावः स्वरूपलक्षणः तस्या $ ऽचरण तदेकत्वं तन्म-
यत्वं न भवत् , तन प्रवत्तनन फले शुद्धात्मस्वभावलाभरूपं न
परमा्मपदानिप्पत्तिः.म दोषाणां-रागादीनां,निरववात्तिःअभावः। |
न। वा-अथवा, तत्-सवमाप, प्रवत्तन वाललालाक्टप शुद्धा-
स्मस्वरूपालम्बनमन्तरेंण अवेदयसंवेद्यरूप ज्ञान-तजज्ञान,तथा- |
सकलपरभावसज्ञपा क्षिकाशद्धा त्माध्यवसायमुक्कता क्विका-
मूततचिन्मयानन्दात्मीयसहजभाव एवाहामिति निद्धारविकलं |
तददर्शने, न--नेवत्यर्थः, अत एव श्रुतन केवलात्मज्ञान तदभे-
दज्ञानम् उत्सर्गज्ञानं च श्रुतात्तरावर्लम्बि सर्वद्रव्योपयागं
भदज्ञान सवात्तरसपन्नश्च यावद् द्रव्यशुभा+वलम्बी तावद्
भेदज्ञानी । उक्र च समयप्रा भ्र्ते--
जो सुणणाभिगच्छुइ, अप्पाणमिणं तु केवलं खुद्धं ।
ते खुश्मकवलामिसिणा, भणति लोगप्पदीवयरा ॥ १॥
जो खुअनाणं सव्व, जाणइ सुअकंवली तमाह जणा ।
नाणे श्रायासव्व, जम्हा सुअकवला तम्हा ॥ २॥
आत्मस्वरूपज्ञानं च प्राभ्रते-
“ अहमिको खलु सुद्धा, नम्मओ नाणदंसणसमग्गो ।
ताम्म ठुआ ताञ्चत्ता, सत्व एप खय नामि॥६॥
निमलनिप्कलङ्ज्ञानद शनापयोगलक्तण आत्मा, तज्ज्ञाने ज्ञा-
नम् । उक्तं च-
“"देदादवलजो वसद, देय अणाइअरणंत ।
सो परजाणड जोइया, श्रत्तत तंत नमेत ॥१॥”
आत्मशाननेव सिद्धिः , साध्यमपि पूर्णात्मज्ञाने , त-
दर्थभेव वदन्ति दशैनान्तरीयाः , प्राणायामयन्ति-रे-
चकादिपवनम् , अवलम्बयन्ति मौनं, रमन्ति गिरिवन-
निकुञ्जषु , तथाऽप्यह त्मणीतागमश्रवणात् स्याद्वादस्वपर-
परीक्तषपरीत्तितस्वस्वभावाववोधमन्तरेण न कायसिद्धिः ,
अतः प्राप्तावसरे तदेवानन्तगुणपयीयात्मकमात्मन्ञानमात्म-
नाऽऽत्मनि करणीयम् । उक्तं च--
“आत्मा5ज्ञानभव दुःख--मात्मन्ञानेन हन्यते ।
शछ्मभ्यस्यं तत्तथा तन, येन (आत्मा) ज्ञानमयो भवेत् ॥१॥ ”
यथा शोफस्य पृष्त्वं, यथा वा वध्यमण्डनम् ।
तथा जानन् भवोन्माद्-मात्मतप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६ ॥
यथा इति-यथा यन प्रकारेण, शोफस्य--पुष्रत्वे शरी-
रस्थोल्य न पुष्त्वे इष्ट, वा-अथवा, यथा वध्यस्य-मार-
णाथ स्थापितस्य, मरडन--कणवीरमालाद्यारोपणात्मकम् ,
एवेरूप भवोन्मादं जानन्-भवस्वरूपम् एवविध जानन् , मु-
निः-समस्तपरभावत्यागी, आत्मत्प्तः आत्मस्वरूपे-अनन्तगु
णात्मक, ठेप्तः- तुषा भवत् , ससारस्वरूपवरूपमसार निष्फ-
लम् अभोग्यं तुच्छं त॑ ज्ञात्वा, मुनिः स्वरूप मगझो भवति ॥६॥
सुलभ वागचुच्चार, मानमकन्द्रयष्वपि |
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मोनयुत्तमम् || ७ ॥
( सुलभमिति ) वागनुच्चारम्-वचनाप्रलापरूप, मोनम् सु-
लभे-सुप्राप्य, तत् एकन्द्रियष्वपि अस्ति | तन्मोनं मात्तसा-
धकं नास्ति । पुद्रलेषु-पृद्रलस्कन्धजवरीगन्धरसस्परीसस्था-
नादिषु, योगानां -द्रव्यभावमनोवचनकाययोगानां, या अप्र-
वृत्तिः रम्या, रम्यतया अव्यापकत्व तद्भिमुखे वीर्यापसर-
णपरिसर्पणरंहितं, मोनम् उत्तमम्-प्रशस्यम् , भावना च-प-
रभावानुगतचतनावीयप्रवत्तन चापल्यं तद्रोधः मोनम् उत्तम-
म्--उत्कृष्ट, आयत्यात्मनीन योगचःपस्यं च नात्मकाय तेन
तद्रोधः श्रयान् । योगस्वरूपम् कर्मप्रकतो-- आत्मनो बीय-
गुणस्य क्तायोपशमप्राप्नस्यासंख्ययानि स्थानानि सर्वजघन्ये
प्रथमं योगस्थाने. सृच्मनिगोदिनः॥ एवे सृन्मनिगादेषु उत्पद्य-
मानस्य जन्तोः भवति । इह जीवस्य वीय केवलिप्रज्ञाच्छेदनके
न छिद्यमान छिद्यमान यदा विभागे न प्रयच्छति, ददा स ए-
वांशो विभागः.ते च वी्यस्याविभागाः,एकेकस्मिन् जीवप्रदेरो
चिन्त्यमाना जघन्यनाप्यसख्येयलोकाकाशप्देशप्रमाणाः, उ-
त्कषतो ऽप्येतत्सख्याः, कितु-जघन्यपदभाविवीयाविभागापे-
त्तया असख्ययगुणा द्रष्टब्या:,येषां जीवप्रदेशानां समाः तुल्य-
सख्यया वीयोविभागा भवन्ति सर्वेभ्योऽपि चान्यभ्योऽपि
जीवप्रदेशगतवीर्या विभागेभ्यः स्तोकतमाः त जीचप्रदेशा घ-
नीकृतलोकासंख्येयभागासंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणा
सम॒दिता एका वगैणा । सा च जघन्या स्ताकाविभागयुक्र-
त्वाद् , जघन्यवगणातः परे य जीवप्रदेशाः एकन वी्याविभागे
नाभ्यधिक्रा घ्रनीकृतलाकासख्ययभागवस्यसख्ययप्रतरगतप्र-
5 ... = वत्तेन्ते । तषां समृदायो द्वितीया वर्गणा ।
=
=
~~ -
जे ‰ ३.५
3 च
चुप चः = ~
(८ ३११ )
सुणि
ततः पर द्वाभ्यां वीयाविभागाभ्यामाधिकानामुक्कसंख्या
कानामेव जीवप्रदेशानामेव समुदायस्तृतीया' वगणा ,
अभिधानराजन्द्रः।
पवमेकेकवीयाविभागच्रद्धया वद्धमानानां तावन्तो जीवप्र- |
दशाना ससुदायरूपा वगणा असख्यया वक्कधष्या
ताश्च |
कियत्य इति इद घनीकृतलोकस्य या एकेकप्रदेशप- |
ङक्रिरूपा श्रणिः तस्याः श्रशरसख्ययतमे भागे यावन्त
आकाशप्रदशाः तावन्मा् वगणा समुद्ता एक स्पद्धक- |
म्, स्पधत इवात्तरात्तरवृद्धयथा घगणा अत्र शत स्पध- |
कम्, पृर्वोक्लस्पद्धकंगतच रमवर्गणायाः परतो जीवप्रदशा
नैकेन वीयाविभागेनाधिकाः प्राप्यन्ते नाऽपि द्वाभ्यां नाऽपि
[ना = [न ५ ~~ ~ [हत र र |
तरिभिः नाऽपि सख्येयेः, कि त्वसख्यय लाकाकाशप्रमाणर- |
भ्यधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तषां, समुदायों द्वितीयस्य स्पद्ध-
कस्य प्रथमा वगणा,
ततः जीवध्रदेशानामेकेन वीयावि- |
भागनाशिकानां समुदायो द्वितीया वगेण, द्वाभ्यां वीयौ- |
ग्वभागएभ्यामाधकाना समुदायः तृताया वगणा, एव ताव
द्वाच्य यावत् श्ररयसख्ययभागगतप्रद्शराश्चप्रमाण बग-
रा भवान्त, तासा च समुदायः द्वताय स्पद्धक , तत
पनरप्यसख्ययलाकाकाशा: प्द्शपमाणः वायावभागर-
अयाघकाः प्राप्यन्त, तत्तस्तषा समुदायः तृतायस्य स्पद्ध-
कस्य प्रथमा वरणा , ततः एककवीया विभागवृद्धया द्वि-
तीयादयो वर्गणास्तावद्धाच्या यावत् श्ररयसख्ययभागगत
श्रदेशराशिप्रमाणा भवान्त, तासां च समुदायः तृतीयं स्प
कम् , एवमसंख्येयानि स्पद्धकानि वाच्यानि, एवं पू-
वोङ्गानि स्पद्धेकानि श्रणयसस्ययभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा- |
नि जघन्य योगस्थानम् , पतच सखच्मनिगोदस्य सर्वाल्पयी- |
यस्य भवप्रथमसमय वत्तमानस्य प्राप्यत, ततः अस्य जीव- |
स्याधिकतरवीयस्य ये ऽठ्पतरवीयौ जीवप्रदेशाः तषां स-
सुदायः प्रथमा वगणा, ततः एकन वीयाविभागन बुद्धानां
समदाया द्वितीया वगणा । द्वाभ्यामधिक्रानां समदाय-
स्तृताया वगणा । एवमककवायावभागवद्धमानाना यावत् |
अ्ररयायसख्ययभागगतप्रदशराशकप्रमाणा भवान्त, तासा स-
समुदायः प्रथमस्पद्धक्म् । ततः श्राकृतनयागस्थानप्रदाशत-
यकारण द्वितीयादानि स्पद्धकानि वाच्यानि, तानिच या
चत् श्ररायसख्ययमागगतप्रदशराशिप्रमाणौानि भवन्ति, त-
तस्तषां समुदायों द्वितीयं योगस्थानम् । ततोऽन्यस्य जी-
वस्याधिकतरवीयस्यापदरितप्रकारण तृतीय यागस्थानं
वाच्यम् । पवमन्या ऽन्यजीवापक्तया तायत् योगस्थानानि
चा्च्यानि यावत्सचांत्कृष्ट योगस्थान भवति | तानि च यो
गस्थानानि सवीरयपि श्ररायसख्ययभागगतयप्देशराशिप्रमा- |
शानि भवन्ति । क्षयापशमयेचिव्यात्सवमवसयमः ।
जीवानामनन्तत्वात् प्रतिजीव ख यागस्थानस्य प्राप्यमा-
खत्वात् श्रनन्तानि यागस्थानानि प्राप्नुवन्ति, , कथम॒च्यते
अस ख्ययानि ? । उच्यत-यतः पकेकस्मिन् योगस्थाने सदश
सदश वत्तेमानाः स्थावरजीवा श्रनन्ताः प्राप्यन्त. तत
सवजीवापल्षया ऽपि सवाणि यागस्थानानि कवलपरिज्ञया
परिभाव्यमानानि असख्ययान्यव प्राप्यन्त नाधिकानि.पक-
स्मिन् योगस्थान एका जीवः जघन्यत एक समयम् उतकृ
तोट समयान् यावल्तिष्ठति । एवं योगस्थानतारतम्ये स-
वैजीवेषु योगवाहुल्यं गाथाक्रमेण वक्कव्यम्--
““खुहमनिगोश्राई क्खण-प्पजोगवायरबिगलअमणमणा ।
ननु |
अपज्लहुपढमदुगुरु, पञजस्सियरो श्रसखगुणा ॥
असमत्ततसुक्कोसो, पजहांन्नयर एवं ठिदठाणा । "
इत्य्टाविशातभदारपवहुत्वमवगन्तव्यम् । योगवाहुल्ये बहु
कमग्रादी, मन्दत्व अल्पपुद्ग लग्माही इत्यवं या योगानां पुद्र-
लग्रहणरूपा प्रवृत्तिः तस्या राधः मोनम् उत्तमं कि सत्-
ष्णस्य बाह्ययागरोधन ? । तस्मात् सकलविमलज्ञानाद्यन-
न्तगुणगणमहामाहात्म्यपरमात्मभावरसिकेः शरात्मना योग-
भ्रवृत्तिपुद्धलानुगतयो रोधनीया इःयुपदशः ॥ ७ ॥
ज्योतिमयीव दीपस्य,क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी |
यस्यानन्यस्वभावस्य, तस्य मोनमनुत्तरम् || ८ ॥
(ज्योतिभर्यीवेति)तस्य-- तच्वेकत्व परिणतस्य.मोनम्-योग-
निग्रहरूप, स्वधम॑प्राग्भावकर्तत्वभोक्तृत्व व्यापारिताशेषवी
यस्य कर्मविकरणापूयकरणकिट्रौकरणादषु स्थापितवीर्यक-
रणस्य परभावाप्रवृत्तत्वन-मानम-यागच्रापद्यतावारणरू-
पम् , श्रनुत्तरम्-सर्वात्छृष्ट, यस्य॒ क्रियागुणप्रकर्षप्रवत्त ना
वीयंप्रवृत्तस्यापि, चिन्मयी- स्वरूपज्ञानमयी, श्रात्माचुभ-
वेकत्वरूपा , तथा-- दीपस्य या क्रिया-उत्तपणनिक्तप-
णादिका सा सर्वापि ज्याति्मयी ज्ञानप्रकाशयुक्ला, तथा
यस्य वन्दननमनादिगुणस्थानारादरूपा क्रिया तत्त्वज्ञान-
प्रकाशिका तस्य अनन्यस्वभावस्य-न विद्यत--श्रन्यः परः
स्वभावो यस्य सः, तस्य परभावव्यापकचेतनाभिलधि-
वीयैरदितस्य साधाः मोनम् अनुत्तरम् , वियत्सुस्वभावा-
युरोधादेव तत्कारकात् वियत्संपूर्णता, तदुत्पत्तौ, “ कुम्म-
स्येव दशा ऽऽत्मनः' इति न्यायात् ज्ञानिनः क्रियाज्ञान्युपका-
रका ज्ञातव्या ज्ञाननयस्यात्मनः तचेकत्वाध्यासितस्वरूपा -
रोहका या क्रिया सा ज्ञानस्वरूपप्रकाशनदेतुः ऋवरणनि-
मित्तमसत्किया आवरणापगमाय सत्करियानिमिन्तं भवति,
तत्त्यमझस्य न कारणीभवति, अतः तत्वज्ञानस्वरूपेकत्व-
ध्यानलीनानां मुनीनां तेषाम एव नमश्चरणयाः ॥ ८ ॥ अष्ट
१३ अष्ट० । प्रतिज्ञातसावद्यविरतौ, उत्त० २७ श्र । साधो,
आव० ४ अ०। विशे० । सूत्र० । नि० चू० । सूज० । दश० ।
घ० । अद्वाहा ध्यवसायवति, आचा० १ श्रु० ३ श्र° ३ उ० ।
यथार्वास्थितसंसारस्वभाववत्तरि , सूत्र० १ श्रु० २ अ० २
उ० | आचा9० | तीथरकांते, आचा० १ श्रु० ५ अ० हे उ3 |
यतो, सूत्र० १ श्रु० २ अ० २ उ० | भ० । आव० । सर्वज्ञ, सू-
ल० १ श्रु० २ अ० १ उ०। महर्षौ, सूत्र० श्रु० २ २आ० १ उ० ।
मननशील, उत्त० ६ अ० । वार्चयम, उपा० २ अ० । सयते,
दश० ५ अण० । मोक्षमात्रनिष्ठि, दश० ५ अ० । तपस्विनि,
दश० १० अ० | मौनिनि, ओ० । तत्त्वज्ञानिनि, अष्ट० २२ अ-
प्र० । आ० म० । रागद्वेषवर्जिते, आ० म० १ श्र० | त्रिविधप-
रीषहसहनशी ले, श्रा म० १ अ० | “जइणो तवास्सिणा ता-
वसा रिसी भिक्खुणों मुणी समणा ” पाइ० ना० ३२
गाथा |
म्शिअ-ज्ञात-त्रि० । विदिते, “ कलिश्च विद्यं विरणाय श्र-
हिगये बुद्धि मुणिश्र ` पाइ० ना० ६१ गाथा।
भमणिअतत्त-ज्ञाततक्त-पुं० क्ञातपरमार्थ, "` मृणि्रतत्तस्स ”
मु ३
( ८५६ गाथा ) पे० ब० ३ द्वार | जी०।
` त
३१२ )
[4
खिद्
~ 5 ताज _ पं ~ गे १। द नतिस-
माद -युर्नन्द्र पु० | इहस्वस्सयाग ॥८। ६! ८3 ॥ इतस
य॒क्कपरत्वाद् हस्वः । प्रा० १
पो० ६ विव०।
मशणिगण-म्ुनिगण--पुँ” । बतादी, आव० ३ अ० ।
मुणिचद--मुनिचन्द्र- प° । सागर चन्द्रस्य मृनः समाप म्रजञ्य
पाद । परमज्ञानिनि समयज्ञ,
च्रभिधानराजन्द्रः।
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मुणिवेजयंत-मुनिवेजयन्त-पुं० । मनुते जगर्तास्त्रकालाब-
स्थामिति मुनिभगवान् वैजयन्तः प्रधानः समस्तलोकस्य
महातपसा वेजयन्तीवो परिव्य वास्थित इति मुनिभ्रवरे श्रीवी-
रजिन, सूत्र० १ श्रु० ६ अ०।
| मुणिसुंदर मुनिसुन्दर -०। सोमखुन्दरगीनद्राशिष्य, श्रीदेव
ब्रह्मदत्तपृवभच जीवस्य पुत्रस्य चित्रस्यापि च पूवेभवजीवस्य |
गापालदारकस्य प्रद्माजके, उत्त० १३ अ० । ( तत्कथा * वभ- |
दत्त शब्दे पञ्चमभाग १२७२ पृष्टे उक्ता ) मरुडलप्रकरणकारके
सूरो, मरड० । स्था०। | आ० चु०। ( ' मअज्ज ` शब्द कथा) कु
मारसज्निवेश भगवद् वीरेण सह {मालत पाश्वापत्ताय साधा,
आए० म० १ अ०। श्रा० चू० | अअरनक्रान्तजयपवाकारूात स्
रा, अन० । तपागच्छुप्रथमसूरो, ग०।
““श्रीसवदेवसूरि- जज्ञ पुनरव गुरुचन्द्रः ॥ २२॥
जातो तस्य विनयो, सारयशाभद्रनामचन्द्राह।
ताभ्यां मुनीन्द्रश्रौमुनि- चन्द्रा गुरू समभूताम् ॥ २३ ॥ ”
ग० ३ आधि० । अनन गाथाकाशः तीथमालास्तवः रत्न-
त्रयकुलकं दरिभद्रसूरिङूतधमेचिन्दुरटीका चति ग्रन्था
रचताः । तीयो ऽप्येतन्नामा चन्द्रप्रभसा[राशेष्यः देवप्रभ-
स्तरारगुरुः चालुकक्रशशायस्य आनलराजस्य प्रताजायता, |
तृतायश्व वडगच्छे देवसारंगुरू आवश्यकसप्चातग्रन्थकता । |
ज० इ०।
मणिजण-पुनिजन-प० । साधुजन, जी० १ प्रति० ।
मुशित्ता-मुनिता-खी० 4 प्रवजिततायाम् , आ० म० १ श्र०।
युखिदेवस् रि-पुनिदे वस्रि-१० | शान्तिनाथचरित्रग्नन्थकृति,
द्वतीयोऽपि मुनिदेवाचायै इति प्रसिद्धः सुभाषितरत्नको-
पनामग्रन्थकत्ता । जै० इ० ।
माणपारसा-म्रानपषद-स््रा० । मानवत्साधुषु, आ५ |
मुणिपुड्गरव-मुनिपुड्भव--5० । ताथकरगणधरादषु , दशी° ४
तच्च ।
मुशिय ज्ञात-त्रि० । विदिते, आ” चु० १ अ० । ने० । खना- | फाणचन्व
मख्याते पिशाचे, त्रा० चु० १ आ०।
रणियपरमऽत्थ--ज्ञातपरमारथं -ऐ०। अभ्युद्यतविहारेण विहसै- 5
मवसरः साम्प्रतमस्माकमित्यवमवगतार्थ, बृ० ६ उ० । ज्ञात-
तिद्धान्तार्थे, पश्चा० १५ विव० ।
मुणिरयणप्रि-मुनिरलस्ररि ए०। चन्द्रगच्छीये समृद्रघोष-
सूरिशिष्य जिनसिहसरिशुरों, अनन अममस्वामिचरित्रनाम- |
ग्रन्था रचितः, अये ६६६० विक्रमसवत्सरे आसीत् | जे० इ०।
णिवंस , ता च ^ ^~ * ह
मुणिवंस-मुनिवंश पु । यतिमुनिशब्दयाः पयायत्वात् । मु-
निकल, स० ।
मुनिवर-मुनिवर-पुं० | श्रमणश्रष्ठ, ग० १ अधि० ।
मुणिवसभ-पुनिवृषभ-ए५ँ० । सातिशयादिसुनिमुझवे, पञ्चा० २
विव०।
मुणिविजय--मुनिविजय-पुं० । अन्निकाचार्य पृष्पचू लक थाना-
मग्रन्थस्व कारके अमरविजयशिष्पे, जे इ०।
सुन्दरगुरोः पट श्री सोमखन्दरगणीन्द्राः। अभवन् युगप्रघाना
शिष्यास्तपां च पश्चिते श्रीमुनिसुन्दरसूरिः यन स्तातरत्नकाशा
नाम ग्रन्थो व्यराच। ग०३आंध०।अस्य जन्मावक्रमसवत् १४३६
दीच्ता विक्रमसंचत् १४७३ अर्ति । अये च वाचकपदम् १४६६
सूरिपदम् १४७८ स्वगीगमनम् १५०२ प्राप्तवान् पारिडत्यप्रभा-
वादये कालासरस्वतीवादगोकःलषरडसदस्नाधिधानीव्यादिः
विरुदानि लभे) ज०इ०। “वीरात् एवनन्दाङणरचयचीकर-त्सच
व्यपृत भर वसनभूपतिः । यस्मिन्महेः ससदि कटपवाचना-
मादयात्तदानन्दपुर न कः स्तुत ॥१॥” कट्प० १ आंध०७ क्षण ।
| मुनिसुव्यय- मुनिसुव्रत पु? मचते जगतस्तिकालाबस्थामाति
मनिः। मुनस्देतौ चास्य वेति इप्रत्यये उपान्त्यस्योत्वम् । शा-
भनानि बतानि यस्यति सुव्रतः मुनिश्चासो खवतः, तथा-
गर्भस्थे जननी मुनिवत्सुवता जातति मुनिसुब्रतः । ध० २
अधि० । “जाया जणणी ज खुव्वइ त्ति मुणिखुब्वओ तम्टा ?
घ० २ अधि० । आव० । च्रस्यामवसर्पिर्यां भरतक्तत् जात
विशतितमे तीथकर, करूप १ आधि० ७ क्षण । स्था०।
अनु० । प्रव० ।“पक्तारसमो देवद जीवो माणिस॒ब्बओ” ती०२०
कल्प । देवक्या जीवे भाविन्यामुत्सपिरयां जनिष्यमाणे
एकादशे तीर्थकर, प्रव० ४६ द्वार ति० । आ० क० |
मुणिसेण- मुनिसेन -पु० । पुप्पकलावतीविजय पुएडरीकिस्यां
नगर्या जाते सागरसेनश्रातरि, आ० चू० १ अ०।(' उसभ `
शब्दे द्वितीयभाग ११३३ पृष्ठ अ्रयांसन स्वपूवभवकथन
ललिताङ्गदवप्रस्ताव कथाक्ता )
मुणी-देशी--अगस्तिडुम, द० ना० ६ वर्ग १३३ गाथ, .
मशिऊण -ज्ञात्वा-अव्य० । ज्ञात्वेस्यथ, पञ्चा” ६ विव० ।
शियन्व- ज्ञातव्य त्र । ज्ञातव्य, उत्त० २ अ० । मन्तव्ये,
प्रव २०४ द्वार वदितव्य, ज० १ घत्त० । श्राव० । पञ्चा० ।
मुत्त-मुक्त-त्रि० । त्यक्त , पा० । सूत्र०। चतुगातिविपाकचित्र-
कर्मबन्धमुक्रत्वान्मुक्कः। ल०। मुक्कस्त्यक्नः सद्धा द्रव्यतः चुनमुक्तो
भावताऽभिष्वङ्गाभावात् स्था०।'चत्तारि पुरिसाजाया०(३६६
इस्यादि सूत्रम् 'पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभाग०३३यृष् गतम् )
निर्लो भतायुक्र,ग० रश्रधि०। बाह्याभ्यन्तर पारि ग्रहरहित,ञ्राचा०
१ श्रु० २ : उ०। बाह्याभ्यन्तर ग्रान्थबन्धनान्मोचक ,स० १
सभ० | दश०।भ०।भवापम्रादिक माणि, करप ६ आधि० ६ क्षण ।
चतुर्गतिविषपाकचित्रकर्मवन्धम॒क्क, घ० २ आध० । सकलक-
मेङृतविकारविराहेते , स्था० १० ठा०। क्षिप्त , जी० ३ प्र
ति ४ श्रधि०। ज्ञा०। सूत्र० | न०। प्रश्रवण , अष्ट० १६ अष्र०।
श्राव०। स्था० । प्रश्न० । दर्श० । रा० ० क०।
मूत्ते-त्रि० । त्तस्या5घूत्तोदों ॥८। २। ३०॥ इति धृत्तादित्वा-
स्य टो न | मुत्तो । प्रा०। प्रव० । वर्णादिमाति, स्था० ५ ठा०
३ उ०। रूपिणि श्राव० ४ आ० । करप्रेरिते, ज्ञा० १ श्रु० १
अआ० । क्मेपजरान्सङ्कः । कल्प० १ अराधि २ क्तणु ।
| | 77 ~ र - ~
( ३१३ )
मुत्तग ग् 0 4 ^... 4
भत्तग-युक्रकः न° । स्वनामख्याते, पुष्पे , कट्प० १ श्रध
३ स्तण ।
प्रत्तत्त-ग्रत्तत्व- न०। मूत्तों रूपरसगन्धस्पशादसान्नवशता त- |
स्या धरणस्वभावो मूत्तत्वम् । मूर्तस्वभावे, “ मूर्ति द्धाति मू
सैत्वममसत्वं विपर्ययात् । "' द्रव्या० ६२ अध्या०। लोकदृश-
व्यवहारेण मूत्तेखभाव एवात्मा इत्यक । द्रव्या० ११ अध्या० ।
मत्तपुरीसुस्सग्ग मूत्रपुर षात्सग-ए* । मूत्रपुरीषत्यागे
मूजात्सग मततात्सग, मंथुन स्नानभाजनम् । सन्ध्यादि- |
२ आध०।
कमेपूजा च, कुयाजाप च मोनवत्॥ १॥ ध०
नि० च०।
मुत्तमल यक्तमल- पुण । मलराहिते , दर्श० ४ तत्त्व ।
[> पु [क
मत्तरूव पुक्ररूप- -त्रि० । वेराग्यपिश्युनाकारे , स्था० ४ ठा०
४ उ०।
मत्तसकरा मृत्रश्करा खी” । पाषाणके मृत्ररोगे, नि० चू० |
१ उ०। नि
मत्ता-मुक्ता खी० । मुक्काफले, आ० म १ अ०। स्था०। रा०।
यत्ताकलाव यक्ताकलाप-न० । मौक्किकाहारे कल्प० १ अ-
धि० २ क्षण ।
मृत्ताजाल-म॒क्काजाल-न० । मुक्काफलसमूहे, ज्ञा० शशु ०९ अ० ।
म॒ुक्काफलमये दामसमूहे, रा०।मुक्काजालानामन्तरेषु यान्युत्ख-
तानि लम्बमानानि हेमजालानि-खुवर्श्समूहाः | रा० । जी० ।
यत्तादाम-य॒क्रादामन् न° । मुक्ताफलमालायाम् , रा०। औ०। |
यत्ताफल-युक्रा फल -न० । मौक्किके , मुक्काफलानि सचित्तानि
अचित्तानि वा परथिवीकायदलान्यपकायदलानि वेति प्रश्ने,
उत्तरम--मुक्काफलान्यचित्तानि पृथ्वीकायरूपाणि च भव-
न्तीति ॥ २१५ ॥ सन० ३ उल्ला०।
मत्तामणिमय-प्ुक्नामणिमय-त्रि०। मुक्ला-मुक्काफलानि,मणय-
श्रन्द्रकान्ताद्या रत्नाविशेषाः, मुक्कारूपा वा मणयो रत्नानि |
म॒ुक्कामणयस्तद्विकारो मुक्कामणिमयः । मुक्कामणिविकारे, स० |
६४ सम०।
मुत्ताऽऽलय- युक्गाऽऽलय- पु म॒क्तानामाश्रयत्वादालयः स॒क्ता-
लयः । इंषत् प्राग्भारायां पृथिव्याम् , ज० ३ वक्त० । स० । |
मुतक्तवली-प्रुक्कावल्ली खी ०।मुक्ताफलमये च्राभरणविरेषे, ज्ञा० |
१ श्रु० १ अ० । जीण । श्राचा० । जं० । मुत्ताफलशरीरे हारे
स०७४ सम्र०। रा० औ० भ०।
ना०११५ गाथा । स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्र च । मुक्कावलिदी पे
मुक्रावलिभद्र-मुक्ावलिमहाभद्रौ, मुक्कावली समुद्रे मुक्ता- |
चलिबर-म॒क्तावलिमहावयो,मक्रावलिवर द्वीपे-सक्कावालिबर- |
भद्र-मुक्रावलिवरमहाभद्रौ , मुक्कावलिवरे समुद्रे-मुक्कावलि- |
वर--म॒क्कावलिमहाव रौ, म॒क्लावलिवरावभासे द्वीपे-म॒क्ताव- |
लिवरावभासभद्र-मृक्तावालिवराभासमदाभद्रौ , मक्लावालि- |
चराभवासे समुद्रे--म॒क्कावलिवरावभासवर--मुक्लावलिवरा-
चभासमहावरो । जी० ३ प्रसि० २ उ० | मुक्रावलिः-मौक्तिक-
हारः, तदाकारस्थापनया यत्तपस्तन्मुक्कावलीत्युच्यते । तया
अद्, प्रच० |
७६
भि धानराजेन्द्र
म॒त्तावली य हारो ” पाइ० |
सुत्तावली
मङ्कावलीतपः प्राह--
एगो दुगाइ एकग--अंतरिआ जाव सोलस हवंति ।
पुण सोलस् एगंता, एकंतरिया अभत्तद्वा | १५३७ ॥
पारणयाणे सद्र, परिवाडी चरउक्कगंमि चत्तारि |
वरिसाणि हंति पुत्ता-बलीतेवे दिवससंखाए ॥१५३८॥
मक्कावली-मो क्लिकहार तदाकारस्थापनया यत्तपः तन्म-
क्लावला त्युच्यत । तज्रादा तावद्ककः स्थाप्यन.नना दकार
कादय पक्रकरान्तारता भवान्त | यावत्पडश।तत पुन प्रत्या
गत्या षाडशाद्य पकक्पयन्ता पककान्तारता स्थाप्यन्ते ।
स्थापना चयम्--
अयमर्थः-पूर्व तावदेक उपवासः, ततो द्धौ,
ततः पुनरकः , ततस्रयः , तत एकः , ततश्च-
त्वारः, तत पकः, ततः पञ्च, तत पकः, ततः
षट् , तत पकः , ततः सप्त, तत एकः, ततो
<छो, तत एकः, ततो नव, तत पकः, ततो
दश, तत एकः, तत एकादश, तत पकः , ततो
द्वादश, तत पकः, ततसरयादश,. तत पकः,
ततश्रतुदेश, तत॒ पकः , ततः पञ्चदश, तत-
पकः , ततः षोडशोपवासाः , पवमद्धमुक्राव-
ल्या निष्पन्ने द्वितीयमप्यद्धमवं द्रष्टव्यम् , कवल-
मत्र प्रतिलोमगत्या उपवासान् कराति , तद्य-
था-षोडशोपवासान् कृत्वा पकमुपवासे करो-
ति। ततः पञ्चदश , तत पकमिवयेवमेकोपवा-
सान्तरितमेकोत्तरहान्या तावन्नेये यावत्प्यन्त
द्वाबुपवासो रत्वा एकमुपवास करोति इति
पते श्रभक्गाथा उपवासाः, सर्वाग्रण चन्रीणि
शतानि , तथादि-द्वे षोडशसंकलन १५०-१५०
अष्टाविशतिश्व चतुथानि। तथा--षष्ठिः पार-
कानि, ततो जातमकं वधम्, पतदपि
तपः प्रागवच्चतखाभिः परिपाखीभिः समा-
प्यते , ततो भवन्ति मुक्कावलीतपसि दिव-
ससख्यया चत्वारि बषौशीति । श्न्तकदशा-
खु पुन्यं एव प्रथमपङ्द्किपयन्तवर्तिनः षोडश,
द्वितीयपङ्ङ्िप्रारम्भेऽपि त एव, पक एवं षोडश
क इति तात्पयेप्। प्रव० २७१ द्वार ।
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पितुसेणकण्डाऽवि नवरं युत्तावलीतवोकम्मं उवसंपजित्ता
श विहरति । तं जहा--चउत्थं करेति, चउत्थं करित्ता-
सव्वकामगुणियं पारेति , सव्वकामगुणियं पारेत्ता-छट्टं
करेति, छं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सन्वका-
मगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थ करेत्ता सव्वका-
मगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेताश्नदरम करेति,
अट्टम करेत्ता-स॒व्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुशियं
पारेत्ता-चरत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सेव्वकामगुणियं
परेति, सन्वकामगुशियं पारत्ता-दसमं करेति, दसम
करेत्ता-सव्वकामगुशियं पारेति, सव्वकामगुशियं पारेत्ता-
चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुशियं पारेति,
नल
|
(३१७ )
अमभिधानराजन्द्र। |
मुत्तावली
सत्ति |
सव्वकामगुय एरेत्ता -दुवालस कराते, दुवालस करत्ता- | मुत्तावलीवर- युक्रावलीवर- पुण । मुक्तावली समुद्रस्य पूवा ऽद्धा `
सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणिय पारेत्ता- चउत्थं |
करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका- |
मगुणिय पारेत्ता-चोदसम करेति, चोइसंम करेत्ता सव्व-
कामगुशियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता- चउत्थ क
रेति, चडउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणिय पारेति, सव्वकाम-
गुणियं पारेत्ता-सोलसम करति, सोलसम करेत्ता-सव्व-
कामगुणिय पारेति, सव्वकामगुशियं पारेत्ता-अट्टारसे
करेति, अट्टारस करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका-
मगुशियं परेत्ता-बीसतिम करेति, वीसतिमं करेत्ता-सव्व-
कामगुशियं पारेति, सव्वकामगु शिं पारेत्ता-चउत्थं करे
ति, चउत्थ करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगु-
शियं पारेत्ता-बावीसइम करेति, बावीसइमं करेत्ता-सव्व-
कामगुशियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थ क-
रेति, चउत्थ करत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम- |
गुणियं पारेत्ता--चोव्वीसइम करेति, चाव्वीसइमं करेत्ता-
सव्वकामगुशियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारत्ता-चउत्थं
करेति, चरत्थं कर्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका- |
मगुणियं पारेत्ता-छव्यीसइमं करेति, छव्वीसइम करे- |
त्ता-सव्वकामगुणिय पारति, सव्यकामगुणिय परेत्ता-
चउत्थं करेति, चउत्थं .करत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति,
सव्वकामगुणियं पारेत्ता-अद्टावीस॑ करति अद्रावीसं
करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारति ,
“42
सव्वकामगु यं ।
पारेत्ता-चउत्थ करति, चगत्थं करेत्ता-सव्यकामगुणिय
पारेति, सव्वकामगणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं |
करेत्ता-सव्कामगुणियं पारेति, सव्वकामगुरियं पारेत्ता--
तीसहमं करेति,. ती सइमं करेत्ता-सव्वकामगुशियं पारेति, |
सव्वकामगु शियं पारेत्ता-चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता-
सच्वकामगुशियं पारेति, सव्वक्रामगुणियं पारेत्ता-वत्ती-
सह्म,वत्तीसहमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वका-
मगुणिय पारत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्बका- |
मगुणियं परेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चोत्तीसइमं
करति, एवं तहेव ओसारेति ० जाव चउत्थं करेति, चउत्थं
करत्ता-सव्वकृमगुणियं पारेति, एकाए कालो-एकारस
मासा पनरस य दिवसा चउण्ं तिष्ि वरिसा दस य
मासा ससं ० जाव मिद्ध ।(मृत्र--२५) ्रन्त० ८ वगे & अ०।
मुत्तावलीभद मुक़ावर्लीभद्र-प० । मुक्तकावलीद्वीपस्य पृर्वाद्धो
'वपता दब, जा ३ प्रात० ४ आध्व० |
मुत्तावलीमहाभद्द-मुक्कावली महाभद्र - ५० । मुक्काव ली द्वीपप- |
राद्धाधिप दव, जो० ३ प्रति० ७ आधि० ।
5धिपदेवे, खनामख्याते द्वीपभेदे च । तत्र मुक्कावलीवरभद्वमु-
क्रावलीवरमहाभद्रा देवा । जी० १ प्रति०।
मुक़ावलीवरभद्द-मुक़्ावलीवर भद्र १० । मुक्कावलीवर द्वीपस्य
समुद्रस्य च पृर्वाद्धाधिपतों देवे, जी० ३ प्रति० ५ अधि० |
युत्तावलीवर महावर -यक्रावलिवरमहावर- प° । मुक्कावलावर- ¦
दीपस्य समुद्रस्य च पराद्धाधपतो दवे.जी०३परति०४्राघ०।
मत्तासुत्ति-मुक्ताशुक्ति-ख्री० । मुक्राफलयान्याकारायां हस्त-
विन्यासमुद्रायाम् , पश्चा० ३ विव०। प्रव० । सङ्का । मुक्ता
मोक्रिकानि तासां शुक्ररुत्पत्तिस्थानम् । सुक्रोत्पात्तस्थान
दशै° १ तत्त्व ।
=: पु [>च
मुत्ताहल-मक्काफल-त० । फा भहा ॥ ८। १। २२६ ॥ क्राचनत्
हः । मुत्ताहले । शुक्रिज रत्ने, ( मोती ) प्रा० १ पाद ।
मुत्ति-युङ्कि-खी० । मोचन खुक्रिः। लाभपारत्यागभावनायाम् ,
श्राव ४ अ० । वाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णाविच्छेदे, घ० ३
अधि० । रा० । ज्ञा० । निर्लाभतायाम् , उत्त० २६ अ० |
आव० । स्था०। लोभोदर्यानरो घे,ओ० । घ० । पा० । पश्चा० |
धर्मोपकरणे ऽप्यमूच्छोयाम् , द्वा० २७ द्वा० । स्था० | प्रश्न० |
निरन्तरे वहवा जीवा मुक्का यान्ति परं मुक्को सकीरण न जा-
यत, ससारश्च रिक्रा न भवति , तस्यको दृष्टान्त इति प्रश्ने
उत्तरम्-यथा भूमिकमनिका मेघजल्प्रेरिता समुद्रमध्य नि-
रन्तरे याति, तथापि समुद्रः पूरर्णा न भवति , भूमिकायां च
गता न भवन्ति, तथा, मृक्तावप्ययमेव दृष्टान्तो ज्ञेय इति |
॥ ५५७ ॥ सन० ३ उलला० |
कवलभाजित्वेऽपि कृताथत्वं केवलिनो व्यवस्थापितम् । स-
वथा कृताथत्वं चास्य म॒क्को व्यवतिष्ठत इति बहुविप्रतिपत्ति-
निरासन मुक्रिर व्यवस्थाप्यत ।
दुःखध्वंसः परो मुक्ति -मानं दुःखत्वगत्र च ।
आत्मकालान्यगध्वेस-प्रतियोगिन्यवृत्तिमत् ॥ १ ॥
दुःखध्वेस इति--परो दुःखध्वसो स॒क्किः | परत्वे च समा-
नकःलीनसमानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानदेशत्वं वर्ध- .
मानग्रन्ये श्रूयते । तत्र च यद्यःस्वसमानकालीनस्वसमाना-
धिकरणदुःखध्रागभावसमानदेशमिदानीतनदुःखध्वसादि त-
त्तद्धदो निवेश्यः । श्रन्यथा--चरमदुःखभ्वससमानकालीन- `
समानाधिकरणदुःखप्रागभावाप्रसिद्धेः। ““ वस्तुतः समाना-
धिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनदुःखध्वसो सुक्किः ” इ-
व्येकं लक्षणम् । श्रपरं च--“ समानकलीनदुःखप्ागभावस-
मानाधिकरणो दुःखध्वेस ” इति । लक्षणद्वये तात्पर्यम् ।
तेन नासमानदे शत्वविवेचने ऽन्यतरविशषरणवेयथ्यम् । माने-
प्रमाणे, चात्र मुक्ता. दुःखत्वमिति पत्तः । आत्मकालान्यग
श्ात्मकालान्याकाशादिव्रृत्तिर्यो ध्वंसः शब्दादेस्तत्प्रतियोगि
नि शब्दादावच्रत्तिमदवत्तमानम् । शब्दादिवृत्तित्वेनार्थान्तर-
वारणाथमेतत् पत्तविशषणे, वाधास्फूतिंदशायां तत्सिद्ध-
प्रसङ्गात् , नियतवाधस्फोरणनेतत्साफल्याद् । अवरत्तिदुःख-
त्वमि्युक्तावसिद्धिः । दुःखत्वस्य दुःखच्रत्तित्वाध्वे्त्या-
युक्कार्वाप ध्वे प्रतियोगिनि कालान्यच्रत्तीत्यादुक्कावपि का-
लान्यात्मवृत्तिदुःखध्वरसप्रतियोगिनि कालान्यत्वल्याग चा-
= = ऋ जा ली)
ऋ ~ ` > = £
=}. =>
ॐ आ = ¬ ~
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9.१ = = ~त
खि
आमभधानराजन्द्र। |
मुत्ति
` त्मान्यकालवृत्ति-दःखध्वसप्रतियागिान
ख वदय्मानत्वा- ,
त् सेवेति सेपूणीम । आत्मकालपदेन तदुपाध्योरपि ब्रहाच्च |
न तस्यास्तादवस्थ्यम् ॥ १ ॥
सत्कारयमात्रवृत्तित्वात् प्रागभावोऽसुखस्य यः ।
तदनाधारगध्वंस -प्रतिय(गिनि बृत्तिमत् ॥ २॥
सदिति--अखुखस्य--दुःखस्य , यः प्रागभावस्तदनाधासे |
महाप्रलयस्तत्र गच्छति यो ध्वंसो दुःखी यस्तत्प्रातियो- |
गिनि दुःखे वृत्तिमदिति साध्यम् , वृतिमदित्युक्को सिद्धसा-
धने, दुःखत्वस्य दुःख विद्यमानत्वात् । प्रतियागिद्वृत्तित्वो-
क्लावपि दःखात्यन्ताभावप्रतियागिच्त्तित्वन, तद्धेसेवयादयु-
क्लावपि दुःखध्वसाङ्गीकारात्तदेव । प्रागभावानाधारन्रसित्व.
स्य॒ ध्वंसविशेषणत्वे दृष्टान्तासिद्धिः । प्रदीपावयवानां
्दीपग्रागभावाधारत्वात्तदध दुःखत्यादि । परदीपावयवास्तु
दःखध्रागभावा ( ना ) धारभूता इति दृष्टान्तसंगातिः । दुः-
शखानधिकररत्यादिकरणे खरडप्रलयन।थोन्तरता स्यादिति
दुःखप्रागभावनिवशः ।
चत्तित्वमात्मत्व व्यभिचारिकायवृत्तित्वमनन्तत्व ध्वसाप्रति-
सत्कार्यमात्रवृत्तित्वादिति हेतुः । |
यागत्वरूपस्य तस्याकाय आत्मादा काय ध्वस च सत्वात् । |
कायमात्रन्रात्तत्वमाप ध्वसत्व व्याभचारच्रात्तत्व (व्याभचार
तद्थ भावदृत्त ) सता ते विशषणे दायमानभशपन तद॒द्धारः।
आग्भावध्वंसस्य प्रतियोगितद्ध्वंसखरूपत्वन ध्वेसत्वस्यापि |
भाववृत्तित्वात् ततः सदिति कार्यविशेषणम् ॥ २
दीपत्ववदि ति ग्राहु-स्तार्किकास्तद्संगतम् |
बाधाद् वृत्तिविशेषेष्टा-वन्यथाथ/न्तराव्ययात् ॥ रे ॥
दीपत्ववदिति, दृश्शान्तः, इति-ताकिकाः-नेयायिकाः । इत्थं
सर्वमुक्तिसिद्धो च्दुःखत्वादिकं पक्तीकृत्य तत्तन्मुक्कित्वसा-
धनोपपत्तः । तत्तार्किकमतमसंगतम् न्यायापेतम् । बृत्ति- |
दुःखप्रागभावानाधारवृत्ति- |
विशषस्याभावी यविशेषणतया
त्वस्येष्टो साध्यकोटिनिवेशापगम वाधात् । दुःखध्वंसस्य
दुःखसमवायिन्यव तया वृत्तित्वस्य त्वयापगमात् । अन्यथा
सम्बन्धमात्रणए तदिष्टों अर्थान्तराव्ययादथोन्तरानुद्धारात्
आकाशादावपि दुःखध्वसस्य व्यभिचारितादिसम्बन्धन वु-
ज्नित्वात्प्रकृतान्यसिद्धः । कालिकदेशिकविशेषणतान्यतरस-
म्बन्धेन वृत्तित्वोक्तावपि कालो पाधिचरत्तित्वन तदनपायात् |
कालिकेन दुःखप्रागभावानाधारत्वनिवेशे च दष्रान्तासङ्गतेः।
मुख्यकालच्तित्वविशिषएटकालिकसम्बन्धेन तन्निवेराऽपि
आत्मनस्तथात्वात् । उङ्गान्यतर सवन्धेन तन्निवेशऽपि तथा- |
सम्बन्धगर्भव्याप्त्यग्रहादिति भावः॥ ३॥
विपक्तवाधकाभावा-दनभिप्रतसिद्धितः।
अन्तेतदयोग्यत्वा-च्छङ्का योगापहेति चत् || ४ ॥
विपक्तेति-विपत्त- देतु सत्वेऽपि साध्यास, वाधकस्या-
जुकूलतकस्याभावात् । तथा चानभिप्रेतसिद्धितो ऽनिष्टसि- |
दविप्रसद्गात् । कालान्यत्वगभसाध्यं प्रत्यपि उक्रटेतारविशे- |
घात्। पतदुक्साध्यमन्तरा सर्वमुक्त्यसिद्धो अ्रयोग्यत्वाशङ्का ।
य प्व न कदापि मोक्ष्यते तद्धदहं यदि स्यां तदा मम विफलं |
परिव्राजकत्वमित्याकारा, योगापदा--योगग्रतिवान्धकरव्यद् |
एव विपत्तबाधकामति चत् ॥ ४॥ |
नेवं शमादिसंपत्त्या, स्वयोग्यत्वविनिश्रयात् |
न चान्य।ऽन्याश्रयस्तस्याः, सभवात् पूवेसवया ॥ ५ ॥
नेवमिति-एवं न यथाङ्गं विपन्तवाधकं भवता , शमादी-
नां शमदमभागाभिष्वङ्गादीनां मुमुच्छाचदह्वानां सपत््या ।
स्वयोग्यत्वस्य विनिश्चयात्-तषां तद्व्याप्यत्वात्। न चान्यो-
न्याश्रयो यागप्रवृत्तो सत्यां शमादि सम्बत्तिस्ततश्चाधिकार-
विनिश्चयात्सति सभावनीयम् , तस्याः-शमादिसपत्तः षू
सवया यागप्रवरत्तः प्रागपि, सम्भवात्-यागध्रवरत्तरतिशयि-
तशमादि सम्पादकल्वनेव फलवच्त्वात् । सामान्यतस्तु तत्र क-
मैविशषक्षयापशम एव हतुरिति न कि्विदनुपपन्नम् ॥ ५॥
शमाद्यपटिता हन्त, योग्यतेव विभिद्यते |
तदक्च्छदकत्येन, सक्राचस्तेन तस्य न ॥ ६ ॥
शमादीति--शमादिभिभुमुचुलिङ्गैरुपद्दिता दन्त योग्यतेव
विभिद्यते । सामान्ययोाग्यतातः समुचितयोग्यतायाः प्राग
भदसमशथनात् । तन कारणेन तद्वच्छेदकत्वेन योग्यतावच्छे
दकत्वन तस्य शमादेः सकोचो न याग्यतावच्छुदकत्वल्तण
याग्यताविशेषस्येव अतिशयितशमादों तदृद्धारा च मात्त
हेतुत्वात् ॥
ननु शमादावपि ससारित्वनेव हेतुतेति सर्वमुकत्याक्षेप
इत्यत आह--
ससारिलेन गुरुणा, शमाऽऽद। च न हेतुता ।
भव्यत्वनेव कि त्वेपे-त्यतदन्यत्र दर्शितम् ॥ ७ ॥
ससारित्वेनति-ससारित्वन नित्यज्ञानादिमद्धिन्नत्वरूपण
गरुणा नानापदाभघ्राटितन शमादो च हेतुता तव कट्पयि-
तुमुचितालि शषः । कि तु-भव्यत्वेनवेषा हतुता, शमाद्यचुगत-
कायजनकतावच्छेद्कतया ऽत्मत्वव्याप्यजातिविशषस्य कल्प
यितुमुचितत्वाद् । दव्यत्वादाचप्ययुगतकायंस्यव मानत्वात् ।
आत्मत्वनेच शमादिदेतत्व विशष सामभ्य नःउनेश्वरे ऽतिप्रस-
ङ्ञाभावे सखमनीयेऽन्यवापि तन तस्य खुठचत्वाद्धव्यत्वा-
मव्यत्वशङ्कयेव भव्यत्वनिश्चयन प्रचर्य परातिवन्धादिति । ए-
तदन्य न्यायालोकादौ दर्शितम् ॥ ७ ॥
परमात्मनि जीवात्म--लयः सति त्रिदण्डिनः।
लयो लिङ्गव्ययोजत्ष्टो, जीवनाशश्च नेष्यते || ८ ॥ `
परमात्मनीति- परमात्मनि, जीवातमलयः-सा-मुक्किरिति
चिदरिडनो वदन्ति। अत्रेतन्मते लयो लिङ्गज्यय इष्टाऽस्मा-
कमप्याभिमतः । पकादशेन्द्रियाणि पञ्च महाभूतानिच सू-
च्ममात्रया समू्यावस्थितानि जीवात्मनि खुखदुःखावच्छेद-
कानि लिङ्शब्देनाच्यन्त , तद्भश्वयश्च परमार्थता नामकर्मत्तय
पवेति । जीवनाशस्तु नेष्यते, उपाधिशरीरनाश आपाधिक-
जीवनाशस्याप्यकामम्यत्वात् ॥ ८ ॥
बौ द्र स्त्वालयविज्ञान-सन्ततिः सेत्यकीतेयन ।
विनाऽन्वयिनमाधार, तषामपषा कद थना ॥ € ॥
बोद्धास्त्विति--वौद्धास्तु , आलयविज्ञानसन्ततिः-पत्रत्ति-
विज्ञानोापप्लवरष्टिता सटतज्ञयाकारा ज्ञानत्तणपरंपरा , सा-
मुक्रिरित्यकीतयन यथाक्रम्--
““ चित्तमेव हि ससारो, रागादिकलशवासितम् ।
तदेव तेर्विनिर्भुक्क, भवान्त इति कश्यत ॥ १॥ ”
मत्ति
अभिधानराजन्द्रः |
आल यत्ति,
न च शरीरादिनिमित्ताभावे तद चुपपात्तः , प्रवपूवावाश
श्क्तगानामव तझेतत्वाडिशिएभावनात एवं तषां विसभा- |
गपरिक्षये प्रवृत्तः}! - तेषामन्वायिन -जिकालानुगतात्मलक्ष-
णमाधारं विना पषा मुक्तिः कदर्थना । सन्तानस्यावास्त-
वत्वेन बद्धमुक्कव्यवस्थानुपत्तेः। सर्वधा ऽभादीभूतस्य क्षण-
स्यात्तरसदटशत्तणजननासायथ्यादाति ॥ ६ ॥
बवत्तमानज्ञयाथा--पेक्तायां सति चाश्रये |
५ ४ ¢ न
अस्यां विजयतेऽस्माकं, पय।यनयदं शना || १० ॥
चविवतपानात-विचत्तेमानाः--पतिक्तणमन्यान्यपर्यायभा --
जा ये क्ञयाथास्तदपक्तायामाश्रये चान्वयिद्रऽ्यलत्तण सति ।
श्रस्याम्-उक्तमुक्को श्रस्माकं पर्यायनयदेशना विजयते प्रति-
क्तितद्रव्यस्य बोद्धसिद्धान्तस्य परमार्थतः पयोायार्थिकनया-
न्तःपातित्वात् । तदुक्ल समतो (३ काण्ड)--'' खुद्धाश्रणतण-
यस्स उ परिसुद्धा पञ्ञवविश्मप्पो ” ( ४८ ) ॥ १० ॥
स्वातन्त्रय युक्तिरित्यन्ये, प्रभुता तन्मदः क्षयी ।
श्रथ कर्मनिवृततिथेत् , सिद्धान्तोऽस्माकमेव सः ॥११॥
स्वातन्ञ्यमिति-खातन्त्य मुक्किरिल्यन्ये वदान्त । तत् स्वा-
तन्त्य यदि प्रमुता तदा मदः, स च क्षयी । अथ चत् कर्मनित्र
्तिस्तदाऽस्माकमेव स सिद्धान्तः ॥ ११ ॥
पुंसः स्वरूपावय्थानं, सेति सां ख्य।ः प्रचक्षते ।
तेषामेतद साध्यत्वं, वज्रलेपोऽस्ति दूषणम् ॥ १२ ॥
पुंस इति-पुंसः पुरुषस्य,सरूपावस्थानम्-प्रकृतितद्धिकारो
पधानविलये चिन्मात्रप्रतिष्ठाने सा सक्किरिति सख्याः प्रच-
लत । तघामेतस्य मुक्ररसाध्यत्वे दूषणं वज्लपो ऽस्ति एकान्त-
नित्यात्मरूपायास्तस्या निल्यत्वादुपचरितसाध्यत्वस्याप्रया-
जकत्वात् ॥ १२॥
पूर्वचित्तनिष्त्तिः सा- ग्रिमानुत्पादसगता ।
इत्यन्ये श्रयते तषा--मनुत्पादा न साध्यताम् ॥ १३॥ |
पूर्वाति-आंग्रिमालुत्पाद्संगता 5ग्रिमचित्तानुत्पादविशिष्टा पू-
वैचित्तनिवृत्तिः सा मुक्लिरित्यन्ये, तेघामनुत्पादः साध्यतां
न श्रयत इति मुक्तरपरुषाथेत्वापत्तिरेघ दोष: ॥ १३ ॥
सात्महानमिति प्राह, चार्वाकस्तत्तु पाप्मने ।
तस्य हातुमशक्यतेवा-- त्तद नुदेशतस्तथा ॥ १४ ॥
सेति--आत्महाने सा-मुक्किरिति चावीकः प्राह । तत्त बचने |
श्रयमाणमपि पाप्मन भवति । लस्या्भना दातुमशक्य-
त्वादसतो नित्यनिवृत्तत्वात् , सतश्च वीतरागजन्मादशीन-
भ्यायन नित्यत्वात् , सवथा हानासिद्धः । तथा--पयोयाथ-
तया तद्धानावपि तदुद्देशत आत्महानानभिलाषात् । सुक्रि-
पदार्थस्य च.निरुपधीच्छाविषयत्वात् ॥ १४ ॥
नित्योत्कृष्टसुखव्यक्कि-रिति तीतातिता जगुः ।
नित्यत्वं चदनन्तत्ब- मत्र तत्समतं हि नः ॥ १५॥
नित्येति-नित्यम् , उत्कृष्ट च-निरतिशयं.यत्सुखे तद्धथाक्कमु- |
क्रिरिति तोतातिता जगुः । अज मते नित्यत्वमनन्तत्वे चेत्त-
त्द्ा,नः-श्रस्माके, हि-निश्चितं, समतम्। लिझसुखस्य साथ- |
पर्यवसितत्वाभिधानात् । तस्य च मुक्तावभिव्यक्रः ॥ १५ ॥
अथानादित्वमेतब्े-त्तथाप्यष नयोऽस्तु नः ।
सर्वथोपगमे च स्या-त्सवैदा तदुपास्थिति; ॥ १६ ॥
अथात-अथतन्म॒ाक्लसुख , नयत्वमनााद्त्व चत्तथापि ॥ प
एप नया.ऽस्तु ससारदशाया कमाच्छखन्नस्याप सुखस्य द्र
ब्याथतया शाश्वतात्मस्वभावत्वात्। सवथापगम च-पएकान्त-
ताऽनादत्वाश्रयण च, सवंदा-ससारदशायामाप, तदुपास्थ-
तिमक्किखुखाभिव्यङ्किः, स्यात् । अभिव्यञ्जकाभावेन तदाह
तदभिव्यक्त्यभावसरम थने च घटादेरपि दरडायभिव्यङ्गत्व-
स्य खुबचत्वे साङ्स्यमतप्रवशापातात् ॥ १६ ॥
वेदान्तिनस्त्वविद्यायां, निवृत्तायां विधिक्रता ।
सेत्याह साऽपि नो तेषा-मसाध्यत्वाद व स्थितेः ॥१७॥
वेदान्तिनस्त्विति-वदान्तिनस्तु, श्रविद्यायां निवृत्तायां, वि-
विक्रता--करवलात्मावस्थाने, सा-मुक्रिरित्यादुः। साऽपि नो
तेषां युक्ति शेषः । अवस्थितर्विज्ञानसुखात्मकस्य ब्रह्मणः
प्रागप्यवस्थानादसाध्यत्वात् , करटगतचामीकरन्यायन अ-
मादेव नात्र प्रवृत्तिरिति तु भ्रान्तपर्षदि वक्गं शोभत इति
भावः ॥ १७ ॥
कृत्स्नकमक्षयों मुक्ति-रित्येष तु विपश्चिताम् ।
स्याद्रादामतपानस्यो- द्वारः स्फारनयाश्रयः ॥ १८ ॥
ऊत्स्नति- कृतस्नानां कमणां ज्ञानावरणादी नां क्षयो मुक्तिः,
एष तु विपश्िताम्-एकान्तपरिडतानां स्याद्रादाखतपानस्यो-
द्वारः स्फारा य नयास्तत्तत्तन््रप्रसिद्धाथौस्तदाश्रयः षड्दशै-
नसमूटमयत्वस्य जैनदर्शने समतत्वात् ॥ १८ ॥ '
नयानवात्राभिव्यर्नक्ति--
ऋजुसत्रादिभिज्ञान सुखादि कपरम्परा ।
व्यद्भयमावरणोच्छित्त्या, संग्रहेणष्यते सुखम् ॥ १६ ॥
आजुसत्रादिभिरिति- ऋजुसतादिभिनेयेज्ञानसुखादिकपर-
म्परा मुक्तिरिष्यते शुद्धनयेस्तेरुत्तरोत्तरविशुद्धपर्यायमात्रा-
भ्युपगमात् ज्ञानादीनां क्षणरूपतायाः क्षणसत्तया5पि सिद्धः,
तस्याः क्षणतादात्म्यनियतत्वात् , क्षणस्वरूप तथादशनात्
संग्रहण सेग्रहनयनावरणाच्स्या व्यङ्ग्य सुख भुकितरिष्य-
त । तद्धि जीवस्य स्वभावः सन्द्रियदेदाद्यपक्ताकारणस्वरूपा-
चरणनाच्छा द्यत, प्रदी पस्यापवारकावरस्थितपदाथप्रकाशकत्व
स्वभाव इव तदाघारकशरावादिना तदपगम तु प्रदीपस्यव
जीवस्यापि विशि्रप्रकाशस्वभावा ऽयत्नसिद्ध एवति । शरीरा-
भावे ज्ञानखुखाद्यभावोऽप्रय एव | अन्य था शराबाद्यभावे प्रदी-
पादरभावप्रसङ्गात्। शरावादेः प्रदीपाद्यजनकत्वान्नाक्तप्रसङ्ग
इति चन्न, तथाभूतप्रदीपर्पारणत्यजनकत्वे शरावादेस्तदना-
वारकलत्वप्रसङ्गादिति ॥ १६ ॥
क्षयः प्रयत्नसाध्यस्तु, व्यवहारेण कर्मणाम् |
न चेवमपुमर्थत्वं, देषयोनिग्रदृत्तितः || २० ॥
क्षय इति-व्यवहारेण तु प्रयत्नसाध्यः कमणां क्षयों
मुक्तिरिष्यते , अन्वयन्यतिरेकायुविधानेन त्पत्तेः
ज्ञानादीनां कर्मत्तये तदनुविधानात्। न चेव कर्मक्तयस्य मु-
कितत्वाभ्युपगमऽपुमथत्वं, मुक्तद्वैषयानिप्रबत्तितः साक्षाद्
खडेतुनाशा पायच्छाविषयत्वन परम्रपुरूषाथत्वाविरोधा-
त् ॥ ५? ॥
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_खत्ति
सभिध्रानराजन्द्रः।
सत्ति
दुःखद्देषे हि तद्भेतून् , दष्ट प्राणौ नियोगतः ।
जायतेऽस्य प्रवृत्तिश्च, ततस्तन्नाशहेतुषु ॥ २१ ॥
दुःखद्धेप दीति-दुःखद्वषे हि सति प्राणी तद्धेतून दुःखटेतून ,
नियोगतो-निश्चयतो, द्धि अस्य दुःखहे तुद्धिषश्च ततस्तन्ना-
शहेतुषु-दुःखो पायनाशहेतुषु ज्ञाना दिषु ्रवृत्तिजायत, दुःखदे
ष्यस्य दुःखहेतुनाशो पायच्छा दु:खह तुद्रपयोस्तयोश्च दुःखहे-
तनाशदतुपरवृत्तो स्वभावतो हतुत्वात्। अचुस्यूतैकोपयोगरूप
त्व ऽप क्रमाजुवघन हतुहतुमद्धावाचवराघात् , क्रामकाक्राम, |
कोभयस्वभावापयागस्य तत्र तत्र व्यवस्थापितत्वात् ॥ २१॥
इत्थ चार दुःख मा भूदिव्युदेशे दुःखटेत॒नाशविषयकत्वं
फलितमित्यतदन्यत्राप्वतिदिशन्नार--
अन्यत्राप्यसुखं मा भू-न्माडोऽर्थऽत्रान्वयः स्थितः।
दुःखस्येवं समाभ्रेत्य, स्वहेतुप्रतियोगिताम् ॥ २२ ॥
श्नन्यत्रापीति-अन्यत्रापि प्रायश्ित्तादिस्थलेऽपि, अखुख मा
भृत् , रत्र माडा ऽथे ध्वेसे प्वम्-उक्तसीत्या दुःखस्य स्वटेतु-
प्रति यागितार्माश्रत्यान्वयः स्थितः । तत्पापजन्यदुःखाप्रसि- |
ध्या तदृध्वंसस्यासाध्यत्वात्। अस्तु वा दुःखद्धेषस्यैवायमु-
ल्ञखः मुख्यप्रयाजनाविषयकेच्छाविषयत्वेन च सुख्यप्रयोजन- |
त्वमविरुद्धमिति भावः ॥ २२॥
स्वतोऽपुमर्थताऽप्येव- मिति चेत् कर्मणामपि ।
शक्त्या चन्युख्यदुःखतवं, स्यादवादे कि तु बाध्यताम्।२३।
स्वत इति--एवमपि, स्वतो पुमर्थता निरूपाधिकेच्छावि-
रे] [अ ० =
घयत्वेन सुखदुःखहान्यन्यतरस्येव स्वतः पुमर्थत्वादिति चेत्
कर्मणामपि शक्त्या चन्मुख्यदुःसखत्व तदा स्याद्धादे कि चनु |
बाध्यताम् ?,दुःखहेतोरपि कथंचिद् दुःखत्वात् , दुःखक्तयत्वेन |
रूपेण कर्मक्षयस्य त्वन्नीत्या ऽपि मुख्यप्रयोजनत्वानपायाद् रू
पान्तरेण तत्वस्य चाप्रयाजकत्वात् ॥ २३ ॥
स्वतः प्रवृत्तिसाम्राज्य, कि चाखण्डसुखेच्छया |
निराबाध च वेराग्य-मसङ्गे तदुपक्षयात् ॥ २४ ॥
खत इति--कि च स्वतो निरुपाधिकतया प्रव्ृत्तिसाप्राज्य-
मखरडखुखच्छया ऽ खरडखुख संवलितत्वात् कर्मक्षयस्य, नन्वे
धं सुखच्छया वेराग्यव्याहतिरित्यत आदट-असङ्गऽसङ्गायष्ठा
न तदुपत्तयात् सुखच्छाया आप एवरमाान्नरावाचच वरा- |
ग्यम्, मात्त भवच सवत्र नस्पहा मानसत्तमः इातवचसा-
त्।न 5 सखच्लया वराग्यस्यव् खद्धषात् ब्रलान्तत्व-
स्याप व्याहातरवात भावः ॥ २४ ॥
समानायन्ययत्वे च, वृथा भुक्तौ परिश्रमः |
गुणदानेरनिष्टत्वा- त्ततः सुष्टृच्यते यद; ॥२६॥
समानात-समाना <(4यव्ययत्वच सखद :खाभावाभ्यामभ्य-
पगम्यमान सक्ता रधा पारश््मः। गुखहानरानष्रत्वात्तदचु-
विद्धद सखनाशापायन्टाचुवान्वत्वज्ञानन पेत्तावत्प्रच्रत्तरया
गात् तता ददः सुष्टूच्यत॥ २५॥
दुःखाभावोऽपि नावेद्यः, पुरुषार्थतयेष्यते |
~ (४ ९ = = >
न ।ह मूदाद्यवस्थग, प्रठृत्ता दश्यते सुधीः | २६॥
द्र“
दुःखाभावो ऽपीति- दुःखाभावोऽपि, न अवेद्यः--खसमाना-
धिकरणसमानकालीनसाक्तात्काराविषयः , पुरुषार्थतयेष्यते
न दि मूछोद्यवस्थार्थ सुधीः प्रवृत्तो दश्यते। अन्यथा तदर्थमपि
प्रवृत्तिः स्यात् । । अतो गुणहानेरनिष्टत्वन दुःखाभावरूपायां
मुक्को तद प्रव॒त्तिग्याघात एव दूषसमिति भावः ॥ २६॥
एतनेतदपास्तं हि, पुमथंतवेऽप्रयोजकम् ।
तज्ज्ञानं दुःखनाशश्च, वतेमानोऽनभूयते ॥ २७ ॥
एतनति--एतेन, ग॒णदानेरनिध्त्वन, हि-निश्चितम् , एतद्-
पास्तम्। यदुक्ल महानयायिकेन पुमर्थत्वे तञ्ज्ञानं पुमर्थशानम-
प्रयोजके, दुःखनाशश्थ वत्तमानो ऽजुभूयत, विनश्यद्वस्थेन
योगिसाक्तात्कारेणेति ॥ २७ ॥
क @ 6 न्द, (त ~ ~
गुणहानराष्टत्व, वेराग्यान्नाञथ वद्यत |
इ = सो [३ शैः + [= ६ न
च्छाद्देषो विना नेवं, प्रवृत्तिः सखदुःखयोः ॥ २८ ॥
गुणहानेरिति-अथ गुणहानेरनिष्टत्वं वैराग्यान्न वेदयते का-
मान्यत्वादिव पारदार्यं बलवद् दुःखाजुवन्धित्वं, ततः भवृत्य-
व्याघात इति भावः । एवं सति इच्छाद्ेषो बिना खुखदुःख-
योः प्राप्यनाश्ययोरिति शषः | प्रवृत्तिने स्थात्! परवेराग्ये
प्रचुत्तिकरणयोस्तयोर्निवृत्तरपरवेराग्ये च ग्रुणवैतृष्णयस्येवा-
भावाद् गुणानरनिषएटत्वाप्रतिसन्धानायुपपत्तगुणदानरनिष्-
त्व प्रतिसंहित भाक्तनपवृच्यनुपपत्तौ तत्सस्कारतो.ऽप्यसङ्ग-
प्रवृत्तद वैचत्वामिति न किञ्चिदेतत् ॥ २८ ॥
नन॒ श्रुतिवाधान्न मुक्तौ सुखसिद्धिरित्यत आह--
अशरीरं [द [> [क
अशरीरं वा वसन्त मित्यादिश्रुतितः पुनः ।
(~~ हन्त्युभया > ५.
सिद्धा हन्त्युभयाभावा, नकसत्ता यतः स्नरतम्॥ २६ ॥
अशरीरमिति-अशरीरं वा वसन्तमिव्यादिश्रुतितः “ अश-
रीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिय न स्पृशत `` इति श्रुतः, पुनरुभया-
भावः-खुखदुःखोभयाभावः सिद्धः एकसत्तां सुखसत्तां न
हन्ति । एक्वत्यपि द्वित्वावच्चिन्नाभावप्रत्ययात् । अस्तु वा
तत्राप्रियपद्सन्निधानात् प्रियपदस्य वेषयिकसुखपरत्वमेव-
त्यपि द्रष्टव्यम् । यतः स्प्रतम् ॥ २६ ॥
सुखमात्य [३ # [क = [बल
पुख मात्यान्तिकं यत्र, बुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम् ।
(१ ~~ [ब
तं वे मोतं विजानीयाद्, दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥ ३० ॥
सुखमिति- स्पष्टः ॥ ३० ॥
उपचारोऽत्र नावाधात्, साक्षिणी चात्र दृश्यते ।
नेत्य ~] (< ~ न त्य्
नित्यं विज्ञानमानन्दं, बह्मत्यप्यपरा श्रुतिः । ३१ ॥
उपचार इति-अत्र युक्गिखुखप्रतिपादिकायाम-उक्रस्यतौ
उपचारो न दुःखाभाव खुखपदस्य लात्ताणिकत्वम् । अवाधा-
दू-आधाभावात् ,जन्यस्याप्यभावस्यव भावस्यापि कस्याच-
द्नन्तत्वसमवात् । त्त्र मुक्किसुख-' नित्य विज्ञानमानन्दं
व्रह्म ` इति अपरा5षपि श्रतिः साक्षिणी वत्तत, तया नित्यज्ञा-
नानन्दव्रह्माभद वाधनाद्धाति ॥ ३१ ॥
परमान दलयतां, परमान दयावताम् ।
परमन्द् पानाः स्मः, परमाबन्दचचया || ३२ ॥
परमानलिनि--परेषामिकान्ताभि निलिप्रानां
माने कुरत
र्त्ति
अनघ्रानराजन्द्रः |
मत्तिपह
'दुलयता स्याद्वादमुद्ग रेण, क भूत ? परः प्रकृष्टा मानो दर्पा
यस्मात्तत्तथा । दयावतामनकान्तप्रणायतया जगद् दिधीषा-
वता सिताम्बरसाधरनां परमानन्दचचया-महादयमामासया
वय परमणान्कृ्टेनानन्देन, पीना -पुष्ठाःस्मः॥ ३२ ॥ द्वा०
३१ द्वा०।
मुक्किफलम--
मुत्तीए शं भते ! जीवे कि जणयइ ?, म॒त्तीए शं अकिं
चणत्त जणयई, अकिंचे य जीवे अत्थलोभाणं पुरिसा
ण अपत्थणिज्ञ भवइ ॥ ४७ ॥
हे भगवन ! मुक्त्या -निलोभव्वेन, जीवः कि जनयति
गुरुराह--हांशष्य ! मुक्त्या अकिञ्नत्वम्- निष्पारिग्रद- |
त्वम् , उत्पादयति । श्रक्रिओनत्वन जीवः अथलोभानाम् अ- |
|
|
प्राथनीयो भवति, कोऽश्र -याऽकञना-नष्पारग्रहो भवति
स पुरुषा5थ लोभो यषां तेऽथलोभाः दद्व्याथिनश्चौरादयः
पुरुषास्तषाम् श्रप्राथनीयः-तेरवञ्चनीयः, चोरादयो हि नि-
स्परेग्रहं कि कुवन्ति, परिग्रहवतां चारभ्या भातः स्यात् |
उत्त° २६ अ० । अशेषकमंप्रच्युतों, सूत्र० २श्रु० २ श्र०। |
भवापभ्रादकमभ्यः प्रच्युतो, प० सं० २ द्वार । कर्म० । ध० । |
म्तगता, आतु> | नि स्गेतायाम् , आ० चू० ४ अ । मु-
स्यन्त सक्लकमभियस्यामिति मुक्किः । इंषत्प्राग्भारायां पु
थव्याम् , स्था० ८ ठा० ३ उ० | परमपद, “ लोअग्ग परम- |
|
पय मुत्ता सद्धा सिवे च निव्वाणे ” पाइ० ना० २० गाथा । |
3
मूत्ति-खी° । शरार, वश० । “ मुत्ती गत्ते बुदी स- |
क च |
घयणे निग्गहो तखु काओ ” पादण्ना० ५६ गाथा । |
आ० म० । स्था० ! वर्णादिमच्वे, यद्योगान्मूर्स भवति । |
स्था० ४ ठा० १ उ० । गुणविरषाश्चरये, सम्म० । |
“४ व्यक्षियुंणविशेषाश्रयो मूर्तिः ” [ न्यायद० अ० २ च्रा० |
२ स्दृ० ६६ | इति । अस्यारथों वािककारमतेन--“वि- |
शिष्यत इति विशेषः गुणभ्या विशेषो गुणविशेषः कर्स्मा-
भिधीयते, द्वितीयश्चात्र गुणविशपशब्द् एकशेप त्वा निर्दिष्ट
तेन गुणपदार्थों ग्रह्मत--गुणाश्व ते विशषाश्च गुणविशषाः--
विशेषग्रदणमाङ्तिनिरासार्थम् । तथादि-श्रारतिः संयोग
विशषस्वभावा, संयोगश्व गुणपदार्थान्तगेतः ततश्चासति
वशषग्रहणे आक्ृतेरपि ग्रहणं स्यात् , नच तस्या व्यक्ता-
वन्तर्भाव इष्यत प्रथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात् । आश्र- |
यशब्देन द्वव्यमभिधीयत-तेषां गुणविरषाणाभाश्रयस्तदा-
श्रयो द्ृव्यमित्यथ: सत्र "तत् शब्दलापं कृत्वा निर्देशः कृत
एवं च वग्रहः कत्तेव्यः-गुणविशषाश्च गणविगेषाश्चति |
गुणावशषाः तदाश्रयश्चति गुणविशेषाश्रयः, समाहारद्धन्द्-
ख्वायम् ` लाकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य ” [ श्र ०२ पा० २ सू० २६
महाभाष्य पृ० ४७१ पं० = ] इति नपुसकलिङ्गाऽनिर्देशः !
तनायमथा भवाते-यो5ये गुणविशषाश्रयः सा व्याक्रिश्चोच्यते |
मूात्तश्चाते । तत्र यदा द्रव्य मूक्तिशब्दस्तदाए्घिकरणसा-
धनो द्रष्टव्यः मृचन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूत्तिः, यदा तु रूपा-
दिषु तदा कर्तृ साधनः- मूर्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपा- |
देया माक्तः । व्याक्कशब्दस्तु द्रव्य कम्मसाधनः रूपादिष क- | छात्तपह
प्णसाधनः `` [ श्र० २ आ० २ सु० ६८ न्यायवा० पृ० ३३२
न
प० ३-२४ ] भाष्यकारमतन च यथाश्रति सूत्रा थ:--गणकि-
शपाणामाश्रया द्रव्यमेव व्यक्रिमू्सिश्चति तस्यम् ¦ यथो-
क्रम्-'गुणवशषाणां रूप-रस-रन्ध-स्पशानाम् गुरुत्व-द्रव-
त्व-घनत्व-सस्काराणाम् श्रव्यापिनश्च परिसाणविशेषस्या-
श्रया यथासम्भवं तद् द्रव्य मूत्ति ( मूर्तिः) मूर्चिछुतावय-
वत्वात् '* [ न्यायद्० वात्स्या० भा० पृ० २२४ ] इति । सम्म०
कार्ड १ गाथा ।
य त्त्ट्धेन्- मुक्त्या थन्-पु० । मुक्क परमपदस्यार्थी अभिला
पी । केवल्यसुखार्थिनि , घ० ३ अधि० ।
मुत्तिअदोस-मुकत्यद्वेष -पु ० । मनाङ्मुक्त्यनुरागे , द्वा० ।
उक्तषु पृवसवाभदेषु मुक््त्यद्वेष भाधान्येन परस्कुर्वन्नाह--
उक्तभेदेषु योगीन्द्र युक्तयः षः प्रशस्यते ।
युक्त्युपायेषु नो चेष्टा,मलनायैव यत्ततः ॥ १ ॥
( उक्रभदेष्विति ) मलनायेव--विनाशनिमित्तमेव , तद्धि-
भवापायात्कटेच्छुया स्यात् ।साचन मकक््त्यद्वष इति मुक्त्यु-
पायमलनाभावप्रयाजकोा 5 यम् |
विषान्नतृपिसदशं, तद्यतों बतदुग्रहः ।
उक्तः शासेषु शस्रामि- व्यालदग्रहसननिभः ॥ २ ॥
( विपेति ) तन्मुकत्युपायमलनं विषा ऽन्नठप्तिसदशम् आ-
पातत स्ुखाभासखरतत्व शप वहुतरदु खानुब्रान्यत्वात् ॥
यद्-यस्माद् बताना दुश्रह्एऽसम्यगज्ञाकारः उक्कः । शास्त्रषु
योगस्वरूपानिरूपकग्रन्थेषु , शस्प्राश्रिव्यालानां या दुग्रहा-दु-
ग्रहातत्व, तन सान्नमः-सरशः, असुन्द्रपारणामत्वात् ॥२॥
द्वा० १३ द्वा०।
सेमोहादननुष्ठानं, सदनुष्ठानरागतः ।
तद्वेतुरमरतं तु स्या- च्छरद्रया जेनवत्मनः ॥ १३ ॥
( सेमाहादिति ) समोदात् सनिपातोपहतस्येव सर्वतोऽ-
नध्यवसायादनचुष्ठानमुच्यत, श्रनुष्ठानमेव न भवर्तातिरू-
त्वा । सदनुष्टानरागतस्तात्विकदेवपृजाद्याचारभाववदहुमाना-
दिधार्मिककालभाविदेवपजायनुष्टाने तद्धतुरूच्यते । म-
कत्यद्वेपण मनाग् सुक्त्यनुरागण वा शुभभावलशसेगमा-
दस्य सद॒नष्ठानदेतुत्वात् , जेनवत्मेनो-जिनोदितमागंस्य
श्रद्धया-इदमव तच्वमित्यध्यवसायलक्तणया त्वचुष्ठानममतं
स्याद् , , अमरणहतुत्वात् । तदुक्कम-' जिनादितमिति त्व्ू-
भौवसारमदः चुन: । सचगगभमत्यन्त- मस्त मुनिपुङ्गवाः !
॥ ९॥ `` ॥ १३ ॥ द्वा० १२ द्वा०।
मुत्तिशिलय- पुक्तिनिलय- पु । शत्र जये, ती १ कल्प ।
मुत्तित्थि -पक्तिखी-खो० । मुक्लिरूपयाषाते , ` सुचाग्रदामम
मात- मानुषीषु न म मनः। मुक्तिस्न््नीसक्षमोत्करठ--मकु-
रखमवातष्ठत ॥ २ ॥ `` कल्प० १ आध० ७ क्षण ।
| मुत्तिधारापुडग-मुक्तिधाराएटक-न० । न छ
सव० द्वार ।
अ मुक्तिपथ प° । मोत्तमार्गे, 'क्ञानदशनचारि्रारि स-
म्यग्दशनक्षानचरित्राणि मोक्षमागे ` इति । मै ।
( ३१
मृत्तिमस्ण
मत्तिमग्ग-मुत्तिमार्ग-पु० । सुक्लिनिष्परिग्रहत्वम्-अलोभतेत्य
थे: सेव निृक्तिपुरस्य मार्ग इव मागे: । । बृ०६उ०।मुक्निरहिता थे
करमप्रच्युतिस्तस्या मागो सुक्रिमागैः । ध० ३ अधि० । मुक्केर-
शषकमप्रच्य॒तिलत्तणाखाः मागेः । सस्यगदशंनज्ञानचारेत्ा-
त्मको यस्मिस्तन्मुक्किमार्गम् | सूत्र० १ श्रु०७ अ०। ज्ञानलक्षण-
चारित्रात्मके, आचा० १ श्रु० ६ अ० १ उ०। ज्ञानदशेनचारि
्रात्मक, दश० ६ अ० | अहितविच्यतेरुपाये, भ० ६ श० ३३
उ० | सकलध्मेवियो गहेतौ, प्राप्तनिर्लाभताके च। ओ० |
मृत्तिसुह-मुक्तिसुख-न० । मोक्षसुखे, सूज० १ श्रु० ३े अ० ४
उ० । तथा-' तणसथारनिसराणो वि, मुणिवरों भट्दरागमय-
मोले। ज पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो त चक्तवर्टी वि॥१॥ ” सूत्र ०
२ श्रु० ४ अ० श्राचा०। सिद्धिखुख, सुक्लिः सर्वेसुखानां से- |
सारिकाणां मध्य साद्यपयवसितत्वादुत्तमम् | संथा०। |
|
|
|
मुत्तु-मुकत्वा-अव्य० । छोडयित्वेत्यर्थ, व्य० ८ उ०। परित्य
ज्येत्यथे, ग० २ अधि० |
मुत्तोली-मृक्तोली खी । अधः उपरि च सद्जीणायां मध्ये |
त्वीषद्धिशालायां कोष्ठिकायाम् , ज० ३ वक्ष० । श्रनु० । |
द्ागर-मुदाकर पु । हर्जनके, सूत्र० १ श्रु० ६ आ० |
मुदितादेगुण-मुद्तादिगुण-पुँ० । सद्धंशसमृत्पन्ने मू्ाभि-
पिक्लादिगुणवति राजनि, “ मुदितादिगुणो राया, ” मुदिता
दिगणः-सद्वेशजादिगुणः, , आदिशब्दान्मूद्धी भिषिक्का दि ग्रह:।
पञा० १७ विव० |
मुदृप्पाया मुद्राप्राया-स्लरी ० | म॒ुद्राकल्पायाम्,पश्चा०४ विव०।
मुदय-मुद्रक-पुं० । ग्राहभेदे, प्रज्ञा० १ पदद॥
मुद्दा-मुद्रा-ली० । अद्भुल्याभरण विशेष, अनु० । शैल्याम् , द्र
श्या० ७ अध्या० । प्रव० । हस्ताय ङ्ग विन्यासविशषे, योगम॒-
द्वाजिनमुद्रामुक्ताशुक्किमुद्रात्मक॑ सूत्रपाठउसमकभावितया मु-
लमुद्रात्रयम् । सङ्घा० १ श्रधि० १ प्रस्ता० | दशै । प्रति० ।
मुद्दापुरुस - मुद्रा पुरुष-पुं० । सुद्रापदबिभूषिते राजपुरुष, बृ०
उ० ३ प्रक०।
लाडिछते, ज्ञा० १ श्रु० २ अ० | बृ० | भ० ।
श्रु० १ अ० | त॑० | कटप० । औ०।
मृद्रीका-खी० । द्रात्तायाम्,ने० । बृ० | घ० | ग०। पँ० ब० ।
अज्ञा० । श्राचा० । स्था० | जी०।
छृदियापिगलंगुलि-युद्रिकापिङ्गलाङ्गलि-तरि० । स॒द्विकाभिः
पिङ्गलाः पीतवर्णा श्रङ्कुलयो यस्य | कल्प० १ आधि० ३ क्षण।
छदियामहुर- मृद्रीकामधुर-न० । खद्धीका द्वाक्षा तद्धत्सैव वा
मधुरम् । द्वाक्षामिष्ट, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
छृदियासार-मद्ौकासार-पुं° । र॒द्वीका द्वाक्षा तत्सारनिष्प-
क्षासवविशेषो खद्धीकासारः | आसवमेदे, जी० ३ प्रति० ७
अधि० । प्रज्ञा०।
[षि
अभिधानराजन्द्रः।
दिया-मद्रिता-खी० । खत्तिकादिमुद्राय्॒क,बू० २ उ० । ज्ञाण |
म॒द्रिका-खी° । दस्ताङ्कुली सम्बन्धिनि श्राभरणे, ज्ञा० १ |
६ }
=
मुंद्दी-देशी -चुम्बन, दे० ना० ६ वर्ग १३३ गाथा ।
मुद्ध--युग्ध-पं० । क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स-६क- > -
पामूध्व लुक् ॥८॥ ।२। ७७॥ इति गलुक । प्रां० । अव्युत्पन्नमतों,
जी० १ प्रति० । पञ्चा०।
मूधन्- पं । ललाटे, प्रव० २ द्वार । शिरसि, सूत्र० १ श्रु० ४
श्र० २ उ०।
मुद्धजण हियय -मुग्धजनहुदय--न ० । मुग्धः स्वटपमतिर्यो जनों
लोकस्तस्य हृदयं मानखम् । अल्पन्नाभिप्राये , जी० १ प्रति०।
| मुद्धमइ-मुग्धमति-प० । श्रव्युत्पन्नमतो, मूढमतो, षो० ६ वि-
व० । स्था०।
मुद्धय-मूद्धेज-पृ° । केश जी० ३ प्रति० ४ श्राध० । प्रति
प्रश्न० ।
मुद्सल-मूद्ध॑शूल-न० । मस्तकपी डायाम् , विपा० है श्रु० १
अ० । ज्ञा० ।
मुद्धाभिसित्त मूद्धभिपिक्र-पुंण। सर्वैरपि प्रत्यन्तराजेः प्रता-
पमसहमानेनौन्य थास्माकं गतिरिति परिभाव्य मूद्धैभिमस्त-
केरभिपिक्तः पूजितो मूर्धाभिषिक्तः । रा०। नि० चू० । सूत्र० ।
राजनि, सूत्र० २ श्रु० २ अ० । अष्टमादेवसातथा, करप० ए
श्राघ० ६ क्षण ।
मुब्भ-देशी-ग्रहान्तस्तियगदारुणि, दे ना० ६ वर्ग १६९६
गाथा ।
मुपुक्खु -मुमनुक्ष-एँ० । संसारोडिझ्मनसि, ससारोद्धि्नम-
ना मुम॒क्तषुः संयमतपसी पीडाकरत्वेन न वेज्षि श्राचा० १
३ आ० १ उ० । मोक्षपुरगन्तरि, विशे० श्रा० म०।
मुम्मुय- मूकमूक-ए० | प्राकृतशेल्या छान्दसत्वाञ्च तथा रूपम् ,
मृकाद।प मूक, गद् गद्भाषित्वेनाव्यक्रभाषाणे, सूत्र० १ श्ु०
१२ आ०।
मुम्पुर मुर्नुर पुण । अज्ञारे, पिं० । फुम्फुकाग्नो, भस्ममिश्रि-
तामिकणे , जी० १ प्रति० । भ० । स्था० । उत्त० ।
सूत्र० । प्रविरलापझ्िकणानुविद्धे भस्मनि, श्राचा० १ श्रु० १
आ० ४ उ० | करीषे>ग्नों पिं० । करीष-करीषाग्न्याः,
दे० ना० ६ वर्ग १४७ गाथा ।
मम्मी - मडम्मुखी- खी० ० मोचनं मुक जराराक्षसीसमाक्रा-
न्तशरीर ग्रहस्य जीवस्य मुचं परति मुखम्-श्राभिमुख्यं
यस्यां सा मुडसखीति । वशतायुषो नवम्यां दशायाम् ।
स्था० १० ठा० ३ उ० | तं०।
नवमी मुम्पुहीनाम, ज नरो दसमस्सिओ |
जराघरे विणस्संते, जीवो बसहऽकामञ्मो ॥ & ॥
नवमी मृन्मुखी नाम वक्तते, यां मन्मखीं दशां नर श्राध्रितो
जराघर-शरारे, विनश्यति सति जीवाऽकामको विषयादि
वाञछा रहितो वसति । तं० | दश० ।
| म्रुय-मृत-त्रि० | विनप्र,आचा० ट श्ु० ४ श्र० ३ उ०। सूत्र० ।
_ (३२०).
ऋआभनधानराजन्द्रः।
सय
{
स॒सादंड `
मरद-स्री०। मोदनं सुद् । हर्ष , खूत्र० १ श्रु० १३ अ०। |
कि |
ययग -मदङ्क- पु । मदल, स्० प्र० १८ पाहु०। लघुमदंले, ज० |
३ वक्ष०। रा० । विपा०। |
4 4 है भ तीतो ४
मयगपुक्खर मृदङ्गपुष्केर-न० ! सदज्ञा लाकप्रताता मदल-
स्तस्य पुष्करे सृदङ्गपुष्करम् । मर्दैलस्य चर्मपुटके, रा० । |
ज०। जी०।
= | ०2० क के |
मुयग्ग-मुदग्र- प° । जीवे विभङ्गज्ञाने, बाह्याभ्यन्तरपुद्वलर- ।
चितशर्गरो जीव इत्यवष्टस्भवद् , भवनपत्यादिदेवानां बाह्या- |
भ्यन्तरपुद्धलपयादा नतो वेक्रियकरणद््शनादिति। स्था०७ठाण
मयच मृताचे-शदर्च -पुं० । खतेन स्नानविलपनसंस्काराभा. |
वादचौ-तनुः; शरीरं, यस्य स मताचैः। यद्धा-मोचन सुद् त- .
द्भूता शोभना अची -पद्यादिका लश्या, यस्य स भवति मु-
दर्चः । अशस्तदर्शलश्ये, सूज० ९ श्रु० १३ अ० । अकषायिणि, |
श्राचा० १ श्रु० ४ अ ३े उ०। |
मुया पुत् खी० । श्रीतो, दा १८ द्वा । |
एर स्फुट -धा० । हास्यन स्फोट, हासेन स्फुटेमुरः ॥ ८। ४।
११७॥ हास्यन करणन यः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो भवति ।
मुरुगा-मुरुका- खी” ० । वीन्दरियजीवभेदे, जी० १ प्रति०।
मुरुपुंड-देशी-जूटे, दे० ना० ६ वग ११७ गाथा । |
मुरुमुरिञ्च--न° । कामचिन्तायाम् , “ सुरुमुरिअं रूरुइअं +
पाइ० ना? १८२ गाथा ।
मुलासिअ-देशी-स्फुलिज्ञे, दे० ना० ६ वर्ग १३५ गाथा । .
मुन्न-मूल्य-न० । अर्घे, नि० चू० २० उ०। श्राव० । “ मुन्नाई
चेअणाई.” पाइ० ना० १६२ गाथा ।
मुव्यिसयंगारवुद्टा भा-सु &ि षयाड्रा रवृष्टया भा--त्रि०। सुदो हर्ष-
स्य विषयो यस्तस्मिन्नज्ञारवृष्याभा अज्ञारवृष्टिसदशा ।
भरमादविषयार्थोपघ्रातकारिण्याम् , घो० १४ विव्०।
युस--मुष--धा० । स्तेये , व्यञजनाददन्ते ॥ ८ । ४ । २३६ ॥
इति व्यञ्जनान्तधातोरन्तेऽकारः । मुसइ । मुष्णाति । प्रा० ।
मुसंहि--मुपण्दि--पुं ० । प्रहरणविशेष, लपेटाभिधाने शस्त्रभेदे,
जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । प्रशज्न०। रा०। प्रज्ञा० । सं०
साधारणवनस्पतिकायभेदे, जी० १ प्रति० । उत्त०। प्रज्ना० ।
मुसल-मुसल-न० | मुहुमुहुलेसतीति मुसलम् । धान्यकरंड-
नोपकरणे , अचु° । चतुहस्तप्रमाणे5वर्मानविशषे , ज्यो०.२
पाहु०। अच्चु० । उत्त० । सूत्र० । भ० । प्रश्न० । ति० । जं०।
“छुणणउअगुलिमाणरं धणूनालियाजुगे अक्खे मुसले वि ”
स० ६६ सम०।
मुसलाउह- मुसलायुध -पुं० । बलदेवे, “ रामो सीरी मुसत्वा-
उहो वला कामपालो य ” पाइ० ना० २३ गाथा।
मुसह-देशी-मनआकुलत्वे , दे० ना० ६ वरी १३४ गाथा ।
मुरद् । हासन स्फुटति | प्रा० ४ पाद् । |
परई-देशी-असत्याम्, दे० ना० ६ वग १३४ गाथा । |
पी 5 |
एरंडी-मुरणडी-खी० । मुरणडेदेशोक्भबायाम् , रा० । सूत्र०। |
मुरय-मुरज-पुं० । महाप्रमाणे मदेल. रा० । ज । गलघणिट- |
कायाम,ओ० । जी० । आ० म० | कल्प० । ज्ञा० । महामदले,
भ० ६ श० ३३ उ० | ओ० । मानाविशष, ज्ञा० १ श्रु० ७ आ०। | 2६ |: ५
वाद्यभेदे, “ मुइंगो मुरओ ” घाइ० ना० २६६ गाथा । यषा खषा- अन्य । वायब्दस्त्वल्यका कना
परमि मरि. पुं । । आभरणविशेषे, औ० । भ०। | १० ठा०। श्रचोरे चौरो 5यमित्याख्यानवचने , दश० च
35 9५ ली, १ आ०। अन्यथास्थततत्वस्यान्यथाप्रतिपादने, सूत्र० १ श्रु०
मरिञ्च-दैशी-त्रुटित, २० ना० ६ वग १३५ गाथा । १ श्र ३ उ० | पिथ्या5चन्॒ते सचेति पर्यायाः । विशे० | प-
आा० । “असन््तो४पि खका दोषाः,पापशुद्धश्चथमीरिताः।न स.
पाये विसंवाद-विरहात्तस्य कस्यचित् ॥१॥” पं०व० ४ द्वार ।
नि० चू० | अलीके , प्रब० ६ द्वार । आतु० । स्था०। नि० `
चू०। उत्त० । श्ृपेत्यसव्यभूतनिह्नवादि । उत्त० १ अ०।
स्था० । सूच्र० ।
| मुसाणुबं धे(र्)- मृषानुबन्धिन्-न° । पिशुनासभ्यासद्धूतघा-
तादिवचनप्रणिधान , ध० ३ अधि० ।
मुरियवंस-मं।यरवश -५०। चन्द्वगुप्तवेश, नि० चू० १६ उ०।
[
मुरुंड-मुरुणड पुं | अनायदेशभद्,सूत्र० १ श्रु ° ५ अ०६ उ०।
धव० । ग्रज्ञा० । नि०चू० । प्रणन० । स्वनामख्यात पाटलिपुत्र-
नगरराज, स्वनामस्यात प्रतिष्ठानपुरराज च । न० । 'पाटली-
पुत्रनगर, मरुगडाऽभृन्महीपतिः। आचायेः पादालिप्ताख्य-
स्तत्र विद्ाजलारवः ॥ ६ ॥ ” आ० क० ३ श्र०। दय० । आ०
म० । बृ०। नि० चू०। ( ` विज्ञा ' शब्द कथा) मुरुणडदेशो- | ; घे, ^
द्रव , तरि०। मर 4 शेः २१ ६ । श । के । घुसादण्ड-मृषादएड-पु० । अलीकजन्ये वधे, . आयद नाय्ः
। इ है | गाईण , वावि 3 जो मुखे वयई। सो मोसपच्चईओ ,
यरुडजड -धरुणडजड -पु° । सुद्एडस्य राज्ञो इस्तिति, इ० | दंडो छुट्टो इबइ एसो ॥ १॥ ” श्राव० ४अ०।
२ उ०।
मुरुंडदुस-मुरुएडदृत-पुं० । सुरुएडस्थ राज्ञो दूते, बृ० १ उ० | ~ अहवे छट किरियद्राणे मोसावत्तिए त्ति आहिजइ,
कणाः से जहाणामए केड पुरिसे अ।यहेउं वा णाइहेउं वा अगार-
मुरुक्व-मृख-पुं० | पद्य-छझ-मूखख-छारे वा ॥ ८। २। ११२॥ | हेड का सयम, यसं वयति, अधश विः
इत्यनेन संयुक्नस्यान्त्यव्यड्जनात्पूर्य उदेति खात्पूर्वभुत् । मु- | अस बाएड भुस वयत पि अष्पं समणुजाणह, एवे खलु
क्सो । मुरुक्खा । मृद , भा० २ पाद् । १ अत्र मृषाशब्दः सियाम् ।
| म र `
३२१ )
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अभिधानराजेन्द्रः।
तस्स तप्पत्तियं सावज्ञं ति आहिज़इ, छट्टे किरियट्टाणे
मोसावत्तिए तत्ति आहिए ॥ २२॥
अथापरं षष्ठ क्रियास्थानं सृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते--
तत्र च पूर्वोक्काजां पञ्चानां क्रिशस्थानानां सत्यपि क्रिया-
स्थानत्वे पायशः परोपघातो भवतीति इत्वा कण्डसमादान-
संज्ञा कृता, षष्ठादिषु च बाहुल्येन न परव्यापादनं भवती-
त्यतः क्रियास्थानमित्येषा सज्ञोच्यते । तद्यथानाम क-
श्चित्पुरुषः स्वपक्तावशाद्--श्राग्रहादात्मनिमित्तं यावत् परि-
वारनिमित्तं वा सद्धूतार्थनिहवरूपमसद्धू ताद्धावनस्वभा-
च वा स्वयमच मृषावादे वदति । तद्यथा- नाह मदीयो वा
कश्चिच्चोरः, स च चोरमपि सद्धूतमप्यश्रमपलपति | त-
था--परम-अचोरं चौरमिति बदति । तथा न्येन सषावादे
भाणयति,तथा ऽन्यां श्च मृषावादं वदतः समनुजानीत । तदवे
स्वलु तस्य॒ योगत्रिककरणत्रिकेण ॒ग्ृषावादे वदतस्तत्प-
त्ययिकं सावद्यं कम.श्राधीयत-सत्रध्यत । तदतत्षष्ठ क्रिया-
स्यान सरषावादप्रत्ययिकमाख्यातमिति । सूत्र० २ श्र० २ अ०।
मुसावाइ-मृषपाव[दिन् -पुं० । श्रसत्यवक्करि, श्राचा०
चू० ४ अ० १ उ० | अलीकभाषणशीले,उत्त० ५ अ० । प्रश्न०।
मुसावाय-मृपावाद-पुं० । गषा-- मिथ्या , वदने वादः । |
उदृदोन्खरृषि॥८। १ । १३६ ॥ इति ऋत उत् । प्रा०।
अलीकभाष्णे, स्था० १ ठा० । अनृताभिधाने, ध० २
अधि० । सूत्र० । पए० । असद्भूताथभाषणे , खूत्र० १
श्र० ३ अ० ४ उ० | पा० आव । दशै । असदभि-
धान सषाव वचनात् । च च द्रव्यभावभदादू-द्वथा | स्था०र् |
ठा० । नि०चू० । श्रभूतो द्धावनादिभेदाचतुद्धौ । स्था० १ ठा० ।
पा० । सृषावादश्चतुर्विधः । तद्यथा--सद्धांवप्रतिषेधः, अस-
द्वावोद्भावनम् , अथान्तरम् , गद च । तत्र सद्धावपति-
वेधो यथा-- नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्य, पापे च इत्यादि ।
श्रसद्धावो द्भावनं यथा-च्स्त्यात्मा सचैगतः, स्यामाकतन्दुल-
मातो वा इत्यादि । श्रथान्तरम्-गामश्त्रम् आभिद्धत इत्यादि।
गदौी-काणे काणमभिदधत इत्यादिः । पुनरयं करोधादिभावो-
यलत्तितश्चतुर्विधः । तद्यथा-- द्रव्यतः, क्ते्रतः, कालतो, भा-
चतश्च । द्वव्यतः-सर्वद्वव्येष्वन्य था प्ररूपणात् । क्षत्रतो-लोका-
लोकयोः । कालतः-रात्र्यादों | भावतः-क्राधादिभिरिति | द्र-
व्याद्विचतुभङ्गी पुनरियम्-““दव्वश्रा णामेगे मुसावाए,णो भा-
वच्चो । भावओ णामेगे,णो दव्वओ। एग दव्वओ वि,भावओ
वि। एगे णो दव्वयओ णो भावओ | तत्थ कोइ कटि चिद
सुज्ओ भणइ--इओ तप पखुमिणदइणो, दद्र क्ति, सो द-
याए दिद्ठा वि भणइ, ण दिष्ट त्ति, एस दव्वओ मुसावाओ,
२श्रु०१ |
णो भावओआ | अवरा मुसं भीहि त्ति परिणच्रा सदसा सच्चं
भण्ड, एस भावश्रा, न दव्वश्रो । श्रवो मस भणामि त्ति
परिणश्रा, मुस चव भणति, एस दव्वओ वि, भावश्रो वि।
चरिमभगो पुण खुण्णो ”
थाकीचुरि।
मुसावायं--सुहुम, वायरं च | तत्थ सुहम-पवलाउल्ना |
मरुए एवमादि, बादरा-कन्नालीगादि | महा० ३ अ०।
आए चू० | दश० |
+
। दश० ४ ञझ० । जीत० ३१ गा- |
इयाणि मुसावात ( द ) पडिसवणा दप्पकप्पहिं भर्णति
तत्थ वि पुञ्यं दप्पिया पडिसेवणा भणति--
दुविधो य ुसावातो, लोड लोउत्तरो समासें ।
द्व्े खत्ते काले, भावमि य हाई कोधादी ॥ २६० ॥
द्विहटो-दभेदो, मसा-श्रचत, वदन-वादः, शअ्रलिश्चरवयण-
भासरत्यथः । लोइय क्षि-असंजयमिच्छादिद्टिलोगो घचप्पति ।
उत्तरग्गहणात्संजतसम्मदिद्रगगदणे कञ्जति । खमासा-सस्व
बो, पिंडार्थेत्यर्थ: । यसदा मूलमेदावधघारणे, पुणो एकेका
चउभदो-दव्व, खक्ते, काले, भावंमि य। यसदा समुचय । का
दाति । श्रादिसदातो-माणमायालाभा | पत्थ लाइतो ताव
चउव्विहो भरणति |
तत्थ वि दव्वे पुव्व--
विवरीयदव्वकहणे, दव्वब्भूओ य दव्वहेऊ वा ।
खत्तशिमिक्तं जमि व, खित्ते काले वि एमेव ॥ २६१ ॥
दव्वस्स अणाहारणी जा भासा सा दव्वमुसावाओ भरणति ।
कटं पुण दृव्वअणाहारणीए भराणति ?,विवरीयदन्यकदण । वि-
वरीय-विपयस्त, कट ण-आख्यान, यथा गाम् अश्च कथयति
जीवमजीवे ब्रवीति, दव्वभूतो णाम-अखुवउत्तो भावस्तथ-
त्यथः, सो जे अलियं भासति तो दञ्वमुसावाच्रा, वा-वि-
कप्पसमुच्ये दव्वं हिरएणादि हेऊ--कारणं, दव्वकारणत्थी
मुस वदति त्ति वुत्त भवति । । जहा-कोइ दब्ब॑ लभीहामि त्त
अलियं सखेज्ञ वदति । वाकारो विकप्पसमुच्यये गतो दन्व-
मुसावातो ।
इदाणं चत्त भरणति- चत्त लभीहामि त्ति मुसावातं
भणति, जमि वा खेत्ते मुसावायं भासति सो खत्तमुसावातो,
वाकारो विकप्पदरिसणे । इमो विकप्पो--विवरीय वा खत्त
कटेति, अखुवउत्तो वा खत्तं परूवेति, एसो खत्तमुसावातो ।
इदाणि काल भरणएति-काले वि पमेव ्ति- जहा खत्ते, त-
हाकाल वि णवर कालणिमित्त तिण्णि घडइ।
इदि भावमुसावातो भरणति-भावमुखावातस्स भदका हु-
सामिकता वक्खाणगाहा-
कोधाम्मि पिता पत्ता, माणे धष ब माय उवधी य ।
लोभमि कूडसक्खी -णिक्खवगमादिणो लोगे ॥२६२॥
काटंमि-पिताःपुत्ताःउदादरणं,माणे-धरणःउदाहरणे,मायाप्
उर्वाह उदाहरणे, लोभंमि, कृ डसक्रिखत्त-उदाहरणं.ज लोभा
भिभूता दव्व्रे घेत्तृत कूडसक्खित्त करति एस लोभश्रा भावम्-
सावाओ | चोदआाह-णणु दव्वनिमिचं एस दव्वे भणितो ।
आ।चार्याह-सत्यं, तत्र तु महती द्रव्यमात्रा द्रण्व्या । इह तु
लोभामिभूतत्वात् खल्पमात्रा एव स्परे ब्रवीति किंच--ज
चणियादया लागे शिक्खवगे णिक्रिखत्त लोभाभिभूता श्रवल-
वति एस वि लोभतो भावमुसावातो दट्ुव्वा । च्रादिसदा-
आओ वि वासिभमप्पियमप्परगासं अवलवांति ज । पश्चार्ध व्या-
ख्यातमव।
पुव्वद्धस्स पुण सिद्धसणायरि्रो वक्खाणं करेति ।
कोहेण ण एस पिया, मम त्ति पुत्तो ण एस वा मज्मं |
हत्थो कस्स व हुस्साति, पूएसु घरा छुमति भाप ॥२६३॥
( ३२२ )
सुसावाय
अखशिधानराजन्द्रः ।
लि सुसावाय
युत्तो पिडणो रुद्रा भणाति-न एस पिया मम ति,अहं पिया |
वा । पुत्तस्स पिया रुट्ठी भगति-ण एस वा मज्भं पत्तो त्ति ।
कोहंमि पिता पुत्त क्ति गते । "धरणे माणं पि अस्य व्याख्या-
हत्थो पच्छुद्ध दुअग्ग कुडंवीणं विवातो | हत्थो कस्स बहु-
स्सइ त्ति,हत्थो हसत्यनन म॒खमाघत्य इति इस्तः | कस्सत्ति
त्तपे, द्रव्ये, ममं मोत्त कस्स5ण्णस्स, बहुस्सति हत्थो भवे-
ज्ञ.इतरो वि पमेव पच्चाह हवा कस्स ति त्ति ससतवाती
तुज्मं मज्ज वाण णजति । बहस इति बहुधन्नकारी,णवं तेसि
विवादे कुइंबीणं मज्मत्थपुरिसधरणमवणे सरिसे वा वणजा- |
तसु लूतेखु मलितेसखु पूत परिपूता परिखाहिता सवैमला-
पनीतानीत्यथैः । “ घरा दभति धरण त्ति ” तत्थगो मानाव-
ष्या मा दं जिच्च, ग्रहात् धान्यमानीय खलधान्ये प्रक्षिपति,
मीयमानेषु तस्यातिरेकल्वं सचृत्त मम बहुस्स त्ति हत्थो त्ति
पस माणतो भावमुसावातो । धरणं माण त्ति दारे गतं । इया-
[* व ० ०
रण मायउवाहाम्म [त्ति मायउवाह त्त उवाहारात उवकरण,
ताणि य वत्थाणि तेहि उवलक्खियं-उदाहरणं भणणाति, अण्णे |
पुण आयरिया एव भराति-जदा माय त्ति वा उवहि त्ति वा
एगट्ट त्ति, एत्थ उदाहरण भरणति ।
ससगलासागढग मूल दव खडा य जिष्पउज्ञाे ।
सामत्थण का भ्त, अक्खातं जे ण सदहति ।॥ २६४॥
नि० चू० १ उ० | ( अत्नार्थ धूताख्यानम् * धुत्तक्खाण् `
शब्दे चतुथभाग २७५६ पृष्ठ गतम्) गतो लोइओ मुसावातो ।
इयाशि लोउत्तरिश्रो दव्वादिचउव्विहो मुसावातो भरण-
ति-दन्वे ताव सचित्तं, त्रचित्ते, भगणति । धम्मदृव्वं च्रध- |
म्मदव्वत्तण परूवयति । अधम्मदव्य वा धम्मरूवण | एव |
सेसाणि वि दव्वाणि । खत्त-लोगागास श्रलोगागासपञ्-
वेदि परूवयति | श्रलाग वा लोगपज्नवेहि । भरहखेत्त वा हे-
मवयखत्त पजवाहिं परूवयति । हमवव वा भरहपज्नवेहि परू-
चबइ । एवं सेसाणि खत्ताणि । काले-उस्सप्पिणी ओसप्पिणी
पञ्जवदि परूवइ । ओसप्पिणिं बा उस्सप्पिणिपज्वोर्हिं परू- |
बयइ । एवं सुसमसुसमा[एह कालावेवच्चास कराते | समया-
दाववच्चास वा करइ । भाव-ज काहण वा, माणण वा, मा-
याए वा, लोभख वा,अभिभूतो वये भणति । एरिसो भाव- |
मुसावातो । श्रह वा--लाउत्तरिश्रो भाषमुसादातो दुविहो ।
जश्रा भरणति ।
गाहा--
सुदमो य बादरो वा, दुविधो लोउत्तरो समासं ।
सुहमो लोउत्तरिओ, णायव्वो इमहि ठाणेहिं॥२६७॥
।
सुहुमबायरसरूव वक्खमाण, समासो-संखवो, इमहि ्ति- |
यक्खमार्णाह, पयलादी हि, ठाणाहिं ति-पदाहि, दारेहि ति वुत्त |
`भवति ।
ताणि य इमाणि ठाणाणि-दारगाहा-
पयला उल्ल मरुए, पच्चक्खाण य गमण परियाए ।
समुदेस संखडी खु इए य परिहारिय म्ुहीग्रो ॥ २६२८ ॥
श्रवस्सगमणं दिसासु, एगगुले चव एगदव्वे य |
पडियाइक्खित्ता य, भूजण पयलासि कि दिवा ण।।२६६॥
पताता दोण्णि दारगाहातो ।
पयल त्ति दारं । गाहा--
पयलामि ति य य लहुओ, दच्च णिणहत्रे पुणो गुरुओ ।
अष्पद। इति णिण्वणे,लहया गुरुगा वहुतराणं ॥३००॥ `
कोइ साह पयलाद दिवा, अण्णेण साहुणा भरणति, पय~
लासि कि दिवा, तेण पडिभणियं-ण थयलामि, एवमवलवं-
तस्स पढवाराए मासलदं । पुणो वि से उघेड पवत्तो, पुणो
वि तण साइुणा-मा पयलाहि त्ति । सो भणति-ण पयलाम
त्ति । एवे वितियवाराप दो णिए्हवे गुखगो त्ति । वितिय-
वाराए शिरदवंतस्स मासषरू भवतीत्यथः । अण्णदा इतिः
णिरण्डवे लुग त्ति । ततो पुणरवि ण॒ पयलामि त्ति । चडल-
इगे भवति । गुरुगा बहुतरगाणं ति-तेख साइणा दुतिश्च-
ग्गाणं दंसिओ, पुणरवि िरहवेति तेण से चउगुरुगा भवंति ॥
णिणहवणे पच्छित्तं, बड़ोत्ति तू हि जा सषदं ।
लद गुरु मासे सुहुमो, लहुगाती बादरे हंति ॥३०१॥
पुव्व 5द्धं कंठे । णवरे समुदायत्थो भएणति--पंचमवारा णि-
ण्हवेतस्स छ लदुओ । छट्टीएण छ गुरुओ । सत्तमवाराए दो 8
अट्टमवा राए मूले | णवमवाराए अणवट्टी । दसमवाराए पा-
रंची । चोदकाह--एस सव्वा खुहममुसावातों । आयारिया-
ह-लहुगुरुमास खुडुमा क्ति-जत्थ जत्थ माससहु, मासगुरू
वा तत्थ तत्थ खुहुमा मुसावातो भरणति, चउलहुगादी बा-
यरो मुसावाता भवतीव्यथः । पयले त्ति दारे गयं ।
इद्ाणि “ उल्ल त्ति ` उल्लामिति वासं । गाहा--
कें वचसि वासंते ण, गच्छे णणु वासविंदतो एते ।
यजेति णीह मरुगा, कटिं ति णणु सव्रगेहेटिं ।३०२।
कोइ साह वासरे पडिमाण श्ररणतरपञ्रोयणेण पदि
श्रो , श्ररणण साहुणा भरणति-ञ्रजो ! कि वञ्चसि ,
वासते, किम् इति परिप्रश्न' बजसीत्यर्थः, वासते वष, तेण
पद्ितसाइणा भरणति, वासते ऽदं ण गच्छे ” एवं भणिऊण
वासते चव पदट्टिओ , तेण साहुणा भरणति-णरु अलियं,
इतरो प्याह, ण, कटे, उच्यते-णखु वासं विदवो एते
णरु-श्ासकिंतावहारेण, वासं पाणीय तस्स एए विद्वो
विदुमिति थिवुकं । सीसो पुच्छुइ-एत्थ कतरो मुसावाओ ?,
गुरुराह--जो भणति-णाई वासते गच्छ, एस मुसावातो
छुलवादोपजीवित्वाञ्च । जो पुण भणति-किं वश्चसि वासते,
एस मुसावातो ण भवति । कटं उच्यते--““ करेज्ञ वा से
वासते ” इति वचनात् । उज्ञेत्ति दार गये । इदाखि "मर्षः
त्ति व्याख्या--भ्लुज़ेति पच्छुछे--कोइ साह कारण विणि-
र्गतो उवस्सयमागेतृण साह भणति--णीह-णिगच्छुह,
भुजति मरुश्रा । अम्दे वि तत्थ गच्छामा । त साह उग्गहि-
यभायणा भराति । कटि ते मर्या भुजति ? तण भणिये-
णु सव्वगेहेहिं। मरुए त्ति गयं । ` पञ्चक्खाणे य ` अस्य
व्याख्या । वितियदारगाहा-ते चरिमा पादा पडिया दि-
क्िखत्तये भुजणयेति, ते पडिया तिक्िखत्ताणुभुजामि त्ति
निषिद्धेत्यर्थः । पुनरपि भोगे सषावादः ।
श्रस्येवाधस्य स्पष्टतरं ठया स्यान | कराति-
यजसु पचक्खातं, ममं ति तक्खण पश्चुंजती पुट्ठो ।
किं च इमे पंचविधा, पचक्खाता अविरती उ ॥३०३॥
काइ साह केण य साष्ुणा उवग्गहभायणमं डलिषेलाकाले
भणितो-एहि भुजखु, तण भणियं- भज तुज्भ, पञ्चक्खाय मम
ति, एवं भणिऊण म डलिवेलाण तक्खणादव शरजंता तण सा-
ससावाय
इणा पुट्टो | अज्जो ! तुमं भणासि-मम पद्चक्खायं ? सो |
की या "
( ३२३
ऋअधिधानराजन्द्रः।
अणति 'कि च' पच्छुद्ध, पाणातिपातादिपंचविहा अविरती,
सा मम पञ्चक्खाया इति । पश्चक्खाण त्ति दारं गयं ।
इयाणि गमे ति श्रस्य व्याख्या-वितियदारगादापए ततिय-
पादो पडिश्मकिस्वयगमरणति- पडियाइक्खित्ता ण गच्छामि
त्ति वुत्तं भवति । एवमभिधाय पुणरवि शिग्गमणे ।
“मुसावायो 5स्येवार्थस्य सिद्धसेनाचार्यः व्या ख्यानं करोति-
चच्चसि णाहं वच्चे, तक्खण-वच्चंत-पुच्छिओं भणति |
सिद्धते ण विजाशसि, णु गमति गम्ममाणं तु ॥३०४॥ |
कोति य साहुणा चतियवेद णादिपयोयणे वच्चयमाणण श्रणणो
साह भणितो-वच्सि ? सखो भणति णाहं वच्चे । व्च तुमे । सो
साधू पयातो । इतरा वि तस्स मग्गतो तक्खणादेव पयातो,
तेण पुर पञ्वपयायसामिेण श्ररणो साधू भरणति-पुणो पु-
च्छितो कटे ण वञ्ामि त्ति भणिऊण वच्चास्त ? सो भणति-
सिद्धेतं ण विजाणह ? । कहम? , उच्यत-रखु गमति गम्म-
माणं तु-गम्ममारो गमणं णागम्ममाणे,जेमि य समए तुमे अं
सुद्धो तमि य समए ण चेवाहं गच्छत्यर्थः। गमणे त्ति दारं गयं ।
इयाणि परिताप क्षि--
दस एतस्स य मज्म य,पुच्छितो परियाग वेति तु छलेण ।
मज्क णव त्ति य वंदित,भणाति ते पंचगा दुसओ॥ ३० ४॥
कोइ साहुणा वंदिडकामेण पुच्छिओं-कति वरिसाणि ते
पघरिताओ ? सो एव पुच्छितों भणति-एयस्स साहुस्स मज्भ
य दस वरिसाणि परियाओं । एवं छलवायमेगीटत्य व्रवीति ।
सो पुचछतगसाह भणति-मम णव वरिसाणि परियाओ । एवं
भणिऊण य वंदिओ, तादे सो पुच्छियसाह भणति-णिवसह
भते ! तुज्मे वंदणिज्ञा, सो साह भणति-कटं मम नव वरि-
साणि ?, तुज्मं दस वरिसाणि-सो छुलवाई साह भणति णणु |
वे पंचगा दस उ । ममर पंच वरिसाणि परितातो । एयस्स य |
साइगणो पंच वरिसाणि चव परिआआओ । एवं वे पंचगा दस-
आओ । परियाए त्ति गतं ।
दाणीं समुद्देस क्षि-
वइति तु समुद्देसी, कि अत्थह कत्थ एस गमणम्मि ।
बदति य संखडी उ, घरेसु णणु आउखंडणता ॥३०६॥ ।
कोति साह कातिश्मभोमादिविणिग्गतं श्रादिच्चे
परिवेसपरिवियं दट्हूण त साहवो सत्थे अत्थमाणा
तुरियं भरणति-वद्दति उ समुद्देसो कि अत्थह उद्देह
गच्छामो ते साह अलिय भासति त्ति गहियभासणा
उदिता उद्धता पृच्छति कत्थ सामो । छुलवादी भर्णति-
खु एस गमणमग्गम्सि आदिचज्चपरिवेस दर्शयतीत्यर्थः । |
समुद्देस त्ति गये ।
सेर्खाड़ त्ति पच्छृद्धे । कोइ साह पढमालियपाणगादिणि- |
ग्गतो, पदच्चागओ भणति--इह ऽज णिवेसे पठराओ संसखडी- |
आओ, ते य साहवो गंतुकामा पृच्छति, कत्थ ताओ संखडीआओं
वदेति ?, सो छुलवाई साह भणति--वह्ंति संखडीओ धर-
सु अष्पणण्पणएसु त्ति वुत्त भवात । । ते साहवा भणेवि- कथं |
ता अपसिद्धा संखडीओ भरणंति-सो छुलबायसाह भणति-
शु आखंडणया । खणु-आसकिता, वाउवधारण जे एति |
_सुसावाय
जाई य तमाउं भरणति-जञमि वा ठियस्स सब्वकम्माणि उ-
वभोगमागच्छाति तमाउं भणणति, तस्स ख डणा-विनाशः सा
ननु सर्वेगृहेषु भवतीत्य्थः । सखाड त्ति गत ।
इदाणी खुडण जि--
खुड़ग ! जणणी ते मता य,रुप्र जियइ त्ति एव भणितमि।
माइत्ता सव्यजिया, भर्विसु तेणेसा मता ते ॥ ३०७ ॥
कोई सादर उवस्लयसमीव दद्ठूण मयं खुणीई खुड़यं भ-
णाति-खुडुग ! जणणी ते मता , खड़ा बालो , जणणी माता
मया-जीवपरिञ्त्ता । तादे सो खुद्ायस्र्णा, त स्वत दट्ह
ण सो साह भणति--मा ख्य जियइ त्ति, एवं भणियभ्मि-
खुडधा श्रणणे य साह भणंति । कि खुड तुम भणसि जहा म-
या, सो मुसावायसाह भणति--पसा जा साणी मता ए-
साय तुञ्भः माया भवति, खुदो य भणति- कट एसा म-
उभ माता भवति, सो भणति--मादित्ता पच्छ॒ुद्ध सर्विस,
तीतकाले आसीदित्यरथः , भणिय च भगवता--“ पगमे-
गस्स श भते ! जीवस्स सव्वजीवा मातित्ताए पियत्ताए भा-
तित्ताए भज़त्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताप भूयपुव्वा। हंता गोय-
मा ! पगमेगस्स जीवस्स एगमेगे जीवे मादित्ताए ० जाव
भूयपुव्व क्ति ” तेण त एसा साणी माता भवतीत्यथः । खुड़े
त्ति दारं गयं;
इदाणि परिहारिय त्ति-
ओसप्े दद्ठ॒णं, दिद परिहारिय त्ति लहुकरणे ।
कत्थुज्जाण' गुरुओं, आदंडइ।दटंस लह गुरुगा ॥३०८॥
कोइ साह उज्ञाणादिसु ओसणणो दरण आगंतूणं भणनि-
मए दिटद्वा-परिहारिग क्षति, सो छुलश कहयाति । इतर पु-
ण साह जाणति, जहा--थरिहरितवावरणा अणण दिद्वा इति
तस्स एवं छलाभिप्पायतो केतस्सव मासलहं एाय-
चित्तं भवति | पुणो ते साहुणों परिहरियसाह दरिसणो-
खुगा पुच्छाति, कत्थ ते दिद्ठा, सो कहयाति-उज्जाण त्ति, एवं
कार्टितस्स मासगुरु। अधिद्वदिद्वेसु क्ति परिहारियदंसणोसखुगा-
लिया जाव ण पासंति ताव तस्स कहेंतस्स चडउलह-
गा, विद्ेस ओसणणसु कटेतस्स चउगुरूगा ।
छल्लहुगा य शियत्ते , आलोए तमि छग्मुरू होति ।
परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो ॥ ३०६ ॥
तखु साहस शियत्तेखु कटयेतस्स छल्लहुगा भवंति , ते
साहयो इरियावदिय पडिक्रमिडं गुरुणा गमणागमणं आ-
लोपति भति य--ओप्पासिया अणेण साहुणा, एवं तेसु
आलोयंतेस कहयंतस्स छुग्गुरुगा भवंति। सो उत्तरं दाउमा
रद्धो पच्छ5द्ध परिहरंतीति परिहारगत परिहारमाणा वि कदं
अपरिहारगा एवं उत्तरप्पयाण छेदो भवति । | ते साहवो भ-
शाति--कि त परिहरोति ?, जण परिहारगा भर्णंति।
/ उच्यते--
खाणुगमादी भूल, सम्बे तुब्भेग5हं तु अणवड्ढी ।
सन्वे वि बाहिरा वा, पवयण तुब्भे तु पारंची ॥ ३१०॥
उद्गाय य ठिये कट्ठें खाणुगं भएणाति | आदिसद्दातो कंटगगड़ा-
दि परिहराति | तण ते परिहारगा भण्णंति । एवं उत्तरफ्याणे
मूले भवति । ततो तेहि सवेगवयशेहि साहि भरणति-ध-
( ३२७ )
सुसावाय
अभिधानराजन्द्रः
|
द्रोएसि, जो एवं मए वि उन्तरं पयच्छासे । ततो सो पडिभ-
णति-सव्वे तुज्के सहिता एगवयणा, एगो5ह तु असहाओ
जिश्चामि । ण पुण 'परिफग्गुवयणं मे जपिये, एवं भणंतो
अणव्टा भवति । ज्ञानमदावलिपा वा स्यादेव ब्रवीति। सव्व
वि-पच्छुद्ध, सव्व अससा, वाहिरा-आज्ञापवयणं-दुवा लसे -
ग गर्णिपिडगं, तुब्भे क्षि णिद्देस, तुसद्दो तावन््मात्रावधारण,
पव सव्वाहि खेबाओ पारंची भवात | परिहारिए त्ति गयं ।
इदाणि सुहीओ ज्ि-
भणइ य दिट्टणियत्ते, आलोया55मंति घोडगमृहीओ ।
कि मणुसा सव्येतो, सव्चे बाहिं पवयणस्स ॥३११॥
पगा साह वियारभूर्मि गओ, उज्जाखुदेस वलवाओ चरमाः
णीआओ पासति । सो य पच्चागओ, साहण विम्हयमुद्दो कह-
यति-सुणह अज्जो । जारिसय मे वोज्जे दिदं तदि भर्णति-
किमयपुव्वं लूम दिं ?, सो भणति-घोडगमुद्दीओ म इत्थिया-
श्रा दिद्ठाओ, त उज्जुखभावा-श्रणलियवादणो त्ति साहू
साहणो पत्निया, जहा परिहारे तदा इहावि असेस दद्ुव्वे ।
शवर अक्खरत्थो भण्णति--भणाते घोडगसुहीओ दिष्टा
इति ' साह पुच्छिओ कत्थ ?, उज्जाणसमाघ त्त, वात-
यवय । साहवो दद्रव्वाभिप्पायी वयति, त्ति ततियवयण दि
त्ति बलवाश्मा, च उत्थ पडिणियत्ता इति, पचम गुरू त्रा
लापति, एवं वियमो, चंडं खदादपच्चुत्तरपयाण्, आम ति
घाडगमहीआओ जण दीं मुहे, अहो मुदे चः अश्वतुल्या एवे-
त्यश्च: । सत्तमे पदं साहृदि भराणाति-कह ता इत्थियाओ ?,
सा पडिभणाति-किं खादति मणुस्सा अटुमे पदं, सव्वे तुन्भे |
झहमेगो णवम पदं, सव्व बाहिरा पवयणस्स दसम पद् ।
एंतसु दसस जहासंखेणिम पायच्छत्त ।
मासो लहुओ गुरुओ,चउरों मासा हवति लह गुरुगा ।
छम्मासा लह गुरुगा, खेदो मूल तह दुग वा ॥२१२॥
दु्ग-अरणवड्ुपारं चियं । ससे कंटे । । घोडगमुहीओ त्ति गतं ।
इद्राण ` अवस्सगमण तं अस्य व्याख्या
गच्छसि ण ताव गच्छामि,कि खु ण जासि त्ते पुच्छितो भणति
वेला ण ताव जायति,परलोगं वावि मोक्खं वा ।। २१३ ॥
गच्छसि ण॒ ताव क्ति-कोाइ साह, केणइ साहुणा पुच्छिओ-
अज्जो ! गच्छसि भिक्खायरियाप, णु ताव गच्छसि त्ति।
पसा पुच्छा गच्छात सा भरणाति-अवस्से गच्छाम | तण
साहणा गिहीयभायणावकरणण भरणात, अज्जा . एाद्द व-
च्छामा | सो भणद्-श्जबस्सगतव्यण ताव गच्छाम | तणु सा
हुणा पुणा भराणात, तुम भाणय अचस्स गच्छामि । ताक
खु ण॑ जासि त्ति । पवे पुच्छितो भणति। वेला ण॒ ताव पच्छ
द्ध-पर लोगगमणवेला ण ताव जायति, तो ण ताव गच्छा-
मि, माक्गमणवला वा, अपि पदार्थसभावने । कि पुण
सभावयति-श्नवस्स परलोगं, मोक्खे वा, गमिष्यामीत्यर्थः | |
था वक्रप्प पे । गमणं त्ति गत ।
इयाण ` दरस त्ति शरस्य व्याख्या-
केतरं दिम गभिस्सामि, पूव्यं अवरं गतो भणति प्र ।
कि वा ण॒ होइ पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स ॥२१४॥ |
पगा साधू एगण साहुणा पुच्छितो--अज़्नो ! कत्तरं [दिस ।
भिक्खायरियाप गमिस्ससि ? सो एवं पुच्छितो भणति-पु-
व्व । सो पुच्छेतगसाह उग्गाहेऊ ण॒ य गतो.अवरं दिस इयरा
वि पु्वदिसि गमणमादी , श्रवरं गओ। अज्जो ! तुमे भिय
हे युवे गमिस्सामि ?, कीस अवरं दिसिमागतो ?, पुटं भ-
णइ-पुद्ठो पुच्छिउ त्ति-बुत्त भवति, कि वा `-पच्छद्धं-अरुण-
स्स अवरगामस्स इमा पुव्वा दिसा कि ण भवति ? भवति चः
व । दिख त्ति गतं।
° एगकुले त्ति ' श्रस्य व्याख्या--
अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुद्ो ।
भणति कं दोषि कुल, एगसरीरेण पविसिस्स॥३१५॥
दार-
वचह एगं द व्वं,ेच्छऽशगग्गह पुच्छितो भणति ।
गहणं तु लक्खण पु-ग्गलाणणे शसिते गहणे ।३१६॥
अणिकाइते लहुसओ, शिकाइए बायरो य वत्थादी ।
ववहारदिसाखेत्त, कोहातो सेवती जं वा ॥ ३१७॥
भिक्खाणिमित्षट्टितेण साहा, साह भर्णति-श्ज्या ! पदिः
वयामो भिक्स्वाए,सो भणति-वच्चह तुरभे अदे एगे दब्वे वेच्छु
ते गता गत.इतरो वि अडंतो ओदणदोच्ंगा दी बहुदव्वे गरहंता
ताद साहहि दिद्धो पुच्ितो य-अज्जो ! तुमे भणित एगं दव्वं
बैच्छे, एवे5णेगग्गह पृच्छितो भरति त्ति, अणगाणि दृव्वाणि
गेणहंतो पुच्छितो इम भणाति-गहरणं तु पच्छुद्धं, गातिलक्ख-
णो धम्मत्थिकाञ्रो , रितिलक्खणो अधम्मस्थिकाओ, अव-
गाहलक्खणो आगासात्थिकाओ , उवच्रागलक्खरणो जीव-
त्थिकाओं , गहणलक्खणो पुस्गलत्थिकाओ, पसि पेचरे
दव्वां पुग्गलत्थिकाय एव गहणलक्खणो एगो णरणेसि ति
घम्मादियाण एय गद णलक्खंण ण॒ विद्यतत्यथः । तेणग ति,
तस्टा अहमेगं दव्वं गर्हामि त्ति बुत्तं भवति । सतेखु
पयलातिखु भरतस्सव मासलदुं पायाच्छित्त,एंतस चेव पय-
लादिख अभिणिवेसण पक्क्रपदातो पसगपायच्छित्तं द्वै
०ज्ञाव पारचियं। एत्थ खुहुमबायरसुसावातलक्खण भरणति
अरणिकाचित लहुसओ मुसावातो भवति,णिकातिते बादरो मु
सावातो भवति। वत्था इति-अआशिकायणिकायणाणे भदा द-
रिसिज्ञति-जहा केणति साइणा कस्खति साहुस्स कंदप्पा
वत्थ ुभियं,जस्स य ते वत्थे णमियं सो सामरे पुच्छुति-
अज्जो ! केण वि मे वत्थं णमितं?,कहयह,सव्वे भणंति-णेव त्ति
एवं तस्स वत्थहारिणो अवलवेतस्ख अणिकातियं वयणे भव-
ति। जदा पुणु तस्स तस्स साहुस्स कण य॒कादितं-जदाऽमु-
गण साहुणा गहियं, तेण य सो पुरू भणाति-णेव त्ति, एवं
शिकायणा भवति । श्रदबा-जणतं गहिये सो चेव पदमे
पुट्टी-अज्जो ! तुमे म वल्थं उचितं १, सो भणति-णेव त्ति, एत्र
अशिकाइयवयणं,अतो प्रं जो पुच्छिज्नतो ण साहेति सा शि
कायण भवाति । आदि शब्दाद्-एवंमव पात्रादिष्बप्यायोजनीय-
म् । अहवा-इम बाद्रभेया ववहारं शरणा शिति दिसावहारे
करेति.खत्ते वा आहच्य ण देति,ममाभञ्वं ति काउ,पव ववहा-
रादी,कादादि सवत, जता तया बादसे मुखावातो भवती-
त्यर्थः.अदहृवा-एंते ववहारादियाण विणा कोहण ति बादरो
एव मुसावादो दट्ढ॑ब्वो, कोहाति सवती ज वत्ति-अणणत्थ वि-
दं कोदादिश्नाविद्धा मुसं भासति-सो सव्वो बादरो मुसावा-
दो दट्वुब्बो इति । १
( ३२५ )
अधिधानराजन्द्रः।
“+ -ववावण
च त्था ` इति शरस्य व्याव्या-
केदप्पा परवत्थं, रुमेरणं ण साहती पुट्ठी ।
जे वा शिग्गह पडो, भणिज्ञ दुडऽतरप्पा वा ॥३१८॥
प॒व्वद्ध गताथ । ववहारादेसाखत्तपदाण सामन्नत्थव्याल्या
पच्छुद्धझज वा-वयण सवज्भात , नरगडहा-नश्चय पुट्टा-प-
च्चिता, भरज्-भासखज्ञ दुद्ु-कफलासय अतरप्पा-ाचत्त ,इांत
एगद्टु । वा विकप्पा ,णव बादरो मसावाता भवात, नश्चयका-
।
|
लऽपि प्रष्टा दुष्टान्तरात्मा भूत्वा यद्वचनमाभघत्त स बादरा |
सषावादों भवतीत्यथः ।
'कोहादी सवती जे व' त्ति, शरस्य व्याख्या-
कोहेण व माणेण व, मायालोभेण सेविय ज तु ।
सुहमं व बादर वा, सव्वं तं बादरं जाण ॥ २३१६ ॥
[य
बा.वादरे वा। तं कोहादीहिं भासियं सव्व बादरं भवतीत्यथेः।
अणिकाइए' नि, जा गाहा एत्तिए गाहाए जे अवराह-
पदा तसु पच्छित्ते भएणति--
लहुगो लहुगा गुरुगा, अखवद्वप्पो व होइ आएसो ।
तिरं एगतराए, पत्थारपसज्ञणं कुज्ञा ॥ ३२० ॥
| लहुओ त्ति-सुहुममुसावाते पच्छित्त-लहुग त्ति । वायरमु-
। सावाते पच्छित्त-लहुग त्ति । दिसावहारे--चडगुरूगा
पायच्छित्त,साहम्मियतणे वि चउगुखुगा चेव । | अहवा-साह
| म्मियतेणे-अणव्ट्शे । आदेसो नाम-सुत्ताएसो, तेण अणवट्दो
भ्रवति | ते चिम सुत्त-“तओ अणवट्ट॒प्पा पप्तत्ता। त जहा-सा
द्वाले दलेमाणे ` ॐ तिराह ति-तिविहो मुसावातो-जहन्नो, म-
ज्मिमो, उकोसो । जत्थ मासलहं भवति से जहरणो मुसावा-
तो । जत्थ मासगुरू स मज्मिमो, नत्थ पारचियं स उक्तोसो ।
एम्रतराए त्ति-जहण्णमसावात पढमतो भरणति-भासति त-
तो पत्थारपसजरणं कुज्ना.। अहवा-मज्मिम पदमे भासति त
सविते ज तु-मुसावाए वयणं सेवज्छति ते दुविद-खदम |
हम्मियारणं तरया करेमाणे.अरणहम्मियाणे तरणे करेमाणे हत्थ |
ता पत्थारपसजण कुज्ज । अह उक्कोस पढमता भासत तता
पत्थारपसज्जण कुज्जा । प्रस्तारा-वस्तारः, प्रसञज्जन-प्र- |
सङ्गः,तदैकेकस्मिन्नारोपयदिलयर्थः । श्रदवा- तिरं ति-दिसा-
वहार, त्त, कोहाती, ससं पूर्ववत्। अहवा-तिराहं-मास- |
लह, चड़लहु, चउग्रुरुगं, पर्तासि एगतराता पत्थारपसञ्जणं
कुज्ञा । केति पढम ति चउरटं एगतराए त्ति--चडराह कोहा- |
दीणं एगतरणावि मुस वयमाणस्स पत्थारदासो भवतीत्यथेः।
णसा मुसावायदाप्पया पड़िसवणा गता ।
इयाणि कप्पिया भर्णति । दारगाहा--
उड्जाहरक्खणछ5ट्ठा, संजमहेउ व वोहिके तेणे ।
खत्तामि ब पडिणीए, सेहे वा सेहलोए वा ॥ २२१॥
उदड्ाहरक्लरणऽद्धा मृसावातं भासति । सेजमदेड वा मुसा- |
बाते भासति । वोदियतेणदि वा गदितो मुसावातं भासति ।
पडिणीयखत्ते वा मुसावातो भासियव्वो । सदरिमित्तं वा |
मुसावातो भाखियन्वो । । सहस्स वा लोयणिमित्तं मुसावाता
भासिज्ञति । उड़ाहसंजमबोहियतेणए पञ्चक्खाणे त्ति !
द्रारगादा-
जामो कमदगादिसु,मिगादि ण विपास अहव तुसिणीए ।
# श्रस्य सस्य व्याख्याः अणवद्ग प्प › शब्दे प्रथमभागे २६२ पृष्ठे गता |
+
| [7 7 --~-- ~ ||
बोरिगगहणे दियाती, तणेसु व एस सत्थो ति ॥३२२॥
जति धिज्ञातियादया पुच्छेति-तुज्के कत्थ भुज, ताहे
वत्तव्वं- भजामो कमढगा दिसु । कमदढगे णाम-करोडगागारं,
अट्ुगण क्ति । आदिसदाता करोाडगे चव चप्पति । पव
उड्डाहरक्खणट्ठा मुसावातो वत्तव्वा । सजमदे ति-जइ केइ
लुद्धगादी पुच्छोति-कतो एत्थ भगवे ! दि मिगादी, श्रादि-
सदातौ सूअराति, ताहे विट्वेंसु वि वत्तव्वं न विपासे क्षि-न
दिट्ठु त्ति वृत्त भवति । । अहवा-तुसिणीओ अच्छाति--भण-
ति वा-न सुणमि त्ति । एवं संजमहेउं मुसावातो | वोहियप-
चलुद्ध-बोहिएस वा गहितो भणाति-दियादित्ति अब्रात्मणो-
ऽपि ब्राह्मणों ऽस्मति व्रवीति | तेणेसु वा गहितो भणाति ।
एस सत्थ क्ति चारे भणति-णासह णासह त्ति, घप्पद त्ति ख-
त्तमि, पडिणीते प्रत्यनीकभाविते क्षेत्रे इत्यथः । ते च खत्ते ।
दारगाहा--
भिक्खुगमादि उवासग,पुट्टी दाणस्स णत्थि शासो त्ति ।
एस समन्ता लोओ, सको अभिधारती छत्तं ॥ ३२३ ॥
भिक्खुगमाई त्ति-पडा, आदिसद्दातो परिव्वायग्गादि, तर्हिं
भावियं ज खत्त तत्थ उवासगा पृच्छति । सटा ते परमत्थेण वा
भगवं ! जम्हे भिक्खुगादीश्राणे दाणे दलयामो तस्स फले कि
अत्थि क्ति ? सो एवं पुट्टो भणति-दाणस्स नऽत्थि णासो त्ति,
जति वि य तेसि दाणं दिरणे अफले तहा चेवं भणाति, मा ते
उद्दुरुद्ठा घाडेहंतीत्यथै:। सहो क्ति-सहो पवज्ञाभिमुहो आगतो,
पव्वतितों वा तं च सयणसगासे पुच्छति-तत्थ जाणता वि भ-
रोति ण जाणामा, ण वा दिट्रा क्ति, सहस्स वा अणहियासस्स
लोए कज्जमाण चहु एव अत्थमाण एवे वत्तव्वं पस समत्थो
लोश्रा थोवं अच्छाति श्रणणं च साइस्स लोए कञ्जमाणे तत्र
स्थित एव शक्रो देवराजा,छुत्रमभिधारयतीत्यथः गता मुसा-
वायस्स कप्पिया पडिसेवणा। गतो मुसावातो । नि०चू०१उ०।
चतर्विधष्वपि मरषावादेषु जघन्यता ऽतिचारे सव्येकाशनक-
म् , मध्यमेऽतिचारे ्राचामाम्लम् , उत्छृषट क्षपणम् । जी त० ।
पाणे य शाइवायेजा, अदिन्नं पि य णादए।
सादियं ण भुसं वृया, एस धम्मे उसीमओ ॥१॥
सूत्र० १ श्रुण ८ अ०।
मुसावार्य वदिद्ं च, उग्गथं च अजाइ य |
सत्था दाणाईं लोगंसि, तं विज्ञ परिजाणिआ ॥ १॥
सृपा-शअसद्भूतो वादो सृषावादस्तं विद्धान् प्रत्याख्यानपरि-
ज्ञया परिहरेत् । सूत्र“ १ श्रु° ६ अ० ।
तीथकृद्धचनायु सारेण वदतो मृषावादो न न भवति--
शबरं ण मोक्खए पाणं, मुसावायं व आवई |
अननं च--
रागं दोसं च मोहं व, भयछंदाणुवत्तिय ।
तित्थकराण सखा भूया, णा भवज्ा उ गायमा «|
म॒सावायं न भासतो, गोयमा { तित्थकरे उ ।
जणं तु--
केवलनाणेर्णं तरसि, सव्वं पच्चक्खं जगं ।
भूयं भव्वं भविस्सं च, पुन्न पावं तहेव य |
जं किनि तिसु लोएसु, तं सव्वं तेमि पायड ।
( ३२६ 4
45, 278 29, अभिधानराजन्द्र: ! न
पायालं अवि उद्मुहं, सर्ग पज्ञा अहमहं णूणं महव्वए उवद्ठिओ मि सव्वाओं मुसावायाओ वेरमणं २
तित्थयरमृहभणियं, बयशं होजु न अन्नहा ॥ ( सूत्र-४ )
नाणदंसणचारित्तं, तवं घोरं सुदुकरं ।
सुग्गइमग्गा फुडा एस, परूवंती जहड्डिओ ॥
अन्नहा न य तित्थयरा, वाया मणसा य कम्पणा ।
भणति जाव ञुदणस्स, पलयं हवई तक्खणा ॥
जं हियं सच्वजगजीव-पाणभूयास केवलं ।
तमणुक्रपाए तित्थयरा, धम्म भासंति अवितहं ॥
जणं तु समउत्रिनरं--
दादग्गदुक्खदारिद -रोगसोगङ्खगईभयं । |
ण भविजा उ विइएणं, संतो वृच्चेव तं तहा ॥
महा० ६ आ०।
ँ खपावादपरिहारे कथा--
“ कोङ्कणः श्रावकः काऽपि, पुसा केनाप्यभर्यत।
नश्यन्तं प्रहरार्वन्त-मत तनाहतो मतः ॥ १ ॥
घातक करण नात्वा-5क्थयत्त रगार्धिपः । |
पृष्ठ: काराणकः साथ साक्षा कस्त 5त्र लाऽवद्त् ॥ २॥
परत्राउस्यव स पृष्ठाउचक्, सत्यमतत्ततः स ते: ।
स ङ्त्याऽभ्यच्य ।नदापा, मुक्को नद्धंटितः परः ॥ ३॥ ”'
आ० क० ६ आ० |
अजादाहरणभू--( ' अलियवयण ` शब्दे प्रथमभागे ७७३
पृष्ठ ) ( कारण सति म्रषावादे वदेदिति “ मुसोवणस ` |
शब्दे वच्यते )
मुसावायवत्तिय -मृपावादपप्रत्यथिक-प;ु० । सषावाद आत्मप-
गोभयार्थमलीकबचने तदव प्रत्ययः कारण यस्य दरड़
स्य स तथा। स० १३ सम० । आत्मा परेषां वा ना-
यकादीनामथाय या स्पा वदति तस्मिन् क्रियास्थान, नप० । |
भव० १२१ द्वार | आतु०। ( “मुसादणड' शब्दे सत्र दशितम् )
मुसावायवाय-खपावादवाद-एु० । खषावाद् सत्के विकत्थने,
`` मृसावायस्स वाये वयमाणे कप्पस्स पत्थारे भवइ ” सषा-
वादस्य सत्क.वादे-विकथन,.वात्ता वा वदति साधौ प्रायश्वि-
स्तारा.भवतीति । स्था० ६ ठा० ।
मुसावायावर३- मषाकदावरात्-खा० । सर्वस्मान्मृषावादाद्
वरता, महा“ । आलयवयणस्स वरद् सावजं सव्वमयविन |
भासा महा० १ चु०।
सुसावायवेरमण-मरृषावाद विरमणु-न ० । श्रलीकवचनाचिवत्तो, |
अहावरे दोच्च मेते ! प्रहच्यए मुसावायाओ वेरमणं, सव्यं
भेत ! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भ-
या वा हासा वा नव सर्य घुस वएजा नवज्नेहिं मुस॑ वाया- |
वेज्ञा, मसं वार्यते वि अन्नेन सपणुजाणामि जावजावाए
तिबिह तिविहण मणणं बायाए काणएणं न करेमि न का- |
राम करते पि अननं न समणुजाणामि,तस्स भते! पदिक - |
माम निदामि गर्हामि अप्पाणं वोसिरामि । दे भते! |
अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महावते सषावादादिस्मंः
रो, सव मदन्त ! खषावादं प्रत्याख्यामीति पूववत् , तयथा
ऋधाद्वा लोभाद्धेत्यननायन्तव्रहणान्मानमायापसिग्रहः भ~
याद्वा हास्याद्वेत्यनेन तु प्रमद्धेषकलादहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः।
(णेव सय मुख वदेज त्ति) नेव स्वयं सषा वदामि, नैवान्येभृषा
वादयामि, मषा वदतो ऽप्यन्यान्न समनुजानामीदयतत् याव _
ञ्जी ्रमिव्यादि च भावारथमधिक्रत्य पूववत् । दश० ४ अ० ॥
( मुसावायशब्दे चतुर्विधोऽये व्याख्यातः ) ( स्थूलान् मू-
पावादाद् विरमं द्वितीयमखुवबतम् 'अलियवयण' शब्दे प्र~
मभागे ७७३ पृष्ठे गतम् ) एतद्रतफलं विश्वासयशःस्वा- _
थैसिद्धिप्रिया 5 5देयाप्मोघवचनतादि, यथा--
“सव्वा उ मंतजोगा , सिज्कंती धम्मअत्थकामा य।
सच्चेण परिग्गाहिया , रोंगा सोगा य ऋस्साति ॥ १॥
सच्च जसस्स मूल, सच्च विस्सासकारणं परमं ।
सच्च सग्गदारं सच्च सिद्धाइ सोपाणे ॥ २॥”
एतदग्रहणे ऽतिचरणे च वैपरीत्येन फलम्--
“ज ज वइ जाई, अप्पिअवबाई तदि तहि होइ ॥
न सुणइ खुदे सुसद , सखुणइ अ सोअव्यए सदे ॥ १ ॥
दुग्गंधों पूइमुहो, अशणिद्ववयणो अ फरूसवयणो अ ।
जडएडमूअमस्मण-अलिअवयणजपण दास ॥ २॥”
इहलोए ऋ जीवा, जीहाछेआ वहं च वंध वा |
स्मयसे धणनासं वा,पावंती अलियवयणाओ ॥ ३॥'
इत्यादि ॥ २६ ॥ घ० २ अधि० । पश्चा० । श्रा० ।
अथ छ्वितीयबतस्य तान् ( अतिचारान ) आह--
असो द्विधाऽणुस्थूलाम्यां, तत्राद्यः प्रचलादितः ।
हितीयः करधलोमादे-भिथ्याभाषा ६ तीयके ॥४६॥
द्वितौयके-सूपावादाविरतिरूपेऽसावतिच!रः , अखुस्थला
भ्याम्-सृदमवादराभ्यां,प्रकाराभ्यां, द्विधा-द्विप्रकारो,भवती-
ति शेषः। तत्र--आद्यः सृचमः.प्चलादितो नद्राविशषादेर्भि-
थ्याभाषा-असत्यभाषणं भवति , यथा-प्रचलसि कि दिवा ?
इत्यादि चोदितः प्राह-नाहं प्रचलामि इत्यादि । क्रोधादेः--
ऋोध्लोभहास्यभयेर्भिथ्याभाषा द्वितीयो बादरः परिणाम-
भदाद्धवतीति, यतः पश्चवस्तुके-' विद्मि मुखावाप, सो
सुहुमो वायरां अ णायव्वों पयलाई होइ पढमो, कोहाद-
भिभासणे विद्मा ॥ ६४५६॥ `` घ० ३ अधि० ।
द्वितीयं बतमुच्यते--
धूलगमुसावायं समणोवासओ पच्चक्खाई, से य एसा-
वाए पंचविहे पनन्त, तं जहा-कन्नालीए गवालीए भोमा-
लीए नासावहारे कडस कखि(त्त)जे। धूलग परसावायवेरमण-
स्स समणोवासएशणं इमे पच अइयारा जाणियव्या ण भा-
सियव्वा । ते जहा-सहसब्भक्खाणे रहस्पन्भक्खाणे सदा-
रमंतभेए मोसुत्रएसे कूडलहकरण । २ ॥ |
मृषावादो हि द्विविधः--स्थूलः, सूर्म । तत्र परिस्थू-
लवस्तुविषयो ऽतिदुष्टविवन्तासमृद्धवः स्थू लो, विपरीतस्त्व-
तरः । तत्र-स्थूल एव स्थूलकः'स चासों म॒षावादश्राति
| ` ---~ र .. 2: 0 जी
( ३२७ )
सुसावायव० |
समासः, ते भ्रमणोपासकः प्रत्याख्यातात पूववत्,सच
सषावादः पञ्चविधः प्रज्ञप्त--पश्चप्रकारः प्ररूपितः, तीथकर
अध्वरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, कन्याविषयमचरतम्-
अभिन्नकन्यकामंव भिन्नकन्यकां वक्रि, विपयेयो वा, एवं
गवान॒तम्-श्ल्पक्तारामव गां बहुत्तीरां वक्ति, विपयैयो वा
एवं भूम्यनतम्-परसत्कामवात्मसत्कां वक्ति
निचयुक्का ऽनाभवद्
_ अभिधानराजेन्द्रः।
व्यवहार वा |
यवहारस्यव कस्याचद्धागाद्याभभूता व-
क्र सअस्ययमाभवतात । न््यस्यत--नाक्षप्यत इात न्यासः- |
रूप्यकादयप्पणे, तस्यापहरणे न्यासापटारः । श्रदत्तादानरूप-
त्वादस्य कथे स्रषावादत्वमिति ? ,
बाद इति | कूट साक्षित्वम् उत्काचमात्सयोद्यभिभूतः प्रमा-
शीतः, सन् कूटं वक्कि, अविधवायनरतस्यात्नैवान्तभीवे वे-
दितव्यः । मुसावादे के दोसा ? अकज्ञेते वा के गुणा ?, तत्थ
दोसा, करणगे चव अकराण॒ग भरते भागेतरायदासा, पठा
च आतघाते करेल, कारवेज्ञ वा, प्वे सससु वि भाणि-
यच्चा । णासावहारे य पुरोटितादाहरणम्-सो जधा णमो- |
कारे गुणे उदाहरणं--कोकणगसावगो मणुस्सेण भणितो, |
चाडए णासेत आह णादि त्ति, तेण आहतो मतो य, करणे
शीतो पुच्छितो-कोत सक्खी?, घाडगसामिएण भिय,
एतस्स पुत्तो मे सक्खी, तण दारएणण भणिति--सच्चमते ति,
स [व [स + (~ [न ^~
वुद्धा पृजितो सो, लोगेण य परसंसितो, पएवमादिया गुणा
उच्यते-अपलपतो सृषा- |
म॒सावादवेरमण । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् | तथा |
चाह--( थूलगमुस्मवादवेरमणस्स ) व्याख्या-स्थूलकमरषा- |
वादविरमणस्य श्रमणापासकनामी पश्चातिचारा
व्याः ज्ञप्प्ररज्ञया, न समाचरितव्याः । तद्यथेति पूर्ववत्
ज्ञात- |
सह सा-अनालाच्य, अभ्याख्यान सहसा 5 भ्याख्यानम् , अ- |
अशसनम्-असदध्यारापण, तद्यथा-चा रस्त्व पारदारका |
वेत्याद । रहः- एकान्तः, तत्र॒ भवं रहस्यं, तेन तस्मिन्
वा अभ्याण्याने रहस्याभ्याख्यानम् , एतदुक्क भवति-पका- |
न्ते मन्बयमाणान् वक्ति-एते हीदं चदे च राजापकारित्वा- |
दि मन्यन्ति । स्वदारे मन््भदः स्वदारमन्त्र भेदः--स्वदा-
रमन्ज ( भेद ) प्रकाशने--स्वकलत्रविश्चन्धविशिष्टावस्थाम-
न्तरितान्यकथनमित्यथः.कूटम्- असद्भूतं,लिख्यत इति लेखः,
तस्य करणे-क्रिया कूटलखक्रिया-कूटलखखकरणम् ,अन्यमुद्रा
त्तरविम्बस्वरूपलेखकरणमित्यथः। एतानि समाचरन्नतिचर-
वि द्वितीया खुव॒तमिति । तत्रापाया प्रदश्यन्ते--सदसन्भ-
खारा खलपारसो सुणेज्जा सो वा इतरो वा मारिज्जेज्ज
बा, एवं गुणा, वेसि त्ति भपणं श्रप्पाणं ते वा विरोध-
ज्ञा, एव रदहस्खञ्भक्खाणोऽव ! सदारमतभद् जा अप्प- |
खा भज्जाप सदधि जारण रहस्खे बोह्िताणि ताण अरणे- |
सि पगासेति । पच्छा सा लाज्ता अप्पाण पर वा मारज्ना।
तत्थ उदाहरणम् मथुरावाणगो देसायत्तापु गतो, भजा |
सा जाध ण॒ णात ताध बारसम वारस अणणण सम प्राडता। |
सो आगतो , रत्ति अन्नायवसेण कप्पड़यत्तरण पवि-
सति, ताणं तदिवस पगत, कप्पड़िओं य मग्गति, तीप
य॒ बहितव्वगे खञ्जगादि, ताधे पियगपति वाहेति
श्रणणातचज्ञाए ताघे पुणरवि गतु महता रिद्धिए आगतो
सयणाण समं मिलितो, परोवदेलेण वयस्साण सव्वं क
धेति, ताए अप्पा मारितो । | आव० ६
स्यद् मोसोवएस' शब्द वक्ष्यते )
० । ( अन्रत्यम- |
सुसावाधव ०
श्रथ द्वताय सबरद्वार मृपावादविरल्यात्मकम--
जब्र ! वितिय च सच्चवयण सुद्ध सुचयं सेव सुजाय सु-
भासि्य सुव्वयं सुकदिय सुदिई सुपतिद्धिय सुपतिट्टियजस सु
संजमियवयणवइयं सुरवरनरवसमभपवरबलवगसुषिदटियज -
णबहुमय परमस हुधम्मचरणं तवनियभपरिग्गदहियं सुगति
पहदेसिय च लोगुत्तमं वयमिदं विज्ञाहरगगणगमणविज्ञा-
ण साहणं सग्गमग्गसिद्धिपहदे सियं अवितहं तं सच उज्जुय
कुडिलं भूयत्थं अत्थतो विसुद्ध उज्जोयकर पभासकं
भवति, सव्वभावाण जीवलोके अविसंवादि, जदत्थमधुरं
पच्चक्यं देवय व ज तं अच्छरकारकं अवत्थतरसु बहु-
एसु माणुसाणं सचेण महासमुदमज्के वि मृढाऽणिया वि-
पाया सच्चेण य उदगसंभममि विन वुज्कति न य मरति
थाहं ते लभंति । सच्चेण य अरगणिसभमंमि विन डज्मं
ति, उज्जगा मणूसा सच्चेण य तत्ततेन्नतउलाहसीम-
कां लिति धरति न य उञ्छति, मणूता पव्वयकडका-
हि मुचतिन य मरति। सच्दण य परिग्गहिय। असिषं-
जरगया समराओ वि शिईति | मष्पहा य सच्चवादी ब-
हबंधभिओगंवरघोरेहिं पमुच्चति य अमित्तमज्भाहिं निईंति
अर्हा य सच्चवादी सादिव्याणि य देवयाओ करेंति स-
च्चवयणे रतारं। ते सच्चं भगवं तित्थगरसुभासियं द-
सविहं चोदसपुव्वी्हिं पाहुडत्थविदित महरिसीण य सम-
यप्पदिषं दर्विदनरिंदभासियत्थं वेमाणियसाहियं मह-
त्थं मंतोसहिविजासाहणत्थं चारणगंणसमणसिद्ध विज `
मणुयगणाणं वंद िज्जं अमरगणाणं च अच्चणिज्ज
्सूरगणाणं च प्यणिजं अशेगपासंडिपरिग्गहियं जे तं
लोकम्मि सारभूय गभीरतरं मह।समुदाश्रो थिरतरगं मेरु-
पव्वयाओ सोमतरग चंदमंडलाओ दित्ततरं सूरमंडल।ाओं
विमलतरं सरयनहतलाओ सुरभितरं गंधभायणाओं ज
विय लोगेमि अपरिपेसा मता जोगा जवाय विज्ञाय
जंभका य अत्थाणि य सत्थाऽशे य सिक््खाओ य आग-
मा य सव्वाईं वि ताईं सच्चे पडट्टियाईं। सच्चं पिय
संजमस्स उवरोहकारकं कंचि न वत्तव्व॑, हिंसासावजस-
पत्त भयविकहकारके अशत्थवायकलहकारक अणजं
अववायविवायसंपउत्तं वेलंबं ओजधेजबहुलं निल्नजं लो-
यगरहणिजं दुद दुस्सुयं अधुणियं अप्पणो थवणा
परेसु निंदा,नतं सि मेहावी, ण ते सि धापो,न तं सि पिय-
धम्मो, नतं कुर्ल।णोभन ते भि दाणपती,न तंसिसृरोन
तं सि पडिरूयोनतं सि लङ्का,न पंडिओ,न बहस्सुओ, न
विय तं तवस्सी, ण य।ऽवि परलोगनिच्छियमती मि, स-
व्वकालं ज।तिकुलसूववाहिरोगेण वाऽवि जं हाई वजरिजुं
दुहओ उवचारमतिकंतं एवं विहं सच्चं पि न वत्तव्वं |
.( २२८ )
अशिधानराजन्द्र। ।
सुसावासवचे ०
सुसावायवे° `
श्रथ कीटशम तत्-
अह केग्सिकं पुराहं सच्चं तु भासियव्वं १, जं तं दच्वे `
हिं पजवेहि य गुणेहिं कम्मं बहुविहेहिं सिप्पेहिं आ-
` गमेहि य नामक्खायनिवाश्रोवसम्गतद्वियसमाससंधिपदहे-
उजोगियउणादि किरियाविहाणधातुसरविभत्तिवनजुत्त ति- |
कल्लं दसविहं पि सच्च जह भणिय तह य कम्परणा |
होइ दुवालसविहा होड भासा, वयणं पि य होड सोलसवियं,
एवं अरहंतमणुनायं समिक्रिखियं संजएण कालमि य व-
त्व्वं । ( सत्र-२४ )
जबू ` इत्याद्वि-तच्र जम्बारात शष्यामन्त्रणम् ( विदय
च त्ति) द्वितीय पुनः सवरद्धारम् , सत्यवचनम् सद्धा
मरानभ्या, गुणेभ्य पदार्थभ्यावा, हित सत्यम् । आह च-
“ सच्च हिये सयामिह, सता मुख्या गुणा पयत्था वा
तच्च तद्धचने सत्यवचनम्, एतदव स्तुवनज्नाह-शुद्धम--न-
दाषम् , अत एव शाचिकं-पावेत्रम ,/शव--शबहतुः, खुजा- |
त-शुभविवक्तात्पन्नम् , अत पव-सखुभाषत-शाभनव्यक्तवाग्- |
रूप, शभाश्रितम् , सुखांश्र त; सुधा सत वा, सुत्रतम-शाभन- |
नियमरूप, शोभनो नाम मध्यस्थःकथः| कथित] प्रतिपादको |
[ प्रतिपादायितव्यं ] यस्य॒ तत्खुकथितं, सुदृष्टम् श्रतीन्द्र-
याश्दशिभिः, टदढमपवगोदिदेतुतयोपलन्ध, सुप्राताष्ठत-स-
मस्तप्रमाशेरुपपादितं , सुप्रतिष्ठितयशः-ञअव्याहतख्यातिकं,
( ससज्ञमियवयणवुदयं ति ) खुसयमितवचनेः-खानियान्व- |
तवचनेरुक्क॑ यत्तत्तथा, सुरवराणां-नरकरषभाणां ( पवरब- |
लवग त्ति ) प्रवरबलवतां खुविदहितजनस्य च बहुमतं--स-
भ्मतं यत्तत्तथा, परमसाधूनां-नेष्ठिकमुनीनाम् , धर्म्मच-
रणम्- धर्मानुष्ठान यत्तत्तथा, तपानियमाभ्यां परिय्रहीत-
म--अज्ञीकृत यत्तत्तथा, तपोनियमो सत्यवादिन एव स्या-
तां नापरस्यति भावः, सुगतिपथदेशक च, लाकात्तम चुत-
मिदमिति व्यक्कमे। विद्याधरगगनगमनविद्यानां साधने नास-
त्यवादिनस्ताः सिध्यन्तीति भावः। स्व्रगीमागस्य-सिद्धिप-
थस्य च, देशकं-प्रवत्तकम् यत्तत्तथा, अवितथम्-वितथ-
रहितम्, ( तं सच्च उज्जुग ति ) सत्याभिधान यद् द्वितीय
सवरद्धारमभिदितं,तजुकम ऋजुभावप्रचत्तितत्वात् , तथा- |
श्रकुटिलम्-श्रकुटिलस्वरूपत्वात् , भूतः-सद्भूतो ऽथः-- |
श्भिधया यस्य तद् भूताम् , अथतः-प्रयोजनतो, विशुद्ध- |
निर्दोष, प्रयाजनापन्नामिति भावः, उद्योतकरं--प्रकाशकारि
कथम् ?- यतः प्रभाषकं--प्रतिपादक भवति,कषां कस्मिन्नि-
त्याह-सर्वभावानां जीवलाक--जीवाधारे क्त्र, प्रभाषक-
मिति विशिनाष्टि, अविसंवादि-अव्यभिचारि, यथाथीमिति
कृत्वा,मधुरे-कामले यथाथमधुरे, प्रत्यक्ते दैवतमिव देवतेव
यत्तद्, आश्च्यकारक-चित्ताविस्मयकरकार्यकारकं, तदीदशे
कषु कपार्मिति ? आह--अवस्थान्तरेपु--अवस्थाविशेषषु,
बहुष मनुष्याणा, यदाह-
“ सत्यनामिभवच्छीता, गाधं घत्तऽम्बु सत्यतः ।
नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयत फणी ॥
पतदेवाद-सव्येन हेतुना मदासमुद्रमध्ये तिष्ठन्ति
` निमज्ञन्ति, ( मृढाउणिया वि त्ति ) मूढं नियत-
== चात्यन्तानाभिभवनीयत्वात् , विमलतरं शरन्नभ-
दिग्गमनाप्रत्ययम् ( अणिये ति ) श्रग्रम्-तुरडम् , त्र
नीकं वा- तत्प्रवर्तकं जनसेन्यं यषां ते तथा, ते5पि,पोता-
बोधिस्थाः, तथा सत्यन च उदकसम्श्रमेऽपि-सम््रमका-
रणत्वादुदकप्तवः उदकसखम्श्रमस्तत्रापि (न वुज्भइ भद त्ति)
वचनपरि णामान्नोद्यन्त--नप्लाव्यन्ने, न च श्रियन्ते, स्ता
च- गाधं च त लभन्त, सत्येन चा्िसम्श्रमेऽपि- प्रदीप
नके ऽपि; न द्यन्त, ऋजुका--श्राजबोपेताः,
सव्येन च तप्ततैलत्र पुलोद सीसकानि प्रतीतानि (चवेति त्ति )
द्ुपान्त--धारयान्त, दस्ताज्ञालाभारात गस्यत,नच दह्यन्ते |
मनुष्याः, पर्वैतकटकात्--पर्वतैकदेश्वाद् विमुच्यन्ते न चं
भ्रियन्ते, सत्यन च परिग्रहीता युक्ता इत्यर्थः, असिपज्ञरे-
शक्रिपञ्जर गताः, खङ्धशक्रिञ्यग्रकररि षपुरुषवेष्टिता इत्यथः,
समरादपि-रणादपि; ( निति त्ति) निर्यान्ति-निगेच्छन्ति,
अनघाश्च-श्रस्ततशरीरा इत्यथः, के इत्याष्ट- सत्यवादिनः
सत्यप्रतिज्ञाः, वघवन्धाभियोगवेरघोरेभ्यः-ताडनसंयमनव-
लात्कारघारशात्रवेभ्यः प्रमुच्यन्ते, अमित्रमध्यात् शत्रुमध्या-
निर्यान्ति, अनघाश्च निर्दोषाः सत्यवादिनः, सादेव्यानि च-
सानिध्यानि च देवताः कुर्बन्तिःसत्यवचनरतानाम्। आह च~
“ प्रिये सत्ये वाक्यं हरति हृदय कस्य न जने ?,
गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामथेयति च ।
खुराः सत्याद्धाक्याददति मुदिताः कामिकफल-
मतः सत्याद्वाक्याद् बतमभिमतं नास्ति भवने ॥ १॥ ”
( तमिति ) यस्मादेव तस्मान्सत्ये द्वितीय महा-
जते भगवद्-भद्वारकं, तीर्थकरसुभाषितम् जिनेः सु-
प्लूक्क॑ दशविधे--दशभरकार; जनपदसम्मतसत्यादिभेदेन
दशवैकालिकादि प्रसिद्धं, चतुदंशपूर्विभिः भाश्रृताथवेदि-
त-पूर्वगतांशविशषाभिधेयतया ज्ञातं महर्षीणां च, समयन
सिद्धान्तन, ( पदन्न ति ) प्रदत्त समयगप्रतिज्ञा बा-समाचारा-
भ्युपगमः । पाठान्तरे-( महरिसिसमय पदन्चिन्न ति ) मह~
पिभिः, समयप्रतिज्ञा-सिद्धान्ताभ्युपगमः, समाचाराभ्युप्-
गमो वेति चरितं यक्तत्तथा, देवेन्द्र नर्द भाषितः-जनानामु-
क्लो ऽथः-पुरुषाथेस्तत्साध्यो धमीदिथस्य तत्तथा । अथवा-दे"
वन्ध्रनरेन्द्राणां भासितः-प्रतिभासितो ऽथः- प्रयोजने यस्य
तत्तथा | श्रथवा-दवेन्द्रादीनां भाषिताः.ञ्रथो-जीवादयो जि
नवचनरूपेण यन तत्तथा,तथा चेमा निकानां साधितं प्रतिपा-
दितमुपादेयतया ज्ञिनादिभियत्तत्तथा, बैमानिकैर्वा साधितं-
कृतमासवितंःसमधितं या यत्तत्तथा, महा थ-महाप्रयोजनम् ,
पतदेवाद--मन्नोपाघचिद्यानां साधनमर्थः-- प्रयोजनं यस्य
तद्धिना तस्याभावात्तत्तथा, तथा चारणगणानां-विद्या-
चारणादिवरन्दानां, श्रमणानां च सिद्धाः विद्या आकाशग
मनचेक्रियकरणादिप्रयोजना यस्मात्तत्तथा, मनुजगणानां च
वन्दनीये-स्तुत्यम् , , अमरगणानां चाचनीयं-पूज्यम् , अखुर-
गणानां च पूजनीयम् , श्रनकपाखरिडर्परि ग्रुदीतं नानावि-
धत्रतिभिरङ्गीकूतं यत्तत् .लाक सारभूत,गम्भीरतरं-महासमु
द्रादतिशयेनाक्ताभ्यत्वास् * स्थिरतरकं-मेरुपवतात् श्र्चलि-
तत्वन, सोम्यतरे चन्द्रमरडलात् , श्रतिशयन सन्तापपश-
महतुत्वात् , दीघतरं स्छुरमरडलात् , थथावद्धस्तुप्रकाशनात्।
स्तलादतिनिदोषत्वात् , खुरभितरमिव सुराभितरं, गन्धमाद्~
|
र
मनुष्िया-नरा४
र् .
मुसावायवे «
नाद्-गजदन्तकगिरिविशेषात् , सहृदयानामतीव हृदयाव-
जैकत्वात्, येऽपि च लोके5परिशेषा--निःशेषा, मन्वाः-
इरिणगमेषिमन््रादयः, यागाः-वशीकरणादिप्रयोजनाः, द्र
उयसयागाः,जपाश्च-मन्त्रविद्याजपएनानि, विद्याश्व-प्रश्नप्त्या-
दिकाः, ज़म्भकाश्च-तिथग्लाकवासिनो देवविशेषाः, श्रखरा- |
णि च-नाराचादीनि क्षप्यायुधान, सामान्यानि वा, शा- |
खाणि च-अ्थेशास्त्रादीनि, शखाणि वा-खज्ञादीनि, अक्तिप्या-
युधान, शित्ताश्च-कलाग्रहणानि, आगमाश्व -सिद्धान्ताः,
सर्वाए्यपि तानि सव्ये प्रतिष्ठितानि, असत्यवादिनां न केऽपि
मन््रादयोऽथौः स्वलाध्यसाधकाः प्रायो भवन्तीति भावः,
तथा-सत्यमपि सद्धतार्थमात्रतया सयमस्योपरोधकारकं
बाधकं किञ्चिद् अल्पमपि न वक्रव्य, किरूपे तदित्याह-हि-
सया-जीववधन, सावद्यन च पापन, श्रालापादिना सम्प्रयुक्कं
यत्तत्तथा, आह च-
तहेव कार काणि त्ति, पडगे पडग त्तिय।
वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेण चारि क्षि ना वण॥ १॥
भदः-चारिज्रभेदस्तत्कारिका ,विकथाः-सत्रादिक थाः ,तत्का -
रकं यत्तत्तथा,तथा अनर्थवादा-निष्प्रयोजनो जल्पः,कलह श्व-
कलिः,तत्कारकं यत्तत्तथा,अनाये म-अनार्यप्रयुक्तम् ,अन्याय्यं |
च अन्यायोपेतम् , श्रपवादः-परदूषणाभिधान,विवादा विप्र-
तिपत्तिस्तत्सम्प्रयुक्तं यत्तत्त था, वलम्वे-परषां वि डम्बनकारि
आओजो-बल, धेय च--धृष्टता, ताभ्यां, बहुले, प्रचुरमाजोधे-
येबडुले, निल्ेज़म--अपतलज्ज, लाकगर्टणीयं--लाकनिन्च,
दुद्देशम-असम्यगीक्षितं, दुःश्रुतम--असम्यगाकररित,दुर्म्म
शितम्-असम्यग्ज्ञातम् , आत्मनः स्तावना--स्तुतिः, परषां |
निन््दा-गही, निन्दामवाद-( नसि त्ति ) ) नासि--न भवसि, |
त्वामिति गम्यत, मेधावी-श्रपूवेश्रुतदष््रहणशक्कियुतः, तथा |
न त्वमसि, घन्यो-धने लब्धा, तथा नासि-न भवसि,
परियधम्मा--घस्मपरियः, तथा नत्वं कुलीनः--कुलजातः,
तथा न असि--न भवसि दानपतिः दानदातेव्यथः, तथान |
त्वमसि सू( श )रः-चारभटः, तथा न त्वमसि-न भवसि प्र- |
तिरूपो-रूपवान् , न त्वमसि लष्ः-सौभाग्यवान्, न परिड- |
ता-बुद्धिमान् , न बहुश्र॒तः-आकर्णिताधीतबहुशास्त्रः, ब- |
नापि च त्वे तप- |
हसतो वा-बहुपुत्रो बहुशिष्यो वा,
स्वी-क्षपकः, न चापि परलाकविषये निधिता-निःसशया |
मतिर स्येति परलोकनिश्चितमातिः, असि-भवासिे , सर्वका- |
लम्-श्राजन्मापीति, कि बहुनोक्नेन ?, वजेनीयवचनविषय--
मुपदेशसरव॑स्वमृच्यत, जातिकुलरूपव्याधिरोगेण चापीति
इह जात्यादीनां समाहारद्वन्दः, तता जात्यादिना निन्दित-
न पराचत्तपीडाकारेत्वाद्यद्धवेद् , वजेनीय--परिहत्तव्यं
तदेवविध सव्यर्मापि न वङ्कव्य्भिति वाक्याधः। त्र जा-
तिः- मातृकः पक्तः, कुल-पेतृकः प्तः, रूप्रम्-श्राङति
व्याघः-चिरस्थाता कुष्ठादिः, रोग:--शीघ्रतरघाती ज्वरा
दिः, वा-विकल्पे, श्रपिः-समुचये , ( दुहिल ति ) द्रोदवत्
पाठान्तरण-- दुहओ त्ति "` द्रव्यतो भावतश्च | उपचारे--
पूजाम्, उपकार वा आतेक्रान्तम् , एवावध तु-एवपकार,
पुनः सत्यमपि-सद्धूततामात्रख आस्तामसत्यं, न वक्त
व्य-न वाच्यम् , ( श्रथ करिसगं ति) अथशब्दः परिप्रश्न,
हि किविधम:-( पुणाई ति) इद् पुनरपि पूवैवाक्या-
[न्प
( ३२६ )
[ने
छ[भिधानराजन्द्रः।
ससावायवब ०
थापत्तयोत्तरवाक्यार्थस्य विशषद्योतनाथः , ( आई ति )
वाक्यालेकारार्थः , ( सच्च तु त्ति) सत्यमपि भाषितव्यं ,
वक्तव्य , यत्तद् द्रव्यः-त्रकालानुगातलक्तषणः पुद्धलादाभ-
वस्तभिः , पयोयेश्च-नवपुराणादिभिः , करमवर्तिभिरधम्मे
गुरोः- वादिभिः सह भाविभिद्धम्भैरव , कम्मभिः-रू-
ष्यादिव्यापारेः , बहुविधः , शिल्पः--साचार्य केश्वित्रकर्म्मा -
दिभिः क्रियाविशेषः , श्राग॑मेश्च सिद्धान्तार्थयुक्कमिति स-
म्बन्धः कायः , यक्कशब्दस्योत्तरत्र समस्तनिर्देश5पि प्राकृ-
लशलीवशाद् द्रव्यादियुक्कत्वे वचनस्य तद्भिधायकत्वाद् ,
अथवा-द्रव्यादिषु विषये द्रव्यादिगोचरमित्यथः । तथा
नामाख्यातनिपातोपसगेतद्धितसमाससम्धिपददेतुयागिको
ादिक्रियाविधानधातुस्वरविभक्िवणयुक्रम् ` दति-( अ-
स्य व्याख्या ) त्र नामेति पदशब्दसम्बन्धान्नामपदमेवमु-
त्तरत्रापि , तश्चाव्युत्पन्नतरभेदाद् द्विधा । तवर व्युत्पन्नम्--
देवदत्तादि , अ्रव्यत्पन्नम् डित्थत्यादि , , आख्यातपदे--
साध्यक्रियापदे, यथा-श्रकरोत् , करोति, करिष्यति, तत्तद-
द्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति निपाताः तत्प-
रं निपातपदे, यथा--च वा खल्वित्यादि , उपरूज्यन्ते-धा-
तुसमीपे नियुज्यन्त इत्युपसगास्तद्प पदमुपसगषदम्-प्रपरा
अप इत्यादिवत् , तस्मं हितं तद्धितमित्याद्र्थाभिधायका ये
प्रत्ययास्त तद्धिताः, तदन्तं पदं तद्धितपदं,यथा-गोभ्यो हि-
तो गव्या देशः, नाभेरपल्यं नाभेय हइत्यादि,समसन-समासः;
पदानामेकीकरणरूपः , तत्पुरुषादिः , तत्पदं- समासपदं ,
यथा--राजपुरुषः इत्यादि,सन्धिः-सन्निकषः,तच् तत् पदे,
यथा-दघीदं, तद्यथेत्यादि, तथा देतुः-साध्याविनाभूतत्व-
लक्षणों, यथा--अनित्यः शब्दः छृतकत्वादिति, यौगिकं-य-
देतषामेव दथःदि संयोगवत् ,यथा-उपकरोाति सेनया ऽभिया-
ति अभिषशणयतीत्यादि, तथा-उणादि-उणप्रभ्रतिश्रलययान्त
यथा--श्राश्यु.खादु, तथा--क्रियाविधान--सिद्धक्रिया-
विधिः, का न्तप्रत्ययान्त [ कत्परत्ययान्त | पद्विधिरित्यर्थ
यथा--पाचकः पाक इत्यादि, तथा-धातवो- भ्वादयः क्रि-
याप्रतिपादकाः, स्वरा-श्रकारादयः, षड़जादयो वा सप्त ,
कचिद्रसा इति पाठः, तत्र रसाः-श्टज्ञारादयों नव, यथा--
"“गङ्गारहास्यकरुणा, रौद्रवीरभयानकाः |
वीभत्साद्धतशान्ताश्च,नव नास्य रसाः स्मताः॥१॥
विभक्लयः-प्रथमाद्याः सप्त, व्णाः-ककारादिव्यञ्जनानि, प-
भियुक्क यत्तत्तथा,अथ सव्य भदत श्राह-तरेकाल्यं -त्रिकालवि-
पये दशविधमपि स्य भवतीति यागः, दशविधत्वं च सत्य-
स्य जनपदसम्मतसत्यादिभदात् , आह
जणवय १ सयम २ ठवणा ३.नामे रूव ५ पड़च्च सच्चे य ६।
ववहार७ भाव ८ जोग ६.दसमे श्रावम्मसच्चे य१०॥१॥ "त्ति ।
जनपदस्य यथा--उदकार्थ कोङ्कणादिरदेशरूढ्या पय इति
चरन, समतसत्य यथा--समानऽपि पड्कसम्भवे गोपालादी-
नमपि खम्मतत्वनारविन्दमेव पङ्कजमुच्यत, न कुबलयादीति
स्थापनासत्य-जिनप्रतिमादिषुं जिनादिव्यपदेशः , नामस-
त्यं यथा-कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्धन इत्युच्यते, रूएसत्यं य-
या-भावतो $श्रमणोऽपि तद् पधार श्रमण इत्युच्यते, प्रती-
तस्त्य यथा-अनामिका कनिष्ठिकां प्रतीत्य दीघैत्युडयते ,
सेव मध्यमां प्रतीत्य हस्वेति, व्यवद्दारसत्य यथा--गिरिग-
[सरू री मष
( ३३० )
` सुसावायवे०
ततठणादिषु दह्यमांनषु व्यवहारात् गिरि्दद्यत इति, भावस- |
व्ये यथा--सत्यपि पश्चवर्णत्व्र शुक्लत्वलक्षणभावोत्कटत्वात्-
शुक्का बलाकेति, योगसत्यं यथा--दण्डयोगादइणड इत्यादि,
श्नोपम्यसत्यं यश्ा--समद्रवनडाग इत्यादि, तथा-(जह भ-
णये तह य कम्मुणा होइ त्ति) यथा-येन प्रकारण, भणित-
भणनक्रिया , दशविघसत्यं सद्ध ताथतया भवति, तथा--
तनेव प्रकारेण, कमणा वा, अक्तरलेखनादिक्रियया सद्धता-
थेज्ञापनन सत्यं दशविधमेव भवतीति, अनन चेदमुक्लं भव-
ति-न केवलं स्याथ वचनं वाच्यम् , दस्तादिकम्मोप्यव्य-
भिचा थसूचकमेव कतेव्यम् , उभयत्राप्यव्यभिचारितया प-
राव्यसनस्याकुरिलाध्यवसायस्य च तुल्यत्वादिति, तथा-
( दुबालस विहाय होइ भासत्ति) द्वादशविधा च भवति
भाषा, तथा च-
& प्राकृतसंम्क्रतभाषा, मागधपेशाचसो रसनी च ।
षष्ठा ऽत भूरिभदा, देशविशपादपश्रशः ॥ १॥ ”
इयमव पडविधा भाषा गद्यपद्यभदेन भिद्यमाना द्वादशधा
भवतीति, तथा वचनमपि पोडशविधे भवति, तथाहि--
“बयणतियेश्लिज्ञतिये६,का लतियं ६ तद पराक्खपच्क्खे९१।
उवणीयाईइच उक्र १ ५,अज्भत्थे १६ चव सालसम ॥ १॥ ” |
तत्र वचनच्रयम्--एकवचनद्भिवचनवदहुवचनरूपे , यथा |
चु्तः, वृक्ता, वृक्ताः | लिङ्गावकम्-सखीपुनपुंसकरूपम् , यथा- |
कुमारी ,चृत्तः.कुरडम् ।कार्लाजिकम्-खअतीतानागतचतमानका
लरूपम् ,यथा-अकरात् ,करिप्याति,कराति । प्रत्यक्ष य था-अय
म्, एपः । परोक्ते यथा-सा | तथा-उपनीतवचनम् गुणापनय-
नरूपे , यथा-रूपवानयम् । अरपनीतचचन--गुणापनयनरूप,
यथा- दुःशीला यम् । उपनीतापनीतवचनम-यत्रैकं गुणमुप-
नीय गुणान्तरमपनीयत, यथा-रूपवानय कि तु-दुःशीलः ।
विपययण तु श्रपनीतापनीतवचने, तद्यथा--दुःशीलो 5ये कि |
तु रूपवान् । अध्यात्मबचनम-अमभिष्रतमंथ गापायतुकामस्य |
सहसा तस्यव भणनमिति, ( एवमिति ) उक्कसत्यादिस्वरू
पावधारणप्रकार्ण अ्हदनुज्ञात समी क्षितं, बुद्धया पयोलो-
चित, सयतन सयमवता, काल च अवसर, बक्कब्यम , न तु
जिनाननुज्ञातमपर्यालाचितमसंयतनाकाल चति भावन्त । |
आह च--
^“ बुद्धिण निएकण, भासज्जा उभयलागपरि सुद्धं ।
अआआभध्रानराजन्द्रः।
सपराभयाण ज खलु, न सव्वहा पीडजणग तु ॥ १ ॥ ”?
एतद श्रमव जिनशासनामत्यतदाद पञ्च भावनाः-
इमं च अरलियपिसुणफरुसकटुयचवलवयणपरिरक्ख ण ऽ-
दुयाए परावयणं भगवया सुकहिय अत्तहिय॑ पच्चा भावयं
अगमि भं सुद्र नयाउयं अकुडिल अणुत्तरं सव्दुक्ख-
पावाणं विउसमणं, तम्प इमा पंच भावणाओं बितियस्स
वयस्स अलियवयणस्य वरपमणपरिरक्वणदयाए पटम् सा-
ऊण सवदरं परमद सुट जाणिकण न वगियंन तुरियं
न चवल॑ न कइये न फरुसं न साहसं नय परस्स पी-
लाकरं सावज्ञं मज च दियं च मिय च गाहगं च सद्धं
सगयमकाहलं च समिक्खित सजत कालंमि य वत्तव्वं |
0 सुस्टावायवे०
एव अणुवीतिसमितिजागण भादञ्मा भवात अतरप्पा
सजयकरचरणुनयणवयणा सूरा सचवज्जवसपन्ना ।
` इमेचे त्यादि-इमे च प्रत्यक्षे प्रचचनमिति योगः, श्र-
लीकम्-ञअसद्ध ताथ, पिशुन-परोक्ञस्य परस्य दपणाविष्कर-
रूपम् , परुषम-अश्राव्यभापषे, कठुकम्-अनिष्टार्थम् , चप-
लम्--उत्सुकतया 5समीक्षितम् , यद्धचनम्-वाक्यं, तस्य प-
रिरक्षणलक्षणों यो ऽथस्तस्य भावस्तत्ता तस्थे च अलीकपि-
श्नपरुषकटुकचपलवचनपरिरत्तणार्थताये,भावचनम्- प्रव-
चने, शासनभित्यर्थ:, भगवता श्रीमन्मदहावीरेण सुष्टु कथित
खुकथितमित्यादि , * पररक्खणट्रुयाप ` त्ति यावत् पूवैवत् ।
नवरं द्वितीयस्य बतस्य-ञ्रलीकवचनस्येति विशेषः , ( पढ-
मेति ) प्रधमं भावनावस्तु श्रजुविचिन्त्य समितियोगलक्त-
णम् , तच्चेवम्- श्रुत्वा- आकरयै सहरुसमीपे ( सवरट्रं ति)
सवरस्य-प्रस्तावन सृषावादाविरतिलत्तषणस्य , अथः-प्र-
योजन, मोक्षलक्षण प्रस्तुतसंवराध्ययनस्य वा अथः--अभि
धेयः,संवराथस्तम् , श्रवणा (परमद खुट् ड जाणिऊरणं ति )
परमाश्र--देयापादेयवचनेदम्पय खष्टु--सम्यक् ज्ञात्वा, न~
व, वेगितम्--वगवत् , विकल्पव्याकुलतयेल्वर्थः , वक्तव्य-
मिति यागः। न त्वरितम् ,वचनचापट्यतः,न कटुकम् अथतः,
न परुपे,बरतः.न साहसं साहसप्रधानमतर्कितं वा, नच प-
रस्य जन्ताः पीडाकरं,सावद्यम-सपापं यत् ,वचनविधि निषे-
धतोऽभिधाय । साम्प्रतं विधित आह-सत्यं च--सद्धृतार्थ,
दित च-पथ्यं , मितम्-परिमितात्तर , आहक च-प्रतिपाद्य-
स्य विर्वाक्तताथप्रतीतिजनकं , णद्ध म्-पृवाज्कवचनदोषरदित
सङ्गतम्-उपपत्तिभिरवांघतम् , अकाल च-्रमन्मनात्तर,
सर्माक्षितम-पूर्व बुद्ध्या पयालाचित , सयतन-सयमवता ,
कालं च--अबसरे, वङ्कव्य, नान्यत्र , एवम्--उक्कन भाप-
णप्रकारंण , ( अणुवीइयसभितिजोंगणं ति ) अनुविचिन्त्य-
पयोलोच्य , भाषणरूपा या सामितिः+-सम्यकूप्रव्बृत्तिः, सा
अनुविचिन्त्यसामितिः तया यागः सम्बन्धः तदपो वा
व्यापारो ऽनुंवचिन्त्यसमिल्तियोगस्तन भाविता भवाति, अ-
न्तरात्मा-जीवः, किविध इत्याह-सयतकरचरणनयनवद्-
नः शरः सत्याजवसंपन्न इति प्रतीतमिति ॥ ६ ॥ प्रश्न० २
सव० द्वार।
अहावरं दोच्चं महव्वयं पच्चखामि सव्वं मुसावायं व-
तिदाससकाहावालोहावाभयावा हासा वा शेव सयं
भुसं भासिज्जा, रवऽपणं मुस भासावेजा , अष ॒पि-
भुसं भासत ण समगुजाणेजा तिविह तिविहेण॑ मणसा
वयसा कायसा , तस्स भते ! पडिकमामि° जाव-वोमि-
रामि , तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति , तत्थिमा
पदमा भावणा-अणुवीयिभासी से णिग्गंथे णो अणणु-
वीयिभासी, केवली बूया ०-अणणुवीयिभासी से निग्गंथे
समावज्जिज्जा मोसं वयणाए, अणुवीयिभासी से णिग्गंथ
णो अणणुवीयिभासि त्ति पदमा भावणा । अहावरा |
भावणा-कोह परियाणद से निग्गंथे नो कोहणे सिया,कव
ली बूया-कोहप्पत्ते कोहत्तं समावश्जा मोस वयणाए,
न्ती ऑआः
य् ज र ~~ ^~
~ ~
[क जज 3 55.» ./। ' (5 दा शी शनि
( ३३१ )
भुसावायवे० !
काह परियाणइ से निर्गेथ नये कोहणे सिय त्ति दुच्चा
भावणा । आचा० २ श्रु० ३ चू०।
बितिय कोहो ण॒ सवियव्वो, , कुड्धों चंडिकिओ
मण्सो अलियं भज, पिसुणं भरज्ञ, फरुस भणेज्ञ,
अलियं पिसुणं फरुस भज्ञ, कलहं करेजा,वेरं करज्ञा,
विकटं करेजा, कलह वेरं विकहं करेजा ।
सीलं हेज, विणयं हणेज्ञ, सच्चं सीलं विणयं हणेज्ञ ।
वेसो हवेज़, वल्थुं भवेज, गम्मो भवेज्ञ, वेसो वत्थु गम्मो
भवेज्ञ। एयं अन्नं च एवमादियं भणेज्ञ । काह ऽग्गिसपलि-
त्तो तम्हा काटो न सवियव्यो, एवं खतीहई भाविग्रो भवति
अतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो स्रो सचऽऽजवसंपन्नो | |
ततियं लाभो न सवियब्यो, लुद्ध। लोलो भेज अलि-
यं खत्तस्स व वत्थुस्स व कतेण १, लद्धो लोलो भेज
अलियं कित्तीए लोभस्स व कणएणर, लुद्धो लोलो भणेज्ञ |
अलियं रिद्रीए व सोक्खस्स व कएण,लुद्धा लोलो भ-
शोज अलियं भत्तस्स व पाणस्स व कएण, लुद्धो लोलो
भेज अ लियं पीटस्स व फलगस्स व कएण ५, लुद्धा
लालो भणज्ञ अलय सज्ञाए व सथारगस्स व कण ६,
लुद्ध। लोलो भणेज अलिय वत्थस्स व पत्तस्स व कृएण
७, लुद्धो लेलो भणेज अलियं कंवलस्स॒ व पायपुंछ-
णस्स व कएण ८, लुद्धो लोलो भणेज्ञ अलिय सीसस्स
व सिस्सीणीए व कण 5, लुद्ध लोलो भेज अलियं
अन्तेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसतसु, लद्धो लोलो
भरज्ञ अलियं तम्हा लाभो न मेवियन्वो,
भाविश्रो भवति अतरप्पा सजयकरचरणनयणवयणो षर
प्रचज्ञवसपंन्नो । |
( विदय ति ) द्वितीये भावनावस्तु यत्कोधनिग्रहणम्
पतदवाद-काधा न सावतव्यः, कस्मात्कारणणादत्याह-क्र-
द्:ः-कापतः, चाण्डक्य राद्ररूपत्व, सञ्जातमस्यात चा-
एरएडाक्यता मनुष्या लाकर भणादत्याद खगम नवर , व-
रम--अनुशयानुवन्धे, विकथां-पारवादरूपा, शील-समाधि-
(चसा त्ति) द्वेष्यः--अप्रियों भवेत् एप वस्तु-दापावास-
सच्चे हणेज, |
आभ्रधानराजन्द्र। |
एवं मुत्तीए |
गम्यः-परिभवस्थान, निगमनमाद-( एये ति ) अलीका-
दिकं ग्रह्मत, तदन्यस्य भणनाक्रयाया अविषयत्वात् , अन्य
च-उक्रन्यतिरिक्रमवमादिकम्-प्वजातीयं भणत् क्रोधा-
पझिसंप्रदीतः सन तम्हेल्यादि--सपन्नो ` इत्यतदन्त
व्यक्तम २। ( ततियं ति ) तृतीय भावनावस्तु, कि तदि- |
त्याह-लाभो न सवितव्यः, कस्मादित्यत आह-लुब्धो-लो-
भवान् लोला जते चञ्चला भणदलीकम् , एतदेव विषय-
भेदेनाह-क्षेत्रस्य वा-प्रामादः, कृषिभूमवा, वास्तुना-गरद-
स्य, ( कएण त्ति ) कृत-हतोः, लुच्धा लालो भणदलीकम् ,
पएवमन्यान्यप्यष्र सूत्राणि नतव्यानि, नवरं, की्तिः-ख्यातिः,
लोभस्य- ओषधादिशाप्तः इन्व, तथा ऋद्धेः-परिवारादिकाया:
सुसावायवे०
साख्यस्य-शातलच्छाया दखुखहता: कृत, तथा शय्यायाः
वसतः यत्र वा प्रसारतपाद: सप्यत सा शय्या तस्य, स-
स्तारकस्य वा-च्रद्धठतायहस्तस्य कषात् क्रत त पा-
द् प्राञ्छुनस्य-रजाहररस्य क्रत उपसटरन्नाह-अन्यपु च
एवमादिषु बहुषु कारणशर्ताप्वत्यादि व्यक्कमव ३ । प्रश्न
२ सवे० द्वार । ( अन्यद् ` भीय ` शब्द )
अहावरा तचा भावणा- लाभं परिजाणइ से णिग्गंथे णो
य लोभणए मिया, केवली बूया लोभपत्त लाभी समा-
वइज्जा मोसं वयणाए, लाभं परिजाणइ से णिग्गंथ णो
य लोभणए सिय त्ति तच्चा भावणा ।
॥ ठतीयमावनायां तु लोभजयः कत्तव्यस्तस्यापि मृषावादे
हतुत्वादात हदयम् | आच्ा० २ श्रु० ३ चू |
अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणइ से णिग्गंथे
णो भयभीरुए सिया, केवली बूया-भयप्पत्ते भीरु समा-
बदेज्जा मोसं वयणाएं भयं परिजाणइ से णिग्गंथे नो
भयभीरुए सिया, चउत्था भावणा । अहावरा पंचमा भा-
वणा हासं परिजाणइ से णिग्गंथ णो य हासणए सिया,
केवली बूया-हासप्पत्त हासी समावदेज्जा मोसे वयणाए,
हासे परिजाणइ से णिग्गंथे णो हासणए सिय ति , पंचमी
भावणा-एतावता दोच्चे महव्यए सम्म॑ं काएण फासिए०
जाव आणाए आराहिते याऽवि भवति दाच भते ! महव्वए |
आचा० २ श्रु०३ चू०।
पंचमर्ग हासं न सवियव्वं अलियाई असंतगाई जपति
हासइत्ता परपरिभवकारणे च हासं परपरिवायप्पियं च
हा परपीलाकारगं च हासं मेदविगुत्तिकारकं च हासं
अप्पोष्तजणियं च होज्ज हासं अष्पाप्पगमणं च होज्ज
मस्म अरपोप्गमणं च होज्ज कम्मं कंदप्पामिग्रोगगमणं च
होज्ञ हासं आसुरियं किव्विसत्तं वा जणेज हासं, तम्हा
हासं न सेवियव्य | एवं मोणेण य भाविभ्रो भवति अतरप्पा
संजयकरचरणणयणवयणो सूरो सचज्जवसपाप। ५ एवं-
मिणं संवरम्स दारं समं सवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं
पंचहि वि कारणेहिं मणवयणकायपरिर क्खिएहिं शिच आ-
मरणंतं च एस जागो णेयव्वो धितिमया मतिमया श्र
णासवों अकलुसों अच्छिद्ों अपरिस्सावी असंकिलिट्ठी
सव्यजिणमणुतज्नाओं , एवं वितियं सवरदारं फासिय पा-
लियं सोहिय तीरिय किट्धिये अगुपालियं आणाए आरा-
हिय॑ भवति, एं नायमुणिणा भगत्रया पनं परूविय
पसिद्ध सिद्धवरसासणपमिणं अराघवितं सुदेखिय पसत्थं वि-
तियं संवरदार समत्त ति बेमि ॥ २५॥
( पचमग ति ) पश्चमकं--भावनावस्त्विति गम्यत. यदुत
दास्यं न सेवितव्य-परिहासो न विधयः, यतः अलीकानि-
( २३२ )
मसावायवे०
सद्भूतार्थनिह्नवरूपाणि, ( असंतगाई ति ) असन्त श्रसद्-
भूताथानिः वचनानोति गम्यत । शोभनानि वाः अशा- |
नतानि वा-श्रनुपशमप्रधानानिः जलर्पान्त--चरुवते ( हासइत्त
त्ति) हासवन्तः-परिहासक्रारिः.परिभवकारणं च हास्यम्
अपमाननाहेतुरित्यर्थः परपारियादः--अन्यदूषणामिधानम `
प्रियः-इष्टो; यत्र तत्तथा ्ताद्धिधे च दास्यं परपीडाकारकं च
दास्यमिति व्यक्रम् ( भयविमुरङ्नकारकं च त्ति) भदः
चारिज्रभदाः विमू्तिश्च--विङ्तनयनवदनादित्वन विक्ृृत-
शरीराऊतिः तयाः कारकं यत्तत्तथा तञ्च हास्यम् । श्रथवा-
राजदन्तर्ददशनाद्विमक्रः- माक्तमःगस्य भदकारकामति
वाच्ये भदविमुक्रिकारकमिन्युक्तप , श्रन्याऽन्यजनिते च
परस्परङ्ते च, मवद्धास्य, यतस्ततो <न्योाऽन्यगमने च-प-
रस्परस्याभिगमनीये च भवेत-मर्मप्रच्छन्नपारदायांदिदु-
धिति, तथा.ऽन्यान्यगमने च--परस्पराधिगम्यं च भव-
व्कस्म-लाकनिन्दजीवनव्रत्तिरूप, ( कंदप्पाभियागगमणं च
त्ति ) कन्दपाश्च--कान्दार्पिका देवविशषा हास्यकारिणो
भार्डप्राया, आभियोग्याश्व--अभियोगाही, आदेशकारिणो |
देवाः, एतेषु गमने गमनहतुयत्तत्तथा तच्च भवेद्धास्यम् , अ-
यमभिप्राया -हास्यरतिसाधुश्चारि्लशप्रभावांदवपृत्पयमा- |
नः कान्दर्पिकषु आआभियागिक्रषु चोत्पयते न महद्धिकेष्वि-
ति हास्यमनथायेति, श्राह च-
“ जा संजओ वि, एयाखु, अप्पवत्थास वट्द कटि चि ।
तो तव्विहसु गच्छ, नियमा भइओ चरणदीणो ॥ १॥ "
( एयासु त्ति ) कन्दण्पोदिभावनास्विति तथा-( आखु-
रियं किञ्विसत्तं च जणे हासं ति ) ( श्राखुरियं ति )
श्रखुरभावम् , ( किष्विसत्तं ति ) चारडालप्रायदेवविशेष-
स्वे, वा विकल्पे, जनयत्-प्रापयेत् , जन्मान्तरहास्यकारि
चारित्रजीवम् . हास्ये-हासः, यस्मादेवं तस्माद्धासं न सेवि- |
तव्यमिति । श्रथतन्निगमनमाह--पवमुक्रन हासवजनप्रका-
रेण मोनन--वचनसयमेन, भावितो भवत्यन्तराःमा सय-
तादिविशेषणः ' पवमिण ` मिल्याद्यध्ययननिगमनं पूर्वाध्य-
यनवद् व्याख्येयमिति । प्रश्न० २ सेव° द्वार ।
मुसुमूर-भज्ञ-धा० | भङ्ग, भज्े वेमय -मुसुमु र-मूर-सूर-सूड-
विर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरञ्ाः ॥ ८। ४। १०६ ॥ भञ्जरेते न-
वादेशा भवान्ति | मुसुमुरइ | प्रा० ४ पाद्।
मुसुमूरिअय-भग्न- त्रि० | चूत, “ मुखुमूरि श्रयं चुरिणश्र
पाइ० ना० १८२ गाथा ।
मुसोवएस-मृपोपदेश -पु०। खपा-श्रलीक तस्योपदेशो शखषोप-
देशः | इदमव च ब्रहि त्वमेवं चाभिदध्याः कुलगृदेण्वित्यादिके
असत्याभिधानशिक्षण, प्रव० | सपा-श्रलीकं तस्यापदशा मर
पापदेशः, इदम् पव एवं च व्रृटि त्वम्-एव च एवं च श्रभिद्-
ध्याः.कुलगरृदप्वित्यादिकमसत्याभिधानाशत्ताप्रदानमिव्यथः ।
इह व्रतसरन्तणवुद्धया परवृत्तान्तकथनद्वारेण मुपापदेशे य-
च्छतः पञ्चमा तचार: । प्रव० ६ द्वार ।
कारण श्राभासज्ाऽवि। | गाहा-
बितियपद उड्जाहे, संजमहेडं व बोहिए तेणे ।
खेंतते वा पडिणीए, मेहे वा वादिमादीसु ॥ ७० ॥
उदड्भाहरक्खणत्थ जद्दा केणति पुट्ढठा-तुज्मं लाओ पसु समु-
अभिधानराजन्द्रः |
मह्णतय
देसो ण व ्ति,वत्तव्वे संजमहेडे अत्थि,ते केति मिया दिद्ठा,
दिट्वेखु वि न विट्ठु क्ति वत्तव्वे वोधे तामिच्रर्तास भीओ भ
णिज्ज-एसो खधावारो एति त्ति तसु एस समत्था एति त्ति
अवसरह । खत्त धायारभाविए बंभणो अहमित्ति भासए
जत्थ वा साह न नज्ञति तत्थ पुच्छितो भणति-स य परि-
व्वायगाम कोइ य कस्सइ साहुस्स पढुट्टो सो व ते न जा-
शति ताद भणेज्जा । नाहं सो,ण वा जाणे.परदेसे वा गओ-
ति भणञ्जा.सद वा सणायगा पुच्छति तत्थ भणिञ्जञ । न्थ
रिसा, ण जाण, गतो वा परदसे । वादे असंतर्णावि परवादि
निगिन्टिज्जा । नि” चू०२ उ०। माखुवतसर परिव्वायगो मखु-
स्स भणात-- किं किलिस्ससि?, श्रहं ते जदि रुच्चति
णिसरणो चच दव्वे विदवावेमि, जहि किराडय उच्छिर्णे
मग्गाहि, पच्छा कालुद्देसाहिं मग्गञ्जासि,जाध य वाउलो ज-
णदाणगदणेण ताधे भणिज्जासि, सो तथव भणति , जाध
विसखवदति ताध ममे सक्रिख उद्दिसज्ञ त्ति, एवं करण श्रो-
हारितो जिता (न) दवावितो य । । आव० ६ श्र०। मोसोवदे-
सो नाम मोसे उवदिरसति, जटा-पवेचमासभासणे पगार
देसेति ज्ञि-मोसोवदेसे उदाहर ण-एगर चोरेण खत्त खाणि-
ये, शिदियावत्तटि, वितियदिवसे तत्थ लोगो मिलितो चोर-
कम्मे पसंसति, चोरा वि तत्थ व च्छद, तत्थ पगा परिव्वा
यगो भणति-- कि चारस्स मुक्खत्तरी पसंसह ?, तादे चोरे-
ण॒ विरहे सो परिव्वायओ पुच्छिओं-कहं मुक्खो, तादे भण-
ति एवं करतो वज्भेज वा मारेज़ वा, उवापएणे त॒ कञ्जति
जण जीवेज्ञ इति, को उबाओ ति, भरणति-श्रहं कह्ेमि, के
राड दाणमग्गणवाउले अच्छिन्न मग्गेज्जादि, ताहे सो बाउ-
लत्तणेण पडिवयणे तव ण देदिति, तादे कालुदेसे दाणग्गहणे
वाउलं चव प्रतिदिवसं भणेज्जासि-देहि तं मम देहि ते मम-
ति । बहुजणेण बहुस्सुयं जाहे भणएति-ण किचि वि धरेमि
ताहे मप सार्किख उव दिसिज्ञाहि , एवं करण ओसारिओ
दवाविता य श्रा०चू० ६ अ० |
मह-मख-न० | वदन, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ०। वक्त्रे, तं०।
प्रात०। आस्ये , स्था० ६ ठा०। प्रश्०। नि० चु०।
तुण्ड, तं०। श्रग्रभाग, स्० प्र० ४ पाहु० । चे०प्र० | द्वारे ,
कल्प० १ अधि० २ त्षण। उपरितने भागे, ते० । स्था० ।
“ वयणे मुह च श्राणणं "' पाइ ना० १११ गाथा।
| म्रहच्छाया-मुखच्छाया-स््री ० सुखकान्तो, प्रा० १ पाद् ।
भरहणंतय-पुखानन्तक--न० । मुखस्यानन्तकं वख मुखान
न्तकम् । मुखवासखिकायाम् , प्रव० २ द्वार । ( मुखानन्तक-
स्य प्रमाणे मुह पात्तिया ` शष्द् करिष्यते )
गाहा--
महणंतगस्स गहे, एमव य गंतुनिसिलगहणं ।
संमूदेणितरेण वि, गलते गदितो मया दो वि ॥३६४॥
पएगेण साहुणा श्रतीव लद्रं मुहणंतगे श्राणियं तग्गुरुणा
गदियं, एत्थ वि सव्व पुव्वक्रखाणगसरिसं, नवर तं मुहणे-
तगं च पच्चप्पिणंतस्स ण गहिय, जीवते य गतो राया सा-
धुविरदहे लभित्ता मुदहरतगं गिर्टसि त्ति, भणेतो गाढं ग-
ले गेहेति, स मृदढेण गुरुणा वि सो गदितो , दाऽवि मता ।
नि० चू० ११ उ० । जीत० । आव०।
३३३ )
मुहत्थदी अभिधानराजेन्द्र! । मुहयक्म
सुहत्थदी- दशी- मुखन पतने, दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा । मुहलरव-युखररव-पु० । बाचालशब्द्, “ तुमुल मुहलरवो
मुहपोत्तिया-मुखपोत्तिका-स््री० । मुखपोत्तिका मुखपिधाना- | पाद ना० २४० गाथा । ५
। -य पोतं वद्र मुखपोतं, तदेव हस्वं चतुरङ्कलाधिकवितास्ति- | मुहवष्प-मुखवर्ण-पुं० । परतीर्थिकप्रशंसायाम् , नि० चू०।
। मात्रभ्रमाणत्वान्मुखपोतिका । सुखवस्थिकायाम् , पिं०।प्र- जे भिक्खु मुहवष्यं करेइ करंतं वा साइज़इ ॥ १७६ ॥
॥
[थ ५१ । ह२। महे ति पवसो तस्स चउव्विहो नामातीश्रा शिक्लवो। णाम
सखवरिप्रिका प्रमाणमाह-- इवणातो गतातो, दव्वमुहं--गिह्ादिवत्थुपवेसो, तिन्नि सटा
। गलं विहत्थी, एय ५ ५ पावा दुयसया, भावम॒हस्स वन्न श्रादत्त गरह्णातीत्य्थः।
ह चतुरगुल बिहत्था, एवं मुहणतगस्स उ पमा | कथ पती सन गार
| वितियं पिय प्पमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्चे ॥ कृतिस्थेस कुमन्थसु, कृधम्मकुब्वयकुदाणमादीसु ।
| चतुरङ्कलं चत्वायङ्कलानि वितस्तिः चैका एतन्मुखानन्तक- | जे गुहं कुज्ञा, उम्मग्गे आणमादीरि ॥ ७२ ॥
स्प-मुलवस्थिकाया: प्रमासम् › द्वितीयमपि अमाण भव - वितियगाहाप जहासख उदाहरणे गाहा--
| ति-किमित्याह-मुखप्रमाणन मुखानन्तकं वक्तव्यम् , किमुक्त गंगाती गोव्वयादीया
भवति--वसति प्रमाजयन् रजःप्रवेशरक्षणार्था कोणद्धये “सक-मन्न-गणधम्मादी य गोव्वयादीया ।
ग्रहीता नासिकां मुखे च प्रच्छाद्य कृकाटिकायां यावत् वा भोमादीदाणा खलु, तिषि तिसट्टा उ उम्मग्गा । ७३ ॥
ग्रन्थि शक्नोति तावत्प्रमाणा मुखवस्प्रिका कर्तव्या । | बृ० ३ | गेगा श्रादिग्रहणातो पहास प्रयाग श्रवरखडसिरिमायके-
उ०। “ सन्ति सम्पातिमाः सत्वाः, सूहमाश्च व्यापिनो ऽपरे । | यारादिया एते सव्व कुतित्था । शाक्षयमतं कपिलमतं इंसर-
तषां रक्षानिमित्त च,विजेया मुखवास्त्रिका ॥१॥” उत्त०३ अ०। | मतादिया सव्वे कुसत्था । मन्लनगशधम्मा सारस्स य गण-
धम्मो कृपसभादिया सब्वे कुधम्मा । गाव्वयादि साप-
५ किया पचग्गितावया पचगव्वासणिया एवमादिया सब्ब
यहमंगालेय-युख माङ्गलिक -पु° । सुखे मङ्गलं येषां ते मुख- कुव्वया । भूमिदाणे गोदाणं श्रासहत्थिसुवश्नादिया य स्वे
| माङ्गलिकाः । चाहुकारिषु, औ० । ज०। भ० । कट्प० । ज्ञा० | कुदाणा। कुत्सितार्थाभिधारण खलुशब्दः। तिन्नि तिसद्वा पा-
| मुखे मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानी दशस्त्वं त्वादशस्त्वमित्येव | वा दुयसया जतिण वज्जा ससा सव्व उम्मग्गा। जो जत्थ भव-
देन््यभावमुपगतो वक्कि। सूत्र० १ श्रु० ७ श्र०। न्तो तदणुकूले भासंतस्स आणादिया दोसा, चउगुरुगं पच्छि
मुहमंडव-मुखमण्डप-पुं० । सुखद्वारे आयतनस्य मण्डपा | त्त, मिच्छत्ते य पवत्तीकरणे, पवयण ओभावणया,एंत अदिल्न-
दाणपाणाइवाए ते चाटुकारिणों एतद्दोसपरिहरण<त्थे, त-
म्हा णो कुतित्थियाण मुहृवन्ने करेज्ज ।
मुहमंगल-मुखमड्भल-न० । चाटुवचने, ज्ञा० १ श्रु० १ आ०।
मखमरडपाः । पद्दशालासु, स्था० ४ ठा० २ उ० | जी०।
अहमकडिया-मुखमरक॑टिका- खी० । मुखतिर्यकत्वकरणे, ज्ञा० गाथा--
१ श्रु०ण ८ अ०। श्रसिवे ओमोयरिए, रायदृट्े भए व गलप ।
सुहमहुर युखमधुर शुवे आदी मधुरा महाकामरसोत्पा- | एए" कारणेहि, जयणाए कप्पती काउं ॥ ७४॥
दकाः । परिणामाखुन्द्रेषु, त०। सपक्खपतासिवे परलिगपडिवन्ना पसंसति । । अहवा-अर-
सिवो मे सुश्रसधरते तद्भावियखेत्तसु वज्नीखु वा पसंसेज्ज,
| परलिगी वा जो रायद् दुटु पसंसेज्जा तदणुवत्तिते पसंसेज्जा,
रायभया वाहिभगभपण वा सरणावगतो पसंसेज्ज, अप्न-
तो गिलाणपाउग्गे श्रलभते तेखु चव लब्भति पसंसेज्जा ।
मुहर -युखर-त्रि०। मुखमतिभाषणमतिशयेन वदतीति मुखरः ।
स्था० ६ ठा० ३ उ० । मुखमस्यास्तीति मुखरः । श्रनालोचित-
भाषिणि, वाचाटे, प्रव० ६ द्वार । उत्त० ।
मुह(हा)रि-मुखारि-पुँ० । मुखमवाऽरिः श्ररनथकारित्वाद् | गाहा-
येषां ते मुखारयः । असमी ज्षितप्रलापिषु, अपयोलो चितानर्थ- | पावे च उवेहं, पुट्टा वा माति बाहरं नेत ।
कवादिषु, प्रश्न० २ श्राश्र° द्वार । | आगाढे व अ्रपृष्ो, भणेज्ज लटो तहा धम्मो ॥ ७५॥
मुहरोग-मुखरोग-पुं” । मुखगते रोगे , पश्चपश्टिमुखरोगाः | कारण चरगादिभावितेखु खेत्तेसु ठियस्स जति ते चरगा-
सप्तस्वायतनेषु जायन्ते, तञ्रायतनानि-श्रोष्ठो दन्तमूलानि | दिया बहुजणमञ्भे _ ससिद्धंत पश्नवेति तत्थ उवे कु-
दन्ता जिह्वा तालु करटः सर्वाणि चेति । तत्राष्टाबोष्ठयोः, प- | ज्जा, मा पडितहकरणे खेत्तातो णीणिज्ञञ्ज, उवासगादिपु्धो
दश दन्तमूलप्व्ौ दन्तु पञ्च जिह्वाया, नव तालुनि, सप्त- | अत्थि शौ पतसि भिक्खृयाणं वये वा णियमे वा ताहे तेसि
दश कराटे , रयः सर्वेष्वायतनेष्विति श्राचा० १ श्रु० ६ | दाणसदयाणं अणुयुत्तीए भणिज्ज, पते वि बंभव्वयं धरति,
श्म० १ उ० | | श्रादिसदाता जीवेसु दयालुया । श्रन्नतरे वा श्रागादे गि-
महरोमराई- देशी स लाणादिकारणे भञ्ज, इमा पसंसण जयणा ।
-देशी-श्रुवि, दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा । (+: ४ म | १
मुहल-मुखर-पुं० । हरिद्वादी लः ॥ ८। १। २५४ ॥ इत्यसंयु- |
क्स्य लः | मुहलः । वाचाटे, प्रा० १ पराद् | दे० ना०।
८
जे जे सरिसा धम्मा, सव्वाऽर्हिसादि तेहि उ पसंसे |
एसि पि हु आता, अत्थि य शिशवो कुणति व त्ति ॥७६॥
( ३३४ ) +
महव | अआभनधानराजन्द्रः। | मुद्दत्त
सरिसधम्मटि पसेसति-अम्ह वि तुम्हा वि सव्व वया,अ- 03 व पहन अल ॥
म्हे वि तुम्हे वि अहिसा, अन्द वि तुम्द वि अदिन्नादाणं वितियपद मणप्पज्फे,करिज्ञ अवि कोवबिओ व अप्पज्के। _
वज्ञे, अम्ह वि तुम्ह वि अत्थियया, दव्वत्तण वा जहा जाखणते वावि पुणो, सण्णा सागारमादीसु ॥ ११७॥
तम्हं निच्चा, तहा अम्ह वि निच्चा. जहा अम्ह वि आ- श्रणप्पञ्भो करतेति अविकोवितो वा सहो करेति, दिया
ता खुहासुह कम्मे करति , तहा तुम्ह वि। | गतो वा अद्धाण गिलाण<5ट्टा सरणासई करेति, भावस्ता गरि-
\ गा दा । यर्पाडवद्धाण् वा वसहीए सदे करेति जहा ते सुरति ।
एवं ता सव्वाऽऽदी, भणेज वैतूलिकेसिम बूया । । ज भिक्लू दंतवीणिय करेइ करंते वा साइजई ॥३६॥
अम्ह वि ण सव्वभावा, इतरेतरभावतों स्वे ॥ ७७ ॥ | जे भिक्स उद्वीणियं करेइ करंते वा साइज़३ । ४० ॥
सत-शोभना, वादी-सद्वादी, आत्मास्तित्ववादीत्यर्थः।ज | =. = णासावीशियं ५५
पुण वेतुलियातीसु इम ब्रृताविगयं तु्कभावे वेतुलिया नास्ति- | रत भक्छ 32 की करेइ करंत॑ वा साइज३॥४१॥
त्ववादिन इत्यथः, सव्वभावा इतरेतरभावतों । रत्थि त्ति ज भिक्स् कक््खवारय करेइ करंतं वा साइज़इ ॥४२॥
नित्यत्व अनित्यत्वे नास्ति, एवं आत्मा, अनात्मा कठैत्वमक- ज भिक्खू हत्थवीणियं करेइ करंतं वा साइजइ ॥४३॥
ठेत्वं, सूत्तत्वममृत्तत्वे, सर्वगतत्वमसर्वगतत्वम् , घटत्वं पट- जे भिक्खु नक्खवीणियं करेड करंतं वा साइज़इ ॥४४॥
ववे, परमाणुत्वे द्विप्रेदेसिसिकत्वे, कृष्णत्वे नीलल्वे, गोत्वमभ्व- ज्ञ भिक्खृ पत्तवीणियं करे करंतं वा साइजइ ॥४५॥
व % दब 72273 जे भिकक्खू पुष्कवीणियं करेइ करंतं वा साइजइ ॥४६॥
|
मुहवास-मुखवास-पुं० । कपूरादिभिमूखस्य सारभ्यापादन, | ~ ० दि करे
बू० ६ उ० ३ प्रक० | “ तयाणतरं च णे मुदवारूविहिपरि- | ज भिक्खू फलब्रीणियं करेड करंत वा साइज३ ॥४७॥
माणं करेइ, णगणन्थ पंच सोगंधिएण | तवालेणे अवस्स मु- | ज भिक्खू वीयवीणिय करेइ करंत॑ वा साइज़इ॥४८॥
हवासविहिं पच्चक्खामि ” पएलालवङ्गकपुरकक्रालजातीफ- जे भिक्खु हरियवीणियं करेइ करंतं वा साइज़इ ॥४६॥
ललक्षणः स्ुगन्धिभिद्रव्यः श्रभिसस्कृत पञ्चसागान्धकम् । जे भिक्खु मुहवीणियं वाएइ वार्यत वा साइजइ ॥५०॥
उपा० १ अ०।
६ ३57 ज भिक्खू दंतवीणिय वाएइ वायत वा साइजइ ॥५
मुहवीणिया -मुखवीशिका-ख्त्री ० | मुखशब्दकररा, नि० चू० । | = क 7 आओ
स एस्वीशियं कर करत । ज भिक्खू उड्डवीणियं वाएइ वाय॑तं वा साइजई ॥५२॥
नि 00077 220 8: जे भिक्खु णासावीणियं वाएइ वायत वा साइजइ ॥५३॥
मुहवीणियातिहिं वादित्रशब्दकररा, वितियसुत्त मुहदी- क्ख णार ए त ना साइजई
शयं करता माहा दिक्ख संदे करेति, अन्नतरग्रहणात् स- जे भिक्खु कक्खवी णियं वाएइ वायत वा साइज़इ ।॥५४॥
योागमवेक्खति , ते पगारमावरणाणि तहप्पगाराणि तत- जे भिक्खु हत्थवीणियं वाएइ वायंत वा साइज़इ ॥५५॥
विततप्रकारमित्यथः । | जे भिक्खू णहवीणियं वाएइ वायंत वा साइज़इ ॥५६॥
गाहा--
ज भिक्सखू पत्तवीणियं वाएइ वायंत वा साइज ॥५७॥
महगादिवीणिया त्तियमेत्ता य अ सुत्ता। | प्याज ध ।
महगादिवीणिया खलु, जत्तियमेत्ता य आहियीा सतत | ज भिक्सतु पु्फः वाएइ वायत वा साइज ॥५८॥
सदे अणुदिष्म वा उदीरण तम्मि आणादी ॥ ११४ ॥
श्रणुदिण्णे जा मोहं जणति उवसंतं वा उदीरति |
गाहा-
सविकारअसामत्थ-मोहस्स उदीरणा य उभयो वि।
पुणरावत्ती दोसा, य बीणिगाओ य सदसु ॥ ११४॥
जे भिक्खु फलवीणियं वाएइ वायते वा साइजइ ।५६॥
जे भिक्खु वीयर्वाणियं वाएइ वार्यत वा साइजई ॥५६॥
जे भिक्खु हरियवीणियं वाणएड वार्यतं वा साइज़इ ॥६०॥
जे भिक्खु एवं अष्पयराणि तहप्पगाराणि वा अशगुदि्छई
सविगारता भवति, लोगो य भणति अहा इमो सहाई उर्दीरेइ उदीरंतं वा साइजइ ॥६ १॥नि ०चू ०५३ ०।
विकारो पच्चतिता, मज्भत्थो रागदोखविजुत्तो सो क कम ध
सि यि त | या ध्य । व उमा या ओ
पुण अमज्भत्था अप्पणा प रे मु पु 0
वत्ती -- ग सो चितेति | > पेशी यवर ५, १:
ग णाम--काई भत्तभागी पव्याततो, सा 7 पुहिआ- देशी वमेव करणे, दे० ना० ६ वरौ १३४ गाथा ।
अम्ह वि महिलाओ एवं करति, तस्स पुणरावत्ती | ५९ ¢ हर त
भवति, अरागेसि वा साहण खुणत्ता पडगमणाद्या दासा मुहिआ-पम्राधिका-अव्य० । व्यथ, ` पमय सुदा मुहिआ
भवेति, वीशियासु चीणियासदेसु य॒ एते दोसा भवेति । पाइ० ना० ६६६ गाथा । ४
गाहा- मुहिया-मुधिका-खी° । अवज्ञायाम् , जी० ३ प्रति० १ अ-
हत्थि परियारमदे, रागे दामि तहेव कंदप्पे । 0
99६ | मुह मुहर -अव्य० । वारंबारमित्यर्थे, पराति । अष्ट० । उत्त० ।
गुरुगा गुरुगा गुरुगा,लहुगा लहुगा। कमण भ३।॥१६६॥ नावि
= दो ॥८ इति धू क्ोदिप-
इत्थिसदे चउगुरू, परियारसदे चउगुरु, अन्नतरसूं रागेण | मैंहुत्त-महृत्त पुं०। तेस्याधूत्तादी ॥८।२।३०॥ दते धूत्तादप
करति चउगुरू, एतसु तिसु चउगुरुगा, दोसेण करेति चउ- | यदासात्तस्य टा न।प्रा०। मीयत इति मुहत्तेः। मुहुरियतीति
लहुगा, कंदपपण करति मासलहुं । । वा मुहर्तः | पृषादरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः | कर्म० ५ कमे०।
¶
हि र्डेत
घटिकाद्वयप्रमाण कालविशेषे , नं० आव० । आ० म० ।
अहोराजस्य त्रिशत्तम भागे द्विघटिकारूप, दश० ५ तत्त्व ।
पशञ्चा० | सूत्र० | आ० म०। ` व नालिया मुहुत्तो 'ज्या० २पाहु०।
आए० म० | विश० । उत्त० । सूत्र० । स्था० | अनु० । त० | मुह-
ठा० ४ उ०। “ लवा सत्तह-
। भ० १ श० १ उ०। “ तिन्नि
मुहत्त वियाहिए। `` स्था०:
त्तरि एस मुहुत्ते वियाहिए
विभिः सहस्रे: ससतमिश्शतस्थ्रिसप्तत्या उच्छासेरको शुहत्तः।
त० । अनु० | ज्ञा० । भ० । सू्० भ्र०।
एगमेगस्स णं भते ! अहोरत्तस्स कड मुहृत्ता पप्मत्ता ।
गोयमा ! तीसं मुहत्ता पप्मत्ता | तंजहा-
^“ रदे सेए मित्त, वाङ सुविए तदेव अभिचंदे ।
माहिंद बलव बभे, बहुसचे चेव ईसाणे ॥ १॥
बदर अ भाविअप्पा, वेसमणे वारुणे अ आखणंदे |
विजए अ वीससेणे, पायावर्चे उवसमे अ ॥ २ ॥
गंधव्व अग्गिवेसे, सयवसहे आयवे य अममे अ |
अवं भामे वसहे, सव्वद्े रक्खसे चव ।२। ” (स्त्न-१५२)
तम ! विशन्मुह त्ताः प्रज्ञाः, तद्यथा-प्रथमो-रुद्रः, दितीय-
इश्रेयान् , तृतीया-मित्रः, चतुर्थो-वायुः, पश्चमः-सुपीतः, ष
स्त्वष्टा, जयादशा-भावितात्मा, चतुदेशो वेश्रमणः,
चारुण
भ्वसेनः, एकोनविशतितमः-प्राजापत्यः, विशतितमः-उपश-
मः, पएकविशतितमा-गन्धवः, द्वारविशतितमः-अग्निवेश्यः,
अयोविशतितमः-शतवृषभः, चतुर्विंशतितमः-आतपवान् ,प-
आविशतितमः-ञ्रममः, षडविशतितमः-ऋरवान् , सप्तविश-
तितमोा-भोमः, अष्टाविशतितमा-वृषभः, एकोनचत्रिशत्तमः-
सवीथः, त्रिशक्तमो-राक्षसः । ज ७ वक्ष० । रा० | आ० म०।
कर्म० । सू० प्र० | स० । ज्यो० । च० प्र० । ( मुहर्तलम्मदिवा-
दिवलावलविचारः 'करण' श
दासीवत् | त० ।
मुरि देशी रणरणक, दे” ना० ६ वर्ग १३६ गाथा ।
|
ला म॒ुहुझेदह्या य उप्फालो फालो” पाइ० ना० ७२ गाथा |
हजपिरा य वायालो'" पाइ० ना० ६६ गाथा ।
आब० (“जद
| दर्शिता )
ल दशी-मूक. ढे० ना० ६ वर्ग १३७ गाथा ।
शब्दे चतुर्थभागे जडमूक्रैडमूकयोव्यांख्या
त्तोस्सप्ततिलवप्रमाणाः । उक्गं च--'* लवाणं सत्तदत्तरि एस |
सहस्सा सत्त य, सयाई तवरत्तार च उच्छासा । एस मुहुत्ता |
अणिश्रो.सव्वेहि अनंतनाणीहि॥१॥'" जी ०२ प्रति ४ आंध०।
-एकेकस्य भदन्त ! अहोरात्रस्य काति मुहत्ताः प्रज्षप्ता: ?. गो- |
शञः--अभिचन्द्र:, सप्तमो--माहेन्द्रः, अष्टमो--बलवान , न- |
चमो--ब्रह्मा, दशमा--बहुसत्यः, एकादश-ऐशानः, द्वादश- |
पञ्चदशो |
घोडश-आनन्दः, सक्तदशा-विजयः, अष्टादशा-वि- |
ब्दे तृतीयभाग ३६७ पृष्ठ गतः ) |
5 3 ~ |
भरुहत्ताहयया- महू तेहदया-खा० । त्ताणकरागरक्तायाम् , मुह- |
त्तानन्तरं प्रायो ऽन्यत्र रागधारकत्वात् , कपिलाब्राह्मणीसक्क- |
मुहमुह मधुमुख-वि० । खले, “पोरच्छी पिखुणो म-च्छरी ख- |
मुहुल मुखर -त्र० । वाचाल, “वाउल्लो जंबुल्लों, मुहल ब- |
मूत्र मूक -पुं° । अव्यक्कमापिणि, घ० २ अधि० । आचा० । |
( ३३५ )
अधिधानराजेन्द्रः।
मृद
। ०
मूअल्ल-दशा-मुक ० ना० ६ बग १३७ गाथा |
मूअवंदण मूकवन्दन-न० । च्रालापाननुञ्चारयतो वन्दन, ध०
२ अधि० । ` सुउव्वर सदर्गादश्रा, ज बंदइ मूअग ते तु । आ
लापकाननुच्चारयन् यद् वन्दत तन्मूकर्मित ¦ श्राव हे
आ०। मूयं नाम-मूयो वदनि न कराच वि उच्चारयति । | आ०
चू० ३ अ० | बू० । प्रच५ । नि चू० । मूक इव हं हामत्यव्य
क शब्दं कुबस्तिष्ठत्युन्सर्गे दाति मूकदाषः । कायात्सगदाष-
| भदे, प्रव० ५ द्वार ।
मूइय-मू कित-त्रि० मुृकीकृते,निःशब्दीकूते, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०।
मृगमुह - मृकमुख -पुं० | स्वनामख्यात अन्तरद्दीपे, ने०।
मृगापुरी मूकापुरी खरी ०।स्वनामख्यातायामपरावदहपुय्याम्
“"ततो ऽपराविदहेषु, मूकापुया महीपतिः । धनज्ञयस्य धार
। रयाः, पलन्याः कुत्तो समीयिवान् ॥९॥ श्रा ० क० १ अ० आ०
म० । कलप०। आए० चू०।
मूढ-मूठ त्रि । मुद्यव्यस्मिन्निति मूढः। नि० चु० १ उ०। अ-
ज्ञानाविष्ट, द्वा० २ द्वा० । महामोह गत, तं० । यथावास्थत-
वस्त्वधिगमशन्यमानसे, ध० ३ अधि० । स्नहाज्ञानादेपरत-
न््रतया 5वस्थितवस्त्वधिशमशल्यमानसे, ग० ४ अधि० | य-
| थार्थापयोगरहिते, अष्ट० १४ अप । व्यामोहवति, प्रश्न० २
। आश्र० द्वार | अपगतविवके, आचा० १ श्रु० २ अ०३ उ०।
| “रागद्वेषाभिभूतत्वा-त्कार्याकार्यपराडमुखः | एप मढ इति
| ज्ञया, विपरीतविघायकः॥९॥'' आचा० १ श्रु० २ अ० हे उ०।
मादनीयादयादज्ञानाद्वा ( आचा० १ श्रु० ४ आ० १ उ० )क-
क्तव्यतया ऽऽकुल केन कृतन ममेतद् दुःखमुपशम याया[द्-
ति मोहित, आचा० १ श्रु० ४ अ० १ उ० । प्रज्ञा । मूढाः
तक्त्वश्रदधान प्राति भ० ७ श० ७ उ०। मूर्ख, पश्चा० = वि-
व० | मोहाकुलितमानसे, उत्त० ८ अ०। सदसन्मागोनभिज्ञे,
सूत्र० १ श्रु० १४ अ० | महामाहमाहितमतो, श्राचा० १ श्रु°
३ अ० १ उ०। आवानाश्चत, ज्ञा० १ श्रु० १७ झअ० । श्रज्ञाना-
च्छादितमतों, सूत्र० १ श्रु० ७ अ० | गुणदोपानभिन्ञ, स्था०३
ठा० ४ उ०। ५४
अथ मूटस्याष्रघा निक्तपमाद- -
दिसि है [> भि = व 53
दव्व दिसि-खेत्त-काल, गणणा-सारिक्ख-अ/भिणवे वेद् |
बुग्गाहणमण्यमाणे, कसाय-मत्ते य मूढहपदा ॥ ३३० ॥
द्रव्यमूढो , दिगमूढस्थ, क्तत्रमूढः, कालम॒ढो, गणनामृढः.सा
दृश्यमढः, अभिमवमृढो, वदमूढश्चति । । अष्टथा मूढः | तथा-
( बुग्गाहेण त्ति ) व्युद्य्राहिण मूढा व्युद् ग्राहित -ति च एका-
ऽथः । स च वक्ष्यमाणद्वधीपजातवणिक्सुतादिवत् । ( अणणा-
णि त्ति) तत्र कुसाधने मिथ्याज्ञान तच्च भारतरामायणा-
दिषु शास्त्रष्वतिसमुत्थ तनयो मूढः सोऽपि व्युद् ग्राहिता
| भरायते । कप्ायमूढस्तीव्रकपषायवान , स च कष्रायड्ष् स्प-
पनालादिद्टान्तसिद्धे अ्नन्तभवात ¦ मत्ता नाम यदावशे-
| न मादोदयन वा उत्पन्नीभूतः स च अभिनवमुढादौ श्रवत-
। रतीति | एतानि मूढपद, नि भवन्तीति द्वारगाथासक्तपाथः ।
| सास्प्रतमनामव चच्रणात-
|
धूमादी बाहिरतो, अन्तो धुत्तरगादिणा दव्वे
जादत्ववण जाणते, घाड़गाव[दा व्य दिद पि।३२३१॥
( ३३६ )
ध्रसिधान राजन्द्र।
सूढ
इह यो बाह्यनाभ्यन्तरेण वा द्रव्येण मोहमुपगतः स
द्रच्यमूढ उच्यते । तत्र बाह्यत्रो-धूमादिना55कुलितो यो |
मुद्यति, श्रन्तर--श्रभ्यन्तरे च धत्तरकण मदनकोद्रवोदनन
वा भुङ्केन यो मुह्यति । श्रथवा-यः पूर्वद्ट द्रव्ये कालान्तरे |
दष्रमपि न जानाति स द्रव्यमूढो घरटिकावोद्रवत्।
“ विविक्कविष न रसा दि कामः / ता
सो हाहिति त्ति। अणाहमडय छद पलीवित्ता नद्ठाणि,
गेगातड गयाई। सो वितो श्रन्नया श्रःगच्रा, घरं दहं पा-
सित्ता ताणि य अद्रियाणि साचउमादत्ता, भजासिले-
हारुरागेणे प्याणि अट्टीणि से गेगे नसि त्ति, ताण श्रणाह-
मडयद्भियाणि घडियाए छदु,गंगे गतो। तीप भज्जाए य दिद्ठा
न य सजाति । तीप पुच्छितो, का तुम ? तण श्रक्खाय- |
पावेसियस्स घरं दहु, भज्जा य मे द्वा, ततो मए भज्ाणु-
रागग ताणि अट्टियाणि गहियाणि,
ता, गेगाप छुड़ेहि सुगति जादिति । प्य पिता से सयं
करेमि | तीस अणुकंपा जाया, तीए भारय, शरदे सा तव
भज्ञा | न पत्तियत्ति, एयाणि श्रद्धियाणि कि अलिक्याणि।
बहुविह भत्तपाणा काहेइ न पत्तियति । ताह तीप ज पुलि |
कीलियज पिय मभुत्त एवमादि सव्वं साऽभिन्नाणं सवादिय
ताह पत्तिलिश्रा । एस दव्वमूढो ।
अथ दिगमृहत्तत्रमूढकालमृढानाह--
दिसि मूढो पव्वावर- म्पति खेत्ते तु खत्तवच्चासं |
दिवरातिविवच्चासो, काले पिंडारदिद्वतो ॥ ३३२ ॥
दगमूढा नाम-ावपराता देश मन्यत; यथा पूवा मपराम् ॥
क्षत्रमूढः-क्षेत्र न जानाति । क्षेत्रस्य वा विपयासं करोति- |
विपरीतमववुध्यत इत्यथः । रात्रौ वा परसंस्तारकमात्मीय |
मन्यते एप क्तत्रमूढः | कालमूढो-दिचसे रारि मन्यते । श्रव
पिर्डारद्रान्तः--पगो पिंडारगो उज्भामिगा सुक्तो,,अनु-
बदले माहिमहधे पुढेति मद पाउे दिवसतो सुत्ता, तओ उद्दि-
आ,निद्दावसद्विता जार मणणमाणो दिवा चच महिसीउ घरे
सुच्छादूण उज्भामिगा घ्रं पट्टि किमयं ति जर्णकलकिलो
जाता । तश्रा वलक्खानरूञ्ा [त्त । एव दवा राद ववच्चास |
कुणता कालमूठो भरण ।
राणनामूढं सादटश्यमदं चाह--
ऊणाऽदियमष्यतो, उडारूढो व गणणतो मृदो ।
सारिक्वथाणुपुरिसो, कुईंब्रिसंगामादिद्वुंतो ॥ ३३३ ॥
या गणयन् न्य॒नमाधक्रं वा मन्यत स उष्टारूढ इव
गणनामूढा भरयते ! एगो उद्धपालो उद्याउ एगवीसे रक्खद् ।
श्रन्नया उद्बीए आरूढो गरिता जत्थ श्रारूढां तन्न गणाद् ।
ससा वीस गणइ,पुणा वि गणइ बीस | नःत्थि में एगो उद्देज्षि |
श्ररणे पुच्छुद, ताह भणितो जत्थारूढो एस ते इगवीसइमेण। |
साइश्यमूढो यथा-स्थारु, पुरुष मन्यते । अज्र च कुटुम्बिनो |
महत्तरसनापती तयाः संग्रामेण दृष्टान्तः पगा गामयार- |
सणावइणा चोरेहि समे आगंशूण रत्तीप हता, सत्थ य गामे
जा मह्तरा सा तत्थ चोरों सणाषदस्स सरिसो। तश्रा
सगामि उबद्भिए चोरसेणावई मारितो गामिल्लएहि महियग- |
नस्सामो मा पया- |
गग नाम त्ति आग- |
काठ पन्नि नीओ, सो भणति-नाह सणादिवा । चोरा भरेति
पसरणपसाइड जति पलवइ । श्रन्नया सो नासिड सगामे गतो ।
ते भणदि- कोसि तुमे एंगे पिसाओ वा तण पडिरूवेण
आगझो उभआओ साभिन्नाणा कहिए पच्छा सो गर्हं उभश्रा
| वि सयणा सारिक्खमूढा |
गस्स वाणियस्स पादेसियस्स भज्ञा . पंडरंगण सम सप- |
लग्गा । पेडरंगेणे भन्नति--श्रणसुयप् दिय करिसी रती- |
त्ति मन्नमाणटि दद्वो चेरिषहि य गामसहयरो सखावइ चि,
अथामिनवमूढमाह--
अभिभूतो संम्रुज्कति, सत्थग्गीवादिसावयादीहिं ।
अब्शुदयअणंगरती, वेदंमि पुरा य दिद्वतो ॥ ३३४ ॥
खड़ादिना शखण, प्रदीपनके वा अग्निना, वादकाल वादि-
ना, अरण्ये श्वापदस्तनादिभिश्चामिभूतो यः समुद्यति सो-
भिनवमूढः । वेदमूढस्तु स उच्यते । यो ऽभ्युदयन-श्रतीव वे-
दादयेन, श्रनङ्गरतिम्-च्ननद्भक्रौ डां, करोति । राजदष्टान्तश्चात्र
भवति । जदा--श्राणदपुरं नगरे, जितारी राया, दीसत्थी
भात्या । तस्स पत्ता अणंगो नाम बालत्ते अच्छि-
रोगेण गहितमिव रूयेता श्रत्थति, अन्नया जणणी ते णि-
गिक्दिपाण अह भावेण जाण ऊरू श्रतरा छोछुं उवग्गहीतो
दो वि तसि गुञ्जा पराप्परं सर्मुण्फडिता तहव तुरिदि-
को ठिता लद्धोा वयो स्वेतं पुणो २ तंहव करेति, ठायति,
ख्यता पबद्टमाणा तत्थव गिद्धा, मातुष वि अखुप्पियं, पिता
से मता, सो रज्नटिता तहावि त मायरं परिभुजति । स वि-
वादीहिं वश्चमाणा विणो रितो धूव त्ति"
वच्यमारे चाथ संग्रहीतुमिमां गाथामाह--
राया य खतियाए, वाणि महिलाए कुला कुडंबिम्मि ।
दीवे य पच सीले, ्रधलग-सुवषछकारे य ।। ३३५॥
राजा-श्रनन्तरोक्तः, खन्तिकायामनुरक्ता वेदमृढः, वणिक्
घरटिकावाद्राख्यः स्वमदलानुरक्रः-स्वमहलामनुपलक्षयन् ,द्र-
व्यमूढः , कुटुाम्बनः सनापतः महत्तरस्य च कुलानि सार
श्यमूढे उदाहरणे, ( दीवे त्ति ) द्वीपाज्ञातः पुरूषः, ( एवं सील
त्ति) पञ्चे शेलवास्तव्या निर्भरोभिः व्युद्ग्राहितः, खुवशे-
कारः, ( अधलग त्ति ) धृत्तव्युद् ग्राहिता अन्धाः, ( सुवरण-
गारे त्ति ) खुवर्णकारव्युद्प्राहितः पुरुषः । पते चत्वारो व्यु-
दूग्राहणामूढा मन्तव्याः । एष सेग्रहगाथासमासार्थः ।
साम्प्रतमनामव विवृणाति--
बालस्य अच्छिरोगे, सागारियद् विसफुस तुमिणी ।
उभयवियत्तभिसेग, णऽवादि वृत्ता वि मन््तीहिं ॥३३६॥
छोढुं अणाहमरयं, भामित्तघर पतिम्मि उ परत्थो ।
धुत्तहरणुज्भपति, अट्टिंगंगकहिते च सदहणः ॥३३७॥
सेणावतिस्स सरिसो, वितो गामेन्नतो शियो पचि ।
शाहंति रणपिसायई, घेर वि दिड्ोत्ति णच्छेति॥३३८॥
हृद् गाथात्रय गताथम् । नवरम ( उभयवियत्तपिसंग चि )
उभयोरपि-दवी-कुमारयोः, प्रीतिकरं तद्धिषयासेवने राज्या-
भिषेकेऽपि संजाते तामसौ न मुञ्चति । द्वितीयगाथायां
(धुय हरणुज्भए ति ) धृतेन तस्या वणिकभायांया इरण, त~
स्या श्रपि पतिम् उज्भित्वा गङ्गातटे गमन, ततीयगाथायां
( णाहंति इत्यादि ) महत्तरेण नाद सरनापतिरित्युक्कः चोर-
श्चिन्तयति । एष रणयिशाचकी तनेषे वक्ति गृहेऽपि गतं ते-
( ३३७ )
जद
अआभधानराजन्द्रः।
व्याख्यातो मूठः | ° ४ उ० । नि० चू०।
दुविहा मूढा पण्णत्ता, त॑ं जहा--णाणझूंढा चव, दंसण
म्रदा चेव | स्था० २ ठा० ४ उ० । ( व्याख्या खस्वशब्दे )
[>
तिविहा मृढा पत्ता, तंजदहा-नाणमूढा दंसणमूढा चरित्त-
गूढा | स्था० रे ठा० रे उ० |
म्रटदिदि मृढदृष्टि-त्रि० । व्यामाह, परतीर्थिनां राजादिरतां
पूजां मन्तराद्यातिशयान् वा दृष्टा तदागमान् वा श्रुत्वा देशत
स्तेको मतिव्यामाहः । जीत० ।
मह-( ल ) नहय मृद (ल) नयिक-न० । मृदा श्रावभाग
स्था नया यास्मस्तन्भूदनय, तद्व मढनायकम् । प्राकृतत्वा
त् स्वाथ ;कत्रत्यय अथवा म्लान त तनयाश्च भलनया-
स्ते ;स्थिन् विद्यन्ते इति मलनयिकम् । श्र।नेकस्वरात् |
॥ ७ । २।६॥ इतीकप्रत्यय. | अविभक्कनये कालिकश्रुत,आ० |
म५ १ अ० | श्रा० चू० । नि० चू० ।
मूददिसामाग-मूढदिगमागः ऐ० । मूढा ऽनिश्ितो दिशां भा
गो यस्य सः | विस्मृतदिग्भागे, ज्ञा० १ श्रु० १७ आ०।
मृदभाव मूढभाव- पु०। मूढतायार कत्तेव्याकत्तेव्याशताया-
म्, श्राचा० १ शु० २ अ० १ उ०। मूढत्वे किकत्तेव्यता5-
भावे, आया० ९ श्रु० १ ० १ उ०।
मृठमइय-मूठमतिक-पुं० । ङवोधाच्छदितधिषरे, जी० १
प्राति०।
मूहलक्ख-मूढलक्ष-पुं० । समस्तक्षेयविपरीतवेदने, आ० म०
१ आ० ।
म्रदसप्म- मठसंज्ञ प° | विगतचेतने, असावधानमनसि, आ-
तु० । मूढा-मूर्चिछुता, संज्ञा-ज्ञान, यस्य स मूठसंज्ः । अस्प
चरज्ञाने, श्र प्रज्ञाने, श्रातु० ।
मूणभाव-मोनभाव-पुं० । तृष्णीभावे, “सो य सूणभावेण अ- |
त्थइ । आ० म० १ अ०।
मूत्तण-मुक््त्वा-अव्य० । स्फेटयिस्वेत्यथे, व्य० ६ उ० ।
मृया-मृका
म्, यत्र पवमव वाराजनः [ग्रयामत्ननामा चअक्रवत्त्यभूत्। |
कल्प ९ आध० २ क्षण । आए० चू० |
मर-भज़्-धा० । मर्दन, भजेः वेमय-मुसुमूर-मूर-घूर-सूड-
विर--पविरञ्ज-करञ्-नीरओः
ज्लमूरादेशः । मरइ । भजई | भनक्ति । प्रा० ४ पाद् ।
मूरण-भज़न-न० । मदन, ्रा० म० १ अ०।
(स ~ । । निबन्धत्रे, प्रक्ष० ३ आश्र० द्वार आद्यकारणे, |
आचा० १ श्रु० २आअ० १ उ० । मूलमादिरित्यनथौन्तरम् । ।
आए० चू० १ श्र०। “ मरणस्य मूल दुकखे ” उत्त० ३२ आ०।
“ मूल वित्थिरणो मउ संखित्ता ” सू० प्र० १० पाहु० ।
मूले ऋं दत्वे. ओंदइ उवएस आमूलं च |
खित्ते काले मूलं, मावे मूल भवे तिविहं || १७३ ॥
क
महत्तर ते ग्रामेयका दग्ध इति त्वा नेच्छन्ति सगृहीतम् । ,
र्छा० | महांवद्हँ स्वनामख्याताया राजधान्या- |
८। ४ । १०६॥ दात भ-
श्ल
मूलस्य राढा निक्ञपः-नामस्थापनाद्रग्यत्तद्रकालभावभदा--
त्। नामस्थापने गतार्थ | द्ृव्यमूलम-शशरी र-भव्यशरी र-ब्य-
तिरिक्क॑ त्रिधा ओदयिकमूलम् . उपदेशमूलम ,आदिमूल चति।
तत्रादयिकद्रव्यम्लम्-वृ्ञादीनां मूलत्वेन परिणतानि यान
दव्याणि । उपंद्शमूलम्-यज्चिकित्सका रोगश्रातिघातसमथ
मूलम॒र्पादिशत्यातुरायेति, तश्च-पिप्पली मूलादकम् ! श्रादसूल
नाम-यद् वृक्तादिमूलात्पत्तावादं कारणम् । तद्यत् स्थावरना-
मगोत्रप्ररतिभरत्ययात्-मूलनिवर्तनात्तरप्रकृतिप्रत्ययाञ्च-मूल
मुत्पद्यत,एतवुक्ल भवति-तषामोदारिकशरौरत्वन मूलानवत-
कानां पुद्रलानामुदप्यष्यतां काम्मणं शरीरमाद्यं कारण
क्षत्रमूले यस्मिन् ्तत्रमूलसृत्पद्यत, व्याख्यायत वा । पव काल-
मूलमपि, यावन्तं वा काल मूलमास्त, भावमृल तु तरिधा ।
दति गाथाथः।
तथा दि-
ओद इयं उबवदिद्वा, आइतिगं मूलभावओदइअ ।
आयरिओ उवदिडा, विणयकसायादिग्रो आः।।१७४।
भावमूलं जिविधम-ओदायिकभावमूलम् , उपदेष्रमूलम् , आ-
दिसले चति । तत्नोंदयिकभायमूले वनस्पतिकायमूलत्वम-
इभवन्नामगोजकम्मोदयात् मूलजीव एव, उपदेप्रभावसूल
त्वाचार्य उपदेश, यैः कम्मैभिः प्राणिनो मूलत्वेनात्पद्यन्त,
तेषामपि मो्तससारयो्वा यदादिभावमूल तस्य चोपदेष्त्ये
तदेव दर्शयाति-(विणयकसाआइआओ आई ) तज मोत्तस्यादि-
मलं ज्ञानदशनचारित्रतपश्चो पचारिकरूपः पञ्चधा विनयः
तन्मूलत्वान्मोत्तावा्तः । तथा चाह-
“ विणया शाणं णाणाउ, दंस दंसणाहि चरणे तु ।
चरणाहिंतो माक्खा, मुक्ख खक्ख अणावाह ॥ १॥ "`
४ विनयफलं शुश्रूषा, गुख्णुश्रषा फलं श्ुतक्षानम् ।
ज्ञानस्य फल विरति-र्विरतिफले चःश्रवनिरोधः ॥ २॥
सवरफलं तपावल--मथ तपसो निज्ञरा फले दृष्टम ।
तस्मात्करिया निवृत्तिः, क्रियानिवृत्तरयोगित्वम् ॥ ३॥
योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्तयः सन्ततिन्तयान्मोत्तः ।
तस्मात्कट्याणानां, सर्वेषां भाजन विनयः ॥ ४ ॥ ""
इत्यादि, ससारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति । श्राचा०
६ श्रु २ अ० १ उ० | घ्ातिकमेचतुष्टये मोहनीयकर्मणि, मि-
्यात्वे च । ^“ अग्गे च मूले च विगि च धीरे, पलिच्छिदि-
याणं शिक्तम्मदंसी `" श्रात्ता० १ श्रु० ३ अ० २ उ० |
(“अग्ग › शब्दे प्रथमभागे १६४ पृष्ठ व्याख्यातांमेदं
सत्रम् ) सहदेवीमूलिकाकल्पादितत्तच्छाखरविदटिते मूल-
कमणि , उत्त० १५ आ० । मूलिकाराजहेसीशङ्खपुष्पाशरपु-
ङ्खादिगुणसूचके शास्त्र, उत्त० १५ अ० । वृत्तजयटायाम् ,
स्था० १० उा० ३ उ । मूलानि सुप्रसिद्धानि यानि स्कन्ध-
स्याधः प्रसरन्ति | रा० । उशीरपुनर्मवाविदारिकादिरूप ,
दश० ५ अ० १ उ० | वनस्पतिभदे, स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
विपा०। आचा० । पृथिवीकायादिजीवे , बृ० १ उ० । स० ।
नन्तत्रभेदे , स्था० २ ठा० ३ उ० । मूलस्य निऋतिदेवता ।
ज्यो० ६ पाहु० । च” प्र० । सू० प्र० | जं०।
मूसे नक्खत्ते एकारसतार | स० ११ सम० ।
प्रायश्चित्तभेदे, स्था० ४ ठा० १ उ०। महाव्रतारोपणे, भ०
( ३३८ )
अ नधानराजन्द्रः।
4 पल
२५ श० ७ उ० । महाव्रतानां मलत आरोपरो, पञ्चा० १६
विव० | ग०। ज०। ध । ( मूलार्हप्रायश्चित्तं 'मलारिह' शब्दे
व्याख्यास्याभे ) समापे. श्रा० म० १ झ०। “ निसन्नं तरू-
मलम्मि, खुकुमालं सुहोचिय । "' उत्त० २० श्र ०।
मूलकम्म- मूलकस्मेन्-न० । मलं दशधापश्चित्तानां मध्य.
में तत्पाप्तिनिवन््धन कर्म गर्मघ्रातनाद्यपि मलकम्म । मलानां
वा वनस्पत्यवयवानां कर्मोषध्याद्वर्थ छुदनादिक्रिया -मलक- |
मे। षोडश उत्पादनादोषे, ग० ६ अधि० ! धघ० | ग्रशज्न० | पं० |
चू० । प्रव० | पञ्ा० | यदा पुआादजन्मदूष्णानवा रणाथ मघा
ज्येष्ठाश्लपाम लादिनज्षत्रशान्त्यथ मूलैः स्नानमुपादिश्यादारया- |
दिकं गृह्णाति तदा षाडशा मृलक्रम्मदाषः | उत्त० २४ ० । |
सम्प्रति ` मूल ` त्ति व्याचिख्याखुराह--
अधिई पुच्छा ्रस-न विषाहे भिन्नकन्नसाहराया ।
आयमणपियणओसह-अक्खयजजीवअहिगरण ।५०६।
जघापरिजियस इ, अद्धिइ्रणिज्ञए मम सवत्ती ।
गो जोणुग्याडण-पडिसहपश्रासउडाहो । ५०७ ॥
क्चित्पुरे धननाम्नः श्रेष्ठिनो भाया धन्या ,
हिता खुन्दसी, साच भिन्नयोनिका , परमनमर्थ माता जा
नात , न पता | सा च पत्रा तत्नव पुर कस्यापाश्वरपुत्र
स्य पारणयनाय दत्ता. समागतः अतद्यासजा ववाह, मातु
श्रन्ता बभूव । एधा पारणाता सता याद् भ्रा गजन्नवा-
तस्य दु- |
नका न्नास्यत,ततस्तनार्भफता वराक्रा दुःखमनुभावप्वात।,
अजचान्तर च समागतः कःऽप सयता गमन्ता
तन |
सा पृष्ठा तया काथतः स्वापि च्रत्तान्तः। ततः साधुना- |
क्रम्--मा भेषाः, अहमभिन्नयानिकां करिष्यामि । तत आच
मनोषध पानापय च तस्ये प्रदत्त,
तथा-चन्द्राननायां पुरर
नद्रमुखा, तयाश्चान्यद्ए परस्परं कलहः प्रवृत्तः । ततो ऽभि-
निवशन तन्नगरवास्वव्यस्यैव कस्यापीश्वरस्य दुहिता धन-
दत्तन परिखयनाथ चृता, ज्ञातश्चाये वृत्तान्तश्चन्दरमुखया ,
तना चभूव महती तस्या अध्विः,
जाता आमभन्नयाननका ।
नदत्तः साथवाहस्तस्य भाया च- |
अत्रान्तर च जङ्गाप- |
गिजितनाःमा साधुरागता भिक्तार्थ, दृष्टा तेनाश्वृति कुवती |
चन्द्रमुखा, दतः पृष्टा-कि भद्गे ! त्वमध्रतिमती दृश्यस ?, |
तनः काथतत्तया सप्रत्नीव्यतिकरः, ततः साधुना सम-
भितं तस्या ज्रौपधे, भिता च सा कथमपि तस्या भ,
त्रस्य पानस्य मध्य दये यन सा भिन्नयानिका भवति,
तनः स्वभे निवेदयः , यन सा न परिणीयते , तथेव कतं
` न परिणीता सा भरत | सूत्र खुगमम्। नवरम्-' जज्ी- |
वन् ` इति यावर्जीवमधिक रखं-मेथुनप्रग्ञात्त
दति साउमिनवा परिणेतुमारब्धा भिन्नयोनिर्कात ज्ञात्वा
प्रातापद्धा अय चद्थ्स्तया ज्ञाता भवत्, ताह तस्या
साधु प्रात महान अ्रद्धपा भवत् , शवचनस्याडाह
सम्प्रात ववाह इत पद व्याख्यानय ज्ञा ह---
मात फंसेज्ज कुलं, अदिज्जमाणा सुया वयं पत्ता ।
धम्मी य ले।हियस्म, जइ बिंदू तत्तिया नरया ॥५०८॥
कि न ठविज्इ पुत्ता, पत्तो कुलगोत्तकित्तिसंताणो ।
पच्छा वि य त॑ कज्ञ,
चाडसाद ` |
अमंगहो मा य नापिज्ञा।(५०६॥ |
नि अत
कचिद् आम कोऽपि गृहपतिः, तस्य पुत्रिका वयःपराप्ता,
ततः काऽपि साधुरभत्ताथ प्रविष्टः सन् दषा तन्मातरमेव-
मभिदधाति, तव दुहिता वयःप्राप्ता-योवन पश्राप्ता, तद्य--
दि सम्प्रति न परिणी ( णाय्यते ) यते, तहिं कनापि तरुणे-
न खहाकाय समाचर्य कुलमालिन्यमुत्पादयिष्यति । तथा-
( धम्मा त्ति ) लोके एवं श्रुतिः--यदि कुमारी ऋतुमती भ-
वेत् तहिं यावन्तस्तस्या रुधिर विन्दवो निपतन्ति तावतो
वारान् तन्माता नरकं याति । तथा कचिद् भ्रामे कस्यापि
कुटुस्विनः पुत्रे यौवनिकामधिगतमवलोक्य साधुस्तन्मा-
तरमव व्रत । यथा--कुलस्य गोदस्य कीत्तश्च सन्ताने नि-
बन्धनमेष तव पुत्रो योवने च प्राप्तः+ ततः कि न सम्पति
परिणाय्यते ?, अपि च--परिणीतः सन् कलत्रस्नदेन स्थिरो
भवति, श्रपरिणीनञ्च कयाऽपि खच्छन्दचारिरायः सहात्थाय
गच्छेत् , पश्चादपि चैष परिणाययितञ्यः तत्सम्पत्यदि क-
रान्न परिणाय्यते ? इति । ¢
सम्प्रति “ दा दंडिणीओ आयाणपरिसाड़े ” इत्यवयवे
व्याचिख्यासुराह--
कि अद्धि इत्ति पुच्छा,सवित्तिणी गब्मिशि त्ति मे देवी ।
गब्भाहाणं तुज्क वि, करोमि मा अद्िई कुणसु ॥५१०॥ `
जइ वि सुओ म होही,तह वि करणिट। त्ति(इ)यरो जुबराया।
देद परिसाडणं से, नाए य प्नोसपत्थारों ॥ ४११ ॥
संयुगे नाम नगर, तत्र सिन्धुराजो नाम राजा, तस्य
सकलान्तःपुरप्रधाने द्वे पल्न्यो, तथथा--शझ्ञार्मतिः, ज-
यसुन्द्स च । तत्रान्यदा बभूव शङ्गारमतेगैभाधानम्, इतरा
च जयखन्दरी नूनमस्याः पुत्रो भविष्यतीति विचिन्त्य मा-
त्सयेवशादश्चाति कुवेत्यवतिष्ठत, श्रत्रान्तरे च समागतः
काऽपि साधुः, तन सा पपृच्छे-कि भद्र ! त्वमध्रूतिमती ह-
श्यस ?, ततः सा तस्मे सपलन्या व्यतिकरमचकथत्
साधुरप्यत्रवीतू--मा कार्पीरश्रति, तवापि गन्भौघानमहं
करिष्ये, ततस्तयोक्घं भगवन् ! यद्यपि युष्मत्प्रसादेन मे पुत्रो
भावी. तथापि स कनिष्ठत्वेन यौवराज्यं न प्राप्स्यति, कितु
सपलन्या एव सुतः, तस्य ज्यष्ठत्वात् { ततः साधुना तस्या
भेषजमकं गभोधानाय देत्तम् , अपरं तु दापित सपल्न्यां
गर्भशाततायाति । सूत्र सुगमम् । नवरमतन्न कत्तव्य, यता
गर्भशातन साधुकृत ज्ञात सति प्रद्रषो भवति, ततः शर्रीर-
स्यापि प्रस्तारः-विनाशः ।
सम्प्रति सर्यस्मिन्नपि मूलकम्मणि दोषान्-
प्रदशयति--
संखडिकरण काया, कामपवित्तं च कुणइ एगत्थ ।
एगस्थुड्राहाई, जजियभोगतरायं च ॥ ५१२ ॥
संखाडिकरण-मा त फ भं)सेज कुल, तथा-'कि न ठविज्ञईँ
इत्यादि गाथाद्योक्के बीवाहकरण ` कायाः ` एुथिव्यादयो
विराध्यन्ते , , एकत्र पुनरक्ततयोनिकत्वकरणे गभाधाने च
कामग्रत्रत्ति करोति, गर्माधानाद्धि पुत्रोत्पत्तौ प्राय इष्टा
भवति, ततः काम्या जायते, इति मेथुनसततिः। एकव पुनः
गर्भपातन उड्डाहादि-प्रवचनमालिन्या ऽऽत्माविनाशादि, एकत्र
पुनः-च्ततयानिकत्वकरण यावज्ञीवं भोगान्तरायः, चशब्दा-
डुड्ाह्मदि च,तदेवमामिहितं मूलकर्म ! पि? । जी० । आचा०।
{ २३६ )
[क्ण `
रलकरण-प्रलकरण -न० । मूलयुणेषु सप्तप्रकारायां शोधो
आभ्रधानराजन्द्र: |
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बू० १ उ०। पञ्चानां शरीराणां पयोप्तो, सूत्र० १ श्रु० १ आ० |
१ उ० । मूलकरणं घटादिकं येनोपस्कर्ण--दरडचक्रादिना |
श्रभिव्यज्यते--स्वरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणे, कतुरूपका
रकः सर्वो 5प्यपस्कारार्थ इत्यथः ॥ ५॥
पुनरपि प्रपञ्चतो मूलोत्तरकरणे प्रतिपादयितुमाह--
मूलकरणं सरीराणि, पंच तिसु कण्णखधमादीयं ।
दच्विदियाणि परिणा-मियाणि विसओसहादीहिं ॥६॥
मूलकरणम-आओदारिकादीनि शरीराणि पञ्च तत्र चोदारिक |
चैक्रियाहरकेषु त्रिषृत्तरकरणं करीस्कन्धादिकं विद्यत, त-
थादि-“सीसमुगोयरपिद्री दो बाह ऊरुया य अट्टूंग ” त्ति।
अयाणामप्येतज्निप्पक्तिमलका णं, करणस्कन्धाद््यज्ञोपाज़नि-
स्पत्तिस्तूतरकरणम्, कामणतेजसयोस्तु स्वरूपनिष्पत्तिरेव |
मलकरणम ,अङ्गापाङ्ञाभावास्नात्तरकरणम् ,यदिवा-ओंदारि-
कस्य करवेधादिकमुत्तरकरणं, वेक्रियस्य तूत्तरकरणम्--उ-
ततरवेाक्रय, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा. आहारकस्य तु ग-
मनायुत्तरकरणं यदिवा-ओदारिकस्य सलोत्तरकरणे गाथा- |
पश्चाद्धंन प्रकारान्तरेण दर्शयति-द्वब्येन्द्रियाणि,-कलस्बुका-
पुष्पाद्याकृतीन मलकरणेः तेषामेव परिणामिनां विषोषधा-
दिभिः पाटवाद्यापादनमुत्तरकरणमिति ॥ ६॥ सूत्र० १ श्ु० १
० १ उ०।
मूलग--मूलक -पु° । मूली इति ख्याते कन्दविशष, स्था० ७
खा० + अंद०। प्रज्ञा० । । स० । ध०। आचा० | जी०। भ०।
शैलगपत्त-ग्रलकृपत्र-त० । आदय पारपक्रप्राय पणं, कन्दावश
घस्य निस्खारपत्रे, वृ० १ उ० ।
मूलगवच मूलकवच्चम्- न । यत्र मलक शाटत पातत त ।
स्मिन् , आचा० २ श्रु० २ चू० ३ अ०।
मूलगुण -मूलगूण-पुं० | मूलानीव चारित्रकल्पद्मस्य मूला-
न्युत्तर च तस्य शाखाद्यवयववद् ये गुणास्त मूलगुणाः । प-
० ५ विव० | प्राणातिपातादिविरमणेयु, आव० ५ अ०।
पञ्चाणुबतानि मुलगुणा उच्यन्त । श्रावकं धमतरोमलकलट्प-
त्वाद् । ध० र० २ अधि० | आव० | महाव॒ताणुब्रतेषु, सूत्र० २
श्रु० ६ अ० | विशे० | आव० । अनु० । पं० व | ग०। स० ¦
श्रा० । आतु० । पञ्चा० ।
पाणातिपातविरमण -मादी शिसिभत्तविरइपञ्जता ।
समणाणं मूलगुणा, तिविह तिविहेश णायव्वा ॥ ३०॥
ग्राणातिपातविरमणःदया वधविरव्याद्याः, निशाभक्रतविर-
दिपयेन्ताः-राजिभोजननिवृत्त्यन्ताः,श्रमणानां-णतीनां मूलगु- |
णा धर्मलक्षणकल्पव्॒त्तमलकल्पा निय॑माः, विधे करणका- |
रणायुमतिरूपे वधादिके, त्रांवधन-मनोवाक्कायलक्षणकरण-
न.प्रत्याख्यामीति प्रतिज्ञया,ज्ञातव्या-शज्लेया, इति ॥३०॥ पश्चा०
१५ विव० । ने०।
मूलगुशा-पंच महव्ववराणि राईभोयणछड्राई । महा० ३
अ० । उत्तरगुणाणं पि भंग नहीं, कि पुण मूलगुणाशं ।
महा० ४ अ०।
भूलयुण
मूलगुणतिचारे प्रायश्वित्तम्--
एगिंदियाण घट्टण-मगाढ-गाढ-परियावणुद्दवरण ।
निव्वीय पुरिम5द्धे-गासशमायामर्ग कमसो ॥ ३१॥
एकेन्द्रियाणां-पृथिव्यपतजोवायुप्रत्यकवनस्पती नां, मनाक्
स्पशने-संघट्टनम् , अत्राह-ननु पृथिव्यादीनां चतुणा घटते
संघट्टननम्, अप्कायस्य तु कथं सघटन सम्भवति ?, तस्य द्रव्य -
रूपत्वेन स्पशमात्रे 5पि विना सम्भवात्। उच्यते-घटादिस्थ-
स्याप्कायस्यापि मनाक्षरचरणादिना चालने संघट्ट:ः सम्भव-
ति। परितापनं द्विविधा-आगाढं, गाढं वा। तत्र समदेने चल
जनाद्बहुतरपीडोत्पादन गाद, बहुतमपी डाःपादन चा55-
गाढम् । उपद्रवणं-सञ्था जीतावनाशन, तच्च-पृथिव्य-
गन्योरत्यन्तसमदैनायैः, श्रपकायस्य तु वदहवितापनदरडाद्यभि-
घातनं पानपादादिक्ञालना, वनस्पतेः पत्रपष्पाङ्कुरादित्ा-
नादिः, ततश्रेषां पञ्चानामपि प्रत्यकं संघटने-निर्विक्रातिक
म्, श्रागादे परितापन-प्रिमाद्धः, गाढपरितापन-एका-
शनम् , उपद्रवण--चाचासाम्ल इति ।
परिमाईखमणंतं, अणंतविगलिंदियाण पत्तेयं ।
पंचिदियमि एगः-सणादं कन्नाणगमहेग ॥ ३२॥
अथानन्तवनस्पतिद्वित्रिच्तुरिन्द्रियाणां प्रत्यक संघट्टनागा-
ढपरितापापद्रवणेषु यथासंख्य परिमाद्धादिक्तपणान्त तपः प
ओन्द्रियसघटस्तदह जात मुषकगरद को लिकादि विषयो द्र प्रव्यः।
ततरैकाशनम्। आगाढपरितापे-आचामाम्लम .गादर्पारतापे-
चतुर्थ, प्रमादवशाच्यापद्रव-एककटयाणं , तच्चदम्-निपणण-
आरो ” अधिकपदमाधिकमत्तरं चाधिकाथसलसूचकं भव-
तीव्यत्राथशब्दादाधकादनकद्धी निद्रियाद्युपघातप्रायश्विक्तमनु -
क्मप्येतद्धिज्ञयम्, यथा-' पगाइदसंतख, एगाइद्लतय सप-
च्छित्ते। तण परं दस्मे चिय,वहुएसु वि सगलविगलेसु ॥१॥*'
क्ाउप्यागमाघनदृष्टासामाचारीषु दश्यत वहुषु युक्तेव वि-
भाति पुनर्लिखिसा गाथा, तताो<त्रैपा एकादिषु दशान्तषु,
दवीन्द्ियादिपृपदहतेष एकादिदशान्ते स्वप्रायश्चित्त भवति, य
द्यस्य दरिन्द्रयादेखपघ्ाते अब जीतकर्पप्रायश्चित्त भ-
णितमस्ति तत्तस्य स्वप्रायश्रित्तमुच्यत, तदेकस्य द्वीन्दरि-
यादेरूपघात एक स्वप्रायश्चित्त भणितमस्ति । दयोदधे, जया-
णं जीणि, यावद् दशानामुपघात दश। तनति पश्चम्यर्थ कृता
कतीया । ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावदसख्ययप््रपि
सकलविकलेषु पञ्चन्द्रियविकलपृूपहतयघु दशकमेव, दशव ख-
प्रायश्ित्तानि दातव्यानि भवन्तीत्यश्चः।
इदानीं द्वितीयतृतीयपश्चमत्रतातिचारप्रायश्वित्तमाह-
मोसाइसु मह णव-ज़िएस दव्वहइिवत्थाभन्नसु |
हीणे मञ्भुकामे, अ(सणभायामखमणाई् ॥ ३३ ॥
मरषावादाऽदत्तादानपरिग्रहाश्चतुर्विघा द्रव्यतः, क्षत्रतः, का-
लता भावतश्च । तत्र द्रव्यता सृषावादा--धमीस्तिकाया-
दिसव्वद्रव्यावषयः. अदत्तादानं ग्रामनगराध्रयः , कः
खयो--दिवा वा. रात्रा वा । भावतखयाऽपि-रागण वा द्वष-
ण वा | ततश्चतुविध्रप्वपि स्षावादादत्तादानपारिग्रहप विष-
यु टीन-जघन्य प्रतचार-सत्यकराशन, मध्य-मध्यम उतिचार
आचामास्लम , उनछृप्र क्षपणं, मथुगाभिचारप्रायश्चित्त च
मरलव्याख्यायां भमाणिष्यत | जीत०।
( ३४०
ख्रमिधानराजन्द्र। ।
लगुणट्वाण
मूलगुणडाण- मूलगुणस्थान-न० । आाणातपाताादानदूात्त-
रूप सयतरारूढ स्थान , आचा० * श्रु० २ आअ० { उ०।
मृलगुणपच्चक्खाण-मूलगुरणप्रत्याख्यान-न० | पत्याख्यान- |
गुणभदे, आ० क० ४ अ० ( ' पचचक्खाण ` शब्द पञ्चमभाग
८८ पृष उदाहरणम् )
मूलगुणपडिवाय-मूलगुणग्रतिपात--पु० । मूलच्छेये, “ सूल-
च्छज्जञ ति वा मूलगुणर्पाडवाड त्ति वा एगट्ठा ” आ० |
चू० १ ० ।
मूृलगुखणडिमिवना-मूलगुणप्रतिसवना-ख्री ° प्राणातिपाता
दप्रातसत्नायाम् , मूलगुणाः-आद्ययुणा अधानगुणा इत्य-
थः, तसु पडिलवणा जा सा छट्ठाणा भवति , छसु ठाणेसु |
भवति दत्त भणय होति, ताणि य इसाणि-पाणादिवाओं ६,
मुसावाओ २, अदत्तादाणं २, महुणं ४, परिग्गहो ५, राति-
भायरो च ६ । निः चू०।
तत्थ जा सा मूलगुणपडिलवणा सा इमा--
मूलय छट्ठाणा, पदभ ठाणम्मि णवविधों भदो |
सससुकोसमज्किम-जहपद॒व्यादिया चउहा ॥ ८६ ॥
व्याख्या-मूलगुणा-आद्यगुणाः,प्रधानगुणा दृत्यथः | तदु फ |
डसवणा जा,सा छट्टाणा भवात, छसु ठाणस भवाति लभ- |
णय हति । तास य इमाणि-पाणादिवाच्रा, सुलावाआ,अ- |
दत्तादाण , महण, पारर्गहा, रादतीनायण च | पत्थ पदम
|
ठाण-पाणातवातो तत्थ णवविहों भेओ, सो य इमो-पुढ- |
विक्राओ, आउकाओ, तेऊ-वाऊ-वणसरुसइ-बवेइंदिय-तेईदि
य-चउरिंविय-पंचिंदिया। 'सेसेस क्ति-मुसावाओ०जाव रा
तीभायणे । एणा एक्के तिविह तिय इमे तिभेदा-उक्को-
सा, मज्भिमो, जरणा । 'दृव्वादिया चउह ज्षि'-उक्कोसमुसा-
वाश्रा चउव्विहा--द्व्वञ्रो , खत्तश्रा, कालश्रो, भावश्रा।
मज्मिमा वि चउव्विहा-दव्यादि । एवं जहर्शो वि चडउ-
व्विहो-दव्वाति । एवं अदत्तादाणमवि दुवालसमदं ।
महु पि। परिग्गहा वि। रातीभोजण पि दुवालसभदं।
उक्रास पुण दव्य एव भवात-बहुक्षता, सारता वा, मनल्लतो |
वा | एव माज्कमभ व ताणएण भदा | जदरण्यावि तारण भदा | |
उक्कासदव्याबलाव-उक्कासा ससावाता, माज्कमम-माज्कमो
जदक्ष-जहणणा। एव अदत्तादाणाद्सु व जोयाणज्ज । खत्त
आ-ज जत्थ खन स्माखय-माज्कम, जहर वा। कालतो-ज |
जत्थ काल अच्ितं-मज्मिमं, जहएणं वा भावश्रो वि वण्णा-
दिगुणेहि-उक्कोस मार्भिमं जहरणे वा। एवं वुद्धाए आला
जायणा कायव्वा | अहवा-'सेससुक्को समाज्भिमजहण्ण त्ति'-
जण मुसाबाएण अ्रभिहिएण पारंचिय भवति एस उ-
कोसा मृसावाश्रा। जण दस राइदियाति ०जाव अणवर्ट
एस माज्ममों। जण पेच रादइदियाणि एस जहरणो ! एवं
अदत्तादाण वि० जाब रातीभायण वि । अहवा--दव्वादिया |
च उह त्ति | (नि० चू०) अद्दवा-एये पदं एवं पदिज्ञति-दष्पा- |
दिया चउहा जते मूलगुण छुट्टाणा ए दृष्पादि चउहा प-
डिसवणाए पडिसवेति ।
सा य इमा दप्पे कप्पे दारगाहा--
द्रष्पे कप्प पमाद --ऽपमत्तऽणाभ्। ग-हव्वतो चरिमा ।
| |
लूलगुणपडिन
पडिलोमपरूवणता, अत्थणं हाति अणुलोमा ॥ ६० ॥
दप्पर्पाडखवा, कप्पपडिसवा, पमायर्पाडसवा, अप्पमाय-
पडिसवा । जा सा पमत्तपाडसवा, सा दुविहा-अणाभोमा,
य टव्चञ्मा य | चारमा णाम अप्पमत्तपाडइसवा, एताख द्
कमा वरणत्थाण अप्पमत्तादपाडलामपरूवणा कायत्वा, .
अत्थेण पुण एसा चव अनुलोमपरूवएया । एस अक्खर- ,
स्थो । इदाणि वित्थरा भर्णदि-चोदकाह--जति पाणाति- .
वायादिछुट्टाणस्स दव्वादिचउदा पड़सिवा कता, तो जा पु- _
व्व भणिया दृष्पे सकारणेमि य दुदिहा, ' सा इयाणि श॒ घ- _
डपः। जइ दुहा चउहाण घडण, अह चड॒हा ता दुद्ा ण
घडए। एवे पुव्वावरावरोदा । पन्नवगादह-ना-न घडण ?, घटत
एव, कथम् ? उच्चत--
एसेव चतुह पडिसे-वणा तु संखेधतो भदे दुविधा ।
दष्पा तु जो पमादो, एगत पुहत्त-अप्पमत्तस्स ॥६१॥
पसव ज्ि--जा पुव्वभणिता चउहा--चउरो भया, दष्पा-
दिया, तु पूरणे । संखबो--समासो, न वित्थारों त्ति भणियं।
भवेज्ञ दुहा-दुर्भेया,कहं? ,दृप्पाओ को ? जो पर्माओ-सो दष्पो
तम्हा एगत्ता-एगा, द्प्पा पडिसवणा । कप्पा पुण अप्पमत्त-
स्स अप्पमातो कप्पो भरणति, तम्ह! एगत्ता एगा कप्पिया
पडिसिवणा । एवं दो जरणेति ¦ श्रटवा-कारणकजमवक्खतो
एगत्त पुहत्त वा भवति । पमाया दप्पा भवति, अप्पमाया क-
ष्पा भवति ! जहा-तंतुओ पडा | तंतू कारणे, पडो कज्ञ, ज-
म्ह कारणतरमावरणा ततव एवं पडा, तम्हा तंतुपडाखै
एगतत्त । जम्हा पुण तंतूहि पडो कञ्जति तम्हा श्ररणत्त, णवे
पमाददप्पाणं एगत्ते, पुहे वा | अप्पसायकप्पाण वि एगत्त `
पुटत्त वा । जतो एवं तम्हा दुविहा पडिसिवणा चउव्विहा
वाण पत्थ दासो।
इयाणि सीसो पुच्छुति-कह पमाच्नो दष्पो, अप्पमाओ
वा कप्पो ?, गुरू भरणति खुणसख जहा भवति-
ण य सव्वो वि पमत्तो, आवजति तध वि सो मवे वधओ ।
जह अप्पमादसहिओ,आवश्मो वी अवहओ उ ॥२॥
अतिवातलक्खणो दणप्पो, अन॒पयोगलक्खणा प्रमादः,णाणा-
तिकारणावक्ख अकप्पसेवणाकप्पो, उवश्नोगपुव्वकरणक्रि-
यालक्खणो अप्रमादः, एवं सरूवद्टितेसु गाहत्थो अपयारिज्ज-
ति। ण इति पडिसेक्षे,सवद इति अपरिसेसे ,पम त्तो-पमायभावे
वटटतो श्रावज्ञति । पाणातिवायं जति वि य सो पमादभावे व-
झइमाणों पाणातिवायं गातिवज्ञति तदा वि सो शियमा भ-
वे बहओ । सीसा पुच्छति--पाणाइवायं अअरणावरणो कदं
वहआ ? गुरुराह-पलत्थ वि श्ररणा प्दटना कज्जति, जह
अप्पंमायपच्छुद्ध, जहा ज्ञण प्पगारेणु * अप्पमायसहिओ
अप्पमाययुक्रेत्य थ। श्रावणो वि' पाणातिवायं 'अवह गो” भ-
वति, भणिये च-'“उञ्वालियमि पादे०” गादा । “श य तस्स
तरणिणमित्तो ०” गादा । जदा एस सति पाणातिवाप अप्पम-
न्ता श्रवहगो भवति , एवं असति पाणातिवाए पम
त्तो वरगा भवति, जश्रो एवं सम्हा चउहा पडिसवणा दु-
विहा भवति | दप्पिया, कप्विया य । दष्पकप्पाणं कमोः
# ५ 4५१ <
वरशणत्थारं । चुञ्वं कष्पियवकलाणं भरणाम । चोदगाद-
१--दम्बभो-सदप्ताकारेण ¦
न आ रःय
( ३७१ )
_सूलगुएपडि०ण
ततियपाएण पडलोमपरूबराता , कटं दृष्पिकायाः पूर्व
निपातनं कत्वा. कल्पिकाया व्याख्या
उच्यते ? अजोच्यते--अस्थेणं होइ अणुलोमा--अर्थ प्रती-
ल्य काल्पिका एव पूर्व भवतीत्यर्थ: । कहमत्थेएं होति अ-
शुलोमा--भषति--
अष्पसरमच्चियतरं, एगेसिं पुव्वजतणपडिसेवा ।
तं दोण्ह चेव जुज्ञति, बहूण पुण अच्चितं अते ॥ ६३ ॥ |
अप्पसर ति- त्रके आआचायौ आहुः--' यद्र्पस्वरं त-
त्स्व द्विपूर्व निपतति ” यथा-प्लक्षस्यग्रोधों। 'अचिततरं ति' |
अरणे पुणराहुः-- यदर्चितं तत्पूवं निपतति ” । यथा मा-
तापितरौ, वाखुदेवाजुनो इत्यादि एतानि कारणाणि इ-
च्छुमाणा आयरिया पुञ्वं जयणपडिसेवर्ण भरति- वये पु- |
ण व्रमः-तं दारेह चेव जुजति, तदिति ` अल्पस्वरत्वम् ,
अर्चितत्वे वा द्वाभ्यां चेति पद्भ्यां युज्यत घरतेत्यथः ।
नलु बहनां चादकाह-बहुआण कटं 2, उच्यते---' बहुण पुण
अर्चितं श्रते ' बहनां पदानां पुण सदो अदधारणे अच्चिय,
पदं श्रते भवति । रथा-भीमाजुनवाखदेवा , उकमकारणा-
णि अभिहितानि।
इदाशि समवतारो-
दोणह वच्च पुव्व-ऽचितं तु बहुयाण अचितं अप्पं |
वच्च तेण व पुव्वं, जतणा तेणं पडीलोमं ॥ ६४ ॥
दा दो प्रयाणि कण्पिज्ंति--दप्पिया, कप्पिया य | तदा
“दरं वञ्च पुव्वच्चियं तु! कप्पियं अच्चियं पदं तं एुव्वे वत्त-
व्वामिति । यदा बहुपया. कप्पिज्ति , दप्पा , कप्पो , प-
माओ श्रप्पमातो तदा “ बहुआणं अच्चियं अंते ' अतपदं
श्रप्पमातो सो पुव्वं वत्तव्वो | अहवा--आप्पे च पत्थ ब-
च्येतेण वा पुव्व॑ भणामो । जयणा इति-जयणंपडिसेव-
णा । तेण इति-कारणण , पडिलोम इति-पच्छाखुपुव्वीत्य-
थे; । निश्चयतः इदं कारणे वयमिच्छुमाणा कप्पियायाः
पूर्व निपातनं कृतवन्तः।
ण पमादो कातव्वो, जतणापडिसेवणा अतो पटमं |
सा उ अणाभोगेणं, सहसकारेण वा होज्ञा ॥ ६५ ॥
जम्हा पव्वयतस्सेव पढम श्रयमुवदेसो दिति -श्रप्रमादः
करणीयः-सदा प्रमादवर्जितन भवितव्यम् , श्रतो एतेण
च कारणण जयणापडिसेवणाए पुव्वणिवायं इच्छामो ।
श तु अप्पसरमश्चिियं काठ, बंधशलोमताए वा शते
श्रप्पमत्तप्रडिसघणा भणिता , अत्थतो पुण वक्खारं-
तेहि पढम वक्खाणिज्ति तेण श्रुलोमा चेव पसा अत्थ-
श्रा, ण पड़िलोमा । सिद्धं श्रणुलोमवक्खारं स अप्पमायप-
डिसेवणा दुविहा-अणाभोगा हव्वतो अचरिमा तु एयं चव
पय विप्पटतरं णिक्खिवति, ' सा उ अणाभोगेण ` पच्छुद्ध |
कंठे । अणाभोग, सहसक्कारे य दो दारा । श्रणाभोगो णाम
श्रलयन्तविस्मरतिः।
अणाभोगा-पडिसेवणा-सरूव इमे-
अष्पतरपमादेणं, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स ।
दस भूतत्थ सु वट्ठतो होतड्णाभोगों ॥ &६ ॥
[~प
_ अभिधानराजेन्द्रः !
|
कहे पूवम् |
५ स्ूलगुणपडि°
पंचविहस्स पमायस्स ददियकसायवियडणिदावि-
यहा । एसि एगतरेणावि श्रसपउत्तस्स श्युक्कस्यत्यथः ।
“णोवउत्तस्स रीयातिखु भूयत्थखु' नो दाति पडिसदे, उचउत्तो
मनसा ट्या वा युगांतरपलोगी ।' रीय त्ति" रीयासमितिग-
हितो,आदिसद्दातो अप्षलसमितीतो य । एतासु समितिखु कता
तिविस्सरिणणं श्रवउत्तशीणक्येदटाजा , अप्पकाले सरित
य मिच्छादुक्ड देति, भूयत्थो णाम विश्रारविदारसंथाराभि-
क्सातिसजमसाहिका करिया भूतत्थो, घावणवग्गणा-
दिको अभूतत्थो अ, वद्ठओ-पाणातिवाते , एवंगुणविसिद्धो
होय णाभोगो। अहवा एवं बक्खाणेञ्जञा-शसपरउत्तस्स पाणा
तिवातण इरियादेसमितीण जो भूयत्था तमि अवबइंतो नाद
तेणाभागो त्ति, सस पृवचत्। इ श्रणाभागण जति पाणानि
चायं णावरणो तो का पांडसवणा ?, उच्यत-ज ते अणुवउत्त-
भावे पडिसिवति सा एव पड़सिवणा इह नायव्वा । एत्ता अ-
श्रणाभोगो ।
इयाणि सहसकारों तस्सिमं सरूव--
पुच्वं अपासिरणं, छू पादंमि ज पुणो पासे ।
ण(य)तरति णियत्तेड, पादं सहसाकरणमते ॥ €७ ॥
पुन्बमिति-पटम.चक्खुणा थंडिले पाणी पडिलहेयव्वा,जति
दिद्ठा तो वज्लणण ।अपासिऊण ति'-जति ण दिद्वा तमि भडिल
पाणी। 'छूडे पायाम्मि तति -पुन्ये ण सिय थेडिलाओ उक्खित्त
पादे चकखू पडिलहिय धडिले असंपत्त अतरा वद्मा पादे
ज एुणो पासे त्ति जमिति पुव्वमदिदं पाणिण पुणो पच्छा पस्स
ज़ चक्खुणा, रण तरति ए सक्ति, पासणक्रिरियवावारपवि-
त्त पाये शियत्तउं । पच्छा दिद्रुपाणिणो उवरि शिसितो पाओ,
तस्सय सघ्रह्णपरितावणकिलावणोदवणादीया अप्पमत्त-
किरियोचउत्तण पीडा कता,एसा जा सहसकारपडिसेवा-'स
हसाकर णमेयं ति'-सहसाकररं जाणमाणस्स परायत्तस्सेत्य-
थः | एतमिति पयं सरूवे सहसक्कारस्य । इयाशि सहस्रार -
सरूवबावलद्धं पंचसु वि सामतीसु शियोतिञ्जति | तत्थ पढ-
मा इरियासमिती भणणति--
दिदे सहसकारे, कु्लिगादी जह असिभ्मि विसमे वा ।
आउत्तों इरियाति, तडिसंकम उवहिसंथारे || € ८ ॥
जतणा श्रसणातिकिरियाप्वत्तण अष्पमत्तइरिश्रावउ-
त्तेण दिद्धो पाणी कायजोगो य पुत्वपयत्तो ण सक्रितो शि-
ग्धतु, एवं सहसकारेण वावादितो, कुलिगी आदिसद्दाता
पंचिदी वि जहा जण पगारण, असी-खग्गे, विसमे-णिगणो-
णतं, आउत्तो-अप्रमत्तः, तडिसकमरं वा आउत्तो करति ,
तड़ी नाम-छिणणटंका, उवहिसंधारग वा उप्पादेंतो सब्व-
स्थ आउऊउत्तो जति वि कुलिंगं बावदेति तह वि अवधको सो
भणिआओ । चोदगाह-कि बुत्त कुलिगी ? काणि वा लिगाणि ?
को वा लिगी?।
परणवग आहर--
कुत्थितर्लिंगकुलिंगी, जस्स व पंचेंदिया असंपुष्पा ।
लिंगिंदियाई अंतो, सलिगता घिप्पते तहि ॥ ६६ ॥
कुसद्दो अणिट्रुबायी, कुन्सितेद्रियव्य्थः। ससे कंठे। जस्स
त्ति -जरस पाणिणोा, पचदिय। असंपुणण नि ` आथ प.च-
(-३४२ )
अ्रभिधानराजन्द्रः ।
सूलगणपाडि०
दिया, कि तहिं--असेएुरणा, जहा असाणिणा परिफुडत्थप-
|
॥
रिच्छेइणा ख भवति त्ति मिय भवति । एरिस अत्थ एच |
चयण ण भवति, इम तु पंच ण पुजात तत्त भिय भवति, |
द्वीद्भियादारञ्य याचन् चडर्द्ियत्यथः। सा कुलिगी । लिग- |
भिति जीवस्य ल्त, यथा-अप्रत्यक्षो ऽप्यश्निधूमेन लिङ्ग्यते
क्षायतत्यथः, एवं लिगाशिदियाण अता आत्मा लिङ्गभस्या-
~ (~ श ~ १ ^> 9 ७.0 है = क ॐ |
स्तीति लिंगी । आत्मा लिगी कह घप्पते ? । तदि इन्द्रिये- |
रित्यथः । चदगाह-कह पुल सो अप्पमत्तो विराहेति ।
पण्णवगाह-' असिमि विसमे वा ' पयस्स अक्खाणं-
असिकंटकविसमा दिसु. गच्छती सिक्खिओ वि जत्तेण |
चुकइ एमेव मुर्णी,
अलशी-खग्गं, जहा तस्स धाराए
गचछुंतस्स आउत्त रस वि कंटओ लग्गति, विसम-शिरणो
णु्ते, आदिसद्ायाओं णरदीतरणाइसु जत्तणं-प्रयत्नेन,चुकति |
छलिज्ञाति, एस दिद्रुंतो, इण मन्था वरणओ, पवमवधारण
मुणी-साह, इरियासमिती गता । इदाणीं भासासामिती-को-
ति दाह सहसा सावज्ञं भास मालज, णय सक्को प्लि-
गेलं वायो एवं भासासमितीए सहसककारो सो ब्भत्थवि-
सोहीए खुद्धा चव। एत्थ भासासमितीसहसकारों भमण्णाति। |
अस्संजयमतरंते, वइइ तं पुच्छ होज़ भासाए ।
उडाते अजया से, मा अशुमति करस तम्हा ॥१०१॥
असंजतो-गिद्दत्थो, अतरंतो-गिलाणा, तं साह पुच्चरज
सहसकारण वदाति त्ति लद्धति तच कि असंजमो
असेजमजीवियं बा एत्थ साहुणो सुहमवायजार्गाहि अ-
खुमती लब्भानि, एवं दाज--भासाप क्षि--भासासमितीए,
ख सहसकारोी यद्टाति । असंजमों से गयत्थे मा अखुमती
भविस्सति तम्हा एवं चत्तव्वं-कररिसे इट वय॒ण अत्थावत्ति-
पञ्चायण विद्मो वि ऋणुप्रतीदोसण लब्भति । गता भासा-
समिती ।
इदाणी तिगिण समितीओ जुगवं भरणेति--
दिद्रमणमियगहण, गहण णिखवे तहा णिसग्गे वा ।
पुन्य जाग, तिरक सहसा ण शिग्धतुं ॥१०२॥
=
दिदमखणालियगहणणण ति-ण्सा फए्सणएासमिती । गह गाखिक्खव
छलि ज्ञती अप्पमता वि ॥ १०० ॥ |
गच्छता सुसिक्खियों |
वि आउत्ता वि लाछुज्ञति, कंटगागिएणों वा जा पडा तण |
ज्षि--आदाणशणिफ्खवणासमिती । तद्दा णिसग्गे क्ति--एसा
परिद्वरावशियासमिती । पच्छुद्धण तिशद्ठ चि सरूवकंट।पस
खालमितीए उवउत्तो ण दिट्दुमणर्लाण ज्ञ,पच्छा दिं. य सक्ति
श्रा गदणजागा णियत्तउं, एवं सहसकारो एसणार्सामतीए
भेवति । एवं गहणणिक्खवसु वि, पुव्वाइट्टा ण साक्कतो जागा
णिग्घक्ते तद्दा णिस्सग्ग वि भणिओ सहसकारो | एवं अणा-
भोगेण वा सदलकारंण वा पा डिसाविए वि वधा र भवति |
जना भराणइ--
पंचसमितस्स मुशिण। ,आसज विराधणा जदि हवेजा । |
रीयंतस्स गुणवता, सुब्वत्तमबंधओं सो उ॥ १०३॥.
पचि सामनी सामयस्स, जयेतस्सत्यथः । मुण्णिणा-सा-
घाः, आसज्ञाति परिसमवन्थ पष्पपाणिविराहणा भवति ।
रीयेतस्स-काथ जंग परवत्तसस, गुणवत, -गुणात्मन., खुब्वत्ते
वितियाय । एगट्ा भरिणहि ति ! सा य पम
> सलगुणपाह ०
परिस्फुटं, 'अवंधओ सो उ ` तुसदो अवधारण । गया
मायपडिसचणा ।
इयारिंए अवससाओं तिणिण । एतालि कतरा पुव्व भासि-
यव्वा ?, उच्यते-अल्पतरत्वात्ततीया वक्तव्या । पच्छा पढमा,
ॐ ` =
क क क
पचविदटा ।
दारगाह--
कसायविकहवियंड, इदियणिदृष्पमाय पंचविहे |
कलुसस्स य शिक्खवो,चउच्विधो कोहादि एकारे।१०४।
कसायपमादोा, विगदापमादा. विगडपमादोा, इदियपमादो,
िदापमादो । कलुखस्स य त्ति ` ' कसायपडिसे
चसद्दाउ कसाया चडव्विहा--कोहो, माणा, माया, लोभो
पतसि एक्केकस्स णिक्खवो चडव्विदा दव्वादी कायव्वो
सो य जहा आवस्खते तहा दट्रव्वा,तत्थ कोह तवे भणामि।
कोहादि एक्कारे क्षि--को हुप्पत्ती जा त॑ आदि काउं पक्त
मञ्चा भर्वति ।
~ ~+ ~= ~ ~ => ॐ = =.
ते य पकारस भेया-- |
अप्पत्तिए् असंखडि, रिच्छुभणे उवधिमेव पति ।
उद्दावण कालुस्मे, असंपती वेव संपत्ती ॥ १०५ ॥
अप्पत्तियं--पच्चामरिसकरणं, असंखडं वावि गो कलहो
तखुवायं करेति जेण सगच्छातो शिच्छुभति , उवकरणे
वा वोहि घत्त त्ति हारावेति वा । पंतावण-लगुडादिमिः,उदद- _
वणं-मारणं, कालुस्से-कासओप्पत्ती घरप्पति । अप्पत्तियाति
जाव पंताचणा असंपत्ति सपत्तीदि गुरिया दस । आदिक- ॥
साउप्पत्ताए सहिता एने पएकारस। ‡
ह
दमे पच्छित्तं- ४
लहुओं य दोसु दोसु अ, गुरुगो लह्ृगा य दोसु ठाणेसु। _
प
दो चउ गुरु दो छन्नहु, अणवेद्रकारस पदा तु ॥ १०६।
गाहा--
अहवा. लहुगो गुरुगो, गुरुगा गुरुगा य दोसु चउगुरुगा |
दो छल्नहु अणवर्ढी,चरिमं तह एकारस पयाणि ॥१०७॥
लहआ य दास गुरुआ,लहगा गरुगा य दांसु ठाणसु |
दा चउ गुरु दो छल्नहु,छग्गुरुअ छेद मूल दुगं ॥१०८॥
आदिकसाउप्पत्तीए-लहुआ, असंप्पत्तीए-लहुगो,संप्पत्तीए
मासगुरं, असंप्पत्तीए अरसेखड-मासगुरे, संप्पत्तीए-व्ह,णि-
च्छुमण अमस्पप्पत्तीए-व्ह, संप्पत्तीए-वह, उचकर णस्स हारव-
ण असप्पत्ताप-व्ट, सेप्पत्तीए-व्ड , पंतावणस्स असेप्पत्तीए-
ब्द, सेपत्तीए-अणवद्गप्पो । एवे उद्दगणवज्जा पकारस पदा ।
अहया--एकारस पदा आदिकसाउप्पत्तीकारणं वज्जेऊण
उद्दावशसहिया एकारस इमा जयणा अप्पत्तीए-असंप्पत्तीए
मासलहं, संपत्ताए-मासगुरूं, असंखडे असंपत्तीए-मासगुरुं, |
सप्पत्ताप-व्ट, णिच्छुमण असंप्पत्तीए--5ह, सपत्तीए--व्द,
उवकरणदहारवणस्स असंपरत्ताए-वह, सक्तीप-व्द.पतावणस्स
असंपत्तीए-ब्ह, संपत्तीए-अणवद्गप्पो, उद्दवणे-पारंची | अद |
वणणाॉ--आदेसो भरणणते--' लहुओ य दोखु० ' गाहा-एए
पराणरस पायच्छित्ता पतसि ठाणणिओ्रोयणा भराणाते । चो-
|
१--व्द ईति पूर्ववदित्यर्थ संकेतित्मिब अतिभाति |
क् ( ३७३
सरूलरुणपडिण० अभिधानराजन्द्रः । सूलगुणपडि०_
दृगाह--अत्थतो ताव ठाणशिओयणं इदं ताव णाउमि- | तिव्वों अणुवद्धो शहीतेत्यर्थः, तिव्वेण वा रोसेण अखु-
च्छामि कहमप्पत्तियमुप्पएणं ।
पराणवगाह-
सहसा व पमादेणं, अप्पडिवेदे कसाइए लहुओ ।
अहमवि य ण पंदिस्सं, असंप० संपत्ति लहुगुरुओ ।१०६।
पगेण साहुणा साह अभिमुद्दो दिद्धो, सोय तेण वंदिओ,
तेण य श्ररणकिरियावावारोवयुत्तण, श्रणणतरपमायसहितेण
चा, अप्पडिवंदे ति, तस्स साहुस्स वदमाणस्स पडिवंदरां ज
ते पडकदरो-न पडिवंदर्ण अपडिवंदणं अप्पणणं व ण
वंदिओ एवं तमप्पतक्तियमुप्पणणं, इयाणि णियोजणा तर्सेवं |
कसातियमेत्तस्स चव लदुओ, तदुत्तरं कसातितो एवे चिते- |
ति-जया पसो वंदिस्सति-तदा अहमपि चयं, न पडिवंदिस्स
स्स असंपत्तीए-मासलहुं, सपत्ताप-मासगुरं, श्रक्खरत्थो
कठा ।
एमेव5संखडे वा, असंप० गुरुओ लहुग संपत्ते ।
निच्छुभणमसंपत्ते, लहुय चिय णीणिते गुरुगा ॥११२॥
असंखडे-असंपत्ती ए-मासशुरूं, संपत्तीए-व्ह,णिच्छुभरणे अ-
संपत्तीए-वह, संपत्तीए-णीणितो णाम-शिच्छूडो धाडतत्य-
थैः-उ्ट ॥
उवधीहरणे गुरुगा, असंप० संपत्तिओ य छल्नहुया ।
पंतावणसंकप्पे, छल्लहुया अचलमाणस्स ॥ १११ ॥
उवहि हराभि वा, हारे ( हरावे ) मि वा असंपत्तीए--वह,
संपत्तीए-व्ह, पंतावणसंकप्पो शाम-जट्टिमुट्टिकोप्परप्पहारें- |
हि हणामि त्ति चितयति, अवलमाणस्स त्ति--तदवत्थ-
स्सव कार्याकार्यमयुजेतस्स-व्ह ।
गाहा-
पहरण मग्गण छग्गुरु, छेदो दिईमि अट्टम गहिते ।
ओग्गिणदिएणअममए, वरम उद्दावणे चरिप्र॥११२॥
इतो प्रहरणं लउडादि मग्गिउमारद्धों तत्थ से-व्ह, तेण य |
मग्गंतण दिदं चक्खुणिवाये कयमेत्ते चेव छेदो, गंतूण
हत्थेण गदिय पच्छा से श्रम, मासलहश्चातो गणिञ्जत--
सूले अट्ड्म भवति । जस्स रुसिश्रो तस्स उद्रिणं पहरणं णव
में भवति , दिएणपहारे जति ण मतो तदा वि णवमं चेव
“अरणवट्प्पे ति' भिय होति, पदारे दिन्न मतो सिया चरि
में , चरिमे साम-पारची, चरिमादस्थितत्वात् , , पढमचिति-
|
यततियश्चादेसाणे “सामरणलक्खणा' गादा ।
विसेसओ पढमा एसस्सिमा गाहा--
अप्पत्तियादि एवं, अर्सपसंपत्ति सगुणं दस उ |
कोधुप्पादणमेव तु, पदमं एकारस पदाणि !। ११३॥
अप्पाक्तियपद आदि काउं जाव पंतावण ताव पंच पदा । ए- |
क. "+ ~ 9 ~ क्तपदेहि [> भर्वात ०, (~ ~ (~ |
ते श्रसेपत्तिसर्पा गुणिता दस भवति । एय तिरदे वि |
आदेसारं सामण्णे। इमे पढमादेखे वदसेसयं । कोद उप्पायशु-
भ्रव उ पढम । एतण साहता एक्कारस पदा भवात । संख करट ।
पव कोवि अहिकरणं काड-
तिव्वाणुबद्धरासे, अवम॑तो धरेतु ङसलपडिसिद्धं ।
तिरं एगतराए, वच्चते अंतरा दोसा ॥ ११४ ॥
बद्धो श्रप्पा जस्स सो तिव्वाणुवद्धरोसो श्चवमेतो श्रसक-
तो धरेतुमिति, खमिश्रो, भावकुःशलतिन्थकरा पाडसिद्धो
णिवारितो कोह इति वयणं दट्वव्बं, एवं सो तेण तिव्वेख्
रोसणाणुवद्धो जण सरसहश्मटिकरणसमुप्परणे तं पासितु
मसक्तंतो गणातो वच्चितुमारद्धो । ' तिरे एगतराए तक्ति'-व-
क्खमाणे तरा इति मूलगुणातो शिग्गयस्स शरणं गे
अपावेतस्स श्रतरे भवति दोस इति विराहणा ।
तिर्हमेगतराए" चि पदस्स वक्खारं ` सयमश्रातवि--
राहण › गाहा--
संजम आतविराधण, उभयं तत्तियं व गेधपच्छित्तं ।
णाणादितिगं वावि, अणवत्थाईतिग बावि ॥ ११५ ॥
सजमो सत्तरसविहो, तस्स वा जाव सत्तरसभयस्स वा
विरादणे करेइ, आत इति--अप्पा तव्विराहणं वा, वालु-
क्खारणुकंटादीहिं वा, उभयं णाम--संजमो, आयविराहणा,
विराहणासद्दो पत्तेय । अहवा तिगं संजमविराहणा तत्तिगं
से पच्छित्ते भवाति । अहवा-तिग णाणविराहणा सुत्तत्थे
अगरण्हंतस्स विस्सरिय वा अपुच्छेतस्स , दंसणविराहणा
अपरिणतो चरगादीहिं वुग्गादिज्ति, चारित्तविराहणा ण-
गागी इत्थिगम्मो भवाति | अहवा-तिगे अणवत्थादितिगं वा
वि, एवं सो गणाओ शिग्गओ, अरणो वि साह चितेति-अहं
पि णिग्गच्छामि । अणवत्थीभूतो गच्छृधम्मो, नजहावबाद-
णो तहाकारिणो, मिच्छुत्त जणति । अहिणवधम्माएं वि-
राहरणा । आयसंजमे आयविराहणा । खाणुकंटगादीसु से
जमविराहणा इमा ।
अथवा वायो तिविहो, एिदियमादि ०जाव पचिदी ।
पंचणह चरउत्थाई, अहवा एकादिकन्नाणं ॥ ११६ ॥
हव ्ति-विकण्पदरिसणे अ, वातो--दोसो, तिविहो क्ति-
पार्मिदिया वादो, विगलिदिया वातो, पेचेदिया वाता । अ-
हवा-वातो तिविदो ्ति-पच्छित्ता वातो, सो य एर्गिदिया-
दि ० जाव पंचेंदिएस वा वातिएसु भवति, सो इमा पं-
चरह त्ति एगेंदिया ०जाच पंचेदिया । चउत्थादि त्ति' चउत्थ
आदि काउं ०जाव वारसमं। एगेदिए चउत्थं, वेइंदिण चटु,
तेइंद्ए अद्म, चउरिदिप दसम, पंचेदिए बारसमे, एको आ-
पसो | अहवा एशिदिप एगकल्लाणयं ०जाव पंचेदिये पंच क-
ल्ञाणयै । । वितिओ आदेसो--एतखु ज एगिदिएसु पछिछत्ता
वाओ सो जहणणो, विगलिंदिएसु मज्मिमो, पंचेदिएस
क्ोोसो, एस तिविहो पच्छित्ता वाओ । एए दो आदेसा दाण-
पच्छिछुत भणित । । अहवा--एए दो वि इमो ततिओ ! आ-
वात्तिपचिछ त्तण भणति ।
छकाय चउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गरुगसाहारे |
संघट्टशपरितावण, लहु गुरु अतिवायणे मूल ॥११७॥
छुक्काय क्षि--पुढवादी "जाव तसकाइया । चउखु त्ति-
एणासि दरद जीवाणिकायाएं चउसु पुढवादिवाउक्काइये-
तेखु संघट्टण लहुगो, परितावरण गुरूगो, उदव चउलहुगा,
परित्त वणशस्सइफाइए चवि, एवं चव । साहारणवणस्सात
काइए संघट्टण मासगुरु, परितावण-उह, उद्दवण-उह, सखेघ-
इंणपरितावण ति बयणा, छुक्तत्थे लदुगुरूुगाई ति--चडलइुं
|}
( ३४४ )
छ भिधानराजेन्द्रः।
मूलगुण पडि
डगर च गदितं । सेसा पच्छित्ता अत्थतो दटुव्या ,। पघे- |
चिंदियसंघ्रद्वण छुग्गुरुगा, परितावेत्ति छुओ, उदेव त्ति मल,
दोखु अणवट्टी, तिसु पारंची । एस अक्खरत्थो । इमा, वि-
त्थरओ अत्थो-पुढवि-आउ-तेड-वाउ-परित्तवणस्सातिकाए
य एतखु सेघट्टण मासलहं, परितावण मासशुरुं,उद्॒बणे-व्ह।
अरंतवणस्सतिकाये संघट्रे। मासगुरं, परितावण-व्ह । उद्द-
ववरण-व्ह । एवे बेइंदिएसु चडलहु, श्रादत्त छुनल्नहुएण ठाति ।
तेईंदिणसु चडगुरु, आदत्त छग्गुर ठाति, चउरिदियाण छु-
ज्ञु यदत्त ण ठाति, पंचेदिया छुग्गुरुगा, आदत मले ठा-
ति । एस पटमा ऽ ऽसचणा । अतो पर अभिक्लासेवणा-ञ्- |
भिक्खासवणाण टेद्धाा मुच्चति, उवरि एक वदिति पु-
ढवाति ०जाव परित्तवणस्सकादइयाण । वितियबाराए मः-
सगुरुगाति चउगुरुग ठाति, एवे जाव अट्टमवाराए चरम
( पारची ) पावति | णवमवाराए परितावणे
रिम, दसमवाराए संघ्रद्टणो चच चरिमं । एवे सेसाण वि
सट्ठाणातो चरिमं पावयव्वं, एस कोहो भणिच्रो । । सेसक-
चव च- |
५
साएसु वि यथासंभव भाणियव्व । कसाए त्ति दारं गयं । |
नि० चू० ९ उ । ( अत्र खीकथाद्वारम् इत्थिकहा ` शब्दे
द्वितीयभागे ५८५ पृष्ट गतम् ) ( अत्र भक्ककथाद्वारम् ` भ-
हा ` शब्दे पश्चमभाग १३७२ पृष्ठ गतम् ) ( देशकथाद्वार
म् ` दसकटा ` शब्द चतुंधमागे २६२८ पृष्टे गतम् ) ( अत्र
राजक्रथाद्वारम् * रायकहा ` शब्दे वक्ष्यामि )
ददाशि वियडे न्ति दार--
वियर्ड गिणहइ वियरति, परियाभाए तहेव परि |
लहुगा चतु जमलपदा,मददोसअगुत्ति गेही य ॥१३१॥
वियडे-मज़्ं, ते सड्घराओं आवणाओ वा गेण्हइ, केवल
एवं वितियपदं । वितरइ त्षि-केणइ साहुणा आयारियाती
कोइ पुच्छितो-अहमासवं गेरहामि, सो भणइ-एव्ं करेहि, ।
एवे वितरणं, एतं पटमपयं । वितियफ्य बंधाणुलोमा गेरहरे
पदपदाते पच्छा कव परियाझ्षाए त्ति- देति परिवेसयती-
व्यथः, णते ततियं पयं । परिभुजति-अभ्यवदहरतीत्यर्थः चउ-
त्थ पद् । कमसो वुद्तराणि, पाञ्छुत्ते भरणति--लहुगा इति
न्य उलदुगः, तें चगो भवंति । कदं वितरमाणस्स चडउलहु
गरुटमाणस्सं वि चउलइं, परियाभाषमाणस्स वि चडलहं
परिभजमाणस्स वि चउलहु । जमलपदं शाम तवकालो तेहि
विसेसाहिया कज्ति-पटमपदर दोहि वि लहु, वितियपदे
कालग्ुरं तातयपदे तवगुरू, चउत्थे दाहे पि गुरु । दोसद्-
रिसणत्थ भरणद-'"मददोसख अगुक्तिगेही य "-मददोसो नाम ।
“मरद्ये नाम प्रचुरकलह निगुण नष्टधम्मं ,
निर्मयौद् विनयरद्दिते नित्यदेष तथैव ।
निःसाराणां हृदयदहने निर्मित केन पुसा,
शौर पी वा ज्वालितकुलिशो याति शक्ताऽपि नाशम् ।१।
बेरूप्ये व्याधिपिण्डः
विद्यो ज्ञाननाशः स्मृतिमातिहरणं विप्रयोगश्च सद्धिः ।
पारुष्यं नीचसवा कुलवलनलनाधमेकामाथदानि
कष आ पाडशत निरुपचयकरा-सद्यपानस्य दोषाः ॥२॥
अगुक्ती लाम अणगाणि चिप्पलवति वाया, काएण र्ति,
रसा वहाचिताणुला भवति, गेही-नाम अअत्यथमास-
क्रिः मदयन चिना स्थातु न शक्रोति "विडय त्ति' दारे गये ।
स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, |
सहो भर्णति पच्छा अणुणणा भणिति ।
सूलगुणपडि०
ददाणि इंदिए त्ति दारं-- |
रागेतरगुरु लहुगा, सदे स्पे रसे य फृसि य ।
गुरुगो लहुगो गंधे, ज वा आवज्ञती जत्तो ॥ १३२ ॥
मायालोभेहितो रागा भवति, कोहो मारेदिते दोसो भ-
वति, सद रूवे रसे फार य एतेखु चडखु इदियत्थेसु
करंतस्सख चउगुरुगा पत्ते । श्रह तेखु दोस करेति तो चउल
हुये पत्तेयं,गंघे रागे करेति पासगुद, दोसे करेति मासलहुं ।
अह सक्चित्तपद॒द्टिते गध जिग्धाति मासगुरं, श्रचित्तपद्द्धिति
अःसखरुरु,लह ज़ वा-श्रावज्जति ¡त्ति जिग्धमाणो ज संघट्टरप-
रिताचणे करेति तरणिणिप्फएणं दिज्जति । अ्रहवा-ज व चि-
श्मनिर्दिश्रस्वरूपे आवदजाति-पावति । कि च-त सघदटसखादीये `
जत्तों क्ति एगिद्याणं०जाव पंचेदिया पत्थ पच्छित्त दायतव्वं ।
“ज़ुक्काय चउसु लहुगा०'गाहा। इंदिए तति दारं गये । इदाणि
शिद्द त्ति दारं, सा पंचविहा-णिदा, निद्दानिद्या, पयला,पय-
लापयला, थीणद्धी, । नि० चू० १ उ० ¦ ( अत्र निद्राद्धारम्
"खिदा शब्दे चतुर्थभागे २०७२ पृष्टे गतम् ) ( निद्रान्तमैत-
स्त्यानद्धदादर्णम् ` थीणद्धि ` शब्दे चतुथमाग २४१२ पृष्ठ
उक्तम् । तत्रेवोक्ता स््याख्या गाथा इहापि किश्विद् व्या .
ख्यायत ) केखवो वास॒देयों ज तस्स बलं तव्वलाउ अद्ध-
यबले थीणद्धिरे भवति | तं च्र पढमसंघणिणो य इदाणीं, `
पण-सामर्णवला दुगुणे त्तियुणं चउगुणे वा भ-- .
वति। सर अ परदे बलजुत्तो मा गच्छं रासेओ विणास-
ज्ज, तम्हा सो लिगपारंची कायव्वो। सोय साणुणय
भरणति--मुय लिगं णत्थि श्रोदचरणं , जति एवं गुरुणा
भरिते मुक्तंतो सोदे, श्रह ए सुयति तो समुदितो संघो
भवति, दरति ण एगो,मा एगस्स पओसं गमिस्सति । पदुट्टो
य वावादयिस्सति ।
लिंगावहारणियमणत्थं भर्णति--
अवि केवलयुप्पाड, ण य लिगं देति अणति से सीसे ।
देसवत दंसणं वा, गिएह अशणित्थे पलातंति ॥१४२॥
अवि सभावे, कि सभावयति-इम जति वि तेरेव भव-
ग्गहणेण केवलमुप्पाड़ति तह चि सरे लिगं ए दिक्जति।
तस्स वा, अरणस्स था । एस णियमो अणसइणो, जो पुश
अवहिणाणादी सति सो जाति , ण पुण पयस्स थीण- `
द्विखिदोदयो भवति ! देति स लिगे इतरा ण देति । लि-
गावहारे पुण कज्जमाण ्यमुबदेसो-देसखवड त्ति सावगो
होदि । धृलगपाणातिवायादइणियत्तो पंच अरुब्वयधारी,
ताणि वाण तरसि दंसणे गएह, दंसणसावगो भवाहि सि
भियं भवति । अह पव पिश्चणुशिञ्जमाणो च्छति लिगि
मोत्तु ता हरो उ मोक्त् पलायति; देखांतरं गच्छुतीत्यर्थः ।
पमायपडिसवंणे चि दरं गयं ।
इष््ाणीं पुव्वाुपु्विकमेण कप्पिया पडिसघणा पत्ता, सा `
पुण पत्ता वि णे भवनि, कम्हा ? , उच्यते सा सिस्सस्सेव-
मवहद्बगाहिति,पुव्वमणुएणा पच्छा पडिसहो-अआतो पुव्वं पढ़ि-
दष्पादी परिसेवण, पच्छा उ होति आखुपुब्बीण ।
सद्मणे सट्टाणे, दुविधा दुविधा य तिषि दुगा ॥१३॥
कर «कण >> 7 जा 2
३७४ )
_सूलगुणपाडि०
द्पिया पडिसवणा भरणति-आदिसद्दातों कप्पिया वि।
आरा पुब्चीगहणाता पुव्वि दप्पियं भणामि, पच्छा कप्पिये
अ्सभिधानराजन्द्रः |
|
|
कस पुण ठाणखु-दष्पिया, कप्पिया वा, सभवति । भरणति- |
जतं हट्टा भणियं मृलगुणउत्तरगुणखु मूलगुण-पाणाति- |
चाताइसु, उत्तरगुण-पिडविसाहादिखु, तत्थ मूलरुणख पढ- |
मे पाणातिवात णवखु ठाणेखु पुढवातिखु सदा सहारे |
वीप्सा “ दुविहा दुविहा य तिरिण दुगा । ”
पपसि तिणह वि दुगाणे इमा वक्खाणगाहा-
दुविधा दप्पे कप्पे, दप्पे मूलुक्तरे पुणो दुविधा ।
कप्पाम् [वे दु धरिकप्पा,जतणा जतणा य पाडसेवा।१४४।
पटमदुग--द्प्पिया, कप्पिया य । वितियदुग-एक्केका मु-
लुत्तरे पुणा दुविहा । ततियदुगे-जा सा कप्पिया, म् लुत्तर
सा पुणो दुविहा जयणा जयणाखु, जयणाजयणा णाम- |
तिपरि यट काऊण अप्प दुष्परण पच्छा पणगादि पडिसेवणा-
ए पड़सिवति, एसा जयणा । अहवा-पुढवाइसु सद्णि स-
इ दुविहा-दष्पे , क्प्पे य दुतियदुगे वीप्साप्रदशेना-
थम् । ततियदुगे मुलुत्तरे पुणो दुविहा पडिसेवणा । अहवा-
आखुपुव्विग्गहणा पुटढवाईकाया गदिता, तसु य दुविहा प-
डिसवस्पं-मूलगुण वा, उत्तरगुणे वा । पढमसट्दाणग्गहणू-
ण मूलगुणा गदिता, दुतियसद्ाणगदणण उन्तरगुणा ।
मूलग्युण दुविहा--दप्पिया,कण्पिया य । उत्तरमुण वि-दप्पि-
या , कण्पिया य | मूलगुण जा कप्पिया उत्तरगुण य जा क-
प्प्रिख, एताओ दो वि दुविहा-जयणाए य, अजयणाए य ।
पवय ततियदुगे , ज सद्धाणा पुढवादी अत्थतो अ
भिहिता त दष्पञ्चा पडिसरवमाणस्स उब्वरियं पायच्छुत्त
बिज्जई ।
पुढवी अाउक्ाए, तेः वाड वणस्सती चव ।
विय तिय चउरो पंचि-दिएसु सट्टाणपच्छित्त ।॥१४५॥
एतेसु सट्ठाणसु पायच्छत्त इमे ““ छुक्काए चडसु लहुगा० ”
गाहा । एसा गाहा जहा पुव्वं वज्निया तदा दटव्वा । पुढवा-
इसु संखवच्रो पायच्दित्तमभिदियं ॥
इयाणि पुढवाईस पङ्क्ते विसेसं पायच्छत्तं भरणति । तत्थ
पदमे पुदावकाश्रो सो इमेखु दारेखु अखुगंतव्वो ।
सक्खाई हत्थपथ, ।णाक्खत्त साचत्तमासपुढवाए ।
गमणाइपप्पडंगुल, पमाणगहणे य करणे य ॥ १४६ ॥ |
दस दारा । एतसि दाराणं सखवश्मो पायच्छित्तदाणं इमं-
पंचादिहत्थपंथे, णिक्खत्त ल्ुयमासियं मीसे ।
कटू। ल कटरोल्लकरणे,लहगा पप्पडणए चव तसपाणा। १४७! |
पचादात-ससरक्खाद् सारट्टावसाणा वारस पुढावक्काइय
हत्था । एतसु जो आदससरकखहत्था ताम पणग, ससपुढ- |
विक्कायहत्थेसु पथे य य मासलह, सचित्ते पढविकाएण अणन्तर
णिक्खित्ते लहुगा । जत्थ जत्थ मीसो पुढविकाओ तत्थ
तत्थ मासलड्, मासपुदावकक्रायदारसण इम कटद्ठाल्लकट्टुणु- |
मेहलादिणा बाहियं, उल्ल णाम-आउक्राणण सो मासा भव- |
ति,श्राउल्लगमादिकरण-चडउलहगा,पप्पडण व चउलहुगा, व-
सद्दाओ गमणे अगु #प्पमाणगहणे य-चडलहुगा, पप्पडए
रात॑।वन रेखु तसा पविसति विराहिज्जाति, तक्कायणिण्फरणं
८9
_सूलगुणपडि०
तत्थ पायच्छित्त । इयाणीं ससरक्खादि दस दारा प्तय प-
न्यं सपायच्छित्ता विवरिज्ञाति तत्थ पदम दारं--सस-
रक्खादिहत्थ त्ति, ससरक्खरौ आदियस्य गणस्य सोऽयं स-
सरक्खादी गणा, कः पुनरसो गणः ?, उच्यते-पुरेकम्मे,
उद्उल्ञे, ससिणिद्धे ससरक्खे, मट्टिआऊसे, हरियाल, हिं
गुलए, मणासिला, अजणे, लोणे, गरुय, वणिणय,सेढिय,सो
रद्धिय, पिदर, कुकुस, उक्कट्टे, चव, पते अ्रद्टारस कायणिष्फराणा
पिंडसणाए भिया । हत्थो तत्थ ज पुढविकायहत्था तेहि
इह प्रायणं, ण जे श्राउवणस्सतीकायदत्था, अतो पु-
दवीकायहत्था ण ससकायहत्था, ण य विभागष्पदरिसणत्थ
भरणति ।
ससणिद्ध दुहाकम्मे, रोद्धो, कुट्टे य कुंडए एते |
मोत्तृणं सजागे, ससा सच्चे तु पच्छिव्वा ॥ १४८ ॥
दत्थुदयविदू ण सविज्भति तं ससिशिद्धं । दुद्ाकम्मे ति
पुरेकम्म; पच्छाकम्मे च । उद्उज्ञे, एत्थेब द्रव्ये । पते श्चा
उक्तायहत्था । रोद्धा नाम-लोद्धो,रलयोरेकत्वाज्ञोद्धो भवति ।
भरणति--उक्छट्र णाम-सचित्तवणस्सतिपत्त कुरुफलाणि
वा उक्केल बुभोति, तेहि हत्थो लित्ता एस उक्कुट्हत्थो
भरणाति, कुडगे णाम-सरहतंदुलकणियाच्रो, कुक्कुसा य कुः
डगा भरेति, पते वणस्सतिकायहत्था | ' पत मोत्तरौ सजोगे
पते आउवणस्सतिहत्थे मोत्तण, संजोगो णाम-जेहि सह ह-
त्थो जुञ्जति स सजोगो भण्णति। श्रता, पत--हत्थस-
जोगे मान, ससा सञ्च उ पच्छिव्वा-पुढविकायहत्थ
त्ति भियं भवति, त इमे ससरक्खादिदत्था आदिगदणातो
मदियादि० जाव सोारटद्टिय त्ति एक्कारस हत्था ।
एताहिं इहाधिकारो अता भरणति--
करमत्ते संजोगो, सरक्खपणगं तु मासिलोणादि ।
अत्थंडिलसंकमणे, कणहा य पमज्जणे लहुगा ॥१४६॥
करो त्ति-हत्थो, मत्ता य-भायरा, संजोगो णाम-चउक्कभंगो
कायव्यो, सो य इमो-ससरक्खे हत्थे, ससरकखे मत्ते
णो हत्थे, णो मत्ते । आविभंगे संजागे पायचिछत्त दो पणगा,
वितियततियखु एकक पणगे, चउत्थो भगो खद्धो । मासलो-
णादि त्ति--सीसो पुच्छति--कहं सरक्खहत्थारंतरं म-
ट्वियाहत्थ मोत्तुण लोणादिग्गहणे कज्जति ?, आयरिय आह-
पयं सलहत्थाण मज्भग्गहरं कये, अहवा--बंधारु लोमा कय
इतरहा मा्ियाइहत्था भाणियव्वा, तेसु य एक्केक्कं करमस्तेहि
चउश्नंगो कायव्वो । पढमभंगे-दो मासलहुं,वितियततिएसु-ए
केके मासलहु, चारिमो खद्धो । सरक्खादिहत्थे त्ति दार गये ।
इदाणि पथे त्ति-दारं-पंथे वच्चेतो थेंडिलाओ अथडिलं सकम-
ति-अजित्तभूमी तो सचित्तभूमीं सकमति त्ति भणियं भवति।
करहभूमीश्रा वा णीलभूमों सकमति । एत्थ अविहि-विहिए,
दरिखणत्थ भगा । ते इम अपमज्जण चि । ण पडिलेदेति ण प-
मज्जति १, ण॒ पडिलेहेइ पमज्जइ २, पडिलेहेति, ए पमज्छति
३, चउत्थभंगे-दो वि करेति, एवर दुप्पडिलेहियं, दुष्पमल्ियं,
४, दुप्पडिलॉहिये खुप्पमल्िय ५, सुप्पडिलेहिय दुप्पमच्ियं
६, सुप्पांडलेहिये सुप्पमज्जिय ७, आदिल्लेसु तिसु भगस मास-
लह, पढमे-तबगुरुं, काललइं, [बितिण-तवलइहंं, कालगुरुओ,
( ३४६ )
आम्रधानराजन्द्र
मूलग्णपडि०
स्लगुणपाडि°
ततिए-दोहि लदुओ, चउत्थपंचमछडट्ठस पंच राईदिया, एव
चव तवकालविससिता, चरिमा सुद्धो । पंथे त्ति दारं गते।
इयाशि शिकिखत्त त्ति दारं-णिक्खित्त दु।वह-सचित्तपुविणि
क्िखित्त, मीसपुढविशिक्खित्त च । जतं सचित्तपुढावाण-
क्खित्त तं दुविहे-च्रणतरणिकिखत्तं , परंपराणिक्खित्त च ।
मीस वि दुविहं-अणंतरे , परंपर य ।
एतसु सचित्तमासश्रणेतरपरपरणिक्खत्तसु पच्छित्ते-
भरणति-
+ ५ ०9 क
सचित्तणतरपरं परलहुगा य हाति लहुगा य ।
मीमाय क, # हर (¢ =:
पारतरलहुञ्रा, पणग तु परपरपातट्र । ॥ १५० ॥
सचित्तपुढविकाण अणतरणिकिखत्ते-च उलहयं, परपरणि- |
क्खित्त-मासलहं, मीस पढविकाण श्रणतरणिक्वत्त-मास-
लह ,परपराणाक्वत्त-पचरातादया ।णाक्खत्त त्त दार गय।
सा पण मासा पवा काड हवा भरणात--
खीरदुमहेट्डपथे, अभिणवकट्ठे न्लइंघण मीसं ।
पोरिसि एग दुग तिगे, थोविधणमज्भबहुए य ॥१५१॥
खीरदुमा-वडउदुबरापप्पला, एतास महरसरूक्खाण हट्ढा
मीसो, पंथे य आहणवहटलवाहया य, पुढवाउल्लावास य |
अहवा-कुःभकारादामाद्रया । |
पडियमित्त मीस भवति ।
४4 (कः (नः # ~ [० | थ [कयं
इधणसदहिया मीसा भवाति, सा य कालतो एव चर थाव-
धणसहिया पगपारिसी मीसा सचित्ता, परता-मज्भिघण-
सिया दो पारिसीश्रा मीसा, परता साचत्ता, बहदइधणस- |
हिता तिरिण पारुसीओ मीसा, परता साचित्ता । एग आयः |
रिया एवं भरति । अरण पुण भणन्ति-जहा एगदुगतिरिणि- |
पोरिसीओ मीसा हाड, परओ अचित्ता होति, पल्य पुण |
इंधणाविससा दाऽव आदला घडावेयव्वा, साहाराणधरणण
पगदतिपारसीख मीसा, परता साचत्ता भवात । असावा |
रणण पुण आचत्ता भवात । मासक्रद्रुउज्ञग त्त दार गत । |
इृदाणी गमणे नि दारं आदििग्रदण णिसीयरं तुयद्टणं य
च्रष्पाति--
गाउयदुगुणा दुगुणं, बत्तीसं जोयणाइ चरमपदं ।
चत्तारि छच्च लहु गुरु, दे मूल तह टुग च॥ १५२॥ |
सचित्तपुढविकायमञ्मण गाउयं गच्छति ,
अद्धजोयण, अद्धजायणदुगुण-जोयरां,
गाउयं दुगुण,-
गुणा-अट्टू जोयणा, ट्र दुगुणा-सोलस जयणा, सोलस जो
यणा-दुगुणा-बत्तीस जायणा, चरिमपद्रगहरणातो पाराचय |
गाउआदि वक्तीसजायणावसाणसु अ- |
खच्च लहु |
गुरू, विसिसिया चउगा पायच्छित्ता भवेति । चउलहुओ, च- |
उगुरुगे, छल्लहुये, छग्गुरुये ति, मणिये भवति । चदा, मृ- |
रयै । दुगुणण
इस ठाणख पायच्छिल भर्णति-- चत्तारि
ले, दुगे, श्रणवद्रुप्पे, पारोचये, पत गाउयादिसु जहासंख
दायव्वा पायच्छित्ता ।
एवं ता सचित्त, मीस पुण तेण अट्टवीसे य ।
हवा अभिक्खगमणे,अट्ट हि. दसहिं च चरमपदं ।१५३।
एवं ता सचित्त पुढविक्काए भणियं, मीसपुढविक्रापए भ- |
रणति--मीसपुदविक्राप पुण गच्छमाणस्स गाउयादि दु-
जायण-दुगुणे-- |
दा जोयणाई, दा जायणा दुगुणा-चड रो जोयणा, चउरो दु- |
गणा दुगुण० जाव अट्टावीसत्तरं सतं चरिमपदं दस ठा- _
रा भवति : एत्थ पच्छित्त पढम मासलदं ०जाव अट्ठावी- `
सुत्तरसतपद पारंचिये भवति । एतास चव श्रभिक्खसेवा
भरणाति-अभिक्खसवा णाम-पुणो पणो गमणे , तत्थ पा-
यच्चित्तं वितियवाराप सचित्तपुढवीए गच्चमाणस्स गा-
उदादि चरगुरुगा आढत्त ° जाव सोलस, जायणपेद पा-
रचियं, ततियवारा चछ लह आत्ते , अद्रुजायणपदे पारं-
चिये , एव जाव अट्टमवाराए गाउयं चव गच्छुमाणस्स पा-
रंचिय , एवं मीसपुडविक्काए वि अभिक्खगमणं, चरे दस-
मवाराए गाउयत पारचियं पावति । गमणति त्ति दारंगतं ।
इदाणि पप्पडप त्ति दारं--
| 2०५०-०५ [> ४०८. 9
पप्पडते य सचित्ते , , लहुयादी अदरर्हिं भवे सपदं ।
मासलदुगादि मीसे, दसहि
` पदि भवे सपदं ॥१५४॥
पप्पडगो णाम--सरियाए उभयतडेसु पाणिएण जा रे-
लिया भूमी सा तपि पाणिश्ण उहड्माण तरिय वद्धा
हाड उरण छित्ता पप्पडी भवति । तण सचित्तण जो ग-
च्छति गाउयं तस्स चउलहुय, दासु गाडएसु चउगसूयं
एव दुगुणादुगुणेण जाव वत्ता जायण पारंचिय, अभि-
क्खसवा य तदेव जहा पुढाविक्काए मीस पप्पडए गाउयदु-
गुणादुगुणेण मासलहुगादि० जाव अट्टावीसुत्तरसत जोयण-
सत पारंचियं । | अभिक्खसेवा जंहव पुढविक्काए । पर्प्पाडए त्ति
दारं गतं ।
दाणि आदिसदो वक्खाशिज्जाति-अति-
ज्लदार व समुद्दो य एत्थ ' गाहा--
ठाण णिसीय तुयइखण, पाउल्लगमादि करणमभदे य ।
होति अभिक््खासेवा,अट्टहि दसहिंव सपदं तु '१५१५॥
सचित्त पुढविक्रात पण्पडण य सचित्ते ठाणं निसीयणं तयद
वा करति; करंतस्स पत्तेयं चडलहुये , वाउल्लगमाति त्ति--
वाउल्लगं णाम-पुरिसपुत्तलगो, ते सचित्तपुढवीपः करेति,
चउलहुय, काऊण वा भजति, तत्थ बि-वह, आदिसद्दातो ग-
यवसभातिरूय करति, भजेति वा, तत्थ वि पत्तय चउल-
हुये पतसि चव रट,शनिसीयणतुयट्णकरणभेदणे य॒ पत्तय
पत्तेय अभिक्खसबाए अट्टमवाराए पारंचियं पावति। मीस
ढविकाणः वि ठाणादीणि करेमाणस्स पत्तयं मासलघु ,
ठाणादिसु पत्तयं अभिक्ख लेबाए दसमवारांप सपदं पावइ।
सपये णाम-पारंचियं , आदिसदतरालदार गतं |
ददाशि अगुले ज्षि' दारं--
चउरंगुलप्पमाणा, चउरो दो चव जावे चतुवीसा ।
तं जुगमादीवुद्धी, पमाणकरणे य अड्डे वा ॥ १५६॥
अगुलरयणा ता भरणति-चडउरंगुलप्पमाणा । चडरो त्ति-
अगुजादारब्भ जाव चउरो अगुला अहो खणति, एस पढमो-
चउक्कगो. चउरंगुला परता पंचेगुलादारब्भ जाव अट्टूंगुला-
एस बितिआओ चउक्कगो,एवं णवम अगुलादारब्भ जावबारस
एस तातितों चउक्रग।, तरसंगुलादारब्ध जाबव सोल सम एस-
चउत्थो चउक्कगा, दो चव जाव चडउवीसा, सोलसश्रगुला पर-
तो वो अगु लबुट्टठी कज्जाति,अद्वा रस.वीसा बावी सा चउव्वीसा
अगुलमादी बुद्गीति अगुलादारब्भ चउरगालिया दुश्रगुलिया
| ।
#
सलगुणपडि°
( ३४७ )
य एसा बही मणिया | आदिसद्वाओ मीस वि एवं,णवरं तः
आदीए छ चउक्कगा कज्जाति, परता चउरो दुगा। एवं वत्ती
सं अगुला भवंति, दस उणा । एसा अगुलरयणा । एतेसिम |
पच्छत्तं भणणति-सच्ित्ते अगुलादारब्भ जाव चउरो अगुला |
खणाति पत्थ चउलहुये, पचमातो जाव अट्ठमं पत्थ चउगु-
ख्यं, णवमाञओ्ओ जाव वारसमे पत्थ छुल्लहुय, तरसमाता जाव
सोलसमे एत्थ छुग्ग॒रूयं, सन्तरस अट्टारसमेसु-छुयो, 'अउ- |
ण॒वीसवीसेसु मले, एक्कवीसवावीसेसु-अणवट्ट॒पण्पो, तेवीस-
चउवीससु पारची । अभिक्खसवबा भरणएति-पमायकर-
रे य अट्टेच, अभिक्खणं करेति, तत्थ पमाणे अट्टुमवाराए
पारचियं । अहवा--पमाणकरणे य द्रु त्ति-पमाणग-
हणेण पमाणदारे गदितं, करणग्गहणण करणदारं गहि-
ये । चसद्दाओ गहणुदारं गहिय॑ । अगुलदारं पुण अदि
अभिधानराजन्द्रः।
गतं चच । एतेसु चडखु वि अभिक्खसवे करंतस्स अट्ट- |
मवाराए पारचियं भवति । इदाणि मीसगपुढविक्कायं खणे- |
तस्स पायच्छित्त भरणति-मीस पुढविक्काए-पढम चउक्त
खरोतस्स मासलहु , वितियचउक--मासगुरु , तति-
यचउकके चउलहु , चउत्थचउके--चउगुरु , पचमे चडके
छल्लद, टे चठके-छग्गुरु, पणछव्वीसंगुलेखु-छेओ, स-
क्तदुवीससु-मूले, अडणतीसतीसखु--अणवट्ढी, शतो परे
पारंचियं | मीसाभिक्खसवाप दसमवाराए,पारंचिय पावति। |
अरण पुण आयारया साच्चत्तपुढवाकायस्य खणणान-
कखासव एव गणयात-आभकक्खणण अगुल एक्कास खणात-
वह, ववातयवाराए-5ह, तातयवाराए-5ह, चउत्थवाराए-ब्ह,
एवं जाव चउवीसति वाराए-पारंचियं पावति । एवं मीस वि
वत्तीसवाराण्-पारंचियं पावति।
खासा पुच्छात--कास उवार-चउरगुालया बुदा क्ता
आह-दयगालया, :, आयारआ भरासपात-
उर्वारं तु अप्पजीवा, पुटवीसीतातवाणिलाभिदिता ।
चतुरगुलपरिवुड़ी, तेणुवरिं अहे दुअंगुलिया ॥ १५७॥ |
गादा कंठा । अगुलि ज्ति दारं गते।
इयाणि पमाणे त्ति दारे, तत्थ गाहा-
कलमत्ताददामल, चतु लह दुगुणेण अट्ट हिं सपदं ।
मीसमि दसहि ` सपदं ,हाति पमाणं स पत्थारो ॥१५८॥
कला-चणगो, तप्पमाणं सच्चित्तपुदविक्राय गरहति चउल-
हय,उवरिं कलमत्तातो जाव अद्दामलगप्पमाण पत्थ वि-च-
उलइुये चव । दुगुणण ति-अआओ परं दुगुणा वुड्डी पयद्टति,दो |
अद्वामलगप्पमाणं सचित्तपुढविक्रायं गरहति चडगुरूय, च-
उश्रदामलगप्पमाण पुढविक्रायं गेएहाति-छल्लदुअ ,अट्ट श्दामल
गप्पमाण गरण्ात-द्गुरु, सालस अद्ामलगप्पमाण गरहात- |
तस्स-च्चछृदा, वत्तीसदामलगण्पमाणं गण्टति मूल, चउसद्
अद्दामलगप्पमाणं गएहति-अणवट्टा, अट्टाबीसुत्त रसयअद्दा-
मलगप्पमाण गरहति- पारं चिय,णएव अट्टाहि वाराहि सपय प
त्ता मीसमि, दसहि स-एय हाति. पमाणमिति-पमाणदार,
पत्थारोा त्ति,्रदामलगादिदुगुणादुगुणण० जाव पंचसयवारा-
स्तरा पतु मासलद गाद पारचियावसाणा परिछुत्ता | पव
दसहि सपद् । एसव अत्था पुणो भर्ति ।
मृलगुणपडि°
अन्याचायेरचिता गाहा--
कलमत्तादद्ामल-लहुगादी सपदमद्ठवीसेण ।
पंचेव वारसुत्तर,5भिक्ख5ट्ट्हि दसहि सपदं तु॥१५६॥
गाहा कठा । णवरे अभिक्रख<5ट्ुहि दसि सपदं तु एसा
आभकक्खसवा गाहता, साचक्तपुढावक्कात आमभमक्खसवाए
श्रु सपदं, मीसे अभिक्खासवाए दसि सपदं । पमाण
त्त दार गय ।
इदाणि गहणे त्ति दारं त चिम-
गहणे पक्खवमि य, एगमणगेहि होति चतुभगो |
जदि गहणा ततिमासा, एमेव य होति पक्खेवे ॥१६०॥
गहण हत्थण, पक्खवा पुण मुद्द भायण वा, एतसु य गहण
पक्खवसखु चउभगा, सा इमा-एग गहण, एगा पक््खवा । पग
गहरं, अणेगे पक्खेवा, अणगाणि गहणाणि, एगो पक्खेवो,
अणगाणि गहणाणि अगे पक्खेवा । एवे चउभगखु पूववत्
स्थतषु पढमभग-दा मासलह, ससाह पताह भगाह जात्तय-
गहणा पक्खवा ततिया मासलह । एवं भायणपक्खवे मास-
लड्ढ, मुहपक्दव पुण णयमा-चउलइु । गहणे तत्त दार गय।
इदाणि करणे त्ति दारं-
पाउल्लादीकरणे, लहुगा लहुगो य होति अचित्ते ।
परितावणादि शेयं,अधिवविणासे य जं व ॥ १६१॥
पाउल्लगो वा पुरिसपुत्तलगो, ्रादिसदाश्रो गोणादिरूवं करे-
ति,एगे करेति चउलहुओ, दो करेति-चडगुरूगे,तिहि छल्लइुओ,
चउहि-छग्गुरुय , पंचहिं-छेदो छटि- मूल , सत्त-
हिं--अणव्टा , अट्टहिं-चॉरिस , ( पारंची ) मीखे
वि एवं णवरं-मासलहगादि, द्साहि-चरिमं पावाति । अचिरे
पुढविक्काते पुत्तलगादि करंति एत्थ वि असमायारिणिप्फण णं-
मासलहं, भवति । पारितावणाति यं ति' वाउल्लय करंतस्स
जा हत्थादिपरितावणा अणागाढादि भवति एत्थ पच्छित्त
अणागाढं परियावज्ञाति-वह, गाढ परियावज्ञाति--5ह, परि-
तावियस्स महादकखं भवति ६ , मटादुक्खातो मुच्छा
उप्पज्ञति, फातीप मुच्छाण किच्छुपाणे जाता चृदो, किच्छेण
ऊससिउमारद्धो मूलं,मारणंतिय समुग्धातेण समाहता अणव -
टो, कालगतो चरिमे । अहवा -पुत्तलगे परविणासाय दष्णण
करेति, ते मतेण अभिमंतेऊण मम्मदेसे विधति, तस्स य
परस्स परितावणादिद्क्खे भवति, पायच्ित्तं तदेव ।
अहिवविणासे य जे वरण ति'.अदहिवा-राया,तस्स विणासो
य॒ करोति, तमि य विणासिते जुवरायमच्चादीहि णाए जे ते
रुसिया तस्स अराणस्स वा संघस्स वा वहवंधमारणे भत्तपा-
णउचहिणिक्खमरां वा णिवारिस्सेति | एवमरणं ति भरितं भ-
वति । गया पुढविकायस्स दण्पिया पडिसेवणा ।
इदाणि पुढविक्रायस्स चव कप्पिया भरुणति । तात्थिमा
दारगाहा--
अद्भाण कज़संभम-सागरिय पडिपहे य फिडिए य ।
दीहादी य गिलाणे, ओम जतणा यजा तत्थ॥१६२॥
नव दारा,एत नवसु दारसु जा तत्थ जयणा घडाति सा तत्थ
वत्तव्वा | तत्थ-अद्धाण त्ति पदम दारं । तमिय अद्धाणदारे
ससरकक््खादिहत्थदारा दस अववदिज्ञात |
( ३४८ )
मूलगुणपडि°
तत्थ पदम ससरक्खादिहत्थ क्षति दारं--
जति तु मलामे गहणं, सस्रक्खं कएहिं हत्थमत्तेहिं ।
तति वतिय पढमभंगे, एमेव य मद्धियालित्ते ।।१६३॥
तत्थ पदम तातयभगरण, पच्छा (वातप, तता पदमभगण
_ अभिधानराजन्द्रः
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}
एसब5त्थो अतिदिद्वो,'एमेव य मध्यालित्त चि हत्ये त्ति दारं |
्यवदियं ।
इदाणि पंथ त्ति दारे अअववतिजति--
सागारतुरियमणमभो- गतो य अपमज्ञणे तर्हि सुद्धो ।
मीसपरंपरमादी, णिकरित्तं जावं गर्हति ॥ १६४॥
थेडिलाओ अरणथाडलं सकमते सागारिय त्ति काडं पादेण
पमज्ञज्ञा, तुरेता वा तेहि गिलाणादिएहिं कारणों ण |
पमज्ञज्ञा, त्रणाभोग्रो वा ण पमज्ञजा, पमज्ञतो खुद्धो, अ-
प्पायच्चत्ती तदिति श्रथडिलि असमाया्मए वा पथ सि दारं
गत । इदा णीं णिक्खित्त ति दारं अववदति-मीसपरंपर-प-
श्वारं--एत्थ जयणा , पढमं मीसपुढविक्कायपरंपरणि-
किखत्तं गरहति आदिसदातो श्रसति मासएणं अखंतरेणं ।
गण्हति, असति सचित्तपरपरणं गरहति असति सच |
तपु उविक्ाय अणतरणिकिखत्तं पि गएहइ । णिक्खित्तं ति |
दार गते । †
इदाणि गमण त्ति दारं अववतिज्वति, पुव्वमचित्तेण-
गेतव्चे, तस्सासति मीस तण गम्मति--
तत्थिमा जयणा--
गच्छता तु दिवसतो, तालिया अवहेतुमग्गओ अभए ।
थटिन्नासति खुष्े, ठाणाति करति क्ति वा ॥ १६५॥
गमरो दुहा--सत्थेण एगागिणो गच्छति, दिसतो त-
लिया उवहणेउ तो अवणेत्ता अणवाहणा गच्छति, तस्स य
सल्थस्स मरगतो पिट्ठओ जति अभये तो तलियाडउ श्रव-
रतु पिट्ठओ वच्चंति, सभए मज्भे वा पुरतो वाऽणुवा-
हणा गच्चति, जन्थ अथेडिले सत्थसरिणवसा तत्थिमा ज- |
तणा-थेडिलस्स श्रसति ज धामे सत्थिज्ञजणण खुरण म-
दिय, चउप्पर्णह वा मद्दिये तन्थ द्राण करति । च्रादिसदा-
श्रा निसीयणे तुयद्वणं भुंजण वा, कालि त्ति छरचाडया ज-
ति सब्वहा ्भाडलणन्थिता तं कात्तियं पलत्थरेउ ठाणाइ
करेति, कात्तिअभावे वा वासकप्पादि पत्थरेउं ट्वाणाइ करें- |
ति, सचित्त वि पुदविक्नाप गच्छेताणं पसव जयणा भा-
णियव्या । गमण त्ति दारं गतं ।
इदाणि पप्पडगुलदारा दा वि एगगाहाए अववइज्जाति--
एमेव य पप्पडए, सभयागासेव चिलिमिणिनिमित्त |
खणणं अगुलमादी, आहारइा व ऽहे बलिया ॥१६६॥
जहा पुढाविक्राए गमणादीया ज्ञयणा तदा पप्पडण वि |
अविसिट्रा जयणा णायव्वा । पप्पडए त्ति दारं गत |
इदाणि खणणदारं झववज्ज़ति--अररण्णादिसु जत्थ भयम-
त्थि तत्थ वाडीए कञ्जमाणीपः खणञ्जा वि । अहवा-आ-
गासे उग्ेण परिताविज्जमाणा मेडलिनिमित्तं दिवसश्रा |
चिलिमिणीणिमित्नं खणणं सभवति, ते च श्रगुलमादी जाव-
च उव्वीसं वत्तीसं वा बहुतरगाणि वा, श्रहवा-मूलपलं-
व्रणिमित्तं खणजञ्जा । | अहघा-आहारड5ट्ठा वा खणणं सभ-
रम् ” सीसो भणति-उवरि अखणया चेव सभवति, कि अहे
खणाति । । आयारियाह--वातातवमादिहिं सोलियासरसा य
अह वलिया तण अह खणति। अगुले त्ति दारं गये ।
इदाणी पमासुग्गदणकरणदारा एगगाहाए अववइज्जेति-
जावतिया उवउजति, पमाणगहण व जाव पञज्जत्त |
मंतेऊण य विधति, पुत्तलमंमादि पडणीए ॥ १६७ ॥
जावतिया उवडउज्जति तावतियं गरहति , पमाणमिति
पमाणदारे गदितं । पमार त्ति दारं गये । इदाणि गहण-
दारं ञ्रववदिज्जति-ञ्जस्य विभाषागदण य जाव पर्जत्तं ता-
व गिण्टति अणगग्गहरणं अरण॒गपक्खवं पि कुज्जा अपज्जत्त ।
गहणे त्ति दारं गयं ।
इदाणीं गहणवाउल्लकरणं ्रववतिज्जति-मतेऊण गाहाप-
श्राद-नजो साह संध्वति तप्पडिणीतो तस्स पडिमा
निम्माता णामकिता कञ्जति, सा मतणाभिमतिऊणं
१ ८ ~ २ ~ र
ममदस त्रञ्जात.ततातस्सवयणा भवति.मरति वा, पत
कारण पृत्तलग पि पडिणीयमदणाणिमित्त कज्जंति ।
डंडियवशीकरणामित्त वा कञ्जति | करण त्ति दारं गयं । .
पव ठाण-श्रद्धाणुदारे-ससरक्खाद्विया सव्वे दारा श्रववा-
दित्ता । अद्धाण त्ति दारं गयं।
इयाणि कञ्जसंभमादो वि दारा जुगवं वक्खाणिज्जंति
असिवादिय कज्जं भणति, अग्गिडदगचोरवाधिगादिय स-
भम भरणति । एतसु गाहा--
जह चव य॑ अद्धाणे, अलाभगहणं सरक्खमादीहिं ।
वधकज्जसभमंमि पि,वितियपद् जतणजा करणं।।१६८॥
जह अद्धाणदारे अलाभे सुद्धभत्तपाणस्स असंथरंताण
ससरक्खमादी दारा अरववतिता, तहा कजञ्जसंभमदा
रेखु वि वितियपदं ञ्रववायपय तं पत्तेण ससरक्खादिदारि्दि
जयणा कायव्वा । जाव करणं करणंति-उल्लगकरणे । कडउज-
सभवे ति दारं गयं ।
इदाशि सागारि-पडिपह-फिडिय-दारा तिणिण
वि एगगाहाएं वक्खाणिज्ज॑ति--
पडिवत्ती य अकुसलो, सागारिय घेत्त तं परिट्ठावे ।
दंडियमादिपाडिपहे, उव्वत्तणमग्गफिडिता वा ॥१६६॥
कोइ साह भिक्खाए अवइण्णो तस्सय ससरक्खमद्धिया
लित्ताहिं हत्थाहिं भिकखा शिप्फेडिया, तओ स साह चितयति
एस पत्थ विज्जातितो विह चिद्रूति। एस इमं पुच्छिस्साति-
कीस ण॒ गेशहासि?, अहं च पडिवत्तीए अकुसलो | पडिवत्ती-
प्रतिवचन, जहा पतेण॒ कारणेण वदति तदा अकुसलो-
उष्लरदानासमर्थत्यथः। ततो पव सागारिए तमकण्पियं भि-
क्ख घेत्तुं पच्छा परिद्रावेति,पवं करतो खद्धो चव । ससा पदा
पायसा ण सभवति | सागारिए त्ति दारं गयं ।
इदाणीं पडिपदे ज्षि दारं-पडिपहेण उंडितो एति , , आस-
रहहत्थिमादिएहिं पडिणीओ वा पडिपहेणु पतिः तादे उब्ब-
पक्ताति पहाओ न पमजजइ वा पादे एवं सच्चित्तपुढवीए वज्जे-
ज्ञा । पडिपहे त्ति दारं गयं ।
ददाश पिडिए ति दारं-मग्गतो वि पणटो सच्चित्तमी-
8:
सूलगुणपडि०
वति, उक्तं च-““ अपि कईमपिरडानां, कुर्यात्कुक्षि निरन्त- `
॥
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मूलगुणपडि० _
( ३४६ )
अभिधानराजन्द्रः |
सूलगुणपि०
साए वा पुढचीए गच्छेज्जा पप्पडएण वा गच्छेज्जा फि- |
डिए त्ति दारं गत ।
इदाणीं दीहाहि त्ति दारं तत्थ गाहा--
रक्खाभूसणहउ, भक्खणहउं व मटह्टियागहणं ।
दीहाहि व खडहमाणए, जतणा एसा उ णायन्वा ॥१७०॥
दीहाहिणा खइए मंतेणाभिमंतिऊण कडगबंधेण रक्खा क |
ज्ञति, म्टियं वा मुहेबाजं डंको आऊ सिश्चाति । आलि-
प्पति वा विसाकरिसणणिमित्त मट्टिये वा भक्खयति। स- |
प्पडक्का मारित्तकाद्दो विसेण भाविस्सति । दीहाहिणा खदण
एसा जयणा।
जया पुण सा मद्धिया घप्पर तइया इमाए जयणाए--
दड़े पत्ते छगणे, रुक्खे सुसुणाय वंमिए पंथे।
हलखणणङ़ इमादी, अंगुल वित्तादिलोे य ॥१७१॥
पदमे ताव जा पदेसा श्रग्गणा दड्ढो तओ घप्पति , त-
स्सासति गामुत्तातिभाविया, ताव ततो जमि पदेस छुग-
णाल्ुप्पालह्लावारसावद्टरावया तता च्रप्पात , पचुमद्करार- |
वन्वुलादितुवर रुक्खहद्रातो वा घप्पति, “ अलसा त्ति वा
गेटलगा त्ति वा खुसखुणागा क्ति वा एगट्ट । ” त णाहारड
शीहाराया जा सा वा घप्पति, तस्सासति वंमीए वम्मि-
ता सप्पातीतो वा घष्पति, तस्सासति पथे जत्थ वा ज-
नपदणिग्धातावद्धत्था तता घप्पति, तश्रा दलस्स चउयादि-
सुजा लग्गा सा वा पेप्पति, सखणणं श्रलित्तं तस्स वा
ज्ञाञ्जग्ग लग्गा सा वा घेष्पति , णवेखु वा गामागारा-
दिणिवेखस घराण कुड्ेस धेप्पति श्रगुलमादी श्रहो ख-
शति खित्तादिणिमित्त गिलाणणिमित्तेण लोणं घण्पति ,
प्ते दो गिलाणदारा, पतसि सत्थहताण रसती वा कतो
घत्तव्वा श्रतो भरणति-
सत्थहयासति उवरि, ओगेण्टति भूमितसयदद्वाएं ।
उवयारणिमित्तं वा, अह तं द्रं ब खणितृशं ॥ १७२ ॥
वह्रादि सत्थहताण श्रसति ते सचित्तपुढवीए उवरिल्ल
गरहात, श्रखारत्ता खम्ममाणाए पुण भूमीण जे तसा
मड्क्ताद् त वराहज्ञात । अहवा-भूमादट्लंयाण तसाण |
च द्याणिमित्त अहो न खणति उवरिल्ञ गर्हति उवया-
रणिमित्त, वा--अहवा , अणुबवहता सती पृडवी तीए
कज्ज परिमंतऊरण किचि कज्ज कायव्वं , श्रच्रा एतण का- |
रणेण श्रगुल वा दो वा तिरिण वा खणिऊण गण्देज्ञा । अ-
गुले त्ति गत ।
खनाादात काइ गच्छ खित्तांचित्तो दत्ताचत्ता जक्खाइट्टा |
आमायपत्त वा हाज़ सो राकिखियव्व त्वा इमण चाहा ।
पुव्वखतो वर असती, खित्ता दद्रा खशिज्ञ वा ्रगडं |
अतरतपारयर5ट्टा, हत्था दिति जा करणं ॥ १७२ ॥
पृञ्बखध्रा जो भूयरो वरो तमि सो ठविज्ञति , असति
पुव्बखयस्स भूवरो धरस्स खित्तादीणं अट्वाणिमित्ते
ण खरणज्ञा वा, अगड, श्रगडा-कूवो, एस श्रादिसदा व-
क्लाश्रा । दीहाहि त्ति गयं | अतरंतपरियरद्वा बा, अतरंतो-
गिलाणो, तं परिचरंता तस्सट्ठा अप्पराट्रा वा ससरक्खह-
व्थादिदारेद जयंति सब्बेहिं दारेहि जाव रणदारं।
चे
| ` ~अ
दृदाणि गिला ति दारं !
लों च गिलाणट्टा, षिष्पति मंदग्गिणं अशिष्ठाएं |
दुल्लहलोणे देस, जहिं व तं होति सच्ित्त ॥ १७४ ॥
गिलाणणिमित्त वा लाणे घप्पति, , अगिलाणा वि जो
मंदग्गी तस्सश्टरावा च्रप्पति तं पुण दुल्लमलोण देखे घ-
प्पति, तत्थ दुल्लमलाण देखे उवर्खाडज्जमाण लाणे ण छु-
भति उर्बार लाणं दिज्जति, तण तत्थ मंदग्गी गरहति, ते
पुण गर्हमाणा जत्थ सान्त भवति तत्थ ण गरहति, तं
सचित्तद्वाणं परिहरति ।
इमा जयणा घत्तव्व--
सीतं पउरिंधणता, अचलकणिरोधमत्तघरवामे |
सुत्तत्थजाणणएणं, अप्पाबहुय तु णायव्वे || १७५ ॥
जमि देख सीये पउरं जहा उत्तराव. तःथ ज मदपाड-
रणा ते पडरिधणहिं अग्गि करंति, तमि उव्वरग ज लो-
रो ते ताव धूमादीहि फाखुतीभूतं गरहति । गाहापुव्वद्ध-
त्थो सव्वो एत्थ भावेयन्वो । श्रहवा-सीतण ज घल्थं
ते घरप्पति, धुममाइणा वा पररिघणण ज मीस तं घप्पति,
अच्लगाणिरोहे पुव्ववक्खाणं भत्तप्रण वा ज दियं
ते घप्पति, पतसि श्रलाति अरणिव्वगणं पि घप्पति ,
सश्वत्तं त पृण सुत्तत्थजाणएण श्रप्पाबहुयं णाऊण घत्तव्वं,
कि पुण अप्पाबहुय ?-इमे जइ ते लाएं ण गर्हति ता गल-
रणे भवति, गलरणे य बहुतरा सजमविराहणा इतरहा न-
भवति । गेलणण त्ति दारं गय ।
इदाणि आमे त्ति दारं--
श्रमे वि गम्ममाशे, अद्धाणे जतण होति सन्येव ।
अत्थंता व अलाभे, पुत्तन्नभिचारकाउंटे ॥ १७६ ॥
आमोदरियाए अणणविसयं सं सव्वे जा तत्थ जयणा अद्धा-
णदारे भणिया, सब्वव श्रामादरियाए गम्ममाण जयणा श्रस-
सा दट्रुव्वा । । अत्थेता-गिलाणादिपडिबंधेण अणणविसय अ-
गचछुमाणा,अलाभ-भत्तपाणस्स,पुत्तु्लगा-वाउलगा श्राउटेति
वाउज्ञगाणं विज साहित्ता किच इड्मित आउंटावेति सो भ-
पाणं दवाविज्ञाति | गया पुढाविकायस्स काप्पिया पडिसवणा
इदाणि श्राउक्रायस्स दृष्पिया भरणात । तत्थिमा दारगाहा-+- :
ससिशिद्धमादिसिण्हो, दृपयगमणे य धोव्वणे णावा |
पमणे य गहणकरणे, शिरे सेवती ज वा ॥ १७७॥
पत दस दारा, सिरहोदण खुगमणसदा पत्तेयं सवती ज
व त्ति-एत सअंतभावि दस दारं, तत्थ ससिणिद्धे त्ति दा-
रं-आदिसद्दाओ उदउल्लपुरपच्छुकम्मा गहिया । सभयसासि-
णिद्धदारस्स णिक्खित्तदारस्स य सवती ज व त्ति |
एतेसि तिर वि जुगवं परिछत्त भराणति-
पंचादी ससणिद्धे, उदउलछ्ले लहुय मासियं मीस ।
पुरकम्म पच्छकमे, लहुगा अवज्ञती जं वा ॥ १७८ ॥
पच त्ति-पणगं तं सर्साणद्ध भवति, इमण भगविकप्पण स-
सिणिद्ध हत्थे, ससिणिद्ध मत्त, चउभंगो । पढम-दो पशणगा,
पक्रक्तं दासु चरिमो खुद्धा, श्रादिशब्दो सस्निग्धे एव याज्यः
उदउल्ञादीनामाययत्वात् , णिक्खित्तं चउव्विहं-सचित्त-अरो-
तरपरंपरे, मीस-अणंतरपरंपर । एत चउरा एन्थ मीस पर-
( ३५० ) ।
मूलगुणपडि° १
श्रभिधानराजेन्द्रः।
सूलगुणपडि०
पर णिक्खित्त पणग.मीसाणतर मासियं,मीसे तति गत । सश्थि
त्तपरंपर मासियं चव, सचिन्ताणतरे चउलदुश्र, उदउल्ले च-
उभगा, पदम भग दा मासलह,
पुरकम्मपच्छुकम्म लहुगा कटं । ' श्रावज्ती ज व ' त्ति-प-
कक दारे याजमिद् वाक्य । श्रावज्ञति-पावति, ज संघट्टणा-
दिकं ससक्नात त दायव्व ।
इदाणि `सिगद' [त्त दार, दप्पं दये' त्ति दारं । तत्थ--
गाउयदगुणं बत्ती-सं जोयणाई चरमपदं ।
चत्तारि छच लहुगुरु, छदा गुलं तह दुगं च ॥ १७६ ॥
सश्चित्तण उदगण गाउय गच्छति, दा गाउया जायण, दो
दासु एक्कक्क, चरिमा खद्धो । |
जायणा चउरा अट्टू सालस वत्तीसं जायणा पच्छद्धण जहा- |
सख चउलहगादी पच्छत्ता । दए त्ति दार गय ।
इदाणि “(सरद ` त्ति दार भरणति-
सिणहा मीसग देट्र-बरिं च कोसाति अद्र वीससतं ।
भुम्मुदयमंतलिक्खे, चतुलहुगादीउ बत्तीसा ॥ १८० ॥
सिरह त्ति व्राउसत्तिवा पग्र, सा हेट्डतो उवरि च। ताए
दुविहाए मीसादएण य गाउय गच्छमाणस्स मासलइं;
दासु गाउपस--मासगुख्य, जायण चउलदुः दासु--ब्ट,
चउसु--5ह. श्रदरुखु--ग्द, सालससु चेदा, बत्तीसाप--मृल
अउसट्टाए-अणगावट्ा ,वाससत-पा रचा । सराह तत्त दार गय ॥
श्रवासदट्रूमुद गदर भाय. ताववससप्पदारसणत्थ पच्च
भगणति-भूमीए उदग भृम्युदग नद्यादिषु, श्रतलिक्ख उदग |
अतलिक्खादग वासादयेत्यथे:, तेण गच्छमाणस्स चउलहु- |
गादीश्रा यत्तीसा, गताथम्।
इदाणि सचित्तादग-सिरद-मीसादगाणं
अभिकखसेवा भगणति । दारगाष्टा-
सचित्ते लहुगादी, अभिक्खगमणम्मि अद्गहिं सपदं ।
सिण्हामीस बुदए, मासादी दसहि चरिम तु ॥१८१॥
सचित्तादगण सह गमण चउलहुयं, वितियवाराए चउ-
गुरूगं: एवं जाव अट्ठमवाराए-पारंचियं: सिण्द्ामीखुदगे
य पढमवाराए-मासलहुं, बितियवाराए-मासगुरु, एवं जाव
दससमवाराए-पार्रेच्िियं । लिणहुदग जि दार गयं ।
इदाणि ' धुव ' ति दारं-
सच्चित्तेण उ धुवणे, मृहणंतगमादि एव चतुलहुया |
अचित्ते धुवर्णम वि, ्रकार्णे उवधिशिप्फष्पं ॥१८२॥
सच्चत्तण उदगण जइ वि मुहणतगे धुवति तहावि |
अउलहय, शह आचत्तण उदगण अकारण चुचात तश्रा |
उबाहाणप्फरण भवात | जहरण अकारण पणग, माज्कम
मासलह,उक्कास चउलदु । सच्चित्तणाभिक्खे धाव अट्ठृहिं |
सपद, मीसण दसि सपद, श्रचित्तण वि णिक्कारण श्रभि- |
कस्त ध्राव्रणे उवददिणिप्फरणं, सट्टाणाओ चरिमं शयन्वे । धा-
वण त्ति दारं गय ।
इदाणि ` णाव ` त्ति दारं--
शावातरिम चतुरो, एग समुद्दंभि तिष्ि य जलंमि ।
ओयाण उज्जाण, तिरिच्छसतारिमे चच ॥ १८३ ॥
शावातरिम उदगे चउरा णाचप्पगारा भवेति , तत्थ पयो ,
समुद भवति, जहा--तयालगपटृणाश्रो वारबई गम्मद ।
तिरिण य समुदातिरित्ते जले,ता य इमा “* ओयाणे ` त्ति--
अनुश्रोतोगामिनी, पानीयानुगामिनीत्यथैः । 'उज्जाण' तक्षि-
प्रतिलामगामिनी त्यर्थ: | तिरिच्छुसंतारिमी नाम--कूलाकूले
ऋजु गच्छती यथः ।
एवमावि चउब्विहे णावातारिमे इम पायक्िछत्तं--
तिरियोयाणुज्ञाणे, समुदजाणे य चेव णावाए |
चतुलहुगा अतगुरू, जोयंणअद्भद्ध जा सपदं ॥ १८४ ॥
तिरिश्रायाणुज्ञाण सनुदे णावाय चउसु वि च-
उलहुगा । श्रतगुरु त्ति-समुदरगामिणीणए. दोहि बि
तवकालेहि गुरुगा , उज्जाणीए तवेण ओयाणीए का-
लेण तिरियाणीए दोहिं वि लहुं । जोयणअद्धद्ध जा
सपदं ति+-एंतास चडरणह णावप्पगाराणं पगतमेणाकि
श्रद्धजोायणं गच्छति चउलहुयं । श्रतो परं श्रद्धजोयणवहीप
जायणे--चउगुख्य, दोवद्ढे--वह, दो खु--व्ह ,--अड्डाइज्जेसु-
छदा, तिखु-मुलं, तिसखु-सद्धसु श्रणवदट्रष्पा , चउखु-पा-
रची, श्रभिक्खसवाप अट्टाह सपदं पारचिय ति वुत्तं भवद् ।
ावादगतारिमे पगत अरण वि उदमतरणष्पगारा भर्णति-
संघ्टे मासादी, लहुगाओ ज य लेवणे उवरि ।
कुंभे दतिए तवे, उड्वे पण्णी य एमेव ॥ १८५ ॥
णिक्कारणे सघटेणए गच्छति मासलहुय , आदिसद्दाता
श्रभिक्खसबाप दसं सपद । ह लवण गच्छति तो
चउलदुयं । अभिक्खसेवातो श्रद्रुहि वारादि सपद । अह
लवोवरि गच्छुति-ब्द, अर्द सपय । कुंभ त्ति-कुभ एव,
श्हवा--चउकट् काउ काणे कोणे घडओ वज्भाति, तत्थ
अवलंबि् श्रारुभिय वा सतरणं कज्जाति | दतिए त्ति-वा-
ययुरणो दतितो, तेण वा सतरणं कञ्जति ¦ तुवे ज्षि--
मच्छियजालसरिस जाल काऊण अलाबुगाण भरिज्जति, तं-
मि आरुह्ेहि सतरणं कज्जाति । उडव क्ति-कोट्टि वा तण
वा सतरणं कज्जइ । परिण त्ति--परिणमया महता भारगा
वज्जंति ते जमला बंधेऊण तण श्रवलवबियं संतरणं कज्ञति ।
एंमेव क्ति--जहा दगलेवादीखु चउलहुयं, अभिक्खसवाए य
अट्ठृहि सपदं, एमेव कुभादिसु दट्रव्व । णाव त्ति दार गतं ।
इयाणि पमार त्ति दार--
कलमामदामलगा, करगादी सपद मटूबीसेणं ।
एमेव य द्वउदणए, बिंदुमातंजली बड़ी ॥ १८६ ॥
कलमो--चणगो भरणति, तप्पमाणादि जाव अदामलग-
प्पमाणं गरहति, एत्थ चउलहुय । कह पुण कटिरोदगसं-
भवा भवति ? भरणद--करगादी--उदगपासाणा बास प-
डति--ते करगा भरणति, आदिसद्दयाआ दिम वा कंढि-
रं । सपदमद्रुवीसणं ति--श्रदामलगादारब्भ दुगुणा दुगुण-
ण जाव अद्भावीस सतं श्रदामलगप्पमाणाण पत्थ चडउल-
हुगादी सपय पावति । णमेव य , दवउदग--दवादकल्यथः ।
कलमस्थान विदुद्र्व्यः, श्राद्रीमलकस्थान अअलिद्रे्ट-
व्यः । दद्धि क्ति--दुगणा दुगणा वड़ी जाव श्रदरुवीससतं
अजलीणं चरलदुगादि पच्छित्ते, तहव जहा कदिणादक मो-
= - र
। ˆ
भूलगुणपडे°
सोदकमेवमेव श्राद्रमलकांजलीप्रमाणे, शवर दुगुणा दुगुणण
ताव रेयव्व जाव पच सता वारसुत्तगा पच्छित्त मासलहु- |
गादि | अभिक्खसवाए दसि सपदं । पमाणे त्ति दारं गये।
इदाणि गहणे त्ति दार--
जति गहणे तति मासा, पक्खेवे चव होति चतुभेगो । ,
कदु भगादिकरणा उ,लहुगा तसरायगहणाती ॥ १८७ ॥
गहणपक्खवेखु चउभगा कायञ्वा, पङ्क गहणएपकंखवे-उह ।
जत्तिया गह पक्वा पत्तयं तत्तिया मासलहुगा
अवति : गहणे त्ति दारं गत ॥ इदाणि करणे तति दारे । कुदु-
अगादिकरणे य त्ति--कुदुंभगो--जलमंडइुओ भरणति, आ-
दिसखदाश्रो मुखरंणतरे वा सहं करति । कुदुंभगादि सचि- |
क्तोदके करेंतस्स-चउलहुये श्रभिकखसरवाप अरट्टृहि--
सपद, मीसाउकाएं कुदुंभगादि करेंतस्स मासलहु, आभि-
कंखसवाप द्सहिं सपद । कुदुभगादि वा करतो पूयरगादि |
तसं विराहल्ञा, तत्थ तसकायणिष्फरणं । रायगहणादि त्ति |
सुदरं कुदुभग करेसि त्ति मं पि सिक्खावाह ति गणहेज्जा। |
श्रादिग्गहणाता उन्निक्खमावडउ पासे धरज्जा । करण त्ति
दारं गये गता च्राउक्रायस्स दप्पिया पडिसेवणा |
इदाणि श्राउक्तायस्स कप्पिया पडिसेवणा भरणति-
अद्वाणकज्जसंभम सागारिय-पडिपहे य फिडिते य ।
दीहादी य गिला, आमे जतणा य जा जत्थ ॥१८८॥
पत श्रद्धाणादी नवाऽववायदारा । पतसु ससणिद्धादी दस |
वि दारा जहासंभव श्रववदियव्वा |
पत्थ पुण श्रद्धाणदारे इम दारा पुढविसरसा--
समिणिद्ध उद्उल्न, पुरपच्छामाणगहणणि क्खित्त ।
गमणे य सहिय जाव, तहेव आउंमि बितियपद्।। १८६ ॥ |
कंठा ।
गमणदारस्स जद वि पुढवीपः श्रतिदेसो कतो
तदहावि शषभ्रतिपादनार्थमुच्यत--
उवरिमसिण्हाकप्पे, हेद्विल्लीए तलियमवणेत्ता ।
एमव दुविधमृदए, धुवणमगीएसु गुलियादि ॥१६०॥
उवरिमसिरहाप पडंतीए वासाकष्पे खुपाउय काडं गंत-
ञ्चे, श्रहो सिरहापए पुण तलियाश्रो श्रवणे ता गंतव्य । एसा
कारण जयणा । जहा--सिण्हाए विदि वुत्तो पमेव य दुवि.
इमुदपए वि-भोमे श्रतलिक्ख य | गमणे त्ति दारे गतं ॥ इदा-
शि धोक त्ति दारे अववरतिज्जति--धुवणमगीएस गुलि-
यादी-गिलाणादिकारण जत्थ सचित्तादगेण धुवणं कायव्वं
तत्थिमा जयणा-अगीयत्थ त्ति श्रपरिणामगा, श्रतिपरिणा-
मगा य । तसि पच्ययणिमित्त श्रतिप्पसगणिवारणत्थ च गु
लिया धुविउमाणिज्जंति । दगेगुलिया पुण यक्को भरणति |
उद्गम्मि भावियपो्ता वा श्रादिसदाश्रा कगणादि घत्तव्वं ।
धुव त्ति दारं गयं ! नि० चू० १ उ० । ( नदीसतरणविषयः
“ श॒ईसतार ' शब्दे चतुथभाग १७३८ पृष्ठ गतः )
इमं जयणमतिक्ततो--
असति तप्परिरयस्स, दुविधा तेणा य सावए दुविधे ।
सषडूणलवबुवरि, दुजोयणा हाणि जा णावा ॥ १६४ ॥
जत्थ शाबातारिम ततो पदेसाओ दादि जोयणेहि गओ
£ (३५१)
अभिधानराजन्द्रः
सूलगुणपाडि^
थलपहेण गम्मइ, ते पुण थलपह इमं णातिक्रता परा वा चर-
गावासडवगोवा तण दुज्ञायणिएण पाररपण गच्छतु ।
पवमारणा चोदपण गच्छ । श्रह असइ परिग्यस्स जता सद्
वा इमि दासि जुत्ता परिरआ-दुविहा तण ज्षि-सरोरो-
वकरणतेणा,सावंत वृ विह ज्ञि-सारण, सीहा वा लवा तण वा
थलपहण भिक्ख ण लब्भाति बसही वा. तो दिबद्जायण-
संघट्टेण गच्छंड मा य णावाप । अह तत्थ वि पत चव दासा
ता जोयण लेवेण गच्छतु मा य णावाए। अह अत्थ लवा सति
वा दोसजुत्तो तो अद्धजायण लवोवरिणण गच्छठ मा य
णावाप। अह त पिणऽन्थिदासले वा तदा णावाए गच्चृतु ।
एवं दुजोयणहाणीए णावं पत्तो ।
सधटलवडउवरीण य बक्खाणे कज्जाति--
संघट्टासंघइईी, णार्भीलवोपरेण लवुवरिं |
एगो जले थलगो, णिप्पगलणतीरमुस्सग्गो || १६५॥
पुव्वद्ध कंठं । संघरद्द गमणजतणा भरणति--एगं पाये जले
काउं एगं थल,थलमिहागास भरणति सामाइगसरणाण, एता
विहाणंण वक्खमाणण य जयणासुत्तिप्षा जया भवति तदा
िप्पगलिते उदग तीरे इरियावहियाप उस्सम्गे करति ।
संघटद्दजयणा भणिया ।
इया लवलवोवरिं च भरणति जयणा--
णिन्भय गारत्थीणं , तु मग्गतो चोलपटमुस्सार ।
समए ग्रद्रद्धं वा, उत्तिष्पसुं घण पटं ॥ १६६ ॥
णिबव्भये-जत्थ, चोरभयं ण<5त्थि तत्थ गारत्थीणं तु-मग्गता
|. गारत्थी-गिहत्था, तषु जलमवतिरणेख मग्गतों पच्छुता जले
उयरइ त्ति भणिय होइ।पच्छितो य ठिता जहा जहा जलमबंत-
रति तहा तदा उवरूवरि चोलपट्टमुस्सारेति.मा बहु उदगघा-
ता भविस्सति । जत्थ पुण सभय चोराकुलत्यथः । अद्धद्ध
जत्थ घण त्ति तत्थ । उत्तिर्ण्स ति जले अद्धेखु गिहत्थेखु
श्रवतिरणेखु घणं भाय पटं चोलपट्ट बाधिड मध्ये श्रवतरती-
त्यर्थः।
जत्थ सतरण चोलपट्टो उदउल्लज्जञ दत्थ इमा--
जतणा--
दगतीरे ता चिदे, शिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु ।
समए पलंबमाणं, गच्छति काएण अफुसंतो ॥ १६७॥
दग--पानीय, तीरं-पर्यतं, तत्थ ताव चिट्टं-जाव शिष्पग--
लो चोलपट्टो | तुखदो निमया ऽवधारणे । श्रह पुण सभयं ता
हत्थेण गेदेड पलवमाणं चोपलपटटयं गच्छत । डंडगे वा काडं
गच्छति । ण य ते पलवमाणं दंडाशप्रे वावस्थितं कायन
स्पृशतीत्य्थः । पसा गिहिखदियम्मि दगृत्तरण जयणा
भरिया ।
गिदिश्रसती चुण इमा जयणा--
असति गिहिणालियाए,आशणक्खेउं पुणो वि परियरणं |
एगा भोगपडिग्गह,केई सव्वाशि ण य पुरतो ॥१६८॥
असाति सत्थिन्न य गिहत्थाणं जतो पाडिवहिया उत्तरमा-
णा दीसति तश्रो उन्तरियव्वं | असति वा तसि णालियात,
श्राणक्खड पुणा पुणा पड़यरणे श्रायप्पमाणाता चउरंग-
लाहिगो दंडा णालिया भरति, तीप आणक्खऊ उवधत्तज
( ३५२ )
अभिध्रानराजन्द्रः।
_ स्रृलगुणपाडि० (१ |
मृलगणपड़ि० |
परतीरं गंतुं आरपारमागमरं पाडउत्तरणे । णालयाए
वा असति तरण प्रति कयकरण जो सा ते आणकस्डे
जया अग्गतो भवति तदा गतव्व । एवं जंघातारिम विही
भरिश्रा । इमा पुण अथाह जयणा के पढमे णावाए भ-
रणति । पगा भोगपडगगहे क्षि-एगो भागो एगो य योगो
भर्णति एगट्टबंधरा त्ति भियं भवति, होति ते च मत्त-
गावकरणाणो एगट्टू । पडिग्गहो क्षि--पडिग्गहो सिक्रगे अ-
होम॒हं काड एढो कञ्जति तो भदात्मरक्षणा थम | केय त्ति-
कचिदाचार्या एवं वक्खाणरयेति--सव्याणि क्षि--माउगो-
प्रकरणं पडिग्गहों य पादापकरणमससे पडिलहिय, एता-
भ्यामादेशह याभ्यामन्यतमनापकरसी कृत्वा सीवरिय का-
उ पादय पर्माज्जिऊण णावारूहणं कायव्वे । तेच ण य
पुरउ क्षि-पुरस्तादग्रतः प्रवतेनदाषभयात् नो, अनवस्थान-
दाषभयान्न पिट्ठओ वि ण इटेञ्जञ मा ताव विमुञ्चज्ज
श्रतिविक्ृष्जलाध्वानभयाद्वा, तम्हा मज्मे रहज्जा ।
ते चिमे ठाण मुत्तुं--
ठाणतियं मोत्तूणं, उबउत्तो ठाति तत्थ5णावाह।
दतिउड्व तुंबेसु वि, एस विही होति संतरण ॥१६६॥
देवयद्वाणं कृपट्टाएं निज्जामगढ़ाणं | अहवा-पुरतो मज्मे पिट्ट॒
आओ, पुरतो-दे्वयद्टाणं,मज्क-सिंचणहद्गवाणं, पच्छा-तारणट्राणे |
पत वल्िया | तत्थ ५5णावाए-अणावाह ठाण ठायति । उव-
उत्ता क्षि-णमोक्कारपरायणो सागारपञ्चक्खार पश्चकुखा-
उ य ठायति । जया पृण पत्ता तीरं तदा णो पुरतो उ
त्तरज्जा, मासा महादग रिव्बुदृज्जञा । ण य पिट्ठता मा साश्र- |
चसारज्जा णावा। एतद्रासपरिहरणन्थ मज्ज उर्यार-
यठ्वे । तत्थ य उत्तिप्तेण इरियःवदियाए उस्सग्गो काय-
व्वा जति विश संघट्टति दमे | दक्तियउड़वतुबेखु वि एस
विही हात सतरण । णवरं ठाणतियं ति मात्तु, णाबत्ति
दारं गये ।
अधुना पमाणदारं-णल्थ पुण इस जतणमतिक्ततो सश्ित्तो-
दगग्गहण करति,--
किंजियआयामासति, संसडसिणोदएसु वा असती ।
फासुगमुदर्ग सजद, तस्मासति तपेहि ज रदियं ।२००।
पुञ्वे ताव कजियं गगहति, कंजियं-देसीभासाण श्रारनाल |
|
|
भगणात | श्रायाम-श्रवसामराण.एतसि श्रसततीण ससद्भधास- |
णादगे गराहति , गवगरसभायणं रिक्षयणं जञ ते सस-
छुसुणादग भरणति । श्रहवा-कासलविसयादिखु सल्नोयणा
विणसण भया सीतादग छञ्भति, तमि य आदे भुशे तं |
श्रवाभूत जद अतसा गता प्रण्पति एतं वा सखसद्धसिणादगे । |
पतसि असताए जं बष्पादिसु फासुगमुदगे तं सजढे चेष्प- |
ति। तस्सासति क्षि-फासुयमुद्गस्स असति फासुगं धम्म
करकादिपरिपूयं घ्रप्पति । सब्यहा फासुगासति सच्चित्तं ।
ज तसेहि रिय ति)
फासुयमुदग ति जं वुत्त एयस्स इमा वक्खा--
तुवरे फले य पत्त, रुक्खसिलाउप्पमहणादीसु ।
पासंब्रणे पवाए, अ।तवतत्तत्रहे अ उहे || २०१॥
तुबरसद्दा रुक्खसद सवज्भात, तंवरवृ् इत्यचः . सोय
तुवररुक्खा समूलपत्तपुष्फफला, जमि उदगे पाडत्तंमि `
तण पारेणामय ते घप्पात, श्रहवा-तुवरफला-दरसीत्- `
क्यादयः, तुवरपत्ता--पलासपत्तादयः । रुक्ख त्ति--रुक्खे-
कोटर कटुफलपत्तातिपरिणामिय घप्पति । सिल चति
क्चिच्छिलायां अण्णतररुक्खछल्ली कुटिता तमिज स-
घट्टियमुद्ग ते परिणय घचप्पाति । जत्थ वा सिलाए तुष्प-
परिणामिये उदगे तं घप्पति । तुप्पो पुण मयकलववरसा भ-
रणति । मदणादीखु त्ति-दस्त्यादिमर्दितं आदिशब्दो हस्त्यादि
ऋमप्रदशैने । पयसि तुबरादिफाखुगादगार असति, तो प~ `
च्छृद्धं-आ्आयवतत्ते ्रवदे वहे पासवण पवाते । एष क्रमः उङ्क
मस्तु वेधाजुलोम्यात्पुव्वे श्रायवतत्ते अप्पादग अवह घेष्पति।
असइ श्रायवतत्तं वह धिपपति, दोरद वि असती कुडतडा-
गादिपस्सवणाद्गं घप्पति, श्रणोराणपुदढविसकमपरिणयत्ता-
सब्वावपातस्सासति धारादगं धारापातवि पन्नत्वात् । अत्र
सत्वाच्च ततः शषादगे।
मदणादिखु त्ति ज पये अस्य व्याख्या--
जड खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयरमिगे य।
ओप्परवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लया ॥ २०२॥
जड़ो-हस्ती, खग्गा-एगसिगी अररे भवति, महिसे-गोणे
प्रसिद्धो, गवय, प्रसिद्धः, सूयर द्ग धसिद्धौ । जड्डादियाण
उक्कमगद्दण चउमासा भव लया, अहवा-मदणाइयाणं वा
उक्षमगदण भवे लया, पसा पमाणदारे जयणा भरिया ।
पत्थ पुण मीसे सचित्तोदगाणं गणे पत्त जावतियं उवव-
जति तत्तियमत्तस्स पढमभंगे गहणे, असंथरण जाव अणे-
गग्गहणं अणगपक्खव पि करेजा | अद्धाण त्ति दारं गते ।
इदाणि ससा कलजादी दारा अववदिज्जेति--
जह चव य पुढवीए, कज्ञ सभमसगारफिडिए य ।
ओमम्मि वि तह चव तु,पडिणीया उदं काउ ॥२०३॥
जहा पुढवीए तदा इम वि दारा कल्ञ सभम सागारिते फि
डिति य। चसदा पडिप्पह य । श्राममि वि तह चव त॒' तुखदो
श्रवससावधारणार्थे | इमे पुण, ` पडिणीया उट काड ` ति-
श्रद्धाणाति जहासभव जोएज्जा । पाडणीया उद्यण काड का-
मोपकरणो पि करेज्जा । सत्न दारगाहा ।
इदाणि दीहादिगिलाण चि दारा-
विसकुंभे से मंते, अगदोसधधघसणादिदी हादी |
फासुगदगस्स असती, गिलाणकज्जद्र इतर पि ॥२०४॥
विसकुंभा क्षि--लृता भराणति, तत्थ से कि णिमित्त उदगं
घतव्वे ¦ मते त्ति--आयमिड मंतहति , अशओसहारो वा
पीसणणणिमिन्त,विसधायमूलियाणं वा घेसणहजे ,आदिसद्याता
विषापयुक्रेतरभुक्के बा पचमव। दीहादि त्ति दारं गतं । इदाशिं
गिलाण त्षि-फासुगादगस्स असाति, गिलाणकार्य इतरं पि
सचित्तत्यथः। आउक्करायरुस काप्पया पडिसवणा गता ।
इयाणि तडउक्कायस्स दप्पिया पडिसबणा भराणइ---
सागणियक्खेत्ते य, संघट्ूण तावशा य शिव्वावे |
तत्तो य ईधे सं-कामयकरणं व जणणं व ॥ २०४ ॥
सागणिप् त्ति दारं श्रस्य सिद्धसेनाचायां व्याख्यां करोति-
सच्चमसन्व रतणिओ, जोती दीवो य होति एकेको ।
च ९ "क अ ० सता ह
(>.
मूलगणपडि०
क = क क
दीवमसव्वरतणिए, लहुगो समेसु चउलहगा ॥२०६॥
एकेको ज्ञि--जोती-उद्धित्त,दीवो-प्रदी पः, ज्यातिः सर्वेरात्रे
फियायमाणो सावरात्रिक, इतरस्त्वसार्वरात्रिकः । प्रदीपो-
-ऽप्येवमेव द्रष्टव्यः | एताहिं चउएह विकप्पाण अरणतरणावि
जा जुत्ता वसही तीए ठायमाणाणिम पच्क्रत्त-दीवे श्रस-
व्वरयणिए-लहुगो। ससेसु क्ति-सव्वरातीए पदीवे दुविह-
जाइंमि य-चउलहुगा ।
दमा पुण सागणियणिक्खित्तदाराणं दोण्ह वि भदवा-
हुसामिकता प्रायश्चित्तव्याख्यानगाथा--
पंचादी णिक्खित्त, असव्वराति लहुमासियं मीसे ।
लहुगा य सव्वरातिय, जे वा आवज्ञती जत्थ ।॥२०७॥
पंच त्ति--पणगं तं आदि काउं जत्थ जे सभवति प्रायच्िछि-
त्तं तं तत्थ दायव्यं । णिक्खित्त त्ति-सचित्तपरपर्राणकिख त्ते-
असव्वराईए य पदीवे-मासलहुगे । अहवा-पंचादी रिकिखि-
त्ते ्ति-श्रादिणिक्रिवत्त-पणगं, मिस्सागणिपरंपर्राणकिखि- |
त्तत्यथः, कथ पुनराद्ये द्धितीयपदे धाप्त पूर्व तन ग्रहणमिति |
करेज्ञा-कृत्वा मासिय । मीसि ्ति-मीसारतरर्गाणणिक्िवित्त
मासलहुय, लहुगा य सब्वराइए त्ति-सव्वरातीए पदीवे
दुविहजोयेमि-चउलहुगा । चशब्दात्सचित्ताणतरिाक्रखत्ते
य। जवा आवज्वती जत्थ त्ति-एय सव्वदाराणं सामरणप-
ये, ज संघट्टणादिक आयविराहणं वा आयविराहणाणिप्फ- |
शण वा,तसकायणिष्फरणे वा, आवज्जति-प्राप्तोति,जत्थ त्ति
सागणियादिसु दारसु जदासभव याज्ञमिति वाक्यशषः।
सागणियिक्खत्ते त्ति दारा गता |
इयारि सधघट्ण ति दार, पएयस्स इमा भददबाहुसामिकता
वक्खाणगादा--
उवकरणे पदहिलहा, पमज्ञणाऽऽवासपोरिपमिमणे य ।
णिक्खमणे य पवेसे, आवडणे चव पडे य ।२०८॥
उचकरणे पडिलेह त्ति पदं,पव-'पमजणा' आवासगपोरिसि
मण य निक्सखमणे य पवसे आवडण चव पडण य ` एतावति
पदाणि, एतषां सिद्धसनाचार्य्यः व्याख्यां कराति-
पह पमज्ञण वासय, अग्गी ताणिऽङरव्वतो जा हाणी ।
ऋ, 4९५ ५ ७ [ = © ० क ~ रतिमरती
पारिसिभगमभजण- जाइ होति मष्यतु रतिमरती ।२०६।
पट त्ति-उवकरणे, पडिलेहा गदिता, पमञ्रणे ज्षि--व- |
सहिपमजणा गदिता, वासय त्ति श्रावासगदारं गित, अ-
ग्गि त्ति-' एताणि पेहादीणि करेतस्स अग्गी विराहिजति `
न्ति वक्तसेसे । जातिया उवरकरणं पडिलहात मासलहुअ ।
अह अगणीणए छुदणगाणि वडंति ता चउलद्टयं । अह अर्गि-
विराहणाभया पेहादीणि ण॒ करति, ताणि श्रकुल्वता जा प-
रिहाणि ्ति-तमाचजञ्जते । उबकरणपडिलेहणपरिहाणीए अ-
समायारिणिप्फएणं-मासलहं, उवहिणिप्फएणं वा वसहिं ण॒
पमज्जाति,अइगारणिता वाण प्जोति-मासलइं । अह पमर्जाति
तहावि-मासलहुं। अपमज्जिते छेगणगेहि अगशिकाओ विरा
हिज्जात तो--चउलहुयं। पोरिसि त्ति दारं-- पोरिसि-
भेगमर्भजणजो ती , व्याख्या पदं--उुत्तपारिसि पजति--मा-
सल, अत्थपोरिसि ए करेति-मास लहुगु र, सुत्तं णासेति-
८६
` ` 7 -------~ का
_अभिधानराजन्द्र: |
मलगुणपडि०
वह, अत्थ णासाति-वह, अभंग पुण जाती विराहिज्ञाति। इदा-
णि मण्णेतु त्ति दारं-' होई मरणतु रातिमरती वा.' व्याख्या-
नपदें सजातिवसहीए जति रती हाज्ज खुद ऑत्थिज्जाति त्ति
रागणत्यश्रः ता-चडउगुख्यं । । अह अरति मराणति-उज्जाते
तो चउलदुयं।
आवस्सगपरिहाणी पुण इमा--
जई उस्सग्गे ण कुणति,तति मासा सव्वकरण लहुगा य ।
वदणथुती अकरणे, मासा मंडासगादि धुडेसु य ॥२१०॥
"जति उस्सम्ग ण करेति तद् मासा कंठ, सब्वावस्सगस्स
अकरणे-चउलहुयं, अह करद ता जत्तिया उस्सग्गा करद्
तत्तिया चउलहुया, सठ्वम्मि चउलहुये चव । जत्तिया णद्
ति वंदणपः थुतीओ च तत्तिया मासलइया भवति, अह
करेति तं चव य-मासलहु, संडासगपमज्जणु-अपमज्जणे
वि-मासो ।
णिक्खमणे पवसित न्ति दो दारा इमा व्याख्या--
अवस्सिया णिसीहिय-पमजञआसज अकरणे इमं तु ।
पणगं लहु अ वडणे, पडे चउलहुग ज वषं ॥२११॥
सचित्तमीसच्रगणी, शिक्खित्ते सतणंतरे चेव |
सोधी जह पुढवी ता, वणदारस्यिमा वक्वा ॥२१२॥
णिकखमंतो आवास्सिये ण करेति, पविसंता शिसीहिये ण
करति, ता रितो वाण पमञ्जति, श्रासञ्ज वा ण करति
पएतेसिमे पायच्िछित्त--आवसिगातिखु जहासंखण पणग,
मासलह, अहावस्सिणिसीहिया करति तो पणग्ं चेव,
असमायारीणिप्फएएणं वा पमज्जासज्जाएं पृण करण
अगशिशिप्फएणं । णिक्खमत्तपवेसि ति दारा गया ।
आवडण--पडण त्ति दारा -श्रावडण-पक्खलणे तं पण भूमि-
असंपत्तों सपत्ता वा । जाणुक्तोप्परदि पडिश्रो पुण सन्वगते
भूमिष पत्थ ्वडणे चउलहुग त्ति भणितं भवति | ऊँ वषं
ति ्रार्बडिता, पड़ा चा चृर्टजीर्वानकायाण विरादणं
करिस्सति, तख्ठिष्फरणति भणियं होति । अहवा-आत्मवि-
राधनाणिप्फरणे, अर्गाणणिणिप्फएएं । आवडणपडण त्ति दाराः
गता | गतं च संघट्टणदारं ।
इयारिं भावे त्ति दारं--
न (4 ५
भसेहस्स वि सीदणता, असकतिसकणएपमइंधणय ।
विज्मविऊण तुयद ण, अधवा वि भवे प्लवता ।२१३।
श्रगणिखदहितावस्सण टिऊगं सीयतो सदा अप्पाणं षि
तावेज्जा हत्थपादे वा । तावण त्ति दारं गयं] उक्कमेण
इंधण नि दारं वक्खाणे ्ति--दधणे-- दास्य, तमेवे करति
उसक्लति सक्कण ति लद विज्छाउति, जलमाशिधणाखं
उकट्ला--श्रासक्रणा भरणाति । जलउ त्ति-तसि चव समी-
रणः अतिसक्रणा भरणति, शरणे वा इंधणं वा पाक्खवद्र।
इंघण लि दारं गये । इदाशि संकमणे जति दारं--अरुणेहि
ययो ति स्थानान्तरसक्रपत्यथः, तत्पुनः शयनीयस्थानमा-
दात्करो{नि, प्रदीपनक्रमयाद्धा सेक्रमण त्ति दारः गयं ।
54 ( ३५४ )
अभिध्रानराजन्द्रः।
_सूलंगुणपडि०
मरलगुणपडि०
इदाणि णिव्वावरण त्ति दार-विजञ्छाविङण तुयइण त्ति-
पलीवणगभया णिव्वावतु चारधूर्लादि स्वपितीत्य्थः । इद
वक्खारगुक्कमकरणं ग्रन्थलाघ्रवाथ । णिव्वावण त्ति दार गत ।
इदाणि करण व त्ति दार--अलातचक्रादिकरणनत्यर्थः ।
तत्रात्मविराध्रना अजिविराधना वा | अहवा वि भवे पलीव-
लय त्ति-तनालातन आराम्यमाणन प्रलीपण स्यात् ।
तत्थ इम पायच्छित्त--
गाउयदुगुणादुगुखं, बत्तीस जोयणाई चरिमपदं |
दङ्कणं व वेत, तुमिणीय प्रस उड़ाहों ॥ २१४॥
पुठ्वद्ध कंठ । णवर चउलहुगादी पच्छित्त दट्ठ्रण वञ्चते ।
तुसिणीए ज्ञि--दवउलादिमि पलित्त आत्मोपकरण ग्रही-
त्वा आत्मापराधभयात्साधवः प्रयाताः | त य वच्चते तूसि
णीए देद् द्रण गिहत्था पदास गच्छुज्जा । उड़ाह व करेज्जा। त
पदा भत्ताव्ैकरण व्साह वा ण
करण त्ति दारं गये ।
इदाणि संघट्टगादियाण करण ताण पच्छित्त भरणति-
संघडुणादिएसुं जणणाव्रजसु चउलहू हति ।
छप्पडकादिविराधण, इंघण तसपाणमादी य ॥२१५॥
पुव्वद्ध कट् । तावणद्वार इस विसस, परब्िछित्त-छुप्पति-
आदइविराहण त्ति-तावेतस्स छुप्पतिगा विराहिज्जाति, त-
{रणप्फरण पायाच्छित्त भवतीत बाक्यशषः । आदिसद्दाता
जइ बार हत्थादी पराबत्तउ तावति तद चउलहुगा । इंघ-
र्ति इधणदार इम विसेस पायच्छित्त दायव्वामति।
इदा जणणं ति दार--
अहिसवजणण मल, सटाणणिसवण य चउलहुगा ।
मघडणपरेतावण, लहु गुरु अतिवायण मूल ॥ ३१६ ॥ |
उत्तराधरअर्रणिमहणप्पयाणे अहिणवमरिंग जणयाति तत्थ
स मूल भवाति । इदाणि चशब्दा व्याख्यायत-सद्रार्णण- |
सवण य ्ति-जन्थ गिहत्थाह पञ्जलिया अगरणी तत्थ टियं
चव श्रायपरप्पश्रागण असंघट्टतो सवति तत्थ चउलदुग ।
साय पञज्ञालिण पुण अगाणकाए पदवादीयाण तसकायप-
जलताण सघट्टणपरितावणलहुगुरुगा, आतिवायण मूल | एवं |
कार्याणप्फणणं । न
चोदक आहर--
जदि ते जणण मूलं, हते वि खियप्ुप्पतीय ते च ।
इंधण पक्खयवमि पि, तं चेव य लक्वशं जुत्तं ॥२१७॥
यदीत्यभ्युपगम । त भवतः उत्तराधरारणिप्यञ्मागण जणि-
द उत्पादितेत्यर्थः मूलं भवति । ए त हते विधातितेत्यर्थः । |
णियमा अवस्स अणणा अग्गो उप्पाइज्जिस्साति, तम्हा दत
दि ते चव मूल भवनु । किचरान्यत्-दश्रणपक्खर्वामि [व अ-
ननो ऽग्निरुन्पाद्यत | आपिः पदा थंसभावन । उस्सक्कण व अ-
न्ये ऽग्निरून्पा्यन । तं चत य य लक्खण ति-तदवान्यागन्युन्प
जिलक्षण । चशब्द लक्षणाविशप्र्भधायी । जुस याय्य घ-
८पानेत्यथः । तम्हा एतसु चि मूल भवतु |
पुनरपि चादक पलात्रापपलिमाट-
अवबि य हु जुत्तो दंडो, उषतः णतु अणुग्गह जुज्ञे।
देज्जा | पंतावणाई वा क- |
रज्जा।सय वडिति दडूमुडाद करज्ञा । चसदा समुञ्चय
अणुकंपा पावतरी, शिक्रिवता सुंदरी कटं णु ॥ २१८॥ । । ।
श्रपि च-ममाभिप्रायात् , इशब्दा-दंडावधारणे. जुत्ता-या
ग्यः, दंडणे दंडः । उवघ्रात त्ति-विनाशत्यथः, न--प्रतिषेधे,
तुशब्दः-प्रतिषधावधारणे , स्तोकप्रायश्ित्तपरदान विशेष्
वा । अरुग्गह ।त--अरणुवघाते, उद्खालनत्यथः, जुज्ञ-युक्के
अखुकंपरणं-अणुकंपा, दयति-भरिय होइ । सा पावतरी कहं ?
भवति-स्यात्, कथे बहुप्पच्छित्तप्पाणातो णिक्किविता
शिश्धिणिया सा सखुदरा-पटाणा, कहं? , भवति-स्यात् ,
कथ अप्पपच्छित्तप्पदाणातो । कटं ति प्रश्नः, नु-वितर्के।
श्राचायाद--
उज्ञालभपगा णं, उजाले( वश्चिओ तु बहुकम्मो |
कम्मार इव प्रत्ता, बहुदोसयरों ण भंजंतो ॥२१६॥
उज्ञालः प्रज्वालकः, भेपका-शिव्वाचको, णशब्दो वाक्या-
लकारार्थ । पर्ता दों पुरिसाणे उजाला वरिणिश्रो भग-
वती बहुकम्मा । तुशब्दो निश्चिताथीवधारण । अस्यार्थ-
स्य प्रसाधना्थ आचारयों दष्टान्तमाह-कम्मारे तक्षि-कम्मक-
रा-लाहकारा, इव आवम्म, पञ्मोत्ता आयुधारि रिब्वतिन्ना
सा बहुदासतरा भवति, ण य तारि आयुधा जा भजत
त्यथः । तरशब्दो-महादोषप्रदर्शन, यथा-कृष्णः, कृष्णतरः
एवं बहुदोसा, बहुदोसतरों भवति । कष दण्रान्तः । तस्योप-
सदारः-प्वे अग्निशर्मं पज्जालयंता पुरिसा वडइदासतरा-
न निवौपयतत्यथः । तउक्ायस्स दाप्पिया पडिसवणा गता ।
इया शि तेउक्कायस्स कण्पिया पडिसवणा भरणति--
वितियपद असति दीह,गिलाण अद्धाण सावते ओमे ।
सुत्तत्थजाणतेण, अप्पाबहुय तु नायव्वं ॥ २२० ॥
बितियं अबवायपदं, उस्सग्गपदमंगी कृत्य, द्धतीयं अववा-
यपदे । तत्थिम दारा-असाति, दीह, गिलाण, अद्धाण, सावते
आम । एए पंतीए ठावऊण तसि हेद्ठातो सागणियादी जण-
णपज्ञवसाणा णच दारा ठाविज्ञात । तत्थ सागणियदारस्स
हेद्राता हाती पडणपज्ञवसखाणा णव दारा ठाविज्ञाति | स-
सा एकसरा । एत सागणियादी सभया असति दारे अवय-
दिञजति।
तत्थ सागणिय त्ति दारं--
अद्वाण णिग्गमादी, असती ते जोतिरहियवसधीए ।
दीवमसव्वे सत्रे, असव्य सव्व य जोतिमि ॥२२१॥
श्रद्धाण मता अडर्वीआ ताश्रा णिग्गता, वसतिमप्राप्ता
इत्यथः । श्रादिसदातो इपखु ठाणसु वद्ममाणा-'असिव,ओ-
मादरिपः, रायभण, खुहिय,उत्तमट्रु य य ।फाडय गलाणाचेसे-
स. देवया चव, आयारए ॥१॥'' त य वियाले चवं, पत्ता गामे
सत्ताए । जातिशहियवसहीए , ठायताणमा जयणा ॥
पटम् श्रसव्वरातीप दीवे, असति सब्वरादईेए दावे
तस्सासति असव्वराईएण जाइए, श्र सति सव्वराताए जोइप,
मि इत्ययं निपातः | सागणिय सि दारं गये । णिक्खित्तदा-
राववाता ण सभवाति ता णाववइज्जाति । संघट्टएं ति दारं
भराणांत ।
संप्रद्मणभया पहादिसु इमा जयणा कज्जाति--
किडओ व चिलिमिणी वा,असती समए व बाहि ज अंत ।
के किक. =
( 2५ )
भूलगुणपडि०
डागासति सभयंभि ब,विज्छायऽगणिम्मि पेहंति।२२२।
पदीवजोतीणं अतरे वेसकिडगादी दिस्सासति,तस्सासति |
पोत्तादि चिर्लिमिणी दिज्जाति, एवं काऊण पेहादी सब्वदारा |
“करेंति । अ्साठ किडगचिलिमिणीणं बहि उवकररा पहेतु । |
बहिं सभए 'जे अंत अतमिति जूरर्ण अचोरहरणीयमित्यर्थः
ते बाह पडिलहिति सारोवकरणं अच्छाति ते विज्काय अग-
णिमि पेहाति | ठागासात क्ष--अह बाह जतुवकरणस्स च- |
दाउ नऽत्थि सति वा राण अतुवकरणस्स वि भयं तो सव्व
चिय अतसारावहि विज्काय5्गर्णिमि पदंति । पत्ति दारं गतं।
पमज्रणावासपारिसिमणदारा चडउरो वि एकगाहाए व-
क्खाणेति--
रिता ण मपज्जंति, मृगावासं तु वंदणगहीणं ।
पोरिसि बाहि मणण व,सहाण य देंति अणुसट्रि।२२३॥ |
खिता णिग्गच्छेता,पविसंतता वा वसहिं न पमज्जंति त्ति वुत्त
होइ । मूगावार्स ति--वायाए अखुच रण, बंदणगहीणं-वंदन
ददतीत्यथः । सुत्तत्थपारिसीओआ वाहि करेति । मणण व
त्ति-सजातिवसदीणए रागदोस न गच्छति, ज य सहा हाज्जा
ताण य सहाण देति श्रणुसद्वि, सदो-श्रगीता्थः, चसदा |
गीतत्थाण य-श्रणुसद्रुउवदसा !
* मूगावास तु वंदणगहीणं ' श्रस्य व्याख्या-
आवास बाहिं असती, ठितवद एविगडणाथुतिहीरं ।
सुत्तत्थ बाहि अते, चिर्लिमिलि काऊण व भणति।२२४।
अरणूणमतिरित्तं बादिमावस्सगं करेति, बहिट्वाणासति ठिय-
त्ति,जा जत्थ टितो सा तत्थ ठिता पडिक्कमति | दंदणगथुती-
हि हीण; टीणसदो प्तय, वियडणा--श्रालोयणा, तं ज़य- |
णाए करेति, वासकप्पपाउयाणिविद्वा चेव ठिता भरति ।
संदिसह त्ति--पोरिसिवाहि त्ति च्रस्य व्याख्या-सुत्त त्थपो-
रिसीओ स चिद्वाए वादि करेति, असति बहिट्ठवाणस्स अतो
चिंलिमिलि काऊण भणति । वा विकल्प । चिलिमणिमादीण
असति अणुपेहादी करेतीत्यथः ।
अखुर्साट्टे क्ति अस्य व्याख्या--
णाणुज्जोया साधू, दव्वजोतिम्मि मा ह सजित्था ।
जस्साव ण एत णहा,स पाउआ णामाल्नआ गम्ह २२१५
अग्ग्न्युद्योतो-द्रव्योद्योतः, भावे--शानोद्योतः, सज्जित्था-
शक्रिः, गेहीत्यर्थः | उद्योते जस्स वि ण एति णिद्दा स पाउ-
श्रो खवति,श्रह गिम्हे पाउयस्स घम्मो भवज्जा, तो णिमि-
ज्लियलोयणो सुवति, मउलावियलोयणे त्ति वुत्तं भवति | च-
उरा वि दारा गता।
इदाशि शिक्रखमपवेस तति दारा--
तुसिणीआ निति शिन्ति, चउमरगमादी कओ्ओोई अत्थिवेता ।
सहा य जोतिदूरे, जग्गंति यजा धरति जेति॥ २२६ ॥
तुसिणीया मोणण,अआनिति पविसिन्ति,णिति वा णिग्गच्चेति |
वा आवगस्सर्गणसीयाश्रा णा कुचति त्ति वत्त भवद् । णि-
क्खमपवसा गता | इयाणि आवडणपडणाओ मूग अलाप,
श्रादशब्दादाञ्नशकरटिका गृह्यत । राव डणपडणभयात्कचित्
अस्पृश्यमाना इत्यथः । गता दो दारा | तावण त्ति दार गय।
अनिधानराजन्द्रः)
मूलगणपडि०
इदाणि इंधणे त्ति दारं--
अद्भाणादी अतिणि- दपल्लिग्रो गीतो सक्कियं सुयति |
सावयतयउस्सिकण, तण भए होति थाणाओं ॥२२७॥
श्रद्धाणादिपरिस्सतो अतिनिद्यापेल्निओ--अतिनिद्राग्रस्तः
गीयत्थगगहण जहा श्रगोयत्था ण पस्सति तदा तं जयणाप
उसक्षिडे सुवति, स पव गीयत्था सीदसावर्यादिभष जय-
णाए उम्मुगाणि ओसक्कति चोरभप उसक्कोावसकणारां
भयणा । कथ जति श्रतिक्र तिया तणा तो उसक्क एण कज्जति ।
माश्रग्गि दट्ठुमागमिस्संति श्रह थिरा चोरा तो उस्स-
क्रिज्ञति त जलमाणि अभि दद्डे जागरंति त्ति णाभि-
इवेति । एसा भयणा अपुव्विधणएक्खेव पि करेज्जा ।
श्रद्वाणविवित्ता वा, पक्डड असती सयं तु जालंति ।
सलादि व तावेउं, कज छ्ारेणमकमणा ॥ २२८ ॥
अद्धाएं-पहो, विवित्ता-मुसिया, श्रद्धाणविवित्ता पक्खडा-
परेण उञ्जञालिया.तस्स असती तत् स्वयमात्मनेव ज्वालयति ।
एतदुक्क भवाति-शीतार्ता इंधनं प्रत्तिपति । इंधणे त्ति दारं गय।
इृदाणि रिव्वावणे न्ति दारं भरणाति--पक्खएण वा सयमु-
ज्जालिएण वा सूलाति तावेउ, च्रादिसदातो विसूतिका कत
कज्जे निष्ठितेत्य्ः । पलीवणभया छारेणाक्कार्मात | णिव्वाव-
शे त्ति दारं गयं।
इदाणि सक्मणे त्ति दारं--
सावयभय अशंति व, तो उवमणा बाहि णीशिति।
वाहि पलीवणभया, अरे तस्स5सति शिव्वावे ॥२२६॥
सावयमभण अतणन्थतो श्राणयंति । तत्थ णाता वा तो उव-
मणा बाहि णीणयति, अह वादि पलीवणभया ण णीणयंति
तादे तत्थ दियं छारेण दयति । तस्सासति त्ति छारस्स
असत्यभावात् शिव्वावेति उञ्भावेति लति एगट्ट । असति त्ति
दारं गय ।
दीहादिदारेसु सागणियादी दारा उवज़ुज्ञाति तं जोए-
यव्व इमं तु दीहादिदारसरूव तत्थ दीहे त्ति दारं--
दाहच्छेयणडक्का, केण जग्गडइकिरियद्रता दीहे | दारं।
आहारतवर्णहऊ, गिलाणकरणे इमा जतणा ॥२३०॥
दाहात्ति यं डक्क कयाति उभयव्वं तरिणामेत्त श्रगणो घ-
प्पति । छंदो वा करायव्वा तस्स देसस्स तो अधकारे पदीवा
जोती वा धरिज्जति। डक्का-दष्टः,कण ज्ि-सप्पण 5प्मतरेण वा
बातापित्तसिम्हस्स साध्यन असाध्यन वा तत्परिन्नाननिमित्त
जाती घष्पति जग्गति दद्ढा ,जग्गाविज्जाति मा विस स ण णि-
ज्जिहिति । उनल्लालिय ण वा एवं दीहदट्डस्स किरियाणिमिक्त
जाई घप्पति । दीहि त्ति दारं गयं । इया गिलाण त्ति दार।
पच्छ 5द्धसम॒दा यत्था । आहारों गिलाणस्स तावयव्वो, त्थ
पुण तावणकारण इम दव्वा तावेयव्या--
खारुएणह।दगलवा, उत्तर खाक्खत्त पच्छकरणं तु|
कायव्वगिलाणद्रा, रकरण ` गुरुगः य् आणादी।।२३१॥
खीरं वा कट्यव्व.उरदादग वावि, लेवी वा उक्खडगत्वा
इमाए जयणाण । उत्तर त्ति उवचुटलगा भरण ति -णिकिखत्त
मूलगुणपडि०
तत्थ ठविये, सो पुण उवचुट्ला एबं तप्पति, जं चुल्लीए |
इंधरणो पक्खिपाति तस्स जलियस्स जाला अवचुल्लगं गच्छति
एत च्रहाकडगे तप्पइ, उबचुल्लगस्सासति पुव्वपाकरिखत्ति
धणजलियचुल्लीए तांवज्जइ, असति मगालगसु वि पुव्वक-
तेखु पच्छुकररो एवं सव्वासर्तापण चुजल्लिमंगालगा वा काड
शरगणिमाणिय इंधणं पक्खिविय कायञ्वमिति । तुः सर्वप्र-
कारकरणविरोषण । चादक आह-ननु अधिकरण, आचार्य्या-
ह-यद्यपि श्रधिकरण तह वि कायव्य, गिलाणम्स अकरण
गुरूगा य आणादी ।
अह साहुणो सूलं विस्इया वा होज्ज तो तावण
इमा जयणा--
गमणादिशंतमुंमुर, इंगाले इंधण य॒ णिव्यावे ।
आगाढे उद्रणादी, जयणा करणं व संविग्गे ॥२२२॥ |
आई क्षि--आदावंब जत्थ अगरणी अहाकडो भियाति |
तत्थ गंतु सलादि तावयव्वं । (9.
श्ट जन्थ अगणी अहाकडा भियाति तात्थम कारण होज्जा-
ठागसति अचियत्ते, गुञ्फगाणं पयावरणे चव ।
अआतपरिस्सा दोसा, आणणणिव्वावणेऽणतं ॥२३३॥
सामा तत्थ णत्थि. आचियत्तं-र्भ्राच्चसं वा गिहपइणो ,अहवा- |
गुञ्मंगाणि पतावेयव्वाणि ताणि य गहव्थपुरता ण सक |
ति ताचेड तो ण गम्मति। अह तरुणाओ तत्थ थीआ सो य _
साह इंदियणिग्गह काउमसमत्था ता आयसमुत्थदासभया |
न गच्छति, परा गिहत्थीओ ताव तत्थुबसग्गंति पव पित- |
च्थ ण॒ गम्मइस्सति । इस्सालुगा गिहत्या ण खमेति । दास
त्ति-एवचं बहुआ तत्थ दासा णाऊण श्रगीए तत्थ आरणा |
कायव्वा । कते कञ्ज निव्वावणे कायव्वे, उज्भवर ति वुत्त |
हचइ । न तदि तो दोसले गेतव्वं । जञ पुण श्राणणे तं इमाप
जयणाए, रत त्ति खुड्गा थरा वा हयसंका रोतगे तावेड
श्राणयंति तेण ते तावयंति । अह शेतगे अतरा आशिज्मारं
बिज्भाति तो मुम्मुरमाणयंति। मुम्मुरा अगरिका श॒यासहितो
सुम्हच्छारा । मेमुरे असति तण वा अप्पणणप्पमाण इंगाले
श्राणयाति । श्रणिघणा णिज्जाला इंगाला भणणति। ते पा्डि-
हारिए आणयति । कते कञ्जे तत्थव ठावयंति | इंधण त्षि-
इंगालासति तदि वा अप्परणण्पमाणे जया वा खद्धग्गिणा
पओयणं तया इंधणमाव॒ पक्खिवंति | एवं कारणे गहणं कड
य कञ्ज शिव्यावयब्बो अगणी छारमादीहि, मा पलीवण
भवे। आगाढग्गहणा इद् शापयति-जहा एस किरिया आगाढे
णो अणागाढे अछण ति उसक्कशे, आदिशब्दादन्यत्र नयन, |
जलन जालणे श्रोसक्षणे ति एकट्ठू करण ति पडिणीयाउदट्ड-
शनिमिक्त करण्मपि कुयोस्। चशब्दात् ग्लानागिकायमव-
च्य जतनमपि कार्य । सथिग्गे ि-जो एताणि करता वि |
सविग्गो सो एव करति । गीताधर्परिणामक्यथेः | पस पुण |
पच्छुछत्था । सव्यस गिलाणादिदारसु जदासभव घडावेय-
घ्वा । गिला त्ति वारं गय ।
ददाशि श्रद्धाण सावए आम दारा, तिएिण वि एगगाहाए |
चकखाणति--
अद्भाण॑मि बिवित्ता, सीत॑मि पलंब्रपागहेउं वा । दारं ।
प्ररकूडअसतीएँ सय, जाले त्ति व व सावयभए वा ॥२३४॥
-स्ताघ-श्रवकाश; |
अभिध्रानराजन्द्रः।
मूलगुणपडि०
श्रद्धाण--विवित्ता, मुषिता इत्यथः । सीतमिति--कंपाणे
सति सीत पडते परकड्ञगणीए हत्थपायसरीराण तावण
करेति । पलवपागष्टडं व त्ति-पलंबा-फला, पागो--पचनं,
हतुः-कारण, वा-विकप्पो ,एप एव पलम्बपच्चननविकल्पः । एष
पलंवपागा परकड्ाए चेव अगरणाए कायव्वा । । परकए अस-
तीए, सय जालेति-सखयम्-श्रात्मनेव, वा उपप्रदर्शन । कि
पुनस्तत्प्रद्शयति-इद ओमद्वार ऽप्यष एव प्रलेवाथः । सावया-
सीहाई, तस्समुव्थ भए अग्गि पालयति । गया तेउक्रा-
यस्स कप्पिया पाडसिवणा । गता तउक्राता ।
इदाणि वाउक्कायस्स दप्पिया पडिसेवणा भरणति-
णिग्गच्छति बाहरती, लिड पडिसेवणकरण फूमेइ ।
दारुग्धाडकवाडे, सधावत्थे य छीयादी ॥ २३५॥
घम्माभिभूतो णिलयब्भंतराओ बाहिं शिग्गच्छृति, अशि-
लाभिधारणनिमित्तं । वाहरति ज्षि-शब्दर्यात बहिट्विओ भर-
ति-णदि एहि इतो सीयला वाऊ । िंड पड्सिवति, छि
लिड ते पणो लोप चोप्पालया भरणंति । तेसु पव्वकतेसु
वाउपडिसेवणं करति । करणं ति श्रपुव्वाणि वा छिड्ढडाणि
वायुअभिधारणनिमित्त करति । पफूमति त्ति-ध्रम्मद्वितो
्रराणतरमग फूमति, भत्तपाणमुरद वा । दारू तति दुवार
भरणति, तं पुब्वकयमिद्धादीहि ठाइयमुग्घाडाति, अपुब्ब घा
दारमुग्घाडेति त्ति वुत्त भवति । उग्घाडसदो उभयवाई । दारे
कवाड य । उग्बाडति वा कवाड घम्मओ, अहवा दारसुगधा-
डति, उग्धाड वा उग्धाडति, उग्घाडति न्ति बुत्त भवति,एव
तिरिण पदा कजात । संधि त्षि-संधी दोरह घराणं अतरा
छिड़ी, तत्थ वात सातिज्ञति। वत्थं चउरस्सग काउ पडवाय
करेति | छीतादि त्ति-छीत-छिक्कियं । आदिसद्दातो कासियं,
ऊससिय, नीससिश्र एत छीयादी अविहीए करेति त्ति।
सुष्पे य तालर्टे, हत्थे मत्ते य चेलकषे य ।
अच्छि फूमेइ पव्व- ए णालिय चेव पत्ते य ॥ २३६ ॥
सुप्प य दालकारं भरणति, सञ्वजणवयप्पसिद्धं, तेण बाय
करेति,जहा धरणं चुणतीश्रो । ताला-रुकसो. तस्स वेरं ताल-
घंट तालपत्रशाखत्यथः । सा य परिसा छिज्जति, हत्थो-स-
रीरेगदेसो । तेण बीययति, मत्तगो-मातजक एव, तेण वा वातं
कराति | चलं-वख, तस्य कराणो चलकरणा तेण वा बीयति ।
छिद फ़ूमइ ज्ञि-अच्छी-अक्खी,तं कदष्पा परस्स फूमति।
फूमणसदा उभयवायी । पव्वए क्ति-बंसो भणणएति,तस्स म-
उभे पव्व भवति | णालिय ल्ि-श्रप्वा भरणएति,सा पुण लोगे
तुरली भरएणति । एण् बवीयति । पत्त य क्षि-पत्त-पद्मिनीप-
च्रादि तैरात्मान भक्त वा बीयति।
संखे सिंगे करतल-वत्थी दतिए अभिक्खपडिसेवी ।
पचेव य छीतादी, लहुया लहुया य अंद्वेव ॥ २३७ ॥
सखा--जलचर प्राणिविशेषः, सिग--मदिसीसिग , शखवं
शुक्ल वा धमइ । करो- हस्तस्तस्य तलं करतल - -दस्तसंखं
परति त्ति वुत्त मवति । श्रणतरं वा करतलेन वाद्यं करोति ।
बत्थी--चम्ममयो, सा य बेज्जसालाइसु भक्ति, त च वाय-
पुशण करेति । दतिश्रो- तिकः, जण रदीमादिसु सतरणं
कज्जति, तं च वायपुरण करोति । अभिक््खप डिसेवीति-एते
निव „ष ` (वाः (किन
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१ 4
|
( ३५७ )
सलगुणपाड ० ध
निरगच्छुवाहिराती ठाणा अभिक्ख पडिसेवंता अप्पप्पणो |
ठाणातो चरिम पावति । पचव य छीयादिखु-पणगं भवति । |
एल्थ वसदि वार्या सपय पावति । लहुय त्ति-- जस लहु-
रास, तसु दसि वारादि सपयं पावति | लगा य अद्वेव
य तक्ति-जसु चउलहुआ, तसु अदिं वारादि सपद भवति |
` | विणेओ पुच्छति-भगवं ! तुब्भे भणल--जहा णिग्गच्छदा--
|
||
रादिश्राण अप्पप्पणो परिछत्त सट्टाणातो सपय पावाति,तमहं
सट्ठाणमेव ण याणामि कहेह । ते गुरू भणाति--
साहच्छि फ़म हत्थे, मत्त पत्त य चलकष्म य ।
करतलसाहा य लहू,सेसेसु य होंति चडलहुगा।।२३८।॥ ,
जति लिङा तति मासा, जा तिप्तपि चतुलदु तेण परं ।
एवं ता कर णंमि, पुव्वकया सेवे चव || २३६ ॥
साहा साहली-वृक्षसाखेत्यर्थ: । अच्छिफुमण वि प्तेखु |
सब्वस मासलह भवति, ससस त्ति-ज ण भणिया तेसु चउ-
लहुआ | साहावयवेण च सदा साहाभंगेण वा पेहुणण वा पेहु-
णहत्थेण वा वीयइ त्ति वुत्त भषति । ससस होति लहुआ उ,
एतं अतिप्पसत्त लक्रवणं आयरिओ पच्चुद्धारं करेति । जई |
छिड्डा गाहा-जइ छिट्ठाणि करेति तति मासलहु°जाव तिरिण,
तिरणे परेण चउलहु भवति । एवं ता अपुव्वचिकरणे
पच्छित्त । पुञ्वकयासेवणे चव त्ति-पुव्वकते एकमि वा- |
तर्पाडसरवरा करेदइ--मासलह । दोहि दो मासलहु- तीर्दि
तिणिण-मासलह, तेण परं-चउलह, भवति ।
करमदगमादौ लहुगो, कासे य वियेभिएण पणगं तु |
एकेकपयाद्। पुण, पसज्ञणा होतिऽभिक्णणतो ॥२४०॥ |
कमदे-साद् जणपसिद्ध, आदिशब्दातो कंसभायणादी । ए-
तेखु मासलहु, कासिओ खासिये वियेभिये जंभाइतं--चस-
द्वाओ छित्तकससिअनी ससिएसु अविहीए पणगं । एक्केक्षप- |
यादि त्ति-श्रात्मात्मयपदात् श्रभीद्णत उवरुवरि पदं पस- |
ज्जति, भवतील्युक्र भवति । सिस्साभिप्पायतो किमत्थ प- |
च्दित्त दिज््जाति ।
पत्थ भरणात--
वाससिसिरेसु वातो-बहिता सीतो गिदेसु य स उरो ।
विवरीओ पण गिम्हे, दियराती सत्थमण्पाष्य | २४१॥
चास त्ति--वरिसाकालो, सिसिरो-शीतकालो, पतसु ,
सअधिध्रानराजेन्द्र
वाश्रा बहिया गिहाण सीतला भवति । गिहेखु तु ग्रहाभ्य- |
न्तरेषु सोम्हो-सोष्मः | एवं तावत्कालद्वये। तव्विवरीतो पुण
गिम्हे त्ति-पुव्वाभिदहितकालदुगाश्रो विवरीतो गिम्हे- |
उष्णकाले, गरृहाभ्यन्तरे सीतो वायुः, बहिया उष्ण इति ।
दियराइ त्ति-वाससिसिरगिम्देखु एय वाउलक्खणं दिवसओ
वि,रातीए वि । अहवा-दिवसश्नो-वाऊ उरो भवति, रातीप
सीयलो भवति | तत्थ--शखे, ज जस्स विणासकारणे तं |
तस्स सत्थ भरणति । अन्यो ऽन्ये शस्त्र-परस्परं शख्रभित्यथः,
वाससिलसिरांगहब्मेतरवाओं बहिवातस्स सत्थ, बहिवाता
वि गिहवायस्स सल्थ.,एवे गिम्हे वि। एवं दिवा वातो सव्व-
रीवायस्स, सव्वरीवाञ्रा वि दियवायस्स। जहे तसि वायाणं |
श्ररणारणसत्थकार ण॒त्तं दिदं ।
एमेव देहवातो, बादिरवातस्स दाति सत्थं तु ।
६०
सरलगुणपडि०
वियणादिसमुत्था वि य,स उप्पती सत्थमण्णस्स।२४२।
एवमव अवधारण, दिट्ुतापसहारपदेसणत्थ वा । दहवाओ
त्ति-सरारवातः, साय छीयादिसु सखांसगपूरण वा, दाति-
यादिपूरणखु वा भवाति । साय बाहिरवायस्स हाइ। सत्थ तु
एवं-वियणादिसमुत्थो, वि य क्ति--आदिशब्दः वियणगवि-
हाणतालयेटाइप्पदारिसण॒त्थो । स इति--स्वन स्वन विधा-
ननात्पन्नः, अन्यान्यशरस्त्र विजेयमिति । अनन कारणन
प्रायाश्चत्त दीयत इति ।
इमे य आयसंजमाविराहणा दासा भवति-
संपातिमादिघातो, आउवगाओ य फूम वीर्यतो ।
वायतस्म य बाहा, दंडियमादी बहिकरणं ॥ २४३ ॥
वीयणादिणा चीयत॑स्स मच्छियादिसपादिमादिघाता भव-
ति, एसा सजमविराहणा | आउवघाता य फूम वीयता त्ति-
फ़ूमंतस्स मुह सखृखति, वीयतस्स य वाहा दुक्खात , एसा
उवधातो । सिग, सखे वा, चस वा वायति दाडिश्रा गिर्ह-
जञा, उप्पव्वायति त्ति वुत्त भवति । ्रदसदातो रायवल्लभा
वा चित्तादि हि सहसा संखपूरण कोई साह गिहत्थो वा
खित्तचित्तो भवेज | आदि सद्ाता हरिसिओ दित्ताचत्ता भव-
ति । पमत्तो वा जक्खाइट्टो हवेज्ज । उम्माओ वा से समुप्प-
ज्िज्। बहिक्करणं ति-पुणो पुणा सखे पूरयंतस्स बदिरत्त भ-
वति । चः समुच्यये । गता वाउक्कायस्स दण्पिया पडिसिवणा ।
इदाशि वाउक्रायस्स कप्पिया पडिसेवणा भप्तति--
वितियपदे सहादी,ऽद्वाण गिलाणाइकमे ।
सप्पा य उत्तिमटर अ-णधियासे य दस य ॥ २४४ ॥
साति त्ति दारं--
सव्वे वि पदे सेहो, करिजऽणाभोगतो असेहो वि ।
सत्थो वच्चति तुरियं, अत्थ व उवेति आदिचो ॥ २४५ ॥
णिग्गमणादी सव्वे पदा सदो अयाणमाणो करेज्ज,आदिस-
दातो आरभोगतो अणाभोगतों असेहो वि णिगच्छणादी प-
दा करेज्ज । सहादि त्ति दारं गते । अद्धाण ज्ञि-अद्धाएं प-
डिवरणा साह सत्थेण समार, सो य सत्थो तुरियं वच्चि-
उकामो अत्थ वा उवेति आइच्चो, उसिणं च मत्त तं नि-
व्वावेड वीयणादीहिं तुरियं भोयव्वमिति । श्रद्धाणे त्ति ग-'
ये । गिलाणागिकमे-" पढमालियकरण "” गाहा-गिलाणवे-
यावच्चकरो पढमालियं करेति । त॑ च से उसिणं भत्तपा-
णे लद्धं जाव य ते सयमेव सीतीभवति ताव गिला-
णस्सख वयावच्चवेलातिक्रमो भवति, श्रता ते विधुवणादीर्दि
तुरियं णिव्वावेऊण भोक्तूण य गिलाणस्स य मत्तमाण-
याति ओसहं वा | गिला त्ति दारं गये | ओमे त्ति दार-
पदमालियाकरणवेला फिट्टर । एस पटठमपादो ओमे वि
घडावेयव्वो ।
दारगाहा--
सरत्थमेति वाऊ, अमि विधुणाति फूमणेणं वा।
एतेहि कारणेहिं, सीतावण होति उभए वि ॥ २४६ ॥
सूरत्थमति--आमे ्ि-दुष्भिक्खे,तमि य दुब्भिक्ख अत्थव-
ण॒वेलाए उसिणं भत्तपाणं लद्ध, जति ते सये सीती हो-
यमाणं पडिच्छृति जाबव तावय सूरत्थम्रति, णय सू-
( ३५८ )
अभिध्रानराजन्द्र #8 मलगुणपडि' ठे
मृनगुणपडि०
थरोति ताह विधुवणादीहि. विधुवणाति त्षि-विविध , धु-
णाति विशधुद॒णात बीयाति त्ति बुत्त भवति | अहवा-वि-
धुचणाति तज्षि-विहुअणा-वियणआ , तन वीयि । फूमणण
व त्ति-खुहरा फमति, एतहि सीयावसं करति-सीतली-
करणामत्यथः । उभण वि त्ति-मत्त, पानकं च । अहवा-सरी-
रमाहारों य | अहया-आओदन व्यंजन च । ओम न्ति गत।
सरण ¡त्त दार--
सण य भिगमार्दा, भिलणद्र विदे महल्नसन्थ वा ।
सससु तु अभिध।रण, कवाडमादीणि वुग्धाड ॥२४७॥
सरण त्ति-सराणा सगा त्यर्थ: | सिंगगमादी धमति, सगार-
णिमित्तं तस्स य एवं सभवा भवति । मिलणट्ठविहे ति-
दीहमद्धाण तमि पराप्परे फिडिया मिलण्ट्रा सिगगमा-
दी धमंाति ।
महल्लसत्थ वा-महंतों सत्था खंधवारादी |
तेमि ण णज्जाति, का कत्थ ठितो तादे सिंगगमादी पूर- |
उज्जात । गुरुसमीव तना सव्व आगच्छाति | एतण कारणरं |
सिंगगमादीपूरणं करेज्जा | सराण त्ति दारे गये । ससेखु त्ति-
उत्तमट्अणहियासदसी दारा । तत्थ उत्तमद्ठद्रियस्स घ-
म्मा परिडाहा वा स कज्जाति, अणहियासा घम्म ण स- |
हति, देस वा जहा उत्तरावहे-अच्चत्थे प्रमो भवति । एत- |
सु तिसु वि दारसु अभिधारणं करति, कवाडमादीणि वा|
उग््ाडति, आदिसदाता अपुब्वदारं उम्घार्डात छिट्ढाणि
वा करेति | गता तिणिण वि दारा | गता वाउक्कायस्स क-
प्पिया पाडसवणा । गता वाउक्काओ |
इदाणि वणस्सातिकायस्स दाप्पया पड़सिवणा भरणति--
~ [भा क च
बीयादिसुहमवद्ण "ंणाक्खत्तपरत्तगातकाए य |
गमणादिकरणलछुयण,
दुरूहणप्पमाण गहणे य।।२४८॥
बीया-परित्ता अणता य | आदिसदाओं दसविद्ा बणस्स- |
ती। खुहम ति-पुण्फाधद् णसद्ा सव्वसु पञ्चय, णिक्खित्तं-न्य -
स्त, ते पुण परित्तवणर्स्सातकाए अरणतवणस्सतिकाणए वा,
गमणादिति-प्ररित्त णतण वा गमणं करति । । आदिसदाओ
ठाणाणिसीयणतुयद्टणकररं प्रतिमारूपे करति । चृदणं-ए-
गणछुदं करति, -दुरूहणे--आआरुटण, आर्द्रोमलकादिप्रमाण-
ग्गहणं हत्थण च सदा पक्वा य । एस संखित्ता दारग्गहण-
त्था वि्वरिता |
इदाणि पच्छन्न भरणति-
पंचादीगुरु लदगा, लहुगा गुरुगा परित्तरताणं ।
गाउय जा वत्तीसा, चतुलहुगादी य चरिमपदं ॥२४६॥ |
पणगं तु बीयघट्ट, ओकुट्ठे सुहुमघदणे मामे ।
समसु पुढविसरिसं, माचृण छेदणदुरूहे ॥ २५० ॥
पंच ्ति-प्रणगं, आदित्ति-बीयदारे, लहुगुरुग त्ि-जति |
परित्तवीयसंघद्टणण भन्ते गराहति तो लहुपणगं , अह
अगणेतवीयसंप्रद्टा तो गुरुआ | लहुगा गुरुणा परित्तणे-- |
ताण ति--पणगा संवज्कंति परित्तसुहुमे पादादिणा संघ्रद्ट- |
ति लड॒पणग, अरत गुरुपणगं | अहवा--लहुगा गुरुगा
परित्तणताणे तगिण खित्तदारं गहिये ।
काए श्रणानरार्णाक्खत्त लदुगा, अणत-ग्रणनरणिाक्रखत्त
गुस्णा, पत्ताणंतव्रणस्यति (ण परेप/णिकिवित लगुरः -
परित्तवणस्साति- |
मासा । परित्ताणतवणस्सतिकाषए मीस अणेतरणिबतरि
लहुगुरूमासा । तसु चव परंपरे जहासंखण लद |
गमणदार गाउया ०जाव तीसातिगाडयाता आ रब्म दुगणाद-
गुणण०जाव वत्तीसं जोयणाणि गच्छद् । पन्थ अट्सु ठाशेखु
चउलहुगादी | चारिमपदंति-गाउप चउलइुगं,एवं० जाव वत्ती ।
साए पारोचियं। एवं परेत्त.्रणेत,गाउयादि दुगुणण०जाव सो
लस चउणुरूगादी चरिमं पावति | चसद अवधारण । पण-
गे तु वीयगाहा-पंचादी लहुगुरुय त्ति -पयस्स विराहणगाहा- ।
पायस्स.सिद्धसनाचा्यः स्पष्नाभिधाननाथमभिधत्ते-पण्गं
ति-वीयघट् गतार्थं सचयणवणस्सती उदृहल धन्ना पीख-
णीए वा पिट्टी सरिसो उ कुट्टा भन्नइ, सो पुण परित्तो वा
तस्संसट्रुण हत्थमत्तम भिक्खं गेरहइ । परित्ते--माससहं,
अरात--मासगुरं, सहुमा फुल्ला ते परित्ता5णंता वा त जीवता `
घट्इ । मास त्ति परित्तेसु-मासलहं, अणंतेसु-मासगुरूं,सस
त्त करणचुदणदुरूदणप्पमाणगदह रदाय । एतेसु पटावस-
रिस मात्तणे छेदणदुरूहे कज्जं ।
चदणदुरुहणवकखाणं--
दण पत्तच्छजञे, दुरुहण सेवा तु जत्तिया कुणति ।
पच्छित्ता तु अणंते, गुरुगा लहुगा परित्ेसु ॥ ३५१॥
छदणं ति-छेदणदारं, तत्थ पत्तच्छज्जं करेति. नंदावत्तपुण्ण-
कलसादी दुरूहणं , तत्थ रुहंतो जात्तिया हत्थपादेहि से-
वा करति तचिया पायचिछत्ता इति वक्रससं । त य छुयण
दुरूदणेखु पब्छित्ताओ, अणंते-गुरुगा, लहुगा य । परित्तेखु
कंठा । छुयणदुरूहणा दो दारा गता ।
इया वियदाराण अभिक्वसवा भराणति-
अटरग सत्तग दस णव, वीसा तह अउणवीस जा सपद ।
सचित्तमीसहरिय-त्तणं5त5णंते य बीयादी ॥ २५२ ॥
पुव्वद्धपच्छद्धाएं अत्था जुगवं वच्चात.सचित्त क्षि-सचित्त-
परित्तवणस्सातिकाए चउलहगादि , अट्टाहे वाराहि सपद
पावति, सच्चित्ताणेतवणस्सतिकाप चडगुरुगादि ! सत्ताहिं
वाराहि सपई पावति | मीसहरिय त्ति-हरितग्गहरणं बीजा-
वस्थातिक्रान्तप्रतिपादना थ, मीसपरित्तवण॒स्सातिकाए मास-
लहुगादि, दर्साहि सपदं , अरंगतमीसे मासरूगादि, शवरि
सपद । परित्ताणंते य क्षि--उभयत्र योज्यं | हरिए बीएसु
य परित्तवीएसु पणगारद्धं , वीसतिवाराए सपदं पावति
श्रगतवीपसु तह अउणयवीस जा सपदं । यथाद्यपदेषु देषु तथापि
पकेकन्रद्धया जाव एक्कोणवीसइमं पदं भवतीत्य्थः , , आ-
दिसदाश्रा एत्थ वि-एये चव । वणस्सति कायदप्पिया प~
डिसेवणा गता ।
इयाणि कप्पिया पाडसेवणा भरणति--
अद्वाणकज़संभम, सागारियपडिपहे य फिडिए य ।
दीहादी य गिलाणे,ओआमे जतणा य जा तत्थ ॥२५३॥
एतसु अ्रद्धाणादिदारेखु च्रामपञ्जवसागखु वीयातिदाग
अववातियव्वा, त य जहा पुढविकाए तथा ऽत्रापि द्रष्व्याः१
शवर पथे वच्चनाणं इमा जयणा--
पत्तगे साहारण, थिराथिरक्कत तह अणक्कंते |
तलिया विभासकत्ता, मणणडउ खुत य ठाणादौ ,२५४॥
(६3८)
मलगएणपाड०
पत्तेगो-पत्तगवणस्सती, सो दुविहों--मी सो, सचित्तो य ।
साधारणो अणंतवरणस्सई--सो दुविहों-मीसो सचित्तों य ।
मीसो णामं-थिरो--दढसंघयण, अधिरो--अदढसंघयण,
अकंतो णाम--जननागच्छुमानेन मलिनेत्यथः । इतरा पुण
अणकंतो, एतसु गमण इमा जयणा-- पुव्वे पत्तगमीसत्थि-
रक्ततण रिष्पच्चवाएण गंतव्य श्रसति एसगस्स पत्तगमी-
सथिरअणकंतण णिप्पचचवापण गतव्वं । श्रसतीते तस्स
पत्तेगमीसअधिरअकंतेण रिप्पच्चवाएण गेतव्वं , असति |
पत्तेगमीसअधिरअणक्क तेण णिप्पच्चवाएण गतव्व । पत च-
उरो विगप्पा पत्तगमीसे । एतेसि असताए एतण चेव क-
मेण चउरा श्रणतवणस्सतिकापए मीस विकप्पा । पत-
सि पि असतीए परित्तवणस्सतिकाए सचित्त एतणव
कमेण चडउरो विकप्पा । एतसि असतीत श्रगतवरणस्स-
तिकाए सचित्ते एतरव कमण च उरा विगप्पा । एत साल-
स निप्पच्चवाण् विगप्पा । सपच्चवाए वि सालस । त पुण |
सव्वहा य वज्जणिजा । जया पुण परित्ताणंतर्माससच्चिि- |
विगप्पाणं गच्छंति, तदा |
्ारातरणतरणावि सोालसरादे
तलिया विभासलति । तलिया गमणाता भरणति, विभा-
सा--जइ कंटकादीहिं पाआवधाओ श्रत्थिताताश्राणमु-
च्चाति, अह णत्थि तो ताओ अवति । मग्गउ क्षि-पच्छि- |
तो णिब्भए गमणं करेति, परित्तीकृतेत्य थः | कत्त क्ति-च-
स्मकं, जत्थ पुण अरणणादिसु सरिणविद्र भडिल ण भवे
तत्थ गोणादिखुरण ठाणे ठाणादीणि करति, ठाणं--उंस्स
ग्गा आदिसद्दातो--णिसीयणतुयट्टणाणि घप्पात, असात
कत्तिए कप्पं काउं गाणातखुणण ठाणादीणि करेति, अस-
ति कप्पस्स गोणातिखुरण ठाणादी ण करेति, असति
खुराणस्स पदेसेस वि करेति | पंथजयणा ऽभिदिता ।
इमा दुदणदारस्स अववायविही--
साव्रय-तेण- भये वा, पंथ फिडिया बलबकज्ञे य |
रोहे अ छेद करणं, पडिणीया अड्भगीतेसु २५५ ॥
सावता--सीहाती, तदि अभिभृतो रुक्ख रुहेज्ज, सरीरा-
चकरणतणा तब्भया वा रुक्ख रूहेज्जा, पंथाओ वा फिडितो
गामपलोयणनिमित्त रुक्ख रूहेज़, पलवाण वा कजे रुक्ख
रुहा । इमो पुण छयणदाराववाता-- छदा क्षि--विदारणं,
करशग-क्रिया, तामपि कुर्यात् , पडणीयाउद्ट्णणिमित्त प-
डिणीयस्साभिभयं तस्स पुरता कयलिक्खंभादि बद्टिज्जति,
भिगुडीविडवियमुा होऊण भणति- जई ण ठासि एवं
सीसं खेडयामि जहस कयलीखभा, एवं कयकरन्ना करेति ।
अगीतेस त्ति पलवाणि वा अर्गातेसु वि करण णिक्कारणे
काऊण माणिज्जति, एवं वा छुयसभवो ।
ताणि य पुण पलंबाशि घत्तव्वा इमाए जयणाए--
फासुयजाणिपरित्ते, एगद्ेयऽवद्धभि न्नऽभिन्ने य ।
बदधट्िए वि एवं, एमेव य होंति वहुब्रीए ॥ २५६ ॥
फासुअ ति--विद्ध त्थं, जीवउप्पत्तिट्राएं जाणी भवति,परि
अभिधानराजन्द्रः)
|
क्षा जाणी जस्स पलंबस्स त भरणति, परित्तजाण परित्त
अशत न भवात, एगट्टिय नि-एगवीये जहा च्रवगा श्राबद्धा |
आइलज्लगो तस्स ते अवद्धाद्रु अनिष्पन्नमित्यर्थः, भिन्नमिदि
इभ्यता भावता नयमााद्धन्न, कदं उज्यत-फासुगग्रदणान्
मन्गणपडि०
एस पढमभंगा व्याख्यातः | अभिण्ण य न्ति द्विनीयभेगग्रह
णमतत् | श्रवद्धटटिय्पाडवक्रखा प्रप्पद, वद्धद्िदप वि णवं ब-
द्धद्ियग्रहणात | तातियचडउन्था मेगा गाहया एवंशब्दग्रह णात ।
जहा पढमबितियाण अत भिरणाभिरण एवं तानयचरउन्था-
ण वि अत भिरणाभिगणे कक्तेव्यामात । पगाटयपडपक्खा
घण्पात । | एमव य हाइ बहुवाप ति-पवे बहुवीए वि चरा
भेगा,अवद्ध व्धट्टिया भरणाभिणणहिं कायव्वा । एत अट्ट । अण्ण
पत्तयवणास्सातिपडिपक्खसाहारणण अट्ट, एत सालस ।
अराण फासुगर्पाडपक्ख ,अफासुगगर्ग हण॒ण सालस। पत सव्व
बत्तीसं भगा हट्टता णायव्वा ।
एमेव हात उवरि, एगाद्रय तह य हाति वहबीए ।
साधारणस्स भावा, आदीए बहुसुण ज वा॥। २५७॥
उर्वारि सकखस्स पमव बत्तीस भगा कायव्वा, पएगफासुग-
जारिपरित्ता एगद्भिगञ्रवद्धभिरणस्स पड़वक्खा एव बत्तीसे
भगा कायव्वा। एगट्टिंग तह य होति बहुबीय तज्ति-इम पुण ब,
यण ससार फासुगजाणपरित्तादइयाण चवयणाणे सपडिव-
क्खाण खुयणत्थे गहिते ताणि य इमाणि--फाखुगजाणिप-
रित्ता एगट्टिगअबद्ध भिएणसपडिवक्खा, एवं भगा बत्ती से उ-
वरि साहारणस्स भवति, अनन अधोर्वारे वत्तीसभगक्रमण
फाखुगस्स असात साहारणसरीरस्स अभावा अलाभेत्य-
थः, सचित्ते गृह्णाति । तत्रदे वाकक््यं-'आदीए बहुगुण' जे च
आदीए बहु गृह्णाति सेसाण बहुगुणे जनयति करातीत्य-
थः। जञ व क्षि--यद् द्रव्यं साचित्त ज दव्वं बहुगुण करेति,
तं घ्ररहति । परिक्त, अनंत वा न तत्र करम निरीक्षतत्यथ: |
अहवा--साहारणस्वभावात् यद् द्रव्यं वहुगुणतरे तमादी
यत ग्रह्ातीत्यथः । वरणस्सातकायस्स काप्पिया पडिसवणा
गता | गओ य वशस्सतिकायों ।
इदाणि बेइंदियादि तसकाए दृष्पिया पडिसेवर्णा
भरणति-
संसत्तपंथभत्ते, सजा उवही य फलगसंथारे ।
संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवातण मूल ॥२५८॥
बइंदियादीहिं तसह ससज्नइ पथा, संसज्ञात भक्त, सस-
जति सञ्जा, ससज्जाति उबही, ससज्जति उलहये, स-
सज्जति संथारो । जामि य विसए बइदियादीहिं ःथभत्ताती.
ससज्जति, तत्थ जइ दप्पणं परिगमण करति तत्थिमेण वि-
कप्परिम पायाच्छत्त-- <
सेकप्पे पद्भिद ण, पंथे पत्ते तहेव आवास |
चत्तारि छच्च लहु गुरु, संठाणं चेव आव ॥२५६॥
संकप्प इति-गमणाभिप्पायं करति, पदभिदणमिति-ग्रदी-
तोपकरणा प्रयातः । पंथ त्ति-संसत्तविसयस्स जा पोतं
पत्ता, पत्त त्ति-संसत्तविसयं प्राप्तः । तहेव आव्े क्षि-तहश-
ब्दो-पादपूरण | एवशब्दः-प्रायश्वित्तावधारत्त ।आवरणा प्राप्त
उच्यते। बेदिया दिसु सघटणपरितावणउद्वणमिति | चत्तारि
छं लहुगुरु त्ति-लहुगुरुशब्दः भ्रत्यक्, चत्तारि लहु र
छुत्च लहुगुरुए त चउरो पच्छित्ता सकप्पादिसु जहासंखण
जाएयव्वा । सकप्प-चउलहु,पदभदे-चउगुरु.पंथ-छल्लहु.पत्त
छुग्गुरु, सठाण चव श्रावरण त्ि-वदरादियाईण सघद्रणविकप्प
श्रावरणस्स सटाणपच्कत्तं। चः-पूरण | एव-अवधारण। इदं
पश्चाद्ध व्याख्यातम्
( ३६०.)
अभिधानराजन्द्र
मूलगुणपाडि०
सघटुणपारतावण (क्त--वदह्ा द्याण सव्र करइ, पारता-
चण करात ,उद्दवण करात | लह ग॒रू तत वडादय खचरत
चउलहुअ, पारतावात-चडउमुस्थ , उद्दवात- छल्लहुअआ | तशद
याण सघट्णादसु पर्देस चउगुरुगा द छुग्गुरूग ठात। चडार
दयाण-छल्लह, आदछुद ठातत | पच्रादयाण सघट्टण-लुग्गुरुअ
पारतावण-छुदा, उद्वण आतवातण, मूल त-पचाद्रय व्या
पादयमानस्य मूलत्यथ: | एसा अब गाहापच्छुद्धत्था अन
न गाथासूत्रण स्पष्टतरों अभिहितः ।
जश्रा--
विय तिय चउरो पचि दिषि घटं परिताव उद्वे |
चतुलहगादी म्ल, एगदगतिएस चरिमं तु ॥ २६० ॥
गताथा | नवर एुगदुगातणसु सारम, त, एग पयादय वा
वाणात-मूल. दासु--अणवब्द्ा, तारण पचादया वावातात- |
पाराचय । त॒ुशव्दा आभक्रखासवनध्रदशनाथः । एस दारगा-
थाथः-समासाथना भाहतः ।
इदाणि पथ त्ति दार व्याख्यायते--
मृहगउवइयमको-डगा य संबुकजलुगसंखणगा ।
एते उ उभयकालं, बासासण्ण य शगविधा ॥ २६१ ॥
पंथ त्ति-गता, पथो इमहिं संसत्ता-मुइंगा--पिपीलिया, उ-
वइगसमुद्देहि काओ मक्काडगा--कृष्णवर्णी प्रसिद्धा, सवु-
का--अरणद्िया मंसपेली दीयी पृष्िप्रदश आवक्तेकडाह
भवति , कचिद्धिषये पतितमाजमेव भूमौ जले जलूकामि
ससज्ति, सखशणगा-- ऋच्णा संखागारा भवेति, एत सुई-
शादी पाणा बहुजल विसए उभयकाल भवेति, उड़वासासु
त्ति भिये भवति | वासासरण य ्ि--वासा--वषौकालः ,
आसक्नमिति-प्राप्तः, वषाकाल एवेत्यथः | अहवा -वषाकाल
भदवदासोयमासा, तस्सासरणण पाउडसकालो, तमि य पा- |
उसकाले अदिणववुद्रुभूमीण अरेगविहा प्राणिना भवंति- |
इत्यथः । चः-- पूरण, श्रक्रालवर्षवड्प्राणिसमूच्छन वा. । पथ
त्ति दार गय ।
दाणि सत्त त्ति दार--
दधितक्विलमादी, संसत्ता सत्तुगा तु जहिये तु।
मूईंगमच्छियासु य, आमहउद्गादि संसत्ते ॥ २६२ । |
दहि--पसिद्ध, तक्क उदसी छासि त्ति एगट्टं। अविल-पास
हं । ज्रादिसदाञ्रा--श्रादणमादी. पन जत्थ ससत्ता आ-
गंतुगहि तदुत्थहि वा संसत्ता, सत्तगा, तुसद्दो आगंतुगत-
दान्थतप्राणभेदप्रदशन, जाहय तु त्त--जाहे वसप, तु- |
उच्यत--नयमा तत्र |
शब्दा ऽचधारण, कि अवहारयाते ?
सजमविराधनेत्यथः । | सुइंगा--पिपीलिया, मच्छिया-मात्ति-
का एवं | सइंगसेसत्ते अमेहा भवति, मेद्दाएउवघातों भवती-
रः । मच्छियासु ससन्त उड् भवति, वमनमित्यथ
आयदिराहणा । चशब्दः सयर्माचराध्नाप्रदशन । मत्त त्ति
दार गय ।
इदाणि सज्ञ ति दारे । जत्थ सज्जा संसज्ज|त तत्थिमाहि
चद्भाहि त पाणिणा 5वहेति--
टाण णिर्सीय त॒श्रटरण, शिक्खमण पवस हत्थणिक्खवे ।
उन्वत्तणमुन्नंघण -चिट्टासेमासु वेच्छति ॥ २६३ ॥
एसा |
` ठाण-काउस्सग्ग, णिसीयण उवविसणे,
मृलगुणपडिर
तुयद्टणं-संवदण, ¦
शिक्खमणं-वदिया, पविसरो-अतो, हत्था-सरीरेगदेसो, त-
स्स णिक्खिवां भूमीए । अहवा-हत्थगा-रयहरणं नपण
ते वा णिक्खिवइ मूमीए न आत्मावग्रहादित्यर्थ: । उव्वत्त-
रो नाम-परावतन, एगसेज्जाए उवचिड्रस्स तुयद्वस्स वा
चिरं आसमाणस्सख जदा सरीरं दुक््िउमारद्धं तदा प~
रिवत्तउमणणहा ठाति नि वुत्त दाइ । उज्ञेघरण-पलुगस्स,
आदिसदाच्ना-सथारगस्स, सितिफलगाण वा प्वमादिखु |
चट्राखु त संसत्तवसहीण पाणिणो ऽवदेति । कि-च जा पयां
ठाणनिसीयणादियाओ चिट्ठाओ भणिताओ ता जाओ स
जमकरी ताओ इच्छति इच्छिज्जीत ण इयरातो । |
तआओ भरणति-- |
जाचिद्रासा सव्वा, संजमंहउं ति हाति समणाण।
संसत्तुवस्सए पुण, पचक्खमसंजमकरी तु ॥ २६४ ॥
जा इति-अशिहिट्वसरूवा चट्टा घप्पति । अहवा-जा इति
कारशणिककायक्रियाप्रदर्शनत्यथः, कार्याक्रया-चष्टा भरण
ति। सव्वा अससा-पावविशिवत्ती सजमा भराणात । हेऊ-
कारण , तुसा वधार, दाइ-भवति । समणाण--साह- |
ण ति वुत्त भवति । इह पुण ससत्तवस्सण पच्चक्ख- |
मसजमकरी किरिया साहणे भवतीत्यथः । तुसदा-अव-
धारण । वसदि त्ति दारं गये ।
इदाणि उबहि ति दार--
छप्पति दोसा जग्गण, अजीर गलष्प तायि परितावे।
आओदणपडिते युत्ते, उद इद्यारातिया दोसा ॥ २६४ ॥
छुप्पति क्षि--जूआ भरणति , ताह जत्थ विसए उब-
ही ससञ्जति तत्थ बहु दासा भवति, त इम-ताहि
खजञ्जमाणा जग्गति, जागरमाणस्स, भत्तेण जीरति ,
अजीरमाण य गलरणे भवति | एल्थ गिलाणारावणा भा-
शियव्वा । अहवा--ताह खज्जमाणो कंड्रयइ, कंड्रयमाण-
स्स खयं भवति | एवं वा गिलाणारावणा । तासि परिता-
वो त्ति-तासि छुप्पयाणं कंड्रयमाण परितावरं। करति, स
घंट्टेति वा , उद्दवइ वा, एत्थ तरिणप्फरण पायच्छित्त दद्रू ४
व्वे। इह पुव्वपद्ध आयसंजमाविराहणा दा ऽवि द्रिसिया-इमा
पुण श्रायविरादणा । ओअणर्वाडण भत्त क्षि--ओदणों-
करूरा, तत्थ पडिया छुप्पतिता, सो य ओदणा भत्ता, तमि
य भत्ते उद भवाति, दओयर वा भवति । दओद्रं-जलायर ।
भरणति । उबहि त्ति दारं गये।
इयाणि फलगसथार त्ति दारं
ससत्तऽपरिभोगो, परिभोगार्मतरेण अधिकरणं ।
भत्तोवधिसथार, पीदढगमादीसु दासा उ ॥ २६६ ॥
ससत्त त्ति-फलहसंथारेसु संसत्तसु, अपरिभागो त्ि-श्र-
भुज्जमाणसु, परिभागमेतरणं ति-परिभागस्स अतर परिभो-
गमतरं परिभागाभावत्यथः । धिकरण ति-अपरिभुजमाने
अधिकर णं भवाति | कटं ? यतो अभिधीयते जे जुज्ञाति | उब-
कारा उयकरणे, ते सद्ादउदकरणे श्रतिरगं ग्रहिकरणं अज्ञ
त्रा |
( ३६१ )
सूलगणपाड ०
आओ अजये परिहरंतो, भत्तार्वाहसंथारे पीढगमादीसु दोसा
-एते ज़ अधिकरणं त भणिया । तुशब्दः-दासावधारणे ।
अहवा इम दो सा--
संसत्तेस तु भत्ता-दिएसु स्बेसिमे भवे दोसा।
संघड़ादि पमजण, अपमज़ण सज्ञघाता य ॥२६७॥
पुव्वद्धं कंठे । सेघट्रादि ति-संघट्णे-फारिसणं, श्रादिस-
दातो--परितावणादवणे पत भत्तादिखु सब्वेस सभवति ।
चमज्जण त्ति-संसत्ता सज्जादी जति पमञ्जांत तो ते चव
संघट्टत्तादिदो सा भवति । । अपमज्जण ति-- जई त सज्वाति-
ससत्तणे पमज्रति तो ` सज्ञघाता य त्ति -सद्या-वतेमान
णव, प्राणिनां घातो भवतीत्य थैः । चसदा-समुञ्ये । फलह-
सथारय त्ति दार गत।
इदाणि सव्वदारावसेस भरणति | पयं पुण जत्थ जत्थ--
दारे जुई तत्थ तत्थ घडावयव्वं--
बैटियगहिक्ववे, शिच्छुभन आतस्यं वा ।
संथारए णिसेज्ञा, ठाणे य णिसीयण तुयद्टे ॥२६८॥
वैटिय ्ति-उव्वद्धियं पर्माज्जयं, दुप्पडिलहिय दुप्पमल्जिय,
दुप्पडिलदियं खुप्पमञ्जियं । उवकरणलाली भन्नद, तीए |
उबरणलोलीए गहणं करेति , णिक्खेवं वा । तत्थिमे
सत्त भगा-ण पडिलेहाति ण पमजञ्जति १, ण पडिले-
हेति पमज्जति २, पड्लिदेति ण॒ पमज्जति ३. पडिल-
हेति षमल्नति ४, ज त-+पडिलेहित पमज्जितं, तं दु-
श्मभिधानराजन्द्रः |
श्पडिलेदिय दुप्पमजिय ५, खुप्पमज्ियं दुष्पडिलहिय ६, खु- |
ष्पड्लिटदिय. दप्पमल्ञियं । पतखु पच्छित्त पूवेवत्। खप्पाड
लाहय करमप्खस्स कव सघटदटणादाणप्फण्ण पूववत् | खलाण- |
च्ुभणे वि एवं चच, च्रायवा--उणं, आयववज्जा छाया
तता आयवो उवकरण छाय सकामति, एत्थ वि अपज्ञमा-
शस्स प्राणिविरादणा । कट ? उर्टजाणिया सत्ता छायाए
विराटिजंति, छायाजाणिया वि उरे विराजति, अतो
अपमज्माणस्स पाणिविराहणा । एव सथारग ऽव पमज-
तस्स सघ्रटणादिणिप्फरण श्रकरमाणस्स य सत्त भगा
णिसज् त्ति सुत्तत्थाणं निमित्त जत्थ भूषदेस शिसिज्ञा |
क्ति तत्थ पमज्जतस्स संघट्ट णादिक श्रकरमाणस्स सत्त |
भगा | ठाणामिति -काउस्सग्गट्टाण तत्थ वि एवं चच.णिसीय
णु-उवाव सणट्वा ण, तुयट्टगा---सुवणट्राण, पफतस्रुव एव चव
पुदावसमास्सएरु जावस एस पायाच्छत्तावहा भाणता ।
द्मा पुण उवबकर ससमास्सय छुण्पादगादसु चचा
मरणात--
परिटावण संकामण, पप्फाडण धाच्च तावणे अविधी ।
तसपाणंमि चउच्विहे ,णायव्वं जं जहिं कमति ॥२६६॥ |
छुप्पदिगाओ परिट्ुवेति, वत्थाओ वा वत्थे सकमति, जहा- |
रैणुगुडिय वत्थ प्फोडिजति, एवं पप्फाडति छुप्पया संड- |
तु क्ति, साडणनिमित्त वा धावणं करति । उरहे अगरणणीए वा
तवेति । सव्वसु तस प्तय चउलद्ुय । एवं ताव रिक्कारणग-
ताणे । कारणे वि * अटिदि कि '-कारणगताण पुण अविदीए
सकामेतस्स--चउलहय । सघ्रट्टशपारतावणोद्रवर्णाण॒प्फणण |
च दटुव्व तसपाणम्मि क्ि-तलकायग्गहणं,सो य तसकाओं
` चडच्विहा इमा-वेदयादिया तेइंदिया चरि द्विया पॉचिदिया, या
६१
सूलगाणपडि०
यव्व-बाधव्व । ज-पायाच्छृत्त ` जाह तत -वेडादुयातक्राष
कमात घडात--युज्जतत्यथः. त पुण पारद्भावसाददारसख
जहासभत्र जाएयब्य | उदाहरण मत्कुणापसुकादयः |
विटियग्गहणणिक्खेवद्दाराणं इमा पछ्छित्तगाहा--
अष्पटिलेहऽपमज्जण- सुद्धं सुद्भेण वेटियादीसुं ।
तिगमासय तिगपणए, लहुकालतवोभए जे वा॥२७०॥
गताथा | इमा अक्खरत्थो-अप्पांडलेहअप्पमज्जण त्षि--
सत्त भगा गहिया .खुद्ध सुद्धणं ति-जति वि पाण ण विराहेति
'तहावि पायच्छत्त णिक्कारणमसंजम विसयग्गमणाता ते पुण्
सत्त भगा, 'वंटियादिसु ति'-आइल्लेखु तसु भंगेस मासलहे
ततो णतरेखु तिखु पणगं.चरिमो खुद्धा । का्यणिष्फरणं वा
लहत्ति -लहमासपणगविससणे | अहवा-लहं कालण त-
वण य उभएण विसखसयव्वा, मासपणगा य, ˆ ज वत्ति -
जच तसकायणिप्फण्ण तं च दटुब्यं | संकप्पादिपदेख परि-
ट्रावणादिपदेखु इमो विही दट्रव्वा--
सिक्कारणेऽविहि विधा-य वा विके य अविधिएण |
णखिक्कारण अविहि त्षि-पढमभंगो, विधीय क्ति, वित्तियभंगा
गहितो, णिक्कारणे विधीय नि वुत्त भवाति कञ्ज अविदहीए
ण कप्पति ततियमगो गदितो, उवयुञ्ज यत्र युज्यत त्र
भगो याज्यो । गता दप्पिया पडिसेवणा।
इयारिं काप्पया भरणति--
सकप्पादी तु पदा, कज्मि विधाय कप्पति ॥ २७१ ॥
इदं ) पच्छुद्ध कठं । णवर चउल्थभगा ग्रृहीतेत्यर्थः ।
कि कज्जं का वा विही जण शिद्ासो भवति १, भर्णति-- |
पाणादिरहितदेसे, असिवोमादी तु कारणा होज्ञा ।
अत्थि तु वल तु मणा,व कुञ्ज संसत्तसंकरप्प ॥२७२॥
पाणा-वदियादी. तहि रहिओ-बर्जितत्यर्थः । को सो देखो
जमि देश असिव होजा ,ओमोयारया वा होज्ञा। आदिसद्दाता
आगाढरायदुट वा होञ्जा।तुसदा श्रवधारण्।एवमादी कारणा
जाणिऊण सजमविसय मोक्षणे असजमविसय गतुकाम, ते य
तत्थ असंजमबविसए अल्थिउकामा वा मज्केण वा वलउ-
मणा कुर्यात् वेदियादियाण ठाणसंसत्तविसए गमणादिसेक-
प्प, तत्थ जे ते बेले उ मणा तसि पथे गच्छंतारिमा जयणा--
वेल ससज्ञ।त, त देल मात्तु णिब्भए' ज ति |
थ तु तालय द्रत, अक्रत।थरातसजागा ॥२५६॥
ज वेलं ति-यस्मिन् कालेत्युङ्ग भवति.पच्चूसमरभारट वर
गहादीसु ज वेल पथो संसज्जति' तं बल मोत्तं श्रससत्तच-
लाए गच्छंति त्ति चत्त भवति । णिब्भए एवं गच्छति ।
सत्थ उ त्ति-समण सत्थण गतव्वं । तलिय त्ति-उवादणा-
तो अवणयंति, सत्थस्स य पिट्ठतो वच्चति । । अक्कतथिरादि-
संजागज्ति-अक्कतज़णवण्ण थिरा-दढसंघयणा, सजाग नि~
साय सत्थो अक्ंतपहेण गच्छेज्जा, अणकंतण वा | तत्थ जो
अक्कतपहेण गच्छति तेण गंतव्यं, सो वि थिरसंघयणसु वा
अशधिरसंधयणसु वा टराच्छेज्जा जो थिरसंघयणों तेख
गंतव्य । सो सभणण वा गच्छेझजा, शिव्भणएण वा । जो सि
व्भाओं तेण गंतव्य । सो परण दिया गच्छेञ्जञा, , राओ दा
जा दिवा तेश गतव्वं पलो चेव अत्थो सालसभंगवि
गप्पेण वा बक्तव्या य दमे सोलस भगा--अछतधिर
_ सूलगुणपडि०
( ३६२ ) ५
अनिधानराजन्द्रः
शिब्भया दिवसता एस पढमो भगो,
पटमभेगे अणुणणा ससस पडिसेहा ! एवं ताव गच्छंताण
जयणा भिया ।
इमा पुण जत्थ सत्थो भत्तई ठाति, रंधणनिमित्ते ठाति, व-
सति वा तत्थ जर्थणा भरणति-
ठाण शिसीय तुयइण, गहितेतरजग्गसुवणं वा ।
उन्मास्थंडिले वा, उवकरणे सो व अष्पत्थ ॥ २७४ ॥ |
ठाण--उस्सग्गो भक्षति, निसीयण-उवविसण, तुयझणे- |
णिवज्जणं, गदिते ति-उवकरणणं, तसकायसंसत्तपुढवीए |
गाहेता उवकरणा, सव्वराइ उस्सग्गण अज्ञात | आह ण॒
तरात ता गाहतावकरणा चव नसरण सठ्वराइ अज्ज़- |
ति। अह तह वि न सकेति तादे जयणाए गहितावकरणा
शिवज्जंति । इयर क्षि--उबवकरणणिक्खवो । जग्गं ति-ग-
दिते णिक्खित्त वा सव्वराति जागरणा कायव्वा । अह
ण॒ तरति जागरितुतो जयणा खुब वा। इमा जयणा-
पडलिदियपमज्रणउव्वत्तणपरावत्तणावगुखणपसारणा काय-
व्वा, सुवण पुण निद्ावसखगमनत्यथः ।
सरण तत्थावकररणं ठवयात । सो
स्नाह संवसाति, अणणत्थ त्ति
गाह--सा य एवं पडियव्वा,
आंचार्याह--बा--विकल्पप्रदशन, जाति पद्चासणण थेडिले
नत्थि ता दर वि शिन्मण करेति, उवकरणे पसव ऽत्था ।
वा अण्णत्थ सावति
थेडिले संबज्कति । चोद
जम्दा पुञ्च पुढविक्राए गता तम्हा अतिदेसण भरणति-
जह चव पृविमादिसु, वक्ते जतणा तहेव तु तसेसु ।
ण॒वार पम।जतु उवबाह, मात्स करति णाद ॥२७५॥
जहा पुढविमादीस सुवण जयणा तस
भारणया, तदा
रु वि वत्तव्वा, णवर वितेसो पुढवीए पमज्णा णत्थि , |
णवर तस |
तत्थ उबकररणं मात्तण क~ |
सच्चित्ता पुढवी ता इह पुण अचित्ता पुढवी,
स्सत्ता तो तस पमल्िङण
रति ठाणादी ।
ते पुण उवगरण करिसे ठाण मोत्तव्व भरणति-
जत्थ तु ण विलग्गतं।, उद्इगमाद्। तदहि तु उवयंति ।
संसप्पएसु भूमि, पमजिउ छारठाणं वा ।॥ २७६ ॥
जत्थ क्षि-भूषदस, तुखदा ्थाडलावधारल ।
धावधारण । लग्गंती--कंबल्यादिषु, उ
ण॒प्रतिष-
प्रदेश उपकर स्थापयतीत्य्थः । अह पुण अन्नद्वाणातो
विलाओ वा आगंतूण, संसप्पएसु ज्ञि सेसप्पंतीति संसप्प-
गा उस्सरंति त्ति उुत्त भवति । तसु ` संसप्पगेसु भूमि पम- |
भूमि ।
पमज्जिऊण भ्रात ददंतीति वक्षस । छारट्टवाण व क्षि-अह |
ज्जिउ ति'-ज तत्थ थंडिले प्रव्वागता ते पमलिञ
समतता उद्यथिगमादी सभया हाज्ज
पाडलहउ तत्थ ठावयतीत्यर्थः ।
क्षि' इह वयण सामण्णण अकंतथिरातिसजागा कता ।
तादे छाग्ट्राण
अकंताथिरणिब्भया |
राता. एस वितियभंगो, एवं सालस भगा कायव्वा । एत्थ |
अह सावकरणस्स .
एरो थाडिल स होज्ज ता उब्भासथंडिले वा उज्भासे पच्चा- |
सो वि किमथ. पख्यते? , |
| » मा जयणा । असंसत्त ति--श्रससल्ितदव्व ओओोदणादि ज-
दइग त्ति-उद्दहिया, |
,आदिसद्दाता य घणणकारिमर्कोटकादयः, तदि तु तञ भू- |
अऊंताथिरातिसंजोग- |
तहिशिषव्याख्याप्रतिपत्तिनिमित्तमुच्यते--
बिय तिय चउरो पंचि-दिएसु अकंत तह मणकंते।
थिरशिब्भतेतरसु य, संजागा दिवसरत्ति वा ॥२७७॥ _
बेइदिया संखणगमादी, तेइदिया-पिपीलियादि, चउरिदि
या-इंदगोवादी , पंचादया-मंडकालेयादी , एत पदेख
श्रक्तता वा, अणक्रेता वा, थिरा वा, णिब्भतो वा पडो हो- .
ना इयरग्गहणा अधिरसभयग्गहरं, सजागा दिवसरत्ति वा, ¦
पूयैवत् , वरं पुव्वे बेइंदिएखु अक्ततथिरणिब्भयदिवसतो, |
ततो पच्छा अक्तत अधिरणिब्भयदिवसओं, तश्रो पच्छा `
अणक्कतथिराणिब्भवदिवसतो, तओ पच्छा श्रणक्तत अथि _
रनिन्भयदिवसच्रो, एत चउरो भगा । श्ररणे पतेखु चव ठा- .
शखु रक्षिए चउरो भगा । एत अट्ट । त्रा पच्छा तेइदिषखु
णवं चव अट्ट । ततो पच्छा चउरिदिषख एवं चेव अट । तत्रो
पच्छा पंचिदिएसु वि एवं चव अट्ड । पत चडरो अट्टगा व~ .
तीस भगा शिब्भणएण भणिया । ततो पच्छा बेइंदियादि-
खु सभणण पुव्वकमेण वा अरणे बत्तीस भेगा णयव्वा ।
पते सव्वे चउसद्धि । एस ताव कमो भणितो । इयरहा जत्थ
जल्थ अप्पतरो दासा तण उक्रमणावि गतव्वं । एसा पथे स-
इर य जयणा भरिता । पथे त्ति दार गये ।
इदाणि भत्तदारजयणा भरणति--
पत्ताणमसंसत्त, उसिणं पउरं तु उसिण असतीए ।
सीतं मत्तगपेदिय, इतरत्थ छुभति सागरिए ॥ २७८ ॥
पत्ताणं जत्थ देस भत्तपाणं ससजति, ते दसं पत्ता इ-
हा
ति पत्तमुर्टं तो गरुहाति । पउरं-प्रभूत, तु शब्दो-पादपूरण,
वक्खमाणविहिप्रदर्शन वा । उसिण-उर्टं,तस्स असति अ-
भावादित्यथः। अश्रा उसिणाभावा असथरमाणी य सी-
ते गरटति । जतो मसखति-सीत मत्तगपहियं, सीय-सीतलं,
मत्तगो--तुच्छभायण, तत्थ सीयल गरिहय, पहियं--प्र-
त्युपच्य, इतरत्थ ज्षि--पडिग्गहे, छुभंति-प्रक्षिपति । तं पुण्
वुज्कॉति असागारिए गृहस्थेनादश्यमानेत्यर्थ: । सागारिय- _
ग्रहणा इदं ज्ञापयति, कदाचित्कमदढगेऽपि गृह्यते । तजर च |
गृहीत॑, पडिग्गहे प्रक्तिप्यमानं सागारिकं भवाति, आओ |
असागारिके प्रक्षे्रव्यामाति । अह मत्तगमादीदि ज गहिये
ते ससत्त टोजा । ।
तस्सिमा परिट्वावशविही--
तिणवइक्कुसिरइ्टाण ,जीवजढे चक्खुपहिए शिसिरे ।
मातस्वस्सियधातो,आद णभक्खी तसासिसु वा ॥२७६॥ `
तिणा-दन्भमाती, बती-चा डी, मुसिरसदो पते चव प्रत्येक,
अहया--तिणकट्टुलंकरों जत्थ त अुसिरद्राणे भरुणति, एत |
य॒ तिखाति जति जीवजढा जीववर्जिता इत्यथः, तेख |!
तिणाइस चक्खुपदिएखु, शासिरे-परित्यजेत्यथैः । सा पुण्
शणिसिरणा दुविहा-पुंजकणा , प्रकिरणा वा । बीज |
चत् आगंतुयेस पिपीलियादिसु पकिरणा संभवति, तदुत्थसु
किमिगादिसु पुजकणा सेभवाति। चादकाद--किमथ ति- ,
रात मादिखु परि ट्विज्ञति ?, उच्यत-मा तस्संसितघातो- `
त्ति-मा इत्ययं प्रकतार्थावधारणे , श्रविधिपरित्यागप्रतिषे-
धप्रदर्शने च | तदित्यनेन भक्क॑ संबध्यत । संसिता-श्राश्चिता,
हे
!॥
।|॒
१
ः |
तस्सासतध्राता कण पुण तस्सासताण
भूलराणप [=
घाता-माररण
उच्यते--ओ दणभकसा तसाससु व त्त-श्रायण ज भक्ख-
तम्मि ससिता-तस्ससिता , ताण घातो
श्रातो भवे ? |
यंति ते ओयणभकक्खी, खणगादी ते य ओदणं भक्खयति । |
ज्ञ तस्ससिया पिपीलिकादी ते वि भक्खयति त्ति वुत्त |
भवति | पिपीलिकादितसकायं असेति भक्खयति जे ते
तसासिणा, ओदणभक्रिख त्ति वुत्त भवति । अतो मा तेखु |
आओदरणभक्खिसु तसासिसु वा घातिज्ञिसेसि त्ति काडवत्ति
श्रातिखु परिद्रविज्जात भत्ते, एस जतणा भणिता ।
जत्थ सत्तका पुण ससज्जञति तत्थिमा जयणा--
तदिविसकताण तु स-त्तुगाण गहिताण चक्खुपाडलेहा ।
तेण परं णव वरिऽ- सुद्धे शिसिरे तरे श्रुज ॥ २८० ॥
तुसदो-श्रवधारणे, तदिवसकताण चव, जवा भुग्गा
पासाणजतेण दलिया साहिया सत्तुगा भण्णंति, तसि गहिता
णंआत्मीकृतानां चक्खु पडिलेहा भवतीत्य्थः
शरु ण सव्वश्वचियचक्खुपडिलेहणा को अभिघाता वा
ज्ञण चक्खु पडला करेति इति ? उच्यत--पिंडाविसोही
पड्च्च णए चक्ूवतिरित्ता पडिलहा, इमो पुण से अभिप्पाओ
भआयणत्थस्सव वत्थुणो श्रवलोयणा चक्खरपाडलहा ण-
रयत्ताणविगप्पणावस्थाप्य्य्थः । तेण परे ति-तद्दिवसक-
ताण परओ दुदिवसातिकयारे ति वुत्त हवति । णच वारे त्ति-
उक्रे(सं णव वारा पडिलेहा कायव्वा | अशुद्ध त्ति-जति णव-
दि वाराहि पडिलेहिज्जमाणा ण सुद्धा तो णिसिरे-परि-
त्यजत् । इयरे भुज त्ति, इतरे जे सुद्धा णवमवाराए अरत्तो |
वा ते भोक्तव्या इति।
कटं पुण सत्तगाणं पडिलहा भरणति । दारं--
रयहरण पत्तवंधे, पहरिज्ञच्छन्षियं पुणो पेहिति ।
। चादगाह-
ऊरणिय अगराऽसति, कप्परथवेसु ल्ायाए ॥ २८१ ॥ |
पक्तगबंधे मलिनीकरणभया रयत्ताणं पत्थरेऊण तस्खुवारि
पत्तगवंधे,तंमि पत्तगवंधे सत्त॒गा.पइरित्तु-प्रकीये वाप्येत्यर्थः।
उच्छल्लिय ति-एकपाश्व नयित्वा जा तत्थ पत्तगवधे उर्यारे-
शिया लग्गा ता उद्धरेत्तु कप्परे कज्जाति | पुणो पाहिति-पुणो |
पतिरिनु छल्लित्त पुणो पेहिज्जंति त्ति वुत्त भवति । एवे एव
बाराए सा सत्तुगपडिलेहणाविही भणिया | ऊराणिया आगर
त्ति-जा ऊराणया पडिलेहमाणण कप्परादिखु कता ताओ
श्रागरातिखु परिद्भावेयव्वा । का पुण श्रागरा भरणति-जः
घरदट्टाद्समावसु बहु ज व भुसुट्ट ला आगरा भरणात,असात |
पत्त-तस्साग र स्सासात-कप्परथवसु त्त-क्प्परथवा सत्तगा
च्ोदरण तं कण्परं सीयल भूपदेस छायाए परिटुविञ्जति, जत्थ
पाणगं ससज्जति तत्थ आयाम उसिणोदगं गरहति । पूतर-
गादिससत्त च धम्मे करगादिणा गालिज्जात, जत्थ जत्थ गो
रससाची ररस गा दीहि ससञ्जति तत्थ तत्थ तसि अग्गहरो
सीयग्गदण सीयग्गहियाण वा परिट्रवणविही।जा परिट्वावणा-
गिउजुत्ताए भणिया सा दट॒व्या इति।भत्तपाणदारजयणा गता ।
इदाणि वसहिदारजयणा भरणति--
दोष्पि उ पमज़णाओ, उड़े वासासु ततिय मज्भण्हे ।
बसहि ` बहुसो पमज़ व, अतिसंघट्णेहिं गच्छे ॥२८२॥
( ३६३ ).
आभधानराजन्द्रः।
मृलगुणएपाडि ०
जत्थ वि वसही ण ससज्जति तत्थ विदा वाराओ दुब-
द्धिएसु मासस वसही पमग्जिज्जति, पच्चूस, अवरण्हे य ।
एताओ चेव दा पमज्जणाञ्रो, ततिया मज्भराहे भवाति ।
ससत्ताए पुण वसहीए वहुसा, पमज्जयं--कंठ. नवर व-
कारो विकप्पदरिसणे । को पुण विकप्पा ?, इमा-- जई उड्ड
वासासखु ससत्ता वि वसी पुठ्वाभिदियप्पमाण णव अस-
सत्ता भवति, ता णाइरित्ता पमज्जणा नो चव बहुसो पम-
ज्जण त्ति । अह बहवारा पर्माजजज्जमाण श्रतिसघट्रा पाणि
णं भवति तो अण्णवसहिं गच्छतीत्यथः । । अहेगदेससु मुद-
गादि ण गरहवञउजा । _
न्नयपाणिसताणगो वा तत्थिमा विही--
मूइंगमादिणगरग, कुडमुहछारेण वां विलक्सति ।
चोदेति य अप्पोप्सं, विसिसओ सेह अइगोल ॥२८२॥
मुदगा--पिपीलिया, आदिसद्दाता-मकाडादि, नगरं परघर
विसेसाओ श्राश्रयतीलय्थः। कुडमुहो-कुडकतो त तत्थ ठव-
यति, छारण वा परिहरंतो विलक्खतं करेइ | अणुवउत्त य
गच्छन्तो चोदंति य अन्नोन्नो, सदो ्रहिणवदिक्खता, अइ
गालो पुण वालो णिद्धम्मो वा.' एत विससश्रो चाद्यता-
त्यर्थः । बसहि त्ति दारजयणा ता ।
इयाणि उवटिदारजयणा भराणति-
अईरेगो विधिगहणं, सत्तवभोगेण मा हु संसज्ज ।
महरादगंण धुव, अभक्ख मा छप्पदा मुच्छे।। २८४॥।
जत्थ विसए उवही संसज्जति, तत्थ चःलपट्गादि उवहि-
अतिरित्ता ध्रप्पति । अह किमित्थे अतिरित्तावदिग्गहणे
स्यात् ? उच्यत-सत्तबभागण साह ससज्जइ, एगपडाव-
यारस्स सततुवभोगाञ्रो सततोवभागादित्यर्थः । मा, हरत्य
ये यस्मादथ द्रष्व्यः। ससज्ज {त्-ससज्जात तस्मात् अदू
रित्तावददिग्गदणं क्रियत इति, किचित् मधुरोदगण मधुर-
पाणएण उराहोदगादिणा शुवे अ्रभिक्खणे पुणो पुणो कञ्ज
ति त्ति वुत्तं भवति । स्यात् , किमथम् उच्यत-- मा छुप्पया
मुच्छ समृच्छत्यथः।
जे वत्थे साहेयव्य॑ तम्मि जति छ॒ुप्पया हाजा ता इमण-
विहिणा अणणवत्थे सकामयन्वा--
कायलन्लीण कातं, तहिं सकामेतर तु तस्सुर्वारं |
अहवा कोणाकाणं, मलः ईपि घट्टेति ॥ २८५ ॥ `
जे वत्थे न धुवियव्वे तं कायलीरं काड वि, कायो सरीरं
लीस काउ अणंतरियं पावरिञउं तदि सकामेति, कि हत्थनो -
दधत्य संक्रमेन्नत्युच्यत, इतरं तु तस्सतुवरं इयरं ज धुवियव्व
-- पूरण, तस्स त्ति-पुव्वपाउणस्स उवरि पाउण । अहवा-
अराणोणणसंकामणविही भरणात--काणामात करण धावव-
माणस्स अधोठ्वमाणस्स य वत्थस्स कण्णाकणण मलऊणं
शसि सय दप्पदा घट सकामेति। उवद जयण त्ति दारं गय।
इयाणि फलगजयणा भरणति--
फलगादीरिण अभिक्खं,पमज्जणा हेदि उवरि कातव्वा |
मा य ह ससज्ञञ्जा,तेण अभिक्खं पतावज्जा ॥२८६॥
फलगा-चगपद्दादा आददिस्द्दातो--सथारगमास्सगपाढगा
दी, एर्णस अभिकखणं पुणो पुणों, पमज्जणा रयहरणु-
( ३६४
असिधानराजन्द्रः ।
सूलगुणपडि०
ण॒ हेट्टढुवरिं कायव्वा । मा-प्रतिषेधे । चपूरण, हशब्दो य-
स्माद, जम्हा छ॒प्पदा विञ्जमाणा फलगादीणं गमणादाहि
सेसज्जंति, तेण ति--तम्हा, अभिक्खणं-पुणो पुणो, तुम्हे,
पदावेज्जा । फलहसंथाराण जयणा गया।
इदाणि उवदहिमादीणं सामरणा जयणा भरणति--
बेंटियमाइएसुं, जतणाकारी तु सब्वहिं सुज्के ।
अजयस्स सत्त भगा, सट्टाणं चर आवण्ण ॥ २८७ ॥
वेरिगादि-उवगरणजाए गहण शिक वादि करारियासु जय-
राकारी तु सब्वाहिं सुद्धों; अप्रायश्वित्तीत्यथः | ऋजयणाका-
रिस्स पुव्वाभिह्िता सत्त भगा भवंति, पायच्छिनं पूवेवत् ।
अजयणाए य वषद्माणा बेइंदियाईण सघटणपरितावणड-
इवणादी आवण्ण सद्ठाणपायच्छत्त वृद्वुब्बमिति ।
अह कस्सऽवि वणभगदलादी किमिया हवेज्ज, ते-
सिमा णीहरणपरिद्रावणाविदी भणणाति--
पोग्गलमाई असती, समितं भगंदले छोढु णीसरति ।
अणु््हे किमिकुट्टादि,किमिया पिउडादि णीणेतु ।२८८।
कस्सइ साहुस्स भगेदले हाज्ञ, तस्स ततो संगदलाओ |
किमिया उद्धरियञ्वा | पाग्गल-मस, ते गहेऊण भगेदले पच-
सिज्जति, त किमिया तत्थ लग्गेति
सामिया घप्पद, समिता कणिका, महुघर्णाह तुष्पेड मद्दिड च
भगंदले छुमाति । त किमिया तत्थ लग्गंति । जय ते पारगल.
सामियादीसु लग्गा किमिया त णीदरंति-परित्यज्ञति । अखु-
रह छायाए न्ति वुत्त भवत | तत्थ वि अदकडेवरादिसु , किः
मिकुट्टांदि किमिया ' आदिसद्दाओ वणकिमियादी अदकल-
वरादिखु परिट्रवाति श्राद्रकलवरस्याभावात् पिउडादिसु
छुमाति, पिउडे पुण-ओज्मक भरणति, णीणेडे भगंदलादिस्था-
नात् ।
दे 4 (0 72 =
ससत्ता पोग्गलादी, पिडड पोगे तहव धम्म ये |
आयरिये गच्छमि य, बोहियतेणे य कोंकणए !।२८६॥
साहुणा वा भिक्स्व हिंडतेण संसत्त पोग्गले लद्धं, आदिस
दाता मच्छभत्तं वा लद्धे, त॑ तं पि तहेव पुव्वाभिष्ियकडे-
परादिसु परिद्रवति । पिड्ड वा पामे वा ' पाम' तिकुखुभय,
द्रण पुण आयरिया पोम॑ पोममेव भरणति । श्राद्रेचम्मे वा
महु घयतोण्पिते, परित्यजत्य्थः । एवं तसकायज़यणा भणि- |
या । भव कारणे जण तसकायविरादणे पि कुज्जा । कि पुण |
ते कारणे जण तसकायविराहणे करेति ? भरणति-'श्रायरि-
प् त्ति'-श्रायरियं कोइ पडिणीओ विणासिउमिच्छति, सो
श्ररणहा ण खाद ता स॒ ववरावणे पि कुज्जा, पव
गचछुट्टाए वि । बोहिगतेणे य क्षि-जे मेच्छा माणुसाणि
हरति ते बोहिगतणा भरणंति । अहवा-बोहिगा-मेच्छा
तेणा पुण इयर चव, पत श्रायरिस्स वा गच्छस्स वा वहाए
उवद्धिता । च सदातो-कोति सजति बला धत्त मिच्छति, चे-
तियाण वा-चतियदनव्वस्स विणासं करेद,पवं ते सव्वे
अणुसट्टीए श्रद्रायमाणा ववरावेयत्वा । आयारियमार्दाणं |
नित्थारणं कायव्वे, एवं करंताऽवि खुद्धा । जहा सो कोंकण
एगा श्रायरिश्रा यहासिस्सपरिवारो सभकालसमप बहुसा- |
: धये अडर्विं पवर्णा । तमि य गच्छे एगा इृढसंघयणी को-
। असती पाग्गलस्स |
|
कणगसाह अत्थि | गुरुणा य भणियं श्रजो ! जं एत्थदुट्डसा-
घय किचि गच्छ श्रभिभवति ते णिवारयव्वं ण उदेहा काय-
व्वा । तता तेण कोंकणगसाहुणा भणियं--कहई विराहितेहि
अविराहितेहिं शिवारेयव्वे?. गुरुणा भणिय-जद सकद तो अ-
विराहितेहि पच्छा विरादितेटि वि ण दासा | तता तण कोक-
गण लविय, खुबह वीसत्था अहं भ रक्खिस्सामि । तो
साहवो सव्व सुत्ता, सो एगागी जागरमाणो पासति सीह
श्रागच्छुमाणे, तण हडिति जपिये, ण॒ गतो , ततो पच्छा
उद्दऊण सणिय लइडण श्रादञ्रा । गता परिताविश्रो ।
पुणा श्रागतं पच्छति । तण चितिय न सुद्धपरिहारो
ताविश्रो तण पुणो आगआओ, पुणा गाढयरं श्राहतो, गतो ।
पुणो ऽवि ततियवारा एवं चव, एवरे सव्वायामेण ज्राह-
तो । गता राती । खमेण पच्चूसे गछंता पच्छति । सीदं
च्रणुपथे मत । पुणो अदूर पच्छति एवतितं, पुणो श्रदुरते त-
तिये। जो सो दूर सो पटम सणियं श्चादञ्रो, जा वि मज्के सो
वितिश्रा, जो ियड सो चरिमो गाद श्रातो मश्रो । तेख को-
कणप आलोइयमायरियाणं सुद्धो । एवं आयरियादी कारणे-
सु वावापतो सुद्धों गता पाणातिवायस्स दप्पिया कप्पिया
पडिसवणा | गतो पाणातिवाता । ( नि०चू० १ उ०। मृषावा-
दस्य दर्पिकाकटिपिकामूलगुणप्रतिसवना ` मुसावाय ` शब्दे
-ऽस्मिन्नवभागे गता )
इयाररि अदिणणादाण भरणति, तस्स पडिसवणा दप्पिया,
कप्पिया य । तत्थ दृष्पिया ताव भरणति-
दुविधं च होई तेष, लोइय लोउत्तरं समासेशं ।
दव्वे खत्ते काले, भावम्मि य हाई काहादी ॥ ३२४ ॥
दुविध--दुभय, चः-पायपूरण, हाति-भवति,तरणं चोर्यं
कतम--दुभयम् ? उच्यत-लोइय, लाउत्तर च । समासन ।
व्याख्या पूववत् ।
तत्थ लाद्यं चउव्विहं-दव्वात्ति पच्छुद्ध । एसा चिरतण-
गादा । एआए चिरंतणगाहाए-इमा भद्दबाहुसा-
मिकया चव वक्खाणगाहा--
महिसादि छेत्तजाते, जहिये वा जच्िरं विवच्चासं |
मच्छरभिमाण धप्मो, दगमाया लोभओ सव्वं ॥३२५॥
दब्वअदिणणादाण महिसादि उदाहरण, खत्तअदिन्नादाण-
स्स छेत्तजाय त्ति-छेत्त-खत्त,जाय त्ति विकप्पा । । कालअदि-
रणादाणस्स वकखारं। जहिये वा जच्चिरं विवश्चास ति--ज-
स्मि काल-अवहराते, जावतिय वा काले विवच्चासितं वर्त्थ
भ्रुजति ते काले तेण्ण * भावसम्मि य होति कादादी ` अस्य
व्याख्या--मच्छुरपच्छुदध--मच्छुरे तक्ति--कोहो, अद्विमाणो-
तत्थ धरणोदाहरणे, दग--पानीय, तं मायाए उदाहरण,
लोभआओं सव्व ति-जमय दव्वादि भणियं एयेमि स्वैत्र लोभो
भवति इत्यथः | ज तं लोइय दव्वतेरणे तं तिविध- सञ्चित
श्रचित्त मीख।
जतो भरणति-
दृपयचउप्पयमादी, सचित्ताचित्त होति वस्थादी ।
मीसे सचामरादी, वत्थगमादी तु खत्तम्मि ॥ ३२६ ॥
जाहयवत्थ दणएसु, काले दाहं ण देह पृष्प वि।
मूलगुणपडि० ,
(
लगुएएलि०
एसा उ विवज्ञासा, ज च परकृष्पण। कुण।त ।।३२७॥
दुपय-मारुर्स, चउप्पद-महिसमादि, आदिसद्दाता-अप-
दे. ते च-अवव डगादि, एये जा अवहराति एये साचत्तदव्व
तरणं भवात । अचित्त हाइ वल्थादी, आदिसद्दाता-हिरणणा
दी, मीसयदव्वत्रण-स्चामरादिद्मस्सहरणे, आआदसदाता
जे वा अणण सभडं दुपरे।दि अवहारज्ञात त सव्व मांसद
व्वतस् । लछुत्तजाए त्ति अस्य व्याख्या-वत्थुमादीआ खत्ताम्म,
बन्धु तिावद-खात, ऊसिते, खाश्रासियं । खात-भूमिगिहं,
ऊसिये-पासादादि, खातासिय- दद्रा भूमिंगह उवार
पासाओ क्या । आरादिसदाग्रा-सतु, कड घप्पति । एवमा
दियाण खत्त्म्ण जा अवहारं करति ते खत्ताम्मि तरण
भवाति ।
ज्ञाइय गाहा-जाइता>पाडिहारिता वत्था गहिया त य
गहरकाल पव भासिया-अमुए काल ' दाह ति ` अअरमुगक्राले
चसत परिभुजऊण गिम्हे पद्चप्पिणम्सामि । ` णदेति
चुरण व तत्त पुरण व स्वाह काड ण दात ताण |
चस्त्रागी त्यथः! एसा उ विवञ्जासा, ` पसा उत्ति -जो
भणिआ | तुदा अवधारण, विवज्ञासात्ति-ण जहा भासितं |
तहा करंति त्ति वुत्त भवति । एवं अवहिकालाओं जावतिय
काल उवरि अदत्तं भुजतितं कालओ अ्रदत्तादाण भवाति । ,
जञ च क्ति--वत्थादिवतिरित्तस्स अणिद्िटरुसरूवस्स गदण,
^ पर `-आ्रत्मव्यतिरिक्कं न स्कीय परकीयमित्यथः। त
घुव्वाभिहिएण कालविवच्ासण अप्पणा कुर्णात, आत्मी-
करातित्यथः ।' अहवा-ज च परकप्पणा कुर्णात ज्ति' सामरण
श दिव्वादियाण वक्खाण,
वुत्त भवति । काल त्ति गय ।
मच्छर त्ति ` अस्य व्याख्या-
कहा गाणादाण, अवहार कुणात बद्धवरातु।
माणे कस्स बहुस्सात, परधप्पसवत्थुपक्खवा || २२८ ॥
पुव्वद्ध--काटा-कावण ज गाणादीणे अवहरणं करति ।
आदिसद्दातो-महिषाश्वादीनां, वद्धवेरत्वात् , तुसदा--का-
इतराणावधारण् । अहवा--सीसापुच्छति-भगवं ! कटं को-
धात् स्तन्य भवाति ? आचायाऽऽह-गासयादीण अवहर-
ख॒ करत, वद्धवरा तु नणयः एव काहाता भावतरण
भव्रात्त । आहमाणधराण त्त अरस्य व्याख्या-माण प-
च्छुछ-जहा मुसावाए तहेहावि णवरं परध्रण हरिऊण
*सवत्थुपक्खवा त्ति'-स इति स्वात्मीयो, वल्थुरिति-घरणरा,
सी,पक्खेवा पुण लुभ भन्नति, मोहं-जीविस्सामि त्ति प-
रायय घरण अवहरिऊण सवत्थुए पक्खिवेत्ता भन्नति ।
पुव्व मए भरणितं-मम बहुस्सती हत्थो इदाणि पच्चक्ख, एवं
माणता भावतरण भवति ।
` दगमाय ति ` अस्य व्याख्या--
वारग सारणि अस्मा-वएसपाएण शिक्र भेत्तणं ।
लाहण वा गमाद्।, सव्वेसु वि वत्तत॑। लाहा ॥३२६॥
चारगपुञ्वद्ध बहव करिसगा वारगण सारणीए खेत्ताणि
णएज्ञात' वारगा-पल्वाडी, सारणी--िक्रा, तत्थगा करि
६
अ। नव्रानराजन्द्रः।
जाहय वा जाच्चर ववच्चासात अस्य व्याख्या। |
ज च त्ति दव्वखत्तकाला सं- |
चज्माति तसि परसतगाण जमप्पीकरणं त तरणं भवति क्ति `
)
मलःाणयडि०
सगा अण्णतथ वार अराणाददसा पाणण रक भत्तण, अ
रणावदेसा अदसियभावचा ठिता चव. सा5हे णिडडमाणा
दिस्सस्साम तत्त पाणण रिक्त भक्तण फाडऊण अप्पणा ख-
त्त पाणिय छभात, एवं भावश्रा मायातगणं भवाति ।' ला-
भना सव्वे ति ` अरस्य व्याख्या-'लासणे पच्छुद्धे लोभण त-
षं च णियमा तरणिण-ज वाणियगा परस्स चक्खु वेचऊण-
मप्पे करति, कूइल्लकू इक्र इमप्पहि वा अवहर्गोति ते सब्वे लो
भतणण । अहवा-सव्वसु काहातिसु णिव डति लाभा तत्त स-
व्वसु काहातिखु लामान्तभून णवव्यथः । एवं भावता लाभ-
तक्ष भवाति । लादय तराणं गने ।
इयाणि लाउत्तरिये तरण भप्मति--
सुहम व बादरं वा, दुपिधं लोउत्तरं समासणं ।
तण डगल छार मल्लग -लेबित्ति रिए य अविदिष्म।३३०।
सुहमं-स्वर्पं, बादर-णाम-बहुगे, पायच्छित्तविहागण वा
सुदुमबादरबिकप्पा भवाति । जत्थ पणगे-तं-स॒हम, सस बा-
द्र । चशब्दा--भदसमुच्चय-दुविह-दुभद लागा-जणवता,
तस्स उत्तरं-पटाणतम्मि टिताज ताण तरणे लाउत्तरं तरणं
भवति. तं समासण-सखवण दु विदं ति वुत्त भवति । तस्सि-
म भदा-तणाणि-कुमुगादीशि, डगलगा-उवलमादी, अग-
रिपरिणामिगमिधणे छायो भरणति । मल्लग-सराव, लवा -
भायणरंगणो, इत्तिरिय य त्ति-पथं वच्चता जत्थ विस्समितु
कामा तत्थाग्गह णाणुराणवई | चसदाश्रा कुडमुहादयो घ-
प्पंति । आविदिणण त्ति वये सब्वेसु तणादिखु सवज्भति ।
कि चान्यत्--
अविदिष्प पाडिहारिय, सागारिवपढम गहणखेत्ते य ।
साधम्मिय55प्रधम्मिय-कुलगण संघ य तिविध तु ।३३१।
अविदिएणमिति-गुरूहि पाडिहारियं ण पञ्चप्पिणति. सा-
गारियसेतिये अदिण्ण भुजति, पढमसमोसरण वा उवहि ग-
रहति, परखत्त वा उवहिं गरहाति , साहम्मियाण वा
किचि अवहरति, अणणधम्मियाण वा अवहरति, कुलस्स
वा अवहरति, एवं गणस्स वा सघस्स वा, चसदा समु-
च्चय | तिविहे सचित्तादि दव्वे भरणति ।
पतसि तणाइयाण सामरणता ताव पच्छित्त भणामि--
(48 0-7 ८ > (44 ~=.
तण ड गलगहारमल्लग- पणम् लेधित्तिरीसु लहुगा तु |
दव्वादि विदिष्प पुण,जिणहिं उवर्ध। उ शप्फष्प |३३२॥
तणसु डगलगसु छारंस महस्लग य आंदिए्ण गहिए पणर्गं
पच्छित्त भवाति । लवे आदेणण गहिते पणगं प।च्छत्त भवद् ।
इत्तिरिए य रूक्खहेंद्रादिस अणणुणणाविणसु लहुओ उ मासो
भवति । तुशब्दातू-कुडमुहादिसु य । दव्वादिविदिरणे पुण
्ति-दव्व पतिविसिदट्ु अदिप्म ग्रहीत, पुणावससण.पुत्वाभ-
दिया पच्छित्ताओ, जिणा-तित्थगरा, तदि उवक्ररणणिष्फ-
रणे भणिय, जह रणावदहिम्मि-पणगे, मार्भिम-मासा, उक्तास
चउमासा । एवे उवकरणणिप्फरणं ।
अवधिदिणण त्ति श्रस्य व्याख्या--
५ = ०७ ९ 4 (^~ = |
लद्धं ण णिवेदेंती, परिभुंजति वा शिवदितमदिष् |
त्थोवहिणिप्फणं, अणवद्भप्पो व आंदसा ॥ ३३३ ॥
( ३४६८ )
म्ृलगुणपाडि०
अआनध्रानराजन्द्रः।
८. |
।
||
॥
कोइ साह भिक्खादिवखिग्गता उवकरणादिजातं, ल-
धं न निवदेति, लद्धं लभित्ता ण णिवदेति | ण इति-पडिसहे,
णिवेदनम-आख्यानम् , आयरियउवज्भायाणं ण कथयती-
ल्यश्रः । अटवबा--परिभुजति वा, अणिवेदित चव परिभुज-
ति | अहवा-शिवदित अदिरणे भुजति. एव अदत्तादाणं भ-
वति । एल्थावांहाणप्फरणे दट्ुब्व । खुत्तादेसण वा अणबद्ढा
भवति ।
` पडिहारिय त्ति ` अस्य व्याख्या | दारगाहा--
पडिहारियं अदंते, गिहीण उवर्धीकत तु पच्छित्त ।
सागारिसंतिय वा, ज युंजति असमणुप्पातं ॥ ३३४ ॥ |
गिहिसेतिय उवङकरणं पाॉडिहरणीय पडिहारित अदंते अण- |
प्पिणंत ति गिहीण उवहीकय उवहिशिप्फणरण भवतीत्यर्थः। |
सागारिए त्तिअस्य व्याख्या पच्छृद्ध. सागारिआ सज्जायरो
तस्स सातिय स्वकाय, वा-विकल्प, जमिति उबगरणं, भुज-
ति परिभाग करति । अरसमरुरणायतस्स-अदितस्सत्यथः ।
एत्थ प तदेव उवददिणिष्फरणे ।
'पढमगहण त्ति" अस्य व्याख्या | दारगाहा--
गुरुगा उ समोसरण, परखत्त ऽचित्त. उवधिणिप्फष्पं ।
सचित्त चउगुरुगा, मीसे सजागपच्ततं ॥ ३३५ ॥
पढमसमासरण--वरिसाकालो भरणति , तत्थ भगवया |
तस्मि च्रणुरणात गहणं करंत- |
शाणुरणायं उवटिगगदण,.
स्म अदत्त भर्वात | पन्थ चउगुरुगा पायच्छित्त भवति ।
'खत्त त्तिः अरस्य व्याख्या-तिणिण पदा.परा-अरणगाच्छुल्लगा
तखि ज खत्त त॑ परखत्त., तमि य परखत्ते जति अचित्त
दव्व गगटति तन्थ स उचहिणिण्फणण पायचिद्धत्त भवति ।
साचत्त चउगुरुग क्षि--अह परखत्त सचित्त गेरहात त-
त्थ से चउशुरूय पचि
सीसो वा त च सजागपाच्छत्त भवानि। तत्थ ज अचित्त
तत्थावहिणिप्फगण, ज सचित्त तत्थ चउगुख्यं । एय सजाग-
पच्छित्त भराणति।
` साटम्मिय त्ति ` अस्य व्याख्या-
साधम्मिया य निविधा, तसि तें तु सचित्तमचित्तं ।
खुड़ादी सचित्त, गुरुगावधिशिफापमचित्त ॥ ३३६
समाणध्राभ्मिया--साहम्मिया, स्वप्रवचन प्रतिपन्नत्यर्थः ।
चशब्दा-पादपूरण । तं निविदा--लिगसाहम्मिया, पवयण-
साहाम्मया, ठवणासाहस्मिया य, चउभगा-आदिल्ला तिरिण |
भगा तिविहा साहाम्मय ह्नि बुत्त भवति । चअउत्था भगा
छन्त भवति | मीसे त्षि-मीसो सोवहितो |
असाहम्मिआ त्ति पडिसिद्धो । अहवा-तिविहा साहम्मिया- |
साह , पासत्थादि , सावगा य | अहवा-समणा , समरणाी,
सावगा य | “*तस्सि ति ` साटम्मिया सवर्भति । तरण
वहारा. तुशब्दा-यच्छुब्द च द्रव्य: । सच्ित्त-सचेयण,
अचित्त अचयरा ता तप्त ज त सचित्तमन् न त्यर्थ:। कि पुण
सचित्त भवतिः? खुड़ादी सचित्त खुड्टा-सिस् वाला त्ति वुत्त
भवति | आदिसद्ाताअखुड़ा चि तामि य सचित्त अपहते |
गर्गा पच्छित्त भवति । | अचित्ते पुण-उबयहिणिण्फएणं भवाति । |
इदाणि कुलगणसंघ्रा जुग भरणति--
एते चेय पच्छिता, कुलम्मि दोहिं गुरू मुणेयव्या |
तवगुरुया तु गणाम्म, कालगुरू हाते सघम्म ॥३३२७॥
एते चिय-ज साहम्मियते ण्ण पच्छित्ता भणिता, त चिय
कुलतरशे वि दद्वव्वा । नवरं दादि गुरू मुणयव्वा, दाहि ति- `
कालतवटि, कुलपच्छित्ता गुरूगः कायव्वा इत्यथः । ते च्चिय
पायच्छित्ता गणतण्ण तवगुरुगा दट्गुग्वा काललहुगा, संघतेरंण `
कालगुरू दट्रुव्वा तवलहुगा ।
इदाशि गिहिसाहस्मिएस पच्छन्न भराणति--
एते चेव गिहीणं, तवकालविसेसवज्जिया होति ।
उगलीादि त्तभवज्ञ,पुव्वुत्तं तं पि य गिहीसु ॥ ३३८॥
पते च्चिय पच्छित्ता-ज कुलादिसु दत्ता, त च्चिय गिहिसा-
हम्मीणं , रवर तवकालविससेण तवकाल एव ॒विसेसो
तण तवकालविसेखेण वज्जिया होति । तवकालेदि ण विसे-
सिज्जंति ज्षि वुत्तं भवति। श्रहवा-'पते चव पुव्वद्धं -एय अणाण-
धम्मिएसु वक्खाणिज्जति। पत च्चिय पच्छित्ता ज साहम्मि-
एसु भणिता त चेव अरणधम्मिएस्ु य गिह त्थेसु णवरं तवका-
लब्सिसवज्जिया हो ति। इमं खत्तदारे अभव्वविचारे भरणति।
“डगलादि' पच्छद्ध-उगला-पसिद्धा, अआसिददाता तणच्कारम-
ज्लगपीढफलगसंथारगा य घप्पति । खेत्तवज्जे ति--परगच्छि-
एलयाण खेत्तस्मि वज खत्तवज्जे, एत्थ अगारो लुत्ता द टुव्वो ।
सा जदा आविभूता भवति तदा एवे भवाति-डगलादिखेत्ते
अवज, परखत्त डगलगादि गर्ता वि अपचज्िछत्ति चि वुत्तं
भवति । 'पुव्व॒ुत्त ति' चोदगाह-णरणु पुव्चुत्तं ' तणडगलक्कारम-
स्लगपणग' पञ्च पणगपाच्छत्त दाऊण इदाणि अपच्छित्ती .
भणसि ?.आयरियाह-सब्वे'पुव्वुत्त त पि य य गिहीसु'त पच्छि-
क्त जो गिही साहम्मिताओ अदत्तं गरहईइ. तस्स तं भवति।
चसददो-पादपूरण । अहवा-आयरिएणाभिहियं जहा परखेत्ते
तणडगलाती गेरहंतो वि पच्छित्ती । सीसो भणाति-' डगला-
दिखेत्तवज्ज ` पुब्ब॒ुत्त डगलगादयो वि परखेत्ते वज्ञयव्वा,एवे
पुव्व वक्खायं । आयरिओ भणइ-सव्व॑ त पि य गिह्ीखु
तं पुण गिहीसु सि वुत्तं भवति ण खत्तिएसु ।
* तिविह दारं ` अस्य व्याख्या--
सच्चित्तादी विविध, अहवा उकोसमन्मिमजहण्णं ।
आहारोवधिसेज्ञा, तिविहं चवं दुपक्खो वि ॥ ३३६ ॥
सचत्त- संहो सदी वा, आदि सदाता-- अचित्तं मीस च।
तिविहं अवहरति । अहवा तिविध उकोखं वासकप्पा-
दी , मज्मिमं चोलपट्टगादी, जदरणे मुह पात्तियादी । अहवा-
आहारा असणादि,उर्वाह वत्थवाडिग्गहादि,सज्जा वसही,एते
वा तिविध अवहराति । दुपक्खो वि-दुपक्खो साधुपक्खो
साहणी पक्खा य । एवं जे भियं तरणं एयं सव्वं पि दुहा-
खहुमवायरभेदेण भिराणे दद्ुववे । इमेण पुण विहिणा सुहुमं
पि चादर दट्व्व कह ?।
भरणति--
कोहिण व माणेण व, मायालोभेण सेवियं ज तु ।
सुहुमं च बादरं वा, सव्वं तं बादरं होति ॥ ३४० ॥
काघनालवित,क्राघनापहतामित्य्थः। एवं माणसेवितं, मा-
यास्वित, लाभसविते । यदिति द्रव्यजातं सवजञ्भति, तं
पण काहादीहिं खुहुमे वा वायरं वा सविते, जति वि खुहमं
तद्टाचि ते सव्वं बायरं हाति।
रथ
=
(4
` झूलगुणपाडि०
( ३६७ )
अभिधानराजन्द्र: |
कोहादी(द जे सावन तस्त पब्छित्त मगणति-- ।
पंचादी लहु लहुया, गुरु अणव्ढन्ी व हति आणसा।
चठणह एगतराए, पत्थारपसज्जण कुज्जा ॥ ३४१ ॥
पचादि क्ति--आये-पंच, इदमुक्ल भवति, जहणणण पणगं |
भवति त्ति वुत्तं भवति । लह त्ति-मज्मिम मासलहु भ-
चति । लहगा इति-- कोस चउलहुगा भवति । गुखुग त्ति- |
सचित्त चउगुरुगा भवति । अहवा--जहरणमाञ्भमे मास-
गुरु लहं भवति । लह गा इति--उक्ोसे चउलहगा भवति | |
गरुग त्ति--सचि ते चउगुरुगा भवति । अहवा--जहणणम- |
ज्भिमठकाले सचित्ते वा एतेखु सब्वसु ' अणवट्ुप्पो य
हाति श्रादसा ` ण उवद्वाविज्ञतीति अणबद्ढा, हाति-भवति,
आदेशात् सूत्रांदशादित्य थः । ते पुण इम सुक्त-' तश्रा अणव- |
इप्पा परणत्ता । त जहा-साहम्मियाणे तरणं करेमाण.हत्था-
दाल दलमाण. मेहुण सवमा `` | किचान्यत्-` चडरयहं ` प-
च्छद्धं., च उरं कोहादीणं पगतरणावि पडसेविते पत्थारो, |
पन्थारो णाम-कुलगणसर्घाविणासो भरणति, तामि पसज्जणे
पत्थारपसज्ञणं कुजा । क ? राजादयः। तम्हा णो कोदादीहि
अगण्णहा वा तिय कुञ्जा इति । अदत्तादाणे दप्पिया पडि-
सवणा गता ।
इदाणि कप्पिया पाड़सिवणा भरणति--
असव अमर, रायद्द् भए व गलप । |
दव्वासात वाच्छद5-स।वग्ग वाव अगद ॥ २४२ ॥
आसिवे-मारि अभिहितं, आमोदरिता-दुब्भिकख, रायदट्रु |
त्ति-राया दुद्रा रायदुद्र भराणति | सत्तभदा भय भराण- |
ति। सो पुण सत्तभदा वाहगतणातिखु सभवति । गि |
लायतीति गिलाणा. दवयतीति दव्व.तस्स असती दव्वासई- |
चाच्छदा व्यवच्छदा नासेत्यथः | सच सत्राथयाः, सवगमा-
चरणा संविग्गो, ण संविग्गा--अर्सावग्गो, तमि असंविग्ग |
चावि तिय कुज्जा ण्वमादिखु आगाढ्खु पओयणस
वितियपदण तिय कुज्जा ।
“ आसवे त्त ” अस्य व्याख्या--
असिवग्गहिततणादी, असंथरंते सयं पि गर्हज्जा ।
एमेव च उ अदिष्य,पटिहारिय पढमखत्ते य ॥ ३४३ ॥
अ्रसिव--मारी भणति, तीप--गाहता अआसिवगाहिता, त
असिवगहिता होतृण तराणि जादयाणि अलभंता । |
अआदिसद्दातो-डगलगछारमज्नगादी घ्रप्पति । परिसि कारणे
अदिणणाणि वि गणहंति, तहा वि शुद्धा भवति । । अस-
` अरत त्ति---ऑसिवग्गहिते विसए अस्थरमाणा असणादा
सये पि गरटेजा, अदत्तत्यथः । अहवा--असंथरं--दब्मि-
क्ख, तत्थ अलहंता मत्तपाण सय पि गेणिहज्जा । प
त आंदृणण त्ति' दार सिव अववदित । ' पमेव चउ अदि,
रणे त्ति --एवं जहा आसिव अदिरण अववादित तहा--
चउ त्ति--पाडिहारियं, चसद्दाता--सागारियसंतिय पढम- |
गहण य सत्त य एत चउरो ऑआऑसवर्ग्गाहता होऊण आदिरण्ण
वि गेरहेज़ा | अहवा-चडरा--दव्व, चत्त. काला, भावो य |
णत वा आसवग्गहिता होऊण अदत्त गराहज्ञा । अहवा-चउ |
>जहराणमाज्भमुका तावदी सहा य। अहवा--च उरो-
ह सूलगुणपाडि०
साहभ्मियसेतिये, सिद्धपुत्तसतिय, सावगसतियं, श्ररणति-
त्थीणय । एयाणि वा असिवग्गहिता होऊण अदत्ाणि ग-
रटज्ञा । । अहवा-चडउरो-असरणो, पाण, खातिम, सातिम ण्या-
णवा अद्र्साण गरटज्ना। एय सामरण पाडहारयस्स |
इमा पत्तय वभासा भरणांत्त-
१0 १
आसवग।हत त्ति काउं,ण देति दुक्खं ठिता य णिच्छोढुं ।
अबि य ममते लिज्ञति, छेययगहितोवभुत्तसुं ॥ ३४४ ॥
व्येसि चच वद्दमाणेहि तणातिउवकरणे च पाडहारियं
ते गदितं, तम्मिय काले पुस अतरा सिव जायं, तणय
असिवेण त सावो गदिता, अता असिवगहित त्ति काउं
णदेति। ते पारिहारिय गहितं मा पत गिहन्था श्रसि-
वेण च्रप्पज्ञा, इतित वि य गिहत्था तेखु पाडिहारिएसु
ममत्त चिति, ममदे जा य ममीकारस्तं ममत्त, तसु तणादि-
खु छिज्जति | फिट्टइ त्ति वुत्त भवति । कम्हा ममत्त छिज्ज-
ति ?. भरणात-छवगगांह तावभुक्रत्वात. श्रसिच छुवग भरण-
तिः तण गहिता छवगर्गाहता तदि जाणि उवभुत्तादीणि
तणफलगादाण तसखु ताण गिहत्थाण ममत्त छिज्जाति, स्व-
र्पश्चादत्तादानदापत्यथः । | अहवा-एसा गादा एवं वक्खा-
णिज्जाति-साह असिवग्गहिता इति कृत्वा त गिहत्था तसि
साहण तणफलगसज्जा ण दाति असिवकारणत्वात् रता अ-
दत्ता व धष्पेति तखु अदत्तसु गाहतखु [ठतखु वा. दक्से
टता य णच्लुदण त्त-ण शिच्छभाति तसु चव अदत्तगाहि-
तसु । ` आवि य ` पन्छृद्ध परववत् ।
` असथर त्त ` शरस्य व्याख्या--
साधम्मियन्थलीसु, जायमदंत भणावणगिहीसु ।
रसती पगासगहणं, पलवति दुट्ेसु छप्प पि ॥ ३४४ ॥
आसित्रगाहिते विसये ऑआसिवगहिया वा साह असंथ-
रता अलिवग्गहितविसयउात्तणणा वा दुल्लहभत्त देस पत्ता
असंथरंता, साहम्मिय ्ि--समाणचम्मा-साहम्मिया, थ-
ली-देवद्रासी, जाय त--जाचर्यतः आरहंतपासत्थपरिग्ग-
दियदेवद्राणीखु पुत्वे याचयन्तीव्य्ः। देत ज्ञि-जया ते पा
स्था णच्छाति दाउ तदा गिहत्थर्हि भण.विज्ञात , सव्व
सामरणाण-देवद्वाणीए किन्न देह । असति न्ि-तटा वि अ-
देता पगासगहगे, पगास-प्रकटं स्वयमव गड़णं क्रियत ।
अह ते पासत्था बलवगा-राजकुलपुरवाउरविद्याश्रिता इत्य-
दुट्ेसु क्ति-स्वयमंब वा दुष्टा आखुकारिणः तदा ता-
सु चव साहम्मियथलीस छुणणमप्रकाश गृह्यतत्यधेः।
साध,म्मयत्थरलीणं, सिद्भगए सावगऽप्प(तित्थी सु ।
उकोसमज्मिमजह-प्पगम्मि जे अप्पदोस तु ॥३४६॥
अह साहम्मियत्थलीणं अभावा हाजा, तांद गिह-
त्थसु घ्रत्तव्वं, तसु वि पुव्व सिद्धपुत्तेखु, सभायका अभा-
यका वा सा णियमा सुक्ृवरधरो खुरमुडा ससिही सिरी
वा णियमा अडेडगो अपत्तगों वि य सिद्धएुत्ता भवति । सि
झ्पुत्ता5सात, सावगेसु ज्ञि--सावगा ते गिहीयारुव्वता
अगिही याणुव्वता वा पच्छा तेस घप्पति | असति सवगार
अराणातत्थीसु त्त-अण्णशतित्थिया रक्तपडादी ताण थलीस घ-
( ३६ )
आमधानराजन्द्र: |
सलगणपडि०
प्पइ सव्वन्थ पुण गराहतो पुव्चं जद॒एणं गरट्, पच्छा म-
स्मिमं, पच्छा उकार । अहवा-उकास मार्भम जदरण वा
जल्थव अप्पतरा दोसा त चव गरहति)
एमव मिहत्थसु वि, भदगमादीसु पटमता गिण्टे ।
अभियोगासति ताला-सावणिविज्ञाएँ अन्तधाणादं २४७
एमव नि-जटा सिद्धपुत्तसावगस्तु अविदिन्न गहय, एमे-
व मच्छादिद्विगिहत्थसु वि भदगमादासु पढमता गिराहति,
अगरणतित्थियसमी बता पुवं अट भदगखु अदिन्न घत्तव्च,
पच्छा अणणतित्थिएसु वि एतखु पुण सव्वसु पगास पच्छ-
न्न वा गराहंतस्स इमा जयणा | आभयाग त्ति-अभियागो-
वसाक्ररण भर्नात, त पुण विज्ञाचुरणमतादीहि तण वसी-
करत्ता गर्हण | असति तज्षि-वसीकरणःस्स, ताह तालुग्धाड-
णीए विज्ञाप तालगाण विहाडऊण, आसावाणविज्ञाए य
आसावेड गराहात, जण गअजणावज्ञादिणा आदस्सा भवति
. त श्रतद्धाण भराणात । आदिसद्याता-अणपाय जाणिऊण
पगास तराणमवि कज्ञति । ' असिव त्ति ` दार गय ।
एमव य ओमम्मि वि, रायदड्े भए व गेलांस ।
अगतोसहादिदव्ब, कन्नाणगहंसतन्नादी ॥ ३४८ ॥
जेहा आसवदार अआदुरणपाडहारयाददारा भाणया एव
आमरायदुद्रभयगलण्णदा रखु व आद्रण पाडहारगाददा
रा जहासभव उवउज् वक्कब्या | `दव्वासात त्त दार-अस्य
व्याख्या-अगता पच्छुद्ध-कस्स व गलाणस्स. जण दव्यण |
तं गलण्ण पगुणति तस्स य दव्वस्स असती अभाजेत्यर्थः,
त पुण अगतोसहादिदव्वं, अगत नकुलाद्यादि च्रोषध, एला-
दिचृणगादि वा, कल्ञाणग घृत, हंसतेल्ल, हंसा--पक्खी भ-
रणति. सा फाडऊण मुत्तपुरीसाणि णीटारजति, ताह सा
हंसो दव्वाण भरिज्जति, ताहे पुणरावि सो सीविज्जति, तण
तदबन्थण तल्ल पञ्चाति, त ह सतल्ल भरणति । श्रादिसदाता- |
सतपागसटस्सपागा य तस्ला घप्पाति । पवमादियाण दव्वा-
ण॒ अमिआगादी पूवक्रमण ग्रहणं कतव्यामति ।
` वाच्छुय चि ` अस्य व्याख्या--
पत्तं वा उच्छद्, गिहिखुड़गमादिग तु वुग्गाहे ।
द्रम्मखुडगं वा, जतउ घड॒उ जमउ त्ति एमव।॥२३४६॥
पत्ते णाम--सत्तत्थतदुभयस्स ग्रहणाधारणाशक्केत्य4: | उ- |
रूछुए त्ति-उच्छुआ खन्नन्थाणः बवच्छुदा ति वत्तं भवति। |
गिहासमे ठिता-गिहत्था, खुड़गा--सिस् , वाला त्ति वुत्त
भवति। श्रादिसदाता-श्रवालोऽवि। अहवा-साहम्मियणणघ
स्मयाण वबा,ठतुसद्वा-कारणावथारण | ववराय गाहत-वग्गा
टत, मा गिहवास रमइ न्ति वुत्त भवति । सिसमितरं वा स्-
आर्थाभयच्छेदी योग्यमिच्छुमानमपहरन्तीत्यर्थः । ` बाच्छुय
न्ति' गये । 'असंविग्ग तिः दार-श्रस्य व्याख्या-'शणिद्धम्म'प
जलुद्ध-णिग्गत धम्मा णिद्धम्मा, पासत्था इति, तासि सिय
खुड्ये अखुइय वा, एमव जहा गिहत्थखुड्डंग तहा वुग्गाहिक
णावलेंबणण बुग्गाह त्ति भरणति । जयड त्ति--सजमजाग |
सु जयउ, घड़उ उज्ञमड त्ति युत्ते भवति | तेसि पासल्था-
पणता जहा विपरिणमाति तहा कुयोत् श्वहरति वाप्पी |
= ०
च
त्यथः | चोदगाह-जुत्त सुत्तत्थो भयवोच्छेद् गिहिसाहस्मिए-
तरखुड्गादिश्रवहरणं, कि पुण णिद्धम्मखुड़
पुण णिद्धम्मे खुड़गेतर वा तत्थ णु फुड तरणं भवति। _
आचार्याह-- ै
तेसं तमणुपःतं, अणणुपष्पातग्गहण वि सुद्धा त ।
के तापं अतंजम- पंक खुत्त तु कड्डेते ॥| ३५० ॥
तस्र ति-पासत्थसु तामिति खुडगा,सदा वा,संबवज्फति,अखु-
रणाय--दत्त, गरहति । पुव्चं पासलत्थाणुरणाय खुङ़गमितरं
वा गराहतीत्यथः | जति व तदि पासत्थहि अणणुरणाय--
्मदत्तत्यशथः । व्रहणमुपादानातविदं खुद्धा सर्वप्रकारणत्यथः,
तुसद्दा-पूरण । अहवा-चादक आह-तेखु त॒ तमणुणाणातग्ग-
दण जुत्त अणरणुण्णायग्गहण वि खुद्धा तु कटं ? आचार्य्यो-
ह--अदत्ते वि ` कं तरणं ` पच्छुद्ध--ककारो वे दद्वव्वा,
जहा को राया ?, जा ण रक्खति, तरण अवहारो-असजमो
अखुचराति, पंको--दव्वभावता, दव्वश्रा चलणी, भावओ
असेजम एव पको भरणति । असंजम एव पंको तमि खुत्तो-
णिसरणा, तुसद्दो तस्मादर्थे द्रएव्यः। कड्ट गे आगरिसणं, उद्ध-
रणमित्यथः । तस्पाद् असजमपंकादागतस्स कं तरणे भव
तीत्यथः।
आप च--
स॒ुहसीलतेष्मगगहितो, भवपल्लिं तेश जगडितमणाहे ।
जो कणति कूविगत्त, सो वप कुणति तित्थस्स ॥३५१॥
सुहे-अणावाहं, सील-रूवा, तेणगो-अवहारी, गहितः--
आत्मीकृतोा, भवः-संसारः ,बहुप्राययुपमर्दा यत्र सा-पल्ली, त-
ख॒ तन्मुखः, जगाड़तो-प्रगिता, लाग पुण भरणति उव-
द्विता, अणाहा-असर णत्यर्थः | सदे सील खटसीलं, सुहसी-
ल एव तरणा सट सीलतरणा, तण गदिता सटसीलतरणगद्ि .
तो । भव एव पल्ली-भवपल्ली, तण जगाडियमणाहे णिज्ञमाण॒
जीवे, "जा कुणति करूवियत्त' ज इति अर्द्रा, कुणति-क-
रोति, करूविया-कुडिया भर्णति । जा एवं करेति सा वरणं
करति । सा-इति, स इति नर्देश, प्रभाव्रणः वरणो भरणात,
तं करति तित्थस्ख, तित्थ-चउवरणा समणसंघा दुवालसं-
गे वा ग/७पडगं वा अदिरणादाणस्स कप्पया पडिखवणा
गता । गत अःदरणादाणे ।
इयाशि मदु भराणति-तस्स दुविहा पाड़्वणा-दप्पिया,
काप्पया य, तत्थ दरप्पियं ताव भराम । दारं--
महृषपि य तिविध, दिव्य माणुस्सय तिरिच्छे वा ।
दव्वे खत्त काले, भावमि य होति कोहादी ॥ ३५२ ॥
महुणे-जभन, तस्स भावो-महुणणं। इह वा रहस्से, तमि उ-
प्परणं महुरण, अविसदा-एवकागाथं। चसहा पायपूरण । मे-
हणमवि न्रवधत्यथः | तिविह त्ति-तिविध भदं भरणति ।
तिरिणित्तिसखा, तिरिण भदा तिविहं, के ते तिणिण य भया ?
भरणति-दिव्व, माणुस्स, तरिच्छं च । पक्र पुणा चउभेदं-
* दव्व ` पच्छुद्ध-चसद्दो समुचय, दाति-भवाति । । आदिख-
दातो माणमायालाभा घरप्पति ।
दव्वत्ति ` स्य व्याख्या-
रूबे रूवसहगते, दच्च खत्त य ज॑मि खेत्तमि |
श
है
५
( ३६६ )
अभिधानराजन्द्रः।
मृलगुणपडि°
| छिणणमछिणणं, जहिये वा जबचिर काल ॥३५३॥
अणाभरणा इत्थी-रूवे भरणति | रूबसाहय पुण-तदवाभर |
शसदियं । अहवा-अचेयरं इत्थीसरीरं रूव भरणति ।
तदेव सचेयरा रूवसहिले भरणति । दव्वे तत्त-द्व्वमहृण ए-
व॑ बक्खाणे भरणद । खत्त य त्ति दारे गदितं । ˆ जामि खत्त-
म्मि' अस्य व्या ख्या-जम्मि य खेत्तस्मि महुण सावेज्ञात व
दावह पच्छुछे-कालआओ ज महुण त दावह-ाछुण्ण आड़
मित | ज॑मि वा काल महुएं सविञ्जाति जावतियै वा काल
ह्रौ ति जावतियं वा वरणिणज्ञाति ते कालमडुणों भरणात ।
सूते रूवसहगए ` त्ति । अस्य व्याख्या--
जीवरहिओ उ देहो, पडिमाओ भूसणेहि वा वि जतं ।
रूवमिह सह गतं पुण, जीवजुर्य भूसणेहिं वा ॥३५४॥
गताथा ।
« भावम्मि य होइ काहाइ त्ति ` अरस्य व्याख्या--
काहादी मच्छरता, अभिमाणपदोसऽकिचपडिणीए ।
तव्वप्िगि अमणुस्य, स्य घण उवसग्ग कप्पट्टी ।३५५।
कोहादिग्गणाउ भावदारं सतित ।
हरं सेवति । त्रभिमाणो-माणो, भर्णति । पदोसो त्ति-
केति. मायालाभा दद्ुव्वा । | अहवा-किच्चे करणीये, रागकि-
मिति यावत् , एसा माया घरप्पति ।
लोभो चप्पति, स च माक्ञप्रत्यनीकत्वात् प्रत्यनीकः ।
ज्जायरघधृअपच्चणी गोवसक्खणाओं वा,
भरणति, तव्वरिणगी रत्तर्पाडणीया कोव उदाहरण भविस्स-
ति । अमरुस्स त्ति णपुंसग एय माणे उदाहरणं भविस्सई ।
रव्-
मच्छर त्ति--कोहेण |
माण गादत तण पदासणभक् त-ञआआक्चपाडसचण क- |
किणञ्जति वा, त खत्ता महुण । काले त्ति अस्य व्याख्या |
शणं च । छिएणे दिवसवलादि वाराहि वा, आलछिएण अपार - |
पडिणीयग्गहणातो टणातो |
पच्चणागा लोभो '
रूय क्ति--रोगे, एन मायापए उदाहरणे भविस्सति । घरण त्ति |
घणविगती, उचसग्गे त्ति-उवसग्ग एवं, #प्पट्वी-सेज्जा- |
यरधूआ, कविलचल्लगो लोभा सज्जायरकप्पट्टीण उबसग्गं |
करोतीत्यर्थः ।
पसव 5त्थो किचि विसेसिओ भराणति--
कोहातिसमभिभूओ, जो तु अबंभ शिसेवति मणुस्सो ।
चउ अप्पतरा मूलु-प्पती तु सव्वत्थ पुण लाभो ।२५६।
आदिसद्दाआ-माणमा यालोभतः, समभिभूतो-आत इत्यथः!
जो अणिद्विट्टा, अवंभं-महुणं, णिसेवति-आसेवाति ्राचर-
तीत्यथः । मनार पत्ये मनुष्यः,तस्स तत् तदाख्यं भवतीत्यथः।
चउ त्ति-कोहादया, तसि अरणतराश्रो मूलुप्पत्तीच्रा आद्य-
त्पत्तिरित्यथः । तुशब्दो-अवधारखे । सव्वत्थ पुण लोभो को
हुप्पएण मेहुणाभाव लोभो भवति | एवं मारमायाखु वि लो
भो पुण सट्टाण भवति चेव ।
चव तव्वारणाम त अस्य व्याख्या--
समेहन्भागभिक्खु शि, अंतरवयभंग व्रैयडणा कोऽवि ।
अट्विओभास5णिच्छे,सएज्मि अपुम ति माणम्मि।२५५।
एगा सहो उन्भामनगे गता, भिक्खायरियापए त्ति वुत्त भव-
ति । सोय गामंतरा अडवीए भिक्खरणी पासति | तस्म तं
९
पासिऊण रोसो जाओ, पसा अरहंतर्पा डणीया इत कच्चा
(तं) वयं से भजामि त्ति महुएं स्वति । पच्छा गतु गुरू
समीवं आलोएति, भगवं ! रोसण म वयभंगाणामत्त महुण
सेबितामाति। अमणुस्स त्ति अस्य व्याख्या- आद्ुआ पच्छृद्ध
अद्वयं पुणो पुणा श्राभासति. यावातिय आण्च्छ अणाभलस-
त, सएज्किया समासितिया । अपुमे ति-नपु तक इति काहत
साह । पडियस्स य समीवे इत्था सुरू भक्खु दट ढूण अज्का-
ववगणा.सा तं पुणो पुणा भणाति-भगवे ! मम पाडसवखु, सा
शच्छति । जाहे बहु वारा भणिता गच्छति, ताह ताण
सो साह भराणति- तुमं णपुसगो धुव जण म रूवजाव्वण
वद्यमाणी ण पडिसर्वासि, तस्सवे भणितस्य माणा जाता
अहमतीए अपुमे भणिता पडिसिवामि, तण पाडसावया । एव
माण मदुणमिति ।
"ख्य णि ` अस्य व्याख्या--
विरहालंमे सल-प्पतावणा एव सेवती मायी ।
सेज्ञातरकप्पट्टी-गोउलदधि अतरा खुड्टो ॥ ३५८ ॥
विरहो-विजरं, तस्स अलभे, सूले-रोगविकारो, पयावणा
अग्गीए । एव त्ति-पएव-श्ननन भरकारण.सवती-विसश्रावभागं
करद् | कोइ साह समासियाए इत्थीण साहिज्जति, साहुस्स
वहुसाहुससदायतो विरहो शन्थि । ततो तण साइणा
अलियमव भरणति-मम सूलं कञ्जति, अहमेते गदं गतु
तावयामि । आर्यारएण भणिय- गच्छं | सा गता. तण पाड
सविता । एवं मायाप महणं भवलि । घरणउवसग्ग कप्पाद्ट तत्त
मस्य व्याख्या-सज्जातर पच्छुद्ध, कम्मि णिच्राप आयारया
बहुसिस्सपरिवारा वसति , तम्मि थ गच्छं कविला नाम
खुडगो श्रत्थि । सो सजञ्जायरधूयाप अज्भोबवरण्णो सातं
पत्थयति, सा च्छति, श्ररणया सा कप्पट्टी दहिणिमित्तण
गोल गता | सो वि कविलगा तं चव गोड ले भिक्खायार-
याण पद्िता । सा तेण सु डगेण गामगाउलाण अतरा दिद्वा।
उप्पातऽणिच्छपितु पर- सुच्छरेए जुष्पगणियगह ।
ततिच्रो दिष्पो पुसम्मि, इत्थीविण सछिड़म्मि ॥ ३५६ ॥
सा तेरतरा भारियाभावखुप्पादिता अणिच्छमाणौश्रा
उष्पातितं रुहिरं, अशणिच्छमाणीए योनिभदेनेत्यथः । तीण
रेरुगुडियगत्ताण गंतूण पिडणो अक्खाये- सा परखु-(कुहा-
ड ) गहाय निग्गतो, दिटद्लों य5णण, स पसवणे, चिन्न, ततो
उ णिक्खतो, सा उ एगाए जुष्षगणियाण सगदिञ्मो । तस्सय
तवथ ततिओ णपुंसगवेदो उदिरणो । तओ इत्थिवदो, तम्मि
पसवणपदेते अहाट्टा मगो जातो तीए गणियाए इत्थी-
वेण सो उविश्रा, सववदरितुमाढत्ता इलि अस्येकास्मन्
जन्मनि जयो वदाः प्रतिपदयन्त । चरनन च ऋमैण आदा पुम
ततो अपुमे,छिड़े जाते इत्थिवदे सम॒दिग्ण तद्यव्रदेव्यथेः । एवं
तस्स कविलखङगस्स सज्जायरकप्पट्रीए लोभा महुणर्मिति ।
पमे माणस्सगं भणिते, एवं काहातीहिं दिव्वतिरिणसु वि
ददुब्वे ! हावमुक्कमिति तरिधा भिद्यत । कि कारणे ?, उच्यते--
पव्वभणियं तु कारणगाहा । इह दुहविलेसोवलंभणिमित्त
भराण॒ति--
महंत ए्प य तार्वह, दव्व माणुस्सय तारच्छ च |
प्र।डिसिव्श आरोबग ,जयणा तेविहे य जा मणिता । ३६ ०।
( ३७० )
अभिधानराजन्द्र। |
मृलगुणपडि०
भलशुलषडि० ;
पृव्बद्ध कंठे । पये दव्वादियं ज भाणियं ते एककं तिविहं उ-
को मज्मिम जहन्ने च | एत णव विकप्पा,दुविदे य क्ति-पुणा
पङ्को भदा दुगभदेण भिज्ञाति त्ति वुत्तं भवति । पडि- |
माजुयदेहजुएरं ति वुत्तं भवति । पते अट्टवारस विकप्पा
ज्ञ भणिय त्ति पतसि अट्टारसराहं विकप्पाण पक्के विकप्प
जा भणिता आरोवणा सा दट्व्वा । काय सा, इमा पडिसे-
वणाआरोवण तज्ि--पडिसवण श्रारावणा पडिसेवणा5<5- |
रावणा, पडिसेवणार्पाच्छत्ते ति वुत्तं भवति।
ठाणपायच्छित्त च इणमेचत्थ किचि विससे भरणति--
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दिव्वादातिगं उको-सगाई एककगे तु ते तिविधं।
तिपरिग्गहमेकेक, सममत्तममत्ततो दुविध ॥ ३६१॥
दिव्य , माणुस्सय, पतारियं च | पक्क्रयं पुणो तिविहं--ड
कास, मज्मिम, जहनज्नयं च | पणो पकक तिपरिग्गहं--डे-
डियकोडंवियपायावच्च च । पुणा पकक दुविकप्प--समम-
क्षाममत्तभदेण । एत य चयण अचेयण भया ।
इम पुण पायसो अचेयण भवेति--
[ क ५ [न (वि विः विधं
पाडमाजुतदह जुय, पाडमासाष्पाहत एतरा दु |
= [ नट = = ० हक
देहा तु दिव्यवज्ञा, सचेतणमचेतणा हाति ॥ ३६२ ॥
पड़िमाण जुये पडिमाजुअ-सह प्रतिमया सवनमित्यर्थः | जे
पडिमाजुय त दुचिह सणिणहियपडिमा वा,असेनिहियपडिमा
वा । दिव्ववज्ञं ति-मसुर्यातरियाण सचयणा अचयणा वि
भवति । दिव्या पुण सचयणा एव, अचेयणा श॒ भवति, ज
महा पदीचजाला इव सहस्रा विद्धसात । पय सप्पभेय इहे-
वबज्कयण बहदेसे भमणिहिति । गया दणष्पियामहुणपडिसेवणा ।
इदाशि कप्पिया भरणति, एवं सूरिणा भरिते चोदगाह--
चिद्धुड ताव काप्यया पडिसेबणा दण्पियाण ताव विसेसं
भणाहि , कहे वा दप्पकप्पपडिसरवा भवति ? । शुरुराह--
रागदासाणुगता, सुदाप्पया कप्पिया तु सद्भावा |
आराधण कत्यणं, विराहओ होति दप्पेणं ॥ ३६३ ॥
पीतिलकखणा रागा , अपीतिलक्खणों दोला, अखुगता-
सहिया, शिक्का रणलक्खणो द्यैः, रागदोसाणुगया दप्पिया
भवतीत्यर्थः | कारणपुव्वगो कप्पो , तदभावाद्वागदोसाभा-
वात्सकारणे दोसाञ् कप्पिया भवतीत्यर्थः । शिष्यः पुन-
रपि प्रच्छेत-दप्पकल्पाभ्यां सवरणे कि भवति ? , उच्यते-
आराहण ` पच्छुछ--कप्पेण ज्ञानादीनामाराघको भवति
तेषां चैव दप्पात् विराधका भवति । विराधको--विना-
शकः । पुनरप्याह चोदकः-' जति रागदोसपञ्चया तो दाप्पि
या पडिसंवणा भवति, मेहुणकाप्पियाए अभावो पाव-
ति, अहवा--संबंध ? आचाय्य पवाद, मेहुणे कप्पियाए
अभावा । चोद्गाह--णणु सब्वपदाण अववादधम्मया
जुत्ता । श्राचायाद-
कसं सन्यपदसु वि, उस्सग्गववातधम्मता जुत्ता ।
मोत्तं भहुणधम्मं, ण विणा से। रागदोसेहिं ॥ ३६४ ॥
कामशन्दः इच्छा श्रनुमतार्थेच,दइद तु श्रुमताथं द्रष्टञ्यः।
सव्वपयाणि मूलुत्तरपदाणि,अविसदो-अवधारणे,तेखु य उ-
ससग्गववातभस्पया जुत्ता । उस्लग्गी -पढि लेहो , अववातो -
अखुण्णा, धम्मता-लक्खणता, जुत्ता-जुजते घटतेत्यथः | स~ ¦
व्वे सब्वेसु मूलगुणउत्तरपदेसु उस्सर्गववायलक्खणं जुज- ¦
ति, तदा वि मोचं परित्यज्य, मेडुरंं-जुगं, तस्स भावो महु
भावो, अचभभावत्यथः । किमथ ?, उच्यते--ण विणा रा. `
गद्धषाभ्यां सो मेडुणभावो भवतीत्यथेः ।
रागद्धेषादि सभवे सत्यपि संयमजीवितादिनिमित्त आसखे-
वमान स्वल्पप्रायश्चित्तमित्या ह---
संजमजीवियहेड, कुसलेणालबणेण व प्यणं ।
भयमाे उ अकिं, हाणी वुड़ी व पच्छित्ता ॥२३६५॥
जीवितं दुविदं-सजमजीवित, श्रसयमजीविते च । अस-
जमजीवियवृदासो सजमजीवियकारणःप त्ति वुत्त भवति ।
चिर कालं सयमजीविपएण जीविस्सामीत्यथः । कुसल -पदा-
र.विसोटिकारणमिति वृत्तं भवति । श्रालविज्ति जते तमा
लबणे, तं दुविह--दव्वे वल्लिवियाणाइ, भावे य--णाणादि |
अरर्णामिति पुब्बभणितातो श्ररणे एवमादीहि कारणे, 'भ-
यमाणे उ अकिञ्ं ` भयसवातो, तुसदो--अवधाररं, अकि-
च्चे-मेहुण, तं कारणे सेवय॑तो हाणी वा पच्छित्ते बुद्धी वा
पच्छित्त भवतीति | पुनरप्याह चोदकः-जति कुसलालंबणसे-
वणे पच्छत्तं वुत्त भवति कम्हा मेहुण कण्पिया इति भियं ॥
५ उच्यते--
गीयत्थो जतणाए, कडजोगी कारणम्मि णिद्देसो ।
एगेसि गीतकडो, अरत्तदुद्रो उ जतणाए ॥ ३६६ ॥
गीतो अत्थो जर स गीतत्थो.गररीताथं इव्यर्थः,जयणा जे जे
श्रप्पतरं अवराहटद्वाएं तं तं पडिसेवयतो जयणा भरणति
कडजोगी--जोगो किरिया सा कया जेण सो कडजागीभ-
रणति । सा य तवे विसुद्धठाणणेसणे वा,कारणे पुण णाणादि
एस पदमा भगो | एत्थ य शिरोसो भवति गीयत्था जय-
णाप कडजागी, णिक्कारण स्र ऽखिदोसो वितिय एस भगो,
णवे सोलस भगा कायव्वा | पत्थ पढमभग णा पडिसिविय तो
कप्पिया भवतीत्यथः, एगसि पुनराचायादीनाम् इह दातरि
द्धङ्ञा भवन्ति गीयत्था कडजागी अरत्ता ्रदुद्धो जयणाष
एस पढमो भगो । गीयत्थो कडजोगी श्रो श्रदुदधो श्रजय-
शाण पसा वितियभगो । एवं वन्नीसं भगा कायव्वा । एवं ए-
त्थ वा पढमभंग पडिसवयतो कप्पिया भवति । चोदगाह--
जइ पढमभंग कप्पिया णणु शिद्दोस एव ? आचायोह--
जदि सव्वसो अभावो, रागादीणं हवेज्ञ शिद्ोसो ।
जतणाजुतेसु तेसु तु, अप्पतरं होति पच्छित्ते ॥३६७॥
यद्रीत्ययमभ्युपगस. सब्वसो--सवपष्रकारेण, अभावा--स-
वैप्रकारानुपलब्धिः, से कि अभावो रागादीण, आदिसदातो
दोसो, मादो य, घेप्पति, यद्यव तो मेहुणे हवेज्ज, शिदो-
सो अप्रायश्चित्तीत्यर्थः, ण पुण सव्वसो रागादीणं मेश
अभावो अप्पायच्छित्ती वा.णवरं 'जयणाजुतेख' जयणा-- य
ज्ञः, ताए--जुता-उपता इत्यथः | तेसु क्ति--जयणाकारिसु
पुरिसिखु, तुसद्ो--अवधारण यस्मादर्थ वा । अप्पतरं होह
पर्छुत्त-तम्हा जयणाए वष्टियव्व॑ ति उबदेसो ।
भयमाणे उ श्रकिञ्चं ' अस्य व्याख्या--
सामत्थणिव अपुत्ते, सचिव पुणीधम्मलक्खबेसण॒ता । | |
|
(3990)
मलगएापडि०
अणहविया तरुणुरोधो, एगेसि पडि मद्ायरता।।२६८॥
एगो राया पुत्तो, सचिवो-मती, तण समाण । सामत्थ
(६ अपुत्तस्स में रज्ज दाइएहि परिभेज्ज कि
कायव्वं ?, सचिवाह--जहा परखेत्त अण्णण बीयं बाबियं
खत्तिणो ग्राहव्व भवति, पव तुद श्रतउरखत्त श्ररणेण वि वी- |
यं सिसद्ं तुह चव पत्तो भवाति,पडिसुत ररणा । को पविसि-
ज्जतु । सांचवाह-पासंडिणो णिरुद्धंदिया भवेति । ते पवि
सिज्जतु, पत्थ राया अणुमए कोइ मुणी धम्मलक्खण पव-
सज्ज । मुणी-साह भगवं ! अतेउरे धसम्मकहक्खाणं कायव्व
लक्ख छंद, तेण धम्मकहाख्यानच्छुझन प्रवशयन्ति | तेयजे
तरुणा अणट्ुबीया ते पवेखिता अविणट्टबीया इति वुत्तं भव- |
ति | अहवा--अणघा--णिरोगा , श्णुबदहयपचदियसरीरा,
कीया इति-सवीया, ते तरुणित्थियाहि समाण , श्रोराहो
अतपुर, तत्थ बला भोगे भ्रुजाविज्जात । पत्थ कोइ साह
शच्छुइ भोक्तु । उक्त च--
“वरं प्रवे ज्वलित हताशनं, |
न चापि भग्न चिरसंचितं बतम्।
वरं हि मृत्युः सविशुद्धकम्मंणो,
न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ १॥ ”
तस्स य एव श्रणिच्चछमाणस्स रायपुरिसादें सीख कट्ियं ।
^ पासि पडिमदायणत त्ति ` श्ररणे पुण श्रायरिया भणति-
जहा ण सुट्ठु पगास लप्पयपडिम काड लक्खारसभरि-
याप सीस चरण, ततो पच्छा साहणं भणाति-जहा एयस्स |
श्रिच्छमारस्स सीस चिरण, एवं जति गच्छुसि तुम पि छि
दामो, एव साभाविते कतके वा सिरच्छेदणे कए श्रभोग-
त्वेन व्यवसितानामिदमुच्यत-
सुद्रन्ल॒सिते भीते, पचक्खाणे पडिच्छ (गच्छ) थेरविहू ।
मूल छद्] गुरु, चउगुरुलहु मासगुरुलहुख। ॥३६६॥
जस्स ताव सर छिराण सो खद्धो । उल्लसिश्रो-पतण वि ताव
मिसेण इत्थी पावामा हरिसितो । श्रवरो जति ण सवामि
तो मे सर दिज्ञात श्रता भीतो सवति। श्रवरा किमेव अ-
णालोइयपाडिक्॒ता मरामि सवामि ताव पच्छा आलोइयपडि- |
कता कतपच्चक्खाणो मरिदहामि त्ति श्रालबण काउं सरवति ,
अभिधानराजन्द्रः।
|
|
श्वरो दमं आलवणं काउ सेवति, जीवतो पडच्छयाण |
वायणं दादामि तन्ति सवति । । अवरो गच्छं राक्खिस्सामाति
सेवति । अवरो चितयति-मया विणा थराणण कोवि कि- |
तिकम्मं काहिति अह जीवता थराण वेयावच्च कादिति
स्रवति । | श्रवरो विह--आयरिया, तसि वेयावच्चं जीवता |
करिस्सामि त्ति सवति । एतासे उल्लासियादीण पच्छद्धेणं
जहासख पच्छित्ता-उल्लासिए--मूल , भीय-ेदा , पच्च-
क्खाणे-छुग्गुरुअं, पडिच्छे-चउगुरुगा ,,गच्छे-चउलहुगा,
अरे-मासगुरू, विहुए-मासलहुओ त्ति।
उल्लासितभी त पचचक्खाणस्स य इमा वक्खाणगाहा--
निरुवहतजो शित्थीणं, विउव्यरण हरिसमुन्नसण मूल |
भयरोम॑चे उदो, परिष्प काहंति छग्गुरुगा ॥ ३७० ॥
पंचपंचासहरणं वरिसाणं उर्वारे उबहयजोणी इत्थिया भव- |
ति, श्रारतो अणुवहयजोणी गर्भ ग्रणहा ती त्यर्थः | विडव्विया |
मृलगुण पडि०
मंडियसाहिया ता दट्ठं हारिसुल्लासितरोमस्स-मूल भवति,
भये पुण रोमचे छेदो, परिएणा-पच्चक्खाण । सेस कंठं ।
पडच्छमादी एगगाहाए वक्खाणति--
मा सीदिज्ञ परेच्छा, गच्छा फुट्टेज़ थेरसंपेच्छ ।
गुरुणं वेयावच्च, काहंति य सवओ लहुओ ॥ ३७१ ॥
भयमाणे उ श्रकिञ्च जहा बुद्डीए पाच्छत्त तदा भष्षति--
लहुओ य होति मासो, दुब्भिक्वविसजणा य साहूण ।
शेदाणुरायरत्तो, खुड्टो वि य शेच्छते गंतु ॥ ३७२ ॥
असिवाइकारणसु उप्पल्षेखु वा उप्पविजिस्सति वा णाउं
जद य सय गलुमसमत्थो आयरिओ जघाबलपरिक्खीणो
साह ण विसज्जइ , तो आयरियस्स शरसमायारिशिप्फरणं
मासलइं पच्छित्त, श्रविसजञेतस्स य आणादी दासा, तत्थ
य असंथरंता पसणं पल्लजा, मरण वा वेज भत्ताभावओ,
जम्हा एते दोसा तम्हा गुरुणा विसजिश्रव्वो । गुरुणा सव्वो
गच्छ विसाज्जितो तत्थेगो खुङ्गो गुरूण णेद्दानुरागरत्तो
रच्छति गतु--
असती गच्छ विसज्ञण, देसखधाउ खुड्ओ सरणं ।
णीसा भिक्खविमा उ,पव्रिसितपतिदाण सेवा य।।३७३॥
असती भत्तपाणादी सव्वो गच्छ गओ ,खुड़ो ऽवि श्ररिच्चो
पेसिश्रा ! जया गच्छो देसखंधे गतो, देसतेत्यथः, तदा सो
खुदा णासिओ शियत्तो, गुरुणा भणियं-दुद ड़ ते कय, ज नि-
उत्ता, जा तस्स श्रायरियस्स णीसादरेखु भिक्खा लब्भति
तीए विभोगे श्रदियतरं खुड्गस्स देति, सो य खुड़ो चित-
यति-पसो वि आयरिओ किलेसितो । ततो गुरुमापुच्छिड
वीसु पहिंडओ गता, सा एक्कीए पविसितपतिइतिथयाए भ-
छति-श्रदं त भक्त दलयामि जति म पडिसवसि । तेण पाडि-
खये ‹ पविसियपातिदाणसरवा य › अस्य व्याख्या--
भिक्खं पि य परिहायति, भागि शिमंतणा य साधुस्स ।
गिण्हति एगंतरियं, लहुगा गुरुगा य चउमासा।।३७४॥
पडिसवितस्स य तर्हि, छमास छदो उ होति मूलं च |
अशणवद्रप्पो पारं-चि्रा अ पुच्छा य तिविधम्मि।।३७५॥
सो खुडगा चितयति-जइ पयं पडिसेविय च्छामि मरी-
हामि, अह सवामि ता जीवतो पच्िच्छत्त.खुत्तःथाणि य घण्प-
त्थ. दीद काले सजम करिस्सामि.एव चितिऊण जयण करे-
ति, एगतरिय भक्त गरहति, पडडिसिवति य । पढमदिवसे गे-
रह तस्सवं-तस्स चउलहुगे, वितियदिवस अब्भत्तट्टं करेति,
ततियदिवसे गर्टतस्सवं तस्स-चउगुरुगे, पव चोादसमे दि.
वस-पारंचियं भवति, अह णिरंतरं पडसिवति, तता विति-
यदिणे चव मूल भवति । एसा बुद्धी भणिता, ' पुच्छा यति
विहम्मि त्ति सीसा पुच्छति-दिब्वमाणुसतिरिच्छृखु कं
महु णाभिलासोा उप्पज्ञति ?, आचार्याह-
वसधीए द्।सणं, द् सरिउ व पुव्वभुत्ताई ।
तगिच्छि सदमाती, असंजणातीसु थीजतणा ॥३७६॥
वसदही-- सज्जा, तीए दासेण महुणाभिलासोा उष्पज्जति,
स्ञ्यादिससक्रव्यथः । श्रह वा-ईइ्थि दर् ढं पुव्वे-गिहत्थकाले
जाशि इत्थियाहि सम रुक्तारणि बा हसियारि वा ललियाणि
( ३७२ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
मूलगुणपडि० ध
वा ताशि य समरिऊण मेहुणभावो भवति । एबं उप्पराण कि
कायव्व ?,-भराणति-तिगिच्छा कायव्वा । सा तिगिच्छा णि
व्वी .याति, ते अइकंतस्स सदहमाशह-जात्थात्थसद सुरात
रहस्ससदे वा, आदिग्गहणाओ-भरशणातिे-आलिक्ञनोवगुह
नचुबनादयः, त्रासो स्थाविरसाहिता स्थाप्यत, यद्येवे स्या-
दुपशमः असंेजण त्ति" असंगो-अगहीत्यथः । ण॒ताए अ- |
चिय जयणाए गदी कायव्या इति । एवं तिखु वि दिव्वाइसु |
जयणा दट्वव्वा गता महुणस्ख कप्पिया पडिसेवणा। |
गये महुरं ।
इदाणि परिग्गदो भरणति-तस्स दविदा-
पडसिवणा-दप्पिया. कप्पया य ¦ तत्थ
दण्पिये ताव भर्म--
दुविधो परिग्गहो पुण, लोइय लोउत्तरो समासेणं ।
दव्वे खेत्ते काल, भावम्मि य होति कोधादी ॥ ३७७ ॥ |
पुणसद्दो-अवधारणे वा, एक्कक्का पुण दव्वादि दडरव्वा ।
ससर कठ।
दव्वखत्तकालाणे इमा वक्खा--
सचित्तादी दव्वे, खेत्तम्मि गिहादि जचिरं काल |
भावे तु काधमादी, काहे सव्वस्स हरणादी ॥ ३७८ ॥ |
सच्चित्त दव्वे-दुपयं, चउप्पयं, अपये वा । आदिग्गहरणा- |
ता श्रचित्तमीस, अचित्त-दिररयादि.मीस-सरिणजागसहि-
ये श्रासादिप ताणि जा परिगख्टति मुाच्छतो सो दव्वपरिग्ग-
हो भवति । गिद्ाणि खाओसितोभयकेउगादियाणि, खत्ता-
शि परिगेराहंतस्स खत्तपरिग्गहा भवाति, जम्मि वा चत्त व-
रिणज्ञति स खत्तपरिग्गहा भवति । एत चव दव्वखत्तष्रि-
ग्गहा जच्िरं काल पारगरदाति जस्मि वा वरिणञ्वति काल
परिग्गहो स कालपरिग्गहो भवति । ` भावम्मि य होति का-
हादि त्ति ` अस्य व्याख्या-भाव उ पच्छृद्ध-भाव तु भावप-
रिग्गहे तुसदा परिग्रहवाचकः, काहाती, आदिसद्दाता-मा-
शमायालाभा घचप्पति । तत्थ कोद परिग्गहस्स व्याख्या-'का-
है सव्वस्स हरणादी' कोटेण य रायादी रुद्रा सब्बस्से दरि ड
अप्पणो पडिग्गद करेति, एस काहेण भावपरिग्गदो । । आ-
दिसद्दातो दंडेतिं अ्वकारिणो वा अवहराति, कोहेण ।
इदाण माण-
दोगच्चवइतो माणे, धणिमे पूजति ति अज्ञिणति ।
मायाणिधाणमाती, सुवष्प दुव्वप्पकरणं वा ॥ ३७६ ॥
दागच्च-दारिदे, स विसयातो गतो--बइतो भरणति ।
माण त्ति-एवं माणेण उवज्िणद भणिय, तत्थ दागच्चे- |
ण बइतो माणेण व णिग्गतो स्देसात जइ वि ण णेदति
पुरिसो मुका परिभूय वासाच्रा । अहवा-धणिम-
तो लोगे पृइज्जेति क्ति अहं पि पूइज्जिसामीति दरिद्ं न
कश्चित्पूजयति इत्यवे माणआओ परिग्गह उवज्जिणति । 'माया
णिहाणमादी' मायाए शिहाणय णिहणति, आदिर्गहणाओ
छम्मेन व्यवहररति श्रहवा-करण, हत्थे वा, किंचि माह-
रणे मा में कोति हरिस्सइ सि खुबररणं दुक्वरणौ करेति ।
प्रवे मायाए भावपरिग्गहों भवाति । सव्वाणुपादिता लोभ-
क्स , अलोभणाशिद्दतों जो चि एस क्रोहादिपरिगगहो
मूलगुण पडि,
भणितो एसो वि लोभमंतरण ख॒ भवतीति उङ्क ण्व लो.
भः । जम्हा चरतव मुच्छितो उवाञ्जिणति सो वा लोभे
भावपरिग्गहो दट्रूव्वो त्ति, भणिता लोइयपरिग्गहो ।
इदाणि लोउत्तरिओं भरणति-सा समासआओ दुविहो
दारगाहाओ--
सुहमो य बादरो वा, दुविहो लोउत्तरों समासेणं ।
कागादि साण गोण, कप्पट्रगरकक््खणममत्ते ॥ ३८० ॥
सेहादीए कुद्ध, सच्चित्ते अणेसणादि अचित्त ।
ओरालिए हिरप्प, छकायर्पारग्गहे ञं च ॥ ३८१ ॥
ईसि ममत्तभावों खुहमों परिग्गहों भरणति, तिव्वो य म- ।
मत्तभावो वायरो परिग्गहा भरणति, एस) दुविहो वि पुणो '
चदा वित्थारिज्जलति, दव्वखत्तकालभाव । तत्थ दव्वे-का- |
गाद 'पच्छुद्धे.अप्पणो पाणगादिखु काकं अवरज्मंत णिवारे-
ति, श्रादिग्गहणाता-साणसिगालादि साणं वा डस-
माणे, गाणे वा वसहिमादिखु अवरज्भंतं, सज्जञायरादिवाण ।
वा कष्पटरुगे अरणावदेसण रकखइ | सयणादिस् वा ममक
करेइ, सदा वा पाडकुद्धा पव्वावंतस्स परिग्गहों भवति ,
छ्मणाभय वा पव्वावासिज साचत्त पव्वावैतस्स परिग्गहों
भवति | आदि सदा मदवाचकः.अणेसणीयं वा अचित्त भत्ता-
दि गेरदेतस्स सपरिस्महो भवति । | आदिसद्दातो वाव
त्थपादसेज्ञा घप्पति, अचित्तग्गहणातों वा अतिरित्तोवहि-
गगण करेति, स चानुपकारित्वात् परिग्गहों भवतीयर्थः,
घडियरूव द्रविणं आरालियं भर्णति, अर्घाडियसूव पुण हि-
ररणा भरणति , एताणि गरहतस्स परिग्गहों भवति ,
छुक्कायसचित्ते जीवनिकाण गरा तस्स परिग्गहों भवति। जे च
ज्षि--ज च एतेसु कागादिसु पायच्छित्त त च दट्ूव्वमिति ।
पतेसि कागाइयाण इमा चिरंतणा पायच्चित्तगादा-
पचादी लहुगुरुगा, एसणमादीसु जसु ठाणेसु ।
गुरुणा दिरण्णमादी, छकायविराधणे जं च ॥ ३८२ ॥
पेचग लि-पणगं तं आइ काउं पएसरणादिखु जत्थ जत्थ ज सं-
भवति पायच्छित्त तं दायव्वामिति। लहुगा गुरुगा य क्ति-पणगा
एव सवज्भति,अहवा-पणगं आदिकाउ जाव चउलहुया,च-
उगुरुगा,ज जखु ठाणेखु पायच्चत्तं सभवति तं दायव्वामिति। |
श्रादिसदातो ओओप्प(दणडग्गमा घेप्पति, हिरणणं गेरहंतस्स |
चउगुरुगा । श्नादिसदातो-श्रोरालिप वि-चउगुरुगा । छक्का य-
विरादणे जे फायाचिछुत्तं दायञ्वं तं चिमं-'छक्कायचउसु लहुगा,
कारणगाहा ।
इणमेवाथं भाष्यकारो व्याख्यानयति-- । ।
गिहिणो5्वरज्भमाणे, सुणमज़ारादि अप्पणो वावि। |
बारेऊण न कप्पति,जिणाण थराण उ गिहीणं ॥३८३॥
गिदिणो-गिदत्थस्स, अवरञ्भति-श्रवराहं करेति, साणो
मज्ञारो बा,श्रादिसदातो-गोणकागादश्नो वि घेप्पति। श्रष्पणो
वा पते भत्तादिखु श्रवरज्भति ते अवरज्भमाणे वि बारेऊण
ण॒ कप्पति,जिणाण-जिणकण्पियाण,थेरा-गच्छवासिणो,तसि `
गिहत्था मणत्था मसणश्रवरज्भमाणा वारेऊण ण कण्पति ।
श्रप्पणो य वारेऊण ण कप्पतीत्यथः ।
॥
|
( ३७३ )
सूलगृणपडि०
एतखु चच कागादेखु पाच्छत्त भरणात-
काकरारवाराण लहुआ, जावममत्त तु लहुअ सससु |
मञ्भसवासाद त्ति ब, तण लह रागणा गुरुगा | ३८४॥।
काग रावारात-मासलहु. सससु त्त-साणगाण-चउलहु-
गा, सज्ञातरममत्तण कप्पट्रुगं रक्खात--चडलहुग चव,
मज्भसवासा-एगग्रामानवासनः, स्वजना वा तेण सरणा-
अभिधानराजन्द्रः।
तगादिसु ममत्तण रक्खाति तहावि-चडउलहुगं, अह कप्पट्टुगे ,
रागेरा रक्खात तो--चउगुरूगे ।
सहातपाडकुट्टु टु कक्ष रस्य व्याख्या
भताऽडतालसहे, दुख्वहीणा तु ते भवे पिंड ।
घंडितेतर मारालं, बत्थादि गतं ण उ गेण्हति ॥३८५॥ ।
अडया लीसे भदा, सेहाण अपव्यायांणज्जा य | ते य इमे--
अद्वा रस-परारसखु, वासु इत्थास, दस-णपुसगझरु, पञ्चावणा ।
अणारिहा भणिया । माणे ण एतासे तु सरूय॑ पच्छित्त च
जहा अणलसऊुत्त तहा वष्ठव्वमिति । इह पुण सामप्मओ-च-
उगुरूगे पच्छित्त, अणाभव्व॑ सचित्त गेरहंतस्स चडउगुरुगा
चव, अणसण' इति श्रस्य व्याख्या--दुरूवहीणा उ त भवे
पिड' पडिकुट्ट पडा येप्धिक्ृता ते दुरूवहीणा भदा पिंड |
|
|
|
|
भवन्तीत्यथैः । । अडयालीसभेद्मज्कतो दो रूवा सोहिता,जा |
ता छायालीसं । कटं पुण छायालीसे भरणाति--
“सालसमुग्गमदोसा, सोसमुप्पायणा य दोसा उ |
दस एसणाएँ दासा, सजोयणमादि पंचव ॥ १ ॥
संंजायण--अइप्पमाणं,
इंगालघृमणिक्कारणा पते सव्वे |
समुदिता सत्तचत्तालीसं सभवति | एत्थ मीसज्जायं अज्भो |
यरसरिस काऊणण फेडिज्जति श्रता दायालीस | अण्ण |
पण आयरिया-सव्वाणुप्पाती सकरा इति काउं सकं श्रवण-
यति । श्ररण पुण-सजायणादिनिक्षारणर्वाज्जया छायालीसं |
करेति, पतसि सरूवे जहा पिडणिन्जुत्तीए पच्छित्त, जहा |
कप्पपीढे ,तहा इहं पि दट्रव्वमिति । अचित्त जहन्नमज्मि-
मुक्कोसेसु तन्निप्फणणं दट्रुव्व मिति । | 'ओरालिए दिरण्णे' अ-
स्य व्याख्या- घाडततरमोरालिये घडिये आभरणा दी ओराले |
भराणति, इतरं पुण अघाडिये तं हिरराणे भवति । पत्थ जहा-
कमणिदसे हिरणणसद्दो लुत्तो दट्ब्यो अहवा-घाडये, इतरं-
श्रघडिय-सव्वसामरणेण श्रोरालिय, भरणति | वत्थ-वा-
सक्रप्पादि, श्रादिसदातो-पात्रादिधम्मोवक्ररणं सव्वं घे-
ष्पति । गतशब्दो-धर्मोपक रणभेदावधा रणे द्रष्टव्यः । अहवा-
गगारो आदिसददे पविद्वा, वत्थादिगं तं गारेण वत्थादियाण
शिद्देसो, णक्तारा-प्रतिषेध, तुशब्दो-परियग्रहावधारणे, गे-
रतीति वुत्त भवाति । वत्थादिगं धर्मोपकरणं ण परिग्रदं
मन्यन्तेत्यथः। तान्यव महद्धनानि मुच्छाए परिभुजेतस्स
परिग्रहा भवति-चउगुरुगे च से पच्छित्ते भवति ।
दञ्वपरिग्गदा गतो ।
इदाणि खत्तपरिग्गहो भरणति--
ओगासे संथारो, उवस्सयकुलगा परणगरदेमे य ।
चत्तारि च लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥३८६॥
श्रोगासा-पडस्सगस्सगदसो, तस्मि पवातादिक रमणीये
ममत्त कराति,सथारगो-सथारगभूमी तीप ममत्त करद्, उव
स्सञ्मावसही,र्तीएवा ममत करति | पवेकुल-कुल-कुटुव
६५
मसलगएणपलि०
गामणगरा-पसिद्धा, दसा धुण जहा-कच्छुदेसा, सिधुदसा,
सुरद्रा 55दि, रायण भाती रज्ञ भसति.सा पुण भाती एगावि-
सआ वा हाज्ज | एतेसु गामादिसु पच्छित्त जटासखण ' चत्तारि
चछच्च ` पच्छुद्ध-कट । खत्तपरिग्गहों गता ।
इदाणि काले भरणात--
कःलातीते काल, कालविवज्ासकालत।ऽकाल ।
लहुओ लहंया गुरुगा, सुद्धपदं सयत ज च ॥ ३८७ ॥
कालातीए त्ि-कालतो-श्रतीत कालातीत, उडवद्ध-मा-
सातिरित्त वसतस्स, वासाखु य अतिरित्त वसतस्व। का-
ले ईत्त-का ले परिग्रहा भवति. णितियवासलदोसा य भवंति ।
कालविवच्चासा नि-कालस्न विवच्चासा कालविवच्चासो
ते करति, कह भरणात--' कालच्रा अकाल न्ति, ` उडु-
वद्ध काल ण॒ विहरति । अकाल त्ति वानाकाल विहरति,
अहवा-दिवा ण विहरनि, राञ्चा विहरति, एस विपर्यासः ।
दद प्रायश्चित्तम्-उड्वद्ध अतिरित्त-मासलहुगो, वासाति-
रित्त--चउलहुगा , कालविवच्चासे--चउगुरुगा , एत
पच्छित्ता सुद्धपद भवति । सुद्धपदं णाम-जद वि अचराहं ण
पत्ता तहावि पच्छुत्त भवतीत्यर्थः | ` सवत ज च त्ति ज संज-
मपवयणश्मायविरादणं सवति तरिणप्फरण च पायच्छत्त
दट्ुव्वमिति । कालपरिग्रहो गतो ।
इदाणि भावपरिग्गहो भमरणति-
भावम्मि रागदोसा, ओवधिमादी ममत्तणि/क्खित्ते ।
पासत्थममत्तपरिग्गहे, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ।।३८८॥
भावमस्मि-भावपरिग्गहो रागण दोलण य भवाति । उवही-
उबहिआ , आदिसद्दातो--उवग्गहिता घप्पति। तमि दु-
विह वि ममत्त करति, णिक्खित्त णाम गर्रालगावद्धं स्थाप-
यति चोरभणण वा णिक्षिखवति, गोपयतीत्यथेः । पासत्था-
दिखु वा ममत्तं करति, ममीकारमात्रे रागण वा परिगेराहति
आत्मपरिय्रहे स्थापयतीत्यर्थ: । चसद्दयाता-अहाछंदेखु, इ-
त्थीखु य, ममत्ते पर्ग्गह वा करेति । 'लह्ठगा गुरुगा य जे
जत्थ त्ति रागादयो संबज्भंति ते तत्र दातव्याः । पासत्था-
दिखु ममत्त-चउलहुगा, श्रह रागे करेति ता-चउगुरूगा,
दोसण पासत्थादीसु-चउलहुगा चेव, उव्रदिशिकिखत्तेसु-
चउलहुगा सच्छेदित्थीखु-चडउश॒रूगा ।
पासत्थादिअहाछ(दित्थीसु अ इमा ममत्तव्याख्या--
मम सीस कलि व्व गणि व, उवमम माति भाइणजोती ।
एमेव ममत्त करेंते, पच्छित्ते मग्गणा होति ॥ ३८६ ॥
तसु पासत्थादिसु एवं ममत्तं करेति, ससं कटं ।
इमा भाष्यकत्तेः प्रायथित्तगाटा-
उवधिममत्ते लहुगा,तेणभया शिक्रिख्वंति ते चव |
ओसप्पगिही लहुगा,सच्छ॑दित्थीसु चउगुरुगा॥ ३६० ॥
ते चेव चति-चडउलहगा, ्रासरणगण॒ण् य ममत्ते चउलहुगा
चव । ससे गताध । गतो भावपरिग्गहो । गता परिग्गहस्स
दप्परिया पडिसवणा |
इदारि कण्पिया भरणति--
अणॉमोग गलणण, अद्भाणे दृल्लभत्तजात य |
( ३७४ )
छअभिधानराजन्द्रः।
_ मूलगुणपडि०
सूलगणपडि० `
सेहे गिलाणमादी, मज्ञाया वावऽणुङ्हि ॥ ३६१ ।
अणोभिगे गलण्ण, अद्भाण दुल्लभश्टरूजति य |
सेहे गिलाणमादी, पडिक्रमे विजञदुद्र य ॥ ३६२ ॥
एयाओ दारिण दारगाहाओ । पत्थ पटमदारगादापुव्व-
दण दनव्वाववाता गाहिता, पच्छृद्धण खत्ताववाश्चा गहि-
आ । वितियदारगादापुव्वद्धेण कालाववातो गिता ! प-
रुछुद्धूण भावाववाओ गहितो ।
अणाभोग त्ति ' अस्य व्याख्या--
सव्वपदाऽणाभागा, गेलण्णोसधिपदावर्ण वारे ।
काकादिअहिपडंते, दव्वममत्तं च बालादी ॥ ३६३ ॥
सव्व पदा-सव्वपदा, क त सव्वपदा ?, कागादिसाणगाण-
छक्रायपरिग्गदहवसाणा. एत सव्वपदा । एत जहा पडिसिद्धा
तहा श्रणाभागण कुर्यादित्यथः | अणाभोगे न्त गतं । * गि-
लाणे न्तिः अरस्य व्याख्या
श्रासटाणि उण कताणि, तत्थ काग अहिपडते शिवारेति,
श्रादिसदाता सोणगाणा णिचारेति, एवं गिलाणकारणण
णिवारंतो खुद्धा । । गिलाणकारंणण वा कप्पट्रगरक्खणममत्त
वा कुज्ञा, जञओ भण्णाति-' दव्वममत्त च बालादि त्तिः
दव्वामिति दव्वदारज्ञापनाथ, दञ्वे वा लभिस्सामि नि मम-
क्षरक्खण करति, ममत्ते अण्णतरदव्वणिमि त्तं वाले खुं मा-
यापिरों स गिलाणस्स पडितप्पंति, वाले तक्ति-बालस्स र-
क्खरा कुजा, गिलाणपडितप्पणत्थे, आदिसद्याता--अबाले
ताव रक्खण कुञ्जा. गिलाणट्ठायमिति-गलरणट्ठा वा अड-
यालसेहा पड़कुञ्जा पत्वावेज्जा |
जता भरणतिं--
अतरत परियराण व, पडिकुट्टा तप्प अहव विज्ञस्य |
तसिष्ट्टायमणेसि, विजरिरण्णं विस कणगं ॥ ३६४ ॥
अवरंता-गिलाणा, पडियरगा-गिलाणट्टठुगा वा, वकारा |
समुचय, पड़कुटरा--णवारता अपव्वावाणिज्जति ति वुत्त
भवति | तप्प क्षि--वाया रवहणत्थ बह्टिस्सतीत्यथः । गि-
लाणस्सवा पडियरगाण वा वयावच्चं करिप्यतीत्यतः प्र-
बाजयति । अहवा-चञ्जस्स करिष्यति, तता वा प्र्ाजय-
ति। तसि गिलाणपडियरगविज्जाण अट्टाय अणेसरं पि करे-
उज्ञा , गिलाणमंगीकृत्य वज्जदटुताय हिररणे पि
ज्जा | ओरालस्याववादों ` विस कणगे ति “-विघग्रस्तस्य
गलण्णासहि त्तिः गिलाणस्स |
|
गराह- |
सुवरश-कनकं, तं घनं घ्रसिङण बिसणिग्घायणट्टा तस्स पा- |
ण दिञ्जात | अता ।गलाणदा आगालयग्रहण भवज्ञ।
गलाणद्धा छुक्कायपा२ग्गह त्त अस्यापवादः--
८ = ४225 [> विज =
कायाण त उवश्रागा,गिलाणक्रज्जे व व्रज्जकज वा |
एमव य “्रद्राणा, सज्जातरभत्तदाइसु वा ॥ ३६५ ॥
काया-पुढवादी छ, तसि पि उवश्रागा उवभागा-भवेज्ञ ।
गिलाणकज्ज वा गिलाणस्सव अप्पणो उवभागाय ल-
वादि, वेज्जस्स वा उत्रभागाय तदपि न दासनिमिन,
एवे गिलाणकाररण कागादआ दव्वे श्रववादता।
शा क्षि गते | इदाणि अद्धाण लति अस्य व्याख्या: एमव य `
पच्छुद्ध-एमेवा ऽवध्रारण, जहा गिलाणद्ा कागादिया दारा वुः
का तदव ग्रद्धाराऽर्ीत्यभरः। | अद्भाणपडिवसणा जो सज्जात-
गिला- |
रो जो वा दाणाइ सो भत्त देति, वाकारो समुच्चये,
पतसि किचि वि सारियं आतवे होज्जा, तत्थ कागगोण- ¦
साणा आहेवडता िवारेजला पिज से उप्पजउ खुटठुतर
परितप्पिस्संतीति कार्ड कप्पट्टुंग पि रक्खज्जा, ममत्त वा
करेज्जा । ओरालिए हिरख सहाति त्ति परिकुट्रा ।
एसरा छुक्कायाण एगगाहाए वक्खाणति--
दुक्खं कप्पो बोढुं, तेण हिरं कताकतं गर्हं । |
पडिकुट्टा वि य तप्ये, एसणकप्पे असंथरणे ॥ ३६६ ॥
दीदद्धाणपडिवरणेटि दुक्ख--श्रद्धाणकप्पो बुज्कति, तेण ,
कारणेण, दिररणं- द्रविणं, कताकतं--घडडियरूवं श्रघडिय~
रूवे वा अद्धाण घप्पति । | अद्धाणपडिवण्णाण चेव, पडिकु- ^
ट्वा-सहा-भत्तपाणविस्सामणावकरणवहणादीहिं तप्पिस्सं- |
तीति काउ दिक्खेज्जा, अद्धाण वा असंथरंता एसणे पि
पल्नेजा, अणसणीय गराहंतीत्यर्थ: | अद्धांण वा असंथरण ^
कायाण वि उवेश्रागे करेज्जा । प्रलवादारित्यथः । श्रद्धा ¦
स्ति गयं।
इदाणि “दुल्लभे क्ति' दार--
दुल्लभद॒व्वं दाहिति, तेण णिवारे ममत्तमादिं च |
पडिकुट्टेसण धातु, ओरालकओ व काया वा ॥ ३६७॥
दुक्कखे लब्भाति जं त दुल्लमं, तं च सयपागसहस्सपागादिय
दव्वे, तं--' दाहिति त्ति -तेण कारणेण कागसखुणगादि णि-
वारेति, ममत्त वा करेति, श्रादिसदाता--कप्पट्रुगादि
रक्खति, पडिकुट्ध वा सेहे पद्चावेति | एवं दुल्लम दव्वे ल- `
भित्तु समत्था भवंति । | अहवा--कोइ गिही तेरासियपुत्ते-
ण लज्जमाणो भणाति-जइ मम पुत्ते तेरासियं पच्चावसि' ॥ ।
तो इमे जे दुल्लभे दव्वं तुम अणेसणीय पये चव पय-
च्छामि । एवं दुल्लभदव्वदरुता पडिकुट्रुति पच्चावेज्ञा, ए- .
सरणे पि पेज्लेजा । एवे उग्गमउप्पायणसणादोसेहि जुत्त
दुल्लभे दव्वे गण्हतीत्यथः । दुट्लभदब्वद्रतां च च्रोराल- ।
हिररणं गेराहेज़ा । ताणि श्रोरालदिररणाणि घत्तण तं दुर्ले- ।
भदव्वे किणज्ना, कायाव त्ति दुट्लभदव्वद्रुता वा सचित्तका- `
या गरेज्ञा । कटं पवालादिणा सश्ित्तपुदविक्काएण तं द्-
ल्ञभदव्वं किणजा । दुल्ञभदव्वे ति गत । | |
इदाणि अट्टुजाति त्ति दारं भएणाति--
एमव अद्रजातं, तेण शिवारे ममत्तमादि च | |
पडिकुटण व धातुं, ओरालक््रो व काया वा ॥३६८॥ ¦
पमवावहारण, जहा दुल्लभदव्व एवमेव अट्वजाण वि द | `
टुव्वे । जातशब्दा भदवाचकः श्रधभदेत्य थः, एते सज्जातरा- . `
त अऋटुजाय दाहितीति तण तास कागगाणसाण अवरज्भ-
ते शिवारेज्जा, कप्पट्टंग वा रक्खेज्ञा, ममत्तं वा करेज्ना, च-
कारो-समुचये,पडिकुटट वा सहे पद्चाविज्ञात, तदेद्राय द्वह
ए त्ति वुत्त भवति । सो पडिकुट्रुसदा पश्चावितो दव्व- |
जायं उत्पादयिष्यतीत्यथः। अट्ठजाय पि उप्पादेतो एसरे
पि पलल्लेज्जा, अहाभद्गकुलेखु वा अणसणीय पि भिकखे ग-
` रहेज्जा,मा उदुरुट्टो दादिति श्रटुजाय अट्टूणिमित्तेण वाकाः
ए गराहेज्जा कहं? ,उच्यते-'घातु क्षि पासाणमट्टियादि गहेऊण |
ज्ञायरूवं खुवरणो तं उप्पाएज्जा घातुवायप्रयागात् , पुणस~-
|
( ३७५
हो-विसेसे दद्वुव्वो, आदिसद्दाता-रुप्प ते सीसगतड- |
शादी धाउवायप्पञ्नोगा उप्पाययतीत्यशः । अहवा-जायरूब |
ज्ञं च प्रवालवत् जातं तं जायरूवे भरणति । दव्वपरिग्गदा- |
, | बवातो गतो । |
इदाणि खत्ताववा तो भएणति--
एमेव अट्टजाए, खत्ता ऽववाततो वोच्छे ।
सह गलाणमादी, मज़ाता वावउणुट्टाहे ॥ ३६६ ॥
` सहेत्ति शस्य व्याख्या, गाहा-- |
उवासादीसु सेहो, ममत्तपडिसेवर्ण च कुज़ाहि । |
एमेव गिलाणे वी, ह ममं तत्थ पठणिस्स ।॥४००॥
| उवासो आदी जसि ताणि उवासादीरि, ताणि संथारउव-
स्सयकुलगामणगरदेसरज्ञ च, एतेखु सहो अग्यराणमाणो मम- |
ततवा करेज़ा । अहवा-गिलाणा भणज्जा, मम एत्थ देसे
मा कोति अजल्लियओ | एस पडिसेहो त्ति गआ | इदा गिला
र त्त- एमव पच्छुद्ध-णवमवधारण, जहा सहा उवासा-
दिख ममत्त करउजा, एवं गिलाणो वि उवासादिखु ममत्त
करेज्जा । अटवा -सोा गिलाणा एवं भणज्जा-णह मम तं गाम
| शगर दसं रज्जं वा, तत्थाहं णीओ पउणिस्सामीत्यश्ै" । आदि
सद्दातो अगिलाणा वि सन्नायगोवसग्गपत्ता भणज्जा, णह
। मम तं गाम,तत्था ऽहं णोवसाग्गिज्जामि त्ति । गिलाण त्ति गये।
इदाणि 'मञ्जाय त्ति शमस्य व्याख्या--
सागारिअदिष्मसु व, वासादिसु णिवारए सदो ।
ठवणाकुलेसु ठविए-सु वारणए अ्रलसणिद्धम्मे ॥ ४०१ ॥
सागारिश्रा-सञउ्जातरा, तण जे उवासाण दिन्ना, तखु उवा-
सखु सह अमज्जादिल्ले आयरमाण शिवारज्जा, आदिसदातो- |
उवस्सश्रो घप्पति । मज्जाय त्ति गत । इदाणि * ठव त्ति
शमस्य व्याख्या ` ठवणा ` पच्छृद्ध-ठवणकुला अतिशयकुला
भराणंति, यष्वाचाय्यौदीनां भक्तमानीयत तेसु ठविएसु अ-
लसरणिद्धम्मे पविसते णिवारितेत्यथः । ठवरणे त्ति गत ।
गामणगरदेसर ज्ञाण अबवातो भण्णाति-' उड्डाहे ` ति चस्य |
व्याख्या--
उद्गाहं च कुसीला, करति जहियं ततो णिवारेंति । |
| अत्थतस वि ताहय, पवयणह।ला य उच्छा ॥४०२॥ |
जहिय ति-गामणगरदे सरञ्ज, कुसी ला-पासत्था,अकिरिय, |
पडिसवणा,जड्डाह करज्जा'ततो त्ति-गामणगरादियाञ्रो णि- |
वारेयव्वा-णिवारणा कायव्वा, इह गामे अकिरियर्पाडसवरा
श॒ कायव्वा । अत्थंतेखु वा तेखु पासत्थेखु तहिये गाम- |
पवयण-सधरा तस्स हीला-णिंदा, भवति । भत्तपाणवस- |
दिसहादियाण वा विउच्चेदा, तेखु तम्टा तता पारं-
चिये वि करेज्जा | उड्डाहे ति गयं।
चोदग श्राह-णखु वारंतस्स गामादिसु ममत्त भवति । श्रा-
चायाह-ण भवात, कद ?, उच्यते-- |
जो तु अमज़इल्लो, णिवारए तत्थ कि ममत्तं तु ।
होज़ सिया ममकारो, जतियं ठाणं सयं सवे ॥ ४०३॥ |
~ । ज ` य इत्यनुरदिष्टस्य ग्रहण , तुसदा-शिदेसे. मज्जञाया- |
सीमा ववत्था , न मञ्जाया अमज्जाया, तो तीर जो व-
सूलगुणपडि० अभिधानराजन्द्रः। सूलगुणप{डि०
इति सो अमज्जाविज्ञो,तं जो ताओ श्रमज्ातातो उ णिवा-
रितो तत्थ कि ममत्त तु, तत्थ--किमिति--अमज्जायपवब-
्तीणिवारणे, किमिति--क्तपे, ममत्त--ममीकारो, तुखदो
अममत्तावधा रण, होज्ज-- भवेज्ज, सिया--आसकाए, अ-
वधारणे वा, ममीकारः यदीत्यभ्युपगमे, तमिति अमज्जा-
यद्ञाएं संबज्भाति, स्वयमिति आत्मना सप्रत्यासवतीत्यथः ।
खेत्ताववाता गतो ।
इदाणि कालाववातो भरणति * अणाभोगे त्ति ' श्रस्यव्या-
ख्या, गाहा--
अणॉभोगा अतिरित्त, वसेज अतरंतो ` तप्पडियरा वा |
अद्वाणम्मि वि चरिमे, वाधाए दूरमग्गे वा ॥ ४०४॥
अशणाभोगो-अतल्यंत विस्मृतिः, कि उदुमासकप्पो वा, वा-
साकप्पो वा,पुश्तो न पुसो वा। एवं अणुवओगाओ आतरित्त
पि बसिज्जा, अणाभोगे ति गयं । ` गलगणे ति ' शरस्य व्या-
ख्या-अतरंतो तप्पडियरा वा | अतरंतो-ागलाणो, सो विद-
रिउमसमत्थो उदुबद्धं वासियं वा अदरित्त बसेज्ा, गिला-
णपडियरगा वा ग्लानप्रतिवद्धत्वातू , अतिरित्त वसेज्जा।
गिलाणे त्ति गतं । ` श्रद्धा त्ति ` शरस्य व्याख्या-'अद्धाण-
पच्छुद्ध--अद्धाएं पहर्पाडवत्ती तं पडिवन्ना अतराय वा स-
पंडज्ज़ा, ततो कालविवज्चासो वि हवज्जा । ˆ वाघाता
त्ति' वाघातो णाम-विग्घं, तं वसहिभनज्नादियाण दाजा श्रता
ताम्म उप्पणण वासासु वि गचछेजा, अहवा-उदवाद्धियख-
त्ताओ वासावासे खेत्त गच्छंता अतरा वाघातण ठिता वा-
सिउमारद्धो वाघातो चरमे अप्पयाया एवं वा कालविवञ्च(स
कुञ्जञा। दूर वा तं वासकप्पखत्त अतरा य बह अबाया
अते ण गता, तत्थेब उदुवासिए खत्त वासकप्पं करति
एवं वा अतिरित्त वसति । अद्भारे त्ति गते ।
“दुल्लभे' ति अस्य व्याख्या--
धुवलभ वा दव्वे, कह्चणादवसाह वसात आतारत्त |
उट्अतिरेको वासो, वासावेहार ।ववचासा ॥ ४०५ |||
दुल्लमदव्वद्गता अतिरित्त पि काले बसेजा, कटं ?, उच्यते-
पुशण मासकप्प, वासाकप्प वा, दुज्ञभदव्वस्स घुबो-अ-
वस्स. लाभो भविस्सति, तण ' कति त्ति ` थावदिवस अ-
तिरित्तं पि वसेज्जा ! उदुवद्धकाले श्रतिरेगो वासो पष
सभवति दुल्लभदव्वट्गुतोी वासासु विदरति, एवं कालविव-
च्चास करेति । दुल्लभे त्ति गतं |
इदां * उत्तमद्ठे ' त्ति श्रस्य व्याख्या--
सप्पडियरो परिष्पी, वास तदड्टा व गम्मते वास ।
सथरमसंथर वा, आमे वि भवे विवच्चासः ॥ ४०६॥
परिरणो-श्रणसणावविद्धा.तस्स ज वयावञ्चकारिणा त पडि-
यरगा.सा परिगणी सह पाडयरपदि श्रातरित्त पि काले वस-
ञ्जा.तदद्र तति परिरुणी पडिर्यणट्ठा वा गम्मते वासासु वि एस
विवश्चासा | परिरिण त्ति गत इदाणि 'ओमे' इदि श्रस्य व्या
ख्या सथरपच्छुद्ध-जत्थ-सथर तत्थ मासकप्पो श्रतिरित्तो
वि कज्जति,जत्थासंथरं तत्थ ण गम्मति,जत्थ पुण वासकप्पंद्ि-
ताण श्रम हवा, ततो वासाखु वि गम्मात,एस विवश्वासो ।
अहवा-वासकप्पट्टिताण उ णज्जाति,जहा कात्तियमग्गसिराइसु
मासेरु अस्त्थरं भविस्सति, मग्गा य दुष्पगम्मा भविस्संति,
श्रूलगणपाडि°
-( २०६ ) ।
अभिधानराजेन्द्र: । ।
अता वासासु चव सथरे विवच्चासो कजञ्जति | असंथरे पु- |
ण॒ कातिक्रा। श्रामे त्ति गतं । गच्यो कालो | 3.
इदाणि भावावत्रातो भगणति । तत्थ ' खेह त्ति ` दारं | अस्य |
व्याख्या-- |
सिज्ञादिए स उभयं, करेज्ञ सेधोवधिम्मि ब ममत्ते। |
अवि को5वि ममत्तणा तु, इयरगिहत्थेसु वि ममत्ते ४०७ |
सेहो--अगीयत्थो, अभिणवदिक्खिश्रा बा, सो सजादिप
उभयं करेज, उभयं णाम--रागदोसा, श्रादिसदातो--वा-
सकुलगामनगरदसरज्नःदयो घ्रप्पाति । । उतहिस्मि वा वासकः |
प्पाइए ममत्ते कुञ्जा । त्वि का एवि मप्तत्तणा उ चच इतरागि- |
हत्थेखु वि ममत्त कज्ञा, तुसदो--विकप्पदारिसणे । गीयत्था
वि कुजा, इतरे-पासत्थादयो | चोदगाह-अगीतो अगीयत्थ- |
तणातो पासत्थगादिसु ममत्तं करेजा, गीतो पुणजाणमाणो, |
कटं कुञ्वा ? आचाय्यीह--
जो पुण तट्टाणाओ, णिवत्तती तस्स कीरति ममतं ।
संविग्गपक्खिओ वा,कजञ्जम्मि व जातु पडितयप्पे ॥४०८॥
जो इति-पासत्थो पुणसद्दा-अवधारणे, तद्बाणं पासत्थ- |
दाशे तश्रो जो पासत्था निवत्तति तओ णशिवत्तमाणस्स
की रइ, ममत्त न दोषेत्यर्थ: अरुज्जमतो वि संविग्गपक्खि-
तो जो तस्सवा कीरइ वा ममत्त, कज्ज णाणादिगते गेरहं-
तस्स जो पडितप्पति पासत्था तस्स वा ममत्त कज्जति, |
कुलगणादिगं वा कजं तं जा साहयिस्सति पासल्था |
तस्स वा ममत्त कज्जाति , पव गीखत्थो पासत्थादिसु
ममत्त कुजा | ' सेहे ति ' गतं । |
इदाणि ' गिलाणमादि त्ति ` दारं चरस्य व्याख्या--
पासत्थादिममत्तं, अतरंतो भेसतदट्रता कुज्जा | |
अतरंताण करिस्यति, माणसिविज्जड्वता वितरो॥४०६॥
अतरंतो-गिलाणो, सो पासत्थादिखु ममत्त कुज्जा | कटं ?, |
उच्यते--कि कारणो ?, उच्यत--भसयद्रुता--भसद--श्रा- |
सहं, त दाहिति में तेण कुलज्ञा । । अतरंसाण वा एस करिस्स-
ति त्ति तण से ममत्त कुज्जा, अतरंतपडियरगा वा जे ताण |
अस्तथरताण बह्िस्सति, तण वा ममत्तं कुज्जा | मम वा
गिलाणीभूयरुस बद्िस्सति तण वा कुज्जा । माणसिविज्ज- |
टुता वा ममत्त कुज्जा, माणसिविज्जा णाम-“मणसा चिति- |
ऊण जे जाव करति, ते ल्भात, तेम स दाहिते त्ति ममत्तं
कुज्जा, आदिसद्दाओ-इतरो वि कुज्जा, इतरो णाम-अगि-
लाणो सोवि एवं कुज्जा । गिलाण त्ति गते।
इदाणि ` पडिक्कमे त्ति ` शरस्य व्याख्या-
पगतीए समते सा-धुजोणिओ तसि अम्ह गआसफ्यो |
सदावणामवितर, विज्जट्टा तभयं से ॥ ४१० ॥ |
काद पासल्थो पासत्यत्तणातो पड्क्रियिउकामा सा एवं स- |
दाविज्ञति, पगती-सभावा सभावतां तुमे मम प्रियेत्यर्थः ।
पगतीश्रा खा वणियलादकुमकारादश्यो तेसि जा सम्मओ
तस्सं ममत्तं करति । साहुजाणीओ णाम-साशभ्रपाक्तिक
श्रात्मनिन्दकः उद्यतप्रससाकारी सा भरणति, तुम सदाका- '
लमव साहुजाणओ इदाण उज्ञम अन्न च । सो भरणति तुम ¦
अम्ह सञ्जति च्राकुलिव्वायते खुटठु भामो, इतरो पा- |
कत्था स एव अन्न वया सवर्मात, सवा अच्भुद्ठेंहिति ।
। मूलगुणविजुत्त-मूलगुण वियुक्त-त्रि० । महाबतरहिते, सम्य-
| मूलगोत्त-मृलगोत्र -न० । उत्तरगोजरापेज्ञया मूलभूतान्यादि-
| मूलच्छेज़ -मूलच्छेद्य न० । मूलनाएमस्थानचर्तिना प्रायश्वि-
| मूलजाय -मूलजात-न० । जात्यादिवनस्पतो, तेषां हि मूलतः
पडिक्तमे त्ति गतं । इदा "विज्ञ त्ति' अस्य व्याख्या-
उभय सेवि ि-उभयं णाम-पासत्थगिहत्था, ते विन्जाम-
तजोयादिणिमित्तं सवतत्यशैः। केती पुण एवं पठंति- वेज ¦
उभयं सेवेति -वेल्रो--गिदन्थो, पासत्थो वा हवेज्ज, ते ओ- `
लग्गेज्ञा सुहे, एवं सो गिल उप्पल गिलाणकिरियं करि-
ष्यती्य्थः । । अहवा--उभये वेज्जणियज्लगा य । वेउजस्स
गिलाणकिरियं करंतस्स सेव करेज्ञा, वेजाणयज्लाण वां
सेव करेदजा, ताणि तं वेञजे किरिये कारिष्यतीत्यर्थः ।
विज्जे {त्त ` गत ।
इदाणि `
परिसं व राय दुं, सयं व उवचरति तं तु रायां ।
अप्पो वा जो दुद्रा, सलद्विणीए व तं एवं ॥४११॥
दुट्टं गाम-राया पढुट्टों होजजा, तभ्मि पढुद्ढे टु जा तस्स प-
रिसा सा उमयरियव्वा, ओलर्ग कायव्वा इति वुत्तं भवति ।
जो वा ते रायाणे एगपुरिसो उवसामहिति सो वा सेवि-
यव्वो, उव्रसमसलाद्धसेप्ो वा साह लयमेव रायाणे उक-
चरति,ततु प्रद्विष्टराजानमित्यथः। अरणो वा जो राजब-
तिरित्तो भड़भोइआदि जइ पडट्ातं पि सर्लष्धि्रो जो साह
सो पदुद्रुणीप वा से सेवेज्ज प्व पदुट्ट णिउत्ते गिहत्थेख वि
ममत्त कुडजा । पदु त्ति दार गतं । गश्रा भावपरिग्गहो ।
गता परिग्गहस्स कप्पिया पडिसेवणा। ( रातिभोजनस्य
मूलगुणप्रतिसेवनां ' राइभोयण ` शब्दे वद्यामि ) |
मूलगुणपडिसेवय- मूलगुणग्रतिसेवक- पुं । सूलगुणाः प्रा-
रातिपातविरमणादयस्तेषां प्रातिकूल्येन सेवको मूलगुणप्राति-
सेवकः । मूलयुणप्रतिसेबनाकारके, भ० २५ श० ६ उ० ।
मूलगुणराहय- मृलगुणरहित- प° । पचमदहावरतान्यतरखरड-
नशीले, दशै० ४ तत्त्व ।
दुद्र त्ति" ' दारे अस्य व्याख्या--
गज्ञानकियारहिते च । पश्चा० ११ विव० | घ०।
भूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि। कश्यपादिपुरुषप्रभवे मलुष्य-
सन्तान, स्था० ७ ठा० ३ उ० । ( मूलगात्राणि सक्त तानि
गात्त ` शब्दे तृतीयभाग ६५४ प्रष्ठ गतानि )
त्तन छिद्यन्त अपनीयते यद्ापजातं तन्मूलच्छेयम् । अशष-
चारित्राच्छेदकारिणि, विश० | मूले समत्त पुणसद्दो अन्नखि
वि गुणाणे जाल उदय मलच्छेज्ज भवति तं वि भासियव्वं ।
मूलच्छेज्ज ति वा मूलगुणपाडिवाउ त्ति वा एगद्ा । ` आरा
चू प्ट |
एवात्पत्ति: आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ८उ०।
पलट्ाण-मलस्थान-न० । तिधृत्यस्मिन्निति स्थानम् , मूलस्य
स्थान मूलस्थानम् | कपायाश्रय, ज गुण स मूलद्वाण,ज मूल-
ड्राण से सुण इत । श्राचा० ९१ श्रु० २ अ्र० १ उ०।( इदे सृ
गुण ' शब्दे ततीयभाग ६०८ पृष्ठ व्याख्यातम् | उपपादः
ष्यते च च लागसार ` शब्दे संक्षपेण )
रै
ते
रे
॥
| ५
मूलणय मूलनय पुं० । सकलनयमूलभूत ऽनन्तघर्माध्या सि-
ते बस्तुन्यकधमेसमथनप्रवणे बाधिविशष, सर्वज्ञशासन स-
| ब्द चतुर्थभागे स्वस्वस्थाने दर्शितौ )
। सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहा-नेगमे, संगे, ववहारे,
| उज्जुसुए, सदे, समभिरूढ़े, एवेभूते। ( सूत्र-५५२ )
| स्था०७ ठा० ३ उ०। अनु० । ( व्याख्या स्स्वस्थान )
। भलणिभण- मूलानिमेण-न० । मूलाधारे, ` मूलनिमणे पज्ञव-
खयस्स उज्जुखुञ्रवयणविच्चेदो ' । सम्म० १ कार्ड ५ गाथा ।
( व्याख्या ` द्व्वद्टिय ` शब्दे चतुथभागे २४६८ पृष्ठे गता )
| मूलत्ताण-मूलत्राण-न० । 'मुलतान' इति ख्याते सिन्घुसमी
| पनगरे, “तेषां शिशुना वृत्तिः, स्वोपज्ञा व्यरचि विनयकुश- |
लेन । मूलत्राणाहुपुरे, करवाणरसेन्दुमितवर्ष ॥१॥ ” मरड० ।
| भूलदत्ता-मूलदत्ता- खी ° । जाम्बवतीपु जस्य शाम्बस्य भा-
यायाम् , अन्त० १ श्र० ४ वग २श्र०।८( सा चारिष्रनेमेर-
न्तिके प्रवज्य सिद्धाति अन्तकदशानां पञ्चमे वर्गे दशमे<घ्य-
| यने प्रत्यपादि )
भूलदल-मूलदल- न° ॥ दि भूतद्रव्ये, प्रश्ञन० ४ सव० दार । |
| मूलदलियशेम- मृलदलिकनेम- तरि” । मूलदलमादिभूतद्र-
। सवण्द्वार।
। भूलदेव-मूलदव- प° । स्वनामल्याते उञ्जञयिनीराज, उत्त० ४
श्र० । ( ` मेडिय ` शब्देउस्मिन्नेच भागे कथोक्ता ) |
स्नामख्याते धूतेवादिनि,नि० चू०
हा० । गं० । ( ` धुत्तक्खाण ' शब्द चतुथभाग २७५६ पृष्ठ
वक़ब्यतोक्ला ) अहिच्छ॒त्रायां पाश्वस्वामिप्रतिमावैयाबृत्त्यकरे
व्यन्तरदेवे, ती० ६ करप। “उप्पत्तिया' शब्दोक्के स्त्रीवश्चक़े पुर
वे, नं०.। आ० म० | आ० क० |
मृलधुरा-मूलुरा-खी° । सवौसां घुरां प्रशस्तचुरि, आ०
म० १ श्र०।
ग्रूलपगडि- पृलग्रकृति-खी० ० क्ञानादिक्मणां मूलमेदे, आ-
चा० १ श्रु० २ आ० १ उ०।
मूलपठमाणुओग-मूलग्रथमानुयोग-एं । पूवेभवादिगोचरो-
उनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । अहैद्वक्नव्यताप्रातिबद्धे श्रतु-
योगमदे, स०।
मूलपढमाणुओगे य,गंडियाणुओगे य । से कि त॑ मूल-
देवलोगगमणाणि आउं चवणाणि जम्मणाणि अ अभिसे-
या रायवरसिरीओ सीयाओ पव्वज्ञाओ तवा य भत्ता केव-
लणाणुप्पाया अ तित्थपवत्तणाणि अ सघयणं सटां उच्चत्तं
आड वन्नविभागो सीसा गणा गणहरा य अजा पवत्तणी- |
श्रो सषस्स चउच्विहस्स ज वावि परिमाणं जिणमणपज्-
वओहिनाणसम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्ति-
या सिद्धा पाओवगआ य॒जे जहिं जतियाई भक्ताईं छे-
६५
कलनयमूलभूतो द्वावेव नयो । तद्यथा-द्रव्यास्तिकनयः, प- |
|. । यौयास्तिकनयश्च । आ० म० १ अ०। ( द्वावप्येतौ "णय श-
व्य, तस्य “ नमे ति ` निभे सदृशम् । मृलद्रव्यसदशे, प्रश्न०४ |
पढमाणुओमे १, एत्थ णं अरहंताण भगवंताणं पुव्वभवा |
उ०। व्य० | दश० । स- |
( ३७७ )
अआशभिषधानराजन्द्र! ।
सूलवत्थु
अइत्ता अतगडा मुणिवरुत्तमा तमरओपविष्पम्म॒का मिद्धि-
: पहमणुत्तरं च पत्ता, एए अनन्ने य एवमाइया भावा मूल-
पढमाणुओगे कहिआ अषविज्जंति पप्मविज्जंति परूवि-
ज्जात । सत्ते मूसपठमाणुआग | स० १४७ सम० | न ० ।
मूलपत्ती मूलपत्नी स्त्री० | प्रधानभार्यायाम ,आ० म० १ञआअ०।
मूलपयत्थ मूलपदार्थ पु०। कणादपारिकल्पितद्वव्यादिपदा थे
षु , द्रव्यगुणकमसामान्यविशषसमवायलक्षणाः षद् मूल
पदाथाः । विश०। “ दव्वगुणकम्मसाम--न्नविसेसा छुट्टओ
य समवाच्रा । एए मूलपयत्था छुलुगण पकाप्पया पढम
॥ १॥ आ० म० १ आ० ।
मूलपायच्छित-गूलग्रायश्रित्त-न० । पराणातिपातादौ पुनर्व-
तारोपणे, आव० ५ आ० ।
मूलपिंड-मूलपिएड-पुं० । यदनुष्ठानाद् गर्भसातनादेमूलमवा-
प्यते तद्धिधानाद्वापो मूलपिरडः । घोडशे उत्पादनादोने,
आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ६ उ०।
मूलफल-मूलफल-न० । कन्दफलस्वरूपे व्यज्जनभेदे, स्था० ३
ठा० १ उ० | चे० प्र० | सु प्र० ।
मूलबीय-मूलबीज-एुँ० । मूलमेव बीज येषां ते मूलवी जाः ।
उत्पलकन्दादिषु , स्था० ४ ठा० १ उ० । दश० । जाव्यदिषु,
आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० ८उ०। स्था०। विशे० | आ०
म० । मूलकारणे , दश० ६ ० ।
| मूलभरण-मूलभरणु-न० । प्रासुकरसवत्यां सचित्तक्तेप, मू-
लभरणं नाम प्राखुकायां रसवत्यां राजिकादीनि बीजानि
संयतार्थ यत्प्रक्तिप्यन्ते । | बृ० १ उ०।
मूलभोयण-मलभोजन-न० । मूलं पुनर्नवादीनां तस्य तदेव
वा भोजनं,भुज्यत इति भोजनम् । स्था० € ठा० ३ उ०। मूला-
नि प्रतीतानि तषां भोजने भक्तणं परिभोगः । मूलाहार
दशा० २ श्र०।
मूलमंत- मूलवत्- रि ० । मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि स-
न्त्यषामिति मूलमन्तः । विशिष्टमूलशालिषु.रा०। ज्ञा०। श्रौ ।
मूलय-मूलक-न० । ( मूली ) मूलवनस्पतो, प्रज्ञा० १ पद ।
भ०। स० । आचा० |
मूलयवच्च-मूलकवर्च॑स्-न० । यत्र मूलकं सटित्वा विष्टा
भवति तादृश स्थान, नि० चू० ३ उ० ।
मलराय-प्रलराज- पुं° । चौलुक्यवंशीये स्वनामख्याते श्रण
दिलपत्तनराजे, “ श्रासीद्धिशांपतिरमुद्रचतुःसमुद्र-मुद्रा-
ड्वितक्षितिभरक्षमबाहुदरडः । श्रोमूलराज इति दुधरवैरि-
कुाम्भ-करठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावतसः ॥ १॥ `“ प्रा० ४
पाद् । ती०।
मृलवःथु मूलवस्तु -न० । पूर्वगतश्रुतस्याध्ययनविशेषे, स्था०
१० ठा० ३ उ० । मूलकारणे, यथा--श्रावकस्य सम्यक्त्वम् ,
वसन्त्यस्मिन्नणुवतादयो गुणास्तद्धावभावित्वेनति वस्तु.मल-
भूल द्वार भूतं च तद्म्तु च मूलवस्तु । तथा चाक्रम-- द्वारं
मलप्रतिष्ठान-माधारो भाजने निधिः | ” श्राव० ६ श्र०।
( २७८ )
सूलवागरणि
आमभधानराजन्द्र; |
सूलारिह
मूलवागर णि(ण) प्रलव्याकराणन् पु०। आद्यवक्तार, ज्ञात- |
रि, सम्म०
मूलविराहणा- परल व्रिराधना-खो° + भ्राणातिपातादिविरा-
धनायाम् , इये मूलशब्दनाच्यत । जीत० । न्य त्वाषा-
ढाद्याः सवत्सरा इति तदाद्यदिन ज्येष्ठपूर्णिमानन्तर प्रतिप-
राड।
द् सवत्सरस्तदादव॒स मूलनक्तत्र भवात, ततः प्राधान्या- |
दन्य नक्त्रशब्दन मूल भणन्ति, तन मूलविराधना--प्रा-
णातिपातादातिचाररूपा ज्ञाप्येति । जीत० ।
म्रलवीरिय- मलवीरिकः- पु० । वताढ्यपवेते विद्याधररनिकाय- |
भद, आ० चू० १ अ०।
मूलवेणी -मूलवणी खी० | ग्रहच्छुदनस्य मूलाधार, “ पटरी |
वंसो, दो धारणाआ, चर््तार मूलवेणीओ । ” आचा० २
श्रु० १ चू० २ अ० १ उ०।
मूलसंघ धृलसङ्क पुं° । ज्ञानद्शनचारित्रादिधघरे कुलादिस्थ-
विरसमुदाय, प० भा० ।
दंसणणाणचरित्ते, जो पुव्वपरूवणे य रयणा य ।
एसो य मृलसंधो, तिविहा थरा करणजुत्ता । प° भा० |
५ कल्प |
कुलथेरों गुणेहि उववेश्रो, एवे गुणसघथरो वि, सघथरो |
नियमा जुगप्पहाणो, इयर भइया, सो पुण एकको सीयघ-
रखमाणो एस मूलसघो | पं० चू० ५ कर्प |
मूलसिप्प-मूलशिल्प-न० । कुम्भकारादिशिल्प, “ पच सूल-
सिप्पाणि--कुंभकारा चित्तगारा रातिक्तां कम्मागारा कास- |
वगा, `` आ० चू० १ अ2।
मूलसिरी -मृल श्री खी” । छृष्णवासुदेवपुत्रस्य साम्बस्याग्रम-
टिष्याम् , अन्त० |
तेणं कालं तशं समएणं बारवतीनगरीए रेवतके नद-
शवे कण्ट वासुदेव,
तत्थ श बारवतीए नयरीए कण्ट- |
स्य वासुदवस्स पुत्ते जंब्वतीए देवीए अत्तत्ते संवे नाम |
कुमारे होत्था, अहीण ०, तस्स रे संवस्स कुमारस्स मूल- |
सिरि नामे भारिया होत्था | वन्नओ-अरहा समोसंह क- |
णहे शिग्गते मूलसिरी वि शिग्गया जहा पउमा० नवरं दे-
वाणुप्पिया ! कण्टं वासुदव आपुच्छामि ०जाव सिद्धा !
एवं ग्रलदत्ता वि | ( खतन्र ० ११ )। अन्त०
वग २ अ० |
[ न (> (~. [नज [न [र
= = । यः एपतुपरतामहापाजतमशथमन्यायन भ- |
मलहर मलहर प” [पतामह
त्तयाति । तस्मिन , घ ६ अध |
मला-पला- खी० । कौशाम्ब्यां नगर्या घनवाहघ्रष्ठिमायीयाम् |
6 द्
१ श्रु० ४
|
|
आए म० १ अ० । आ० चू०।( “ वीर ` शब्दे विहारप्रस्ताव |
तत्कथा )
४ त्री --न ८ । शाक्रावशषवा {चिः ची ०६ श |
मूलाबीय मूलाबीज-न० | शाकविशेषवीजषु, भ०६ श०७ उ०।
(भ क + च (~ यमप
मूलारिह-समूलाहै-न० । यस्य चासवना्ा सनरपया नीय
पुनर्महावतारापण क्रियत तन्मूलाहम | प्रायश्ित्तमेदे,जीत०
१ गंतिक्रा-वल्षक्तार; |
अधुना मूलां गाथाचतुष्टयनाह । कलापकम--
आउट्डियाइ पंचि-दियघाए मेहुणे य दप्पणं ।
सससुकोसाभि-क्सवणाईसु तीसु पि ॥ ८३ ॥
तवगव्वियाइएस व, मूलुत्तरदोसवइयरगणएसुं ।
दंसणचरित्तवंतो, चियत्तकरिचे य सेहे य | ८४ ॥
अचंतोसन्नेसु य, परलिंगदुगे य मूलकम्मे य।
भिक्खुम्मि य विहियतवो -ऽणवद्रपारंचियं पत्ते ॥८५॥
छण उ परियाए, 5णवट्टपारंचियासु साणे य।
मूलं मूलावत्तिसु, बहुसो य य पसजओ भणियं ॥ ८६ ॥
( आकुट्टिकया ) पश्चेन्द्रियघाते मैथुन दर्पणासवते सती-
त्वमस्या नाशयामीति बुद्धया खीसेवनायां, शेषेषु खषावादा-
दत्तादानपारग्रहघु तत्रष्वप्याकाट्रकया उत्कषताऽभत्त्ण वा
पुन पुनरासवनादषु आदशब्दादनाकाइकया पश्चानामप्ये-
पा कारणानुमत्याश्व मूलम् | तथा तपागावतादषु च तपो-
.गाचततपाऽसमथतपाऽश्रद् घानतपााभरदम्यमानषु च तुष्व-
प्यतघु मूलोत्रदापञ्यतिकरगतषु मूलगुणा उत्तरगुणा-
अ बहुप्रकारास्तेषां दापो दूषणो भङ्गकरणे तस्य॒ व्यति-
करः सप्कस्तं गतषु बहुशो मूलोात्तरगुणभङ्कारिष्वित्यर्थः।
वान्तदशनचारिे--इह दशने वान्ते नियमाच्चारित्रे वान्त-
मेव, चारित्रे पुनर्वान्ते दशने भजना--वान्तचारिजोऽपि
दशने वमति, काऽपि न वमति । ततो वाम्तदशने वा-
न्तचारित्र च, त्यक्तानि कृत्यानि दशविधचक्रवालसामा-
चारीरूपाणि सर्वाणि यन स त्यक्लककृत्यस्तस्मिन , शेत्ते
च नवदीक्तितिऽनुपस्थापिते एतेषु च सर्वेषु मूलम् ॥
तथा ऽत्यन्तावसन्नषु च आसन्ना एव प्रव्राजिताः साविश्नर्वा
प्रवाजितमात्रा एवावसन्नतया विहतास्तेऽव्यन्तावसन्नास्तेषु
परलिङ्गद्विके--परलिङ्ग गद स्थलिङ्गं कच्छावन्धनादिगरदस्थ-
वैषरूपम् , अन्यतीधिकलिङ्घ वा तापसादिवेषरूपं तयोरा-
कुट्टिकया दप्यैण वा स्वयं करणे, मूलकम्माणि च ओंषधा-
दीनां खीणां गर्भाधानशाटनकरणरूप, भिक्तों च विहितत-
पसि-विहित दत्त गुरुभिस्तपोरूप प्रायश्चित्त यस्य तस्मिन्
पवमङ्गाकततपःप्रायश्ित्ते पुनरपि छेदमूलेडतिक्रम्य तथा-
विधातिचारसवनया ऽनवस्थाप्यं पाराश्चिक चापि प्राप्त
मूलम् । को ऽथः--भिनक्तानैवमदशमप्रायञ्ित्तापत्तावपि मूल-
मेव प्रायश्चित्त भवति, आचार्यो पाध्याययोस्तु पाराश्चिकाप-
त्तावप्यनवस्थाप्यमेव । यदुक्त भाष्य--
“ इत्थ य जह नवदशमे, आवन्नस्सावि भिक्सवणो मूलं ।
दिजईइ तहाभिसेगे, परं पयं होड नवमं तु ॥ १॥ ”
स्भिषकशब्देनाचार्योपाध्यायावुच्येते | परमत्राचार्यास्याङ्
तकरणस्य उपाध्यायस्य च कृतकरणस्यैतत् ज्ञेयं कृतकरणा-
चार्यस्यान्त्यप्रायश्वित्त प्रतिभणनात्। तथा छदेन पुनः पुनरतीः
चारमाधित्य क्रियमाणेन व्तपयाये निरवशेषेऽपि चिन्न
इति शषः, मूलम् ॥ अअनवस्थाप्यपाराश्चिकावसान च अ-
नवस्थाप्यपाराशिकयोरजुितयोरनन्तरं पुनस्तथाविधाति-
चारसवनया तदापद्तावपि मूलमव दीयते । मूलापत्तिषु उ-
पचचारान मूलापत्तिकारणष्वतीचारषु बहुशश्च प्रसजत॑ः पुन
पनः प्रसक्रि कुवाणस्य मूलम् , एनघु यथाक्कस्थानणु सर्वेषु
॥
( ३७६ )
मूलारिह
श्रभिधानराजेन्द्रः।
मेअज्ज
मूले-मुलाहप्रायाश्वत्त भाणतम् ॥८३॥८४॥८५॥८६॥ जात० ।
स्था० | ओआ० | व्य० ।
मूलाहार मूल हार पु०। मूलमात्राहारे वनस्पतौ त०। आ०।
| लिय मौलिक -न० । मूले भवे मोलिकम् । मूलद्रव्ये, उत्त°
। ७ अ० । मूलधन, उत्त० ७ आ०।
म्रलुत्तरगुण्भट -मूलोत्तरगुण भ्रष्ट ० । मूलगृणाः- प्राणा
| वेरमणादयः, उत्तरगुणाः-पर्डावशुद्धथधादयस्तभ्या
श्रष्ट:ः | मूलोत्तरगुणाभ्या पातत, ग० १ आध०।
मूलुप्पत्ति मूलोत्पत्ति-ली० । आद्योत्पत्तों, नि० चू० १ उ०।
मूसअ-मूपिक पु० । पाथ-प्राथवा-प्रातश्रुन्मूषक-दारद्रा-
विभीतकेष्वत् ॥८।१।८८॥ इत्यनादेरकारस्याकारः । मूसओ ।
प्रा० । आ० म०। आ० क० । उन्दुरां, उत्त० ३२ अ०। स्था०।
कलप० । उन्दुरुविशषे, ज्ञा० १ श्रु०.८ श्र । प्रज्ञा०।
मूसगावेज़ा-मूपिकाविद्या खा° । मूषकप्रधाना वद्या मूषे-
|
|
|
|
कावद्या । पारबव्राजकाबवकावतमराषकसहस्त्रकाराण वद्या |
॥
.. ब्लेदे, आ० म० १ अ० | विशे० । कल्प० । आ० क०।
मूसरी-देशी-भग्ने दे० ना० ६ वग १३७ गाथा ।
=
भूसल-रेशा-पान, ० ना० वग १३७ गाया।
मूसा मूषा ख्री० । स्वणोदितापनभाजनविशेषे, ज्ञा० १ श्रु०
& अ० । मृरयमयभाजने,यत्र खुवणेकारेण सुवण प्रक्तिप्य गा
ना० ६ वग १३७ गाथा ।
मूसाअ-देशी -लघुद्वारे, दे° ना० ६ वग १३७ गाथा ।
तापनभाजन तद्गतं यत्प्रवरकनक तापत कृताभ्चतापम्
यत्तत्तथा | भ० १२ श० ११ उ० | कट्प० ।
मूमिया- मूषिका खरी" । मूषिकजातिखियाम् ,जी ०२ प्रति०।
मूसियार मूपिकार- पुं° । पाद्िलापत्युः कलाद्स्य पितरि ,
ज्ञा० १ श्रु० १३ अ०।
मूसियारि मूषिकारी पु । माजोरे, आचा० ।
मे-अस्मद्-ङम्स्- अव्य । मे मड मम मह महे मज्म मञ्भं
वाऽदेशा भवन्ति इति मे अदेशः । समेत्यर्थ, प्रा० ।
मिम मम ममप ममाइ मइ मप मयाद् णे टा॥८।२।
१०६ ॥ अस्मदः टा सह पत नचाऽऽदेशा भवन्ति । मयत्यथ
। शादित £, अन्रोच्यत- मे इत्ययं वभाक्कप्रातरूपक्रा ऽव्ययश
स्था० १ ठा०।
भेञ मेद-पुं० | अनायदेशभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
मैअज्ज -मेताये-एं० । श्रीवी रजिनस्थ दशमगणघरे, विशे० ।
आव० | श्रा० म० । स०। विशे० । कल्प ०।
कथानकम्--साएते ण॒गरे चंडब्रडसश्रा
शरस्य
राया तस्स,
स्यते । कट्प० १ आध० २ क्षण । ज्ञा० । भ० । लघुद्धारे, दे० |
| भूसागय मूसागत- त्रि । सूरमयभाजनविशषगते, ज्ञा० १
| श्र० १अ० “ मूसागयपवरकणगतावियं ” म॒सा-स्वणादि- |
अम्ह अम्हे ऊूसा ॥ ८। ३ ११३ ॥ अस्मदो ङ्सा सह एते न- |
ब्दस्तृताय कवचनान्तो ऽस्मच्छब्दार्थे वततत दात न दाषः। |
० । प्रश्न० । ननु म इत्यस्य मम मह्य चात उ्याख्यानमु- |
फचत षष्टाचतुथ्यारवक्वचनान्तस्यास्मत्पदस्य म॒ इत्याद- |
दुवे पत्तीओ-खुदंसणा पियदंसणा य । तत्थ खुदंसणाए
दुवे पुत्ता-सागरचदो, सुिचंदो य | पियदेसणाए वि दा
पुत्ता-गुणचंदो, बालचदा य | सागरचेदो जुबराया, सुणि
चदस्स उज्णी दिरणा कुमारमुत्तीण । इझो च चडवडसश्रा
राया माहमासे पडमं टिश्रो वासघरे जाव दीवगा जलद
्ति,तस्स सेज्ञावाली चिंतइ दुक्खे सामी अधतमसे अच्छि
धूहिति ताप वितिप जामे विज्भायंते दीवगे तेन्न ढं, सो
ताव जालिश्रो जाव अद्धरत्तो ताहे पुणो वि तल्लं
चदं ताव जलिओ जाव पच्छिमपहरो, तत्थ वि चूं ,
ततो राया खकुमारो विहायंतीए रयणीए वेयणा-
भिभूओ कालगओ । पच्छा सागरचेदा राया जाओ।
अरणया सो माइसवासि भणइ--गेरह रज्ञं पुत्ताण ते भवउ
त्ति, अहे पव्वयामि, सा णच्छुइ एएण रज्जं श्रायत्त ति । त
आओ सा अतिज्ञाणानज्ाणसु रायलच्छीए दिष्पतं पासि-
ऊण चितेइ-मए पुत्ताण रज्ञ दिज्ेते ण इच्छियं, ते वि प्व
सोभन्ता , इयाणि वि णे मारेमि ¦ छिद्दाणि मग्गइ। सा
य छुहालू , तण सतस्स संदेसओ दिण्णो । एत्तो चेव
पुव्वणिहियं पट्रुविज्ासि , जद चिरावेमि । खुणएण सीह-
केसरओ मोदआओ चडीप हत्थेण विसज्जिओ । पियदस-
णाप दिद्धो , , भणइ-पेच्छामि श ति, तीष श्रप्पितो , पु-
व्व शाप विसमक्खिया हत्था कया। तेहि सो विसण
मक्खिओ । पच्छा भणइ-अहो सुरभी मोयगो नि पडि-
आप्पिओं । चेडीए ताण गंतृण ररणो समप्पिश्रा।ते यदो
वि कुमारा रायसगास अच्छेति, तेण चितिये- किह
श्रहे पतिं छुदहाइणहि खादस्सं ? , तेण दुहा काङण त-
सि दोर्दं विसो दिण्णो । ते खाइउमारद्धा , जाव वि-
सवेगा आगंतु पवत्ता , राइणा सभतण वजा सदावि-
ता , खवर पाइया , सज्जा जाया । पच्छा दासी सदावि
या, पुच्छिया भणइ--ण केण वि दिट्रा, णवरं एयारौ
मायाए परामुट्टी । सा सदाविया भणिया-पाव ! तदा श-
च्खछसि रज्जं दिज्जतं, इयाशिमिमणा ऽदं ते अकयपरलोय-
सबलो ससारे छूढो होतो त्ति, तसि रज्ज दाऊण पव्व-
इओ । अरुणया संघाडओ साहण उज्जेणीओ आगआओ ।
सो पुच्छिओं-तत्थ णिरूवसग्ग ?, ते भरति-णवरं
रायपुत्तो पुरादियपुत्तो य बाहिन्ति पासंडत्थ साहुणो य
सो गओ अमरिसेणं तत्थ, विस्सामिश्रो साहि, तेः
य समोदया साह , भिक्खावलाप भणिओ-आरिज्जड
भणइ अतक्तलाभिओ अहं, वरं ठवणकुलाणि साहह। त-
हि स चनल्नओ दिरणो,सोतं पुरोहियवरं दंसित्ता पडि-
गश्रो। इमो वि तत्थेव पष्ट वड़वंडण सद्देणं धम्म ला-
भेद, श्रतउरिश्राश्रो निग्गयाश्रा हाहाकारं करेताओ, सो
वड्वडो सद्दणं भणइ--कि पय साबिए न्ति, ते णिग्गया
बाहिं वारं वधात, पच्छा भर्णात--भगव ! परणच्चसु ,
सो पडिंग्गहं ठवेङऊण पणच्चिश्रो । ते ण याणंति वाएउं
भखंति-जुञ्छामो , दवि एक्सरा ते आगया । मम्मेहिं
आहया, जहा जताणि तदा खलखलाविश्मा । । तओ सिद
हणिऊण बाराणि उग्धाडत्ता गच्रो। उज्ञाण अ्रच्छाति ,
राणो किये । तण मगगावि्मा । साह भराति-पाहुणआओ
श्रागश्रा,ण याणामो, गवेसतेहि उज्जञाणे दद्रा । रायः
१-- स्थास्यति | न
मेञ्ज्ज
( ३२० )
अभिधानराजन्द्र: |
मेघंकरा
गओआ खामिओ य, णशच्छुइ मोत, जइ पव्वयाति तो मुयामि । |
ताहे पुच्छिया, पडिसुय्य । एगत्थ गहाय चालिया जदासद्धाणे
दिया संधिणो लाये काऊण पव्वाविया। रायपुत्तो सम्म
करेति मम पि्तियत्तो त्ति, पुरोहियसुयो दुगछुइ--अम्दे
एएण कवडेण पव्याविया | दो वि मरिऊण देवलोगं गया,
सगरं करंति--जो पढम चयइ तेणु सो सबोदेयव्वो, पुरो-
हियसुओ चइऊण तीए दुर्गछाए रायगिद्े मेईए पोट्ट आग- ।
आ। तीसे सिद्धिणी वयंसिया, सा किह जाया ? सा मेसं वि-
क्किणइ, ताप भराणइ--सा अणणत्थ हिडाहि, अहे सव्वं कि- |
णामि, दिवसे २ श्राणड् । एवं तारि पीई घणा जाया, तेखि
चव घरस्स समासीयाणि ठियाशे । सा य सेट्टिणी शिद् , |
ता मेष रहस्सिय चच तीसे पुत्तो दिण्णे, सेद्धिणीण धू- |
या मइया जाया । सा मेईए गहिया, पच्छा सा सद्धिणी तं |
दारगे मेईए पाएसु पाडति, तुव्भ पमावेण जीवउ त्ति, तेण
से नाम कय मयजा क्ति। संचट्ठिओ,कलाओ गाहिओ,संचो-
हिआ दवेण, ण संवुज्कइ, ताहे अद्भराह इब्भकशणगाररं एग-
दिवसण पाणी गेरहाविग्रो | सिवियाए णर्गरि हिंडइ, देवो-
वि मेयं अखुपविद्ञो रोइउमारद्धा, जद मम वि धूया जीवंति-
या तीस वि अज्ज विवाहों कओ टोतो, भक्ते त्र मेताण कये '
हतं । ताहे ताए मईए जदावत्त सिद्ठे, सझो रुट्टी देवाणु-
भावेण य ताओआ सिदवियाओं पाडिआ तुमे असरिसीओ प-
रिणेसि त्ति खड्डाए छूढो। ताहे देवो भणइ--किह ?, सा
भणइ--अवरण्णा । भणइ--एक्तो मोप किंचि काल अच्छा- |
मिवारस वरिसाणि, तो भणइ--कि करामि ?, भणइ--र-
रणा श्रये दवावेहि, तो सव्वाओ अकिरियाओ झोहाडिया-
श्रा भविस्सेति । ताहे से छुगलओ दिरणा, सा रयणाणि
वोसिरइ,तेण रयणाण थाल भरिये | तेण पिया भणिआओ रसा ,
धूय वरि, रयणाण थाल भरेत्ता गओ । कि मग्गसि ?--
धूयं, णिच्छुढो, एवं थालं दिवसे २ गर्द, ण य देइ । अभ-
श्रा भणइ--कआओ रयणाणे ?, सो भणइ--छुगलझो ह गड् ।
अम्ह वि दिज्जडउ,आशणीओ | सडगगंधारि वोसिरइ “अभओो |
भणइ-देवाणुभावो । कि पृण ?, परिक्खिज़्जउ, किट ?, भ-
एणइ--राया दुक्खं वभारपव्चते सामि वदिड जाति, रहम-
ग्गं करेहि | सो. कओ, ज्ञ वि दीसइ | भिश्चो-पागारं सो
वरणे करेहि, कओ । पुणा वि भारणओ-ज़इ समुद ्राणसि
तत्थ रहाओ खुद्धो होहिसि तो त दाहामा । | आणीओ, वे- |
लाए रहाविश्रो, विवाहों कओ सिवियाए हिंडेतण, ताओ |
विस अण्णाआ आशियाओं । एवं भोगे भुजति बारस ब- |
रिसाणि, पच्छा बोहितो । महिलाहि वि बारस वरिसाणि |
मग्गियासि, दिएणाणि य, चउव्वीसाए वालाह सव्वाणि वि
पव्वइयाणि, णवपुव्वी जाओ । पकरलावहारपडमि पडिव्मी। |
हिंडइ, खुवएणकारगहमागओ । सी य से- |
|
तत्थ रायगिहे
णियस्स सार्वाण्णयाण ज्ञवाणमटुसतं करे, चेडयश्चखणियापः
परिवाडीप सणिश्रा कार् तिसंभं। तस्स गिह साह अ-
इगओ । तस्स एगाए वाया भिक्खा ण णीणिया, सो य
श्रदगश्रो। त य ज्वा कौचण्ण खाइया, सो आगआओ ण
पच्छ । ररणा य चतियशज्वाणियवेला दुकद, ज्ञ अट्टविस्वडा-
णि कीरामि त्ति, साधु सकद पुच्छड़, तंणिहकों अच्छुइ ।
नांद सीसावेढेण बंधात, भणिश्रा यज"-साहजेंण गहिया।
तहा आवदिआ ज़हा अच्छीणि भूमीए पडियशण । को- |
मय किक प ९ [० 9
वन्ता, लोगो भणइ पाव ! एए ते जवा, सो वि भगव का-
है
क
चआओ य दारु फोडतण सिलकाए आहश्चा गलप । तण
लगआओ सिद्धाय य। लोगो आगआओ, दिद्धा मेतज्जो, रण्णो ¦
कहिये, वज्काणि आणत्ताणि, दारं ठदत्ता पव्वदयाखि भ-
खंति--सावग ! धम्मेण वड्डाहि, मुक्काणि । सणइ--जइ उ-
प्पव्वयह तो भे कविल्लीए कट्टेमे, पव समदम अप्पए य
परे य कायव्व ।
तथा च कथानकार्भैकदेशप्रतिपादनाय्वद--
जो कोंचगावराहे, पाशिदया कोंचग तु णाइक्खे ।
जीवियमणपेहंत, मयज्ञरिसे शमंसामि !। ८६६ ॥
यः कोञ्चकापराधे सति प्राणिदियया ` काञ्कं तु ` कोञख-
कमव न आचएष्ट, अपि तु स्वध्राणत्यागे व्यवसितः, तमनुक-
स्पया जीवितमनपेत्तमाण मता्यचऋषिं नमस्य इति गा-
थाथेः ॥ ८६६ ॥
शिप्फेडियाणि दोष्पि वि, सीसावेढेण जस्स अच्छीणि ।
ण य संजमाउ चलिग्रो,मेयजो मंदरागिरि व्व ॥ ८७० |!
निष्कासित भमौ पातिते द्वे अपि शिरोबन्धनेन यस्याक्ति-
णी एवमपि कदथ्यैमानाऽचुकम्पया * न च ` -नैव सयमाचच-
लिता यस्त मेतायऋषि नमस्य इति गाथाभशिप्रायः ॥ ८७० ॥
आच० १ अ० । स्था०। ( परलोग ' शब्दे * परभव ` शब्दे
च पञ्चमभाग एतद्धङ्कव्यतोक्का ) गोत्रविशेषप्रवतक ऋषौ,
यदन्वय पदालपुत्रश्चासीत्। सूत्र० २ श्रु० ७ अ० । धान्ये,
दे० ना० ६ वर १३८ गाथा ।
भेअर-देशी-असहने, दे० ना० ६ वर्ग १३८ गाथा ।
भेअलकन्ना- मेकलकन्या-स््री० । नमंदायांस् , “ मकलकश्ना-
य नम्मया रेवा ” पाइ० ना० १३० गाथा ।
भेइणी-मेदिनी-स्जी० । क्षितौं, पथिव्याम्, अचु०। प्रश्ष० ।
आव० । ˆ“ वसुहा वसुंधरा वसुमईे मरी मेइणी धरा ध-
रिणी ” पाइ० ना० २६ गाथा।
भेंठ- रेशी--हस्तिपके, दे० गा० £ वर्ग १३८ गाथा ।
मरी -देशी-मेरढ्याम् , दे० ना० ६ वर्ग १३८ गाधा ।
मेढ-मेद्-न० । पुरुषविध, ग० १ आधि० । श्ङ्गादाने, ब० ४
उ० । मेषे, स्था० ४ ठा० २ उ० । श्चा म० |
मेंदयमुह-मेण्ट्कम्रुख - पु । स्वनामख्याते उन्तरद्धीपे, सुतर
२ श्रु० १ झ०। न०। प्रज्ञा० | उत्त० । ('अतरदीव शब्दे प्रथ-
मभागे ८६ पृष्ठ वक्कव्यतोक्ता )
मेख मेष -पु° । चूलिका-पैशाचिके ठृतीय-तुयेयोराद्य-द्धि-
तीयो ॥ ८। ४।३२५॥ यथासेख्यं भवतः । इति धस्य खः ।
मेघः । मखो । जलदे, प्रा० ४ पाद् ।
मेखला-मेखला- खी० । खस्य माला मेसलति निरुक्तम् ।
श्रलु० । कटिसूले, कस्याभरणे ख । चाख० ।
मेषंकरा-भेषङ्करा- खी" । नन्दनवन नन्डनक्रुटवास्तष्यायां
विदिक्कुमायोम् , स्था० ६ ठा० ३.३० । उाचा० । आ०
म० । ति०
हि
१---कटाहे |
| रब
॥
यि
च्च ( ३८२ ) ५
५ मघघणमसक्ति० अभिधानराजन्द्रः। मत्ती
ध मधधणसप्पिगास-घनमेषसन्निकाश-रि° । घनमसेघसदश, | मेढ-देशी--वांणक्सहाय, दे० ना० ६ वग १३८ गाथा ।
गो सान्द्र जलद समान कालक, भ० २ श० १ उ० } ज़० । भदगयुह- मपकमुख-पु° । स्वना मख्यात अन्तरद्वाप, अनायः
| मघमाला-मघमाला-खी° । स्वनामख्यातायां वाखुपूज्य- ज्षित्रभदे च । स्था० ४ ठा० २ उ०। सूत्र० । ( ' अतरदीव
के समयजातायामार्थिकायाम् , महा० | शब्दे प्रथमभाग ८६ पृष बक्कव्यतोक्ला )
#। थेवाणं पि निवित्ति जा, मणसा वि विराहए | मेदविसाण मेषविषाण- न° । मपशृङ्, स्श्रा० ४ ठा० २ उ०।
सो मओं। दुग्गई गच्छे, भधमाल। जह५5ज्जया ।
मवमालि।ज्ञया नाह !, जायिमे। युव ( ण) बंधव ! |
मणसा वि निवि।त्त जा, खंडिउं दुग्गई गया ।
वासुपुज्ञस्स तित्थम्मि, भालाणं कालगच्छवी ।
मेषमालिजिया आसि, गोयमा ! मणदुन्बला ।
सा नियमागासपक्खं, दाउ भिक्खाय निग्गया ।
अज्नओ णत्थि नीसारं, मदिरोवरि सेटिया |
आसन्नमंदिर अन्नं, लेधित्ता गंतुमिच्छुगा ।
| मणसा चितत जाव, ताव पञ्जलिया दुवे ।
नियमस्स भगदासणं, उज्मित्ता पदमियं गया ।
एयं नायं सुह्मं पि, नियमे मा विराहिह ।
ज छिज्जा यक्खयं सोक्खं, अणंत च अणोवमं |
तवसंजमे वणएसु च, नियमो दंडनायगो ।
जीव, मधघकुमारजीव, कल्प० १ आधि० ७ क्षणु। ( स्वामी
रव्रज्येकदा विहरन् तापसाश्रमे कृपसमीप स्थितः, इहेव
मघमाली सुराधमः श्रीपाश्वदवमुपद्रातुमागतः । * पास.
शब्दे पञ्चमभाग ६०९ पृष्ठ आख्यानकमुक्कम् )
मेघमालिनी- मेघमालिनी - खी० ० ऊध्वलाकवास्तव्यायां दि-
क्कमार्याम् , स्था० ८ ठा० ३ उ०। ज०।
मधवई- मघवती- खी०। जम्बूद्वीप मन्दर स्य पवेतनन्दनवनस्य
पूवसिद्धायतनादेव दक्षिणतो दद्धिणपूर्वप्रासादात् उत्तरता
मन्दरकृटवासिन्यां दिक्क्मार्याम् , स्था० ६ ठा०। जे० ।
मेघविजय- मेघविजय- पुं० । हेमशब्दानुशासनोपरि चन्द्रप्रभा-
नामटीकाक्ाति स्वनामख्याते उपाध्याये, ० इ० ।
मधाधास-मधाघास- प° । कल्किन्रपपुत्रदत्तस्थ पौत्र, क-
तमेव खडमाणस्स,ण वए णो व संजमे | महा० ६अ०। |
मषमालि( श )-मेघमालिन पु०। पाश्वस्वामिद्रहि कमठासुरे |
मेढविसाणा-मपविषाणा-खी० ¦
मषश्भरद्धसमानफलायां वन-
स्पतिजातो, स्था० ४ ठा० १ उ०।
मेदि-मेशथि-खी० | मि-शिशिर-शिथिल-- प्रथमे थस्य ढः
॥ ८। १।२१५॥ इति थस्य ढा भवति | हापवादः । मदी ।
( मथी )। शाकभद, प्रा० खलकमध्यवार्तिन्यां स्थुणायाम् ,
यस्यां नियमिता गापङ्क्कोधोन्वे प्राहयांत , रा० । व्य०।
भ० । ज्ञा०।
| मेढीभूय मेढीभूत-पुं० | मदशपम, मदीसदशे, सर्वेषामर्थानां
' भेणाग-मेनाक - पुं० | समुद्रमध्यपर्वते, “
|
स्किनरपस्य-पुत्रा दत्तस्तस्य जितशच्स्तस्य च मेघाघास
इति कमः । ति० । ती०।
मेच्छ्- म्लेच्छ -पु० । अनायमनुष्ये, आ० म० १ झ० ।
भच्छिय- म्लच्छित- पु । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, परज्ञा १ पद् ।
मज्ज-मेय-तरि० | कुडवादिधरमेय, ज्या० २ पाहु०। मीयत
नेनेति मेयम् । मान, हस्ते, अनु० । ज्यो० । जज्ञ ज माणे-
र पत्थगमातिणा मितिज्जाति त च तंडलतेल्लखयमादि । नि०
चू० १ उ० । मज्ज लक्खघततेल्लादि | आ० चू० ६ अ० । मय
यत् लातक्रापलादिना मीयत | ज्ञा० ६ श्रु०८ अ०।
मज्क-मसंध्य-/त्र० | मथापकाराण, शाव० ३ अ०।
मेडभ देशी-मुगतनन््तो, द ना० ८ वमे १३८ गाथा |
„~ न
~
चिन्तक, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।
वच्नात््रातः समुद्र-
ण, मेनाकाऽस्याचुजो गिरः । `` ती० ७ कल्प ।
मत्ता-मात्रा-खा०। लक्षण, धत्रज्यालक्तणे द्रव्यलिङ्मावमि-
ति। नि° चू० १३ उ०। तुल्यत्वे, माव्राशब्दस्तुटयवाची ।
नि
चू० २० उ०। (घ्रां विशेष: माया शब्द ऽस्मिन्नव भाग गतः )
मेत्ताइभावस/म्मस्स-भेज्या दि भावसंमि श्र-त्रि० । मेज्या दिभा-
वः संमिश्र, घ० १ अधि० । ( धम्म ` शब्दे चतुथभागे २६६६
पृष्ठे विस्तगाऽ्र गतः )
मेत्ताइसंगय-मैत्रयादिसड्रत-त्रि० । मैत्रीकरुणामुदित
सजक्नत, षा० ८ वच० ।
मेत्ती-मेत्री-स््री० । प्रीतो, षो० ।
तापक्ता-
पताश्चतुविधा इन्युक्घं तदेव चातुर्विध्यं प्रत्यकममिधा-
तुमाह--
उपकारिस्वजनेतर- सामान्यगता चतुर्विधा मैत्री ।
मोहासुखसंबेगा -न्यहितयुता चैव करुणति ॥ & ॥
उपकारी च स्वजनश्चतरश्च सामान्यं च । एतदृगता ए-
ताद्वषया चतुल्विधा-चतुभेदा मत्री भवति । उपकर्तु शील-
मस्यत्युपकारी. उपकारं विवन्षितपुरुषसम्बाधिनमाश्रित्य
या मल्ली लाके प्रसिद्धा सा परथमा । स्वकीया जना नाल-
प्रातवद्धा दिस्तस्मिन्नुपकारमन्तरेणापि स्वजन इत्यक या
मत्री तदुद्धरणादिरूपा प्रचक्षत सा छितीया । इतरः प्रति-
पन्नः पृवपुरुषप्रतिपन्नषु वा स्वजनसम्बन्धनिर्पत्ता या में-
त्री सा तृतीया | सामान्य सामान्यजन सवस्मिन्नवाऽपरि-
चितेंडाप द्विताचिन्तनरूपा प्रतिपन्नत्वसम्बन्धनिग्पेत्ञा च-
ती मंत्री । मोहआासु्ख च संबेगश्ान्यहित च तेयुता
चव समन्विता चव करुणेति करुणा भवति । मोहाऽ
ज्ञान तन युता ग्लानापथ्यवस्तुमार्गणप्रदानाभिलाघरूपा
प्रथशा । अरुखे खुखाभावो यस्मिन् प्रासन दु-खिते खुख
नास्त तास्मिन्याऽनुकम्णा लोकप्रसिद्धा आहारवर्खशय-
नासनादिप्रदानलक्षणा सा द्वितीया । सचना सान्ताभिलाष-
स्तन सुःखतर्ण्वापि सपु प्रीनिमत्तया सांता दुःनप-
(२
+
)
मेत्ती अनिध्रानराजन्द्रः। सेरुतुंग सूरि_
रिप्राणच्छा छुमख्थानां या स्वभावतः प्रवत्तेत सा तृतीया ।
अन्याहितयुता सामान्यनव प्रीतिमत्तासम्वन्धावकलेष्वाप
सर्व्वेष्वेवान्यधु सत्त्वषु कर्वालनामिव भगवतां महामुनाना
वीनुग्रहपरायणा हितवुद्धश्या चतुर्थी करुणा ॥ ६ ॥ षो०
१३ बिव० | कायापशम, आ० चू० ४ अ० ।
मेत्तीवेदन-मैत्रीवन्दन -_० । बन्दनकदोपभदे, मेत्ताए सम-
न्विता ज्षि। अहवा मत्ती तण सम कातु मग्गांते। आ० चू०
अण० । मेत्रीमाश्रित्य कश्चिद्वन्दत, आचायण सह मत्रा
प्रीतिमिउच्छुन वन्दते इत्यथः | तदिद मेत्रीवन्दनकम्रुच्यत ।
प्रव० २ द्वार !
भत्तुंडक-मेत्तुण्डक-न० । खनामख्यात तीथकर स्थान, यत्र |
वीरतीथकरर््ातमा पूञ्यत । ती० ४३ कल्प ।
मद मेदस-न० । वशायाम् , स० । प्रज्ञा०।
मेद-त्रि० । वन्यमनुपष्यज्ञातिभद, ती५ ३१ कल्प ।
मेदपल्ली - भद पल्ल - सखी० । मदानां पल्ली मदपल्ली | मदाना- |
मावासभूतायां मालवदशान्तर्व्तिमङ्गलपुरध्रत्यासन्नायां महा-
टव्याम , ती० ३१ कट्प। ( तजत्याभिनन्दनदेवस्य प्रतिमा- |
भड़ा ५ दर्शि ' आहनदण ` शब्दे प्रथमभाग ८८६ पृष्ठ )
भधणिया-मेघनिकी--स्त्री० । मातुलदुहितार, तत्थ मेचुणि-
या-माउलदुा हया । निन चू ₹ उ०।
त्रत्र चासीद् गुणशिले, चेत्यं शेत्यकसनिभम् ।
श्रीवीरो यत्र समवा-सरच्च गणनायकः ॥ १४ ॥
प्राकार यत्र मतायः, शातकोम्भमचीकरत् |
सुरण प्राप्य खुदा , मास स्वाजादयत्स्वकम् ॥१६॥ "”
ती० १० करप । वीर जिनस्य दशमगणधर, कटप०? अधि० ६
कण । आ० म०।(' मञ्जज्ञ ` शब्द् ऽस्मिन्नेव भागे कथा गता)
मरग- मरक - प° । वनस्पातावशष, आज्रा० २श्रु० १ चू० १
अ० ८ उ० | मयविशष, प्रज्ञा० १७ पद ४ उ०। जी० । दश० |
मरका लाकादवसातव्यः। जी० ३ प्रति ४ ४ आधि० । सरका-
भिधानमद्य, उत्त० ३४ अ० । तृतीयवासुदेवप्रतिशत्रों, आव०
१ आ० । प्रव० |
मेरा-मयांदा-सख्री० । मर्यादायाम् , नं०। “ सीमा मेरा ”
पादन्ना० २२७ गाथा । दण्ना० | मज्ञ़ाय ति वा श्रो.
ह ति वा मेरं ति वा एगट्टा । आ० चू० १ अ०। सीमा मेरा
मर्यादा इत्यकार्थाः । पं चू० २ कल्प । मेरा-मर्यादा , समा-
चारीत्यर्थ:। बृ० ३ उ०। ठय० । मयादा-विधिारत्यथः। व्यं०
३ उ० | स्था० । स्थितिमयादा व्यवस्थत्यनथान्तरम् । व्य०
४ आ० । दशमचक्रिणा मातरि, आव० १ अ०। मर्यादाति
देशीशब्दः । ग० २ अधि० । मुर्जासरिकायाम् , प्रश्न० १
आश्र० द्वार ।
भराकहण मर्यादाकथन-न० । सामाचारीप्रतिपादने मर्या-
मेय-मदस् न० । अस्थिति शरीरस्य चतुर्थघातों, उतक्त० ७ |
अआ० | तं० । प्रश्न० । ज्ञा० | स्लेच्छुभदे, प्रश्न० १ आश्र० |
दार | स्था०।
मेयप्पमाण-मेयग्रमाण--न० । कुडवादिमान, ज्यो० ।
सप्रति मयप्रमाणमाद--
तिन्नि उ पलाशि कुला, करिसःद्धं चव होई बोधव्यों ।
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चत्ता।र चव कुलवा, पत्था पुण मागहा हाइ ॥ २५॥
चउपत्थमादगं पृण, चत्तारि य त्राढगाणि दोणो उ।
सालसद।णा खार, खारीओ वीस बाहो ॥ २६ ॥
इह कुलवा मागघदशप्रसिद्धा यदा धरिमप्रमाणन मातुमि-
ष्यत तदा स जीण पलानि एकस्य च कर्षस्य पलचतुभी गरू-
पस्याद्ध वाद्धव्यः। चन्वारश्च कुडवा एकत्र पिणिडता एकः प्र-
स्थरा मागधा भवात। साऽपि च धरिमध्रमार्णाचन्तायां सा-
दानि द्वादश पलान्यवगन्तव्यः ॥ २५ ॥ ( चडपत्थमित्यादि )
त्वारः प्रस्थाः समाहताश्चतुःघस्थसमुदायमकमाढकं गणि
तक्ञा वदान्त । तत्राप ताल्यत्वाचन्तायां पञ्चाशत्पलान्यव- |
सयक, चत्वार. पुनरादकाः समरादता पका द्राणः तत्रा-
पच द्राण पलपारमाखाच्न्ताया दढ पलशत वादतव्य |
पाडश चं द्वाणा एकत्र समुदिता एका खारी, तस्यां च खा-
या पलानि हालिशत शतानि भवान्ति । विशतिश्च खाये एकत्र
पिरिडता एका वाहस्तस्मिश्व बाह धरिमध्रमाणाचन्तायां च-
तुष्टिः पलानां सहस्राणां सख्या ॥ २६ ॥ ज्यो० २ पाहु० ।
मेयारियि-प्रतार्य--पु० | जग्रह गुणशिलकचत्यप्राकारकार के, |
ती०।
/ छिनिर्रातिष्ठचणक-पुरषभपुराभिधम् ।
कुशाभ्रपुरसेजश च, ऋमाद्रा जय॒हा 5 ऽहयत् ॥ १४ ॥
दायाः-समाचायाः कथने, यथा साधृनामावश्यके आलोच-
नायां प्रायश्चित्तं दीयत नमस्कारपोरुष्यादिकं च प्रत्याख्यान
यद् यस्मे दातव्यमित्यवमादि सर्वे कथ्यत इति भावः ।
ब्य० र उ०।
मेराकारि-मर्यादाकारिनू-जि० । मर्यादाकारिणि, स्था १०
ठा० ३ उ०।
मेरु-मेरु-पुं० | सकलतियगलेाकम्र॒ध्यभागस्य मर्यादाकारि-
त्वान् मरुः । मख्दवयागाद् वा मेरुः । जम्बृद्धीपमध्यग म--
न्दरपर्वते , सू० प्र० ५ पाहु० | ज०।
जे मंद्रस्स पुन्वेण, मणुस्सा दाहिणेण अवरेण ।
जे याऽवि उत्तरणं, सव्वेसिं उत्तरो मरू ॥ ४६ ॥
आजचा० १ श्रु० १ अ० उ०। ( अस्या गाथाया व्याख्या
"दिसा' शब्दे ४ भागे गता । ( श्रस्य षोडश नामानि गिरि-
राय ` शब्दे ठतीयभाग ८७६ पृष्ठे गतान ) ( श्रस्य सवौ व-
वक्तव्यता ' मन्द्र ` शब्द अस्मिन्नव भाग उक्ता) मरा-
मैखलास्वरूपं केनाकारण विद्यत __| |__ इति प्रश्न,
उत्तरम-अनन स्थापिताकारेण _ | ॥ _
मरोम॑ध्ये, तु बदिस्तान्मेलला | /
चतते डांत ॥ १४१॥ सन० ३ उल्ला ०।
मरुकंत- मरुकान्त- पु०। महा रगभेदे , प्रज्ञा० १ पद |
मरुगिरि- मेरुगिरि-पुं०? । मन्दर पर्वते, ्राव० ४ अ० | स० |
मेरुतुंगसूरि-मेरुतुज्ञसूरि प° । स्वनामख्यात चन्द्रप्रभसूरि-
क्षिष्य तेन च महापुरुषचरित्र स्थविरावली षड्देशन-
विचारः प्रवन्धचन्िन्तामणिश्रेति ग्रन्था विरचिताः । श्रय-
माचार्यः चिक्रमसेवत् १३६२ वर्ष विद्यमान आसीत ,
श्रञखनगच्छं ब्रीमहेन्द्र खरि रशष्याऽप्येतश्नामा आसीत् । ते-
[ष नर
५
अब
न्यः
क
( ३८३ )
~ (अव अभिधानराजेन्द्रः मेहकुमार
न सूरिमन्चोद्धारः शतपदीसारोद्धारः मेघदूतकाव्यरीका मेधकुमारवक्गव्यता--
चति ग्रन्था वरचिताः। विक्रमसंवत्सरे १४०३ अयं जातः
संवत्सरे १४१८ दीक्षितः, संवत्सरे १५२६ आचायेः,सवत्सरे |
१४४६ गच्छुनायकः, संचत्सरे १४७१ स्वगतः । जे० इ० |
मरुदेव -मेरुदब- पु | मन्दरस्वामिनि देव, दर्श०» १ तत्त्व ।
मरुपवडण मेरुग्रपतन न० । मरोः पवेतविशेषान मुमू्षूणा-
मनशननाथःपतन, आचा० २ श्रु० २ चू० ३ अ०। |
भेरुप्पमृह मेरुप्रमुख-न० । मरुजस्वृद्धीपलवणोद्धिप्रभ्नतिषु,
पञ्चा० ८ विव० ।
मरे मेरेयी खी० । पिशेद्धवायां शाटितोत्पन्नान्नरसायां |
|
सुरायाम् , उत्त० १६ अ०।
मद्यविशप क ड |
अरेयग-मेरेयक- प° । मद्यविशपष , ज० २ वक्त० । |
मेल मेल पुण । सङ्गमे , व्य० ५ उ० । “ संगमो मेलो ”
इ० ना० २४१ गाथा ।
मेलणा- मेलना- खी ° । सेवन्धे , व्य० १० उ । |
मेलय मेलक पण । सन्निपात , स्था० ६ ठा० ३ उ०। ( मे- |
लकाः ` करण ` शब्दे ततीयभागे ३६६ पृष्ठ गताः )
मेलव मिश्र-धा० । सम्मेलन, मिश्रर्वीसाल-मेलवो ॥ ८।४॥ |
२८ ॥ मिश्रयतरर्यन्तस्य वीसाल-मेलव इत्यादेशों वा भव- |
तः | वीसालवइ । मेलवडइ । मिस्सइ । प्रा० ४ पाद ।
मैलिय-मेलित-त्रि० । प्रापिते, मालयं सो तन खाइ न पिवति। |
आ० म० १ अ०। |
मेली
| |
भन्न-मुच्-धा० । मोचन, मुचेश्ठड़ावह ड-मेल्लासिक्र रे त्रव- |
के
णिल्लुब्छु-थेंसाडाः ॥ ८ । ४। ६१ ॥ मुञ्चतरेत सप्तादेशा वा
भवन्ति । छड्डइ । मेन्नइ । मुश्चाति । प्रा० ४ पाद् । |
पा- |
- देशी-सहतो, दे० ना० ६ वर्म १३८ गाथा ।
मेस मेष-पुं० | उरणके,विश० | आ०म०। दश० । “गोः पदेऽपि |
पिवेन्मेषः, पयः सूच्ममुखों यथा । कलुषी कुरुत नेव, खुशिष्यो
ऽपि श्रुते तथा॥१॥ ””आ०क० श्ञ्र० । यथा मषाऽल्पऽप्यम्भसि |
श्ननाघालयन्नवा ऽम्भः पिवव्येवे साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टन |
वीजाक्रमणादिषु अनाकुलेन भिक्षा प्राह्ययवविधाथसूचक-
त्वाद् द्र मपुण्पिका ऽध्ययनमपि मेषः | दशवकालिकस्य प्रथमे-
5ध्ययन, दश० १ ० |
मसर मेसर-पुं० । पक्षिविशेषे, प्रश्ष० १ आश्र० द्वार । जी० ।
मेह- मेघ -पुं० | पयोदे
म०। ज । श्रोघ्र०। ति०। दश० । प्रश्न० ; सेचन,सूत्र० १ श्र ० ४
अ०२५उ० | चतुःसप्ततितम ऋषभपुत्र,क़ल्प० ६ आधि० ७ क्षण।
सुरभेद,आा०क० १ अ० । राजगृह नगरे स्वनामख्याते ग्रहपतो, |
मेंहो रायगिहे यरे बहदं वासाई पयाता सिद्धा मघा राज
ग्रह वीरान्तिके प्रवज्य सिद्ध इति । अन्त० ४ वर्ग ५ श्र० । |
कलम्बुकायां सन्निवेशे ढौ श्रातरो मेघः, कालहस्ती च, |
आए० म० १ आ० । ( वीरशब्दे विहारावसलर कथां वच्यामि ) |
सुमतिपितरि, आब० १ अ० । आण० चू० । |
मेहकुमार-मेघकु मार -पुं० । पाश्चात्यभव हस्तिरूपे श्रेरिकपुत्रे, |
ही० ३ प्रका०।
, स्था० ४ ठा० ४ उ० | ज्ञा० | पिन | आ० |
सेणियस्स रन्नो धारणी नामं देवी होत्था ° जाव से-
णियस्स रन्नो इटा ०जाव विहरइ । ( सूत्र-८ ) तए शं
सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि छक्कट्ट-
कलट्ठमट्ठसंठियख श्रुग्गयपवरवरसा ल भ॑जिय उज़लमणिक--
णगरतणथूवियविडंकजालद्धचंद शिज्जृहकंतरकणयालिचं-
दसालियाविभत्तिकलिते सरसच्छधाञवलवष्परइए बा-
हिरओ दूमियघड् मट्टे अब्भितरओ पत्तसुविलिहियचित्तक-
म्मे णाणाविहपंचवष्ममणिरयणकुट्टिमतले पउमलयफुल्नब-
ब्विवरपुष्फजातिउन्लोयचित्तियतले वंद णवरकणगकलससु-
विशिम्मियपडिपुंजियसरसपउ मसोहंतदार भाए पयरगालं-
बंतमणिप्नत्तदामसुविरइयदारसोहे सुगंधवरकुसुममउयपम्ह-
लसयणोवयारे मणहिययानिव्युइयरे कप्मूरलवंगमलयच॑द -
नकालागुरुपवरकुदु सकतुरुक धूवडज्मतसुरभिमघमर्धतगंधु-
झुयाभिरामे सुगेधवरगंधिए गंधवद्टिभूते मणिकिरणपणा-
सियंधकारे किं बहुणा १,जुइ्गुणेहिं सुरवरधिमाणवेलंबरिय-
वरघरए तंसि तारिसगंसि सयशिज्जंमि सालिंगणवद्ठिए
उभओ बिव्वोयणे दुहओ उन्नए मज्केण य गभीरे गंगा-
पुलिणवालुयाउद्दालसालिसए उयचियखोमदुगुन्नपट्ठपडि-
च्छयणे . अत्थरयमलयनवयकुसत्त लिवसीहकेसरपच्चुत्थए
सुविरइ्यरयत्ताणे रत्तसुयसंबुए सुरम्मे आइणगरूयबूरण `
वर्णीयतुन्नफासे पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा
ओहीरमाणी २ एग महं सत्तुस्सेहं रययकूडसब्निह नहयलंसि
सोम्म सोम्मागारं लीलायंतं जमायमाणं मुहमतिगयं गयं
पासित्ता गं पडिवुद्धा । तते णं सा धारिणी देवी अयमेया-
स्व उरालं कल्लाणं सिव॑ धन्नं मग्नं सस्सिरीयं महासुमि-
णं पासित्ता णं पडिवुद्रा समाणी हट्टतुट्टा चित्तमाणंदिया
पीइमणा परमसोम्मणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया
धाराहयकलंबपुप्फगं पिव समृससियरोमक्रूवा तं सुमिणं
आगगेण्हइ २ त्ता सयणिज्ञाओ उद्रति २ त्ता पायपीढातो
पच।रुटइ पचारुहइत्ता अ्रतुरियमचवलमसंभताए अविल
बियाए रायहंसस रिसीए गतीए जेणामेव सेणिए राया तेणा-
मेव उवागच्छई उवागच्छहत्ता सेणियं रायं ताहिं इट्टाहिं कं-
ताहि पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्नाणाहिं
सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं हिययग मणिजा हिं
हिययपल्हायणिज्जाहिं मियमहुररिभियगभीरसस्सिरीयाहिं
गिराहिं सलवमाणी २ पडिबोहेइ, पडिबोहेत्ता सेणिएणं
रन्ना अव्भणुज्नाया समाणी णाणामणिकणगरयण कभरत्ति-
चित्तसि भद्दासणंसि निसीयति २ त्ता आसत्था वीसत्थासु
(0353 ) क
अशिवधानराजेन्द्रः |
_मेहकुमार _ 55
कड सिय राय॑ एवं वयासी-एवं खलु अं
देवाणुप्पि- |
या! अज्ञ तंसि तारिसगसि सयशिञज्जंसि सालिंगण- |
वद्धिए० जाव नियगवयणमडइवयंतं गये सुमिणे पासि-
त्ता णं पडिवृद्धा,
स्स० जाव सुमिणस्स के मने कल्ला फलवित्तिविसेसे
भविस्सति १ । ( घत्र-& )
ते एयस्स शं देवाणुप्पिया ! उराल- `
` धारणी नाम देवी होत्था ° जाव खणियस्स रज्नो इट्ठा० |
जाव विदरड ` इत्यत्र द्वियावच्छुन्दकरणादवं द्रषव्यम्-' खु-
कुमालपाणिपाया अदटीणपंचदियसरीरः
णाववेया माणशुम्माणपमाणखुज्ञाय्तव्यगखुन्दरगी ससि
साभाकारा कंता पियदंखणा खुरूवा करतलपारिमिर्तात-
चलियबलियमज्का ` करतलपरिमिता--मुष्ि्राद्यखिवली-
का-रेखात्रयापतोा बलितो-वलवान मध्या-मध्यभागा य~
स्याः सातथा, ` कामुहरयणिकरविमलपडपुन्नसामवय-
णा ` कौमुदीरजनीकरवत्-काक्तिकीचन्द्र इव विमल-प्र-
तिप सोम्यं च वदन यस्याः सा तथा
गेडलहा ` कुरडलाभ्यामुल्निखिता--चृष्टा गरडलेखा
कपालविरचितसगमदादिर्खा यस्याः स तथा 'सिगारागा-
रचास्वसा ` शङ्ग(रस्य--रसविशेषस्यागारमिवागारम् । अ
यवा--शङ्गारो-मरडनभूषणारोपः तत्प्रघानः श्राकारः आ-
कृतिस्याः सा तथा, चास्वैषा- नेपथ्यं यस्याः सा तथा
ततः कर्मधारयः । तथा
लाससललियसलावणिउणजुत्तावयारकुसला
चिता गतदहसितभणितर्विहतविलासा यस्याः सा तथा,
त्र विहित-चष्टिति, विलासा-नत्रचष्ठा, तथा सह ललि-
लक्खणवजणग- |
कुडलुज्लिहिय- '
सगयगयहसियभणियविदहियवि- |
` संगता उ- |
सन-प्रसन्नतया य सलापाः परस्परभाषणलत्तणास्तपु न- |
पुणा या सा तथा, युक्रा-संगता ये उपचारा-लोक-
व्यवहारास्तेषु-कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कमंधा
पसाइया ` चित्तप्रसादजानिका ` दरिसणिज्ञा ` यां
पश्यअच्षुन श्राम्यति, ` श्रभिरूवा ` मनानज्ञरूपा ` पडिरूवा
द्रष्टार द्रष्टार प्रति रूप यस्याः सा तथा ` सणियस्स रत्नों
इट्ठा' वल्लभा कान्ता काम्यत्वात् , प्रिया प्रेमविषयत्वात् , 'म-
सुन्ना' खन्दरत्वात् , ' नामघलज्ा ` नामधयवती प्रशस्तनाम-
श्रयवतीत्यथः, नाम. वा धाय-हदि धरणीयं यस्याः सा |
तथा, “ वेसासिया ` विश्वसनीयत्वात् ` सम्मया
तत्क- |
तकार्यस्य सम्मतत्वाहदुमता-- बहुशो बहुभ्यो वाउन्येभ्यः ? |
सकाशान्मता बहुमता, बहुमानपात्र वा, ' अणुमया
प्रियकरणस्यापि पश्चान्मता अनुमता ` भडकरंडगसमाणा `
श्राभरणकरणडकसमानोपादेयत्वात् ` तेज्लकेला-इव खुसंगोा-
9 सि |
विया ` तैलकेला-सौराषट्रप्रसिद्धो सृन्मयस्तेलस्य भाज- |
नविशेषः स च भङ्गभयाल्ञाञ्च ( ठन ) नभयाच्च सुष्ठु |
सगोप्यते एवं साऽपि तथाच्यते । 'चेलपेडा' इव 'खुसंपरिगि- |
दीया ` वखमञजृषवेत्य्ः, ' रयणकरंडगोवियसुसारविया `
सुसंरक्तितत्यर्थः , कुत इत्याद, * माणे सीय मा ण उ-
गहे मा रे दंसा मा णं मसगा मा रण बाला मा रोचोरामा णं
वाइयपित्तियलिमियसब्निवाइयविविहरोगायंका फुसंतु त्ति
कट सणिएणं रक्ना सद्धि विउलादं भागभागाई भुजमाणा
विहरति मा शब्दा निबंधाथों', से शाण ताक्यालङ्काराभरा
अथवा-' माणं
दभुजगाः, रोगः, कालसहाः, त्रातङ्काः-सद्योघातनः, इतिं
कट्ट-इंति कृत्वा इति हेतार्भागभागान-आतिशयवद्धा गानिति
* तए रा ` ति तता ऽनन्तर ` तसि तारिसर्यसि `
वच्यमाणगुणे तस्मिस्तादशक याट शपुपचितप॒ण्यस्कन्धा-
नामद्किनामुचितं 'वरघरए' त्ति संवन्धः, वासभवन इत्यथ
कर्थभूत--' षट्काणएकं ` गृहस्य वाद्यालन्दकं षड दारुकमिति
यदागम प्रसिद्ध, द्वारमित्यन्य स्तम्भावशषणपिदामित्यन्य, त-
था लघ्रा-मनाज्ञा.म्रणए्ा-मस्रणाः सास्थता--वाशश्सस्थानव* .
न्ता य स्तम्मास्तथा उद्गता-ऊध्व गता स्तम्भषु वा उद्धता-
व्यवस्थिताः स्तम्भाद्रताः प्रवराणां वराः--अवर वरा: अति-
प्रधाना याः शालभज्ञिकाः पुत्रिकाः, तथा उज्ज्वलानां मणी-
नां-चन्द्रकान्तादीनां कनकस्य रलानां-कर्केतनादौीनां यास्तू-
पिक्रा-शिखर, तथा विरङ्कः-कपातपाली वररिडकाऽयोव-
त्ती अस्तरविशषः,जाल-सच्दुद्रा गवात्तविशेषः, अद्ध चन्द्रः
अद्धचन्द्राकारं सापान निर्येहकं--द्वारपाश्वाथिनिगेतदारू ,
अन्तरम्-स्रस्तरविशष एव पानायान्तरामिति सत्रधारेयद् व्य
पदिश्यत नियूदकद्धयस्य यान्यन्तराणि तानि वा नियूहका-
न्तराणि कणकाली' अ्रस्तरविशषश्चन्द्रसालिका च-ग्रृहापरि-
शाला पतषां ग्रहांशानां या विभक्रिः-विभजनं विविक्ता त-
या कलितं-युक्घं यत्तत्तथा तस्मिन् . ` सर सच्छुवाडव डवसरडइ़
ए ` त्ति स्थाप्यम् , कैश्चित् पनरेवं सभावितमिदं * सरसच्छ-
धाऊवलवन्नरदृए ` ति तत्र सरसन अच्छेन घातृपलेन--
पाषाणधातुना गेरिकविशेषणत्यथः वर्णों रचितो यत्र तत्त-
था ` वाहरश्रा दमियघ्रट्टुमट्ट ' क्षि दूमित-धवलिते घृष्टे-
कोमलपाषाणादिना अत एव सष्र-'मखणं यत्तत्तथा तस्मिन्
तथा च्रभ्यन्तरतः प्रशस्त-स्वकीय २ कर्मव्यापत शुचि-प-
वित्र लिखितं चित्रकमे यन्न तत्तथा तस्मिन् , तथा नाना-
विधानां जातिभेदेन पञ्चवणांनां मणिरत्नानां सत्के कुट्टिम-
तलं मणिभूमिका यामस्तत्तथा तत्र , तथा पद्मे:--पद्माका-
रेरेवं लताभिरशाकलताभिः पद्मलताभिवी खृणालिकाभिः
पुप्पवन्नीभिः-पुष्पप्रधानाभिः पत्रवाल्ञाभेः तथा वराभिः पु-
ष्पज्ातिभः-मालतीप्रभरतिभिश्ित्रितमुज्ञाकतलम्- उपरित-
नभागा यास्मन् तत्तथा त्र, इह च प्राकृतत्वन ` उल्लायाच
ज्षियतले ` इव्येवं विपयर्यानर्देशा द्रव्य इति, अथवा-प-
झादि(भिरुज्नाकस्य चित्रित तलम्-श्रधाभागो यस्िन्निति,त- `
था बन्द्यन्त इति बन्दना-मङ्गल्याः ये वरकनकस्य कलशाः
सुष्ठु-' निम्मिय ' त्ति न्यस्ताः प्रतिपूजिताः-चन्दनादिचाचं
ताः सरसपद्माः-सरसमुखस्थगनकमलाः शोभमाना द्वार-
भागेषु यस्य पाठान्तरापत्ता चन्दनवरकनककलशेः सुन्यस्ते-
स्तथा प्रतिपजितेः-प आकूते: सरसपद्चैः शोभमाना द्वारभागा
यस्य तत्तथा तस्मिन् , तथा प्रतरकाणि-स्रणादिमया आआभ-
र्णावशेषास्तत्प्रधानेमेणिमुक्कानां दामभिः- स्रग्भिः खुष्ठ
विरचिता द्वारशोाभा यस्य तत्तथा तस्मिन्, तथा खुग-
न्धिवरकसुमेमृदुकस्य-- मृदोः पच्मलस्य च-पच्ष्मवतः
शयनस्य--तृल्यादिशयनीयस्य यः उपचारः पूजा उप-
चारा वा स विद्यत यस्मिन , मण इत्यस्य मत्वर्थीयत्वात्
तत् सुगन्धिवरकुखमसदुपदमलशयनीयापचारवत्त्च यद्
दयनिदुतिकर च--मनःस्वास्थ्यकरं तत्तथा सस्मिन्
तथा कूर्च लवज्ञानि च फलविशेषाः मलयचन्दनं च-पर्व
{त मनामात प्राऊकृतत्वात् , व्याला+-श्वाप-
त्ति यदिद
त त ~ गा न त
( ३८५ )
मेहकुमार
च श्रीखराड कालागुरुश्च रष्णागुरुः प्रवरकुन्दुरुक्क |
च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्क च--सिहकं धू-
पश्च-गन्धद्रव्यसयोगज इति उन्दः, एतेषां वा सवन्धी यो |
धूपः तस्य दह्यमानस्य सुरभियों मघमघायमानः-अतिशयवान् |
गन्ध उद्ृतः-उद्धूतः तेनाभिरामम्-अभिरमणीयं यत्तत्तथा |
तस्मिन् ,तथा सुष्ठु गन्धवराण-प्रधानचुणौनां गन्धे यस्मिन् |
अस्ति तत् सुगन्धवर गान्धकं तस्मिन् ,यथा गन्धवति: गन्घ-
द्व्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद् गुटिका गन्धवतिस्तद्धूते
सोरभ्यातिशयात्तत्कल्पे, तथा मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे,
कि बहना वर्णकेन १, वशीरूसर्वस्वमिदं -चत्या गुणश्च खुर- |
वरविमाने विडम्बयति-जयति, यद्धर्ग्रहकं तत्तथा तत्र तथा |
तस्मिन् तादशे शयनीये सहालिड्जन वत्त्यौ-शरी रप्रमा णो पधा-
नेन यत्तत्सालिङ्गनवर्सिक तत्र, ' उभओ विव्वोयणे त्ति' उभ- |
यतः उभो-शिरो5न््तपादान्तावाशित्य विव्वोयणे' त्ति उपधाने
यत्र तत्तथा तस्मिन् , 'दुहओ' त्ति उभयतः उन्नते मध्ये नत च
तज्ञम्नत्वाद्धभीरं च मदत्वान्नत गम्भीरम् , अथवा-मध्येन च |
भागेन तु गम्भीरे-अवनते गङ्गापुलिनवालुकायाः अवदातः-
अवदलन पादादिन्यासेऽधोगमनमिव्य्थः तन'सालिसए' त्ति
सदशक्मतिनस्रत्वायत्तत्तथा तत्र, दश्यत च हंसतूल्यादि-
स्वये न्याय इति । तथा "उयाचिय' त्ति परिकर्मित यत् क्षौमे-
दुकृले-कापासिकमतसीमय वा वस्त्र तस्य युगलापेक्षया यः |
पटः-पएकः शाटकः स प्रतिच्छादनम-आच्छादने यस्य तत्तथा
तत्र,तथा आआस्तरको मलको नवतः कुशक्ता लिम्बः स्िंहकेस-
रश्चेते श्रास्तर एविशषास्तेः प्रत्यवस्ततम्-आच्छादितं यत्तत्त- |
था, इह चास्तरकरो लोकप्रतीत एव मलककुशक्की तु रूढिग-
स्यो नवतस्तु ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यत , |
लिम्बो-बालारश्रस्याणायुक्ता रतिः सिंहकेसरो-जटिलकम्ब-
लः,तथा सुष्टु विरचितं खचि वा रचितं रजस्राणम्- आच्छा
दनविशेषो परिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथा तत्र, रक्कांश- |
कसचरत--मशकगरहाभिधानवखराचरत सुरम्ये तथा आजि- |
नकं-चर्ममयो वस्त्राविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो |
भवति,तथा रूते--कर्पासपक्ष्म, वृरो-वनस्पातिविशेषः नव- |
नीते--प्रक्षणम् एभिस्तुस्यः स्पशां यस्य , तूलं वा--श्रके- |
तले तत्र पत्ते एतपामिव स्पशां यस्य॒ तत्तथा तेत्र, पूवे- |
रात्रश्चासावपररात्रश्च पूवेरात्रापरपात्रः स एव काललक्ष-
शः समयः न तु सामाचारादिलक्षणः पूवरात्रापररात्रकाल- |
समयस्तज, मध्यरात्रे इत्यथः , इट चापत्वादेकरफलोपन |
पुव्वरत्तावरत्त ` त्युक्तम् , अपररात्रणब्दा वा ऽयामाति खुप्त-
जागरा--नातिसुप्ता नातिजाग्रती , अत एवाह ` ओहीर-
माणी २ ति वारं वारमीषजन्निद्रां गउछन्तीत्यथः , एक
महान्तं सप्तात्सेधमित्यादिविशेषणं मुखमतिगत गज दष्टा
रतिबुद्धेति यागः , तत्र सघोन्देधे सप्तसु-कुम्भादिषु |
स्थानेषृन्नते सप्तहस्तोछिछुत वा रयये ति" रूप्य 'नदयलांस
त्ति नमस्तलान्मुखमतिगतमिति योगः , 'वाचनान्तरे त्वव
दृश्यंत--' जाव सीदं खुविण पासित्ता ण पाडवुद्धा ` तत्र
याचत्करणादिदं द्रष्टव्यम्--"पक्तं च स॒ मर्तं पंडरं घ्व
लयं सेये एका यशब्द जथो पादानं चात्वन्तशुक्नताख्या पना थम
एतदेवोपमानेनाह--' संखंडलविमलद॒दिंघणगो र्दीर ( दिस-
ल ) फणरयणिकरपगासं ` शह्लकुलस्येव विमलद्ध्न इव |
घनगांत्ती रस्येव विमलफनस्यव रजनीकरस्थेव प्रकाशः--
६७
आाभधानराजन्द्र
प्रभा यस्य स तथा तम् , अथवा--' हाररजतखीरसागर-
दगरयमहासेलपंडरतररोरुर मरिज्जद्रिसणिजं ` दारादिभ्यः
पाण्डरतरो यः स तथा, इह च महाशेलो--महाहिमवान
तथा अरुः-विस्तीणैः रमणीयो--रम्योऽत एवं दशै-
नीय इति पदचतुष्टयस्य कमेधारया ऽतस्तम् , तथा * थिरल
टंपउद्गुपीव रखुसिलिट्ठविशिट्वी तक्खदाढा विडवियमुहे ` स्थि-
रो-अप्रकस्पों लष्ठी-मनाज्ञों प्रकोष्ठो कृष्पराप्रेतनभागौ य
स्य स॒ तथा,पीवराः-स्थूलाः सुन्छिष्टाः-अविसर्वरा विशिष्टा
मनोहरास्तीक्णा या दंष्ट्रास्तासिः छृत्वा--' विडंबिय ति
विचरत मुखे यस्य स तथा ततः क्मधारयस्तम् , तथा“ प-
रिकस्मियजच्चकम लको म लमाईय सोहंत लट्ठुजुट्ट। परिकार्मिम-
तं--कृतपरिकमो 'माइय' त्ति मात्रावान् परिमित इत्यर्थः,
शष प्रतीतम्, तथा “रतक्तुप्पलपत्तमडयखुकुमालतालुनिल्लालि-
यग्गजीह ` रक्कोत्पलपत्रमिव सखदुकेभ्यः खुकुमारमतिकोम-
ले तालु च निलाॉलिताग्रा-प्रसारिताग्रा जहा च यस्य स
तम्, तथा “ महुगुलियभिसतपिगलच्छ ' मधुगुटिकेव-क्षोद्र-
वत्तिरिव ` भिसत ` ति दीप्यमाने पिङ्गल कापिले श्रन्तिरी
यस्य स तथा तम्, तथा `मूसागयपवरकणयतावियश्रावत्ता-
येतवद्वतांडियचिमलखरिसनयणं ` मूषागतं- सन्मयभाजन-
विशषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमश्रिधमनात् * श्रावत्तायंत
त्ति श्रावत्त कुवत् तद्वत् तथा वृत्ते च तर्दित--वत्रस
विमले च सदश च-समान नयन यस्य स तथा तसम
श्च च ˆ वह्तट् ` इत्यतावदेव पुस्तक दृ्ण सभावनया
तु चृत्ततर्दिंत इति व्याख्यातमिति, पाठन्तरण तु--' बट्प-
डिपुप्तपसत्थानिद्धमहुगुलियपिगलच्छे ` स्फुखश्चाय पाटः, त
था * विसालपीवरभमरोरुपडिपुपश्मविमलखंध ` विशाले--
विस्तीणेः पीवरो--मांसलः ` अमरोरुः ' श्रमश--रोमाव-
त्ता उरवो-विस्तीणों यत्र स तथा परिपू्णौ विमलश्च
स्कन्धा यस्य स तथा तम् , अथवा--'पडपुरणखुजायसखंघ'
तथा “ मिदुविसद्खुहुमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकसरसडं "
श्रयो विशदा अविमूढाः सूक्ष्मा लक्तणप्रशस्ताः-प्रशस्तलत्त-
णा विस्तीणः कैसरसराः-स्कन्धकसरजटा यस्य स तथा
तम् , अथवा--* निम्मलवरकसरधरं ` तथा * ऊसियरुनि-
स्मियसुजायअप्फोडियलगूलं' उच्छितम-ऊद्ध नीतं खुनिर्मिते
सुष्ठ भङ्रतया न्यस्तं खुजात॑ सदृगुणोपपेततया आस्फोर्टि-
तं भुवि लाडन्गूल--पुच्छे यन स तथा ते सोम्यम् उपशान्तं
सम्याकारं--शान्ताक्ाति , ' लीलायंत ` ति लीलां कुचेन्तं
* जभायत ` ववज्ञम्भमाण शरीरचेष्टाविशर्ष विदधान
« गगणतलाओ आवयमाणं सीह श्रभिमुह मुहे पचि-
समाणं पासित्ता पडिबुद्ध ' त्ति 'अयमयारूवे ` ति हम
महास्वप्नामति सचन्ध पतदेव--वगितस्वरूपं रूष
यस्य स्वप्रस्य न काविकृतमनमधिकं वा स तथा तम् ,
उरालं ति ` उदार प्रधान कस्याण-कटयाणानां शुभसम्त
द्धवीवशेषासां कारणत्वात् कल्ये वा-नीरोागत्वमणति-गम-
यांति कलयाण तद्धतुत्वात् , शत्रम-उपद्रकापशमदेतुःवात्
धन्ये धनावहत्वात् ` मगल्यं ` मङ्गले दुरितोपशम साध-
त्वाल्सश्री कं-सशोभनामात ` समाण वक्त सता ह्रत्र
त्यथ तष्टा, अथवा-हष्रा दिंस्सना तुष्टा-तोषवती, 'चिक्त-
सा रद्य ` त्ति चित्तेनानन्दिना आनन्दिरं वा चित्तं यस्याः
सा चितानन्दिता, मकारः प्राक्रतत्वान . ध्यत्तिमनस्ि य-
६ ११
( ३८६ ) .* ||
भटकुमार अभनिधानराजन्द्रः। मेहकुमार
स्याः सा प्रीतिमनाः, * परमसामणस्सिया ' परमे सोमन- | लकारए शं तुमे देवी सुमिणे दिद्ढे, अत्थलाभो ते दे-
स्थं सजातं यस्याः सा परमसोमनस्यिता, हर्षवशन विस- |
पंद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सवाणि प्राय
एकार्थिकान्यतानि पदानि प्रमादप्रकषप्रतिपादनाथत्वात्
स्तुतिरूपत्वाच्च न दुष्टानि, श्राह च--** वक्ता दषभयाद-
प्रि-राक्तिप्तमनास्तथा स्तुर्वाच्नन्दन् । यत्पदमसकद् त्रयात् , |
१
तत्पुनरुक्त न दोषाय ॥ ६ ॥ " इति ` पच्चारुटइ ` त्ति श्रत्य-
वरादति, अत्वरितं मानसोत्खक्याभावनाचपले कायतः अ-
सश्रान्त्या (स्ख लन्त्या अविलम्बितया-अविच्छिज्नतया ` रा-
जहंससरिसी ए ' त्ति राजहंसगमनसदश्या गत्या ˆ ताहि '
तिया विशिष्टगुणाचेतास्ताभिर्गीभिरिति सम्बन्धः इष्टाभि
तस्य वज्ञभाभिः कान्ताभः--ञअभिलषिताभः सदेव तन
प्रियाभिः अदष्याभिः सर्वपामपि मनोज्ञांसः--मनारमाभ
मनःप्रियाभिश्चिन्तया ऽपि उदाराभिः--उदार नादवर्णाच्चा रा-
दियुक्लांभिः कटयाणाभिः सम्ाद्धकारिकाभ शिवाभः-
गीदोंघानपद्रतासिः घन्याभिः--घनलम्मिकाममङ्गट्यामः-
महुलसाध्वींभः सश्राक्ााभः अलङ्कारादशाभावाद्धः दद |
यगमनीयाभि
स्तथा ताभिः,
आह्लादजनकामिः ` मितमधुररिषभितगम्भीरसश्रीकाभिः '
मिताः-वरपदवाक्यापक्तया परिमिताः मधुराः-- स्वरतः
रिप्लिताः स्वर घ्रालनाप्रकारवलत्यः गम्मीराः-अथतः शब्दतश्च
सह ध्रिया-उक्रगुणलच्म्या यास्तास्तथा, ततः
कर्मघारयस्ततस्ताभिः गीभिः--र्वाग्भिः सलपन्ती-- पुन
पुनर्जल्पन्तीत्यथः, नानामणिकरनकरत्नानां भङ्गाः वाच्च
त्तिभिश्वित्न-विचित्र यत्तथा तत्र भद्रासन-सिदासन आ-
भ्चस्ता गातिजनितश्रमापगमात् , विश्वस्ता सक्ताभामावात् ,
अनत्सका वा ` खुहासणवरगय ` त्ति खुखन शुभ वा आख-
तरर गता--स्थिता या सा तथा, करतलाभ्यां पारग्रहातः-
ये या गच्छानत कामलत्वात् सखुचाचत्वाच्च
आत्तः करतलर्पार ग्रही तस्ते शिरस्यावर्त्त आवत्तैने-परि ग्र- |
मणं यस्य स तथा शिरसावत्ते इत्यक,शिरसा अप्राप्त इत्यन्य, |
तमञ्जलि मस्तक कृत्वा एवमवादीत--' कि मन्न ` इत्यादि,
का मन्य कः कल्याणफलव्रत्तिविशपा भविष्यति, इद म- |
नि- |
न्य वितकीर्थों निपातः, ' साच्च“ त्ति श्रुत्वा श्रवणत
शम्य-अयधयाय हश्टतुश यावद्धिसपदुदयः । तथा वाचनान्तरे
पुनरि राक्षीवरणक चदमुपलभ्यत--
हृदयप्रह्मादिकामिः--हृ दयप्रह्मादनीयामिः |
पदपश्चकस्य |
तन ण॑ सणिए राया धारिणीए देवीए अतिए एय- |
मद्रं सोचा निसम्म टट
रभिकुसमचचुमालइयतणुऊससियरोमकूवे तं सुमिणं उ -
ग्गिण्हह उग्गिण्टडत्ता इदं पविसति २ त्ता अप्पणो साभा-
विणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणणं तस्स सुमिणस्स अ-
त्थोग्गहं करति २ न्ता धारणि दर्वीं ताहि °जाव हिययप-
जाव हियये धाराहयनीवसु- |
ल्हायशिज्ाहिं मिउमहुररिभिय्गभीरसस्सिरियािं वग्गू- |
हिं अणुवहेमाणे एवं वयासी-उराले शं तुम देवाणु- |
प्पिए ! सुमिश दिद, कन्नलाणा णं तुमे दवाणुष्पिए ! सु-
मिशे दिद्र, सिव धनन मगल सस्सिरीए शं तुमे देवा- |
गुप्पिए ! सुमिणे दिदे, आरोग्गतुद्ेदीहाउयकल्लाण्मग- |
वाणुप्पिए !,पुत्तलाभो ते देवाण॒प्पिए !,रज़लाभो भोगसो-
क्वलाभो ते देवाणुप्पिए !, एवं खलु तुम दयाणुप्पिए /
नवर्टं मासाणं बहुपडिपुन्नाप्पं अद्धड्ममाण य राइदिः
याण विइकंताणं अम्हं कुलकउ कुलदीव कुलपन्वर्य कु
लवडिसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुक ..
णंदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धण- ४.
कर सुकुमालपाणिपायं ०जाव दारये पयाहिसि, से वि य-
णं दारए उम्मुकवालभावे विज्नयपरिणयमेत्ते जोव्वणंग-
मणुपत्त खरे वीरे विकते विच्छिन्नविपुलबलवाहणे
रज़वती राया भविस्सइ, तं उराले खं तुमे देवीए सु | ..
मिणे दि ०जाव आरोग्गतुट्टिदीहाउकल्लाणकारए शं ४
तुमे देवी ! सुमिणे दिद ति कटं भुज्जो २ अणुबुहेइ।
( सत्र-१० ) तते णं सा धारणी देवी सणिणएणं रना
एवं वुत्ता समाणी हड्डतुद्टा ०जाब हियया करतलपरि-
ग्गहियं ०जाव अजि कटु एवं वयासी- एवमेयं देवा ~
णुप्पिया ! तहमेयं अवितदहमयं असंदिद्धमयं इच्छियमेयं ५
देवाणुप्पिए ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमय सच्चे |
शं एसमट्टे जं शं तुज्फे वदह त्ति कइ त॑ सुमिणं सम्ब
पडिच्छह पडिच्छडता सेणिएणं रन्ना अन्भणुष्पाया स- |
माणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भदासणा-
ओ अब्भुद्ढेह अब्भ्रद्वेता जेव सए सयाणिज्जे तेणेव
उवागच्छह २ सा स्यसि सयणिज्जसि निर्सायइ नि-
सीयइत्ता एवं वदासी मा में से उत्तमे पहाणे मगल.
सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहमिहि त्ति कट देवयगु- ।
रुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुप्रिणजा- ।
गरि पडिजागरमाणी विहरइ। ( सत्र ११ )
* धाराहयनीयसुरभिकुसुमचुंचुमालइयतणुऊससियरोम-
क्वे ` त्ति तत्र नीपः--कदम्बः, धाराहतनीपुरभिकुखु- '
ममिव ` चचुमालदइय ' त्ति पुलांकिता तुर्यस्य स॒ तथा,
किमुक्के भवति ?-` उससिय' त्ति उच्छरसिता रोमक्पा-रोम- '
रन्ध्राणि यस्यस तथा, त स्वप्नमवगरह्णाति श्रथावग्रहतः |
ईहामनुप्रविशति--सदर्थपर्यालोचनलक्षणां ततः ' अप्पणो '
क्ति आत्मसंबन्धिना स्वाभाविकेन सहजन मतिपूर्वेण> |
आमिनिवाधिकप्रभवन_ बुद्धिज्ञानन-मतिविशेषभूतौत्पक्ति-
क्यादिवुद्धिरूपपरिच्छेदेन अथोबग्रह-स्वप्नफलनिश्चय क~ `
रोति, तता ऽवादीत्-* उरालण ` मित्यादि, श्रथलाभ-इ्या-
दिषु भविष्यतीति शपो दश्यः, पवमुपन्रहयन्-श्रजुमादयन्
` एव खलु ` त्ति एवरूपादुङ्कफलसाधनसमथात् स्वप्नात्
दारके प्रजनिष्यसीति सवन्धः , ' वहुपांडपुरणाणे ' ति श्र-
तिपूर्तीपु पष््याः सप्तम्यधःवात् श्रद्धमष्टम यषु तान्यद्धा- `
छ्मान तथु रात्रान्दवेषु अहारात्रष व्यातक्रान्तचु. कू | |
लकःवादीन्यकादश पदानि, तत्र कतुः-ाचद्ध ध्वज इत्यथ
|
मेहकुमार
कलहे ` कुः लक्रारणम् , एवे दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात्
पर्वतो ऽनभिभवनीय स्थिराश्रयसाधम्यात् अवतसः शखर
| तिकरः, क्वाचिद्दृक्षिकरामित्यपि दश्यते, वृत्तिश्च-निवाहः,न
रः पादपा व॒ृक्तः आश्रयणीयच्छायत्वात् विवद्धने विविधः
श्रकारेवृद्धिरेव तत्कर ` विरणयपरिणयमेत्ते ' तत्त विज्ञकः
परिणतमावश्च कलादष्विति गम्यत , तथा शूरो दानतोा$
॥ अगुपतनिवाहणता वा वीरः सग्रामतः विक्रान्तो भूमरड-
| लाक्रमणतः विस्तीणं विपुले अतिविस्तीणौ बलवाहन से- |
न्यगवादिक यस्यस तथा, राज्यपती राजा स्वतन्त्र इ-
| व्यथः । ` त ` मिति यस्मादेवं तस्मादुदारादिषविशेषणः स्व-
प्नः ' तुमे ` ति त्वया द्र इति निगमनम् । ` एवमत ` दि
ति राज्ञवचने प्रत्ययाविष्करणम् , एतदेव स्फुटयाति-'तहमे
ये ति तथैव तद्यथा भवन्तः प्रतिपादयान्ति , अनेना-
| न्वयतस्तद्धचनसत्यताक्ता ' आवतहमेये ` ति अनन व्यति-
| रेकभावतः “ असादद्धमय ` मिव्यनन संदेहाभावतः “ इ-
च्छ्य ` ति इष्टम-ईप्सितं वा * पडिच्छियं ` ति प्रती प्र
तीप्सित वा अभ्युपगतमित्यथैः, इण्प्रतीष्टम् ईप्सित--
श्रतीप्सितं वा धर्मद्यययागात् , अत्यन्तादरख्यापनाय चव-
निर्देशः , ` इति कटु ` त्ति इत भरित्वा ' उत्तम ` त्ति स्व-
| रूपतः * पहाण ` ति फलतः , एतदेवाह--' मंगल्ले ` त्ति
मङ्गल साधुः स्वप्न इति ` सुमिणजागरियं ` ति स्वप्न-
सेरक्षणाथ जागरिका तां ' प्रातिजाग्रति ` प्रतिविदधती।
तए शा सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोईबियपु-
रसि सद विड सद्ाविइत्ता एवं बदासी-खिप्पामव भो दवाणु
प्पिया ! बादिरियं उवद्भाणसालं अज्ञ सविमसं परमरम्मं
गंधोदगसित्तसुइयसं मजिओवलित्त पंचवनसरससुरभिमु-
क्रपुप्फपंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवरड-
ज्कतमघमघतगधृद्धयानभिराम सुगधवरग।धय गधवाइभूत
करेह य कारवेह य एवमाणत्तियं पदच्नप्पिणह , तते
शते कोइंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता स-
माणा हट्टतुद्रा० जाव पच्चप्पिणंति, तते णे सेणिए
राया कल्ल ॒पारप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमल-
कोमलुम्मीलियाम्मि अहापंडरे पभाए रत्तासोगपगास-
किसुयसुयमहगुजद्धरागवधु्जौवगपारावयचलणनयणपर -
हुयसुरत्तलोयणजासुयणकुसुमज्जलियज्जलण तवणि ज्ञक -
लसदिंगुलयनिगरस्वाइरंगरहतसस्सिरीए् दिवागर अह
कमण उदिए तस्स दिण ( कर ) करपरपरावयारपारद्ध-
म्मि अधयारे बालातवकुंकुमण खइयव्व जीवलोए लो-
यणविसआणुआसविगसंतविसदद सियम्मि लोए कमला-
गरसंडबोहए उद्ठियम्मि खरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे ते-
यसा जलंते सयणिज्ञाओ उद्भेति २ त्ता जणव अट्टण-
साला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अट्डशस।लं अणुपविसति
केतुरिव केतुरद्धतत्वात् लस्य कतुः कुलकेतुः, पाठान्तरेण |
| । उत्तमत्वात्ति लको -विशषकः भूषकत्वात् कीर्तिकरः-ख्या- |
| एनदकरा-द्राउ़करः यशः:सवादग्गामक्रासाद्धावशषस्तत्क- |
( ३८७ )
अआभधानराजर
| मेहकुमार
२ त्ताअशगवायामजोगवग्गणवामदहणमहछजुद्धकरणेहिं सं-
ते परिस्संते सयपागेहिं सहस्सपागेहि सुगधवरतल्लमादि -
एहिं पीणणिज्जेहिं दीवशणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिजेदिं
विम्हरणिज्जेहिं सच्विदियगायपल्हायणिज्जहिं अब्भंग्हिं
अब्भंगिए समाणे तेह्टचम्मंसि पडिपुष्पपाणिपायसुमाल-
कोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक््खेहिं पट्टेहि कुसलेहिं म-
हावीहिं निठणेहिं निठणसिप्पोवगतेहिं जियपरिस्समटिं
अब्भंगणपरिमदरणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं अट्विसुहाए
मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विहाएं संबाहणाए
संबाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्ृगसालाओं
पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता जणव मज्जणघरे तेणेव
उवागच्छह उवागच्छरत्ता मजणघरं अणुपविसति अणु-
पविसित्ता समत ( दरुत्त ) जालाभिरामे विचित्तमणिरय-
णकोट्टिमतले रमणिज्जे णहाणमडवसि णाणामणिरयण
भत्तिचित्तसि णहाणपीढंसि सुहानिसन्ने सुहोदगेहिं पुष्फोद-
एहिं गंधोद्हिं सुद्धादएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवर-
मज़णविहाीए मज्जिए तत्थ कोठयसएहिं बहुविहेहिं का-
रग्पवरमञ्जणावस।े पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहि -
यंग अहतसुमहग्धदूसरयणसुसंबुए सरससुरभिगोसीस
चंदणाणुलित्तगत्त सुडमालावन्नगविलवण अविद्धमणि-
सुवन कप्पियहारद्रहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्त-
सुकयसोह पिणद्धगेबिज्ज अरगुलज्जगललियगललियकया-
भरणे णाणामणिकडगतुडियथभियभुए अहियरूवसस्सि-
रीए कुडलुजोदयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकतर-
इयवच्छे पालवपलवमाणसुकयपडउत्तरिञज मुद्दियापिंगलं-
गुलीए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउ ण वियमि-
सिमिसंतविरइयसुसिलिड्रविसिट्टलट्टस ठियपसत्थआविद्धवी
रवलए कि बहुणा ?, कप्परुक्खए चव सुअलंकिय विभूसिए
नरिंदे सकोरिंटमछदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उभओ
चउचामरत्रालवीइयंगे मंगलजयसदकयालोए अणगगश-
नायग्दंड्णायगराइसरतलवरमाडबियक ड वियमतिमहामं-
तिगणगदोवारियअमचचेडपीढमदनगरणशिगम सेद्ठिसे णाव
सत्थवाहदूयसंधिवालसद्धि संपरिवुडे धवलमहामहनिग्ग-
ए विव्र गहगणदिप्पंतारेक्वतारागणाण मज्के ससि व्व
पियदंसण नरबई मज़णघराओं पडिनिक्खमाति पडिनि-
कमिता जशव बाहिरिया उवद्भाणसाला तेशव उबा-
गच्छड उवागच्छडता सीहासणवरगते पुरत्थाभिम॒ह स-
ब्िसनल्न । तते णंसे सणिण राया अप्पणो अदरसामंते
उत्तरपुराच्छम दिसिभागे अद्रमदासणाई सेयवत्थपन्चु-
त्थुयाति सिद्धन्थ्मगलोवय!रकतसंतिकम्माई रयावह् रया-
( ३८्८ )
सेहकुसार
आभिधानराजन्द्रः |
मेहकुमार
वित्ता णाणामणिरयणमंडिय अहियपेच्छणशिज्जरूतं मह- |
ग्घवरपट्ट णुग्गयं सण्हवहुभत्तिसयचित्तड्ाणं ईहामियठसभ- ।
तैरयणरमगर विहगवालगर्किनररुरुमरभ भचमर कुंजरवणलय- ।
पउमलयभत्तिचित्तं सुख चियव्रकणगपवरपरंतदे सभागं अ-
लिभितरियं जवणियं अंछावेइ अछावइत्ता अच्छरगम- |
उञ्रमसूरगउच्छहयं धवलवत्थपचत्थुयं विसिद्रं अगसु- |
हफासयं सुमउयं धारिणीए देवीणए भेदसणं रयावेइ
रयावेइत्ता कोईबियपुरिसे सदावेइ सदवित्ता एवं बदासी- ।
खिप्पामव मे देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपा- |
ए विविहसत्थकंमले समिणपरादण सदविड सदाविहत्ता
एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणह, तते णं ते कडबि- |
यपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट °जाव |
हियया करयलपरिग्गहियं द्सनह सिरसावत्तं मत्थए |
अंजलि कटु एवं देवो तह त्ति आणाए विणएण वयणं |
पडिसुर्णेति २ त्ता सेणियस्स रन्नो अंतियाओं पडिनि-
क्खमति पडिणिक्खमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मन्म
मज्मेणं जेव सुमिणपादगगिहाणि तेणेव उवागच्छे- |
ति उवागच्छित्ता सुमिणपादए सद्दवेति । तते श॒ते
सुमिणपाढगा सेणियस्स रहन्नो कोइंबियपुरिसेहिं सदा- |
विया समाणा हड्डठतुट्टा० जाव हियया एणहाया कयवलि-
कम्मा ०जाव पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकियस-
रीरा हरियालियसिद्धत्थयकयमुद्धाणा सएहिं सएहिं गि-
हेहिंतो पडिनिक्खमंति २ त्ता रायगिहस्स मज्क॑ मज्मेणं
जणेव मेणियस्स रन्नो भवणवर्डेसगढ़वारे तेणेव उवाग-
च्छति २ त्ता एगतओ मिलयंति २ त्ता सेणियस्स रन्नो
भवणवर्डेसगदुवारेणं अशुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव
बाहिरिया उबद्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव
उवागच्छति उवागन्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं ।
वद्धरवेति, सेणिएणं रन्ना अध्वियवंदियपूतियमाणियसे-
करारिया सम्माणिया समाणा पत्तेये २ पृव्वन्नत्थेसु भ-
दासणेसु निसीयंति, तते णं सेणिए राया जवणियंत- |
रियं धारणीं देवीं ठवेइ ठवेइत्ता पुष्फफलपडिपुष्पदत्थे प-
रेणं विणं ते सुमिणपादए एवं वदासी--एवं खलु
देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसयंसि
सयणिज्जसि ०जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं |
एयस्स णं देवाणुष्पिया ! उरालस्स ०जाव सस्सिरीयस्स
महासुमिणस्स के मन्न कल्नाणे फलवित्तिविसेसे भविस्स- |
ति। तते णं ते सुमिणपादगा मेणियस्स रन्न अ्रतिए एयम-
टं सोचा शिसम्म हट ° जाव हियया तं सुमिणं सम्म ओगि
एहं।त २ त्ता इटं रणुपविसतिरत्ता अन्नमन्नेणं सदि संचा-
लति संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लद्धऽदरा गहिय्दा पुच्छि-
यऽट्रा विणि च्छियऽटरा अभिगयड्ट्वा सेणियस्स रन्नो पुरश्रो
सुमिणसत्थाई उच्ारेमाणा २ एवं वदासी-एवं खलु अम्ह
सामी ! सुमिणसत्थंसि वायालीस सुमिणा तीस महासु-
मिणा वावत्तरं सव्यसमिण। दिद, तत्थ णं समीं ! अ-
रिहतमायरो वा चकवद्िमातरो वा अरहंतंसि वा चक्रव
` इसि वा गन्भं वकममाणंसि एणं तीसाए मदास॒मि-
शाणं इमे चोहस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्मंति, ते
जहा-“गयउसभसीहअभिसे-यदामससिदिणयर भयं कुंभ ।
पउमसरसागरविमा-णभवणरयणुच्चयसिहें च ॥ १ ॥ ”
वासुदेवमातरो वा वासुदेव॑सि गब्भ वकममाणंसि एएसिं-
चोदसण्हं महासुमिणाणं अज्नतरे चत्तारि महासुमिणे
पासित्ता शं पडिबुज्क॑ति , बलदेवमातरों वा बलदे-
वसि गब्म॑ वकममाणंसि एएसि चोइसणह महा-
सुमिखाणं अप्मतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं प-
डिबुज्कंति,मंडलियमायरों वा मंडलियंसि गब्भ वकममा-
शंसि एएसें चोहसणह महासुमिणाणं अन्नतरं एगं महा-
सुमिण पासित्ता णं पडिवुज्फति,इम यणं सामी? धा-
रणीए देवीए एगे महासुमिणे दिद तं उराले णं सामी !
धारणीए देवीए सुमिे दिद्ढे, जाव आरोग्गतुट्टिदीहा-
उकल्लाणमंगन्नकारए णं सामी ! धारिणीए देवीए
सुमिणे दिद, अत्थलाभो सामी ! सोक्छलाभोा
सामी ! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो रज्ञलाभो एवं
खलु सामी ! धारिणीदेवी शवण्टं मासा बहूपडिपुन्ना-
णं० जाव दारगं पयाहिसि,से वि य णं दारण उम्मुकबाल-
भावे विज्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते सरे वीरे विक॑-
ते विच्छिन्नविउलबलवाहण रजवती राया भविस्सह अण-
गारे वा भावियप्पा तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए
सुमिणे दिट्े, °जाव आरोग्गतुट्टि °जाव दिदे त्तिकइ झु-
जो २ अणुबूहेति । तते णं सेणिए राया तेसि सुमिण-
पादगाणं अंतिए एयमडं सोचा शिसम्म हट ०जाव हि-
यए करयल ° जाव एवं वदासी-णएवमेयं देवाणुष्पिया !
० जाव जननं तुञ्भे वदह त्तिकइ तं सुमिणं सम्म पडिच्छ-
ति २ त्ता ते सुमिणपाढण विपुलणं असणपाणखाइम-
साईइमेणं बत्थगंधमल्नलंकरेण य सकारेति सम्माणेति २
त्ता विपुलं जीविय।रिह पीतिदाणं दलयति २ त्ता पडि-
विसेजई । तते णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्श्ु-
| ति २ न्ता जेशेव धरिणी देवी तेणेव उवागच्छई उ-
वागच्छत्ता धारिणी दर्वीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणु-
प्पिए ! सुमिणरात्थंसि वाय/लीसं सुमिणा ०जाब ए-
( ३८६ )
सहकुमार [3.3
आभधानराजन्द्र। |
मेहकुमार
गे महासुमिणं ०जाव भुजो भुजो अणुवृहति, तते णं धारि
णी देवी साणियस्स रन्न अतिए एयमट्रं सोचा शिसम्म ह-
दर ०जाव हियया तं सुमिणं सम्मं पडिच्छति २ त्ता जे-
शेव सए वासरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता एहाया कय-
चलिकम्मा ०जाव विपुलां ०जाव विहरति । (सत्र-१२)
पच्चूल त्याद प्रत्यषक्राललत्तणा यः समय -अवसरः |
स तथा तत्र कःद्धाम्बकपुरुषान-आ दश का रण: सदहावद् त्त
शब्दं कराति शब्दयति 'उपस्थानशालाम्,आस्थानमरण्डपं ग-
न्धादकने ' त्यादि गन्धादकन सिक्ता शुचिका-पवित्रा संमार्जि-
ता कचवरापनयनेन उपलिप्ता छगणादिना या सा तथा ताम्,
इद् च विशेषणे गन्धादकसिक्कसमार्जितापलिक्तणचिकामि-
व्यवे श्यम् , सिक्ताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, तथा
पञ्चवणैः सरसः सुरभिश्च मुक्तः ज्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्तणोा यः
उपचारः पूजा तेन कलिता यासा तथा तां
व्यादि पूवैवत् , ` श्राणत्तिये पच्चप्पिण् ` क्ति आ-
ज्ञप्तिम--आदेश प्रत्यपेयत-रङूतां सतीं निवेदयत ,
कल्ल ` मित्यादि ' कल्ल ` मिति श्वः प्रादुः-प्राकाश्य ततः
प्रकाशप्रभातायां रजन्यां ` फुल्लात्पलकमलकोमलोन्मीलितं `
फुल्ले-विकासितं तच्च तदुत्पलं च पद्म फुल्लोत्पल तच्च कम- |
लश्च-हरिणविरापः फुल्लात्पलकमलो तयोः कोमलम्--अक-
ठोरमुन्मीलितं-दलानां नयनयोश्रोन्मीलने यस्मिस्तत्त था त-
स्मिन् , अथ रजनीविभातानन्तरं पाणड्रे-शुक्ले प्रभात -उपासि
“रनास(ग' त्यादि रक्राशाकस्य प्रकाशः प्रभा सच किंशुकं च
“काले ! |
पलाशपुष्पं शुकमुखे च गुज्ञा-फलविशेषाो रक्ककृष्णस्तदद्ध |
वन्धुजीवकं च--वन्धूकं पारापतः-पक्षिविशषः तच्चलननय-
न च परभ्रतः--कोकिलः तस्य खुरकं लोचने च जासुमिण'
इति जपा-वनस्पति विशेषाः तस्याः कुखुमे च ज्वलितज्वल- |
नश्च तपनीयकलशश्च दिङ्कुलको-वणेकविशषस्तन्निकरश्च- |
राशिरिति इन्दः, तत एतषां यद्रूपं ततोऽतिरेकण--च्राधि-
क्यन ` रेहंत ' त्ति शोभमाना खा--सकीया श्रीः-वरीलदमी-
यस्य स तथा तस्मिन् , ` दिवाकरे ` आदित्य श्रथ श्रनन्तर
क्रमेण-रजनीक्तयपारड़रभ्रभातकरणलत्तणन * उदिते ' उद्रते
* तस्स दिण (कर)करपरपरावयारपारद्धम्मि श्रधकारे `
तस्य दिवाकरस्य दिने दिवसे श्रधिकरणभूत दिनायवायः
करपरम्परायाः-किरणप्रवाहस्यावतारः श्रवतरणं तन प्रार-
ब्धम्-श्रारञ्धमभिभवितुमिति गम्यते, श्रपराद्धं वा विना-
शित दिनकर परम्परावतारप्रारन्ध तस्मिन् सति इह च त- |
स्येति सापत्तत्वेऽपि समासः, तथा दशनादन्धकार-तम.
सि तथा बालातप पव कुङ्कुम तेन खचिते इव जीवलोके स-
ति,तथा लोचनविषयस्य--ष्िगोचरस्य यः श्रणुयासो त्ति |
अनुकाशो विकाशः प्रसर इत्यथस्तेन विकसश्चासो वडमा- |
नो विशदश्च स्पष्टः स चासो दरिीतश्चति लोचनविषयानु-
काशविशद द् शितस्तस्मिन् , कस्मिन्नित्याद- लोके अयम-
त्ति |
भिप्रायः अन्धकारस्य कमण हानो लाचनविषयविकाशः क्र- |
मेणेव भवति स च विकसन्तं लोकं दशीयत्यव, श्न्धकार-
सद्भावे दृष्टरप्रसरण लोकस्य सकीशस्यव प्रतिभासनादिति,
तथा कमलाकरा हदादयस्तेषु खराडानि--नलिनीखराडानि |
तेषां बोधका यः तस्मिन् उत्थिते उदयानन्तरावस्थावात्त
ध्य
सरे' आदित्य किभूत ? सहस्मरश्मा तथा ` दिनकर ` दिन-
करणशील तेजसा ज्वलति सतीति । ` अट्टगालाल ` क्षिआ
इनशाला व्यायामशालेव्य्थः, अनकानि यानि व्यायामानि
योग्या च-- गुणनिका वलगन च-उल्ललने व्यामर्दन च-पर
स्परेण वाहाद्यङ्गमाटन मल्लयुद्ध च प्रतीत करणानि च बा-
हभङ्गविशषा मल्नशाखप्रसिद्धानि तेः श्रान्तः सामान्यन परि
श्रान्ता ऽङ्गपत्यङ्गापेत्तया सर्वतः शतकृत्वा यत्पक्क शतन चा
काषापणानां यत्पक्तं तच्छुतपक्रमवमितरदपि सुगन्धिवरते -
लादिभिरभ्यङ्केरिति योगः आदिशब्दात्--घृतकपूरपानी-
यादिग्रहः किम्भूतः ?-- प्रीणनीयेः ` रसरुधिरादिघा-
तुसमताकारिभिद्दी पनीयेः--अस्िजनने: दपैणीयेः बलकरेः
मदनीयेः--मन्म थबृंहणीयैम। सोपचयकारिभिः सर्वेन्द्रियगा-
अप्रह्मदनीयेः अशभ्यज्ञैः--स्नेहनेः अभ्य हर क्रियते यस्य सोऽ
भ्यक्षितः सन् , ततस्तैलचर्मणि-तैलाभ्यक्कस्य सवाधना-
करणाय यञ्चभे तत्तेलचर्म तस्मिन् सवादते ` समाणे ` त्ति
योगः कैरित्याह ?-पुरुषेः, कथम्भूतेः ?-प्रतिपूर्णानां पाणिपा-
दानां खुकुमालकोमलानि आतिको मलानि तलानि-अधोभागा
यषां ते तथा तैः छेकेः श्रवस्तरजञ द्धि लप्ततिकलापणिडतेरिति
च वृद्धाः, दक्तैः-का्याणामविलम्वितकारिभिः प्रठेः-वाग्मि-
भिरिति वृद्धव्याख्या, अथवा--प्रष्ठ:-अग्रगामिमिः कुशलः-
साधुभिः संबाधनाकर्मणि मेघाविभिः--अप्वेविज्ञानग्रहण-
शक्किनिष्टेः निपुणेः-क्रीडाकुशलॉनिपुणाशिल्पोपगतेः--निपुणा-
नि-सक्तमाणि यानि शिट्पानि-श्रङ्गमर्द॑नादीनि तान्युपगता-
नि-श्रधिगतानि यैस्ते तथा तेजितपरिश्रमः, व्याख्यान्तरं त्
छेकेः-प्रयोगज्षैदेक्तेः--शी घ्रकारिनिः ` पत्तद्वेहि' ति प्राप्तार्थर-
धिङ्तकर्मणि निष्ठां गतेः कुशलैः--आलाचितकारिभिः म-
धाविभिः सकृच्छुतदृष्टकर्मज्षे निपुणः--उपायारम्भिभि
निपुणशिल्पोपगतेः--सृच्मशिरपसमन्वितेरिति, अभ्यज्ञनप-
रिमदेनोद्वलनानां करणे ये गुणास्तषु निमातेः, अस्थ्नां खु-
खटेतुत्वादस्थिखुखा तया सवाहनये ` ति विश्रामणया अ-
पगतपरिश्रमः ' समतजालाभिरामे ` त्ति समन्तात्--सवेता
जालकैबिंचिछुत्तिभिः द्रवद् गृहावयवविशेषरभिरामो--र
म्यो यः स्नानमरडपः स तथा, पाठान्तरें--' समत्तजाला-
भिरामे' त्ति तत्र समस्तेजीलकेरभिरामो यः स तथा, पाठा-
न्तरेण-* समुत्तजालाभिरामे ` सह मुक्ताजालेय वर्तेत 4-
भिरामश्च स तथा तत्र, शभोदकेः-पवित्रस्थानाहतेः गन्धा-
दकः--श्रीखरडादिमिश्चः पुष्पादकेः--पुष्परसमि भ्रेः शद्धाद-
कैश्च स्वाभाविकरैः कथ मज्जित इत्याह--' तत्र ` स्नानावस-
रे यानि कोतुकशतानि रक्षादीनि तैः * पदमल ' व्यादि पचम
ला-पदमवती श्रत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिका-
कथघायरक्ता शाटिका तया लूषितमङ्गं यस्य स तथा, श्रहत
मलमपिकादिभिरनुपद्रत प्रत्यग्रमित्यथः, सुमहा दृष्य-
रत्न-प्रधानवसत्रं तेन सुसवुतः-परिगतस्तद्वा खुष्ड् संन्रत-प-
रिहतं यन स तथा, शुचिनी--पएवित्रे माला च-पष्पमाला
वशकविलपने च-मणडनकारि कुङ्कमादि विलेपनं यस्य स
तथा, आविद्धानि-परिहितानि मणिसुवणीनि येन स तथा,
करटिपतो- विन्यस्ता हारः-अप्टाद शर्सारिकः अरद्ध हा रो--नव-
सरिकः त्रिसरिक च प्रतीतमेव यस्य स तथा, प्रालम्बो-झु-
म्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिसृत्रण--कख्धाभर-
रविशघण सुष्ठु कृता शाभा यस्य स तथा, ततः पदत्रयस्य
(३६० )
मटकुमार
आंभधानराजन्द्र; |
मधारयः. अथवा-काटपतदारादिभिः सुकृता शाभा यस्य |
स तथा, तथा पिनद्धानि-परिहितानि ग्रवयकाङ्कुलीयक्रान |
यन स तथा, तथा ललिताहुक श्रन्यान्याप लालतानक्ता
नि-न्यस्तानि आभरणाणि यस्यस तथा, ततः पदद्वयस्य
मैधारयः, तथा नानामणीनां कटकर्त्राटकेः-हस्तबाहा-
भरणविशेषवहत्वात् स्तम्भिताचिव स्ताम्भता भुजा यस्य
स तथा, अधिकरूपण सश्रीकः-सशाभायः स तथा, कु-
र्डलाद्यातिताननः मुकुटदीम्ताशरस्कः हारणावस्तृतम्-ग्रा-
च्छादित तनव सुप्ठु क्ररातिकं वन्तः-उरा यस्यासा हारा-
वस्तृतसुक्रतरतिकवक्ता
द्मङ्कुल्याभरणांन ताभ
यस्य स तथा,
कृत्त पटेनात्तसीयम्--उत्तरासङ्गा यन स तथा, नानाम-
पङ्कलाः-कापला
मुद्धिकापिङ्गलाङ्कलीकः-मुद्रकाः- |
अङ्कलया |
प्रलम्बन-- द्रण प्रलम्वमानन च सुष्ठु |
णिकनकरत्नर्विमलानि महाहाणि-- महार्घाणि निपुन शि-
^~ ~ क ^£ 4 $
ल्पना ` उविय ` त्ति परिकर्मितानि ` मिसिमिसंत
त्ति दीप्यमानानि यानि विरचितानि निर्मितानि सुश्लि-
श्ानि खुगन्धीनि विशिष्टानि विशेषवन्त्यन्यभ्यो लष्रानि-
मनाहराणि संस्थितानि प्रशस्तानि च आविद्धानि-परि-
दितानि वीरवलयानि यन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चि-
दन्यो ऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसो- मां विजित्य मो-
चयत्वतानि वलयानीति स्पद्धंयन् यानि परिदधाति तानि
वीरवलयानीत्युच्यन्त , कि बहुना ? , वर्णितेनाति शषः
कल्पवृक्ष इव सुप्ठ अलङ्ता वन्राप्रतश्च फलपुभ्पाद्- |
भिः कछ्पचृक्ता राजा तु मुकुटादिभिरलङ्कता विभूापितस्तु
वस्थादिभिरिति, सह काररटकप्रधानमाल्यदामयि्यच्छुत्र
तन घियमाणन, कोरण्टकः-पुष्पजातिः, तत्पुष्पाणि
मालान्तषु शाभाथ दोयन्त, मालाय हितानि मास्या-
न-- पुष्पाणि दामानि-माला इति, चतुणा चामराणां प्र-
कीरकानां वालैर्वाजितमङ्गं यस्यति वाक्यम् , मङ्गलभूता
जयशब्दः कृत श्रालाक-दशन लाकन यस्य स तथा ,
तथा अनके य गणनायकाः--प्रकूतिमहत्तरा दराडनायका
तन्वपाला राजाना-मारडलिकाः ईश्वराः--युवराजाना म-
तान्तरणाणिमायश्वययुक्राः तलवबराः-परितुष्टनरपतिप्रद्-
त्तपट्टवन्धविभूषिताः राजस्थानीयाः माडम्बिकाः-छिन्नम-
डम्बाधिपाः कोंटुम्विकाः--कतपयकुटुम्बप्रभवो 5बलगकाः
मन्त्रिणः-प्रतीताः मंहामन्त्रणो-मन्त्रिमएडलप्रधानाः ह-
स्तिसाधनापरिका इति बद्धाः, गणक्रा-गणितज्ञाः
गारिका इति बद्धाः दोवारिकाः-प्रतीहाराः राजद्वारिकावा
अमात्या-राज्याधिष्ठाय करा: चटाः-पादमूलिकाः पीठमदा-
आस्थान आसनासीनसवका वयस्या इत्यथः '
नगरवासिघ्रकृतया निगमाः-कारणिकाः अ्रष्ठिन:-श्रीदव-
ताध्यासिनसोवरपट्विभूपितात्तमाङ्गाः सनापतयः-नृपाति-
निरूपिताश्चनुरद्गनन्यनायकाः साथवाहाः-सार्थनायका
ताः-श्रन्यपां गत्वा राजादशानचदकाः सन्धिपालाः-रास्य-
सान्ध्रत्तकराः णां इन्द्रः ततस्तेः, इह त॒नीयावदवचन-
लापा द्रव्य, साद्ध-सह, न कवले तन्सहितत्वमवापि तु
: सामान-समन्तात् पारच्रतः-पारिकरित इति, नरपति-
मंजनग्रहात्पातानिष्क्रामतीति सम्बन्धः, किभृतः ? प्रिय
दशनः, क इव ?-धवलमहामघ्रानिगत इतर शह , तथा
भारडा- |
नगर › |
मटकुमार
ससि व्व ` त्ति वत्करणस्यान्यत्र सवन्धस्ततो ग्रहगणदी-
प्यमानक्ऋरक्ततारागणानां मध्य इव वत्तमान इति । सि-
द्वाथकप्रधाना या मङ्गलोपचारस्तेन कतं शान्तिकर्म विध्नो-
पशमकम यप तानि तथा । ` णाणामणी ` त्यादि यवनिका-
माच्छादयतीति सचन्धः, अधिकं व्रत्षणीय रूप यस्यां रू-
पाणिवा यस्यां सा तथा ताम् , महार्घ चासा वरपत्तन-
वरवस्त्रोत्पत्तिस्थान उद्रता च-व्यृता तां श्लच्णानि बहु-
भक्गिशतानि यानि चित्राणि तषां स्थान , तदवाह-इंहा-
मगाः वृकाः ऋषभाः- वृषभाः, तुरगनरमकरविहगाः प्र-
तीताः “व्यालाः-श्वापदमुजगाः किन्नरा-व्यन्तरविशषाः रू-
रवो--म्ुगविशेषाः सरभा--आटब्याः महाकायपशवः प-
राशरति पयायाः चमरा--आटबव्या गावः कुञ्जरा-दन्ति-
नः वनलता--अशोकादिलताः पद्मलताः--पद्धिन्यः एतासां
यका भक्कयो विच्ित्तयस्ताभिश्चित्रा प्र सा तथा तां,
सुष्ठु खचिता मण्डिता वरकनकन प्रवरपयेन्तानाम्-च्र-
अलकर णर्वात्तलक्षणानां देशभागा अवयवा यस्यांसातथा
ताम् , आभ्यन्तरिकीम-आस्थानशालाया अभ्यन्तरभागव-
सिनी यवनिकां-कारडपटमअछावेइ' त्ति आयतां कारयति ,
आस्तरकेण प्रतीतेन मसुदुकमस्रकेण च प्रतीतनावस्तृतं
यत्तत्तथा , धवलवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम--आच्छादितं विशि-
छे--शोभनमकुस्य सुखः स्पर्शो यस्य तत्तथा , अष्टाहुम-
अष्टभदं दिव्योत्पातान्तरिक्तादिभेदं यन्महानिमित्त-शाख्र-
विशषः तस्य सूत्राथपाठाका ये ते तथा तान् “ विणयण
वयण पडिखुणति ` त्ति प्रतिश्णवन्ति--अभ्युपगच्छान्त व-
चने , विनयन किम्भूतनेत्याह-' एवं ` मिति ` यथैव यूयं
भणथ तथेव * देवा ` त्ति हेदेव ! "तहत्ति' त्ति- नान्यथा आ-
ज्ञया भवदादेशन करिष्याम इव्यवमभ्युपगमसूचकपदचतुष्ट-
यभणनरूपणति * जाव हियय त्ति ` * हरिसवसविसप्पमा-
णहियया, स्नानानन्तरं छत बलिकम येः स्वगरृहदेवतानां ते
तथा ` जाव पायच्छत्त ' त्षि 'कयकोडयमंगलपायच्छित्ता
तत्र कृतानि कोतुकमङ्गलान्यवति प्रायश्िंत्तानि दुःस्वप्ना-
दिविध्ाताथमवष्यकरणीयत्वायस्ते तथा, तत्र कोतुकानि-
मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु-सिद्धाथकद्ध्यक्ततदृवीङ्करा-
दीनि दरितालिका--दृवा सिद्धार्थका अक्तताश्च कृता मूद्धै-
नि यस्त तथा, कचित् सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगल-
मुद्धाणा ` ' एवं पाठः , स्वकेभ्य आत्मीयेभ्य इत्यथः | 'ज-
पएरे विजपण वद्धावेति जयेन विजयेन च वद्धस्व त्वमि-
त्याचक्षत इत्यर्थः , तत्र जयः-परैरनभिभूयमानता प्रता-
पवरुद्धिश्च विजयस्तु-परषामाभिभव इति , अर्चिताः--चर्चि-
ताश्चन्दनादिना बन्दिताः-सदगुणोत्कीतेनन पूजिताः-पुष्पे-
मानिता-दृष्टिप्रणामतः सत्कारिताः-फलवसखरादिदानतः स-
म्मानितास्तथाविधया प्रतिपत्या ` समाण ` त्ति सन्तः ,
` ्रषमरणण सद्धि ` ति अन्योन्येन सह इव्येवं ' संचा लें-
ति ` त्ति सचालयन्ति सचार यन्तीति पर्यालाचयन्तीत्यर्थः,
लब्धाथाः स्वतः प्ृष्ाथाः परस्परतः गरृहीताथीः पराभिप्रा-
यग्रहणतः तत एवं विनिश्चितार्थाः अत एव श्रमिगताथी
अवधारितार्था इव्यथः, * गब्भ वक्रममाणेसि ` त्ति गर्भे 'व्यु-
क्रामति ` उत्पद्यमाने , , अभिषेक इति--श्रियाः सबन्धी
विमान या दवलाकादवतरति तन्माता पश्यति, यस्त नरका-
दुदढत्यान्पद्यत तन्माता भवनभि{त चतुर्दशव स्वप्नाः, वि-
( ३६१
कि के
_ आभधानराजन्द्रः |
_मेहकुमार "अ 2032
मानभवनयारेकत रदशनादात । ` विरणायपरिणयमत्त
विज्ञातं-विज्ञानं परिणतमात्र यस्य स तथा क्वाचेद् 'विण्णय'
त्ति पाठः सच व्याख्यात एव , ' ज्ीवियारिह , ति आज-
न्म नवाहयाग्यम् |
तते णं तैसे धारि्णए देवीए दोसु मासेसु वीतिक्तेसु
ततिए मासे बड़ माणे तस्स गन्भस्स दोहलकालसमयामे
अयमयास्वे अकालमहसु दोहले पाउब्भवित्था-धन्नाओ
णे ताओ अम्मयाओ सपुत्नाओ णं ताओ अम्मयाओ
कयत्थाओ णे ताओ कयपुतन्नाओ कयलक्खणाओ कय-
विहवाओ सुलद्धे ण तासि माणुस्सए जम्मजीवियफले
जाओ श महेसु अब्भग्गतेसु अब्भुज्जुएसु अग्भुन्नतेसु
अब्भरुद्गिएस सगजिएसु सविज्जुएसु सफुसिएसु सथाणिएसु
धघतधेतरुप्पपट्अंकसंखचंदकुंदसा लिपिट्टरा सिसमप्पभेसु चि
उरहरियालभेयचंपगसणकोरंट्सारिसियपउमरयसमप्पभ सु
लक्खारससरसरत्तकिंसुयजासुमणरत्तवधु जीवगजा तिहिंगु -
लयसरसकुंकुमउरब्भससरुहिरइंद गोवगसमप्पभेस॒बरहि-
9
है मसहकेघार
गाओ नासाजीसासवायबोज्के चक्खुदरं वष्पष्टरिससं -
जुत्त हयलालपलवाईरेये धवलकणयखतचियंतकम्म॑ आ-
गासफलिहसरिसप्पभं असुर्य पवरपरिहियाओं दुगुल्लसु-
कुमालउत्तरिज्ञाओं सव्वोठयसुरभिकुसुमपवर मन्नसोभित-
सिराओ कालाग( गु )रुधूवधूवियाओ सिरिसमाणवेसाओं
सेयणयगेधहत्थिरयणं दुरूहाओ समाणीओ सकोरिंटम-
ल्लदामेणं छत्तेण धरिजमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलियवि-
मलदंडसंखकुंददगरयअमयमहियफेण पुंजसाब्निगासचउचा-
मरबालवी जितंगीओ सेणिएणं रना सद्भि हत्थिखंधव-
रगएणं पिट्ठओ समणुगच्छमाण ग्रो चाउरंगिणीए से-
णाए महता हयाणीएणं गयाणीएण रहाणीएशं पा-
यत्ताणीएणं सब्बड्डीए सव्बज्जुइएण ° जाव निग्धोसण।-
दियरवेण रायगिह नगरं सिघाडगतियचउकचचरचरम्पु-
हमहापहपहेस आसित्तसित्तसुचियसंमाज्ञ्रोवालित्तं ०जाव
सुगेधवरगधियं गंधबद्टी भूय॑ अवलोएमाणीओ नागरजणेणं
अभिणंदिज़ञमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मब्नल्लिगुच्छओ-
णनीलगुलियसुगचासपिच्छ॑मिगपत्तसासगनी लुप्पलनियर-
॥ गपत्तसासगन। प्प च्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सव्वओ सम॑ता
नवसिरीसकुसुमणवसदलसमप्पभेसु लचंजणभिगभयरिद्-
आहिंडिमार्णीओ २ दहल विशणियंति, तं जइ णं अहमवि
गभमरावलिगवलगुलियकज्लसमप्पमेमु फुरंतविज्जुतस-
गज़िएस वायवसविपुलगगणचवलपरिसक्िरस निम्मल- |
वरवारिधारापगलियपयंडमारुयसमाहयसमोत्थरतउवरिडउ- |
वरितुरियवासं पवासिएसु धारापहकरणिवायनिव्वाविय- |
मइणितले हरियगणकंचुए पटटवियपायवगणसु वद्ि-
वियाणेस पसरिएसु उन्नएस साभग्गमुवागएसु नगेसु न-
णसु वा वभारगिरिप्पवायतडकडगविगुकंसु उज्भरेसु तु-
रियपहावियपलोइफेणाउल सकलुस जलं वहंतास गिरि-
नदीस सज्जज्जुगनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएस उवव- |
णसु महरमियहद्रतुदर चिद्रियहरिसवसपग्रुककंठकेकारव॑ मु- |
यतेसु वराहेणेसु उउवसमयजणियतरुणसहय गिपणाच्च
महेसु अब्भुवगएसु ०जाव दोहलं विशिज्ञामि | (स्त्र -१३)
'दोहलो पाउब्भवित्थ' त्ति दोहदो-मनोरथः प्रादुभूलवान ,
तथादि-घनलब्धारो धन्यास्ता या अकालमघदाहदं विनय-
न्तीति योगः ' अम्मयाओ ' त्ति अम्वाः-पुत्रमातरः, सिय इ-
त्यश्रः.सपृणः-परिपृणीः श्रादयवस्तुभिः (सपुरयाः)छृता्थाः
-कत्रया जनाः कृतपुरायाः-जन्मान्तयोपात्तखकृताः कृतल-
त्णाः--कृतफलवच्ुरीरलत्तणाः कत विभवाः-कृतसफलस-
पदः सुलब्ध तासां मानुष्यकं--मनुष्यसवान्ध जन्मनि--भव
जीचितफल-जीवितव्यप्रया जने जन्मजीवितफल. सापत्तत्व-
ऽपिच समासः छान्दसत्वात् , या मधप श्रभ्यद्धतषु-श्रङ्कुर-
वदुत्पन्नष सत्सु, एव सर्वत्र सप्तमी याज्या, अभ्यद्यतेषु--
वद्धितुं, प्रवुत्तष अभ्य॒न्नतघु-गगनमराडलव्यापननोन्नतिम-
त्सु अभ्य॒त्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगषु सगर्जितेषु-मुक्क-
महाध्वनिषु सविद्युत्केषु प्रतीतं ' सपुसिएसु ` त्ति प्रव्ृत्तप्र-
तेसु नवसरमिसिलिंधकुड्यकंदलकलंबगंधद्ध रण मयंतेसु न
वरवणेस = ८१ न भ वषणावन्दुषु सस्तानतषु क्रतमन्दमन्द ध्या (^
प 9 भतसइुलस उद्ायतरत्श्द गवि | सरयागन या धातः-शाघता रूप्यपद्ा-.जतपन्रक् स तथा
यथावयकारुत्नावल।बतस ओणयतणमंडिएस द दुरपयं पि- | अङ्का--रत्नविशधः शह्नचन्द्रौ-प्रती तौ कुन्दः--पुष्पविशेष
एसु संपिडियद्रियभमरमहुकरिपहकरपरि लिंतमत्तछप्पयकु- शार्लिपिप्रराशिः-ब्रीहिा वशेषच्च णगपञ्ञ॒ णतत्समा प्रभा यषा
ते तथा तषु, शुक्कष्वित्यथः, तथा चिकुरा-रागद्रव्यविशप
एवं हरिताला-वणकद्रव्य भदस्तद्गुांटकाखरर्ड चम्पफसन-
कारण्टकसर्षपग्रह णात्तत्पुष्पाणि ग्रह्यन्त पद्मरज:-प्रतीत
तत्समप्रभेषु, बाचनान्तर-सनस्थान का श्चने सषपस्थान 'स-
रिसगो त्ति ` पख्यते, तत्र चिकुरादिभिः सदशाश्चते पद्मरजः
समप्रभाश्राति विग्रहो ऽतस्तचु पीतेप्वित्य थः.तथा लाक्षारसन
सरसन सरसरक्ककिशुकेन जपासुमनाभः रक्तन्चुजीवकन
रक्रबन्धुजावकं हि पश्चवर्ण भवतीति रक्कन्वन विशिष्यत जा-
तिहिड्ुलकन-वर्शकद्रब्यण, स कृतरिमाऽपि भवतीति जात्या
सुमासवले।लमधुरगुंजंतदेसभाएस उववणेख॒ परिसामिय- |
चेदसरगहगणपणट्नक्खत्ततारगपहे इंदाउहवबद्रविधपडंसि |
अब्रतले उड, णवल।गपंतिस।भतमह विदं कारंडगचक्रवाय
कलहंसउस्सुयकरे संपत्ते पाडसम्मि काले एहाया कयव- |
लिकम्मा कयकोउयमंगलप।यच्छिसाओं कि ते वरपा-
यपत्तण
यथमियभुयाओं कुंडलउज्जोवियाशणाओं रपणभूसियं -
उरमणिमहलहाररइयकडगखु इ यविचित्तवरवल- |
( ३६२ )
झ्शिधानराजन्द्रः
मसहकमार
मसहकुमार
विशेषितः, सरसकुङ्कमेन. नीरसे दि विवक्तितवर्णोपतं न
भवतीति सरसमुक्लं, तथा उरश्चः ऊरणः शशः--शशकस्त-
या रुधिरेण-रक्कन इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकाविशेषस्तेन च
समा प्रभा यषां ते तथा तेषु रक्रोप्ठित्यथेः, तथा बर्हिणो-
मयराः नीले-रलविशेषः ग़ुलिका-वर्णकदव्य शुकचाषयोः
पक्षिविशेषयोः पिचछु-पत्र भरङ्गः-कीटविशपस्तस्य पत्र-पत्तः
सासको-बीयकनामा दुद्धविशषः, अथवा-' साम त्ति ` पाटः
तत्र श्यामा-प्रियङ्कः नीलेःपलनिकरः-- प्रतीतः नवशिरीष- |
कुसुमानि च नवशादुल-परत्यग्रहरितम् एतत्समप्रभेषु नीलप्र- |
भेषु नीलवर्गष्वित्यशः, तथा जात्य-प्रधाने यदज्जन-सोवीरकं
भ्रक्ञभेदः--भ्रज्ञाभिधानः कीटविशेषः विदलिताङ्गारो वा- |
रिष्टकं--रत्नविशेषः, श्रमरावली--प्रतीता। गवलभुलिका-
महिषशज्ञगालिका कज़ल-मषी तत्समप्रभेषु कृष्णष्वित्यथ
स्फुराद्धयुत्काश्च सगाजताश्व ये तषु, तथा वातवशन वषुल |
गगन चपल यथा भवत्येव ` पारसाकरंसु
[सर पारप्वाप्क- |
तै शालं यषां ते तथा तषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः प्र- |
गलितः -त्तरितः प्रचरडमारुतसमादटतः सन् “ समोत्थरंत
त्त समवस्त्णंश्चध--मही पाटमाक्रामन् उपर्युपरि च सातव्यन |
त्वरितश्च- शीघ्रा यो वर्षो-जलसमूहः स तथा तं,
प्रचएपु--वाषतुमा रब्धषु मर्घाष्वाति प्रक्रमः, धाराणां ' पह-
करा ` त्ति निकरस्तस्य निपातः-पतने तन निवापितं-शीत
लाकृत यत्तत्तथा तस्मिन , निवापितशब्दाच्च सप्तम्येकवचन
लापा दृश्यः, कस्मिन्नित्याह-मेदिनीतल भूतल , तथा ह-
रितकानां-हस्वत्णानां या गणः स एव कञ्चुको यत्राउछा-
दकत्वात् तन्तथा तत्र
लापा दृश्यः , ततः पल्लवितषु पादपगरणषु तथा वल्लीविता-
नषु प्रखनपु-जातप्रसरप्वित्यथः , तथान्नतपु भूप्रदर्शात्व-
त गम्यत सामाग्यमुपगतपु अनवस्थितजलत्वनाकदमत्वात्
पाठान्तर नगु पत्रतषु नदेषु वा-हदषु तथा वभाराभ- |
धानस्य गरः य प्रपाततराः-भ्रगुतटाः करकाश्च-पर्वतेक-
देशास्तभ्या य विमुक्काः--प्रज्त्तास्ते तथा तेषु , केषु ?
उजञ्भरखु ` त्ति निज्भरेषु त्वरितप्रधावितेन यः 'पह्नोट्ट' त्ति
प्रवृत्त:--उत्पन्नः फनस्तन आकुल व्यात्म् । ' सकलुस ' ति
सकालुष्यं जले बहन्तीषु गिरिनदीषु सज्जोजुननीपकुटजा-
नां बृत्तविशषाणां यानि कन्दलानि-प्ररोहाः शिलन्धाश्च-
छुजकारि तः कलितानि यानि तानि तथा तेष उपवनेष
* पल्ल विय ` त्ति इह सप्रमीवहुवचन- |
तथा मघरासितन हृष्ठतुष्ठा-अतिहृष्टाश्वेष्टिताश्व कृतचेष्टा |
य त तथा तपु, इदं च च सप्तमीलापात् , हर्षवशात् भ्रमुक्को |
मुत्कलीकृतः करठा--गलो यस्मिन स तथा स चाउसो
ककारवश्चतं मुञ्चन्सु वर्दिणघु मयूरषु , तथा ऋतुवशन
कालनिशेषवलन या मदस्तन जनिते तरुणसहचरीभिः-यु-
वतिमयुगोभिः सद प्रगत प्रनत्तेने येषां ते तथा तेषु, बहि-
प्वित्यन्वयः , नवः सुरभिश्च यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलक-
दम्बलक्तणान। पुष्पाणां गन्धस्तन या घ्राणिः--तृिस्तां मु- |
अत्स गन्धात्कषता गवद्धानाष्वत्यश्ः उपवनष॒-भवनास-
जवनपु , तथा परन्रताना काकलाना यद्वबत-रवा 7राभितें- |
{र त्रालनाव्रत्तन सकुलान यान्यपवनान तान तथा तषु- |
> छा इन
त शाभमाना रक्रा इन्द्रगापकाः--कोटाविशपा
ककाना--चातकानां कास्ययप्रघधान वलापत च य <|
तानि तथा तषूपवनष्वित्यन्वयः , तथा अवनततठशणमाण्ड-
तानि यानि तानि तथा तषु, दर्दुराणां श्रकष्टं जल्पितं येषु-
तानि तथा तषु, सपिरिडता--मलिताः टता दर्पिताः
श्रमराणां मधुकरीणां च ' पहकर ` त्ति निकरा यषु तानि
त परिलिन्त ` त्ति परिलीयमानाः सुंस्छिष्यन्ता मत्ताः
षट्पदाः कुखुमासवलालाः--मकरन्दलम्पटाः मधुर-कलं
गुज्जन्तः--शब्दायमानाः देशभागषु यपां तानि तथा ततः
कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनषु , तथा परिश्यामिताः- कृ
ष्णीरूताः सान्द्रमघाच्छादनात् , पाठान्तरण-परिश्रामिताः
कृतप्रभा भ्रेशा चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन् परनष्ठा च न्तव
तारकप्रभा यास्मस्तत्तथा तस्मिन्नम्बरतने इति योगः ,
इन्द्रायुधलक्तषणा बद्ध इव वद्धः चिह्पटरो-ध्वजपटो यस्मि-
स्तत्तथा तत्राम्बरतल-- गगन उड्डीनबलाका पङ्ङ्रिशाभमान-
मेघब्रन्दे ऽम्बर्तले इति यागः , तथा कारगडकादीनां पत्ति-
णां मानससरागमनादि प्रन्यात्सुक्यकरे सप्राप्त-उक्कलक्तण-
यागन समागत प्रावृषि काल, किभूता ? ' अम्मयाओ ? ' इ-
त्याद-' रहायाद्या ` इत्यादि, कि त इति किमपरमित्यथ
वरा पादप्राप्तन पुरा माणिभेखला रल्नकाञ्ची हारश्च यासां
तास्तथा रचितानि-न्यस्तानि उचितानि-याग्यानि कटका-
नि प्रतीतानि खड्ककानि च-अङ्कलीयकान यासां तास्तथा
विचित्रवरवलयः स्तम्भिताविव स्तम्भिता भुजो यासां ता-
स्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । तथा "` कुडलोज्जाति-
तानना वरपायपत्तनउरर्माणमहलादाररइय उचियकडगसवु-
ड्यएगावलिकंठमुरयातिसरयवर वलयहमसूुत्त कुडलुज्जाति-
याणणाओ ” त्ति पाठान्तरं तत्र वरपादप्राप्तनू पुरमणिमेख-
लाहारास्तथा रचितान्युचितानि कटकानि च खुडकानि च
एकावली च-विचिज्रमाणिकृता णकसरिका कराटमुरजश्च-
श्राभरणविशषः त्रिसरक च वरवलयानि च हम सूचकं च-
सकलक यासां तास्तथा.तथा कुरडलाद्यातिताननास्ततो ब-
रपादधाप्तनू पुरादीनां कर्मधारयः रन्नविभूषताङ्ग्यः नासा-
निःश्वासवातनाद्यत यज्ञघुन्वात्त त्तथा चक्षुहरं टष्स्यात्तपक-
त्वात् , , अथवा--प्रच्छादनीयाह्नद्शनाअक्ु है रति धरति या
निवर्तयति यद्युवत्वात्तत्तथा, वर्णस्पर्शसंयुक्न वरोस्पर्शाति-
शायीत्यर्थः, हयलालाया-अश्वलालायाः सकाशात् * पेलव ?
त्ति पलवच्ेन म्र॒दुत्वलघुत्वलक्षणनातिरकः अतिरिक्वत्वं
यस्य तत् तथा, धवले च तत् कनकेन सवाचतं-मरिडतम-
न्तयोः--श्रञ्लयाः कर्म वानलक्तषण यस्य तत्तथा तर््चति
वाक्यम् . श्राकाशस्फरिकस्य सदशी प्रभाः यस्य धवलत्वा-
क्षत्तथा, अशुक-वस्त्राविशषः प्रवर्गामहान॒स्वारलापो दश्यः
परिहिताः-निवसिताः दुकूले च वस्त्रम अधवा-दुकूलो दुक्त-
विशषः तद्धल्कलाज्ञातं दुकूले वस्मविशष ण्व तत् खुकु-
मालमुत्तरीयम्-उर्परिकायाच्छादनभ् यासं तास्तथा, सर्व-
तेकस॒रभिकुसुमेः प्रवरेमाल्येश्व-ग्रथितकंससेः शाभितं शि-
रा यासां तास्तथा, पाठान्तर--' सवतुकसरभिक्खमः खुर-
चिता प्रलम्बमाना शाभमाना कान्ता विकसन्ती चित्रा
माला यासां तास्तथा, एवमन्यान्यपि पर्दान बहुवचना-
न्तानि सस्करणीयानि-इद वर्णक इहत्तरा वाचानाभदः,
तथा चन्द्रप्रभवेरवेट्र्याविमलदरडाः शहूकुल्द्दकरजों5स-
तमाथितफनपुञ्जसन्निकाशाश्च य चत्वारश्यामराः-चामराणि
तद्वालेर्वीजितमङ्गं यासां नास्ता, अयभमवारथों वाचनान्तर
४
५
न्यौ तै ञ्ज्ज
कमी, + जनन नी वो, आओ
शक
ति
मेहकुमार
इत्थमधीतः-* सेयवरचामरादि उद्धव्वमाणीहि २ सब्वि- |
इण ` त्ति छत्रादिराज़चिह्रूपया, इह यावत्करणादेव द्रएट- |
व्यम्-' सव्वज्जुइए ` सवद्यत्या-शआ्भरणादि सवन्धिन्या सर्व- |
युङ्त्या वा उचितणष्टवस्तुधररनालक्तणया ` सवेवलन ` सर्व- ,
सेन्यन ` सर्वसमुदायन ` पौरादिमीलनन ` सवोदरेण ` स-
वेःचितकत्यकरणरूपण सवविभूया--सर्वसपदा सर्व- |
विभूषया -समस्तशाभया सर्वसंभ्रमण-प्रमादकूतोन्खु+ ।
कयन सर्वपुष्पगन्धमार्यालङ्कारेण ` सर्वतूयैशब्दसंनिनादेन `
तूर्यशब्दानां मीलनन यः सगतो नितरां नादो-महान् घोषस्ते- |
नत्यर्थ:,अल्पष्वपि ऋद्ध्यादिषु सर्वशब्द्प्रवृत्तिदेण अत आह- |
"महया इड्डीए महया जुईए जुत्तीए वा महया बलेणं महया स
मुदएण महया वरतुडयजमगसमगप्पवाइणणे' 'यमकसमकं'
युगपत् ,एतदेव विशेषशनाह सख प्रणव प उह भेरि भल्लरिखर- |
मुदिदहुडकमुरवमुडगदुं दुहिनिग्धासनाइयरवणं , तत्र शङ्खा
दीनां नितरां घाषो निघोंषा-मटाप्रयत्नोात्पादितः शब्दाना
दित-ध्वनिमात्रमतद् दयलक्तणो यो रवः स तथा तन, 'सिं-
घाड़े ' त्यादि. सिद्घारकादीनामये विशष
जलजबीज फलविशषः तदाक्तिपथयुक्लं स्थान सिदट्दृगटकं
जिपथयुक्ल॑ स्थानं त्रिकं चतुष्पथयुक्क चतुष्कं त्रिपथमेदि
चत्वरं चतुमुखे-देवकुलादि महापथा राजमागः पन्थाः-पथि
मात्रम् , तथा आसिक्लं--गन्धोदकेनेषत्सिक्ल सक्दढा सि-
क्क, सिक्घं त्वन्यथा शुचिकं-पवित्र समार्जितम-अपहतक-
› सज्ञलाटक- |
चवरम् । उपलिप्त च गोमयादिना यक्तत्तथा यावत्करणा- |
दुपस्थानशालावरणकः पूर्वाक्त एव वाच्यः , एवभूतं नगर-
मवलाकयन्त्यो गुच्छा बन्ताकीप्रभ्रतीनां लताः सहकारा- |
दिलता ब्रत्ताः सहकाराद्यः गुटसा वशीप्रभ्रतयः वद्र
त्रपुष्याद्काः एतासां य गच्छाः पल्लवसमूढास्तेयत् ` ओ- ¦
च्छवियं ` ति च्रवच्छादितं वेभारगिरेर्य कटकाः--देशास्तेषां |
य पादाः अधा भागा स्तषा यन्मूल--समाप तत्तथा तत्सवतः
समन्तात् त्राहि डन्ति ` त्त आहिण्डन्ते, अनन चेवमुक्कव्य-
तिकरभाजां सामान्येन खीणां प्रशसाद्वारणात्माविषया 5काल-
मघदोहदा धारिरयाः प्रादुरभूदित्युक्क,वाचनानन््तरे तु-ओलो-
ए माणीओ २ आहिंडमाणीओ २ दोहले विशिति'विनयन्त्यप- |
नयन्तीत्यथेः, तं जति णे अहमवि मेहेखु अब्भुग्गएसु ०जाव |
दोहले विणेजामि ` विनयर्यामत्यथः , सगतश्चायं पाट इति ।
उक्कदाहदाप्राप्तों यत्तस्याः संपन्न तदाह--
तष्ट शंसा धारणी देवी तंसि दोहलंसि अव्रिणिजमा-
शंसि अमंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला अर्समाणियदोहला
सुका युक्खा णिम्मंसा ओलग्गा ओलुग्गसरीरा पमइल-
दुव्वला किलंता ओमंथियवयणनयणकमला पंडुइयमुही
करयलमलिय व्व चपगमालाणित्तेया दौणविवामवयणा
जहोचियपुप्फगंधमन्नालंकारहारं अशभिलसमाणी कीडा-
रमणकिरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा
भूमिगयदिद्वीया ओहयमणसंकप्पा ° जाव मरियायइ, तते
शं तीसे धारिणीए दवीए् अंगपडियारियाओं अब्भितरि-
याआ दासच।|डयाओआ्आ धारणा दवा ओ।लुग्गं ०जाव फ्रिया- |
१ शट्गाटक इति वाचस्पत्यनिधाने |
६ई
मयस्य अट्रस्स अणरिहे
„ ( ३६३ )
अभध्रानराजन
महकुमार
यमाणीं पासति पासित्ता एवं वदासी--किप्य तुमे देवा-
ुष्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा ०जाव क्रियायसि १ त-
ते ण॑ सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अब्भि-
तरियाहिं दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणी नो आदाति
णो य परियाणाति अढायमाणी अपरियाणमाणी तुसि-
णीया संचिट्ठति, तते णं॑ ताओ अंगपडियारियाओं अ-
ब्भितरियाओ दासचेडियाओ धारिणीं देवीं दोच्ं पि
तच पि एवं वयासी-किं णं तुमे देवाखुप्पिण ! ओ-
लुग्गा ओलुग्गसरीरा० जाव भियायसि ?, तते णं
सा धारिणी देवी ताहिं अगपडियारियाहिं अल्भितरियारि
दासचेडियाहिं दं पि तच पि एवं वृत्ता स-
माणी णो आदाति शो परियाणाति अणाढायमाणा
अपरियाणमाणा तुसिणीया संचिद्रति, तते णं ताओ
अंगपडियारियाओं दासचेडियाओ धारिणी देवीए अ-
णाढातिज्ञमाणीओ अपरिजाणिज्लमाणिओं तहेव संभ
ताओ समाणीओं धारि्ाए देवीए अंतियाओं पडिनि-
क्खमंति २ त्ताजणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छे-
ति २ त्ता करतलपरिग्गहिय °जाव कटं जएणं विज-
एणं वद्भावेति वद्धावइत्ता एवं वयासी-एवं खलु सा-
मी! कि षि अज धारिणी देवी ओलुग्गा ओलुग्गस-
रीरा °जाव अट्वज्काणोवगया भियायति, तते खसे से-
णिए राया तासि अगपादियारियाणं अतिए एयमटं सो-
चा शिसम्म तहव संभंते समाणे सिग्घं तुरियं चबलं
वेयं जवे धारिणी दवी तणेव उवागच्छह उवागच्छ
इत्ता धारिणीं दवीं ओलुग्ग ओलुग्गसरीरं ०जाव अट्ट -
ज्भाणोवगयं ियायमाणी पासइ पासित्ता एव वदासी -
किन्न॑ तुमे देवाणुष्पिए | ओलुग्गा आलुग्गसरीरा ०जाव
अटइज्काणोबगया मियायसि ?, तते णं सा धारिणी देवी
सेणिएणं रन्ना एवं वृत्ता समाणी नो आढाइ ०जाव तु-
सिणीया संचिद्रति, ततणं से सणिए राया धारिणी
दवीं दोचं पितच्चं पि एवं वदासी किन्न तुमे दवाणु-
प्विए ! ओलुग्गा °जाव मियायसि ?, तत णं सा धारिणी
देवी सेणिएणं रघ्पा दोचं पितचे पि एवं वुत्ता स-
माणी णो आहाति ण परिजाणाति तुसिणीया संचि-
टृ, तते ण॑ से सशिए राया धारिणी देवी सवहसाविय
कृरंड ८ त्ता एवं वयासी-किप्य तुमं देवाणुप्पिण ! अह-
सवणयाए ? ताणं तुमं ममं
यमयस्व मण।माणयियं दक्ख रहस्सीकरसि, तत
णंसा धारिणा देवी सिए रना सवहसाविया समा-
णी सेणिय गाय एवं वदासी णव खलु सामी ! मम
( ३६७ )
आभिधानराजन्द्र! |
महकुमार {8 ५
तस्स उरालस्स ०जाव महासु|्रणस्स तखट् मासास् ब
हुपाडपुत्राण अयमयारूव अकालमहसु दाहल पाउन्भू- |
९ धन्माआ ण ताआ अम्मयाआ कयत्थाआ ण ताआ |
अम्मयाओं ०जाव बेभारगिरिपायमूलं आहिडमाणीओ
दोहणे विशिति, तं जई शं अहमवि० जाव डोहलं विशि
ज्ञामि , ततश दहं सामी! अयमयास्वंसि अकालदा- |
हलंसि अविणिजमाणंसि आलुग्गा ° जाव अइज्माणो-
वगया भियायामि, एएण अहं कारणेण सामी ! आ-
लुग्गा ० जव अठज्काणावगया कयायाम, तत ण स,
मणिए राया धारिणाए देवीए अतिए एयमट्रं सोचा- |
शिसम्म धारिणीं दविं एवं वदासी- माश तुमं देवा-
णुष्पिए ! ओलुग्गा ०जाव भियायाहि, अहं शे तहा करि-
स्सामि जहा ण तुब्भ अयमयास्वस्स अकालदोहलस्स
मणोरहसपत्ती भविस्सइ तति कटर धारिणीं देवीं इट्टाहिं कं
ठाहिं पियाहि मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहिं समासासेइर |
तता जरेव बाहिरिया उवड्भाणसाला तेशामेव उवागच्छड |
उवागच्छइत्ता सीहासणवरगंत पुरत्थाभिप्रहे सब्रिसने धा-
रिणीए देवी एवं अक!लदाहलं बहूहिं आएहि य उवा- |
एडि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य परि- |
णामियाहि च चउव्विहाहिं बुद्धीहि अणुचितेमाणे २ तस्स
दोहलस्स आये वा उवायवा ठिईं वा उप्पत्ति वा अ- |
बिंदमारें ओहयमणसंकप्प ० जाव क्रियायति | ( खत्र-१४ ) |
तदाणंतरं अभए कुमारे एहात कयवलिकम्पे ०जाव स- ।
व्यालकारविभूसिए पाए वदते पहारेत्थगमणाएं, तत शं
से अभयकुमारे जणव सणिए राया तेणेव उवागच्छ उ-
वागच्छडता मणियं राय ज्राहयमणसंकप्पं ० ० जाव पासइ
२ त्ता अथ्मयारूत अब्भत्थिए चितिए मणोगते संकप्पे
समुप्पज़ित्था-अज्नया य मर्म सेणिए राया एज्जमाणं |
पासति पा।सइत्ता आढाति परिजाणति सकारेइ सम्माशइ ¦
आलवति सलवति अद्भासणशर्ण उवशिमंतेति मत्थयंसि
अग्घाति , इयाणि मर्म सेणिए राया णो आदाति णो
परियाणद णा सकारेइ णो सम्माणेह णो इट्ट
पियाहिं मणुजन्नाहिं ओरालाहि वग्गूहिं आलवति संलवति
नो अद्भासणर उवशिमंतेति णा मत्थयंसि अग्घाति य कि
पि आहयमणसंकप्प क्रियायति,तं भवियव्वं णं एत्थ का-
रणेणं,ते सेय खलु म मणियं राय एयमट्ट पुच्छित्तए, एवं
पपटेड २ त्ता जणामव सेणिए राया तेणामव उवागच्छई
२ ना करयलपरिग्गहियं मिरसावक्तं मत्थए अजलि कट्
हि कंताहिं
जण्ण विजएणं वद्ध्। वह वद्धावइत्ता एवं वयासी-तुब्भे |
श ताआ ! अन्नया ममं एज्जमार्ण
१-पुरतक्रान्तरे घर द्यि १३;
पामित्ता अढाह
_ महकुमार
यरिजाणह ° जाव मत्थयंसि अग्धायह अआसशेणं उवरि
मंतेह, इया ताओ ! तुब्भे ममं णो आढाह, ०जाव नो
आसणणं उवशिमंतेह कि पि ओहयमणसंकप्पा ०जाव
मियायह तं भवियव्वं ताओ ! एत्थ कारणेण, तओ तु-
ब्भे मम ताओ ! एयं कारणं अगृहेमाणा असंकेमाणा
आनण्हवमाणा अप्पच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं `
एयमट्रमाइक्खह, तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं ग-
मिस्सामि, तते ण॑ से सणिए राया अभएणं कुमारेशं
एवं वृत्ते समाणे अभयकुमारं एवं वदासी- एवं खलु षु-
त्ता ! तव चुन्नमाउयाएं धारिणीए देवीए तस्स गब्भस्स
दोसु मासेसु अइकंतेसु तइयमाणे बडमाणे दोहलकालस-
मयं/से अयमेयास्वे दोहले पाउब्भवित्था-धन्नाओ णं ता-
ओ अम्मयाओ तेव निरवसेसं भाणियव्वं °जाव विशि-
ति, तते शं अहं प्ता ! धारिणीए देर्वाए तस्स अकालदो-
हलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहिं ०जाव उप्पत्ति अविं ` । :
द माणे ओहयमणसंकप्पे ०जाव भियायामि, तुमं आगयं
पिन याणामि, तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ! ओहय
०जाव भियायामि,तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्न
अंतिए एयमट्ट सोचा णिसम्म हट °जाव हियए सेशियं
रायं एवं वदासी-मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा
०जाव भयाय, अद्य तहा करिस्सामि जहा णं मम चु-
ज्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवस्स अकालडाह-
लस्स मणारहसंपत्ती भविस्सइ त्ति कट सेणियं रायं ताहिं
इंट्ट।हिं कंताहिं जाव समासासेह, तत णं सेशिए राया
अभयेशं कुमारेण एवं वृत्ते समाणे हड्टतुड्टे जाव अभय-
कुमारं सकारेति समाणेति र त्ता पडिविसज्ञेति | (सत्र- १५)
तते णं स अभयकुमारे सकारियसम्माणिए पडिविसज्ञिए
समास सेणियस्स रन्नो अतियाओ पडिनिक्खमई २ त्ता
जणामव सए भवे तेणामव उवागच्छति २ न्ता
सीहासणे निसन्ने, तते श तस्स अभयकुमारस्स अ-
यमेयास्वे अन्भत्थिए ° जव समुप्पज़ित्था, णो खलु
सका माणुस्सएण उवाएणं मम चुछमाउयाए धारिणीए
देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्ति करेत्तए णन्नत्थ दिव्वे-
शं उवाएणं, अत्थि शं मज्क सोहम्मकप्पवासी पुच्वसं-
गतिए देवे महिड्ीए ° जाव महासोक्, तं सेय खलु
मम पोसहसालाए् पोसहियस्स बंभचारियस्स उम्मुकम-
णिसुवन्नस्स ववभयमालावन्नगविलवणस्स निक्खित्तस-
त्थमुसलस्म शगस्स अवीयस्स दब्भसंथारोबगयस्स अ-
ट्मभत्त परिगिशिहत्ता पुव्वसंगतियं देवे मणमि करेमा-
शस्म विहरित्तएू, तते णं एव्वसंगतिए दवे मम चुछमा-
रख: - तः
=>
त =-= ~ + 4
वौ = «
= +
न
(30७, )
मेहकऋुपार श;
उयाए धारिणीए दवीए अयमयास्वे अकालमरेसु डो-
हलं विणहिति, एवं संपति २ त्ता जव पोमहसाला
तेणामव उव।गच्छति २ त्ता पासहसालं पमज्जति २ न्ता
उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ २ तता उन्मसथारगं
पडिलेहेइ २ ता डब्भसंथारगं दुरूहड २ त्ता अट्टमभत्तं
परिगिण्टइ २ ना पोसहसालाए पोसदिए बंभयारी ० जाव
पुव्वसंगतियं दव मणसि करेमाणे २ चिद, तते शं
तस्स अभयकुमारस्स अड्टमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंग-
तिञ्रस्स देवस्स असणं चलति, तते णं पुव्वसंगतिए
आअभधानराजन्द्र; |
सोहम्मकप्पवासी देवे आसण चलिये पासति २ त्ता
ओहिं पठजति, तत शं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस् |
अयमयास्व अन्भत्थिए ० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु
मम पव्वसंगतिए अबृदीवे दीवे भारह वासे दाहिणडभरहे |
वासे रायगिहे नयर पासहसालाए पोसहिए अभए नामं
कुमारे अद्रमभत्तं परिगिरिदत्ता णं मम मणसि करेमाणे ,
२ चिट्ठति, तं सयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए- |
पाउन्भवित्तए, एवं संपेहेइ २ त्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसी- |
भाग अवकमति २ त्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति
२ त्ता संखज्जाई जोयणाई दंडं णिसिरति, तं जहा-रय-
शाणं १ वहराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसार-
गल्लाणं ५ हंसगव्भाण ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८
रसाणं ६अकाण १० अजणाणं ११ रयणांणं १२ जायरू-
वाणं १३ अजणपुलगाणं १४फलिहाणं १५ रिद्राणं १६,अ-
हाबायरे पोग्गले परिसाडडइ २ त्ता अहासुहमे पोग्गल परि-
गिणहइ२ त्ता अभयकृमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वरभवजणिय-
नेहपीइबहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपंडरियाओ रयणु
त्तमाओ धरणियलगमणतुरितसजणितगमणप्पयारो वाघु-
प्ि्तावमलकणगपयरगव डिंसगमउड॒कडाडोवदंसणिजो अ
शेगमणिकणगरतणपहकरपरिमंडितभत्तिचित्तविशिउत्तगम
णगजणियहरिसे पेंखोलमाणवरललितकुंडलुज़लियवयण-
गुणजनितसामस्व उदितो विव कोम्नुदीनिसाए सणिच्छरं-
गारउज्लियमञ्छभागत्थे णयणाणंदा सरयचदो दिव्यो-
सहिपज्जलुज्ञलयदं सणाभिरामो उउलच्छिसमत्तजायसोहे
पडटरगंधुदयाभिरामो मेरुरिव नगवरो विगुन्ियविचित्तवेसे
दीवसमुदाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्भं करिणं
वीडइवयमाणो उज्जोयतः पभाए विमलात जीवलोगं राय-
गिह परथरं च अभयस्य य तस्स पासं उवयःति दिव्वरूव-
जोइ- |
धारी । (मत्र-१६) तते णं से दवे ्रतलिक्वपडिवने दस- |
द्धवन्नाई सखिखि णियाई पवरवत्थाई परिदिए एको ताव एसो
गमो, अर्णोऽवि गमो-ताए उकिद्वाए तुरियाए चवलाए |
। मटक्मार
चडाए सीहाए उद्याए जतिणाए छेयाए दिव्वाए देव -
गतीए जणामेव जंबुद्दीवे दीवे भारह वासे जणामेव
दाहिणद्वभरहे रायगिहे नगरे पोसहसालाए अभण
कुमार तेणामेव उवागच्छह २ न्ता अतरिक्खपडिवन्ने दस-
द्वन्नाइईं सखिखिणियाईइं पवरवत्थाई परिहिए अभयं कु
मारं एवं वयासी- रहं दे ्राुप्पिया ! पृव्वसंगतिए सा-
हम्मकप्पवासी देवे महड्डिए जणं तुमं पोसहसालाए अद्र
मभत्ते परिगिरिहित्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिद्रमि
ते एस णं देवाणुप्पिया ! अहे इहं हव्वमागए, संदि-
साहि शं देवाणुष्पिया ! कि करेमि कि दलामि कि
पयच्छामि कि वा ते हियइच्छितं ? , तते शंस
अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवे अतलिक्खपडि-
वन्नं पासइ पासित्ता हड्तुद्टे पोसहं परेद २ त्ता करय-
ल ०अजलिं कटं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पि-
या { मम चन्नमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे
अकालडोहले पाउब्भूते-धन्नाओं ण॑ ताओ अम्मया-
ओ तहेव पुव्वगमेणं °जाव विणिज्ञामि, तष तुमं देवा-
णुप्पिया ! मम चल्लमाउयाए धारिशीए देवीए अय-
मेयास्वं अकालडाहलं विशेहि , तते णं से देवे अभ-
एणं कुमारेण एवं वुत्त समाणे हद्रतुदरे अभयकमारं एवं
वदासी तुमण्णं देहाणुप्पिया ! सुणिव्वुयविसत्थे अच्छा-
हि, अहण्णं तव चुल्लामाउयाए धारिणीए देवीए अ-
यमेयारूवं डोहलं विणेमीति कट अभयस्य कुमारस्स
अंतियाओ पडिणिक्खमति २ त्ता उत्तरपुरन्छिम णं वे-
भारपव्वए वेउव्वियसमग्घाएण समोहणति २ त्ता सं-
खेज़ाईं जोयणाई दण्डं निस्सरति ०जाव दोचं पि वेउ-
व्वियसमुग्घाएणं समोहणति २ त्ता खिप्पामेव सगज़ि-
यं सविज्जुयं सफुसियं तं पंचवन्नमेहणिणाओवसी-
दियं ॒दिव्वं पाउससिरिं विउव्वेह २ न्ता जेव अभण
कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २ त्ता अभयं कुमारं एवं व-
दासी एवं खलु देवाणुप्पिया मए तव पियद्रयाए स-
गज्जिया सफुसिया सविज्जुया दिव्वा पाउससिरी वि-
उव्विया, तं विणे शं दवाणुप्पिया ! तव चुल्ल-
माउया धारिणी देवी अयमेयारूवे अकालडोहलं, तत णं
से अभयकुमारे तस्स ॒पुव्वसगतियस्स देवस्स सोह-
म्मकप्पवासिस्स अंतिण एयमद्रु सोचा शिसम्म हद्र-
तद्र सयातो भवणाओ पडिशिक्खमति २ त्ता जणा-
मेव मणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ त्ता करयल०
अजलि कट्ठ एवं व्रदासी णवे खलु ताओ ! मम पु-
व्वसंगतिएण सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं जिष्पामव स
( ३६६ )
अ{भधानराजन्द्रः।
मेहकमार (
मेहकुमार
गज़िता सबिज्जुता पंचवन्नमहनिनाओवसोभिता दिव्या |
पाउससिरी विउव्विया, तं विशेड शं मम चुल्नलमाउया
धारिणी देवी अच्मालदोहल॑ । तत रण म सेणिए राया अ-
भयस्स कुमारस्स अंतिए एतमर्ई सोचा शिसम्म हड्डतुड्ढ ° |
कोझंबियपुरिसे सदाविति सदावेइत्ता एवं वदासी -खिप्या- |
मेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिह नयरं सिगाडगतियचड- |
कचचर० आसित्तसित्त ०जाव सुगंधवरगंधिय गंधवद्ठिभूय॑
करेह य कारविह य मम एतमाणित्तियं पत्॒प्पिणह,तते रस
कोडंबियपुरिसा ० जाब पच्चप्पिशंनि,तते श से सेणिए राया |
दों पि कोईबियपुरिस एवं वदासी-खिप्पामेव भे देवाणु-
प्पिया ! हयगयरहजाहपवरकलितं चाउरंगिणीं सेने सन्नाहेह |
सेयणयं च गेधहत्थि परिकप्पेह,ते वि तदेव ° जाव पचप्पिण-
ति, तते णे से सेणिए राया जणेव धारिणी देवी तेणामव
उवागच्छति २ त्ता धारिणीं दवी एवं वदासी-एवं खलु |
देवाणुष्पिए ! सगज्ञिया °जाव पाउससिरी पाउन्भूता |
तप तुमं देवाणुप्पिए ! एवं अकांलदाहल विशेहि । तते
शसाधारणी दवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी हद
तुदा जणामेव मज्जणधरे तणेव उवागच्छति २ त्ता मज़-
णधरे अणुपव्रिसति २ त्ताअंतो अतउरसि णहाता क
तबलिकम्मा कतकाउयमगलपायच्छित्ता किं ते वरपाय-
पत्तणउर ० जाव आगासफालियसमप्यभं असुयं नियत्था
सयणयं गधहल्थि दुरूढा समाणी अमयमहियकेणपुजस -
फिगासाहिं सेयचामरबालवीयणीहिं वीहज्जमाणी २ सप-
स्थिता, तत णे से सेणिए राया रहाए कयबलिकम्मे० `
जाव संस्मिरीए हत्थिखेधवरगए सकारंटमल्नदामेणं छत्तणं
धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणेणं धारिणीं देवीं |
पिहतो अणुगच्छति, तते णं सा धारिणी देवी सेणिणएशं |
गन्ना हत्थिखधवरगणएणं पिद्रृतो पिद्रृतो समणुगम्ममाण- |
मग्गा हयगयरहजाहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्वि |
संपरिवृडे महता भडचडगखंदपरिक्खित्ता सब्विड्डीए स- |
व्वजुइण ० जाव दुंदुभिनिग्धोसनादितरवेण रायागिहे नगर
सिगाडगतिगचउकचच्चर ° जाव महापहेसु नागरजणेणं
अभिनेदिज्जमाणा २ जणामेव वेभारगिरिपव्वए तेणामेव
उवागब्छति २ त्ता वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु
य उज्ञणसु य काणणसु य वशेसु य य वणसंडेसु य रुक्खेसु
य गुच्छसु य गुम्मेसुय लयासुय व्लीसु य कंद्रासुय
दरसु य चुण्दीसु य दहसु य कच्छेस य नदीसु य संगमेसु
य विवरतसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मज़्जमाणी
य पत्ताणि य पुप्फारि य फलाणि य पाणि य गि-
एहमाणी य माणमाणी य अग्घायमाणी य परिभुंजमाणी |
| गम्ममाणमग्गा हयगय ० जाव रहं जेणेव रायगिहे नगरे
तेणेय उवागच्छति २ त्ता रायगिहं नगरं मज्मं मज्छणं
से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छह
य॒ परिभाएमाणी य वेभारगिरिपायमूले दोहलं विशे-
माणी सव्वतो स्मता आहिंडति, तते णं धारिणी देवी
विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नदोहला जाया याभि
होत्था, तते णं से धारिणी देवी सेयणयगधदहरत्थि दुरूढ़ा
समाणी सेणिएणं हत्थिखधवरगणएणं पिद २ सम्मणु-
जेणमेव सए भवे तामेव उवागच्छति २ त्ता विउलांई
माणुस्साई भोगभोगाई ° जाव विहरति । (सूत्र- १७) तते शं
२ त्ता पुव्वसंगतियं देवं सकारेइ सम्माणेड २ त्ता पडि-
विसज्ञेति २ त्ता तते णं से देवे सगञ्जियं पंचवन्न मदो
वसोहियं दिवं पाउससिरिं पडिसाहरति २ त्ता जामेव
दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगते।( सृत्र-१८ ) तते
णंसा धारिणी देवी तसि अकालदाहलंमि विणीय।से
सम्माणियडाहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणइाए जयं
चिद्ति जयं आसयति जयं सुवति आहारं पि य णे आ-
हारेमाणी णाइतित्तं णातिकडयं णातिग्रविलं णातिमहुरं
जं तस्स गब्भस्स हियं भियं पत्थय देसे य काले य आ
हारं आहरिमाणी शाइचितं णाइसोगं णाइदष्पं णाइमाह
णाइमयं शाइपरित्तासं भोयणच्छायणगंधमन्नालंक रिहि
गव्भं तं सुहं सृहेणं परिवहति । ( खूत्र-१६ )
तप ण ' मित्यादि, ' अविशिज्ञमाणंसि ` त्ति दाद्दे श्रवि-
नीयमाने--अनपनी यमाने सति श्रलपराप्तदाहदा मघादीना-
मजातत्वातू-असंपूर्रादाहदा तषामजातत्वेनेवा सपुरत्वात्
अत पव श्रसन्मानितदोहदा तषामनञुभवनादिति, ततः
शुष्का मनस्तापन शोशणितशाषात् , ` भुक्ख ` त्ति बुभुक्षाक्रा-
न्तव अत एवं निमासा ' श्रोलुग्ग ` ति ञ्रवरुग्णा-जीरीव,
थमित्याह-' आलुग्ग ' ति श्रवरूग्णमिव-जोणमिव शरीरं
यस्याः सा तथा, अथवा-अवरूग्णा चतसा अवरूग्णशरीरा
तथेव प्रमलितदुवला--स्नानभाजनत्यागात् क्लान्ता-ग्लानी-
भूता ' ओमेथिय ` त्ति अधोमुर्खाकृतं वदनं च नयनकमले
च यया सा तथा, पाराडकितमुखी -दीनाम्यव विवर्ण वदनं
यस्याः सा तथा, कीडा-जलक्रीडादिका रमणमक्तादिभिः त-
त्क्रियां च परिहापयन्ती दीना दुःस्था दुःस्थे मनो यस्याः
सा तथा, यतो निरानन्दा उपहतो मनसः सकल्पः-युक्कायु-
क्रविवेचने यस्याः सा तथा, यावत्करणात् ' करतलपल्हत्थ-
मुरी अद्दज्फाणावगया भियायइ ' त्ति आत्तध्यानं ध्यायती-
ति, ' नो आढाइ ` त्ति नाद्रयत-नादर करोति नो परिजा-
नाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तत्वात्, ` सभंताउ ` त्ति आ-
कुली भूताः शीघ्रामित्यादीनि चत्वार्यका धिकानि अतिसंशभ्र-
मापदर्शनाथ ` जरेव ` व्यादि यत्र धारिणी देवी तव्रापाग-
च्छति समागत्य चावरूग्णादिविशषरणां धारणीं देवीं पश्य-
49 +~
जकन ~~ ~ ते.
मेहकुमार
( ३६७ )
ऋधिधानराजन्द्रः।
मेहकुमार
त्थगमणाण ` इत्येतदू-दश्यते, तत्र 'पहारेत्थ' संप्रधारितवा-
न-विकल्पितवानित्य थ: गमनाय-गमनार्थ-तथा ` तए रं से
सेणिए राया ज़णेव धारणी देवी तेणेव उवागच्छाति २ त्ता पा-
संइ त्ति ` पश्याति सामान्येन ततो ऽवरूग्णादिविशेषणां पश्य- |
तीति, ` दाच पि ' त्ति द्वितीयामपि वारामित्ति गम्यते, ` स-
चहसाविय ` त्ति शपथान्-देवगुरुद्राहिका भविष्यसि त्वे
यदि विकल्पे नाख्यासीत्यादिकान् वाक्यविशेषान् श्राविता |
श्रात्रणापलःस्भता शपथैवा श्रावता शपथश्ञावता शपथ-
शापिता वा तां करोति, "किर 'किश्च' मिति वा पाठो दे- |
वानुप्रिये ! एतस्याथैस्यानहैः भ्रावशतायां * मणोमाणसियं
ति मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्धतेते मानासिकं--दुः-
ख वचननाप्रकाशितत्वान्मनोमानसिकं रहस्यीकरोषि गो-
पयसीत्यथः ` तिण्ह ` मित्यादि तरिषु मासेषु ' बहुपडिपुन्ना
रो ' ति ईंषदुनेषु जत्तिहामि ` त्ति यतिष्ये कचित्करिष्यामि- |
इति पाठः, ` अयमेयारूवस्स ' त्ति श्रस्यैवरूपस्य ` मणोरह-
संपत्ति ' ति मनार थश्रधाना प्राप्ति था विचिन्तितेत्यर्थः,आ-
यै:--लाभैरीप्सिताथथहे तूनामुपायै:---अप्रतिह तलाभका र णैः
"आयं वा उवाय॑ वा ठिये वा--स्थिते वा क्रमे वा स्थिरहेतु-
दोहदानां चप्लिवाथैस्य पाठान्तर उत्पत्ति वा तस्येवेत्यथः,
'अविदमाणे क्षि अलभमानः अयमेया रूवे ति अयमेतदरपः आ-
ध्यात्मिकः आत्माश्रयः चिन्ततः-स्मरणरूपः प्रार्थितो-लब्चु-
माशसितः मनोगतः-अबहिः प्रकाशितः सकर्पा-विकल्पः '
"सपदेति' ति सप्रत्तत पयालाचयति 'ताश्रा त्ति हे तातेत्याम
न्जरसृम् प्य कारण तत अपध्यानद्त् दाद दापूमतलत्तणामात
भरावः,कारणमिति क्चिन्नाधीयत इति, एवं अगृहमाण' त्ति
श्रगोपायन्तः श्राकारसेवरेण अशङ्कमानाः-विवत्तितप्राप्तौ
संदेटमविदधतः अनिद्ववाना--अनपलपन्तः , किमुक्तं भ-
चति ?-अप्रच्छा दयन्तः यथाभूत-यथाच्रृत्तम् वितथ नत्व-
न्यथाभूतम् असदिग्धम्--श्रसदेदम् ' एयमट्ट ` ति प्रयोजन
दोददपूरणलक्तणमिति भावः ‹ श्रतगमणे गमिस्सामि ' त्ति |
पारगमन गमिष्यामीति, ' चुज्लमाउयाए ' त्ति लघुमातुः 'पुव्व
संगइय ' त्ति पृ्वै-पूर्काले सेगतिः-मित्रत्वं यन सद स पू-
वैखगतिकः मदरद्धंको विमानप्रिवारादिसपदुपेतत्वादयाव-
त्करणादिदं दृश्यम-महाद्युतिकः--शरीराभरणादिदीपियो-
गान्महालुभागो वेक्रियादिकरणशश्कियुक्कत्वात् मदायशाः-स-
स्कीत्तियोगान्मदावलः-पवैतायुत्पाटनसामध्योपितत्वात्, म- |
हासोख्यो विशिष्टउुखयोगादिति ` पोसहसालाए ` त्ति पो- |
षं पवैदिनाचुष्टानमुपवासादि तस्य शाला-ग्रहविशषः पो- |
घधशाला तस्या पाषाधकस्य-क्ृतोपवासादेः व्यपगतमाला
वरीकविलपनस्य » वणक-चन्द्न , तथा ननाक्षप्त-ावमुक्त
शस्त्र-चछु रिकादि मुशले च येन स तथा तस्य एकस्य आ- |
न्तरव्यक्करागादिसदहायवियोगात् , श्रद्धितीयस्य तथाविध
पदात्यादिसहायविरहात् , अट्टुमभत्तं ' ति समयभाषयो
पवासत्रयमुच्यते * अट्टमभत्ते परिणममाणे ` त्ति पूर्यमाणे प
रिपृरेप्राय इत्यथः, 'वेउव्वियसमुग्धाएण' मित्यादि, वक्रिय- |
समुद्घाता वाक्रयकरणाथा जावव्यापारावशषः, तन समुप
हन्यत-समुपहता भवात समरुपदान्त वा प्षपात प्रदेशानि-
ति गम्यते , व्यापाराविशेषपरिणतों भवतीति भावः, तत्स्व- |
रूपमेवाह-“ संखेज्ञाई ` इत्यादि , दणड इव दराडः-ऊर्द्धांघ
भ्रायतः शरारवाहस्या जावप्दशक्रमयुद्लसमृहः, तत्र च
१००
गविधपुद्वलानादत्ते इति दशयन्नाद-तद्यथा-रल्ञानां-कर्केत-
नादीनां सवन्धिनः १ तथा वैराणां २ वेडूर्याणां ३ लोहिताक्षा-
णां ४ मसारगज्नाणां ५ हंसगब्भाणां ६ पुलकानां ७ सोगन्धि-
कानां ८ ज्यातीरसानाम् ६ श्चङ्कानाम् १० श्रज्जनानां ११ रज-
ताना १२ जातरूपाणाम् १३ अज्ञनपुलकाना १४ स्फारकाना
१५ रिष्टानां १६, किमत् आह-यथा ध श्रसारान यथा
सृन्मान्-सारान् ततो वेक्रिय॑ , ' अभयकुमारमणुक-
पमाणे ` त्ति अनुकम्पयन् हा तस्याष्टमापवासरूप कष्टं वत्तने
इति विकरपयन्नित्य्थः,पूवै भव-पूवजन्मनि जनिता-जाता या
स्नदात्पी तिः-प्रियत्वे न न कारयवशादित्य थैः वहुमानश्च-गुण-
जुरागस्ताभ्यां सकाशात् जातः शोकः-चित्तखदो विरह-
सद्भावेन यस्य स पूवैजनितस्नहग्रीतिबहमानजातशाकः ›
वाचनान्तरे--' पूवैभवजनितस्नहप्रीतिबहमानजनितशोभ-
स्तत्र शोभा--पुलकादिरूपा, तस्मात्स्वकीयात् विमानवर-
पुरडरीकात् पराडरीकता च विमानानां मध्ये उत्तमत्वात् 'र-
यणुत्तमाउ ' त्ति रत्नोत्तमाद् रचनोत्तमाद्धा * धरणीतलगम-
नाय ` भूतलप्राप्तये त्वरितः शीघ्र सजनितः उत्पादितो
गमनप्रचारो--गतिक्रियावृत्तिर्यन स तथा वाचनान्तरे--
« धरणीतलगमनसंजनितमनःप्रचारः ` इति प्रतीतमेव
व्याघार्णितानि--दोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य
प्रतरकाणि च-:प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि च करणपुर
मुकुट च मोलि: तषामुत्कटा य आटापः--स्फारता तेन द-
शेनीयः--आदेयदर्शनो यः स तथा, तथा अनकेषां मणिक-
नकरत्नानां ' पहकर ` त्ति निकरस्तन परिमरिडतो-भ-
क्रभिध्ित्रो विनियुङ्ककः-करख्यां निवेशितो * मणु ` त्ति म-
कारस्य प्राकृतशेली प्रभधत्वातू योऽचुरूपो गुणः- करिरतं
तन जनिता दषा यस्य स तथा प्रङ्कालमानाभ्यां-दालायमा-
नाभ्यां वरललितकुण्डलाभ्यां यदुज्ज्वलितम् उज्ज्वलीङूत व
दने-मुखं तस्य यो गुणः-कान्तिलक्तणः तेन जनितं सौम्यं रूप
यस्य स तथा.वाचनान्तरे पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यत-“वाघु-
क्ियविमलकणगपयरगवडसगपकंपमाणचललालललियपरि-
लबमाणनरमगरतुरगमुह सयविशिग्गडग्गिन्नपवर मोत्तियवि-
रायमाणमउड्कडाडोवदरिसणिज्ञे ” तत्र व्याघूर्णितानि-
चञ्चलानि विमलकनकप्रतरकाणि च श्रवतसके च प्रकम्पमा-
ने चललोलानि तिच पलानि ललितानि-शोभार्वन्ति परिल-
म्बमानानि प्रलम्बमानानि नरमकरतुरगमुखशते भ्यो--मुकु-
टाग्रविनिर्मि ततन्मुखाकृतिशते भ्यो विनिगेतानि-निःखतानि
उद्बीर्णानीव--बान्तानीवो द्वी णौनि यानि प्रवरमोक्किकानि--
वरमुक्काफलानि तैर्विराजमानं-शोभमाने यन्मुकुर्ट तच्चेति
इन्द्रः तषां य उत्कट श्राटापस्तेन दशनीयो यः स तथा, त-
था ‹ अनेगमशिकरणगरयणपहकरपरिमंडियभागभाक्तिचिक्ष-
विणिउत्तगमणगुणजणियपेखोलमाणवरललितक्डलुजलि --
यञ्यदियश्राभरणजणियसोभे ` श्नेकमणिकनकरत्ननिकरप-
रिमणिडतभागे भक्तिचित्रे-विच्छिक्तिविच्चित्र विनियुक्त-करा-
योर्निवेरिते गमनगुणेन-गतिसाम्यन जनिते--छते प्रेडखो-
लमाने-चञ्चल ये बरललितकुण्डले ताभ्यामुज्ज्वलितन उद्दी-
पनेनाधिका भ्यामाभरणा भ्यामुज्ज्वलिताधिकैर्वा ५ ५ भरणेश्व -
कुणडलब्यतििक्रैजनिता शाभा यस्यस तथा, तथा''गयजल-
मलविमलदंसणविरायमाणरूव ”' गत जलमले-विगतमालिन्यं
विमलं दुर्शनम्--आकारो यस्य सर तथा, अत एवं पिराज-
(६ + -44,
मेहकुमार
श्रभिधानराजेन्द्रः
क
महक्मार
मान रूपं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, अयमवोपमीयत-
उदित इव कोमुदानिशायां-कार्तिकपोणिीमास्यां शनेश्चरा-
ङ्गारकयोः प्रतीतयारुञ्ज्वालतः-दीप्यमानः सन् यो मध्यभा-
गे तिष्ठति स तथा, नयनानन्दा-लाचनाह्वादकः शरच्चन्द्र
इति, शनेश्चराङ्गारकवत्कुरडल चन्द्रवच्च तस्य रूपमिति,
तथाऽयमेव मरुणापमीयत-दिव्यौ पधीनां प्रज्वलनेनेव मुकु-
खादितजसा उज्ज्वलित यदशन--रूप तनाभिरामा-
रम्या यः स तथा, ऋतुलचम्यव--सर्वतुककुखुमसंपदा सम-
स्ता-सवी समस्तस्य वा जाता शाभा यस्य सख त-
था, प्रकृष्टन गन्धनोद्ूतन--उद्भतेनाभिरामो यः स तथा
मेरुरिव नगवर इव विकुर्वितविचित्रचेषः सन्नसों वतेते इति,
* दीवसमुदाण ` ति द्वीपसमृद्राणाम् ` असखपरिमाणनाम-
धज्जञाणे ` ति असंख्य परिमाणं नामधयानि च येषांते
तथा तेषां मध्यकारेण--मध्यभागन “ वीडवयमाणे ` त्ति
व्यतिवबजन् गच्छन् उद्यातयन् विमलया प्रभया जीवलोकम्
* ओपयइ `
आकाशस्थः दशाऊँवर्णानि सकिङ्कणिकानि--चुद्रघ्ररिट-
त्ति अवपताति, अवतरति, अन्तरिक्षप्रतिपन्नः- |
कोपेतानि एकस्तावदेष गमः--पाठः, अन्याऽपि-द्वितीयो |
गमा-वाचनावशषः पुस्तक्रान्तरपु टश्यत ताए तया
उत्कृष्टया गव्या त्वारतया-आकुलया न स्वामावक्या आ-
न्तराक्तता-ऽप्यषा भवत्यत आह-चपलया कायताऽप च-
ण्डया-रोद्रया व्युत्कर्षयोगेन सिंहया-तद्दार्ब्यस्थेयंण उद्ध- |
तया+-दर्पातिशयन जयिन्या--विपक्षजतृत्वन छेकया-नि-
पुणया दिव्यया--देवगत्या, अयच द्वितीयो गमो जीवाभि-
गमसूत्रव्रच्यनुसारेण लिखितः, “कि करेमि नि किमह
करामि भवदांभप्रते कार्य कि वा ' दलयामि ` त्ति तुभ्यं द्-
दाम, क वा प्रयच्छाम भवत्सगतायान्यस्म,कवात हृ-
दयष्सित--मनोवाञ्छितं वतत इति प्रश्नः, ` खनिव्वुयवीस-
त्थ ` त्ति सुष्ठु नित्रृतः स्वस्थात्मा विष्वस्ता-विश्वासवान्
निरुत्खुका वायः स तथा, ` ताता `
प्पेह ` त्ति सन्नाहवन्त कुरुत * अतो अतउरंसि ` ननि अन्त-
रन्तःपुरस्य ˆ महया भडचडगरवंद परि क्रिवत्त ” त्ति महाभ-
खानां य्र॒करप्ध्रान--विच्छृ्प्रधान न्दं तेन सपरिक्ति-
स्रा, वेभारगिरेः कटतटानि--तदेकदेशतटानि पादाश्च-तदाः
सन्नलघुपवेतास्तपां यन्मूले तत, तथा आरामेषु च आरम-
न्तियपु माधवीलतागरहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरा-
मास्तेषु पुष्पादिमद्वृक्तसंकुलानि उत्सवादों बहुजनभोग्यानि
उद्यानानि तषु च तश्रा सामान्यवुृक्तवृन्दयुक्कानि नगरासन्ना- |
नि काननानि तपु च नगराचप्रकृष्ठानि वनानि तेषु च तथा |
वनखगडषु च- एकजाती यवृ्तसमृदेषु वृत्तपु चेकेकेषु गुच्छे- |
पु च वृन्ताकीप्रभ्रतिषु गुट्मघु च-वंशजालीप्रश्रतिषु लता-
त्ति दहे तात ! ‹ परिक- |
सु-च सहकारलतादिषु वज्ञीषु च नागवस्ल्यादिषु च कन्द- |
राखु--च गुहासु दरीपुरूच श्रगालाद्युत्कीशभूमिविशषष
“ चुद्धीखु य ` त्ति श्रखाताट्पादकविदरिकाखु यूथषु च वान-
रादिसम्वान्धिष, पाटान्तरण-हदपु च क्लप च गहनेषु च
सारि'सु सेंगमषु च-नदीमीलकपु च विदरेष च जलस्थान-
विशषषु ` अच्छुमाणी य ` ति तिष्ठन्ती परक्षमाणा च पश्य-
न्ती दृश्यवस्तूृनि मजन्ती च स्नान्तीं 'पल्नबाणि य' त्ति पल्ल-
वान किशलयानि * माणमाणी य ` त्ति मानयन्ती स्पशनद्धा-
रण॒ ` चणमाण ` त्ति दाहले विनयन्ती ` तासि अक्लदाद-
लसि विणीयसि ` त्ति अ्कालमेघदाहदे विनीत सति स-
म्मानितदाददा पूर्णादाहदेत्यर्थः, ` जय चिदट्ठुइ ` त्ति यतनया
यथा गर्भवाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊध स्थानेन * आख-
यइ ` त्ति आस्त च्राश्रयति वा आसन सखापिति चति हित-
मेधायुरादिवुद्धिकारणत्वान्मितमिन्द्रियानुकू लत्वात् पथ्य-
>
मरोगकारणत्वात् ' नाइचितं ` ति अतीव चिन्ता यस्मि-
स्तदतिचिन्तं तथा यथा न भवतीव्येवे गर्भ परिबहती-
ति सम्बन्धः, नातिशोकं नातिदेन्यं नातिमाद- नातिका-
मासक्गि नातिभयमेतदेव सेग्रहवचननाह- व्यपगते "
त्यादि, तत्र भयम-भीतिमाज्र परिव्रासोऽकस्मात् , ऋतुषु
यथायथं भज्यमानाः खुखा य ते ऋतुभज्यमानसखाः तैः ।
तते णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासां बहुप
डिपुन्नाणं अद्धदरमाणरातिंदियाणं वीतिकंताणं अद्धरत्त-
कालसमयसि सुकुमालपाणिपाद॑ ०जाव सब्वंगसुंद्रंगं
दारगे पयाया | तए शं ताओ अंगपडियारिआओ धा-
रिणीं देवीं नवण्ं मासाणं ०जाव दारग पयायं पास-
न्तिर क्त सिग्घं तुरियं चवलं वेतियं जणेव सेणि-
ए राया तेणव उवागच्छति २ त्ता सेणियं राय जएशं
विजएण वद्धावात २ न्ता करयलपारेग्गाहय सिरसावत्त
मत्थए अजल कट एवं वदासी-एवं खलु देवाणुष्पि-
या ! धारिणी दवी वणे मासाणं ०जाव दारग पया-
या, तण अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेदेमो पिय॑ भे
भवउ, तते णं से सेणिए राया तासि अगपडिया-
रियाणं अतिए एयमट्रं सोचा णिसम्म हट्तुद्र° ता-
ओ अगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य
पुष्फगधमल्नालकारेण सकारेति सम्माणेति २ न्ता म-
त्थयधोयाओ करेति पुत्ताणुपृत्तियं वित्ति कप्येति २
त्ता पडिविसज्ञति । तते णं से सणिए राया कोडविय-
पुरिसे सद्वेति २ त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो दे-
वाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं आसि य ०जाव परिगयं
करेह २ त्ता चारगपारिसोहणं करेह २ त्ता माणुम्माण-
बद्धणं करेह २ त्ता एतमाणत्तियं पचषप्पिणह ०जाब
पच्चप्पिणंति। तते णं से सेणिए राया अट्टारस से-
शिप्पसेणीओ सदावेति २ त्ता एवं वदासी-गच्छह णं
तुब्भे देवाणुप्पिया ! रायगिहे नगरे अन्भितरवाहिरिए
उस्सुक्तं उक्ररं अभडप्पवेसं अदंडिमकुदं डिम अधरिमं
अधारणिज्ञ अणुरुयमुइंगं अभिलायमल्नदामं गणियाव-
रणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पयुदयपकी-
लियाभिरामं जहारिहं टिईवडियं दसदिवसियं करेह २
त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणह ते वि करति २ त्ता त-
हेव पच्चप्पिणंति , तए णं से सणिए राया बाहिरि
याए उबड्टाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे स-
ननिसने सहएहि य साहस्सिएहे य सयसाहस्सिएहि य
मेदकुमार
जाएहिं दाएहिं भागेहिं दलयमाणे २ पडिच्छेमाणे २ |
( ३88.)
शभिधानराजन्द्रः।
मेहकुमार
एवं च शं विहरति, तते णं तस्स अम्मापियरों पढ-
मे दिवसे जातकम्मं करेति रन्ता बितिए दिवसे जा-
गरियं करेति २ त्ता ततिए दिवसे चदष्रदंसणियं
करति २ त्ता एवामेव निव्वत्ते सुडजातकम्मकरणे संपत्ते
बारसादहदिवसे विपुलं असणं पाणं खातिमं सातिमं
उवक्खडावेंति २ त्ता मित्तणातिशियगसयणसंबधिपरिज-
शं बलं च बहवे गणणायगदंडणायग ०जाव आम-
न्तेति, ततो पच्छा णाता कयबलिकम्मा कयकोउय
°जाव सव्वालकारविभूसिया महति महालयंसि भोय-
णमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खा्मं सातिं
मित्तनातिगणणायग ० जाव सद्धिं ऋसाएमाणा
विसाएमाणा परिभाएमाणा परिश्रुजेमाणा एवं च णं विह-
रति, जिमितयुततुत्तरागताऽवि य णं समाणा आयंता चो-
क्खा परमसुडभूया तं मित्तनातिनियगसयणसंबेधि्पीरे-
जणगणणायग ० जाव विपुलेणं पुष्फवत्थगंधमल्नालकारेणं
सक्रारेति सम्माणेति २ त्ता एवं बदासी-जम्हाणं अम्हं
इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु |
डोहले पाउन्भूते तं होड णं अम्हं दारण मेहे नामेणं मेह-
[4० ७५ = 4 = 9 |
कुमारे तस्स ॒दारगस्स अम्मापियरो अयमेयास्व गोष
गुणनिष्फनं नामघेज्ञं करेति , तए णं से मेह-
कुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तं जहा-खीरधातीए मंडण- |
धातीए मज्जणधातीए कीलावणध।तीए अकधातीए अ-
न्नाहि य बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामशिवडभिब-
ब्बरिवठसिजोशियपल्हवियदसि णियधोरुगिणिलासियल- '
लउसियदविलिसिंहलिआर विपुलिंदिपकशिबहलिपुरुंडि -- |
विदेसपरिमीडयाहिं इ-
सवरिपारसीरहिं णाणादेसीहिं
गितचितियपत्थियवियाशियादहिं सदसणवत्थगहितवेसाहिं
निउणकुसलाहि विणीयाहिं चेडियाचकवालवरिसध-
रकंचुइअमहयरगवंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं संहरि-
ज्ञमाणे अकाओ अकं परिभुज्जमाणे परिगिजमाणे चा-
लिज्जमाणे उवलालिज्जमाे रम्मंसि मणिकोट्धिमतलसि
|
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परिभिज्जमाशे २ शिव्वायशिव्वाघायंसि गिरिकंदरमन्नी- |
शव चपगपायवे सुहं सुहेणं वड्, तते शं तस्य मेदस्स |
कुमारस्स अम्मापियरो आणुपुव्वेण नामकरणं च पजेमण |
च एवं चकम्मणगं च चोलोवणयं च महया महया इङ़ीस- |
रसमरदएशं किसु । तते रा तं मेहकुमारं अम्मापियरो |
सातिरशद्वासजातगं चव गब्भटमे वासे सोहणंसि तिहि- |
करणम़ह त्तसि कलायग्यिस्स उवणशंति, तते ण॑ से क-
लायरिए महं कुमार लहाइयाओ गशितप्पहाणाओ स
उणरुतपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओं य अ-
त्थओ य करणआओ य सेहावेति सिक्खावेति, तं जहा-लेहं
गणियं स्वं नई गीयं वाहय॑ सरगयं पोक्खरगयं
समताल जूयं १० जणवायं पासयं अट्रावयं पोरकचं दग-
मद्यं अन्नविहिं पाणविहिं बत्थविहिं विलेबणविहिं सयण-
विहिं २० अञ्ज पहेलियं मागहिय॑ गाहं गीहयं सिलोय
हिरघ्पजुत्ति चुन्नजुत्ति सुबष्मजुत्ति आभरणविहिं ३० तरुणी-
पडिकम्मं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयल-
क्खणं गोणलक्खणं कुक््कुडलक्खणं छत्तलक्खणं डंडल-
क्वं असिलक्खणं ४० मणिलक्खणं कागणिलक्खणं
वत्थुविज्जं खंधारमाणं णगरमाणं वृह परिवृह चारं
परिचारं चकवृहं ५० गरुलवूहं सगडबृहं जुद्धं निजं
जुद्घातिजुद्धं अच्छिजुद्ं मुद्विजुद्धं वाहुजुद्धं गयाजुदूं
ईसत्थं ६० छरुप्पवायं धरणुव्वेयं हिरन्नपाग सवन्नपागं
सुत्तखड वइ्डनालियाखेड पत्तच्छेज़ कडच्छजं सज्ञीव ७०
निज्जीवं ७१ सउणरुयमिति ७२ । (स्रत्र-२०) तते णं से
कलायरिए महे कुमारं लेहादियाओं गणियप्पहाणाओ
सउणरुयपज्जवसाणाओ बाघत्तरिं कलाओ सुत्तओ य
अत्थओ य करणओ य सिहावेति सिक्खावेइ
सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवबणेति ,
तते शं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरों तं कलायरियं म-
धुरहिं वयणेहिं विपुलेण वत्थगंधमन्नालंकारेणं सकारेंति
सम्माणेंति २ त्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति
२ त्ता पडिविसज्जेति। ( खत्र- २१) ततेशंसे मेहे कु-
मारे बावत्तारिकलापंडिए ण॒वंगसुत्तपडिबोहिए अट्टवारस-
विहिष्पगारदेसी भासाविसारए गीइरइगंधव्वनइकुसले हय-
जोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भो-
गसमत्थे साहस्सिए वियालचारी जाते यावि होत्था, तते
णं से तस्स महकुमारस्स अम्मापियरों मेहं कुभारं बावत्त-
रिकलापणिडत ° जाव वियालचारी जायं पासानेरन्ता
अट्टपासायवर्डिसए करेति अन्थुग्गयमूसियपहसिए विव,
मणिकणगरयणभत्तिचिन्ते वाउद्धतविजयवेजयंतीपडागा-
छत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे जा -
लंतररयणपंजरुम्मिलिय व्य मणिकणगधूभियाए विय-
सितसयपत्तपुडरीए तिलयरयणद्धयचंदच्चिए नानामणिम-
यदामालंकिते अंतो बहिं च सर्हे तवणिज्जरुदलवालुया-
पत्थरे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासादीए० जाव पडिखूवे
एगं च णं महं भवणं करेंति, अणेगखंभसयसन्निविट्ट लॉ-
लद्ियसालभजियागं अब्भ्रुग्गयसुकयवइरवेतियातोरणबर-
रइयसालभंजियासुसिलिट्ट विसिट्ट लट्डूस ठितपसत्थव रुलिय--
£ ( ४०० 5 हे
छभिधानराजन्द्रः सेहकुमार ।
| दासी-किंणंभो देवाणुप्पिया ! अज्ञ रार्यागिहे नगरे इद- `
ए भ,
मेहकुमार _
खंभनाणामशिकणगरयणखवितउजलं बहुसमसुविभत्त-
निचियरमणिज्ञभूमिभागं इंहामिय ° जाव भत्तिचित्त खे- |
भ्ुग्गयबइरवेइयापरिगयाभिरामं, विजाहरजमलजुयलजुत्त |
पिव अच्चीसहस्समालणीय रूवगसहस्सकलियं
माण भिव्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेयं सुहफासं सस्सिरी-
भिस- |
यरूव॑ कंचणमणिरयणधूभियागं नाणाविहपंचवन्नघंटाप- |
डागपरिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवर्य विशिम्मुयंत ला- |
उन्लोइयमहिय ० जाव गधवद्धिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं |
अभिरूव॑ पडिसूवं । ( सत्र-२२ ) तते णे तस्स मेहकुमा-
रस्स अम्मापियरो मेह कुमारं साहणंसि तिहिकरणनक्ख- |
त्तमुहुत्तसि सरिमेयाणं सरिसवयाणं(सरिसव्वयाणं)सरिसि- |
लावन्नस्वजोव्वणगुणोववेयाणं सरिसएहिंतो रायकुलेहिंतो |
आशणिअल्लिया्ं प्साहणडंगअविहवबहुओवयणमंगलसु- |
जपियाहिं अट्टहिं रायवरकणणाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पा-
शि गिण्हाविंसु । तते णं तस्स महस्स अम्मापितरों इमं |
एतास्वं पीतिदाणं दलयइ अ हिरण्णका उग्रो अद्र सुव- |
प्कोडीओ गाहाणुसारेण भावियव्वं ° जाव पेसणकारि-
याओ , अन्नं च विपुलं धणकणगरयणमणिमात्तियसं- |
ख सिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज्ञं शअरलाहि ०जाव
आसत्तमाओ कुलवंसाओं पकामं दाउं पकामं भोक्तु पका
म परिभाएठं, तते शसे मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए
एगमेग हिरष्पकोडिं दलयति एगमेगे सुवन्नकोडं दलय-
ति० जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं
धणकणग ° जाव परिभाण्डं दलयति , तते णं से मेह- |
कुमरे उप्पि पासा (य) तवरगते फुइमाणेहिं मुदगमत्थणएर्हि
बरतरुणिसंपउत्तेहिं वत्तीसइबद्धएहिं नाडणएहिं उबागिज्ज-
माणे २ उवलालिज्जमाणे २ सदफरिसरसरूवगंधविउले
माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरति ।(सूत्र-२३) |
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महाषीरे पु-
व्वाणुपुन्ि चरमाणे गामाणुगामं दइज्जमाणे सुहं सहे- ।
शं विहरमाणे जणामेव रायगिहे नगर गुणसिलए चे-
तिए ० जाव विहरति , तते णं से रायगिहे नगेर सिंघा- |
डग ० महया बहुजणसदेति वा जाव ०बहवे उग्गा |
भोगा ° जाव रायगिहस्स नगरस्य मज्कं मज्केणं ए-
गदिसि एगाभिमुहा निर्गच्छति, इमं च ण मेहे कुमारे उ-
पपि पासा (य) तरगते फुट्टमाणेहिं युयगमल्थण् द° जाव
माणुस्सए कामभोगे भुजमा रायमग्ग च ओलोयमाणे
२ एवं च णे विहरति।
हव उग्गे भोगे ०जाव एगदिसाशिप्ठहे निगगच्छमाणे पा-
सति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति २
५
तए ख से महे कुमरेते बन |
त्ताएवं व- |
महेति वा खंदमहेति वा एवं रुदसिववेसमणनागजक्ख-
भूयनइंतलायरुक्खचेतियपव्वयउज्ञाणगिरिजत्ताइ वा ज-
श्रोणं बहवे उग्गा भोगा ,०जाव एगदिसिं एगाभिमुहा
णिग्गच्छेति, तते णं से कंचुइज़पुरिसि समणशस्स भ-
गवओ महावीरस्स गहिया गमणपवत्तीए भदे कुमारं एवं
वदासी-नो खलु देवाणुष्पिया ! अज्ञ रायगिंहे नयरे इंद-
महेति वा «जाव ,गिरिजत्ताओ वा, जं णं एए उग्गा ०जाव
एगदिसि एगाभिम्मुहा निगगच्छन्ति एवं खलु देवाणु-
प्पिया ! समे भगवं महावीरे आइकरे तित्थकरे इह- ,
मागते इह संपत्ते इह समोसे इह चेव रायगिहे नगरे
गुणसिलए चइए अहापाडे ० जाव विहरति । ( सूत्र-२४ )
मत्थयधोयाओं न्ति-धोतमस्तकाः करोति अपनीतदासत्वा
इत्यथः । पोतरानुपुतरिकां पुत्रपोत्रादियोग्यामिवयथैः, वूक्ति-
जीविकां कल्पयतीति । ` रायागेदं नगरे श्रासिय ` इह
यावत्करणादेव इश्यम्--* आसियसमल्लिश्रावलित्तं ' आ-
सिक्कमुदकच्चुण्टन समार्जित कचवरशो धनेन उपलिक्षे गो-
मयादिना, कषु ?-- खिघाडगतिगच उक्कचद्चःचडउम्मुटमहा-
पहपदेसु' तथा-सित्तसुइयसंमद्ुरत्थेतरावणवीहियं ` खि
क्ानि जलेनात एव शुचीनि-पविनाणि सम्ष्टानि कचवरा-
पनयनन रथ्यान्तराणि श्रापणवीथयश्च हृट्डसार्गा सस्मिन्
तत्तथा ` मचातिमचकालिते ` मञ्ा-मालकाः यक्तणक्द्वष्ट्-
जनापवेशननिमित्तम् । अतिमञ्ाः-तेषामप्य॒परि ये तैः क~
लित ` णाणाविहरागभूसियज्कयपडागर्माडिय ` नानावि-
धरागेः कुसुस्भादिभिभूषिता य ध्वजाः सिदगरुडादिरूप-
कोापलात्तितब्रदत्पररूपाः पताकाश्च तदितरास्ताभिमेरिडतं
लाइयउल्लाइयमटियं ` 'लाइये-गणादिना भूमो लपनम् ,
उल्लादये -सटिकादिना कुड्यादिषु धवलनं ताभ्यां महिते
पूजित ते एवं वा महित-पूजनं यत्र तत्तथा ` गोसीस-
सरसरत्तचद णदद्ररदिन्नपचगु{लतले ” गाशीषस्य-चन्दन-
विशषस्य सरसस्य च--रक्नचन्द्नविशेषस्यव दरदरण-च-
पटारूपण दत्ता-न्यस्ताः पञ्वाङ्कुलयस्तला- दस्तका य~
स्मिन् कुड्यादिषु तत्तथा ` उवचियचदणकलसं ` उपचि-
ता-उपनिटिता शदान्तःक्तचतुष्कषु चन्दनकलशा-मङ्ग-
ल्यघटाः यत्न तत्तथा * चंदणघड़खुकयतोरणपडिदुवारदे-
सभागे' चन्दनघटाः सष्ठ ताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वा-
रस्य २ देशभागेषु यत्र तत्तथा ˆ आसत्तोसत्तविपुलचइ-
वम्घारियमज्नदामकलाव ` आसक्लो-भूमिलग्नः उल्सक्कश्च-
उपरिलग्नो विपुलो चत्तो बश्धारिय ` त्ति प्रलम्बो मा-
ल्यदाम्नां--पुष्पमालानां कलापः-समृदा यत्र तत्तथा ' प-
चवक्नसरससुरभिस॒क्रपुप्फपु जोवयारकलियं पञ्चवणौः सर-
साः सुरभयो च मुक्काः-करप्रेरिताः पुष्पपुडजास्तेयं उपचारः-
पूजा भूमेः तन कालत 'काला(गु)गरूपवर कुंदुरूकतु रुकधूचड-
ज्फंतमघमपघ्रंतगंधुद्धुयाभिरामं' कुःदुरुक-चीडा तुरुक्क सिल्द-
कं ‹ सुगधवरगन्धिय गन्धवष्टिभूयं नडनटइगजल्लमल्लगस॒ट्ठि-
यचलवगकटकद गपवगलासगद्मकंखायगले मं लतृणदल्लतु --
व्चीणियश्चणेगतालायरपरिगीय' त्र नरा-नारकानां नाद-
( ४०१ )
. - 4
नघ्ानराजग
सहकुमार
यितारः नत्तंकाः ये चत्यान्ति अङ्किला इत्यक जज्ञावरत्राखल-
का राज्ञः स्तात्रपाठका इत्यन्य मल्लाः-प्रतीताः मोष्टिका-मल्ला
एव य सुष्टिमिः प्रहरन्ति विडम्बकाः--विदुषकाः कथाकथ-
काः-प्रतीताः प्लवका ये उत्प्लवन्त नद्यादिकं वा तरन्ति
लासक्ाः-य रासक्ान् गायन्ति जयशब्द्प्रयोक्तारो वा भा-
ण्डा इत्यथः, आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति लङ्खा-
वशखलक्राः मड्खा+-ाच त्रफलकहस्ता भक्तारखाः तूणइलज्लाः- ,
तृणाभिधानवाद्यवि शेषवन्तः , तुम्बवीणका--वींणावादका
अनेके ये तालाचराः-तालाप्रदानन प्रत्ञाकारिणः तेषां परि-
समन्ताद्वीत--ध्वनितं यत्र तत्तथा कुरुत खयं, कारयतान्ये-
स्तथा चारगशाधने कुरुत कृत्वा च मानोन्मानवद्ध॑नं कुरुत,
तत मान-घान्यमाने स(ति)टिकादि उन्मान-तुलामाने कषा-
दिकं श्रणयः-कुम्भकारादिजातयः प्रश्रणयः-तत्प्रभदरूपाः ।
उत्सुक्क ` मित्यादि. उच्छुल्काम-उन्मुक्कशुल्कां स्थितिपति-
ता कुरुतात सवन्यः, शर्क तु वक्रतन्य भारड प्रात रा- ।
जदेये द्रव्यम् , उत्कराम--उन्मुक्ककरां , करस्तु गवादीनां
प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम् , अविद्यमानो भटानां--राजपुरुषा
णाम् आज्ञादायिनां परवशः कुटुम्विमन्द्रिषु यस्यांसा तथा
तामभरभ्रवेशां, दण्डन निवत्त दरिडमे कुदण्डन निर्वृत्त
कुदगिडमं राजद्रव्ये तन्नास्ति यस्यांसा तथा तामदणिडम-
कुदणिडमां, त्र दरड़ा ऽपराधानुसारेण राजग्राद्य
कदगडस्तु कारणिकानां प्रज्ञायपराधान्महत्यप्यपराधिना ऽ-
पराधे अल्प राजग्राह्य द्रव्यम् , अविद्यमान ' धरिम ' ति ऋ
णद्रव्यं यस्यां सातथा ताम् , अविद्यमाना धारणीयः--
अधमा यस्यां सा तथा ताम् , ` अरुद्धुयमुइंग ` ति अलु
ता आनुरूप्यण वादना थमु त्तप्ता अनुद्ध(द्ध)ता वा-वाद्ना- |
थमव वादकर त्यक्का स्दज्ञा--मर्दला यस्यां सा तथा ताम्
अ [म्मा ] यमिलायमल्लदाम
गणिकावरें: विरलासिनीप्रधानेनारकीयेः- नाटकप्रतिवद्धपा
रः कलिता या सा तथा ताम् , अनकतालाचरानुचरितां-
प्रत्ताकारिविशचः सवितां प्रमुद्तिः--हृष्टेः परकीडतिश्च--
क्रीडितुमारब्धजनेरभिरामा या सा तथा तां 'यथार्ाम्यथा-
चितां स्थितिपतितां स्थितो-कुलमयीदायां पतिता-अन्तर्भूता
या प्रक्रिया पुवजन्मात्सवसर्वान्धिनी सा स्थितिपतिता ताम्
वाचनान्तर ` दसदिवसिये ठियपाडयं ` ति दशाहिकमहि-
मानमिव्यथः कुरुत कारयत वा , ` सणि ` ति शतपरि-
माणेः, दाएहि ति दानैः वाचनान्तरे शतिकांश्चल्यादि,यागान्-
देवपूजाः दायान्--दानानि भागान-लब्धद्रव्यावेभागानि-
द्रव्यम् , |
त्ति अम्लानपुष्पमालां |
ति, प्रथमे दिवस जातकर्म-प्रसवकम्म नालच्छेदननिखन- |
नादिकं द्वितीयदिने जागरिकां-राचिजागरणे तृतीय दिवस
चन्द्रसयदर्शनम् उत्सवविशेष एत इति,पाठान्तर तु-प्रथम दि-
बसर स्थिति पतितां ठृतीय चन्द्रसूयदशनिका पष्ठ जागरिकां
“ निवत्त अखुइजायकम्मकरणो ` त्ति निवृत्ते--अतिक्रान्ते
अशुचीनां जातकम्मणां करण ` निव्वत्ते सुइजायकस्मकर-
शेतिः वा पाठान्तरे, तव नि्चृत्ते-ङृते शुचीनां जातकर्मणां
करण ` वारसाह दिवसे ` न्ति द्वादशास्य दिवस इत्यथः,
अथवा-द्वादशानामह्यां समाहारो द्वादशाह तस्य दिव-
सायन द्वादशाहः पूयत तत्र तथा , मित्राणि खद
ज्ञातया-मातापित्ृश्रात्रादयः निजकाः-स्वकीयाः पुत्रादयः |
स्वजनाः -पितृव्य दयः सव्रन्धिनः-? ब्शुरपुत्रश्व शुगदय:
१०१
पि
प्रु
रिजिना-दासीदासादिः वलं च-सेन्यं च गणनायकादयस्तु प्रा
गभिहिताः, ` महइमहालइ ` त्ति अरतिमहति, आस्वादयन्तो
आस्वादनीय, परिभाजयन्तो अन्यभ्या यच्छन्त मातापि-
तराविति प्रकमः, 'जमिय' त्ति जेमितो भुक्कवन्तो ' भुतत्तर
ति भुक्कात्तरं-भुक्लात्तरकालम् ` आगय ` त्ति आगतावुपवश-
नस्थान इति गम्यत, 'समाण' ति सन्ता, किभूतो भूत्वेत्याह?-
्राचान्तो णुद्धादकयागन चोक्षा लपसिक्थाद्यपनयनन अत
पव परमशुचिभूताविति, ` अयमयारूत ` ति इदमतद्रुप गोर
को5थौ ?-गुणनिष्पन्ने नामधय-प्रश्षस्त नाम मघ ईति। क्षी-
रधाच्या-स्तन्यदायिन्या मरडनधाच्या-मरिडकया मज्ञनधा-
ञ्या स्नापिकया क्ीडनधाच्या-कीडनकारिराया अङधाव्या
उनत्सङ्कस्थापिकया कुव्जिकाभिः-वक्रजङ्ाभिः चिलातीभिः-
अनायदेशात्पन्नाभिवामनाभिः--हस्वशगीयाभिः वरभामि
महत्काष्टाभिः वर्वराभिः--ववर्दशसभवाभिः वकुसिका-
भिर्योनकामिः पहविकाभिः ईलनिकाशिः धारुकिनि-
काभिः लासिकाभः लकुसिकाभद्राविडीभिः सिंधलीमिः
आरबवीशिः पुलिन्द्रीभिः पकणीभिः बहलीमिः मुरुएडीमिः
शबरीधिः पारसीभिः ` नानादेशीमिः ` बहुविधामिः अनार्य-
प्रायद्शात्पन्नाभिरित्यर्थ:,विदेशः सखकीयदेशापक्षया राजगृह-
नगरदेशस्तस्य परिमणिडकामिः इक्ञितेन-नयनादिचेष्टाविश-
चेण चिन्तितं च-अपरेण ददि स्थापितं प्राथितं च-अभिल-
पितं विजानन्ति यास्ताः तथा ताभिः, खदेशे यन्नपथ्य-परि-
धानादिरचना तद्वद् ग्रहीता वषा यक्ाभिस्तास्तथा ताभिः,
निपुणानां मध्य कुशला यास्तास्तथा ताभिः, श्रत एव
विनोताभिर्यक्क इति गम्यत, तथा चटिकाचक्रवालेन च्रथात्
स्वदेशसभवन वषधघराणां--बाधितकरिन्थनरुन्धनप्रयोगेण्
नपुसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानां ` कंचुइज्ज ` त्ति कञ्चु-
किनामन्तःपुरप्रयोजननिवदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तर-
कारां च-अन््तःपुरकार्यच्चिन्तकानां वृन्देन पारित्तिप्ता यः
स तथा, दस्ताद्धस्त हस्तान्तरं सीहियमाणः अड्ादड्म-
उत्सङ्गादतसङ्गान्तर, परिभोञ्यमानः रपारगीयमानः तथा-
विधवालोचितगीतविशषेः उपलास्यनानः कीडादिला-
लनया, पाठान्तर त-- उवणाच्चउजमाण २ उवगा-
इज्जमाण २ उवर्लालिञ्जमाण २ अवगृहिज्जञमाण २' आ-
ग्यमान इत्यथः. ‹ श्रवयासिञ्जमाण ` २ कथश्षिदालि-
` परिवेदिज्जमाणे ` २ स्तृयमान इव्यथः,
` परिचुविज्जमाण ` २ इति प्रचुस्ज्यमानः २ चङ्क्रम्यमाण
निर्वाते-निव्योघात ` गिरिकन्दर ` छि गिरिनिकुश् आली-
द्व चम्पकपादपः खख सुखन वद्धने सति,प्रचङ्क्रमणकं-
श्रमणं चृडापनयन--मुरडन. ` महटया-दह्वीसक्ञारसमुदप-
र ` ति महत्या ऋद्ध्या एवे सत्कारेण पूजया समुदयन च
जनानामिव्यथः, ` अथत ` इति व्याख्यानतः करणतः
प्रयागतः ` सहावएं ` ति सघयति निष्पादयति शिक्षयति-
अभ्यास कारयति ` नवेगसुत्त पडियोहिए ` त्ति नवाङ्गानि
द्ध द्ध श्रात्र नयने नासिके जिंलका त्वगेका सनश्चकं सुप्तानीय
सृप्तानि--वाल्यादव्यक्रचतानि प्रतिवाधितानि--यं।वरनन
लङः
इश्यमान पव,
व्यक्रच्रतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहार-
भाष्य--' सात्ताई नव सखृकत्ता इत्यादि. अप्टादश विधिप्रका-
राः--प्रत्रत्तिप्रकाराः अप्टादशाभिवां वि्शिभः--भेदेः प्रचा-
रा चयारुया, सा तथा तस्या. दश्धाभाषाया--द्रशभ-
( ४०२ )
अभिधानराजन्द्रः।
महकुमार
देन वणौवलीरूपायां विशारदः-परिडता यः स तथा, गीति- |
रातिगन्धर्वे-गीते नास्य च कुशलः, दयेन युध्यत इति ह- |
ययोधी एवं रथयाधी बाहुखेधी बाहुभ्यां प्रसृद्वातीति बा- |
हुप्रमर्दी साहसिकत्वाद्धिकाले चरतीति विकालचारी । |
पासायवर्डिसए ` त्ति अवतलका इदावतसक्राः शखरा
प्रासादाश्च तेऽवतसकाश्च प्रास्ादावतंसका!ः प्रधानप्रासादा |
इत्यथः ' अच्भुग्गयमूसिय ' त्ति अभ्युद्गतोचिछुतान अत्युत्चा-
नित्यर्थः, अत्र च ट्वितीयाबहवचनलोयो दृश्यः,
विव '
इवत्यथेः, तथा मणिकनकरल्नानां भक्रिभिः-विच्ि्तिभि-
श्वित्रा ये ते तथा वातोद्धता याः विजयशूचिका वेजयन्त्य-
भिधानाः पताकाः छत्रातिज्छत्राणे च नैः कलिता ये ते
तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान् , तुङ्गान कथमिव?-गगन-
तलमयिलङ्गयच्िलुखरान् 'जालंतररयणपेजरूम्मिल्लिय व्व ति
जालान्तपु मन्तालम्बपयन्तषु जालान्तरषु वा जालकमध्यषु
रत्नानि यषां ते तथा तता दवितीयावहवचनलोपो दृश्यः,
` पहासिए |
त्ति प्रहसितानिव श्वतःभाप्रवलप्टलतया दसन्त |
पञ्जरोन्मीलितानि च-प्रृथक॒ुकृतपञ्नराणि च प्रत्यग्रच्छाया- |
नित्यशः, अ्थवा--जालान्तररत्नपञ्जरेः-तत्समुदायविशचरू-
न्मीलितानीवान्मीलितानि चोन्मीलितलोचनानि चेत्यथः,
मणिकनकस्तपिकानिति प्रतीत विकसितानि शतपत्राणि
पुगडरीकाणि च प्रतिरूपापेक्तया साक्ताद्धा येघु ते तथा तान्,
तलक्रः-पुरड़ः रत्नः-- ककतनादराभ अद्धचन्द्रः-सापान-
विशेषैः भित्तिषु वा चन्दनादिमयेरालेख्येः अर्चिता यते तथा
तान् , पाठान्तरेण- तिलकरत्नाद्धचन्द्राचिजान् नाना-
मशिमयदामालक्ृतान् श्नन्तबेद्िश्च श्छच्णान-मखणान् त-
पनीयस्यया रुचिरा वालुका तस्याः भरस्तरः--प्रतर
भ्ाङ्गरषु यषां त तथा तान् , खुखस्पशान सश्चीकाणि सशो-
भनानि रूपाणि- रूपकाणि ययु ते तथा तान, प्रसादीयान- |
चित्ाह्वादकान् दशनीयान-यान् पश्यअक्षुन॑ श्राम्यति , |
अभिरूपान--मनाश्षरूपान द्र॒ष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यषां
ते तथा तान् , एकं महद्धवनमिति, श्रथ भवनप्रा-
स्वादयाः को विशषः ?, उच्यत--भवनमायामपिक्षया कि-
लित् न्यनाच्छायमाने भवति, प्रासादस्तु आयामदिगुणो-
च्छाय इति, अनकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्ं यत्तत्तथा, ली
लया स्थिताः शालभञ्ञिकाः-- पुत्रिका यस्मिन् तत्तथा
अभ्यद्वता-सुकृता वज्जस्य वदिका--द्वारसुरिडकोर्पारे वेदि
का तारण च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभिः रतिदाभिवी
शालभश्िकाभिः सुश्लिष्टाः सवद्धाः विशिरा ल्टाः संस्थि-
ताः प्रशस्ताः वैद्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकन-
करत्नेः खचितं च उज्ज्वले च यत्तत्तथा, ततः पदत्रयस्य क-
मधारयः, ' बहुसम ` त्ति श्रतिसमः सविभक्तो निचितो-नि-
विडो रमणीयश्च भूभागो यत्र तदथा, इंटामगवृषभतुरग-
नरमेकरविहगव्यालकिन्न ररूुरुसरभच म रकु ज़रवन लता पचझ्म--
लताभक्किचित्रमिति यावत् करणात् दृश्यम् , तथा स्तम्भोद्ग
तया-स्तम्भापरिवर्तिन्या वञ्नस्य वेदिकया परिग्रहीते-परि
वेण्रितिमभिरामे च यत्तत्तथा * विज्ाहरजमलजुयलजतजुत्तं
ति विद्याधरयार्यत् यमले समश्रणीकं युगले-द्वयं तनेव यन्त्र
ण-संचरिप्णुपुरुषप्रतिमाद्दयरूपण युक्तं यत्तत्तथा श्राषत्वा-
श्चवविघः समास इति,त था श्र्चिषां किरणानां सदस्नेर्मालनी- |
यं-परिवारणीय ' भिसमाणे ` ति दीप्यमान त |
ति अतिशयन दीप्यमान चक्षुःकर्त लोकने-अवलोकने दशने
सति लिशतीव-दशेनीयत्वातिशयात् श्लिप्यतीव यत्र त~ . ¦
तथा, नानाविधाभिः पञ्चवणाभिधरटाप्रधानपताकाभिः पछ
रिमरिडतमग्रशिखरं यस्य तत्तथा,धवलमरीचिलक्षणं कवच-
कराटकं तत्समूहमित्यर्थः विनिमु न्-वित्तिपन् सदशीनां श-
रीरप्रमाणतोा मघकुमारापत्तया परस्परतो वा सदगवयसां |
समानकालकृताचस्थाविशषाणां सदकृत्वचां सदशच्चवीनां `
सदशैलीवरयरूपयोवनगुरेरुपपतानां, तत्र लावराय-मनोज्ञ- `
ता रूपम् च्राकूतिर्योवने-युवता गुणाः-प्रियभाित्वादयः,तथा ` |
प्रसाधनानि च मरडनानि अष्टासु चाहुषु अविधववधूमि
जीवत्पतिकनारीभियद्वपदन-प्रोड्खनक तच्च मकुलानिच
दध्यक्ततादीनि गानविशषा वा खुजल्पितानि च-आशीवब-
चनानीति इन्द्वस्तेः करणभूतेरिति, इदं चास्मे प्रीतिदाने
दत्ते स्म, तद्यथा-अष्ठों हिरएयकोटीः हिरण्यं च रूप्यम्, एवे
खुवर्णकोटीः, शष च प्रीतिदानं गाथानुसारेण भणितव्यं
यावत्परत्तशकारिकाः । गाथाश्चह नापलभ्यन्त, केवल ग्रन्था-
न्तरानुसारेण लिख्यन्त--
“ अट्टृहिरएणसवन्नय, कोडीओ मउडकुंडला हारा ।
अट ऽटहार एका-बली उ मुक्तावली अट ॥ १॥
कणगावलिरयणावली-कडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा ।
बडजुगपट्टजुगाई, दुकूलजुगलाई अट ( बग्ग ) रु ॥ २॥
सिररिहिरिधिइकित्तीड, बुद्धी लच्छी य हंति अट्टडट्ठ ।
नेदा भदा य तला, फयवयनाडाई आसेव ॥ ३॥
हत्थी जाणा जुग्गा, सीया तह सदमाणि गिज्ञीश्नो ।
थिन्नीइ वियडजाणा, रहगामा दासदासीओ ॥ ४॥
किंकर कंचुड मयहर-वरिसधरे तिविहदीवथाले य । 4
पाई थासग पल्लग, कति वि य य अवएड अवपका ॥ ५॥
पावीड भिसिय करोडि-याओ पल्लकए य पडिसिज्ञा।
इहंसाईहि विसिट्ठा, आसणभेया उ श्रु ॥ ६॥
हंसे१ कुंचेर गरुड, ओण य पणए५ य दीहछ भदे७ य ।
पक्से मयरे पउमे१० , होड दिसासोत्थिए११ कारे ॥७॥
तेन्ञे कोट्ुसमुग्गा, पत्ते चोप य तगर पला य ।
हरियाले हिंगुलए, मणोसिला सासव समुग्गे ॥ ८ ॥
खुज्ञा चिलाइ वामाणि, वडभीओ चञ्वरी उ बसियाश्रो ।
जोणियपल्हवियाओ, ईसणिया धोरुदणिया य ॥ ६ ॥
लासिय लउसिय द्भिणी, सिंहलि तह आरबी पुलिदीय ।
पक्रणि बहणि सरंढी, सवरीश्रो पारसीओ य ॥ १० ॥
छत्तधरी चेडीओ, चामर धरतालियंखयधरीश्रो ।
सकरोडियाधरीश्रो, खीराती पच घायीओ॥ ११ ॥
श्रटुगमदियाश्ना, उम्मदिगविमडियाश्रो य ।
बराणय चुरणय पीसिय, कीलाकारी य दवगारी ॥ १२ ॥
उच्छाविया उ तइ ना-डइज्न कोडविणी महाणसिणी ।
भडारि अज्वघारी, पुष्फधरी पाणियधरी य ॥ १३ ॥
बलकारिय सज्ञाका-रियाश्नाः अब्भंतरी उ बाहिरिया।
पडिहारी मालारी, पसणकारीउ अट्टू5ट्ट ॥ १४॥ ”
श्मन्न चायं पाठक्रमः, स्वरूप च~ अट्टू मउड़े मउडपवरे अ-
ट कुंडल कुंडलजोयप्पवरे ` प्वमोचि्येनाध्येयम् , हाराद्ध-
हारो श्रष्टादशनवशरिकौ एकावली-विचित्रमणिका, मु
रह =. १११
= 239 -=3 -
-ऋ> ~> उती 87 ने नय ॐ
जा =, +> ॥
क्लावली--मुक्काफलमयी , कनकावली--कनकमाणशिकमयी ,
कटकानि कलाचिकाभरणानि योगो-युगले तुटिका--बाहु
र्तिका क्ञोमं--कापोसिक वटकं--जिसरीमय पट्टं-पट्टसूत्र
मयं दुकूल--दुकूलाभिधानवृतक्तनिष्पन्न वल्क-चृत्तवलकनि-
ष्यन्न, श्रप्रभ्रतयः षट् देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां
लाकतो ऽर्थो 5वसेयः , अन्य त्वाहः-नन्दं-वृत्त लोहासने
भद्र-शरासन , मूढक इति यत्प्रसिद्धं , ' तल ` क्षि-अ-
स्यैवं पाठः “ अद्बगतले तलप्पवरे सब्बरयणामए नियगदर-
भवणकेडः ” ते च तालव्ृ्ताः सभाव्यन्ते , ध्वजाः-केत-
चः, 'वए त्ति' गोकुलानि दशसाहस्ल्रिकेण गोवजनेव्यवे दश्य-
म् ˆ नाडय ` त्ति ' बत्तीसइक्द्धणे नाडगेण ` मिति दृश्य-
म् , दाविशद्द्ध-दरर्णत्रशत्पात्रबद्धमिति व्याख्यातारः, ' श्रा-
से ` ति“ आसर आसप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरप-
डिरूवे -ध्रीगृह--भारडागारम् , एवं हस्तिनोऽपि, याना-
नि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविष्ये प्रसिद्धानि जम्पाना-
नि दविदस्तप्रमाणानि चतुरस्त्राणि वदिकोपशाभितानि शि-
बिकाः--कूटाका रेणाच्छादिताः स्यन्दमानिकाः--पुरुषप्रमा-
णायामा--जम्पानविशेषाः , गिल्लयः--हस्तिन उपरिकाल्ञ-
ररूपा मालुष गिलन्तीवेति गिल्लयः , लाटानां यानि अडु-
पल्यानानि तान्यन्यविषयषु 'थिल्लीओ' अभिधीयन्ते, 'चियड-
परियानिकाश्राष्टाप्ट , तत्र सग्रामरथानां कटीप्रमारा-फ-
लकवेदिका भवन्तः वाचनान्तरे-रथानन्तरमश्वा हास्तिन-
आाभिधीयन्त तत्र ते वाहनभूताः ज्ञेयाः, ‹ गाम ` त्ति-
दशकुःलसादासखिको ग्रामः * तिविहदीव ' त्ति त्रिविधा दीपा
अवलम्बनदी पाः ङ्ग (ङ्ख) लाबद्धा इत्यथः, उत्कम्पनदीपाः
ऊध्वंद्रडवन्तः पञ्जरदीपा अश्रपरलादिपज्ञरयुक्वाः जयो-
ऽप्यत तिविधाः खुवररूप्यतदुभयमयत्वादिति , एवं स्था-
लादीनि सोवणदिभेदात् त्रिविधानि वाच्यानि, ` कडवि-
काकलाचिका * अवएज ` इति तापिकाहस्तकः ' अवपक `
त्ति अवपाक्या तापिकति सभाव्यते , ` ' मिसियाओ ` आ-
सनविशषाः करोटिकाधारिकाः-स्थगिकाधारिकाः द्रवका-
रिकाः-परिदहासकारिकाः, शेषे रूढिताऽवस्रयम् , “ शन्न
चे ` त्यादि, विपुल-प्रभूतं धन--गणिमधरिममेयपरिच्चे-
दभेदेन चतुर्विध, कनकं च-सुवर-रत्नानि च--कर्केत-
नादीनि स्वस्वजातिध्रधानवस्तृनि वा मणयः-चन्द्रेकान्तद्या
मोक्किकानि च शङ्खाश्च प्रतीता एव शिलाप्रवालानि च-वि-
द्रमाणि
वालानि च--विद्वमाणि रक्करत्नानि च--पदारागादीनि
_एतान्येव ' सत ` त्ति सत् विद्यमान यत् सारं--श्रधान स्वा
त् सप्तम पुरुष यावदित्यर्थः, प्रकामम-अल्यर्थ दातु-दी-
नादिभ्यो दाने एवं भोक्ल स्वये भोगे परिमाजायतु--दाया
दादीनां परिभाजने तन्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतम , "उ
प्पि ` ति उपरि ‹ फुट्टमाणहिं मुयगमच्थणि' स्फुटा द्ध रिव्या
तिरभसा $ ऽस्फालनात् खदङ्गमस्तकेः-मद्लमुखयपुटेः ' ^; यगिहे
नगरे सिघाडग इत्यननालायक्राशनेदं द्रव्यम् सपरा गत
जाणे ` ति अनाच्छादितानि वाहनानि, 'रह' त्ति-सय्रामिका |
अथवा-शिलाश्व-राजपद्टा गन्धपेषणशिलाश्व प्र- |
पतये-द्रव्यं तद् त्तवन्ताविति प्रक्रमः, किभूतम् ?-- अला- |
हि ` त्ति अल-- पर्यास परिपू भवति “ याव ` त्ति यावत्परि |
माणम् आसप्तमात् कुललक्षण वंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मा- ,
|
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( ४०३ )
अभिधानराजन्द्रः
मेहकभार
गचउक्कचच्चरचउम्सहमहापहपहेसु ` ` महया जणसद्देइ वा
इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-' जणसमूहेइ वा जणबोलेइ वा
जणकलकलेइ वा जणुस्मीइ वा जरणुक्लियाइ वा जणस-
न्निवाणड वा वहुजनो अज्ञमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं पन्ञवेद्
एवं भासइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया समण भगवं
महावीरे आइगंरे तित्थगरे ०जाव संएाविडकामे पुव्वाणु-
पुष्वि चरमा गामाणुगामं दृइज्जमाणे इदमागए इह संपत्त
इह समोसे इदेव गायगिदे नगरे गुणसिलण् चेइए अ-
हापडिरूवं उग्गह उग्गिशिहत्ता संजमेणं तवसा अष्पाणं
भावमाणे विहरइ-तं महाफलं खलु भा देवाणुप्पिया !
तहारूवाणं अरहंताण भगवता नामगोयस्स वि खबण-
याए कि्मग | पुण अभिगमणवेदणणमंसणपडिपुच्छुणप-
ज्जुबवासणयाए, एगस्स चि श्रायरियस्स धम्मियस्स खुब-
यणस्स सवणयाए किमेग ! पुण विउलस्स अट्डस्स गहण-
याए ?, तं गच्छामो शं देवारुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं
वदामो णमसामो सकारेमो सम्मारेमो कज्ञाणे मंगल देवये
चेदयं पज्जुवासामो एय नो पेच भवे हियाए खुहाए ख-
माप निस्सेसाए अणुगामित्ताए भविस्सई' ति कडु क्ति बह-
वे उग्गा ' इह यावत्करणादिदं दषटव्यम्-* उग्गपुत्ता भोगा
भोगपुत्ता एवं राइन्ना खत्तिया मादणा भडा जादा मल्ल
लेच्छुई अन्ने य बहवे राईसरतलवरमाडवियकोडवियदृव्भसे-
ट्विसणावइसत्थवाहप्पमियिओ अप्पगइया चद् एवत्तियं अप्पे-
गइया पुयणवत्तिये एवं सक्रारवत्तियं सम्माणवात्तय को-
उह्लवीत्तय असुयाई सुणिस्सामों खुयाई निस्साकियादई क-
रिस्सामो श्रप्पेगदया मुड भवित्ता आगाराश्रो अणगारियें
पव्वद्स्सामो अप्पगइया पंचाणुव्वइयं सन्त सिक्खावदय
दुवालसविहं गिदिधम्मं पडवल्ञिस्सामो, अप्पेगइया जि-
णभत्तिरागेणं अप्पेगहया जीयमेय ति कट्ट राया कयवलि
कस्मा कयकोडयमंगलपायच्छित्ता सिरसा कंठेमालकडा
आविद्धमणिसुवन्ना कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंब-
माणकडिसुत्तयसुकयसोभाभरंणा पवरवत्थपरिहिया चेद-
णोवलिक्तगायसरीरा अप्पगइया हयगया एवं गयरहासिवि-
यासंदमाणिगया अप्पेगइया पायविहारचारिणा पुरिसवग्गु
रापरिक्छित्ता महया उकिद्िसीदणायवबोलकलकलरवेणं स-
मुदरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहस्स नगरस्स मज़्म॑ म-
ज्मेरं ति ` अस्यायमथः--श्टज्ञाटिकादिषु यत्र महाजनश-
ब्दादयः तत्र बहुजनो ऽन्यो ऽन्यमेवमाख्यातीति वाक्याथः
महया जणसदेद व ` त्ति महान् जनशब्दः--परस्परा-
लापादिरूपः इकारा टाक्यालङ्कारा्थः वाशब्दः पदान्तरा-
पच्तया समुद्याथः । अथवा-' सद्देइ व ` ज्षि-इह सधिश्रयो-
गात् इतिशब्दे द्रष्टव्यः, स चोपध्रद्शेने, यत्र महान् जन-
शब्द् इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा, तत्सखदाय इत्य-
शः, जनवोलः--्रव्यज्कवणो ध्वनिः कलकलः- स एवो-
पलभ्यमानवचनविभागः ऊरम्मिः-सवाघः पवमुत्कलिका--
लघतरः समदाय एवं सन्निपातः-श्रपरापरस्थानभ्या ज-
नानामकज माललन तत्र , बेहुजना ऽच्या-ऽन्यस्याख्यात--
सासान्येन, पज्ञापयति विशेषण, एतदेवार्थद्वयं पदद्धयेनाह
भावते प्ररूपयति चेति, अथवा-आख्याति सामान्यतः
प्रश्ञाप्याति चिशिषतों बोधयात वा भाषत व्यक्वपर्यायवचनतः
( ४०४ )
भधानराजन्द्रः)
महकमार
प्ररूपयात उपपत्तितः “इह आगए.' त्ति राजगह 'इह सपत्त | तः--प्रतीत उद्यानयात्रा-उद्यानगमन |
त्ति गुणशिलके * इह समासंढ ` त्ति साधृचितावग्रह । एतद |
बाह--' देव राय गिदे ` इत्यादि ' अहापडिरूव ` ति यथाप्र- |
तिरूपम--उचितमिव्य्थः “तमिति' तस्मात् * महाफल ` ति |
` तित-,
महत्फलम--अथा भवतीति गम्यम् , ` तहारूवाणे
त्पकारसभावानां मदाफलजननस्वभावानामित्यथ ना-
मगायस्स त्ति नाम्ना याटाच्छकस्याभधानकस्य गात्रस्य
गरनिष्पन्नस्य ` सवणयाण ` त्ति श्रवणन ` किमङ्ग !
पु रि च न 25. * ५ ४५
अङ्गत्यामन्त्रण, अथवा-पारफूण पवाय शब्दा वविशषणाथ
- छ = ।
' त्ति क्रमङ्ग पुनारात पूवाक्ताथस्य वशपषद्यातनाथम , |
इति, अभिगमनम्-अभिमुखगमने चन्दन-स्तुतिः नमस्यन- |
प्रणमन प्रतिप्रच्छन--शरारादिवाताप्रश्चः पयुपासने--सवा |
एतद्धावस्तत्ता तया,तथा पएकस्याप्यायस्य आयेप्रणत॒कत्वात् |
धार्मिकस्य-धमप्रतिबद्धत्वात् ` वन्दामा ` क्षि-स्तुमों नम- |
स्यामः--प्रणमामः सत्कारयामः--आदरं कुमा वस्थाद्यचन
वा सनन््मानयामः--उचितप्रतिर्पात्तिमिः कल्याणं-कल्याणहतु
मह्ूल-दुरितोपशमहेतु देवते-देव चैत्यमिव चेत्ये पयुपास-
यामः--सवामह, एतत् नः--अस्माक प्रेत्यभवे--जन्मान्तर
हिताय पथ्याऽन्नवत् खुखाय-शर्मण क्तमाय--सगतत्वाय
नि:ःश्रयसाय--माक्षाय आनुगामिकत्वाय--भवपरम्परासु-
खानुवन्धिसुखाय भाविष्यतीति कृत्वा-इति हेताबेहब उग्मा-
आदिदेवावस्थापिता रक्तवंशजाः उग्रपुवाः-त एव कु
माराद्यवस्था एवं भोगाः--आदिदेवनेवावस्थापितगुरुवश-
जाताः राजन्या-भगवद्धयस्यवेशजाः क्षत्रियाः सामान्यरा-
जकुलीनाः भराः-शौ्यवन्तो योधाः--तेभ्यो विशिष्ठतरा म-
प्रकिना लच्छुकिनश्व॒ राजविशपाः, यथा श्रयन्ते चरटक-
गाजस्यापष्टादशगणराजानो नव मस्लकिना नव
किन इति, ' लच्छुइ त्ति ` कचिद्धणिजा व्याख्याताः लिप्सव
इति सस्कारेणति, राजध्वरादयः भाग्वद् , ' अप्पेगइय ` त्ति
अप्यक कचन ` चदणवत्तियं `
शिरसा करट च कृता--श्रता माला यस्त शिरसाकरट-
मालाक्रताः कल्पितानि हाराद्धहारजिसरकाणि प्रालम्बञ्च-
प्रलम्बमानः कटिसूृत्रक च यपान्त तथा, तथा ऽन्यान्यपि सु-
छृतशाभान्याभरणानि येषां त तथा, ततः कमेधारयः, चन्द्-
नावलिप्तानि गाजाणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा,
“पुरिसवग्गुर ज्नि-पुरुपाणां वागुरव वागुरा-परिकरं च मह-
या-महता उल्छृण्श्च-आनन्दमहाध्वनिः गस्भीरध्वनिः स्ि-
नादश्च वालश्च-वराव्याक्रव्जिता ध्वनिरव कलकलश्व--
ट्यक्गदचनः स एव एतल्लक्षणा या रयस्तन समुद्ररवभूतमिव
जलघिशब्दप्राप्तामिव तन्मयमिचत्य्था नगरमिति गम्यते
कुचाणाः * एगदिसि ` ति एकया दिशा पूवौत्तरलत्तणया
एकामिसुखा-एक भगवन्तम् अमिमुख यषां त पका-
भमखा निगच्छन्ति, ' इमचण ` तिदइतश्च ` रायमम्गे च
श्रालापमाण एवं चरो विहंरइ, तत णे स मदे कुमारे |
त बहवे उग्ग ०जाव पगदिसाभिमुद निग्गच्छमाणे पासइ
पासित्ता ` इत्यादि स्फुटम्, इन्द्रमहः-इन्द्रोत्सवः
न्यान्यपि पदानि, नवरं स्कन्द्ः--कार्सिक्रयः रुद्रः प्रतीत
शिवो-महादेवः वेश्रमणा-यत्तराट् नागो-भवनपतिविश्चष
लच्छ- |
ति वन्दनप्रत्ययं वन्दनहतोाः |
पव्रम- |
यक्ता भूतश्च ज्यन्तरावशषा चतय सामान्यन पातमा पव- |
सहकुमार
मन गा।रदयागमणपाचातक्तए
ग्ृह्मतवात्त इत्यथः ।
तते णं से भहे कंचुइज़पुरिसस्स अंतिए एतमड सो- .
चा णिमसम्म हड़तुई इत॒द्े कीइंबियपुरिस सदावति २त्ता .
एवं वदासी-खिप्पामेव मो दवाणुष्पिया ! चाउम्घंट |
असरहं जुत्तामेव उबड्रंबह, तह त्ति उवणेति, तत णं .
से मेहे रहात ° जाव सव्वाऽलक्रारविभूसिए् चाउम्घं्ट आ- -
सरह दुरुढ समाणे सकोरंटमन्नदामंण छत्तेणं धरि-
ज्माणणं महया भडचडगरविदपरियालसपगरिवुडे राय-
गिहस्स नगरस्स मज्भं मनञ्णं णिग्गच्छति २ त्ता जे-
णामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ न्ता
समणस्स भगवओं महावीरस्स छत्तातिछत्त पडागाति-
पडागं विज्ञाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पय-
माणे पासति पासित्ता चाउग्घंटाओं आसरहाओ प-
चोरुहति २ त्ता समणं भगवं महावीरं पचविहेणं अ-
भिगमणं अभिगच्छति, तं जहा-सचित्ताणं दव्वाणं वि-
उसरणयाए अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए एग-
साडियउत्तरासंगकरणेणं चक्खुष्फासे अंजलिपग्गहेणं म-
शस। एगत्तीकरणेणं जेणामव समे भगवं महावीरे
तेणामेव उवागच्छति २ त्ता समणे भगवं महावीरं
तिक्खुत्तो आदाहिणं पदादिणं करेति २ त्ता वेदति
णर्मसइ २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स णच्ास-
ने नातिदूरे सुस्पूसमाणे न्मसमाणे अजलियउडे अभि-
मुंह विणएणं पञ्ज्ञवासति, तए श समे भगवं महा-
वीरे महकुमारस्स तसे य महतिमहालियाए परिसाए
मज्कगए विचित्त धम्ममातिक्खति जहा जीवा वज्क-
ति मुच्ति जह य संकिलिस्संति धम्मकहा भणियव्या
०जाव परिसा पडिगया । ( सूत्र-२५ )
“ चाउग्धेटं श्रासहं ` ति चतस्रो घण्टा अवलम्बमा--
ना यस्मिन् स तथा, अश्वप्रधानो रथाऽग्वरथः , युक्क--
मच अश्वादिशिरिति , ` दुरूढे ' क्ति आरूढः ` महया ”
इयादि महद् यत् भटानां चटकरं इन्दं | विस्तारवत् स-
मृटस्तल्लक्तणो यः परिवारस्तेन सपरिवरता यः स तथा।
त्ति परिग्रहीतागमनप्रव्नात्तिको ४
८
जम्भकदेवास्तिथगलोकचारिणः * ओवयमाण ` त्ति च्रव--
पततो व्यामाङ्गणादवतरतः ` उप्पयंते ` त्ति भूतलादुत्प--
ततो दष्ट ` सचित्ते ' व्यादि साचत्तानां द्रव्याणां पुष्प-
ताम्बूलादीनां ' विउसरणयाए ` त्ति व्यवसरणेन ब्युत्स-
जननाचित्तानां द्रव्याणामलड्जारवस्थादीनामव्यवसरणेन--
श्रव्युल्सर्जनेन कचिद् * वियोलरणयेति ` पाठः , तत्र
अचतनठब्याणां चछत्रादीनां व्युत्सजनेन-परिहारेण ,
उक्तं चअ--अबरोुइ पंचककुहाणि रायवरवरसभनिधभूया
` +
। =
णि । त्त खग्गो वाहण,मउड तह चामराओ य॥१॥ ` त्ति `
शका शारिका यस्मिस्तत्तथा तच्च तदुत्तरासङ्गकरणे च
उन्तरीयस्य न्यासविरषस्तेन, चच्लुःस्पशे- दशने श्रज्जलि-
शरग्रहण-हस्तजोरनन मनस पकत्वकरणेन एकाग्रत्वविधा-
नेनेति भावः, कचिदू--' एगत्तभावणं ` ति पाठः, अभिग-
च्छतीति प्रक्रमः, ' महइमहालयाए ` त्ति महातिमहत्याः
[> [न ।
धर्म-श्रुतचारितरात्मकम् श्राख्याति, सच यथा जीवा बध्य- |
न्ते कम्मभिः मिथ्यात्वादिदेतुभियैथा सच्यन्ते तैरेव ज्ञाना- |
आसवनतः यथा संक्तिश्यन्त अशभपरिणामा भवन्तितथा
श्न(ख्यातीति, इहावसरे धम्मेकशथा उपपातिकोक्ता भणित-
व्या, त्र च बहुग्रन्थ इति न लिखितः ।
तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ! महावीरस्स अं
तिए धम्मं सोचा णिसम्म हड्तुदे समणं भगवं महावीरं
तिक्खुत्तो अदाहिणं पदादिणं करेति २ त्ता वदति न- |
मसह २ त्ता एवं वदासी-सदहामि णं भते! शिग्गथं |
पावयण एवं पत्तियामि शं रोएमि णं अब्भुट्टेमि ण-भते!
निग्गंथ पावयणं एवेयं भते ! तहमयं अवितहमेय॑
श्च्छितमेय पडिच्छियमेयं कंते ! उच्छितपडिच्छियमेयं
भते ! से जहेव तं तुब्भे वदह ज नघरं देवाणुष्पिया !
अम्मापियरों आपुच्छामि तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं
पव्वइस्सा मि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवधं करेह,
तते णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वदति नम-
सति २ न्ता जणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवा-
गच्छति २ त्ता चाउग्धटं आसरह दुरूहति २ त्ता महया
भडचडग्रपहकरेणं राय गिहस्स नगरस्स मज्कं मञ्भेण्
ज्ञणामेव सए भवे तणामेव उवागच्छति २ त्ता चाउ-
रखंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहति २ त्ता जेणामेव अ-
म्मापियरो तेणामेव उवागच्छति २ त्ता अम्मापिङणं पा- |
यवडणं करेति २ न्ता एवं वदासी--एवं खलु अम्भया- |
ओओ ! मए समणस्स भगवतो म्रहावीरस्स अतिए धम्मे
शिसंतसे वि यमे धम्म इच्छिते पडिच्छिते अभिरुइए,
तते णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं बदासी- धन्ने सि तुमे
जाया ! सपुन्ो० कयत्थो ° कृयलक्खणोऽसि तुमे जाया !
जषा तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे
णिसंते से वि य ते धम्मे इच्छते पडिच्छिते अभिरुइए,
तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्च पि तच्च पि एवं |
वदासी-एवं खलु अम्मयातो ! मए समणस्स भगवओ
महावीरस्स अंतिए धम्मे निसतेसेवि यमे धम्मे० इ- |
च्छियपडिच्छिए अभिरुइए तं इच्छामि णं अम्मयाओ
तुब्भेहिं अन्भणुलाए समाणे समणस्स भगवतो महावी-
रस्स अंतिए मुंडे भवित्ता ण॑ आगारातो अणगारियं प-
इवइत्तएू, तते ण सा धारिणी देवी तमणिई अकंतं अ-
१०
( ४०५)
किव 2 2 2336
9 30 0076 00.2 70.५
प्पियं अमणुन्नं अमणामं असुयपुव्य फरुस गिरे सोच्चा
णिसम्म इमेण एतारूवेण मणोमाणसिएणं महया पत्त
दुक्खेण अभिभूता समाणी सयागयरोमक्रवपगलंतविली
शगाया सोयभरपवेवियंगी शित्तेया दीणविमणवयणा क
रयलमलिय व्व कमलमाला तक्खणआओ।लुग्गदृब्बलसरीरा
लावन्नसुनिच्छायगयसिरीय। पसिढिलभूसणपडंतखुम्मि-
यसंचुत्रियधवलवलयपब्भट्ट उत्त रिज्ञा सुकुमालविकि न्केस-
हत्था मुच्छावसणट्ट चेयगरुई परसुनियत्त व्व चेपकलया नि-
व्वत्तमहिम व्व इंदलट्टी विश्वुकसधिब्रधणा कोट्टिमतलंसि
सबव्बंगेहिं धसात्ति पडिया, तत णं सा धारिणी देवी ससं
भमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिगारमृहविणिग्गयसीयलज-
लविमलधाराए परिसिंचमाणा निव्वावियगायलद्भी उक्खे-
वरतालवट्ीयणगजणियवाणएणं सफुसिएण अतेउरपरि `
जणेण आसासिया समाणी युत्तावलिसन्निगासपवडंतय्रं -
सुधाराहिं सिचमाणी प्रहर कलुणविमणदीणा रोय-
माणी कंदमाणी तिप्पमराणी सोयमाणौ विलवमाणी महे
कुमारं एवं वयासी-( सूत्र-२६ )
सदहामी ` व्यादि , श्रदध--श्रस्तीदयवं प्रनिप्य नैर
न्थ प्रचचने- जन शासनम् , णव * पलतियामि ` त्ति प्त्ययं
करोम्यत्रति भावः , रोचयामि--कऋर णरूचिविषयी करोमि
चिकीर्षामी त्यर्थ:, किसक्तं भवति ?-अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युपग-
च्छामीत्यथः , तथा पवमवेतत् यद्भवद्धिः प्रतिपादितं
तत्तथैवेत्यथैः , तथेव तद्यथा वस्तु , किस॒क्रं भवति ?-
अवितथे-सत्यमित्यथः , अतः ' इच्छिण ` इत्यादि प्राग्वत् ,
' इच्छिए ` त्ति इष्टः , पडिच्छिण ` त्ति पुनः पुदारिष्टः भाव,
तो वा प्रतिपन्नः अभिरुचितः--स्वादुभावमिवा पगतः * आ-
गाराओं ` त्ति गेहात् निष्क्रम्यानगारितां-खाछुतां प्रत
जितौ मे , मणोमाणसिणण ` ति मनसि भवं यन्मानसि-
कं तन्मनोमानसिकं तन श्रबहिवृत्तिनेस्यर्थः, तथा स्वे
दागताः-श्रागतस्वेदाः रोमकूपा ययु तानि स्वदागतरो -
मकूपाणि, तव एव प्रगलन्ति--त्तरन्ति विलीनानि च क्लि-
प्नानि गात्राणि यस्याः सा तथा, शोकभरेण प्रवेपिताङ्गी
कम्पितगात्रा या सा तथा, निस्तजा, दीनस्यव-विमनसे
इव वदन वचन वा यस्याः सा तथा, तत्क्तणमेव-प्रवजा-
मीति वचनश्रवण्तणे पव अवरूग्णं स्लानं दुबल च श-
रीर यस्याः सा तथा, लावरयेन श्न्या लावरयशन्या नि-
च्छाया--गतश्रीका च या सा त्थति, पदचतुष्टयस्य कर्म-
धारयः, दुबलत्वात् प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा
तथा, कशी भूतबा ह॒त्वात्पतन्ति--विगर्लान्त ` खुम्मियः क्षि-
भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चुितानि च-भूपा-
तात् एव भग्नानि धवलवलयानि यस्याः सा तथा, प्रश्रष्ठ-
मुत्तरीय च यस्याः सा तथा , ततः पदरत्रयस्य कर्मधारयः,
सुकुमारो विकीणेः कशदस्तः-केशपासा यस्याः सा तथा,
मूच्छौवशान्नष्र चतसि सति मुब्बी-अलघुशरीरा या सा
तथा, परशुनिक्रत्तव चम्पकलता कुट्टिमतल् पतिनति स-
( ४०६ )
अभिध्ानराजन्द्रः।
वन्धः, निशत्तमहा इव इन्द्र यण्ः-इन्द्रकेत॒चवियुक्कसन्धिवन्ध- |
सेहकुमार
ना ऋछथीकनसन्धाना धसतीत्यनुकरण ससश्रम व्याकुलचि- |
त्तया ` उवांत्तयाए ' क्षि अपवर्लितया क्षिप्तया त्वरित-
शीघ्र काशझ्षतभ्रज्ञारमुखविनिर्गता या शीतलजलावमलधारा
|
तया पररिपिच्यमानाः निवापता--शीतलीकता गात्रय्ठि- |
यस्याः सा परिपिज्यमानानिर्वापितगाजयए्ि:
वंशद्लादिमयों मुित्राद्या डरडमध्यभागः
लाभिघानचबृक्षपत्रद्न्तं
तालच्रन्त ता-
ता या वातस्तन ` सफुसिएणं
जनन समाश्वसिता सती
पतद्चच्छाट इव्यथः, तदाकार वा चमे- |
मये वीजनक न-वंशलादिमथप्रवान्तंर्राद्यदण्डम् णतेजनि- |
सोदकविन्दुना अन्तःपुर- |
सुङ्धावली सान्नकाशा याः प्र- |
» उत्तपका |
।
पतन्त्या 5श्र्वारास्ताभः सजन्त पयाचरा, करुणा च वम- :
नाश्च दीना च या सा तथा, रुदन््ती-साश्रुपातं शब्दं वि-
दधाना कन्दन्ती ध्वानिविशषेण तपमना-स्वदलालादि क्षर-
न्ती शोचमाना- हद यन विलपन्ती-्ा स स्वरेण ।
तुम सि ण॑ जाया! अम्ह एगे पुत्त इद कते पिए मणुने म-
णामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भडकरंडगस-
माणे रयणे रयणभूते जीवियउस्सासयहिययाणंदजणणे |
उंबरपुष्फं व दुल्लमे सतणय।ए किमड्ढ ! पुण पासणयाए? णो |
खलु जाया ! अम्दे इच्छामो खणमत्रि विष्पओगं सहित्तते तं |
आजाहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव _
वयं जीवाम त्रो पच्छा अम्हेहि कालगतहिं परिणयवए
वड्डियकुलबंसतंतुकज़॒म्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ
महावीरस्य अंतिए मंडे भविक्ता अगारातो अणगारियं
पव्वहम्ससि | तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं
वत्त समा अम्मापियरो एवं वदासी -तहेव णं तं अम्म- |
तायो ! जहेव शं तुम्हे मम एवं वदह तुमंसिशं जाया!
अम्हं एगे पुत्ते तं चेव ° जावर निरावयक्खे समणस्स भग-
व्र महावीरस्स० जाव पव्वइस्ससि, एव खलु अम्मया-
ओ। ! माणुस्सए भवे अधुवे अशियए असासए वसण-
सच वद वाभिभृत त्रिज्जुलयाचचल अशिच जलबुब्बु यस-
माण कुयग्गजलविदुसनिभे सेकब्भरागसरिसे सुब्रिण- |
दंसणोवरभ सडणपडणत्रिद्धसणधम्म पच्छा पुरं च णं अ-
वस्मविप्पजहणिन्जञे से के णं जाणति अम्मयाओं ! के
पुव्वि गमणाए के पच्छा गमणाए् १, तं इच्छामि शं
अम्मग्राओ ! तुब्भेहिं अन्भणु्नाते समाणे समणस्स भ-
गवता ०जाव पल्गरतित्तण, तत ण त भह कुमार श्रम्मा |
पियग एवं बदामी-इमाता त जाया ! सरिसियाओं
म रिमत्तयाग्रा
सरिसवयाओं सरिमिलावन्नस्वजोव्वण- |
गगाववयाआ। सारस।हता रायकुल।हतोा आंणियल्ियाओ |
भाग्यिआ, ते जाहि ण जाया ! एताहिं सद्धं विपुल |
माणम्मण कामभोंगे तओ पच्छा मुत्तभोगे समणस्स०
जावर पव्वइस्ससि, ततणंस मदे कुमार अम्मापितरं एवं
वदासी-तहेव णे अम्मायाग्रो ! जन्न॑ तुब्भे मम एवं वद्ह
इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ ०जाव समणस्स भगव-
ओ महावीरस्स अते पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! `
माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्ता- .
सवा खलासतरा सुक्रासवा सोणियासवा दुरस्सासनीसासा _
दुरुयमुत्तपुरीसपूयवहूपडिपुन्ना उच्चारपासवणखेलजन्न- `
सिघाणगवंतपित्तसुकसाणितसंमवा अधुवा अणित्तिया _
असासया सडरपडणविद्धसणधम्मा पच्छा पुरं च श
अवस्सविष्पजहणिज्ञा, से के ण अम्मयाओ ! जाणति `
के पुव्वि गमणाए के पच्छा गमणाए १, त इच्छामि श.
अम्मयाओ ! ०जाव पव्वतित्तए । तत श तं मेहे कुमार
अम्मापितरो एवं वदासी इमे य ते जाया ! अज्जयपज्ञ- `
यपिउपज्जयागए सुब्रहुहिरने य सुवण्णे य कंसे य दूसे य
मणशिमोत्तिए य सेखसिलप्यवालरत्तरयणसतसारसावति- _
ज्जे य य अलाहि ०जाव आसत्तमाओं कुलवंसाओ पगामं
दाउं गामं भोक्तु पगामं परिभाणएड त अणुहोहि ताव
० जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगे इड़सकारसमुदयं त्रो
पच्छा अशुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्सं ,
अंतिए पव्वरस्ससि, तते श से मेहे कुमोर अम्मापियरं
एवं बदासी- तदेव शं अम्मयाओ ! > तं वदह इमे ते
जाया ! अज्जगपज्जग ° जाव तच्रा पच्छा अणुभूय
कछाणे पव्वहस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ ! हिरन य
सुवण्णे य० जाव सावतेज्े अग्गिसाहिए चोरसाहिए
रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसामन्ने ०जाव
मच्चुसामनन सडणपडणविद्धसणधम्मे पच्छा पुरं च श
अवस्सपिप्पजहणिज्ञे से के णं जाणइ अम्मयाओ ! के
०जाव गमणाए, तं इच्छामि ण ०जाव पच्वतित्तए । तते
र तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरों जाहे नो संचालेइ
महं कुमार बहूहिं विसयाणुलोमाहि आषवणाहि य पन्न-
वणाहि य सन्नवणाहि य बिन्नवणाटि य आघवित्तए वा पन्न
वित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा तहे विसयपडि-
कूलाहिं संजमभवउव्वेयकारियाहिं एल्नवणाहिं पन्नवेमाणा
एवं वदासी-एस ख जाया ! निग्गंथे पावयणे सवे अ-
णुत्तर केवलिए पडेषुन्ने शयाउणए संसद्भ सन्नगत्तणे सि-
द्विमग्गे मुत्तिमर्गे निज्ञाणमग्गे निवाणमग्गे सव्यदुक्खप्प-
हीणमग्गे अहीव एगंतदिड्वीए खुरो इव एगंतथाराए लोह-
मया इय जवा चावेयव्या बालुयाकव॒ले इव निरस्साए-गंगा
इव महानदी पडिसोयगमणाणए महासमुद्दो इ आ्ुयाहिं-
दुत्ते तिक्खं चकमियव्वं गरुआ लेवेयव्वं असिधार च्व
संचरियव्यं, णो य खलु कप्पति जाया ! समणाणे नि-
( ४०७ )
मेंहकुमार _
ग्गृधाण आहाकम्मए वा उदसए वा कायगड़ वा खवः
_ अभिधानराजेन
यए वा रइयए वा दुब्भिक्खभत्त वा कतारभत्त वा वरह |
लियाभत्ते वा गिलाणभत्ते वा मूलभोयणे वा कंदभोयणे
क् वा फलभोयणे वा बीयभोयण वा हरियभोयणे वा भोत्तए
वा पायए वा, तुम चण जाया ! सुहसमुचिएणो चेवणे
दुहसम्रचिए शालं सीयं णालं उण्ह णालं खुह शालं
पिवासं शालं बाइयपित्तियसिभियसनिवाइयविविहे रो-
गायके उच्चावए गामकंटए वावीसं परीसहोवसग्गे उदि-
न्ने सम्म अदियासित्तए, भ्र॑जाहि ताव जाया ! माणुस्सए
कामभेगे ततो पच्छा भ्रत्तमोगी समणस्स भगवओ महा- |
वीरस्स ० जाव पव्वतिस्ससि, तते ण से महे कुमारे अम्मा-
पिऊहिं एवं वुत्त समाणे अम्म।पितरं एवं वदासी - तहव
श तं अम्मयाओ ! जन्न तुन्भे मम एवं बदह एस श
जाया ! निग्गंथे पावयण सचे अणुत्तरे० पुणरंवि तं चव
०जाव तओ पच्छा यत्तमोागी समणस्स भगवओ महावी-
रस्स० जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ ! णिग्गंथे
पावयणे कौवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिव-
द्वाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स णो- |
चेव ण॒ धीरस्य निच्छियस्स ववसियस्स एत्थ किं
दुक्करं करणयाए १ तं इच्छामि ण अम्मयाओ ! तु- |
न्भेर्हिं अन्भणुनाए समश समणस्स भगवञ्मो ०जाव
पच्वहत्तए | ( सूत्र-२७ )
जाय ` त्ति हे पुत्र | इष्टः इच्छाविषयत्वात् कान्तः कम-
नीयत्वात् भियः प्रमनिबन्धनत्वात् मनसा ज्ञायस उपादेय- |
तयेति मनोज्ञः मनसा श्रम्यसे-गम्यस इति मनो ऽमः, स्थेय- |
गुणयोगात् स्थेयों वैश्वासिको-विश्वासस्थाने समतः कार्य-
करण बहुमतः बहुष्वपि कार्येषु वडवा ऽनल्पतयाऽस्तोक- |
तया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः,
भार्डकररडकसमानो ` भारडम्-श्राभरणे, रत्नमिव रत्न |
मचुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यथः , रत्नभूतः
चिन्तामणिरल्नादिकरपो जीवितमस्माकमुच््रासयसि-वद्ध-
यसीति जीविताच्छासः स पव जीवितोच्छासिकः ,
वाचनान्तरे तु-जीविउस्सइए' त्ति-जी वितस्योत्सव इव जी.
चतोःसवः स एव जीवितोतसविकः,हदयानन्द जननः उदुम्बर-
पुष्पं ह्यलभ्यं भवति अतस्तेनोपमानं, 'जाव ताव श्रम्ेदिं जी-
वामो ' त्ति इह भुङ््व तावद्धोगान् यावदयं जीवाम इत्येताव- |
तैव विवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत् शब्दस्योच्चारणे तद्धाषा- |
मामेवेति, परिणतवया 'वद्वियकुलवंसतंतुकज्ञम्मि' बद्धि-
ते बृद्धिमुपागते पुजपोत्रादिभिः कुलवंश एव--सन्तान एव-
तन्तुः दीघत्वसा धर्म्यात् कुलवेशतन्तुः स पव कार्य-कछू-
व्यं तस्मिन् , ततः “ निरवेक्खे ` त्ति निरपेत्तः सक्रलप्रयो-
जनानाम् “श्रधुवे' त्ति नध्रवः सूर्योदयवत् न पर्तिनियतकाले
अचश्यंभावी, अनियतः इश्वरादेरपि द्रिद्रादिभावात् ,अशा-
श्वतः च्णविनश्व स्त्वाद् व्यसनानि-द्यूतचो यादीनि तच्छुतेरू-
मेहकुमार
पद्रवः स्वपरसभ्वेः सदोपद्रवैी ए्रभिभूतो-व्याप्तः.शटने-कु-
छठादिना अङ्कस्यादेः पतन-वाद्वादः खङ्ग च्छृदादिना विध्वे-
सन--त्तयः पत पव धस्मी यस्य स तथा, पश्चात--विवक्ति-
तकालात्परतः * पुरे च ` त्ति पूतश्च णमलेक़तो * अवस्स-
विप्पजहाणजञ' अवश्यं त्याज्यः । सकण 'जागइ' त्ति अथ
को जानाति ? न कोऽपील्यथः, अम्ब तातक ! पूर्व-पिवाः
पुत्रस्य चान्यो ऽन्यतः गमनाय परलोकं उन्सहत कः पश्चाद्रम-
नाय तत्रैवात्सहते इति, कः पूर्व को वा पश्चान्प्रियते इत्यथः
वाचनान्तर-मघ्रकुमारभायौवसीक एवमुपलभ्यत ' इमाओ ते
जायाओ विपुलकूलबालियाओ, कलाकुसलसव्वकाललालिय-
सुहोइयाओ मदवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्ख-
णाओ ' परिडतानां मध्ये विचणाः परिडितविचक्तणाः अ-
तिपणिडता इत्यथः “ मजुलमियमहुरभणियद सियविष्पकिखर-
यगइजिलासयबट्टियविसारयाओ ` मजञ्जुल-कोमले शब्दतः
मित- परिमितं मधुरम-श्रकटोरमथतो यद्धणितं तत्तथा
अवस्थितं-विशिष्टस्थिति शेष कण्ट्यम् * श्रविकलकुलसील-
सालिणीओ विखुद्धकुलवेससं ताणततुवद्धणपगव्भुञ्भवप्प-
भाविणीओ ` विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः विस्तारवत्त-
न्तुः तद्वदधैना ये प्रकृष्टा गब्भौः-पुजवरगभीस्तयां य उद्धवः-
सभवस्तल्लत्तणो यः प्रभावा-मादाल्म्य स विद्यत यासां ताः
तथा ` मणोखुक्रलेहिययदच्छियाया ` मनोऽनुक्रूलाश्च त,
हृदयनेष्सिताश्चति कम्मंधारयः, “ श्ट्रु तुञभगुरवल्लटा-
! गुणवैज्लमा यास्तास्तथा ' भज्ञाओ उत्तमाओं निच
भावाणुरत्ता संव्वेगसुदरीओ ' त्ति ` माणुस्सगा. कामभो-
ग' त्ति इह कामभोगग्रहणन तदाधारभूतानि स्रीपुरुष-
शरीरारायभिप्रेतानि श्रशुचयः अशुचिकारणत्वात् वान्त-
वमन तदाश्रवन्तीति बान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि , नवर
पित्त प्रतीतं खलो निष्ठीवने शुक्र-सप्तमो धातुः शोणितं-
रक्तं दुरूपाणि-विरूपाणि यानि मूतरपुरीषपुयानि तैबेहुप्र-
तिपृणीः उच्चारः पुरीषं भरस्नवणं- मूत्रे खलः- प्रतीतः
सिङ्घाणो-नासिकामलः वान्तादिकानि प्रतीतान्येतभ्यः
सभवः-उत्पत्तिर्येषां ते तथा “ इमे य ते ' इत्यादि,
इृंदें च ते आयेकः पितामहः भ्रा्यकः दितुः पितामहः पि-
तृप्रायकः--पितुः प्रपितामहः तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्त-
था, अथवा-श्रायकप्राथकपितृणां यः पयायः परिपाटिरि-
त्यन्थौन्तरे तेनागतं यत्तन्नथा, “, अग्गिसाहिए ‹ इत्यादि,
श्रन्ेः स्वामिनश्च साधारणे ' दाइय ' ति दायादाः पुत्रादयः,
पतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादना्थं पयायान्तरेणाद-
“ श्मग्गिसामरणे ' इत्यादि, शने वखादेरतिस्थगितस्य-
पतन-व्णादिनिनाशः विध्वंसने च्र-प्ररृतेरुच्छेदः धर्म्मों
यस्य तत्तथा, ` जादे नो संचाएति त्ति ` यदा न शक्चु-
वन्तौ, ' बहृदि विसए ` त्यादि, वद्ीभिः विषयाणां --शब्दा-
दीनामनुलोमाः तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेन अनुकूला विषया-
जुलोमास्ताभिः श्राख्यापनाभिश्च-सामान्यतः प्रतिपादने
प्रज्ञापनाभिश्च-विरेषतः कथनेः संज्ञापनाभिश्च--संबो धना-
भिर्विशापनाभिश्च-विज्ञप्तिकाभिश्व सप्रणयप्राथनेः चकाराः
समुच्ययाथा: आख्यातुं वा प्रज्ञापयितु वा संज्ञापयितु वा
विज्ञापयितु वा शकनुत इति प्रक्रमः ˆ ताह ` त्ति त-
दा विषयप्रीतकूलाभिः शब्दादिविषयाणां परिभोगनिषध-
( ४०८ ) हे | न
मेहकुमार
अमभिधानराजन्द्रः |
कत्वेन प्रतिलोमामिः संयमाद्शयमुद्ठेग च-चलने कुवन्ति |
दुष्करत्वध्रति- ¦
यास्ताः सयमभयाद्वगकारिकाः सयमस्य
।।
पादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्तों एवमवादिष्टा म- |
* निग्गंथे ` त्यादि , निग्रेस्था:ः साधवस्तषामिदे नेत्रन्थं प्र-
चचनमेव प्रावचने सद्भ्यो हितं सव्यं सद्धूते वा नास्मा- |
दुत्तर-प्रधानतर विद्यत इत्युत्तरम् , श्न्यदप्यनुत्तरं भ- ¦
विष्यतीत्याद -केवलिकं केवलमभ्-अद्धितीये केवलिप्रणीत- |
न्वाद्वा कवलिकं प्रतिपूणेम-अपवर्गप्रापकेर्गुणअ्वंत नयन- |
शाल नयायक माक्षतगमकामत्यथः, न््याय वा भव नेया-
यक माक्षगमकामत्यथः सशुद्ध सामस्त्यन शुद्धमकान्ता-
कलङ्कमित्यथः शल्यानि मायादीनि कृन्ततीति शस्यकर्तनं |
सेधने सिद्धिः हिताथप्राप्तिस्तन्मार्ग: सिद्धिमार्गः मुक्तिमा-
गे: अहितकर्म विच्युतेरुपाय:, यान्ति तदिति यानं निरुपमं
याने नियानं सिद्धिक्षेत्र तन््मागों निर्याणमार्गः एवं नि-
वाणमागों ऽपि नवरं निर्बाणे-सकलकर्मविरहज सखुखमि-
ति सर्वेदुःखश्नक्षी णमार्गे: सकलाशमेत्तयोपायः अहिरिव ए-
कोऽन्ता निश्चया यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टि: बुद्धि-
येस्मिन्निग्रेन्थे प्रचचने-चारित्रपालने प्रति तदेकान्तदष्टिक-
म् | अहिपक्ते आमिषशग्ररह॑णेकतानतालक्षणा एकान्ता-एक-
निश्चया ष्ठिः टक् यस्य स एकान्तदाष्टिकः क्षुरप इव एक-
धारा द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभांवात् , पा- |
ठान्तरेण-णएकान्ता-एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा,लो- |
दमया इव यवाः चवेयितत्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोह-
मययवचवैणमिव दुष्करं चरणमिति भावः, वालुकाकवल-
इव निरास्वादं वेषयिकसुखास्वादनाप्तया प्रवचनम् , गद्गेव
महानदी प्रतिक्रोतसा गमन प्रतिश्रातोगमने तद्धाचस्त-
त्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनन गङ्गव दुस्तरे प्रधधनमनुपा-
लयितमिति भावः, एवे समुद्रोपमान प्रवचनमिति ती-
च्णो खड्ग कुन्तादिकं चङ्कमितव्यम्--आ्रक्रमणीयं यदेत~ |
क्रमितुमशक्यमे-- |
त्प्वनने तदिति, तथा खड़ादि
चमशक्य प्रवचचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुक महा-
शिलादिक लम्बंयितव्यम--अवलम्बनीये प्रवचने गुरु, |
कलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, श्रसिधारायां से- |
चरणीयमित्येवेरूप यद्व्रतं--नियमस्तदसिघाराव्रते च-
रितव्यम--आसेव्य यंदेतत्मवचनानुपालने तद्धद्तदृष्कर-
मित्यर्थः, कस्मादेतस्य दुष्करत्वमत उच्यते ' नो य कप्पई
त्यादि, ' रइप व ` त्ति श्रौदेशिकभदस्तश्च मादकचूर्णादि- |
पुनर्मोदकतया रवितं भक्कमिति गम्यते, दुभित्तभक्घं यद्धि- |
च्ुकार्थ दुभिन्ते सेस्क्रियते, पवमन्यान्यपि, नवरं कान्तारम्- |
अरगराये वदैलिका- वटः ग्लानः सन्नारोग्याय यददाति |
तद् ग्लानभक्कम्, मूलानि पद्मसिन्नाटिकादीनां कन्दा
सूरणादयः फलःनि-श्राघ्रफलादीनि वीजानि-शाल्यादीनि
इहरिते-मधुरत्णकटुभाणडादि भोक्ल वा पातु वा नाल--
न समर्थः शीता्यधिसादुमिति यागः,
रोगाः--कुष्ठादयः |
आतक्ला--आशुर्घातिनः शलादयः उच्चावचान--नानाविधा- |
न् ग्रामकरटकान--ईन्द्रियवरगप्रतिकूला न , ` एवं खलु अ-
म्मयाश्रो ! इत्यादि यथा लोहचर्वणाद्युपमया दुरजुचर--
दु खासव्ये नेग्रन्थम् प्रवचने भवरद्धिस्क्रमव--दुरजुचरमव
केष्णं ?-ङ्खावानां-मन्दसद्ननानां कातराणां--चित्तावण्र-
म्भवजितानामत एव कापुरुषाणां कुन्सितनराणां , विशेषण्
दय तु कण्व्यम्, पूर्वाक्रमवाथमाद--दुरनुचरं-दु
नेग्रन्थं प्रवचनामति प्रकृतं , कस्येत्याह--प्राकृतजनस्य ,
पतदेव व्यतिरेकेणाद-- नो चेव र ` नेव धीरस्य-साद-
सिकस्य दुरजुचरमिति प्रकृतम् , एतदेव वाक्यान्तरेणाह- `
निश्चितं-निमश्चयवद् व्यवसितं व्यवसायः कम्म यस्य स,
तथा तस्य, ' एत्थ ` त्ति अत्र नेग्रेन्थे प्रचचने कि दुष्करं ?
न किञ्चित् दुरनुचरमित्यर्थः, कस्यामित्याह-' करणतायां
करणाना-सयमव्यापाराणा नवः करणता तस्या, सयम-
योगेषु मध्ये इत्यथः, तत्-तस्मादिच्छाम्यम्ब ! तात) । |
तते णे तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो सचाईइति `
बहूहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आ-
घवणाहि य पन्नवणादि य सन्नवणाहि य विज्नवणाहि य॒
आधवित्तएं वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए
वा ताहे अकामणए चेव मेहं कुमारं एवं वदासी इच्छामो
ताव जाया ! एगदिवसमवि ते रायसिरिं पासित्तए, तते
शं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणवत्तमाणे तुमिणीए सं
चिट्ठति तत ण स सेणिए राया कोइंबियपुरिसे सदावे-
ति २ त्ता एवं वदासी-खिप्यामेव भो देवाणुप्पिया !
भेदस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिदहं विरलं रायाभि-
सयं उवद्ुवेह, तते श ते कोडवियपुरिसा ०जाव ते वि
तहेव उबद्गवेंति, तते श से सेणिए राया बहूहि गणणा-
यगंदडणायगेहि य० जाव संपरिवृड मेह कुमारं अट्टसएरां
सोवननियाणं कलसाणं एवे रुप्पमयाणं कलसाणं सु-
वन्नरुप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुव-
नमणिमयाणं कलसाणे रुप्पमणिमयाणं कलसाणं
सुव न्नरुप्पमणिएयाणं कलसाणं भेमिज्ञाणं कलसाणं
सव्वोदणएहिं सव्वमद्धियाहिं सब्वपुप्फेहि सव्वगेधेदिं
सव्वमल्लेहि सव्वोसहीहि य सिद्धत्थणहि य सब्वि-
ड्रीए सव्वजुईए सव्ववलेणं °जाव दुंदुभिनिग्घोसणादि-
तरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिचति २ त्ता क-
रयल ०जाव कट एवं वदासी-जयजयणंदा ! जय-
जय भदा ! जय रादाभद्या ! मदं ते अजिय जिणेहि
जियं पालयाहि जियमञ्फे वसाहि अजियं जिणेहि स-
तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्ख° जाव भरहो इवं
मणुयाणं रायांगेहस्स नगरस्स अन्नेसि च बहणं गामा-
गरसगर० जाव सन्निवेसाणं अहिवच्चें० जाव विह-
राहि त्ति कटु जयजयसदं पउंजंति, तते णं से मेह
राया जाते महया ० जाव विहरति, तत॒ णं तस्स मेहस्स
र्नो अरम्मापितरो एवं बदासौ-भण जाया ! कि दल- `
यामो कि पयच्छामो कि वा ते हियइच्छिए सामल्थे
( मन्ते) ?, तते ण॑ से महे राया अम्मापितरों एवं व-
( ४०६ )
0:
दासी-इच्छामि णं अम्मयाञ्। ! कुत्तियावणाओं रय
हरणे पडिग्गहगं च उवशेह कासवयं च सद् वह, तते णं
स सेशिए राया कोईबियपुरिस सदावति सद्दावेत्ता एवं
वदासी-गन्छह शं तुब्भे देवाणुष्पिया ! सिरिघरातो
तिनि सयसहस्मातिं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तिया -
वणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवशणह सयसहस्सणं
कासवर्य सद् विह, तते णं ते कोइंबियपुरिसा सणिएणं
रत्ना एवं वुत्ता समाणा हड्ठतुद्गा सिरिघराओ तिनि सय-
सहस्साति गहाय कुत्तियावणाओं दाहि सयसहस्सेहिं रय-
हरणे पटिग्गहं च उवणंति सयसहस्सणं कासवयं सदावेंति,
तत ण से कासवए तेहिं कोडव्रियपुरिसिं सदाविए स-
मणे हट °जाव हयहियए णहाते कतवलिकम्मे कयकों-
उयमगलपायच्छित्त सुद्धप्पाविसातिं वत्थाई मगलाईं पव-
रपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकितसरीरे जव सणिणए
राया तेखामेव उवाभच्छति २ त्ता सेणियं रायं करयल-
मेजलि कट्ठु एवं वयासी-संदिसह णं दवाणुप्पिया ! ज '
मए करणिज्जं, तते ण से सेणिए राया कासवयं एवं व-
दासी गच्छाहि र तुमं देवाणुषिया ! सुरभिणा गंधो- |
दणएशं शिक्र हत्थप।ए पक्खालह सेयाए चउप्फालाए पो-
त्तीए मुहं वंधता मेहस्स कुमारस्म चउरंगुलवज्ञ शिक्ख-
मणपाउग्गे अग्गकेमे कप्पहि, तते श॒ स कासवए से
सििणणं रना एव वृत्ते समाणे हट ०जाव हियए ०जाव प-
डिसुणेति २ त्ता सुरभिणा गधोदएणं हत्थपाए पक्वां `
लेति २ त्ता सुद्धवत्थेण महं बंधति २ त्ता परेणं जत्तेणं
मेहस्स कुमारस्य चउरंगुलवज णिक्खमणपाउग्गे अग्ग-
कैसे कप्पति, तत श तस्स महस्य कुमारस्स माया महरि-
हेणं हंसलक्खणेणं पडसाडणएणं अग्गकेसे पडिच्छति २
त्ता सुरभिणा गंधोदणरणं पक्खालेति २ त्ता सरसेणं गो-
सीसचंदर्णणं चच्चा आदलयति २ त्ता सेयाए पो-
त्तीए बंधति २ त्ता रयणसमुग्गयंसे पक्खिवति २ त्ता
मंजूसाए पक्खिवति २ त्ता हारवारिधारसिंदुवारदिन्नमु-
त्तावलिपगासाई अंखई विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २
कंदमाणी २ विलवमाणी २ एवं वदासी-एस श अर्द
भेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पव्वसुं य
तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य अपच्छिम
दरिसणे भविस्सइ त्ति कटं उस्सीसा मृले स्वेति , तंते
श॒ तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरों उत्तरा-
वक्रमशं सीहासणं रय।वेंति महं कुमार दो पि तच
पि सेय्पीयएहिं कसेहिं एहावेंति २ त्ता पम्हलसुकु-
मालाए गंधकासाइयाए गायाति लृति २ ना
६०३
[8 पृ {6
अआभध्रानराजन्द्रः।
ओ।हारमाणीओं २
| | मेदकुमार
सणं गोसीसचद शणं गायाति अशुलियंति २ त्ता नामा-
नीसासवायवोज्मं०जाव हंसलक्खर्ण पड़गसाडर्ग नियं-
संति २ त्ता हरं पिणद्वाति २ त्ता अरद्रह।रं पिणद्रति र्ता
एगावलि मुत्तावलिं कणगावलि रयणावलि पालवरं पाय-
पलंवं कडगाई तुडिगाई कडराति अंगयातिं दसमुद्दिया-
रतयं कडिसुत्तय कुंडलातिं चडामणि रयणुकर्ड मउडं
पिणद्धंति २ त्त दिव्य सुमणदामं पिणद्धंति रन्ता ददु-
रमलयसुंधिए गंध पिणद्धंति, तत णं ते मह कुमार गं-
टिमवेहिमपूरिमसंघाइमेण चउव्विहेण मल्लेण कप्परुक्खग
पिव अलंकरितवरिभूधियं करेति, तंत णे स सणिए राया
कोइंबियपुरिसे सदविति २ त्ता एवं वयार्सी-खिप्पामव
भो देवाणुप्पिया ! अशगर्खभसयसन्निवि्ट लीलड्रियसा
लर्भजियागं इंहामिगउसमतुर॒यनरमगरविहगवालगकिन्न-
ररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमल यभ त्तिचित्त घंटावलिम-
हुरमणहरसरं सुभकतद्रिसणिज्ञं निउण।विय मिसिमिसि-
वरमणिरयणवटियाजालप रि किखत्तं अब्भग्गयवइरवेतियाप-
रिगयभिरामं विज्ञाहरजमलजंतजुत्त पिव अच्चीसहस्स-
मालणीयं स्वगसहस्सकलियं भिसमाणं भिन्भिसमाणं
चक्खलोयणलेस्सं सुहफास सस्सिरीयरूव सिग्घं तुरितं
चवलं वतिय पुरिससहस्सवादिणीं सीय उवद्रबह , तते
श ते कीइंब्ियपुरिसा हड्डतुड्ठा जाव उवद्वबति , तत र
स महे कुमारे सीयं दुरूहति २ त्ता सीहासणवरगए पुर-
त्थाभिमुहे सननिसने, तते ण तस्स भेदस्स कमारस्स मा-
या एहाता कयवलिकम्मा ०जाव अप्पमहग्धाभरणालंकि
यसरीरा सीयं दुरूहति २ त्ता मेहस्स कुमारस्स दाहिणे
पासे भह्दसणंसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमा-
रस्स अंबधाती रयहरण च पडिग्गहगं च गहाय सीयं
दुरूहति २ चा महस्स कुमारस्य वामि पासे भद्दासणंसि
निसीयति, तते णं तस्स महस्स कुमारस्स पिट्रितो एगा
व्रतरुणी सिगारगारचारुवेसा सगयगयहसियभणियचे-
ट्रेयविलाससल।!वुछावनिठ्णजुत्तोवयारकुसला आमेलग-
जमलजुयलवट्टियअब्भ्न्नयपीणर तियसंठटितपओहरा हिम-
रययकुंदेदुपगा्स सकोरंटमन्नदामधवरल आयवत्त गहाय
सलीणं ओहारेमाणी २ चिद्ति, तते णं तस्म मेहस्स
कुमारस्स दुवे वरतरुर्णीओ सिंगारागारचारुपसाओ। ० जवि
कुसलाओं सीयं दरूहंति २ त्ता महस्य कुमारस्स उभग्रो
पास नाणामणिकणगरयणमहरिहतयणि ज्जुज्लवि चित्त-
दूडाओं चिल्नियाओं सुहमवरदीहबाल।ओ। संखकुंदद गरय-
र परयमहियफ़णपुजसन्निगासास्र( चामराओं। गह।य सर्लील॑
चिट्ठंत , तत णे तस्स महकुमारस्स
( ५१० )
मरेकुमार
एगा वरतरुर्णी सिंगारागार ० जाव कुसला सीयं ० जाव दुरू-
हति २ त्ता मेहस्स कुमारस्स पुरता पुरत्थिमणं चंदप्पभ-
वदरवरुलियपिमलदं ड तालविंटं गहाय चिद्रति, तते शं
तस्स मेहस्स कृमारस्म एगा वरतरुणी ०जाव सुरूवा
सीयं दुरूहति २ त्ता मेहस्स कुमारस्स पुव्यद क्खणेणं
सेयं रययमयं विमलसलिलपुन्न॑ मत्तगयमहामुहाकितिस-
माणं भिगारं गहाय चिट्गति | तते णं तस्म महस्य
कुमारस्स पिया कोइंबियपुरिसे सदविति २ न्ताणवं
वदास खिप्ामेव भो दवाणुष्पिया ! सरिसयाणं सरि
सत्तयाणं सरिमवयाणं एगाभरणगदितनिजायाणे कोइंबि-
यवरतरुणाणं सहस्यं सदावेह ° जाव सदावेंति | तए शं
अआभव्रानराजन्द्र
कोडेबिथवरतरूणपुरिमा सणियस्म रजन्नो कोडंवियपुरि- `
सेहिं सदाविया समाणा हट्टा णदाया० जाव एगाभरणग-
हितशणिज,या जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छ॑-
ति २ त्ता सेणिय राय॑ एवं वदासी-संदिसह णं देवा- |
णुप्पिया ! जं णं अम्हेहिं करणिजं | तते णं से सेणिए तं
कोईबियवरतरुएसहस्सं एवं वदासी-गच्छह शं देवाणु-
प्पिया ! महस्य कुमारस्म पुरिससहस्सवाहिणी सीयं
परिवहेह । तत णं ते क।ईत्रियवरतरुणसदस्सं से णेएणं रन्ना |
एवं वृत्त सतं हट तुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्स-
वाहिणीं सीय॑ परिवहति | तए णं तस्स महस्य कुमा-
रस्स पुरिससहस्सवाहिर्णी सीयं दुरूढस्स समाणस्स इम अदर
ऽद्रमगलया तप्पढमयाए पुरता अहाखुपुवाए सपाइंया, त° '
सात्थयासारच्छणादयावत्तवद्ध माण ग भहदसणकलसम - |
च्छदप्पण ०जाबव ब्रह्मे अल्थऽन्थिया ०जाव ताहिं
इट्माहिंए जाव अणवरयं अभिरणंदंता य अभिथुणंता
य एवं वदासी- जय जय शंदा ! जय जय भदा ! भते
अजियाई जिणाहि इंदियाई जियं च पालि समणधम्मं |
जियविग्धेाऽवि य वसाहि त॑ देव ! सिद्धिमज्के निहणा-
हि रागदोसमल्ल तवणं धितिथशियबद्धकच्छे मदाहि य
दर केम्मसन् फां उत्तमं सुक्रगं अप्पमत्ता पावय वि-
तिमिरमणुनरं कवले नाणे गच्छय माकं परमपयं साययं
च यले हंता परीसहचर्मु शं अर्भीओ परीसहावसग्गाशं
धम्म ते अविग्घ॑ भवउ नि कटं पणा पुणो मगलजयजय-
मद् पउंजं॑ति, ठत णं से महे कुमार रायगिहस्स शगगस्स
मज्कं मन्भणं शिरगच्छति २ न्ता जणव गुणसिलए च-
तिए तणामव उवागच्छति २ त्ता पुरिससहस्सवाहिणी-
आ। सं।या्रा पचरुहति । ( प्रज्र- २८ )
` महत्थे ˆ [त महाप्रयाजने महाध-महामूल्य महाह-महा-
पूज्य महना या योग्य राज्यानप्क् राज्या भषकसामग्री म्
महकुमार
उपस्थापयत--सम्पादयत, सौवरणादीनां कलशानामष्ठो
शतानि चतुःषष्टर्याधक्रानि ` भामज्ञाणे ` ति भोमानां पा- ।
शिवानानिन्यश्चः सवेद कः-सर्वतीधस्तंभवः एवं सृत्तिका-
भिरिति । ` जयजय त्यादि. जय जय त्वे जय लभस्व नन्दति
नन्दयतीति वा नन्दे-सगरद्धः सम्रद्धिप्रापषकफो वा तदामन्त्रण
है नन्द !, एवं भद्र ! कल्याणकारिन ! हे जगन्नन्द ! भद्रं त भव-
त्विति शेषः,इद्ध गमे यावत्करणादिदं दश्यम्--इन्दो इव देवाश
चमरो इव अखुराणं धरणा इव नागाणे चन्दा इव ताराणे' ति,
“गामागर' इह दण्डके यावत्करणादिदे दृश्यमर नगरखड-
कब्वडदोणमुहमडंवपद्टणसंवा सन्निव्रसाखे श्राहवच पारेव-
च सामित्तं भक्ति(ट्वि)त्त मद्दत्तरगत्त आणाईसरसेणावच्व का-
रमाण पालेमाण महया हयनटगीयवबाइयतंतीतलताल-
तुडियघणसुइंगपड॒प्पवाइयर वेणं विउलाई भोगभोगाई भुज-
माण विहराहि ॥ ति, तत्र करादिगम्यो ग्रामः आकरो-लव-
णाद्युत्पत्ति भूमिः अविद्यमानकरं नगरं धूल्लीप्राकारं खरे कुन-
गरं कर्वर्ट यत्र जलस्थलमा गौभ्यां भागडान्यागच्छान्ति तद्-
द्रोणमुखे यत्र याजनाभ्यन्तरे सर्वतो प्रामादि नास्ति तन्म-
डम्बम , पत्तने दिघा--जलपन्तन, स्थलपत्तने च । तत्र जल-
पत्तने यत्र जलन भारङान्यागच्छुन्ति, यत्र तु स्थलेन तत्
स्यलपत्तनम् , यत्र पर्वतादि दुगं लाका धान्यानि सवहन्ति स
सवाः, साथादिस्थाने सन्निवशः, आधिपत्यम् अधिपतिक-
म रक्तत्यथेः, * पारेवच्च ` पुरोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः खा-
मित्व--नायकत्व भर्तृत्वं -पापकत्वे महत्तरकत्वम्--उत्तम-
त्वम् आज्षिश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य सतः तथा सनापतभावः,
आज्ञश्वरसनाप्यं कारयन् अन्येर्नियुक्ककेः पालयन स्वयमव
महता-प्रधानन ` अहय ` त्ति आख्यानकम्रतिवद्धं नित्या-
जुचन्धे वा यन्नार्ये च-चरत्य गीत च-गान तथा वादितानि
यानि तन्त्री च--वीणा तलो च-हस्तों तालश्च-कांसिका
जुटितानि च वादित्राणि तथा घनसमानध्वनियों ख॒दङ्गः
पटना पुरुषण प्रवादि तः स चति इन्दः ततस्तेषां यो रवस्त-
नति, 'इति कटु -इति रत्वा एववाभिधाय जयजयशब्दे प्रयु-
ङ्के श्रणिकराज इति प्रकृतम्, तता ऽसौ राजा जातः,"महयाः
इह यावत्करणात् एवं वणका वाच्यः-'* महया हिमवन्त-
महतमलयमदरमहिदस्रारे अच्चेतविरुद्धदीहरायकुलवंस-
प्पसूए निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमा-
णपूइएण सव्वगुणसमिद्धे खातक्तिण मुदिए मुद्धाभिसित्त ?
पित्रादिभिमृद्धन्यभिपिङ्कन्वात् ` * माउपिड्सुजाए दयपत्त ?
द्यावानित्यर्थ:, ' सीमेकर ` मर्यादाकारित्वात् “ सीमधंरे `
कतमयोदापालकत्वात् , 'एवं खमंकरे खमधरे' क्षेमम-अनुप-
द्रवता, ` मणुस्सिद जणवयपिया ` हितत्वात् “' जणवय-
पुराहिए' शान्तिकारित्वात् ` सेउकरे ` मार्गदशकः ` केड-
कर अद्भुतकार्यकारित्वात् , केतुः-चिह्ने, ' नरपवरे ` नरा
प्रवराः यस्यात छृत्वा, ` पुरसवंरे ` पुरुषाणां मध्य वर-
त्वात् . पुरिससीह ` शरत्वात् पुरिसआसीविसे *
शापसलमथत्वात् , ' परिसपुंडरीए ` सेव्यत्वात् , “ पुरिस-
वरगंधहत्था ` प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् , “अड्डे ` आद्ययः
' दित्त ' दर्षवान् ' वित्त ` प्रतीतः * विचिद्धन्नविडलभवण-
सयणासणजाणवाहणाइन्न ` विस्तीरविपुलानि-श्रतिवि-
स्तीणानि भवनशयनासनानि यस्य स तथा यानवाहना-
न्याक्रीर्णानि-गुणवन्ति यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः,
=
(9९१८. .)
मेदकुमार ॥ _ अ्रभिधानराजन्द्रः! महकार
` चदुध्रणवहज।यरूवरयप् ` बहुधन--गणिमादिकं बहनी देने भदा दृश्यः, दणशमुद्धिकानन्तकं--दस्ताङ्कुलिसव-
च जातरूपरजते यस्य स तथा, ` आआयोगपयोगसपउत्त
आयोगस्य--श्रध्लाभस्य प्रयोगा--उपायाः सप्रयक्का--
व्यापारिता यन ल तथा ` विच्छुड़ियपउरभत्तपाण ` विच्छ-
दित-त्यक्के बहुजनभाजनदाननावशिष्रोच्छुण्टस भवात् सजा-
तविच्छदें वा नानाविधभक्किके भक्कपाने यस्य स तथा“ ब-
हदासीदासगोमदिसगवेलगप्पभूष ` बडदासीदासश्चासो
गामदहिपरगचलगभूतश्चनि समासः, गवेलका-उरथराः, * प-
डिपुणणजेतकासकोट्टागा राउहागार ` ध्यन्त्राणि--पाषाण-
क्षपयन्त्रादीनि कोशो-भांण्डागारं काष्ठागारं-धान्यग्रहम श्रा ,
युधागारं-प्रहरणशा ला, ` बलवे दुव्वलपच्चमित्त ` प्रत्याम-
आउः-प्रातिवशिका', ओहयकंटये निहयकंटये गलियकं-
खये उद्धियकंटय अकंटयं ` कण्टकाः-प्रतिस्पद्धिनो गोजाः
उपहता विनाशनन निहताः समृद्ध पारेण गलिता: मा-
नभङ्गन उद्धता दशनिर्वासनन अत पएवाकरटकार्मात, एवम्
उवहयसक्त ` मित्यादि , नवरं . श्रवा गोत्रजा इति
"ववगयदुच्भिक्खमारिभयविप्पमुक खम सिव सुभिक्खे प-
सर्ताडवडमरं ` अन्वयव्यतिरेकाभिधानस्य शिष्समतत्वा-
त् न पुनस्क्रतादापाऽ्र ` रज्ञे पसादेमाण विहरइ ` त्ति।
* जाया ` इति ह जात ! पुत्र ! ` किं दलयामा ` त्ति भ-
वता ऽनभिमतं कि विघटयामो विनाशयाम इत्यथः, अ-
थवा-भवता ऽभिमतभ्यः कि दद्यः, तथा भवत एवं कि
प्रदच्छामः ?, ` कि वा ते हियइच्छियसामत्थे `नि कावा
तव हृदयवाड्छितो मन्त्र इति ` कुत्तियायणाउ ' त्ति देव-
ताधिष्ठितत्वन स्वगमत्यपाताललक्तणभूत्रितयसेभविवस्तु-
सपादक आआपणा--दृटः कुत्रिकापणः
श्यपकं च-नापित शब्दितुम-आकारितुमिच्छामीति वर्तते,
श्रीग्रहात्-भारडागारात् ' निक्त '
* पात्तियाई ` त्ति व्रण “ महरि ` त्यादि,
देणे ' ति महतां योग्यन महापूज्येन वा हंसस्येव लक्षण
स्वरूप शुक्गता हंसा वा लक्तषण-चिह्व यस्य स तथा तेन
शाटका--वस्प्रमात्र च पृथुलः पटाऽभिधीयत इति प-
खशाटकस्तन ˆ सिंदुवार ` त्ति वृक्षविशपा निगुरडीति
केचित् तकुखमानि सिन्दुवाराणि तानि च शक्तानि ।
` एस रा ` ति एतत् दशंनर्मिति यागः शमित्यलेकारे, अ-
भ्युदयघ-राज्यलाभादिष उत्सवेघु-प्रियसमागमादिमहेषु प्र-
सवसखु-पुत्रजन्मखु-तिथिषु-मदनत्रयादशी प्रभ्नातिषु-क्षणषु-इ
न्द्र्महादिषु यज्ञपषु-नागादिपृजासु पर्वणीषु च-कार्सिक्यादि-
षु अपश्यिमम-अका रस्यामइझलर्पारेहाराथत्वात् पश्चिम द-
शने भविप्यति , एतत्कशद्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघ-
कमारस्य यदशन सर्वद्शनपाश्चात्य तद्धविप्यतीति भाव
अथवा-न पश्चममपञ्चिमे-पोनःपुन्यन मघ्रकुमारस्य दर्शन-
मतद्शनन भविष्यती त्यथैः । 'उत्तरावक्कमरा ति उत्तरस्यां दि
श्यपक्रमणम्-अवतरणं यस्मात्तदत्तरापक्रमणम उत्तराभिमुख
राज्याभिषककाल पूवाभिमुख तदासीदिति,'दाच्ं पि' द्रप
तच्च पि ` रपि ` श्वतपीतेः रजतसोावशीः ` पायपरलवं
ति पादा यावद् यः प्रलम्बत अलङ्कारविशषः स पादप्र-
लम्बः, ˆ तुडियाईं ` ति वाहुरक्तकाः, क्युराङ्दयाय्रद्यपि
नाम काश वाद्याभरएतया ज्ष विशेषा 7 ` पदकार
त्ति सबेथा विगतमलान्
महरि- |
तस्मात् आनीतं का- |
'द्धमाणये ` ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष
न्ध मुद्रिकादशकम ` खुमणदाम ` ति पुष्पमालां पिनह्य-
--पारघत्तः ददेरः-चीवरावनद्धकुरिडकादिभाजनमसखं
तन गालतास्तत्र पक्तावा ये * मलय ` त्ति मलयोद्धव
श्रीखराड तत्संबन्धिनः खुगन्धयो गन्धास्तान् पिनह्यतः
हारादस्वरूपे प्राग्वत् , ग्रान्धिमे-यद् ग्रथ्यंत सृजादिना वे-
एम-यद् ग्राथत सद्धेष्स्यत यथा पुष्पलम्बूसकः गेन्दुक इ-
परारम-यन वशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा
पयत सायागक-यत्परस्परतो नालसघातनन सघात्यते
अलकृत ङतालङ्कारं , विभूषित जातविभूषम् । ' सद्दावह
०जाव सदाविति ` ` एगा वरतरूणी * त्यादि शङ्खारस्यागा-
रामव शृङ्ञारागारम् , अथवा-शङ्गारप्रधान आकारो यस्या
्ारुश्च वेषा यस्याः सा तथा, सङ्गतषु गतादिषु निपुणा
युक्केपूपचा रेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो नेत्रवि-
कारा,यदाह-' हावो मुखविकारः म्या-द्धावश्चित्तसमद्धवः।
वलासा नत्रजा क्षया, ववश्नमो भ्रसमुद्धवः ॥ १ ॥
सेलापो मिथो भाषा, उल्लपः काकुवर्णनम् ।” आह च-
अनुलापो मुहुभाषा, प्रलापोऽनशथक वचः। काका व--
रानसल्लापः, सलापो भाषणे मिथः ॥ १॥ ” इति । ' आ-
मलग ` त्ति ञ्आपीडः-शखरः सच स्तन प्रस्तावाच्चूचु-
कस्तत्प्रधानों आमलकों वा परस्परमीषत् सवद्धो यमलो-स
मश्नाणास्थतों युगलो-युगलरूपो द्वावित्यथः, वात्तितों-ब्रत्तो
अभ्युत्नतों-उच्चों पीनो-स्थलों रातिदों-सुखप्रदों सीस्थितो वि
श्रसस्थानवन्ता पयाघरो-स्तनों यस्याः सा तथा, दिम
च रजत च कुन्दश्चन्दुश्ाति दन्द्रःःएपामिव प्रकाशा यस्य त-
त्तथा सकाररटानि काररटकपुष्पगुच्छयुक्वानि माल्यदामा-
नि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा, घवलमातपत्र-छुत्र, नानामणि-
कनकरलानां महार्हस्य महाघरस्य तपनीयस्य च सत्कावु-
ञ्ज्वलो विचित्रां दरडा ययोस्ते तथा, रत्र कनक-तपनीाययो
को विशेषः ?, उच्यत-कनकं पीतं, तपलीयं रक्तम् , इति ।
` चिल्लियाओ ` त्ति दीप्यमान लीने इत्य के सृच्मवरदीधवा-
ले शखकुन्ददकरजसाम् च्रमरतस्य मथितस्य सता यः केन-
पृञ्जस्तस्य च सन्निकाश सदशयते तथा, चामरे चन्द्रप्र-
भवज़वेडूयविमलद्रड, इह चन्द्र प्रभः चन्द्रकान्तमणिः, ता-
लच्रन्त-व्यजनावशेषः मत्तगजमहामुखस्य आकृत्या आका-
रेण समानः-सदशो यः स तथात भज्ञारम ` पगे ` त्यादि
पएकः--असदशः आभरणलक्षणो ग्रह तो नियोगः-परिकरो
यस्ते तथा तेषां कोंठुम्बिकवरतरूणानां सदस्रमिति । ` तण
रत काड्वियवरतरुणपुरिसा सदाविय ` त्ति शब्दिताः 'स-
माण ` त्ति सन्तः, ` अदट्ठट्ठमंगलय ` ज्ञि अप्टावष्टाविति वी-
प्सायां द्विवचने मङ्गलकान--माङ्गट्यवस्तृनि, अन्य त्वाह
अप्रसे ख्यानि च्रष्रमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति ` तप्पढमयाए
त्ति तेषां विवांत्ततानां मध्य प्रथमता तत्प्रथमता तया ` व~
इत्यन्य, स्वस्तिकप-
अकमित्यन्य, प्रासा दविशष इत्यन्य 'दप्पण' त्ति श्रादशः. इ
यावत्करणादिदे दश्यम्-' तया ऽणेतरं च शा पुरणकलसभि-
गारा दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरइयआलोइयद
रिसाणिज्जा वाउद्धयविजयवजयती य ऊसिया गगणतल-
~~~ «४
( ४१२ )
मणुलिहंती परश्मरा अटाणुपव्वीण खपद्भिया । तयाऽणतर च
वेरुलियभिसतविमलदं ड पलेंबकोरंटमन्नदामोवर्सोहिय च-
दमडर्लनिभ विमल आयवत्त पवर सीहासर् च मणिरयण-
पायपीढं सपाउया जोयसमाउत्त वर्हाक्करकम्मकरपरिस-
पायत्तपरिकिस्वत्त पुरश्रो अहाखुपुत्वीए स्पद्धिये। तयाऽणतरं
चरण बहवे लद्धिग्गादा कृतरग्यहा खावग्गाहा धयग्गाहा
चामरग्गाटा कुमरग्गाहा पात्थयग्गाहा फलयग्गाहा पौीदय-
ग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्फग्गाहा पुरआओ अहारु-
पुव्ताए सपाइया। तया<5णतर च ण बहव दंडिणो माडणो
सिहिणो पिछिणा हासकरा डमरकरा चाइकरा कीडता य
वायेता य गायता य नज्चेता य हासंता य साहिता य सावि-
ता य रकखंता य आलोये च करमाणा
जच्चाणं तरमंज्लिहायणाणं थासगअहिलाणारं चामरगंडपरि-
डियकडीणं अद्यं वरतुरगाण पुरश्रा अहाणुपुब्बीए से.
पट्टिय । तया ऽखतरं च शे इसिदन्ताणं इंसिमत्ताणं इसिड-
यजयसर् च पउंज-.
माणा पुरआ अहाणुपुव्वीए सेपटद्धिया । तयाष्णंतर च शे |
अशभिधानराजन्द्र ४
च्छंगावसाल्रघवलदंताणे कंचणकासिपविद्दतांणं अट्टूसये |
गयाण पुरआ अहारुपृष्वाए सपाट । तयाऽ्णतरे च रा
सछुत्ताण सज्मयाण सघटाण सपडागाण सतारणवराण `
सनादघ्रासाणे साखेखिणीजालपरिक्खित्ताणं हममयाक्तित्त-
ताणासकणकानिज्जुत्तदास्याणं कालायससुकयनमिजतक -
स्माणं खसिलट्रावत्तमडलधुराण आइरण्णवरतुरगसंपउत्ताणं
कुसलनरछुयसा रहिसुसेपरिग्गाहियाणं वत्तीसतारपरिर्माड़
याण सकंकडवडखकागो सचावसर पहरणावरणभरियजुद्ध-
सज्ञाण टुसयं रहाणे राणं पुरआ अहाणपुव्वीए सेपट्टियं त-
या ऽणतरं च णं असिर्सात्तकों ततोमरसूललउडमिंडिमालध-
खपाणसज्ञ पायत्ताणीयं पुरच्र अहाणुपुब्बीए सपद्धियं ।
तप णे स महे कुमार हारात्थसुकयरइयवच्छे कुंडलुज्ञाइया-
णण मडडदित्तासरए अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाण
सकाररण्टमल्लदामंणं छण धरिज्ममाणण सयवरचामराहिं
उद्धुवमार्णाीह हयगयपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सणा
समखुगस्ममाणमग्ग जंणव गुणसिलप चइए तेव पहार
त्थ गमणाए । तप णा तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरओ महे
आसा आसधरा उभआओ पास नागा नागधरा करिवरा पिदर
श्रारहा रहसगल्ला | तए ण स मह कुमार अञ्भागयाभिगार ।
पग्गाहयतालयदट ऊसावियसयछुत्त पर्वीजियबालबीयणीए
सब्विद्ठीए सव्यजुईए सव्वबलणं सव्वसमुदपण सब्वादरण
सव्वावमूद्रण सब्बाविभूसाए सब्वसंभमेणं सब्वगन्धपुण्फम-
न्नालक्वारण खव्वतुंडयसद सन्निनापणं महया इड्टीए महया
जुदृण महया बलणं महया समुदपएणं महया वरतुडयजमग-
पत्राइपण सखपणवपडह भरि भल्लरिखरमटिटुउक्मुरवमुदंग-
दुदुभिनिग्घासनाइयरवेण रायगिहस्स नगरस्स मज्भं मज्मे
णे णिग्गच्छुड । तप् रा स तस्स महस्स कुमारस्स रायगिहस्स
नगरस्स मज्मं मज्भरणं णिग्गच्छुमाणस्स बहवे अत्थात्थिया
कार्मात्थिया भागत्थिया लाभत्थिया किव्विसिया करोड़िया
कारवाहिया संखिया चक्रिया लगलिया मुहमंगलिया पूस-
माणगा वद्धमाणगा ताहि इद्बाहि कंताहि पियाहि मणुन्नाहि
मणामादि मणाभिरामार्दि हिययगमणिज्ञाहिं वग्गृह ” ति।
अयमस्याथः-तदनन्तरं च छुत्रस्यार्पार पताका छुत्रपताका
सचामरा चामरापशाभिता तथा दर्शनरतिदा-दाण्टिखुखदा
महकुमार
आलोके-दृशष्टिविषय क्षेत्र स्थिताऽत्युच्चतया दश्यत या सा |
आलाकदशनीया, ततः कमंधारयः, अथवा-दर्शने दृष्टिपथे `
मघकुमारस्य राचिता--घ्रता या आलोकदशनीया च या सा
था, वातोद्धता विजयसूचिका च या वेजयन्ती--पता-
काविशषः सा तथा, सा च ` ऊसिया `-उच्छिता ऊध्वकृता
पुरतः-- अग्रतः यथानुपूर्वीक्रमण सम्प्रस्थिता--प्रचलिता,
“मिसेत' ति दीप्यमानः,मणिरत्नानां सम्बान्धि पादपीठं यस्य
सिदासनस्य तत्तथा, स्वन-स्वकीयेन मेघकुमार सम्बन्धिना
दुकायुगन समायुक्तं यत्तत्तधा, वहाभि: किङ्रेः-किकुवौ-
रः कमकरपुरुषः पादात्येन च-पादातिसमुहेन शस्प्रपाणिना '
परित्षिप्त यत्तत्तथा ` कूय ` त्ति कुतुपः ` हडप्फो ` क्षि आ-
भरणकरण्डकं ' सुंडिणा ' मुरगिडताः ' सिहिणो ` शिखाव-
न्तः डमरकराः ` परस्परण कलहविधायकाः ` चाटुकराः ”
प्रियवदाः ` साहिता य ' त्ति शाभां कुवैन्तः ` साविताय `
त्ति श्रावयन्तः आशीवेचनानि रत्तन्तः न्यायम् आ्रआलाकं
च कुःवाणाः-मघ्रकुमारं तत्समरद्धि च पश्यन्तः, जात्या-
नां काम्बाजादिरदेशोद्धवानां तरमल्लिना-बलाधायिनो
वगाधाधयेना वा दायनाः-सवत्सरा यपां त तथा तेषाम् ,
अन्य तु- भायल ` त्ति मन्यन्त, तत्र भायला-जात्यविशेषा
पचति गमानिकेचेषा,ासका-दप्पणाकाराः अदिलाणानि च
कविकानि यां सन्ति त तथा, मतुव्लापात् , ` चामरद्रडा '
चामरदगडास्तेः परिमणिडता कटी तषां त तथा तेषाम् ,
ईषदान्तानां-मनाग ग्राहि तशिक्ताणामीषन्मत्तानां, नातिमत्तां
त हि जनमुपद्रवयन्तीति., ईषत्-मनागुत्सज्ः इवोत्सज्ञः-
पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला-विस्ती्ण घवलदन्ताश्व यषां ते त
था तषां, कोशी- प्रतिमा, नन्दिघोषः-तूथनादः, अथवा
खुनन्दी सत्सस्ृद्धिको घोषो यपां ते तथा तेषाम, सकिङ्कि-
णि-सक्षुद्रघणिटक यज्जाल मुक्काफलादिमयं तन परित्ति-
पा ये ते तथा तेषाम , तथा हेमवर्तानि-हिमवसत्प्वतोद्धवा-
नि चित्राणि तिनिशस्य--च्र्तविशषरस्य सम्बन्धीनि कनक-
नियुक्कानि--हेमखचितानि दारूणि--काष्ठानि येषां ते तथा
तषाम् , कालायसन-लोह विशषण खुष्ड् कत नमेः-गरडमा-
लायाः यन्त्राणां च रथोपकरणविशपाणां कम्म यषां ते
तथा ताम्, खुश्लिष्ट ' वित्त ` ्ति-वेत्रदणडवत् मणडले चु
त्त धुरो यषां ते तथा तेषाम्, आआकीण-वेगादिगुणय-
क्राः य बरतुरगास्ते संप्रयुक्का-योजिता येषु ते तथा ताम् ,
कुःशलनराणां मध्य ये छुकाः-दक्षाः सारथयस्तः खुसंप्रग्रही
तायते तथा तषाम्, 'तोण' त्ति-शरभस्थाः सह करटकेः-
कवचेवशश्च वतेन्त ये त तथा तेषाम् , सचापाः--धनुयुक्का
य शराः प्रहरणानि च खङ्गादीनि आवरणानि च-शीर्षका-
दीनि तेय भरता युदधसज्ञाश्च युद्धप्रगयुणाश्चयते तथा तषाम् ,
लडउड ` त्ति लकुटाः श्रस्यादिकानि पाणो हस्ते यस्य त-
त्था तच्च तत्सज्ञे च-प्रगुण युद्धस्यति गम्यत, पादातानी
कं-पदातिकटकं हारावस्तुनं सुझृतरातिक विहितसुख वन्ता
यस्य स तथा, मुकटदीप्शिरस्कः, 'पहारेत्थ गमणयाए' त्ति
गमनाय प्रधारिनवान, ` मह ` त्ति महान्तः अश्वाः, अ्रश्व-
धराः ये अश्वान् धारर्यान्त, नागा हस्तिनः नागधरा ये ह-
स्तिना धारयन्ति, क्वचिद्वरा इति पाठः, तत्राश्वा नागाश्च
कि विधाः ?-अश्ववरा अश्वप्रधानाः, एवं नागवराः, तथा
` रथा रथसंगिणलज्ली ' रथमाला क्वचित् ' रहसगह्ली ` इ.
कक,
। 4
( ५१३ )
मेहकुमार अआसभिधानराजन्द्रः | मेहकुमार
ति पाटः. तत्र-रथसक्नलली-रथसमूहः । ` तण शे स मह कु-
मारे अच्भागयणिगारे ` इत्यादि वणकापलेहारबचनामरति
न पुनरुक्रम् 'साव्विद्ठीए' त्यादि दोहदावसर व्याख्यातम् . श-
ङ्घ: प्रतीतः, पणवा-भारडानां पटहः. परहस्तु प्रतीत एव.भ
री-दक्राकारा भल्लरी-वलयाकारा खरमुटी-काहला हुडका
श्रतीता महाप्रमाणा मदला मुरजः, स एवं लघुम्
द्क्ला भिः भर्यांकारा सह्ूटमुखी एतपां निघा
महाध्वाना नांदते च घर्टा्यामव वादनात्तरकालभावी
स तथा तद्ध्वनिस्तज्लक्षणो यो रवस्तन, अथाथिना-द्वव्या
धिनः कामाधिनः-शब्दरूपा्थिनः भोगार्थिनः: गन्धरसस्प-
शोर्थिन: लाभाध्िनः-सामान्यन लाभप्सवः कि{ल्वपिकाः-
पातकफलवन्तो निःस्वान्धपङ्ग्वाद्यः कारोटिकाः--कापा-
लिकाः करा--राजदेय द्रव्य तद्वदन्तियेत करवाहिकाः क-
रेण वा बाधिताः-पीडिताये त करवाधिताः, शेखवाद्-
नशिल्पमषामिति शांखकाः शंखा वा विद्यत यषां माङ्गलय-
चन्दनाधारभूतः त शाखिकाः, चक्रं प्रहरणमेषामिति चा- |
क्रिकाः योद्धारः चक्रं वाऽस्ति येषां ते चाक्रिकाः-कुम्भका-
रतेलिकादयः चक्रः वोपदश्य याचन्ते यत चाक्रकाः चक्र |
धरा इत्यथः, लाङ्गलिका: हालिकाः लाङ्गलं वा प्रहरणे यषां
गले वा लम्बमानं खवणादिमयं तद् यषां त लाङ्गलिकाः--
कार्पटिकविशेषाः मुखमङ्गलानि--चादुवचनानि य कुर्वान्ति |
ते मुखमाङ्गलिकाः पुप्यमाणवा-न्माचार्या, वद्धमानकाः स्क- |
न्धारोपितपुरुषाः, * इद्ाही ` त्यादि पूर्ववत् , ` जियविग्धो
वय व्रसदह ख इहव सबन्धः, आप चन-ाजतावप्नः त्व ह- |
दव ! अथवा-देवानां सिद्धश्च मध्य वस आससस््व, ` निदणा-
हि, त्ति विनाशय रागद्धषौ मल्लो, केन करणभूतनत्याह-
तपसा-ञअनशनादिना, किंभूतः सन् ?- धृत्या चित्तस्वास्थ्ये-
न ` धरणियं ` ति श्रत्यथं पाठान्तरेण बलिका--हढा वद्धा
कत्ता येन स तथा, मल्लं हि प्रतिमल्ञा मुष्स्वादिना करणन
चस्त्रादटढठवद्धकत्तः सान्नहन्तात पवमुक्कामात, तथा मदे- |
य अप्टा क्रमश्च ध्याननात्तमन-णङ्कनाप्रमत्तः सन्, तथा
पावय तत्त प्राप्नु वातामरम-अपगताजश्ञानाता मरपटल
नास्मादुत्तरमस्तीति अनुत्तरं केवलज्ञान, गच्छु च मोक्त
पर पद शास्वतमच्ल चत्यव चकारस्य सम्वन्धः, क्र
कृत्वा ?, हत्वा परिषदहचमू-पर्पिटसन्यम् , णमिव्यलङ्कारे,
अथवा-किभूतस्त्वे ?--हन्ता विनाशकः परिपदटचमूनाम् ।
तत श तस्स महस्स कुमारस्य अम्मापियरों मह कुमारं
पुरओ कट जणामेव समे भगवं महावीरे तेणामेव उवा-
गच्छति २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आया-
दिशं पयादिणं करेति २ त्ता व्दति नर्मसंति २ त्ता एवं
बदासी एस शं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एने पुत्त
इद्रे कंते °जाव जीवियाउसासणए हिययणंदिजणए उब-
रपुष्फं पिव दल्लहे सवणयाए किमंग ! पुण दरिसणयाए
स जहानामए उप्पलेति वा पउमेति वा कुमुदेति वा पक-
जाए जल सवाडइए ने वलिष्पड पंकरणएणं णावलिप्पड
जलरणएणं एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवृ ना-
वलिष्पति कामरणणं,नोवल्िप्पति भोगरणणं,णस णं देवा-
१०४
णुप्पिया ! संसार भउव्विग्ग भीए जन्पणजरमरणाणं उच्छः
देवाणाप्पियाणं अंतिश मुंड भवित्ता आगाराआ अणगा-
रियं पव्वतित्तए, अम्ह शं दवाणुप्पियाणं सिस्सभिकखं
दलयामा, पाडिच्छंतु णं दटाणुप्पिया ! मिस्मभिक्दं ।
तते ण॑ से समण भगवं महावीर महस्य कुमारस्य अ
म्मापिउएहिं एवं वुत्त ममा एयमट्टू मम्मं पडि
सुणति | तत शं से मह कुमार समणस्म भगवच्रा
महावीरस्स अंतियाओं उत्तरपुरच्छिम दिमिभागं अब
कमति २ त्ता सयभव आभरणमन्नालंकारं ओमुयति | तन
शं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडमाडणएगं आ-
भरणमल्लालंकारं पडिच्छति २ त्ता हारारिधारसिंदवा-
रछिन्नमृत्तावलिपगासातिं अंसरि विशिम्मुयमाणी २ रोय-
माणी २ कंदमाणी २ विलवमाणी २ एवं वदासी-जतिय-
व्व जाया ! षडियव्वं जाया ! परिकमियव्य जाया ! अस्सि
च णं अद्ढे नो पमादयव्वं अर्पि णं एमेव मग्गे भवउ
ति कट्टु मेहस्स कुमारस्म अम्मापियरे। समझ भगवं
महावीरं वदंति नमंसंति २ त्ता जामेव दिसि पा-
उब्भूता तामेव दिसि पडिगया । ( स्त्र २६ )
° एगे पुत्त इति धारिण्यपक्षया , अ्रेणिकस्य बहुपुत्र-
त्वात् , जीविताच्छासको हृदयनान्दिजनकः , उत्पलर्मिति
वा--नालात्पल परशामात चबा--आाद्त्यबाध्य कुम॒दामात
वा चन्द्रवाध्यम् । ' जद॒यब्व ` मित्यादि , प्राक्षु सयमयागषु
यत्नः कार्यो हे जात! पुत्र! घटितव्यम--अप्राप्तप्राप्य
घटना कायां पराक्रमितव्यं च--पराक्रमः काय , पुरुषत्वा-
मभिमानः सिद्धफलः कतव्य इति भावः, किमुक्क भवात :-
एतास्मन्न 4--प्रत्रज्यापालनलक्ष्ण न प्रमादायतब्यामात ।
तते णं से मेह कुमारे सयमेव पंचमुद्भिय लोय क-
रेति २ त्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तणापरव
उवागच्छति २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक््खुत्तो
ग्रायाहिणं पयाहिणं करति २ त्ता वंदति नर्मसति २
त्ता एवं वदासी-आलित्ते णं मंते! लोए पलित णं
भेत ! लए आलित्तपलित्ते णं भते! लए जराए म
रणेण य , से जहाणामए केई गाहावती आगारंसि
भियायमाणंसि जे तत्थ भडे भवति अप्पभारे मान्न
गुरुए तं गहाय आयाए एतं अवकमति एस मे णि-
त्थारिए समा पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णि-
स्मेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति एवामेव मम वि
एगे आया भंड इर कंते पिए मणुन्ने मणापे एस में नि-
त्थारिए् समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति | तं इच्छा
मिणं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं सयमेव मुँडा-
वियं संहावियं सिक्खावियं सयमेव आयारगोयरविण-
(6४६४)
असिधानगाजन
मद्रकुमार
यवरणइयचरण कर ण जाय भायात्रत्तय धम्ममाइक्खय | त- |
ते णं समणे नगरं महावीरे महं कुमार सयमव पव्धा-
वेति सयमत आयार० जाव धम्ममातिक्खइ-एवं दवाणु-
प्पिया ! गंतव्य चिह्ितव्वं शिसीयव्वं तुयद्ियव्वं युजि
यव्वं भ।मियत्ं एवं उद्बाय उद्राय पारणि भूतिं जी
वहि सत्तहि सजमणं मजमितव्ये अस्मिच णंञदर णा
पमादेयव्ं | तत णे से मेह कुमारे समणस्य भगवओ म~
हावीरस्म अतण इमं एयास्यं धम्मियं उवणम णिसम्म
सम्म परिवज्ञड तमाणाण तह गच्छ् तह चिट्ठइृ० जवि
उद्गाय उद्राय पाणिं भृतिं जीवेहि सत्तहिं सजमह ।
(म्रत्र-३० ) ज दिवसं च गं मह कुमार मंड भवित्ता आ-
गाराओ अणगारियं पच्वइण् तस्म शं दिवसस्स पुच्वा-
वरण्कालसमयंमि समणाण निग्शंथा्ं आहारातिणि- |
याए सेजासंथारएसु विभजमाणेसु महकुमारस्स दारमले
मज़ासंथारए जाए यावि हान्था | तते ण॑ समणा णिग्गंथा
पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परिय -
इणाए धम्माणुजोर्गा +ताए् य उच्चारस्स य पासवणस्स
अइगनच्छमारणा य निरगच्छमाणा य अप्पगातिया मह
कुमारं. हत्थेहिं संघ्ति एवं पाएहिं सीस पाई कायाम
अप्पगतिया ओलंडेंति अप्पगइया. पेलेडइ अप्पगतिया
पायरयरेणुगुंडियं करेंति | एवं महालियं च शं रयणीं
मह कुमार ण। संचाएति खणशमत्रि अच्छि निमीलित्तए
तत ण तस्स महस्य कुमारस्य अयमयास्वे अन्भत्थिए
०जाव समुप्पाज्ञन्था-एयं खलु अहं सेणियस्स रन्ना पुत्त
भ्रारिणीए दर्वीए अत्त म ०जाव समणयाए तं जयां
ग्रहं अगारमञ्छ वमामि तयाणं मम समणा णिग्गंथा
आहायति परिजाणंति सक्रारेति सम्माणति द्राह् हऊतिं
पमिणाति कारणाई वाकराई अतिक्ंति इद्रारि
कंताहि वग्गूहि आलय॑ति सल्येति, जप्पभितिं च णं ञ्ह
प्रः भवित्ता आगाराओं अणगारिय पव्वइए् तप्पभितिं
चक मम समणा नो आहायंति° जाव नो संलव॑ति। अ-
दुत्तरं च च मम समणा शिग्गंथा राओ पृुच्वरत्तावरत्तकाल-
सम्यमि वायणाए पुच्छणाए ०जाब महालिये च शां रत्ति
ना सेचाएमि अच्छ िमीलवित्तण, ते सयं खलु मञ्भं
कल्ल पाउष्पभायाण ग्य।ए °जाव तयसा जलने समश
भगव महावीर आपुन्छित्ता पुणरवि आगारमज्के वसित्त-
ए न्ति कटद्दु एवं संपहति त्ता अद्वदृहद्ुवबसड्माणसगए
गिरियपडिरूविय च ण॑ ते रयणि खबड़ २
उप्पभायाण सुव्रिमलाए रयरणीए °जाव तयसा जलंत
जणव समण भगत्र महावीर तणामव उवागच्छति २ न्ता
ता कष्टं पा- |
तक्खुत्ता आदाहण पदाहण करद् २ त्तावदइ नमसह् १
त्ता ०जाव पज्जुबवासइ । ( सत्र- ३२१ )
आदीप्तः-ईपद् दीघतः-प्रदीक्त-प्रकर्षण दीप्त आदीप्तप्रदी्तो-
$त्यन्तप्रदीप्र इति भावः, ` गाहावइ ` त्ति गृहपति ५
यमाणंसि ` त्ति ध्मायमान भारड-पराये दिरगयादि
भारम् ,पाान्तरे-श्रल्ये च तन्सारे चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुकम्
आयाए ` क्षि आत्मनः ` पच्छा पुरा य' त्ति षश्चादागामिनिः
काल पुरा च पूवमिदानीमव लाके-जीवलोके,अथवा-पश्चा:
ल्ञाक श्रागःमिजन्मनि पुरालाक-इटेव जन्मनि.पाठान्तरे-
च्छाउरस्स' त्ति पष्चादभ्रिभयात्तरकालम् आतुरस्य-बुभुक्षा- .
दिभिः पीडतस्यति । ` एग भराड ` क्ति एकम-अद्वितीये भा-
राडमिव भाराड 'सय॒मव' त्यादि-स्वयमव प्रवाजिते वेषदानन _
आपत्मानम् इति गम्यते , भाव वा क्रः प्रत्ययः प्रनाजनामेत्य- .
शः. मुकिडत--शिरालाचन सेधथिते-निष्पादितं करणप्रत्युप-
क्षणा[देग्राहणतः, शित्तितं सूत्रार्थग्राहणतः, आचारा-ज्ञाना- `
दिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि गोचरो-भिक्ताटन विनयः- |
प्रतीतो मनयिक-तत्फलं कम्मच्तयादि चरण-बतादि करणं-
पिणडविशुद्ध्यादि यात्रा-संयमयात्रा माज्ा-तद्थमेवादारमा-
आ तता दन्दः तत एपामाचारादीनां वृत्तिः वर्तने यस्मिन्न- _
सौ आचारगाचरविनयंवेनयिकचरणकरणयाजामात्रावृत्ति-
कस्त धम्मेमाख्यातम् अभिहितम् , ततः श्रमणा भगवान्
महावीर: . स्वयमव प्रवाजयति यावत् धम्ममाख्याति ,
कथमित्याह-एवं गन्तव्ये युगमात्रभून्यस्तटष्िनत्य्थः ,
' एवं चिट्टियव्व॑ ति शुद्धभूमी ऊध्वैस्थानेन स्थातव्यम् ,
एवं निषीदितव्यम-उपवष्रव्यं संदंशकभूमिप्रमाजेनादिन्या-
यनेत्यथेः , एवे त्वग्वन्षितव्यं--शयनीये सामायिकाद्ुच्चा-
रणपवके शरीरप्रमाजनां विधाय संस्तारकोत्तरपद्टयाबा- `
हपधानेन वामपाश्व॑त इत्यादिना न्यायनत्यर्थः , भोक्कव्य-
वंदनादिकारणतो 5ज्ञारादिदापरहितमित्य थः. भाषितव्यें--
दितमितमधुरादि विशषणतः , एयवमुत्थायात्थाय-प्रमाद-
निद्राव्यपाहन विवुद्धय २ प्राणादिषु विषयषु संयमो-रक्ता ¦
तन ' सयन्तव्यम् -सयतितव्यामति , त्--* पाणा द्वि-
ज्िचतुःप्राक्ताः , भृतास्तु तरवः स्मरताः । जीवाः पञ्च
न्द्रिया ज्ञेयाः, शषाः सच्चा उद्रीरिताः॥६॥ ” कि बहू-
ना ? श्रस्मिन् प्राणादिसयम न प्रमादयितव्यम् , उद्यम एव
काये इत्यथे: । प्रत्यपराह्कालसमया-- विकालः. ` आहा-
राइंणयाए ` त्ति यथा रन्नाधिकतया यथाज्यपष्ठमित्य्थः,
शय्या-शयने तदथं सस्तारकभूमयः, अथवा--शय्यायां
वसतो सस्तारकाः शय्यासेस्तारका वाचनाये-वाचना् ध-
मा्रमौनुयागस्य-व्याख्यानस्य चिन्ता धमानुयागस्य वा-ध-
व्याख्यानस्य चिन्ता धमानुयागचिन्ता तस्ये अतिगचछुन्तः-
प्रविशन्ता निगच्छुन्तश्चा 4 ऽलया दिनि गम्यते."श्रालडिति,्ति
उल्लङ्गयन्ति ` पालेडन्ति' त्ति प्रकषण दिखिवोलङ्गयन्तीन्यथेः |
पादरजालक्षणन रखुना पादरयाद्धा तद्धगात् रणुना गुण्डि-
ता यः स तथा त॑ कुर्वेन्ति ` एवं महालिये च रे रयणि
ति ` इति महतीं च रजनीं यावदिति शषः , मेघकुमारा
'नो संचाएति' त्ति न शक्नाति क्षणमप्यत्ति निमीलायतुम्-
निद्राकरणायति, आध्यात्मिक:-आत्मविषयश्चिन्तितः-स्मर* _
ररूप; प्राथितः-आभलापात्मकः मनागतः-मनस्यव वर्तत यो
कीहकमार
गैहमध्य वसामि अधितिष्ठामि , पाठान्तरता-अगारमध्ये
आवसामि, आढायंति' आद्वियन्ते ` परिजानन्ति यदुतायमे-
जीवादी न् ,हेतदून-तद्ग मकानन्वयव्यातिरेकलक्षणान् ,प्रश्नानप-
यनुयोगान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि व्याकरणानि-परेण
हुः, 'अदुत्तरं च णे'ति,श्रथवा-परम्-'एव संपहेइ'त्ति संप्रेक्षते
पर्योलोचयाति ` अद्वद॒हद्बसट्माणसगए ` त्ति श्रात्तन-
ध्यानविरोषेण दुःखात-दुःखपीडितं वशात्त--विकल्पवश-
सुपगतं यन्मानसं तद्गतः-प्राप्तो यः स तथा, निरयभ्रति
रूपिकां च नरकसदशीं दुःखसाघम्यात् तां रजनीं क्ष-
चयति-गमयति ।
ज्म वसामि तया णं मम समणा
त्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिर्तिं च शं
मम समणा णो आदायंति ०जाव नो परियाति अ-
दुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ श्रप्पेगतिया वाय-
णाए ०जाव पायरयरेणुगुंडियं करेति, तं सेयं खलु मम
पुणरवि आगारमज्मे आवसित्तए त्ति कटं एवं संपरेपि २
त्ता अदुदुहद्वसट माणसे ° जाव रयर्णी खवेसि २ त्ता जणा-
ञव अहं तेणामेव हव्वमागए ?
म्मलद॒हिघण गोखीरफेणरय शियरप्पयासे सन्तस्सहे ण॒वा-
कुच्छी अ च्छट्कुच्छी
चलणे पंडुरसुबिसुद्धनिद्ध शस्वहयविंसतिखहे उर्दते सु -
| मेरुष्पभे नामं हत्थिराया होत्था । तत्थ शं तुमं मेहा !
| बहृहिं हत्थीहि य हत्थीणियाहि य लोट्रएटि य लो-
वरगत्तावरे अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छे पडिपुनसुचास्कुम्म- |
न बांहः स तथा सङ्टपा-वक्ट्पः समुत्पन्नः आगारमध्य- |
चंविध इति 'सक्कारयंति' सत्कार्यान्त च चखादिभिरभ्यच- |
यन्तीत्यथः 'सन्मानयन्ति ` उचितप्रतिपत्तिकरणेन, श्रथोन्- ¦
श्रश्च कृत उत्तराणीत्यथः, श्राख्यान्ति इषत् सल्पन्ति मुदुम- ¦
तते णं मेहातिसमणे भगवं महावीरे मेहं कुमार एवं |
| दासी से राणं तुमं महा ! राओ पव्वरत्तावरत्तका- |
लसमयसि समहं निग्गंथेहिं वायणाएं पृच्छणाए |
०जाव महालियं च णं राई णो संचाएसि भदहुत्तमवि
अच्छि निमीलावेत्तए | तते णं तुन्भं मेहा ! इमे एया- |
स्वे अन्भत्थिए °समृप्पज्ञित्था-जया णं अह अगारम- |
निर्गथा आ- |
ढायंति ०जाव परियाणंति, जप्पभितिं च णं मुंडे भवि- |
कनं पाउप्पभायाए समणं गवे महावीरं आपुच्छित्ता
/ से णूणं मेहा ! एग |
अत्थे समद्ठे १, हंता अत्थे समह । एवं खलु मेहा ! तमं
इओ तचे अरईए भवर्गहणे वेयड्डगिरिपायमूले वणय- |
रहें शिव्वत्नियणामधेञे से ते संखदलउज्ञलविमलनि- |
यए दसपरिणाहे सत्तंगपतिद्टिए सोमे समिए सुस्वे पुरतो
उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिड्ुओ वराहे अजिया- |
अलंवकुच्छी पलंबलंबोदराह- |
रकरे धणुपट्ट/गिइविसिद्रपुद्टे अन्लीणपमाणजुत्तवद्धियापी- |
|
|
( ४१५ )
भिधानराजन्द्रः
मसहकमार
ट्वियांहि ये कलभेहि ये कलभियाहि य सद्धि संपारे
वुडे हत्थिसहस्सणायण देसए पाग पद्रबए जृहवड
वंदपरियट्रए अनेमि च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकल भा-
शं आहेवब्च ० जाव विहरसि । तत णं तुम महा ! गि-
च्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई म।हणसीले अवितण्ह
कामभोगतिसिए बहूहि हत्थीहि य० जाव सेपरिवृड व-
यड्रगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कृहरसु य कंद्-
रासु य उञ्भेसुय निज्भरेस य बियरणसु य गद्दासु
य॒ पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडयसु य कडयपल्ललमु
य तडीसु य वियडीसु य टंकेसु य कूडसु य सिहरेस य
पव्भारेसु य मचसु य सालेसु य काणणेसु य वणसु य
वणसडसु य वणराइसु य नदीसु य नदीकच्छसु य
जूहेसु य संगमेसु य वावीसु य पौक्खरिणीसु य दीहि-
यासु य गुजालियासु य सरेसु य सरपंतियासु य सर-
सरपतियासु य वणयरएहिं दिन्नवियारे बहुहि हत्थीहि य
०जाव सद्वि सपरिवृंडे बदहूविहतरुपन्लवपउरपाशियतणे
निन्भए निरुष्विगगे सुहं सुहेणं विहरसि | तते णं तुमं मेहा!
अन्या कयाई् पाउसवरिसारत्तसरयह मंतवसंतसु कमेण
पंचसु उउमु समतिकंतेसु गिम्हकालसमयंसि जेड्टामूल-
मासे पायवर्धससमृद्टिएणं सुकतणपत्तकयवरमारुतसंजोग-
दीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणद बज।लासंपलित्त-
सु वणंऽ्तसु धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं संघट्टि-
एसु लिनजालेसु आवयमाणेस पोन्नरुक्खेसु अन्तो २
शियायमाणेसु मयकुटहितविणद्रकिमियकद मनदीवियरग -
खीणपाणीयंतेसु वरतेसु भिगारकदीणकंदि यरवेसु खरफरु-
सअणिट्ठरिट्रवाहितविहुमग्गेसु दुमग्गेसु तए्हावसमुकपक्ख
पयडियजिब्भतालुयअसंपुडिततुंडपक्खिसंधेस ससंतेसु गि-
म्हउण्हवायखरफरुसचम्ममासुयसुकतणपत्तकयवरवाउलि-
भमतदित्तसंभंतसावयाउलमिगतण्दाबद्ध चण्दपटसु गि-
रिवरेसु संवद्धिएस तत्थ भियपसयसिरीसिविसु अवदालि-
यवयणविवर शिन्ना लियग्गजीहे महंततुंबश्यपुन्नकन्ने से-
कुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगूले पीणाइयविरसरमियस-
दशं फोडयंतेव अंबरतल पायदद्रणणं कंपयंतेव मेइणि-
तले विशिम्मुयमाणे य सीयारं सव्वतो समता वद्चिवि-
याणाई छिंदमाणे रुक्खसहस्सातिं तत्थ सुबहूणि णोज्ना-
यते विणट्टरद्टें व्व णरवरिंदे वायाइडद्वे व्व प्।ए मंडलवा-
एव्व परिव्भमंते अभिक्खण २ लिंडणियरं पम्मंंचमा-
णे २ बहूहिं हत्थीहि य ०जाव सद्धि दिसो दिसि विप्पु-
लाइत्था | तत्थ णं तुमं मेहा ! जुन्ने जराजज़रियदेहे आउरे
जुंजिए पिवासिए दुब्बले किलंते नट्ठसुइए मृढदिसाएं स-
( ४१६ )
श्रागधानराजन्द्रः)
मसहकमार
याता जहाता विष्पट्रण वणदवजालापारदे उण्हेण त-
एहाए य छुद्ाण य परब्माहए समाणे भीए तत्थे तसिए
उब्विग्गे संजातभणए सव्वता समेता आधावमाण परिधा-
ब्रमाणे एगं च णं महे सरं अप्पोदय पंकबरहुल अतिन्थणे
पाणियपाए उद्धन्नो | तन्थ शं तुमं महा ! तीरमतिगत पा-
णियं असंपत्त अतरा चव मयेमि विसन्न ¦ तत्थ णं तु-
में मेहा ! पाणियं पाडस्सामि त्ति कंड् हन्थ पसारेसि, से
वियतेहत्थ उदर्ग न पावति । तते णं तमं महा! पृण
रवि कायं पच्चुद्धरिस्सामीति कड दलियतरायं पंकंसि
खुत्ते । तते शं तुम महा | अन्या कदाइ एगे चिरनिज्जू-
हे गयवरजवाणण सगाओ जूहाओ करचरणदं तमुसलप्य -
हांरहिं विप्परद्ध समाणे तं चव महदृहं पाणीय पाएडं
समोयरेति | तते णं से कलभण तुमं पासति २ चा त॑ पु
व्ववेरं सुमरति २ त्ता आसरुत्त रुद कृविए चडि किए मिसि-
मिमेमाणे जणेव तुम तणेव उवागच्छति २ ना तुमं तिक्खेहिं |
दंतमुसलेहिं तिक्खुतत। पिरतो उच्छुभति उच्छुभित्ता पृव्व-
वरं निजाएति २ त्ता हड्ठतुड़े पाणियं पिवति त्ता जामेव
दिसिं पाउव्भूए तामेव दिसिं पडिगए । तते शं तव मेहा ! |
सरीरगंसि वेयणा पाउब्भवित्था उज़ला विउला तिउला
कक्खडा ०जाव दुराहिथासा पित्तज़्रपरिगयसरीरे दाहव -
क्रतीए यावि विहरित्था | तते णं तुमं महा ! तं उज्जलं
° जाव दुरहियासं सत्तराईदियं वेयर्ण वेदसि स्वासं वा-
सतं परमां पालइत्ता अदटरवसडदुददे कालमासे कालं
क्रिचा इहव जबुद्दीब भारह वासे दाहिणडुभरहे गेगाए म-
हाणदीए दाहिणे कृले तिं गिरिपायमूले एगेणं मत्तवर- `
गधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए
जणिते । तते शं सा गयकलभिया णवणह मासाणं
वसंतमासम्मि. तुम पायाया । तते शं तुमं महा | गब्भवा-
साओ रिष्पिय॒के समाश् गयकलभए यावि होत्था, रक्तप्प-
लरत्तसरमालए जासुमणारत्तपारिजातयलक्खारससरसकंकु-
मसंभब्भरागवन्ने इद्र णिग्स्य जहवहणो गणियायारकणे
रुकोत्थहत्थी अणेगहत्थिसयसंपरियुडे रम्मेसु गिरिकाणणे-
सु मुहं सुहं विहरमि। तते ण॑ तुमे मेदा ! उम्मुकबाल भावे
जव्वणगमणुपत्त जृटवइणा कालघधम्मुणा सजुत्तणं तं जूहं
सयमेव पडिवज़सि | तते णं तुमं महा | वणयरेहिं निव्वत्तिय
नामधेज्जे ०जाव चउदंते मरूप्पभे हत्थिरयर होत्था | तत्थ
शे तुमं मेहा ! सत्तगपडट्रिएः तेव ° जाव पडिरूवे । तत्थ
गं तुमे महा ! सत्तरदयस्य जूहस्स अदिव्च॑० जाव
अभिरमेत्था । तते णं तुमं अन्नया कयाई गिस्ह-
क्रालसमयंसि जदट्ठामूले वशदवजालापलित्तेसु वरणब्तेस |
न 3४ महकुमार _
सुधरमाउलासु दिसासु ०जाब्र मडलबाए च्छ, तत शष
रव्र्मते भीते तत्थ ०जाव सेजायभण बहुहि हत्थीहि
य० जाव कलभियाहि य सद्धिं सपरिवुड सव्वतो समता
दिसो देमि विप्यलाइत्था । तते णं तव मेहा ! तं वश
दवं पासित्ता अयमेयास्ते अज्भत्थिए ० जव समुष्प-
जित्था | कर्हि णं मने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे च
गुभूयपुष्ये ?, तव महा ! लेस्साहिं विस॒ुज्ममार्णीहिं
ज्मवसाणेणं सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणि `
ज्ञाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्यणगवेसणं करू
माणस्य सननिपुव्वे जातिसरणे समुप्पज्जित्था | तते शे
तुमं महा | एयमद्रं सम्म अभिसमसि, एवं खलु मया
अतीए दोचे मवग्गहणे इहेव जेबुद्दीवे दीवे मारहे वते
वेयडगिरिपायमूले ०जाव तत्थ णं महया अयमयास्वे
श्रगगिसमवे समणुभूए । तते र तम भहा ! तस्सेव दिव-
सस्स पुव्वावरण्टकालसमयमि नियएण जूहेण सदि
समन्नागए यावि दात्था । तते णं तुमे भहा ! सत्तस्सेहे०
जाव सन्निजाइसमरणे चउरदते मरुष्पभे नाम हत्थी होत्था |
तते णं तुज्क महा ! अयमयास्वे अज्भत्थिए० जाव स-
मुप्पजित्था-ते से ये खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए
दाहिशिज्लंसिं कूलंसि विंभगिरिपायमल दवग्गिसता-
कारणदा सणएणे जूहेणं महालयं मंडल घाइत्तए त्ति-
कड एवं संपेहोसि २त्ता सुहं सुहेण विहरासे । सते शं तु-
मे मेहा! ज्रन्नया कयाई पठमपाउसंसि महावृद्िकाय-
सि सन्निवहयमि गगाए महानदीए अद्रसामंते बहूहिं ह-
त्थीहिं° जाव कलभियाहि य सत्तहि य दत्थिसणिं संप-
रिवडे एग महे जायणपरिमंडलं महतिमहालय मंडले
घाएसि । जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कट वा कंटण वा |
लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुकखे वा खुब वा तं सच्च
तिखुत्तो आहुणिय एगंते एडसि २ त्ता पाणण उड्ववेसि |
हत्थेणं गेएहसि । तत णे तुम मेहा ! तस्येव म |
डलस्स अद्रसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ले कृले |
विंकगिरिपायमूले गिरीसु य ° जाव विहरसि । तते शं |
महा ! अन्नया कदाइ मज्किमए वरिसारत्तासे महावुद्टि-
कार्यसि सन्निवहर्यंसि जव से मंडले तेशव उवागच्छसि |
२ त्तादोचंपितचंपिमडलं घाएसि २ त्ता एवं चरिमे वासा-
रत्तसि महावुद्धिकायंसि सन्निवइ्यमाणंसि जणव से मडल
तेव उवागच्छसि २ त्तादोचं पितं पि मंडलघाय॑ करेमि, |
ज तत्थ तशं वा ०जाव सुहं सुहेण विहरसि । अट मेहा ! तुमं
गइद मावम्मि वदु माणो कमेणं नलिणिवण विविहणगरे हेम॑तें
कुंदलोद्धउद्धततुसारपउरम्मि अतिकंते अहिणवे गिम्हसमझु
_मेहकुमार
( ४१७ )
आंभधानराजन्द्र: |
मेहकुमार_
यंसि पत्ते वियद्ठमाणेसु वेसु वणकरेणुविविहदिष्पकय-
पंसुघाओ तुमं उउयङुसुमकयचामरकनप्रपरिमंडियाभि-
रामो मयवसविगर्सतकडतडकिलिन्नगधमद वारिणा सुरभि
जणियगेधो करेणुपरिवारिओ्ओ उउसमत्तजणशितसोभो
काले दि णयरकरपयंड परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदंस-
णिज्जे भिंगाररवंतभेरवरवे णाणाविहपत्तकट्टतणकयवरु- |
द्वतपहमारुयाइद्धनहयलदुमगण वाउलियादारुणतेरे त- ¦
श्हावसदोसद् सियभमतविविहसावयसमाउले भीमदरिस-
णिज्जे वइंते दारुणम्मि गिम्हे मारुतवसपसरपसरियवियं-
भिएणं अन्भहियभीमभेरवरवप्पगारेणं महुधारापडिय--
सित्तउद्धायमाणधगधगधगंतसदडुएणं दित्ततरसपुलिंगेणं
धृममालाउलेणं सावयसयंतकरणेणं अन्भदियवणदवेणं
जालालोवियनिरुद्रधूर्मधकारभीयो आयवालोयमहंततुंब- |
इयपुन्नकन्नो आकुचियथोरपीवरकरो भयवसभयतदित्तन- |
यणो वेगेण महामेहो व्व पवणोलियमहल्नरूबो जेणेव क-
ओते पुरा दवग्गिभयभीयहियएण अवगयतणप्पएसरु-
क्खो स्क्खुदेसो दबग्गिसंताणशकारणटडाए जेणेव मंडले
तेणेव परहारेत्थ गमणाए, एको ताव एस गमो १। तते णं
तुमं मेहा ! अन्नया कयाईं कमेणं पंचसु उउसु समतिक-
तख गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूल॑ मासे पायवसघेससमु-
द्िएणं °जाव संवद्धिएसु मियसुपक्खिसरीसिवेसु दिसो
दिसि विष्पलायमाेसु तेहि बहूहिं हत्थीहि य सादं
जेणेव मेडले तेणेव पहारेत्थ गमणाणए, तत्थ शं ष्पे बहवे
, सीहा य वग्घा य विगा य दीविया य अच्छा य तरच्छाय
पारासरा य सरभा य सियाला विराला सुण्हा कोला
ससा कोकंतिया चित्ता चिल्ला पुव्वपविडा अण्गभय-
विहुया एगयाओ बिलधम्में चिति । तए णं तुमं मेहा ! |
जेशेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २ त्ता तेहिं बहुहिं |
सीहेहि ° जाव चिल्ललणएहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठ -
सि । तते णं तुमं मेहा ! पाएं गत्तं कंडुडस्सामित्ति कडु
पाए उक्ते तसि च णे अंतरंसि अन्नेहिं बलन्तेहिं सत्तेहिं
पणोलिजमाे २ ससए अणुप्पाविदट्रे | तते शं तुमं मेहा !
गाय कंड्इत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि त्ति कट
ते सस्यं अणुपाविट्टं पाससि २ त्ता पाणाणुकपाए भू-
याणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए सो पाए अंतरा
चेव संधारिए, नो चव शं णिक्खित्ते | तते णं तुमं मेदा!
ताए पाणाणुकंपाए ° जाव सत्ताणुकंपाए संसारे परित्तकते
माणुस्साउए निबद्धे तते णं से वणदवे अड़ातिज्रातिं रातिं-
दियाई त॑ वणं भामेइ २ त्ता निद्टिए उव्ररण उवते वि-
ज्काए यावि हीत्था | तते णू ते बहतरे सीहा य ० जाव -
१०५
चिन्नला य तं वणदवं निद्धियं °जाव विज्छायं पासंति
२ त्ता अग्गिभयविष्पमुका तण्हाए य छुहाए य परन्भा-
हया समाणा मडलातो पडिनिक्खमंतिरत्ता सन्वतो सम-
ता विप्पसरित्थ(, ( तए शं ते बहवे हत्थि ° जाव छुहाए
य परन्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति २
त्ता दिसो दिसि विप्पसरित्था। ) तए णं तुमं महा ! जुन्न
जराजजरियदेदे सिढिलवलितया पिणिद्धगत्ते दुव्बल
किलंते जुंजिए पिवासिते अथामे अवले अपरकमे अ-
चकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कट पाए
पसारेमाणे विज्जुहते विव रयतगिरिप्पन्भारे धरणितलंसि
सव्वगेहि य सन्निवहृए । तते णं तव महा ! सरीरगंसि
वेयणा. पाउन्भूता उज्ञला ° जाव दाहवकंतिए यावि विह-
रसि । तत णं तुमं मेहा ! तं उज्जलं °जाव दरहियासं
ते।न्न राइदियाई वेयं वेएमाणे विहरिता एग वाससर्त
परमाउ पालदत्ता इहेव जवुद्ीवे दीव भारे वासे रायगिंहे
नयरे सेणियस्स र्नो धारिणीए देवीए इच्छसि कमार-
त्ताए पच्चायाए । ( सत्र ३२ )
मेहाइ ` त्ति हे मेघ ! इति, एवमभिलाप्य महावीरस्तमवा
दीत्-' स णूण ` मित्यादि, अथ नून-निश्चितं मघ ! श्रस्ति
पपाऽ्थः? ` हते ` ति कामलामन््रणे श्रस्त्यषोऽथं इति
मघनोत्तरमदायि । 'वनचर के:' शवरादिभि त्यादि
विशषणे प्रागिव ` सत्तस्सटे ` सप्तटस्ताच्कितः, नवायतो--
नवहस्तायतः, एवं दृशदस्तप्रमाणः मध्यभागे सप्राङ्गानि-
पादकरपुच्छलिङ्गलत्तणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा,
समः--अविषम गात्र: सुसस्थिता-विशिष्टसस्थानः, पाठा-
न्तरेण सोम्यसम्मितः तत्र सौम्यः अरोद्राकारो नीरोगो
वा सम्मितः-प्रमाणोपेताङ्गः, पुरत:--अग्नतः उदग्रः-उच्चः
समुच्छितशिराः शुभानि सुखानि वा श्रासनानि-स्कन्धा-
दीनि यस्य स तथा , पृष्ठतः- पश्चाद्भागे वराद इब--
शकर इव वराहः श्रवनतत्वात् , श्रजिकाया इवान्नतत्वात्
कृत्ती यस्य स तथा, अ्रच्छिद्रकुक्तिः मांसलत्वात् . , अलम्बकु
त्तिरपलक्तणवियो गात् , ` पलम्बलबायराहर करे ' ज्ति-प्रलम्'
च लम्बौ च कमेणोद्रं च-जठरमधरकरों च्-ओ्रोष्ठहस्तो
यस्य स तथा, पाठान्तर-[ प्र | लम्दा लम्बोद्रस्येव गणुप-
तारत अधरकरों यस्यस तथा, धनुःपृष्ठाकृतिः-आरोपि-
तज्यघनुराकार विशिष्ट-प्रधानं प्रष्ठ यस्य स तथा, श्राली-
नानि सुश्छिष्टानि प्रमाणयुक्घानि वनितानि- वृत्तानि पीवरा-
णि-उप्रचितानि गात्राणि-ञ्रङ्गानि श्रपराणि-वरीतगात्रे-
भ्योऽन्यानि श्रपरभागगतानि वा यस्य स तथा, अथवा
श्रालीनादि विशेषणं गात्रम्-उरः च्रपरश्च-पश्चादूभागो यस्य
स तथा, वाचनान्तर विशेषणद्वयमिदम-अभ्युद्गता-उन्नता
मुकुलमाल्नक्व-कारकावस्थविचकिलकुसुमवद्धवलाश्च द-
न्ता यस्य साऽभ्युद्धतमुकुलमल्लिकाधवलदन्तः, श्रानामिन
यच्याप-धनुस्तस्यव ललिते-विलासा यस्याः सा तथा. खर
च सवाज्ञना च-सचज्ञन्ती सङ्काचिना वा अग्रखखुगझा खुसहा-
४१८
अमभिधानराजन्द्र
महकुमार
श्यस्य स आना मततस्ापलालतसवणज्लताग्रसुा ड श्रालीन
प्रमाणयुक्रपुच्चः प्रातपू्णा: खुचारवः करस्मवच्चरणा यस्यसः
तथा, पाग्ड्राः-- शुङ्गाः स॒ुविशुद्धा:--निम्मलाः स्निग्धाः-
कान्ता निरूपदटनाः-स्फार्टादिदापरदिना विशतिनखा यस्य
स तथा, नत्रन्वद मध्र! बहुमिहस्त्यादिभिः साद्ध सपरि-
बुतः आध्रपन्य कुवेन विरसानि सम्बन्धः । तत्र दस्ति
:-परिपूर्राध्माणा: लाइकाः--कुमारकावस्थाः कलभा
चालक्रावस्थाः दस्तिमटस्रस्य नायकः--प्रधान
वा-देशका दितमागदेः अआकर्षपौ--प्राकषकाऽग्रगामी प्र-
स्थापका--विविधकार्येषु. प्रवर्ततो युथएतिः--तन्स्वामी
च्ुन्दपारियद्ध कः--तद्धाडिकारकः ` सड पललिप ` ति सदा
धर्लालत:-प्रक्री डितः कन्दपरतिः-- काल्यः मोहनशीलो-
निधुवनाप्रियः अवितृप्ता माहन णवानुपरतवाज्छः, तथा
सामान्यन कामभाग 5तपितः गिरिघु च--पवतपु दरीषु च-
कन्दरविशषपु कुटरषु च--पचतान्तरालघु कन्दरासु च-
गुहासु उस्फरपु च--उदकस्य प्रपातघु निभरषु च--स्य-
न्दनघु विदरपु च-चुद्रनयाकारषु नदीपुलनस्यन्दजल- |
गतिरूपपु वा गर्ताखु च-प्रनीताखु पल्वल च-प्रहादन-
शीलपु चिल्ललपु च--चिकिखल्लमिश्रष कटक्रपु च--पर्वेतत
टेषु कटकपट्वलघु पर्वततटव्यवस्थितजलाशयबिशषेषु तटी
प च-नदादीनां तटेषु वितटीषु च-तास्वव विरूपासु, अ-
थवा-विर्थाडशब्देन लक अटवी उच्यत, टङ्कुषु च--एक-
दिश छिन्नद चवते कुटकेपु च--अधोविस्तीणँषूपारेस-
करीष चृत्तपचतयु दस्त्यादिवन्धनस्थानेषु वा शिखरेषु च-
प्तापारवसिकृटषु, प्राग्मारषु च-ईषदवनतपवेतभागेषु |
म्प च-- स्तम्भन्यस्तफलकमयषु नद्यादिलड्डनाथंषु मालषु |
च-श्वापदादिरक्ताधपु तद्विशिषष्वेव मञ्मालकाकारषु पर्वत
दर्शाष्वत्यन्य काननचु च-स्प्रीपक्तस्य पुरूपपत्तस्य चकतरस्य
भाग्यपु वनविशपषु,
जातीयचृत्तपु वनखराडयु च-ञअनकजातीयदृक्तषु वनराजीषु
च-एकानकजातीयच्रत्ताणां पडङ्क्किपु नदीषु च-प्रतीताखु नदी-
कक्तपु च-तद्वदेनपु यृधवु च--वानरादियृथाश्रयपु सङ्गमेषु
-नदीमीलकेपु वापीषु च--चतुरस्रासखु पुष्करिणीषु च- |
वर्तुलासख पष्करवतीषु वा दीर्धिकासु च--ऋजुसारिणीष गु
ज्ञा{लकासु च-वक्रसारिणीषु सरस्सु च--जलाशयविशेषेषु
सरःपडङ्किकाखु च-सेरसां पद्धातिषु सरःसरःपङ्नङ्ककासु च-
यासखु सरःपद्ङ्कघु पकस्मात् सरसा ऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्य-
अब सञ्चारकपारकनादकं सचरति तासु बहुविधास्तर-
पल्लवाः प्रचुराणि पानीयतणानि च यस्य भाग्यतया स
तथा, निर्नयः शरन्वात् , निरूद्धिञ्मः सदेव अनुकूलविषय-
प्रानः, खुख सुखन अकृच्छेण, “ पाउस ` त्यादि, प्रावुदू--
श्रााद्रश्राचणोा चर्पा--भाद्रपदाभ्वयुजा शरत्--कात्तिक-
मार्गशीषां हमन्तः-पापमाघ्रा बसन्तः-- फार्गुनचत्रो पतेषु
पञ्चम्पु ऋतुप समातक्रान्तप, ज्यप्टामूलमास ` त्त-ज्यघ्र-
मास पादपघर्षणससुत्थितन शुष्कतणपत्रलक्षणं कचवरं
मारूतश्व॒ तयाः सेयागन दीघता यः स तथा तन महाभय-
करण--अ्ति भयकारिणा छहुतवहेन--अमिना या जनित
दनि हृदयस्थम . बनदबा-वबनाझिः तस्य ज्वालाभिः सेप्र-
दीपाय न लशा तपु च चना न्त सत्सु. अथवा- पायव-
न्यायक्रा
शधरचा-यत्परतः पवताऽख वा भव- |
त तान काननानि-जीगीचरत्ताणि वा तथु वनघु चअ--एक- |
घंससमुट्टिएण ' मित्यादिषु रकाराणां वाक्यालङ्काराशत्वा-
त्सक्तम्यकवचनान्तता व्याख्यया, तथा धृमाकुलाखु दिः
च्ल. तथा महावायुवेगन संघट्टितिष छिन्नज्वालेषु-त्र
टितज्वालासमूहष॒ आपतत्सु--सवंतः सपतत्खु तथा
` पान्नलरक्खसु ` त्त शाषरवृत्तसु अन्तरन्तः--मध्ये मध्य
ध्मायमानेषु- दह्यमानेषु तथा मतेसंगादिभिः कुथिताः
कोथसुपनीता विनष्राः--विगतस्वभावाः ` किमियकदम
त्ति कृमिवत्कदमा नदीनां विवरकाणां च क्षीणपानीयाः अ-
न्ताः-पयन्ताः यष, कचित् ˆ किमव
णा जलक्तयात्पानीयान्ता-जलाशया यघु त तथा तेषु वना-
न्तषु-वनविभागषु सत्सु, तथा भ्रज्ञारकाणां पक्तिविशषाणां
दीनः ऋन्दितरवो यषु त तथा तषु वनान्त च्विति-चतते,
खरपरुषम--अतिकर्कशमनिष्ट रिष्ठानां--काकानां व्याहते
शब्दितं यषु त तथा बिदुमाणीव--प्रवालानीव लोहितानि
द्ग्नियागात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्रमाग्रास्ततः
पदद्वयस्य २ कमधारयः, ततस्तषु-द्रमात्रषु चक्तात्तमेषु स-
त्सु, वाचनान्तर--खरपरुषरिषएठव्याहतानि विविधानि दु-
मात्राणि येषु त॒ खरपरुषरिएटव्याहतविविधद्रमाग्रास्तषु
वनान्तप्विति, तथा कठृष्णावशन मुक्कपत्ताः- ्छथीरूतपक्ताः
प्रकटितनजिदातालुकाः अस्पुटिततुरडाश्च-्रसन्रतमुस्वाः
ये पक्तिसक्घास्ते तथा तषु ' ससतेखु ` त्ति--श्वसत्सु श्वास
म॒खत्ख, तथा प्रीष्मस्य ऊष्मा च-उष्णता उष्णपातश्च-रवि-
करसंतापः खरपरूषचण्डमारुतश्व-अतिकर्क्कशप्रबलवा तः शु-
स्कतृणपत्रकचवरप्रधानवातोली चेति दन्द्रः ताभिश्रमन्तः-
अनवस्थिता रक्ताः सश्चान्तः ये श्वापदाः-सिंहादयः तेराकुला
य ते तथा, स्रगव्ृष्णा-- मरीचिका तल्लत्तणा बद्धः चिह्पटो
येषु ते तथा, ततः पदद्धयस्य कम्मघारयोऽतस्तघु सत्सु,
गिरिवरेषु-पवैतराजषु, तथा सवतेकितेषु-सेजातसेवतैकेषु
त्रस्ता-भीता ये सृगाञ्च प्रसयाश्च-श्रारव्यचतुष्पदाविशे-
घाः.सरीसखपाश्च-गोधादयस्तेषु,ततश्चासौ दृस्ती श्रवदारित-
वदनविवरो निलोलिताग्रजिहृश्व य इति कम्मधारयः “ म-
हंततुवदयपुष्करणं ' महान्तो तुम्बकितों--भयाद्रघट्ट तुम्बा-
कारो कृतों स्तब्धावित्यथः , पुरयो-व्याकुलतया शब्द्
ग्रहण प्रवणों कर्णौ यस्य सख तथा, संकुचितः “थोर › त्ति
स्थूलः पीवरो- महान् करो यस्य स तथा, उच्छितला-
ङ्गृलः ` पीणाइय ` त्ति-पीना या--मजा तया निवृत्ते
पैनायिकं तद्विधे यद्विरसे रितं तल्लक्तणन शब्देन स्फा-
ट्यज्निवाम्बरतल पादददरेण पादघातन कम्पयन्निव “ मे-
दिनीतल ` मित्यादि, करख्यम् , 'दिसो दिसि' ति दिक्तु देच्तु चा-
पदिच्ल च विपलायितवान् , आतुरो--व्याकुलः ' जुंजिए
त्ति बुभुक्षितः दुवेलः-- क्रान्तो ग्लानः नष्टश्रुतिको--मूढदि-
क्रः ` परब्भादण ` त्ति पराभ्याहतो बाधितो भीतो जात-
भयः अस्ता जातक्ताभः ` तसिए ' त्ति शुष्क आनन्दरस-
शोषात् उद्धिग्नः--कथमितो ऽनर्थान्मोच्य ऽहमित्यभ्यवसा-
यवान् , किमङ्ग भवति ?-संजातभयः--सर्वात्मनोत्पन्नभयः
श्राधावमानः-- इषत् परिधावमानः-- समन्तात् पाणी(णि)-
यपापः ` ति- पान पायः पानीयस्य पायः पानीयपायस्त-
स्मिन् , जलपानायत्यशः, ` सेयेसि विन्न ` त्ति पङ्क निम-
ग्नः, कराये प्रल्युद्धरिप्यामीति इत्वा कायमुद्धन्तुमारन्ध इति
' न्ति पाठः तत्र सुतैः
कथिताः विनण्रकूमिकाः कदेमाः-नदीविदरकलत्तणाः त्षी- `
^. भ
ब = कर
( ४१६ )
के
| अभिध्रानराजन्द्रः। 4.
शषः, * बलियतरायं ` ति गाढतरम् । ` तप ण॒ › मित्यादि, | त्ति छुवो हस्वशिखः शाखी ` श्राहुणिय ` त्ति प्रकम्प्य
इदेवमन्तरघटना-- त्वया हे मेघ ! पको गजवरयुवा करचर- . चलयित्वेत्यर्थ:, ' उडवसि ` त्ति उद्धरासि ' पडि ` त्ति
शदन्तमुशलग्रहारैर्विप्रालब्धो विनाशगितुमिति गम्यते, वि- छर्दयसि, ' दाच्च पि ` द्वितीये तस्येव मगडलस्य घातम् ,
पराद्धो वा-हतः सन् अन्यदा कदाचित् स्वकाद् यूथात्
चिरम् 'निज्जूढे' त्ति निर्धारितो यः स पानीयपानाय तमव
मदाहदे समवतरति स्मेति , ' आसुरुत्ते ' त्ति स्फुरितकोप
लिङ्गः रूः--उदितक्रोधः कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः चाणिड-
क्यितः-संजातचारिडक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यथः, ' मिसि-
मिसीमाणे ` त्ति--क्रोघाग्निना देदीप्यमान इव, एकाधिका
चेते शब्दाः कोपप्रकषप्रतिपादनाथं नानादेशजविनेयानुग्र-
हार्थ वा , ` उच्छुहद “-अवष्टभ्नाति विध्यतीत्यथः ,
« निज्ञाए ` त्ति-नियौतयति समापयति , वेदनाः कि
9
विधाः ?--उज्ज्वला विपक्षलेशनापि श्रकलङ्कता विपुला
शरीरव्यापकत्वात् कचित्-' तितुल
मनोवाकायलन्षणानथास्तुलयति जयति तुलारूढानिव वा
करोतीति तितुला कर्कशा-कर्कशद्वव्यमिवानिष्टेत्य रथ
प्रगाढा प्रकषवती चएडा-रोंद्रा दुःखा--दुःखरूपा न खु-
खेत्यथः , किमुक्के भवति ?--दुरधिसद्या , ' दाहवक्कताए
त्ति दाहो व्युत्कान्तः--उत्पन्ना यस्य स तथा स पव
त्ति पाठस्तत्र त्ीनपि
दाहव्युत्कान्तिकः ' अट्टवसट्नदुहद्दे ' ति-श्रात्तवशम्-आत्त- |
ध्यानवशतागरतो-- गता दुःखात्तश्च यः स तथा, ` करेरुए `
त्ति-करेखुकायाः
मारक यः: स तथा, जपासुमनश्थ ्रारक्रपारिजातकश्च
रक्तुप्पले ` त्यादि रक्कोत्पलवद्रक्कः सुकु- |
वृत्तावशषा लात्तारसश्च सरसकुछूम च सन्ध्याश्चररागश्चात |
इन्दः, एंतपामिव वर्णों यस्य स तथा,
गणिकाकाराः--समकायाः करेरावस्तासां
उद्रदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्री डापरायणत्वात् स तथा,इह
चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः । कालधम्मुण ' त्ति कालः-मरणे स ए-
च धर्मो-जीवपयीयः कालघमः 'निव्वत्तियनामघेजञो' इह याव-
त्करणेन यद्यपि समग्रः पूर्वोक्तो हस्तिवगीकः सूचितस्तथापि
श्वततावणकवर्ज्यो द्रष्टव्यः,इह रक्रस्य तस्य वर्णितत्वादत-
पचाग्र ˆ सत्तस्सहे ` इत्यादेकमतिदेशे वदयत यत्
पुनरिह दश्यते ˆ सत्तगे ' इत्यादि तद्भाचनान्तरम् , वर्ण-
काक्षेप॑ तु लिखितमिति । ' लेस्सादी ` व्यादि तेजोलेश्या-
द्यन्यतरलेश्यां पराप्तस्यत्य्थः, श्रध्यवसान-मानसी परिणतिः
परिणामो-जीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्म्मा-
णि मतिज्ञानावरणीयमेदाः त्षयोपशमः-उदितानां क्षयोऽ-
उदितानां विष्कम्भितादयत्वम् ईदा-सदथाभिमुखा वितर्क
इत्यादि प्राग्वत् , सं हिक प्रवेजातिः-प्राक्कने जन्म तस्या यत्
स्मरणे तत्संक्िपूवजातिस्मरणम् , व्थस्ततरिवेश तु सन्नी पूर्वा
भवो यत्र तत्संज्षिपूर्व संशीति च विशेषणं स्वरूपश्ञापनाथम ,
न हासंशिना जाति विषयं स्मरणमुत्पद्यत इति, 'अभिसमेसि'
तक्ति-अववुध्यस प्रत्यपराह्मः--अपराह्ृः, ` तप ण॒मित्यादि-
को ग्रन्था जातिस्मरणविशषणमाश्रित्य वरितः, * क्वग्गि-
जायकारणट्ट ' त्ति दवाओः सजातस्य क्रारणस्य--भयदेतो-
निवृत्तय इदं दवाश्रिसंजातकारणशार्थंय् , ॐथशब्दस्य जि-
चतय थत्वात् , कचित्-' दवग्गिसंताण्कारणष् ` त्ति ह--
श्यत, तत्र दवाच्चिसन्त्राणकारणायति व्याख्येयम् , ` मंडल
घाएसि ` इक्तायुपघातन तत्करातीव्य्थः ' खुबेल्यति व
गणियार ' त्ति ¦
कात्थ ` ति-- |
एवं तृतीयमिति, नलिनीवनविवधनकरे , इह विवधने वि-
नाशः, ' हेमंत ` त्ति शीतकाले कन्दाः-पुष्पजातीयविशषाः
लोधाश्च-चृच्तविशषास्ते च शीतकाले पुष्यन्त्यतस्त उद्ध-
ताः-पुष्पसमरद्धया उद्धुरा इव यत्र स तथा, तथा तुषारं
हिमे तत् प्रचुरं यत्र सं तथा, ततः कमधारयः ततस्तत्र
ग्रीष्म-उष्णकाले विवतेमानो--विच रन् वनघु वनकरंणणुनां
तामियाँ विविधा ` दिन्न ' त्ति दत्ताः कजप्रसवेः-पद्मकुसु-
मर्घाताः-प्रहारा येषु यस्य वा स तथा “ वणरेणुविविह-
दिल्लकयपंस॒ुघाओ ` त्ति पाठान्तरे तु वनरेणवा-वनपांशवोा
विविधम-अनकथा ` दिन्न ` त्ति दत्ता दिच्वात्मनिच क्रीडा
परतया ज्तिप्ता यन स तथा, तथा कीडयेव छूताः पांशुध्राता
येन स तथा, ततः पदद्वयस्य कम्मघारयः. "तुमः दि त्वम्.
तथा कुखुमेः छतानि यानि चामरवत्कर्णपूराणि तैः परिम-
डतो ऽभिरामश्च यः स तथा. कचित्-' उउयकुखुम ` त्ति
पाटः, तत्र ऋत॒जकुसुमैरिति व्याख्येयम् . तथा म्दवशन वि-
कसन्ति कटतटानि--गरणडतटानि कह्लिन्नानि-आर्द्वीकृतानि
येन तत्तथा तच्च तहन्धमदवारि च तन सुराभिजनित-
गन्धः- मनोज्ञ तगन्धः करेणुपरिव्रतः ऋतुभिः समस्ता
समाप्ता वा--परिपू्णा जनिता शोभा यस्यस तथा, काल
किंभूत ?-दिनकरः करप्रचगडा यत्र स तथा तत्र, परिशो-
षिताः-नीरसीकृताः तरूवराः श्रीधराः--शाभावन्ता यन
परिशोपिता वा तरुवराणां श्रीः-सपद् धरायां-भुवि वा यन,
पाठान्तर-परिशोषितानि तरुवरशशिखराणि यन स तथा सं
सौ भीमतरदशनीयश्चति, तत्र भ्रृज्ञाराणां-पक्तिविशषारां
रुवतां-रवे कुर्वतां भेरवो-भीमो रवः-शब्दो यस्मिन् स तथा
तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्टुतृणकचवरारयुद्धतानि--उत्पा-
टितानि येन स तथा स चासो प्रतिमारुतश्च-प्रतिकृलवा-
युस्तन आदिग्धें-व्याप्त नभस्तले-व्योम * पड़ममाण ` त्ति
पटुन्वादुपतापकारि यस्मिन , पाठान्तर उक्कविशषणन प्रति-
मारुतनादिग्ध नभस्तल द्रमगणश्च यस्मिन् स तथा, तत्र
वातोल्या--वात्यया दाख्णतरो यः स तथा तत्र. तृष्णाव-
शन ये दोषा-वेदनादयस्तेदों ण्तिा--जातदोषा दूषिता वा
भ्रमन्तो विविधा य श्वापदास्तैः समाकुला यः स तथा तत्र
भीम यथा भवव्येवं दश्यते यः स भीमदर्शनीयः तत्र वतं-
माने दारुण ग्रीष्म, केनत्याह--मारुतवशन यः प्रसरः-प्रस-
रणे तन प्रसृतो विज्म्भितश्च-प्रबलीभूता यः स॒ तथा तन
वनदवनति योगः, अभ्यधिकं यथा भवव्यवं भीमभेरवः-
अतिभीष्मों रवप्रकारो यस्य स तथा तन, मधघुधाराया य-
त्पतित-- पतन तेन सिक्क उद्धावमानः प्रवद्ध मानों धगधगा-
यमानो-जाज्वटयमानः स्पन्दोद्धतश्च--दह्यमानदारुस्पन्द-
प्रबलः, पाठान्तर--शब्दोद्धतश्च यः स तथा तन दीप्ततरो-
यः सस्फुल्िङ्गश्च तन घूममालाकुलनति प्रतीतम् , श्वापदश-
तान्तकरणन--तद्धिनाशकरारिणा ज्वालाभिरालापितः-क्-
षाच्छादनो निरुद्ध श्च-विवक्तितदिग्गमलन निवारितो धूमज-
नितान्धकाराद् भीतश्च यः स तथा, श्रात्मानमव पालयनी-
व्यात्मपालः, पाठान्तरण-' श्रायवालो य ` त्ति तत्र श्रात-
पालावन-हुतवहतापदशनन महन्तो तुस्वरकितो स्तब्धत-
( ४२० )
अभिधानराजन्द्र
मेदकमार
मेहकुमार
या अरघट्टतुम्बाकृती-ससंशभ्रमों कर्णों यस्य स तथा, आकु-
खितस्थूलपीवरकरः भयवशन भजन्ती दिश इति गम्यते
दीपे नयन यस्य स तथा, ` आकुंचियथोरपीवरकराभो- |
यसव्वभवंतदित्तनयणा' त्ति पाठान्तरम् , तत्र-आभोगो-वि- |
स्तारः सवी दिशो भजन्ती दीप्त नयन यस्येति, वगेन महामेघ
इव वातनादितमहारूपः.किमित्याद-येन यस्यां दिशि रूतो-
विहितः ते त्वया पुरा-पूर्व दवाच्चिभयभीतहदयन अपगता- |
नि ठृणानि तपामेव च प्देशा--मूलादयोाऽवयवा वृत्ताश्च |
यस्मात्सो ऽपगततृणप्रदेशवृ्तः, को ऽसो ?-चत्तादेशः-च्तप्र- |
धानो भूमरकदशा, रूक्तादशा वा । किमथम् ?--दवाच्रिसं- |
्राणकारणाश--दवाग्निख्राणदतुरिदं भवत्वित्यतद्म्
तथा यनेव--यस्यामव
रितवान् गमनाय, कथ बहभिहैस्त्यादिभिः साद्धमित्यय-
मको गमः १; यत् पुनः “ तपरणे तुमे महा ! अणणया
दिशि मण्डल तनेव ततेव प्रधा |
कयाद कमण पंचसु इत्याद दश्यत तद्वमान्तर मन्यामह |
सच्च एवे द्रष्टव्यम् -'दाच पि मडलघायं करसि ० जाव सु
हं सुदेश विहरसि, तए णे तुमे महा ! अन्नया कयाइ पच-
खु उडउखु अइकंतसु ` इत्यादि, यावत् ` ज़णव मर्डल
तेव पहारत्थ गम्णाप ` त्त, [सहादयः प्रताताः नवर तृ- |
का--वरूक्षाः द्वीपिकाः-चित्रकाः-- अच्छु ` त्ति रक्ताः त- |
रच्छा-लोकप्रासाः परासराः-- शरभाः शुगालावडालशु
नकाः प्रतीताः कालाः-शकराः शशकाः प्रतीताः कोकन्ति- '
काः-लामटकाः चित्रों: चिल्ललगाः--श्रारण्या जीवविशषाः, |
एतषां मध्य ऽधिङ्तवाचनायां कानिचिन्न दृश्यन्ते, आग्नि-
भयावद्रताः-आग्नभयाभ्रभूताः एगआ तत्त पकता वलघ- |
मण बलाचारण यथैक विल याबन्ता मक्कोटकादयः ,
समान्ति तावन्तपस्तिष्ठन्ति, एवं तऽपीति, ततस्त्वया हे मघ !
गात्रेण गाव कणडयिष्ये इति कृत्वा-इति हताः पाद् उत््ति-
-उत्पाटितः, 'तंसि च णे अतरंसि' तस्मिश्चान्तरे पादाक्रा
न्तपूर्वे छमन्तराले इव्यथः । पाद् नक््खावस्साम तत्त कट्ट इह |
भुवे निरूपयन्निति शषः, 'प्राणालुकम्पये' त्यादिपदचतुष्टयम
काथ दयाप्रकर्षप्रतिपादनार्थम्, 'निट्टिए' त्ति निष्ठां गतः कृत
स्वकार्यो जात ` इत्यथः, उपरता $नालिर्गितन्धनाद् व्यावृत्त
उपशान्ता-ज्धालाषशमात् ' विध्माता -ङ्गारमुमुराद्यभावात्
घाऽपा त समुच्चय, जाण इत्याद शाथला बालप्रघाना
या त्वक् तया पनद्ध गात्र--शरीर॑ यस्य स तथा, अथा-
मा शारीरबलविकलत्वात् अबलः-अधघष्टम्भवांजतत्वात्
अपराकफ़मा- नष्पादतस्वफलाभमानावशषघ राहत त्वात्, अ- ।
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चड्जूमणता वा ठाणुखण्ड {त्त ऊध्वस्यानन स्ताम्भत-
गात्र इत्यथः ` रययागारपन्भार त्त इह परारभार--इषद्-
चनत खरडम्, उपमा चानेनास्य महत्तयेब, न वणतारक्र-
त्वात्तस्य, वाखनान्तर तु सत पवासााव्रात।
तते णं तुम मेहा ! आखणुपुव्वेणं गब्भवासाओं नक्खतं
समाणे उम्मुकबालभाव जाव्वणगमणुप्पत्त मम आतए मृड
भवित्ता आगाराओ अणगारेय पव्वइए,त ज।ते ० जाव तुम
महा ! तिरिक्खजोणियभावमुवगएण अपडिलद्धसम्मत्तर-
यणलभणं से पाणे पाणाणुकपयाएु० जाव अतरा चव से
धारिते नो चव शं निक्खित्ते किमंग ! पृण तुमं मेहा | इ्याणि
विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहयसरीरदंतलद्धपंचिंदिए णं ए
वं उद्राणवब्रलवीरियपुरिसगारपरकमसंजुत्ते णं मम अंतिए
मंड भवित्ता आगारातो रणगारियं पव्वतिए समाणे सम-
णाणं निग्गंथाणं रारो पुव्वरत्तावरत्तकालसमय॑सि वायणा-
ए० जाव धम्माणुओगचिंताए य उचारस्स वा पासवण-
स्स वा अतिगच्छमाणाण य निगगच्छमाणाण य हत्थसष-
इणाणि य संघपायट्टणाणि य° जाव रयरेणुगुडणाणि य
ना सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि ? तते
णं तस्स मरहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावी-
रस्स अतिए एतमडं सोचा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं
पसत्थर्हिं अञ्भवसाणेदिं लेसाहिं. विसुज्छमाणीहिं
तयावरणिज्ञाणं कम्माणं खओवसमेणं इहावृहमग्गणग-
वेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्ये जातीसरणे समुप्पन्ने-
एतम सम्मं अभिसमेति । तते शंस महे कुमार स-
मणेणं भगवया महावीरं संभाग्यिपुच्वजातीसरणे दु-
गुणाणीयसंवेगे आशंदयंसुपुन्नमरहे हरिसवसेणं धाराह-
यकदं बकं पिव समुस्ससितरोमक्ूवे समण भगवं महा-
वीरं बदति नमंसति २ त्ता एवं वद्ासी-अज्ञप्पभितीशं
भते ! मम दो अच्छी मोत्तुण अवसेसे क्ाए सम-
शाणं णिग्गंथाणं निसट्ले त्ति कड पुणरवि समश भगवं
महावीरं वदति नमसति २ न्ता एवं वदासी-इच्छामि
णं भते! इयाणि सयमेव दां पि सयमेव पव्वावि-
यं सयमेव भुडावियं ०जाव सयमेव आयारगोयरं जा-
यामायावत्तियं धम्ममातिक्खह । तए शं समे भगवं
महावीरे महे कुमारं सयमेव पव्वावेइ ०जाव जायामाया-
वत्तियं धम्ममाइक्खई, एवं देवाणुप्पिया ! गन्तव्वे एवं
चिद्टियव्वं एवं णिसीयव्वं एबं तुयद्धियब्व॑ एवं भुजि-
यव्व॑ भासियव्व॑ उड्भाय २ पाणाणं भूयाणं जीवां स-
ताणं संजमेणं संजमितव्य | तते णं से मेहे समणस्स भ-
गवतो महावीरस्स अयमेयारूव धम्मिय उवएसं सम्मं
पडिच्छति २ त्ता तह चिट्ठाति ०जाव संजमेणं सजमति ।
तते शं मेहे अणगारे जाए इरियासमिए् अणगारवन्नओ
भाणियच्चो । तते णं से मेह अणगारे समणस्स भगवतो
महावीरस्स अंतिए एतास्वाणं थेराणं सामातियमा-
तियाणि एकारस अगाति अहिजति २ त्ता बहूहि च-
उन्थद््ऽटरमद समदुवालसेहि मास5द्धमासख मणेहिं अप्या
भावेमाणे विहरति । तते णं समे भगवं महावीरे
रायगिहाओं नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ प-
डिनिक्खमति २ त्ता बहिया जणवयविहारं विहरति ।
( सूत्र-२२ )
' अपडिलद्धसम्मत्तर्यणलंभेणं ` ति-अपतिलब्धः--असं-
४.
कि
|
मेहकुमार
न ल ङ्ख्य का न
४२९ )
अभिधानराजन्द्रः।
मेदकुमार
ज्ञातः, * विपुलकुलसमुन्भवे ण ` मित्यादौ णकारा वा-
कयालङ्ारे निरूपहतं शरीरं यस्य स तथा, दान्तानि-डउ- |
चशमं नी तानि प्राकाल लब्धानि सन्ति पञ्चन्द्रियाणि येन
स तथा, ततः कस्मघारय
|
|
|
।
पाठान्तरे--निरुपहतश री र- |
आप्तस्चासा लब्धपश्चान्द्रयश्थात समासः एव गमत्युपल. |
भ्यमानरूपेरुत्थानादिभि सयुक्ता यः स तथा, तत्र उ-
स्थाने- चेष्टाविशेषः, वले- शारीरं वीर्य-जीवप्रभवे पुरुष- |
कारः-अभिमानविशेषः पराक्रमः-स प्व साधितफल |
इति, ना सम्यक् सहसे भयाभावेन क्षमसे क्षोभाभावे- |
न तितित्तसे दैन्यानवलम्बनन अध्यासयसि अविचलि- |
तस्य मघ- |
तकायतया, पकाधथिकानि वतानि पदानि ,
स्यानगारस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नमिति सम्बन्धः | समु-
त्पन्ने च तजर किमित्याह--एतमथ पूर्वोक्तं वस्तु सम्यक् |
* अभिसमेइ ` त्ति श्रभिसमति अवगच्छुतीत्यथेः । ` से-
भारियपुव्वजाईसरणे ' त्ति सस्मारित पूर्वजात्यों-प्राक्न-
नजन्मनाः सम्बन्धि सरणं--गमने पूर्वजातिसरणं यस्य स
तथा, पाटान्तर-सस्मारितपूवंभवः, तथा प्राक्कालापक्षया
द्विगुण आनीतः स्वेगो यस्य स तथा, च्रानन्दाश्चुभिः पू-
शी भरतं प्लुतमिचयर्थो भुखे यस्य स तथा, “ हारिसवस
अनेन 'हरिसवसविसप्पमाणहियए' त्ति द्रष्रव्यम् , धाराहतं
यत्कदम्बक-कदम्बपुप्पे तद्धत् समुच्छितरोमकूपो रोमाशित |
इत्यथः, ` निसद्ठु त्ति निखा दत्तः अनगारवरणको वाच्यः,
सचायम-' इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण- |
त्ति |
मेडमत्तनिक्खवणासमिप उच्चारपासवणखलसिघाणजल्ञप- |
रिद्धावणियासमिप मणसमिए वयसमिप कायसमिप मणगु- |
त्त वयगुत्त कायगुत्त ` मनःप्रभृतीनां समितिः-सत्पवृत्तिः
_मुप्तिस्तु-निरोधः, अत एव ' गृत्त म॒ुक्तिदिए गुत्तवेभयारी
ब्रह्मगुप्तिभिः ' चाई “-सह्ञानां वणे लज्जू >रज्जुरिवा
दक्रव्यवहारात् लजालुर्बा सयमन लोकिकलज्या वा “ त-
वस्सी खातखम ` ज्तान्त्या क्षमत यः स तथा “
सादी ` शाधयत्यात्मपराविति शोधी शोभी वा
अप्पुस्खुए ' अल्पौत्खुक्या ऽनुःखुक इत्यथः, अवहिल्ले' से-
यमादवहिभूतचित्तद्॒त्ति:'सुसामणणरणए इणमेव निग्गथं पा
वयर पुरओ त्ति कट्टु विहरइ' नि्रेन्थप्रवचनानुमार्गेण इत्यथेः ।
जिदंदिए
° श्रणिदाणे |
तते णे से मेह अणगारे अन्नया कदाइ समणं भगवं |
महावीरं व॑दति नमसति २ त्ता एवं वदासी इच्छामि णे
भते ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं
उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए , अहासुहं देवाणुप्पिया !
मा पडिबन्ध करेह | तते णं से मेहे समणेणं भगवया
महावीरेणं अन्भणुन्नाते समाणे मासियं भिक्खुपडिमं
उवसंपञ्जित्ता शं विहरति | मामियं भिक्खुपडिमं अह्यासुत्तं
अहाकप्यं अहामग्गं ° सम्मं काएणं फासेति पालेति सोभति
तीरेति किटूति सम्मं काएणं फासेत्ता पालेत्ता रभेत्ता
तीरेत्ता किटत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति
नमंसति २ त्ता एवं वदासी इच्छामि णं भते ! तुब्भेहिं
अब्भणुन्नाते समाणे दामासियं मि श्खुएाडिमं उवसंपजित्ता
शं लरत, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवन्धं
करेह, जहा पदमाए अभिलावा तहा दोच्चाए तच्चाए
चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासियाए प
ढमसत्तराशदयाए दाच सत्तरातिदियाए तइय सत्तरा-
तिंदियाए अहोरातिंदियाए वि एगराईदियाए वि, तत
शं से मेदे अगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं काए `
शं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किट्वेत्ा परि
वंदति नमंसइ २ त्ता एवं बदासी- इच्छामि णं भेत ।
तुब्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे गुणरतणसंवच्छरं तवोकम्मं
उवसंपाज्ञत्ता णं विहरित्तए । ज्ञा० । ( गुणरत्नसवत्सर-
तपःकमे * गुणरयणसंवच्छर ' शब्दे तृतीयभागे € २६
पष्ठ गतम् ) तत णंस मेदे अणगारे गुणरयणसंव-
तवाकम्म अहासुत्त ०जाव सम्म कणण फासइह पाल३
सोभई तीरेइ किडद अहासुत्त अहाकप्पं ° जाव किट्दत्ता
समणं भगवं महावीरं वंदति नर्मसति २ त्ता बहूहिं छद
दसमठु॒वालसाह मासद्धमासखमण।ह व।चत्ताह तवा
म्माहे अप्पाणं भावेमाणं विहरात | ( प्रत्र ३३ )।
अहाखुह ` ति यथासुर्ख-सखाततिक्रमण, मा पॉडिबन्धे-
विघात विधेहि विवक्तितस्याति गम्यम् , ` भिक्खुपाडम ` ति
अभिग्रहविशषः, प्रथमा एकमासिकी एवं द्वितीयाचाः स-
पम्यन्ताः क्रमण द्विचिचतुष्पञ्चपटसत्तमाः समानाः, त्रयी
नवमीदेशम्यः प्रत्यक॑ सप्ताहोराजमानाः एकादशी अहाो-
रा्रमाना द्वादशी एकराजत्रमानाति | तत्र--
“४ पडिवज्ञइ एयाओ, संघयणाधिदरजुओ महा सत्ता ।
पडिमाओ भोंवियप्पा, सम्म सुरुणा अणुन्नाओ ॥ १॥
गच्छं जिय निम्माआ, जा पुव्वा दस भवे असंपुशा ।
नवमस्स तइयवत्थू , होइ जहज्नो खुयाहिममो ॥ २॥
वासट्टुचत्तदहों, उबसग्गसहो जहेव जिणकप्पी ।
एसण आभिश्गहिया, भक्त च श्रलवडं तस्स ॥ ३ ॥
दुद्डस्सहत्थिमाई, तश्र भएणे पय पिनो सरद ।
एमाईइनियमसवी, विहरइ जाएखेडिशो मासा ॥ £ ॥ `"
इत्यादि ग्रन्थान्तराभिहितों विधिरासां द्रषए्व्यः । यरनड
एकादशाङ्गविदोऽपि मघानगारस्य प्रतिमानुछानं भणिते त-
त्सवेवदिसमुपदिष्टत्वादनवद्यमवसयमिति, यथासूत्रम- स्
त्रानतिक्रमेण, यथाकरपम्--प्रतिमाचारानतिक्रमस, यथा-
मागंम्-ज्ञानाद्यनतिक्रमण, क्तायोपशमिकभावानतिक्रमेण चा
कायन न मनोारथमात्रेण , फासेइ ` त्ति उच्चितकाले वि-
धिना ग्रहणात् , पालयाति--असकृदुपयागन प्रतिजागर-
णात् , शाभयति-- पारणकदिन गुरुदत्तशषभाजनक्रणःत् ,
शाघयति वा-श्रतिचारपङ्कत्तालनात् , तीरयति-- पृ ऽपि
काल स्तोककालमवस्थानात् , कीत्तयति-- प्रारणकदिन इद्
चद् चेतस्याः कृत्यं कतमित्यव कीत्तनात् । ज्ञा० । ८ रुरा
रत्नसवत्सरततपःकमव्याख्या ˆ गुणरयरणसवच्छुर `
तूृतायभाग ६२६ पृष्ठ गता)
तत शं स मेहे अरणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं सस्सि-
रीएशं पयत्तेणं परगहिएणं कल्नाणणं सिवेशं धनेणं मंग-
ह्ण उदग्गणं उदारणणं उत्तमं मटाणुभवेणं तवाक् --
शब्द
3 (
सहकृमार
म्मण सुक्र क्ख लुक्ख नम्मस नस्साणए काडाकाडया-
भए आइ्चम्मावणड्र किस धमाशसतए जात याजाव हा-
+
चअयरानरा
नथा, जीवं जीवेणं गच्छति जीवं जीवं चिट्ठति भास |
भासित्ता गिलायति भासं भाससाणे गिलायति भासं
भासिस्सामि त्ति गिलायति स जहा ना ए(ब)इंगालसग्डि-
ष् दा कटूयगडयाईइ वा पत्तसगडियाह वा तिलसगडि-
याइ वा एरंडकट्ट्सगडियाइ वा उण्हे दिल्ला स॒क्रासमाणी
समद् गच्छ ससद चिट्ठाते एवाप्व संह अणगार ससद
गच्छ, ससद चिट्द्, उवचिए तंवेशों झवचिते मससा-
णिएणं हुयासण इव भासरासिपरिच्छन्न तवेण तेएणं तव-
तेयसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे २ चिट्ठ ति | तणं का-
लशं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगर तित्थ-
गर °जाव पुव्याणुपुच्वि चरमाणे गामाणुगामं दुतिजमाणे
सुहं स॒ुहेण विहरमाण जणामेव रायगिह नगरे जणामेव
गुणसिलण चतिए तेणामेव उवागच्छति २ त्ता अहाप-
डिरूब उग्गहं उग्गिर्टत्ता सजमणं तवसा अप्पाणं भा-
वेमाणे विहरति । तत्त णं तस्स महस्स अणगारस्स राओ
पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागग्यं जागरमाणस्स
अयमयारूवे अज्कृत्थिते ० जाव समप्पज्ञित्था- एवं खलु अहं
दमण उरालणं तहव ° जाव भासं भासिस्सामीति गिलामि
तं अत्थि ता मे उदरे कम्म बल वीरिए पुरिसकारपरकम
सद्धा धिर संवेग तं०जाव ताम अत्थि उड्टाण कम्मे बले वीरि
ए पुरिसगारपरकम सद्धा धिई संवग० जाव इमे धम्मायरिए
धम्मावदमए् मम भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरति
ताव तावम सयं कलं पाउप्पभायाए रयणीए ०जाव तेयसा
जसंते सुर समश भगवं महावीर वदित्ता नमंसित्ता समणेणं
भगवता महावीर ण॑ अन्भणुन्नायस्सय समाणस्य सयमेव पंच
महतव्ययाई आ।रूहिता गायमाऽऽदिए समे निग्गथे निग्ग॑-
थ्या य खाभत्ता तहारूबेहिं कडाईहिं धरहि सद्धं विरलं प-
व्यय मखियं सखिय दुरूहित्ता सयमेव मटघणसन्निगासं
पुदविसिलापइय पडिलेहेता संलेहणाभूमणाणए् भूमियस्य
भत्तपाणपडियाइक्खित्तस्स पाओवगयस्स केले अणवक- |
खमाणस्स बिहरित्तए, एय संपेहति २ त्ता कलच पाउप्प-
भायाए रयणीण ०जाव जलंते जव समणे भगवं महा-
` वीर तंव उव।गच्छति २ त्ता समे भगं महाथीर॑ ति-
क्खुत्तो आदाहिण पद्ादिणं करेइ २ न्ता वदति न्मसति
२ त्ता नध्चाभन्न नातिदृर सुस्खमाण नमंसमाणे अभि- |
मुह विणएरण ५जलियपुडे पञ्जुवासति,मद नि । समर्( भग
वं महावीरे ५६ अ्रणगारे एलं वदासी मे शृण तव मेहा !
राओ पृव्यर र वरत्तकलसमयौमे धम्मजागरियं जागरमा-
ॐ ; } मे ह
स्स अयमयास्वं अज्भत्थिते० जाव समुप्पज्ित्था-
खलु अहं इमेणं अरालेणं °जाव जणेव अहे तशव हव्वमाः
गए,से णृणं महा ! अट समड्ठे ?,हंता ! अत्थि अहासुहं दवा- _
णुप्पिया! मा पडिवंध करेह। तते णं से मेहे अणगारे स्म
सेणं भगवया महावीरेणं अन्भणुन्नाए समाणे हट ° जाव
हियए उद्भाइ उद्देइता समणं भगवं महावीरं ति-
क्खुत्तो आयादिणं पयाहिणं करई २ त्ता वंदइ नमंसइ २ । |
त्ता सयमेव पंच महव्वयाईं आरुभेइ २ त्ता गोयमातिस- `
ण निग्गंथे निग्गंथीओं य खामति खामत्ता य तहारूवे-
दिं कडाइहिं थरहिं सद्वि विपुलं पव्वयं सणियं २ दुरूह-
ति २ त्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुटदविसिलापइये
पडिलेहति २ त्ता उच्चारपासवणभूमिं पटिलेहति २ न्ता
दन्भसंथारगं संथरति २ त्ता दब्भसंथारगं दुरूहति २ त्ता _
पुरत्थाभिमुंहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहिय॑ सिर-
सावत्तं मत्थए अंजलि कट एवं वदासी नमो त्थु णं अ-
रिहंताणं भगवंताणे ० जाव संपत्ताणं, णमो त्थु णं सम-
स्स भगवओ महावीरस्स °जाव संपाविउकामस्स मम
धम्मायारेयस्स, वदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगए पा-
सउ मे भगवं तत्थ गते इहगतं ति कट वदति नमसइ २ त्ता
एवं वदासी-पुव्व॑ पि य णं मए समणस्स भगवओ महा-
वीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पचक्खाए मुसावाए
अरदिन्नादाशे मेहुणे परिग्गहे कोटे माणे माया लोभे पेज्ञ.
दासे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरतिरति
मायामास गमच्छादसणसन्न पच्चक्खात, इयाणि पिणं
अहं तस्यव अंतिए सच्चं पाणातिवायं पचरक्खामि ° जाव
मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सव्वं असणपाणखादि -
मसातिमं चउव्विहं पि आहारं पचक्खामि जावज्ञीवाए,
जपिय इमं सरीरं इटं कंतं पियं ०जाव विविहा रोगाय॑का
परीसहावसग्गा फुसंतोति कट एय पि य णं चरमर्दिं ऊ
सासनिस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कट्टु सलेहणामूसणामू-
सिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवक-
खमाण विहरति। तते णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगा-
रस्म अगिलाए वेयावडियं करेंति । तते णं से मेहे अण-
गारे समणस्म भगवओं महावीरस्स तहास्वाणं राणं
अतिए सामोइयमाइय।ईं एकारस अगाईं अहिज़ित्ता बहु-
पडिपुन्नाई दुवालस वरिसाई सामनपरेयागं पाउणित्ता
मासियाए संलेहणाए अप्पाणं भासेत्ता सट्टिं भत्ताईं अण-
सणाए अदत्ता अःलोयियपाडिकंते उद्वियसल्ल समाहिपत्ते
आ।णुपुव्व॑ण कालगएत | ते शं ते थरा भगवतो मेहं अण गारं
अरुज कलवय पास ते २ ता परि(नेव्वाणु्रत्तियं का-
( ७२२ )
| १ 000५ ७0».
उस्सगग करात २त्ता महस्स अहार भडय गणह।त २त्ता बउ-
लाओ पव्वययाआ साणयरपचारुहातेर २त्ता जणामव गुणास-
आामधाःानराजन्द्र
लए चइए जणामव समण भगव महावीरे तेणामेव उवाग-
च्छते र त्ता समण भगव महावार वेदति नमंसंति २ त्ता ,
एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाण अतवासी मह णाम
अणगारे पगइभद्ण ०जाव विणीते से णे देवाणुप्पिएहिं
अब्भणुन्नाए समाणे गोतमातिए सम निग्गंथे निर्गंथी-
ओ य खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं २
दरूहति २ त्ता सयमेव मेषघणसन्निगासं पृदविसिलं पट-
ये पडिलेहति २ त्ता भत्तपाणपडियाइक्खित्त आखणुपुव्वेण |
कालगए । एस ख देवाणुप्पिया ! महस्स अणगारस्स
आयारभंडए । ( सत्र-३४ ) ' भंतेत्ति भगवं गोतम स- |
मणं उ वंदति नमंसति २ त्ता एवं वदासी-एवं खलु
द्वेवाणुप्पियाणं अतेवासी मेहे णाम अणगारे से ण भत!
मेहे अणगारे कालमासे काल किच्च! कहिं गए किं उवव-
न्ने १, गोतमादि समण भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं
बयासी- णवं खलु गायमा ! मम अंतवासी महे णामं
अणगारे पगतिभदणए ०जाव विशीए स णं तदास्वाणं
राणं अतिए सामाइयमाइयातिं एकारस अमाति अ-
दिति २ त्ता वारस भिक्वुपडिमाग्रो गुणरयणसवच्छरं
तवाकम्भं काणणे फासत्ता ०जाव किटत्ता मए अब्भ-
शुन्नाए समाण गोयमाइथरे खांमइ २ त्ता तहास
०जाव विलं पव्वयं दुरूहति २ त्ता दब्भसंथारगं सं-
अरति २ त्ता दब्भसथारोवगए सयमेव पं~-महन्वए उ-
स्वरेड वारस वासाति सामपपरियायं पाउणित्ता मासि
याए सलहणाणए अप्पाणं मुयित्ता सद्भि भत्ताति अणस-
शाए छदेत्ता आलोइयपडिकंते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते का-
लमासे कालं किच्चा उद्र चंदिमसूरग्गहगणणकक््खत्त-
तारास्वाणं वद्र जायणसयाई बहई जोयणसहस्साई
बहूई जोयणसयसहस्साई बहुई जोयणकोडीओ बहूं
जोअणकोड/केर्डओ उड दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणस-
णकुमारमाहिंदबंभलंतगमहासुक्कसहस्साराणयप[णयारण
च्चुते तिध्पि य अट्टारसुत्तर गंवजविमाणाबाससए वीइव-
इत्ता विजए महाविमाण देवत्ताए उववस्प | तत्थ श त्ये
गदया दवाणं तत्तीस सागरोवमाई ठिई पप्मत्ता, तस्थ शी
महस्य वि दवस्स तत्तीसं सागरोवमातिं ठिती पप्मत्ता। एस
शण भते! मह दवे ताओ देवलेायाओं अउक्वएश
हितिक्खणएणं मवक्खणणं अशतरं चय चरन्ता कहिं-
गच्छिहिति कहिं उववज्जिहिति ? , गोयमा महाविदेहे
वामे सिज़्फिहिति ब॒ज्किहिति गुन्चिहिति परिनिव्या-
मेहकुमार
हिति सव्वदुक्खाणमंतं काहिति । एवं खलु जवर ! समणरे
भगवया महावीरणं आइगरण तत्थगरण ० जाब सपत्तण
अप्पोपालंभनिमेत्त पढमस्स नायज्कयणस्स यमद प-
जत्ते त्ति बमि । ( सत्र-३५ )
* उरालण ` मित्यादि, उरालेन--प्रधानेन विपुलेन--बहु-
दिनत्वाद्दिस्तीरीन सश्रीकण--सशामन ` पयत्तणे ` ति शु-
रुणा प्रदत्तेन प्रयत्नवता वा प्रमादरहितनेत्यर्थः, प्रगृहीतेन-
बहुमानप्रकर्षाद् गहीतन, कट्याणन-नीरोगताकरणेन शिवे-
न-शिवहेतुत्वात् , धन्येन-घनाव्रहत्वातू, माहल्येन-दुरितोए-
शमे साधुत्वात्, उदग्नमण--तीवेण, उदारण--ओदायबता
निःस्पृहत्वातिरेकात् , ` उत्तमणं ` ति ऊध्वे तमसः-अज्ञा-
नादत्तत्तथा तेन अज्ञानरहितनत्यथेः, महानुभागन--अचि-
न्त्यसामर्थ्येन, शुष्को--नीरसशरीरत्वात् , ` भुक्खे ' त्ति-
बुभुत्तावशन-रुच्षी भूतत्वात्ू , किटिकिटिका-निर्मा सास्थिस-
म्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशषः तां भूतः-प्राप्ता-
यः स तथा, अस्थीनि चमणाऽवनद्धानि यस्यस तथा, क-
शो_दुर्वलो, धमनीसन्ततः-नाडीव्याप्ता, जानश्चाप्यभृत् .
` जीवे जीचण गच्छति ` जीवबलन-शरी रवलनत्यर्थः, ` भास
भासित्ता' इत्यादौ कालबयनिदशः ' गिलायति ` त्ति ग्लायति
ग्लाना भवति, 'से इति अथार्थः अथशब्दश्ष वाक्यापन्तपा थः.
यथा-रष्टान्ता थेः. नाम-इति सभावनायाम् , एव-इति चा-
क्यालङ्गार, अङ्गाराणां भ्रता शकाटिका-गन्त्री अड्भारशकाटि-
का, एव काछ्ठानां पत्राणां-परणानां ` तिल ` त्ति तिलदराड-
कानाम् , एरणडशकाटिका-एरण्डकाप्टमयी, आतप दत्ता शु-
प्का सतीति विशषणद्धयम् आद्वकाष्ठपत्रश्चतायाः तस्यानं
( शब्दः ) सभवाति, इतिशब्द उपप्रदशनार्थः वाशब्दाः--
विकल्पार्थाः, सशब्दे गच्छति तिष्ठाति वा, पवमेच मेघो5-
नगारः सशब्दं गच्छाति. सशब्दं तिष्ठति, हुताशन इव अम्म-
राशिप्रतिच्छुन्नः, ` तवे ` ति तपालक्षणन- तजसा, अय-
मभिप्राया-यथा भस्मच्छुन्नाऽग्निवेदिवृत्या तजारददिताऽ-
न्तर्वृत््या तु ज्वलति एवं मघाऽनगायोऽपि बहिद्वैत््या:पाक्ि-
तमांसादित्वा न्निस्तेजा अन््तर्व॑क््या तु शुभध्यानतपसा ञ्ल
तीति , उक्कमंवाह--तपस्तेजःश्रिया अर्तःवातोव उपशा
भमानः २ तिष्टतीति ! 'त आंत्थ ताम ` क्ति तदेवमस्ति तात
न्प्र उत्थानादि न सर्वेथा क्षीण तदिति भाव: ' ते जावताभ
ति तत्-तस्मात् यावन्मऽस्ति उत्थानादि ता इति-भाष्ण-
मात्रेण यावच्च में धर्माचार्यः ` खुहत्थी ` ति पुरुषवरगन्ध-
हस्ती शुभाः वा क्षायिकज्ञानादयों 5था यस्य स तथा, ताद तः
व ` ति तावच्च तावच्चति बस्तृद्धयापक्तया द्विरुक्तिः ` क-
डदि ति कृतयोग्यादिभिः, 'महघरणसन्निगार्स' ति ध्रनमध्र
सदणम्--कालमित्य शः. 'भत्तपाएणपडियाइक्खियस्स {लि प्र
त्याख्यातभक्कपानस्य' काल ति मरणम् , ` जराव इट ति इह-
शब्दविषयं स्थानम् इर्दामित्यथः ` सपलियकनिसरणे ` त्ति प-
झासनसलजलह्निविष्ठ; ` पेज्जे ` क्ति अभिष्वङ्गमात्रे ` दोस ' ति
दघ (तेमात्म् अभ्याख्यानस-असद्दोषारा पर दैयुन्य-पिश-
नकम्म परपरिवादः-विप्रकीर्श परदोषकथा अरतिरती ध-
माधमीहेष मायासषा-वेषान्तरकरणता लाकविप्रतारण सेः
लखनां--कपायशरीरक्शर्ता स्पृशतीति सलखनास्पशशकः ,
पाडा न्तर ण॒-सल दसः ङस्य ` त्ति सेलखनासवनाजु-
( ४२७ )
भिधानराजन्द्रः
भ
मेहकुमार
छू इत्यथः । ` मासियाए ` त्ति मासिक्या मासपरिमा-
णया ' अ्रप्पाएं भूसित्ते ` त्ति क्षपयित्वा षि भक्तानि
४
श्रणसणाप ` ति श्ननशनेन, छित््वा-व्यवच्छेय, किल
दिने २ द्वे द्वे भोजन लोकः कुरुते, एवं च जत्रिंशता दिनैः
षष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति , "* परिनिव्वाणएवत्तिय `
तति परिनिकवौणम्--उपरतिः, मरणमिव्य्थः, तत्प्रत्ययो--नि
मित्त यस्य सः परिनिवाणप्रत्ययः-स्रतकपरिष्टापना-कायो-
त्सग इत्यथः, त. कायात्संग कुवन्ति, ` श्रायारभडगं ' ति
्राचाराय--क्ञानादिभदभिन्नाय भार्डकम्-उपकरणे व~
पाकःटपादि-श्नाचारभार्डकम् , पगइभदए' इत्यत्र यावत्क-
रणादेव दृश्यम--' पगदउवसन्त पगइपयणुकोंहमाणमाया-
लाभ मिडमदवसंपन्ने आलीण भद्दए विणीए ` त्ति तर प्रक
त्यव-स्वभावेनेव भद्रकः--श्रनुकूलचत्तिः प्रकृत्येबापशा-
--उपशान्ताकारः, खदु च तन्मादवं च स्दुमादैवम्-
श्रत्यन्तमादैवम् इत्यथः,्रालीनः-च्राध्रिता, गुवनचुशासन 4-
पि खुभद्रक पवयः स तथा करि गए ` त्ति कस्यां गतो
गतः ? क च देवलोकादौ उत्पन्ना ? जातः, विजयविमानम-
सुत्त रविमानानां प्रथम पू्वदिगभागवत्ति, तओोत्कृष्टादिस्थिते- |
भावादाह-' तत्थ ` त्यादि, आयुःक्षयेण-आयुदोलिकनिरजर- |
रेन स्थितिक्षयण-आयुष्कर्मणः स्थितर्वदनन भवक्षयण-देव-
भवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निजरणेनेति । श्ननन्तर |
देवभवसम्बन्धिने ˆ चये `--शरीरम् ` चदन ` ननि त्यक्त्वा,
सथवा-च्यवे--च्यवन कृत्वा, सट्स्यति निष्ठिताथेतया वि- `
शषतः सिद्धिगसमनयोग्यतया महद्धिप्राप्त्या वा भोत्स्यते
कवलालाकन माद्यत सकलकमाशेः परिनिवास्यति-स्वस्थो
भविष्यति, सकलकम्मंकृतविकारविरहिततया, किगुङ्क भ- |
चति ?-सवेदुःखानामन्तं कर्प्यितीति । ' पव खल्वि ` व्यादि |
निगमनम् 'श्रप्पापालभनिमित्त ` आप्तन-हितेन गुरूणेव्य्थः, |
उफालम्भो--विनयस्याविहितविधायिनः आप्तोपालम्भ: स
निमित्त यस्य प्रशापनस्य तत्तथा । प्रथमस्य ज्ञाताध्ययन- |
स्य श्रयम्-श्ननन्तरादितः मेघकुमारच रितलक्षणो 5 थों- ऽभि
घयः- प्रश्नप्त:-अशिहितः । अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य रुरुणा
मार्गे स्थापनाय उपालम्भा देया यथा-भगवता दत्तो मेघकु-
माराय इव्यवमथ श्रथममध्ययनामित्यभिप्रायः । इह गाथा-
& मह्टुरहि निउणदि, बरयणहिं चाययति श्रायरिया । सीसे |
कटि चि खलिप, जह महमुशि महावीरो ॥ ९ ॥ ” इतिशब्दः
समाप्ता, ब्रवीमीति-प्रतिपादयास्येतदर्ह तीर्थकरोपदेरान, न
स्वक्रीयवुद्धश्चा, इत्येवं गुस्वचनपारतन्त्यं सुधर्मस्वामी श्रा-
त्मनो जस्बृस्वामिन प्रतिपादयति | णवमन्यनापि मुमुक्तुणा
भवितनव्यमित्यतदुपदशनामिति । ज्ञाताधमेकथायां प्रथम
क्ञालदिवरणे मघकुमारकथानकाख्यं समाप्तम् । ज्ञा० १ श्रु० १
आ० । सेघकुमारस्य पाश्चात्यभव दस्तिरूपस्य यक्नाम दृश्यते
नकन दृत्तामिति ? प्रश्ने, उ्तरम-श्रत्र तत्पवंतनितम्बादिनि
चासिवनचरेस्वक्नाम दत्तमिति श्रीक्षाताधर्मसूत्र उक्र. .स्तीति
चाध्यम्। टी ०३ प्रका०। मेघकारिभवन पतिदेव, पञ्चा०२ विव०। |
मघकुमारवाहण-मेषकुमारवाहन- न° । मेघकारिदेवसंशब्दन,
पञश्चा० २ विक०।
अहघोस-मेघघोष -पु०। कल्किप्रपात्रधर्मदक्षपात्रे स्थनामख्या- |
त जितशघ्नपुत्र, ती० १ कल्प |
सिनि पञ्चिनीदव्युपासखक स्वनामख्याते दिगम्बरे , ती०-
४६ करप । |
| मेहचारण-मेघचारण- पुण । नभोवत्मनि प्रविनतजलधरपर- है
लपटास्तरण जीवानुपघातिचड-ऊकऋमणप्रभवे चारणविशेष, `
ती० ४६ कल्प ।
| मेहच्छीर-देशी--जले, दे० ना० ६ वर्ग १३६ गाथा । |
। मेहण-मेहन-न० । मेथुनभ्रधानाङ्गं , प्रजनने, लिङ्ग, भगे च । ¦
स्था० ३ ठा० ३ उ०।
मेहणाद- मेघनाद -पुं० । खनामख्याते वैताढ्वपर्वतविद्याधर,
ङष्णेन स्थापिते रेवतक्ते्रपाले, श्रा० क० १ अ० | आ० म०।
नालन्दाक्तत्रपाले , ती० १० कल्प । ( ` माण ` शब्दे ऽ स्मिन्नेव
भागे २३६ प्रष्ठ उदाहरणम् ) ।
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मेहपुर- मेघपुर- न° । स्वनामख्याते भारतपुरे, दर्श० १ तत्व ।
मेहमालिणी-मेघमालिनी-स्ज्री ० ऊभध्वलोकवास्तव्यायां दि-
क्कः मायम् , जं० ५ वक्ष०। आ० चू०। श्रा० क०। आ० म०।
नन्द्नवन हमवतकूटस्थाया मघ्रमालन्या दव्यास् , स्था०
६ ठा० ३ उ०।
मेहमुशणि मेधगुनि- प° । लुम्पकगच्छं त्यक्त्वा हीरविजयस्य
शिष्यतां गते खनामख्यात मुनो, “हित्वा लुम्पकगच्छुसूरिप-
दवीं गांस्थ्यलीलोपमां, प्रोद्यद्वोधिरतो यदाह भजत श्रीही-
रवीरान्तिकम् । । आगस्त्यागपुनर्वतग्नहपरों यो भाग्यसौभा-
ग्यभूः.स श्रीमेघमुनिन कैः सहृदये धमीधथिषु श्लाघ्यते ॥१॥”
प्रति० ।
| मेहम्ृह-मेघमुख-प;ुं० । स्वनामख्याते भवनपतिदेवे मेघकु-
मार, आ० म० १ अ० । स्वनामख्याते नागकुमारे, तद्द्वीप-
वासिनि जने च । प्रज्ञा० १ पद । प्रव० । स्था० । स्वनामख्याते
| आपातकिरातानां नागकुमारे देवे, ज० ३ वक्ष० | दशै० ।
| मेहरह-मेषरथ- प° । जम्बृद्धीपे भारतवर्ष चतुर्विंशतिस्ती-
भक्ररास्तघु षोडशः शान्तिनामा;ः तस्य पूवैभविकजीवे,
स० । स्वनामस्यात विद्याधरे पद्मधिया: पितरि, आ० चु
१ श्र०।(' माण ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे कथा)
| मेहराई मेषराजी- खी ० । मेघराजीव या सा ङ्ष्णत्वान्मे-
। श्रराज्ीति वाऽभिघीयते । स्था० ८ अ० ३ उ० | मेघराजीति
वा कालमेघरेखातुल्यत्वात् द्वि तीयक्ष्णरा जौ, भ० देश०५३०।
महला-मखला- खा । खध्रथघमाम् ॥ ८ । १ । १८७ ॥
स्वरात्परषामसेयुक्रानामनादिमूतानां ख-घ-थ-घ-भ इत्ये-
तषां वर्णानां प्राया दा भवति । घ-मेहला । ध्रा । का-
[व ६ क~~ क (4
आीनामके कस्याभरणविशेषे, श्रो० । प्रश्न० । काञ्ीमे-
सखलयाः कख्चाभरणयोयद्यपि नामकोशे पकाश्ताऽभिधी-
यत तथापि इद विशेषो रूढेरवसेयः । ओं ०। रत्नकाज्च्याम् ,
ज्ञा १ श्र १ अण० | रसनायाम् , ज्ञा० १ श्रु° ६ अ० । अनु०।
“कच्छा कांची य महत्ता रखा” पाइ० ना० ११५ गाथा ।
( ४२५ )
मेवद
| -ख।(०। ऊध्वलाकवास्तव्यायां दिशाकुमार्याम् ,
आ० चू० १ अ० | स्था०। | आ० म० । आ० क० |
भेहसिरि-मेघश्री-लली० । चमराग्रमहिष्या मेघायाः पूर्वभव- |
मातार, ज्ञा० २ श्रु० ३ वर्ग १ आअ०।
महसीद मेघर्सिह-पुं० | षष्ठवलदेववासदवयोः पितरि, ति० ।
मेहस्सर-मेघस्वर-त्रि० । मघस्यवातिदीधैः खरो यस्यति ।
मघतुल्य गम्भीर शब्दे, जी० ३ प्राति० ४ अधि० । रा०। तं०।
मेहा-मधा-खी० । श्रुतग्रहणशक्कों, स्था० ८ ठा० ३ उ० |
अपूर्वश्र तअ्रहणबुद्धों, स० | व्य०। सच्छारअग्रहणपदढुत्वे, पा-
पश्रुतावज्ञाकारिज्ञानावरणीयत्तयोपशमज चित्तधमें, घ० २
अधि० । प्रथमे विशषसामान्यार्थावग्रहमतिरिच्यात्तरः स-
चों ऽपि विश्व सामान्याथीवमग्रहः। न । हेयोपादेयधियि,
जं० ३ वत्त । अजडत्व, ल० । श्रवधारणायाम् , विश० |
हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपायां प्रज्ञायाम् , सूत्र० १ श्रु
१२ आ०। सामान्यप्रज्ञायाम् , सृत्र० १ श्रु० १ अ० हे उ०।
पटुतायाम् , आव० ५ आ० । वुद्धो, ` महा मई मणीसा
विन्नाणे घी घिई बुद्धी ' पाइ० ना० ३१ गाथा । मर्यादायाम् ,
सृत्र० २ श्रु० १ आ०।
मेघा-खी० । चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याग्रमहि-
ष्याम्, स्था० ५ ठा० १ उ०। (अस्याः पूर्वोत्तरमवकथा ' अ-
ग्गमाहिसी ` शब्द् प्रथमभागे १६६ पृष्ठ उक्का। )
भहाणीय-मेघानीक-न० । अश्रपटले, जे० ३ वक्ष० ।
न
बन
अभिधानराजन्द्रः।
मेहावि मेधाविन् -त्रि० । मेघया मर्यादया धावत्यवंशीलमि- |
ति नरसक्वशादवभ्रूता ह गणस्य मयादाप्रवत्तक्रा भवात
शअ्रथवा-मधघा-श्रतग्रहणशाक्कस्तद्वानवभ्रूता ह श्रुतमन्यता रू
रिति ग्रृहीत्वा शिष्याध्यापने समथो भवति | स्था० ६ ठा० |
३ उ० । विज्ञानवति, ्रा° चू० ३ श्र ° । सूत्र० । अपूर्व श्रुत-
अ्रहरणशक्रिमति, उपा० ७ अ० | कल्प० । स्था० । प्रश्न० | |
सकृच्छुतद्ठक्मशे,अनु० । उपा० । ज्ञा० । हिताहितप्राप्तप- |
८ = तच्वद शिनि [न
रिहाराभिज्ञे, सूत्र० १ श्रु० १२ अ० । तत्त्वदर्शिनि, आचा० |
१ श्रु० ३ अ० २ उ० | बुद्धिमति, आचा० श्रु० २ आ० ६
उ० । व्य० । उत्त० । कुशल, आचा० १ श्रु० १ आ० २ उ०।
मर्यादावति , विवेकिनि च । सूत्र० १ श्रु० १० अ० ।
मर्यादाव्यवस्थित, विदितवद्य च । सूत्र० १ श्रु १३ अ०।
सद सद्धिवेकिनि च | सूत्र० १ श्रु० १५ आ० । मधावी--ग्रह-
णधारणमयादामेघाविभेदात्तिधा । बृ० ६ उ० | सूत्र० । अ-
ध्ययनाथावधारणशक्षिमति, मर्यादावर्तिनि च । उत्त० १
अ० । न्यायावस्थित, आव० ३ अ० । सयत, सूत्र० १ श्रु०
१ अ० २ उ० । प्रति० । परस्पराभ्याहतपूर्वापरानुसन्धा- |
नदक्ते,
धारकं, ज० ३ वक्ष०। श्रवधघारणशाक्रमाति, उत्त० २ अ० |
सर्वभावज्ञ, आचा० १ श्रु० & अ० १ उ० | आ० म० ।
अथ मधाविद्धारमाह--
उग्गहणधारणाए, मेराए चव होई मधावी ।
तििहम्मि अहीकारों, मरासंजुत्ता ` मधावी ॥
अधार्वः जिविधस्तद्यथा--अवग्नहयमे घावी--सूत्ा थ ग्रह ए-
१०७
किक:
रा० | जी०। आ० म० । स्वामिपदसनज्ञादिप्राप्ता्था-
महण
पटुप्रज्ञावान् १, धारणामधावी--पृवाधीतयाः प्रभूतयारपि
सृत्राधयोध्चिरमवधारणाबुद्धिमान् २, मर्यादामधावी--चर-
णकरणप्रवणमातिमान् ३, एभिखिभिः परदैरष्टों भज्ञाः, त-
दयथा-अ्रहणमंधावी धारणामेधावी मर्यादामधावी १, ग्रहण-
मधावी धारणामधावी अमर्यादामेधावी २, इत्यादि इह
यत्र यत्र भङ्गा न भवति तत्र तत्र न दातव्ये, यदि
ददाति तदा प्रायश्चित्तम्, तत्र यदि पाश्वस्थादिभ्यः
सूत्रमथ वा ददाति तदा चत्वारा लघवः, यथाच्छन्देभ्यः प्रद
दात(तदा) चत्वारा गुरुमासाः । 'तिविहम्मि अद्दीगारो' त्ति-
मयादामधाविना ग्रहणधारणामेघाभ्यां सपन्नस्य अरसपन्नस्य
वा दातव्य, मयादाविकलयोरितरयोनं दातव्यमिति त्रिविध-
नापि दानरूपतया यथायोंगमत्राधिकार इति । गाथायां तृती-
याथ सप्तमा । अथ मयादामधावनाव्युत्पात्तमाह--' मरा-
सजुत्ता महाव त्त मरा-मयादा तत्सयुक्का मधावा मया-
दामधावा | शाकपाथवादित्वान्मध्यपदलापी समासः। बू० १
उ० १ प्रक०।
मेहिय-मेधिक-न० । स्थविरात्कामर्घेनिंर्गतस्य वेश्यपाटिक-
गणस्य द्वितीयगणे, कल्प० २ अधि" = क्षण ।
महुण- मधुन -न० । मिथुने दाम्पल्ये,तत्र भवं मेथुनम् । ्राचा०
२ श्रु० १ चू० १ आ० ३ उ० | मथनस्य स्त्रापुसलक्षणस्य-
भावः कम वा मेथुनम् । आतु०। घ० । प्रश्न० । बृ० । स्था० ।
आचा० । अब्रह्मचरण. आ० चू० ४ अर । स्ञ्यङ्गालो-
कनप्रसन्नवदनसस्तम्भितारुवपथुलक्षण , स्था० १० ठा० ३
उ० । सूत्र० | प्रव०। स्ञ्यादययमिलापषसंज्ञानिवेदमोद्ोदयसव
दूने, आ० चू० ४ अ०। ध०। स्त्रीसपर्के, सूत्र० २ श्रु० ६ अ०।
कामसुख, उत्त २ अ० | कामक्रीडायाम् , ध० २ अधि०।
कामामलाष, सूत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ०।
त्रिविध मेंथुनम--
तिविहे मेहुणे पप्मत्ते । त॑ बहा-दिव्वे, माणुस्सए, ति-
रिक्खजोणशिए । तओ मेहुणं गच्छेति। तं जहा-देवा,मणु
स्साऽतारक्खजाणया | तआ महुरं सवात् | त तहा- इत्था,
पुरिसा, णपुंसगा । ( प्रूत्र-१२३ )
तिविहे मेहुणे ' इत्यादि कर्य. नवरं मिथुन-ख्रीपुसयुग्म
तत्कम्म मेथुनम . नारकाणां तन्न सम्भवति द्रव्यत इति
चतुश्च नास्त्यवति नाक्रम् | मिभ्रुनकम्मण एवं कारकानाह-
"त्रो इत्यादि कराव्यम् , तपामव मदानाद-' तश्रा मेहुण '
त्यादि-कराच्यम् । स्था० ३ ठा० १ उ० | सृत्र०।
अथ मेथुनमभिधित्सुराह--
मदं पि य तिविहं, दिव्वं माणुस्सय तिरिक्खं च |
ठाणाइ मोत्तण, पाडसवनसाध सखेव ॥ ६५ ॥
नमपि विविध, तद्यथा-दिव्य, माचुप्य, तैरिश्च च।
अत्र च यप स्थानप्वतानि दिव्यादीनि मेथुनान सम्भव-
न्ति तानि मुक्त्वा स्थातव्यं, यदि तप॒ तानि वा दिव्यादीनि
प्रतिसवत तदा तदेव स्थानप्रायश्वित्तं, लव च प्रतिसवनायां
शोधिर्या प्रथमादेशकं सागारिकसत्र अभिहिता |
अथ द्वितीयपदं सप्रायश्चित्तमुच्यते-तत्र परः प्रेरयति--
मूलुत्तरसेवासुं, अवरपदम्मि य णिसिज्मती सोधी |
मेहुप्ये पृण तिरे, सोधी5ब्ट्टायतों किहि णु ॥ ६६ ॥
( ४२६ )
अमिधानराजन्द्रः ।
म्ह &
लगुणात्तरगुणप्रतिसवनासु प्राणातिपातपिणडविशार्धिप्र- |
भ्रतिविषयासु. अपर पद--उत्सगापक्तया अन्यास्मिन्नपवादा- |
ख्य स्थान शाधिः-प्रायश्विसम् तावन्निपिध्यत न दीयत इत्य- |
थः । मेथुन-पुनस्थिविध 5प किमथमपवादतः प्रतिसव्यमान
शाधिरभिधास्यत ? सृरिराह-दिविधा प्रतिसवना-दांपका, |
कल्पिका च | ।
अनयाः प्ररूपणार्थ तावदिदमाह--
रागदोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा |
अआराधणा उ कप्प, विराधणा हाति दप्पणं ॥६७॥
त [> (~ भ |
रागद्वेषाभ्याम-अनुगता-सहिता या प्रतिसवना सा द-
प्पिका, या तु कल्पिका सा तदभावात्-रागद्वषाभावाद्धव-
ति । शिष्यः प्राह-दर्प्पण कल्पन वा सेवित कि भवतीति ?,
उच्यत-कल्पनारःवित ज्ञानादीनामाराधना भवति । दर्पण
प्रतिसवित तपामव विराधना भवाति | बृ० ४ उ
विशषः ` मूलगुणपडिसवणा `
प गतः)
॥ ( अन्न |
शब्दे ऽस्मिन्नव भागे ३७० |"
त्रावध दव्यमानुप्यतरस्वलक्षण मथुन कथमाभलाष उ-
त्पद्यते ?, सारिराह--
[+ # #
वसहीए दोसेणं, दद सरिउं व पुव्वभुत्ताई ।
तागच्छ सदमादा, असज़णातासु वा जतणा ॥ ८३ ॥
वसतदोपणा-स्त्रीपशुपएडकसंसक्लकिलक्षणन । यद्वा-स्तरिय-
मालिङ्गनादिकं वा टदष्टा ग्रहस्थकाल वा यानि स््रीमि
साद्ध भुक्कानि वा हांसतानि वा उल्ललितानि वा, तानि स्मर
त्वा मेथुनाभिप उन्पद्यत । एवमुत्पन्न कि कत्तवर्यामत्याह-
तगिच्छ ` इत्यादि चिकित्सा कव्या | साच निर्विक्ृति-
कप्रश्नतिका । तामांतक्रान्तस्य शब्दादिका वा यतना कक्षे-
व्या । किमुक्तं भवति-यत्रस्थः-स्त्रीशब्दे रहस्यशब्द वा शु-
णाति तत्र स्थावरसाहितः स्थाप्यत । श्रादिशब्दाद्यजालिङ्ग-
नादिकं पश्यति, तत्रापि स्थाप्यत । ` श्रसज्ण त्ति ` तस्यां
शब्दश्रवणादिरूपायां चिकिन्सायां सञ्जन-सङ्ञा ग्रद्धिरिति
यावत् ,सा तन न कत्तव्या । एवं त्रिष्वपि दिव्यादिषु
मेथुनयघु यतना मन्तव्या ।
इदमव सविशषमाद--
^~ = = (~ गन्तं ४ [क 4६ (~ [7 # | ~ ~
[वइयपद तागच्छ, णव्वातयमादग अतक्रते ।
सनिमित्तऽनिमित्तं पण, उद्याहारे सरीरे य ॥८४॥
द्वितीयपद
चआम्लाभक्तार्थपष्ठा एमादिरूपां चिकिल्सामतिक्रान्तस्य शब्दा
दिका अनन्तरोक्का यतना भवति | पपा च सर्निमिल अ-
निरविरातिकाबमार्दा *कानवलाहा रा द्धस्थाना- |
नाम्न वा मथुनाभलाष भवात । तत्र सानामत्ता-व- |
सातदापादिनिमित्तसमुत्थः । अनिमित्तः पुनः--कर्मोदयन
आहारतः श्ारपारच्रद्धतश्च य उत्पद्यत | सर्वमतद्यथा नि-
शीश प्रथधमादशक भणितं तथव द्रष्रव्यम् । वृ ४ उ० ।
( चतुविध मश्रुनम् `मदुणवरमण' शब्द वच्यते ) ( संखाड-
विषय मथुनसभावना, अतः तत्र गमननिषधसत्रम' संखाडि
शब्दे बच्यत ) (याना नवलक्षर्जावास्तत्र हि खीपुरुषान् मेथुन
सवमानान दशा शुक्र निष्काशयता दोपषाः,
पच्छित्त ` शब्द पश्चमभाग २०७० पृष्ट अयादिषत )
प्रायश्चित्त |
|
भदायतनवर्जिनः-भेदः-चारित्रभदः तदायतनं तत्स्थानमिद्-
मेवोक्कन्यायात्तद्र्जिनः-चारित्रातिचारभीरवबः । इति सूत्राधः
साध्व्या सह मेथुन दाषाः
अणॉलोयतो ह एकं पि, ससल्लमरणं मर ।
सयसाहस्स नारी णं, पादं फालित्तु निग्विणो ॥
सत्तट्रमासिगब्भे च, फडफडंते णिगित्तई ।
जो तस्स जत्तिय॑ पावं, तत्तियं तं नवं गुण ॥
एकसित्थीपसगेणं, साहू बंधिज्ञ मेहुणे ।
साहुणीए सहस्सगुणं, मेहुणे क्खु णिसेविए ॥
कोडीयुणं तु पज्जणं, तइए बोही पणस्स ।
जो साहू इत्थि ( मेराए, मेहुणे इत्थिया ठिए ) ॥
बोहिलाभपरिव्भट्टी, कह चरओ सहाहिही ।
अबोहिलाभियं कम्मं, संजओ संजई वि य ।
मेहुणे सेविए आऊ, तेउकाई पबंधई ॥
जम्हा तीसु वि एणएसु, ऽवरज्भंतो हु गोयमा ! ।
उस्सग्गे वहार, मग्गट (निद्र) वड् सव्वहा भगवता ॥
एएणं नाएरं, ज गारत्थी मउकंडा य।
रत्तिदिया ण छंडति, इत्थियं तस्स का गई ॥
ते सरीरं सहत्थणे, छिंदिऊणं तिलं तिलं ।
अग्गिए जइ वि ह(मंति, तो विसुद्धी ण दीसइ ॥
महा० ( मथुनसङ्ल्पो न करणीय इति 'परदारगमण
शब्द पञ्चमभाग ४२८ पृष्ठ गतम )
मथुन सवमानस्य काहशा सयमः-
मेहुणे शं भ । ! सेवमाणस्स केरिसे असंजमे कज्जइ १,
गोयमा ! से नःनामए केइ पुरिसि रूयनालियं वा बूर-
नालियं वा तत्तेणं कणएणं समभिधंसेज्जा एरिसिणएशं
गोयमा ! महणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ, सेवं भते !
सेवं भेत ! त्ति ° जाव विहरइ हद | ( षत्र- १०६ )
* मदुणवत्तिए नामं सजाए ` त्ति प्रागुक्तम् | अथ मैथुन-
स्यवासयमदतुताप्ररूपणसूत्रम्- रूयनालय व तत्तिरूत
कर्पासविकारस्तद्धता नालका शुषिरवशादिरूपा रूतना-
लिका ताम् , एवं बूरनालिकामपि, नवर बूरं वनस्पतिवि-
शषावयवविशपः । ` समभिधसज त्ति ` रूतादिसमभिध्व-
सनाद् इह चाय वाक्यशपा दृश्यः | एव-मथुन सव-
माना यानगतसच्वान्महननाभध्वसयद् । पतच किल शन्न
न्थान्तर पञ्चानद्रयाः श्रूयन्त इात । ` प्रसपः ण॒ त्र्यादद् च
निगमनमिति । भ० २ श० ४ उ०।
मथुन दोषाः |
अवंभचगियं घोरं, पमायं दुरदटिद्धियं ।
नायरति मणी लाए, भयाययणवाज्ञणो || १५ ॥
अ्रत्रह्मचय परतातम् , धार-राद्र राद्रानुष्टानहतुत्वात् , प्रमा-
दम-प्रमादवत् सवप्रमादम् लत्वात् दराध्ययम-ठुःसवब वाद-
ताजनवचननानन्तससारहतुत्वात् यतश्चवमता नाचरान्त-
नासवन्त, मुनया लोके-मनुष्यलाके, कि विशिष्टाः ?,इत्याह- .
_मेहण
पाविज्ना, कस्स व सोक्खेहि विम्हओ हुज्जा ।
( ४२७ )
अभिधानराजन्द्रः |
महण
एतदेव निगमयति--
मूलमयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेह॒णमंसग्गं, निग्गथा वज्जयंति णे ॥ १६ ॥
मूलम्-वी जम् एतद् श्रघर्मस्य -पापस्यति पारलाकिकापायः
महादोषसमुच्छयम्-महतां दोषाणाम्-चोर्यप्रवृत्त्या दीनां-स-
मुच्छुयं-संघातवद्, इत्यैहिकापायः ,यस्मादेव तस्मान् मेथुनसे-
सगम-मेथुनसंबन्धे योषिदालापाद्यपि निग्रन्था वजयान्त । ण
मिति वाक््यालंकारे। इति सूत्रार्थः । दश०६ श्र ०२ उ० । (मेथु |
नस्य दर्पिका कल्पिका च प्रतिसवना-' मूलगुणपडिसिवणा
शब्दे ऽस्मिन्नव भागे ३७० पृष्ठ गता ) “ न य किचि श्रणुषखायं,
पडसिद्ध वाचि जिनवारदाहि। मात्ते महुणभावे. न विणा तं
रागदोसहि १।” घ०३ अधि० | कथमकान्ततो निषधः? अजो-
ऊूयते-नेष दोषो 5त्रास्माकमाहंतानाम , नैकान्ततः किचित्पर-
तिषिद्धम अभ्युपगतं वा,मैथुनमक विहाय । अपि तु-द्वव्यक्षत्र
कालभावनाश्रत्य तदव प्रतिषिध्यत, तदेव चाभ्युपगम्यत।
उत्सगों ऽप्यगुणाय.च्र पवादा ऽपि गुणाय, कालज्ञस्य साधाः।
आचाए० १ श्रु० ८ अ० ४ उ०।
मथुनदाष 5पएकम । ।
अथ यदुक्तम् “न च मधुन दाप इति ततज्निराचिकीपुराह-- |
रागादव नयन, मथन जायते यतः
ततः कथ न दोषोञ्त्र, यन शास्रे निषिध्यते ॥ १॥
रागः-अभिष्वङ्गलत्तणः,अथवा-स्नहरागविषयरागदाषएरराग- |
मदात् त्रिविधो रागः। तत्राद्यः-अपत्यादिषु.द्वितीयः-पुंवेदा- |
दिरूपः, तृतीयः-वर्णदनां खद्शनपक्षपातंरूपः । तत्र रागात्-
कामादयरूपादेव शब्दो ऽनाभो गमाध्यस्थ्यादिव्यवच्डदाथः,
नियोगन-ञ्रवश्यंभावेन अनेन च मेथुन माध्यस्थ्यन प्रवृच्य-
संभवापदर्शनन मेथनवतस्य निरपवादतामाद । आह च-“न |
वि एकाच श्रणुन्नाय.पडसिद्ध वावि जिणवररिदेहिं। मात्तमेः
हुणभावं,न विणा तं रागदोसेहि ॥१॥ ” इति । मैथुनस्य प्रायः
स्त्रीपुरुषद्वन्द्स्य कमे मेथुन जायत-उपपद्यत,यता-यस्मात्तत् |
तस्मात्कथम्-कन प्रकारेण,न-नेव, दोपो- दूषणम् , रागलक्ष-
शस्तज्नन्यकम्मवन्धलक्तणो वा । श्रत्रतस्मिन् मेथुन यन का-
रणेन शास्त्र-न च मेथुन दाष इत्येबलक्षण ग्रन्थ, निषिध्यत-
निराक्रियत, त्वया दोष इति गम्यम् । अथवा--चकार- |
दुशनाद्यन च यतश्च शास्त्र निषिध्यत मेथुनमतः कथे न |
दाषः इति हदयम् | अथवा-यदि नाम रागाज्ायते मेथुनं
तदा जायताम , कुतोऽत्र दाषसद्धावः ? उच्यत-यन कारणन
शास्त्र निषिध्यत राग इत्यनुवरैते । । आह च--“ का दुक्खे |
का वन |
लभज्ज मोक्खे, रागद्दोसा जइ न होज्जा ॥ ६॥ ” अतः शास्त्र- |
निषिद्धरागपूर्वकत्वान्मैथुने कथ न दोष इति हृदयम् । प्रयो-
गो5त्र'यद्वागजन्य तत्सदाषम 'यथा-हिंसाविशषा, रागजन्य
च मेथनम , अतः सदोर्षार्मात ॥ १॥
अथ पक्तेकदेशात्सद्धा5य हेतारात परमतमाशङ्-
मान आह-- |
धर्मार्थ पुत्रकामस्य, स्वदरिष्वधिकारिणः ।
ऋतुकासे विधानेन, यत्स्पादोदों न ठत्र चत् !! २॥
धमीथम्-पुरायर्निमित्तम् ,पुत्रकामस्य-सखुतार्थिनः अपुत्रस्य
हि धर्मो भवति । यदुच्यत-- श्रपुत्रस्य गतिनास्ति, स्व
गो नेव च नेव च । तस्मात् पुत्रमुखे दृष्टा, पश्चाद्धम चार-
प्यति ॥ १॥” इति | खदारेषु-सखकलत्रेषु परकलत्र वश्या
यां वा तर्दाधिगमस्यानथदतुत्वात् । यदाह-'* कुलानि पात-
न्तयषठो, परदारानधिश्रयन् । खयं च नघ्रसस्कारः, ष-
रढत्व लभते मृतः ॥ १ ॥ ” तथा--' बृषलीफेनपीतस्य
निःश्वासोपहतात्मनः । तस्याश्चैव प्रसूतेश्च, निष्ृतिनोप-
पद्यते ॥ ६॥ ” तस्याश्चैव प्रसतश्च--च्रुषली प्रसवस्य च । नि
प्कृतिः--प्रतिक्रिया खुद्धिरित्य्थः, श्रधिकारिणा--गृदस्थ-
स्य न यतेः तस्य कल्राद्यभावात् । ऋतुकाल-श्रात्तवसभ-
बावसरे श्रन्यदा दोषसभवात् | यदाह--' ऋतुकाल व्यात-
क्रान्ते, यस्तु सवेत मेथुनम् । ब्रह्महत्याफल तस्य , सतक. च
दिने दिने ॥६॥` विधानन--स्त्रीशरीर नवानोतदभाच्छादनद-
भअमरणिमूलवन्धनादिना स्म्नातमार्गाभिषहितन विधिना यन्म
थुने स्याद्धवद्दोषा-दूषणं,न-नेव,तत्र-मेंथुन प्रदृत्तत्वाद्वदना-
कारणाधितभाजन इवति,चद्यदि मन्यस त्वम् , परम-अनन
च पक्तेकदेशासिद्धता हेतोदशिता, न च मथन दाष इत्यस्य
च पत्तस्य विषयविशषापद्शननाव्याहतिरांभाहतात ।
अत्राचार्य उत्त रमाह--
नापवादिककल्पत्वा -न्षकान्तेनेत्यसंगतम |
वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्-दधीत्येवेति शासितम् ॥ ३ ॥
'धर्मोीथम इत्यादिविशषणोपतमेथुन न दोषः, इति यदुक्तं तत्
न-नैव, कुत इत्याह-अपवादो--विशेषाक्नविधिः तत्रापवाद
भव आपवादिकः स चासौ कट्पश्चाचार श्रापवादिककरप
आपयचादिकप्राय चापवादिककस्प तद्धावस्तत्वच तस्मादाप-
वादिककरपःवाद् ; व्यसनगतस्य श्वमांसभक्तणएवाद्ात दृष्टा-
न्तोऽभयृद्यः। | अयमभिप्राया-यद्यप्यपवादेन श्वमांसाद्यासन्यत
तथापि तत्स्वरूपेण निर्दोष न भवति प्रायश्चत्ताद्यप्रातपात्त-
प्रसङ्गात् , कि तिं गुणान्तरकारणत्वन गुणान्तराथना
तदापद्यत इति । एवं मेथुन स्वरूपण सखदाषमप्याकामा-
राद्यतिःवपालनासदिष्णुः गुणान्तरापक्ती समाश्रयते सव-
था नि्दोषत्वे त्वकुमारत्वात् यतित्वपालनापदशाऽन-
रकः स्याद्रारस्थ्यत्यागोपदेशश्चत्यतः साधूक्तं धर्मार्था-
दिविशषणन मेथुन दापाभावः अपवादिककल्पत्वात्त-
स्येति । ततश्च नेकान्तन सवथा मेथुन दाष हात यदु-
क्रम् ` न च मेथुन ` इत्यनन च वचनेन इत्यतदसङ्गतमयुक्ग रा
गादिभावेन कथचित्तस्य सदोषत्वाद्धमाथिना एपि हि पुसो
थुने महनविकारकारिणः कामादयस्य तथाविधाग्म्भप-
रिग्रहयोश्रावश्यभावित्वात् ,न च कामाद्रेके विना महनविका
रविशषः संभवाति,भयाद्यवस्थायामिवाति | आपवादिककलल्प
त्वादिति काचित् पख्यते । तत्रैकवाक्यतया व्याख्या कार्या |
अथ कथमा चवादिककटपत्व धमा थादिविशषणयुक्रमेथुन--
स्यत्याह--वदम्--ऋगादिकं दिशब्दे(--वाक्यालकाराधः
श्रधीत्य-परित्वा,स्नायात्-कलत्रसंग्रहाय स्नानं कुया दिव्यत्र
चदवाक्य वदव्याख्यात्रभिर्यदिति यस्मादर्घा्यैव वदं पाठः
त्वैव, ना ऽपदित्वा म्नायादिव्यवावधारण शासखत व्याख्या-
तमिति ।
म्ण _
( ४रद )
अभिध्रानराजन्द्र
विपर्यमाद-
स्नायादवेति न तु य-त्ततो हानो गृहाश्रमः।
तत्र चेतदतो न्यायात् , प्रशंसाऽस्य न युज्यते ॥४॥
वदमधीतय स्नायादेव, वेदाध्ययनानन्तरं कलच्रसग्रहाय
स्नान कुयादेव इव्यव, न तु-न पुनरवधारणं शासितम् , अत
श्रौत्सर्गिको मेथनपरिदारः। त्रापवादिकमेथुनमित्याभादतमः
नेन चापवादिकऽपि तत्र रागभावस्रूचनाता-रागजन्यत्वद-
तोः,पक्तेकदेशासिद्धता परिहृता | अथाधिक्ृतवा क्या थैनिगम
नाया55ह-यदिति--यस्मादेवमवधारणविधिः , ततस्तस्माद् |
कारणात् हीनः-जघन्यो,ग्रृहाश्रमो -ग्रह स्थत्वम् , यत्या श्रमा प-
क्षयेति गम्यम् । ततः किमित्याह--तत्र च-तस्मिन पुनग
दस्थाश्रमे, एतत्-मेथुनम् ,धर्मार्थादिविशेषणं सभवति । तत्रे- |
व दारसंग्रहाद्.श्रतः-पतस्माद् न्यायाद् -नीतः प्रशंसा-श्ला-
घा अरस्य-मेथुनस्य न युज्यत-न घटते यत्याश्रमापत्तया
हीनग्रृहाश्रमसंभवित्वेने हीनत्वादस्याति भावः । यथोक्ल पुत्रा
मित्यत्र अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ' इति, तदयुक्लम-परमतनत्र
तस्य बाधितत्वात् । यदाह-'* अनकानि सदस्राणि, कुमार- |
ब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्रासा-मरृत्वा कुलसन्त- |
तिम् ॥ १॥ ” इति ॥ ४ ॥
अथ यदुक्कम ' प्रशंसाऽस्य न युज्यत ` इति, शत्र परमत- |
माशङ्कमान श्राह--
अदोषकीतेनादेव, प्रशंसा चत्कथं भवत् ।
अर्थापत्या सदोषस्य, दोषाभावप्रकीत्तेनात् ॥५।।
अदोषः-दृषणाभावः तस्य कीत्तन “ न च मेथुन ' इत्यनन |
मनुवचनेन सशब्दनमदोषकी सैनम्, तस्मादव निमित्तान्तर- |
व्यवच्छेदा थमबधारणम् , प्रशंसा-श्लाघा मेथुनस्य युज्यत |
इति शषः ?, चय्यद्यवं मन्यसे तदा यो दोषस्तमाह-कथम्-- |
कन प्रकारेण न कथचिदित्यथः, भवेत्-जायेत, प्रशंसति
वर्तते । श्रथीपस्या च-वेदं ह्यधीत्य स्नायादिति पूर्वाक्षप्रमाणन |
सदोाषस्य--पापसरूपस्य मेथुनस्य दाषभावप्रकीत्तेनात् । न
च मधुने इत्यव लक्षणाह्राषाभावोक्तिमाजादेवाप्रमाणका-
दिति । न-हि यदथीपस्या दाषवदिति निशिते तदप्रमाणकेन
चचनमात्रण निर्दोषमिति प्रतिपत्ते शक्यमिति भावः। अथवा |
प्रशेसाऽस्य न युज्यत' इति यदुक्तम् तदयुक्रम, यतो न मया |
तत् प्रशतितम , कि तु -निर्दोषमित्युक्कशङ्कां परिहरन्नाह अर- |
दाष! त्यादं अदोषकीत्तेनमात्रादिव कथ प्रणसाऽस्य भवतीति
चदिति परमत, सूरिराह-श्रर्थापस्या भवति । अथ तामेवाह -
सदापस्य दापाभावप्रकी्तनात्प्रशेसा कृता भवतीति ॥ ५॥
य दुक्रमदापकीत्तनात्प्रशंसा ऽस्य युक्रति तव्रादाषतोक्करवा- |
न्याय्यत्वमुपदशयन्नाद--
तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वा-च्याज्यबुद्धरसंभवात् | «
विध्युक्ारएसासडू रुक्तरषपा न भाद्रका ॥ ६ ॥
उक्किः-'न मांसभक्षणे दाष इत्यादिभणनम | एघा-अनन््तरा-
भिहिता इति, धार्मिनिर्देशः, न भद्धिका-न शोभनेति साध्यध-
मनिर्दैशः, कुत इत्याह -तत्र मेथुन ऽरथापच्या प्रागुपदर्शितदोषे |
परत्रात्िटेतुत्वात् प्राणनां प्रवत्तननिवन्धनत्वादितत हेतुः, प्र- |
यागश्चव या ध्राणिनां सदाषपदार्थ प्रवत्तिहतुभूताक्चि! सा न |
भाद्रका यथा हसानदापताक्ति' सदाघय्रथुनघर्जाल्दतुश्चयस्, `
।
।
|
|
|
न मांसत्यादिकोक्रिरिति, प्रवृत्तिहेतुत्वमव॒ कुत त्या
सयं मैथुनम् 'एवभूता या बुद्धिस्तस्या असभवात्-अनुत्पादात्
न मेथुन दोष एतामुक्कि श्रदधानस्य न मे व्याज्यमिदमित्येषा
वुद्धिराविरस्तीति त्याञ्यवुद्धचभावे च को हि नाम न तच्च
प्रवर्तेत ,दरत्यादत्याज्यवुद्धच सभवः कुत इत्याट-विधिवि्ा-
नमनुष्ठान मेथुनस्य तस्योक्रिः-भणितिर्विध्युक्िस्तता वि
ध्यक्तः, को हि नाम मेथुन न दाष ऽस्तीति वचनाद्विधय म-
शुने न प्रतिपद्यते इति । नन्वनेन वचनन दोषाभावमात्रमेव
मेथुनस्योक्तमिति कथमिये विध्युक्तिः स्यादित्याह-इष्टस्या-
नादिमहामाहवासनावासितमानसानां दृहिनामभिलफितस्य
मैथुनस्येतो मेथुननिदों पताभिधायकवचनात्ससिद्धिनिष्पत्ति-
रि्रससिद्धिस्तत इण्रसोसिद्धः , को हि तस्य निद्दोषतामवग
म्य तदिष्ट न निष्पादयति। इषं चदे सर्वप्राणभतामित्याह च- |
“कामिनीसनिभा नास्ति, दवताऽन्या जगत्य । यां समस्तोऽ
पि पुंवगों, धत्त मानसमन्दिर ॥ ६॥ ” अत उक्षिरेषा न भ-
द्विकेति व्याख्यातमेव । | अथवा--उक्तकिरेषा न भद्िकत्यस्यां
प्रतिज्ञायां प्रवरत्तिदतुत्वादयो भिन्नाश्चत्वारा हतव इति ॥६॥
मैथुन प्रकारान्तरेण दृषयज्नाह--
प्राणिनां बाधकं चत-च्छयाखे गीतं महर्षिभिः ।
नालिकातप्तकणक- प्रवेशङ्ञाततस्तथा ॥ ७ ॥
प्राणिनां जीवानांबाधकमुपघातकम | च शब्दा दृषणान्तरस-
मुच्चयाथः | एतन्मैथन शास्त्र व्याख्याप्रजञप्त्या ख्यपञ्चमाङ्ग
गीतं-- गदितं महर्षिभिः-महाम॒निभिः श्रीवद्ध मानस्थामि-
प्रमखेः । कथ बाधकं गीतमित्याह--नलिकायां-वेणुपर्वादि-
रूपायां त्तस्याग्निना दीप्तस्य कणकस्य--लोदशलाकावि-
शषस्य प्रवेशः--प्रक्तेपः स एव ज्ञातमुदाहरणम् , ततो नलि-
कातप्तकणकप्रवेशज्ञाततः, तथति-तल्प्रकारात् रूतभृतनलि-
केति विशषणयुक्ता । तथा हि ( भगवत्याम्- ) “ हेडणं भते !
सवमाणस्स केरिसए श्रसजमे कज्जदू ?, गायमा ! स जहा-
नामप कड पुरिसे बूरनलियं वा रूयनलिय वा तत्तय २ च्रन्रो-
कणएण २ समहिधंसज्जा महण सरवमाणस्स एरिसए रो अ-
सजम कज्ञद त्ति ( भ० २ श० ५ उ० )॥ ७॥
दूषणान्तरमाप्ततचनप्रसिद्ध मथनस्य रवणः प्रकरणो-
पसहा राया ऽऽह--
मलं चेतद धरस्य, भवभावप्रवद्धेनम् ।
तस्मादिषान्नवत्याज्य- मिदं मूत्युमनिच्छता ॥ ८ ॥
मूलम्-करारणम्। चशब्दः समुद्य । एतन्मे थनमधर्मस्य-पाप-
स्य यत एवमत एवं भवभावस्य--ससारसत्तायाः, अथवा-
भवे-खसारे ये भावा-उत्पादास्तेषां भवह लनां वा भावानां-
परिणामानां प्राणवधाविक्राधादीनां प्रवद्धेने वृद्धिकरमिति
विग्रहः । उक्तञ्चअ--' मूलमयमहम्मस्स , मदादासममु-
स्सयं। तम्हा महुणससग्गे , णिग्गेथा वज्जयाति
रो ॥१॥” यस्मादेव तस्मात्कारणाद्विषान्नवत् हाला-
हलमिश्रभोजममिव॒त्याज्ये-परिहाये--सृत्यु_ मरणमनि-
च्छुता-अनभिलषता अमुमूर्षुणा यथा विषान्न त्यजनीयमवे
मैथुन त्याज्यमिति भावः ॥ ८॥ हा० २० अष्ट०। द्वा०।
सूत्र०। (या ह्याचार्यों गणावच्छेदका वा गणादपक्रम्य गणम-
निक्तिप्य वा मेथुने प्रातिसवत स नोपदष्टू शक्नाततीति ` उ-
क् ( ४२६ )
मेहण अभिधानराजन्द्र महण
दश ' शब्दे द्वितीयभागे ८०६ पृष्ठ गतम् ) ( सेयत्या मै- पद्यते मासिकमनुद्धातिकं स्यात् । इह निग्रन्थीनां परिहारत-
थुनासक्कायाः प्रतिक्रिया ' आलोयणा ' शब्दे द्वितीयभाग | पो भवतीति कत्वा ` परिहार्द्टाएं ` ति पदं न पठनीयमव ।
४२६ पृष्ठ दर्शिता )
भयवं निब्भट्ूटसीलाणं, दारिसणं तं पि निच्छसी ।
पच्छित्त वागरसी य, इति उभयं न जुज्जए ॥
गोयमा ! भद्रसीलाणं, दृत ( त्त ) र ससारसागर ।
धुवं तमणुकंपित्ता, पायच्छित्ते पद रिसिए ॥
भयव ! कि पायच्छत्तेशं, छिंदिज़ा नारगाउयं ।
(अण)चरिरणं वि पच्छित्त, बहवे दुग्गई गए ॥
गोयमा ! जे समजेज़ा, ऽतं ससारियत्तणं ।
पच्छित्तेणं धुवं ते पि, चिदे कि (पुणो) नरयाउयं ॥
पायच्छित्तस्स भावेण, नासत्तं किंचि वज्ञए |
बोहिलाभं पमोत्तूर्ण, हारियं तं न लन्भए ॥
ते बाउकायपरिभोगे, तेउकायस्स निच्छिय ।
अनोहिलाभियं कम्म, वजए मेहुणेण य ॥ |
भेहुणं आउकाये च, तेउकायं तहेव य । |
तम्हा तओ वि जं तशं, वज्ञेज्ञा संजरदिए ॥
महा० २ अ०। |
निग्रन्थ्याः उश्चारप्रस्रवणे कुर्वन्त्या इन्द्रियजातं पराम्शेत्
चच्चिग्रन्थिः स्वदेत् हस्तकमेप्रतिसेवनाप्राप्ता-
निग्गंथीए य रातो वा वियाले वा उारं वा पासवणं वा |
विगिचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाताए |
वा पक्खिजातीए वा अन्नयरं इदि यजायं परायुसेज्जा, तं च |
निग्गंथी साइज्ञज्ञा हत्थकम्मपडिसेवणप्पत्ता आवज़इ |
मासियं परिहारद्टाणं अणुग्घाइयं ॥ १३ ॥ निग्गंथीए य |
राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा वि- |
गिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजा- |
तीए वा पक्खिजातीए वा अन्नयरसि सोयंसि श्रागा-
दिज्ञा, तं च निग्गंथी साइज़िज़ा मेहुणपडिमेवरणपत्ता
आवजइ चडम्मासियं परिहारद्टाणएं अणुग्घाइय ॥ १४ ॥
रस्य सृब्रद्यस्य संबन्धमाह--
पटमिन्लुगततियाणं, चरितो णत्थोवताण रक्खट्रा ।
भेहुणरक्खट्टा पुण, इदियसोए य दो सुत्ता ॥ २३६ ॥
अथमतृतीययोवैतयोः प्राणातिपातादत्तादानविरतिलन्तण- |
याः रत्षणाथं तीथकरानयुज्ञातशीतादकपरिभाग तयोर्भद्गो '
मा भूदिति कृत्वा पृर्वसृत्रस्याथेश्चरितो-गता भणित इ-
त्यथः । संप्राति तु मेथुनवतरक्षणाधर्मिन्द्रयश्राता--वि- |
चये द्व सूत्र श्रारभ्यत । अनन सवन्धनायातस्यास्य व्यास्या- |
निग्नेन्थ्या रात्रो वा विकराले वा उद्चारं वा प्रस्रवणे वा वि-
_कुवेत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरपशुजातीयो बानरा
दिकः पक्तिजातीयो वा मयूरादिको ऽन्यतरदिरन्द्रियजातं प-
रासरशत्- स्पृशत् सा च निग्रन्थी तत्स्पश स्वादयत् खु- |
रस्य स्पशे दत्यनुमन्यत हस्तकम प्रीतसेबन प्राप्ता श्रा-
१०८
द्वितीयस् त्रमवमव व्याख्येयं नवरमन्यतरस्मिन् श्रातसि यो-
न्यादौ वानरादिरवगाहेत सा च मेंथुनप्रतिसेवनप्राप्ता यदि
स्वादयत् ततश्चतुगुरुकमिति सूत्रार्थः]
श्रथ भाष्यविस्तरः-
वानरछगलाह रिणा, सुणगार्दीया य पसुगणा होति ।
वरिहिणि चासा हंसा,कुक्ङडसुणगादिणो पक्खी ।२४०।
वानरछगलाहरिणाः शुनकादयश्च पशुगणा मन्तव्याः, ब-
हिंणश्रषा हंसाः कुछुटाः शुनकादयश्च पक्षिण उच्यन्त ।
जहि य तु अणाययणा, पासवणुच्चारतदिं पडिकृद्रं ।
लहुगो य होई मासो,आणादि सती कुलघरे वा ॥२४१॥
यत्रैते पशुजातीयाश्च प्राणिनः संभवन्ति तदनायतनमु-
च्यते, तत्र निभ्रन्थीनामवस्थानं प्रस्रवणोच्चारपरिष्ठापन च
प्रतिक्रुश्स , यदि कुर्वन्ति तदा लघुमासः आज्ञादयश्व दाषाः।
* सद् कुलघरे व त्ति ` भुक्कभोगिन्याश्र स्सतिकरणं कुल-
ग्रहे वा भूयस्तासां बान्धवादिभिनेयने क्रियते ।
इदमेव व्याचष्ट--
ये्ताथुत्तविभासा, तस्सेवी कायि कुलुघरे आसी ।
बेधवतप्पक्खी वा, दण णयंति लज्ञाए ॥ २४२॥
भुक्का भुक्विभाषा--भुक्कमोगिन्या: स्मरतिकरणम् , श्र-
भुक्रभागिन्याश्च कोतुकमत्पद्यत इत्यः । तथा “ तस्से-
वि त्ति ` ग्रहवासे तेः पशुजातीयादिभिः प्रतिसेविता
काचित् कुलगृहे आसीत् , सा तान दरष्टा स्मृतपूर्व-
वरा प्रातिगमनादीनि कुयोत् । यद्वा-तासां बान्धवास्तत्पा-
क्िका वा खुष्टदस्तादशेऽनायतने स्थितां तामार्थिकां
ष्टा लज्ञयां भूयः गरृहमीनयन्ति ।
कि च--
आलिंगणादिया वा , अशिहुयमार्दीसु वा णिवेदेजा।
एरिसगाण पवेसो, ण होति अतेपुरसुं पि ॥ २४३ ॥
त पशुजातीया वानरादयस्तां सयतीमालिङ्गेयुः, सा वा
संयती तानालिङ्गेत् , एवमादयो दोषा भवेयुः । श्रपि च-एते
वानरादयः स्वभावादेवानिभ्रताः कन्दष्पवहुला मायिनश्च
भवन्ति श्रतस्तेरनिश्रतमायिभिः सा कदाचिदात्मानं निचब-
यत् । ईदशानां च पशुपक्तिजातीयानां प्रवेशो राज्ञो ऽन्तः-
पुरष्वपि न भवति- न दीयते । कारणेन पुनरन्यस्या वस-
तेरभावे तघ्रापि तिष्ठेयुः ।
कारणगमणे उ तहि, विविंचमाणीएँ मागतो लिहेज़ा ।
गुरुगा य होति मास्राआखाद् सता तु सच्चत्र ॥२४४॥
कारण तत्रापि स्थितानामुच्चारभूमो प्रसखरवणभूमो वा गत्वा
विविचन्त्याः परिष्ठापयन्त्या वानरादिः समागच्छत् श्रागतश्च
तामालिङ्गत । सा च यदि लिद्यात्- तत्स्पशं स्वादयेस् तता
गुरुमासः , आज्ञादयश्च दाषाः, स्मृतिश्च सा चैव पूर्वोक्ता
भवति | अथ न स्वादयति ततः सा शुद्धा।
यतना चये तत्र कत्तव्या-
वंदेण दं उहत्था, णिग्गंतुं आयरंति पडिचरणं |
पविसंते वारेति ये, दिवा षिण उ काद एको ॥२५५।।
( ४३० ¦
अभिधानराजन्द्रः।
ह मदुण 94
वृन्देन-द्धिच्यादिवातिनी समुदायन दराड कहस्ता निगच्छन्ति
एनगत्य कायकादकमाचरान्त,वाज़रादाना च प्रातचरण कु- |
वन्ति,य तत्रा $भिद्रवान्ति तान् दण्डकन ताडयन्ति, प्रतिश्रय
वा प्रविशता निवारयान्ति। दिवा श्रपि च-कायिकभूमिमका
किनी न गच्छति । व्याख्यातमिन्द्रियसूत्रम् ।
संप्रति श्रात.सूत्रं व्याचए--
एवं तु इंदिएहिं, सोते लहुगा य परिणए गुरुगा ।
बितियपदकारणम्मि य,इंदियसोए य आगादढे।।२४६॥
एव तावदिन्द्रियसृत्र प्रायश्ित्तविधिश्चाक्कः। यत्रतु पशुजा-
|
।
मेहृशवडिया-मेथुनप्रतिज्ञा- खी० । मिथुनभावो मेथुन, मिथु
तीयादय. श्राता ऽवगाहनं कुर्वन्ति तत्र तिष्ठन्तीनां चतुलेघु । |
तषु श्रातावगाहने कुबीरषु यदि सा खुन्दरमिदमिति परिण-
ता ततश्चतुगुर । द्वितीयपद आगाद कारणे इन्द्रिये श्रात-
सिच परामश स्वाव्यदपि। इदमुत्तरत्र भावयिष्यते-
कारण एकाकन्यास्तिष्न्त्यास्तावदियं यतना ।
गिहिशिस्सा एगागी, तहिं समं शिति रत्तिमुभयस्स ।
दंडगसारक्खशया, वारेति दिवा य पेष्टेते ॥ २४७ ॥
गृरस्थनिश्रया कारण काचिदेकाक्रिनी वसन्ती ताभिरवि-
रतिकाभिः समं रात्रावुभयस्य प्रस्रवणोच्चार णस्य व्युत्सजैना
थ निगच्छति, नियान्ती च वानरादानभिद्रवता दण्डकन सं-
रत्तति । दिवा च प्रतिश्रयं प्रेरयतः- प्रविशतो निवारयति ।
अथ गाढकारणे व्याच्रष्ट-
अट्टवाणसदआलि -गणादिपयकम्म5तित्थिता संती ।
अचित्तं पिंप(बिम्ब) अणिहुत,कुलघरसड्दिगेहे वा ।४८।
कस्याश्चिदार्यिकायाः सनिमित्तो ऽनिमिन्ना वा मोहोद्धवः
सजातस्ततो नवृत्तिकादिकायां मोहचिकित्सायां कृताया-
मपि यदा न तिष्ठति तदा अस्थाने शब्दनिवद्धायां वसतौ
स्थापनीया, तता यत्राविरतिकानामालिङ्गनादिकं क्रियमाणे
दृश्यत तत्र स्थाप्यते । तथा-ऽप्यनुपरत मादे पादकं करात।
तदप्यतिक्रान्ता सती यदचिन्न पिम् हुराइशिरादिक तेन प्रति
सेचयति | तथा ऽप्यतिष्ठन्ती या ऽद्य न व्रतस्तनास्थानादिकं स-
वमपि रत्वा ततः कुलगरृह भगिन्या श्रातृजायाया वा आ-
त्सजना- |
लिङ्गनादिकं क्रियमाणे प्र्तत, तदभावे श्राद्धिकायास्तदप्रा- |
सौ तथा भद्विकाया अपि प्रक्तत । प्रथममिन्द्रिये पश्चात् श्रो-
तःस्वपि यननयन्ति | बू० ५ उ०।
चल भवति | स० २१ सम०। ( 'सवल 'शब्दे-व्याख्या) मैथु-
नमनब्रह्म श्रतिक्रमादिना सवमानोऽनुद्धातको भवति | स्था० ५
ठा० २ उ० । (या हि खिरिया सह संयागं नाभिलषति स धन्य
इति ' इत्थी ` शब्द द्वितीयभागे ६२० पृष्ठ उक्कम ) ( मातृग्रा-
मस्य मथुनप्रतिज्ञया प्रतिसवनादिकं निशी थचूर्णिसप्तमाद्देश-
कादवसयम् ) ( मधुनाथ हस्तकर्म निशीथचूरणों प्रथमादेश
क व्याख्यानम् ) ( सागारिकायां बसतो न स्थयं तत्र मेथुन
दाषः सच बसहि शब्दे वच्यत) (शरश्नव्याकरणोक्ता चतुर्था
स्रवद्धाराक्ता निखिला वक्तव्यता ` श्रवभ ` शब्दे प्रथमभागे
“ महे पडिसेवमाण स- |
मेहुणधम्म मेथुनधर्म- पु । अब्नह्मव्यापार, आचा० २ श्रु०१
चु० १ अ० ३ उ०।
मेहुणधम्मपरियारणा -मेथुनधमंप्रतिचारणा- खी” । मेथनधं
मैपरतिसेवनायाम् , आचा० २ श्रु० ६ चू० २आअ० १५ ड०। _
भेहुणभाव-मैथुनभाव-पुँ० । दन्द्क्मेणि, “ण य किचि श्रणुः
ष्षायं.पडिसिद्धं वावि जिणवरिदेहिं। मात्त मेहुणभाव॑,ण
ते रागदोसदि ॥ १॥ ” आचा० १ श्रु० २ अ० ५४ उ०।
नकम वा मेथुनम् : अब्नह्मेत्य थेः । मिथुनभावे प्रतिपत्तिः-प्र
तिज्ञा मैथुनप्रतिज्ञा । मेथुनसेवनप्रतिज्ञायाम् , नि० चु०५ उ०|
मेहुणवत्तिय-मेथुनप्रत्य यक - पुं । स््रीपुंसयोवेंदोदय सति
पूवकर्मेनिवर्सिति-रणिकाष्ठयोरिव संयोगे,सूत्र०२ श्रु ° ३ आ०।
टुशविरई-मेथुनविरति--खी० । मिथुन स्त्रीपुंसद्धन्दं तस्य
कर्म मैथुन तस्माद् विरतिः । मैथुनविरमणे, प्रव० ६६ द्वार ॥
मेहुणविहि-मैथुनविधि-पुं० । मैथुनप्रकारे, उपा० । “ तदाणँ-
तरं चर णे सदारसंतोसिए परिमाणं करेइ, णराणत्थ एक्काए
सिवाणंदाए भारियाए, अवसेस सव्व मेहुणविहिं पच्चक्खा-
मि। ” उपा० १ अ०।
मेहुणवेरमण-मेथुनविरमण-न० । मिथुनं स्त्रीपुंसदन्द्धं तस्य
कर्म मेथुन तस्माद् विरमणम् । पा० । ब्रह्मचर्ये, ( तच्च देशतः
श्रावकस्य चतुथमणुत्रतं भवतीति । ‹ सदारसंशोस ` श-
दे वच्यते ) सवेतः साधोाश्चतुर्थ महाचत, दश० ४ ० ।
( अजञत्यसृत्रम "पडिक्रमरण' शब्दे पञ्चमभाग २६१ प्रष्ठ गतम् )
मेहुणसेसग्ग- मेधुनससरी -पुं० । मेथुनसम्बन्धे, *' मूलमेयम-
हम्मस्स, महादाससमुस्सय । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा
वज्यंति णे ` ॥ १६॥ ” दश० ६ झ० २ उ०।
भेहुणसप्मा-मैथुनसंज्ञा-स््री ० । मैथुन सेज्ञायतेऽनयेति मैथुन-
सज्ञा। पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्त्यज्ञालोकनप्रस न्नवदनसंस्तम्भि-
तोरूवपशथृप्रभ्नतिलक्तणायां क्रियायाम् ,स्था०१ ठा०३ उ०। भ०
आंव० । स्व्यादिवदादयरूपायां सज्ञायाम्, आचा० १ श्रु० १
आ० १ उ० । चतुर्शि्तुभि्मैथुनसंज्ञोत्पद्यत । स्था०।
चउहिं ठाणेहिं महुणसन्ना समुप्पञ्जति, तं जहा-चित-
मससोणियथाणए मोहरिज़स्स कम्मस्स उदणणं मतीए त-
दद्टीवओगेण । ( सूत्र-४ )
चित-उर्पाचत, मांसशोणिते यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता
तया चितमांसशोणिततया, मत्या--सखुरतकथाश्रवणादिज-
नितबुद्धचा, तदर्थोपयोगन--सेथुनलक्षणाथथानुचिन्तनेनाति ।
आवमुक्नकतया-सर्पारिग्रहतया मत्या सचतनादि परिग्रहदशैना-
दिजनितबुद्धन्या तदर्थो पयोगेन-परिग्र हा चुचिन्तननेति । स्था०
४ ठा० ४ उ० । मथुनविरतेरतिक्रमः ' पडिक्कमण ` शब्दे पञ्च-
मभागे २६५ पृष्ठे गतः )
८७५ पृष्ठ उक्रा )मघुलापिषि, पौराणिकमते मेथुनशब्देन मघु- मेहणशाल-मेथुनशाल--न० । रति, नि° चू० ८ उ० ।
सापष्ाग्ररर भवात | स्या) मातुलपुत्र छषु० | बृू० १ उ०।
मदुणकम्म-मथुनकम्मेन्--न० । दस्तकमीणि, ्य० २
मेहुणद्धि(र्) भ धुनाथिन् - पुं । उद्भ्रामके, बृ० १ उ० ।
मेहुणसुमिण-मेथुनस्वप्न- पुं” । स्वप्न मेथुनकरण, “ मेहुण-
खुमिणे श्रट्र सय ` मथुनस्वप्ने ऽषएशतमष्टात्तरशताच्छासमानं
कायोत्सग कुयौदित्यथेः। जीत० ।
मेहुणसुमिण `
हुणिआा
ऋ ता
६ वर्म १४८ गाथा।
भेहुणिय -मेथुनिक पुं०। मातुलपुत्र, बृ० ४ उ०।
मेहुणिया-मेथुनिकी खी । | मेथुनजीवनायां परयाज्ञनायाम्
ब्य० १ उ० । मातुलदुाहतार, बृू० ४ उ०।
महोदय मेघोदक-न० । मेघेषु वर्षत्ख यत्कस्मिश्विज्निलप शु-
भ स्थाने ऽधिक्रियते तन्मेघोदकम्।मेघजले, ज्यो० २ पाहु० ।
समूहे, रा० | “मेहोहरासियं ” मेघस्येवोधेन प्रवाह्देन रसितं
यस्याः सा मेघोंघरसिता । श्रा० म० ९ ० । रा०।
मोझ- देशी--अधिगतचिर्भिटिकादिबीजकाशयोः , दे०ना० । |
< ब्म १४८ गाथा ।
मोक णिआ-देशी-असितपझोदरे, दे० ना०६ वमे १४० गाथा ।
मोक््ख-मोक्ष-पुं० | मुच-षः | परित्यागे, क्रा० । निसर्गे,
विशे० । आत्यन्तिके पृथग्भागे, उत्त० २
चू० १ अ०। ससारग्रतिपक्ञभूत, जी० १ प्रति० । दुःखापगमे,
माक्षकारण वा संयमाजुष्ठान, आचा० १ श्रु० ६ आ० १ उ०।
निर्वाण, पश्चा० ६ विव० । सम्यग्दर्शनज्ञानचारि जे भ्यः कमे-
णामत्यन्तोच्छुदे, घ० १ अधि० । सूत्र० | जीवस्य रागद्वेषम-
दमोहजन्मरागादिदुःखतक्तयरूपे ऽवस्थाविशेषे, ध० २ अधि० ।
सकलकमाशेः ( नि० १ श्रु० १ वर्ग १ आ० ) मुक्तत्व, आ०चू०
अ० | सकलकमंवियागे, औ० । सर्वेकमीभावलक्षण,आत्मन-
स्तादात्म्यावस्थान, अष्ट० २७ अष्ट० । सव्वकम्मावगमा मा-
क्खा भगणति। नि चू १ उ० । छृत्स्नकर्मच्तय.स्या० । उपा० ।
नीमेसकम्मविगमो, युक्खा जीवस्स सुद्धरूवस्स ।
साइणपजवसाणं, अव्वाबाह अवत्थाणं ॥ ८२ ॥
निःशषकर्मविगमो मोक्तः-' कृत्सकर्मक्षयान् मात्त ` इति व-
चनात् । ( तच्वाथो ऽधिगमसत्रम्-१०१ ) जावस्य शुद्धस्वरू-
भेहु ( थु ) णि्रा देशौ श्याली मातुलात्मजयोः , दे०्ना० |
|
|
अहोह- मेघोघ-पुं० मघानामोघः-सघातो मेघोघः। मेघ- |
आ० । छुटने, - आ० |
पस्य-कर्मसयोागापादितरूपरहितस्यत्य्थः | साद्यपय॑वसानम् |
अव्याबाधम-व्याबाधावर्जितमवस्था नम-अवस्थितिः जीव- |
स्यासों मोक्त इति । साद्रपयवसानता चद व्यक्त्यपक्तया न
तु सामान्यन , तन मोक्षस्याप्यनादिमत्त्वर्मितिं । श्रा० ।
कर्मविचटने, आचा० १ श्रु० ४ अ० ४ उ० । “ पुष्टि
पुरयापचय:, छाद्धः पापत्तयण निर्मेलता । अनुवान्धान |
दये ऽस्मिन् , क्रमण मुक्किः परा ज्ञेया ॥१॥
( * धम्म ` शन्दे चतुधभागे २६६६ पष्ठ व्याख्यातम् )
घा० ३ विव०। |
तस्योपात्तपुखीशरीरस्य सम्यग्ञानक्रिय।भ्यां कृत्स्नकर्म- |
क्षयस्वरूपा सिद्धिः ॥ ५७॥
तस्य--श्ननन्तरनिरूपितस्वरूपस्य आत्मनः, उपात्तपुंखी-
रीरस्य--स्वीरूतपुरुषयापिद्धपुषः,
षिणः काष्ठाम्बरान शिक्षयन्ति ।
स्थितवस्तुतच्वावबोधः, क्रिया च तपश्चरणादिका ,
ताभ्याम् । ननु सम्यग्दशनमपि रत्स्नकर्मक्षयकारणमेव ।
यदाहुः--(उमास्वातिवाच काः)-- सम्यग्दशनशानचारि-
चराणि मोक्तमार्गग ” इति । तत्कथमिह नोपदिष्टस ? ।
उच्यते-सम्यगक्ञानापादाननेव तस्याक्तिप्तत्वात्ू , दयोर-
पतेन खीनिवाणद-
सम्यग््ञान च यथाव- |
( ४३१ )
अभिधानराजन्द्रः।
माक्स्व
प्यनयोः सखहचरत्वात् । सम्यग्ज्ञानस्य क्रियातः पृथगु-
पादानाद् या क्रिया सम्यग्ज्ञानपूर्विका सेव तन्कारणं न पुन
मिथ्यात्वमलपरलावलुप्तविवेकविकलानां मिथ्याज्ञानपूाविका
कन्द्फलमूलशेबालकवलनादिका । कृत्स्नस्य -श्रष्परकारस्या-
पिन तु कतिपयस्य जीवन्मुक्तरनभिधित्सितत्वात् कर्मण
ज्ञानावरणीयादेरदष्टस्य नतु बुद्धधादिगुणानामाप,नापल्ञा
नमाचत्रसन्तानस्य, क्षयः-सामस्त्यन प्रलयः स्वरूपं यस्याः सा
तथा; पतेन नेयायिकसोंगतोपकल्पितमुक्तिप्रतिक्तेपः । प्वे-
विधा सिद्धिर्मोत्ञा भवति । रत्ना० ७ परि० |“ सम्यग्भा-
वपरिज्ञानाद् , विरक्ताभावतो जनाः । क्रियां सत्कृत्याऽव
घ्रेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥' दशा० १ अ० । (मात्त-
सिद्धिः ` केवलिसमुग्घाय ` शब्दे तृतीयभागप५ पृष्ठ तत्रैव के-
वलिनः स्वा समुद्धातक्रिया च प्रत्यपादि) “ विनिमुक्ताशष-
बन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्यात्मनो लाकान्त ऽवस्थानं माक्तः
“बन्धवियोगो मात्तः ” ईति वचनात् । सम्म० ३ काराड।
( ' बंध ` शब्दे पश्चमभाग ११६४ पृष्ठ त्र विशषा गतः ) स-
वैकर्मनिजरावाद्धस्तु स्वसवदन॑ाध्यत्ततः परमपद्प्राप्तिहतो
सम्यग्दशनज्ञानदेः स्सचदितत्वात्सवैकमां पगमाविभूतच--
तन्यसखुखस्वभावात्मस्वरूपस्य माक्तस्याप्यनन्तरा्कन्यायत
प्रतिपद्िः मता,तथादहि-यदुत्कषंतारतम्याद्यस्यापचयतारत-
म्यं तत्प्रकषनिषठागमने भवति तस्याल्यान्तिकःः क्षयः य था-उष्ण-
स्परतारतम्याच्छीतस्पशस्य, भवति च ज्ञान-वैराग्यादेरु-
(कषतारतम्यादज्ञान--रागादरपचयतारतम्यमित्यनु मानतो
भगवदागमतश्चास्मदादेरपवर्गसिद्धिः । भगवतां तु केवला-
ध्यत्तत इति । सम्म०३ कागड०६२ गाजरी ० । आचा० । न०।
स्था० । विश० । ( ` निव्वाण ` शब्दे ` बन्ध ' शब्दे च मो--
त्ततच्वसिद्धिर्विस्तरेण प्रपञ्चिता )
एगे मोक्खे ( सूत्र- १० )
माचन कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोत्तः , श्राह च-- क-
त्स्नकर्मत्तयान्मात्तः , , ख चैको ज्ञानावरणीयादिकर्मा-
पक्तया ऽष्टविधोाऽपि मोचनसामान्यात् , मुक्तस्य वा पुनर्मो-
ताभावात् । ईषत्पाग्भाराख्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रव्या थतयेक
श्रथवा--द्रव्यतो मोक्ता निगडादितः, भावतः कमत-
स्तयाश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति । स्था० १ ठा०।
स०। “ णत्थि बंधे य माक्खे य, रेवै सन्न निवेसष।
अआत्थि बंधे य मोक्खय, एवं सन्न निवेसषए ॥ १५ ॥ ` सूत्र०
श्रु० ५ आ० | ( अत्थिवाय ` शब्दे प्रथमभागे ५२० पृष्ठ
व्याख्यातेषा ) ( सिद्धशब्दा 5प्यत्र वीच्यः ) ( मात्त खुखम-
स्तीति 'सिद्ध' शब्दे वद्यामि ) *
सञ्िदानन्दलक्तणे ब्रह्मपरमा तच्च तत्संप्राप्तिमोक्त इति वे-
दान्तिनः । ज्ञाने सुख वा माक्तेऽवातिष्ठत सत्तातच्वादिति
नैयायिकाः , प्रत्यवतिष्ठन्त--एवं च आत्माविशेषगुणाच्छेद-
स्वरूपां मुक्रिमक्ञानादङ्गाङतवतः परानुपहसन्नाट--
न सविदानन्दमयी च मुक्किः, सुपरत्रमासरत्रितमत्वदीयेः।८
तथा न सविदिव्यादि, मुक्त -मात्तः; न सविदानन्दमयी-
न ज्ञानसुखस्वरूपा । सविद्- ज्ञानम् , श्रानन्दः-सोख्यम् ,
तसा दन्दः, सविदानन्दा प्रकृतौ यस्यां सा संविदानन्द -
मयी; एतादशी न भवति । “ वुाद्ध खुसदु : खच्छाद्वषप्रयत्नध-
मधम सस्काररूपाणां नवानामात्मनो वेशेपिकगुणनामय-
( ४३२ )
च्राजघानराजन्द्रः।
सोक्ग्व
न््तोच्छेदा मोक्त `" इति वचनात् | चशब्द: पूर्वोक्ता भ्युपगम- |
दयसमुञ्चय । ज्ञाने हि त्षणिकत्वादनित्यत् , सुस्त च स-
ग्रत्तयतया सातिशयतया च न विशिष्यत, ससारावस्थातः
इति । तदुच्छेदे आआत्मस्वरूपणावस्थान मोक्तः इति । प्रयोग
आ्चात्र-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानः--श्रत्यन्तमुच्चि-
द्यत सन्तानत्वात् , या-यः सन्तानः सः-सो ऽत्यन्तमुच्दछिय
ते, यथा प्रदीपसन्तानः , तथा चायम् , तस्मादत्यन्तमुच्छि
द्यत इति । तद॒च्छेद एव महदादयः, न ऋृत्स्नकर्मक्षयलक्षण
इति । ४ न हि वे सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति ” । |
“ अशरीरं वा वसन्ते प्रियाप्रिय न स्पृशतः ” । इत्याद- |
यापि वदान्तास्तादशीभमव मुक्रिमादिशन्ति। श्र दहि प्रि- |
|
|
याप्रिय-सुखदुःखे त चाशरीरं-मुक्क न स्पृशतः
रपि च--
“४ यावदात्मगुणाः सर्वे, नोच्छिन्ना वासनादयः। |
तावदात्यान्तिकी दुःख-व्याचृत्तिने विकरट्प्यते ॥ २ ॥
धर्माधरमनिमित्तों हि, सम्भवः सुखदुःखयाः। ।
मूलभूतो च तावेब, स्तम्भौ संसारसझनः ॥ २॥
तदुच्छेदे च तत्कार्य-शरीरायनुपप्लचात् ।
नात्मनः सुखदुःखे स्तः,इत्यसों मुक्त उच्यत ॥ ३ ॥
इच्छाद्वेषप्रयत्नादि, भागा 55यतनवन्धनम् ।
उच्छिन्नमोगा 5ए्रयतनो, ना55त्मा तेरपि युज्यत ॥ ४॥ |
तदेवे घिषणा55दीनां, नवानामपि मूलतः |
गुणानामात्मनो ध्वसः, सो5पवर्गः प्रतिष्ठितः ॥ ५॥ |
ननु तस्यामवस्थायां, कीडगात्मा5वशिष्यते ? । |
स्वरूपकप्रतिष्ठा नः, परित्यक्रा 5खिलेगुंणः ॥ ६ ॥ |
ऊर्मिषट् का ऽनिगे रूप, तदस्या ऽ ऽहुमैनीषिणः ।
ससारबन्धना 5घीन-दुःखक्केशाद्रदूषितम् ॥ ७ ॥ ”
कामक्रोघधलाभगवदम्भदषा--ऊर्मिषट्कमिति । तदेतद-
भ्युपगमत्रयमित्थ समधयद्धिः , श्रत्वदीयैः- त्वदाज्ञा
बहिभूतेः कणादमतानुगामिभिः, खसूत्रमासूत्रितम्-स-
स्यगागमः प्र्पाञ्चतः। | अथवा- सुसृत्रमिति' क्रियाविशेषणम्
शाभन सूरज वस्तुत्यवस्थाघरनाविज्ञान यत्रवमासृत्रितं त--
त्तच्छारत्रा थॉपानिबन्धः क्रतः, इति हदयम् । “ सृं तु सूच-
नाकारि, ग्रन्थ तन्तुव्यवस्थेयोः "` । इत्यनेकार्थवचनात् । |
अत्र च सुतरामिति विपरीतलक्षणयापहासगभ प्रशेसावच- |
नम | यथा-'* उपकृत वहु तत्र किमुच्यत, सुजनता प्रथिता |
भवता चिरम् ” इत्यादि उपटसनीयता च युष्किरिक्तत्वात् |
लदङ्गाक्राराणाम् (स्या) यदपि “न संविदानन्दमयीचमु-
क्लारात "` व्यवस्थापनाय श्रनुमानमवादि सन्तानत्वादिति । |
लक्नाभिधीयते--ननु किमिदं सन्तानत्वम्-स्थतन्त्रम्-श्रपरा-
यरपदार्थोत्पत्तिमात्र वा एकाश्रया श्रपरापरात्पत्तिर्वा ?, तत्रा
द्य: पत्तः सब्यभिचारः , श्रपरापरपामुत्पादकानां घटपटकटा-
दानां सन्तानत्वऽप्यत्यन्तमनुच्छियमानत्वात् । श्रथ द्वितीयः
पत्तस्तर्टिं तादश सन्तानत्वे प्रदीपे नास्तीति साधनवि-
कला दृष्टान्तः । एरमारुपाक्रजरूपादिभिश्च व्यभिचारी |
हतुः, तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावे ऽप्यत्यन्तोच्छेदा-
भावात् । आप च--सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानु-
छलुदस्थ भावध्यति-विपयये वाधकय्रमाणाभावात् , इति सं
दिग्धविपक्तव्याचृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिको ऽयम् । कि |
स्याद्वाद्वादिनां नास्ति कचिदत्यन्तमुच्छृदः द्वव्यरूघतया
स्थास्नूनामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुङ्कत्वाद् , इति विरु-
द्श्चति नाधकृतानुमानाद् बुद्धशादिगुणाच्छेदरूपा सिद्धि.
सिध्यति । नापि“ न हि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिं-
ययारपहतिरस्ती'' त्यागमन शरीरराहित्य खुखदुःखामावप्र-
तिपादनान्न मात्त सुखमध्यवसातव्यम् । तत्र हि शुभा .
शुभा 5दृष्टपरिपाकजन्ये सांसारिकप्ियाप्रिय परस्परानुष-
कर अपच्य व्यवास्थितः | मुक्किदशायां तु--सकलादष्त्तयहे-
तुकमेकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमव--तत्कथ प्रति-
पिध्यत ? श्रागमस्य चायमर्थः--सशरारस्य गतिचतुष्ट- ¦
यान्यतमस्थानवर्तिनश्चात्मनः प्रियाप्रिययाः पर स्परानुषक्रयाः
सुखदुःखयोः, अपहति:--अभावा नास्तीति; अवश्यं हि
तत्र सुखदुःखाभ्यां भाव्यम् . परस्परा चुषक्कत्व च समास
करणाद्ग्य॒ह्यते । अशरीरं मुक्का55त्माने वाशब्दस्येव-
काराथेत्वादू अशरीरमव; वसन्त-सिद्धित्तत्रमध्यासीने प्रि-
याप्रिये-परस्परानुपक्के सुखदुःख, न स्पृशतः | इदम इृदयम-
यथा किल संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुषक्र स्यातां,
न तथा मुक्तात्मनः, कितु- केवले खुखमव दुःखमूलस्य
शरीरस्थैवाभावाव् । खुख तु श्रात्मस्वरूपत्वादवस्थितमव,
स्वस्वरूपावस्थान हि माक्तः, अत एव चाशरीरमित्युक्रम् ।
श्रागमाथञ्ायमित्थमव समथनीयः; यत एतदथोनुपाति-
न्यव स्म्रातरपि टश्यत--““ सुखमात्यन्तिकं यत्र, बुद्धिग्रा-
हामतीन्द्रियम। त वे माक्त विजानीयाद् , दुष्प्रापमकृतात्मभिः
॥ १॥ ' न चाय सुखशब्दा दुःखाभावमात्र खतत--मुख्य-
सुखवाच्यतायां बाधकाभावात् , श्रयं रागाद् विप्रम॒क्क
सुखी जात इत्यादिवाक्यचु च सुखीति प्रयागस्य पानरुकत्य
भ्रसङ्गाच्च । दुःखाभावमात्रस्य-रागाद्धिभमुक्कः इलीयतव
गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्षः चुसामुपादयतया से-
मतः, का हि नाम--शिलाकल्पमचगतसकलसुखसवेदनमा-
त्मानमुपपादयितु यतत दुःखसवदनरूपत्वादस्यः खुखदुः-
खयारेकस्याभाव ऽपरस्यावेश्यं भावात्। श्रत एव तदुपदासः-
श्रूयते-'वरं बृन्दावने रम्ये को पएत्वमभिवाज्छित म् । न तु वैशे-
पिकी मुक्कि, गोतमो गन्तुमिच्छति ॥१॥ "` सोपाधिकसावाधि-
कर्पारमितानन्दनिष्यन्दात् स्वगौदप्यधिकं ताद्धिपरीतानन्दम-
म्लानक्षाने च मोक्ञमाचक्तते विचक्षणाः | यदि तु जडः पाषा-
रनिर्विशष एबं तस्यामवस्थायामात्मा भवत् तद्लम पवर्गे-
ण.ससार एवं वरमस्तु । यत्र तावदन्तराऽन्तराऽपि दुःखक-
लुफ्तिमपि कियदपि खुखमनुभुज्यत, चिन्त्यतां तावत्-किम-
टपखाजुभवो भव्यः उत सर्वेसुखोच्छेद पव ?। अथास्ति त-
थाभूत माक्ते लाभातरकः प्रेक्षा दक्ताणा स,ते ह्यव विवचयन्ति-
संसारे तावद् दुःखास्पृष खख न संभवति, दुःखं चावश्यं हेयम्,
विवेकहाने चानयोरकभाजनपतितविषमधुनोरिव दुःशक-
म्, श्रत पव द्वे अपि यज्यते, श्रतश्च ससारान्मात्तः श्र
यान् । यतोऽ दुःखे सवथा न स्याद् । वरमियती कादाचि-
त्कखुखमात्रा5पि ल्यक्गा,न तु तस्याः छते दुःखभार इयान् व्यू-
ढ इति । तदतत्सत्यम् , सांखारिकखुखस्य मधुदिग्धधारा-
करालमण्डलाग्रत्रासवद् वुःखरूपत्वादेव युक्लेव मुमुच्लणां त-
ज़िहासा, किन्त्वा्यन्तिकखुसखविशेषाल'सूनामेव । इहापि
( ४३३
श्रभिधानराजेन्द्रः
|
|
॥वषयानचज्ञात्तज सुखमचुभवासद्ध मव, तद्याद माक्ष ववाशष्ट
नास्तिततो माक्ता दुःखरूप पवापद्यत इत्यथः । ये अपि
विष-मधुनी एकत्र संपृक्त त्यज्यते ते श्रपि सुखविशष-
लिप्सयैव । किञ्च-यथा प्राणिनां संसाराबस्थायां सुख्रमिष्ठ |
दुःखे चानिष्ट, तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरे्ा सखु-
स्वानच्रात्तस्तु अनिष्टेब । तता याद त्वदाभमता माक्षः स्या
क्षदा न प्रत्तावतामच्र प्रवृत्तिः स्यात् , भवति चयम् । तत
सिद्धा मात्तः सुखसवदनस्वभावः, प्रत्ताव.प्रवत्तरन्यथा-
उनुपपत्त:। अथ यदि सुखसवदनेकस्वभावो मोक्तः स्यात्तदा
तद्रागण प्रवतंमाना मुमुज्ञन मोक्तमधिगच्छेत् न हि रा-
गिणां मोक्ता ऽस्ति, रागस्य बभ्धनात्मकत्वात् , नेवम् ।
सांसारिकसुख एवं रागा बन्धनात्मकः विषयादिप्रवृत्ति-
हतुत्वाद् , मोक्तसुखे तु रागस्तन्निबुत्तिदेतुत्वान्न बन्धनात्म-
क: । परा कारमारूदस्य च स्पृहामात्ररूपाऽप्यसा नव |
११
तेते, “ मात्त भव च स्वैव निःस्पृहा मुनिसत्तमः " इति
चचनात् । अन्य था भवत्पक्ते ऽपि दुःखनिवरच्यात्मकमान्ताङ्गी-
कृतौ दुःखविषये कषायकालुष्यं कन निषिध्येत ?, इति सि-
द्ध रूत्स्मकर्मत्तयात्परमखुखसंवेदनात्मका मोक्षः न बु-
द््थादविशषगुणाच्छृदरूप इति । स्या० | ध० । आव०।
सकलकमक्षयाद्यत्स्यात्तदशयितुमाह--
कृत्स्नकर्मक्तयान मान्ता, जन्मम्रर्य्वादिवजितः।
सखत्रेवाधाविानिमुक्क, पकान्तखखसङ्गतः॥ १ ॥
मत्त एवान्ये: परमपदसकज्ञयाऽभिहित इति परमपदरूपं
दशेयन्नाद--
यन्न दःखन सभिन्न, न च भ्रष्टमनन्तरम् ।
अभिलाषो पनीत यत् , तज्शेये परमे पदम् ॥
खकान्तसुखसगतो मोक्त इत्युक्तं तत्र परविप्रतिपत्ति दशी-
यज्ञाह--
कश्चिदाहान्नपानादि, भोगाभावादसंगतम् ।
खुख वै सिद्धिनाथानां, प्रष्ठटयः स पुमानिदम् ॥ ३॥
तदेव प्रष्टवद्यमाह--
किफलो ऽन्नादिसभोगा, वुभुक्तादिनिचरत्तये ।
तन्निवृत्तेः फले कि स्यात्, स्वास्थ्य तेषां तु तत्सदा ॥ ४॥
श्रमुमेवाथ भङ्गधघन्तरेणा ऽऽह--
अस्वस्थस्यव भेषज्ये, स्वस्थस्यत न दीयते |
श्रवाप्तस्वास्थ्यकोरीनां, भागा ऽन्नादेरपाथकः ॥ ५॥
यत एवमत एवम्--
शअकिञ्चित्कारकं ज्ञेय, मोहामावाद्रताचपि।
तां कराहाद्यभावेन, हन्त कराडयनादिवत् ॥ ६ ॥
सिद्धखुखं स्वरूपत श्रां
्रपरायत्तमौत्खक्य-रहितं निष्प्रतिक्रियम् ।
खुखे स्वाभाविक तत्र, नित्य भयविवर्जितम् ॥ ७ ॥
इदे च परैः परमानन्द इत्यभिहितमतदेवाऽऽद-
परमानन्दरूप तद्. गीयत ऽन्यर्विचक्षशेः ।
इत्थ सकलकल्याण-रूपत्वात्सांप्रतं ह्यदः ॥ द ॥
अथ केषामिदमवसयमित्यत श्राह--
सवेद योगिनामेत--दन्यषां श्रुतिगोचरः ।
उपमा ऽभावेता ऽव्यक्र-मभिधातुं न शक्यत । दा २२च्घ्र०।
१०६
|
माक्ग्व
( ` ठाण ` शब्दे 7सद्ध' शब्दे च सिद्धानां स्थानप्ररूपणाव-
सरे 5प्युक्न णपा 5थः। सम्मतितकं च-' ठाणमणावमखुखमुच
गयाणे ` इति सम्मतितके द्वितीय कार्ड प्रथमगा था या-व्या-
ख्यानावसरे प्रपञ्चता भावितं तत एवावगन्तव्यम् , वि-
स्तराभियाऽच्न न लिख्यत ) विश० ।
श य ससारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स ।
जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा माक्खा उवाए् उ।
सव्वभावंतरहिं णं गायम | त्ति बमे।
महा० ६श्र०।(नस्री माक्तमतीति दिगम्बरमतम् , स्त्री
शपि निव्वांणं गन्तु शक्रातीति स्वमतप्रदशोनपुरःसरमस्मा
भिरुपपादि 'इत्थिलिंगसिद्ध' शब्दे दवितीयभाग ५६० पृष्ट )
( क्ृत्स्नकर्मक्षयान माक्ता भवत्वितीदमपि निदानत्वन मन्यन
इत्यादि ` श्रारुग्गवाहिलाभ ` शब्दे द्धितीयभाग ३८६ पृष्ठ )
श्राव । ल० । ( ज्ञानमात्रान्मोक्तः, क्रियाया एवं मान्तः,
समुदिताद् वा दयादिति 'णाणणय' `किरियाखय"-* णाण-
किरियाणय'-शब्देचु व्यवस्थितम् ) आ० चू० । आंचा० ।
ज्ञार्नक्रियामिश्रतयेवेताः कलशहानापायमूता
भवान्ति नान्य्थाति विवच्नयन्नाह--
ज्ञानं च सदनुष्टानं, सम्यकसिद्धान्तवेदिनः ।
क्लेशानां कमेरूपाणां, हानोपाय॑ प्रचक्तत ॥ १ ॥
( ज्ञाने चति ) सन्ज्ञानम-सदनुष्ठानं च सम्यग--श्रवे-
परीत्यन सद्धान्तवदिनः क्मरूपारां कलशानां हानापा-
यम्--व्यागसामग्रीम् प्रचक्षत-प्रकथयन्ति। * सजागस्डि-
द्धीद फल वयात ` इत्यादग्रन्थन॥ १ ॥
नेरात्म्यद शनादन्य, नवबन्धनवयागतः ।
= (~ ¢ ¢ [५ हे
क्लेशप्रहाण मिच्छन्ति, सवथा तकंवादिनः ॥ २ ॥
( नेरात्म्याति ) नेराव्म्यद्शनात्-सर्वेत्रवात्माभावावलाक-
नात् । अन्ये-बोद्धाः, निवन््धनावियोगतो--निमित्तविग्हात्
क्लेशप्रहाणम-तृष्णाहानिलक्षणमिच्छान्ति , सवधा--सव
प्रकारेस्तकवादिनः; न तु शास्त्रानुसारिणः ॥
अत एव स्वमतं पुरस्कतेमाहुः--
समाधिराज एतच्च, तदतत्तचदशनम् |
आग्रहाच्छेदकार्थत त्तंदतदमतं परम ॥ ३ ॥
( समाधिराज इति ) समाधिराजः सवयोगाग्रसरत्वात् ।
एतच्च नेरात्म्यदशनम् , तदतत्तच्वदशनम परमार्थावलो-
कनतः ; आग्रहच्छेदका रि--मूछो विच्छेदकस , एतत्तदें तद-
मुतम-पीयूषम , पर-- भावरूपम् ॥
जन्मयोनियतस्तृष्णा, धवा सा चात्मदशन ।
तदभाव च नय स्या -द्वाजाभाव इवाइनकुर; ॥ ४ ॥
( जन्मति ) यतः-यस्मात् तृष्णा-लोभलक्षणा जन्मयानिः-
पुनर्भवहतुः धुवा-निश्चिता। सा च-तृष्णा आत्मदर्शने-
अहमस्मीति निरीक्षणरूपे तद्भावे आत्मदशनाभावे च
नेय तृष्णा स्यात् : अडम्कुर इव वीजाभावे ॥ ४॥
न द्यपश्यन्नटमिति, स्निद्यत्यात्मानि कश्चन |
न चात्मनि विना प्रम्णा, सुखहेतुषु धावति ॥ ५ ॥
( ५२४ )
अभनध्रानराजन्द्रः
माक
( नटात ) न-नव हहेः-यस्मात्ू अपश्यन--आ।नराक्तमा-
रः अहमित्युल्लेखन, ल्लिह्यति-स्महवान् भवति : आत्म- |
नि विषयभूत कश्चन वुद्धिमान् । नचात्मानि प्रम्णा विना
सुखहतुषु धावति-प्रवतते कश्चन | तस्मादान्मदर्शनस्य व~ |
रग्यप्रातपान्थत्वान्नराःम्यदशनमव साक्कहतारात लद्धम।५।
पतद् दृषयात-
नरात्म्यायागता नत-दभावक्ष/शकत्वया: |
अद्यपक्तऽवचायत्वा-द्रमाणा धां विना ॥ £ ॥
( नेरात्म्यति ) एलदन्यषां मते न युक्तम् , अभावक्षञणिक- `
त्वयाः-अथाद् आत्मना विकल्पमानयाः सतोः: नेरात्म्याया -
गनः । आद्यपत्त-आत्मना प5रभावपक्ष धर्मिणम-आत्माने वि-
ना: धर्माणाम-सदज॒ष्ठानमाक्षादीनाम अविचार्यत्वाद्--वि-
चागायाग्यत्वात् . नदि वन्ध्याखुताभाव तद्रतान् खुरूपकु-
रूपत्वादीन् वशाषंश्चिन्तयितुमारभत कश्चिदिति ॥ ६ ॥
वक्त्राद्यमावतश्रत्र, कुमारीसुतच॒द्धिवत ।
विकल्पस्याप्यशक्यत्वा रक्त वस्तु वना स्थतम् ॥७॥ |
( वक्त्रादीति ) चवक्वादाना-नरात्म्यप्रातपादक्तद्द्रष्टा-
दानाम् अभावतश्थव | आद्यपक्त नरात्म्यायागता नतादात
म्वन्धः । ज्ञानवादिमते त्वाह--कुमारी सुतवुद्धिवतू-अक्ूत- |
विवाहस्व्रीपुत्रज्ञानवत् | विकल्पस्यापि प्रतिपादकादिगतस्य |
स्थिते वस्तु विना वक्रम् अशक्यत्वात् । कुमार्शरुतबुद्धि
गपि हि प्रसिद्धयाः कुनायखुतपदा्थयाः सवन्धमवारापित-
मवगाहत, प्रकृत त्वात्मन पवामावपत्तल्प्रतिपादकादिव्यप-
दशो निमूल एवं । क्चित्प्रमितस्येव क{चदाराप्यत्वात् ।
इत्थ च- "यथा कुमारी शयनान्तर भस्मन् , जातं च पुत्र वि-
गने च पश्यत् । जात च हठा ऽपगत विषराणा, तथापमान
जनत सर्वधर्मान ॥१॥ `` इत्यादि परां शास्रमपि ससारा-
सारताश्रवादम्रात्रपरतयेवापयुञ्यत इति दष्टब्यम ॥ ७॥
द्वितीय5पि कणादृध्वे, नाशादन्याप्रमिद्धितः।
ल्यथातच्तरकायङ्ग भावात्रच्छद ताउन्वयतू ॥
( । दनाय ऽप।्त ) द्वितीय ४प प्रत्त , नरात्म्यायागता न- |
तादात सवन्ध्रः | क्षणादृध्वम् क्षाणकस्यात्मना नाशात् अ- |
स्यस्य-अनन्तग्च्तयस्य अप्रसिद्धितः-आ समा श्रयानुष्टा नफ ला -
स्चपपरत्तः | अन्यथा-भावादव भावाश्युपगम उत्तरकाय प्र -
त अआह्वम्नावन-परिणामिभावन अविच्छुदता $न््वयात् , पूर्व- |
चॉणस्य्र कथ्राश्चदभार्वाभृतस्य तथार्पारणमन क्षणद्वयानु- |
बुत्तिप्नोब्यात् । सवेथा 5 ततः
ग्णमनशकत्यभावात् , सदशक्षणान्तरसामग्री संपत्त रतिया-
ग्यताविचिलिलन्नश् सत्यवापपत्ता रति ॥८॥
कि च-क्तागकरा ह्यात्माउम्युपगम्यमानः स्वनिच्रृत्तिस्वभाकः
म्यान् , उतान्यजननस्वमाचः, उताहा उभयस्वभावः ?, इति
जया गानः । तत्राद्यपक्त आह-
स्वानवृत्तिस्वभावत्व, न क्षणम्यापरादयः।
्रन्यजन्मम्बभवत्य, स्त्रनिव्रत्तिससंगंता || ८ ॥
( स्वानवृत्ताति ) स्वानर्वात्तस्वभावत्व क्षणस्य आत्मत्तण-
म्य अभ्युपगम्प्रमान नापरादयः-सहश त्तरक्ष णोंत्पादः स्या-
त्. पृवक्तणस्या त्त रक्तण जनजा स्वभावत्वात् । द्वितीये त्याइ--
खरावषाणादेरिवात्तरभावप-
मोक्म्व
अरन्यजन्मस्वभावत्व--सदशापरक्तेणात्पाद्कस्वभाकवत्व -
निच्रृत्तिरसगता तद जननस्वमावन्वादव ॥ ६॥
तृतीय त्वाह-
उभयकस्वभावत्वे, न विरुद्धाऽन्वयोऽपि हि ।
न च तंद्धतुकः स्नहः कि तु कमादयाद्धवः ॥ १*॥
( उभयाति ) उभवकस्वभावन्व स्वानव्रात्तसखदशापरत्तणा-
भवरजननकस्वभावत्व, अन्वयाऽपि हि न विरुद्ध: । यदेव
क्रिज्िन्निचततं तदेवापरतक्षणजननस्वभावामति शब्दाथो-
न्यथायुपपक्वान्वयसि द्धः, उक्तकाभयेकस्व भावत्ववत् पूर्वी पर-
कालसंवन्धकस्वभावत्वस्याप्यविराघात् । इत्थमेव प्रत्याभ-
ज्ञाक्रियाफलसामानाधिकररयादानां निरुपर्चारतानामुपपत्त-
रिति निर्लांठितमन्यत्र न च तद्धतुकः--आत्मदशनहेलुकः
स्नटः कि तु कर्माोदयाद्धवा-मोहनोयकमोंद्यनमित्तकः ।
अता नायमात्मदशैनापराध इति भावः ॥ १० ॥
ननु यद्यप्यात्मदशनमा ्निमित्तको न स्नटः, चणिकस्या-
प्यात्मनः स्वसंवदनप्रत्यक्षण समवलोकनात्तदुद्भवप्रसज्ञात् ,
कि तु-धवात्मदशनतो नियत एव स्नेहोंद्धवस्तद्वतागामि-
कालसुखदुःखावापिपरिहारचिन्तावश्यकत्वा दित्यत्रा ६ 5ह--
भव ज्षण5पि न ग्रेम, निव्रृत्तमनुपप्लवात् ।
ग्राह्माकार इव ज्ञान ऽन्यथा तत्रापि तद्धवत् । | ११ ॥
( धव त्षणऽपीति ) धव क्षणऽपि-धवात्मदशनेऽपि, न
प्रम-समुत्पत्तमुन्सहत ¦ निवृत्तम-उपरतम् उपप्लवात्-सङ्ग
शच्तयात् विसभागपरिक्तयाभिधानात् , ज्ञान व्राद्याकार इव
भवन्मत उपप्लववशाद्धि तत्र तदवभासस्तदवमास तु तनव
त्तिरिति तथाच सिद्धान्तो वः--* ग्राह्य न तस्य ग्रहणेन
तन.ज्ञानान्नरग्राहतया ऽपि शुन्यम् । तथा-पि च ज्ञानमयः प्र-
काशः, प्रत्यक्षरूपस्य तथा ५भवरासात् ॥ १॥ `` इात । अन्य-
थापप्नव॑ विनाऽपि धवात्मदशनन प्रमात्पच्यभ्युषगमे तत्रा-
पि त्वन्मतप्रसिद्धा्मन्यपि तत्परम भवत्, , आत्मदर्शनमात्र-
स्येव लाघवन प्रमहेतुत्वात् । धवन्वभावनमेव माहादिति तु
स्ववासनामाजमिति न क्रिञिदेतत् ॥ १६ ॥
विवेकख्यातिरुच्छती, ऋशानागनुपप्लवा ।
0 ^ [क ~ क.
सप्तथा प्रान्तभृप्रज्ञा काय।चत्तावरमरुक्ताभः॥ १२॥
(विवकेति) विवक ख्यातिः प्रतिपत्तमावनावलाददवियद्याप्राव-
लय विनिवृत्तज्ञाठृन्वकनेन्वाभिमानाया रजस्तमामलानाभभू-
ताया बद्धरन्तमुखायाश्िच्छायासंक्रान्तिः अनुपस्षवा अन्तरा
न््तराव्युत्थानरहिता क्लशानामुच्छेत्री | यदाह-'विवेकख्याति
गावप्नवा द्वानापायः (२-२६)सा च सप्तथा सप्तप्रकारे:प्रान्त भू पर
ज्ञा-सकलसालम्वनसमा(धधिपयन्तमूमिधथी भैर्वाति | कायचित्त-
विभुक्किमिः-चतुस्त्रिप्रकारामिः । तत्र न म ज्ञातव्ये किन्िद-
स्ति, ज्ञाणा म कलशाः, न में क्षतव्य किचदस्ति, अधिगतं
(ता) मया हानप्रार्ताववकख्यातिरति कार्यविषयनिमलज्ञा-
नरूपाश्चतस्नः कार्यविमुक्लयः । चरिताथा म व॒द्धिगुणाः क्
ताधिकारा माहवीजामाबात् कुतों ऽमीषां प्राहः, सात्मी-
भूतश्च म समारधरारात, स्वरूपप्रतिष्ठा ऽटमिति गुणविषय-
ज्ञानरूपास्तिस्त्र: का्यविमूक्रय इति । तदिदसमुक्रम्--' तस्य
सप्तथा प्रान्तभूप्ज्ञेति / ( २-२७ ) ॥ १२॥
१- विस ` दाति बंद्धाना पारिभ,पिक; शब्द; | विष इति वा |
लत अ =
„ =
( ४३५ )
मसाक्ग्व
प्राभधानगाजन्द्र
_मोक्खे
वलानश्यत्यावद्याउस्या, उत्तरषामय पुनः
प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो-दाराणां क्ेत्रमिष्यते ॥ १३ ॥
( बलादिति ) अस्या-विवकखण्यातेः बलादविद्या नश्यति !
इयम्-अविद्या पुनरुत्तरपषाम्-श्रास्मतादीनां कलशानां प्रसुप्त-
तनावच्छिज्नादाराणां क्षेत्रमिष्यत । तदुक्रम्-'
अविद्या क्षत्र-
मुत्तरषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणामाति” ( २-४ )॥ १३॥
स्वकाये नारभन्ते ये, चित्तभूमो स्थिता अपि |
विना प्रबधिकवल, ते प्रसुप्राः शशा ॥ १४॥
(स्वकायेमिति) य-क्लशाः चित्तभूमो स्थिता श्रपि स्व-
काय नारभन्तः विना प्रवाधकस्य-उद्राधकस्य वलम्-उद्रे-
कम् : त-- कलशाः प्रसुप्ताः शिशारिव- बालकस्येव ॥ १७ ॥
भावनानत्प्रातपक्तस्य, शाथलाक्रतशक्यः ।
तनवोऽतिवलापक्ला, यागाभ्यासवतो यथा ॥ १५ ॥
( भावनाादति } भावनाद्-्रभ्यासात् प्रतिपक्तस्य-स्ववि-
रोध्रपारिणामलत्तणस्य शिथिलीकता कार्यसंपादन प्रति श-
क्लियिषांत तथा तनवो--वासनावरोधतया चतस्यवस्थि-
ताः, न तु वालस्यवानवरुद्धवासनात्मानः । आतिबलापक्षाः-
स्वकायारम्भ प्रभूतसांमग्रीसापतक्षाः, नतृद्रोधकमात्रापक्ताः
यागाभ्यासवता यथा-रागादयः कलशाः ॥ १५॥
ञ्न्येनोजवलवता-ऽभिभृतस्वीयशक्रयः ।
तिष्ठन्त हन्त विच्छिन्ना, रागो दषोदय यथा || १६॥
( अन्यनात ) अन्यन-म्वातिरिक्रन उच्चेबेलवता-आति-
शयितवलन कलशन श्रभिभृतस्वीयशक्रयसितिषठन्ता हन्त
विच्छिन्नाः कलशा उच्य^तः यथा-रागा द्रषादय । न हि
रागद्धघयाः परस्परविरुद्धयायुगपत्सभवा ऽस्तीति ॥ १६ ॥
सवषा सान्नाध प्राप्रा, उदारः सहकारणाम् |
निवतंयन्तः स्वं कार्य, यथा व्युत्थानवरतिनः ॥ १७ ॥
( सर्वेपामिति ) सर्वेषां सहकारिणां सन्निधिम्-सन्निकरष
पराप्ताः स्वे काय निरवेतियन्त उदारा उच्यन्त; यथा-व्युत्थान-
वर्तिनो योगप्रतिपन्थिदशावस्थिताः ॥ १७ ॥
अविद्या चास्मिता चैव, रागटेषौ तथापरौ |
पञ्चमोऽथिनिवेशश्च, क्लेशा एते प्रकौतिंताः ॥१८ ॥
( अविद्या चति ) कलशानां विभागा ऽयम् । तदुक्रम-
` विद्यास्मितारागद्रेपाभिनिवेशाः कलशाः इति (२-३) ॥१८॥
विपयासात्मिकाऽविद्या, ऽस्मिता टग्दशीनैकता |
रागस्तष्णा सुखोपाये, द्रषा दुःखाङ्गनिन्दनम् || १६ ॥
(विपयासात्मिकरति) चिपयासः-अतस्मिस्तद्टस्तदात्मिका |
विद्याः यथा-अनित्यचु घटादिषु नित्यत्वस्य, अशुच्रिषु काः
यादिषु शुचित्वस्य. दुःख विषयेषु सुखरूपस्य, अनात्मनि
च शरीराद्ावात्तत्वस्य अभिमानः । तदुक्रम्- अनित्याशु-
चिदुःखानात्मसु नित्यश्युचरखुखात्मख्यातिरविदयानिः' (२.५) ।
हग्दशनयाः--पुरुपरजस्तमा 5नभिभूतसात्त्विकपरिणामया:
भोक्त-भोग्यत्वनावस्थितयोरकता च्रास्मता। तदुक्कम-' ढग्दरश-
नशक्त्यारे कात्मतेवास्मिता ” (२६) | खुखोंपाय-सुखसाधने
तृष्णा खुखज्ञस्य सुखानुस्म्॒तिपूर्वों लोभपरिणामों रागः ।
१ ऋ
प्र/तिभज्ञावाचकऊ ख्यातिशब्दो5पि |
|
|
तदुक्रम्-* खुखानुशयी रागः `` इति (२-७ ) दुःखाङ्गा
नाम--दुःखक्रारणानाम् ` निन्दने दुःखाभिज्ञस्य तदनुस्मराति
पूवकं विगहेणं दषः । यत उक्कम-'दुःखानुशयी दषः ईति
(२-८) ॥ १६॥ ( श्रत्रत्या विशतितमः च्छाकः ` अभिशणिवस
शब्द प्रथमभागे ७६५ पृष्ठ गतः)
एभ्यः कर्माशयो दृष्टा दृष्टजन्मानुभूतिभाक् ।
तद्विपाकश्च जाल्यायु-र्भोगाख्यः संप्रवतते ॥ २१ ॥
( एभ्य इति ) एभ्यः-उक्रभ्याऽविद्यादिभ्यः कलशभ्यः ,
कमाशया भवति । दष्टारष्जन्मनारनुभ्रति भजति यः स
तथा, तद्धिपाकः--कर्मविपाकश्च जाव्यायुर्भोगाख्यः सध्रवतत
नरूापततच्वमतत् ॥ २१ ॥
परिणामा तापाच, संस्काराद् द्विविधोऽप्ययम् ।
गुणवृत्तिविरोधाच, हन्त दुःखमयः स्मृतः | २२ ॥
( परिणामाचति ) अयम्-कर्मविपाका दुःखाह्यादफलत्वन्
द्विविधोऽपि ' त ह्ञादपरितापफला ` ( २-१४ ) ( पुरायापुरय
हेतुत्वात् ) इत्यत्र तच्छृब्दपरामृ्ठानां जाव्यायुभोगानां द्वे-
विध्यश्रचणात् | परिणामाच--यथात्तर गाद्धर्याभिवृद्धस्तद-
प्राधिकृतदुःखापरिहारलक्तणाद् दुःखान्तरजननलच्तणाच्च ।
तापाच्च-उपभुञ्यमानपु-सुखसाघनपु सुखाचुभवकालऽपि
सदावास्थिततत्प्रतिपन्थिद्वेपलक्षणात् । सस्काराच-श्रभिम-
तानाभिमतविपयसननिधान सुखदुःखसविदारुपजायमानयाः
स्क्षत्र तथाविधसस्कारतथाबिधानुभवपरंपरया सस्कारानुः
च्छेदलक्षणात् । गुणवर्तिविराधाच्च-- गुणानां सत्वरजस्त-
मसां वृत्तीनाम--सुखदुःखमो ह रूपाणां परस्पराभिभाव्याभि
भावकत्वन विरुद्धानां जायमानानां सर्वत्रैव दुःखानुवधा-
चत्यश्रः । हन्त दुःखमयो-दुःखकस्वभावः स्मृतः । तद-
क्रम--"'परिणामतापसस्कारदुःखगीणच्रुत्तिविराधाच्च दुःख
मव सच विवाकनः `` इत ( २-१४ ) ॥ २२ ॥
इत्थ दगृदश्ययागात्माऽ -वरद्यकरा भव वेप्लवः |
नाशान्नश्यत्यविद्यायाः, इति पातञ्जला जगुः ॥ २३ ॥
( इत्थमिति ) इत्थ-दुःखरूपा दगदश्ययाः --पुरुषवुद्धि-
तच्छयाः यागो-विवेकाख्यातिपूर्वकः सयोग आत्मा-काररे
यस्य स तथा । श्रविदययकः-श्रविद्यारचितो भवविप्लवः-स
सारप्रपञ्चाऽविद्याया नाशान्नश्यति । अविद्यानाशात्स्वका-
यदगटश्यसंयो गनाश तत्कार्यमवप्रपञ्चनाशापपत्तरिति पात-
जला जगुः--भशणितवन्तः ॥ २३ ॥
पतद् दूषयाति--
नेतत्साध्वपुमर्थत्वात्, पुंसः केवल्यस स्थितेः |
क्लेशाभावन संयोगा -जन्मोच्छेदो हि गीयत || २५॥
( नतदिति ) न ए
केंवल्यसॉस्थितः सदातनत्वनापुम्त्वात्-पुरुपप्रयल्लासाध्य
त्वात् . ईह--यतः , कलशाभावेन सयागस्याविद्यकस्य
स्वयमरव निवृत्तस्याजन्मानुत्पाद उच्छदा गीयत । तदेव च
पुरुषस्य केवट्यं उयपादिश्यत इति न पुनमूतंद्रव्यवन्संया
गप्ररित्यागाऽस्य गुञ्यत : कृटस्थत्वहानिप्रसज्ञात् इंत टि
परांसद्धान्तः । तदुक्रम्- तद भावात्सयोगाभावो हानाप्रति'
(-२-२५ ) ॥ २४ ॥
( ४३६ )
अभिधानराजन्द्रः।
पतद्वाऽऽर-
ताचिको नात्मनो यगो, द्यकान्तापरिणामिनः ।
कल्पनामात्रमवं च, क्शास्तद्वानमप्यहा ॥ २५ ॥
( ताच्विक इति ) तास्विकः-पारमार्थिको नात्मना हि या-
गः-सव्न्धः पफकान्तापारणामनः सता युज्यत | पतवच शटा
दात आश्चर्य क्रशास्तद्धानमाप कटपनामात्र् : उपचारतस्य
|
भवप्रप्स्य प्रक्रातगतत्व चनाऽप ञआआवययामानानामतत्वन ,
बोद्धनयन, वेदान्तिनयेनाउपि च वक्तं शक्यत्वात् ; मु-
ख्याथस्य च भवन्मतनीत्या5द्याप्यसिद्धत्वादित्यथेः ॥ २५॥
काटपनिकलत्वनेवेतनमतम् , अन्यदपीत्थ दूषयप्लाह--
नृपस्येवाभिधानाद्यः, सातबन्धः प्रकीर्तितः ।
अहिशङ्कविपन्ञाना-चेतरोऽसौ निरथकः ।॥२६॥
(रृपस्यति)पस्यव्र तथाविघनरपत्रिवाभिघनाद् राजाय
मिति भणनरूपाद् यः सातवन्धः-सखुखसवन्धरूपः प्रकीतितः,
निव्ये ऽप्यातमनि परे! । अहिना 5दष्टस्यापि तथाविधप्रघट्टकव
शादाहश्यङ्गातषज्ञाच्चतराऽसातवन्यः असा नरथकः करप- |
नामात्रस्याथासाधकत्वादव : अथ प्रकृता कतृ त्वभाकतृत्वा- |
भिमानापवरणानमात्रमतत् , तन्निरासाथमेव च सकलशास्तथा-
थापयाग दति कादाषः? ततच्वाथासद्धश्चशथमुपचचाराश्रणस्या- |
पि अ्रदुष्टत्वादिति चन्न, तक्त्वाथस्येवात्मनाश्रद्रपत्व मुकत्य
चस्थायां विषयपरिच्छुदकत्वस्याष्यापनः ज्ञानस्य ज्ञानत्व-
वत्सीविषयकत्वस्यापि स्वभावत्वात् ,अन्तःकरणा भावेःथपपरि
उछुेवाभावस्य च निरावरणज्ञान तस्याहतुत्वन वक्रमशक्य- |
त्वात् , दटक्ताभावऽपि दशनानिच्रत्तः। प्राकृताप्राकृतज्ञान- |
याः साकव्पयक्त्वावषयक्त्वस्वभावभद्कटपनस्य चान्या- |
य्यत्वात् । श्रा्मचेतन्यऽविषयकन्वस्वाभाव्यवत्सविपयक-
त्वस्वाभाग्यकल्पन बाधकाभावात् कि च-विवकाण्यातिरू-
पसयोगाभावाऽपि विवेकाख्यातिरूप एवेति, विषयग्राह-
कचेतन्यस्य सख्तन्वनीत्यैवोपपत्तः; मुक्तावपि निर्विषयचि-
न्मात्रत्वा्थोसिद्धिः । तदुक्क हरिभद्राचार्यः--* आत्मदरश- |
नतश्च स्या--न्मुक्कियत्तन््रनीतितः । तदस्य ज्ञानसद्भाव
स्तन्त्रयुकत्येव साधितः ॥ ६ ॥ ” इति ! ननु विवेकाख्याति
रपि श्रन्तःकरणधम एव
तद्धमेस्थित्यवकाशः , नचैवे सयोगोन्मज्नप्रसङ्गः ; परेषां
घरविलयद्शायां घटप्रागभावानुन्मज्ञनवदुपपत्तेः इत्थे च
प्रकृतेरेव तत्वतः सयोगहानम , श्रात्मनस्तृपचारादिति
नास्माकमयमुपालम्भः शोभत इति चन्न, उपचारस्यापि
सवन्धाविनाभावस्याश्रयणो चिन्मा्रधर्मकत्वत्यागात्सर्वज्ञ
त्वस्वभावपरित्यागस्य स्ववासनामाव्रविज्ञम्भितत्वादित्या-
च्रार्याणामाशयात् ॥ २६॥
पुरुषार्थाय दुःखेऽपि, प्रवृत्तेज्ञानदीपतः ।
हान चरमदुःखस्य, क्लशस्येति तु तार्किकाः ॥ २७ ॥
( पुरुषाधायाति ) शानदीपतः--तस्वज्नानप्रदी पात् श्रक्ञान-
ध्वान्तनाशात् , पुरुषाथा-पुरुषार्थनिमित्तं, वुःखऽपि प्र-
चत्त राजसवादौ तथा दशनात् । चगर्मदःखस्य क्लश- |
4 खयमसुत्पादतस्य हानामात लु लाकिका -नंयायकाः;
श्रतीतस्य स्वत पएवापरतत्वात् › अनागतस्य हातुमशक्यत्वा |
त् , वर्तम्रातस्यापि विराधिसुणप्रादुभीवेनैय नाशात् । चर-
तस्मिश्च प्रकतौ प्रविलीने न |
|
रीरप्रयाज्या, श्रता-जातितः साह्लयात् | मदुःखचेः
~>
मदुःखमुत्पाद्य तन्नाशस्यैव पुरुपा कत्वादिति भावः ॥ २७
एतदांप मतं दुषयात-- ।
ब्रते हन्त वेना कश्चि-दद्।ऽपि न मदोद्धतम ।
सुख वनान दुःखाथ, कृतकृत्यस्य ]ह श्रमः ॥ २८।
(त्रत इति ) अदो5पि बचने मदाद्धतं विना कश्चिद
त्यनन्तरमपेगौम्यमानत्वात् , कश्चिदपि न व्रते । दि-यतः ,
कृतकृत्यस्य सुखे विना-स्वसुखातिशयितस्ुखं विना दु
खा्थश्रमा नास्ति) राजसवादावपि हि सुखाथ प्रवृत्ति-
दश्यत | कटुकौोपधपानादावपि आगामिसुखाशयेव; अन्यथा
विवेकिनो--दुःखाजिहासाम रणादावपि प्रवृक्त्यापत्त: ; न च
मोक्ते खुखमिष्यते भवद्धिरिति व्यथः सवः प्रयासः ॥ २८॥
कि च-च रमदु खत्व॑ तत्त्वज्ञानजन्यतावच्छेदकमपि न
सभवतीत्याद--
चरमत्वं च दुःखत्व- व्याप्या जातिनं जातितः।
तच्छर(रप्रयाज्याऽतः, साङ्ूयान्नान्यदथेवत् ॥ २६ ॥
(चरमत्वं चति) चरमत्वे च दुःखत्वव्याप्या जातिः न तच्छु
क ~ ~
्ाचरमवुःखवरतिन्यास्तयोश्चत्रचरमदुःख एव समावेशात् ।
चेत्रशरी रप्रयाज्यजा(तव्याप्यायाश्रेत्रच रमसुखदु:खादिनिष्ठा-
या भिन्नाया एव चरमत्वजातरुपगम तु खुखत्वादिनेव साझूया-
त्। अन्यत्समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानका ली नत्वलक्ष-
शे चरमत्वं नार्थवत् , न तक्ष्वाज्ञानजन्यतावच्छेद्कम अर्थादेब
समाजात्तदुपपत्तः | कार्यवृत्तियावद्धरमाणां कार्यतावच्छेद्-
त्वे अजावलोकितमेत्रनिर्मितघटत्वादरपि तथात्वप्रस-
ङ्गात् | तथा च निर्याततत्त्वाश्रयणापत्तरिति दिक् ॥ २६ ॥
अन्यमतदूषणन निव्यूद स्वमतम्पन्यस्यज्ञाह--
सुखमुद्दिश्य तददुःखा-निवृत्त्या नानतरीयकम् ।
प्रक्षयः कमेणामुक्तो, युक्तों ज्ञानक्रियाध्वना ॥ ३० ॥
( सुखामेति ) तत्-तस्मात् दुःखानिद्वृत्या नान्तरीयकं
व्याप्त सखुखमुद्दिश्य कमंणाम--शानावरणादीनां पत्तयो
जञार्नाक्रियाध्वना युक्क उक्कः ॥ ३० ॥
कृशाः पापानि कर्माणि, बहुभेदानि नो मते ।
योगादेव क्षयस्तेषां, भोगादनवस्थितेः ॥ ३१ ॥
ततो निरुपमं स्थान -मनन्तमुपतिषठते ।
भवप्रपञज्चरहितं, परमानन्दभेदुरम् ॥ ३२ ॥
दवा०२४ द्वा० । (श्रनयो्यौ ख्या'जोग शब्दे चतुधभागे १६३३
पृष्ठे गता)पवे पञ्चविशतितत्वपरिानान्मोत्त इति भागवताः
श्राच्रा० १ श्रु० ४ ग्र० २ उ० । “ षडिन्द्रियाणि षड् विषयाः
षद बद्धयः सुखे दुःखे शरीरश्चत्यकविशतिभेदभिश्नस्य
खस्यात्यन्तोच्चेदानमोक्ञ "` इति नैयायिकमतम् । बद्धिसुख
दुःखस्छा-दवेषप्रयत्नधर्माधरमसेस्कार रूपाणां नवानां विशष-
गुणानामत्यन्ताच्छदो मोक्ष: । ज गा०। ( अन्न विस्तरः
सम्मतितकेग्रन्थादवसयः ) ,
मोक्तस्वरूपमा ह --
मोक्षः कर्मक्षयो नाम, भोगसंक्नशवर्जितः ।
तत्र दवेषो रढाज्ञाना-दनिष्टप्रतिपत्तित:ः || २२ ॥
( माक्त इति ) दृढाज्ञानादू-अवाध्यमिश्याश्ानात् । भवा- _
नकि
# 2
ति
मोक्ष _
"क क “0० १ ० क मन
४३७ )
स्मभिधानराजन्द्रः।
माक्स्व
भिष्वङ्गाभावनानिष्टाननुवान्धन्यपि मात्त ऽनिष्टाचुबन्धित्वना-
नि्रप्रतिपत्तः॥ २२॥
भवाभिनन्दिनां सा च, भवशर्मोत्कटेच्छया ।
श्रूयन्ते चेतदालापा, लोके शाख्रेऽप्यसुन्दराः ॥ २३॥
( भवेति ) सा च--मोक्तऽनिष्टप्रतिपत्तिश्च भवाभिनन्दि-
नाम--उक्नलक्षणानाम् भवशर्मणा-विषयसुखस्योत्कटच्छुया
भवति, द्यारेकदाषजन्यत्वात् ॥ २३ ॥
मदिराक्षी न यत्रास्ति, तारुण्यमदविहला ।
जडस्त मोक्षमाचष्ट, प्रिया स स इति नो मतम्॥ २४॥
( मदिराक्तोति ) लाकालापोऽयम् ॥ २४ ॥
वरं बृन्दावने रम्य, क्रष्टुत्वमभिवाञ्छितम् ।
न त्वेवाविषयो मोक्ञः, कदाचिदपि गोतम ! ॥ २५॥
( वरमिति ) गौतमेति गालवस्य शिप्यामन््रणम्। ऋषि-
वचनमिदामति शाख्रालापा ऽयम् ॥ २५ ॥
दरषोऽयमत्यनथ।य, तद भावस्तु देहिनाम् ।
भवाुत्कटरागेण, सह जाल्पमलत्वतः ॥२६॥
( दवष इति ) अयम-म॒क्तिविषयो द्वेषो ऽत्यनथीय-बहुलसे-
सारवुद्धयय । तदभावस्तु म॒क्िदपाभावः पुनर्देहिनाम-प्रा-
णिनाम भवायुत्कररागण-भवोत्कटेच्छाभावन सहजम्- |
स्वाभाविकम् । यदल्पमलत्वं ततः माक्तरागजनकगुणाभा-
वेन तदभावेऽपि गाढतरमिश्यात्वदोषाभावन तदूद्रेषाभावो
भवतीत्यर्थः ॥२६॥ ( “ मलस्तु° ” ( २७ ) इति शलाकः 'मल'
शब्दे ऽस्मिन्नत्र भाग गतः )
प्रागबन्धान्न बन्धश्चत् , कि ततैव नियामकम् |
योग्यतां तु फलोन्नेयां, बाधते दषणं न तत् ॥२८॥
( प्रागिति ) प्राक्ःपूरवम् श्रबन्धाद्-वन्धाभावाज्जीवत्व-
रूपाविशषेऽपि न बन्धो मुक्कस्य चेत् कि तत्रैव-प्रागवन्ध
एव, नियामकम् : योग्यताक्तयं विना । योग्यतां तु फलोन्न- |
याम्-फलवलकल्पनीयां तद॒दृषणं न बाधते । तत्र कुतो न |
योग्यता ?, इत्यश्च फलाभावस्यैवोत्तरत्वात् | युङ्गं चेतत् व
न्धस्य वध्यमानयाग्यतापक्तत्वनियमाद्वखरादीनां मञजिष्टादि-
रागरूपवन्धन तथा दशनात् ; तद्वै चित्य फलभदापपक्तस्स-
स्या अन््तरक्ञत्वात्तत्परिपाकाथमेव हत्वन्तरापत्षणादित्या-
चायाः॥ २८ ॥ ( ४ दिदक्ञा० `" ( २६ ) इतिश्लोकः
क्खा ` शब्द चतुर्थभाग २५२० पृष्ठ गतः )
प्त्यावतं व्ययोऽप्यस्या- स्तदल्पत्वेऽस्य संभवः ।
अतोडपि श्रयसां श्रेणी, कि पुनभुङ्किरागतः ॥२०॥
( प्रत्यावतमिति ) प्रत्यावतंम-प्रतिपुद्वलावर्तम व्ययो5-
प-अपगमो5पि श्रस्याः-योग्यतायाः दोषाणां क्रमहासं
{चिना भव्यस्य मुक्रिगमनानुपपत्तः । तदल्पत्वे-याग्यताल्प-
त्व श्रस्य-मुकत्यद्वेषस्य संभव-उपपत्तिः । तदुक्कम-' एवं
चाप्रगमा ऽप्यस्याः, प्रत्यावर्त सुनीतितः । स्थित एव तद-
ल्पत्व भावशुद्धिरपि धवा॥६ ॥ ” अतो ५पि-मुकत्यद्धषा
दपि श्रेयसां श्रणी-कुशलानुवन्धसन्ततिः , कि पुनर्वाच्य
मुक्रिरागतस्तदुपपत्तो ॥ ३० ॥
नचायमव रागः स्या न्मृदुमध्याधकरत्वत
2१०
दिदि-
तत्रोपाय च नवधा, यागमेदप्रदशनात् ॥ ३१ ॥
(न चति) न चायमच-मुक्त्यद्रप णव रागः स्यात्-मुक्ति-
रागो भवदिति वाच्यम्. सृदुमध्याधिकल्वना जघ्न्यमध्यमा-
त्कष्रभावात् । तत्र म॒क्किराग उपाय चर नवध्रा नवभिः प्रकार-
योगिमदस्य प्रदर्शनाद्-उपवणनात् ( श्रत: परे नवधा यागः
भदप्रातिपादिकाव्याख्या 'ज़ाइ' शब्द चनुधभाग १५८७ पृष्ठ)
द्रेषस्याभावरूपत्वा ददेपश्चक एव हि।
रागात् ज्षिप्रं करमाच्चातः, परमानन्दसभवः ॥ ३२॥
( द्वषस्यति ) अद्वेपश्च दषस्याभावरूपत्वादक पव हि ।
अता न तन योगिभेदोपपत्तिरि त्यर्थ:: फलभदनापि भदम-
पपादयांत-ततो मुक्किरागात् क्तिप्रमनातव्यवध्रानन अता मु-
कत्यद्वेषात्कमण मक्किरागापक्षया बहुद्धाग्परम्परालक्षणन पर-
मानन्दस्य निर्वाणसंखस्य सभवः ॥ ३२ ॥ द्वा० १२ द्वा० ।
मुक्त्यद्वपर प्राधान्यन पुरस्कु्वन्नाटद--
उक्रभदेषु यार्गान्द्र -मुक्त्यद्वप: प्रशस्यत ।
मुक्त्युपायषु नो चषा, मलनायेव यत्ततः ॥ ? ॥
विषानतषिस दशो, त्यतो व्रतदुग्रहः ।
~ [= {~ (२ ८ .4
उक्रः शास्रषु गस्राग्र व्यालदुग्रहसानमभः ॥२॥
( अनयाव्याख्या ` मुत्तिअदोस ` शब्दे स्मिन्नेव भागे गता)
ननु दुग्रेहीताद॒पि श्रामरयात्सुरलाकलाभः केषांचिद्ध वती-
ति कथमत्रासन्द्र तेत्यत्रा 5 5ह--
(० + ज ९ ^
गरे्यका (प्रप्यस्मा-४पाक विरसाऽ। हता ।
व ^~ ५ (~ श्र
मुक्त्य&पषश्व तत्राप, कारण न क्रय है || ३ ॥
ग्रेवेयकाप्तिरिति ) अस्मादू-ब्तदुर्ग्रहात् ग्रेवेयकाप्ति--
रपि--शुद्धसमाचा रवत्सु साधुषु चक्रवत्यादिभिः पूज्यमा-
नषु दृष्टेषु सपन्नतत्पूजास्पृहाणां तथाविधान्यकारणवतां च
केषांचिद्ध्यापन्नदशनानामपि प्रारिनां नवमग्रेवेयकप्राप्ति-
रपि विपाकविरसा-वहुतरदुःखानुवन्धवीजत्वन परिणति-
विरसा, अहिता-ऑनिष्टा तत्वतश्चायार्जितवहविमूति-
वदिति द्रष्टव्यम् । तत्रापि-नवमग्रचयकप्राप्तावपि च मुकत्य-
द्रषः कारणो न केवला क्रियव दि अखगडद्रव्यश्रामरायपरि
पालनलक्तणा । तदृक्कम्-- अननापि प्रकारंण, द्वेपाभा-
वाऽत्र तत्वतः । हितस्तु यत्तदेतञपि, तथा कट्याणभा-
गिनः॥ १॥ `` इति ॥ ३॥
लामाद्यधितयापाय, फले चाप्रतिपत्तितः |
त्र्य (६ 9 (= ~ = ठ [ब
व्यापन्नदशनानां हि, न 5पो द्रव्यलिङ्खिनाम् ॥ ४॥
( लाभति ) व्यापन्नदशेनानां हि द्रव्यलिङ्गिनामुपाय-चा-
रितरक्रियादो लाभाद्यर्थितयेब न द्वेषो रागसामग्र्यां द्वघा-
नवकाशातू | फल च-मोक्षरूप अप्रतिरपक्तित एव न द्वषः |
न हि ते मोक्ष स्वगादसुखाद्धन्न प्रतीर्यान््त, यत्र द्वपाव-
काशः स्यात् । स्वगादिखुखाभिन्नन्वन प्रतीयमान तु तत्र
तघां राग एवं । वस्तुतो भिन्नस्य तस्य प्रतीतावपि
स्वष्टावघ्रातशङ्कया तत्र द्वपा स्यादिति द्रण्व्यम् ॥८॥
मुक्त च प्रुकत्य॒पायि चर मुरकत्मय प्राम्थत परतः |
( ४३८ )
अभिधानराजन्द्र: ।
साकरत
७५. है.
ग्रम्य द्रषा न तस्यव , न्यास्य गुवादघूजनभ | ५॥
( मुक्ता चति )-स्पप्रः॥५॥ .
गुरुदाषवतः स्वल्पा , सात्क्रया पि गुणाय न |
भोतहन्तुयथा तस्य , पदस्पशनिषधनम् ॥ £ ॥
( गावात ) गुरुदेषवतः-आधिकदाषवतः स्वर्पा-स्ता-
का साल्कियाएपि स्चण्राऽपि गुणाय न भवति यथा--
भोतहन्तुः-भस्मर्वातघातकस्य तस्य--भातस्य पदस्पशन-
स्य-चररम्यप्रटनस्य नषन्चनम् । कऋस्याच्त् खलु शबर-
स्यः कुता एपि प्रस्तावात्ू-' तपाधनानां पादन स्पशन महत
नश्य सपद्यत ` ईति श्रुतधर्मशाखस्य. कदाचन्मयूराप
च्चः प्रयाजनमजायत । यदाऽसा निपुणमन्वपमाणा न
लस : तदा श्रतमनन यथा-भातसाधुसमाप नानि सान्त
ययाचिर च नानि तन तभ्य: : परं न किचिज्लभ । तता
सो शतत्रव्यापारषूवकं तान्निग्रह्य जग्राह तानि , पादेन
स्परण च परिडितवान् | यथाऽस्य पादस्पशपारहारा गुणाऽपि
शस्त्रव्यापारणापटनन्तान्न गुणः . कि तु दाष एव । एवे
मुक्कद्वपिणा गुरूदवादिपूजने याजनीयम् ॥ ६ ॥
मुकत्यद्रषान्महापाप- निवृत्या यादृशो गुणः ।
गुर्वादिपूजनात्ताइक , केवलान्न भवत् क्वचित् || ७ ॥
( नुक्त्यद्रयादिति )-स्पष्टः ॥ ७ ॥
एकमव बनुष्ठान , कर्मदन भिद्यते ।
मरुजतरथदन . भेजनादिगत यथा ॥ ८ ॥
( एकमर्वात, ) एकमत हानुष्ठानम-देवतापूजनादि कर्त-
भदन चरमाचग्मावनगनजन्तुकर्नुकतया भिद्यत-विशि-
ष्यत सरूजतरग्या:-सरागनीरागयाभोक्ज्राभदन भाजना-
दिगलम् भाजनपानशयर्नादिगतम् , यथा अनुष्ठानम् | एकस्य `
रोगचुद्धिहेतुत्वात् . अन्यस्य वलापचायकत्वादाति । सहका-
रिप्नेद एवार्य न तु वस्तुभद इति चन्न , इतरसहकारिस-
मचहितत्व न फलब्याप्यतापज्ञया नदयच्छदकं कारो भद-
स्येव कल्पनोचित्यात्तथ्रेवानुभवादिति ` कल्पलतायां `` विप-
श्िनन्वान् ॥ ८ ॥
भवाभिष्वङ्गतस्तना- नाभागाच विषादिषु ।
अनुष्टानत्रय भिथ्या , ठयं सत्यं विषथयान् ॥ €
( भवति ) तन कतृभदादनुष्ठानभदन मदनम् भवा{भ-
ध्यकृतः--संसारसुखाशिलाषात् । अनाभागतः--सन्मू छेत्त-
जपच्र्तितुस्यतय। च विषादष्वनुष्ठानपु मध्य अनु--
छानत्रयमादम मथ्या-नानष्फलम् , द्थम॒त्तर च सफलम :
विपययात्-भव। भष्वज्ञानाभागाभसावात् ॥ ६ ॥
इहामुत्र फल।त्ता, भवराभिष्वड्र उच्यत ।
क्रिय। चितस्य भायस्या-न।भागस्नवातलद्कनप् || १० ॥
( इहान ) प्रोत शब्दाथकथनाद्व ताथ। 5 उस ॥ ८० ॥
षं गगाष्ननुष्टा्न, तद्भेतुरसते परम ।
गुवादिपूजानुष्ठान-मिति पश्चवेधे जगुः ॥ ११ ॥
( विर्षामात- ) पशञ्चानामनुष्ठानानामयमुद्दशः ॥ ११॥
चिषे लव्ध्याग्रपत्नातः, क्षणात्मच्ित्त मारणात् ।
दिव्यथागाभिलापेग, गरः कालान्ते क्षयात् || १२॥
< ॥ क
न ९ ये [2
(विषमिति ) लरूब्ध्याद्यपक्षाता-्लाः या दिस्प्र-
हाता यदनुषठान तद्धिषम उच्यत । क्षणात््-तत्काले
शभान्तःकरणपरिणामस्य, नाशनात् तदाक्तभोगनय
पक्तयात् | च्नन्यदपि हि स्थावरजङ्गमभदाभिन्न विष
नीमेव नाशयति । दिव्यभोगस्याभिलाष-पटिकम
त्तस्य सतः स्वगसुखवाञ्छालक्तणस्तेन अनुष्ठानं गर उच्यते ।
कालान्तर--भवान्तरलत्तय, च्षयाद्-भागात्पुरयनाशनानर्थ-
पादनात् । गरा हि कुद्रव्यसयोगजा विषविशषः, तर
च कालान्तरे विषविकारः प्रादर्भवतीति
तमतिरिच्यत नाभयापेक्षायामर्प्याधकस्य
सभावयामः॥ १२ ॥
समोहादननुषटन, सद नुष्टानरागतः ।
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तद्धतुरमृतं तु स्या-च्छुद्रया जनवत्मनः ॥ १३ ॥
( व्याख्या ' सुत्तिश्रदाोस ' शब्दे ऽस्मिन्नव भाग गता )
चरमे पुद्रलावर्ते, तदव कतेभेदतः ।
सिद्धमन्यादृशं सर्वं, गुरुदेवादिपूजनम् ॥ १४ ॥
( चरस इति ) निगमन स्पष्म् ॥ १४
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सामान्ययोग्यतेव प्रार्, पुंसः प्रववृते किल |
तदा समुचिता सा तु, सपन्ति विभाव्यताम् ॥ १४ ॥
( सामान्यति ) सामान्ययोग्यता--मुकःयुपायस्वरूपयाग्य-
ता, समाचतयाग्यता तु तत्सहकारयाग्यतात विशषः ॥ ७
पूर्व ह्यकान्तन याग्यस्येव देवादिपूजनमासीत् , चरमाचर्ते
तु समाचतयाग्यभावस्यात चरमावतदवादपूजनस्यान्याव> |
तद्वादपूजनादन्यार् शत्वामात यागाबन्दुच्रात्तकारः॥ १५॥ ।
चतुथे चरमावर्ते, प्रायोऽनुष्ठानमिष्यते । \'
अनाभोगादिभाव तु, जातु स्यादन्यथाऽपि हि ॥ १६॥
( चतुश्रामिति ) चरमावते प्राया-वाहृस्यन चतुर्थम्-तद्ध-
तुनामकम् अनुष्ठटानामष्यत | अनाभागादिभाव तु जातु-क- `
दाचिदन्यथाऽपि स्यादिति धायाग्रहणफलम् ॥ १६ ॥
शङ्त--
नन्वद्रेषोऽथवा रागा, मान्न तद्भतुताचितः ।
ओद्य तत्स्याद भव्याना- मन्त्ये न स्यात्तदद्विषाम् ।१७ .
( नान्वति ) मुक्त्यद्वषप्रयुक्कानुष्टा नस्य तद्धतुत्व-अभव्यानु
छानावशप आओआतव्याप्त नवमग्रवयकप्राप्तमुक्त्यद्वषप्रयुक्त- | ।
त्वप्रदशनात् । मुक्तकिरागप्रयुक्तानुष्ठानस्य तत्व तु मनाय् रा-
गप्राक्कालोनमुकत्यद्वपप्रयुक्तान॒ष्ठा न ऽव्यािरित्य शः ॥ ६७ ॥
न चाद्वप विशषस्तु, कोऽपीति प्राग् निद शीतम् ।
ईषद्रागा द्विषश्च दद्रपोपक्तयस्ततः ॥ १८ ॥
(नन्ति) श्रद्रष विशपस्तु न च काऽप्यस्ति श्रभावत्वा- ,
द्रात प्राक-पूवद्वादाशका या {नद्ाशतम् । इषद्रागाच्चाद्वश
चस्तर्हिं तत एवाद्वेषस्यापक्तयः विशषणनेव कायासद्धो वि-
शस्यवेयथ्यात् | इत्थ च मृश्त्यद्टषण मनाम् मकत्यनुराग-
णवा तद्धतुत्वमिति बचनव्याघात इति भावः ॥ १८ ॥
उत्कटानुत्करत्वाभ्यां, प्रतियोगिक्रतोऽस्त्वयम् |
नेयं सत्यामपक्तायां, दरेषमात्रवियोगतः ॥ १६ ॥
«नी
प्राप्त
४
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|
( उत्कटति ) अभव्यानां मुक्ता उत्करद्धषाभावेऽप्यनुत्क- |
रद्वषा भविष्यति, अन्यषां तु द्वषमात्राभावादवाजुषछानं त-
अभिधानराजन्द्रः।
दधतः स्यादत पूवाधाथ: । नेवम-उपक्तायां सत्या द्षमा-
जस्य वयागतः । अन्यथा स्वष्ठटसासारकसुखावरा घत्वना- '
त्कटा ऽप द्वषस्तषां मुक्ता स्यादत्युत्तयाघाथः ॥ १६ ॥
समाधत्त--
सत्य बीज॑ हि तद्रेतो -रेतदन्यतराजितः।
मुक्त्यदेषा न तेनाति-प्रसङ्गः केऽपि दृश्यते ॥ २० ॥ ,
( सत्यमिति ) तद्धताः-अचुष्टानस्य ह बीजम् ; एतयोसेु-
क्यद्वेषरागय(रन्यतरेणारजतः-जनिनः क्रियारागः-सदनु-
छानरागः । तना तिप्रसङ्गः कोऽपि न दश्यत । अभव्या-
नामपि स्वरीप्रासिटेतुमुक्त्यद्वेषसत्वेऽपि तस्य सदनुष्टान-
रागाप्रयोजकत्वाद्वाध्यफलापत्तासहकृतस्य सदनुष्ठटानरा- |
गानुबान्धित्वात् ॥ २० ॥
अपि बाध्या फलापक्ता, सदनुष्ठानरागकृत् ।
सा च प्रज्ञापनाधीना, मुक्त्यद्रषमपक्ततं ॥ २१॥ -
( अपीति ) बाध्या-वाधनायस्वमावा फलापन्ञाऽपि-सो- |
भाग्यादिफलवाञ्चा ऽपि सदनुष्ठाने रागङ्ूत्-रागकारिणी ।
सा च--वाध्यफलापेक्षा च प्रज्ञापनाधीना--उपदेशायत्ता |
मुक्त्यद्रषमपक्तत कारणत्वेन ॥ २१ ॥
यतः--
अवाध्या सा हि मोक्ञाथ-शासखरश्रवणघातिनी ।
मुक््त्यद्ेपे तदन्यस्यां, बुद्धिर्मागानुसारिणी ॥ २२ ॥
( अबाध्येति ) अबाध्या हि सा-फलापक्षा ; मोक्षार्थशा- |
खश्रवणघ्रातिनी तव॒ विरुद्धत्ववुद्धाधानादचापन्नदशना- |
नां च तच्छवणे न स्वारसिकामिति भावः | तत्-तस्मान्मु- |
कत्यद्वपे सति अन्यस्यां-बाध्यायां फलापक्तायां समुचित-
योग्यतावशेन माक्ञाथशाखरश्रवणस्वारस्यात्पन्नायां बुद्धिर्मा-
गाजुसारिणी-माक्तपथाभिमुख्यशालिनी भवतीति: भवति ते- |
घां तीव्रपापक्षयात् सदनुष्ठानराग: ॥ २२ ॥
तत्तत्फलाथना तत्त-त्तपस्तन्त्र प्रदाशतम् ।
मुगधमागेप्रवगाय, द।यतऽप्यतं एवं च ॥ २३॥
( तत्तदिति ) तत्तःफलार्थिनां- सौ भाग्यादिफलकाङ्िंणा-
म् : तत्तत्तपो-रादिरायादितपारूपम् अत पव तन्त्रे प्रद-
शितम् ; अत एव मुग्धानां मार्गप्रवशाय दीयतेऽपि गी- |
ताथः | यदाह-' मुद्धाण हियद्ुया सम्मे "` । नह्यवमच्र वि-
चादित्वप्रसज्ो न वा तद्धतुत्वभङ्गः, फलापत्ञाया बाध्यत्वा-
त् । इत्थमेव मार्गालुसरणो पपत्तः ॥ २३ ॥
इत्थ च वस्तुपालस्य, भवशभ्रान्ता न ब्राधक्रम् ।
गुणाद्रष। न यत्तस्य, क्रयारागव्रयजकः ॥ २४ ॥
( इत्थं चाति ) इत्थ च-मुक्त्यद्ववविशषोक्ता च वस्तुपा-
लस्य ॒पूर्वभवे साधुदशनेऽप्यु पक्षया च्रज्ञाततद् गुणरागस्य
चारस्य भवश्चान्ता-दीघसंसार भ्रमण न वाधकम् | यद्-य
स्मात्तस्य गुणाद्ेषः क्रियारागध्रयाजका नाभूत् । इष्यत
च तादृश एवाऽयं तद्धत्वनुष्ठानाचितत्वन संसारहासकार-
मिति ॥ २४ ॥
जीवातुः कर्मणां घरुक्त्य ` देषस्तद यमीदशः ।
साक्ग्व
गुणरागस्य बीजत्व-मस्यवाव्यवधानतः ॥ २५ ॥
धारालग्नः शुभा भाव, एतस्मादेव जायत |
अन्तस्तच्वविशुद्धया च, विनिवृत्ताग्रहत्वतः ॥ २६ ॥
आस्मिन् सत्पाधकस्यव, नास्ति काचिद्विभीषिका ।
सिद्धेरासन्नभावन, प्रमोदस्यान्तरोदयात् ॥ २७ ॥
चरमावततिनो जन्तोः, मिद्धरासन्नता धवम् ।
भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्ता स्तष्वेको विन्दुरम्बुधौ॥।२८॥
मनारथिकमित्थं च, सुखमास्वादयन् भृशम् ।
पीड्यते क्रियया नेव, अदं तत्राऽनुरज्यते ॥ २६ ॥
प्रसन्नं क्रियते चेतः, श्रद्धयोत्पन्नया ततः |
मलोज्मितं हि कतक क्तादेन सलिलं यथा ॥ ३० ॥
वी्योल्नासस्ततश्च स्या- त्ततः स्मृतिरनुत्तर( ।
ततः समाहितं चतः, स्थैयमप्यवलम्बते ॥ ३१ ॥
अधिकारित्वमित्थं चाऽ-पुनर्बन्धकतादिना।
मुक्त्यद्वेषक्रमेण स्यात् , परमानन्द कारणम् ॥ ३२ ॥
जीवातुरित्याद्यार भ्याएरछोकी खुगमा । ३२। द्वा० १३ द्वा०। `
“ ज जत्तिया य ट ऊ, भवस्स त चव ताक्तिया मोक्ख ।
गणणाईया लाया, दार वि पुसा भवे तुज्ञा ॥ १॥ ”'
स्या त्याख्या-गरागद्धबज्ञानवता जन्तुना वधाद्यनिवृत्तानां
वितथपरूपणादि वृन्तानां य-- सृच्मवाद्रजीवसवद्रन्या द्यो
भावा यावन्माज्राश्च हतवा-ननामत्तान ससारस्य रागादावर -
हितानां सम्यकृश्रद्धानवतामवद्यावित थप्रूपणादिप्रवृत्तानां
त एव सवजावादया भावास्तावन्मात्रा हतवा मान्त मात्तस्या-
पीत्य्थः । उक्तं च-' अहो ध्यानस्य महात्म्य, यनैकाऽपि
दि कामिनी । अनुरागविरागाभ्यां, स्याद्धवाय शिवाय च
॥ १॥ `` नु भवत्ववं. कि तु-कियत्संख्या श्रमी भवशिव-
हतवः ? इत्याट-द्वयारपि भवमात्तयोः सबेन्धिनां हेतूनां प्र-
व्यक गणनया--पकदिञ्यादिरूपषया अतीता--आतिऋनन््ता-
लोका भवन्ति पूर्णा नेकनापि आकाशप्रदेशन दीनाः पर-
स्पर तुल्या श्रन्यूनाधिकसंख्याः , न तु तरैलोक्यान्त्व-
्तिजीवादिपदाथौनामनन्तत्वनानन्ता एव भवमाक्तयोर्देतवो
भवन्यतस्त कथमसख्येया इत्युक्तम् ? , सत्यम्-यद्यपि जी-
वादयो भावा श्रनन्तास्तथापि तैः सवेरपि विसदशान्यस-
ख्ययान्येवाध्यवसायस्थानानि जन्यन्ते नानन्तानि ; तेभ्य
परता ऽन्याध्यवसायानां पूवाध्यवसायष्वेवान्तभावात्। श्रत
स्तज्ञन्याध्यव सायस्थानानामसख्ययत्वनाथां अप्युपचाराद-
सख्ययत्वनोक्ा इत्यदोषः, अतः स्थितमेकाऽपि जीवोपमदी
दिका विराधना परिणामवेचिञ्यण कमेवन्धदेतुस्ताज्नजेरा-
हतुश्च जायत । इति गाथा थः । पञ्चा० टिप्पणी १ विव० ।
श्रथ द्वादशाङ्गम्य सारमाद-- `
सो सुयण्णवं वा, दुग्गेज्क॑ सारमेत्तमयस्स |
घेच्छं तयंति पृच्छ, सीसो चरणं गुरु भणइ॥११२७॥
` वा ' इति--अथवा पातनान्तरसूचकः 'सोउं ति'-सामा-
यिकादिविन्दुसारपयन्तं श्रुतारीवम् दुर्ग्राह्मम--अतिदुस्तरं
शरुत्वाःयदि समस्तमपि तं ग्रद्मेतु न श्यामि तर्दिं सारमात्र-
ष्ज
( 95०
2 ००7 28 ५७०३ ५) अअधानगाजन्द/:
_मोक्ख _
मतस्य श्रुताणवस्य ग्रहीष्यामि इति सञ्चिन्त्य शिष्यस्तत्सार- | धानम् ` इति शषः । यज्ञाभानन्तरमव च स |
मात्र पृच्छति-काऽस्य द्वादशाङ्गस्य सारः ? इति सापस्कार- |
|
मिह व्याख्ययम् । तत्र गुरुभेणति-तस्यापि श्रुतज्ञानस्य सार. |
श्चरणमिति | एतत्पुनरपृष्टनापि गुरुणा नियुक्रिगाथान्त भ्राक्त
म्- सारञ्चरणस्य निर्वाण `` मिति ॥ ११२७ ॥
अथ प्ररकः प्राह--
अन्नाणओ हय त्ति य,किरिया नाणकियाहि निव्वाणं।
भणियं तो किह चरणं,सारों नाणस्स तमस।रो ।११२८। |
ननु * हय नाणे कियादीण, हया अन्नाणच्रा किया ' इत्यादि-
वचनादज्ञानतो हतेव क्रिया, इति. ज्ञान-क्रियाभ्यां समुदि-
नाभ्यामव निर्वाणमागम भणितम् अनक स्थानषु प्रतिपादि-
तम् | ततः कथ ज्ञानस्य सारश्चरणम् , तत्त ज्ञानमसारः ?,
इति ॥ ११२८ ॥
अज्रात्तरमाह-
चरणावलडद्धिहेऊ, ज नाण चरणओं य निन्वाशं ।
सारो त्ति तण चरणं, पहाणगुणभावओं भणिय ११२६
नाणे पयासयं विगु त्ति विसुद्विफलं च जे चरणं |
मोक्खो य दुगाहीणो,चरणं नाणस्स तो सारो ।११३०।
भवात स सवरो ज्ञानाल्प्रधानः । पवमव च सयमस्य प्रधा-
नकारणतां मन्यमानः शुद्धनयाः-ऋजुसत्र-शब्दादयः सयम-
मेव निर्वाणमाहुः, श्रत्यन्तप्रत्यासन्नकारण स्वं सवरसेयम
कायस्य निर्वाणस्यापचारात् ; न तु ज्ञानं निर्वाणे ते ब्रवत,
तस्य व्यवबहितकाररणत्वादिति भावः । तथा चाक्तम्-'तवसे-
जमो अखुमआओ, निग्गथे पवयण् च ववहारों । सद -ज्जुखु-
याणे पुण, निव्वाणो सजमोा चव ॥ ६॥ ` इति ॥ ११३२ ॥
ब्ररकः प्राह--
आह पहाणे नाशं, न चरित्ते नाणमेव वा सद्धं ।
कारणमिह न उ किरिया,सा वि हु नाणप्फलं जम्हा। १ १३३
ज्ञानवादी प्राह-ज्ञानमेव प्रधान मोक्षकारणे, न चारित्रम्।
यदिवा--शुद्ध ज्ञानमवेकं माक्तस्य कारण, न तु किया ।
यस्मादसार्वाप ज्ञानफलमव-ज्ञानकायमव । ततश्च यथा सु-
तिका घटस्य कारण भवर्न्त्याप तद्पान्तरालवर्तिनां पिर्ड-
| . शिवक-कुशलादीनामपि कारण भवति, एवं ज्ञानमपि मोक्त-
यद्-यस्माद् मतिश्रुतादिक ज्ञान चरणाोपलब्घेः--चारित्र- |
प्राप्रव मुख्य कारणम् , ज्ञाने विना चरणविषयस्य जीवाजी
वादेहेयापादेयादेश्व वस्तुना ऽपरिज्ञानात् .अपरिज्ञातस्यच य
थावत् कलुमशक्यत्वात् । चरणाच्च तपःसयमरूपाद् नि-
वाणमुपजायत | श्रत निर्वाणस्य सवेसवररूपस्य चरणमेव |
मुख्यम्-प्रधानं कारणम, ज्ञान त् कारणकारणत्वाद् गोश
तस्य कारणम् । अतस्तन-कारणन प्रधानगुणभावाञज्ञानस्य |
सारश्चरणे भणितम् | प्रघानगुणभावमव भावयति--' ना- |
रमित्यादि ' ज्ञान यस्मात् रृत्याकृत्यादिवस्तुनः प्रकाशकम-
व वस्तुपरिज्ञानमात्र व्याप्रियत इत्यथः । चरण पुनगुत्िवि- |
शुद्धिफलम्-गु्िः-सवरः, विशुद्धस्तु-कर्मानजरा, ग़ुप्तिवि-
शुद्धी फले यस्य तत् तथा । ण्व च सति ज्ञान-चरणलक्षण- |
द्याधीनो मात्तः, कवल प्रधानतया चररणस्याऽधीनाऽसो,
गोणनयेव च ज्ञानस्य । ततः प्रधानगुणभावाच्चरणे ज्ञा-
नस्य सार उति ॥ २२२६ ॥ ११३० ॥
प्रकारान्तर गापि ज्ानाच्चारित्रस्य प्रधानत्वे भावयन्नाह-- |
ज सव्वनाणलाभा -णंतरमहवा न मुच्चए स्वा |
मुचइ य सव्वसवर लभे ता सा पहाणयरो ॥१
स्थवा--यद्--यस्मात् सव जानातीति सर्वन्नानम्--कव
लज्ञान, तल्लाभानन्तरमव सर्वाऽपि प्राणी न मुच्यत--न
मुक्ति प्राप्ताति, म॒च्यत च यस्माच्छेलश्यवस्थायां सर्वेसेवर-
लाभ ऽचण्यमव्र सर्घः, तता ज्ञायत कवलकज्षामादप्यन्वय-
व्यतिरकाभ्यां मुख्या माक्षकता सवसचर एव प्रधानतरः,
सच क्रियारूपन्वाल्लारत्रमिति॥ ११३१ ॥
अमुमेयाथ समभयन्नाट--
लाभ वि जस्स माक्खा, न हाइ जस्म यस होइ स पहाणो |
एवं चिय सुद्धनया, निव्वाशं संजम बति ॥ ११३२ ॥
यस्य-मत्या दिज्ञानपञ्च कस्य लाभ.ऽप्यनन्तरमव माक्ता न
भराति, तज्ज्ञान मात्तस्यानन्तर्यण कारणत्वाभावात् ` अप्र-
१३१॥ |
स्य कारण तदपान्तरालभाविनां सवेसंयमक्रियादीनाम-
पीति। यथाच क्रिया ज्ञानस्य कायम् , तथा शषमपि य-
त्कियानन्तरभावि मान्नादकम् , यञ्च क्रियाया अवोग्भावि
बोधिलाभकाले तच्वपरिज्ञानादिकं राग-द्वषनिव्रहादिक च
तत् सर्व ज्ञानस्यैव कार्यम् । यच्चद सकलजनपंत्यत्त म-
नश्विन्तितमहामन्त्रपूर्तावषभक्षण-भूत-शा कनी निग्रहा दि क॑
तत् सर्वं क्रियारहितस्य ज्ञानस्यैव कायम् । चरता दृष्टेना$-
दृष्टमपि निवार ज्ञानस्यैव कार्यमित्यनुमीयत इति ॥११३३॥
एतद्दशयज्नाह--
जह सा शाणस्स फलं, तह ससं पि तह बोहकाले वि।
नेयपरिच्छेयमयं, रागादिविशिग्गहों जो य ॥११३४॥
जं च मणोचितियमं-तपूतविस भक्खणाइवह भेय॑ ।
फलमिह ते पचक्खं,किरियारदियस्स नाणस्स ॥११३५॥
ब अप्युक्ताथ एबं ॥ १६१२५ ॥ ११३५ ॥
एवं ज्ञानवादिना परणाक्क सत्याचार्यः प्राह--
जणं चिय नाणाओ, किरिया तत्तो एल च तो दो वि |
कारणमिहरा किरिया-रहियं चिय तं पसाहेजा ॥११३६॥
येनैव च यस्मादव कारणात् ज्ञानात् क्रिया भवति, ततस्त
स्याश्च क्रियायाः समनन्तरमिष्ट फलमबाप्यतः वत एवं ते-
ज्ञानक्रिय द्वे अप्यभीएफलस्य माक्तादेः कारणे भवतः । अ-
न्यथा-ज्ञानक्रियाभ्यां मोत्तमवनपरिकल्पनमन्थकमव स्यात्
्रियारदहितमव ज्ञानमात्मलाभानन्तरमव भगित्यर्भाश्फलं
केवलमपि प्रसाधयत् क्रियावदिति ॥ ११३६ ॥
अपिच--
नाशं परंपरमणं तरा उ किरिया तयं पहाणयरं ।
जुत्तं कारणमहवा, समयं तो दापि जुत्ताईं ॥११३७॥
यदि ज्ञाने परम्परया कार्यस्यापकुरुत, क्रिया त्वानन्तर्येण ,
तता यदेवानन्तरमु पकुरुत तदव प्रधाने कारणं युक्रपर् । अथ
समकं-- युगपद् द्र अपि ज्ञानक्रिये कार्योत्पत्तावुपकुखुतः,
र्ता द्वयारपि प्राधान्यं युक्तम् , नत्वेकस्य ज्ञानस्थति॥११३७॥
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2]
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_सोक्ग्व
( ४४१ )
किं च--क्षानात् क्रिया भवर्न्त्याप्र मोक्तस्य कारणमसावि-
ष्यते, नवा ? । यदि नेष्यते, तिं तामनपेच्यैव केवलादपि
छअभिधानराजन्द्रः।
ज्ञानात् क्रियावद् मोज्ञाऽपि भवेत् , श्रकरणस्या ऽनपेत्तणी- `
यत्वात् ॥ ११३७ ॥
छथ क्रियाऽपि कायैस्य कारणमिष्यते, तत्रा ५$ह-
कारणमंतं मोत्त, किरियमणंतं कहं मयं नाण १ |
सहचारित्ते व कहं, कारणमेकं न पुणरेक ? ॥ ११३८ ॥
नन्वेवं सत्यानन्तर्योपकारित्वादन्त्यकारणभूतां क्रियां मु-
क्त्वा कथ परम्परोपकारित्वादनन्त्य ज्ञाने कारणे भवतो-
-भिमवम् ? इति निवेद्यताम् ? । अथ ब्रष-नेहा-5नत्यानन्त्य- |
विभागः, कि तु कायैस्योत्पित्साः सहेव युगपद् द्व अप्युप-
कुरुतः, तहे हन्त ! योरपि सहचारित्व कथमेकं कषान
मात्तस्य कारणम् , न पुनरकं क्रियारूपे कारणमिष्यते ?।
न ह्याग्रहग्रहग्रस्ततां विहायापरो हेतुररहोपलभ्यत इति
भावः॥ ११३८ ॥
यदुक्कम--' रागादिविणिग्गहो जो य त्ति ' तत्ना 55ह--
रागाइसमो संजम-किरिय चिय नाणकारणा होजां ।
तीसे फले विवाओ, तं तत्तो नाणसहियाओ ॥१
रागादिशमो रागादिनिग्रहस्तावत्सयमक्रियैव भरयत, ना-
परं किञ्चित् साच, ज्ञान कारणे यस्याः सा ज्ञानकारणा-
ज्ञानफला भवेदेव,नेहा ऽस्माकं काचिद् विप्रतिपत्तिः | कितु -
यत् वस्या: समनन्तर माक्ताद्क फलमुपजायत तन्न विव- |
दामः, तथाहि-रतत्कि शानादेव केवला दुपजायते, आहोस्वित्
केवलक्रियातः, उत-ज्ञान-क्रियो भयात् ? इति यी गतिः ।
तत्र न तावदाद्यः पक्षः, ज्ञानादपान्तराले भवताऽपि क्रियो-
त्पत्तेरभ्युपगमात् , नापि द्वितीयः पर्ता युक्तः, क्ञानशन्यक्रि-
यातो माल्ञादिकायौभ्युपगमे उन्मत्तादिक्रियातोऽपि सुक्ञिप्र-
सङ्गात् । तस्मात् ठृतीय एव पन्तो युज्यते, श्रत पवाद-- "तं
तत्ता नाणसाहयाउ त्ति तद् मोक्तादिक्राय ववस्तस्याः क्रि- |
यायाः सकाशादुत्पद्यते । कथभूतायाः ?
इात ॥ ११३६ ॥
यदुक्तम् 'ज च मणोचिन्तियमंतपूतेत्यादि ` । तत्रा55ह-
परिजवणाई किरिया, मेतेसु वि साहणं न तम्मत्त ।
तष्णाणञ्रो य न फलं, तं नाण जशमक्िरियं ॥११४०॥
विषघात-नभोगमनादिदेतुषु मन्त्रेष्वपि परिजपनादिक्रिया
, क्ञानसादताया
मन्त्रसहायिनी कार्यस्य साधनं--कार्येसाधिकेत्यर्थः, न तु
तन्मात्र-मन््रमात्रमेव तत्साधकम् श्रथाभिधत्स-ननु प्रत्य
क्षविरुद्धमिदम् , यतो दष्टे कचिद् मन्वायुस्मरणक्ञानमात्राद-
प्यभीष्रफलम्: इत्याह-तजज्ञानाच-कवलाद् मन्त्राजुस्मर-
णक्षानाश्च न तत्फम् , यन कारशना ऽक्रियमव तज्ज्ञानम् ,
अमूतंत्वात्, यच्चाक्रियं न तत् कार्याणि कुरुत, यथा-आका- |
शम्, अक्रियं च ल्लानम्, इति कथं कार्याणि कुयात् ? यश्च
करोति तत् सक्रियं दृष्टम् यथा-कुलालः, न चेव ज्ञानम् इ
ति न तत्केवल किमपि कराति। न चेदं प्रलयक्तविरुद्धम् ,
न हि क्रियासादाय्यरदहितं क्षानं क्वचिदपि फलमुपाहरदुप-
लभ्यत इति ॥ ११४० ॥
अथ प्रेयेमाशडूल्य परिहरन्नाह-
तो तं कत्तो भन्द्, ते समयनिवद्धदेवओवहियं |
१११
१३६॥ ,
माक्स्व
किरियाफलं चिय जग्रा, न मतनाणावञ्यागस्स ।११४१।
यदि केवलमन्त्रशानकृते नभोगमनादि काय न भवति. तत-
स्तर्हि कुतस्तत् ? इति वाच्यम् ? | भरयत त्रात्तरम्-तद्
नभोगमनादिकाय समयनिवद्धदवतापदिनं सन् क्रियाफल-
मव यस्मात् , तता न शानोपयोगमात्रस्येव फलमिति । इ-
दुक्तं भवति-समयः-संकेतस्तता यत्र यत्र दवतानां सम-
ये-सङ्कते उपनिवद्धा मन्त्रास्तत्र तत्र देवताकृतमेव तत्तत्
फलम् , देवताश्च सक्रिया एबं । अतः सक्रियदेवता-
भिरूपाहृतं सत् तत्कियाफलमेव यतः , अतो न के-
वलस्य ज्ञानमात्रोपयोगस्य फलमिति स्थितम् | आह--
ननु देवताह्ाने तावत् केवलादेव मन्त्राजुस्मरणक्षानाप-
गाद् भवति, न वा ?, इति वक्तव्यम् । यदि भवति, तर्हिं
शेषकार्यारयपि केवलात् तत पव कि नेष्यन्ते ? । श्रथ
न भवति तहिं कथमसाविह ऽऽगत्य नभोगमनविषवीर्याप-
हारादिकार्याणि कुर्यात् ? । श्रत्रोच्यत-देवताद्वान भवति,
पर न केवलादेव मन्त्रस्मरणक्ञानापयोगमात्रात् : कितु-पु-
नः पुनस्तज्ञपन-पूजनादिक्रियासहायास् तस्माद् दवताद्वान-
मपि संपद्यते , इत्यल विस्तरणति ॥ ११५६ ॥
आहर-कि ज्ञानं सर्वथैव निष्क्रियम् ?, कि वा काचिदेव
विशिष्टां क्रियामाधिरूत्य तन्नित्करियम् ?, इति । श्रत्रोच्यते-
वस्तुपरिच्छेदमागत्रे तत् कराति, तत्करणादेव च सहकारि-
कारणतया जीवस्य चारित्राक्रियां जनयति , यत्तु विशिषं
मात्तलक्तणे कार्य , तज्वत्तेकं ज्ञानमानन्तर्येण न भवति, इ-
त्येतद् दिदशयिषुः , तथा वच्यमाणं च संबन्धयितुमाह--
वत्थुपरिच्छेयफलं, हवेज़ किरियाफलं च तो नाण ।
न उ निव्वत्तयमिट्ं,सुद्धं चिय जं तश्राऽभिहिय।११४२।
* किरियाफलं ति ` क्रियैव फले यस्य तत् क्रियाफलम् । शे-
षं सुगमम् । इति गाथार्थः ॥ ६१४२ ॥
कि पुनरभिदहितम् ?, इत्याह--
सुयनाशम्मि वि जीवो, वदतो सो न पाउणह मोक्खं |
जो तवसंजममडइए, जोगे न चणएइ वोढुं जे ॥ ११४३ ॥
शरुतक्ञानेऽपि, अपिशब्दादू-मत्यादिल्ञानेष्वापि जीवो वर्तमा-
नः सन् न प्राप्नोति मोत्तम् , इत्यनेन प्रातिशा्थेः खूलितः ।
यः कथभूतः ? , इत्याह-यस्तपःसंयमात्मकान् योगान् न
शक्राति वादुम् , इत्यनेन हेत्वर्थं इति | दष्ान्तस्त्वभ्युह्यः ,
वच्यति वा । इति निर्युक्किगाथार्थ: ॥ ११४३ ॥
अथ सूचितप्रयोगम् , वच्यमाणनियुक्किगाथासंबन्ध च
विवच्तुराह-
सकिरियाविरहाओ, इच्छियसंपावयं न नाणं ति ।
मग्गणएर् वाउचिट्ठी, वायविदहीणोऽहवा प।अ।॥११४०॥
केवलमेव ज्ञानं नेष्सिता्थसंप्रापकम् , सत्क्रियाशन्यत्वास्
यथा-स्वसमीहितदेशप्रापणन्तमसशचेष्टाविरदितो मार्गक्षः पु-
रुषः स्वाभिलपितदेशाप्रापकः । श्रथवा-सोत्र एवं दृष्ठा-
न्तः, यथा-ईप्सितदिक्सेप्रापकबातसन्कियारहितः पात
इंप्सितदिगसंधापकः, सर्क्रियाधिरहितं च क्षानम् , तस्माद्
नष्टार्थस पादकं तत् । इति माथार्थः ॥ १६५४ ॥
( ४४२ ).
अभिधानराजन्द्रः |
क
माक्ष
तथाहि-
जह छेयलद्वरनिजञा-मओं वि वा णियगइच्छिय भूमि ।
बाएण विणा पोओ, न चणइ महतस्म्र तरिंउं ॥११४४५॥
तह नाणलद्ध निज्ञा-मओं वि सिद्धिवसहिं न पाउणइ ।
निउणो वि जीवपोओ,तवसंज ममारुयपविहीणो।। ११४६॥ |
संसारसागराओ , उच्छुड़ो मा पुणो निबुडृज। ।
चरणगुणविष्पहीणो, बुड्रइ सुहं पि जणतो।।११४५७॥
छको-दन्ञो लब्धः-प्राप्तों निर्यामको येन-पातन स त-
थाविधः, श्रपिशः्दात्-सखुकगीधाराद्यधिष्ठितो ऽपि, वरिजि द
श-वणिगिषां तां भूमि मदारवे तीत्वा वातन बिना पा-
ता न शक्नातति ` प्राप्तुम् ` इति वाक्यशेषः । उपनयमाह--
तथा श्रुतज्ञानलञ्धनियामको ऽपि, अपिशब्दान्-खनिषुण-
मतिकरधाराद्यधिष्ठिनाऽपि सयम-तपो नियममारुतस-
स्क्रियारहिता निषुणाऽपि जीवपोतो भवाणव तत्वा स-
न्मनोरथवणिजाऽभिग्रेतां सिद्धिवसति न प्राप्नाति । त-
स्मात्-तपःसंयमायुष्ठानऽप्रमादवता भवितव्यमिति । तथा
चोपदेशमाह--' संखारत्यादि ` विनेयस्योपदिश्यते भो-दे- |
वानुप्रिय ! कथे कथमपि महता कष्टेनातिदुलेभ श्रीस- |
यज्ञधर्मान्वतं मायुषजन्म त्वया लब्धम् । तज्ञाभाश्च स- |
सारसागरादुन्मग्न इवान्मग्नस्त्वं वतसर । अतश्चरणकर-
णाद्यनुष्ठानप्रमादेन मा तत्रेव निमाङ््तीरिति । न च वक्त
व्यम-विशिष्ट थ्तश्ञानयुक्ना ५हं॑तद्रलनेव -वस्तुपरिन्नानमा-
तरादव मुक्किवालादयिप्यामीति; यतच्चरणगुणविश्रङीणः खु-
वर्प श्रुतज्ञानेन जानन् वरुडति--निमज्ञति, पुनराप संसा-
रसमुद्रे । । अतो ज्ञानमात्रसमुत्थमवष्टम्ममपहाय चरणकर- |
|
णाजुष्ठान एवोद्यम्तो विधयः । इति नियुक्किगाथात्रयाथः |
॥ ११७५ ॥ २२५६ ॥ १२५७ ॥ ५५
तलृतीयगाथाभावाथ भाष्यकारो इदृष्टान्तवा55ह-
संसारसागराओं , कुम्मो इव कम्मचम्मर्विवरेण ।
उम्मजिउमिह जइणं, नाणाइपगासमासज्ञ ॥ ११४८ ॥ |
दुलहं पि जाणमाणे।, सयणसिशहाईणा तयं तत्तो ।
संजमकिरियारहिओं, तत्थव पुणो निबुडजञ।॥११४६॥
यमत्र भावा धः-यथा-कश्चित् कूर्मः कच्छुपस्तृणपत्रपट
लप्रचुरातिर्निवि उशवालाच्छादितादकान्धकारमदहाहदान्तगे-
ताऽनक्रजलचरक्ताभादिव्यसनव्यथितमानसः सवतः परि-
श्यन् कथ्मपि शवालरन्धमासाद्य-तेनेवोपरि निरेत्य च |
शगन्पावणचन्द्रचन्द्रकास्पशसुखमनुभूय भूयाऽपि स्वब-
न्भरुभृतान्यजलचर स्ना छृएचित्तः , तेषामाप वराकाणाम-
हृष्कल्याणानामहभिदं सखुगलाककरप किमपि दशंयामि,
इत्यवधाय पुनस्तदव उटदमध्यं प्रविष्ः । श्रथ समाहू-
नारपजलचरत्रन्दस्तद्रन्धापलव्ध्यथ पर्यटन् , अपश्यंश्व; क-
छतरे व्यसनमनुभवति । पवमयमपि जीवकच्छपो ऽनादि-
कमसन्तानाच्छादिताद् मिध्याज्ञाननिमिरायुगताद् विविध-
शिरशतनेत्रव्य थाज्य कुछ मगन्द्रादिश रीरेष्विप्रयो गानिए संप्र-
योगादिमानसदु स्रज लचरसमूदानुगतात् संसारसागरात्
कर्थाश्वदव॒ मनुष्यभवप्रापप्तयाग्यकमॉंदयलक्षण रन्धमासाद्य-
माडुषत्वप्राप्त्यास्मग्न:। सन् जिनवरन्द्रचन्द्रवाक्नन्द्रिकासं-
मिद्मशानमभिधीयते ? [किमिति केवलाधीत श्रतस्य तदू--
ष्क गरणी
गमसुखमनुभूय दुष्परापाऽयं जिनवचनवबोधिलाभः इयेवं जा-
नन्नपि स्वजनस्नदविषयानुरक्कचित्ततया पुनरपि तत्रैव भव-
सागरे निमज्ञत्। अत उच्यत-'मा त्वमित्थनस्मिन्नव भव्सा
गर निमाङ्खोः, कितु-सदनुष्ठानिष्वप्रमादपरो भव' इति । अक्ष-
राथस्तु खुगम एव, नवरं मनुष्यभवगप्राप्त्यावारककर्मैव चर्म-
शवालः कर्मचमे तस्य विवरोऽनुदयावस्था तन । “ जइ -
मित्यादि ` जेन ज्ञानादिप्रक्ाश--ज्ञानदशैनचारित्रस्व-
रूपाववो धात्मक तत्स्वरूपश्रवणादिद्धारेण गुरुभ्यः समा-
सादयति । ` तय ति ` ज्ञानादिभकाश दुलभमपि “ जानानः '
इत्यत्र सवध्यते, खजनस्नेहादिना ततो वियोजितः सयम--
क्रियारहितः पुनरपि तत्रैव भवसागरे निमजदेष संसारि-
जीवः । इति गाथाद्धया्थः ॥ ११५८ ॥ ११४६ ॥
अन्न प्रेरकः प्राह-
आहउणाणी कुम्मो, पुणो निमज्ञज्ञ न उश तन्नाणी ।
सक्किरियापरिदीणो,बुडई नाणी जहऽन्नाणी।।११५०॥
नेच्छ यनय मएण, अन्नाणी चेव सो भणन्तो वि ।
नाणफलाभावाओ,कुम्मो उ निबुड्णे भवोहे ॥११५१॥
ह परः-ननु चाज्ञानी-हितादितविभागपरिज्ञानश्चल्यः,
पुनरपि तत्रैव जले निमजञेत् कूर्मः, नेह किमपि चित्रम् ।
पत्तन न विदुषां मतं, यत्-जेनमागज्ञो हितादितविभागव-
सा ज्ञान्यपि भवसागर युननिंमजति । श्रत्राचायः प्राह--
ज्ञान्यपि पुनर्भवसागरे निमज्ञति, सत्करियापविरहात् , अश्ञा-
निकूमेवत् समुद्र दति । वा इति--ञ्रथवा , निश्चयनयमेतेन
जानन्नप्यज्ञान्यदासों सत्क्रियापरिहीणः, ज्ञानफलस्य विर-
तरभावात् | श्रता ज्ञानी कूम इव पुनवंडति--निमज्ति भ-
वोध ससारसमुद्र सवन्धिनि जन्मजरा ४ ऽमयमरणसलिल-
प्रचाह । इति गाथाद्धया्थैः॥ ११५० ॥ ११५१ ॥
अत एवाह नियुक्चिकारः--
सुबहुं पि सुयमहीयं, कि काही चरणविप्पहाणस्स ।
अधस्स जह पलित्ता,दीवसयसहस्स कोडी वि १११५२
खुबद्धपि श्रुतमधीत॑ चरणविप्रद्दीणस्य निश्चयतोऽञ्ञानमेव ।
अतस्तस्य फलशन्यत्वादकिश्ित्करमेव । यथा-अन्घस्य दी-
पशतसहस्मकोस्यपि प्रदीप्ता न किञ्चित् करोति । दीपानां
शतसहस्राणि लक्ता इत्यथः, तेषां कोटी, अपिशब्दासू--
तदद्रथादकाटयोऽपि। इति नियुक्किगाथाथेः ॥११५२॥
अथ भाष्यम्--
सते पि तमां, नाणफलाभावओं सुबहूयं पि ।
सक्किरियापरिहीणं,अधस्स पईवकोडि व्व ॥११५३॥
गतार्थैव ॥ ११५३ ॥
अज्ञ प्रयेम॒त्थाप्य परिहरति-
अधाऽणववोहो चिय, बोहफले पुण सुय किमष्यार् ।
बोहो वि तओ विफलो, तस्स जमंधस्स अवबोहो । ११५५४)
आह नन्वत्र दृष्टान्तदाष्ट्रीन्तिकयार्वैषम्यमेच, यतो3न्धा५--
नववोध एव । न खलु तस्य बहुमिराप प्रदीपकोाटिभिः प्रज्व-
लितामिघटाद्यवबाधो जन्यत, स्वयं चक्षुर्विकलत्वात् तस्य ।
श्रुतक्षाने तु सज्चद्ुषः प्रदीपवत् बोधफलमेब, ततः कि--
१--सेवाल इति दश्तयादिरपि | .
विश
किश्ित्करमुच्यते ?, इति भावः । अत्रात्तरम--बोधो<5पि
तकोसो श्रुतजनितस्तस्य करणी नस्य विफलो यस्मात् ,
तस्माद् अनवबोध पव,ईइति भावः, यथा-ऽन्धस्य ' अवबोहो
` त्ति' अवबोधः । इति गाथाद्याथेः ॥ ११५४ ॥
व्यतिरेकमाह -
अष्पं पि सुयमहीयं, पगासयं हाई चरणजुत्तस्स ।
एको बि जह पवो, सचक्खुश्रस्सा पयासेइ ॥११५५॥
अल्पमपि श्ुतमधीतं चरणयुक्रस्य तद्धतुत्वात् प्रकाशक
भवति-प्रकाशकं भरायते, क्रियादेतुत्वेत सफलत्वाज्शानत्वेन
व्यपादिश्यत इति ताःपर्यम् । यथेका5पि प्रदीपो देयोपादे-
यपरिहारोपादानादिक्रियाहेतुत्वाश्चक्ञष्मतः प्रकाशयति प्र-
काशको भणयते । इति नियुङ्किगाथाथः ॥ ११५५ ॥
भाष्यम्-
किरियाफलसंभवओ, अष्पं पि सुयं पगाखयं होइ ।
एको बिहु चकखुमओ, किरियाफलदो जह पर्ईयो।११५६।
पूवौधस्यान्ते ˆ चरणयुक्कस्य › इति शेषः । शषमुक्रा्थ-
मव ॥ ११५६ ॥
चदयमाणच्त्त संबन्धयज्ञाह--
न हि नाण विफल चिय,किलेसफलयं पि चरणरदियस्स ।
निष्फलपरिवहण।श्रो,चदणभारो खरस्सव ॥ ११५७॥
न हि ज्ञान चरणरद्ितस्य विफलम् , इत्यतावतैव तिष्ठति, |
किन्तु-पठनगुणनचिन्तनादिभिः कलेशफलदमपि भवति,
यथा निष्फलवहनाच्चन्दनकाषठभारः खरस्य विफलः, क्ल-
शप्रदश्च ॥ इतिगाथाद्वयाभेः ॥ ११५७ ॥
तथा चाह नि्युक्किकारः--
जहा खरो चंदणभारवाही,
भारस्स भागी न उ चदणस्स |
एवं खु नाणी चरणेण हीशो,
नाणस्स भागी न उ सुग्गईए ॥ ११५८ ॥
यथह खरश्रन्दनकाष्टभारमुद्वहस्तज्ञानितश्रमादिकष्टभाज-
नमेव भवति, न तु चन्दनस्य तद्रसोपकर्पितविलपनादिभा-
ग् मवतीत्यार्थः | एवं चरणन हीनः श्रुतज्ञान्यपि तद्भारमुद्ध-
हन् ज्ञानभागव भवति, तत्पठन-परावर्तन-चिन्तनादिकत-
कषटभाजनमव भवर्तात्यर्थः, न तु सुदेवत्व-सखुमानुषत्व-सि-
दिलच्तणायाः सुगतेरिति ॥ ११५८ ॥
श्रथ मा भूदित्थे विनयस्यैकान्तन ज्ञानेऽनादरः, क्रियायां
चेतच्छुन्यायामपि पक्तपातः, त्यतो दयारपि कवलयारिष्ट-
फलासाधकत्वमुपदशयन्नाह--
हयं नां कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया |
पासतो पद्ल। दड्डो, धावमाणों य अधओओ | ११५६ ॥
अज्ञाक्तराथेः सुगम एवं, भावार्थ तु भाष्यकारो वक्ष्यति ।
इति नि्युक्षिव॒त्तश्लोकार्थ: ॥ ११५६ ॥
श्रथ भाष्यकारो 5ननन््त रोक्कश्लोा कभावा थमा ह--
हयमिह नाणे किरिया-हीण ति जओ हयं ति जे विफलं ।
लोयणविन्नाणं पिव, पंगुस्स महानगरद हे ॥ ११६० ॥
१-छन्दो ऽनुरोभात्सौत्रत्व ढा दौष।न्त; |
( ४३३ )
अभिधानराजन्द्रः |
मोक्स्व
काहिइ नाणचायं, किरियाएं चत्र मोक्खमिच्छंतो ।
मा सीसो तो भष्छई,हया य अन्नाणओ किरिया ।११६१।
इतामिह शानम् | किविशिष्टम ?, इत्याह--क्रियाहीनमिति
यत्र॒ चारित्रक्रिया नास्तीत्यथैः। नयु कथ क्रियाहीने ज्ञान
हतम उच्यते ?, इत्याह--यतो यस्माद् यद् विफलं तदिद
हते विवक्षितम् , फलं च ज्ञानस्य क्रियैव । तता विगतफलं
ज्ञाने क्रियादीनमेतरोच्यते, नान्यत् । न्नर च प्रयोग:--हते
शानमेव केवलम् सत्करियादीनत्वात् महानगर प्रदीपनकदा-
है पलायनक्रियागदितपङ्कुलोचनश्चानवदिति । एवमुक्ते सति
क्रियात एवं मोत्तमिच्चेन् शाने5नाहतस्तत्त्याग मा कार्ची-
च्छिष्यः, इत्यतो भरायत--हता ज्ञानतः क्रिया--हता मोक्त-
लत्तणफलरदहिता ऽक्षानपरिगृहीता निद्ववादेः क्रिया,सम्यग्र-
छरप क्ञानोपयोगशन्यस्य क्रिया हतेव तथाविधफलविकल-
त्वात् सवतः सकटप्रदीप्तनगरे दष्यमानगृहाचभिमुख पलाय-
मानान्धगतिक्रियावदिति । वस्सादन्यो ऽन्यपेन्ते समुदिते एव
ज्ञानक्रिये माक्तस्य साधनमे्टव्ये,न प्रत्यकमिति॥११६०११६१॥
एतदेवाह--
अइसंकड पुरदाह-म्मि अधपरिधावणाइकिरिय व्च ।
तेणउन्नोज्नावेक्खा,साहणमिह नाणकिरियाओ ।११६२।
गतार्थैव ॥ ११६२॥
शत्र परः प्राह--
पत्तेयमभावाग्रो, निव्वाशं सयुदियासु वि न जुत्तं ।
नाणकिरियासु बोत्तुसिकतासमुदायतेन्चं व ॥ ११६३ ॥
आह--नलु भवत्प्रतिपादितन्यायेन प्रव्यकावस्थायां ज्ञान.
क्रिययोनिवौणसाधकसामथ्याभावात् समुदिताभ्यामपि
हानक्रियाभ्यां निवीण व्क न युक्तम् , सिकतासमुदाये तैल-
वत् । अन्न प्रयोग:--इह यद् यतः प्रलकावस्थायां नोत्पद्यत
तत् ततः समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकताकणेषु प्रत्य-
कमभवत् तैले तत्समुदायऽपि न भवति । न जायते च
प्रत्येक ज्ञानक्रियाभ्यां मोत्तः, श्रनस्तत्समुदायादप्यसौ न
युज्यत इति । तदेतद युक्कम् , प्रत्यत्तविरुद्धत्वात् : तथादि-
सृत्तन्तुचक्रचीवरा दिभ्यः प्रत्यकमभवन्ताऽपि तत्समुदाया-
द् घटादिपदा थसार्थाः प्रादुभेवन्ता दृश्यन्त,अतोःदृष्टस्य मो-
त्तस्यापि ज्ञानक्रियासमुदायात् भादुर्भूतिरविरुद्धैवे ति॥ ११६३
किञच--
बीसु न सव्वह चिय, सिकतातेल्नं व साहणाभावो ।
देसोवगारिया जा,सा समवायम्मि संपुएणा ॥११६४॥
न च विष्वक्-पृथक् सयैथव सिकताकणानां तैल इव साध्य
ज्ञानक्रिययार्माक्षि प्रति साधनत्वाभावः, किन्तु-या च यावत
च तयोर्मोक्ते धरति देशोपकारिता भ्रव्येकावस्थायामप्यस्ति.खा
च समुदाये सपृणौ भवति, इत्येतावान् विशषःः अतः स-
योग एव ज्ञानक्रिययोः कार्यसिद्धिः । इति गाधापञ्चका-
थे; ॥ ११६४ ॥
एतदेवाह--
संजोगसिद्धीई फलं व्यति,
नहे ( ह ए ) गचकेश रहो पयाद् |
४१
मक
( ४४४ )
अभिधानराजेन्द्रः।
सोक्स्व
अधो य पंगू य वशे सामिचा,
ते संपउत्ता नगरं पविद्ठा ॥ ११६५ ॥
|
।
॥
|
ज्ञानक्रिययोाः संयोगनिष्प्तावेव मोक्षलक्षणं फलमाचन्ष- '
ते तीथेकराः । न हि लोके ऽप्यकचक्रण रथः प्रवर्तते । पव-
मन्यदपि सव सामग्रीजन्यमेव कायमवगन्तव्यम् । तथा |
चान्धपडागूदाहरणामह वक्तव्यम : तद्यथः-- कस्यापि नगर-
स्य सःका लाकः कुताऽपि राजभयादरगये गतः । तजा-
पि तस्करधारोभयाद् वाहनादिकमुज्मित्वा भ्रपालयितः ।
श्रन्धपङ्ग् पुनरनाथो तत्रैव स्थितो । तत्र च दवाग्नों स-
वेतः प्रदीप्त तौ परस्परं संप्रयुक्तो पङ्करन्धन स्वस्कन्धमा-
रापितः
कथयति । चरतस्तस्य सत्कन चाच्युषल्लानेन, श्रन्धसत्कया च
गतिक्रियया सम्यग् मार्गप्रवृत्या क्षमेण नगरं श्रविष्राविति ।
एवं सवत्र सयागात् फलसिद्धिभावनीया । इति निर्युक्ति-
वृत्ताथः ॥ ११६५ ॥
अत्र भाष्यम्--
दुगसंजागम्मि फल, सम्मकिरिआवलद्धिभावाओं ।
इटपुरागमणं पिव, संजाए अन्धपंगूणं ॥ ११६६ ॥
वइरेगो ज विफलं, न तत्थ सम्मक्िओवलद्धीओ ।
। स चान्धस्य सम-विषम-स्थाणु-कण्टकादिकं :
दीसति गमणविफले, जरेगचक भुवि रहाम्मि ॥११६७॥ |
श्रनन गाथाद्वयन प्रस्तुता्थसिद्धयऽन्वय-व्यतिरकप्रयोगो
निर्दि्ो. तथादहि-दिकं ज्ञानाफरियालक्षणं तत्संयाग एव फल
मात्तलत्तण भवात । कुतः ? , अत्र सयाम सम्यकाक्रया-
पलन्धिभावादिति । क्रिया-चारित्ररूपा , उपलब्धिस्तु-शा-
नम् । इद यत्र यत्र सम्यकृक्रियाज्ञान तत्र 'तअष्टफलसि-
द्धिः, यथा-श्रन्धपङ्कसम्यकूक्रियाक्ञानसयागे, सम्यक्क्रिया
शान चात्र इयसयोाग, तस्मादतो मोक्तफलसिद्धिः । इत्य-
न्वयगप्रयोगः । श्रथ व्यतिरेकप्रयाग उच्यत-यद् विफलं न
तत्र सम्यक्क्रिया-क्षान दश्यते यथा-भुवि पृथिव्यां गति-
क्रियारहिते विधटितेकयचक्रे रथे, सम्यकक्रिया-ज्ञान चातर
हयसंयोगे, तस्मादतो मोक्ञषफलधापिरिति ॥ १६१६७ ॥
वद्यमाणनियक्रिगाथासंबन्धनाथमाह-
सहकारित्ते तेसि, कि केणोवकुरुते सहावेणं ।
नाण चरणाणमहवा,सहावनिद्धारणमिया्णिं ॥११६८॥ |
श्राह-ज्ञानक्रिययाः सहकारित्वे सति कि केन स्वभावेना-
पकुरुते-किमविशेषणोपकुखुतः , शिविकावाहकपुरुषसङ्घा- |
तवत् !; आहोखिद् भिन्नस्वभावतया, गतिक्रियायां नयन- |
चरणादिवत् ?। श्रत्रोच्यते-भिन्नसखभावतया, यत श्राद-
* नारं पयासयमित्यादि ` इत्येका वक्ष्यमाणगाथायाः भ्र-
स्सावना | अथवा--संज्षिप्ता उन््या प्रस्तावनाच्यते, यथा--
तयेरेव शानसरणयोरिदानीं स्वभावनिर्धारणं कियते, इति
सेक्तेपविस्तररूत एव भदः, न तु पारमार्थिकः । इति गाथा-
अयाधेः ॥ १६६८ ॥
नाशं पयासयं सो-हओ तषो संजमों य गृत्तिकरो ।
तिरे पि समाश्रोगे, मोक्खो जिणंसासणे भशिश्रो ११६६
दरद यथा किश्विदृद्वाट्॒टारे
बहुबातायनजालकच्िछुद्रं |
वाताकृषशदिप्रचुररेणुकचवर पूरिते शन््यगृहम् । तत्र च
चस्तुकामः काऽपि तत्
कानि सवौरयपि वाह्यरेणुकचवरप्रचशनिषिधा्थं॒स्थग-
यति । मध्य च प्रदीपे प्रञवलयति । पुरुष च कच-
वराद्याकर्थणाय व्यापारयति । तत्र च प्रदीपा रेरवादि-
मलप्रकाशनव्यापारेणोपकुरुते, द्वारादिस्थगन तु बाह्य-
रेणबादिप्रवेशनिषेघेन, पुरुषस्तु रेण्वाद्याकर्षणात् तच्छो-
धनन । एवमिहाप जीवापवरक उद्धाटाश्रवद्धारः स-
दुगुणशन्यो मिथ्यात्वादिहेत्वाकृष्टकर्मकचवर पूरितो मुक्गिखु-
खनिवासहतोः शोधनीयो वर्तते । तत्र च प्रदीपस्थानीयं
ज्ञान जीवादिवस्तृनां प्रकाशकम् , तपस्तु पुरुषस्थानीय
कम कचवरशाधकम् , सयेमस्तु द्वारादिस्थगनकल्पो गुप्त
करो नूृतनकर्मकचवर प्रवेशनिषेधकः । एवं याणामपि
ज्ञानादीनां समायागे समवाय माक्ता जीवस्य जिनशासन
भितः । एवं शुद्धखरूप जीवमन्दिरे सिड्धिसुर्खान सेततं
निवसन्ति । इति नियु्किगाथाथः ॥ २१६६ ॥
आहर-ननु जीवरापवरकशोधन किमिति ज्ञानादीनां तित
यमप्यच््यते, यावता ऽन्यतरेणेकनापि तच्चुद्धि भविष्यति ?
याशङ्क्यकेकस्मात् कायसिद्धिनिराकरणन त्रितयसमुदा-
यादेव तत्सिद्धि समर्थयश्नाह भाष्यकारः-
असहायमसोहिकरं, नाणमिह पगासमेत्तमावाग्रो ।
सोहइ घरकयारं, जह सुपगासो वि न पईवों ॥११७०॥
न य सव्वविसोहिकरी,किरिया बि य जमपगासधम्मा सा।
जह न तमो गह मलं, नरकिरिया सब्वहा हरइ ॥११७१॥
दीवाइपयासं पुण, सकिरियाए विसोहियकयारं ।
संवरियकयारागम-दारं सुद्धं घ्रं होई ॥ ११७२ ॥
तह नाणदीवविमलं, तवकिरियासुद्धकम्भयकयारं ।
संजमसंवरियमुहं, जीवघरं होइ सुविसद्धं ॥ ११७३ ॥
दृह न झ्ञानमसहायमेकाक्येव शोधयितुमलम् ; प्रकाशमा-
अस्वभावत्वात् , यदक्रियं प्रकाशमात्रस्वभाव॑ न तद् विश
डिकरं दृष्टम , यथा न गृहरजोमलविशुद्धिरद् दीपः । यश्च
विशुद्धिकरं न तत् प्रकाशमात्रस्वभावम् , यथेष्टा ऽनिष्परा-
पघ्िपरिहारपरिस्पन्द्वान् नयनादिप्रकाशधर्मा दवदत्तः, प्र-
काशमात्रखभाव च शानम् , सस्माद्सहायत्वाद न विशुद्धि-
करं तदिति । क्रिया ऽप्येकाकिनी न सर्वशुद्धिकर्स, अप्रकाश-
धर्मकत्वात् , यद् यवृप्रकाशधर्मक न तत् सर्वविशुद्धिक-
रम् , यथा-न समस्तगरृहरजोमलविशुद्धयेऽन्धक्रिया, चछ्चु-
ष्मतो वा क्रिया; यथा--तमायुक्क गृहं तमोगरहं तस्य न सर्व
विशुद्धयेऽलम् । या च सर्वविशुद्धयऽलं न सा-ऽप्रकाशस्व-
भावा, यथा--चल्तुष्मतो नरस्य वितमस्कगरुहे समस्तरजा-
मलापनयनक्रिया, अप्रकाशस्वभावा चेकाकिनी क्रिया, अ-
तो न सर्वविशुद्धिकरीति । शज्रितयादाप समुदितात् तह
सुदिने भविष्यतीति चेत् ? नैवम्, इत्याइ--दीपादिप्रका-
शे पुनर्यथा गृहं सत्कियया विशाधितकचवरं सभूतक-
चवरागमहेतुभूतदारे सर्वथा शुद्धं भवतिः तथा तेनैव
प्रकारेण क्षानदीपविमलितं तपःक्रियया शोधितकर्मकचघरं
संयमेन सभरुतसमस्ताश्रवह्वारं जीवगुई सुबिशुरु सिद्धि-
छ
है
( ७५५
श्रभिधानराजेन्द्रः
सुखसंदोहनिवासयोग्य भवतीत्यथेः । इति ॥ ६६७० ॥
| ॥ ११७२ ॥ ११७२ ॥ ॥
श्राद-ननु पूर्व क्ञानक्रियालक्षणाद् इयाद् मोत्तः ,
इदानीं तु क्षानतपःसयमरूपात् त्रितयादसावुच्यते , इति |
कथंन पूर्वापरविरोधः ? , इत्याशङ्धा ऽऽह-- |
संजमतवोमई ज, सेवरनिज्ञरफलामया किरिया |
तो तिगसंजोगो वि हु,ताउ चिय नाणकिरियाओ। ११७४
सयमतपोमयी संवरनिजैरफला घ यदू--यस्मात् ती-
अक्ररगणधराणां मता-समता करिया , ततस्तस्माञ्ज्ञा-
नतपःसंयमरूपस्थिकसंयोगो 5प्यसो ; ते एव पूर्वोक्ते
ज्ञानक्रिये, नाधिकं किञ्चिदिति । इदमक्र भवति--ए-
कैव चारत्राक्रया सयमतपाभदाद् द्धा भिद्यते , |
तपःसयमरु पत्वाच्चारि्रस्य । श्रत पएव-सवरो निजैरा च
तस्याः फलम् , सयमस्या $ ऽश्रवद्वारसवरदेतुत्वात् , तप- .
सस्तु कमंनिजराकारणत्वात् । अतो यद्यपीह ज्ञानादित्रयाद् |
मोत्त उच्यत. तथापि तपःसयमयाः क्रियायामेवेकस्यामन्त- |
भावाज्ज्ञानक्रियालक्षणद्यादेवायम् , इति न कश्चिद् विरोधः। |
अपरस्त्वाह-ननु-'' सम्यग्दशनज्ञानचारिव्ाणि मात्तमा्मः ""
इति प्रसिद्धम् , श्र तु ज्ञानचारित्राभ्यां स प्रतिपाद्यते,
इति कथं न विरोधः? एतदप्ययुङ्कम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् ,
यतो-ज्ञानग्रहरानेवेह सम्यक्त्वमाक्तिप्यते, सम्यक्त्वमन्तरे-
ण ज्ञानस्याप्यभावात् , मिथ्यादष्टिज्ञानस्याज्ञानत्वेनास-
कृत्प्रतिपादनात् , तथा-क्षानविशष एव सम्यक्त्वम् , इति-
श्रागत्राप्युक्कमेव, तद्यथा--' नाणमवायथधिईआ , दंसणमिडं |
जहोग्गहेहाओ । तह तत्तरुई सम्म, राह जण ते नाण `
तस्माञ्ज्ञानान्त्मतमेव सस्यक्त्वम् , श्रता शानग्रहणात् तदू
गृदीतमव, इत्यल प्रसङ्गन | तदेवं व्याख्याता *
ये ` इत्यादि गाथा ॥ ११७४ ॥
श्रथ 'भावे खश्ोवसमिए' इंत्याद्युत्तरगाथासंबन्धना थैमाह-
न लहइ सिव सुयम्मि वि, वईतो अचरणो त्ति जे तस्स।
हेऊ खओवसमआओ, जह वडंतोऽवदिष्ाणे || ११७५ ॥
इह * जञ ति ` * सुयनाणम्मि वि जीवो बटतो सो न पाउ-
शई मोक्खे ' इत्यादि गाथायां यत् पूर्व प्रतिज्ञातमिव्यर्थः ।
कि प्रतिज्ञातम् ?, इत्याह- न लभते शिव-मोक्त श्रुतेऽपि
वर्तमाना ऽचरणो जीवः ' इति | तस्य प्रतिज्ञातस्य देतुरयं
दरषटव्यः। कः ?,इत्याह-खवसमओ क्ति' क्षायो पशमिकत्वा-
त्-श्चुतज्ञानस्य क्षायोपशामिकभाववर्तित्वात् , माक्तस्य च
नाण पयास-
क्ञायिकज्ञान एव भावादिति भावः। यथाऽवधिज्ञाने वर्तमान |
इति दण्रान्तः ॥ ११७५ ॥
श्रत्र परः प्राह-ननु यद्येवम् , तहिं चरणसहितादपि श्रु-
ताद् मोक्तो न भवत्येव , अस्मादेव हेतोः श्रभुष्मादेवच दष्टा
न्तादिति। कः किमाह -क्षायोपशामिके चरणसहितेउपि |
ज्ञाने न भवत्येव मोक्ष इति सिद्धसाध्यतेव, किन्तु-क्षायिक- |
ज्ञानचारित्राभ्यामेव मोक्ष इति । एतदेवाह-
सक्किरियम्मि वि नणे,मक्खो खहयम्मि न उ खओओवसमे। |
सुत्तं च च खओवसमे, न तम्मि तो चरणजुत्ते वि।११७६।
गताचैंच ॥ ११७६ ॥
११२
मोक्स्व
श्राह -यद्यवे कज्ञायोपशामकभावर्वाक्तत्बनव श्रताद् माक्ता
निषिद्ध इत्यतश्चरणसहितात् तलः प्राग् यद् माक्ताभिधान
लच्छन्यचित्तभाषितमव । नेवम् . यतः साक्तादानन्तर्येणव
श्रुताद् मात्ता निषिध्यत , पारम्पयण तु तस्मादप्यसो भव-
व्यव , यस्मात् शरुतज्ञानचारतराभ्यां स्तायिकन्ञानचारित्र
लभ्यते , ताभ्यां च माक्तः संप्राप्यत | ततश्रारित्रयुक्लं श्रुत
मोत्तहेतुरित य दुङ्घं प्राक, तदप्यविरुद्धमवति ।
एतद्वाह--
। जं सुयचरणेहिंतो, खाइयनाणचरणाणि लब्भंति |
तत्तो सिवं सयं तो, सचरणमिह मोक््खहेंउ ति ।११७५।
व्याख्यातार्भैव ॥ १६७७ ॥
ननु कुतः पुर्नारदमवसीयत यत् ज्ञायापशामके भाव श्रुत
वर्तते ?। उच्यत-श्रागम तथेबामिधानात् | कः पुनरवमा-
गमः ? इत्याह-'भाव खओोवसमिए ' इत्यादि इत्यवमेकया
पातनयेय गाथा संवध्यत ।
अथ पातनान्तर चिकीषुगाट--
अहवा निज्ञिण्णे चिय, कम्म नाणं ति किय चग्णेणं |
न सयं खयग्मो केवल-नाणचरित्ताईँ खडयाई ॥११७८॥
तेसु य ठियस्स माक्खो, तो स॒यमिह सचरणं तद टाए ।
तं कह मीसं खडय, च कवलं जं सुएऽभिहयं ॥११७६॥
अहव त्ति' अथवा, पर आह-ननु च स्वावारक कमणि तावत्
सर्वथा निर्जीण-परिक्तीण सर्वेमपि ज्ञानमुत्पद्मयत, न तूद्यप्राप्त ।
ततश्च यथा चारित्रमन्तरेणापि कथमपि तज्ज्ञानावरणं
कर्म क्षीणम् , तथा मोक्षलाभावाग्कमपि कथमप्येवमव
च्यमुपयास्यति , ततो ज्ञानादेव कचलाद् मातक्षों भवि-
ष्यति, कि चारित्रेणति ? । श्रत्रोत्तरमाह--' न सुय
खयड त्ति' सर्वमपि ज्ञाने स्वावरण सवेथा क्षीणे स-
मुत्पद्यते , इत्यतदसिद्धम् , यस्मात् श्रुतज्ञानम् , उपल
त्षणत्वाद् मल्यवाधमनःपयौयज्ञानानि च न स्वावरणत्त-
यात्, किन्तु-तत्त्तयोपशमादवेतानि जायन्त । क्षायिकं
त्वेकमेव कवलक्ञानम् , तथा क्षीणमाहसबन्धि चार
च त्तायिकम् , तयोश्च स्थितस्याऽऽनन्तयण मोक्ता जायत ।
ततः सच रण श्रर्तामह तदशीय ज्ञायिकज्ञान-चारित्रला
भाय भवति, इत्येवं परम्परया चारित्रसहितातू श्रुताद्
मोक्षप्राप्तेः पूर्वो्ति विरुध्यते । परः प्राह--कर्थ पुनरि-
दरं विज्ञायते-तत् श्रुतज्ञान मिश्र ज्ञायोपशामिकं, क्वल-
ज्ञान तु क्ञायिकमिति ?। आचार्यः प्राह-यदू-यस्मात् ,
श्रत-आगमेउमिद्दितमेंतत् इति गाथादशकाथः ॥ ६६७६ ॥
कि तदभिदितम् ? , इत्याह--
भावे खञ्मवसामरए, दुवालसग पप हाइ सुयनाण ॥
केवलियनाणलंभो,ऽनरणणत्थ खए कसायाणं ॥११८०॥
भवनम्--भावः , भवतीति वा-भावषः , तत्र भावे श्रुत-
ज्ञान मवति | कस्मिन् ?, इत्याह--त्तयापशषमाभ्यां निवै-
तः , त्तयोपशमावव वा क्षायोपशमिकस्तत्रैव भवति, न
त्वौदयिकादिके । कियत् ? , इत्याद द्वादशाङ्गानि यजत्र
तद् द्वादशाङ्गम् , अपिशब्दादू--वाह्ममग्रि सर्वम्
तथा--प्रस्यव्ििमनःपर्यी यज्ञानत्रयमपि, तंधा--क्षायिकोंप
( ४७३६ )
अऋभिधानराजन्द्रः |
साक्ग्व
शमिकभावच्रततिवञ्यसामायिकचतुष्टयमपि । केवलस्य भावः
केवरये घातिकमाचयाग इत्यथः, तास्मन् केवलस्य सति
ज्ञान केवल्यज्ञाने केवलज्ञानमित्यथः , तल्लाभः पुनः कषा-
याणाम्-क्राधादीनां सर्वथा क्षय सत्येव भवति , नान्यत्र
नान्यन प्रकारण । इह च यद्यपि घातिकर्मसु चतुष्वेपि
क्तीणषु कवलक्ञान भवति, न तु केवलघु कायेषु ; त-
थापि प्राधान्यख्यापनाथ तथामेव ग्रहणम् , तत्क्षय शष-
कर्मत्तयस्या ऽवश्ये भावित्वात् । इति नियुाक्गायाथः॥६१८०॥ |
भाष्यम्
सव्ये पि किमुय देम, केवलवज्ञासि वावि सदेणं ।
चत्तारि खश्रोवममे, सामइयाई च पाए ॥ ११८१ ॥
सव्वकसायावगम क्वलमिह नाणदं सणचरित्त ।
देसक्खए वि सम्म, धुवं मिवे सव्वखडइणएसु ॥ ११८२ ॥
सवंमपि श्रुत क्तायापशमिकभाववतिं , किमुत तदेशः,
इत्यपिशब्दभावा थेः । श्रथवा-श्रपिशब्दास्-कवलक्ञानवल्या- |
नि चत्वारि ज्ञानानि, सामायिकानि च सम्यकत्वश्रुतदेशस-
वविरमणरूपाणि चन्वारि, प्रायोग्रहणादत्तायकोपशमिका
नीति । इह ` नगणत्थ खए कसायाणो `
वषयसामान्याङ्कावतिप्रसङ्खाद् , विशष दशैयति-कवलक्ञा-
नम् , कवलद शनम् , कवल परिपूर्ण त्तायिकं चारित्र चति।
पतानि अणि सवेषामेव काधादिकधायाणामपगम क्ये |
भवन्ति । क्षायिक सम्यक्त्वं पुनस्तेषामनन्तालुबन्धिचतु-
श्रयरूपदेशत्तये ऽपि भवात । ततः स्ेंष्वपि ज्ञानदशनस-
्यक्त्वचारित्रषु क्षायिकेषु जातघु सत्सु धवे- निश्चितं
हति कवलन्ञान- |
शिवं-मोत्तो भर्वात जीवस्यति ॥ ११८१ ॥ ११८२ ॥ विशे० । ¦
द० प० । ( माक्ञ नवसद्भावपदा्थेक्ञानं माक्ततच्वप्रतिपादक-
मिति तत्त ` शब्दे चतुथमाग २१८१ पृष्ठे गतम् ) ( घर्मस्य
फलं मत्तः दांत ` अत्थ ` शब्दे प्रथमभाग ५०७ पृष्ठे गतम् )
( क बलज्ञानानन्तर मान्तः इति ` घम्म शब्दे चतुथभागेरद८३
पृष्ठ गतम् ) (प्रातः स्नानादिषु माक्तमिच्छतां मतम् ` उदग'
शब्दे द्वितीयभाग ७६६ प्र गतम् )
मदे शानुग्रहान्मात्त इति पातञ्जलमतमवशिष्यते--
पतदेवाह--
अन्यताऽनुग्रहोऽप्यव, तत्स्वाभाव्यनिवन्धनः।
अताऽन्यथा त्वद; सथ, न प्ुख्यमुपपद्यत ॥ ७ ॥
“महेशानुग्रह्ा द्राधनियमों "
इति वचनाद् अन्यतो-महें- |
शाद् , अनुग्रहः अपि-उपक्राराऽपि शुद्धल्ञानाक्रियालाभल- |
क्षणः, कि पुनः पू्वाक्को ससारापवगौवित्यपिशब्दाथैः । श्रव
यागचिन्तायाम् , किम् ?, इत्याह-तत्स्वाभाव्यनिबन्धनः-
स-मदेलानुग्रदयाग्यः स्वभावा यस्यस तथा; तद्धावस्त- |
त्स्वाभाव्यम् ; तान्नदन्धम--हतुस्य स तथा । विपयय |
अन्यथा तु-श्रन्यन |
याधामाह-- श्रतः- तत्स्वाभाव्याव् ,
प्रकारण, पुनः कठलमदशासुग्रहादिरूपेण, अदः--लंसारि-
स्वादि, सवम्-- कः सनम , न-- नैव, मुख्यम्-अनुपचरितम्, |
उप्पद्यत-- घटत | यथा हि--कर्पासादि: स्वभावत प्वा- |
याग्या लाज्ञार्सादिना रस्यमानाऽपि न ताच्छिकं राग प्र
तिष्द्यत, कि तु-रागाभासमत्र, एसमात्मनां योग्यताबिरहे ,
मंहेशन क्रियमाणावप्यजुग्रहनिग्रहों न तात्त्विकों स्याता:
मिति, तत्स्वाभाव्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । तद्भ्युपगमे
तत एव ससारमोक्ञोपपत्या न किचिन्मदेशानुग्रहादिना प्र
योजनमस्तीति सिद्धम् “आत्मा तदन्ययागात्ससारी"" इत्य
दि ॥ यो० बिं० ।
अनुग्रहो5प्यनुग्राह्म-योग्यतापेक्ष एव तु । ४:
नाणुः कदाचिदात्मा स्या-देवतानुग्हादपि ॥ १२॥ `
अनुअहो5पि महेशकृतः कि पुनः शथक्रियाविशेष इत्य
पिशब्दार्थः । अनुग्राह्मस्य--अलनुग्हविषयस्य ,जन्तोया ग्य
पेक्ष एब तु-योग्यतामेवापेक्ष्य न पुनरन्यथा । श्रसु
प्रतिवस्तूपमया भावयति--न- नेव, श्रणुः-पुद्र
कदाचित्-क्ापि काले, आत्मा--जीवः स्यात् | कुतो5ए
त्याह-देवतालुग्रहादपि-देवताया दिव्यविशेषरूपाया,
जुग्रहः-प्रसादः, तस्मादपि कि पुनस्तदभाव इत्यपि शब्दार्थ भ
असमवाये भावयति--
कमणो योग्यतायां हि, कतौ तव्यपदेशमाक् ।
नान्यथाऽतिग्रसङ्गेन, लोकसिद्धमिदं ननु ॥ १३ ॥
क्मणः--क्रियाविषयस्य, सामान्येन मुद्धादेबरस्तुनो योग्य-
तायाम--योग्यभावे, हि-यस्मात्कारणात् कती--पाचका-
दिः; तद्यपदेशभाक्- तं पाचकादिरूप व्यपदेशं भजत यः स॒
तथा । विपत्त बाधामाद-न- नेव, श्रन्यथा--श्नन्यन प्रका-
रेण कमणः पाकादियोग्यताविरह कतौ तद्यपदेशभाक् । क-
थमित्यादह--श्रतिप्रसङ्गन--श्रतिव्यात्तिलक्तषणेन ; लोकसिद्धं
वालावालादिजनप्रतीतम् इदम् पूर्वोक्त वस्तु नजु-- निश्चितम्,
नास्मिन्नथ ऽन्यल्थ्रमारो गवेषणीयमिति भावः।
पुनरप्यमुमवार्थ पुरस्छृत्या $ऽह-
अन्यथा सवमेवैत- दौपचारिकमेव दहि ।
प्राप्नोत्यशोभन चेत-ततच्चतस्तद भावतः ॥ १४॥
श्रन्यथा-खयाग्यतामन्तरेणापि, कर्मणो यदि क्तौ तद्व्य'
परदेशभागिष्यते; तदा सर्वमेवेतद् बाह्यस, श्राभ्यन्तरं च,
कार्यजातम् ! किमित्याह-ओपचारिकमेव-उपचारमात्रोद्ध
वमव, हि-स्फुटम् , प्राप्नोति-प्रसज्यते, माणबकसिहत्ववत्।
यदि नामैवं, तथापि को दोष इत्याह-अशोभने च-अशोभने
पुनः,एतल्ू-सर्वमबीपचारिकतया 5भ्युपगम्यमानस । कुत इ-
त्याह-तत्त्वतः-पारमार्थिक्या वृत्या, तदभावतः-श्रौपचारि-
कवस्तुना ऽभावात् न ह्यपचरिता भावा माणवकसिहता-
दयः पारमाथैकं सिहादिरूप भजन्ते | एवे मोक्षादयो<5प्या-
त्मनः स्वयोग्यताया विरहे महेशानुग्रहादेः परैरभ्यु पगम्य-
माना न पारमाधिकरूपभाजो भवयुरिति ।
किच
उपचारोऽपि च प्रायो, लेके यन्मुख्यपूर्वकः ।
दृष्टस्ततो5प्यदः सर्व मित्थमेद व्यवस्थितम् ॥ १५ ॥
उपच्ाराऽपि च-उपचरितवस्तुव्यघहाररूपः कि पुनमुख्य~
पूथैका व्यवहार इत्यपिचशब्दाधेः । प्रायो--बाहुल्येन लोके- _
व्यवद्वाराहँ जन यद्-- यस्माद् मुख्यपूर्वक्रः--निरुपचरितब-
~= ~~ = ऋ. => अ ऋ 2- ~ जज जे 3 > ~
~ ~= ॐ ~ न्यः
` क अ अंक" - 7 तति चणो
मोक्ग्व
स्तुव्यवहारापेत्त., दृष्ठः-उपलब्धः । प्रायोग्रहएं कचिद् व्य-
भिचाराशम् `` तेन मेरुमन्थानेन मथितो नीरनिधिः सुरैः ”
इत्यादयो ऽत्यन्तमसंवद्धाः, केचिल्लोकव्यवहारपूर्वेकाः, कि तु
मिध्याविकल्पवासनाप्रकोपपूरवका इति । ततोऽपि मुख्यपू-
वैकत्वादप्युपचारस्य , किं पुनः-प्रागुङ्कयुङ्केरित्यपिशब्दा-
थैः! अदः-एतत्स्वयोग्यताया पव सकाशात्क्मवन्धादि
सर्वम्-निरवशषम् इत्थमेव व्यवस्थापितनीव्यैव व्यव-- |
स्थितम् प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ यो०विं० । अविद्या--
निवृत्तिमोक्त: । सम्म० १ कार्ड । प्रकदिपुरुषद्रनान्नि--
कुत्तायां प्ररतो पुरुषस्य स्वरूपावस्थाने मोक्षः इति साङ्खधा
० गा० । “ग्रहः सर्वत्र तच्वेन, मुमुक्तुणामसंगतः
मक्को धमो श्रपि प्राय-- स्त्यक्रव्याः किमनेन तत् ॥ १॥ ”
इति ॥ ३२ ॥ द्वा० २३ द्वा० | [भग्यानामेव मोत्त इति 'बन्ध-
मोक्खसिद्धि ` शब्दे पञ्चमभागे १२७३ पृष्ठे बन्धमोक्तसद्भा-
बे प्रत्यपादि] “ नि्जितमदमदनानां, बाक्षायमनोविकारर-
हितानाम् । विनिवृ त्तरराशाना-मिहैव मोक्ः सुविदिताञ८यप्''
यो० विं० | [ हइवनात्सिद्धि वदतां मतम् ‹ अग्गिहोत्त ' शब्दे
प्रथमभागे १७७ पृष्ठ गतम् ] [ मोक्तोपायं ‹ मोकखसग्गग- |
इ ` शब्दे वद्यामि ] [ वदयित्वेव पापकमेणो मोक्षः इति
पापकर्म ` शब्दे पश्चमभागे ८७६ पृष्ठ गतम् ] कवलिशि-
यैख्सिन् काले येषां जीवानां मोत्तगमने दद्र तस्मिन्नेव काले
ते जीवा मोक्ते यान्ति नवेति, केचन बदन्ति--पुरयं पाप च |
कुवेतां जीवानां कालस्थितेहौनिवुद्धिश्च भवतीति ? प्रश्न, उ-
तरम्- येषां जीवानां यास्मन् काले केवलिभिर्मोक्षगमन
दृष्टमस्ति तस्मिन्नव काले ते जीवा मोक्ते यान्ति परं केवाि-
भिः सर्वैसामग्यपि सरैव दष्टा ऽस्ति तस्मान्न काऽप्याश ते
॥ ५० ॥ रून० ३ उल्ला०। च्रयोदशचतुदैशगुणस्थानयोर्दि-- |
चरमसमये याबत् षट् संहननसत्ता केन देतुना ? यतो मो- |
च्गमनमायेनेव भवतीति ? श्न, उत्तरम्-यद्यपि मोक्तगमन-
मादयेनेव भवति तथापि प्राक्ननसंहननानां सत्तासद्भावे को
विचार इति । ॥ १६६॥ सेन ० हे उल्ञा०।
मोक्छंग- मोक्ताङ्ग- न०। मोक्तकारणे, प० व० ३ द्वार । सिद्धि-
कारण, पञ्चा० £ विव०।
मोक्खंगपत्थणा-मोक्ञाङ्प्राथना-खी० । मोक्ताङ्गानाम्-नि-
वतिकारणानां प्ा्थना-श्रारसा, झथवा-मोक्षाई चासो |
प्रार्थना चति, मोत्ताङ्गस्य वा प्रार्थना सोक्ताङ्गप्राथना। सोता
शसायाम् , पञ्चा० ४ विव०।
~ +~
( ४७७ )
आंमभधानराजन्द्र:; ४
ग ५ सोक्समर्ग
शीलमस्येति मोक्तान्वेषी । सिद्धिमार्मयितरि, श्राचा० १ श्रु०
२ अ० ६ उ०।
| मोक्खतरु-मोक्षतरु-पु° । मोक्षरूप वृक्ते, संथा० ।
|
|
|
मोक्सगया-मोच्ताङ्ता-खी० । निर्वाणहेतुतायाम् , पश्चा० ६ |
विव० ।
मोक््खकं खिय-मोक्षकाइ'क्षित-त्रि० । मोक्ते काक्का सजाता-
ऽस्येति मोक्षकाछ्वितः | सिद्धिकाकुके, तं० |
मोक्खकामयं-मोक्षकामक-लि०। मोक्ते-शिवे 5 नन््ता नन््तसुख-
मये कामा ऽभिलाषो यस्य सः मोक्तकामक्रः। सिद्धिकासके,तं०।
मोक्खऽदु-मोक्ताथ- पुं । सकलकमेविनियुक्किनिमित्त, हा०४
श्रष्ट० । सिद्धयर्थे, पश्चा० ८ विव० |
मोक्खतित्थ-मोक्षतीर्थ-न० । अयोध्यान्तर्गते स्वनामख्याते
तीर्थे, तञ्र हि नमिस्ती थैकृत्पूज्यते । ती० ४३ कल्प ।
मोक््खत्थ-माक्षाथ-५० । सिद्धर्थ, पञ्चा० = विव० ।
मोक्खत्थि-मोक्ताथिन्-तरि° सिद्धिकामे, पञ्चा० ८ विव०।
मोक्खदेद-मोक्षदेव-पुं० । 'कोकावसहिपासणाह' शब्दे ठती
यभागे ६७३ पृष्ठे उक्ते स्वनामख्याते श्रावके, ती० ३६ कर्प ।
मोक्ख( द )दोस- मोचचदेषं -प०। सवीड़सुखखानिभूतायां मुक
मत्सरे, यो० विं० । ( * मोकख ' शब्दे ्रैव प्रस्यपादि )
मोक्सद्ध-मोक्षाध्वन्-पुं° । निर्वाणमार्गे, पश्चा० २ विव० ।
मोक्खद्दुगगग्गहण- मोक्ताध्वदुगीग्रहश- न ०। निर्वाणमार्ग प
वैतबनाविदुर्गाभयणकल्प, पञ्चा० !
अथ बन्दनामेव मोक्षाध्चदुर्गतया समर्थयज्ञाह--
मोक्सद्धदुग्गगहरं, एय तं सेसगाण वि परसिद्ध ।
भावेयव्वमिणं खलु, सम्मति कयं पसंगेणं ॥ १६ ॥
मोक्षाध्वनि--निर्वाणमार्ग दुर्गग्नहश॒मिय-पर्वतवनादिदुर्गा-
श्रयणमिव मोज्षाध्वदुगग्रहणम् । यथा हाध्यानि प्रवृत्तस्य त
स्कारादिभिरभिभूयमानस्य दुर्गसमाश्रयणं रार भवति, एवं
मोक्ताध्वनि प्रवृत्तस्य कमेचोरादिभिरभिभूयमानस्य यत्त्राण-
देवस्तन्मोक्ताध्वदुर्गग्रहणसुच्यत, अथवा--मोक्ताध्वा च दुर्ग
ग्रहणमिव दुगेन्रहणे च मोत्ताध्व दुगंग्रहणम् । पश्चा० ३ विव०।
मोक्ख(द्)द्वाणसेवा- मोच्ताध्वसेवा-खी० । मोक्तो- निर्वाणे.
तस्य अध्वा--मार्गः, सम्यग्देशेनज्ञानचर णलक्तषणः, तस्य सेः
वा-श्नुष्ठानम् , माक्ताध्वसेवा । संमयायुष्ठाने, हा० ४ अछ० ।
मोक्खपय-मोक्ञापद्-न० । सद्वोधकारण्त्वात्कृत्स्नकर्म्तय
लक्षणस्य मोक्ञस्य प्रतिपादके पदे । अबन्धपदे, अनु० ।
मोक्खपह-मोक्षपथ-पु० | माक्तस्य पन्थाः ¦ अ्रपवर्गमार्गे, आ-
व० ४ अ० | तीर्थकरे, सत्प्रदर्शकत्वातू कारणे कार्योपचा-
रात् । । आव० ५ अ० | जेनशासने, श्रा० चु० ५ अ० |
मोक्खपहसामिय- मोक्तपथस्वाभिक-पु० । सिद्धिमा्गपभौ ,
पञ्चा० ८ विच०।
मोक्खपहो(हाव)यारग-मोक्तपथावतारक -पु०! सम्यग्दर्शना-
दिषु प्राणिनां अवर्तक, स० ।
मोक्खपिवासि थ-माक्षपिपासित- तरि । मोक्षफलाठसे, तं ० ।
मोक्छफल- मोदफल-चि० । मोक्तः फलमस्मादिति मोक्षफ-
लः । मोक्तजनकं, पञ्चा० ८ विव०।
मोक्वपग्ग-मोत्तमार्म ० मोक्तो 5एकर्मणां न्यासस्तम्य मा
गौ शानादिमोक्षमार्ग:। तरिमन् , उक्त ०३२श्०। मोक्षस्य मार्ग-
दवे मागा यत्तत्तथा । प्रश्व० ५ सक० द्वार । सम्यगदशन-
झानचारित्राख्ये, ( घूत्र० १ श्रु ° ६३ श्र ° ) । निवौणपशथ, ग०
२ अधि० । कर्म० । दृश० । जिनपूजा-सर्वशाभ्यचैन माक्ष-
मोक्सप्मसि(ण)-मोज्षान्वेषिनू-त्रि० । स्थित्यलुभागप्रदेशरू- |
पस्य चतुर्विधस्यापि यो -मोक्त स्तदुपायो वा तमस्वेध् स्गयितुं |
=
है
( ४४८ )
अभिधानराजन्द्र! |
_ मोक्खमग्ग
मार्ग: । जी० १ अति० | आचा० | सूत्र० । स्था० । बृ० । न°]
विशिष्टमेव सुखमभिलषणीय न यत्किञ्चित् तर्हिं विशिष्टमे-
॥
|
कान्तन खुखे सोत्त एव विद्यते न रागादौ छ्ुदादों वा तस्मा-
लदेवाभिलषणीयं , न शेषमिति । योऽपि च सम्यगदर्शनज्ञा
नचारित्ररूपो मोक्तमागे उक्तः सोऽपि युक्त्या विचा्यमाण
प्रत्तावतासुपादेयतामगश्नुते । तथादि-सखकलमपि क्मजालमि
थ्यात्वाज्ञानप्राणिददिसादिदेतकम् । ततः सकलकम्मनि-
स्सूलनाय सम्यगदशेनादयभ्यास एवं घटते । ने० ।
मे।क्खमग्गगइ-मोक्षमागगति-न० । मोक्षमागगतेः प्रति- |
पादके अश्यविशे उत्तराध्ययने, उत्त० ।
सम्थति यथाऽस्य मोक्षमार्गगातिरिति नाम
तथा दशैयितुमाह--
युक्खो मग्गो अ गई, वधिज्ञई जम्ह इत्थ अञ्भयशे ।
तं एअ अज्भयशे, नायव्यं मुक्खमर्गगई ।॥ ५०२ ॥
मत्तः श्राप्यतयखः मार्गस्तत्पापणोपायतया , चशब्दो भिन्न-
क्रमः, ततः गतिश्च-सिद्धिगवनरूण सदुभयणलतयः वरयैते
प्ररूप्यते यस्माद् अत्रेति--प्रस्तुतेउध्ययने तत्-तस्मादे
तद ध्ययने क्लातव्य मोक्षमागैगतिः इतिः माक्तमागैगतिनामः |
कम्: अभिधयेऽभिधानोपलारादििति भावः । इति गाथाथेः ।
उक्तो नामनिष्यन्नो निक्तेपः, सम्पति सआ--
नुयमे सृ्रसुचचारणीयं, तश्चदम्-
एक्खपग्गगई त्च, सुणेह जिणभासियं ।
चसुरऋआग्गरूचण्त्त सागर हु छल छझरचुर रश ॥ 9 | |
मोक्षणे मोक्षः-अष्टविधकर्मोच्छेदस्तस्य मार्ग: उक्ररूपस्तन
गतिः-श्रनन्तरोक्का सोक्तमारीगतिस्ताम् , कथ्यमानामिति ग- |
म्यते । ' लच्चं ' ति तथ्याम्-ञ्वितथां श्रुणुत--आकरणाय- |
त जिनभाषिताम्-तीथरूदभिहितां, चत्वारि कारणानि व-
द्यमाणलक्षणानि तैः संयुक्ता-समन्विता चतुष्कारणसंयु-
क्रा ताम्। नन््वमूनि-चत्वारि कारणानि कर्म॑न्षयलक्तषणस्य मो-
तस्येयं
चतुष्कारणवतीत्वमस्या न विरुध्यत ?, उच्यते--व्यवहा-
रतः कारणका रणस्यापि कारणन्वाभिधानाददाषः, अत एव
चानन्तरं करणस्यव क्मररत्वामत्याशङ्ा ऽपोदाश्मस्य वश
घणसम्यापन्यास:ः, अन्य था है मात्तमार्गण गातारात विग्रह
गान त्रान मामस्य कारणत्व प्रतीयत एवं, तद्रपाणि चा- |
मान चत्वार कारणानात तथा--ज्ञा नद शने लक्षण--चे- |
ह यस्याः सा श्ानद्शनलक्तणा, यस्य हे तत्सत्ता तस्याव-
श्यंभावनी मुक्िरिति निश्चीयते, अत एवं चानयोमूलका-
रणतां दर्शायतुमित्थमुपन््यास
मागः-शुद्धा ' खज् शुद्धा ' इति धालुपाठात्तस्थ गातिः-प्रा-
धिस्तां, ङानदशन-विशपसामान्योपयोगरुूपे -लक्षणम-अ-
साधारण स्वरूप यस्याः सा तथा ताम् । न चेद नियुक्तिकृता
मागगत्यारन्यथा व्याल्यानासद्विरोघः, श्रनन्तगमप्यायत्वा-
तसूत्रस्य, शिष्यालंमोहाय कस्यचिदेवार्थस्य तनाभिधानात् ,
शष धदवत स+) 4;
धबु मोक्तमागगर्ति शृणुत" इति तत्र मोक्षमार्गे तावदाह-
दसणं भव, चेरित्तं = तवो तहा ।
पष =
‡‡ १९ ६) उ
गतस्तु तदनन्तरभाघवेत्वातू स पवति कथ.
। यद्धा-माक्त-उक्तलक्षण |
प्रक्षि शीलमेषां ते वरदर्शिनस्तेः । इह च |
एस मग्गुत्ति पन्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ २॥
ज्ञायते अवबुध्यते5नेन वस्तुतत्त्वमिति ज्ञान, तश्च सम्य
ग्ञानमेव शञानावरणतक्तयक्षयापशमसमुत्थ मत्यादिभिदस । इ~
श्यते तस्पर्मास्मन्निति दशनम् , इदमपि सम्यग्रूपमेद,
दशैनमोहनीयक्यन्तयोपशमोपशमसमुत्पादितमदेदभिहित-- ¦
जीवादितच्दरुचिलक्षणात्मशुभभावरूपम् , "एव ' अवधारणे
मिन्नक्रमश्चात्तरत्र योक््यत, चरन्ति-गच्छुन्त्यनन मुक्तिमिति
चरित्रम् , एतदपि सम्यग्रपमव, चारित्रमोहनीयक्षयादित्रय-
भूतसामािकादिभेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षण-
म् , तपति पुरोापात्तक्माणि क्षपरनति तपा-बाष्याभ्यन्तर-
भदभिन्ने यदददचनायुसारि तदेव समीचीनमुपादीयते ॥
दर्थं देतत् , सर्वत्र मोक्तमारीगतिभ्रस्तावाद्वि पयस्तक्ञानादिना
तत्कारणतायुपपत्तः अन्यथा-श्रतिप्रसङ्गात्तथति, सर्वत्र च~
शब्दः समुश्चय, सर्वत्र समुञ्चयाभिधाने समुदितानामेव मु- `
क्तिमागत्वख्यापकम् एप पव 'मार्ग' इति मा्गशब्दवाच्यः, `
अस्येव मुक्त प्रापकत्वात् परज्ञप्तः-परज्ञापितः जिनः-तीथकूद्धिः `
वबरम--समस्तवस्तुष्यापितया, श्नव्यभिचारितया च द्रष्टुम्-
तपसः पृथशुपादानमस्येव क्षपणे प्रति श्रसाधारणहतृत्वमुष- `
दशायतुम् , तथा च वक््यति- तवसा ( व ) विखुरभर चि । ¦
इति सत्रार्थः
सम्प्रत्यतस्यगाजुवाददएरण फलमुपदशयितुमाद-
दाशं च दंखणं च, चरितं च तवो तहा ।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छति सुग्गई ॥ ३ ॥
पुबाद्ध व्याख्यातमंव, एनम्-इति-श्रनन्तरमः उक्करूप मार्ग- _
स्-पन्थानम् अनुप्राप्ताः--आश्रिता जीवाः गच्छन्ति-यान्ति
खुग्गई ' तत सखुगातम्--शाभनगतिम् , प्रक्रमान्मुक्किम् ।
इत सूत्राथः । उत्त० । ज्ञानादान मुक्कमाग इत्युक्तम् , , अत-
स्तत्सरूपयिहाभिधयम् , तच्च तद्धदाभिधान शभाहतमव
भवतीति मत्वा ` यथादशस्तथा निर्देश इति न्यायतो ज्ञा-
नभदानाह-( त च क्ञानभदाः 'णाण' शब्द चतुथभाग १६३८ .
पृष्ठ गताः) ( अन्यधां पदानां व्याख्या खस्वस्थानादषसया )
ज्ञानादीनां मध्य कस्य कतरा व्याप।रः ?, उच्यत--
नाशेण जाणई भवि, सेमत्तेण य सहहे |
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्भाई ॥ ३५ ॥
ज्ञानन-मत्यादिना जानाति-अवबुध्यत भावान--जीवादी-
न् , दशनन च-उक्करूपेण ` सदि त्ति शरद्धत्त.चारित्रण-श्नन-
न्तराभिदितेन ` निगिरुदाति ` त्ति निराश्रवो भवति पठ्यते
अ-' न गिरति ` त्ति तत्र न गृह्धाति-नादत्त कर्मेति गम्यत,
तपसा परिशद्यति--पुरोपचितक्मत्तपणतः शुद्धा भवति,
उक्कं हि-' संजमे अणण्हयफले तचे वादाणफले ' त्ति । इति-
सूत्राधः | अनन मार्गस्य फल मात्त उक्तः ।
खम्प्राति तत्फलभूतां गतिमाद-
खविन्ता पुज्वकम्माईं, संजमेण तवेण य ।
सब्वरदुक्खप्यहीण दा, पक्षमंति महेसिणो ॥ ३६ ॥
साक्ग्वसग्गगह
(2७४६ )
अभिध्रानराजन्द्रः।
मोर्ड
च्तपायत्वा क्तय नौत्वा पृवकमाण-पूत्रापाचतज्ञानावरणा-
दीनि सयमः-सम्यक् पापभ्य उपरमण चारत्राम््त्यथः, तन
त्पसा-उक्करूपर चशब्दाद् ज्ञानदशनाभ्या च । नन्ववमन-
न्तर तपस एव कमक्षपणहतुत्वमुक्कम इह तु ज्ञानादीनामपीति
तुत्वामात ज्ञापना थांमत्थमाभधानम् , अत एव मोक्ष मागे-
त्वमाप चतुणौ मप्युपपन्न भवात, ततश्च- सव्व दुक्खप्पहाणदटर
सवदःखाान यास्मन् , यद्वा-सचदु-खाना प्रहीणं प्रत्तषाण वा
यस्मिस्तत्तथा.तच्च सिद्धिक्षत्रमव तद्थयन्त इवाथयन्त सर्वा
श्रेच्छो परम 53प तद्रामतयायत तथावधा: प्रक्रामान्त-
शश गच्छान्त । अथवा-प्रह्माणान वा सवदुःखान्यथाश्च म्र
याजनानि यषां त तथाविधाः प्रक्रामान्त साद्धामात शष
इति सूत्राथः ॥ उत्त० पाइ० ८८ अ०।
क्षयलक्षण गन्तव्ये मुक्लिरिव निर्लोभतेव मागे: पन्थाः मो-
सिद्धधननुगुण, पञ्चा०
| मोक्खविगुण मोच्व्िगुण प"
£ विच० ।
| मोक्खविणय-मोत्तविनय- प° । मोक्तविषयो विनयो मोक्ष-
विनयः । * विणय ` शब्दे वद्यमाणस्वरूप विनयभेदे, दश०
& अ० १ उ०१
मोक्खविसारय-मोक्षविशारद - पुं । मोक्षमागैस्य सम्यग्ञा
नदरीनचारिवरूपस्य प्ररूपके, सूत्र ०
मोक््खसुह-मोच्तसुख-न० । सिद्धिखुखे, आचा० ।
मोक्खहेउ-मोक्षहेतु प° । सर्वकमक्षयका रणे,पञ्चा०३ विव०।
भोक्खोवाय-मोक्तापाय-पु० मोक्तस्य नि्रतेरुपायः-सम्यक्-
साधनम् । सम्यग्दशनचारित्ररूपेषु मुक्किसाधनेषु, ध० २
अधि० । “दासा जण शिदेभति, जण खिज्ञति पुव्वकम्माई ।
सो सो मोक्लावाश्रा, रागावत्थासु वमे व॥९॥ ” नि०
चू० १६ उ०।
मोगगर-देशी-मुकले , दे° ना० ६ वशे १३६ गाथा।
मोगगरग- मद्रक - पु । न० । ओत् सयाग ॥ ८ । १।११६॥
इति सयोागपरत्वादादेरुतः श्रोच्चम् । प्रा० । मगदन्ति-
कापुष्प, घ० २ अधि० । क-ग-ट-ड-त-द्-प-श-ष-
सरकः. पामूध्व लुक् ॥ ८। २। ७७॥ पषां संयुक्नवर्णसंब-
न्धिनामूष्व स्थितानां लुग्भवति ! प्रा० । गुटमविरेषे, ज०।
काष्ठादिमये मल्लो पकरणे, प्रश्न० १ आश्र०द्धार ।
मोगगरपाणि-मुदरपाणि -पुं० मुद्गरहस्ते खनामख्याते यत्त,
श्रन्त० । ( चरस्य “ श्रज्जुणय › शब्दे प्रथमभागे २२४ पृष्ठ
कथोक्का )
मोग्गलायण-मौद्गलायन-पुँ० । मुह्लस्यपेंगों त्रापत्ये अभि-
जिन्नत्तत्र माद्रलायनगोत्रम्। चे० प्र० १० पाहु०। सृ०प्र०।जे० ।
भोच- मोच- पुं । प्रस्तनवण, कायिकायाम् , सूत्र० १ श्रु० ४
क०२ त श्रद्धेजङ्ष्याम् , दे० ना० ६ वरी १३६ गाथा।
कथ न विरोधः ?, उच्यत-तपसाऽप्यतःपूवकस्यव त्तषपणह- |
तज्ञिप्राकृतत्वात्प्रकषषण हानान- हान गतान प्रच्ताणान वा |
महेसिणो ` त्त महषयाः महाषणो वा भाग्वन्महामुनय ॥ |
| मोक्ववरयुत्तिमग्ग -मोक्षवरमु क्विमार्ग -ए० मोक्त सकलकमः
च्तवरमुक्रमागः । माक्तानाशसायाम् प्रश्न० ४ सव० द्वार | |
१ श्रु० २ आअ० ३ उ०। |
। मोचमेह-मोचमेह-पु” । माचः-- प्रस्रवणः कायिकत्यथः
तन महः-सचनम् । कायिकव्युत्सजने, “ कोस च मोचमे-
हाए, सुप्पुक्खलग च खारगलराच । ` सृत्र० १ श्रु० ४
छम० २ उ०।
मोटइाय- रमू-धा० । क्रीडायाम् , रमः सखुड्- खड़ाब्भाव-कि-
| लिकिञे-कोटम-मोट्धाय-णीसर -वज्लाः ॥ ८। ४।१६८॥ इति
रमतेमोंद्वायादेशः । मोट्टायइ । रमते । प्रा० ४ पाद ।
मोट्टिय-मौष्टिक-पुं० । सपमा प्रोतचर्मरज्जुके पाषाण-
। गोलके, उपा« २ झअ०।
मोठेर-मौंठेर-न०। मोटजातीयव्राह्मणवणिजामुः्पत्तिपुरे, तत्र
| वीर जिनः पृज्यते । ती० ४२ कल्प ।
| मोड-देशी--जूटे, दे० ना० ६ वर्ग ११७ गाथा ।
मोडणा-मोटना-खी० । गाजभज्ञनायाम् , प्रश्न० ३े आश्र०
द्वार । मर्दने, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
| मोडिय-मोटित-न० । गात्रमोटन, ब° १ उ०। वालिताङ्गषु,
विपा० १ श्रु० ६ अ० । दशा० । भश्नमद्लिषु, प्रश्न० ३ आश्र०
। द्वार | भर्मेष, ज्ञा० १ श्रु० ६ श्च०।
मोण-मौन-पुँ० । न० । मुनेरय मौनः | मुनेभोवो वा मौनम् ।
वाचः संयमने, आचा० १ श्रु० श्र° ६ उ० । संयमानुष्ठाने,
| आचा० १ श्रु० ५ आ० ३ उ० | अशेषसावद्यानुष्ठानवजन,
आचाए० १ श्रु० ४ अ० हे उ० । व्य० । प्रति० । सूृत्र० ।
आव० । सखाधुधर्म , उत्त० १४ श्र० | सूत्र० । मुन्याचार,
उत्त १४ ० । सम्यक्चारितरे , उत्त० १५४ अ० । मोनवत,
स्था० ४ ठा० १ उ० । आचा० । सम्यक्त्वे, प्रति० । श्रा० ।
खुनेरिदं मौनम् । सर्वज्ोक्ते प्रवचने, च्राचा० १ श्रु ५च०२
उ०। घ०। “ मुखी मो समादाय, धुण कम्म सरीरगे ""
मुनिजंगत्ञ्यस्य मन्ता मौन मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानव-
| जंनरूपे समादाय गृहीत्वा धुनीयाच्छारीरकमोदारिकं
कर्मः शरीरं वेति । | आचा० १ श्रु० २ अ०.६& उ० । “ मूत्रो-
त्सग मलोत्सग, मेथुन स्नानमाजनम् । सन्ध्यादिकमे पू-
जां च, कुयाज्ाप च मोनवत् ॥९॥ ` ध० २ आधि० । "सुलभं
वागजुच्चार- मौ नमेकेन्द्रियष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु ,
योगानां मौनमुत्तमम् ॥ ६। ” अष्ट० १३ अष्र०। श्रा० म०।
( मौनाष्रकम् ' मुणि ' शब्दे.ऽस्मिन्नेव भागे गतम् )
मोणचरय-मौनचरकः पुं° । मोनम्-मानव्रतं तेन चरति मौन-
| चरकः | तथाविधाभिग्रहवशान् मोननेव भिक्ताचरके, स्था०
। ५ ठा” १ उ०। औ० ।
मोणपय-मौनपद्-न० । मुनीनामिर्द मौनं तच्च तत्पदं च
मौनपदम् । संयमे, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र ०।
मोशिद- मौ नीन्द्र- पुं०। वीतरागे,तत्प्रवचने च । द्वा० ८द्धा०
मोशिदपय- मौनीन्द्रपद् -न० ! मोनीन्द्रं पद्यते गम्यते ऽननेति
मोनीन्द्रपदम् । सेयमे, सूत्र० १ श्रु० २ अ० २ उ०। सर्वक्षप्र-
रीत मार्गे, सूत्र० १ श्रु० १३ आ०।
मोण्ड- मुण्ड-न० । ओत्संयोगे ॥ ८। १। ११६ ॥ इति संयु-
क्रपरत्वादादेरूत श्राच्वम् । माराड | सुख, प्रा० १ पाद् ।
( ४४० )
आनमभधानराजन्द्र: |
सानत्तव्य
मोत्तव्व-मोक़व्य -त्रि०.। रुदभुजमुचां तो न्त्यस्य ॥ ८ । ४।
२१२॥ पएामन्त्यस्य क्न्वा--तुम्-तव्यषु परतः ता भवात |
मात्तव्वे | छाटनीये, प्रा० ४ पाद ।
मोत्ति-मुक्ति खी” । लोभनिग्रदे, स्था० ४ ठा० १ उ० । निष्प-
रिग्रहन्व, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
मोत्तिमग्ग मुक्रिमारी- पु मुक्किः-निष्परिग्रहत्वम्; अलोभत्व
मित्यथेः | सेव माम इव मागैः । निेतिपुरस्य मार्गकल्प
अलोभ, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
मोत्तिय मौक्तिक न | मुक्ताफल, आ० म० १ अ० । ज्ञा० ।
० । ओ० । तदाध्रित द्वीन्द्रियविशेषे, प्रज्ञा १ पद ।
जी० । इहैंक सत्वाः पृव्व नानावधयानिकाः स्वकृतकर्म-
वशगाख्रसस्थावरशरीरघु सचिसाचित्तषु पृथ्वीकायत्व-
नोत्पद्यन्ते. यथा-शिरःसु-मणयः: करिदन्तपु-मोां्ककानि,वि-
कलन्द्रियष्वपि शुकत्यादिषु योक्तिकाति, स्थावरष्वपि पार-
करादिषु जीवा लवणभावनान्पद्यन्त, एतान्यक्षराणि सूत्र-
कदङ्गदीपिकायां सन्तीत्युकत्वा मो क्रिकानि सचित्तानि खर- |
तराः कथयन्तः सान्ति. प्रञ्चात्तरग्रन्थ तु--श्रचित्तानि तानि
भवन्तीत्युक्रमास्ति, तत्कथम् ? इति प्रश्न, उत्तरम्-सत्रकूदङ्दीः-
पिकादा मोक्रिकानि यर््याप सचित्तन्वनोः^पद्यन्त इत्युक्कम-
स्ति, तथाप तान्यनुयागद्धारादौ अचित्तत्वनाक्लानि, तनो-
त्पत्तिस्थान तानि सचित्तानि. तान्नगतानि चाचित्तानीति
बहुश्रुताः, य च सर्वदा तषां साचित्तत्वे वदन्ति तां आ-
दादिहस्तन चिर णौद्यप्रसङ्कः ॥ २८६ ॥ सन० ३ उल्ला ।
- मोक्रिकानि साचत्तान. अचित्तानि वा कुत्र वा कथितानि
सन्तात ?. अज मोक्रिकानि विद्धानि, अविद्धानि वा अ-
चित्तानि ज्ञेयानि, यतः
दीनि अचित्तपरिग्रहमध्ये काथितानि सन्तीति ॥ १६॥ तथा
सर्वा थैसिद्धावमान मोक्तिकवलयानि शास्त्र कथितानि ?, प-
रंपराता वाऽाभधघीयन्त?. शास्त्र चत्तदक्तराणि प्रसाद्यानीति?,
अन्न सर्वार्थासद्धविमान माक्तिकवलयान्तरारि छुटितगाथासु
परंपरया भुवनमानुकवलिचारत् च सन्ति.तथाचतद्राथाः-
“५ तत्थ य महाविमाण, उवारमभाग पि बद्धए एगे।
सायररस ( ६४ ) मणमाण, मुक्ताहलमुज़लजलाह ॥
मउभगयस्स इमस्स य. चलयाका रण ताव साहात ।
चत्तारि मुत्तिआई , नित्तानल ( ३२ ) माणपर्मोणाई ॥ २॥
पुणरावि वीए चलए.अड (८) सखा कलिअमुत्तिअकलाबो ।
निउचद ( ९६ ) मणपमाणा, दिप्पद खजले च मलखुक्को ॥३॥
चदकला ( *६ ) सखाई. चेदकलानिस्मलत्त जुत्ताई ।
तदप चलए अडमणा-पमिआई मुक्तिग्राणि तझो ॥ ४॥
लॉअणकिसा णु३- पमिश्राणि.मुलिश्यकलाण तुरि श्रवलयमि
जलहि ( ४ ) मणसरी राई, नायव्वाई विश्रद्टेहि ॥ ५॥
चश्मरस (८४) सस्तरया पुण. पाड़यमुत्तिञ्मफलाणि जाणाहि ।
पचमवनलयम्मि तश्रा, लाअण ( २ मणभारमाणाडे ॥ ६॥
कुंजगलाअणवसुद़ा (१२८)- मिश्राणि मुत्ताहलाणि नेआणि।
इरामणभाग्वहाई, चटु. बलयम्मि वद्धाई ॥ ७ ॥
मुत्ताहलमतट्--श्रणगवज्ञनवायलदरीदि।
चलयगमुत्ति्मनिश्ररा, समुत्थलिञ आहराइ जया ॥ ८॥
-पुस्तकक्रथ पारकरादिपु उ््येव पाठः| २~विहरणं भिक्त(ऽऽदानम् |
श्रीअनुयोगद्वारस्त्र मोक्किकरला- |
पञ्च महाविमारं, महुररवकंतभायणे जायं ।
कल्थऽविजन्नल्थ न त्थि, पारसं सद्दमहुरत्त ॥ ६ ॥
तत्थ विमाणम्मि खुरा, तम्नायरसेगमोहिअसचित्ता ।
समयग्गि (३२) सायरम्मि अ, सुहेण पूरंति रि
॥ १० ॥ ” ही ° ४ प्रका० । ४.
मोत्तु-मोक्तुम्- त्र्य । क्त्वः तुमत्तूग5तुआणाः ॥८।२।१४६।
क्त्वाप्रत्ययस्य तुम-अत्-तूण-तुआण इत्येते श्रादेशा भवन्ति|
इति क्त्वाप्रत्ययस्य तुमादेशः । प्रा । रुद्-भज-मुचां तो-
न्त्यस्य ॥ ८ । २। २१२ ॥ पषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु /
भवति । माक्तु । प्रा० । हातुमित्यथ, ब्रू ३ उ०। च
मोत - युक्त्वा -श्रव्य० । युवरैस्य गुणः ॥ ८। ४। २३७
घातारिवरस्योवरीस्य च ड्वित्यपि गुणो मवति । प्रा० ॥
रूद भुज-मुचां ता न्त्यस्य ॥ ८ । ४। २१२॥ पषामन्त्यस्य
कंत्वातुमतव्यषु परतः ता भवति । मोत्तण । प्रा० । परिह
त्येव्यर्थे, पि० । विहायेत्यर्थ, श्रा० ।
मोत्था-मुस्ता-खी० । ओत्संयोंग ॥ ८ । १। ११६॥ इत्युका-
रस्योकारः । ' नागरमोथा ` इति ख्याते गन्धद्रव्य, प्रा०॥
मोदग-मोद क-पुं° । लड्डके, प्रज्ञा १७ पद ४ ० ।
माय- मोक पुं । कायिक्याम् , व्य० € उ०। प्रसवे, व्य०
£& उ०। बृ० | ग० । उत्त० ।
छन्योाऽन्यस्य मोकमादातुं न कर्पते-
नो कप्पड निग्गंथाण वा निम्गथीण वा अन्नमन्नस्स मो-
एणं आयमित्तए, नन्नत्थ गाढागादेहिं रोगायङ्क्हि।॥।४७॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मो-
ये आइत्तए नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहि ॥ ४८ ॥
ना कल्पते निग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा अन्यान्यस्य-पर-
स्परस्य माकमाचमितुमापातु वा, कि सर्वथैव नत्याह-गा-
ढाः-अहिविषविशचिकादयः, श्रागादाश्च-ज्वरादयो रोगात-
ङ्गास्तभ्या ऽन्यत्र न कल्पते, तपु कल्पत इत्यथः । एष सूत्राथेः ।
संप्रति निर्युक्किविस्तरः--
मोएण अप्ममागस्स, आयमणे चउगुरुं च आणाई।
मिच्छत्त उड्डाहा, विराहणा भावर्सबन्धो ॥ २६७ ॥
श्रन्योन्यस्य-सयतः सयतीनानां माकन निशाकल्प इति
कत्वा रात्रौ यद्याचामति तदा चतुगुरु, आज्ञादयश्च दाषाः,
मिध्यात्वं च भवत् । न यथा वादी तथा कारीति त्वा, य-
द्वा-कश्विदर्भिनवधर्मा ते निरीक्ष्य मिथ्यात्वे गच्छेत्। अ-
हो श्रमी समला इति, उड्ाहश्व भामिनीघरिकादिज्ञापने भव
ति, विराधना च सयमस्या ५ऽत्मना वा भवति । तत्र सयम.
विराधना तन स्पर्शनेकतरस्य भावसवन्धा भवेत् । ततश्च
ग्रतिगमनादया दाषाः । च्रात्मविराधना च~" 'चितई द्टठु-
मिच्छुइ” इत्यादि कमेण ज्वरदादादिका ।
किञ्च
दिवसं पि ता ण कप्पड, कि पुण णिसि मोएणऽप्पमष्पस्स्।
अत्थंगते किमएं, न करेज़ अकिचपडिसवं । २६८ ॥
दिवसेऽपि तावन्न कल्पते श्न्योन्यस्य मोकेनाचमितुं किं
पुनः निशि-रात्री, श्रस्तं गते दि परस्परं मोकाचमनपि
सोय (0
छते किन्नाम तदङृत्यमस्ति यस्य प्रतिसेवां न कुयोताम् ।
वत्त पिता गरटितं,
संस्सपइड्ढीो गोणों, दुरक्खओ सस्सञ्रन्भासे ॥ २६६ ॥
वक्कमपि तावदेतत् माकरमणो गर्हितम् , कि पुनः सयत्या
स्याश्चरणा्थम् गोः प्रविष्टः सन् तस्याभ्यासे धान्यमूले चरन्
दुर्यो भवति, धान्ये महादुःखन रदयते इत्यथः । पवम-
यमपि सयत्या साकेनाचामनप्रसङ्गतः सवनक्रियां कुवन्नवा
रायेतु शक्य इति भावः।
दिवसउ सपक्ख लहु गा, अद्धाणाऽऽगादगच्छजयखाए |
रत्ति च दोहि लहुगा, विइयं आगादजयणाए ।|३००॥
|, दिवसतः स्वपत्त5पि सयतः सयतीनां.सयतिः सेयतानां मा
थाभावा भवेत् | ग्रहस्थपरतीर्थिकाश्थोड़ाह कुयुः ।
कथमित्याह--
अट्विसरक्खा वि जिता,लोए णत्थेरिमेऽण्णधम्मेसु ।
अहो अमी ते श्रमणा येरेवं माकेनाचामद्भिरास्थिसर जस्का
पि जिताः. श्रस्मिन् लोके अन्य बहवो घर्मा विद्यन्ते परं कु
्ापीदशशोचं न दृष्ट, सदशन च सदशस्य या शोधिः
च्ाल्यसान न शुध्यतीति भावः
वतभानस्य गच्छृस्यान्यस्मिन् वा
लाभ्यां लघु ।
लेघु, सवयपनकसम्मूर्छुनादयश्चानेकविधा दोषाः । | आह च
४
ब्रृदद्भाष्यरत्--' रत्तिदवपरिवासे , लगा दासा हवत $
भाकेनाचामेत् द्रवे वा परिवासयेत् ।
तत्राध्वनि दितीयपदं व्याचऐ--
निच्छुभई सत्थाओ, भत्ते वारेइ तकरदुगे वा ।
परमुहवंचनलब्भइ, सा वि य उचिट्ठविज्ञाउ ॥ ३०२ ॥
यदध्वनि प्रातिपन्ने गच्छं प्रत्यनीकः साथवाहादिः सा्था-
न्निष्काशयति, भङ्गं वा वारयति । यद्धा-तस्कर द्विकम-उप-
धिशरीरस्तनद्यमुपद्रातुमिच्छतिःतत्र कस्यापि साधाराभि
चारिका विद्या समस्ति,यया परिजापितया सश्रावस्यत।स
च साधुस्तदानीं सन्ञालपदतः, पुनः प्राक द्रवे तत्र न ल-
भ्यत,सा ऽपि चोच्छिष्टाविद्या तता माकनाचम्य तां परिजपत्।
अथाऽ ऽगाढपदं व्याख्याति--
अत्तुकड़ व दुक्व, अप्पा वा वयणा अवेआ य।
तत्थ वि सो चव गमो, उचिदगमतविजा वा ॥३०३ ॥
ना सपदशनादरूपा सजाता या शाघ्रमायुः त्यत् , ततस्त-
श्रापि स एबं गमो मन्तव्य आशुकद्रवाभाव माकनाचासाद
पुण चित्तं करा विलातो वा।
कराद् विलाद् वा माकं ग्रहीतुम् । अपि च-घासः-चारिः त |
|
| केन यदाचामति तदा चतुलघु, रेक्ताणां तदवलोकनादन्य |
( ४५१
अनिधानराजन्द्रः।
|
सरिसण सारेससादहा, कोरइ कत्था साहेज्ञा ॥ ३०१॥
क्रियते सा कि कुत्राचिच्छाथयत्- शुद्ध कुयात् ? अशुच्चिना |
। द्वितीयपद्--ञअध्वनि |
आगाढे कारण |
त्न यदि कश्चन माकेनाचामेत् श्रथ रात्रौ निष्का- |
रण मोकेनाचार्मात ततश्चतुलेघु ; द्वाभ्यामपि तपःका- |
रत्ति दव वि लहुगो' ्ति--पाटान्तरम् , तत्र- |
रात्रो द्रव पानकमाचमनाथं यदि परिवासयति ततश्चतु-
शेगविहा' इति द्वितीयपद आगाढे-कारण यतनया रात्रावपि |
अत्युत्कर्ट वा शलादृक दुःख कस्याप्युत्पन्नमल्पा वा वद- |
)
॥
भाय
त्यथः । तत्र उच्चिष्ट मन्त्रे विद्यां वा परिजप्य ते साधुमाशु
शीघ्र प्रगुण क्यात् ।
अज यतनामाद--
मत्तगे मोयायमणं,अभिगय आइप्प एस निमि कष्पा ।
सफासुह्ाहादि य, मोयगमत्त भवे दासा ॥ ३०४ ॥
कायिकामा्रक मोक गृहित्वा तनाचमन कतेव्यम् , , अभिग-
तस्य-गीताशस्याचीणीमेतत् ;एप च निशाकल्प उच्यत । पान-
काभावेन रात्रावेव प्रायः फ्रियमाणत्वात् । अथ मोकं विना स्व-
पत्तसागारिकान् गृह्णन्ति ततः सस्पर्शोड़ादादया दोषाः, एवं
रातों मोकेनाचमनीयं, न पुनस्तद थ द्रवं स्थापनीयम् ।
द्वितीयपदे स्थापयदपि कथमित्याद-
पिं को चिय संदे, जह सरई मा व हुज्ञ से सन्ना |
जयणाएँ ठवेंति दव,दोसा य भव निरोहम्मि ॥ ३०५ ॥
यदि कोऽपि शेक्षः पिट्ट सरति, शतीव ब्युत्सजन करोति
इत्यथः । स चाद्यापि माकाचमननाभावित इति कृत्वा तदथ
यतनया द्रव स्थापयन्ति । सामान्यतो वा “ से ` तस्य शेक्त-
स्य रजन्यां न कस्माद् व्युत्सजने भवादिति कृत्वा द्रवे स्था-
पयन्ति । अथ न स्थाप्यत ततः--स रात्रो सेज्ञासभवे पान-
काभावे निरोधे कुयात् ; निरोधे च परितापमरणादयो दाषा
भवेयुः । पवे तावद मन भणितम् ।
्रथापिच तान्दोषानाद-
मोय तु अन्नमन्नस्स, आयमणे चउगुरु च आणा ।
मिच्छत्त उड्ाहा, विराहणा दावदिटरत ॥ ३०६ ॥
श्रन्योन्यस्य माकं यद्यापिवति तदा चतुगुर , , आशादयश्थ
दाषाः, मिथ्यात्वं च सागारिकादिस्तदवलोक्य गच्छेत् , डड्डा-
हो वा भवत्, विधना च सयमस्यात्मना वा भर्वति । तत्र
च देवीदष्टान्तः ।
तमेवा 5 5ह--
दीहे ओसहरचितं, माय देवीएँ पज्ञिओ राया ।
आसाय पुच्छ कहरणं,पडिसवा पच्छो गलितं |।३०७॥
अह रन्ने तो रते, सुकग्गहणं तु पुच्छणा बेजे |
जई सुकमत्थि जीवइ,खीरेण य भच्छिओ ण मत्र ।३०८।
पगा राया महाविसण अहिणा खइआओ, विज्ण भणिय-
जड परं माय आयइ ता न मरइ, तओ देवीप तेण ओ-
संहर्दि वासऊण दिन्न। तण थावावससे आसाइये। तश्चा
पउ पुच्छुइ-कि ओसहं ? तेहि कहिओ, सो राया तेण वसी
कशा, दिया रत्तिच पडिसविउमारद्धो । देवीए नाये. मओ
हाई त्ति, सक्तं कप्पासण साविय अवमाण सीसओ होज्जा
उ मरिउमारद्धा । विज भणियं--जइ पयस्स चव सुक्क
अत्थि तो जीवइ, तीण भाणये--अत्थि । खीरण सम कड़ड
दिल्ल पठणा जाओ `" अक्तरगर्मानका-दीधघंणाहिना भक्तितां
राजा, देव्याः सवन्धि माकनोापध भावित पायितः। तत्र आ-
स्वाद जात प्रन्छा कृता, ततः कथन, ततो दिवा राजो च
प्रतिसेवां मूर्धतः करोति, प्रभृत च शुक्र गलितम् | अ-
थानन्तरं राक्षि मरणाय त्वरमाण देव्या शुक्रग्रहण, वैद्य
स्यच पृच्छा, यदि शुक्रमस्ति ततो जीवति । पव किते
त्तीरेणए सम तदेव शुक्रं पायितस्ततो न म्तः | पवमेव मो-
( ४५२ )
छ्मसिधानराजन्द्रः।
मोय
केन पीतेन साधुरपि वशीक्रियत, वशीकृतश्चात्र भाषत, प्र-
तिगमनादीनि वा कुयात् | तस्मान्न पातव्यम् | कारणं पुनरा-
चमनमापान वा क्यात् ।
तथा चा5<5ह-
सुत्तेशेवऽववाच्रो, आयमइ पियेजञ वावि आगे ।
आयमण आमयऊ5णा-मए य पियं तु रोगम्मि॥३०६॥ |
सूञणेवापवादी दश्यत-ञ्रागांदढं रागातके आचामेद्
खद् वातय दुक्क सूज तत्रासमन नलेपनमामय-राग,अनामसय ।
च निशाकल्प भवातः पान त राग एव सयलकात नान्यदा ।
तच्राये विधिः-
दौीहरयणादि गमणं, सायारियपुच्छिए य अइगमणं ।
रत्ति सागारियजुयाणं, कप्पइ गम जहिं च भय ।।३१०॥
दीर्घेण पकस्याऽपि साधो रदनेन क्षण रुत स्वपत्तमकाभाव
सयातप्रातश्चय गमनम् तदस्तासा खागाारक पृष्ट सात च्प्
तगमनम्-प्रचश कृतव्यः | अथ सयत्या: सपदशन जात
ततस्वासा सागारकयुक्काना साधुवसतौ गसन केटपत । तत्र
च भय तदा दीपको ग्रहीतव्यः इति वाक्यशेषः, शत । षष |
सग्रहगाथासमासाथः)
साम्प्रतमनामेव विच्वणोति--
निद्ा्॒त्ता उववा- सिया य योसिद्ठमत्तगा वावि |
सागारियाइसहिया, सभणए दीवेण य ससा ॥ ३११ ॥
आहना भात्ततः साथु स्वपक्ष पव साधूना माक पाय्यत,
अथ तेषां नाऽस्ति माकम् , कुत इत्याइ--नियमाहारं तद्दिव-
से भुक्ता उपवासिका वा ततो नास्त माकम् । अथवा-
व्युत्स््ृष्टमालक्ास्त तत्क्षण एवं माक व्युत्खृष्टमपर च ना-
स्तीति भावः । तता निग्रन्थाना प्रातश्रय गन्तव्यम् । याद्
निभय तत पवमव गम्यते श्रथ सभय ततः सागाारका-
दिना केनचित् दवितीयन दीपकन च साहत्ताः 'सशब्दा गच्च
न्ति । ततः सयतीवसति प्रविशन्तो यदि नैषधिकां कुर्वन्ति
ततश्चतुरुर ।
तथा--
तुसिणीए चउगुरुगा, भिच्छत्ते सारियस्स आसंका ।
पडिवुद्धबोहियासु य, सागारियकज्ञदीवणया ॥३१२॥
तूष्णीका श्रपि.यदि प्रविशन्ति तदा चतुगुरू, मिथ्यात्वं वा |
कथ्ित् तूष्णीभावेन प्रविशतो दद्रा गच्छत् । सागारकस्य |
चा शङ्खा भवति । किमत्र कारणं यदेवममी श्रस्यां बलाया-
मागता इति स्तना श्रमी इति वा मन्यमाना भ्रहणाकर्थ-
रादिकं कुयात् , , आहन्याद् या । ततस्पयूष्णीकेरपि न प्रवेष्टव्यं
किन्त-प्रथमे सागारिक उत्थापनीयः ततस्तेन प्रतिवुद्धनो,
त्थितन वाधिताखु सयतीघु सागारिकस्य का्यदीपना क-
तव्या । पकः साधुरहिना द इड चौषधे स्थापितमस्ति त-
दथ वयमागताः !
ततः प्रवत्तिनौं भणति--
मोयं ति देइ गणिणी, थोवं चिय ओसहं लहुं शेव ।
मा मग्गज्ञ सॉगारो, पडिसेहे बावि वुच्छेओ ॥३१३॥
अदिदश्स्योषधं मोकमिति प्रयच्छव | ततो गणिनी-पश्रवर्ति-
|
| मोयशवंदण मोचनवंद न -न०।षडविश उन्दनकदोषे, लोह्य~
| मोयणवंदणं
नी यतनया मोकं ग्रहीत्वा साधूनां ददाति,भणति च स्तोक-
मेवदमोषधमतर देववशान्नातः परमन्यदस्तीव्यथैः। अतो लघु
शीघ्र नयत । किमर्थमित्थे कथयति ? इत्याह-मा सागारिको
° ममापि पतदौषधं प्रयच्छत ` इत्यव मागयत्। यदा तु ना-
सत्यतः परमिति प्रतिपधः कृतस्तदा व्यवच्छेदः कृतो भवतीति
न भूयो मार्गयति इत्यथः ।
नविते किति त्रमुको, खड्राण वि तावि एत अमुईए | `
घेनतु णयणं खिष्पं, त वि य वसहिं सयपुर्वेति ॥३१४॥
त साथवा न कथयन्तियथा अमुकः साधुरदिना खादितः,
ता श्रप्यार्थिका न कथयन्ति ययेतन्माकममुकस्याः सत्कमि- `
तिः गृहीत्वा च क्षिप्र नयनं कर्तव्यं पूवोक्रन च विधिना ते
स्वकाम्-श्रात्मीयां वसतिमृ पयान्ति ।
आह--अमुकः साधुः दष्टाऽमुकस्या वा मोकमिदमिति
कथ्यत ततः को दाषः? इत्याह--
जायति सिंणेहो एवं, भिष्परहस्सत्तया य वीसंभो ।
तम्हा न कहेयव्यं, को व गुणो होइ कदिएणं ॥३१५॥
एवं कथ्यमान तया स्नेहा जायते,भिन्नरहस्यता च भवति ।
रहस्ये भिन्न विश्रम्भो भवति । यत पत दाषास्तस्मांन्न कथ-
यितव्यम् । को वा गुणस्तन कथितेन भवति न कोऽपीत्यथः
यदा ख यतिर्दीधजातीयन दष्ट भवति तदायं विधिः-
सागारिय सहियों नियमा,दीवगहत्थ! वएज्ञ जइनिलय ।
सागारियं तु बोहे,सो विजईस एवं य विही उ ॥३१६॥
आर्यिका नियमात्सागारिकसद्दिताः शय्यातरसदायाः स-
भये वा दीपकदस्ता यतीनां निलयं बजयुः । स च सयति-
सागारिक इतरसयतसागारिकं बाधयति, सोऽपि प्रतिबुद्धः
साधून् बोधयति । श्रवापि स एव विधिर्मोकदान द्रष्टव्यः ।
बू० ५ उं०।
मोयग-मोचक-पुं० । मोचयत्यन्यानपीति मोचकः । घ० २
अधि० । चतुगेतिविपाकचित्रक्मेवन्धा दच्छोटके तीथकर ,
ल० ।'' मोयगाणं तिरणार तारयार, `` २१० । जी० । स०।
सवकानां माचक, कल्प० १ श्रधि० > क्षणु।
मोदकः प° । लड॒ड॒के, प्रश्ष० ५ संव द्वार । नि” चू० ॥
वृ० । (अकप्पिय' शब्दे प्रथमभाग ११६ पृष्ठ ससक्रत्वमुक्रम् )
अत्र मोदेकदृश्टन्ते पू्वस॒रया व्यावर्श्यन्ति--यथा--बा-
तापहारी द्वव्यानचयनिष्पन्ना मादकः परकृत्या वातमपह-
रति; पित्तापदद्रव्यनिच्त्तः पित्त. स्छेप्मापहद्रव्यसंजनितः
शरेष्माणमित्यादि । स्थित्या तुस एवच काश्चदिनमकमव-
तिष्ठते, श्ररस्तु-दिनद्वयम्, अन्यस्तु दिवस्य यावन्माखा-
दिकमपि काले कश्चिदवतिष्ठत, ततः परं--विनश्यति । सख
एवानुभावेन रसापर्यांयण सर्मग्धमधुरत्वादिलत्तणन कश्ििदे-
कगुणानुभावः, परस्तु--द्विगुणाचुभावः,. अन्यस्तु- त्रिगुणा-
चुभाव इत्यादि । प्रदेशाः कणिक्षादिद्रव्यप्रमाणशूपास्तैः प्रदे-
शेः स एव कश्निदेकप्रस्तिप्रमाणः, अपरस्तु प्रस्ततिद्ययमा-
नः,अन्यस्तु पुनः-प्ररटृतित्रयप्रमाण इत्यादि । कर्म० ५ कर्म० ।
मोयण-मोचन-न० । पृथग्भावे, प्रव० २ द्वार | ध०।
= = \ =
= वः > “डा
जो न
वोन
+
काः
(७५३ )
मोयणवंदण
कराउ मुक्ता, न मुचिमो वन्दणकरस्स, `” आ० चू० ३े श्र०। |
आारव० | करामव-राजद्यभागामव मन्यत, दद्द् द्द् वन्द्रनकमा-
रत कर इत, गरहातत्रताश्च वय लोकिककरान्मुक्तास्ताव
मुच्यामहे तु बन्दनकरस्याटतस्यति मोचनवन्दनकमि-
ति । प्रव० २ द्वार । ।
मोयपडिमा-मोकपग्रतिमा-ख््री० । प्रश्रवणप्रतिमायाम् , स्था० |
४ ठा० १ उ० | नि० चू० । सा च-चुद्रा, महती चति
द्विविधा । व्य० ।
दोपडिमाओ पप्मत्ताओ । ते जहा-खुड्डिया चेव मोय-
पडिमा १ | महलिया चेव मोयपडिमा २ । खुड्डियाणं
मोयपडिमं पडिवष्मस्स अणशगारस्स कप्पति से पटम- |
शिदाहकालसमयंसि वा, चरिमणिदाहकालसमयंसि वा
बहिया ठाइयव्वा गामस्स वा नगरस्स वा ०जाव ( बृह-
त्कल्प-१ उद्दे० ६ ख़त्रात्ू- खेडस्स वा कव्वडस्स वा
मडबस्स वा पट्णस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा
निगमस्स वा ) रायहाणीए वा वरणंसि वा वणदुग्गंसि वा
पव्वयेसि वा पव्वयदुग्गंसि वा मोचा आरुभइ चोदसमेणं
पारेह, अभोचा आरुभई, सोलसमेणं पारेइ, जाए
जाए मोए आ (पा ) ईयव्वे दिया आगच्छेद् ।
आईयच्वे रायं आगच्छ, णो आईयव्वे य सपाणे मत्ते |
आगच्छट णो आईयव्वे अप्पाणे मत्ते आगच्छर, आईयव्ये
एवं सवीए ससणिद्धे ससरक्खे मत्ते आगच्छ, णो आई-
यव्वे असरक्खे मत्ते आगच्छ आईयव्वे ताए जाए जाए
_अभिधानराजन्द्र: |
मोए आईयव्वे,त॑ जहा-अप्पे वा बहुए वा एवं खलु एसा '
खुड्डिया मोयपडिमा अहासुत्त ०जाव अणुपालिया भवद्
॥ ३७॥ महलज्लिया णं मोयपडिमं पडिवष्पस्स अणगारस्स
कष्पति से पहमसरयकालंसि०जाव पव्वयविदुग्गंसि वा
भोचा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ढा-
रसमेशं पारेइ | जाए जाए मोए आईयब्बे तह चेव |
आशणाए अणुपालिया भवइ ॥ ३८ ॥
दधे प्रतिम प्रश्न, तद्यथा-क्षुज्ञिका च मोकप्रतिमा १। महती
च मोकप्रतिमा २। मोकं-कायिकी । तदप्युत्सगंप्रधाना प्रति- |
मा मोकप्रतिमा । तत्र क्ल्लिकाणामिति प्राग्वतू । मोकप्रति- |
मां प्रतिपन्नस्या पनगारस्य कल्पते ( ख ) तस्य धथमसनिदा-
घकालसमय वा बहिग्नोमस्य वा यावत्करणात् नगरादिपरि- |
ग्रहः । राजधान्यां वा वने वा, एकजातीयद्रमसक्तातः--घन, |
विदुगं वा-नानाजातीयद्रमसधघ्रात, पवत प्रतीत, पवताचदु- |
गे-श्रनेकपवैतसक्घातरूप भुक्त्वा यदि प्रतिमामायदहति-पत्ति-
पद्यत, तदा चन्तुदेशनन भक्तन पारयति--समापयति । श्रय
अभुकत्वा आरोहाति तदा पोडशकेन भक्तन पारयति, तन च |
जात जातं मोकं-कायिकी (आईयब्वे) पातव्यम् ,आगमने च
दिवा आगच्छाति | एवं महत्या अपि प्रतिमायाः सूत्र नाच्य- |
भ् । ह पाठ्सिद्ध पव । ।
४
मोयपलिमा
रुम्पराति भाष्यप्रपञ्चः तवर माकप्रतिमाशब्दाथमाद--
सञ्वाता पडिमातो, साधुं मोय॑ति पावकम्मेहिं ।
एएण मायपडिमा, अहिगारो इदे तु मोणएणं | ८८ ॥
माचयति पापकमेभ्यः साधुमिति माका उदकादित्वादन्यद्-
पि कुर्वन्ति.सा चासो प्रतिमा च माकप्रतिमा । एतनान्वथन
सवा अपि प्रतिमाः साधु पापकर्मभ्या माच्रयन्तौति छृत्वा
मोकप्रतिमाः प्राप्नुवन्ति.तता विशपप्रतिपादना थमिहाधिका
-प्रयोजन माकन, माका-परित्यागप्रधाना प्रतिमा मोकप्र
तिमति । (व्य०) । ( अज्नत्य|वषमपदानां व्याख्या “वर्ण शब्द)
सम्ध्रति यन विधिना वदिर्निशेच्छति तं विधिमाह-
निसिज्ं च चोलपइ्ट-कर्प्प घृण मत्तगं चव ।
एगंते पडिवज्जति, काऊण दिसाण बःऽऽलोयं ॥ ६०॥
निषद्यां सो5त्तरा चोलपट्टकर्पं मात्रकं च-कायिकीमात्रकं
ग्रहीत्वा ग्रामादेबहिर्विनिगच्छाति । विनिगत्यैकान्ते प्रतिमां
प्रतिपद्यते । तत्र कायिकीसमागमे तां मालक व्युत्छृज्य नाऽ
पाते-असंलोके दिशां (शं)वा 5लोक कृत्वा श्रापिचति, यद्यपि
सः ज्ञानातिशय्यतिशयज्ञाननेव जानाति सागारिकाऽस्तिन-
चति तथापि सामाचारी पालिता भवत्विति छत्वा दिशा-
लोकं रत्वा व्युत्खृजलव्या पिवति वा |
सम्ध्रति कट्पादिग्रहणे प्रयोजनमाद-
पाउणइ तं पगाए, तत्थ निरोहेण ।जज्रए दासा ।
सिरहाइपरित्ताणं, च ङणति अच्चण्टवाते वा ॥६१॥
ते कट्पे प्रतिवात प्रावरणाति, तत्र च प्रावरणे छत वातनि-
रोधन यः प्रवाते वा तत्सम्पकंणापादिता दाषः स जीयते ।
यदि वा-स कलपः सिणहादिपरित्ताणं ` चछच्णादि-सचित्त-
रजःपरित्राणं करोति । श्रथवा--प्रत्युष्णे वात वाति स
प्रानियत्ते मोकमापिवेदिव्युक्कम्।
तत्र मोकस्वरूपमाद--
साभावियं च मो, जाणइ जं वाऽवि होइ विवरीयं |
पाणवीय ससणिद्धं, ससरक्खाधिराय न पिणज्ञा ।!६२॥
स प्रतिमाप्रतिपन्ना यन्माकं स्वाभाविकं, यच्च भवात विप-
रीते तत्स्व जानाति । तत्र खाभाविकमापिवति । इतरद्-
विपरीतं प्राणससङ्कम्-बीजसन्मिश्र सस्निग्धे सरजस्काधि-
राजकलितं न पिवति ।
तत्र प्राणसं सक्तं कथयाति--
किमिकुट्टे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया ।
मोएण सह मेजणहू, निर्सिरे ते उ छायोँए || ६३ ॥
कृुमिसंकुल काछम-उद॒रं तत्र कृमिकोष्ठ स्युः प्राणिनः क-
मिरूपास्त चोष्णनाभितापिताः सन्ता मोकेन कायिक्या
साधमागनच्छेयुस्ततस्तान् छायायां निखजत् ।
बाजादियातिपादना थेमाह--
बीय॑ तु पोग्गला सुका, ससशिद्धा तु चिकणा ।
एडंति सिथिले दहे, खमणुणहामिताविया ॥ ६४ ॥
वीजे नाम--शाक्राः पुद्कलास्त च डिधा-चिकरणाः, श्रचि-
करणश्च तताचिक्णा वीजग्रहणन गृहीताः, झिक्कणाः स-
( ४५ )
मोयपडिमा
प्मभिध्रानराजन्द्रः।
मोरंड `
श
स्निग्धा उच्यन्ते । त उभयेऽपि शिथिल देदे त्षपणनाष्णन |
वाऽभितापिताः सन्तः पतन्ति । (व्य० ६ उ०) ( प्रमेह कणि-
का * पत्रहकाराया ` शब्दे -पञ्चमभान ४०१ पृष्ठ गता )
सप्रात द्रव्यादता मागणामाह---
दव्बे खत्त काले, भावम्मि य होड सा चउविगप्पा |
दव्चे उ होइ मोयं, खत्त गामाइयाण वहं ॥ ६८ ॥
काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इयर वा ।
सिद्धाए पडिमाए, कम्पवियुक्रो हवइ सिद्धो | ६६ ॥
देवो महडितो वाऽवि, रोगातो5हवाँ चति ।
जाती कशणगवप्मो उ, आगते य इमो विही ॥ १०० ॥
सा चुल्लिका माकथ्रतिमा चतुचिकल्पा-चतुराश्चिता भवति
तद्यथा-द्वव्य, त्तत्र, काल. भावे च। तत्र-द्रव्य भवति । माक-
मापातव्यम् , क्षंत्र-ग्रामादीनां बहिः. काल-दिवा रात्रों वा,
भाव-तन्माकं स्वाभाविकम : इतरद् वा | तत्र स्वाभाविकः |
मापिवति, इतरद् त्यजति । अस्यां च प्रतिमायां सिद्धायां कः
ख्ित्काल कुर्वन क्मविमुक्रः सिद्धा भवति । यदि वा-दवो |
महडिंकः, अथवा-काल-कारणाभाव रागाद् विमुच्यते ।
शरीरेण कनकवरों जायते | पालितायां प्रतिमायामुपाश्रय- |
मागतस्याय वदयमाणो विधिः ।
तमेवा ५ एह--
उण्होदग य थोवे, तिभागमद्ध तिभागथावे य ।
महुरमभिन्ना महुरग, एकेकं सत्त दिवसाई ॥ १०१ ॥
उष्णोदकादिकमधिकूतगाथोपन्यस्तमुक्रकमण यकेकं स्त |
दिवसान् कुयोदिति गाथापदयाजना । भावना त्वियम्-सप्त |
दिवसानुष्णोदकेन ओदने भुङ्क, चशब्दाद्--दवितीयान् सक्त
दिवसान् जूषमरडन पाययेत् ( जापयत् ) ।
पतदेवा 5 5ह--
ओदरणं उसिणोदेण, दिणे सत्त तु युजि ।
जूसमंडण वा अन्न, दिशे जावेइ सत्तओं ॥ १०२ ॥
थाव ' त्ति अन्यान् ततीयान्
दिवसान त्रिभाग उप्णादक स्तां मधुरमाल्लणं
अयित्वा तन सह भुङ्क, * तिभागे ` त्ति तदनन्तरम
न्यान् सत्त दिवसान् मधुरस्याल्लणस्य त्रिभागं दो
भागौ उप्णादकस्य मीलयित्वा तन सह भुङ्क्त, ˆ श्रद्ध
इति-ततः परमन्यान् सन्न दिवसानद्धंमधुराल्लणस्य मिश्रयिः
त्वा तन सह करं भङ्क्र, ' लिभाग ` त्ति तदनन्तरमन्यान्
सप्त दिवसान् लिभागमुष्णादकस्य द्धो भागो मधुरोज्नलणस्य
मिश्रयित्वा तन सह भङ्क्र ' थावे य ` त्ति ततः परमन्यान
सप्त दिवसान मधुराज्लण स्ताकमुष्णाद्कं प्रक्षिप्य तन सह
भङ्क्र । एवं पञ्च सप्तकान् मधुर कभिन्नान् स्तोकादिकान् म
धुरकसहितान भुडक |
पि एतदेवा ६ एह--
मधुराल्नणण थविण, मीसे तइयसत्तए |
तिभागव्वजुर्य चव, तिभागो चव मिस्सिय ॥१०३॥
पू्व्याख्यानुखारणय गाथा स्वये भावनीया
थोभावात् । तदृनम्तरमन्यान् मधुरफण उल्लणण सह उपलक्त
पाठासिद्धम् ।
सप्त |
मि- |
अधिका- |
णमतत् अन्येव यूपप्रकारे: सह भक्त भुङ्क्त, ततः परमन्यान्
सप्तसप्तकान् यानि तस्य व्याधरविरुद्धानि ते्दध्यादिभिः ,
सह भावयित्वा भद्ध । तदनन्तरं सर्वप्रचारा भवति ।
एतदेवा 5 5ह--
महुरेण सत्तन्ने, भावित्ता उन्नणादिणा ।
दहिगादीण भावित्ता, ताहे वा सत्तसत्तए ॥ १०४ ॥
अत्रादिशब्दादन्येषां यूषप्रकाराणां परिग्रह व्याख्यातप्रायम।
साम्प्रतमुपसंहारमाह--
एवमेसा उ खुड्टीया, पडिमा होइ समाणिया ।
भोच्चा55रुहते चोइसेण,अभोच्चा सोलसेण तु ।॥१०५॥
एवमेषा चुल्लिका मोकप्रतिमा भवति । सा च भुक्त्वा श्रा-
राहता-प्रतिपद्यमानन चतुदेशकेन समानीता-समाक्ति नीता
भवति। अ भुक्त्वा प्रतिपद्यमानन-षोडशकन । श्रारुहन्त इत्य-
ज सप्तमी तृतीयार्थ प्रतिपत्तव्या ।
सप्रति महती मोकप्रतिमां व्याख्यातुमाह--
एमेव मह्न वि उ, अट्टारसमेण नवरि निदधाति ।
परिहारो ` अट दिवसा,नहु रोगि बलिस्स वा एसा।१०३।
एवमव--ञ्ननेव प्रकारेण महत्यपि मोकप्रतिमा द्रष्टव्या ।
नवरं सा अष्टादशकेन निष्ठां याति, परिहारस्तपो ष्टौ दिव-
सान्,नच स रागी भवाति प्रतिमाप्रभावात्। यदि वा-वलिन
एषा प्रतिमा भवति, नेतरस्य ।
पडिवत्ती पुण तासि, चरमनिदाहे व पटमसरते वा ॥
संघत्तशधितिजुत्तो, फासुयती दो वि एयातो ॥१०७॥
प्रातपात्त पुनरतया प्रातमयायश्थरमानदाघ वा प्रथमशराद्
वा | एत च द्व आप प्रातम स्पशेयति माद्य सहनन च याऽ
न्यतमसह ननयुक्ता श्रुत्या च वद्ञकुड्यसमानः । व्य० £ उ०।
| मोयमही मोकमही- खी० । प्रश्रवणभूमौ, व्य० ६ उ०।
मोया- मोचा-खी० । कदलीचक्त, ल० प्र०।
मोयाफल मोचाफल-न० । कदलीवृच्तफल, ल० प्र० |
मोयावहत्ता-मोच यित्वा-श्रव्य० । भ्वज्याभेदे, यथैकेन सा-
धुना तेलायेत्वादासन्नप्राप्तभगिनीवदिति । स्था० ४
ठा० ७४ उ० ।
' , मोयाविय-मोचित-त्रि० । चोटिते, आ० म० १ अ०।
मार- मोर पुं । ककिनि, श्रचु०। स्था०। रा०। ज० । मोरो म-
उरा इति तु मोर--मयुर-- शब्दाभ्यां सिद्धम् । प्रा० १ पाद्।
श्वपच, दे० ना० ६ वर्ग १४० गाथा । मयूर, “ मोरा सिही
चरदिणो ” पाइ० ना० ४२ गाथा ।
मयूर-पुं? । वर्दिणि, रा” ।
मोरउल्ला-अव्य० । मुधाशब्दार्थ, मोरउल्ला मुधा ॥ ८ ।२॥
२१५७ ॥ मोर उल्ला इति मुधाशब्दार्थं प्रयोक्तयम् । मोरउला
मुधत्यथः । प्रा० २ पाद् ।
मोरंगच्लिया- मयुराङ्कलिका- ख्री° । श्रभरणविशषे, वेय०
३ उ०। |
मोरंड मोरण्ड -(क) -पु | तिलादिमोदके, ₹० १ उ० ।
( ४५५ ) श
मोरग त 22000 ५ "धि वाना, 8 मासा
मोरग-मयुरक - न” । मयूरपिच्छनिष्पन्न संस्तारकादी,आचा० | खषावादस्य चतावधत्वमाइ--
श्रु० १ चू० २ आ० ३ उ०। कुरडले, ° ४ उ० । मयूर- |
क्राभिधाने सांश्नवशः यत्र करडपुरान्निगेत्य महावीरखामी
गतः । स्था० १० ठा० ।
मोरग्गीवा-मयूरग्रीवा -स्त्री०/मयूरकराठे, रा० । प्रज्ञा० ।
मोरत्त्- देशी -श्वपचे, चाडाल इत्यन्ये। दे० ना० ६ वर्ग १४०
गाथा ।
मोरपिच्छ मयुरपिच्छ न° ।मयू र वर्ह, “ मोरपिच्छकयमुद्धय ""
कल्प० १ श्राध० २ क्षण ।
मारासहा- मयूराशखा स्त्री० । महाषधिभदे, ती० ६ करप ।
माराग-मोराक-पु० । स्वनामख्यात साश्नवेश, यत्र वरन्त ।
चीरस्वामिन तापसाश्रम
कर्प० १ अधि० ६
मोरिय मौय-पृ* । मगधजनपदेषु स्वनाम ख्याते सन्निवश,
यत्र मोयों मणिडकपुतश्च जज्ञ, आ० चू० १ अ०।“ रायागिहे
सद्धाथामजरकुलपातामालतः: । |
करण | आ० क० । श्रा म० | आ० चू०। |
मारयवसप्पसूञखा बलभद्दा नाम राया समणावासश्रा उत्त० |
३ ०} आ० क० । चन्द्रगुप्ते, ती० २० कल्प ।
मारियग्गाम--मायेग्राम-5० । च
मोरियपुत्त मौर्य पुत्र-पुं० | मण्डिकमातृपुत्रे मोर्यात्मज वीर-
जिनस्य सप्तम गणधर, स० ११ सम० | कल्प० | आम० ।
गुप्तग्राम,आ० क० १ आ०। |
( मोयेपुत्रगणधरवक्कब्यता ` देव ` शब्दे चतुर्थभाग २६०७
पृष्ठ गता )
भरे णं मोरियपुत्ते पणसट्टिवासाई अगारमज्मके वसित्ता
मुंडे भवित्ता अगाराओं अणगारियं पव्वइए । ( स्ू० ६६ )
मोयपुत्रोा भगवतों महावीरस्य सप्तमो गणधरः तस्य पश्च-
चष्टिवर्षाणि ग्रृहस्थपर्यायः । स० ६५ सम० ।
थेरे शं मोरियपुत्ते पंचाणउद्द वासाई सव्वाउयं पालइ- |
त्ता सिद्धे बुद्ध° जाव प्पहीणे | ( स्ू० ६५ )
तस्य ( मायपुतरस्य ) पश्चनवतिवर्षाणि सवायुः । कथम्-- |
गृह स्थत्वच्दयस्थत्वक्रवलित्वषु कमण पशञ्चपश्चितुदेशषाडशा-
नां वर्षाणां भावात् । स० ६५ सम० ।
मोरियवंस- मोयवश- पु । चन्द्रगुक्चराजवंशे, ती० २ कल्प ।
मोरी-मोरी-स््री० । परिवाजकप्रयुक्कसर्वविद्याप्रतिपक्तभूतायां
विद्यायाम् , , आ० म० १ ० । विशे० ।
मोलिकड-मोलिकृत-त्रि० । आबद्धपरिधानकच्छे, स० ११
सम० ।
माह्ट-मूल्य-न० । श्रोत् कृष्मारडी-तृणीर-कृर्पर-स्थूल-ता
स्वूल-गुड़ची-मूल्ये ८ । १। १२४ ॥ श्रननाकारस्य ओच्त्वम।
माल्न । प्रा० १ पाद् । अध्ये, आ० म० । उत्त०।
मास--मृषा-त्रव्य० । प्राकृतत्वात् खषा । अन्नते, । स्था० ५
ठा० १ उ० । मृषावादे,
भिधाने, आचा० २ श्रु० १ चू० ४ आअ० १३० । असत्ये,
स्था० रे ठा० ३ उ० | प्रश्न० | प्रब० | उतक्त० | स० |
स्था० ३ ठा० ३ उ० । असदर्था- |
चउच्विहे मोसे पप्मत्ते, तं जहा-कोयअणुज्जुयया,भास-
अरुज्जुयया, भावअणुज्जुयया, विसंवादणाजोगे ।
सषा-असत्यम् , नवरम-ऋजुकस्य-अमायिनो भावः कम्म
वा ऋजुकता कायस्य ऋजुकता कायजुकता, न ऋजुकता
अन्नजुकता एवमितरे श्रपि, नवरं भावो--मन इति । काय-
जुकतादयश्च शरीरवाडःमनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनाथोः
प्रवृत्तयः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिक यद्वदति
कस्मैचित् किश्विदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसवादना।
स्था० ४ ठा० ६ उ०।
दसविहे मोसे पष्पत्ते। | तं जहा-“' कोहे माणे माया,लोभे
पिज्ञ तहेव दोसे य हास भये अक्खाइय, उवधाणए नि-
स्सिए दसमे ॥ १॥ "
(दसत्यादि) "मोस' सि । प्राकृतत्वात् समषा-अन्भतमित्यर्थः ।
'क्रोहे' गाहा 'कोहे' त्ति क्रोध निधितमिति सम्बन्धात् क्रोधा-
श्रितं ( कोपाश्चितं ) मुषत्यर्थ: । तच्च यथा-क्रो धाभिभूतो 5दा-
समपि दासमभिघत्त इति । माने--निश्चित यथा-माना-
ध्मातः कश्चित्कनचिदटपघनोऽपि प्रः सन्नाट-मटाधनो-
ऽहमिति । मायः त्ति मायायां निश्चित यथा-मायाकारप्रभर
तयश्चादुः-नष्ठा गालकः, इति । ` लोभे ` त्ति । लोमे निधित्तं
वणिक्प्रभ्रतीनामन्यथा क्रीतमेवेत्थ क्रीतमित्यादि । ' पिज्ञ `
सि प्रमाण निःधितमतिरक्कानां दासोऽहं तचत्यादि, * तहेव-
दोसे य ` त्ति द्धेव निश्चित मत्सरिणां गुणवत्यपि निरणोऽ
यमित्यादि । ' दास ` त्ति हासे निश्चित यथा-कन्दर्षिकाणां
कस्मिश्ित्कस्यचित्सम्बन्धिनि ग्रृहीते पृष्ठानां न द्रष्टामि-
त्यादि । 'भय' त्ति भयनिधितं तस्करादिगरदीतानां तथा त-
था असमञ्जसाभिधानम् , अक्खादय ` त्ति आ्आख्यायिका-
निधितं तत्प्रतिवद्धा $सत्प्रलोषः, ` उवघायनिरस्सिय ` त्ति ।
उपघाते प्राणिवधे निश्चितम-आश्षितं दशमे मषा, अचोरे
चौरो ऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् , मृषाशब्दस्त्वव्ययो ऽलिङ्ग-
श्चति । स्था० १० ठा० ३ उ० । ( “मुसावाय › शब्दे ऽस्मिन्ेव
भागे ३२० पृष्ट वक्कन्यतोक्का )
मोसमणप्पञ्मोग- मृषामनःप्रयोग- पुं° । मनःश्रयो गभेदे, स०
१३ सम०।
मोसलि-मासलि- पुण । स्वनामख्याते ग्रामे, यत्न॒ तोसालि-
ग्रमाद् गतो वीरभगवान् विह्ृतः | आ० म० १ श्र० । आ०
चू०।
मोसली ( हि । ऊर्ध्वाधस्तियक्कञ्यादिपरामरशौ ,
० २६ अ० । प्रत्युपक्तमाणवख्रभागेन तिर्यग्रध्वमधो
वा घटन, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
मोसवत्तिय-मृषाग्रत्ययिक-न० । सद्भूतनिनह्ववासद्भूतारो-
पण, सूत्र० २ श्रु० २श्र०। “ अहावरे चट किरियाठाणे मो-
सवात्तए त्त इत्यादिषष्ठक्रियास्थानप्रतिपादकं सूत्रम्
( २२) ` मुसादंड ' शब्दे अस्मिन्नेव भागे गतम्।
मांसा-म्रषा-च्रव्य० । श्रसत्य भाषाभद्,स्था०० ठा० १३० प्र-
व०। प्रज्ञा०। ( सूषा दशधा सा च "भासा" शहदे पञ्चमभागे
इहापि ' मोस ' शब्दे उक्ता )
०
(
( ४४६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
_मोसाएणुबंधि
मोसाणुबं धि-मृपानुबन्धिनु-त० । रूपा असत्यं तदलुबध्नाती- |
ति पिशुना5संभ्या5सद्भूतादिभिवचनभेदेस्तन्सूषानुबान्धि । |
रोद्रध्यानमदे, भ० २५ श० ७ उ०। पिखुणा ऽसब्भासन्भूय- |
भूयघायादवयणपणिदाणे । मायाविणो ऽतिसधण्, परस्स प-
चछुष्पावस्स ॥ १॥ ” स्था० ४ ठा० १ उ० । अलीकवचनेन
स धर्मोपघातकुमार्गप्ररूपणनिन्दादिं विधत्त । इशै० ४ तस्व ।
मोसभासाणुगय-मृषाभाषानुगत- जि ० ! असल्यवादान्वित ,
पञ्ा० ४ विव०।
मोसोवएस-मृषोपदेश- पुं” । असदुपदेश, आव० £ अ० । पेर- |
घामसवत्यापद्श, उत्त० १ अ० ।
ध० २ अधि० ।
अमातमन्जषधाटरा पदशन
मोसोवएसया-मपोपदेशता-खी० । शषा श्रलीककथनविषय _
उपदेशः यस्य स॒ तथा , तद्धावस्तत्ता। खषोपदेशकता
इदमवे चेव च ब्रहि इत्यादिकमसत्याभिधानशिक्षण ,
पञ्चा० १ विव० | श्रा० चू० ।
मोह-मयूख-ए;ँ० । न वा मयूख-लवण-चतुरण-चतुथेचतुदै- |
श-चतुरवार-सुकुमार-कुतूदलोदूखलोलूखले ॥ ८ । १।१७१॥ |
इत्यादेः स्वरस्य परेण व्यञ्जनेन सहोद् वा। ततः खस्य
हः । किरणे, प्रा० १ पाद् ।
मोघ-जि० । ख-घ-ध-धघ-भाम्॥ ८ | १। १८७॥
इति घस्य हः । प्रा० १ पाद् । निष्फल, बृ० ४ उ०। “ मिच्छा |
मादे विदल, श्रलिये श्रसञ्च श्रसन्भृश्चः' पाई० ना०४२ गाथा।
मोह-पुं० । मोदनं मोहः । वित थग्रदे, विश० । तदाषदशेने
मूढत्वे, ज्ञा० १ श्रु० ८ अ० । रागद्वेषरूपे , सूत्र० १ श्रु० ४
छ० २ उ० । विपयोसे, विशे० । द्विविधो मोदः-क्षान-दशै- |
नभेदात् । स्था०।
मोहे दुविहे पपत, तं जहा-णाणमोहे चेव, दंसण-
मोहे चेव ।
ज्ञानं मारयति-श्राच्छादयतीति शानमोहा-शानावरणादयः,
पवम-' दं सणमादे चव › सम्यग्दशनमोदोदय इति । स्था० |
२ ठा० ४ उ० । “ रागा द्वषश्च मोदश्च, भवमालिन्यदतवः । |
दा० ६ |
त्कृषता क्षया, हन्तोत्कषों 5स्य तत्वतः ॥ १ ॥ ”
दा० । सदसदूयिवेकनाशे , स्था० २ ठा० ४ उ० | तिमिरोप-
प्लुतबुद्धिलाचनस्यानिश्चये, दश० १ अ०
ज्यका रण ऽज्ञानत्व, आतु? । अज्ञान, उत्त० १६ अ० | षा०।
द्वा० । आ० चू० । श्राव० । अवोधों, स्था० ३े ठा० १ उ०।
चित्तव्याकुलतायाम् , सूत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ०। मूढता-
याम् , पच्चा० ४ विव० । प्रश्न० | ग्रहकतंव्यताजनितवैचि-
ध्यात्मके हयापादयविवक्राभाव, उत्त० ३ अ० । आण्म०। |
मोहेण गब्भ॑ मरणा एड, एत्थ मोहे पुणो पुणो ।
( पत्र-१४२ + )
( मोद्देणति ) मादः श्रक्ञाने मोहनीये वा मिध्यान्वकषायवि-
घयाभिलाषमयम् , तन मिन मोदितः सन् कम वध्नाति
तेन च गर्भमवाप्नोति, तताऽपि जन्म पुनवबीलकुमारयो,
[3
१-म्रधु नेकपुस्तके ` असत्ये ' ति पाठः| २--भ्रयं पाठष्टीकाय।मस्ति |
। श्रात्मनो वैचि- |
वनादिवयोविशेषाः, पुनर्विंषयकषायादिना कर्मोंपादाया5&
श्रादिग्रहणात्पुनर्गभमित्यादि , `
नरकादियातनास्थानमतीत्यतो $भिधीयत ‹ पत्थ ` इत्यादि, `
युषःच्तयान्मरणमवाप्रोति ,
अत्र-अस्मिन्ननन्तरोक्ले मोडे-माहकार्य गर्ममरणादिक पौनः
पुन्यना ऽनादिकमप्यन्तं चतुगैतिकं--ससार कान्तारे पर्यट-
ति, नास्मादपेतीति यावत् । कथं पुनः संसारे न वंश्रम्यात् १,
तदुच्यत-मिध्याल्वकषायविषयाभिलापाभावात् । । असावेव
कुता ?, विशिज्ञानात्पत्तः । सेव कुता ?, माहाभावात् । य-
द्यवमितरेतराश्रयत्वम् , तथाहि--माहोा5ज्ञानं मादनीय
वा, तदभावा विशिष्रज्ञानान्पत्तः, साऽपि तदभावादिति
भणता स्पष्रमवेतरेतराश्रयत्वमुक्तम् ।) श्राचा० १ श्रु० ५ अ०
१ उ० । (निराकरणे "ससार" शब्दे वच्यते । “पत्थ माह पुणो
पुणोर” अल-अस्मिन्निच्छाप्रणीतादिके हृषीकानुकूल माह,
कर्मरूप वा माहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत् कुवन्ति । श्राचा०
१ श्रु० ४ श्र २ उ० । सूछायाम् , ध० २ अधि० ।
अथ स्थिरता मोहत्यागादू भवाति, आत्मनः परिणतिचाप-
स्यं मादादयात् , मोहोदयश्थ निधोररूपसम्यगदशनस्वरूपर- `
मणचारिब्रवारक्श्च, क्षयो पशमी चतनावीयोदीनां विपर्यास-
पररमणतप्तत्वादिपरिणमनरूप इति, तन चापल्यम् , अतो
मोटोदयवारणेन स्थिरता भवति, तेन त्यागा्टक वितन्यते,
नामस्थापनामोहः, सुगमः । द्रव्यण मदिरापानादिना मोदो
मूढतापरिणामः, द्रव्यादू-धनस्वजनवियोगात् द्रव्ये-शरीरप-
रिग्रहयादौ द्रव्यरूपो माहः,मोहनगीतादिषु गन्धवादीनां वाक्ये
घु,अनुपयुक्तरय आगमतो नोआगमतो रागवत् । भावतो मो-
हः श्रप्रशस्तः, समस्तपापस्थानहेतुपरद्रव्येषु, कु देवकु गुरुकु-
धर्मेषु । प्रशस्तो मोक्षमार्गे-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोहेतुषु
सुंदेवशुची दिषु । तत्र मोहत्याग उत्सजने,भिन्नीकरणम् , श्त
यावान् श्रप्रशस्तमोदस्तावान् सवैथा त्याज्य एव अशुद्धत्व-
निबन्धनत्वात् । परशस्तमोहदसा धने श्रसाधारणेतुत्वेन पृशौ-
तच्वनिष्पत्तः श्रवक् क्रियमाणोऽपि श्रनुपादेयः । श्रद्धया वि-
भावत्वनेवावधायैः । ययपि-पराञ्रत्तिस्तथापि अशुद्धपरि:
तिरतः साध्ये सतैमाहपरिव्याग पव श्रद्धेय श्रा्यनयचतु-
षये कर्मवरीणापुद् गलेषु तद्योगेषु तदग्रहणप्रवृ्या सङ्कर्पे क-
मपुद्गलेषु बध्यमानेषु सत्तागतेषु चलोदीरितेषु उदयप्राप्तेषु
अशुद्धविभावपरिणामरूपमो हहटे तुषु मोहत्त्वस् शब्दा दिनयत्रये
मोदपरिणतचतनापरिणामेषु मिथ्यात्वासंयम प्रशस्ताप्रश-
स्तरूपेषु मोहत्वम्; अत आत्मनः असमिनव्रक्महेतुः मोहप-
रिणामः। मोहेनैव जगद् बद्धं मोहमूढा एवं रमन्ति सखारे।
यतो ज्ञानादिगुणखुखरोधकेषु च तपु श्रनन्तवारम् अनन्त-
जीवैभुक्नमुक्केप जडेषु श्रग्राष्यषु पुदूगलेष मनोक्षाऽमनोक्ञेषु
ग्रहणा ऽग्रहणरूपो विकटपो मोहो द्वः; तनाय पुद्गलास-
कतो मोद षरि णत्या पुद्गलानुभवी स्वरूपानववोधन मुग्धः
परिश्रमति । अतो मोहत्यागो हितः । उक्त च--
« श्राया नाणसह्ाबी, दंसणसीलो घिखुद्धसुहरूयो ।
सा ससार भमर, पसो दोसा खु मोहस्स ॥ १॥
जो उ श्रमुत्तिश्रकत्ता,श्रसगनिम्मलसहावपरिणामी ।
सो कम्मकवयवद्धो, दीणो सो मादवसगनत्ते ॥ २॥
ही दृकसले श्रायभवे, मोहमद ऽ ऽप्पाणमेव धसर ।
जस्खद्ये शियभाषे, सुद्ध सव्व पिना सरई ॥३॥ ”
मोद
अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्यज्रत् ।
अयमेव हि नञपूवः, प्रतिमन्त्रोऽपि माहजित् ॥ १ ॥
अहं ममति-मादस्या 5 ऽत्मा शुद्धपरिणामस्य उपचारत न्रप-
तिसन्ञस्य. अहः ममः इति-अये मन्त्र: जगदान्ध्यकृत्-ज्ञान-
चन्नरोधकः। अहमिति.स्वस्वभावनान्मादः, पर इत्यनन अहं
ममति परभावकरण कर्तृतारूपो ऽहङ्ारः अहं, सवेस्वपदा-
थता भिन्नेषु पुद्रलजीवादिषु इदं ममति परिणामो ममकारः ।
इत्यनन `अहं ममति ` परिणत्या सवपरत्व, स्वतया कृतम् ।
एषो ऽथुद्धाध्यवसायो माह जः मोहोद्योतकश्च, शुद्धज्ञानाञ-
नरहितानां जीवानां आन्ध्यकत्-स्वरूपावलाकनशक्किध्वस-
कृत् , हीति निश्चितम् । अयमव नजपूर्वः 'प्रतिमन्त्रा' विपरी-
तमन्त्र: माहजितं-माह जय मन्त्र; । तथा च-नाहे, एत म पर
इत्यवमोहस्य विजम्भित मत्वा त्याज्य इति कथयति--
भावा ममाप एत न, श्रान्तः पषा: साम्प्रत यथाथपदाथ- |
ज्ञाननाहे पराधिपा न परभावा मम । उक्तं च--
& एगो हे नऽत्थिम कोई, नाहमन्नस्स कस्स वि।
एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई ॥ ६ ॥
एगो म सास्रा अप्पा, नाणदंसणसंजु्रा ।
ससा मे बाहिरा भावा, सव्व सजोगलक्खणा ॥ २
सजागमूला जीवण, पत्ता दुक्खपरंपरा ।
तम्हा सजागसवध, सव्व तिविहेण वासिरे ॥ ३॥ ”
इव्यव विभाव्य द्रव्यकर्मेतजुधनस्वजनयु भिन्नतां नीतषु
स्वेमावेकत्वन मादजया दष
इष्र इति ॥ १ ॥
पुनस्तदेव भावयति--
शुद्धात्मद्रव्यमवा हं, शद्धज्ञानं गुणो मम।
» अतः अहङ्ारममकारत्याग
नान्याऽहं न ममान्ये च त्यदो मोहास्रमुल्वणम् ॥ २॥ ¦
शुद्धात्मद्रव्यमिति.शद्धा निर्मलः सकलयपुद्धलाश्छिपरदितोज्ञा
नदशनचारि्रवीयाव्यावाधामूरत्तायनन्तगुणपर्यायनित्यानि -
त्याद्यनन्तस्वभावमयः असख्यप्रदशी स्वभावपारिणामी स्वरूप- |
कत्रत्वभाक्रत्वादधमा पतः, आत्मा शुद्धा त्मा तद्व-शृद्धात्म
द्रव्यम् एव अह अनन्तस्याद्वादस्वसक्ताप्राग्भवरासकः,अनव- |
च्चिन्नानन्दपूणः परमात्मा परमञ्यातीरूपः.अहं शुद्ध निराव-
रणं सूर्यचन्द्रादिसहायविकलप्रकाशम् ,एकसमये त्रिकालात्रि-
लोकगतसरर्वद्रव्यपर्यायोत्पादव्ययधोव्यावबाधकं ज्ञान मम गु
ण॒ः,कत्तो ज्ञानस्य,मे काय ज्ञान, ज्ञानकरणान्वितो ज्ञानपात्रो-
ज्ञानात् जानन् ,्लानाधारों 5हम् , ज्ञानमेव मम स्वरूपम्, इत्य-
चगच्छुन् अन्यधर्मांधर्माकाशपुद्दलास्ततो ऽन्यत् जीवपदार्थ-
सार्थः जीवयपुद्धलसंयोगजपरिणामः अन्यः सर्वः,अहं न.मदा-
भिन्ना एव एत पूर्वाक्ता भावा मम द्रव्यादिचतुष्टयन भि-
न्नत्वात्। यो दि व्याप्यव्यापकभावाद् भिन्नःसमम न, यः
असंख्यप्रदेश स्वक्तेत्र अभदतया स्वपयायपरिणामः स मम
इति । स्वस्वरूप स्वत्व, पर परत्वपरिणाम.' 'मादाख'- मादः
च्ेदकम् अस्म् इटग्भदज्ञानविभक्तन माहत्षयः, अतः सर्य
परभावभिन्नत्वे चिघयम्। अत एव नित्रन्थास्त्यजान्ति श्राख-
वान्, ्रयान्त गुरुचर णान्, वसन्ति वनु, उदासी भवन्ति
१९५
( ४५७ ).
अनभिधानराजन्द्र
मोट
विपाकेषु, अभ्यस्यन्ति आगमब्यूहम्, अना[दिपर्भावच्छुदाय
प्रयत्न उत्तमानाम् ॥
यो न मुद्यति लग्नपु, भावेष्वोदग्रिकादिषु ।
आकाशमिव पड्नेन, नाऽसो पापन लिप्यत ॥ ३ ॥
भ्या न महाति ` इति या जीवः तक््वविलासी ओदयिकादिषु
भावघु-शभाशृभकर्माचपाकषु आआदिशब्दात्--परमावानुग-
त्यापशम शरणदधपारिणामिकभावग्रहः, तपु लग्नषु-
आत्मनि स्वक्षत्रीभृतपु या न मृद्यत माहेकीभाव न प्रा्रा-
ति, भदज्ञार्नाववकेन त्यक्रपरसयागः अवश्यादितपषु यः अ-
व्यापकः स पापन कर्मणा न लिप्यत । | किमिव>पक्नेन आ-
काशमिव | यथा-आकाशस्थपड्ुः आकाशस्य न लपक़त ,
तत्र--अपरिणमनात् । एवं शमसेवगनिवद्निगटीदपरभा-
वस्य अवश्यादयावपाक भुज्यमानर्डाप अव्यापकल्वाद् न
लपः। स हि-पूर्वकर्मानजेगारूप कार्य कराति , स्वीयप-
रिणामस्य भिन्नरक्षणन अकदूृत्व॑ तस्य परभावानाम् । उक्क
च अध्यात्म विन्दो --
“ स्वत्वन स्वे परमाप, परत्वन जानन् समस्ता--
न्यद्रव्यभ्या विरमणमियच्िन्मयत्व प्रपन्नः ।
स्वात्मन्यवाभिरतसुपयन् स्वात्मशीली स्वदरशी-
व्यव कर्ता कथमपि भवत् कमणा नेष जीवः ॥ १॥
न कामभोागा समये उवरेति, न यावि भागा वियद उवति ।
ज तप्पश्रोसी अ परिग्गदी त्र.सातसखु माहा विगई उवद।२।'”
एवे परद्रव्य अरमन् आत्मा मुच्यत, अत पव सर्वसङ्ध-
परिहारः,असङ्गा दि मुच्यतां निमित्त, मुक्त्या ऽस्य गार्ष्यनि-
मित्तान् धनस्वजनाङ्गनाभागभाजनादीन् त्यजति कारणाभाव
कार्याभावः, इति भावाश्रयपरिणलतिराधसयमः, तद्रक्षणा-
य वद्य हिताय आश्रवत्यागा मुनीनाम , भावना च--येः
परभावा अभोग्या अग्माह्या: कृताः त कथ तत्र रमन्ते ? ॥३॥
पश्यन्नव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् ।
भवचक्रपुरःस्थोऽपि, नामृढः परिखिद्यति ॥ ४ ॥
"पश्यन्नेवेति '-स्वरूपाच्युतिस्वधर्मेकलत्व अमृढः--तच्वनज्ञा-
नी, स्वरूपसाधनोद्यतः , प्रतिपाटकम्-एकन्द्रियविकल-
न्द्रियपश्चन्द्रियरूपपाटके नरतियगदेवनरकलत्तण सर्वस्था-
ने परद्रव्यनाटकं जन्मजरामरणादिरूप सस्थानानमाणवरणी-
दिभदाविचित्र, पश्यन् एव न पारेखिदयात--न खदवान् भव-
ति । जानाति च पुद्रलक्मविपाकजां चित्रतां. न मत्स्वरूपे
श्रान्तानां भवत्येब, न तच्पूर्णानाम् | कथभूतः? अमूढ: भव-
चक्रपुरस्थः आपि, अनादिस्वकृतकमपरणामन्रपराजधानी-
चतुरतिरूपभवचक्रकरोडगता ऽपि. आत्मान भिन्न जानन् न
खिद्यति, परस्मेपद तु काव्य प्रयुक्रत्वात् `` खिद्यति काय जडः"
इति पाठदशनात् । इत्यनन कमविपाकचित्रतां भरञ्जन्नपि अ-
खिन्नः तिष्ठाति: कर्तत्वकाल न अरातिः-अनादरः तहिं भाग-
काले को द्वेघ उदयागतभागकाले इप्टानिष्टतापरिणातिरव श
भिनवकमहतुः अतः अव्यापकतया भवितव्यम् . शुभादया 5
पि आवरणः, अशुभादयी 5प्यावरणः, गुणावरणन्वन तुल्य-
त्वात् का इष्लानिष्टता ? ॥ ४॥
विकल्पचपकेरात्मा, पीतमाहासवो ह्ययम् ।
( ४५८ ) ५
आाभधानराजन्द्र: | ।
माद
भवाञ्वतालमुत्ताल-प्रपश्चमाघातट्ठात ॥ ५ ॥
विकल्पचपकेरिति- विकर्पाश्चित्तकल्ञाला एव चघकाः--
मद्यपानपात्राणि तैः, हीति-निश्चितम् . श्रये जीवः पीता मो
ह एवं आसवो-मादकरसा यन सः पीतमोहासबः पुरुधा,
भवोच्चताल-भवः-- ससारः स एव, उच्चताल-मद्यपगोघ्री
क्षत्र प्रात उच्चताले पुनः पुनः उच्चस्वरण तालदानरूपे
प्रपश्चे-विस्तारमाधितिष्ठति-प्राप्नांत । इत्यनन माही जीवा |
मदिरासत्तवत् चापस्यवेकल्य करालि, परं स्वत्वन,. स्वे च
परत्वनः कलयन आत्मानम् अकायनिष्पादनपरटिष्ठ प्रवर्तयन्
स्वस्थानश्रष्ठा श्रमात | अत एव माहत्यागः श्रयान् ॥ ५॥
निमलस्फटिकस्यव, सहज रूपमात्मनः ।
अध्यस्तापाधिसम्बन्धा, जडस्तत्र विग्ुद्यति ॥ ६ ॥
“निर्मेलस्फटिकस्यवाति,' नि्मलस्फारकस्य वरणनिस्सङ्ग
स्फटिकस्य इव आत्मना ज्ञापक्र
व्यस्य सहज-स्वाभावक |
शुद्ध रूपम् अस्ति इत्यनन वस्तुवृत््या आत्मा स्फटिकवत् |
निमेल पव -निस्सङ्ग एव । संग्रहनयन आत्मा परापाधिसज्ञी |
एव नास्ति परमज्ञापक्चिदानन्दरूपः अध्यास्तापाधिसम्ब-
न्धः, प्राप्तपुद्रल संसग जकमों पाधिसस्वन्धः अनकग्लानम्ला-
नावस्था जडः वस्तुस्वरूपापारिज्ञानी । त्र उपाधिभाव मुद्य-
ति, एकत्वं प्राप्नाति, यथा-मूखः श्यामनीलपीतादिपुष्पसया-
गात् स्फटिकाभदरील्या नीलपीतस्वभाव जानातिः तथा व-
स्तुस्वरूपाववोधविकलो जीवो मिथ्यात्वा ऽविरतिकषाययोाग-
नामत्ताद् बद्कन्द्रियादि-नामकर्मोदयात् एकन्द्रियादिभाव-
मापन्नम् एकान्द्रयादिरूपमेव मन्यते | पकन्द्रिया ऽहं, विक-
लो5हं, पन्द्रयाऽदं जानाति । परे शुद्ध खीयं सच्चिदान-
ल्द्रूपं निर्मल स्वरूपे नाववोधर्तीति मृखतापरिणतिः
तत्वक्षः खानिस्थवज् समल सावरणं समृदपि रत्नपरी-
्षकवत् वज़त्वन अवधारयति । एवं ज्ञानावरणादयावृतम्
अतदाकारं ज्ञानज्यातिः परकाशविकलमपि आत्मान पूर्णा-
नन्दे सहजाप्रयासानन्द्संदाह सर्वज्ञ सवतच्वस्वरूपाभिन्नमा-
त्माने सम्यगज्ञानबलन निधौरयति इति, इत्यनन आत्मा शद्ध
एव श्रद्धयः । उपाधिदापस्तु सन्नपि तादाम्याभावात् ससग-
त्वात् भिन्न एव निधाय हात ॥ ६॥
मादात् जीवः; परवस्तु आत्मत्वेन जानन् आरोपज सुखे
सुखत्वेन श्ननुभवति, भदज्ञानी तु श्रारापजे सुखे दुःखमेवेति
निवारणाय यत् तदुपदिशन्नाद-
अनारोपसुर्ख माह
आरोपप्रियलोकषु,
त्यागाद नुभवन्नपि ।
वक्त माश्चयेवान् भवेत् १॥ ७ ॥
अनाराप--श्रनारापजं-- सहज सुस्त स्वगुणक्षाननिद्धीर-
भ्रागभावरूप सुख माहस्यागात-मोहक्षयापशमात् अनुभ-
वच्नाप--भुजअन्नाप, आगापा--मथ्यापचारः प्रया येषा ते |
श्रारापराप्रयाः त तर त लाकाश्चन्रारापाप्रयलाकाः तथु आरो- |
पसुख वक्तुम् आश्थयवान भवत् ? अज काकृक्तिः अपितु,
न भवत् , यन श्रारोपज सुख प्राप्त स आरोपसुखे श्राश्च- |
यैवान-चमःकारवान् भवति । श्रथवा-श्रनारोपसुखाचुभवी
श्रारापग्रियष्टाकेषु अग्रे आरोपज सुखं सुखम् इति वक्रमपि
श्राश्च्यवान् भवति, वक्लं न समर्थो भवति सखुखाभावात् सु- ४
खकारणाभावात् । तञ्च वस्तुब्ब॒स्या दुःखखवरूप सुखम् इति लो-
काथम् उक्कऽपि स्वयम् श्राश्चयवान् भवेत् । किमुक्कम ?-दद
मया ?, नदं सुखम् अतः परसेभवे सुख सुखाभासो निवार
णीया माहमुलत्वात् , पौद्रलिके सुख स्वश्रान्तिरिव ्राभ्य-
न्तरमिथ्यात्वादिति ॥ ७ ॥
यश्चिहपणविन्यस्त-समस्ताचारचारुधीः ।
क्व नाम स्वपरद्रन्ये-ऽनुपयोगिनि भुद्यति ?॥ ८ ॥
(यश्चिदपरण इति)-यः पुरूषः आगमानुगताशयः चिद्-ज्ञाने
स्षवैपदा परिच्छेदकं तदेव दषणम-श्रादगीः तेन विन्यस्ताः-
स्थापिताः समस्ता ज्ञानाद्याचाराः तेन चारुः मनोहरा धी-
बुद्धियेस्थ स पुरुषः, नाम इति--कामलामन्त्रणे परद्रव्ये
पुद्रलादौ श्रनुपयागिनि श्रकिञ्चित्करे कस्मिन्नपि कार्ये ग्-
दीतुमयाग्य क्र मुह्यति ? इत्यथः, यो ज्ञानादिषञ्चाचारेख॒
सस्कारितापयागी श्रात्मानन्दे ज्ञानदर्षण पश्यति स परद्रव्ये
कथ मुह्यति ?, नैवेति । तस्त्त्वज्ञानविकलानाम् अनादिमिथ्या-
त्वा $सयमवतां स्वरूपानुभवशन्यानामव परद्रव्याजुभवः।
तत्र सुखश्ान्तिरूपा माहः । स्वभावधमनिद्धारभासनरम-
णानुभवसखा 5 ऽस्वादलीनानां न मोहः, अत आत्मस्वरूपक-
त्वमव मोहत्यागापायः, अत पव अनादिश्रान्तिमपहाय
आत्मानुभवरसिकतया भवितव्यम् । आत्मस्वरूपभ्रद्धान-
भासनरमणानुभववता स्थातव्यम्, इति तत्त्वम् | आग-
मश्रवणकुसज्ञत्यागात् तत्व रुचिस्तत्वक्ञानवलन सेयोगजे स-
वैमनित्यम,अशर णं ससारह तुः.श्रात्मा एकः.सवपदार्थान्तरम्
श्रात्मव्यतिरिक्तं परस्पशे एवाशुचि, परानुयायिता एवं आ-
स्वरूपानुगमन स्वरः, उदीरसक अमशझता इत्यादि
परिणत्या माहत्यागो विधयः । श्रष्० ४ श्रष्र०। लोभ
क्रोधमाहषु मोहः प्रधानम् , स्वपरविभागपूर्वकयोलो--
भक्राघधयास्तन्मूलत्वात् । । द्वा० २१ द्वा० । मुद्यत्यनेन जा-
नन्नपि जन्तुरिति माहः । दशैनमोहनीयादौ , उत्त० ८ अ०।
मिथ्यादशने , सूत्र० १ श्रु० ३ अ० १ उ०। मुद्यति-मृढो
भवति जीवो ऽनेनेति मोहः । मद्यवति मोहनीय कमणि ,
उत्त० ३३ अ० । सूत्र० । पुरुषवेदुदयरूप ( चृ० १ उ० ३
प्रक०।) कामोद्रके, व्य ४ उ० । ( मादेना ऽऽचार्योपाध्याया-
नामवधावनम् ` ' आयरिय ` शब्द द्वितीयभागे ३१प्पृष्ठे दर्शि-
तम् ) कामानुरांग , ग० ३ अधि० । मोहनीयोदये , मोह
नीयं नाम यनाऽऽत्मा मुह्यति तच्च ज्ञानावरणं मोहनी
वा यथायथ द्रष्टव्यम् , | तादशं मोहं प्राप्तस्य चिकित्सा ।
व्य०२ उ०। पं० सू०। विर्तित्यागिनो मादाद्यः
पं० व० ।
श्रोघतो विकूतिपरिभोगदोषमाद--
विगई परिणइधम्मो, मोहो जम्मुदिज़ण उदिष्षे अ |
सदर वि चित्तजयपरो, कटं अकज़े न वद्विहिई ॥३८३॥
विकृति परिणतिधमः कीटगित्याद-- मोदो यत् उदयते
ततः किमित्याद--उदीरौ च मादे सखुष्टुपि चित्तजय-
चरः प्राणी कथमकार्य न वर्क्षिष्यत इतति गाथार्थः ।
दावानलमज्भगओ, को तदुवंसमदयाएँ जलमाई ।
( ४४६ )
मोह
चअभिधानराजेन्द्रः।
004 भोहि
सतेऽबि न सेविज्ञा, मोहानलदीविए उवमा ॥ ३८४ ॥ | मोहणकरा- मोहनकरी - खो० । माहादयकरणशीले विद्याभेद,
दावानलमध्यगतः सन् कस्तदुपशमाथ जलादीनि स-
न्त्यपि न सेवत ? सब एव सेवत इत्यथः, । मोदानलदीपेऽप्यु-
फ्माति जलादि सस्थानीया योषितः सेवेत इति गाथाः ।
पे० व० २ द्वार । मिध्यात्वमोहनीयोदय, षो० ११ विव० ।
आचा० । मोहयति ज्ञानिनमाप प्राणिन खदसद्विवेकवि-
कले करातीति मोहः। लिहादित्वादच् प्रत्ययः | कमे० १
कर्म० । मोहनीयकर्मणि, पं० स० ५ द्वार । दशै०। जतिश-
न्मोहनीयस्थानेषु, आतु० । मुद्यतीति मोहः । मिथ्याप्रत्यये,
सम्म० १ काराड | बृ०।
अथ मोहद्घारमाह--
भावोवहयमईओ, मुज्मइ नाणचरणंतराईसु ।
शी य बहुविहा, दट्ठे परतित्थियाण तु ॥ ३८५॥
भावेन शझ्लादिपरिणामेनोपहता दूषिता मतियेस्य स भावोप-
हतमतिकः, एवविधो मह्यति-वैचित््यमुपयाति, ज्ञानावरणा-
न्तरादिषु। ज्ञानान्तराणि नाम ज्ञानविशषास्तद्विषयो व्यामोहो
यथा-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषय-
आहकत्वेन सख्यातीतरूपारायवधिज्ञानानि तत् किमपरेण
मनःपयवज्ञाननति । चरणान्तरव्यामोहो यथा-यदि सामा-
यिके सर्वसावद्यविरतिरूपे केदो पस्था पनीयमप्येवविधमेव
तत्को नामा-ऽनयोर्विशेषः । श्रादिशब्दादशनान्तरवाचनादि-
परिग्रहः । ऋद्धिश्च बहुविधा-श्ननेकप्रकारा, समृद्धिः पर-
तीर्थिकानां दष्टा यन्मुद्यति स मोह उच्यते । बू० १ उ०
२ प्रक० । एष च मोहः समोहभावनाया देतुः। सूदमभा-
वेषु परतीर्थिकसख्द्श्ालोकने च मोदने, ध० ३ श्राधि०।
श्राचा। योगिपरिभाषया ऽविद्यायाम्, स्या० | मोदनं मोहः |
वेदरूपमोहनीयोद यसम्पा्यत्वादज्षानरूपत्वाद् वा मैथुने,
श्रश्न० २ आश्र० द्वार । मोहइद्देतुत्वात् मोहः। क्मबन्ध-
विशये मोहनीयकर्मवन्धने, आचा० १ श्रु० २ श्र° ४ उ०।
मोदेभाण-मोहध्यान-न० । मोदनं मोदः आत्मनो बैचिस्ये
हा करणमक्षानत्वमित्य्थः, तस्य ध्यानम् । मेोदात्कृष्णतनु
खहतो बलभद्रस्येव दुर्यान, ्रातु०।
मोदेत -युद्यत्- जि? । कामक्रीडां वैति, नि० चू० १७ उ०।
आचा० ।
मोहगर्भवेरग्ग-मोहगभवैराग्य न” । “ एको नित्यस्तथा
बद्धः, छय्यसत्येह सर्वथा । आत्मेति निश्चयाद् भूयो, भवनै-
शुण्यद्शनात् ॥१॥ त्यक्त्वा मायो पशान्तस्य, सदृचृत्तस्यापि
भावतः । वैराग्ये तद्गत यत्त- न्मोहगभमुदाहतम्॥ २॥ ”
इति ‹ वेरग्ग ' शब्दे वच्यमाणलक्तण वैराग्यभेदे, हा० १०
अष्ट० । द्वा० ।
मोहजाल-मोहजाल-न० । सान्तरप्रकृतिके मोहनीयकमंरि,
“ मोहणिल्ल कम्मे समेदं मोहजाले भन्नति, “पप्फोडियमोह-
जालस्स '' श्रा० चू० ५ श्र०।
मोहण- मोहन-न० । मैथुनासवनायाम् , “ रमिय मोहणाई ”
दति नाममालावचनात् । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । निधुवने,
मोहकारणे च ; शा० ? श्रु° ३ अ० | भ०।
सूत्र० २ श्रु० २ अ०।
मोहणघर-भोहनग्रूह-न० । मेहने मैथुनसवा तत्प्रधानानि
गृदकाणि । वासभवनेषु, जं० १ वक्० । रा० । क्ञा० । सम्मो-
होत्पादक गृद्दे, रातिणृहे वा ! ज्ञा० १ श्रु०ण ८ अ० । जी० ।
मोहणसील-मोहनशील-दत्रि० । निधुवनश्रिये, ज्ञा० १ श्रु० १
,अ० । निधुवनशीले, भ० १४ श० ८ उ०।
मोहशिदा-मोहनिन्दा-खी० । मूढताया अनादरे, घ० । उ-
पायतो माहनिन्दा ' इति-उपायतः--उपायनानथगप्रधानानां
मूढपुरुषलत्तणानाम् प्रपश्चनरूपेण मोहस्य-मूढताया निन्दा-
अनादरणीयताख्यापनेति यथा--
“ अमिज्र कुरूते मित्र, मित्र देण हिनस्ति च ।
कमं चारभते दुष्ट, तमादुमूढदचेतसम् ॥ १ ॥
श्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च ।
नैव मूढो विजानाति, मुम् धुरिव भेषजम् ॥ २॥
सम्प्राप्तः परिडतः रच्छ, पूजया प्रतिबुध्यते ।
मूढस्तु रच्छ मासाद्य, शिलेवाम्भसि मज्जति ॥ ३॥ ”
श्रथवोपायतो मादफलोपदशनद्ारलक्तणान्माहनिन्दा का-
या । घ० १ अधि० |
मोदणिज्ञ-मोहनीय-न० । मोदयति सदसद्विकलं करोत्या-
त्मानमिति मोहनीयम् । प्रव० २१५ द्वार । मोदाय योग्य
मोहनीयम् । उत्त ३३ श्र० । “ मज व मोहणीयं '' इति
मद्यमिव मदिरासदशे मोहयतीति मोहनीय कर्म । प्रव-
चनीयादयः ॥ ५ ।१।८॥ इति सूत्रण कतेयेनीयप्रत्ययः | यथा
दि मद्यपानमूढः प्राणी सदसद्धिवेकविकलो भवाति । तथा-
मोहनीयेनापि कर्मणा मूढो जन्तुः सदसदिवेकविकलो
भवति । क्म० १ कर्म० । कर्मभेदे, उस्त० २ आ०।
मोहणिज्े कम्मे दुविहे पप्पत्ते, त॑ जदा-दंसणमोहणि-
ज्ञे चेव, चरित्तमोहणिजे चेव । ( घत्र-१०५ )
मोदयतीति मोहनीयम् , तथाद्वि-“जह मज़पाणमूढो, लोप
पुरिसो परव्वसो होइ। तह मोदेण वि मूढो, जीवो उ परब्वसो
होइ ॥ १॥ ” इति । स्था० २ ठा० ४ उ०। श्राचा० । श्रचु०।
पं०सं० । उत्त० ।
मोहणिज्जं पि दुविहं,दंसणे चरणे तहा ।
दंसणे तिविहं वुत्त, चरणे दुविह भवे ॥ ८ ॥
सम्मत्त चेव मिच्छत्त, सम्मामिच्छत्तमेव य |
एयाओ तिनि पयडीञ्ो, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥ ६ ॥
चरित्तमोहणं कम्म, दुविहं तु वियाहियं ।
कसायमोहशिज्जं च, नोकसायं तहेव य ॥ १० ॥
सोलसविहभेए-णं कम्मं तु कसायजं |
सत्तविह नवविहं, वा कम्मं नोकसायजं ॥ ११ ॥
मोहनीयमपि द्विविधम् , न केवलं वदनीयम् , विषयतश्चै-
तद् दिधेति । द्वेविध्यमादह,-दर्शने-तत्त्वरुचिरुपे चरणे-चा-
#१
( ४६० )
भादणन्त आमभधानराजन्द्र। |
रित्र तथा-किमक्ते भवांत ?-दशनमाहनीये, चार्माहनाय |
च । तत्र दर्शन-दर्शनविषय प्रक्रमान्माहनीयं जिविध-
मुक भवलि, चररा-चरणविपयं मोहनीये द्विविधं भवत्, ।=।
चथा । | दशनमाहनीयबत्रेविध्यम् तथाह-सम्यग्भावः सम्यक्त्वे
शुद्धदलिकरूप यदुदय पि तच्वरुचिः स्यात् , चेच इति-पूरण।
मिथ्याभावः मिथ्यात्वस-अशुद्धदलिकरूप यतस्तच्च श्रत-
स्वस अतच्चऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुन्पद्यत , सम्यग॒मिथ्या-
त्वमवे च-- णृद्धादश॒द्ध दल्लिकरूपस | यतः-- उभयस्वभावता
जन्ता््रवति, इह च सम्यक्न्वादया जीवध्रमास्तद्धतुत्वाचनद-
लिकरषु एतदूठ्यप्दशः । एतास्तिस्त्र: पक्रतयो माहनीयस्य दशे-
न-दशीनविपयस्य ॥ ६॥ चरित्र मुद्यतऽननति मोहने च-
रित्रमाटने कम, यतः श्रदधानाऽपि यदि कथचनाहमने प्र-
तिप इति जानन्नपि तत्फलादि न प्रतिपद्यत, उत्तरत्र तु
शब्दस्य भिन्नक्रमन्वात् तत्पुनद्धिवि्थे व्याख्यातं श्रुतधर
ति शषः.पटन्ति च "चरि त्तमाद णिज्ञं दुविह वाच्छरामि अखुपु
व्वसो ` त्ति स्पष्टमव, कथ तद् द्विविधम् ? इत्याह--कपा-
याः काधादयस्तदूरूपण वदयत ऽनुभूयत यत्तत्कपायचद नीयं
चः सम॒च्चय । ` नाकपायमिति ` प्रस्तावान्नाकप्रायवदनीयम् ।
नाकपायाः कपायसहवर्तिना दास्यादयस्तदृरूपण यद् |
वेदयत । तथति समुच्चय ।६०। अनयोगपि भदानाह-षाडश- |
विधः--पोडशध्रकारो या भदो नानात्वं तन, लक्षण-- |
तृतीया । यद्वा-- पाडशविध, भदेन--भिद्यमानतया चिन्त्य |
मानम् , प्राकृतत्वादनुस्वारलोपः, कर्म-क्रियमाणत्वात् । तुः-
पुनरथ सिन्नकरमश्च | कषायेभ्यो जायत इति कषायजम् “ये
वयति तं बंधइ ` इति वचनात्कपायंवदनीयमित्यथः । घाड- ¦
शविधत्वे चास्य क्राधमानमायालाभानां चतुणामपि प्रत्य-
कमनन्तानुबन्ध्यप्रत्या ख्यानघ्रत्याख्यानावरणसञ्वलनभदत-
अ्तुर्विधत्वात्, ˆ सत्तविह ` त्ति ध्राग्वद्धिन्दुलोपात्सप्तविधे
वा कम, नाकषायभ्या जायत इति नाकषायज, ना-
कपायवदनीयमिल्यथः । तत्र सप्तविधम--हास्यरत्यराति-
भयशाकजुगुप्साः षड, वेदश्च सामान्यविवक्षयेक पवति
यदा तु वदः, ख्रीपुनपुसकभदेन त्रिधाति विवच्यत तदा
घड़भिसख्रया मिलिता नव भवन्तीति नवविधामिति । उत्त०
३३ अ० | कर्म । प्रव० ।
माहनीयक्माशानाद-
अभवसिद्धियाणं जीवाण माहणिजस्प कम्मस्य छव्यी-
से कम्ममा संतकम्मा पष्त्ता, तं जहा-मिच्छत्तमाहणिज,
सोलस-कसाया, उत्थीवेदे, पुरिसवेद, नपुंसकवेदे, हास,
श्ररति-रति-भय, साग, दुगा, । ( खू० २६ + )
माद णिजस्म कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीश्मा संतक-
म्मंसा पष्मत्ता । ( ( खू० २७ + )
माहनीयकर्मणा 5 प्राविशनिविधस्य मध्य सप्तविशतिरुत्तर प्र-
कृतयः सत्कर्मोशाः सत्तायामित्यर्थ:,एकस्याद्वलितत्वादिति।
माह िजम्म कम्मस्स अद्ढावीसं कम्मसा संतकम्मा प-
पित्ता, तं जहा-सम्मत्तवयणिज्ञ॑ मिच्छत्तवेयणिज्ञ म-
| क्
म्मामिच्छत्तवेयणिज्ं सोलस कसाया णव नोकसाया |
( सू० २८ )। स० २८ सम० | ।
यावन्माहनीयं तावदाषाः--
कम्माण रायभूयं, व्रतं जाव माहणिजे तु ।
सभावणिज्ञ दासा, चिट्वई ता चरमदहाऽवि ॥ ६३ ॥
प० च० ६ द्वार | व्याख्याञऽम्या गाधायाः ` पवज्ना शब्द
पश्चमभाग ७३८ पृष्ठ गता )
कति कर्मवृतक्ताः किंमूलाश्रेत्याह--
ट विहकम्मरुक्खा, स्व्वते मोहणिजमूलागा ।
कामगुणमूलगं वा, तम्मृलागं च संसारो ॥ १७८ ॥
अष्रविधकर्मचरत्ताः,ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं क-
पायाः, कामगुणा अपि माहनीयमुलाः, यस्माद् वदोदयाद्
कामाः, वदश्च मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्माहनीय मूलम्-
आये कारण यस्य संसारस्य स तथा दाति गाधाः । त-
देवे पारम्पर्येण संसारकपायकामानां कारणत्वान्माहनीयं
प्रधानभावमनुभवति , तत्क्षय चावश्यभावी कर्मक्षयस्त-
था चाभाणि-* जहा मत्थयस्ईए , हयाए हम्मणए तलो । तहा
कम्माणि दम्मन्ति, मोहरसिज्ञ खयं गए ॥ ९ ॥ ” आचा०
१ श्रु० २ अ० १ उ०। ( मोहनीयस्य क्मणाऽनुभावः ` अनु-
भाग ' (व ) शब्दे प्रथमभागे ३६७ पृष्ठे गतः )
मोहशिज्ञस्स णं कम्मस्स सत्तरिं सागरोवमकोडा-
कोडीओ अवाहणिया कम्मट्विई कम्मशिसेगे पष्पतत ।
( सू० ७० >< )
अवाहणिया कम्म कम्मणिसेगे पत्त ' त्ति इह कि-
लाऽऽत्मा अविशिष्टमेव कमं पुद्धलापादाने छृत्वा उत्तरकालं
ज्ञानावरणीयादिकर्मणां स्वे स्वमवाधाकाले मुकवा ज्ञाना-
वरणीयादिप्रकूतिविभागतया अनाभागिकेन वीर्यणोदयस-
हित तदलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं रचयतौत्यथः । अ-
ता द्विविधा स्थितिः--कमत्वापादनमात्र रूपा, अनुभवरूपा
च । यतः स्थिति:-अबस्थान तन भावनाप्रच्यवनम , तवर
कमत्वापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागरापमकारीको-
स्यः, अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सत्तचपसदटस्रानात, ततर ` अ
बाह ` त्ति किमुक्ल भवति-? बन्धावलिकायाः आरभ्य या-
चत्सप्तव्षसदस्ाणि तावत्कर्म न वाधते, नादयं यातीत्यर्थः ।
तनाऽनन्तरसमय कर्मदलिकं पूर्वनिषिक्कलमुदये प्रवेशयति ।
निपरका नाम-ज्ञानावरणादिकर्मदलिकस्यानुभवना्थ रचना,
तच्च प्रथमसमय वहकं निपिञ्चति, द्वितीसमय विशषही-
ने, तृतीयसमय विशपटीनमवे यावदत्कृर्शास्थति कर्मद
लिकं तावद् विशेषहीन निपिश्चति । तथा चाक्तम- मात्तु-
रण॒ समगबाहं, पढमाए ठइपे बहुतर दव्व। सस विसेस-
रीणं, जावुक्रासं त सव्यांल ॥ १॥ ` वाध्र-लाडन,
बाधत इति वाधा , कर्मण उदय इत्यथः, न वाधा अवाधा,
मन्तरं कर्मोदयस्यत्यथः, तया ऊनिका अवाधोनिका, क~
मस्थितिः कर्मनिपको भवति इत्यवमेक प्राहुः । अन्ये पुन-
राहुः--श्वाध्राक्रालन वपसदस्रसप्तकलक्तणनाना कर्म-
0 के
मोहणिज्ज
अशिधानराजन्द्र। ।
स्थितिः- सप्तसहस्त्राधिकसप्तातसागरापमकाटाकाटलक्षणा
कर्मनिषिको भवति. स च कियान् ?, उच्यते--' स-
कत्तरिं सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति `। स० ७० सम० ।
( मोहनीयस्य कर्मणः वन्धादयसत्तास्थानेः सह संवेधः ।
« कम्म ` शब्दे तृतीयभागे २६३ पृष्ठ चिन्तितः ) ( का-
क्वामाहनीयकमंणो वक्तव्यता , * कंखामोहणिज्ञ ` शब्दे
तृतीयभाग १६४ पृष्ठे उक्ता )
माहनीयवन्धादि-
जीवे णं भते ! मोह णिजेणं कडणं कम्मेणं उदिष्पेणं
उबद्गाएजा ? हता ! उबदट्राएज्ञा | से भते ! कि वीरिय- |
त्ताए उवद्भावेज्ञा अवीरियत्ताएं उबड्टावेज़्ा ? गोयमा ! |
वीरियत्ताए उवद्गाणज्ा, नो अवी रियत्ताए उवद्गाएजा, जइ |
वीरियत्ताए उबड्ढठाणज़ा कि बालवीरित्ताए उवड्ठाएजा पंडि-
तवीरियत्ताए उवड्ठाएज़ा बालपंडियवी रियत्ताए उवड्ठाए-
ज्ञा ?, गोयमा ! बालवी रियत्ताए उबद्भणज़ा णो पंडियवी-
रियत्ताए ऊबड्टाएज्ा नो बालपंडियवीरियत्ताए उवद्रएज्ञ।।
मोहणिज्ञणं ति मिथ्यात्वमोहनीयेन ` उदिण्णेणं ' ति
उदितेन ` उवद्राएज्ञ ` त्ति उपतिष्ठेत उपस्थानम-परलो-
कक्रियास्वभ्युपगमं कुयादित्य्थः । “ बीरियत्ताए ` त्ति-
बीययोगाद्वीयः-- प्राणी तद्भावो वीर्यता, ्रथवा--वीयैमेव
स्वाथिकग्रत्ययाद् वीर्यता वीर्याणां वा भावो वीर्यता, तया,
श्रवी रियत्ताए ' त्ति अविद्यमानवीयंतया वीर्याभावेनेत्यथे
* नो श्रवीरियत्ताए ` त्ति--वी्देतुकत्वादुपस्थानस्येति ।
* बालवीरियत्ताए ' क्ति बालः--सम्यगर्थानवबो धात् सहो-
धकार्यविरत्यभावाञ्च मिथ्यादष्टिस्तस्य या वीयैता--परिण-
तिविशेषः सा तथा, तया । ‹ पंडियवीरियत्ताए !
त्ति प- |
रिडतः-सकलावद्यवजेकस्तदन्यस्य परमाथतो निज्ञानत्वे- |
नापरिडतत्वाद् , , यदाह-- तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मि- |
न्नुदिते विभाति रागगणः | तमसः कुतो ऽस्ति शक्षि-र्दिनक- |
रकिरणाग्रतः स्थातुम् ?॥१॥” इति; सरब्रेविरत इत्यथः। 'बाल-
पडियवीरियत्ताए ` त्ति वालो देश विरत्यभावात् , परिडतो
देश एव विरतिसद्धावादिति वालपणिडता-देशविरतः ।
इह च मिथ्यात्वे उदिते मिथ्यादण्ित्वाज्ीवस्य बालवीर्य-
शोवोपस्थान स्यान्नतराभ्याम् । | एतद्वाह-गोयमेत्यादि ।
उपस्थानविपत्ता ऽपक्रमणमतस्तदाध्िव्या 5 5ह--
जीवे ण॑ भते ! मोहणिञ्जणं कडणं कम्पेणं उदिष्पणं |
अवकमज़ा ?, हंता ! अवक्रमेजा, से भते ! °जाव वा-
लपडियवीरियत्ताए अवक्रमेज्ञा ३ १, गायमा ! बाल- |
बीरियत्ताए अवकमेज़ा, नो पंडियवीरियत्ताए अवकमेज़ा,
मिय बालपंडियवीरियत्ताए अवकमेजा । जहा उदिन्नणं, |
दो आलावगा, तहा उवसतण वि दो अलावगा भाणि-
यव्वा, नवरं उवद्राएजा पंडियवीरियत्ताए, अवक्रमेज। वा-
लपंडियवी रियत्ताए |
` जीवे णं ' वक्रमेज ' त्ति अप
पत् - उत्तमगुरारः प्रानका नतर गच्छादत्यथ:ः,
59%
बालतीयत-
माह।एज्जड्ाण
या ऽपक्रामेत् मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् सयमादेशस-
यमाद् वा अपक्रामत-मिथ्यादृष्टभिवदिति । ` णा पंडि-
यवीरियत्ताप श्रवक्रमेज्ञ' क्षति टि परिडतवीयत्वादपक्रा-
मरत्. न हि परिडतत्वात्प्रधानतरं गुणस्थानकमस्ति यतः
पणिडतवीयेणापसर्पेत् । ` सिय वालर्पाडयवीरियत्ताए अ-
वक्रमेज्ञ ` त्ति स्याद् वालपरिडतवीयत्वादपक्रामत् स्यात्क
दाचि्चारित्रमाहनीयादयन सयमादपगत्य बालपरिडितवीय-
ण॒ देशविरता भवेदिति वाचनान्तर त्ववम्--' बालवीरिय-
त्ताए ना पाडयवीरियत्ताए ना वालपरणिडयवीरियत्ताप ` त्त
तत्र च मिथ्यात्वमादादये बालवी्यस्यव मावादितरवीयद्धय-
निषध इति उदीरीविपन्तत्वादुपशान्तस्यत्युपशान्तसूत्रदयं
तथेव, नवरम- उवद्भाएज्ञा पडियवीरियत्ताए ' ज्षि उदी-
रालापकापक्षया उपशान्तलापकयोरयं विशषः--प्रथमाला-
पके सर्वधा मोहनीयनापशान्तन सता उपतिष्ठत क्रियासु प-
णिडतवीर्येण, उपशान्तमादावस्थायां परिडतवीयस्येव भावा-
दितरयाश्चाभावात्, बरदधेस्त काञ्चिद् वाचनामाध्रित्यदं व्या-
ख्यातम, माहनीयनापशान्तन सता न मिथ्यारण्िजोयत,
साधुः श्रावको वा भवतीति । द्वितीयालापक तु-'अवक्रमज्ञ
बालपंडियवी रयत्ताए ` त्ति माहनीयन दि उपशान्तेन सयत-
त्वाद् बालपरिडतवी्यणापक्रामन्दशसयतो भवाति, देशतस्त-
स्य मोहोपशमसद्भावात् , न तु मिथ्यादृष्टि, माहाद्य एव
तस्य भावात् , मोहोपशमस्य चदाधिकृतत्वादिति ।
श्रथाप्रक्रामतीति यदुक्क तत्र सामान्यन प्रश्षयज्नाह-
से भते! किं आयाए अवकमसइ अणायाए अवकमइ !,
गोयमा ! आयाए अवकमइ णो अणायाए अवकमइ, मो-
हशिज्ञ कम्मं वेदेमाणे से कहमेयं भते ! एवं ?, गोयमा !
पुथ्वि से एय एवं रोयइ, इयाणि से एय एवं नो रोयइ एवं
खलु एय एव । ( सत्र ६ )
से भत कि इत्यादि ' सि असो जीवः अथार्थां वा
से' शब्दः ' आयाए ` क्षि आत्मना ' अणायाए' त्ति अनात्म-
ना परत इत्यथः । अपक्रामति श्रपसपति,पूव पिडतत्वरूचि-
त्वा पश्चान्मिश्ररुचिर्मिथ्यारुचि्वा भवतीति. काऽसो ?
इत्याह--मोहनीय कम मिथ्यात्वमोहनीय चारित्रमाहनीयं
वा वदयन् उदीणमाह इत्यथः । ' स कहमेये भते ` त्ति श्रथ
कथं-केन प्रकारेण एतद्-श्रपक्रमणम् ' एवं ' ति मादनीय
वेदयमानस्याति । इहात्तरम् ` गायमत्यादि ` पू्रमपक्रमणा-
त्परागसों अपक्रमणकारी जीवः एतज्ञीवादि अहिंसादि वा
वस्तु । एबें-यथा जिनेरुक्कं रोचत-श्रद्धत्ते करोति वा
इदानीं-मोहनीयोदयकाले स जीवः एतज्जीवादि अहिसादि
वा एवं-यथा जिनेरुक्ल नो रोचते नश्रद्धत न करोति वा, एवं
खलु उक्कप्रकारंण एतत-अपक्रमणम-एव्रे मोहनीयबदन इत्य-
थे: | भ०१ श०४उ० | मोहयतीति माह नीयम् । मिथ्यादशना-
दिक ज्ञानावरणीयादिक वा कर्मणि, सखत्र०१ श्रु०ए आअ०३ उ”
| मोहणशिज्ञद्गाण-मोहनीयस्थान-न० | मोहनीय॑ सामास्येनाएट-
इत्यादि-' अवक़मेज् ` क्ति अपक्रामदू-अपस- `
प्रकारं कम विशपतश्चतुर्थी प्रक्रतिस्तस्य स्थानानि निमित्ता-
नि माहनीयस्थानानि । माहनीयकमवन्यनिमित्तषु, स २६
सम० । दशा० |
तेणं कालणं तेगं समएग चपा नाम नयरी हात्था. व
( ४६२ )
मोरृणिञ्जघ्वाण ५.
प्रओ-पुन्नभद्दे चइए, काणिए राया, धारिणी देवी, सा-
मी समासंद, परिसा शिग्गया, धम्मो कितो, परिसा
पडिगया, अज्ञा ति समे भगव महावीरे बरह्ये निग्गंथा
य निः्भधीओ य आमंतेत्ता एवं वदासी-एवं खलु अज्ञ!
तीस मादणिजट्राणाह जाई इत्थी वा पुरिसो वा अभिक्ख-
णं २आयारमाण वा मोहणिज़त्ताए कम्पं पकरति। तं जहा-
ज कड तसे पाण, वारिभज् विगाहिता !
उदणएणं कम्ममारति, महामोह पकुव्वति । १ ॥
व्याख्या प्राग्वतू- तर कालश इति | तस्मन् काल तस्मिन
समय तस्मिन पृराभद्र चैत्य ` समश भगये महावीरे ` त्ति
श्रमणा भगवान् महावीरः अहन् सर्वदर्शी सप्तहस्तप्रमाण-
शरीराच्छयः समचतुगस्रसस्थाना बञ्रपभनाराचसहननः
कज्जलर्प्रातमकालि मापर्नास्नग्धाकुश्चनप्रदत्तिणावत्तमूद्धजः
उत्तप्ततपनीयाभिरामकशान्तक्रशभूमिरातपत्राकारात्तमा $-
इसन्निवशः
च्रानध्ानराजन्द्र्ः |
पारपृणशशा ङ मगडलादप्याघरकतरवदनशाभः |
पद्मात्पलसुरभिगनन््धनिःश्वासा वदर्नाज्रभागप्रमाणकम्बूः शश |
चारूकन्धरः शिहशादूलवतपौर पृरार्णाचपुलस्कन्धप्रदशा महा- |
पुरकपाटवत्पूथु नवक्षम्थलाभागा यथास्थितलक्षणापतश्रीवक्तः |
परिधोपमप्रलम्बवाहुयुगला रविशशिचक्रकाशादिपरशस्तल- |
क्षणापतपाणतलः सुजातपाश्वोा कषादरः सूर्यकरस्पर्शस-
सिहवत्सवसितकरीप्रदे- |
जातविक्रा शपद्मापमनाभिमरडल
शा निगृढजानुः कुरुषिन्दवृत्तगुस्फयुगलः सुप्रतिष्ठितकूम्म-
चारुचरणः प्रशस्तलक्षणा ङतचरणनतप्रदेशा ऽनाश्रवः नि-
ममः छिन्नश्नोता निरुपलेपापगतप्रमरागाद्वगः चतुखिदतिश
यापता गगनगतन चम्मचक्रण श्राकाशगतन छत्रण आकाश- |
गताभ्या चामराभ्याम् श्राकाशगतनातसच्छस्फाटकावशे- |
घमयेन सपादपीटन सिहासनन पुरता दवैः प्रृष्यमारेन २
म्मध्वजन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्नेः परिवृतो यथा ख-
कटपे सुखन विहरन्, यथारूपमवग्रहे गृदीत्वा सयमन त-
पसा चाः मान भावयन्, 'जाव' त्ति यावत्करणात् तीथे- |
करसाधुवष्कः सर्वोऽपि वाच्यः । ' समोसररा ' त्ति समव- |
सरशवगान भगवत आपपात्तकग्रन्थादवसय म्
गय ` [त्त अम्पानगर्शवास्तव्या लोको भगवन्तमागत श्रुत्वा
भगढन्दनाय स्वस्मात्स्वस्मादाध्यादारूए कृतकातुकमहूल-
प्रायाश्वत्ता -७पसहघाभरणालड्ुक्तशरी रः स्वस्वर्पा रकर समे
परिसा- |
ता हस्न्याद्वाहनारूढा निजचरणबविहारचारी च सन् नि- |
गतः,भगवता च धमकथा कथिताः श्रुत्वाच तां हृष्टचित्तो
न्दित्वा-भगवन् ! स्वाख्याना भगवद्धम इत्युकत्या पर्षत्
स्वस्थान प्रातगना । तदा-- श्रज्ञा ` त्ति प्राग्बत् ` तीस
ति-तिशन्सख्यानि ` माहणिज्ञट्राणाई
स्थानानि- मोहनीये सामान्येनाष्रपकारं कर्म विशेषत-
ति माहनीय-
चतुर्थी प्रकृतिः, तस्याः स्थानानि--निमिज्ञानि मोहनीय- ।
स्थानानि। यानि इति पूर्बतनती धङ्करैः प्रतिपादितानि यानि इ-
मानि अनन्तर वच्यमाणानि स्त्री वा पुरुपा वा श्रभीच्सम् रश्रा-
चरन् श्रसकछृच्छटाध्यवसायादितया वा समाचरन् श्रसकरृत्ती-
बाध्यवसायपरिंगता घा माहनीयतया इति-मोहनी यकर्म त्वे न
2-प ड्गथ इत्याप पाठ: |
मोहणिज्जटद्वाण
कर्म प्रकरोति | तद्यथा- जे के इत्यादि स्छाकः। यः-कश्चन ज-
सान स्प्रीपुरुषग्रहस्थपाखरणिड प्रभृता न् वारिमध्ये विगाह्य-प्र-
विश्य परिव्राजकवत् "उदएणे'ति उदयेन तथा हिसादिप्रवर्त-
ककर्मोदयन उदकन वा शखस्त्रभूतेन मारयाति | कथमित्याह-
आक्रम्य पादादिना, स इति गम्यते । मार्यमाणस्य महामो-
हात्पादकत्वात् सकिल्टचित्तत्वात् , भवशत दुःखवदनीय-
मात्मना महामोहं प्रकराति--जनयति । तदवभूतं बसमा-
रणनक माहनीयस्थानमेवे सर्वत्रेति ।
पाणिणा संपिहित्ता ण, सोयमावरिय पाणिणं |
अतो दतं मारेति, महामोहं पकुव्वइ ॥ २ ॥
| अ (~ = [क गायि ? = अर $
पाणना ट स्तन सापचाय स्थगायत्वा, कि तत् ` श्राता-र-
न्धमुखमिव्यर्थः , तथा-आवृत्य--अवरूध्य प्राणिन, ततः
छअन्तनदन्त--गलमध्य रवं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्य्थः
स इति गम्यत महामाहं प्रकरातीपत द्वितीयम् ॥ २
जायतेयं समारब्भ, वहं ओरुज्किय जणं ।
अतो धमेण मारति, महामोहं पकुव्वति ॥ ३ ॥
जाततजसम्- वेश्वानरं समारभ्य-- प्रज्वाल्य बहु-प्रभू-
तम्--श्रवरुध्य महामर्डपवारादिषु प्राज्तिप्य जने लाकमन्त-
मेध्य मण्डपादधूमन-बद्विलिङ्गन, अथवा-ञअन्तधूमो यस्या-
सावन्तधूमः तन जाततेजसा विभक्िविपरिणामात् मार-
यति यः, असो महामोहं प्रकरोतीति तृतीयम् ॥ ३ ॥
सीसम्मि जो पष, उत्तमगम्मि चेयसा |
विभज्ञ मत्थयं फाले, महामोहं पडङव्वति ॥ ४ ॥
शीर्ष-शिरासि यः प्रहन्ति खडगमुद् गरादिना प्रहरति प्राणि-
नमिति गम्यते, किभूते शिरसि स्वभावतः उत्तमाङ्गे सर्वाव॑-
यवानां प्रधानावयवे तद्धिघातेऽवश्यं मरणात् ,चेतसा-सङ्कि-
ष्रेन मनसा न यथाकथचिदित्य्थः, तथा विभाव्य मस्तकं
प्रङष्रप्रहारदानेन स्फोटयति ग्रीवादिक कायमपीति गम्यते।
स इत्यस्य गम्यमानत्वात् ,स महामोहं प्रकरोतीति चतुम् ।
सीसाबेढेण जे केई, आवेढेइ अभिक्खणं ।
तिव्वासुभसमायरे, महामोहं पङव्ब् ॥ ५ ॥
शीर्षावेष्टनाद्रंचर्मादिमयेन यः कश्चिद् वेष्टयति स्त्रीपुरु-
षादिः रसान् इति गम्यते । श्रभीच्णे भृशं तीघोउशुभसमा-
चारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात्स मार्यमाणस्य महामोहो-
त्पादेकत्वेन शरात्मना महामोहं प्रकुरुते इति पञ्चमम् ॥ ५॥
पुणो पुणा पणिहिए, नासे उवहसे जणं ।
फलेणं अदुब दंडशं, महामोहं पङकव्वइ ॥ ६ ॥
पौनःपुन्येन प्रणिधिना-- मायया यथा--वाणिञकादिवेषं
विधाय गलाकर्तकाः पथि गच्छता सह गत्वा विजने बि-
श्रब्धं वा मारयन्ति, तथा च-विनाशे उपसत् श्रानन्वा-
तिरेकात् जने मूखलाकं हन्यमाने, केन हत्वा फलेन योग-
विभावेन मातुलिङ्गादिना, श्रथवा-तथा दर्डेन-प्रसिद्धेन
दाति गम्यत । महामाहं प्रकरोतीति षष्ठम् ॥ ६ ॥
गूढायारी निगूहज्ञा, मायं मायाएँ छायए ।
असच्चवाई णिण्हाइ, महामोहं पकुव्बह ॥ ७ ॥
गृढाचारी-प्रच्छन्नाचारवान् निगृहयेत्-गोपयत्, स्वकीयं
प्रर्छन्ष॑ दुष्टमाचारं , तथा मायां परकीयां, मायया स्वकीयया
0 १ क
इत्थीविसयभावीए, महामोहं पकुव्वति ॥ १४ ॥ |
[र 2
( ४६३
अधिधानराजन्द्रः।
मोद ष्णिल्लद्ाष | (
छादयेत--जयेत्। यथा--शकुनिमारकाः छदे रात्मानमाब्र्य |
शकुनीन् गृहन्तः खकीयमायया शकुनिमायां ादयन्ति, तथा
असत्यवादी निहवी अपलापकः स्वकीययामूलगुणात्तरगुण-
श्रतिषिधयाः सूत्राथयावा महामादं प्रकरोतीति सप्तमम ॥७॥
धंसइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा |
अदुवा तुम मकासि ति, महामोहं पकुव्बड् || ८ ॥
ध्वंसयति छायायां भ्रेशयाति यः पुरुषान् श्रभूतनासद् भूतन
कम?अकर्मकम्-अविद्यमान दुर्शाष्टत म् ,आत्मकर्मणा-आत्म-
कृतऋषिघातादिना दुर्श्राष्टतन दुष्टब्यापारेण, अथवा-यद-
न्यन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्तमव त्वमकार्षीरेतन्महा-
पापामिति वदति । क्रियाया गम्यमानत्वात् स इत्यस्यापि ग-
म्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीत्यप्रमम् ॥ ८ ॥
जाणमाणो परीसाए, सच्चमोसा ण मासए |
अच्छीण डंडाल्लुरए, महामोहं पकुव्वाति ॥ & ॥
जानाना यथा अन्नतमेतत्परिषदः सभायां बहुजनमध्य
इत्यथः, सत्यासरषा किञ्चित्सत्यानि सत्यनिबद्धानि किञ्चिद- |
सत्यानि वस्तूनि वाक्यानि वा भाषते श्रक्तीणं दरडाल्लुयरत- |
कलहः यः स इति गम्यत महामोहे प्रकरोतीति नवमम् ॥६॥
अशायगस्स नयवं, दारं तस्मव धंसई ।
विपुलं विक््खोभइत्ता णं, किचा णं पडिबाहिरं ॥ १०॥ |
अनायकः-अविद्यमाननायको राजा तस्य नयवान्-नीति- |
मान अमात्यः, स तस्येव रज्ञा दारान-कलचरं द्वारं वा अर्था-
गमस्यापाये ध्वसयित्वा भागभागान् विदारयतीति सम्बन्धः,
कि कत्वा विपुल प्रचुरमिव्य्थः, विक्ताभ्य सामन्तादिपरि- |
करभदेन सन्ताभ्य नायकं तस्य क्षोभ॑ जनायत्वत्यथः, कृत्वा- |
विधाय णमित्यलङ्कारे प्रतिबाद्यमर्नाधकारिणे दारभ्याऽथा-
गमद्धारेभ्यो वा दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायत्यथः ॥ १०॥ |
उबगतं पि पित्ता, पडिलोमाहि वग्गुहिं ।
भोगभोगे वियारेड, महामोहं पङुव्बति ॥ ११ ॥ |
तथा उपगतमपि समीपमागच्छन्तमपि सवस्वमपटरत् एते-
नाचुलोमेः करुरोश्च वचनेर्निर्नुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः,
डम्पयित्वा-नष्टठवचनावकाशं छृत्वा प्रतिलामाभिस्तस्य प्रति-
कूलाभिवाग्भिवैचनरेतादशस्तादशस्त्वमिव्यादिभिरित्यथः ,
भोगभागान् विशिष्टशब्दादीन विदारयति- हरति योः |
सो महामोहं प्रकरोतीति दशमम् ॥ ११॥
अकुमारभूतो ज केइ, कुमारभूए ति टं वए |
इत्थीहि गिद्ध बसए, महामोहं पङुव्वई ॥ १२ ॥
अकुमारभूतः--अकुमा रब्रह्मचारी सन् यः कच्ित्कुमार- |
भूतो5ह६ कुमारव्रह्मचारी अहमिति वद॒ति , अथवा-- |
स्त्रीषु गृद्धा वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यथः , अथवा--
वस्ति शरास्ते स महामोहे प्रकरोतीत्यक्रादशम् ॥ ११ ॥
अब्रभयारी ज केह, बंभयारि तति हं वण |
गदहो व्व गवं मञ्फे, विस्सरं नदती नदं ॥ १३॥
अप्पणो अहियं बाले, मायामोस बहुन्न से ।
१-मेदनीधस्थानपरकमिदम् |
मोहणिज्जट्टाण
श्व्रह्मचारी मेथुनादनिवृत्ता यः कश्चित्तत्काल एवा 5 5सेव्य
ब्रह्मचारी सांप्रतम मित्यतिधृत्ततया परप्रचञश्चनाय वदति ।
तथा य एवमशाभावह सतामनादय भरन् , गर्दभ इव गवां
मध्य विचरन् वृषभवन्मनाज्ञ नदाति- नदं नादं शब्दमित्य-
थे; , तथा य एवं भणन् , आत्मनो5हिता न हितकारी बाला
मूढा माया मृषा बहुशा व्यावृत्तं प्रभूतं भाषत5सूर्च नि-
न्दिति भाषते , कया सखरीविषयग्रद्धया हेतुभूतया यः स इत्थे-
भूतो महामोहं प्रकरोतीति दादशम् ॥ १२॥
ज शिस्सितो उव्वहद, जससाऽदहिगमेण वा ।
तस्स लुब्भइ वित्ताम्मि, महामोहं पकुच्वति ॥ १५ ॥
ये राजानं राजामात्यादिकं वा निश्चित उद्वहत जीवि-
कालाभनातमान घारयति । कथ यशसा, तस्य राजादेः यै-
त्काऽयमिति प्रसिद्धया श्रभिगमन वा सवया श्रःधितरा-
जादस्तस्य-निवाहकारकस्य राजादलुंभ्यते वित्त-द्रव्ययः स
महामोहं प्रकरोतीति जयोदशम् ॥ १३ ॥
इस्सरेणऽदवा गामे-ण ऽणिस्सरे इस्सरीकए |
तस्स सपग्गहीयस्स, सिरी तुलयमागया ॥ १६ ॥
ईसादोसेण आभट्टी, कलुसाऽऽविलचेतसा ।
जो अंतराय चण्, महामोहं पकुव्वई ॥ १७ ॥
इंश्वरेण-प्रभुणा 'अदुवा' अथवा प्रामण जनसमूहेन अ-
नीश्वर ईंश्वरीकृतः, तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य संप्रगृही-
तस्य प्रच्छादिना श्रीलक््मी रतुला असाधारणा आगता-प्रा-
त्ता अतुले वा यथा भवतीत्यवं श्रीः समागता, आगतश्री-
कश्च प्रभ्वाद्यपकारकविषये ईर्ष्यादोषेणाविश्ञा युक्तः कलु--
चण द्वेपलो भादिलक्षणया येनाबिलमाकुल वा चेता यस्य
* ख तथा । यः अन्तरायम-व्यवच्छेद तं भोगानां चेतयते-
करोति प्रभ्वादेरसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुदेशम् ॥ १४॥
सप्पी जहा अडपुडं, भत्तारं जो विर्दिसई ।
सेणावर्ति पसत्थारं, महामदं पठुव्वई् ॥ १८ ॥
सर्पौ-नामी यथा ` अण्डपुड ' अण्डकपुर्ट स्वकीयम-
गडकसमूहामत्यथ अगण्डकस्य वा पुर् सबद्धदलद्धयरूप हद
नास्त, एव भतोरम् पाषायतार या चादनास्त सनापातम्-
राजान, प्रशास्तारम् राजामात्य घमंपाठकं वा स महामाह
प्रकरोतीति, तन्मरणे बहुजनदुस्थता भवतीति पश्चदशम।१५।
जो णायग च रटस्स, नेयारं निगमस्स य ।
से द्धं बहरवं हंता, महामोह पकुव्वर ॥ १६ ॥
यो नायक वा--प्रभु राष्टस्य राष्टुमहत्तर तदकामात भाव
तथा--नंतार-प्रवतायतार प्रयाजनषु {नगमस्य, वाणजक-
समहस्य क श्राषप्टन -श्राद्वताङ्कतपट्दन्यम् कम्भ्रूत बहु-
रच भारशब्द प्रभूततरयशसामत्यथ हत्वा महामाह अ्रकुरु-
ते।दाते षाडशम् ॥ *६८ ॥
बहजणस्स नेयारं, दावं ताण च पाणिण ।
एयारियं नरं हंता, महामोहं पकुव्बह ॥ २० ॥
बडुजनस्थ-पश्चपादाना लाकाना नतार-नायक दपः-स-
एरसागरान्तरगतानाश्वासनम् | श्रथवा-दाप इब दापा5न्नञा
नो न्वकारादुतबुाद्धदाप्टप्रसराणा हयापादयवस्तुस्तामप्रका-
शकत्दा! तू ¡ अत एबं आणम्-आपद्रक्षण ग्राशणनामताह-
( ७६४ )
_मोहृणिउ्जद्ठाण 534
शा गणधरादया भवान्ति, नवरं प्रावचनिकादिपुरुष दत्वा म- ।
हामोहं प्रकरातीति सप्तदशम्॥ १७॥ ।
उबद्ठिय॑ पडिविरय, सजतं सुसमाहिय ।
विउकम्पधम्माउ भंसह, महामोहं पकुब्ब३ ॥ २१ ॥
डर्पास्थितं-प्रत्ज्यायां प्रवजिषुमित्यथः, प्रातिविरतं-साव- |
चयागेश्यो निवृत्त प्रवुजितमित्यर्थः, सेयत साधुमुपस्थित |
तपांसि कृतवन्त शोभने वा तपः थ्रितमाथओित क्चित्--' ज
भिक्ख् जगजीवणे' ति पाटः | तत्र-जगन्ति-जज्लमानि अहि-
सकन्वन जीवयतीति जगजीवनस्त विविधः प्रकारेरखुपक्रम्या
ऽ$क्रम्य वलादित्यथः । धर्माद् तचार ्रल्तणाद् भ्रेशयति-
यः स महामोहं प्रकरोतीति श्र्टादशम् ॥ १८॥
तहवाशतणा्णी शं, जिणाशं वरदंसियणं।
तसि अवष्पवं बाल, महामोहं पकुव्बह ॥ २२ ॥
यथेव प्राकृत माहनीयस्थाने तथेवदमपि अनन्तज्ञानिनां
ज्ञानस्यानन्तविषयत्वन अत्तयत्वन या जिनानामहेतां वरद्
शिनां त्षायिकदशंनत्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनकातिशयसप-
दुपतत्वन भुवनत्रय प्रसिद्धाः ` श्रवरणव ` अवशवादों व~ |
क्व्यत्वेन यस्यास्ति साऽवरीवान् यथा-नास्ति कश्चित् |
सवज्ञा क्षयस्यानन्तत्त्रात् , तत्रोच्यत--ञ्रदृषणे चेतदुत्प-
त्तिसमय पव केवलज्ञान युगपल्ञाकालाको पश्यदुपजायते |
यथा च्रपवरकान्तवतिदीपकलिकाऽपवरकमध्यप्रकाशस्वरूपा
इत्यभ्युपगमादिति, बाला ज्ञाना महामा प्रकरातीति एका-
नविशतितमम् ॥ १६॥
णेयाइअस्स मग्गस्स, दुद्र ऽवयरई वहं ।
त तप्पयता भावण, महामोह पकुब्बह ॥ २३ ॥
नेयायिकस्य-न्यायमनतिक्रान्तस्य माग स्य-सम्यग्दशीनादे-
मोक्तपथस्य दुष्टा द्विष्टो बा श्रपकरोतीति-ञअपकारं करोतीति
बहु-अत्यर्थ पाठान्तरणापहरति बहुजन विपरिणमयतीति
भावः, तं मार्ग तिप्पयंतो ` त्ति निन्दया द्वेषेण वा वासयति
परम् , अपरम् चयः स महामोहं प्रकरातीति विंशतितमम् २०।
आयारयउबज्काएणाह, सुत्त वणय च गाहए |
त चव खिंसई बाल, महामाह पकुष्ब३ ॥ २७ |
आजचार्यापाध्यायरयें: श्रुते स्वाध्याय विनये च ग्राहितः-शि-
क्षितः तानव खिसति-निन्दति श्रटपश्चुता एत इत्यादि ज्ञानतः
त्रानवन्तः श्नन्यतीर्धिकससगकारिण इत्यादि दशैनतः, मन्द-
धरमाणः पाश्स्थादिस्थानवर्तिनः तेः सहालापनाभिवादना-
दिकरणाविदः इत्यादि चारिश्रतः, यः स एवंभूतों बालो
महामाहं पकरातीलयक्विशतितमम् ॥ २१ ॥
अआयरियउवज्छायाणं, सम्म नो परितप्पइ ।
अप्यडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुच्च३ ॥ २५४ ॥
आचार्यादीन् श्रुतदानग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पित- |
घतः उपकृतवतः सम्यङ् न प्रतितर्पीति विनयाहारापध्यादि-
सिनं प्रत्युपकरगति | तथा-अप्रतिपूजका न पूजाकार्री तथा स्त- |
ब्धः-मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविशातितमम् ॥२२॥
अबहुस्सुए वि जे केइ, सएणं पविकत्थ ।
सज्भायवाय वयह, महामाह पकुठ्यह३ ॥ २६ ॥
आामभ्रधानराज न्द्र: ।
हनहुआ॒तश्व यः कश्विच्छुतन--ज्ञानन प्रविकध्यते-स्सश्छा-
_ मादणिज्जट्राण
घ्राम् कराति, यथा-गरायदं वाचकोऽदहं केनचित्पृष्ट यथा
भवान् , स बहुश्रुता यो5स्मामिः शरुतः, तदास एवं व-
दति सोऽहमिति सद्धाववादे भवति । तत्सदशत्वम आत्मनः
ख्यापयति यः स महामोहं प्रकराति । श्रुतवानदमनुयोगध-
रा-ऽहामत्यवम् , अथवा-कास्माञ्चच्वमनुयागाचायां वाचका
वात पृच्छात प्रातभणात, आत्मनः स्वाध्यायवाद् वद-
ति, विशुद्ध पाठका 5हमित्यादिक यः स महामाहं श्रुताला-
भहेतु प्रकरातीति जयोविशतितमम् ॥ २३ ॥
अतवस्सिय ज केइ, तवेणं पविकत्थइ ।
सव्वलोए परे तण, महामोहं पकुव्वई् ॥ २७ ॥
सुगमम् | पूर्वाधे करख्यम्। नवर सवलाकात्-सर्यजनात् स-
काशात्परः-प्रकृष्टः स्तनः-चोरा भावचोरत्वात् स महामदं
तपस्विताऽलाभहतु प्रकरातीति चतुर्विशातितमम् ॥ २४ ॥
साहारणउट्ठा जे केइ, गिलाणम्मि उबद्ठिते ।
पभू ण कुव्वती किच, मज्भः्प्पस ण कुव्वति ॥२८॥
सहे णियद्िपापाण, कलुसाउलचेयसा ।
अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुव्वड् ॥ २६ ॥
साधारणाथमुपकारा्थ यः कश्चिदाचार्या दिग्लाने-- रो गब-
ति उपस्थिते-प्रत्यासन्नी भूत प्रभुः--समर्थ उपदशनोषधा-
दिदानन च स्वताऽन्यतश्चापकारं न करोति कृतमुप-
क्षत इत्यथः, केनाभिप्रायणेत्यथः ममाप्यष न करोति कि-
नापि कृत्यम् समथा ऽपि सन्निति दवेषणासमर्थोभयं वा
बालत्वादिना किकृतनास्य पुनरुपकतुम शक्कत्वादिति लोभेन-
ति शठः--कैतवयुक्करः शक्रिलापनात् , निकृतिर्माया तद्विषये
प्रज्ञाने यस्य स तथा । ग्लानः प्रतिजाग रणीयो मा भवत्विति
ग्लानवेषमहं करोमिति विकट्पवानिव्यथः, श्रत पव कलुषा-
कुलचताः श्रात्मनश्चावांधको भवान्तराप्राप्तव्यजिनधर्मके
ग्लानाप्रतिजागरणनान्ञाविराधनात् । चशब्दात्परेषां बा
बोधिकः अविद्यमानाबोधिरस्मादिति व्युत्पादनात्। यदि
तदीय ग्लानाप्रतिचरणमुपलभ्य जिनधभपराङ्मुखो भवति
तषामवोधिस्तत्कुत इति स पवभूता महामोहं प्रकरोतीति
पञ्चविशतितमम् ॥ २५॥
जे कहाहिगरणाईं, संपउंजे पुणो पुणो ।
सव्वतित्थाण भयाए, महामोहं पङुव्बह् ॥ ३० ॥
यः कथा--वाक्यप्रवन्धशाख्रमित्यथैः, तद्पारणयधिकर-
णानि कथाधिकरणानि कोटिल्यशास्थ्रादीनि प्राण्युपमदंनप्र-
व्तकल्वेन तामात्मनो दुगतावधिकरणात् ,कथा वा क्षत्राणि
कृषि-गानरूपतेत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्ति-
रूपागि। अथवा-कथा--राज़कर्थादका अधिकरणानि
च यन्त्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि तानि सयुङ्ख
पुनःपुनः, एवं सर्वती्थानां भेदाय ससारतरणकरणात् ती-
थानि ज्ञानादीनि तषां सर्वथा नाशाय प्रवर्तमानः स महा-
माह प्रकरातातं षड़ावशाततमम् ॥ २६॥
जा य अहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो ।
सहाह सग्वहेड, महामोहं पठुव्बई् ॥ ३१ ॥
व्यक्तम् , नवरम-अधार्मिको यागनिमित्तवशाकरणादिप्रयो-
गः | किमथ चऋछाघादेतोः सर्वहेतोमिंत्रनेमित्त इत्यथः , इति
सप्तचिशम् ॥ २७ ॥
क् _सोहणिज्जट्टाण
जो य माणुस्सए भागे, अदुवा पारलोइए ।
तेऽतिष्पतो आसायइ, महामोहं पङुव्वई ॥ ३२ ॥
यश्च माचुष्यकान् भोगान् , अथवा-पारलोकिकान् 'ते' इति |
विभक्किविपरिणामत्वात् तेषु वा अतप्यन् तृप्तिमगच्छन
श्रास्वादते-श्भिलषति आश्रयति वा स महामोहं प्रकारो-
तीति अष्टाविशातितमम् ॥ २८ ॥
इड़ी जड़ जसो वन्नो, देवाणं बलवीरियं ।
तेसि अवष्णयं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३३ ॥
ऋदिः--विमानादिसम्पत् ,द्यातिः-शरी राभरणदी प्तिः, यशः
कीर्तिः, वर्णः-शुकलादिः शरीरसम्बन्धी देवानां-सम्यगढ-
शाम् वेमानिकादीनां बलम्-शारीरं वीयम-जीवप्रभवमस्ती- |
स्यध्याहारः तेषामेह शपरीम्यमानत्वात् तषामपि देवाना-
मनकातिशायिगुणवतामवर्णवान्-अस्छाघाकारी अथवा--
अवरवान केनोल्लेखन देवानासद्धिदेवानां युतिरित्यादि का-
का व्याख्येयं न किञिदेवानारद्धादिकमस्ति इत्यवर्णवाद- |
भावार्थ: | यद्धा-किममी कामग्रस्ता घमौचुष्ठानं कर्तुमसम-
मथोः अविरता इति कथनमपि महान् दाषः । तथा चोक्कम्-
* पंचदिं ठाणहि जीवा दुल्लमवोहियत्ताए कम्मं पकरेति, तं
ज़हा--अरहंताणमवज्न वदमाण १, अरहंतपन्नत्तरुस धम्म-
स्स अवन्न वदमाणे २, आयरियउवज्कमभायाणमवन्न वदमा-
श॒ ३, चाउवन्नस्स सेघस्स अवज्न वदमाणे ४, विवक्कतवर्ब-
भचेराणं देवाणमवन्न॑ वदमाणे ५, ” तत्र पश्चमपदव्याख्या-
“ वियः ` खुपरिनिष्ठिते प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्य्थः तपश्च
ब्रह्मच च भवान्तरे येषां, विपक्तं वा उदयागतं तपो बरह्मचर्यं |
तद्धेतुकं देवायुष्कादि कमे येषां ते तघामवर्णवादं वदन दुलै-
भवाधितया कमे करोति | तदेवम्-“न सन्यव देवाः कदाच-
नाचुपरलभ्यमानत्वात् , कि वा तैः विडेरिव कामासक्कमनो-
भिरविरतैः, तथा निर्नाथेरचेष्टेश्व क्रियमाणशरिव प्रवचनका-
~ च अ
्यापयो गिकेश्चत्यादिकम् '' य एवंभूतः स महामोई प्रकरो- |
तीत्यकोनतिशत्तमम् ॥ २६ ॥
अपस्समाणो पस्साम, दवा जक्खा य गुज्कगा |
अष्पाणी जिणपूयट्टी, महामोहं पडङ्व्वह् ॥ ३४ ॥
श्रपश्यन्नपि यो बरृत-पश्यामि देवानित्यादि । तत्र देवा वैमा
निकज्यातिष्काः यत्ताश्च-व्यन्तरा गुद्यकाश्च--भवनवासिन
तान् तान् स्वरूपणाज्ञाना, जनस्यव पूजाभनथयते यः स |
जिनपजार्थी गोशालकवत् स महामोदं प्रकरोर्तीति |
चिशत्तमम् ॥ ३० ॥
साम्प्रतसुक्ररूपाणि मोदनीयस्थानानि
उपरसहरन्नुपदेशस््रस्वमाद--
एते मोहयुणा वुत्ता, कम्म॑ता चित्तवड्णा |
जे तु भिक्ख॒ विवज्ेजञा, चरिज ऽत्तशवसए ॥ ३५ ॥
पते-श्यनन्तरोक्ाः मोदगुखाः, अथवा-माहानां गुणाः गु
शकारका मोहसम्बन्धे प्रतीति मोदगुसाः न मोक्ते धरति यद्
वा-मोहाश्च ते मोहगुणाश्र-मोहगुणाः; प्राकृतत्वात्पूर्वपदलो-
पः, यथा-'गुणेहि-साहुगुणहिं' इत्यादौ, कश भूताः ?, इत्याहः
कमंता--कर्मकारणानि, अथवा--कर्मा एयेच अन्तः-अवसान
फले येषां ते क्मोन्ताः, चित्तवर्थनाः--मोहरूपस्य चित्तस्य
धर्थना हि कानि चित्तवद्धणा वा ' पाठः; तत्रापि-
\9 ४
( ४६५ )
अभिधानराजेन्द्रः
_मोहणिज्द्वाण
चित्तम्-सक्लशरूपम् अशुभम् बन्धरूपं तद्धथेनाः, तान्
इत्यध्याहार्यम् , ' जे उ ` त्ति यान् माहप्रकारान् भिक्षुः--
महात्मा वजयित्वा चरेत् , सेयमाध्वनि चरेत् वा--श्राचर-
त् क्तान्त्यादिक दशश्रकारे धमम् , कथभूतः सन--' अक्त-
गवेसषए ` श्राप्ताः-ती थकराः तेषां गवषको नाम-तद्रचनानु-
सरणपरः आप्तगवेषकः, यद्धा-आत्मानं गवेषयति, न परम्
इत्यात्मगवेषकः: संवेगपर आत्मचिन्तकः ।
पुनः कुयोद् ? इत्याह-
जं पि जाणे इतो पुव्य॑ं, किचाचिचं बहुं जटं ।
तं चत्ता ताणि स्वेज्ञा, जेहि आयार सिया ॥ ३६ ॥
यतः जानीयात् बदयमाणम् इतः-श्रस्मात्प्रवज्याकालात् पूवं
कृत्यम-कुटम्बपोाषणसुतात्पादनादिकम् अरृत्यस-चोरहन- .
नकूटतुलाव्यापारपरवश्चनादिकं बहु-अनकप्रकारस “ जदं `
त्यक्नलस, तथा बहुजढं नाम--मातापित्रादिस्वजनबन्ध ते त्य-
क्त्वा वान्त्वा वा, तानि यथोचितानि सवत यराचारवान्
चारित्रवान् स्यात्- भवत् ।
आयुगुत्तो उ सुद्धप्पा, धम्म ठिच्चा अणुत्तरे |
बमे कम्मे सए दास, विसमासीविसो जहा ॥ ३७ ॥
आचारवानिति अध्यादार्यम् , पवेविधश्च सन् या गुता
गु्तियुक्कः, अ्रथवा-आचारण ज्ञानाचाररादियुक्तः शुद्ध:--
पापकृत्यपरित्यागन आत्मा यस्यासो शुद्धात्मा, धर्म दशवि-
ध क्तान्त्यादिकर स्थित्वा अनुत्तर शमनस्प तता जीवः निमल-
त्वादेव चमेत्--व्यजत् . स्वीयान-श्रात्मीयान् दोषान् विष-
यकपायरूपान् , कः? किमिव-श्राशीविषो--विषामिव, यथा-
सर्पो विषं त्यजत् त्यक्त्वा वा न पुनरावतेत एव्रमसावपीति
उपनयो व्यक्घः ।
स च यथाभूतो यच्चाप्रोति तदाह--
सुवंतदोसे सुद्धप्पा, धम्मड्टरी विदितापरे।
इहेव लभते कित्ति, पेचाय सुगतिं चरं ॥ ३८ ॥
खुष्ट्वातशयन वान्तदाषः शुद्धात्मा धमैः-श्रु तचार श्रलक्तण-
स्तस्यार्थो विद्यतनस्मन्निति धर्मार्थी विदितं-ज्ञातम् अपरं-मो-
त्तोयनस विदितापरः, अपरमग्रहणात् पू्वग्रहणमपि; दत्त
इत्युक्के, देवदत्तमहणवत् । स चेवभूत इदैव लभते-प्राप्नोति
कीर्ति प्रशसारूपाम् । अथवा--कीर्तिमित्युपलक्षणमामर्षो-
पध्यादिकमप्याप्नोति 'पेश्चाय' त्ति प्रेत्य परलोके सुगति
सुष्ठु गति सुक्किरूपां लमते ।
उक्कोपसंहारमाह--
एवं अभिसमागम्म, खरा दढपरकमा ।
सब्वमाोहविशिम्पुका, जातीमरणमिच्छिया ॥ ३६ ॥
एवम्-पृरवोक्रप्रकारण अवधारणे वा, आभि:--आमि--
सुख्य सम्-एकीभावे आङ मर्यादा ऽमिविध्योः गम्ल-
सूप गतो । सर्वे गत्यर्थाः धातवः ज्ञानार्था क्ेयाः । जात्वा
गुणदोषानित्यथः; श्राः-तपसि परीषहसहेन च दृढपरा-
क्रमाः समाधरृततपउपधानाद्यनुष्ठाननिर्वाहकाः न तु तद्-
भञ्जकाः, श्रथवा-ज्ञाननयकथनात् करणनयो ऽपि गृहीतो ऽत्र,
ते चैव ज्ञाःवा कुर्वन्ति ततः किमस्य फलमित्युच्यते, 'सब्व-
मोदे ` त्ति सर्वमाहः--अष्टकर्मप्रकृतिरूपः तस्माद्धिरोचेण
नितरामतिशयेन मुक्ताः यदा निरवशपों मोहो गतो भवति
( ४६६ )
अभिधानराजन्द्रः ।
माहणिञ्जद्ाण
तदा कारणस्यामावात् कार्यस्याभावो भवति , ततत्वाभावे |
तस्वकरणं मोहकायेम् , जातिमरण श्रतिक्रान्ते अतीते काले |
एवं सांप्रतागामिकालयो भावना कायां । व्रवीमि इति पूर्व-
वत् । दशा० ६ आ० । श्रा० चू० । स्था० । प्रश्ष० । आव० ।
मोहणिजव्ग्ग-मोहनीयवगी -पुं° । मोननीयप्रकृतिसमुदाये, |
क० प्र० १ प्रक० ।
मोहतरु-मोहतरु-पुं० | मोहस्तरुरिव अशुभपुष्पफलदानभावे |
न माहतरुः । तरुरूपत्वन विवज्षित मादे , पं० ब० १ द्वार ।
माहति गिच्छा-मोहवि कित्सा-स्त्री । तपसा मोदक्तवे, नि० |
5 ४ उ०। ५ है 2 0
मादतिभिरंसुमालि-मोहतिमिरांशुमालिन्- पु । सोहास्ताम-
रामिव मोहतिमिरं सदशनावारकत्वन तस्यांशुमालीवांशुमा- |
ली । मोद्ापनयनादादित्यकस्प, पं० स्वू० ४ सूत्र ।
मोहद सि-मे।हद शिन्-ए° । मोदं स्वरूपतो वेत्यनथपरित्या-
गरूपत्वात् ज्ञानस्य परिहरति च समानमपि पश्यति परिहर
ति चीत । माहपरिज्ञाज्ञातरि, श्राचा० १ श्रु० ३ श्र° ४ उ०।
मोददुग-मोहद्िक -न० । दशनमोहनीयचारित्रमोहनीययुग्म,
कः० प्र० २ प्रक०। र
मोहदुगुंच्छा-मेह जुगुप्सा--खी ० । स्त्रीपरिभोगहे तुवेदादिमो-
हनीयनिन्दायाम् , पश्चा० १ विव०।
मोदृद्धतव्रिणासिर्ण। -मोदध्वान्तविनाशिनी -खी° ० ! अज्ञान-
तिमिरापहारिणयाम् , द्वा० २४ द्वा० ।
माहपयडि-मोहग्रकृति-खी ०।मोहनीयकमभदे, आव०४५ ० ।
माहपसत्त-मोहग्रसक्न- जरिए | विषयरक्क, त° ५4 ४ ६
मोहपास-मे।हपाश- प° । माहरूप बन्धनरल्नो, ` बरण्गात-
कंलखग्गहि , दिदिड मोह पासश्चं ज उ । गिरति महास-
त्ता, अदिट्वपियसंगमा दिक्खं " सङ्घा० ६ अधि० १ भ्रस्ता०।
मोहभेसजञ-मोहभेषञ्य-न० । सोहचिकित्सने, ० १ उ०।
मोहमदहन्भयप(वड्)यदरय-मोहमहाभयगप्रकर्षक ति । माहा
मूढता महाभयम्-श्रतिभीतिस्तयोः प्रकर्षकरः-प्रवतेकः यः स
मोदमदाभयप्रकष कः प्रवर्तको वा। अज्लानभयजनके, प्रश्न
१ आश्र° द्वार । 0२
मोदमोदियमई-मोहमोहितमति- त्रि । मोदेन मोहिता मति-
यस्य स तथा । मुग्धेषु कामकी डासक्केषु,प्रश्श०४आश्र० द्वार ।
मोहर-मौखर-न० । मोौखर्येण पूरवैसस्तवपश्चात्संस्तवादिना
बहुभाषित्वेन यज्ञभ्यते तत् मोखरम्। उत्पाइनादोषे, प्रश्न०
४ सव० द्वार मुखर पव मोखरः। मुखरतया चाद्शधुकरणतः
आत्मानं चुत्रतया ऽभ्युपगमयति, स्या० व ४
मेहरज़ -मोहराज्य-न०। मृढताप्रकर्षे, ““ दग्धन्धनः पुनरुषोति
भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम। मुक्कः स्वयं क-
भ कक
इति श्री मत्लोघमंबृइ त्तपा गचछी य -क लिकाखस वे कुक दप-
श्र मद्धद्ारक-जेनश्चनाम्बराऽऽचायं श्री श्री १००७ भ।-
महिजयराजन्द्रसूरी ख्वर विर चिते ' अजिधानराजन्द्र `
मकारा55द्शिब्द मझलन समाप्तम् ॥
तभवश्च परा थेशन्य- स्त्वच्छासनप्रतिहतेषु न मोदराज्यम्। १”
श्राचा० १ श्रु० ४ अ० ६ उ० । ।
मोहरिय-मोखरिक तरि । सुखमतिभाषणातिशयेन उ
ति मुखरः । श्रथवा--मुखनारिमावहतीति निषातान्मौः
सखरिकः । मुखर, स्था०६ ठा०३उ० | नानाविधासम्बद्धाभिधा-
यिषु, श्रो | ध० र० । “ मोहरिप सच्चवयणस्स परि-
मधु ” बृ० । मुखे प्रभूतभाषणातिशायि बदनमस्यास्तीति
मुखरः; स पव मोखरिको-वहुभाषी विनयादेराकृतिगरत्वा-
दिकणप्रत्ययः । यद्धा--मुखेनारिमावहती ति व्युत्पत्या निषा-'
तनात् मोखरिकः । सत्यवचनस्य खृषाबादविरतेः परिमन्ुः
मोखर्ये सति सषावादसम्भवात् | बृ० ६ उ०।
(ख च मौखरिकः 'ङकुदय' शब्दे दतीयभागे ५७४ पृष्ठे गतः)
(मौखरिकत्वे ऽपवादः" कण्प' शब्दे ठृतीयभागे २३० पृष्ठ गतः)
मौखर्य-न० | सुखमस्यास्तीति मुखरोःऽनालोचितभाषी वा-
चाटस्तस्य भावः कमे वा मौख्यम् । धाष्ट्पैप्राये :सत्यासे-
बद्धापलापित्वे, श्रनशैदरडविरतेद्धितीयेऽतिचारे, श्रतिचा-
र्त्वं चास्य पापोपदेशसंभवात् । प्रव० ६ द्वार । श्रा० ।
पश्चा० । ध० | आ० चू०। मोदारिञ्रो मुद्देश आयरियाण।
जहा कुमारा मच्चरा रक्ष। तुरियं कि पि कज्ज० जाव को सि-
ग्घे आहोज्ञाति आ० चू० ४ आ०।
मोहली-मोखली-ख्जी० । महोषधिमेदे, ती० ६ कल्प ,
मोहविगारसमेय -मोहविकारसमेत-त्रि० । मनोविभुमद्दोषस-
पान्वते, षो० ११ वव० | ।न्
मोहविस-मोहविष-न० । विवेकचतन्यापहारिणि विषे, पञ्चा ¦
१४ विव०। ४
मोहसष्प(- मोहसेज्ञा-खी ० । मिथ्यादर्शनरूपाव् मोहोदयात्सं-
ज्ञाने, अचा० १ श्रु० १ अ० १ उ०। |
मोहसम-मोहशम-पुं० । मोदस्य मोहनीयस्य शमः शमक
उपशमकः । उपशमश्ररयारूढे निवृत्तिबादरे, सृच्मसेपराये-
च | कर्म० ५ कमे०।
मोहावत्त-मोहावते-पुं० । मोहो-मोहनीये कमे तदेवातिश्र- |
मिजनकत्वादावसत इत्यावत्तः, सोउस्मिशन्नस्तीति मोहाक- |
सैः । मोहरूपावर्तसकुले, दर्श» ४ तत्त्व । |
मोहिय-मोहित-जि० । मैथुनसेयां कुर्वति, रा० । निधुवने,
न० । ज्ञा० १ श्रु० ६ श्र०। ।
मोदृदाम-मोरोदाम-पु° । सकलसमनप्लोषकत्वादावानलक-
ल्य मोदे, प्रति० । ५ -
मोहुम्माद-मोहोन्माद-पु० । मोदजनिते उन्मादे, प्रति । ¦
मोहुम्मायजणण-मोरोन्माद जनन-ने० | कामोदीपके, उपा०
५ आ०।
मोहोदय-मोहोदय--ए ० । क्रिष्टचित्त परिणामे, पे०व० ४ द्वार ।
|
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। । पुं० । श्रये वशैः मृद्धैस्थानीयः श्रन्तस्थः ।
रा-ड । वह्नो, उग्र, कामानले, वाच० । सूये, श्रग्नो, धने,
एका० | शिच, वनने, कामे, नरे, रुचौ, आराधन, निचो,
पिण्ड, निरये च । एका० । जल, रोगे, वेगे, न० । एका० |
विरस, स्त्यान, तच्छे, च त्रि०। एका० । किलशब्दार्थे,
दश० १ अ० । पादपूरणे च | बृ० ३ उ० | उ्य० । ग० । आ०
म० । श्राव० |
रञ-रच-धा० । प्रतियज्ञे, चुरा० । पर० । रचेरुग्गाहा-5वह-
विडविङ्ाः ॥ ८। ४। ६४ ॥ इति श्रादेशत्रयाभावे , रश्च ।
श्यति । प्रा० ४ पाद् ।
८५ ५, ५ 3 ५३
रजस्-न० धूलो, “ रर प् रश्रो पराश्रो य
१३ गाथा।
रञ्श्र-रजत-न० | क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्
॥८।६।१७७॥ इति । जकारतकारयोलुक् ।.रअअ । रूप्यधातो,
भ्रा० । लुकि सति । श्रवणौ यः श्रुतिः ॥ ८ । १ । १८० ॥
इति अकारो यश्रुतिकौ । रयये । प्रा० । प्राकृते तु-रअअमि-
स्येव भवति । रअदं तु-सौरसनीमागध्याः । प्रा० १ पाद् ।
११
पाद० ना०
रअण-रत्न-न० । च्मा--्छाघा-रज्ञ ऽन्त्यव्यञ्जनात् ॥ ८। १।
१०१ ॥ इत्यनेन तकारनकारयोमेध्ये इस्वाकारः । प्रा० । मा-
णिक्यादिप्रस्तरे, स्वस्वजातिषु अ्रेष्ठ च । बाच ० ।
रञ्शिश्र-रजनिचर -पुं० । राक्षसे, चौरे, यामिकभटे च ।
प्रा० ४ पाद् ।
शह-रति- खी ० । रमणं रतिः । क्रीडायाम् , आचा० १ श्रु० २
आ० २उ०। आ० म० । श्रो० । उत्त० । सूत्र० | ज्ञा० । रा०।
मानसे विकारे, श्राचा० ? श्रु० ३ अ० ३ उ० । अभीश्ठपदा-
थानामुपरि मनःप्रीतौ, प्रव० ४१ द्वार । मनोऽभिग्रेतवस्तुनः-
प्राप्तिजनितचित्ता नन्दे, दर्श० १ तच्च । मन्मथवाज्छायाम् ,
तं० । दयिवाङ्गसङ्गजनितायाम् (उक्त० ९६ श्र ०) मैथुन्रीतौ,
उत्त० १४ अ० । विष याभिष्वङ्ग, सूब० १ श्रु० १६ आअ० | आ-
सङ्गो, च० प्र० २० पाहु० । “ पगा रई ” रतिश्च तथा-
_ श्रीअभिधानराजेन्दः ।
विधानन्दरूपा । स्था० र ठा०। मोहनीयकरम्मोदयजन्ये त- |
थाविधानन्दरूय विकारे, घ० २ अधि० । विषयेषु मोहनी- |
योदयाश्वित्ताभिरतों, द्शा० ६ अ० । रुच्या कामभोगे, नि०
चू० १ उ० । असंयमे प्रीतो, उत्त० ६ अ० । रम्यते अस्या-
मिति रतिः । स्पशनादिभागजनितायां चित्तप्रद्नत्तों, उ ०
& अ० । रम्यतेऽनयेति रतिः । कीडायाम्, दश० १ झ०। |
रतिबेदनीयकम्मणि , दश० १ चू० । उपचारात् र-
तिका रण खुरतब्यापाराङ्गे ललनादो, अनु० । रतिविषयगते
लल्नावगूहनादिके, आचा० १ श्रु० २ अ० १ उ०। “ नग्नः
प्रेत इवाविष्टः, क्वणन्तीमुपगृ्य ताम् । गादायासित सर्वाङ्ग,
स सुखी रमते फिल ॥ १ ॥ ” विशे० । प्रश्न० । पद्मप्रभस्य
षष्ठजिनस्य प्रवर्सिन्याम् , प्रव० ८ द्वार स० । भूतानन्दस्य
नाख्यानीकाधिपतो , पुं० । स्था० ५ ठा० २ उ० । मनोश्षेषु अ-
संयमे वा रमणे सा रतिः । श्राभ्यन्तरपारिग्रहे, बृ० १ उ०।
रइआसण-रचिताशन-न० । लोकोत्तररीत्या जयोदशतिथि-
दिने, कर्प० १ अधि० ६ क्षण ।
रईइकम्म-रतिकम्मेन्-न० ।यदुदयेन साचित्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्ये-
चु जीवस्य रतिरुत्पद्यते-तस्मिन् कम्मेशि, स्था० ६ ठा ३ उ०।
रइकर-रतिकर-पुं० । नन्दी श्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वा 55दिकोण-
वर्तिषु स्वमामख्यातेषु पवैतेषु, रा०। ।
रईकरपव्वय -रतिकरपर्वत-पु० नन््दी श्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थि-
तचु पर्वतेषु, स्था०।
रतिकरपर्वतवक्रग्यता--
शंदीसरवरस्स शं दीवस्स चक्तवालविक्खभस्स बहुम--
ज्भदसभागे चसु बिदिसासु चत्तारि रतिकरगपव्वता
पष्पत्ता। तं जहा उत्तर पुरच्छिभिन्ले रतिकरगपव्वते, दाहि-
णपुराच्छिमिल्ले रइकरगपएव्वए , दाहिणपचत्थिमिन्नि
रतिकरगपव्यते, उत्तरपच्त्थिमिन्ले रतिकरगपव्वए । ते शं
रतिकरगपव्वता दस जोयणसयाईं उड उच्चत्तेणं दस गाउ-
यसताई उव्वेहेणं सव्वत्थसमा भन्नरिसंठाणसंठिया दस
जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीस जोयणसहस्साई छ-
च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वरयणामया, अ-
च्छा ०जाव पडिरूवा । तत्थ णं जे से उत्तरपुरच्छिमिन्ने
रतिकरगपव्वते, तस्स शं चउदिसिं इसाणस्स देविंदस्स
देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जबुद्दीवप्माणाओ चत्तारि
रायहार्णाओ पष्पत्ता्रो, तं जहा--शंदुत्तरा णंदा उत्त-
रकुरा देवकुरा, कण्हाते कण्हरातीते रामाए रामरक्खि-
याते । तत्थ ण॑ जे से दाहिणपुरच्छमिन्नेरतिकरगपव्वते,
तस्स शं चउदिसिं सकस्स देविदस्स देवरज्नो चठणहम-
ग्यमहिसीणं जवुहीवपमाणातो चत्तारि र।यदाणीअ। पष्य-
त्ताओं, तं जहा-समणा सोमणसा अच्चिमाली मणोरमा
पउमाते सिवाते सतते अजृए । तत्थ णं जे से दाहिणपच-
त्थिमिल्ने रतिकरगपव्वते तत्थ णं चउदिसिं सक्स्स देविं-
दस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जवुदीवपमाणमेत्तातो
चत्तारि रायहाणीओ पष्पताग्रो, तं जहा-भूता भूतवडसा
गोधूमा सुदंसणा , अमलाते अच्छराते शवमिताते
रोहिणीते | तत्थ णं जे से उत्तरपच्चत्थिमिन्ने रति-
करगपव्वते तत्थ शं चउद्दिसिमीसाणस्स देविंदस्स
देवरज्नो चठणहमग्गमहिसीणं जवुदीवप्पमाणमित्तातो च-
त्तारि रायहाणीओ पश्तत्ताओ, तं जहा--रयणा रतणु- |
च्चता सव्वरतणा रतणसंचया वद्धते वसुगुत्ताते वसुमि- |
# |
ताते वसुं धराए । ( स्ू० ३०७ )
बहुमध्यदेशभागे-उक्नलक्षण विदिक्षु-पूर्वोत्तराद्यासु रातिक-
रणाद्रतिकराः, ४ राजधान्यः कमेण कृष्णादीनामिन्द्राणी ना-
मिति, तत्र दक्षिणलोकाद्धनायकत्वाच्छुक्रस्य पूर्वदक्तिणदक्ति-
णापरविदिग्यरतिकरयोस्तस्यन्द्राणीनां राजधान्य इतरयो-
रीशानस्यात्तरलोकाद्धाधिपतित्वात् तस्यति,एवश्च नन्दीश्वर
द्वीप अज्ञनकद्धिमुखषु ४- ६विशतिजिनायतनानि भवन्ति
अन्न च देवाः चातुर्मासिकप्रतिपत्खु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च |
बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाहिका महिमा
कुन्तः सुखं खुखन विरहन्तीत्युक्कं जीवाभिगमे, वतो यद्य-
न्यान्यपि तथाविधानि सर्ति सिद्धायतनानि तदा न वि-
गोधः, सम्भवन्ति च तानि उक्कनगरीषु विजयनगर्याभिवेति
तथा इश्यते च पञ्चदशस्थानोद्धारलशः--“ सोलसदहिस-
हसला, कुदामलसखचेदसंकासा । कणयनिभा वत्तीसं, रइ-
करगिरि बाहिरा तसि ॥ १॥ ” इयोद्धेयोवाप्योरन्तराले
बहिःकाणयोः प्रस्यासन्नो दौ डानिवय्थः, “ अजणगाद्गि- |
रीण, णाणामरिपजलतसिहरेखु । वावन्नं जिणणिलया, ।
मणिरयणसहस्स कूडवरा ॥ ९ ॥ ” इति, तत्वन्तु बहुश्रुता |
विदन्तीति पतश्च पूर्वोक्ते सबं सत्यं जिनोक्ृत्वात् । स्था० ४ |
ठा० २ उ०।
रातिकराणासुच्चत्वादिवक्लब्यता--
सब्वे वि णं रहकरगपन्वया दस जोयणसयाई उड उच्चत्ते-
णं दस गाउयलयाई उव्वेहेणं सव्वत्थसमा भन्नरिसंठिया
दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पष्पत्ता । (घ्रू° ७२५ )
रतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग््यवस्थिताः चत्वारश्चतुः-
स्थानकाभिहितस्वरूपाः । स्था० ६० ठा० ३ उ०। द्वी० । जी०। |
( रतिकरपर्वतानामुञ्चतवाद्विवक्कव्यता ‹ अजणग ` शब्दे |
प्रथमभागे ४६ पृष्ठ विस्तरता गता ) |
रदगेल्ली - देशी-रतिठृष्ति कचित् । वे० मा०७ वर्ग ३ गाथा । ।
रइणाह-रतिनाथ-पुँ० । कामदेवे, 'मयरद्धओ अरंगो, रइणा- |
हो वम्महो कुसुमबाणो” | पाइ० ना० ७ गाथा ।
रइतरंगा-रतितरङ्गा-ख्ी० । तरङ्गनन्दननामराजञस्य भायौ-
याम् , दश० ५ च्र० ६ उ०।
रइप्पभा-रतिग्रभा-खी० । किन्नरेन्द्रस्य श्चग्रमदिष्याम् , |
किन्नरस्स शं किन्नरिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पछ्म- |
त्ताओं । ते जहा-वडेंसा, केतुमती, रतिसेणा , रति- |
प्पभा । ( मू° २७३ ) स्था० ४ ठा० १उ०॥. |
रहप्पिय-रतिप्रिय-पुँं० । किन्नरेन्द्रे, नवमे किन्नरभदे च।|
प्रश्ला० १ पद्। |
( ४६८ }
अभिधानराजन्द्रः।
| रदमेल्ल देशी-श्रभिलषिते, दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा।
| रइमोहशिज्ज-रतिमोहनीय-न०। यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं |
। रहय(य)भोई-रचितकभोजिन्- पुग रचितकं नाम कांस्यपात्रा-
रइ्वंत-रतिमत्-पु° । रतिः कामभरिया विद्यतेऽस्येति रति+
रइप्पिया-रतिग्रिया-खी० | किन्नरस्य किन्नरेन्द्रस्थ श्रप्रम-
दिष्याम् , ज्ञा० २ श्रु० ७ वर्ग १ अ०। भ० | एर्वोत्तरजन्मकथा .
' अग्गमहिसी ` शब्दे प्रथमभागे १७१ पृष्ठ उक्ता ) ष
रइमंदिर-रतिमन्दिर-न० । रतिक्रीडागृहे, “ सोवणयं रइमे- `
दिर ” पाइ० ना० १०८ गाथा ।
चवि, ~> ३
==
---१
वा बाह्याभ्यन्तरेचु वस्तुषु जीवस्य रतिः प्रमोदो भवति ।
मोहनीयकम्मणि, कर्म० ६ कर्म० । पं० सं० ।
रइय-रचित-वि० । निर्मिते, न्यस्ते, क्षा० १ श्रु० १ अअ०॥
पञ्चा० । | औ० । स० । रा०। विहिते , श्रौ० । राचितमौदे-
शिकादिभेदाद्यन्मोदकचूर्णादे पुनमोंदकतया कूरद्ध्या-
दिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तद्रचितमिल्युच्यते।॥
श्रो० । रा० । रचिते नाम-संयतनिमित्तं कास्यपात्रादौ
मध्ये भक्ल॑ निवेश्य पाश्वैषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्था-
प्यन्ते । श्चौदेशिकतया विरचिते भक्तादौ, व्य० ३ उ०।
रतिद-त्रि० । रम्य, खुखगप्रदे च । जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
ज्ञा० । । ओ० । रा० । प्रश्न० ।
दिदेयबुद्ध्ा वैचिज्येण स्थापितं तद् ुङ्ङ्के इत्येवंशीलो'
रचितकभोजी । धातुपा्भोजिनि साधो, व्य० १ उ५ ।
रइल्लिय-रजस्वल-त्रि० । रजोयुक्के, भ० ८ श० ३ उ०।
मान् । कन्दपे, त०।
रइवका-रतिवाक्या-खरी° । रतिकारकाणि-रतिजनकानि
तानि वाक्यानि येन कारणनास्यां चूडायां तेन निमित्तेत
रतिवाक्षयाःपषां च रतिकन्तंणां वाक्यानि यस्यां सा रतिवा- '
कया । रतिजनकवाक्यदोषध्रतिवद्धायां चूडायाम् , दश०।
प्रथमा रतिवाक्यचूडा, रस्या ञ्चनुयोगद्धारोपन्यासः । पूर्व
वत्तावद्यावन्नामनिष्पन्न निक्तपे , रतिवाक्यति द्विपदं नाम ,
तच्र रतिनित्तप उच्यते-तज्रापि नामस्थापन अनादत्य द्रव्य
भावरस्यभिधित्सया 3 5ह-
रे न ५९ ५८
दव्वे दुहा उ कम्मे, नो कम्मरई अ सददव्वाई ।
~ कक ।
भावरई तस्सेव उ, उदए एमेव अर वि ॥ ३६२॥
द्रव्यरतिः-श्रागम नोश्रागमज्ञशरीरेतरातिरिक्का द्विधा, कर्म-
द्रव्यरतिः, नोकमद्रुयरतिश्च । तत्र कर्मद्रव्यरती रतिवदनी-
ये कर्म, पतच्च बद्धमनुदयावस्थं गृह्यते , नोकमंद्रव्यरति>
स्तु शब्दादिद्रव्याणि, श्रादिशब्दात्-स्पशरसा दिपरिग्रहः ।
रतिजनकानि-रतिकारणानि । भावरतिः “ तस्यैव तु
रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति , पवमेवारतिरपि द्र
व्यभावभेदभिन्ना यथोक्लरतिप्रतिपक्षतो विज्ञेया इति गा~
थाथेः । उक्ता रतिः।
इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाद-
वक्रं तु पुत्वभणिश्र, धम्मे रइकारगाशि बकाणि,
( ४६६ )
श्रभिधानराजेन्द्रः
रहवका
अ
ज्ञण मिमीए तें, र्यके सा हवइ चूडा ॥ ३६३ ॥ |
बारगमनसमुद्धता इव विश्चरसा परिणामतः
वाक्यं तु पूरवभणितं--बाक्यशुदध्यध्ययने 5 नेकप्रकारमुक्तम्
धर्मं->चारित्ररूप रतिकारकाणि-रतिजनकानि तानि च
वाक्यानि, यन कारणेन श्रस्यां चूडायां तेन निर्मित्तेन राति-
वाक्यैषा चूडा , रति कर्वृणि बाक्यानि यस्यां सा रतिवा-
क्या इति गाथार्थः ।
इह च रत्यभिधाने सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदशै- |
नार्थम् । श्राह च--
जह नाम आउरस्सिह, सीवणद्धजसु कीरमाणेसु ।
जतणमपत्थङ्च्छाऽऽ5-मदोसविरई हिश्चकरी उ ॥२६४॥
यथा नामेति- प्रसिद्धमेतत् श्रातुरस्य--शरीरखमुत्थन ।
श्रागन्तुकेन वा वणन ग्लानस्य इह-लोके सीवन- |
[9
च्छेदय बु-सीवनच्चेदनकर्मखु क्रियमाणेषु सत्खु-कि-
मिव्याह-यन््रण गलयन्त्रादिना श्रपथ्यकुत्सा--श्रपथ्यप्र-
तिषेधः आमदोषदिरतिः-अजीणंदोषनिदृत्ति:ः: दितकारे-
र्येव विपाकखुन्द्रत्वादिति गाथाथः ।
दाष्टान्तिकयोजनामाद-
अ विहकम्मरोगा-उरस्प जीवस्य तह तिभिच्छाएं ।
धम्मे रह अधम्मे, अरई गुणकारिणी होई ॥३६५॥
श्रष्टविधकर्मरोगातुरस्य-क्षानावरणौयादिरोगेण भावग्ला-
नस्य जीवस्य--श्रात्मनः तथा-तेनैव प्रकारण चिकित्साया-
म्-सयमरूपायां धक्रान्तायामस्नानलोचादिना पीडाभवेऽ |
पि धर्मे-श्रुतादिरूुष रतिः-श्रासक्किः अधमें--तद्विपरीते
अरतिः-अनासक्रिः गुणकारिणी भवति, निबाणसाधक--
त्वेनेति गाथारथैः। _ ६
पतदेव स्पष्टयति--
सञ्भायसजमतवे, वेआवचे अ काणजोगे अ |
जो रमह नो रमइ असं -उमम्मि सो वचं सिद्धि ॥३६६॥
खाध्याये-वाचनादौ सयमे-वृथिवीकायसयमादौ तपसि-
अनशनादौ वैयाव्रच्य च-श्राचायादिविषये ध्यानयोगे च-
धर्मध्यानादौ यो रमत-खाध्यायादिषु सङ्घ आस्ते, तथा न |
रमते-न सक्र आस्ते असयमे-प्राणातिपातादों स तजति
सिद्धि गच्छुति मोक्तम् इह च संयमतपोग्रहण सति
स्वाध्यायादिग्रह एं आधान्यख्यापनाथोमिति गाथाथैः।
उपसंहरन्नाह--
तम्हा धम्मे रइका-रगाणि 5रइकारगाणि उ (य)अहम्मे ।
ठाणाणि ताणि जाणे, जाई मणिआई अज्कयणे। ३१६७॥
तस्मात् धर्म-चा रूप रातिकारकारणि--रातिजनकानि
अरतिकारकारि च--अरतिजनकानि च अधर्मे-अस्यमे
स्थानानि तानि-वच्यमाणानि जानीयात् ; यानि भणिता-
नि-प्रतिपादितानि इह अध्ययने प्रक्रान्ते इति गाधाः ।
उक्तो नामनिष्पन्ना नित्तेपः | दुश० १ चू०।
रइसेट्ू-रतिश्रेष्ठ-9० । किन्नरभेदे, प्रशा० १ पद् ।
रइसेणा-रतिसेना-खी० । किन्नरस्य अग्नमाहिष्याम् , स्था?
४ ठा9 २ उ०। भ० ।
रउमग्घाय-रजउद्भात-पुं० । रजस्वलासु दिकु, याखु समन्ततो
धार इत इश्यते | ज्य › ७ उ० | अ० । श्राच० । महादंघा- |
फीट,
५
पतन रउरधाता भरणति, अहवा-एस रउग्घाओ पुण पांख
रता भरणति । नि० चू० १६ उ०। आ० चू० । ध
रओहरण-रजोहरण -न० । वाह्यम् , श्राभ्यन्तरं च । रजा हि-
यते अनेनेति रजाहरणम् , तत्र॒ बाह्यरजा ऽपहारित्वमस्य
सुप्रतीतम् , श्रान्तररजा.ऽपहरणसम धश्च परमाथतः सयम-
यागस्तेषां च कारणमिदं धमेलिङ्गामिति कारण कार्योप-
चाराद्रजोहरणमित्युच्यत । पिं० । रजा हियत अपनीयत
येन तद्रजादरणम् । स्था० ४५ ठा० रे उ० । चर य०.।
( रजाहरणशब्दार्थ: ' पवज्ञा ` शब्दे प्ञ्चमभाग _ ७४६
पृष्ठ गतः ) प्रव० ६ द्वार | पादभरोऽचने, पञ्चा० ६० विच० ।
रजाहरणप्रमाणम-- ,
वत्तीसंऽगुलदी हं, चउवीसे अगुलाई दंडस्स ।
सेसदसापडिपुष्यं, रयहरणं होई माणण ॥ ८१४ ॥
डात्रिशदुलदी थे रजाहरणं भवति सामान्यन, तत्र चतुर्वि
शतिरङ्कलानि दण्डस्य, तस्य रजादरणस्य शषाः अष्टाइुला
देशाः प्रतिपूण सद पादपुडछननिषद्यया रजाहरण भवात
मानेन-प्रमाणन इति गाथा ऽथः ॥ पं० व० ३ द्वार । ध० ।
रजाहरणस्वरूपमाह
घणं मूले थिरं मज्के, अग्गे महवजुत्तया |
एगंगियं अज्भुसिरं, पोरायामे तिपासियं ॥ २६२ ॥
मूले-हस्तग्रहणप्रदेश रजाहरण घनम्--निविडव्टितम् ।
मध्ये--मध्यभागे स्थिरम्-ददम् अग्र-दशिकापयेन्त मा-
दैवयुङ्कता, दशिका मरदुस्पशौ विधया हदृत्यथः । एकाह्िक
नाम तजातदाशिक्तं नवाद्यादिखण्डनिष्पन्नम् , अज्काषरमस्-न
रोमबहुले, न वा ग्रन्थिलम्; "पोरायामे' ति पवायामम् 9
ङुषठपवैणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावत्तद्पान्तराल तावत्म
मारायामम् "तिपासियः ति त्रिभिदेवरकवेष्िकंः पाशिते ब-
द्धम् , एवंविधं रजाहरणं कत्तेव्यम् ।
इदमेव स्पष्टतरमाह--
अप्पोलं मिदुपर्हं, पडिपुन्न॑ हत्थपूरिमं ।
तिपरियन्लमणीसडूं, रयहरणं धारए प्रणी ॥ २६३ ॥
दृढवेशनादस्य शिरः दण्ड वा, तथा स॒दृनि-कोमलानि प~
चमाणि-दशिकारामा ग्रभागरूपाणि यस्य तर्ष दुपदेमकम् ! प्र-
तिपृरी बाह्यन निषद्याहयेन युक्क, हस्तपूरिममव यथा
हस्त पूरयांति तथा कक्तेब्यमित्यथः । त्रिपरिवत्त--त्रीन् वा-
रान् वेशनीयस, श्रनिखष्टे नाम हस्तप्माणाद्वन्रहादस्फार-
तम् , एवंविध रजोदरण सुनिधौरयत् ।
उननियं उद्वयं चव, कंबल पायपुंछणं |
रयणीए भाणमित्तं, कुजा पोरपरिग्गहं ॥ २६४ ॥
श्नोरिकम-उरणामयम् ओए्टिक वा-उष्युरोममयं यत्कम्बले
तत्पादभोड्छन रजाहरणं कक्तव्यम् , रालिप्रमाणं--हस्तप्रमा-
शायाम दरडकं, पवैपरि ग्रहम् अज्भुष्टपवेलअप्रदेशिनी शुषिरपू-
र्कम् एवंविध रजाहरणं कुयात् । बृ० ३ उ० ।
पञ्च रजाहरणानि । सूत्रम-
कप्पइ निग्गंथाण वा शिग्गेथीण वा इमाई पच रयहरणाईं
धारित्तत वा परिहरित्तण वा, तं जहा -उप्िए य॒ उाईए
( ४७० )
रखअाहरण
अ भनध्रानराजन्द्रः)
रऑओहरण
साणए वच्चयापष्पए परुजवेप्पए नाम पचमे ॥ ३० ॥
अधथास्य सम्बन्धमाह--
उदितो खलु उकासो,उवहिं मज्किममिदाणि बोच्छामि।
संखा व एस सरिसी, पाउंछणसुत्तसंबंधो || ३७५ ॥
उदिता-भणितः खलु-श्रनन्तर सते श्रोिका मोक्किककर्प- |
रूप उपधिः, इदानी तु मध्यम उपधिः--रजोहरणलक्षणम- |
हमस्मिन् सत्र वच्यामि । यद्वा श्रनयोः सूत्रयाया पञ्चलक्तणा
सङ्ख्या एपा सदशी वल््राणां रजाहरणानां च तुलया, अत |
इद् पादपराञ्छनं रजोहरण तद्विषय सूत्रमारभ्यत; एष स- |
स्वन्धः, अनन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य ३०) ठ्याख्या- |
कल्पते निग्रन्थानां निग्रन्थीनां च इमानि पञ्च रजोहरणानि |
धारयितु वा परिहतु वा | तद्यथेत्युपदशना थः । | ओरिंकम् ऊ- |
सिकानाम्, ऊर्णाभिनिवृत्तम आर्णिकम् । उष्टरोमनिवृत्तम् |
च्ाद्रकम् , सानक-सनन्रृत्तजातम् । वल्कलाज़ात वलकलस्त्
गाद्शषस्तस्य 'वप्पक्रः कुाइतस्त्वग्रपः तन {नष्पन्न वल्कल- |
विप्पकम् , मुञ्जः-शरस्तम्बस्तस्य वरिप्पकाद्याते पुञ्जविप्पकं
' नाम पश्चमम् , इति सृत्रार्थः |
श्रथ भाष्यविस्तरः-
अब्भंतरं च व्रञ्भं, हरति रयं तेण होइ रयहरण ।
ते उपि उड्डि सणयं, वच्चयविष्पं च मजं च च ॥ ३७६ ॥
यस्माद् श्राभ्यन्तरं वाट च रजा हरति तन रजोहरण
भवनि । तत्र-यद्वाह्य रा हरति तदाम्यन्तरे कथ पुनरपह-
रला(त :, उच्यत--रज़ाहरणन प्रमाजत भरमाग य आ-
दाननित्तपाद्रयः संयमव्यापारा विधीयन्त, अष्टकर्मरूपमा-
भ्यन्तर रजो हरति, अतः कारणे कार्याध्यारोपे विधाय
तदप्याभ्यन्तररजाहरणमुच्यत । उक्ल च-* सजमजाग पल्थं
रओहरा तास कारणे जरं । रयहरणे उवयारा, सजम भन्न |
शानकस, |
रआाकम्म तश्पश्ाववम-आशगकम,अआाःष्ट
वशच्चकावष्पकम , मुज्ावप्पक चात ।
तत्राद्यानि क सुप्रासद्धानि,अन्त्यद्वय व्याख्यानयति-
वच्चकप्ुश्ने कत्त ति भिष्पितुं तेहि भूयण गोणी ।
पाउरणत्थरणाशण य, करं।ते दास समासज्ञ ३७७॥
कर्वाचद्धम्मचक्रभरूमिकादो दशे वच्चकं दभाकारं तृण- |
विराषे, मुझ शरस्त च प्रथमे विष्पित्वा-कुद्टायत्वा तदीयो |
यः क्ादस्त कत्तयन्ति, ततस्तेवच्यकसत्रेमुञ्जलुतरैश्च गाणी-
बारका भूयत | प्रावरणास्तरणानि च देश-दशविशेषमासाद्य |
कुर्वन्ति, अतस्तनिष्पन्न रजोहरण वच्चकविष्पक मुञजविप्पकं
वा भरायत ।
रयहरणापप्पगस्स, परिवाडीए य होति गहणं तु ।
उप्परिवाडीगहण, आवजति मासियं लहुअं ॥ ३७८ ॥ |
रजाहरणपश्चकस्यानन्तगाक्लस्य परिपाटिकया ग्रहणं भव-
सि । व्यत्ययपरिपास्या तु ग्रहण शाप्त मासिकं लघुकस ।
का पुनः पारपाटारव्याह-
तेवदाषिप असरए, उदुयमाद्।ख गहरशधरणं तु ।
उष्परिवःड गहे, तत्थ ति सट्ठाश॒पच्छित्त ॥ ३७६ ॥
यथा कृता|विभदात्क्षिबिघ यदोरनि ¢ तत्प्रथमतो गहीतः
२५ ऋतल्लाभ्रदेध: प्रा त्त् दषस
|
¦ अथो रिकं न प्राप /- |
ते तत श्रौष्ठिकादीनामपि चतुणा यथाक्रमं ग्रहणं धारणी
वा कत्तव्यम् । अथोस्परिपाण्या यथोक्तव्यत्यासेन ग्रहण `
कराति ततस्तत्राऽपि स्वस्थाने प्रायश्चित्त मध्यमापधि- `
निष्पन्नं लघुमासिकमिति भावः।
आह--किमर्थ प्रथममोंर्णिकं स्तूयते-
उडइसणा कुत्थंती, ओज्ना रयरेसु मुददव शऽत्थि ।
तेणो।प्षय पसत्थ, असताए उकम्म कुजा ॥३८०॥
उद्डलण ` त्ति उश्टिक्लणकरजोहरणके वर्षाकाले व्यव-
धारितबुश्टिकायेनाद भवने सति कुथ्यतः, ततश्च पन-
कसम्मूुचनादयो दोषाः, प्रमाजनाकार्य उ न भवति ।
अथाद्रेंणाउपि प्रमाजन कृत सति दशिक्रान्तषु गो-
लकाः प्रतिबध्यन्ते । मलिनीभूते च तत्राप्कायि-
राधना । तथा इतरयोवच्चकमुज्जविप्पकाख्यरजोहरण-
योमादेव नास्ति, खभावत एव कठिनत्वात् ; तन कारणे-
नोरिकरजोहरणमो ष्टिकादिभ्यः प्रशस्तम् । श्रौरिकस्या-
सत्यभावे उत्क्रम कुयोतू श्रौष्टिकादीन्यपि यथालाभे
गृह्धीयादिति भावः । बृ० २ उ० । स्था० । ( द्वितीयरजोहर-
शाप्रयोजनम् ' उबहि ' शब्दे द्वितीयभागे १०६६ पृष्ठे दाशे-
तस् ) “ जन्तवा बहवः सन्ति, दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्यः
सूते दयाथ तु, रजोहरणधार णम् ॥६॥'' उत्त ° ३ अ० ! पि०।
रजोहरणं दारुदण्डकं गृह्णीयात् । सत्रम्-
जे भिक्खू दारुदंडय॑ पायपुंछणयं गिण्हह गिर्हंत वा
साइज़ह ॥ १॥
“ उ ` जि-जिददेले भिकखू-पूर्वोक्तः दारुमओ दंडओ
जस्स त दारूदंडय, पादे पुंछुति जेण ते पाउपुंछणे, वा
पट्टओ य निसिज्वजज़िय रआहरणमित्यथेः ।
ते जो करेइ करंतं वा साइज़इ ॥ २॥
ते जो करेति करतं वा सातिज्ञति तस्स मासलह पच्छित्त,
एस सुत्तत्थो । एय पुण सुत्त अवचातियं ।
इद्ाणि रिज्जुत्तिवित्थरो । गाहा-
'छणगं दुविधं, उस्सग्गियमाववातियं चेव |
एकेकं पि य दुविधं, शिव्वाधातं च वाघातं ॥ ४ ॥
प्राडण--रश्रोहरण, तं दुविध--उस्सग्गिय, श्रावषाति-
ये च । उस्सग्गियं द्विविधे--शिब्वाघातिये, बाघातिये च।
श्राबधपतियै च दूविध-शिव्वाघातितं, वाघातिते च ।
चतेसि वक्स्वाणमियारि भति । । गाहा--
ज तै शिव्वाघातं, तं एगं उप्तियं तु णायव्वं ।
गाघातउद्ठियं पुण, सण पप्पय युजविष्पं च ॥ ५ ॥
ॐ उस्स्रग्गियं शिव्वाघातिते ते पगे ति उश्षिये भवति ।
इ धाशि उस्सग्गों--वाघातिय भक्षति, ज तस्सेव अण-
¶श्रो उरिणदसाश्रो । रसति तस्सव उद्दद्साओ, असति
तस्स्व उ सणद्साओ, श्रसति तस्सव उ बश्चपिश्चदसाश्रो ।
वश्चश्नो-तणविसेसो दर्भाकृतिर्भवति श्रसति तस्सव मुज
पिच्वद्साश्रो मुजो विश्चउ ति वा विणिउ त्ति वा कुट्टितो क्ति
वा षरोदुं। श्रसति उरिणियपट्टयस्स उद्टितपट्टगो एगंगद्सो,ए-
गंगासति उक्षियउद्दसणादिपट्टगेसखु वि उणिणिद्साओं का-
रेयव्वा । सणादिपट्टगेसखु वि उरिणद्सादओ कारेयव्या । पते
डस्सर्गितवाघातप्रकारा अभिद्दिता इत्यथः ।
( ४७१ )
_रऑओहरण _
अभिधानराजन्द्रः ।
१ रओहरण_
दृदाणीमववातिक दिविध भरणति-गदा--
अहवा तं तधहेवा, तण उवरि दारुदडगं होति ।
वाघाते अतिरगो, इमो विमेसो तहि होति ॥ ६ ॥
` जहा उस्सग्गिते णिव्वाघातं ओरिणये, सवाघातित च उ-
इादिदसं भियं श्रचवातकं तथा वक्तव्यसित्यथः। रओहरण-
पट्टय दुशिसज्रवञ्ियं दाख्दं डयमेव तं भवति । उस्सग्गिय-
अववातितवाघाते अइरेगा इमो, अएणा वि दसाविसेसो
भवति ।
गाहा--
उवरिन्नं मुजयसा, कोसेज़ य पडपोत्त पिच्छे य !
संबद्ध वि य तत्तो, एस विसेसो तु वाघाते ॥ ७॥
रऑओहरणपट्टे दारुदेंडे या मुजदसा भवति, मुजदसाऽसति
कोसेज्जद्सा, कोसेजो-वडश्रो भरणति । तस्सासति दुगुल्ल-
पट्टद्सा, तस्सासति पोत्तद्सा, पोत्तेदसासति मोरंगपिच्छ-
दसा 'संबद्धे विय तत्तो' क्ति ततः कोसतगादिविगप्पेसखु वि स-
बंधासंबंधविकप्पेण रओहरणविकप्पा कार्य्या:। आद्यभेदा-
नामभावादित्यथः ।
चतुभज्ञा थनिरूपणार्थ गा थाद्वयमाह--
ज ज णिव्वाघातं, एगं ते उप्तियं तु घेत्तव्व |
उस्सग्गियवाघातं, उड्डिय-सण-पष्प-मुंज च ॥ ८ ॥
पूवाद्धन प्रथमभाज्ञाथः, पश्चाद्धंन दवितीयभङ्गाथः ।
गाहा--
णखिव्वाघात5्ववादी, दारुगदंड उप्षियाहि दसियाहि।
अववातियवाघातं, उट्टिय-सण-पप्प-मुजद्स ॥ & ॥
पूर्वाेन ठृतीयभज्ञार्थः, पश्चाद्धंन चतुथथभज्ञाथः । एवमेते
चउरो भङ्गा विशेषाथद्शनाथेमर्थनाभिधानप्रकारेण प्रद-
शयन्ते ।
गाहा--
अहवा उसग्गुसग्गिय, चउस्सग्गओ य अववातं |
अहवा उस्सग्ग वा, अववाओवाइय चव ॥ १० ॥
उस्सग्गियणिव्वाघातादि चउरो जे भेया त एवं चतुरः
उत्सर्गोत्सर्गादि द्रष्टव्याः । प्रथमद्धितीयभज्ञप्रदर्शनार्थ ठृती-
यचतुधभङ्गपतिपेधार्थ च इदमाद-
गाहा--
एगंगि उछियं खलु, रसती तस्स दसिया उ ता चेव |
तत्तो एगगोड़ी, श्रप्पियउद्ियदसा तस्स ॥ ११॥
> ० ~ ठ इदारी ॥
संबद्धद्साग ज त उस्साग्गत, इदे उस्सम्गाववा- |
तित भरणति | असाति सबद्धदसागस्स उशिणए पटर उ-
रिणयदसा लातिजेति, तस्सासति एगागयं उद्टिय, तस्सा- |
सति उद्वियपद्टर उरिणयदसा , तस्सासति उद्ियपट्रप |
उद्टियदसा, तस्सासति उरिणयपट्रए सणादिदसा, सन्वा
शेया जओओ भरति |
गाहा--
एवं सण पप्य मृज, विप्पिते कोसपद्ठदुगल्ले य ।
पोत्तो पच्छा य तहा, दारगदंडे तहा दोसा॥ १२॥
असति उरिणयपट्टयस्स उद्दियपट्टरः सणादिद्सा सब्बा
शैया | डह्टियपट्टासति सणयं एगंगियं, तस्सासति सण-
पद्दए उसियादिदसा रेया ! वश्चग वि एगंगियं उरिणया-
दिदसा सब्वा कर्रेयव्वा , एवं मुजादिख वि । णवरं पे-
च्छ पद्टये ण भवति । चोदक आह--णणु सणवच्चगादि-
पट्टगेसु कोलेज़पट्टगादिदसा अणाइप्पा ? आयरिया55ह ता
एव वर ण दारुदंडय पादपुंछ॒णे । कहं ? जतो दारूदंडे य ब-
ह दोसा । श
के य ते दोसा ?-इमे-
इहरह वि ताव गरुय, कि पुण भत्तोग्गहे अहव पाए ।
भारे हःथुवधातो, पडमाणे सजमा ताए ॥ १३॥
दरे ति विणा भत्तपाणेण स्वभावेन गुरुरित्यर्थः, कि-
मित्यतिशये , पुण-विशष्णे । जदा पडिग्गहे भक्त वा
पाणे वा गहिते तदा पुव्वगुरु ततो गुरुतरं भवतीत्यर्थः ।
गुरुत्वात् हस्तोपधातः ¦ पडमारं गुरुत्वात् जीवोपघातं क-
रोति । पादोवरि श्रातोऽबघातं वा । चसदा-आणादश्रोदो-
सा, तम्हा-दारुदंडर्ग पायपुंछण न भेरिहयव्वं । कारण-
श्रो गेरहेज्ज |
इसे य ते कारणा--
संजमखेत्तयथोवा, श्रद्धाणादिसु हिते विणट्टे वा |
पुव्वुत्तस्स उ गहणं, उप्षिदसा जाव पिच्छं तु॥१४॥
जत्थ आहारोवहिसेज्ञा काले वा सति ततो श्रविरुद्धो यत्थ
उवी लब्भति तं सजमखत्तं । तश्रो असिवादिकारणेहिं बु-
त्ता । सेस कटं । ४
तस्स इमो दंडो--
बेणुमओ वित्तमओ, दारुमग्रो वा त्रि दंडगो तस्स |
रयणीपमाणमेत्तो, तस्स दसा होति भदयव्वा ॥१५॥
दसा तस्स भेजा, कथ-यद्यसौ बयो्विशाङ्कलस्तदा णवा-
हुला दसा | अथासों चतुर्विंशाङ्खुलस्तदा अष्टाकुला दसा ।
यद्यसौ पञ्चविशाङ्कलस्तदा सप्ताहुला दसा, दंडदसाभ्याम्
अहो कतमे द्वितीयभजनीयमित्यथः ।
गाहा--
तं दारुदंडयं पाद-पुंछणं जो य कारण भिक्खू।
सो आशणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ १६ ॥
कंठा ।
गाहा--
णरद्वेहि तवस्सरिते, भामियछूदे तेव परिजुछ्षे ।
असती दुल्लभपडिस्स, ततो य जतणा इमा तत्थ ॥१७॥
उस्सग्गियस्स पुवं, शिव्वाघाते गवेसशं कुजा ।
तस्साखति वाघातिम, तस्सासति दारुदडगए ॥ १८ ॥
तम्मि वि णिव्वाघाते, पृव्यकतो चेव होति बाघाते ।
असती पुव्वकयस्स तु, कप्यति ताहे सय॑करणं ॥१६॥
तम्मि वि श्राववातिते शिव्वाघातित पुव्वकए गहरा । ज भि
क्खू धरेति गहियं अपरिभोगेन धारयति ।
दारुदराडकं रजोदरणं वितरति परिभाजयति
धरति च । सूत्राणि--
जे भिक्खू दारुदं उयं पायपुणयं वियरश वियरंत था
सादज ॥ २ ॥
( ४७२ )
_रओदरण 0.
ज्ञ भिक््खू श्ररणमरणस्स दियरद-्न्योन्यस्स साघोग्रदणं
भ्रतिपुद वियरति । ग्रहणानुज्ञां ददातीत्यर्थः । सूत्रम--
जे भिक्षव दारूदं यं पायपुंछणयं वरिभाएड् परिभावेयंतं
वा साईज्ञई ॥ ४ ॥
जे भिक्खू परिभाएति त्ति नयने दानमित्यर्थः ।
सूत्रम्--
जे भिक्खू दारुदं दयं पायपुंछणय परिभ्रुजश परिथेज॑तं |
वा साइजइ ॥ ५ ॥ |
ज भिक्खू परिभुजति, परिभोगा तन कार्यकरणमित्यथः । |
गाहा--
एसेव गमो णियमा, गणे धरणे तहेव य वियारे ।
परिभायणपरिभोए, पुव्वे अवरम्मि य पद्म्मि ॥२०॥
कंठा ।
गाहा-
कां सयं व क्पति, मुनच्चकितुं पि हु ण कप्पती थेत्तुं। |
धरणं तु अपरिभोगो, वितरणपुद्रे पराणुष्ा ॥२१॥ |
परिभायण तु दां, सं तु परिथरंनशं तद्पभोगो । |
गहणं पुव्वकतम्मि उ,सयं तु परकते.य धरणादी ॥ २२ ॥ |
गहरं 7णयमा पुव्वकयस्स, घरणादपदा पुण चउरा य |
सयक्ते परकत वा भवात)
स
जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणर्य परं दिवड्ढाउ मासाउ
घेरेइ धरंत वा साइज़इ । ६ ॥
जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछण परं दिवई मासातो घ- |
गात धरत वा सादात तस्स आणाःदआ य दासा सज |
मविराहणा य । मासलहुय पच्छित्त । |
|
गाहा-
उस्सग्गिग्रवाधातं, अहवा तं खलु तदेव दुविध तु ।
जो भिक्खु परियडति, परं दिवड़ा उ मासातो ॥ २३॥
उस्सग्गियवाधघातादि तिरिण वि, परं दिवट्ठटातो मासाउ प-
रिकड्ंतस्स दासा इमे।
गाहा-
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविध।
पावति जम्हा तेण, अप्मं पाउंछणं मग्गे ॥२४॥
* शरणे ' ति उस्सग्गियरिव्वाधातं ।
गादा-- |
इतरह वि ताव गरुयं, कि पुण भत्तोगगहे अहव पाए | |
भारे दत्थुबधातों जति पडणं संजमा ताए ॥ २१५ ॥ |
पृवेवत् | तेण गुरुणा दरडपादपुंछणण इत्थोबघाएहिं घ- |
प्पति, पडते या पायं चिराहदेजा | तस्थ श्राणा गाढातिविरा- |
दणा वा छुक्कायविराहणा या कूरज्ा, तम्हा परं दिवहाता |
|
|
माला । तण बोदव्य (इ) श्वरारो मग्गियध्वे | माप जयणाए ।
गाहा-- |
उस्सग्गियवाधघाते, सुत्तत्थ करेह मग्गणा होति ।
अ्र/भिधानराजन्द्र। ।
दितिय अभ्रववाउरस्सीग्गयं, ततिय अववाताववातितं !
गाहा---
चत्तारि अधाकडण, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे |
तेण पर वि मग्गेज़ा, दिज़्यमास सपरिकम्म ।॥ २७॥
एवं वि मग्गमाणे, जदि आएं पादपुंछर्ण न लभे |
तं चव णु कड्रेज़ा, जाव5छं ण लब्मती ताव ॥ २८ ॥ |
पूववत् । (
गाहा-- 4
एसेव कमो शियमा, समणीशं पादपुच्े दुविधो ।
णवरं पुण शाणत्तं, छुज्ञति चप्पदंडओ तासि ॥ २६॥ .
दुविह उसूसग्गियं अववातितं च । तासि डंडप च बिस- .
सो--हत्थकम्मादिपरिहरणत्थ चण्पडडा कज्जति न कृत्ताक-
तिरित्य्भः।
प
सूत्रम्--
जे भिक्सू द्रुदडयं पायपुछणय विस्यावइ विम्यात्रतं
वा साइज्जहइ ॥ ७ ||
गाहा--
विसुआवशसुकवरणं, तं कप्पय मुजपिचसंबद्रे ।
तं कड्डिएण दोसा, कारण कप्यती सुकबेतु जे ॥ २० ॥
तं विसुआवणं पडिसिज्कंति पञ्चयं मुंजयपिश्चिएसु तह-
सिएसु वा ते य सुक्खा अतिकठिणा भवंति | मजणादिसु
य चादकाद--तदासपरिदारत्थिणा सव्बहा ण ॒कायव्वमव
आचार्यौ -नेत्युच्यते *रुु-गाहए-'* एंबमादिकारणहि, का-
यव्वं इमाएँ जयणाप'' 'उस्सग्गियस्स' गाहा कंडा। मा जी-
वविरादणा भविस्सति श्रता ण उल्लांते वा सुक्रति, क-
रणश्रा उल्ला वि ।
गाहा--
बितियपदे वासासुं, उदुबद्धे वा सिय त्ति ते भेज्जा ।
विसुयावणछायाए, अद्भातवमानवेमलणा । ३१ ॥
वासाकाले वम्घा रियवुट्टिकायम्मि सग्याम परग्गामे भिक्खा
दिगतस्स उल्लेज्ञा, उदुबद्धे वा सिय त्ति स्यातू--कदाचित्।
कथम् ? उच्यते-
गाहा--
उत्तरमाणस्स नदिं, सोधतस्स व दवं तु उल्लेज़ा ।
पडिणीयजलक्खेवे, धुवण फिडिते व्व सिण्हाएं ॥३२॥
पडिणीएण वा जले खित्ता सब्बावहिकप्प वा ते धोतं
पंथातो वा पडियस्स उप्पह उत्तिक्षेसु उरणए उल्लेज, असु-
कखवेतस्स इमे दोसा ।
गादा--
फुच्छण दोसा उल्ले-ण दावितं कपूरखं कणति |
डंडा य पमज्जते,मलो य आउं ततो विसुतरे ॥ ३३ ॥
उनि श्रसुकखलवेतस्स कुटपः पमज्जणफर्ज च श॒ करोति, अह
उल्नलेण पमज्जति तो दसतेखु गलया पडिवञभान्त,मलिणे य
१-इमा गाथाष्टकाकणा व्याज्ये। पदर्शनाथ स्मारिताः २-उसाए शति पुस्तके। _ `
( ४७३ )
रओहरण
चासाखु आउवधो भवति । एवं दोसगहरं णाउं वि सुक्खा-
वंति छायाए वि जति ण सुक्खज् तो अ्रट्टाए वेदेति तह वि
स्ुक्खेते प्रायवे सुक्खवति । श्रतरं तरे मलउ पुणो श्रायवर ठ-
वति । एवे जाव सुक्ख खदुकारणत्वात् । नि० चू० २ उ०।
अपिरिक्वप्रमाएं रजाहरणे घराति--
जे भिक्खू अतिरेगप्पमाणं रयहरणं धरेइ धरंत वा साइ-
ज्ञर् | ७० ॥
रश्रो-दव्वे भावे य, तं दुविह पि रये हरतीति रयाहरणं। |
आअतिरेग धरेतस्स मासलद |
गाहा--
गणणाएँ पमाणेण य,हींण5तिरित्त च अवचितोवचितो।
सुसिरं खरपम्ह वा, अशेगखंडं ब जो धारे ॥ २६६॥
गणणाए उदुबद्धे एगे, वासाखु दर | पमाणण वत्तीसरगुलदी-
हं जदि दीं एत्तो पमाणाओं करेति, ता श्रोणमेतस्स कांडि-
वियडणा,अपमज्वेतस्स पाणिविराहणा,अतिरित्त अधिकररां।
भारो य सचयदोसो य । अह वासारत्ते पग धरेति तं हिंडत-
स्स उज्ञःजति तण उल्लेण पमजति ता उडया भवति तारि सण
पमज्तस्स असंजमो, अपज्लेतो असजतो,भारिये आयविरा-
हणा। पोरप्पमाणाओ जे ऊणे अविचियं तमि ताण विराहणा
जे पोरप्पमाणातो अतिरिक्त उवचिये तम्मि भारो भवपरिता-
वखाऽपि अतिरिक्त अधिकरणं च । संचयदोसो झुसिर कोय-
चगपावारगणवयगसु अतिरोमधूय ले वा फुसिरं,णतेसु सजम-
विराहखा पडिलेहणा य ण खुज्कति, खरा--णिसट्ठा दसा-
श्रो जस्स तं खरपम्हे । पत्थ पमज्जणे कुथुमातिविराहणा |
अशणगसिव्वणीहिं अणेगखंडुसिरं भवाति । पत्थ वि सज-
मविराहणा । सिग्वतस्स य सखुत्तत्थपलिमथो । जो परिसं
चरेति । “ सो आणा० । ” गाहा--
गाहा--
हीणे कजविवत्ती, अतिरेगसंवत्तो अवधिकरणं ।
सुसिरादि उवरिमेसु, विराहणा संजमा होति ॥२६७॥
बत्तीसंगुलातो हीणतर । शेषं गताथम् ।
गाहा--
हीणाधिए य पोरा, भाणविवत्ती य होति भारो य ।
कडिवीयणा य अदीहे, ऊणम उड्जाहमादी य ॥ २६८॥ |
ऋंगट्पो राओ हीर-अवचियं, अहिये-उवचियं, हीरे भाय- |
रे विवत्ती, अधिभारो बत्तीसंगुलातों हीएं अदीहई भवति। |
तंमि ओणमंतरुस कडिवियडणा अतिऊणत य॒ जलहरपलें- |
वशे उड़ाहो ।
उदुवसाखु धरणे इमे पमारं। |
एवं उड्बद्धम्मि वि, वासावासासु होह दो चव । |
दंडो दसा य तस्स तु, पमाणतो दोण्ह बी भदषए।२६६। |
जति वेड दत्थपमाणो तो दसा अट्टंगुला, इद दंडग्गदणा- |
ता गब्भगडाडया रयाहरणपटद्टगो वा, अह उड़ा बवासगलो
ता दसा वारसगुला । सह दंडगो छव्वीसगुलो तो दसा छु |
झगुला | एलमाति भयणा । इमेरिसे घरयव्चं ।
१-अनैव ४७६१ पृष्ठ उक्ता <काक्ृता रम।रत। चतुतिशत्तितमा गाथा |
११६
_ अभिधानराजन्द्रः ।
रआहरण
~~~
गाहा-
पडिपुष्पहत्थपूरिम, जुत्तपमाणं तु होति णायव्वं |
अप्पाल्नं भेऽ पोम्हं, एगखडं च णुप्मात ॥ २७० ॥
बत्ती संगुलपाडपुरणं बाहराणिसजाण ससहत्थपूरिम एरिसे
जुत्तमाणं रआहरणं, पाल्लउयं पाल्ले ण पाल अपालले अज्कुसि-
रामित्यथः । भेश्रो अ दसम्मि उ पाम पएगखड च एरिसं श्रुः
रणात भव, कारणं जण सञ्वाण वि धरज्ञा ।
गाहा-
बितियपदमणप्यञ्मे, असइ पुष्यकयदुल्नभ चेव ।
सरटे वुत्त य खरे, एगस्संऽसती य दुगतिमादी॥२७१॥
अरणणप्पज्का सव्वाणि करेति.धरेति वा, अप्पज्को वि रसति
जहा 5भिहियस्स हीणातिरिक्तालिए करेज्ज घरेज्ज वा। पुन्व-
कत वा हीणातिरित्तादियं दुल्लस वा जुत्तपमाणं जाव लभ-
ति ताव हीणातिरित्ताए वि धराति , असती ते सणहं वा ध-
रात | खरद्स वा धरात एगखडस्स वा असांते दुगाद्खड
घरात ।
गाहा--
सरटे करेति थुन्नं, उगब्भयं परिहरेति तं थुल्ले ।
ुसिरे ऽवणेति लोमे, खरं तु उन्न पुणो मलण ।२७२।
सरे रयहरणपट्टते थूले गब्भ करेति, श्रह थूल रयदरणे टतो
तादे रयहरणगब्भयं परिट्वुवेति, गब्भण वा थले तं पद्टये
परिट्वुवाति रोमज्कुसिरतो रोम शवणति , श्रथ खरदसं
ताह उल्ञड पुणा मलिज्जलति ।
रजाहरणस्य सूत्मा दशा न कुयोत् | सूत्रम्-
जे भिक्खू सुहुमाईं रयहरणसीसाई करेइ करंत॑ वा
साइज्जइ ॥ ७१ ॥
खुहमा सराहा रयहरणसीसगा दसाओ ।
गाहा--
जे भिक्खू सुहमाईं, करेज रयहरणसीसगाई तु ।
सो आणाअणवत्थं, मिछत्तविराहणं प्रवे ॥ ७२ ॥
दमे दोसा ।
गाहा---
मृदेसुं समदा, ससिरमणाटृषदुप्यला चेव ।
सद्मसु होति दासा, ब्रितियं कासी य पृव्वकते।।२५२॥
मूढखु सम्मददासो कुसिरदोसो साधूहिं अणाइणएणा दुब्ब-
लाई भवेति, * वितियपद्मणप्पञम ` $ ऽदि चुव्वकत वा ।
कराड सकं वन्धने वध्नाति । सूजम्-
जे भिक्खु रयहरणं कंडूसगवंघशं बंधइ बंधंतं वा साइ-
ज्जई ॥ ७३ ॥
कंट्धसगवंधो णाम-जादे रयहरणं तिभागपएसो खामिप-
ण उरिणएण वा चीरेण वा वेढिय भवति, ताह उन्निदारेण
तिपासियं करति ते चीरं कंडूसगपट्टआ भरणति |
१ खबत्वरस्त | २--2 , २७१ ) टीकाकता समा | ३- २७४)
( ४७४ )
आग भ्रधान राज नद्र:
_रओहरण _ व
गादा
कंड्सगबंधेणं, जइवा इतरण जो उ रयहरण ।
बंधति कंटूमा पुण, पडा ` अखादिणा दोासा।२७५। |
श्राणादणा दासा मासलहू च | रम दासा--
गाहा--
अतिरेगठवधिअधिकरण-मेव सज्कायज्काणपलिमंथो ।
कंडूसगबंधम्मि य्, दासो लोभ प्सज़णता ॥ २७६ ॥ |
आतरगावथा ।नरुचआगनाःए ख. धकरण तस्स स |
उ्वरणघावणदश्वरमुत्रणह छुतक्तत्थपालमथा, लाभ य पस
गा, गद्भाह य वरस्सारपाद् य श्राचता भवात ।
गाहा--
बितियपदमणप्पज्क, असतोए दुग्बले अपडिपृष | |
एतेहि कारण, संबद्ध कप्यती काठ ॥ २७७ ॥ |
एगम्मि पएस दुब्बल ताह पाडसवडि करति अपडिपुन्ने
वा तण वर्दत्ता हत्थपूरम कत, एताह कारणाह तथव |
थग्गलकरण सबद्ध करइ जण पुण पाइलहणा भ्रवात ।
आवाधबन्धन नपथसूत्र मू--
ज भिक््खू र्यहरणं अधविहीए बंधइ बंधंत वा साइजइ।७२। |
अवस्सगाद अववादरयव्या । |
सूत्रम- |
ज भिक रयहरणस्स एकबंध दे यइ द यंतं वा साइजइ ।७३।
एगबंधा पगपालय ।
सूत्रम्- |
जे भिक र्यहरणस्स परितिप्ति बंधणे देएड देय॑तं वा
साइजइ ॥ ७४ ॥ |
तिपासितातो परं चउफासियादि. श्राणादिशो य दोसा
बहुबंधणे सरभायञ्छारा य पलिमेथा य भवति । पतसि
तिर्द वि खत्ताण इमा अत्थो द ।
गाहा---
तिणहुवरिं पव्वाणं, दंडतिभागस्स हेड्डतो उवरि ।
दारेण असरिसेणं, सतरणं बंधणाणादी ॥ २७८ ॥
दडातभागस्स जात हटद्टा बधात उदार वा असारसण वा ।
दारण आतव्या दण्ण बच ताणण वा सतर दार करात, ता ।
श्ाणदिणा दासा । सव्वसखु मासलहं । जम्हा पत दासा :
गाहा---
तम्हा तिपासिए खलु, दंडतिभागे उ सरिसदोरेण ।
रयहरणे बंधेजा, पदाहिण-णिरंतरं भिकखू ॥२७६॥
ब्रितियपदमणप्पज्के, संघे अविकाविते व अप्पज्मे |
जाणते वावि पुणा, असती सरिसस्स दोरस्स ॥२८०॥
अराणास।त तज।तायस्स)
्रानखृषए्धारण दोषः सृत्रम्-
जे भिकव रयहरणं अशि सिद्ध धरेइ धरंतं वा साइजइ ।७५।
आगणीासट णाम-तित्थकरेहि आदराण तस्स मासलहु, श्रा- |
णादिणा य दासा।
|
५4
|
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. जारंते वावि पुणो, धरेज असिवादिणेगागी ॥२८४॥
रआहरण
णिज्जुत्तीए इमा गाहा--
दव्वे खित्ते काले, भावेऽपि य वच्चमंज अशिसिट् ।
बितिओड5वि य आएसो,ज विदिषए्य गुरुजणेणं।।२८१॥
पंचतिरित्तवचेसु, अजित्तं दुल्चभ व दोसुं च ।
भावम्मि वष्पमोल्ला, अणणुष्पतं च ञ गुरुगा ॥२८२॥
दन्वतो पचर अइरिचं उरिणयं टय सणय वच्चयं
मुजपिं वा, एतेसि पचर परता णाणुज्ञाल । दोख खत्त- ._ है।
कालखु ज आत्त दुल्लस वा तं णाणुआात,भावता ज वण्यणु- ७
किट्टं महग्घमोल्ले वा ते णा तित्थकरटि शिसिद् श दत्त-
मित्यर्थ: । अहवा-दितिश्रो आ्राएसो ज गुरुजणण ना श्रखु-
न्नायं तं श्रिसिद्ध् ।
गाहा--
एतेसा-मप्मतरं, रयहरणं जो हरिज अणिसिट्ट ।
अणा य विराष्टणया, संजममुच्छा य तेणादी॥२८३॥
महग्धाण वणणुक्किद्ठ वा मुच्छ भवति । रागो रागण संजम-
विराहणा तेणादिएरहिं वा हरिज्ञति |
गाहा-
बितियपदमण प्पज्के, धेरज अवि कोवि नेव अप्पज्के।
असिवण एगागी जातो, तन कस्स शिव गुरू ण<त्थि, एवं
शरणिसिद्ं पि धरेज।
रजोहरणं व्युत्खृषं धरतीति | सृत्रमू--
जे भिक्खू रयहरणं वोसई धरेइ धरंतं वा साइजइ ।।७६॥
गाहा--
आउग्गहखेत्ताओ, परेण ज तं तु होति वोसईं ।
अरेणमवोसद्र, वोसद्रधरंत आणादी ॥ २८५ ॥
बोसद्रु णाम ज आउग्गहाओ परेण,ज पुण अनुग्नद्दे वटति ते
अवोसट श्रायपमाणे खत्तं ्राउग्गहा इह पुण रजोहरणे प~
इच्च समतता हत्था हत्याञ्रा परण पावति त्ति बोसद्रं भष्षति।
वासंट्रधरण इमे दासः--
गादहा--
मूेगमादिखडते, अपमजते तु ता विराधेति ।
सप्पे व विच्छुगे वा,भगएह॒ति खडए य आताए ॥२८६॥
मूरगा-पिपी्लिका एताहि खइतो, आदिसद्दातो मक्ताडगा-
दिणा जद श्रपमल्िड रयाहरणण कंड्रयाति तो ते विराहेति,
रयहरणो अप्पहेता वा सहसा कंड्रयाति ता विराहेति, अ-
थ सप्पा विच्छुगो वा आगतो जाव रयहरणं गर्हति
ताव खइतो मता आयविराहणा ।
गाहा--
बितियपद्मणप्पज्के, वोत्तुछगिलाणसंभमेगतरे ।
असिवादी परलिगे, वोसद्रं जा धरेजञाहि ॥ २८७ ॥
अगराप्पज्का धरति, धाउं या जाब आदव्यादि नेद् संतरणे
चा उन्न गिलाणो गिलाणपडिरयगो वा उञ्चत्तणाई् कारणहि
वासिटू पि धरेज्जा ।
ध
_रओहरण
( ४७५ )
गाहा--
मुहपुत्ती सजाएं, एसेव गमो उ होई शायव्वो । |
बोसटमबोसड, सुच्च अवरम्मि य पदम्मि ॥ २८८ ॥ |
मुद पात्तीपए णिसखज्ञा पसव गमो । वोसट्रेस पुव्वावरएसु । |
सूत्रम- |
जे भिक्खू रयहरणं अददे अहिड्डंत वा साइजई ।७८।
_अहिट्ठाणं णाम सरिसेज्नवेढिए चेव उवविसणे एये अ |
दिद्धाणे मासलदु , आणादिया य दासा ।
गाहा--
तिणह तु विकप्पाणं, अणंतराएण जो अधिद्वेज़ा ।
पाउंछणगं भिक््खू, सो पावति आणमादीणि ॥२८६॥
दोहि वि णिसिजसोहिं, एकेण व बितियतातियपादेहिं । |
अधवा मग्गता एको, दोहि वि पासेहि दोष्पि भवे। २६०।
इम तिणिण विकप्पा दोहि वि उबविसति एक्को विकप्पो,
एगण वा वितिआ विकप्पो, दोखु विकप्पेसु परिध्दयासु-
अवक्कमति ततिओ विकप्पो । श्रहवा--मग्गतो त्ति पिट्ठतो |
अक्कमाति एगा विगप्पो, दोसु पासखु पुतोरूएसु अक्कमति ।
णत दो विगप्पा , एत वा तिन्नि ।
। गाहा--
बितियपदमणप्पज्के, अधिठेज़ा कुट्टिते अप्पञ्मे ।
जारति वा ऽवि पुणो, मूसगतेणादि मादीसुं ॥२६१॥ |
मुसगेण वा कुट्टिज्ञाति, तेणगण वा हरिज्ञाति, आदिग्गह- |
णातो चतुरूबाणि वा हरेज़ा पडिणीओ वा तण अधिट्वेल्ला । |
सूत्रम-
ज भिक्खू रयहरणं उसीसमूले ठवइ ठवंते वा साइजइ।७६। |
सीसस्स समीवे-उवसीस वकारलोपात् , स्थानवाची मू- |
लशब्दः । सीसस्स वा उक्खेभण उसीसडुवणं णिक्खवो खु- |
सपडिसेधितं सवमा, श्रज्ञति पावति; मासिय, परिहरणे |
परिहारो चिद्रति जम्मि ते ठाणे लह्ठगर्मात उवघातियं ।
सृत्रम-
जे भिक्ख रयहरण तुयइईइ तयत वा साइज़ह ॥८०॥
गाहा--
जे भिक्खू तुयइंते, रयहरणं सीसए ठवेज्ञाहि ।
पुरतो व मग्गतो वा, गमगपासे खिसप्मो वा ॥२६२॥ |
त्वग्वत्तेने वद्टदणं शयनमित्यर्थः, वामपासे दाहिणपासे |
वा उवरि हत्थद्स पादमूल वा ठवेति, ण कवल णिवरणो
िसरणा वा पुरश्रा मग्गओ वा बामपास ठवेति।
गाहा--
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं।
पावति जम्हा तेणं, दाहि ण पासम्मि तं कुजा ॥२६३॥
तम्हा ताणि शिवरणो णिसणणो वा दाहिणपासे अधादसे
करे ।
गाहा-
बितियपद मणप्पञ्मे, करेञज अवि को वि नेव अप्पज्के | |
_ अभिधानराजन्द्रः |
तद॒य
आवास असात प्रसर, तखगमःद्ासु, जाणमांव ।२६४।
नि० चु० ५ उ० | पे० ब० ।
रजोहरण-प्रयोजनमाह--
आयाणे निक््खेबे, ठाणनिसीअणतुअटसंकोए ।
पुच्वि पमज्ञण्रा, लिंगट्टा चव रयहरणं || ८१५ ॥
श्रादान-- ग्रहणे कस्यचित् निक्तेपे मोक्त स्थाननिषीदन-
त्वग्वत्तेनसझ्लोचनेषु पूर्वम्-श्रादौ प्रमाजनार्थ भृम्यादालि-
गाथ चेव साधो रजोदरणं भवति इति गाथाथेः । प°
क० २ द्वार ।
अविहीए नियंसणुत्तरी परं पहरणदंडग वा परिभुजे
चउत्थं सहसा रयहरणं खधे निक्खवर् उवद्ावणं, अगं
वा उवंगं वा संबाहविज्ञा खवणं रयहरणं ! वामुस्संगे
धरे चउत्थ । महा० १ चू०।
ऋतुवद्धे रजोद्दरणं ग्राह्ये वर्षासु पादलेखनिका । पं० भा० १
कल्प ।
रंक-रहू-पुं० । कृपणे, स्था० ५ टा० ३ उ० ।
रंकय-रह(क)-पुं० । बलभीषुरवास्तव्ये श्रष्ठिनि, यो रत्नज-
रितकङ्कणलुन्धेन बलभीपुरराजन शिलादित्यन पराभूतः
गजनीपति म्लेत्तराजमानीय तद्राजविनाशाय निमित्तमभू-
त्। ती० १६ कल्प ।
रंखोलिर -दोलक-त्रि० । उत्च्तेपके “ रंखालिरं पद्टालिर
११
पाइ० ना० १८६ गाथा ।
रंग-रङ्ग-न०। नाटधस्थाने, व्य० ८ उ०। ' रायाए रंगावजीवि-
याप आ० म० १ अ०। मज्लयुद्धमण्डपे, कल्प० १ अधि० ५
क्षण | रक्षमएडप, ' रगो पिच्छाभूमी ” पाइ० ना० २७२
गाथा । रक्तावयवच्छुविविचिजररूपे, दश०२ अ०। स्था०। बू० ।
अपुरि, दे० ना० ७ वर्ग १ गाथा।
र्गण-रङ्गण-पुं०। रङ्गणं रागस्तद्योगा्रङ्गणः । जीवे, भ०
२० श॒० २ उ०।
रंज-रञ्ज-धा० । रागे, रञ्ज रावः॥८।४ । ४६ ॥ दत्यनन
रञ्जेरा्यन्तस्य रावादंशो बा । रावेइ । रञ्जई् | प्रा० ४ पाद् ।
रजण-रञ्जन-न० । राग, ज्ञा० श्श्रु० ४ अ० | घट, द्० ना०
वर्ग ३ गाथा | कुण्डमिति केचित् | दे० ना० ७ बग ३ गाथा ।
पाइ० ना० २२२ गाथा ।
रंडक-राण्डक्य-पुं०। रण्डकर्यपत्ये, राए्डक्यों नाम भाज
कामात् ब्राह्यणकन्यामभिगम्यमानः विनष्टः । घ० १ आंध० ।
रंडा-रण्डा-खो० | मूषिकपएयाम् , वाच० । वचधवायाम् ,
महा० २ चू० ।
रंडिया-रणिडिका-खी० । व्यभिचारिणयां याम् , त° ।
रंढुअं देशी-रजो, दें० ना ७ वग ३ गाथा |
रंतिदेव-रन्तिदेव-एुँ० । चन्द्रवंशे स्वनामस्याते नृपे व्या
मचुभ्विशिखरं मनोहरं , रन्तिदिबतटिनीतट स्थितम् । शत्र
चेत्यमवलोक्षय यात्रिकाः, शेत्यमाशु ददाति स्वचद्षोः ॥१॥ '
सी० ४३ कल्प |
( ७७६ ४
रंद्ण अभिधानराजेन्द्रः। रज
रंदूण-रन्त्वा-अब्य० । क्राडत्वलय त्वत्य , क्त्व इयदृणो .॥ ८
४। २७१ ॥ इति दृणेत्यादेशः | पक्ते-रन्त्वा । प्रा० ४ पाद् ।
रंध-रन्ध-न० छिद्रे, दुषणे च ! व्य० ७ उ० । ज्ञा० । "विवर
कुहरं रंध, कुच्छिल्ले अतर कडल्ले च पाइ० ना० दरे गाथा।
रंधण-रन्धन-न० । श्रन्नादीनां पाचन, प्रव० ३८ द्वार | ज्ञा०।
रन्धनविषयकविशषपरिज्ञानरूप ४१ स्त्रीकलाभदे , कर्प० १ |
अधि० ७ क्षण ।
रं(म्भ)भ-गम्-धा० । गतो, गमेः रड-श्रदृच्छाणुवजावज-
सोकुसाकुस-पच्चड़ु-पच्छन्द-णिम्मह-णि-णीणए-णीलुक-प- |
दअ-रम्भ-पारअज्ल-वोल-पारअल-ण।रंणासल- णगवहावस -
हावदहराः ॥८। ४॥ १६२॥ दात गमधातारम्भादश वा । रम्भइ ।
गच्छांते, प्रा० ४ पाद | अन्दालनफलक, द्० ना० ७ चग १
गाथा।
रंभा-रम्भा-ख्ी० । वैरोचनेन्द्रस्य बलेरग्रमहिष्याम् , ज्ञा २
श्रु० ३ वर्ग १ अ० । भ०। कद्ल्याम् , “ रंभा कयली ” |
पाइ० ना० २५४ गाथा । ५
रक-रक॒-न० । वृषभादिशब्दकरणे, अनु० ।
रक््ख-रचस-ऐं० । राक्षस, “ रयणियरजाउहाणा, कव्वाया
कोणवा रक्खा ” पाइ० ना० ३० गाथा ।
रक्खेत रक्षत् ति० । श्रन्यायात् रक्ता कुवात, त्रा० | न ।
रक्खण-रक्षण-न० । श्राहारादिना उपजीव्य, खूज० ९ श्चु° ४
अ० १ उ। त०।सम्यक्त्वव्रतानामलुपालनापाय, धघ०२ त्रच,
रक््खस-राक्षस-पुं० । मांसाख्वादनपरे,उत्त० १६ अ० | व्यन्त-
रावशषे, उत्त० पाई० १६ अ० । ओ० । प्रश्न० । स्था० । सूत्र०।
प्रव० | औ० । स० । व्यन्तरमात्रे,सूत्र० १ श्रु० १२ अ०।प्रज्ञा० ।
रक्खा समासओ दुविहा पप्मात्ता, त॑ जहा-पृज़त्तगां य,
अपज़त्तगा य । ग्रज्ञा० १ पद |
गाक्तसाः सप्तविधा प्रज्षप्ताः , तद्यथा-भीमा १ महाभीमा २
विप्ना३ विनायका४ जलराक्षसा५ राक्तसराक्षसाद६ ब्रह्मरा-
क्षसाः७ । प्रज्ञा० १ पद । अहोरात्रस्य त्रिश मुहरत्ते च ।
कल्प० १ अधि० ६ क्षण । चे० प्र० । उयो० | ज० | स०।
रक्खिय-२क्षित-त्रि० । गुप्ते, स्था० € ठा० ३ उ० | उत्त० ।
दुर्गतिपतनात् निवारिते, उत्त>० १५ अ० । प्रश्न० । |
अनुयोगचातुर्विध्यका रके सोमदेवेन ब्राह्मणन रुद्रसामायां |
भायीयां जाते आयेवर्थाशष्ये पूवेघर सूरों | आ० म०१अ०।
आ० चु० ! ( तत्कथा * अज्जरक्खिय' शब्द प्रथमभागे २१२
पृष्ठ प्रत्यपादि) “वन्दामि अज्ञरक्खिय-खमण राथियचरित्त-
सव्वस्सा । रयणकरंडग्भुओ, अरुश्रागा रक्खिओ जादि
॥१॥”। ने० । श्रायसखुदस्तिनोा द्ाद्वशशिष्याणां सप्तम, कल्प०
२ श्रधि०८ क्षण ।
रक्खिया-रक्िता-खी० । धनन साथवाहेन भद्रायां भार्यायां
जनितस्य धनगापाख्यपुत्रस्य भायायाम् , ज्ञा०१ श्रु०७ अ०।
अप्टादशती थकरस्य स्वनामख्यातायां प्रवर्भिन्याम् , ति०।
रक्वी-रत्ती-खी० । श्रष्टादशाजनस्य स्वनामख्यालायां प्रव-
~
लिन्याम , प्रश्न? १ आश्र० द्वार |
| घादशयोदित्वम् ॥ ८ । २।८६॥ इति गस्य द्वित्वम् । रण्गा॥
। नील्यादिभी रड्जिते, प्रा० २ पाद ।
| रग्गय-दशी-कोखुम्भरक्रवस्त, दे० ना० ७ वग ३ गाथा॥
“४ रग्गये च नवरग `` पाइ० ना० २६१ गाथा। ५
. रड्खोल-दोलि-धा० । उल्क्षपण, दुल-स्वार्थ शिच । दले |
इत्यादशो वा भवति। रडःखोलइ। दोलइ । दलयति । प्रा० ॥
रचिय-रचित-जि० । निहिते, स० । रचनाविशषे, प्रश्न० ३ ^
आश्र० द्वार । ।
| रच्छामञ्र-देशी-शनि, दे० ना० ७ वर्ग ४ गाथा। ॥
>,
रज्ज-राज्य-न० । यावत्खु दशेषु एकभूपतराज्ञा तावदेश-
प्रमाण राष्टे , , बृ० ४ उ० । जीत० । उत्त० । ज्ञा ।
राजादिपदार्थसमुदाये, ^ स्वाम्यमालयश्च राष्टं च, कोशो दुर्गं
| अल सुहत् । सप्चाङ्गमुच्यत राज्य , बाद्धसत्तसमाश्रयम्
| ॥ १॥ ” । भ० १५ श० । रा० । ग० । कटप० । जषत्वे, तं० ॥
प्रभुतायाम् , स्था० ५ ठा० ३ उ०।
ऋषभः स्वपुत्रादिभ्यो -राज्यं दत्तवान दाषविचारः।
पव जगद् गुरुविषयां महादानविग्रति पत्तिनिरतस्येव राज्य
दानविषयां तां निरस्यन् परमते तावदाह-
अन्यस्त्वाहाऽस्य राज्यादि -प्रदानि दोष एव नु ।
महाधिकरणत्वेन, तच्चमार्भे विचक्षणः ॥ १ ॥
श्रन्यस्तु-जगद्गुरुमदादानपूपक्ञवादयपक्तया, अपरः पुन-
बादी आह--श्त अस्य--जगदगुरोः राज्यादिग्रदाने-स्व-
पुत्रादिभ्या नरनायकत्वकलत्रकलाकमशिस्पप्रश्रतीनां वित-
रणे दोष पव-श्रशुभकमेवन्धलन्तणं दूषणमेव । तुश्चब्दः-पृर
केन देतुनेत्याद-मदश्च-तद्गुरुकमधिकरणं च-दुगतिहेत्वनु-
छान महाधिकरणं तद्धावस्तच तन, राज्यादिप्रदानं हि
महाधिकरणे महारम्भमहापरिग्रहकुणिमादारपश्चन्द्रियवधा-
दिहेतुत्वात्तस्य अग्निशस्थ्रादिदानमिवेति दान्तो ऽभ्यृष्यः।
क एवमाहेत्याह-तत्त्वमाग्गें-वस्तुपरमार्था ध्वनि परिच्छेत्तव्य
अविचत्तणः--अपरणिडतः | श्रविचक्तषणत्वं चास्य वक्ष्यमाण-+
राज्यदानादिद्वतोरपरिक्षानादिति । अथवा-विचक्षण इत्युप-
हासवचनमिति ॥ ६ ॥ ।
उत्तरमाह--
अप्रदाने हि राज्यस्य, नायकाभावतो जनाः।
मिथो वे कालदोपेण, मयदाभेदकारिणः ॥ २ ॥
विनश्यन्त्यथिकं यस्मा-दिहलोके परत्र च |
शक्रो सत्यामुपत्ता च, युज्यते न महात्मनः ॥ ३ ॥
| तस्मात्तदुपकाराय, तत्प्रदानं गुणावहम् ।
पराधदीक्षितस्यास्य, विषेण जगहुरोः ॥ ४ ॥ ।
अपदान-पुजादिभ्यो परवितरण सत्ति, हिशब्दः--पूर्वप्तप-
रिदहारभावनाथः, राज्यस्य-भूपतित्वस्य नायकाभावतः-
स्वामिका भावात् जनाः-लोकाः मिथः-परस्परेण विनश्य-
न्नात यागः! वशब्द -वाक्यालङ्कार | कालदाषरणु- अचसा
( ४७७ )
रज्ज 020 400
रीलच्तणस्य दीनटीनतरादिस्वभावस्य समयस्यापराधन
इतना मर्यादाभद्कारिणः--स्वपरधनदारादिव्यवस्थालोप
कारकाः सन्तः विनर्यन्ति-त्षयमुपगच्छन्ति । नायकसद्धावे
उपि कचिद्धिनश्यन्ता द्यन्त इत्यत्रा 55ह-अधिकम-अत्यर्थ
यस्मात् कारणात्- क नश्यन्तीत्याह-इहलोके--इहैव मनु-
स्यजन्मनि प्राणादित्तयात् , परत्र च-परलाक च हिसांन॒त-
धनदारापहारादेः, तथा-शक्नो-साम थ्य॑ सत्याम्-विद्यमाना-
याम् उपक्ता अवधीरणा चशब्दा-हत्वन्तरसमुच्चय, युज्यत-
घरत, न--नव महात्मना--जगदृगुरोयुगादिदेवादेयस्मादवं
तस्मात्कारणात्तषां परस्परेण विनश्यताम॒पकारा ऽनथत्राणम्
तदुपकारस्तस्मे तदुपकाराय तत्प्रदानम्--राञ्यदानम्
गुणावहम् , राज्यहातुरूपकारकमेव न पुनर्दोषावहम् । परस्मै |
इद् पराथम् परोपकाराथमित्य्थः, दीत्तितस्य कृतनिश्चयस्य
परार्थोद्यतस्येत्य्थः, श्रस्य--जगद्गुरोः विशेषण--सुतरां
सामान्यराज्यदायकापेक्तया जगद्गुरोभुवनभत्तुंः जिनस्यति,
छनन च राज्यप्रदानस्य महाधिकरणस्वभावत्वं
तद्ानस्येव महाधिकरणत्वन प्रसाधनतः परोक्नलो महाधिकर
णत्वलत्तणा हतुरासद्ध इत्युक्तम् , तदासद्धश्च राज्याददान
दोष एवेत्यपर्हासतमिति ॥ ४॥
राज्यादिदानेषु दोष एवेत्यत्रादिशब्देन विवाहा--
दिव्यवहारदशैन भगवतः सदोषमित्यास-
ञ्जतम् । तत्र परिहारातिदेशपाह-
एवं विवाहधम्मादो, तथा शल्पनिरूपणे ।
न दोषे द्यत्तमं पुण्य -मित्थमव विपच्यते ॥ ५ ॥
यथा रालज्यादिदान न दोषो मदहाधिकरणत्वाभावात् गुणाव-
हत्वा, एवम-अननेव प्रकारण ववाहः-पारणयन तद्रपा- |
धर्मः--समाचारो बतचन्धो वा विवाहधर्मः, तदादो-तत्पर-
भ्रतिके आदिशब्दाद्वाजकुलग्रामधम्मादिपरियग्रहः , तथा--
शब्दः समुच्चय शिल्पनिरूपणा-घटलोहचित्रवस्थ्रनापित-
व्यापारोपदशैन, किमित्याह--न दोषः, नेवाशुभकर्मबन्ध-
लक्षण दृषणमस्ति भगवतः । इह प्रतिज्ञायां हतुमाद--दि-
शब्दो--यस्मादथः, ततश्च यस्मादुत्तमम्-प्रकृष्ट तीथकरना-
मकर्मलक्तरो पुरायम्--शुभकम्मे इत्थमव--अनेनेव विवाह-
शिल्पादिनिरूपणप्रकारेण विपच्यते विपाकं याति स्वफलं
ददातीत्य्थः ॥ ५॥
इहाभ्य॒पचयमाद--
कि चहाधिकद्षभ्यः, सानां रक्षणं तु यत् ।
उपकारस्तद वेषा, प्रवृतच्यङ्ग तथाऽस्य च ॥ ६ ॥
नागाद् रक्षण यद्व-द्वत्ताद्याकपेणेन तु |
कव्व ्नदोपवांस्तद दन्यथाऽसम्भवादूयम् ॥ ७ ॥
नागादेः-सपगानसादः सकाशाद्रक्षणम्-इष्पुत्रादित्राणम्
यद्वत्-यथा गतोदेः-श्वश्रादः सकाशाद् आदिशब्दात्सोपा-
नपडस्क्त्यादिपरियग्रह:,आकर्ष णणमाक्षपरा गत्तोद्याकार्षणं तना-
धिकरणभूतन दचुजानुप्रभ्रत्यङ्गघरषणलक्तणानथकरणनान्य-
यारक्तणस्यासम्भवादिति भावः । तुशब्दा ऽपिशब्दाथः.कुवन
विदधद्रत्तणएमिति यागः, (न)-नेव दोषवान् -दुपणवान् मात्रा-
दिरिति दृष्टान्तः | अथ दाप्टी न्तिकमाह-तद्धत-त था राज्यादि
यच्छन् घर्षणतुल्यानथेसम्भवे 5पि नागादिरक्षणकल्पमहान-
१२०
श्भध्रानराजन्द्रः)
व्युदस्तम् । |
हक] रजज़िया
शनिवार णलन्षणसम्पादनन न दापवान् श्रयमिति योगः ।
अथ किमट्पस्यापि दापस्याभावन महानथरतक्षां न करोती-
त्याह--अन्य था-अन्न्यन प्रकारणा ऽट्पस्याप्यनधस्यानाश्रय-
णलक्षणनासम्भवात्ू-महानर्थरक्षणस्याघटनात् , अर्यामाति
जगदगुरारात । उक्रञओ--
“ तत्थ पटाणो श्रासा, बहृदासनिवारणाउ जगगुरुणो ।
नागाइरक्खण जह, कड णदासे वि खुहलोगो ॥ १ ॥
गत्तातडम्मि विसम, इद्ुखुयं पिच्छुऊण कीलतं ।
तप्पञ्चवायभीया, तयाणणद्ा गया जणणी ॥ २॥
दिद्लो य तीएँ नागो; ते पड इंता दुओ य खड़ाण।
तो कड्िश्रा तओ तह, पीडाएँ विखुद्धभावाए ॥ ३॥ ”
अधिकदोषनिवा रणाशर्था प्रव्॒ुत्तिरस्य किञ्चिदापवत्यपि न
दुष्टत्येतस्य पक्तस्याभ्युपगम बाधामाह-
इत्थं चेतदिहिष्व्य-मन्यथा देशनाऽप्यलम् ।
कुधमादिनिमित्तत्वा- दोषायैव प्रसज्यते ॥ ८ ॥
इत्थे चेतदिहेव श्रनन्तरोक्गन गुरुतरानथनिवारकत्वलक्षण-
न चशब्दो ऽ्रधारणे पतदनन्तरोदितं राज्यप्रदानादिक वस्तु
इह-प्रक्रमे पण्व्यम्-श्नभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा-पतस्यान-
भ्युपगमे देशना ऽपि-तत्वप्ररूपणा ऽप्यास्ताम् राज्यादिदान
दोषायेति योग:, अलम-अत्यर्थम् | कुतः इत्याह-कुधम्माः-
शाक्यादिप्रवचनानि श्रादिर्यषां--श्रुतचारित्रप्रत्यनीकल्वादि-
भावानां ते तथा तेषां निमित्त हेतुस्तद्धावस्तच्व तस्माज्िनदे-
शना हि नयशतसमाकुला, नयाश्च -कुलप्रवचनालम्बनभूता-
दोषायैव अनर्थायेव न पुनगणाय प्रसज्यते-प्राप्नाति न च-
भगवदेशनाया शच्रनशथनिवन्धनत्वमम्युपगन्तव्यम् श्रनन्यो-
पायत्वनार्थप्राप्तरभावप्रसह्ञादिति ॥ ८ ॥ हा० २८ श्रष्र०।
रञ्जचिध-राज्यविह्व-न० । मुकुटचामरादिषु,प्रव० १ द्वार।
रज्ञज्ञिया-राज्यार्या--खी० । स्वनामख्यातायामार्थिका-
याम , महा०।
सारासारमयाणित्ता, अगीयत्थत्तदोसओ |
वयमेत्तेण विरज्ञाए, पावगं जं समज्ञियं ।
तेण तीए अहं ताए, जा जा होइ नियतणा ।
नारय-तिरिय-माणुस्से, तं सोचा को धिह लभे ।
कथानकम्-
से भयवं ! का उण सा रज्जज्जिया किविवाया | तीण श्र
गीयत्थत्तदासेण वयमेत्त पि, पावे कम्मं समज्जियं। जस्स
रो विवागयं साऊणं को घिई लभेज्जा | गोयमा ! शे
इदेव भारहे वास भदो नाम आयरियो श्रहेसि, तस्स
पंचसए साहृणो महाणुभागा दुवालससए निग्गन्थीणं ।
तत्थ य गच्छं चउत्थरासियं आसावणं तिदेडोउचित्त
च काढदओदग विप्पमोत्तयो चउत्थं न परिभुज्जद् , श्र
प्नया-रञ्जा नामाप अज्जियाए पुठ्वकायच्रखुदपावकम्मा-
दपण सरीरगं कुद्रुवादहीपए परिर्साडऊण किमिएरंह समुद-
सिउमारद्धं । अहःऽन्नया परिगलंतपूइरूहिरतणुं तां रज्जाज्ज-
यां पासिया ताओ य संजईआओ भरेति | जहा-हालाहल-
दुक्करकारगे किमेये ति, ताह गायमा ! पडिभणियं तीण
महापाव्रकम्माए भग्गलक्खणस्ंजमाए गज्जाज्जियाए । जहा-
फाखुगपाणणणं सचिज्ज़ञमाणणं विणं मे सरी-
प्णण्
( ४७८
रञ्जाञ्जया
आमभधानगाजन्द्र: |
रगं ति। जात इये पलवे ताव रो संखुहयहियये गोयमा !
सव्वसंजइंसमूह जहा गा विवज्जामा , फाखुगपाणग
ति। तश्रा एगाए तत्थ चितिय संजईए, जहा-ण जइ स-
पय चवर मम पये सरीरगं एगनिसिसव्भंतरेणव पड़-
साडिऊणं खंडखंडहि परिसदजा तहांवि अफाखुगादग
इन्थ जम ण परिभुजामि , फाखुगोदर्ग ण पाॉरहरामि. अ-
श्नेच कि सव्वमय फाखुगोदगण इमीए सरीरगे विण-
टरं सब्बहा ण सव्वमये. जे उण युञ्वकयश्खुटपावकम्माद-
एग सब्वमर्यावह हव
हा शो जहा भा पच्छ श्रत्ताणदोसावहयाण दढमसूढद्वि-
ययाप् विगयलज्ञाए इमीए महापावकस्माण संसारघोरदु-
क्खदायगे कारिसे दुट् ङुवयरो गिराइये, ऊं मम कन्नविवरे-
सुपि ण पविसञ्जति । जआ भवंतरकएणं अखुहपाव-
कम्मादपणः जे किचि दारिदृदुक्खदोहग्गअयस्स $ब्भक्खा-
रकुद्रादवाटाकलससन्निवायं देमि सभवई. न अन्नह-
त्ति। जण तु पएरिसमागमे पढिज्जइ | त जहा-- को देह
कम्ट दज्जइ, विहिय का हरइ हारए कस्स । सयमप्पणों
विद्धत्त, अज्लिययइ दुहे पि खुक्खे पि ॥१॥” चितमाणीए चव
उप्पन्न कवलनासो । कया य दवेहिं केवलिमहिमा । केवालि-
णा वि णरखुरासुराणं पणांसय ससयतमपडल अज़्िया-
रोच। तआ मत्तिभरनिन्भराए पणामपुव्वं पुद्रा कवली
रज्जाए, जदा-भयवे ! किमट्ठुमहे एयाणंं महेताणे महावाहि-
वयां भायरा संबुत्ता । ताद गायमा ! सज़लजलहर खुरदु-
दुदिनिग्धासमणोद्यारगेभीरसरणं भियं केवलिणा, ज-
हा-खुणसु दुक्करकारिए ! ज तुञ्भ सरीरविद्णकारणे ति।
तप ररत्तापत्तदुासिए अब्भंतरञ्मा सरोरग सिरणिद्धाहार-
साकंठाए कालयमीस परिभुत्ते । श्रन्नच पत्थ गच्छ एतीए
सादुसाहुरीप, तद्दाउथि जावदये अच्छीणि पक्रखाज्ञिञ्जति
तावदयं पि बाददिरपाणगं सागारियद्रापनिमत्तण वि ण
कयाइ परिभुज्ञइ । तप पुण गोमुत्त्पाडग्गदरणगयाप् तस्स
मच्छियाहि भिशणिर्भिणतसिघाणगलालालोलियवयणस्स से-
सद्रुगमुबगयस्स बा हिर पाणगं संघट्टिऊरं मुद्दे पक्खालिये। ते-
ण॒थबाहिरपाणयसंधट्टणविराहणर्ं सरूरासुरजगवेदाणे पि
श्रलघणिज्ञा गच्छुमरा अहक्कमिया | ते च णं। खामिय तुज्क
पचवराद वयाप, जहा-साहइणारों च पाणावरम विर्णिच्छुप्प
हत्थेणाव, जे कूवतलायपुक्रखरिणीसरियाइमतिगयं उदगं
त, कचल तु जमच वराहय अववबगयसयलदास फाखुग |
तस्स परिभागं पन्नत्ते वीयरागाहि ता सिक्खावामेि एसा
त सुट् दुयर च्ातउ पयत्षा; ज- |
दुरायारा जण 5ल्ला वि का वि ण एरिसं समायारं पवत्तइात्ति |
चिंतिऊरणं अमुगे २ चुन्नजागे समुद्दिसमाणाए पक्तिखत्त अ-
सणमञ्भछमि ते देवयाए। तै च तरपोवलक्िखियं ति दवयाए ।
पपर कारणणो त सरीरं विहडिये ति, ण उण फासुगप-
रिभागणं ति। ताद गोयमा ! रज्जाए विभाविये, जहा-
पवमेय ण अप्नह त्ति; चितिऊण विश्नविओ कवली । जहा-
भयवे ! जइ अह जहुत्त पायच्छित्त चरामि, ता कि पन्नप्पद
मज्ज एव तखु । तश्रा कबलिणा भणियं । जहा-जइ कोइ पाय- |
च्छिक्त पयच्छुदइ ता पन्नप्पद् | रज्जाए भणियं । जहा-भयवं !
जइ तुम चिय पायच्छत्ते पयच्छुसि,अन्ना को एरिसो मदण्पा।
सआओ कबलिना भिय, जहा दुकरकारि पयच्छामि अहं तहा
पच्छित्तमव नऽन्थि, जणे ते सुद्धी भवा | रज्जाए | |
भयवं ! कि कारगो ति । केवलिणा भणिय, जहा-जे ते संजइ-
वंदपुरओ गिराइयं । जहा-मम फासुयपाणपरिभोगण सरी-
रगे विहाडिये ति । एये च दुट््पावं सहासमुदाए किय पडि-
वयरा साच्चा संखुद्धाओ सब्बवाओ चव इमाओ संजइओ। `
चिंतिये च एयाहिं, जहा निच्छयआओ विमुच्चामो फाखुओ-
द्ग, भयऽज्भवसायाण आलोइये निदिय गरदिय चेयाहि,
दिक्नं च मण एयाणे पायच्छित्त । तत्थ च पप तव्वयणदोसेखं
जे ते समज्जियं श्रच्चेतकडविरसे दारुणबद्धपुद्ठनिकाइय तुगे
जे च पावरासि, तंच कुट्टभगंदरजलोद्रवायुगुम्मसासनिरो- _
हर्हारिसागेडमालाहि अणगवाहिवेयणापडिगयसरीराए दा- `
रिदृदुक्खदाहग्गअयस 5भक्खाणसंतावुब्वेगसंदी वियपज्ञा- `
लियाए शररत भवगहणहि खुदीहकालणं तु श्रहन्निसा-
खुभवयव्य । एएण कारणा ण समा गायमा ! सा रज्ज-
ज्जिआ जा श्रगीयत्थत्तदासणे वायामत्तणव पमहंत॑ दुरूख-
दायग पावकम्म सर्माज़्य ति | महा० ६ अ०।
रज्जधम्म -राज्यधर-न०।प्रतिराज्य भिन्न करादिके,दश० १ अण
रज्ञपालिया-राज्यपालिका- खी०। कामद्धिकस्थविराश्निग-
तस्य वसपाटिकगणस्य दवितीयशाखायाम् , कल्प० ।
रज़माण राज्यमान-ि०। रागवति, ज्ञा० १ श्रु० १७ अ०।
रज्जवडई राज्यपति पु° । स्वतन्त्र राजनि, ज्ञा० श्श्चु° १अ०।
रज्जवद्धण-राज्यवद्धेन-पु०। श्रवन्तिराजपालकपुत्र ्रवन्ति-
वद्धनलघुश्रातरि , आ० चू” ४ अ० |
रजहीण-राज्यहीन- पुं०।राज्यच्युत, सूज ०१ श्रु०३अ०१३० |
रज्ञाहिवई -राञ्याधिपति- पु । महामन्तरिणि, राजनि च।
बृ० ४ उ०।
रज्जु-रज्जु (ज्जू)-ख्री० । रज्ज्वा यत्संस्थान तद् रञ्जुरभि-
धीयत । ्तत्रगाणित, स्था० १० ठा० ३ उ०।
सम्प्रति रज्जुस्वरूपमाह---
सयभुपरिमंताओ्रो, अवरंतो जाव रज्जुमाईओ ।
एएण रज्जुमाणण, लोगो चउद्सरज्जुओ ॥ ३१ ॥
केवलद्वी पपयाधिपयन्तव्तिनः स्वयेभूरमणाभिधानजलनि-
घः परतटवर्तिपूचवेदिकान्तादारभ्य यावत्तस्यैव तोयधरपर-
चादकान्तः, पतावत्प्रमाणा रज्जुरवगन्तव्या | अनन च रज्जू-
माननाच्छूयतो लाकश्चतुर्देशरज्जूप्रमाणा भवतीति। भ्रव०६४३
द्वार ।
रज़्नवः कस्मिन स्थान कति सन्तीति-
माघवईएऐँ तलाओ, ईसिष्पन्भार उबरिमतले जा ।
चउदसरज्जू लोगो, तस्साऽहो वित्थरे सत्त ॥ ६०६ ॥
उर्वरिं पएसहाणी, ता नेया जाव भूतले एगा ।
तयणुप्पएसवुड्ी, पंचमकप्पम्मि जा पंच ॥ ६१० ॥
पुणरवि पणएसह।णी, जा सिला एकगा रज्जु ।
घम्माएँ लोगमज्के, जोयणयअसंखकोडीहिं ॥ ६११ ॥
माघवत्या'-तमस्तमःप्रभापराभिधानायाः सप्तमनरकप्राथि-
व्यास्तलावलोकपूथिव्याः सस्पशिनः सर्वांधस्तनभागादा-
रभ्य ईषत्प्रागूभाराया: सिद्शशिलायास्सबो परितनसले लोका-
4
( ४७६ )
रज्जु हक
न्तलक्तणं यावदूध्वाधोभागन चतुदेशरज्जूप्रमाणो लोको भव-
ति.तस्य च लोकस्याधस्तात्सप्तमप्रथिव्या अधोभाग छिस्तर-
ता देशो नाः सप्त रज्वं:। सूब्का रेण त्वल्पत्वादेशो नत्वं न विव-
क्तितम् । तताऽधालोाकान्तादुपरिप्रदशदानिस्तियगङ्कलास-
ख्ययभागहानिस्तावद् ज्ञातव्या यावद् भूतले तिर्यग्लोकम- |
भ्यवतिं समभूमिभाग विस्तरत पका रज्जूः , तदनु समभू- |
मिभागादुपरिमुखे प्रदेशवृद्धिस्तिगङ्खलासंख्येयभागव-
अभिधानराजन्द्रः।
द्विस्तावद् द्रष्टव्या यावदूध्वेलोकमध्ये पञ्चम ब्रह्मलाकाभि- |
धे कर्प विस्तरतः पञ्च रजवः, ततः पुनरप्यूध्व प्रदेशदा-
निस्तावदवस्या यावत्सिद्धशिलाया उपरिष्टाल्लोकान्त
विस्तरत एकेकरज्जूः । घम्मीयां च रत्नप्रभापराभिधानायां
प्थमपृथिव्यां याजनानामसंख्याताभिः कोटिभिर्वहसमभू-
मिभागादतिक्रान्ताभिलौकमध्यम् । इयमत्र भावना-इह साम-
स्त्यन चतुद शरजञ्ज्वगत्मको लोकः, सच त्रिधा भिद्यत, तद्य- |
था--ऊध्वलोकस्तियेग्लोको पधालोकश्च । तत्र तिर्यग्ला-
कस्य ऊर्ध्वाघा5पत्तया अपष्शादशयोजनशतप्रमाणस्य म-
ध्यभागे जम्बूद्वीपरत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभाग मेरूबहुमध्ये
<5एप्रादशिका रुचकः, तत गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः
अदेशाश्थत्वा रश्चा धस्तना: पष ष्व रुचकः सवासा दशा |
ववादशा च प्रवत्तकः | एतस्माच्च रुचकादुृद्धाथास्तयग्ला-
कावभागाः, तथा।ह--रुूचकस्याधस्तादुपारष्टाच्च नव नव
योजनशतानि तिर्यग्लोकस्याघस्तादधोलाक उपरिष्ठादृध्वे-
लाकः । देशोनसप्तर|ज्जूप्रमाण ऊध्वलोकः , , समधिकसप्तर-
ज्जूप्रमाणो 5घोलोकः, मध्य ऽ्टादशयोजनशताच्छयस्तिय-
ग्लाकः , तता सुचकसमभूतलभागादघामुखमस ख्याता
याजनकोरीगैत्वा रत्नप्रभायां चतुद गारज्ज्वात्मकस्य मध्य
मभागः परिपूर्णसप्तरज्जूप्रमाणा भवतीति ।
सप्रति लाकस्य सस्थानमादट--
देडादोगुहमन्नग तल्ला उवं तु संपृडदियरं ।
अणुसरह मन्नगाणं, लोगो पंचत्थिकायमओ ॥६१२॥ |
अधस्तादधोभागा 5घामुखमल्लकतुल्या ५ धोमुखी क्तशराव- |
सरक्ताकारः उपरि पुनः सुरम्थितयामल्लकयाः शरावयोरा-
कारमनुसर्यति लाकः | अयमर्थ: प्रथम तावदेकं शरावमधघामु-
खमवस्थाप्यत.ततस्तस्यापरि द्वितीयमुपारम खं,तस्याप्युपरि |
तृतीयमधोमर्खामल्यवं व्यवास्थतशरावत्रयसदशाकारः स- |
कलाऽपि लोका मवतीति, सच पञ्चास्तकायमयो घर्माध-
माकाशजीवपुद्धललक्तणेः पञ्चभिरस्तिक्रायेव्यी्तः ।
श्रथ चतुदेशरञ्ञ्वान्मकमपि लाकमसत्कट्पनया खण्ड-
कप्रविभागन दिदशयिषुः खरडकनिष्पादनाय तावदाह-
तिरय सत्तत्रा, उड पचव हूति रहात्रा।
पाएसु चउसु रञ्ज्, चउदस रज्ज य तसनाड।।६ १२,
तियक्--तिरश्चीनाः सप्तपश्चाशत्संख्या रसाः पदट्टिका
स्थाप्यन्त, ऊध्वसु पयंघामावन पुनः पञ्चैव रेखाः स्थाप्या
अवन्ति । तथा--'पाएसु चअउसु' ति सप्तम्यास्तृतीया थत्वा-
अतुर्भिः पादैः सगडकेरका रज्जूभवति | उद चतुर्भिः खरड-
। करेका रज्जूः प्रिकल्पिता, तता रज्जूचतुर्थभागत्वात् ख-
भावन
हे
= ५
ण्डक पादं इत्यभिंटतम् । चनुदेशरज्जृश्च ऊरध्तां ^^
च्रतुरईदशरऽजुध्रनःणः सना
त
34 !
अश क
खर्ज
"507९ ~
स्थापितसप्तपञ्चाशद्रेखाभिरूध्वाघो भावेन षपद्पञाशत्खरणड-
कानि जायन्त ! चतुभिश्च खण्डकेरेका रज्जूरिति षटप्ा-
शतश्चतुर्भि भा गहारे ऊध्वांधश्चतुदश रज्वो लभ्यन्त इति,ति-
यैक्त्रसनाडीमध्य सवौ एकेव रज्जूरूपय्रधाभावविनिवशित
रेस्वा पञ्चकेन खरणडचतुष्कस्येष निष्पन्नत्वात् । पत तावत्
त्रसनाडीमध्ये ऊध्वोधाभावेन .रडकान्युक्ताः
अथ सकलस्यापि लोकस्य तियेग्वर्तौनि खरडकान्यभि-
धातुकामः प्रथमे तावदृध्वलाके ल्चकादारभ्य लाकान्तं
यावत्तियक्खगडान्याद--
तिरियं चउरो दोंसुं, छ दोसं अट्ट दस य इकिके ।
वारस दोसुं सोलस, दोस बीसा य चसु वि॥ ६१४॥
रुचकसमाद् भूभागादृध्वं द्वयोः पङ्क्त्यारकानर्चिशत्तमरे-
स्वापरिवर्मिन्यास्तयकातरश्चीनानि चत्वारि चःवारि खराड-
कानि जसनाडीमध्यगतान्यव भवन्ति, त्रसनाड्या वदिस्तच
खरडकानाममावात् । तत उपरितन्यादढयोः पङ्क्त्याः षट् ख-
राडकानि । तत्र चत्वारि जसनाडीमध्यवर्तीन्यव एकेकं तु
असनाड्या वहिः प्रत्यकमुभयपाश्चेयारिति । | तत एकेकस्यां
पङ्क्ती मध्य ऋमणा5ष्टा दश च खरडकानि, तथाटि-एकस्यां
पड्क्रा नाडामध्य चत्वारि,वहिश्वकपा “वें दयम , द्वितीयपा श्वें
ऽपि छयमित्यष्टी.परस्यां च पङ्क्तो चत्वारि, मध्य बहिस्थ उभ
यतः प्रत्यक त्रतय जितयामाति दश । ततापि दयाः पङ्क्त्याः
प्रत्यकं द्वादश खरडकानि । चत्वारि मध्य, वादेश्चत्वारि
चत्वारीति । तदनन्तरं द्वयोः पङ्क्त्याः प्यकं षाडश
चोडश खण्डानि । चत्वारि मध्य पाश्वयोश्च षट् षडिति ।
तत उपरितनीषु चतखषु पङ्क्रिघु प्रत्यकं विशति खर्डका-
नि, चन्वारि मध्य, वादश्चकपा्वं ऽएावपरपाश्चं ऽप्यष्ाविति ।
तदवमूर्ध्वलोक चतुदशसु पड्ङ्रिघु यथासंभवं खरडकानां
वृद्धिरुक्का ।
अथ चतुदेशस्वपि पङ्क्िषु हानिमाद--
पनरवि सालस दासु, वारस दासु पि हति नायच्वा।
तिसु दस तिसु खट, छ दासु दासु पि चत्तार।&१५॥
पुनग्प्युपरितनपाङ्कदय पाडश खराडकान, भावना च
सव्र श्राग्वदवसया । तत ऊध्व इयोः पड्क्त्याद्वादश दादश
खरडकानि । तताऽपि तिखृषु पडङ्कषु दश दश सक््का{नि
तिरूषु पङ्किषु अड्रावण्ों खएडकानि | तदनु दयाः पङ्क्त्या
पट् पट स्वराडकानि । तताऽपि सर्वोपरवर्तिन्यार्दयाः
पडङ्क्त्यार्नाडामध्यगनान्यव चत्वारि खरडकानि भवन्तीति ।
इत्थ तावन्निजशुरुप्रदर्शितस्थापनानुसारता स्चक्रादारभ्य
लोाकान्त यावत् ` तिरिये चउरा दासं ` इत्यादि गाधाद्रयं
व्याख्यातम् ¦ अपर तु वपरीत्यन पद्टणु स्थापनां पश्यन्त
पतद्वाथाद्धय लाकान्तादारभ्य लाकमध्यं यावद्धयाख्यान-
यन्तीति ।
श्रधाधालाक सक्तस्वपि पृथिवीषु ऊर्ध्वा घो भावन-
स्वरडकान्याद--
उवरिय य लोयमज्का, चउरा चउर। य सब्वहिं नया |
तिग तिग दुग दुग एकि-कंगो यजा सत्तम पुढवी।६१६।
अवतीर्य लाकान्ताल्ञाकमध्ये समागत्य तता लाकमध्याद्
नण! इरम्य सर्वत्र सवासु पृथिवीषु त्रसनाडीमध्य
( ४८०
रज्जु
ऊरध्वाधामावेन चत्वारि चत्वारि खण्डकानि ज्ञातव्यानि
जसनाङ्याश्च वहिः खरडकानामभाव एव, ततः शकराप्र-
भाया उपरितनतलादारभ्य दक्षिणवामभागयों: परतिपङ्क्कि
लिरश्चीनानि तीणि जीणि खरडकानि, तावदृरध्वाधाभावन
ज्ञेयानि यावत्सप्तमपृथिव्या अधस्तनो भागः। तता बालुका-
प्रभाया उपरितलादारभ्य उपरि पाश्वयोः खण्डकत्रयात्पु
रतः पुनरपि तरीणि त्रीणि खरणडकानि तावदवस्यानि याव
त्सक्तमी पृथिवी । ततः पङ्कप्रभाया उपरि तलादारभ्य द्यो
पाभ्वयोः पूर्वाक्ततरडके भय परता द्व 5 खराडक तावदवग- |
न्तव्य यावन्सप्तमी प्राथवी | ततः पुनरपि धूमप्रभाया आर भय
पाश्वद्वय ५ऐ द्ध द्धे खराडके तावद्भवन्ति यावत्सप्तमी प्रथिवी
ततो भूयोऽपि तमःप्रभाया च्रारभ्य पाश्वद्वयास्तावदकेकं
सखराडकं स्थापनीयं यावत् सप्तमा प्राथवी । ततः सप्तम्या-
मपि पराथवयां पू्वाक्तखएडके भ्यः परत उभयपाश्वयारेकंकं ख
श्डकं प्रतिपङक्रि तावद्धवति यावत्सवाधस्तनी पड्ाक्रिरिति |
तदेवमधोालाक ऊर्ध्वाधाभावन खराडकान्युक्कानि ।
श्रथ तमस्तमःप्रभाया त्रारभ्य रलप्रभा यावत्पृथिवी-
तियैक्खरडकप्रमाणमाद--
अडबीसा छव्वीसा, चउवीसा वीस सोल(स) दस चउरों |
सत्तासु वि पुढवीसुं, तिरियं खड़यगपरिमाणं ॥ & १७ ॥ |
सप्तम्यां तमस्तमःप्रभायां नरकपृथिव्यामष्राविशतिः खण्ड- |
कानि ति्यैग्भवन्ति । तञ ्सनाख्या बहिरेकपाश्व द्वादश-
द्विनीयपार्भ्वेऽपि द्वादश, जसमाडीमध्य च चत्वारीति । तमः-
प्रभायां षड्विशतिः खर्डकानि, चत्वारि मध्य, बहिभागयों-
श्चकादशति । धूमप्रभायां चतुर्विंशतिः चत्वारि मध्य, उभय-
पाश्चयोश्च दश दशति । पङ्कप्रमायां विशतिः, मध्य चत्वारि-
बहिभागयोश्राष्टाशाविति । वालुकाप्रभायां षाडश, मध्य च-
त्वारि, उभययाश्वयोः षट् पडत । शकंराप्रभायां तियग् द-
श॒ खरणडकामि, चत्वारि मध्य, दक्षिणवामभागयोश्व चीणि
च्रीणीति । रत्नप्रभायां च जसनाङीमध्यगतान्यव चत्वारि
ति्यकखर्डकानीत्यव सप्तस्वपि तमस्तमःघभाद्यासखु पृथि-
वीषु तिर्यक्किरश्चीनखरड़कानां काट्पतचतुर स्राकारनभाभा-
शरूपाणां परिमाणं सख्यानां समवसयामांत ।
अथ सकलस्यापि लोकस्य खण्डकसर्वसख्यामाह--
पंचसयबारसुत्तर, हेद्ठा तिसयाउ चठर अब्भहिया ।
अह उड़ अद्र खया, सोलष्टिया खण्डया सव्व ॥६१८॥।
पञ्च शनानि द्वादशाच्तरण द्वादशाधिकान खराडकानाम् |
द्ध त्त अधालाक् भवान्त | तथाह-- अडवासा इत्या
दगाथाक्लान अशाचवशत्यायक्ान मालायत्वा प्रॉतिप्राथ वी म्
छण्राविशनिपदविशत्यादखरडक सख्या पतपड्ड्नक्नच्तुष्टय--
सद्धावाच्चतुर्भिगणयत् । तता जायन्त पञ्च शतानि द्वाद-
शात्तराणीति । श्रह उदं ति ` श्रथाघालाक्रादनन्तरम्-
ध्यलाके श्रीणि शतानि चतुर्भिरभ्यधिकानि
वन्ति । ' तिरिय चउरा दासु ` इत्यादि गाथाद्वितयादितेख
रडकमीलन यथाक्घसख्यासद्धावात् . सवाणि चाधालाको-
ध्वसम्बन्धीनि खरडक्रानि मिलितानि अष्टा शताति षाडशा
धिक्रान ( ८१६ ) भवन्तात।
|
|
|
खरडकानां भ- |
डगर्हि, घणरज्जू होइ विज्नेया ॥ १॥ ”
अभिधानराजेन्द्र रञ्ज
अथ सर्वस्मिन्नपि लोके यावन्त्या यावन्त्यो र्वो भवन्ति
तावतीदेशयितुमाद-
बत्तीसं रज्जुओ, हेड्ढा रुयगस्स हंति नायव्वा।
एगोणवीसम्ुवरि, एँगवन्ना सव्वपिंडेणं ॥ ६१६ ॥
स्चकस्य पूर्वोक्रखरूपस्याधस्ताद्-अधालाक इत्यथः,
हांत्रिशद् रज्वा भवान्त-ज्ञातव्याः । इह किल त्रिधा रज्जूः-
सूर्ची रज्जूः , प्रतररज्जूः , घनरज्जृश्च । तत्रायामतः ख-
णाडकचतुष्टयप्रमाणा वाहल्यतः पुनरेकखख्डप्रामिता खण्ड-
कर्रणसच्याकारव्यवस्थापितखरडकचतुष्टयनिष्पन्नत्वात्--
सृचीरञ्जूः । तथा एपेव प्राक् प्रदर्शिता खराडकचतु-
प्कात्मिका सरंचस्तध्रैव गुरयत, अतः प्रत्यक खगडकचतुष्ट-
यनिप्पन्नसूचीचतुष्टयात्मिका उपरितनाऽधस्तनखराडकरदि-
ता षाडशखर्डकससख्या प्रतररज्जूः सपद्यत । तथा
प्रतर पव सूच्या गुणिता दैघ्यण विष्कम्मतः पिर्डतश्च
समसेख्यखरडकोपता सर्वतञ्चतुर स्ना घनरज्जूः । देष्या-
दिषु ।तष्वपि स्थानयु समतालक्षखस्येव घनस्य रूढ-
त्वात् । प्रतररज्जृञ्च दीधविष्कम्भाभ्यामव समानपिण्ड-
स्तस्थेकखरडकमावरत्वादिति भावः । एषा च घनरज्जृश्चतुः-
्ाष्टिखएडकात्मिका, पूरवाङ्कसूच्या ऽनन्तरादितषाडशसरराडक-
रमित प्रतरे गुणित एतावतामव खरडकानां भावात् , स्था-
पना च प्रागुक्कषा डशखरडकात्मकग्रतरस्योपरि जन् वारान्
षोडश षोडश खराडकानि दत्वा भावनीया । तथा च दै्य-
विष्कम्मपिणडैस्तुल्यो 5यमापद्यत इति । उक्कं च-“सुईरज्जू च-
उद्दि उ खरड-गाहे सोलसहि ˆ पयररज्जू य। चडसट्टिखे-
तता द्वादशोत्तरपञ्च-
शतरूपस्याधोलाकखण्डराशेः प्रतररज्ज्वानयनाय षोडश-
पिर्भाग हृत दाजिशत्प्रतररड्डवा भवन्ति । तथा उपरि
ऊध्वेलोके एकोनर्विशातिः प्रतररज्जवः । चतुरुत्तरशतत्रय-
स्य षोडशभिर्भागाहारे एकोनविशतरव लभ्यमानत्वात्
तथा सर्वपिण्डेनाधोलोकोध्वैलोकसम्बन्धिसदेरज्जूमीलने--
न एकपञ्चाशत्परतररञजवा भवन्तीति ।
साम्प्रतं घनरज्जूसंख्यां प्रतिपाद्यिषुः
प्रथम तावज्ञाकघनीकरणमाह--
दाहिणओ उ दुखण्डा, वामे संधिज् विहियविवरीयं ।
नाडीजुयातिरज्ज्, उड़ाष्हो सत्तत्तो जाया ॥ ६२० ॥
हेद्ात्रो ` बामखंडं, दाहिणपासम्मि ठसु विवरीयं।
उवरिमतिरञ्जुखंडं, वामे दाणम्मि सभिजा ॥ ६२१ ॥
ऊर्ध्वलाके त्रसनाड्या दक्तिणपाश्ववर्तिनी ये द खण्ड
ब्रह्मलोक मध्यादधस्तनमुपरितन च खरार्ड परिग्रह्म--वि-
परीति च विधाय, अधस्तनभागमु परितन चाधःकृत्वेय-
श्रः वामपार्श सदध्यात्-सयोजयेत् । ततस्त द्वे खण्ड र-
ज्जूविस्तृततया नाड्या युत सर्य विश्तरतस्तिखा
रज्वा जाताः, ऊध्वाधो ऽधश्चोच्छुयण सक्त रजवः इत्यु
ध्यलाकखम्बन्धिन, 'हट्ठाउ क्ति' अधस्तादधालोके पुनखस-
डीतो वामभागवर्तिखरड बुद्धघा झ॒हीत्वा वक्तिणपा'र्ध्य
विपरीत कृत्वा स्थापयत् । तत उपरितनसंबर्तितोध्वला-
करूप खरा विरज्जुविस्तीणं सघर्तिताधालोकखरडस्य
याम स्थाने वामपाश्वं सङ्खातयत् । इयमत्र भावना-इद्
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( ४८१ )
अभिधानराजन्द्र
रट्रुत्राल
स्वरूपतस्तावज्ञाकश्चतुदशरक्जूपरमाणः,
देशोनसप्तरज्जूप्रमाणः तियग्लोकमध्यभागे एकरज्जूः ,
ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जूः, उपरि च लोाकान्ते एकरज्जूः,
शषस्थानेषु पुनरनियतविस्तरः
वेशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य घनीकरणाय
प्रथममुपरितनलोकार्ध सवर््यते । तथाहि--सयैत्रेकरज्ञू-
अधस्तादिस्तरतो
। एवं प्रमाणस्य लोकस्य
विरुतीणायास्त्रसनाड्या दक्तिणभागर्वातान ब्रह्मलोकमध्याद-
घस्तनमुपरितन च ये द्वे खण्ड कृपराकारसंस्थिते ब्र-
हालाकमध्ये प्रत्यकं द्विरज्जूविस्तीण देशोनार्घचतुश्यरज्जू-
च्छुय, त बुद्धिकल्पनया समादाय जसनाड्या एवमुत्तर- |
पार्श्व बेपरीत्येन सह्वात्यत । पव चापारतन लाकाध त्र
रज्जूविस्तारं दशानसप्तरज्जूच्छयम् , बाइल्यतस्तु ब्रह्मला- |
कमध्ये पश्चरज्जूप्रमाणमन्यत्र त्वानियतबाहल्यं जायते ।
ततो5धोलाके जसनाञ्या दल्तिणभागवत्य धोलाकसखरडमधो
भागे दशोर्नात्रिरज्जूविस्तारं कमण हीयमानविस्तरं तावद्या-
बदुपरि्ाद्रञ्जूसंख्ययभागविष्कम्भं समधिकसप्तरज्जूखछयं
बुद्धा परिगृह्य असनाड्या एवोत्तरपाश्व ऊर्ध्वाधोभागावि-
पर्यासिन संयोजयेत् । एवं च रत ऽधस्तन लोकाधं देशोन-
चत्रज्जूविस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्यम् , वाहस्यतो ऽप्य
|
धः कचित्किचिदूनसप्तरज्जूमानम् , अन्यत्र त्वनियतबाहलय |
जायत । तत उपरितनमधं बुद्धा ग्रहीत्वा ऽधस्तनस्यार्ध-
स्योत्तरपाश्व संघात्यते तथा च सति क्वचित्सातिरेकस- |
प्तरज्जूच्छुयः, क्वचिच्च देशोनसप्त रज्जूच्छुयः, विस्तरतस्तु
दृशोनसप्तरज्जूप्रमाणो घना जातः, ततः सप्तरज्जूनामुपरि |
यदधिकं तत्परियगृह्य उत्तरपाश्व ऊध्वांध आयतं संघात्यते
ततो विस्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त रज्ञवा भवन्ति । तथा
स्घातितापरिखराडस्य बाल्यं कचित्पञ् रजवः । अधस्त-
नखणडस्य तु बाहल्यं अधस्ताद्थथासंभव देशोनाः सप्त र-
ज्ववः ततः उपरितनखण्डबाहल्याद्वेशो नरज्जूद्वयमत्रारि - |
|
|
रिच्यते, इत्यस्मादतिरिच्यमानवाहल्यादध गीत्वा उप- |
रितनखरडवादहल्ये सयोज्यते एवं च छते बाहल्यतस्ता
वत् कियत्यपि प्रदेशे किचिदूनाः षट् रञ्जवो भवन्ति । व्य- |
बहारतस्तु सर्वमप्येतअत्रस्त्रीकृतनभःखरण्डसप्तरज्जूप्रमाण-
मुच्यते । व्यवहारनयो हि किचिन्न्युनसप्तदस्तादिप्रमाण- |
मपि पटादिवस्तु परिपूर्णसप्तहस्तादिमानं व्यपदिशति,दश- |
तोऽपि च दष्ट बाहल्यादिधम परिपूर्णऽपि वस्तुनि व्यवस्य- |
ति स्थृलदष्ित्वादिति भावः । श्रत एव ठन्मतनैवात्र सप्त-
मरज्जूवाहल्यता सर्वगता ऽवगन्तव्या । च्रायामविष्कम्भाभ्या
मपि यक्र देशोनसप्तरज्जूप्रमाणमिदं व्यवदारतस्तत्रापि प्र-
व्येकं सप्तरज्ज़्प्रमाणता श्या | तदेवे व्यवहारनयमतेनाया-
मविष्कम्भवाहल्यैः प्रत्यकं सप्तरज्जूप्रमाणो घना जायते | प- |
तच्च पट्टिकादों लिखित्वा भावनीयमिति । [प्रव०] ( घनीकृत
स्य लोकस्य रज्जुसख्यां ' घणरज्जु ' शब्दे ठृतीयभागे १०४
पृष्टे गता)
अथोध्वैलाके याघत्सु खरडकेषु यावन्तो
भवन्तीयेतदाद--
छसु खडगेसु य दुगं, चउसु दुगं दससु हति चत्तारि |
चउसु चउकं गेबे-जणुत्तराइं चउक्रम्मि ॥ ३० ॥
7४०१
# „4 ~>
दवलाकरा
रुचकस्माद् भूभागादुपरिमुखेषु पदस खराडकषु साधर-
ज्जूप्रमाण क्षत्र इत्यथः. द्विकं साधमंशानलक्षण देवलोक-
दय भवति । तता5प्युपारितनषु चतुषु खणडकेषु रज्जूमा-
न त्तत्र सनकुमारमाहन्द्ररूपे देवलाकद्धिकं भवति | तता-
ऽप्युपरि दशसु खणडकषु अधतृतीयरज्जूप्रमित त्तत्र भवन्ति
ब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस््रारस्वरूपाश्चत्वारा द्वलाकाः । त-
दनु चतुषु खराडकेषु रज्जूपारच्छुन्न क्षेत्र आनतप्राणतार-
णाच्युतनामकानां द्वलाकानां चतुष्कं भवति। ततः सर्वा-
परिवर्तिनि खर डकचतुष्टय ऽ न्तिमर ज्ञौ नवग्रेवयकविजयवेज-
यन्तजयन्तापराजितसवार्थासद्धाख्यानि पश्चानुत्तरात्रिमाना-
नि सिद्धक्षेत्र भवन्तीति | प्रब० १४३ द्वार । सृत्र० ।
स्था० । सनादिमय दवरिके, भ० ८ श० ६ उ०। बृू० |
“ रज्जू वरत्ताय य पाइ० ना० २१० गाथा।
रज्जुग-रज्जुक- पुण । लेखके, कल्प० १ अधि० ६ क्षण ।
रज्जुगसभा-रज्जुकसभा-स्त्री ० । रज्जुका लेखकाः । 'कारकून'
शालायाम् , कल्प० १ अधि० ६ क्षण |
रज्जुग्घाय-रजउद्घात पु० | विश्रसः पारणामतः समन्ता
द्रेणुपतन, स्था० १० ठा० ३ उ०।
रज्जुचिलिमिलिया रज्जु चिलिमिलिका- खी” । श्रौ िकद-
वरकं, ० १ उ० ३ प्रक०।
रज्जुपिणद्धू-रज्जुपिनद्ध-त्रि० । राश्मिनियन्त्रे, प्रश्न० ४ स-
व० द्वार ।
रज्जुमग्ग-रज्जुमार्गं -पुं? ! यत्र रज्ज्वा किञ्चिदतिदुगैमतिल-
ङ्ष्यत तादश मार्गे, सूज० १ श्रु० ११ आ० ।
रज्किय-रहित-जि० । अनिरन्तरे, “ न तत्थ सायं लहती
5भिदुग्गे, रहि (ज्के) याभितावा तहवी तिति ” ॥ १७॥
सूत्र० १ श्रु० ५ अ० १ उ०।
रट राष्टर-न० । जनपद, देशे, ज्ञा० १ श्रु० १ आअ० | कटप०।
रा०॥ जनपदकदेश, भ० १५ श० । ऋषभदेवस्य स्वनामख्याते
चतुखश पुत्र, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
रइउड-राष्टुकूट-पुं० । राष्ट्रमहत्तरे, बृ० ३ उ०। मणडलोप-
जीविनि राजानियोगिके, विपा० १ श्रु० १ आ०।
रइकूट-राष्ट्कफूट-पु० । वेभलसंनिवेसे स्वमातुलखुतायाः सो-
मानाम्न्याः पव्या, नि० १ श्रु० ३ वग ४ अ०।
रइ्रधम्म-राष्ट्रधम्म-पुं० । देशाचारे, स्था० १० ठा० ३ उ०।
रइवद्धण-राष्ट्वर्द्धन-पुं । अवन्तिराजस्य पालकस्य पुत्रे
प्रद्यातस्य पाने, श्राव० ४ अ० | त्रा० चू०।
रइवाल-राष्ट्पाल-न० । भरतचक्रवत्तिनः चरितप्रकाशके
आपाढभूतिना कृते नाटके, यद्धि सिहरथस्य राज्ञः सभायाम्-
प्रतिनर्तितं सत् पञ्चशतानां राजपुत्राणां नास्यपात्रीभूतानां
प्रचञ्याकारणमभूदिनि। पि०।(अग्नो प्रवेशितयिति नेदान॑(सु-
पलभ्यते ) ' आसाढमूइ ` शब्दे द्वितीयभागे ४७७ पृष्ठे
उद्ाद्रतम् )
( शद्ध )
रष्टय
रद्विय-राधशिक- = ! ४८८६ त्तर. नि चु० २ उ५।
गडिय सुदित -नन । ऋआ वमाचन. ४श्न० ५ सवण द्वार ।
रटित-न५ | केलद्टायत्. `` कलदाष्धच्र गरड पाइ० ना०
८२२, गाधा ।
रण -रण - पुर | कातरजनत्तामके सेग्रामे स० १४१ सत्र |
घ० । सूत्र०। धरय । कर्लह, “ सेगामा सेजुअ आहवे
रणे संगरे समरं `` परद्र ना० 3३ गाथा । शब्द, “ रणा
सरो `` पाइ० ना० २६६ गाथा
रणरणाञअञ-रणारणक प | पीडायाम . `` अदिही अरइ य र-
|]
१
हक
2९
गरणा `` पाइ० ना० * था!
रणसीस-रणर्शीपै-न० | सगर मशिरसि, सत्र० १ श्रु० ३ अ०
१ उ७। प्रश्न० | रणशब्दस्या पश्रेश समस्यां राणः | (१) प्रज्भाणि
चिद्रुदि नाद्, ध्र रागा करदि न श्रन्त्रि | प्रा० ४ पादं।
रप्प- अ्ररण्य-न० । वन, "` वा5लाब्वग्रय लुक् `
६६ ॥ इत्यन् आद्याकारस्य नुग चा । धा०
(|
॥ स
१ पाद् ।
सामनयनराजन्द्रः |
रतनुचय रन्न।चय- पुं । रत्नानां नानाविधानामुन्प्रावल्यन
चयः--उपचया यत्र स रन्नाचयः | मस्पचवत , स्तृ० प्र० ५
पाहु० । ( च्स्मादव दिशां विभागः सच ` दिसा ` शब्द
चतुथभाग २५२३ पृष्ट दरतः) ( ग्रस्य पाडश नामानि ' गि-
गाय शब्द तृतीयभाग ८७६ पृष्ठ गतानि) ( अस्य उ-
च्त्वादकम् ` मदर शब्द एस्मिन्नव भाग २७ पृष्ठ गतम्)
रत्त- रक्त | गज्ित, जा १ श्र ६ च्र०। उत्त० । अ
रूण, “ अरूण सास र्त पाडउलमायविरं तवं `` पाइ०
ना० ६३ गाधा । अल्यन्तसम्यकत्ववासितान्तश्वेतासि ,
सृत्र० २ श्रु० ७ अ० | प्रदत्तराग, बू० २ उ०। धानुप्रभतिभि-
द्रेब्येः रक्कीकझते, घु०१ ड० २ प्रक० । कुःसुम्भगग,
३ प्रक० । लाहित, रक्लवर्ण, भ० १ श०१उ० | प्रश्र०। “* रक्ता-
सागपगासक्रिखश्रसुखमुदटगुजद्धरागनारस'' रक्काशोकप्रका-
शस्य कशुक्रम्य--पुष्पतपलाशस्य सुक्रमुखस्य गुआजाड़- ¦
सः तथा तास्मन् | आग्क्लत्य-
स्य च रागण सटशा य
थे, अनु० । रुधिर, न० । न° | स्था० । रागयुक्क , तद्धावि-
तमूताो च । चर | आचा० £ उ०। आवब०।
गयरागानुरङ्कन यद् गीयत तद् गक्कम । छितीयगेयगुण
जी० ३ प्रिनि० ४ अधि० | अनु०। ज०! रा० । मनोहर
श्रो । गृद्ध. श्राचा० १ श्र ०२ आ० ३ उ० । अत्यन्तोत्कट-
रागतया प्रधानमपि वस्तु विरूपतया ऽध्यवस्यति इति आरक्कः
श्रावकगुणः,। दी २ तत्त्व |
श्र २३ ० >
य° १ उण०
रत्तंसुय--रङ्रांशुक--न० । मशकृटाभिध, चे० प्र० २० पाहु० |
रत्तसुयर्मवृड--रक्रांशुकमत्रते त” । गक्कलांशुकेनातिरसणीयेन |
मशकग्रहाभिधानन वस्थ्रण सचत आच्छादित, कटप०
१ आधि० २ क्षण | जी० | रा । भ |
रत्तकंबरलसिला रक्रकम्बल शिला--स्ज्री । मगौ, पणडकवन-
मध्य चूलिकायाः पश्चिमादांश चतुर्योजनाबिछितसवेकाअ-
नमयचन्द्राद्धसस्थानसंस्थितायां चलुध्या शिलायाम्, स्था०।
' दा रत्तक्रवलासलाग्रा ` स्था २ ठा० ३ उ०।
कटि णं भन्त ! पंडगवण रक्तकंबलसिला णामं मिला
(१) प्राह तिरति नाथो व; स
॥
9 रक्तप्पम
पछत्ता $, गात्मा . मदस्चृृलआए उत्तरण |
त्तरचारमत एत्थ ण पडगवण रत्तकतलासला णाम मसला
प्यत्ता, पाडणपडीणायया उदीणदादिणवित्थिष्पा सव्वत-
वशिज्धमईइ अच्छा ०जाव मज्छदसभाए सीहासणं, त-
त्थ शं बहुहि भवणवइ ०जाव दवि दवीहि अ एरावय-
गा तित्थयरा अहिमिचंति | ( प्रू १०७ )
सम्प्रति चतुर्थी शिला--'कहि ण' मित्यादि , प्रश्नः घाग्व-
न् , उत्तरसत्र सवं द्ितीयशिलानुसारण वाच्यम् , वर्णतश्च
सर्वतपनीयमयी , श्रीपृज्यस्तु सवा अज्जुनस्व॒णंवर्णा उक्का
डति , ` एरावतका ` इति परावतक्तत्रभवाः , सिंहासनस्ये-
त्वं भरतत्षेत्रोक्नलयुकत्या वाच्यम् । ज० ४ वक्ष० । स्था०।
रत्तकूड- रक़कूट-न० । शिखर धर पर्यत पष्ठ कूट, जे० ४ वक्त०।
रत्तक्ख-रक्रात्त तण | अरूणादवाकरनयन, आवब० ४ अ०।
रत्तक्खर-दशी-सीधुनि, दे
रत्तचद ण रक्ृचन्द न- न° । लाहितवर्ण चन्दनविशषे, स० ।
रा० । प्रज्ञा० । | आ० ।
० ना० ७ वर्ग० ४ गाथा ।
रत्तच्छ रक्ताक्ष चि । ! लोहितलाचन, उपा० २ अ०।
रत्तडी रात्रि खी० | “ रजन्याम् , दढाल्ञां मइ तुह वारिआ,
मा कुरु दीहा साणु। निदरा गमिदी रत्तडी, दडवड होइ
विहाणु `` । प्रा० ४ पाद ।
रत्ततल रक़तल-न० । लाहिताघोभागे, ओ० । तं० ।
रत्तधाउ रक्धातु पु । कुगडलवरद्वीपमध्यगतस्य कुरडल-
शलस्य दक्तिणश्रण्यां चतुणा कूटानां मध्य द्धितीयकूटे, द्वी० ।
रत्पड-रक्रपट- पु । सागत, पारव्राजक च | बृू० १ उ० २
प्रक० । ज्ञा० ।
रत्तपालजक्ख -रक्रपालयन्ञ- पुं । महापुरं नाम नगरं रक्का-
शाकं नाम उद्यानम् : तस्मिन् पूज्यमान यत्त, विपा० २ श्रु०
9 अआ०।
रत्तप्पभ-रङक्गप्रभ- पुं । कुर्डलवरद्वा पम्यगतस्य कुण्डल-
शैलस्य दक्तिणश्रेर्यां चतुर्ण कूटानां मध्य प्रथमे कूटे, द्वी०।
रक्कप्रभकृरस्थाचत्वादि--
एएसि कूडाणं, उस्सहो पंच जोयणसयाई ।
पंचव जोयणसणए, मूलम्मि उ विच्त्यडा कूडा ॥ ७७ ॥
तिन्नेव जोयणसए, प्पत्तरि जोर्येणसयाईं मज्भम्मि ।
अड्राइज़े य सए, सिहरितले .वित्थडा करडा || ७८ ॥
तिप्यव जोयणसए, पंचेव सयाईं एकवीसाई ।
मृलम्मि उ कूडाण, सविसेसो परिर्ओों होइ ॥ ७६ ॥
एगं चव सहस्सं, चूलसियं चेव होइ सममेगं ।
मज्भम्मि उ कूडाणं, विसिसहीणों परिक्खवो ॥ ८० ॥
2-- नाथकः !
मया त्वं वरितः, मा कुर दीघ मं नम् | निद्रय। गमिष्यति
२।:. शीषे मवति भनानम् |
( छ८
रत्तप्पभ
सत्तव जोयणसणए, एकाणउयं च जायणा होंति !
सिहरितल कूडाणं, सवियेसो परिरओ होइ ॥ ८१ ॥
पलिओवमट्टिइआ, नागकुमारा हवति एएसुं । दी ° |
रत्तप्पवायदह रक्रप्रपातटृद - पु । जम्बुद्धीप ऐरवतवर्षे, दीध-
आमभधानराजन्द्र
वेताद्यपवत पूवादधिगामिन्याः रक्नवत्याः महानद्याः उद्रम- |
स्थाने गङ्गाप्रपातटदसदश, स्था० ।
जवृमेदरउत्तरणं एरवए वासे दो पवायद्दहा पछात्ता, तं
जहा-बहुसमतुलछा ० जाव रत्तप्पवायर्ह चव, रत्तावरप्पवा-
यदहे चव । ( घ्ू° ८८ ) स्था० २ ठा० हे उ०।
रत्तफुड- रक्रस्फुट - पु । वदरीवननिवासिनि स्वनामख्याते,
नाग, “ यन रङ्कस्फुटो नागो निवसन् वदरी वन । पातित
त्ततिशस्रण, क्षात्रियः सेष वें भवान् ॥ १ ॥ `` भरव० २ द्वार ।
रत्तय- दशी-चन्धक, दे० ना० ७ वग ३ गाथा
त्तरयण-रक़तरत्न-न० । पद्मरागादिक, सूत्र० २ श्रु० १ श्र५।
रत्तर क्ररन् ५
भ० । ज्ञा०।
रतच्तवई रक्रवती - खी ० । जम्बुद्वीप ऐरवतवर्ष शिखरि वषधर |
पर्वतात् निरेत्य पश्चिमसमुद्रसङ्गतायां महानयाम् , स्था० ३ |
० ४ उ०।
एवं जह चव गंगासिधुओ तह चव रत्ता--रत्तवई्यो
शेयव्वाओ । पुरच्छिमेणं रत्ता, पच्चत्थिमेणं रत्तवई अव-
सिट तं चच | ( ष ११)
यथव ग्गासन्धू तथव रक्कारक्नवत्यों नतव्य, तराप दिग्- |
व्यक्तिमाह-पूर्वस्या म-रक्का, पश्चिमायाम-रक्कावती । ज०४ |
वक्त०। ( जम्बुद्वीप द्वीप महानदीनां मध्य गता एपा चतुद्द- |
शनदासहस्रः सह पाश्थमसमुद्र
जवुदीव ` शब्द चतुथभाग १३७८ पृष्ठ उक्का )
रत्तारत्तवतीश्रा णं महाणदीओं पवाहे सातिरेगे चउव्वी-
सं कसि वित्थारेणं पन्नत्ता | ( सू० २४)
पवह इात- यतः स्थानान्नदा प्रचहात- वाढु प्रचत्तत
गच्छुतात्यादवक्लब्यता ,
)
रत्ततिहि
चअम्पाराजदत्तस्य भायाया महाचन्द्रकुमारमातार वपाय
२ श्रु० € आअ०।
रत्तवइप्पवायदह-रक़वतीग्रपात्तहह्ू-पु ० । ज म्बूद्वीप एरवतव-
चं दीधवेताब्यपवते पशचिमादेघगामिन्याः रक्लवत्याः नद्याः
उद्दमस्थाने सिन्धुप्पातसदश प्रपातहद, स्था० २ठा० ३ उ०।
दा रत्तवरप्पवायदहा । स्था० २ ठा ३ उ०।
रत्तसिला-रक्रशिला-खी० । मरो परडकवन छृतीयशिला-
याम् , ज० ।
अथ तृतीयशिला--
कहि णं भते ! पडगवरे रत्तसिला णाम सिला पष्पत्ता?,
गोयमा ! मन्दरचूलिआए पचचन्थिमेणं पडगवणपच्चन्थि-
मपरंते, एत्थ शं पंडगवश रत्तसिला शाम सिला
पणत्ता | उत्तरदाहिणायया पाईंणपडीण॒वित्थिष्मा ०जाव
तं चव पमाणं सच्वतवशिज्ञमर अच्छा उत्तरदा-
हिणेणं एत्थ शं दुव॒ सीहासणा पष्पत्ता, तत्थ शं
जसे दाहिणिब्ले सीहासण तत्थ शं बहूहि भवण-
वइपम्हाइआआ तित्थयरा आहियिचंति) तत्थं णं ज से
उत्तरिल्न सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवण ० जाव व
प्पाइआ तित्थयरा अटि पिच्चति ( न्ति) | ( सू० १०७ )
‹ कटि ण ` मित्यादि. इदं च सते पूचशिलागमन चाध्यम् ,
केवल वसतः सर्वात्मना तपनीयमयी रक्रवरात्वात् . , सिहा-
सनद्धित्वभावना त्ववम्-पया पश्चिमाभिमुखा र्तादगभिमुखे
च त्तत्र पश्चिममहाविद्हाख्य शीतादादक्तिणोात्तररूपभागद्ध -
यात्मकम , तत्र च प्रतिविभागमककनिनजन्मसम्भवाद्यगप-
जिनद्वयमुः्पद्यत, तज दात्तिणात्य सिंहासन दक्षिणभागगत
पक्मादिविजयाष्रकजाता जिनाः स्माप्यन्ते, ओत्तराहे च उ-
तक्तरभागगतवप्रादिविजयाष्रकजाता इति । जे० ४ वक्त० ।
| रत्ता-रक्रा- खी० । जम्बूद्धीप एरचतवर्ष शिखरि वषधर पवता-
सच पद्महदात्तारणन निगम इह सभाव्यत, न पुनर्या |
न्यत्र प्रवदेशाब्द्न मकरमुखप्रणालानगमः प्रपातकुरडानगमा
वा विवर्तितः, तत्र हि जम्बृद्धापय्रज्ञप्यामिह च पशञश्चविशाति
काशप्रमाणा गङ्गाऽ दनद्या ववस्तारताभाहताः ॥ २४ ॥
२० २४ सम० |
मप्पेंति | इदा इंद्सणा सुसेणा वारिसेणा महाभागा | स्था०
५ ठा० ३ उ०।
जव ! मन्दरउत्तरेणं रत्तारत्ततईओं महाणईओ दस म-
हाणइओ सम्पति । तं जदा-किण्हा महाकिणहा नीला
महानीला तारा महातारा इदा ० जाव महाभागा | ( घ्ू=
४७० ) स्था० १० ठा० ३ उ०।
१-अआादिरान्दा [-रक्तावत्ता |
न्निर्भत्य पूववलवणसमुद्रसङ्गतायां महानद्याम् , (तद्वक्कब्यता
गङ्गावक्कव्यतावञज्ञया ) स्था ३ ठा० ४ उ०।
रत्ताकुंड-रक्ताकुएड-त" । रक्ताख्यमहानयुद्वमस्थानीभूत्त
कुराड, स्था० ८ ठा० ३े उ०।
रत्ताभ-रक्राभ -पु० । रक्तवर्णे, जी० ४ प्रति० ।
रत्तावईकुंड-रक्कावतीकुणड-न० । रक्काख्यमहानद्युद्वमस्थानी -
भूत कुराडे, स्था० ८ ठा० ३ उ ।
६ ॥ 5 7 ^ 3 न | [५ 9 लि । जप (न न्न ५ र
जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तावई महाणदिं पञ्च महाणईओ स- रतताचग रक्ापाङ्ग पतन 9
वक्ष० । जी० ।
रत्तासोग-रक्काशोक -पु । ्मशोकधुद्तविशषे, कट्प० १ अधि०
३ त्ष | ० ।
रत्तासागप्पगास-रक्राशाकम्रकाशरा- प°! रक्कस्याशाकस्य भ्र
भासमृहे, कटप० १ अधि० ३ क्षण | दशा० ।
रत्ति-रात्रि-खी० | रजन्याम् , सर्वत्र ल-व-रामचन्द्रे ॥८।२।
७० ॥ इति रेफस्य लापो भवति | रात्रिः । रत्ती । । प्रा० |
। रत्तितिहि-रात्रितिथि-स्त्री ० । तिथः पश्चाद्ध॑भाग, चे० प्र० १
पाह्ु० ।
( ४६८४७ )
त्तिय
स्राभधानराजन्द्र; |
रत्तिय-रात्रिक-त्रि० । राज भव रात्रिकम्। खात्रियाते
उत्त० २६ अ्र० । रात्ररन्त भव, प्रव० ३ द्वार ।
रत्तियर-रात्रिचर -त्रि० | चोरादिक, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
रत्तिविणासअ-रात्रिविनाशक-पुँ०।रात्रिविनाशका रणे,करूप ०
१ अधि० ३ क्षण |
रत्ती-दशी-श्राक्नायाम,
रत्तीअ-रक्षिक-पु० | नापित, “ वच्छीउत्त जाणह य, चडिल
रहाविश्रे च रत्तीश् पाइ० ना०६ १ गाथा । दे० ना०।
रत्तक्कडा--रक्रात्कटा-सरी० । मासान्त त्रीणि दिनानि याव-
द ना० ७ वर्म १ गाथा |
त्ख्रीणां यज्निरन्तरमसक स्रवति तदत रक्तमुच्यत तन रक्रन
रुधिरेण उत्कटा या सा । रजस्वलायाम् , तं०। श्राव ।
रत्तप्पल -रक्रात्पल--न०। रक्कपद्मपत्र, प्रञ्च० ४ आश्र० द्वार । |
रा० | लोहितकमले , ओ० | भ० । कल्प ।
सुकुमालकामलतला” रक्ल-लाहितम उंत्पलपत्रक्त्। जी०
“ रक्तप्पलपत्त- |
प्रति० २ उ०। “रत्तप्पलपठमकरचरणकामलड्डरनलतला ` र- |
क्रात्पलवत् करचरणानां कामला अड्डुल्यो यषाम्। तं०। |
रत्ुप्पलपत्तमउयसुकुमा लता लुनिल्लालियग्गजीहं ' ` रक्तोत्पलं
रक्ककमलम् | कट्प० ट अधि० २ क्षण ।
रत्तोायाकूड-रक़ोदाकूट-न० । शिखरघरपर्वत अष्टम कूटे
स्था० २ ठा० ३ उ०।
॥
रत्थतर-रथ्यान्तर--न० । मागमध्य , कल्प० १ अधि० ५ क्ष- | म द
| रमिअ-रन्त्वा(मित्वा)-अव्य० । त्वेत्यर्थ, “ क्त्व इश्न-
ण॒। श्रो०।
रत्था-रथ्या--खी० । सरिकायाम् , उत्त० ३० उ०।
रत्थामुह-रथ्यामुख-न० । मार्गप्रवश, आ० म० १अ०। र-
ध्यायाः पाश्व, वृ० १ उ० ३ प्रक०।
रथकार -रथकार-पुं०। काष्टठकलामिश कारूक, “पुरं सापारक
तत्र, रथकारो 5भवत्सुधीः । तद्ास्याश्च द्विजाजातः, कोक-
सो नाम दारकः ॥१॥ `" | श्रा० क० १ श्म०।
| रम्प-तक्ष-धा०। तनूकरणे,
स व
ज्ञाः ` ॥८।४।१६८॥ रमतरतऽ्ादशा वा भवन्ति । सखुइडइ। ¦
खड् । उब्भवइ | किलिकिञचद । काट्टमइ । मोद्दायइ । णीस-
रद । वल्लइ। रमइ। प्रा०। “हसंताणि वा, रमंताणि वा,
माहताण वा । ` आचा० २ श्रु० २ चू० अ०।
रमत-रममाण-त्रे० । अत्तादिना रति कुवात । भ० १३ शर
६ उ० |
रमण-रमण-न०। नितम्बे, रमणे तिय नियेवा” पाइ० ना०
११५ गाथा । पत्यो, "रमणो कंना पणइ, पाणसमा पिययमो
दइओ ` पाइ० ना० ६९ गाथा।
नुः
रमणिज्- रमणीय पु० । जम्बुमन्दरस्य पूर्व सीतायाः महा-
नयाः दत्तिण खुभाख्यराजधानी विभूषिते विजयक्षेत्रे, स्था०८
ठा० ३ उ०। रमणीय, मनाहरे, स्था० ६ ठा० । ज्ञा०।
3 ^~ 9 € * हि
कर्प० । श्रा० । महाविदेहान्तर्गतायां खनामख्यातायां नग-
याम् , स्था०।
दो रमणिज्ञाओ । स्था० २ डा०।
रतिजनके, जि० । रमणीया मनाहरा रूप शोभा यस्य ।
कल्प १ आधि० ३ क्षण । सुन्दर , “ मणारमं चारू रमणि-
ज्ञ ` | पाइ० ना० १४ गाथा ।
| रमणी-रमणी- खी । प्रियायाम् , “ रामा रमणी सीमे-ति-
णी बह वामलोअणा विलया पाइ० ना० १२ गाथा ।
दूणी” ॥ ८ । ४। २७१ ॥ इति कत्वास्थाने इश्र श्रादेशः । प्रा० ।
रमिय- रमित -न० । मेथुनसवायाम् , जी० ३ प्रति० ७ अधि ०।
रा०।
""तत्तेस्तच्चछु-चच्छ-रम्प-रस्फाः"
॥२८।६।१६४॥ इति तक्तः रम्परम्फावादेशो वा । तक्षति । ्रा०।
| रम्फा-रम्भा- खी० | खनामख्यातायां सर्वेश्यायाम् ,“चूलि-
रद्ध -राद्ध--न० । पाचित, पक्के । । आव० ४ अ० | नि० चू०। |
जी०।
रद्बी-देशी-प्रधाने, दे० ना० ७ वर्ग २
रत्न-अरएय--न० । वन,
१३५ गाथा ।
गाथा।
“ कतारं काणणं रन्न '' पाइ० ना०
का-पैशाचिके तृतीय-तु्यैयोराद्य-द्वितीयो " ॥ ८। ४। ३१५ ॥
इति भस्य फः । रम्भा । रम्फा । प्रा ४ पाद् ।
| रम्म-रम्य-न० । रमयति मनांसि द्रष्ट्णामिति रम्यम् | रम-
रप्पुय--रप्पुक--पु०। वल्मीकरोगे, पश्चा० १६ विव० । श्राव०।
रष्फ़--देशा -वरमीक, दे० ना० ७ ब १ गाथा।
रप्फडिञ्रा--गाधायाम् , दे० ना० ७ वर्ग ४ गाथा |
रप्फा--खी० । देशी-वरर्मीके, “ रप्फा बम्मीश्र-वामलूरा य "' |
| रभ्मग-रम्यक-पु०। पचमावतीराजधानी भूषिते विजयक्षेत्रे,
पफद० ना० १७१ गाथा ।
रफस-रभस-पुं०। बगे , “ चूल्लिका-पैशाचिके तृतीय -तुर्य-
याराद्य द्वितीयो ' ॥८।५। ३२५॥ इति भस्य फः । रभस |
रफस । प्रा० ४ पाद्।
रम-रम-धा० । क्रीडायाम् , प्रा० ४ पाद । रमते--हर्षितों
भवति । उत्त० पाई० ४ श्र०। श्रभिरतिमान् भवति | उस० ,
पाई० १ श्र०। राति कुस्ते, । ज्ञा० श्रु १७ अ०। “रमेः
णीय, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०। ज०। पञ्चा०। उन ० |
जम्बुमन्द्र स्य पूर्वे सीताया महानद्याः दक्षिणे श्रङ्कवत्याख्य-
राजधानी भूषितविजयत्तेवे, स्था० २ ठा० ३ उ० । रम्यो विज-
यः श्रङ्कावती राजधानी श्रञ्जनो वक्तस्कारः | ज० ७ वक्त०।
दो रम्मा | स्था० २ ठा० ३ उ०।
सुन्दर, रूइरं राह रम्मे, आहिरामं वंधुरं मणुज्ण च । लद
कत सुहय, मणारम चारु रमाणज्छ पाद० ना० १४ गाथा।
स्था०।
दो रम्मगा | स्था० २ ठा० ३े उ०।
जम्बूद्वीपे बर्षविशेष, स० ७ सम० । प्रव० । “रम्मए विजए
पम्हावई रायहाणी `` ज ।
कटि श भत ! जम्बुद्दीवे दी रम्मए शाम॑ वाये
पष्यत्त ? , गोयपा ! णीलवन्तस्म उत्तरेश रुष्पिस्स द-
( ४८५ )
रम्मग
अभिधानराजन्द्रः ।
न.
क्खिणेणं पुरल्थि(च्छि)मलवणसमुदस्स पचचत्थिमणं पच- |
त्थिमलवणससुदस्स पुरत्थिमेणं एवं जह चेव हरिवासं
तह ` चेव रम्मयं वासं भाणिअब्यं, शवरं द किखिणेणं
जीवा उत्तरेणं धणं अवसेस तं चव |
प्रञ्चः प्रतातः, उत्तरत नीलवत उत्तरस्यां राक्मणा--
चदयमारस्य पञ्मवपधराद्रदात्तणस्याम् एव यथव हारवष
तथच रम्यक वष यश्चथवशष: स नव रामत्यादना सूत्रण सा
क्षादाह-' दक्खिणणणं जीवे ` त्यादि व्यक्लम् श्रथ यदुक्क ना-
॥
|
|
|
वर्ष सुखमसुखमाकालः । स्था० २ ठा० ३ उ०। प्रज्ञा० ।
जं० । स० । अनु०। रुक्मिवर्षधरपर्वते तृतीयकूटे, जं० ४
वत्त० । स्था०।
| रम्मगकूड-रस्यककूट-न० । जम्बुद्वीप मन्दर स्यात्तर नीलव-
तो वषधरपर्वतस्याण्रमे कृटे, स्था० ६ ठा०।
| रम्मगवंस ग-रम्यकवर्षक पु । रस्यकवर्षजाते मनुष्य, स्था०
रीकान्ता नदी रस्यकवषं गच्छन्ती गन्धापातिन वृत्तवेताड्य
योजनेनासम्पाप्त, तदष गन्धापाती क्रास्तीति पृच्छाति-- |
कटि शं भन्ते ! रम्मए वासे गन्धावई णामं वड्वेअडड-
पव्वए पष्यत्त १, गोञ्मा ! णरकंताए पच्चत्थिमेणं णा-
| रीकंताए पुरत्थिमेणं रम्मगवासस्स बहुमज्मदेसभाए |
एत्थ शं गन्धावईणामं वडवे पव्वए पष्पत्त, जं चव
विअडावइस्स तं चव गंधावइस्स वि वत्तव्वं, अटा बहव
उष्पलाई ० जाव म(न्धा)धावडइवष्पाई गधावदप्पभाई पउमे
अ इत्थ देवे महिद्धीए "जाव पलिओवमट्डिइए परिवसइ, |
रायहाखौ उत्तरेणं ति । से केणः्ट्वेणं भते ! एवं वु रम्मए
वासे वासे २१, गोयमा ! रम्मगवासे शं रम्मे रम्मए रम-
शिजञ रम्मणए अ इत्थ देवे °जाव॒परिवसई, से तेणड्दरणं ।
(सू० १११ )
* कहि शे › इत्यादि, क भदन्त ! रम्यके वर्ष गन्धापाती-
नाम चृत्तवेताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः ? गोतम ! नरकान्ताया म-
हानद्याः पश्चिमायां नारीकान्तायाः पूवैस्यां रम्यकवर्षस्य-
बहुमध्यदेशभागे । अन्रान्तरे गन्धापाती नाम वृत्तवैतादबः प्र
ज्ञप्त, यदेव विकटापातिनो हरिवधत्तत्ररस्थितवरत्तवैतादश्-
स्योश्चत्वादिकं तदेव गन्धापातिनो ऽपि वक्रव्यम् , यञ्च सवि
स्तरे निरूपितस्य शब्दापातिनो ऽतिदेश विहाय विकटा-
पातिनो ऽतिदेश
अन्न यो विशषस्तमाह--श्रथस्त्वयम्-वच्यमाणा बहन्यु-
त्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि-त॒तीयव्रत्तवेताढधवर्णानि
गन्धापातिवणंसदशानीत्य्थः रक्रवशत्वात् , गन्धापातिप्रभा-
शि-गन्धापातिचरत्तवेतादश्चाकाराणि सर्वत्र समत्वात् तन |
तद्वरीत्वात् तदाकारत्वाञ्च गन्धापातीनीत्युच्यन्ते । पद्मश्चा-
श्र देवो महद्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तझो-
गाच्त्स्वामिकत्वाश्च गन्धापातीति, यथा च विसष्टशना-
मकस्वामिकत्वेन नामान्वर्थो पपत्तिस्तथा प्रागभिदहितम् ।
अस्याधिपस्य राजधान्युत्तरस्याम् । अथ रम्यकत्तेत्रनाम- |
निबन्धनमाह-' से केणट्टुणं' इत्यादि, अथ केनार्थेन भद- |
न्त ! एवमुच्यते--रम्यकं वर्ष २? , गौतम ! रम्यक
वर्ष ; रम्यते--क्रीड्यते नानाकर्पदमैः खरमणिखचितैश्च
तैस्तैः प्रदेशरतिरमणीयतया रतिविषयतां नीयते इति रम्यं
रम्थमेव रम्यकं रमणीय च त्रीरायेकार्थिकानि रम्यतातिश- |
यप्रतिपादकानि, रम्यकश्चात्र दवो यावत् परिवसति तन
तद् रम्यकामात व्यवाहयत | ज० ४ वत्तः | स्थरा । रम्यक
१२२
७ ठा०।
रय-रज-पुं० । सच्मधूलीरूपे ,
आकाशवर्तिनि ( स० ३४ सम० ) सछच्णतरे रणपुद्भले, जी ०
३ प्रति० ४ अधि० । ते० | औ० । पृथ्वीकाय, नि० चू० १६
उ० । मले, ओं० । आ०. चू० । जीवस्वरूपापर ञ्जनाद्रज
इव रजः । कम्मांण, स्था० ५ ठा० २ उ० | घ० । अघर ।
आ० म० | विशे० | सूत्र० । बद्धशधमान कम्मणि , आव०
३ अ० । वद्धय्यममानक कम्म रजा भरायत । ने०।
रत-त्रि० सक्के, आ० चू० ९ अ० । विश० । ओ० । स्था० ।
मेथुनक्री डित, स० ६ सम० । व्यवस्थित, सूत्र० १ श्रु० १०
अ० । स्प्रीभिः सह निधुवन, ध० २ अधि० । स्था० । “र-
मियमोहरयाई "` इति नाममालावचनात् । जीण ३ प्रति°
४ आधि० ।
रय-पुं० । वेगे, श्रौ० । श्राव |
रयअ-रजक-पुँं० । ( धोवी ) इति ख्याते वख्रमलहारके मनु-
ष्यजाति विशेष, ““ सोज्कओ रयश्रा ” पाइ० ना० २३७
गाथा |
दशा० ७ अ० । वातोत्खाते
| रयउज्ञोय- रजउद्योत- पु” । रजस्वलादिके, अचु० ।
कृतस्तत्र तुख्यक्तेत्रस्थितिकत्वे हेतुः + |
रयंत-रदत्- ० । रद विलखन, शत्० । उत्पाटन, त०।
रयंधकार रजोऽन्धकार -पुं० । रेणोः यो रयो वगः तेनान्धका-
रः ।रणवगेनान्धकारे , प्रश्न २ आश्र० द्वार ।
रयग-रजक-पु० । स्रा० । वस्त्रप्रच्तालक, व्य० दे उ०।
रयण -रत्न-न० । ककेतनादौ रत्नविशेषे, रा० । श्रा० म० ।
स० । ज्ञा० । प्रशन० । दशी । स्वृ भर० । संथा० ।
जी० । करटप० । भ० । ज्ञा० । श्रौ० । चं० प्र०। र-
त्नानि द्विविधानि-द्रव्यरत्नानि, भावरत्नानि च । तत्र मर-
कतवज्न्द्रनीलवैडयादीनि द्रव्यरत्नानि , , खुखमधिछृत्य
तषामनेक। न्तिकन्वादनाव्यन्तिकत्वाच्च भावरत्नानि। श्रा०
म० १ ० । स्था०।(' भरह ' शब्दे पञ्चमभागे १४६३
पृष्ठे विस्तरः )
धुना रत्नविभागमाद-
रयणाणि चउव्वीसं, सुवष्यतउतंबरययलोहाई ।
सीसगहिरष्पपासा-ण-बहरमणिमेत्तिश्रपवालं।। २५४ ॥
संखो तिणिसाऽगुरुच -दण!णि वत्थामिलाणि कट्ठाणि ।
तह चम्मदंतवाला, गंधा दव्वोसहाई च॥ २५५॥
रत्नानि चतुर्विंशतिः , खुबरणंत्रपुताम्र रजतलोहानि सीस-
कटिररायपापाणवज्रमणिमोक्रिकश्रवालानि। सङ्खतिनिशा-
गरूचन्दनानि वस्प्रामिलानि काष्ठानि तथा चर्मदन्तवाला
गन्ता द्वव्योषधानि च । पतान्यपि प्राया लोकिकसिद्धान्य-
नै,
६ )
रपण अखभिधानराजन्द्र
व नवरं रजतं-रूप्यम् , दिररये-रूपकादि पायाणा-विजा- | रयणदीवदे वया -रत्नद्रीपदेवता-खी० ।
्यरत्नानि मणया--जात्यानि तिनिशा बृत्तविशधः श्र- | देवतायाम् , ज्ञा० १ श्रु० ६ श्र०।
मिलानि-ऊणावख्राणि काष्टानि श्रीपरयादिफलकादीनि च =
माणि सहादीनां +) [ वा उव । रयणदोससिरि | ५११९११९ पुरणयर- रत्नदा
माणि सिंहादीनां, दन्ता गजादीनां. वालाः चमयांदीनां, द- | भरतक्षत्र जम्बूद्वीप सिहलद्वी भ सि ६
उ्योषधानि-पिप्पल्यादीनि इति शाथाह्याथेः। दश०६श्र०३ | "न हि
नक्ष्य प 52१6:2% 5३ | यञ चन्द्रगुप्ता राज़ा तस्य चन्द्रलखा भाया | ती० €
बज; ( मानुषत्वदाल+ जज जाल यी रयणपुर-रत्रपुर-पुं० | मालवदेशप्रसिद्धे नगरे,अखु०॥(
स्मिन्नव भाग २४७ पृष्ठ गतः ) ( चाक्रिण: चतुर्देश रत्नानि
^ चककवष्ट ` शब्द ततीयभाग ११०२ पुछ्ठे रश्यानि ) स्व- पढालपुक्त शब्दे पञ्चमभागे १०८० पृष्ठे विस्तरतो ज || +
जातीयमध्य समुत्कर्षवाति वस्तुनि, स० १५ सम० । स्था०। रयणप्पभघ्ररि रलप्रभखरि प° । बडगच्छीयदिगम्बरजतुरदव
रुच कपर्वतस्याञ्चिकाणीयकरट, द्वा ० । सुवप्रविजय राजधा- | स्ूरिशिष्यभद्रेश्वरसूरिशिष्य, स॒ च विक्रमसवत् १२३८ वषै `
। ।
न्याम् , खी० ! स्था० २ ठा० दे उ० | | श्रासीत् , तन च उपदेशमालारीका, रत्नाकरावतारिका ग्र `
रदन-न० । दन्त, “ दसणा रयणा दृता ' पाइ० ना० ११० | न्थञ्च उ्यराचषाताम् | ज० इ० । ॥ |
गाथा । रयशप्यभा-रत्नप्रभा- खी० । रत्नानि वज्धवैड्ूयोदीनि भभा ¦
| = ५ ।
व ४ : परथिवयाः घोडशवि- । स्वरूपे यस्यां सा । रत्नवडूलायां रत्नमय्यां गोत्रेण घर््मा `
पर --न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः षोडशवि ॥ &
रयशकड -रत्नकाएड नाम्न्यां नरकप्रथमपृथिव्याम् , प्रज्ा० १ पद । जी०। औ०
स० । विपा० । सू० प्र० । प्रव० । अनु० । स्था० ।
इमीसे णं रयणप्पभाते पुढवीए रयणे कंडे दस जोअण/ `
सयाई वाहइल्लेणं पण्णत्त, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए।
वइ ( तं ) रे कंड दस जोयणसयाई वाहल्नेणं पप्मत्ते ५ |
वेरुलिए लोहितक्खे मसारगच्ने हंसगब्भे पुलए सोर्गधिते `
प्पभाए पएस सव्वओ समेतातो भासति, उज्जोइतवतिप्प- जातत अजया र जायखूवे अके फलहे
भासति एवमेव ते विचित्त रयणकरंडगा सातिष्पभाए ते | व पर काता ता |
९ हा 9 ताति | " इमीसे ण ' मित्यादि, यय रज्जुरायामविष्कम्भाभ्यामशी `
पणय सव्वओ समता भासात, उज्ञावति तवति पगासाते। | तिखदखाधिकं योजनलक्षे बाहल्यतः उपरि मध्ये ऽघस्ताच्च गत
रा०। जी० | उत्त० । 8 „ । यूथाः खरकाणडपङ्बड्लकारडजलवदहुलकारडाभिधानाः क '
रयणकूड-रत्नकूट-न० । जम्बरूमन्द्रस्य उत्तर रुचकरपन्व- | भ्ण घोडशचतुरशीत्यशीतियोजनसहस्थ्वाहल्या विभागास्स `
तस्य प्रथमकूट, स्था० ८ ठा० ३ उ० । मानसात्तरपव्वतस्य | न्ति,'इमीस त्ति एतस्याः प्रत्यक्तासन्नायाः रानां प्रभा # `
गरुडस्य वरगुदरेवस्य निवासभूते कटे; स्था० ४ ठा० २उ०। | रत्नर्वा प्रभाति--शोभते या सा रत्नप्रभा तस्याः पृथिव्या, `
रयणशिकररासि--रत्ननिकरराशि- पु । रत्ननिकराणामु- भूमेयत्तत् खरकारड़ तत्षोड़शविधरत्नःत्मकत्त्वात् षोडश- `
च्दितसमूरे, कलप० १ अधि० ३ क्षण | | विधम्, तत्रयः प्रथमो भागो रलकाणडे नाम तदश योजनश।
रयणणिहाण--रत्ननिधान-पुं०। खरतरगच्छी यजिनचन्द्रस्. | १ बाहलयेन, सहस्ममेक स्थूलतयेत्यथः । भ
रिशिष्य, प० ब० ५ द्वार । पञ्चदशापि सूत्राणि वाच्यानि, नवरं परथमं सामान्यरत्ना- `
2 ४ हु त्मकं, शषारिण तद्धिशिषमयानि, चत॒देशानामतिदेशमाह-- `
रयणत्तय- रत्नव्रय--खी° | ज्ञानवरशनचारित्रत्रये, अष्ट” ८ पवमित्यादि, ' ' पूर्व ' मिति पूर्वाभिलापेन सवोरि वाच्याः
अष्ट० । ठ नि, ' वेरालिय ` त्ति वरैडूयकाणडम् , एवं लोहिताक्तकारडं
रयणत्थाल-रत्नस्थाल--न० । रत्नश्रतस्थाल, ज्य ० ६ उ०। मसारगज्ञकाराड दं सगभ्रकारडमेवं सर्वाणि , नवरं रजते
रयणत्थि-रत्नाधिन्-त्रि० । रत्नानि वेहूर्यादीनि तान्यथेय- रूप्यं जातरूपं खुबरशमेते अपि रत्ने पवेति । स्था० १० ठा० ३ |
न्तीत्येशीला ते रन्नार्भिनः। यद्वा-श्रश्रः-परयोजने विद्यते उ०। भीमस्य राक्षतन्द्रस्य अग्रम हेष्याम् , स्था०४ ठा०१ उ०।
थषां ते तथा रत्नार्थिनः । रत्नकामेषु, दर्श० २ तस््व। भ० । ( अस्याः सवौ वक्तव्यता ' णय ' शब्दे चतुर्थभागे
घरत्नमये प्रथमकाण्ड, स० ८ सम० । द
रयणकरंडग-रत्नकरणडक- पुं° । रत्नानां रक्षणपुटके, रा० । |
वद्वक्कव्यतामाष्ट-- |
तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दा चित्ता रयणकरंडगा |
पप्तत्ता से जहाशामए रष्यो चाउरंतचक्षवद्िस्स चित्ते |
रयणकरंडए वरुलिय मणी फालिह पडलपच्चोयड साए-
त > १६०६ पृष्ठे उक्ता)
रयणदीव--रत्नद्वी प--पु° । लवणसमुद्रमध्यगे स्वनामख्याते
द्वीपे, यत्र माकन्दीपुवौ तदधिष्ठाञ्या देवतया छलितौ , | म रत्नभूत- नि” । चिन्तारत्नादि सदृशे, भ० ६ श०।
जञा० १ श्रु० ६ अ० । महा० । क्ञाताधर्मकथाङ्गनवमाध्ययने | परिमि । |
रत्नद्वीपदवी मौलशरीरेण समुद्शोधनाथे गतेत्युक्षमस्ति परं रयणमणिभेय-रत्नमशिभेद्-पु° । । रत्नमशिभेव॒परिशाना55-
मोलशरीरेणान्यत्र गमने कथ सङ्गच्छते इति ? अन्न ज्ञाताम- | मक सप्तचत्वारिंशत्तमे ४७ खीकलाभेदे, करप० १ अधि० ७
| क्षण ।
ध्य रत्नद्वीपम ध्य दवी मौलशरीरेण समुद्रशाधनार्थ गता5-
इस्ति परं तस्याः मोलशरीरेण गमनप्रतिषधा ज्ञाता नास्तीति | रयणमाला रत्नमाला-खी° । रलत्नशेखरराजपालिते नगरे, ¦
। ५। ही० ३ प्रका० | | ^“ श्रीरत्नमालनगरे, राजाभूद्रत्नरेखरः । सोउनपत्यतया `
|
3 ब्रैषीचछाकुनिका न्याहि: ॥ ९ ॥ "' ती० ७ कल्प । सूत्र० |
शवर रत्नवती -खी० । पत्तदारिलकन्यायां ब्रह्मदत्तचकर-
शर्यायाम् , उत्त ० पाई० १३ श्र ० ।
[शवडंसय-रत्नावतंसक न° । ईशानकल्प
है; प्रश्ा० २ पद ।
` लवास-रत्नवास-5०। रत्नवरणारूपे वर्ष, भ० १५ श०।स्था०।
अशवाह -रत्नवाह- न° । अयोध्यासमीपे नागमहिते भ्रीध-
त्मना थावासरूपे पुरभेदे, ती० ४३ करप ।
पतत्कथा यथा--
। आओधम्मनाथमानम्य, रत्नवाहपुरे स्थितम् ।
तस्यैव पुररत्नस्य, कल्प किचिद् व्रवीम्यहम् ॥ ९ ॥
| अस्तीहेव जम्बुद्वीपे भारते बधे कोशलेषु जनपदेषु नाना-
। जातीयोच्चैस्तरशा स्विशाखावह लदुलकुसुमफलाच्छुन्नताचछा -
| दिधर्मघणिकरगहनवनमणिडतं शीतलविमलबडइलजलानिभः-
रधघध्ररनदवन्धुरं रत्नवाह नाम पुरम् ,तत्र चच्वाकुकुलप्रदीप
कनककान्तकायकान्तिः कूलिशलाञ्कितपादः पञ्चचत्वारिश- |
चपाच्छायकायः पञ्चदशतीथपतिविजयविमानदेवतीथ श्री
भाजुनरेन्द्रवेश्मनि सुव॒तादेवीकुक्तों तनयतया5वततार, क्रम- |
गुरुवितीरधम्मेनौमधया जननिष्कमणकेवलशानानि तत्र
व समाससाद, निवृतश्च सम्मतशिख्ररि शिखरे | तस्मिन्नव च
परे ज्ञननयनजनितरोत्यं श्री धम्मेना थचेत्य॑ नागकुमारदवा-
धिष्ठिते कालन निवृत्त.तत्र च नगरे कुम्भकार एकः स्वशिल्प-
| चेक आसीत् ,तस्य तनयस्तरुणिमानमधिगवय की डादुलाल
। ततया नवरामखीयकशालिनि चेत्ये श॒हादागत्या5<5गत्य
| स्वैरं द्युतादि तत्तत्काडाविधाभिश्िक्रीड, तत्रैका नागकु-
। भरः कलिप्रियतया ङतमायुषतनुस्तेन कुम्भकारदारकंण
। सार्ड प्रत्ये प्रववृते ऋीडितुम्। तत्पिका च स पुवः कुलऋ-
| मागतकुलालकर्मारयनिर्मिमाणः प्रतिदिन दुर्बाग्भिरूपालभे, |
। नच तद्धचनमसों प्रत्यपादि | ततः पित्रा गाढं प्रत्यहं बलादपि
|
|
रत्नमये ऽवतख-
खकम्माणि स॒त्खननायनादीनि कारयितुमुपक्रान्तः ।
अन्तरमबलोक्य पुनस्तच्चेत्ये गत्वा च्नन्तराऽन्तरा तथेव तेन |
नागकुमारेण साक खलितु लग्नः, पृष्टद्ध नागकुमारेण, कि
कारणे पूवैवन्निरन्तरं न क्रीडितुमायासि ? तनोक्तम्-जनकः |
कुप्यति मह्य, स्वकमनिर्माणमन्तरेख कथमिव जठरपिठर- |
विवरणमुपपद्यत इति । तदाकरयं दक्करकुमारो वाचमुवाच ।
यदव तहिं क्रीडान्ते भूपीटे बिलुप्तो भविष्याम्यहमहिमंत्
चुच्छे चतुरङ्गलमात्रं लोहेन म॒त्सखननापकररान चिच्वा-
त्वया ग्राह्य, तञ्च चारुचामीकरमये भविष्यति, तन देखा त- |
व कुटुम्बस्य व॒त्तिनिवांहो भविष्यतीति, सौहार्देनाभिद्दिते
स तथेव प्रतिदिवसं कर्त प्रवृत्त:, पितुश्च॒ तत्कनकमर्पयाति-
स्म,न च रदस्यमभिन्दत्। अन्यदा ऽतिनिवन्धं विधाय पूरछ-
ति सति पितरि भयाद्यथा ऽवस्थितमचकथत्। ततः सस्मि-
तेन विस्मितन जगद जनकेन, रे मूख ! चतुरङ्गुलमात्रमव कि
मिति छिनत्सि, बहुतर हि छिन्न भूरितरं भवति । तन भाण-
तम् ,तात! नातः समतिरिक्रमद छुतचचम॒त्सद परमसुहदेवताव-
चनातिक्रमप्रसङ्गात्. तत स्तज्जनकन लाभसेक्षोभाकु लितमन-
सा तस्मिस्तनये क्रीडार्थ चेत्यमुपेयुषि प्रच्छख्मनुववज, या- |
वत् प्रकीड्य धराणिपीटे विलुप्य स ॒पषश्ठगतामापन्नस्तावत्
कुम्भकारण वल प्रविशतस्तस्य वयुरद्धं कुदालिकया विचि- |
( ७८9 )
श्रभिधानराजेन्द्रः।
रयणसेहर सूरि
चिछदे ततः कापाटोपात्तन नागकुमारेण रे पापिष्ठ ! रहस्यभे
दं करिष्यतीति गाढं निर्भ॑त्स्य स दारको दष्टासम्पुटेन दष्टा
. व्यापदितः,पिता च ! रोषप्रकषौत्सकलान्यपि कुलालकुलानि
कालकबालितानि कृतानि । ततः भ्रश्चाति च न कञ्चन चक्रजीव-
नजातीयस्तन्र रज्लवाहपुरेऽद्यापि निवसतीति कौलालभारडा-
नि स्थानान्तरादेवानयति जनता, तत्न च तथैव नागमूर्तिप -
रिवारिता श्रीघम्मनाथपतिमा ऽद्यापि रूश्यगदष्यात्रिकज-
नैरनेकविधिप्रभावप्रभावनापुरस्सरं पूज्यते । अद्यापि च पर
समयिनो धर्मराज इति व्यपदिश्य कदाचिदवषति बषांसु
जलधरत्तीरघरसह सरे भगवन्तं श पयन्ति; सम्पद्यत च तत्-
चकणाद्विशिष्टा मेघदृष्टिः । कन्द्पां शासनदेवी, किन्नर श्च शा-
सनयः श्रीधम्मनाधापादपद्यसवाहेवाकचखरीकाणामनर्थ-
प्रतिघातमथेप्राप्ति चाज सूत्रयतीति ।
इतिश्रीरत्नवाहस्य, ्रीजिनघ्रभसूरिभिः।
कर्पः रतो रत्नपुरा-ख्यपुरस्य यथाश्रुतम॥१॥सी०१६करुप।
| रगणविचित्त-रत्नविचित्र-जि० । रत्नखचिते, आ० म०रश्र०।
| रयणसकडक्ड-रलसङ्कटोत्कट न । रत्नसङ्कट उत्कृष्टवस्तु-
नि, भ० £ श० ३३ उ०।
| रयणसंचय-रत्नसञ्चय- प° । रत्नपुरवास्तव्ये रत्नगुणसा-
गरपितरि खुमङ्गलापतो, घ०। र० २ श्रधि० ।
रयणशसंचया-रत्नसंचया- खी ० । उत्तरपाश्चमे रलतिकरपर््वते
उत्तरस्यां दिशि ईशानेन्द्रस्य देवस्य वसुन्धरानामिकाया श्र-
ग्रमाहिष्यां राजधान्याम् , जी० ३ प्रति ४ अधि०। द्वी०। ती०।
स्था० । ज० । सुवध्रविजयराजधान्याम् , खरी° | स्था० !
दो रयणसंचयाओ । स्था० २ ठा० ३ उ०।
रयणशसचयाकूड- रत्नसञ्चयाकुट-पु०। न० । जम्बूद्वाप भरारू
सर रुचकपवते चतुथ कूट, स्था० ८ ठा० ३ उ०।
| रयणसार-रत्नसार- प° । सिहपुरराजे मदनरेस्वापतों स्वना
मख्याते राजनि, सद्बा० १ श्रधि० १ प्रस्ता० । स्था०।
रयणसिरि- रत्नश्री-खी० ० ्रमलकल्पायां नगयां रत्निनो
गरहपतेभायीयां रत्नायाः अग्ममहिष्याः पूवैभवमातरि,ज्ञा० २
० १ वगे ४ आअ०।
रयणसीहसूरि-रत्नसिंहस्ूरि-एँ० । तपागच्छीये सैद्धान्तिक-
मुनिचन्द्रसूरिशिष्ये, पुदूगलपदर्त्रिशिका-निगो दघट्जिंशिका-
दिय्रन्थानां कर्ता स श्राचार्यः विक्रमसंवत् १२०० वर्ष वि-
दयमान श्रासीत् । जै० इ०।
रयणसेहरसरि-रत्नशेखरसूरि-पुं ० । तपागच्छी यमुनिसुन्दर-
सारशिष्य , तस्य जन्मविक्रमसंवत् १७५७, दीक्षाग्राप्तिसिवत
१४६३, परिडतपदप्राप्तिलवत् १४८३, वाचक पद् प्राप्तिसवत्
१४६३, सूरिपद्संवतू १५०२ स्वगनिसरवत् १५१७ ।
भ्राद्धप्रतिकमणवृक्ति:,श्राद्धविधिवरत्तिः, आचारप्रदीपः, ल-
घुचत्रसमासश्चति ग्रन्थाः अनन रचिताः । द्वितीयश्च रत्न-
शेखरसूरिः नागपुसीयतपागच्छीयहेमतिलकस्ूरिशिष्यः वि-
श्रमसवत्सर १४२०विद्यमान आसीत् , श्रीपालचरित्रगुणस्था-
नक्रमारोहणादनेकग्रन्थानामयं कर्ता । फीगाजशादतुवलक
नास्नो दिल्लीपतरय मानपात्रश्चासीत् | जे० ६० ।
= च, /
( ४चच ) शर
रयणा छभिधानराजन्द्रः। श्यणावलि
रयणा-रत्ना-ख्री० । उत्तरकुरुपश्चिम रतिकरपव्वते पूर्वस्यां | आभरणविशेषे , रा० | विश०। रा०। तपोविशेषे , च।
दिशि इंशानेन्द्रस्य देवस्य रत्नवसु नामिकाया अग्ममहिष्या: | भ्रव०।
राजधान्याम् , जी० ३ प्रति० ४ अधि० । स्था० । । ती०। | रत्नावलीतपः स्वरूपमाह--
रयणाइच्च-रत्नादित्य-पएु० । अणदविलपट्टनराजे चौलुक्यवं- इग दु ति काहलियासु, दाडिमपुष्फेसु हुंति अट्डतिगा।
शीये चृपभदे, ती २५ कल्प । | _ | एगाइसोलसंता, सरियाजुयलम्मि उववासो ॥१५३६॥ |
रयणागर रत्नाकर ` पुं° । माणिक्योत्पादनस्थान, समुद्र च । | अतम्मि तस्स पयगं, तत्थं कट्टाणमेकमह पंच । + ॥
० १ ० | बृ० । ज्ञा० । उत्त० । प्रष्न० । गवषरा- (20० अब ।
आमदा शाम रस गुरो एकदा पोतनपुरस- 4 ४ पणतिजिकं ततु पद डा, । ११४ ।
मवखते सूरो, पि० । पारणदिणअट्टासी, पडिचउकमे वरिसपणगं ।
रयणागरसरि-रत्नाकरसरि-पुं० । देवप्रभसरिशिष्ये, येन | नव मासा अद्टारस,दिणाणि रयणावललितवम्मि।१५४१।
विक्रमसवत् १३०८ रत्नाकरपओ्चाजशिका न।म श्रात्मनिन्दा- | रत्नावली-आभरणविशेषः, रत्नावलीव रत्नावली, यथा हि
ग्रतिपादको ग्रन्थो लिखितः । जे० इ० । रत्नावली उभयत आदिसृच्मस्थू लस्थू लतराविभागकाह लिका-
रयणायर रत्नाकर-पुं० । समुद्र, “मयरदरो सिंघुबई सिधू | च्यसावणावयवद्धययुक्ता, तदनु दाडिमपुष्पोभयोपशोभिता,
रयणायरो सलिलरासी । ” पाइ० ना० ८ गाथा । तताऽपि सरलसरिकायुगलशालिनी, पुनमंध्यदेश खु्छिषट-
4 ५ . | पदकसमलंकृता च भवति, एवं यत्तपः पट्रादाबुपदशमा-
ए ध । स्याद्वादरत्नाकरटी दप
रयणावतारिया सा स््री० । स्याद्वादरः | नमिममाकारं धारयति,तद्वत्नावलीत्युच्यते। तजैककद्विकत्रि
कायाम् , रत्ना
002 > लाकर 353 2 का उत्तराधक्रमेण काहलिकयोः स्थाप्या भवान्ति। तदनु दयो-
६ म तमाम ताच्रा डली । रपि दाडिमपुष्पयोः प्रत्यकमष्टौ जिकाः, ते चोभयतो रेखा-
4 2 5
हर यः स्थाप्यन्त । ततश्चाघाऽघः सारकायुगले एकादयः षोड-
अत्यक्तं विबुधानां, जयन्त ते देवसूरया नव्याः ॥ २॥ शान्ताः स्थाप्याः, तस्य च सरिकायुगलस्यान्ते पन्ते पद-
स्याद्वादमुद्रामपनिद्रभक्त्या हि ~ व कप
स्य क मिलने वर कं पङ्कयटकन चतुखिशादङ्कस्थानानि कोष्ठका इत्यथः ।
शा म् तत्र प्रथमायां पङ्कावकमङ्स्थान, द्वितीयस्यां पञ्च, ठृतीय-
न शा चुग्रतस्य » ¢ स्यां सप्त, चतुथ्यामपि सप्त, पञ्चम्यां पञ्च, षष्ठधामपि च
न ५ तराः ५ [3 (क ष
„ सा श्रास्तद्न्यस्य पुनः स दण्डः ॥ व ष पञ्च, सप्तम्यां जीण, अष्टम्यां त्वकमवाङ्कस्थानम् । तषु च-
इद दिं लक्ष्यमाणा5क्षादीयोथांक्षणाक्षरक्तीरनिरन्तरे, तत तुस्लिशत्यपि कोष्ठकेषु जिकरचना जिकाः स्थाप्यन्ते इति भा-
इतो दश्यमानस्याद्वादमदामुद्रामुदितानिद्रभमेयसह स्रो चङ्ग- बः । इदमव तात्पय--रत्नावलीतपासि प्रथममेकसपवासे क-
तङ्गसरङ्गभाङ्गसङ्खसाभाग्यभाजन, अतलफलभर श्राजिष्णु भू-
3 ' हम राति, ततो द्धौ, ततसख्रीन् , इत्यका काहलिका । अन्तरा च
यिष्ठागमा ऽभिरामात्च्छपरिच्चेदसन्दादशादइलासन्नकानन -
हक 2 हर सर्वत्र पारणकं वाच्यम्,तताऽष्टावष्रमान्युपवासत्रिकत्रिकात्म-
निकुओे, निरुपममनीपामहापानपाजव्यापारपरायणपूरूषप्रा - | कानि करोति । पतेः {किल काहलिकाया अधस्तादाडिमपुष्प
प्यमाणाप्राप्तपूर्व रत्नावशेष, क्वचन वचनरचनानवद्यगद्यप-
५4 व | निष्पद्यते | ततश्रैकमुपवासं करोति, तताऽपि दौ, ततखी-
रम्पराम्रवालजालजटिल, क्वचन खुकुमारकान्तालोकनीया- | न् , ततोऽपि चतुरः, इयेवं पञ्च षट् सक्ता्टौ नव दशैकादश
स्ताकम्छोकमोक्िकप्रकरकरम्बिते, क्वचिदनेकान्तवादो पकः- |
द्वादश ्रयादश चतु्देश पञ्चदश पोडशोपवासान् करोति ।
रानकतीधिकनक्रचक्रचक्रवाले , क्वचिदपगताशषदोषानु-
शद॒ष्टमानि करोति । पतैः किल पदक सम्पद्यते । ततः
मानाभिधानोद्तमानासमानपाटीनपच्चच्छराऽच्छोटनाच्च- | पाडशोपवासान् करोति, ततः पञ्चदश, ततश्चतुर्दश, इत्य-
` लद॒तुच्छशीकरश्छेष संजायमानमार्तरडमण्डलप्रचरडच्छुम-- | वमेकैकहान्या लावन्नयै यावदेक उपवासः । एषा द्वितीया
त्कार, क्वापि तीर्थिकग्रन्थग्रान्थिसा थैसमर्थकद्थनो पस्थापि
सरिका भवति । ततश्राश्टापष्टमानि कराति । एतेर्रप द्विः
ताथानर्वास्थतग्रदीपायमानसवमानज्वलर्न्मीणफरीन्द्रभीष - | तीयं दाडमपुष्पं निष्पद्यते । ततस्त्रीनुपवासान् करोति,
श, सहृदयसैद्धान्तिकतार्किकवैयाकरणकविचक्रचक्रवर्तिखु- , ततो दौ, ततः एकसुपवास करोति । पतेदधितीया कादलि-
विहितखग्रद्दी तन!मधयास्मद्गुरुश्रीदेवर्सारिभिर्विरचिते स्या-
रा का निष्पद्यत । एवं सति + रेपूणो रज्ञावली सिद्धा भवति ।
वाद्रत्नाकर न खलु कातपयतकंभाषातीथमजानन्तो5पाठी- | अस्मिन् रत्नावलीतर्पाः काहलिक(यास्तपोदिनानि १२,
ना श्रधीवराश्च प्रवेष्टं प्रभविष्णवः; इत्यतस्तपामवतारद्शन |
कर्तुमजुरूपम् । तश्च सत्तेपतः शास्त्रशरी त दाडिमपुष्पयोः पाडशभिरष्मेर्दिनानि ४८ । सरिकायुगले
. < ९ गरपर न्त्रस = ङ.
क शाप्रश रपरामशमन्तरण ना- | द्वाभ्यां पोडशसङ्कलनाभ्यां दिनानि २७२ । पदके चतुखि-
पपद्यत । साऽपि समासतः सूत्राभिधयावधारण बिना न; स ५ ठे के
इरि शवं लत शना्मेर्दिनानि १०२ | सर्वैकत्वे चत्वारि शतानि चतुर्खि-
(त॒ प्रसाणनयतत्वालाकाख्य-तत्खृः थमात्रप्रकाशनपरा
वा कै शदुत्तराणि, अष्टाशीतिश्व पारणकदिनानि , उभयमीलने
हे; {८६४ नाम्ना लधायसा टाका प्रकराक्रयते। | पञ्च शतानि द्वाविशव्युत्तराणि । पिणिडितास्तु वरमेकं, मा-
रत्ना० १ पार०।
~ „_ , _ | साः पञ्च, दिनानि च द्वादश । इदमपि च तपः पूर्ववच्च-
श्यणावलि(ली)-रत्नावली-खी० । रत्ममयमरिफास्मिके- तसूमिः परिपारिभिः समर्थ्यते । ततश्चतृभिरगुणने वर्षाणि'
इन हू
५ त नः वहि =
क --.-की "नमन नन-++य
रयणावलि
(0 ४ 8
अ्भिषधानराजन्द्र: ।
रथलावालि
पञ्च, मासा नव, अष्टादश च दिनानीति । प्रव० २७१ द्वार । |
५४ तथा च सूबम-- |
प [२ चउत्थं करेति चउत्थ करेत्ता
[३३ [३] सच्वकामगुशियं पारेति | सब्व- |
। ३ ३|० |३ | कामगुशियं पारेत्ता छट्टं करेति, |
स | ° (= | कामगुणियं पारेत्ता छई करति,
३।३|३ | [| चं करेत्ता सव्वकामगुणियं पा-
रेति । सव्वकामगुणियं परेता,
अट्टम करेति अटूमं करेत्ता स-
व्वकामगुणियं पारेति । सव्वका- |
मगुणियं पारेत्ता अद्र उड़ाई क-
रेति, अट छट्टाई करत्ता सव्वका- |
मगुशियं पारेति | सव्वकामगुणि-
ये परेत्ता, चरत्थं करति, चउ-
त्थं करत्ता सव्वकामगुणियं पा- |
रेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता
उदं करति, उड करेत्ता सव्व-
कामगुशियं पारेति । सनव्वकाम- |
गुशियं पारत्ता अटरमं करेति, अ- |
डमं कर्ता सव्वकामगुणियं पा-
रेति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता
दसमं करेति , दसमं करेत्ता ,
सव्वकामगुशियं पारेति । सव्व-
कामगुणियं पारेत्ता दुवाल- |
समे करेति, दुवालसमं करेत्ता सव्वकामगुशियं पा- |
रेति । सव्वकामगुियं पारेत्ता चोदसमे करेति, चो-
इसमं करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति । सव्वकामगु-
णिय॑ पारेत्ता सोलसमं करेति,सोलसमं कर्ता सव्वकामगु-
शियं परेति । सव्वकामगुशियं पारेत्ता अद्रारसमं करे-
ति, अद्रारसमं करेत्ता सव्वरकामगुशियं पारेति | सव्वकाम
गुशिये पोरेत्ता वीसइम करेति, वीसहमं करेत्ता सव्व- |
कामगुशियं पारेति | सव्वकामंगुरियं पारेत्ता बावीसई- |
में करेति, बावीसइम करेचा सव्वकामगुणियं पारे- |
ति । सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउवीसइमं करेति, चउ-
बीसहम करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणि-
ये परेत्त। छव्वीसहमं करेति, छव्वीसइम करेत्ता सव्वका-
मगुशियं परेति | सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट वीसहमं करे-
ति,अट्टावीसइमं करेला सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकाम-
गुशियं परेत्ता तीसइम करेति, तीसदमं करेत्ता सव्वका-
वनि भोति । सब्वकामगुणियं पारेत्ता बत्तीसदमं करे-
(4
(क 4277
५५८
^ |> = = 2 "ज 7 < = ५ ५ =|५ [न ४|
नमगममि
ति । बत्तीसहमं करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति । सव्वका-
मगुशिय पारेत्ता चोत्तीसइमं करेति, चोत्तीसदमं करेत्ता
सव्वकामगुशियं परेति | सच्वकामगुियं पारेत्ता चोत्ती-
से छट्ठाई करेति, चोत्तीस छट्ठाई करेत्ता सव्वकामगुणियं
परेति । सव्वकामगुणियं पित्ता चोत्तीस करेति, चोत्तीस
करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति | सव्वकामगुशियं पारेत्ता
बत्तीस करेति, बत्तीस करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति ।
सव्बरकामगुशियं पारेत्ता तीस करेति, तीसं करेत्ता
सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं पएरत्ता अ-
ट्वावीसं करेति , अद्रावीसं करेत्ता सव्वकामगुशियं--
पारेति । सव्वकामगुणियं पोरेत्ता छव्वीस करेति,
छव्वीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं परेति | सव्वकामगुणियं
परेत्ता चउवीसं करेति, चउवीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं
ये पारेति | सव्व्रकामगुणियं पारेत्ता बावीसं करेति, बावी-
से करेत्ता सव्वकामगुणिय परेति | सव्वकामगुणियं पारे-
त्ता वीस करेति, वीस करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति ।
| सव्वकामगुणियं परा अडारसं करेति, अड्वारसं करेत्ता
सव्वकामगुणियं पारेति । सव्वकामगुशियं पर्ता सोलसमं
करेति, सोलसम कर्ता सव्वकामगुणियं परेति । सव्वका-
मगुशियं पारेत्ता चोदसम करेति, चोदसमं करेत्ता सव्व-
कामगुणियं पारेति । सव्वकामगुशियं पारेत्ता बारसमं करे-
ति, बारसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति | सव्वकामग-
शियं पारे्ता दसमं करेति, दयम करेत्ता सव्वकामगशियं
पारेति । सव्वकामगुशियं पारेत्ता अद्म करेति, अद्म
करेत्ता सव्वकामगुशियं पारेति | सव्वकामगुशियं पारेत्ता
छट करेति, छट्ठं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सब्ब-
कामगुशियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थ करेत्ता सव्व-
कामगुणियं पारेति । सव्वकामगुणियं परेत्ता अड छट्ठाई
करेति, अद्र छट्टाई कर्ता सव्वकामगणियं पारेति । सव्व
कामगुशियं पारेत्ता दुमे करेति, अमई करेत्ता सव्वकाम
गाशेयं पारेति | सव्वकामगुशियं परेता अड्टावीर्स करे-
ति, अद्गावीस करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति । सन्वकाम्-
गुशियं परेत्ता चउत्थ करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकाम-
गुणिय परेति । एवं खलु एसा रयणावलीए तवोकम्म-
स्स पढमा परिवाडी । एगेणं संवच्छररेणं तिहि मासेहिं
ब्रावीसाए य अहोरत्तेहिं अहासुत्ता ०जाव आरा--
हिया भवति । तदाणंतर च शं दोच्चाएं परिवाडीए
चउत्थ करेति, विगतिवज्ज पारेति । विगतिवज्ज परेत्ता
छुं करेति छद्रं करेत्ता विगतिवज्जं पारेति । एवं
जहा प्रदमाणए वि नवरं सत्त्रपारणते विगतिवज्जं परेति
( ४६० )
थआमभधानराजन्द्र:ः
रयणावलि
जावर आराहिया भवति! तया5शंतरं च णं तच्चाए परि- |
वाडाए चउत्थ करांत चउत्थ करंत्ता अलवाड वारात।
सेमं तहेव, एवं चउत्था परिवार्डी नवरं सव्यपारणते आ- |
यविलं पारेति । समं तं चव “ पठमम्पि सव्वकामं, पार- |
णयं बितियते विगतिवर्ज । ततियम्मि अलवाड, आयं
बिलमो चरउत्थम्मि।। १ !! ” अन्त ८ वग १अ०।
रयणावलिमहावर रन्नावलिमहा वर - पुं” । रत्नावलिवरस- ।
चाध ¦
, श
रसणावालवर - रत्नावालरर -पु०
च । तज द्वीप रत्नाचालिवरभद्र -रत्नावलिवर्सहाभद्रों स- |
म॒द्रो, रत्नावलिचर-र त्नावलिसहावरो दवो । जी० ३ प्रति०
2 आधि० |
मुद्रदव, जी ३ प्रति० ४
। स्वनामख्याते द्वीपे, समद्र
रयणावलिवर भद्द -रत्नावलिवर भद्र॒ _एँ०_। स्वनामख्याते र-
त्नावलिवरदीपाधिपतों दव. जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
रयगावलिवरमहाभद रत्नावलिवरसहाभद्र पृ । रत्नावाल- |
वरमहाभद्रद्वीपाधिपतो दव. जी० ३ प्राति ४ अधि० ।
रयणावलियराभ।स रत्नावलिवरावभास पु । स्वनामख्या- |
त द्वीप, समद्रच। त द्वीप रल्नावलिवरावभासरत्ना-
वलिवरावभासमहाभद्रों देवो, जी० ३ प्राति० ४ अधि० ।
रयणावलिवराभासवर रत्नावलिवरावभासवर-छु? | रत्ना- ।
चलिवरावभासस्मुद्दव. जी० ३ प्रति० ४ अधि० । |
रयणावहसत्थवाह - रल्नावहसाथवाह -पु° । रत्नवताभत्तार |
स्वनामख्यात श्राष्टिनि, दर्श० २ तत्त्व ।
रयणाहिय-र॑त्नाधिक - पुं । पर्यायज्यष्ट, आब० रे अ० ।
रयणि-रजनि खी? । रात्रो, आ० म० १ अ० | ही० । उत्त०। |
रत्नि- पुं | खी °! हस्तपारिमाण, जी०१ प्रति० । नि० चू० ।
भ० । `` चउत्वीसश्चगुलाद् रयणी ` | भ० ६ श० ७ उ०।
रयशिअ (ग ) २-रजनिकर पुं । निशाकर , आ० चू
१ आ०। सू०प्र० | ओ० | नि । रा०। आ० म० | ज्ञा० । “ स्व-
रस्यादव॒त्त” ॥ ८।१।८॥ इति सन्धिन | रयणिअरो | प्रा० ।
रमशिणाह-रजनिनाथ-पुँं० । चन्द्रमसि , “ इंदू निसा
यरा सस-हरा विह गहवइ रयशणिणाहा। `` पाइ० ना०
५ गाथा ।
रयशिद्धय-देशी-कुमद, दे० ना० ७ वर्ग ४ गाथा ।
रयशिविराम- रजनिविराम-पुं० । प्रातःकाले, “ गोसो रय-
शणिविरामो, ग्णसग्गेः दिसं च पच्चुसो `` । पाइ० ना०
४८६ गाश्रा।
रयणी रजनी खी ° । इशानन्द्रलोकृपालसोमराजस्याभत्रमाहे- |
ष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ०। भ०। चरमासुरन्द्रस्याग्रम-
दिष्याम् , स्था० ५ ठा० १ उ०। ( अस्याः पूर्वात्तरमवकथा
“ अग्गमहिसी ` शब्दे प्रथमभागे १६७ पृष्ठ उक्ता ) षडजग्रा-
मस्य चतुशमुच्छेनायाम् , स्था० ७ ठा० २ उ० | निशायाम् , |
रयणी विहावरी स-व्वरी निसा जामिणी राई ” पाइ०
ना० ४७ गाथा ।
रत्नि-पुं० । खौ० । दस्त, जे°
हन्थो" पाइ० ना० २६० गाथा ।
रयणीपच्चक्खाण-रजनी प्रत्याख्यान -न० । रात्रिभाजन--
विरमण, “रय णा पञच्चक्खाणस्स, तीरणरूवः सिहा समुदिट्धा ।
नवकारण समया, नवकारणवच्चचूला वा ` ॥२५॥ ल० भ्र° ।
रयणुच्चयकूड- रत्नाच्चयकूट-छ8० । मानसोत्तरपव्व॑तस्य
क्षणस्य गरुडस्य वलम्बसुखदमित्यपरनामकवेलम्बस्य
चाय॒कुमारन्द्रस्य निवासभूते कूट, स्था० ४ ठा० २ उ०।
जम्बूद्वाप मन्दरस्यात्तर स्चकरपत्वत द्वताय कुट, स्था० ८
खा०।
रयणशोच्य-रत्नोच्चय-पुं० | रत्नानां नानाविधानामुल्याव-
स्यन चयः उपच्रया यत्र स रलाञ्चयः । मन्द्र, ज० ४
वत्त | स०।
मन्दर १ मेरु २ मणोरम ३ ,
सुदंसण ७ सयपभे अ ५ गिरिराया ६ ।
रयणो { णु ) च्चय ७ सिलोच्चय ८,
मज्के लोगस्स & णाभी य १०.॥ १॥
अच्छे अ ११ सारिआवत्ते १ २,सारिआवरणे १३ त्तिअ।
उत्तम १४ अ दिसादी अ१ ५, बडंसति १६ अ सोलसे।।२॥
जं० ४ वक्ष० |
( ` गिरिराय ` शब्दे तृतीयभागे ८७६ पृष्टे व्याख्या गता )
रत्नाच्चयस्याच्चत्वादि ` मन्दर ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भाग २६
पृष्ठ गतम् ) ( श्रत्र भद्रसालवनवक्कव्यता ` भदसालवण `
शब्द ऽस्मिन्नव भागे १३७३ पृष्ठ गता )
रयणोच्चया-रत्नोच्चया-खी० ० । उत्तरपाश्चात्यरतिकरपर्व-
तस्य दत्तिणस्यां वसुगुप्तायाः ईशानाग्रमहिष्या: राजधा-
न्याम् , स्था० ४ ठा० २ उ० | ती०।
२ वत्त० | अनु० । “ गयी
' रयणारुजालय रत्नोरुजालक- न° ! रत्न सम्बन्धि ऊर्वोबरह-
जङ्गया जालकम् । उरः प्रदेशे लम्बमाने रत्नमय जालके, प्रश्च°
४ सव० द्वार ।
रय(ता)त्ताण-रजख्लाशु-न० । पात्रावेष्टनके,वर० ३ उ० । ज्ञा०।
प्रव० ।
इदानी रजखाणमाह--
माण तु रयत्ताणे, भायणपमोंणेण होइ निष्फन्नं ।
पायाहिणं करंतं, मज्के चरउरंगुलं कमई ॥ ५११-॥
मान तु-प्रमाणं रजस्त्राण-रजस्त्राणविषयं भाजनप्रमाणेन
भवति निष्पन्न, तच्चेव॑ वदितव्यमित्याह-प्रादक्षिए्यं कुर्वन्
पात्रस्य मध्य चतुरङ्गुलमिति चत्वायङ्गलानि यावत् क्राम-
त्यधिकं तिष्टति । एतदुक्ल भवति-पात्रकानुरूपं रजख्रारी
कर्तव्यम् । कि बहुना ? ति्यकृप्रदत्तिणाक्रमेण भाजने
वेष्रथमाने भाजनस्य मध्यभागो यथा चतुर्भिरङ्कले रज-
~ कन
ख्राणैनीतिकम्यते, तथा रजश्पाणं विधेयं कार्य वा । प्रयोजन
रव(लोत्ताण
|
|
|
|
( ४६१ )
00. अशभिधानराजन्द्रः | रस
चास्य मूषकभक्षणरेखत्करवर्षादकावश्यायसचित्तपृथिवी- | रव - रव - पुं० । नादितरूप शब्दे, जौ० । स्था० । विपा० ।
कायाऽभद्सरत्तणम् । उक्त स मुसगरय॒श्राकर, चासा- रव-रू-धा० । शब्दे “रुते सञ्ज रुरौ '' ॥ ८।५। ५७ ॥ इति स्त,
सिल्हारपयररक््खट्टा । हाति गुणा रयताण, एवे भाणय | रुज्जररटादेशाभावे । भ्रा० | “ उवस्यावः”' ॥ ८। ४।२३३॥
जिर्णिदेहि ॥ १॥ ”' प्रव० ६१ द्वार । | इति उवणैस्यावादेशः । रवइ । रौति | प्रा० । “ रवं अलसे
रयतामयकूल ` रजतमयकूल-न० । रूप्यमय कूले, जी० रे कलमजुल '" पाइ० ना० २०४ गाथा ।
| प्रति० ४ अधि० । रवअ-देशी-मन्थान, दे० ना० ७ वर्ग ३ गाथा |
रयमल-रजोमल -पुं० । रज इव रजः । मल इव मलः । सक्रम- | रवश-रुवत -त्रि० । रव कुर्वति, ज्ञा० १ श्रु० १ आ०।
मणोद्वत्तनापवत्तेनादियोग्ये निधत्तनिकाचितावस्थे कर्मणि, | रवण्य -रम्य-तरि०। “शीघ्रादीनां वदिल्लादयः'' ॥ ८। ५।४२२॥
| भ २० | इति सृत्रण सृत्रान्तरपटितस्य रम्यस्य स्थान रवराणादेशः ।
। रयय-रजत- न° । जातरूप रॉप्ये, ज्ञा० ९ श्रु० = । अनु०। | « सरिहिं न सरेहि न सरचरेदधि, नवि उज्जाण वटि । देस-
| ज्ञा० | स्था० | दश० | आऔ० | रा० | प्र्न० | ध०। कलहाअ | रवण्णा होति चद, निवसति“ सुवणं '' प्रा ४ पाद् ।
रुप्पय रयय ` पाइ० ना० ११६ गाथा । | रवि-रवि-पुं० | खयै, श्रकचृक्त च । प्रएन० २ आश्र० द्वार ।
रययकलस-रजतकलश- पु ।रूप्यघटे कर्प० ६ धि ०२ क्षण ।
रययकूड -रजतकूट-पुं०न० | म घमालिन्यावासभूते (स्था० ६
ठा० ३ उ० |) जम्बूद्वी पस्य पूर्व रुचकपव्वेत चतुर्थकूटे, स्था०
५६
श्रो०। “ रविकिरणतरुणवाटिय सद स्सपत्तसुरभितर्पिज-
रजले ” प्राकृतत्वाद्धिशिषणस्य परनिपातात् तरुणा नूतना
यो रविस्तस्य ग्रे किरणास्ते:'बोहिय' त्ति-बाधितानि यानि
जे 9७% ४ (3४ सहस्प्रपत्राणि महापद्मानि तेरत्यन्ते सुगन्धि पीतरक्तं च जल
रययमय-रजतमय- त्र० । रूप्याचकार, उपा० ७ अ० | रा०। | यस्य तत्तथा | कर्प” १ अ्धि० ३ क्षण ।
रययमयकूल-रजतमयक्रूल- ति° । रूप्यमय कृल,ज० १ वत्त०। . रविगय-रविगत- न° । य रविस्तिष्ठति तादशे नक्षत्रे, स्रा
रयय्महासेल-रजतमहाशैल-पुं० । रजतस्य रूप्यस्य महा- | में? १ ऋअ० । विशे० । नि० चू० । द^ प०। जीत ।
शला -पव्वतः । वेताढ्य, कल्प० ६ अधि० २ क्षण | भ०। ९" पा रविम
रययदहार-रजतदार- पं । रजतमये आआभरणविशषे, रजते रविभत्ता-रविभक्रा-खी० । श्रोषधमभदे, ती० ६ कल्प ।
| जातीयरूप्यं हारा मुक्लाहारः ताभ्यां सदशः । उत्त० ३४ श्र । | रविय-रुत--न० । शब्दायत, ज्ञा० १ श्रु० ६ श्र ०।
| रययागर-रजताकर पुं । रूप्यखनों, ओघ० । | खेहिइ-देशी--क्रियावाची । आद्वैतां नेष्यतीत्यर्थके, । “ हो-
रयरेणुविणासण -रजेरेणुविनाशन-न० । श्लक्णतरा रेणु- | ही से उगदबिन्दू , जे र तं मन्नग स्वहिइ । ” न०।
पुद्नला रजः, त एव स्थूला रेणवः रजांसि रेणवश्च रजोरेण- | रस-रस--पुं० । रसनेन्द्रियविषये, स्था० ।
वस्तषां विनाशनं रजोरेण॒ुविनाशनम् । जी० हे प्रति० ४ एगे रसे । ( घ्र ४७ )
| अधि० । वातोत्पाटितस्य व्योमवर्तिनो रजलः भूमिवर्सिपां- | रस्यते आस्वाद्यत इति रसः । स्था० १ ठा०।
= शे & च -= के 7] घर ^ ० #' भ
न न आम दुविहा रसा पछात्ता, तं जहा-अत्ता चेव, अणत्ता चेव।
>किस आह म्स र
` = श०३, थ ै । पाशुवरष्ठा, ` श्रासारो रयवुद्ढी | °जाव मणामा ८“:
रयसंसइहडा-रजःसंसृष्टहृता-स्त्री । पृथिवीरजःसम्बद्धानी- | रसा प्सता, तं जहा-तित्ता ०जाव महुरा। (स्रू० ३६ ध
तायां भिक्तायाम् , , आव० ४ अ०। स्था०५ ठा०१ उ० । रसः पञचधा-तत्र श्लेष्मना शङ त्तिङ्कः १वे-
रयदरण-रजोरहण-न० । बाह्या भ्यन्तरमलापहारके, नि० चू० शद्यच्छेदनक्॒त्कठुकः म अन्नरुचिस्तस्मनकृत्कषायः $ हे आश्र-
( वक्कव्यता रश्रादरण शब्दे ) नवरम्-शराद्धानां चरबलकभ्र- | वणङ्गदनकृदम्लः.४ हादनबृंहणझन्मघुरः४। स्था०५ ठा०९ उ० |
हरे “ बदप्पिश्चकरणे ' त्ति विना व्यक्तरीत्या कचिच्चृरार्या- | रस्यते चराखाचत दात गसः 46
दावभिष्ितं स्यात् तदा तान्यक्षराणि प्रसाद्यानीति परश्च , उ- | म्लमधुरभदात् पञ्चविधः | तत्र श्लेप्माद्दापहन्ता न्वा
सरम्--' साहे सगासाश्चो रयहरणे निसिज्ञ वा मग्गे | चाश्रितस्तिक्ञा रसः, तथा च मिषक्शाख्म-- श्लेष्माण-
ति, श्रह धरे तो से उवग्गदिद्यरयहरणं अत्थि ` इत्यादि- | मराच पत्त, तृष कुष्ट विष ज्वरम् । हन्यात् तिक्ली रसय
द्धः ्रापसवितः ॥ १ ॥ ” रि ना स
कान्यावश्यकचुरार्यादौ रजाहरणान्तराणि सन्ति, श्राद्धानां च | वृदः" कर्ता मात्रोपसे 4९६०४: बा ध
रजोदरणे चरवलक एवेति ॥ ३३३ ॥ सेन ० ३ उल्ला० । रिचनागराद्याश्रितः कटुः । उक्तं च~“ कटुगलामय शाफ, ह-
रयावंत-रञ्जयत्-वि० । रञ्जने कारयति, नि० चू० १७ उ० । न्ति युक्त्योपसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो; इंहणो5-
रयावियन चयि अव्य ० । । छृत्वेल्ये तिकफापहः ॥ २ ॥ ” रक्रदोषाद्यपहता विभीतकामलक-
(6 व्य ° । रचना हृत्वेत्यर्थ, कल्प० १ | कपित्थाद्याधितः कषायः, श्राह च--“ रक्कदोपं कफं पि-
= [ अ सेवित शीतो क
ै मधिरोपे अं त्तं कषाया दन्ति तः । रूत्तः शीतो गुणग्राही, राोचक-
रघ्नग-रह्लग-९० । दु मविशष, ज° २ वक्त० । निवि प
रल्ना--देशी-श्रियज्गवे, दे” ना० ७ वर्ग १ गाथा । श्च स्वरूपतः ॥ ३ ॥ देकदम्ली का द्याश्रि तो $~
~ म्लः । पठ्यते च-“च्रम्लोऽग्निदीसिङ्त् स्निग्धः, शोफापित्तक
१-प्राकृते रयतामय इति दध दव । फापहः । क्रेदनः पाचनो रुच्यो, मूढबाताउलामकः ॥ ४ ॥ "
( ४६२ )_
अभिधानराजन्द्रः।
५ भ 9 जरह अ ली
पिसादिध्रशमनः खराडशर्कराद्याश्रिता मधुरः , तथा चोक्तम्-
“ पित्त वातं विषं हन्ति, घातुवृद्धिकरो गुरुः । जीवनः क्ले-
शरूद्राल-ब्द्धत्तषीणौजसां हितः ॥ ४ ॥” इत्यादि, स्थानान्तर-
स्तम्मिताहारबन्धाविध्वंसादिकतों सिन्धुलवणाद्याश्चितो लव-
णोऽपि रसः पठ्यते , सख चह नोदाहतो , मधुरादिसंसगैज- |
त्वात् , तदृ भेदेन विवक्षणात् , सम्भाव्यते च तत्र माधुयोदि- |
संसर्गः , सर्वरसानां लवण प्रक्तेप पव स्वा दुत्वप्रतिपत्तेरित्यलं
विस्तरेण । अनु० । अनुरागे, “ नेहा पिम्म रसो य श्रणुरा-
श्रा" पाइ० ना० १२० गाथा। विश०। भ०। प्रक्ञा० ।
प्रव० । षो०। कम्म । पे० सं । आचा०। आ० म० ।
भोजनस्वादे , ग० २ अधि० । रस्यत इति रसः ।
मकरन्दे, दश० १ अर०। “ ज़ण धातुपाणिणण तंबगादि
आसन सुवश्यादि भवति सो रसो भषति ” । नि° चु० १३ |
उ० । स्नदे, क० प्र ० १ प्रक० । रसाः क्षीरादयः । स्था०
६ ठा० ३ उ०। मद्यादिके , अनु०। ( देशधातिरसस्वरूपम |
° देसघाइ ' शब्दे चतुथभागे २६२६ पृष्ठे गतम् )। तीमनक-
|
|
जिकादों , स्था० ७ ठा० ३ उ० । रस्यन्ते श्रन्तरात्मना-- | हू च
| रसणाम रसनामन्-न० । रस्यते--श्रास्वाद्यते इति रसस्ति-
जुभूयन्ते इति रसाः। तत्सदकारिकारणसद्किधानेषु चताचि-
कारविशेषेषु, रसाः ्ङ्गारादयः। उत्त ०३२ श्र ० । (ते चकञ्व-
रस ' शब्दे तृतीयभागे ३६३ पृष्ठे दर्शिताः ) ( लेश्याद्र-
ध्याणां रसः 'लस्सा'शब्दे वक्ष्यते) ( कम्मंपुद्रलानां रसो च~ |
धण ` शब्दे पञ्चमभागे १२२० पृष्ठ दर्शितः )
रसंत-रसत्-ति° । भृशे शब्दं कुर्वति, तं० । प्रक्तिपति, सूत० १
श्रु० ५ अण० १उ० | प्रलपति , प्रञ्च० १ आश्र० द्वार । श्रारट-
ति, सूत्र० १ श्रु० ५ श्र० १ उ०।
रसकारणश्रो-रसकारणतस्- श्रम्य०। सर्वधात्यादिरसरूप क-
रणमधिकययेत्यथे , पे० सं० ५ द्वार ।
रसग-रसग- त° । रसमनुगच्छुन्तीति रसगाः । कद्तिक्कक- |
षायादिरसास्वादिनि, आच्षा० १ श्रु० ७ अ० १ उ०।
रसगारव-रसगौरव-पं° । रसन लत्पाप्त्यभिमानम् । तद्प्राप्ति-
प्रार्थनद्वारेशा.5 ऽत्मनो 5शुभभावगौरवे, स० ३ सम० |
रसगिद्ध-रसगूद्धू--प० | मधुराहारलम्पटे, बू० ४ उ० । ( अज
विष्ये प्रश्चव्याकरणसूलम् 'जिर्ब्भिदियसंवर' शब्दे चतुथेभा-
गे १५१० पृष्ठे गतम् ) ( तथृव्याख्या ' परिग्गहवेरमण ' शब्दे
पश्चमभाग ५६५ पृष्ठे गता )
रसगेही-रसगरद्धि-ख्ी ° । मधुरादिरसेष्वभिकाङ्कायाम् , उ-
० पाई० ७ अ०।
रसधाय-रसघात- पुं० । कमेषुद्रलानां रसस्य प्रचुरीभूतस्य |
सतो5पवत्तेनाकरणन खण्डने अल्पीकरण , कस्म २
कमे० । क० प्र० । पे० सं०।
रसच्चाय-रसत्याग--पु° । दुग्धदध्यादीनां त्यागे, पञ्चा° १६ |
विव । ध० । रसत्यागो ऽनेकधा--यथोपपातिके--“ शि-
व्वितिए पणीयरसपरिञ्चार । श्रायषिले य आयामसित्थे-
भोरे अरसादारे विरसाहारे अंताहारे पताहारे लृहादारे ” |
इत्यादि । ग० १ अधि० । वाह्यतपोभेदे , ने० ।
रसच्चायतत-रसत्य!गतपस्-न० । र्सत्यागतपसि , उत्त
३० अ ।
|
छथ रसत्यागाख्यं तप आह--
खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । |
परिज्जणं रसाण तु, भणिय रसविवज़ण ॥ २६ ॥
एतद्रसविवज्ेने रसत्यागाख्ये तपस्ती थङ्करेभणित रसानां `
परिवज्जेने रसपरिवज्जनं, स्षीरं-दुग्धे दधि तथा सर्पिधृत
क्षीरं च दधि सर्पिश्च क्षीरदधिस्पीषि । एतानि आदियेस्य
स तस् ्तीरदधिसर्पिरादि | प्रणीते-पुष्टिकारक पान-पानया-
ग्याहारे भोजने-भक्क यस्मिन पीते भक्त सात बहुकामोदीपने
स्यात् , तस्य परिवज्न रसत्यागाख्यं तप उच्यते । प्राकत-
स्वात् षष्ठीस्थान द्वितीया, 'पाणीय पाणभोयणे' 'चरिवज्णं'
इत्यच्र ज्ञेयम् ॥ २६ ॥ उत्त० ३० अ० ।
रसशा-रसना- खी० । गुर रजौ, जिहायाम , आचा० २
श्रु०१चू०२अ०१ उ० । “रसणा जीहा” पाइ०ना० २५२ गाथा ।
अआचा० । मेखलायाम् , “ कच्छा कंची य मेहला रसणा ”
पाइ० ना० ११४ गाथा।
क्लादिस्तश्षियन्धने रसनाम । जन्तुशरीरे तिक्लादिरसहेतुके
कम्मीणि, कम० ६ कम० । पं० सं० । रसामिधायके नामनि,
अनु० ।
से क तं रसनामे ? रसनामे पंचविहे पत्ते, तं
जहा- तित्तरसणामे कडुअरसणामे कसायरसणशामि अबि-
लरसणामे महुररसशामे अ, सेत्तं रसणामे ।
अनु० । ( व्याख्या ' रस ` शब्दे गता )
| रसणिज्जूढ-रसनिर्यूढ -पु० । सर्वशुणोपते, दश० ८ अ० ।
रसद-देशी--चुल्लीमूले, दे० ना० ७ वग २ गाथा।
रसपारिच्चाय-रसपरित्याग-पुं । क्षीरादीनां परिस्यागे,ब्य०७
उ० | पा० | दश० । स्था० । बाह्यतपोभेदे, स० ६ सम० । वि-
कृतीनां परित्याग, उक्त० ३० अ० ।
से कि तं रस्परिच्चाए ? रसपरिच्चाए अशेगविहे पष्यत्त ।
तं जहा-शिष्विगितिए पणीयरसविवज्ञाए जहा उववाइए०
जाव लृहाहारे, सत्तं रसपरिच्चाए । भ० २५ श० ७ उ०।
रसपरिशाम-रसपरिणाम-पुं?। रसरूपतया पुहलानां षरिखा-
म, स्था० १० ठा० ३२ उ।
रसपुलाग-रसपुलाग-न० । अतीसारकर्तरि द्रा्लादिके,क० ५
उ० । ( व्याख्या ` पुलागभत्त ` शब्दे पञ्चमभागे १०६० पृष्ठे
( ३६७ ) गाधाग्याख्याने गता )
रसफड्य-रसस्पर्धक-न० । कम्म॑पुद्रलानां परस्परं सेग्छेष-
निबन्धने, स्न परत्ययस्पधक, कमे० ।
रस्बध-रसषन्ध- पुं० । कम्मेपुद्रलानामेव शुभो 5शुभो वा घा-
त्यघाती वा यो रसः सा ऽचुभागवन्धा रसवन्धः । कर्म्मपुद्द-
लानां शुभा5शुभ घात्यघातिनि खा रस, कम० ४ कर्म०।
| रसमाण -रसत् न° । शब्दायमाने , प्रश्न १ आश्र० द्वार ।
रसमाण ०, _ ` 9
|
ः कै.
रसमाणप्पमाण
ह ( ५६३
श्रभिधानराजन्द्र
रहजत्ता
रयमाशप्पमाण रसमानप्रमाण- नर । मद्यादिविषयकमानेन
प्रमाण, अलु० । (रसमानप्रमाणम् माणं शब्द् ऽस्मन्नव
भागे गतम् )
रसय-रसज- पुं° । रसाज्ञाता रसजा:
१ श्रु० १ अर०
सावीरकादिषु रूपपदमसन्निभषु जीवेषु, सूत्र० १ श्रु० ७ अ०।
रसरूव-रसरूप-पुं० | रसप्रधान, त० ।
रसवई-रसवती-खी ० । बहुरसायाम् , आचा० २ श्रु० १ चू०
४ अ० २ उ० | सूपकारशालायाम् , आघ । ज्ञा० | आ० म०।
रसवैत-रसवत्--न० । देवानामाहारभेदे, स्था० ४ ठा० ४ उ०।
रसवाशणिज्ञ-रसवाणिज्य-न० | मधुमद्यमांखभक्षणवसामज्ञा- |
डुग्धद्धिघृततेलादिविक्रये, ध० २ अधि० । आव० | उत्त०।
भर० । घ०। प्रव० | पञ्ा० । आ० चरू |
रसविवागा-रसविपाका--खी० । । अद्देतुमघिकृत्य विपाकशा-
लिनीषु कर्म्मप्रकरातिषु | प० स० ३ द्वार । ( ताश्च 'कम्म' शब्दे
तृतीयभागे २७२ पृष्टे दर्शिताः )
रस्वेजयेत-रसवैजयन्त-पुं° । खगुरोरपरपताकेवोपरि व्य-
बरस्थित, सूत्र० १ श्च ०६ आअ०।
रससेस-रसशूप््-न० । रसशेष जीणे, “ आम विदग्धे वि- |
छर, रखशेष तथा ऽपरम् । आमे तु बद्धगन्धित्व, विद- |
ग्ध धूमगन्धिता ॥१॥ विषञ्ध गात्रभज्ो5त्र, रसशेष तु |
ज्ञाङ्यता `` । ध० १ अधि०।
रसहरणी-रसहरणी - खी० । रसो दियते आदीयते यया सा
रसहरणी । नाभिनाले, तं०।
श्याश्रल-रसातल-न० । ' क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां पायो
लुक् ॥ ८। १। १७७॥ इति तस्य लुकि सति। अवो यश्रुतिः
॥८।१।१८०॥ इति यकाराभावे । भूमेरधोभागे, प्रा० १ पाद |
रसाउ-रसायुस-पुं० | भ्रमरे, “ फुल्लंघुआ रसाऊ ” पाइ०
ना० ११ गाथा । भ्रमरे, दे० ना० ७ वर्ग २ गाथा ।
रसाणु-रसाणु-पुं० । रस्यते विपाकानुभवनेनास्वाद्यत इति |
रसो5नुभागस्तस्याणवों $शा रसाणवः । क्रम्मणामयुभाग- |
स्यांशे, कर्म० ५ कर्म० |
रसायण-रसायन-न० । रसः--अ्रम्मनतरसस्तस्यायन प्राप्ती
रसायनम् । वयःस्थापन श्रायुरम्मेधाकरणे रोगापहरणसमर्थे
च क्रियाभेदे,स्था० ८ ठा० ३ उ० | पञ्चा०। विपा० । श्राचा०।
चुरुषकलाभदे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
रसायल-रसातल--न० । पाताले, “ पायाल ख रसा-
यले पाइ० ना० १७१ गाथा
रसाला-रसाला-खी० । सुगन्धिवस्तुमिश्रितदुग्घे, “ मज़ि-
श्रारसाला उ पाड० ना० २३७ गाथा । माजितायाम् । ¦
दे० ना० ७ वर्ग
गाथा ।
१२४
शसमेह-रसमेष पुं | रसज्नको मेघः रसमेघः । दुष्पम- |
दुष्षमाभाविनि रसजनकवारिवर्षणकारके मध, ति° । ज० । |
। तक्रारनालदधि- |
तीमनादिषु कम्यारूतितया ऽति सृच्मेषूपपन्नषु जीवपु. त्राचा० |
उ० । प्रश्न० । सूत्र० । स्था० | दश० । दाघ- |
रसालु रसाल पुं” । आल्विज्ञोल -वन्त-मन्तेत्तेर-मणा
मताः ॥ ८। २। १५६ ॥ इत मताः स्थाने आलु इत्यादेशः।
रसालो । प्रा० । दाडिमाघ्रादिषु, श्राव० ४ अ०।
रसालु- पु । मलजिकायाम् , तल्लक्षणम--' दो घय--
पला महुपले, दहियस्स5द्धाढय मिरियवीसा । दस खंडगु-
लपलाई, एस रसालू निवइजो ग्गा ॥१॥” भ० ७ श० १० उ०।
चे० प्र० । भोजनभद, स्था० ३ ठा० १ उ०। सू० प्र०।
रसावण-रसापण- पुं०। मद्यहद्टे, ब्रू० २ उ०। दशे० । नि० चु०।
सोचीरिणयाम् मदिरायाम् , वृण
| रसिणी-रसिनी -स्त्री०
प्रक० ।
| रसिय-रसिक-न० । माधुय + ऽयुपेते, स्था० ६ ठा०। रसित-
दाडिमाप्रादिरसाले, आव० ४ आझ०। ग्जिते, रा०। अनु० ।
| आच्ा०। शूकरादिशब्द्मिव शब्दकरण्, प्रश्न० ४ संच०
द्वार । शपिते, आ० चू० ४ अ०।
रसेसि ( ण॒)-रसेपिश्-पुँ० । रस्यत आस्वाद्यत इति रस-
स्तमेर््णठ शीलमघां ते रसेषिणः | रसान्वेषण, आच्ा० २ श्रु०
१ चू० १ अ० ६ उ० । पानार्थनि, आचा० ६ श्रु० ६
अ० ४ उ० ।
| रस्सि-पुं०ख्री ०-रश्मि-ए० । किरणे,जै० ३ वक्त० | आ० म०।
रज्जो,द्श०७ ० । “अधो मनयाम्' ॥८।२।७८॥ इति संयुक्त
स्याधो वर्तमानस्य मस्य लुक् । रस्सी । प्रा० । “वमाऽअ्ज-
स्याद्याः खियाम् " ॥८ । १। ३५॥ इत्यञ्जल्या दित्वात् खत्वं
वा। प्रा० । “* चरस रस्सी ” पाइ० ना० ४७ गाथा |
| रह-रथ-० । स्यन्दन, भ० ८ श० ६ उ०। “ संदणो रहो ”
पाइ० ना० २२३ गाधा । रथा द्विघधा--यानरथाः, संग्रामर-
| थाश्च । जी ३ प्रति० ४ अधि० । अनु० | रहसि, एकान्ते ,
| विजने , आव० ६ अ० । स्था०। सूत्र० | ज्ञा० । प्रच्छन्न ,
| स्था० ३ ठा० ४ उ०। रहस्ये, स्था० ५ ठा० ३ उ०। स्थवि-
रस्य आर्यवज्रस्य त्रयाणां शिष्याणामन्यतमे शिष्ये, करप०
अधि० ८ क्षण ।
रहंग-रथाडर--न० । चक्रे, ज्यो० १० पाहु०। चातके, “ चक्का-
“ चक्काई रहेगाई '"
| १उ०२
|
|
|
|
यञो रहगो ” पाइ० ना० १३२ गाथा-।
पाइ० ना० १२२ गाथा ।
रहकार-रथकार-पं० । रथनिर्माणुकत्तेरि,सूत्र० १ श्रु० ४ अण
१ उ०।
रहघणघणाइय--रथघनघनायित--न० । रथानां यत् घनघना-
यितम् । घनघनेत्येव रूपे शब्दे, प्रश्च० २ आश्र० द्वार। आ०
म० । ओ० ।
रहचक्रवालसडाण--रथचक्रवालसस्थान-न० । रथाङ्गस्य च-
क्रवालमण्डले तस्येव सस्थानम् | छथवा-- चक्रवाल मर्डलं
मराडलत्वध्स्मयो गाच्च रथचक्रमपि रथचक्रबालम् | वलयघू-
त्ताकारे, ज० १ वक्त० | ओ० |
रह जत्ता--रथयात्रा-खा० । शुज्ञारतप्रवररथ जनघ्रातमा स-
स्थाप्य समदं स्नानयूज्ादिपुरःसरे समस्तनगरे पूजाप्रवत्त-
नादिरूप यात्राभदे, ( तद्विधिः ‹ अणुजाण ` शब्दे प्रथमभागे
३६७ पृषे विस्तरतो दर्शितः )
( ४६४ )
आाभधानराजन्द्र:
रहजत्ता__
7 च-देमपरिशिष्रपव्वणि--
सुरस्त्याचायपादाना-मचन्त्यामव तस्थुषाम् ।
चेत्ययान्रोत्सवश्चक्र, सङ्गनान्यत्र वत्सर ॥ १॥
मर्डपं चैत्ययात्रायां, सुहरुती भगवानपि |
स्त्य नित्यमलक्र, श्रीसङ्खन ससन्वितः ॥ २॥
सुहस्तिस्वामिनः शिष्यः, परमाणुरिवाग्रतः ।
ताज्ञलिस्तत्र निव्य, निषसाद च सम्प्रतिः ॥ ३ ॥
यात्रोत्सवाङ्ग सङ्गन, रथयात्रा प्रचक्रमे ।
यात्रोत्सवो हि भवति, सम्पूर्णो रथयाजया ॥ ४॥
रथोऽथ रथशालाया, दिवाकररधापमः)
निर्ययौ स्वरीमाणिक्य-दतिद्यातितदि ङसुखः ॥ ५॥
श्रीमदरैन्प्रातिमाया, रथस्थाया महद्धि भः।
विधिज्ञैः स्नात्रपूजादि, श्रावकैरुपचक्रमे ॥ ६ ॥
क्रियमाणे ऽदेतः स्ना, स्नाजा-म्भो न्यपतद्रथात्।
जन्मकटयाणक पूर्व, सुमरूुशिखरादिव ॥ ७ ॥
श्राद्धैः सुगन्धिभिद्रैव्यैः, प्रतिमाया विलपनम् ।
स्वामिविज्ञी प्सुभिरिवा-कारि वक्तराहितांशुकेः॥ ८॥
मालतीशतपत्रादि-दामभिः प्रतिमाउहैतः |
पूजिता5भात्कलेवन्दो-बैल्ा शारदवारिदैः ॥ ६ ॥
दह्यपानागरूत्थामि-धूमलेखाभिराबूता ।
अराजत्प्रतिया नील-बासोमिरिव पूजिता ॥ १० ॥
आरातिक जिनाचायाः, कत श्रारधेज्वलल्छिखम ।
दीप्यमानोषधीचक-शेलश्ट क्वविडम्बकम् ॥ १९ ॥
वन्दित्वा श्रीमदर्हन्त-मथ तैः परमाहेतेः ।
रथ्यैरिवाग्रता भूयः, स्वयमाचकृष रथः ॥ १२॥
नागरीभिरुपक्रान्त-सहल्लीसकरासकः ।
चतुर्विधा ऽऽतोद्यवाद्य- सुन्दर प्े्तणी यकः ॥ १२ ॥
परितः श्राविकालाक-गीयमानोरूमङ्गलः ।
प्रतीच्छन् वितिधां पूजां, प्यहं प्रतिमन्दिरम् ॥ १७॥
यहुलैः कुङ्कमाम्मोि-रभिषिक्रा्रभूतलः।
सम्प्रतः सदनद्वार-माससाद शने रथः ॥ ६५॥
अिभिर्विशष कस्--
राजाऽपि संप्रतिर थ, रथपूजाथमुद्यतः ।
आगात् पनसफलव-त्सर्वाङ्गा द्धिन्नक्रराटक्रः ॥ १६॥
रथाधघिरूढां प्रतिमां, पूजया 5ष्प्रकारया ।
श्रपृजयन्नवानन्द-सराहंसोऽवनीपतिः ॥ १७ ॥ ” इति ।
महापद्म्चक्रणा ऽपि मातुर्मनारथपृत्तय रथयात्राऽत्याड- |
स्वरेश्चकर ।
कुमा रषालरथयात्रा त्वेबमुक्का--
“^ चित्तस्स अट्टमिदिणे, चउत्थपहरे महाविभूईए ।
सहारिस-मिलतनायर-जणकयमंगजल्नजयसदा ॥ १॥
सावरर्णाजणवररहा, नीहरइ चलेतसुरगिरिसमाणो ।
कणगारूदं दघयदत्त-चामर राई है दिष्पेतो ॥ २॥
रहविश्न विलित्त कुसुमद्दि , पूदओ तत्थ पासजिणपडिम ।
कुमरबिहारदुबार, महायणा ठचइ रिद्धीए॥ ३ ॥
तृररवभारश्रभुवणा, सरभसणश्चतच्रारुतरुणिगणो ।
सामंतमंतिसहिओ, व निवन रहो ॥४॥ निवमदिरम्मि रहो ॥ ७॥
राया रहत्थपडिमं, पटंसुअकणय भूसणाईहि ।
सयमव अच्चिडं का-रवेइ विविहाइ नट्टाइ ॥ ५ ॥
तत्थ गमिऊण रयशि, नीहरिओ सीहबारबाहसम्मि ।
वाएण चालिअधयतं-डर्वाम्म पडमंडवम्मि रहो ॥ ६ हे
तत्थ पभाण राया, रहजिणपडिमाइ विरइउं पूओ। ।
चउविहसंघ्रसमक्खे, सयमवारत्तिच्र कुड ॥ ७ ॥
तत्ता नयर्राम्म रहा, परिसक्कइ कुंजरेहि * जुत्तं ।
ठाण ठाणे पडम-डवसु विउलेसु चिद्रृतो ॥ ८ ॥ ” इत्यादि
घ० २ अधि० । बृ० |
रहजोही-रथजोधी-पुं० | रथन युध्यते इति रथयोधी । रथ ४
रणकयुद्धकत्तेरि, श्रौ ० | ज्ञा० ।
५ 7
)
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(4
ए ^
| रहशमि-रथनमि- प° । श्ररिषटनमिजिनश्रातरि, तत्कथा र
। जीमलत्या सद तत्सम्बादश्च | उत्त० |
चरणसदितन धृतिमता चरण एव शक्यते कक्तुमतो रश।
नमिवच्चरणम् | तत्र च कथञ्िदुत्पन्नविश्रातसिकनाऽपि ४
तश्चाधयत्यननोच्यतत इत्यमुना सम्बन्ध
आज आल जता जता प्राग्याद्धाय
चत्षपणकवाजधय इत चतास व्यवस्थाप्याऽभ्र
रहनेमीनिक्सेवो, चक्रो दुविह होई दव्वाम्मि |
अगम नोआगमतो,नोआगमतो य सो तिविहो ।४३५
जाणगसरीरभविए, तव्वहरित्ते य सो पुणो तिविहो । ,
एगभविअ वद्धा, अभिमुहञओओ नामगोए य ॥४३८॥
रहनेमिनामगोअं, वेणंतो भावओ अ रहनेमी । |
तत्तो समुद्वियमिणं, रहनेमिज्ञं ति अज्मयण ॥४३६।
प्राग्यद् व्याख्येयम , नवरं रथंनमिशब्दाश्चारणमिद वि
इत्यवासता नामानष्पन्नानक्षपः । सम्प्राति सृत्रा55लापकः-
निष्पन्ननिक्षेपावसरः सच सूत्र सति भवत्यतः सूत्राउन `
गमे, सूत्रमुच्चा रणीयम् , तञ्चदम्-
सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महड्डिए ।
वसुदेव त्ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए ॥ १ ॥
तस्स भज्ञा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा ।
तासि दुण्हं पि दो पुत्ता, इटा (जे) रामकेसवा ॥२॥
सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महड्डिए ।
सपुदविजये नामं, रायलक्खणसंज॒ए ॥ ३॥
तस्स भज्जा सिवा नाम, तीसे पत्तो महायसो ।
भयवंऽरिदूनेमि त्ति, लोगनांह द मीसरे ॥ ४ ॥
। सोऽरिदरनेमिनामो अ, लक्खणस्सरसंजुओ ।
(अट )सहस्सलक्वणधरो, गोयमो कालगच्छवि |
वजरिसहसंघयणो, समचउस्सो भसोदरो ।
तस्स राईमई कन्न, भजं जायई केसवो ॥ ६ ॥
अह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुपेहिणी ।
ह पन्ना, विज्जुसोआमणिप्पभा ॥ ७ ॥
अहाऽऽह जणओ तीसे, वासुदेवं महाङयं ।
इहागच्छउ इमरो, जा मे कनं ददामह ॥ ८ ॥
सव्वोसहीहिं एहविओ, कयकोउयमंगलो ।
भत्ते च गेधहत्थि च, वासुदेवस्स भिद्य ।
आरूटो सोहई अहियं, सिरे चृडामणी जहा ॥१० ॥
अह ऊसिएण छत्तेणं, चामराहि य सोहिओ ।
दसारचकेण तओ, सव्वओ परिवारिओं ॥ ११॥
चउरंगिणीए सेणाए, रइयाए जहकमं ।
तुडियाणं सब्रिनाएणं, दिव्वेणं गगणे फुसे ॥ १२ ॥
एयारिसीए इड्रीए, जुईए उत्तसाइ य ।
नियगाओ भवणआओ, निज्ञाओ वणिहपुंगवों ॥ १३ ॥
अह सो तत्थ निज्ञातो, दिस्सपाणे भयदए ।
वाडेहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धे सुदुक्खिए ॥ १४॥
जीवियंतं तु संपत्ते, मंसट्टा भक्खियव्वए |
पासित्ता से महापप्मे, सारहिं इणमव्ववी ॥ १५॥
कस्स अट्टा इमे पाणा, एए सच्चे सुहेसिणो ।
वाड पंजरेहि च, संनिरुद्धा य य अच्छहिं १।॥ १६॥
सूलषा उशक पायः प्रक्टाथमव, नवर राजव राजा तस्य
दिव्वज्जुयलपरिहिओ, आभरणेहि विभूसिओं ॥ ६ ॥
लक्षणान--चक्रस्वातका5छुशादान व्यागसत्यशायादान |
वा ते: सयुता- युक्तो राजलक्तषणसयुताऽत एवं राजत्य्घं
भज्ञा दुव आसि त्ति' भार्ये द्व श्रभूताम् , "तासि ति' तयो
राहिणीदेवक्याद्धौ पुतो इ्ौ-वल्लमो ‹ रामकेशवौ ' बलभ-
द्ववाखदेवावभूतामितीदा ऽपि योज्यते, तजर रोहिण्या रामो
देकक्याश्च कंशवः । इह च र थनेमिवक्रव्यतायां कस्यायं तीथ
इति श्रसङ्गन भगवच्रिते ऽभिधित्सिते $पि तद्धिवादादिषू- |
पयोगिनः केशवस्य पूर्वोत्पन्नत्वन प्रथममाभिधानम् , तत्स- |
इचरितत्वाच्च रामस्यति-भावनीयम् । पुनः सोर्यपुराभिधान
च समुद्रविजयवखुदवयोरेकत्रावस्थितिदशीनार्थम् । इह च |
राजलक्षणसयुत इत्यत्र राजलक्षणानि--छुत्रचामरासिहास-
नादीन्यपि गृह्यन्त । दमिनः-उपशमिनस्तषामीश्वरः-श्रत्य _
न्तोपशमवत्तया नायका दमीश्वरः । कोमार पव त्षतमारवी
येत्वात्तस्य । ` लक्खणसरसंजुतो चति, प्राकृतत्वात्स्वरस्य
यानि लन्तणानि--सोन्द्यगाम्भीयीदीनि तैः सयुतः स्वरल- '
च्षणसयुतः, लच्तणापलांत्तितं वा स्वरो लक्तणस्वरः प्राग्य-
न्मध्यपदलोपी समासः तन सेयुता लक्षणस्वरसंयुतः । पठ-
न्ति च--' वंजणस्सरसंजुओ त्ति
लकादीनि स्वगा--गाम्मायौदिगुणोपेतस्तत्संयुतः , अष्ट-
व्यज्ञनानि-प्रशस्तति- |
सहस्रलच्षणधरः-श्रष्टात्तर सद स्र सदश्च शुभसूचककरादिरेखा- |
द्यात्मकचक्रादिलक्षणंधारक
कालकच्छविः' कृष्णत्वक् । "
र गातमः--गांतमसगा जः
भूसोदरो त्ति ` भषा--मत्स्य-
स्तदुद्रमिव तदाकारतयोदरं यस्यासौ भषोदये, मध्यपद--
लापी समासः । इतख्च गतयु द्वारकापुर यदुषु, निहते जरा
सिन्धन्रपताबधिगतभरताद्धराज्य कंशवो योवनस्थे5रिप्टन-
` शा
( ४६५)
अभिधानराजेन्द्रः।
0 रटणेमि
भिनि समुद्रविजयादेशतो यदचेष्टत तद।ह,--तस्य--अ।२-
एन मिनो राजीमतीं भाया गन्तुमिति शषः, याचत केशव-
स्तज्वनकमिति प्रक्रमः । सा च कीटशीत्याह--' अथ'-रत्यु-
पन्या, राजवर इह्ोग्रसेनस्तस्य कन्या राज्ञो वा--तस्थैव
वरकन्या राजवरकन्या सुष्ठ शील- स्वभावो यस्याःसाखु
शीला, चारु प्रक्तितुम्- अवलोकितं शीलमस्याः चारुप्राक्त-
णी, नाथादृष्टिताविदोषदुष्टा, 'विज्जुसोयामणिप्पह त्ति' वि-
शषेण योतते दीप्यत इति विद्युत; सा चासौ सोदामनी च
विद्यत्सोदामनी, अधवा-विद्युदग्निः सोदामनी च तडित् ,
अन्य तु सोदामनी प्रघानमणिरिव्याहुः। ' श्रथ ` इति या-
आानन्तरमाद-जनकस्तस्याः राजीमत्या उम्नसेन इत्युक्तवान् ,
जास ति ` खुब्व्यत्ययात् येन तस्मे ' ददामि ` विवादवि-
धिनोापदोकयाम्यहम्।एवे च प्रतिपन्नायामुभ्रसनेन राजी मत्या-
मासश्न च क्रोश्टिक्यादिए विवाहलग्ने यदभूत्तदाह-सवाश्चता
श्नोषधयश्च-जयाविजयद्िवृद्धधादयः सर्वोषिधयस्ताभिः स्नपि-
-श्रभिषिङ्कः, कृतकौोतुकमङ्गल इत्यत्र कातुकानि-ललारस्य
मुशलस्पशनादीनि मङ्गलानि च-दध्यक्षतदूवाचन्दनादीनि
दिव्वजुखलरदिय त्ति ` प्राग्वत्परिदहितं दिव्ययुगलमिति
प्रस्तावाद् दष्ययुगले येन स तथा, वासुदेवस्य सम्बन्धिनमि-
ति गम्यते, ज्येष्ठमेव ज्येषछकम--अतिशयप्रशस्यमतिदृद्धे
वा गुणैः , पट्ृहस्तिनभित्यशः, शोभत इति वत्तेमानानिर्देश
प्राग्वत् , चूडामणिः-शिरो ऽलङ्काररत्नम् । | अध--अनन्तरमस
उच्द्ितेन-उपरि घृतेन पाठान्तरतश्र श्वेतोच्छितिन “ चा-
मरादि य लि" चामराभ्यां च शाभितः “ दसारचकेणं ति'
दशारंचक्रण-यदुसखमृदेन चतुरङ्गिणया--हस्त्यश्वरथपदा-
तिरूपाङ्गचतुष्टयान्वितया रचितया-- न्यस्तया यथाक्रम--
यथापरिपाटि तूर्याणां-म्॒दज्भपटहादीनां सन्निनादेनाति--
सन्यत इत्यादिषु समो भ्रशार्थस्यापि दशैनादतिगाढध्व-
निना ' दिव्येन ' इति प्रधानन देवागमनस्याऽपि तदा स-
म्भवादददेवलोकोद्धवेन वा ` गयं फूस त्ति ` श्राषेत्वाद् ग-
गनस्पृशा--श्तिप्रवलतया नभो~ङ्गणब्यापिना, सर्वत्र च
लक्षण तृतीया, एतादश्या-अनन्तराभिद्दितरूपया ऋद्ध्या-
विभूत्या दयुत्या--दीप्त्या उत्तरत्र चशब्द ऽभिन्नक्रमता घु-
त्या चोत्तमयोपलक्षितः सन्िजका द्ध वनात् नियोतः-- नि-
च्क्रान्तः चृष्णिपुङ्गवः--यादवभ्रधानो भगवानरिष्टनमिरि-
ति यावत् । ततश्चाऽसौ कमेण गच्छन् प्राप्तो विवाहम-
रडपाखन्नदेशम । अथ--अनन््तरं स॒ तन्न नियैन् अधिकं
गच्छन् "दिस्सत्ति' दृष्ठा अवलोक्य प्राणान् स--भ्राशिन
म्रगलावकादीन् भयद्रतान्-भयत्रस्तान् वादैरिति-वारकेः-
वृक्षिवरणडकादिपरित्षिप्तप्रदेशरूप: पञ्चरेश्च--बन्धनविशशषे
सलिरुद्धान्-गादहनियन्त्रितान् , पाठान्तरतरतु-चद्धर्द्धान् ,
अत एवं खदुःखितान् , तथा जीवितस्यान्तो-जीविता-
न्तो, मरणमित्यथस्त संप्राप्तानिव सम्प्राप्तानू , अतिप्रत्या-
सन्नत्वात्तस्य | यद्वा-जीवितस्यान्तः-पर्यग्तवर्त्ती भागस्तमुक्क-
हेतोः सम्प्राप्तान् मांसार्थ-मांसनिमित्त च भक्तयितव्यान
आंसस्येवातिगद्धिहेतुत्वेन तद्लक्षणनिमिक्तत्वादेकमुक्कलस । य-
दि बा-'मांसेनेव मांसमुपर्ची यते' दाति प्रवादता मांससुपचितं
स्यादिति मांसाय भत्तयितव्यारविवेकिभिरिति शेषः। 'णासि-
तति ' दृष्टा, कोऽथः? उक्नविशेषणविशिष्ठान् हदि नि-
धाय 'सः इति भगवानरिष्टनमिर्महती पक्षा -प्रकरमान्मति-
श्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका यस्यासौ महाप्रज्ञः, सारथि-प्रव-
क्षेयितारं प्रक्रमाद्रन्धहस्तिनो दस्तिपकमिति यावत् , य-
द्वाऽत पव तदा रथारोदणमनुमीयत इति रथग्रवतेयि-
तारम् । ' कस्स त्ति ` कस्य ' अर्थात्” निमित्तादिमे प्राणाः,
व. ४६६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
ति,पापहतुत्वादस्येति भावः। भवान्तरषु परलाकभीख्त्वस्या- _
त्यन्तमभ्यस्ततयेवमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिशय- `
१ पव से
|
पत सर्वे ' दमे ' इत्यननेव च गते ' एत ` इति पुनर्रभधान- |
मतिसाद्वेहृदयतया पुनः पुनस्त एव भगवतो हृदि विपरि
वत्तेन्त इति स्यापनार्थम् । यदि वा-इमे--श्रत्यक्षाः हैक
समीपतरवनिनः, उक्लं हि इदमः प्रत्यक्षणतं, समीपतर-
वति चैतदो रूपम् , ” पठ्यते < बहुपाणे ५०५
सुखेषिणः-साताभिलापिणः ` सनिर्द्धे य त्ति ' सन्निरुद्धाः
चः पूरणे ` अच्छि त्ति आसत इति षोडशसूत्राथः ॥
एवे च भगवतोक्त--
अह सारही ( तओ ) भणइ, एए भदा उ पाणिणो ।
तुज्भं विवाहकज्ञम्मि, भोआवेउं बहुं जणं ॥ १७ ॥
खुगममेव, नवरम् अथ' इति-भगवद्चनानन्तर "भदा उ
त्ति' भद्रा प्व-कल्याणा एव न तु श्वशृगालाद्य एव कुत्सि-
ताः, अनपराधतया वा भद्रा इत्युक्त भवात, तव ववा-
इकार्य--परिणयनरूपभ्रयोाज्न “ भोयावडउ ति ` भाजयितुम,
अनेन यदुकू ' कस्याथोदिति ` तत्प्रत्युत्तरमुक्रामिति सष्रा-
थः ॥
इत्थ सारथिनोक्त यद्धगवान् विहितवांस्तदाह--
सोण तस्स बयं, बहुपाणिविणासं ।
चिंतेइ से महापन्ने, साणुकोते जिएहि उ ॥ १८ ॥
जद मन्म कारणा एए, हम्मति सुबह जिया ।
न मे एयं तु निस्सेय, परलोगे भविस्सई ॥ १६ ॥
सो कुंडलाण जुयलं, सुत्तमै च महायसो ।
श्राभरणाणि य सव्वाशि, सारदिस्स पणामंई ॥२०॥
सणपरिणामो अ कञो, देवा य जहोडयं समोइमा ।
सब्विड्डी३ सपरिसा, निक्मणं तस्स काड ज ॥२१॥
देवमणुस्सपरिवुडो, सिविया रयणं त्रो समारूढो ।
निक्खमिय वारगाओ, रेवययभ्मि द्विओ भयवं ॥२२॥
उजाणे सप्तो, ओदनो उत्तमाउ सीयाओ ।
साहस्सी य परिवुडो, अह निक्ख मरं उ चित्ताहिं॥२३॥
अह सो सुगंधगेधिय-तुरियं मउञअदुंचिए |
सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्टीसमाहिओं ।। २४॥
सुगममेव नवरं तस्य--इति सारथेः वष्टनां--परभरतानां
श्मणानां--धाणिनां विनाशन-हननमथौदभिधेय यसिस्त- |
स--भगवान् सायुक्रोशः-सकरूण्
: जिएहिड त्षि' जीवेषु तुः- पूरणे मम कार-
द्हुप्राणविनाशने
केषु ?
णादव्ति-द्वेतोमेद्धिबाहप्रयोजन भोजनाथत्वादमीषामित्य- |
भिप्रायः, दम्मंति त्ति ` हन्यन्ते वत्तेमानसामीप्ये लर् ,ततो |
हनिष्यन्त इत्यथः, पाठान्तरतः ` हम्मिदहेति सि ' स्षघरम् ,
सुबद्ववः--अतिप्रभूताः ' जिय त्ति ` जीवाः , एतादिति--
जीवष्टनने ` तुः ' एवकारार्थो नेत्यनन योज्यते, ततः न तु--
तव ' निस्सेयं ति ' निःभ्रेयस ' कल्याण चरलोके भविष्य
त्ति प्रतीत, |
ज्ञानित्वाञ्च भगवतः कुत एवंविधचिन्तावसर
विदितभगवदाकृतेन सारथिना मोचितयघु सत्त्वेषु परितोषि-
तोऽ सो यत्कृत वांस्तदाद-' से ` इत्यादि ' खत्तक चेति ”
करीसूलम् , अपयतीति योगः, किमेतद्वत्याह-आभरणानि
च सर्वाणि शषाणीति गम्यते । ततश्च मनपरियामव ~
भिप्रायः कृतो निष्क्रमणं प्रतीति गम्यते, ' देवाः ` चतुर्भि" ` |
काया एव यथोचितम्-त्रोचित्यानतिक्रमेण समवतीौः ,
पाटान्तरतः समवपतिताः । चकाराभ्यां चेह समुच्चयार्था-
भ्यामपि तुल्यकालताया ध्वन्यमानत्वात्तदेवति गम्यते, सर्व-
द्धधी--समस्तविभूत्या सपरिषदः वाह्यमध्याभ्यन्तरपर्ष-
त््रयोपताः “ निष्क्रमणम् ` इति प्रक्रमान्नष्करमणमहिमानं
` तस्य ` इति भगवतो ऽरिषनसिनः कन्त ` जे ` इति निपातः
पूरण । शिविकारत्ने देवनिर्भितमुकत्तरकुर्नामकमिति ग-
म्यते , ततः--तद्नन्तरं समारूढः-अध्यासीनः निष्क
म्य--निगैत्य द्वारकातः- द्वारकापु्यौः रेवतके उच्यन्ते
स्थितः--गमना ज्निवृत्त: । तत्राऽपि कतरे प्रदेशे प्राप्तः स्थि-
त इत्याह-उद्यान सहस्राश्रवणनामकं सम्पाप्तः , तत्र
चावतीणः ' सीयाता त्ति ' शिनिकातः “ साहस्सी यत्ति”
सदसखरण प्रधानयुरूषाणामिति शषः, परिकृतः- परिवेष्टितः
अथेत्यानन्तर्य निष्कामति--श्रामरायं प्रतिपद्यते । * तुः ?
पूरण चित्ताहि ति ` चित्रासु-चित्रानाश्ि नक्षत्र कथमि-
त्याह--सखुर्गान्धगान्धिकान्-खभावत एव सखुरभिगन्धीन्
त्वरितम्-शीघं खदुकत्वकुञ्चितान--कोमलकुटिलान्
स्वयमेव--च्रामनेव लुखति-- अपनयति केशान् “ पञ्चा~,
चाभि: `-पञ्चमुषिभिः समाटितः- समाधिमान् ,
सावद्य भमाकत्तंव्यमिति प्रतिज्ञारोहणोपलक्षणमेतत् । इह
तु बन्दिकाचार्यः सत्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधनभव-
नगमनमहादानानन्तरं निष्कमणाय पुरीनिगमसुक्वखयांवभू-
दति सूत्र सक्तकाथैः ॥
एवं च प्रतिपन्नप्रबज्ये भगवति-
वासुदेवो अ शं भणई, लुत्तकेस जिईंदियं ।
इच्छियमणोरहे तुरि, पावद् तं दमीसरा ! ॥ २५॥
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणं तवेण य ।
खंतीए भुत्तीए, वड्माणो भवाहि य ॥२६॥
एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा ।
अरिटूनेमिं वदित्ता, अहगया बारगाउरिं ॥२७॥
सूत्रजय स्पष्टम् , नवरं वाखुदेषश्चेति चशब्दाद्रलभद्रस-
मुद्रविजयादयञ्च ‹ लुप्तेशम् ` अपनीतशिरोरुहम् इप्सितः-
झअभिलाषितः स चाऽसौ मनोरथश्च भगवन्मनोरथाविषय-
त्वान्मुक्किरूपो 5थेः इप्सितमनोरथस्त ' तुरियं ` ति त्वरितं
"पाव क्षि' प्राप्लुद्दि, आशीवैचनत्वादस्य । “ श्राशिषि लि-.
श्लो" ॥ ३। ३। १७३ ॥ इत्याशिषि लोद् । “ तम् ' इति-
त्वं 'वद्धमानः ` इति-चृदधिभाक् “ भवाहि य सि ` भव, चश-
इद् आशीवीदान्तरसमुच्चये । पएवम्--उक्कभ्रकारेण ब-
न्वित्वा--स्तत्वेति योगः, इह चैवविधाशी्वचनानामपि गु-
शोत्कर्चस्यचक्त्वेन स्तव॒नरूपत्वमविरुद्धामाति भावनीयम् ,
सर्वे -
~ = \
रहणेभि
केशान्--कचान् घिइमंति चि › धृतिमति व्यवसितति-
( ४६७ )
श्भिधानराजन्द्रः।
रहणमि
“ द्सारा य त्ति ` दशाहोः, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः बहु त्ति' |
बहवो जनाश्च अतिगताः--प्रविष्टा इति सूत्रञयाथेः । |
तदा च कीदशी सती राजीमती किमचेष्टतत्याह- |
सोऊण रायकना, पव्वज्ञं सा जिणस्स उ |
णीहासा उ निराणदा, सोगेण उ सयुच्छिया ॥२८॥
राईमई विचितेई, धिरत्थु मम जीषियं ।
जाऊं तेण परिचत्ता, सेय पव्वईइउं मम ॥२६॥
अह सा भमरसनिभे, कुच्चफणगप्पसाहिए ।
सयमेव लुचई केसे, धिदमेती ववस्सिया ॥ ३० ॥
सूत्रत्रयं स्पष्ट, नवरं निष्क्रान्ता हासान्निहासा, चशब्दो
भिन्नक्रमस्ततो निरानन्दा च । समवखता--अवष्टब्धा । |
धिगस्तु मम जीवितमिति स्वजीवितनिन्दाद्धावकं खदवचो,
याऽहं तन परित्यक्तति खददेत् पदशनम् , ततश्च श्रयः--
अतिशयप्रशस्यं प्रव॒जितुं--प्रव॒ज्यां प्रतिपत्ते मम, यनान्य-
जन्मन्यपि नैवे दुःखभागिनी भवयमिति भावः । इत्थ चा-
ऽसो तावदवस्थिता यावदन्यत्र प्रविह्नत्य तत्रैव भगवाना-
जगाम, तत उत्पन्नकेवलस्य भगवतो निशम्य देशनां विश-
घत उत्पच्नवेराग्या कि कृतवतीत्याह-' श्रे ` व्यादि, अथ-
अनन्तर सा--राजीमती भ्रमरसज्निभान--कृष्णतया आ-
कुशचिततया च, कूचों--गूढकेशान्मोचको वंशमयः फणकः-
कङ्कतकस्ताभ्यां प्रसाधिताः-सस्कृता ये तान् , स्वयम्-
आत्मनेव, लुखति-ञ्रपनयति, भगवदनुक्षयति गम्यते ।
9
अध्यवसिता सती, धम विधातुमिति शष इति स्रूत्र्रयार्थः। |
तत्प्रवज्याप्रतिपत्तौ च-
वासुदेवो अ शं भणइ, लुत्तकेसिं जिइंदियं ।
संसारसागरं घोरं, तर कन्ने ! लहुं लहूं ।। ३१ ॥
स्पष्टमेव, नवरं तर-इत्युल्लक्घथ, शशी वैचनत्वादयमप्याशि. |
षिलोट्, लघु लघु-त्वरित, २ सश्रम द्विवैचनमिति सूत्राथः। |
तदुत्तरवक्तव्यतामाद--
सा पव्वक्या सती, पव्वावेसी तहिं बहूं ।
सयणं परियश चव, सीलबंता बहुस्सुआ ॥ ३२॥
गिरिं रेवयय जती, वासेणोल्लाउ अतरा।
वासते अधयारम्मि, अतो लयणस्स सा टिया ॥३३॥
चीवराणि विसारंती, जहा जाय त्ति पासिया |
रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिल्लो अ तीई वि ॥३४॥
भीया य सा तहि दद्र, एगंते संजय तयं । |
बाहार काउ संगुप्फं, वेवमार्णी निसीयई ॥३५॥ |
सृत्रचतुष्टय स्पष्टमेव, नवरं सा इति--राजीमती “ पव्वा- |
वेसि ' त्ति प्राविवबजत्-प्रनाजितवती “ तहिं ति' तस्यां
द्वारकापुरि, रेवतकम्--उज्ञयन्त यान्ती--गच्छन्ती, भ-
गवद्दधन्दना थीमिति गम्यते, वर्षण चृष्ख्या * उल्ल ' क्ति--आद्रो
स्तिमितसकलचीवरेति यावत् , अन्तरे--अन्तराले अद्धपथ |
इत्यथः, "वासंति' त्ति-वर्षात नीरद इति गम्यते | अन्धकारे-
अपगतप्रकाश, कस्मिन् ?--अन्तः--मध्ये, उक्त हि, अन्तः
ही वर रणपधानस् , मध्यमाद--लयनमिद गुदा तम्यां
५
शषसाध्वीष्वेकाकिनी
सा-राजीमती स्थिता इत्यासिता , श्रसयमभीरुतयेति
गम्यत, तत्र च चीवराण-सहगस्यादिवसख्राण विसारयन्ती-
विस्तारयन्ती ; अत एवं यथा जाता--अनाच्छादितशरी-
रतया जन्मावस्थोपमा ' इती ` व्यवे रूपा “ पासिय ` त्ति
दृष्टा । तदशनाञ्च रथनमिः--रथनेमिनामा मुनिः
भम्नचित्त:--भम्मपारिणामः सन् प्रक्रमात्सयमे प्रति, स
हि तामुदाररूपामवलोक्य समुत्पन्नतदभिलाषातिरेकः पर-
वशमनाः संमजनि। पश्चाद् टष्श्च तया--राजीमत्या
अपिः पुनरर्थे, प्रथमप्रविष्ठेर्टि नान्धकारप्दशे किञिद-
वलोकयत , अन्यथा हि वर्षणसम्श्रमादन्यान्याश्रयगताखु
प्रविशदपि न त्रयमिति भावः,
भीता च मा कदाचिदसो मम शीलभङ्ग विधास्यतीति
तस्मिन् इति लयने रष्टरा एकान्त-विविक्रे तकम् इति-
रथनेमि , कि छकृतवत्यसावित्याह-- बाहाहिं ति ›
बाहुभ्यां कृत्वा सगाप-परस्परबाहुगुम्फन स्तनापरिम-
कैटबन्धमिति यावत्, वेपमाना शीलभङ्गभयात्कम्प-
माना निषीदाति-उपविशति , तदाच्छेषादिपरिहारार्थमिति
भाव इति सत्रचतुष्टया थेः ॥
अचान्तरे--
अह सोऽवि रायपुत्तो, समुदविजयंगओ ।
भीय पवैविय दट्ठु , इमं वकमुदाहरे ॥ ३६ ॥
रहनेमी अहं भे, सुस्त ! चारुभासिणी !
ममे भयाहि सुञ्रणु !, न ते पीला भविस्सई ॥ ३७ ॥
एहि ता शंजिमो भोगे, माणुस्सं खु सदुल्लहं ।
भुत्तभीगा पुणो पच्छा , जिणमग्गं चरिस्सिमो ॥२८॥
अथ च सोऽपीति-स पुनः राजपुत्रः-रथनेमिः भी-
तां प्रवेषितां च प्रक्रमाद्राजामतीम् 'उदाहरे त्ति" उदादरत्-
उक्तवान् , कि तदिव्याह-'रथनमिरहामिति ` श्रननात्मनि
रूपवस्यायभिमानतः खप्रकाशनं तस्या अभिलाषोत्पादनार्थ
विश्वासविशसनहेत्वन्यशक्लानिरासार्थ वा स्वनामस्यापनं ,
ˆ ममेति ` मां भजस्व-सरवस्व सुतनु ! न ते तव
पीडा--बाधा भविष्यति , सखुखहेतुत्वाद्विषयसवनस्येति
भावः । यद्वा-तां ससम्श्रमां रष्टेवमाह-' म म भयादि त्ति"
मा मा भेषीः खुतचु! यतान ते--तव पीडा भविष्यति
कस्यचिदिद पीडाहतारभावात् , पीडया शङ्कया च भयं
स्यादिव्यवमुक्कम् , एहि-आगच्छु-' ता ' इति-तस्मात्तावद्वा
मानुष्यं ' खुः ` इति-निश्चितं खुदुर्लभम् , तदेतदवाप्ता-
विदमपि तावद्धोगलक्षणमस्य फलमुपभुजज्मदे इत्याशयः
भुक्कभोगाः पुनः-पश्चाद् इति वाद्धक्ये जिनमार्ग-जि-
नाक्रमुक्रिपथ ` चरिस्सामा त्ति चरिष्यामः, शेषे स्पष्टमिति
सत्रत्रयार्थ: ॥
ततो राजीमती किमचे एतेत्याह--
दरण रहनेमिं तं, भ. अ।यपराइय॑ ।
राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहि ॥ ३६ ॥
अह सा रायवरकन्ना, सुद्धिया नियमन्वए ।
¢ # + +
जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वदे ॥ ४० ॥
जइ5सि स्वेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो |
( ४६८ )
आई भधानराजन्द्र: |
रेयणमि _
तहाव त न इच्छामि जइ ऽसि स्ख पुरदरा ॥४ 2 ^ |
धिरत्थु तेजसो कामी, जो तं जीवियकारणा । |
वते इच्छसि आवेउं, मेयं ते मरणं भवे ॥ ४२॥
अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अधगवणिहिणों ।
मा कुले गधणा होमो, संजम निहुओ चर ॥ ४३ ॥
जई ते काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ |
वायाविद्ध व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥४४॥
गोवालो भंडवालो वा, जहा तर्दव्वऽणिस्सर। ।
एवं अणीसरो तं पि, सामन्नस्स भविस्ससि ॥ ४४ ॥
सत्रसप्तकं पाठसिद्धं, नवरं ' भग्गुज्जायपराइय ति ` भझोा-
दोगः-अपगतोत्साहः प्रस्ताघात-संयम । स चासां पराज
तश्च--शभिभूतः खीपरीषहण भग्नाद्यागपराजितस्तम् अ-
सम्श्रान्ता-- नाय बलादकार्य प्रवत्तेयितत्यभिप्रायेणात्रस्ता
्रात्मान- स्वे * सवरे त्ति ` समवारीत् आच्छादितवती
सीवरेरिति गम्यत, तस्मिन् इति लयनमध्य पीडया ।
शङ्कया च भयं स्यादित्यवमुक्कम् । खुस्थिता--निश्चला
* नियमवत ` इतीन्द्रियनोइन्द्रियनियमन-- प्रतरज्यायां च
जाति कुल शील च रक्सखमाणि त्ति ` रक्तन्ती,
शीलध्वेश दि कदाचिदस्या एवेविधेव जातिः कुल चति
सम्नावनातस्ते अपि विनाशित स्यातामित्यवमुक्कम् , यद्यपि
असि-भवसि रूपण--श्राकारसोन्दर्यण वेंश्रमणः- धनदं
ललितन-सविलासचणितिन नलकरूवरः- दवविशषः ˆ त `
दरति त्वां सात्तात्-समत्तः पुरन्दरः-- इन्द्रा रूपाद्यनकणु-
राश्रयो य इति भावः, रूपाद्यभिमानी चार्यामत्यवमुक्कः ।
अपरं च--धिगस्तु ते-तव पोरर्यामति गम्यत, अयश
कामिन्निव अयशः कामिन् !-अकात्याभलाषन् }, दुरा-
चारवाड्छितया, यद्धा त--तव यशो--महाकुलसम्भवोद्धूते
धिगस्त्विति सम्बन्धः, कामिन् !-भोगाभिलापिन् !
जीवितकारणात् जीविर्तानमित्तमाधित्य , तदनासवन
हि तथाविधदशाचाप्षौ मरणमपि स्यादिव्यवमभिधानम्
वान्तम्-उद्रीण यत् श॒गालेरपि परितं तदिच्छुस्यापातुम्
यथाटि-कश्चिद्धान्तमापातमिच्छत्यवे भवानपि प्रत्रञ्याग्रहण-
तस्त्यक्कान् भागान् पुनरापातुमिवापातुम्--उपभोक्तुमिच्छं
ति अतः श्रयः--कल्याणे त--तव मरण भवत्, न तु
बान्तापान, ततो मरणस्येवाल्पदापत्वात् । । अनूदित चेतद्-
“ विज्ञाय वस्तु निन्ये, त्यकत्वा गृह्णन्ति कि कचित्पुरुषाः १।
वान्ते पुनरपि भुङ्क्र, न च सवैः सारमयाऽपि ॥१॥ ” |
* ग्रह ` मित्यात्मनिर्देश चः--पूरण ` भाजराजस्य--उग्र- |
सनस्य त्वे च श्रसि--भवसि अन्धकवप्णेः कुल जातः |
दत्युभयत्र शपः, श्रतञ्च मा इति निषध कुल--ञ्न्वय |
* गंधण त्ति ` गन्धनानां--सर्पविशषाणां ` हामा त्ति ` भूव,
तच्चण्ितानुकारितयानि भावः त हि वान्तमपि विष ज्वल- |
हह्विपातभीरूतया पुनरपि पिवन्ति, तथा च बुद्धाः- सप्पा- |
ण कल दा जाइओआ-गधघणा य, अगंधणा य) तत्थ गंधणा-
णाम ज डसिए मन्दि आकड्डिया ते विसे वणमुहातो श्रावि- |
येति, अगंध 7 उण अवि मरणमज्भवसंति णय वंतमाचियं |
ति।"' कि तर्हि कृत्यमित्याह-संयमे निभरतः- स्थिरः चर- |
आसेवस्व, यदि त्वं भाव-प्रक्रमाद्धोगाभिलाषरूपे
दिच्छसि तति ' दच्यसि तासु तास्विति
किमित्याह-वातनाविद्धः-समन्तात्ताडितो ठ
मित इति याचत् । दटो-वनस्पतिविशषः स
चलचित्ततया ऽस्थिरस्वभावः । गोपालः-यो
पालयति, भारडपालो वा-यः परकीयानि
भाटकादिना पालयति, पठ्यते च-'दरडपाला वा
रक्तको वा! यथा-तद्द्रव्यस्य गवादिः स ।
अनीश्वरः-अप्रभुः, विशिष्ठतत्फलोपभोगाभावात् ,
नीश्वरस्त्वमपि श्रामएयस्य भविष्यसि , भागाभिलाषतर
त्फलस्या ऽपि विशिष्टस्याभावादिति भाव इति सृव्रसप्तकार
एवं तयोक्तो रथनमिः कि कृतवानित्याह ?-
तीसे सो यणं सुचा, संजईए सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४६ ॥
मणगुत्तो वयगुत्ता, कायगृत्तो जिइदिओओ ।
सामन्नं निचलं फासे, जावजञीवे दढव्वओं ॥ ४७॥
सृ्रद्वयम् , तस्याः-राजीमत्याः सः-रथनेमिः |
अनन्तराङ्कानुशिष्टिरूपे श्रुत्वा-श्नाकर्य सयतायाः-भ्रब्र
जितायाः सुप्ठु-संवेगजनकत्वेन भाष्ितिम- उक्तं सुभं
पितम् , शअङ्कशेन-्रतीतेन , यथा-नागः-दस्ती ्ाः।
इति शषः , एवं धर्म-चारित्रधर्म `: संपडिवाइञअ |
त्तिः “ सम्प्रतिपातितःः सस्थितः ,
गम्यते । अल च वृद्धसम्प्रदायः--
|
रयं भणिऊण ० जाव तता रुट्ठुण राइणा देवी | |
हत्थी य तिन्नि वि द्िन्नकडगे चडावियाणि, भणिओ २
मेठो--एत्थे वादि दत्थ, दीदि य पासेहि
उविया,० जाव एगो पाओ आगासे उविश्रो । जणो भणइ-
कि एस तिरियो जाणइ ?, एयाणि मारेयञ्वाणि , तदादि +
राया रोसन मुञिति , ततो श्र तिन्नि पाया आय
कया, एगण ठितो , लोगेण श्रक्कंदो कतो--किमेयं हः
त्थिरयणं वावाइजति ? , ररणा मिंठो भणिओ--तरासि
णियत्तेड ?, भणइ--जइ दुयर्गाणवि अभय देसि , दिष्ष
ततो तण श्रकुसरण नियत्तिश्रो हत्थि त्ति। "` इह चायम `
भिप्रायः-यथा-श्रयमीरगवस्थो द्विपोऽङ्कशवशतः पथि से
स्थित पएवमयमप्युत्पन्नविश्रोतसिकस्तद्वचेनन अहितप्रवृ
क्षिनिव्तकतया 5छुशप्रायेण धमे इति, ततश्च भ्रामण्य नि
अ्ले-स्थिरं ' फास त्ति” अस्प्राक्षीदू-आसेवितवान , ,
षे स्पष्टमिति सूत्रद्ययार्थः ।
उभयोरप्युत्तरवक्कन्यतामाह-
उग्ग तवं चरित्ताणं, जाया दुन्नि वि केवली !
सव्वं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥ ४८॥ '
उग्र कम रिपुदारणतया तपः-अनशनादि ` चरित्ताण ति,
चरित्वा जातौ-भूतों द्वावपीति-रथनमिराजीमत्यों, “ केव- |
ली ति' केवलिनो सर्व निरवशपं -कम-भवोपग्राहि * खबि- |
ताण ति ' क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तावनुत्तरामिति सूत्रार्थः।
सम्प्रति निर्युक्चिरनश्रियते-- |
सोरियपुरभ्मि नयरे, आसी राया सयुदवि्मग्रो त्ति ।
[४
( ४६६ )
अभिधानराजन्द्रः ।
रहघछुसले
मि पुत्ता चउरो, अरिट्वनेमी तहव रहनेमि ।
` तइओ अ सच्चनेमी, चउत्थओ होड दढनेमी ॥ ४४४॥
_ जो सो अरिद्रनेमी, बावीसइ मो अंहेसि सो अरिहा ।
_ रनेमिसचनेमी, एए पत्तेयबुद्धा ॥ ४४५ ॥।
रहनेमिस्स भगवओ, गिहत्थए चउर हति बाससया ।
|संवच्छरछउमत्थो, पंचसए केवली हंति ॥ ४४६ ॥
।नववाससणए वासा- दिए उ सन्वाउगस्स नायव्वं |
अज च प्रथमगाथया रथनमेरन्वय उक्तः । "तसि ति
_थनेमेमौहात्स्यख्यापनार्थम् चतुर्थगाथया पर्यायपारिमाणा-
प्रधानम , तत्र चत्वारि वर्षशतानि गरहस्थपर्यायः, वर्ष छ-
[स्थपर्यायः, वषशतकपञ्चकं केवलिपर्याय इतिः मिलितानि
(त्वति' च-तु-शब्दौ पूरण , ततत एष एव च वर्षाधिकवर्षश-
[नवकलक्तणः, शष स्पष्टमिति गाथापश्चकार्थ: |
| सम्प्रति प्रतिभन्नपरिणामतया मा भूद्रथनमो कस्यचिदव-
तति 3
| एवं करेति संवृद्ध, पंडिया पवियक्खरा ।
विनियदुति भोगसं, जहा सो पुरिसोत्तमो।।४६।।त्ति वेमि |
षवम्-इति वक्ष्यमाणं कुर्वन्ति-विद धति सचुद्धाः चाधिला-
प्रतः,परिडताः बुद्धिमच्वेन, प्रविचक्तणाः प्रकर्षण शास्त्रज्षतया
तन्निरोधलक्षणन निवक्तन्त, 'भोगेसुं ति भोगेभ्या
परथासः-
लम्बुद्धादिविशेषणान्वितत्वेन कथमयमवश्चास्पदं भवदिति |
भावः । उपदेशपरतया वा घराग्वद्याख्ययमिति सूत्रार्थः ॥ |
` इति ` परिसमाप्तो , ब्रवीमीति पूयवत् , उत्त २२ श्र । |
दश० । कर्प० ।
शेमिज-रथनेमीय-न० । रथनेमिवक्तव्यतापतिपादके दा-
विंशे उत्तराध्ययने , उत्त० २२ ० | स०।
पह रथपथ- पु० । शकटचक्रद्धयप्रमिते मार्गे , भ० ७ श०
द उ०।
पहगर-रथपथकर -पु० । रथनिकरे, छरौ० !
महण रथमर्दन- न । धातकी खोड अवरकङ्कायां नगर्या
स्वनामख्याते को, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ०। |
रुसल रथमुशल- पुं । रज रथा मुशलेन युक्तः परिधाय
न् महाजनन्तय कृतवान् असो रयमुशलः । स्वनामख्या-
| कोणिकपुत्राणां चटकेन राज्ञा साधं संग्रामे, भ० ७ श०
5 ड० । नि० । ( रथमुशलाख्यसंश्रामस्योत्पत्तौ कि. निब-
धनमिति ` काल ` शब्द् तृतीयभागे ४८ १ पृष्ठ गतम् )
२
व #
मे अग्गमहिसी, सिव त्ति देवी अशुजगी।४४३। |
एसो उ चेव कालो, राव(य)मईए उ नायव्वो | ४४७॥ |
योः-समृद्रविजयशिवादेव्योः , भ्रसङ्गतश्चेह शषपुत्रा- |
बर ' अद्देसि त्ति ` श्रभूत् , इह च यदरिण्नमेरहं्वं |
मश्च प्रत्येकवुद्धत्वमृक्तं तदहे द्धातृत्वन स्वगुणप्रकरषेण च |
य > £ [> ह [® = = |
ब्र वषशतान व्षाधकान सवा5<5युराभाहतम् , एष चव
त त्वनीदशाः, किमित्यार- विशषण कथश्चिद्धिश्रोतखिको- |
पुरुषात्तमो रथनेमिः.अनीटशा ह्यकदा भग्नपरिणा |
प्रा न पुनः संयमे प्रवत्तितु क्षमाः ततो भोगविनिवसेनात् |
शायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विन्नायमेयं अरहया
रहमुसले संगामे, रहमुसले शं भते ! संमामे वइमाणे-
के जइत्था के पराजइत्था † गोयमा ! बजी बिदेहपुत्ते च-
| मरे असुररिदे असुरकुमारराया जइत्था, नब मन्नई नव ले-
च्छ पराजहत्था । तए शं से कृणिए राया रहयुसलं स-
गामं उवद्धिय सेस जहा भहासिलाकंटए, नवरं भूया-
| शदे हत्थिराया ° जाव रहघुसलसंगाम ओयाए, पुरओ
यसे सके देविंदे देवराया, एवं तहेव० जाव वचिदुति,
मग्गओ य से चमरे असुरिदे असुरकुमारराया एगं मरं
आयासं किदिशपटिरूवगं विउज्वित्ता शं चिद्रू, एवं
खलु तओ. इंदा सगामं सगार्मेति, तं जहा-देविदे य
मणुईदे य असुरिंदे य | एगहत्थिणा वि शं पभू कृणि-
ए राया जहत्तए तहेव ०जाव दिसो दिसि पडिसेहि-
त्था । से केणड्ड्रेण भते ! रहम्ुसले संगामे ?, रहमुसले
संगामे , गोयमा ! रहस्ुसले शं संगामे बइमाणे एगे र-
है अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया
जणक्खयं जणवहं जणप्पम जणसंवइकप्पं रुहिरक-
हमे करेमाणे सन्वय समंता परिधावित्था, से तेशउड्डेखं ०
जाव रहमुसले संगामे । रहमुसले णं भते ! संगामे व-
इमाणे कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ ?, गोयमा !
छन्नउतिं जणसयसाहस्सीओ बहियाओ | ते णं भते!
मणुया निस्सीला ०जाव उववन्ना ?, गोयमा ! तत्थ शं
दस साहस्सीओ एगाए मच्छीए ङुच्छिति उवबन्नः यो,
| एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पाया, अवसेसा
ओसजं नरगतिरिक्खजोणिणएसु उववन्ना । ( छू०-३०१ )
केम्दाणं भेते ! सके देर्विदे देवराया चमरे अ-
सुरिंदे असुरकुमारराया इशियस्स रमो साहेज्जं॑दलई-
त्था १, गोयमा ! सके देविंदे देवराया पुव्वसगतिषए च-
मरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए्, एवं खलु
गोयमा ! सके देविंदे देवराया चमे य असुरिदे अ-
सुरकुमारराया कणियस्स रो साहिज दलशत्था ।
( व° ३०२ ) बहुजणे शं भते ! अन्नमन्नस्स एवमाइ--
केखति° जाव पस्यति एवं खलु बहवे मणुस्सा अ-
नेयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया स-
माणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएस
देवत्ताएं उववत्ताो भवंति , से कहमेयं भते ! एवं १ ,
गोयमा | जण्णं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं अ।इक्ख -
ति °जाव उववक्तारो भवन्ति, जे ते एवमाहंसु मिच्छ
ते एवमाहसु, अदं पुण गोयमा ! एवभाइक्खामि ० जाव
( १-महा|सिलाकंट्य! शाब्दे अस्मिज्ेवभागे ग्नम् )
~~~
( ४०० )
असखिधानराजन्द्र:।
रहमुसल
परूवेमि-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालणं तेणं समएण |
बेसाली नामं नगरी होत्था, वष्प्रो, तत्थ खं वेसालीए |
णगरीए वरुणे नामं णागनत्तए परिवसइ अड्डे °जा- |
व अपरिभूए समणेवासए अभिगयजीवाजीवे ०जाव |
पडिलभेमाणे छं छट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं |
अप्पाणं भवेमाणे विहरति, तए शं से वरुणे खाग-
नत्तुए अन्नया कयाइ रायाभिच्रागेणं गणाभिओगेण ब-
लाभिओगेणं रदमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्ठभ-
त्तिए अट्टमभत्तं अणुवद्ेति अट्टमभत्त अणुवद्वेत्ता को- |
` ईतरियपुरिसे सदव सद्दावेइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव |
भो देवाणुप्पिया ! चाउग्धंटं आसरहं जुत्तामेव उबद्गा- |
बेह हयगयरहपवर ०जाव सन्नाहेत्ता मम एयमाणत्तियं |
पच्चप्पिणह । तए णं से कोडवियपुरिसा ०जाव पडिसुणेत्ता
खिप्पामेव सच्छत्तं सञ्भयं °जाव उबड्टावेति हयगयरह
०जव सन्नहेति सन्नाहेंतित्ता जेणव वरुणे नागनत्तुए
०जाव पचप्पिशति | तए णं से वरुणे णागनत्तुए जणेव मज्ञ-
शथरे तेणेव उगागच्छति जहा कृणिओ ०जाव पाय- |
च्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धे सकोरेंटमन्नदामेणं
०जाव धरिजमाणेणं अणेगगणनायग ° जाव द्यसंधिपाल-
सद्धिं संपरिवुड़े मज़्णघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमि-
त्ता जेव बाहिरिया उवद्राणसाला जरेव चाउम्घंटे आसरहे
तेणेव उवागच्छइ उवागच्छदत्ता चाउम्घंटं आसरहं दुरूहइ |
दुरूहइत्ता हयगयरह ०जाव संपरिवुड़े महया भडचडगर°
जाव परिक्खित्ते जणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ |
उवागच्छट्कत्ता रहम्मुसलं सगामं ओयाओ । तए णं से वरू
शे णागणत्तए् रहमुसलं संगामं ओयाए समाणे अयमेया-
स्वं अभिग्गहं अभिगिण््हइ-कप्पति मे रदयसलं सगामं सै-
गामेमाणस्स ज पुव्वि पहणइ से पडिहणित्तए् अवसेसे नो क- |
प्पतीति, अयभयासूवं अभिग्गहं अमिगेणटई अभिगेण्हदत्ता
रहमुसलं सगामं संगामेति | तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तु-
यस्स रहमुसलं संगामं संगाममाणस्स एगे पुरिसे सरिसए
सरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभडमत्तोवगरणे रहेणं पडि-
रहं हृव्यमागए, तए शं से पुरिसे वरुणं णागणनुय एवं
वयासी-पहण वरुणा ! णागणत्तुया प० २, तए णं
से वरुणे णागणत्तुए तं पुरिसं एवं वदासी-नो खलु मे
क्रप्पइ देवाणुप्यिया ! पूच्वि अहयस्स पटणित्तए, तुम चैव
णं पुव्वं पहणांहि । तण णं से पुरिमे वरुणे णागणत्तुएणं
एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धुं पराम
सह परामुसइत्ता उसु पराम्ुसइ उस पराम्मसित्ता ठाखं ठा-
ति ठाणं ठिच्वचा आययकृनाययं फरेइ आय-
+
रसु
यकन्नाययं उस करेत्ता वरुणं णाग ॒रत्तयं गादष्प-
हारी करेइ । तए णं से वरुणे णागनत्तुए तेख पुरिसेखं
गादप्पहारीकए समाणे आसुरुत्त ° जाव मिसिमिसेमा-
णे धणुं पराशुसइ धणं मरायुसित्ता उसुं परागुसइ उस
परामुसित्ता आययकनाययं उसुं करेइ अ्ययकन्नाययं उ-
सु करेत्ता तं पुरिसं एगाहच कूडाहच्चं जीवियाओ
ववरोवइ । तए ण॑ से वरुणे णागणत्तए तेणं पुरिसेशं
गाठप्पहारीकए समाणे अत्थामे अवले अबीरिए अपुरिस-
कारपरक्रमे अधारणिजमितिकडं तुरण निगिण्हइ तुरण
निगिरिहत्ता रहं परावत्तेइ रहं परावत्तित्ता रहमसलाओओ
संगामाओं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता एगतमतं अ-
वकरमह एगंतमंतं अवकमित्ता तुरण निगिण्ड निगिरिहत्ता
रहं ठवेइ ठवेइत्ता रह!ओ पच्चोरुहइ रहाओ पच्चोरुहदत्ता
रहाओ तुरण मोएइ तुरए मोएत्ता तुरए विसज्ञेई विसज्ञित्ता,
दन्भसथारगं संथरइ दब्भसंथारगं संथरइत्ता ( पुरच्छभि-
भदे दुरूहइ दब्भसंथारगं संथरइ संथरइत्ता ) पुरच्छाभि-
मुदे संपलियंकनिसल्ने करयल ०जाव कट एवं वयासी-
नमोऽत्थु णं अरिहंताणं ०जाव संपत्ताणं नमोउत्थुणं सम-
शस्स॒ भगवओ महावीरस्स आइगरस्स °जाव सेपाविउका- .
मस्स मम धम्मायरियस्स ` धम्मोवदेसगस्स वंदामि
णं भगवन्तं तत्थगयं इहगए पासठ मे से भगवं
तत्थगए °जाव्र वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं
वयासी--पुल्वि पि मए समशस्स भ्रगवओ महाबीर-
स्प अतिए थूलए पाणातिवाए पचक्खाए जावज्ञीवाए
एव °जाव॒धूलए॒परिग्गहे पञ्चक्खाए जावज्ञीवाणए्,
इयाशि पि णं अरिहंतस्स भगवश्रो महावीरस्स अंतियं
सञ्वै पाणातिवायं पचक्खामि जावज्ीवाए एवं जहा
खदश्रो °जाव एयं पि णं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं बोसि-
रिस्सामि त्ति कट्ु सन्नाहपई मुयइ सन्नाहपई मुइत्तासल्लुद्ध-
रणं करेति सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयप डिकंते समाहिप-
तते आखुपुव्वीए कालगए | तए शं तस्स वरुणस्स णागन-
त्तयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगामं संगामेमाणे
एग सं पुरिसे श गाठप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले
° जाव अधाराखिजमिति क्ट वरुणं णागनत्ु्य॒रह-
मुसलाओ संगा माश्ो पड़िनिक्खममाणं पासइ पासहत्ता
तुरण निगेण्टइ तुरण निग रिहित्ता जहा वरुणे °जाव तुरए वि
सञ्जति पडिसंथारगं दृरूहड पडि संथाइगं दुरूहित्ता पुरत्था-
भिदे °जाव अंजलि कटु एवं वयासी-जइ शं
भते ! मम पियबालवयस्सस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स
सीलाई वयाई गुणा वेरमणाई पचक्खाणपोसदो-
रहँससल |
रहमसुसल 22206
( ४०१ )
अशभिवधानराजन्द्र। ।
रहमसल
बवासाईं ताइ शे ममं पि भवंतु त्ति कट् सन्नाह-
पटं यई मुयइत्ता सलछुद्धरणं करेति सलुद्धरण करेत्ता
आणुपुव्वीए कालगए । तए णं त वरुणं णागणत्तुयं का-
लगये जाणित्ता अहासननिदहिणएहिं वाणमेतरेहिं देवेहिं
दिव्वे सुरभिगेधोद गवामे बुड्े,दसद्धवन्ने कुसुम निवाडिए,
दिव्वे य गीयगंधव्वनिनादे कए याऽवि होत्था | तए णं
तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिव्वं देविड दिव्वं देव-
|
ज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागे सुणित्ता य पासित्ता य बहुज- |
शो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ०जाव परूुवेति--णवं खलु |
१
देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा ०जाव उववत्तारो भवंति ।
( शच ३०३ ) । वरुणे णं भते ! नागनत्तुए काल
मासे कालं किच्चा कहिं गए किं उववन्ने १, गोयमा !
सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवचाए उववन्ने, तत्थ
शं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाणि दिती
पत्ता, तत्थ खं वरूणस्स पि देवस्स चत्तारि पलिओव-
माई ठिती पष्त्ता । से ण भते ! वरुणे देव ताओ देवलो-
गाओ आउक्खएणं भवक्खएणं टिइक्खएणं ०जाव महा-
विदेहे वासे सिज्भिहिति०जाव अतं करेहिति । बरुणस्स |
शं भते ! णागणत्तुयस्स पियवबालवयसए कालमासे
कालं किचा कहिं गए ! करहि उववन्ने ?, गोयमा ! सुकुले |
पच्चायाते । से शं भते ! ! तओहिंतो अणंतरं उव्बद्दित्ता
कटिं गच्छहिति किं उववज्जहिति १, गोयमा ! महावि-
देहे वासे सिञ्भिहिति ° जाब अतं करेति | सवं भत ! |
सेवं भते ! त्ति। ( ष° २०४ )
“ सारुट त्ति ' सरुटाः मनसा “ परिकुविय त्ति ` शरीरे सम
न्तादरितकोपविकाराः “ समरवहिय त्ति ` संग्राम हता
रहमुसले त्ति ` यत्र रथो मुशलन युक्कः-- परिधावन् महा-
जनक्षयं कृतवान् शरसा रथसुशलः, 'मग्गओ त्तिः पृष्ठतः" आ-
यसति ` लोहमयम् ` किदिणर्पाडरूवग ति ' कठिने-वंशम-
यस्तापससम्बन्धी भाजनविशषस्तत्प्रतिरूपकम्- तदाकार
वस्तु ' अणासए त्ति ` अश्वरहितः ` असारदिषत्ति' अ-
सारिकः ' अणारोहए त्ति ` “ अनारोहकः--याधवर्जितः
* महता जरक्खय ति › महाजनविनाशे “ जणवहे ति ?
जनवधे जनव्यथां वा ˆ जणपमई ति ` लोाकचूरीनं
* जणसंवटद्गकप्पं॑ ति जनस वत्ते इव-लाकसटार इव जनस-
वत्तेकल्पो $तस्लम् । ' एगे देवलागखु उववन्न एग स्ुकुल- |
पञ्चायाए त्ति ` एतत्स्वभावत एव वच्यति । “ पुव्बसंगइए
त्ति ` कात्तिकश्रेष्ठयवस्थायां शक्रस्य कृरिकजीवो मित्रमभ-
बत् , परियायसंगइए ज्ति' पूरणतापसावस्थायां चमरस्याः |
सो तापसपर्यायबर्त्ती मित्रमासीदिति | ` जन्नं स बहुजणा
अन्नमशन्नस्स एवमाइकक््खइ › इत्यत्नैकवचनप्रकमे ` ज ते
एवमाहंसु ` इत्यत्र या बहुवचननिर्देशः स व्यक्त्यपत्ता ऽवस |
यः *अदिगयजीवाजीवे' इत्यत्र यावत्कर णात् ` उवलद्धपुन्न-
१२६
पावा ` इत्यादि दृश्यम् ' पंडिलाभमाण क्षि' इद च ' समण
निग्गंथे फासुणंण एसरिजेर असणपाणखाइमसाइमरो
वत्थपंडिग्गहकंबलरओहरणंण पीदफलगसञ्जासथारणणो
पडिलाभमाण विहरइ' इत्यवे दश्यम , 'चाउग्धररे ति' घर्टा
चतुष्यापतम ` सरद ति ` श्रश्ववहनीये रथ ` जुत्तामच-
त्ति ` युक्कमव रथसामग्र्याति गम्यम् , 'सञभये इत्यत्र याव-
त्करणादिदे दृश्यम-'सघेटे सपड़ागे सतोरणवरं सरदिधास
सकिकिणीदेमजालपरंतपरि क्खित्त ` सकिङ्खिणीकन क्षुद्रघ-
रिटकायुक्कन हमजालन पर्यन्तषु परिक्षिप्ता यः स तथा ते ह
मवर्याचत्ततणिसकणगनिउन्नदारूयाग' टे मचनानि-दिमव
द्विरिजातानि चित्राणि-विचित्राणि तेनिशानि--तिनिशामि-
धानवृस्तसम्बन्धीनि सहिमवतीति तद्द कनकनियुक्रानि-
नियक्लककनकानि दारूणि यत्र स तथा तम् , 'सुसविद्धचक्रम-
डलधुरागे ' सुष्टु संविद्ध चक्रः यत्र सगडला च-चृत्ता धूयेत्र
स तथा तम्, ' कालायसखुकयनमिजेतकम्म ` कालायसन-
लाहविशचर सुप्ठु कृत नमः--चक्रमरडलमालाया यन्त्र
कम--यन्धनक्रिया यत्र स तथा तम् , ` आदन्नवरतुरयसखसं
पउत्त ` जाल्यप्रघानाश्वः सुष्टु सप्रयुक्कमित्यश्रः, ` कुख्लल-
नरच्छेयसार हिसुसेपर्गहिये' कुशलनर रूपा य श्छुकसा रशथि:-
दक्षप्राजिता तन रुष्ठु सम्पग्ृहीतोा यः स तथा तम् , 'सरस-
यवत्तीसयतोणपरिमंडियं ` शराणां शतं प्रत्यकं यषु ते श-
रशतास्तेद्धाचिशता ताशेः-शर्धभिः परिमरिडतो यः स
तथा तम् , 'सकंकडवडसगे' सह कद्धटैः--कवचेरवतंसेश्च-
शखर कैः शिरखाणभूतेयः स तथा तस् , सचावसरपदर-
णावरणभरियजोदजुद्धसजे' सह चापशरेयीनि प्रहरणानि
खद्गादीनि श्रावरणानि च--स्फुरकादी नि तषां भ्रतोऽत एव
योधानां युद्धसज्ञश्च-युद्धथ्रगुणा यः स तथा तम् , ` चाउ-
ग्धेटं आसरहं जुत्तामेव ` त्ति, वाचनान्तर तु सात्तादेवेदं
४
दश्यत इयात, अयमयारूव त॒ प्राऊृतत्वादेदम् , णतद्रपम्-
चच्यमाणरूप ` सारसप स ` सरशकः--समानः “ सरि-
सत्तप ' [त्त सदृशत्वर्् ' सरि सन्वय न्ति ` सटग्वयाः “ स-
रिखभडमत्तावगरण ` त्ति सदशी भारडमात्रा--प्रहरणको-
शादिरूपा उपकरण च--कङ्खटादिकं यस्य स तथा, ` पडि-
रहति › रथं प्रति आसुरुक्ति' ्राश्ु-शीघ्र रुपः-कापादया-
द्विमूटः ` रुप-लुप-विमाहन' इति वचनात् ; स्फुरितको पलि-
ङ्गा वा, यावत्करणादिदं दश्यम्-' रुद्रुं कुचिए चडिक्किए क्ति
तत्र रुषः ` उदितक्राधः ` कुपितः ' प्रबृद्धकापोदयः चा-
रिडिकितः' सञ्जातचाणिडकयः प्रकटितरी द्ररूप इत्यथः, 'मि-
सिमिसेमाणे ' नि क्रोधाझिना दीप्यमान इव, एकार्थिका
वेते शब्दाः कोपप्रक्षप्रीतिपादनार्थमुक्काः, ' ठाण ति” पाद.
न््यासविशषलतक्तरणं ` ठाति क्षि कराति “ आययकप्लायय
ति ' आयतः--आकृष्टः सामान्यन स एव कणीयतः--श्रा-
करणमाकृष्टः आयतकर्णायतस्तम “ पगाहच्चं ति ` पका ह-
त्या-हनने प्रहारा यत्र जीवितव्यपरापणे तद काहत्य तद~
था-भवति, ` कडाहच्च ति ` कट इव तथाविधपाषाणस-
म्पुरादौ कार्लविलम्वाभावसाध्यादादत्या--श्राहनने यत्र
तत् कृटाहत्यम् ' श्रत्थाम क्षि ` अस्थामा ` सामान्यतः
शक्रिविकलः “ अवले न्ति" शरीरशक्लिव्जितः “ अवीरिए
ति ` मानसशक्षिवर्जितः “अपुरिसक्कारपरक्कमे त्ति' व्यक्कं
नवरं पुरुषक्रिया पुरुषकारः-पुरुषाभिमानः स एवं निष्पा-
( ४०२ )
सु आप | सखभिधानराजन्द्रः। . राह
दितस्वधयाजनः पराक्रमः अधारणिल्ले ति श्रात्मनो ध- |
रां कत्तेमशक्यम् इनि कददटु त्ति ' ऋरूत्वा इति हेतारि- |
त्यथः ' तुरण शिगिगहइ त्ति ` अश्वान् गच्छतो निरूणद्धी-
त्यथः ' एमेतमंन ति ` एकान्तम-विजनम् अन्तम्-भूमिभागे
" सीलादं ति ` फलानपक्षाः प्रवृत्तयः ताञ्च प्रक्रमाच्छुभाः
वयाद् ति ` अहिसादीनि ` गखाद् प्त
णाई ति ` सामान्यन रागादिविरतय:ः ` पच्चक्वाणपोसदा-
वयासाई ति ` परत्याल्यान-पोंरुषाद्विषयं पोषधोपवासः-
गीत--गानमातं
परवेदिनापवासः ` गौयरोघव्वनिनाए तत्त `
गन्ध -तदव स॒रजादिध्वानसनाथ तजन्लक्षणो
शब्दा गीतगन्धर्याननषदः । ` कालमासे त्ति
निद {नः-
मरणमासे
मासस्यापफ्लक्षणत्वात् कालदिवसे इत्याद्यपि द्रण्व्यं ' कहि '
गए कटि उववन्न त्ति ` प्रश्नद्वय ` सोहस्म ` त्याद्येकम-
वोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्यात्पादाभिधानन गमने सा-
मथ्यादवगतमवेत्यभिप्रायादिति । : श्राउक्खपणे ` आयुः
कर्मदलिकानि जरणन ` भवक्खष्टणो ति ` देवभवनिवन्धनदेवग-
त्यादिकर्मनिर्जर णन ` टिदक्खपसे ति ` आयुष्कादिकम्मणां
स्थितिनिजरणनात । भ० ७ श० ६ उ ।
रहयार रथकार - पुं० । वर्डकिनि, “ रहयारा वहूइणो' पाइ”
ना० १०३ गाधा।
रहरेणु-रथरेणु पुर । रथन गच्छृना उत्खातो रुः रथरणु
वा, रथे गच्छति तदुत्खातो य ऊध्चानयकररुः: रथरणु
अ्रछत्रसर णुपरिमिते परिमाण, ज्या० २ पाहु० । अनु० ।
स्था० । ज० | पव | भ० ।
रहवर-रथव॒र पु । ऋषभदेवस्य चतुदश पञ्च, करप० २
अआधि० ७ क्षण ।
गणगतानि 'वेरम-
प्रव । रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम् । राजादिका्यसम्ब-
दं यदन्यस्मे न कथ्यते , तस्य दूषणम् , , अनधिकृतेन वा55-
कारङ्गितादि भिन्ञात्वा अन्यस्मै प्रकाशनं रहस्यदुषणम् , य~
था--रहसि मन््रयमाणान् कांश्चिदवलाक्य गरहीतसमषावतः
कश्चिद्ददति-एते हि. राजापकारादिकारकमिदमिदे च
मन्त्रयन्ते , यद्धा-रहस्यदूषणं पेशून्यस , यद्धा--दयोः परीतो
सत्यामकस्येकस्याकारणादिनापलभ्यःः पायमितरस्य तथा
कथयति यथा प्रीतिः फ़्णश्यति , इरि द्वितीयोऽतिचारः ।
प्रव० ६ द्वार ।
रहस्सब्भक्खाण-रहस्याभ्याज्यान-न० ¦ रह एकान्तस्तत्र भव
रहस्यं रहस्यनाभ्याख्यानमभिशंसनःः दलदध्यारो पर्ण रह--
स्याभ्याख्यानम । स्थूलसरषावादविरते द्वितीयातिचारे, घ०
२ अधि० । पश्चा० । ० । रह एकान्तस्तव भवं रहस्यं
तन तस्मिन्वा अभ्याख्यान रहस्याभ्याख्यानम् , एतदुक्क
भवति एकान्ते सन्त्रयमाणान्वक्ति--एते दीद चदं च राजा-
पकारित्वादि मन्यन्ति ! श्राव० ६ अ० ।. घ० र० |
उपा । श्रा० ।
रस्यत - दृ खवन्त-पुं° । वामनकुब्जादिषु , सूत्र० २ श्रुं०
१ ० ।
रहस्सिय-रह(स्थि)सिक-न० | अकार्यलम्बद्धमन्त्रे, अआचा० २
श्रु० १ चू० २ अ० ३ उ० | रहसिके जन, विपा० १ श्रु० १
अण० । एकान्तयागिनि, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० | गुप्त, ज्ञा० १
श्रु० १ आ० ।
| रहावइगिरि-रथावत्त॑गिरि-पुं० । वद्धस्यामिनो 5नशनेन शरी-
रहवीरउर-रथवीरपुर-न० । अ्रष्टमनिह्वानां बोटिकानाम् उ- |
त्पत्तिस्थान. श्रा० मण० १ अ० | विशे० | आ० क० । आ० |
चू० । उत्त० । कल्प० ।
रहसंगेन्न-रथसंगेन्ले-पुं० । रथसमुदाये, आओए० । ज्ञा० | दशा० |
रहसिय (ग)-र।ह सिक- न” । विजने, विपा० १ श्रु० १ अ०।
रहस्य -रहस्य-न० । रह एकान्तस्तच्न भवं रहस्यम् । विवि-
क्लापाश्रयादों, प्रच्छने, गुह्य, ग॒प्ते, प्रव० ६ द्वार । “ गुज्मं
रहस्से `` पाह० ना० २७१ गाथा। आव० । उत्त० । सूत्र० । |
श्रचु० । भ० । स्था० । प्रश्न० । नि० चु०। ज्ञा० । णदम्पये,
ज्ञा० १ श्रु० ४ अ०।
हस्व-न० । अपवादपदे, इदापवादपदानि रहस्यमुच्यते ।
बु० ६ उ० । अदीर्घे, “ एग रहस्स । ” स्था० १ ठा०।
रहस्सकड-रहःक्रृत--पु० ¦ प्रचछ नकूते, भ० २ श० १ उ०।
रहस्सगय--रहस्थगृत-न० । क जामेदें, स० ७२ सम० |
रहस्सगारवप रिण म-हस्त् गे। रवप रिण॒ म-छु ० । परिणामभेदे
|
|
| रहुवस-रघुवंश- पुं । रघुकुले ,
रत्यागस्थाने , करप २ अधि० ८ क्षण | प्रति० । | आचा० ।
शा म०। “ तत्थय देवा पडिणीया, ते साहुणो सावि-
यारूवेण भत्तपाणण ` निमतेइ,- अज्ञ भ पारणयं करेह, तादे
अआयरिणर्हि णायं जहा अवियत्तोग्गहा न्ति, तत्थ य अब्भासे
अश्नो गिरी, त गया, तत्थ य देवयाए काउस्सग्गो कतो, सा
श्रागेतृण भणइ--अहो मह अणुग्गहे। च्छद, तत्थ समा-
हीए कालगया, ततो इदेण रहेण वदि या, पयाहिणीकरें तेण त-
रूवरा दी णिं दासिल्लाष्ण; कयाणिः तेल तस्स रहावत्तो नामं
जायं ॥ ७४४ ( गा० ) आ० म० १ आ० । आए० चू०।
रहिय-रहित-पुं० । परित्यक्के वियुक्त च । आवब० ४
अ० । विश० ।
तहा नवमस्स सिरिवीर-
गणहरस्स अयलभाउणा जन्मभूमी रदुकसभवाणं ? ती
१२ कल्प ।
रहोकम्म-रहःकम्मे-त० । बिजनव्यापारे , स्था० ६ ठा०।
राअ---राज--धा० । द्वीपौ ,राजेरग्घ-छज्ज-सह-सैर-रेहाः
यस्माद्ध €वे गमनं स्व हस्वगोरवपरिणामः ॥ स्था £ ठा०। |
रहस्सटराण--रहस्यस्थान-न० । गुह्याएवरकमन्त्रगरहादौ, दश० |
४ श्० २ उ०।
रहस्पदृसण--रहस्यदूषश--न । सृषावाद्स्य क्वितीयातिचारे
॥ ८। ४ । १०० ॥ इति आदेशाभावे | राअइ। राजति । प्रा०।
राअघर--राजग्रृह--त० । ग्रहस्य घरोऽपतौ ॥८। २॥
१५५ ॥ इति गरृदेः घरादेशः | मगछदेशप्रधाननगरे, ्रा० ।
राञ्रला--देशी--भ्रियङ्गवे , द° ना० ७ गे १ गाथा |
राइ-राजि-खी० । श्रवल्याम् , पङ्को, त° । “ ओली माला-
राई रिंछोली आवली पती ” पाइ० ना० ६६ गाथा । औ० ।
( ५५३ )
_ गाड
एकानेकजाती यवृत्षाणां पाङ्कुषु, ज्ञा० १ श्रु० ३ अ० | रखाया-
म्, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
रात्रि-खी० । रज्यते इति रात्रि: रजन्याम्, सा च सूयेकिर- |
शास्पष्टव्योमखरउरूपाश्चत॒यांमात्मिका । पा०। विश०। सूत्र०।
पत्तेस्य पश्चरश राज्यः-
ता कहं ते रातीओ आहिताति वदेज्ञा १, ता एगमेगस्स
शं पक्खस्स पष्मरस राईओ पण्पत्ताओ, तं जहा- पडिवा- |
राई बिदियाराई ०जाव पष्परसा राई, ता एतासि शं
पष्मरसरह राईणं पप्यरस नामधेज्ा पप्त्ता , त॑ जहा-
उत्तमा य १ सुणक्खत्ता २ एलावच्चा २ जसाधरा ४।
सोमणसा ५ चव तधा, सिरिसंभूता ६ य बोद्धव्वा ॥१॥ |
विजया य ७ वेजयंता, ८
जयति & अपराजिया य १० गच्छाय ११॥
समाहारा १२ चव तधा,
तेया १३ य तहा य अतितेया १४७ ॥ २॥
देवाणंदा १५ निरती रयणौणं णामघजाई ! तर ४८) ।
* ता ` कटमित्यादि, ता इति--पृववत् , कथम्-कन प्रका- |
रेण, कन क्रमरत्यथेः, रात्रय आख्याता इति वदेत्?, भगवा- |
नाह-- ता पगमगस्स ण मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , प-
केकस्य पत्तस्य पञ्चदश २ रात्रयः प्रन्नप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत्-
प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा राजिः, द्वितीयदिवससम्बान्धिनी
द्वितीया रात्रिः,एव पञ्चदशदिवससम्बान्धिनी पञ्चदशी रात्रि
पतच कम्ममासापत्तया द्रव्यम् , तत्रेव पत्त पत्ते परिपू-
नां पश्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात् , एएसियण
मित्यादि,
पञ्चदश नामधयानि प्रश्नप्तानि, तद्यथा-प्रथमा प्रतिपत्सम्ब-
न्धिनी रात्रिरुसमा--उत्तमनामा, द्वितीया-सुनक्षत्रा, तृती-
या-एलापत्या, चतुर्थी-यशोघरा, पश्चमी-सोमनसी, षष्ठी
श्रीसम्भूता, सप्तमी-विजया, श्रष्टमा-वेजन्ती, नवमी-जय-
न्ती, दशमी-अपराजिता, एकादशी इच्छा, द्वादशी-समा-
हारा, त्रयोदशी-तजा,चतुदेशी-अतितेजा, पञ्चदशी देवा-
नन्दा, अमूनि कमण रात्रीणां नामथेयानि भवान्ति । सु० भ्र
१० पाहु० । ज्या० । ज० । चं० प्र” । कटप० ।
जई खलु तस्यव अआआदिचस्स संवच्छरस्स सयं अट्ार-
समुहतते दिवसे भवति, सई अद्ररसमहत्ता राती मवति,
सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, सहं दुवालसमुहुत्ता राती
भवती, पढमे छम्मासे अत्थि अदट्टारसमुहुत्ता राती भवति,
दोचे छम्मासे अत्थि अड्भारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ढार-
श्राजधानराजन्द्रः।
तत्र एतासां पञ्चदशानां राजीणां यथाक्रमममूनि `
समुहुत्ता राती, अत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति पदमे
छम्मासे, दोच्चे छम्मासे णत्थि पष्परसमुहत्ते दिवसे भ-
वति णत्थि पष्परसमुहत्ता राती भवति, तत्थ णं कं हेतु
बदेज्ञा ?, त। अयण्णं जबुदीवे दवे सव्वदीवसमगुदाशं
सव्वब्भंतराएं ०जाव विसेसाहिए परिक्खणं पष्पत्ते, ता
राई
जता णं सरिए सब्वब्भंतरमंडल उवसंकमित्ता चारं चर-
ति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्टारससुहुत्ते दिवसे
भवति, जहष्पिया दुवालसमुद्ुत्ता राती भवति, से निक्ख-
ममाणे सरिए नवं सवच्छरं अयमा पदमसि अहोरत्तति
अब्भितरं मणडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया शं
सूरिए अभिंतराणंतरं मणडलं उवसंकमित्ता चारं चरति
तदा शं अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगड्ट भागमु हु-
त्तेहिं ऊणे, दुवालसमुद्दत्ता राती भव॒ति दूह एगट्डिभागमु-
हुत्तिहिं अधिया, से णिक्खममाणे इरिए दोचंसि अहोर-
त्तसि अब्भन्तरं तच्च मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति,ता
जया णं सरिए अब्भितरं तच्च मंडल उवसेकमित्ता चारं
चरति तदा शं अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवति चरि एगढ्ठि-
भागमुदहत्तेहिं ऊण दुबालसमुहुत्ता राती मवति चउहिं ए-
गट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलै एएणं उवाएणं शि-
क्वममाणे सूरिए एगमेग मंडले दिवस खत्तस्स शिवु
माणे २ रतणिक्खेत्तस्स अभिवुड्रेमाणे २ सव्वबाहिरमं-
डलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जया शं सूरिए सव्व-
ब्भतरातो मण्डलाओ सव्वबाहिर॑ मंडल उवसकामित्ता
चारं चरति तता णं सव्वब्भंतरमंडल॑ पणिधाय एगणं
तेसीतणं राईदियसतेणं तिषि छावड्ट एगट्डिभागमुदृत्त
सते दिवसे खेत्तस्स शिवृट्टित्ता रतणिक्खेत्तस्स अ-
भिवुड्ड्त्ता चारं चति , तदा णं उत्तमकट्पत्ता
उकोसिया अड्ट[रसमुहुत्ता राती भवति, जह्मए
बारसमहुत्ते दिवस भवति, एस शं पढम छम्मास एस शं
पदमे छम्मासस्स पञ्जवसाणे । से पविसमाणे प्ररिण
दोच्चं छम्मासं अयमाणे ( आयमाणे ) पदमंमि अहो-
रत्तसि बाहिराणतरे मंडलं उवसकमेत्ता चारं चर-
ति, ता जया ं सूरिए बाहिराणंतरं मंडले उवर्सकमित्ता
चारं चरति तदा णं अट्टारसमुहुत्ता राती भवति, दो-
हिं एगद्निभागमुहुत्तेहि अहिए, स पविसमणे षछरिए दा-
चसि अहारत्तसि बाहिरं तच्च मण्डलं उवसकमित्ता
चारे चरति, ता जया शं प्ररिण बाहिरं त्वं मण्डलं
उवसंकमित्ता चारं चरति तदा ण अदट्ढारसमुहुत्ता राती
भवति चउहिं एगढ्ठिभागमहुत्तेहिं ऊणा, दुबालसप दत्ते
दिवसे भवति चउहिं एगद्भिभागमहूत्तरिं अदिए् ।
एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतरातो
तयाणंतरं मंडलातों मंडलं संकममाण दो दो एगद्धिभा-
गमुहुत्ते एगमेगे. मंडले रतणिखेत्तस्स णिवुड्रेमाण २ दि-
वसखेत्तस्स अभिवड्रेमाणे २ सव्वन्भतरं मंडलं उवसंकमि-
त्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्ववाहिराओं मे -
( ४6७
ऋअभधानराजेन्द्रः |
मर
डलाओ सब्वब्भंतरं मंडल उवसंकमित्ता चार चरति त- |
दा शं सव्वबाहिरं मेडल पणिधाय एगेणं तेसीएणं-
राईदियसतेणं तिनि छावट्टे एगट्टिभागमुहृत्ततते रयणि-
खेत्तस्स निबुड्डित्ता दिवसखेत्तस्स अभिवड्धित्ता चारं च-
रति तया शं उत्तमकट्ठ पत्ते उकीसए अट्ढारसमुहुत्ते दिव-
से भवति, जहणिणया दुवालसपुहुत्ता राती भवति,
एस शे दोचे छम्मासे एस णं दुचस्म छम्मासस्स पज़ब- |
साणे, एस णं आदिखे संवच्छेर एस णं आदिचस्स से-
वच्छरस्स पजवसाणे, इति खलु तस्सवं आदिचस्स
सेवच्छरस्स सई अह्कारसमहुतते दिवसे भवति, सई अ- |
इारसमुहूत्ता राती भवति, सई दुवालसमुहृत्ता राती
भवति , प्म छम्मासे श्रन्थि अट्टारसमुहुत्ते दिवसे
अत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे नस्थि दुवालसम्रंहुत्ता राई
अत्थि दुवालसमुदृत्ता राई नत्थि दुवालसमुहत्ते दिवस ।
भवति, पमे वा छम्मासे णत्थि पणणरसमुदुत्ते दिवसे
भवति, शत्थि पणणरसमुहुत्ता राई भवति णत्थि रातिं -
दियाणं वड्ढोवड्रीए मुहुत्ताण वा चयोवचएणं, णण्णत्थ
वा अणुवायगईए, गाधाओ भाणितव्वाओ। ( छत्र-११)
“जइ खलु' इत्यादि, यदि खलु षदषष्ट्यूधिकराज्रिन्दि-
वशतत्रयपारिमाणायामद्धायां ह्यशीत॑ मर्डलशतं दिङू-
त्वश्वरति छे च मरडले एकैकं वारमिति तत प्वे सति |
यदेतद्ध गवद्धिः प्ररूप्यते, तस्य॒ षदषष्टधधिकरात्रिन्दिवश-
तत्रयपरिमाणस्य सूर्यसंवत्सरस्य मध्य॒ सकृद् एकवारम-
षादशमुष््तप्रमाणो दिवसो भवति, सरञ्चाष्टादशमृहृत्ता |
रातिः, तथा सकद-एकवार द्वादशमहत्तां दिवसो भवति
सङ द्ादशमंहृत्त रात्रिः, तत्रापि षरमासे प्रथमेऽस्ति
श्रष्ठादशमहृत्ता रािनत्वष्ादशमृहत्ता दिवसः, तथा श्रस्ति
तस्मिन्नव प्रथमे षएमास द्वादशमृहृत्तां दिवसा न तु द्वा-
दशमुहत्ता राच्धिः, द्वितीय घरामासरस्व्यश्रादशमष्टत्तां दि-
वसो नत्वष्टादशमुहर्त्ता रात्रिः, तथा अस्ति तस्मिन्नव दवि- |
तीय षण्मास द्वादशम्हर्ता रािनेतु दवादशमृषत्तां दिव-
सः, तथा प्रथमे षरामासे द्वितीय वा षरमासरे नास्त्यतत् |
यदुत-परञचदशमुहरत्तो ऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्यतत् , य-
दुत पञ्चदशमष्टत्त रात्रिरिति, तत्र एवंविध वस्त॒तत््वा-
वगमे को देत ?-कि कारणं कया युक्त्या पएतत्प्रतिपत्त-
व्यमिति भावार्थः , इति वदे' दिति, शन्नार्थं भगवान् प्र-
सादं कृत्वा वदेत् । चत्र प्रतिवचनमाद-' ता अयण्ण
व्यादि, श्यं ' प्रत्यत्तत उपलभ्यमानो णमिति बवाक्याल-
ङ्खार ' जम्बूद्वीपो ' चम्बृद्वीपनामा द्वीपः, स च सर्वेषां
द्वीपसरमुद्राणां सवोभ्यन्तरः--सवमध्यवरत्ती सर्वेषामपि
शषद्वापसमुद्रा्णामत श्रारभ्य यथागमाक्रक्रमद्विगुणविष्क-
म्भतया भवनात् ` जाव पस्क्खेवेणं पन्नत्ते' इति, श्रत याष
च्छृब्दोपादानादिदमन्यद् म्रन्थान्तर प्रसिद्ध सृत्रमवगन्तव्यम्।
सञ्चखुङागे वद्दे तेज्नापूयसंठाणसंटिए चट रहचक्रवालसं
ठाणसेठिए चहूं चुक्स्तरकान्नयासञणस्रादटरए बड़े पाडेपुश्च- |
ते, मुहरसश्चैकषष्िभागी क्रियते तत श्रागतमेको भागो द्वा-
चदसंठाणसटिप जोयणसयसटस्समायामविक्खभेण तिकि
जायणसयसदस्सा दोन्नि य सत्तावीस जोयणसए तिनि
कास अद्ववीस च धरणुसयं तरस य अकछ्ुलाई अद्धछुल च
किश्विविससाहिए परिक्खवेरा पन्नत्ते ` इति, श्रत्र ` स-
व्वखुड़ाग ' नि सर्वेभ्यो $प्यन्यभ्योा द्वीपसमुद्रेभ्यः शुल्को
लघुरायामविष्कम्माभ्यां योजनलक्तप्रमाणन्वात् , शेषे प्रायः
सुगम, परिधिपरिमाणं गणिते च त्तत्रसमासटीकातः परि
भावनीयम् , ^ ता ` इति ततो यदा णमिति पूर्ववत् , सूः
सवीभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा णमिति प्रा-
ग्बत् ,उत्तमकाष्ठटाप्राप्तः,अत्र काष्ठा शब्दः प्रकर्षवाची परमप्रक-
षैभ्राप्तो यतः परमन्यो ऽधिको न भवति स इत्यथ
त्ति, उत्क्षतीत्युत्कघः उत्कर एवोत्कषकः उत्कृष्ट इत्यथः,श्च- |
शावशमुहत्तों दिवसो भवति.तस्मिन्नव च सर्वाभ्यन्तरे मण्ड- ¦
ल सूर्य चारं चरति जघन्या-सवेलष्वी द्वादशमुहृत्तौ रातिः
पषो ऽहोरात्रः पाश्चात्यस्य सूयसवत्सरस्य पयवसाने, ततः
स सृस्तस्मात्सर्बाभ्यन्तरान्मरडलान्निष्कामन् नवं सुयेसंब-
त्सरमाददानः-प्रवतेमानः प्रथमे अहोरात्र ` अन्भितरानै-
तरं ` ति सवौभ्यन्तरान्मर्डलादनन्तरं द्वितीये मए्डलमु-
पसक्रम्य चारं चरति तता यदा सूया ऽभ्यन्तरानन्तरं-सः
वौभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीये मण्डलमुपसंक्रम्य
चारं चरति तदा अष्टादशमृहर्तो {दवसो दवाभ्यां सुहुत्तेक- `
चष्टिभागाभ्यामूनो भवति, द्वाभ्यां च मुह्तेंकषष्टिभागा भ्या-
मधिका दादशमुहृत्ता रािः, कथमेतदवसीयते इति चेत्
उच्यते, इहैके मण्डलमेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्यो भ्यां परि-
समाप्यते, पकैकश्च सूर्यः प्रत्यहाराज मण्डलस्य लिशद-
घिको<5प्रादशशतसंख्यान् भागान् परिकल्प्य भागं
दिवसत्तत्रस्य राजित्षेत्रस्य वा यथायोग्यं हापयिता वद्धि
वा भवति, स चैको मरणडलगतसिशदधिका्टादशशततमो
भागो द्वाभ्यां मुहक्तेकषष्टिभागाभ्यां गम्यत, तथाहि- तानि
मरडलगतानि तिशर्दाधिकान्यष्टादशशतानि भागानां ढाभ्यां
रारातयस्थापना-) ६० । १८२० । १ शव्रान्त्यन
एककलक्षणन मध्यस्य राशगुणनाजातानि तान्यवा्टादशश-
तानि जिशदधिकानि तेषामाद्यन राशिना षश्िलत्तरेन भा-
गो हियते लब्धाः साद्धाखिशद्धागाः, पतावन्मह्त्तेन गम्य
भ्यां मुहर्तकषष्टिभागाभ्यां गम्यत, यदि वा-यदि उयशीत्य-
धिकेनादारावरशतेन षटमुहुर्ता हानो बद्धो वा प्राप्यन्ते तत
एकेनाहाराजेण कि प्राप्यत ?, राशित्रयस्थापना- ।१८३ | ६
। १ अन्रान्त्यन राशिना एककलक्तणन मध्यराशिगुंण्यते,
जातास्त एव षट् , तेषां उयशीत्यधिकेन शतेन भागहरणम्,
अजोपरितनराशः स्तोकत्वाद्धागो न लभ्यते ततश्रेद्चच्छे-
दकराश्योखिकेना पवत्तेना, जात उपरितनो राशिद्धिकरूपोऽ .
धस्तन पएकपण्टिरूपः, आगते द्वावेकषष्टिभागों मुहत्तेस्य
एकस्मिप्नहोरात्रे वृद्धौ हानौ वा प्राप्येते इति, तथा 'ता' इति
तस्माद् द्वितीयान्मणडलाक्निष्करामन् सूर्यो द्वितीये अहोरात्रे
स््ीभ्यन्तरं मरडलमपक्य तृतीय मरडलमुपसक्रम्य चा-
|
|]
& चरति, "ता जया ण' मित्यादि, तन्न॒ यदा तस्मिन्सवा-
यन्तरं मरडलमपेद्य सृतीये मण्डले उपसक्रम्य चार खर-
तिं ददा चतुभि्ुह ततस्येकषष्टिभागोर्हीनो ऽ्टादशसुह्सेभ्रमाणो |
दिवसो भवति, चतुर्मिमुहत्तेस्थेक्षष्टिभागरराघिका दादशसु-
इक्तप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्ननीत्या 'खलु' निश्चितमतेनानन्त~-
रोदितेनोपायेन प्रतिमएडले दिवसरात्रिविषयमुट्ठ तेकषष्टि-
आागद्धयहानिवृद्धिरूएण निष्क्रामन् मरडलपरिश्मणगत्या
शनेः शनेदं क्तिणाभिमुख गच्छन् सथः, “ तयाणेतरा ` इति
तस्माद्धिवत्तितादेनन्तरान्मरडलाःत् ‹ तयाणंतर ” मिति--
सद्धितत्तितमनन्वरं मश्डलं सक्रामन् सश्ामन् एकैकस्मिन्
मण्डले मुट्ठत्तस्य द्वौ द्वावेकषष्िभागौ दिवसकतेबस्य निर्व
यन् निर्वेष्टयन शापयन हापयन् रजनिद्तेत्रस्य प्रतिमण्डले
द्धौ दौ सष्टसस्यैकषष्ठिमागौ अभिवद्धैयन् अभिवषद्धेयन
अ्यशीत्यधिकशततमे अहोराजे प्रथमषरमाखपयैवसानभुते
सर्ववाह्य मराडलसपसक्रस्य चारं चरति “ ता › इति-ततो
यदा तस्मिन् काल अडोराबरूपे णमिति प्रागिव सूयः सोः
यन्तरा नदेडलान्मर्डलपरिश्रमणगत्या शनैः शनेः निष्कः
सर्धवाह्यं मराडलमुपस्लक्रस्य चारं चरति तदा सवौ भ्यन्वरम्-
रुडल प्रणिधाय मर्यादीकृत्य द्वितीयान्गण्डलादार भ्येस्यर्थः,
एकेन उ्यशीत्यधिकेन राश्रिन्द्वशतेम तीरिए षद्षष्टीनि
षट्घष्रयधिकानि मुहक्तेकपष्टिभागशतानि दिवसक्तेत्राएप
“निव हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुडसेफक--
घष्टिभागशतानि षट्षष्टधधिकानि श्रभिवद्धथे चारं चरति ,
तदा रमिति पूर्ववत् , उत्तमकाप्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षआाए!
उत्कर्षिका-उत्कृष्टा अष्टादशभुह॒सलो अष्टादशमहक्तेप्रमाणा
राजिभेवति, जधन्यश्च द्वादशमुह्तेत्रमाणो दिवसः , पथः
अथमा चरमासी , यदिवा-एततू प्रथर षण्मासं ,
सूत्रे च पुस्त्यनिदेश आपषेत्वात् , पष ज्यशीत्यधिकशतत
मो5होरात्र; ग्रथमस्य षण्मासस्य पर्यदसानम् । “ से पक्ति--
समाणे › इत्यादि , सः--सूर्यः सर्ववाद्यान्मरडलादभ्यन्ता |
श्रविशन् दितीयं घरयासमाददानः-अतिपद्मानो द्वितीय- |
स्य षरमाखस्य प्रथमे अहोराजे सर्ववाष्यान्मरडलाद्व गानः - |
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न्तरं द्वितीय मरडलसुपसंक्रम्य दारं चरति ' ता ` इति ~
तत्र यदा सूयो वाद्यात्--सर्वबाद्यान्मरडलादर्वाक्कन द्विती- |
थं मण्डलमुपसंक्रम्य चारे चरति तवा दवाभ्यां सुद्र |
षष्टिभागाभ्यामूना अष्टादशम्लुद्दलों राशिभेवति , द्वा |
मुहर्त्तैकपष्टिभा गा भ्यामचिका द्वाद्शमुद्रलैषमाणो दिवसतः,
ततस्ततापपि दितीखान्मरडलाद्भ्यन्तरं स सूर्यः अविशन |
द्वितीयस्य षरामासस्य द्वितीये अहोराजे “' बाहिरं तच्यं `
ति सर्वथाह्यान् मण्डलादर्चाक्नन तृतीय मण्डलमुफसंक्रम्य
चारं चरति “ता जया ण' मिल्यादि, ततो यदा णमिति पूर्व-
चत्, सूर्यः सर्ववाष्यान्मरडलादवाक्रनं , तृतीय मएडलमसुपसं-
क्रम्य चारं चरति तदा अष्ठादशसुहर्ता राविश्नलुर्शिः ' एण- |
ट्विभागमुहुत्तेहिं ' ति प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पदोपन्यासः, |
चवे तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्यो--मुह्तैकषष्टिभागैरुना |
भवति,चतुभिमुहरतैकषष्टिभागैरधिको दादशमुह्॒तो दिवखः।
“चव खलु एएण ' मित्यादि , एवं--उक्तनीत्या ख्लल्वेतेल- |
अनन्तरोदितेनोपायेन प्रतिमएडल राजिदिवसविषण्मुषुकै- |
कषष्टिभागद्यहानिवृद्धिरूपेश अविशन् मरडलपरि श्रमण- |
गत्वा स शनैरुसराभिसुर्ख गच्छन् ` तयारतराड ' स्ति व- |
|
( ५०५ )
अभिधानराजन्द्रः।
राह
स्माद्विवजक्षितान्मएडलात् ' तयाणंतर ' मिति तद्विबक्तित-
मनन््तरं मण्डल संक्रामन सक्रामन् एकैकस्मिन मण्डले
मुहस्स्य द्वो द्वावकर्षाष्टसआगा रजनिक्षत्रस्थ निर्वेष्टयन दि-
वस्त्रस्य प्रतिमरडले द्वो दो मृहत्तस्थेकर्षाप्टआगो अभि-
वद्धयन् अभिवद्धयन ज्यशीत्यघिकशततम अहारांत्र दधि
तीयषरमासपर्यचसानभूत ` सब्वब्भतरें ' लि सर्वीभ्यन्तर-
मरडलमुपसक्रस्य चारं चरति, ` ता ` इति--ततो यदा--
यस्मिन् काले श॒मिति पूर्ववत् , सूयः सथवाद्यान्यरडलान्म-
र्डलपारिश्रमणग.या शनेः शनैर भ्यम्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तरे
मर्डलसुपसक्रम्य चारे चरति तदा स्वद्राह्यमरडले ‹ प्र-
शिधाय ` मर्यादीकृत्य तदर्वाक्ननाद् द्वितीयान्मएडलादार-
भ्येस्य्थैः, एकेन तयशीत्यधिकेन राजिदियशतेन जञीरिए ष-
र्षष्टीनि--षट्षषट्यधिकानि मृहस्यैकषष्टिभागशतानि र-
जनिन्तेध्रस्य निषध हापयित्वा दिवसत्तित्रस्य च तान्येव
श्रीशि प्रट्षष्टीनि सुहत्तेक्षप्टिमागशशतालि अभिवद्ध्य
चारं चरति, तदा शमिति वाक्यलकारे, उखमकाष्ठा-
प्रापः--परमप्रकर्पप्राप उत्कपकः उन्छृषटो ऽ्टादशम्--
हत्त दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहृत्ता राति
एतद् द्वितीय बण्मास, यदि बा--एपघा द्वितीया -षरमा-
खी, सूत्र पुस्त्वनिरदेश ` आपेत्वात् एक पद्षष्र्यधिक-
चिशततमो $हारातरौ दितीयस्य परमासस्य पयवसानभू-
एष ` एचेशसमाण श्रादित्यसंबत्क्षरः, एष पद्षष्टथ-
यिक्रजिशततमो ऽहारात्रः ‹ छ्ादित्यस्य ' आदित्यसस्बन्धि-
नः सवत्सरस्य पयेवसानम् । सम्प्रत्युपसहारमाह- इह
खलु तस्सेस ' मित्यादि, यस्मदिवम् ' इति ' तस्मात्कारणा-
लस्यादित्यस्य--श्रादवित्यसवत्सरस्य मध्ये * एवम् ` उक्केन
प्रकारेण ˆ सकृत् ` पएकवारमष्टादशमुष्टत्त दिवसा भवति
सक्ृथ्वाष्टायशमुट्ड्ता रात्रिः, तथा सहृद् द्रादशमुष्ट्तो दिव-
सो भवति सक्रश्च दावशमुटक्ती राजिः, तत्र प्रथमे ष-
ण्मासे श्रस्त्यष्टादशमुष्त्ती राच्रिः, सा च प्रथमषरसासप-
यैवसानभूतेऽहाराच्र, नत्वष्टादशमुहृत्तों दिवसः, तथा अ-
स्ति तस्मिन्नव भधमे बण्मासे द्वादशमुहत्तों दिवसः, साऽ-
पि प्रथमषरमाख् प्रयेबलाने5हो राजे, नतु द्वादशमुहखी रा-
त्रिः, द्वितीये धए्मासरस्त्यलद् यदुत अष्टादशसुह्तों दि-
वसो भवति, रू च द्वितीयषरमासपर्रवसानभृतेऽहोरात्र
नत्वष्टादशसुहूललौ रात्रिः, तथा श्रस्त्यतत् यदुत तस्मिन्नव
दितीयषरमासरे श्रव द्वादशथुह्त्ती गाच्धिः, साऽपि त-
स्मिन्नेव द्वितीयषरमं सपयेवस्ारभूतेऽदहोरात्र, न पुनरस्त्य-
तत् यदुत द्वादशम्) स्त दिवसो भवतीति, तथा प्रथम
वा षरमासे नास्त्यतःष् यदुत पञ्चदशमृष्टलौ दिवसा भव-
ति, नाप्यस्त्येतलू याहुत पञ्चदशसु रातिः, कि स-
वथा नेव्याद- नान्यः राचिन्दिवानां ब्द्धथपन्रद्धरन्यत्र न
भवति, राजिल्दिशाशं त बृद्धवपल्रद्धी च भयन्यव पञ्चद-
शमुहतौ रतिः पञ्चकर $त्ता दिवसः, ते च बृदधधपनब्ुडी
रात्रान्दवानां कथ भरते इतस्यार-- सृष्ुत्ताण चयावचप्-
श॒ ` सहष्छेनां पश्चदाशस्ाक् स्थानां खयापचयन वयेन-अधि-
कत्वेन बशि४, अपचयोग--ऐैचेस्घेनापक्षद्धिः इयमत्र भाव-
ना-परिपूर्र]वश्षदशस ].र्ण प्रम छेडे दिखासराजी से भषतो, हीना-
धिकपशञ्चद शमुहक्षेप्रर/णे तु दिवसराजी' भवतः, एवम्
° महत्य व! शखुदा- दैप ' हति, बाशदइ! प्रकाशन्तर-
( ५०६ )
अभिध्ानराजन्द्रः
राह कथ
|
सूचन श्न्यत्रानुपानग्तः--श्रनुसारगतेः पञ्चदशमृष्ट्तो दि-
कमन पञदशमुहत्तो या रात्रन भवात अनुसारगत्या तु
भचत्यत्र सरा चाचुनारगतिरेवम्-यदि ज्यशात्याधकशत+-
तम मरडल षरमहत्ता वृद्धां हानो वा प्राप्यन्ते ततो5वॉ-
क् तदद्धगतों जयो मुहत्तोः प्राप्यन्ते , ज्यशीत्यधिकशतस्य
वाऽद्ध साद्ध एकनवतिः, तत श्ागतम्--एकनवतिसंख्येषु |
मरडलेषु गतघु द्विनवतितमस्य च मरडलस्याद्धे गते च-
आदश महः पाप्यन्त, ततस्तत ऊध्वं रात्रिकल्पनायां पञ्च- |
दशमहत्ता दिवसः, पञ्चदशमह त्ता च राजिलैभ्यते नान्यथे- |
ति, ' गाहाओ भणितव्वाओ ` सि श्र अनन्तरोक्ता थैसडया-
हिका श्रस्या एवं सूय्यप्र्नसेभंद्रवाइुस्वामिना या नियुक्ति
रूता तत्थातबद्धा अन्या वा काञ्चन अन्थान्तरसुप्रासद्धा
गाथा वत्तेन्ते ता भांणितव्याः--प्ठनीया » ताश्च सम्प्रात
कापि पुस्तकेषु न दृश्यन्त इति व्यवच्चिक्नाः सम्भाव्यन्ते
ततो न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यो वा यथा
सम्प्दायादवगन्छति तन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्या- |
ख्यानीयाश्चति । सख० प्र० १ पाहु० ।
सभ्ध्रति दवितीयमद्धंमरडलसस्थितिधतिपादकं
विवक्षुरिदं प्रश्चसूत्रमाह-
ता कहं ते अद्धमंडलसंटिती आहिताति बदेज़ा ?, तत्थ
खलु इमे दुव अद्र मंडलसंठिती प्त्ता,तजहा-दादिशा चेव |
अद्वमंडलसंठिती, उत्तरा चेव रद्धपडलसंरिती | ता कहं
ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिती आहिताति बदेजा ?, ता अ-
यस्यं जबुद्दीवे दीवे सव्यदीवसपुद्दाण ०जाव परिक्सेवे- |
ण॑ ता जयां रए सव्यब्भंतरं दाहिण अद्भमंडलसं-
डिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा शं उत्तमकट्ठपत्ते
उकोखणए श्रट्ारसमुहुतते दिवसे भवति,जह्णिया दुबालसमु-
युत्ता रातौ भवति, से शिक्खममाणे घरि वं संवच्छ-
रं अयमाणे पदमसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अतराए भा-
गाते तस्सादिषदेसाते अब्भितराणंतरं उत्तर अद्धमंडल- |
संठिति उवसकमित्ता चारं चराति, जता णं मूरिए अन्भि-
तराणतरं उत्तरं अद्धमडलसंठितिं उव संफमित्ता चारं चर-
ति तदा शं अट्टारसमुहृत्ते(हिं) दिवसे भवति दोहिं एग-
टुभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहु्ता राती दोहिं एगट्ठिभा-
गमुहुत्तहिं अधिया से णिक्व॒ममाणे सखरिए दोचंसि अहो `
रत्तंसि उत्तराएं अंतराए भागाते तस्पादिपदेसाए अडिभि-
तरं तन दाहिण अद्धमंडलसंटितिं उवसंकशित्ता चारं |
चरति ¦ ता जया शं ब्रिए अडेंभतरं तच्चं दाहिणं अद्धम-
उलसंटितिं उवसकमेत्ता चारं चरति, तदा णं अड्वारस- |
मुत्त (हि) दिवसे भवति चररि एगद्धिभागगृषटतेहिं उशे
दुवालसमुद्दत्ता राई मवति चउहिं एगाद्विभागपु॥त्तिहिं अ- |
धिया । एवं खलु रणरं उवाएशं शिक्खममाणे सरिए |
तदण॑तरातो5णंतरंसि तसि तंसि देसन्मि तं ते अद्धमंड- |
क्षपंठितिं संक्रमभाणों संकममाणशों दाहिणाए दाहिणाए
अंतराए मागाते तस्सादिपदेसाते, सव्वबाहिरं उत्तरं अ-
द्मडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरति । ता जया शं `
द्रिए सच्वबादहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंटितिं उवसंकमित्ता
चारं चरति तदा खं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसिया अट्टारसमु-
हुत्ता राई भवति, जहष्पए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति ।
एस णं पदमे छम्मासे, एस शं पटमदछम्मासस्स पजव-
सि, से पविसमाणे घ्ररिए दो छम्मासं अयमाणे पढ-
मसि अहोरत्तसि उत्तराते अंतरभागांते तस्सादिषदेखाते
बाहिराशंतरं दादिणं अद्धमंडलसंटितिं उवसकमित्ता चारं
चरति, ता जया शं श्ररिए बाहिराणंतरं दाहिशं अद्धमं-
डलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा शं अट्टारसमु-
हुत्ता राई भवति दोहिं एगद्धिभागयुह्तेहिं ऊणा, दुबाल-
समुहुत्ते दिवसे भवति दोहि एगड्डिभागमुहुत्तेहिं आहिए,
से पविसमाणे द्वरिण दोचंसि अहोरत्तसि दाहिणा-
ते अंतराएं भागाते तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तच्च
उत्तर अद्धमंडलसंटिति उवसंकमित्ता चारं चरति ,
ता जया शं स्ररिए बाहिरं तच्वं उत्तरं अद्धमंडलसंडितिं
उवसंकमित्ता चारं चरति तदा शं अट्टारसमुहुत्ता राई
भवति चडि एगट्टिभागमुहत्तेहिं अधिया एवं खलु
एतेणं उवाएणं पविसमाणे घ्ररिए तदाणंतराउ तदाशतरं
तसि तंसि देसंसि (भ्म) तं तं अद्धमंडलसंठितिं सकममा-
शे संकममाणे उत्तराए श्रतराभागाते तस्सादिषदेसाए स-
व्यब्भतरं दाहिणं अद्धमंठलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चर-
ति, ता जया शं सरिए सब्वब्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसं-
डिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा शं उत्तमकटूपत्ते
उकोसए अद्भारसमदहुतते दिवसे भवति, जहिया दुवाल-
समुदृत्ता राई भवति, एस शं दोचे छम्मासे, एस शं दो-
च्चस्स छम्मासस्स पंज़वसाणे, एस शं आदिते संवच्छरे,
एस शं आदिचसंवच्छरस्स पज्ञवसाणे। ( सूत्र-१२ ) ता
कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिती आहिताति बदेजा १, ता
अयं शं जेशुदीवे दीवे सव्वदीव °जाव परिक्छेवेशं, ता
जता रं छरिए सव्वन्भंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उव-
सेकमित्ता चारं चरति तदा शं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अ-
दारा दिवसे भवति जहस्षिया दुवालसमुहृत्ता राई
भवति, जहा दाहिणा तहा चेव णवरं उत्तरद्टिओ अन्भि-
दराणंतरं दाहिणं उवसंकमई, दाहिणातो अभ्भिंतरं तशव
उत्तरं उवसंकमति । एवं खलु एणं उवाणएणं ० जाव
सब्यवाहिरं दाहिणं उवसंकमंति, सव्वबाहिरं दा-
हिणं उवसंकमित्ता दाहिणाओ बाहिराखंतरं उत्तरं
उवसंकमति, उत्तरातो वाहिरं तन्च॑दाहिणं तच्चातो
सा मं आर मम ऑट क मी मी अमन
` -- --- - - ~~~] ~~~ ~~
( ५०७ )
राह
दाहिणातो संकममाणे २ ° जाव सब्वब्भतरं उव
संकमति, तहेव ` एस णं दोचे छम्मासे एस शं दोचस्स
छम्मासस्स पज्ञवसाणे, एस शं अदिचे सवच्छरे, एस शं |
अ(दिचस्स सवच्छरस्स पञज्जवसाणे गाहाओ। ( इत्र- १३)
“ता कदं ते ' इत्यादि, * ता ` इति प्रक्रमाथैः, पृैवद् भाव- |
नौयः, कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-तव मते अ-
द्वेमरडलसंस्थितिः अद्धमणडलव्यवस्था श्राख्यातेति वदेत्
पृच्छुतश्चायमभिप्रायः--इह एकेकः सूर्यं पकेकेनाहोरात्रेणे-
कैकस्य मरडलस्याद्धमेव श्रमणेन पूरयति, ततः सशयः-
कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यड्ोराजमेकेकांमण्डलपरि स्रम- |
श्ग्यवस्येति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-' ता खलु ' इत्या- |
दि, ' ता ` इति तत्रादंमणडलव्यवस्थाविचारे खलु--निश्चि-
तमिमे दे अद्धमण्डलसंस्थिती मया प्रशस्त, तद्यथा--एका
दुक्तिखा चैव-दक्षिणदिग्भाविस्येविषया अद्धैमर्डलसस्थि-
तिः-श्रद्धमर्डलव्यवस्था, द्वितीया उत्तरा वैव -उत्तरदिग्भा-
विसू्यविषया श्रद्धमण्डलसंरिथतिः, पवसुक्तऽपि भूयः पृ-
च्चति-' ता कटं ते ' इत्यादि, इह द्वे अपि अद्ध मण्डलसे-
स्थिती ज्ञातव्ये ततद तावत्पृच्छामि--कथं त्वया भगवन् !
अभिधानराजेन्द्रः।
* दक्षिणा ' दक्तिणदिग्भाविसू्यविषया श्रद्ध मरडलसेस्थिति-
राख्याता इति वदेत् १, भगवानाह -' ता अयस ` मित्यादि,
|
इद् जम्बूद्धीपवाक्यं प्राग्व ख्य पारपूण पारभाचनायम् , |
ता जया ख॒ ` मित्यादि, तत्र यदा, णमिति वाक्यालङ्कारे
सूयः सवौभ्यन्तरां सवोभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणाम दे मणड-
लसंस्थितिमुपसेक्रम्य चारं चरति तदा शमिति पूर्ववत् ,
उत्तमकाष्ठाप्राप्त: परमप्रकषेप्राप्त, उत्कषेक-उत्कृष्टो 5ष्टा दश-
मुहत्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमूहत्तों रात्रिः।
इह सदौ भ्यन्तरे मण्डले पचिष्टः सन् भ्रथमक्तणादूध्वं शने
शनैः सवौभ्यन्तरानन्तरद्धितीयमरण्डलाभिमुखं तथा कथ-
नाऽपि मरुडलगत्या परिरमति येनाद्ोरा्नपर्यन्ते सवौ-
भ्यन्तरमर्डलगतान् श्रष्टाचत्वारिशदेकषष्टिभागानपरे च दे
योजने शअतिशम्य सवौ भ्यन्तरानन्तर द्वितीयोत्तरादडमरडल-
सीमायां वसते, तथा चाह--' से निक्खममाणे ` इत्यादि सं
सूयैः सवोौभ्यन्तरगतात् ध्रथमक्तषणादृष्वं शनैः शनेर्निष्क्रामन्
श्रहोरातरे ऽतिक्रान्ते सति नवम्-श्रभिनवे सवत्सरमाददानो
नवस्य प्रथमे5होरात्रे दक्तिणस्माद्-दक्तिणदिग्भाविनो ऽनन्त-
रात--सवो भ्यन्तरमणडलगताष्टाच त्वारिंशद्यो जनैकष शिमा-
गाभ्यधिकयोजनद्धयप्रमाणापान्तरालरूपाद्धिनिगेत्य “तस्खा- |
दिपएसाए ` इति तस्य सवौभ्यन्तरानन्तरस्योत्तराद्धमरड-
लस्यादिग्रदेशमाधित्याभ्यन्तरानन्तरां -सर्वाभ्यन्तरमरडला
नन्तरामुत्तरामद्धैमरखडलसस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति
स॒ चादिप्रदेशादुध्वं शनेः शनैरपरमरडलाभिसुखमत्रापि
तथा कथश्चनापि चरति येन तस्याहारात्रस्य पर्यन्ते तदपि
अण्डलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिगभाविनस्व- |
तीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, ‹ ता जया ण॒ ' मित्यादि
तता यदा सूयः सवोभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयाम्॒तरामद्ध-
मरडलसंस्थितिमुपसक्रम्य चारं चरति तदा दिवसो ऽष्टा-
वृशमुद्दर्ता काभ्यां सुह चैकषष्ठिभागाभ्यामूनो भवति, जघन्या
च द्वादशमुष्सा रात्रि! वाभ्यां मुहतकषण्टिभागाभ्याम-
भ्यधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयद्या उत्तराज्मएडल- |
संस्थितेरुक्षप्रकारेण स सूयो निष्कामन् अभिनवस्य सैयं-
सवत्सरस्य द्वितीये5होरात्रे उत्तरस्मादुत्तरादिग्भाविनों 5-
न्तराद् द्वितीयोक्तराउंमणडलगताष्टाचत्वारिंशयोजनैकषएण्टि-
भागाभ्यधिकयो जनद्वयप्रमाण। पान्तरालरूपाद् विनिःखत्य
` तस्साइपएसाए ' इनि तस्य-दक्तिणदिग्भाविनस्वृतीयस्या-
दैमरडलस्यादिषदेशमाश्चित्य “ अब्भितरं तच्चं ` ति स्चो-
भ्यन्तरमरडलमपेच्य तृतीयां दक्तिणामद्धं मणडलसेस्थितिमुप-
सक्रम्य चारं चरति, त्रापि तथा चारं चरति आदि-
प्देशादृष्वं शनेः शनेरपर मगडलाभिसुखे यन तस्यादारात्रस्य
पर्यन्ते तन्मण्डलगतानष्टाचत्वारिशद्योजनेकषष्टिभागानपरे
च द्वे योजने अपदाय चतुरस्योत्तराङंमर्डलस्य सीमाया-
मवतिष्ठते, ' ता जया ण' मित्यादि, ततो यदा णमिति
पूववत् सवौ भ्यन्तरान्मरडलातृतीयां दक्षिणामद्धेमएडलखे-
स्थितिमुपस्तक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुष्ट लो दिवसा
भवति चतुभिमुहत्तैकषष्टिभागेरूनः , द्वादशसु त्त रातिः
चतुर्मिमेहत्तेकषश्टिभागेरभ्याघिका, * एवं खलु ' इत्यादि,
एबम--उक्कनीत्या खलु-निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहो--
राजमष्टाचत्वारिशद्यो जनेकषष्टिभागा भ्यधिकयोजन द्यावि--
कम्पनरूपेण निष्कामन् सूर्य स्तदनन्तरादद्धमरडलाक्तदनन्तरं-
तस्मिन् २ देशे-दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा तां ताम-
श्रद्धेमरडसस्थिति सक्रामन् २ क््यशीत्यधिकशततमा-
होरात्रपयन्ते गते दक्तिणस्मात्-दत्तिणदिग्भाविनो ऽन्तरात्
द्वशीत्यधिकशतनममराडलगताष्टाचत्वारिंशयोजनेकषष्टि-
भागाभ्याधकतदनन्तरयोजनद्वयभ्रमाणाद पान्तरालरूपाद्धा-
गात् ‹ तस्सादपणसाण ` इति तस्य-सवैवाह्यमरडलगतस्यो-
त्रस्याद्धेमरडलादिष्रदेशमाधित्य सर्वेवाह्यासुत्तराद्धंमरड-
लसंस्थिनिमुपसक्तम्य चारं चरति , स चादिप्रदेशादूध्य
शनेः २ सवैबाष्यानन्तराभ्यन्तरदक्तिणादेमरडलाभिमसखे तथा
कथञ्चनापि चरति येन तस्यादारा्रस्य पर्यन्ते स्वेबाह्या-
नन्तराभ्यन्तरदक्तिणाद्धेमरडलसीमायां भवति, ततो यदा ण-
मिति पृवेब॒त् सूर्यः सर्वबाह्याम॒त्तराद्धंमरडलसंस्थितिमुपस-
क्म्य चारं चरति, तत्र उत्तमकाष्ठां प्राप्ता ( परमप्रकषे
गता ) उत्कर्पिका-उत्कृष्टा अश्टादशमहृत्ता राविभंवति,
जघन्यश्च दादशमृषहत्तां दिवसः, 'एस ण' मित्यादि, निग-
मनवाकयं प्राग्वत् , 'स पविसमाणे' इत्यादि, सूर्यः सर्वबाह्मा
त्तराद्धमराडलादिश्रदेशादूर्ष्य शनैः शनैः सवैवाष्यानन्तरद्धि-
तीयदल्तिणादमर्डलाभिमुखे सक्रामन् तस्मिश्नवाहोरात्रि5ति-
क्रान्ते सति श्रभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षरमासमाददानो
द्वितीयस्य षरमासस्य प्रथमे ऽहोरात्र उत्तरस्मादुत्तरदि-
रभाविसर्वबाष्यमणडलगतादन्तरात् सवैवाष्यान्तराद्धमरड-
लगता एाचत्वारिशद्याजनेकषणिभागाभ्ययिकतदनन्तरावौग्
भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद् भागात् 'तस्साइप-
एसाए ` इति तस्य -दत्तिणदिग्भाविनः स्वबाह्यानन्तर स्य
दल्तिणस्याद्धंमरडलस्यादिष्रदेशमाधित्य ' बाहिराणंतर ' ति
सर्वबाष्यस्य मरडलस्यानन्तरामभ्यन्तरां दत्तिणामद्धंमरडल-
संस्थितिमुपसक्रम्य चारं चराति, अज्ञापि चार श्रादिप्-
देशादृर्व तथा कथञ्चनाप्यभ्यन्तराभिमुखं षस्ते यनाहो-
रा्रपयन्ते सर्वयाष्यान्मरडलादभ्यन्तरस्य तृतीयाद्धैमण्डलस्य
सीमायां भवति, "ता जया ण ' मित्यादि,लतो यधा सूर्यो बाह्या-
नन्तरां-सर्ययाह्यावनन्वरां वकिणामयंमणएडलसंस्थितिमुप-
( ४०७ }.
अशभिधानराजन्द्र। ।
30 अ 0 /
संक्रम्य चार चरति तदा अष्टादशमुद्दर्ता रात्रद्धाभ्यां सु-
डूसे कर्षाष्टमागा भ्यामूना भवति , दादशसुद् सैपमाणे दिव-
सो द्वाभ्यां मुह्तैकर्षाष्टभागाभ्यामांघिकः “ से पविसमाणे '
इत्यादि, ततस्तस्मिन्नहारात्र ऽतिक्रान्ते सति सुर्यो ऽभ्यन्तरं |
प्रविशन् द्वितीयस्य षरामासस्य द्वितीये ऽदोरात्र दक्षिण--
स्मार्वागाइक्षिणदिग्भाविनो ऽन्तरारक्तिखदिग्भाविसवेवाष्या - |
नन्तरद्धितीयमरुडलगताष्टाचत्वारिशयोजनेकवष्िमागाभ्य--
धिकतदनन्तरावौग्भावियोजनद्धयभमाखादपान्तरषलरूपा --
द्वागाददिनिःखत्य “ तस्सादइपपसराए ` इति तस्य--
सर्ववाष्यादभ्यन्तरस्य कृतीयस्यो चरादमरडलस्यादिप्देशा-
सू--आदिप्रदेशभाश्रित्य बाछ्तृतीयां सर्वैच्छाया च्रद्ध-
मरडलसंस्थितेस्तृती यामुत्तरामदंमणडलसंस्थतिमुपसंक् --
भ्य चारं चरति, त्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य
शनैः शनैर परादमरुडलाभिमुरदे तथा कथैचनापि प्रवने-
मानो द््व्यो येन तदहोराश्रपयैन्ते सर्वबाष्यादखंमरण्डलात्त-
तीयामवीक्कनीमदधमरंडलसंस्थितिसुपसेक्षस्य चारं चरति
तदा अष्टावशसहत्ता रावरिश्चतुभिमुहरतैकषष्टिभागेरूना भव- |
ति , द्ादशमुहत्तेश्व दिवसश्चतुर्भि्मुहसतैकषष्िभागेरभ्यधि-
कः, ‹ पव ` मित्यादि, एक्स--उक्प्रकारेंण खलु-निश्चितमे-
तनोपायेन-प्रत्यदारात्रमभ्यन्तरमष्टाचत्वारिशद्योजनेकषष्टि- |
भागयोजनद्वयविकम्पनरूयेण शनेः शनैरभ्यन्तरं श्रवि- |
शन् सूयैस्तदनन्तराद् श्रद्धमरडलात् तदनन्तरां तस्मिन् २
प्रदेश दक्तिणपूर्वभाग उत्तरापरभाग बा तां तामद्धंमणडल-
संस्थिति सक्रामन् दितीयस्य षरामासस्य द्बशीत्याघिकशत-
तमाद्ोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मा दृत्तरदिग्भाविनोऽन्वरात्स-
ववाह्यमरडलमयपेद्य यद् द्यशीत्याधिकशततमं मण्डल तद्-
गताष्टाचत्वारिंशयाजनेकष्णठिभा गाभ्यधिकतद्नन्तराभ्यन्त - |
रयोजनवयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्धा गात् ` तस्साद्पपसाण्' |
इति तस्य--सकभ्यन्तरमरडलगतस्य दक्षिणस्याद्धेमरडल-
स्थादिप्रदेशमाश्रित्य सबा भ्यन्तरां दक्तिणामद्धंमरडलसंस्थि-
तिमुप्संक्रम्य चांरं खरति, स॒ चादिप्देशादूध्वे शनेः शनः |
सवौ भ्यन्तरानन्तरयाह्योत्तरादंमरडलाभिमुल तथा कथख-
नापि चारं प्रतिपद्यते येन तस्यादोरात्रस्य पर्यन्ते सवौभ्यन्त-
शानन्तरस्योखरस्याद्धेमरडलस्य सीमायां भवति, ' ता जया |
श॒ ' मित्यादि,वत्र यदा सूयैः सबौभ्यन्तरां दक्षिणामद्ध मरड-
लसंस्थितिम॒पसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त
छत्कपकः-उत्कृष्टः अष्टावशमुहत्तेप्माणो दिवसो भवति, स- |
जघन्या च द्वादशमट््ता रात्रिः ' एस ण॒ ' मित्यादि, नि-
शमनवाक्य प्राग्वस् , सदेवमुझा दक्तिणा अद्धेमण्डलसंस्थि-
तिः । साम्थतसु्तरामद्धैमरडलसस्थिति जिशासुः प्रश्नयाति-
“ ता कटं ते ' इत्यादि, एतत्प्राग्वद् व्याख्येयम् , ता जया
श्, मित्यादि, वलो यदा सयः सब्रीभ्यन्तरामुल्रामद्धेमरड- |
लसंस्थितिसुपसलक्म्य चारे चरति तदा उत्तमकाष्ठलाप्राप्त |
उत्क्षकोऽषाद्शायुष्ट लो विषसो भवसि, जघन्या च द्वादश-
महत्ता राजिः, अहां दादिणा तद्द चेव ' ति यथा दिगा |
शआर्समगडलव्ययश्थितिः प्रगभिदिता तथा चैष--तेनैव |
अकारेणेषा 5प्युसरा्उमणछलइयवास्थिसिराख्येया, लवरम् 'उ- |
सर ठिक्रो अध्यितराणंतरं दादिणं उबसंकमइ, धाहिणाओ |
झर्मितरं तथ्य उत्तर उयसंकगइ,एणर! उवाएणं ०जाव सब्ब- |
बादिरं दाहिणं उवसखेकमई , सब्यवादिरशाओं आअहिराणंतरं |
उत्तरं उवसंकमइ, उक्तराओ बाहिरं तश्च दाहिण प
दाहिणाओ संकममाणे २ ०जाव सव्वन्भतरसुत्तरं उवसं-
कमसइ ` इति, नवरमयं दच्तिणाद्धेमरडलव्यवस्थितेरस्यामु- `
त्तराद॑मण्डलव्यवस्थायां विराषो--यदुत सवौ भ्यन्तरे उत्तर- `
स्मन्नद्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिद्चदोरात्ेऽतिकान्ते नवं
सवत्सरभाददानः परथमस्य षरप्रासस्य प्रथमे5होराजे
अशभ्यन्तरानन्तरां सवौभ्यन्तरस्य मराडलस्यानन्तरां दक्षिणा-
मदधमरडलसंस्थितिसुपसक्रामति , तस्मि्होरात्रेऽतिक्रान्ते
प्रथमस्य षरमासस्य दितीयऽदारात्र ऽभ्यन्तरकृतीयां सर्वा-
भ्यन्तरस्य मरुडलस्य लुतीयामुत्तरामद्धमएडलसंस्थितिमुष-
सेक्रामति,पवं खल्वननोपायेन प्रागिव तावद् वङ्कव्यं यावत्यथ-
मस्य षरमासस्य उयशीत्यधिकशततम अडोराजे पयैवसान-
भूते सर्वबाह्यां दृक्षिणामर्द्धमरूडलसंस्थितिसुपसंक्रामाति,
एतत्प्रथमस्य षरमासस्य पयैदसान, ततो द्वितीयस्य षण्मा-
खस्य त्रथमे5होरात्रबाह्यानन्तरां सैवास्य मण्डलस्या-
्ाक्कनीखुदरामदमरडलसंस्थितिमुपसक्रामति ततस्तस्मि-
छहोरात्रे ऽतिक्रान्ते द्वितीयस्य षएमास्सस्या 5होराजे उत्तरस्या
अंद्धमएडलसेस्थिते्दिनिःसत्य बाह्यततीयां सर्ववाह्मस्य
मरुडलस्यावोक्कनी त॒तीयां दाक्षिणामरझँमएडलसंस्थितिसप-
सक्मति, तस्याश्च ठृतीयस्या दाक्षिएस्था अद्धेमएडलसंस्थि
तेरेकैकेनाहोराजेशैेकामझ मणडलसस्थिति सऋामन् २ ताव-
दवसेयो यावद् दितीयपरमसपयैवसानभूतेऽदारात्रे सवो-
भ्यन्तरासुत्तरासद्धसणडलसेंस्थितिमुपसंक्रामाति, तदेवे दाक्ति-
णस्या श्रद्धमण्लसंस्थितेः उत्तरस्यामझ॑मण्डलसंस्थितौ
नानात्वमपदर्शितम्, एतदनुसारेण च स्वयमेव सूत्रालापको
यथावस्थितः परिभावनीयः, स चैवम् “ से निक्खममासे
सूरिए नवं सवच्छरमयमाणे पदमेसि अहारसंसि २.
जत्तराए अतराए भागाएं तस्लाइपएसाए अब्मितराणंतरं
दाहिणएं अद्मंडल संठिति उवसंकमित्ता चारे चरति, जया
र सूरिए अध्मितराणंतरं दाहिणे अद्धसंडलसोटाति उव-
सेकमित्ता चारं चरति तया शे आअट्वारससुत्ते दिवसे
भवति दोहि पगद्धिमागसुहुतेदि उण दुवालसमुद्ृत्ता
राई भवति वादि एग्धिभागमुहुततहि अंडिया, से नि-
कखममाण सूरिए दोच्चसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अतराण
भागाए तस्सादिपदेसाए अच्मितरं तच्चं उत्तरं श्रडमडल-
संटिदं उवसकमिन्ा चारं चरति, तया रं अट्टारसमुहुत्ते
दिवसे भवति चडि एगट्ठिभागसुहक्तेह्ि ऊण, दुवालसमु-
इला राई भवति चडि एगद्टिभागमुदत्तेदि अहिया, एवं
खलु एएणु उवाएणं निक्खममाणे खरिष तयारुतराश्रो
तयारणंतरं लसि तसि देससि ते ले अद्धमंडलसंटिई सकम-
मार उत्तराच भागाए तस्साइपएसाए सब्ववाहिरं दाहिण-
मद्धमंडलर्साड़ई डइवसंकमिकसता चारं जरति, ता जया शे सूरि
ए सथ्ववाहिरं काहिं अद्धमंडलर्सठिश्सुवसंकामसा चारं
चरति तया शे डक्तमकट्गुफ्ता उक्कोलिया अट्टवारसमुहृत्ता
राई भयति, जदक्षण कुबालससुहुल दिवसे भवद्, एस शं
पढ़मे छुम्मासे एस शा पदमस्स छुम्मासस्स चज्जवसाणे, से
यविसमारे सूरिय दश्च छुम्मासमयमाणे एढमलि अदहोर- `
कसि दाहिणाएं अतराए भागाए तक्खाइपएसाए बाहिरा-
गंतरं उत्तरं भ्रशममंडलर्साठिइमुबर्सकमित्ता चारं खंरति, ता
नि सूरिए ¢ है ५ मडलस्सा + (~ + मैं |
जया शे सूरिए बादिराणंतरं उत्तरं अझद्धमंडलर्साठशमुवस
|
|
` ` >> का ऋ
॥
॥
४
शाह
क्षा चारं चरति तया शे अट्टारसमुहुत्ता राई भवह दोहि य
(दो) हि एगद्ठिभागसहुत्ताहे अहिए, एवं खलु पणे उवा-
भागाए तस्सादिपएसाए सब्बब्भंतरं उत्तर अ्रट्ट्मंडलंसंठिहइ-
मुबसकमित्ता चारं चरइ ता जया णे सूरिए सब्वब्भंतरं
उत्तरे अद्धमंडलसंठिई उवसंकामित्ता चार चरइ, तया णे
उत्तमकट्टपते उक्ासिप शरट्वारस मुहुत्ते दिवसे भवति , |
जहन्निया दुबालसमुत्ता राई भवति त्ति, पस णं दुश्च |
छुम्मास, इत्यादि प्राग्वत् । सर प्र० १ पाहु० । तत्र
राजिशब्दे श्रदेशद्धये कचिदाचाय बुवते , स सन्ध्यायतो
राजत शोभत तेन निरुक्किवशात्--राचिरूच्यते, यस्तु स-
ख्याया अपगमः स हि कालः, अन्य तु ज्वते--यतः स~ |
न्ध्याया अपगमे चोरपारदारिकादयो रमन्ते तताऽसौ रा-
निरिति परिभाष्यते । बृ० १ उ० । विपा० । स्था० । रात्रौ |
सकलान्नपानमध्य सूच्माः तद्रपा जीवा उत्पद्यन्त प्रभाते.
विलये यान्ति तत्सत्यपसत्य षा इति प्रश्चः ?, अओ-
सरम्- रात्रो समस्तान्नपानमध्ये तद्रूपाः सद्मा जीवा
उत्पद्यन्ते प्रभाते च विलयं यान्तीत्यतत् शास्त्रमध्ये क्रापि
ज्ञाते नास्तीति ॥ १५० ॥ सन ० ४ उन्ला० । चमरलोकपाल-
सोममदाराजस्याग्रमदिष्याम् , स्था० ५ ठा०.१ उ० । भ०।
राइअ-रातिकं-जि० | रजनिनिदृत्त, आब० ४ अ०।
राइंदिय-रालिंदिव-न० । श्रहोरात्रे, स० ।
अथ स्ये त्रिनवतिस्थानके गते किमपि वितन्यते--
तेणउश्मेंडलगते शं ष्रिए अतिवइमाणे निवइमाणे वा ।
सम अहोरत्त विसम करेइ ॥ ६३ ॥
` तेणउरईमरडलेत्यादि,' तश्र श्रतिवकतैमानो वा--सर्वबा-
ह्यात् सवौ भ्यन्तरं प्रतिगच्छन् निवर्तमानो वा--सबौभ्यन्त-
रात् सर्वबाह्य प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, समम-
होरात्र विषम करोतीत्यथः । श्रहश्च रात्रिश्च अहोराज त~ `
योः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश सुहर्ता उभ-
योरपि भवन्ति, तश्र सवोभ्यन्तरमरडल अष्टादशसुट्त्तम- |
इभवति राजिश्व द्वादशसह सो, सर्ववाह्य तु व्यत्ययः, त-
था ज्यशीत्यधिकमणडलशत ढौ इावेकषष्टिभौ वर्देते ही-
येते च, यदः च विनवृद्धिस्तदा राजिदानिः राज़ियुद्धों च
दिनद्ानिरिति । तत्र द्विनवतितमे मरडले प्रतिमरडलं मुह-
कैकषष्टिमागद यवृदथा जया सुट्दर्ता पकेनेकषष्टिभागना- |
धिक्ाः बद्धेन्ते वा दीयन्ते वा, तेषु च द्वावशमुह्त॑षु मध्ये |
क्तिप्तषु अष्टादशभ्या ऽएसारितेषु वा पञ्चदशमष्टला उभयत्रै-
कनेकषष्टिभागेनाधिका हीना वा भवन्तो दिनवतितममण्डल-
स्याद्धं समा ऽहोराश्रता तस्यैव चान्त विषमाऽद्टोरात्रता भव- |
ति, द्विनवतितमं मण्डल खादित श्रारभ्य जिनवतितमे
तश्र च मराडले ग्रथोक्कः सुत्रार्थ इति ॥ स० ६३ सम० ।
ज्यो० । स्था० । सूत्र० | शा० | च० ध्र० । ( असंख्येयलोके
अमस्तानि राजिन्दिदानि, इति ' लोग ` शब्दे बच्यते )
राइक-राजकीय-ति० | पर-राजथ्यां कछ-किकौच ॥८।२
( ४०.६
अंखियानरो कन १।
षगद्धिमागमहृत्तदिं ऊणा दुवालसमहुत्ते दिवसे भवई चड- |
पलु पविसमाणे सूरिए तयारतराश्ना तयाणेतर तसि तसि |
देससि तं त अद्धमडलसटिदं संकममाण दाहिणाए झेतराए
राइमोयण
| । १४८॥ इति शयप्रत्यस्थाने डिक्ादेशः | राजकीयम् ।
रारक्तं । राश्रकेरं । राज्ञसम्बन्धिक्षार्यादौ, प्रा० २ पाद् ।
| रादद्कि-राजद्धि-खोः० । त्रिधा २ प्रकाराभ्यां षड्धा राजद्धिः।
राजसंपत्तों,स्था० ३ ठा० ४ उ० । ( व्याख्या ` इहि ' शब्दे दि-
तीयभागे ४८२ पृष्ठ गता `)
| राहशिय-राल्निक-पु° । रल्ञानादिमि्व्यवदहरतीति रालि-
कः । बृहत्पर्याये, स्था० ५ ठा० १ उ० । स० । पञ्चा० ।
श्राचा० । बृ० । ( अन्यगच्छुसत्का रल्ञाधिकतरा श्राचार्य-
स्या.ऽपि रत्नाधिका भवान्ति इति “ किदकम्म' शब्दे दृतीय-
भागे ५१० पृष्ठे दर्शितम् )
राइप्म-राजन्य-पुं० | भगवद्वयस्यवंशजे क्षत्रियजातिविशेषे ,
ये हि श्रीक्षषभदेवेन मिश्नस्थाने स्थापिताः । क्ञा० १ श्रु० १
० । कल्प० ।.भ० ।
रादइपचक्खाश-रात्रिप्रत्याख्यान-न०। रात्रिभोजनप्रत्याख्या-
ने + लर परर)
| राहभत्त-रात्रिभक्क-न० । रजनिभोजने, प्रव० २३७ द्वार | द्-
श० । सूत्र |
| राइभोयण-रात्रि भोजन-न० । रा्ौ-भक्त भोजने-भुक्किः रा-
जिभोजन--( तश्च राणिभोजन चतुर्विधमिति 'पडिक्षमण'
| शब्दे पञ्चमभागे २६४ पृष्ठ गतम् ) निशि भोजने, तच्याज्य
बहुदोषसम्भवात् ( ध० ) बहुविधजीवसम्पातसम्भवेनेदिक-
पारलोकिकानेकदोषदुष्टत्वातू यदभिदितम्--“ मेहं पिवी-
लिश्चाश्रो, हणेति वमणे च मच्छिश्रा कुणइ। जूआ जलो-
द्रत्त, कालिश्रश्रा कुटुरोगे च ॥ १॥ बालो सरस्स भगे ,
कंटो लग्गइ गलम्मि दारं च | तालुम्मि विधद अली, वंज-
णमज्भाम्मि भुजेतो ॥ २॥ ” उ्यज्जनमिह वान्तौकशाकरूप-
मभिग्रेतम् , तदन्तं च इृश्चिकाकारमवे स्यादिति बृश्िक-
स्यासृदमस्याऽपि तन्मध्यपतितस्यालचयत्वाद्धाज्यता सम्भ-
वतीति विशेषः । निशीथचुणावपि--““ गिहकोदइलश्रवयव-
सभ्मिस्सेण भुकत्तेण पाटे किल गिदकोइला सम्मुच्चछं ति ”
ध्वे सपादिलालामलमूत्रादिपातादययपिः तथा--** मालिति य
महीअले , जामिणिखु रयशिश्ररा य (भ) मेतेणो ।
तोषि चलेति षु फुड, रयणीप भुजमाणे तु॥ १ ॥
रपि च-निशाभाजने क्रियमाणे अवश्य पाकः स-
सम्भवी , तत्र॒ षडजीवनिकायवधोा-ऽवश्यम्भावी , भा-
जनधावनादौ च जलगतजन्तुनाशः, जलोज्मनेन भूमिगत-
कन्धुपिपीलिकादिजन्तुघातश्च भवाति,तत्प्राणिरक्षणकाज्लया,5
पि निशाभोजने न कत्तव्यम् , यदाहः--" जीचाण कुंथुमा-
इंण, घायणे भाणधोश्रणाईसखु । एमाइ रयणिभोयण-दोखे
को साहिऊं तरइ ? ॥१॥” यद्यपि च सिद्धमादकादिखरजूरद्वा-
क्ञादिभक्षण नास्त्यन्नपाको, न च भाजनधावनादिसम्भवः,
तथाऽपि कुन्थुपनकादिघधातसम्भवान्तस्याऽपि त्याग एव
युक्ता, यदुक्घं निशी थमाष्ये--
“ जइ वि हु फासुगदब्बं, कुंधू पणगा तदा ऽवि दुष्पस्सा ।
पच्चक्ख-णाणिणो 5वि हु, राईभक्तं परिहरति ॥ १॥
जद विह पिवीलिगारई, दीसंति पईंबमाइडज्जाए ।
| तद चि श्तगु आशादवन्ग, मूलवयचिगाहस जयौ ॥ २॥ ?
( ५१० )
श्रभिध्रानराजेन्द्रः।
राडभोयण __
एतत्फले च-- |
|
उल्ककाकमाजौर--गरधशम्बरशकराः ।
श्हिवृश्चिकगाधाश्च, जायन्त रात्रिभाजनात् ॥ १॥
परेऽपि पठन्ति-
मृते स्वजनमातरे ऽपि, सूतके जायेत किल ।
श्रस्तंगते दिवानाथ, भोजने क्रियते कथम् ?॥ १॥
रक्रीभवन्ति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च।
रात्रौ भोजनसक्कस्य, ग्रासे तन्मांसभक्तणम् ॥ २॥ |
स्कन्दपुराणे रुद्र प्रणीतक्रपालमोचनस्तोतरे सूरयस्तुतिरूपऽपि- |
एकभक्काशनान्नित्य--मग्निहाजफले लभेत् ।
अनस्तभाजना नित्य, तीथयात्राफल लमत् ॥ १ ॥ |
तथा-- |
नैवाहुतिनंच स्नान, न श्राद्धं देवताचनम् । |
दाने वा विदितं राजो. भाजने तु विशेषतः ॥ २॥
आखुवेर्दे ५ पि--
हृन्नाभिपश्चसङ्गाच-श्चरडराचिरपायतः ।
अतो नक्तं न भोक्तव्य. सूक्मजीवादनादपि ॥ ३ ॥ |
तस्माद्विवेकिना रात्रौ चतुर्विधो ऽप्याहारः परिहाथः, तद- |
शक्कों त्वशन खादिमे च त्याञ्यमेव, स्वादिमे पृगीफला-
द्यपि दिवा सम्यक् शोधनादियतनयेव ग्रह्ात्यन्यथा चस-
हिसादयाऽपि दाषाः; मुख्यवृत्त्या च प्रातः साये च राजि-
भ्रत्यासन्नत्वाद् द्व द्र घटिक भाजने त्यजद् , यता योगशाख-
“रह्मा मुख ऽवसाने च यो दे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोज
नदापज्ञा ऽश्नात्यसो पुरयभाजनम् "' अत एवागम सर्वजघन्यं
भ्रत्याख्यानं मुहसैप्रमाणं नमस्कारसहितमुच्यत, जानु तत्त-
त्काथव्यग्रत्वादिना तथा न शक्नोति, तदाऽपि सूृ्योदयास्त-
निशेयमपेत्तत एवाऽऽतपदशनादिना, अन्यथा राचिभोजन-
दाषः, अन्धक रभवनेऽपि बीडया प्रदीपाकरणादिना चसा-
दिर्दिसा-नियमभङ्ग-मायास्रषावादाव्या धिकदाषा अपि।
घ० अआआंध०।
अधुना षष्टमधिकृत्या5 5ह---
अहो निच्चं तवोकम्मं, सब्वबुद्धेहिं वप्पिन्रं |
जाव लजञ्ञासमा जित्ती, एगयत्त च भोश्रणं | २२ ॥
अहात्ति' सूत्रम् , अहा नित्ये तपःकर्मति--अहा-विस्मय,
नित्य नामापायाभावन तदन््यगुणवुद्धिसम्भवादप्रतिपात्येव
तपःकम-तपो5नुष्ठा नम, सवबुद्धेः सवैतीश्रकरैः वर्शितम-
देशितम् , कि विशिष्टमित्याह-'यावज्ञज्जासमावृत्ति:-लज्जा-
संयमस्तेन समा--सदशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः, ब- |
तेन वृत्तिः--ददपालना, ` एकभक्तं च भाजनम् --एकं भक्त
द्रव्यता भावतश्च यस्मिन् भाजने तत्तथा । द्रव्यत एकम्--
एकसख्यानुगतम् , भावत पकम्-कमवन्धाभावादद्वितीयम् , |
तदिवस पव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभा- |
वादिति सूत्राथः ॥ २२॥
रात्रिभाजने प्राणातिपातसम्भवेन कर्मबन््धस-
द्वितीयतां दर्शयति--
संति सुहुमा पाणा, तसा अदुब थावरा |
जाई राश्रो अपासंतो, कहमेसशिश्र चेरे !॥ २३॥
"सतिम सि' सूतम् , सम्त्येति--प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपा!
स्थावराः-पृथिव्यादयः यान् प्राणिना राजावपश्यन चछुषा `
कथम् एपणीयं-सत्त्वानुपरोधन चरिष्यति भाच्यत च ?. अ-
सम्भव एव रात्रावेषणायचरणस्यति सूत्रार्थ: ॥ २३ ॥
एवे रात्रौ भाजन दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाह-
उदउन्न बीञ्रससत्त, पाणा निवडिया मिं ।
दिआ ताईं विवजिज्ञा, राओ तत्थ कटं चरे ? ॥ २४॥
"उद्उन्ञे ति ' सूत्रम्. उद्काद्रं पूववदेकग्रहरे तज्जातीयग्रहणा-
त्सस्निग्धादिपरिग्रहः, तथा ` वीजससक्तम् ` बीजः संसङ्क
मिश्रम् , ओदनादीति गम्यते । श्रथवा- बीजानि पृ-
थग्भृतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति, तथा--प्राणिनः-
सम्पातिमप्रश्नतयो , निपतिता मह्याम-पृथिव्यां सम्भव-
न्ति, ननु दिवा.ऽप्ये तत् संभवत्येवं?, सत्यम् , कितु-परलोकः
भीरुश्चक्ुषा पश्यन् दिवा तान्युदकाद्रादीनि विवर्जयेत् ,
राजों तु तत्र कथ चरेत् सयमानुपरोधन ?, श्रसम्भष एवं
शुडचर स्येति सूत्रा ऽथः ॥ २४ ॥
उपसंहरन्नाट--
एत्र च दोसं दणइं, नायपुत्तेण भासिन्र |
सव्वाहारं न भजंति, निग्गंथा राइभोअणं ॥ २४ ॥
' एओअं च त्ति ` सूजम--एत च--अनन्तरोदितं प्राणि-
हिसारूपमन्य चात्मविराधनादिलक्षणं दोष दष्द्रा मतिचच्षु-
पा ज्ञातपुत्रेण-भगवता भाषितम्-उक्तम् स्वाह्ारम-चतुर्चि-
धमप्यशनादिलज्ञणमाश्रित्य न भुञ्जत, * निग्नेन्थाः--साथ-
वा राजिभोजनमिति सूत्राथेः ॥२५॥ दश० ६ अ० २ उ०।
किच-
अत्थंगयम्मि आइच, पुरत्था अ अणुग्गए ।
आहार मयं सव्व, मणसाऽवि ण पत्थए ॥ २८ ॥
'अत्थ ति ` ' सूत्रम्, ' ्रस्तं गत आदित्य ` ्रस्तपर्वतं प्राप्त
अदर्शनीभूते वा "पुरस्ताश्चाजुदधते' प्रत्यूषस्यनुदित इत्यथः, श्रा
हारात्मकं सवम्-जिरवशषम् ; आहारजातं मनसाऽपि न प्राथ-
येत् , किमङ्ग ! पुनर्वाचा कमणा वति ॥२८॥ दश०८ श्र ° २उ०।
दिवसस्याएमे भाग, मन्दीभूते च भास्कर ।
ते नक्तं च विजानीया-न्न नक्तं निशि भोजनम् ॥ १॥
नेवाहुतिन च स्नाने, न श्राद्धं देवताच्चनम् ।
दाने वा विहितं रात्रो, भाजने च विशषतः ॥ २॥
पतङ्गकीरमरड् क-सत्वसङ्कातघातक्त् ।
शतो ;तिनिन्दितं ताव-दर्म्माथ निशि भोजनम् ॥ ३ ॥
पशनां मानवानां च, शीलसंयमन चिना ।
रातौ दिवाऽदतां तात !, को विशेष इदोच्यताम् ॥ ४॥
दश० २ तत्त्व । १३
श्रथ राजिभो जनमाह-
रातो य भोयणम्मि, चउरो मासा हव॑ति5णुग्घाया ।
द्माणादिणो य दासा, आवजण संकणा जाव ॥८५॥
राज्नौ भोजने क्रियमाणे चत्वारो मासा अनुद्घाता गुर-
घो भषन्ति, आशादयश्य दोषाः | ये च प्राणातिपातादिधिष-
या आपत्तिशह्लवादोषाः परिप्रहस्यापकि शङ्कां च॒ याव-
स्मधमोदेशके “' नो कप्पए राओ था वियाले वा भ्रसशं षा
मिहितास्ते सवेऽपि द्रष्टव्याः।
अथ दितीयपदमाह-
शिउवदवं व खेमं, होहिति रसो य कीरए सती ।
अद्वाणनिग्गतादी, देवीपूया य अज्मियमं ॥ ८६ ॥
उपद्रवा नाम-अशिव गलरोगादिक वा तस्याभावो निरुप
द्रवम् , क्षमं-परचक्राद्यपप्तवाभावः, तमे च मदीयदेशे भवि- |
ष्यतीति परिभाव्य राजा शान्तिकतुकामस्तपखिना रात्रो
भोजयेत् , यद्वा-राजपुजो वा नागरा या राज्ञः शास्तिक्रि- |
। यतामिति कत्वा, ये रात्रौ न भुञ्जते खतपस्िनश्च ते रात्रों
। भाजनीयाः, एष तस्या विद्याया उपचार एति भावयन्ति |
| ते च साधवाऽध्वनिगतादयस्तवब सम्प्राप्तास्तता वक्ष्यमा-
| शा बिधिर्विधातव्यः। यद्धा-राज्ञः कस्याऽपि देवी वाणम- |
| न्तरपूजां कृतवा तपस्विनां राजिभोजनलक्षणम् ' अज्मिय-
| कम् ` उपयाचितं मन्यते ।
कुत इति चदुच्यते-
अवर्धरिया व पतिणा, सपत्तिणीए व पुत्तमाताएं ।
गेलप्मेण व पुरा, वुग्गहउप्पायसमणट्टा ॥८७॥
| पत्या-भरत्रा अवधीरिता--अपमानिता सा देवी, यद्धा या
लस्याः सपत्नी सा पुत्रमाता तया न खुष्डु बहु मान्यत |
ग्लानत्वेन वा सा गाढतरं स्पृष्टा विग्रहो वा. तस्याः केनापि |
साउंमुत्पन्नंस्ततो विग्रहोत्पादस्य शमनार्थं वाणमन्तरपूजा
कक्तेव्या, स च वाणमन्तरा रात्रो साधुषु भोजितेषु परितो-
षमुदढ्धहति
| ततः--
, एकेकं जतिणेतु, निमंतणा भोयणेण विउलेणं । |
भोत्तुं अशिच्छमाणे, मरणं च तहिं बवसितस्स ॥८८॥ |
एकेक साधु वलाभियोगेन राजभवनेऽद्य अतिनीय परविश्य |
रात्रो विपुलेन भोजनेन निमन्त्रणा कृता, अभिहिताश्व सा-
धवः, यदि्-सम्प्रति न वा भोच्यध्वे ठतो वयं व्यपरोपयि- |
श्यामः, एवमुक्त तषामेकस्य साधाः तदानीं मोक्तुमनिच्छतो
अरणे च तत्र व्यवसितस्य शिरश्छिन्नं , द्वितीयो हर्षादुल्ल-
सितस्वृतीयो भीत इत्यादि; यथा मेथुने तथा मन्तव्यम् ॥
अथ प्रायथित्तमाह--
सुद्ल्लसिते भए, पच्क्स णे पडिच्छगच्छा व |
ठबिए मूलं छेदो, छमासचउरों य गुरुलहु ओ ॥८६॥
गातार्थः॥
चन्र यतनामार-
तत्थेव य भोक्खामो, अणि(भि) थूजामो ऽन्धकारम्मि | |
कोणादीपक्खेव।, पोटलमावेण जति णीता ॥ &० ॥
रारो भास्यमानः साधुभिरभिधातव्यं भाजनेषु गरदीत्वा |
सतस्तत्रैव खश्रतिश्रये भाच्यामहे, न वत्तेते गृहस्थानां पुरतो |
भाक्तुम् , एवमुक्त्वा ततो ऽल्पसागारिकं नीत्वा परिष्ठापय- |
न्ति। अथा ऽन्यत्र नेतु न प्रयच्छन्ति भणन्ति च-श्रस्माकं पुरतो |
भोक्कव्यम् , ततः प्रदीपमपनयत अन्धकारे भोजन कुमेः, तत- |
स्तेषामपश्यतां को णेषु आदिशब्दादू-अपरत्र चैकान्ते कवलान् |
प्रस्तिपन्ति। अथवा-वस्थ॒ए पाइलर्क वध्या तत्र प्रक्तिपन्ति | |
( ५११ )
राइभोयण श्रभिधानराजन्द्रः। है ___राइभोयण
पाणं बा खाइम॑ वा साइम॑ या” इत्यादो राजिभक्लसत्रे हहेवा- भाजनेषु वा प्रक्षिपन्ति, यदि निजकानि अलाबूनि भवन्ति ।
श्रथ प्रदीपे नापनयन्ति तत इदं वक्लन्यम्--
गेलष्पण व पुट्ठा, वाहाडरुची व अंगुली वावि ।
भुजंता विउ असढा, सालवा 5मुच्छिता सुद्भधा। ६५ ॥
यदि ते दुबलास्ततो भणन्ति रलानत्वेन स्पृष्टा बयम् ए-
तच्चास्माकमपथ्यम् , यदि समुहिशामस्ततोा क्रियामाह--
तस्मान् न ऋषिहत्यां कुरुत । अथवा-भणितव्यम्-श्रस्मा-
भिर्मलकं यावद् भुकं बाहड च प्रभूतं भुक्कानां कुतो रुचिरुप-
जायते, ययेवं न प्रत्ययन्ति ततो मादृस्थानेनाङ्कुली वदन
प्रक्षिप्य घमनमुत्पादयन्ति, यदि तथाऽपि न प्रत्ययन्ति ततः
स्तोकं तन्मध्यात् स्वादयान्ति, श्रथ तथाऽपि न विसज्ञयन्ति
तत पवे सालम्बा-अशठा रागद्वेषरद्दिता अमूर्खिदिताः
स्ताक भुज्ञाना अपि शुद्धाः ॥
उपसंहरकन्षाह--
एत्थ पुण अधिकारो, अणुघाता जसु जसु ठाणेसु ।
उच्चारियसरिसाईं; सीसाण विकोवणटाए ॥ ६२ ॥
अच्च पुनः प्रस्तुतसूत्र हस्तकर्ममैथुनरात्रिभक्लविषये
स्थानेरधिकारः प्रयोजनम् , कैरित्याह-येषु येषु स्थानेषु अनु
द्वातानि ग़ुरुकाणि प्रायश्चित्तानि भणितानि तेरेवाधिका-
रः । शेषाणि पुनरुच्चारितार्थसदशानि शिष्याणां विकोप-
नाशमुक्तानि॥ बृ०४उ० । (रात्रौ भिक्ञान प्रही-
तव्या श्रत्र॒ सूत्रम् “ नोकप्पइ० ” (४२) इत्यादि त-
च्च गोयरच्ारिया ' शब्दे तृतीयभागे ६७८ वृष्टे गतम् )
नादकः प्रेरयति । किमिति- रात्रिभोजनं परिहियत ?, उच्य-
ते-वहुदोषदशनात् , पुनरपि परः प्राह-युष्माकं दाचत्वा-
रिशदोपेषु रात्रिभोजनं न क्राऽपि प्रतिषिद्धम् , श्रप्रतिषिद्ध-
त्वाश्चावश्यमव निदो षामिति मे मतिः, अस्य नोद्कवचनस्य
प्रतिघातम्-प्रतिषधम् आचायेः करोति, नोदक ! भवत एवं
ब्रवाणस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः, तथाहि-यच्च त्वयोदितम्-
राजिभोजनप्रतिषथः काऽपि अस्माभिने दष्ट इत्यादि, तदे-
लदक्लानध्रलपितमिव लच्यते । यतः--
जइ वि य न प्पडिसिद्ध, वायालीसा य राइभत्त तु |
छट्टे महव्वयम्मि, पडिसेहो तस्स णु वुत्तो ॥७००॥
यद्यपि द्वाचत्वारिशतिदाषेषु राज्रिभक्ल न प्रतिषिद्धं तथा-
पि षष्ठे महाव॒ते षरजीवनिकाया तु तस्य निषेध उक्त पव,
तथा सृत्रम्-“ अहावर चह संते ! महव्वए राशभोयणाओ
वेरमणे "` इत्यादि । ( तच्च सूत्रम् ` पडिक्मण ` शब्दे पञ्च-
मभाग २६४ पृष्ठ गतम् ) ।
अपि च--
जइ ता दिया न कप्पइ, तम ति कारण कोइगादीसुं ।
कि पुण तमस्सिनीए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ ॥७०१॥
यदि तावक्तम:--अन्धकारामिति कृत्वा तमः कोष्ठकादिषु
दिवाऽपि भक्तं पाने ग्रहीतुं कर्पते, “ नीयदुवारं तमसं
कोट्ट्ग परिवज्ञए ” इति वचनात् ततः कि पुनस्तमस्विन्यां
बहलतमः पटलकलितायां शबैर्या राञो काटिपष्यते नैवेति
भावः | यञ्चोक्तं रात्रिभक्ते दोषा न सन्तीति तदप्यपरिभावि-
तभाषितम् ;
( ५१२ )
च्रभिधानराजन्द्रः।
राइमोथण
यतः-सात्तादेबा ऽमी दोषास्तत्रापलभ्यन्ते-
मिच्छचभ्मिय भिक्ख्, विराहणा होई संजमायाएं ।
पक्वलण खाणुकंटग-विसमद री बालसाणे य ॥७०२॥
भगवता प्रतिषिद्ध राजिभोजन कुब॑ता आज्ञाभङ्गः रतो |
भवति, तं षरा श्रन्येऽपि राज्रिभक्के पवत्तन्ते, इत्यनवस्थाऽपि
स्यात् , मिथ्यात्वे भिच्ुदृष्टान्तो वक्कलव्यः-“जहा कालोदाई
नाम भिक्खुगो रयणीए एगस्स माहणस्स गिहे भिक््सखट्ठाए
पविद्रो,तश्रा माहणी तस्स भिक्खानिमित्त जाव मज्जः प- ।
विसइ ताव श्रधयारवहलयाए श्रग्गश्रो खीलओ न
दिद्धो, तत्थ बडियाप तीसरे खीलएण कुच्छी फोडिआ, सा |
त्र गुव्विणी आसि, गन्भो फुरफुरंतो पडिश्रो, मओ य। सा
वि मया, तं ददं लोगेण भणियं श्रदिङ्कधम्माणो एए तति । एवं
साधुरपि रात्रौ भित्तामटन् भगवत्यसवैशत्वराङ्कामुत्पादयति
विराधना द्विविधा-संयमे आत्मनि च, तत्र श्रात्मविराधना
भाव्यते-र। जौ मागमपश्यतः स्खलनं भवति, स्थारुकण्टका-
भ्यां बा पादयोः परितम्यते'विसमन्ति- उन्नतं द्री-गतैः त-
योः प्रपतेत् , ग्यालः-सम्प॑स्तेन वा दश्येत श्वानो बा रा-
्रावुपद्रव कुयुः।
गोणे य तेणमादी, उब्भामग एवमाइ आयाए। `
संजमविराहणाए, छकाया पाणवहमादी ॥ ७०३ ॥
गौः-वलीवदैस्तेन हन्येत , स्तेना श्रादिशब्दादारक्तिकादयो
या तमःकाले पर्यटन्तं गृहीयुः,यद्धा-स एव साधुरकाले पर्य- |
रेत् , स्तेन श्रादिशब्दाच्चारिको वा अ्रभिमरो वा उद्ज्लाम
को या आरक्षिकपुरुषेः शङ्क्येत, ततश्च प्रतापनादयो दो
घाः, पवमादयो दोषा आ्रत्मविराधनाविषया भवन्ति ।
तानेव भावयति--
पाणवह पाशगहणे, कप्पट्टीद्दणए अ संकाउ ।
भणिओ भवाई साणे,मोखमिति संकणा ठाणे ॥७०४॥
दिया जीवससक्तादकावीनि
हारः कतु न शक्यत, अतः प्राणिब्र्टणे भाणवधो भवति
कर्पस्थकं चापद्राणे$गारिणो वच्यमाणनीत्या ऽऽ शङ्का भवेत्
श्र्टमतनापद्रावित इति, तथा कोऽपि साधुरगारिणा भणि- |
लो-रात्रों मा मदीयं गृहमायासीरिति, तवः श्वानस्ते गुहमा |
यास्यन्तीति प्रतिक्षां कृत्वा गतः, परमसो स्थाने खवचने न
तिष्टति, ततश्च सृषाजाद्मसौ प्रुत इति शङ्खा गृहस्थस्य
स्यात् , पतदुल्लर श्र भावयिष्यति ।
श्रथ कर्पस्थके अपद्रावण यथा शङ्का भवति-
तदतदुपदशयनि--
हंतुं सवत्तिशिसुयं, पडियरःई काउ मग्गदारम्मि |
समणेण शोच्चियम्मिय, देवणं जणस्स आसंका ।॥७०५।
काचिद्विरतिका रजन्यां सपल्ञीखुतं हत्वा ततस्तमगद्धारे
रत्वा कपाटस्य पृष्टतस्तमवष्टभ्य प्रतिचरति प्रतिजाग्रती
तिष्ठति, ्रमणश्च तदानीं भिक्ञाथैमायातः, तेन कपारे प्रेरित ।
सुपत्युप्रेत्चाया सुखेनैव |
साधुः परिददतुमीष्ट , राज्रों तु दुष्पत्युपेत्ततया तेषां परि- |
सच दारकः सदसेव भूमौ पतितः! तलस्ताया च देवनं छृतं '
राह्भोयण `
पूत्कतमित्य्ेः । यथा-आः छै संयतेन दारको व्यापादित
इति , ततश्च जनस्या ऽ ऽशङ्कः मवति, कि मन्ये सत्यमेवेव्-
मिति, तच्च ग्रहणाकर्षणा ऽ ऽदयो दोषाः ।
अथ म॒षावादे एवराघनामाशङ्कां चाह-
मा निसि मकं एज्ञसु, भणाइ एहिंति ते गिह युणगा।
पुणरेंत सिद्िपर,भणाई सुणओ सि किं जातो१।।७०६॥
एवं चिय मे रत्ति, कसुणं दिज्ञाहि तं च च सुणणण ।
खयं ति य भशमारे, भणाई जाणामि ते सुशए।।७०७॥
काचिद्विरतिका कस्याऽपि साधोरुपशान्ता, सा तस्य रा-
्रावप्यागतस्य भक्लपानं परयच्छति,तद् दृष्टा तदीयेन भ्रा स
साधुरभिहितो मा निशि-रात्रं मदीयमको गृहमायासीः
ततः साधुभेणति-एष्यन्ति त्वदीयं गृहं शुनका इत, ततः स
साधुर्जिह्दादएडदोषेणाकृष्यमाणः पुनश्च तदीय गृदमागतवा-
न् ,युनरायाते स श्राविकापति्भणति-किमेवं त्वं श्वानो जातः,
पवं सूषावाददोषमरा पद्यते । श्रथ पदे केनचिदगारिणा
साधुनि समागच्छुन् प्रतिषिद्धः श्वानस्ते गृदमागमिष्य-
न्तीति प्रतिज्ञां रतवान् , अन्यदा च तेनाविरतकेन दिवा `
मुज्ञानेन महेला भणिता मन्निमित्तमय कुसरं स्थापयेः,पश्चाथय
मम रावो भुञ्जानस्य ष्टा परिवेषयेमः,ततस्तया स्थापितं त-
तश्च शुनकेन भक्तितम् , राजी च सा भणिता परिवेषय त~ `
त्कुसणम् । तया भरितं शुनकेन भक्षितम् । स प्राह- जानाः
म्यह त्वदीयान् शुनकान् ,घव सृषावादविषया 5 ऽशङ्का भवेत् ।
श्रथ दृतीयचतुर्थवतयोर्विराधनामाशझ्लां--
च प्रतिपादयति-
सयमेव कोई लुद्धा, अवहरती तं पड्च कम्मकरी । |
वाणिगिणी मेहुल, बहुसो य चिरं च संका य ॥७०८॥ ४
चिरे च कश्चिल्लुब्धो भिज्ञार्थ प्रविश्े रजन्यामाकीणैमिव
कीरं बखदिरणयादि इष्टा स्वयमेवापदरेत् , श्रथवा-ते से-
यते प्रतीत्य करमंकरीकाचिद्पह रेत् ,सयतन हत भविष्यतीति
गृह पतितरश्रतयश्चिन्तयन्तीति बुद्धघाऽस्य खुबर्णादिक चोर-
यदिति भावः । तथा-काचिद्वािजका प्रोषितभतेका मैथुन-
मवभाषेत तद्चनाभ्युपगमे चतुथन्नतविसयाधना । तथा--
श्राहारनिमित्तं बहुशः प्रवेशनिर्गमों कुवोणश्विरं चालापस-
लापादिभिस्तिष्ठन् म्ैथुनप्रतिषिद्धायां जनेः शङ्कत ॥
श्रथ पञश्चमवतविषये विराधनाशङ्कां दशयाति--
अणॉमोगेण भएण व, पडिणाउं मीस भत्तपाशं तु ।
दिज्ञा हिरप्तमाद।, आवज्ञण सकणादि द्र ॥ ७०६ ॥
कश्चिदाभागन भक्कपानोन्मिध्ितं हिरएयादि दयात् , भ-
यन वा यथा कयाचिद्यत्तरिकया हिरणयादिकमपहते
साच त॑ न शक्रोति सङ्गापयितु वा ततः संयतस्य भच्येण
समं दद्यात् , प्रत्यनीकतया बा कष्ठे ष्ठिः , साधो-
वैज्यानामिकया प्राक्ननमथेयति, एवं हिरण्यादिके गृहीति
सति कथ्चित्तत्रैव मूच्छेया चैकान्ते सङ्गाप्य धारयेत् ततः
परिग्रहो षस्यापत्तिभैवति । तथा तत्सुवर्णादिक भक्कपान
संमिश्रं दीयमानं दत्त वा प्रतिग्रहे जाज्वल्यमाने कब्धित्प-
गयत , इृष्ट य तस्य शङ्क" जायेत, किः मन्ये अथं जानानों `
^ १
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|
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क्
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| राइसायण
लुब्घतया ग्रह्वाति उता5जानानः प्रमादादित्यादि । बत एते
दोषा अता राजौ न पयरितव्यम् ॥
अथ रात्रिभकङ्कमेव भेदतः प्रूपयज्नाह--
तं पिय चउव्विहं रा-इभोयणं च्ोलपइमररेगे ।
परियावन्न विगिचण, दरगु लिया सुक्खसुष्पधरे ॥॥७१०॥
सदपि राजिभोजने चतुर्विधम् । तद्यथा-दिवा गृरीते दिवा
शुक्रम् , दिवा गृदीतं रात्रौ भुक्रम् , रात्रौ गृहीत दिवा भुक्क
म्, राजौ ग्रहीत रारो मुक्त वेति । एतेषु चतुष्वैपि भङ्गषु य-
थाक्रमे तपःकाललघुकालगुरूतपोगुरुकोभयगुरुकरूपाश्चत्वा-
रो गुरवः; तत प्रथमभङ्गो भाव्यते-* चोलपट त्ति › कस्याऽ
पवि सयतस्य सज्ञातकानां सङ्खडिरुपस्थिता, स च तस्मिन्
दिवस प्राप्त वा भक्कार्थ प्रत्याख्यातवान् , ततो मामेते अ-
भक्कार्थिन न ज्ञास्यन्तीति छत्वा पात्रकेरनुद्आहि तेख्वो लपट्ट-
कसहितो गतः संज्ञातकग्रहम् , पृष्टश्च कि भवद्धिभाज-
नानि नानीतानि ? ततस्तनान्येन वा भणितम् । अद्याभक्ला-
थिंक इति ततस्त सज्ञातकाः कल्ये वयं दास्याम इति कत्वा
यत्तदथ स्थापयन्ति ततः प्रथमभज्ो भवति ` अइरेग त्ति
सङ्खडिगतमन्यत्र वा कचिदातरिक्रमवगाटिमादि लब्ध तच्च
पयौपन्न परिष्ठापनायोग्यतां प्राप्त ततस्तस्य विगिश्वन
च-परिष्ठापने तदथ निर्गतः तचोत्कृष्टमविनाश द्रव्यं |
मत्वा द्वितीये दिने समुदेशना्य दरगुलिकायां वृक्तशन्यगृदे
स्थापयति । दरा विलङ्कलिका नाम पिकं वुसपुञ्जा वा, वृत्त
शब्देन वृत्तकोटरमुच्यत । यद्वा गुलिकया “रुक्ख त्ति" गुलि-
|
काः परडकाः तान् कत्वा वृक्तकाटरे स्थापयत् । शन्यगरहे |
श्रतीतम्, णतप्वाप स्थापायत्वा द्धकायाद्बवसर भ्रज्ञानस्य प्र-
थमभङ्गा भवतीति गाथाथः ॥
अथ भाष्यकार पवेनां व्याख्यानयति-
खमणं मोह तिगिच्छा,पच्छित्तमजीरमाण खमओ वा।
गच्छ स चोलपड्टो, पृच्छ दवं पटमर्भगो ॥ ७११॥ |
चकन साधुना क्षपणं कृतम् , उपवास इत्यथः , तच्च मा-
इचिकित्साथ वा प्रायश्चित्तविशुद्धिदेताची श्रजीयमाणभ-
क्ृपररिणतिनिमत्त वा त्तपको वा पकान्तरितादित्तपणक-
तौऽसो तददिने च तस्य सेज्ञातकानां संखाडिरुपस्थिता, |
तेश्च साधवो भित्ताग्रहणाशमामन्तिता
त्पकसाधुश्चा- |
द् श्रादितयाचकः स चोलपटुः द्वितीये समये अव्र स्थित- |
मभक्ताथिन न ज्ञास्यन्ति ज्ञाताश्च न तदर्थं संविभाग
स्थापयिष्यन्तीति बुद्धा परस्थितः,
दास्यन्ति, न न वा श्रवगादिमादीन् उत्छृष्टद्रव्याणि ढौंक-
विष्यन्ति, ततोऽहं गच्छामीति। स च तत्र गत सन्ननुद्म्रा-
दितपात्रको दष्टः, तेः पृष्टः किमद्योपवासी च्येष्ठाय इति । स
आह-आमान्त्रतस्तद थमव गाहिमादिसविभागमभरिता अपि |
से स्थापयन्ति, कल्य पारणकादेवसे दास्याम इति रत्वा ।
यद्यपि ते न स्थापयन्ति, तथाऽपि क्तपकस्य चत्वारो गु-
ङकाः, भावतस्तेन सन्निधो स्थापनायाः कारितत्वात् | द्वि-
सीयदिवसे च तदुद्गृहीतं मुऽ्जञानस्य प्रथमभज़ो भवति । |
अशातिरिक्लादिपदानि व्याचष्-
कारशगहि उचव्वरियं, अ वलिय विहिए पुच्छिङण गओ। '
१२६
आचायोन प्रति ब्र- |
खीति च, त स्वभावत एवातिप्रान्ता मां चिना न पयीत्त प्र- |
( ५१९ )
अभिधानराजेन्द्रः।
रारभनायण्
भाक्खसु य दाराइसु, ठवेइ सामेग्गहऽनो का।॥७१२॥।
इह साधूनां भित्तामरतां क्वचिदतार्कितः प्रभूतभक्तस्य
लाभो भवेत् , सखङ्यां वा प्रच॒रमवगहिमादि लन्धम्
अनुचितक्तेत्र वा गुरग्लानादीनां वा योग्यग्रहणार्थमर्थ-
रपि सक्कारकेर्मात्रकणि व्यापादितानि पवमादिभिः
कारणैः प्रायोग्यद्रव्यमतिरिक्लं ग्रहीतव्यम् , नच्चाढद-
रितम्, तत आवलिकाम्- श्रचाल्लिकाभक्रा्थिकादि-
परिपारीरूपां विधिना प्रत्याख्याननियुकत्यादिशास्त्रप्रासिद्ध न
प्रकारेण पृष्ठा निमन्त्रय तथाऽप्यतिरिक्कपरिष्ठापनाय गत
एकान्तमनापातं बहुप्राशुक स्थारिडल तत्र च प्राप्तः | उत्कृष्ट
विनाशद्रव्यलोभन च कट्यं भोच्यऽहमिति चिन्तयित्वा दर
श्ादिशब्दाद् -गुलिकाब्क्तशल्यकाटर गदेषु स्थापयति, स च
साभिग्रद्दो वा स्यादन्या वा। अनभिग्नहों नाम-यात्किश्विदाशा
रोपकरणादिकं परिष्ठापनायारथं भवति तनसवं मया परिष्ा-
पयितव्यमिव्यवं प्रतिपन्नाभिग्रहः,तद्धिपराता ऽनाभिन्रह इति ।
अधेतेषु स्थापयतः प्रायश्ित्तमाद--
विले मूलं गुरुगः वा, अशत गुरु लहुग मेस जं चननं ।
थरी य उ निक्खित्ते, पाट्ुणसाणाई् खदए वा ।॥७१३॥
आरावणा उ तस्स उ, बधस्स पर्वणा य कायन्वा |
कुल नाम- द्विगमार, मसो जिन्नं ण जा उड्ढी ॥ ७१४ ॥
विले स्थापयतो सूले.गुरुका वा। यदि बसिंम बिल स्थापय-
ति तदा मूलम् , उद्वास चत्वारो गुखवः.अनन्तवनस्पदिकोररे
स्थापयतः चतुयुरवः, शचषु प्रत्यकवनस्पनिकोरटरगुलिका-
श्रान्ययुदेषु चतुलेघवः। यच्चान्यदात्मसेयमविराधनादिकमा
पद्यते तन्निष्पन्न प्रायशित्तम् । अथ स्थचिरगटे स्थापयति
ततस्तत्र निषत्त चत्वारो लघवः, अथ यदि प्राघूर्णकाय
दत्त, स्वयमच वा प्राघूर्णकेन भुक्र, श्वगवादिभिर्वा भक्तिं
तदा तस्य स्थापकस्या55रोपणा कक्तेव्या, चतुलौघुकादिकं
यथायोगं प्रायश्वित्त दातव्यमिति भावः। तत्र च श्राघूरा-
कादिना भुक्के कियन्तं काले यावत्कर्मबन्धो भवतीत्याशड्वा-
यां बन्धस्य प्ररूपणा कत्तव्या, सा चेयम्- कुल' इत्यादि काक्ति
दाचार्यदेशीया ब्रुवते-यावत्तस्य प्राघूणंकस्य सक्षम कुल वंश
तावदनुसमय तस्य स्थापकस्य साधोः कर्मवन्धो मन्तव्य
अपर प्राहुः-- यावत् तस्य नाम गाज नाद्यापि पत्तर, न्य
भरान्त यावत्तस्यास्थीनि धियन्ते, इतरे बुवते--यावदसा-
वायुधारयति, तदपरे कथयन्ति-यावत्तस्य तत्प्रायो मासो-
पचयो धरयत, श्रन्ये धतिपादयन्ति-यावत्तस्य तद्धकृपानम-
द्याउपि न जीरम् , आचाये: प्राह-एते सर्वे ऽप्युपदेश्याः.सि-
द्ान्तसद्धावः पुनरयम्-याबदसौ स्थापकसाधुरद्यापि त-
स्मात् स्थानान्नावृत्तो नालोचनप्रदानादिना प्रतिक्रान्तः सत्व-
तस्य कर्मबन्धो न व्यवच्छिद्यत । गतः प्रथमो भङ्गः ।
अथ श॒षमङ्गत्रयीं भावयति-
संखडिगमणे बीओ, बीयारगयस्स तदयशो होई ।
सन्नायगमण चारमा, तस्स इमे पान्नया भदा ।७१५।।
अपराह्न या संखडी तस्यां गंमने-दिवा ग्रहीत॑ राप्रों
भक्तमिति द्वितीयभज्ञों भवति | अनुद्गते सूर्य वदि चिचार-
भूमिमागतस्य वलिना निमन्त्रितस्य-रात्रों ग्रहीत॑ दिया
भुक्कामाति तृतीया भङ्गः, सेल्लातकुलगमने सज्ञातकानामेव च
तु ( ४१४ 4
अभिधानराजन्द्रः |
राइभोयण_
तेनात्मीयलाचनता रावो गृहीत्वा रावाचव भुञ्जानस्य चर- |
तस्य--चतुधभङ्गस्य इम--वच्यमाणाः |
मः-चतुर्था भक्तः ,
प्रायश्चित्तमेदाः वर्णिताः, इति निर्युक्तिगाथासमासार्थः ।
अथेनामय गाथां व्याख्यानयति-
गिरिजन्न तमाईसु व, संखडि उकोस लभे" बिइओ उ।
अग्गिट्टिमंगलट्टी, पंथिगवइगाइसुं तइओ ॥ ७१६ ॥
।
गिरियज्ञो नाम-काङ्कणदशषु सायाह्ृककालभावी प्रकरण- |
विशेषः, आह चूर्णिक्रतू-गिरियज्षः कोङ्कणादिषु भवति उ- ,
स्सरे क्ति। विशष चूर्णिकारः पुनराह-'गिरिजज्नो मत्तवाल-
संखडी भन्नइ, सा डाल(लाट,विसए वरिसारत्ते भवइ त्ति ”
तदादिषु सङ्खडीयु सूर्य ध्वियमाण उत्कृष्टमवगाहिम यदि
द्रव्य लब्ध्या यावत्प्रतिश्रयमागच्छुति तावदस्तमुपगतो रविः,
ततो रात्रो भङ्क्त इति द्वितीयो भङ्गः.तथा दक्षिणापथे कुडवा
मात्रया महाप्रमाणा मराडकः कियत, स हेमन्तकाले अ- |
रुणादयवलायाम् श्रन्नीशिकायां पक्त्वा धूलीजज्ञाय दीयते,तं
गृहीत्वा भुज्ञानस्य ततीयो भङ्गः, श्राद्धा वा प्रातर्गन्तुकामः
साधुं विचारभूमो गच्छन्तं इृष्ठा मङ्लार्थी अनुदृते सूय
निमन्त्रयत् , पथिकायां पन्थान प्रति व्रजन्तो निमन्त्रययुः,
बजिकायां वा श्रनुद्रते सूर्य उच्चलितुकामाः साधु प्रतिला-
भययुः, एवमादिषु ग्रहीत्वा भुञ्ञानस्य तृतीयो भङ्गो भवति ।
श्रथ चतुधभङ्ग व्याख्यानयति--
छदि यसयगयाण व, सन्नायगसंखडीड वीसरणं ।
दिवसे गते सभर, खामण कललं न हरहि त्ति ॥७१७॥
केषाञ्चिद् साधूनां सज्ञातकगरटं सङ्कडिरुपरस्थिता, तत्र ते छ.
न्दिता-निमन्तरिताः.सयं वा अनिमन्त्रिता गताः,ततः सक्ञात-
कैस्ते सयता अभिदिताः-अद्य यूयं भिक्ताथं पर्येटत, वयमव
पर्याप्त प्रदास्याम इति । ते च सयता गताः, भोजनकाले प-
रिवेषणादिकृत्यव्यग्राणां तेषां विस्मरणमुपागताः, तता
यदा लोकस्य यदातव्ये तदत्ते यञ्च कत्तव्य तत्कृतम् । ततः |
क्षणिकी भृतैस्तेदिवसैर्दिवस गते ब्यतीते सति सेयतानां स-
स्मरणं रतम् , ततस्ते रात्रो प्राज्जलिपुटाः पादयोः पतित्वा
क्ञामणं ` कुर्वन्ति , , परिवेषणव्यप्रैरस्माभियूय न ` सस्सृताः
त्षमध्वमस्मदपराधे गृहीध्वमस्मदनुव्रहाय भक्तपानमिति ।
संयता व्रुवत, कट्य ग्रहीष्यामो नदानीं रात्राविति।
ग्रहस्थाः प्रश्चयन्ति कि कारणे १ संयताः प्रतिब्रुवते--
संसत्ताइ न सुञ्भई,तणुजे!ण्हा अवि य दो वि उ सिणाई ।
काले अन्भरए वा, मणिदीबुदित्तए वेति ॥ ७१८ ॥
रात्रौ भक्कपानं कीटकादिभिः संसक्कमसंसक्क वति न शुद्धश्-
ति.आदिशब्दाद्-यूयमस्मदथ भिक्तामानयन्तो मागे कीरका-
दिजम्तूनामाक्रमणं कुरुध्वम् । तच्च यूयं वये च न पश्यामः,तदा |
= ८ च =+
तनुचन्द्रज्या त्स्मा चतत | अथ कालः रृष्णाउसा पत्ता बत्तेते,
शुक्कपक्तो वा अश्रच्छन्ने रजश्छन्नो वा चन्द्रो भवेत् , ततस्ते ।
गृहस्थाः ^ वति ` त्ति ब्रुवत अस्माक मणिः रत्नमस्ति तेन
दिवसा विशिष्यते प्रदीष्त्या वा उद्दीघ्त वा ज्योतिः पूर्व कृतं
विद्यते, तन परिस्फुठः प्रकाशो भवति | एबमुक्के यदि ग्रह्लन्ति
भजन्ते वा तदा इदं तत्सेस्थितं प्रायश्चित्तम् |
जोणहामणीपदीते, उदित जहन्नगाई ठाणाई । |
चउगुरुगा ऋगुरुगा, जग्म! मूलं जहनम्मि ॥ ७१६ ॥ |
ज्योत्स्नाया उद्योते भुञ्जानस्य चत्वारो गुरवः, =
गुरवः, प्रदीपप्रकाश छदः, उदी्ताद्योते मूलम् । अमूनि प्राय-
चित्तानि ज्योत्स्नादिपदोपलक्षितानि यथाक्रममधो<वस्थाप-
नीयानि, एतानि जघन्यानि स्थानानि । किमुक्तं भवति--अ्रस-
ङ्गमन्तरण जघन्यतोऽपि तानि द्रष्टव्यानि ।
अथ प्रसङ्गतो यत्प्रायश्चित्त भवति तद्विभणिषुराह-
भोत्तण य आयमणं, गुरूहिं वसभेहि ङलगणे संघे।
आरोवण कायव्वा, बिश्या य अभिक्खगहरणेणं॥७२०॥
रात्रौ ज्योत्स्नाप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरूणां समीपे तेषा-
मागमनम्,्रागतेश्चालोचनापरिणतैरन्यथा वा गुरूणां कांथे- `
तम्.ततो गुरुमिरुक्ल दुष्टे कृत भवद्भि यन्निशाभक्रमासेवितम्, `
इत्युक्रे यदि सम्यगावृत्ता मिथ्या दुष्कृतं न भूयः करिष्याम
इति ततश्चतुगुरवः । श्रथ नावृत्ताः, कि तु-गुरुवचनातिक्षमे
कुर्वन्ति, को नाम दोषा यदि ज्योत्स्नाप्रकाशे दिवससङ्का- ¦
शे भुक्रमिति ततः षड गुरुकाः। वृषभेराभिह्ठिताः-आयीः ! कि-
मेवे गुरूणां बचनमतिक्रामन्ति, यदि चृषभवचने सम्यगावृत्ता-।
स्ततः षड्गुरुका एव, श्रथ कृषभवचनातिक्रमे कुवन्ति ततः `
छेदः, एवं कुलेन कुलस्यविरेबा प्रतिनोदितानां सम्यगाबू-।
त्तानां छेद एव , अनावृत्तानां मूलम् । गणेन गणस्थविरैरवा `
नोदिता यद्यावृत्तास्ततो मूलमेव, श्रथ नावृत्तास्ततो5नव-:
स्थाप्यम् । सङ्कस्पविरेवा नादिताः किमिति गरो गणस्थविरा-
न् वा श्रतिक्रामथ इत्युक्ते यद्यावत्तन्ते ततोऽनवस्थाप्यमेव , ¦
दनावत्त मानानां पाराश्विकम । एषा चारोपणा प्रायश्रित्तवृ- ¦
दविगैरुवरषभादिवचनातिक्रमनिष्पन्ना प्रागुक्तजघन्यप्रायश्वित्त-
स्थानेभ्यो दक्षिणतः कक्तेव्या । द्वितीया तु राजिभक्नस्येव यद-
भीचणग्रहणे पुनरासेवा तन्नष्पन्ना वामपार्श्वतः कत्तेव्या ।
तद्यथा--एकं वारे ज्योत्स्नाध्रकाश भुञ्जतो चत्वारो गुरवः,
द्वितीयं बार षड्गुरवः, तृतीय वारं छेदः , चतुर्थ वारं मूलं ¦
पञ्चमे बारमनवभ्थाप्यम्.षष्ठ वारं भुञ्जानस्य पाराश्िकम।एपा
ज्यात्स्नाप्रकाश प्रायश्चित्तवृद्धिरक्ता । एवे मणिप्रकाश, नवरं
गुरुभिः प्रतिनादिता यद्यावृत्तास्ततः पड॒गुरुकस् ,अथ गुरुवच- |
नमतिक्रामन्ति ततः छेदः, एवं चृषभवचनातिक्रमे मूले, कुल. /
स्थविरातिक्रम पाराश्चिकम् | अभीचणसेवायां तु पश्चमिवारः
पाराश्चिकम् | एवं प्रदीप5पि दक्षिणतो वामतश्चारोपणाः नवर- `
माचार्यातिक्रमे मूलम् , वृषभातिक्रमे अनवस्थाप्य, कुलगण-
सङ्घस्थविरातिक्रमे पाराश्चिकम् | अभीच्णसेवायां तु चतुभि- `
वरैः पाराश्विकस । एवमुदीपघ्प्रकारो ऽपिःनवरमाचायांतिक्रमे
श्रनवस्थाप्यम् , वृषभकुलगणसङ्गस्थविराणां चतुणणौम-
प्यतिक्रमे पाराञ्चिकम् । अभीच्णसवायां तु त्रिभिवारै ४
पाराश्चिकम् । एषा प्रथमा नोरवसातव्या । द्वितीयादयोऽपि
वदयमाणा पवमेव स्थाप्याः । शिष्यः प्राह-कुलगणसंघस्थ-
विरवचनमतिक्रामतां यद् गुरुतरं प्रायश्चित्तमुक्क तदत्र किं
कारणम् ?, त्रत्रोच्यते-प्ते रयो ऽपि स्थविरा आचायोदपि '
गरीयांसो मन्तव्याः प्रमाणपुरुषतया स्थापितत्वात् ।
कथे पुनरेते प्रमाणपुरुषा उच्यन्ते-
तिहि थेरेहि कयं ज, सट्टाणे तं तिगं न बालेति ।
हेद्विनल्ला वि उवारमे,उवरिमथेरा उ भश्यव्वा ॥७२१॥
तिभिः कुलगणसङ्गस्थविरर्यद्-व्यवदारादिविषयं कार्य |
।
|
#
|
क.
शाइभोयण
कृते तत्कार्य स्वस्थाने त्रिकं कुलगणसघलक्तषण न बोल-
यति; न व्यतिक्रामतीत्यथः। किमुक्के भवाति--कुलस्थविरेण
कृते कुल नातिक्रामति, गणस्थविरेण कृत गणो नातिक्रामति,
संघस्थविरेण कृत सघो नातिक्रामति । ' देद्विल्ला वि उवरिमे
त्ति ' अधस्तनाः कुःलस्थविरास्तेऽप्युपरितनेगैणस्थविरेश्च
छृतं नातिक्रामन्ति, तथा गणस्थविरेभ्यो ऽधस्तना ये स-
यतस्थविरास्तेः कतं तद्वणस्थविरा नातिक्रामन्ति । उपरितना
| स्तु स्थविरा भक्तव्या-विकल्पयितन्याः, कथमिति चेद् ?
। उच्यते-कुलस्थविरैररक्कद्धिषयत्छृतं तद्रणस्थविरा नान्यथा
कुवन्ति, श्धागमोक्कविधिमन्तरेण रक्कद्धिष्टः कत ततस्तन्न |
|
। अमाणयन्ति । एवं गणस्थविरेरपि यदरक्ृद्विष्ः कृत तत्सघ-
स्थविरा नातिक्रामन्ति । श्रथ रक्लद्धिष्टः कृतं ततो न प्रमाण-
' अयन्ति । एवमेतेषु गुरुतरं प्रायश्चित्तम् ।
अथद्वितीयतृतीयचतुर्थनो दशना थैमाह--
| चदूजोए' को दोसो, अप्पप्पाणे य फासुये द्वे ।
भिक्खूवसभायरिए, गच्छम्मि य य अट्ट सषाडा ॥७२२॥ |
| ज्योत्स्नाप्रकाश भक्त्वा समागत्य गुरूणामालोचयन्ति
| लतो भिच्छभिः प्रतिनादिता यदि सम्यगावन्तन्ते तत-
| श्त॒र्गुरुकमव,अथ ब्रवत-चन्द्रे याते का नाम दोषः? को वा
स्वल्पप्राण 5वगा हिमादों प्राशुक द्रव्ये ?, एवं भणतां षड्-
| लघवः,ततो वृषभैराभिधीयन्त, आया ! मा भिक्तषुणामतिक्रमं
|
|
|
कुरुत,यद्यावत्तेन्त ततः षडलघुका पव, अथ चुषभानतिक्षम
न्ति ततः षडगुरुकाः,तत श्राचार्यैरमिदिताः यद्यावृत्तास्ततः |
षडगुरुका एव, अनाचरत्तानां छेदः, “ गच्छुम्मि य क्ति ' कुल-
। आणसंघा इह गच्छुशब्देनाच्यन्त । ततः कुलन भणिता यदि
सम्रपरतास्ततः छेद एव, अथ नोपरमन्ते ततो मूलम्। गण-
। ज्ञाउप्यभिहिता यद्यावृत्तास्ततो मूलम्, श्रथ नाकृत्तास्ततो
|... 5नवस्थाप्यम् | ततः संघना5भिहिता यद्यपरमन्त ततोउनव-
स्थाव्यम् , अथ नापरमन्त ततः पाराश्विकम् | एषा प्रायश्वि- |
क्षवृद्धिदेक्तिणतः कक्तेव्या । अभीच्णसवायां दवितीयं वारं
ज्योत्स्नाप्रकाश भुज्ञानस्य षड्लघुकम् , तृतीय वारं षड्गु-
रुकम् , चतुथ छदः, पञ्चमं मूलम् , षष्ठमनवस्थाप्यम् , स-
पमे पाराञ्चिकम्, एषा वामतः स्थापयितव्या । पवमपि
श्रदीपोद सप्रकाराष्वपि भिच्तुवृषभव्यतिक्रमनिष्पन्ना दक्षिण- |
तोऽभीक्णसेवानिप्पन्ना तु वामतो यथाक्रमं प्रायश्षित्तवृद्धिः
स्थापनीया । एषा द्वितीया नोरेवमेव कृतीया कक्तैब्या; नवरं |
तत्र ज्योर्स्नादिभ्रकाशघु भुक्त्वा न कस्याप्याचा्यादेः क- |
थयन्ति, कि तु-भिक्षुप्रभुतयः तेषां परस्परं सलाप श्रुत्वा
श्नन्यस्माद्वा श्रावकादिमुखादाकरय तान् प्रति नोदयन्ति,शेषे
सर्वमपि द्वितीयतो द्रष्टव्यम् । चतुर्थी पुनरियम्-भिक्तणाम-
तिक्रम चतुगरु, चृषभाणामतिक्रमे षड़लघु, आचार्याणाम-
तिक्रमे षट्रगुरु गच्छस्य साधुसमूहरूपस्यातिक्रमे छद
कुलस्यातिक्रम मूलम् , गणस्या ऽतिक्रमे अनवस्थाप्यम् , स-
चस्या ऽतिक्रमे पाराञ्चिकम् , पषा दक्तिएतः प्रायश्चित्तवृ-
द्धिः, द्वितीया चाभीक्ष्यसवा निष्पन्ना चतुगुरुकादारभ्य |
$
सप्तभिवारे: पाराश्चिकं यावत् वामतः स्थापनीया
एवं ज्योत्स्नायामुक्तत् । मणिप्रदीपोदीप्तष्वपि यथाक्रम
घढ्लघु षड्गुरुकच्छेदनादो कत्वा पाराश्िकान्तां द्तिणतो |
चामतश्चेवमेव प्रायश्चित्तवृदधिद्रंष््या } एषा चतुर्थी नौ-
( ५१५)
अभिधानराजन्द्रः।
__ _ राहभोायण
रुच्यते । एकेकस्यां च नावि द्ध द्धे प्रायश्िन भवत
तद्यथा--दाक्ेणपाश्ववततिनी वामपाश्ववर्तिनी, च । त-
तश्चतद्षु नापु स्वसेख्यया रौ लता लभ्यन्त, तथा चाः
ष्टा सह्वारका मन्तव्याः, यत आह चूरिीकूत्- अट्ठस
घाड त्ति जोराह्ममशिपदीबुद्दित्तसु सूलपरिच्छित्ता चत्तारो
तस्स इता वि चत्तारि पच्छित्तलया उ नि सव्व त
ट्र सघाडगा । सघाडत्तिवालयत्तिवा पगारो क्षि वा
एगटट ति ” ।
श्रथ ज्योत्स्नादिविरदित सामान्यतः प्रायथित्तमाट--
सम्नातगआगमणो, सखडि रात्रो य भोयणे मूलं ।
बितिए अणवद्रप्पो, ततियम्मि य होई पारंची ॥७२३॥
संज्ञातककुले आगमन रत्वा संखञ्यां वा गत्वा रात्रौ
यदि भुङ्ख तदा मूलवतविराधनानिष्पन्न मूल नाम प्राय-
श्चित्तम् । द्वितीयं वारं रात्रौ भुञ्जानस्य श्रनवस्थाप्यं, तृतीये
वारं पाराञ्चिकम् । श्रयवा-भित्तोः रात्रौ भुज्ञानस्य मूलम् ,
द्वितीय उपाध्यायस्तस्यानवस्थाप्यम् , तृतीय श्राचार्यस्तस्य
रात्रा भुञ्जानस्य पाराञश्चिकम् ।
अथ यदुक्मरपप्राण पाशुकद्रव्ये को दोष पष
इति तदतत्परिदरन्नाद--
जई वि य फासुगदव्वं, कुंधूपणगाइ तह वि दुष्पस्सा।
पचक्खनाणिनो वि हु, राईभक्तं परिहरति ॥ ७२४ ॥
यद्यांप तल्प्राश्कद्रव्यमवगादिमादि तथापि कुन्थुपनका-
देयः श्रागन्तुकाः, तदुद्धवाश्च जन्तवो रात्रौ ददेश भवन्ति ।
किश्व-ये5पि तावत्पत्यक्षज्ञानिनः केवालिप्रभ्रतयस्ते यद्यपि-
ज्ञानालाकेन तद्धवागन्तुकसत्वविरदित भक्कपान परयन्ति
तथाऽपि रात्रिभक्तं पारहरन्ति मूलगुणविराधना मा भूदिति
त्वा ।
अथ यदुक्क चन्द्रप्रदीपादिप्काशे को दोष इति, तत्र
परिद्ारमाह--
जई वि य पिपीलियाई, दीसंति पश्वजोइठज्ोए |
तह वि खलु अणाइन्न, मूलवयविराहणा जणं ॥७२५॥
यद्यपि प्रदीपज्योतिषो रुपलक्तषणत्वाखन्द्रस्योयाते पिपी-
लिकादयो जन्तवो श्यन्ते, तथाऽपि खलु--निश्चय अ
नाचीरमिदं रात्रिभक्तम्। कृत इत्याह--मूलवतानां प्रा-
णातिपातव्रतानाम्- प्राणातिपातविरमणादीनां प्रागुक्कनी-
त्या विराधना यन रात्तिभङ्गन भवति ; अतो रात्रो न भो-
क्त्यम् ।
थ “ गच्छुम्मि य त्ति ' पदं व्यायश्रे--
गच्छगहणेण गच्छ, भणाई अहवा कुलाइओ गच्छो ।
गच्छग्गहण व कए, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥७२६॥
गच्छग्रदणेन गच्छः-साधुसमूदरूपस्तरिरातिभक्कप्रति-
सवकान् भणति नोदयतीति मन्तव्यम् । यथा-चतुथ्यौ ना-
वि चतुर्थं पदे, श्रथवा-गच्छग्रदरन कुलादिकं--कुलगणस-
ह्रूपो गच्छ नादयती ति मन्तव्यम् , यथा-सवो स्वपि नौषु,
यद्धा-गच्छुग्रहण कृते गच्छुवासिनां ग्रहणे विज्ञेय , तषा-
मेचेदे प्रायञ्ित्तनिकुरम्बं न जिनकट्पकादीना म् । इह पूर्व
भाष्यकारण प्रथमा नोः परिस्पष्टमुपदर्शिता न. छितीयादयः
_ (५९६)
श्मभिधानराजेन्द्रः।
राइसायण
श्रता यथाक्रम तासा व्याख्यानमाह-
|]
॥
बिद्यादेसे भिक्खू, भणति दुद भ" कयं ति बोलिंति । ।
अल्लहु वसभ छग्मुरु, छदा मूलाद् जा चारम् ॥ ५२७॥
द्रतासाद्शा नाम द्भताया नासास्यतः प्रायाश्चत्तप्रकार-
स्तत्र तथव भुक्त्या
गुरूणां निवदिते भिक्षयों भरन्त |
दुप्मेव भवद्धिः कृतमिति, तञ वचने यदि ते वोलयन्ति |
न प्रतिप्यन्ते तदा पडलघुकं, वृषभवचनातिक्रमे षडगुरु-
कम् , आच्ार्याणामतिक्रम छेदः , कुलस्थाविरस्याप्रमाणी-
करण मूलम् , गणस्थविर्स्याप्रमाएणन अनवस्थाप्यम् , स-
हस्थविरस्यातिक्रम पाराशझ्चिकम् , प्व मणिप्रकाशा-
देष्वपि मन्तव्यम् , नवरं माणिप्रकाश षड्गुरुकाद् , प्रदी-
प्रकाश छेदात् , उदात्त मूलादारन्धम् , अभीच्णसेवायां तु
7स्भिवारेः पाराश्चिकम् । भावना प्रागेव कता ।
तृतीया भावयते-
ततियदेसे भेत्तूण, आगया नेव कस्सइ कर्टिति |
तेसं ततो व सोचा, खिंसंतह भिक्खुणों ते उ ॥७२८॥ |
कृतीयादेशे तृतीयायां नावि तथव. भुक्त्वा समागताः
सन्ता नैव कस्याऽपि कथयन्ति, नवरं भिक्तवस्तेषां परस्परं
संलापे श्रुत्वा तेवो अन्यस्य कस्याऽपि
खिसन्ति खररटयन्तीव्यथः ।
खराणिटताश्व यद्यतिक्रामन्ति तत इयं प्रायथित्तत्रचिः-
भिक्खुणो ` आतिकर्मते, छ्नहुगा वसम होंति चग्युरुगा। |
गुरुकुलगणसंघाइ-कमेइ छंदाइ जा चरिमं ॥ ७२६ ॥
भित्तूनतिक्रामान्ति षड्लघुकाः गुरूणामतिक्रम छंदः, कुल-
स्यातक्रमे मूलम , गणस्या ऽतिक्रमे अनवस्थाप्यम , सङ्ग- |
स्याऽतिक्रमे पाराश्िकस ।
श्रय चतुरौ नावसुपदशेयति--
भिक्खु बसभायरिए, वयणं गच्छस्स कुलगणे संघे ।
गुरुगादतिकमते, जा सपद चउत्थ आदेसे ॥ ७३० ॥ |
ज्यात्स्नाप्रकाशाद्षु भुक्त्वा गुरूणामालाचता भक्ताभ- |
नोदिता यद्यावृत्तास्ततस्वतुर्गुककाः, अथ भिक्तुणां वचनम-
तिक्रामन्ति ततोऽपि चतुर्गुरू , वृषभाणां वचनमति-
कामतः षडलधुकाः आचायोनतिक्रामतः षडगुरुकाः, गच्छ्
ममन्यमानस्य छंदः
माणतो ऽनवद्थाप्यम् , सहूं वद्यतिक्रामतः स्वपदं पाराश्चिकम् ।
अभीच्णसेवायामपि प्रथमे द्वितीये च बारे चतुगुरुकं तृ-
तीयादिष्वष्मान्तेषु बारेघु घडलघुकादि पाराञ्चिकान्तम्,
पप चतुथे श्रदेशः-चतुशी नोः;
श्रथ पूर्वोक्कानंव प्रायश्वित्तवृद्धिहेसून संदशयति--
पेच्छध उ अणायारं, रस्ति भ्रुत्त न कस्सइ कहिंति ।
एवं एकेकनिवे-दंणेण वु उ पच्छित्ते ॥ ७३१॥
पश्यलाममीषामनाचारं यदे रात्रौ भुक्त्या न कस्याऽ
पि कथयन्ति, पव मिक्तुभिः खराशिटता यदि नावत्तेन्त
तता भिक्षवो खृषभाणां कथयन्ति । चपभा गुरूणां, गुरवो
पि कस्यत्यादि,षवमेकेकस्य दृषभादिनिवेदितेन प्रायश्चित्त
स्य वृद्धिभर्वान ।
श्रावकादेः कथिते |
ततो वा श्रुत्वा यिक्तवस्तान् कथयन्ति । अथ श्रवशणानन्तरं |
, कुलमध्रमारीकुर्वता मूलम् , गणमप्र- |
अहवा अभिक्खगदणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो।७३२॥
अम्रिचन्द्रोद्यातादिषु को दाष इत्युत्तरात्तरप्रदानन द्विती-
ये भ्रायश्चित्तस्थाने लगाति-प्राप्नाति, अथवा--अभीक्ष्ण-
ग्रहणे पुनः पुनरासेवायाम् , अथवा--वस्तुन आचा-
्यापाध्यायादिरूपस्य यो ऽतचारा राज्जिमक्रलक्तणे त-
स्मात् पायश्ित्तवृद्धिभंवति, यत एवं प्रायश्चित्तजालम् अतो
न कल्पते चतुर्विधमपि रातरिभक्कम् । कारणसद्धावात्
पुनः कर्पते ।
तान्येव कारणानि दशेयति-
विइयपयं गलन्ने, पटमे बिदृए य अणहियासम्मि ।
फिडइ चद गवेज्भ, समाहिमरणं च अद्भाणे ॥ ७३३॥
द्वितीयपदं नाम--यदिवा गरृदीतं दिवा भक्कमित्यादि चतु-
भङ्गी प्रतिसवनात्मकं तदागाद म्लानत्व च्रासेवतव्यम् । प्रथ-
मांदतोयपरीष्डायुरतायां वा ' अणहियासम्मि त्ति ' अस-
दिष्युतायां वा, चन्द्रकवधे नाम अनशने तदसमाधिस॒ुप्गत-
स्य स्फिटाति न निरवेहतीति भावः | अप्राप्तस्य यथा समाघचि-
मरणे भवाति तथा चतुम॑ज्न्याउपि यतितव्यम् , अध्वनि च-
तुष्यपि भज्ञेषु ग्रहणे कनत्तव्यमिति द्वारगाथासमासा्थैः ।
अथेनामेव विवरीपुग्लीनत्वद्वारं व्याख्यानयति--
पड़दिणमलन्भमाणे, विसोदिसमई चिरं पटमरभभगो ।
दुछभ दिवसंते वा, अदिष्लरुयाईइसुं विडो ॥ ७३४ ॥
एभेव तदयर्भगो, आइतमो अतए पगासो उ ।
दुहओ वि अप्पगासो, एमेव य अतिमो भगो ॥७३५॥
यदा ग्लानस्य प्रतिदिनं विशुद्ध भक्तपान न लभ्यत, तदा
पञ्चकपरिदहारया विशोधिकादयो दोषास्तषु प्रतिदिवसं ग्र-
दातव्यं याव्चतुलघुकाः प्रायश्चित्तम् , यदा तदपि समतिक्रा-
न्तस्तदा प्रथमो भङ्गा भवति, राजो परिवारस्य दिवा दात-
व्यमित्यथः | तथा-दुल्लम-ग्लानश्रायाग्यमशनादि द्रव्यम्, तञ्च
गृहीत्वा यावत्पतिश्रयमा गच्छाति तावदस्तस् पगतः सविता
श्रता दिया गृहीत्वा रात्रो ग्लानस्य दातव्यम् .श्रथवा-कश्ि-
दिवसान्तष्वहिना सपण खाद्यत,शलरूग्वा कस्या पि तदानो-
मुद्धवत् श्रादि्रदणाद्-विषविसराचकादिकादप्वागाढषु स-
मत्पन्नेषु सपडङ्कायु पशमनलब्धप्रत्ययमगदाद्याषघमानीय या-
वदीयते तावदस्त गता रविः, अतो रात्राचपि दातव्यम् ।
एप द्वितीया भङ्गः । एवमेव त॒तीयो भङ्गो चक्कव्यः । यानि
ग्रथमद्धितीयभङ्गयोः कारणानि तानि तृतीयभ ङ्ग ऽपि भवन्ती-
ति भावः। श्च भद्ध आदो तमो ऽन्धकारं राजिपदमिवयथः।
छन्त च प्रकाशादि वा पदम्। अन्तिमश्चतुथों भङ्गः। सो>प्ये-
वमेव अहिदष्टादावागाढकारण अतिसेवितच्यः, नवरमसौ
द्विधा-ऽप्ययं प्रकाशो मन्तव्य इति । गतं ग्लानद्धारम् ।
अथ प्रथमद्वितीयासदेष्णुपदानि व्याचष्--
पटमवरितियाउरस्स, असहस्स हेज अदवे जुगलस्स |
कालम्मि दुरहियासे, भगचडउक्षेण गहणं तु ॥ ७३६ ॥
प्रथमः ज्ुधापरीषहो, द्वितीयः प्िपासापरीषदस्ताभ्यामा-
तुरस्य असदिष्णोवा स्थूलभद्रस्वामिलयुश्नातश्रीयक-
करपस्य युगलं बालदृद्धरूप तस्य वा असहिष्णोः काले
राइभोय |: 8
को दोसो को दोसा-त्ति भरते लग्गई वितियटाशं ।
। ¶
राइमोयण
( ४१७ )_
। असभिधानराजन्द्र ¦; ]
राइमोयण
वा दुरधिसदहदे अवसोन्न्दर्यलक्षण भङ्गचतुष्केनाऽपि ग्रहण
कर्तव्यम् ।
एमेव उत्तिमद्ठे, चद गवेञ्म सरिसे भवे भगा ।
उभयपगासे पढमों, आदीयते असचतमो ॥ ७३६ ॥
चन्द्रको नाम-चक्राषए्रकोपरिव्तिन्याः पुत्तलिकाया वामा-
न्िगालकः तस्य वेघः-ताडन तत्सदृशे तद्धद्विराधे उत्तमार्थ
अनशने प्रतिपन्न सति यदि कदाचदसमाधिरुत्पद्यते तदा
स नमस्कारं नाराघयप्यति ्समाधिसन्युनावामा भि-
यतामिति रत्वा चत्वारोऽपि भङ्गाः प्रयोक्तत्याः तत्र च
प्रथमो भङ्ग उभयप्रकाशोा , द्वितीयो भङ्गः आदो प्रकाशवान्
अन्त तमसखान् , त॒तीया+न्त प्रकाशवान्, चतुथों भङ्गः
सर्वत उभयथाऽपि मतो युक्को रात्रौ गृदीत्वा रात्रौ चैव भो-
गभावादिति ॥
श्मधाध्वद्वारं सविस्तरं व्याचिख्यासुराह--
अद्धाणम्मि व होजा, भगा चउरो उ तं न कप्पई उ ।
दुविहा उ होंति उ दरा,पोड तह धन्नभाणा य ॥।७३७॥
अध्यनि वा वर्तमानानां चत्वागोऽपि भङ्गाः भवयुः। परं तम
ध्वानं गन्तुमूध्वदेर न कल्पत ते च द्रा द्वविधाः, तद्यथा-पो-
इदरा.धान्यभा जनदराश्च । पाट खुन्दर तद्धवा दरा पोहदरा
धान्यभाजनाान कटपल्या दय: तान्यव दरा घान्यमाजनद्याः।
ऊर्वं यत्र पूरयन्त तत्तृध्वंद्रमुच्यत ।
उद्धदरे य सुभिक्य, अद्राण-पवज्रणं तु दप्पेशं ।
लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ ॥ ७३८ ॥
ऊध्वद्रमनन्तरोक्कं सुभिक्तम--सुलभमभेक्षम , अथ चत्वागा
भड्जाःऊध्वेद्रमपि सुभिक्तमपि! , ऊद्धद्रमसभिक्षम् २,सुभिक्ते
नोध्व॑दरम३।नोध्वेद्र न सुभिक्षम्. द्वितीयचतुर्थभज्गयो-
रध्वगमन कत्तेव्यम ,अथ परथमतरतीयभङ्गयारध्वप्रतिपत्ति द- '
प्पृतः करोति तदा ऊर्ध्वपदऽपि चत्वारा लघुकाः, यद्धा-यत्र
संयमविराधनादिकमा पद्यते तत्र तन्निष्पन्न न प्रायश्चित्तम् ।
प्रथमठृतीयमङ्गयोरप्यतैः कारणेन गन्तु कट्पत दरति
दर्शयति--
नाणट्ट दंसणट्टा, चारित्तद्रेवमाइ गतव्वं ।
उवगरणपुव्यपडिले-हिएण सत्थेण गंतव्यं || ७३६ ॥
ज्ञानाथं दर्शनार्थ चारित्रार्थम् ,एवमादिशिः कारणेगन्तव्यम् ,
गच्चुद्धिश्च तलिकादिकमुपकरणं ग्रहीतव्यम् , पूर्वेप्रत्युप-
कज्ितेन च साथन सह गन्तव्यमिति निर्युक्षिगाथासमासार्थः ।
अधैनामव व्याख्यानयति--
सुगुर्कृलसदस वा, नाण गाहए सात य सामत्थ |
वचड उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइ अत्थो वा ॥ ७४० ॥
ज्ञानम् आचारादिश्रुतं तद्यावत् गुरूणां समीप सृत्रताऽथ-
तश्च विद्यत तावति सम्पूर्ण गृहीत ततः स्वदेश यदान्मीयं
कुल तत्र तदभाव परकुल वा गत्वा शवश्रुतग्रहणे कत्तव्यम |
अथ नास्ति स्वदेश तथाविधः कोऽपि बहुश्रुत आचार्यस्त-
तान्य देशे गच्छति , तत्राऽपि य आसन्न पकवाचनाचा-
यास्तषां समीपे अवशिष्यमाणश्र॒तं गर्णाति, यदा च परि-
पूरीमपि विवक्तितयुगखम्मवि श्रुतं ग्रहीत॑ तदा यद्यात्मनः
प्रतिभादिसामर्थ्यमास्ति तता ' दंसणजुत्ताइ अत्थो व त्ति
१३०
5 4
दर्शनविशुद्धि:ः कारणीया, गा विन्दनियु क्लियादिशवब्दात्-भज्ञा-
दितच्वाथ प्रवृत्ति गच्छेत् शास्राणि तदथस्तत्प्रयाजन तन
प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समोप गच्छत् ॥
अथ चारित्राथमिति द्वारमाह-
[क शे | ऽ क
पडिकुट्ठंद्सकारण, गया उ तदुवरम्मि निति य चरणडा ।
[न ¢ [क के + क~ ॐ. छ
असिवाई ब भविस्सर, भूत व वर्यति परदस ॥ ७४१ ॥
सिन्धुदेशप्रथ्रतिको याऽसयमविपयः स भगवता प्रातकुष्टा
न तत्र विहत्तेव्यम् , परं ते प्रतिषिद्धदशर्माशवादा भः कार
रेगशताः, तता यदा तषां कारणानासुपरमः परिसमाप्तिभवातते
तदा चारित्राथ तताऽसयमविषयान्निगीच्छति निगत्य च स
यमविषये गच्छन्ति । यद्वा-तत्र क्त्र वसतां निमित्तवलन
ज्ञाते यथा अशिवादिकमत्र भविष्यत । अथवा--भूतमापन्न-
मत्राशियादि अतः परद्रशे ब्रजन्ति, एवमादिभिः कारणेरध्वा-
गन्तव्यतया निश्चित्य गच्छापग्रहकरामदमसुपकरण गृह्लान्त |
चम्माइलाहगहण, नद।भाणे य धम्मकर (ण य) यस्स ।
त त्थि य ^ या = खं = 0
परउात्थयउबगरण, गयु लयाच्रा लमाहाण ॥ ७४२ ॥
एकेकम्मि य ठाणे, चउरो मासा हव॑तिऽणुग्धाया ।
~ = = + ¢
आशादिणों य दोसा, विराहणा सजमाई य || ७४३ ॥
चमेशब्देन चर्ममय तलिकाद्युपकरणे गद्यत आदिश-
ब्दात् सिक्थकादिपरियग्रहः । लाहग्रहणन पिप्पलकादिलाह-
मयोपकरणन ग्रह णमध्वनि गच्छता कत्तव्यम् । नन्दी भाजन
धमकारकस्य, तया परतीर्थिकापकरणं वक्ष्यमाणरूप , तथा
गुलिका नाम--तुवरव्रन्चूखगुटिका, खाला गारसभावि-
ता नियमत एवमादीन्युपकरणानि ग्रही तव्यानीति गा थाद्व य-
समासाः ॥
अथाएस्या पवाद्यपद् व्याचिख्यासुः प्रतिद्धारगाथामाद--
तलिय पुडगा व सन्नय+कासग क्ती य य सिकए काए ।
पिप्पलगमृडखारिय, नक्छचणि सत्थकोसे य ॥७४४॥
तलिका-डपानहः, पुटकानि-खल्लेकानि च. प्रतीताः काशको-
नखभङ्गरक्ता्थ यत्राङ्कट्यः प्रक्िप्यन्त, छत्तिः-चम सिक्थकं
प्रतीतं काया नाम-कायातिका. पिप्पलकः सूची आरिका
च प्रतीता, नखाचनी-नखहरणिका, शख काशः-शरवधादि-
शस््रसमुद्रायः इति प्रतिद्वार्गाथासंक्षेपार्थ: | बृ० १ उ० ३
प्रक० । ( तलिय० ” ७५५ इत्यादि गाथा ` तलिया ` शब्दे
चतुथभाग २१६६ पृष्ठ गता)
कीसग नहरक्खड्ट्टा, हिमाहिकेटाइपच्चखपुसादी ।
कत्ती वि विकरणट्ठा, विवित्त पुढ्वाइरक्खड्ठा ॥७४६॥
अद्भुलीकोशा नस्तभङ्गरच्ताथ गृह्यत. स च पादयारह्डुल्यो
रङप्रके च प्राप्यत, तथा हिम-शातम् , आहकर्टको
प्रतीतौ, तदादिप्रत्ययाय रक्तणाथम् खपुसा आदिशब्दादरद्ध-
जद्विकादयश्व गृह्यन्ते । कृत्तिः--चर्म तत्प्रलम्बादि विकरणा-
य मा धृर्या लालीभावमनुभूय मलिनानि भवन्त्विति रूत्वा
विचित्त ति' ते साधवः कदापि स्तनर्विविक्ला मुषिता भवयु
ततः वसा ऽभाव. कृत्ति प्राचरवन्ति, यज वा प्रथवीकायों भ-
सात तत्र ऊात्त प्रस्ताय समुपराज्यणा न्त. ण्व षृ श्वाका यर ज्ञा-
( ५६८ )
राइभोयण
आादशब्रात्ू--प्रातज्ञाम वनदव तृगराहेतप्रदशाभाव रात्त
प्रस्तीय तिप्ठन्तीति कृत्वा तज.क्(यरत्ताऽप कृता स्यात् |
गते चर्मद्धारम् ।
अथा 5 5दिग्नहणलब्ध सिक्कककापोतिके--
व्याख्यानयति--
तहि ` सिक्रएहि हिंडति,जत्थ विवित्ता व पल्लिगमर्ण वा।
परलिंगग्गहण म्मि वि,निक्खिवणट्ठा व अन्नत्थ ॥७४७॥
यत्र ववावक्का माषतास्तत्र बन्धाभाव चोरपल्या वा भिक्षाथ
गमन विदधाना अलाबुकानि सिक्ककेशु कृत्वा हिण्डन्त
चक्रचरादिलि ङ्ग न वा भक्कपानग्रहण प्राप्त सिक्ककेन पयटि-
तव्यम् , अथ कल्पाद्वा सक्रक नत्तपण काय पध्रलम्वादक
वा सक्रक्ष्वानायान्यत्र स्थावरणगरहादा नात्ञप्यत।
ज चव कारणा सि-कगस्स ते चव होति काये वि।
कप्पुवधी वालादी, व वहिति तहिं पलंबे वा || ७४८ ॥ |
यान्येव कारणानि सिक्ककस्योक्नानि तान्येव कायऽपि |
कापातिकायामपि भवान्त, यद्वा सिक्कककापोतिकयोरपि |
उपयोगः, कस्पम्--अध्वकल्पम् उरपधिमाचा्यासदिष्णुपरभ्र- _
तीनां बालादीन् वा प्रलम्बानि वा उपलक्तणत्वादाकस्मिक- |
मूलविद्धं वा ताभ्यां सिक्रकक्रापोतिकाभ्यां बहति ।
अथ लोदग्रदणद्वारं भावयति-
पिप्पलओ विकरणट्धा, विवित्तजुन्ने व सधणं सई |
आरतलिसंधणद्रा, नखचण नक्वकंटाई ॥ ७४६ ॥
पिप्पलकः प्रलम्ब विकरणाश् गृह्यत । यद्धा विविक्वानां
यदवशिष्यमारो वख यथा स्वमावजीणं तस्य सन्धानाथवा
सूची ग्रहीतव्या, चुटिततलिक्रानां सारा गृह्यत, नखा्यनं
नखहरणिका सा नखच्छेदनाथ करटकरादिशट्योद्धरणाभधं बा ,
गृह्यत, शखङो वा पूनरयं शिरावधशस्रकं पच्छणशस्क्रं भ- '
दकरिटरकां सदेशिका।
एवमादिकस्य शख कोशस्यापयोगं दशैयति-
कोसाहि सल्लकंटग, अगदोसधमाइयं तु वग्गहणा ।
अहवा खत्ते काले, गच्छ पुरिमे य जं जोरग ॥७५०॥
शस्त्रकाशनद प्रयाजनम ,आह:-सपस्तन यावन्मान्रमङ्भच-
म्भा वा छिद्यत, शस्ये वा करटको व नखहारणिकया |
इतुमशकयस्तन उद्ध्रियते । इह प्रतिद्धारगाथायां 'सत्थकास |
य त्ति ` यश्चशब्दस्तदृ्रणादगदौपधघादिकं गृदीतस्य य- |
दनकद्रव्थ निष्पन्नं तदगहः यत्पुनरकाङ्गिकं तत्सवमप्यों-
च्म, ' अथवा' शब्दा पादानात् दक्तिणापथादी यद्यत्र दुलभ
कालि--प्रीष्मादो यत्त शक्रुभ्रतिकं शीतलद्रव्यमृपयानि म-
हति गच्छ वा शक्रुरव इत्यादिकं साधारणे पुरुषस्य वा
द
श्राचार्यदयस्य यद्यारव तद्यथायामं गर्दा तव्यम । क्षू० १ उ०३ |
प्रक० । ( नन्दी भाजनचम्+करकय। रुपयोगप्रातिपादिका "ण
क्त भरमि" ( ७५६ ) इत्यादि गाथा । ` रोदिभाण ` शब्दे
चतुर्थ भाग १७५७ पृष्ठ उक्का )
परती थक्रापकरणमा ह--
परतित्थियउवगरणं, खत्ते काले य ज॑ तु अविरुद्धं ।
त् रय(सतल पुदट्ठा, पाडण।ए दया वा कोटइादी ॥७५२॥ |
(ग्रिक्ारयस्तेषां सम्बॉन्ध उपकरण यत क्षेत्र |
परताथका ब्रह
आामभधानराजन
राइसमोघण
काल वा अविरुद्धमर्चितं च तत् रजन्यां भक्कपानग्रहणार्थ प्र-
लम्बानयनाथ वा कन्तव्यम् , यत्र वा प्रत्यनीका भवन्ति तत्र पर _
तीथिकवषच्छुन्ना गच्छान्ति,भक्कपानं वा उत्पादयन्ति। म्लच्छु-
काट वा गताः परतीर्थिकवषण दिवा पुद्धलाऽऽदिकं गरहन्ति
रादि शब्दात्-प्रत्यन्तकोट्ादिपरिग्रहः ॥
श्रथ गुलिका-खाल दार व्याख्यानयति-
गोरसभावियपोत्ते, पुव्वकयदव्वस्स सभवे बोधे ।
© [> [० = ॥
असइ यतु गुलियाम्म य, सुन्न नवरंग दइयादी।।७५३॥
गारसभावितानि वख्राणि खालानि भरयन्त; तेषु पूवेक-
तपु अध्वानं प्रविष्टानां यदा प्राश्युकद्रव्यस्यासम्भवस्तदा-
नीं पातानि भावयेयुः प्र्तञालयेयुः, अगीताथप्रत्ययात्पादनार्थ
वाऽऽलाच्यते गाकुलादिदं सं्रष्टपानकमानीतम् । अथ न स-
न्ति खालानि ततो गुलिकाः तुवरवृक्तचूरगुलिकाः तद्धा-
चितपानकं प्राशुकीरूत्य म्रगा श्रगीतार्थाः तषां चित्तरक्तणार्थं
शल्य ग्राम प्रतिसार्थिकादीनां नवरं गच्छृतिकादेरिदं ग्रृही-
तमित्यालोचयन्ति । विशेषचूर्णो तु गुलिकाखोलपदे इत्थ
व्याख्यात--* जत्थ य पव्वयकोद्टासु पंडरंगादी पुज्ञेति सं-
जयाण भे पाडिणीया होजा तत्थ गुलिय त्ति वक्रला-
शि घप्पति । खाल त्ति सीसखालाती परिस वदधियव्वे ।
जहा न भई लायहयं सीसं ससरक्खणद्राए वा ।
अथेषामुपकरणानां ग्रहएं करोति ततः--
एकेकम्मि य ठाणे, चउरो मासा हंति उणुग्घाता |
आशणाइणो य दासा, विराहणा संजमायाए ॥ ७५४॥
एक्रेकस्मिन स्थाने एकेकस्योपकरणस्य ग्रहणे इत्यथः, च-
त्वागे मासा अनुद्धाता-गुरवा भवन्ति, आज्ञादयश्व दोषाः,
विराधना संयमात्मविषया ।
अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह--
= जे ~~
एमाइअणागयदा-स रक्खणडा अगर्हण गुरुगा !
अणुकूले निग्गमओ, पच्छा सत्तस्स सठणेण ॥७५५॥
एवमादीनामुपकरणानामनागतमेव संयमात्मविराधनादि-
रक्षणार्थं ग्रहणं कर्तव्यम् । अथ न गृह्णाति ततः प्रत्यक च-
त्वारो गुरवः । गतमुपकरणद्वारम्। अथ पूर्वप्रत्युपक्षितेन सा-
मैन गन्तव्यमिति व्याख्याति | ` अखुकूल ` इत्यादि, ्रचु-
कृले चन्द्रवले तारावले वा यदा सरीणां भवति तदा नि-
गमकः प्रस्थानं एक्रयत, एनगताश्चापाश्रयादयाचत् सर्व्वे न्
प्राप्नुवन्ति तावच्चात्मनेत कशल गृह्लान्त सार्थ प्राप्तास्तु-
साथ ` सडउनन ` शकनेन गच्छन्त |
इदमेव साविशेषमाहं--
क व सर [^> तिनि
अप्पत्ताण निमित्त, पत्ता सत्थम्मि तिनि परिसा उ |
सदेति पत्तञ्राणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो ॥ ७५६ ॥
साथ अप्राप्तानां निमित्त शकुनग्रहणं भवति, प्राप्ता-
नां त यः सास्य , यथा कलसंयतानामपि भवति ।
साश्च प्राप्ताः सन्तस्तिख्रः परिषदः कुर्वीन्ति । तद्यथा-
सिंहपरिषदम , सरगपारिषदम् , चृषभपरिषदम्। तथा सर्वशुद्धो
निर्दोष इति कत्वा स्थिताः, परे यद् अध्वनि अटबीं प्राप्ता
|
|
( ५१६ )
राइमोयण
भवन्ति तदा काऽपि प्रत्यतीका भिक्तायाः प्रतिषथ कुयोदि-
ति। बृ० १ उ० ३ प्रक० । (अथ लिहादीनां पषदा व्याख्या
“परिसा' शब्दे पञ्चमभाग ६४८ पृष्ठ गता) 'अट्ट्सुद्धि' त्ति अ-
पत्तयाणं ति' पदं व्याख्यायत-सा्घुभिः प्रथमत एवं सार्था-
धिपतिरभिध्रातव्यः.चय युष्माभिः समं वजामो यद्यस्मा कमु-
दन्तखुद्रहत, एवमुक्ले यद्यथमसावभ्युपगच्छाति ततः शुद्धसा थे
इति मत्वा प्रास्थिताः परमटवीं प्राप्तानां कोऽप्यवे कुयात्-
सिद्धत्थगपुष्फे वा, एवं वुत्त पि निच्छुभइ पंतो |
भत्तं वा पडिसहर, तिण्हणुसट्टाइ तत्थ इमा ।॥७५८॥
सिद्धार्थाः सपपाञ्चम्पक्रपुष्पाण वा शिरास स्थापितानि
काञ्चिदपि पीडां न कुवान्त एवे यूयमपि मम कमपि भारं न
कुरुष्वम् , एवमुक्त्वा ऽपि कथित्प्रान्ता भिक्षपासकादिरट-
चीमध्ये साथौन्निष्काशयति न द्ययस्माभिः साधमाग-
च्छति.भक्तपाने वा प्रतिषधर्यात, मा अमीषां कोऽपि कञः
दपि दद्यात् । ततस्त्रयाणां साथवाहायात्रिकाणामनुशिप्या-
दिका इयं यतना कत्तेव्या--
अणुसिट्टी धम्मकहा, विजनिभित्ते परस्सकरणं वा |
परउत्थिया य वसभा,सयं च थरी य चउभगो ।७५६॥
अआभधानराजन्द्रः
याद् लाक्ापायप्रदशन त्यत सा अनाशाएरूचयत, य- |
त्पुनरिह परत्र च स्वयं च कर्मविषाकोपदशन सा धम्म
कथा, तया अनुशिष्स्या धर्मकथया वा साथवाह आप-
जिका वा उपसमयितव्याः। विद्यया मंन्त्रेण वा वशीक-
त्तव्याः.निमित्तन वा आवत्तनीयाः । यो वा प्रभुः सहस्प यो -
धी वलात् स साथवाहं वध्वा स्वयमव साथमधिष्ठाय
प्रभुत्व करत । णया निष्काशने यतना | भिक्षाप्रतिषध पु-
नरियम-सर्वथा भित्ताया अलाभे ब्र॒षभाः परयूथिकाः मृत्वा |
भक्तपानसमत्पादयन्ति, साथवाहं वा प्रज्ञापयन्ति यदि च-सा-
ऽपि गीताशस्ततः स्वयं स्वलिङ्गनेव राचिभक्काविपयया
चतुभङ्गया यतन्त, चरथ गीता्था मिश्रास्ततः स्थाचराया
गरे निक्तिपन्ति ।
्ममुमवान्तयपदं व्याख्यानयति--
पडिसह अलंभ वा, गीयत्थेसु सयमव चरर्भगो ।
थेरिसगासं तु गिए, पस तत्ता व व आणीय । ७६० ॥
साथाधिपतिना भक्कपानस्य प्रतिषेधः कृत।, यद्वा-न प्रति-
चेधः परं स्तनेः सार्थ: सर्वाप्रपि लुण्ठितः अता भक्रपाने न
लभ्यत, ततः सर्वेऽपि गीतार्थास्तदा स्वयमेव परलिङ्गमन्त-
रेण रात्रिभक्नचतुर्भज्ञी यतनया प्रतिसेवितव्या । गाथायां
पुस्त्व प्रातत्वात् । अगीतार्धामिश्रास्तता यदि तव साध भ-
द्विका स्थविरा विद्यत तदा तस्याः समीपे निक्षिपन्ति, ततः
स्थविरायाः सकाश मगान् प्रप्य तवां पाश्वाद्ानाययेत्। ततो
चा स्थविरासमीपादायान्तामति भणति ।
ऋथवा-
कृत एयं पन्लीउ, सड़ा थरीपडिसत्थिगओं वा |
नायम्मि य पन्नत्रणा, न अपररा भवह धम्मो ।७६१।
चुप: स्थावरासमापादानात सात याद ते सरगणाः प्र-
श्नयेयु: कुत एतदानीत तता वङ्कञ्यम् , पल्लयाः सकाशादि-
दपानीतम् , दम्भादिश्राद्वधैववी दत्ते, स्थविर्या वा वितीर्ण,
गाइभमायण
प्रतिसाधथिकाद्दा लब्धम् , एवमपि यदि तेंमंगेज्ञांतं भवति
ततस्तेषां प्रज्ञापना कत्तेव्या । भो भद्रा! नास्त्यशरीरविरदि
ता घमः, अत इदं शरीरं सर्वप्रयत्नन रक्तणीयं, पश्चादिदं चा-
न्यत्र प्रायश्चित्तन विशोधयिष्याम इति ।
अथ पूर्वोक्कानां तिखृणामपि पदां गमनविधिमाद--
पुरतो वचतिं मिगा, मज्के वसभा उ मग्गओ सीहा ।
पिट्ठउ वसभा5न्नेसि,पडिया स हु रक्खगा दोण्हं।।७६२॥
पुरता सगा अगीतार्था मध्य वुषभाः मार्गत लिंहा गीतार्था
ब्रजन्ति, अन्यपामाचार्याणां मतन पृषता च्रृषभा बजन्ति।
कि कारणमित्यत आह ?-द्वयानां मृगसिदानां बालब्रद्धानां
वाय पतिताः परिश्रान्ताय चासदिष्णवः क्षुधापिपासापरी-
षटाभ्यां पीडितास्तेषां व्रृषभाः पृष्टतः स्थिता बजन्ति ।
अथवा--
पुरतो अ पासतो पि-ट्डती य वसभा हवति अद्भाणे |
गणबहपास वसभा, मगमज्के नियम वसभेगो।।७६३॥
अध्वनि बजतां वृषभाः पुरतः पार्वतः पृष्ठतश्च भवन्ति
गणपतिराचार्यैस्तस्य पाश्वे नियमादव वृषभा भवन्ति, म॒-
गाणां च मध्य नियमादेकोा वृषभा भवति ।
तेच वरषमाः कि कुवेन्तीत्याह-
वसभा सीहसु मिए- सुमव थामावहारिविजढा उ |
जा जत्थ होड असहू, तस्स तह उवग्गहं कूणति ॥७६४॥
वृषभाः स्थामापहारविमुक्कता अनिगृदीतवलवीर्याः सन्ता
स्रगघु सिंहेषु वा यो यत्र तषां मध्ये असदिष्णु्भवति, तस्य
था उपग्रहं कुवेन्ति।
थमित्याह--
भत्ते पाणे विस्मा-मणे य उवगरण देहवहणे य ।
थामावहारविजढा, तिपि वरि उव गिण वसभा।।७६५॥
स्रगाणां सिंहानां वृषभाणां च मध्य यः च्ुचात्तां भवति
तस्य भक्घं प्रयच्छन्ति, पिपासितस्य पानकं ददति, प-
रेश्रान्तस्य विश्रामणां कुवन्ति । य उपकरण देह वा
वादु न शक्तानि, तस्य तयावहने कुर्वान्ति । एवं स्थानाप-
हारविमुक्का वुषभास्त्रीनांप-मुर्गां सहवृषभानुपग्रह्वन्ति ।
जो सो उबगरणगणा, पविसताणं अणागयं भणिओ |
सट्टाणासट्टठ/।ण, तस्सुवओग इदं कमसो ॥ ७६६॥
अध्वनि प्रविशतां याऽसौ तलिकादिरुपकरणगणः अना-
गते भणितः, तस्यह स्वस्थानास्वस्थान अचचुर्विषयगमना-
दावरुपस्थित क्रमशः-क्रमेण उपयागः क्तव्यः । यन यदा
प्रयाक्कव्यमिति भाव
अम य गम्ममाण, पाडसत्थ तणसुन्नगामे वा।
रुक्ख।इण पल।यण, असइ नदी दुविहदव्े ॥७६५७॥
तत्राध्वनि गम्यमान भक्तपानस्य प्रतिसा्थ वा स्तनपल्टयां
वा शन्यग्राम वा भक्तपानादिनिमित्तं प्रलाकनं कर्तव्यम् ।
सवथा सस्तरणासन द्विविधं परीतानन्तादिमदाद् द्विप्रकारं
यद् द्रव्य तन यथा नान्द्ः--तपःसयमयागाना स्फ़ातभवात
तथा दश्रयामात पचयुक्गाश्रासमासाथः।
( ५२० ॥
आमभधानराजन्द्रः ।
राइभेयण
अथेनामव विवरी घुराह--
भत्तेण व पाणण व, निर्मेतण णुग्गए व अत्थमिए ।
आइच्चो उदिय त्ति व, गहर्ण गीयत्थसंविग्गे ॥७६८॥
अध्याने गच्छतां यादि काऽपि प्रातिसाथा मालतः। तत्र क
चिद् श्राद्धा भक्केन वा पानन वा रातावयुद्धत वा अस्तमिते-
वा सूर्य निमन्त्रययुः यदि सर्वडपि गीताथीः ततो ग्रह्न्ति | `
अथ गीताथमिश्रास्ततो गीताथी छुवले-गच्छुत यूय, वयमु-
दित आदित्य भक्तं पाने ग्रहीत्या पश्चादागांसप्याम इति. ततः
प्रस्थितघु संगषु गीताथोस्तत्क्षणमव ग्रूहीत्वा साथमनुग-
च्छन्ति । स्थित साथ सगाणां शृरवतामालाचर्यन्ति । आ-
दिव्य उदित इति मत्वा चये ग्रहण छूत्वा समागताः, एवं-
विधां यतनां गोतार्थः सावस्नः कराति।
किमथ गीताथरसाविग्रग्रहणमित्याट--
गीयत्थग्गहणण, सामाए गिशहते भव गीआ ।
संविग्गग्गहणणं, ते गणता वि संविग्गो ॥ ७६६ ॥
गीतार्थग्रहणन इदमावदिते, या गीताथां भवात स प्व
श्यामायां-रात्रो ग्रहणानि, नागीतार्थः । सेविभ्च्रहणन तु
तद्रातिभङ्क ग्रहरज्ञाप असी संविश्ञ एचत्युक्ते भव॒ति । गत ,
प्रतिसःथद्ारम् ।
अथ स्तेनपक्ली द्वारं तस्यां च पिशितं
सभ्भ्घनि. तजाऽयं विधिः-
बेहदियमारईणं, संथरण चउलह व सविससा ।
त चच असंथरण, विवरीयसभावसाहार ॥ ७७० ॥
यदि सेस्तरणे द्वीन्द्रियादीनां पुदले गरृहन्ति, तदा चतुले- '
घवः । सचिशषास्तपःकालविशपितःः । तद्यथा- द्ीन्द्रियपु-
इले गरहति सति चत्वारों लधथः, तपसा कालन चतुलघु
काः | चरोन्द्रियपुद्रलन त षव कालन गुरुकास्तपसरा लघुकाः।
चतुरिन्द्रियपुद्धलन तपायुरूकाः । अथापवबादब्याप्यापवाद
उच्यत द्ीन्द्रियादीनां पुद्रलर्माध्रकतरन्द्रियपुद्रलार्दधिकत-
रचलम् , तता यत् स्वभावनव साधारण तदुपगरहन्ति-
जत्थ बिसिस जाशं ति तत्थ लिगण चउलहू पिमिए ।
द्र
हाई
अन्नाए ण उ गहणं, सत्थम्मि वि दाइ एमेव ॥9७१॥
यत्र ग्राम विशष जानन्ति यथा-साथवः पिंशत न भुञ्जत
तत्र यदि स्वलिङ्गन पिशितं गृह्णन्ति तद्रा चतुले्वः,
अतो 5 ज्ञातनेब ग्रहमं कार्य परलिङ्गनत्यथ्रः । तन पर्ट्या-
दीनामभत्रि साध्रेऽपि पुद्वलश्रहण एप च कमा विज्ञयः।
समथ शुन्यग्रा मदर माह-
अद्भाण संथरगे, सन्ने दव्वम्मि कष्पद् गहणं ।
लहओआ। लहया गुरुगा, जहन्नए् मार्जम्रकमसि ||.७.७२॥
अध्वप्रतिपन्नानागसस्तरण जात शन्यग्राम तं साथमायान्त
दग्रा चोरसना समागच्छतीति शद्कयाद्रासित ग्राम जघन्य-
मध्यमोक्रएभदमिन्नस्य द्रव्यस्य श्राटागादििग्रहरणं कन्त क-
ल्पत, श्रथ सस्तर गृह्णाति तत इदमायात प्रायश्चित्त-जघन्य
मासलघु. मध्यम चन्वारा लघवः उत्कृष्ठ चन्वारा गुरवः ।
आह-जघन्यमध्यमात्कृष्टान्यव चयं न जानीमः । अता
निरूप्यतामतत्स्वरूपम् । उच्यत-
उकायं बिगहा, पाङ्फिणसं राड कृरमारईणि |
दास5प्माइ जहन्न, गर्हते आयारेयमाद ॥ ७७३ ॥
त्क्रष्ठद्रव्य एतकृतया-- द्वद ग्चच्चृताद्रयः मध्यम
तामाचायादीनामाज्ञादयो दोषाः ।
अथ पुरूषविभागन प्रायश्चित्त माह--
द्राण संथरण, सुन्न गामाम्म जो उ गिरटेज्ञा |
छदादी आरोवण, नेयव्वं जाव मासलहू ॥ ७७४॥
अआध्यान सस्तषरण शुन््यग्राम चकऊरत्याएद द्रव्य या ग्रह्वाया- |
त्तस्य छुदमादा ऋरत्या मारूघुक यावदारापषणा ज्ञातब्या ।
इदमव स्वष्ठतरमाह-
छदा छग्गुरु छल्नह, चउगुरु चठउलहु य गुरुलह्ृ मासो।
आयरियवसभभिक्खू , उकोसे मज्किमजहन्ने ॥७७४॥ ,
आचार्यस्य विरृत्यादिकम॒त्कृणशद्रब्य शन्यग्राम अन्तद्वव्य ,
गृह्णतः छदः, अदर्श गृहतः पड़गुरुकाः, वदिरष्ट पडलछुकाः,
अद्र चतुर्मुरवः, जघन्ये दो पान्नादिकमन्तदष्र गृह्णतः षडल- ।
घुकाः चतुगुरवः, वादद्घ् चतुगरचः, अदृष्ट चतुलघुका:, ए>
तेमाचायंस्य क्कम् | दुपभस्यानयय चाराणकया षड्गुरूुकादा
ब्ध मासगशुरूक , एभक्षास्तु पडलघुकादए्सरब्ध मासलघुक
तात । यत एयमत्त- सस्तरण पअ्रहातव्यम | असस्तरण न
अहीतव्यम्। _ .
असस्तरण ग्रह्तां यतनामाह---
विलओलए व जायद्, अहवा कडवालए अणुन्नवए ।
इयरण व सत्थभया, अन्नभेया बुडूत कड् ।७७६॥
बिलओलग त्ति दशी पदत्वात् लुर्डाका यः स ग्रामो मुषित
इत्यः । तत्र शुन्यग्राभ विकृत्यादि द्रव्ये याचत। अ
थवा-कटपालका च तत्र चृद्धादय . श्रजङ्गमाः ग्रहपालकाः
स्थिताः नण्रास्तान् तञ्जञापयत् ` इयरण व त्ति ` स्वलिङ्गन
अलभ्यमान इतरण- परण परलिङ्गना ऽपि गृह्णान्त। तथा काई
नाम यद् द्रव्यं चतुवणजनपर्दामिश्र भिल्ञदुग वसतिः तस्मि-
नाप साथभयाद्वा अन्यभयाद्वा-परचक्रगमादलक्षणादात्थ- | १
त उद्धसीभूत खति जघन्यादिरूपद्रच्यस्य ग्रहणं कल्पत ।
तत्रयं यतना--
उदुढमसवबहूहि , अता वा पत गर्हत् [द |
बाहआततआओ दड,) एवं मज्क तदुकसि || ७७७ ॥
उदूढ ति देशीवचनत्वान्स॒वितस्य यच्छेष लुण्ठकैभुक्त्वा
ग्रामाद्बहिः परित्यक्तं त्ञघन्यमदष्रे गृह्णन्ति, तस्यासात ग्रा-
मादरन्तःप्रास्तं दष्टा ततो प्रामादेरन्तरऽपि प्रान्तं दष्टा खु" |
हन्ति । तथा लाभ मध्यम ऽप्यवमवाच्च(रणीयम् , तदप्राप्ताव-
जु.ङृष्रमप्यनयैव चारणिकया ग्रहीतव्यम् । अथवा-किमनेन
जबस्यादिविकल्पदर्शनन ।
तुल्लम्मि अदत्तम्मि, तं गिण्हसु जेण अवदं तरसि ।
तुटो तत्थ अवाओ, तुन्नबलं वज्ञए तें ॥ ७७८ ॥
जघ्न्यमध्यमोनकृएर तुस्ये-ससान अदत्तदाषे सति तद्वि
त्यादिकं द्रव्यं गृहाण येन आपदमसंस्तरणलक्षणं तरसि-
पारं प्रापयसि, यतस्तस्य एव त्र सयमात्मविराधनारूपो
९पायः, तन हेतुना स्ववलं दोषाज्नादिद्रव्य वजयः । गतं शः
त्सर्ण्ष्त्र श्र |
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न्व
अथ 'रुवस्ताईण पल्नोयण' त्ति पदे व्याख्यानयति-
फासुग जाणपारत्त, एगाईय वड्भाभन्नाभन्न य ।
व(द्ध)ड्डड्िय वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए ॥ ७७६ ॥
प्राशकम-अखित्ती भूत, परीक्ता योनरस्यति परीत्तयोनि-
कप्-णकवीजस् ,अथवा-एकास्थिक नाम अद्याप्यवहुबी जम ,
अनिष्पन्नामत्यथेः । भिन्नस-विदारितस् एतेन प्रथमो भक्ञः ।
॥ य त्ति' अभिन्नस-अविदारितम अनन [द्वतीयो मङ्ग |
उपात्तः । उच्चा रणविधिः पुनरेवसम--प्राशुके परीक्तयोनि-
कम् एकास्थिकम अबद्धास्थिकं, परीत्तयानिकम एकास्थि-
कम आभन्नम् | पव वद्धास्थक ४प द्वा भक्ला वक्कन्या । पत
एकास्थिक चत्वारो भङ्गा लब्धाः । वहु जीज.ऽप्यवमव चत्वा-
रा लभ्यन्त । जाता अष्टा भङ्गाः। एत परात्यानिपदगमुञाना
लब्धाः | एवमवानन्तयानिपदनाप्य्रौ भङ्गाः प्राप्यन्त, जाताः
घोडश भङ्गाः | एते प्राशुकपदेन लब्धाः) एवमवाप्राशुक पदेना-
ऽपि षाडशावाव्यन्त.सर्वसङ्ख्यया जाता द्वत्र शद्धङ्गाः। पते
च कृतक्तस्याधस्तात्पतितं प्रलस्वमधिक्तत्य मन्तव्याः ।
एमेव होड उवरि, एगट्डिय तह य होड बहबीए |
साहारणस्स भावा, आदीए बहगुणं जं च ॥ ७८० ॥
एवमव बृक्तस्यापयापि एकास्थिकपदे, तथेव बहुबीजप-
दे, उपलक्षणत्वात्पराशुकादिशपपदेषु च द्वात्िशद्ध्ाः कत्त-
व्याः । अथ यो यः पूर्वा भज्ञकः स प्रथममासेवितव्यः, सर्व-
था वा5घस्तातपातताना प्रलम्बानामपधाप्तादृित्तापारवात्तप्रल- |
म्ब विषया अपि द्वातरिशद्धङ्गकाः यथाक्रममेवमबावसितबव्या:।
अथापवादस्य अपवाद उच्यते-स्वभावात्-प्रकृत्येब साधार- |
व्यमेकारिथकमनकास्थकं वा, |
रो शरीरोपष्टम्सकहरीतकद्ध
अद्धास्थिकं परीत्तमनन्तं वा, ठद॒त्कमेणाप्यादत्ते-ग्रह्माति य-
अस्म्रात्तस्यामवस्थायां तदव बहुगुणं सयमादीनां बहप- |
कारकम् । वृ० १ उ० ३ प्रक०। (अथ द्वारगाथान््तगंतं नन्दि-
पदम् ' रादि ` शब्दे चतुर्थभाग ६७५३ पृष्ठे व्याख्यातम् )
नन्दिद्रव्य दिविधम् . तद्यथा--
परिनिद्धिय जीवजदं, जलयं थलयं अ चित्तमियरं च |
परित्ते' तरं च द विह, पाणगजयणं अतो वोच्छ ॥७८२॥
द्विधा द्रव्य-परिनिषठितम्.जावविप्रमुक्तं च । परिनिष्ठित ना-
यत्पराथ मचि त्तीकृतम , जीवविप्रमुक्क तु साध्यथमचित्ती क
लम् ,आधाकर्मति हृदंयम | आह च चूर्रिकृत्- परिनिद्ठियं ति
जे परकडमचित्तं ,जीवजढे ति आहाकम्म |` यद्वा-दिविधद्र-
व्यम्-जलजं,स्थलज चति। अथवा-अचित्तेतरभदाद् द्विधा.स-
ब्ाऽचित्तं नाम-यन्न पराश्रमचिक्तीकृत.नापि सयमाध,क्वल-
मायु क्षपणादचित्ती भूतम् । यत्पुनरायु वी रयाति तःसचित्तम्।
अधथवा-परीत्तं-प्रत्यकस इतरदनन्ता्मात वा द्विविध तंदेव-
मुक्का तावदाहारयतना | अथ पानकयतनामत ऊध्वं वक्ष्य ।
यथाप्रतिज्ञातमव निर्वाहयाति--
तुवर फले अ पत्ते, स्क्वमिलातुप्पमदणाईसं ।
पासंदण पवाण, अ.यवतत्ते वद अवह ।। ७८३ ॥
अध्यनि चक्तमानेः काञ्जिकादिप्राश्युकपानकाप्राप्तावीदरशानि
ग्रहीतव्यानि, तद्यथा--तुम्बरफलानि हरीतकी प्रश्नतीनि तु-
चररसपत्ादीनि तेः परिणामितस,तथा “ रुक्ख त्ति' बृक्तको-
१३१
वाता
का,गाथायां प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पृबापरनिपातः।एकास्थि- |
( ४२५१ )
अभिधानराजन्द्रः
__: ' राट्मायल
खर कटुकफलपत्नादिपरिणामितम् . पवावधस्याभाव 'सिल
त्त सिलाजतुभावितम् , तदभाव “उप्प त्ति' मृतककलवर-
चशाघृतादिभिः परिणामितम् , तदप्राप्तो 'मदरणाईसु त्ति' ह-
स्त्यादमदननाक्रानतम , आदिशब्दो हस्त्यादीनामेवानकमद-
सूचक: । तदभाव प्रस्यन्दन-निभरणे तत्पानकं प्रपातो नाम
यत्र पवतात्पानीये निपतति यथा--उज्ञयन्तादिगिरिः, तद
भावे आतपन यत्तप्त तत्परथममवदह मानकं पश्चात्तदेव वदमान
के ग्रार््यामांत ।
अथ ` मदणादेखु त्ति ` पदे व्याचऐ--
जड खग्गे महिसे, गोणे गवए य सयर मिगे य |
उप्परिवाडीगहणे, चाउम्मासा भवे लहंगा | ७८४ ॥
जड़ा ` हस्ती, खड़ो नाम-एकशक्लः आटब्यतिर्यगाव्शिष
गोमहिषो प्रसिद्धों, गवया-गवाक्ृतिराटव्यजीवदिशपः, श-
करस्ृगा प्रसिद्धा, एतजड़ादिभिमदनन परिणामिते पानकं
धाक्रम #हीतव्यम । अथात्परिपाख्या यथाक्रक्रममुलङ्कय्
ग्रहण कशेति 7 तश्त्वारो लघुका भवेयुः ।
सूच्रम--
नन्नत्थ एगेणं पुव्वपडिलदिएणं सज्ञा्यथारएशं ॥४४।
न कल्पत रात्रो वा विकाले चति' याभ्य प्रतिवेधःस एफ-
स्मात्पूर्वप्रत्युपक्षितात् शय्यासस्तारकादन्यतर। इहान्यत्रशः
परिवजनायाम.यथा- न्य द्रोणभीष्माभ्यां, स्च याधाः प-
राङ्मुखाः' । द्रोणभीष्मो वर्जयित्वत्यर्थः | ततश्चक्रं शय्यास-
स्तारकं विहायापरं किर्माप रात्रो प्रहीतुं न कटपत इति सूत्र
संक्तपार्थः ।
[]
अथ निर्युक्किविस्तर:--
सिज्जासंथारगहरे, चरो मासा हर॑ति उम्घाये ।
्रणाइणा य दोसा, विराहणा सजमायाए || ७८५ ॥
शरते5स्यामिति शय्या--वसतिः सेव शय्या सस्तारकः
द्वा-शय्या वसतिरेव सस्तारको द्विधा-(बु०)(इति 'संथार
ब्दे वच्यत ) शब्यापलक्षितः सेस्तारकः शय्यासस्तारकःः।
यद्यपि सूत्र रात्रा ग्रहणमनुज्ञात तथाऽव्युनसर्गतो न कल्पते |
यदि गृह्णाति ततश्चत्वारा मासा. उद्धातः-प्रायाश्वत्तस, आ-
ज्ञादयश्च दाषाः | विराधना च सयमान्मविषया ।
तामव भावयाति--
छकायाण विराहण, पासवणुचारमेव संधार |
पक्वलणखाणुकटग विसम दरी- बाल माणे य।।७८६॥
गात्रावप्रत्युपक्षितायां भूगो उ्छारं प्रश्रवण वा व्युःखूजतः
पट्कायानां प्रुथिव्यादीसां विराघना | अथैतदाषभयाज्न व्यु-
त्स्टजति तत आत्माविरधना, यज वा व्युन्खृजति तत्र बिला-
क्िगत्य दी घ्जातीयन भक्ष्यत एचमप्यात्मविराधना । 'संथारे
त्ति ' अप्रत्युपक्षितायां भूमा सस्तारकं प्र्तिप्तमवे पदकाय-
विराधना, विलाद आ्ा्मावराधनाऽपि । तथा स्थाणुकरटके
तत्र प्रस्खलन भवत् कराटकेवा विध्यत, विषमे--निम्नोनने
दरीषु वा विलपु प्रस्ख तत्-प्रपतद्वा, व्यालाः-सर्पास्तेदेश्यत,
गोवलीवर्दस्तना भिघाता मवत् ।
कश्च-
एरय सेणा, गोम्मि य आरक्खि तेणगा दुविहा |
एए हव॑ति दासा, वेसित्थिणपुंसएसुं वा || ७८७॥
(४
__ अभिधान
राइसोयण
क
|
गहभोयण
^ प्रं ड्य साणे ति ` हडक्रायितः श्वा तेन खाद्येत, गौल्मि-
कैवेद्धस्थानकैः रत्तपालैः-आ्ररत्तिकैकी चौर माहं गद्यते । स्ते-
नका दिविधाः शरीरस्तेनाः उपधिस्तनाश्च , तैरपदियेत
साधवो वा हियेरन् । एत दोषा राजौ शय्यासंस्तारकग्रदे
भवन्ति । वेश्याखीनपुसकेषु वा वेश्यापाटके नपुसकपाटके
वा स्थितानां रातो परिवत्तयतां स्वाध्यायशब्दे श्रुत्वा
लाकः प्रवच्चनावणवाद कयात् । अहः साधचस्तपावनमा- |
सवन्ते । यत एते दोषा श्रतो न रात्रौ शय्यासस्तारको ग्रही-
तब्य इति । पक
आह येद ततः--
सुत्त निरत्थ्ग का-रशिकमिणमो ऽट्ाख निग्गया साहू |
मरुगाण कोड गम्मी, पुव्वदि द्रुम्मि संश्राए ॥ ७८८ ॥
सूत्र निरथकं प्रापनोति, सूरिराद--न भवति सूत्रे निरथ-
कम् , कि तु कारणिकम् । कि पुनः कारणमित्याद--इदमन-
न्तरमेवोाच्यमानम् | श्रध्वनिगेताः कचन साधवो ऽस्तमनवला
यां ग्राम प्राप्ताः, तज तेर्मरुकाणां का्ठको ऽध्ययनोपरता दष्टः
यर तदीयस्वामी तत्र सन्निहिता न विद्यत , ततस्ते साध-
बस्तं मरुककोष्ठकम् उच्चार पसखवणकालभूमिकाश्च प्रत्युपेच्य ¦
स्व(मिनमध्यापकं समागतं याचन्ते,याचित्वा च तत्र कोष्ठक
पूवदृष्टे सन्ध्यायां गृह्यमाणे सूजरनिपातो ्टव्यः। एवे सन्ध्या- |
लक्षण राजिमज्जीरुत्योक्तम् | न केवले सन्ध्यायां; कि तु विका-
ल्ञेऽपि शय्यासस्तारकस्यामीभिः कारशेग्रहणं कर्पते ।
दूरे व अन्नगामो, उरघाया तेण सावय नई वा ।
दुल्लमवसहिग्गामे, रुक्खाइटठियाण समुदाणं ।। ७८६ ॥
यतो ग्रामात् प्रस्थिता ततो यत्र गन्तुमीप्सितं सोऽन्य- |
श्रामाद् दूरे, अथवा-डद्धाताः-परिश्रान्तास्ततो विश्चाम्यम् | |
लतः समायाताः स्तनाः स्वापदभयाद्वा साथमन्तरेण गन्तु न
शक्यत स च साथश्चरण लब्धः, नदी वा प्रत्युढा। एतेः का
रशोयस्मिन् ग्राम प्रस्थितास्तमसम्प्राप्ता अपान्तरालग्राम
भित्तावेलायां प्राप्तस्तत्र च वसातदुलभा, तता मागय-
द्वाराप ततः खशमलनव्या, तता चत्तादमूल बाहशस्थता
सव ऽप समुदानम्-भक्त हार्डतवन्त तेश्च दरडमान॑-
रमूषां वसतीनाम् एकतरा दष्टा भवति ॥
कम्मारणंतदारग, कलाय समयुञ्जमाणिये दिद्ा ।
तेसु गएसु वि सत, जहि दिद्ठा उभयभोमाई ।। ७६० ॥
कमकरा लाहकारास्तषां शाला कर्मारशाला नन्तकानि ब-
खारणि तानि उद्व्यूयन्ते यत्र सा नन्तकशाला, दारका बाल-
कास्ते यत्न निवसन्तः पठन्ति सा दारकशाला लखशालत्य-
शेः । कलादाः सुवशीक्रारास्तषां शाला कलादशाला, सभा
बहुजनोपवशनस्थानम् यद्वा-सभाशब्दः शालापर्यायः, अतः
श्रत्यकमभिसम्बध्यते कम्मारसभा नन्तकसभा इस्यादि |
पतेषामेकतरा ऽपि वा भुज्यमाना दष्टाः । ततो व्यतीतायां स- |
न्ध्यायां तषु लोहकारादिषु गतषु तत्र कर्मकरशालादो प्र- |
विशान्ति । तत्राऽपि यदि वस्ततः एतद् उभयभूमिके उच्चा- |
रप्रसख्रवणभूमिकालन्तण श्रादिशब्दात्-कालभूमिश्च यत्र दृष्टा
सत्र रजन्यामपि गन्तु कल्पत । तत्र च सूत्रता निपात ए-
चमादिके सूत्र भूयोऽ्पथेतो द्वितीयपदक्षच्यते । पूर्जमप्रत्यु-
पाल्तत ऽप सस्तारकोश्चारध्रस्रवकभूपिषु क्षान्त ।
कथमित्याह--
मज्के य देउलाई, बाहिं ठवियाण होइ अहगमणं ।
सावय मकाडग ते-ण वाल मसय5यगेर साणे ॥७६१॥
मध्ये च आमादेम॑ध्यभाग यदेवकुलम आदियश्रहणात्ू-को-
कशाला वा तत्र दिवसतो विधिना स्थिताः । श्रथवा-ग्रा-
मादेवैदिर्देवङ्लादो सकलमपि दिवसं स्थिताः, ततो लो-
कस्तत्र स्थितान् दष्टा वयात् ` सावय ` इत्यादि अत्र दे-
वकुलादौ रात्रो स्वापदः सिहव्याघ्रादिस्तद्धयं भवति, अ-
तो नात्र भवतां वस्तु युज्यते । तथा मकोंटका श्रत्र रात्रा
बुात्तष्न्ति, स्तना वा द्विविधा अत्र रजन्यामभिपतन्ति, व्या,
लो वा सपः स खादति , मशका वा निशायामत्राभिद्रव-
न्ति, श्रजगरो वाऽत्र राजो गिलति, श्वा वा सगागत्य
दशति । पतेव्यी घातकारणौ रा्रावन्यस्यां वसतावतिगमनं
प्रवेशो भवति ।
इदमेव स्फुटतरमाह--
दिवसट्टिया वि र्ति, दोसे मकोडगाइए ना ।
श्रता वयेति अन्न, वसहिं बहिया व अतो उ ॥ ७६२ ॥
देवकुलादो दिवसतः स्थिता शपि रात्रो मर्कोटकादीन्
दोषान् ज्ञात्वा यदि श्नन्तः-ग्रामाभ्यन्तरे स्थितास्ततो ञ्रामा-
न्तवर्तिनीमेवान्यां बसति बजन्ति, तदप्राप्तों बाहिरिकायां
गच्छन्ति । दिवसता बहिदेवकुलादिषु स्थिताः ततस्तत्रा5
पि रात्रा पूर्वोक्तान् दोषान् मत्वा बदिर्वादिरिकाया वा अन्तः
समागच्छान्त ।
अथोक्लमेवार्थमन्याचार्यपरिपाल्या प्रतिपादयति-
पुव्वद्धिए व रत्ति, ददण जणो भणाई मा एत्थ ।
निवसह इत्थं सावय-तकर माई उ अहिलिंति ॥ ७६३ ॥
देवकुलादौ पूर्वस्थितान् साधून् रात्रौ जनो भणति-य-
था माऽत्र निवसत, यतोऽत्र रात्रो स्वापदतस्करादयोऽभि-
लीयन्त समागच्छन्ति ।
इत्थी नपुंसओ वा, खधारो अगतो त्ति श्रहगमणं ।
गामाणुगामिएटहि, होज़् विगालो इमहिं तु ॥ ७६४ ॥
लाका ब्रूयात्-अज्र देवकुलादों रात्रो खी वा नपुंसको वा
समागत्यापसग करोति, स्कन्धावारो वा श्रागतः, एवमादि
भिः कारणेर्वाहिरिकायाः सकाशादन्तरतिगंमने-प्रवशे कु-
युः-ग्रामाभ्यन्तराद्वा बहिगैच्छेयु: | एवं तावदध्वनिगेतानां
यतनोक्ला श्रथ विहरतां प्रतिपाद्यत-(गामाणुगामि इत्यादि)
मासकल्पविधिना ग्रामानुग्राम विहरन्ति तेषामप्येभिवे-
दयमाणकारशैर्विकालो भवत् ।
तान्यवाऽऽद--
वितिगिद्धि तेण सावय,-फिडिय गिलाणेव दुब्बल नई वा।
पडिणीय सेह सत्थं,ण तु पत्ता पहमबितियाई ॥ ७६४ ॥
यत्र क्षेत्र मासकल्पः कृतस्तस्मागमन्यं ग्राम प्रस्थिताः स-
व्यतिकृष्टो दुरदेशवर्त्ती, स्तेना वा द्विविधाः-उपधिस्तना श्वा-
पदा वा पथि व्तेन्ते तद्भयाश्विरलब्घसार्थन सहागताः स्फि
टिता वा साथात्परिश्रष्टास्ततो यावदनुमार्गमवतीर्णास्तावदू
दूरतरं समजनि। यद्वा-साधुः कोऽपि स्फिटितः स यावद्न्वेषि
जा क लग गह आ आर च चव १ जा
| राहभोयण
तस्तावश्विरीभूतं, ग्लानावा साधुरधुनोत्थितः शनेः शन
( ४२३ )
समागच्छति, दुबैलो वा खभावेनेव कथित् साऽपि न.शाघ्रे |
गन्तु शकनोति, नदी वा पृरणां यावदपरिच्यत तावत्पृती- |
च्यमाणाः स्थिता यदा नदी यावत्परिच्हियते तावद्विलम्बो |
लग्नः, प्रत्यनीकेवौ पन्थाः समंततो रुद्धः ततो यावदपरेण |
मार्गेणा ऽ ऽगम्यते तावद् दूरतरे जातं, शैक्तो वा कशथ्चिदुत्पन्न |
स पथि प्रतीतितः, अथवा-तस्य दिवा वजतः सागारिकः |
सार्थो वा शनैः शनेरागच्छति, यद्धा-तं सार्थ प्रतीक्षमाणानां
विकालः सज्ञातः। पतैः कारणैः प्रथमद्धितीयपोरुष्योः आदि- |
ग्रहणात्तुतीयचतुथ्यों रपि पि पौरष्योनंतु-नैव प्राप्ताः भवेयु
अथादापल्न विकाले रात्रो प्राप्ताः। ततश्च तदानीं प्राप्तेस्तेर्वि
धिना प्रवेष्टव्यं ना ऽरविघना ।
यत आहर--
अइगमणे अविहीए, चउगुरुगा पुव्ववन्निया दोसा |
आशणाइणो विराहण, नायव्वा संजमायाएं || ७६६॥
यद्यविधिना अतिगमन प्रवेश कुवन्ति ततः चत्वारो गुरुकाः
पूयवरीताश्च पट कायविराघनादयो दोषा श्रत्रावसातव्याः, |
श्राज्ञादयश्च दाषा, विराधना च सयमात्मविप्या ज्ञातव्या | |
यत एवमतो विधिना प्रचष्टव्यम् | |
कः पुनर्विधिरित्यत श्राह--
सव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाएँ चउगुरुगा ।
अणाइणो विराण, पुव्वं पविसंति गीयत्था।।७६७॥
ते साघधवा यदि सवं ऽपि गीताथास्ततः सवं एव परविशन्ति,
तदा चतुर्गुरुकाः, आज्ञादयो दाषाः, विराधना च सयमात्म
विषया । का पुनर्यतना ? इत्यत श्राह -पूव प्रथमं तावद् गीता
थाः प्रविशन्ति, पश्चाद्गीताथौ इति संग्रहगाथासंक्षपाथेः ।
थेनामव विद्वणोति--
जई सव्वे गीयत्था, सव्ये पविसंति ते वसहिमेव ।
विहि-अविहिए पवेसो,मीसं अविही य गुरुगा ३।७६८। |
यदि ते साधवः सवं गीताथस्ततः सर्वे ऽपिते समकमव भ-
विशन्ति, अथागीतार्थामिश्रास्ते तता द्विधा प्रचशो विधिना
अवधिधिना च । यद्यविधिना प्रविशन्ति ततश्चतुगुरुकाः श्र- |
विधिनाम--यद्यगीताथमिश्राः सर्व5पि प्रविशन्ति ।
कः पुनस्तत्र दोषो भवतीत्युच्यत--
विप्परिणामो अप्प-च्चओ य दुक्खं व चोदणा होइ !
पुरतो जयणा करणं,अकरणे ` सव्ये वि खलु चत्ता ।७६६।
यदि गाणां पुरतो ज्यातिरानयनादिकं वच्यमाणां यतनां
कृर्वन्ति ततस्तेषां विपरिणामो भवत् , न वत्तेते अग्निकाय-
समारम्भं कत्त|मित्युपद्श्य सम्प्रति तमव स्वयं समारभत ।
प्रत्यया ऽपि तेषामुपजायते; यथेतदलीक तथा सर्वमप्यमी- |
चामेवेविध्मिति, ततश्च परतिगमनादयो दोषाः । तथा तेषां |
सगाणां पञ्चादग्निकायसङ्कट्ादि कुर्वतामपरां वा सामा- |
चारीं वितथामाचरतां दुःखनादना भवति । तदा ख्यम- |
व अग्निकायसमार म्मं रत्वा सम्पत्यस्मान् वारयत इत्यादिस |
म्मुखवर्गनतः खम्यक् शिक्षां न प्रतिपद्यन्ते इत्यः । यैत. |
दोषभयादेनां ज्योतियेतनां न कुबन्ति,ततः सर्वैऽप्यत्चायीद्य
श्रभिधानराजन्द्रः। राष्ट्रमोयण
पारत्यक्ला भवन्ति सप्पश्वापदा दा भरात्मावराधनासद्धवात्
तस्माद्वाधना प्रवष्ठव्यम ।
। तमेव विधिमाह--
बाहिं कारण मिए, गीया पविसंति पुंछणे घेन ।
देउलसभपरिशुत्ते, मग्गति सजोहए चेव ।। ८०० ||
खगान् बहिः रत्क-- स्थापयित्वा प्रोच्छनादि दारूदरड-
कानि गृहीत्वा गीतार्थाः परविशन्ति, पविश्य च देवकुलस-
भादीनि परिभुञ्जमानानि सयोगनव ज्योतिःसहितानि मार्ग-
यन्ति । अथ पूर्व कत ज्योतिस्तत्र न प्राप्यते ततस्तदान-
यन्ति द्मानाययन्ति वा समुच्चारादिभूमिकाः प्रत्युपक्ष्य
सुगानानयन्ति ।
परिभृज्ञमाण असई, सुन्नागारे वसंति सारविए ।
श्रह णुव्वासिय सकवा-ड निव्विले निचले चव।॥८०१॥
परिमुज्यमाना वसतिनै लभ्यते तदा शूल्यागारम्-श्यन्यगरदे
गवेषयन्ति, तच्चाधुनोद्धासितं साम्प्रतमवोद्दसी भूत सकपाट
कपारयुङ्घ निर्विलम-सर्प्पादिविलरदितं निश्चल-ददं नयन्ति
प्रकामम् । ज चतुर्भिः पदेः षोडश भङ्गा भवन्ति। एषां च
मध्ये यः प्रथमो भङ्गः तदुपते शन्यग्रृहे सारबिते-प्रमार्जित
चसन्ति। ^
श्मच्र सर्वषु गीतार्थषु विधिमाद--
जई नाऽऽणयंति जई, गिहिणो तो रतु अप्पणा आणे।
कालोभयसंथारग, भूमीओ पेहए तेणं ॥ ८०२ ॥
यदि गृहिणः अरिता अपि ज्योतिर्नानयन्ति तत आत्म-
नाऽपि गत्वा ्रानयन्ति, ततस्तन ज्यातिषा कालोभयसस्ता-
राणां भूमि भत्युपेक्तत, कालभूमि सस्तारकभूभि चेत्यथः ।
असई य पडवस्स, गोवालाकंबुदारदंडणं ।
बिलपुंछशण ढकण, मंतेण व जा पमाय तु ॥ ८०३॥
एमेव य भुमितिए, हरितादी खाणुकंट बिलमादी ।
दोसदुगवजणट्टा, पेहिय इतरे पवेसंति ॥ ८०४ ॥
अथ प्रदीपो न प्राप्यते यथा सर्वेषां गीताथीनां विधिरुक्त-
स्तथा गीता्थमिश्राणामप्येवमेव ज्ञातव्यः, नवरं तानगी-
ताथोन् बदिः-- स्थापयित्वा गीताथौः रविश्य भ्रूमित्रिके
सज्ञायककालभूमिलक्तणे रदितवीजादीन् जन्तून् स्थाणुक-
रटकविलादरीश्च प्रत्यपायान् दोषद्धयवजजना्थम-सयमा-
त्मविराधनालक्ष णदोषद्वयर्पारिहा रा उथे प्रत्युपक्ष्य इतरान् मू-
गान् वसति प्रवेशयन्ति ।
ठाणासती य बाहिं-तेशग दोचा व सव्ये" पविसंति |
गुरुगा उ अजयणाए, विप्परिणामाई ते चेव ॥ ८०५॥
यदि बहु स्थानं नास्ति, यत्र श्ृगाः स्थाप्यन्ते ` तणग दाड्या
व त्ति ` स्तनक्रभय वा वहिर्वत्तते ततः सवै एव प्रविशन्ति,
प्रविष्राश्च यदि यतनां न कुर्वन्त ततश्चतुशुरुकाः त एव
दिपरिणामाः--अरत्यपायादयो दोषाः ।
अथ यतनामव च वये न जानीम इति शश्नावकाशमाश-
ङ्क्य तत्खरूपमाह--
शवगौयत्थविपिस्साखं,जयणं इमा तत्थ अधकारभ्मि।
आशणणणीभोगणं, अणागय कोइ बारह ॥ ८०६ ॥
( ४२७ )
आभधानराजन्द्रः ॥
राइभोयण
श्रगीता्थमिश्राणां तत्र वसतावन्धकार इयं यतना-आ- |
|
|
णणणाभोगरं ति ` तथात सगा नाभागयन्ति तथा दीपस्य |
श्मन्यव्यपद रानानयन विधयम् | अथ गृहस्था ऽन्यव्यपदेरा- |
नाता 5पि दीप गृहीत्वा नागच्छति ततस्तमनागते गृहमपि
गन्वा प्रज्ञापयन्ति.यथा-दीपमानय । यदि काश्चद्वारयति तत-
स्तस्य शिक्षा प्रदातव्या । । विशेषचूर्णों तु--' अणणाणण कोइ ।
बारे त्तिः पाटः। अन्येन ग्रहस्थनाझरानयन यदि कोऽपि अगी-
ताथा वारयति ततस्तस्य नादना क्तव्या।
इदमव भावयति--
अम्हेहि अभणिओं अ-ष्यणाणु आओ णु अम्ह अद्वाए |
आरद् इहं जाई, अयगोल मा णिवारेह । ८०७ ॥
यदा गरी दक्ततया स्वयमेव ज्यातिरानयति , ते च को-
व्यगीताथा वारयति,तदा स चक्कव्यः. अस्माभिरभाणितः स्व-
थागन यद्यप गरृटस्थ आःमनाऽथ युरिति सशय, ` उताहो `
श्रस्मदथ ज्यातिरानर्यात, ततः किमस्माकस पएतदीयया चि-
न्नया. अत एव तमयागालकल्ये मा वारयत ।
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गिहिणं भरणति पुओओ, अइतमसमिणं न पस्सिमी किचि |
[ ॐ ६६। [+ ष क
आशिति जइ अवुत्ता, तहेव जयणा नवारत |॥|८०८॥।
रध त गृहस्थाः
व्यपदशन तेषां गुहिरां
चान्धकारमिदिन पश्यामा वयं किरख्चिदपीति । यद्येवमनुक्ताः
साक्तादभणिताः सन्ता उयातिरानयन्ति ; ततः सुन्द्रम्ब ।
य॒श्च तत्न निवारयति; तस्य यतनया तथेव नादना कार्या ।
अथ ते गृहस्था अन्यव्यपदशनोक्कं नाववुध्यन्त
ततः कि कत्तउ्यमिन्याद--
+ 4 श् = [> अका
गतृण य पन्नवणा, आणशण तह चव पुव्यभाणय तु ।
५ 0 लगाई + ह
भणण अआद्ायणा असइ, पच्छायणामल़्गाइसु |८०६।
गीतार्थेगत्वा चशब्दाद् अगत्वाऽपि तत्र स्थितश्दिणां भ्र
करःपना विधया,यथा-न पश्यामा वयमत्र लादि स्थाणुकः
ग़टकादिके बा,अझत उच्चछातता यथा भ्रदाति,त था कुरुत | एवं परि-
स्फुटमाभिहताः सन्तः ते प्रदीपस्यानयने कुवन्ति, यद्यगीता-
धा निवाग्याति तस्य तश्च नोदनायामयागालं मा निवारय
रत्यादिकं पूवरभाणितमेव दरव्यम . भणण त्ति ` गृदिषु प्र-
दीपमानयाति प्रज्ञाप्यमानषु यो व्रवीति, किमव सावदयघ्रव-
त्त कार्यसीति, तस्याग्र मिथ्यादुप्कृतसुणने कत्तव्यम् ` अ-
सह नि ` शरश गृहस्थः प्रदीपमानतु नच्छाति , ततः ' आदा-
यणपच्छायणमक्नगाईसु तत्त
{नः प्रच्छ द्य प्रदीपः स्वयमवानतव्यः।
श्श्रदमुत्तगाद्धं विवरीपुराह--
गिहिजातिं मग्गता, मिगपुरओ भई चोइओ इणमा ।
णाभागण मउत्त-मिच्छाकारं मणम अह ॥ ८१०॥
गृहिणां समीप ज्याति+-प्रदी पं सगपुरना खगाणां शररवता-
मरः याद कनजिकन्नादितः किमव सावद्यं कार्यसाति ? तता
सा गीताः ` इत्थ भणति `-अनाभागन मयदमुक्ल ततादं
मिथ्याकारं भर्णात , मिथ्यादुष्कृत प्रयच्छामीत्यथः ।
एमव जड परोक्ख,जाणति मिगा जहमिणा भणिओं ।
तन्थ पि चइत, सहसा णाभ।गओं भणइ ॥८११॥
स्वये नानर्यान्त , तता गतार्थ अन्य |
पुरता भणनन््ति--अतितम-अती- |
स्रगारामदशन मल्लगादि- ।
एवमेव यदि झगाणां पराक्षे गद गत्वा गृहस्था भाणित-
स्तथापि यदि त मगाः कथ्मपि जानन्ति यथा एतन साधुना
ग्रृहस्था भणितिः प्रदी पानयनाय प्ररितः, तत्रा उप्यपरण नो
दयमानः स तु भणात-सदसाकरारण अनाभोगता वा मयेद्- .
सुक्कं मिध्यादुष्छृतामति ।
गिदिगम्मि अनिच्छने, सयसवाणेड आवरित्तारं ।
जत्थ दुगाइ दावा, तता मा पच्छुकम्म तु ॥ ८१२॥
थ गृहा प्रदी पमानतु नच्छुति, ततः स्वयमभव मल्लकसम्पु
खन वा कप्परण वा कल्ये वा प्रदीपा भवति, तत्राऽपि यत्र-
गृह द्विकादयो छित्रप्रश्नतयों दीपाः , तता गरृादानयति ,
कुत इत्याह-' मा पच्छकम्म तु त्तः यत्रक एव दीपा भवति
तच्राऽपरप्रतापकरणलक्षण पश्चात्कम्म मा स्यादिति छत्व
ततः प्रदीपा नानतव्यः)
ततश्च--
उज्जीविएँ आयरिओ, मिदं अहगम्मि जीवियट्टी उ।
श्र.यरेए पतन्नत॒णा, नहीं य मयों य पव्वइतो ॥८१३॥
ज्यातिः प्रतिश्रये सति आचायों भरानि,हन्त किमिद भवता
कतम् , स प्राहद-क्तषमाश्रमणा ! अहमद्यापि जीवितार्थी, श्रतो
विलादिपरिज्ञानाथ मयन्थे कृतम् , तत आचार्यों मात॒स्थाने-
न तस्य प्रज्ञापनां कराति, हन्त स्मृत पव त्वं.कुता भवतो जी-
वित.यत एव कुःवेन् प्रव्रजितो न्रश्च-सन्मार्गपरि भ्रष्टः, सरत-
श्च संयमजीवितविरहितो भवात।
तस्सव य मग्गणं, वारणलक्खेण निति वसभा उ ।
भूमितियभ्मि उ दिड,पचचप्पय मो इमा मरा ॥८१४॥
तस्येव उ्यातिरानेतुः सखाधोर्मार्गेण पृष्टतो वारणलक्ष्यण
निवारणव्याजन बृषभा गच्छन्ति , ततो भूमिच्रिके उच्चा-
रप्रश्नचणका लभूमिरूक्षण दे सति प्रदीपे समपयत, * मो `
इति निपातः पादपूरण इयं मयादा सामाचारी ।
+ [भि [द ~ क कि
खरटशण व।एटयमायणश-गाहय नोक्ङ्लवण बाहिपडिलहा
वसएहि गहिय चत्ता, इयर पसादेंति कन्लाणं ॥८१५॥
यन प्रदीपानयनाय अविरतकः प्ररितो, यन वा प्रदीप आ-
नीतः, तस्य खरगटना कत्तंब्या , ततो5खों वेण्टिकां भाज-
नानि च गृहात्वा ' निक्खिवण त्ति ` वहिः स्थाप्यत, निगी- |
च्छास्माकं गच्छात् न त्वया कार्यम् | ततोऽसौ कैतवनिष्काशि- ।
ता वहिःस्थितः प्रतिलिखयति,प्रातिक्मणं च विदधाति | ततो |
।
"व- व्,
नऋ =. > अ => ~
=
चृपञ्चगद्ीतचित्ता इतरे सगा गुरु प्रसादयन्ति ततो गुरुव-
स्तं भूया ऽप्यन्योऽवि पशञ्चकल्याणक प्रायच्चत्तं प्रयच्छन्त ।
अथ कश्च वृषभा सगणं चित्तग्रहणं कुःवेन्तीव्याद-- |
तुम्हय अम्हय अद्रा, एवमकासी न केवलं सभया ।
खामसु गुरं पविसउ, बहुसुंदरकारओ अम्हं ॥८१६॥
आया; ! युष्माकमस्माकं च सप्पोद्िप्रत्यपोयरक्षणाथमेष
पवमकाचीत् , न कवलं स्वभयादव | अत आगच्छुत , येन
सर्वेऽपि गुरू क्षमाश्षमणं क्षमयामः,प्रविशतु बहुसुन्दरकारक-
प्रत्यपायरत्तकतया बदहुकट्याणकरा ऽस्माकं भूयः प्रतिश्रयम् ।
एवमुक्ला मृगा त्रुषभेः सह समागत्य गुरु प्रसादयन्ति । ततो
गुरवः वच्यमाणं बुवते-आर्या:'यूयर्माप निर्धर्माणः सञ्जाताः ।
( ५२५ )
यतः-
श्रन्ने वि विदवेहि य, अलमजो अहव तुब्भ मरिसेमि ।
तेसि पि होइ बलियं, अकजमेयं न य तुदंति ॥ ८१७
पव एवं कुवैन्नन्यानपि साधून् विद्रावयिष्यति-विनाशयि-
श्यति। अत श्रार्याः! श्ल -पयौप्षमस्माकमेतेन । साधवो ब्रुवते-
क्षमाश्चरमरः!न भूय एवं करिष्यति| पएकवारमपराध त्तमयन्तु
भगवन्तः। गुरवो भणन्ति-यदवे ततोऽहं युष्माकं न मषयामि,
परमतस्य पञ्चकट्याणकं प्रायश्चित्तं दीयते । एवमुक्के तेषा-
मप्यगीतार्थानां बलिकमत्यथं हृदय भवति । यथा-नूनमका-
यमेतदिति, न च पश्चाज्ज्योतिःस्पशनादो नाद्यमानास्तुद-
न्ति, प्रातनोदनया श्नन्यथा--उत्पादन्तीत्यथैः।
एसो विहीउ अतो, बाहिं रुद्रे इमो विही होइ ।
सावय तणय पडिणी-य देवयाए विही डाणं ॥८१८॥
पष विधिरन्तस्तिष्ठतामभ्यन्तरे प्रविष्टानामुक्कः । श्रथ बहि- |
स्तिष्ठतां विधिरुच्यते । निरुद्ध-स्थगिते दारे ग्रामादौ विकाल
वा तत्रापूर्वः प्रवेश न लभते इत्यादिकारणसम्भवे बहिः स्थि-
तानां यदि श्बापदभय स्तनकभयं वा भवति, तदा वच्यमाणा
यतना कत्तेव्या । यावदेवताया आकम्पनार्थ दिधिना स्थानं
कायोत्सगलक्तणे त्पणकेण कक्तेव्यामति ।
यतनामवाऽऽद-
भूमिषरदेउले वा, सिया वरणे व रहिय आवरणे ।
रहिए विज्ञा अचचित- मीस सचित्त गुरुआणा ॥८१६॥।
बहिस्तिष्ठतां यदि श्वापदादिभय, तथा भूमिगरदे दवकुल
मभि धानराजेन्द्रः ।
चा श्रावररे-कपाटं तन सहित तिष्ठन्ति। गाथायां प्राकृतत्वात् |
व्यत्यासेन यूर्वापरनिपातः । अथ सकपाट न पाप्यते, तत
आवरणराहिते ऽपि तिष्ठन्ति.दिशां वा विद्याप्रयोगण वन्धं वि-
बुधति,यतः श्वापदादयो न प्रविशन्ति, विद्याया अभावेऽचित्त-
कणिटकाभिस्तदभ्रास्तौ मिश्चरकरिरकाभिस्तदलामे सचित्त-
करिटकाभिरपि स्थगयन्ति । तदभावे “ गुरुआण ` त्ति गुरवो |
भगवतीमाज्ञां प्ररूपयन्ति । यथा-श्ाचायादीनां मारणान्तिक
उपसगे उपस्थित यः समर्थो भवति, तन यथासामर्थ्यं
तन्निवारण पराक्रमणीयमिति निर्युक्तिगा थासमासार्थः ।
अथैनामेव विवरी घुराह--
सकवाडम्मि उ पुच्वि, तस्सासइ आशणईति उ कवाडं । |
विज्ञाएं कंटियाहि व,अचित्तचित्ताहि ठगयति ॥८२०॥
पूर्व सकपाटे भूमिग्रहे देवकुल वा स्थातव्यम्, तस्या ऽसति
अकपाटे तिष्ठन्तः कपाटमन्यत श्रानयन्ति । श्रथ नास्ति
कपाटे, -ततो विद्यया द्वारे स्थगयन्ति, .तदभावे करिटकाभिः |
श्रथममांचत्तामिस्ततो मिश्रामिस्ततः सचित्ताभिरपि
स्थगयन्ति ।
एएसि असईए, पागारवई व रुक्ख नीसाए ।
परिखिव विज्ञ अचित्त मीससचित्तगुरु्राणा || ८२१॥
एतेषां भूमिगरदादीनामसति भ्राकार वाऽऽच्रात्तवा वृत्तवा
निश्चय निश्रां कत्वा तिष्ठन्ति । तत्राऽपि विद्यया परिक्षेप कु
सेन्ति। तदभावे कणिटकाभिर्यथाक्रममचित्तमिश्रसचित्ताभि
हि त, गुरवश्वाज्ञाप्ररूपणां कुवेन्ति ।
` राहभोायण
गिरिनइतलागमाई, एमेवागप ठयंति विजाई |
एगदग तिदिसिं वा, ठयेति अ्रसई असव्वत्तो ॥८२२॥
गिरि वा नदी वा तडागे वा श्रादिग्रहणाद्रत्तादिक च निश्रां-
रत्वा तिष्ठन्ति तेषां च यत्रैक एव प्रवशस्तत्र प्रथमतस्तिष्ठ-
न्ति, तदभाव यत्र दयार्दिशाः प्रवेशस्तत्र तदप्राप्तों यत्र त्रिषु
दिषु प्रवशस्तजाऽपि तिष्ठन्ति । तेषां चागमे प्रवेशमुख च
विद्यादिभिः स्थगयन्ति 'असई असव्वत्तो त्ति' प्राकारादि-
निश्राया पकप्रदेशादीनां वा अप्राप्तावाकाश वसन्तः सर्वतो
विद्याप्रयोगेण स्थगयन्ति-दिशावन्धे कुर्यन्ति । विद्याया
अभावे करिरकाभिः सर्वता कुर्वन्ति, तदभाव गुरवः आज्ञा-
प्ररूपण कुवन्ति ।
केन विधिनाति चेदुच्यते-
शा ॐ ० क, ॐ
नाउमगीयत्थ बलि- णे ताव तेसि च बलसारं |
घोरे भयम्मि थेरा-भणंति अविगीयथ्रत्थं ॥ ८२३ ॥
ज्ञात्वा कमप्यमीताथं वलिनम्-समथम् , यद्धा-श्रविजा-
नन्तस्तषां स्वसाधूनां पराक्रममादान्म्यं कस्य कीदशः
पराक्रमा विद्यते इव्यवमजानन्त इत्यथः । घार रौद्रे स्वा-
पदादिभये स्थविरा श्राचा्या श्रविगीतस्थेय स्थिरीकर-
णार्थ भरन्ति ॥
कथमित्याह (--
# ॐ के क कप
आयरिए गच्छम्मि य, कुलगशसंधे य चेइयविणासे ।
आलोइयपडिकंतो, सुद्धा ज निज़्रा विउला ॥ ८२४ ॥
चष्ठीसप्तम्योर थ प्रति अभेदः । श्राचार्यस्य वा गच्छस्यवा
कुलस्य वा गणस्य वा चेत्यस्य वा विनाश उपस्थिते
सति सदख्रयाधिप्रभरतिना स्ववीयेमद्दयापपता तथापरा-
क्रमणीय यथा, तेषामाचायादीनां विनाशा नोपजायेत ।
ख च तथा पराक्रममाणा यद्यपराधमापज्ञस्तथा<5प्यालो-
चितभ्रतिक्रान्तः शुद्धः , गुरुसमक्तमालोाच्य मिथ्यादुष्कू-
तप्रदानमाच्रशेवा ऽसो शुद्ध इति भावः। कत इत्याह-
यद्यस्मात् कारणात् विपुला महती निजरा कमच्तयलक्तणा
तस्य भवति, पुष्टालम्बनमवलम्न्य भगवदाज्ञया प्रवत्तमा-
नत्वादिति ॥
सोऊण य पननवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं ।
सीहाई चव तिगं, तवबलिपदे ववदराणं ॥ ८२५ ॥
पर्वविधां प्रज्नापनां श्रुत्वा यः कृतकरणसहस्प्योघिप्रभ्ृ-
तिकस्तस्य गदाया श्रादिशब्दाल्नगुडस्य वा ग्रहणे भवति,
गृहीत्वा गदादिकमसो गुरुन् व्रवीति; भगवन् ! शरत वि-
भ्वस्ताः सर्वै ऽपि साधवः, अह सिहा5<5दीनां निवारण करि-
ध्यामि । ततः खक्ता साधवः, स पुनरकाकी गदाहस्तः भ्र
तिजाग्रदवतिष्ठते । तस्य च प्रतिजाग्रतः सिंहत्रिक॑ समाग-
च्छत् आदि रच्दाद्धयाघ्रादि परिग्रहः । ( वृ० ) ( श्रास्मिन्
विषये ' मूलगुणपडिलेवणा ' शब्दे ऽस्मिन्नव भागे व्या-
घ्रद्ान्तो गतः ) ईदृशस्य कृतकरणस्याभावे यस्तपोव-
लिको विङ्टतपसा बलीयान् क्षपकः स देवताया श्राकम्पन-
निमित्त स्थाने क्रायोत्सर्ग कराति पतद्रग्रता भावयिष्यते ।
( ५२८ )
अअ भधानराजन्द्रः।
श्रथ तन कृतकर णुन साधथुना प्राभातकप्रातक्रम्णवलाया |
यथा गुरुसमक्तमालाचत तथा पघ्रातपादयात-- |
हिंछिम्मि पुरा सीद, खुडयाइ इयाशि मदथामो मि । |
तिन्नावाए सीहा, राति पहओ सयान मओ ॥८२६॥ '
क्षमाश्रमण ! पुरा-पूर्वमह प्रवलशरीरतया खुडकामात्रशेव
सिद हन्ताऽस्मि, इदानी मन्दस्थाप्ता(स्मि ततः 'तिन्नावाए |
त्ति विभक्लकिव्यत्ययात्तिप्वापातधु गदाघातन सिंहों रात्रा
मया प्रहतः पर न ऋलताउपद्राण;, एयमालानज्य मध्या दुष्क
त दत्तवान् | एतावतव त्रासा <दुश्पारणामत्वातू !
निंतदि तिन्नि सीहा, असने नाइदर दरे य |
निग्गयजीवा दिद्ठा, स चात्रि पुटा इम भणइ ॥८२७॥ |
प्रभाते निगतः-पन्थाने गच्छद्धस्रयः स्विहा निगतजीवा |
रणाः । तत्रेक आसन्न. ठताया नातदर, तृनाया दर |स |
चाऽऽचायः पृष्ठ।। आये | किमये सदन्त विपल्नमवलाक्यत |
ततः इदं भणान--
मा मरिटिति ता गाद. न आहश्रा तण पढमओ दुर |
गादतरं बितितदेश, न य में नाये जहःउप्मा मो।८<२८॥
भगवन ! यदा प्रधमः तिद आयातस्तदा मा मरिष्यतीति
ऊत्वा गाढ़े नाहतः तनासो दुर गन्वा विपन्नः. छितीयस्तु स
एवाये भूयोष्प्यायात इति बुद्धया गाढतरमाहतः तनासो
नासन्न नातिदूर, ततीयस्तु छितीयादपि गाढतरभाहतस्तना
ऽसो, इत्यासन्न एव भूभाग गत्वा सुतः। नच मया ज्ञाते
यथाऽयमन्यान्यसिदः समागतान स एवति |
इंदशस्य कृतकर णस्य भाव दवतायाः कायान्सगः कक्तव्यः।
सच केन कियद्वा काले यावदित्यत्रोच्य त--
ख़मझ। व् दवयाए, उस्सग्ग करई जाव आउड्डा |
रक्खापमे जा पभातं, सुवतु जणो सुवीसत्था ॥८२६॥
क्षपको वा दवताया आकम्पननिमित्त कायोत्सग कराति, |
यावद्सावाव्रत्ता श्राराप्स्ति सती त्रत--भगवन् ! पारय
कायोत्सर्ग; यावत् ध्रभात तावडे श्वापदाद्युपसर्ग रक्तामि। |
खपन्तु यतयः खुचिश्वस्ता इति । बु० १ उ० > प्रक० । |
( रातौ वस्तादिधारणनिषेधः “ उवदि श«ब
१०७२ पृष गतः ) ( विहारविषयः "विहार शब्दे वच्यते )
यादशं आहारो रात्रो रत्तितु शक्रयत-तद् भेच्यद्ध, र४भिहि- '
तम् , नवर कवलमिद कल्प अध्वकल्पविषये तद्वाऽ<ह-- |
अग्गहणे कप्पस्स उ,गुरुगा दुविधा विराधना णियमा !
पुरिसद्राणं सत्थ,णा़ ता वी ण गिण्हिज़ा ॥ €४६॥
चिन्न च पथि यद्यध्वकस्पे न गृह्णन्ति तदा चतुर्गुरवः, द्वि- |
विधा चात्मसंयमे विराघना । भक्ताला छ्युधात्तस्य परिता-
पनादिना आत्मविराधना, सयमावराधनातु ज्ञधात्त भसन्नध्व- |
कट्प विना कन्दादिग्रहरंं कुयौत; श्रता गद्दी तब्यो 5घ्वकल्पः | |
एमिः कारणेने गृहीयादपि,यदि पुरुषाः सरवे भप संहननश्चृति
चलवन्तः, अध्वा 5प्यकर्देवलिको वा,सार्थ5पि प्रभूतभेक्तम वा-
त्यत, तदपि भ्रवलाभम , सार्थश्व भद्रकः कालभाजी काल- |
स्थाखाच। प्वमादीन का रणानि ब्वात्वा छिन्नपथ न गृह्लीयात् ।
द्वतावयभाग |
स पुनरध्वकल्पः कीदशो ग्रहीतव्यः ? इत्युच्यत-
सक्ररधत-गुलमीसा, अगंथिमा खज्जुरा व तम्मासा ।
सत्तू पिष्पगो वा, घतगुलमिस्सं खरेणं वा ॥ ६४७ |
शकरया घृतेन च मिश्राणि अग्नन्थिमानि कदलीफलानि
खरण्डाखरणडीकृतानि गदयन्त । अशथ शर्करया न प्राप्यन्त
गुडन घृतेन च मिश्रितानि, पषामभावे खर्जूराणि घृत
मिश्रांण , तदश्राप्ो सक्रकान् घृतगुडमिश्रान् , तदलाभे
ण्याको5पि । घृतं न प्राप्यत ततः खरसेज्ञकेन
मिश्रितः पिर्याकः।
एतषां ग्रहणे युणमुपदशैयति-- |
धावा विहणातं खुह, न य तरह कर।त एते खज्ता ।
सुक्खादख व लभे, सामातम-द्।तक्रचुष् वा ॥ €४८॥
एतानि चअर््रन्थिमादीनि खाद्यमानानि स्तोकान्यपि चुधं
घ्रन्ति. न चतानि भुक्लानि सन्ति तृष्णां कर्वन्ति.्त ईडशो-
+ध्वकर्पो गृह्यत । ईटशस्यालाभ शुष्काद नः- शुष्क कूरः, तद्-
लाभे समितिमाः-शुष्कमए्डकाः, तदप्राप्तो दन्तिकचुरैम्-
तन्दुललोट्टः । यद्वा--दन्तिकम्-तन्दुलचुरौः, चुणेम् तु-
मादकादिखाद्यकचूरिः । पतत्स्वैमपि घृतगुडेन मिश्रयित्वा
स्थापनीयम्। यदि शुद्धे भक्क लभन्ते ततो नाध्वकल्पं भुञ्जते ।
यावन्मात्रण वा न्यून शुद्ध लभन्त तावन्मा्रमध्वकल्पात्परिः
भुञ्जत | अनुपस्थापितेभ्यो वा प्रयच्छन्ति ।
तिविदाऽऽमयभसज्ञा, वणभेसज्ञा य सप्पि मह पड ।
सुद्धासात।तप।ररणए, जा कम्म णाउमड्राण ॥६४७६॥
विविधाः-तिप्रक्रारा वातजपित्तजग्लष्मजभदाद् ये आमया
रागास्तेपां यानि भषजानि भेषज्यानि, यानि च बणस्य भै-
पज्यानि सप्पिमेधुमिश्रारि वा वषु दत्त्वा पट्टेवेध्यन्त तानि
गृह्णन्ति, सर्वमप्यतदध्वकर्पादिकं प्रथमतः शुद्ध, तदभावे
शुद्धमपि त्रिपरिरयं यतनया पश्चकपरिहाण्या ग्रहीतव्यम् ,
यावदाघाकमति । प्रमाणतः पुनरध्वान स्ताकंवा बहुं वा
ज्ञात्वा तदनुसारेणाध्वकटपोऽपि ग्रहीतव्यः ।
एवे यदा स्वमप्युन्पादितं भवति तदा कि विधेयमित्याह-
अद्भाण पविसमाणों, जाणगनीसाएँ गाहए गच्छं ।
. अह तत्थ न गादहिज्ञा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥६५०॥
अध्वान प्रविशन् सूरिः भ्रथमत पच यस्य गीता्थस्य
निश्चयान्तं पुरस्कृत्य गच्छमध्वकल्पं त्रायति, अथ तवा-
ध्वप्रवशे गच्छं न ग्राहयति ततश्चतुमौसा गुरुका भवेयुः ।
अतो गीता पुरस्कृत्य गीतार्थप्रत्ययानमित्तमन्तरा<5नन््तरा
क्रालिचिदशरपदानि परित्यजन् सूरिगच्छमध्वकलूपं ग्राहयेत् ।
पर्वयि घन विधिना निगतानामये विधिः ।
सभषए सरभेदादी, लिंगविश्लोग च कराड गीयत्था |
खरकम्मिया व होउं,करेंति गुक्ति उभयवग्गे ।६५१॥
यत्र सभयं तत्र वृषभाः सख्वरभदवरेमेदकारिणीभिरलिका-
भिस्तादश स्वरं चरा च कत्वा गच्छन्ति, अथवा-यथेते संय-
ता इति न ज्ञायन्ते नथा लिङ्गावियोगे कृत्वा गीताथा गच्छु-
न्ति। खर कर्मिका वा सन्नद्ध परिकरा यथा सभये गृहीतायुधा
भूत्वा उभयवर्गे सा घुसाभ्वीरक्तणे गुर त्तां कुवन्ति ।
है
४
न
किञ्च-
जे पुव्यं उवकरणा, गहिया अद्भाणे पविसमाणेिं ।
|
|
जं ज जोगगे जत्थ तु, अद्वाणे तस्स परिभोगो॥६५२॥ |
यानि पूव धमकर णादीन्युपक्ररणानि अध्वाने प्रविशद्धिग- |
| तषां मध्य यद्यस्मिन् काल याग्ये तस्य तदाऽध्वनि |
चरिभागः कत्तव्यः।
सुक्वादणो समितिवा, भ्ुंजसुणोदेहि उण्हविय भज ।
मूलुत्तर विभासा, जतिङणं णिग्गंत विवेग॥।६५३॥
इह लाटदश अवश्नावरणं कालिकं भरयन्त, यदाह चूर्णि- |
११
कृत्--' अवसावणं लाडाणे कंजिश्े भरणडइ त्ति, / तता
ऽवश्रावसनोप्णादकन वा शुष्कौदने शुष्कं समितिमांश्चाप्ण-
चित्वा मुहुः भाजनाधमुष्णीकृत भुञ्जीत ` जइऊणे निग्गए-
चिवेगा त्ति ` एवमादिकथा यतनया यतिन्वा यदा अध्यनो
निरीतास्तदा तमध्वकल्पमभुक्क॑ भ्रुक्कोद्वरिते वा विचिचान्त
परिष्ठापयन्तीत्यरथ:।' मूलुत्तर विभास त्ति मूलात्तरगुणविपया
विभाषा कत्तेव्या | तद्यथा-शिष्यः पूच्छाति, यः अध्यकल्प
आधाकर्म्मिक
रगुणापधाती,परिवासितत्व तु मूलगुणापधघाती,ततः किमष
भुज्यताम्? उत प्रतिदिवसं लमभ्यमानामाधाकम?,अचाच्यत-
अकरलप्यो भुज्यतां नाऽऽधाकमे।
ननु दाषद्रयदुष्राऽसो ? सूरिराह--
कामे कम्मातु सो कप्पो, णिसि च परिवासितो।
तदा वि खलु से सओ, णय कम्मं दिणे दिशे ||६५४॥
कामम--अनुमते यदसावध्वकटपकं तावदाधाकर्म्म, अपरं
"च निशि रात्रा परिवासितः तथापि खलु निशितं स एवा-
ध्वकरस्पः श्रयान . न त्वाध्वाकरमम दिन दिन लभ्यमाने वरम् !
कुत इति चदुच्यत--
अधाकम्मा सति घातो, सई पुव्व हते त्तिय ।
येउते कम्म मिच्छति,णिग्धिणा ते ण॒ मे मता ॥६५५॥
यदाधाकर्म दिन दिन लभ्यत तत्र असकृदनकवारं जीवाप-
धातः, अध्वकल्प तु यद्राधाकम तत्र सक्दकमव वारं जीवो-
पधघातः। पवेहताश्च त जीवाः न दिन दिन हन्यन्त। तता ऽध्व- |
कल्प एव वरं नाऽ ऽध्राकर्म | य पुनः अविदितप्रवचनरहस्या
श्रध्वकल्पे मूलात्तरगणापघ्ातिन मत्वा न भुञ्जतः च्राधा-
कर्म तु कवलात्तरगुणापध्रातकमिति मत्वा दिन दिने भोक्तु
मिच्छान्त,त श्रत्यन्तनिघृणाः सच्वषु । अत पव नत मम स-
मता इति |
, भैक्षद्वारे एव विशेष दर्शयति--
कालुट्राईमादिसु, भंगेसु जतंति वियभंगादी ।
लिंगविवेगो काउं, चुडलीए मग्गतो भसए ॥ ६५६ ॥
कालोत्थायिप्रभ्नतिषु भड्ञघु सभवति तत्र द्वितीयभङ्गमादौ
कृत्वा यतन्त, तथाहि-कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्था-
यी कालभाजी इव्यत्र प्रथमभङ्ग नास्ति यतना सर्वथाऽपि श- |
त्वात् । द्वितीयादिषु सभवति तत्र-द्धितीयभज्गे अकालभो
जीति रत्वा -स्वलिङ्गाववेकं विधाय रात्रो परालिङ्गन गरृहणन्ति।
चतीयचतुधेमद्गयोरस्थानस्थायीति कत्वा यद् गवादिभिरा-
क्रान्तं स्थानं तत्र तिष्ठन्ति। पञ्चनापदिषु चतुषु भरेषु अकाल
व |
पारत्रालतश्च स तावदाधाकामकत्वनाकत्त- |
॥
( ५२७ )
अभिधानराजन्द्रः
7वशात रूत्वा का लकाय त 2न्तशचु डालकया सस्ता रक-
गाटमभोयरण
भूम्यादिषु विलादिकं गवपयान्त, , नवमादिषु षोडशान्तप्वष्टसु
भक्गषु अकालो त्थायी6त कृत्वा राजो गन्तव्य उपस्थित मार्गतः
पृषतः स्थिता गच्छन्ति। क्र सतीत्याह-अभय यदि पृष्ठ-
ता गच्छतां स्तनादिभये न नवत, भक्कार्थ न तु । यः साथों-
5कालस्थायी तत्र निर्भय पुरतो गत्वा तथा सर्मादिशन्ति
यथा समदि सार्थस्तत्र पराप्नाति, वसति च मध्य गृहणाति ।
सावय अप्पट्टकड, अड्डा सक््खे सय जोइजयणाए ।
तण वयणवडगर, तत्तो व अवाउडा होति ॥ ६४७
श्वापदभय ऽन्यः साथिकरगात्माथ या चान्तिपारच्तपः स्तस्तत्र
तिष्ठन्ति, तदमाव ` अट्ट त्ति साधनामर्थाय कृत चृत्ति-
रक्तप तान्त, तदभाव * खक्ख सय ` त्त शुष्ककणिट-
कादिभिः स्वयमव ब्रात्तिपारत्तपे कुवन्ति ' जाइजयणाए ` क्ति
यदि एवापदभय ज्यातिषणा आंग्रना काय ततः परक्तमस्चि
सवन्त | अथ चत साचितं न प्रयच्छन्ति ततः पर्क्रतमवास्च
गदित्वा प्राशुकदारूमिः प्रञ्वलयान्त, यत्र त॒ स्तनभय तत्र
तथा वचनवटकर चागाडम्वरं कुर्वन्ति यथा त स्तना भयादेव
शीघ्र नश्यान्ति अथ यदि त स्तनाः समागच्छन्ति तदा तद-
भिमुखीभूय प्रचत्ता भवान्ति पवाचिघे वाघ कुवाणा अध्वाना
निस्तरन्ति | अधायं व्याघ्राता भवत्।
सावयतणपरट, सत्थ फिडिया न उ जति हवेज़ा ।
अतिमवहगा विटेय,शियद् ण य गोउलं कहणा ॥६५८॥
महारव्यां {वटादिभिः श्वापदः स्तनेवी साथः प्रारब्धः सन्
दिशा दिशि प्रनण्रः, साथवा 5प्यकां दिशे ग्रृहीत्वा वचिप्रन्ठाः,
तच साथी न स्फटिता यदि भवेयुः,ततो दिग्भागमजानन्तो
वनदेवतायाः कायात्सग कुर्वन्ति साच बाजिकां विकुर्वती
प्रान्तिमायां च प्रजिकायामुपकरणं वरणिटिकां विस्मार्यति
तस्या ग्रहणा साधवा निवल्य यावत् तत्रागताः तावहो-
कुल न पश्यन्ति, ततो गुरूणां समीपे कथन यथा नत्ति सा
बजिकेति ।
ददमेच स्पष्टयति--
अद्भाणम्मि सहते, वईतो अतरा तु अडवीए ।
सत्थे तेण परद्र, जो जत्तो सो तता नट || ६५६ ॥
संजयजणो य सव्वो, हंचि सत्थिल्नयं अलभमाणो ।
पथं अजाणमाणो, पविसेज महाडविं भीम ॥ ६६० ॥
अध्यनि माति वर्तमानः साथः सर्वोऽप्यन्तरा महाटब्यां
स्तने प्रारब्धः, ततश्च यो यत्र वततेसच तत एवं नण्रः-
पलायितः सयत जनश्च सर्वः कथचिदाप साथिकमलभमानः
पन्थान वा अजानन् भीमां मटारवीं प्रावशत् |
ततः कि कतंव्यमित्याह--
सव्यत्थामेण ततो, वि सव्प्रकञ्जुज्जुया पुरिससीहा ।
वसभा गणीपुरोगा, गच्छं धारिंति जतणाए ॥६६१॥
ततः सवस्थाञ्ना-सवादरेण चृषभाः-सवकार्योदयताः सक-
लगच्छकार्यैकवद्धकन्ताः पुरुर्षालहाः सातिशयपराक्रमतया
पुरुषाणां मध्य सिहकटपाः गणिपुरोगाः आचार्यपुरस्सरा
इईंदश्यां विषमद्शायां प्रपतन्त गच्छं यतनया धारयान्त ।
^ ( श्र).
श्भिध्रानराजेन्द्रः।
राहभोयण
तामेवाह--
जद तत्थ दिसामूढो, हृवेज़ गच्छी सबालबुड्ो उ।
वणदेवयाए ताहे, णियमपरगपं तह करंति ॥ & ६२ ॥
यदि तव्रारव्यां सवालच्रद्धो ऽपि गच्छ दिगमूढो भवत् त-
तो नियमन-निश्चयन प्रकम्पा-दवताया आकम्पा यस्मादिति
नियमप्रकम्पः-कायान्सगशस्त वनदेवताया आकम्पनाथ तथा
कुवन्ति यथा सा श्राकाम्पिता सती दिग्भागे पन्थान वा
कथयति।
यतः-
सम्मदिी देवा, वेयावचं करति साहूणं ।
गोकुलविउव्वणाणए, आसासपरंपरा सद्धा ॥ € ६३ ॥
य सम्यगद ए्यो देवास्त साधूनां वयाच्रच्ये भक्रपानापदा-
नर्णदना दिव्यापदादद्धरणान्मकं कुवन्तीत स्थितिः। तत
सम्यगदणष्रिदेवता काचिद् गाकुल विकुबती साधूनां तदश-
ननाश्वासः, ततस्तया दवतया साधवा गाकुलपरंपरया
ताचन्नीता यावज्जनपदं प्राप्ताः । तया पव नीता अपि शुद्धा
निर्दोषाः । हि
श्रमुमवाथ साविशषमाह--
सावयतणपरद्र, सत्थे फिडिया न उ जई हवेज्जा।
अंतिमवहगा विंटिय,णियट्ट ण य गोउल कहणा।।६६४॥। |
श्वापदैः स्तनेश्च प्रारब्धा इतस्तता गतास्ते च साथा न |
स्फिटिना यदि भवयुः ततः कायोत्सगेंण दवतामाकम्पयत् , |
श्राकरम्पिता च काचित्पन्थाने कथयत् ब्रजिकाः परपरया
विकुठ्यं जनपदं प्रापयत् , श्रन्तिमायां च ब्रजिकायाम् उप-
करणविरिटकाम् उपाध विस्मारयत् , तदं साधवो निवर्च्य |
यावत्तत्रागतास्तवाद्राकुलं न परयान्ति । तता गुरूणां समीप
= [न अकन्या 53 [> = [4
कथन , यथा नास्तिसा बजिकति। शुरुभिश्च ज्ञात तथेव
सर्च देवताकृतमिति ।
भंडी वहिलगभरवा-हिगेसु एसा तु वष्मिया जतणा। |
ओदरिय विवित्तेसु य, जयण इमा तत्थ णायव्वा॥६६५॥ |
भगडीवहिलकभारवाहिकेषु-सार्थष्वषा अनन्तरोक्का यतना
वर्णिता । अथोदरिकेषु विविक्वेषु च काप्पेटिकेषु इयं यतना
ज्ञातव्या ।
तामेवा55ह--
ओदरियपच्छणासइ, पच्छयणं तेसि कंदमूलफला ।
अग्गहणम्मि य रज्जु,वलंति गहणं च जयणाए।।६६६॥
आगाढ़े राजद्धिष्टादिकायं श्रौदरिकादिभिरपि सह मम्य-
माने पथ्योदनस्य शम्बलस्याभावे यदि तेषामौ दारिकादीनां
कन्दमूलफलाद्याहारो भवेत् , ततः साधूनामपि तमेवाऽऽारं
स्वये प्रयच्छन्ति, य च तत्रापरिणतास्ते कन्दादि न गरृहन्ति ।
अग्नहण च ते साधिका श्रपरिणतानां भीषणा रज्जु बलय- |
न्ति। ततो यतनया ग्रहणो कुवैन्ति।
इदमव स्पष्टयाति--
कंदाइ अभजंते, अपरिणए सत्थिमाण कहयंति ।
पुच्छा वेहासे पुण, दुक्खिहरा खाइउं पुरतो ॥ 6६७ ॥
अपरिणते कन्दादिकममु जाने वषाः सार्थिकानां कथयन्ति
एतान् तथा भावयत यथा खादन्ति ततस्ते सार्थिका रज्जु
वलन कूर्वन्ति,ततो गीता थाः रतसङ्कताः पृच्छन्ति । कथयत
किमताभी रज्जुभिः प्रयोजनम् ? सार्थिका भणन्ति- थये
कनावारूढा श्रता यो ऽस्माकं कन्दा दीनि न भक्षयति तं वय- _
मताभिर्विहायसि लम्बयामः, इतरा तस्य बुभुत्तात्तस्य षु-
रतः खादितुं दुष्करं न वयं भक्तयितु शक्नुम इति भावः।
इहरा वि मरति एसो, अम्हे खायामो सो वि उ भणण |
कंदादि कज़गहणे, इमा तु जतणा तर्हि दाति । € ६८॥
कन्दा दीन्यभक्तयन्नितरथाऽप्यस्यामरव्यामवश्यमेव च्रियते
अतो विहायसि लम्बनन तं मारयित्वा सुखनेव वयं भक्तया-
मः, इत्युक्ता साऽप्यपरिणता भयन कन्दादिभक्तण करोाति।
एवमादिषु कार्येषु कन्दादिग्रहणे भ्राता इये यतना भवति।
तामेवा ६5ह-
फासुगज!णिपरित्ते, एगद्ियवद्धभिन्नभिषे अ |
बद्रट्धिए वि एवं, एमेव य होड बहुबीए ॥ &६& ॥ -
एमव होई उवरि, एगड्धिय तह य होड बहुबीए |
साहारणस्स भावा, आईए बहुगुणं ज च ॥-६७० ॥
द श्रपि व्याख्यातार्थ।
पानकयतनामाद-
तुबरे फले य पत्ते, रुक्खसिला तुप्पमदणादीसुं ।
पासदण दशे पवात्, आतवतत्ते वह् अवहे ॥ ७७१ ॥
एपा5पि गतार्था गता श्रशिवविषया यतना ।
श्रथावमोदयैविषयां यतनामाह-
श्रमे एसणसोहिं, पजहति परितावितो दुंगुछाए ।
अलभंते वि थ मरणं, असमाही तित्थवोच्छेदो ॥६७२॥
अवमोदारिकं विज्ञाय श्रनागतमव द्वादशभिवर्षैनिगेच्छान्ति
ततश्च गुवीज्ञादयो दोषाः | तत्र च तिष्ठन् जुगुष्सया छुधा
परितापितः सन्नषणाशुद्धि प्रजहाति । | अथवा--भक्कपानम-
लभमानो मरणे प्राप्नाति, एवं चान्यान्यसाघुषु न्रियमाणेषु .
तीधस्य व्यवच्छेदो भवति ।
यत पवमतः-
श्रोमोदरियागमणे, मग्गे असती य पंथजयणाए | ,
परि पुच्छिरुण गमणं, चउव्विहं रायदुई च ॥ ६७२ ॥
श्रवमोदरिकायां गमने भ्रात पूर्वं मार्गण. गन्तव्यम् , मार्भ-
स्याभावे पथाऽपि कि छिन्नः अच्छिन्नो वाऽयं पन्था इति प-
रिपृच्छुध यतनया अशिवद्धारोक्नया गमने विधेयम् । अथ |
राजद्विटदवारं तच्च निर्चिषयाादभिधक्यमारमभेदेश्चतुर्विघम् । | |
तत्र स राजा कथे प्रद्धेपमापन्न इत्याशझ्ावकाशमबलो- |
क्यदमाह-
श्र रोहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा । |
श्महिमरञ्रिट्रद रिसण, बुग्गाहणया अणायारे ॥६७४॥
अवरोधः श्नन्तःपुरे तस्य लिङ्गस्थन केनाप्याघष्रणा कृता, रा-
शो या अभ्यर्हितो गोरविको राजामाल्यादिपु्र. शक्तो दीक्षितो
भवत् , साधुवेषेण वा केचिदभिमरा परविष्ठा,निष् वा साधु-
दर्शन स्थयमेव पुरोहितप्रभतिभिर्वा' व्युद्स्राहिता मन्यत, से-
क्
॥
|
॥
|
|
हि
राइमोयण
प्रयुञ्जीत । है
_निव्विसउ त्ति य पढमो, बितिओ्ो मा देह भत्तपाणं से ।
ततितो उवकरणहरो, जीयचरित्तस्स वा भेदो ॥६७५॥
प्रथमा राजदरडा निर्विषयाज्ञापनलक्षणः, द्वितीयो माभ- |
क्रपानममीषां प्रयच्छतत्यवे लक्षणः , तृतीयः 'पुनरूपकरण- |
इरः, चतुधा जीवितस्य चारित्रस्य वा भेदः क्तव्यः ।
एवंविध राजहदिए आज्ञातिक्रम कुर्वाणानां प्रायाश्चत्तमाह-
गुरुगा आणालावे, बलियतरं कुप्प ` पढमए दोसा ।
गिणहंत देत दासा, वितिततिचरिमे दुविहमभयो ॥६७६॥
येन राज्ञा निर्विषयाज्ञातिक्रमे राजा वलिकतरम--गा-
हतरं कुष्यति: एष प्रथमभेददोषो ऽभिहितः । दितीयतृती-
यभदयोः-यत्र राज्ञा प्रामनगरादिषु भक्कपानमुपकररणं वा
खारत तत्र य साथवा गृह्णन्त, यच गृहस्थाः तषा प्रयच्छ
न्ति तषामरुभयषामाप दापा-ग्रहरणाक्षरणाद्या भवान्त।च-
रमश्चतुर्थो भदो भवति जीवितमेदः, चारित्रभदश्चलयः ।
अथ निर्विषयाज्ञप्तानां गमनाविधिमाह-
सच्छंदेण य गमणं, भिक्खे भत्तइणे य वसहीए |
दारे ठियो निरुम्भति, एगड्डठितो व आणाए ॥६७७॥ |
यत्र राज्ञा भणिताः स्वच्छन्दे गच्छन्तु भवन्तो नाहे गच्चु- |
तां किमपि निरोधं कुर्वे, तत्र चत्त भिक्तार्थन वसतिविषयां
च सामाचारी न परिहारयन्ति। अथ द्वारे-ग्रामादिप्रवश-
मुख स्थिता राजपुरुषवर्गः साधून् भिक्षागता न्निरुणद्धि, =
कत्र वा सभादवकुलादों स्थितः साधून् भुक्कानात्मसमीपे
श्रानाययति; ततो वक्ष्यमाणां यतनां कुबन्तीति नियुक्किगा- |
थधासमासार्थ। _ 4 |
साम्प्रतमिदमेव व्यक्तीकु्न्नाट-- |
सच्छंदेण उ गमणं, स्यं व सत्थेण वा5वि पुव्वुत्त ।
तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथर वा पणगहाणी ॥ ६७८ ॥ ।
यत्र राहा स्वच्छन्देन गमनमनुज्ञातं तत्र स्वयं वा साथै
न वा सहिता गच्छन्ति, पूर्वाक्नामहबा5शिवद्धार ओघनियु- |
क्रो वा भरितं भेत्त पट्काययतनादिकं कत्तव्य, नवरे तत्र
स्वच्छन्दगमन उद्मादिशुद्ध भक्कपानं व्राह्यम् , असंस्तरण प-
आकपरिहारया गृह्णन्ति । अथ राजा मा अज्रैव जनपदे
कचित्प्रदश निलीय स्थास्यतीति बुद्धया परुषान् सहा
यान् प्रयच्छन्ति, यूये ग्राम प्रविशत तत्र भिज्ञामटित्वा
भुक्त्वा च प्रत्यागच्छत , वयमिहेव ग्रामद्धारे स्थिताः प्रती- |
क्ञामहे । ततस्ते तत्र स्थिताः यो यथा साधुः समागच्छ- |
तितं तथा निरुम्भन्ते यावता सवे मिलिताः। अथवा-
राज्ञपुरुषाः सभायां देवकुले वा स्थिता ब्रुवते, यूयं भिक्ञा-
मटित्वा गृदीत्वा चह समागच्छत, श्रस्माकं समीपे समु- |
पदिशतेति ।
ततश्च--
तिण्हेगयरे गमे, एसणमाद्सु होति जतियव्वं । `
भत्तदुण थंडिल्ले, असती वसहीएँ जं जथ ॥ ६७६ ॥ |
याणां प्रकाराणामेक्रतरास्मिन गमने एपरसायाम श्मादि- |
१३३
{ ४२६ )
भिधानर।जेन्द्रः ।
यतो वा कयाचिदविरतिकया सममनाचारे प्रावस्तव- |
मानो दष्टः | पवमादिभिः कारणैः प्रद्धिष्ट इत्थं चतुर्विधं दण्ड
ल्द्र्ड्। राह भोय
शब्दावुद्रमात्पादनयोश्च यतितव्यम् । भक्ताश्रन्तु द्वया रा-
द्यगमनयामरडल्यादिविधिनव कुर्वान्त | तृतीये तु गमने रा-
जपुरुषलमप भुञ्जानानां न मरडल्वा दि नियमः । स्थरिडलसा-
माचारी तु त्रिष्वपि दापयन्ति, राजपुरुष लमीपे स्थिता वा
कुरुकुचा कुवान्त। यांद ते ब्रुवी रन अस्मत्समीषे वस्तव्येत-
ता वसतावलत्यां सत्राटपदोषनरे तत्र निवसन कत्तेव्यम ।
अथ प्रकारत्रयमव व्यक्तीकुबेन्नाह--
सच्छरुआ। य एक, बितिय अण्णत्थ भ।तिहं एह ।
ततिए भक्खं घु, इह अजद तीसु वी जतणा ॥६८०॥
एक स्वचन्दतो गमनम् , द्वितीयं पुनरन्यत्र भुक्त्वा इह स-
मागच्छुत, तृतीयम् इह समागत्य भाजनं कुरुत । एषु त्रिष्व-
पि भक्ञादियतना कन्तव्या ।
बेतिरृज्ञए ब मुचति, आणावे तं च तल्नपदे |
अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसिद्टि अणुच्छ ज अन्ने ।६८१॥
वाश दः प्रक्रारान्तरापन्यास । कश्थिदनिप्रान्तः स द-
तायान साधून मुश्चाति । किमुकं भवति । साधूनां भिक्षाम-
टता राजपुरुषान् दष्टा पृष्ठतः स्थिता स्थातुर्हिएडापयति ते
च यद्ुत्सुकायमाना अनपणीय ब्राहयन्ति। यदि वा-स रा
जपुरुष एकत्र स्थान साघून्निरुध्य घाल्लकभोजनमानाय्व
ति, यथा स्वैऽप्यतदाहारयत ततो 5सौ बक्कब्यः । श्र
स्माकमुद्गमादेशुद्ध ग्रहीतु कर्पते | एवमुक्का यद्युत्लंकलय ति
ततो भिक्तां हिस्डन्त, अथ नोत्सेकलयति ततो अनुशि-
पर: कत्तव्या । तथापि माक्कमनिच्छुति यच्चोलकम् अज्ने पि-
रयाकदापान्नादि तद् गृह्णन्ति ।
पृच्य च उवक्खाडय, खीरादी वा अणिच्छे जं दिंति।
कमटगभुत्त सरणा, कुरुकुय दु वह वि दवण ॥&८२॥
अथवा-चाज्लके आनीत तन्मध्याद् यत्पूवमान्मा तेरुप-
स्रत राद्ध क्षीरद्ध्यादि वा तद्ध॒ञ्जत, यदि पूर्वराद्ध नेच्छति
प्रदातु ्रवात च, यदहं भोजयामि भणाम वा तत् समुद्दि-
शत, ततः शुद्धमशुद्ध वा यत्त प्रयच्छन्ति तद्धुश्चत । तत्र चयं
यतना-कमटक्रपु परस्परं सान्तरमुषविष्राः सन्तो भञ्जत
भरक्ात्तरक्राल सज्ञावसजनानन्तरयच प्राय प्राश्ुकरम्टात्त-
कया द्रावण चर द्वार्चयना शप साचत्ताचत्तभदांभन्नन कु-
रुकुचां कुवन्ति | पूवमषि तन पश्चात् सबच्ित्तनापि पूर्व मि-
श्रण पश्चाद् व्यवहारसाचित्तनति गमने निर्विषयज्ञापनद्वारम।
थ भक्कपाननिवारणद्वार व्याचष्र-
विइए वि होइ जयणा, भत्ते पाणे श्रलन्भमाणम्मि |
दस्त तक्रपिडी, एसणमादीसु जतितव्य ॥ ६८३ ॥
दितीथञऽपि राजद्धिश्र मक्तपान अलभमान इये यतना भव-
ति- यावदथापि जन। न संचरति तावत्प्रत्यूषचलायां दोषाज्न
तक्र च गृह्णन्ति, पिरायाक्पिरिडकां वायसापणिडकां वा गृह्ण
न्ति । तत एपणादिषु यतितव्यम् ।
केषु पुनस्तदृग्रदीत इत्याह--
पुराणादि पष्पतरतु, शिस्सियं गीतत्थ होति गहणं तु ।
अगीते दिवग्गहणं, सुष्पघरे वा इमेहिं ॥ ६८४ ॥
पुराण श्राचक वा साधुसमात्रा ग्कुशल प्रज्ञाप्य सवऽ
पि गीताथा मिश्रषु तु पुराणादिप्रज्ञापितः शन्यग्रह वाशब्दा-
इसकुला दा बादात्तवेदन लक्ष्य ण पाटालक स्थासयान्त , तस्य
~ 357
2 ९:६२
श्भिधानराजन्द्रः।
ग्लास
दिवा ब्रह कक्तेव्यम , पतु वा स्थानेषु स्थापिते गृद्धान्ति |
तान्येवाऽऽट-
उबरकोर्डिदेसु व, देवरले वा शिवेदयाऽरष्ये ।
कतङ्रणे करण वा, असती नदी दु विहदव्वे ॥६८५॥ |
वेवकुलादिषु य उ दुम्बरास्तस्वच्ानकालन््यणापदाकत कू |
रादेक ग्रह्वान्त, कोटवा नाम यन्न गोभक्ल दीयत, तत्र गा-
अक्ललक्ष्यण स्थापतम्, अरण्ये वा यदेवकरुले तत्र यलिनि-
वेदन गरृह्णान्त, यदि राज्ञा बहुमिरप्युपायेरुपशम्यमानो नाप-
शास्यात तता यः सयतः कृतकरण दचुश्चास्र कृता भ्यासः स- |
हस्त्रयाध स करण कराति, ते राजानं वध्वा शास्तीत्यर्थः | |
विद्याबलन वा वेक्रियलब्धिसंपन्ना घा विष्णुकुमारादेरिव-
तस्य शिक्तां कराति ।
रसद त्त यदा कृतकगरणादया न |
आप्यन्त तदा अध्वान गच्छाद्धः नान्दः-प्रमादा यन द्रव्य- |
ण गृहीतेन स्यात्तद् द्विविधमपि ग्रहीतव्यम् । तद्यथा--प्रा-
शुकमप्राशुक वा, परत्तमनन्त वा, परिवाखितमपरिवासि-
तं वा, पषरणीयमनषणीयं वा । गते भक्रपान्रतिषिद्धद्वारम् ।
अथोपकरणहरद्वारं व्याख्यानयति--
तइण वि होति जतणा, वत्थे पत्ते अलब्भमाणम्मि |
उच्छुड्डविष्पएप्ण, एसणमादीसु जतितव्वं ॥ ६८६ ॥
तृतीय राजद्विएं नाम,यत्र राज्ञा प्रतिषिद्धं मा श्रमीषां वस्त्र
पात्रया को5पि दद्यात् , , अपहस्तव्यं वा। तत्रव वा पात्र
या अलभ्यमाने यतना कर्त्तव्या । कथामित्याह-देवकुला-
दिषु कार्पटिकेयद्वस्मादिकमच्छूद परित्यक्तं यश्च विप्रकी-
शेमुरुकुरिकादिस्थापितं तद् गृह्णन्ति । षषरादिदोप्रेषु वा य-
तितव्यम् ।
हियसेसगाण असती,तण अगणी सिक्गा व गिणहंति । |
पेहुणचम्मग्गहरं, त्तं तु पलासपाणिसु वा ॥६८७॥
राज्ञा साधूनामुपकरणानि हृतानि ततस्तेषां शषाणां तदु- ,
डॉरितानामभावः सत्रसः,
भावः। ततः शीताभिभूताः सन्तस्तृणानि ग्रह्ान्ति, अर वा
संबनन््ते, पात्रकवन्धाभावे ठृणादिसि ककानि गृह्णन्ति । । पहुणं'
ति मयूराङ्गमयी पिच्छिका रजादरणस्थाने कल्ैव्या । चर्म्प-
णो वा प्रस्मरणप्रावरणाध् ग्रहणं कायम् , भुक्तं तु पलाशपत्ना-
दिषु तषामभावे पाणिष्वपि गृह्णीयाद्वा भुञीत वा ।
असई य लिंगकरणं, पष्पवणः5ट्टा सयं व गहणण्डरा ।
आगादे कारणम्मि, जहेव हंसादि णं गहणं ।।६८८॥
काचदवशिष्यमाण नास्तीति
यदि राजा स्वलिङ्गनापशाम्यमाना न।पशाम्यति, खलि- `
दन म्रग्यमाे न लभत ततः परलिहुं कुर्चन्ति। किमर्थमि-
त्याह-:प्रज्ञापनाथ स्वयं वा ग्रहणा थम । किमुक्तं भवति-बो
द्ादना राजाचुगतन परालङ्गन स्यताः स्वस्रमयपरसम- ।
वादना तृषभा युक्रयुक्रवच्रााभस्त राजान पज्ञापयान्त, तन
वा परलिङ्गन स्थिता उपकरण स्वयमवात्पादयन्ति ! इंह्श ,
श्रागांद कारण यथेव हंसतेलादीनां ग्रहण तथा वख्रपात्रा
द्रप्यवस्थापनतालाद्वाटनाप्रय)गेः कलैर्व्यामिति । गतमुप-
करणहरद्वारम् ।
श्रथ जीवितचारित्रभदद्वारं भावयति-
दुविहम्मि भरवम्मि, विजणिमित्ते य चष देवी य ।
सेद्धिभ्मि अमचम्मि य, णण पादीसु जतितञ्ं ॥६८६॥
ग
द्विविध जीवितचारित्रव्यपरापणात्मके मेरवे समुत्पन्न ते.
राजाने विद्यया निमित्तन वा चुरा वशी कुर्यात् । या च दबी
तस्य राक्न इछ सा विद्याभिरावत्यते । पवमप्यचुपशान्तो
्टनममात्य वा उपलक्षणत्वात् पाषणिडगणं वा प्रज्ञापयन्ति
तनतस्तदृद्वारणापशमयन्ति हाः =
तावत् अ्राष्ठना 5मात्यस्य वा च्रवग्रदे तिष्ठान्त । एषणादिषु
प्राग्वदेव यतितव्यम् ।
आगादे अनन्नीलग, कालक्ेवो य होति गमणं वा|
कयकरणे करणं वा, पच्छादण थावरादीसुं ॥ 8६० ॥ ४
आगाढ--राज़ादए श्रन्यालङ्ग विधाया ऽन्लायमानेस्तत्रैव #
का लक्तप: क्तव्यः, वषयान्तरगमन चा कत्तव्यम्। या वा
तकरणः सर चरुपतः शक्ता कराते । अथ तदाप नास्ति ततः
स्थावरा-च्रत्ताः तपा गहनषु तडागसर प्रभातषु वा आत्मा-
न प्रच्खाद्य दवा नलाना आसत, राज्रा च बजान्त । गन
राजाद्वष्टद्वारम् ।
श्रथ भयादिद्धाराणि युगपदाह--
बोहियमिच्छादि भए,, एमेव य गम्ममाणजतणाए |
दोण्हट्टा व गिलाणे, णाणइं दाव गम्मते ॥ € ६१ ॥
बोधिका-मालवस्तनाः म्लच्छाः--पारशीकादयः तदादीनां
भये समुपस्थिते गन्तव्यम् , तत्र च गम्यमाने पवमेव।शि-
वादिद्धारवद् रक्ञादिकं यतनया कर्तव्यम् । आगाढ़ तु कि-
चिदौत्पत्तिक कार्यम् , यथा संज्ञातकेः सदिष्टम--इदे कु
ले प्रवज्यामभ्युपगच्छतु यदि यूयं नागमिष्यथ, ततों
विपरिणमिष्यति , श्न्यस्मिन् वा शासने प्रत्रजिष्य-
ति, ईदशे अगीताथसमीपं गच्छेत् ज्ञानद्शनचारित्रार्थ
वा गन्तव्यम् | पतेः कारणेगेस्यमान पूर्व मार्गेण पश्चादच्छि-
ह्षन पथा गन्तव्यम् ।
शत्र यतनामाह--- #
एगावष्पं च सता, कीस च द्वाणि शिग्गमा शेया ।
एत्तो एकेकम्मि य,सतग्गसो दाति जयणाञ्मो।।६६२॥
साङपञ्चकन कालोत्थायिपभरतिभिश्चतुर्भिः पदेः स॒प्र-
तिपक्तेरेकपञ्ाशत् शतानि विशत्यधिकानि अध्वनि ग~
माः प्रकारा भवन्ति । पत च पाक् सप्रपञ्चं भाविताः! णनः
चु भङ्गकषु पककस्मिन अशिवादिकारण च तादृशः प्रागु-
क्रनीत्या यतना भवन्ति । बृ० १ उ० ३ प्रक० ।
रात्रिमोजने पशंसलि, दिवा प्रतिग्रहणात् रात्रौ वा भुङ्के
जे भिक्खू दियाभोयशस्स अव्पं वद्इ अवष्यं वदेतं वा
साइजइ ।॥ १७८ ॥ ज भेस्खू राइभोयणस्स वणं बरदह
वष वर्दत वा साइज़इ ॥ १७६ ॥ |
दियाभायणस्स शवरण--दास भासति, रासीभोयणस्स
वक्न-गुण भासति ॥
५
9 + औसत कारक
ण
गादा- |
दियभत्तस्स अवरं, जे तु वदे रातिभोयणे वर्ण ।
चउगुरु अणादीया, कद्दति अवष्यं च वं वा। ११०॥ |
|;
॥
|
न. क ११
राइमायण न ०४ <
( ४३१ )
आमभधानराजन्द्र। |
राहभायण
आगादिया य दासा च उगुरूगे च से पञिच्छत्तं ।
कटं पुण दियाभोयणस्स रवरणं भासाति--
वायायवेहि शसति, आयो हीरति य दिद्विदिद्वस्स ।
|
|
}
॥
|
मच्छियमाति शिपातो, बलहाणी चव चकमे ॥१११॥ |
दियाभोयणं वातेण श्रातवेण य खसियं अवलकरं भवति । |
. ्ायो-तयो भन्ति, दिद्धिणा दिद दिद्धिदिटु, परजनः
स्यात्तस्य आजोपहारो भवतीत्यथः दिवसतो मच्छि-
यमादी शिवताति, उद्व गुलियादि दासा, दिवसयो य भु-
जित्ता कम्मचट्टासु अवस्से चेकमियदिवं, तत्थ पस्सदाभ
बति | आयासोस्सासो बहु च च दगमादीयाति | एवं ते अबल-
करे भवाति |
इमे रातीभोयणस्स वन्न वदति-
आउं बेभं च वडति, पाणेति य इंदेयाई णिसि मत्तं ।
शव जिज्ञइ य दहो, गुण दोसविवज्ञओ चव ॥| ११२॥
रातो सुत्त अकम्मस्स सर्थादियस्स चिट्ठतो खुभपाग्ग-
लोचचया भर्वात, खुभपाग्गलावचयाता आयुबलईावयाण
बुद्धा भवति । रसायन पयोगवत् खुभपोग्गलोवचयाता
शीघ्र ददा न जीयते । पत गुणा रातीभोयण । एयस्स वि-
चजआ दिवसे । ता तम्मि प्त चव गुणा, विवरीया दासा
अवांत । इमम्मि कारणजाते वपएज्ञा ।
गाहा-- `.
बितियपद मणप्पञ्मै,वएज्ञ अवि कोविए व अ्प्पज्मे ।
जाणते वावि पुणो, क।रणजाते बएज्ञा उ ॥ ११३ ॥
अर]प्पज्फा-- अणयप्पच्सा खत्तादता सा दयाता चरणस्स
श्रचन्न वदज़ा, रादईभायणस्स वा वन्नं वज्ञ । श्वि कावि- |
सो वा अग्गीयत्था अप्पज्काउबि वएज्ज | बहुसखु या अ- ,
सिवामगिलाणराय दुद्रदिकारणसखु गुणवुद्डिहदे्ं
विय वन्न वा वपलज्ञा।
सूचम्--
जे भिक्खु दिया असणं वा पाणं वा खाइम॑ वा साइम॑ वा
पडिग्गाहित्ता दिया थजई्,दिया भजतं वा साइज़इ ।१८०॥
जे भिक्खू दिया असखं वा० ४ पडिग्गाहित्ता रत्ति जर,
अंजंतं वा साइज़इ ।। १८१ ॥ जे भिक्खु रात्ति असणं |
वा०४पडिग्गाहित्ता दिया युजई, भ्रुजंतं वा साइजइ ।।१८२॥
गीयत्थो |
जे भिक्खृ रत्ति असणं वा० ४ पडिग्गाहेत्ता रत्ति जई भुुं- |
जतं वा साइज्जइ ॥ १८३ ॥
अउसु वि भंगेसु आणादिया य दोसा चउगुर् पाच्चत्तं, एवं |
कालविससियं दिज्जाति | नि० चू० ११ उ० ।
राजिभक्त॑ गृहीत स्यात् , , अज्ञानात् राचिभक्रं गृह्णीयात् ।
सूत्रम्-
भिक्खू य उग्गयविरत्तए अणत्थमियसंकप्ये संथडिए |
निच्वित्तिगेच्छे असण वा पाणं वा खाहमं वा साहमे वा
'पडिम्गाहि त्ता आहार आहारेमाणे अद पच्छा जाणेज्ज़ा-
अणुगगशण मरिए अन्थमिए वा, से जं च पुहे ज॑ च पशिसि
ज च पडिग्गहिये तं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे नाइक-
मई, ते अप्पणा स्ुजमाणे अन्नेसिं वा अणुप्पदेमाणे राद-
भोयणपडिसेवणपत्ते वज्ञ चाउम्मासिय परिहारटायणं
अणुग्घाइयं ॥|६॥ भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमिय-
सकप्पे संथटिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा० ४ प-
डिग्गाहित्ता आदार आहारेमाण अह पच्छा जाशज्ञा,
श्रणुग्गए रिण अत्थमिए वा, से ज च मुहे ज च
पाशिसि ज च पडिग्गहे तं विभिचमाणे विसोदेमाणे नाइ-
कमर, तं अप्पणा श्ुजमाणे अन्नेसिं वा अप्मप्पंदे माणे राह
भोयणपडिसेवशपत्त आवज्इ चाउम्मासिय परिहार-
ट्वाण श्रणुग्धाइयं ॥ ७ ॥ भिक्खु य उग्गयवित्तीए अण-
त्थमियसेकप्पे असंथडिए निव्विद्गिच्छे असणं वा पाणं वा
खाहमे वा साइम वा पडिग्गाहित्ता आहारमाहोरे माणे अट
पच्छा जाणेज्ञा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा से जे न
मुहे जे च पाशिसि ज च पडिग्गंहे तं विगिश्वमाणे विसो-
हेमाणे नाइकमइ; तं अप्पणा अुुज्लमाणे अन्नेसिं वा
अरुप्पदेमाणे आवज्ञइ चाउम्मासिय परिहारट्टराणं अणु-
ग्घाइय ॥८॥ भिक्ख य उग्गयपित्तीए अणत्थमियसंक-
प्पे असंथडिए विइगिच्छासमावन् असणं वा पाणं वा
खाइम् वा साइम वा पडिग्गाहित्ता आहारमाहारेमाणे अट
पच्छा जाणज्ञा -अणुग्गए चूरेए अत्थमिए वा, स जच
मुहे जे चप.शिसि जे च पडिग्गह तं विगिश्वमाणे विसोह-
माणे नाईक मई, तं अप्पणा युञ्ञमाणे अन्नेसिं वा अणुप्पदे-
माशे आवज़इ चाउम्मासियं परिहारट्टाएं अणुग्घाइय & ॥
स्य सूत्रचतुषरयस्य सम्बन्धमाहँ---
अछ्यगण वच्चतो, परिणिव्ववितो व तं गणं पत्तो ।
विहसंथरेतरे वा, गण्दे(ज) सामर्षे जोगो य ॥ १०३॥
अधिकरणं छत्वा श्रचुपशान्तो ऽन्यगण॒ बजन् परिनि-
बौपितो वा भूयस्तमव गणमागच्छुन् , ` विधहदे -अध्वानि से
स्तरण इतर्रास्मन वा असस्तरण श्यामायाम्>रजन्या म्
आहार गृहल्लायात् , एव यागः सम्बन्ध: | श्रनना 55यातस्या
स्य सूत्रचतुश्यस्य व्याख्या--भक्ु:-- पूचचाणत चशब्दाद्
आचाय उपाध्यायश्च पारगृह्यत, उद्धत श्रादवय च्राच
जीत्रनोपाया यस्य स उद्भतन्रात्तक । पाठान्तर बा-- उग्ग-
यमुत्तीए त्ति ` मूर्तिः--शगी रम् उद्भत रवौ प्रतिश्रयावग्नहा -
द्रदिः प्रचारवनी मू[तरस्यत्युद्रतमुत्तंको मध्यमपदलापी
समासः, अनस्तामत सूय सङ्कट्पा भाजनाामलाषा यस्यास
अनस्तामतसङ्कल्पः । सस्तता नाम-समथस्ताइवस पया प्त-
भाज़ा वा निव्वितिगिच्छ त्त वाचाकत्सा-चत्तावप्लु -
तिः सन्देह इत्येको थः । सा निगीता यस्मात् स निर्विचिकि-
त्सः, उाद्ता ऽनस्तामतो वा रविरिव्येवे निश्चयवानित्यर्थः, ए-
नावधावशपणयुक्काउशन वा पान वा खादम वा स्वाद्म
या आतमृह्या 55हार माहरन , भुजानः । अथ पश्चादव
जानीयान् श्रनुद्रतः सूयः अस्तमिता वा । पर्व बि-
_राइ सोयण
( ५३२ )
आभनधानराजन्द्रः।
ज्ञाय (स) तस्य यच्च मखप्रत्तिप्त, यच्च पाणरुत्पाटितं, यच्च
प्रतिगृदे स्थिते, तद्धिविचन् वा परिष्ठापयन वा विशोधयन
चा निरवयवं कुर्वन् , (न) नेव भगवतासाक्ञामतिक्रामति। तद
शनादिकम् आत्मना भुञ्ञानः, अन्यषां वा ददान। राजिभोजन
प्रातसियनप्राप्त पयत चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धाति-
कम् | एवमपरमपि सृत्रजय मन्तव्यम्. नवर डितीयसत्र सस्त
ता विचिकित्सासमापन्नश्च यो भुड़े।विचिकित्सासमापज्ना ना
म-किसदिता वा रविः,अथवा-अस्तमिता वति सन्देहदालाय-
मानमानसः एवं भुञ्जनस्य अन्यषा वा ददानस्य चतुगुरुकम , |
तृदीयसूत्रे असर्थाडय' त्ति-असंस्त॒तः अध्वप्रतिपन्नः क्षपको
ग्लानों वा भरयते ख नैव विचिकित्स्यो नियमादनुद्धतः अ-
स्तमितो वा रविरिव्येवं निःसन्देह जानानो यदि भुङ्ख तदाऽ
प चतगीरकम् । श प्रथमसृत्रवज्शेयम् | चतुसत्र सस्तृता
दिचिकिव्सासमापन्नश्च यो भुङ्क्त स आपद्यत चातुमासिकं
परिहारस्थानमनुद्धातिकम् , एप सूज चतुष्टयाथः |
अथ नि्ुक्किविस्तरः--
संखडमसंखडे वा, निच्ितिगिच्छ तहेव वितिगिच्छे ।
कराले दव्वे भवि, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ १०४॥
प्रथमसूत्र सस्तत निर्विचिकिन्से, द्वितीये सस्तत विचिकि
न्सासमापन्न, तृतीयम संस्देते निर्विच्चिकित्स, चतुश्मसस्तृत
विचिफित्सासमापल्ने मन्तव्यम् । तत्र प्रथमसूत्र तावत्विवि-
श्रा प्रायश्चित्तमागणा भवति-कालतो द्रव्यतो भावतश्थ ।
तत्र कालतस्तावदाद--
अणुगयमणसंकप्पे, गवेसणे गहण युजे गुरुगा ।
अह सकियम्मि श्ुजति,दोहि वि लहु उग्गते सुद्धा ।१०५। |
श्रचद्रताना याप्यद्धता रावारत्यव न-शाङ्कतन मनःसकलर्प
न या भक्कपानस्य गवपण ग्रहणं भाजन च करात तस्य चतु
गुरवा द्वाभ्यामाप लप.कालाभ्या युर्का । अथ शाद्ूतनमः
नःसंकल्पन भडक्क | ततस्त एव चतुभु रुका द्वाभ्यामाप लघव:;।
जउद्रत सूय इात नस्वान्दृग्च मर्नःसङ्गट्प सुजान शुद्धः ।
अत्थंगयसंकप्पो, गयसणे गह ` भुञ्जने गुरुगा ।
अह स॑ कियम्मि मुंजइ,होहि वि लहु5णत्थमिएँ सुद्ध १०६। |
अस्तेगता रविरित्येवंविधेन सङ्कस्पन गवेषण ग्रहण भाजने
च चतुगुरुकास्तपला कालेन च गुरवः । श्रथास्तगताऽनस्त
गतो वा इति शङ्कितं भुङ्क्र.ततश्चतुगुरुकाः.दाभ्यामपि तप
कालाभ्यां लघवः । यः पनरनस्तमिता रावारत्यवं निःसाद्-
ग्धन चतसा भङक्क स शुद्धः।
अथ ` उग्ग्याचत्ती ' इत्यादिपदव्यास्यानमाह-
उग्गयवित्ती सुद्ध, मणसंक्प्पे य होति आएसा ।
'एमब अण॒त्थमिए, धाए पण संखडीपुरतो ॥ १०७ ॥
उद्रते रवो वृत्तिवत्तेन यस्य स उद्गतचृत्तिः , पाठान्तरेण
उद्भतमूसिरिति वा, उद्भते सूर्य मृ्तिः-- शरीरं ब्रात्तिनिमि-
के वहिः सप्रचारं यस्यसर उद्गतमूर्तिः, मनःसङ्करपनादितं
मन्यते स भुज्ञानाऽपि न दापभाक् भवति । यः पुनखुदितिऽ
पिरवो नाऽद्याप्युदित इति चतसा मन्यमानो भुङ्क स स-
दाषः, एवनरवामस्तामतेऽपि मन्तव्यम् । किम॒क्क॑ भवाति--अ
स्तमते<पि रपा नाद्याप्यस्दङ्गत इति बुद्धधा भुञ्जानोऽपि
न प्रायश्वित्ती ,अस्तमिते5पि वाऽस्तङ्गत इत्यभिधाय मुज्जानः `
सदोषः । अथवा-' मणसकष्ये य होति आदेस ' अनुदित-
मनःसङ्कट्पास्तमितमनःसङ्कल्पयोः कतरो गुरुतरो लघुतसे
चेति चिन्तायां द्वावादेशौ भवत
धास्येते । । अनुदिते अस्तमिते वा कयं प्रहणे सम्भवतीत्याह
दीन पुण सेख्लडी पुरता त्ति" ध्यात स॒ुभिक्षमिति चेकार्थः |
तत्र सखडी सम्भवति, साच द्विधा। पुरःसखडी, पश्चात्स
खडा वा । तेत्र प॒वाह्नया क्रियत सा पुरःखखड़ी | अपरः्दद
त॒ क्रियमाणा पश्चास्संखडी | इह पुनर नुदित रवो पुरःसेखडी।
पुनःशब्दग्रदणादस्तमिते पश्चात्सेखडोति ।
घ्रे श्रणुग्गतम्मि, अ्रणुदित उदिओ य होति संकप्पो।
एवं अत्थमियम्मि वि, एकतरं होति णिस्सको ॥१०८॥।
खयं अनुद्धते श्रनुदितसकल्पः, उदितसङ्करफो वा भवेत् ।
उपलक्षण चेतत्-उदिताऽप्यनुदितः, उदिता वा सङ्कल्य
भवेत् । पएवमवास्तमितऽप्येकतरः अस्तमितः अनस्त--
मिता वा निशङ्कखा मनःसङल्पा भवति, डपलक्षसत्वाद-
नस्तमितेऽप्यस्तमितसकस्पः, श्रनस्तमितसकर्पो भवेत् ।
इदानुदितोदितविषया अनस्तमितास्तमितविषया च प्रत्यकं
पोडशमङ्गी भवति । तद्यथा--श्र्जादतमनःसकल्पः अनु-
दितगयेषी अन्छुद्तिग्राही अनुदितभाजी, एवं चतुर्भिः पदेः
सप्रतिपक्तेः भज्ञरचनालक्षणा पोडशभङ्गी रचयितव्या ।
रचितेषु भङ्गयु यत्र द्वयार्मध्यपदयाः परस्परं विरोधोा-
दश्यत, मध्यपदेषु वा दयारकास्मन् उदितो दष्टाऽन्य-
पदयु पुनरनुदधितस्न भज्ञा विरुद्धत्वन वजनीयाः.शषा ग्राह्या
तथा अनस्तामतर्सकल्पा ऽनस्तमितगवपी शनस्तमितग्राही
अनस्तमितभोजी, एवमपि षोडश भद्राः कत्तेव्याः । श्र्राऽ-
पि यत्र मध्यपदषु परस्परं विरोधो दश्यत, यत्र मध्यषदेषु
हयोरेकस्मिन वा अस्तमितो दृष्टः, अन्यपंद वा अनस्तमित-
स्त भङ्गाः अविद्यमानकत्वेन वजेनीयाः, शषाः ग्राह्याः ।
श्रनुदितोदितास्तमितानस्तभितेषु चतुर्ष्वपि स्थानेचु याव-
न्ता भङ्गा घटमानकास्तत्पदर्शना थमाह--
अखुदियमणसंकप्पे, गहणगंवेसी य युजे चेव ।
उग्गयणत्थमिए वा, अःथपत्ते वि चत्तारि ॥ १०६ ॥
श्रदुदितमनःसकल्प गवेषणग्रहणभोजनाख्येस्थिभिः पदै
श्रष्रो भकङ्गास्तयु चत्वारः प्रथमद्धितीयचतुथाष्टमा भङ्गाः
घटन्त, शपाश्चत्वाराऽघटमानकाः । उद्रतमनःसकल्प ऽप्येवं
एव चत्वारा घटन्त न शषाः । शअनस्तमितसङ्ल्प अस्ते-
प्राप्तसङ्कट्प ऽपि चत पव चत्वारो ब्राह्माः, शषास्तु ठृतीयप-
आमषषठसप्तमा असम्भवित्वाद्र जनीयाः ॥
श्रथतषामव घटमानकभङ्गानां विभागतः--
प्ररूपणामाद--
श्रणुदितमणसकप्ये, गवसगहभोयणम्मि पठमलता ।
बितियाएँ तिसु असुद्धो, उग्गयभोई तु श्रतिमश्रो।११०॥
श्रचुदितमनःसङ्कल्पो ऽनुदितगवेषी श्रजुदितग्रादी अनुदि-
तभाजी एया प्रथमा लता; प्रथमो भङ्ग इत्यथः । द्वितीयस्यां
तु क्लां त्रिषु पदेषु अविशुद्धः, तद्यथधा--अुदित-
। तो चात्तरत्र श्रभि- `
राष्ट्रभोयण
ध ( ५९९ ).
आआमजधान राजन्द्रः ः ५ ५
_ राहभोयण
| >
॥ अनुद्धितग्राही उद्भतभाजी, इयं हि- |
लता सङ्कटपगवषणग्रदणपदस्रभर शुद्धा । उद्गतभाजत्व-
रूपणान्त्यपदन तु शुद्धा ।
तइयाएँ दो असुद्धा, गहणे भोति य दोष्पि उ विसुद्धा ।
संकप्पम्मि असुद्धा, तिसु सुद्धा अन्तिमलया उ॥१११॥
तृतीयस्यां लतायां द सङ्कटपगवषणपदे अशुद्ध, अहणभा-
जनपदे तु दे विशुद्ध तद्यथा-ञ्ननुदितसङ्कट्पा 5नुदितगवर्षी
उद्तिग्राही उदितभोजी चति, अन्त्यलतानामनुदितसझ्लूल्प- |
स्य चरमा लता चतुर्थीत्यथः सा सङ्कटपपद आंवशुद्धा
शषेस्त्रिभिः पदेः शद्धा । तद्यथा-अ्ुदितस ल्प उदितगचषी |
उदितग्रादी उदितभोजी । प्वमचुदितमनःसङ्कट्पस्य च- `
तस्त्रो लता उक्काः।
अथोादितमनःसङ्कल्पस्य चतस्न्रो लता आह--
उग्गयमणसंकप्पे, अणुद्तिगवेसी य गहणभोई य ।
एमेव वितियलता, सुद्धा आदिम्मि अंते य ॥ ११२॥
तातियलताएँ गवेसी, होइ असुद्धो उ सेसगा सुद्धा ।
सव्यविसुद्ध.सु भवे, चउत्थलतिया उदि यचित्ते ॥११३॥
श्राददत्य उद्गताउनुद्गता वा भवतु स नयमात् उद्रत मन्यत
इत्युद्रतमन सकलल्प उच्यत, यस्य अरथमलता उद्रतमनःस-
कर्पा ऽचुादतगवष्य अनुादतग्राह्ा अनादतभाजा | एवमव
द्वित्तीयलता ऽपि द्रष्टव्या,नवरमादिपदे अन्त्यपद च,सा शुद्धा |
मध्यम पदद्धये अशुद्धा, , तृतीयलतायामेक गवषणापद-
मशद्धे, रोषाणि सकल्पग्रहणभा जनपदान ज्रीएयपि शुद्धानि । |
चतुर्थी तु लता सर्वेषु पदषु शुद्धा ४ एताश्वतस््रो 5प्थुदितचि-
चविषया लता भावस्य विशद्धतया शद्धाः मरतिपत्तव्याः ।
एवमस्तमितानस्तमितसकर्पयोरप्यष्टौ लता भवन्ति ।
तासामव विभागमपदशयति-
अत्थंगयसंकप्पे, पढम धरेंतेसि गहणभोजी य ।
दो संतेसु अछुद्धा, बितिया मज्के भवति सुद्धा ॥११४॥ |
ततिया गवेसणाए, होति विसुद्धा तीसु अविसुद्धा ।
चत्तारि वि होति पदा,चउत्थलतियाएँ अत्थमिते।११५।
दृदास्तमितमनस्तमितं वा रवि यो निचमादस्तमितं मन्य |
ते सोाऽस्तङ्गतसकल्पः, तस्य प्रथमा लता--अस्तमि- |
तसंकरपः शअननस्तामतगदपी अनस्तमितग्राही अनस्तामित- |
भाजी १, अत एवा55ह-प्रथमायां लतायां “ घर्तसि
त्ति ` प्रियमाणे सूर्य भक्कपानस्येषणं ग्रहएणं भाजन वाऽ-
स्तगतो रविरति बुद्धया करोति, द्वितीया तु लता ढयो
राचन्तपदयोरगशद्धा मध्य गवेषणाग्रहणपदयो:ः शद्धा २,
तृतीया गवेषणायां विशृद्धा, तरिषु शषपु सकल्पादिष्ववशु-
द्धा, चतुधलतायां चा-स्तमितविषयत्वात् | चत्वायपि पदा-
न्यविशद्धानि अस्तमितमनःसकलट्प इति छत्वा चतस्रो ऽप्य-
ता श्रशद्धाः।
अथ विशद्धलता आह--
अणत्थगयसंक॒प्पे, पहमा एसी य गहण भोजी य |
मणएसिगहण सद्धा,बितिया अतम्मि अविसुद्धा ।११६।
मणएसणाए सुद्धा, तातेया गदृरभायणंसू आपसुद्धा ।
संकप्पेण विसुद्धा, तिसु वि अपुद्धा उ अं तिमिया॥ १ १७॥॥
अम्तमितमना अस्तामते वा चय या नियमादनस्तामते म-
-न्यत.तस्य प्रथमा लता-अनस्ताम तसेकल्प्रः अनस्तमितगचे-
थी अनस्तांमतंग्राहा ग्रनस्तमितभाजी । श्रत एवा55ह--
` पदमा एसी य गहणभाजी य त्ति ` प्रथमायामनस्तामतेषी
अनस्तामतग्रहणभाजी चात, द्वितीया त॒ लता-मनःसङ्-
ल्पेषणग्रहणपदषु जिषु विशुद्धा, अन्त्यपदे अविशुद्धा २, तू-
तीया लता-मनःसङ्कखपषणीया शुद्धा.ग्रदण भाजन चाऽविशु-
द्धा | अन्त्या नाम-चतर्थी लता सा नवर संकल्पपदे विशुद्धा-
शषष चिषु गवषणग्रहणभाजनपदषु अशुद्धा ।
अथेतासावशुद्ध लतासु प्रायश्चित्तमाह-
पढमाए बितियाएं, ततिय चउत्थीएँ नवमदसभाए ।
एकारस वारसीएँ, लताएँ चउरो अरणुग्धाता॥ ११८॥
प्रथमायां द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुध्या नवम्यां दशम्या-
मेकादश्यां द्वादश्यां चत्यष्टासु लताखु भावस्याविशुद्ध तया
चत्वारो5नुद्धाता मासाः ।
पंचमिछस्सत्तमिया, अट्टमिया तर (स) चोहसमिया य ।
पष्परस सोलसा वि य, लताउ एया विसुद्धा उ।॥११६॥
पञमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी यादशी चतुर्दशी पञ्चदशी
घाडशी चत्यष्टो लता विशुद्धाः प्रतिपत्तव्याः , सर्वत्राउपि
भावस्य विश्युद्धत्वात् ।
अत्र शिष्यः पृच्छति-
दोण्ह बि कतरो गुरुओ, अणुग्गतत्थम्मि श्ुजमाणाणं ।
आदेस दोपि काउं. अणुग्गए लहु गुरू इयरो ॥१२०॥
अनुद्गतास्तमितभुआ्ञानयो द्वेयो मध्य कतरा गुरुतरो--महा-
दोषः । सूरिराह-आदेशढ्वयं कत्तेव्यम् , एके आचार्या जवते
अनुद्वतभोजिनः अस्तमितभाजी गुरुतरः । कुत इति चेदु-
च्यत-सः संङ्किषटपरिणामो दिवसतो भुक्त्वा भूया रजन्याः
प्रमुख एव भुद्धं , तदानी चाविशुद्धधमानः कालः , अनुदि-
तभोजी पुनः सकलां रजनीमधिसह्य॒नक्तान्त भुङ्ख
विशयुद्धधमानश्च तदानीं कालः अतो5सो लघुतरः । अपरे
भणन्ति-ञ्स्तभितभोजिनः अनुद्तिभोजी गुरुतरः , यस्मा-
दसो सर्वा रात्रिमाधिसह्य स्ताकं काल न प्रतीक्तत, तसः
संक्लिए्रपरिणामः । इतरस्तु चिन्तयति भूयान् मया कालः
सोढव्यः, अतो मुद्ध पवमसो लघुतरः | पवमादेशद्धय छ-
त्वा स्थितपत्त उच्यते , अनुद्गतसूर्थ प्रतिसमय विशुद्धध-
मानकाला भवतीत छृत्वा श्रजुदितभोजी लघुतरः, इतरः
पुनरस्तमितभाजी स तदानीं प्रतिसमयविशुद्धधमानः का-
लो भवतीति छृत्वा गुरुतरः । उक्ल कालनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् ।
~ छथ द्वव्यमावनिष्पन्नमभिधित्खुराह-
गेरहणगहिए आलो-यण नमुकारे अजे य संलेदे ।
सुद्धे विगिचणे अवि-गिंचणा से। विदव्वभवेय१२१
श्रचुदिताऽस्तमिता वा रविरतचु स्थानेषु ज्ञाता भवत् ।
* गेरदण त्त ' कृते उपयाग पदभदे छत ज्ञातं यथा नाद्या-
प्युद्वतो 5स्तमितो बा तदा तत एव निवत्तमानः शुद्धः | अथ
ग्रहणं गवषणां कुर्वता ज्ञात तदाऽपि निवत्तमानः शुद्धः।
अथ ग्रुद्दीते द्वातं, ततो यद् ग्रृद्वात तत्पारष्ठापयन् शद्धः ।
( ५१५ )
अआाभधानराज
ह्थाजाचयता ज्ञात, तदाऽपि विविश्वयन शुद्ध: । अथ भो-
क्लुकामन नमस्कार भणता ज्ञात.तता ऽपि वावञ्चयन् शुद्धः,
अुञ्ञानन ज्ञातं शपे परित्यजन शुद्धः । श्रथ स्वांस्मन भुक्त
सलखनाकल्पे कुचति ज्ञातं तथा ऽपि विविञ्चयन् शुद्धा न |
श्रायश्ित्तो । श्रध न विविनाक्क तता द्रव्यता भावतच्चा- |
शाधिः प्रायश्चित्त भवति।
तत्र द्रव्यनिषप्पन्न तावदाद--
संलहण य तिभगेश्ट्र, दा भाए ५ पंच मोत्तु भिक्खुस्स।
मासो चउ छल्नहु गुरु, अभिक्खगहणे तिमू मूलं ।१२२।
सलखः क्रवलेज्यव्रमाणस्तमवाश्षमचुद्धत अस्तामत या
ज्ञात ऽप भ्ुडक्तकत मासलघु, पचक्तरलानावाशप्यमासान् मू- |
ङ्के मासगुरु.त्रिभागा दशक्रबलास्तान् अशपान भुङ्क्र.चतु
लेघु, अपराद्ध पञ्चदश कवलास्तान् अशपान् भुज्ञानस्य च- |
तुगुरु ' दो भाग त्ति ' द्वों भागा विशतिः कवलास्तान्
भुज्ञानस्य षडलघु ' पंच मान्त ति ` विशता मध्यात् पश्च मु
क्त्वाय शषाः पश्चविशातिः कवलास्तान् यदि भुङ्क्र तदा
घषड़गुरु, एवे यथा यथा द्वव्यवृद्धिः तथा तथा प्रायश्चित्तमपि
बद्धंते,अभीक्ष्णग्रहएं पुनः ताः स्वीः प्रतीत्य द्वितीयवारमेव
भुज्ञानस्य मासग़ुरुकादा रब्ध छदे तिष्ठति, तृतीयं वारं चतु-
लेघुकादारभ्य मूले यावन्नेतव्यम् | एवं त्रियु वारेषु मूल
यावत्पायथित्त भित्तारुक्तषम ।
एमेव गणायरिए, अणब्ह्रप्पो य होइ पारर्चा ।
[ष स ध क ०0 ३ जप |
तम्मिवि सो चव गमा,भवि पडिलल्लोम वोच्छामि । १२३।
एवमेव गणिन उपाध्यायस्य आचार्यस्य च वाराणिकागमः
स एव कत्तव्यः, नवरमुपाध्यायस्य प्रथमवारं मासगुरुकादा-
श्ज्धं छदे, एढतीयवारं चतुलेघुकादारब्ध सूने, तृतीयवारं
चतुलेघु कादार~्धमनवस्थाप्य तिष्ठति । पवमाचायस्याऽपि
त १
ग्रथमवार'चतुलघुकादारञ्ध मूल, द्वितीयवारं चतुलघुकादा-
रब्धमनवष्थाप्य , त गीयवारं षडलघुकादारन्धे पाराञ्चिक
ययवस्यात | गतं द्रव्यानष्पन्नम् अथ भावप्रतलामप्राय- |
श्चित्तं वक्ष्याम । पूव द्रव्यन्रूद्धा प्रायाश्षत्तता 5 रुक्का ।
सम्प्रात यथा यथा द्रव्यपारहाणस्तथा तथा पारमाणस-
कलेशा वाद्धमज्ञाकरृत्य प्रायाक्षत्तवाद्धमाभधास्य | तामवा5ःह
परणऊण तिभागद्धे, तिभागसेमे य पंच मोत्तु संलेढं ।
तम्मि वि सो चेव गमो,णायं पुण पंचहि गतेदि॥१२४। |
तत्राऽपि भावप्रायश्चित्त या द्वव्यनिष्पन्न वारणे गत उक्तः,
स एव द्रष्टव्यो नवरं 'पणऊण त्ति पञ्चमिः कवलेरूना या चि
शतिशषाः पश्चावर्शातः कवला भवान्ति, ततः पञ्चखु कवलषु
गतष याद् ज्ञातमचुढदता-ऽस्तामता वा रावः एव ज्ञात्वा श- |
घान पञ्चविशतिकवलान् भुज्ञानस्य मासलघु ' तिभाग त्ति
तिशद्धागेन दाना विशतिः कवलास्तान मुज्ञानस्य मासगुरु ।
श्रद्ध त्ति' श्रध पञ्चदश कवलास्तान भुञ्जानस्य चतुलघु,त्रि-
भागो दश कवलास्तान मुज्ञानस्य चतगुरु, चिशतः पश्चक-
वलान मक.वा शपा: पञ्चावशतिरज्ञाते भुक्त्वा ज्ञात तु प-
ऋ शपान् भुज्ञानस्य षपडलघुकाः | सलखनाशषे भुज्ञानस्य |
घहगुरवः । इद प्रभूततरतमकवलेष अधि काधिकतरायामपि
तप्तो सजातायां शषस्त।कं स्तकतरमपि च ज्ञाते सति भु-
ङ तत्र पारणामः रूछष्ः-साच्छष्तर दात ङूत्वा
बहुतर व्रायाच्चत्तम् । ॥
एमेवऽभिक्ख गहणे, भावे ततियम्मि भिक्खुणो पलं ॥
एमव गणायरिए, सपदा सपया पदं हसति ॥ १२५
एवमेव च्रभीच्णग्रदणऽपि भावनिष्पन्न प्रायश्चित्तं भिक्तोद्रे्ट
व्यम् , नवर द्वताय वार मासगुरुकादारब्ध छुद तात,
तत्राय चार चत॒ जघु कादारब्ध मूल यात्रन्नयम्। एवमच ग<
णन आचायस्य द्रष्टच्य म् । नवर स्वपदात् स्वपदमक तुत |
याराप हसात, तत्रापाध्यायस्य प्रथमवार मासयुरुकरादारन्च
तृतायवारायामनवस्थाप्य , अ्राचायस्य प्रथमचार चतुलच्ु- 4
कादारब्ध तृतायवबाराया पारक तषछात। इह पूर्वमुक्ञत-
च्रात्तपद्मनस्तामतसङटपपद् च व्याख्यात न शषाण सस्त
दान।
न न ककि त. “जी
श्रतस्तानि व्याचण्र--
संथडिओ संथरंतो, सतयभोजी व होड नायच्वो |
प्तं लभता, असंखडी छिन्नभत्तो य ॥ १२६ ॥
सस्तृता नाम पयोत्त भक्कपान लभमानः सस्तरति, अथवा-
यः सततभोाजा-दिने दिने पयौप्तमपर्याप्त वा सुद्ध स से-
सत्ता ज्ञातव्यः । यस्तु पर्याप्ते भक्तपान न लमत चतुर्थादिना
नित्यभक्का वासा ऽसस्ततः ॥
निर्विच्चिकित्सपदं व्याख्याति--
निस्सकमणुदिनो ति-त्थितो व घ्र क्ति गणहती जो तु ।
उदितधरेत वि हु सो, लग्गति अवसुद्धपरिणामो । १२७
निर्विच्विकित्सों नाम-निश्शड्भमनुदितो5तिक्रान्तो वा सूय.
इात मन्यत एव, या नःशाङ्गतन मनसा ग्रह्लात स उ
दित यमाण वा-अनस्तामित रवो ग्रह्ञात तथाऽप्यविशु-
द्ध्पारणा मन सर पायाश्चत्त लभत ।
एमेव य उदिओ। त्ति व, धरति त्ति व सोदमुवगतं जस्स ।
स विवज्ञए विसुद्धो, विसुद्धपरिणामसजुत्तो ॥ १२८ ॥
एवमेव यस्य सादु नस्सान्दग्ध चित्त उपगतं यदुताऽऽ
दिव्य उदितो ध्रियते वा नाद्याऽप्यस्तसेति, स यद्यपि विपर्य
ये विपर्यासज्ञाने वत्तेत: तथाऽपि विशुद्ध परिणाम इति छृत्वा
विशुद्धो , न प्रायश्चित्ती ।
अथ यदक्क दुक्क सूत्र ओह पुण् जाणज़ा अखुग्गए अत्थाम-
ए बत्ति' तत्रोद्बतमनस्तामत वा रवि चतसि छृत्वा ग्रहत
पश्चात्पुनज्ञीते यथा श्रनुद्धतोऽस्तमितो वा, कथे पुनस्त-
ज्ज्ञातमित्याह--
समिचिंचिणिगादीणं, पत्ता पुष्फा य शलिणिमादीशं ।
उदयत्थमणं रिणो, कहिंति विगसंत मउलेत्ता ॥१२६॥
शमीव्िञ्चिणिकादीनां तरूणां पत्राण नलिनीप्रभ्तीनां च
पुष्पाण वकसान्नत रवेख्दय कथयानत | एतान्यव मुकुल
यान्त सान्त रवेरस्तमन कथयान्त।
कथे पुनरादित्य उदितोऽस्तमितावान दश्यते इत्याह--
अब्भहिमवासमहिया, महांगिरीराहरेणुरयछप्पो ।
मूढदिसस्स ब बुड्ढी, वंदे गह मते मि।रेणए ॥ १३० ॥ ॥
शछ्मश्रतस्तृते गगन, हिमनिकरे वा पताति, वषंणे वा, महिं-
कया वा पतन््त्या55चछाविते, 'मद्दागिरिणा वा घन्तरिते, या.
क
| | शाइभायण
ञ््ो
व ष
{ #3५ )
ताल गाजर ॥
राहमसोयण
हुणा वा सर्वग्रदणशनोद्यास्तमनयोरणशहीते रबौ . रखुः- |
कटकगमनायुत्थिता धूलः रज इत्यादिकं, ताभ्यां वा
छन्न उदिता वा रविने ज्ञायत, दिडमूढा वा कश्चिदपरां दशे
पूवां मन्यते स नीचमादित्यं वलाक्याद्रतमात्र आंदत्य
हति बुद्धया भक्रपाने गरडीत्वा वसति प्रविष्टो यावद्धक्क-
स्तावदन्धकारं जतम् , तता जानाति अस्तमित अहं भुक्र |
इति | अयवा-गेहे-ग्रदाभ्यन्तेर कारणजाते दिवा स॒त्तः |
श्रदोषे चन्द्र उदित विबुद्धा विवत्ण ज्योत्स्नां प्रतिष्ठां
ष्टा चिन्तयति, षषः आदत्यातपः परविष्टः। स च तेमि- |
रिक मनः मन्दं पश्यति। ततो ग्राहेणा निमान्ततो भुक्त
एवमादिभिः कारणरनुदितनुादतं मन्यत उदित वा अनु-
दितम् , श्रस्तामितमनस्तामतम्।
ततः--
सत्त पड गदिते, णां इहरा उ सो श गेण्हतो ।
जो पुण गण्टति णा, तस्सेगट्टाणगं बड़े ॥ १३१ ॥
यय॒द्रतः अस्तामतो वति वुद्रवा सृतं अतीत्य ' उग्गय- |
चित्ति अत्थत्थमियसंकप्पे' दांत सूत्रप्रमाण्यन ग्रृहीत पश्चाच्च
ज्ञांतमनुद्वतः अस्तमितो वा रविः, तता यन्मुख यच्च पाणो-
यच्च प्रतिग्रहे तत्सर्वमपि व्युत्सजत् . इतरद् वा यद्यसौ पू- |
वमवानुदितमस्तापत वा शज्ञास्यत् तता नागरहीप्यप् । |
यः पुनरनुद्गतमस्नामते वा ज्ञात्वा गृह्णाति ग्रहीत्वा वा
सुद्ध. अन्यघां वा ददाति, तस्येके स्थानकं वद्धयत् | त प्र |
तीत्य "त भञ्जमाण अन्ना वा दलमाण आवज्जइ चाउ-
म्माखियं अणुग्धाइयं ` दन्युत्तरे सूत्रखरड वद्धयेदिति |
भावः।
श्रथ विवचनविशोधनपद व्याचष्ट--
सव्पस्स छड्टण ।५*(-चण।उ मुहहत्थपादछूदस्स । `
फुसणधुवण।तसे।हण,स कि व बहुसो व णाणत्त॥१३३॥
अनुदितमस्तमितं वा ज्ञात्वा यन्मुख प्रक्षिप्त तस्य ज्ञात
सात खलमल्लकवत्प्रक्षपणम् , यच्च हस्ते-पाणो वाऽस्य प्रति
अद यत्पात्रथतग्रद तस्य स्थाठ्डल , एवं सर्वस्था5पि यत्प-
र्ठापन सा विचचना , यत्त स्पशन हस्तेनामर्षणं धावनं
कल्पकरण सा विशोधना अअधवा--सरूदकणः परिष्ठा-
पनस्पशनधावनानां करर विवेचना, एतपामेव बहुश.
करणं विशाध्रनम् , एतद्धि विवे चनविशाधनया्नानात्वमुक्रम्,
अथ ' ना अइक्मइ ` त्ति पदं व्याख्याति--
नातिकमती आशं, धम्म मरं व रातिभत्तं वा । |
अत्तद्रेगार्गी वा, सयभ्चुजे सो स देजाऽपि ॥ १३३॥
एवं विविश्वन् विशाघयन वा तीरकृतामाज्ञां नातिक्राम-
ति । अथवा-श्रुतधर्म चारित्रमयादा रात्रिभक्तवते वा ना-
तिक्रामति “ भञ्जमाणो अन्नेसिं वा दलमाणा ” त्ति पदद्वयं
व्याख्यायते- ( अत्त इत्यादि ) आत्मार्थिक आत्मलीनो
निग्रहकरण वा य णकाकी स स्वये भुङ्के, नान्यां ददा-
ति इति | शषः पुनरनात्मलीनः अनेकाकी वा श्रन्यपामपि
दद्यात् , स्वयर्माप भञ्गीत । गतं प्रथमे सस्तृतनिविचिाकि- |
स्ससत्रम् ।
अथ द्वितीय सस्तृतदिचिकित्सस्त व्याख्याति-
एव वातागच््धा वा, दाह लहू रवार त तु तवकाल।
तस्स पुण दर्वति लता, यद्र सुद्धा ण इतरा उ॥१३४॥
विचिकिन्सत-कियुदिता रविः नवति उदितानुदित इत्यादि
सशय करातीति विचिकित्सः, सा ऽप्यवमव चक्कव्या नवर
यानि तस्य तपाहाननिप्रायश्चित्तान तपसा कालन च ल-
घुकानि तस्य च विचिकित्सस्य पुनरशुद्धा एव कवला अ-
षा लता भवान्त , नतरा सङ्कटपस्य शांङ्कतत्वन प्रतिपत्ता-
ऽभावात् ।
कथं पुनरसो ? शङ्कां कगतीत्याह--
अणुदिय उदिओ कि ण हु, संकप्पो उभयहा अदिहे उ ।
धरति ण वत्ति व सरो,सो पुण नियमा चउण्हेका॥१३५॥
उभयथा-उद्यका ले अस्तमनकाले वा अशथ्रहिमादिभिः का
रणेरटप्ट आदित्य सझ्लल्पा भवनि, किमनुदित उदितो वा
रावः, ग्रस्तमनक्रालऽ पि भूयो ध्रियत नवति शङ्का भवति,स
पुनः सूया नियमाद्ुदित उदितः अनस्तमितः अस्तमिता
वाति चतुणा चिकट्पानामकतरस्मिन वत्तत । भङ्गाः पनरत्र
स्वयमुच्चारणीयाः । उदथ प्रतीत्य विचिकिन्से मन.सङ्कल्पे
सात विचिकित्सितगवर्षी विचिकित्सितग्राही विचिकिलत्सि-
तभाजो एवमष्टा सङ्गाः. अरतमनमपि प्रतीत्यवमवाप्रा भङ्गा
दयारप्यष्रमङ्ग्याः प्रथमाद्वितीयचतुर्थाए्मा भङ्गा घटमानक-
त्वाद् ब्राह्याः, शेषाश्चत्वारा5ग्राद्या: । गतं सस्त॒नविचि-
कित्ससूत्रम् ।
अथ तृतीयमसंस्त॒तविच्िकित्ससतं व्याध्विख्याखुराह--
तवगेलप्पट्टठाणे, तिविहों तु असंथडो तिहे तिविहा ।
नवसंथडमीसस्सा, मासादार।वणा इणमो ॥ १३६ ॥
( अस्याः गाथाया अक्षरार्थ---' असंथड ` शब्द प्रथम-
भाग ८२४ पृष्ठ गतः । इह तता विशष उच्यत )
इहा ऽपि पूवक्रमण षाडश लताः कव्याः कालनिष्पन्न च
प्राग्वत् । द्रव्यमावप्रायश्ित्यास्त्वयं विशेषः, तपाऽसस्तता
विकृएरतपःकलान्तः पारणक अनुद्धत अस्तामत वा उद्दितान-
स्तमितवुच्या भक्कपानीथ भुज्ञाना यदा उद्रतमस्तमित
वा जानाति, ततः परं भुञ्जानस्यदे प्रायथित्तम्-
एक दुग तिति मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा ।
सव्व वि हाति लहुगा, एगुत्तरवड्िया जणं ॥ १३७॥
सलखनाशपे यदि ज्ञाता भुङ्क्र, ततः एकमासिकं, पञ्च
कवलान् समुद्दिशात द्वमासिकं , दश कवलान् समुदशति
त्रमासिक , पञ्चदश कवलान् भुञ्जानस्य चतुर्मासिकं ,
विशति मुञ्ञानस्य पञ्चमासिक्रम । श्रथ पञ्च कवला
वशुद्धभावन समुदिष्टाः शान पञ्चविंशति कवलान्
ज्ञात शुद्ध ततः षाराना सकरम , एतानि सवारप्रपि लघुका-
नि प्रायाश्वत्तानि भवान्त । कुत इत्याद-यन कारणने+) त्तर-
चुद्धचा द्वत्यादिख्पया अमू।न वद्धितानि।
इदमेव [वाविनक्ति--
दुविह य होई वु, सट्टाणे चव होई परटाणे ।
सद्णम्मि उ गुरुगा,परटःणे लहुग गुरुगा वा ॥१३८॥
( ५९६ ) च
अशिधानराजन्द्रः
राइमायण
द्विविधा च मवति दुृद्धिस्तद्य था--लघुका गुरुका भवात |
तत्र॒ लघुकष्थानादारन्धा लघुका,
गुखुका भवतति । शत्र च मासलघुकादारन्धा अतः
सवोण्यपि लघूनि द्रष्टव्यानि-
भिक्सुस्स ततियगदणे, सट्ठाणे होइ दव्वनिष्फर्न |
भावम्मि उ पडिलोभ, गशिआयरिए वि एमेव ॥१३६॥
भिक्षोद्धितीयवारं द्वेमासिकादारब्घं छदे तिष्ठति, चतीय- `
वारग्रहण त्रमासिकादारब्ध स्वस्थान मूल यावन्नयम् । पव |
द्रव्यानप्पन्न प्रायथ्ित्तमक्कम्। भावनिप्पन्न पुनरतदव प्रतिलो- |
मे मन्तव्यम् । गणिन आचायस्यांप द्रव्यभावयारूमयोरप्य-
यमेव प्रायश्चित्त,नवरम॒पाध्या यस्य दवैमासिकादारब्धं बिभि-
वौरेरनवस्थाप्ये, आचार्यस्य तैमासिकादारग्धं त्रिभिवोरे
पाराश्चिके पयेवस््यात । गतस्तयोारसस्तृतः ॥
अथ ग्लानासस्तृतमाद--
एभव य गल, पद्रवण, तत्थ णवर भिष्मिणं ।
चउहि गहणेहि सपदं, काम अर्गातत्थ सुत्तं तु ।१४०।
ग्लानासेस्तृतस्या ऽप्येवमव प्रायश्चित्तम् , नवरे तत्र तत्र
* भिरणणं ` ति भिन्नमासात्परस्थापना कक्तेव्या । प्रथम
वार पञ्चमासलघुक, द्वितीय षरमासलघुक , कृतीये |
चतुथवारं मूलै तिष्ठात \ श्रत एवा55ह-चर्तुाभिग्न-
हशेरभीच्ण सवारूपः स्वपदं मूल भिल्तुः प्राप्नोति । उपा
ध्यायस्य लघुमासादारन्ध चतुभिवोरेरनवस्थाप्य, श्राचा-
यस्य द्विमासलघुकादारब्ध चतुभिवारेः पाराश्िके पयव-
स्याति । शिष्यः पृच्छुति-कस्येतत्प्रायश्चित्तम् ? सृरिराद-यदु- |
क्तं यश्च वच्यमाणमेतत् सर्वमगीताथस्य सूत्र भवति, प्रस्तुत- |
स॒त्रोक्ल प्रायश्चित्तमित्यथः । स हि कार्य वा यतनामयतनां वा |
न जानीते अतस्तस्य प्रायश्चिनम् । गतो ग्लानाखंस्दृतः ।
अथाध्वासंस्तृत माह---
श्रद्धाणा संथडिए, पंवेस-मज्के तंहेव उत्ति ।
मज्भम्मि दसगवुड्डी, पंवेस-उत्तिष्मपणएणं ।। १४१॥
श्रध्वनि-मार्गे यः अरुस्तृतः स चत्रिविधः ।
ध्वनः प्रवेश मध्ये उत्तर च । तत्र प्रथम मध्य भाव्यत-भि-
क्ताः सलेखनादिषु षट्खु स्थानघु दशराज्रिन्दिवमादों क-
त्वा प्रायश्चित्तन्राद्धः कक्तैव्या । उपाध्यायस्य पञ्चदश
तद्यश-श्र- ।
रात्रिन्दिवादिकमाचायेस्थ विंशतिराचिन्दिवादिकं प्राय- |
श्चत्त भ्घत् । पतदुव प्रातलांम वक्कत्यम । अथ प्रवेश उ
तरण च भरयत--* पवस उत्तिष्पपणपण ' ति प्रवेशे तथा |
तरणमुत्ताण तत्र च पश्चकन स्थापना क्रयते । सलखनादेषु
षट् खु पदषु पश्चरात्रान्दवान्यादा कत्वा मासलघुक याव- |
अतव्यमिति तथा उभयोरपि श्च्रभभारेमूल प्राप्नाति
उपाध्यायस्य दशरार्विरन्दिवार्दिकं
प्यम् | चार्यस्य पश्चदशरात्रिन्दिवादिकं पाराञ्िकान्तं भव-
दशमवारायामनवस्था- |
त् । पतदेव प्रतिलोमं प्रायश्चित्तम् । शिष्यः पृच्छाति-अ- |
ध्वासस्तृता मध्य ल््तत्रमच स्वपद् पापतः, परवश उक्तरण च
चरण न तावदरव कथम : अत्नोच्यत-अध्यनः प्रवेशे भयमुत्प
यत,वय्रमध्वानानस्तारष्यामः। उत्तर ण पे बुभुक्तातृषा दा भ-
गुरुकस्थानादारब्धा |
प्त्यन्त क्कान्न्तः, अत पतां चरण स्वप॒द् घाःपतां । अध्वप्रध्ये :
ये तु गच्छनिगता जिनकटिपकादयस्तऽपि यद्येवमन॒दिते वा
केकस्मिन् पदे आज्ञादयों रात्रिभाजनदोषाश्च । अ धस्य
चेतन्मन्तग्यं, न गीताथस्य ।
कुत इति चदुच्यत--
उग्गतमणुग्गते वा, गीतत्थो कारणेणऽतिक्षमति।
दूता हिंडविहारी, ते वि य होती सपडिवक्खा ॥१४२॥ _
गीताथेः श्रध्वप्रवशादो कारण उत्पन्न उद्गत श्रजुद्रते बा
सूर्य यतनया श्ररक्घाऽदधष्टो मुङ्खानो भगवतामाज्ञां ध्र `
वा नातिक्रामति, त चाध्वप्रतिपन्नासखिविधा- द्रवन्तः, आ-
दिण्डकाः, विद्टारिणश्च । तच द्रवन्तः--न्रामाजुच्रामे गच्छु-
न्तः, आहिण्डकाः--सततपरि श्रमणशीलाः, बिदारिणः--
मासं मासन विदरन्तः । तेऽपि प्रयकं सप्रतिपत्ताः।
तैद्यर्था-+
दृदज्जंता दुविहा, णिकारणिगा तहेव कारणिगा |
अ.सवादी कारशिया, चके मूलाइया इतरे ॥ १४३ ॥
उवदस अणुबदेसा, दुविहा अहिंडगा म्रुणयव्वा ।
विहरंता वि य दुविहा,गच्छगता निग्गता चव ॥१४४॥
द्रवन्ता द्विविधा-निषप्कारणिकाः, कारणिकाश्च। तच्राशि-
वावमोदर्यराजद्धष्ठादिभिः, कारणैरुपधलेंपस्य वा निमिक्ष
गच्छुस्य वा बहुगुणभरमिति छत्वा आचार्यादीनां वा आ-
गाढ़े कारणे द्रवन्तिते कारणिकाः, ये पुनरुत्तरापथे घम-
चङ्ग, मथुरायां देवनिर्मितः स्तम्भः, ्रादिशब्दात्-कोशलायां
जीवस्वामिप्रतिमा तीथकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादि-
दशनाथ द्रवन्तो निष्कारशिकाः। आहिए्डका अपि द्विधा उ-
पदशा ऽ ऽद्दिर्द का, अनुपदेशा ऽऽ दिणडकाश्च । तत्र ये सूत्रार्थी
गृहीत्वा भविष्यदाचायगुरूणामु पदेशेन विषयाचारभाषोप-
लम्भनिमित्तमाददिरडन्ते ते उपदशाऽऽदिण्डकाः। ये तु कौतु
करेन देशदशन कुर्वन्ति ते श्रयुपदेशाऽ ऽहिर्डकाः । विहरन्तो
ऽपि द्विविघधा--गच्छगता गच्छानगैताश्थ । गच्छवासिनः
ऋतवद्धे मासे मासेन विहरन्ति, गन्तुकेन देशदशैन कुर्वन्ति
त गच्छुगताः | गच्छुनिरोता द्विधा-विधिनिगेताः. अविधिनि
गताञ्च । विधिनिभेताश्चतुद्धा जिनकस्पिकाः, प्रतिमाप्रतिष-
न्नाः, यथालन्दिकाः ( शुद्धाः ) पारिदारिकाश्वेति । अविधि-
निगताः साघारणादिभिः त्याजिता पकाकीरूताः ।
एतेषां भदानामितरयोः परायश्चित्तं लगति-
निक्षारणिगाऽणुवदे- सिगा य लग्गतणुदिय अत्थमिते।
गच्छा विशेग्गता वि हु, लग्गेज्ञति ते करेजञवे ॥१४५॥
निष्कारणिका दवन्तः, श्ननुपदशाऽऽदिरडकाः.अवधिनिग-
ताश्च अजुदिते श्रस्तमित्त खा यदि शृह्न्ति भुझ़त वा ततः
पर्वोक्कपरार्याश्चत्तं लगति । य तु कारणिका उपदशा +ऽदहिरड-
का गच्छुराताश्च ते कारणे यतनया गृह्णन्तः भुज्ञानाश्च शुद्धाः।
ग्रहणं कुयुस्ततो लगति, नियमात्तदानीं न गृह्णन्ति त्रिकाल
विषयक्ञानसम्पन्नत्वात् ।
अथवा तेसिं ततियं, अप्पत्तो अणुदितो भवे प्ररो ।
पत्तो उ पत्थिम पोरे सिं, च अत्थगतो होति ॥१ |
_ राह भोयेण
अयवाशब्दः प्रकारान्तरे वा। तेषां जिनकल्पिकादीनां ठृती-
ची पोरुषीमप्राप्त: सूर्योउजुदितों मएयते । पश्चिमां च पौरु-
थीं प्राप्ताऽस्तगत उच्यते | अत एव भक्तं पन्थाश्च तषां त्-
तीयपोरूष्यामव भवति, नान्यथा । गतं संस्तृतनिर्विचिकि-
त्ससूत्रम ।
अथासंस्तृतविचिकित्ससूत्र व्याचप्टे--
वितिगिच्छ अब्भसंथड, सत्थे। उ पहावितो भवे तुरियं ।
अणुकंपदाएँ कोई, भत्तेण निमेतखं कुज्जा ॥ १४७ ॥
अम्रतस्तृत--हिमानीसछादिताभिरदश्यमाने सूर्थ विचि-
कित्सो भवति, ते च साधवः साथ्थनाध्वानं प्रतिपन्ना: अन्तरा
वाउमिसुख वा अपरः साशं आगतः । द्वावप्येकस्थान आव-
सितो । | अभिमुखागन्तुकसार्थिको प्प्यनुकम्पया साधूनां भक्केन
निमन्त्रणं कुयात् , यस्मिश्च साथ साधवः सर्थ्जलिता: अत
सूर्योदयवेलायामुदितो 5नुदित इति शङ्कया गृह्णीयुः, इदा ऽपि
तावच सस्तत तथवा रां लता नवर सस्त गनवि- |
चिकित्से तपः प्रायञ्चित्तान्युभयगुर्काणि सस्तत विचि-
किंत्से पुनरुभयलघूनि । शेष सवेमपि प्राग्वत् | बृ० ५ उ०।
श्रत्र प्रायश्चित्तं विवकाहम् । जीत० । राजिभाजने प्रतिगरदी-
ते सत्परिष्ठापयेत् ।
सूत्रम--
इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा रातो वा वियाले
वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज़ा तं विगिचमाणे
वा विसेहिमाणें वा, नो अतिकमइ, ते उग्गिलित्ता पच्चोगि-
¢ = डिसेवणपत्त = क +
लमाणे राईभोयणर्पा आवज्इ, चाउम्भासियं
रिहारडाणं अणुग्घाइयं ॥ १० ॥
रस्य सम्बन्धमाद--
निसिभोयणं तु पगतं, असंथरतो बहू व भोचृशं ।
उग्गालमु ग्गिलिज़ा, कालपमाणं च दव्वं तु ॥ १४८ ॥
निशि भोजने पूवसूत्र धक्तम् , इहा ऽपि तदेवाभिधीयते.यः
दइा-ञअसस्तरन् बह्ुु-प्नृत मुक्त्वा रजन्यामुद्गार॒मसा द्वरत तान्न-
चेधार्धामदे सतम्) अथतवरा-कालप्रमाखमनन्तरसूत्र उक्कम्,
तु कालप्रमाणाद्नन्तर द्रव्यश्रमाणमुच्यत अनन सम्बन्ध-
नाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य-१०) व्याख्या-इहा ऽस्मिन् मौनी
दरे प्रवचने ग्रामादो वा वतमानस्य खलुर्वाक्यालङ्कार निग्र
न्थस्य वा निग्नेन्थ्या वा रात्रौ वा विकाल वा सद पानन स-
पानः सह भोजनन सभाजनः, उद्भार आगच्छेत् । किमुकँ
भवति-सिक्थविरदिनामकं पानीयगुद्भारेण सहागच्छाति
कूरसिक्थ वा केवलमागच्छृति, कदर्ण्िदुभयं वा । तमद्वारं
विचिन्तयन् सकृत् परित्यजन् , विशोधयन वा बहुशः परि-
त्यजन् ना आज्ञामतिक्रामति, तमद्भीय्यै मरत्यवनिलन् भूयो ऽ-
प्यास्वादयन् आपद्यत चातुर्मालिक परिद्ारस्थानमनुदूघा- |
तिकमवेति सूत्रार्थः ।
सम्प्रति नियुक्किविस्तरः--
*उड्डंदरे वमित्ता, आदिअणों पणगवुड्डिजाती सा ।
चतारि चच लहु गुरु, छेदो मूले च भिक्खुस्स ॥१४६॥
ऊष्वेद्धारमानत्तेपपयांप्तमशनादिकं भुक्त्वा वमित्वा च
१३५
( ५२७ )
चअभिधानराजन्द्रः।
राहभोायण
यो विशिष्ठ॑मनुकू लो 5नन भूयः प्रत्यापिवांत ततो याद दिवस॑-
स्तत एकलम्बनमादौ छत्वा यावत्पञ्चलम्बनास्तावदपवति
ततश्चत्वारो लघवः | ततः पश्चरृत्वस्त्रिशतं याचत् कत्तव्याः ।
तद्यथा--षर्प्रश्रति यावहशलम्बना पतु चतुगरवः। पका -
दशादिषु पञ्चदशान्तषु षडलघवः, षोडशादिषु विशव्यन्तषु
षडगरवः, एकाविशत्यादिषु पञ्चविशव्यन्तषु छदः, षड विश-
त्यादिषु निशदन्तेषु लम्बनषु प्रत्यवागेस्थमानघषु मूलम् ।
एव भित्तोरुक्रम् ।
गणि आयरिए सपद, एगग्गहणे वि गुरुग आणादी ।
भिच्छ॑त्तमच व दुए, विराहणा तस्स वष्पस्स ॥ १५० ॥
गणी उपाध्यायस्तस्य चतुगरुकादारन्धे स्वपद मनवस्थाप्य
यावन्नयम् , , आचार्यस्य षडलघुकादारव्धे स्वपदपाराश्चिकं
यावद् द्रष्टव्यम्, एवे दिवसत उक्तम् । रावरो तु यद्यकमपिलि-
कथे गृह्नाति प्रत्यादत्त ततश्चतुगरू आज्ञादयश्व दोषाः । मिथ्या-
त्वे चासो अन्येषां जनयांत-यथा वादिनस्तथा कारिणा
न भवन्त्यमी इति राजावा तं ज्ञात्वा भित्तादीनां भ्रति
पध कुयात् , मा वा कोाञऽप्यमीषां मध्ये प्राव्ाजिंदिति
वारयत् , असारं च प्रवचन मन्यत । आस्थिसरजस्का अप्य-
मीमिवांन्तमापिबाद्धिजिता इति तस्य वा वान्ताशिनः अ-
न्यस्य वान्त पश्यता विराधना भवति । श्रत्रा+मोयदण्टान्तः
^ छक रंकवड॒गो संखडीए मांज्ञया कूरं श्रदप्पमाण जिमि-
तो.निग्गयस्स रायमग्गमागादढस्स हिययमुच्छत्ते अतिपिपा-
लियस्स दद्रा बभिउमारद्धो । अमच्ैेण य पयोयणद्टिएय
दिवसे य वामित्ता तमहारमाविण्॒ट पासित्ता लोभेण भु-
जिउमारद्धो। तं दट ढण श्रमच्चश्रगाणि उद्धाससियाणि उड
च जात । श्रमच्चा दिणे दिशे जमणवेलाए समदिखतो स-
भरेत्ता उड करेइ | एवं तस्स वग्गुली वाही जातो। तच्रो
म्नो । सो वि धिज्जाइओ एवमव विणद्ठा । जम्हा पते दासा
तम्हा पमाणपत्तं भोत्तव्वं "` ।
एवं भाव दिवसतो, रातो सित्थे वि चउगुरू दाति ।
उडदरगहणा पुण, अववात कप्पओ एवं ॥ १५१॥
एवम् तावत् कवलपञ्चकमादौ छृत्वा पश्चकवृद्या चतुलै-
घुकादिकं प्रायाश्चित्तं दिवसत उक्तम् , रात्रावकसिकथस्या-
ऽपि ग्रहणे चतुगुरुका भवति । यच्च नियुक्किगाथायामू-
देदरग्रहण कृतं तदेव ज्ञापयति-ञअपवादपदे अधस्तने प्रत्य-
कूस्तनमपि कट्पत ।
त्र शिष्यः प्राह--
रातो व दिवसतो वा, उग्गाले कत्थ संभवो होज़ा ।
गिरिजण्णसंखड) ए, अट्टाहियतोसलीए वा ॥ १५२ ॥
रातौ दिवसतो वा कुताद्वारस्य सम्भवा भवत् । सूरिराह-
गिरियक्नादिषु सखडाषु तासलिविषय वा अष्टाहिकादि-
महिमासु प्रमाणा तार क्तं भुज्ञानानामुद्रारः सम्भवति ।
तत्र प्रार्याक्षित्तर्मार्भाधत्सुः प्रस्तावनाथ तावदिदमाद--
अद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता य जोयणदुगे य ।
पत्ता य संखर्डि जे, जतणमजतणाएँ ते दुविहा ।१५३।
ते सखडीभाजिनः साधवो द्विधा--अध्यप्रतिपन्नाः, वास्त-
व्याश्च । तव य वास्तव्यास्ते द्विधा-सखज्याः प्रक्तिणः,
राहभोायण
( ४५६८ )
श्रभिधानराजेन्द्रः।
अप्रक्तिणश्व । अध्यप्रतिपन्ना आंपि द्विचा-तत्र च गन्तुकामा;
अन्यत्र वा गन्तुकामा: | यऽन्यत्र गन्तुकामास्ते द्विघा-प्राप्त-
भूमिका: ,अप्ाप्तभूमिकांश्व । प्राप्तभूमिका नाम-य संस्वडिग्राम-
पाश्वता गन््तुकामाः , संस्नड़ीमाभधायोद॑योजनादागच्छ-
न्ति । अप्राप्तभमिका य योजनात् याजनाधकादुपलक्णत्वा-
द्यावत् द्वादशयोजनभ्यः संखडीनिमित्तमागताः । ये तत्रैव
गन्तुकामाः, संस्वडीग्रा मे प्राप्तास्ते (द्वेविधा-द्धप्रकारा-यत-
माप्राप्ता, अयतनाप्राप्ताश्थव । ये पदभेदमकुर्वेन्तः सुत्राथेपो-
रुष्यों विदधाना आगतास्ते यतनाप्राप्ताः, ये तु सखडी कृत्वा
खत्रा ऽर्थो दापयन्त उत्सुकीभूता आगताः ते अयतनाप्राप्ताः |
क | ह 6
वत्थव्व जयणपत्ता, एगगमा दो वे ह॥ते खंतव्ता |
श्रजयणवत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एकगमा॥ १५४॥
भिन्नाय वास्तव्याः संखडीलाकिनो ये च तत्रैव गन्तुकामाः
यतनाप्राप्ता,एंत द्वावपि प्रायश्चित्तवा(चा)रणिकायामकेगमा
भवन्ति-ज्ञातव्याः, य तु तत्रव गन्तुकामा अयतनाप्राप्ता य
च वास्तव्याः संखडीप्रलाकिनः, पत दय ऽपि दा(चा) राणि-
कायामेकगमा भवन्ति ।
“ पत्ता य सखा जे " इति प्रदं व्याख्याति-
तत्थेव गन्तुकामा, बालेउमणा व तं उवरिणएशं ।
पदभेदे अजयणाप, पांडेच्छ उचव्वत्त सुतभगे ॥१५१५॥
यत्र ग्राम सखाडस्तनव आ्रागन्तुक्रामाय वा तस्य म्रामस्य |
परिवोलयितुमनसस्न यादं स्व्ाचशसला पटज्द् कृर्वन्ति
गकठ््यादीनि वा देनानि प्रतीत्तन्त अवलायामुद्वन्तन्त् वा
सुत्राथपोरुषीमद्गन वा प्राप्ता भवन्ति, तदा अयतनाप्राप्ताः ।
इतरथा यतनाप्राप्ता: । ।
प्राप्तमूमिकानप्राप्तभूमिकास्थ व्याख्याति--
सखडिमभमिधःरेता, दुगाउया पत्तभूमिगा हति ।
जोयणमाइअपत्ते, भूमीया वारस उ जाव ॥ १५६ ॥
पखाडम्रामपाश्वता य गन्तुकरामास्त याद् सखडामाभधाय
.गव्युतिद्धित्रान्तर गच्छन्ति ; तदा प्राप्तभरामका भवन्ति | य
पुनर्योजनपदायाजनद्वयात्-दढादशयाजनभ्यः आगच्छन्ति त
सर्व अप्राप्तम[मिकाः ।
खत्ततो खेत्तवरहिं, अप्पत्ता बाहि जोयणदुगे य ।
चत्तार अट वारस ,जग्ग सुव विगिचणाऽऽपियणा।१५७।
संखाडि छत्वा क्षञान्तः क्तत्रबदिवौ श्रागच्छुयुः । य क्तत्रान्त
साउंफ्रो शद्धयादा गच्छन्ति त प्राप्तभूमिकाः , य पुनः क्तत्र-
बहियोजनात याजनद्धयाञ्चतुर्योजनादष्टया जनाद्यावत् द्वाद-
शयोजनादागच्छुन्ति ते अप्राप्रभूमिकाः । पत सर्वे5पि
संखड्यामतिमाज भुक्वा प्रदाष न जाग्रति जेराज्रिककालबे-
लायामपि स्वपन्ति नारः छन्त ` विगिचण सि ` उद्वारमुद्रीय
चरारित्यज्ञन्ति ` पिय जि तमेव श्रापिवन्ति प्रत्यबागर्लान्त।
पतयु चतुखु पदेषु इयमारोपणा--
वरत्थव्व जयणपत्ता, सुद्धा पणगं च भिष्पमासो श्र ।
तवकाले हि विसुद्धा,अजयणमार्दावि तु विसुद्ध।॥१५८॥
सेखड्य 4लोकिना वास्तव्या यतनया प्राप्ताश्वा गन्तुकाः से-
कक्षां यात्रदू वतं भुकत्वा प्रादोषिकी पौदषीं न कुर्वान्त मा न
राहइभोयण _
जरिष्यन्तीति छरूत्वा, तत आचारयानापृच्छुयथ स्वपन्तः
त पव यदि लेखत्रिकं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति; तदा पशञ्च-
राजिदिवानि तपःगुरूणि, कालशुरूणि । श्रथोद्धार आगत
चं यंदि विचिन्वन्ति, तता भिक्रमासस्तपोगुरं काललघु। ¦
अथ तमुद्वारमापिवान्त, तता मासलघु, तपसा कालन च
गुरुकम्। य अयतनाप्राप्ता: ये च वास्तव्याः सखडीश्रलाकनः, _
पत द्वय .ऽपि सख्य: भुक्त्वा धादाचकं स्वाध्यायं न कुवन्ति
तदा मासलघु. द्वाभ्यामपि लघुकम् । जैरात्रिकं न कुवन्ति,
मारु लघु कालगुरुकम् । उद्रारमागतं परित्यजान्त मासलघु
तपसा कालन च गुरुकम् ।
अत एवाह--
तिसु लहुगगुरुग एग, तीसु य गुरुओ उ चउलहू अते ।
तेसु चउलहुगा चउगुरु॥त चउगुरु ल्ल अते।। १४६ ॥
तरिषु स्थानेषु प्रादोषिकस्वाध्यायत्ररात्रकाकरणोद्वार-
विवेचनरूपचु लघुक्री मासः | एकस्मिन चतुर्थ प्रत्यवागिल-
नाख्ये स्थान मासगुरु । ये अन्यत्र गन्तुकामाः ध्राप्तभामिका
संख्राडिडितो: अद्धयोजनादागताः तेषां प्रादाषिकस्वाध्या-
याक्रणादिथु त्रिषु स्थानेषु मासगुरु, अन्त्यस्थाने चतुलेघु ।
ये अप्राप्रभूमिकाः संखडिनिमित्ते याजनादागतास्तषां प्रा-
दोषिकादिषु दरिषु पदषु चतुलघु, अन्यपदष चतुग्मुरु। य तु
योजनद्धयादायातास्तषामादपदेषु जिपु चतुगुरु, अन्त्यपदे
घड़लघु ।
तिसु छन्नहुगा छग्गुरु, तिसु छग्गुरुगा य अंतिम छदो ।
छदादी षारची, वारसगार्दसु य चरकं ॥ १६० ॥
य योजनचत्टयादागतास्तषा त्रिष्वाद्यपदष पड्लघु, अ~ |
नत्यपदे षड्गुर । य यो जना्टकादागतास्तेषां तरिषु पड्गुरु, .
श्न्त्यपदे छेदः । ये द्वादशयोाजनादागताः ते प्रादापिकं स्वा-
ध्याये न कुर्वन्तीति चृदः । आदेशब्दाद्-देरात्रिकमकुर्वतां
मूलम् | उद्वारविविचतामनवस्थाप्यम् , प्रत्यापिवतां पार
खिकफम । ` वारसगादाखु य चउके ` ति प्रतीपक्रमेण यानि
द्वादशयोजनप्रथ्रतीनि स्थानानि तषु सर्वेष्वपि प्रत्यकं प्रत्यकं
प्राद्रेषषिकादिचतुष्क मन्तव्यम । चतुष्य॑पि पदेषु तपा5र्हाणि |
श्रायश्चित्तानि भराग्बत् तपःकालविशेषितानि क्तेव्यानि ।
श्रस्यैवार्थस्य खुखाववाधनाथमिमां भ्रस्तावनामाद-
खेत्ततो लेत्तवहिया, अप्पत्ता बाहि जोयणदुगे य |
चत्तारि अट्ट वारस,जग्ग सुव विगिचणा 55पियणा । १६ १
इहोध्वाधः क्रमेणाणोों ग्रहाणि स्थापनीयानि, तिर्यक् पुनश्च
त्वारि, एवं द्वात्रिशद् ग्रहकारि कत्तव्यानि । प्रथमगृहाष्टकप-
ङ्कत्यामधो ऽध एते अष्ठो पुरुषविभागा लेखितव्याः, य तशर |
व गन्तुकामा यतनाघ्राप्ता य च वास्तव्या यतनाकारिण एप
पकः पुरूषविभागः, ये तु तत्रैव गन्तुकामा पवायतनया प्रा
प्ता वास्तव्याश्च यतनाकारिणः, एप द्वितीयः | ये तु अन्यत्र
गन्तुकामास्त क्त्रान्तः क्तत्रवादिवो श्रागता भवेयुः, ये क्राः
न्तस्ते प्राप्तभूमिका उच्यन्ते, एष तृतीयः । ये तु क्तेत्रवदिस्ते 4
अप्राप्तमूमिका उच्यन्ते, ते च यो जनादागताः स एच चतुरैः । `
पुरूषविभागः । योजनद्ध यादागताः पञ्चमः। चतुयोजनादाग- `
ताः षष्टः, अष्टयोजनादायाताः रूप्तम क ।
अष्टमः | उपरितनतिर्यगायतचतुष्क पङ्क्त्या उपरिक्रमेणामी
हाई
शाह सायण
अत्वारो विभागा लखितव्याः। प्रदोषे जागरणे त्ररांत्रिकस्वा-
श्यायदलायां स्वपनम् , उद्वा रविवेचन प्रत्यवांगलनम् श्रादिमः।
चतुष्कपङ्क्त्या द्वितीयगरहादमूनि प्रायश्वि-
त्तानि कमण स्थापयतव्यानि--
पणगं च भिष्पमासो, मासो लहुओ य पदमतो सुद्धो । |
मासो तवक।लगुरू,दो हि वि लहुओ य गुरुओ य।।१६२॥
द्वितीयगृह पञ्चक. तृतीयगृहे भिन्नमासः, चतुश्र मासलघु ।
प्रधमग्रह शुद्धः, चतुथे तु पदे मासस्तपसा कालन च गुरुकः।
यत्र चादिपदेऽपि प्रायश्चित्त भवतिः तत्र द्वाभ्यामपि लघुकं,
मध्यपदयारपि यथाखसख्ये कालन तपसा च गुरुकम् ।
दवितीयादिचतुषु ग्रहेषु पङ्कयः स्वा
श्रमना प्रायश्चित्तेन पूरयितव्याः--
लहुओ गुरुओ मासो, चउरो लहुगा य हति गुरुगा य ।
छम्मासा लदुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ १६२ ॥ |
द्वितीयस्यां पङ्को त्रियु ग्रहेषु लघुमासश्चतुर्थ गुरुमासः। तृ-
तीयस्यां तरिषु गुरुमासः,चतु्थं चत लंघु | चतुथ्या तरिषु चतल-
घु.चतुर्थे चत॒गुर । पञ्चम्यां त्रिषु चत॒गुरु.चनुर्थं षड लघु षष्ठ्यां
( ५३६ )
अधिधानराजन्द्रः।
जिषु पडलघु,चतुर्थ पडगुरु।सप्तस्यां तरिषु षडग्रुरु,चतुर्थ छुदः । |
अएप्रम्या पङ्का चतुषु ग्रहेषु छदमूलानवस्थाप्यपाराश्चवकान |
तथा चा5:5ह--
जह भणियचउत्थस्स, तह इयरस्स य पढमे मुणेयव्य ।
पत्ताण हाड भयणा, जे जतणा गंतु वत्तव्वो ॥ १६४॥ |
यस्या पूवस्या पङ्का चतथ स्थान भातम्) गाथाया सप्त- |
म्यर्थ ष्ठा, तथतरस्या श्रग्रतन्याः पङ्कः प्रथमेषु जिष स्थानष् |
प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् । अन्त्यपदेषु पुनत्तत एवं यतना, यथा |
सतनाप्राप्ता य ऽध्वप्रपन्ना य च वास्तव्या यतनाकरारिणस्तषां |
खतुर्थ स्थान मासलघुरूपे यःपुनः प्रायश्ित्तमुक्त तदेव
तेषामवायतनाचतामाद्यषु त्रिषु स्थानेषु भवति । अन्यद तु
मासगुरुकमिव्यवे प्राप्तभामिकादिष्वाप भजना-प्रायश्वि त्त-
रचना विज्ञया, नवरमन्त्यपङ्क्त्यां छुदमूलानवस्थाप्यपा-
राश्चिकानि भवान्त ।
एतेण सुत्तनुगतं, सुत्तणिवाते इमे तु आदेसा |
लोदी य अउमपुष्या, कड पमां इमं वेति ॥ १६५ ॥
तत्तत्थमिते गधे, गलगपडिगते तहा अणाभोगे ।
एते ण हति दोष्पि वि, ुहशिग्गतणा तु योगिलणा, १६६ |
पतत्सवमपि प्रसङ्गता विनेयानुग्रदाथमुक्रम् , नेतेन सूत्र
गताथ ततर सूत्रस्य निपाता भवति । तत्रामी आदेशा भव-
न्ति-'लादी य अउमपुख क्ति' गुरुभणति-गुण कारित्वादवर्म
भाक्रवय.यथाद्वारमागच्छति । तथा चात्र लाही-कव (/ज्ली)ली
तत्र दृष्टान्त:--यथा कवल्यां यद्यवम प्रमाणादृनमागरह्यत त-
तो5न््तरन्तरुद्धत्तते , उरपरि मुखे न निगच्छति । अथ पूर्णा-
श्ाकरणट भरता तत उद्धर्तिता सवेपरपि परित्यजति, अम्रिम्पि
िध्मापयति; वमेव यद्य ब्रममादियते । तता वातः शरीरा-
स्तः सुखनेव प्रतिचरति, तस्िन्नुद्धारो नाऽऽयाति । अथा-
तिमाज समुदिश्यते ततो ऽन्तर्वायुपूरप्ररित उद्धार श्रागच्चु-
ति, तस्माद्वममेवं भोक्तञ्यम् । कंचित्पुनराचार्यःेश्या इदं
बच्ष्यमाण प्रमाणे ब्रुवते ।
राइमोयण_
तत्रानन्तरोक्लं कवी (ल्ली) दष्रान्तं भावयति--
अतिभुत्ते उग्गालो, तेणो संश्रुज जुष्य उत्तिग्गसि ।
छड्डिज़ति अतिपुष्पा, तत्ता लेहा ण पुण आमा ॥१६७॥
गताथा ।
नेगमपक्ताथताः पुनराचार्यदेशीया इत्थ वदन्ति-
तत्तऽत्थमिते गन्ध, गलगपडिगते तहा अणाभोए ।
एतेण हते दाष्प व,मरृह।णग्गतणाउम। गिला । १
पको नेगमपत्ताश्रितो भणति- भक्त कवल्लित विंदुपतिता
यथा तत्क्तणादेव नश्यति तथा यद्धक्रमात्र जीयाति ईटशम-
वममादरणीयम् , एवमपरो ऽस्तमित रवौ यज्जीय ते . तृतीयो
गन्धन रहितः सहितो वा यथोद्धार पति, चतुधा गलक्रं
यावदुद्रार श्रागम्यत भोगनाजानान पव प्रतिगहछाति भूयः
प्रविशति । इटशे समादशतां गुरुराह-एते द्यपि
प्रकारा न भवान्त । देय नाम-यत्प्रथर्माद्वतीयादिष्वष्प्रु-
द्वारं प्रतिषेधयन्ति, य च तृनतीयचतुश्ररात्राबुद्धारमनुमन्य-
न्त, पतं इयऽपि न घटन्त, कि यनावश्यकयागःनां न हानि-
स्तावदाहारयितव्यम् । सर्खानर्गत चाद्रारं ज्ञात्वा यः प्रत्य-
वगिलांत तत्र निपातः।
पतां संग्रहगाथां विवरीपषुराद--
भणति जति उणमेवं, तच्कवल्न व बिंदुणासणया ।
बितिओ न सथरवं,तं भुजमु सर जं जिज्ञ।॥५६&॥
एको नगमनयाश्रिता भणति-यद्यन भोक्तव्यम् तनस्तत्त
कवल प्रक्ि्तस्यादकावन्दाः तत्कालमेव यथा नशन भ-
वति. तथा यद्भुक्तप्ाज्रमव जीर्यते ईदश भोक्तव्यम् . छद्वि-
तीयः प्राह-एव्मीडश भुक्नल न सस्तरात, तस्मात्तदीरश
भुङ्च्व यत् सूर्य अस्तमर्यात जौयत ।
निग्गंध उग्गालो, बितिएण गंधा य एति ण॒ उ सित्थं।
विज,णंत चउत्थे, पविसति गलगं तु जो पष्प॥१७०॥
गन्धरे द्वावादशों पका भणति>-सर्यास्तमिते जां श्रा-
हारे रात्रावसेस्तरे भवति , तस्मादीदर्श भुझक्लां यनास्त
पितेऽपि निर्गनन््धोषइन्नगन्धरहित उद्रार एति । द्वितीयः
प्राह--यद्ि गन्ध उद्धारस्य एति--आगच्छाति तत श्राग-
च्छतु यथा सिक्थ नागच्छति तथा भुडक्लाम | पता द्वाव-
प्येक पव , ` ततिया वी उग्गालो णत्थि कि पणविसाती य
श्रादशः । चतुर्था भणति--ससिक्थ उद्वारो गलकं प्रा-
सो ऽविजानत पव यावद् भूयः प्रविशात तावद्धङन्काम् । पने
चत्वारो ऽप्यनादेशा
तथा चाह--
पदमे बितिए दिया बी, उग्गालो णत्थि किं पुण णिसाए ।
गध य पाडगत पण, एए दा व अणाएसा ॥१७१॥
प्रथमांद्वेतीययाो रादशयार्दिवा ऽप्युद्धारा नास्ति कि पुनर्निशा-
यामित्यतस्तावदनादेशों , यस्तृतायो गन्धादेशो, यश्चतुर्थ
उद्घारस्य गलक प्रतिगमनादेश, पता द्वावपि सूत्रा थी भिश्नाय-
बहिभूतत्वादनादेशो ।
कः पुनरादेश इत्याह--
पड्पननऽणागते वा, संजमजोगाश जेण परिहाणी ।
ऽवि जायति तं जाणसु, सः हस्म पमाणमादारं ।१७२।
( ४४० )
च्रभिधानराजेन्द्रः।
राहभायण #
प्रत्युत्पन्ने वत्तेमाने अनागतः कालो येन यावता भुक्रेन |
सयमया गानां प्रत्युपेत्तणादीनां परिदाणिन जायत तदाहार- |
स्य प्रमाणे साधाजानीहि ।
एवं पमाणजुत्त, अतिरेगं वाऽवि भ्रुज्ञमाणस्स । |
वायादीखंभिण व, पज्ञाहि कटं वि उग्गालो ॥ १७२॥
एयविध प्रमाणयुङ्ग कारण वा अतिरिक्लमपि आहारं भुआजा |
नस्य वातादिक्षाभेण वा कर्थाचदुद्गार आगच्छेत् । |
ततः किमित्याह--
जो पुण सभोयणं वा, सित्थं णाऊण शिग्गतं गिलति |
तदियं सुत्तनिवाओ, तत्थाऽऽएसा इमे होति ॥ १७४ ॥
पुनःशब्दो विशषण, स चेतद्धिशिनष्टि-यस्तमुद्धारमागतं प- |
रित्यजति तस्य न प्रायश्चित्तम् ,यस्तु तसद्धारे सभोजने सिक्थ |
वा पवमागतं ज्ञात्वा मुखान्निगैते भूया गिलति, तत्र सूत्र-
निपातः--प्रस्तुतसत्रनिपातः प्रस्तुतसत्रस्यावतारः । तत्र |
चमे आदेशा भवन्ति-- |
अच्छे ससित्थ विय, मुहणिग्गतकवलभरिय हत्थे य ।
अजलिपडिते दिद, मासादारोवणा चरिमं ॥ १७५ ॥ |
अच्छे द्रवमागते याद परणादृण्रमार्पपवति तता मासलघु
अथ दृए ततो मासगुरु सखिक्थमागत परणादृष्टमाददा-
नस्य मासगुर्,रए चतुनघु | अथ ते ससिक्थमदर्श चर्वर्यात
नतश्चतुल॑घु, दृष्ट चतुगुरु । मखान्निगंते कचलमकटस्तना-
दृश्रमापिवात चतुर्गुर। दष्ट घडलघु।अथेकहस्तपुटभरि-
तमदृश्टमा पिवति ततः पड़लघु, द षडगुर । अथा आजजलिभीरे
नमद्रमापिर्वाति षडगुरू, ट्र छदः | अञ्जलि भृत्वा यदन्य-
द्धमो पातत तदप्यदष्टनापिवति छुदः, टश मूलम्। एवं भि- |
त्तारुक्कम् । उपाध्यायस्य मासगुरुकादारब्यम् अनवस्थाप्य |
तिष्टति । आचार्यस्य चतुलघुकादारन्धे चरमे तिष्ठति । एवं
मासादिका चरमे यावदारापला मन्तव्या।
प्रकारान्तरण प्रायश्चित्तमाह--
दिय रातो लहु गुरुगा, बितिए रतणसहितेण दिद्रतो। |
अद्धाणयीसरए् वा, सत्थो व पावितो तुरियं ॥ १७६ ॥ |
अथवा ससिक्थर्मालक्थ वा दघ्रमरष्र वा दिवा प्रत्यव-
गिलतश्चतुलघु, रातो चतगुर । द्वितीयपदमत्र भवति । का-
रणे चान्तमप्यापिवत् न च प्रायश्ित्तमाप्नुयात् , तत्र च
गत्नसहितर्वारे।जो दृष्टान्तः क्तव्यः । पुर्नारदं सम्भवती-
त्याह--अध्वशीषेके मनोज्ञ भक्त, भुक्ग, तच्च वान्तमन्यच्च
न लभ्यत, सारा वा त्वरित प्रध्रावतस्ततस्तदेव सुगन्धि-
द्रव्यण वासयित्वा भुङ्क्त ।
अथ रल्तसदहितवणिगदष्टान्तमाह--
जलथलपहसु रयणा -ऽणुव्रज्जणं तेण अडवि पच॑ते ।
निक्डणण फुदुपत्थर- मा मे रयणे हर पलवि ॥१७७॥
घेत्तण निनि पलायण, अडववमड्देहभावितं तिसितो।
पिविञ र्यणाण भर्ग, जातो सयणं समागम्म ॥१७८॥
जहा पगा वणिश्ा कद्दि वि जलपहेण महता किलेसण
स्तसदस्स माल्लाद पच गरयणाई उवज्जिणित्ता परदेस ,
पच्छा सदस पांत्थत्तो तत्थ य अतरा पच्चतविसण '
----*
पगा अडवी सवरपुलिदचोाराकिन्ना। सो चिंतति-कह अं
विग्घेण शित्थरिल्नामि, त्ति । ते रयण एकम्मि विज -पदेस
शिक्खर्णात, अन्न फुट्टपत्थर घेत्त उम्मत्तगवेसे करेति । च
राकुल च अडावि पवज्जइ । तक्र इज्ञमाण पासित्ता भणति- _
अह सागरदत्तो नाम रयणवाणिओ माम डक्कह, मा में रय-
ण हरीहह । सो पलवंता चारेहिं गदिता, पुच्छितों कतर
ते रयणा । फुडपत्थरे दं सति । चोराहि णातं , केणा ऽवि एय-
स्स रयणा हरिता । तण उम्मत्तगा जातो.मुक्का य। एवं तेण
तणपुप्फफलकंदमूलादारण सो अडवीपथा य श्राममगमे क
स्तण जाद भाविता ताह त रयण खिसाए घत्तु अडायि पव-
न्ना । जाहे अडवीए वदुमज्भदसरभागगता ताद तम्हा पयर-
ज्ञमाणो एगम्मि सिलातलकुंड गवयादम उददभावित वि~
वन्नगंधरसं उदगं पातु चित्ति, जात एवं न॒ पिवामि ता मं
रयणावञ्जणे सत्वे निरत्थये । कामभागाययणो अणाभागी
भवामि । ताह ते पवित्ता अर्डाव नित्थिष्पा सयण--
जणकामभोगेण य सब्वे्सि आगतो जाओ । अक्षरगमनिका-
कस्याऽपि जलस्थलपथयो रत्नानामुपाजन कृत्वा प्रत्यन्त-
विषये शरव्यां बहवः स्तेनाः सन्तीति कृत्वा रत्नानां कचि-
तप्रदेश निखननफुरि तप्रस्तराणां च ग्रहण मा मदीयानि रत्ना
नि हरतति प्रलापेन भावयित्वा निशि-रात्रो रत्नानि ग्रही-
त्वा पलायनम् | अव्यां षितो श्ृतदेहभाविते जलं पीत्वा
स्वजनवर्म समागम्य रत्नानामाभोगी जातः । एष दृष्टान्तः ।
अयम था पनय:--
वणियत्थाणी साहू, रतणत्थाणी वता तु पंचव ।
मितुदयसरिसं वंत, तमापियं रक्खए ताणि ॥१७६॥
चाणकस्थानीयाः साधवः, रत्नस्थानीयानि पञ्च महाबतानि,
तुशब्द स्यानुक्कसमुच्चया त्वात् , तस्करस्थानीया द्रव्या-
पदादय इति द्रष्टव्यम् । म्रतोदकसदश (वान्तम् , तत्कारणे
आपिवन तानि महावतान्यात्मानं च र्त् ।
कथ पुनरापिवेदित्याद--
दियरातो अपष्प गिणहति,अस ति तु रंते उ सत्थ तं चेव ।
णिसिक्लिगेणष्पं वा, तं चव सुगंधदव्वं व ॥ १८० ॥
अध्वशीषेके मनाज्ञ भुक्तं परं वान्तम् , ततो दिवा रात्नौ वा
श्मन्यद् गृह्णाति अलम्यमान वा निशि-रावावन्यलिङ्गनान्यद्
गृह्णाति । तस्याप्यभावे सार्थे वा त्वरमाणे तदेव वान्तं गृही
त्वा चतुजौतकादिना खगन्धद्रव्येण वासयित्वा भुङ्क्र न
कथिदाषः । बृ० ५ उ०।
रात्रिभाजने प्रायथित्तानि--
लवाडय परिवासे, अभत्तट्टी सुकसन्निहीए य ।
इयराए छर भक्तं, अट मग ससनिसिभत्ते || ३४ ॥
लपरूद् द्रव्या पालक्षस्य पात्रके पात्रावद्ध तुम्बकादेः पर्यषि- `
तत्व शृष्कसल्निध्रा च शग्ीदरीतकीविभीतिकादिकाया-
मभक्कार्थः , इतरस्यामाद्रायां गुडकक्रवघृततेलादिकायाम्
उत्तरत्र, शपग्रहणादिह दिक ग्रहीत रात्रि परिवास्य दिवैव
भुक्रमिति प्रथमभङ्गक षष्ठाभक्कम्, षषठमभक्काथदयप्रायश्ित्त- | ।
मित्यर्थः । शपनिशाभक्ले प्रथमभङ्गके विमुच्य शषेखिभिर्दि-
वा गृदीतं रजन्यां भुक्र, रजन्यां गृहीत दिवा अुक्कं, रजन्यां
( ५४१ )
|
छभिधानराजन्द्रः।
व 0 7, ।
शीतं रजन्यामेव भुक्नमिति क्वित्रिचतुथभज्ञकानेशाभक्त
रातिभोजन जात सत्यषएटममिति | उक्तं रात्रिभोजनप्रायश्ित्त
श्रे । जीत० । कर्प । (रारो कल्पनीयाः श्रोषधघयः 'आहार-
चच्चक्लाण' शब्दे द्वितीयमाग ५२६ पृष्ठ उक्ताः ) स्थानाङ्गसत्
चपञ्चपाध्ययनदितीयादेशक ` रादभाश्रण-भुजप्राण ` इत्य-
स्य चत्तो दिवा ग्रहीते दिवा भक्रामात भङ्गकस्य कथ |
शात्रभाजनता १. पर्युषतरक्षणादन्यथा वति ? प्रश्नः.आत्रो- |
क्रम् --रात्रिभोजनचतुङ्कधां दिवा ग्रहीत दिवा भृक्तामात
अङ्ग हस्य पयु षि तरत्तितभक्तणन रात्रिभोजनता ज्ञया. हार
भद्ग्य| दशपरैकालकवृत्ता पा्तिकसृत्रत्रत्तो च सन्निधिपरि- |
भगाधिकार तथव प्रतिपादनादिति ॥२६॥ सन ० १ जन्ञा० ।
रात्रभाजनप्रत्याख्यानवता5ज्नादाविषय रात्रिसिद्धदिवा म
ङ्गादि चतुभङ्गवां विभङ्गी वज्या, तथा पक्रान्नऽपि सा
च्यव न वा ?, आद्य5न्नादिष्विव न तथा, तत्र तडन्यवहा-
राऽय यावत् तत्र कि निदानमिति ?, तीय आरमस्मला- |
भ्यऽप्यत्नार्दिष्बव तद्धज्यता न पकान्न'प्वति किम्, अथ ज- |
लक्छषाभाव एव तत्र तद्दोषर्पारहार 'नदानम् अत एवं त-
स्य मासाद्वाधिकल्प्यता कालमानादपीति चेत्तदा राज्युषि-
तक्रल्प्यस्य करस्भादेरपि रात्रिलिद्धस्य क्रिमकल्म्यताव्य-
बहारः ?, तनारम्भादिद् गरणवाम्येऽप्यन्नयक्रान्रयो रातिसिद्ध-
चज्नीय तायां पडनक्कभदश्चतःसशयाकुःलमातनातीति पञ्चः,
अत्रोत्त रस-राज्रिसिद्धा दिवा भुक्लादिका सा शास्त्र क्ापि दृष्टा
नास्तीति, तन रातिभोजनग्रत्याख्य्रानवतां तामा श्रित्य वज्य-
ता का £, कञ्च पक्तान्नदष्ठान्ताएप ? , स्वयमेव सम्यक्न-
या पर्या शोच्य म्, परे रात्िसन्धन महानारम्भा भवतीति श्रा-
द्धैज्तद्व/रणा थ खशक्या रात्रिरन्धन वज्वनीयम् .न तु रात्रि- |
ओजनय्रत्याख्यानपक्ष्मयन, ततो न काऽपि पडङ्ाक्रमेदः। सा-
घुप्राश्चित्य तु दिवा ग्रदीतराजिभुक्लादिका चतुर्मद्गी शास्त्र |
प्रोक्ताउस्ति, न तु भ्राद्धानाश्रित्यात ध्ययम् ॥ ८६॥ सन? १ |
उचल्चया०। अन्धकार आद्दारकरण रात्रभाजनदापो लगति
नवा एति प्रश्नः, अतात्तरम--ज चव रयणिभारण-दाना
ते चव सकडमुहाम्म ज्ञ चेव सकडमुटे, ते दासा च्र- |
धयारम्मि ॥ २ ॥ `` इत्याघ्रनियुक्रिवचनात् राजिभोजनदोपषा
लगतीति ज्ञायत ॥ ७८ ॥ सन ३ उ०। ये कचन रात्रिभा-
जन्रत्य,ख्य {नना घरिद्धयशप दिवस भोजन कुव्वान्त त-
धां रात्रभाजनप्रवययाख्यानभनो मवतिन न वा / इति प्रञ्चः,
अज्ोत्तरम--घर्टाद्वयशष दिवस भाजन कुठ्वेतां रात्रिभा-
अनस्यातीचाया लगति , न तु तद्धङ्ग इति ॥ ६८ ॥ सन०
४ उट्ला०।
राइभोयणवरमण- रात्रि भोजनविर मण- न । निशि भोजनव-
जैने, पा० । सूत्र० ।
षष्ठवतम्--
चतुर्विधस्या55्हारस्य, सर्वथा परेवजनम् । |
षष्ठं ब्रतमिहंता।ने, जिनेमूलगुण।ः स्मरताः ॥ ४६ ॥
चतुविधस्य अशनप।नखादिमस्वादिमभदभिन्नस्य श्रादा-
रस्य-अभ्यवहारस्य सर्वथा--जत्रिविधत्रिविधेन परिवजनम्
विरमं तत्पष्ठ वते भवतोति क्रि गन्वयः। घ० २ अधि० |
पर च० । रात्रिभाज़नाव रमणस्य मूनगुणन्वमाह ।
११९ |
५
५
ए
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अत्रार्थापत्त्या 5क्षिप्तमनवगच्छुन्नाह परः--
निसिभत्ततिरमणं पि हु,नणु मूलगुणो कटं न गहिय॑ तं ।
वयधारिणो चिय तयं,मृलगुणो सेसयस्सियरो ।१२४०।
आहारविरमणाओं, तवो व तव एव वा जओड्णसण ।
अटव महतव्ययसंर- क्खत्तणओं समिइउ च ॥१२४१॥
ननु राच्रभाजनावरमणमपि मूतग॒णः , तदिद क्रामति
मूलगणत्वन नापात्तम ? । अत्रोत्तरमाह-वतधारणः स
यतस्थेव तद् रात्रीमाजनविरमणे मू.युणः , शषस्य तु गरू
णो देशविरतस्यात्तरगुण इत्यप्रः । कुतः ?, आहाराविर-
मणरूपत्वात् , तावत् । । अथवा--तप एव वा तद् निशि-
भाजनविरमणमिात प्रतिज्ञा, यताऽनशनम्-ञअशनत्यागरू-
पत्वादिति देतुः, चतुशरादिव >, इव्यनुक्काऽपि दृष्टान्तः स्वये
दश्यः, तपश्चात्तरगुण एवाति भावः | इतश्रदमृत्तरगुणः ।
कुतः ?, मदावतत्ररक्तणात्मकत्वात् , समित्यादिवदिति
॥ १२४० ॥ १२५४१ ॥
्मत्राह--यदवम् , उक्तयुक्क्तधारिणोऽपि तद्मूलगुणो न
प्राप्नोति, इत्याह--
तह5वि तयं मूलगुणो, भणइ मूलगुणपःलयं जम्हा ।
मूलगुणग्गहणःम्म य, तं गहेयं उत्तरगुण व्व ।१२४२।
तथाऽपि वतिनस्तन्म् गुणो भरयने. समस्तवतानुपा-
लनात् , समस्तत्रतसरन्तणना ऽत्यन्तापरकारित्वात् , प्राणा-
तिपातावरमणवत् , मूल गुणग्रहणाचचच साक्तादनुपात्तमपि तदू
गृहीतमेव द्रण्रव्यम् . उत्तरगुणवदिति ॥ ६२५२८ ॥
कस्माद् मूलग्रहण तद् गृह्यत ?. इत्याह--
जम्हा मूलगुण चिय, न होति तजर 'हेयस्स पडिपुन्ना ।
ते मूलगु णग्गहणे, तग्गहणमिहत्थओ नयं ॥ १२४२ ॥
यस्मात् तांदरादतस्थ-र२।तिभोजनतिरमणाचिरदितस्य म-
दावतादयो मूलगुणा एव परिपूणो न भवान्त, अता मू-
लगुखुश्रदसं तदत्र खमिदहाथतो वज्वेयम् । तथाहि--२तौ
भाजन त्रय रात्रौ भित्ताथमचच्छे+षय पयेरनाद् बह्धि-
\ पन दिभिः स्पशानात् , पुरःकमे पश्चात्कमादययनषणा-
दोषदुष्रादारग्रहणादेश्च प्रणातपातव्रतवचघातः । अन्धका-
रवशन च पतितहिरणयादिद्रविणग्रहणादेः, योषित्पारभो-
गसम्भवाच्च शषपव॒तबिलोपः । इत्यवे रात्रिभोजनविरमण-
मन्तरेण न सम्भवन्त्यव प्राणातिपातविरत्यादिमूलगुणाः ।
अत पव तदूग्रद्णेऽत्यन्तोपकारित्वाद् गृदीतमेवाथतस्तदि-
ति ॥ १२७३ ॥
यत्र परक्ः प्राह---
जड मूलगणो मूल व्यय उवगारि त्ति तं तवाईया ।
तो सव्य मूलशुणा, जइ व न तो त॑ पिमा होज़ा ॥ १२४४॥
यदि तद् नि।श भोजनविरमरणं मूलगुणोपकारित्वाद् मू.
गुण इष्यत, ततर्स्ता्द तपःप्रभृतयः सर्वेऽपि मलगुणाः प्रा-
प्नुवन्ति, तपामपि तदुपरकारित्वात् , अता विशीर्णोत्तरगु-
णुकथा । यदि पुनस्ते तपःप्रभृतया मूलगुणा न भवान्ति, त-
हिं तदपि राजिभोजनविग्मणं मृलगुणा मा भूत् उपका-
रित्वाविशषात् | पूर्वा परविराध्रश्चवमनभ्युपगच्छता भवतः ।
तथादह्ृ-भवतवा नन वग्मुक्त यथा महाव्रतसरक्तणादुत्तर गु-
र 3. ( ५४२ 2
राड भाय १ ऋमधानराजन्द्रः। |
श इदम्. स्मितवत्' इतिः इदानीं न्वभिधन्स-' महाशतसं- |
रक्षणाद् मूलगुण एतदिति ` । अज्ोच्यत-किमिह विरुद्ध-
म?, उमयघनकं हि रातरिभाजनविरमणम्, यतो ग्ृहस्थ-
स्य तदुनरगुणः, तस्या ऽ ऽरम्भजप्राणातिपातादनिवृत्तत्वा-
त्, निशि भाजनऽपि मूलगुणानामखण्डनात् . अत्यन्तापका- |
भावादिति वातनस्तु तदत मूलगुणएः, तस्या 4ऽरम्मजा-
दपि प्रणातिपातान्निचत्तत्वात् , रजनिभाजन च तत्स- |
म्भवात् , अतस्तद्विधान मूनगुणानां खरडनात् । तद्धिरमण
तु तेषां सरत्तरोनात्यन्तापकारात् तत् तस्य मूलगुणः ।
तपःप्रभ्र॒तीनां चत्थमत्यन्तापकारित्वाभावादुत्तर गु णत्व--
मिति ॥ १२४४ ॥
आह च--
सब्वव्वओवगारिं, जह ते न तहा तवादओ वीसु ।
जं ते तेणुत्तरिया, होति गुणा तं च मूलगुणो ॥१२४५॥
जं ति ' यस्मात् कारणाद् यथा तद् रात्रिभोजनविरमणं
सर्यवतोपकारकम, न तथा तपःसमित्यादयो विष्वक्-पुथ-
कू, तेन कारणन ते उन्रिका-उत्ररगुणा भवान्त । तत्त
गात्रिभाजनवतं मृलगुणानामत्यन्तोपकारिन्वाद् मूलगुणः। य-
था दि-भ्राणातिपातादिवतानां पञ्चानामेकस्याऽप्यभावे श-
धाणामभावाद् मू<.गुणत्वम्, एवं रात्रिभोजनव्रतस्याऽप्य-
भावे सर्वव्रतामावादल्यन्तोपकारित्वाद् मूलगुणत्वमिति
भावः ॥ १२४५ ॥ चिश० । दश० । ध० । मनुष्यलाकाद्रहिः क-
चिद्रातरिरव क्रच्चिदियेव, तच कालधत्याख्याने राजिभोजन- |
ग्रत्याख्याने च घटते न वा? इति प्रश्नः, श्रत्रोत्तरम्-भनुष्य-
नाकाद्रहिः कालप्रत्याख्यान राच्रिभाजनप्रत्याख्यानं चहे-
स्यपेच्तया सम्यकालस्वरूपपरिज्ञाने भवत्यन्यथा तु सङ्क
सप्रत्याख्यानमि नि ॥ १२५४ ॥ रून० १ उल्ला० । ( राजिभोजन-
विरमणसूत्म् ` ' पडिकमण' शब्द पञ्चमभागे <८४ पृष्ठे ऽस्ति)
गाहय-रालिक-ि° । रात्रौ भवः रात्रिकः। रात्रियाते, श्रातु०।
वण |
शदयपोसदह-रात्रिकपौपध - पु । पौणयभेदे, सेन । ^ मज्म-
राश्रा परओ जाव दिवसस्स श्रतोमुहुत्तो ताव घि- |
ध्पद' इति सामाचारीमध्य विद्ते तन तृतीययामादवा-
क मध्याह्वात्परतः रात्रिपोपधः कत्त कल्पते वा ? इति
ग्रश्चः, अत्रात्तर7-मध्य।ह्ात्परतः पोषधग्रहणं शुद्धश्चति, परे
साम्प्रतीनप्रवृच्या प्रतिलंखनात् अवांगू न कायेते, किन्तु-
परत इति ॥ ३०२ ॥ सन० ३ उल्ला० । स्वाद्याः कथयन्त्य-
छमाक पापिकाः रातरेस्तुधैयाम समु-थाय पोषधमध्य |
स्तामायिक॑ कुर्वन्ति , तदत्ति च प्रतिक्रमणसृत्रचू- |
शो सन्ति, तन श्रीमतां श्रीपूञ्याः सामायिकं कथे न
कारयन्ति ? इति प्रश्नः, अत्रात्त रम-राज्िपोषधमघध्य पाश्चा त्य-
शात्रों सामायिक्रररणमाश्रित्य यानि चूरार्यक्तराणि सन्ति
सानि सामाचारीविशषण समर्थनीयानि न तु दृषणीया- |
नि, तस्याः शिएकतत्वात्। न चात्मनां तदतक्षरदशनेन त-
स्कत्तव्यतापत्ति: , सव्ऽपि सामाचागीविशषाः सर्वैरपि
| राइव-राजीव-न । कमल, ` राइव पाइ० ना० १० गाधा।
| राक्खसदीव-राक्ञसद्रीप-पु०। स्वनामख्यात दोपि, सन०।
अचश्यभानन विधया पवति, शास्त्राक्तरानुपलम्भादिति ।
नि. खरतरपक्षीयाणां चूर्णिंगतेकवचन युक्षितमन्न प्र-
तिभाति. तद्बतसकलसामाचार्यास्तरकरणात् , यदि च
चूणः प्रामारायमव तदा तद्रता सकलाऽपि सामाचारी
कथन विधीयत इति बडूवक्तव्यमस्तीति ॥ ३२६ ॥ सन० 7
उल्ला० । प्रातरुपवर्ख छरृत्वा साय रात्रिपाषध करोति,
तथाऽ ऽचाम्जे रत्वा ऽहारात्रिकं करोति, स उपघानाऽ$ `
लाचनामध्य समति कि वान? इति प्रश्नः, अज्ोत्तरम-उप-
वस्त्र कृत्वा यः प्रातरहो राजकपोषधः कृता भवति स उपधा- `
ना ;ऽलाचनामध्य समेति नान्य इति ॥१२५॥ सन० ४ उल्ला ०॥
राहया-रात्रिका- खो । अतिलघुसषप, सूत्र०? १श्रु०४अ०१उण
राइयाखाड-राजिकाखाट न° । करमथितलवणकणयसुत व
ध्नि, ध० २ अधि० ।
राइसिरी-राजश्री-लरी० । चमरेन्द्रस्या ऽग्रमदिष्या मातरि,
ज्ञा० २ श्रु० १ वग २ आ० |
राई-रात्री- खी । निशायाम् , “रयणी विहावरी स--ब्बरी
नसा जामिणी राई । ” पाइ० ना० ४७ गाथा ।
राईमई-राजीमती-खी० । उद्यसनपुह्यामारे श्नामभार्या या>
म्. कट्प० १ अधि० ७ क्षण । ( श्रस्या व्याख्या “ रहमि "
शब्दे ऽस्मिन्नव भागे ४६४ पृष्ठ उक्ता ) प्रवत राजीमतीप्र-
तिमा । ती० २ कल्प ।
राईमइगुहा राजीमतीगुहा-ख््री० । यत्र राजीमत्या रथनमिः
प्रतिबा।धतस्ताटशायां गृहायाम् , ती० ३ कर्प । (व्याख्या
उज्ञयन्त' शब्द द्वितीयभाग ७३६ पृष्ठ गता )
राउग्गह- राजावग्रह-पुं० राजा- चक्रवत्तीं तस्या ऽवग्रहः--
षट् खराडभरता॥ दत्त राजावग्रहः। अदग्रहभद, भ० १२३ शेर `
२ उ० । प्रति० | आचा० |
राउल-राजकुल-न० । ' लुग्भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्व-
रस्यनवा ` ॥८।१।२६७॥ ईति सस्वरस्य जकारस्य ¦
लुग्वा । राउलं । राश्रउलं । प्रा० । च पकुल,पे०चू०२ कल्प ।
राक्तसद्धापा जम्बृद्धप ऽस्ति लव॒णसमुद्र वा? सच भ्रमाणा-
इलनात्सधाङ्गलेन वा ? इति प्रश्नः. श्रजात्तरम्-
लवणोदे पयाराशौ, दुञ्यो दुसदामपि ।
याजनानां सप्तशर्ती, दिच्तु सव्वासु विस्तृतः ॥ ३१॥
राक्षसद्धीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरामणिः।
तदन्तर त्रिकूटाद्वि-भूमिनाभों खुमेरुवत् ॥ ३२॥
महरिंवलयाकारो, योजनानि नवान्नतः।
पश्चाशत याजना न, विस्तीर्णो ऽस्त्यतिदुर्मदः ॥ ३३ ॥
तस्योपरिएष्टात्सो वर्ण-प्राकार ग्रृद्दतो रणा ।
मया लङ्कति नाम्ना पू-रधुनेवास्ति कारिता ॥ ३४४
घडयाजनानि भूस्तस्या-मतिक्रसम्य चिरतनी । |
शुद्धस्फटिकवध्रा ङा, नानारत्नमया लया ॥ ३५॥ ¶
सपादयाजनशत-प्रमाणा प्रवरा पुरी । |
मम पाताललङ्कति, विद्यते चातिदुगमा ॥ ३६ ॥ ।
पुरीद्रयमिदं बन्सा- ५ऽदत्स्व तन्नरपतिभव ।
भवत्वे्येव ते तीथे-नाथद्शनज फलम् ॥ ३७ ॥
( ५५३ )
खामिधानगाजन्द्र:
गग
(9 |
इत्युक्त्वा रात्तसपति-माणिक्येनवभिः रुतम् ।
ददो तस्मे महादारं, सद्यो विद्यां च रात्तसीम् ॥ ३८ ॥
भगवन्तं नमस्कृत्य, तदेव घनवाहनः ।
आगत्य राक्तसद्वीप, राजा ऽभूल्लङ्कयास्तयोः ॥ ३६ ॥
शात्तसद्धापराञ्यन, राक्तस्या विद्ययाऽपि च।
तदादि तस्य वंशाऽपि, ययो रात्तस्वशताम् ॥ ५० ॥
दृति श्रीआजितनाथचरित्रानुसारण राक्तसद्धवीपा लवण- |
समुद्र ऽस्ति प्रमाणाङ्कुलश्चति ध्येयम् ॥ १६० ॥ सन० ४ |
उल्ला० ।
राग -राग-पुः। रञ्जने रागः कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादन,
उत्तःपार० १ अ० । रज्यते ऽननति रागः ।
अञ्जन, सूत्र० ९ श्रु० ६ श्०। श्रो० । स० । रञ्जन रज्यते वा
सोवीरादिके
अनेन जीव ईति रागः । आ० चू० ४ अ० । रागवदनीयक- |
म्मापादिते ऽभिष्वङ्गपरिणामरूप भाव, प० खू० १ सूत्र ।
ओर ० | आव० । अनभिव्यक्लमायालोभलक्षणभेदखभाव 5पि -
च्वज्गपात, पा० । आ० म०। सूत्र ०| आतु०। आव०।
ध० । ने० | अष्ट० । ग० । प्रव० । नि० चू० ।
राग उदाहरणम्--
्तिनिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं द्वो तत्र सादरों ।
श्मटन्नता ऽटान्मज्श्य, ज्यष्टठभाया लघा रता ॥ १ ॥
लघुतचछुति तां चाऽऽह. भ्रातरं मे न पश्यासि ? ।
पति व्यापाद्य सा भूय-स्तसच नाऽन्वमस्तसः॥ २॥
निर्वेदेना ऽश तनव, स लघुत्रतमादः
तद्धक्रासाऽपि मत्वा भ्र-द्भाम क्राप्यार्तिता शुनी ॥ ३ ॥
साधवा ऽप ययुस्तत्र, शुन्या ऽदि मुनिः स च ।
तदेवा ऽऽगत्य साश्नप, मुहु प्र रवाक्ररात् ॥ ४ ॥
नष्ट: साधुखना साच, तता5टव्यां च मकटी।
तस्या पव च मध्यना-खव्यायातं कथंचन ॥ ५॥
श्रन्तमुनोनां ते वीदंप, प्रम्णा शिश्लेष मकरी ।
तां विमाच्याथ कष्टेन, स कर्थाचित्पलायितः ॥ ६ ॥
श्रवातत्राऽप सा जज्ञ, यक्ता ते प्रच्य सावधेः।
मैच्छुन्मा मेष तच्िद्रा--णीत्तते न त्ववेत्तत ॥ ७ ॥
समानवयसा 5वोचन . हसन्तस्तं च साघवः।
त्वमरहेन्मित्र ! धन्या भस, यच्खुनीमकरीप्रियः ॥ ८ ॥
अन्यदा कमलङ्गय स, जजवादं वरलाङ्गतुम् ।
धमादाद्वतिभदेन, पदं प्रासारयन्मुनिः ॥ ६ ॥
तस्थ तच्चद्रमासाद्य, सा चिच्छुद।ङ्कमरुतः।
सं मिथ्या दुष्कृत जल्प-न्नपत्तच जजाद्रहिः ॥ ६० ॥
सम्यगर्दाष्ट: खुरी तांच निद्धास्य त मुनः कमम्।
सदेवा ऽलगयद्रढा, देवतातिशवन सः ॥ ११ ॥
० क० १ अ० | आ० म०। अन्न भणति-सा भिक््स्स- |
भश्च; अत्ग;म, तत्थ ताए वाणनंतरीद तस्स रूवे छाएत्ता
स्त रूवेण पंथ तलाए रडाइ, अन्नादं दिद्ठा लिङं
गुरूग, आवस्सएण आलोएइर, गरूादं भलविय--सन्व
आलोएंडि. अज्जा! सा उत्रउता मुदणंतगमाइ भणइ--
न सभरापि खमासमणा ! तांद पांडाभिन्ना
नारथ त्त, आयारिया अखुवद्धिबरुत न दति पायाच्चृ्त
सा चितइ--कि कदेव न्त्ति / सा उव लता साहइ-एये मप
क्य, सा साविगा जाया, सव्य॑ परिकदंइ एस
= (ति 2००
भणइह-- |
तिविदो अप्पलत्थो, तस्स अप्पसत्थस्स इमा शिरुत्तगा-
हा--'' रज्जात अखुभकाॉलमल-कुरिमाणिट्र्स पाणिणा
जणे । रागा त्ति तण भगणह, जे रज्जइ तत्थ रागन्था ॥१॥”
एपो प्रशस्तः ( श्राव १ अ० ) दोघ्रससारहतुकत्वादध्यव-
सायान्मकत्वात् । ( श्रा० म० १ अ० ) प्रशस्तस्तु रागा5ह-
दादिविषयः ।
उक्तं च--
अरहंतेसु य रागो, रागो साहूसु बंभयारीसु ।
एस पसत्थो रागो, अज्ञ सरागाण साहूणं ॥ १
पवेविध राग नामयन्तः-श्पनयन्तः. क्रियाका लनिष्टाकाल-
योरभदादपनीत एवं गृह्यत -। आह--प्रशस्तनामनमयुक्त
न, तस्याऽपि बन्धात्मकत्वात् , यद्यवम् ततः ` एस पसन्था
रागा ” इत्यादि विरुद्धम् , नेष दाष:। सरागसयतानां कू-
पखननादादरणतस्तस्य रागस्य भाशस््यादत्यल प्रसङ्गन ।
छ्ाव० १ अ०। “रागे च दास च तहव माद. उद्ध-
लुकामेण समूलजाल । ज ज उवाया पडिवज्जियव्वा, त कि-
त्तरस्सामि अद्दाणु च्वि ॥ " उत्त० ३२ अ० | “ रागद्रास य
दो पावे, पावकम्मपयत्तण | ज भिक्खू रूंभई नच्च. स न
अच्छुइ मरडल,'' उत्त०३१ अ० | `" रागतृष्णाखुखापाय'"-सु-
व्वापाये-सुखसाधने । तृष्णासुखज्षस्य सुख्ानुस्म्तातपूर्वा ला-
भपारिणामो रागः । द्वा० २४ द्वा० । विश० ।
विस्तराथेमभिधित्सुस्तावद्रागस्वरूप बिद्यु्णात-
रज्ञेते तेण तम्मि व, रंजणमहवा नअ, रा ।
नामाइ चउब्भमेओं, दवय कम्मेयरवि।भष्य। ॥ २६६१ ॥
रज्यन्त तन, तस्मिन वा सात क्लिष्टरस्था.-प्राणिनः
स्त्रयादिष्विति रागः | अथवा-रजेने रागः। स च नामादि-
चतुभदः स्थानान्तर निरूपिता रागः । तत्र नाम स्थापना-
ब्रशसारभव्यशयारद्रव्यरागावचारः खद्लय पव । ज्ञ-भव्य-
शरी रवर्याता रक्क तु द्रव्य वचाय को रागः ?, इत्याह--'क-
म्मेयरविभिन्ना त्ति ` क्मद्रव्यर(गः, नो कर्मद्रव्यरागश्चेत्य थेः
॥ २६६१ ॥
तत्र ' कमेद्र॒व्यराग ` व्याच्चिख्यासुराह--
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जग्गा बद्धा वज्ज तया य पत्ता उश्रणावालय |
अह कम्मदव्वराओ, चउव्विह्य पोगगला ह त ॥२६६२॥
* शह त्ति ` अथतद्धवाख्यानमुच्यत-तत्र कमद्रठ्यरागः-
चतुर्विधाः पुद्रला भवान्त; तद्यथा--याग्या-वन्धर्पारणामा-
भिमुखाः, बध्यमानाः-प्रारब्धवन्धाक्रियाः वद्धा-उपरतवन्ध-
क्रियाः । गाश्राचन्धायुल्माम्याच्च व्यत्ययनापन्यासः । तथा
उद्दी ग्णाकर गुना55कृष्याद/ रणावदिकां प्राप्ता यावदय्याप्यु-
दय न गच्छु(न्त, उदयन वचमानानां भावरागत्वन दज्यमाण-
त्वादि ॥ २६६२ ॥
नाकमद्रव्यरागमाद--
नेकम्मदव्वराग्रः, पञअं।गओ। सो कुसुमरागाई ।
बीओ य वीवसाए, ने समभब्मर।गई ॥ २६६३॥
नोकम्मंद्रव्यरागधतु द्विविवः--प्रयागत:, सिस .५। तअ ।
तत्र प्रयागतः कुखुम्भराःगवंदः, विख्रलातस्तु सन्ध्दाश्ररा-
गादिरित ॥ २६६३ ॥
( ५५४ ) ।
द्भिधानराजन्द्रः।
राग
भावरागमाह--
ज रायवयाणज्ज, सयइष्प भाव्म त्रो राआ |
सो ।द्। द वेसय नहा,-णुरायस्वा आआभस्सग।२६६४।
कुप्पवयणसु पदमा, वड! सद्दाइएसु विसएसु ।
विसयाद निमित्तो वि हु,सिणेहर।ओं सुयाईसु ॥२६६५॥
यद् रागण वद्यत शांत रागवेदनीय माया-लाभलक्षणं कम
समुदीणमुदयप्राप्त विपाकन वद्यत, तज्जनितश्च जीवर्पारि-
णामरूपा ऽभिष्वङ्गस्तका 5 लो भावता रामो भावरागः।सच
च्रिविधा आंभष्वङ्करूप.. तद्यथा - दण्रयनुरागः, विषयानुराग
स्नटानु.गश्ाति । तत्र प्रथमः कुग्रवचनघु द्र्य. द्वितीयस्तु
शब्दा द्विषयेषु. स्नदरागस्त विप्रयार््यारनामित्ताऽविनीतष्व-
प सुतवान्चकादाष्वान ॥ ॥ २६६४ ॥ २६६५ ॥ वश । (यादथ
वस्तु तादगव रागा भवतीति वदयत ` वसदि ` शब्दे )
रागे दुहे पष्म । तं जदा-मायाय, लेमे य।
प्रसा २ पद्। आ> म. । स । आ चू०। श्रा०। आव० |
पुत्रादषु सदे, प्रश्ष० ४ सवण द्वार ।
समाह पेहाइ परिव्ययंतो,
सिया मणो निम्सरई बहिद्धा ।
न सा महं नो वि अर् पि त॑से,
इच्वेत्र ताओ इञ्ज रागं ॥ ४ ॥
तस्येव त्यागिनः | समणा--आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यत ऽनये-
ति प्रक्ता - दाष्टस्तया प्रक्षया- दद्रा रपार-समन्ताद् बजता-
गच्छतः पारव्रजत., गुरूपदशादिना सयमयागचु वतमान-
स्यत्यथः, स्यात्-कदाचदाचन्त्यत्वात् कर्मगतः, मनो
निःसरात वहिधा-बहिः भरुक्तमागन:ः पूवकीडताचुस्म-
रणादिना, अभुक्कभोागनस्तु कु तूटलादिना मनः-अ्रन्तःकरणे
निःसरति:--निगच्छुति बडिधो-सप्रमंगहाद्वहिरित्यथः | पः
थ उदाहरणम्-' जहा पगा रायपुत्तो बादिरियाए उबद्डा-
गुसालाए अमिरमेता अच्छुइ । दासी यतण अतण जलभ-
रियघडण वोलइ । तओ तेण तीर् दासीए सो घडो गोलया
प् भिन्ना, ते च च अधिई करिति दट॒ठहूण पुणरावत्ती जाया,
चितिय च~ ज चच रक्खगा ते, चव लालया कत्थ कुवि
स्रा ?। उदंगाउ समुर्ज्ञा वआ,अग्गी किह विज्भवेयव्वा। ।
घुण च क्ख लगा जहएण तकखरणा पव लहुद्दत्थयाए त घड-
चि दक्रिथे । एवं जइ संजयस्स सजमे करंतस्स विया
मणा रखिग्गच्छुइ तत्थ पसत्थण पर्णामण ते असुहसंकप्प-
चि चरित्तजलगक्खणट्राप् ठक्रयव्वं । कनालम्बनेनेति ? ,
यस्यां राग उत्पन्नस्ता प्रति चन्तनीयम्-न सा मम
नाऽप्यद तस्याः, पृथक्कमफलभुजा हि प्राणिन इति। एवं
ततस्तस्याः सक।शा द्वव पनयत रागम्, तच्वदर्थिनो दि
सकश्नियत्तन्त एव । अतच्वदशननिमिक्तत्वात्तस्याति । त-
त्थ “ न सा मद णोऽवि शद वि तीस ` त्ति, पल्थ उदा-
हरण-पगा वा णियदारआ, सा जाय उज्मित्ता पव्वइओ | |
साय आहावणुप्पही मूआ, इमं च॒ घोसइ-'“ न सा महं णो
विअह पनीत सा चितइ--सा व मम॑ शरदे एप तीसे
सा ममाणुःत्ता कहमहं ते छुड़हामि त काउं गहियायारभं
डगणावत्था चव लपांट्आ | गओ अ त॑ गाम जत्थ सा । सो
य णिवाणतरझ् सेपत्ता | तत्थ य सा पुव्वजाया पा-
णियस्स आगया । साय साविया जाया पव्वइडकामा य |
ताए सो णाओ, इयरातन याणंइ। तेण सा पुच्छिया-
अमुगस्स घूया कि मया, जीवइ वा ?, सा चितइ-जइ सा
सहरा तो उप्पव्वयामि, इयरहा ण ताए णायं--जहा एस
पठ्वज्ज पयदिउकामो, तो दो वि संसार भमिस्सामा।
त्ति, भाणय चर अणाएसा अरणस्स एदरणा ; तआओ
वे तस्स केवालिपन्नत्तं घम्म पडकदेद । असुसिद्रा जाणाविओ
य पांडगओ आयारयसगासे पवज्जाए ।थरीभूओ । एवं
अप्पा साहारतव्यों जहा तेणं ति सूतजाथः ॥ ४ ॥ दश २
अ० । रागद्विषों विनिर्जित्य , किमरण्ये करिष्यसि १॥
श्रथ नो नर्जितावतौ, किमरण्ये करिष्यसि ” ? | सूत्र० २ |
श्रु० ६ अ० । रागाद्त्तदानस्वापि ईनषेथः--'' खुहिएस अ |
दुाहिणस अ, जा में अस्सेजएणसु अखुकपा। रागण व दालेणु |
व, ते निदे तं च गारिहामि `" ॥ १॥ एनद्वाथाव्याख्यानं प्रसा- _
दयम् ? इाते प्रश्न, अवात्तरम्-साधुाष्वात वशष्यमनुक्तमाप
सवमागव्तप्रस्तावादध्याहाय्यम् , ततः साधुषु की दशचु {~
सुप्ठु हिते-ज्ञानादित्रय यां त खाहतास्तेषु, पुन. कथ
म्भूनघु :-दु खितेघु-रागण तपसा वा ग्लानीभूतेघु उर्पांच-
रहितेषु वा, पुनः क.टच्ु :--न स्वय स्वच्न्दन यता- |
उद्यता अस्वयतास्तेषु गुवाज्ञ~व 'चहरखु इत्यथः, चा,
मया कृताऽनुकम्पा-कृपा ऽन्नपानच्ख,{दद्।नरूप। भक्ति,
अ्मनुकम्पाशन्सना+ भक्ति: साचता । यथ क्कन्- अ~
ऋअखुकप,ए, गच्छा अखुकंपिआ महामागा । गच्छाखु-
कंप, अव्युच्छित्ती कथा तित्थ॥ ६ ॥ ” रागण-स्च
जर्नामतरादधिभम्णा न तु गुणवच्त्यबु द्वा, तथा दइषण-इह
दषः साधुनिन्दाख्या, यथा धनधघ।न्यादिरटता ज्ञातिज-
नपरित्यक्त- छुवाता: सवेधथा निगातका अमी उषष्टम्भा-
हाः ईइत्यच ननन्दापूव या अनुकम्पा रूा5।पे नेन्देव, अ-
शु +र) घायुष्कदेतु' वाद् , यद्।(गमः- तदा रूवं समर वा माह- `
य् च। ८अ५।च ५ पाङदयपच=्क्खा 4 पाचम्ब दी।७त्ता नि
दत्ता खिाजत्ता गारेहका अवमन्नित्ता अमणुन्नेण अपी-
इऋ।रगेणं असणपाणुखाइमसाइमणु पडिलाभित्ता अखुह-
दीहाउञत्ताए कम्म पगरेइ त्ति ' । यद्वा-सुखितेषु दुः
खितेषु वा असंयतेषु-पा/श्वस्थादिषु, शेष तथ्व परे द्वे.
घण ` दगपाणं पुप्फफल, अणेलाणज् ममित्यादे तद्ध
तदाषदशनान्मत्सरण , अथवा--असंयतेषु-षड्धिधजी-
वचघक्रषु कुलिङ्गिषु , रागेण--एकदेशग्रामगोओोत्प- |
यादिध्रीत्या द्वेषण--ज़िनप्रवचनप्रत्यनीकतादिद्शनोत्थेन ।
नयु प्रवचनश्रत्यनीकादेदोनमंब कुतः ? उच्यत-तद्धक्क
भूपत्यादिभयात् , तदेवविधे दाने निन्दामि गदं च । यत्पु-
नरोचित्यन दीनादीनां तदप्यजुकम्पादानम् , यतः-“ कृष
शउनाथद्रिद्रे, व्यलनप्राप्ते रोगशाकदते । यदीयते
क्ृपाथेम--लुकम्पा तद्धवदानम् ॥६॥ ` समथदेदस्था-
पि प्राथनाकारणा द्{द्र्ाय^्वारचुकम्पादानम् , तच्च न
निन्दार्द, जिनेन्द्रेरपि वर्षिकदाना4७रे तस्य दर्शितत्वात् , ,
उक्ल च--` इयं म।क्षफल दाने, पात्रापात्रविचारणा | द्या `|
६,
| ने त॒ सवैः, कुत्रापि न निषिध्यते॥ १॥ ” तथा-
^ दान यत्प्रथमोपकारिणि न तत्प्थः स णएवाप्येते, दी-
निःस्पृहतया पणे जम दरिषते ॥ १॥” इति गाथाथों
क्षयः ॥ १७० ॥ सेन ० ४ उल्ला० । मन्मथपारवश्य, तं० |
शागकिरिया-रागक्छिया-खो० । येन परस्य राग उत्पद्यत
तादश क्रियाभेदे, आ० चू० ४ आ० |
रागज्भवसाण -रामाध्यवसान-न० । रागहेतुके5घ्यवसान-
भदे, आ० चू० ६ आ०।( अस्य कथा ' आउ ' शब्दे
द्वितीयभाग २१ पृष्ठ गता)
रागज्फाख रागध्यान-न० । रागविषयकदुध्यान, आतु०।
» रागज्भाणे ” रागाऽभष्वज्गमात्रम्, स च कामरागस्न-
. हरागदष्टिरागभेदात्त्रिधा । तत्र कामरागो विष्णुश्रियां वि-
. कऋ्रमयशोराजस्येव । स्नेहरागा दामत्रकस्य सुरश्रेष्ठिन इव
दिभिणतः कपिलस्येव तस्य ध्यानम् । तस्मिन् , आतु० ।
शागदोसविजेता-रागद्रेपविजेत् प° । जिन, रत्ना० ।
०." 3 रि ॥
रागदेषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः
शक्रपूज्य गिराम।शं, तीर्थशं स्म्रतिमानये ॥ १ ॥
तीथस्य चतुवंशंस्य श्रीश्रमणसङ्कस्य , ईशम्-स्वासिनम् ,
श्रासन्नापक्रारित्वनात्र श्रीमहावीरमः अहमिह धक्रमस्म्रति-
मानये, इति सराङ्कः | रागद्धेषयाः प्र्ततयोः, विशषण अपु-
नजेयतारूपण जयनशीलामिति ताच्छीलिकस्तृन : ततः
“न कर्ठततजकाभ्याम "` इति त॒ता षष्ठीसमासप्रतिषेधात् क-
॥
मलकवचलालाकन । शक्राणाम--इन््द्राणाम पूज्यम-अचे,
नीयम् , जन्मस्नात्राप्टमहाप्रातिहायादिसम्पापनेन । गिरा-
म्-चाचाम् इंशम-ईशितारम , अवितथवस्तुक्रतविपयत्वन
^ ताननां प्रयोक्टत्वात् । श्रनन च विशेषणचतुष्टयना ऽमी य-
हर थाक्रमं भगवतो मूलातिशयाश्वत्वारः धरूपिताः । तद्य-
था--अपायापगमातिशयः ,. ज्ञानातिशयः , पूजातिशयः,
चागतिशयश्चति । एतेनेव च समस्तेन गणधरादेः
स्वगुरूपयेन्तस्य स्पतिः कतेव द्रष्टव्या ; तस्याप्य-
कदशन तीथर्थशत्वात् , निगदितातिशयचतुष्टयाधारत्वा-
ञ्। इत परापरप्रकारेण ट्विविधस्याप्यपकारिणः सत्र
काराः. सस्मरू: । अपकारिणस्तु तथाभूतस्येत्थमनेनव
च्लाकरन स्म्ातमकुवन् ताथस्य-प्रागुक्कस्य , , तदाघधेयस्या 55
शमस्य वाः दम-लच्मीं, महिमाने वाः शयति तत्तदसदभू-
तदूषणो द्वाषण: खाभिपायेण तनूकराति यः स तीर्थशः,
। ती्ान्तरीया बहिरज्ञापकारी, तम्। कि रूपम् ?, शकरः
पूज्या यागादा दविदानादिना यस्य स तथा, तम्; ए-
तावता वदान॒सारिणा शइप्रभाकरकराभज्ञाक्षपादकॉपला
श । पुनः कि भूल तीथशम ? ,--गरामीशे-वा-
दान नास्तकतत्तश्वतायतुत्रहस्पनः सचा ! तथा
7३७
ने याचमनमू्ल्यमव दायत सर्ण्कि जे रागाश्रयात् । पात्र |
यत्फलावस्तरा प्रयत या तद्वादंधीफ न क्र, तद्ान यदुपत्य |
स्वप॒त्रमरणभ्रवणतों हृदयस्फाटात् , दृष्टिरागों ब्रह्मलोका- ।
दागत्य खद्शैनानु रागतः स्वशिष्यं प्रति-आसखुरे ! रमसे इत्या- |
श्रमत्रायस ?; इति नाऽऽरेकणीयम् । तथा विश्ववस्तुनः |
कालत्रयवतिसामान्यविश्चेषात्मकपदाथस्य, ज्ञातारम् , अ- |
( ५४४ )
छि
अभिधानराजेन्द्र
गदासविजला
गिराम्-वाचाम् ईम-लच्मीं शोभ. श्यति यः, तम्; प-
रमाथतः पदाथप्रतिपादने दहि वाचां शाभा, तांच ता-
सामपाटमात्रगाचरनामाचक्ताणस्तयागतस्तन्क गव्यवः दानि
वशपषणावृत्त्या खुगतापक्षेपः । पुनः कीटश नम ?, ज्ञातारम्
विश्ववस्तुनः-ना 5स्माक भ्वनभिक्ञृणां सम्बन्धि. विश्वव-
स्तु समस्तजीवादितचवे कर्मता ऽऽपन्नम् , समानतन््रत्वा-
उज्ञातारम् : इति दिगम्बरावमथीः । ज्ञातारमिति च
वृन्नन्तम् , इत ` त॒न्नुदन्त० ` -इत्यादिना कभाणि पघष्ठीप्र-
तषेधः । नन्वकस्मिन्नव वक्रि स्वात्मान निर्दिशति कथ-
म् ` आनय ` इत्येकवचनम्. ` नः ` इति वहवचने च स-
मगेसानाम् ?, इति चत् । नेतद् बचनीयम्, ` नः ' इत्यत्रा-
प वक्त्रा स्वस्यकत्वनव निर्देशात् : वहुवचने त्वेकशषव-
शात् | तथाहि-ते चान्ध सर्वे श्वतवासंसः. अहं च प्र-
चक्रा्ततशाख्रसूल्धारः , वयम् : तेषां नः. “ व्यर्दां
। इत्यनेना ऽस्सनच्छुब्दो ऽवशिष्यने, बहुवचन च भवति । त-
ताउस्माक श्वतवासोदशनाध्रितानां सर्वेषां तत्त्व यो ना-
नत, ते च स्मरामीत्युक्कं भ्वति । उत्थं चेकशपशालिवि-
शषण कुवाणस्तच्छब्द्रापदिष्टमारगस्थाशिष>वताम्बरपारत---
तत्य खस्या55विश्वक्र । पुनः कीटन्तं तम् ?, रागद्धेषविज्ञता 5
रम्-इतम्-पाप्तसम्बन्धम् , आरम्-सांसारिकानेकक्लेश-
, स्वरूपशङसमृहा ्यास्मस्तौ्थशेस तथा, तंच: कथमे-
| तादृश तम् ?, इत्याह-रागद्ेपविजा-रागद्रेषाभ्यां ऋृत्वा
याऽसौ वक् श्रीमद्ह्॑प्रातपादितत्वात् प्रथग्भावः , तंया।
भगवददैत्मतिपादित तच्वमनुभवन्ता पि हि. रागद्धेषका-
लुप्यकलङ्ाक्रान्तस्वान्ततया परऽपरश्रव प्रलपन्तः ससारि-
कक्कशशात्रवगाचरतां गच्छुन्त्यव श्रनेन चाशषाणां शषा-
णार्माप सम्भव तिहयथ्रमाणवादिचग्कप्रमुखाणामाविष्क रणम् ।
न खलु माहमहाशेलूपस्येका नर्तनप्रकारा यदशेषतीर्थिका-
नां प्रत्यकं स्मृतिः कन्त शक्यत । नन्ववमतान् प्रतिक्षेपा-
विशपाथमुरपास्ितस्या $श्रयसि प्रवृत्तिरापन्नाः इति शङ्कां
निरासंतु ` रागद्धप-` इति विशषण सिप्मजीघटन-अर-
सन््अत्यर्थम , रागठ॒पयार्विजयनशीलः : तषां स्म्रतिमस्मि
कराम. न त्वन्यथा, इति तत्र भवदाभिप्रायः ; प्रमाणन-
यत्व खल्वत्र शुच्विचारचातुरीपृ्रमालाकनीयम् । न
च रागद्पकषायतास्त करगात्ररच्यमाना वनच्रारश्ारूता-
अति । इत्यन्तरङ्गापकारिस्मरणम् । ननु तथाऽपि कथ-
मतर्दिवयदग्भिरर्वागटशोऽस्य तच्वविचारः साश्रीया-
न?, इत्यारकामपाकतु च्छषगेव व्यशीशषन्- ज्ञातारं
यश्ववस्तुनः । विमलकेवलालोका<5 ऽलाकतलोकालाक-
श्रामद्दत्परतिपादतागमवशात् खल्वहर्मापि कामं विश्वव-
स्तना ज्ञातवति । बृदद्व्रत्ता तु स्वकतृकल्वाद् नामीषाम-
पकारणा ।नराचिकीर्षितत्वन स्मरा व्याख्यायि, न खलु
महतामादशमधांमत्थ प्रकटयतामोचिती नातिवर्मते ;
फलाजुमययारम्भत्वात् तवाम् । सूचामात्रे तु सत्र कतिप-
यात्यन्तसहृदयहदयसंबद्यमविरुद्धमिति । रत्ना० १ परि० ।
रागदासाभिभूय रागद्धेषाभिभूृत- न०। रागश्च-्रीतिलक्षणा
| श्च तद्विपगीतलक्षणस्ताभ्या माभिभूत आत्मा याम् । रा-
गद्धघाभिभ्तस्वरूपे. मूत्र १ श्र० ३ २ उ७।
धरमुपक्तिपता ऽस्य रागद्वपकालुप्यवृद्धिः स्यान्, इति श्रयो-
( ४४६ ) हे (व
ऋमित्रानराजन्त्रः न
रागदासावम्स ०
रागदासविसपरममत- रागठपावेपपरममन्त्र ए" । रागद्धपो |
विषमिर्वात रागद्भपविपे तस्य परममन्चः तद्घातित्वादाति।
रागद्धपावनाशन, प० स्वर? सृत ।
रागदोसाणुगया-रागदरपानुगता- खी” । प्रीतिलक्तणो रागः, |
प्रीतिलन्तणा द्वपः, ताभ्यामनुगता सहिता | निष्कारणद-
प्पंरागद्धेघानुगतायां दपिकार््रातपवणायाम्, नि० चू० १ उ०।
रागबंधण-रागबन्धन-न० । रञ्जन रञ्यत वाऽनन जीव इति
राग: | राग एवं वन्धने रागवन्धनम् । वन्धनभद, आ०
चू ४ ० |
दुविह बंधण पत्त, तं जहा--रागब्ंधण, दोसबंधरण
चव । स० २ सम० ।
रागमंडल-रागमणडल-न०बसनन््तादिरशागसमूह ,ग० ३आधि०।
रागरत्त रागरक्र-न० | अभिष्वज्ञलक्षणा रागः तन रक्तः | त- |
ड्रावितमूत्ता, आव० ४ अ्र०। विषयासक्के, ते । +
रागविहि-रागविधि-पु०। रञ्जन रागः कुस॒म्भादिना वरणान्त-
रापादने तद्विधयः । स्निग्धत्वादिषु रुक्ञत्वादिषु च क्रिया-
भदेषु, उत्त० १ आ०।
रागाराकलसवासय-शगादङ्पवासत- न । रागादक्कश
सवथा चित्तादव्यतिरिक्रेः संस्कृत, घ० २१ अधि०।
रागादरहिय रागादिरहित- पुं | वीतराग, प० व० १ द्वार ।
रागाइव्रिणासण- रागादि विनाशन न । रागद्रषमाहापाहः
क, पञ्चा० १८ विच०।
रागाइविधुरया रागादिविधुरता - खी । अविषमत्व, नि
चू० १६ उ०। का ५६
राच-राजन्- पुं । चूलिका>पेंशाचिके तृतीय-तुययो-
राद्य- द्वितीयौ ` ॥ ८ । ४। ३२५॥ इति जकार स्थान चका-
रादशः । राजा-राचा | न्रपतों, प्रा० ४ पाद।
राजपध राजपथ पृ०। “था धः ”॥८। ४। २६७॥ इति
थस्य धः शोरसनन््याम । राजमार्म, प्रा० ४ पाद ।
राडी- गारी-खी० । कलह, स्था० १ ठा० । संग्रामे, दे० ना०
७ वग ४ गाथा ।
राम राम- पं | वलदवे, आब० १ अ०। पाइ०्ना० | स० |
( दसारमडल ` शब्दे ४ भाग वलदवा वासुदेवाश्व दर्शिताः) |
“अयले वजय भद्, सप्पभ अ खुदसण | आणद णदन पड
म. राम आपडप्राव अपाच्छुम ॥ १॥ आवण० १ अ० । प्रत्र०।
रामे णं बलदव दुवालसवाससयाई सव्वाउयं पालित्ता
देवत्त गओ | स० १२ सम० |
आ० म० | आ० चु । नवमे बलदवे, सण
रराकायां यान जमदगभः पत्र, आ० क० १ अ० ।
दशः । (याह कातवबाय प्रत क्रुद्धः 'त्रेःसप्तकृत्वा निः-
च्तात्रया प्राथत्षामकरात्--तद्रत्त जमदाग्ग
भागे १४०० पृष उदाहतम् ) स्वनामख्यात राजपुत्र
लिख्यत तत्र रामक्रथा-- यथा ब्रह्मस्थलपुर भुवनचन्द्रा
ग्०© |
१० सम० । |
शब्दे चतुध- |
गाजा, गमः सुतः द्वास्पतिकलाकुशलः, अन्यदा यज्ञा मन्त्री |
--
पृष्टः, रामाय योवराञ्यपदं ददामीति । मन्च्याह-नाये याम्यः
दाप? इति राज्ञाक्क मन्व्याह-देव ! ! अयमवशश्ात्रान्द्रय
प्रत्ये गीताप्रियः । राजा हसित्वा55ह-मन्त्रिन ! राज्ञां गी
प्रियत्वे गुणः.अहो तव चतुरता । मन्त्रयाह-देव!अत्यासक्वत्वे
दाषः। “जह अग्गीह लवा वि हु,पसरंतो दहइ गामनगराई।
इक्िकिमिदिय पि हु , तह पसरंत समग्गगुण ` ॥ १ ॥
ततः एतस्य लघुभ्रातुः सम्प्रति जातस्य राजलक्षणलक्षितस्य
योवराज्य दीयतामिति, मन्त्रिणि कथयत्यपि राज्ञा र
दत्तम | कमण राजनि सरत.स एव राजा जातः।कनीयान् भ्राता
युवराजः। रामो ऽहर्निशे गीतानि शटणोति, स्वयमपि गायति,
करात्याभिनवानि गीतानि , शिक्षयति इम्वादीन्निव्य
सक्त एवास्त, न राञ्यचिन्तां कगाति । अन्यदा तरुणीडम्बीः
भिर्मीतप्रसङ्कस्तद्र पमोदितोऽवगणय्य निजकुलादिमर्यादाँ
तास्सवत,च्रनाचारी सततं तदासक्क एवास्त । ततो मन्त्रि्रश्र-
तिभिर्विचा्य तस्य लघुश्राता महावला राज्य स्थापितः
रामा निघ्राटितो देशात्। विदेशे श्रान्त्वा मत्वा दर्शि
जातः । गीतश्रवणासक्ता व्याधेन हता । जातो महावलपुरो-
दिस्य पुराऽपि गीतप्रियः अवशश्रवरेन्द्रियः। अन्यदा _
मदावलच्रपण रात्रो इम्बकुटुम्वे गायति पा््वस्थितपुरो-
हितपुत्रो भणितः-यन्मम निद्रासमये एत गायनतः स्थाप्याः।
तेन सरसगीतासक्रन न वारिताः । पश्चाद्रात्रो राजा प्र- _
वुद्धा रुपः, तेल पक्त्वा तस्य करयोः क्तिपति , स खतः |
राज्ञः पश्चात्तापा जातः, यत्स्वस्पऽप्यपराधे मया गुर्द `
खडः कृतः । इतश्च तत्रायातः केवली, राजा तं वन्दित्वा तस्य
कथां पृच्छति । रामभवादारभ्य यथास्थितमा ख्यात । अन्न
स्य भूयान् संसार इति श्रुत्वा श्रवणन्द्रियविपाकं दा
रुणे द्रा महावलः प्रवजितः, शिवमाप, इति श्रवणेन्द्रिय- |
विषयविपाकर रामकथा ॥ ग० २ अधि०। क्षत्रियपरिवाज-
कभदे, ओ । खनामख्याते दशरथात्मजे, स० १० स्म० । `
तत्कथा चवम्-
सीता जनकाभिधानस्य मिथिलानगरीराजस्य दुहितां
वेदेदी नाम्न्यास्तद्धायायाः देदजा भामरडलस्य सहजातस्य
भगिनी विद्याधरापनीतं द्वताधिष्ठितं घुः स्वयंवरमण्ड- `
पे नानाखचरनाकिनिकरसमक्तमयोध्याभिधाननगरीनिवा- _
सिना दशरथामिधानस्य नरनायकस्य सुतेन रामदेवेन
पद्मापरनाम्ना बलदेवेन लक्ष्मणाभिधानवासुदेवज्येष्ठश्राता `
स्वप्रमावेणापशान्ताधिषठातृदवतमारोपितगुणं विधाय प्रा
प्रसाधुवादन महाबलेन परिणीता , तता देशरथराज श्र
चेवजिपौ रामदेवाय राज्यदानाथमभ्युत्थिते भरताभिधाने
च रामदेवस्य मात्रन्तरसम्बन्धिनि भ्रातरि प्रवजितुकाम
भरतमात्रा पू्यप्रतिपन्नवरयाचनोपायेन राज्ये भरताय दा
पित बन्धुस्नदाच्चाप्ातपद्यमान राज्यं भरते पितृवचनस- ।
त्यतार्थ भरतस्य राञ्यप्राप्त्यश्रं वनवासमुपाधितेन स £
लक्ष्मणन रामेण सह वनवासमधिष्ठिता , ततश्च लच्मशेन ^
कौतुकेन तत्र दरडकारर्य सञ्चरता आकाशस्थ खट्टर” | ।
लमादाय कोतुकनेव वंशजालिच्छेदे कते छिन च तन्मध्य
वत्तिनि विद्यासाधनपरायणे रावणभागिनेये खरदृषणच
न्द्रनखासुते संबुक्काभिधान विद्याधरकुमारे रषा च तं प~
श्चात्तापमुपगतन लदमणेनागत्य श्रातुनिवेदरिते शंसन्
व 3 = 2 "त =
द्ग
++ कत
| # ३
। $
~
| पतच्यतिकरदशनकुपितायां चन्द्रनखायां पुना राम- |
( ५४७ )
अमभिधानराजन्द्र:
राय
लच्मरयादशनात् सञ्जातकामायां कतकन्मारूपायां तत्पा-
अनापरायां ताभ्यामनिषठायां च पुत्रमारणादिव्यतिकर च
तया शोकसषाय्यां खर दूषणस्य निवेदित तन च वेरानिया-
तनोद्यतन सह लक्ष्मणन याद्धमारञ्ध ज्ञातभागिनयमरणा-
दिव्यातिकरेंण लड्जानगरीत आकाशन गच्छुता रावणन
दृष्टा, चष्राचतां तन कुखुमशायकशरप्रसरावधारतान्तःवः
रशन अगणित कुल मालिन्यन अपहसितविवेकरत्नन विमुक्क
घमंसंज्ञन अनाकलितानर्थपरम्परेण विमुक्कपरलाकचिन्तनेन
जातसातापहारवब॒ाद्धना ॥वयानुभावापलब्धरामलक्ष्मणस्व- |
रूपण वज्ञाततत्सत्कोसह नाद् सङ्गतकरणन लक्ष्मणसग्राम- |
स्थान गत्वा मुक्त सिंहनादे चलित तदभिमुख रामे एका--
किनी सती अपहता, भिगिति नीता च लङ्कायां विमुक्ता
ग्रृहाद्यान प्रथिता च दशकन्धरेणानुकूलर्प्रातिकूलवाग्भिवै-
श नच तमिष्टवती । रामेण च सु्रीवभामरडलदनुम-
दादिविद्याधरबुन्दसहायेन महारणविमदं विधाय नानावि-
धाज्नरेश्वरान्निटत्य दशवदनं च विनिपात्य नीता स्वगर्
हामात । प्रञ्च० ४ आश्र० द्वार ।
रामकण्ट रामकृष्ण पु । कूणिकमहाराजभाय्यायाः राम-
कृष्णायाः अपय, नि० १ श्र° १ वर्ग १ आ० । ( तद्क्कव्य-
ता कालकुमा रवक्कतब्यतावद् भावनाया शत ननर्याचालक्रा-
या अष्टमषध्ययन साचतम )
रामगुत्त-रामगुप्त-पु० । साकतनगरस्थित भद्रपुत्र, अरु । |
स्था० । (स च द्वात्रिंशत् कन्याः परिणीय वीरगान्तिक प्रत्नज्य
सलखनया सृत्वा सवाथसिद्ध उपपद्य महाविदहे सत्स्य-
तीति अयुत्तरापपातकस्य ततीये वर्ग पञ्चमाध्ययन
सूचितम् । ) स्वनामख्यात लोकिकराजर्षौ, रामगुप्तश्व॒ रा-
जर्पिराहारादिक मुक्त्वैव भुञ्जान एव सिद्धि प्राप्त । सूत्र०
१ श्रु० ३ अ० ४ उ० । द्विगरृद्धिदशानां दशमाध्ययनाक्र स्व-
नामख्यात पुरुष, स्था० १० ठा०।
रामचंदसरि रामचन्द्रसूरि- प° । कुमारपालप्रतियोधकश्री-
हमाचार्यशिष्ये , अनन निर्भयरभीमव्यायोग-रघुविलासना- |
रक-विहारशतक-द्रव्यालङ्कार-राघवाभ्युदयमदाकाव्य-या
द्वाभ्युदयमदहाकात्य-नलावलासमहाकाव्यााद्रन्यशत न
भैम इति भ्रवन्धशतककन् नामविरूदेन प्रसिद्धः | जे० इ० ।
रामण-रामण-न० । मन्धाक्राडन , ग० ई आध० |
रामंदव-रामदेव-पु० । कोकापाश्वैनाथप्रतिमाद्धारके सौ-
बरिकनायकवशोत्पन्ने विक्रमसवत्सराणां १२६२ समय
गुजेरदेशीये स्वनामख्यात पुरुष, ती० ४६ कल्प ।
रामय-रामक प° । म्लेच्छदेशभदे, तद्घास्तव्ये जन च । प्रव०
२७४ द्वार ।
रामरक्विया-रामरक्निता-खी० । ईशानन्द्॒स्याग्रमहिष्याम् ,
० ६० श० ५ उ० । ती० | ( अस्याः पृवोंत्तरमवकथा ˆ अ-
ग्गमहिसी ' शब्दे प्रथमभागे ६६६ पृष्ट उक्ता )
रामविजय रामविजय-पु० । कथाखूजरस्य करटपवा चका -
जामव॒त्ते: कारकस्य विनयविजयस्य च्त्तिकिरणामभ्यथक-
श्रीवजयगरो , ^“ औ्रीरामविजयपसणिडित-शिष्य श्रावजयाव -
विधमुख्यानाम् । अभ्यथैना5पि देतु-रविक्ञेयो ऽस्याः छूतों वि-
चृत्तः । `` कटप० ३ अधि० ६ क्षण ।
रामसयण-रामशयन् पु? । स्वनामख्यात तीथ. श्रीरामशय-
ने प्रद्यातकारी श्रीचद्धमानः। ती० ४३ करप ।
रामा-राप्ता-स्त्री० । श्रीआरिष्टनमिना सह रमत गाविन्देनि-
तम्विनीवत् कीडयतीति । तं ० । ईशानन्द्रस्याग्रमादेप्याम् ,
ज्ञा० २ श्रु० ८ वग ६ अ०। भ० । सखुग्रीवराजमायायाम्
पुष्पदन्तनवमती थकरमार्तार, स्था० ५ ठा० १ उ० । ति ।
्ाव० । प्रव० । स० । सियाम् , “ रामा `` पाइ० ना“
१२ गाथा ।
रामायण-रामाथण न° । वाल्मीकिकृते दाशर्धरामर्चार-
तप्रातवद्ध स्वनामख्यात महाकाव्य , अनु०। सम्म०।
राय-राजन्- पु । राजते इति राजा । नरपतौ , स्था० ५
ठा० ३ ड० | दश०। ज्ञा० । ज० । प्रश्न० । औ० ।
चक्रवच्त्यादों, सूत्र० १ श्रु० ३ अ० २ उ०। राजा--चक्रवत्ता
बलदेवा वासुदेवों महामाण्डलिको वा । जी० ३ प्रति० ४
अधि० । राजा द्वधो भवति आत्माभिषिक्कः', अपराभिषि-
कृश्व । आत्मनेव-नजवलेन राज्य ऽभिपिक्रः आत्माऽभिषि-
क्रः, परेणाभिषिक्तः परामिषिक्कः । तत्रा ऽ ऽत्मामिपिक्घा भगत-
अक्रवत्तं तस्य पुत्र आदित्ययशाः परामिषिक्कः | व्य ० ५ ड०।
राजलक्षणमाह--
उभतो जेशिविसुद्भों, राया दसभागमेत्तसंतुट्ढी ।
लोए देद् समए, केयाञऽञममा धाम्मता राया ॥३०८॥
यो राजा उभयोवरविशुद्धः-मातपितृपक्षपरिशुद्धः , त-
था प्रजाभ्यो दशभागमाच्रग्रहणसन्तुष्ः, तथा लोक-लाका-
चारे वेदे-समस्तदशनिनां सिद्धान्त समये--नीतिशास्त्र कू-
तागमः-कृतपररिज्ञानों धार्मिको-धम्मश्रद्धावान् स राजा,श-
पस्तु राजा55भासः ।
तथा--
पंचविहे कामगुणे, साहीणे जए निस्वसग्ग ।
बावारविष्पम्ुुको, राया एयारिसो होई ॥ ३०६ ॥
पञ्चविधान्-पञ्चप्रकारान् रूपरसगन्धस्पशशब्दलक्तणा-
न् कामगुणान्स्वाधीनान-- स्वभुजापाजितान् निरूद्धिग्नः-प्र-
त्यन्तराजकृतमनादुःखासिकाया अभावात् , व्यापारवि-
प्रमुक्का-देशपरिपन्थ्यादिव्यापारविप्रमुक्का युवराजादीनां त-
दृव्थापाराध्यारोपणात् यः स एतादशो राजा भवात | व्य०
१ उ०। राजवर्णका लिख्यत-- महयाहिमवंतमहंतमलब-
मंदरमहिंदसारे ` महाहिमवानिव महान् शपराजपवेता-
त्तया, तथा मलयः--पवतविशषो मन्दरो -मरूः महेद्रः-प-
वतविगषः शक्रा वा, तद्धत्सारः-प्रधानो यः स तथा ।
अच्चन्तविसद्धदीहरायकुलवंससुप्पसए ” अत्यन्तावशु-
ज्वा-निर्दोषो दीधः-चिरकालीना या राज्ञां कुलरूपो वेश-
स्तत्र सुष्ठु प्रसृता य स तथा । “ णिरंतरं रायलक्खणाव-
राइयगमंगे ` राजलक्षणः--स्वस्तिक।दिभिः विराजतमज्ञ-
मङ्ग गात्रे यस्यस तथा, मकारस्तु प्राकृतशलीप्रभवः ।
मुइए' त्ति मुदितः-भ्रमादवान् , , अथवा--निदोषमाठ्का
५ ( ४५६ )
| अभिधानगाजन्द्र: |
राय १
यदाह--' मुइझो जो होइ जोणिसुद्धा ` त्ति । ` सुद्धाहिसि-
न ' [त्ति पितापतामहादिामिः राजभिवा या राज्यमाप
क्रः । माठापउसुजाए ` तत्त पित्रार्चिनोततया सत्पत्रः।
यपत्त ` त्ति प्रात्करूणागुणः | ` सीमेकर ' ति सीमाकारी,
मर्यादाकारीत्यर्थ: । ` सीमंधर ` त्ति कृतमर्यादापालकः ।
षवे * खमंकर खमंधरे ' जति क्तमे पुनरनुपद्रवता।
स्सिद ` त्ति मनुजषु परमश्वरत्वात् । जणवर्यापय
जनपदानां पितेव हितत्वात् ।
त्वात् । ' जणवयपुराहिए ` त्ति जनपदस्य शान्तिकरत्वात् ।
'सउकरे ' त्ति मार्गदशक इत्यथः । ` कडकर ` त्ति अद्भु-
तक्रायकारित्वेन चिद्वकारी । ` णरपवरे ` त्ति नयः प्रवरा
अस्यति कृत्वा ' पुरिसचर ' त्ति परुषाणां मध्य प्रधानत्वा-
त्। ` परिससीह ` तत्त ऋरत्वात्। ` पौरसवग्ध ` तत्त राष
सति राद्ररूपत्वात् । ` पुरिसाखीविस ' त्ति पुरुषश्चासावा-
शीविषश्च परुषाशीविषः, आशीविषश्थ सपः, कापसाफ-
ल््यकरणसामर्थ्यात् । ` पुरिसपडरीण् `
१
9
मरणु- `
त्त!
जणवयपाल ` त्ति तद्रत्तक- |
त्ति सुखानां से- ।
व्यत्वात् , युराडरीकं च सितपद्मम । ' पुरिसवरगधहत्थी ' |
त्ति समृद्ध: 'दित्त ' त्ति
विच्छिएणविउलभव-
ति प्रातराजगजभअकत्वात् । ` अड्डे `
द॒प्ता दपवान् ` वित्त ` त्ति प्रसिद्धः । '
णसयणासणजाणवाद णाइरण
` त्ति विस्तीणोनि-वस्तारव- |
न्ति विपुलानि-प्रभूतान भवनशयनासनानि प्रतीतानि य-
स्य स तथा, यानवाहनानि--रथाश्वादीनि आकीर्णानि-गु-
णाकीणीनि यस्य स तथा, ततः कमंघारयः, अथवा-
विस्तीरविपुलभवनानि शयनासनयानवाहनाकोणोानि य-
स्यसतथा। ` बहुधणबहुजायरूवरयत ` बहु- प्रभूतं घन-
गणिमादिकं वहनी च जातरूपरजन-- सुरण (प्य यस्य स
तथा । 'आओगपआओगसंपडक्त' त्ति श्रायागस्य-च्रथलाभस्य
प्रयोगाः--उपायाः सम्प्रयुक्ताः--व्यापारिता यनः; तेषु वा|
सम्प्रयुक्का-व्यापूतों यः स तथा ' विच्छाड्यिपडरभत्तपा- |
ण॒ ` ति विच्छदिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदाननाविशिष्टो च्छिष्ट-
सम्भवात् सञ्जातविच्छदेवा नानाविध प्रचुर भक्कपान
भोजनपानीये यस्यस तथा । ` बहुदासीदासगोमहिसग-
वलगप्पभूण' ति बहवो दासीदासा गामदिषगवलक्राश्च प्रभू
ता यस्य स तथा, गवलका--उरश्राः ` रपाडपुरणजतकास-
कोट्टागारा55उध्वाग[र ' प्रतिपूणानि यन्त्राणि च-पाषाणक्तप-
यन्त्रादीन काशा--भार्डागारः कराणछठागारञ्च--चान्यगरहम्
आयुधागारश्च--प्रहरणशाला यस्य स तथा । ` बले त
प्रभूतसन््यः ' दुट्वलपच्चमित्ते' त्ति दुवलाः भर्त्यामित्राः-प्राति-
बेश्मिकन्नपा यस्यस तथा “ श्रादयकंखय ` ति उपहता-
विना शिताः करटकाः--प्रतिस्पद्धिगाजजा यत्र राज्ये त-
वथा, क्रयाया वा विशषणमतत , णवमन्यान्याप, नवर
निहताः--कृतसम्र॒द्धग्रपहारा: , मालताः--ङूतमानभङ्गाः ,
बदधुता--देशान्नर्वासित्ताः, श्रत एवाविद्यमाना इति । तथा
शत्रचः--श्रगोत्रजा निर्जिताः--सखस्यौन्द्यातिशयन परि-
भूताः , पराजितास्तु तद्वघराञ्यापाजने कृतसम्भावना-
भद्गाः, ' ववगयर्द॒ाब्भक्रखमारिभयविप्पमुक्क ` मिति | व्यक्तम्
` पर्ताडयडमर ` ति डिम्बाः--विधघ्ना: डपगाणि-राज- |
कुमाराविक्ततवेराज्यादीनि, *' पसेताहियडमरे `
त्पाठः , तच्रादितडमर-शच्रक्रतङमराऽधिकडमरा वा ।
* रखे पसासंयाण ` ति प्रशासयन--पालयन ' फ्साहेमाणे `
ति कच-
` परश्चापीन्द्रि
तत्प्रघानस्तस्यावा यो रजनाकरः-चन्द्रस्तद्वाद्धमल आतपू- ॥
| वलास्-नत्रचण्ठा, तथा सह लालतन-ग्रसन्नतया य स
त्ति कचित्पाटः, तैत्रा ऽप्ययमेचा्ः, विदरति- चतत । अथ
ज्ञी वराके लिख्यत-- श्र्हाणर्पाडपुरणपचिदियसर्सीरा `
चित्त-' अद्दीणपुष्म पेचिदियसरीरा ` अहीनांनि--अन््यू
लक्षणतः, पूर्णानि--स्वरूपतः . पुरायानि वा-- पांच
याणि यत्र तत्तथाविध शरीर यस्याः सा तथा
लक्खणव जणगुणाववया ` लक्तगानि--स्वस्तिकचक्रादी
नि व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि तषां या गुणः-प्रशस्त-
त्वे > नापपता-युक्घा या सा तथा । * माणुम्माणप्पमाणप-
डपुराणसखुजायसव्वगसखदरगी' तत्र मानम-जलद्राणप्रमाण-
ता. कथम् ?-जलस्यातिभ्रत कुण्ड प्रमातव्यमानुष
शित यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्राणमान स्यात्तदा
चष मानघ्राप्तमुच्यत तथा उन्मानम्-अद्धभारभमार्
कथम् ?, तुलारापिते मानुषं यद्यद्धभारं तलति तदा,
न््मानप्राप्तमित्युच्यत, प्रमाण तु-स्वाङ्गुलनाष्रा्तर
यता, ततश्च मानोन्मानध्रमाशेः प्रतिपूर्णानि-अन्युना धि |
सुज़ातानि-सुनिष्पन्नान सर्वाण्यज्ञानि-शिरःप्रभ्नतीरन यत्र
तत्तथाविधे सुन्दरमहुं-शरीरं यस्याः सा तथा । ` सासेसोा
माकारकंतपियदंसणा ` शांशवत्सोम्याकार-कान्त च-कम-
नीयमत एवं च प्रियं--वज्नभं द्रष्टणां दशन-रूप यस्याः
सा तथा | अत एव ` सुरुच ` त्ति शाभनरूपा । ' करयलप-
रिमिअपसत्थातिवलियर्वालयमज्का ` करतलपरिमितो-मु-
प्िग्राह्यः प्रशस्तः-शुभास्नवालको-वलित्रययुङ्गा वलितः-
च
क
~
= क येः उ ऋक च
सञ्जातर्बालमेध्या--मध्यभागोा यस्याः सा तथा, | ' कुंड- `
लुल्लिहियगंडलहा' कुण्डलाभ्यामूर््खिखता गरडलखाः--
कपालपत्रवर्ट्यो यस्याः सा तथा, ` कुरडर्लाज्निखितपोन-
गराडलर्खाति ` पाठान्तर, व्यजक्च । ` कामुईरयशणियरबि-
मलपाड़पुरणसामवयणा ` कामुदी--चन्द्रिका कार्तिकी वा- .
र सोम्यं च वदने यस्याः सा तथा। ` सिगारागारचास्वसां
शृङ्गार स्य-रसविशषस्यागारामिव-स्थानांमव चारुः-शोभना
वपा-नपथ्य यस्याःसा तथा | अथवा-श»ः क्ञारा-मण्डन भूषणा
टापस्तत्पधानः आकार:-सेस्थान चारुश्च वषा यस्याः सा त-
था । ` संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंलाब- ।
णिउणजुत्तावयारकुसला ` सङ्गता--उचिता गतहसितभणि- ` `
तर्विदितविलासा यस्याः सा तथा, तत्र विहितं-चश्ति
लापाः-परस्परभाषणलतक्षणास्तेषु निषुणा या सा तथा | तन ४
था युक्लाः-सज्ञता य उपचारा-लोकव्यवद्दारास्तेषु कुशला
या सा तथा. ततः पदञयस्य 'कर्मधारयः । कचिदिदम-
न्यथा दृश्यत--' खुद्रथर्ंजघणवयणकरचरणनयणलाव- '
तणावलासकलिया व्यक्तमेव. नचरं जघने-- पृथवकरटीमागः
लावरयम्-श्राकारस्य स्पृदणीयता विलासः-खीणां च
विशषः,आह च-"स्थानासनगमनानां, हस्त भरूनत्रूमेणां चे-
व | उत्पद्यत विशघा, यः श्छिष्ठः स विलासः स्यात् ॥ १ ॥
इति । तथा-( श्रो५। ) ` श्रणुरन्ता अविग्त्ता इट्टे सहफरि
सरसरूवगंध पंचांवहए माणुस्सण कामभाण पच्चणुब्भव-
मासी विहर्रात ` व्यक्तमेव, नवरम् , अनुरक्का-अआंकरक्ला अर
नुरज्य न बिप्रियेडपि विरक्घतां गतत्यर्थः। ७। औ०। (शं
दिरात्मीकरणम अर्चीकरणं च खखस्थान व्याख्याते )
माराडलिक, भ० ६ श॒ञ ३३ उ० | करप० ।
श्रद् छान्तनं राज़बणन भावयात--
ज्सन्ववासी ४, १३, एवामव चत्तारि रायाणो पष्पत्ता,
तं जहा देसाधिवती राममगे णो सव्वाधिवती ४, १४॥
(घ्र २४६ )
विवक्तितभरवतादिक्षवस्य प्रावुडादिकालस्य वा देश श्रा
त्मनो वा दशन वपतीति दशवर्षी १, यस्तु तयाः सव-
याः सवोत्मना वा वपति स सर्ववर्षी, अन्यस्तु क्षेत्रता
देश कालतः सर्वेत्रात्मना वा सव्यतः २, अथवा--कालतो
दश शत्रतः सर्वत्र ३, आत्मना वा सर्वतः ४, अथवा
आत्मना दशन त्तत्रतः ५, कालता वा सव्र £, अथवा
्षत्रकालता दशन आत्मनः सर्वतः ७, अथवा-त्तत्रता दे-
ज्ञ, शरात्मना दशन कालतः सर्वत्र ६, श्रथवा--कालता द-
शा आत्मना देरान क्तत्रता न सर्वत्र ८, इत्यवे नवभिर्चि-
_ कल्पवर्षात स दशवर्षी सर्ववर्षी चति, चतुर्थः सुज्ञात इति
२३, राजा तु या विवक्षितक्षेत्रस्थ मधघवदेश एव यागक्षम-
कारतया प्रभवात स दशाधपतिन सवौधिर्पातिः स च
पल्ञीपत्यादिः. यस्तु न पट्टयादोा दश ऽन्यत्र तु सवत्र प्रभ-
चति स सवाधिपतिन दशाधिपातः। यस्तृभयत्र स उभया-
धिपतिः , , अथवा-देशाधिपतिभूत्वा स्वौधिपतियों भवति
शा राज्यश्रष्ट इति १४, ॥ स्था० ४ ठा० ४ उ० । लच्म्या
देदीप्यमान, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार | पश्चाशीतितम मदाग्रह,
भ प्र० २० पाहु० । च० प्र० । कल्प० ।
रायछुय देशी-न० ¦ वतसौ तरो, “रायंछुयं च वेडिसं” पाइ०
ना० २५८ गाथा |
राोयत-राजमान-0० । ददाष्यमान, कटप० १२ अधि०
शयतउर- राजान्तःपुर न० । राजमहिषीगृहे, स्था० ५ ठा० २
उ० । रा० ।
| रोयंबू-देशी-वेतसद्र॒मे; शरभ च । दे० ना० ७ वर्ग १४ गाथा |
'रोयंस-राजां(श)स-पुं० । राजयच्मणि, आचा० ६ श्रु० ६ अ०
१ उ०।
शयंमि-राजां( शि )सिन्-त्रि०। राजासः-राजयच्मा साऽस्या-
स्तीति राजांसी । त्तर्खाण, श्राचा० १ श्रु० ६ अ० १ उ०।
'रॉयककुह-राजककुद-7० । न० । राजाचह्न, प्रव० १ द्वार |
दशा० । ओ० । द्श० । स्था० ।
अध्ुना खडगादिरूप राज्ञां तदेवा55ह--
' धच रायककुंहा पष्पत्ता । । त जहा---खग्ग छत्त उप्फस
णहाओ बालवीअणी । ( स्ू० ४०८ )
पंच रायककुदा इत्यादि व्यक्तम् , नवरं राज्ञां-नुपती नां
कुदानि-चिह्ाानि राजककुदानि, ` उप्फेसि ` त्ति शिराव-
ने शखरक इत्य थः, ` उपाह णाउ' त्ति उपानहौ, चालव्यजनी
त्यथः, श्रयते च--“ श्रवद् पच ककुटाणि, जाणि
ण॒ चिघभूयाणि । खग्गे छत्तावाहण, मउड तह चाम-
शाओ य ॥ १ ॥ ` इत ( खङ्ग द्रम् उपानहों, मकुट त
श्रेय
३ क्षण ।
चत्तारि महा पष्पत्ता, त जहा-दसवासी शाममगे णो
चासदेवाणददत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधिपतिश्रति, चतु- |
( ५७६ )
अभिधानराजन्द्रः।
रायक्ररा
था चामराणि। पञ्चापनयाति यानि, राज्षश्चिह्ृभूतान ॥ १ ॥ )
स्था० ५४ ठा० १ उ०।
रायकटा-राजकथा-खनौ ०।गाजसम्वन्िभ्यां विक थायाम् ,स्था०।
गायकहा चउव्विहा पष्फत्ता, त जहा--रन्ना आतिता-
णकहा र्ना निजञ्ञाणकहा रपा बलवाहणकहा रन्ना कास-
कोटरागारकहा | ( स़ू० २८२ )
तथा अतियाने--तागरादों प्रचशस्तन्कथधा अतियानक-
था , यथा--' सियसिधुरखंघगओआ , सियचमरा सयकत्त-
छुन्नणहा। जणणयणकिरणसआ ,एसा पविसइ पुर राया ।१।”
इति , एवे सर्वत्र . नवर नियोण--निर्गमः , तत्कथा यथा-
^" बज्जताउज्नममे-दर्वादिसद मिलेतसामंते। संखुद्धसब्नलमु-
द्भधय-चिथे नयरा निवा नियद ॥ १ ॥ ` वले-दस्त्याद
वाहने-वगसरादि , तत्कथा, यथा--* हसंतहये गल्लेत-
मयगले घणपघरातरहलक्खे ¦ कस्स 5न्नस्स वि सन्ने. णिन्ना-
सिथसत्तसिन्ने भा! ॥ १॥ ` कोशा--भाण्डागारं काष्ठागा-
र-धान्यागारमिति, तत्कथा, यथा--* परिसपरंपरपत्त-
ण. भरियविस्सभरण कासरे । रिज्जियवसमणण ,
तण समा को निवा अन्ना ?॥ १॥ ” इति। इह च-
त दाधा:-- चारिय चोरा १ भिमर . हिय १ मारिय २
संककाउकामा वा | भुत्ताभुत्ताहाण, करञ्ज वां श्राससप-
आगे ॥ १॥ ” स्था० ४ ठा० २ उ०। "राजाऽयं रिपुवारदार-
णसहः क्षमंकरश्नोरहा , युद्ध भीममभृत्तयाः अविरत
साध्वस्य तनाधुना । दुरा ऽये प्रियतां करातु खुचिरं राज्य
ममाप्यायुषा, भूया वन्धनिवन्धन बुधजन राज्ञां कथा हीय-
ताम्।३६। `` घ० र० १ अधि० १३ गुण । श्राव । नि० चु
राज्ञा कटा राजकहा सा चउव्विहा--
अयां णिज्ञाणे, बलबाहणकासमव सद्राशं |
एता कहा कहत, चख जमला कालगा चउरो ॥२२८॥
चलवादणं ततश्चा भद्रा कोसमव काट्रागार चउत्था भश्रा
कवि ण्ये णवे पटति कासमव सदट्राण. तत्थ बलवाहणका-
समव सव्व एक्क संठाणामात चउल्थ. ससे गाहाए कंटं।
परिमद्धवक्लाणो इम--
श्रज्ञ अतियाति शिती, पता वा सोभए एवं ।
बल कास य पमाणं, संटाणं व्नवत्थं ॥ १२६ ॥
श्रज्ञ इति अजञ दिणं अलतिजानति पावसति णाति-खिग्ग-
छाति जातस्स ररणा शिन्ताणितस्स विभूती ते दट्ुणे अ-
न्नसि पुरता सिलाघयात | अहवा--सो राया धवलतुर-
गादिरूढा कयसहरा विलवयोावालत्तगत्ता पुरश्रा पडंज-
माणजयसदा अणेगगयतुरगरहकयपरिवारा शिता अयंतो
वा एवं साभति। बल-सखरारीरं, सवणाल वा । वाहं एत्ति-
ये तसु प्तिय पमाणे एये कटं करति. कोसो-जाह रयणा-
दिये दव्व, काट्रागारा-जत्थ सालिमादइधरण, तम्मि वा ए-
त्तियं पमां । ज पुण सट्ठाणं पदाति तास्समं चक्खाणं-सट्टासं
चषखणवन्श सद्रारो रूवे वक्ता खुद्धसामादिणवत्थ परिहरणं ।
गायकहादोसदारसणत्थ भरणति-
चारितचे।रा5हिमरा-हित- मारिवस्रककाउ कामा वा।
ननम तथा
।
( ४४० )
धआामसधानगाजन्द्र; |
गायकड़ा
शुत्ताभु त्ताहाण, कारज्ञ वा आसमपआग ॥ १३० ॥
साह णिलयद्रिता रायकह कहमाणा अर्त्थात त य खु- |
ता गायपुरसांह, ताण य रायपुरसाण पवमुवद्धिय चत्त |
स्स जड परमत्थाणम साह ता कि म पसि रायकहाए, रपू-
र प्ते चारिया-भाडया चारा वा वसपरिच्छृष्ा अहिमरा-
शाम ददरचारा, अस्सरयण वाहये कणइ ररणा वा सयणा
कणइ आदिद्वुंण आरणा मारिता पतु सकिज्जञति। च्रहवा-
चारया-चारखु सका अहिमरत्ते अस्सहरणं वा मारवा
काउकामा,वा-विगप्पदरिसण ,अहवा - रायकहाए रायदिकिख
यस्स अणखुसररं भुत्तमांगणा सइकरणं इतरखु कोउये पुन-
स्सरणका उएण हावो करञ्ज, कारिज्ज वा आससपओ-
गे। आससपआरगो नाम-निदानकरणं, रायकह त्ति दारं गये।
नि० चु० ६ उ० । श्रो०। ग० | दश० | राजकथा यथा-शरा
उस्मदीयो राजा सधनाभ्रमा: गजपतिर्गो डः अश्वपतिस्तुरुष्क
इत्यादि | ध० २ अधि० । स० | आण० चु०।
रायकुल-राजकुल न । ' राउला ` इति ख्यात राजवश
अनु० | आ० म०। |
रायखुड्टय-राजज्षुनल्नक -पुं० । राजबालके , बृ० ६ उ०।
( एकस्य राजक्षुल्लकस्य त्तप्तचित्तस्य कथा
शब्द तृतीयभाग ७४१ पृष्ठ उक्ता )
रायगई-देशी--जलो कासि , दे० ना० ७ वने ५ गाथा।
` खित्तचित्त `
रायगिह राजगृह न०। मगधेषु जनपदेषु वेभारगियुपत्यका-
यां प्रधाननगर, प्रज्ञा० ६ पद | चूज्० । प्रव० । श्राव० । श्रा |
म० | भ० । स्था० । अरखणु० । अन्त० । आण्चू० । राज-
ग्रहात्पत्तिः ` सरणिय ` शब्द् वदयत ) ( पतत्कल्पः ` वभार
शब्दे वच्यत )
इदे किलाशथजात गौतमो राजगरद प्रायः पृष्ठवान-
बहुशा भगवतस्तत्र विहारादिति राजग्रहा-
दिस्वरूपनिरयपर सूत्रप्रपञ्चै नवमा-
इशकमाह--
तेण ` कालण तशं समणएणं °जाव एवं वयासी-किमिद
भते ! नगर रायगिहे ति पवुचचइ ९, कि पुढवीनगरं |
रायगिह ति पवृचई १, आउनगरं राय गिह ति पवुचह १,
०जाव वणस्सह ?, जहा एयणुदेसए पंचिदियतिरिक्खजो
शियाणे वत्तव्वया तहा भाणशियव्वं ° जाव सचित्ताचित्त-
मीसयाई दव्वाई नगर रायगिहं ति पवुचेड १, गोयमा !
पुदवी वि नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ० जाब सचित्ताचित्त-
मीसियाई दव्वाई नगरं रायगिह ति पवुचद् । से केणउद्ठें-
शं १, गोयमा ! पुढवी जीवाति य अजीवाति य नगरं
रायगिहंति पवुच्चई ° जाव सचित्ताचित्तमीमियाईं दव्वाईं
जीवाति य अर्जीवाति य नगरं रायगिहं ति पवुचचति | से
तेणर्टरेणं तं चव । ( प्रू०२२३ )
तणाम व्याद्, जहा एयरुदसए त्ति एजनाइशका $-
स्येव पञ्चमशतस्य सप्तमः, तत्र पश्चेन्द्रियतिय ग्वक्कन्यता ।
दक्क्ा कुडा सला । सहस त्यादका या उक्का सा इह भारव- |
| रायणि(णी)यपरिहासी-राजनीतिप रिभा पिन् पु०। अचार्या-
| रायधम्म- राजधर्म ० । दुष्ट नरनिग्नहपरिपालनादिरूप लौ.
व्यति । श्रत्रात्तरम-' पुढवी वि नगरे ` इत्याद . प्रुथिव्यारत
समुदाया राजगृहं. न प्राथव्यादिसमुदायादन
प्रवरात्तः. * पुढवी जावाईइ य अजीवाइ य नगरं रायागह 7
पठुच्चई ` त जीवाजीवस्वभावं राजगरृहमिति प्रतीतं
चवात्तता प्राथवो सचतनाचतनत्वन जावा
राजग्रहामिति प्राच्यत हात ॥ भ० ५ श० ६ उ०।
राय्गपय-राजाग्रपद- पु०। स्वनामख्यात तौ थाविशष, प्र
रायग्गल-राजागल-पुं० । षष्ठाशीतितम महाग्रह, स्था*॥ |
“ दा रायग्गला `` स्था० २ डा० ३ उ०।
रायजक्ख -राजयच्मन् पु । रोगावशष, आचा० १ श्रु० ३
० १ उ०।
रायणिय-राल्िक- चि ० । रत्नाधिक, व्य० २ उ० | स्था० ॥
ज्ञानादिभावरल्नाभ्युच्छित, दश० ६ अ० ३ उ०। राधि"
कस्तु पर्यायज्येष्ठः । यद्धा-'* रायणिओ नाम-जा नाणंसण-
चरणसाहणखु खट् डं पयआ `` त्ति । ध० २ अधि० । कल्प») /
आए चू० | चिरदीक्तितादिचु, दश० ८ अ० |
रायणियत्तवाद-रात्निकत्ववाद-पुँ० । रत्नाधिका5यमिति
प्रवादे, ब्य० ४ उ०।
देषु परिभवकारिणि, स० २० सम० । “ राइणियपरिभासी '
राइणिओ-आ यरिओ अरणो वा जा महज्ञो जाइसुयपरियाया-
दीं तस्स परिभाखी परिभवकारी असुद्धक्चित्तत्तरओं अ-
प्पाणं परे य असमाहीए जाजयति । "` आव० ४ आ० | दश० |
रायणीइ-राजनीति-ख््री ० । राज्ञां नीतिः । राजकूये सामादु-
पाय, तत्प्रातपादक शास्त्र च | ज्ञा० २ श्रु० १ आ०। |
रायदंसण- राजद शीन-न० । राज्ञा हुपतेदेशनम्। गृपतिमी-
लक, पञ्चा० ६ विव्र० ।
रायदुद्टू राजद्वष्ट-न० । ढेषर दवि राज्ञा दिष्ट राजद्िष्टम् ।
राजद्ष , व्य० १ उ० | श्राव । ( कल्पिकायां प्रति.
सेवनायां यान्यपवाद पदानि अशिवादीनि तष्वन्यतमं राज-
द्ष्रम् । तत्र कक कथ कल्पत तदङ्क मूलगुणपाड्सवणा
शब्दे पश्चमभाग ३६७ पृष्ठे) (अनवस्थाप्याहँण राजपशमनार्थं
यथा गन्तव्ये, तथा राजप्रशमद्विष्ट विहरतां यथा रात्रौ
कलपते तथा 'राइभोयण' शब्दे ऽस्मिन्नव भागे ५२७ पृष्ठ उक्कम)
किकधमेमद, दश० १ अ० । आखटकेन विनादक्रियायाम्,
सूत्र० १ श्र० ५ अ० १ उ०।
रायपध- राजपथ पर । “ था धः शोरसन्याम् ” ॥ ८।४।
२६७ ॥ इति थस्य धः । राजपथा । राजयधा । प्रा० । राज
गमनयाग्यमाग, स्या० ५ ठा० १ उ०। आ०।
रायपसेणीय- राजग्रश्रीय- न०। राक्षः--प्रदशिनाज्ञः प्रश्नानि
राजप्रश्नानि । तन्प्रांतपादक सूजरक्ताङ्गस्यापाङ्ग, रा०।
“४ प्रणमत वीराजिनश्वर-चरणयुगे परमपाटलच्छायम्। |
अधरीकृतनतवासव-मुकुटस्थितर त्नरुचिचरक्रम् ॥ १॥ (4
राजप्रश्नीयमहं, बिवृणामि यथाक्रमं गुरुनियोगात्। `
तत्र च शक्तिमशक्कि, गुरवो जानन्ति मे काञ्चित् ॥२॥
(6)
राघपसेणीय
अथ कस्मादिदमपाङ्गं राजप्रश्नीयाभिधानामात ?, उच्यत्- |
प्रदेशो नाम राजा भगवतः काशकुमारश्रमणस्य समाप
यान जीवविषयान् प्रश्नानकार्षीत् , यानि च तस्मे काश
कुमारश्रमणा गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान , यश्च व्या- |
करणसम्यक्पारणातभावता बोधिमासाद्य मरणान्तः--
शुभानुशययागतः प्रथमं सोधर्मिनाम नाकलाकाव- |
मानमाधिपत्येनाध्यतिष्ठत्। यथा च विमानाधिपत्यप्राप्त्य-
नन्तरं सम्यगवधिज्नानाभागतः श्रीमद्धद्धमानस्वामिन भग
चन्तमालाक्य भक्त्यतिशयपरातचताः सर्वस्वसामभ्रीसमेत |
इदावती्य भगवतः पुरता द्वाजिशदिधन नाटधमनररीनरत्यत् |
नत्तित्वाञ् यथायुक्तं दिवि खुखमनुभूय ततश्च्युत्वा यत्र
समागत्य यथा मुक्तिपद्मवाप्स्यात । तदेतत्सवेमास्मन्नु- |
चाद्गमभिधये परं सकालवक्कव्यतामूलम् | राजप्रश्न दात
राजप्रश्नषु भवे राजप्रश्नीयम् , अथ कस्याङ्गस्यदमुपाङ्गम् !
यते--सूत्रकताह़स्य । कथं तदुपाङ्गतेति चत् ! |
सत्रकृत हाङ्गम् , श्रशीत्याधकं शतं क्रियावादिनां , च- |
तुरसीतिरक्रियावादिनाम , सप्तषाश्रिज्ञातकानां , द्वार्चि--
शत् . वेनयिकानां, सवसंख्यया त्रीणि त्रिषष्टथधिकानि
पाषणिडकशतानन प्रतित्तिप्य च समय स्थाप्यत । ऊउक्क
च~ नन्यध्ययन “ सूयगडणं असीयसई किरियावारई- |
शे, चउरासी श्किरियावाइण, सत्तसटरी श्रन्नाणियवादणे |
चत्तीसा वेणइयवाईणं । तरदं तिसट्टीणं पासंडियसयाण्
चूहे कित्ता ससमय वाविज्ञइ त्ति ” प्रदशी च राजा पूवे-
मक्रियावादिमतभावितमना श्रःसीत् , श्रक्रियावादिमतमव
चालम्ब्य जीवविषयान परश्नानकरात् , केशिकुमारश्रमणक्ष
गणधारी सवर ताङ्गसाचितमक्रियावादिमतप्रतित्तपमुपजीग्य
व्याकरणानि व्याकार्षीत् । ततो यान्यव सूत्रकृताड़ सू|चि ता-
नि केशिकुमारश्रमणन व्याकरणानि व्याकृतानि तान्यवाऽज्र
सविस्तरमुक्तानीति सूत्रङृताङ्गगतविशेषप्रकटनादिदमुपाङ्ग |
सृत्रकृताहुस्येति । एतद्धक्कयता च भगवता वद्धेमानस्वा-
मिना गोतमाय साक्षादभिहिता | रा०।
रायपिंड राजपिंड-पुं० । राज्ञशचक्रवरसिवाखदेवादेः पिण्डो
राजपिरडः | नृुपाहारे , स्था० &ठा० । दशा०। से- |
नारपीतिपुरोहितश्रेष्ठधमात्यसार्थवाहलक्षणः पञ्चभिः सह |
राज्यं पालयन्मूद्धोभिषिक्नो यो राजा; तस्य अशनादिचतु |
रक-वस्त्र, पात्र, कम्बलं, रजोहरण चत्यष्टाविध पिण्डे, क- |
ल्प० १ आधण० १ क्षण | बृ०। |
राजपिणडद्वारमाह-- |
केरिसेगो त्ति वराया, भद् पिंडस्सकेवसेदोसा।
कैरिसगम्मि व केज़,कप्पति काए व जयणाए ॥३०४॥
कोटशो ऽसो राजा यस्य पिण्डः परिहियते इति । कं
चा तस्य राजपिराडस्य भेदाः, क वा (से) तस्य ग्रहण दोषाः ।
कटश वा कार्ये राजपिरडा ग्रहीतु कल्पत, कया वा
यततनया कल्पत । एतानि द्वाराणि चिन्तनीयानि |
तत्र प्रथमद्वारे निर्वचन तावदाद--
मुइते मुद्धऽभिसित्ते, मुहतो जो होई जोरिसुद्धो उ |
अभिसित्तो व परेहिं, सयं ब भरहो जहा राया ॥३०५॥
राजञा चतुधा-मुदितो मूर्द्धाभिषिक्नो १,न मुदितो मूघौभिषि- |
क्ः२,न मद्धाभिपिक्तो मुदितः३, न मुदितो न म॒धौभिपिक्रश्च,
च्रामधानराजन्द्रः।
रायर्षिड
तत्र मुदिता नाम-योनिशुद्धः शुद्धाभयपक्षसम्भूतो यस्य मा
तापितो राजवेशीयाविति भावः,यः पुनः परण सकुटबद्धन
राज्ञा प्रजया वा राज्यऽभिाषक्रः.यावास्वयमाःमनेवाभिपिक्तो
यथा भरता राजा, पष सद्धाभिषिक्त उच्यत ।
पषु विधिमाह--
पदमगर्भगे वज्जा, होठ व मा वा वि जे तहिं दोसा |
सेसेसु होति पिंडो, जहि दासा तदहि विवज्जति ॥ ३०६॥
प्रथम भङ्ग राजपिण्डो वज्यः-परित्यक्रव्या, य तत्र राज-
पिण्डे गृह्यमाणे दोषास्ते भवन्तु वामा वा तथाऽपि वजनीय:।
शेषषु तरिषु भङ्गपु पिरडा राजपिरडा न भवात , तथाऽपि
यषु दाषा भवन्ति तान् द्वितीयादीनपि भङ्गान् चजेयन्ति ।
इयमत्र भावना--यः सनापातिमन्त्रपुगाहितश्राष्टसार्थवाह-
सहितो राज्य भुङ्ख तस्य पिरडा वजनीयः । अन्यत्र तु
भजनति, गतं कीरशा राजति द्वारम् ।
अथ के तस्य भदा १. इति दारं चिन्तयन्नाद--
असणाईया चउरो, बत्थे पाद य कंबले चव ।
पाउंछणए य तहा, अद्रविधो रायपिंडा उ ॥ ३०७ ॥
अशनादय:ः अशन पान२खादिम ३स्वादिम४रूपा य चत्वागो
पदाः यच्च वस्त्र ५ पात्र ६ कम्बलं ७ पादप्राइ्छुनकम् ८
पषा ; छावधा राजपिण्डः ।
श्रथ क तस्य दाषाः ? इति द्वारमाह--
अट्टविहरायपिंडे, अष्यतरं यं तु जो पडिग्गाहो |
सो आणाश्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ ३०८ ॥
रष्राविध रार्जापिरड श्नन्यतरदशनादिकं यः प्रतिगृह्णाति स
साधुराज्ञाभङ्गमनवस्थां मिथ्यात्वे विराधनां च प्राप्नुयात् ।
पत चार दाषाः।
ईसरतलवरमाडं-बिएहि सिदट्टीहि सत्थवाहेरहि ।
शितेहि ` अतिंतेहि य, वाघातो हाति भिक्खुस्स ॥३०६.
इभ्वरतलवर माडम्बिकेः अ्रष्टिसाथवाहश्व निगेच्छद्धिः श्रति-
याद्धः प्रविशद्धि भिक्षार्मित्षार्थ प्रविष्टस्थ व्याघातो भवति ।
पतदेव व्याचष्ट--
ईसर भोदयमाई- तलवरपटरण तलवरो होति ।
वेदरणबद्धो सेट्टी, पच्चतऽहिवो उ माडंवी ॥ ३१० ॥
ईश्वरा-भागिकादिग्रामस्वामिप्रभतिक उच्यत, यस्तु परि-
तुश्च्र॒पतिप्रद्तन सोवर्णन तलवरपटनाङ्कतशिराः स त-
लवरो भवति | श्रीदेवताध्यासितपट्टो वष्टनकमुच्यत, तद्यस्य
राजानुज्ञातं स वेष्टनकबद्धः श्रेष्ठी, यस्तु प्रत्यन्ताधिपच्छुन्न-
मडम्बनायकः स माडम्बिकः, सार्थवाहः प्रतीत इति छृत्वा
न व्याख्यातः ।
जा शिति ईतिता अ-च्छओ य सुत्तादिभिक्खहाणी य ।
हरिया अमंगले ति य, पेल्नाहणणा इयरहा वा ॥ २११ ॥
पत ईश्बरादयो या्वा्नगच्छृन्ति प्रविशन्ति च तावदसौ
साधुः प्रतीक्षमाण रास्ते । तत पवमासीनस्य सूत्रा थयोर्जे-
त्तस्य च परिहारिभंयाति, श्रश्वहस्त्यादिसम्मर्देन चर्यो
शाघयितु न शक्रोति । श्रथ शाधयति ततस्तैरभिधातो भवाति ।
काऽपि निगौच्चछन् प्रविशन्वा तं साधुं विलोक्यामङ्गलामिति
। ( ५५२ ) : ८
गायपिट । अखशिधानराजन्द्र। | रायपि
मन्यमानस्ननवाश्वरस्त्यादना परण कशादना वा आहनन | तान्नष्पन्न प्रायाश्रत्तमाह ।
कुयात् ' इतरहा च त्ति ` यद्याप काउप्यमकुल न मन्यत | . चारियचोराभिमरा, कामी पविसति तत्थ तप्मीसा |
तथा ऽप जनसमद् 0 यथाभावन भवत् । | वाणरतरच्छुवग्धा, भच्छादिणरा व धतिञ्ज ॥ ३ १ ८।
लाभ एमणघाते, सका तेण नपुंस-इत्थी वा । ` चारिकाश्चोरा श्रभिमरा कामिना वा तत्र तस्य साधा
४ ५११ र [व ~~ ॐ ५ [न
(> = निश्चया प्रविशयुः, तथा वानरतरज्ुव्याघ्रा म्लच्छादया वा
श्च्छ गच्छत चाउम्मासा वर गुरु ग् र ५.
तमशिच्छेत, चा पाभ ॥ २१२॥ (न
गाजभवनप्रांवष्टा लाभ उन्कृण्द्रव्यलाभवशत णषणा-
भ 2 ध: | अथ कीश कायं कल्पत कया वा यतनया
श्रातं कुयात् . स्तना धयमित्यादिका वा शङ्का राजपुरुषाणां भ दाति द्वारद्ययमाह-
ततु ता तन | दकि भलतम्नि, णिमतणा दव्वट लग
ययुस्तत्रच्छता ऽ निच्छतश्च सयर्माविराधनादया बद्वा दा- कर है व =
चाः। राजभवनं च प्रविशतः शद्धः, शुद्धनाउपि चत्वा- आमायारयपद्ास, भए च गहर अ्रणुष्पाय ॥ २१६॥
गा मासा गुरुकः प्रायश्चत्तस् । तिक्खुत्ता सक्खत्त, चउद्दिसिं जो गणंसि कडजोगी ।
नामव गाथां व्याख्यानयति. दव्वस्स य दुल्लमया, जयणाए कप्पई ताहे ॥ ३२० ॥
अन्नत्थ एरिसदु ल्भ ति गण्टज्ञऽणसाणज्ञ पि। गाथाद्वय शय्यातरापरड च द्रष्टव्यम् । नवरमागाद .“
अप्रणावि अवहित, संकिज़ति एस तेणो त्ति।३१३॥ | व्व क्षिप्रमेव राजपिणडं ग्रह्माति, अनागाढ़े तु विःक्त्वा
श्नन्तःपुरिकाभिरुल्कृ् द्रव्यं दीयमानं दषा नास्त्यन्यत्रहशं | [यत्वा यदा न लभ्यत तदा पच्चकपारहाण्या गुः ना
बलभ चति लाभवशताऽनघणीयमपि गृह्णीयात् । राज्ञश्च | ग्रहा । निमन्त्रण-राज्ञा नचन्धन निमान््रता भरात् य
प्रकी. सुवणावो दव्य श्रन्यनाऽप्यपहृत, स णव साधुः | अया भणसि तता पह्ञामा चय नान्यथा, अवम अ
शङ्कत एष स्तन इति । | न्यत्रालभ्यमान राजकुलं वा नाशिवेन ग्रृदीते ततस्तत्र य
संका चारिग चर, मूलं निस्मकियम्मि अणवद्ढी । ति। साजाद् तु अपरास्मिन सा का आओ
^ 97 ५2 # कम्लेच्छुभय वा राक्ला गृहान्निगच्छन गरह्णोयात् | बृ० ६ उ ॥
परदारियऽभिमरं वा, णवमं शिस्मकिए दसम्।।३१४।। दश०। ४६ |
चारिकाभ्य चोरो वा अय भविष्यतीति शङ्ायां मूलम् : राजान्तःपुरं प्रविश्य ग्रहाणति परे वदति, तत्र सृत्रम्- ।
निःशक्लित अनवस्थाप्यम -पारदारिकशङ्कायःमभिमरशङ्कायां जे भिक्खृ रायंतेपुरं वि वणा आउसो रायंतपुरिष
च नवमम-अनवस्थाप्यमस . निःशङ्खित दशमम-पाराश्चिकम | नो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरं शिक्वमित्तए वा पवि
परता परियारं, इत्थिनपंसा बला वि गण
4 ०. सर वा पाणं वा खाइम वा साहमं वा अभिहडं आह `
तत्र प्रविचारं बहिनिंगममलभमानाः खरीनपुंसका वला-
दपि साधुं गरीय तान यदि प्रतिस्तवत तदा चारित्र दलयामाजातत एवं वदई वदत वा साइज्ह् ॥ ४
विराधना, अथ न प्रविसेवत तदा त उड़ा कुयुः | . ४. „ क
तनः प्रतापनादयोा दाषाः। अथवा-राजा रुष्ठ आचार्यस्य ज भिक्ख॒ वएज्जाहि, अतेउरियं ण कप्पते मन्म ।
कुलस्य गणस्य वा सङ्गस्य वा प्रस्तारम-विनारौ कुयात् । अंतेउरमातिगंतु, आहारपिंड इहाऽऽणादहि ॥ २६ ॥ ^
अप वि होति दासा, आइप्म गुम्मरतणमादीया । नीहारय-निष्काम्य ग्रहीत्वा वा आह स मम दद्
तप्स्साएँ पवसो, तिरिक्लमणुया भवे दुद्ढा ॥३१६॥ इहेव बाहि ठियस्स मम आहारादि आनय |!
अन्य 5पि तत्र प्रविष्टस्य दोषा भवन्ति | तद्यथा-रत्नादि- ४4६
भिराकीर्णे ` गुम्प ' त्ति गोरिमकास्तत्स्थानपालास्त अति- गमणादि अपडिलेहा, दंडिय कोये हिरा संचिते |
भूमि प्रविष्ट इति कृत्वा तं साधु गृह्णन्ति, प्रतापयन्ति वा, , अभियोग्गविस हरणं, भिदे विरोध य लेवकड ॥२७॥
प्रथमादया दाषाः | अथवा-तज्निश्रया तस्य साधाः यथा | गच्छातं आगच्छति य छक्काय॑ विराहज़ अपडिलहि
रज्ञादिमाषणाथ स्तनकाः धरवशं कुर्यु ति्य॑ञ्चा-वानराद्या पय गमागमे भिक्खा ण कप्पति, अर्पाडलेहिए वा भा-
मचुजाश्च-म्लच्छादया दुष्टस्तत्र राजभवन भवयुस्त साधारु यण गरहज्ञ, दाड्श्रा वा देर् दु पड़सेज़् वा सकञ्जवाज्रं
पद्रवं कुर्वीरन् 4 न 7 शक > | णायार॑ हिराणादि वा किचि तणियं पच्छातीया
एनामंव नयुक्रगाथां व्याख्यात-- छुभज्ज पलबादि वा संचिते-छुभज्ज , श्रोराहि
आहष्म रयणादी, गणटज्ञ सयं परो व तम्मीसा ! रारस्स वा वर्सीकरणं देज्ज । अष्पणा पद॒ट्ठा अप्ेण वा
गोम्मियगहणाहणर्ण; री य णिवेदयते तो ॥|३१७॥ .. त्ता विस देज्ज भाय वा हरेज्ज अजाणंती वा
रत्नादिभिराकीर्णे स प्रविष्टः स्वयमेव तत्र रत्नाविक ग्रही- भिेज्ज, खीरं विहंवाविराहिदव्व एकता गरिहज्ज, षो
यात् ,परो वा तन्निश्रया ग्रह्लीयात् ,गौल्मिकाश्र ग्रहणमाहनने गगलादि वा सजमचिरुदधे गरदेज्जञ लवाडेज्ज वा । '
वाकुयुः, राज्ञा वा ते त॑ साधुं निवदयन्त्युपढों कयन्ति, ततो „ +, , म
निवेदिन सति तत्प्रतापनादिकमसो करिष्याति । ` लोभे शसशषघाते, सका तेण चरित्तभेद य ।
( ५५३ }
अभिधानराजन्द्रः।
रायपिंड
इच्छत मणच्छते, चाउम्मासा भवे गुरुणा ॥ २८ ॥
उक्कोसलोभेण पसणधघातं करेज्ज, रण स उज्कामगो,
| , णिस्संकिते मूल, तेणट वा संकेज्ज कि
पि हरिउं एयस्स परिणामओ य आयपरोभयसमुत्थाह दो-
एरेत्तभदो, उड्डाइभया अणिच्छृते-हु ।
गाहा--
दुविधे गेलप्मम्मि, शिमंतणे दब्वदुल्लभ असिवे ।
ओमोयरियपदोसे, भए य सा कप्पते भणितुं ॥ २६॥
पूववत् । नि” चू० ६ उ०। पश्चा० । पं० भा० | पं० चू० |
राज्ञां पिराड कीटशमपि कथमपि न ग्रृह्कीयात् ।
साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि केचुचिद्ोषदर्शना त्पवे-
शरप्रतिषेथे दशयतुमाद--
वा रायवंसट्टियाण वा अतो वा बाहिं वा गच्छेताण
वा संनिविट्टाण वा निमतमाणाणवा अनिर्मतेमाणाण वा
असणं वा पाणं वा खाइम॑ वा सादरम वा लाभे संते
नो पडिगादिज्ञा | ( स्ू० २१)
था-त्तत्रियाः-चक्र्वाततवाखुदेववलदवप्रभ्तयस्तषां कुलानि,
राजानः-त्तत्रियेभ्यो ऽन्य, कुराजानः-परत्यन्तराजानः, राज-
व [= = ~ =
ग्रष्याः-द्र्डपारिकप्रभ्रतयः, राजवंश स्थिता-राज्षो मा-
तेषां च गृहान्तवदहिवौ स्थितानां गच्छृतां-पथि वहतां
सन्िविष्टानाम- च्रावासितानां निमन्ब्रयतामनिमन््रयतां
व्रा$शनादि सति लाभे न गृह्धीयादिति। श्राचा० २
है चू० १ श्र०४उ०।
थ राजपिरणड ग्रह्माति तत्र सत्रम--
शं पिंडं मुत्तेहिंस वा समवाए ०जाव सहेसु वा असणं
वा पाणं वा खाइमं वा साइम॑ वा पड़िगाहइ पडिगाहंत वा
साइजई ॥ १५ ॥
खत्तिय इति-जातिग्गहरणं, मुदितो-जातिग्गहरं, मुदितो
वाया--गण भत्ते. पिंडाणिगणे-दाइयभत्त
च्रा पिडणिगरो , इंदमहोा खंदकुमारों भागिणयो सद्र
स्स जत्ता कीरई , गिरिपव्वयजत्ता णागदरिगादिऽ्धो
गराणों असियापत्ते गंधारण्ण भत्ते जो गराहइ-हु ।
गाहा-
| समवायादी तु पदा, जक्तियमेत्ता तु आहिता सत्ते ।
तेसि असणादीणं, गर्हताणादिणो दोसा ॥ १३७ ॥
शशभत्तं समव (ओओ, तत्थ श कष्य जहिं शिवस्संसो ।
+, १२६
सेदि चरित्तभेदो अगारीए य बलागहिए इच्छते च-
से भिक्स वा भिक्खुणी वा से जाई पुण कुलाहं जाणिज्ा । |
से जहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेमियाण |
स भिक्षुर्यानि पुनरेवम्भूतानि कुलानि जानीयात् , तद्य-
तुलभागिनेयादयः, पतेषां कुलेषु संपातभयाजन्न प्रवेष्टव्यम् , |
शु ©
म॒ुकुंदो बलदेवो चेति । "तं देवकुलं कहिं चि रुक्ख- |
उश्चायविल वा ससा पसिद्धा | पतसि पगतरमदे जत्थ |
, जे भिक्खु रप्पो खत्तियाणं गदियाणं मुद्धाभिसित्ता- |
ज्ञातिश॒द्धो पिउमादिपण श्रभिसित्ता-मुद्धाभिसित्तो, सम- |
पितिपिडपदाण |
पितिकाले वि शिवेदण,वणीमगापिडणिगरसामष्प १३८)
पितृपिएडप्रदानकालो मघा, श्राद्धेषु भवति ।
गाहा-
इंद महादीएसुव- हार णिवस्संसजणवतपुरे वा ।
तति मिस्सितो ण कप्पति, भदगपंतादिदोसेहिं।। १३६॥।
इन्दादीण वा मदु ज उवहारा शिज्ञति बलिमादिया
जणेण पुरेण वा त जइ शिवर्पिडविमिस्सा तो ण सं-
कण्पति भदपतादिया य दोसा ।
गादा-
रापो पत्तो अत्थवि, दोजा अहव विमिस्सिता ते उ ।
गहणा5्गहणेगस्स तु, दोसा उ इम पसज्ञति॥ १४० ॥
श्रुणस्स सेतिये गरहंति , ररुणो सेतियस्स अग्गहरं-अ
हरणो अष्षस्स व सेतियस्स गहणे अग्गहण वि दासा । गदगा
दुविधा भदपतदोसा ।
गाहा-
भरतो तप्मीसा, पंतो घेप्पते दण भणति ।
अंतोधर ण इच्छध, इह गहणं दुदटधम्म ति ॥ १४१॥
भतो चितति-पएणणं उचाएण गरहंति, तादे श्रभिक्खरो
समवायादिसंखडी तो करेति , लोगेण वा समं पत्तेगं वा
पत्ता तत्थ समवादियासु घरप्पते दटूहण भणात-श्रेता मम
धरे ण इच्छ इह मम संतिये जणवयमत्तण सह गर्द, अहो
दुद्धम्मा । ततो सो रुट्टी ।
गाहा-
भत्तोव्धिवोच्छेदं, णिव्विसयचरित्तजीवभेदं वा।
गमणेण पदोसे उ, कुज्ञा पत्थारमादीणि ॥ १४२ ॥
तसु भत्तादिवाच्छदं करज्ज, मा पतसि को वि उवगरणं देज्ज
णिव्विसए वा करज, चरित्ताओ वा भसज्, जीवियाश्रा वा
ववरावज्, पगस्स वा पदुसेज्ञ अणेगाण वा, कुलगणसंरे
वा पत्थारं करेज्ज ।
इमे अगेरहण दासा ।
गाहा-
तेसु अगिण्हंतेसुं, तीसे परिसाएँ एवमुप्पज्े ।
को जाणति किं एते, साधू घेत्तुं ण इच्छंति ॥१५३॥
साधूहिं श्रगरं ताहि तीस गाट्टिपारिसाए एवं चित्तमुप्प-
जति, को चुण कारणं जाणज़ किमिति कस्माद्धेतारित्यथैः।
गादा-
हतरेसिं गहणम्मी, शिवचोल्लगवज्जणे हु जणसंका ।
जाती दोसे ते, जाणंता55गंतुओ सो य ॥१४४॥
इयरे गोट्टियजणा तसि चोज्लगस्स गहणे णिवचोल्ञगस्स
क ऋ स «पे
त्रज्रणे जणस्स श्रासका भवात । पत साधाणसाहएण
जाति त्ति जाणंति, दोसंसो य । तत्थ श्रागतुका करकराडूवत्
जणण धूसय, ररणा उचालद्ध, ताह पठुट्ठा भत्तावाहवाचछ-
दादण दासा करज्ा |
( ५५४ )_
है अभिधानराजन्द्रः £
(ॐ
_राखापड
.गाहा--
अम्हाण तत्थ गमणं, समवायार्दीसु जत्थ र्यो तु ।
पत्तगं वा भक्तं, अप्णगे वाण गिण्टज्जा ॥ १४५ ॥
रपो दुवारमादी, भुत्ताऽभरुत्ता उ जत्तिया सुत्ते ।
गहणागहण तत्थ य, दासा उ इमे पसज्ञति ॥ १४६॥
द्ावारिय पुच्वृत्ता, पलव्रगादीसु हयगयादी य । |
मय धर न य इच्छ, इह गहणं दुड्डधम्म त्ति। १४७॥
भिन्नोवहिवोच्छेयं, णिव्विसयचरित्तजीवभेदं वा ।
गमे एगपदास, कुज़ा पत्थारमादीणि ॥ १४८ ॥
तेसु अगिर्हंतसुं, तीमे परिसाएँ एवमप्पज्फे ।
को जाणति किं एत, साहू वेत्त ण इच्छति ॥ १४६ ॥
अगाद गलप, शिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे | |
ओमोयरिएँ पदास, भए य गहणं अ्रणुण्णायं ॥१५०॥
छदासायतण पुण, रण्णो अविजाणितृण ज भिक्खु । |
चउराय-प॑चरायं, परेण पयिसाणमादीणि ॥ १५१ ॥
काट्रागारा य तहा, भडागारा य पाणगारा य । |
खीरघरगंजसाला, महाणसाणं व जा यतणा ॥ १५२॥
गहणाईया दासा, आययणं संभवो त्ति वेगट्टा । |
दिद्वेतरं पुच्छिगंव-सणगंजसालाउ कुट्टणिया ॥१५३॥ |
पढमे बितिए ततिए, चउत्थमासादि चउगुरू अतो ।
उग्घातो पटमदि ण, बितिया एगेसि'ते चेव ॥ १५७॥
अहवा पटमे दिवसे, भिण्णमासादि पंचमे गुरुगा ।
वीसादि व एगसिं, परण पंचणह दिवसाणं ॥ १५५ ॥ |
भदसु रायपिडं, आवज्जति गहणमादि पिंडसु ।
असिवे ओमोयरिए, गलष्पपए य वितियपय ॥१५६॥
गोद्धियसमवायभत्तखु वा पत्तयं भदकुलजणसम्मिस्स वा
रप्मों णो गंरहज्ना “चि तियपद गादा" आगाढे गलसर श्ररणतो |
न लब्भति ताहे घेप्पति,अभिक्खणं णिमतमाणस्स घेत्तुं पसगे |
वाराति | ज॑ वा से णत्थि त मग्गंति दुल्ञभे दव्वं तमएणतो न
स्थि, असिवगहिया अरणे गिहिणा ओमे ररणा गदे ल- |
ग्भति.अरणो अधिकतरा राया पदुद्रो अरणतो वोहिगादिभय |
पवमादिपहि कारि गहणं अखुणंणाय |
राजपिरडम् उत्तरशालादिषु-
जे भिक्षु रण्णो खत्तियाशं मुद्दि(दि)याण पुद्धाभिसित्ताणं
उत्तरसालंसि वा उत्तरगिहंसि वा रायाणं असणं वा
पाणं वा खाइम॑ वा साहमं वा पडिगाहेइ पडिगाहते वा
साइज्जइ ॥ १६ ॥
अत्थातिगादिमंडवो उत्तरसाला हयगयाण साला उत्त- |
रसाला, मलगहमसवद्धं उत्तरगिदहं ।
गाहा--
उत्तरमाला उत्तर-गिदा य रप्यो हव॑ति दुविधाओ ।
4 तत्थ उ, दासाते तं च वितियपदं | १५५
कंठा ।
गाहा---
सालत्ति णवरि णाम॑, उज्जाणपथे व सव्वर्हिं वज्जो
सालाण पुण गहणं, हयादिाहेतणटइमासका ।१५८॥
शिवमेत्त णाम उदाहरणमात्र हयादिहते णद वा सका
भवति,कल्ञे एत्थ सजया आगया, तदि हिंडताहि हडत्तु अज्े-
सि कहिये, सेहि हडं, हरित्त वा अणाणरसि किय, तदि हडे। 9
उतत्तरसालाागद्ाण इम वक््खाण।
गाहा-
मूलगिहमसबद्धा, गिहा य साला य उत्तरा होति ।
जत्थ व ण वसति राया,पच्छा कीरति जावऽख्णे ।१५६॥
थ वा कीडापुव्व गच्छति, ण वसंति; त उत्तरसाला _
गिदहा वत्तव्वा । जे वा पच्छा कीरति ते उत्तरसाला गिदा, ध
एतेसु ठाणेखु मीस अमीसं वा जो गरहति तस्स ते चव दोः
सा, तं चव पच्छत्तं, तं चेव वितियपदं ।
सृत्रम्--
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं युद्धाभिसित्ताशं
हयसालगयाणं वा गयसालगयाणं वा मतसालगयाणं वा
गुञ्छसालगयाणं वा रहसालगयाणं वा मेहुणसालग- `
याशं वा च्रसणं वा पाणं वा खाहमं वा साइमं वा पडि-
गाहिइ पडिगाहंतं वा साइज्जह ॥ १७ ॥
हयगयसाला उ हयगयाण उ वा जत्थ पिडमाणीय देति
तत्थ रायपिडा अतरा पदासोा य सससालासु पटा भत्ता,
अहया खुक्ताईभिहियसालास ठितादीण अणाहादियाण
भत्तं पयच्छेति जो गेरहति-हु ।
गाहा---
हयमादी साला खलु, जत्तियमेत्ता तु आहिता सुत्ते ।
गहणाऽगहणे तत्थ उ,दोसा ते ते च बितियपदं ॥ १६०॥
ररणा रायपिड त्ति ए गण्हति; अरणुणासि गरहति । कटं पुण
श्मरणसि गेराहति.ज इंसरावदिया द्सणापिडग आरंति ्रण्णसि
तस्स गदणुखैभवो भवति ।
सृत्रम--
ज भिक्खु रष्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ता्ं स-
घ्िहिसंचयाउ खीरं वा दहि वा णवणीयं वा स्पि वा तेन्नू
वा गुलं वा खंडं वा सकर वा मच्छंडियं वा अष्पयरं वा भो-
यणजायं पडिगाहेइ पडिगाहंत वा साइज्जइ ॥ १८ ॥
ज भिफ्ख०जाव सरिणहिसंचयाउ सारिणी नाम-दधिली-
रा55दिआ जे विणासिंदव्वे, ज पुण घयतज्नवेत्थपत्तगुलखेड-
सक्कराइअं अविणालिंदव्वे विरमति, अच्छुई न विशुस्सइ
सो सरश्चा विडकलवणे सामुदकादि उन्भिञ्ज।
गाहा--
सप्िधिऽसप्पिहिघातो, खीरादी वत्थपत्तमादी वा |
गहणाऽगहणे तत्थ तु, दासा ते तं च वितियपदं ।१६१।
आओदणगोरसमादी,' विणासिदव्वा उ साषिधा होंति ।
|
॥ है
|
रापपिंड
( ५५५ )
छअभिधानराजन्द्रः)
रायपिंड
सक्कुसितघतगुला, अविणासी संचइयदव्वा॥ १६२ ॥
सक्कुलिः पपटिः।
सृत्रम--
जे भिक्खू रप्पे| खत्तियाणं मुहियाण युद्धाभिसित्ताणं ओस-
डुपिंड वा संसद्रपिंड वा अणाहपिंडं वा किविणपिंड वा
गाहा-
ओसड्रे उज्कितध-म्मि ए उ संसत्ते सावसेसे उ ।
गपिडो णाम जो जायणवित्तिणो दाणादिफले लवित्ता लेभे-
ति, तसि ज कड तं वणीमगर्षिडो भसति । | अणाहा-अबंध-
चा, तसि जा कओ पिडा | पतसि जो गर्हति -हू ।
गाहा-
एतेसामष्पतरं, ज पिंडं रायसतियं गिण्हे ।
ते चव तत्थ दोसा, तं चव य तत्थ बितियपद् ॥१६४॥
नि० चू० ८ उ०।
राजपिराड गृह्णाति गृह्णन्त वा स्वदते। तत्र सूत्रम-
ज भिक्खू रायपिंडं गिणहइ गिणहंत वा साइज़इ ॥ १ ॥
ज्ञ भिक्खू रायपिंड परिथुजह् परिथुजतं वा साईइज्ञइ् ॥२॥
इमा संबंधों ।
गाहा-
पत्थिवपिड ऽधिकारे, अयमवि तस्सव एस शवमस्स ।
सो कतिविध। त्ति पिडा, करिसरप! विवजञ्जो उ ॥१॥
अटुमुद्सगस्स आतमसरुत्त पात्थवाधपडावबचारा इहाच
शणशुवमस्स आआदसखुक्त सा चवाधकता, एस सबधा | सा क-
तिविहो पडा कारसस्स वा रराणा वज्जयव्या १।
गाहा-
जो मुद्धा अभिसित्तों, पंचहिं सहितो य॒ भजणए रजं ।
तस्स य पिंडो वज्जा, तविव्वरीतम्मि भयणा तु ॥२॥
मुद्ध परे प्रधानम--आद्यमित्यथः “ तस्सादिरादणा अभि-
सा भयणा--जात आत्थ दासा ता वज्जा,
दोसो तो ण वज्जो । नि० चू० ।
यावत्थाघृणकभक्क ग्रह्ञात , तत्र सत्रम-
ज्ञ भिक्खू रापो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दु-
` बारियभत्त वा बसुभत्त वा भयगभत्तं वा बलभत्त वा कय-
गभत्तं वा गयभत्त वा कंतारभत्तं वा दुभिक्खभत्तं वा दुम-
गभत्त वा दमगभत्त वा गिलाणभत्त वा वदिलियाभत्त वा |
पाहुणभत्तं वा पडिगाहेति पडिगाहंत वा साइजइ ॥ ६ ॥
राज्ञः काशागारादषु प्रावशात--
ज्ञ भिक्व् रन्नो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्भधाभिसित्ताण
अहिसियाणं इमाई छदोसाई आयतणयं अजाणिय अ-
पुच्छिय अग॒वेसिय परं चउपंचरत्ताओ गाहावहकुल्न॑ पिंड- |
अह गात्थ
वर्णीमगपिंड वा पडिगाहेइ पडिगाहत वा साइजइ ॥| १६ ॥ |
वणिमग जातणपिंडे, अणाहपिंडे अबंधूर्ण ॥.१६३॥
ओसट्ट-उज्मियधम्मिए, संसत्तपिडो-भुक्तावसेस वणीम- |
क =--
सित्तो मुद्ध मुद्धाभिसित्त, सणावइअमचपुरोहियसेट्टि- |
सत्थवादसदिञ्रा रज्ज भुजति : पयस्स पिडा वज्जणिज्जो |
वायपडियाए निक्खमिइत्तए वा पावासत्तए वा गनक्ख-
मतवा पविसत वा साइजई, त॒ जहा काटूागारसालाण
वाशमडागारसालाणि वारपाणसालाणे वारेखीरसाला-
णि वा४गंजसालाणि वा५महाणससालाणि वा ६ ॥७॥
इमेति-प्रत्यक्ती भांव, पाडित सख्या दोसाणं, आययरा[-ठा-
र अजाणय-आवशज्ञाय एभत्ताया प्रावशात चतुरात्रात्परत
देशन वा पञ्चरात्रात्परतः द्वादशपरिक्खवाता अता पाव
सात, अता वा बाहिरिय॑ णग्गच्छात धराणागार-काटा-
गारा भंडागारो-हिरणणसुवणणभायरं, जत्थ उदगादिपाण
सा पाणसाला भणति, खीर घर--खीरसाला, जत्थ धरण
उच्भिडजति सा गज्ञसाला, उवक्खडणसाला- महासा ,
पुञ्चदिडधे पुच्छा श्रपुव्वे गचसणा श्रपुच्छेतस्स-द्र ( अज पू-
वो क्रबृहत्करपव्याख्यानुगताधत्वाच्चूणिन ग्रहीता ) ( चच्ु-
देशनप्रसिशया यत् कतेव्य तत् * चक्खुदेसणर्वाड़या ` शब्दे
तृतीयभागे ११०७ पृष्ट गतम् )
सत्रम्
ज भिक्खू रष्मो खत्तियाणं मुदियाणे मद्धाभिसित्ताणं
मेसखायाणं वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया
शिग्गयाणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमे वा
पडि गाहेह पडिगाहंत वा साइज्जइ ॥ १० ॥
मिगादिपारद्धिणिग्गता मसखाया , दहणइसमुद्देस म-
च्छसवागा छवी कलमादि सगता खागा, तिरिण गया उज्जा
णियाए वाशणियकुयारणं । .
गाहा--
मंसछविश्व॒ुक्खणड्ठा, सव्व उदु णिग्गमा समवखाया।
गहणाऽगहणे तत्थ उ,दोसाते तं च बितियपदं ॥५६॥
तेखु छसु उडखु राओ पुण णिग्गताण तत्थव असणपा-
णशखाइमसातिम उवकरंति । तडियकप्पडियाणय वा तत्थ
भत्तपतादयो दासा, गहसे पूर्ववत् ।
शररणेसि गहण ररणा अग्गहण इमे वक्खाण--
मेसक्खाया पार- द्विणिग्गया मच्छणदिदहसमुद्दे ।
छविकलमादी संगा,ज य फला जम्मि तु उडम्मि ॥५७॥
तत्थगया पगते कारवति |
मांसाशिराजानां पिरड़ गृह्णाति । तत्र सूत्रम्-
ज भिक्षु रन्नो खत्तियाणं मुहियांणं मुद्धाभिसित्ताणं अ-
छायरं उववृहणियं समीहिय पहाणए ताए परिसाए अणु
द्वियाए अभिपष्माएं अवोच्छिप्माए जे तं असणं वा पाणं वा
खाइम वा साइम वा पडिगाहेइ पडिगाहंत वा साइज्ज-
इ ॥ ११॥
त्तताःत्रायन्तीति च्षत्रियाः, अररणतरग्रहणन भददशेन, श-
रीरम् उपबृहयताति उपबृहणाया समीहिता समीपमाती
तं पुण पाडड पहा-प्रेक्य उपबृहणियाति ।
श्रप्पपद्स्य व्याख्या । गाहा--
भेहाधारणइंदिय, देहाऊ विवड्डभए जम्हा ।
( ५५६ )
ऋअभिधानराजेन्द्रः।
तम्हा उववृहणिया,चउव्विही सा उ असणादी ॥५८॥।
शीघ्र ग्रन्थग्रदणे मधा, गरर्हातस्य अविस्मरण निन्ात्तधा-
रणा ,
स्सावचश्रा, श्राउसेबह्ूणे, जम्हा पत एवं उववृहाणियाप ।
सा य चउव्विहा असणादि ।
“ ताप परिसाए अखुटद्ठिताए ` अस्य व्याख्या । गाहा--
आसणमुक्ता उद्भिय, भिष्या उ व शिग्गया ततो के वि |
वोच्छिप्पा सब्वे शि-ग्गया तु पडिपक्खसुत्तं वा ॥५६॥ |
जमतस्स रराणा उवच्रूहाणयापटश्रा त्त वुत्त भवात, त |
जा ताए पारसाप श्रखुदुताप गरहात तस्स ॥ रायपि- |
डा चव सो, असणाण मातत उदया अच्छात तकताक वि |
णग्गता भरणा अन्नलसु रणग्गतस्ु वाच्छुणणा ,एारस ण राय-
पिडा पडिपक्ख सुत्ते अणुद्धिताए अभिएणाए अवोच्छिए्णाय-
स्यथः ।
गाहा-
रप्पो उववृहणिया, समीहितोवक्खडा य दुविहाओ ।
गहणा5गहणमछिले, दोसा ते तं च वितियपदं ।६०।
उवक्खडा य--खीरदहिमादी , अणुवक्खडा--सव्वेखु उ
वविद्रेस छिएणा परिस्समाणी अच्छिएणा सा उबज्भ-
हणिया तीसे परिणणाए अखुवद्धिताए दिएणाए अचोछिन्नाए
वा उववृहणियाए घेप्पमाणीषःते चेव भद्दपता दोसा,तं चेव
वितियपदं । नि० चू० ६ उ०।( “ ज भिकक््खू अहण० ”
( १२ ) इत्यादि-सूत्रम् वसहि ` शब्दे वच्यते )
राक्ञां यात्रासंस्थितानामशनादि गृह्णाति । तत्र सूतम--
जे भिवखू र्पो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताणं
बहिया जत्तासंठियाणं असणं वा पाणं वा खाहमं वा
साइमं वा पडिगाहेड पडिगाहंत वा साइज़इ ॥ १३ ॥
जे भिक्ष् रघ्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धाभिपित्तां
बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणं वा गणं वा खाइम॑ वा
साइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहंत वा साइज ॥ १४ ॥
जादे परविजयट्टाय गच्चति तादे मेगल संतिणिसित्तं
दीणादीणं भायणे काउ गच्छति , पडिणियत्ता वि बि-
जप संखाडि करेति ।
गाहा-
जत्तुग्गतरादीणं, अहवा जनत्तातो ` पडिणियत्ताणं ।
गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं।\६५७॥
गहणा 5गहणे भद पतदोसा ररणा ण गेण्हात अणणहि वा
श्रत्तद्धियं गेर्देति, ते चेव दोसा तं चेव वितियपदं ।
गाहा-
मगलममंगलत्था, नियत्तमणियत्तणे य अहिकरणं |
जवति गमादीया, एमेव य पडिणियत्ते वि ॥ ६८ ॥
जक्ताभिमुहस्स णिवस्स वा, मगलब्रुद्धीए वा श्रमेग-
लवचुद्धीए वा गच्चति पविखति वा, अमंगलबुद्धीप ण
गच्छति ण वा गिं पविसति दुहा श्रधिकरणे जावे-
तिय गमादीण वा दोसेण दुटट भन्तं गेरदेज्ञा।
सोतिदियमादियाणं साविसए पावजणणे देह- |
जे भिक्खू रष्पो खत्तियाणं मुद्दियाणं म॒द्धाभिसित्ताणं रि
सूत्रम्-
ज भिक्खु र्पो खत्तियाणं पदियाणं
शदीजत्तासंपट्टियाणं असणं वा पाणं वा खाइम॑ वा
इमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंत वा साइज्जदइ ॥ १५॥
जे भिक्खु रप्मो खत्तियाण म्ुद्दियाणं मुद्धाभिसित्ताशं
शदीजत्तापडिशियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइ
वा खाइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंते वा साइजइ ॥१६॥ ।
रिजत्तासंपट्टियाणं असणं वा पाणे वा खाइमं वा स
वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंते वा साइजइ॥ १७ ॥ ज़
भिक््खू रष्पा खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धामिसित्ताणं गिरि `
जत्तापडिशियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साई
में वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंत वा साइज्जइ ॥ १८ ॥
ततो पडिणियत्ताण वत्यादि । शिरिजत्तापट्टियाणूं गद्णा«
गद्दण तत्थ उ ते चव दासा ते च बितियपद ।
त.
गारा
गिरिजत्तागयगहणी, तत्थ उ संपट्टियानियत्ताणं ।
-गहणाऽगहशे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं ॥६६॥
{नम चू ६ उ०।
सूत्रम्-
जे भिक्खृ र्पो खत्तियाणं मुद्दियाणं भरद्धाभिसित्ताशं
असणं वा पाण वा खाइम॑ वा साहम् वा परस्स णीहड प-
डिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वा साहज्जई, तं जहा ` खत्तियाणं
वा १, रायाणं वा २, कुराईणं वा ३, रायंसस्सियाण
वा ४, रायपेसियाणं वा ५, ॥ २१॥
च्तात् ज्ञायन्तीति क्षत्रिया आरतक्तकेत्यर्थः, अभिसित्तो-रा-
या, कुच्छितो राया-कुराई,अहवा-पश्चतणिबो कुरायी जे क् ¦
तसि चव प्रेष्येति पेसिता,एतासि णीयं णिसट्ठे दत्त मित्यथेः।
गहा
खत्तियमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ उ आहित्ता सत्ते ।
तेसु य णीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ ६८॥
सूत्रम--
जे भिक्खू रत्नो खत्तियाणं मुद्दियाणं युद्धाभिसित्ताशं
श्रसणं वा पाणं वा खाइम॑ वा सामे वा परस्स नीद
पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंत॑ वा साइज्जइ १। तं जहा-नडाण वा
नइयाण वा २, कनल्लयाण वा ३, जल्लाण वा ४७, म
ज्लाण वा ५, मुद्टियाण वा ६, वेलबगाण वा ७, कहगाण
वा ८, पवगाण वा ६, लासगाण वा १०, खेलाण वा
११, छत्ताण वा १९५, ॥ २२ ॥ |
णाडगादि णाडयता नडा णद्टा आकज्ना राञ्ञः-स्तात्रपाटकाः
श्रगादजलपविदट्धा जल्ला मन्नगणपविद्टा मल्ला मुद्रया जुज्भणम
( ५५७ )
|
अभिधानराजन्द्रः।
8 के 8 5 2 2 न न की दम
ज्ञा वेलबका रगा वल वा अइकातगा कहकारगा-कह गा , |
णुदासम॒ुद्दादख दख ज तरात ते पवगा जयसद् पयात्तारयो लासगा; |
|
भ्रडा इत्यथः)
गाहा-
शडमादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिता सुत्ते ।
तेसु य णीहडगदण, दोसा ते तं च बितियपदं।।६६॥
सूत्रम् -
जे भिक्खृ रप्मो खत्तियाणं मुद्दियाणं पलुद्धाभिसित्ताणं
असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा परस्स नीहडइ
पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वा साइज्ञइ, तं जहा-आसपोस-
याण वा १, हत्थिपोसयाणं वा २, महिसपोसयाणं वारे,
वसभपोसयाण वा ४, सीहपासयाण वा ५, वग्घपोसया-
| शवा ६, मिंठगपोसयाण वा ७, सुणहपोसयाण वा ८,
मूयरपोसयाण वा ६, मिगपोसयाण वा १०, कुकडपो-
सयाण वा ११, तित्तरपोसयाण वा १२, वटूयपासयाण
वा १३, लावगपोसयाण वा १४, चासगपोसयाण वा १५
हसपोसयाण वा १६, मयूरपोसयाण वा १७, सुयपोस-
याण वा १८, सग्गाणपोसयाण वा १६, ॥ २३ ॥
बृहत्तरर क्नपादा वद्दधा अल्पतरा लावगा।
गाहा-
अब्भंगाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तु दिया. सुत्ते ।
तेसं णीहडगहण, दोसा ते तं च बितियपद ॥१०१॥
पोषगमाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तु आहिया सुत्ते ।
तसुं णीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ १०२॥
सूत्रम्--
जे भिक्खृ रप्पो खत्तियार्ण मुदियाण मुद्धाभिसित्ताण
असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम॑ वा परस्प नीडं
ब्डिग्गाहेइ पडिग्गाहँत वा साइज़इ, ते जहा-आसदमगाण
वा १,हत्थिदमगाण वा२,आसमद्|ण वा ३, दत्थिमदाण
वा ४ ॥ २४ ॥ जे भिक्खु रमो खत्तियाणं मुद्दियाणं
मुद्भाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमे वा साइमं वा
परस्प नीदहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंत वा साइज़इ, तं
जहा-आसमेंठाण वा हत्थिमेंठाण वा ॥ २४५ ॥ जे
भिक्खू रपो खत्तियाण मुद्ियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं
वा पाणं वा खाइमं वा साइम॑ वा परस्प नीहडं पडिग्गाहेंइ
पडिग्गाहंत वा साइज़इ, त॑ जहा-आसरोहाण वा हत्थि-
ग्रहाण वा ॥ २६ ॥
गाहा-
दमगादीया ठाणा, जत्तियमेत्ता तु आहिया सुत्ते ।
तेसु नीहडगहण, दौसा ते त॑ च बितियपदं ॥१०३॥
इसमे सुत्तवक्खारं ।
गाहा- |
झासाण य हत्थीण य, दमगा जे पटमताणए विणएंति ।
१४०
रायपिंड
परियट्ट मणठ पच्छा, आरोहा जुद्धकालम्मि ॥ १०४ |!
ज पढमे विणये गाति ते दमगा, जे जणजागासणह्दिं
वावार वा वाहेति ते मेंठा, जुद्धकाल ज आरुर्हात त
आरोहा ।
सत्र म-
जे भिक्खू रपो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धा/भसित्ताण
असणं वा पाणं वाखाइमं वा साइम वा परस्स नीहडं
पडिग्गांहेइ पडिग्गाहंते वा साइज्जड, ते जहा-- सत्थ -
वाहयाण वा १, संबाहावयाण वा २, अन्भिगावया-
णवा ३, उवदूणावयाण वा ४, मज्जणावयाण वा ५,
मंडावयाण वा ६, छत्तगाहीण वा ७, चामरगाहीण
वा ८, हडप्फगाहीण वा €, परियद्यगादहीण वा १०,
दीवियग्गाहीण वा ११, असिग्गाहीण वा १२, धणु-
ग्गाहीण वा १३, सत्तिगाहीण वा १४, कुंतगाहीण
वा १५, हत्थिपगाहीण वा १६, ॥ २७॥
ईसत्थमादियाणि रायसत्थीणि आहयेति--कथय्येति ते स-
त्थवाहा, पाडमद्दात जत पारमद्दा सयनकाल पारापद्टात
शतपाकादिना तेलन अव्भगति पदटि उब्बर्टेति, रदाचवेति ज
त मज़ावका ,.मउडादणा मडात ज त मडावगा, वस्थपरावत
ग्रह्वति ज़ ते परिवद्नगगा आभरणमडय हडप्पो वा घणुयाई
समग्ग ।
गाहा--
संवाहगठाणा खलु, जत्तियमत्ता उ अहित्ता सुत्त ।
ते्सु नीहडगहणे, दोसा त ते च बितियपर्द ॥ १०३॥
सत्रम्-
जे भिक्खू रपो खत्तियाण मद्दियाणं मुद्भाभिसित्तार
असणंवा पाणं वा खाइम॑ वा साइम वा, परस्स नीहडं
पडिग्गाहेइ पटिग्गाहत वा साइज्जइ । तं जहा-वरिसद्धरा-
णवा १, कंचुदण वा २, दावारियाण वा ३, दंडरक्खि-
याण वा ॥ २८ ॥
गताथाी।
गाहा--
वबारसधरद्राणादा, जात्तयमत्ता या सुत्त |
तसं णाहडगहण, दासा त तं च बे।तयपद् ॥ १०४ ॥॥
खत्रमू-
जे भिक्खू रघ। खत्तियाण मुद्दियार्ण म्रद्धाभिसित्ताणं
असणा वा पाणं वा खाइम वा साइम॑ वा, परस्स नीहडं
पडिग्गाहिइ पडिग्गार्हत वा साइज्जइ | तं जहा- खुज्जाण ०
जाव पारसीणं | २६ ॥
ते सवमाणा आआवज्ञद चाउम्मासियं परिहारद्राण अणुग्घ्रा-
इय ॥ २६ ॥
ज भिक्वृ सरीरवका, खुज्जा कुट्टी कंवुगाण शिग्गता
वडन्नहा ससा विसय।भिहाणेिं वत्तव्या ।
( ५५८ )
अमभिधानराजन्द्रः |
रायर्पिड
गाहा-
खुज्जादीया ठाणा, जत्तियमित्ता उ आहिया सुत्ते ।
तसु य य नीहडगहरणे, दासा ते तं च बितियपदं ॥१०५॥
अद्वाण-सदृदोसा, दुगुंछिता लोगसंक सतिकरणं ।
| ते पाठके, जे० इ० ।
आतपरसमुत्थेहिं, गेणहणगहणाइया दासा ॥ १०६ ॥ |
खुज्ञजादियासु गच्छतस्स अद्धाणदोसा, गीयादिया य सद्
दासा, दुगुंछियातिया यतआ लाए ञ्रणायारसवणे संकिज्ञ-
ति खुत्ताण सतिकरणादिया दासा । इतराण कोउये आयप-
रउभयसमुत्था य दासा-पुरिसरा वा इत्थी वा तं वला
ग्देज्ञा गर्टण-कडूण-दासा । नि० चू० & उ० ।
रायपुर राजपुर पु । स्नामख्यात नगर, तत्र समरकतु-
नाम राजा परिवसति , तस्य शृह्गारमञ्जरी नाम भार्या। दश
१ ० । श्राव०।
रायपुरी-राजपुरी -स्त्री० । अयोध्यायाम् , ती० १२ कल्प ।
रायपेसिय-राजप्रेष्य-जि० । दरडपाशप्श्रतिचु, श्राचा० २ |
श्रु० १ चू० १ अ ३.उ०।
रायभय-राजभय- न० । राज्ञो भय राजभयम् । राजसम्ब--
न्धिनि भय , ओ० ।
रायभाव-रागभाव-पुँ० । रागोत्पादके, पं० व० हे द्वार ।
रायभोत्ति-राजश्रुक्ति-ख््री० । राज्ये, नि० चू ° १ उ०।
रायमत्तंड-राजमात्तेश्ड-पुं० । अन्तवदिमुखव्या पारद्धयवि-
रोधात्तन्निष्पाद्यफलद्धयस्यासंचद्नाच्च बहिर्मुखतयेवाथ-
निष्ठत्वन चित्तस्य सवदना्थनिष्ठमव तत्फल न स्वनिष्ठ--
मिति राजमात्तेरडः । प्रन्थविशष, द्वा० ११ द्वा०।
रायमाण- राजमाणु-त्रि० । शोभमाने, प्रव० २६६ द्वार !
रायमास-राजमापष- प° । चवलकाख्यधान्यविशष,
अधि० । ध | दश० | |
रायरक्खिय-राजर क्षिक-त्रि० | राजपालक, नि० चू० ४ उ०।
रायरिसी-राज र्षि- एँ० । राजा ऋषिरिव श्रष्ठत्वात् , संयत- |
त्वाच्च । राजश्रष्ठे, उक्त ० १८ आअ० । आ० म०। |
रायरुक्ख -राजवृक्ष-प० । वृक्तविशष, वाच० । वृक्षाणां राजा |
राजचृत्तः, वृच्तशब्दस्य परनिपातः । आरग्वध, ` सान्दाल `
इति राज़ाप्रिया वृक्तस्ततत्फलबीजजातलडूकानां राजएप्रिय-
ग० २
त्वात् । प्रियाले, रा० | ओं० ।
गयलक््खण- गाजलत्तण-न० । राञ्य सूच कचि, रायल
करवगाविराइयगमगा `` रा०। |
रायललित- राजललित- प° । नवमवलदवस्य पर्वभवजीवे ,
""महीयान् राजललितः'" आ० क० १ अ०। आरा म०। स्था०।
( तत्कथा सामायिकव्यसनन सामायिकलाभ वच्यते )
रायवंसतिलग-राजवशतिलक- प° । राजवंशमरडनभूत, प्र-
श ४ आश्र० द्वार ।
रायवइ्य राजवत्तेक-न० । “
३० ॥ इति तस्य टः । रा ( य ) अवद्डयं । रत्नविशेष, प्रा० ।
रायवघ्नप-राजवघ्नभ-प० | विक्रमसेवत् १५२४ वर्ष छृतस्य |
६६
तैस्याऽधूर्तादौ ” ॥ ८ | २।
चित्रसनपञ्मावरताचारित्रनाम्ना ग्रन्थस्य कारक,
रायवल्ली -राजवल्ली खी ०। राजते इति राजा अच् । सा च
वल्ली राजवज्ली । क० प्र० । लताभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
रायवाडिया-राजवाटिका- खरी° । राज्ञां विदारार्थे लघूदयाने,
ता० ४६ कलप ।
रायव्रिजय-राजविजय- पुं । तन्दुलवेचारिकग्रन्थसंशोधन-
क्तरि , स्वनामख्याते सृरौ, तं० ।
रायविरुद्र-राजविरुद्ध- न । राज्ञः सम्मतानामसम्माने, घ०
२ अ्राच०। १
रायवुग्गह-राजव्युद्ग्रह-पुं० । राज्ञं संग्रामे. स्था०१०ा०३३०॥
रायवेदि -राजवेष्टे- खी° । भूति श्ये राजकाये, उत्त०२७अण
रायसमय-राजसम्मत- पुं । राजगणाः सम्मताश्चेति राजस-
म्मताः । मन्त्यादिकषु, दश० ३ श्र । व्य०।
रायसदल राजशार्दूल - पु | शादृलशब्दः सिंहपर्यायः । राजा
शादृंल इव राजशादूलः । चक्रवर्सिनि, प्रव०२०८द्धार ति०॥
रायसिरि राजश्री-खी० । राजशोाभायाम् , राजैश्वर्य च ॥
आए म० १ अ० । उत्त०।
रायसुया-राजसुता-खी° । राज्ञः खुतायाम् , आ० क० ।
अत्र राजखुताकथा--
एकेन भूभुजा पुत्री, दत्ताऽन्यस्य मही भ्रतः ।
स सरतः स्वसुताऽऽनीय, भरिता जनक्नसा॥१॥ `
घ्म कुरू सुते ! दान, दत्ते पापररिडनां ततः ।
न्यदा कार्तिक घर्म-मास इत्यामिषस्य सा ॥ २॥
प्रत्या ख्याने विधत्त स्म, पारणस्य दिने ततः ।
राजाऽनकानि मां सार्थ, हरिणादीन्युपानयत् ॥ ३॥
दत्ते स्म साऽन्नपानानि, मांसानि विविधानि च।
श्रासन्नाः साधवो यान्त-स्तया 5 नीता निमन्व्य ते ॥ ४॥
भक्तं जग्ृृहिरे मांसं. नेषुस्त साऽह कि न वः।
पूयते काक्तिकस्ते5पि, प्राहुनेः कार्तिकः सदा ॥ ५॥
सोचे कथमथोचुस्त, तस्या धर्मकथां तदा ।
भूयसो मांसदाषांश्च, प्रबुद्धा प्रावजत्ततः ॥ ६ ॥
प्रागासीद् द्रव्यतस्तस्याः, प्रत्याख्या भावतो ऽन्वभ्रत्।
दित्सा प्रत्याख्यान, हे ब्राह्मण ! श्रमण ! यत्व याचसे तद्वि-
पया मेऽदित्सा | इद श्रावकधर्मस्य मूले सम्यक्त्वे प्रस्तुतम्
अतस्तद्विधिमाह--राजाभियोगादिना अन्यतीथिकपाष--
ण्ड्यादिषु दानादि कुवेतोऽपि न सम्यक्त्वस्यातिचारः।
अत कथा-पृथिवीभूषणे नाम नगरे गतदूषणम् । एवं गणा-
भियागन बलाभियागन देवताभि योगेन च ।
श्मच्र देवताभियोगे कथा--
* एको ऽजनि गरही श्राद्धः, साऽत्यजद्यन्तरादिकान् ।
चिराराद्धानाप तता, व्यन्तर्यका च्लुधातुरा ॥ १ ॥
गार त्तकं खुतं तस्य, गाभिः सममपाहरत् |
तजयन्त्यवतीर्यचे, मामद्यापि ह १॥ २॥
माम घर्मातिचारोऽभू-दिति तां श्रावकोऽवदत् ।
भव त्वं जिनपादान्ते, स्यात्तवाऽपि यथाऽचना॥३॥
= सा, खुतो गोभिः समागतः ।
क० ६ आअ०।
-राजशेखर-पुं० । हषपुरी यगच्छी क्ववातिलक्सूरिशि-
श्ये, तेन विक्रमसेवत् ६५०५ वर्ष भ्रीधरराचितन्यायक-
न्दलीनाम्नः परशस्तपादभाष्यरीकायाः पञ्जिका नाम च
। त्तिः प्रबन्धामरतं दीधिका नाम ऐतिहासिकग्रनन्थश्व॒ विरचि-
तः | जै० ३० ।
रायहंस- राजहस प° । दं सानां राजा श्र्ठत्वात् । रक्तवर्ण्च-
इखुचरणयुक्ते श्वेतवर्ण ट सभेदे कलदहसे च । राजा हंस इव
सारग्रहणात् | नृपश्रेष्ठे, प्रव० २ द्वार । प्रज्ञा० । प्रश्न० ।
रायहंससरिस-राजहंससदृश -पुं० । राजहंसगतिसदशे, भ०
११ श० ११ उ०।
रायहाणी-राजधानी-खी० । राजा घीयते विधीयतेऽभिषि-
च्यते यस्यां सा राजधानी । जनपदानां मध्ये प्रघाननगयौम्,
राज्ाधिष्ठाननगरे, यत्र राजा स्वय वसति । स्था० १०
छा०३ उ० । जी ० । भ० । दशा० । उत्त० । श्राचा० । प्रज्ञा०।
। नि० चू० | बृ०। राजकुलस्थाने, सूत्र० २ श्रु० २ आ०।
इन्द्राणां राजधान्यः--
रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियव्वा ०जाव एव-
महिड्डिए ०जाव वरुणे महाराया । ( ष १७३ )। चउ-
स्थे सए पंचम-छट्ठ सत्तम मा उद्देसा समत्ता । ४-८।
* रायहाणीसु चत्तारि उदेसा भाशियव्वा ` ते चैवम्-
“ कहि णं भते ! इंसाणस्स देविदस्स देवरन्ना सोमस्स म-
हारन्नो सामा नाम रायद्ाणी पश्षत्ता ?. गोयमा ! खुमणस्स
अहाविमाणस्स अहे अपक्खि ` इत्यादि पूर्वोक्तालुसारेण
ज्ञीवाभिगमाक्रविजयराजधानीवणकायुखारेण चैकैक उ-
इशको ध्यतव्य इति, नन्वता राजधान्यः किल सोमादीनां
। शक्षस्येशानस्य च सम्बन्धिनां लाकपालानां प्रत्येकं चतस्र
एकादश कुरडलवराभधान द्वीपे द्वीपसागरप्रज्ञप्तयां श्रूय-
न्ते, उक्ल हि तत्सं्रदिरयाम्-
^ कुंडलनगस्स अभ्भि-तरपासे होंति रायहाणीश्रो ।
सोलस उत्तरपास, साणस पुण दक्स पासे ॥ ८५॥
जा उत्तरण सालस, ताओ इईसाणलोगपालाणे ।
सक्कस्स लोगपालार, दकिखण सोलस हवति ॥ ८६ ॥ ”
पताश्च सोमप्रभ-यमप्रभ-चेश्रमणप्रभ-वरुणप्रभा भिधानानां
पवैतानां प्रत्यकं चतर्षु दिच्लु भवन्ति,तच्र वैश्रमणनगरीरादौ
कृत्वा ऽभिदहितम्-
“ प्रज्मे होइ चउरादं, वेसमणपभो नगुक्तमो सलो ।
रइकरगपव्वयसमो, उव्वहुचत्ताविकखंभ ॥ ८७ ॥
तस्स य नगुत्तमस्स उ, चउददिसि दति रायहाणीओ ।
जबुदीवसमाश्रो, विक्खेभायामओ ताओ ॥ ८८ ॥
पुव्वण श्रयलमदा, समक्षसा रायहाणिदाहिणओ ।
अवरेण ऊ कुवेरा, घणण्पभा उत्तरे पासे ॥ ८६ ॥
एएणव कमरा, वरुणस्स वि होति अवरपासम्मि |
बरुशष्पभसलस्स वि, चउरददिसि रायदहाणीश्चा ॥ ६० ॥
पुष्वेण होइ वरुणा, वरुणपभा दक्खिण दिसीभाप ।
इ कुमुया, उत्तरओ पुडारगिणिया ॥ ६१॥
( ५५६ )
असिध्रानराजन्द्रः।
_रायहाणी_
पपएरव कमेण, सामस्स वि होति अवरपासम्मि।
सोमप्पभसलस्स वि, चउदिसि रायहाणीओ ॥ ६२॥
पुव्वेण होइ सोमा, सोमप्पभदक्खिण दिसीभाषप ।
सिवपागारा अवरे-ण होइ नालियाण उत्तरओ ॥ ६३ ॥
पपरेव कमेण, अतकरस्स वि य होति अबरेखे ।
समवित्तिपुभसेलस्स, चडद्दिसि रायहाणीओं ॥ ६४ ॥
पुव्वेण ऊ विसाला अआताव्वसाला उ दाहण पास ।
सज्ञप्पभा ऽवरेण, अमुया पुण उत्तरे पासे ॥ ६५॥ `” इति ।
इह च ब्रन्थे सौधमावतंसकादीशानावतसकाच्चासस्य-
या योजनकोरीव्यतिक्रम्य प्रत्येक पूर्वादिदिच्च स्थिता-
नि यानि सन्ध्याप्रभादान सुमन प्रभृतान च वमानान
तेषामधो ऽस ख्याता योजनकाटार वगाह्य रत्यकमकका नग
यक्ता, वतः कथं न विरोधः १, इति श्रत्राच्यत--त्रन्यास्ता
नगयो याः कुरडलेऽभिधीयन्ते एताश्चान्या इति, यथा शक्र
शानाग्रमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीप कुण्डलद्वाप चात । भ० ४
श० ८ उ०। स्था०।
सकस्स देवरज्नो, जाओ य हवति अग्गमहिसीओ ।
तासि पिय पत्तयं, अद्रव य य रायहाणीओ ॥ &६॥
जन्नामा देवाओ, तन्नामा होंति रायहाणीओ ।
सक्कस्स देवरन्नो, त्रो य हवति द दक्खिणओ ॥६७॥
इसाणदेवरज्नों, जाओ य होंति अग्गमहिसीओ ।
तासि पि य प्तय, अद्रव य य रायहाणीओ ॥ ६८ ॥
जन्नामा देवीओ, तन्नामा होति रायहाणीञ्मा ।
इंसाणदेवरजन्नो, तासि तु हवंति उत्तओ ॥ ६६ ॥
कुंडलवरस्स बाहिं, छसु चव हवंति सयसहस्सेसु ।
तत्तीसं रहकरगा, पव्वया सच्छरम्माओ्ओ ॥ १०० ॥
सकरस्स देवरन्नो, तायत्तीसा हवति जे देवा |
उप्पायपन्वया खलु, पत्यं तेमि बोधव्वा ॥ १०१ ॥
पत्ते एकेकस्स उ, चउद्दिसिं होति रायहाणीओ ।
जबुद्दीवसमाओं, विक्खंभायामञ्मो ताओ ॥ १०२ ॥
पदमा उ सयसहस्सा, बिहया तिसु चव सयसहस्सेसु ।
पुव्वाहयाणुपुव्वी, तासि नामाई कित्तेमि ॥ १०३ ॥
विजया य वेज्यति, जयंति अपराजिया य बोधव्वा ।
तत्तो य नलियोनामा, नालिणगुम्मा य पउमा य ।१०४।
तत्तो य महापउमा, अद्रव य होंति रायहाणीओ ।
चकज्भया य सनव्वा, सव्वा बइरज्भ्याओं य ॥१७५॥
सक्स्स देवरन्नो, तायत्तीसाण अग्गमहिसीणं ।
तासि खलु पत्तयं, अद्र व य य रायहाणीओ ॥ १०६ ॥
जनामा देवीओ, तन्नामा तास्ति रायहाणीओ ।
ईसाणदेवरन्नो, तायत्तीसाण उत्तरओं ॥ १०७ ॥
बावज्न बायाला, चुलसीदसजोयणसहस्सा ।
गोतित्थेण विरियं, खित्तं खलु कुंडलसमुद्दे १०८(द्वी०)
उद
( ५६० ) . 4
रायहाणी अभिधानराजन्द्रः। रायहाणी
सकस्स देवरज्नों, सामाणिय खलु हवंति जे देवा ।
उववायपव्वया खलु, पत्तयं तेसि बोधव्वा ॥ १४८ ॥
पत्ते एककंस्स उ, चउदिसिं होति रायहाणीयो ।
जब॒ुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामग्रा ताञओ्रा ॥ १४६ ॥
पढमा उ सयसहस्स, बिइया-चव सयसहस्ससु ।
पव्वाइयाणुपुव्वी , तसि नामाणि कित्तेहि ॥ १५० ॥
७. # ~ # ¢
पुव्वाइयाणुपुव्वी, तत्ता नदाइ हाइ नदवह ।
अवरेण उत्तरा उ, उत्तरओ नंदिसेणा उ ॥ १५१ ॥
भदा उ सुभदा य, कुमया पुण होइ पुंडरिगिणी उ ।
चकज्भया य सव्वा,सव्वा वह्रञ्छया चव १५२ दी ० । |
जबूदीवे दीवे भरहे वासे दस रायहाणीयो पप्पत्ताओ | |
ते जहा-
““ चपा महुरा वाणा-रसी य सावत्थी तह य साएयं ।
हत्थिणपुर कंपिन्नं, मिहिला कोसंवि रायगिहं ॥ १ ॥"
€ रायहाणीओ ` त्ति राजा धीयत- विधीयत श्रभिषि-
श्यत यासखु ता राजधान्यः--जनपदानां मध्ये प्रघाननगर्यः,
` चपा ` गाहा-चम्पा नगरी श्रङ्गजनपदघु, मथुरा शरसन-
देश, वाराणसी काश्याम् , श्रावस्ती कुणालायाम् , साकेत-
मयाध्यत्यर्थ: काशलषु जनपदषु, “ हत्थिणपुरं " ॥ ति
नागपुरं कुरूजनपदे, काम्पिस्यं पाञ्चालेषु, मिथिला विदेहे,
कोशाम्बी वत्सेषु, राजगृहं मगघधष्विति । एतासु किल
साधवः उत्सगेता न प्रविशन्ति तरुणरमणीयपरायरमराया-
दिदशनन मनः्त्तोभादिसम्भवात् , मासस्यान्तद्विंखिवौ |
विशतां त्वाज्ञादयो दोषा इति, एताश्च दशस्थानकानुसा-
रेणाभिदिता न तु दशेवैताः, अद्धेषङ्विशताबाय जनपदेष
पड्विशतर्नगरीणामुक्कत्वादिति । अये च न्यायो ऽन्यत्र ग्रन्थ
तेषु तेषु प्रायश्वित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवति, व्याख्यातं
च दशराजधानीग्रहण शषाणामपि ग्रहणे निशीथभाष्य, य-
दाह--* दसरायदहाणिगहणा, ससाणं सूयणा कया होइ। |
भासस्संतो दुगतिग--ताश्चा" अईतस्मि आणाई ॥१॥ ” |
|
|
|
स्था० १० ठा० २ उ०। |
जे भिक्खू रप्पो खत्तियाणं मुदियाणं युद्धाभिसित्ताणं
इमाओ दस अभिसेगरायहाणीओ उद्दिद्वाओ गणिया-
ओ,्रो वंजियाओ अतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्ख॒त्तो
वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा निक्खमंतं वा पवि-
सतं वा साइज़इ । तं जहा-चपा १, महुरा २, वाणा-
रसी ३, सावत्थी ४, साकेयं ५, कंपिन्लं ६, कोमेबी ७, '
मिदिला ८, हत्थिणापुरं ६, रायगिह १०, ॥ २० ॥ |
इमा प्रत्यक्षाभाव दस रात सख्या “४ राइणटाण बाय
घाणि त्ति उहिद्वातो गणियाओ दस, चेलजियाश्रा [ णामेहिं। |
श्रता मासस्स दुक्लुत्ता तिक्खुत्तो वा णिक्खमपवेसे करें- |
तस्स-ह |
गाहा-
दसरायहाणिगहणा, सेसाणं उथणा कया होति |
मासस्सतो दुगतिग-ताओ अतितम्मि आणादी॥८६॥ * 4
अणणाओ वि णयरीओ बहुजणसंपगाढाओ णा पवि- _
सियदव्य । 4
इमा स्ृत्रव्याख्या । | गाहा-
इम इति पचक्खम्मी, दस संखा जत्थ राइणो ठाणा ।
उद्िटरायहाणी, भणिता दस बंज चयादी ॥ & ० ॥
णामेहि वंजिताओ ।
गाहा--
चपः उहुरा वाणा-रसी य सावत्थिमेव साएते ।
हत्थिणपुर कंपिन्नं, मिहिला कोसंवि रायगिह ॥ &१॥
वारस चक्कीणं एयाओ रायहाणीओ |
गाहा--
सेती कुंथू य अरो, तिप्तपि वि जिणचकिएकहिं जाया ।
तेण दस होति जत्थ व, केसव जाया जणादृष्पा ॥ ६२ ॥
जासु वाणारसी णगरासु केसवा, अणणावि जा जणाइण्णा
सा विवज्ञाणिज्जा, तत्थ को दोसा ?।
गाहा--
तरुणी वेसित्थिविवा-ह रायमादीसु सतिकरणं ।
कोउयमादी आउज्ञ, गीयसदे य सवियारे ।॥ ६३ ॥
तरुणी राहायविलिवेत्थी गुम्मपरिवुड दटठूण वेसित्थी
उरउत्तरे वेउव्वियाउ वीबांह रिद्धिर्सामद्ध आहिडमाणों `
रायाणो य विविहरिद्धिजुत्ते णिताणित दट्ठं भुत्तभागीरो
सतिकरणं अभुत्ताण कोतुय पाडगमणादिदासा, आदिस-
दाता-बहण अशटरादि आउज्ज़ारणि बा ततवितयादीणि
गीतसदाणि वा ललियविलासहसियभणियाणि मंजुलाणि
य सदाणि, सविगारग्गहणाता मोदोदीरणा ।
किञ्चान्यत्-
स्वं आभरणविही, वत्थालंकारभोयणे गंधे ।
मत्तुम्मत्तविउव्वण, वाहणजाणे सतीकरणं ॥ 8४ ॥
सिंगारागाररूवं, शिहार व्व हारादीया-श्राभरणविधीं
वत्था आदिणा सहिररणादिया समुदा समभिदहिता, केस-
पुष्पादि--श्रलङ्ारा, विविधवेजणाववेयं भोयणजातियं
भुजमाणं पासित्ता मिगेडकपृरागसरुकुकमचदणतुरूक्खादिष
गंधे तहा मत्त--विलव, कपालतलयाण उत्प्राचल्येन मत्तो
उन्मत्तः, दरमत्ता वा उन्मत्ता, विविधवेसेद्ति विउव्विया
श्रासादिवाहणारूढा सिवियादिएहि वा जाणहिं गच्छमाणे
पासित्ता सतिकारणादिएहि दासदि सजमाश्रा भसज्ज,
श्रहवा--चदाणगयट्ं बा करज ।
इम य विरादणादोसा । गाहा-
हयगयरहसंमदे, जणसम्मदेण आयवाबन्नी । |
भिक्ववियारविहारे, सज्कायज्काणपलिमंथो ॥ ६५॥ _ ।
हयगयरहजणसम्मदेण श्रायविरादणा भव,बहुजणसम्मदेण
रोहियरत्थासु दिकखतस्स भिक्खावियार विहारखु सज्का-
प्सु य पलिमंथो, जम्द्या एत दासा तम्द्दा तत्थ ण॒ गेतव्वे ।
|
( ५६१ )
रायहाणी
अभिधानराजेन्द्रः।
-रायाऽनिसय _
कारणे गच्छेत्--
बितियपदे असिवादी, उबहिस्स व कारणे व लेवे वा । |
बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियादीण आगांढे ॥ ६६॥
क्ष्या आसव तण आतगम्मात, उवहा वा अणणआ ण
लच्भांत तत्थ सुलभा, ल्वा वा तत्थ खुलभा, गच्छुवासा
ण॒ वा ते बहुगुणखत्तं, आयरियाण वा तत्थ जवणिज्ञेपा- |
उग्गें वा लब्भात | आदिसद्दाओ वालबुदगिलाणाण वा अ-
|
छतरे वा आगाद पञ्यायणे अहवा ।
गाटा--
रायादिगाहणडट्ठा, पदुदरउवसामणट्रकजे वा |
सेह व अनिच्छता, गिलाणवेज्जोसहड्टा वा ॥ ६७ ॥
रराणो धम्मगाहणट्भा; रराणो शरुणस्स वा पदुद्ुस्स उब-
समणदधा, सहो वा तत्थ ठितो, सरणायगाण य शअ्रगम्मो तं
मज्मेण वा गच्छिउकामा गिलाणस्स वा वेज्लोसहाणिमि-
त्तं । नि० चू० ६ उ० | ख्यम्भूरमणसमृद्रस्यापरि ये ज्यो-
तिष्कास्सन्ति तषां राजधानी उत्पातस्थान च क्रास्ति? इति
प्रक्ष: , श्रतोत्तरम्--स्वयम्भूरमणसमृद्र स्योपरिस्थज्योति-
ध्काणां राजधानी स्वयम्भूरमणसस॒द्रमध्य ऽस्तीति जीवाभि-
गमे उज्कमस्ति, तषाम॒त्पातस्थान स्वस्वविमानऽस्ति, प्रज्ञा-
पनापाङ्गादिर्प््वात ॥ १३ ॥ सन० ४ उज्ञा० ।
राया-राजन्- पु! राज्ञि,
पाइ० ना० १०० गाथा ।
रायादण-राजादन- पु । वृत्तविशष,
“ नरनाहो पत्थिवो निन्वो राया ”
“ राजादनश्वेत्यशा खी,
श्रीशम्पा द्ध तमान्यतः । दुग्धे व्षेति पीयूष--मिव चन्द्रकरो- |
स्कर: ॥ १॥ `` ती० १ कर्प । |
रायाभियोग-राजाभियोग-प० । राज्ञा हुपादेरभियोगो रा-
ज्ञाभियोागः । राज्परतन्बतायाम् , च० २ अधि० । उपा० ।
श्रति० । गच्छान्तरीयसम्यक्त्वदशविरत्युच्चार विधिपत्रषु स-
म्यक्वोच्चारालापकप्रान्तवत् द्वादशच्रताच्चारालापकप्रान्तपु
अपि 'रायाभियागर्णाम' त्यादिषडाकारोच्चारलमस्तितद् यो
क्रिकमन्यथा वा ? इति प्रश्नः--अज्ञात्तरम--आवश्यकनिये
कत्युपासकदशाङ्गादो श्रावकाणां सम्यक्त्वाच्चार एवं षडा-
कारा उक्ताः सन्ति, न तु द्वादशव्ताच्चार, तन सम्यक्त्वा-
चचार एव राजाभियोगादिषडाक्रारोच्चारणे युक्रिमर्त्त-
भातीति ॥ ३५४ ॥ सन ० ३ उल्ला० ।
रायाभिमेय-राजाभिषेक-पुं०।राज्ञाऽभिषकक्रियायाम्,नि०चू०।
राजाभिषकसमय निष्क्रामति । सूत्रम--
ज भिक्खू र्पो खत्तियाणं मुद्दियाणं घद्धाभिसिच्छ
महाभिसेयवड माणंसि णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा
शिक्खमंतं वा पविसतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥
ज क्षि-णिदेस, भिक्खू पव्ववरिणब्रो, राज दीतौ ईसरत-
लवरमादियाण अभिसेगाण महंततरों शभिसेओ मदाभि-
सैओ, अवि रायत्तेण अभिसेओ तम्मि वदत जा तस्स समी-
ब्रैणा वा मज्केण वा खिक्खमाति पविसति वा तस्स श्राणा-
दी दासा-ह्।
१४१
|
|
गाहा--
र्पो महाभिसेगे, वईंतो जो उ णिक्खमे भिक्खू ।
अहवा पविसेजादी, सो पावति आणामादीणि ॥७०॥
मगलममंगले वा, पवत्तणणिवत्तण य थिरमथिरे ।
विजए पराजए वा, बोच्छए वा वि पडिसहं ।॥ ७१ ॥
मगलवुद्धीए पवत्तण अहिकरणे, श्रमगलवुद्धीए णिय-
क्षण अहिकरणं दासा वाच्छृदादिया य, जइ सर थिररज्ञ
विजआओ वा जातो पुणा पुणा मगलिपएसु श्रत्थसु सावा
तत्थ ठविज्ञोति अहिकरणं व श्रत्थिरे पराजये वा वोच्चदं
पडिसहं वा णिव्विसयादि वा करज्न ।
गाहा--
द द्रण व राइड्ि, परिसहपराजिओ य कोई तु ।
आसंसं वा कुज्ञा, पडिगमणाईणि व पयाणि ॥ ७२॥
पूववत् ।
गाहा--
बितियपद्मणप्पज्के, अभिचारकि कोविते व अप्पज्के ।
जाणंते वावि पुणो, अणुष्मवर्णादीशि कजं ॥ ७३ ॥
कोविप विहिए अखुणणवितव्वा कि पुव्वि पच्छा मज्मे
-अणुण्णवेयव्वा ?
उच्यते-गाहा--
नाऊणमणुष्पव॒णा, पुविंत्र पच्छा अमगलावष्पा ।
उवश्रोगपुच्छिउणं, नाए मज्के अणुन्नव्रणा ॥ ७४ ॥
ओहावीयाभोगिणि, णिमित्तवतसएण वाऽवि णाऊरं ।
भद्दे पव्वाणुष्पा, पतमणाए य मज्भम्मि ॥ ७५ ॥
श्रोहिमादिणा णाणविससेण अभोगिशणिज्ञाए वा श्रवि-
तहाणिमित्तण वा उवउाञ्जिङण अप्पणो असति अपछा वा
पुच्छिऊरणं थिरंति रज्ञं णाऊर्ण अणुणणवणा पुव्बि भवति,
अथिरं वा रजे णाऊण पुल्वि अखुराणविज्ञतो अमंगल-
बुद्धी वा सर उप्पञ्जति पच्छा अवज्ञाबुद्धी उप्पज्ञति ।
्माहिमादिणाणाभाव वा मञ्भ अणुणणा वेति ।
गाहा--
अणणुप्मविते दासा, पच्छा वा अप्पिओ अवष्मो वा।
पंते पुव्वममंगल, णिच्छुभणपञ्नोसपत्थारो ॥ ७६ ॥
मम रज्जाभिसए अट्टारस पगतीओ सनव्वपासंडा य अग्गे
घेत्तमागया इमे य भिक्खुणो णागया, त पते अ-
प्पट्टा-अलोकज्ञा । अहवा--अहमे तेसि अप्पिश्रा णिव्विसया-
दी करेज्छा । फ्त्थादि अवज्ञा दासा भवंति । पुव्वे अमंगल-
दोसा, तम्दा अणुण्णावेयव्यं ।
गाहा--
आभोए जाणह किं, पुनि पच्छा णिमित्तविसएण ।
राय। कि देमि त्ति य, ज दिष्पं पुव्वरादीर्हिं ॥ ७७॥
धम्मलाभत्ताणे ति अणुजाणह पराउग्ग, तादे जइ जाणति
पाउग्गं भदगो वा ताह भणति ज दिरणं पुव्वरातीहि, राजा
भणति कि दिर पुव्वरातीहें , सावो भरेति-दम
खुणसु-' आहार ” गाहा--एवे भणिय ।
_ रायानिसेय
( ५६२ )
अआाभधानराजन्द्र: |
च राम
गादा--
भदो सव्यं वितरति, दिक्खावज्ञमणुजाणते पंतो ।
अखुसड़ाति अकाउं,णिते गुरुगा य य आणादी | ७८ ॥
भदा भणाति मा पव्वावह सव्व अणुप्मायं, जइ तुञ्ज स-
व्वे लोगे पव्वावह कि क्रमा ण्वे पाडसिद्धा | अखुसट्ठादि
काउं तता रज्जाता णाति चउगुरु आणादिणा इम य दासा।
गाहा--
चतियसावय पव्वति, कुमअतरंत बालवुड़ी य ।
` वत्ता अजंगमा विय, अभत्तितित्थस्स हाणी य ॥७६॥ |
पते सव्वे परिच्चत्ता भवेति-चेतियतित्थकरेखु अ-
भक्ती पवयण हाणी कता । एल्थ पडिसिद्ध अण्णथावि |
पडिसिद्धं, एवं ण॒ को वि प्वयति। एवं हाणी ।
गाहा-
अच्छेताण वि गुरुगा,अभ्तितित्थे र हाणि जा वुत्ता |
भरति भणावंति य, अच्छेति अशिच्छ गच्छंति ॥८०॥ |
पडिसिद्ध वि अच्छेताण चडगुरुं, अण्णत्थ वि भविय- |
जीवा वादियव्वा तण वाहेति, अआओ तत्थ ता सये भण-
ति अण्णहि य भणारेति, किचिक्रालं पडिक्खति सव्व.
हा अणिच्छेत श्रगणरज्ञे गच्छति ।
गाहा--
सदि सह य पाउग्गं, दंडिग शिक्वमण एत्थ वारेति।
गुरुगा अणिग्गमम्मी, दासु वि रज्जसु अप्पब्रहू || ८१॥ |
पुव्वभणियं तु ज भर्णति दार गाद्या पत्थ पडिसेहे दोसा- |
शुरणा इमा दासु वि रज्जखु अप्पबहु त्ति तम्हा दा रज्ज
हवेज्जा ।
गाहा-
एकहि विदित्त रज्ञे, एगत्थ होति अविदिष्प ।
एगत्थ इत्थियाओं, पूरिसिजाता य एगत्थ ॥ ८२ ॥
तरुणा थरा य तहा, दुग्गयगा अड कुल पुत्ता ।
जणवयगा णागरगा, अन्भतरगा कुमारा य | ८३॥
अहया सा भणज्-एगत्थ पव्वावेह; पगत्थ मा पन्वावह । |
साहवा रञ्जखु श्रप्पवदहुं जाणिऊण जत्थ बहुया पव्वयंति
तत्थ गच्चति, अहवा-पगत्थरउज इत्थियाओ अब्भणुण्णाया
पगत्थ पुरिसा
थरे पव्वावह मा तरुण, अहवा-मा धर तरुणे, श्रहवा-दुग्गप
पव्वाचह मा अड्डे, अहवा-अड्ड सा दुग्गए, अहवा-कुलपुत्ते
। रालग-रालक- पु । कड्जुविशेषे , स्था० ७ ठा०। आव० |
| राब-रंजि-धा० । रागे, “
सु वि रज्जसु एगतरं वा । अहवा-भणेज्ज |
कुलपुत्ता णाम-सखुसीला, सुसील पव्वावह मा दुस्सीले, |
अहवा-दुस्सील मा खुसील | एवं जाणपदा णागरा णगर-
ब्भेतरा बादिरा कुमारा, कुमारा-अकतदा रसंगहा |
गाहा--
ओहीमाती णातुं, जे दिक्खमुर्वेति तत्थ बहुगाओ ।
तं वेति समणुजाणसु,असती पुरिसे य जे य बहू ।८४॥
असति ज्षि आहिमादीण पुरिस पव्वावंति जो वा वि
पुरिलाबियाण यछुतर। वग्गा ते पव्वावेति | नि० च० & उ०।
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। रावि देशी-श्रास्वादिते, दे° ना० ७ वर्ग ५ गाधा।
| रास-रास-पुं० । शब्द
रायावकारि-राजापकारिन्-पुं० । गरहान्तःपुरनरपतिशरीर-
तन्पुत्रादद्राहकाराण, ग० १ आध० | घञ । पठ मा० । पठ
चु० । नि० चू० । १
राजापकारिस्वरूपमाह--
रप्पो न्तेउ5बरद्धों, संबंधे तहय दव्वजायम्मि।
उब्श्रुद्धितो विणासा-य होति रायावकारी तु ॥ ३७४ ॥ ¦
इमा रायावकारी ररणा अतेउरे अवरद्धा, सयणो वा। किचि
दव्यजात वा अवाहत, रराणा रयरणद्न्वस्स चा विणासाय
अब्भुट्ठितों रायावगारी ।
गादा
सचित्ते अचित्ते, व व मीसए कूडलेहवहकरणे । |
समणाण व समणीण व,ण कप्पती तारिये दिक्खा। ३७५ `
जे रण्णो सचित्तं दव्वे-पुत्तादि, श्रचित्ते-द्माहारादि, मीस
वा दुतत्णण वा विरोहो कता कृडलेदेण वा रायविरुद्धं
कयं दंडियविराहो वा पुत्तादि से वाहिता,परिसो ण॒ कप्पति
पत्वात्रड।
गारा
आसा हत्थी खरिगा,ऽतिवाहिता कतक-तंव-कणकादी ।
दो विरुद्धं च कय, लीहावहि नो य से का ॥२७६॥
तं तु अणुद्ियदंड, जो पव्वावेति होति मूलं से ।
एगमणगपदोसे, पत्थारपओसआओ वाऽवि ॥ ३७७ ॥
कंठा, ` वधवंध ` गाहा * अयसो ` गादा, पवमादिदासर जो
पव्वाचति तस्स मले । ्
कारण वा पठवावज्ञा । गाहा---
उक्तो व मोइतो वा, अहवा वीसज्ितो नरिंदेण ।
अद्भाण परविदेसे, दिक्खा से उत्तमद्र वा ॥३७८॥
पूववत् | नि० चू० ११ उ०।
रायारीण-राजाधीन-पु०। राज्ञो दूरेऽपि वत्तमानाः। राज-
वशवातान, ज्ञा० १ श्र १६३ आ० ।
दश०. । प्रज्ञा० । ज० | भ० । ग०।
राला-देशी--भियज्गवे, दे° ना० ७ वर्ग १ गाथा।
रज्ञेः रावः" ॥ ८। ४ । ४६॥ इति
रज्ञरा्यन्तस्य रावा55देशो वा । राबेइ । रंजेइ । प्रा० । शब्दे
पुं०। “ राला राश्रा ” पाइ० ना० ३४ गाथा ।
रावण-रावण-पुं० । दशग्रीवे लङ्काराजे; स च अष्टापदगिरि
वालिऋषिसदितमे उत्पाटयन ` मदर्षिपादाङ्गु्ठानमिर्कग-
रिणा पीडितः श्रारावे मुञ्चन् रावणति प्रार्साद्ध गतः । ती०
४७ कटप । त । अषएमस्य वाखुदवस्य लदमणस्य भ्रात
वासुदव, प्रव० २११ द्वार ।
, ध्वनौ, दयोद्धयोर्मध्यस्थित्या करीडा-
“ रासो हर्लीसश्रो `` पाइ०
११
भदे, कालादले च । वाच ० ।
ना० २७१ गाथा ।
( ५
वास भ
श्रभिधानराजन्द्र
४)
त रिंगिअ
हे । गर्दभे, सृत्र० १ श्रु० ३ अ०४उ० | “रास-
हो गदहाय खरो ` पाइ० ना० २५० गाथा ।
रासभी-रासभी-खी° । गर्दभस्त्रियाम् , पज्ञा० ११ पद ।
रासि-राशि- पु० । समूह , ओ०। ओघ० । अचु० । विश० ।
पुञ्ज, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० | पूगीफलादिसमुदाये, पिं० । इ
सजातीयवस्तुसमुदाया वर्गाणां समूहा वगों राशरिति प- |
यायाः | विश० | शालिधान्यादिराशिवद्राशिः, विध्रकीर्णपुञ्जी-
कृतधघान्यांद पु ्जवत् पुञ्जः । अनु० । स० |
दुवे रासी पष्पत्ता । तं जहा-जीवरासी अजीवरासी य॥
सवं तदत्षरमध्यतव्यं , किमचसानमित्याद-* जाव स
किते ` इत्यादि, कवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चाय व.
:, इंह ` दुवे रासी परणत्ता ` इत्यभिलापसूत्रम् ।
० १५६ सम० । स्था० । गच्छ , व्य० १ उ० । धान्यादेरु-
त्करस्तद्धिपय संख्यान राशिः ; स च पाख्यां राशिव्यव-
हार इति प्रसिद्धः | स्था० १० ठा० ।
८,
आ० म० । धान्यादीनां पुज्ञे, ज्यातिश्चक्रस्य द्वादशांशे मषा-
दो, द० प०।
श्रथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानमाह--
पुंजो य होति वटो, सो चेव य ईसि आयतो रासी |
कुलिया इडली णा, भित्ति कडा संसियाभित्ती ।
खत्ता वृत्ताकारो धान्योत्करः पुञ्ज इत्युच्यते , स एव ईंष-
दायतो मनाक् दीघो राशिः।च्रपुजजः पुञ्जः कृतानीति व्युत्पत्या
पुङूतानि, पव राशीकृतानीति । बृ० २ उ०। शनेश्चरादीनां
राशिपरावत्तदिनमिदमिति ज्ञात्वा य जिनपूजा ऽऽचाम्लादि-
क कुव्वेतें तषां सम्यक्त्व म्लान भवतिन वा? इति प्रश्नः,
श्रच्ात्तरम्-शनेश्चरराशि परावर्तदिने विशेषतपःपूजादिकरणे
सखम्यक्त्वम्लानिज्ञाता नास्तीति ॥ ३०३ ॥ सन० ३ उल्ला० । |
“ रूइरं राह '' पाइ० ना० १४ गा- |
राह-राध-त्रि० । खन्दरे ,
था | दयिते, निरन्तरे , शोभिते , सनाथे , पलिते, दे° ना० |
७ वर्ग १४ गाथा ।
राहव-राघव--पएु ० | मत्स्यविशष, प्र
शतयोजनविस्तृतः ।
प्यस्ति राघवः ॥ १॥ ” सूत्र० २ श्रु० ४ अ०।
राहस्सिय-राहसिक पु? । रदसि भवा राहसिकाः । पुरुषेण
परिभुज्यमानायाः सिया: स्तनितादिषु शब्देषु , बृ० १
उ० ३ प्रक० । नि० चू० ।
राहावेहग-राधावेधक-न० । राधायाः प्रसिद्धाया वेधो यत्र
ज्ञाने तद्राधावधकम् । चन्द्रकवंधे , पञ्चा० १४ विच ।
राहु-राहु-पँ० । महाग्रहे , “ दो राष्ट्र, ” स्था० २ ठा० ३ उ०
^“ अब्भपिसाओ राह ” पाइ०
ज्ञा० । सू प्र० । प्रश्ष० । चे० भ्र० । स्वनामख्याते ज्योतिषि-
कदेवे, औ० । स च द्विधा नित्यराहुः, पर्वराहुश्रेति । चे० भ्र०।
श्रस्ति मत्स्यस्तिमिनांम
ज्यो०। स०। (कथ चन्द्रं सूर्य वा राहुग्रंह्मातीति “गद्दण' शब्दे |
ठतीयभागे ८६१ पृष्ठे उक्तम् ) रादोः शिरोमात्रता पनरेवम्-
देवैः किलाग्रतस्य कुएडानि भृतानि विष्णुश्च तद्रक्तायां नि
त्रैराशिकपश्च- |
राशिकादिषु, स्था० ४ ठा० ३ उ० । वर्गराश्यादिषु, विश०। |
तिमिजझ्नलिलगिलो 5प्यस्ति , तद्विलोऽ |
ना० ३० गाथा । कल्प० । प्र- |
युक्कः।ततश्च कायौन्तरव्यात्तिप्तस्य तद्गाइणा पातुमारब्ध, वि
। छुणुना च ते तथा वीचय चक्रक्तेपण तच्छिरश्छुदः छतः, पीता-
स्रतत्वात्तच्छिरोा $जरामरं संवृत्तामति पोराणिकाः। हा०१ अर
छ० | मरड०।राहु विमाननातिनीचत्वाःसूयविमान कथमात्रिय-
तः्त्युअत्वाद्व तन चन्द्रविमानम्? दति प्रश्नः,अज्रोक्त रम-त-
त्वाथेभाष्यवृक्यनुसारण चन्द्रविमानाद्राइुविमानमुपारिणहद्ध-
क्तेते, तच्चानियतचा रत्वात्कदाचित्सूर्यविमानस्या धस्ता दश-
योजनानि यावच्चाधश्चरतीति चन्द्रसूययारावरण न का-
प्याशङ्काति ॥ २०७ ॥ सन० २ उल्ला० ।
| राहुकम्म-राहुकर्म्मन्-न० । राहुक्रियाख्यायाम् , सू० प्र० २०
पाहु० । च० प्र०।
| राहुचरिय-राहुचरित-न० । ४१ कलाभेदे, स० ७२ सम० ।
| राहुहय-राहुहृत-न० । रविशशिनोर्यत्र अहणमभूत् ताइश
| नक्षत्र , नि० चू० २० उ० | आ० म० । विशे० | “ राहुहय तु
जहि गहणं , राहुहयम्मि य मरण । ” प० व० १ द्वार । द०
प० । राणा मुखन पुच्छेन वा आक्रान्ते नक्षत्र, जीत०
रिरि ऋत-न०। गमन, रघ्जभूमनिष्क्रामण , जं० ५ वत्त ।
प्रवशे, “ प्रविशे रिश्च: ” ॥८।५।१८३॥ इति प्रविश रिश्च इत्या-
देशो वा । रिअइ । पविसइ । प्रा० ४ पाद ।
| रिउ-ऋतु-प० । अन्न केचित् ऋत्वादिषु 'द' इत्यारब्धवन्तः,
स तु शोरस्ेनीमागंधीविषय एव दश्यते इति नोच्यत ।
प्राङृत तु ऋतुः । रिऊ । उऊ | प्रा०। पाइ० ना०। “ ऋण--
ज्वेषभत्वेषों वा ”॥८।१। १४१ ॥ इति ऋतोः ऋका-
रस्य“ रिः ' वा। रिऊ | मासद्वयात्मक काल, प्रा०।( श्र
स्या वक्तव्यता 'उउ' शब्दे द्वितीयभागे ६७६ पृष्ठ गता )
रिपु-पं । “ क-ग-च-ज-त-द्-प-य-वां-प्रायो लुक् ”
| ॥८।१। १७७ ॥ इति पस्य लुक् । रिऊ | द्विषि, प्रा० ।
| भ्रव०। शत्रौ, “सत्तू री अमित्तो रिऊ ” पाइ० ना० ।
। २३५ गाथा।
| रिउकाल-ऋतुकाल-पुं० । मासान्ते यत् स्रीणामजखमखक्
देनत्रयं सख्रवाते सख ऋतुकालः। खीणां रजःप्रचुत्तिकाल , तं०।
| रिउपटिसष्प-रिपुप्रतिसंज्ञ- १० । श्रचलवलदेवस्य पितरि प्र-
| जापतों,स च पूव रिपु सन्ञनामा 5ऽसीत् , ततः स्वपतन्नीं सगाव-
| ती परिणयन् अचले नाम बलदेव तत्रोत्पाद् पुत्री पतित्वेन
| प्रजापातारति प्रासद्धा जातः । | आ० म० १ श्र०।
| रिउमइ-ऋजुमति-स्त्री० । सामान्यग्राहिरयां मतों पा० ।
| (व्याख्या ' उज्जुमइ ` शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठ )
रिउया-ऋजुता- खी० । श्रा्जवे, विश० । '
रिउव्वेय-ऋग्वेद-पुं० । चतुर्णा वदानां प्रथमे व्यवस्थित-
पादात्मकऋगात्मके वदे, भ० २ श० १ उ० | श्रौ०। ऋ-
ग्वदाहितनिर्णीयव्यापार, स्था० ३ ठा० ३ उ०।
रिखा-रिडखा-स्री° । सपणक्रियायाम् , बृ० १ उ० ।
रिंगत-रिङ्गत्-धा० । रिग-गतो, प्रवेश5पि । रिंगइ। प्रवि-
शति । गच्छति वा । प्रा० ४ पाद् ।
| रिंगण--रिङ्गण -न० । किञ्चिञ्चलने , प्रच०
रिंगिअ-देशी--श्रमण, दे
२ द्वार श्राव० ।
० ना० ७ ब्ग ६ गाथा।
( ५६४ )
शा क
छा नधघ्ानराजन्द्रः)
_रिंगेसिया
रिंगिसिया-रिज्विसिका -स्त्री० । वाद्यभेदे, रा० ।
रिंदोली-खी० । अणो, “ओली माला राई रिंछोली” पाइ०
ना० ६३ गाथा । दे० ना०।
रिंडी-देशी--कन्थाप्रायसि, दे० ना० ७ वर्ग ५ गाथा।
रिक्क-रिक्ल-न० त्यक्त, नि० चू० १६ उ०। आचा०। स्तोके, दे०
ना० ७ चग ६ गाथा । “रिकं रिक्त पाइ० ना० २श्८ गाथा। |
रिकिञ्न-देशी--शटिते, दे० ना० ७ वश ७ गाथा ।
रिक्ख-ऋत्ष-न० । “ रिः केवलस्य ” ॥ ८। १। १४० ॥ इति
` केवलस्य व्य ञ्जनेना 5सम्पृक्तस्य ऋतो ` रि ` इत्यादेशः । रि-
च्छं । प्र०। ऋत्ते वा ॥ ८। २। १६ ॥.इति ऋत्तशब्द-
स्थस्य क्षस्य छो वा । रिच्छे । रिक्खे । नक्षत्रे,प्रा० | चे०्प्र० ।
“ रिक्ख उडु नक्खत्त "` पाइ० ना० ६६ गाथा | आ० म० । |
वयःपरिणामे, दे० ना० ७ वरी.६ गाथा । बद्ध, दे° ना० ७
वर्ग ६ गाथा । रिक्ख (च्छु) | चुद्रे, करूर, जन्तुविशेष,स्था०
६ ठा० ३ उ०।
रिक्खश॒-देशी--उपालस्मे, कथन च । दे० ना० ७ वर्ग १४ |
गाथा ।
रिग्ग---देशी--प्रवेश,
रिच्छ-ऋत्ष-पुं? । नक्षत्र, प्रा० | भल्लके,
दे० ना० ७ वगे ५ गाथा ।
“४ रिच्छी य अच्छु-
दल्ला ` पाइ० ना० १२८ गाथा । वृद्ध,दे०ण्ना० ७ वगे र्गाथा। |
रिच्छज्कय-ऋतच्ष ध्वज-० । ऋत्ताज्लितध्वजे, रा० ।
रिच्छुभल्ल--देशी--ऋत्ते, दे० ना० ७ वर्ग ७ गाथा ।
रिजु-ऋज-ऐ० | “ ऋण ज्लैषभत्वषों वा ॥ ८। १। १४१॥
इति रिव । रिजू | उजू । सरल, प्रा० १ पाद ।
रिज़भाव-ऋज़भाव-पुं० । ऋजुरकुटिलो मोक्ष प्रति प्रशुणो
यो मावः परिणामः स ऋजुभावः। मोक्तोपयिकपरिणामे,बु०
१ उ० २ प्रक० |
रिद -रिष्ट-फुं० । रत्नाविशेष, आ० म० १ श्र० । तौ० । औ० |
ज्ञा० । ज़०। रा० । प्रव० । जी० । काके, दे० ना० ७ वगे ६ |
गाथा । वेलस्बस्य प्रभञ्जनेन्द्रस्य च तृतीये लोकपाले, स्था०
४ ठा० १ उ० । महाकच्छुविजयाख्यराजधान्याम् , स्था० २
ठा० ३ उ० । पक्तिविशेष, कलविराच रु श्रौ० । ज्ञा० । काके,
“ वलिउद्रा रिट्ठा ” पाइ० ना० ४४ गाथा । दे० ना०।
रिद्कड -रिष्टकाणड-न० । रत्नप्रभायाः परथिन्याश्चतुर्दशे का-
र, स्था० १० ठा०
रिट्रिकूड-रिष्टकूट-प० । जम्बृद्धीपे मन्दरस्य पूर्व रुचकरपर्व- |
तस्य प्रथमे कृटे. स्था० ८ ठा० ।
रिट्टपुर-रिष्टपुर-पुं० कच्छगावत्याख्यराजधघान्याम् , “
रिट्रपुरे ” स्था० २ ठा० हे उ०।
रिद्रमय--रिष्टमग्र--त्रि० । रिष्टरत्नमये, ज़ी० ३ प्राति० ४
आधि० । ज० । रा० । | |
रिट्टा--रिष्टा--ख््री० । मदिरायाम् , ज्ञा० १ श्रुव १७ आअ०। |
या शाखान्तरे जम्बुकलकालिकेति प्रसिद्धा । जं० २ वन्न ।
पञ्चमनरकप्रथिव्याम् , स्था० ७ ठा०३उ०। जी०। “दा |
रिट्ठाआ "` स्था० २ ठा० २ उ० |
[> (= [ख् ~ [व -- =
| रिट्ठाभ-रिष्टाभ-न० । पश्चमदेवलाकावमानभेदे ,स० ८ सम० प्र
| छृष्णराजीमध्यमभागवर्तिनि रिष्टा ख्यलोकान्तिकदेवाऽभवा-
| सभूत विमान, भ० ६ श० ५ उ०।
रिट्टिसाल-रिश्टिशाल - न० । ्रष्टमदवलोकविमानभेदे, स०१८
| सम०
| रिण-ऋण-न० । “ ऋणज्जषभत्वेषो वा "" ॥८॥ १। ९४१ ॥
इति रिता रिव । रिं । अरणो । अधमणन उत्तमणीत् पुनर्दे
यत्वनाभ्युपगम्य ग्रृहीते धने, प्रा० १ पाद् |
रितंभरा-ऋतम्भरा-ख््री० । अध्या्मप्रसादानन्तभौविन्यां
योगिप्रज्ञायाम् , द्वा० ।
| अध्यात्म निर्विचारत्व-वैशारधे प्रसीदति ।
ऋतम्भरा ततः प्रज्ञा, श्रुतानुमितितोऽधिका ॥ १२॥
द्वा० २० द्वा०। ( व्याख्या ` जाग ` शब्दे चतर्थभागे १६३०
पृष्ठ गता )
रित्त-रिक्र-न० । तुच्छे, आचा० १ श्रु० ४ अ० ६ उ०। “रिक
रिक्त ” पाइ० ना० २१८ गाथा |
रित्तग-रिङ्रिक-पुं° । ण्ड. आ० चू ४
रित्तमुट्टि-रिक्नपुष्टि-स्त्री० । पाल्कमुषठा, त० ।
रित्तहत्थ-रिक्नहस्त-पुं० फलादिश्टन्यकरे, “ रिक्कहस्तो न वै
पश्येत् , राजाने देवतां गुरूम् | निमित्तत्वं विशेषण, फलन
फलमादिशेत् ॥ ९ ॥ ` कठ्प० १ अधि० ४ क्षण ।
रित्तूडिअ-देशी-शातिते, दे° ना० ७ वर्ग ८ गाथा । ~
रित्थ-रिक्थ-न० । धने, “ रित्थ दाविणं पाई० ना० ५०
गाधा।
रिद्व-ऋद्ध-न० । सपत्नो, धनधवान्यभवनादिभिवरदधिमुपगते,
त्रि० । सू० प्र० १ पाहु०। विपा० । प्रश्च०। ज्ञा० | भ०।
८ रिद्धत्थिमियसमिद्धा "` । ऋद्धा भवनेः पोरजनेश्वातीव
वृद्धिम॒प्गता “ ऋद्धवृद्धो ” इति वचनात् । रा० । औ० ।
भ० । च० प्र०। आ्आगामिन्यामुत्सर्पिरयां भारते भविष्यति
द्वादशे चक्रवर्तिनि | ति० । पक्के, दे० ना० ७ वर्ग ६ गाथा ।
रिद्धमेहवण--ऋद्धमघवन-न० । भारत वर्ष राहिडनगरस्य
समीपोद्याने, नि०।
रिट्वि-ऋद्धि-खी ० । “रिः केखलस्थ” ॥ ८। १। १४० ॥ इति
व्यञ्जनेनासम्पृक्कस्य ऋता रि इत्यादेशः । रिद्धी । प्रा० । “इत्
रूपादौ" ॥ ८। १। १२८॥ इति ऋत इत्वम् "` ्रद्धद्धिमूधौर्े
उन््ते वा! ॥ 5५। २। ४१ ॥ एप्वन्ते वत्तमानस्य सयुक्कस्य ढौ `
चा भवति । इड्डी । रिद्धी । प्रा० । अनेकको टीसंख्यद्रव्या दि-
सम्पद्धिशषे, प्रा० । स० । समूहे, दे” ना० ७ वग ६ गाथा।
| “ चिच्छड़ा सामिद्धी रिद्धी `` पाइ० ना० ६२ गाथा ।
रिद्धिविद्धिजुत्त-ऋद्धिवरद्धियुक्र-चि० । ऋद्धिबरद्धथमिघानौ-
पधिसनाथ, “ मंगलपडिसरणाइचित्ताई रिद्धिविद्धिजुत्ताद ?
पञ्चा० ८ विव० । ु
रिप्प-देशी-प्ृष्ठे, दे” ना० ७ वर्ग ५ गाथा।
अआ०।
¶
५
॥
†
रिभिय--रिभित-न० । स्वरघ्रोलनाप्रकार, ज्ञा० १ श्रु० १७
० । त्र । स्वरघालनाप्रकारापत यत्र स्वरो ऽत्तरेषु ॥
| घोलनास्वरविशेषषु च `सञ्चरन् रिङ्गतीव प्रतिभाषत सं
|
|
( ५६५ )
अभिधानराजन्द्रः ।
स्क्ग्व
पद्सश्चधारः राभत उच्यत | ज्ञा० १ श्र० १६ आअ०। रा०। स्था०।
न० । नाख्यभदे, आ० म० १ अ० | स्था०।
( दे० ना० ७ वर्ग ७ गाथा।
रिय-ऋत-न० । सत्य, भ० ८ श० ७ उ०।
#
रियारिय-रितारित--न० । गमनागमन, रा०। जी० । आ० म०।
रिसा-रिरसा--स्नो०। कदली यृहादिक्री डायाम् ,आ०म० १अ०।
रिर्ि-देशी लीने, दे° ना० ७ वर्ग ७ गाथा |
रिसजिह- रिश्यजिह्-१०। महाकुष्ठभेदे, प्रक्ष० ५ संब० द्वार । |
रिसिभ-ऋषभ-प० ।“ऋरज्वृषभत्वृपौ वा" ॥ ८॥ । १। १७१॥ |
इति ऋतो रिया । रिसहो । उसहो । वृषभे, प्रा० १ पाद् ।
प्रथमती थंकरे, आ० म०। (व्याख्या 'डसभ' शब्दे ११३ पृष्ठे) |
ऋषभो-वृषभस्तद्वद्यो वत्तेते ऋषभ इति, आह च-“ वायु
समुत्थितो नाभेः, कराटशीषैसमाहतः । नर्दैत्यषभवयस्मात् ,
तस्मादषभ उच्यत ॥ १ ॥ इत्युक्कलक्षण स्वरभदे, स्था०
७ ठा० | अनु० । आस्थद्वयस्यावेष्टके पटे, त० ।
रिसभपुर ऋषभपुर--न० । जम्बूद्धीपे मन्द्रस्य पूरवैतः शीतो
दायाः महानयाः दक्तिणस्थे राजधानीभेदे, ती० १० कल्प ।
रिसि-ऋषि-पं० | “` ऋण्वृषभत्वषो वा” ॥८; १। १४९ ॥
इति ऋता रिव । रिसि । इसि | गच्छुगतगच्छुनिर्गतादिभे-
देषु साधुषु , प्रा० पा० । मुनौ , “ जइणो तवस्सिणो
तावसा रिसी `` पाइ० ना० ३२ गाथा ।
रिसिघायण-ऋषिघातन-न० । ऋषिवधे, “विज्ञे परिभवमा-
शो, आयरिआरं गुणे पणासितो । रिसिघायणाण लोश्च, व-
चद मिच्छत्तसजुत्ता | द० प०।
रिसिदास-ऋपिदास-पं० । “ साकेतनगरे याते साथवाह-
पत्र, अणु० | स च वीरान्तिके प्रवज्य बहवपाणि श्राम-
शयं परिपाल्य सवी सिद्धे उत्पद्य मदाविदहे सत्स्यतीति
अनुत्तरो पपातिकदशानां ३ वर्गे ततीयाध्ययने सूचितम् )
रिसिभासिय-ऋषिभाषित-न० । उत्तराध्ययनादिश्रुत, विशे०।
“ देवलोगच्चुयाण इसी चोयालीस इसिभासिय अज्भ-
यणा `` स० । “परहवागरणदसाण दस अज्कयणा परणत्ता,
तं जहा-उवमा-सखा-रि (इ) सिभासियाई'' स्था० १० ठा०।
रिसिवज्छा- ऋ पिहत्या-सख्री° । ऋषिव्यापादने, “राअ पिच्च |
वज्जणह रिसिवज्मा जह न सुंदरो होड |” बृ०१ उ० ३ प्रक०। |
रिसिवाइय-ऋषिवादिक-पए० । गन्धवैभेदे, मज्ञा १ पद् ।
रीइ-रीति-स्त्री० । स्वभाव, अनु० । भ० ।
रीइया-रीतिका खी०। पित्तलाख्ये घातुविशेषे,आं ०। आच्चा०।
रीड-मंडि-धा० । इदित् । चुरा०। भूषायाम् , ""मरडः चिञ्च-
चिझिआअ-चि?थझ्िज्ञ-रीड-टिविडिकाः ”
इति मण्डेः री डादेशः | रीडइ । मणडयति । प्रा० ४ पाद् ।
रद-देशी- अवगणन, दे० ना० ७ वर्ग ८ गाथा ।
रीढा-रीढा-ख््री० । यदच्छायाम, घुणाक्षरन्याय, बहुधम्मचर-
णहसरा, रीढा जणपूयणिज्ञाणं । बृ० १ उ० ३ प्रक० । जी०।
अनादर, हला य अनादये रोढा” पाइ० ना० १६२ गाथा।
रीयमाण-रीयमाणु-त्रि० । सयमानुष्ठाने, गच्चति, विहरति
१४२
| च । आचा० १ श्रु० ६ अ० २ उ० । उत्त० । भ० । बृ०।
न रे [3 छत.
| रीर-राज--धा ०। दीप्तो, “राजेरग्घ छुत्ञ--सह-री र--रहाः ”
| रुंध-रुन्ध-धा० । आवरण, '
॥ ८ । ४ । ११५॥
| ॥ ८।४।१०० ॥ इति राज रीर श्रादशः । रीरइ। राजति । प्रा०।
| रुअरुइआ-देशी--उत्करठायाम् , द० ना० ७ वर्ग ८ गाथा ।
रुइ- रुचि-खी०। परमध्रद्धायाम् , , आत्मनः परिणामविशेषरूप,
बृ० १ उ० १ प्रक० | चतो5भिप्राये, सूत्र० २ श्रु० १ अ० ।
ध० । वश० । आंभलाषरूप, स्था० १० ठा०। प्रीतो, आब०
४ अ० । वशे० । नमस्य, उत्त० १ अआण० ।
तिविहा रुई पप्पत्ता | तं जहा--सम्मरुई मिच्छरुई
सम्मामिच्छरुई । स्था० ३ ठा० ३ उ० |
रुदर-रुचिर--न० । मनाज्ञ, उत्त० ३२ अ० । स्निग्ध, ज० १
वक्त० । सुन्दरे, “ रुदर राह रम्मे ” पाइ० ना० १४ गाथा ।
रुइल-रुचि(र)ल--ि० । रुचिर्दीपिस्तां लान्त्यादद तीति रुचि-
| लानि | सद्दीप्तिमत्सु, सृत्र० २ श्रु० १ अ०। मनाज्ञ, ओ०। ज०।
जी०। स० । ब्रह्मलोक स्वनामख्यात विमान.न० । ब्रह्मलाके हि
“४ इल रुइज्नावंतं रुइह्नप्पर् रुइल्ललेस रुदल्लवरणे ” इत्यादि
विमानानि सन्ति | स० & सम०।
रुंचणी-देशी--घरदख्याम् , दे० ना० ७ वर्म ८ गाथा ।
| रुेचिज़्माण--रुंचीयमान-त्रि० । ्छत्णखण्डीयमाने, जे० १
वक्त० | आ० म०।
रुंज---रू-धा० । शब्दे, “ रुते रुंज-रुण्टों ” ॥ ८।४।५७ ॥ इति
रातेः रुजादेशः । रूंजइ । प्रा० ४ पाद् !
| रुंर)जग-रुचक-पु० । डुमे,कस्मिश्विददेश द्रुमाः रुचका इत्या-
ख्यायन्ते दश० १ आ० ।
रुंटिय--रुत-त्रि० । गुज्जितध्वनो, पाइ० ना० २६२ गाथा ।
| रंढ-देशी-आक्तिके, कितव इत्यर्थः । दे० ना०७ वरी ८ गाथा ।
| रुदिञ्र--देशी--सफले, दे० ना ७ वर्ग १८ गाथा ।
| रंद-रुन्द-ि० । विस्तीणें, बृ० १ उ० ३ प्रक० । श्रौ०। ध० ।
नि० चू० । नं० । प्रश्न० | शिखारितलकूटाधिपतिदेवे, द्वी०।
स्थूले, पाइ० ना० ७३ गाथा | विपुल , मुखरे च । दे०
ना० ७ वगे १४ गाथा ।
| रुंधतिया-रुन्धन्तिका-ख्त्री० । यन्त्रके व्रीहिकोद्र वादीनां नि-
स्तुषत्वकारिकायां क्रियायाम् , ज्ञा० १ श्रु० ७ आ०।
रुधः सुत्थक्घः ” ॥८। ४।
१३३ ॥ इति रुधः रुत्थट्ठ इत्यादशो वा । उत्थङ्कहइ । रंधद् ।
प्रा०। “ व्यञ्जनाददन्त "॥ ८। ४।२३६ ॥ इति व्यञ्जना-
द्धातोरन्ते शकारः । संधरद् । रुणद्धि । प्रा०। “ब्मो दुद-लि-
ह-वह-रूधामुच्चातः ” ॥ ८ । ४ | २४५॥ इति द्विरुक्रः ब्भो
चा । रूब्भइ ! रुंधिज्ञइ । प्रा० ४ पाद् |
रुभण रोधन न | आवरण, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । गुप्तप्र-
क्षपण बरृ० ३ उ० ।
रुक्ख - पुं°न ०वृक्ष-पु० । 'बृक्ष-क्षिप्तया: रुक्ख-छूढो '* ॥ ८।२
। १२७ ॥ इति यत्त रुक्खादेशा वा । रुकखा । बच्छी । प्रा० ।
गुणाद्याः क्रीव वा ।१।२५॥ इति प्राकृत क्लीबत्वं बा-
( ४६६ )
श्रानध्रानराजन्द्रः।
स्क्ग्व
च्यम् । सुक्खाई । रुकखा । बृश्च्यत इति वृत्ताः | चूता55शो
कादिकषु तरुषु, कल्पादिदमषु च । प्रा० । उत्त । (भदा
` एगट्टिय ` शब्द तृतीयभांग १६ पृष्ठ गताः)
मकि तं स्का पत्ता? गोयमा ! तिविहा रुक्खा
पष्पत्ता । त॑ जहा-संखेज्जजीविया, असंखेज्जजी विया,अ-
णंतजाविया ॥ ( भ० ) से कि ते अणंतजीविया ? ,
अणंतजीविया अणगविहा पप्मत्ता तं जहा-आलुए
मूलए सिगरे | भ० ८ श० ३ उ० ।
बहुबीजकदुृत्तप्रति पा दना र्थमा ह--
से कि त॑ बहुबीयगा ?, बहुबीयगा अशणेगविहा पष्प-
त्ता । तं जहा--
श्रत्थिय तेद कविद्रे, अ॑वाडग माउलिग विज्ने य ।
आमलग फणिस दालिम, असोटे उबर बड य ॥१५॥ |
णग्गोह णं देरुक्ख, पिप्पी सयरी पिलुक्खरुक्खे य । |
काउंबरि कुत्थुभरि, बोद्धव्वा देवदाली य ॥ १६ ॥
तिलए लउणए छत्ता ह- सिरीस सतवन्न दहिबन्ने ।
लोद्धधवचद णऽञज्ण-णीमे कुडए कयंवे य ॥ १७॥
जे यावन तहप्पगारा, एतेसि णं मूला वि असंखेजजी-
वियाकंदा वि खंदा वि साला वि, पत्ता पत्तयजीविया,
पुष्फा अणगजीविया, फला बहुबीयगा । सत्तं बहुब्रीयगा,
सत्तं सुक्खा |
अथ के ते बहुबीजकाः ? , सरिराह--बहुवी जका अनेक-
विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--' अत्थिये ` त्यादि गाथात्रयम् ,
पते च श्रर्थकतिन्दुककापित्थाम्बाडकमातुलिङ्गविलवा- |
55मलकपनसदाडिमाश्वत्था दुम्बरवरन्यग्रोधनन्दिवृत्तापिष्प-
लीशतरीसक्तका दुम्बरिकुस्तुम्भरिदेवदालितिलकलवक्रच्छत्रो- |
पगाशिरीषसप्त पररद्धिपर ला द्ध घवचन्दनार्जुननी पकुटज कद -
म्बकानां मध्य कचिदतिप्रसिद्धाः कचिदेशविशेषतो
चांदतव्याः, नवरामिहामलकादया न लाकप्रसिद्धा
प्रतिपत्तव्याः, तपामकास्थिकत्वात् ,
दाः बहुवीजका एवं कचन, ` ज यावन्न तहप्पगार त्ति
यपि चान्य तथाप्रकाराः-पवप्रकारास्तऽपि च बह
बीजका मन्तव्याः, पएतषामपि मलकन्दस्कन्धत्वकृशाखा-
प्रवालाः प्रत्यकमसेख्ययप्रत्यकशरार जीवकाः,
कानि, उपसंहारमाह--सेत्तमित्यादि निगमनद्धय सुगमम् ।
प्रज्ञा १ पद् । स्था० | जी० । श्राचा० | स० । सृत्र५ । ज्ञा०।
दश । व्य० । ( ' सखज्र्जाविय ` शब्द सख्यातजीतवकान्
चच्याम ) ( श्रसख्यातजीविकरा
प्रथमभाग ८२० पृष्ठे गताः )
श्रथ वृत्तनित्त पमाह--
वृक्ताद्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च। द्रव्यतः प्रधानो वृत्तः कल्प
वृक्षः,
श्रलखज्ञजी विश्च ` शब्दे |
स्क्गवासण
माना सन्वय छृत्वा तदधाभागवात्तना पुरुषाणां तदारोह-
णासमथानामनुकम्पया कुसमान वसूजात, तभपच अत {
पातरजागुर्डनभयात् विमलविस्तीरपटेः प्रतीच्छन्ति, पुन-
यथापयागमुपमुञ्जानाः पुरेभ्यश्चापकुव्वौ णाः खुखमाप्नुवन्ति।
एव भावदृक्ष ठप सवामदमायाज्यम् । ( ८६ गा० टी० ) आ०
म० १ अ० । विशे० । ( श्रमणा्थ निष्पादित आम्रवृक्तः सा-
धूनां न कल्पते इति ' आधाकम्म ` शब्दे द्वितीयभागे २४२
पृष्ठ उक्तम् )
रूक्ष-पु० । पुद्रलद्रव्याणां मिथा5संयुज्यमानानामबन्धनिब-
| न्धन भस्माद्याधारे स्पर्शनभेदे, कर्म० १ कर्म०।
| रुक्खकालिय- वृक्तकालिक-न” । शअनन्तात्सर्पिरयवसर्पि-
| णीमान, आ० म० १ श्०।
| रुक्खगिह- वक्तगृह-न० । वृक्ष पव गृदाकारः वृत्तग्रह, चृतति
वा गरं चृत्तग्रहम् । वृक्षप्रधान, तदुपरि वा गरे, नि चू७
१२ उ० । श्राचा०।
| रुक्खगुद -वृक्षगुन्द-न° । वृत्तनियास, ल० प्र०।
| सक्वगहालय-उृत्तगहालय-पु० । वृ्तरूपाणि गहानि आ-
| लया आश्रया यषाम् । चृत्तरूपगहनिवासिषु, ज० २ वक्ष०।
रुक्खपडाटय- वृक्तप्राता्टत न० । स्फुारतवबाजप्रताषछरत श्रा
हारशयनादों, दश० ४ श्र०।
| सक्वफासणाम-रु्तस्पशनामन् न । यदुदयाज्जन्तुशरीरं
भूत्यादिवच्च रुक्तं भवति तद्रत्तस्पशनाम । स्परशशनामभदे
कर्म० १ कर्म० ।
रुक्ख मल- वृक्तमल-न० । वृश्च्यत इति वृक्तः, तस्य मू--
लम् । सहकारादिवृत्तस्याधोभाग, उत्त० २ श्र० । बृ० |
श्रा०।
रुक्ख परलगिद- वृक्ञमृलगृह- न । वृश्च्यत इति वृत्तः तस्य
मले गृहम् । सह कारादिवृक्तस्याधोभागे गृहे, उत्त २ श्र ०।
वृ० । औ० । चक्ञस्य करीरादर्निरीलस्य मूलमधो-
गस्तदव गृह वृच्तमलग्रहम् । वृत्ताधागह, स्था० ३
ठा० ४ उ०।
रुक्खमूलिच्र वृत्तमूलिक ` पं । बृक्तमूल पव सदा वासिनि
वानप्रस्थ, श्रो० । नि० चू० । वेताढथपव्वेतवासिनि विद्या-
केन्तु-दशावशषप्रसि
पत्राण प्र- |
त्यकजीवकानि, पुष्पारयनकजीवकानि, फलानि बहुवीज- |
यथधा-तमारुह्य कश्िद्रन्धादिगुणसमन्वितानां कुखु- |
घरमनुष्ये, आ० चु० १ अ०।
रुक्खविगुव्वणा-वृक्षविकुव्वेणा-स्त्री । घृक्षविक्रियापादने ,
स्था०।
वृत्तविभूषा माह--
चउव्विहा रुक्ख विगुव्वणा पप्तत्ता। तं जहा-पवालत्ताए
पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए ॥ ( स्तू० २४४०८ )
* च्उव्विहे ' त्यादि, श्रथवा-पृवैमुञ्चुजी विकासम्पन्नः सा-
धुपरुप उक्तः, तस्य च वेक्रियलव्धिमतस्तथाविधभ्रयाजने
वृक्ते विकुब्बंतो यद्धिधा तद्विक्रिया स्यात्तामाह-' चउन्वि-
हा ` इत्यादि, पातनयैवोक्कार्थ, नवरं ‹ प्रवालतयेति ` नवा-
क्करतयत्यथः । स्था० ४ ठा० ४ उ०।
रुक्खासर - बृत्तासन-न० । स्नेहरदितभोजने, बृ० १ उ०
३ प्रक०।
( ५६७ )
रूग्ग
अआाभधानराजन्द्र: |
६.
रुग्ग रुम्म-त्रि० । जीरातां गत, श्ञा० १ श्रु० ७ श्र०। रोगिणि,
पाइ० ना० २४३ गाथा ।
रुद -रुष्ट-त्रि० | क्रोधविमोहिते, नि० १ श्रु० १ वगर अ०।
विपा० । उदितक्रोघ, भ० ७ श० ६ उ० । ज्ञा० | प्रश्न०। |
रुट्रवंद्ण रुष्टवन्दन-न०। क्राधाध्माता वन्दते, करोधाध्मात |
वा । वन्दनदाषविशेष, आव० ३ अ०। “ रासण घमधमंतो |
ज वंदइ रुट्टरमअ ते” रोषेण कनाऽपि स्वविकल्पजनितन
* धमधमंता ` क्ति जाज्वस्यमाना यद्धन्दते तत् रुषटवन्दनक-
मिति । श्राव० रे अ०। भ्रव० । आ० चू०।
क कत् च
रुएट-रु-धा० । शब्दे, “' स्तः रुज्ज-रुरटो ` ॥ ८। ४। ४७ ॥
इति रौतरेतावादेशौ वा । रुअइ । रुएटइ । रौति । प्रा०।
रुष -रुदित-न० । “ रुदित दिना ष्ठः `" ॥८। १।२०६॥ इति
रूदिते दिना सह तस्य द्विरुक्रो णो भवति । प्रा० । सुरण । शश्र
विमोचने, प्रश्च° ५ सव० द्वार । भगवत्यपवगं गत, भरतदुः
खमसाधारणमववुध्य तदपसरणाय शक्रण कृतस्ततो लोके-
ऽपि ततः कालादारभ्य रुदितशब्दः प्रवृत्तः
लोकोऽपि तथा भरतयद् शक्रवद् वा रुदितशब्दं प्राकृतः कतै
मारन्धवान् । श्रा० म० १ श्र०।
= 4 [क को कक | > क 4 ज
रुत्तजोणि- रुदितयानि-न० । रुदिते योनिजौतिः समानरूप-
तया यस्य तत् रुदितयानिकम् । रुदितसमान गीत, “ सत्त
सरा णाभीश्रा, भवति गीते च रुत्तजोणी ये स्था० ८
ठा० ३ उ०।
रूद-रुद्र-पुं०। “ द्रेरो नवा” ॥८।२।८०॥ इति द्रशब्दे
रेफस्य वा लुक् । रुदा । रुद्रा । हरे, प्रा०। अनु० । भ० ।
श्राव । ऋषानक्तत्रस्या ऽधिपतो , ज० ७ वक्ष० ।
( तन्नामनिरुक्रिः जनशाख्रप्रसिद्धा ) नारकाणां दुःखात्पादक
श्रसुरकुमारावशष, प्रश्न ५ सव० द्वार स० | भ०। प्रव ।
श्राव०। १
अपि च--
असिसत्तिकोंततोमर-स्लतिसलेसु प्रइवियगासु ।
पायात रुदकम्मा उ, णरगपाला ताह राहा ॥ ७४ ॥
तथा श्रन्वर्थाभिधाना रोद्राख्या नरकपाला रोद्रकर्माणा
नानाविधष्वसिशक्त्यादिषु प्रहरणेषु नारकानशुभकमोंदयव- |
तिनः प्रातयन्तीति । सूत्र ० £ श्र ० उ० | तृतीयबलदेववासु
देवपितरि, श्राव०१ श्र० । ति० । स्था० । पाश्वनाथतीर्थाधि-
छठायक्र देवे, ती० ५ कल्प । श्रहारात्रस्य प्रथमे मुहत्ते, ज्यो०
२ पाहु० । स्० प्र० । जञ० । स० । कल्प० । श्राचा० । च० प्र० ।
पर्युषणायां कलहत्तामणावसरे उदाहृते खटवास्तव्ये बली- |
बर्ददमारके द्विज, कट्प० १ अधि० ५ क्षण । रौद्रे, प्राणिनां
भयात्पादके,त्रि० | सूत्र ० १ श्रु० ४ अ० २ उ० । रादयत्यपरा-
निति रुद्रः । प्राणिवधादिपरिणत श्रात्मेव तस्यैकं कम्म रो-
द्रम् | ध्यानविशष, न० । प्रव० ६ द्वार | चरड, तीव्र च ।
सत्र० २ श्रु० २ अ० | महादव, तत्कथा चचम्-* वसाल-
जणा सव्वो महेसरेण नीलवतम्मि साहरिओ । को
महसरो न्ति? , तस्तव चडगस्स धूया सुजा वेरग्गा
पञ्चदइया, सा उवस्सयस्सता श्रायावेद्, इआ य पटालगा
नाम परिव्वाय्मो विज्जासिद्धो चिञ्जाउ दाउकामो पुरिस
॥ तथा चाद- |
मग्गइ, जद बंभचारिणीए पुत्ता हाजा ता समन्था दाज्ञा,
तं श्रायावेतीं दर्दरं धूमिगावामादहं काऊण विज्ञाविव-
जासो तत्थ स रितुकाले जाए गव्भे अतिसयणाणाीहि
कहिये--न एयाए कामविकारा जाओ,सइयकुल बहाविश्रा,
समोसररं गश्रा साद्ुणी हिं सह, तत्थ य कालसेवीवा वे-
दित्ता सामि पुच्छद-कश्राम भये ?, सामिणा भणिये-ए-
याश्रा सञ्यतीश्रा ताद तस्स मृल गश्रा, श्रवरणाप भणइ-
शरे तुम ममं मारेहिसि त्ति पाणु बला पाडश्रा, सेव
ह्श्रा, परिव्वायगण तण सजतीणं हिओ, विज्ञाओ सि-
क्खाविश्वा, महाराहाण च साहेइ, इमं सत्त भव, पचस
मारिश्रा, छट छम्मासावससाउपण नच्छिया, अह साहत्तु-
मारद्धा अणाहमडए चितिये काऊण उजञ्जातलत्ता श्रल्लचम
वियडित्ता बामण श्रगुद्रएण ताव चेकमइ जाव कटरा
जलात, पल्थंतर कालसंदीवा आगआओ कट्ठाणि छुब्भइ, स-
सत्तरत्ते गए देवया सयं उवटद्टिया-मा विग्घे करदे, शद्
पयस्स सिज्किउकामा, सिद्धा भणद-पगं अंग पारच्चय
ज्ञण पविसामि सगर, तण निलाडण पडिच्छिया, तेण
अइयया, तत्थ विलं जायं, देवयाप स तदाप तदयं श्रच्चि
कये, तख पद्टालो मारिश्रा, कीस णे मम माया रायधूय
त्ति विद्धसिया, तण स सुदा नाम जाय, पच्छा कालसंदीव
आशभोणर, दिद, पलाश्रा, मग्गश्रो लग्गइ, एवं हट्टा उर्वारि
च नासइ, कालसदीवण तन्नि पुराण विडउव्विता, सामि-
पायमृले अच्छुइ, ताणि दवयाणि पदश्रो, ताह ताणि भणं-
ति-अम्हे विज्ञाओ, सा भट्रारगपायमुले गश्रा जति तत्थ
गच्रा, एकमक्तं खामिश्रा | शरण भणंति-लवण महापायाल
मारिओ, पच्छा सा विज्ञा चकवट्री तिसंभं सव्वतित्थगर
दित्ता णट्ट च दाइत्ता पच्छा अभिरमइ,तेण इदण नामे कयं
महेसरा त्ति, सा व क्र धज्ञाश्याण प्रासमावणणा
धिजादइयकन्नगाण सयं २ विणासइ, अन्नस अंतउरखु, अ-
भिरमई तस्स य भणति, दो सीसा-नंदीसरो नंदी य, एवं
पुष्फपण विमाणण अमभिरमइ, एवं कालो वच्चइ। अन्नया
उज्जणीए पज्नायस्स अंतेउर सिव माणे ससाओ विद्ध-
सद, पज्जाओ चिंतेइ-को उवाओ हाजा जण पसा विणास-
ज्ञा ?, तत्थेगा उमा नाम गणिया रूवस्सिणी,सा किर धूव-
ग्गहरं गेरहइ जाह त तण पड, एवं वच्चद् काल उराणो,
ताप दाख पुण्फाणि वियसियं मउलियं च,मउलिय परणामिय
महेसरेण वियसियस्स हत्थो पसारिश्रो, सा मउलं पणामेद्
पयस्स तुज्मे अरहासि त्ति, कटं ? , तादे भणइ-एरिसिओ
कप्माओ ममे ताव पच्छुह, तीए सह सवसद हियहियआओ
कश्या, एवं वच्चइ कालो । सा पुच्छुइ-काए वलाए देवयाओं
श्रासरति ?, तण सिद्वं-जाहे मेहुणं सवामि, तीण ररणा
सिद मा ममे मारेहि त्ति, पुरिसाहि अगस्स उवार जागा
दरिसिया, एवं रक्खामा, ते पञ्ञाएण भणिया-सह एयाए
मांरह मा य दुरारद्धं करेहिह, ताहे मणुस्सा पच्छरणे गया,
तहिं ससद्रा मारिश्रो सह तीप, तादे नदीसरो ताहि वि-
ज्ञाहिं अहिट्धिओ आगासे सिलं विउव्वित्ता भणइ-हा दास!
मश्राऽसि त्ति, ताहे सनगरा राया उल्लपडसाडगो खमाहि ए-
गावराह ति, सो भणइ--एयस्स जद पणमतदवत्थ अ-
चट तो मुयामि, ण्यं च णयरे २ एवं अबाउडियं ठावेद
( भवेद)
अभिधानराजन्द्रः |
रूह
|
रूदज्काण
त्ति तो मुयामि, तो पडिवणणो, ताहे आययणाणि कारावि- |
याणि, एसा महेसरस्स उप्पत्ती । ”' आव० ४ अ० |
रु ( रो ) दज्भाण-रोद्रध्यान-न०। रादयत्यपरानिति रुद्रः ।
प्रारयुपघातादिपरिणत आत्मव तस्यद् कम्म राद्रम् ।
उत्त पाई० ३० ञअ० । हिसादयांतेकायानुगत रोद्रम् ।
स्था० ४ ठा० १ उ०। आवब७० । राद्रभाव गता राद्रः । उक्क |
च-हिसायुराज्ञत रोद्रम् । | आ० चू० ४ अ० । तच्च ध्यान
चति । हसानरतचोयधघनसरत्तणाभधानलक्तण ध्यानम
स० ४ सम० । “ संदृदनदेहनभञ्जनमारणेश्च, बन्धप्रहारदम-
नेर्विनिकृन्तनेश्व । या याति रागमुपयाति च नानुकम्पा-ध्या- |
नतु रोद्रमिति तत् प्रवदन्ति तञ्ज्ञाः॥ १॥ `` दश० १ अ०।
आव० । पा० ।
रोद्रध्यानभदानाद--
रादे काणे चउव्विहे प्पत्ते । | त॑ जहा-हिंसाणुबंधि १
मोसाणुबंधि २ तेणाणुबंधि ३ सरक्वणाणुवधि ॥ ४ ॥
दिसा-सच्वानां वधवेधवन्धनादिभिः धकारे पीडामनुब-
ध्नाति-सततप्रवृत्त करोत्येवं शीले यत्पणिधानं, हिंसानु-
वन्धा वा यत्रास्ति तडद्धिसानुबन्धि रोद्रध्यानमिति प्रक्रम
इति । स्था० ४ ठा०६ उ०। आव० ( रो द्र ध्यानलत्तषणानि"ल-
4 = ०
कखण्'शब्दे वक्ष्यन्त) साम्पतं रोद्रध्यानावसरः, तदपि चतु-
विधमेव, तद्यथा-हिंसानुवन्धि, खषानुवन्धि, स्तयानुवान्धि,
विषयसरक्तणानुवन्धि च । ऊक्लं चोमाखातिवाचकेन-'हिसा-
-ऽनरतस्तयविषयसेरक्तणभ्या रौद्रम् "` इत्यादि,
श्म० ६ सू० २६)
तत्रा ४ ऽ्यभेदप्रतिपादनाया $ $ह--
सत्तवहवेहवधण उदणं कणमारणाइपणिदहाणं ।
( तच्ार्थ,
अहक हग्गहषत्थ, निग्विणमणसोऽदमविवागं ॥ १६ ॥ ।
सच्वा-एकन्द्रियादयः तषां वधवचधवन्धनदहनाङ्कनमारणा-
दिप्रणिधानस्, तत्र वघः-ताडन करकशालतादिभिः, वेधस्तु |
नासिकादिवेधने कीलकादिभिः, वन्धनम्-सयमने रज्जुनि-
गड़ादिभिः, दहनम्-प्रतीतमुल्मुकादिभिः, अद्भुनम--लाडछ
न श्वशगालचरणा।दाभः , मारण म-प्राणावयाजनमासशाक्त- |
कुन्तादिभिः ; आदिशब्दाद-आगादर्पारतापनपाटन।दिपरि-
ग्रहः,
वसानमित्यथः,घ्रकरणाद् रो द्रध्यानर्मिति गम्यत, कि विशिष्ट
णिघानम ?--अतिक्रोधग्रहग्रस्तम--अती वो त्कटो
क्राधः--राषः स एवापायदहेतुत्वाड्भरह इव ग्रहस्तन ग्रस्तम--
अभिभूतम , क्राधग्रहणाझ्व मानादया गृह्यन्त; कि विशि-
स्य सत
तदय मन.-चित्तम्-अन्तःकरणे यस्य स निधणमनास्तस्य ।
तदेव विशप्यत-श्रधमविपाकम् इति-श्रधमः-जघन्या नर-
कादिप्रात्तिलक्तणा विपाकः-परिणामा यस्य तत्तथाविधमिति
गाथाथः ॥ ६६ ॥ उक्तः प्रथमा भदः।
साम्प्रतं द्वितीयमर्भिधित्खुराह-
पिसुणासन्भोसिन्भूय--भूयघायाइवयणपणिहाणं |
तपु श्राणक्वानम--अकुबवता5प करण प्रात दृढाध्य- |
यः |
इृदामित्यत आह-निश्चृणमनसः-निर्धृणभ-निर्ग- |
मायाविणो5इसंधण-परस्स पच्छन्नपावस्स ॥ २० ॥
पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनर्पाणधानम्-इत्यत्रा-
निष्टस्य सूचक पिशुन पिशुनमनिष्टसूचकम् । ` पिशुने `
सूचकं विदुः ` इति वचनात् , सभायां साघु सभ्य, न स-
भ्यमसमभ्यम्-जकारमकारादि, न सद्भतमसद्भूतमन्नतमित्य- १
शः, तच्च व्यवहारनयद्शननापाधिभदर्ताखधा, तचथा- |
्मभूताद्धावनम् , भूतनिहवो,ऽथीन्तराभिधान चति, त
आभूतोद्धावन यथा-सर्वगतो ऽयमान्मल्यादि, भूतनिहव- _
स्तु-नास् प्रवात्मत्यादि, गामश्वमित्यादि ब्रुवतो5थोन््तरा- «
भिधानमिति , भूतानां-सच्त्वानामुपघातो यस्मिन् तद्भू ,
तोपघातं, चिन्धि भिन्धि व्यापादय इत्यादि, आदिशब्द
प्रतिभद स्वगतानेकभदप्रदशनाथः , यथा--पिशुनमनक-
धा ४निश्टसचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनष्वप्रवत्तमान-
स्यापि प्रवृत्ति प्रति प्रणिधानं-दृढाध्यवसानलक्षणं रो-
द्रध्यानमिति प्रकरणाद्भम्यते । कि विशिष्टस्य सत इत्यत
आह--माया--निरकूतिः साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मा-
याविनो बणिजादः, तथा अतिसन्धानपरस्य--परवन्वना-
प्रवृत्तस्य, अननारोषप्वपि प्रवृत्ति मस्या55ह , तथा--प्र-
चछुन्नपापस्य' कूटप्रयोगका रिणस्तस्येव, अथवा-घिग्जा-
तिककुतीर्थिकादेरसद्भूतगुरणं गुणवन्तमाल्मान ख्यापयतः ,
तथाहि-गुणरहितमप्यात्मानं या गुणवन्तं ख्यापयति न त-
स्मादपरः प्रच्छुन्नपापा5स्तीति गाथा5थे: ॥ २० ॥ उक्को ,
द्वितीयो भदः।
साम्प्रते ततीयमुपदशयति--
तह तिव्वकोहलोहा-उलस्स भृश्यावधायणमणजं ।
परद व्वहरणचित्तं, परलोयावायनिरवक्खं ॥ २१ ॥
तथाशब्दा दढाध्यवसायप्रकारसादश्यापदशनार्थः, तीबौ-
उत्कटौ तो काधलाभो च ताभ्यामाकुलः--श्रभिभूतस्त-
स्य. जन्तारति गम्यत, कि ?- भूतापहननमनायम्--इति
हन्यत $ननातं हननम् उप--सामीप्यन हननम् उपहननं
भूतानामपटनन भूतापहननम् , आराद्याते सवदयधमभ्य
इत्याय न आर्यमनाय, कि तदवविर्घामत्यत आह-परद्रव्य-
हरणचित्त , रोद्रध्यानमिति गम्यत, परषां द्रव्यं परद्रव्यं
सचित्तादि तद्धिषये हरणाचत्त परद्रव्यहरणचित्तम् , तदेव
विशष्यत--किम्भृतं तदित्यत श्राह--परलाकापायनिरपत्त-
म् ,-इति, तत्र परलाकापायाः-नरकगमनादयस्तन्निरपक्तमि-
ति गाथार्थः ॥ २१ ॥ उक्कस्तृतीयो भदः ।
साम्प्रते चतुध भदसुपदशयन्नाद--
सद्दाइविसयसाहण-धणसारक्खणपरायणमाणईइं ।
सव्वाभिसंकणपरों वघायकलुसाउलं चित्तं ॥ २२ ॥
शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधने-
कारगर स । तच्च तद्धन च शब्दा
दिविषयसाधनधने तत्सरक्तषण-तत्परि पालन परायणम्--उ-
दयुक्कमिति विच्रहः, तथा शझ्निष्ट-सतामनशिलषणीयमित्यथः,
इदमेव विशेष्यत-सर्वषामभिशङ्गननाऽ कुलमिति सम्बध्यते,
_रदज्भाण
( ५६६ )
न विद्यः कः कि करिष्यतीत्यादिलत्तणेन, तस्मात्सवेंषां य-
थाशकत्योपघात एब श्रेयानित्येवे परोपघातेन च, तथा क-
लुषयन्त्यात्मानमिति कलुषाः-कषायास्तेराकुले व्याप्ते यत्त-
तथोच्यत, चिन्तम्--श्रन्तःकरस्ष , प्रकरणाद्रोद्धध्यानमिति
गम्यत , इद च शब्दादिविषयसाधने धनविशेषणं किल
श्रावकस्य चैत्यधनसरक्तणन रोद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति
गाथाउथे: ॥ २२ ॥
साम्प्रते विशषणाभिधानगर्भमपसहरज्षाह--
इय करणकारणाणुम -इविसयमणुचितसं चउन्भेयं ।
अविरयदंसासंजय-जणमणसंसेवियमहष्म ॥ २२ ॥
|
इय ` पव करस स्वयमव कारसमन्यः कृतानुमादन- |
मजुमतिः । करसे च कारणा चानुमतिश्च करणकारणानुमत-
यः । पता एव विषयः-गाचरा यस्य तत्करणकारणानुमति-
विषये, किमिद्मित्यत श्राइ--श्नुचिन्तन--पर्यालोचनमि-
त्यथः, चतुभदम्--इति हिसाजुबन्ध्यादिचतुष्पकारं, रोद्र-
भ्यानामात गमस्यत्+ अथ्ुनद्मव स्वामद्धारण नरूपयात- |
आवरता:--सम्यगरएय:, इतर च दृशासंयताः--श्रावकाः,
अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह--अविरतदेशासंयता एवं |
जनाः २ तषां मनांसि--चित्तानि तैः संसेवित, सश्चिन्तित- |
मिल्यर्थः,मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रघानाङ्गख्यापना- |
थम् 'अधन्यम्' इत्यश्रयस्करं पापे निन्द्यमिति गाथाञ्थः॥२३॥ |
शधुनदं यथा भूतस्य भवति यदद्धनं चदमिति तदे-
तदभिघातुकाम त्राह--
शयं चटच्विहं रा-गदोसमोहाउलस्स जीवस्स।
रोहज्काणं ससा- रवद्भणं नरयगइमूल ॥ २४॥
एतद्ू--अनन्तरोक़॑ चतुर्विधम्-- चतुष्प्रकारं रागद्धेषमो-
हाड्डितस्य आकुलस्य वति पाठान्तरं कस्य ?--जीवस्य- |
के १-रोद्रध्यानांमति, इदमत्र चतुष्टयस्याऽपि क्रिः |
आत्मन
या, कि विशिष्टमिदमित्यत आह--संसारवद्धनम-ओघतः,
नरकगतिमूल विशेषत इति गाथा5थः ॥ २७ ॥
साम्प्रतं रौद्रध्यायिना लेश्याः प्रतिपादन्ते-
कावोयनीलकाला, लेसाओ तिव्वसंकिलिट्राओ ।
रोहज्काणोवगय-स्स कम्मपरिणामजणियाओं ॥२५॥
पूववेबद् व्याख्यया, एतावांस्तु विशेषः-तीबसंक्लिष्टा--अति
संकिश्टा एता इति ।
अभिधानराजन्द्रः |
क
कंत्वत्तणनयनात्खननादिषु दिसाद्युपायष्वसङ्दप्यवं प्रव--
` तत इति नानावेधदाषः, महदापद्वता5पि स्वतः मह--
दापद्रतऽपि च पर श्रामरणादसञ्जातानुतापः कालसोा-
करिकवद् , आप त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष
इति तप्वव हिसादिषु , श्रादिशब्दान्मरषावादाददिपरि ग्रहः,
ततश्च तस्वव दिसानृवन्ध्यादिषु चतुभदषु. कि ?--बाह्यक-
रणापयुङ्कस्य सत उन्सन्नादिदाषलिङ्गानाति, बाह्यकरणश-
ब्देनह वाक्ताया गृह्यते, ततश्च ताभ्यामपि तीवमुपयुक्कस्य-
ति गाथाऽथः॥ २६॥
कि च--
परवसणं अहिनंदइ, निरवेक्खो निद्र निरणुतावो ।
हरिसिज़इ कयपावो, रोदज्काणोवगयचित्तो ॥ २७॥
इहा55त्मव्यतिरिक्नो यान्य: स परस्तस्य व्यसनम--आ-
पत् परव्यसन तद् श्रभिनन्दति-श्रतिङ्गष्टचिन्तत्वाद्रहु म-
न्यत इत्यथः, शोभनमिदे यदतदित्थ सव्र न्मिति, तथा--
निरपेक्त--इहान्यभविकापायभयराहितः , तथा निर्गतदया
निईयः--परानुकम्पाशन्य इत्यर्थः, तथा निर्गतानुतापो निर-
नुतापः-पश्चात्तापराहित इति भावः, तथा कि च-हृष्यते--
-तुष्यति कृतपापः--निवर्तितपापः सिहमारकवत् , क ? इत्य-
त आह--रोद्रध्यानोपगतचित्त इति, अमूनि च लिङ्गानि
वत्तेन्त इति गाथाउथः ॥ २७ ॥ आव० ४ अ० । रोद-
यति परानिति रुद्रः--ढदुःखहेतुः तन कृत तस्य वा कर्म-
रोद्रम् | दुःखहेतों, न० । ध० २ अधि० ।
रुददेव-रुद्रदेव-पुं० । अज्ञारमदेकाचार्येति प्रसिद्धे अभव्या-
चार्य, पञ्चा० ६ विव० । काङ्कतीग्रामवास्तव्ये स्वनामख्याते
राजनि, ती० ४६ कल्प ।
रुदय-रुद्रक-पुं० । आजेवशब्दे उदाहृते ज्योतिर्यशसो मारकं
कोशिकार्यशिष्ये, आ० क० ४ अ० । आ० चू०।
रुदसेण-रुदरसेण-पं०।धरणिनागकुमारनद्रस्य पदात्यनीकाधि-
आहर--कर्थ पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति ? , उच्यते-लि- |
हुभ्यः, तान्यचोपदशयति--
लिंगाईं तस्स उस्सण्ण-बहुलनाणाविहा मरणदोसा ।
तसिं चिय हिंसाइसु, बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥ २६ ॥
लिङ्गानि- चिद्वानि तस्य--रौंद्रध्यायिन:ः , ` उत्सब्नबहु-
लनानाविधा मरणदोषा ' इत्यत्र दोषशब्दः परत्यकमभिस-
स्बध्यते, उत्सन्नदाषः वहुलदोचः नानाकिघदोषः आमरणदो
चश्चिति , तत्र टिसानुवन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रबस्षमान
उत्सन्लम--अनुफषरत बाहल्यन प्रतते इत्युत्सन्नदाषः, स-
ष्वपि चैवमेव प्रवतत इवि बहुलदोषः । नानाविधेषु त्व- |
१४
पतौ, स्था० ७ ठा०।
रुदसोमा-रुद्रसोमा- खी ० । दशपुरनगरे शोमदेवनामत्राह्म-
रस्याग्रमहिष्याम् ्रार्यवञच्रमातरि , विश० । दशी° । आ०
क० । सङ्घा० | आ० चु० | आ० म०।
रुदा- रुद्रा- खी० । त॒रिमिण्यां नगयों दत्तस्य मातरि कालि-
काचा्यसरभगिन्याम् , दशै ३ तस्व ।
| रुद्ध-रुद्धू-न० । स्थगित, बृ० ३ उ० ।
रुध (स्म) (ज्फ)-रुघू-धा० | आवरले, “रुघो न्ध-म्भौ च:
॥ ८ । ७ । २१८ ॥ इति रुधा ऽन्त्यस्य न्ध म्भ इत्यतों आदेशो,
सूत्र चकाराद् ज्भश्थ । रुन्ध् | रुझ्भइ । रुज्भइ । प्रा० ४ पाद्।
रुधिर रुधिर -न० । रक्के, स०।
रुधिरपाल-रुधिरपाल -पु° । उज्जयिन्यां तासलिनगरक्मस्त-
व्ये वसिजि, बूं० ३ उ०।
रुप्प--रूप्य-न० । रजते, घ० २ अधि० । आ० चू० ।
( ५७० )
अमिधानराजन्द्रः |
मर प्ण्कु हज
राप्प
रुप्पकुंभ-रुप्यकुम्भ-9छ० । वाखुपूज्याजनाशष्य , ता० ३४
कल्प ¦
रुप्पकूड-रुप्य कूट-पुं? । जम्बुद्वीप मेरोरुत्तर रुक्मिनामवर्ष- |
घरपवते पष्ठ कूर,
शब्द तृतीयभाग ६२५ पृष्ठ वर्णितः )
रुप्पफूलप्पवायदह-रूप्यकूलप्रपात हु -पुं° । रोहितप्रपातह-
द्समानवक्कव्यताक रूप्यकूलोद्गम थाने, स्था० २
३ उ०।
रुप्पकूला-रूप्यकूला--स््री० । जम्बूर्ददीप पूवावरण लवणसमु
द्रगामन्यां महानद्याम् , स० १४ सम० | सा च महापुरडसी-
ठा०
स्था० ३उ०। ज०। (सच 'कूड ' |
कटदस्यात्तरतारणन विनिगत्य पररायवद्वषं विभजन्ती रादि- |
न्नदीतुटयवक्कव्या अपरसमुद्रं गच्छतीति | स्था० २ठा० ३ |
उ०। रा० ।
रुप्पच्छद --रूप्यच्छद् -पु° । रूप्याच्छादने छत्र, जी० ३ प्रति०
४ आधि० ।
रुप्पनाम-रूप्यनामन प० | मङ्गलावतीविजय वज्जसेनखुत-
स्य वञ्रनाभनास्नः ऋषभपूर्वभवजीवस्य कनिष्टभ्रातरि
त्र” चु० हें अ० | आ म० |
रुप्पपइ-रूप्यपट़
दाः । रजतपद्टकेप, रा० | जी० । आ० म० । ज्ञा० ।
रुप्पय-रूप्यक न । रूपाय आहन्यत खणादि यत् | अलङ्कारा-
9
-पुं० । रूप्या रूप्यमयों पटा यषां ते रूप्यप-
दिनिर्माणाय आहन्यमान स्वसु, रजत च | स्वार्थ यत्। र- |
99
जतमात्र,
आव० ३ आ०। “ रुप्पयं रयय ” पाइ० ना०
११६ गाथा | 9 |
रुप्पागर-रूप्याकर-पुं०? । रजतखनों, स्था० ८ ठा०। जी ।
रुप्पाभास सुप्याभास- पु । अणा वशतितम महाग्रह, चण
प्र० २० पाहु० “ दो रूप्पाभासा । ” स्था० २ ठा० ३ उ०।
कटप० ।
रुप्पि-रुक्मिन्-पुं? | “ डम-क्भोः * ॥ ८। २।५२ ॥ इतिपो |
वा | कचित्-च्माऽपि-रुच्मी । रूप्पो । प्रा० । “ अनादों श-
पादेशयोहित्वम'
महिष्यां रूक्मिएया भ्रातरि भीप्मसखुत कोणिडल्यनगरराज,
ज्ञा० १ श्रु० १६ आ० । मज्ञीनाथती थेकरेण सह प्रव्जिते कु-
णालराज, ज्ञा० १ श्रु०ण ८ अ० | स्था० । जम्बृद्धीप मन्द्रस्या-
स्तर स्वनामख्यात वर्षधरपवते , ज०।
कटि णं भत ! जम्बृदीवे दि रुप्पी शा वा-
॥२८।२।८६॥ इति द्वित्वम् । प्रा० । रृष्णाग्र- |
सहरपच्चए पण्णत्त १, गोयमा ! रम्मगवासस्स |
उत्तरण टदेरणएणवयवास्म दक्खिणेण पुरत्थिमल-
वणसमुद्स्स पच्चन्थिमणं पच्चत्थिमलवणसमरुदस्स पु-
रत्थिमणं एत्थ णं अम्ब॒ुर्दवि दीवरे रुप्पी
णाम वा- |
सहरपव्वण् पा्पत्त, प।इणपडई।णायए उदीणदाहिणवि- |
त्थि्य, एवं जा चव महादहिमवंतवत्तव्रया सा चव रुप्पि-
सम वि, णवरं दाहिणेण जीवा उत्तरेण धणु अवसेसं तं
चव । महापुंडर्राण दहे रकता णद दक्खिणेणं णेअ-
व्वा जहा रोहिया पुरत्थिमणं गच्छ, रुप्पकूला |
णशअव्वा जहा ह रिकता पच्चत्थिम णं गच्छ्, अवसेसं तं `
चव त्ति | रूप्पिम्मि णं भते ! वासहरपव्वए कड कूडा
पत्ता ?, गोयमा ! अट कूडा पष्पत्ता १,
“सिद्ध १ रुप्पी २ रम्मग
५ रुप्पकूला य ६ । हेरण्णयय ७ मणिकंचण ८
अदर य रुप्पिम्मि कूडाइई ॥ १॥ "सव्ये वि एण
पंचसइआ रायहाणीओ उत्तरेणं । से केणष्टरणं भते ! एवं
वुच्च३ रुप्पी वासहरपव्वए १, रुप्पी वासहरपव्वए गोअमा !
रुप्पी णाम वासहरपव्यए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोभासे सव्वरू-
प्पामए रुप्पी अ इत्थ देवे पलिग्रोवमद्िईृए परिवसइ,
से एणणड्द्वेणं गोअमा ! एवं वुच्चइ ति । ( सू०-१११)
" कटि णं संत ! ' क्र भदन्त ! जम्बृद्धीप द्वीप रुक्मी
नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गोतम ! रम्यकवर्षस्यथ उत्त-
रस्यां वक्ष्यमाणहैरण्यवतक्षत्रस्य दक्षिणस्यां पूवेलवणसमु-
द्रस्य पश्चिमायां पञ्चिमलवणसमुद्रस्य पूवैस्याम् अत्रान्तरे
जम्बूद्वी प द्वीप रुक्मी नाम्ना पञ्चमो वषधर: प्रज्ञप्तः । प्राचीन-
प्रतीचीनाऽऽयतः उत्तरदात्तणयार्विस्तीणः, एवमुक्लानुसारेण
येव मदाहिमवद्धरषधरवङ्कव्यता सेव रुक्मिणा ऽपि पर दक्ति-
णता जीवा उत्तरस्यां धनुःपृष्टम् अवशेष-व्यासादिके तद-
व-द्वितीयवषधरप्रकरणोाक्रमव, द्याः परस्परं समानत्वात् ,
महापुरडरीको ऽज (हदो)द्रहो महापद्मद्रहतुल्यः, अस्माच्च नि,
रता दत्तिणतार न नरकरान्ता महानदी नेतव्या, अत्र च
का नदी निदशनीयत्याह-' जहा रोहिय ` त्ति यथा रादिता
"पुरन्थिमेरो गच्छद' त्ति पूर्वेण गच्छति समद्रामिति शषः,
यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मद्रहता दक्षिणेन प्रव्यूढा
सती पूर्वसमुद्रं गच्छति तथषाऽपि प्रस्तुतवर्षधराइक्तिणन
निगीता पूर्वणाब्धिमुपसप्पंतीति भावः, रूप्यकूला उत्तरेण-
उत्तरतारणन निर्गता नेतव्या, यथा हरिकान्ता हरिवपषेक्षेत्र-
वाहिनी महानदी ` पच्छुल्थिमण् गच्छद् ` क्ति पश्चिमाब्धि
गच्छति । | अथ नरकान्तायाः समानक्तत्रवक्नित्वन हरिकान्ता-
याः रूप्यकृलायास्तु राहिताया अतिदेशा वक्कमुचित
इत्याह--श्वश--गिर गन्तव्यमुखमूलव्याससरित्सम्पदा-
दिकं वक्कव्यम्, तदवत-समानत्तत्रवत्तिस रिःप्रकरणाङ्कमव,
तच्च नरकान्ताया हरिकान्ताप्रकर णाक्लं, रूप्यकूलायास्तु रा-
हिताप्रकरणाक्कम् । यत्तु नरकान्ताया अतुल्यक्षेत्रवत्तिन्या रो
हितया सह रूप्यकरूलायास्तु हरिकान्तया सहातिदेशकथने
तत्र समानददिगनिगत.वे समानदिग्गामित्वे च हेतुः । अथा-
त कृटवक्कव्यतामाद --.रुप्पिम्मि शे ` इत्यादि रुक्मिणि पवेत
भगवन् ! कति कूटान प्रज्ञप्तान ?, गातम ¦ अष्ट कूटानि प््ञ-
सानि, तद्यथा-प्रथम सम॒द्रद्विशि सिद्धायतनकूटं ततो रुक्मि-
कूट-पश्चमवर्षघरपतिकूर्ट रम्यकरूटे -रम्यकन्तत्राधिपदेवकृटं
नरकान्तानदीदेवीकृटं-वुद्धिकटं महापुराडरीकद्रहसखुरीकट
रूप्यकूलानदीसुरीकृटं हेरएयवतकूटं-हे रणयवतक्तत्राधिपद्-
वकूटमाशकाञ्चनकृटम् , एतानि प्राक्परायतश्ररया व्यव-
स्थितानि पञ्चशतिकानि सवीरायपि, राजधान्यः कूटाधिप-
देवानामुत्तरस्याम् । सम्प्रलयस्य नामनिदानं पयनुयुङ्क्क-
तं जहा--
३, शरकता ४ बुद्धि
(4 ५
४9४
न नरम न न
( ५७१ )
रूप्पि है!
अभिधानराजन्द्र! ।
स्थग |
केणट्टणं ` इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--रू-
कमी वर्षधरपवेतः २ इति ?, गौतम ! रुक्मी वर्षधरपवैतो
रुक्म-रूप्यं शब्दानामनकारथत्वात् : तदस्यास्तीति रुक्मी, एष
सर्वदा रूप्यमयः शाश्वतिक इति नित्ययोगे इन् प्रत्ययः, रू-
व्यावभासो--रूप्यमिव सर्वतो ऽवभासः-प्रकाशो भास्वरत्वे-
न यस्याऽसौ तथा, पतदेव ग्याचष्ट-सवौत्मना रूप्यमय
इति, रुक्मी चात्र देवस्ततस्तन्मयत्वात् तत्स्वामिकत्वाच्च
रुक्मीति व्यपदिश्यते । ज० ४ बच्त० । स्था० । स० । जम्बू-
द्वीपे मन्दस्यात्तर रुकिमवर्षधरपर्वते द्वितीये कूटे , स्था०
८ ठा० । सप्तविशतितमे महाग्रह, स्था० २ ठा०३ उ० ।
(धातकीखराडद्धीपे द्वौ रुक्मिनामानो पर्वतौ तौ च ` घायइ-
संडदीव ` शब्दे चतुशभागे २७४६ पृष्ठ उक्तो )
रुप्पिणी-रुक्मिर्णी-स्रा० । “ म-क्मोः ” ॥ ८। २ ॥ ५२॥
इति पो वा । रुप्पिणी । रुक्मिणी । प्रा० । कृष्णवासुदेवस्या ग्र-
महिष्याम्, स्था० ८ ठा० । रुक्मिणीपरिणयनम्। प्र-
श्न० । तथा रुक्मिण्याः छते संग्रामो3भूत् , तथाहि--
कुणिडन्यां नगर्या भीष्मनरपतेः पतनस्य रुक्मिणो न्ुपस्य भागि-
नी रुक्मिणी कन्या वभूव, इतश्च द्वारिकायां रृष्णवासुदे-
चस्य भायौ सत्यभामा, तदहे च नारदः कद्राचिदवततार
तया तु व्यग्रतया न सम्यगुपचरितः, ततः कुपितोऽसो
तां प्रति सापल्न्यमस्याः करोमीति विभाव्य कुरिडनीं नग-
रीमुपगतः, रुक्मिएया च प्रणतः सन् ष्णस्य महादेवी
भवेत्याशिषमवादीत् , ऊष्णगुणांश्च तत्परता व्यावर्णयन्
ते प्रति तां सानुरागामकरोत् , तद्रुपे च चित्रपटे विलिख्य
कृष्णस्य तदुपद्श्य तां प्रति तमपि साभिलाषमकार्षीत्
ततः कृष्णा रुक्मिणं तां याचितवान् , सुक्म्यपि न
दत्तवान, शिश्युपालाभिधाने च महावले राजसूनुमानीय
विवादमारम्भितवान् , रुक्मिर्णासत्कया पितृष्वसा च
ष्णस्य रुक्रमिरयपदरणाथों लखा दत्तः, ततश्च रामकशवौ
तां नगरीमागतों, रुक्मिणी च पितृष्वस्रा सह चेटिकापरि-
खता देवतायनव्याजनाद्यानमागता, कष्णन रथमारापिता-
ततस्तो द्वारिकाभिमखा तां ग्रृहीत्वा प्रचलितौ, पृत्छृत
च चटिकाभिः निगता सदर्पो चतुरङ्गसेन्यसमग्रा रुक्मि-
णीव्यावत्तनाथ रुक्मिशिशुपालमहाराजों, तता विनिवृत्य
हलिना हलमुशलाभ्यां दिव्यास्त्राभ्यां चर्णित तद्धले विमुक्ता
कछच्छुजीवितों शिशुपालरुक्मिणाविति । प्रश्च० ४ आश्र०
द्वार (साच अरिप्टनमरन्तिके प्रवजिता विशातिवर्षाणि
श्रामरायं परिपाल्य मासिक्या प्रतिलेखनया मृत्वा सिद्धा
इत्यन्तकृदशानां चतुशवरस्य श्रम ऽध्ययन सूचितम । )
( रुकिमरायाः स्वा वक्रव्यता पद्मावतीचक्कव्यतावत् , तडक्क-
व्यता च ` पउमावई ` शब्द पञ्चमभाग १६ पृष गता )
रुय-रुत-न० । रवण रुतम् । शब्दकरण,
१ अ० । प्रज्ञा० । उत्त० । सूत्र । श्रौ ° । जम्बृद्ध पापत्तया
स्वनामख्यात जयादश द्वीप, ठी० । कुण़डलवरावभाससमुद्र- |
परिक्षेपी रुचको द्वीपः ( जी० ) रुचकरद्धापपरिक्तेपी रुच-
कः समुद्रः । स्वनामख्याते समुद्र, जी० ३ प्रति० २ उ० ।
प्रज्ा० | अनु० । ज्ञा० । ( “ रुयगदीव ' शब्दे वक्रव्यता-
सत्र वक्ष्यामि ) रुचकद्धीपवरक्तिनि चक्रवालपब्व॑त , स्था०
दश० ४ अ०। ज्ञा०। |
रूयग-रुचक-ए० । वर्ण, औ० । कृष्णमणिविशषे, आ० क० |
६ ठा०। ( स्चकवरपयेत अष्टसु कृटेषु अप्ट दिककुमायः
स्वस्वस्थाने दांशताः )
छ्थास्य द्वीपस्योच्चत्वादिकमाह--
दसकोडिसहस्साई, चत्तारि सयाइ पंचसीयाई ।
ब।वत्तरं च लक्खा, विक्खभो रुपगदीवस्स ॥१०६॥
रुयगवरस्स उ मज्मे, नगुत्तमो होइ पव्वओ रुयगा |
पागारसरिसरूवो, रुयगं दीवम्मि भयमाणो ॥ ११० ॥
रुयगस्स उ उस्महो, चउरासि भवे सहस्साईं ।
एग चव सहस्सं, धरणियलमहे समागाढा ॥ १११ ॥
दस चव सहस्सा खलु, बावीसं जोयणाई बोधव्वा ।
मूलम्मि उ विक्खंभो, साहिग्रो रुयगसलस्म ॥११२॥
सत्तेव सहस्या खलु, तेवीसं जायणाईं बोधव्वा ।
मज्फाम्मि य विक्ंभो,रुयगस्म उ पव्वयस्स भव्रे ११३।
चत्तारि सहस्साईं, चउवीसं जोयणा य ब।धन्वा ।
सिह रितले विक्खं भो, रुयगस्स उ पव्वयस्स भवे।११४।
सिहरितलं सु्यगस्स उ, होंति कडा चउद्दिसिं तत्थ ।
पुव्वाणुपुव्वी तसि, इमाई नामाई कित्तीहि ॥११५॥
पुव्ेण अद्र कूडा, दक्खिणओ अद्र अद्र यथ्वरेणं ।
उत्तरओ अद्र भव, चउदिसि हति रुयगस्स ॥११६॥
कणग १कचणग रतवणरे,दसासावात्थणए४्रारट्र य५।
चद ण अजणमूल७,वडइरर पुण अट्टम भाणए ॥११७॥
नाणारयण विचित्ता, उज्जोवंता हुयासणसिहु व्व ।
एए अट वि कूडा, हवात पुव्वेण रुपगस्स ॥ ११८ ॥
फलिहे १ रयण २तवणे३,पदम ४ नलिण ५समी य६नायच्वे।
वेसमणे ७वेरुलिए८,रुयगस्स हवति दक्खिणओ।। १ १६॥
नाणारयणविचित्ता, अणोवमा वन्नरूवसंकासा ।
एए अदर वि कूडा, रुयगस्स हवंति दक्खिणओ।१२०।
अमोहे १ सुप्पवट्ट २ य, हिमवं ३ मंदिरे ४ तहा।
रुयगे ५ गुत्तरे ६ चद् ७, अदरुम य सुदंसण ॥१२१॥
नाणारयणविचित्ता, अणोवमा रूवसंकासा |
एए अदर वि कूडा,रुयगस्स वि होंति पच्छिमओ।|१२२॥
विजये य वेजयंते, जयंत अवराइया अ बोधव्वा ।
कुंडलरुयगारयणु-चरा य तह सव्वरयणे य ॥ १२३ ॥
नाणारयण विचित्ता, उज्ञायता हुयासणसेदहु व्व ।
एए अद्र वि कूडा, सुयगस्स वि हाति उत्तरओं ।॥१२४॥
पलिओवमइ्ठिईया, एएमि खलु हंति कूडसु ।
पुच्वेण आणुपुव्वी, दिसाकुमारीण ते हति ॥ १२५॥
नंदत्तरा य नदा, आणंदा नदिसेणा य |
विजया य वेजयंती, जयंति अवराइया चव ॥ १२६ ॥
एया पुरिमच्छेणं, रु्यगम्मि उ अट हृति देवीओ ।
पुव्वाइयाणुपुव्वी -दिसा कुमारीण ते हुति ॥ १२७ ॥
र
5 ( ५७२ )
अभिधानराजन्द्रः |
रूयग
लच्छिमई सेसमई, चित्तगुत्ता वसुंधरा । ( चव )
संमाहारा सुप्पदिन्ना, सुप्पबुद्धा हु (ज) सोधरा ॥१२८॥ |
एया उ दक्खिणेणं, हवंति अट य दिसाकुमारीओं | |
ज दक्खिणेण कूडा, अदर वि रुयगे तरिं एया।।१२६॥ `
इ्लोदि वी सुरेदिवी, पडमा पउमावई य विज्लेया ।
एगनासा णवमिया, सीया भव्वा य अट्डमिया ।१३०।.
एया उ पच्छिमदिसा, समासिया अड्ट दिसोंकुमारीओं | |
अबरेण जे य कूडा, अट्ट वि रुयगे तहिं एया ॥१३१॥ |
अलंबुसा मीसकसी, पुंडरिगिणी वारुणी य तहा ।
आसा सगपत्ता चव, सिरिदिरी चव उत्तरओं ॥१३२॥
एया दिसाकुमारी, कटिया सब्वन्नुसव्वदरिसीहिं ।
ज उत्तरेण कूडा, अड्ट वि रूयगे तर्हिं एया ॥ १३३ ॥
जोयणसाहस्सीया, रुयगवरे पव्वयम्मि चत्तारि । |
एव्वाइयाणुपुव्वी, दीवाहिवईण आवासा ॥ १३४ ॥ |
एव्वेण उ वेरुलियं, मणिकूडं पच्छिमे दिसाभाए । |
रुयगं पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तरे पासे ॥ १३५ ॥
जोयणसहस्सियाणं, एए कूडा हवंति चत्तारि । |
पुव्वाइयाणुपुव्वी, ते होति दिसाकुमारीणं ॥ १३६ ॥ |
पुन्वेण य वेरुलियं, मणिकूड पच्छिम दिसाभाए ।
रुग पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तर पासे ॥१३७॥
रुप्पसा य सुरूवा, रूववई रूवकंता य ।
पुव्वाइयाणुपुव्वी, चउदिसिं तेसु कूडेसु ॥ १३८॥ |
पलिओवमं दिव, बिहयाओ एँयासि होर सव्वासि |
एकेकमपरियाई, होई य अट्टणह कूडार्ण ॥ १३६ ॥
एव्वेण सोत्थिकूडा, वरेण य नदशं भवे कूडं ।
'दक्खिणओ लोगहियं, उत्तरश्रो सव्वभूयहियं ॥१४०॥
जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवंति चत्तारि | |
पव्वाईयाणुपुव्वी, दिसा गईंदाण ते होति ॥ १४१ ॥
पदमुत्तरनीलवंतं, सुहत्थी अंजणागिरी य । |
एए दिसागईंदा, दिवड्पलिओवमट्ठितिया ॥ १४२॥
पुव्वेण होई विमलं, स्यपभे दक्खिशे दिसाभाए ।
अवरे पुण पच्छिमश्रो, तिव्वुज्ञोयं च उत्तओ ॥१४३॥ |
जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हत्रेति चत्तारि । |
पुव्वाइयाणुपुव्बी, विज्जुकुमारीण ते हृति ॥१४४ ॥ |
चित्ता य चित्तकणगा, सतेश्सा सोमणी य नायव्वा । |
एया विज्ञकुमारी, साहियपलिओवमट्टितिया ॥१४५॥ |
विज्जुकुमारीणं द- किखशक्ूडा दिसागङंदाणं ।
तत्तामयहरियाणं, विज्जुकुमारीण इय हुति ॥१४६॥ |
स्यगवरस्स उ बाहिं, ओगाहित्ताणु अट लक्खादं । |
चुलसीइसहस्साईं, रइकरगा पच्या रम्भा ।\१४७१।दरी || |
ग्गेणं पष्पत्ता | | ( सू० ८४ )
रूचको--रूचकाभिधानस्व्रया दशद्वी पान्तगंतः प्राकाराकृती
रुचकद्धीपविभागकारितया स्थितः, अत एव माण्डलिकपव- :
तो, मण्डलेन व्यवस्थितत्वात्, स च सहस्प्रमवगादश्चतुरशी -
तिरुच्छित इति पञ्चाशीतिः सदस्नाणि सवोग्रेणति । स°
८५ सम० | त
श्रस्य विष्कम्भमाद--
रुयगवरे णं पव्वए दस जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले
दस जोयशसहस्साईं विक्खंभेणं उवरि दस जोयणसयाई
विक्खंभेणं पष्पत्ता | एवं कुडलवरे बि । ( ब्र° ७२६ ) -
रुचको रुचकाभिधानख्रयो दशद्वीपवर्तीं चक्रबालपवेतः ।
कुराडलः कुरडलाभिधान एकादशद्वीपवर्त्ती चक्रबालपर्वतः
एव, ` एवे कुरडलवरे ऽवि ` इत्यननेह कुरडलवर उद्धे घमूल-
विष्कम्भापरि विष्कम्भः रुचकवरपर्वतसमान उक्घा, द्वीपसा
गर पक्ञप्त्यां त्वेवमुक्रः-""दस चेव जोयणसए, वावीसे चित्थडो
उ मूलम्मि । चत्तारि जायणसप, चउव्रीस वित्थडा सिरे
॥ १ ॥” इति । रुचकस्या ऽपि तत्राऽयं विशष उक्कः-मुलवि-
ष्कम्भो दश सहस्राणि द्वाविशत्यधिकानि.शिखरे तु चत्वारि
सहस्राणि चतुर्विंशव्यधिकानीति । नन्तरं गणितानुयोग
उक्तः | स्था० १० ठा०। सूत्र ० । न० । सा ( दिक् ) च मरुमध्ये
श्रष्रपदशिकरुचकाद्धावनीया ; तथाहि-ति्यग्लाकस्य म~
ध्यभाग आयाम-विष्कस्भाश्यां प्रत्येक रज्जुप्रमाणों सर्च-
प्रतराणां चुल्लको द्वौ नभः-प्रदेशप्रतरौ विद्येत । तयोश्च
मेरुमध्यप्रदेश मध्ये लभ्यते | तत्र च मध्य उपरितनप्रतरस्य
ये चत्वारो नभःप्रदेशास्तथा--अधस्तनप्रतरस्य तु ये चत्वा-
रो व्योमप्रदेशास्तेषामण्टानामपि प्रदशानां समय रुचक इति
परिभाषा । श्रयं चाण्रप्रदेशिको रुचकः समस्ततिर्यैग्लोक-
मध्यवर्ती गोस्तनाकारः क्षेत्रतः षक्षामपि दिशां चतसणाम-
पिच विदिशां प्रभवः ( उत्पत्तिस्थानम् ) मन्तव्यः: उक्क
च-( 'श्राचाराङ्गनियुक्को ) “ श्रदरुपणसोा रुयगो , तिरियं
लायस्स मज्भयारम्मि पस पभवा दिसाणे , पसेव
भवे श्रणुदिसाणे ॥ ४२॥ ” ( शस्या गाथाया व्याख्या
* दिसा ` शब्दे चतुधभागे २५२३ पृष्टे गता ) श्रस्मा-
श्च रुचकाद् दिसो विदिशश्च यथा प्रभवन्ति तथो-
च्यते-य थोक्करुचकाद् बदिश्चतंष्वपि दिक्षु प्रत्यकमादो
ढौ ढौ नभःप्रदेशो भवतः, तद्रतश्चत्वारः, तन्पुरतः षट् ,
ततो ऽप्यग्रतो ष्टौ व्योमप्देशा इव्यव द्यादिदधत्तरश्चर्या
चतख्ष्वपि दिक्कु पृथण नेतव्यम् । तत पताः -शकटोभ्व-
संस्थानाः पूवौदिका महादिशश्चतस्रा भवन्ति | एतासां च
चतष्छणामपि दिशां चतुरष्वन्तरालकोरेष्वेकेकनभःप्रदेशनि-
ष्पन्ना श्रजुसरा यथोत्तरं वृद्धिरहिताश्छिन्नमुक्तावलीसेस्थि-
साश्चतखर पव विदिशो भवन्ति । ऊर्वं तु चतुरो नभःःप्रदे-
शानादौ रत्वा यथोत्तरं वृद्धिरदितत्वाच्चतुःषरदेशिकैव
रुचकनिभा च चतुर ्नदरडाकारेकेव भवति, श्रधो ऽप्येब-
प्रकारा द्वितीयेति ।
उक्र त ->
““ दुपएसाहदुरुक्षर, एगपएसा अखुश्तरा चेव !
रूपग |
रयगे शं मंडलियपव्वए पंचार्सीई जोयणसहस्साईं सव्व-
।
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( ४७२)
सयग
चउतखडउराय दिसा, चडरो य अणुत्तर दाष ॥ २ ॥
सगडुदधिसर्षटयाश्या.महादिसरद्म हवत चक्षार ।
मुत्ताचली व चउरो, दो चव य हाति रुयशानिभ्ा २ रघशे०।
ज़ मदरस्स पुव्व-ण म्ुस्सा द्रङ््विणस अवर । ज
श्रावि उन्नरण. सब्बासि उत्तरो मरू ॥ १ ॥ रचक्षते
पूवादिदिक्त्वं वदितव्यम् । &षचा० ६ श्रु० १ अ० १ ड०।
( रुचकादेव पूर्वादिदिशां ब्ययहगर इति ` देस ` शब्द्
चतुर्थभाग २५२३ पृष्ठ उक्तम् ) ।
र्यगकुमारी -रुचककुमारी-सखी° । स्चकपर्वैतधास्तव्यास
दिककुमारी षु, तति० । -करटष० । ( तश्च ` दिसाङ्मारी ' शब्द
चअतुर्थभाग २५३५ पृष्ठे दश्चिशरः ) चतुषु रूचरूपचतेषु प्रत्य
कमएसु कूटेषु दिकुमायेः । स्था० ८ ठा०।
| रुपगकूड रूचककूद-न० । जम्बूद्वीपे मन्द्रस्य पश्चिमे रुचक-
बरपव्वेत पञ्चमे कटे, रू्रकश्यक्रबालपर्वतः तदधिष्ठात्-
द्ववनिवास्पे रूचककूटमिति । जिषधस्यथाप्टठम कूट, स्था० ६
ठा० । ज० । सुवत्सादव्यधिप्ठितस्थानके, स्था० ६ ठा० ।
धायस ्द्।व ` शब्दे चतुर्थभागे २७४६ पृष्ठ रुचक-
द्वयकूटवक्कवयता उक्तका । )
रुयगजसा-सुचङ्यशा- ख ० । रुचकयपर््वतस्य मध्यदेशे दक्ति-
शदिक्वास्तव्यासखु दिकूक् मारीषु, ति०।
रुवगदीव-रुचरूदीपए- पुं-। कुएडलवरावभासपरिक्तेपिणि द्वी
पभदे, जी० ।
कुंडलवरो भासे णं समुद रुचगे णाम दीवे वदे वलया०
जाव चिद्रति, किं समचक्वालसंटाणसंटिए बिसमच-
क्वालसंठाणसंठिए १, गोयमा ! समचकवालसंठाणसंठिए,
नो बिसमचकवालसंठाणसंठिते, केवतियं चक्वालसंठा-
शसंरिए पप्मत्ते?,सव्यट्टू -मणोरमा एत्थ दो देवा ससं तहेव ।
कुरडलवरावभाससमुद्रपरिक्तपी रुचका द्वीपा, रुचकद्धीप-
परिकेपी रुचकः समुद्रः (जी०) रुचकद्धीपे सवीर्थ-मनोरमों
देवो । जी ° ३ प्रति० २ उ० ।
सुयगवडिसग- सुचकावतसक-न० । रुचकायां राजधान्यां
रुचकाया देव्या आवासभवने,क्ञा०२श्रु० वर्ग १ उ० | द्वी०।
सुयगवर-रुचकवर--पुं०। रुचक्रवर समुद्र परिक्षपिणि द्वी प,जी ०।
रुयगवर शं दीवि वड रुयगवरमद -रुयगबरमहामद्ा एत्थ
दो देवा महिड़िया ।
सुचकसमुद्र परित्तेपी रुचक वरो द्वीपः । तत्परि त्तपी रुचक-
बरः समुद्र: । (जी०)रुचकवरसमुद्रे रुवकवरभद्ग-रुचकवर-
महाभद्रो ( देवों महर्छिकों परिवसतः ) जी० ३ प्रति० २
उ० । स्वनामख्यात समुद्र, प्रश्ञा० १५ पद् १ उ० | स्र० प्र०।
स्था० | च० प्र० | अनु० ।
रुयगवरदीव रुयगवर--रुयगवरमहावरा एत्थ दा दवा
महिड्डिया ।
तत्- रुचकवरसमुद्र-) परिक्तेपी रुचकवरावभासो द्वीपः ।
( जी० ) रुचकवरे समुद्र रुच कवर-खचकवरमहावरौ ( दे-
महर्द्धिकों परिवसतः ) जी० ३ प्रति० २ उ० । (' रुयग
बहु बक्लव्यमत्न गतम् )
४४
अआमभधानराजन्द्र: | ५
र य॑स्वरभद्- रचकवरभद्र पु । रुचकवरद्वापाधपे दव, सूट
रूथग॒ुत्त मकूड
थ्र० १६ पाहु०।
रूयगवरमहाभद-रुचकवरमहाभद्र -एुँ० । रुचकवरद्वीपदेवे,
सू० प्र० १६ पाहु० | जी० ।
रुयगवर महावर-रुचकत्ररमह[वर-9० । रुचकवरादसमुद्रदव,
जी० ३ प्रति० २ उ०।
रुयगवरोद -रुचकवरोद् - पुं । रुचकवरद्वीपपरिसक्तेपिसमुद्र ,
चण प्र० २० पाहु०। सू० प्र०।
रुयगवराभास-रुचकथरावभास- प° । रुचकादसमुद्गरपार क्ष-
पिणि द्वीप, जी० ।
र्यगवरावभासे दीवे रुयगवरावभासभद्द -गुयगवरावभास-
महाभदा एत्थ दो देवा महिड्डिया ।
( सुचकवरसखमुद्र परिक्तेपी ) रुचकवरावभासो द्वीपः ।
तत्परित्तपः रच कवरावभासः समुद्रः। ( जी ) रुचक-
वरावभासे द्वीप रुचक्रवरावभासमद्र--ख्चकवरावभासम-
हाभद्रौ (देवौ महाऊँ को परिवसतः) । जी० ३ प्रति० २उ०।
स्वनामख्याते समुद्र च । जी० ।
गुयगवरावभासे समुद रयगवरावभासवर गुयगवरावभा-
समहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया । _
रूचकवराबवभासे समुद्रे रुचकवरावभासवर-रुचकवरा-
वभासमहावरों (देवो महद्धिको परिवसतः) । जी० ३ प्रति०
२ उ०।
रुयगवराभासभद-रचकव९।वभासमद्र-पु० । स्चकवरावभा-
सद्धीपदेवे, सू० प्र० १६ पाह० | जी० ।
रयगवरोभासमहामद -रचकवरावभासमहामद्र - ५० । रुचक-
वरावभासादसमुद्रदव, जी० ३ प्रति० २ उ० ।
रयगवरोभासवर- र चकवरावभासवर -पुं° । रुवकवरावभा-
ससमद्रदवे, सू० प्र० १६ पाहु० ।
गुयगवरो भासोद-रुचकवरावभासो द-ए० । रुचकवरावभा-
सद्दीपपरिक्तेपिणि समुद्र, जी० ३ प्रति० २ उ०।
रयगासेरी- गुचकश्री -स्त्री० । चम्पायां नगयां रुचकगरह पत-
भायायाम् , यत्सुता रुचका जन्मान्तर भूतानन्द्रस्याग्रम-
दिषी जाता । ज्ञा० २ श्रु० ३ वग १ अ० ।
यगा -रुचका खी° । रुचकपवेतम्रभ्यभागे पूर्वदिग्वास्त-
व्यायां दिककुमाय्याम् , ति०।
रयगावई- र चकावती -ख्ी० । रुच कपर्वतस्य मध्यभागे उ-
्रदिग्वास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम् , , आ० म० १
अ० । ज० । भूतानन्दस्याग्रमहिष्यां च भ० १० श० ५ उ०।
र॒यगिंद-र॒ चकेन्द्र-पुं० । यले: वैरोचनराजस्य उत्पातपवते,
स्था० २ ठा० ३ उ० । (स च उप्पायपव्वय ' शब्दे
द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठ दशितः )
र यगुत्तमकूड र चकोत्तमकूट-पुँ० । जम्बूमन्द्रस्य पश्चिमे
ख्चकप्ते षष्ट कूटे, स्था० ८ ठा०।
(५४७४) |
सुयगुत्तरा अ्निधानराजन्द्रः रूव
-- -~
रुयगुक्तरा-रुचकोत्तरा- खी° । सुचकपवंतस्य मध्यमाग | रूयगावई-रूपकावती-स्त्री० | रुचकपवैतवास्तव्यायां दिक्
दिक्कमाय्याम् , द्वी० ।
रुयगोद - रुचकोद -पुं० । सुचकदढीपपरिक्तपिणि समुद्रे, जी०। |
रयगेदि नामं समुद् जहा खोदोदे समुदे संखेजाई जो |
यणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं संखजाई जोयस-
सतसहस्साई परिक्खवणं । दरा, द्ार॑तरं पि सखजाई, जो- |
तिस पि सव्वं संखेज़ भाशियव्वं, अद्र वि जहेव खोदो- |
दस्स नवरि सुमण सोमणसा एत्थ दो देवा महिड्डिया |
तंहेव रुपगाओ आदत्तं असंखेज विक्खंभपरिक्चेवो दारा |
दारंतरं च जोइस च सन्य असंखेज्ज भाणियव्यं | जी० |
३ प्रति० २ उ० | |
रुयश-रुदन-न० । रुदितप्राय, ज्ञा० १ श्रु० १८ श्र०। |
रुयशिया- रुदनिका-खी० । सुदितक्रियायाम् , ज्ञा० १ श्रु०
१६ अ०।
रुरु रुरु-पु० | सृगविशष, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। कल्प० । प्र- |
ज्ञा० । रा० । प्रश्न० । आचा० । वनस्पतिकायमभेदे, म्लेच्छुजा, |
तिभदे च | प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
रुरुकणह-रुरुकृष्ण पं । साधारणबादरवनस्पतिकायमेदे, |
प्रन्ना० १ पद । (
रुलत-रुलत- पुं । भूमों लुठति , प्रश्न० ३ आश्र० द्वार।
रुह- रुह--त्रि० | रुह. बीजजन्मनि, प्रादुभावे, रोहयतीति
रुहः । पुनरुत्पक्तिशालिंनि, आचा० १ श्रु० ४ अ० ६उ०। |
रुहिर-रुधिर न० | शाोणित, प्रशज्ष० ६ आश्र० द्वार। ^ कीला-
ले सोणिअ रुहिरं पाइ० ना० ११३ गाथा ।
रुहिरविंदु-रुधिर विन्द् पु । शोणितविन्दौ, ज० ७ वक्त० ।
रूद-रूढ-पु० । प्रादुभूत, दश० ७ श्र ० । शुष्क, विश० । प्रगु-
श. “ रूढ पडणे `` पाड० ना० २६८ गाधा।
रू(ञ्र)य-रूत-न० । वीजर दित लोटितकपस, ० १ उ० ३
प्रक० । नि० चु० | तृल, दे० ना० ७ वग ६ गाथा । कार्पास-
परमि, सु० प्र० २० पाहु० । ज्ञा० | भ०।
रूप-पुं० | द्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपाल, भ० ३ श०८उ०।|
स्था० । स्वभावे, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । |
सूय॑ती -रूतवन्ती -स्त्री० । कर्पासलोटिन्या लोटयन्त्याम्, पि०।
रूयंस-रूपांश-पुं? । द्वीपकुमारेन्द्रस्य लाकपाले , भ० ३
श०८उ। |
रूयेसा-रूपांशा- खी” । भूतानन्दस्यात्रमहिप्याम् , भ० ११ |
श० ५ उ० । दक्तिणदिक्कुमाय्या मातरि, श्रा° म० १ अ० |
रूयकंत रूपकान्त-पुं० | विशिष्न्द्रस्य लाकपाल, स्था० ४
ठा. १ 3०।
रूयकंता रूपकान्ता-खी० । मध्यमरुचकवास्तव्यायां दि- |
|
क्कु मारीमहत्तरिकायामे , स्था०६ ठा० । द्वी० । भूतानन्वस्य |
कुमाय्याम् , , आ० क० १ अ०।
रूयजुय-रूपयुत-त्रि० | रूपवति,लोकानां गुणविशिष्टो बमा.
नभाग जायते ॥ "यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ईत प्रवादात्
कुरूपस्य श्रनादेयादि प्रसङ्गाञ्च इति रूपयुततवे सूरिगुणः ।
प्रव० ६५ द्वार ।
स्यणालिया-रूतनालिका- ख्ी० । रूतं कापीसविकारस्तद्-
श्रता नालिका शुषिरवशादिरूपा । रूतभ्रन्नालिकायाम् , भ०
२ श॒५ ५ उ०।
सूयप्पभा-रूपप्रभा-खरी० । भृतानन्दस्याग्रमहिष्याम् , भ० ६
श० ३३ उ० । दिक्लुमार्य्या महत्तरिकायाम् , स्था० ६ ठा० |
भ० । मध्यमरूचकपर्वतवास्तव्यायां दि्छमाय्यौम् , द्वी०।
रूयवग्ग-रूपवर्ग-पुं० । लोमपत्तिविशेषे, जी० १ प्रति० ।
रूयसीह-रूपसीह-पं० । द्वीपकुमारेन्द्रस्य उत्तरदिग्लोकपा-
ल, भ० ३ श० ८ उ०।
सूया-रूपा-खी० । | रुवकपव्व॑तस्थ पूर्वदिग्वास्तव्यायां दिक्
कुमाय्याम् , आ० क० १ अ० । ज० । पूर्वदिग्वास्तव्याया दि-
कूकुमाय्यीः महत्तरिकायाम् , आ० म० १ अ०। स्था०। भू-
तानन्द्स्थाग्महिष्याम् , ज्ञा० २ श्रु० ४ वर्ग १ अ० | शुक्कि-
कायाम् , षो० १४ खिव०।
रूयार-रूपकार--पुं० । चित्रकारे, विशे० ।
रूयासिया-रूपासिका-स्त्री० | मध्यमरुचकपर्वतवास्तव्यायां
दिककुमार्य्याम् , , आ० क० १ अ० । जं०।
रूरुइअ -रोरुचित--न० । कामचिन्तायाम् , “मुरुमुरिअं रूरु-
इ "` पाइ० ना० १८२ गाथा ।
रूव-रूप-न० ; रूपणे रूपः; रूप्यते अवलोक्यते इति रूपम् ।
आकारे चचर्विषये, स्था० १ ठा० । अखु० । पं०्चू० ।
स्था० | आ० म०। ओ०। “ करणी रूवं `` पाई० ना० २३६
गाथा । पृथिव्युदकज्व लनवृत्तिचाक्षुषगुणे, सम्म० ३ काणएड ।
एगे स्वे । स्था० १ ठा० | आचा० |
दुविहा रू(वा)या पष्पत्ता,तं जहा-अत्ता चव,अणत्ता च् °
जाव मणामा,अमणामा चव | (स्ू०८३)स्था० २ठा० रेउ० |
शरीरसोन्दर्य्य, स्था० ४ ठा० २ उ० । स० । प्रश्न० ।
ज्ञा० । गोरादिवणलावण्ये , उत्त० ३२ अ० । आकतो,
झञ्ञा० १ श्यु० १ आअ० । प्रश्न । आ० म । स्था० ।
नि० । रा०। नयनमनोदारिि, सृत्र० १ श्रु १३ अ०। वर्णा-
दिम, भ० १७ श० २ उ० । मूर्तौ, स्था० ५ ठा० ३ ड०।
श्रन्यनाद्गतायाम् , उत्त ३ अ० । सम्म० । नेपथ्यादों,
स्था० ३ ठा० १ उ० । स्वरूप, सूत्र० २ श्रु० १ अ°।
स्वभयि, स्था० ६ ठढा० । ज्ञा० । लेप्यशिलाखुबर्ण-
मणिवस्मचित्रादिषु , रूपनिर्माणरूपे कलाभेदे, जं० २ व
क्ष । नि० चु० ( तच्च मगवता ऋषभण भरतस्य प्रथम
सपदिष्टम् इति 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे ११२६ पृष्ठे उक्कम )
स २ न + = हः सरीरं ~ क ११
नागकुमारन्द्रस्याग्रमदहिष्यां च । स्था० ६ ठा० | भ०। | अचेतने ख्रोशररे, अचेयणं इत्था रूवं भरणति, ।
|
गै
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|
|
|
॥
॥
(†
|
॥
( ४७५ )
।
अभिधानराजन्द्रः।
सूववं
नि० चू १ उ० | भूषणविकल वा जीवत्स्रीशरीरे, दश० ४
० । स्वगतस्ीचित्ादिगत, प्रज्ञा० २३ पद्.। “ अशक्य
रूपमद्रषरु, चच्तुगाचरमागतम् | रागद्धघा च या तत्र, ता बु-
घः परिवर्जयत् ॥ १॥ ” घ० ३ अधि० ।
रूपनिक्षेप:--चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेषो त्पत्तिर्निषिध्यते,
तत्र रूपस्य चतुर्धा नित्तपः, नामस्थापने अनाइत्य द्रव्यभा-
वनित्तपाथ नयुाक्तकूद् गाथा5द्धमाह-
दव्वं संठाणाई, भावो वन्नकसिणं सभावो य |
( दव्वं सहपरिणय,भावो उ गुणा य कित्ती य य )|३२४॥
तत्र द्रव्यम् नाञ्मागमता उ्यातरिक्तं पञ्च संस्थानानि परिम- |
ण्डलादीनि , भावरूपं द्विधा-वर्णतः , स्वभावतश्च | तत्र व-
शीतः-कृत्स्नाः-पञ्चापि वणः, स्वभावरूपे त्वन्तगेतक्राधा-
दिवशाद् श्रङ्गललाटनयनारोपणानष्डुरवागादिकम् , णत-
द्विपरीतं प्रसन्नस्यात, उक्र" रुट्टस्स खरा दिट्ठी, उप्पल-
धवला पसन्नचित्तस्स | दुहियस्स ओमिलायइ, गंतुमणस्खु-
स्सुआ हाई ॥ १॥ ” सृत्रानुगमे सूत्रम् । आचा० २ श्रु०२
चू० ४ आ० | ( तच्च सत्रम् ` चक्खुदंसणवाडया ` शब्दे
तृतीयभागे ११०६ पृष्ठ गतम् )
रूत-न० । कर्पास, “ पटली ववणं तूलो रूवो ” पाइ० ना०
२५५ गाथा ।
रूवंगी-रूपाड़ी खी० । रूपणातिशयिना युक्कमङ्गं शरीरं य-
स्याः सा रूपाङ्गी । खुरूपायाम् , व्य० *३ उ० |.
सवं भाण रूपध्यान-न० । रूपविषयके ध्यान, आतु० ।
स्व॑धार रूपंधार पुं | मुनिवेषधारिणि, उत्त० १७ अ० |
स्वकटा-रूपकथा-खी° । विकथाभेदे, स्था० ४ ठा०। (व्या
ख्या" इत्थीकहा ` शब्दे द्वितीयभाग ५८५ पृष्ठे गता )
स्बखध- रूपस्कन्ध - पुं० | बोद्धपरिभाषित श्रवयविद्रव्यवि-
शेषे, स च पृथिवीधात्वादिरूपो रूपादिरूपश्च । सूत्र० १ श्रु० |
१ ० १ उ०।
रूवग-रूपक-न० । रजतमुद्रायाम् , ग० । रूपकप्रमाणं चदम्-
द्वीपसत्करूपकद्धिकनोत्तरापथरूपक एकः पाटलिपुत्रीया
रूपकः | अथवा-दक्षिणापथरूपकद्दयन काञ्चीपुरीयरूपक
पकः स्यात्, तद्द्वयन पाटलिपुत्रीय एकः,एवंविधा रूपको-
-ऽ्राचगन्तव्यः । ग० १ आधि० । वृ० । नि० चू० | रा० । रूप-
कग्रतिरूपदशनीय, रा० । “ तद्रुपकमभदा य उपमानापमय-
यो "" रित्युक्कलक्तण काव्यालङ्कार , प्रति० । | आ० म०।
सूवगदास-रूपकदोष- पुं०। स्वरूपभूतानामवयवानां व्यत्य.
य, अनु० । आ० म० | रूपकदापा यथा--पवत रूपयितव्य |
तत्स्वरूपभूतान् शिखरादीनवयवान्नरूपयात, अन्यत्र वा
समुद्रादः सम्बन्धिनस्तांस्तत्र रूपयतीत्यादि । विश० ।
स्वजक्ख -रूपयच्च -पुं० । रूपण मू्या यन्त इव रूपयत्तः । ध-
म्मैकविशिष्टे दवकर्प श्राधिकर णक, व्य ०।
अधुना रूपयक्षस्वरूपमाह--
भभीएँ मासुरुक्खे, माढरको डिन्नदंडनीतीसु ।
अन्लंव-पक्खगाही, एरिसया स्वजक्खा ते ॥३३२॥
आम्भ्यामाशुचृक्त माढरे-नीतिशास्रे कौणिडन्यप्रणीतासु
|
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च द्राडनीतिषु य कुशला इति गम्यत, तथा न कस्याऽपि
लञ्चमुत्कोचं गृह्णन्ति । नाप्यात्मीया ऽयमिति कृत्वा पत्तं गरह-
न्तित पतादशा ऽलञ्ा अपक्तग्राहिणो रूपयत्ता रूपण मूर्त्या
यत्ता इव रूपयत्ताः, मूर्तिमन्तो धर्म्मकनिष्ठा देवा इत्यथः ।
व्य० १ उ० । प्रति० । | आ० म०।
रूवजद- रूपरयङ्ग त्र ० । रूपे त्यक्लं येन स रूपत्यक्रः । सुखाः
दि दशनात् कान्तस्य परनिपातः । त्यक्रवष, व्य० १० उ० |
| स्वतेशय- रूपस्तेनक - पु०। रूपवन्तम् उपलभ्यसत्व या मया
विवल्तिता रूपवान् इत्यादि भावनया परसम्बन्धिरूपमा-
त्मनि सम्पादयति, प्रश्न० ३ सवण द्वार |
रूबदेस-रूपदेश-प० । आदित्यमणडलादिसमाक्रान्तप्रदेश,
विश० । ('इंदिय ` शब्दे द्वितीयभागे ५६१ पृष्ठ विस्तर उक्कः )
रूवधम्म-रूपधर्म्म -न० । रजाहरणादिके स्वलिङ्ग धम्मीज्ञा-
नादके ज्ञानादितरिक, “धम्म रूवं होति सलिङ्ग, धम्मा नाण-
व्वतियं होड ” ॥ व्य० १० उ०।
स्वपरियारग-रूपपरिचारक--प० । रूपतः परिचारकः रूप-
परिचारकः । रूपतो मेथुनासवके, स्था० २ ठा० ४ उ०।
.( * कणप ' शब्दे तृतीयभागे २३१ पृष्ठे एतद्विषये सूत्रे गतम् )
| स्वमय- रूपमद् -पं० । रूपण मदो रूपमदः । मदभेदे, स० ८
सम० । स्था०।
स्वमिणी-देशी- रूपवत्याम् , दे० ना० ७ वर्ग & गाथा |
सूवलक्ख-रूपलच्य- रिण । काथतानुसारप्रसरत्प्रज्ञानां चतु-
रचतसां खुज्ञय, विश०।
| सूववं-रूपवान् प° । श॒मशगीर संस्थाने, द्वा० १४ द्वा० । प्रश-
स्तरूप, विशे० । प्रशस्तरूपे स्पष्टपश्चेन्द्रिय, घ० १ अधि० ।
तद्योगेन्द्रियपाटवो पते विशिष्टसमस्तशरीरावयवे खुन्दराका-
रधारके, दर्श० २ तत्त्व | ध० र०। मताः प्रशंसावाचित्वाद् ,
रूपमात्राभिधान पुनारनेव, यथा--रूपिणः पुद्धलाः प्रोक्ता
इति । ध० र० १ आधि० १ गुण । ग०।
सम्प्रति रूपगुणमाद-
संपुन्नेऽगावगो, पंचिंदियसुंदरों सुसंघयणो |
होई पभावणंह, खमो य तह स्ववं धम्मे ॥ ६ ॥
सम्पू णान्यन्यूनान्यङ्गानि शिरउदरप्रभ्रतीनि उपाङ्गानि-चा
ङ्ट्यादीनि यस्य स सपूर्णाज्ञोपाह्नीउव्यज्ञिताज़ इत्यथ
पञ्चन्द्रियखुन्दरः-काणककरवधिरम्कत्वादिविकल इत्यभि-
प्रायः । ` खुसघयणु ' त्ति शोभन सहनन-शरीरसामध्यं य-
स्य न पुनराद्यमेव, सहननान्तर ऽपि धर्मप्रा्तः “ सव्वेखु वि
सटाणेखु, लहइ पमेव सव्वसघयण ` इति वचनात् सुसह-
ननस्तपः<यमायचुषएठानसामथ्यो पेत इत्याकूतम् । पवविध-
स्य घर्मप्रतिपत्तौ फलमाद--भवति- जायत प्रभावनाहेतु-
स्तीर्थोन्नातकारणम्, तथा त्तनश्च-समर्थो रूपवान् धर्भ घ-
मकरणविषय स्यात् , खुसंहननत्वात्तस्येति । खुजातवत् ।
न च नन्दिविणहरिकशवबलादिभिव्यभिचार उद्भावनीय-
स्तषामपि सम्पूणौङ्गोपाङ्गत्वादियुक्रत्वात् । प्रायिकं चेतत्-
शषगुणसद्धावे कुरूपस्य गुणान्तराभावस्य चादुष्टत्वात् ,
( ५७६ )
स्वव
अमध्रानराजन्द्रः |
अत एव वक्ष्यात, “ पायद्धगुणविहणा, पसि माज्भिमा-
वरा नया ” इति । ध० र० १ अधि० २ गुण ।
रूववई-रूपवती खी । भूतानन्दस्या ऽग्रमदिष्याम् , भ० १० |
श० ५ ड० | स्था०। ज्ञा० | उत्तरदिग्वास्तव्यायां दिककुर्माराम- |
हत्तारिकायाम् , स्था० ६ ठा० |
सूवसंपत्ति-रूपसम्पत्ति- खी । रूपण रूपः रूप्यत इति रूपम्। |
तस्य संपत्ति: रूपसम्पत्तिः | निरूपहतन्द्रियतायाम् , पे० चू
१ कल्प ।
रूवसच्च-रूपसत्य-न० । रूपापक्षया सत्य रूपसत्यम्। सत्यमे-
द, यथा प्रपञ्चयति प्रव॒जितरूपं धारयन् प्रनजित उच्यत न |
चासत्यताऽस्यति । स्था० १० ठा० । रूपतः सत्या रूपस-
त्या । सत्यसरृषा भाषामदे, खी ० । यथा-दम्भतो गृदीतप्रबजि-
तरूपः प्रव॒जिता ऽयमित । प्रज्ञा० ११ पद | घ० |
रूवसच्तिकय - रूपसपैकक -न० । रूपमभिन्ञाप्रतिवद्धे, त्राचा०२
श्रु० २ चू० ५ अ० । श्राचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य फञ्च-
माध्ययन, स्था० ७ ठा०।
सूवसहगय- रूपसहगत-पुं° । सजीवे स्त्रीशरीरे, भूषणसहिते-
वा स्त्रीशरीरे, दश० श्र० । नि० चू०।
रूवसाली -रूपशालिन् पु । किन्नरमद, प्रज्ञा० १ पद् ।
रूवसिरी रूपश्री- प° । वट गच्छापर पर्यायस्य । वृद्ध गच्छंस्य
प्रवतकानां देवसरीणां चृपतिप्रदत्तविरूदे , “ रूपश्रीरिति
जरपतिप्रदत्त विरूदा $थ दवसूरिरभूत् "` ग० ३ अधि० ।
स्वसोभग्गमयमत्ता-रूपसौ भाग्यमद मत्ता-स्त्री ० । चार्वारूत्या
स्वकीस्तिश्रवणादिरूपेण सौभाग्येन मन्मथजगर्वेण च मत्ता-
यां सियाम् , त०।
स्वाणुवाय- रूपानुपात-पु० । श्रभिग्रहीतदेशाद्रहिःप्याजन-
सद्भाव शब्दमनुश्चारत एव परेषां स्वसमीपे नयनाथ स्व-
शसररूपानदशन रूपानुपातः । देशावकाशकव्रतस्य च-
तुर्थं ऽतिचार, उत्त० १ अ० | आव० । ध०।
रूवावई रूपावर्त(-खा० । मध्यरुचकवा स्तव्यास अतो जात-
मात्रस्य नालकर्वनादिकारिकासु , स्था० ४ ठा० १ उ०।
रूवि ( न् )-रूपिनू-त्रि० | रूप मृ्तिवणादिमस्वं तद् स्ति यषां
ते रूपिणः । स्था० ४ ठा० १ उ० । शभ्रज्ञा० । मृत्तद्रत्यतु, |
स्था० ५ ठा० ३ ० । भ० । श्र्कद्रम, द० ना० ७ वगक्गाथा।
अतिशये मत्वर्थीयः । श्रतिशयरूपवदि, स प्र० १३ पाहु० ।
रूविअ(य)जीव-रूप्यजीव-पुं० । स्कन्धादिषु मू्तेंष द्रव्यषु, |
प्रज्ञा० १ पद |
रूविअ(य)जीवामिगम-रूप्यजीवाभिगम-पुं० । जीवाभिगम |
भदे, जी० ३ प्रात० ।
रूविन्म(य)मास-रूप्यमाष--पु० । ग्रुजाहयपारमाण कम्ममा-
चे, ज्यो० २ पाहु० ।
रूविजीव-रूपिजीव पु०।अनगादिकरम्मसन्तानर्पारिगत जीवभदे
आए म० २ अ० | देवानां वेक्रियशरी रवता दशनादृप्येव जाव
इत्येवमवष्टम्भसदश षष्ठ विभङ्गश्ञाने , स्था० ४ ठा० २ उ० ।
से कितं रूविश्रजीवाभिगमे ?, सुविश्रजीवाभिगमे च-
। रूविणी -रूपिणी - खी” । समुद्र पालस्य मातरि पालकस्य
रे-रे -श्रव्य० । सम्भाषणादौ
रका- रेका-पु० । बिरेचन, शड्जायां च । 'अवाप्य सम्यफ्त्वम-
रेणी- देशी-पङ्क, दे० ना० ७ यगे ६ गाथा |
उाव्वयह पणखत्त, त जहा खदा खददसा खधप्पएसा पी |
रमाणुपोग्गला, ते समासतो पंचविद! पण्णत्ता, तं जहा-
वण्णपारणया गधपारणया रसपारणया फासपरिणया
सठाणपारणया, एव त ५ जहा प्छकवणाए, सत्त रूवि-
अजीवाभिगम । ( मू० ५ )
"स कि ते रूविच्रजीवाभिगमे ?, रूविश्मजीवाभिगम च~
उव्विह परणत्त, त जहा-खधा खधंदेसा खंघपएसा पर~
म{णुपुग्गला ` इह स्कन्धा इत्यत्र बहुवचन पुद्रलस्कन्धा-
नामनन्तत्वख्यापनार्थम् , तथा चाक्रम्-* दन्वता णे पुग्ग-
लत्थिकाए ण अनन्ते ” इत्यादि. ` स्कन्धदशा ` स्कन्धा-
नामव स्कन्धत्वपारणाममजहतां बुद्धिपरिकल्पिता दका
दिप्रदेशात्मका विभागाः, श्र्ापि बहुवचनमनन्तप्रदेशिक-
चु स्कन्धपु स्कन्धदशानन्तत्व्तभावनाथम् , स्कन्धप्रदशाः-
स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाममजहतां, प्रकृष्टा देशाः--निर्वि-
भागाभागाः परमाणव इत्यथः , परमाणुपुद्रलाः- स्कन्ध-
त्वपरिणमरददिताः कवलाः परमाणवः । अत ऊध्व सूब-
मिदम-'त समासता पचविधा पन्न्ता, तं जहा-वष्परि-
रया गधपरिणता रसपरिणता फासपरिणता सठाणपरि-
णता, तत्थ रो जे वण्णपरिणया त पंचविहा पन्नत्ता,तं जहा-
कालवषएपरिणता नीलवरणपरिणता' इत्याद तावद् यावत्
सत्त रूविश्चजीवाभिगमे । जी ० १ प्रति ० |
भायौयाम् , उत्त० २१५ आअ० । श्रतिशयेन रूपवत्याम , )
व्य० २ ड०।
सूवी--रूपी--खी० । गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रश्ञा० १ पद ।
रूस-रूप--धा० । क्रोध, “ रुषादीनां दी धैः” ॥ ८ । ४। २३६॥
रूसद् । रुष्याति । प्रा० ४ पाद् ।
“रेश्ररे सभाषणरतिकलंह ”
॥ ८ । २। २०१ ॥ अनयोरथैयोर्य॑थासंख्यमेतों प्रयोक्तव्यो ।
रे-संभाषण, ““ रे हिझ्न॒ यमडहसारिआ । श्ररे-रातकलह ,.
« अर मए सम मा करेखु उवहासे ” भ्रा । जी०।
रेअव-मुच-धा० | माचन मुचश्छडावह ड-मल्लास्सिक्ष-रे
श्रव-णिल्लुञ्छं घेसाडाः "` ॥ ८। ४। ६१ ॥ इत्यनन मुच धा-
तो रेअव इत्यादेशः । रेअवइ । मुञखति | प्रा० ४ पाद् ।
रेञ्यविच्र--मुक्र--ति० । रक्त, रआवअ सुरणदश्च `" पाइ०
ना० १६३ गाथा । त्षणीकत, दे० ना० ७ वग ११ गाथा ।
रिम देशी-श्राक्ति्त, लीने, बीडित च । द° ना० ७
वग० १४ गाथा ।
पतरकम् ` । हा० ३२ श्रष्ट० ।
रेकार-रकार--पु० । तरस्कार, घ ^ आध०।
रेणा-रेणा-खी° । स्वनामख्याताया स्थूलभद्र मागेन्याम् +
श्रा० क० ४ अ० | ती० | आ० चू० । कर्प० ।
रेणु-रेणु-पु। भूयर्तिनि धूलीरूपे, स० २७ सम० | प्रश्न०।
नि० चू । रेणुना-धूल्या कलुषा-मालना रेणुकलुधास्तम
( ४७७ )
„चि अ //४ह
पटलनान्धकारेण निरालोका-निरस्तप्रकाशा निरस्तदष्िप्र- |
सरा वा तमःपटलनिरालाकास्ततः कम्मधारयः। भ० ७ श> |
| रेबईआ-देशी-माठ्षु, द० ना० ७ वर्ग १० गाथा ।
६ उ०। स्थूलतरे प्रथ्वीपुद्ल, स्छच्णतरा रणुपुद्रला रजः. त
एच स्थूला रणवः | जी० ३ प्रति० ४ श्रांघ० । पांशुषु, ज्ञा० १
श्र० १७ अ० । ज्ञा० । "रख पंसू रझआ पराझो य `
ना० १३७ गाथा ।
रेणुया-रेणुका-स्त्री० | परशुराममार्तार यमदझ:ः भायायाम् ,
आचा० १ श्रु० श्र° १ उ | आ०
( पनत्कथा ` कोह ' श
नन्त जीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद |
रेभ-रेफ पुण | “फा भन्हों ”॥८। १। २३६॥ इति फस्य
भः । रेफः । रेभः । रकारात्मक्र वर्ण, प्रा० १ पाद ।
रेय-रेत-पुं० | पुरुषसम्बन्धिनि शुक्र, स्था० ४ ठा० ४ उ०।
रेयग-रेचक पु? । बहिकत्तों श्वास, द्वा० २२ द्वा० ।
रेयगावट्ट रेचकावत्त-पुं० । अद्ञप्रावत्तन, यदक्ञपरावत्तन त-
द्रच्चकावत्ते इत्यभिधीयते । प्रव० २ द्वार।
गल्ल रेल खी०। श्रातसि, तं०।
रेवई रेवर्ती स््री° । पुषादेवताके नक्षत्रभेदे,
अ० | सू० प्र०।
रेवश्णक्खचे वत्ती सतारे पष्पत्त । स० ३२ सभ० ।
कृष्णश्रात॒ः बलदवस्य मायायां, निषधकुमारस्य मातरि
नि० । राजगद महाशतकस्य ग्रृहपतः प्रधानभायायाम्
उपा० ६ अ०। ( तत्कथा ` महासयय ` शब्द पष्ठ भागे २१४
अनु० । स्था०।
पृष्ठ उक्ता) मदिकम्रामवास्तव्यायां गरहपल्न्याम.म० १५ श०। |
तद्क्कव्यता-रवती भगवत ऑपधदात्री, कथम--किलेकदा
भगवता मदिक्रामनगरे विहरतः पित्तज्वरा दादवह-
लो बभूव. लाहिनवच्चश्च प्रावत्तत, चातुचगय च व्याकरा-
ति स्म, यदुत गाशालकस्य तपस्तजसा दग्धशरराराऽन्तः ष-
शमासस्य काल करिष्यतीति, तत्र च सिंहनामा मुनिराता- |
पना ऽवसान एवममन्यत-- मम धमाचायस्य भगवता महा- |
चरस्य ज्वररागा रुजति. तता हा वदिष्यन्त्यन्यतीर्थिकाः
यथा छुझ्स्थ पव महावीरो गाशालकतजा 5पहतः कालगत |
इतिःपवम्भृतभावनार्जानतमानसमहादु.खखदि तशरारा मार
लुककच्चछााभधाने विजने वनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्यव महा- |
ध्वनिना प्रारादीत् , भगवांश्च स्थविरेस्तमाकायोक्रवान-- |
ह सिंह ! यच्वया व्यकॉल्प, न तद्भावि, यत इतो ऽदं दशाना- |
नि षाडश वर्षाणि कवलिपयाय पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वे |
नगरम्रध्य, तत्र रवत्यभिधानया गृह परतिपल्न्या मदर्थं द्व
कृष्माएडफलशरीर उपस्कृत, न च ताभ्यां प्रयाजनम् , तथा- |
ऽन्यदस्ति तदृगरृह परिवासितं माजीराभधानस्य वायार्नि-
चृत्तिकारकं कुःक्कुटमांसकम् ,वीजपूरककटार्टामल्य्धः, तदा
हर, तन नः ध्रयोजनमित्यवमुक्राऽसी तथेव तवान् , रेवती
च सबहुमानं ङताश्रमात्मान मन्यमाना यथा याचितं तत्पात्रे
प्रक्षिप्तवती,तनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते वि खृष्टम् ,भगवता-
ऽपि वीतरागतयैवादरकोष्ट निक्षिप्तम् , ततप्तत्त्षणमेव क्तीणो
राणो जातः, जातानन्दा यतिवर्गो मुदितो मिखिलो देवादि-
लो इति । स्था० € ठा० | स० । ती५ । (यथा गाशालो
१६५
श्राभधानराजन्द्र
पाइ० |
क० | त० । | आ० म० | |
तृतीयभाग १४०० पृष्ठ उक्का ) अ- |
रेवय
पटत-वीरस्वामिवदनापशमना्धं कपातशरीरं मार्जाग्छूते
कुक्कटर्मांसं च उपस्क्ृर्तामति “ गासालग ` शब्द् १०३० पृष्ठ )
रेवईन क्वत्त-रेवतीनक्त्र- पुं° । श्राय्यनागह स्तिनां स्वनाम-
ख्यात शिष्य, न० ।
जच्चंजणधाउसम- प्पहाण मु द्दियकुबलयनिहाणं ।
वड बायगवसो, रेवइनक्वत्तनामां ॥ २१ ॥
` जच्चेजणत्यादि ' आर्यनागह[स्तनार्माप शिष्याणां रेवति-
नक्तत्रनाम्नां वाचकानां वाचकवंशो वद्धं ताम्.कथ भूताना प्रि-
त्याह--जात्या जनधातुसमप्रभाणगाम--जा त्यश्वासाव जन घा-
तुश्च तन समा-सदहशी प्रभा-देहकान्तिर्थेषां तथा तेषां,
मा भूतदत्यन्तकांलाम्न सम्प्रत्यय इति विशषणान्तरमाह-
मुद्रिकाकुचलर्यानभानां-परिपाकागतर्सद्वाक्षया नीलात्पलन
च समप्रभाणाम् , अपर पुनराहु:-कुवलयर्मित मणिविशषः।
तत्राप्यविगाघः । न० । स्था०।
रेवड मित्त-रवर्त मित्र-पुं० । दशपूर्विखि स्वनामख्यात युगग्र-
धानस्रा, कल्प० २ आधर० ८ क्षण ।
। रेवाज्ञ -दशी० । उपालब्ध, द० ना० ७ वर्ग १० गाथा ।
| रेबय- रेवत-पुं० । गन्धर्वभद, प्रज्ञा० १ पद । दवारवल्यामु-
त्तरपूतर स्वनामख्यात पव्चत . अन्त० १ श्रु० ५ वग १ आ०।
न० । श्रा० म०। आ० चू०। प्रच०।
रेवत गारिकल्पः-
“ सिरिनामाजिणं सिरसा, नमिडउ रवय गिरीसकप्पम्मि ।
सिरिवइर्सीसभणियं, जहा य पांलत्तणगे तु ॥ ९॥
छुत्तासलाइसमीव सिलासण दिक्खर्पाडवन्न नमी सहस्स-
तचण कवलनाणे लक्खाराम देसणा अवजाहरणं,उ सि)द्धसि-
हर निव्वाणे । रत्रयमहलाए कराहा सत्थ कल्लाणतिगं का-
ऊण सुवरणरयरपाडमालाकिश् चअइआतिगं जीवतसामि-
णा शवादेविच कारइ। इंदो वि वज्ञण गिरि कारेऊण
सुचराणवलाणये रुप्पमये चइओ, रयणमया पड़मा पमा-
णवन्नादवेया सिहर श्रवरंगमंडव अवलोहणसिहरं वला-
णयमंडव संवा एयाई कारेइ, सिद्धाविणायगो पडिहारो
तप्पडरूवे “ श्रीनमिमुखात् निवाणस्थानं ज्ञात्वा निवा-
रादनन्तरं ` कराहेण ठावियं, तदा सत्त जायवा दामायरा-
रुरूवा-कालमदह १, मेहनाद २ गिरिविदारण ३, कपाट ४,
सिंहनाद ५. खाडिक ६, रवया ७, तिव्वतवेण कीडणण खि-
क्तवाला उववन्ना | तत्थ य महनादा सम्मादेट्री नमिपयभ-
क्तिजुत्ता चिट्ठुइ, गिरिददारणणे कंचणवलाणयम्मि पंच उ
दारा विरव्विश्रा, तत्थ शे श्रवापुर श्रा उत्तरदिसाए सत्ति
अ सयकमदहि गुहा. तत्थ य उचवासतिगेणं बलिविहाणे-
स सिल उप्पांडऊण मज्ज गिरिविदारणा पड़मा, तत्थ य
कम्मपणणासंगए बलदवण कारिआ सासयजिणपडिमा-
रूवं नामऊण उत्तरदिसाए पर्णासातिगं बारितिगं, पढमाए-
वारआए कमसर्यातगे गंतूंण गोदादिशाखणेणं प-
विसिऊण उपवासपंचर्ग भमररूय दारूएं| सत्तणे पाडिऊ-
ण कमसताओ शटा खुहे पविसिङऊण बलाणमंड--
वे इदादेसण थणयजक्खकारियं इंदादाव पूइऊण खुबछ-
जालीए ठायब्वं । तत्थ ठिएण सिस्मूलनाहो नामाजिणि-
( ५७८ ) है
आमधानगाजन्द्रः ।
रेवय
द वंद्आ्िव्वा बीअवारोए एगे पायं पृयत्ता सयंबरे वा-
बण अहा कमवाली सगोमित्ता, तत्थ णे मज्भवार्रए
कमसत्तसर्णाह कृवा; तत्थ वरदेसविद्यत्तण इहावि मूल-
नायगा वन्देयव्वा-तइअवारीए मूलदुवारपवरसा अबाएस-
णन अन्नदा । एवं कंचणवलाणयमग्ग । तत्थ य अबापुर-
श्रा हत्थवासाए तवर. तत्थ य अबाएसंण उववासात-
गण सलुगघराडणण हत्थबीसाए सपुडसत्तगे समुर्गयपे-
खगं अहा रसकृविआ अमावासाप अमभमावासाए उम्पडइ | त-
त्थ य उववासतिग काऊण अवाएसण पुयणण बलिवि-
हाणेण गहियउवे । तहा य जुगणकूड उववासातिग काऊ-
ण सरलमग्गेण बलिपूअणणं सिद्धाविणायगा उवलन्भद ,
तत्थ य चतिद सिद्ध दिणमग उायव्व, जइ तहा पच्च-
क्खा हवइ तटा राईमईगुहाए कमसएरण गोदोहिआए पवि-
सियव्व॑ं,रसकूविआए कासरणचित्ता कसिणचित्तवज्ञली राईम-
हण पडिमा रयणमया अबाए रुप्पमयाओ अणेगा श्रासदिश्रो
चिट्ठांति । तत्थ छु्तासला घरटसिला कोडिसिला तिगं पल्त्त
छुत्तासला मर्क मज्भण कणयचज्ञा सहस्स वणमज्के रयय- |
| रोइआवसाण-रोचितावसान-न० । रोचितम-सम्यस्भावि-
शाण गुहा पराणत्ता । कालमहस्स पुरओआओ सुवरणवाल- |
गामत्ता ग- |
खुवणणमयचउठ्यीस लक्खाराम छावत्तरी चडवीसजि-
आए नइए सद्धुकमसयतिगण उत्तरदिसाए
रि गुदे पर्विल्िऊण उदण गहबरण काऊण
रागि दुवारमुगधा
टण् उववासप-
। मज्क पदमदुवार खुचष्षखाणी स-
दामादरसमात्र अजणासलाए अहदहाभाग रययसुवरणध्र-
ला षुरसवासाह पणणात्ता। तत्थ माणमंगलयदेवदालीय-
|
खतुरसालाद्धासारवडईरावक्खाय सघसमुद्धरणकज्ञाम्म त- |
स्स कडादह्द मर्क गमागहत्ता काडावदुसजागाा सघासि- |
लाचणणयजोयणाओ शजण्खिद्धिविज्ञा । पाहुडद्ेसाओ र-
वयकप्पलंखओ सम्मत्ता | ती० २ कल्प० । धैवतक स्वरे ,
स्था० ७ ठा० | अनु० । प्रणाम, दे०्ना० ७ वगै ६ गाशा।
ग्सशिया-रेषिका- खी । करोटिकायाम ,
साडया ” पाइ० ना० २४४ गाथा ।
ग्वलिञ्मा-देशी-वालकावर्त, दे० ना० ७ वर्ग० १० गाथा ।
श्वा-रेवा-ख्री० । नमंहायाम , “ मश्रलकन्ना य नम्मया
रवा ” याद० ना० १३० गाथा |
ससी - देशी -श्रत्िनिक्राच, करोटिकाख्यकांस्यभाजन च।
दे० ना० ७ जग २५ गाथा ।
गेमि(सि)- त्र्य । तादर्थ्य,प्रा०। तादर्थ्य काहि-तहि-रोसि-
गरसि-तकणाः `` ॥८। ४।५२५॥ श्रपश्रश ताद्य
कॉहि-तहिं-*सि-राोसि-तरणण इत्यते पञ्च निपाताः प्रयो--
क़व्या: । ढोल्ला णद परिदासडी, अइ भन कवणदि देसि।
दर्ज भिज्व्े तड कदि पिश्, तुह पुणु अन्नहि रासि ”
| प्रा० ४ पाद् । ।
गेसिश्र-देशी- चिन्न, दे ना० ७ वर्ग ६ गाथा।
रेह -र(ज-धा० । दीप्ता, “ राज रग्घ--छजल्ल--सदह--रीर--
एहाः ” ॥ ८। ४। १०० ॥ इति राजस्थाने रेहादेशः। रेद-
इ । राजति । प्रा० पाद्।
रेदंत--राजत्-त्रि | शाभमान, ज्ञा० १ श्रु० १ श्र०।
“रसिया क- |
द्याव्ये |
| रेहिअ- देशी-चिन्नपुच्चे, दे० ना० ७ वर्म १० गाथा ।
| रोअ-रोग-पुं० | व्याधो, “ आयेका आयज्ला वादी तइ आ-
रोअशिआ-रोदनिका-स्त्री० | “रोअशणिआः लामाओ: ” षाई०
व । रोइदग-रोचितान्तक - न०। राचिताऽव लान, आण०्चु०१ अ०
घहेडे अबाए विउव्वि्रा । तत्थ रयणचराणभडारा अणणों । ।
| रोएमाण-रोचयत्-त्रि० | रुचिविषयीकु्कीणे, च०३ अधि०
| रोगतिगिच्छा-रोगचिकित्सा-ख्री०। व्याधिप्रतिक्रियानाम् ,
रहा-रेखा-स्त्री० अल्प , दल , आभाम , विन्दुपुअरूते द-
रडाक्रारण चिद्भदे, पड़ों च। कल्प० १ श्राधि० १ क्षण। `
रेहिज्जमाण-राराज्यमान-त्रि० । ददीप्यमाने, अतिशयेन
जमान, भ० ७ श० ३ उ०।
रेहिर-रेखावत्-त्रि0। “आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्ते-त्तर-मखला- |
मतोः'॥ ८। २। १५६॥ दाति मताः स्थान इरादशः। रहिरो।
रेखाविशिष्ट, प्रा० पादं । ।
मया राग "` पाइ० ना० ४१ गाथा |
रो्रणागिरि-रोचनाभिरि-पं०। मरोः मद्रशालवने अश्म
दिग्हास्तिकूटे , मन्दरस्याक्तरपूर्व उत्तरायाः शातायाः पूर्व
स्वनामख्यात दवे च । ज० ५ वक्त०।
ना० १०७ गाथा । दे० ना० |.
तम् श्रवसान यस्य तद्रोचितावसानम् , शनेः शनेः प्रक््येप्य-
माणस्वरं यस्य गयस्यावसानं तद्रोचितावसानम् । गेय-
दे , जी० ३ प्राति० ४ अधि० | ज० । रा० | आ० म०।
रोइज्जंत-रोच्यमान-न० । प्रशस्यमान, आचा० २
४ अ० १ उ०।
रोइय-रोचित-जि० । भाविते, चिकीर्षिते च। आ० मण० १
० । स्था० ।
श्र॒०३ चु०
आचा० | आ० म० |
रकण -देशी-रङक, दे० ना० ७ वर्ग ११ गाथा ।
रोकशिअ- देशी- भह्ग्याम् , चृशंसे च । दे ना० ७ वर्ग
१६ गाथा ।
५ (~
रोग-रोग-पु० | व्याधो, आचा० १ श्रु० ६ अ० ६ उ०॥
प्रव० । त० । ज्वरातिसारकासश्वासादिषु, , आव० ४ अ०।
आचा० । कालसहेषु व्याधिषु. ्रो०। भ०। ज्ञा०।स्या०। कु
[क कप च | ० व ८ छ रागे ५
छादिरूपे, उत्त ०२ अ० । ज्ञा०। स्था० | सद्याघातिनि रागे, पेण
सू० ३ सूत्र | आव० । नि चू०। प्रश्न० आचा० । “खास
सास जर दाह, जाणीसूले भगदल । आरिसा5जीरए दद्ध.
मुद्धसूल अकोरएण ॥ ६॥ "` पे० भा०२ कट्प। “ सारि £
कास २ जरे ३ दाह ५, कुच्छिस ते ५ भगेदरे ६ । अरिसा ७
5जीरए ८ दिद्ठी, ६ मुद्धस्ल १० अकारणः १६। अच्छिवेयण
१२ कन्नवयणे १३ कट १४ उदरे १५ काद ६६। ` इदि फ-
ठान्तरम् । उपा० ४ श्च> ।
पञ्चा० ६८ विव०।
(6 = तर ~ प
रोगपररसह-रोगपरषद- पुं । रोगो-रुक ततपारिषदणं च त
५- मरक रकः श्ररोचकः।
|
। ग. न भ्व
4 ( ५७६ )
रोगपरीसह अभिधानराजन्द्रः। ` राद
स््पीडासहने चिकरिल्सावजनम् । भ० ८ श० ८ उ० । रोगा-
कराइज्यरादिरूपः स एव परीषदः | प्रव० ८८ द्वार । रंगे
सति चिकित्सायामप्रवत्तेनेन सम्यक् सहने, आव० । रोगा |
ज्वरातिसारकासश्वासादिस्तस्य प्रादुभाव सत्यपि न गच्छ-
निगताश्चिंकत्सायां प्रवत्तन्त , गच्डुवासिनस्त्वल्पव्रहुन्वा-
लोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्रविधिना प्रतिक्रियामा- |
चरन्तीति , एवमनुतिष्ठता रागपरपदजयः कतो भर्वात |
॥१६॥ आच० ४ श्र ° । “ नाद्विजद्रागसपराप्तो, न चाभीप्साञ्च- |
किल्सितम् । विषहत तथा ऽदीनः, श्रामरयमनुपालयत् ॥१॥
आए० म० ६ अ्र० | “ उद्धिज्ञत न रागेभ्या, न च काङ्न्तेञ्चि-
किल्सितम् । श्रदीनस्तु सहदहात् , जानाना भदमात्मनः॥१॥
ध० ३ अधि० । उत्त० । ( चिकिन्सां न कुयाद् भिक्षु रिति ` ति-
गिच्छा ` शब्द चतुर्थभागे २२३६ पृष्ठ गतम् ) ( श्रत्र का-
लाश्यवाशककथा ` कालासवसियपत्त ” शब्दे तृतीयभाग
४६७ पृष्ठ गता )
रोगपरीसहविजय - रोगपरीषहविजय- प° । रोगे सत्यरपवह
त्वालाचनया प्रवचनोक्तविध्यनुसारतः प्रतिक्रियासमाच-
रण. पे० स० ४ द्वार ।
रेगविदहि-रोगबिधि-पु° । चिकित्सायाम् , वेद्यशास्मरपुस्तके |
च । स्त्री० | बृ० १ उ० २ प्रक०।
रोंगसम-रोगशम-पुं० । व्याधिशमनमात्रे, पञ्चा० ६ विव० ।
शेगायक-रोगातङ्क-न० । रागो दाहज्वरादिः च्रातङ्कः-शीघ्र-
घाती श॒लादिः, रागश्च श्रातङ्कश्च श्रनयाः समाद्ारो-रागात-
ङ्म् । रागातङ्कद्वय, उत्त० १६ अ० । भ० । रागा-व्याधिः स
चासावातङ्कश्च कच्छ जीवितकारीति रागातङ्कः । रागरूप
आतड़ू, पुं | भ० ६ श० ३३ उ० । त° । प्रञ्च० ।
रोगावत्था-रोगावस्था-खी० । ज्वरादिरोगप्रकारे, बू० २ |
उ० । नि० चु०।
रोगासयसमण-रोंगाशयश मन-न० । रोगनिदानचिकित्सा- |
याम् , आब० ४ आ० ।
रेगि णिया-रगिखिका-खी० । | रोग आलम्बनतया विद्यते य |
स्यां सा रागिणी सेव रागिणिका । सनत्कुमारस्येव प्रव॒ज्या-
भदे, स्था० १० ठा०।
रेगिय रागित-तरि०। सज्ञातचिरस्थायिज्वरादिदोषयुक्र,वि-
पा० १ श्रु० ७ अ० । ज्ञा० श्रा० म० ।
रोगुष्पत्ति-रोगात्पत्ति- खी” । रोगोत्पादे, स्था० ।
णर्वाहें ठाणेहि रोगुप्पत्ता सिया, तं जहा--अजासणात
हितासणते अतिणिदाए अतिजागरितेण उच्चारनिरो-
देण पासवरणनरोदेणं अद्धाणगमणेणं भोयणपडिकूलताते
इ।देयत्थविक(वणयाते । ( सू० ६६७ ) |
अजद्चासणयाए त्ति ' श्रत्यन्त--सततमासनम्--उपवशन |
यस्य, सोाऽत्यासनस्तद्ध(वस्तत्ता तया, श्र्शोविकारादयो हि |
रागा एतया उत्पद्यन्त इति, श्र थवा-श्रतिमात्रमशनमत्यशन
आहितम--अननु कूल टालपाषाणाद्यासनं यस्थ स तथा,
शपे तथेव, तया, श्रहिताशनतया वा, अथवा ` साऽजीणं
भुज्यत यत्त तदध्यशनमुच्यत । जात बच्चनात | तदष्यशनम्
| अजीर्ण भाजने तदव तत्ता तयति, भोजनप्रातिकू जता-प्रकृ-
त्यनुचितभाजनता तया. इन्द्रिया थानां-शब्दादिविष याणां व
कापन-विपाकः इन्द्रियार्थावकापन कामविकार इत्यथः,
तता हि स्त्यादिष्वाभिलाषादुन्मादादिरागान्पत्तिः , यत
उक्रम्-** श्रादावांभलाषः १ स्या-च्चन्ता तदनन्तर २ तत
स्मरणम् ३। तदनु गुणानां कीत्तन ४-मुद्धगश्च ५ प्रलापश्च द६॥
उन्माद ७ स्तदु ततो, व्याधि ८ जडता ६ ततस्ततो
मरणम १० ॥१॥' इति विषयाप्राप्ता रोगात्पात्तः, अत्यासक्का-
वापि राजयदमादिरागात्पत्तिः स्यादिति स्था० ६ टा०।
रोध-दशी-रङ्क, दे० ना० ७ वर्म १९ गाथा ।
रो पिष्-धा० । पषण, “ पिषिणिवद-णिरिणास -णारण-
ज-राख-चड़ाः `` ॥ ८। ४ | १८५ ॥ इत पिषधाताः राञ्चाद
शः । रोक्षइ । चडुइ । पक्त-पिषइ | पिर्नाष्ट । प्रा० ४ पाद् ।
रोज् रोज् - पुं० | द्विखुरपशुभदे, प्रज्ञा० पद् । विपा० ।
| ऋश्य, द० ना० ७ वग १२ गाथा पुच्छाथ राज्का दन्य
न्त । आचा० १ श्रु० १ अ० ६ उ० । रात, ' राहआ रा-
भो ” पाइ० ना० २२७ गाथा ।
रोइ-रोइड-पु० । न० । लाट, बृ० १ उ० १ प्रक० । तन्दुलापिष्ट
| ना० ७ वर्ग ११ गाथा ।
रोड-देशी-ग्रहप्रमाण, द० ना० ७ वर्ग ११ गाथा ।
रोडी -देशी -इच्छायाम् , वणिशिविकायां च | दे० ना० ७
वग १५ गाथा ।
रोत्तव्ब-रोदितव्य-न० । ““ रुद-भुज-मुचां तो-न्त्यस्य ”
॥ ८। ४ | २९२ ॥ इति न्त्यस्य तो भवति । रोदनोये, प्रा०।
रोत्तुं-रुदितुम्-अव्य० । “ रुद-भुज-मुचां तो न्त्यस्य ” ॥
|
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।
८।४।२१२॥ इति अन्त्यस्य तो भवाति । रादन कत्तमि-
व्यथ, । प्रा० ४ पादं ।
रोततृण र।दित्वा- अव्य । “ रुद-भुज-मुचां तो ऽन्त्यस्य ॥ ८।
४ । २१८ ॥ इति अन्त्यस्य ता भवति । रोदन कृत्वत्यथे, पा०।
राह् रद्र पु० । रादयत्यातदारुणतया अश्र व
राद्र: । रिपुजनमहादारुणान्धकाराददशेनायुदझ्भवा द् बि
कताध्यवसाय रूपा रसाऽपराद्रः । रसभद्. अनु० ॥
अथ राद्र हत॒ता, लत्तणतश्चा ऽऽह
भयजणणरूवसदं-धयाराचिंताकहासमुप्पत्मो ।
समोहसभमविसाय-सरणकललिगो रसो रद्। || ८ ॥
रदा रसो जहा-
भिउडीविडंबिअप्रुहों, सद दोदर इअ रुहिरमा केषा |
हणसि पसु असुर णिभे।, भी मरसिञ्र ! ऽइरोद ! रो दोऽ कि &
रूप शत्रापशाचादाना शब्द्स्तप्रामच अन्चकार-बहू लत-
मानकुरुस्वरूपम् उपलक्षणत्वादरणयादयश्व पराथा इह ग्रु-
हानते, तषा भवजनकाना रूपादिपदा्थानां येयं चिन्ता-तत्ख-
तदेवात्यशनता, दीधैत्वे च प्राङूतत्वात् तया, सा चाजीण - | रूपपयालाच तरूपा, कश्रा-तःस्वरूपभणनलत्त णा, तथाप ज-
|
कारणत्वात् रोगोत्पत्तये इति, “ अहियासणयाए ' त्ति
क्षणत्वाद् दर्शनादीनि च गृह्यन्त, ते भ्यः सरुत्पन्न(-जातो रोद्रो
( ५८० )
श्सिध्रानराजन्द्रः।
राद
रस इति योगः । किलक्षण इत्याह-संमोहः--क्रिंकत्तेव्य-
त्वमूढता सश्रमो-व्याकुलल्वं विषादः-किमहमत्र प्रदेश
समायात इत्यादि खदस्वरूपः मरर-भयाद््ान्तगचश्ुक्र -
मालदन्तसामिलद्धिजस्यव प्राणत्यागस्तानि लिङ्ग लक्षणे
यस्य स तथा आ्राह-ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्नः
सम्माहादिलिङ्गश्च भयानक एव भवति,कथमस्य रोद्रत्वम् ?,
सत्ये, {ऊन्तु-पिशाचादिरोद्रवस्तुभ्या जातत्वाद् रोद्रत्वमस्य
विवत्तितमिव्यदाषः, तथा शत्रुजनादिदशन तच्छिरःकत्तना-
दिश्रव॒ृत्तानां पशुशकरकु रज्ञवधादिप्रव॒ृत्तानां च या रोद्राध्यव-
सायात्मका श्रकुरीभङ्गादलिङ्गा राद्रा रसः सा5प्युपलक्षण
त्वादत्रेव द्रष्रव्यः, अन्यथा स निरास्पद् पव स्याद् .अत एव
राद्रपरिणामवत्पुरुषचष्टा प्रतिपादकमंबोदाह रण दशयिष्याति।
भीतचेष्टाधतिपादकं तु तत् स्वत पवाभ्युह्यमित्यलं प्रसङ्गन ।
उदाहरणमाह-'मिडडी, गाहा-चिवलीतरङ्गितललाररूपया
श्चकुस्या विडम्वित-विङृतीकृतं मुखे यस्य तत् सम्वे(धनं
है श्रङटीविडम्वितमुख ! सन्दष्टा्ठः 'इत' इति इत्च इतश्च
“सदिरमाक्रस्' त्ति विक्षिप्तरधिर इत्यथः, टरसि--व्यापाद-
यनि पशुम् , अखुरा-दानवस्तन्निभः-तन्सदशः भीम रसि-
तं-शाब्दतं यस्य तत्सम्बोधनं ह भीमरासित ! श्रतिरोद्र !-
अतिशयरौंद्राकृत ! रोद्रोऽसि-गोद्रपरिणामयुक्राऽसीति । |
अनु० । भीषणाकारे, ज्ञा १ श्रु० ४ अ० | आ० चू
“ रोद्ा काया णरइयाणं
न्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् रौद्ररसो हि क्राधरूपो
यत आह-ेरोद्रः क्राधप्रकृतिरिति स्था० ४ ठा० ४ ड०।
ज्ञा० । दारुण, षा० १६ विव० । आवण० । रुद्रस्येद॑ कम्मे
[~
रौद्र वधवेधनवन्धदहनाङ्कनमारणादिक्माणि । , प्रव० ६ | ९
रोमसुहा-रोमसुखा-खी० । रामखखकाररयां ।
(~ 2 € ~ मदे
द्वार । ध० । हिंसाद्वतिक्रोर्यानुगत ध्यानमदे, आव० ४ अ०।
( विषः ˆ रुदज्भाण ' शब्दे ऽस्मिन्नव भागे गतः )
रोदज्काण-रौद्र॒ध्यान -न० । रोदयत्यपरानिति रुद्रः, प्राणि-
वधादिपरिणत आत्मैव ; तस्येदे कम्मे रौद्र, तच्च ध्याने
नेरयिकाणां राद्रा दारुणा अत्य- |
|
|
| रोमूसल-देशी -जघन,
च रौद्रध्यानम् । प्रव०। तदपि सक्त्तेषु वधवधबन्धनद्हना- |
ङ्नमारणादिप्रसिधानम् १, पेशुन्यासभ्यासद्भूतघातादिव
चनचिन्तनम्
परलोाकापायनिरपत्त परद्रव्यहरणरप्रणधानम् ३, सवाभिश-
ङुनपरम्पसोपधघातपरायणशब्दादिविषयसाधकद्रव्यसरत्त --
णप्रणिधानम च उच्छृन्नवधादिलिङ्गगम्यं नरकगातग--
तीवकापलाभा कुल भूतापघातपरायणु |
त्थलक्खणजघ्राज्ुयला
सस्थित--मनोज्ञसस्थान
भावः,
स्तलक्तणाङ्कित जङ्घायुगलं यासां ता रोमरहितवृत्तलशएसे-
स्थिताजघन्यप्रशस्तलक्तषणजङ्गायुगलाः । जी० ३ प्रति ७
अंधि० २ उ० । ( जङ्घादिरामकल्पनम् ‹ परकिरिया ` शब्दे
पञ्चमभाग ५१६ पृष्ठ दाशतम् । ) लेवरणवशष , सूज० १
श्रु० ७ अ०।
रोमच-रोमाञ्च-पुं° । रोम्णां ट्ष, नि० चू० ७ उ०।
रोम॑चिअ-रोमा श्ित्--जिं० । पुलकिते , “ रोमेचिओ ओरे-
इम, ऊलांलओं पुलइश् च कंटइओ `` पाइ० ना० ७६ गाथा।
रोमंथ-रोमन्थ-पुं? | भुक्रस्य घासादः पशुभिरुद्वीय्य चव-
पाइ० ना० १५१
ऋमेणाद्ध स्थूरस्थूरतरामिति
णे, व्य १० उ० । “ रामथो उग्गालो ”
गाधा।
| शोमकूब-रोमकूप-पुं? । रोम्णां तनूख्टाणां कूप इव कूपाः ।
रामरन्धरषु, तं० । ज्ञा० | उत्त० | आ० म० |
रोमग-रोमक-पु०-म्लेच्छदशमेदे, परश्च १ आश्र° द्वार
गामकदशोद्धवे, जञ० ३ वक्ष० । तत्र जाते श्रना्यजातिभेदे ,
खूत्र० २ श्रु० १ अ० | आ० चू०।
रोमराइ- रोमराजि-खी० | उद्रमध्यस्थकशावल्याम् , नि०
चू० ३ उ० | जघन, दे० ना ७ वगे १२ गाथा |
रोमलयासय-देशी-उदररे, दे० ना० ७ वग १२ गाथा।
| रामस-रोमश-न० । पमल, “ पम्हलय लामस ” पाइ०
ना० २४६ गाथा |
याम् , कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
दे० ना० ७ वग १२ गाथा ।
रोयइत्ता-रोचयित्वा--अव्य० । विधिभावनाभ्यां परियं कत्वे-
त्यथ. उत्त० २६ ० | दश० ।
रोयत-रुदतू-त्रि० । सशब्दमश्राणि विमुखति, ज्ञा० १ श्रु० ६
अ० | आ० म० । विदधाने, ज्ञा० १
श्चु० १ अण०। सूत्र ० ।
साथ्रुपात॑ शब्द
| रोयग--रोचक-न० । रोचयति, सम्यगनुष्ठानप्रवृत्ति न तु का-
मनकारणमन्रसेयम् , प्रव० ६ द्वार । हिंसाद्यतिक्रोर्यानुगत |
रोद्रम् । ध्यानभदे, स्था० ४ ठा० १ उ० | आवब० | भ०। |
दश० । स्था० | दश०। ( तञ्च * रुदञ्छाण `
भाग ५६८ पृष्ठ व्याख्यातम् । )
रोहपरिणाम-रोद्रपरिणाम-त्रि० गिरिभदसमानकषायरौ द्र-
ध्यानारुषितचेताबू त्तों, कर्म० १ कर्म० |
रोद्ध-रेशी-कृणिताक्षे, मले च । दे” ना० ७ वग १५ गाथा ।
र।म-रोमन्-न० । तनृरुहे, तं० श्रो” । “केशाः-शिरःकूचस- |
स्भवाः, रामाणि--शपशरीरसम्भवानि ” प्रव० ४० द्वार ।
स्र० | स्था० । “ तस्तूरुद्ाई रोमाई `` पाइ० ना० ८२१
गाथा | ते० । “ रोमरहियबद् लटुसेठियअजहझपस--
शब्दे ऽस्मिन्नव |
रयतीति राचकम् | ्रविरतसम्यगदशां ङष्णश्रणिकादीना-
मिव ( ध० २ अधि० ) रुचिमात्रकरे सम्यक्त्वभेदे, दश० ५
तस्व । श्रा० । यत्र सदनुष्ठाने रोचयत्यव केवलं न पुनः
कारर्याति । विशे० | आ० म०।
रोयमाणी-रुदन्ती- खी ० । अथूणि विमुञ्न्त्याम्, भ० ६ श०
३३ उ० | विपा०।
रोर-रार--प०। रङ्क , स्था० ६ ठा०। ते०। दे० ना० ।
^! ज़त्थय श्रज्ञाकप्पो, पाणव्वाए वि रोरदुन्भिक्ले। न य
परिभुजइ सहसा, गोअम ! गच्छं तय भणियं॥ १॥ ” ग०
२ आंध० | “ रोरो आंकचणो `` पाइ० ना० ३५ गाथा।
रोरव--रौरव-पं०। । सप्तमनरकपृथिव्यां नरकभेदे, सूत्र० १
श्रु० १ आ० १ उ०।
” शोमरहित « वृत्त-वत्तुल लष्ट-
्रजघन्यप्रशस्तलक्षण-जघन्यपद्राहतशषप्रश-
[ ° १
( .( {4
रोरुय-रोरुय-9० । जम्बूद्वाप मरा
थिव्यां नरकभेदे, स्था० ६ ठा० | स० । तमस्तमायां पराभ्यां
नरकभदे, प्रज्ञा० २ पद् । जी०।
गोल रोल-पुं० । शब्द , “ गाला रावा
गाथा | कलह , ग्व च | दे० ना० ७ वर्ग १५ गाथा।
गेलंब-देंशी-अ्रमरे, दे० ना० ७ वर्ग २ गाथा ।
स्रभिधानराजन्द्र: ।
दक्षिण पङ्कप्रभायां पृ- |
` पाइ० ना० २४
रोब-रुद -धा० । अश्रुविमाचन , “ रुद-नमोवैः ” ॥ ८॥
४ ॥ २२६ ॥ इति न्त्यस्य च. । रूबइ । रोबइ । रुदति | प्रा०।
रोवग-राहक- प° । “` रूहः पः ” ॥ ४ ॥ २॥ १४ ॥ इति--
हकारस्य वा पकारः | हेम० | “ पा वः ” ॥८॥६॥ २३१ ॥ इति |
पस्य वः । प्रा० । वक्त, दश० १ अ०।
रोवण-रोपण--न० । रोप्यत इति रोपण, भावे अनट् । स्था-
पन,व्य० १ उ० | रोद ण.रुह जन्मनि । राहति कथित् ; तमन्यः |
प्रयु्क । प्रयाक्ठ्व्यापार णिः । ` ख्टः पः ॥४।२॥१४॥ इति
हकारस्य पकारः । हँस० । स्थापन, व्य० १ उ०।
रोवमारी-रुदती- खी० । अश्रुविमोचन कुर्व॑त्याम् , विपा० १
श्रु० & आ० |
रोविंदय--रोविन्दक-न० । गेयभदे्, स्था० ४ ठा० ४ उ०।
रोविर रोदिनू-त्रि० । शीलार्थ णिनिः | “ शीलादर्थस्यरः
|८।२१४४। इति विहितस्य प्रत्ययस्य इरः |रादनशीले , प्रा० !
रोस-रोप-पुं०। स्विकस्पजञानत, प्रव० २ द्वार । क्रोघे,
स्था० ४ ठा० ४ उ० । “ बल जगद्धृंसनर क्षणक्तमं, कृपा
११ |
च सा सङ्गमके कृतागसि । इतीव सञ्चिन्त्य विमुच्य मानस, |
ख्व राषस्तव नाथ ! निर्ययो ॥ २ ॥
? कट्प० १ अधि० ६ |
क्षण । ऋधरूप गोणमाहिनीयकम्मरि, स० ५२ सम० । देश- |
भदे, तद्ठासिनि जन च । प्रश्च० १ आश्र० द्वार ।
रोसा-राषा-च्ी० । रोषात् शिवभूतरिव या सा रोषा। प्रव- |
ज्याभदे, स्था० १० ठा०। पं० भा० |
है... ... ...- ....-... अहणा रोसा तु पव्वज्ञा
सीसारक्खो रणहो, धम्मं सोऊण सावओ जाता ।
मा मारेही किंची, उज्मित्तु अनि करे दारं।
तप्पडिशणि रायकहिए, पेच्छाम अरसित्ति सावणए्ऽणुषां।
सम्मदहिद्ठी देवय, सा रक्खिज्ञो त्ति तो कड़े |
दिव्वप्पभावमेय, सभयं दट्ण कुद्धिती राया ।
शिज्ञाति पच्चणीए, सङा तसिं तु रक्टा ।
जपति णरिदमह सो, मा एतेसि तु रूसहा वुत्त |
जे जंपियमेतेहिं, तं सव्वं रवर ! तहेव ।
ताहे छोढ़ण पणो, रिकुट्ट असी तु शवरि दारूओ ।
पुरा शरवसभणं, विभति ओ्ओपेति किं एयं ।
जपति सड! ताह, रवर ! देवप्पसाद इचसो ।
पावविवज्ञी तु णरा, हवति देवाण वी पुज्ञा |
ता तद्रो भणति शिवो, सेवसु एमेव दारुग्रसि शाग्रो |
कडगादीहिं पूजितो, पावेतो सुमहंतमिस्सरियं । |
१५६
गोह
कोलगयम्मि य सड, पृक्ता णामण चंडकणहो त्ति ।
पडिवन्ना तं भागे, सामतणाऽऽनमतम्मि |
पस ति चडकण्टे, गंतूणं घत्तु सज़माणो त्ति ।
तट य भणति राया, कि दमि अहाह सो इणमो ।
ज खज्जयज्जभोज्ञ, गरिटज्ञ पुरम्मि तं तु सुग्गद्ियं ।
इय दातु त्ति य भणिए, वारुणिपाणे पमादें ।
रत्ति चिरस्स सगिहं, आगच्छति भज्ञमातरा तस्स ।
दुहिया जग्गंतीओं, उन्निद्दा अन्नदार त्ति |
चिरकरतदारं पिहए, अह लव॒ती आगतोी तु सो दारं।
उमग्घाडउ तो जणणी, लविंसु जत्थेरिसे वज्ञ ।
उम्घाडियदाराई, तदियं वच त्ति मातु रुसितो तु।
साहुग्घाडियदारं, ति गंतु साहणुवल्नपितुं ।
पव्वावेह लवेसं, ते वि य मत्तात्ति कातु वक्खेवं ।
बंती गोसग्गम्फी, पभाते पव्वावहस्सामो ।
सयमेव कुणति लोयं, ताहे लिंगं दलंति जतिणो तु ।
पव्वा्ेति य विदिशा, एसा रोसा तु पव्वज्ञा।
पन्मा० १ कल्प |
रोसाए--रक्षो सासारक्खो सा साहुसगास धम्म सा-
ऊण सावजशा, सा तज्जावबओआ सा त आस डाज्मऊण
कट्ठमय आर घर्, तस्स मत्ता स्त वारद्। च् जाव
रन्ना सिट्ट एस कट्टुम॒य असि »रइ, रन्ना भणियं-पेच्छा-
मो तेण समहिट्ठी देवया आराहिया, नमेसिऊण _कट्टिआ
लाहमओआ जाआ। पच्छा राया पलाएइ सा चुप्पश्मा वलक्खा
जाओ । सावआओ पाएसु पाड़श्रा भणद-सच्चमेयं एवं जाव
तस्स पुत्ता चडकराणा पव्वइओ । जण वोडिया उप्पाइया ।
प० चू० १ कटप० ।
रासाण- मृज-धा० । शुद्धौ, "खज रुग्घुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पुंस-
फुस-पुस इल-रासाणाः ॥ ८। ४ | १०५ ॥ दात रासा-
रण इत्यादेशः | रासाणइ । पक्ते-महझुइ । मा।ए | प्रा० ८ पाद् ।
रासाणअ-मृष्ट-धा ० । आमषण, रासाणअ मासाणशअ्र
पाइ० ना० २२४ गाथा | पी अ
राह--रोह-पु० | चतुर्थपरावक्ते परिहार गोशालकजीब, भ० १४५
श० । अङ्कुर, वाच० | भगवतो महावीरस्वामिनः स्वनाम-
ख्यात $नगार, भर० |
तशं कालणं तेणं समणएणं समणस्स भगवओ महावी-
रस्स अतवासी रोहे नामं अणगांरे पगइभदृण पगहमउणए
पगइविणीए . पगहउवसंत पगडपयणुकोहमाणमायालाभे
मिउमदवर्सपनने अन्लीण भदए विण) ए समणस्स भगवओ
महावीरस्म अदृरसामंत उडं जाणू अहोसिर काणकाट़ा-
वगए सजमणं तवसा त्रप्पाणं भावमाणे विहइइ | तए णं
से रोहे नामं अणगारे जायसड° जाव. पञ्जुवरासमाशे
एवं वदासी प्रि भते ! लाए पच्छा अलोए पुव्वि अ-
( ४८९.)
अ्भिधानराजन्द्रः।
राह
लाए पच्छा लोए १, रहा ! लोए य अलोए य पर्व
पते पच्छा पते दं। वि एए सासया भावा, अणाखसुपुव्वी
एसा राहा ! पुच्वि मत ! जीवा पच्छा अजीवा पुच्वि जीवा |
पच्छा जीवा ९, जव लाए य लाए यतहव जीवाय अजी-
वाय, एवं भवासद्विया य अभवसिद्धिया य सिद्धि असि-
द्धी सिद्धा असिद्धा, पुच्वि भत ! अडए पच्छा कुक्कुडी, पु-
च्वि कुक्कडी पच्छा अडए ?, राहास णं अड कओ १,
भयवं ! कुक्ङडाओा, सा शं कुक्कैडी कओ ?, मेते ! अडया
श्रा, एवामव राहा ! से य अडए साय कुक्कुटी, पुच्वि
पते पच्छा पेते दुवे ते सासया भावा, अरणाणुपुव्ी एमा |
राहा ! । पुच्वि भेत ! लयते पच्छा अलायते, पुष्य अ- |
लोयते पच्छा लो्यत !, राहा ! लयते य अलोयंते य°
जाव अणाशपुव्वी एमा राहा !
। पुच्ि भत ! लयते
पच्छा सत्तमे उवार्मतरे पृच्छा, रोहा ! लयते य सत्तम |
उवासंतेर पुच्िपिदो वि एते °जाव अणाणुपुर्व्वी एमा
राहा ! । एवं लायत य सत्तमे य तणुवाए, एवं घणवाए
घरणोद हिसत्तमा पुढवी, एवं लेते एककणं संजोएयन्य
इमि ठशेहिं तं जहा ““ ओवासवायघणउदहि, पूवी
दीवा य सागरा वासा। नरहयाई अत्थि य, समया कम्माई
लस्साओं ॥१॥ दिद दंसण णाणा, सन्नसरीरा य जोग-
उवग्रागे | दव्यपएसा पज्ञव-अद्गा कि पुन्वि लयते १।२''
पुच्ि भते ! लायत पच्छा सव्य5द्धा ?। जहा लयतेणं से-
जोइया सव्ये ठाणा एतं एवं अल।यर्तण वि सज।एयव्वा
सव्व पुच्ि भते : सत्तम उवासंतंरे पच्छा सत्तम तणुवाए १,
एवं सत्तमे उवासतरं सन्वह सम सजाएयव्वं ०जाव स-
व्वद्धाए । पुच्वि भतं ! सत्तमे तणुवाए पच्छा सत्तम
घणवाए, एयं पि तहेव नयव्व॑ ०जाव सव्वद्धा, एवं उव-
रन्न एककं सज।यतण ज। जो हिद्विल्लों त॑ तं छत
नयव्वं ०जाव अतीयअणागयद्धा पच्छा सव्वद्धा ०जाव
अणाणुपुव्वी एसा राहा ! संवं भते ! सवं मेतं ति !
०जाव विहरइ । ( स्तू० ५३)
` परगइभद्दए ` त्ति स्वभावत एव परापकारकरणशीलः
* पगइमउठए ` ति स्वभावत एव भावमादेविकः, अत ए-
व ` पगइविणीए ` त्ति तथा * पगइउवसंत ` त्ति क्रोधा-
दयाभावात् * पगइपयणुकाहमाणमायालाभे ` सत्यापि क-
पायादेय तत्कार्याभावात् प्रतनुक्राधादिभावः ` मिउमदव-
संपन्न ` त्ति मदु यन्मार्दूवम्-श्नत्यथधमदकृतिंजयस्तत्संप-
श्नः-- प्राप्ता गुरूपदशाद् यः स तथा, ` श्रालीण ` त्ति गु-
रुसमाध्ितः सलीना वा, ' भद्दए ` तति अनुपतापक्रो गु-
रुशिक्तागुणात् , ' विणीए ' त्ति गुरुसवागुणात् ` भवसि-
द्धिया य ` त्ति भविष्यतीति भवा, भवा लिहद्धः- नि्वृति-
रेषां त भवसिद्धिकाः, भव्या इत्यथः, ` सन्म उवासंतर'
रोश्रिअसप्प ०
त्ति सप्तमपृथिव्या अधोवर्त्याकाशमिति । सूजत्रसंग्रहगाथे
के ? , तत्र आवासे ` त्ति सप्तावकाशान्तराणि ` वाय"
त्ति तन॒ुवाताः घनवाताः * घणउद॒हि `
सत्त ' पुढवि ` क्ति नरकपृथिव्यः सप्तेव दीका य' जति
जम्बूद्वीपादयो 5संख्याता असख्यया एवं * सागराः ` ल-
वणादयः 'वास' ति वर्षाणि भारतादीनि सप्तव 'नरइयाइ'त्ति
चतुर्विशातिदएड॒कः ' अत्थि य ' क्ति अस्तिकायाः पश्च ' स-
मय' त्त कालविभागाः कमाण्यछो, लश्याः षट , दृष्टयो-मि-
ध्यादण्रयाद्यस्तिस्रः, दर्शनान चत्वारि, ज्ञानानि पञ्च, स-
ज्ञाश्तखरः, शरीराणि पञ्च, यागाख्रयः, उपयागो द्वा, द-
व्याणि प्रद् , प्रदेशा श्ननन्ताः, पर्यवा अनन्ता एव, ' श्रद्ध"
त्ति अतीताद्धा अनागताद्धा सवीद्धा चति, ˆ कि पुव्वि ला-
येति ` त्ति, श्रये सृजाभिलार्पानर्देशः , तयैव पश्चिमस्-
त्राभिलाप दर्शयन्नाह- पुव्वि भत ! लायत पच्छा स-
व्वद्ध ` त्ति, एतानि च सूत्राणि शल्यज्ञानादवादनिरण्सन
विचित्रवाह्य(ध्या^िमकवस्तुसत्ता ऽभिधानाथानि ईश्वरादि-
कतत्वनिरासन चानादित्वाभिधानार्थानीति । भ० १श०६ उ०॥
रोध-पु० । प्रतिराध, दे० ना० ७ वरे १६ गाथा ।
रोहग-रोहक-पुं० । उज्ञायन्याः प्रत्यासन्ननट्ग्राम भरतनट-
खुते, आ० क० अ०। आण०्म० | न० । विश०। ( तत्कथा
` उप्पत्तिया ` शब्द् द्धितीयमाग ८२६ प्रष्ठ दर्शिता । )
रोहगुत्त रोहगुपर - प° । च्रन्तरञ्जिकायां नगर्या श्रीगुप्ताउ5-
चार्याणां शिष्यत्वं प्राप्त ेराशिकनिहवमतप्रवतंके तद्धागि-
नय, आ० म० १ अ०। आ० चू० । विश० | आव० । (एतद्ध-
व्यता ` तेरासिय ` शब्दे चतुर्थमागे २३६० पृष्ठ उक्ता )।
आय्यसखुहस्तिशिष्य, करप० २ अधि० ८ क्षण । षड्लूके,
या हि नामान्तरण-रोदगुक्षः । स्था० ७ ठा० | उत्त०।
कहल्प० । चम्पायां नगर्य्यां सिह सनस्य महामन्त्राणि, आचा०
ह श्रु० ४ अ० २ उ०।
रोहण-रोधन-न० | रज्ज्वादिना आवरणे, स्था० ५ ठा० १ उ०।
स्वनामख्याते दिवसमुह त्तं, पु० | द० प० । रुह्यतऽसो, रूह-
ह्यूट । परव्चतभदे, वाच० । काश्यपगोत्र स्वनामख्यात आ-
य्येखुहाध्तिशिष्ये, कल्प० २ अधि० ८ क्षण ।
रेहण गिरि-रोहण गिरि-पुं० । जम्बू& प मन्द्रपर्वते भद्रशा-
लवन, ईशान्यकाणे अष्टम दिग्हास्तिकूटे, स्था० ८ ठा०।
रोहा-रोहा-स्त्री० करटकोद्धरण उदाहृतायां खनामख्याता-
यां परिव्राजिक्रायाम् . ग० २ अधि० । वृ०।
रोहिअ दशी-ऋश्य, दे० ना० ७ वर्ग १२ गाथा । “ रोहिओ
राज्ज" पाइ० ना० २२७ गाथा।
रोहिअंसप्प(साप)वायदह-रोहितांशाप्रपात द् एु० । रादितां
शाद्रमस्थान, स्था०। 'रोदियंसप्पवायदहे चव ' त्ति टि पवद्वषेध-
रपर्यतार्पारवसिपद्महदो त्त रतारणन निग॑त्य राहितांशा महा-
नदी द्र षट् सप्तत्युत्तरे याज्ञनशत सातिरेकम् उत्तराभिमुखी
पर्वतन गत्वा योजनायामया श्रद्ध्रयादशयाजनांवष्कम्भया
ऋक्राशबाहल्यया जिहिकया विद्ततमकरमुखप्रणा लेन हाराका-
रेण च सातिरेकयाजनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपताति यश्च
रादिन्प्रपातकुरडसमानमानः तस्य मध्ये रोहितांशद्रीपो रो-
नि घनादधयः
क्
रोहिअंसप्प० 0 72४0४ 27 ॥
दिदद्धापसमानमानः रोहितांशाभवनन प्रागुक्कमानेनापलक
नः. यतश्च रोहितांशा नदी राहिन्नदीसमानमाना उत्तरतार
रान निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं परविशति स राहितांशाप्रपातहद |
दति । स्था० २ ठा० ३ उ०।
राहिअंसा रोहितांशा-स्थो० । जम्बृद्धोप मरोरूत्तर शिखरि- |
वर्षधरपवंत, पुणडरी कहदाज्निर्गतायां स्वनामख्यातायां महा-
नद्याम . स्था० ३ ठा० ४ उ० | स० । स्वनामख्यात द्वीप,
पु० | ज० ।
राहितांशानामक-नदी-कुणड-द्वीपानां व्यक्कव्यतामाद-
तस्स णं पउमदृहस्स उत्तरिन्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा म-
हाणई पवृढा समाणी दोष्पि छावत्तेर जोअणसए छच
एगूणवीसइमाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता
महया घडमुहपवत्तिएगं मरत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग- |
जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, रोहिअंसा णामं महा- |
शई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्मिआ पष्पत्ता,
सा णं जिव्मिआ जोअणं अयामेखं अद्धतेरसजोअणाई
विक्खभेणं कोस वादल्नणं मगरम॒हविविउद्ठडसंठाणसंठिआ
सव्ववइरामई अच्छा, रोहिअसा महाणई जहिं पवडइ,
एत्थ णे मह एगे रोदिञ्रसापवायकुंड णाम कुंड पप्पत्त,
सवीस जोअणसय आयामविक्खंभेणं तिपि असीए्
जोअणसए किचि विसेसणे परिक्खवेणं, दस जोअणा-
ईं उव्वहेणं अच्छे कुंडवध्मओ० जाव तोरणा, तस्स शं
रोहिअसापवायकुंडस्स बहुमज्छदसभाए एत्थ णं महे
एगो रोहिअसा णामं दीव पप्मत्त , सोलस जोअणा-
ईं आयामविक्खंभेण साइरेगाई प्पासं जोयाप्माई परि-
क्खेवेणं दो कोसे उसिए जलंताओ सव्वरयणामणए
अच्छे सरटे सेस तं चव ०जाव भवण अह्र अ भाणि-
अव्वो त्ति । तस्य णं रोहिअसप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं
तोरणेणं रोहिआसामहाणई पवृदढा समाणी हेमवर्य वासं
एज्माणी २ चउद्सहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरमाणी २
सदावडवदुवेत्द्रपव्वयं अद्भधजंअणेण असंपत्ता समाणी
पत्नत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हमवयं वासं दुहा विभय-
माणी २ अट्टावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे ज-
गई दालइत्ता पचत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ , रोहि-
अंसा णं पवहे अद्धतेरसजेअणाई विक्खंभणं कासं
उव्वेहेण तयणंतरं च शं मायाए २ परिवद्धमाणी २
मुहमूले पणवीस जोअणसयं विक्ंभेशं
जोअणाई उत्पेहेणं उभओ पार्सि दोहिं पउमवरवेइ-
अहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता ( सू० ७४ )
रशाहेअ इत्यादे, व्यक्त नवरम् आयाम याजन [वस्कम्भ |
मान<5द्धजयादशान याजनान साद्धंद्वादश याजनान बाह-
| राहिणिज्ञ-र।हिणीय--पुं० । श्नन्तःपुरमदह ल्िकषु, वर्धिके
अद्वाइजाई |
( ५८३ .)
अभध्रानराजन्द्रः)
गाहणा
ल्य कोशम् , गज्ञाजहिकाया अस्या द्विगुणत्वात। अथ कु
रडस्वरूपमाह--' राहिओसा ` इत्यादि, प्रायः प्रकटाथ, पर-
मायामविष्कम्भयार्विशव्यधिकं, गह्लाप्रषपातकुणडादस्य द्वि-
गुणत्वात् , अथात्र द्वीपमाह--' तस्स ण ` इत्याद ,
प्रकटा थम् , स केणट्टुणं भेत ! पवे बुश्चड् रोहिअंसादी-
इत्यायभिलापन क्षयः, सम्प्रत्यस्या यन तारणन
निगमो यस्य च क्षत्रस्य स्पशना यावांश्च नदीपरिवारा य-
च सक्रमस्तथाऽऽह- तस्स ण ` इत्याद , तस्य-
रादितांशाप्रपातकुरडस्य श्रोत्तरादण तारणन रोहितांशा
महानदी प्रव्यूढा-निगता सती हेमवर्त वधम् इयती २-
गच्छन्ती चतैदशभिः सालिलासहस्त्र: आपूर्यमाणार शब्दा-
पातिनामान वृत्तवेताब्यपर्वतम अद्धयोजननासम्प्राप्ता सती
पश्चिमाभिमुखाी आचृक्तासनी हमवन्तं वर्ष द्विध्रा विभजन्ती
र्रष्टाविशत्या सलिलासदस्रः समग्रा-परिपूणा जगतीम्
अधो दारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्रं प्राचशति , शस्या
एव मूर्लावस्ताराद्याह--' राोहिअंसा णे ` इत्यादि, रोहितां-
शा प्रवह-मल-ऽद्धत्रयादशानि याजनानि विष्कम्भेन , प्रा-
च्यक्षत्रनदी तो द्विगुणावस्तारकत्वात् , कशमुद्बधन प्रवह-
व्यासपश्चाशत्तमभागरूपत्वात् . तदनन्तरं मात्रया २-क्रमे-
णरप्रतियोजन समुदितयारुभयाः पाश्वयो थै नार्विशत्या चुद्धवा
प्रतिपाश्व घनुदेशक्रबरद्धयव्यथः परिवद्धमाना २ मुखमूल-
समुद्र प्रवश पश्चविशरत याजनशत विष्कम्मेन, प्रवहव्या-
साइशगुणत्वात् , अद्धतृतीयानि योजनानि उद्धेघन म॒ख-
व्यासपश्चाशत्त मभागरूपत्वात् , शष प्राग्वत् । जं० ४ वक्त०।
रोहिअसा(सप्प)पावयकुंड-रोहितांशाप्रपातकुएड-न०।स्वना-
मख्याते कुड, जे० ४ वक्ष० । ( अस्य विष्कम्भादि ` रोहि-
असा ` शब्दऽनुपदमव गतम् )
। येः
सह राजा मन्जयत | वृ० १ उ० १ प्रक०।
रहाणया--रहाय॒का-खा० ॥ त्राान्द्रयज्ञावभ
प्रति० । प्रज्ञा० ।
रोहिणी-रोहिणी--स््री० । प्रजापतिदवताक पञ्चतारे स्वना-
मख्यात नक्तत्रविशष.स्था० २ ठा० ३ उ०। अनु० | चे०्प्र० |
रोहिणीनक्खत्ते पंचतार | स० ५ सम० |
रोहिणीचन्द्रस्य वल्लमा । कल्प० १ अधि० ३ क्षण । शक्रा-
दिलोकपालसोममहाराजाग्रमहिष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ०।
ज्ञा०ण भ० | ती०। गवि, ““णश्ष् गोलाय रो-
हिणी सुरही" पाइ० ५५ गाथा । सुपुरुषस्य किपरुष-
न्द्र्स्याग्रमहिष्याम , स्था०४ ठा०१ड० । भ०, नवमबलदवस्य
मातार, स० | आव० । प्रव०। जी० । ति० । प्रश्न० ।
राधरखुतायां वखुदवपलन्यां बलदेवमातरि, प्रश्न० । तत्कृत
संग्रामा 5भूत्
जी० १
तथाहि--अरिष्टपुर नगर रुधिरो
नाम राज़ा मित्रा नाम देवी तत्प्रा हिरण्यनाभः
दुहिता च रोहिणी, तस्या विवाहाथ रुधिरेण स्वयंवरो
घाषितः , मिलिताश्च जरासन्धप्रभ्रतयः समद्रविजयादया न-
राध्रपतयः उपावष्टाश्च यथायथम, राहिणी च धाच्या क्रम-
णापदाशतघु राजसु रागमकुवती तू्यवादकानां मध्य व्यव-
स्थितन समुद्राविजयादीनामनुजन दशान्तरसञ्चारिणा तत्रा ९६
( ४८५४ )
गाहणा
यातन वसुदवन राजसूनुना पाणविकाकारं विभ्रता-- मु-
रधमरगनयनयुगल !, शौ व्रामहागच्छ मेव चिरयस्व । कुलाव-
क्र मगुणशालिन !. त्वदश्रमहमागता यदह ॥१॥ `` इत्यक्षरा-
जुकारिध्वनो पवादित पणव समुन्फुल्ललाचना सज्ञाताचुरागा
सरभसमपश्रुत्य स्वटस्तन वसुदेवस्य गल मालामवल-
म्वितचती । ततस्त राजान इर्प्याशल्यवितुयमानमानसा व-
खदेवेन साद्धं सग्रामायापतस्थुः, तन च रणाङ्गरसिकन स-
वान् विनिर्जित्य रोहिणी परिणीता, जातश्च तस्या रामाभि- |
धाना वलदवः खनुरिति। प्रश्न०४आश्र०द्वार | स्वना म ख्या ता-
यां महाविद्यायाम् , कल्प० १ अधि० ७ क्षण । स्था० | आ०
चू० | आव० । स० । चित्रकवलल्याम् ,ल० प्र० । रोहितकपुर-
स्वनामख्यातायां गणिकायाम ,आ०क० ५ अ०| आव० | झआ०
चू० | वाखुपूज्यजिनपोज्याम , ती० ३४ कल्प । (अस्या वृत्तम्
चम्पा ` शब्द तृतीयभाग १०६८ पृष्ट गतम् ) कुणिडनपुर
सुभद्रभ्रेष्ठिपुत्यास , घ० र० | |
रोहिणीज्ञातमिदम--
इह कुंडिणि त्ति पवरा, नयरी नयरीइराइया अत्थि | |
तत्थ निवा जियसत्तू , जा सन्त् दुजलणजरस्स ॥ १॥
पायं विगहविरत्ता, सक्रह गुणरयण-रोहणसमाणों ।
सिटी खुभदनामा, मनारमा भारिया तस्स ॥ २॥
पुत्ती वालविहवा, नामणे रोहिणी अहीणगुणा ।
जिनसमए लद्धद्ठा, गद्दियद्भा पुच्छियट्वा य ॥ ३ ॥
पूयइ जिणे तिस. अवेकमज्कयएमाइ आयरइ।
आवस्सयाइ किञ्चे, निद्च निश्चितिया कुणइ ॥ ४ ॥
धम्म संचइ न हु कं, पि वंचए अंचए गुरूण पप ।
नियनाम॑ व वियारइ, कम्मप्पयडीपमुहगंथ ॥ ५ ॥
दा देइ पटाण, सुरसस्सिलिलुज्ञले घरइ सीलं । |
जहर्सात्त तवड तव. भावइ खुहभावणा खुमणा ॥ ६ ॥
इय निम्मर्लागहिश्वम्मा, अचालियसम्मा दढ वलियमाहा |
अदवितहजिणमयपयडण--पाडिया सा गमइ दिवस ॥ ७ ॥
अह चित्तवित्तिश्नडबीइ-भुवणअक्कमणअइसयपयंडा ।
माहा नाम नरिदा. पालइ निक्कंटय रज्जे ॥ ८ ॥ |
कइयावि नियमदासु-ग्घट्टणा पवरौ तु राहिणि साणि् ।
वरवयणाझा मादा, विचिंतए घणियमु्विग्गा ॥ € ॥ |
अइ सद ! दियय ! सदागम-वासियाचत्ताइ पिच्छुह इमीए।
कित्तियमित्त अम्हा-ण दोसगहण रसप्पसरा ॥ १० ॥
जह कह वि हमा एम-बव चिद्दिही कित्तियं धुवं काले ।
ता में निस्सत्ताणं, कावि न पिच्छिडिइ घूलि पि॥ ११॥
इय चितेतस्स इम-स्स आगआझ रायकेसरी तणओ ।
परणमंतों वि न नाओ, ता एसा भणइ अइदुहिओ ॥ १२॥
इत्तियमित्त# चिता, कि कज्जइ ताय ! तायपायाणं ।
जत जए वि न अन्न, सम च विसमं च पिच्छामि ॥१३॥
ता से कहेइ मोहो, जहट्टियं रोहिणीइ वुत्तंत ।
ते साउ सिरे वज्ञा>-हड़ व्व जाओ इमा विमणो ॥ २१४ ॥
रह सयले पि ह सिन्न, सुविसप्ने मुकककुसुमतंबाल ।
जाय मधकक थक्कवि-य नद्गगीयाइ-वावारं ॥ १५ ॥
इत्थतगाम्म {सस्रा णएगरा इत्थयाए ए्क्काप |
श्रहृदाससदे, दासय स्नुाणयं च माहन ॥ ६६ ॥
तत्ता चितद गुरुम-न्नु, पसर पारमुक्रदादनासासा ।
के मह् दुद्विए एवे, अदखुदिया नयु पकीलीत् ॥ १७ ॥
आमभधानराजन्द्र
` अट तीइ जाइग़ीए, अहिट्टिया सा गया ४ ।
| -~-~
अह कुवियस्साऽऽकूय. नाङऊणे निययसामिसालस्स ।
दुद्रा भमसाधमता, गयभता वन्नवइ णव ॥ १८॥
दव ! निवजुबइजणवय--भत्तकहाकर णचउमुहा एसा । `
भुवणजणमाहिणी जो-ईण व्व विग्गह त्ति मह मजा ॥६६॥
एस सिख अइइट्टा, पमायनामा ममव वरपुत्ता । है
ज पण हसिय मयग्ग, ते पुच्छेमा इम चव ॥ २० ॥ ४
ता हक्कारिय रना, ते पट्टा भा तुर्माहि किट हसिये। त |
वज्ञरइ तत्थ इत्थी, पुजा सम्म निसामेतु ॥ २ ॥ षो
सिखुमि तनक, कि ताओ ईतक्तिआ वहइ चितं । ।
इय विम्हयववसाप, मए सपुत्ताइ दासय तु॥ २२॥ कद
ज ताप पसाया रा-हिशि दम धम्मओ खणद्धण । त
पांडड महे पि स्वमा, अहवा कये वराई म॥ २३॥
ज उवसता मणना--णिणा य म खुयजुयाइचरणाओ । रा
भसियपुव्वा तसि, सखे पिन काऽवि जाणइ ॥ २७ ॥ 4
ज पुण मषः चउदस, पुव्वधरा खडह डाविया घम्मा | 9
अज्ज वि धूलि व्व रुले-ति तायपायाण पुरओ्रो त ॥ २५॥ 9५
ते सोड चिंतइ नवा, धन्ना टं जस्स मज्भ सिन्नम्मि। |
भुवणजणजणणमेसल, बलाउ अवलाउ वि इमाओ ॥ २६॥ `
इय सार्मात्थयरन्ना, सा तणुअंगी तसणूरूहसमग्गा ।
सयहत्थदिज्नवीडा, सहरिसरजिधियसरोदेला ॥ २७ ॥
तुह सतु सिवा मग्गा, पिट्टाइ िय वल पि आगमिही।|
इय लद विर्साज्ञया-रा-हिणीड् पासम्मि सा पत्ता ॥ २८॥
अन्नन्नसावयाहि, सरमे कुणगइ विविहविगहाओं ॥ २६ ॥
नय पण्ड् ्जाणद्. देव विन वदप पसच्रमणा।
बहुहासवालवहुला, कुणइ विधाय परासि पि॥ ३० ॥
नय कोऽवि कि पि पभणइ, महिडिधूय क्ति तो अइपसगा।
सञ्भायभ्राणरदटिया, भिया एगेण सट्ढण ॥ ३१॥
कि भि अइपमत्ता, धम्मद्वाण वि कुणस्ि इय वत्ता ।
जे भावयाण जणहि, सया नसिद्धाउ विगदाञ्चा ॥ ३२ ॥
तथा चाक्रम-
सा तन्वी सुभगा मनाहररखचिः कान्तन्तणा भोगिनी,
तस्या दाीसनतम्बविम्बमशथवा विध्रा्तितं खुश्चुवः।
धिकतामष्र्गात मलीमसतनु काकस्वरां दुभगा-
मित्थं सरी जनवर्णानन्दनकथा दृर5सतु धमोर्थिनाम् ॥ ३३॥
(अहो-) क्षी रस्यान्ने मधुरमधुगावाज्यखरडान्विते चत्
(रसः) भ्रष्ठे दध्ना मुखसुखकरं व्यज्ञनभ्यः किमन्यत् ।
न्नाद्रन्यद्रमयात मनः स्वादु ताम्वूलमकं
त्याज्या प्राज्ञरशनविषया सवदेवति बात्ता ॥ ३४॥
रम्या मालवकः खुधान्यकनकः काञ्च्यास्तु कि वरयतां,
दुगा गुजरभूमिरुद्धटभटा लाटाः किराटापमाः।
कश्मीरे वरमरष्यतां सुर्खानिथो स्वगापमाः कुन्तलाः,
वज्यो दुज्जनसङ्गवच्छुभाघया देशी कथवाचघा ॥३५॥
राजाऽयं रिपवारदारणसहः त्तमङ्ुरश्चारहा,
युद्धं भीममभृत्तयोः प्रतिकृत साध्वस्यते नाधुना ।
दृष्टये श्रयतां करातु खुचिर राज्यं न
भूयो वन्धनिवन्धने बुधजने राज्ञां कथा होयताम् ॥३६॥
सिंगाररखु ति इया, माहमई हासकेलिसजणगा ।
परदोसकहणपवणा, सा विकटा नव कांहियव्वा ॥ २७ ॥
ता जिणगणदरसुणिमा-इसकदा असिलयाइ छादित्ता।
( ५५ )
रोहिणी _
विगहावज्ि त॑ं हासु.धम्मभाणाम्मि लीणमणा ॥ ३८ ॥
सा मणड तश्चा है भाय !, जिणागह पिर्डागह व पावित्ता ।
नियनियसुहददुहकहरा-ण हंति स्ुहिया खरे माहिला ॥३६॥
न-य वत्ताण निमित्त, का वि हु कस्स वि गह समांज्लियद् ।
ता पासय अम्ह तुमए, न कि पि इय जपियव्व ति ॥ ४०॥
ना सब्वहा अज़ाग, त्ति चितिड मोणर्साठओं उ सदा ।
इयरी चिराउ गेह, समागया पभाणिया पिडणा ॥ ४१ ॥
वच्छे ! विगहाविसए, सुम्मइ तुद उवरयो भिसंलाण ।
एसो सच्चा अलिओ, च हणइ पय डम्मि नखु माहम् ॥४२॥.
उक्क च--
विरुद्धस्तथ्यो वा भवतु वितथा वा याद परे,
प्रासद्ध: सवास्मन् हरति माहमाने जनरवः ।
तुलात्तारीस्यापि प्रकटनिहताशषतमसा,
रघस्तारक् तजा न हि भवति कन्यां गत इति ॥ ४३ ॥
ता पुत्ति सुत्तिपडिकूल., वात्तिशिं वक्ताणि च नरयस्स ।
मुचसु परदासकटे . खुहे जइच्छासि जओ भिय ॥ ४४॥
यदीच्छसि वशीकत, जगदकन कमणा ।
परापवादसस्यभ्य-श्चरन्तीं गां निवारय ॥ ४५॥
यावत् परगुणपरदा-पकीत्तन व्याव॒त मना भवती ।
तावद्धरं विशुद्ध, ध्यान व्यग्र मनो धियताम् ॥ ४६॥
ता राणी पयपद, पटमे ता ताय ! आगमा वजा ।
ज परगुणदासकहा, इमाउ सव्वा पयट्टेति ४७ ॥
नय काऽवि इत्थ दीसइ, माणधरो ज इमे ऽवि म्रिसिणा।
परचारियकहरणनिरया, चिट्ठ॑ति विसिदट्राचद्रा वि ॥ ४८॥
इच्चाइआलमालं, भणती अवहाीरिया य पिउणा ऽवि |
गुरूमाईहि वि एसा. डवेहिया भमइ सच्छेद ॥ ४६ ॥
अह रायअग्गमहिसीइ, सीलविसए विभासिरी कइया ।
दासीहि सुया देवीइ, साहिए सा कड रन्ना ॥ ५० ॥
कुविएण नवण तश्रा, हक्कारिय से पिया उवालद्धा |
तुह धूया श्रम्दंपि हु. विरुद्धमवे समुल्लवडई ॥ ५१ ॥
देव ! न अम्हं भियं, करेइ एस त्ति सिंद्ुणा वुत्त ।
वडुयं विडविडउमिमा, निव्विसया कारिया रज्ञा ॥ ५२॥
तत्ता निदिजती, पए पष् पागएण वि जण ।
पिच्छिज्जती सुयणहि, नहतरलाइदिट्वीए ॥ ४३ ॥
कह दारूणो (ववागा, विगहासत्ताण इत्थ जीवार ।
इय वदती निव्वय-रसभरं सक्कहजणारं ॥ ५४ ॥
जृणे धम्मा वि इमाण, परिसा जे इम फलं पत्तं ।
इह बाहिवी यघाय, कुव्वती ठाणठाणाम्मि ॥ ५५॥
बहुविहसीयायवरखु-प्पिवासवासाइदुक्खसंतत्ता ।
मरिऊण गया नरय, तन्नो उव्वद्विऊण पणो ॥ ५६ ॥
तिरिपएसु बहुयभव, अरंतकालं निगोय्जीवेसु ।
भमिड लाहिय नरभव, कमसा किर रोहिणी सिद्धा ॥५७॥
अह सो सुभदसिट्टी, नियपुत्तिविडवशे निएकण ।
गृरुचरग्गपरि गश्रा, जाओ समणा समियपावो ॥ ५८ ॥
तवचरणकर णसज्का-यसक्कहा संगओ गयपमाश्रो ।
विगहाविरत्ताचित्तो, कमेण सुहभायणं जाओ ॥ ४६ ॥
एवं ज्ञात्वा दुःकथाव्यापृतानां
दुःखानन्त्यं दुस्तरं देहभाजाम् |
बैराग्यायैवेन्धुरा बन्धुमुक्ता
नित्ये वाच्या सत्कथा एव भव्यः ॥ ६० ॥
१४७
अ्राभवानराजन्द्र
गोहिएणी
इत राहरा ज्ञातम । ध० र० + आाध०८ २६ गुण । भावष्य त
पाड ताधक्ररजाव. प्रच ५५ द्वार । ५७0४ । गाजग्रुह नगर
घनसाथवाहपुत्रस्य घनग्च्षकस्य भायायाम . ना० |
तद्क्कव्य ता चत्रम---
जबू ! तशं कलेण तेणं समं गयागेंह नाम नर्येरे
होत्था, सुभूभिभाग उज्ञाण, तत्थ शं रायगिंद नगर ध.
स नामं सत्थवाहे परिवसति, अहु०, मदा भाग्या अ-
हीणपंचेंदिय ०जाव सुरूवा, तस्स शं धप्मस्स सत्थवाहस्स
पुत्ता भद्दाए भारेयाए अतया चत्तारि सत्थवाहदारया
होत्था, ते जहा धणपाल धणंदव धणगाव धरणरक्खिए,
तस्म शं धष्मस्स सत्थवाहस्स चडरटं पत्ताणं भाग्याओ
चत्त रि सुणह।ओओं होत्था, ते जहा--उ'ज्कया, भ(गवम्त-
या, रक््खतिया, रोहे।शिआ । तत ण तस्म धाष्पस्स
अन्नया कदाई पुव्वरत्तावरलकालममय।म इमयास्वे अ-
ब्भत्थिए ०जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहे रायागेह
बहूर्ण ईमर °जःव पमिईण सयस्म कुइंबस्स बहुसु क-
जसु य करणिज्ञसु काइंबसु य मंतणसु य गुज्के र
स्स निच्छए ववहःरसु य आपुच्छणिज्ञ पडिपुच्छणिजञ
मेढीपमाण आहार अ,लंबण चक्खुम्द भूते कज्ञबडावए,
तण शज्ञति जं मए गयेमि वा चुयंसि वा मयनि वा
भग्गंसि वा लुग्गंसि वा सडियंमि वा पडियं।से वा विद
सत्थासि वा विप्पव्रसिययि वा इमस्म कुडुवस्स करं मन्न
| आहारे वा आलंबे वा पडिबंध वा भविस्सति ?, तं सेयं
खलु मम कललं ०जाव जलंते विपुलं अयणं पाणं खाईमं
साहमं उवक्खडावेत्ता मित्तणातिणियगसयणवग्गं चउण्ं
सुण्णं कुलधरवग्गं आममंतेत्ता त॑ मित्ताणइणियगसयण-
वर्गं य चउण्हं सुरां कुलघरवग्गं ।वेपुलेणं असणं पाणं
खाइमं साइमं धूवपुप्फवत्थगंध ° जाव सकारेत्ता सम्माशे
त्ता स्मेव मित्तणातिणियगसयशवरगं ० चउएह य सुणहा-
णं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउण्ै सुराणं परिक्खणड -
याए पच पंच सालिअक्खए द लदत्ता जानामि ताव का-
किं वा सारक्खह वा संगोवेह वा संवडूति वा१, एवं
सये संपहेइत्ता कललं ° जाव मित्तणाति ०चउणह सुरां
कुलधरवग्गे आम॑तेड आमंतेत्ता विपुलं असणं पाशे
खाईमं साईइमं उवक्खवडावेड ततो पच्छा एहाए भोयणमं-
उव्रंसि सुहासणवरगए मित्तणातिशियगसयणवग्गेण
चउणह य सुणहाण कुलघरवग्गेणं साद्धे तं विपुलं असर
पाणं खाईइमं साइमं ° जाव सकारेति सकारेत्ता तस्सेव
मित्तनातिणियगसयणवग्गस्स चउणह य सुण्हाणं कुल-
घरवग्गस्स य परतो पंच सालिअक्खए गशहति गणिहत्ता
जद्रा सण्हा उज्मितिया, तं सद वेति सद्दावित्ता एवं
= >
हिणी
-सुभ णं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए
ग़छद्ाहि गएहाहिता अयुपुव्वेखं सारक्वमाणं। संगोवेमा-
णी विहराहि, जया णं ऽदं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअ-
क्ण जाएज़ा तया गं तुमं मम इम पंच सालिअक्खए
|]
~<}
वद् मि
पडिदिज्ञाएज्ञासि त्ति कट्ट सुण्टाए हत्थे दलयति दल- |
पित्ता पडिविसज्ञति, तत णं सा उज्मिया धष्पस्म तह
त्ति एयमट्ट पडिसुणेति पडिसुणित्ता धष्पस्स सत्थवाहस्स ।
हत्थाओं ते पंच सालिअक्खए गरहति गर्त्ता एगतम- |
वकमति एगतमवक्रमियाए इपेयास्वे अन्भत्थिए- ० जाव
समुप्पज़ित्था एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला
सालीणं पडिपुष्मा चिति, तं जया शं ममं ताओ इमे
पंच सालिअक्खए जणएस्सति तया शं अहं पज्नंतराओं
अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कट्टु एवं सं- |
पहेइ संपेहित्ता तं पंच सालिअक्खए एगंते णएडति एडि-
त्ता सकम्मसंजु ता जाया यावि होत्था | एवं भेगवति-
याए5वि, वरं सा छेल्लिति छ।ल्लत्ता अणुगिलति अणु-
गिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया । एवं रक्खियाऽवि, नवरं
गणहति गेरहित्ता इमेयास्वे अब्भत्थिए-०जाव समृप्प-
जित्था एवं खल ममे ताञ इमस्स मित्तनाति{शयग-
सख्शवग्गस्य चठणह य सुणहाणं कुलधरवग्गस्स य |
पुरतो सद्दावेत्ता एवं वदासी - तुम्प पुत्ता मम हत्थाओं
० जाव पडिदेज्ञ/एज्ञास ।न कड मम हत्थ।स पच साल-
( ५८६ ) 2.
अाशभधानराजन्द्र) ! ।
अक्खए दलयति तं भवियव्वमन्थ कारणेणं ति कट्ठ |
एवं संपेहेति संपेहित्ता पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे |
बंधइ बंधित्ता रयणकरंडियाणए पक्खिवेइ पक्खिवित्ता ऊ- |
सीसामुलें ठावेइ ठावित्ता तिभ पडिजागरमाणी विहर । |
तए श से घ्म सल्थवाहे तस्यव मित्त ०जाव चउत्थ
रोहिणियं सुरं सदृवेति सद्यावित्ता “जाव ते भ-|
|
वियव्य॑ एत्थ कारणेणं ते सयं खलु मम॒ एए पंच सा-
लिअक्खए सारक्खेमार्ण।ए संगोवेमार्णीए संवदरेमाणीए
ति कट्ट एवं संपेहति संपहित्ता कुलघरपुरिसे सदिति स-
दावित्ता एवं वदासी -तुन्भे णं देवाणुप्पया ! एते पंच
सालिअक्खए गेणहह गे शेहत्ता पदमपाउससि महावुद्टिका-
यसि निवदर्यसि समाणंसि खङ्गं केयारं सुपरेकाम्मियं
करह करेहत्ता इम पंच सालिग्रक्खणए वावेह वाविहत्ता द्।चं
पि तच्च पि उक्खयनिहए करेह करेहत्ता वाडिपक्सेवं करेह क-
|
रेहता सारक्खमाणा संगे।बमाणा अणुपुव्न॑ण संवड्रह, तते |
श ते कोडिया रोहिण्णए एतमट्ट पडिसुणंति ते पंच सालि- |
अक्खए गेणहंति गण्हित्ता अणुपुन्वेण॑ सारक्खंति संगो-
| पलं असणं पाणं खाहम साइम मित्तनाइशियगसयणवग्ग-
वंति विहरंति, तण णं ते कोइईबिया पदमपाउसंसि महा- |
वुट्टिकायांसे शिवहयंसि समाणंसि खुड़ायं केदारं सुष--
रिकाम्मियं करेति करेंतित्ता ते पंच सालिअक्खए ववति
दुच्च पि तच्चं पि उक्खयनिहए करति करतित्ता वाडि-
परिक्खवे कति करेंतित्ता अणुपुव्वेण सारक्खेमाणा /
संगेविमाणा संबड्रेमाण विहरंति,तते शं त साली अणुपु-
व्वेणु सारक्खिज़माणा संगाविज्ञमाणा संवड्डिजमाणा सा- `
ली जाया किणहा किण्होभासा ०जाव निउरंब्रभूया पासा- |
दीया ४, तत णं साली पत्तिया वत्तिया गब्मिया पद्या
आगयगंधा खीराइया बद्धफला पका परियागया सन्नइया
पत्तइया हारियपव्वकंडा जाया यावि होत्था, तत शेत काः .
बिया ते सालीए पत्तिए ०जाव सन्नइए पत्तइए जाशित्ता-
तिक्खेहिं शवपञज्ञणणए हिं असियणएदिं लुणंति लुं तित्ता क
रयलमलिते करति करेंतित्ता पुणंति, तत्थ णं चोक्वा-
शं प्रयाणे अखेडाणं अफोडियाणं छडछडापूयाण
सालीणं मागहए पत्थए जाणए,तत णं ते कोडंबिया ते सा-
ली णवएसु षडणएसु पक्रखिवंतिर त्ता उपलिपंति उपलिपं-
तित्ता लंछियम्ुद्दिते करेति करेंतित्ता कोट़ागारस्स ए-
गदे ससि ठा्वेति ठार्वेतित्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा
विहरंति । तत ण त कोडबिया दोच्ेसि वासारत्तमि पद-
मपाउसमि महावुद्धिकायंमि निवइयंसि खुड़ा्ग केयार॑
सुपरिकम्मियं करति ते साली वर्वति दाच्च पि तच्च
पि उवक्खयणिहए ° जाव लुणंति ०जाव चलणतलमलि-
ए करति करेंतित्ता पुणंति, तत्थ णं सालीशं बहवे इ-
डवा ( मुरला ) °जाव एगदेसंसि खर्वति ठार्वेतित्ता सा- `
रक्खमाणा सगेवमाणा विहरंति । तत शं ते कोडिया
तचसि वासारत्तसि महावुद्टिकायंसि बहवे केदारे सुपरिक-
म्मियं ०जाव लुणेति लुणतित्ता संवर ति संवह तित्ता ख-
लय करेति करेतित्ता मलेंति ०जाव बहवे कुभा जाया ।
तंते ण॑ ते केोडबिया साली कोद्रागारंसि -पक्खिवंति |
०जाव विहरंति, चउत्थे वासारतते बहवे कुंभभया जाया। |
तते शं तस्स धष्पस्स पंचमयंसि संवच्छरसि परिणममा- |
शंसि पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयास्वे अन्भत्थि- |
7 ०जाव समुप्पज़ित्था-एवं खलु मम इओ अतीते पंचम
सेवच्छरे चउणहाणं सुरदा परिक्खणट्टयाए ते पंच साली- ।
अक्खया हत्थे दिन्ना तं सेयं खलु मम कल्ल ०जाव जले '
पंच सालिअक्खए परिजारत्तए ०जाव जाणामि ताव का- |
ए किह सारक्खिया बौ संगोविया वा संवद्धिया ०जाब |
ति कट्दु एवं संपेहति संपेहेतित्ता कन्नं ° जाव जलंते विं |
स्स चउण्ह य सुणएदणं कुलघर ° जाव सम्माणित्ता ५
ऋः
#. + 7 |
( ५८७ }
अभिधानराजेन्द्रः।
स्सेव मित्तनाय० चउरह य सुणहाणं कुलघरवग्गस्स य
^ पुरतो जदं उज्किय सद्दावेइ सदवेहत्ता एवं वयासी-
एवं खलु अहं पत्ता ! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि
इमस्स मित्त चउण्ह य सुराणं कुलघरवग्गस्स य पुर-
तो तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि जया णं
अहं पुत्ता ! एए पंच सालिअक्खए ज।एज्जा तया शं
तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिज्ाएसि त्ति क्ट
तं हत्थंसि दलयामि, से नृणं पुत्ता ! अत्थ समद १, हंता
अत्थि, तप्यं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्ञाए-
हि, तते श सा उज्ितिया एयमट्रं धष्पस्स पडिसुणेति
पडिसुणेतित्ता जणेव कोट्रागारं तेणेव उवागच्छते उवा-
| «० जी. ६. ५०५
गच्छित्ता पन्नातो पंच सालिअक्खए गणहति गेण्हित्ता जणे -
व धष सत्थवाहे तेणव उवागच्छति उवागच्छित्ता धष `
सत्थवाह एवं वयासी-एए श ते पंच सालिअक्खए
त्ति कदु धष्मस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयति ।
तते णं धष्प उज्मिय सवहसाविय करेति करेत्ता एवं
वयासी- किष्पं पक्ता ! एए चव पंच सालिअक्खए उदा-
हु अनने १, तते ण उज्मिया धष्पं सत्थवाह एवे वयासी -
णवे खलु तुन्ये तातो ! ! इओ5तीए पंचमे संवच्छर इम-
स्स मित्तनातियगसयणवग्गणं चउण् य सुणहाणं
कुल °जाव वियरामि, तत णं5हं तुब्भ एतमद्रं पडिसु-
शेमि परिसुणेभित्ता ते पंच सालिग्रक्खए गेणहामि एगंतम-
वकमामि,तत णं मम इमयास्वे अन्भत्थिए ० जाव सममुप्पज्ि-
त्था एवं खलु तया णं कोट्टागारंसि ०(जाव) सकम्मसंजु-
त्ता, तशो खलु ताओ ! ते चव पंच सालिअक्खए एए
श अन्ने | ततशस ध उञ्भियाए अतिए एयमटू
सोचा शिसम्म आसुरुत्ते °जाव मिसिमिसेमाणे उज्मकि-
तियं तस्स भित्तनातिणियगसयणवग्गस्य चठएह य सु-
झहाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्कि-
ये च द्याणुल्भियं च कयवरुज्कियं च समुच्छिय च
सम्मनज्जियं च पाओवदाईं च रहाण।वदाईं च बाहिर-
बेसणकार्रि स्वेति , एवामेव समणाउसो ! जो अहं
निग्गंथो वा २ ० जाव पव्वतिते पंच य से मह-
व्वयातिं उज्मियाईं भवंति से श इह भवे चेव बहू-
श समणाण ४-० जाव अणुपरियडइस्सई जहा सा
उज्मिया । एवं भोगवहया वि , नवरं तस्स कंडितियं
वा कोइ तियं च पीसंतियं च एवं रुचतियं रंघंतियं परिवे-
संतियं च परिभायंतियं च अन्भंतरियं च पेसशकारिं महा-
शसिणिं ठवेंति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो पंच
य से महतव्वयाई फोडिय।ई भवंति । से र इह भवे चव बहूशं
समणाणं ४-०जाव हीलेइ ४ जहा व सा भोगवातिया।
एवं रक्खितियावि,नवरं जेव वासघरे तशव उवागच्छह्
उवागच्छित्ता मजूसं बिहाडइ विहाडित्ता रयणकरंडगा-
ओ ते पंच सालिअक्खए गरहति गरिहित्ता जणव धष
तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धष्प-
स्स हत्थे दलयति । तते शं से धष्छ राक्खितिय एवं वया-
सी- किष पुत्ता ते चव ते पंच सालिअक्खया उदाहु
अनने त्ति, तते शं रक्खितिया धष्यं एवं वयासी-ते चव
ताया ! एए पंच सालिअक्खया णो अनने, कहन्ने पुत्ता !,
एवं खलु ताओ ! तुब्भे इझो पंचमम्मि ०जाव भवियव्वं एत्थ
कारणेणं ति कट्दु ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे ०जाव
तिभ पडिजागरमाणी य विहरामि । ततो एतेशं करणे-
शं ताओ ! ते चव ते पंच सालिअक्खए शो अन्न, तते शं
से धे रक्ितियाए अतिए एयमटं सोचा हड्डतुट्ट ०तस्स
कुलधरस्स हिरन्नस्स य कंसद्सविपुलधण ०जाव साव-
तेज्जस्स य भडागारिशि वेति, एवामेव समणाउसो !
०जाव पंच य से महव्वयातिं रक्खियातिं भवति से णं
इह भवे चेव बहूणं समणाणं -०४ अचणिज्जे जहा ०जाव
सा रक्खिया । रोहिशिया वि एवं चव, नवरे तुब्भ ता-
ओ ! मम सुबहयं सगडीसागडं दलाहि जणं अहं तुन्भं
ते पंच सालिअक्खए पडिणिञ्जाएमि । तते शं से ध
रोहिशिं एवं वदासी कषयं तुमं मम पुत्ता ! ते पंच सालि-
अक्खणए सगडसागडणं निज्जाइस्सासे १, -तते णं सा
रोहिणी धर्म एवं वदासी--एवं खलु तातो ! इओ त॒न्भे
पंचमे संवच्छेरे इमस्स मित्त ०जाव बहवे कुंभसया जाया
तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ ! तुब्भे ते पंच सालि-
अक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि । तते शं से धष सत्थ-
बाहे रोहिणियाए सुबहुये सगडसागर्ड दलयति, तते शं
रोहिणी सुबहुं सगडसागर्ड गहाय जेणेव सए कुलघरे
तेणेव उवागच्छइ कोट्टागारे विहाडेतिरत्ता पन्ने उन्भिदति
उब्भिदित्ता सगडीसागडं भरेति भरतित्ता रायगिह नगरं
मज्मं मज्मेशं जेव सए गिहे जेणेव ध सत्थवाहे
तेणेव उवागच्छति । तते श रायगिंहे नगरे सिंघाडग०
जाव बहुजणो अन्नमन्नं एवमातिक्खति ०-धन्ने श देवा !
धष्ते सत्थवाहे जस्स शं रोहिणिया सुण्हा, जीए स पंच
* सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्ञाएति । तते ण से धष्प
सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाए-
तिते पासति पासित्ता हड्डुतड्न ०जाव पडिच्छति पडिच्छित्ता
तस्सेव मित्तनाति ०चउण्ह य सुणहाणं कुलघरपुरतो रो-
हिणियं सुण्दं तस्स कुलघरस्स बरहुसु कज्जेसु य ° जाव
4.
अरभिधानराजन्द्रः।
रगाहणा
| |
रहस्ससु य. आपुच्छशिञ्जं °जाव वद्ावितं पमाणभूय
ठावेति, एवामव समणाउसो ! ०जाव पच महव्वया स-
वाया भवतिस ण रह भव चव बहूणं समणाण ०जाव
वीतिवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया । ( ०६३०९)
इदमपि सुगमम् , नवरम् “ मप ` त्ति माय ` गयंसि `
त्ति गत त्रामादौो एवम-च्युत-कुताऽप्यनाचारात् स्वप-
दात् पतित मसुत-पराखुतां गत भभ्न-वात्यादिना कु
ब्जखअत्वकरणनासमर्थी भूत ` लुग्गसि व ' त्ति स्मरे जीणे
तां गते शटित-व्यार्धावशषाच्छीणतां गत॒ पतित--
भासादादरेमञ्के वा ग्लानभावात् विदेशस्थे- विदेश ग- |
त्वा तत्रैव स्थित विध्रापित्त--स्वस्थानविनिर्गते देशान्त-
रगमनध्रवृत्त आधारः-आश्रयो भूरिव आलम्बनं-वरत्रादि-
कमिव प्रतिबन्धः--प्रमाजैनिकाशलाकादीनां लतादवरक इव
कुलग्रहे-पिठगुहे तद्धर्गो मातापित्रादिः, सेरक्षति अन-
शनतः, सज्भापर्यात संवरणतः, सचद्धयति बहुत्वकरणतः,
छाज्नइ ` त्ति निस्तुषीकराति ' अर्ण॒गलइ ` त्ति भक्तर्यात,
क चित्- फाल्लद ' इत्यतदव दश्यत, तत्र च भक्षयतीत्यथः। प-
त्तिय ' त्ति सञ्ञातपत्राः ˆ वात्तय ' ॥ |
मध्यशलाकापरिवेष्टनन नालरूपतया वृत्तानि भवान्ति त-
द्व्ततया जातच्रत्तत्वाद्वत्तिताः शाखादीनां वा समतया बृ-
त्ताभृताः सन्ता व्तिता .अभिधीयन्त, पाठान्तरे ण--
याव ` नि सञ्जानत्वच इत्यथः,
किता इत्यथः, प्रसूताः--
कणिशानां पत्रगर्भभ्या विनिगी-
मात् . आगतगन्धा जातस्ुरभिगन्धाः आयातगन्धा वा दूर |
यायगन्धा इत्यथः, त्ताराक्ताः-सखनज्नातक्तारकाः वद्धफला
त्ति ब्राहणां पत्राण |
तइ- |
गर्ता जातगर्भा डोड- |
|
तीरस्य कलतया बन्धनात् जातकला इत्यथः, पक्वाः-
काठिन्यमुपगताः, पयायागताः पर्यायगता वा सर्वनिष्प-
रतां गता इत्यथः, ` सल्लशपत्तय ` क्ति सटलकी वृत्तविश-
घस्तस्या इव पत्रकाणि- दलानि कुतोऽपि साधर्म्यात् स-
आतानि येषां ते तथति, गमनिकेवरयं पाठान्तरेण--शस्य-
किताः--शष्कपत्रतया सञ्जातशलाकाः पत्रकिताः-सञ्ञा-
तकुत्सितकाल्पपत्रा:, ˆ हरियपव्वकेंड ` त्ति हरितानि--ह-
रितालवणोनि नीलानि चवैकारडानि नालानि--यषां त
तथा, ज।ताश्चाय्यभूवन् , ` नवपज्जाणपदि ' ति नवं--प्र-
व्यग्र पायनम्--लोहकारेणातापितं कुट्टित तीक्णधारी-- '
कृत चुनस्तापत्ताना जल ननबालन यषा तान तथा त
आसणह (त दत्रः अखडाण
स्फुटतानाम्-च्रसज्ञातसयाजाकाना छुड छुड इत्यवमनुकर-
ति सकलानाम् अ- `
णतः सृपादिना स्फुटाः-स्फुरीरताः शाधिता इत्यथः, स्पृष्टा |
चा, पाठान्तरेण-पूता वा ये ते तथा तेषां * मागदए पत्थ-
ष ' क्ति “ दो अंसईओ पसइ, दो पसईआ उ सदश्रा हो
इ | चउसइआ उ कुडश्रा, चउकुडआओ पत्थओ मेओ ॥ १॥”
इति । अनन प्रमाणन मगधदेशव्यवहतः प्रस्थो मागधप्र-
स्थः.
मयादिना रन्ध्र भञ्जन्ति ` लिपेति `--घटमुखे तत्स्थागतं
च छगणादिना पुनर्मसुणीकुर्वन्ति, लाञ्छितं रखादिना ,
उपलिम्पन्ति--चर कमलस्य तत्पिधानकस्य च गो- '
मुद्रित सन्मयमुद्रादानन तत्कुर्वन्ति, म॒रलो--मानविरशषः, `
खलंक्त॒चान्यमलनस्थाराडल, चतुष्प्रस्यम् श्रादकः-श्राद-
काना षष्टथा जघन्यः कुम्भः शशीत्या मध्यमः शतेनोा- '
ग्रषणानि कमाणि
त्कृ इति , क्षारोपष्टिकाम-भस्म्परिष्ठापकास ` कचवरो-
ज्भिकाम-अवकर शाधघधिका म॒ सर्माक्षकाम् ` पातगृाङ्गण ज-
लच्छुटकदायिकाम , पाठान्तरण-- संपुच्छिय `
सम्प्राच्छुकाम-पादादिलूपषिकास-सम्मार्जिकास- ग्रहस्या- ,
न्तवदिश्च बहुकारिकावाहिकाम् पादादकदायकाम्-पाद्-
शोचदायिकाम स्नानादकदायकाम्-प्रतीताम् , बाह्यानि
कराति या सा ` बाहिरपेसणगा-
रिय त्ति भिया, करडयन्तिकाम् इति--श्रनुकाम्पि-
ता कर्डयन्तीति-तन्दुलाद्रीन् उदुखलाद कताद्यन्तीति _
करडयन्तिका ताम् , एवं कुट्धयान्तकां-तिलादीनां- _
चूखनकारिकाम् पेषयन्तिकाम्-गाधूमादीनाम् घरदादिना
पेषणकारिकाम् सुन्धयन्तिकाम्-यन््क वीहिकाद्रकादीनाम्
निस्तुषत्वकारिकाम् रन्धयन्तिकाम्-ञओ्रादनस्य पाचिकाम् `
पांरवेषयन्तिकाम्-मोाजन्पारवेषण कारिकाम् परिभाजयन्ति- `
काम्-- पदिन खजनगरृदेषु खण्डखाद्यैः परिभाजनका-
रिकां, महानस नियुक्का महानालकी तां स्थापयति, ` स
गडासागड ` ति शकनश्यश्च-गन्त्यः शकटानां समूहः शाक
च शकरटीशाकटं ` गड्डीओ मांड्या य ` त्ति उक्त भवति,
* दलाह त्ति ` दत्त प्रयच्छृतव्यथः, * जाणेति ` यन * श॒".
इत्यलङ्कारे, प्रतिनिर्यातयामि--समर्पयार्माति । अस्य च
ज्ञातस्यैव विशपणापनयनं निगदति । यथा--
“जह सदा तह गुरुणा, जह णाइजणा तहा समणसंघो ।
जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तद वयाइ ॥ ६॥
जह खा उज्मियनामा, उज्मिप्रता जी जहत्थप्राभहाणा ।
पसणगारत्तण, असंखदुक्खक्खणी जाया ॥ २॥
तह भव्वों जो कोइ, सघसमक्ख गुरूविदिन्नाई ।
- पडिवज्िड समुज्भइ, मदृब्वयाई महामोंहा ॥ ३ ॥
सा इह चेव भवम्मी, जणाण घिक्कारभायणं होइ।
परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीखु संचरइ ॥ ४॥ `"
उक्लं च-- धम्माओ भट्ट "` वुत्त, ^“ इदेवऽहम्मो ” वुक्ते॥
“ जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा ।
पेसणविससकारि-त्तणण पत्ता दुह चव ॥ ५॥
तह जो महव्वयाई, उवभुंजइ जीविय त्ति पालितो ।
आहाराइसु सत्ता, चत्ता सिवसाहणिच्छाए ॥ ६ ॥
सो पत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिगि त्ति |
विडसाण नाइपुजो, परलायम्मी दुही चव ॥ ७॥
जद वा रकिखयबहुया, रांक्खयसालीकणा जहत्थक्खा ।
परिजणमष्ा जाया, भोगसुहाई च संपत्ता ॥ ८॥
तह जा जीवा सम्म, पडिवज्ञित्ता महव्वए पंच ।
पालद निरदइयारे, पमायलसं पि वज्ञैतो ॥ ६ ॥
सो श्रप्पदिपकरई,.इद लोयम्मि वि विऊद्दि पणयपओ ।
एगंतखुही जायइ, परम्म मोक्ख पि पावेइ॥ १०॥
जह रोहिणी उ खुरा, रावयसाला जहत्थमभिहाणा ।
वाइ त्ता सालक्ण, पत्ता सव्वस्स सामत्त ॥ ११ ॥
तह जो भव्वो पाविय, वयाई पालेद् अप्पणा सम्म ।
अम्लसि वि भव्वाणे, देइ अणगेसि हियहेउं ॥ १२॥
सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणे त्ति लहइ संसदं ।
श्रप्पपरेसि कल्ला-णकार श्रो गोयमपहु उव ॥ १३॥
तित्थस्स बुद्धिकारी, अक्खेवणआओ कातत्थियाईणं ।
रोहिणी श्राभधानराजन्द्रः । रोदें
विडलनरसतरियकमो, कमेण राद्ध पि पाई ॥१४॥” त्ति । रोहियप्पवायदह -रोदहितप्रपातहद -एु> । खानामख्यात हद,
ज्ञा० ९ श्रु० ७ अ० । आ० चू० । आव० । प्रश्न । स०। | स्था० । रोहिद--उक्तरूपा यत्र प्रपतति यश्च सविर्शातिक
रोहित -रािर्णःतपम्- न> । सप्तमासादेकसप्तव॒पाण याजनशतमायामविष्कम्भाभ्यां किश्विन्न्यूनाशीर्त्याधर्कान
` यावत् रोदिणीनक्त्रदिनोपवाते, तत्र च वास्तुपूञ्यजिनप्र- | त्रींण शतानि परिक्तपण यस्य च मध्यभाग रोहितद्वीपः
तिमा प्रतिष्ठा च च विधेयेति । पञ्चा० १६ चिव० । प्रव०। | घोडशयाजनायामावप्कम्भः सांतरकपञ्चाशच्याजनपारत्त-
~ ~ ^~ श (~ = ७. = [र * | र [4 नन ग-
राहाणारक्खादण रो-हिणीतवते सत्तमासवारसाई । पा जलौन्ताद द्वक्राशान्छूता यश्च गांहद्ववताभव
सिरिवा शेर क्ादेवताभवनसमानन विभूापितापरितिनावभागः स रा-
सिरिवासुपुजञपूया- पुव्व कारइ अभत्तद्ठा ॥ ५९ ॥। हित्प्रपात हद इति । स्था० २ ठा० ३ उ०। (शत्र सूत्रम् ' रा-
रोहिणी-देवताविशेषः, तदाराधनाथ तपा रोहिणीतपः, | हिअसा ' शब्दे ऽस्मन्नद भागऽनुपदमव गतम् । )
तास्मिन राहणीतपास सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावद्रा- रोहिया-रोहिता-खी० । जम्बृद्धीप पूर्वावरण लवणस-
दिणीनत्तत्ो प लात्तित दिन उपवासः क्रियत । इह च वाखुपू-
ज्यजिनग्रतिमायाः प्रतिष्ठा पूजा च विध्रया। प्रव०२७९१द्वार। |
रोहिणीरमण-रोदिणीरमण-पु० । चन्द्र, इंदू निसायरो ख-
मुद्र समुत्सपन्त्यां स्वनामख्यातायां महानद्याम् , स० १४
सम० । स्था०। रोहिन्नदी महापद्महद्रादात्तणतारणन निग-
त्य षोडश पश्चात्तरांण याजनशतानि सातिरकाण दात्त
स-हेरो विह गहवई रयणिनाहो । मयरूंछुणा दिम्यरा , | शता गिरिणा गत्वा हाराकारधारणा सातिरकयाजनद्वि-
राहिणिरमणो ससी चदा ” पाइ०्ना० ५ गाथा। । शतिकेन प्रपातन मकरमुखध्रणालेन महाहिमवता रा-
रोहिणयचोर-रोहिणेयचोर-पुं० स्वनामख्यति राजगृहवा- | दहिद्मिधानकुण्ड निपतति , मकरमुखाजिहरा योजन--
स्तव्ये चोरे, व्य० २ उ० | ती० । प्रज्ञा० । ( सृच्मं परिनिर्वा. | मायामन श्रद्ध्रयादशयोजनानि--विष्कस्भन क्रोश वा-
परे लोकिक रोहिणिकचोरस्याभयकुमारण कृतं तच्च ' ओ- | दर्येन , रादित्यपातकुगडाच्च दक्तिणतारणेन निगेत्व
हावण ` शब्दे तृतीयभाग १३३ पृष्ठ दितम् ) देमवतव्ैमध्यभागव्तिन ^ खा प
, शोहितंशकूड-रोहितांशकूट-पुं । जम्बूद्धीप द्िमवद्वषधर- | जनेनाप्राष्याष्टाविशत्या नदीसहस्र: संयुज्याउधो जगतीं
पव्वत दशमे कूटे, स्था० २ छा० ३ उ०। अ. 2
| प्रवादेऽद्धजयादशयाजनविष्कम्भा क्राशाद्धघा ततः क्रमे-
रोहियंसा-र। हिताशा- हा च लता मुख पञ्चविशत्याधकयाजनशतावष्कम्भा साद्धै-
[मा अ ताता) | द्वियायनाद्वेधा, उभयता वदिकाभ्यां वनखरडाभ्यां च यु-
रोहिय-रोहित-न० । रुधिर, रक्तवर्णं च । वाच० । मत्स्य- | क्ला, एवं सवी महानद्यः पर्थताः कूटानि च वदिकादियुक्का-
भदे, पुं० । उत्त १४ श्र ० । जी ० । प्रज्ञा० । चतुष्पदविशेषे , | नीति । स्था० २ ठा० ३ उ०। रा०।( ` महाहिमवंतकूड '
च॒। प्रश्ष० ६ आश्र० द्वार । स्था०। | शब्दे ऽस्सिन्नव भाग २२७ प्रष्ठ सूत्रता दर्शितिवा । )
बहयकूड-राहितकूट-3० । 00200 अ द्ज्षिगा भस रोहियाससेण-रोहिताश्वसेन--पुं? । इच्चाकुवंशात्पन्नस्य श्री -
हाहिमवति वपेधरपव्वेते स्वनामख्याते सप्तम कृ , स्था० | ~ > अ पेश: मी
२ठा० ३ उ० | ज० । जम्बूद्वीप हेमवद्धषनायकदेवावासभूत | क स 2200 6७/९७ ७ ४5 ४3 हा
स्वनामख्यात कूटे, स्था० ८ ठा०। | रोहीडग-रोह।डंगलल क लक 4
रोहियदीव -रोहितद्वीप-प० | स्वनामख्याते द्वीपे, जे ०2 वक्त०। । स्वनामख्याते नगर, नि» । आ० क० । विपा० । संथा०।
( श्रत्र सूत्रम् ' रोहिअसा ` शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे गतम् ) । रोहेउं-रोधयित्वा-अव्य० । राध कृत्वत्यर्थ, बु० ३ उ०।
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(0
इति श्री मत्सो धमंबृदत्तपागच्छी य - क लिकालसव झकद्प-
श्री मद्धहारक-जन खताम्बरा55चाय श्री श्री १००७ श्रीम-
द्विजयराजन्द्रसरी श्वर विर चिते ' अजिधानराजन्द्रे ?
रकःरा55द्शिब्द्सझ्ूलन समाप्तम् ॥
32588 ४ > 4 ५ क %॥08& 00 क्र ८३३५ २९२
(3. ‡२२५२२२८२२२२२२२२२२२९२२२२२८२२९२२८२२९९९२
२४८
के
आभधानराजन्दः ।
ल-ल-पुं०। अन्तस्था मृद्धेस्थानीयोऽयं वर्णः | ला-क। इन्दर,
वाच० । लवने , अम्बरे ,
आलये , आश्लेष, पुं० | गते, लूने च | त्रि० | एका० ।
लहअ-लगित-अि० । अवलम्बिते, स० ७० सम० । परिहिते,
अङ्ग पिनद्धमित्यथें, इत्यन्ये । दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा ।
लइअन्ल-देशी--बृषभे, दे० ना० ७ वर्ग १६ गाथा ।
लहणी- दशी- लतायाम् , दे० ना० ७ वं १८ गाथा ।
- लठ॒ड-लकुट-पुं० | यण्रौ, श्रो । “ कोणो लउड़ा ” पाइ० ना०
२३० गाथा । ज्ञा० | स० । प्रश्न० | प्रहरणकरण, स्था०३८ा०
४ उ० । ज्ञा० । ज० । प्रज्ञ० ।
लउडकदू-लकुटक।्रु--न ० । लकुटदरणडे, प्रश्न ° ३ आश्र०द्वार।
लउठय-लकुच-पुं० । व्र्तविशष, श्रो० ।
लउसिका-लकुसिका--खी० । लकुशदेशोत्पन्नायामनार्य्यसखि-
याम् , ज्ञा० ९ श्रु० १ आअ०.। रा०।
लंककालियावात- लङ्ककालिकाषात--पु "चक्रवद् भ्रामके वा-
यो, कल्प० १ अधि० ६ क्षण ।
लका-लङ्का--खो० । भरतवर्षस्थाविदूरे दक्षिण लवणसमु-
द्रे च्रकूटागयुषिते पुरीभदे, “ लङ्कायां त्रिकूटगिरौ श्रीशा-
न्तिनाथः ” । ती० ४३ कल्प | आ० क० |
लकाडाह-लङ्ादाह् पृ । लङ्काया भस्मीकरणे, रामायणे
वि खुणिज्ञाति-जह दणुश्रेतस्स पुच्छ महन्तमासी,तं च किल
श्रणगहिं वत्थसहस्सेहिं वढिऊण तेन्नघडसहस्सेद्दधि सि-
खिऊण पलीवियन्तेण किल लङ्का पुरी दहा । नि० चू० १ उ०।
लख-लङख- पु । महावंशाग्रखेलके, रा० | ज । श्रनु° ।
ये वेशादेरुपरि वृत्तं दशयन्ति ते लङ्खाः। व्य० ३ उ०। जी०।
कर्प० । ज्ञा० । नत॑कभदे, पं० चू० १ कल्प |
लखपहा-लङन्खप्र्ञा-खी० । ये महावशाग्रमारुह्य नृत्यन्ति
तषा प्र्ञायाम् , व्य० ३ उ० | जी०।
लंखिया-लङ्खिका-खी० । वंशोपरि न्तं कयाम् , ध० ३ श्र-
धि० । ज्ञा० ।
लंगल--लाडूल---न० । हल, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
लंगूल- लाइल-न० । पच्छे, स्था० ४ ठा० २ उ० । ज्ञा० ।
कल्प० । “ लंगूल बाहली चिप्पे " पाइ० ना० १२८ गाथा ।
लेगूलिय-लाइलिक-पुं० । अष्टाविशत्यन्त्वीपानां म-
दानादाने , सुख , वादे च। न०।
ध्ये तृतीयेषन्तद्वीप, उत्त० ३६ अ५। ( ै शब्द्
प्रथम भागे तत्स्वरूपं दार्शितम् )
लघण-लडघन-न० । गर्तादेरातिक्रमणं, औ० । रा० । नि०
चू० । जी० । ज्ञा० । श्रतिदीधस्यात्युश्चस्यापि चातिक्रमणे
श्रा० म० १ अ० । उत्प्लुत्य गमने,उतक्त० २ अ० । साधूपरि सा-
ध्व्याद्यपारे वा कराघादिना श्रन्नपानादिमोचने,ग० २ श्रधि०।
लं पजिणाण-लद्धितजिनाज्ञ- तरि । त्यक्तसर्वशशासने ,
जीण १ प्राति०।
लंघेयव्व-लङ्न्धयितव्य- ० । लङ्गनीये, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।
लच-देशी- कुक्कुटे, दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा ।
लचा-लश्चा- खरी । उत्कोच, व्य० १ उ० ।
लंचिल्ल- लश्ावत्-तरि° । उत्काचस्पजीग्य सापेत्ते व्यवहा-
रिशि, व्य० १ उ० |
लेछण-लाडछुन-न० । मषतिलकादिके चिह्न, अनु० | प्रव० । _
नं०। “ लुं अको चिघ ” पाइ० ना० ११४ गाथा । अज्ञा-
वयवच्छेदे, प्रव० ६ द्वार । दश० । कर्णीदिकल्पनाडुनादि-
भिलाड्छुने, प्रश्ष७ २ आश्र० द्वार । उल्मृकादिभिरङ्कने,
आवण० ४ अ०।
लंदपोस-लज्छपोष प°. । । लब्छाख्यचों रविशेषाणां पोषण,
विपा० १ श्रु० १ आ०। 4
लंडिय-लाडिछत-जि० । रेसखादिभिः कतलाञ्छुने,ब्र० २ ड०।
स्था० । ज्ञा० भ० । श्रा० म० । भस्मनो पिहिते, बृ० २ उ०।
लजर- लञ्जर- न° । उदककुम्भे, स्था० ४ ठा० ४ उ० |
लतग-लान्तक- पु० । षष्ठ देवलोके, प्रव० १६४ द्वार | स०। .
स्था० । । औ० । लान्तककट्पवासिदेवेषु, तदिन्द्र च । | विशे०
स्था०। लान्तक्देवानां स्थाने, प्रज्ञा० २ पद। ( व्याख्यां
चतुथभागे * ठाणा ` शब्दे १७०६ पृष्ठ उक्ता )
लंद-लन्द-पुं० | काले, बृ० ३ उ० । प्रघ० । स च अहा>
लद ` शब्दे प्रथमभागे ८६७ पृष्ठे व्याख्यातः | ) यावता का-
लेनोदकाद्वैकरः शुष्यति तावान् कालो जधन्यतो लन्द्: ।
कटप० २ श्रधि० ८ क्षण ।
लपट- लम्पट- त्रि । लालस, “ लोला लालस -सोलुअ-उल्ले-
ह ड-लपटा लुद्धा ” पाइ० ना० ७५ गाथा ।
लपिक्ख-देशी- चार, दे० ना० ७ वग १६ गाथा ।
लब-देशी- कश, गावाटे च । दे० ना० ७ वर्ग २६ गाथा ।
लंबंत-लम्बमान-जरि० । दैर्ध्ये गच्छति, कर्प० १ अधि० २
क्षण । ज्ञा०। *
लेबण-लम्बन-पुँं? | कयले, बृ० ४ उ० । व्य० । नङ्गरे, ज्ञा०
१ श्रु०ण ८ आअ० |
लंबाली--देशी-पुष्पभेदे, दे” ना० ७ वर्ग १६ गाथा !
लंबियय-लम्बितक-० । तरुशाखायां वाष्टौ बद्धे अभिग्रह
विशेषयति वानप्रस्थे, श्रौ° ।
हैं
( ५६१ )
लबुत्तर
लबु त्तर-ल म्बोत्तर पु०। कायात्सगदाषावशष, रत्वा चोल-
पट्टमाचाधना नाभमरडलस्यापार अधस्ताच्च जातुमात्र
तिष्ठति कायोत्समं इति लम्बात्तरदोषः । प्रव० ५ द्वार ।
लेबूसग-लम्बूसक -पु० । गेन्दुके, क्ञा० १ श्रु०१ अ०। गोला- |
कृतिमरडनवि शष, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । श्रा० म०। जी०।
न० । दाम्नामाग्रमभागे मरडनविशष, रा० । ज० । श्राभरण
विशेष, रा० ।
लंबयव्व-लम्ब सितव्य-त्रि० । श्रवलम्बनीये,रज्ज्वादिनिबद्धे, |
हस्तादिना धरणीये च । भ० ६ श० ३३ ड०।
लबोयर-लम्बोदर-पुं° | गणपता, ज्ञा० १ श्रु० १अ०।
लभ-लाभ- पु” । मूलधनादितो ऽधिके लभ्यमाने धने, प्राप्तो
च । विशे० । सूत्र० | आ० म०।
लभणमच्छ लम्भनमत्स्य- पु०।मत्स्यभेदे,जी ० १ प्रति०।प्रश्ना ०।
लंभित्ता-लब्ध्वा-अव्य० । प्राप्यत्यर्थे, स्था० ३ ठा० २ उ०।
लंभिय-लम्भित-त्रि० । प्रापित, सूत्र० २ श्रु० ७ अ०।
लक्कुड-देशी-लकुटे, द्वे० ना० ७ वर्ग १६ गाथा ।
लक्ख-लक्ञष न० | शतन गुणिते सहस्त्राणामकशते, कमे० ४
कर्म० । कटप० । काये, दे० ना० ७ वर्म १७ गाथा।
लक्ष्य-त्रि० शरव्ये, “मुष्टिना छादयेज्नक्ये, मुष्टो षि निवेश- |
येत् । हतं लक्ष्य विजानीया-द्यदि मूधा न कम्पत" सूत्र० १ |
श्रु० ८ श्र ० । “ लक्खं विजाय ” पाइ० ना० ५४६ गाथा ।
लक्ण-लक्षण-न० । लच्यत ऽननति लक्षणम् । पदार्थानां |
स्वरूपे, विशे० । अनु० ।
अथ लक्षणद्वारमाह--
नामे ठवणा दविए, सरिसे सामन्नलक्खणाड 5ंगारे ।
गहरागड- नाणत्ती,निमित्त-उप्पाय-विगई य ॥२१
वीरियभावे य तहा, लक्खणमयं समासओ भणियं ।
अहवा वि भावलक्खण, चउव्विहं सदह माई ।२१४५७।
सदहणजाणणा खलु, विरई मीसं च लक्खशं कहए ।
अभिधानराजन्द्रः।
४६॥ |
ते वि निसार्मिति तदा, चडलक्खणसंजुअं चव ।२१४२८। |
लक्ष्यत5ननाति लक्षण पदा थानां स्वरूपम् , तच्च नामादि-
भेदाद् द्वादशधा ॥ २१४६ ॥ २१४७ ॥ २१४८ ॥
अजञ्ञ नामस्थापनालक्षण व्याचिख्यासुराह भाष्यकारः--
लक्ख्णामिह ज नामं, जस्स व लक्खिज़ए व जो जणं |
ठवबणागारविसेसो, विष्पासो लक्खणाणं वा ॥२१४६॥
इ ' लक्षण ` मिति यरलक्रारादिवरौत्रयावलामात्रे तश्नामेव
लक्षण नामलक्षणम् । श्र थवा-' जस्स व ` त्ति यस्यवा कस्य
चिर्जीवादे- ल्त मिति नाम क्रियते तद् वस्तु नाम्ना हेतु
भूतन लक्तणं नामलक्तणम् । अथवा--नाम तद्वतारभदान्नाम
च तटलत्तगा च नामलक्तषणम् । ` लक्खिज्जए व
जो जणं ' तियो वा स्तम्भकुम्भाऽम्भोरुहादिः प- |
दाथो निजेन स्तम्भकुम्भादिनाम्ना लच्यत --क्लायते त- |
र्स्तम्भादि नामलक्षणमुच्यते , लक्ष्यतेउनेनेति छृत्वा । |
£ इवण् ` क्ति स्थापनालक्तणमुच्यते । कि तत् ? इत्याह--ल-
लक्ग्वण
त्णरूपस्य वर्णत्रयस्याकारविशेष:ः । अथवा-लक्षणानां
स्वस्तिकशखचकरध्वजादीनां यो मड्जलपद्दादावक्षतादिधभि-
न्यांसा-विरचना विधीयते तत्स्थापनालक्तणमाति ॥ २१४६॥
'द्विए' त्ति द्रव्यलतक्षणम् । तच्चागमनोआगमश्नशरी रभ-
व्यशरीररूपे सुगमम् । तद्व्यतिरिक्तं पुनराह--
लक्खिजद जं जणं, दव्वं तं तस्स लक्खणं तं च ।
गच्चुवगाराईयं, बहुहां धम्मत्थियाईणं ॥ २१५० ॥
यद् द्रव्यं धमौस्तिकायादिकं लच्यते यन तत्तस्य द्रव्यस्य ल-
्षणम् । तच्च गत्युपकारादिकं धमौस्तिकायादीनां संबन्धि-
बहुभेदं विक्ञयमित ॥ २१५० ॥
श्रथान्यषां सादृश्य सामान्यादिलक्षणानां सामान्येन भावा-
थमाह-
किंचिम्मित्तविसिट्टं, एयं चिय सेसलक्खणविसिसा |
जं दव्वलक्खणं चिय,भावो वि स दव्वधम्मो त्ति२१५१
इदमेव च द्वव्यलक्षणं किचिन्मात्रविशिष्ट सच्छेषाः साहश्य-
सामान्यादया नव लक्षणभदा भवान्ति | कुतः? इत्याह-यद्यस्मा-
त् स वच्यमाणा भावा5पि भावलक्तषणरूपं द्रव्यधर्मत्वाद् दर्यं
लद्यत ऽननेति कृत्वा द्रव्यलक्तणमव, श्रासतां पुनः शषाः
सारष्यसामान्यादया लक्षणभदा इात ॥ २१५१ ॥
तदेव सामान्यन सारश्यादिलक्षणभेदान् व्याख्याय विशे-
षताऽपि * सरिस ' ति सादश्यलक्षणस्वरूप विवृण्वन्नाह-
तुल्लागारद रिसिणं, सरिसं दव्वस्स लक्खणं तं पि ।
जह घडतुल्लागारो,घडो ति तदह सव्वमुत्तीसु ।,२१५२॥
यद् दवःचादिवस्तूनां त॒ल्यस्याकारस्य दशनं तदिह 'सरिसं'
ति सादश्यमुच्यत, द्रव्यस्य तदपि लक्षणम् ,तनापि हि सद-
शममुकस्यदम् इति व्यपदेशदेतुत्वाद् द्रव्यं लच्यत इति,णत-
दपि सामान्यतो द्रव्यलत्तणमेव, विशषतस्तु सादश्यलक्षण-
मुच्यत इतीह भावाः । एवमुत्तरत्रापि सामान्यता द्वव्यल-
क्षणता, विशेषतस्तु वक््यमाणतत्तद्विशषलक्षणता द्रष्टव्येति ।
उदाहरणमाह-यथैकेन दृश्यमानधटेन तुल्या55कारो ऽन्यो-
$पि सर्वो घट इति, एवमनेनेव प्रकारेण सवोखु मूत्तिषु सर्वे-
ष्वपि मूतेवस्तुषु यस्य येन सादृश्य घटत तत्सवं साह-
श्यलत्तणामरात ॥ २१५२ ॥
श्रथ ` सामझलक्खण ` त्ति सामान्यलक्तणव्याख्यानमाह--
सामण्णमप्पियमण- प्पियं च तत्थतिमं जहा सिद्धो ।
सिद्धस्म होड तुल्लो,सव्वों सामण्णधम्मेहिं ॥२१५३॥
एगसमयाइसिद्ध-त्तणेण पुणरप्पिओ स तस्सेव ॥
तुल्ल ससाऽतुल्लो,सामण्ण विसेसधम्मो त्ति॥२१५४॥
इह सामान्य द्विधा-अर्पितमनर्पित च । तश्चार्पिंतं विशषित-
मुच्यते, श्रनर्पित त्वविशिष्म् । तत्रान्तिममविशिष्ट सामान्य
यथा-सिद्धः सर्वा ऽप्यन्यस्य स्वस्यापि सिद्धस्य सत्व-
द्रव्यत्व-प्रमयत्वाःमूतत्व-्तीणकर्मत्वाऽनायाधत्व-सिद्धत्वा-
दिभिः सामान्यधर्मैस्तुषटयः-समाना भवति | एक -दि-ञया-
दिसमयसिद्धत्वन पुनरर्पितोा विशषतः स सिद्धः 'सस्सेव तुन्न
त्ति तस्येवेकद्धित्यादिसामान्यसमयसिद्धस्येव सिद्धस्य तुर्यः
समानः, शषस्य त्वसमानसमयसिद्धस्यातुट्यो ऽसमानः । न
चु कथमेक एवायं सिजः सिद्धान्तरैस्तुटयो ऽ तुल्यश्च? इत्याह-
(५९२).
श्भिधानराजन्द्रः ।
लक्सवण
स्तक्ग्वण
सामान्यरूपा विशषरूपाश्च धमी यस्य स सामान्यावशेषधर्मा
इति हेताः। नह्य सो यरेव धर्वस्नुरयस्तरेवातुट्यो यन विरो-
धः स्यात् .किन्तु-समानधमैंस्तुल्यो विशषधर्म: पुनरतुल्य इति
मावः। यद्वह सद्धस्य सिद्धन सह समानत्वे तत्सामान्यल-
्षणमिति ॥ २१५३ ॥ २१५४ ॥ विशे । ( आगारलक्षणम्
* श्रागारलक्खण् ' शब्दे द्वितीयभागे ६४ पृष्ठ गतम् । ) ( ग-
त्यागतिलक्षणम्-- गइआगइलक्खण ` शब्दे तृतीयभाग
७७६ पृष्ठ उक्तम् |) ( नानात्वलक्षणम् ` णाणत्त ` शब्दे च-
तुथभाग १६६१ पृष्ठे गतम् । ) ( निमित्तलक्षणम् “ णिमित्त-
लक्खण ` शब्द चतुथभाग २०८३ पृष्ठ उक्तम् । )
अथ उप्पाय--विगई य ` त्ति उत्पाद-
वरिगमलक्तषणस्वरूपमाद--
नाणुप्पन्नं लक्खि-ज्ञए जग्रा वत्थु लक्खं तेणं ।
उप्पाओ संभवओ,तह चव विगच्छुओ विगमो ।२१६४॥
यतो नाुःपन्न वस्तु लक्ष्यत तनोत्पादो ऽपि तल्लक्षणम् । क
थेभूतस्य वस्तुन उत्पादो लक्षणम्?। संभवत उत्पद्यमानस्य ।
तथा, विगच्छतो-विनश्यतो वस्तुनो विगमो-विनाशा लक्ष-
णमवात ॥ २१६४ ॥
नु विगमा नाशः कथं वस्तुलक्षणम् ? इत्याह--
लक्खिज्जइ जं विगयं, विगमेण विणा व जं न संभूई ।
विगमो वि लक्खणमओ,विगच्छओ वत्थुणो5णप्मो ८२६५
यद्यस्मात् यथाम्पादनात्पन्न लक्ष्यत एवं विगतमपि विग-
मेन लक्ष्यत पव, यथा चात्पादमन्तरेण न वस्तुनः सम्भूति
एवं ‹ विगमेण ` इत्यस्याब्रृच्यात्तरतापि सवन्धाद् यस्माद्
विगमनापि विना न वस्तुनः सभूतिः-सभवः। न हि सद
प्राक्तन रूप ऽविनष्र घटस्य सभवो ऽस्ति । श्रतः-श्रस्मात्
कारणात् विगमो ऽपि वस्तुनो लक्षणमेव, तत्संभवहेतुत्वात् ,
पादवत् । कथभूता विगमः ? इत्याह-विगच्छता षस्सु-
नाऽनन्या मन्नः, यथाः पन्नादभदवासुत्पाद् इति ॥ २१६५ ॥
पतदेव भावयति-
अङ्ग लेरिजुता नियय-प्पस्नइ वकत्तगासओ समयं ।
लक्खिज़इ नेयरहा, तह सव्ये दव्वपज्ञाया ॥२१६६॥
श्रङकल्या ऋजुता अद्जुल्युजुता सा समकं-युगपद् निजकप्र-
सूतिवक्रःवनाशत एव लच्यत, नेतरथा-नान्यथत्यभः । त्र
निजकप्रसूतिरुत्पाद ऋजुतायाः,वकत्वस्य नाशो वक्रत्वनाश
निजकप्रसूतिश्च वक्रःवनाशश्च नजकप्रलात-वक्रत्वनाशो,
ताभ्या गनजकप्रस्)तवक्रःवनाशाभ्यामति समासः । ग्र-
स्माञ्च पञ्चमााद्ववचन.न्तात् ` पञ्चम्यास्तासिल ” ( पाणि०
५।२।७ ) इति तसप्रत्ययः । इदमुकते भवति-श्रङ्कलीद्रव्यस्य
ऋजुतापयौया नियमत पव खस्याःपादेन वक्रत्वस्य च
नाशन लद्यते, नान्यथा, अनुत्पन्नस्य खरविषाणस्येव लक्ष-
णायागात् , विपक्तभूतपयीयाविनाश चोत्पादायोगात् । यथा
चाह्ुस्या ऋजुतापयोयस्तथान्येऽपि सरवद्रग्यपर्यायाः स्व-
स्या.पादे खावपच्षभूतपयौयविनाश पव च सति लदयन्ते
नान्यथा । ततश्च यथोत्पादो वस्तुलक्षकत्वाज्ञत्तण तथा बि-
नाशोऽपि , पूर्वपर्धायाविनाशमन्तरेणाप्युत्तरपर्या यबिशिष्टव-
स्तुना लक्षणायागादात ॥ २१६६ ॥
श्रथ विनाशस्य य सर्वथा वस्तुत्वे नच्छन्ति
सागताः, तन्मतानुरारी परः प्रा55ह--
उप्पायस्स हि जुत्ता, लक्खणया नासओ विणासस्स |
नासो ब लक्खियं वा,वत्थु न भावो खपुप्फं ।२१६५७॥
ननृत्पादस्य लक्षणता युक्ता, उत्पन्नवस्त्वनन्यत्वन तस्य
स्वात् , विनाशस्य त्वसतोऽविद्यमानस्य नासो युक्ता ।
नद्यसत् खर विषाणं कस्यापि लक्षणं भवितुमहति अथ
नाशोऽपि वस्तुना लक्तणमिष्यत , तहिं तस्याभावरूपत्वात्
तल्लात्ततं वस्त्वप्यभाव पव स्यात् , , आकाशकुसुमवदिति ॥.
एतद्वाह-'नासोवलक्खिये वत्यादि `
अत्रोत्तरमाह--
नासो भावों संभू-इहेठओ वत्थुणो धुवते व ।
अहव समुप्पाओ इव, वत्थुप्पभवाईभ।वाञ्रो ॥२१६८॥
नाशो भाव' इति प्रतिज्ञा, पृर्वोक्कन्यायेन वस्तुनः संभूतिहे-
तत्वात् , भ्र वत्ववाद ति । श्रथवा-देतु-दष्टान्तान्यत्वेनान्यथा
प्रमाणम्-नाशो भाव इति सेव प्रतिज्ञा, वस्तुनः प्रकृष्ट भवने
प्रभवः, प्रोढतापयौयस्तस्यादौ प्रथमं पूर्व भावः रूत्व त-
स्माद् वस्तुप्रभवादिभावादिति हेतु समुत्पादवादिति
दान्तः । इद यो यो वस्तुनः प्रकृष्टमवनस्यादों भवांत स स
भावः, यथोत्पादः, भवात च वस्तुप्रमवस्याद पूवोङ्कयु-
क्ितो नाशः, तस्माद् भाव इति ॥ २१६८ ॥
यदुक्कम-' नासावलक्खियं वेत्यादि ` तत्रा ऽऽह--
नासोवल क्यं विय, तद भावे। चय तदन्नहा भावों ॥
आह नु पत्तमेवं, भ।वाभावोभयसभावे ॥ २१६६ ॥
॥ २१६७ ॥
पव च सति ` ना सावर्लाक्खयं चिय ` तदिति नाशो पलात्ति-
तमव तत्-निर्दिष्युक्ितो नाशन लक्ष्यत पैतदित्यथैः
तथा चेतावतांशनाभाव एव तद् वस्तु, नात्र विवादः,
कथञ्चिद् वस्तुनाम भावरूपतया जनरभ्युपगतःवादिति ।
अन्नहा भावो ` त्ति अन्यथा पुनरन्येन रूपण तदस्तु भाव
उत्पाद-धभोव्यरूपतया भाव पव तदित्यथैः । अत्राह परः
नन्वेवं सात भावाभावोभयस्वभावे वस्तु प्राप्तम् , एतञ्चायुक्क
म्, भावाभावयोः परस्परपरिहारेणावस्थानाच्छायाऽऽतष-
वदेकज्रायो गादिति ॥ २१६६ ॥
अन्नोत्तरमाह--
एवं चिय तं वत्थु, सव्वाभावे व तं खपुष्फं व ।
भावे व सव्वहा स-व्वसंकरे-गत्त-णिच्वाई ॥२१७०॥
नन्वेवमेव भावाभावोभयरूपतायामेव तद् वस्तु भवति, न
पुनरेकान्तन भावखरूपत्वे ऽभावस्वरूपःवे वा, एतदवाद-सः
वभावे वा सरयेवामावरूपतायां वा इष्यमाणायां खपुष्पमिव
तद् वस्तु स्यात् ,भावे वा सर्वथा भावरूपतायां वैकान्तनेष्य-
माणायां सर्वसङ्करकःव--नित्यत्वादयो दोषाः प्रसजन्त;
तथाहि-
घटरूपतया तथा पट-स्तम्भ-भू-भूधरादितरैलोक्यरूपत-
याऽपि तस्य भावः प्राप्नाति, कथञ्चिदप्यभावरूपताऽनभ्युषः
गम्रात् । एव स्तम्भ-भू-भूधरादीनामपि सर्वात्मना भावात्
सर्वसकरो ऽन्योन्याचुप्वेशलक्तणः स्यात् । एकस्मिन् :
करस्मिशिद् घटादिवस्तुनि सर्वस्थापि त्रिभुबनस्यानुप्रवेशात्
सर्वथा सदैरपि प्रकारेधटस्य भावः ' इत्युक्के यथा .
(४४६३ )
लक्ग्नतण
श्राभधरानराजन्द्रः)
सर्वैकत्वं भवेत् । ततश्चेकस्मिन्नपि व्यामादिवस्तुनि सर्वदेवा-
वतिष्ठमाने शेषस्यापि घरादिवस्तुजातस्य तदेकत्वापत्त्या
सदा ऽबस्थानात् सर्वेनित्यत्वप्रसड्र:: आदिशब्दादेकस्मिन
घटादिवस्तुनि विनष्ट शषस्यापि भू--भूधरादस्तदेकत्वन |
विनाशात् सवेश्न्यता पत्तिः, सवेस्याप च सवत्र विद्यमान- |
त्वात् सवीर्थषु निराकाङ्घमेव विश्वे स्यादिति । तस्मात्
केवल भावरूपत्व ऽभावरूपत्वे वष्यमाण दाषद्शनाद् भावा-
भावाभयरूप वस्तु न चव चराघ भावाऽभावयोर्भिन्ननि-
मत्तत्वात् । याद् ह यन्त्र भावस्तनव चाभावः स्यात्
तदा भवद् ववराघः; नचतदास्त, खरूपण घटाद्भावात् , |
पररूपण चाभावादात ॥ २१७० ॥
नयु यद्यवम् , तहर्युत्पन्नमप्यनुत्पन्नस , तस्याभावरूपत्वात्;
शअयुत्पन्नमभावीमूतं चास्ति, श्रभावरूपतया सत्वात् त-
थाच सति उत्पन्नम् विनष्टे वेदम् ' इत्यादि लाकव्यवहारो
न प्राप्नोति, इत्याशङ्क्या ऽऽद--
उप्पन्नं विगयं वा-णष्पियमविसेसियं सधम्मेहिं।
तं चिय पज्जायंतर-विसेसियमहप्पियं नाम ॥२१७१॥
इहोत्पन्न विगतं वति यल्लोके व्यपदिश्यत वस्तु, तत् सय-
मपि द्विविधम--अर्पितम् , अनर्पित च । तत्र स्वधर्मविशष-
वद्धिः, पयौयेरविशपितं सामान्यरूपे वस्त्वनर्षितमभिधी-
यत । तदेव च पर्यायान्तरेः--पयीयविशेषेरविंशेषितमर्पितमु- |
च्यत इति । एवं व्यवस्थिते यदा सामान्यरूपमनपच्यात्पाद-
विगमादि पर्यायेण कनापि विशत वस्तु वक्तुमिष्यते
तदात्पन्न विगत चत्यादिग्यपदेशतः सर्वोऽपि लःकव्यवदारः
प्रवतत । तथाचाह--“ श्र्पिता-ऽनर्पितसिद्धः ” ( तत्त्वा० ५
३१, ६३३ ) इति तदेवमुक्तमुत्पाद--विगमलत्तणम् । भौ-
व्यलक्तणं तु द्रव्यलक्तणागिधानद्वारशवाभिहतम् ; भुवत्व-
द्रव्यत्वयार काथत्वात् ॥ २१७१ ॥
अथ ‹ वीरिय ' त्ति वीयैलत्षणमभिधित्खुराद--
वीरियँ ति बलं जीव- स्स लक्खण जं ब जस्स सामत्थं | |
दव्वस्स चिच सुवं, जह वीरियमोसहाईण ॥ २१७२ ॥ |
चीय जीवस्य बलमुच्यत । तन च बलवानयम् इत्या-
दि उ्यपदेशाज्ीबा लच्यत इति तत् तस्य लक्षणम् । अथवा- |
न जीवस्यैव वल वीर्यमुच्यत, किन्तु यद् यस्य सचतन- |
स्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य चित्ररूप साम्यं तदिह वीय॑म-
भिधीयते यथा लोकेऽपि प्रसिद्ध हरीतकीगुड्डच्याद्योषधी नां
चीर्यम् , च्रादिशब्दाद्-मणिमन्ऋदिपरिग्रहः, उक्तं चर अ-
चिन्तया हि मणमन्त्रोषधीनां प्रभावः ` इति ॥ २१७२ ॥
श्रथ “ भावे य ' चि भावलक्षणमाह--
जमिहादडयाईणं, भावाणं लक्खणं त एव5हवा ।
तं भावलक्खणं खलु, तत्थुद य पोग्गलविवागो | २१७३।
याद्ह भावागनामादायकादाना कर्मपुद्रलोदयादिरूप लक्ष- |
रो तद् भावलक्षणम् , यथा कर्मपुद्गलानामुद्यलक्षण श्रोद-
यिकः, क्मैपुद्रलानामवोपशमलक्षण च्रापशमिकः, तेषाम-
च॒ सर्वेधाउभावलक्षणः त्तायिकः, च्यापशमरूपामश्रता-
लक्षणः क्ञायोपशमिकः, सामान्यन पुदृगलर्पारणनिरूपः-
मि
पारणामकः । एषामव भावानां दश्चादसंयागलक्तषणः सां-
निपातिकः । ' त एव हव ` क्ति अथवा--त पवोदयिक्ादयो
भावा लक्षणं भावलक्षणम् । जीवा हि नारकादिव्यपदश-
देतुत्वात् तेलच्यत एवति । ` तत्थुदआ पाग्गलविवागो ` ति
तत्र प्रथमव्याख्यापक्त श्रोदयिकभावस्य कर्मपुद्रलविपाक-
लक्षण उदयो लक्षणम , फवमन्येपामपि भावानां यथायोगे
लक्षण वाच्यम् | तच्च दाशतमवति ॥ २१७३ ॥
भाप्यकारोऽपि ' तास्मन्नुदय भव श्चोदयिकः, तन वा नि-
चेत्तः, स एवं बोदायिकः ` इत्यादिकां भावानां व्युत्पत्ति, श-
पाणामोापशमिकादिभावानामुपशमादिरूप लत्तण च दशै-
यज्ञाह--
अरः 2९ क
उदए सइ जो तेण व, निव्वत्तौ उदय एवं ओदइओ ।
उदयविधाय उवसमो,उवसम एबोवसमिर त्ति॥२१७४॥
खय इह कम्माभावो, तब्भावे खाइओ स एवऽहवा ।
०.५ -->५ ५.६ 400. #ै
उभयसहावों मीसो, खओवसमिओ तहेवाऽयं॥।२१७५॥
सब्वत्तो किर नासो, परिणामोऽभिगुहया स एवेह ।
परिणामिउ त्ति सुद्धो, जो जीवाऽजीवपरिणामो।२१७६।
तिखाऽपि गताथोः, नवरम् ' उभयसहावों ` इत्यादि क~ `
मणा यावनन्तरोक्तो क्षयोपशमो तदुभयस्वभावत्वाद् मिश्रः
्षयोपशमिको भावः । कथं कया व्युत्पत्या ? इत्याह--
तथेवेति , क्तयापशमावेव त्तायापशमिकः , तयोवा भवः,
ताभ्यां वा निवृत्त इति पूर्वदा्शितव्युत्पत्त्यत्यथः । तदेव ना-
मादिभावावसानं द्वादशधा सत्तपतो लक्षणमभिहितम् | ए-
तदेवाह निर्युक्तिकारः--' लक्खणमेयं समासओ भणियं `
इति ॥ २१७४ ॥ २१७४ ॥ २१७६ ॥
इह ख प्रृते भावलक्षणनाधिकार इव्येतदव दर्शयम्नाह
भाष्यकारः-- ०
सम्मत्त-चरित्ताईं, मीसो-बसम-क्खय-स्सहावाई ।
~ 0 / ७ ५
सुय-देसोवरईंओ, खओवसमभावरूवाओ ॥ २१७७॥
सामाइएसु एवं, संभवओ सेसलक्ख गाई पि ।
जो एज्ञ भावओ वा+वइसेसियलक्खणं चउहा।॥२१७८॥
इह सामायिक्रं तावश्चतुर्विघम्-- सम्यक्त्व सामायिकम् ,
श्रुतसामायिकम्, देशविरतिसामायिकम् , सवेविरतिसामा-
यिकं चति । तत्र सम्यक्त्वसा्मायकं चारित्रसामायिकं
चव्यत दे अपि सामायिके मिश्रापशम-क्षयस्वभाव म-
न्तव्ये । मिश्रः क्षायापशमिको भावः, उपशमस्त्वोपश-
मिको भावः, क्षयः"क्षायिको भावः. एतेषु जत्रिष्वि
भावेषु यथाक्तं सामायिकद्धयं वर्तत इत्यर्थ: । ‹ श्वत-
मिति ` श्रुतसामायिकं, देशापरतिर्दशविरतिसामायिकम् ,
पते दवे श्रप्यकस्मिन्नव क्तायापशमिक भाव वर्तते । अत
एतानि चत्वार्यपि सामायिकानि यथोक्कभावरूपन्वात् ,
जीवस्य चते: सामायिकवच्चन लक्षणाद् भावलक्षणरूपाणि
भवन्ति । एवमतयघु सामायिकषु समवतो यथासंभव शे-
पारयपि नाम-स्थापना-द्रव्यसादश्यरूपार लक्षणानि या-
जयत् : तथादि--जीवद्रव्यमतलंन्यत दर व्यलक्षणम-
प्यतानि भवान्ति, पुवमन्यलन्तणनः ऽप्यभ्यृह्य चाच्या ।
५९८
( ४६७
खझामिधानरा
_लक्ख्वण
र ४ ।
लक्खण
यदुक्रं नियैक्रिङकता-- अहवा वि भावलक्खण ` मिव्यादि,
तद्न्याख्यानाथमाद--' भावजओ वेत्यादि। 'वा' इति अथवा
भावता-भावावषय:.न््यद वशाबक-उशपघरूपलक्षण चताव- |
थे बाद्धव्यम् २१७७ ॥ २१७८ ॥
तश्च ' सहृहण-जाणणा
भाष्यकारा व्याख्यातुमाह---
सदहणाहसहावं, जह सासाहयं जिशों परिकहेह ।
तन्नक्खर्ण चिय तयं, परिणमए गोयमाईण ॥२१७६॥
पूषैमोदयिकादिभावानामुदयोपशमादयो लक्षणमिव्येतद्
भावलत्तणमुक्रम् ¦ ! अथवा--त एवौदयिकादयेा भावा जी-
वाऽजीवलक्तकल्वेन भावलक्षरामुक्ताः । इदं च द्विविधमपि
भावलक्षणं सामान्यम् , जीवा ऽजोवलच्तणकल्वेन सवत्र
भावात् | श्रद्धानादिकं तु विशेषलक्षणम् । सम्यक्त्वादि-
सामायिकेष्वेव भावात् ¦ तथाहि-जीवादिपदार्थश्रद्धानं स-
इत्यादिना निर्युक्रिकता दर्शितं
म्थक्त्वसमायिकस्य लक्षम् ; आदिशब्दात्-' जारण ` त्ति |
ज्ञानज्ञा-जीवादिवस्तुपरिच्चित्तिरित्यथः) साच श्चतसा- |
मायिकस्य लक्षणम् । ` विरइ ` त्ति विरमणं-विरतिरश-
घसावद्ययोगनिवृत्तिः सा पुनश्चारित्रसामायिकस्य लक्ष-
रम् । मीस व' त्ति 'मीसा व त्ति | पाठान्तरं च-तत्र मिश्रम्-
विरताविरतम् , मिश्रा वा विरव्यविरतिदशविरतिसामायि-
कस्य लक्षणम। ततश्चतद् यथा श्रद्धानादिखभावे श्रद्धानादिचः
तुलक्षणसंयुक्त सम्यक्त्वादिसाभायिकं जिनः--श्रीमन्महावी- |
रः पारेकथयाते, तल्लक्तणयुक्रमव तद् गोतमादिश्रोतृणां प-
रिणम्रतीति । तदेवमभिहिते लक्षणद्वारम ॥ २१७६ ॥ विशे० |
उक्त० । श्रा० चू० | च्चा म० । स०। ( लक्षणवता सत्रण
भवितव्यमिति 'सुत्त' शब्दे वक्ष्यामि ) लच्यत तदन्यव्यपोह-
नावधार्यते वस्त्वननेति लक्षणम | स्था० ३ ठा० ३ उ०। षा०।
धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादिके, आव० ४ अ० । अजु० । |
आचा०। दश०"। प्रतिविशिष्खरूपे , आ० चू० १ आ०। |
लक्ष्यते गम्यते5ननेति लक्षणम् | लिङ्ग, विश० । आचा० | |
( आतेध्यानस्य लक्षणम् ` अट्ृज़्भाण ` शब्दे प्रथमभागे
२३७ पृष्ठे उक्तम । ) ( रोद्रध्यानस्य लक्षण ` रुदज्काण `
शब्दे ऽस्सिन्नेव भागे गतम् | )
धर्मध्यानस्य सोत्रलक्तणम्-
धम्मस्स शं भाणस्स चत्तारि लक्खणा पष्पत्ता,तं जहा-
आशणारुई शिसग्गरुई सुत्तरई ओगाढरुई । ( सू० २४७ )
स्था? ४ ठा० १ उ० |
(आज्ञारुचिव्या ख्या 'आणारूइ' शब्द द्वितीयभाग १२७ पृष्ठे
गता । ) ( निखगेरुचिव्या स्या ' णिसग्गरूइ › शब्दे चतुर्थ- |
भागे २१३४ पृष्टे उक्ता। ) (सत्ररुचिव्याख्याम 'सुत्तरुई' शब्दे
वक्ष्यामि ) ) ( अवगादरुचिविवरणभ ` ओगाढरूइ ! शब्द्
तृतीयभागे ७६ प्रष्ठ उक्कर । )
शुक्कध्यानस्य सोत्र॒लक्षशम--
सुकस्स णं भाणस्स चत्तारि लक्खणा पापत्ता,तं जहा- ।
२४७ ) |
अव्वहे अमम्मोहे विवेगे विउस्पग्गे
स्था० ४ ठा० १ उ० |
{ श्रव्यथाथः ` श्रत्वद् `
(असम्माहलिवर गम ` ग्रसम्माद '
( घ
शब्दे प्रथमभाग ८१७ पृष्ठ गतः । )
श्रे प्रथमभाग ८२५ |
पृष्ठे उक्तम् | ) ( विवेकव्याख्यां * विवेग
( कतिविधो व्युत्सर्ग इति * विउसग्ग
ससारलत्तणम्-
“ माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भाया च भवति ससार |
वरजति च सुतः पितृत्वे, ्रातृत्वं पुनः शतां चेव ॥ १ ॥ "”
इत्यवं संसारस्य चतस्छयु गतिषु सर्वावस्थासु संसरण-
लक्षणस्यानुप्रेत्ञा स्था० ४ ठा० १ उ०।
शुक्कलध्यानस्य पुनः सोत्रलक्तण॒स्--
सुकस्स णं फाणस्स चत्तारि लक्खणा पप्तत्ता, तं जहा-
खंती मुत्ती अज़बे मदे । (सू०८०३०८) भ० २५ श०७३०।
चिह्ने, ओ० | शुभकमेचिद्वे, नि० चू० १३ उ०। छुत्रचा-
मरादेक, कल्प० १ आध० १ क्षण । यवमत्स्यपद्मयशंखचऋ-
स्वस्तिकश्री वत्सादिक, सूत्र० २ श्रु०२ आ० | व्य० | विपा०।
जे० । न० | स० | नि० । अनु० | औ० । जी० । नि० चू० ।
सामुद्रिकोक्के करचरण्रेखादिके ( कल्प० १ अधि० ३ क्षण )
स्त्रीपुरुषादानां शुभाशुभचिह्नेय था-“अस्थिष्वथोः सुख मांस,
त्वचि भोगास्थ्रियो स्त्तिषु । गतो याने स्वरे चाज्ञा, स्व सत्वे
प्रतिष्ठितम् ॥ १॥ "` इत्यादि | स्था० ८ ठा० ३ उ०। उत्त० ।
“ लछणपमुह तु लक्खणे भणित लाञ्छनघ्रसुखं तु ल-
क्षणे भणितम् , यथा--“'नाभ्यघस्ताद् भवद् यस्या, लाञ्चनं
मशकोऽपि वा | कुङ्कमोदकसकाशं, सा प्रशस्ता निगद्यते ॥१॥”
इत्यादि । निशी थग्रन्थे पुनरित्थमुक्ल--“ माणाइगं लक्खरे
मसाइगं वेजणे.श्रहवा-ज सरीरेण सह समुप्पन्न तं लक्खणे,
पच्छा रप्पन्नं वेजणमिति'" प्रव ०२५७द्वार ! | आव०। नि० चू०।
दुबिहा य लक्खणा खलु, अब्भंतर-बाहिरा उ देहीशं ।
बहिया सुर-वष्णाइ, अतो सब्भाव सत्ताई ॥ ३४ ॥
गाहा--
बत्तीसा अट सय, अड्टू सहस्सं व बहुतराई च ।
देहेसुं देहीणं, लक्खर्णोरिण सुभकम्मजणिताणि ॥३५॥
पागयमणुयाणं वत्तीस अद्र सये, बलदववाखुदेवाणं अट्टू स~
हस्से, चक्कवद्धितित्थंकराणं जे पडा हत्थपएादादिसु लक्खि-
जति तेसि पमाणं भणिये, ज पुण अन््तो स्वभावसत्तादि
तदि सह बहुतरा भवतिः; ते य श्ररणजम्मकयसुभणामसरीर-
अगोवगकम्मादयाश्रो भवेति |
लक्ख ण-वेजणाण इमो विसेख!--
माणुम्माणपमाणा दि लक्खं दंजण तु मसंगादी ।
सहज तु लक्खण ब जण तु पच्छा सुप्प ॥३६॥
जलदोण-अद्भभार-सर्मूंहाई समुस्सिताषे जो णव तु ।
माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ ३७॥
माणादिय लक्खणं, मसादिकं वंजणं । अहवा--जं सर्यी-
रेण सह उप्पराणं तं लक्खणं, पच्छा समुण्पराणं बंजण,
मारुम्माणपरमाणस्स य इमं वक्खारं, जलस्स दाशे छुड़ेंता
माणजुत्तो परिसा, तुलारोवितं श्रद्धभारे तुले माणो उम्मा-
णजुत्ता पुरिसो भवति । पुंवारसंगुलपमाणई समूहाई णवस-
मुस्सिता पमाणवं पुरिसो; एवमा दितिषि घलकखणण् आदि-
स्सति तुमे रायादि भविस्ससि।
शब्दे वक्ष्यामि । )
शब्दे वक्ष्यामि। )
शलक्रवण
( ५६५ )
इदाशि देवाणं भषति-
भवपव्तिया लीणा, तु लक्खणा होति देवदेहेसु ।
भवधधोरणीएसु भवे, विउव्विते मन्नुते वन्तो ॥ ३८ ॥
देवाणे भवधारणिज्सरीरेखु लक्खणा लीणा-अनुपलक्खा, |
उत्तरवेकियसरीर व्यक्ता लक्तणा ।
इदा शि णारक-तिरियाणे भर्णति-
उस्सणएण-मलक्खणसं-जुया उ बोंदी तु होति नरणसुं । |
नामोदयसव्यतिया, तिरिएसु य होंति तिविहाओ॥३६॥
उस्सरणमेकान्तनेव लक्षणयुक्ता बोन्दिः सरीरमित्यथः |
तिरिएसु लक्खणमिस्सा य तिविधा सरीरा भवेति, लक्ख-
शम लक्खणे सठ्वासव्वं णामकम्मुदयाश्रो । नि० चू० १२ उ०।
श्रधुना लक्तणमुच्यत, तथा चाऽऽह भाष्यकारः-
लक्खणमियाणि दारं, चिधं हेडः अ कारणं लिङ्गं ।
लक्खणमिई जीवस्स उ, आयाणाई इमं तं च ॥११॥
लक्तणमिदानीं द्वारमवसर प्राप्तम् , श्रस्य च प्रतिपच्यङ्गत-
च्भिधानराजन्द्रः।
|
|
या प्रधानत्वात्सामान्यतस्तावत्ततस्वरूपमवाह-- चिद्व ॒टदे-
तुश्च, कारणे, लिङ्गं लत्तणामिति । तत्र॒ चिह्मम-उपलक्ष- |
रम् , यथा-- पताका देवकुलस्य, हतुः-नामत्तलक्षणम् , |
यथा--कुम्भका रनपुणय घटसान्दयस्य कारणम--उपादान
लक्तगम , यथा मन्मसणत्व घटबलायस्त्वस्य, ॥लक्त-कफाय-
, लक्षणम , यथा--धूमा5ग्नः | पयायशब्दा वा एत शत | ल
क्षणामित्यतललक्षणम-लक्ष्यत ऽनन पराक्तं वस्त्विति रूत्वा,
जीवस्य पुनरादानादि लक्तणमनकप्रकारमिदम् , तञ्च वक्ष्य-
माणमिति गाथार्थः ।
दार
आयाणे परिभोगे, जोगुवओगे कसायलेसा य ।
आशणापाण इंदिय, वधे(दयनिज्ञरा चेव ॥ २२३ ॥
चित्तं चयण सन्ना, विन्नाणं धारणा य बुद्धी अ ।
ईहामईवियका, जीवस्स उ लक्डणा एए ॥२२४॥
पतत्प्रतिद्वार गाथाद्वयम् , अस्य व्याख्या--आदान परि- |
भागस्तथा यागापयोगौ कषायलेश्याश्च तथा-श्रानापानो
इन्द्रियाणि बन्धादयनिजेराश्चव, तथा चित्तम् , चेतना, सं-
ज्ञा, विज्ञानं, धारणा च बुद्धश्च , तथा ईहामतिवितर्को
जीवस्य तु लत्तणान्येतानि । तुराब्दस्यावधारणार्थत्वाञ्जीव- |
स्येव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासाथीः ।
व्यासाथस्तु भाष्यादवसेयः, तश्चेद् भाष्यम्-- |
लक्खिजइ त्ति नजई, पच्चक्खियरों व जण जो अत्थो ।
ते तस्स लकणं खलु, धूमुणहाइ व्व अग्गिस्स॥१२॥
लच्यत इति ज्ञायत, का ऽसावित्याह -प्रत्यक्षः-श्रक्तिगोचरा-
ग्नः, इतरो वा-परोक्षः यन-उष्णत्वरादिना योऽ्थः-
अरगन्यादिस्तत्तस्य लक्षणम् । खारेवति,तदेव स्पष्टयति धूमो-
ष्णयादिवद्ग्नरिति, स हि श्रोष्णयेन प्रत्यक्गषो लयते, परो-
चो धूमनेति गायार्थ: | दश० 9 अ० । अस्ययूथिकानां गृ-
लकंस्वणवजण
स्थानां वा लक्षण न कथनीयमिति अद्मउत्थिय' शब्द प्र-
थमभागे ४७२ पृष्ठ उक्तम् । ) "लक्खणे ` (२०२)लक्षं पुरुषचि-
ह्यादि । | आव० १ अ० | ( तच्च भगवता ऋषभेण बाहुबलि-
ने उपदिष्टमिति लोकेऽपि शःखमत्वन प्रसिद्धम् , तच्च
* लक्खरणवंजणगुणोववेय ` शब्दे ऽयुपदमव दशीयिष्यते । ) ल-
च्यत ऽननेति लक्षणम् । दृष्टान्ते, लात्तणिके, बृ० ३ उ०। ( ल-
त्षणयुक्त वख धारणीयमिति ` वत्थ ' शब्दे वक्ष्यते । )
लक्खणंकिय-लक्षणाङ्कित-चि० । प्रशस्तलक्षणोपेते, जी० ३
प्रति० ।
लक्खणपंडग-लक्षणपणएडक-पुं० । लक्षणेन लक्षित पएडके ,
प० भा० १ कर्प ।
लक्खणपसत्थ- प्रशस्तलक्षण- त्र ॥ शुभलक्तणे, भ० ११ श०
११ उ०।
लक्खणवंजणगुणोववेय-लक्षणव्यञ्जनगुणो(प) पेत-त्रि० ।
लक्षणम्-पुरुषलक्तरणं शास््राभिद्धितम् “ अस्थिष्वर्थां:, सुख
मांस ” इत्यादि, मानोन्मानादेकं बा, व्यञ्जन-मषतिलकादि,
गुणाः-सोभाग्यादयः । श्रथवा-लक्तणव्यञ्जनयोयं गुणास्तेरु-
पतो लक्तणव्य ज्ञनगुणो (प) पेतः । प्रशस्तलक्तणोपेत, स्था० &
ठा० ।
तत्र लक्षणानि चक्रितीर्थङृताम् श्रष्टोत्तरसदस््रम् ,बलदेववा-
खदेवानाम् अष्टोत्तरशतम् , अन्येषां तु भाग्यवतां दात्िशत्ता-
नि चेमानि-“छुतज १ तामरस २ धनू ३ रथवरो ४ दम्भोलि
५ कूमो-६-६छुशा ७ , वापी-८ स्वस्तिक-६ तोरणानि १०
च सरः ११ पञ्चाननः १२ पादपः १३॥ चक्र १४ शङ्कं १५
गजो १६ समुद्र १७ कलशौ १ष८प्रासाद १६ मत्स्यौ २० यवो२१,
यूप-२२ स्तुप-२३ कमरडलू २४ न्यवनिभरत् २५ सश्चामरो
२६ दपेणम् २७ ॥१॥''उत्तार८ पताका २६ कमलाभिषेकः ३०
खुदाम ३१ केका ३२ घनपुरयभाजाम् ।
तथा-
“इह भवति सप्तरक्रः, षडन्नतः पञ्चसूदमदी घश्च ।
तरिविपुललघुगम्भीरो, द्वार्निशल्नक्षणः स पुमान् ॥ १॥ "'
तत्र सप्त रक्कानि-“नख-१चरण-२ हस्त -३ जिहा ४, ओष्ठ५
तालु ६ नत्रान्ताः ७ । षड़न्नतानि-कल्ता १ हृदय २ प्रीवा ३
नासा ४ नखा ५ मुख च ६। पञ्च सृच्माश- दन्ताः १ त्वक
२ केशा ३ श्रङ्कुलिपर्वाणि ४ नखाश्च ५। तथा-पञ्च दीयासि-
नयने १ हृदयम् २ नासिका ३ भुजो च ४-५। ्रीणि विस्ती-
शौनि-भालम् १ उरः २ खदने च॒ ३ । ग्रीणि लघूनि- प्रीवा
१ जहग २ महन च ३ । श्रोणि गम्भागाण-सत्वम् १ स्वरः
२ नाभिश्च ३ ।
“मुखमर्थ शरीरस्य, सवं वा मुखमुच्यते ।
ततोऽपि नासिका श्रष्ठा, नासिकायाश्च लोचने ॥ १॥
यथा नेत्रे तथा शीले, यथा नासा तथाजेवम् ।
यथा रूप तथा विनं, यथा शीले तथा गुणाः ॥ २॥
अतिहस्वे ऽतिदीर्धे ऽति -स्थूले चातिकृश तथा ।
श्रतिकष्णेऽतिगोरे च,षट् सु सस्वे निगद्यते ॥ २ ॥
समः सुभगो नीरुक्, सुस्वप्नः सुनयः कविः
सूचयत्यात्मनः श्रीमान् , नरः स्वमगपागयो ॥ ४ #
( ५४४६ )
लक्खणबंजण०»_._
आमभधानराजन्द्रः |
लक्सवंवाणिज्
नि्दम्भः सदया दानी, दान्तो क्तः सदा ऋजुः।
मरत्ययोनेः समुद्धूतो भविता च पुनस्तथा ॥ ५॥
मायालोभक्षुधा ऽलस्य--बहाहारादिचेषटितेः ।
तियगयानः समुत्पत्ति, ख्या पयत्यात्मनः पुमान् ॥ ६॥
सरागः स्जनद्रपी, दुर्भगो मूखेसङ्गकृत् ।
शास्ति स्वस्य गतायाते, नरा नरकवत्मनि ॥ ७ ॥
आवत्तों दक्षिण भाग, दत्तिणः शुभकूननुणाम् ।
वामो वामति निन्यः स्या-दिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥ ८॥
रेख बहुरेखे वा, येषां पाणितलं चरृणाम् ।
ते स्युरल्पायुषो निःस्वा, दुःखिता नाज सशयः ॥ ६ ॥
श्रनामिकान्त्यरखायाः, कनिष्ठा स्याद्यदा ऽधिका।
घनवृद्धिस्तदा पुंसां, मातृपक्ता बहुस्तथा ॥ १० ॥
( कल्प० ) ( जीवितरेखाया विचारः ' जीवियरेहा ` शब्दे
चतुधमाग १५६५ पृष्ठ गतः । )
यवेर ङगुष्टमध्यस्थे-र्विद्याख्यातिविभूतयः ।
शुङ्गपत्त तथा जन्म, दात्तणाङ्गुष्टगेश्च तं: ॥ १४॥
न खी तयजति रक्काक्तं, नाशः कनकपिङ्गलम् ।
दीघवाहु न चेश्वय, न मांसोपचितं सुखम् ॥ १५॥
चत्तःस्नहन सोभाग्य, दन्तस्नदेन भोजनम् ।
वपुःस्नटन सो ख्यं स्यात् , पादस्नदेन वाहनम् ॥ १६॥
उराविशाला धनधान्यभागी,
शिरोविशालो चपपुङ्गवश्च ।
कटीविशाला बहुपुत्रदारो,
विशालपादः सतत खुखी स्यात् ॥ १७ ॥ ”
इमानि लक्षणानि । व्यञ्जनानि च-मषतिलकादीनि तेषां ये
गुणास्तेरु(प)पेतम् । कर्प० १ अधि० १ क्षण । ,
लक्खणसवच्छर-लक्तणर्सवत्सर-पु । प्रमाणसंवस्सर एव
लत्तणानां वच्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः ।
स्था० ५ ठा० ३ उ० | प्रमाणसंवत्सरलक्षणन यथाबस्थिते-
नोपेत सवत्सरभेदे, चे० प्र० १० पाहु०।
लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पणसत्ते,त॑ जहा--“समगं नक्ख- |
त्ताणि जागे, जोयंति समगं उद् परिणि्मेति । णच्चुरहं
शातिसीतो, बहुदतो हेति नक्खत्त ॥ १॥ ( या० )
आदिच्चतयतविता, खणलवदिवसा उड परिणम॑ति ।
पूरिति रेणुधलताई, तमाह अभिवड्रित जाण ॥ ५॥ ” |
( ह° ४६० ><)
तत्र 'नच्तत्र' इति नक्तत्रसवन्सरः, स॒ उक्रलक्षण
तत्र नक्तत्रमरडलस्य चन्द्र भो गमा विवज्तितमिह तु दिनदि-
नभागादप्रमाणमिति । तथा चन्द्राभिवद्धितावप्युक्कलक्षणा- |
वव; किन्तु-तच्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशे- |
उऊ ` दत ऋतुसवत्सरः, जत्रिशवहोारात्रप्रमाणेर्दाद-
शाभः ऋतुमासेः श्रावणमासकम्ममासपयायेर्निष्पन्नः, ष्य
धिकाहोरात्रशतञयमान इति (३६०) 'आाइच्चे' त्ति श्रादित्य-
तवन्सरः, स च चरिशदिनान्यद्च चति, एवंविधमासद्वादश-
कानष्पन्नः षट् पष्रधधिकाटोराव्रणतत्रयमान द्रति । ( ३६६ )
श्रयमवानन्तराक्ता नक्तत्रादिसवन्सरो लक्षणप्रधानतया लक्ञ
णसवत्सर दात । तत्र नक्तत्रमाह- समगे
समतया नक्तत्राण- र त्तकादीनि, योगं--कार्क्षिकीपोण मा
कवले |
|
गादा, सम्रकं- |
स्यादितिथ्या सह सम्बन्धे याजयन्ति- कुर्वन्ति, इदमुक्तं
भवति--यानि नक्षत्राण--यासु॒ तिथिषूत्सगेतो भवान्ति,
यथा कार्तिक्यां कृत्तिका, तानि तास्वव यत्र भवन्ति यथो-
क्तम्-'"जट्रा वच्च मूल-ण सावणो तह धरिट्वाहि। श्रदाखु
मग्गसिरा, ससा नक्खत्तनामिया मासा ॥ १ ॥ ” इति
तथा यत्र समतयेव ऋतवः परिणमन्ति, न विषमतया,
कात्तिक्या अनन्तरं हेमन्तत्ते:,पोंप्या अनन्तरं शिशिरत्तेरित्य-
वमवतरन्तीति भावः, यश्च न-नेंब, अतीव उष्णं--घर्मों यत्र
` सोन्युष्णः, न-नेवातिशीतः--अतिहिमः, बहृदकं यत्र स
बहदकः, स च भवति लक्षणतो नक्षत्र इति, नक्षत्रचारलक्ष-
णलक्षितत्वान्नक्षत्रसवत्सर इति, ( स्था० ) ( नक्तत्रसवत्सर-
व्याख्या ` णक्खत्तसंवच्छुर ` शब्दे चतुर्थभागे १७६२ पृष्ठ
गता ।) ( चन्द्रसंवत्सरव्याख्या * चेद्संवच्छुर ` शब्द
तृतीयभागे १०६५ पृषे गता । ) ( ऋतुसवत्सरव्यख्या
ˆ उडसंवच्छुर › शब्दे द्वितीयभाग ६८६ पृष्ठे गतां ।)
( आदित्यसवतसरव्याख्या ` आइच्चसंवच्छुर ` शब्दे
द्वितीयभागे ४ पृष्ट प्रतिपादिता । ) * आइच्च ` गाहा-
आदित्यतेजसा तक्ताः पृथिव्यादितापऽप्युपचारात् क्षणा-
दयस्तप्षा इति मन्तव्यम् । तत्र क्षणा--मुहर्तः लवः-
पकोनपञ्चाशदुच्छ्रासप्रमाणो दिवसः--अहोरात्र: ऋतुः-
मासद्वयश्रमाणः ` परिणमन्ति ` अतिक्रामन्ति यत्रेति
गम्यते , यश्च पूरयति वायुत्खातरेणुभिः स्थलानि-भू-
मिप्रदेशविशषान् तमाहुराचायौ लक्षणतः सवत्सरमभिव-
दितम् ` जाण ` त्ति त्वमपि शिष्य ! त तथैव जानीहीति ।
स्था०५ठा० ३ उ०।
लक्खणा-लक्षण[-स्त्री० | चन्दर प्रभस्वामिनो मातरि, प्रव० ।
११ द्वार | आव० । ति० । स० । द्वारवत्यां ष्णस्य वासुदे-
वस्याग्रमदहिष्याम्, स्था० ८ ठा०। (सा चा.रिष्नेमि-
पाश्वे दीक्षां ग्रहीत्वा सिद्धेत्यन्तकइशानां पश्चमवर्गे चतु-
थांध्ययन सूचितम् |) अन्त० । लक्षणा5प्यवोचत्- 'स्नानादि-
सर्वाह्ञपरिष्कियायां, विचक्षणः प्रीतिरसाभिरामः । विश्रा-
मपात्र विधुरे सहायः , कोऽन्यो भवन्नूनम्ते प्रियायाः
॥ १॥ ?” क्लप० १ अधि० ५ क्षण । श्रस्याः अवसर्पिण्याः
अतीतायां चतुरशीतितमायां चतुर्विशतिती थकरकाले ज-
म्बृदाडिमराजपुच्याम्.महा०६शअ्र०।(पतद्वक्कव्यता महानिशी-
थस्य षष्ठ ऽध्ययन प्रतिपादिता तत पएवावसया । ) श्रोपध-
विशष, ती० ६ कल्प ।
लक्खणावती- लक्षणावती-खी० । ' लखनऊ ' इति ख्याते
नगरविशष, यद् धिपतिः हम्मीर-सुरत्ञाणसमदीनः विक्र
मादित्यवपषु षष्ट्याधकञ्जयादशशतप्वतिक्रान्तपु चम्पाया-
मकां प्रतालीं भञ्जितवान् । ती ० ३४ कर्प ।
लक्खणुरुणय लक्षणो न्त चि ० । महालक्षण, प्रशस्तलक्षण
च । तं० । श्रौ० ।
लक्खपाग- लक्षपाक- पुं० । लच्यरूप्यकञ्ययनिष्पन्न तेलघृता-
दौ, स्था० ६ ठा०।
लक्ख(क्खा)वाणिज्-लाक्ञावाशिज्य-न०।लाक्ता-जतुः, श्चत्रा-
पि लाक्ताग्रहणमन्यषां सावद्यानां मनः शिलादीनामुपलक्षणम्,
तदाधिता वाणिज्या लात्तावाणिज्यम् । लाक्षा धातकीनीली-
4क्वारुणित- -लाक्तारुशित-त्रि० । लाक्षारज़िते,
हि
_क्ग्ववाणिज्ज ॥
न शिलावज्ञलपतुवारकाषटवासर ङणसावृत्ताराादावक्रय
ल्ाक्तामनः। शलानीली--धातको रखङ्रणादना । 7चक्रय
। च० । पञ्चा० | ध० र०। श्राच० | भे० । भ्रा० | उपा० |
॥ क्खा--लाक्षञा--स्री ० । ज़तों, भ० ८ श० ६ उ०।
स्वारस- लाकारस--० । यावके, अन्त० १ शु० ३ वग
| |
¦ ०)
“ लक्खा-
शिश्न परल्लाचच् `` पाइ० ना० २६८ गाथा।
।क्वी -लदमी -खो० | हिमवतः उर्पार पारडरीकहदाधीश्वः
-भवनपातानकायाभ्यन्तरभूतायां स्वनामख्यातायां द
(याम् , स्था० २ ठा० ३ ड०। आ० कण ।
गड-लगण्ड--न० । वक्रकाष्ट, सूत्र० २ श्रु ° २ २ आ० |
नैडसाई-लगण्डशायिन्-प०। लगरडं किल दुःसंस्थितं
वद्धन्मस्तकपाष्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनन-
्यथः.यः शत तथा ऽभिग्रहाल्स लगरडशायी । लगरड वक्र
क्रं तद्वत् शस्त लगर्डशायिनः। सूत्र० २ श्रुणर अ०।
एस्तकपा दणकाभिरेव पृष्ठप्रदेशनेवास्पृष्टभूभाग अभिन्रहि-
क साधो, ध० ३ अधि० । प्रव० | पश्चा० | स्था०।
[गडसायिया -लगण्डशायिका-खी० ० लगर्ड किल दुःख-
स्थित काष्ट तद्वत् कुब्जदया मस्तकपार्ण्णिकानां विलगनन
चृष्ठायां साध्व्याम् , वृ० ५ उ०।
पंरणशिय-लगित-त्रि० । संघटिते, आव० ४ अ०। नियाजित,
ज्ञा० १ श्रण्प्आण०।
प्ग-लग-घा० । सद्ग, ' “शकादीनां दत्वम्
(३० ॥ इति अन्त्यगकारस्य द्वित्वम् । लग्गइ । लगति । प्ामा-
|ति। प्रा । ब्रृ० १ उ० २ प्रक०।
| लग्न-न० । “ अधो म--न-याम् , । २। ७८ ॥ इति
| लग्नशब्दघटकनकारस्य लापे । लग्गा । भावे क्रः प्रत्ययः।
। विलगन, प्रा० । मषादिराशानामृदय , पृं । प० ।
| सूत्र ०। चिहु, द° ना० ७ वर १७ गाथा । सम्बद्ध, त्रि० । ज्ञा०
१ श्रुण ८ अ० | “घडिआओ लग्गं संसत्त” पाइ०्ना०२०१ गाथा ।
लग्गणञ्च-लग्नक--पु° । प्रातिभुवि, “लग्गणच्रा पडिडुओ ”
पाइ० ना० २१२ गाथा ।
नधिमा-लधिमन्-पुं० ! तूलपिण्डव्नघुत्वप्राप्तो ,
द्वा० | सूत्र० ।
लचय-देशी-गडत्संज्ञे तृण
तच्छिघर-लदमीगृह-न० । मिथिलायां नगर्या स्वनामख्या-
ते चेव्ये, स्था० ७ ठा० । उत्त० | आ० स० । श्रा० क०।
आ० चू०।
लच्छिमई-लच्मीमति--खी० । जम्बृद्धीप भरतक्तत्र षष्टवाखु-
दूवस्य पुरूषपुरडरकस्य मातरि, श्राव० १ श्र ०।ति०।स०। द्-
॥ ८। ४। ६
द°
द्वा० २६
० ना० ७ वग १७ गाथा ।
| जय दिककुमारीमहत्तरिकायाम , आ०
म० १ अ० | द्वी । आ० क | ति० | ० चू० | ज्ं०। स्था० |
7४०७
पफ्सदने, लाक्षावाणिज्यमुच्यते, १ ॥' घ० < आंध० । ल्षचछी-लक्ष्मी स्ीा०ण। “ छो इच्यादा
है ६७ )
श्रभिध्ानराजन्द्रः।
लज्जा
जम्बुद्वीपे भरतक्षेत्र व्तमानावसर्पिणयां महाशिवस्य भाया-
याम् , स०।
` ॥८।२। १७॥ इति
छुकारादेशः । प्रा० | जम्बमन्द्रस्यात्तर पोगडरीकहदे स्वना-
मख्यातायां भवनपतिनिकायाभ्यन्तरभूतायां देव्याम् , स्था०
३ ठा० ४ उ० | ज्ञा०। हास्तिनापुरनगर पद्मोत्तरस्य राज्ञा भा-
यायां ज्वालायाः सपत्न्याम , ती० २० कल्प । श्रीवासु-
पञ्यजिनन्द्रपुत्रमजवचरेपतभायायाम् , ती० ३४ कल्प । सा-
घर्मकल्प लदमी विमानदव्याम्. नि० १ श्रू०२वर्ग ४ अ०। (सा-
च पूवभव पाश्वान्तिक प्रवज्य साधघम्मं कल्प उपपद्य महा-
वदद सत्स्यतोति निरयावालकानां चतुथवगस्य षष्ठ
ध्ययन स्राचतम् | ) चतुध स्वप्न कल्प” । श्रयाम् ,
““ कमला सरी य लच्छी ` पाइ० ना० £६ गाथा।
लच्छीकूड-लच्माकूट --पु° । शिखरिवर्षधरपवत षष कूट,
ज० ४ वक्त । स्था०।
लच्छी पुर-लदमीपुर -पु* । खनामख्यात भारतवर्पीयपुर
पुर लच्मीपर नाम्ना, दत्तस्य अ्रष्ठिनः प्रिया । आराधय-
दभक्कार्थ:, पुत्राध नागदवतम् ॥ ॥ ” आ० क० ४ अ०।
लच्छीविजय-लक्ष्मीविजय-पुं० । दुर कोत्पत्तिनामग्रन्थस्य
कतरि खनामख्यात श्राचायं, ज० इ० |
लजण--लज़न-न० । लज्लायाम् , बृ० ? उ० १ प्रक०।
| लज्जणिज्ज-लज्जनीय-चि° । लज्ञत यस्मादसो लज्जनीयः ।
शृष्ठस्य चालगनेन या शते सा लगरडशायिका । भूम्यलग्न- |
लज्जाहतों, ज्ञा० १ श्रु० ८ अ० ।
लज्जमाण-लज्जमान-त्रि० । लज्ां कु्बाणे , “ लज्ञमाणा
पुढा पास. अणगारा मो' त्ति | लज्ञमानाः स्वकीयं प्रवज्या-
भात कुवाणाः, यदि वा--सावद्यान॒ुष्टानन लज्ञमानाः ल-
ज्ञां कुचाणाः पृथाग्विभक्लाः शाक्यालककणभुककापिलादिशि-
ष्याः | आचा० १ श्रु० १ अ० ३ उ०।
लज्जसपजम-लज्जासयम-पु० | लज्ञा प्रताता सयमः पश्चा-
श्रवादिविरमणात्मक एताभ्यां समीभावमुपगताभ्यामन्य
इति स पव लज्ञासयमः । सयत, उत्त ० २ आ० ।
लज्जसंजय- लज्जासंयत- प° । लज्ञायां सम्यक् यतते यत्नं
कुरुत इति लड्वासखयतः। लज्जया सम्-सम्यग् यतते-कृत्यं प्र-
त्यारता भवतीति लञ्जञासेयतः, पचादिदशानादच् । लज्जा-
चति साधो, उत्त० २ श्र०।
लज्जा-लज्जा--खरी० | वी डायाम् , ग०१ आधि०। अनुचिता-
लुष्ठानसंचरणात्मिकायां हियाम् , उत्त० ५ अण० । स्था० ।
मनावाक्रायसंयम, रा० । लज्जा-सयमः। दश० ६ अ०२
उ० । अपवादभय, दश० € श्र० १ उ० । लज्जा द्विविधा-
लोकिकी; लोकोत्तरा च । तत्र लोकिकी--स्नुषाखुभटादेः
श्वशुरसग्रामावषया । लाकात्तरा--सप्तदशप्रकारः सयम: ।
तदुक्कम-'"लञ्जा दया सजमा वंभचरे ” इत्यादि । लज्जमा-
नाः -सयमानुष्टानपराः । यदि वा-पुथिवीकायसमारम्भरू-
पादसयमानुषटानाल्नञ्जमानाः प्रधर्गिति प्रत्यक्तज्ञानिनः प-
रा्तक्षाननश्च अतस्तान् लज्जमानान पश्यत्यनन शिष्यस्य
कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शिता भवर्ताति । आचा० १
श्र ? अर २ ह०।
( ४६४८ )
श्रभिध्रानराजन्द्रः'
स्तस्ार्णःस
लद्धि
लजञाणास--लज्जानाश-पुं० । गवां दिखमक्तमपि तद्वशो
तन, दश० ६ अ० । योषितो हि सङ्घे पुरुषस्य लज्ञानाशो
भवति गाविन्दद्धिजपुत्रवत् | तं०।
४४ 6. [93
लजातवस्सीजिई दि य-लज्ञातपखिजितेन्द्रिय--पु । लज्जा- |
ग्रधानास्तपस्विनः शिष्या जितेन्द्रियाश्च ये ते लज्ञातपस्वि- ¦
जतान्द्रयाः । व्युन्पत्तिलन्धाथकषु साथुषु, श्री०।
लज्ञातयपः श्राजितान्द्रय-एु० । लज्लया तपः ज्या च (जतानाः
न्द्रियाण॒ यस्त लज्जातपःश्रीज़ितान्द्रिया: । व्युत्पात्तलब्धा-
थ्रकेषु साधुषु, औं० ।
लजादाण--लजादान-न० ! लज्जया-डिया दार यत्तन्ल|ज्जा-
|
| लट्॒ग-देशी-कुस॒म्भे, दे० ना० ७ वर्ग १७ गाथा ।
दानमुच्यते । “ अभ्यार्थितः परेण तु, थद्याने जनसमूहम- |
ध्यगतः । परचित्त रक्तणार्थ, लञ्वायास्तद् भवेद्दानम् "` ॥ १॥
इत्युक़लक्षण दानभेदे; स्था० १० ठा० ३ उ०।
लज/लाघवसंपष्म--लजालाघवसम्पन्न-त्रि० । त्र लज्जा
प्रसिद्धा सेयमा वा लाघवं द्रव्यते ऽल्पोपधित्व, भावतो गौ-
रवत्यागस्ताभ्यां संपन्नः । लजालाघवयुते, भ० २ श० ५ उ०।
लजालु-लजःलु-चि० । अकार्य्यप्रवत्तने प्रति लञ्जते सश-
ड्रग भवतीति लज्जालुः | दर्श० २ तत्व । अकाय्यवजक, घ०
२ अधि० ।
लजावत्-त्रि० | “ आल्विल्लोल्लाल-बन्त-मन्तेत्तेर-मणा
मतोः ” ॥ ८। २। १५६ ॥ इति मतोः आल्वादेशः । लज्ञा- |
लुः | बीडफे, सख खल्वाङृत्या सवनवातया ब्रीडात स्व-
यमङ्गीङतमयुष्ठिते च परित्यक्तु न शक्रोति इति आलोच-
कन लज्ञावता न भवितव्यम् । प्रव० २३६ द्वार ।
लजःलइणी-लज्ावती-खी° । “ गोणादयः ” ॥ ८ । २ । |
१७४ ॥ इति निपातः । लज्जावती । लज्ालुदणी । लज्ञा- |
विशिष्टायाम् , प्रा० २ पाद् ।
लज्जावण--लज्ञापन-ति० । लज्वामापयन्ति भ्रापयन्तीति ।
लज्ञाजनकेषु, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
लज्ञाविय-लजापित-त्रि० । प्राप्तलज्जे,प्रश्ष० ३े आश्र० द्वार | |
लज्जासंपष्म-लजसम्पन्न-तजि० । लज्ञया अपवादभीरुत-
या संयमेन वा सम्पन्न, ओ० ।
लज्जिय ( अ ) लज्जित-त्रि० । लज्ञायुक्के, ज्ञा० १ श्रुण ८
अआ० । “ हित्थ विलयं लज्जियं ” पाइ० ना० १६७ गाथा ।
लज़िर-लज़िनू्-त्रि० । शीलाय्यर्थस्येरः ”' ॥ ८।२। १४७५॥
इति प्रत्ययस्य इरादेशः | लज्जिरो । लज्जाशीले , प्रा० ।
लज्जु-रज्जु-स्त्री० । रश्मों , रज्जुरिव रज्जुः । सरलत्वात् ।
प्रश्न० ५ सव० द्वार । अवक़ब्यवहागे, भ० २ श० १ उ०।
लट्ट( ४)-लष्ट-त्रि० । मनोज्षे,ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। शोभने,प्रश्न०
४ आश्र० द्वार । मनोहरे, रा० | जं० । औ० । भ० । जी० ।
ज्ञा० । त० । समीचीन, व्य० ३ उ० । खुन्दरे, पाह०
ना० । अन्या सक्कें, मन हरे, प्रियंवदे च। दे० ना० ७ वर्ग
२६ गाथा ।
लट्ड(इ)तर-लष्टतर -त्रि० | शोभनतरे, पं० व° ४ द्वार | अति-
कल्याणे, तं० ।
| लट्डसाग-लष्टशाक-न० । कोखुम्भशालनके, बृ० १ उ० २.
| लट्टा-लष्टा खी० । कुखम्भे, स्था० ७ ठा० ३ उ०।
लड्(द)दन्त-लषटदन्त- पु । मघमुखस्यान्तद्वीं पस्य नऋत्यको
ण नव याजनशताान व्यतिक्रम्य लव॒णसमुद्रे अन्तर्द्धी पविशे-
ष.प्रज्ञा० १ पद् । स्था० | प० व० न० | राजगहे श्राणक--
स्य राज्ञा धारिरायां जाते कुमार, श्ररु० । “ विजय दोणिण "
( विजये विमान उपपद्यत्यादि सवम् ` महासीहसेण '
शब्दं पश्चमभाग २२२ पृष्ठ गतम् )
लट्टबाहू -लण्बाहू-पुं० । चम्बूद्धी पे भरतत्तेजे दशमतीर्थकर-
पूवेगवजावे, स० ।
||
लट्ट्सेट्रिय-लश्टसंस्थित-त्रि० । मनोज्ञसेस्थान, जी० ३ प्रति० ;
४ अआधि० । ।
प्रक० । |११;
| लद्ि-यष्टि-खी० ! “ यष्ट्यां लः ” ॥ ८। १। २७७ ॥ इति ` ¦
यस्य लः । प्रा० । “ रस्यानुष्रे्टासेदष्ट'” ॥ ८। २। ३४ ॥ इति `
चस्य ठः । काष्ठयष्टिकायाम् , , ओ० । सूत्र ।
यष्िप्रमाणमे--
डुट्ठपखुसाणसावय-विज्ञलविसमेसु उदगमाईसु ।
लट्टी सरीररक््खा, तव संजमसाहिआ भणिआ ॥ १॥
मोक्खट्टा नाणाई, तर तयद्वा तयट्विआ लट्टी । |
दिट्ठा जहावयारे, कारणतक्कारणसु तदा ॥ २॥ ”
घ० ३ श्रधि०।
गाहा-- |
मंडक-विडंडए य, लट्टि-विलट्टी य तिविधतिविधा तु ।
वेणुमयवेत्तदारुग, बहू अप्प अहाकडा चेव ॥ २०२॥ |
पगण तिविहसद्देश वेण॒ुवयादी, वितियेण तिविहसदेण
यडुपरिकम्मादी । |
गाहा---
तिषि तु हत्थे दंडो, दोष्पि उ हत्थे विदंदओ होति। `
लट्टी आतपमाणा, विलट्टि चरउरंगुलेणुणं ॥ २०३॥
कंठा ॥ |
अड्ंगुलेण उणं, ण लिज्जता होति सपरिकम्माओ ।
अद्भंगुलण रणं, चिजता अप्पपरिकम्मं ॥ २०४॥
पूववत् ।
गादा- ह|
जे पुव्ववद्धिता वा, जमिता संठविव तत्थिता बाऽबि।
होति तु पमाणजुत्ता, ते णायव्वा अहाकडका॥२०१५॥ ¦
पूर्यवत् ।
गाहा--कि पुण लद्रीपए, पश्रोयणे इसे--
दुपद् चउप्पद णिवा-रणडयरक्खणाहेडं ।
अद्धाण-भरणभय-वु- इस्स बवट्रुभणा कप्पे ॥२०६॥
दुपयया-मणुस्सादि, चउप्पदा-गाविमादि बहुष्पाता इङ्ग
गिम्हिमादि अद्धाण पलंवमादि बुज्भति, मतो वा बुज्भति
खाहिगादिभए वा पहरण भवाति । बुहृस्स वा अबइंभसलदृक _
लट्टी कप्पति घेनतु । नि छू? १ उ० । ||
|
( ५६९१ )
_लडण
अमभिधानराजेन्द्र: |
लब्धि
तडण-लडन-न० । खीपुखयोरन्योन्यं प्रेमकलदे, ब० १ उ०
३ प्रक० । घ० । प० भा० । नि° चू० । आचा० ।
तडह-लडभ-तरि० । सलावण्य, श्रो० । ज० । मनोज्ञ, प्रश्न०
४ आश्र० द्वार लालत, ज० २ वत्त० । “ लडड मड॒ह जा
शुष । `` उपा० २ अ०। रम्य, विदग्धे, इत्यन्ये । दे० ना० ७
बग १७ गाथा ।
` लडदक्खःभेञ्-देशी-विघयिते, दे० ना० ७ बर्ग २० गाथा ।
| -धा० । आध्याने, “ स्मरेकर--भूर-भर-भल-लद -
दस्म |
_ विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहा: ” ॥ ८ । ४। ७४ ॥ इति स्मरे
लदादेशः | लइ । स्मरति । प्रा० ४ पाद ।
लद़िय-स्मृत-त्रि० । चिन्तिते, भरिअ लदिश्र खुमरिञ्च ”
पाइ० ना० १६४ गाधा ।
लणह-श्लक्षण-त्रि० । “ क-ग-ख-ड-त-द्-प-श-ष-स- > -
कृ-> पामूध्व लुक् "` ॥ ८ । २। ७७ ।। इति श्लच्णशब्दस्य
शक्रारस्य लापः । लर । प्रा । घुरिटतमदवत् मख, रा०।
जी० । प्रज्ा० | आ० म० | औ० । भ० । स० । ज०।
लत्तिया-लत्तिक।-री ० । काशिकायाम् , आचा०
। चू० ४ आ० | प।प्णुप्रहारे, स्था० २ ठा० ३ उ० । आतोद्य-
| अदे, आ० चू० र अ० ।
| लत्तय[सद-ल।त्तकाशब्दू-5० । पा।ष्सप्रहारशब्द
| ठा० ३ उ०।
। लद्र-लग्ध्-चि° । प्राप्त ¢
च्र० =
स्था० २
उत्त० २ आअ० । श्राचा० । ज्ञा० ।
सूज । दश० । द्रव्या० । सथा० । प्रश्न० । भवान्तरोपा- |
जिते, ज्ञा० २ श्रु० २ वगे १ अ० | स्था० | आतु० ¦ विपा०।
नि० । अवाप्त, ओ० ।
लद्ूू-लब्धर्थ-त्र० । लब्धो5थों गुर्वादिभिः सकाशादिति
तार्थ, उपा० ७ अ० | सूृत्र० | अथेश्ववणात् ( भ०
७ अ०। “ बहुपुक्खला लद्धद्वा ” लब्धः-प्राप्तः पुरडरिकिणी-
थायाम् , कल्प० १ अधि० ४ क्षण ।
लन्धास्थ- ० । ्रास्थानमास्था- प्रतिष्ठा सा लब्धा येन स
लब्धाः । आस्थायुक्के, सूज २ श्रु० १ आऋ० |
लद्भाणुमाण-लब्धानुमान-त्रि० । लन्धमनुमान-पराभिधा-
| यपारज्ञान यन स लब्धानुमानः । धराभिपायक्ष.सूज० १ ॐ
१२३ श्र०।
'लद्भावलद्भ वित्ति-लब्धापलब्धवृ त्ति-ति० ! खन्मानादिना ल-
| ब्यः न्यक्रारपूवकतया चआपलब्धे: भक्तादिभिर्निवोद, स्था०
|
६ ठा०।
लद्वि-लन्धि-खी० । श्रात्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कम्मै-
शष, आ० म० १ अ० । श्रष्टावशतिसिद्धचु, प्रय० २७०
द्वार । आत्मनः शुभभावावरणक्षयापशम , विश० ।
केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तत्वाह्नब्धिः | अहिंसायाम् , प्रश्न०
१ संब० द्वार। वस्त्वादीनां प्राप्तो, प्रब० ७ द्वार! तरे
गम्यत यन स लब्धाथेः | दशे० ३ तक्व । श्रवणतो ग्रही- |
२श० ५ |
| उ० । रा० ) स्वतः (भ०११श०११3उ०) ज्ञाततच्त्वे,सूत्र० २ श्रु० |
शब्दान्वथतया अर्थौ यया सा लब्धाथो । स्ववुद्धा ऽवगता- |
|
च्तयादता लाभ, भ० ८ श० २ उ०। गुणप्रत्यय सामथ्ययवि- |
न्द्रियादिविष्ये, जी० १ प्रति० । लब्धिदोनलाभभोगो--
पभागवीयमभेदात् पञ्चा । खूत्र० १ श्र० १२ ० । यो-
ग्यतायाम् , अजु० । पा० । घन र० । “ आराद्यारे उवश्चागे,
लद्भाए वा हविज्ञऽवत्थाणं ` ( ७६६ ) आधारोपयोगल-
न्धिचिषयमवयेरवस्थानम् । अवधिश्ञानस्थावस्थाने, विशे० ।
( अभ्यन्तरलब्घिलक्तणम् ` श्रो ` शब्दे ३ भागे १४५ पृष्ठ
गतम् । ) गुण॒भ्त्ययो हि सासथ्येविशवों लब्धिरिति प्रलि-
द्विः । आ० म० १ &०।
अथ लब्धिऋद्धी वेणयितुमाह--
आमोसहि' विप्पोसहि `,खेलोसहि ` जल्नओसही ' चेत्र |
सब्बोसहि पंभिले', ओहि रिउविउलमइलदी ।१५०६।
चारणं आसीविस के-वलिय गणारिणो ये पुव्वधरा ।
अरहंत'" चकवट्टी , बलदेवा वासुदेवा य ।१५०७
“्चशब्दस्य प्रत्यकमभिसम्बन्धात्ू आमशोषधिलब्धिः ,
विप्रडोषघिलब्धिः, खलो षधलब्धिः, जल्लोषधिलन्धिः, स-
वाषाधिलन्धिः, साभिन्नेति-सूचकत्वातसूत्रस्य सभिन्नश्रो-
तोलन्धिः, श्रवधिर्लान्धः.ऋजुमतिलन्धिः,विपुलमतिलन्धिः,
चारणलन्धिः, आशीविषलन्धिः, केवलिलान्धः, गणधरल-
न्धिः, पूर्वधरलबन्धिः, अ्ज्लाब्धिः, चक्रवत्तिलब्धिः, वलदेव-
लब्धिः, वाखुदवलान्धः ।
( १ )--आमर्शोषधिलब्धिव्याख्या श्रामोसदि ` शब्दे
दितीयभाग २६२ पृष्ठ गता । ) (२)-( विभोषाधिलाब्धि ` वि-
प्पोसाहि ` शब्दे व्याख्यास्यामि । ) (२ )-( खलो घाधलन्धिः
खलार्साद ` शब्दे तृतीयभाग ७७२ पृष्ठ विस्तरता ध्याख्या-
ता। ) ( ४ )-( जलोषधिलब्धिः 'जज्ञासदि' शब्दे चतुर्धभागे
१४२६ पृष्ठे प्रतिपादिता । ) (५ )-सर्वौ षधिलान्धि ` सन्वा-
सहि' शब्द् व्याख्यास्यामि । ) (६)-(सभिन्नश्रोतालन्धि `से-
भिन्नसो य शब्दे ग्या ख्यास्यामि ।)(७)-(अवधिलब्धिः 'आहि'
शब्दे दृतीयभागे१३७पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता ।)(८)-(ऋजु-
मातिलब्धिः * उज्जुमइ ` शब्दे छि तीयभागे ७३६ पृष्ठे गता। )
( & )-( विपुलमतित्वलधि ' विउलमइ ' शब्द दशयिष्या-
सि।) ( अल बहुविशेषः ` मणपज्जवणाण ' शब्दे पञ्चमभागे
८७ पृष्ठे द्रष्टव्यः | ) ( १० )-( चारणलब्धयो बहुविधा इति
चारण ` शब्द् तृतायभाग ११७३ पृष्ठ उक्तम् ।) ( ११ )
(आसीविषलब्धिः ' आसीविस' शब्द द्वितीयभागे ४८७ पृष्ठ
धवस्तरतो व्याख्याता । ) (१२)-( कर्वालत्वलाच्धः प्रसिद्धा,,
साच ` केवलणाण ' शब्दे तृतीयभाग ६४२ पृष्ठ विस्तरतो
शीता । ) ( १३ )-(गणुघधरत्वलब्धिः 'गणदर' शब्दे तृतीय-
भागे ८१५ पृष्ठ उक्ता । ) (१४)-( पूर्वंघरत्वलब्धिः चुञ्वहर
शब्दे पश्चमभाग १०६४पृष्ठ गता । ) (१५)-(श्रदल्लान्धिः 'अरह
शब्दे ' 'अरहंत ' शब्दे च प्रथमभागे ७५५ पृष्ठ उक्रा । ) (१६)
( चक्रवतिं लान्चिलक्तण * बल ' शब्दे पश्चमभाग १२८७ पृष्ठ
गतम् । ) (१७)-(बलदेवत्वलाब्धः "बलदेव" शब्दे पञ्चमभाग
रप पूछ गता । ) ( १८ )-(वाखुदवत्वलन्धिः * बल ` शब्दे
पञ्चेमयाग १२८७ पष्ठ उक्ता ।) अन्य त्वाहु -विड््-उच्चार
प्रति-प्रश्रवणएम् ! खलः-श्लष्यः, जल्ला मल्लः, कोषाधशब्दन
समालकर णादिक तथेव. खुगन्धाख्ते चिडादयस्तक्लल्धिम-
( ६०० ) |
लद्धि _
तां द्रष्टव्याः । इह चात्मानं पर वा रोगापनयनवुद्या विडा-
दिभिः स्पृशतः साधास्तद्रागापगमा द्रष्टव्यः, प्रागुक्ता 55
मषलब्धिरपि शरीरेकदश सवस्मिन् वा शरीरे समुः्पद्यत, |
तन चात्मानं परं वा व्याध्यपगमवु्या पराख्रशतस्तदपगमा
छअभिधानराजन्द्रः)
|
द्रष्टव्यः । विश० । ग० । श्रा० म०। प्रव० । पा० । नं० ।
श्रा चू० ।
खीरमहुसप्पिआसव १६,कोटइयडु॒द्धी २०पय णुसारी २ १य ।
तह बीयबुद्धि २ रतयग२२,अहारग २४ सीयलसा२५ य
॥ १५०८ ॥
वेउव्विदेहलद्धी २६,अक्खीणमहाणसी २७पुलाया य२८।
परिणामतववसेणं, एमाई हुति लद्बीओ ॥ १५०६ ॥
क्षीरमधुसर्पिपराश्रवलब्धि:,कोष्टकवुद्धि लाच्धः, पदायु सार
लान्घः, तथा-वीजवुद्धिलान्धः, तेजालश्यालान्धः, श्राहा-
रक साच्धः, शीतलश्यालब्धिः, वेकुर्विकदेह लब्धिः, श्त्तीण
मदानलीलबन्धिः, पुलाकलन्धिः, पवमेता च्र्टाविशतिसंख्याः,
श्रादिशन्दादन्याश्च-जीवानां शुभशुभतरशुभतमपारिणाम-
वशादसाधारणतपः प्रभावा नानाविधलन्धय ऋद्ध विशषा
भवान्त । ( प्रव० २७० द्वार ) ( ‰ )-( क्षीराश्रवलब्धिः |
“ स्वीरासवलद्धि ' शब्दे तृतीयभाग ७४७ पृष्ठे गता । )
( -= )-मध्वाश्रवलाग्धः "महूुञ्रासवलद्ध' शब्द् पञ्चमभागे
२६ पृष्ठ द्रष्टव्या ।)( इ )-सर्थ्पिराक्षव लब्धिः 'सप्पिआसव
शब्द वक्ष्यांम | ) ( २० )-( कोष्ठबुद्धिलब्धिः “ कोट्टबुद्धि ?
शाब्द् तृतायभाग ६७५ पृष्ठ गता।) (२१ )- ( पदानुसारिलब्धि
पयाखुलारि' शब्दे पञ्चमभागे ५०६ पृष्ठ गता ।) (२२)-(बीज
बा दलान्धः ` वाजवुाद्ध ` शब्दे पञ्चमभाग १३२४ पृष्ठ उक्ता । )
(२३)-तजालश्या लब्धिः 'तेउलस्सा शब्दे चतुथभाग २२३४६
पृष्ठ विस्तरतः प्रतिपादिता ।) (२५)-(श्रादारकलब्धिः“श्रादा
रग शब्द् द्वितीयभाग ५२५ पृष्र गता। )( २५ ) (शीतलश्याल-
ग्धिः.सीयलस्सा शब्दे वद्यामि । ) (२६)-(वेक्रियलान्धिम् 'वे-
उाव्वयलाद्ध' शब्द् वक्ष्यामि। ) ( २७ )-(अक्ती णमहानासिक-
लब्धिः श्कखी णमहाणसिय' शब्दे प्रथमभाग १४६ पृष्ठे उ-
क्वा ।) (२८)-(पुलाकलान्धः"पुलाग' शब्दे पञ्चमभागे १०६०पृष्ठे
गता।) तथा 'एमाइ हंति लद्धाओ' इत्यत्रादिशब्दादन्या अपि- |
अखुत्वमहत्त्वलघुत्वगुरुत्यप्राघ्तप्रा का म्यशत्ववशित्या प्रति घा-
तित्वान्तर्धानकामरूपित्वादिका लब्धयो बोद्धब्याः । तत्रा-
खुत्वमणुशरीरविकुर्वणम् , यस्य बशाच्छिद्र्मापप्रविश-
ति, तञ्ञ च चक्रवतिंभागानपि भुङ्कं । महत्त्वम-मेरोरपि मह
सरशवीरकरणसामथ्यम् , लघुत्वम्-वायोरपि लघुतरशरीर
ताः गुरत्वम्-वच्नादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्र-
कृष्बलेदु :सद्दता,प्राप्तिः- भूमिस्थस्य अङ्कुटयग्रण मरुपर्वताग्र-
श्रभाकरादः स्पशसामथ्यम् , प्राकाम्यम-अप्सु भूमाविव प्र
विशतो गममशक्तिः. तथा श्रष्खिव भूमाशुन्मज्जलनिमज्जन
इशत्वम-जलोकस्य प्रभुता, तीधकरशिदशश्वरश् द्धिविक्र-
णम् , बाशत्वम्-सवजीववशीकरणलष्धिः, श्रप्रति घातित्यम्--
अद्विमध्य5पि निःसगमनम् .श्नन्तर्घानम् श्ररश्यरूपता, का-
मरूपित्वम्--युगपदेव नानाकाररूपतया विकुर्वराशशक्किरिति।
लद
अथ भव्यत्वाभव्यत्वाबाशष्टाना पुरुषाणा च यावत्या ल-
ब्थया भवन्तात तत् पघ्रातपादयात---
भवसिद्धिपपुरिसाणं, एयाओ हंति भणियलद्धीओ ।
भवसिद्धियमदिलाण वि, जन्ति य जायति तं बच्छ |
|
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॥ १५१६ ॥ रे
अरहंतचकिकेसव-बलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा। _
गणहरपुलायआहा-रगं च न हु भवियमहिलाणं | १५२० `
अभवियपुरिसाणं पुण, द सपुव्विल्ना उ केवलित्तं च।
उज्जुमई विउलमई, तेरस एया उ न हु हुति ।१५२१॥
अभावषेयम।हेलाण पि हु, एयअ। हुति भशियलद्धी य।
महुखीरासवलद्धी वि, नय ससा उ आगिरुद्धा । १५२२।
भवभाविनी सिद्धिमुक्गिपदं यां त भवासाद्धका भव्या इ- `
त्यथः, तचत पुरुप्राश्चत तथा तषामताः पूर्वोक्ताः सवा.
अपि लब्धया भवान्ति । तथा भवासिाद्धकमाहलानामपि याव, _
त्यो लब्धया जायन्त तद्धच्य. भरतिज्ञातमव निवाहयात- `
अहन्तेत्यादि अहंश्क्रवर्तिवासद्ववलदवसंभिन्नओतश्वा- ॥
रणपूवधरगणधरपुलाकाहारकलान्धलक्तणा पता दश ल- `
न्धयो भव्यर्माहलानां-भव्यखाणाम् न हु--नव भवान्ति श
चास्वष्टादश लन्धयो भव्यखरीणां भवन्तीति सामथ्यौद्भम्य-
ते । यच्च मल्निस्वामिनः खरीत्वऽपि तीथकरत्वमभृत्तदाश्च-
यैभूतत्वान्न गणयते । तथा अनन्तरमुक्कास्तावदश रूब्धयः |
कवलित्वं च-कवलिलाग्धिः, अन्यच्च ऋजुमातिवपुलमति-'
लक्षण लब्धिद्दयमित्येतास्रयोदश लन्धयः पुरूषाणामप्यभ-
व्यानां नैव कदाचनापि भवन्ति, शषाः पुनः पञ्चदश भव-
न्तीति भावः । अभव्यमहिलानामप्येताः पूवभरिताखयाद्-
श लब्धयो न भवन्ति, चतुदशी मधुत्ताराश्चबरलष्धिरपि नै.
ब तासां भवति. शषास्त्वतद्वयतिरक्ताश्चतुर्दश लन्धयो. `
विरुद्धा भवन्तीत्यथः । प्रव० २७० द्वार । |
लब्धिद्वारे लब्धिभेदान् दशयन्नाह-
कहविहा णं भते लद्धी पष्पत्ता । ? , गोयमा ! दसविध'
लद्धी पष्पत्ता, तं जहा-नाणलद्धी १ दसणलद्धी २ चरि
तलद्धी ३ चरित्ताचरित्तलद्धी ४ दाणलद्धी ५ लाभलद्रं `
६ भोगलद्धी ७ उवभोगलद्धी = वीरियलद्धी & इदियलद्र
१० । णाणलद्धी शं भते ! कइविहा पष्यत्ता ? गोयमा |
पंचविहा पप्मत्ता,तं जहा-आभिशिवोहियणाणलद्धी०जाए `
2 99% +, ~ +.
चन
=+
केवलणाणलद्धी, अन्नारलद्भी णं भते ! कतिविहा प.
छत्ता१,गोयमा ! तिविहा पष्पत्ता, तं जहा-मदश्रनाणलद्धी ।
सुयअज्नाणलद्धी विभेगऽन्नाणलद्धी ॥ दं सणलद्धी शं भते
कतिविहा पन्नत्ता १, गोयमा ! तिविहा प्पत्ता, ते जहा-
सम्मइंसणलद्भी, मिच्ादं मणलद्धी, सम्मामिच्छादंसण
लड़ी । चरित्तलद्धी शं भंते ! कतिविहा पष्छत्ता १, गोयमा
पंचविहा पत्ता, तं जहा-सामाहयचरित्तलद्धी दोव `
ड्रावशियलद्ी परिहारविसुद्धलद्धी सुहुमसंपरागलद्वी है
5
( ६०१
अभिधानराजन्दः |
एदि _
लद्धि
हक्खायचरित्ेलद्धी । चरित्ताचरित्तलद्धी णं भते ! कति- |
विहा पष्णत्ता ?, गोयमा ! एगागारा पष्पत्ता, एवे ०जाव
उवभोगलद्धी एगागारा पष्पत्ता । बीरियलद्धी ण भते ! क- |
तिविहा पष्पत्ता १, गोयमा ¡ तिविहा पत्ता, तं जहा- |
बालवीरियलद्धौ पडियवीरियलद्धी बालपंडियवीरियलद्धी ¦ |
हादेयलद्धी णं भत ! कतिविहा पष्पत्ता १, गोयमा ! पंच-
विधा पष्पत्ता, तं जहा-सोहंदियलद्धी° जाव फार्सिदि- |
यलद्धी । ( प्र° ३२० )
* कतिविहा ण ` मित्यादि, तत्र लन्धिः-श्रात्मनो ज्ञाना- |
दिगुणानां तत्तत्कमक्षयादितो लाभः, सा च दशविधा,
तत्र ज्ञानस्य--विशषबाघधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधन्ञा- |
नावरखच्तयच्तया पशमाभ्यां लच्धिरक्षानलब्धिः , पएवमन्य- |
आपि, नवरं च दशैन-रुचिरूप श्रात्मनः परिणामः, चारि-
श्र चारित्रमाहनीयक्षयक्तयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः,
तथा चरि च तदचरिजत्र चेति चरित्राचरित्रे-संयमासं- |
यमः, तच्चा ऽप्रत्याख्यानकषायत्तयो परशमजो जीवपरिणामः, |
|
दानादिलन्धयस्तु पश्चप्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसंभवाः, |
बृह च सकृद् भोजनमशनादीनां भोगः,पोनःपुन्येन चोपभो- |
जनमुपभागः, सख च वख्रमवनाद्रेः दानादीनि तु प्रसिद्धा-
नीति, तथा इन्द्रियासां-स्पशनादीनां मतिक्ञानावरण-
क्षयोपशमसम्भूतानामकेन्द्रयादिजातिनामकर्माद्यानियमि-
तक्रमाणां ययोौप्ततनामकमोदिसाम थ्ये सिद्धानां द्वव्यभावरू-
पाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलॉब्धः | श्रथ जझ्ञानलब्धर्विपर्यय-
भूता 5ज्ञानलब्धिरित्यशज्नानलष्धिनिरूपणायाह-- अन्नाणल-
द्धी' त्यादि । 'सम्मईसख' व्यादि, इह सम्यग्दशनीयं मिथ्या-
त्वमोहनीयकर्मा णुवेदन्मेपश्मम १ क्षय २ च्षयापशम ३ समुत्े
आत्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनमशुद्धमि थ्यात्वदालिकोद्यससम्रु-
त्थो जीवपरिणामः,सम्यगृमि ध्यादशन त्वद्ध॑विशुद्धमि थ्यात्व-
दलिकादयसमुत्थ आत्मपरिणाम एवं 'सामाइयचरित्तलद्धि'
त्ति सामायिकं--सावद्ययोमधिरातिरूपम् तदेव चरित्रें-
सामायिकचरित्र वस्य लब्धिः सामायिकचरित्रलब्धिः.
सामायिकचरिज च दिधा-इत्वरम् यावत्कथिक च,
तत्रार्पकालमित्वरम् , तच्च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमती- |
धकरतीर्थैष्वनारोप्रितव्रतस्य शिच्चकस्य भवति, यावत्काथि- |
कं तु यावज्जीविके, तच्च मध्यमवेदेदिकती्ङ्करतीथा- |
न्तरगतसाधूनामवसयम् , तषामुपस्थाप्रनाया अ्रभावात् ,
नन्वितरस्यापि यावज्जीवितया प्रतिज्ञानात् तस्थैव चोप-
स्थापनायां परित्यागात् कथं न प्रतिक्षालोपः ? श्रत्रोच्यते,
अतिचारांभावातू , वस्थैव सामान्यतः सवयययो गनिव्रृत्तिरू-
पेणावस्थितस्य शुद्धयन्तरापादनेन सञ्ज्ञामाश्रविषादिति ।
£ छेओवट्टावणियचरिस्लद्धि › चि छेट्टे--प्राक्तनसंयम-
स्य व्यवच्छेदे सति यदुषस्थापनीयं--साधावारोपशणीयं-
तच्छेदोपस्थापनीयम् , पूर्वपर्यायच्छेदेन भहावताभामा रो पण-
मित्यर्थ: । तच्च सातिचारमनतिचार च, तत्रानतिचारमि-
त्वरसामायिक॒स्य शिक्षकुस्यारोष्यते, तीथोन्तरसंक्रान्ती वा,
हे पाश्वेनाथती थोद्द्ध मामस्वामिती थे संक्रामतः पह्चया-
सातिचार ३५६. ७ बतारायरगो
प्रधर्मप्राप्तो, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यद् वतारोपरं, त- ॥
ह्व तच्चरित्रे च केदो पस्थापनीयचरित्र, तस्य लग्धिश्डदाप- पृचछश्नो कद ॥ ३६७ ॥ ” ब्द परिज्ञा-प्रत्याख्यानं प्रतिषृ-
१५१
स्थापनीयचारित्रलब्धिः, ' परिद्ारविखुद्धियचरत्तलाद्ध ` त्ति
परिहारः-तपाविशपस्तन विशुद्धि्यस्मिस्तत्परिहारविशद्धि-
कं.शप तथैव.पतश्च द्विवि ध-निर्विशमानकरं .निर्वि्टकायिकं च।
तत्र निर्विशमानकास्तदासेवकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विश-
मानकम, श्रासेवितविवक्तितचारित्रकायास्तु निर्विंष्टकायास्त
एव निर्विष्कायिकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विषटकायिकमि-
ति, इह च नवको गणो भवति,तत्र चत्वारः परिद्ारिका भव-
न्ति, अपरे तु-तद्वेयावुत्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः,
एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यः, एतषां च
नि्विशमानकानामयं परिदारः-
“परिहारियाण उ तवो, जहम्नमज्मो तदेव उक्कासो ।
सीउय्हवासकाले, भणिश्रो धीरेहि * पत्तयं ॥ ९ ॥
तत्थ जहज्नो गिम्ह, चउत्थ छट्ट तु होड माज्मिमओ ।
श्रटमामद उक्कासा, एत्तो सिसिर पवक्खामि ॥ २ ॥
सिसिर उ जहन्नाई, छुट्टाईं दसम-चरिमगा दोति ।
वासाखु अट्टमाई, बारसपज्जन्तओ णड ॥ २ ॥
पारणग श्याम, पंचसु गहदोस5भिग्गहा भिक्त ।
कपष्पट्टिया य पददिण, करोति एमव आयाम॑॥ ४॥ ”
दृद सप्तखेषणासु मध्य आद्ययोरथश्रह पव, पञ्चसु पुनग्रहः,
वत्राप्यकतरया भक्कमकतरया च पानकमित्यवं द्वयोर भिग्रहो
-ऽवगन्तव्य इति । धः
“एवे छुम्मासतवं, चरि उं परिहारगा अखुचरंति ।
अनुचरगे परिद्ारिय-पयट्टिए जाव छुम्मासा ॥ ५॥
कप्पट्टिओ वि एवं, दृम्मासतवं करेइ सेसा उ।
अखुपरिहारिगभावं, वयं ति कप्पट्टियत्त च ॥ ६ ॥
पवेसो अट्टारस-मासपमाणो उ वक्षिओ कप्पो ।
सखवश्रो विसेसा, खत्ता एयस्स णायव्वो ॥ ७ ॥
कप्पसमत्ती तय, जिणकप्पे वा उ्चैति गच्छ वा |
पडिवज्ञमाणगा पुण्, जिणस्सगासर पवज्जेति ॥ ८ ॥
तित्थयरसमीवास-वगस्स पासे व नो य श्रन्नस्स।
एएलि जे चरणं, परिद्ारविसुद्धिय तं तु ॥ ६॥ ”
श्नन्येस्तु व्याख्यातं-परिद्दारतो मासिकं चतुलैभ्वादि तप-
अरति यस्तस्य परिदारिकचरि्रलन्धि्भवतीति,श्दं च परि-
हारतपो यथा स्यात्तथोच्यते-( व्यवहारभाष्योक्ला गाथाः )-
^“ नवमस्स तद्यवन्थु, जदश्च उक्कोसऊणगा दस उ ।
ससत्थ ऽभिग्गहा पुण, दव्वाइ तवो रयणमाती ॥ ६५४ ॥ ”
अयम थैः--यस्य जघन्यतो नवमपूर्व ठृतीये वस्तु यावद् भ-
वति उत्कर्षतस्तु दश पूवि न्यूनानि सुत्रताऽथतो भवन्ति-
द्रत्यादयश्चाभिग्रहा रत्नावस्यादिना च तपस्तस्य पररिहारत-
पो दीयते, तद्दाने च निरुपसर्गा्थं कायोत्सर्गो विधीयते
शुभे च नक्षत्रादौ तत्प्रतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं व्रत-यथा श्रं
तब बाचनाचार्यः, श्रयं च गीताशैः-साधुः सष्टायस्ते, शष -
साधवोऽपि वाच्याः, यथा-'“ एस तवं पडिवज्जइ, न किचि
श्रालवदह मा य आलचघह । श्रत्तद्ुचिन्तगस्स उ, वाधाओ भ
न कायत्वो ॥ ३६३ ॥ ” तथा कथमहमालापादिराहितः संस्त-
परः करिष्यामीव्यवे बविभ्यतस्तस्य भयापहारः कार्यः, कल्प-
स्थितश्च तस्थैतत्करोति--* किद्रकम्मं च पडिच्छुइ, पडन्न
पडपुच्छयं पि से देद । सो वि य ग़ुरूमुवचिद्दुदइ, उदंतमवि
( ६०२ )
द्धि
अभिधानराजन्द्रः।
ललत
च्छा, त्वालापकः, ततोऽसौ यदा ग्लानीभूतः सन्नुल्थानादि
स्वये कतुं न शक्तोति तदा भणति-उत्थानादि कक्तमिच्छामि
तता ऽचुपरिदारकस्तृष्णीक एव तदभिप्रेतं समस्तमपि क-
राति, आह च~ उद्रुज निसीएज्जा, भिक्खे टिडज्ञ भडगे
पटे । कुवियपियवेधवस्स व, करेइ इयरोऽपि तुसिणीओ
॥ ३६८ ॥ ” तपश्च तस्य ग्रीप्मशिशिरवषांखु जघन्यादिभदेन
जतुथोदिद्वादशान्तम् । पूवौक्रमेवति ' सुहुमसेपरायचरित्तल-
द ' नि सखपरोति-पयटति ससारमाभिरिति सम्परायाः-कषा-
याः सृदमाः-लोभांशावशपरूपाः सम्पराया यत्र तत् सृच्मसं-
परायम्, शप तथेव, एतदपि द्विघा--विशद्ध-मानकम् , स- |
क्रिश्यमानकं च । त्र विशुद्धचमानकं ्षपकापशमकश्रशिद्ध-
थमाराहतो भवति १, सेकिलश्यमानकं तु उपशमश्रेणीतः प्र-
चयवमानस्यति २। अहक्खायचरित्तलद्धी `
प्रकारेण आख्यातम-अभिहितमकषघायतयेत्यर्थः तथेव यत्त-
द्यथाख्यातम् , तदपि द्ववधम्-उपशमक-त्तपकश्रणिभदात् ,
क~ क [> =
| ज्ञयण-लयन-न० । गारवातपाषाणगूहे, ज्ञा०
शष तथेवेति | एवं “ चरित्ताचरित्ते ” त्यादों, ' एगागार `
त्ति मूलगुणात्तरगुणादीनां तद्भेदानामविवक्षणात् , छिती-
यकषायक्षयोपशमलभ्यपरिणाममात्रस्यव च विवक्षणाचच- |
रत्राचाग्त्र लब्धरकाकारत्वमवसयम् । एवं दानलन्ध्यादा- |
नामप्यकाकारत्वम्ः, भेदानामविवक्षणात् , वालवीरियल-
द्वी' व्यादि,बालस्य-असंयतस्स यद्वीयेम्-असयमयोगषु प्र-
वृत्तिनिवन्धनभूत तस्य या लन्धिश्चारि्रमाहादयाद्वीयाी- |
न्तरायक्तयोपशमाच्च सा तथा, एवमितरे आप यथायोगं |
वाच्य, नवरं परणिडतः--संयतो, बालपरिडतस्तु सयताऽ-
सयत इति । भ० ८ शु० २ उ०।
लद्वि्रक्खर लब्ध्यन्ञर- न° । लब्धिरूपमक्तरं लज्ध्यक्तरम् | |
ति यथा-येन |
भावश्रुत; ने० । आ० चू० । बृ० । ( तच्च “ अक्खर ' शब्दे प्र- |
थमभाग १४० पृष्ठे दर्शितम् । )
लद्धभिअपजत्तग-लब्ध्यपर्य प्रक-पुं० । अपर्याप्तकभेदे, कमे १
कर्म० (अपज्जत्तग' शब्दे प्रथमभागे ५६३ पृष्ठ व्याख्यातः। ) |
लड्भिपुलाय-लब्धिपुलाक -पुं? । दवेन्द्रद्धिसमसम्यद्धिक ल- |
व्थिविशषथुक्ले, | “ संघाइयाण कञ्ज, चुराणज्जञा चक्रवद्धि-
मवि जीए । तीए लद्धीर्पे जुओ, लद्धिपुलाओ मुणेयव्यो
॥ १ ॥ प्रब० ६३ द्वार ।
लद्विवीरिय-लन्धिवीर्य- न° । वीयभदे, “ जो पुण ससारी
जीवो अपज्त्तगां ठाणातिसत्तिसजुत्ता तस्स तं लद्धिवी-
रियं भवति ' । नि चू० र उ० ।
जद्धिसंपष्ता-लब्धिसम्पन्न- ० । श्रादारवसख्राद्युत्पादनशक्रि-
युक्ते आमर्पोषध्यादिलब्धियुक्त, ग० २ श्राधि० । “ जहा
प्रयवत्थब्भासपूसमित्ता गिलाणण त्ति यं सिग्धे करेति "" ।
न० चू १० उ०।
तद्धिसागरसरि-सब्धिसागरसूरि-पुं० । तपागच्छीये उदय- |
सागरसृरिशिष्य, तन विक्रमसवत् १५५७ श्रीपालकथाना-
मकः सस्कृतग्रन्था निर्मितः | ज इ० |
(#-लब्ध्वा-अव्य० । अवाप्यत्यर्थ, सृत्र० १ श्रु० १५ अ० |
पञश्चा० | दश० ।
द्वन्निय लब्ध ति”) प्रान्त, आव“ २ अ० ।
लप्पसिया-लपनश्री-ल्ली । जलन सिद्धा लप्पासिया, स-
मुत्तारिते खुकुमारिकादों पश्चादुद्धरितघृतेन खराशिटतायां
तापिकायां जलन सिद्धा लपनश्रीभंवाति । लहिगणुरिति प्र-
सिद्ध खादिमविशषे, ध २ अधि० । ल०प्र० ।
लब्भ-लभ्य-त्रि० । उचिते, प्रश्च० ५ सेब० द्वार ।
लय-लय-पु° । श्ङ्गदा्वांयन्यतरमयनाङ्कलिकोशकेनाहता-
याः तन्ञ्याः खरप्रकारे, स्था० ७ ठा०३ उ० जी० । रा०। ल-
यार्तन्त्रीसखन विशेषाः, ^“ तत्थ किल कोणएण तती छिप्प-
ति तश्रा नहेहिं अणुमज्ज्ञ त्ति, तत्थ »ज्ञारिसो सखे
उद्धात सा लया त्त दश०२अ० । दुःखध्वंस, द्वा० ११ द्वा०
आ्र्छष्ट, मलन च । कर्प० १ आध० ३ त्तस । नवदम्पत्योः
परस्परं नामग्रहणोत्सवे , दे० ना० ७ वग १६ गाथा ।
लयंग-जलताङ्ग-न०। पूर्वाणां चतुरशीतिलक्तयुणिते पूवेश-
तसहस्त्र, ज्यो० २ पाहु० ।
श्रु० २ अ०॥
उत्कीणपवैतग्रहे, अनु०। “ छायं लउञ्च लयरण ” पाइ०
ना०८७ गाथा । तनुके, खदुन, वल्ल्यां च च | “ लइये तखु-
मिउवल्लीसु ' दे० ना० ७ वर्म २७ गाथा ।
लयणी-लयनी- खी ०। लतायाम् , ˆ कयणी लयणी ” घाइ०
ना० १३६ गाथा।
लयसम-लयसम-न० । लयमनुसरतो गातुर्गेये, स्था० ७ ठा
२ उ०।
लया-लता-खी० । पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्त्यति--
मुक्तककुन्दलता्यादिकं वनस्पतिभदे, आचा० १ श्रु० १
अ० ४ उ० । यस्य तिर्यक् तथाविधाः शाखाः प्रशाखा वा
न प्रस्तता सा लतत्यभिधीयत । जी० ३ प्रति० ७ श्राधि०।
से कि तं लयाओ १, लयाओ अशगविहाञ्रा, पर्ण-
त्ताओं तं जदा-“ पठमलया नागलया , असोगचं-
पयलया य चूतलता । वणलयवासंतिलया, अडमुत्तय-
कुदसामलया ॥ २४ ॥” जे यावष्पे तहप्पगारा । सेतत ल-
याओ, प्रज्ञा° १ पद् । पाइ०्ना० । |
ग्रन्थविशष , चावीकादिपत्तनिराशश्चातिभूयानिति लता-
दित एव तदवरामा विधयः । नयों० |
लयाघर-लतागृह -न० । अशोकादिलतागृहेषु, ज्ञा० १ श्रु०
३आ०।
लयाजुद्ध--लतायुद्ध--त० । युद्धकलाभद् , यथा लता वृत्त
मारोहन्ती आमूलमाशिरस्तं वेवेष्टि, तथा यत्र योघः प्र-
तियाधशरीरं गाढं निपीड्य भूमो पतति तल्लतायुद्धम् ।
वत्त । स० | श्रं० ! ज्ञा० ।
लयापुरिस-देशी-यत्र पद्मकरा वधूलिख्यते तस्मिन्नथ, “ प-
उमकरा जत्थ बह, लिहिज्जए सा लयापुारसो ” दे° ना० ७
वर्ग २० गाथा ।
लयामग्ण-लतामार्ग -पुं० । यत्र लतावलम्बेन गम्यत ताह-
श मार्गे, सूत्र० १ श्रु० ११ आ० |
` ललन--ललत् चरि । दो वायमाने, औ० । इंप्सितक्रियाविशे-
ललत
( ६०३ )
अभिध्रानराजन्द्रः।
ल्व
घान् कुवीत, भ० १३ श० ६ उ० । क्रीडाति , बृ० १ उ० ३
प्रक० । मनईप्सितं यथा भवति तथा वतमाने, रा०।
ललणा-ललना- खी । रमण्याम् , त० ।
। नाणाविहेसु जुद्ध मंडणसगामाडवीसु युहाऽणमगिण्हण-
सीउण्हद्क्खकिलेसमाइएसु पुरिसे लालयंति त्ति ललणा
| आ॥७॥
नानाविधषु युद्धभरडनसेग्रामारवीषु मुधाषणमग्रहन शी- |
तोष्णदुःखक्लेशादिषु पुरुषान लालयान्ति विविध कदथैय-
न्तत ललनाः, तत्र युद्धम-मुश्यादि परस्परताडनम् , भ-
। शडन-वाक्कलहः संग्रामा-महज्जनसमतक्तकलहः । अटवी-
रये तत्र ्रामणादिकारापणन, यद्वा-- मुधा निष्फलम्
| अणमिति ` शब्दकरणगाल्यादिप्रदानं तेन ' गिएहण ` त्ति
कामातुरादिप्रकारेण पुरुषग्रहणं ` तन' शीतेन कोपाटोपा-
त् माघमासादों वस्ोदालनग्रहबहिःकर्षणादिना उष्णन
स्वकायकारापणन आतपादों श्रामयन्ति दुःखन श्रापच्या
श्राभरणाष्िपीडादशैनन क्लशन रामा दविञ्यादेयोगे पर-
स्परकलदात्पादनन श्ादिशब्दादम्येरपि अनाचारसवाद्यन-
अौत्पादनेः पुरुषान पीडयन्तीति ललनाः । तं०।
ललाउदस- ललाटदेश -पुं० । भाग्यलक्षण शरीरभागे, पश्चा०
४ विव० । श्रौ०।
ललिअ-ललित-न० । लीलायाम्, “
पाइ० ना० ७० गाथा ।
ललिय-ललित-न० । दस्तपादाङ्गाविन्यासविशेषे , उक्त--
हस्तपादाङ्गविन्यासो, श्रूनत्रोष्ठप्रयोजितः । खुकुमारो
विधानेन, ललितं तत्प्रकीर्तितम'' ॥१॥ च्रू० १ उ० ३ प्रक० ।
प्रश्न० । सविलास, उत्त० & आ० । क्ञा० । विलासवद्-
तौ, ओ० । सम्पन्नतायाम् , ज्ञा० १ श्रु° १ अ० । पासकादि-
कीडायाम् , प्रव० १७१ द्वार । माधुय्यं , ओ० । मारईवे ,
आव० ४ अ० । शोभावति, त्रि० । ज्ञा० ९ श्रु० १९ आअ० ।
उपा० । “ ललियकयाभरण० " ललितानि शोभनानि
कृतानि न्यस्तानि श्राभरणानि सारभूषणानि यस्य स
तथा तम् । विलासवति, उत्त० २ ० । मनोहरे, श्रौ० ।
| स० । अनु० । रा०। मनाशलीलया सद्िते , च० प्र० १
पाहु० | इंप्सित, क्रीडायुक्के, स्थिते च । ज्ञा० १ श्र० ६ आ०।
लालल्यापत, श्रा० । खुन्दर, "` ललिय बग्गु मज्ज” पाइ०
| ना० रर गाधा । इष्ट, नि० । श्रस्यामवसषप्पिरयां जातस्य
पञ्चमबलदवस्य पूवभव जीवे, पुं०। स०।
ललियंग- ललिताङ्ग-पु० । ईशाने कल्य उपपन्ने ऋषभदेवपू-
वैभवजीवे, तं । कल्प० । आ० क० । श्राचा०। (तदूवक्कव्य-
| ता श्रयांशन स्वपूवभवसम्बन्धकथनावसरे “ उसभ ` शब्दे
| द्वितीयभागे११३४प्रष्ठ प्रतिपादिता । ) ललितशरी रे, ' ललि-
यंगकयाभरणे `-ललिताङ्गक-ललित शरीरे कृतानि-विस्यस्ता-
नि ललिताभरणानि येन स तथा | ओ० | श्रा० म०।
ललियंत-लाल्यमान-जत्रि० । विलास्यमाने, प्रक्ष७ ४ आश्र०
द्वार ।
| ^ -स्थरी० । रोहितकपुरे स्वनामस्या-
तां मोछ्धाम् , श्राव० ४ अ० ।
[ष
हेला ललिश्च लीला ”
| ल्ल लल्ल--9० | अव्यक्कध्वनो
ललियघड़ा-ललितघटा-ख्जी० । स्वनामख्यातायां स्वच्छुन्द्-
चारिगोष्याम , सथा०।
कोसं्बानयरीए, ललियघड़ा नाम विस्सुता आसि ।
पाञ्मोवगमनसुत्ता, बत्तीसं ते य सुयनियसा ॥ ७६ ॥
कौशाम्ब्यां नगर्य्यां ललितघटा नाम स्वच्छुन्दचारिगोष्ठी-
पुरुषपद्धातिः द्वा्िशन्मि्रसमवायरूपा, विश्रुता-शालिभद्रा-
दिवद् भागिपुरुषतया विख्याता, कुतश्चिद्धेराग्यात्स्वयमव
गरृहीतव्रता गुरुखमीपे चाधीतशषातिशायिश्चुता गीतार्था
नदीपुलिनपतितपृथुकाष्ठशय्यासु पादपापगमनन खुप्ता द्वा-
त्रिशद॒पि श्रुतीनिकषा आकर्शितरहस्य श्रुता वा ।७६। सथा०।
ललियमित्त-ललितमित्र-पुं० । सप्तमवाखुदेवस्य पूर्वभवे
जीवे, स०।
ललियवित्थरा-ललितविस्तरा-खी० । हरिभद्रसूरिरूतायां
स्वनामख्यातायां चेत्यवन्दनसूतरवृत्तौ, ल० ।
“ प्रणम्य भुवनालोकं, महावीरं जिनोत्तमम् ।
चेत्यवन्दनसूत्रस्य, व्याख्येयमभिधीयते ॥ १ ॥
छ्मनन्तागमपर्याय, सर्वमच जिनागमे ।
सूतं यतोऽस्य कास्यन, व्याख्यां कः कतुमीश्वरः ॥ २ ॥
यावत्तथापि विज्ञात-मर्थजातं मया गुरः ।
सकाशादटपमतिना, तावदेव ब्रवीम्यहम् ॥ ३ ॥
ये सत्वाः कर्मवशतो, मत्तो ऽपि जडबुद्धयः ।
तषां हिताय गदतः, सफलो मे परिश्रमः ॥ ४॥ ” ल०।
“आचायेहरिभद्रेण, द्धा सन्न्यायसंगता ।
चेत्यवन्दनस्दूबस्य, चृत्तिलैलितविस्तरा ॥ १॥
य पनां मावयत्युञ्चै-मध्यस्थनान्तरात्मना ।
सद्धन्दनां खुबीज वा, नियमाद्धिगच्छति ॥ २॥
पराभिपायमज्ञात्वा, तत्कृतस्य न वस्तुनः ।
गुणदोषौ सता वाच्यौ, प्रश्न पव तु युज्यते ॥ ३॥
प्रष्ठव्यो ऽन्यः परी्ताथ- मात्मनो वा परस्य च ।
ज्ञानस्य वाऽभिचद्धधर्थ, त्यागार्थ संशयस्य च ॥ ४॥
त्वा यदर्जितं पुराय, मयेनां शुभभावतः ।
तनास्तु सर्वसत्त्वानां, मात्सर्यविरहः परः ॥ ४ ॥
इति ललितविस्तरानामचेव्यवन्दनवृत्तिः । कतिद्धम्भतो
याकिनीमदन्तरासूनाराचा्यहरिभद्र स्यति । ₹० ।
| ललिया-ललिता-खरी° । जयपुरनगरे विक्रमंसतराजभार्य्या-
याम् , दशै° ३ तस्व ।
| ललियासण- ललिताशन -न० । मनोक्षभोजने, “ भोयणमा-
सणमिह ललियपरिवेसिया दुगुणभागो ” यस्य भोजनमास-
ने च इृष्ट-मनो ऽभिरुचितं एक्रयते परिवेषिका च सखी तस्या-
भीष्टा क्रियते इष्टभोजनस्य द्विगुणो भागो दीयते । सली-
लमशनमासनं वा श्रस्यति व्युत्पत्त्या ललिताशनको ललि-
तासनको वा । ब० २ उ० |
६6 99 |
लज्नविफलवाया
लज्ना-अव्यक्ना विफला-फलासाधनी वाग्येषाम् । 5एन० २
श्चाश्र० द्वार | अवुदरगिरिस्थस्य तीथस्य, १५७३ शके उद्धा-
रकतैरि महणर्सिद ुद्ध, ती० ८ कल्प । सस्पृह, न्यून च ।
वि० | दे० ना० ७ वग २६ गाथा।
( ६०४ )
श्रा धानराजन्द्रः।
लक्षक
लवणसमु
लन्लक- देशी । भीमे, दे० ना०.७ वै २८ गाथा । “ भइरव- |
लल्लक्क-भीखणया "` पाइ० ना० ६५ गाथा !
लन्लिरी-लन्लिरी- खी० । मत्स्यवन्धनविशेषे, विपा० १ श्रु० |
८ अ०।
लव-लव- पुं । सप्तकस्तोकरूपे कालविशेषे, ्षा० १ श्रु० ५
० । प्रष० । स्था० | अनु° | त°;
इयपरिमिते काल, ते० । लेशे, “ थवे लेखो लवो कला मत्ता
पाइ० ना० १६७ गाथा । कमणि, न० | खूत्र० २ श्ु० दअ. |
लवइय-लवकित-त्रि० । लव पव लव॒कः स्वाथे कः । स स~ |
आत स्विति लघकिताः | सञ्जातमषद्लके, ज० १ व-
च्० । रा० । शङ्करवति, भ० १ श० १ उ०।
लवंग-लवङ्ग-न० । स्वनामख्याते बतत, तत्पुष्पे च । गज्ञा०
१ पद । रा० | ज० । आचा० । फलविशेषे, ज्ञा० १ श्रु ०१ अ०।
लवंगदल-लबङ्गदल-न° ॥ लब॒कूृपत्रे » आ० म० २ अआ० | रा०।
लवंगविट्ठ-लवड्न्भवेधित-जि० । दाने दत््वा आत्मना दानफल
प्रशेसने , श्रन्यतीथिकैवा प्रशंसां कारयति च । नि० चू
२ उ०। ( 'दाण' शब्दे ४ भागे २४८६ पृष्ठे लक्षणमेतस्य । )
लवग-लवग्-पुं° । लवपरिभिते काले स० ७७ सम० ।
लव॒ण-लवण-न० । सामुद्वादो ज्ञाराविशेषे , ज़ी० १ भरति० ।
ल० प्र० | आतु० । पञ्चा० । दश० । साचचिललघणशहीते को
विधिः । यदि केनाप्यनुपयोगादिना साधुना सांचित्त लवर
ग्रहीत पञ्चाद् ज्ञातम् तत्र को विधिरिति ? अत्र साधुस्तल्नच- |
ण धनिकस्य निवेदयति । आयुधष्मन् ! त्वया शात्वा अज्ञात्वा वा
दक्त तदचुजानता मया ऽऽदक्त परमथ य॒य यथच्छं भुङ्ग्धव-
म् इत्युक्ते तत्स्वयं भुङ्क्ते । साघभ्मिकेभ्यो वा ददाति का-
ग्ण सति, करणाभावे तु परिष्ठापयतीव्युक्कमाचाराङ्गद्धितीय- |
श्रुतस्कन्धापण्डेषणाध्ययनदशमोदेशकते । दी ° २ भरका० । स्त- |
म्मिताहारविष्वसादिकतरि सिन्थुलवणाद्राशिते रस , पुं०। |
अनु० । लत्नणन पूरितः समुद्रो लवणसमुद्गः। एकदेशन |
गम्यमानत्वात् लव॒णसलुदे, अचु० ¦
लवणसयुद-लवणसमुद्र - पुं” । लवणरसास्वाद्नीरपूरितः स- |
मुद्रो लवणसमुद्रः |“ लवणो य द्वोइ दादिणेणं तु” (४६ |
गाथा) श्राचा० १ श्रु० १ छ&० १ उ३०। ते च असंख्येयाः। |
जी० ३ प्रति० । जभ्बुढ्ीपस्याभितः समुहे , , अचु० ।
(१) संप्राति लवणसमुद्रं विवघुरिदमाद--
जम्बूदीव शाम दी लवणे शाम सुद वड बलयागारसं-
ठाणसंठिते सच्वतो स्मता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति ।
“ जबृदीवं दीव › मित्यादि जम्बूदीप नाप द्वीप लवणो नाम |
समुद्रो वृत्ता--बवर्तुलः, स च चन्द्र मएडलवन्मभ्ये परिपूर्णो ,
ऽपि शङ्क्येत तलत श्राद--वलयाकारसंस्थानसस्थितः--
वलयाकारम्-मध्यश्युषिरम् यत् संस्थाने तन संस्थितों
वलयाकारसंस्थानसंरिथितः सवंतः-सब्रौखु दिल्लु समच्लतः |
सामस्त्यन परित्तिप्य-वेशयित्वा ।तष्ठां तत ।
लवणे णं भते | समुद कि समचकवालसंठिते विसम-
भ० | करमे० । ज्यो । |
“सन्त पाणुणि से थोदे सत धोवाखि खे लवे । लवाण स~ |
लदत्तरिणए, स सुहुते वियािष" चि । ०१ श०१ उ०। काष्टा- |
चकवालसंखिते ?, गोयमा ! समचकवालसंठिते नो वि-
समचकवालसंठिए !
« लवणे र भंते ' इत्यादि--लवणो भदन्त ! समुद्रः कि
समचक्रवालसंस्थितः ,यद्धा- विषमचक्रवालसंस्थितः ?, च- #
[4 ७. न् [न 3
क्वालसंस्थानस्याभयथा ऽपि दशनात् , भगवानाह-गोतम ! ॥| ५॥
समचक्रवालसस्थितः, सर्वत्र द्धिलक्षयोजनप्रमाणतया चक्र- ४
वालस्य भावात् , नो विवमचक्रवालसेस्थितः।
(२) संप्रति चक्रबालविष्कस्भादिपरिमाणमेद पृच्छति-
लवणे शे भते ! समुद केवतियं चकवालविक्खभेणं १ ,
केवातियं परिक्खेवेणं पष्पत्ते ?, गोयमा ! लवणे णं सखद
दो जोयणसतसहस्साई चक्तवालविक्खंभेणं पन्नरसजोयण-
सयसहस्साई एगासीडइसहस्साई सयमेगूणचत्तालीसे किचि . `
विसेसाहिए लवणोद धिणो चक्वालपरिक्खेवेणं । से शे | `
एकाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडणं सज्वतो समं-
ता संपरिक्खित्ते चिड्द दोशह वि वष्मओ ¦ सा णं पम `
वरवेइया अद्धजोयणं उड उचत्तेणं पंचधणसयं विक्खं- | `
भणं लवणसमुदसमियपरिक्लेवेशं, ससं तहेव । से शं | `
|
।
वणसंड देखणाई दो जोयणाईं ° जाव विहरइ ।
लवणे णे भेते ! सझुद्दे इत्यादि प्रश्नसूतज खगमम् । भ- |
गवानाद-गोतम ! द योज्नश्तसहस्मे चक्रवालविष्कम्भन |
ज़म्बूद्वीपविष्कस्भादेः तद्धिष्कम्भस्य द्विग्युणत्वात्, पञचद-
शयोजनशतसदस्नाणि एकाशीतिः सहस्राणि शवमकोनच-
त्वारिंश च किञ्चिद्धिरेषाने परिक्तेपण, परिक्तेपप्रमाणे चै
तत् पारिधिगणितभावनया स्वयं भावनीयम् , त्तत्रसमास-
टीकातो वा परिभावनीयम्।' सर ण॒ › मित्यादि, सः-
लवणनामा समुद्र एकया पद्मवरवेडिकया, अष्ट्योज्ञना>
च्द्धितजगत्युवरिभाविन्यति गम्यते, पकेन वनखराडन
सवैतः-- समन्तात् सपरिक्तिप्तः, सा च पद्मवरवेदिका श्र
दयोजनमूध्वमुचेस्त्वेन पञ्च धचुःशतानि बिष्कञ्भतः प~
रिक्तेषतो लवणसमुद्रषरिक्तेपधमाणा, वनसखरडो देशोने देः
योजने, श्भ्यन्तराऽपि पश्चरवेदिकाया वनस्शड एवंप्र-
भार पव । जी० ३ प्रति० २ उ० । ( पद्मवरवेदिकावर्णकस्व-
रूपम् ' पउमवरघेइया ' शष्दे पञआ्षमभागे १४ पते गवम् । ) |
(३ ) घनखराडवर्णक इत्थम्-- ` |
से णं वणसंडे किर्हे किए्होभासे नीले नीलोभासे हरिण
हरिओभासे सीए सीओभासे शिद्धे शिद्धोभासे तिच्वे
तिय्वो भासे किस्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए
हरियच्छाए सीए सीयच्छाए शिद्धे णिद्धच्छाए तिव्वे ति-
व्वच्छाए घणकृडिअकडिच्छाए रम्मे महामेहरणिकुरंबभूण ।
“किर्द्दे' क्ति कालवरणः । ' किरोद्दो भासे ' सि रुष्णावभासः-
कृष्णप्रथः कृष्ण प्रवावभासत इति कृष्णावभासः | एवम्-
"नीले नीलोभासे' प्रदेशान्तरे-' हरिए हरिश्रोभासे ` पदेशा ।
न्तरे एव, तत्र नीलो-मयूरगलवत् , हरितस्तु-शुकपुच्छ- । |
वत् , इरितालाभ इति वृद्धाः । 'सीय' त्ति शीतः "भि |
( ६०५ )
शबणससुह्
श्रभिधानराजन्द्रः । ।
4
चल्ट्याद्याक्रान्तत्वात् इति बद्धाः । 'रिद्धे ` त्ति स्निग्घोन तु
रुत्तः । ` तव्वे ` त्त तात्रा वणादेगुणप्रकषवान् । ` ` ।केर्ह |
किण्दच्छाए ` त्ति इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विश-
घणामति न पुनरुक्रता,तथाहि-रूष्णः सन ङृष्णएच्छायः, छाया
चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशषः ` घणकाडयकडच्ाए `
त्ति अन्या ऽन्यं शाखानुप्रवशाद् वहलनिरन्तर च्छाय इत्यथः ।
* महामेहरणिकुरंबभूए ` तति महामेघबुन्दकल्पः ।
ते णं पायवा मूलमतो कंदमंतो खंधमंतो तयामतो सा-
लमंतो पवालमंतो पत्तमतो पुष्फम॑तो फलमंतो बीयर्मतो अ- |
शुपुव्वसुजायरुइलवड भावपरिणया एकखधा अणगसाला
अशेगसाहप्पसादहविडिमा अणेगनरवामसुप्पसारिअअग्गे-
जघ विउलबद्धखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अ-
वाईणपत्ता अणईअपत्ता निद् यजरहपेडुपत्ता णवहरियभि-
सतपत्तमारधकारगर्भरदरिसशिज्ञा उवशिग्गयणवतरुण-
पत्तपल्लवकं।मलउज्जलचलतकिसलयसुङकमालपवालसोदहि- ।
यवरंकुरग्गासे हरा शिं कुसु मिया रिं माहया शिच लवइया
शितं थवईया शिच गुलइया शिच गोच्छिया णिच जमलि-
या शिच जुवलिया णिच्च विणमिया शिच पणमिया णि-
चं कसुमियमाइयलवइयथबइयगुलइयगोच्छियजमलियजु -
बलियविणमियपणमियसुविमत्तपिडमजःरेवाडिसयधरा सुय-
बरहिणमयणसालकीइलको हंगकभिगारकक।उलक जी व॑ जी -
वकरंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचकवायकलहंससारसअ |
शैेगसउणगणमिहुणविरइयसद्दुष्मइयमहुरसरणाइए सुरम्मे
संपिंडियद्रियममरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमा-
सवलोलमहुरगुमगुमंतगुजंतदसभागे अन्भ॑तरपुप्फफले बा-
हिरपत्तोच्छष्म पत्तेहि य पृप्फेहि य उच्छ्षपडिवलिच्छघ |
साउफले निरोयणए अकंटणए णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगर- |
म्मसोदिए विचित्तसुहकेउभूए ॒वावीपुक्खरिणीदीहियासु
य सुनिवेसियरम्मजालदरए ।
* ते र पायव ` सि यत्सेबन्धाद् वनखराड इति । ‹ मूलमंतो
कनः मन्तो ` इत्यादी नि दश-पदानि, तत्र कन्दो-मूलानामुपरि
बृत्तावयधाविशेषो,मतुपप्रत्ययश्वेह-भृज्नचि प्रशेसायां वा स्कन्धः
स्थुडम् ` तय ` न्ति त्वकू-वल्कलम् शाला-शाखा प्रवालः पल्लवा-
हरः, शपाणि प्रतीतानि ।'हरियमन्ते ` त्ति कचिद् दश्यत, तत
हरितानि--नीलतर प्रत्राणि। अणुपुव्वखुजायरूइलवह्॒भावप- |
रिणय ' त्ति आठुपृव्वैण-मूलादिपरिपास्या सखुष्डु जाता |
खचरा; तृत्तभावंश्व पारणताः प्रारगता वा ये त तथा |
अणगसादप्पसाहावाडमा अनकशाखाप्रशाखो वरपः-
तन्मध्यभागो चृत्ताचस्तारो वा यषां ते तथा । ` अशणगन-
र्वामसुप्पसा।<*यञअगर्)ज्कघणविडलवटद्ट ( बद्ध ) खेध ' `
त्ति अनेकाभिनरवामाभिः सुप्रसारितामिरप्राह्मो घनो-
|= विपुलो--विस्ती णों बद्धा--जातः स्कन्धो यां
ते तथा, वाचनान्तरेऽत्र स्थानेऽधिकपदान्यवं दृश्य--
4 भे न्तः पाईणपडी #5< [न ~ ~
। रच गपडागायय्साला उर्दीणदाएहेणावांत्थणणा
| | २५२
४
श्रोणयनयपणयविप्पहादयञ्यालंवपलवलवसादप्पसादवि डि-
मा अचाईणपत्ता अशुइृषपत्ता इति । । अयमथर्थः-प्राची-
नप्रतीचीनयोः पूर्वापरदिशारायता-दीघीः शालाः--शाखा
यषां त तथा, उदीचीनदक्तिणयारुत्तरयाम्ययोर्दिशोर्विस्ती-
णौ विष्कस्भवन्तो यषां त तथा । अवनता-अधामुखा न
ता-आनप्नाः प्रणताश्च-नन्तु प्रवृत्ताः विप्रभाजताश्व विश-
षता विभागवत्यः अवलम्वा-अधोमुखतया अवलम्ब-
मानाः प्रलम्वाश्वध-अतिदीधा: लम्बाः शाखाः प्रशा-
खास्ध--यस्मिन् स तथाविधा विटपा यपां त तथा, श्रवा-
चीनपत्रा: अ्रधामुखपर्णा: श्रनुद्रीरीपत्राः वृत्ततया अब-
हिनिंगेतपर्णाः । अथाधिकृतवाचना 5नुस्त्रियते--' अ-
च्छिद्पत्ता' नीरन्भ्रपत्रा: । ' अविरलपत्ता ` निरन्तरदलाः |
' श्रवादैणएपत्ता ` अवाचीनपत्रा अधोमुखपलाशाः, अवाती-
नपत्रा वा--अवातापददतवहीः । ' अणइयपत्ता ' ईतिविर-
हितच्छुदा;।'निद्धूयजरढपंडपत्ता' अपगतपुराणपाणडर पत्राः ।
* शवहारियाभिसंतपत्तभारंधका रगम्भी रदरिसाशिज्ञा ` नवन
हरितेन ` भिसंत ` त्ति दीप्यमानन पत्रभारंण-दरूचयना-
न्धकारा अन्धकारवन्ता5त एव गम्भीराश्च दृश्यन्त ये त
तथा । ` उवशिग्गयणवतरूणपत्त पज्ञवक्रामलउज्ञलचलंत-
किसलयसुकुमालयवालसा हियवरंकुर ग्गससहरा ' उपनिर्ग-
तनेवतरुणपत्रपन्नवेरत्यभिनवपत्रगुच्छेः तथा कोमलाज्ज्व-
लेश्वलद्धभिः किसलथः-पत्रविशषः तथा खकुमारप्रवाल
शोभितानि वराङ्कराणि अग्नाशखराणि यवां त तथा।इह च
ऋरङ्करप्रवालपद्लवाकसलयपत्राणामट्पवहवदहुतरादिकालस्-
तावस्थावशवाद्धशषः सम्भाव्यत इति । णिच्च कुसामिया'
इत्यादि व्यक्तम , नवरं 'माइय' त्ति मयूरिताः * लब॒इय त्ति
पल्लविताः * थवइय ` ति स्तवबकवन्तः । * गुलइया ' गुल्म
वन्तः * गाच्छिया ` जातगुच्छाः, यद्यपि च स्तवकगुच्छ-
योरविशषो नामकाशेऽघीतस्तथापि इट पुष्पपत्रकृतो
विशबो भावनीयः, ' जमलिय ` त्ति यमलतया-समश्राशितया
व्यवास्थताः, ' जुबलिय' त्ति युगलतया स्थिताः, * विण-
मय क्त वशेषण फलपुष्पभारण नताः, ` पणमिय ` त्ति
तथव नन्तुम्रारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकमांथत्वात् । ` रिच्च-
कुसामयमाइयलवइयथबइयगुलइयगोच्छियजमलिय जुब लि-
यविणामियखुविभत्तापिडिमंजारिबवाडिसयधर ' त्ति कचित्
कुखामताद्केकगुणयुक्ताः श्रपरे तु-समस्तगुणयुक्लास्तत
कुखामताश्च त इव्यव कमघारयः, नवरं सखुविभक्गाः-सुवि-
विक्लाः सुनिष्पन्नतया पिरङ्या-लुम्ब्यो मञ्जय्यश्च प्र्तातास्ता
प्व श्रवतसकाः-शेखरकास्ता धारयन्ति यते तथा। * सुय
यरदहिणमयणसालकोडइलकोह गकोर्दगकभिगारको डलकजी व॑-
जीवकनदीमुहक्रविलपिगलक्खक्रारं डच करवा यक लहं ससार-
सअरा!गसउणगणमिहुणविरइयसदूदुरणइयमहुरसरणाइए ?
शुकादीनां सारसान्तानामनकेषां सकुनगणानां मिथुनेर्विर-
चत शब्दान्नातेक च उन्नतिशब्द्क मधुरस्वरञ्चं नादित
लाप्रत ्यास्मन् स तथा.चनखगाड इति प्रकृतम् । ` सुरम्म
अतिशयरमणीयः। 'संपिडियदारियभमरमहुकरिपहकर परि-
लितमत्तछृप्परयकुखुमासवलालमहुरगुमगुमतगुजतदेसभागे `
सा्पर्डताः रानां श्रमरमधुकरीणां बनलत्कानामव 'पह-
कर' त्ति निकरा यत्र स तथा, पारलीयमाना--ञ्न्यत आ-
गत्य लये यान्ता मत्तपद पदाः कृखुमासवनालाः किअ्रर्क-
१
( ६०६ )
लवणसमु _ अभिधानराजन्द्रः। _ लवणएसखुद्
लम्पटाः, मधुरं गुमगुमायमानाः गुज्जन्तश्च--शब्दविशेषं | ड यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्च समासान्तः । ‹ अणुगनरफ- `
विदधानाः देशभागेषु यस्यस तथा, ततः कम्मधारयः ।
* श्रञ्भन्तरपुप्फफल बाहिर पत्नाच्छुरणे पत्तहि य पुष्फेहि य
उच्छरणर्पाडवलिच्छरण' श्रत्यन्तमाच्छादित इत्यर्थः, एता-
नि जीरयपि कचिद् वृक्ञाणां विशेषणानि दृश्यन्ते-/साउफले'
त्ति मिए्फलः, ` निरोयपए ` त्ति रोगवर्जितः अकण्टक `
इति । कचित्-' णाणाविदगुच्छगम्ममे डवगरम्मसोादिए ` त्ति
तत्र गुच्छाः वृन्तक्यादयो गुल्मा--नवमालिकादयो मण्ड-
पका लतामरडपादयः ' रम्मे त्तिः कचिन्न दृश्यते- विचित्त-
सुहकेउभूणए ` विचित्रान् शुभान् केतृन-ध्वजान् भूतः-प्राप्तः।
“विचित्तसुहसउकेउबहुले ` त्ति पाठान्तरम् , तत्र विचित्राः
शुभाः सेतवः--पालिवन्धा यत्र केतुबहुलश्च यः स्तं तथा ।
* बावीपुक्खरणीदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालहरए ?
वापीषु-चतुरस्त्राखु पुष्कारिणीषु-द्त्तासु पुष्करवतीषु-वा
दीर्धिकाखु च ऋजुसारणीषु रुप्ठु निवेशितानि रम्याणि
जालग्रहकाणि यत्र स तथा।
पिंडिमणोहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंध-
द्वणि घुयंता णाणाविहगुच्छगुम्ममं डवकघरकस्ु हसे उके उब-
हला अणेगरहजाणजुग्गसिवियपविमोयणा सुरम्म। पासा-
दीया दरिसणिज्ञा अभिरूवा पडिरूवा | ( स्ू० ३ )
पिंडिमणीहारिससुगंधिसुहसुराभिमणहरं॑ च महया
गधदधणि मुयेता ` पिरिडमनीहारिमाम्-पुद्रलसमह -
रूपां दृरदेश गामिनीं च खुगन्धि च-सद्रन्धिकां शुभ-
सुराभिभ्यो गन्धान्तरभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा
तथा तां च, महता मोचनप्रकारेण विभक्किव्यत्ययान्महतीं
चा गन्ध एव प्राणिहेतुत्वात्तप्तिकारित्वाद्नन्धघ्ाणिस्तां मुश्च-
न्त इति वृक्तविशेषणम् | एवमितोा ऽन्यान्यपि-* णाणाविह-
गुच्छृगुस्पमरडवकघरकसखुहसउकेउवहुला ` नानाविधा गु-
च्छः गुल्मानि मणडपका ग्रहकाणि च येषां सन्तित तथा,त-
था शुभाः सेतवो-मार्गा आलवालपालल्यो वा केतवो-ध्वजा ब-
हला बहवो यषां त तथा, ततः कम्मैधारयः । अणेगरह-
जाणजुर्गासवियपविमोयणा ` अनेकेषां रथादानामघो ऽति-
विस्तीरणैत्वात् प्रविमोाचन यषु ते तथा। ' सुरभ्मा पासाईया
दरिसणिज्ञा आभिरूवा पडिरूव › त्ति एतान्येव वृतक्तविशेष-
णानि वनखरडविशेषणतया वाचनान्तरे ऽधीतानि ॥३॥
तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं महं एके |
असोगवरपायवे पप्पत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले मूलमत |
कंद मंते जाव पविमोयणे सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे
अभिरूपे पडिरूवे ।
` तस्स ण वणसडस्स ' इत्यादौ श्रशोकपादपवरैके कचि-
दिदमधिकमधीयते- दृरोवगयकंदमूलवदटृलटसंटियसिलि-
दृघणमसिणनिद्धसुजायनिरखुवह उव्विद्धपवरखेधी › दूरोप-
गतानि--अत्यर्थ भृम्यामवगाढानि कन्द्मुलानि प्रतीतानि
यस्यस तथा, दुत्तो-वत्तुलो लष्टा-मनो्ञः, संस्थितो विशि- |
सस्थानः, श्िष्रः-सङ्गता, घना-निविडा, मसृणः-श्रपरुषः
स्निगधः-श्ररूक्तः, सखुजातः-खुजन्मा, निरुपह तो-विकारविर-
हित उद्विद्ध:-अत्यथमुच्चः, प्रवरः-प्रधानः, स्कन्धः-स्थु-
वरभुयागञ्मो ` अनेकनराणां प्रवरभ्षुजेः--प्रलम्बबाहुमिवाँ- ,
माभिरित्यथ. अग्माह्मयः-अनाश्लेष्यो यः स तथा, कुसुमभरख- _
मानमतपत्तलावेसालसालो' कुखुमभरेण समवनमन्त्यः पत्र-
लाः-पत्रवत्यः विशालाः शाला यस्य स तथा । ' महकारिभ-
मरगणगुमगुमादइयनिलित उड्डितर्सास्सरीए ` मधुकरीश्रमर-
गणेन-लोकरूढिगम्यन, गुमग़ुमाइंत ` त्ति कृतगुमगुमतिश- | ।
ब्देन,निलीयमानेन-निविशमानेन, उड्डीयमानेन च उत्पततां 7 |
सश्रीकः-सशाभो यः स तथा । "णाणासउणगणमिहुणखम-
इरकससद पलत्तसदमहरे ' त्ति नानाविधानां शकुनिगणानां
यानि मिथुनानि तेषां सुमधुरः करखुखश्च यः प्रलप्शब्दस्तेन
मधुर इव मधुरो मनोज्ञा य स तथा । अथाधिकृतवाचना--
"कुसविकुसविखुद्धरुक्खमूल' त्ति कुशा-दर्भा: विकुशा-वल्व-
लजादयस्तेर्विशुद्धम्-विरदित इत्तायुरूप-बृक्तविस्तरपरमाण- `
मिव्य्थो मुलम्-समीपं यस्य स तथा । ‹ मूलमते ` इत्यादि
विशेषणानि पृ्ववद्वाच्यानि, यावत्पडिरूवेति ॥
से श असोगवरपायवे अपिं बहूहिं तिलणए्दिं लउणएर्दि
छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवप्तेहिं दहिवप्षेहिं लोद्धर्दिं धवे-
दिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं सव्वेहिं फ-
णसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियणर्हि
पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं णंंदिरुक्खेंहिं सव्वओं
समंता संपरिक्खित्ते, ते ण॑ तिलया लवइय० जाव शं
दिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला-मूलमंतो कंदमतो,
एतेसिं वष्यओ भाशणियव्यो °जाव सिवियपविमोयणा सुर-
म्मा पासादीया दरिसणिज्ञा अभिरूवा पडिस्वा ते ण
तिलया० जाव शदिरुक्खा अछोहिं बहूहिं पठमलया-
हिं णागलयाहिं असोअलयाहिं चपगलयादिं चूयलयाहिं
वणलयाहिं बासंतियलयाहिं अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं
सामलयाहिं सव्वशो समता संपरिक्खित्ता, ताओ शं
पउठमलयाओ िचं कुसमियाओ० जाव वर्डिसयधरीओ
पासादियाओ दरिसशिज्ञाओ अभिरूवाओं पडिरूवाओ।
( स्रू० ४ )
सो 5शोकवरपावपः अन्यैबेडभिस्तिलकैलेकुचैश्छत्रोपैः शि-
रीषैः सप्तपर्णः--अयुकछदपयायैः अयुकपत्रनामकेदधिपर्ण
लोघ्रैः धवैः चन्द्नैः-मलयजपयायेरजेनेः--ककुरापयौयेः नी-
पैः--कदम्बैः कुटजैः-गिरिमल्लिकापर्यायेः सव्येः पनसेदीडि-
मै: शालः-सजपर्यायैस्तालैः-तृणराजपयोयैः तमालैः प्रिय-
कैः--असनपर्यायैः भियङ्कभिः--श्यामप्यायेः पुरोपगैः य
जवतेः नन्दिवक्तैः-रूदिगमभ्यैः सर्वतः समन्तात्सम्पारिक्षि्
इत्यादि सुगमम्, श्रापश्मलताशब्दादिति । 'पउठमलयाईि' ति
पद्मलताः-स्थलकमलिन्यः पद्मकाभिधानवुत्तलता वा, ना-
गाद्या उ्तवशषास्तषां लतास्तनुकास्त एवं, तत्राशोकः-
कङ्कली चूतः-सदकारः वनः-पीलुकः, बासन्तीलता श्रति-
मुक्रकलताश्च यथप्यका्थ नामकोशेऽघीतास्तथा ऽपी
सूद्वितो ऽवसेयः । श्यामा-भ्रियङ्कः, शषलता रूढिगम्याः, इद
( ६०७ )
लवबणमसम॒द
भिधानराजन
लतावरकानन्तरमशोकवणकं पुस्तकान्तरे इदमाधक्मधी- |
यते-' तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरि बहवे अद अट्ठु
मेगलगा परणत्ता `
शांविति बद्धाः, अन्ये त्वष्टाविति सेख्या, अष्ट्मज्ललकानीति
च सज्ञा)
चद्धमाणग ४ भद्दासण ५ कलस ६ मच्छ ७ दृप्पणा ` ८,
तत्र श्रीवत्सः-तीशङ्करहृदयावयवविशषाकारो, नन्यावर्तः-
प्रतिदिस्मवकाणः, स्वस्तिकविशषा रूढिगम्यो, वद्धं मानक-श-
राचम् , पुरुषारूढः पुरूष इत्यन्य, भद्रा सनम्--सिहासनम् ,
दर्षणएः--आदणरशः , शषाणे प्रतीतानि । ` सव्वरयणामया `
अच्छाः--स्वच्छाः, आकाशस्फांटेकवत् , ` सरहा ` श्लं-
चणाः-श्लक्ष्णपुद्न लनिवृ त्तत्वा त् » मरहा ` मखणाः, "घटा
चृष्टा इव घृष्टाः खरशानया प्रतिमेव ' महा ` मृष्टाः-खकुमा-
रशानया प्रतिमेव प्रमाजनिकयव वा शांताः,
* निरया ` नीरजसः--रजारदिताः ' नि्मेलाः ` करटिनमल-
रहिताः ` निप्पका ` श्राद्रंमलरद्िताः ` निक्कंकडच्छाया `
निरावरणदीप्तयः ` सप्पहा ` सप्रभाः ' समिरीइया ` सकि-
रणाः 'सउज्ञाया' प्रत्यासन्नवस्तूयातकाः ` पासादीया ०४'।
तस्स रा अस।गवरपायवस्स उवार बहवे ` किरहचामर-
उभया ` कृष्णवर्णचामरयुक्कध्वजाः ' नीलचामरज्भया लोहि
यचामरज्भयासुक्किल्नचा मरज्भयाहालिदचा मरज्भया अच्छा
सराहा ` ` रुप्पपट्टा ` रोप्यमयपताकाप्रटाः ' वश्रामयदंडा `
बज्ञदरडाः ` जलयामलगेधिया ` पद्मवत् निदोंपगन्धाः
+ सुरम्मा पासादीया ` ` तस्स शे श्रसोगवरपायवस्स *
'उवरि' उपरिष्टात् ' बहवे ` ' छुत्ताइच्छत्ता ` उपयुपरिस्थि--
ताऽऽतपत्राणि * पडागाइपडाया ` पताकापरिस्थितपताकाः
* घ्रग्टाजुयला चामरजुयला ` * उप्पलहत्थगा ` नीलात्प-
लकलापाः
त्थगा ` कुमुदानि-चन्द्रवाध्यानीति , '
पाठान्तर-' नलिणहत्थगा
कुसुमहत्थय `
खुभगहत्था सोगंधियहत्थगा `
अत एव |
अप्रावष्टाविति वीप्वाकरणात्प्रत्यकं तेऽ |
« ते जहा-सोबत्थिय १ सिरिवच्छ २ नंदियावत्त३ |
* पठमहत्थगा ` पद्मानि-रविबोध्यानि ` कुमुयह- |
त्ति |
नलिनादयः पद्मविशषा रूढिगम्याः, 'पुंडरीयहत्थया' पुरड- |
रोकाणि-सितपद्मानि 'महापुंडरीयहत्था' महापुरडरीकाणि |
लान्यव महान्ति ` सयपत्तहत्था सहस्सपत्तहत्था सन्वरय-
णामया अच्छा ०जाव पडिरूवा ७ '॥ ७ ॥
तस्स णं असोगवरपायवस्स हेड्टा इमि खंधसमन्नीयणे |
एत्थ ण महं एके पुटविसिलापदरए पष्पत्ते, विक्खंभाया-
मरस्मेहसुप्पमाशे किएंहे अंजणघृणकिवाणकुबलयहल-
धरकोसेज्जागासकेसकजलंगीखंजणसिंगभेदरिट्टयजंबूफ - |
लअसणक-सणब्रंधणणीलुप्पलपत्तनिकरअय सिकुसुमप्पगा-
से मरकतमसारकलित्तणयकीयरासिवघ् शिद्धघणे अड्ट सिरे
आयेसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियठसभतुरगनर मगरविगह-
बालगकिष्पररुरुसरभचमरङुजरव णलयपउमलयभत्तिचित्ते
्राइणगरूयवुरणवणी ततूलफरिसे सीहासणसंटिए पासा-
दीए द्रिसणिजे अभिस्वे पडिरूवे | ( प्रू ५ )
॥ श्राश्रीयत- इसि खंधसमनज्ञीण '
मनाक् स्कन्धासन्न इत्यथैः । ' एत्थ ण महं एक ` इत्यत्र ` ए-
त्थ शे ` ति शब्दः अशोकवरपादपस्य यद्धोऽत्रत्यवं सम्ब-
त,
लवणसमु
न्धनीयः । “विक्खेभायामउस्सेहसुप्पमाणे' विष्कम्भः- प
थुत्वम् . , आयामो-देष्य॑म॒ , उत्सेध उच्चत्वमेषु सखुप्रमाणः-
उचितप्रमाणो यः स तथा। ` किर्द ` त्ति कालः, श्रत एव
अअजणधघरणकिवाणकुबलयहलधरकासज्ञागासकसकज्लंगी
खजणसिगभदरिट्यजम्बृफलश्रस णक सरणवंघणनीलुप्पलपत्त-
निकरश्रयसिकुखुमप्पगासे ` नील इत्यर्थः, तत्र श्रञ्जनको
वनस्पतिविशषः ` दलधरकासनज्ञे ` बलदेववसख कज्जलाङ्गी-
कज्जलग्रहम् शृङ्गभदः-महिषादिविषाणच्डेदः रिटकम्--
रत्नम् असनको--वीयकामिधानो वनस्पतिः सनवन्धन-
म-सनपुष्पव्रन्तम् । 'मरकयमसारकलित्तणयणकीयरासिव-
छः मरकतम-रत्नस मसारो-मसृणीकारकः पाषाणवि-
शषः, स चात्र कषपट्टः सम्भाव्यत ` कलित्त ` ति कलित
रुत्तिविशेषः नयनकीका-नेत्रमध्यतारा तद्राशिवणैः का-
ल इत्यर्थः । ' णिद्धघणे ` स्निग्धघनः “ श्रटुसिरे ' श्रष्टसिरा
अष्टकोण इत्यथः । ` आयेसयतलोवमे खुरम्म ईहामियउ-
सभतुरगनरमगरविहगवालगकिराणररुरुसरभचमरकुःजरवण-
लयपउमलयभत्तिचिन्न' इहास्रगाः-वृकाः व्यालकाः-खापद्-
भुजगाः । ' आइणगरूयबूरणवर्णीयतूलफारिसे ` श्राजिनकम्
चममयवसखरं रूतम् प्रतीतम् बूरो-वनस्पतिविशषः, तूलस्-
अक्कतूलम् ' सीहासणसंटिए ' सिहासनाकारः, ' पासादीप०
जाव पडिरूवे' त्ति वाचनान्तरे पुनः शिलापट्टकवर्णकः किञ्चि-
दन्यथा दश्यत, स च सस्छृत्येव लिख्यत--श्रञ्जनकघनकुव-
लयहलधरकांशयकेः सदशः, घनो--मेघ इत्यथः आकाशके-
शक्ञ्जलकर्केतनन्द्रनीलातसीकुखुमप्रकाशः ककंतनेन्द्रनी-
ले-रत्नविशेषों , भङ्गा ञ्जनशृङ्गभेदरिषएटकनीलगुलिकागवला-
तिरकश्रमरनिकुरम्बभूतः, भरङ्गः-कीरविशेषा ऽङ्गारविशेषा वा
श्रञ्जनम्-सोवाराञ्जनम् , शुज्ञभेदो-विषाणच्छे दो विषाणवि-
शपो वा, रिष्रः-- काकः फलविशेषो वा, अथवा श्ररिष्टनीले
रत्नविशपो गुलिका-वणैद्रव्यविशषो गवलम्-मदिषशृङ्गम् ,
पत्यो ऽतिरेको नीलतयाऽतिरेकवान् यः स तथा, स चा-
सो श्रमरनिकुरम्बभूतश्चति कम्मेधारयः । निकुरम्बः--स-
मृदः जम्बृफलासनकुखुमवन्धननी लात्पलपत्ननिकरमरकता-
शासकनयनकीकाराशवणः--श्राशासकोा-चृत्तविशोषः, स्मि-
ग्धो--घनोऽत एवाशुषिरः रूपकप्रति रूपदशनीयः--रूपकेः
प्रतिरूपो--रूपवान् श्रत एवं दशनीयश्च--दशनयोग्यो यः
सतथा मुक्ताजालखचितान्तकमौ--मुक्काजालकपरिगतप्रा-
न्त इत्यथैः ॥ ५ ॥ औ० ।
(४)-सप्रति लवणसम॒द्रद्वारवक्तव्यतामभिधित्सुरिदमाह-
लवणस्स णं भते समुदस्स कति दारा पष्पत्ता १, गो-
यमा [ चत्तारि दारा पणणत्ता, तं जहा-विजये वेजयंते
जयते अपराजिते ।
लवणस्स रो भत ` ! इत्यादि लवणस्य भदन्त ! समुद्र-
स्य कति द्वारांण पज्ञप्तान 2, भगवानाद-गोतम ! चत्वारि
दारण प्रज्ञत्नान, तद्यधा-वजय--वजयन्त-जयन्ता-
5पयाजताख्यान ।
विजयद्वार प्रश्न :-
कहि णं भते लवणसमुद्स्स विजए णामं द पण्ण-
गोयमा ! लवणसमुदस्स पुरत्थिमपरंते धायदहखं-
(च्ल)
सर भधानराजन्द्रः ।
लवणसखखुद्् ध
५ जवां
डस्स दीवस्स पुरत्थिमद्धस्स पद्चत्थिमेणं सीओदाए |
महानदीए उप्पि एत्थ शं लवशणस्स समुदस्स (जी० ३
प्रति० २ 3० ० १५४ ) विजए णामं दारे पण्णत्ते,
अट जोयणाई उड़े उच्चत्तणं चत्तारि जोयणाई विक्ख-
भेणं, तावतियं चव परवेसेणं सेएण वरकणगधथूभियागे |
ईंहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालंगकिण्णररुरुसरभचम- |
रकुंजवणलतपउमलयभत्तिचित्ते र युग्गतवडइरवेदियापरि- ।
गताभिरामे विज्ञाहरजमलजयलजतजत्ते इव अच्चीसहस्स-
मालिणीए स्वगसहस्सकलिते भिसिमाणे भिन्मिसमा- ।
णे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्दिरीयस्वे वरो दा- |
रस्स ( तस्सिमो होइ ) तं जहा-वहरामया शिम्मा रिट्ठा-
मया पतिट्ठटाणा वेरूलियामया खमा जायस्बोवचियप-
वरपंचवष्मम/णिरयणक्ोट्टि मतले हंसगब्भभमए एलुए गो-
मेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडाओ जो-
तिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवडा वह्रामया सं-
धी लोहितक्खमईझ सुझभो णाणामणिमया समुग्गगा
वइरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वहरामई आवत्त-
णपेढिया अकुत्तरपासते णिरंतरितथणकवाड़े भित्तीसु-
चेव भित्तीगालिया छृप्पणणा तिपष्मि होंति, गोमाणसी
तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्टियसालिभंजिया
वहरामए कूड़े रययामए उस्सेहे सब्वतवशिज्ञमए उन |
न्लोए॒ णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खप-
डिवंसगरयतभोम्मे अकामया पकक््खबाहाओ जोतिरसा- |
मया वंसा वंसक्वेल्लुगा य रयतामयी पदट्धिताओ जा-
यरूवमती ओओहाडणी वइरामयी उवरि पुच्छणी सव्व- |
सेतरययमए छायणे श्रकमतकणगकूडतव शिज्ञधुभिया-
ए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिषणगोर्ख)रफेणरययशि-
गरप्पगासे तिलगरयणद्धचद चित्ते णाणामशिमयदामा-
लंकिए अतो य बहिं च सण्हे तवणिज्जरुदलवालुयापःथ-
डे सुहप्फासे सस्सिरीयस्वे पासातीए ॥ ४ ॥ |
‹ कटि ण॒ ' मित्यादि, क भदन्त ! लवणसमुद्रस्य विजय- |
नाम दवारं प्रशप्तम ?, भग्रवानाह-- गौतम | लबणसमुद्रस्य
पूर्वपर्यन्ते घातकीखण्डद्दीपपूर्वार््स्य * पञ्चत्थिमेणं ' ति |
पञ्चिमभागे शीतादाया मद्दामद्या उपयत्रान्तरे लब्रणसमु-
व्रस्य ( जी० ३ प्रति० २ उ० सू० १५४ ) विज्ञयनाम घ्रारं प्र- |
झपम, श्रष्ठौ याजनानि ऊध्वमुचैस्त्वेन चत्वारि योजना-
नि विष्कम्भन, ' तावद्य चघ पवणो ` ति तावन्त्य
व चत्षारीस्यशैः योज्ञनानि प्रवेशेन, कथम्भूतमित्य्थः,
* स्प ' इत्यादि, “ श्वतम्--श्वतवर्णोपितं बाहल्येना-
क्लुरत्नमयत्वात्ू बरकणगधूभियाए ` इति घरकमका-
वरकनकमयी स्तूपिका--शिखरं यस्य तद् वरकनकस्तू- `
पिकाकम्र , ` ईहामियउसभतुरशणलरपसगरबिहगबालगकि-
| वञ्नमया नमाः भूमिभागादृध्वं निष्करामन्तः प्रदेशाः रिष्टमयानि `
क्षररूरुसरभचमरंकुजरबणलय॒पउमलयभत्ति चित्ते खंभुग्ग- ॥ ..
यवरवदयापरिगयाभिराम विज्ञाहरजमलजुगलजंतजुत्त इव
श्रचचीसहस्समालणापए रूवगसहस्सकलिए भिसमाख भि-
ब्मिसमाण चक्खुज्ञोयणलस खुहफास सस्सिरीयरूवे ` इति `
विशषणजात प्राग्वत् । ` वक्षो दारस्स तस्सिमो दाइ ` इति
* वरः- ` वशेकनिवेशो द्वारस्य तस्य--विजयाभिधानस्य
अयम्-वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाद-' त जहे' व्यादि, तद्यथा-
प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः ` वेरूलियरुइलखंभे ` इत बेड्ूर्या- '
वैद्येरत्नमया रुचिराः स्तम्भा यस्य॒ तद् वेद्धयैरुचिरस्तम्भे
जायरूबोवचिय पवर पचवरणमणिरयणकुद्मतले ` इति । '
जातरूपेण-खुवर्णनो पचितेः-युक्कैः प्रवरेः-प्रधानेः पञ्चवर्यैमै-
णिक्षिः चन्द्र॒कान्तादिभी रज्ञेः-ककेतनादभिः कुट्टिमतलम-
बद्धभूमितल यस्य तत्त था'इंसगब्भमए एलुग' इति हंसगभी- । |
रत्नविशषस्तन्मय एल्लुको-देहली "गामज्ञमयद्दक्खीले' इति । ।
गोमेयकरतनमय इन्द्र कीलो लोहिताक्षरत्नमय्यों द्वारपिण्डौ
(चचस्यौ ) द्वारशाख 'जोइरसामए उत्तरंग ` इति ज्योतीर- ।
समयमुत्तरङ्गम्-द्वारस्यार्पार तिर्यगव्यवस्थितं काष्ठ वेडुर्यम- ¦
यो कपारौ लाहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षरत्ना त्मिकाः सूचयः-
फलकट्धयसम्बन्धविघटनाभावहेंतुपा दुकास्थानीयाः 'बइरा-
मया सधी › वज्ञसयाः--सन्धयः सान्धिमला. फलकानाम् ,
किमूङ्क भवति ?-वज्ञरत्नापुरिताः फलकानां सन्धयः,
` नानामणिमया समृग्गया' इति समुप्ठका इव समृहकाः- |.
सृतिक गृहाणि तानि नानामणिमयानि ` चइरामया अग्गला ' `
अग्गलपासाया ` अगला: प्रतीताः श्रगलाप्रासादाः यच्रागै-
ला नियम्यन्ते, आह च मूलदीकाकारः-' अगैलाप्रासादा
यत्रागला नियम्यन्त ” इति, एतौ द्वावपि वञ्जरत्नमयौ, |
"रययामयी श्रावत्तणपद्धिया' इति श्रावत्तेनपीठिका यत्रेन्द्र-
कीलिका, उक्त च मूलटीकायाम् `"श्ावत्तनपीटिका यच्रन्द्र- ६
कीलका भवति" 'अकुत्त रपासाए' इति अज्ञा-अद्भरत्नमथा« `
उत्तरपार्श्बा यस्य तद् श्चङ्कोत्तरपाश्वं 'निरतारियघणकवाड |
इति, निगीता खन्तरिका लघ्वन्तररूपा ययोस्तौ निरन्तरिकौ । `
अत पत्र घनो कपाटो यस्य तन्निरन्तरघनकपारम् ' भित्तिखु ` `
चेव भित्तिगुलिया छप्परणा तिन्नि हौति' इति, तस्य द्वारस्यो `
भयाः पाश्वयोभित्ति घु भिसिगता भित्ति गुलिकाः पीठकसंस्था
नीयास्तिस्त्र: षर्पञ्चाशतः-षर पञ्चाशत् प्निकप्रमाणा भव-
न्ति,'गोम,णसिया तत्तिया'इति, ग़ोमानस्यः-शय्याःतक्तिया ¦
इति, तावन्मात्रा: घद्पश्चाशत्जिकसंख्याका इव्यथः, ' नाना-
मणिरयणवालरूवगलीलट्टियसालभंजियाए'इवति,इद द्वारवि- '
शेषण , नानामशिरत्नानि--नानामणिर त्नमयानि दव्र्यालरूप-
काणि लीलास्थितशालभल्जिकाश्च-लीलास्थितपुतरिकाश्च |
यस्य तत्तथा 'बइरामए कूडे' वज्ञमयो-वल्ञरत्नमयः कृटो-
माडभागः रज्ञतमय उत्सधः-शिखरम् , श्राह च मूलरीका-
कारः-'' फ़ूटो-माडभाग डच्छूयः-शिसत्रर” मिति , केवलं
शिखरमव्र तस्यैव माडभागस्य सम्बन्धि द्रष्टव्ये न द्वारस्य,
तस्य प्रागेवोक्तत्वात् , सव्वतव शिज्ञमए उलज्लोए' सवौत्मना |
तपनीयमय उक्लाकः-उपरिभागः “ नानामणिरयणजालपंज-
रमरणिवसगलोहियक्षखपडिवसगरययभामे “हति, मणयो मः
णिमया वेशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहिताक्ता लोहि-
ताज्ञमयाः प्रतिवशा यषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि |
(4
नत
४
^
९
$ ४६ )
लवणसमु
ता-रजतमयी भूमियेंषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात्समा
सान्तो मक्रारस्य च द्वित्वम्, मणिवशक्रानि लाहिता क्षप्र-
तिवशकानि रज्ञतभूमानि नानामाणरत्नानि-नानार्माणर-
त्नमयानि जालपञ्जगाणि--गवाक्तापरपयायाणि यस्मिन द्वार
तत्तथा, पदानामन्यश्रापनिपानः प्रारृतात्वात् . ` अकमया प-
कखा पक्खबाहाओ जोईरसामया वेसा वेसक्वल्लुगा य ग्य
यामईओ पट्टियाओ जायरूयमईओ आओहाडणीओ वदगा-
मईआओ उबरिपुछरणाओ सव्वसयरययामप छा (य) ण ` इति
पद्मवरर्वादकाव द्धावनीयम् . ` अकमयकणगकरडतवणिज-
शृभियाग ` इति अअङ्कमय--वाहुटयनाङ्करत्नमयं पक्तवा-
ह्यादीनामङ्करत्नात्मकत्वात् कनकं-- कनकमय कूटम--शिख-
रं यस्य तत् कनककूट तपनीया--तपनीयमयी स्तूपि-
का-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तापिकाकम् , ततः प-
त्रयस्य पदद्धयमी लनन कम्मधारयः. एतन यत् प्राक्
सानान्यत उल्त्तिपि ` सए वरकणगधूमियाग ` इति तदव
प्रपञ्चता भावतमिति । सम्प्रति तदव श्वतन्वभुपसटार-
व्याज्ञन भूय उपदशयात-- सण ` वते. श्वतत्वम्वापम-
या द्रढदयति--' सखतलविमलनिम्मलदाधघ्रणगाखारफसा
रययानगरप्पगास ` इति. विमलम्- विगतमलं यत् गङ्ख
तलं शङ्खस्यापारतना भागा यश्च निमलो दधिघ्रना-्र-
नीभूत दधि गाक्तीरफना रजतनिकरश्च तद्धत्प्रकाशः-प्रति-
मरता यस्य तद्दशा, ` तिलगरयणद्धचेदाचित्त ईति तिल-
करत्नानि- पुराड़वशपास्तरद्धचन्द्रेश्च चित्राणि--नानारू-
पारि तिलकाद्ध चन्द्राचित्राणि. क्ाचत् ` सखतलाविमलनि-
म्मलद्धिपरणगाखी रफेणरययनियरप्पगासद्धचं दच्चित्ता ` इति
पाठस्तत्र पूवेबत प्रथक् पृथग व्युत्पत्तिः कृत्वा पश्चात्प-
दद्वथस्य पदद्वयस्य कमधारयः, ` नाणमाणिदामालंकिए `
सलानामणायो-नानामणिमयान दामानि-मालास्तरनेृनं
लानामणिदामालंकतम् अन्तवदिश्च ` च्छच्णं ` श्लच्षणपुद्ट-
लस्कन्धानमापतम् ` तवाणिज्ञवालुयापत्थड ` इति तपनी -
याः-तपनीयमय्या या वालुकाः--सिकतास्तासां प्रस्तटः-
ध्रस्तारो यस्मिन् तत्तथा, ' सुहफास सस्सिरीयरूवे पासा-
ईए ०जाव पडिरूव ` इति प्राग्वत् ।
(५) लवणसमुद्रादिजयद्वारस्य नेपधिक्यां चन्दनकल
शान् प्रतिपादयाति--
विजयस्स रं दारस्स उभयो पासि दुहता णिसीहि-
याति दो दो चदणकलसपरेवाडीश्रा पष्पत्ताग्रा, ते शं
चदणकलसा वरकमलपडइट्टाणा सुरभिवरवारिपदिपुष्पा च॑-
दणकयचच्ागा आबद्धकंठेगुणा पउम॒प्पलपिहाणा सव्व-
रयणामया अच्छा सणहा ०जाव पडिरूवा महता महता
महिंदकुंभसमाणा प्पत्ता, समणाउसे ! |
* विज्यस्स रो दारस्से ` त्यादि, विजयस्य णमिति प्रा-
ग्वत् द्वारस्य उभया; पाश्वयारकेकनेषेधिकीभावन ` दुह-
ता ` इति द्विधाता दिप्रकारायां नेषेधिक्यां, नेपेधिकी--
निषीदनस्थानम् , उक्गं च मूलटीकाकारेण--“ नेषाधिकी
निषीदनस्थान `` मिति, प्रत्यकं द्वौ द्धौ चन्दनकलशो प्रज्ञो,
| ~त च चन्दनकलशाः * वरकमलपइट्टाणा ` इति वग्-प्र-
शाने यत्कमले तत्परतिष्ठातम--आधारो यषां ते वरकम-
५२
अआभनव्रारराजन्द्रः)
लव॒णसम्तद
लप्रातष्टानाः. तथा सुर्राभवग्वागिष्ातपूर्णाश्वन्द्रनकृतचर्चा-
काः-चन्दनङनापरागाः ` आवद्धकंठशुणा ` डन च्राव-
द्ध:ः--आर्गापतः कराठ गुणा-रक्कसत्ररपा यप त आच-
डकगटगुणाः. करट कालवन्सप्तम्या अलुक. ` पडम्तुप्प्ाप-
हाणा ` इति, पद्ममत्पल च यथायागे पिधानं यपां न
पद्मात्पर्लापधानाः ` सव्वरयणामया अच्छा “जाव र्पाडरू-
चाः इति प्राग्वत् ` महया महया ` इति श्रतिशयन
महान्ता महन्द्रकुम्भसमानाः . कुम्मानामिन्द्र इन्द्रकुम्भा.
गाजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूवानिपातः. मदस्यासा इ-
न्द्रकम्भश्च तस्य समानाः कुम्भसमानाः-मटाकल-
शप्रमाणाः प्रज्ञप्ाः ह श्रमण ! ह आयुप्मन !।
विजयस्स णं दारस्स उभ्या पामि दृहते। शिर्स।हिआ-
ए दं। दो णागदंतपरिवार्डीओ,, त णं णागदतगा मुत्ता-
जालंतरूमितह मजालगवक्ख जाल खिंखिणीघंट।जालप[रे --
क्खित्ता अब्भुग्गता अभिशिशिद्ठा तिरियं सुसंपर्गहिता
अहेपप्पगद्धस्वा पप्मगद्धसंठाणसंठिता सब्बस्यणामया `
अच्छा ०जाव पडिझूया महया महया गयदंतसमाणा प्र
पत्ता, समणाउमा !।
विजयस्स ण ` मित्यादि , विजयस्य द्वारस्य उभये
पाश्वेयारंककनपथधिकीभावन द्विध्ाता नर्पाधक्यां दौ छा
नागदन्तका-नकंटको रङटकावित्यथः प्रज्ञ्ता, त च ना-
गदन्तक्राः ` मुत्ताजालेतरून्ियहमजालगवक्खजालखिखिणी
जालपरिक्खत्ता ` इति मुक्काजालानामन्तरपु यानि उत्स-
तानि-लम्बमानानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहाः यानि
च गवाक्तजालानि-गवाक्ताङतिरन्नविशपदामसमृहाः यानि
च किक्लिणी-क्षुद्रप्रणणा किङ्किणीजालान-जुद्रघरटा-
तास्तः परिक्षिप्ता:->सर्वता व्याप्ताः ` अच्सुग्गया
इति अभिमुखमुद्गता अभ्युद्वता अश्रिममांग मनाग उन्नता
ईति भावः ` आभनिसिद्रा ` इति श्रभिमुख--वहिभीगा-
भिमुख नखाः अभिनिखष्टाः ' तिरिये खुसेपग्गहिया
इति तियंग--मित्तिप्रदेश स॒ुष्ठ अतिशयन सम्यग--मना-
गप्यचलनन परिग्रहीताः खुसंपरिग्रुहीताः ' अहपन्नगद्ध-
रूवा ` इति अधः-अधस्तने यत्पन्नगस्य-सपस्याद्ध त-
स्येव रूपम--आकारो यषां त तथा, अधः पन्नगार्॑वर्दाति-
सरला दीर्घाश्वाति भावः. एतदव व्याचप्र-पन्नगाद्धंसे-
स्थानसास्थिताः-अधः पन्नगाऊंसंस्थानसंस्थिताः ` सव्वव-
इरामया ` सवोत्मना वंज्ञमयाः ` अच्छा सराहा ० जाव प-
डिरूवा ` इति प्राग्वत् . ` महया महया ' इति अतिशयेन
गजदन्तसमानाः--गजदन्ताकाराः प्रज्ञता: ह श्रमण ! ह
श्रायुष्मन् ! ।
तसु णं शागदंतएसु बहवे किणहसुत्तबद्धवग्घा-
[+ [43
ग्तिमल्लदामकफ़लावा ० जाव सुक्ति्लसुत्तबद्धवग्धारिय-
कि || स् ही
मल्लदामकलत्रा ॥ तण दामा तवाणजलबूसगा सु-
* ~ [कः ^ क
वायपतरगमडिता णाणामणिरयणपरिविधहारद्धहार ( उव-
~ सिर [न
सोभितसमुदया ) ० जाव सिरीए अतीव अतीव
~ ~ > चिद्रं [8 > क +
उवसोभेमाणा उवमोभेमाणा चिद्रति ॥ तसि णं
£ ६१०७ ~)
न्तकगास्वसुट्
णागदंतकार्ण उवरिं अण्णाओं दो दो णागदतपरिवा-
रौ ऋ एगणत्ताओं, तमि गा शागदंतगाश मृत्ताजालंत-
रूमिया तहव जाव समणाउसों !
तसु णं णागदं- |
तणएसु बढ़वे रयतामया सिक्या पणणात्ता, तेसु शं रय-
तामएस सिक्रणसु बहवे वेरुलियामतीओं
पणणत्ताओ, तं जहा -ताओ णं धूवघडीश्रा कालागुरु
पवग्कुंदर्कतुरुकधूवमघमपंतगधृद्ध याभिरामाग्रो सुगंधव-
रगंधगंधियाओं गंधवद्टिभूयाओ ओरालेणं मणुप्पणं घा-
घवघडीओं |
गमगागिव्वुइकरेण गधं तप्पएसे सव्वता समता आपू-
गमार्णाआ आपूरमार्णीओ अनीव अतीव सिरीए ०जाव
चिद्रं।ति ॥
` नस्रु णे नागदेतएखु इत्यादि, तपु च नागदन्तकषु बह-
च: कृष्णसत्र वडाः ` वग्धारिया इति अवलम्बिताः मा-
ल्यदामकलायाः--पुष्पमालार्मृहा बहवो नीलसत्रवद्धा मा-
ल्यदामकलापाः.पतरे लाईटतदार द्रशुक्लस्त वद्धा अपि वाच्या
तगदामा इत्यादि तानि दामानि ` तवनिञ्जल्बृसगा `
दति, तपनीयः--तपनीयमया लम्बुसका--दाश्नामग्रिममान
पराङ्गण लम्बमाना मरडनविशषाः गे।लकाकृतियंषां तानि
तपनीयलम्बूसकाने ` खुवपश्लपयरगर्माडया ` ईत पाश्वत
म्नामम्न्यन सुवगाप्रतरगा-- सछवरपत्कण मारडतान छुब- |
रंप्रतरकर्मागडतानि नानामणिग्यणविविहहार उ्धद्वार उब-
सामियसमुदया ` इति नानारूपाणां मणीनां रानां च
य विविधा--विचित्रवणा हारा--अ्रष्टाइशस रिक्रा अङंहा-
गा-नवसारिकास्तेरपशोमितः समुदया यपां तानि, तथा- `
जाव सिशेप् अतीव उबसाभेमाणा चिद्रुति' अन्न यावत्कर-
गादवं परि पृः पाठा द्र ए्व्य:-'ईसिमप्ममप्ममसंपत्ता पुव्वाव-
ग्रांट णृत्त गगरा वाणि मदाय मंदायमइज्जमाणा चल व-
माणा पलंवमाणा परुभःकमः)माणा परुंभ(कंक)माणा ओरा- |
लगा मणुन्नगो गणहरणे कप्ममणनिव्वुइकरेण सद्देण त पवस
सव्वता समेता आपूरमाणा आपूरमाणा सिरीए उवसा-
भमाणा उवसाभमाणा चद्रूति। ` एतच्च प्रागव पद्मवरव-
दिकावणने व्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायत । ` तसि शो
नागदेताण ` मिल्यादि, तषां नागदन्तानामुर्पार न्यो दो
नागदन्तको प्रज्प्ता, त च नागदन्तका
यदमजाल्लगवक्खजाल ` इत्यादि प्रागुक्क सर्वं द्रष्रव्ये यावद्
राजदन्तसमानाः प्रनक्ताः ह श्रमण ! ह आयुप्मन ! । ˆ तखु
गो णागदंतएसु इत्यादि, तघु नागदन्तक्रषु बहनि रजत-
मुत्ताजालंतरूसि- |
मयान सक्ककान प्रज्ञप्तान तषु च रजतमयचु सक्ककषु- |
बहवा बेड्टयरत्नमय्यो--चेड़य रत्नात्मिका
भ्रपघाटेका: प्रज्ञप्तः, ताश्च धृषघाटिकाः
दुरुकतुरुकधव मघमध्रेतगंधुद्धयामिरामा `
दः प्रवर:--प्रधानः कुन्दुरुष्कः-चीडा
कालागुरुपवरकु-
कालागुरः ध्रास
कालागुरु प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क च कालागुर्प्रवरकुन्दुरु- |
स्कतुरुष्काणि नेषां धूपस्य या मघ्रमघायमाना गन्ध उद्धूत-
हतस्तता विप्रसृतस्तनाभिरामाः कालागुरुप्रवर कुन्दुरुष्क-
तुरुष्कधरृपमघमघ्रायमानगन्धोद्घताभिरामाः, तथा शाभनो |
॥
।
।
॥
गन्धा यवां त सुगः बास्त चत बन्भन्धास्तव; गन्ध. स '
आामभधानराजन्द्र: |
धूपघस्या-- ,
तुरुष्क--सिह्नकं |
लयाएससुइ
आरस्टस्तात झखुदानन्धवरगन्धका
भ्यातिशयाद गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः उदारण-स्फारण मना-
ज्षन-मना 5नुकूलन, कथे मना 4नुकलत्वम् ? अत आह -घाण-
मनोानित्रातकरण.हता तृतीया,यता घ्राणमनो निकुतिकरस्त-
तो मनाज्ञस्तन गन्धन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् श्रापूरय-
न्त्य आपूरयन्त्यः. अत एव धियाऽतीव शाभमानास्तिष्ठन्ति ।
(६) लवणसमुद्रस्य विजयद्वांर शालभज्िकाः प्रतिप:दयति-
विजयस्स णं दारस्स उभयतो पार्सि दुहतो णि-
सीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडीओ पप्तात्ताओं,
ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्विताओं सुपयट्टेयाओं
सुअलंकिताओं णाणागारवसण। श्र णाणामल्लपिण द
(द्वि) त्रा मुट्ठी गज्फममज्काओं आमेलगजमलजुयलव ट्विअ-
ब्युछ्यरपीणरचियसंठियपओहराओ रत्तावंगाओं असियके-
सीओ मिदुविसयपसत्थलक्खणासंबेल्लितग्गसिरयओ इंसि
असोगवरपादवसमुट्टिताओं वामहस्थग हितग्गसालाओ ईमें
अद्रच्छिकडक्विद्धिए लूसेमार्ण/तो इ चक््खुल्लेयणले-
माहं अष्मम्पं खिज्ञमार्णओ इव पुटविपरिणामाओं सासय
भावमूवरगताञ्ा चंदाणणाओ चद विलासि्णी ओर चंदद्ध्स-
मानिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओं उका इव उज्ञोएमा-
णीओ विज्लुघणमरीचिसरदिप्पंततेयअहिययरसंनिकासा-
ओओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओं० ४ तेयसा अ-
तीव अतीव सोभेमाणीओं सोभेमाणीओं चिद्रंति ।
* विजयस्स णं दारस्स ` व्यादि, विजयस्य द्ारस्योभयाः
पाश्यारकेकनेषधिकीभावन द्विधाता--द्विप्रकारायां नेष
धिक्यां द्वे द शालभज्ञिके प्रज्ञप्त , ताश्च शालभञ्जिका
लीलया-ललिताङ्गानिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः
खुपईडट्रियाओ इति सुष्ठ-मनोज्षतया प्रतिष्ठिताः
खप्रतिष्ठिताः ` ' सुअलंकियाओ ` इति खष्टु-अतिशयन
रमणीयतया श्रलकृताः सखलंकताः नाणाविदरागव-
सणाश्रो ` इति नानाविधा-नानाप्रकारो रागो येषां
तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि-वसख्राणि सेबर
ततया यासां ता नानाविधरागवसनाः ' रत्तावंगाओ' इति,
रङ्गा ऽपाङ्गा-नयनापान्तं यासां ता रक्तापाङ्गाः ` ' असियकेसी-
श्रा ` इति श्रसिताः-ङ्ष्णाः कशा यासां ता असितकश्यः
“मिडविसयपसत्थलक्णसंवज्लियग्गासिरयाओ' मृदवः-का-
मला विशदा-निम्मंलाः प्रशस्तानि-शाभनानि अस्फुटित-
त्वप्रभ्रतीनि लक्षणानि यषां त प्रशस्तलत्तणाः सेवल्लिते-स-
वृतमग्र येधा शखरककरणात् ते संवेज्ञिताग्राः शिरोज्ाः-
कशा यासां ता म्रदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवज्ञिताग्रशिरो जाः,
` नाणामज्लपिणद्धाओ ` इति नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पा-
शि पिनद्धानि-आविद्धानि यासां ता नानामाल्यपिनद्धाः-
निष्ठान्तस्य परनिपाता भायादिदर्शनात् , ` मुट्ठिगेज्कसुम-
ज्का ` इति म॒श्ट्राह्य सुष्ठु-शाभने मध्यम्-मध्यभागो यासां
ता मु्िग्राह्यसुमध्यांः ` श्रामलगजमलजुगलवद्टयश्रव्भुष-
यपीणरइयसंठियपञआहराओ ` पनि-पीचर रचितं संस्थितं
५
श्नतोऽनकस्वरादि' तीक
प्रत्ययः, चरत एव गन्धवत्तिमूताः-सारभ्यवत्तिभूताः सार- ¦
हक )
लवणसमु
सस्थान यकाभ्यां ता पीनरचितसेस्थितां आमेलकः-आपी
डशखरक इत्यथः, तस्य यमल-समध्रणीकं युगले तद्वत् वक्ति |
नो-वद्धस्वभावावुपचितकाठिनभावाविति भावः श्रभ्यु्नतो
पीनरचितसंस्थितो च पयोधरो यासां तास्तथा , ' दसि
असोगवरपायवससुट्टियाओ ` इति इषत्-मनाक श्रशोकव-
रपादप समवस्थिता--आश्रिता हषदशोकवरपादपसमव- |
स्थिताः, तथा वामहस्तेन गृहीतमग्र शालायाः शाखाया
श्रथादशोकपादपस्य यकाभिस्ता वामहस्तगरदीताग्रशालाः,
* इसि अड्ड5जिछुकडक्खाचिट्टिएर्हि लूसेमाणीओ इव ` ति
इषत्-मनाग् ' शङ ` तियग्वालतम् श्रान्त येषु कटाक्षरूपेषु
चाश्रतपु तमुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि ` चक्खुज्ञोयण-
लेसेहि श्रणमराणे विज्मेमाणीओ इव ` “ अण्णमण्ण
परस्परं चच्तुषां लोकनन-अवलोकनन लेशाः--संश्लेषास्ते-
विध्यमाना इव, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम तास्तियग्बलिता-
त्तिकटाक्तेः परस्परमवलाकमाना श्रवतिष्ठन्ते यथा नूनं पर- |
स्परसोाभाग्यासहनतस्तियेग्बलितात्तिकटान्तेः परस्परं खिद्य- |
न्त इ्वति ` पुडविपरिणामाओ ` इति प्राथर्वपरिणामरूपा
शाश्वतभावमुपागता विजयद्वारवत् ` चंदाणणाओं
चन्द्रवद् आनन-मुख यासां ताश्चन्द्रानना
न्यः * चंदद्धसमांनडालाओ ` इति च
सम-समान ललाटं यासां ताश्चन्द्राद्धसमललाटाः 'चदादि-
इति |
चदविलासिणी- |
श्यो ` इति चन्द्र वन्मनादहरे विलसन्तीव्यवेशोलाश्चन्द्रविलासि- |
{द न-अष्मीचन्द्रण |
_ श्रभिधानराजन्द्रः।
यसोमदंसणाओ ` इति चन्द्रादप्याधिकं सोम्यम्-सखुभगं का- |
न्तिमदर्शनम-आकारो यासां तास्तथा, उल्का इव द्योतमा-
नाः (वञ्जुघणमरी चि सूर दिप्पेततय््रदययरसन्निकासाश्रा
इति विद्युता य घना-वहुलतरा मरीचयस्तभ्यो; यच्च सू-
यस्य दीप्यमानमनाच्रृतं तजस्तस्मादप्याधिकतरः सन्निकाशः |
इति |
ग्रकाशो यासां तास्तथा ` सिगारागारचारुवसाश्रा '
शङ्ञायो-मण्डनभूषणाटोपस्तःप्रधान श्राकार-आ्आृतिर्यासां |
ताः शृङ्गाराकाराः चारु वेषा-नपथ्यं यासां ताञ्चारुवषास्ततः
कम्मधारय शड़ाराका रचारुवेषाः ' पासाश्याग्रा ` इत्यादि
विशषणचतुए्टय प्राग्वत् ।
विजयस्स शं दारस्स उभयतो पासि दुहतो शिसी- |
हियाए दो दो जालकडगा पणणत्ता, ते णं जालकडगा |
सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा ॥ विजय- |
स्स शं दारस्स उमओ पार्सि दुहओ णिसीधियाए दो |
दो घंटापरिवाडीओं परणणत्ताओ,
श्रयमेयास्वे वण्णावांस पण्णत्ते, त॑ जहा-जबूणदमती
तासि णं घंटठाण
श्रा घंटाओ वइरामतीओ लालाग्रा णाणामणिमया घंटा- |
पासगा तवशिज्ञमतीओ संकलाओ रयतामतीओ रज्जु - |
ओ ॥
ताओ ण॒ घंटाओ आहस्सराश्रा महस्सरा- |
श्रो हंसस्पराओ्ओ कोचस्सराश्रो शदिस्सराश्रो शदि- |
घासाओ सीहस्सराओं सीहधोसाओ मन्चस्सराश्रो मंज़
आ सुस्सराओ सुस्सरणिग्धोसाश्रा ते पदमे ओ- |
रालणं मणुण्णणं कए्णमणनिव्युइकरेण सदण० जाव
चिट्रं ति ।
॥#
|
233, ^ क लवणसमु.
विज्यस्स णे दारस्से ' त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः
€ ४. ७. के. च ७ धघिकी र [घ् [न द्विप्रकारायां
पाश्वयोारे कंकनपधिकीभावन ' द्विधातोा ` द्विप्रकारायां
नेषधिक्यां दौ दौ जालकटको प्रज्ञप्तो , , ते णं जा-
लकडगा ` इत्यादि ते च जालकटकाकीणौ रम्य
संस्थाना प्रदेशविशेषाः ` सव्वरयणामया अच्छा सण्हा-
०जाव पांडरूवा ` इति प्राग्वत् ॥ * विजयस्से ' त्यादि,
विजयस्य द्वारस्याभयोः पाश्वयोद्धिधातो नेषधिक्यां दे
द्धे घाटे प्रक्ष, तासां च धरटानामयमेतद् पः ' वर्णावासः '
वशेकनिवेशः रक्षसः, तद्यथा--जाम्बूनदमय्यो घरटाः वज्ज-
मय्यो लालाः नानामणिमया घरटापाश्वौः तपनीयमस्य
श्यह्लला यासु ता श्रवलम्बितास्तिष्टन्ति रजतमय्यो रज्जवः ॥
` ताश्रोण घटाओ ' इत्यादि , ताश्च घरटाः, श्रोघस्वराः-
श्रोघन- प्रवाहण स्वरो यासां ता श्रोधस्वराः, मघस्येवाति-
दीधः स्वरो यासां ता मघस्वराः, हंसस्येव मधुरः स्वरो
यासां ता हंसस्वराः, एवं क्रोञ्चस्वराः, सिंहस्येव प्रभूतवे-
शव्यापी स्वरा यासां ताः सदृस्वराः, पव दुन्दुभिस्वरा
नन्दिस्वराः, द्वादशतूर्यसह्वातो नन्दिः, नन्दिवद् घोषा-निना-
दो यासां ता नन्दिघापाः, मञ्जुः- प्रियः स्वरा यासां ता
मञजुस्वराः, एवं मञजुघोषाः, कि बहुना ?, खुस्वराः सुस्व-
रघोषाः, ' ओरालेण ` मित्यादि प्राग्वत्।
बिजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहतो शिसी-
धिताए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओं ,
ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलताकिसलयपन्ल-
वसमाउलाश्रो छप्पयपरेथूजमाणकमलसोभंतसस्सिरी-
याओ पासाईयाओ ते पएसे ओर।लेणं० जाव गधेशं
श्रापूरेमाण। रो ° जाव चिट्ठंति ॥ ( सू० १२६ )
* विज्ञयस्स ण॒ ` मित्यादि, विजयस्य द्वारस्याभयोः पा-
श्वयोद्धिघातो नेषाधिक्यां द्व द्वे वनमाले प्र्ञतत, ताश्च व-
नमाला नानाद्रमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अ-
तिकोमला इत्यथः पट्लवास्तेः समाकुलाः-सम्मिश्चाः छ-
प्पयपरि मुज्माणसाभेतसस्सिरीया ' इति षट्पदैः परिभु-
ज्यमाना सती शोभमाना षट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना
अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन विशषणसमासः, “ पा-
साईया ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।
( ७ ) लव॒णसमुद्रविजयद्धारस्य पीठादिवर्णयाति--
विजयस्स णं दारस्स उभओ पार्सि दुहतो शिसीहे- `
याए दो दो पगेठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा चत्तारि
ज।यणाई श्रायामविक्खभेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं स-
व्ववइरामता अच्छा० जाव पडिरूवा ॥ तेसि शं पय-
ठगार उवरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवर्डेसगा पष्छत्ता, ते णं
पासायवाडंसगा चत्तारि जोयणाईं उड उच्चत्तेण॑ दो
जोयणाई श्रायामविक्खमेणं अन्भुग्गयमूसितपहसिता वि-
व विविहमणिरयणभत्तिचित्ता बाउद्ू(द)यविजयवेजयं -
तीपडागच्छत्तातिद्धत्तकलिया तुगा गगणतलम-भिलघमा-
श ( णुलिहंत ) सिहरा जालंतररयणपजरुभ्मलितव्य म-
गिकणगथुभियागा त्रियमियमयवत्तपोडरीयतिलकरयषए -
# (न
( ६१३
श्रभिधानराजन्द्रः।
{नव
)
4
लवणसमु
~< ॥
द्रचदचित्ता णाणामणिपयदामालकिया अता य बाहिं |
च सरा तवणिज्जरुदलवालुयापत्थडगा
सस्सिरीयस्वा पासातीया० ४ ॥
सुहफासा
"विज्ञयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्यो भयोः पाश्वयो-
द्विंधाता नेषधिक्यां द्वो दो प्रकराटकों प्रज्ञो, प्रकरटका ना
म पाठावशषः:,आह च मूलरीकाकार - प्रकरठा पाठावश- |
चुर्णिकारस्त्वेवमाह- आदशऊत्ता पर्यन््तावनतप्रदेशों
पीठो प्रकशठाविति”, ते च प्रकगठकाः प्रत्येक चत्वारि या-
जनानि “आयामविष्कस्भमन'-आ्रायामविष्कस्भाभ्यां द्र योजन
बाहल्यन 'सव्ववइरामया' इति सर्वात्मना त प्रकरटका व-
ज्रमयाः अच्छा सरटा य इत्यादि
ग्चत् ॥ तास ण पकठयाण गमत्याद्,
विरापणकदस्बकं प्रा- |
तषां च प्रकराट-
कानामुपार प्रत्यक प्रासादावतसकः ब्रज्ञप्तः, प्रासादावत- |
सका नाम प्रासादविशपः, उक्त च मुलरीकायाम्- प्रा-
दावतंसकः प्रासादविशषः"' इति, व्युःपत्तिश्चेवम्-प्रासा-
दानामवतंसक इव-शखरक इव प्रासादावतंसकः, ते च
प्रासादावतंसकाः प्रत्यकं चत्वारि याजनान्यृष्वमुच्चस्त्वेन
द्र याजन आयामविष्कस्भाभ्याम , ` अब्भुग्गयससियपह-
सिया विवति ` श्भ्युद्रता-श्राभिमुख्यन सर्वता विनिगै-
ता उत्खृता-प्रवलतया रूवोसु दिछ्छुं प्रख्ता या प्रभा त-
या सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यत, अन्यथा क
थामव तःया निरालम्बास्तिष्टन्तीति भावः, अथवा-प्र- |
बलश्वेतप्रभापटलतया प्रहासिताविव-प्रकपंण दसिताविव,
तथा-'विविहमशिरयणभत्तिचत्ता'
य मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रत्नानि-कर्केतनादीनि त-
पां भक्किभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यवन्ता वा
नानाविधम शिरत्नभङ्किचि्राः ` वाउद्धयविजयवजयतीप-
डागछत्तातिछत्तकलिया' वातोद्धता-वायुकम्पिताः विजयः-
अभ्युदयस्तत्संसचिका वेजयन्तीनामाना या पताकाः, अ-
श्रवा-विजया इति चजयन्तीनां पाश्वकारका उच्यन्त तत्प्र
थाना वैजयन्त्या विजञयवेजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयव
जिता वैजयन्त्यः, छुआतिच्छुआशणि-उपयुपरिस्थितान्यात-
पत्राणि ते: कलिताः,वातो द्धतावजयबेंजयन्ता पताकाछजञा ते- |
च्छुत्रकलिताः तुद्ाः- उच्चा उच्चस्त्वेन चतुयाजनप्रमाण- |
त्वात् , अत पव “ गगणतलमरुलिहन्तसिहरा इति ,
गगनतलम+अम्बरम् अनुलिखिन्ति--अभिलडःघयन्ति शि-
खरा येषां ते गगनतलानुल्खिच्छुखराः, तथा जा--
लानि--जालकानि यानि भवनर्भित्तिचु लोकं प्रतीतानि |
विविधा-अन्वेकप्रकारा |
तदनन््तरपु वाशणए्रशाभानामत्त रत्नानि यपु त ज़ालान्त- |
ररत्नाः, सूत्र चात्र वभाक्कलापः प्राकृतत्वात् तथा पज्ञराद्
उन्मा लता इव बाहष्क्ता, यथा ह कल कमाप वस्तु व- |
शादिमयप्रच्छादर्नावशषाद् बहिष्कृतमत्यन्तमाविनएच्छायं
भवतिः एवं त5पि प्रासादावतंसका इति भावः, तथा |
स्तूपिकाः-शिखराण ,
माणकनकानि--मणिकनकम य्यः
यपां त माणिकनकस्तू(पिका:, तथा विक।सतानि यानि शत- |
पत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादों
तिलकरत्नानि भित्त्यादिषु पुरड़विशषा श्रद्धचन्द्राश्च द्वारा
विषु तेश्चित्रा--नानारूपा आश्रय भूताः विकसितशतपजपु-
प्रतिकृतित्वेन स्थितानि
गडरीकतिलकाद्धचन्द्रच्िज्रा: अन्तवेहिब ( | 4
प्रकारा ये चन्द्रकान्ताद्या मणयस्तन्मयानि- तत्प्रधानानि `
यानि दामानि--पुष्पमालास्तरलङ्कृताः ) च्छच्णाः-मख-
णाः, तथा तपनीयम्--सुवरोविशषस्तन्मय्याः वालुकायाः
प्रस्तरम्-प्रस्तरा यघु त तपनीयवःलुकाप्रस्तटाः ` खुहफा-
सा सस्सिरीयरूवा पासाईया ` इत्यादि प्राग्वत् ।
~~ 3 ~ = \ =
' > 3
तसि णं पासायवेडसगाणं उल्लोया पउमलता ०जाव
सामलया भत्तिचत्ता सव्वतवणिज्ञमता अच्छा ०जाव
पडिरूवा ॥ तसि णं पासायवडिसगाणं प्तय पत्तेयं अ-
तो बहुसमरमणिज्ञ भूमिभागे पण्णत्ते, स जहाणामणए
द्रालिगपुक्खरेति वा०जाव मणीहि उवसाभिए,मणीण गधो
वषो फासो य नेयव्वो ॥ तेसि शं बहुसमरमणिजञ्जाणं
भूमिभागाणं बहुमञ्मददेसभाए पत्तेयं पत्तयं माणिपेढियाओ
पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयाम-
विक्वंभेणं अट्टजोयणं बाहल्लेणं सव्वरयणामईओ °जाव
पडिरूवाओ, तासि शं माणिपेढियाणं उवरि पत्तेयं पत्ते-
य॑ सीहासण पण्णत्ते, ताये णं सीहासणाणं अयमयास्वे
वण्णावासे पष्पत्त, तं जटा-तवाणिज्जमया चकवाला रयता-
मया सीहा, सोवणिणिया पादा, णाणामणिमयाई पायवीढ-
गाई, जबूणयमताई गत्ताई,वतिरामया संधी ,नाणामणिमणए
बच्चे ते णं सीहासणा इहामियउसम °जाव पठमल-
यभत्तिचित्ता ससारसारोबडयविविहमणिरयणपायपीदा अ-
त्थरगमिउमसूरगनवत्तयकुसंतलिच्चसीहकसरपच्चुत्थता-
भिरामा उयचियखोमदुगुल्लयपडिच्छयणा सुविरचितरय-
त्ताणा रत्तसुयसंवुया सुरम्मा आईणगरूयबूरणवर्नाततूल-
मउयफासा मडया पासाई्या० ४ ॥
' तसि णे इत्यादि, तषां च प्रासादावतंसकानाम उन्नो-
काः-उपरितनभागाः पद्मलताभक्किचित्रा अशोकलताभक्कि-
चिच्राञ्चम्पकलताभक्रिचराश्चूतलताभक्च जा बनलता
भक्किचित्रा वासन्तिकलताभक्किचित्रा: सर्वाः्मना तपनीय-
मयाः ` अच्छा सरहा०जाव पशडिरूवा' इति विशषणकदम्बकं
प्राग्वत्॥ ¢ तसि श् ; मित्यादि, तषां प्रासादावतंसकाना-
मन्तवेहुसमरमणीयों भूमिभागः भ्रज्ञप्तः, ˆ से जहानामए
आलिगपुक्खरइ वा ` इत्यादि समस्त भूमिवरणन मणीनां
वर्शपश्चकसुराभिगन्धशुभस्पर्शवर्र न प्राग्वत् ' तेसि श् 2 |
मत्या तथा प्रासादावतसकानामन्तवबहुसमरमणायाना ।
भामभागाना बहुमश्यदशभाग प्र॒त्यक प्रत्यक ( माणिपीटिकाः |
प्रञ्लप्ताः ताञ्च माणपाठका याजनमायामादष्कम्भन अष्याः |
जनान बाहल्यन सवरत्नमस्या याव्रत्प्ातरूपाः तासा माणः
पीरटिकानामुपरि ) सिंहासन ज्ञत्तम् , तषां च सिहासनानाम
यमतद्रपो ' वर्णावासो ` वरगीकानिवशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रज-
तमया: सिंहाः तैरुपशोभितानि सिहासनानि सौवर्णिकाः |
सवणमया: पादाः तपनायमयान "ग |
प्रटशाः भचान्त मुक्कानानामाणमयान पादानामधः प्रव
>> =
नकृ ७-<
(600
लवणसम॒द
अखिधानराजन
हक लवणसमु
शाः प्रयुक्ताः , नानामाणमयानि पादशीपकाणि-पादा-
नामुपरितना अवयवविशषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि 'ईष-
दच्छाः ` वञ्जमयाः '-वज्ञरत्नापूरिता सन्धयः-गात्राणां स-
न्धिमला नानामणिमय ` वच्चे ' व्यते वानमित्यर्थः, आह च
चूर्णिकृतू-' वञ्च वाणकतेण `" मित्यादि तानि च सिंहास-
नानि इहामरगऋषभतुरगनरमकरव्यालांकन्नररूरुसरभचम-
रकुञ्जरवनलतापद्यलताभङ्घिचित्राणि ` ससारसारावचरय-
विविहमणिरयणपादपीढा ` इति सारसारेः-- प्रघानप्रघान-
्विविधेर्मणिरन्नेरुपचितेः पाद पीठः सह यानि तानि तथा
प्राङृतत्वाच्च उपचितशब्दस्यान्तरुपन्यासः , 'अत्थरमउयम-
सूरगनवयत्तकुसन्तालित्तकेसर पच्चत्थुयाभिरामा' इति श्रा-
स्तरकम्- आच्छादने मदु यषां मसूरकाणां तानि आस्तर-
कम्दृनि, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , नवा त्वग्
येषां त नवत्क्चः कुशान्ता--द भपर्यन्ताः, नवन्वचश्चत कु-
शान्ताश्च नवत्वक्कुशान्ताः प्रत्यग्रत्वग्द्मपयेन्तरूपाणि त्वति
कामलानि लित्तानि-नमनशीलानि च कसराणि , क
चित्-* सिंहकेसर ` ति पाटस्तव सिहकसराणीव कस-
राण मध्य मसूरकाणां तानि नवत्वक्कुशान्तचिल्न ( लित्त )
कराणि, ` सिंहकसरति ` पाठपक्त-एकस्य केसरशब्दस्य-
शाकपाध्िवादिदगनान्नापः, श्चास्तरकमदुभिर्मसूरकैर्नवत्व-
ककुशान्तलित्तकसरेः प्रत्यवस्ततानि-आच्छादितानि सन्ति
यानि अभिरामाणि तानि तथा , विशषरपूर्वापरनिपाता
यादच्छिकः प्राकृतत्वात् , ' आईणगरू ( रू ) यवुरनवणी-
यतूलफासा ` इति आजिनकम्-चम्ममये वख तच्च स्वभावा-
दतिकोमले भवति, रूतम्-कर्पासपच्म बरा-वनस्पतिविशषः
नवनीत-म्र्तरा तूलम--अकेतूल तपामिव स्पशो यपां तानि
तथा , तथा सुविरचितं रजस्थारं। प्रत्यकमुपरि यषां तानि
सुविर्यचतरजस्राणर्णन ` उवचिय खाम दुगुल्लपट्टपडि-
च्छायण ` इति उपचितम-परिकर्म्मित यत्क्तोमं-दुकूल
कापासिक-चस्र तत्परतिच्छादन--रजस्राणस्या्पर द्विती-
यमाच्छादन प्रत्यकं यां तानि तथा. तत उर्पार ` रत्तखुय-
सेवुया ` इति रक्कांशुकेन-ऑआऑतरमणीयन रक्कन व्रण
संवृतानि-श्राच्छादितानि रक्वांशुकसेव्रनानि श्रत एव खुर-
भ्याणि ' पासाइया ` इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।
तेसि शं सीहासणाणं उर््पि पत्तयं पत्तेयं विजयदूसं |
पप्तत्त, ते रां विजयदूसा सता संखकुंददगरयअमत- |
मदहियफणपुजसनिकासा सव्वर्यणामयां अच्छा ०जाव
पडिरूवा ॥ तसि श विजयदूसाणं बहुमज्क-
दष्रभाए पत्तेयं पत्तयं वडरामया अकुंसा पण्णत्ता ,
तेसु र वइरामएसु अंकुमेसु पत्तयं पत्तेयं कुंभिका यत्ता
दामा पप्तत्ता, त र कुंभिका मृत्तादामा अननरं चरि
चउहिं तद डचप्पमाणमत्तहिं अद्भधकुंभिक्केहिं सत्तादामरिं
स्वतो समता संपरिक्खित्ता, त णं दामा तव्राशिजलं -
बूसका सुवष्पपयरगमडता ०जाव चिद्रंति, तसि य पा-
सा्रबाडसगाणं उप्पि बहवे अट्ट मगलगा पत्मत्ता सो-
ल्थिय तध ०जाव छत्ता ॥ ( मू १३० ) '
2५४
तसि स॒ तोरणासं
तसि ण ` मित्यादि. तेषां च सिहासनानामुपरि प्रत्यक
प्रत्यक विजयदृष्ये बखावशपः प्रज्ञतः आह च मूलटो-
काकारः-* विज्ञयदृष्यं वस्थ्रावशष `` इति । ` तण: मि-
त्याद, तानि च विजयदृष्याण ` शङ्खकृन्ददकर जा ऽमृतम-
शितफनपुञ्जसान्नकाशानि `-शङ्कः-प्रतीनः कन्दति-कृन्दकु-
सुम दकरजः उदककणाः अ्रम्तृतस्य--क्षो रादाधिजलस्य म-
धितस्य यः फनपुज्ञा-डिण्डीरात्करस्तत्सजल्निकाशानि--
तत्समप्रभाण-- पुनः कथम्भूतानि ? इत्यन श्राह-- स-
ठ्वगयणामया ` सर्वात्मना रत्नमयानि ` अच्छा सगदा०
जाव पडिरूवा ' ईति विशषणकद्स्वक्रं प्राग्वत् ॥
' तसि ण ` म्याद्, तषां --सिदासनापरि स्थितानां वि-
जयदूष्याणां प्रलयेकं प्रत्यकं वहुमध्यदशभाग वज्ञमयाः-व-
ज़रत्नात्मकाः अडम्कुशा:-अडसकुशा का रा मुक्कादामावलम्बना-
श्रयभूताः प्रज्नप्ताः, तषु चर वज्भमयप्वड्कुशपु प्रत्यक प्रत्यकं
कुम्भाग्रम--मगधद<शप्र/लद्धं कुम्भप्रमाणं मुक्तामयं मुक्लादा-
म प्रन्नप्तम् . तानिच कुम्भाग्राण म॒क्रादामानि प्रत्यक प्र-
त्यकमन्यश्चतुभिः कुम्भाग्रमुक्कादामभिस्तदर्धोश्चप्रमाणमात्रेः
सर्वतः-स्वाखु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्यन सपरित्तिप्तानि,
“त शे दामा तवाणिजलंबूसगा नाणामाणरयणाविविह-
हारद्धहारउवसाभियसमुदाया ईसमन्नमन्नमसंपत्ता पुव्वा-
चरदाहिरुत्तरागएहि वाणि मदाये मदाय एइज्जमाणा
एइज्जमाणा वहज्लमाणा वइज्ञमाणा पक्रंपमाणा पकंप-
माणा परंझमाणा पर्ंभमाणा आरालणं मरुश्रणो मणहररों
कप्ममणनिव्वुइकरेणं त पणस सब्बता समता आपूरमाणा
सिरीए उवसाभमाणा चिद्रुति ` ॥
विजयस्य णं दारस्स उभओ। पामि दुद्रा शिसी-
हियाए दो दो तोरणा पष्पत्ता, ते ण॑ तारणा णाणा-
माणमया तहव ० जाव अइ मगलका च छत्तातछत्ता,
तसि शं तरणणं पुरता दा दा सालभंजिताओ
पष्पत्ताओं , जहव श हद्रा त्व ॥ तसि ण ता-
रणाशं पुरत दो दो णागदंतगा पष्पत्ता, ते श णाग-
दंतगा म॒त्ताजालंतरूसिया तहव, तेसु श॒ णागदंतणएसु
बहवे किणे सुकत्तवदरवग्धारितमन्नदामकलावा० जाव चि-
टरेति ॥ तसि णं तोरणाणं पुरता दो दा हयसं-
घाडगा पष्पत्ता, सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडि-
स्वा, एवं पंतीओ वीहीओ मिहुणगा, द् दो परमलया-
आओ जाव पडिरूवाओ, तेसि ण तारणाणं पुरतो ( अ-
क्खाअसोवत्थिया सव्वरयणामय। अच्छा० जाव पडि-
स्वा ) तमि श तोरणणं पुरता दा दा चद-
णकलसा पष्पत्ता, त ण॒ चद्णकलसा वरकमलपइट्टाणा
तहेव सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा समणाउम। ! ॥
पुरओ दा दा भिगारगा प-
छत्ता वरकमलपइड्टाणा ०जाव सब्यरयणामया अ-
च्छा० जाव पड़िझवा महता महता मत्तगयमुहागितिस-
मणा प्रणतां संमण[|उसो ! ॥
( (त है. )
अभत्रानगाजर |
लवणसनुद
* विजयस्स ण ` मित्यादि, विजयस्य द्वारस्याभयाः वा-
श्वैयादिधातो नेपधिक्यां द्व द्व तोरणे प्रज्ञप्त, तानि च
तारणानि नानामणिमयानीत्यादि तारणवणेनं निरवशपं
धराग्वत् । ' तसि ण ` मित्यादि, तषां तारणानां पुरतो छ
द्रे शालभाञ्ञक प्रज्ञप्त. शालभञ्जिकावरीने प्राग्वत् ॥ ` तसि
ण ` मित्यादि, तषां तोरणानां द्धौ द्वौ नागदन्तकौ भ्ल,
तेपां च नागदन्तकानां वरन यथाऽघस्तादनन्तरमुक्गं तथा
वज्कव्यम् , नवरमच्रो परि नागदन्तका न वक्कव्या अभावात्
॥ ' तसि ण ' मित्यादि, तषां तारणानां पुरता द्धौ द्वौ हय- |
संघाटकों द्वो दो गजसब्बाटको द्धौ द्धौ नरसक्घाटको दो |
हो किन्नरसंघाटकों द्धौ द्वो किपुरुषसंघाटकों दो द्वो महा- |
रगसंघाटको द्धो द्धा गन्धर्वसट्वाटको द्वा द्वा वृषभसद्वाट- |
का, एत च कथम्भूताः ? इत्याह-- सव्वरयणामया अच्छा |
सराहा ` इत्यादि प्राग्वत् , एवम-पड़क्तिवी थीमथुनकान्याप
प्रत्यकं वाच्यानि ॥ ` तसि तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणा- |
नां पुरता द्व द्व पद्चलत यावत्करणाद दवे द्व नागलत द्ध द्वे
अशाकलत द्व द्ध चम्पकलत द्र द्र चूतलत द्धद्व वासन्तालत
द्र द्ध कुन्दलते दे छठ अतिमुक्ककलत इति पारग्रहः द द् श्या
मलत, एताश्व कथम्भूताः ? इत्याह-' जिच कुखुमियाश्रो' इ- |
त्यादि थावत्कर णात्" निच मडालियाओ नि उदयाच्रा निच
थवइयाओ निच गाब्छियाआ नद्य जमलियाओं निच्चं विणमि '
याओ (च पणमियाश्रा)निच्चं खुविभत्तपडिमंजरिवडंस- |
गधरीओ निचये कुसुमियमउलियलवइयथबइयाओ निच
गाच्द्धियविणमियपणमियस्ुविभत्पडिमेजरिवडंसगधरीश्रा
इति परिगृह्यत, अस्य व्याख्याने प्राग्वत् । पुनः कथम्भूताः!
इत्याट-* सलव्वरयणामया० जाव पडिरूबा ` इति , श्रा-
पि यावत्करणात्-` अच्छा सरा ` इत्यादिविशषणक-
दम्बकपरिग्रहः, स च प्राग्वद्धावनीयः ॥ ` तसि ण
{मत्यादि, तषां तारणानां पुरताद्धाद्धो चन्दनकलशो प्रश्- |
शने, वरीकश्च चन्दनकलशानां * वरकमलेपदृट्राणा
दिरूपः सच: प्राक्कना वक्रव्यः ॥ ` तसि ण॒ ` मित्यादि , तां
तारणानां पुरता द्धा द्धं! भङ्गारको प्रज्ञप्तो, तपामपि चन्दन
कलशानामिव वराका वक्कब्यः , नवरं पर्यन्त * मत्तण्या-
महामुहागिइसमाणा परणत्ता समणाउसा ! ` इति वक्त-
व्यम् ` मत्तगयमहामुदागि्समाणा ` इति, मत्तो या गज- |
स्तस्य महद्ू--अति|वशाले यन्मुखे तस्याक्रतिः--आकार-
स्ततसमानाः-- तत्सदृशा यज्ञप्राः ह श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ।
तेसि णं तोरणणं पुरता दो दा आतसगा प-
णणत्ता, तसि शं आतंसगाणं अयमेयास्पे वपावासे
परणत्त, तं जहा- तव शिज्जमया पयटगा, वरुलियमया |
रुहा, ( थभया ) वइरामया वरंगा, णाणामणिमया |
वलक्खा,अंकमया मंडला,अण।घसियनिम्मला साए छाया-
ए सेव्वतो चव समणुबद्धा चंदमंडलपाडेशिकासा महता
महता अद्धकाय^ माणा परुणत्ता समणाउसों ! ॥ तनि
शं तारणाणं पुरतों दो दा वडइरणाभे थले ५रंणत्ते, |
ते णं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदडूबहुपाडि- |
पुणा चेव चिट्ठेंति सब्बजंबूणदमया अच्छा जाव पडि- |
२२९५ ~
ते णं सुपतिदरगा णाणाविध (पंचवष्प) पसाहणगर्भडबिर- |
लवणसमु
स्वा महता महता रहचक्कसमाणा समणाउसो !{ ॥ `
तति णं तारणाणं पुरतो दो दो पातीओ पण्णत्ताग्रो, `
ताओ णं पातीओ अच्छादयपाडिहत्थाग्रो णाणाविधपंच-
वण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुएणाओ विव चिटंति ¦
सव्वरयणामतीओ ° जाव पडिस्वाग्रो महया महया गो-
कलिजगचकसमाणाग्रा पष्पत्ताग्रो समणाउसो ! ॥
' तसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरता द्धौ दावादशकौ
प्रज्ञप्तो, तषां चादशक्रानामयमेतद्रपः वर्णावासः--वर्णकनिवे-
शः प्रज्ञप्त. तद्यथा-तपनीयमयाः प्रकरटकाः-पीटकविशषाः
१ वेरलियमया थेमया ` च्रादशकगणडप्रतिवन्धप्रदेशाः, आद-
शकगरडानां मृष्िग्रहणयोग्याः प्रदशा इति भावः, वज्ञरत्न-
मया वराङ्गा गरडा इत्यर्थः, नानामणिमया वलत्ताः बल्लो
नाम शृङ्खलादिरूपमवलम्बनम् , श्ङ्कमयानि-श्नङ्करत्नमया-
नि मण्डलानि यत्र प्रतिविम्बसभूतिः ` श्रणाहसियणिम्मला-
प छायाए ` इति श्रवघषरमवघर्षितम् , भावे क्रपत्ययः,
भृत्यादीनां निमञ्जनमित्य्थः, श्रवघ्र्षितस्याभावो ऽनवघर्षि-
तं तन निर्मेला अनवधर्षितनिम्मला तया छायया समनुबद्धा,
` चदम उलपडिनिकासा ` इति चन्द्रमरडलसदशाः ` महया
महया ` अतिशयन महान्तः श्रद्धकायसमानाः-द्रष्टुः शरी-
राद्धप्रमाणाः प्रज्षप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन ! ॥ ` तसि ण
मित्यादि, तेषां तारणानां पुरतो दवे ढ बज्जनामे स्थाले प्रश्ञप्त,
तानि च स्थालानि ( तिष्ठन्त ) * अच्छुतिच्छुडियसालितं-
दुलनदसदटररपरि पुसा इव चिट्टैत ' अच्छा--निम्मत्वाः शुद्ध-
स्फटिकर्वात्जिच्छाटिता अत एव नखसंद्ष्टाः--नखा सदष्टा,
मुसलादिभिश्चुम्बिता यषां ते तथा, भायादिदर्शनात्परनि-
पातो निष्ठान्तस्य, अच्छेस्प्रिच्छुटितिः शालितन्दुलेनंखसंदष्टे
परिपूर्णानीव अच्छुत्रिच्छाटितशालितन्दुलनखसं दृष्टपरि--
पूणौनीव पृथिवीर्परिमाणरूपाणि तानि तथा स्थितानि
कवलमवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-' सब्वजंबूनदमया
सर्वात्मना जप्वुनदमयानि ` अच्छा सरा ` इत्यादि प्राग्वत्
महया महय! ` इति अतिशयन महान्ति रथचक्रसमाना-
नि प्रज्षप्तानि ह श्रमण ! ह च्रायुष्मन् ¦ । ' तास ण' मित्याद्,
तेषां तोरणार। पुरतो दे दे ' पाईओ ` इति पाञ्यौ
प्रज्ञप्त, ताश्च पाञ्यः ` अच्छोदकर्पाडहत्थाओ ` इति
स्वच्छपानीयपरिपृणाः * नाणाविहस्स फलहरियस्स व-
हुपडिपुछाओ विवे ` त्ति श्रत्र षष्ठी ठतीयाथं बहुवचने
चैकवचनं प्राकृतत्वात् नानाविधः फलदरितेः-हरितफल- | `
बेहु-प्रभत प्रतिपृणौ इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानि
जले वा किन्तु तथारूपा: शाश्वतभावमुपगताः प्रथिवीपरि-
रामास्तत उपमानमिति, ` सब्वरयणामईओ ` इत्याद
प्राग्वत् , "महया महया' इति श्रतिशयन महत्यो गाकलिज्ज॒
(र) चक्रसमानाः प्रज्षप्ताः हे श्रमण ! द श्रायुष्मन् ! ॥
तेसि शं तोरणां पुरतो दो दो सुपतिद्रगा पणक्ता,
चेया सव्ये'साधिपदिपृष्पा सन्वरयणामया अच्छा जव
पटिसूवा, तमि णं तोरणां पुरतो दो हो |
लियाओ पण्पत्ताओं ॥ तायु णं मणोगुलियासु बहव षु
लवणसमह
व्परुप्पामया फलगा पष्पत्ता, तसु णं सुवष्परुष्पामएसु
फलएसु बहव वइरामया णागदंतगा मुत्ताजालतरूपिता
हेम० जाव गयंदगसमाण। पण्मत्ता, तेस णं वइरामएसु |
णागदंतएस बहवे रययामया सिकया पष्पत्ता, तेसु णं |
रययामएसु सिकणसु बहवे वायकरगा प्पत्ता ॥ ते ण
वायकरगा किण्टसुत्तसिककगवत्थिया ० जाव सुकिन्नसुत्त -
सिकगवत्थिया सच्चे वेरुलियामया अच्छा जाव पडि |
स्वा, तमि णं तारणाखं पुओ दा दो चित्ता रय
शकरंडगा पष्पत्ता, स॒ जहाणामए-रष्ो चाउरंतचक्रव ` |
द्िस्स चित्त रयणकरंड वेरुलियमणिफालियपडलपचोयडे |
साए पभा ते पदम सव्वतो समंता ओभासइ उजोवेति
ताविह पभासति, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पष्पत्ता, |
वेरुलियपडलपचायडा साए पभाए ते पदसे सव्वतो स- |
मेता ओआमासेति ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दा
हयकंठगा० जाव दो दो उसभकंठगा पष्पत्ता सव्वरयणा-
मया अच्छा० जाव पडिरूवा | तेसु णं॑ हयकंठएसु ०जाव
उसभकंटणएसु दो दो पुष्फचंगरीओ,णव मन्नगंधचुप्मवत्था भ- |
रणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगरीओ लोमहंत्थचेंगरीओ सव्वर- |
यणामतीओ अच्छाओ० जाव पडिरूवाओ ॥ तेसि शं
तोरणां पुरतो दो दो पुष्फपडलाई०जाव लोमहत्थपडलाई
सव्वरयणामया३इ० जाव पडिस्वाईं ॥ तसि णं तोर-
शाणं पुरतो दो दो सीहासणाई पष्पत्ताई,तसि णं सीहास-
शाणं अयमयास्वे व्पावास् पत्त, तहेव ° जाव पासा-
तीया० ४॥
तेसि णे ` इत्यादि, तषां तोरणानां पुरता द्धौ द्धौ सु-
प्रतिष्ठओ-आधारविशपषों प्रश्ञषत्ता त 52 ॥ सुप्रातष्ठ का
सवाषाधप्रातपूणा नानावथ पञ्चवरती प्रसाधनभारणडअश्य
बहुपाग पूणा इच तणए्ान्त, श्रन्राप तूतायाथ पष्टा बहव-
अल चक््वचन याकृतत्वात् उपमानभावना गवत्
सव्वरयणामया ` इत्यादि त्रैव ॥ ` तसि ण ` मित्या-
दि. तषां तारणानां पुरतो द्व द्व मनोगुलिके धरक्तत, म-
नागुलिका नाम पीठिका, उक्तं च' मूलटीकायाम्--म-
नागुलिका पीठिके "ति, ताश्च मनोगुलिकाः सवीत्मना
भै रै क १ > [ज [क & ५ [न
` बेड्डयमय्या ' वेड़यरत्नात्मिका; ' अच्छा | इत्यादि प्रा-
ग्वत् ॥ ` ताखु णे मणोगुलियाखु बहव ` इत्यादि , तासु
मनागुलिकासु वहनि खुवरमयानि रूप्यमयानि च फल-
कानि प्रज्ञप्तानि, तपु खुचणरूप्यमयेषु फलकषु चहवा
बज्ञमयाः नागदन्तकाः--श्रङ्कटकाः प्रज्ञप्तः, तपु नागद-
न्तकेषु वहनि ` रजतमयानि ` रूप्यमयानि सिककानि
श्रज्प्तानि; तपु च रजतमयपु सिक्रक्रषु वहवा * वातक्र-
रकाः ` जलशन्याः करका इत्यर्थः प्रज्षप्ताः ॥ ` त ण
मित्यादि त॒ वातक्ररकाः करष्णसूत्रसिक्कगवस्थिता
इत आच्छादने गवस्थाः (ताः) सजाता एप्विति गव-
ता: रृप्णसूत्रे:--ऋष्णुसृत्रमयेः गवस्थारात गम्यत
( ६१५ )
अभिधानराजन्द्रः।
लवणसमद _
सिक्ककप गवास्थिताः रृष्णसर्तासक्ककग्वस्थिताः . णवं
नीलसत्रसिक्ककगवस्थिता इत्याद्याप भावनीयम् , ते च वा-
तकरकाः स्वात्मना बेड्येमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥
` तसि ण ` मित्यादि, तवां तारणानां पुरता द्रा दो
चित्रा-चि्रवणापतावाश्चर्यभूता वा रत्नकरराडका प्र-
ज्ञां. ` स जहानामए ` इत्यादि , स यथानाम--रान्ञ-
श्चतुरन्तचक्रवर्तिनः , चतुषु -पूर्वापरदक्तिणात्तररूपषु प-
ध्वीपयन्तषु चक्रण वर्तितुं शोल यस्य तस्य. चित्रः
आश्चयेभूता नानामणिमयत्वन नानावर्णा वा ' वेदलिय-
मणिफालियपडलपच्चायड ` इति बाहुल्येन वेद्र्यर्माणिमयः,
तथा ' स्फाटिकपटलप्रत्यवतटः ` स्फाटिकपटलमयाच्छाद-
नः ` साए पभाप् ` इति स्वकीयया प्रभया तान-प्रत्या-
सन्नान प्रदशान् सर्वतः--सर्वासु दिलु समन्ततः--सा-
मस्त्यनावभासयति, पतदव पर्यायत्रयण व्याचष्ट--उद्-
द्यातयति तापयति प्रभासति, ` एवमवे ` व्यादि सुरामम् ।
तसि णे तारणाण ` मित्यादि. तेषां तारणानां पुरता
द्वो द्वौ दयक्ररटो-हयकरटध्रमाणो रत्नविशधो, प्रज्ञता
पव गजक्रिनरकिपुरुषमदेप्रगगन्धववरुषभकरडा अपि घा-
च्याः , उक्क च मूलटीकायाम--हयकण्ठो-हयकरणठप्र-
माणो रत्नविशषां. एवं सर्वेऽपि कराठा वाच्या इति, तथा
चाह-' सव्वरयणामया ` सर्व रत्नमयाः रत्नविशपरूपा
अच्छा ` इत्यादि प्राग्वत् । ' तसि ण ` मित्यादि, तषां
रणानां पुरता द द्ध पुष्पचङ्गया प्रज्ञप्त, पव माद्य
चूशगन्धवसख्राभरणसिद्धाश्रकलामहस्तकचङ्गयां $पि वक्त
व्याः, एताश्च सर्वा अपि सवात्मना रत्नमय्यः, ` अ-
च्छा ` इत्यादि प्राग्वत् । एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलका-
न्यपि द्विद्धिसङ्ख्याकानि वाच्यानि। ` तसि ण' मि-
त्यादि, तां तारणानां पुरता द्र दे सिंहासन प्रज्ञस,
तषां च सिंहासनानां वसीकः प्रागुक्ता निरवशषो वक्त
व्या यावदामवसनम्।
तसि णं तारणाणं पुरतो दो दो रुप्पच्छदा छत्ता
पण्णत्ता ते णं छत्ता वेरुलियभिसंताविमलदंडा
जवणयकनिकावइरसंधी पुत्ताजालपरिगता अट्टसहस्स-
वरकचणसलागा द दरमलयसुगधी सब्वाउच्रसुरभिसीय-
लच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चदागारोवमा बडा तसि
शं तारणाणं पुरतो दो दो चामराओ पणणात्ताओ,
ताओ णं चामराओं ( चंदप्पभवइरवरुलियनानामणिरय-
शखचियदडा ) शाणामणिकणगरयणविमलमहारेह -
तव शिञ्जुजलवि चित्तद उः अ्र। चिन्निग्राग्रो संखंककुंदद-
गरयअमयमहियफेणपुंजसप्पिकासओ सुदुमरयतदीहवा-
लाओ। सव्वरयणामयाञ्। अच्छाओं ०जाव पडिरूवाओ |
तसि णं तारणाणं पुरतो दो दो तिल्लसमुग्गा कोटसमु-
गगा पत्तसप्रुगगा चोयसमुग्गा तयरसमग्गा एलासपुग्गा
हरियालसमुग्गा हिंगुलयसम॒ुग्गा मणोसिलासमुग्गा अं-
जणसमग्गा सव्वरयणामया अच्छा °जाच पडिरूवा ॥
( प° १२३१ )॥
_ (६१६).
श्राभध्रानराजन्द्रः
१
| ४
तसि ण' मित्यादि, तषां तारणानां पुरता ढ द रुप्यच्छुद-
रूप्याच्छादन छुत्र प्रज्ञप्त. तान च छुताण चट्धयरत्नमयावमल- |
दराडानि जाम्बृनदकणिकानि वच्रसन्धीन--वज्जरत्ना-
पूरितदग्डशलाकासन्धीन मुक्काजालपरिगतानि अश्रा स-
दस्राणि-श्रष्सदख्रलख्याका वरकाश्चनशलाका-वरकाश्व-
नमय्यः शलाका यषु तानि अष्टसहस्त्रवरकाश्चवनशलाकानि
* ददरमलयसुगन्धिसन्वाउयसुर दि सी यलच्छाया ` इति द-
दरः-चीवरावनद्धं कुरिडकादिभाजनसुखे तन गालितास्त-
च पक्वा वा य मलय इति-मलयाद्धव श्रीखरड् तत्स-
म्बन्धिनः खुगन्धया गन्धवासास्तद्रत्सव॑षु ऋतुषु सुरभिः
शीतला च छाया यघां तानि, तथा ` मरलमत्तिचित्ता ` त-
घामए्टानां मङ्गलानां भकत्या-विच्छितस्या चित्रम-आलेखो
यषां तानि मङ्गलभक्किचित्राणि, तथा ` चदागारोवमा ` इति
चन्द्राकारः-चन्द्राकृतिः स उपमा यषां तानि तथा, चन्द्रम-
गडलवद्धत्तानीति भावः । ' तसि ण ` इत्यादि, तषां तार-
णानां पुरता द्व द्वे चामरे प्रश्षत, तानि च चामराणि" चं
दप्पभवदरवरखुलियनाणामाणिरयणखयचियदंडा ` इति चन्द्र
प्रभः-चन्द्रकान्ता वज्जं वेद्यं च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवेडू-
याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु द- |
ण्डषु ते तथा, एव रूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा यपां चा- |
मराणां तानि तथा, सत्र स््रीत्व प्राकृतत्वातू, तथा ` खु-
हुमरययदीहबालाओ ` इति सृच्मा रजजतमया दीघा वाला
यषां तानि तथा, ` संखेककुंददगरयअंमयमंहियफेणपुंजसं-
निकासाओ ` इति शङ्खः-प्रतीता$ङ्गा रन्नविशंषः कन्दति
कुन्दपुष्प दकरजः-उदककणाः अशरेनमथितफनपुञ्जः-त्तीराद-
जलमशथनसमुत्थफनपुञ्स्तपामिव सं॑न्निकाशः-प्रभा
तानि तथा , अ्रच्छा इत्यादि प्राग्वत् । ` तसि ण ` इत्या-
दि, तषां तारणानां पुरता दो डौ तलसमुद्रका-खुगन्धित-
लाधारविशषो, उक्तं च--जीवाभिगममूलरीकायाम्- त-
लसमृद्रका--सखुगन्धितेलाधारो ” एवं कोष्ठादिसमुद्रका अ-
पि वाच्याः, अन्न संग्रहणिगाथा-' तल्ला कोटरुसमुग्गा
क्त चोए य तगरणलाय । हरियाल हिंगुलए, मणोसिला
श्रजणसमुग्गो ॥ १ ” ' सन्वरयणामया ` इति पत सर्वेऽपि
सर्वात्मना रत्नमयाः ` अच्छा सराहा ' इत्यादि प्राग्वत् ॥
(८)अथ लवणविजयद्वारे चक्रभ्वजादि प्रतिपादयन्नाद-
विजय णं दारे अट्टसतचकज्भया रण अदुसयं मिगजञ्जया-
णं अट्टसय गरुडज्छयाणं अदरमयं विगज्छयाणं ( अ-
दस्यं रुरपज्भयाणं ) अट्टसत॑ छत्तज्छयाणं अट्टसय॑-
पिच्छज्कयाणं अट्टसय सठणिज्भयाणं अटूसयं सीह-- |
उ्भयाणं अड्टडूसत॑ उसभज्कयाणं अड्टसत सयाणं च- |
उविसाणाणं णागवरकेतृशं एवामेव सपुव्वावरेणं विज- |
यदारे य आसीये केउसहस्सं भवति त्ति मक्खायं ।। विज-
यणं दारे णव भोमा पष्पत्ता, तसि णं भोमाण अंतो
बहूसमरमणिज्ञा भूमिभागा पष्पत्ता, °जाव मणीणं फा-
सा, तसि श भोमाणं उप्पि उल्लोया पउमलया ०जाव |
सामलता भत्तिचित्ता ° जाव सन्वतवणिज्ञमता अच्छा
०जाव पडिरूवा, तेसि शं भोमाणं बहुमज्मदेसभाए
यषां
एत्थ णं एग महे सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णतो
विजयदुसे °जाव अंकुसे ०जाव दामा चिट्ठं ति, तस्स शं
सीहासणस्स अवरुत्तरणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ
णं विजयस्स दवस्स चठणहं सामाणियसहस्साणं च-
त्तारि मदासणसाहस्सीग्रो पणणत्ताओ, तस्स णं सी-
हासशस्स पुरच्छिमिणं एत्थ शं विजयस्स देवस्स च-
उण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराशं चत्तारि भदासणा प-
णणत्ता, तस्स शं सीहासणस्स दादिणपुरत्थिमेणं एत्थ
शं विजयस्स दवस्स अन्मितरियाए परिसाए अट्रण्टं दव-
साहस्सीणं अट्टए्ह भद्दासगसाहस्सीओ पएणत्ताओं,तस्स
शं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्किमि-
याए परिसाए दसण्टं दवसाहस्सीणं दस भदासणसा-
हस्सीओ पप्मत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणप-
चत्थिमें एत्थ ण॑ विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परि-
साए बारसणह दवसाहस्सीणं वारस भदासणसाहस्सी-
श्रा पष्पत्ताग्रा ॥ तस्म णं सीहासणस्स पच्चास्थिमेणं
एत्थ ण विजयस्स दवस्स सत्तण्ह॑ अशियाहिवतीण
सत्त भद्दासणा पष्पत्ता , तस्स णं सीहासणस्स पुर-
त्थिमेणं दाहिणेणं पचन्थिमणं उत्तरणं एत्थ णं बि-
जयस्स देवस्स सालस आयरक्खदवसाहस्सीणं सोलस
भद्दासणसाहस्सीओ परणणत्ताओ, तंजहा-पुरत्थिप्रेणं च-
त्तारि साहस्सीओ, एवं चउसु वि ०जाव उत्तरेणं च-
त्तारि साहस्सीओ , अवसससु भोमेसु पत्तयं पत्तयं
भद्दासणा पणणात्ता || ( सू० १३२ )
विज्य श दारे ` इत्यादि , तस्मिन विजय द्वार अप्ट-
शतम--अप्टाथक शत चअकऋध्वज्ञानाम--चऋलखरूप-
चिट्दोपतानां ध्वजानाम् , एवं स्गगरूडरूरुकच्छत्रपिच्छ -
शर्कुनसिहृवृषभचतुदेन््तहस्तिध्वजानामपि प्रत्यकमण्रशत-
मष्टशत वक्तब्यम् , * एवामव सपुव्वावरण ` एवम-
व--अनन प्रकारण सपूर्वापरंण सह पूर्वैरपरेश्च वत्तेत
इति सपू्वापर संख्यान तन विजयद्वारं अशीतम--अ>
शीत्यधिक कतुसदस्ने भवतीत्याख्यात मया न्येश्च ती-
धक्रद्धिः ॥ * विजयस्स ण ` मिन्यादि, विजयस्य द्वारस्य
पुरता नथ्र भोमानि ` विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि
तषां च भौमानां भमिभागा उल्लोकाश्च पववद्वक्र-
व्याः, तषा च भोमानां बहमध्यद्शभाग यत्पश्चम
भोम॑ तस्य बहुमध्यदेशभागे विजयद्धाराधिपतिथिजयदे-
वयोग्यं सिंहासने प्रश्प्तम् , तस्य च सिहासनस्य वर्णन
विजयदृष्य॑ कुम्भाग्रमुक्कादामग्र्णने प्राग्वलू तस्य च सि
हासनस्य अपराक्त रस्याम--वायव्यकाण उत्तर स्यामुत्तर-
पूवस्या च विजयदेवस्य सम्बान्धना चतुणा सामानक-
सहस्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्पाणि प्रक्षष्तानि , तस्य
सिंहासनस्य पूर्वस्यामत्र विजयस्य दैवस्य चतरृणामग्र-
लवण नव
ज स पंचम भाम्मे तस्स णं भोमस्स बहुमज्भमदेसभाए
(६१७ )
| 0.0
महिषीणां चत्वारि भद्रासन सहस्रणि प्रक्षष्तानि ; तस्य-
सिंहासनस्य दात्तणपूवस्यामाग्नयकाण इत्यथः, “अन्न
श्मामश्वानराजन्द्रः।
विजयदवस्य अभ्यन्तरपर्षदाम् अशभ्यन्तरपपेद्रपाणामष्टानां
देवसहस्प्राणां यो ग्यानि अछ्ो भद्रासनसदस््राणि प्रक्षप्ता-
नि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि श्रत्र विजय- |
देवस्य मध्यपपेदो दशानां
देवसदस्नारणं याग्यान दश |
भद्रासनसरस््ाण प्रक्षप्तानि , तस्य सिहासनस्य दक्ति- |
णापरस्यां दिशि नऋतकोण इत्यथः ।
चस्य बाह्यपर्षददा द्वादशानां देवसहस्माणां
डादश भद्रासनसहतस्माएँं प्रल्नप्तानि ॥ तस्स णे सीहास-
शस्स' त्यादि, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि शन्न वि-
ज़यस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपतानां या-
-श्यानि सप्त भद्रासनानि प्रज्नप्तानि, तस्य सिहासनस्य ` सव-
तः-सर्वासु दिष्ठु समन्ततः-सामस्त्यन श्र विजयस्य देव-
स्य सम्बन्धिनां पोडशानामात्मरक्तकदेवसहस्थाणां याग्यानि
श्र विजयद--
याग्यानि |
शाडश भद्रासनसटस्नाण प्रज्ञप्तान, श्रकवशष्चु प्रत्यक्र प्रत्य |
कै सिरासनमपरिवारं सामानकाददवयाग्यमद्वासनरूप- |
चरिवाररदित भन्लप्रम् ॥
विजयस्स शे दारस्य उवारिमागारा सोलमविहेर्हिं रय-
ऋं उवसोभिता, तं जहा-रयणहिं वयरहिं वेरुलिण्ि°
जाव रिट्रेहिं। विजयस्स श दारस्स उप्पि बहवे अट्ट मग- |
लगा पणणत्ता, तं जहा-सोत्थितसिरिवच्छ० जाव दप्पणा |
यच्रयणामया अच्छा ° जाब पडिरूवा। विजयस्स णंदा- |
बस्य उप्पि बहव कण्ट चामरज्छया० जाव सव्वरयणामया
अच्छा ० जाव पडिरूवा | विजयस्य शं दारस्स उप्पि
बहवे छत्तातिछत्ता तदेव ॥ ( स्रू० १३३ )
विजयस्स ण ` मित्यादि, व
काराः- इति उर्पारितन आकारः उत्तरङ्गादिरूपः षोडश-
विधेः रल्नैरुपशाभितः, | { व
नादिभिः १ वज्ः २ चेंड्ये: ३ लाहिताक्षेः ४ मसारगरनैः ५
इंसगर्मः ६ पुलकैः ७ सोगन्धिके: ८ ज्यातिरसेः ६ श्चङ्कः १०
श्रञजनेः १९ रजतैः १२ जातरूपैः ६३ श्रञजनपुलकैः १४
स्फरिकेः १५ रिष्टः १६ ॥ ˆ विजयस्स ण॒ ` मिव्यादि, विज-
यस्य द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि महुलकानि
प्रज्नत्तानि तद्यथेत्यादिना तान्येवापदशयति-- सब्वरय-
शामया ' इत्यादि प्राग्वत् ॥
से केणइणं भते ! एवं वुच्चति १ विजए शं दारे २,
गोयमा ! विजये शं दारे विजय शाम देवे महिड्डीए
महज्ज़तीए० जाव महाणुभावे पलिओवमट्टितीए परि-
बसति, से शं तत्थ चरण्दं सामाणियसाहस्सीर्ण, चउ-
ण्ह अग्गमहिसीर्ख सपरिवाराणं, तिण्टं परिसाणं, सत्त-
र्हं अणीया, स्तरणं अणीयाहिवईणं , सालसणं
आयरक्खदेवसाहस्सौणं, .विजयस्म शं दारस्स विजयाए
विजयस्य द्वारस्य उवरिमा-
तद्यथा-रत्नः सामान्यतः कर्के- |
रायहाणीए अण्णसि च बहूणं विजयाए रायहाणीए `
+^ देवां देवीण य आहेवच्च ० जाव दिव्या-
6 4
लवणसमु
३ भागभागाह भुजमा वहरह, स तण्ड गपयमा *
एव बुच्चात विजय दार वजय दार, (अदृत्तर चणगा-
यमा ! विजयस्स णं दारस्स सासए णामघज्ञ पप्मत्ते, जाप
कयाइ णासी, श कयाइ णउत्थि, ण कयाइ ण भविस्सति,
०जाव अवड्टेण णिच्च विजए दारे ॥ ) ( स्ू० १३४ )
स केणट्रुय भते ¦ एवं बुच्चइ ` इत्यादि प्रश्नसूत्र खुग-
मम् , भगवानाह--' गायम ` त्यादि, गोतम ! विजय द्वार
विजयो नाम, प्राकृतत्वात् अव्ययत्वाच्च नामशब्दात्परस्य
रावचनस्य लापस्ततोऽयमर्भः--प्रवाहता ऽनादिकालसन्त-
तिपातितेन विजय इति नाम्ना देवः"मटद्धिकः'पहती ऋद्धिः-
भवनपरिवारादिका यस्यासो महर्झिकः * महाद्युतिकः `
महती द्यातिः-शरीरगता आभरणगता च यस्यासौ महाश
तिकः, तथा महद् चले--शारीरः प्राणा यस्य स महाबल
तथा मद् यशः--ख्यातियेस्थासो मदायशाः. महेश इत्या
ख्या-प्रसद्धियस्य स महशाख्यः, श्रथवा- ईशनमीशो भाव
घञप्रत्ययः एश्वयमित्यर्थ: ` ईश ऐश्वर्य इति वचनात् , तत
ईशनमेश्वयम् श्रात्मनः ख्यातिः: अन्तभूतरय थतया ख्यापय-
ति-- प्रथयति यः स ईशा रूयः, महांश्वासावीशाख्यश्व महे-
शाख्यः, कचित् मटासाक्खे ' इति पाठस्तत्र मदत् सौख्यं
भ्रभूतसद्धे यादयवशाद् यस्य स महासोख्यः पल्योपम-
स्थितिकः परिवसति, सख च तत्र॒ चतुणा सामानिकस-
हस्थाणां चतसृणामग्रमहिषोाणां सपरिवाराणां प्रयकम-
केकसहस्व॒संख्यपरिवा रसहितानां तिसणाम अभ्यन्तरमध्य-
मवाह्यरूपाणां यथाक्रमम्ष्टदशद्दा द्शद्व सहस्त्र संख्याकानां
पर्षदां सप्तानामनीकानां--हयानीकमजानीकरथानीकपदा-
त्यनीकर्माहेघानीक गन्धरवानी कना ख्य[ नी करूपाणां सप्तानाम-
नीकाधिपतीनां घोडशानामात्मरत्तसहस्पाणां विजयस्य द्वा-
रस्य विजयाया राजधान्या अन्यष्रां च बहनां विजयरा-
जधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च ` श्राहवच्चं ` ति आ-
धिपत्यम्-श्रधिपतः कर्म श्राधिपव्यं रक्षा इत्यथः , सः
च रक्षा सायान्यनाप्यारक्तकेणेव क्रियते तत श्राह पुरस्य
पातः पुरपातस्तस्य कम्मे पोरपव्यं सवेषामग्रसरत्वामिनि
भावः । तज्चात्रसरत्व , नायकन्वमन्तरेणापि खनायकनियु-
क्रतश्राव्धश्रूदचिन्तकसामान्यपुरूषस्येव ८ स्यात् ) ततो
नायकत्वप्रातपच्यथमाद-'स्वामित्वम्' स्वमस्यास्दीति खा-
मीः तद्धावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यथेः , त्दाप नाय
कत्वं कदाचित्पोपकत्वमन्तरणापि भवति, यथा-हरिण्य-
थाघपरतहेरिणस्य तत श्राद--भकन्वं -पोषकन्वम् ~
शरञ्च धारणप्रोधणयोः ” इति वचनात् , श्रत ण्व महत्ष-
रकत्वम् . तदपि चद मदत्तरकत्वं कस्यचिदाक्ाविकलस्या-
पि भवति. यथा-कस्यचिद्रांणजः स्वदासद्रासीवर्म परासि
तत आह-' आणाईसरसणावच्च ` आज्या ईश्वर आ
श्वरः. सनायाः पतिः सनापतिः, आश्वश्यस्श्वासों सना-
पतिश्च आश्षिश्चरसनापतिस्तस्य कम्म आश्षश्वरसनाए-
त्य स्वसन्यं प्रलयद्धतमाक्ञाप्राघान्यमिति भावः. कारयन्
अन्यानयुक्ल पुरूष पालयन स्वयमव, मरता रत्ररणात यान
अहय त्त आख्यानकप्रातवर्द्धान . याद बा-श्रहता-
नि-अव्याहतानि नित्यानि-नत्यानुबन्धीनीति भावः . ये
( ६१८ |
शअ्रभिधानराजन्द्र [+
लचणम्बस्नुद्
नास्यगात नाटय-नत्य गत--गान यान च वादतान |
तन्त्रीतलतालत्राटतान-तन्त्रा--वाणा तला हस्ततला त-
लतः-कंसिका त्रटितान-वादतार]), तथा यञ्च घनन्नुदरङ्ग
पटुना पुरुषण प्रवादितः, तत्र घनस्व॒दक्लो नाम-घनसमा-
नध्चवानया मुरइज्नस्तत पनष।[ दन्दस्तषा रवण ददृत्यान्- |
प्रधानान भागाहा भोगा:--शब्दा दयो भागभागास्तान भु-
आनः विहरात-आस्त स एणएणट्ुण इत्याद, तत एतन
अश्वेन-कारणन गोतम ! एवसव्यत, विजयद्वारं--विजयद्दा-
रमिति, विज़या भिधानदेवस्वामिकत्वाद विजयामति भाव: ॥
करहि श भत ! विजयस्य देवस्स विजया णाम राय-
हाणी पष्यता ? गोयमा ! विजयस्स ण दारस्स पुर-
त्थिमिणं तिरियमसंखज दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अष्मम्मि |
( जी० घू० १३५ ) लवणसपुद्दे ( जी० सू० १५४ ) |
वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ श ॒विजयस्म
देवस्स विजया णाम रायहाणी पष्पत्ता, वारस-
जोयणसहस्साई अआयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसह-
स्पाईं नव य अडय ले जेयणसए किचि विसेसाहिए
परिक्खेवेण पष्पते ॥ सा णे एगे शण पागारेणं सव्वतो
समता संपरिक्खित्ता ॥ से श पागारे सत्ततीसं जाय-
णाई अद्भजोयणं च उं उच्चत्तणं मूले अद्भतेरस
जायणाई विक्वंभेणं मञ्छत्थ सक्रोसाई छ जोयणाई थि-
कवंमेशं उप्पि तिपि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं
मूले विल्थिष्ष मज्के संखित्ते उप्पि तणुए बाहिं वदं रता.
चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिते सव्यकणगामए अच्छः° जाव
पडिख्वे | से श पागारे गाणाविहपंचवमहिं कविसीसए-
हिं उवसोभिए, तं जहा-किणंहेहिं० जाव सुकिन्लिहिं ॥ ते
गे कविसीसका अद्रकासं आयामेण पंच धणुसताई वि-
क्खंभेणं देसोणमद्धकोंस उड़ उचनशं मव्वमणिमया अ-
च्छा ° जाव पडिरूवा ॥ विजयाए श रायहाणीए एगमेगाए |
बाहाए पणुवीस पणुवीस दारसतं भवतीति मक्खायं ॥ ते |
गा दारा बावद्भि जेयणाई अद्रजोयणं च उडं उचत्तणं
एकरतीसं जोयणाई कोर्स च विक्ंभेणं तावतियं चेव
प्रेस गा सता वग्कणगधू भियागा इहामिय० तहेव जधा
विजए द्रि० जाव तवशिज्ञवालुगपत्थडा सुहफासा सस्मि
(म) रीण सस्वा पासातीया० ४ । तेमि शंदाराशं
उभयपामि दुहतो शिसीहियाए दो वंद णकलसप।रेवाडी -
ओओ पापत्ताओं तहेव भाणियव्पं° जाव वणमाल,ओ। |
` कदि सो भन ! ` इत्यादि. क भदन्त ! विजयस्स देवस्य
विजया नाम राजधानी प्रज्ञता? , भगवानाद-गोतम ! वि-
जयस्य द्वारस्य पूर्रस्यां दिशि तियगलेख्थयान द्वीपसमुद्रान
उ्य(नवन्यान्यास्सन् लवणनमद्र दादश याज़नसहस्थाएयव-
गाद्याजान्तर चिजयस्यदेवस्यविजया नापर राजधानी प्रश्नप्त।।
-- ~
(जी ० दप्रति०२उ०स्व्०१५५)मया शचश्च तीथरद्धिः,सा च द्वा- `
दशयोाजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन श्रायामविष्कम्भाभ्यां
सप्तत्रिशद् योजनसदस्राणि नवशतानि अष्टचत्वार्रिशानि--
श््चत्वारिशदधिकानि किञ्चिद्धिशेषाधिकानि परित्तपेण,इद `
च पारक्तपपरिमाणम् | विक्खभवग्गद्हगुण-करणी वट्टस्स
परिरओ होइ ` इति करणवशात्स्वयमानतव्यम्। “सा ण”
मित्यादि, सा--विजयामिधाना राजधानी णमिति वाक्या-
लङ्ार एकन महता प्राकारेण सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन््त-
तः--सामस्त्यन परित्तिप्ता ॥ ' स ण ` मित्यादि, स प्राकारः
सप्ततिशत योजनानामद्धयोाजनमूध्वमुचेस्त्वन मूल्यो
दश याजनानि विष्कम्भन मध्य षड याजनानि सक्राशानि-
एकेन काशनाधिकानि वष्कम्भन उपरि णि योजनानि |
साद्धक्राशानि (याजनानि)साद्धानि द्वादश अद्धक्रोशा घिका-
नि ( द्वादश ) विष्कस्मेन, मूल विस्तीर्णो मध्य संक्षिप्ता,
मूलविष्कम्भतो ऽस्य त्रुटितत्वात् , उपरि तुको, मध्यवि-
च्कम्भादप्यर्दस्य टतत्वात् , विवृत्तो ऽन्तश्चतुरखा गाप- ^
च्छुसंस्थानसंस्थितः-ऊर्ध्वी कतगोपुच्छसंस्थानसंस्थितः ' स-
व्वकणगमए सवात्मना कनकमय ` अच्छे ' इत्यादि, |
विराषरणजातं प्राग्वत्॥ ` स ण ` मित्यादि, स प्राकारो |.
नानाविधानि च तानि पञ्चवणीनि च नानाविधपञ्चवणीनि ¦ `
तेः, नानाविधत्वं च पश्चवर्णापक्तया कृष्णादिवणतारतम्या-
पत्तया वा द्रणएव्यम् , पञ्चवरणत्वमवापदशेयति-* किराहेहि !
इत्याद ॥ ` त ण कविसासगा ` इर्त्याद, तानि कंपिशीर्ष-
काणि प्रत्येकमद्धक्रेशं-धनःसहस्प्रप्रमाणमायामन--दैध्यण
पञ्चधनः शतानि विष्कम्भेन--विस्तारण, देशानमदधकोश-
मूध्वमुच्चस्त्वन ` सव्वमणिमया ` इत्यादि सर्वात्मना मणि-
मया ` अच्छा ` इत्यादि विशषरणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ ` विज-
याए णं रायहाणीए ` इत्यादि, विजयाया राजधान्या एकैंक-
|.
द्वाराणि प्रत्येकं द्वाषष्ियाजनानि अद्धयोजने चोर्ध्वमुच्चै
स्त्वन,. पक्राज्जशत याजनाान क्राश च वष्कस्मत तावइय
चव पवेसेण ” एतावदेव--एकर्जिशद् योजनानि क्रोशे
चत्यधः; प्रवेशन, ` सया धूवरकणगर्ियागा ' इत्यादि | `
द्वारवरन निरवशष तावद्वक्कव्य यावद्धनमालावर्णनम । `
तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहतो णिसीहियाए दो
दो पगंठगा पष्पत्ता, ते णं पगेठगा एक्कतीसं जोयणाई
कासं च च्रायामविक्खभेणं पन्नरस जोयणाई अङका्ने।
कोसे वाहल्लेणं पप्मत्ता सव्ववइरामया अच्छा ०जाव पडि- |
रूवा ॥ तेसि शं पगेटगाणं उपपि पत्तेयं पत्तेय पासायवर्डि-
सगा पाप ता || ते णं पासायवर्डिसगा एकतीसं जोयणाई'
कोसं च उड उच्चत्तेण प्रस जोयणाई अङ्कादजे य कसि
अ.यामविक्खभेणं ससं तं चेव जाव समुग्गया शबरं `
बहवयणं भाणितव्वं । विजयाए णं रायहाणीए एगमे
दारे अदरसयं चक्ज्छयाणं ०ज,व अदरसतं सेयाशं चड- |
विसाणाणं णागवरके ऊशं, एवामेव सपुव्वावरेशं ५ ||
( &१६ )
लवण सम्ठद
अझभिषधानराजन्द्रः ।
सवद,
( रायहाणीए एगमेगे दरे असीत॑ असीतं केउ- |
सहस्सं भवतीति मक्खायं ।॥ विजयाए शं रायहाणीए |
~ = [न 4 ५ |] ~ |
एगमगे दारे ( तसि णं द्राण पुरओ ) सत्तरस भोमा
प्पत्ता, ताम शं भोमाणं ( भूमिभोगा ) उल्लोया ( य )
पउमलया० भतत्तिचित्ता ॥ तसे शं भोमाणं बहुमज्क
देसभाए जे ते नवमनवमा भोमा.तेसि णं भोमाणं बहु -
मञ्भदेसभाए पत्तेयं २ सीहासणा पण्णत्ता, सीदहासणव-
णणओ ०जाव दामा जहा हटा,
भोमेसु पत्तयं पत्तयं भदासणा पण्णत्ता । तेसि शं दाराणं
उत्तिमा (उवरिमा) गारा सोलसविधेहिं रयणेहें उवसोभिया
ते चेव०जाव छत्ताइछत्ता, एवामेव पुव्वावरेण विजयाए
रायहाणीए पंच दारसंता भवंतीति मक्खाया । षू १३५)
तेसि णे दाराण ` मित्यादि, तेषां द्वाराणां भ्रयेकमुभयो
पाश्वयारेकेकनेषेधिकोभावन-द्वधातो , द्विप्रकारायां नेषे-
चिक्षयां दवौ दौ प्रकरटकौ--पाटविशषौ प्रज्ञमो, त॒ च प्रक-
शठकाः प्रत्ये कमकात्रशतं याजनान क्राशमक च श्रायाम-
विष्कम्भाभ्याम् , पञ्चदश याजनानि अद्धंतृतीयांश्व क्राशान्
बाहल्यन ` संव्ववइरामया ` इति सर्वात्मना त प्रकण्ठका
वज़रत्नमयाः ` अच्छा सरदा ` इत्यादि विशषणजातं प्राग्व-
त्॥ ' तसि पगेठगाण ` मित्यादि
प्रत्यकं २ प्रासादावतंसकः--प्रासादविशषः प्रज्ञप्तः ॥ ` तण
पासायव डंसगा ` इत्यादि, त ॒भासादावतेसका पकात्रिशतं
याजनान क्राश चक्रम् भ्त्रमुच्चस्त्वन , पश्चरश याजनाान |
श्रद्धत॒तीयांश्च क्रोशान् आयामावष्कम्भाभ्याम् , तषां च
श्रासादानाम् अब्भुग्गयमूसियपहासिया विव ' इत्यादि सा-
एत्थ णं अवसससु |
तषां प्रकरडकानामुपरि |
भान्थतः स्वरूपवणनम् उट्लाकवणने मध्यभूमिभागवणनं |
सिहासनवणंन विजयदृष्यवणीन मुक्रादामापवरनं च
विजञयद्वारवत् , शषमापि तोरणादेकं विजयद्वारवदिमाभिव- |
चयमाणाभिगोथापमिरनुगन्तव्यम् ता एव गाथा आहर- ता- |
रण ` त्यादि गाथात्रयम् , द्वारेषु प्रत्यक्रमकेकस्यां नघांधक्यां
द्र तारण वक्तव्य, तथा च तारणानामुपार श्रत्यकम- |
शावष्टा मज़लकानि, तां तोरणानामुपरि कृष्णचामरध्वजा-
दया ध्वजाः , तदनन्तरं तारणानां पुरतः शालभश्षिकाः
तदनन्तरं नागदन्तकास्तषु च नागदन्तकषु दामानि
तता हयसट्वाटादयः सक्लाटा वक्कव्याः, ततो हयप-
ङक्रथःदयः पङ्क्रयस्तदनन्तरं दयवीथ्यादयो वीथ-
यस्तता हयमिथुनकादीनि मिथुनानि ततः पद्मलतादयो
लता: ततः “ सात्थिया ` चतुर्दिक्सौवस्तिका वक्तञ्यास्ततो
कन्दनकलशास्तदनन्तरं भ्रज्ञारकास्तत आदशकास्ततः स्था-
लानि ततः पात्यस्तदनन्तरं सुप्रांतष्ठानि ततो मनागुलिका-
स्ताखरु ˆ वातकरकाः ' वात्ता करका वातकेरका
जलशन्या इत्यथः, तदनन्तरं चित्रा रत्नकरडकास्ततो
इयक्ररठा गजक्ररडा नर कराः, उपलक्षणमतत् किनराकि-
पुरुषमहारगगन्घर्ववरृषभकराठकाः करमेण वक्तव्या
न्तर ॒पुष्पादिचङ्गयां वक्तव्यास्ततः पुष्पादि पटलकानि तत
हि ` छत्राणि ततश्चामराणे
तदन- |
ततस्तै- _
मणं चपगवे उत्तरणं चूतवणे
लादिसमुद्गकका वक्घव्यास्ततो ध्वजाः, तषां च ध्वजाना-
मद् चरमसत्रम--' पवामव सपुत्राचरणं गवजयाए रा-
यहाणाए पगमगास दारास असीय श्रसीय कंउसहस्स
भवतीति मक्खाय तदनन्तर भामान वक्तव्या न, तत्सूत्र
सात्तादुंपद्शयात-- तास ण दाराण गमत्याद्, तषाद्ा-
राणा पुरतः सप्तरश सप्तरश भामान्न प्क्षप्ान, तषां च
भामाना भामभागा उल्लोकाश्च प्राग्वद्वक्कव्याः ॥ ` तसि
णे भोमाण ` मित्यादि, तषां च भौमानां बहुमध्यद श-
भागे यानि नवमनवमानि भौमानि तषां बहुमध्यदेश-
भागघु प्रत्यक विजयदेवयोग्य ( सिंहासने यथा) विज-
यद्दवार पश्चमभाम कन्तु सपारवार सिंहासन वक्कव्यम ,
अवशपधु च भामषु प्रत्यकं सपरिवारं सिंहासन प्रज्ञप्तम् ,
तासं दारण उवारमागारा सालसावदेदि रयण-
दिं उवसोभिया ` इत्यादि प्राग्वत् ।
( ६ ) लवणसमुद्रस्य वनखण्डादि वरीयति--
विजयाए शं रायहाणीए चउद्दिसि पंचजोयणसताई
अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा परण्णत्ता, तं ज-
हा-असोगवणे सत्तवण्णवण चंपगवणे चूतवे, पुर-
त्थिमेणं असोगवर्ण दाहिणेणं सत्तवण्णवणे पचत्थि-
॥ ते शं वणसं
डा साहरेगाहं दुबालसजायणसहस्साईं आयामेणं पंच
जोयणसयाई विक्खंभेणं पष्पत्ता पत्तेय पत्तेयं पागारप-
रिक्खित्ता किएहा किण्होभासा वणसंडव्मओ भाणि-
यव्वो °जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य
आसयति सयति चिदट्रंति णिसीदंति तुयईंति रमति
ललंति कौलति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिष्पाणं ॒सु-
परिकंताणं सुभाणं कम्माणं कडाण कल्लाणाणं फल-
वित्तिविसेस पचचणुभवमाणा विहरंति । तेसि शं व-
णसंडाणं बहुमज्भदेसभाए पत्तेय पत्तेये पासाय-
वर्डिसगा पष्पत्ता, ते णं पासायवडिसगा बावद्धि
जोयणाई अद्भजोयणं च उड़ उच्चत्तणं एकतीसं जो-
यणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भ्रुग्गतमूसिया
तदेव ०जाव अतो बहुसमरमणिज्ञा भूमिभागा पष्प
त्ता उल्लोया पउमभत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि शं
पासायवर्डेसगाणं बहुमज्भदेस भाए पत्तेय पत्तेय सीहासणा
पष्पत्ता वण्णावासों सपरिवारा, तेसि ण॑ पासायवर्डिसगा-
णं उर्प्पि बहवे अट्ट मगलगा कया छत्तातिछत्ता ॥
* विजयाए स रायहाणीए ` इत्यादि, विजयाया राज-
न््याः--चउद्विसि ` मिति चतस्ना दिशः समाहताश्थ-
तदक तास्मन् चतुदाश--चत सषु दच्च प्च पञ्च याज-
नशतान अबाहाएण इत बाधन बाधा-आक्रमण त-
स्यामवाधायां छृत्वति गम्यते , अपान्तरालेषु मुक्त्वेति
भवः, चत्वारा चवनसखराडाः प्रज्ञप्ता तद्यथ त्यां ता-
नव वनखण्डान् नामतो दिग्भदतश्च दशयति, श्रशाकन्-
( ६२० }
अभिधानराजन्द्र; |
लवणसमुदद_
क्षग्रधाने वनमशोकवनम् , एवं सप्तपर्णवन चम्पकवनं चू-
तवनमपि भावनीयम् , ` चुव्वेण असोगवण ' मित्यादि-
रूपा गाथा पाठसिद्धा ( शत्र मृले न) ॥ "ते रे वणसडा '
इत्यादि, ते वनख (घ)णडाः, सातिरेकाणि द्ादश याजनस-
हस्मारयायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कस्मेन प्रत्यकं |
रत्यकं धाकारपरित्षिप्ताः प्रक्षप्ताः, पुनः कथम्भूतास्ते वन-
खर्डाः ?, इत्यादि पद्मवरवदिकावर्हिंबनस्ररडवत्तावदवि-
शण वक्कव्ये यावत् “ तत्थ शु ` बहवे बाणमंतरा दे- |
चाय देवीश्रो य आसयेति ० जाव विहरंति ॥ ‹ तेसि
मिच्यादि, तेषां वनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्र- |
श॒ ^ ।
व्यक २ प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्तः, ते च प्रासादावतसका
द्वाषाष्टियों जनान्यद्धयो जने चोध्व॑मुच्ैस्त्वेत एकर्जिशत यो- |
नानि कोश च विष्कस्मेन “ अब्भुग्गयमूसियपदसिया
विव ' इत्यादि भासादावतंसकानां वर्णन निरवशष
सावद्धक्कव्य यावत्तत्र प्रत्यकं २ सिंहासन सर्परिवारम् ।
तत्थ शं चत्तारि देवा महाङ्िया ०जाव पलि-
आवमद्भितीया परिवसंति, तं जहा-असोए सत्तवघे |
पए चते ॥ तत्थ श ते साशं साशं वशसंडा-
शं सां साशं पासायवर्डेसयाणं साशं साशं सामाणि-
याशं साशं साशं अग्गमरिसीणं साशं साशं परेसाशं
सां साशं अयरक्खदेवाणं आहेवच्च °जाव विहरंति ॥
विजयाए श रायहाणीए अतो बहुसमरमणिज्ञे भू-
मिभागे पत्ते °जाव पचवक्छरदिं मणीहि उवसोभिए
तणसद विषुणे ०जाव देवा य देवीओ य आसयंति ०जाव
विहरति ॥ तस्स शी बहुसमरमणिज़स्स भूभिभागस्स
प्रहुमज्कदेसभाए एत्थ णे एगे मई ओवरियालेणे प-
छत्ते बारस जोयशसयाई अआयामनिक्रसभेणं तिन्नि जोय-
णसहस्साई सत्त य पंचाणउते जोयणसते क़िंचि विसे-
साहिए परिक््खेवेण अद्धकोस बाहल्लेणं सन्वजंबणद मष
शे अच्छे ०जाव पडिरूवे ॥
/ तत्थ ण' मित्यादि, तेश्लु घनखणडेचु प्रत्येकमकैकदेवभावन
न्रत्वारो देवा महद्धिका यावत् ` महज्जुश्या महाबला म-
हायसा महासोाक्खा मदाखुभावा' इति परिग्रहः, पट्योप-
मस्थितिकाः परिवसग्ति, तद्यथा--' असोए ' इत्यादि, श्र-
शोकवन ऽशोकः, सघ्पगोवमे स्परीः, खम्पकवने चम्पकः,
चूतवन चूतः ॥ ' तसि ण॒ ' मि ( तत्थ णे ते इ ) त्यादि, ते
अशोकादयो देवास्तस्य बनष्ठरडस्य खस्य प्रासादाव-
तसकस्य, सत्रे बद्ुवचनं प्राकृतत्वातू , धाकृते हि वचन-
श्यत्ययो भवतीति, स्वेषां स्वेषां सामानिकसदस्नाणां स्वा-
खां स्वासामन्नमददिषीणां सपरिवाराणां स्वासां स्वासां प- |
दां स्वां स्त्रपामनीकानाम् ( श्रनीकाधिपतीनां ) स्वेषां
स्वघामात्मरक्षकाणाम् ' आहेवच्च्न पारे्रच्च ' मित्यादि
प्राग्वत् ॥ * विजयाए ण॒ ' मित्यादि, विज्ञयाया राजधरान्या
अन्तवैहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रहञप्तः , तस्य॒ ' से ज-
` हानामए आलिग़पुक्स्तरइ ब्रा ' इत्यादि घर्णन प्राग्यस् नि- |
वरवशचे तावद्धक्कव्यं यावन्मणीनां स्पशैः, तस्य च बहु- |
|
समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदशभाग, श्रत मह
पकमुपकारिकालयने ग्रश्षप्तम् , राजधानीस्वामिसत्कप्रासाद
वतसकादीन् उपक्ररोति-उपष्टभ्नातीत्युपकारिका-
नी स्वामिसत्क्रासादावतसकादीनां पीठिका, अन्यत्र
यमुपकार्योपकारिकति प्रसिद्धा, उक्तञच--* गृदस्थाने स्म-
तं राज्ञा-मुपकार्योपकारका `` इति, उपकारिकालयनमिव
उपकारिकालयने तद् द्वादश योजनशतान आयामविष्क-
म्भन-पायामविष्कम्भाभ्याम् , च्रीणि याजनसदस्राणि ख ।
तत 4, जनशतानि पञचनवतीनि-पञ्चनवत्याधकानि किञ्चिद्धि. `
शषाधिकानि परित्तपेण अज्यप्तानि, परिक्तेपपरिमाणं चेद
प्रामुक्तरणवशात्स्वयमानेतव्यम् । अद्धक्र(शम्-घनुःसखह-
स्रपरिमाणे वाहल्यन * सव्वजंबूणयामए ” इति सवोत्म-
ना जाम्बूनदमयम्, ' अच्छे ` इत्यांद विशषणजाते प्राग्वत्।
से शं एगाए पउमवरेहयाए एगेणं वशसंडेशं
सव्वतो समता संपरिक्खित्ते पठमवरवेदियाए वण्णओं
वणसंडवएणुओ ०जाव विहरंति, से णं वणसंडे देखणाई
दो जोयणाईं चकवालविक्खेभेणं ओवारियालयशसम-
परिक्खेवेणं ॥ तस्स ण॑ ओवारियालयणस्स चउद्दि-
सिं चत्तारि तिसोवाणपाडेरूवगा पण्णत्ता , वण्णओ,
तेसि शं तिसोवाणपड़िरूवगाणं पुरतो पत्तेय पतते
तोरणा पष्यत्ता, छत्तातिछत्ता ॥ तस्स शं उवारि-
यालयणस्स उर्च्पि बहुसमरमाणिजे भूमिभागे पण्णत्ते
०जाव मणीहिं उवसोभिते मणिवष्यओ, गंधरसफासो,
तस्स शं बहुसमरमशिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्भदेस-
भाए एत्थ शं एगे महं मूलपासायवर्डिसए पछात्ते, से शँ ।
पासायवार्डेसए बावई जोयणाई अद्धजोयणं च उदं उ-
चत्तेणं एकर्तीसं जोयणाईं कासं च आयामविक्खभेशं '
अ्भरगगयमू सिष्पहसिते तहेव तस्स॒शं .पासायवर्डिसगस्स
अतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पष्पत्ते° जाव मणिफासे ।
उन्लोए ॥ तस्स शं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स ।
बहुमज्भदेसभागे एत्थ शं एगा महे मणिपेदिया पत्ता,
सा च एर्ग जोयणमायामत्रिक्खंभेणं अद्धजायणं बाहल्नेण ¦
सच्चमणिमई अच्छा सरहा० जाब पडिरूवा।
स ण › मित्यादि, तद्-उपकारिकालथनम् पकया प-
झवरवेदिकया तत्पृष्ठेभाविन्या पकेन च वनखर्डन ‹ स~ |
वेतः--सर्याखु दिन समन्ततः-सामस्त्यन संपरिक्षिप्तम ,
पद्मवरवेदिकावरंको वनसखरडवरकः पराग्वन्निरवशेषा ब- ' `
क्रव्या यावत् “तत्थ बद्दवे वाणमंतरा देवा य देवीश्चो य आ- ¦
सयंति सर्यति०जाव विरति ' इति । "तस्स ण' मित्यादि,
लस्य उपकारि कालयनस्य'चउदिसि ति" चतुर्विंशि-चतसख्षु ।
दिख एकैकस्यां दिशि एकैकभावन चत्वारि त्रिसोपानप्रति" । ,
रूपकाणि प्रतिविशिष्टरूपाणि जिसो पानानि घल्लप्तानि,त्रिसो-
पानवर्णकः पूर्ववदवक्घन्यः।तेषां च रिस पानपति रूपकाणां पु-
रतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोर प्रह्नलम्, तेवां च तोरणानां
प्राग्यद्क्कयम् ॥ "तस्स श्' मित्थादि, तस्य-उपकारिका>
|
|
हक. ~~ ~= क आया.
लेकणमससद्
लयनस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्त
जदानामय ' इत्यादि भूमिभागवणेन
यावन्भरीषनां स्पशः , तस्य च-बहुसमरणीयस्य भूमि-
भागस्य वहूमध्यदेशभागऽ्र महानको मूलघ्रासादेएचतेस
कः प्रज्ञप्तः, स च द्वाषष्टियोंजनानि दद्ध च याजनम्ध्व-
मुचेस्त्वेन एकचचिशतं योजनानि क्रोशे चायामविष्कम्भा
भ्याम् . ` अब्सुग्गयसूसियपहासिया विव `
शने मध्ये भूमिभागवणोन प्सदहासनवरोने शापाणि च भ-
द्रासनानि तत्परिवारभूतान वजयद्वारवांहःस्थितपा-
सादवद्धावनोयानि ॥ ' तस्स णे इत्यादि, तस्य मूलप्रा-
स्यादावतंसकस्य वहुमध्यदशभागऽत्र महती पका मणि
सारिका प्रज्नष्ता, सा चकं याजनमायामावष्कम्भाभ्यामद्ध
स्ने
याजन बाहद्यन सव्वमाखमया इत सवौत्मना माणिमयी _
« अच्छा सस्हर ' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥
तीसे शे मस्पिपिढियाए उर्वरिं एगे महं सीहासणे प-
ष्यत्ते एवं सीहासणवण्णओं सपरिवारो, तस्स शे पासाय- |
बरडिंसगस्स उरप्पि बहव अट्टट्ट मेगलगा या छत्तातिछत्ता ॥
सेशं पासायवर्डिसए अण्णहिं चउहिं तदद्गच्चत्तप-
माणम तेहिं पासायवर्डिसए सव्यतो समेता संपरिक्खित्ते,
ते शं पास'्यवर्डेसगा एकतीस जोयणाई कोसे च उदु
उचत्तणं अद्वतोलसजोयणाई अद्रकोसं च आयामवि-
क्वभेणं अब्भुग्गत० तदेव, तसि शं पासायवडिसयासां
शतो बहुममरमाणिजा भूमिभागा उल्ल।या ॥ तेसि
शं बहुममरमणिजःण भूमिभागाणं बहुमज्मदेसभाए
यत्तेय पत्तेय सीहासण पष्पत्त , वच्यओ, तमि प-
रिवारभ्ूता भदसणा पप्तत्ता, तेसि णं अट्ट मंगलगा `
आया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायवर्डेसगा अ-
हिं चउ दिं चउहिं तददचत्तप्पमाणमेत्तदिं पासायवडं-
सएहिं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता ॥ ते णं पासा-
यवडसगा अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उडं उच्च-
त्तणं देखणाई अदर जोयणाईं आयामविक्खेभेणं अ- |
ब्युग्गय० तेव ॥ तेसि खं पासायवडेसगाणं अतो बहुस- |
मरमणिज्ञा भूमिभागा उल्लोया ॥ तसि णं बहुसमरमणि- |
ज्ञाण भूमिभागाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तयं पड- |
मासणा पष्पत्ता ॥ तेसि णं पासायाणं अट्ट मगलगा भया
छत्तातिछत्ता ॥ ते शं पासायवडंसगा अप्मेहिं चउहिं
तद दचनत्तप्पमाणमेततेदिं पासायवडसणएहिं सव्वतो समता ।
सपाराक्खत्ता |
` तीस ण ` मित्यादि, तस्या मणिपीटिकाया उपरि शत्र
महदेक सिंहासन परजञप्तम् , तस्य च सिंहासनस्य परिवा- |
अभूतानि शषाणि भद्रासनानि प्राग्बद्वक्रव्यानि॥ सर
मित्यादि, स॒ च मूलप्रासादावतसकाऽन्यञ्चतुर्भिमुलपा- |
सादावतसकस्तद द्धाच्चत्वप्रमाणमात्रैः- मूलप्रासादावतस- |
› तब्रद्धा- '
~ सवतः- पमन्तात्सपागात्ततत
१५६
| ९ ( द् ¢
अभिधा
प्राग्वत्ताबद्वाच्च
त्यादि, तस्य व-
श
5; । लवणसमु
चत्वप्रमाणमव दर्शयाति--एकत्रिशतं याजनानि क्राशं चर-
कम ध्वमुच्चेस्त्वन . पञ्चदश याजनानि श्रद्धतृनौयांश्च का-
शान आयामविष्कम्भाभ्याम् . तपामांप ` अब्भुग्गयम॒सिय-
पटासया वच ` त्यादि स्वरूपवसीने मध्य भामिभागवर्णनमु-
ल्ञाकवरन च प्राग्वत् ॥ तसि ण॒ ` मिन्यादि, तषां प्रासा-
दावतंसकानां वहुमध्यदेशभाग प्रत्यकं प्रत्यकं॑ सिंहासन
प्रज्ञप्तम् , तषां च सिहासनानां वरणन प्राग्वत् , नवग्मज मि
हासनानां शषाणि परिवारभूतानि न चक्तव्यानि॥ ` त र
पासायवर्डेसया ` इत्यादि, त प्रासादावतेसका अन्न्येश्वतुर्भि
प्रासादावतंसकेस्तदर्द्धाच्चत्वप्रमा णमा त्र:-मू लप्रासादावतं ~
सकपरिवार भूतप्रासादावतंसकार्द्धोच्चत्वप्रमाणमात्रमूलप्रा
सादापक्तया चतुभांगमात्रप्रमाणरित्यर्थ:, सर्वतः-समन्ता-
त्संपरित्षिप्ताः, तदद्ाच्चत्वप्रमाणमव दशर्यात-- त ण॒ `
मित्यादि, त प्रासादावतसकाः पञ्चदश याजनानि अर्द्धतू-
तीयांश्च कोशान् ऊर्ध्व॑मुच्चेस्न्वन दशानानि श्रा
याजनानि आयामावष्कम्भाण्यां , सूत्र च-- आयाम-
विक्खभेणं ` ति एकवचने समाहारविवक्षणात् , एचम-
न्यत्राप भावनीयम् , एतामपि ` अच्भुग्गयमूसिये `
त्यादि खरूपवखनं मध्य भूसिभागवसनमुल्ञाकवरीन सिदा-
सनवान च प्राग्वत् कवलमच्रापि सिहासनमपरिचारं व-
कव्यम् । ` त ण ` मित्यादि, तऽ प्रासादावतसका श्रन्थ
श्चतुर्भिः प्रासादावतसक्रेस्तदद्धचन्वध्रमाग्षमात्रः-श्ननन्तरा-
क्लप्रासादावतंसकाडोंच्चत्वप्रमाणमृ लगप्रासादापक्तया5 एमा
गमात्रप्रमाणरित्यर्थ:, सर्ववः-समन््तात्सम्परित्षिप्ताः. तदेव
तदर्दधोच्चत्वप्रमाणमाजमुपदर्शयति-' त ण ` मित्यादि, ते
प्रासाद्ावत्तसक्व दशानान अछ याजनान ऊध्वमुस्त्वन
दशानान चअत्यार सखाजनान्यायामावष्कस्माम्या तषामाप
अब्भुग्गयमूसियपहासिया विव' त्यादि स्वरूपादिवणनमन
न्तरप्रासादाचतंसकरवत् | (एतया: सत्रयामूलपाठा न दश्यत, )
त ण॒ मित्यादि, तेडाप च प्रासादावतंसका श्नन्यश्चतुभः
ग्ासादावतसकस्तदद्धाच्च त्वप्रमाणमात्र:-- अश्रनन्तरा क्प्रा--
सादावतसका द्वाच्चत्वप्रमाखमात्रमूलघ्रासादाचतसकापक्त
या षोडशभागप्रमाणमात्रेरित्यर्थ., सवतः-समन्ततः स-
परित्तिप्ताः ।
तदद्धास्चःभ्रमाणमव दशयति-
ते णं पासायवडंसगा देखणाई अट्ट जोयणाई उद
उचत्तणं देमूणाईं चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेएं
अब्भुग्गत० भूमिभागा उल्नोया भद्दासणाई उवरिं मंगल-
गा कया छत्तातिछत्ता, ते णं पासायवर्डिसगा अष्यरिं
चउह्िं तदद्भूचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवर्डिसएहिं सच्वतो
समता संपरिक्खित्ता । ते णं पासायवर्डिसगा देखणाई
चत्तारि जोयणाईं उड उचत्तणं देखणाई दो जोयणाई आ--
यामविक्खभेण अब्भुग्गयमूसि० भूमिभागा उल्ले।या पउ-
मासणाई उ्वरें मंगलगा भकय। छत्ताइछत्ता । (स्ू० १३६)
ते ण'मित्यादि, त-प्रासादावतसकाः देशा/नानि चन्वारि यो-
जनान्यूध्वमुच्ेस्त्वन देशाने द्र याजन आयारमावष्कम्भा भ्याम्
तपघामाप स्वरूपचणन मध्य भामभागवशणनमुन्ना कवणन म्नि
अ
है ( ६२२ )
श्नघानराजन्द्रः।
हासनवरौने च परिवारवर्जितं प्राग््रत् ,तदवे चतसः प्रासादा- |
वतसकपरिपास्या भवन्ति,क्च्रित्तिस्त एव दश्यन्ते न चतुर्थी । |
( १० ) अथ लवणसरमुद्र विजयदेवस्य सभामाह-- |
तस्स णं मृलपासायवडंसगस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ
णं विजयस्स दवस्स सभा सुधम्मा प्पत्ता, अद्भतेरसजा- |
यणाईं आयमिणं, छ सक्र साई जोयणाई विक्खंभेणं, णव |
जोयणाई उड् उच्चत्तणं, अणेगखभसतसंनिविट्टा अब्भुग्ग-
यसुकयवत्रइरवे दिया तारणवररतियसालमंजिया सुसिलिदर-
विसिद्रलद्रुसटियपसत्थवरुलियविमलखंभा णाणामणिक- |
शगरयणखडइयउज्जलवहुसमसुविभत्तचित्त (णिचियं) रम- |
णिज मतला इहामियउसभतुरगशरमगरविहगवालग-
किष्पररुरुसरभचमरकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता थयु- |
ग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामा विज्राहरजमलजुयलजतजु-
त्ता विव अ.चसहस्समालणया सूवगसहस्सकलिया भिस-
माणी भिन्भिसमासी चक्खुलेोयशलसा सुहफासा सस्सि-
रीयरूवा कंचणमणिरयणधूभियागा नाणाविहपंचवष्मघ॑-
टायडागपडि मंडित्ग्गसिहरा धवला मिरीइकत्रच विशिसम्प्रु-
यती लाउल्लोइयमहियां गोसीससरसरत्तचंद्णददरदिन्न- |
पंचगुलितला उवाचियचंद्णकलसा चदणघडसुकयतोर-
शपडिद्वारदेसभागा आसत्त।सत्त विउलवट्टठवग्घारियमन्न दा
मकलावा पंचवामसरससुर भिमुकपुपष्फपुंजोवयारकलिता का-
गुरुपवरकुंदुरुकतुरुक धूव मघमधेंतगंधुदधुयाभिरामा सुग-
ववरगंधिपा गंधवद्विभूया अच्छरगणसंघसंवि किना दि-
व्वतुडियमधुरसदसंपणाइया सुरम्मा सन्यरयणामती अ -
न्त्र ०जाव पडिस्तरा।
तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतेसकस्य उत्तर-
प्रवैस्याम-ईशानकोरण इत्यथः, च्रत्र-पतस्मिन् भागे विजय-
स्य देवस्य याग्या सभा ख़ुधमी नाम विशि्च्छृन्दकापता
साऽदद्यादगायाजनान्यायामन, षट् सक्राशानि याजनानि-
विष्कम्भन, नव याजनानि ऊध्वमुच्यस्तवन, * श्रणग ` व्यादि
ध्रमकेषु स्तम्भणनेष् सन्निविष्टा अनकस्तम्भशतस-
क्षिविष्टा अव्भुग्गयसुकय वर वइया तारणवररइय--
सालमेजिया स्दुसिलिद्रविसिद्लदु<ियपसत्थवसूलियचि-
मलखंभा ` अभ्युद्वता-अतिरमरणीयतया द्रष्ट्णां प्रत्य-
सिसुखस , उत्- -प्रावस्यन स्थिता सखुकृतव सक्ता
निपुणाशिल्पिराचितवाति भावः, ्भ्युद्रता चासो खुकता
च अभ्युद्रतससुकृता वहुवंदिका-द्वारसुणग्डकापारिवद्ध-
रत्नमयी बदिका तारणो चःभ्युद्तखक्ृतं यत्र सा तथा , |
तथा वराभिः प्रध्रानामिः राचताभिः-विरचिताभिः रनि- |
दाभिर्या सालभजिकामिः- सुश्लिष्टा-संबद्धा विशिष्टं-प्रधाने |
लष्टं---मना नज्ञ सास्थतम-सम्धान यधा त वाशष्डछल्तब्टस- ।
स्यतः एशस्ता:- प्रशस्यस्पदा भूता च्डूयस्तम्मा -वेडूयैर ल्ल-
मयाः स्तम्भा यस्यासा वरराचतशालमना ्कासुरिलद्रावाश्च
घलएयाचन्थतप्ररशातूवइह्वयस्तम्भा:,ठत प्रू न कम्मघधारय
दशभागा ,
तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स |
कनकरत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भायादिदर्शनात्
नानामरिकनकरत्नखचितः उज्ज्वलो--निर्मलो बहुसमः
अत्यन्तसमः खुविभक्को निचिता-निविडा रमणीयश्च भृमि.
भागा यस्यां सा नानामणिकनकर त्नखाचि तो ज्ज्वलबहुसमसु-
विभक्क/निच्चितरमणीय) भ्रमिभागा'ईहामिगडसहतुरगनरम-
गरविहगवालगकरिन्नररुरुसरभचमर कुञ्जरवणलय पउमलय-+
भत्तिचित्ता ` इति तथा स्तम्भोद्धतया- स्तम्भापरिवत्तिन्यां
वज्ञवेदिकया-वज्जरत्नमय्या वदिकया परिगता सती या
भिरामा स्तम्भोद्रतवज्रवटिकापरिगताभिरामा ` विज्ञाहर-
जमलजुगलजतुजुत्ता विव अच्चिसहस्समालणीया रूवगसह-
स्सकलिया भिसमणा भिब्मसमाणा चकक््खुल्लोयणलसा
सुहफासा सस्सिरीयरूवाइति प्राग्वत् 'कंचणमणिरयण्थू-
सियागा इति काञ्चनमणिरत्नानां स्तृपिका शिखरं यस्याः सा
काश्चवनमाणिरत्नरतूपिकाका ' नाणाविहपंचवष्मघंटापडागप-
रिमेडियग्गासिहरा ` नानाविधाभिः-नानाप्रकारांभः पश्चच-
शौभिधर्टाभिः पताकाभिश्च परि-सामस्त्यन मणिडितमग्र-
शिखरं यस्याः सा नानाविधघपञ्चचणघरटापताकारिमरिड-
ताग्रशिखरा धवला-श्वेता मरीचिकवच्रम-किरणजाल-
परित्तप विनिर्मुश्वन्ती 'लाउज्ञाइयमहिया' इति लाइये नाम-
यद् भूमेगोमयादिना उपलपनम् , 'उल्लाइये-कुड्यानां मालस्य
च सटिकादिभिः संम्रष्टीकरण'लाउल्लोइये' ताभ्यामिव महि-
ता-पूजिता लाउल्लोइयमहिता,तथा गोशीषंण गोशीर्षनामच-
न्दनन सरसरक्कचन्दनन द्दंग्ण-बहलन-चपटाकारंण वा
दत्ताः पश्चाहुलयस्तला-हस्तका यत्र सा गोशीषकसरसरक्क-
चन्द्नदर्दरदत्तपश्चाडुलितला, तथा उरपाचिता-निवाशिता ब~
न्दनकलशा-मङ्गलकलशा यस्यां सा उपचितवन्दनकलशा,
“ चद्रघडसुकयतो र णपंडिदुबारदेसभागा' इति चन्दनघटेः
चन्दनकलशेस्सुकृतानि-सुष्ठु कृतानि शोभनानीति तात्पयौ-
शः, यानि तारणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि
प्रतिद्वारदशभाग यस्यां सा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्दवार-
तथा--' श्रासन्तासत्तवट्वग्धारियमल्लदामक-
लावा ` इति, आ--अवाडः अधोभूमो सक्ल-आसक्नो भूमों
लग्न इत्यथः ऊर्वं सक्त उत्सक्कः-- उटलोचतले उपरि संबद्ध
इत्यथः, विपुलो-- विस्तः चत्ता वक्तुलः * वग्धारिय ' इति
प्रलम्विता माल्यदामकलापः-पुष्पमालासमृहो यस्यां सा
आसक्कात्सक्लावपुलवृत्तवग्घारितमाल्यदामकलापा . तथा
पश्चवर्णन सरसन-सच्छायन सुरभिणा मुक्कन-क्षिंप्तिन पुष्प-
पुअलक्षणनापचारण पूजया कलिता पश्चवणसरससुर-
भिमुक्रपुष्पपुञ्जापचार कलिता “ कालागुरुपवरकुन्दुरुकतुरु
क्धवमधघरमघतगश्रुद्धयाभिरामा सुगधघवरगघगांघया गंधव-
द्विभूया ` इति प्राग्वत् , ` ' शच्छुस्गणसंघरसंचविकिणणा '. इति
श्रन्सरागणानां सद्घः-समुदायस्तन सम्यग--रमणीयतया-
विकीरणी- व्याप्ता ' दिव्वर्तडयसदसंपरादिया ' इति दिव्या-
नां ३ितानाम्--श्रातोद्यानां वखुवी णाखदङ्गा दीनां य शब्दा
स्ने: सम्यक् श्रात्रमनाहारितया प्रकपण नादिता-शब्दवतीं
दिव्यत्राटितशब्द्सप्रणादिता अच्छा रूण्हा०जाव पडिरूवा '
इति प्राग्वत् ॥
तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिर्सि तओ दारा पश्चत्ता।
$
क्
क्वणममुह
६- ( ६२६ )
अशिधानराजस्द्र: |
लवणसमुई
तशं दारा पत्तेय पत्तेयं दो दो जोयणाई उड उच्चत्तेणं
एग जोयणं विक्खंमेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकण-
गधूभियागा ० जाव वणमालादारखन्नओ । तेसि णं
दारां पुरओ मुहमंडवा पष्यत्ता, ते णं मुहमंडवा अरद्तर-
सजोयणाईं अआयमेणं छ जोयणाई सकीसाई विक्खभेशं
भसयसंनिविद्ठा ० जावर उल्लाया भूमिभागवण्णओ ॥
तेसि णं मुहमडवाण उवरि प्तय पत्तेय अदद मंगला
पत्ता, सोत्थिय० जाव मच्छ० ॥ तेसि शं गहमडवाणं
पुरओ पत्तयं पतेय पेच्छाधरमंडवा पष्पत्ता, ते शं पच्छा-
उड उच्चत्तेणं जाव मणिफासो ॥ तेसि णं बहु-
मज्भदेसभाए पत्तेयं पत्तेय वइरामयञ्मक्खाडगा पण्णत्ता,
तेसि शं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्भदेसभाए पत्तेयं
ज्ञोयणमग आयामविक्खंभेण अद्भजोयर्ण वादल्लणं स-
बि शं मणिपीढियाणं उप्पि पत्तेय पत्तेये सीहासणा
पणणत्ता, लीहासणवण्णओ० जाव दामा परिवारो ।
छत्तातिछत्ता ( ०जाव पडस्वा )।
तीस ण खुदम्माप ` इत्यादि, तस्याः खुधमौयाः सभाया
च्रिदिशि--तिखषु दिलु पकेकस्यां दिशि पकेकद्वारभावन
श्रीणि द्वाराणि प्रज्ञपर्णन, तद्यथा-पकं पृवस्यामकं दक्ति-
शस्यामकमुत्तरस्याम् । ` त णे दारा" इत्यादि, तानि द्धा
राणि प्रत्यकं प्रत्यकं द्धे द्ध योजन ऊभ्यैमुच्चेस्वन योजन-
मकं विष्कम्भन ` तावदयं चेच ` ति याजनमकं प्रवशन-
* सयावरकणगधूभियागा '
देतावद्धक्रव्य यावद्वनमाला इति ॥ ' तासि ण
तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्यकं प्रत्यकं मुखमण्डप
मित्यादि,
प्रज्ञप्तः,
घरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं °जाव दो जोयणाई
साइरेगाईं दो जायणाईं उड़ उच्चत्तेणं मुहमंडवा अणेगखं- |
पत्तेय मशिपीढिया पणणत्ता, ताओ शं मणिपीढियाओ |
व्यमणिमईओ अच्छाओ० जाव पड़िरवाओ ॥ ता- |
तेसि णं पेच्छाघरमंडवाण उप अट्ट मगलगा भ्या
इत्यादि प्रागक्तं द्वारवरेन त |
तच मृस्रमर्डपा अद्धज्नयादश याजनाान आयामत्त, षड् |
याजनान सक्राशान वष्कम्भन, सातरक द याजन ऊ |
ध्वैम॒च्चेस्त्वेन, पतपामपि ‹ अणगसखमसयसन्निविद्धा ' इ
त्यादि वरेन खध्म्मायाः सभाया इव निरवशषं द्रष्टव्य,
तेषां मुखमर्डपानामुल्लाकवरीने बहुसमरमणीय भूमिभा-
गणने च याचन्मणीनां स्पशः प्राग्वत् ॥ ` नसि ण' मि
| स्वस्तिकादीनि प्रज्ञप्तानि, तान्यवाद--' त जह * त्यादि,
पतच्च विशेषण खुधमोसभाया अपि द्रव्यम् ॥ “ तेसि |
णु ` मित्यादि,
तषां मुखमरडपानां पुरतः प्रत्यकं २ प्रेक्षा- |
ग्रदमणडपः प्रज्ञप्तः, तेऽपि च प्रेत्ताग्रहमणडपा अद्धेत्रयोद-
श योजनान्यायामन, सक्रोशानि पड़ योजनानि विष्कम्भेन,
सातिरेक द्वे योजन ऊध्वमुच्चैस्त्वेन, प्रेत्ताग्रहमण्डपानां च
भूमिभागवर्णान पूयैवत्तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पशाः ॥ ' त्ति
ख मित्यादि,तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुम-
त्यादि, तषां सुखमरडपानामुपरि शष्ावप्रौ मङ्गलकानि-
ध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्यकं वज्ञमयः अच्तपाटकः चतुर-
सत्राकारः प्रज्ञप्तः, तषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभाग प्र-
त्यकं प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्व माणिपीटिका यो-
जनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामद्धयोजन बाहल्येन ' सब्यम-
शिमईओ ` इति सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा ` इत्यादि
विशेषणकद्म्बक प्राग्वत् ॥ ` तासि ण! मित्यादि, तासां
मणिपीटिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासन प्रज्ञम् ,
तेषां च सिंहासनानां वणन परिवारश्च प्राग्वद्क्कयः, ते-
षां च प्रक्ताग्रहमणडपानामुपरि ' श्र्टावष्टं स्वस्तिकादीनि
मङ्गलकानि प्र्ञप्तानि, रृष्णचामरध्वरजादि च प्राग्वद्धक्कय-
म्॥ ` तसि ण॒ › मित्यादि, तेषां प्र्तागरृदमरडपानां पुरत
प्रयेकं प्रत्यक मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च माणपराठका
प्रत्यकं दवे द्व योजने आयामविष्कमस्भाभ्यां योजनमक
बाहस्येन सवोत्मना माणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।
( चैत्यस्तपवक्कव्यतासखूत्रम् ` चदयथूभ ` शब्दे तृतीयभाग
१२६२ पृष्ठ गतम् )
, तद्याख्या च इटोपयुक्रत्वात्प्रदशयते--
तेसि ण॒ › मित्यादि , तेषां चेत्यस्तूपानां प्रत्यकं प्रत्यकं
चतुर्दशि ' चतसृषु दिच्ु पकैकस्यां दिशि एक्रेकमाणि-
पीटिकाभावेन चतस्रा मणिपीदिकाः प्रज्ञप्ताः; ताञ माणि-
पीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्यामरद्धं योजन वादल्यन
स्वाःमना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि पाग्वत् ॥ ` तासि
ण॒ ` मित्यादि, तासां मणिपीटिकानामुपरि पकेकस्या म-
शिपीठिकाया उपरि एकेकप्रतिमाभावन चतस्ना जिनप्रति-
माः, जिनोत्सघः-“उत्कषतः पञ्चे घनु-शतानि,जघन्यतः सक्च
स्ताः, इद तु पञ्च धनुःशतानि सभाव्यन्त, पलियंक-
निसन्नाश्रा ` इति पर्यङ्कासननिषरणाः स्तपाभिमुख्यस्ति-
षन्ति, तद्यधा-- ऋषभा वद्धमाना चन्द्रानना बारिषिणा ।
* तेखि ण॒ ' मित्यादि, तेषां चेत्यस्तृपानां पुरतः प्रत्येक प्र-
व्यकं मणिपीटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च माणिपीरिका द्वे दे
योजने श्रायामविष्कम्नाभ्यां याजनमकं बादस्येन सवो-
त्मना मणिमय्यः अच्छा इत्याद प्राग्वत् ( जी० )
( चत्यवृत्ताणां वर्णावासादिसूत्र “ चदयरुक्ख ` शब्दे
१२६५ पृष्ठ गतैम ) ( चेत्यच्र्ताणां वर्णावासादिसत्रव्या-
ख्यात तत्रेव “ चइयरुक्ख ` शब्द तृतीयभागे १२६५
पृष्ठ गता । )
(११)अथ मणिपीटिकरानां माहदेन्द्रध्वजाः प्रतिपादयति-
तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं माहिंद-
ज्भया अद्टमाई जोयणाई उड़ उच्चत्तेणं अद्रकोसं
उव्वहेणं अद्रकोसं व्िक्खंभेणं वइरामयवद्ठलटूसंटि-
यसुसिलिटपरिघट् मदु सुपतिद्िता विसिडा अशेगवरपं-
चवष्पङडर्भ(सहस्पपरिमडियाभिरामा वाउद्भयविजयवेजयं-
तीपडागा छत्तालिर्कलिया तुगा गगणतलमभलष-
माणसिहरा पासार्द'या ०जाव पडिसूवा ।
" तासि ण ` मिव्यादि, तासां मरणिपीटिकानामपरि
प्रत्यक प्रत्यक मन्द्र ध्वजः श्रश्नप्त त॒ च महन्द्र-
ध्वजा च्रद्धाष्मानि-साद्धानि सप्त योजनान्यूध्वमुच्चै-
स्त्वन, श्रद्धक्राशम्-धनुःसदस्नप्रमाणस द्धन, अरक्राशे-
}
( ६२७ )
खाजमिधानगाजन्द्र। ।
लवणममुदद
_लवणसम॒द _
धनुःसहस्प्रप्रमाएं विष्कम्भेन--विस्तारेण , “ वइरामय-
घद्टलटुसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टुमट्टसुपइट्टिया ` इति वच्च-
मया--वज्ज रत्नमयाः तथा दृत्तं-वत्तेज लण्र-मनाज्ञ संस्थि-
तं-संस्थान यपां ते चरत्तलष्टलस्थिनाः, तथा खुणश्छिष्ठा-
यथा भवान्ति एवं परिघृष्ठा इव खरशानया पाषाणप्राति-
मेव खुस्छिष्टपरिघृष्टा
|
सृष्टाः सुकुमारशानया प।पाणप्रति- |
मव स्प्राताछ्ठता मनागप्यच्लनात् अअणगवरपचवष्षकुड- ।
भीसहस्सपरिमंडियाभिरामा ` अनकेवरे:--प्रधाने: पश्चव
शः कुडभीसहस्त्रः-लघुपताकासहस्पः पाॉरमाणरडताः स--
न्ता$भिरामा श्रनकवरपञ्चवणकुडमीसदस्रपरिमरिडताभि-
रामाः * वाउद्धयावजयवेजयतीपडागा छुक्ताइछत्तकलिया
तेगा गगणतलमणुलदेतांसदहरा पासाईया०जाव पाडरूवा
इति श्राग्वत् ।
तसि शं महिंदज्कयारण उष्पि अइड्ट मंगलगा
भया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि शं मंहिंदज्कयाणं पुरतो
तिदिसि तओ णंदाओ एक््खरिणीओ पष्पत्ता्रो ताओ
शं एक्खरिणीओ अद्धतरसजोयणाई आयामेणं सको-
|
साईं छ जोयणाई विक्खंमेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अ- |
च्छाओ सण्हाओ एक्खरिणीवश्मओ पत्तियं पत्तेयं पठमव- |
रवेइयापरिक्खित्ताओ ` पत्तयं पचेयं वणसंडपरिक्खित्ता-
श्रो वष्पश्रा ०जाव पड़िरुवाओ | तसि णं पुक््खरिणी-
शं पत्तयं पत्तय तिदिपि तिसोवाणपडरूवगा पष्पत्ता , |
तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाण ब्सओ , तोरणा भा- |
णियव्या , ०जाव छत्तातिछत्ता |
तास ण्॒ मत्यादि , तषां महन्द्रध्वजानामुपरि श्र्टा-
बटो मज्ञलकानि वहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्वव-
त् सर्व वक्तव्यं यावद्वहवः सहस्मपत्रकहस्तका इति॥ ' ते
सि ण' मित्यादि, तषां मह
+ सथः |
ध्वजानां पुरत प्रत्यक पध्र- |
त्येकं नन्दा-नन्दाभिध्राना पुष्कारणी प्रज्षप्ता, अद्धेच- |
दश-साद्धान द्वादश याजनानि आयामेन , षड् योजना-
नि सक्राशानि विष्कम्भेन , दश याजनान्युद्रघन-उरण्डत्व-
न, ‹ अच्छाओ सणयहाझो रययमयकृडाश्चा ' इत्यादिवणं
जगल्युपरि पुप्करिणीवन्निरवशपे वक्तव्य यावत् ` पासा-
इंयाआ उदगरसणं पन्नत्ताओ ` ताश्च नन्दापुष्करिगयः प्र-
त्यकं प्रत्यक परग्रवरचदिकया प्रत्यकं प्रत्यकं वनखगडेन च
परित्तिप्ताः , तासां च नन्दापृुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसा-
पानप्रतिरूपक्राण प्रश्नप्तानि तषां च वर्णन तोरणवर्णन
च प्राग्वत् ।
सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलियासाहस्सीग्रो पष्णा-
त्त्रा, ते जहा-पुरत्थिमेणं दो साहस्सीओं पचत्थि-
मणं दो साहस्सीओ दाहिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं
एगा साहस्सी, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवएण-
रुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तसु णं सुवष्परुप्पाम-
णसु फलगेसु बहवे वडरामया शागदंतगा पण्णत्ता,
तेयु णं वडइरामणसु नागदंतणसु ब्रहवे किएहसुन्तवट्ठव-
आओ ०
ग्धारितमल्लदामकलावा ०जाव सुकिन्नवइवग्घारितमन्न- `
दामकलावा , ते णं दामा तबदिज्ञलंबूसगा ०जाव
चिट्ठति ॥ सभाए णं सुहम्माएं ऋ गोमाणसी-
साहस्सीओ पणणत्ताओ, तं जहा-पुर/थिमेण दौ साह-
स्ख, ओ, एवं पचत्थिमेणं वि, दाहिणेणं सहस्सं एवं ड-
त्तरेण वि, तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुबवण्णरुप्पमया
फलगा पण्णत्ता ०जाव तेसु शं वहरामएसु नागदंत-
एसु बहवे रयतामया सिक्ता पण्णत्ता, तेसु णं रय-
तामणएसु सिकएसु बहवे वेरुलियामईओ धृवघडिताओं
पण्णत्ताओ, ताओ णं धृवघडियाओ कालागुरुपवरकु-
दुरुकतुरुक °जाव घाणमणणिव्वुइकरेणं गधणं सब्बतो
समता आपूरमार्णओ चिट्ठंति। सभाए शं सुधम्माए
अतो बहुसमरमणिज्ञ भूमिमागे पण्णत्त ० जाव म~ |
णीं कासो उल्लोया पउमलयमत्तिचित्ता ०जाव सव्व .
तव शिजञमणए अच्छे ०जाव पडिरूवे ॥ ( प्रू° १३७ )
` सभाष णं सुहम्माए ` इत्यादि. सभायां सुघम्मीर्या ष-
ड़ ( मना ) गुलिकासदटस्राणि प्रज्षप्तानि, तद्यथा-द्व स~
दस्र पूर्वस्यां दिशि दवे पञश्चिमायामकं सहस्रं दक्तिणस्या-
मेकमुत्तरस्यामिति, पतासु च फलकनागदन्तकमाल्यदाम-
वरन प्राग्वत् ॥ ॥ सभाए णे सुहम्माए ` इत्यादि, सभा-
यां सुधर्मायां षड़ गामानसिकाः-शय्यारूपाः स्थानविश-
षास्तासां सहस्मराणि प्रज्ञपानि, तद्यथा-हद्व सहस्र पूवेस्यां
दाश द्व पाश्चमायामक दात्तणस्यानकमसुत्तरस्यामात, ता
स्वपि फलकवणेनं नागदन्तवसनं धूपघटिकावरीन च बि-
जयद्वारवत् । ' समाप णे खुहम्माए ` इत्यादि उल्लाकव-
रने ` सभाप णं खुहम्माए ` इत्यादि भूमिभागवणैने च
प्रार्चत् ।
( १२ ) अथ लघ. गसमुद्रविजयद्वारे मणिपीठिकामाह--
तस्स णं बहुसमरमणिज्ञस्स भूमिभागस्स बहुमज्क-
देसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपीढिया पण्णत्ता, सा
णं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविक्खभणं जो-
यणं बाहल्लणं सव्वभणिमता ॥ तीसे शं माणिपीढि- ४
याए उप्पि एत्थ णं माणवए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते
अद्धट माई जोयणाई उड उचत्तेणं अद्रकोसं उच्चेहेणे ।
अद्भकोस विक्खंभणं छ कोर्डाए छ लेस छ विग्गहिते ब- | । ५
इरामयवडुलट सविते, एवं जहा महिंदज्मेयस्स वण्ण- । `
जाव पसातीए ॥ तस्स णं माणवकस्स- `
चेतियखंभस्स उर्वारें छकोसे ओगाहित्ता देडा वि छ-
कासे वज्ञत्ता मज्के अद्धपंचमेसु जं।यणसु एत्थ श बह-
वे स॒वष्परुष्पमया फलगा पप्मत्ता, तेसु णं सुवष्परुष्पमए-
सु फलएसु बहवे वइरामया णागदंता पण्णत्ता, तेसु थं
पइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामता सिकगा पश्च ता।
` तस्स णं बहुसमरमण्ज्ञस्स 'भूमिभागस्स' त्यादि, तस्य
है
( ६२४ )
लवणससद् अमिधानराजेन्द्रः ^ 3" णण
बहुसमरमणीयस्य भरामभागस्य बहुमध्यदशभाग अर म- | हत्यका मारपाटका प्रज्ञता याजनमकमायामाविष्क--
हती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता
स्माभ्याक्षक याजने बाहल्येन सर्वात्मना मणिमयी ' अच्छा
इत्यादि प्राग्वत् । 'तीस ण' मित्यादि, तस्या मणिपीटि-
काया उपरि महानकोा माणवकनामा चेत्यस्तम्भः पक्षस
द्र योजने श्रायाविष्क- |
श्द्धाष्टमानि-साद्धानि सप्त योजनान्यूध्वमुचस्त्वन, श्रद्धक्रो- |
शम्-धनुःसटस्रमानमुद्धघन, अद्धक्रोश विष्कम्भन षडसि-
कः-घट्कोटीकः पहुग्नाहिक:ः ` चइरामयवंदलट्टुसांठए
इत्यादि महेन्द्रध्वजवद्ू चरीनमशषमस्यापि तावद्यक्तब्यं
यावद् * बहव सहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा
«जाव पड़रूवा ` इति । ' तस्स ण' मिल्यादि, तस्य माण
चक्रस्य चत्यस्तम्भस्यापार षर् क्रोशान् अवगाह्य उपास्त |
नभागात् षट् क्रोशान् वजयित्वति भावः, श्रधस्तादपि षट्
काशान् वजयित्वा मध्य ऽदैपञ्चमषु योजनेषु '
छरूप्पमया फलगा ` इत्यादि फलकवशन नागदन्तवरीन
सिक्कगवरोन च प्राग्वत् ।
तेसु णं रययामयसिक्एसु बहवे वहरामया गोलवइस-
मुग्गका पष्पत्ता तेसु णं वइरामणएसु गोलवडसमुग्गएसु बहव
जिणसकहाओओ संनिक्खित्ताओ चिट्ंति, जाञओ्रो णं विजय-
स्स देवस्स अप्पसं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण
य अच्चणिज्ञाओं वंदणिज्ञाओ पूयणिज्ञाओ सकारणिज्ञा-
ओ सम्माणशिजाओ कल्नाणं मगल देवय चतिय पज्जुवास-
णिज्ञाओ । माणवगस्स णं चतियखंभस्स उवरि अड्ड
मेगलगा भया छत्तातिछत्ता । तस्स णं माणवगस्स
वहव खुब- |
|
चतियखंभस्स पुरत्थिमणं एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया |
पष्पत्ता, सा णं मणिपढिया दा जोयणाईं आयामविक्खं -
भशं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई०जावर पडिरूवा। तीसे |
शं मणिपेदियाए उपि एत्थ शं एगे महं सीहासणे पष्पत्त,
सीहासणदष्पञ्, । तस्स णं माणवगस्स चतियखभस्स
पच्चत्थिमेण एत्थ णं एगा महं मणिपरेढिया पष्पत्ता, जयणं |
आयामि ‡भेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमाणिमती
अच्छा।।[ दवशयनी यवक्रन्यतसूत्रम्-' दवसयणिज्ञ' श- |
ब्दे चतुथेभागे २६२५ पृष्ठे गतम् ] तस्म शं देवस-
यणिजस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं महई एगा मणिपी -
द्विया पत्ता, जोयणमेगं आयामविक्खभेणं अद्धज।यणं
बाहन्लेणं सब्वमणिमई० जाव अच्छा ।
तख ण॒ ' मित्यादि, तेषु रजतमयेषु
चज्नमया गालच्चुत्ता;ः समद्गका
दकेषु बहनि जिनसक्थीनि सनिक्तिप्तानि तिष्ठन्ति , यानि
सिक्षकेषु बहवो
विजयस्य देवस्यान्येषां च बहनां चानमन्तराणां देवानां |
चन्द्नीयानि-स्तुत्यादिना, |
देवीनां चाचनीयानि-चन्दनतः,
पूज्ञनीयानि-पुष्यादिना, माननीयानि-बहुमानकरणतः, स-
त्कारणीयानि-वखरादिना
प्त बुद्रया पयुपासनीयानि॥ “ तस्स ण॒' मित्यादि,
स्य कस्य नेत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अन्न म-
७
तघु च वच्नमयघु समु- |
कल्यार-मङ्गल दैवत-चत्यमि- |
ह- |
स्भाभ्यामद्ंयोजन बाहल्यन सवोत्मना मणिमयी ` अ-
च्छा ` इत्यादि प्राग्वत् ॥ * तीस ण ` मित्यादि. तस्या
मारणपीटिकाया उर्पार शत्र महदकं सहासन ध्रज्ञप्त त-
रने शपाणि च भद्रासनानि तत्परिवार भृतानि प्राग्य-
त्॥ ` तस्सण ` मित्यादि, तस्य माणवकनास्श्पत्यस्त-
स्भस्य पश्चिमायां दिशि शत्र महत्यका मणिपाटका प्र-
क्षपा, एकं याजनमायामविष्कम्भाभ्यामद्धयाजन वादस्यन
` सव्वमणिमयी ` इत्यादि प्राग्वत् ॥ ` तीस ` मित्यादि
तस्या मणिपाटिकाया उर्पार शत्र महदेक (दव) शय-
नीये प्रशतम , तस्य च दवशयनीयस्यायमतद्रपः वर्णा-
वासः--वराकानिवशः प्रज्ञप्तः , तद्यथा--नानामणिमयाः प्र-
तिपादाः- मूलपादानां प्रातिविशिष्टापप्रम्भकरणाय पादाः
प्रतिपादाः सोवर्णिकाः--खुवर्शमयाः: पादाः--मूलपादाः,
जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईषादीनि वज्ञमया वज्जरत्नप्-
रिताः सन्धयः, ` नानामणिमये चिच्च ` इति चिच्च नाम
च्युतं वानमिव्य्थः, नानामणिमय च्युतम--विशिष्टवा-
ने रजतमयी तूली लाहिताक्तमयानि , ' विव्दायणा ` इति
उपधानकानि, श्राह च मूलयखीकाकारः--' वव्वायणा-
उयधानकानि उच्यन्त ” ईति, तपनीयमय्या गर्डापधा-
नकाः॥ ` से णं दवसयणिञ्जे ` इत्यादि, तद् देवशयनीयं
सालिङ्गनव्तिकम्- सद श्ालिद्धनवस्या- शसीरभ्रमाणना-
पधानेन यद् तत्तथा * उभओ बिब्बोयण ` इति उभयत
उभौ-शिराऽन्तपादान्तावाश्रलय चिब्वायण--उपधान य-
अ तद् उभयतो विभ्वायणम् ' दुदतो उन्नत'-- इति उभयत
उन्नत ` मज्मे णयगभीरे ` इति, मध्ये च नतं निम्नत्वात्
गम्भीरं च महात् नतगम्भीरं गह्लापुलिनवालुकाया
श्मवदाला-- विदलन प्रादादिन्यासऽधागमनमिति भावः
तन * सालिसप ` इति सदशक्रं गङ्गा पुंलनवालुकावदा-
लखदटशकम् , तथा ' ओयविय ' इति विशिष्टं परिकर्मित क्षो-
म-कापासिकं दुकृल--वख्े तदेव पट् श्रोयवियत्तो-
मदुकूलपट्टः , स ॒प्रतिच्छादन--श्राच्छादन यस्य तत्तथा,
' आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासे ` इति प्राग्वत् , ' रत्त-
सुयसंचुए ' इति रक्कांशुकन सवतं रक्ताशुक संवृतम् , श्र
त पव सुरम्यम् ` पासाइए ` इत्यादि पदचतुष्टये प्राग्वत् ॥
` तस्स ण ` मित्यादि, तस्य देवशयनीयरय उत्तरपृ-
यस्यां दिशि अरत महत्यका मणिपीटिका भज्ञप्ता, याजन-
मेकमायामविष्कम्भाभ्यामद्धयाजन बाहल्यन ` सब्वमाणि-
मयी अच्छा ' इत्यादि प्राग्वत् ॥
तीसे णं मणिपीढियाए उष्पि एगं महं खुङए महिं -
दज्छए पष्पत्ते अद्धडइमाई जोयणाई उड उच्चत्तेशं
अद्धकासं उव्वेहणं श्रद्वकोसं विक््खंभेणं वरुलियामय -
वइलइसंटिते तहव ° जाव मगला भया छत्तातिछत्ता ॥
तस्स शं खुड्महिंदज्भयस्स पद्चत्थिमेणं एत्थ ण
विजयस्म देवस्स चुष्पालए नाम पहरणकोस पष्यत्त ॥
तत्थ श विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा वह-
वे पहरणरयणा संनिक्खित्ताओं चिद्रति, उज्जलसुणिमि
(६२६ ) के
अभिधानराजन्द्रः |
लयवणसमुद्द
लवणसम॒ह
यसुतिक्खधारा पासाइया ॥ तीसे णं सभाए सुहम्माए
उ।प्प बहव अरट्ट मगलगा कया छत्तातिछत्ता ०जाव पडि- |
रूवा ॥ ( म्र १३८ )
` तीसण
्षल्लका महन्द्रध्वजः प्रजप्तः, तस्य प्रमाणो च वर्शकश्व म-
हन्द्रध्वजवद्रक्कव्यः। तस्स ण मित्यादि. तस्य क्षुन्नक-
स्य महन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य दवस्य |
सम्बन्धा महान एकश्चाप्पाला नाम प्रहरणकाशः-प्रह- |
६
रास्थान परज्ञप्तम . किविशिप्टमित्याह--' सव्ववइरामए अ- |
च्छु० जाव पडिरूच ` इति प्राग्वत् | ˆ तत्थ ण ` मित्या-
दि, तत्र चाप्पालकाभिघान प्रहरणकोश वहूनि परिघर-
त्नप्रमुखाणि प्रहग्णरत्नानि संक्षिप्तानि तिष्ठान्ति, कथम्भ-
तानीत्यत आह-डज्ज्वलानि--निर्मेलानि खुनिशितानि-
अतितजितानि अत पव तीच्णधार्साण प्रासादीयानीत्यादि
प्राग्वत् ` तीस णे समाप
याः समाया उपरि वहन्यप्राचप्रा मङ्गलकरनि, इत्यादि सव
ग्वत्ताबठक्रव्य याचद्रहवः सदस््रपत्रहस्तकाः सवरलमया
अच्छा याचन्प्रतिरूपाः।
( १३ ) धर्मसभायाः सिद्धायतनादं
सभाए शं सुधम्माण् उत्तरपुरत्थिमणं
एगे मह सिद्धायतणे पणणत्ते अद्रतरसजायणाई आ-
यामेणं छ जोयणाई सकोसाई विक्खभणं नव ज।यणाई
उड़ उच्चत्तणं °जाव गोमाणसिया वत्तव्वया, जा चव
दीनि प्रतिपादयति-
मित्यादि. तस्या मणिपौटिकाया उपरि अत्र |
इत्याद, तस्याः सखुचम्मा- |
एत्थ शं |
सभःए सुहम्माए वत्तव्वया सा चव निरबर्सेंसा भाणि- |
यव्या तहव दारा महमंडवा पेच्छाघरमंडवा कया धूमा |
चइयरुक्खा महिंदज्मया शदाश्रा पुक्खरिणाओं, तओ |
य सुधम्माए जहा पमाणं मणगुलियाणं गोमाणसीया
धूवयघडिओ तदेव भूमिभागे उल्लोए य० जाव मणि-
फास ॥
तस्स. णं सिद्धायतणस्म बहुमज्मदेसभाए |
एल्थ शं एगा महे मणिपटिया पणणत्ता दो जोय- |
णाहं आयाप्रविक्खेभेणं जोयर्ण वादन्लणं सच्वमणि- |
मयी अच्छा सणहा लण्हा घट्टा मद्रा णीरया शिप्पकपा |
पडिरूवा । ( अतःपरं चत्यपक्रव्यता ' चेश्य ' शब
तृता- |
यभाग १२४२ पृष्ठ गता । ) तस्म णं सिद्धायतणस्स णं |
उप्पि बहव अदद मगलगा कया छत्तातिछत्ता उत्तिमगारा
सालसविहेहिं रयणहिं उवसाभिया तं जहा रयणेहिं० |
जव रिट्रेहिं । ( मर० १३६ )
` सभाए ण
दिशि अत्र महदेक सिद्धायतन प्रशज्षप्तम , अद्धजयोदश योज-
नान्यायामन, प्रर रूक्राशानि याजनानि विष्कम्भतो, नव
याजनान्यध्वमुञ्चस्त्वनलत्यादि सर्च खुधमस्मीवद्वक्कव्यं यावद्
गे(मानसलीवक्कव्यता, तथा चांह-' जा चव सभाए सुधम्माप
वत्तव्वया सा चव निरवससा भाणियव्वा० जाव गोामाण-
` सियाग्रो ` इति, किमुक्कं भवाति ? यथा खुधम्मायाः सभा-
! मिन्यादि, सभायाः सुधर्म्माया उत्तरपूर्वस्यां |
याः पूर्वदक्तिणोत्तरवर्त्तीनि णि द्वाराणि, तेषां च द्वारा-
णां पुरतो मुखमरडपाः, तषां च मुखमरडपानां, पुरतः प्रेक्षा-
ग्रहमण्डपाः, तषां च प्र्तागरहमण्डपानां पुरतश्चत्यस्तृपाः
सप्रतिमाः, तषां च चेत्यस्तृपानां पुरतश्चत्यवृत्ताः, तषां च
चत्यब्रक्ताणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः , तषां च महतन्द्रध्वजानां
पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्राः,तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां
पड़ गुलकासदेस्राणि षड़् गामानसीसह स्रारायप्युक्रानि त-
था<5त्रापि स्वमननव कमण निरव शपे वक्कव्यम् , उस्लोक-
वसने बहुसमरमणीयभूमिभागवरीनमपि तथैव ॥ ` तस्स
ण॒ ` मित्यादि, तस्य ( सिद्धायतनस्य ) बहुसमरमर्णायस्य
भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभाग ज्र महत्यका मणिपीटिकां
प्रज्ञता द्व याजन आयामविष्कम्भाभ्यां योाजनमकं बाह-
स्यन सर्वमाणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तस्याश्च मणि-
पीठिकाया उपरि अत्र महानका देवच्छन्दकः पज्ञघ्तः, साति-
रके द्व योजन ऊरध्वमुचचस्त्वन द्व याजन आयामविष्कम्भा-
भ्यां सवात्मना रत्नमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ ( * ४
देवच्छन्दक अष्टशतम् ` जिनप्रातमानां तिष्ठतीति ‹ चदय '
शब्द् तृतायभाग १२४२ पृष्ठ गतम ) ' तस्स ण ` मित्यादि,
तस्य सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावष्ठो मङ्गलकानि, ध्वजच्छ-
आातिच्छत्रादीनि तु प्राग्वत् ॥
( १४ ) अथ तत्रोपपातसभां प्रतिपादयन्नाह--
तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तरप्रत्थिमेणं एत्थ शं
एगा महं उववायसभा पष्यत्ता जहा सुधम्मा तहेव० जाव `
गोमाणर्सीाओं उववायसभाए वि दारा मुहमंडबा सव्वं .
भूमिभागे तंहव °जाव मणिफासो ( सुदम्मासभावत्तच्वया ।
भाणियव्व्रा ०जाव भूमीए फासो ) |
तस्स गा ' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्या-
म्र महत्यका उपपातसभा प्रज्षप्ता, तस्याश्च खुधम्मास-
भाया इव प्रमाणे जीणि द्वाराणि तषां च द्वाराणां पुरतो ।
मुखमण्डका इत्यादि सर्वे तावद्कक्वव्यं यावद् गोमानसीवर्ण-४
नम् , तदनन्तरमुल्नोकवरणन ततो भूमिभागवर्णन तावद् | ।
यावन्मणीनां स्पशः, तथा चाह--' खदम्मासभावत्तव्वया
भाणियव्वा०जाव भूमीए फासो ` इति।
तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भृमिभागस्स बहुम- ।
ज्मदेसभाए एत्थ शं एगा महं मणिपेढिया पत्ता जोयशं `
आयामविक्खेभेणं अद्रजोयणं वाहल्लणं सब्पमणिमती [व
अच्छा, तीमे शं मशिपेदियाए उप्थि एत्थ शं एने महं (
दवसयाणज्ज पण्णत्ते, तस्स ण दवसयाणज्जस्स व्पञ्रो, । ॥-
उववायसभाणए णं उप्पि अट मगलगा भया छत्तातिछत्ता० | जन
जाव उत्तिमागारा, तीस ण उववायसभाए उत्तरपुरंत्थिमेणं
एत्थ शं एगे महं हरए पण्णत्ते, से शं हरण अद्भतेरस
जोयणाईं अयामेण छ कसात ज।यणाई विक्खभणं दस
जोयणाइह उव्वहण अच्छे सणह वष्पञ्मा जहव ण॒ दारण
क्ख रिणी णं जव तारणवप्पञ्च। । |
तस्ल ण ' मित्यादि, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमि- .
भागस्य वहुमध्यदेशमागेऽत्र महत्यका मणिपीडिका प्रश्ञप्ता
( ६२७ )
लवणममुह
योजनमकमायाप्रविष्कम्भाभ्यामद्धयोजने बाहल्येन सर्वा- |
त्मना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजाते प्राग्वत् , तस्या- |
श्च मणिपीटिकाया उपारे अत्र महदकं दवशयनीय प्रज्ञप्त.
तस्य स्वरूपवर्णन यथा सुघम्पौयां सभायां देवशयनीयस्य |
तस्य तथा द्रव्यम् .तस्या अपि उपपातसभाया उपरि अष्टा
चष्ठो मङ्गलकानीत्यादि प्राग्वत् ॥ ` तीस ण' मित्यादि,
तस्या उपपातसभाया उत्तरपृवस्यां दिशि त्र महानको
हृदः प्रज्ञप्तः. अर्दधत्रयाद्श याजनान्यायामन, पड़ याजनानि
सक्रोशान विष्कम्भन , दश याजनान्युद्रघन ' अच्छे सणदे
रययाकू ते इत्यादि नन्दापष्करिणीवत्सव निरवशेष
चाच्यम् , तथा चाह-- श्रायामुव्वदेण विक्खभणं व
क्षआ जो चव नदापुक्खारिणीण ` मात ॥ ' तीस ण ` म |
स्यादि.स हद एकया पद्मवरवादिकया एकन च वनखराडन
स्यतः समन्तान्सपरिात्षघ्तः, पद्मवरवादिकाया वणने वन- |
खराडव रीन च तावद् यावत् ` त.थ णे बहव वाणमतरा दवा |
य दवीश्रो य आसयोात०जाव वहर्तात तस्य हदस्य त्र
दाश-त्सषु च्छु ्सापानप्रातरूपक्राण प्रज्ञप्तान, तषा ।
च त्रिसापानप्रातरूपकाणां तोरणानां च ( वरी पूयवत् । )
तस्स ण दह (हरत)स्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं |
अभिसेयसभा पष्पत्ता, जहा सभा सुधम्मा तं चव निरव- |
सें ०जाबव गोमाणसीओं भूमिभाए उल्लोए तहेव । |
तस्स श बहुसमरमणिज्ञस्स भूमिभागस्स बहुमज्भदस- |
भाए एत्थ णं एगा मह मणिपेढिया पष्पत्ता जोयणं आ- |
अमिधानराजन्द्रः |
यामविक्वंभेणं, अद्धजोयर्ण ब।हललेणं, सव्वमणिमया अ-
च्छा । तीसे णं मणिपदियाए उष्पि एत्थ श॒ महं
एगे -सीहासणे पप्पत्त, संहासणवप्र अपरिवारो |
तत्थ णं विजयस्स देवस्य सुबह अभिसेके भंड सश
क्वित्ते चिदरति,्रभिभयसभाए उध्पि अट्ट मंगलए०जाव
उत्तिमागारा सालसनघहिं रयणेहिं, तीसे ण॑ अभिसय-
सभाए उत्तरपुरत्थमेणं एत्थ णं एगा महं अलेकारिय-
सभावत्तव्वया भाणियव्वा ०जाव गोमाणसीओ मणि |
पेद्िय।ओ्रो जहा अभिसेयसभाए उपि सीहासणं स (अ )- |
परिवारं । तत्थ शं विजयस्य देजस्स सुबहुअलंका-
रिए भंड संनिक्खित्ते चिट्रति, उत्तिमागारा अलंकारिय-
सभावत्तव्यया भाणियव्या० जाव गोमाणसीओं मणिपे-
हिय।ओ जहा अभिसेयसभाए उपि मगलगा भग
०जाव [ छत्ताइछ्त्ता ] | तीमे णं अलंक।रियसहाए
उत्तरपुरत्थमणं एत्थ श एगा महं ववसायपभा पष्पत्ता,
अभि यपभावत्तव्यया ०जाव सीहासशं अपरिवारं |
` तस्ल ण॒' मित्यादि, तस्य हृदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि
अत्र महत्येका परत क उभा प्रजक्ता, साऽपि प्रमाणस्वरूप-
द्वारमुख प्॒रग उपप्रत्ताग मण्डपचत्यस्तू पव्॒रणनादप्रकारण खु-
घमासभातरत्तावद्ध क्या यावद् गामानसावक्कत्यता, तदन- |
न्तर तययाज्ञाऊफ्णन भामभागवणन चर ताचद् याचन्मणा- |
॥
लवणसमु
नां स्परीः । ` तस्स ण॒ ` मित्यादि, तस्य वहुसमरमणीयस्य
भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीटिका
प्रज्ञ याजनमकमायामाविष्कम्भाभ्यामद्धंयाजने वादस्येन
सवौत्मना मणिमयी ` अच्छा सरा ' इत्यादि विशपणकद-
म्वकं प्राग्वत् । ` तीस ण ' मित्यादि, तस्या मखिपीटिकाया
उपरि अत्र महदेकं सिंहासन धक्ञप्तम् , सिंहासनवर्णकः-
प्राग्वत् , नवरमत्र परिवारभूतान भद्रासनानि न चक्कव्या-
नि। ` त् ण ` मित्यादि. तस्मिन् सिंहासन विजयस्य द-
घस्य योग्ये सुबहु अभिषकभाणडम्-अभिषेकापस्करः स-
निक्षिप्त: तिष्ठति, तस्याश्चाभिषकसभाया उत्तरपूवस्यां दि-
शि अत्र महत्यकाऽलङ्कारसभा प्रज्षप्ता, सा च प्रमाणस्वरू-
पद्धारत्रयमुखमण्डप प्रक्षाग्रहमणडपा दिवर्शनप्रका णाभिषक -
सभावत्तावद्ध क्या यावदपरिवारे सिंहासनम् । ˆ तत्थ ण
मित्यादि, तत्र--सिंहासने विजयदेवस्य योग्य खुबहु आ-
लड्जारिकम-अलहड्जारयोग्यं भार्ड सानिक्षिप्त तिष्ठाति । ती-
सरेण ` मित्यादि, तस्या अलक्लारसभाया उत्तरपृवेस्यां दिश
श्म महत्यका व्यवसायसभा प्रज्ञा, सा चाभिषकसभाव-
सप्रमाणस्वरूयद्धारव्रयमुखमरडपादि वणकप्रकारण तावद्धक्क-
व्या यावदपरिवारं खिंहासनम् |
ए(त) त्थ णं विजयस्स दवस्म -एगे महे पा-
त्थयरयणे सानिक्खित्ते चिट्ठति, तत्थ णं पोत्थयरयण
स्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, त॑ जहा-ग्ट्रिमतीओ
कंबियाओ ( रयतामतातिं पत्तकाई रिट्ठामयातिं अक्ख-
राई ) तवणिज्ञमणए दोरे णाणामशिमए मेदी ( अकमया-
इ पत्ताई ) ) वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिञ्जमती सकला
रिट्टमए छादने रिद्मया मसी वइरामयी लहणी रिट्ठामयाई
अक्खराई धम्मिए सत्थे वग्सायसभाए शं उप्पि अट्ट
मंगलगा भया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारेति ॥ तीग
शं ववसा ( उववा ) यसभाए उत्तरपुरत्थिमेणं एग
महे बलिपेदे पप्मत्ते दें! जोयणाई आयामविक्खंभेगं
जोयणं बाहल्लेणं सव्वरण्तामए अच्छे जाव पडिझूव ॥
एत्थ श तस्स शं बलिपेढस्स उत्तरपुरत्थिमेण एगा मह णं
द पृक्खरिणी पप्पत्ता ज चव माणं हरयस्स त चव सव्वं ॥
( मु° १४० )
' एत्थ ' मित्यादि, “ शत्र सिंहासन मटद्कं पुस्तकर-
त्न सनिक्षिप्त तिराति, नस्थ च पुस्तकरत्नस्यायमतद्रपः
' वर्णावासः ` वर्णकनिवशः प्रज्ञाश्त' रिषठमय्यो ` रिष्टर-
त्नात्मके कम्विक पुष्क दति भावः. रजतमय।( ( तपनोयम्-
या) दवरको यत्र पत्नाणि प्रातानि सन्ति, नानामनिम-
यो ग्रान्थदूवरक्रस्यादा येन पत्राण न निगच्छन्ति, 'अद्भूम
यान अड्जभरत्नमयानि पत्राणि नानामणि ( बेंड्ये ) मय
लिप्पासनं-मर्षी माजनमित्यर्थः, तपनी यमयी शङ्खला मषी -
भाजनसत्का रिष्टरत्नमयमुर्पारितन तस्य छादने ` रिष्ठमयी '
रिछ्रत्नमयी मपी , वज्जमयी लेखनी रश्पघ्िमयान्यक्तराणि
ध्रा्मिकं लख्यम् तस्याश्च उपपातसभाया उत्तरपूवस्यां दिश
मरदकं बलिपीठं परकञघ्तम् , द्व योजन आयामविष्कमस्भाशभ्यां
--त
छ्
( धर).
अधिधानराजन्द्रः।
लवणसमु
योजनमकं बादस्यन * अच्छे सरहे ' इत्यादि विशषणजात
प्राग्वत् ॥ * तस्स ण॒ ' मित्यादि, तस्य॒ वलिपीटस्य उक्तर-
पूर्वस्यां दिशि अत्र महत्यका नन्दापुष्करिणी भ्रज््ता, साच |
हृद्प्रमाणा , हदस्येव च तस्या अपि जिसोपानवरन
तोरणवरन च प्राग्वत् ॥ तदेवे यत्र यादग॒भूता च राजधानी
विजयस्य दवस्य तदतद् उपवणितम् ।
( १५ ) सम्धति विजयो दवस्तत्रापपन्नस्तदा यदकरोद्
यथाच तस्याभिपकोऽभवत्तदुपदशैयति-
तेणं कालणं तणं समणएणं विजए दवे विजयाए रायहा-
णीए उववातसभाए देवसयरिजंसि देवदूसंतरिते अगुलस्स
असंखेजतिभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववष्छ ॥ |
तए णं से विजये देवे अहुणोववण्णमेत्तर चव समाणे
पंचविहाए पज्ञत्तीए पज्जत्ती भावं गच्छति,त जहा-आहार-
पञजत्तीए सरीरपज्ञत्तीए इदियपज्त्तए आणापाणुपज-
त्तीए भासामणपजत्तीए ॥ तए शं तस्स विजय-
स्म दवस्स पंचविहाए पज्त्तीए पञज्जक्तीभावं गयस्स इ-
में एयारूवे अज्भात्थिए चितिए पत्थिते मणोगए संक-
प्पे समुप्पज़ित्था-किं मे पुव्व॑ सेयें, कि मे पच्छा सेयं,
किं मे पुव्वि करणिजं, कि म पच्छेो करणिजं, कि मे पु-
विंबर वा पच्छा वा हिताए सुहाए खेमाए शिस्सेसयाते
अणुगामियत्ताए भविस्सतीति कटर एवं संपेहेति ॥
तत शं तस्स विजयस्स देवस्स सामाशणियपरिसोववण्ण--
गा देवा विजयस्स देवस्स इम एतारूवं अज्भत्थित
चितियं पल्थियं मणोगयं संकप्प॑ समुप्पएणण जा-
णित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति ते- |
णामव उवागच्छित्ता विजयं दव करतलपरिग्गाहिय सिर- |
सावत्तं मत्थए अजलं कड जएणं विजएणं वद्भावेंति
जणएणं विजएणं वड्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवा-
णुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणंसि अट्ठस- |
ते जिणपड़िमाणं जिणुस्सहपमाणमेत्ताणं संनिक्खित्त चि-
दरति, सभाए य सुधम्माणए माणवए चेतियखंभे वइरामए- |
सु गोलवइसमुग्गतेसु बहुओं जिणसकहाओ सन्निक्खि-
त्ताओ चिट्टं ती, जओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नो्से च बहू- |
णं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणि-
जाओ वंदशणिज्ञाओ पूयशिज्ञाग्रो सक्षारणिजाश्रो
सम्माणशिज्जाओ कल्ला्ण मंगल देवय चेतिय पज्जु-
वासणिजाओ एतं णं देवाणुप्पियाणं पुच्वि पि सेयं,
एते शं दवाणुष्पियाणं पच्छा वि सयं, एतं णं देवाणुप्पि-
याणं पुच्ि करणिजं पच्छा करणिज्ञ,एतं णं देवाणुप्पि- |
याणे पुरि वा पच्छा वा जाव आणुगामियत्ताते भवि-
स्सतीनि कडु महता महता जय ( जय ) सई पउजंति ।
तेणं काले तेणं समपणे' इत्यादि, तस्मिन् काल
समय विजया देव उपपातसभायां दवशयनीये देवदृष्या-
न्तरिति प्रथमतोऽङ्कुलासेख्येयभागमात्रया ऽवगाहनया--
समुत्पन्नः॥ तप ण' मित्यादि, सुगमम् ,नवरमिह भाषामनः-
पर्याप्त्योः समाप्िकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिकाला -
न्तरापक्तया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणामिति ` पचविहा-
ए पज्ञत्तीए प्नत्तिभावं गच्छुइ ` इत्युक्तम् ॥ ` तए श॒ !
मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पञ्चविधया पयौप्त्या
पर्यापिभावं गतस्य सतोऽयम्-पएतद्पः संकल्पः समुद-
पद्यत, कथम्भूतः ?, इत्याह-मनागतः- मनसि गतो-
व्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्रकाशितस्वरूप इति भावः,
पुनः कथम्भूतः ?, इत्याह--आध्यान्मिकः-श्रात्मन्यधिं
अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिक आत्मविषय इति भावः,
9 के
च
सङ्कल्पश्च द्विधा भवति--कशिदध्यात्मिकाऽपरश्च चन्तः-
त्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाद-चि-
न्तितिः- चिन्ता संजाताऽस्मिान्नति चिन्तितिशिन्तात्मक
इति भावः, सो5पि कश्चिदाभिलाषात्मको भवति कश्चि-
दन्यथा तत्रायमभिलाषात्मकस्तथा
णिजन्तादष प्राथः संजातोऽस्मिन्निति प्रा्थिकोऽभिलाषा-
त्मक इति भावः, कि स्वरूपः ?, इत्याह--' कि मे *
इत्यादि, कि मे-मम पूर्व करणीये कि मे पश्चात् कर-
णीयम् , तथा कि मे पूर्व कत्तु श्रेयः कि मे पश्चात्कर्तुं /
श्रयः, तथा कि में पूवमपि च पश्चादपि च हिताय
भावप्रधानोऽयं निर्देशो दितत्वाय परिणामखुन्दरतायै
सुखाय--शम्भण त्तमायेति , अयमपि
निर्देशः संगतत्वाय, निःश्रयसाय--निश्चितकल्या--
णाय ` आआचुगामिकतायै परम्परया शुभानुबन्धसुखाय
भविष्यतीति ॥ ‹ तप ण॒ ` मित्यादि, ` ततः ` पतञ्ि-
न्तासमनन्तरमेव दिव्यानुभावता विजयस्य देवस्य * सा-
माणियपरिसाववन्नगा देवा
पन्नकाश्च--श्भ्यन्तरादिपषदु पगताः इमम्-श्ननन्तया-
म् एतद्रपम--अनन्तराद्तस्वरूपमा ध्यात्मक चान्त
प्राधिते मनोगते सङ्कल्पं समभिज्ञाय ' जरेवे ` न्ति
यत्रैव विजयो देवस्ततैवापागच्छुन्ति-उपागस्य च “ कर
यलपरिग्गहिय " मित्यादि दयोदंस्तयोरन्यो ऽन्यान्तरिता- '
ङ्ुलिकयाः सेपुर रूपतया यदेकत्र मीलनं सा श्रञ्जलि-
स्तां करतलाभ्यां परिगरृहीता--निष्पादिता करतलपरि-
गृहीता ताम् . श्रावत्तनमावत्तैः, शिरस्यावत्तौ यस्याः सा
शिरस्यावत्ता, कराठकाल उरसिलोमत्यादिवदलुकसमासः,
तामत एव मस्तके कृत्वा जयन विजयन वबद्धौपयन्ति-
जय त्वं देव ! विजय त्वं देव ! इत्यवे बद्धापयन्तीत्य्थः,
तत्र जयः--परैरनभिभूयमानता प्रतापच्द्धिश्च , विजय
-स्तु-परेषामसहमानानामाभभवात्पाद् , जयन वज्ञयन च
वद्धापयित्वा एवमवादिषुः--' एवं खलु देवाखुप्पयाण
मित्यादि पाठस्विद्ध म् ॥
तए शं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोवव-
णएणगाणं देवाणं अंतिए एयमट्ट सोचा शिसम्म हड्डतुद्ढ० |
जाव दियते देवसयणिज्ञाओ अब्भद्ढेइ अब्भ्रुट्टेइत्ता दिव्वं-
देवदूसजुयलं परिहेइ परिहेद्ा देवतयणिज्जाओ पचयर- _
चाह- प्राने प्रार्थौँ `
भावप्रधानो
` इति सामानिकाः पषेदुप- |
|+
(97
| # 4
( ६२६ )
लवणसखुह _ _ 4
हइ पच्चोरुहित्ता उपपातस भाओ पुरात्थिमेण दुबारंण ग्ग
च्छह णिग्गच्छडत्ता जेणेव हरते तेणेव उवागच्छांते उवा-
गच्छित्ता हरयं अणुपदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थिमे- |
शं तोरणेण अणुप्पविसति अणुप्पविसित्ता पुरत्थिमिन्लेणं
तिसोवाणवडिस्वएणं पचोरुहति पद्मोरुहतित्ता हरयं ओ-
गाहति आगाहित्ता जलावगाहणं करेति जलावगाहणं करेत्ता
जलमज्ञणं करेति जलमञ्जणं करेत्ता जलकिईं करति जल-
श्रानधानराजन्द्रः |
किङ करेत्ता आयंते चाक्खे परमसुतिभूते हरतातो पच्चु-
त्तरति पच्चुत्तरेत्ता |
* तए ण ' मित्यादि ततः-पतद्वचनानन्तर विजया देव-
स्तघां सामानिकपदुपपन्नकानां--सामानिकानां पषेदुपप- |
क्षकानां च देवानामन्तिकं पनमथ श्रुत्वा-आकर्णर्य
निशम्य हृदये परिणमय्य “ हट्ठतुट्नाचत्तमाणंदिण ` इ-
ति हृ्तुष्टा ऽतीव तुष्ट इति भावः, श्रथवा-हृष्ा नाम |
विस्मयमापन्ना यथा-शाभनमहो ! पतरूपदिषटमिति , तुष्टः- |
तोषं रतवान् यथा-मव्यमभूद् यदेतरित्थमुपदिष्टमिति ,
ताषवशादव चत्तमाना तम्-स्फीतीभूत इुणाद् सम्- |
इति वचनात् . यस्य स चित्तानन्दितिः, भार्यादि-
दर्शानात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वा-
दलात्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्रयपदद्वखमीलनन कम्मधा-
* चीदमण ` इति प्रीतिमनासि यस्यासो प्रीतिमना
जिनप्रतिमा ऽचनविषयवदहुमानपरायणमना इति भावः, ततः
कमेण बहमानोत्कर्षवशात् ' परमसोमणास्सिप ' इति शो-
अने मना यस्यासौ सुमन।स्तस्य भावः सोमनस्ये परमं च|
तत् सौमनस्यं च परमसोमनस्य तत्सजातमस्मिन्निति पर-
मसौमनस्यितः , . एतदेव व्यक्ताकुबन्नाह- हरिसवस--
विसप्पमाणदियप ` हषवशन विसप्पद्-विस्तारयायि
हृदये यस्य स हषवशविसपैद्धदयः देवशयनीयादश्युत्तिष्ठति,
श्भ्युल्थाय च दवदुष्ये परिधत्त. परिधाय च उपपातसभा-
तः पूर्वद्वारेण निगच्छति, निगेत्य च यत्रैव प्रदश हदस्तत्रा- |
पागच्छति, उपागत्य हृदमनुप्रदक्तिणीकृत्य पूर्वण तोरणन |
हदमनुप्रवि राति, प्रविश्य च हदे प्रत्यवरोहति, मध्य प्रवि- |
शतीति भावः, प्रत्यवरुह्य च हदमवगाहत , श्रवगाद्य जल |
मज्ञन कराति, कृत्वा च क्षणमात्र जलक्राडां कराति, ततः
“श्रायते इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धादरूप्रत्तालनना 5 ऽचा-
न्ता ग्रहीता च मनश्चाक्तः-स्वटपस्यांप शङ्गितमलस्याप-
नयनात् , अत एव परमशुचिभूता हदात् प्रत्युत्तराति (जी०) |
( अतः परम् अभिसेय' शब्दे प्रथमभाग ७२६ पृष्ठ अ-
मिषकवर्णकों गतः )
तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य य सामाणियसाहस्सीओ च-
त्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिप्ति परिसाओ सत्त
अणिया सत्त अणियाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाह-
स्सीओ अनने अ बहवे विजयरायधाशिव॑त्थव्वगा वाणमं
तरा देवा य देवीओ य तेहिं साभावितेहिं उत्तरवेउव्वितेहि
य वरकमलपतिद्टाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुष्महिं चंदणक-
यचचातेहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणेहिं करत-
६५८
लवणसमु
लसुकुमालका मलप। रग्गाहएाह अटसहस्माण साव।सयाणय
कलसाण रूप्पमयाण ताव अट्टडंसहस्साण भामयाण क
लसाणं सव्वोदण्हिं राव्यमद्टियाहिं सव्वतुवरहिं सब्वपु-
प्फेहिं ०जाव सब्वोसहिसिद्धत्थए हिं सव्विड्डरीए सव्वजुत्ती-
ए सन्बलेणं सबव्धसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूतिए
सव्वाविभूसाए सव्यसंभमेणं सब्वरोहेणं सव्वणाडए्हिं
सब्वपुप्फगंधमन्नालंक रविभूसाए सव्व दिव्वतुडियाधणा-
एणं महया इए महा जुत्तीए महया बलेण महता समु-
दएणं महता तुरियजमक्समगपड्प्पवादि तरेण संखपण
वपडहभेरिभल्लरिखरमुहिमरवपयंगदंदृदिदु इक णिग्धोससं -
निनादितखेणं महता मता इंदाभिसेगेणं अभिसिंच॑ति ।
* तप ण ` मित्यादि, तक्तै-शमिति वाक्यालङ्कारे तं विजय
देवं चत्वारि देवसामा्निकसहस्राणि चतस्रो ऽग्रमदहिष्यः
सपरिवारास्तिखः पर्षदा यथाक्रमण्रदशद्धादशदेवसदस्र-
परिमाणाः सप्तानीकानि सफ्तानीकाधिपतयः षोडश आत्म-
रप्तदेवसदस्राणि, अन्य च बहवा विजयराजधानीवास्तव्या
वानमन्तरा देवा देव्यश्च तैः-- तद्रतदेवजनप्रसिद्धेः खाभा-
विकैवकुर्विक्रेश्च वरकमलप्रतिस्थानेः खुरभिवरवारिप्रति-
पूर्णश्रन्दनकृतचर्चांक:ः , आविद्धकण्ठगुणः--आरापितक-
ण्ठरक्नलसत्रतन््तुभिः पदह्मोत्पलपिधानेः सुकुमारकरतलपारिग्र-
हीतेरनकसहस्म॒संख्य:ः कलशाराति गम्यत, तानव विभा-
गता दशयति--श्रष्सहस्रण सोवर्शिकानां कलशानाम् ,
श्रष्सहस्रण रूप्यमायानाम , अष्टसहस्त्रण ` माणिमयानाम्
अपष्टसहस्मण सुवर्णरूप्यमयानाम . अष्टसहस्त्रण खवराम-
शिमयानाम् , अष्टसहस्त्रण रूप्यमणिमयानाम् . श्रष्रसदस्रण
सुवरूप्यमणिमयानाम् . अष्टसहस्त्रण भामयानां, सर्वसं-
ख्यया अष्टमिः सहस्प्श्चतु पष्स्याघकेः, तथा ' सर्वोदकः `
सर्वतीर्थनद्ाद्रदकेः सर्वतुबरें! सर्वपुष्पः सर्वगन्धेः सर्वमा-
ल्येः सर्वोषधिसिद्धा थंकेश्व सवद्या-परिवारादिकया सर्व
त्या-यथाशक्किविस्फा रितेन शसीरतजसा सवबलनं सामस्त्ये-
न सस्वहस्त्या दिसिन्येन सर्वसमुदयन-स्वस्वाभियों ग्यादिस-
मस्तपरिवारेण सवीद्रण-समस्तयावच्छक्रितालनेन सव-
विभूत्या स्वस्वाभ्यन्तरवेक्कियकरणा{दवाहारत्नादिसम्पदा,
तथा सर्वविभूषया--यावच्छक्रस्फारोदारश्णङ्गारकरणेन
सव्वसभमेश ` ति सर्वोत्कृष्टन संभ्रमण, सवात्छृष्टसश्चमा
नाम-इह स्वनायकविषयवदुमानख्यापनाथेपरा स्वनायक-
कार्यसम्पादनाय यावच्छाक्ति त्वर्तित्वरिता प्रवृत्तिः, सवपु-
स्पवख्रगन्धमाट्यालङ्कारण, श्रत्र भन्धा-वासा माल्यानि-
पुष्पदामानः श्रलङ्काराः-श्रामरणानि ततः समाहारो इन्द्रः,
ततः सर्वदिव्यन्रुटितानि तषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रितशब्दा-
स्ते: सह सर्वशब्दन विशषणसमा सः, 'सब्घादिव्वताडियसह-
निनाएण ' मिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च दिव्य-
तूर्याणि च. पप्रामकत्र मीलनन यः संगता नितरां नादा-
महान् घाषः सर्वदिव्यत्रटितशब्दसेनिनादस्तन. इह तुल्य-
ष्वपि स्वशब्दो दृष्ठ यथा ऽनन सवं पीतं घृतमिति, तत
आहर--' महया इड्डीए' त्यादि. महत्या यावच्छ॒ुक्चितुलितया
ऋद्धा ` परिवागादिकया ' मद्या जुईए ` इत्याद्यपि भाव-
( 2३० )
लवणसमु र
नीयम् , तथा महता स्पफू्तिमता वराणां--प्रधानानां त्रुटि-
तानाम्-श्राताद्याना यमकसमकम्-एककाल पटाभ
चुरुष प्रचयादताना या रवस्तन एतदव वशषरणाच्ष्
` सखपणवपडहभेरिभललरिखरमुहिहुडक्कमु रवमुइंगदुदुहि- |
निग्धाससनिनादितरवणं' शेखः प्रतीतः पणवॉ--भाण्डा- |
नां, पटहः प्रतीतः भरी--ढका भट्लरी--चमवनद्धा वि- |
स्तीर्णा वलयरूपा खरमुहा--काह ला हुइक्का--महाप्रमाणा
मर्दलो मुरजः-स एवं लघुर्मदक्लो दुन्दुभिः-भयीकारा
सङ्कटमुखी तासा उन्दः, तासा नघ्राषा-महान् ध्वानाना
दितं च धरटायामव वादनात्तरकालभावी खततध्वानस्तन्ल-
क्षणो यो रवस्तेन महता महता इन्द्राभिषकराभिषिञ्चन्ति ॥
तए णं तस्स विजयस्स दवस्स महता महता इंदाभिसेगंसि
वडूमाणंसि अप्पगतिया देवा णबोदगं णातिमट्टियं
पविरलफुसियं दिव्वं सुरभे रयरेणुविणासण गधोदग-
वासं वासेति, अप्पगतिया देवा शिहतरयं णट्टरय मट्रयं |
पसंतरय उवसंतरयं करेति, अप्येगतिया देवा विजयं राय- |
हाशि सब्भितरबाहिरिय आसित्तसम्मज़ितोवलित्त सित्तसु-
इसम्मइरत्थंतरावणवी हियं करेति, अप्वेगतिया देवा विजयं |
राया मंचातिमंचकलितं करेंति,अप्पेगतिया देवा विजयं |
अभिधानराजन्द्रः।
रायराशि शाणाविहरागरंजियञसियजयविजयवेजयन्ती- |
पडागातिपडागमंडितं करेंति,अप्पेगतिया दवा विजयं राय- |
हाणि लाउल्लोहयमहिय करति, अप्पेगतिया देवा विजयं
रा० गोसीससरसरत्तचद णद दरदि एणपंचंगुलितल करति,
अष्पेगतिया देवा विजय रा ० उव चियच॑द णकलसं चद णघ- |
डसुकयतोरणपडिदुबारदसभागं करत, कप्पेगतिया देवा |
विजय रा०आसत्तावसत्तविपुलवइवग्घारितमजन्नदामकलार्य |
करति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहारिं पंचवणणसरससु-
रभिमुकपुप्फप्ंजोबयारकलितं करेंति, अप्पेगइया देवा |
विजयं रा०कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूबडज्फंतमघमधेंत- |
गंधुद्धयाभिरामे सुगेधवरगंधियं गंधवद्ठिभूय करति, श्रप्प- |
गहया देवा दिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा ॒सुव- |
णणवास वासात, अप्पेगहइया दवा एव॒ रयणवास वह- |
रवासं प्रृष्फवास मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थ- |
वासं आहरणवासं,अप्पेगहया देवा हिरएणविधि भाईति,
एवं सुवएण्णविधि रयणविधि वतिरविधि पुप्फविधि मन्न-
विधि चुएणविधि गंधविधि वत्थविधि भाईति आभर- |
णविधि ॥
« तप ण॒ ` मित्यादि, तता शमिति पूर्वत् तस्य विज-
यस्य दवस्य ` महया ` इति श्रतिशयन महति इन्द्राभि-
चके वत्तमानेऽप्यकका देवा विजयां राजधानी ; सप्तम्यर्थ
द्वितीया प्रातत्वात्
न्यां नात्युदके प्रभूतजलसंग्रहभावता वरस्यापपत्तः, ना--
विगरत्तिकि श्रतिमरृत्तिकाया श्रपि कदमरूपतायामुत्खाद-
तताऽयमश्ः--विजयायां राजधा- |
तत् प्रविरलस्पृष्टम् । * रयरेणुविणासणं
लवणसशुद
बृद्धिजनकत्वाभावात् * पविरलफुसिय ` मिति प्रविरलानि
भवन्ति तावन्मावेणात्क्चण स्पृष्टानि-स्पशनानि यत्र वर्ष
` ति ऋछक्णतरा
ररुपुद्रला रजस्त एवं स्थूला रेणवः, रजांसि च रणवश्च
रज्ञारेणवस्तषां विनाशन रजारेणुविनाशन दिव्यम-- प्रधानं
सुराभिगन्धोदकवषं वर्धन्ति, अप्यकका विजयां राज-
धानीं समस्तामपि निहतरजसम्-निहत रजो यस्यां सा
निहतरजास्ताम् , तत्र निहतत्वं रजसः त्तणमात्रमुत्था-
नाभावेनापि सभवति तत श्राह--नष्रजसम्- नष्ट स-
वैथाऽदश्यीभूतं रजो यत्र सा नष्टरजास्ताम् , तथा श्र-
च्रम्-वातोद्धततया राजधान्या दूरतः पलायितं रजा य-
स्याः सा ्रष्ररजास्ताम् , एतदेवेकार्थिकद्धयेन प्रकटयति-
प्रशान्तरजसम् उपशान्तरजस कुर्वन्ति, श्रप्यकका देवा घि-
जयां राजधानी मर श्रासियसमल्ियोवलित्त सित्त सखुइस-
म्मद्र (रय ) रत्थतरावणवी हियं करति ` इति श्रासिक्रमु-
दुकच्छुरटेन, समार्जित कचवरशो धनन, उपलिप्तमिव गाम-
यादिनापलिप्तम , तथा सिक्तानि जलनात एवं शुचीनि-प-
वित्राणि समृ्ठानि-कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि श्राप-
रवी थय इव-दृटमागौ इव श्रापणवी थयो रथ्याविशषाश्च
यस्यां सा तथा तां कुवन्ति, श्रप्यकका देवा मञ्ातिम-
आअकलितां कुर्वन्ति, श्रप्यकका देवा नानाविधा विशिष्रा
रागा यषु ते नानाविरागा नानाविरागरूच्छितेः--ऊर्ध्वीकृते-
ध्वजैः पताकातिपताकाभिश्च मरिडतां कुर्वन्ति, , अप्येक-
का देवा ' लाउल्लोइयमहितां । गोशीषसरसरक्कचन्दनददे-
रदत्तपश्चाह्ुलितलां कुर्वान्ति, अप्यकका देवा विजयां रा-
जधानाभुपाचतचन्दनकलशां कुबन्ति, अप्यकका देवा च-
न्दनघटसुकततारणप्रतिदढारदशभागां कुबन्ति , अप्यकका
देवा विजयां राजधानीमासिक्लोत्सिक्राविपुलवृत्त वग्घारितमा
ल्यदामकलापां कुवन्ति, अप्यकका देवा विजयां राजधानीं
पश्चवणसुरभिमक्कपृष्पपुआपचारकलितां कुबन्ति , अप्य-
कका दवा विजयां राजधानीं कालागुरुप्रवर कुन्दुरुष्कतु-
रुष्कधूपमघमधघायमानां गन्धाद्ध ताभिरामां खुगन्धवरगन्ध-
गन्धिकां गन्धवच्तिभूतां कुवान्त, पतषां च पदानां व्याख्या
ने पूर्ववत् , श्रप्यकका देवा हिरणयवर्ष वषेन्ति , अप्यकका
स्ुवरीवधरमप्यकका श्राभरणवष ( रत्नवषमप्यकका वज्जव--
पमप्यककाः ) पुष्पवषमप्यकका माल्यवषमप्यककाश्चूरवष
वसख्रवषम् (श्राभरणवष) वषैन्ति, अप्यकका देवा हिरण्य-
बिधि--हिरण्यरूपं मङ्गलपकारे भाजयन्ति-विश्राणयन्ति-
शषदवभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नाभरणपुष्पमाल्य-
गन्धचुरवस््र्विधिभाजनमपि भावनीयम् । (इह द्वात्रिशन्ना-
स्यांवधयः,ते च यन क्रमण भगवता वद्धमानस्वामिनः पुरत
सूर्या भदवन भाविता राजप्रश्चीयापाङ्ग दर्शितास्तन क्रमश
इहापि भावनीयम् , ते च * णट्ट ` शब्दे चतुर्थभागे १८०३
पृष्ट व्याख्याताः )
श्रप्पगतिया देवा चडउच्िधं वातियं वादेति, तं जहा-
ततं विततं घणं सिरं, अप्पेगतिया देवा चउव्विधं गयं
गायति, तं जहा-उक्खित्तयं पव्ययं मदायं रोइदावसाशं,
अप्पेगतिया देवा चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति, तं ज-
हे
घनभाव कदमसम्भवात् प्रकर्षण यावता रणवः स्थागता
( ६३१)
लवणसमु
हा-दिद्तियं पाडतियं सामन्तोवणिवातियं लोगमज्भा-
वसाणियं, अप्पेगतिया देवा पीर्णेति, अप्पेगतिया देवा
बुकारेंति,अप्पेग तिया देवा तंडवेंति, अप्पेगतिया देवा ला-
सति, अप्पगतिया देवा पीणेंति बुकारेंति तंडवेंति लासेंति,
अप्पेगतिया देवा अप्फ डति अप्पेगतिया देवा वग्गं-
ति, अप्पगतिया देवा तिवंति अप्पेगतिया देवा छिंदति,
अप्पगतिया देवा अप्फोर्डेति वग्गंति तिबंति छिदं ति,अप्पे-
गतिया देवा हतहेसियं करेंति,अप्पेगतिया देवा हत्थिगुस-
गुलाइयं करति, अप्पेगतिया देवा रहघणघणातिय करेति,
अप्पे० हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रहघण-
घणाइयं करेंति,अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति, अप्पेगतिया
दवा पच्छोलंति,(श्रप्पेगतिया देवा उक्ष करेंति) अप्पेग-
अशभिधानराजन्द्रः |
तिया दवा उकिट्ट,ओ करेंति, अप्पेगतिया देवा उच्छोलंति |
पच्छ।लंति उक्र करति, अप्पेगतिया देवा सीहणादं |
करेति, अप्पेगतिया देवा पादददरय॑ करति, अप्पेगतिया |
दवा भूमिचवेडं दलयति,अप्पेगतिया देवा सीहनादं पाद- |
दहरयं भूमिचबेडं दलयति, अप्पेगतिया देवा हकारेंति, |
अप्पगतिया दवा ठकारति, अप्पेगतिया दवा थकारेंति,
अष्पेगतिया दवा पुक्रारेति, अप्पेगतिया देवा नामाह |
सार्वेति, अप्पगतिया दवा हकारेंति ट॒कारेंति थकारेंति
पुकारेंति णामाई सार्वेति,अप्पेगतिया देवा उप्पतंति,अष्प-
गतिया दवा णिवयंति, अप्पगातिया दवा परिवयंति, अ-
स्पगतिया दवा उप्पयंति शिवयंति परिवयंति,अप्पगतिया |
देवा जलति, अप्पगतिया देवा तवति, अप्पगतिया देवा
पतवति,अप्पगतिया दवा जलंति तवंति पतवंति, अप्पेग-
इया दवा गज्जंति,अप्पगइया देवा विज्जुयायंति, अप्पगइ-
या दवा वासंति, अष्पइगया दवा गञ्जति विज्जुयायंति
वासंति,अप्पगतिया दवा दवसननिवायं करेंति, अप्पगतिया
देवा देवकलियं करेंति, अप्पगइया देवा देवकहकहं करेति
अप्पगइया देवा दुहदुह करेंति,अप्पगतिया देवा देवसनि- |
वायं देवुकलियं देवकहकहं देवदुहदुह करेंति, अप्पेगतिया |
देवा दव॒ज्ञोयं करेति,अप्पगतिया देवा विज्जुयारं करेंति,अ- |
प्येगतिया देवा चलुक्ववं करेंति,अप्पेगतिया देवा दबुजा-
ये विज्जुतारं चलुक्खवं करेंति, अप्पेगतिया देवा उप्पलह-
स्थगता ० जाव सहस्सपत्ता ° घंटाहत्थगता कलसह- ॥
त्थगता ° जाव धृवकड्च्छहत्थगता हट्तुद्रा° जाव हरि-
सवसविसप्पमाणदियया विजयाए रायहार्ण।ए सव्वता स-
मेता अ।धार्वेति परिधार्वेति ।
श्रप्यककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा-दा्शश-
न्तिक प्रतिश्रुतिक सामान्यतो विनिपातिकं लोकमध्याव-
सानिकमिति, पतेऽभिनयविधयो नास्वकुशलभ्यो वेदित-
लवणसमुद
व्याः, अप्यकका देवाः पीनयन्ति-पीनमात्मान कुवन्ति
स्थूला भवन्तीति भावः, श्रप्यकका देवाः तारडवयन्ति-
ताण्डवरूप नृत्य कुवन्ति, श्रप्येकका दवाः लास्ययन्ति--
लास्यरूपे नृत्य कुवन्ति, श्रप्यकका दवाः छुक्कारति-छुत्का
र कुवन्ति, श्रप्यकका दवा एतानि पीनत्वादरीमि चत्वायपि
कुवन्ति, श्रप्यकका दवा उच्छुलान्त, श्रप्यकका देवाः प्रा-
च्छलन्ति, अप्यकका देवाखिपदिकां दिन्दन्ति, अप्येकका-
सख्मारयप्यतानि कुर्वान्त,अप्यकका देवा हयदषितानि कुवाभ्त.
श्रप्यकका देवा दस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति श्रप्यकका देवा
रथघरणघणायतं कुर्वान्ति श्रप्यकका दवास्पीणयप्येतानि
कुवन्ति, अप्यकका दवा श्रास्फोटयन्ति, भृम्यादिकमिति
गम्यत, श्रप्यकका दवा वल्गन्ति, श्रप्यकका देषाः सिंह-
नादं नदन्ति, श्रप्यकका देवाः पाददर्देरकं कुर्वान्ति
श्प्यककरां देवा भूमिच्पटां ददात- भूमि, चपटयाऽऽ
स्फालयन्सीति भावः, श्रप्येकका देवा महता महता शब्दन
रवन्त--शब्दं कुर्वन्ति, श्रप्यकका देवाश्चत्वार्यपि सिहना-
दादीनि कुवन्ति, श्रप्येकका दवा दक्तारोति-दक्कारं कु-
वन्ति, श्रप्येकका रवाः घुक्कारंति--मुखन बुक्कारशब्द कुर्व-
न्ति, अप्येकका देवाः थक्काररति--थक्क इत्यवे महता शब्देन
कुवन्ति, श्रप्यककाखरीरायप्येतानि कुवन्ति, श्रप्येकका देवा
श्रवपतन्ति,श्रप्येकका देवा उत्पतन्ति,अप्यकका दवाः परिप-
तन्ति-तियैगनिपतन्तीत्यथैः, श्रप्येकका देवास्त्रीण्यप्येतानि
कुवन्ति, श्रष्यककाः ज्वलन्ति-ज्वालामालाकुला भव-
न्ति, श्रप्यकका देवाः तपन्ति- तक्ता भवन्ति, अप्यककाः
प्रतपन्ति, अप्येकका देवाख्रीरयपि कर्वन्ति, अप्येकका
देवा मजयन्ति श्रप्येककाः "विज्जुयार' ति- विधुतं कुर्वन्ति,
श्रप्यकका देवा वष वन्ति, अप्येककास्त्रीण्यप्यतानि कुव-
न्ति, अप्यकका दवा दवोत्कलिकां कुबन्ति- देवानां वात-
स्यवोत्कालिका दचोत्कालिका तां कुर्वन्ति, श्रप्यकका देवा
देवकहकहं कुर्वन्ति-प्रभूतानां देवानां प्रमादभगरवशतः
स्वच्छावचनेवांलः कोलाहला देवकटकटस्तं कुर्वन्ति, श्र-
प्येकका देवा देवदुहुदुहुक कुर्वन्ति-दु डु दुहुकमित्यचुकरण-
वचनमेतत् , अप्यककारस्प्रीणयप्येतानि कुर्वान्त, अप्येकका दे
वाश्वलो त्त्तेप॑ कुवेन्ति, अप्येकका देवा वन्दनकलशदस्तगता
वन्दनकलशा हस्त गता यषां ते वन्दनकलशहस्तगतांः, अ-
प्येकका देवाः भङ्गारकलशदहस्तगताः, पवमादशेस्थालपा-
अीसुप्रतिष्ठकवातकरकांचत्ररत्नक रण ड कपुष्पच ड्वरी या वज्ना
मदस्तचङ्गरीपुप्पपरटलकयावल्लामहस्तपरलकसिहासनचा-
मरतेलसमुद्धकयावद ञ्जनसमुद्रकधूपकडच्छुकहस्तगताः प्र-
त्यकमभिलाप्याः, ' हट्टूतुड्रे त्यादि यावत्करणत् ' हृट्टतुट्ट-
चित्तमाणदिया पीतिमणा परमसामणस्सिया हरिसवस-
विसप्पमाणहियया ` इति परिग्रहः, सर्वतः-- समन्ताद् श्रा
धावन्ति प्रधावन्ति ॥
तए णं तं विजय देव चत्तारि सामाणियसाहस्सी श्यो चत्ता-
रि अग्गमदहिसीञओ्रो सपरिवाराग्रो°जाव सोलस श्रायरक्ख-
दवसाहस्सीआओ अप्प य॒ बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा
वाणमतरा दवा य देवीओ य तेहि वरकमलपतिट्ट।/णेहिं
०जाव अटरुसतणं सोवध्मियाणं कलसाणं ते चेब० जाव
अट्टसएणं भामजञाणं कलस,णं सव्वादगेदि ` सब्बमद्टि-
( ६३२ )
व
श्रभिधानराजन्द्रः।
। लवणसमु
याहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुष्फे्हि जाव सब्वोसहिसि-
दत्थएहिं सब्विड्डठीए °जाव निग्धोसनाइयरवेणं महया |
महया इदाभितसरएणं अभिसिंचंति अभिसिंचंतित्ता पत्तेयं
पत्तेये सिरसावत्तं अजति कंदु एवं वयासी-जय जय नंदा ! |
जय जय भदा ! जय जय नद भद्द ते अजिये जिणेहि
जिय पालेहि, अजिते जिशेहि ` सत्तपक्खं जितं पालेहि
मित्तपक्ख, जियमज्मे वसाहि तं देव ! निरुवसग्गं इंदो इव
देवां, चदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव
नागा, भरहो इव मणुयाणं, बहूणि पलिच्रोवमाई बहणि
सागरोवमाणि,चउण्हं सामाणियसादस्सीणं जाव आ-
यरक्खदेवसाहस्सीशं विजयस्स देवस्स विजयाए रायहा-
णीए अप्यसिं च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वां वाण-
मतराणं देवाशं देषीण य अहिवच्च° जाव आणाईसर-
सेणावञ्चं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्ट महता
महता सेशं जय जय सदं पउंजंति । ( घ° १४१ )
* तप णो तं विजयं दवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ '
इत्याद्यभिषेकनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्र पाठसिद्धम् ।
( १६ ) लवणसरमुद्र स्थिताया विजयराजधान्या अधिपते-
विंजयदवस्य निष्क्रमणांद प्रतिपादयन्नाह--
तए शंसे विजये देवे महया महया इंदाभिसेएण
श्रमिसित्ते समे सीहासणाश्रो अन्यु सीहासणाओ
श्न्भदेत्ता श्रमिसेयसमभातो पुरत्थिमेणं दारणं पडिनिक्ख- |
मति पडिनिक्खमित्ता जणामेव श्रालंकारियसभा तेणेव
उवागच्छति उवागच्छित्ता श्रालंकारियसमं अणुप्पयाहिणी-
करेमाणे अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरत्थिमेणं दारेणं अ-
णुपविसति पुरत्थिमेण दारेणं अणुपविसित्ता जणेव सी-
हासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासणवरगत
पुरत्थाभिश्ठहे सछिससि, तए शं तस्स बिजयस्स देवस्स
सामाणियपरिसोववष्गा देवा आभिओगिए देवे सद्दार्वेति
सदर्वेतित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !
विजयस्स देवस्स आर्ल॑कारिय॑ ८ उवणेह, तेणेव ते
श्रालकारियं भडं° जाव ति।
"तप ण' मित्यादि, ततः स विज्ञयो देवो बानमन्तरैः “ म-
हया महया! दति श्रतिशयेन मदता इन्द्राभिषकेणाभिषिक्तः
सन् सिद्दासनादश्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभात!ः पूवै-
कारेण विनिर्गत्य यत्रैब्ालङ्कारिकसभा तत्रैवापा गच्छति ,
उपागस्यालङ्कारिकसभामनुपदक्षिणीकुर्वन पूर्द्ारेणानु्र-
विशति, अजुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च सि-
हासन तत्रापागच्छति, उपागस्य सिंहासनवरगतः पूवी-
भिमुखः सानषष्ः, ततस्तस्य विजयस्य दबस्याभियोग्या
देवा खबह् श्रालङ्कारिकम्- श्रलङ्कारयोग्यं भाणडमुपनयन्ति ।
तए णं से विजए जाल दवे तप्पठमयाए पम्हलसुमालाए
दिव्वाए सुरभीए गाताईं लृहेति गाताईं
लृहत्ता सरसं गोसीसचंद शणं गाताई अणुलिपति स-
रसेणं गोसीसचंद शणं गाताई अगु लिप्ता ततोऽणतरं-
च णं नासाणीसासवायवज्भं चक्खुहरं वण्णफरिसजु-
त्तं हतलालापलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं॑ आ-
गासफलिहसरिसप्पमं अहतं दिव्वं देवदूसजुयलं णियं ~
सेद णियंसेत्ता हारं पिणिद्धई हारं पिणिद्धत्ता एवं एकाव-
लि पिणिधति एकावलिं पिशिधत्ता एवं एतेणं अभि-
लवणं युत्तावलि कणगावाले रयणावलि कडगाई तु-
डियाई अगयाई कयूराई दसमरुदिताणतकं कडिसुत्तक ते-
श्रत्थिसुत्तगं मुरविं कंठमरविं पालंबंसि कुंडलाईं चूडा-
मरि चित्तरयणुकर्ड मउड पिणिधह पिणिधत्ता गंठिमवे-
दिमपूरिमसंघाइमेणं चउव्विहेशं मन्लेणं कप्परक्खयं पिव .
अप्पाणं अलेकियविभूसितं करेति, कप्परुक्खयं पिव अ-
प्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता ददरमलयसुगंधगंधितेहिं
गंधेहिं गाताई सुकिडति सुक्िरइत्ता दिव्व॑ च सुमणदा-
में पिणिद्धति ॥ तए णं से विजए दवे कोसालंकारेण व- `
त्थालंकारेणं मन्नालंकोरएणं आभरणालंकारेणं चउव्विहे-
शं अलंकारेण अलंकिते विभूसिए समाणे पडिपुष्पालंका-
रे सीहासणाओ श्रब्युद्ह अब्भ्रुट्टित्ता आलंकारियसभाओं |
पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमइत्ता जे-
शेव ववसायस भा तेणव उवागच्छति उवागच्छित्ता ववसा-
यसमभ अणुप्पयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थिमिल्लेशं
दारेणं अरणुपविसति अणुपविसित्ता जणव सीहासणे तेणेव
उवागच्छति उबागच्छित्ता साहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे .
सण्णिसण्णे । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिओ- `
गिया देवा पोत्थयरयणं उवंति ।
* तए ण॒ मित्यादि, ततः स॒ विजयो देवस्तत्प्रथमतया
तस्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पदमला च सा सुकुमारा च
पच्मलखकुमारा तया खुरभिगन्धकाषायिक्ष्या-सुरभिग- |
न्धकषायद्रव्यपरि कर््मितया लघुशाटिकयति गम्यत गाश्रा-
शि रुक्तयति रुल्ञयित्वा सरसन ग शीषचन्दनन गा्रारय-
जुलिम्पति श्रनुलिप्य दवदूष्ययुगले निधत्त इति यागः,
कथम्भूतः ? इत्याह--' नासानीसासवायवज्भं ` नासिका
निःश्वासवातवाष्यम् , पतन श्लदणतामाह , चक्षुईरम-
चचछुहंरति--आत्मवर्श नयति विशिष्टरूपातिशयकलित-
त्वाच्चक्ुदर॑ वरस्पशयुक्रम्-श्रतिशायिना वर्णेनातिशा-
यिना स्पर्शन युक्लम् ' हयलालापलवाइरेग ” मिति हयला-
$
+.
+ न - गे
त क) - >अ«
ला--श्रश्वलाला तस्या श्रपि पेलवमतिरेकेण हयलाला- ¦
परलवातिरेकं “ नाम नान्नेकार््यै समासो बहुल ” मिति
समासः, श्रतिविशिष्टखरदुत्वलघुत्वगुणापतमिति भावः, ध-
वले-श्वेत्ं कमृकखचितानि-विच्ज्वारितानि श्रन्तकम्माणि-
अ्रञ्जलयोवौनलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकम्म
झाकाशस्फरिक नाभ्र--अतिस्वर्छस्फटिकविशेषस्तत्सम - `
प्रभे दिव्ये दचदृष्ययुगलं -दुवघसखयुग्म निषस्ते-परिधन्त,परि-
१
।* ति
|
॥
|
( ६३३ )
लवणसमु
धाय हारादीन्याभरणानि पिनश्यति,तत्र हारः-अप्टादशसरि- |
कः अधेहारो-नवसरिकः एकावली-विचिजमणिका मुक्ताव- |
ली-मुकफ्काफलमयी कनकावली-कनकमरणिमयी प्रालम्बः तप-
नीयमयो विचिश्रमणिरत्नभक्किचित्र श्रात्मनः प्रमाणन स्वप्र-
माण आभरणविशषः करकानि-कलाचिकाभरणानि ब्ञटि-
तानि--बाहु रक्षका: अङ्गदानि-बाहाभरणविशषाः दश-
मुद्रिकाउनन्तकम्-हस्ताहुलिसम्बधि मुद्रिकादशकम् कु- |
णडले--कर्णी भरण चूडामणिमिति--चूडामणिनांसम सक-
लपार्थिवरत्नसर्वसारा देवन्द्रमनुष्येन्द्रमूध्वेकृतनिवासो निः-
शषापमङ्गलाशान्तिरागप्रमुखदापापहारकारी प्रवरलक्षणो-
पतः परममङ्गलभृत श्रामरणविशषः ' चित्तरयणसंकर्ड म-
उड़ ` मिति चित्राणि--नांनाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः.
सङ्कटः चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपत इति भावः।
* ते दिव्वे सुमणदामे ति ` दिव्याम्-प्रधानां पुष्पमालाम् ,
"तपरे स विजए ` इत्यादि, अन्थिम--म्रन्थन म्रन्थस्त-
न निवृत्त ्रान्थमे ` भावादिमः प्रत्ययः ` यत् सूत्रादिना
अभिधानराजन्द्रः
ग्रथ्यत तद् ग्रन्थिमामेति भावः, भरिमे--यद् प्रन्थितं सद् |
वण्यते यथा पुष्पलम्बूसकोा गरक इत्यथः, पूरिम येन |
चंशशलाकादिमयमञ्जरी पूयत, सङ्खातिमे यत्परस्परता
नालसक्घातन संघात्यते , पवेविधन चतुर्विधन माल्यन |
कट्पव्रत्तमिवा्मानमलङ्तवि भूषितं कराति कृत्वा परिपूर्णा-
लङ्कारः सिंहासनादम्युत्तिष्ठति, श्रभ्युल्थायालङ्ारसभातः
पूर्वेण द्वारेण निगव्य यत्रैव व्यवसायसभा तत्रेबापागच्छाति
उपागत्य सिहासनवर गतः पूर्वाभिमुखः सनज्निषणणः । "तप ण'
मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य दवस्याभियाग्याः पुस्तकर-
न्नमुपनयन्ति ॥
तए शं से विजए दवे पाल्थयरयणं गण्टति गणिहित्ता
पाल्थयरयणं मयति पात्थयरयणं मुणत्ता पात्थयरयणं |
विहाडति पाल्थयरयणं विहाडत्ता पोत्थयरयणं बवाएति
पात्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं पगण्हति धम्मियं |
बवसायं पग रिदत्ता पोत्थयरयणं पडिशिक्खयेड पडिणि- |
क्खवेत्ता सीहासणाओ अब्भ्रुद्डति अब्भ्रुद्केत्ता ववसायस-
भाओ पुरत्थिमिन्नेणं दारेणं पडिशिक्खमइ पडिणिक्खम-
इत्ता जणव राद पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति उवाग- |
चिछत्ता शदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरत्थि-
मिन्नेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता पुरत्थिमिन्नेणं
तिसोपाणपडिरूवगएरं पक्चौरुहति पचोरुहदत्ता हत्थं पादं |
पक्खालेति पक्खालत्ता एगं महं मेतं रयतामयं विमलस-
लिलपूुष्पं मत्तगयमहामुहाकितिसमाशं भिगारं पगेण्ति प- |
गणिहित्ता जाई तत्थ उप्पलाई पडमाई ० जाव सतसहस्सपत्ता
इ ताईं गिण्हति गिणिहत्ता रंदातो पूक्ख रिणी तो पच्चुत्तरेइ
पच्चुत्तरेत्ता जोव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥
स श॒ मित्यादि, ततःस विजयो देवः पुस्तकरन्नं गरहाति
गहीत्वा पुस्तकरत्नमृत्सज्ञादाविति गम्यत मुञ्चति मुक्त्वा
विधारयति विघास्यानुध्रवाचयति अनु-परिपास्या प्रकर्षेण
१५६
ढ
|
(७४ लवणसमु
विशिष्टाथौवगमरूपण वाचयति वाचयित्वा धार्मिमिकम--
धमानुगत व्यवसाये व्यवस्यति-कन्नमभिलपतीति भावः,
भ्यवलायसभायाः शुभाध्यवसायनिबन्धनत्वात् ( क्षेत्रादर्गाप
कस्मत्तयापशमा दिहतुत्वात › उक्त ५ क पा इज
मा-वसमाज वच कस्मुरणा भाणया | दव्य खत्त काल, भव च
भाव च संपप्प॥६॥ ” इति, धार्मिकं च व्यवसाये व्यद-
सायपुस्तकरत्ने प्रतिनित्तिपति प्रतिनिक्षिप्प सिदासनाद-
भ्यात्तिष्ठात,अभ्युत्थाय व्यवसायसभातः पृर्वद्धांरण विनिरी-
च्छात वानगत्य यत्रेव व्यवसायस्रभाया एव पूवी नन्दापु-
प्करिणी तत्रैवापागच्छुति उपागत्य नन्दां पुष्करिणीमनुप्रद-
क्तिणीकुरवन् पूवैतारणनानु्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसापा-
नप्नतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, मध्य प्रविशतीति भावः, प्रत्यव-
स्ह्य दस्तपादा भक्ञालयत अज्ञाल्यक महान्तं श्वेतं १५8
मय वमलसाललपूरं मरकारमटहामुखारातसमान श्रृङ्गार
गरहाति गृहीत्वा यानि तत्रात्पलानि-पद्मानि कुमुदानि-नाल -
नान याचत् शतसदहस्नपत्राण तान गरृह्धात ग्रहीत्वा
नन्दातः पुप्करिणीतः प्रत्युत्तरति भ्रत्युत्तीय यत्रैव सिद्धाय-
तन तत्रव प्रधावतवान गमनाय ॥
तए शं तस्म विजयस्य देवस्स चत्तारि सामाणिय-
साहस्सीओ ० जाव अण्ण य बहवे वाणमंतरा दवा य
देवीओ य अप्पेगइया उप्पलहत्थगया० जाव हत्थगया
विजयं देव पिट्ठतो पिहतो अणुगच्छति ॥ तए शं त-
स्स विजयस्स दवस्स बहवे आभिओगिया दवा य देवी-
त्रो य कलसहत्थगता० जाव भृषक इच्छुयहत्थगता वि
जयं देवे पिरतो पिद्रतो अणुगच्छंति, तते ण॑ से विजए
दवे चउदहिं सामाणियसाहस्सीहिं> जाव अण्णहि य
वहूहिं वाणमंतंरहिं दवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवृड
सब्विड्डीए सव्वजुत्तीए ० जाव णिग्घोसणाइयरवेण जेण-
व सिद्धाययण तणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सिद्धा
यतणं अणखुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्पयाहिणीकरेमाण
पुरत्थिमिन्लणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणे-
व देवच्छंदण तशव उवागच्छाति उवागन्छित्ता आलोए
जिणपडिमाणं पणामं करेति पणामं करेत्ता लोमहत्थगं
गेण्हति लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिगपडिमाओ लोमहत्थ `
एण पमज्ञति पमज़ित्ता सुरभिणा गधोदएणं णहा ( वे)ण-
ति णहा[ वे ]णेत्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लू-
हेति लूहेत्ता सरसेणं गोसीस्चदणेणं गाताई अणु
लिप अणुलिपत्ता जिणपाडिमाशं अहयाई सेताई दि-
व्वाहं देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियसेत्ता अग्गे्िं वरे `
हि य गंधेहि य मन्लेहि य अचति अचेत्ता पूप्फारुहशं
गधारुहणं मल्लारुहणं वष्मारुहणं चप्मारूहणं आभरणा-
रुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलवड्टवग्घारितम-
ज्दाम० करेति करेत्ता अच्छेहिं सण्हेहिं (मणं ) र-
( 5६४७ )
अजध्रानराजन्द्रः
सलदणसमुट्
लवब॒णसमद
ययामराह अच्छरसातदुल ह ।जण॒पाडमाण पुरता. अद्र |
मगलए आलहति सान्थिवासरििच्छ० जाव दष्पण-
अदटरटर मगलग अ.लिहति आलिहित्ता ॥
` तप ण ` मित्याद. ततस्तस्य एवजयस्य दवस्य चन्वारि
सामानकदेवसरहस्थारा, चतस्रः सर्पारवारा अग्रमहिष्यः.
तिस्त्र: पपदः. सप्नानोकाप्न. सप्ताना काधपतयः. पाडणान्म-
रक्षदेवसहस्त्राणि अन्य च बहवा विज्ञयराजध्ननीवास्तव्या
वानमन्तरा दवाश्च देव्यश्व आप्यकका उन्पलहस्तगता , अ-
प्यककाः पद्महस्तगता, अप्पककाः कुमुदहस्तगताः, एवं
नलिनसुभगसोगान्धिकपुराडरीकमहा पए डरी कशतपत्रसहस्प-
पत्रशतसहस्पपत्रहस्तगता: कमरा प्रत्यकं वाच्याः. विजय
इवं पृष्ठत पृष्ठतः पारिपास्वति भावः श्रचुगच्छान्ति ॥
` तए ण॒ ` मित्यादि. ततस्तस्य विजयस्य देवस्य बहव आ-
भियाग्या देवा देव्यश्च अप्यकका वन्दनकलशटहस्तगताः. अ-
त्यकका भृङ्ारहस्तगताः, अप्यकका आदर्शहस्तगताः. एवं
स्थालपा्रीसुपराति्रवातकरकाचित्ररत्नकरगडकपुष्पचङ्गरी --
यावललोमहस्तचड़ रपुप्पपटलकयावल्लामहस्तपटलकसि -
हासनच्छत्रचामरतेलसमुद्रकयावद अनसमुद्रकधू पकडुरुछुक-
हृस्तगताः कमण प्रत्यकमालाप्याः, विजये दवं पृष्ठतः पृष्ठ
ता ऽनुगच्छन्ति ! ततः स विजयो देवश्चतुर्भिः सामानिकस-
दखश्चस्रभिः सपरिवाराभिरग्रमदिर्षाभिस्तिखभिः पर्षद्धिः,
सप्नाभरनीकेः. सप्तभिरनीकराधिपातिसिः, षाडशभिरात्मरक्त
देवसदस्रन्यश्च बहभियिजयराजधानीवास्तव्येवानमन्तरे्दे
चेद्रेंवीभिश्व साद्ध संपरिवुतः सवद्धशथा ` जाव निग्धासनादि-
तरव ` मिति यावत्करणादवं परिपूर्ण: पाठा द्वष्टब्यः--
` सन्वजुदृए सन्ववलयं सव्वसमुद प्ण सव्वावभृडए सव्वस-
मण , सव्वपुप्फगध्रमल्लालेकारसो सव्वतुडियसदनिनाएयां
महया इड्डीए महया जुईए महया बलणे महया समुदणरं म-
हया वग्तुडियजमगलमगपड॒प्पवाइयरवरण संखपणवपडहमे-
एिभल्लरिखरमुहि हुडक्रदु दुसिनिग्घासनादितरवरं अस्य दया-
र्या प्राग्वत् । यत्रैव सिद्धायतने तत्रवापागच्छात. उपागत्य
सिद्धायतनमनुपर्दाक्ष णीकुबेन प्वद्रारण प्रवशति. प्रवि-
श्यालाक्य जिनप्रतिमानां प्रणामे करोति.कृत्वा यत्रव मणि-
पीठिका यत्रैव दवच्छन्दका यत्रव जिनप्रतिमास्तत्रापागच्छुः
ति, उपागत्य लामहस्तकं परामृशाति.परामृश्य च जिनप्राति -
माः प्रमा जय ति,प्रमाज्य दिव्ययादकधारया स्नपयति, स्नप-
यित्वा सरलनादेण गाशीषचन्द्रनन गात्रारायनुलिम्पनि
अनुलिप्य अहतानि--अपा रमालितानि दिव्यानि देवदूष्ययु-
गलानि ` नियेसइ ` एतत परिधापयति परिधाप्य अत्र
अपरिसुक्रेः व ः-यधानेगेन्धर्माल्येश्चाचैयति । एतदेव सवि
स्तरमुपदर्शयाति--पुष्पारापणौ माल्यारापणं वर्णाकारोपर्ण
चअुणारापणं गन्धारापरणम् आभरणागोपणं (च ) कराति
क्त्र तासां जिनप्रतिमानां पुरतः अच्छेः-स्वच्छे
शलदणीः-मस्ट्रगेः रजतमये, अच्छा रसा यपां त5च्छुरसाः,
प्रत्यासन्नवरतुप्रतिविम्वाधारभूता इवार्तानमला इति
भावः. त च त नतन्दुनाश्चाच्छररसतन्दुलाः, पूर्वपदस्य
द्वीघ्रान्तता प्राकतत्वात , यथा-' वदगामया नमा, इत्यादो,
बरगप्रावछा स्वस्तिकादानि मङ्ग नकाया न्ति. आलिख्य
धृव दारुण जिणवराणं अट्टसयविसुद्ध गंधज़त्तहिं महावित्तेहिं
--- -- ~ ~
कयग्गाहग्गहितकरतलपब्भट्ट विष्पमुकेणं दसद्धवन्नणं कु- `
सुमशं मकपूष्फ पुंज वयारकलितं करेति करेत्ता चंदप्प- `
भवदरवरुलियविमलदं डं कंचणमणिरयणभत्तिचित्त का-
लागुरुपवरकुदुरुकतुरुकधृवगधु त्माणुविद्धं धूमवर्ड बि-
णिम्मुयंतं वरूलियामयं कड्न्हुयं पर्गहित्तु पयत्तेण
तअरत्थज्त्तहि अपुणरुत्तेहिं संधुणइ से थुणइत्ता सत्तट्ट पयाई
स्र सरति सत्तड्ू पयाई ओसरित्ता वाम जाणु अंचइ
अंचइत्ता दाहिणं जाशु धराणतलंसि णिवांडइ तिक्खु-
त्ता मरद्धाणं धरणियलंसमि णमइ नमित्ता इमि पच्चु-
णणमति पच्चुणणमतित्ता कडयतुडियर्थभियाओ अुया-
अआ पडिसाहरति पडिसाहरतित्ता करयलपरिग्गाहिय॑ सिरसा-
वत्त मत्थए अजलि कटं एवं वयासी-
कयग्शाहगिय ' मित्यादि मेथुनप्रथमसरम्भ मुखचम्ब- .
नाद्य युवत्याः पञ्चाङ्कलिभिः कशषु ग्रहणं कचभ्राह- `
स्तन कचम्राहण गृहातं करतलाद्धिमक्त सत् प्रभ्रष्ट
करतलप्रश्नर्टावमुक्कम् , प्राकृतत्वादेव पदव्यत्ययः, तन द-
शाद्धवर्शन-पश्चवर्णन कुसुमन--कुसुमसमूहेन पुष्पपुज्ञा-
पचारकलितम-पुष्पपुज्ञ॒एवोपचारः-पूजा पुष्पपुञोप-
चारस्तन कलिते--युक्ल करोति, कृत्वा च ` चदप्पभवई-
रवरुलियविमलदंड ` चन्द्र प्रभवज्रवेट्ूयमयो विमला द-
ण्डायस्यसतथा तं, काश्चनमाणिरत्नभक्किचित्र का-
लागुरुप्रवर कुन्दुरुष्कतुरुष्कधृपन गन्धोत्तमनानुविदधा का-
लागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरूष्कधू पगन्धात्तमाचु विद्धा, प्राकृतत्वा
त्पदव्यत्ययः, तां धूपवात्ति विनिमृञ्चन्त वड्ूयमयं धूपकड्-
च्छक प्रगृह्य प्रयता धूप दत्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे प-
छ प्राक्तत्वात् . सप्तष्टो पदानि पश्चादपसखूत्य दशा-
हुलिमज्ञाल मस्तक कृत्वा प्रयतः ` अद्ठु लयविसुद्धगंठजु-
त्ति इति विशुद्धा--निमलो लक्तणदाषरहित इति भा-
वः, या ग्रन्थः--शब्द्सद्भस्तन युक्लानि विशुद्धग्रन्थयु-
क्लानि अप्रशतं च तान विशुद्धग्रन्थयुक्कान च तेः श्र
धरय॒क्रेः--श्रश्रसारेः अपुनरुक्के: महाव्रत्तेः, तथाविधदेवल-
ब्धः प्रभाव एषः, सस्तोति संस्तुत्य वामं जानुम अ-
अआत-उन्पाटयति दत्तिण जानु धराणतले ` निवाडेइ ,
इति निपातयति लगयतीत्यथैः, तरिः कृत्वा-त्रीन् वारान्
मद्धाने घरणितल 'नमइ' त्ति नमयति नमायेत्वा चष
व्रत्यन्षसयति . ईपस्प्रत्यक्नस्थ कटक टि तस्तम्भितौ भुज्ञो
सह रातन-सङ्काच्यति, सत्य करतलपरिग्रदीतं शिरस्या-
वत्त, मस्तकऽञ्जलि कत्वेवमवादीत्--
गम।ऽऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं० जाव सिद्धिग-
इणामधयं ठाणे सपत्ताणं |
नमोाऽन्थुण मित्यादि, नमो धस्तु णमिति वाक्यालङ्कारे दे-
बादिभ्या उतिशयपू जाम हैन्ती त्यहन्तस्ते+पः , सत्र षष्ठी “छट
विभन्नीएँ भन्नद च उन्थी'' इति प्राक्रतलक्षणात् त॒ चाहन्ता
नामादिरूपा आपि सान्त तत्रा भावाहत्प्रातपत्त्यथमाह-' भर
गवद्भ्यः--भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्ष णः स पवामस्तीति भ
- व,
2}
लवणम्
गवन्तस्त भ्यः, आआादः-धम्मस्य प्रथमा प्रव्वेत्ति स््तत्करणशी- |
ला आदिकरास्तभ्यः, तीयते ससारसमसमुद्राउननात ताथ
तत्करणशाल्रास्ताथकरास्त भ्यः, स्वयम-अपरापदरशन स
परवरवा यप्राप्त्या बुद्धा ।मथ्यात्वानद्रापगमसम्बाधन स्व-
अमिधानराजन्द्रः |
ये संबुद्धास्ते भ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भग- |
वन्ता हि ससारमप्यावखन्तः सदा पराथव्यसनिन उपस- |
जनीक्ृतस्वार्था उाचितक्रियाचन्तो ऽदीनभावाः कृतशज्नतापत-
या 5नुपदताचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवान्ति पुरुषोत्तमा-
स्तेभ्यः. तथा पुरुषाः सिंहा इव कम्मंगजान् प्रति पुरुष-
सिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषा वरपुणडराकार्णीब संसारजला- |
सङ्गादिना धम्मकलापनात पुरुषवरपुराडरीकाणि तेभ्यः,
तथा पुरुषा वर गन्धहास्तन इव परचक्रदुभित्तमारिप्भ्रति-
कुद्रगजनिराकरणनति पुरुषवर गन्धह स्तिनस्तभ्य
लाका-भव्यसत्वलाकस्तस्य सकलकल्याणकानिवन्धनतया
भव्यत्वभावनात्तमा लाकात्तमास्तभ्यः, तथा लाकस्य--भ-
व्यलाकस्य नाथा--यागक्तेमकृता लाकनाथास्तभ्यः. तत्र
यागा-वीजाघानाद्धदपाषणकरणे त्तम-तदुपद्रवादययभावा-
पादनम् , तथा लाकस्य-प्राणिलाकस्य पञ्चास्तकायात्मक-
तथा |
स्य वा हितापदशन सम्यक् प्ररूपणया वा हिता लाकहि- |
तास्तसभ्यः, तथा लाकस्य दशनायाग्यस्य विशिष्टस्य प्रदापा
देशनांशाभियथा 5वास्थितवस्तुप्रकाशका लाकप्रदीपास्तभ्य
था लाकस्य--उ>कृष्टमत भव्य सक्त्वलो कस्य प्रद्यातन प्रद्या
तः प्रद्यातकत्व॑-वांशशज्ञानशाक्लस्तत्करणशोी ला लोकप्र-
चातकराः, तथा च भवान्न भगवत्पसादात् तत्क्तणमव
भगवन्ता गश्रता विशिष्टहजश्ञानसम्पत्समान्विता यद्वशाद्
द्वादशाह्मारचयन्तीति तेभ्यः, तथा अभये--विशिष्टमात्म
नः स्वास्थ्यं निःश्रयसघम्पभ्रमिकानवन्धनभूता परमा ध्व
गतरिति भावः, तद् श्रमयं ददतीव्यभयदास्तभ्यः, सूत्र च
कप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राक्ृतलक्षणवशात् , एवमन्यत्रापि
तथा चच्नुरिव चन्त -विशण्र आत्मधमस्तत्त्वाववोधांनब-
धनं श्रद्धास्वमाचः श्रद्धाविदीनस्याचचचुप्मत इव तत्त्वदर्श
नायोगात् . तददतीति चच्तुदास्तभ्यः, तथा मार्गों विशिष्ट-
गुणस्थानावाश्चिप्रगुणः स्वरसवाही त्तयापशमविशषस्तं
ददतीत मार्गदास्तभ्यः तथा शरण-ससारकान्तारगता-
नामतिप्रबलरागदिपा्डतानां समाश्वसनस्थानकल्पे तत्त्व-
चिन्तारूपमध्यवसानं तददतीति शरणदास्तभ्यः, तथा बो-
धिः-जिनप्रणीतधमप्राप्तस्तां तच्चा्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्द-
शनरूषां दद तीत बाचिदास्तभ्यः.तथा धर्म-चारित्ररूप
तीति घमदास्तभ्यः, कथ घम्मंदाः ? इत्याह-धर्म दिशन्तीति |
धम्मेदशकास्तभ्यः,तथा धम्मस्य नायकाः-स्वामनस्तद्वशो |
करणात्तः्फलपरिमोगाच्च धमनायकरास्तभ्यः.धर्म॑स्य सारथ-
य इच सम्यक्प्रवतच्तनयागन धम्मसारथयस्तभ्यः.तथा धममेव
खर प्रधान चतुरन्तदतुत्वात् चतुरन्त,चतुरन्तं चक्रामव चतुर- |
न्तचक्क तन वातितु शीले यषां ते घम्मंवरचतुरन्तचक्रवर्सि- |
नस्तेञ्यः, तथा अप्र[तिहते-अप्रतिस्खलिते क्ञायिकत्वाद वरे
प्रधान ज्ञानदशन धरन्तीति श्रप्रतिहतवरज्ञानदशैनधरास्ते- |
भ्यः, तथा छाद्याति--आवरय तीति छुझ--घातिकम्मचतु- |
शयं व्यावृत्तम-अपगतं छुद्य यभ्यस्त व्यात्रत्तुद्रानस्त- |
भ्यः.तथा रागद्वेष कषायन्द्रियपरिषहापस्र्गघातिकम्मंशत्रन् |
जितचन्ता जिनाः अन्यान् जापयन्तीति जापकास्तभ्यो जिन
लवणसममुष्
भ्या जापकभ्यः, तथा भवाणव खय ताणा श्न्यांश्च तारय-
न्ताति तीणास्तारकास्तभ्यः. तथा केवलवेदन श्रवगततच्वा
बुद्धा अन्यांश्च वाधयन्तीतति दोधकास्तभ्यः, मक्ताः-छतकर्त्या
नांछठताथा इति भावः. च्न्याश्च मोचयन्तीति माचकास्तभ्यः,
सवेक्ञभ्यः सवेद शिभ्यः शिव-सर्वा पद्रवरहितत्वात् अचलम-
स्वाभाविकप्रायागिकचलनाक्रियाव्यपादात् , श्ररुजम्-शरीर-
मनसोरभावना ऽ ऽधिन्याध्यसम्भवात् श्नन्त--कवलात्मना
ऽनन्तत्वात् , श्रक्तयम्-विनाशकरार णाभावात् , अव्यायाधम-
केनापि ववाध।यतुमशक्यत्वात् , न पुनराच्रत्तयस्मान्नदपुन
रावृत्ति, सिध्यन्ति-निष्ठिताथां भव. त्यस्यामांत सिद्धिः-
लोकान्तक्षत्रलक्षणा सव गम्यमानत्वाद् गातिः सिद्धिगांतः ।
सिद्धगतिरिति नामघय यस्य तातत्सिद्धिगातिनामधयम , ति-
छत्यास्मान्निति स्थान-व्यवदारतः सिद्धत्तत्न निश्चयता यथा-
ऽवस्थितं स्व खरूपे, स्थानस्थानिनारभेदापचाराकत्त सिद्धि-
गतिनामधयं तत्संप्राप्तेभ्यः ।
ति कटु वदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धा-
यतणस्स बहुमज्भमदेसभाए तेणेव उवागच्छति उवाग-
च्छित्ता दिव्वाए उदगधाराए अभ्भुक्खति अब्भ्राक्खित्ता
सरसणं गोसीसचद शणं प॑चगुलितलणं मंडल॑ आलिहति
आलिहित्ता वच्चए दलयति वच्चए दलयित्ता कय-
ग्गाहग्गाहियकरतलपब्भड्ट विम्वुकेणं दसद्धवण्णणं कुसुमेण्
मुकपुप्फपुंजोवयारकलिय करेति करेत्ता पूवं दलयति
द्लयतित्ता जणेव सिद्धायतणस्स दाहिशिल्ले दारे ते-
शव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हह गे-
णिहत्ता दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य बालस्वण
य॒लोमहत्थएणं पमज्ञति पमज़ित्ता बहुमज्भदेसभाए
सरसेणं गोसीसचदणेणं पचगुलितलेणं अखुलिंपति
अरणुलि पित्ता चचए दलयति दलयित्ता पुष्फारुहरं °
जाव आहरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तासत्तविपुल °
जाव मल्लनदामकलाव करेति करेत्ता कयग्गाहम्गहित०
जाव पुंजोवयारकलितं करेति करेचा धूं दलयति दल-
यित्ता जेव महमंडवस्स बहुमज्मदेसभार तेणेव उ-
वागच्छति उवागच्छित्ता बहुमञ्भदसभाए लोमहत्थणं
पमजति पमज़ित्ता दिव्वाए उदगधाराए अग्भुक्वेति
अब्भुक्खित्ता सरसेशं गासीसचदेणं पचगुःलतलणं म॑-
डलग॑ आलिहति आलिहित्ता चच्ए दलयति दलयित्ता
कयग्गाह ° जाव धवं दलयति दलयित्ता जेणेव महम -
डवगस्स पचत्थिमिन्न दारे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता
लोमहत्थगं गर्हति गत्ता दारचेडीओं य सालिभंजि-
याआ य वालरूवए य लेमहत्थगेण पमरज्ञते पमज्ञत्ता
दव्वाए उदगधाराए अब्शुक्खेति अञ्थुक्खत्ता सरसं
गेसीसच॑दणेणं ° जाव चच्चए दलयति दलयित्ता आ-
सत्तासत्त ० कयग्गह० भुवे दलयति दलयित्ता जेरोव
|
( ६३६ )
लवणम्
अभिधानराजन्द्र
लवणसमुह
मुहमंडवस्स उत्तरिन्ना णं खभपंती तेणेव उवाग-
च्छ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परा० सालभंजियाओं
दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदरणेणं पृष्फा-
रुहणं जाव आसत्तोसत्त ० कयग्गाह °
जणेव म्रहमंडवस्स पुरस्थिमिल्ले दरे तं चव सव्वं
भाणियव्वं ° जावे दारस्प अचशिया , जणेव दाहि-
भूवं दलयति ।
रिन्ले दारे तं चेव जेणेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुम- |
ज्भदेमभाए जरेव वहरामए अक्खाडण जेणेव मणिप- |
दिया जेणव सीहासण तेशेव उवागच्छति उवागच्छित्ता
लोमहत्थगं गिण्हति लोमहत्थगं गिश्हित्ता अक्खाडगं |
च सीहासणं च लामहत्थगेण पमजति पमजित्ता दि-
व्वाए उदगधाराए अज्जु °पुप्कारुदणं ° जाव भूवं दलयति
जेणेव पेच्छाधरमडषपचत्थिमिन्ल दारे दारचणिया
उत्तरिल्ला खेभपंती तंहव पुरल्थिमिल्ले दारे तहेव जेणेव
दाहिणिल्ले दारे तहव जणेव चतियपूमे तेणेव उवाग- |
न्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हति गेण्हित्ता चेति-
यथूभ लोमहत्थएणंः पमज्जति पमजित्ता दिव्वाए उदग-
धाराए सरसंण ° पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त ० जाव धृवं दल- |
यति दलयित्ता जेणेव पच्चत्थिमिल्ला मशिपदिया जेणे-
व जिणपडिपा तेणेव उवागच्छति जिणपाडमाए आलोए
पणामं करेह करेत्ता लामहत्थगं गर्हति
चेब सव्वं जं जिशपडिमाणं० जाव सिद्विगहनामधज्ञं श-
शं संपत्ताश वेदति णमसति, एवं उत्तरिल्लाए वि, एवं
प्रत्थिमिन्लाए वि, एवं दाहिणिल्लाए वि ।
एवं प्रणिपातदगण्डकं र्पाटत्वा ` वंदह नमेसइ ' इति वन्दते |
ताः प्रतिमाश्चत्यवन्दनर्विधना प्रसिद्धेन, नमस्कराति-प- |
श्चाल्प्रणिधानादियौगनत्यक, अन्य त्वभिदधति-विरतिमता-
मव प्रसिद्धश्चैव्यवन्दनविधिरन्यषां तथाऽभ्युपगम कायोत्स-
गासिद्धरिति वन्दते सामान्यन, नमस्कराव्यागयनृद्धरुत्था-
ननमस्कारणात , तच्वमन्न भ्रगवन्तः पररम्रषयः कवालना |
विदन्ति, ततो बन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव सिद्धायतनस्य
बहुमध्यदेशभागस्तत्रंवापागच्छ
भागे दिव्ययादकधारया अम्युक्षति--अभिमुख सिश्चति,
श्रभ्युच्य सरसम गाशीषचन्दनन पश्चाझुलितले ददाति, |
दक्वा कच्ग्राहग्रहीतन करतलप्रश्मष्टवमुक्तन दशाद्धव्णन
कुसुमेन-कुसुमज़ातन पुष्पपुजपचारकालित कराति छृत्वा
धूप ददाति, दत्वा च यत्रैव दाद्ञिणाव्यं द्वारे तत्नेवापाग-
च्छात, उपागत्य लामहस्तक गृह्णान, गृहीत्वा तन द्वारशा
स्वाशालमर््जिकाव्यालरूपकाणि च प्रमाय, प्रमृज्य दि-
व्ययोदकधारया ऽभ्युक्तणं गोशीषेच्वन्द्नचर्चा पुष्पाद्यारोपणे
धूपदाने कराति, तता दक्षिणद्वारण निमैत्य यत्रैव दाक्षि-
शात्यस्य मुखमगडपस्य यहुमध्यदेशभागस्तत्रो पागच्छति,
उपागत्य लामदस्तकं पराम्रशाति, पराग्रश्य य बहुमध्यदे-
छाभ्याग न्नाप्दरम्नकन एमाजेयति. प्रस्ज्य दिव्ययादकंधा-
गेण्दत्ता त॑ |
त॒ उपागत्य बहुमध्यदश- |
रया ऽभ्युक्ञणे सरसन गोशीपचन्दनन पञ्चा क्घलितले मण्ड-
लमालिखति, कचग्राहग्रहीतन करतलप्रश्नष्टविमक्वेन
शाद्धवर्णन कुसुमेन पुष्पपुञ्ञापचारक्रलितं करोति, कृत्वा
धूप ददाति, दत्वा च यन्नैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य
पश्चिम द्वारे त्रापागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामशने
तेन च लामदहस्तकन द्वारशाखाशालभज्ञिकाव्यालरूपकप्र-
माजनम् ,उद्क धारया भ्युक्षण गोशीषचन्दनचर्चा पुष्याद्या-
रोपणे धूपदानं करोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमसड-
पस्यात्तरद्वारं तत्रापागच्छति, उपागत्य,पूर्ववद् द्वाराचेनिकां
कराति,कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमराडपस्य पूर्वद्वारं
तत्रापागच्छाति, उपागत्य पूर्ववत्तत्राप्यचनिकां करोति,कृत्वा
च दाक्षिणात्यस्य मुखमराडपस्य यत्रव दाक्षिणात्य द्वारं तो
पागच्छुति, उपागत्य पूर्ववत्तत्र पूजां विधाय तन द्वारेण
विनिरीत्य यत्रैव दाक्षिणात्यः प्रेज्ञागहमण्डपा यत्रेब दाक्षि-
णात्यस्य प्रेत्षाग्रहमएडपस्य बदहुमध्यदशभाग यत्रैव वञ्ज-
मया ऽत्तपाटको यत्रैव च मखिपीटिका यत्रेव च सिहासने
तवेवापागच्छति, उपागत्य लामहस्तकं परासशति, पराम
श्यात्तपाटकं मणिपीठिकां सिदासन च प्रमाजयति, प्रमा-
ज्योदकधारया ऽभ्युच्य चन्दनचचां पुष्पपूजां धपदाने च क~
राति क्त्वा च यत्रेव दाक्षिणात्यस्य प्रज्ञागृटमर्डषस्यो-
त्तरद्वारं तत्रवापागच्छुति, उपागत्य पूववद् द्वाराचनिकां क-
राति, कृत्वा यत्रेव दाक्षिणात्यस्य प्रक्ताग्ृहमण्डपस्य पूर्वद्धारं
तत्रापागच्छात, उपागत्य प्रूचद्वाराचानक्ा कयात, कृत्वा,
यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रक्ताग्ृहमण्डपस्य दाक्त्िणात्य
द्वारं तत्नोपागच्छाति, उपागत्य तत्ञार्चानिकां कत्वा यज्व
दाक्तिणात्यञ्चत्यस्तम्भस्तत्रापागच्छति उपागत्य स्तूपं म-
णिपीटिकां च लोमहस्तकेन प्रसज्य दिव्ययोदकधास्याऽभ्यु-
क्षति सरसगाशीधचन्दनचचा पुप्पाद्यारादणध्रपदानादि क~
रोति, इत्वा . ऋ ` यत्रैव पाश्चात्या मणिपीठिका यत्रैव च
पाश्चात्या जिनश्चैतमा तवब्ापागच्छति, उपागत्य जिनप्रति-
माया आलोक प्रणाम करातीत्यादि पूर्ववद् यावन्नमस्यित्वा
यप्रेवात्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छाति, उपागत्य तत्रापि
यावक्नमास्यित्वा यञ्जेव पूवा जिनप्रतिमा तत्रा पागच्छति उ-
पागत्य पूवैवद् यावन्नमस्यित्वा यत्व दाक्िणात्या जिनप्र--
तिमा पूवैवत् सर्व तदेव यावन्नमस्यित्वा ।
जणव चइयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया जेणेव
महिंदज्कूए दारविही, जेणेत्र दाहिशिन्ला नंदापुक्ख-
रणा तणव उवागच्छहर् उवागाच्छता लामहत्थग च
एहति चेतियाओ य तिसोपाणपड़िरूवए य तोरणे य
सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थएणण पम-
ज्ञति पमज़ित्ता दिव्वाए उदगधाराए सिंचति सरसे-
शं गोसीसचदणेणं अणुलिपति अणुलिपित्ता पुष्फा-
रुहणं ° जाव भूवं दलयति दलयित्ता सिद्धायतर्ण अ->
णुप्पयाहिणं करमाणे जेणेव उत्तरिन्ना रदापुक्डरिणी-
तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तहेव महिंदज्भया
चतियरुक्खो चेतियथूभे पञ्न्थिमिषछठा मणपेटिया नि
शपडिमा उत्तरिल्ञा परन्थिमिन्ना दक्ख पेच्छा-
जैणेव वइरामया गोलवइसमुग्गका
( देरे3 )
लवणसमु ४
अमशिधानराजन्द्र: |
व: लवणसमु
घरमडवस्स वि तहव जहा दक्खिणिन्नस्स पचचत्थि- ।
मिन्ले दारे °जाव दक्खिशिन्ला णं खभपंती मुहमंडव- |
स्सवि तिरं दाराणं अच्चणिया भणिऊण दक्खि-
णिन्ना णं खंभपंती उत्तरे दारे पुरत्थिमे दारे सेसं
तेणेव कमण ०जाव पुरत्थिमिन्ना शदापुक्खरिणी ज- |
शेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्थगमणाणए ॥ त- |
ते णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओं
एयप्पभितिं ०जाव सव्विड़ीए ०जाब णाइयरवेणं ज `
णेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता |
तंणं सभे सुधम्मं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्प-
याहिणीकरेमाणे पुरत्थिमिन्नेणं अणशुपविसति अणुपवि- |
सित्ता आलोए ` जिणसकहाणं परणामं करति परणामं
करेत्ता जरेव मणिपेदिया जरेव माणवगचेतियक्सभे
तेणेव उवागच्छति
उवागच्छित्ता लोामहत्थयं गर्हति गेण्हित्ता वइरामए
गोलवइसमुग्गए लामहत्थएणं पमज्जति पमाज्ञत्ता वइरामए
गोलवइसमुग्गए विहाडति विहाडित्ता जिगसकहाओ लोम
हत्थएणं पमज्ञति पमज़ित्ता सुरभिणा गंधोदएर्ण तिसत्त- |
खुत्तो जिगसकहाओ पक्ालति पक्खालत्ता सरसणं गोसी-
सचदणेणं अणुलिपद अणुलिंपित्ता अग्गेहिं वर्हि गं-
धरहि मल्लहि य अचिणति अचिणइत्ता धृव दलयति
दलयित्ता वइरामणएसु गोलवटइसमुग्गएसु पडिणिक्खिव-
ति पडिणिक्िवित्ता माणवकं चतियखंभं लोमहत्थएणं
षमज्जति पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्युक्खेड |
अथुक्खहत्ता सरसेणं गोसीसचदणेणं चच्चए दलयति
दलयित्ता पूष्फारुदणं °जाव॒आसत्तासत्त० कयग्गाह°
धृवं दलयति दलयित्ता जेव सभाए सुधम्माए बहु- |
मज्भदेसभाए तं चव जेव सीहासणे तेणेव जहा दा-
रणिता जेव दवसयणिज्ज ते चव जराव खुड़ागे
मर्हिदज्छए तं चव जणेव पहरणकास चोप्पाले तेणेव
उवागच्छति उवागच्छित्ता पत्तेयं पंत्तेय॑ पहरणाई लो-
महत्थएणं पमज्जति पमज्जित्ता सरसेण गोसीसचं-
दशेशं तंहव सव्व सेसं पि दक्खिणदारं आदि
काउं तहेव शेयव्वं ०जाव पुरत्थिमिन्ना णंदापुक्ख-
रिणी सव्वाणं सभाण जहा सुधम्माएं सभाए तहा
अचणिया उववायसभाण शवरि देवसयणिज्जस्स अ-
च्चशिया सेसासु सीहासणाण अच्चणिया हरयस्स
जहा शंदाए पुक्डरिणीए अच्चणिया ववसायसभा-
ए पोत्थयरयणं ले महत्थणएणं दिव्वाए उद्गधाराए
सर्मेणं गोसीसचंदणेणं अणु्सिपति अग्गेहिं बराह
गधाह य मद्लवाह य आचरति अआचारत्ता ( म-
हेहि ) सीहासणे लोमहत्थएणं पमज्जति ०जाव धृव
दलयति ससं तं चव शदाए जहा हरयस्स तहा
जेव बलिपीद॑ तेशव उवागच्छति उवागच्छित्ता
आभिभ्रागे दवे सदावेति सदावत्ता एवं वयासी--
यत्रैव दात्तिणात्यश्चव्यव्रक्तस्तत्रापागच्छति, उपागत्य पूर्व-
वदचनिकां करोति, कृत्वा च यत्रैव महन्द्रध्वजस्तत्रोपाग-
च्छति, उपागत्य पूवेबदर्चनिकां विधाय यत्रैव दाक्षिणात्या
नन्दापुष्करिणी तत्रेवापागच्छति उपागत्य लोमदस्तकं
परास्शति परासृश्य तारणानि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि शा-'
लभज्िकाव्यालरूपकाणि च प्रमाजयति, प्रमाज्य॑ दिव्ययो-
दकधारया सिञ्चति, सिक्त्वा सरसगोशाप॑चन्दनपश्चाडु-
लितलप्रदानपुष्पाद्यारोहणधूपदानादि कराति, कृत्वा च
सिद्धायतनमनुप्दत्तिणीकूत्य यत्रेवात्तरा नन्दापुष्कारिणी
स तचरापागच्छुति, उपागत्य पूर्ववत् सव करोति, इत्वा
चोत्तराह माहेन्द्रध्वज तदनन्तरमोत्तरादे चत्यवृत्ते तत
श्रोत्तराहे चेत्यस्तृप, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रति-
मास पृववत्सर्वा वक्कन्यता वक्कव्या,तदनन्तरमौत्तराहे प्रक्षा-
गरृहमरडप समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्य प्रेन्षाग्रहमरडप
पूर्ववत्सर्व वक्कव्यम् . तत उन्तरद्वारेण विनिगीत्यौत्तराह मुख
मण्डप समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपवत्सवं
ऊत्वात्तरद्धारण विनिगत्य सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समाग-
च्छति, तत्राचनिकां पूवैवः कृत्वा पूर्वस्य मुखमरडपस्य द-
क्षिणात्तरपूर्वद्धारेषु ऋमेणाक्करूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारे
विनिगेत्य पूर्वप्र्षामणडप समागत्य पूर्ववदर्चनिकां करोति,
ततः पर्वप्रकारशेव क्रमेण चेत्यस्तृ्पाजनप्रतिमाचेत्यवृत्तषमा-
हेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः: सभाया खुधमाया पृव-
द्वांरण प्रविशाति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तज्ैवोपाग-
च्छति, उपागत्यालोके जिनसक्थ्नां प्रणामे करोति, रत्वा
च यत्र माणवकश्-ैत्यस्तम्भो यत्र वज्जमया गोलवृत्ताः समु-
द्रकास्तत्रागत्य समुद्रकान् गृह्णाति, गृदीत्वा च विधारयति
वघास्य लोमहस्तकेन प्रमाजयति, प्रमार्ज्योद्कधारयाऽ
भयुत्तति, श्रभ्युच्य गाशीषचन्दननानुलिम्पति, ततः प्रधानें-
गीन्धमास्यैर्ययति, श्र्चयित्वा धूपे दहति, तदनन्तरं भूयो $
पि वज्रमयघु गालवृत्तसमुद्रकेषु प्रस्तिपति , प्र्तिप्य तान्
वञ्जमयान् गालच्रत्तसमुद्रकान स्वस्थान प्रतिनिक्षिपति ,
प्रतिनिक्षिप्य तपु पुष्पगन्धमास्यवख्ाभरणान्यारापयति ,
ततो लीमरस्तकन माणवकचेव्यस्तम्भ प्रमाज्यदिकधारया
भ्युच्य चन्दनचचा पुष्पाद्यारोपणं पदान च कराति
क्रत्वा सिदहासनप्रदेशे समागत्य सिंहासनस्य लामहस्तकन
प्रमाजनादिरूपां पृ्चवदचनिकां करोति, कृत्वा यत्न मणिपी-
टिका यत्र च देवशयनीय तत्रापागत्य मणिपीठिकाया देव-
तयनीयस्य च प्राग्वबदयनिकां करोति, तत उक्कप्रकारणेव
दल्लकन्द्रभ्वजपृजां करोति, छृत्वा च यत्न चोप्पालकोा नाम
प्रहरणकाशस्तत्र समागत्य लोमहस्तन परिघरत्नप्रमु-
खाणि पहरणरत्नानि प्रमाजयति, प्रमाज्यांदकधारया ऽभ्यु-
क्षणं चन्दनचर्ची पुष्पाद्यारोपणे धृपदाने कराति, रत्वा स
भायाः झुघर्माया बहूमध्यदशभागेऽचनिकरां पूवैवत्कराति,
(0 “7 ।
त्वण मसमह
कन्त समायाः खुथमाया दाक्षणद्वरार, समागत्याचानकां
प्वव॒त्कगात तता दाक्षणट्वाग वानगच्न्ान इत
ऊध्व यथव सदद्धायतनान्नप्कामता दाक्षणद्वारयांदका
दक्षिणनन्दापुष्कारेणीपयवसाना पुनर्राप प्रविशत उत्तर-
नन्दापुष्का रणीप्रभ्नतिका उत्तरान्ता, तता द्वितीयं वारं
निष्फामतः प्रवद्धारादिका पृवेनन्दापष्कारिणापयवसानाच-
नक्रा वक्कव्या. तथव खुघमायाः सभाया अप्यन्यनातिरिक्ला
द्रण्व्या. ततः पृचनन्दापुष्करिगया अर्चनिकां कृत्वापपातस-
भां पूर्वद्वारण परविशति, प्रविश्य च मणिपाटिकाया देव-
शयनीयस्य तदनन्तरे बहुमध्यदशभाग प्राग्वदचानकां
विदधाति. तता दक्षिणद्वारण समागत्य तस्या्चनिकां कुरुत.
अत ऊध्वमत्रापि सद्धायतनवदत्तिणद्धारादिका पृवनन्दापु
स्करिणीपयवसाना ऽचनिका वक्तव्या । ततः पृवनन्दापष्क-
रिणीता पक्रम्य इद समागत्य पृववत्तारणाचनिकां कराति
कत्वा पूवद्धारणाभिषकसभायां प्रविशति, प्राविश्य मणिपी
टिकायाः सिदासनस्याभिषकभाराडस्य बहुमध्यदेशभागस्य
च पृववदचनिकां कमण कराति. तदनन्तरमत्राप सिद्धायत-
नवद्दक्षिणद्धारादिका पूवनन्दापुष्करिणीपयवसाना4चानिका
चङ्गव्या, ततः पूवनन्दापुष्करिणोतः पूर्वद्वारेण व्यवसा-
यसखभां प्रविशानि प्रविश्य पुस्तकरल्ने लोमहस्तकन परमञ्या-
दकधारया भ्युच्य चन्दनन चचयित्वा वरगन्धमास्येरचोय-
त्वा पुष्पाद्यारापणे घूपदान च कराति, तदनन्तरं मणिपीटि
कायाः चिहासनस्य वहुमध्यदशभागस्य च ऊमणाचनिकां
करति, तदनन्तरम्राप सिद्धायतनवदत्तिणद्धारादिका
पूवनन्दपुष्क(रसीपयवसानाऽचैनिका वक्कव्या, ततः
पूव्नन्दापप्करिणीना वालिपीट समागत्य तस्य बहुमध्य-
देशभागे पूचवदचानकां करानि, कत्वा चात्तरपूर्वस्यां
नन्दरापुष्कारिगयां समागव्य तस्यास्तारणयघु पूववदचनिकां
चत्वा 55 भ्रिया गिकान दवान् शब्दयात . शब्द्यित्वा एवम-
वादान्--
सिप्पामव भा दवाणुप्पिया विजयाए रायहाणीए मि-
घाडगसु य तिएसु य चउकेसु य चच्नरेसु य चतुम्मुहेसु
य महापहपहसु इपहसु य पासाएसु कव पागारसु य अट्टालएसु
य चरियासु य दारेसु य गापुरसु तोरणेसु य वावीसु य
पुक्खरिणासु य ०जाव बिलपंतिगासु य आरामेसु य
उज्ञाणसु य काणणस् य वणसु य वरणसडसु यवण
गइसु य अच्चाणय करह कर्ता ममयमाणात्तय खमप्पा-
मत्र पच्नमाप्पणह | तए श ते आभ्आगया दवा बज-
एश दु्णं एवं वुत्ता समाणा ०जाव हद्तुटा विखएणं
प।इडसुण।त प।डसुण।तत्ता।4जयाए रायहाय्।ए सघाडगगस
य ०जाव अचाणय कर।त करंत्ता जणव वज् दवे तेणेव
उवः गच्छन्ति उव्रागच्छित्ता एयमाणत्तियं प्रचप्पिरं ति |
तए ण॑ से विजए देव तीस णं आभिओश्रोगिआणं दवाणं
तए एयमट्ट साच्चा सम्म हड्टतुड्ड चित्तमार्ण दिय ०जाव
हयहियाए जणेव शदापुक्खरिणं। तेशेव उवागच्छति
उब्रागन्छित्ता पुरन्थिमिल्लेणं तोरंणण ०जाव हत्थपायं
श्र[भध्रानराजन्द्रः।
३ 6) लबणससदं
पक्खालेति पक्खालेत्ता आयंत चोाक्खे परमसुदभृए |
दापुक्खारिणीओ पच्चुत्तरत्ति पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा
सुधम्मा तेणव पहारत्थगमणाए | तए शं से विजये
दवे चउहि सामाणियदवमाहस्सीहिं० ज।व सोलसर्हि
आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सब्विड्डीए जाव निग्घोसनाइयर-
वणं जणेव सभा सुधम्मा तेणव उवागच्छति उवागच्छि-
त्ता समं सुधम्मं पुरत्थिमिल्लणं दारणं अणुपविसति अणु-
पविसित्ता जणेव मणिपेढिया तेणव उवागच्छति उवागच्छि-
त्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुदे सप्यिसप्म | [ षू° १४२ ]
` खिप्पामव ` व्यादि खुगर्म यावत् ' एयमाणत्तियं पञ्च-
प्पिर्णाति ` नवरं श्टज्लाटकं-त्रिक्रां स्थान तरिकम्-यत्र
रथ्या्रय मिलति चतुष्कम्-चतुष्पथयुङ्घं चत्वरम्-बहुर-
भ्यापातस्थानं चतुमुखम्- यस्माञ्चतखृष्वपि दिक्चु पन्थानो
निस्सर्रा-त महापथा-राजपथः शषः सामान्यः पन्थाः प्रा-
कारः-प्रतीतः अद्भालकाः-प्राकारस्य परि भ्रत्याश्रयविशषाः
चरिका--श्रणए्हस्तप्रमाणा नगरप्राकारान्तरालमा्गः द्वा-
राणि-प्रासादादीनां गापुराणि प्राकारद्वाराणि तोरणानि-
द्वारादसम्बन्धीनि, आगत्य रमन्त माधवीलतागृदादिषु
दम्पत्य इति स आरामः, पृष्पादिसद्धत्तसङ्कलमुत्सवादो व~
हुजनापभोग्यमुद्यान, सामान्यच्क्ञजन्दं नगरासन्ने कानने, न `
गरविप्रकष् वनम् ,एकानकजातीयोत्तमनव्रक्षसमूटो वनषरडः,
एकजातीयात्तमवृक्तसमूहो वनराजी । * तप ण॒ ` मित्यादि,
ततः स विजया दवो बलिपीठे बलिविसजने करोति, छृत्वा
च यत्रैवात्तरनन्दा पुष्करिणी तत्रापागच्छति, उपागत्योत्त-
रपूवा नन्दां पुष्करिणी प्रदत्िणीक्वन पूर्वतारणनानुप्र-
विशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसापानप्रातिरूपकेण प्रत्यवरो-
हति, प्रत्यवरुद्य हस्तपादौ प्रत्तालयति, प्रक्ताट्य नन्दापुष्क-
रिणीतः प्रत्यत्तराति, प्रत्यत्तीय चतुर्भिः सामानिकसदखे-
ख्वतसूमिरग्रमहिषीसिः सपरिवाराभास्तखाभः पर्षद्धि
सप्तभिरनीकेः सप्तभरनीकाधिपतिभिः षरोडशभिरात्मरक्ष-
देवसदसखररन्येश्च बहुभि्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वानमन्तरदं
वेदवीभिश्च साद्धं संपरिवृतः सवंद्धया यावद् दुन्दुभिनधों
पनादितरवण विजयाया राजधान्या मध्यं मध्यन यत्रैव
सभा सुधमा तत्रापागच्छति, उपागत्य सभां खुधमा पूर्व- ¦
द्वारणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव माणिपीठिका यत्रैव
सिंहासन तत्रेवापागच्छुति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पू-
वाभिमुखः सन्निषराणः ।
( १७ ) अथ विजयदवस्य तन््महिषीणां च निषीदनादि
प्रतिपादयन्नाद--
तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाशियसाह-
स्सीओ अबरुत्तरेणं उत्तरणं उत्तरपुरत्थिमें पत्तेयं पतेयं '
पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु शिसीयंति । तए णं तस्स ॒विज्ञ- ।
`
१
|
|
| 7
कर
|
यस्स दवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरत्थिमेण पत्तिये |
पत्तेयं एव्वणत्थसु भद्दासणेसु शिसीयंति । तए शं तस्स ,
विजयस्स देवस्स दाहिणयुरत्थिमेणं अटंमतरियिए परिः
साए अट्टदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं० जाव णिसीयंति | > | ग
# [१ ॐ न ८ |
एवं दक्खिणणं मज्किमियाए परिसाए दस देवसाह-
व्र
+ भं
(. 22६ )
लवणसमु 9
स्म।ओः० जाव शिमीदंति । दादिणपचत्थिमण बा-
दिरियाए परिमाए बारस दवसाहस्सीओ पत्त्यं
प्तय जाव णिसीदति । तणएणं तस्स वि-
जयस्म दवस्म पचल्थिमणं सत्त अणीयाहिवती पत्तय
पत्तय ० जाव णिसीयंति तए णं तस्य॒ विजयस्स द-
वस्स पुरन्थिमेणं दादिणणं पचचत्थिमेणं उत्तरण सोलम
आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तयं पत्तेय पुव्वणत्थसु भद्दा-
ससु णिसीदं ति, तं जहा-पुरत्थिमेणं चत्तारि साहस्सी-
श्रा °जाव उत्तरणं ४॥ त णं आयरक्खा सन्नद्धबद्ध-
बम्मियकवया उप्पीलियसरासणपाईया पिणद्धगवजवि-
मलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिखयाईं तिसंधीणि
बइरामया काडीणि धूर अहिगिज्कपरियाइयकंडकलावा
णीलपाशिणा पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो
चा।रुपाणिणों चम्मपाणिणो खम्गपाणिणो दंडपाणिणो
पासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवर-
धरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जत्ता जुत्त-
पालिता पत्तेयं पत्तय समयतो विणयतो किंकरभूता विव
चिद्रति ।। विजयस्स णं भेत ! दवस्स कवतियं कालं ठिती
पत्ता ?, ग(यमा ! एगं पलिओंवम टिती पष्पत्ता, विज-
यस्य णं भेत । | दवस्स सामाणियाणं देवाणं कवतियं `
कलं ठिती पप्पत्ता ?, गेयमा ! एगं पलिओवम ठिती
पत्ता, एवं महैई'ए एवं महाञ्ज्॒ते।ए एवं महन्वले एवं
महायस एव महासुक्ख एवं महाणुभागे विजए द्व
विजए दवे । ( षू° १४३ )
ततस्तस्य विजयस्य दवस्यापरात्तरण-श्परात्तरस्यां दिशि
एवमुत्तरस्यामुत्तरपूयैस्यां दिशि च चत्वारि चत्वारि सा-
मानकदवसदस्राण चतुषु भद्रासनसदस्रषु निषीदान्ति,
ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पृचस्यां दिश चतस्प्रो 5ग्रमहि-
ष्यश्चतुषु भद्रासनषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य दवस्य
दक्षिणपूर्वस्याम भ्यन्तरिकायाः पर्षदो5छों देवस्सहस्त्राण अ-
छासु भद्रासनसंहस्प्रषु निषीदन्ति ततस्तस्य विजयस्य देव-
स्य दक्षिणस्यां दिशि मध्यमिकायाः पर्षदो दश दवसहस्प्राणि
दशसु भद्रासनसदस्रपषु निषादन्ति । ततस्तस्य विजयस्य द-
चस्य पश्चिमायां दिशि बाद्यायाः पषदा द्वादश दवसहस््ागि
द्वादशसु भद्रा सनसहस्मषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजय-
स्य दवस्य पश्चिमायां दिशि सप्तानीकाधिपतयः सप्तसु भ-
द्रासनघु निपीदन्ति। ततस्तस्य विजयस्य दवस्य सतः सम
न्तात् सवोसु दिक्षु सामस्त्यन पाडश आत्मरत्तकदवसह स्था-
णि पाड्य भद्वासनसहस्प्रषु निषीदान्ति, तद्यथा-चर्त्वारि
सहस्त,णि चतुषु भद्रासनसदस्रवु पूचस्यां दिश. एव दक्षि-
शस्या दिशा. एवं प्रत्यकं पश्चिमोत्तरयारपि । त चान्मरक्ताः
सच्नद्धवद्धवर्भमितकवचाः, कवच-तनुत्रास व्म-लाटमय-
कुतृलिकादिरूपं सजातमस्मिन्निति वर्मित सन्नद्धं शार
आरगापणात , बद्धे गादढतरवन्धनन बन्यनात् , वर्भिन कवच
अजवानराजन्द्रः)
लवणममुदह
यस्त सन्नद्बद्धवर्मितकवचाः. ` उप्पीलियसरगासणपशल्टिया '
इति उत्पीडिता गाढीकृता शरा अस्यन्त क्षिप्यन्त5स्मि-
ज्लिति शरासनः-इ्षुघिः तस्य पटिका यरुत्पीडितशरासनप-
दकाः ` पिणद्धगवज्नविमलवरगाचर धपद्टा ` इति पिनद्ध॑ ग्रवये
ग्रीवाभरण विमलवरांचह्वपट्रश्च यस्त॒ पिनद्धवर्ग्रवर्यावम-
लव॒र्गाचिह पट्टा: 'गहियाउहप्पहरणा' इति आयुध्यत5ननत्या
युधम-खटकादि प्रहरणम-असिकुन्तादि. ग्रह्दतानि आयु
धानि प्रहरणानि च येस्त गृटीतायुधप्रहरणाः. जत्रिनतानि-
द्मादिमध्यावसानपु नमनभावात् , जिसन्धीनि--आदिम-
ध्यावसानषु सान्धिमावात् , वज्रमयकारीनि धनूषि आभि-
गृह्य ` परियादयकंडकलावा ` इति पयात्तक्राराडकलापा वि-
चि्रकारडकलापया गात् , काचित् ` नीलपाणय ` इति नी-
लः कारडकलाप इति गम्यत प्राणौ यषां ते नीलपाण-
यः, एवं पीतपाणयः रक्कपाणयः, चापे पाणा यां न
चापपाणयः, चारुः-प्रहरणाचशषः पारौ यपां त चारू-
पाणयः, चम-श्ङ्कष्टा उड्डुल्या राच्छादुनरूप पाणौ यपां त
चमपाणयः. एवं दृर्डपाणयः खड्भपाणयः पाशपाणयः. एत-
देव व्याचए--यथायोग नीलपी तर क्कच पचास्चरमद्गडपाश-
धरा ्रात्मरक्ताः, रक्तामुपगच्छन्ति-तदकाचत्ततया तःप
रायणा वत्तन्त इति रक्षोपगाः गुप्ताः--न स्वामभदकार-
शः, तथा गुप्ता-पराप्रवेश्या पालिः-सतुर्येषां त गुप्तपाल
काः. तथा य॒क्ताः-सवकशुणापतनयांचताः. तथा युक्रा-
परस्परं वद्धा नतु ब्ृददन्तराल पालियषां त युक्कपालका
प्रत्यक प्रत्यकं सम्यतः-श्राचारत च्राचारणत्यथः विनयन्श्च
किङ्करभृता द्रव तिष्टन्ति, न खलु त किङ्राः किन्तु तोप
मान्याः तेषामपि प्रथधगासनानपातनात् . कवलत तदानी
निजाचारपरिपालनना विनीतत्वन च तथाभूता इव नष
न्ति तदृङ्घं किङ्करभृना दवति ॥ ` तप रोस विज्ञप इत्यादि
सप्रतीतं यावांहजयदववक्कष्यतापारसमाप्निः ॥ तद॒वमुक्का
वजयद्वारवङ्कव्यता ॥ जी ५ ३ प्रति० २ उ०।
(६८)सप्रति लवणसमुद्रगतवेजयन्तदढारप्रातिपादना धमाद -
कहि शं भत ! लवण मृद् बजयन्त नामं दार पण्णत्त :,
गोयमा ! लवणसमु दाहिणंपरंत धातइसंडर्द।बस्स
दादि द्धस्स उत्तरणं ससं तं चव सव्वं । एवं जयते धि
शवरि सीयाएु महाणदीए उप्पि भाियव्व । एवं अ-
पराजित वि, णवरं दिसिभागो भाणियव्वा ।
` कहि सा मत ` इत्यादि, क मदन्त ! लवस्य समुद्रस्य
चेजयन्त नाम द्वार प्रज्ञप्तम् . भगवानाह गौतम ! लवण
समुद्रस्य द्तिणपर्यन्त धातकीखगडटापदाक्षणाद्धस्यान
रनाऽत्र लवणसमुद्रस्य वेजयन्तं नाम द्वार प्रशप्तम । एतट-
वक्कव्यता सर्वापि विजयद्वारवदवसया, नवर गाजधानो
चे जयन्तद्वारस्य दक्षिणता चादतव्या | जयन्तद्वारप्रातिपा-
दनारथमाह-- काह रो भेत ` इत्यादि. क भदन्त ! लवणसम॒-
द्रस्य जयन्त द्वाग्म प्रह्न्नम;.भगवानाह-गातम . लत्ररान्मु-
द्रस्य पश्चिमपर्यन्त धातकीसग्डपश्चिमाद्धस्य पवनः शीता-
या महानद्या उपार लवस्य समुद्रस्य जयन्त नाम दारं
प्रन्षप्म . तद्क्कव्यता ऽपि विजयद्वारवद् वक्रव्या. नवर गाज.
थानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमभाग वक्तव्या । अपगाजितद्धा-
( ६ै७० )
अआामभधानराजन्द्र: |
लवणसमु आं
रघप्रतिपादना थमाह--' कटि ण भेत ` इत्यादि, क्र भदन्त !
लवणस्य समुद्र स्यापराजिते नाम द्वारं प्रज्ञत्तम् ?. भगवा-
नाह--गातम ! लवणसमुद्र स्यात्तरपयन्त धातकीखगडद्री- |
पात्तराद्धस्य दाक्षणता पत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम
द्वार प्रह्ृघ्तम् । एतद्रक्रव्यताऽपि विजयद्वारवन्निरवशषा
वक्तव्या नवर राजधानी अपरॉजतद्वारस्योत्त रता 5ब-
सातव्या । ( लवणसमुद्राविजयादिद्वाराणां परसूपरमन्तरम्
अतर ` शब्दे प्रथमभाग ७४ प्रष्टं गतम् । )
( १६ ) संप्रति लवणसम॒द्रनामान्वथ पृच्छति-
लव्रणस्स णं भत ! समदस्स पएसा धायइसंडं दवि पुट्टा,
तहव जहा जवृदीवे धायइसंडे वि सो चव गमो । लवणे णं
भत ! सये जीवा उदाइत्ता सो चव विही, एवं धायइसंडे
वि॥ से केणद्वेणं भते ! एवं वुच्चह लवणसमुदे लवण-
समुद १, गोयमा ! लवणे णं समुद् उदगे आविले रइले
लोणे लिंदे खारए कडए अपेज्ञ बहुणं दुपयचउप्पय-
मियपसुपक्खिसिरीसवाण नप्पत्थ, तज्जोणियाणं सत्ताणं
सोत्थिए एत्थ लव॒णाहिवई दवे महिड्डिए पलिओवम-
ठिईए, से णं तत्थ सामाणिय ° जाव लवणसमुद्दस्स
सुत्थियाए रायहाणीए अ्रप्पनि ०जाव विहरइ,से एएणड्ट्ढेणं |
गोयमा ! एवं वुच्चह लवण णं समुद् लवणे णं समुद अद्-
त्तरं च ण॑ गोयमा ! लवणसमु सासए् ०जाव शिच ।
( स्ू० १५४)
` लवणस्स र भेत ! समुद्ृस्स पएसा ` इत्यादि सूत्र
चतुष्रये प्रार्बद् भावनीयम् ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रनामा-
न्व प्रच्छति--` से कणटरुण ` मित्यादि, श्रथ कनार्थेन
भदन्त ! पएवमुच्यत--लवणः समुद्रा लवणः समुद्रः ?
दृति, भगवानाह-- गोतम ! लवणस्य समद्रस्य उदकः
आविलम--अविमलम अस्वच्छु प्रकृन्या ' रइले ' रजो--
चत् , जलवृद्धिहानिभ्यां पङ्कबहुलमिति भावः , लवणो
सान्निपातिकरसापतत्वाल्लिन्द्रं गोवराख्यरसविशेपकलि-
तत्वात् , क्तारम-तीच्णं लवणरसविशषवच्वात् , कटुकम-
कटुकरसापतत्वात् श्रत पवापद्रवव्रातादषयम् , केषा- |
मपयम् ? , चतुप्पदमरगरपा्तसरीसरृपाणाम् , नान्यत्र तया-
निकरभ्यः-लवणसमद्रय।निकेभ्यः सच्वभ्यस्तपां पय-
मिति भावः , तद्यानिकतया तेषां तदाहारकत्वात् ,
तदेवे यस्मात्तस्योदक॑ लवणमता 5सा लवणः समद्र
इति, श्रन्यश्च ' सद्र लवणादहिवई ' इत्यादि सखुगम- |
नवरमेष भावाः यस्मात् सुस्थितनामा तद्धिपतिः-
लवणाधिपतिरिति स्वकटपपुस्तक प्ररिष्धम् , श्राध-
पन्ये च तस्याधिकृतसम॒द्रस्य विषय नान्यस्य तू
प्यसौ लकण॒समद्र दति, तथा चाह,--' से एएण- |
ट्ण ' मित्यादि ॥
(५०) सम्प्रति लवणसमद्रगतचन्द्रादिसं ख्यापरिमाणप्रति-
पादनार्थमाह-- |
लवणे णं भत ! सप्र कति चदा पभार्सिसु वा पभासिंति |
वा पमासस्थर्तिवा १, एवं पंचणह वि पुन्छा, गोयमा ! '
लवणसमु
लवणसपुद् चक्तार चदा पभाससु वा पभार्तिति वा पभा-
सिस्सति वा,चत्तारि प्रिया तर्विंसु वा त्विति वा तविस्साति
वा, वारसुत्तरं नक्खत्तसयं जागं जोएंसु वा जोएंति
जाएस्सति वा, तिपि बावष्ा महग्गहसया चारं चरिंसु
चरंति वा चरिस्सति वा,दुपि सयसहस्सा सत्तद् च सहस्या
नव य सया तारागणकोडाकोडाणं सोमं सोभिसु वा सो-
भिति वा सोभिस्संति वा (घ्र १५५)
“लवण णे भत ! समुद् ` इत्यादि प्रश्नसज खुगम-
म्. भगवानाह-गोतम ! अत्वारश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः
प्रभासन्तं प्रभासिष्यन्त, चत्वारः सयास्तापितवन्तस्ता-
पयन्ति तापयिप्यन्ति, त च जम्बृद्धापगतचन्द्रसूरयैः सह
समश्रेण्या प्रतिबद्धा चदितव्याः, त्द्यथा- द्रौ सूर्यौ ए-
कस्य जम्बृद्ध पगतस्य सूर्यस्य श्रराया प्रतिबद्धो. ढौ सू-
यौ द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्र
मसावकस्य जम्बुद्धापगतस्य चन्द्रस्य समश्रराया प्रतिब-
द्धौ, द्वौ छितीयचन्द्रस्य, तो चेवम-यदा जम्बूद्धीपगत
एकः सूर्यो मरोदेक्षिणतश्वारं चराति तदा लवणसमु-
द्रऽपि तन सह समशथ्रणया प्रतिबद्ध/ एकः शिखाया
श्रभ्यन्तरं चारं चरति द्वितीयस्तनेव सह शरण्या प्र
तिवद्धः शिखायाः परतः, तदैव च या जम्बूद्धीप मरो
रुत्तरतश्चारे. चरति तन सह समश्र्या प्रतिबद्धा ल~
चणसमद्र उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तर चारं चर-
ति, द्वितीयस्तु तनेव सह समश्रगया प्रतिबद्धः शिखा-
याः परतः, एवं चन्द्रमसा ऽपि जम्बुद्धीपगतचन्द्राभ्यां सह `
समर्श्राणप्रतिवद्धा भावनीयाः. शरत पव जम्बृद्धीप इव
लवणसरमुद्र$पि यदा मरादेत्िखता दिवसः सेभवति,
तदा मरारुत्तरताऽपि लवणसमद्र दिवसः, यदाच अ
रारुत्तरता लवणसमुद्र दिवसस्तदा दत्तिणताऽपि दि-
वसस्तदा च पृवस्यां पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्र रा-
तरिः, यदा च मराः पूर्वस्यां ?शि लवणसमुद्र दिवस
स्तदा पश्चिमायामपि दिवसः, यदा च पश्चिमायां दिवस-
स्तदा पूवदिश्यपि, तदा च मरोर्दक्तिणत उत्तरतश्च नि-
यमता राजिः, एव धातकीखरडादिष्वपि भावनीयम् , त-
द्णतानामपि चन्द्रसर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसर्यः सह स~
मश्रराया व्यवस्थितत्वात्, उक्त च सूयप्रश्धों--“ ज,
या णो लवणसमुद्दे दाहिणडे दिवस भवद्, तया शं उ- ।
तरह वि दिवस हवइ। जया ण उतक्तरह [दवस हवई, | |
तया शो लवणसमुद्दे पुरत्थिमपच्चत्थिमणो राई भवह ।
एवं जंहा जवुदीव दीवे तदेव ” तथा “ ज्याणधा-
यहसंड दीव दाहिण्ड दिवस भवह, तया शे उत्त (8
रह वि, जया रो उत्तरह् दिवस हृवइ, तया श॒ घायइ-
सड दवे मेदराणो पष्वयाणं पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं राई
हवइ । एवं जहा जम्बुद्रीव दीवे तदव, कालाप जहा
लवण तदेव ” तथा--"“ जया शे अध्मितरपुक्खरद्ध
दाहिणडे दिवस भवद्, तया णो उत्तर षि दिवस हद् ।
जया रा उत्तरङ्क दिवस हवइ; तया णे अध्भितरह में”
दूराणौ पठ्वयाण पुरत्थिमपच्चत्थिमणं राई हवइ, सस
जदा जंबुद्दीव तदेव ` आह--लव॒णसमुद्र षोडशयाज-
ही सा उद
(दै७१ )
अमिधानराज-न्द्रः |
४ लवणसमु
नसहस्मप्रमाणा शिखा ततः कथंच सयाणा तत्र तत्र दृश
चारे चरतां न गतिव्याघ(तः ?, उच्यते-इह लघणसमुद्रव- |
जेषु शषषु दीपसमुद्रषु यानि ज्योतिष्कविमानानि तानि
सवोरयपि सामान्यरूपस्फटिकमयानि, यानि पुनलंवणस-
मद्र ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादुदक-
स्फाटनस्वभावस्फटिकमयानि, तथा चाक्र सूर्यप्रन्नप्तनिय-
ख्ता- 'जोडासयावमाणाइ, सव्वाइ हवात फालहमहयाइ। |
दगफालिया मया पुण. लवण ज जाइसविमाणा ॥ १ ॥ `"
ततो न तषामुदकमध्य चारं चरतामुदकेन व्याघातः ,
श्नन्यञ्च शपद्धापसमुद्रषु चन्द्रसूयेविमामान्यधालेश्याकानि |
यानि पुनल॑वणसमुद्रे तानि तथा जगतस्वाभाव्यादुध्यलश्या-
कानि तन शिस्तायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति,
अये चाधः प्राया बहनामप्रतीत इति संवादाथमेतद् थप्रति~
चादको जिनभद्रगणित्तमाश्रमणावरचिता विशषणवतीग्र-
न्थ उपदश्येत--' सोलससाहसियाए सिहाए कह जोइसि-
यविघाता न भवति ?, तत्थ भन्नई-जण स्रपन्नत्तीए भणियं-
४ जोदइसियविमाणाई, सव्याईं हवंति फलिहमइयाई । दग- |
कालिया मया पुण, लवण ज जोइसविमाणा ॥ १ ॥ ""
ज्ञं सव्वदीवसमुद्देस फालिहामयाई लवणसमु चेव कवलं
दगफॉलिहामयाई तत्थ इदमव कारणं मा उदगण विधाता |
भवड ” इति, जवुस्रपन्नत्ताए चेव भणियं--'* लवगाम्मि
ड जोादसिया,उह लसा दवति नायव्वा | तेण परं जोइसिया,
अह लेसागा मुणेयव्वा ॥ १ ॥ ”
त्थमेव लोगठिई पस्य" इति । तथा द्वादशं नक्षत्रशतम , एवं
चत्वारा हि लवणसमद्र शशिनः पक्कस्य च शारानः परि-
चारे अष्टाविशतिनंक्षत्राणि, तताषरार्विशतश्चतुभिगुरने
भवति द्वादशात्तर शतमिति । जीणि द्विपञ्चाशदाधिकान
महाग्रहशता नि, एककस्य शशिनः परिवार रऽष्टाशीतन्रहाणां
तपि उदगमालावभासण- |
भावत्, द शतसटस्न सप्तष्राष्ट:ः सहस्राण नव शतान |
तारागणकारीकारीनाम् २६.७६ ००००००००००००००००,
उक्तञच--
* चत्तारि चव चदा. चत्तारि य सरिया लव॒णतोए।
शारं नक्वत्तसय, गहाण तिश्नव वाचक्ना॥ १॥
दो चेव सय सदस्सा, सत्तट्टी खलु भवे सहस्सा य ।
नव य सया लवणजल, तारागणकाडिकोडीणं ॥ २॥
इदे लवणसमद्र चतु्दश्यादिषु तिथिषु नदीसुखानामा- |
पूरणता जलर्मातरकेण प्रवद्धमानमुपलक््यत तत्र कारणं पि-
प्ृच्छिषारिदमाह--
कम्हाणं भते ! लवणसमुद्दे चाउदस्सड्म्मुदिट्रपुष्मिमा- |
सिणीसु अतिरेगं आतिरेगं दति वा हायति वा १, गोयमा !
जबुदीवस्स शं दीवस्स चउद्दिसि बाहिरिल्लाश्रो वेडयंता-
श्रा लवणसमुद्दं पंचाणउर्ति पंचाणउतिं जोयणसहस्माई
ओगाहित्ता एत्थ शं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया
महहमहालया महापायाला पष्पत्ता, तं जहा-वलयामुहे, |
२5 जूबे,इसरे। ते णं महापाताला एगमेगे जोयणसतस-
हस्सं उव्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्ं भशं
मज्के एगपदसियाए मेदीए एगमग जोयणसतसहस्सं
१६१
विक्खभेण उवरि यृहमृल दस जायणसहस्सारं विक्खम्भणं |
तसिं महापायालाशं कुड्टा सव्वत्थ समा दसजे।यणसत-
बाहल्ला पष्पत्ता अच्छा सव्ववइरा पया ० जाव पडिरूवा । तत्थ
शं बहवे जीवा पोग्गला य अवकमंति विउक्र्मते चर्यति
उपचयंति सासयाणं ते कृडा दव्वद्याए वष्यपजवो्हि
असासया । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया ०जाब पलि-
ओग्मद्वितीया परिवर्सति, त॑ जहा-काले, महाकाले, वे
लंबे, पभंजण । तेसि ण॑ महापायालाणं तश्र तिभागा
पष्पत्ता, त॑ जहा-हेड्टिल्ले तिभांग मज्भमिल्ल तिभाग
उवरिमे तिभागे । ते ण॑ तिभागा तेत्तीस जोयणसहस्सा
तिप्षि य तेत्तीसं जोयणसत जेयणतिभाग च बाहल्लेणं ।
तत्थ णं जसे हेद्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाञ्रो संचि-
दति, तत्थ शं जस मज्मिल्ले तिभागे एत्थ शं वाउकाए
य आउकाए य संचरति, तत्थणंजस उवरि ति-
भागे एत्थ ण॑ आउकाए सचिद्ंति, अदुत्तरं च शं गोय-
मा ! लवणसमु तत्थ तत्थ दस बहव खुङगलिजरसटा-
शसंटिया खुडापायालकलसा पण्णत्ता,त णं खुङा पाताला
एगमगं जायणसहस्यं उव्वहणे मूल एगमगे जायणसते
विक्खंभणं मज्के एगपदसियाए सदए एगमेग जोयण-
सहस्यं विक्वंभणं उप्पि मुहमूल एगमग जोयणसतं वि~
क्खंभणं । तयि णं खुङागपायालाणं कुडा सव्वत्थ समा
दस जोयणाई बाहत्णं पष्पत्ता सव्ववइरामया अच्छा
०जाव पडिरूवा । तत्थ णं बहव जीवा पोग्गला य ०जाव
असासया वि,पत्तय २,अद्भपालिओवमद्टिती ताहि देवताहि
परिग्गहिय्ग तेमि णं खुहागपातालाणं ततो तिभागा प-
पत्ता, ते जहा-हे ट्रैज्न तिभागे माज्मिल्ले तिभागे उवरि
तिभाग, ते णं तिभागे तिषि तेत्तासे जोयणसते ज(यण
तिभागं च बाहलिणं पप्पत्त तत्थ ण जे से हेड्विन्ल
तिभाग एत्थ णं वाउकाओ, मज्मिल्ले तिभागे वाउश्राए
आउयाते च, उवरित्ले आउकाए, एवामेव सपुव्वावरेणं
लवणसमुद्द सत्त पायालसहस्सा रट य य चुलसीता पाता-
लसता भवंतीति मक्खाया । तेसि णं महापायालाणं खु
इागपायालाण य हेट्टिममज्किमिल्लेसु तिभागेसु बहव
ओराला वाया ससयति समरुच्छिमंति एयंति चलति कं-
पति खुन्भंति घट्टति फंदंति तं तं भावं परिणमंति,तया शं
से उदए उप्मामिज्जति, जया णं तेपि महापायालाणं खु
इागपायालाण य हद्िह्छमञ्िमिष्टेसु तिभगसु नो बहवे
राला ०जाव त॑ तं भावं न परिणमन्ति, तया शं से
उदए नो उन्नामिजइ अतरा वि य ण॑ ते वाय॑ उदीरेति श्र
तरा वि य ण॑ से उदगे उप्मामिजइ अतरा वि यते वाया
नो उदीरंतिश्चतराव्रियणशं से उदगे णो उष्मामिज्ञद
५ ( ६४६ /)
समसिध्रानगाजन
लतकवणसममट्
एव खलु गोयमा!लवणसयृद् चाउदम(स्स)मू(म्मु)दि दर पुष्प-
मासिणीसु अइरेग अइरेग वड़ति वा हायति वा | (मू० १५६)
कम्हा रा भत !. इत्यादि कस्माद्धदन्त ! लवणसमृद्र चतु-
दश्यष्टम्युदृष्पारीमासीषु तिथिषु, अत्रादिष्ठा अमावस्या
पारमासी प्रतीता, पणां मासा यस्यां सा पाणमासी. प्र-
ज्ञादित्वात्स्वाध्र ऽण् | अन्य तु व्याचत्तत--पृणा माः- चन्द्रमा
श्रस्यामिति पोणमासी, अण तथव, प्रकृतत्वाच्च सृत्र-'पु-
रशणमासिणी ` ति पाठः । ` शटूरग अइरगे ` श्रांतशयन
प्रतिशयन वद्धते हीयते वा ? , भगवानाद--गोतम !
जम्बृद्धीप दीपे या मन्द्रपर्वतस्तस्य चतरूषु पृवादिषु दि्लु-
लवणसमुद्र पञ्चनतात ~ याजनसहस्वारयवगाद्यात्रान्तर च- |
त्वारः ' महद महालया
महापिडह तत्संस्थानसंस्थिताः, काचत्-' महारंजरसंठाण-
सटिया ` इति पाठः। तत्ारज्जरः-अलिअर इति, महापाताल-
' श्रतिशयन महान्ता महालिअरं- |
कलशाः प्रज्ञाः | उक्घं च पणनउइसहस्साई, ओगाहित्ता |
चउद्दासि लवर | चउरा$लिजरसंठा-णसेटिया होति पाया- |
ला॥१॥'` तानव नामतः कथयति । तद्यथा-मरोः पूवस्या [दाश
खडवामुखः. दात्तणस्या कयूप परस्या यूप उत्तरस्यामा- |
हवरः ते चत्वाराऽप महापातालकलशा एकक याजनशत- |
सहस्न लक्षम् उद्धधन मूल दशयोजनसहस्थाण (वेष्कम्भन त-
त ऊद्धम एकप्रादशिक्या भ्रणया वष्क्रम्भतः प्रवद्धमाना प्रव-
द्धमाना मध्य पकंकं याजनशतसदहस्न वष्कम्भेन तत ऊद्ध
भूयो ऽप्यकपादाशक्या श्रण्या ॥वष्कम्भता हायमाना हीयमा-
ना उपरि मुखमूल दश याजनसदे स्ना विष्कम्भतः, उक्त
जोयणसटस्सदसग, मूल उवार च हात त्रात्थरणा ।
मर्भे य सयसदटस्सं.तत्तियमत्त च च ओगाढा ॥१॥ "` ' तसि
ण' मित्या
तेषा महापातालकलशाना कुज्या सर्वत्र समा |
दशयाजनशंतबाहत्या-याजनसहस्तवाहल्या इत्यथ सवोत्म- |
ना वज्जमयाः ` अच्छा ० जाव पाडिरूवा ` इति प्राग्वत् ॥
तत्थ ण॒ ' मित्यादि, तेषु वद्धमयेषु कुङ्यषु बहवो जीवाः
पृथिवीक्रायकाः पुद्रलाश्च अपक्रामन्ति-गच्छान्ति व्युःक्राम-
न्ति-- उत्पद्यन्त जीवा इति सामथ्याद् गम्यम्, जीवानामवा-
त्पत्तिधर्मकतया प्रासद्धत्वात् , चीयन्ते--चयमुपगच्छान्ति
उपचीवन्त-उपचयमायाान्त, प्तच्च पदद्वयं पुद्रलापक्त ,
पुद्रलानामव चयापचयधमेकतया व्यवहारात्, तत पव
सकलकलं तदाकारस्य सदाऽवस्थानात्
कुड्या द्रन्या्थतया प्रश्नप्ताः, वर्णपर्याये! रसू प्यायः गन्धपर्या-
येः स्पशपर्यायिः पुनरशाश्व॒ताः, वर्णादीनां प्रातिक्षणं किय-
त्कालादृद्धुं वाउन्यथाउन्यथा भवनात् ॥ 'तत्थ ण' मित्यादि
तत्र तेषु चतुषु पातालकलशषु चत्वारा देवा महर्द्धिका या-
वत्कर णान््महाद्रतिका इत्यादिपरिग्रहः, पल्यापमस्थितिका
एग्विसन्ति,तद्यथा-'काले इत्यादि, वडवाम॒ुख-कालः, कयूप-
मभद्दकालः यूप-वेलम्बः.ईश्वर-प्रभअज्ञनः। ' तसि ण' मित्यादि,
तां महाता ¡कलशानां प्रत्यकं प्रत्यक्रं त्रयास्त्रभागाः
ज्छत:,तद्यथा-अधस्तनास्थ्र भागा मध्यमचिभाग उपरितन-
स्त्रिक्कागः | ' ते ण ' मित्यादि, त तयाऽपि त्रिभागाखय-
शिशद्याजनसदस्नााणि तरीणि याजनशातानि त्रयाखिशानि
याजनध्रिभाग च वादस्यन प्रशप्ताः ॥ तत्र चतुर्ष्वपि पाताल-
कऋलशचु अधस्तनपु त्रिभागषु वातकायः सेतिष्ठति, मध्यमषु
प्र- |
शाश्वतास्त |
)
ध लवणसमु |
त्रिभागषु बायुकाया ऽपूकायश्च, उपरितनघु त्रि भांगष्वष्काः
य एवं । ` श्रदुत्तरं च ण ` मित्यादि. अथान्यद् , गोतम
लवणसमुद्रे ' तत्थ तत्थ दस्र तदि ताहि ' इति तषां पाताल
कलशानामन्तरषु तत्र तत्र दश तस्य तस्य दशस्य तत्र तः «
प्रदेश चुल्ञारञ्जरसस्थानसे स्थिताः चल्लाः- पातालकलशा । +
प्रजञप्ताः, त चुरलाः-पातालकलशा एकमक याजनसहस्रमुः
घन मूल एककं याजनशते विप्कम्मन मध्य एककं याजन
सटस्् विष्कम्भन उपरि मुखमूल एककं याजनशतं विष्कम्भर
" तसि ण ` मित्यादि, तेषां-छुल्लकपातालकलशानां कुडा
सवत्र समा दश दश याजनानि बाहल्यतः । उक्तञ्च `
“जोयणसयवित्थिएणा, मूल उवरि दस सयाखि मज्भमि
आगाढा य सहस्सं, दस जायाणया य से कुडा ॥ १॥
सव्ववइरामया ` इत्यादि प्राग्वत् यावत् "मि
रि श्रसासया ` इति, प्रत्यकं प्रत्यकं नऽद्धपल्यापमस्थि
तिकाभिर्दैवताभिः परिगरृहिताः ॥ * तसि ण॒ मित्याति
तषां-चुटलकपातालकलशानां प्रत्यकं॑ प्रत्यकं चयलि `
भागाः व्ज्ञप्ाः, तद्यथा-अधस्तनस्थिभागा मध्यमखि।
भाग उपरितनस्थ्रिभागः | त ण ` मित्यादि. त ज़िबा
गाः प्रत्यकं त्रीणि योजनशतानि त्रयस्प्रिशान अयस्थिशदा
धिकानि योजनत्रिभाग च वादल्यन प्रश्नप्ताः, तत्र सर्वेषाम
पि च्लु्लकपातालकलशानामधस्तनषु त्रिभागषु वायुका
यः संतिष्ठति , मध्येषु त्रिभागषु वायुकायो ऽप्कायश्च
उपरितनषु जिभागष्वप्कायः संतिष्ठति , एवमेव * स
पूर्वापरण ` पूर्वापरसमुदायसंख्यया सप्त यानालकपा
सदस्राणि-चुटलकपातालकलणशसदस्राणि, चषा च पा `
तालकलशशतानि-्तुरलकपातालक्लशशनानि चतुरशी `
तानि--, चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीन्याख्यातं मया शवः `
ती्थक्द्धिः, उक्रख--
>:
“ श्रन्नेऽवि य पायाला, खुडालञ्जरगसंटिया लवणे । ।
श्रद् सया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्व वि ॥१॥ | `
पायाल्नण विभागा, सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विश्नया |
ेद्िमभाग वाऊ, मञ्भ वाऊ य उद्गेच॥२॥
उर्वार उदगं भणिये, पढमगबीएसु वाउसंखुभिओ ।
उड वामदइउदगे, परिवह जलनिही खुभिश्रो ॥ ३॥ ” |
“ तसि ण ' मित्यादि, तषां ज्लुटलकपातालानां-- ज्ञुटलव।
पातालकलशानां महापातालानां चाघस्तनमध्येषु त्रिभाग|
तथा जग्स्थितिस्वाभाव्यात् प्रतिदिवसं द्विकृत्वस्तत्ना
चतुदैश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण बहवः अतिप्रभू|
उदाराः-ङद्धगमनस्वभावाः प्रबलशक्तयश्च, उत्-भ्राः
स्येन श्रारो यषां त उदारा इति व्युत्पत्तः, वाताः वाय,
संस्विद्यन्त--उत्पत्यभिमु खी भवन्ति, ततः त्षणानन्तरः ` र
मूच्छन्ति-संमूच्छजन्मना लब्धान्मलाभा भवन्ति, न
चलन्ति-कम्पन्त वातानां चलनस्वभावन्वात् , ततः घः
न्त- परस्परे सट्ठद्टमाप्नुवन्ति, तदनन्तरम् चुभ्यन्त
जातमहाद्"ुतर्शाक्तकाः सन्त उद्धुमितस्ततो विश्रसरनि
ततः उदीरयन्ति--श्न्यान वातान जलमपि चात्-प्राः
स्यन प्रेरयन्ति, तं ते द्शकालोचिते मन्दं तीव मध्यम
भाव-परिणामं परिणमन्ति-धातूनामनेका परत्वात् भ्रपः
न्ते। ` जया णे तसि खुङ्खागपायालाण ` मित्यादि खग |
( ६५३ )
। लवणसमु
अभिधानराजन्द्र। |
लवेणस मुह
प्रांवतत्वात् । ` तया ण॒ ' मित्यादि, तदा णमिति बाक्या-
ङकार तद्--उदगम् ` उन्नामिजेते ' उश्नाम्यत ऊदधमु-
त्त्तिप्यत इति भावः । "जया ण' मित्यादि, यदा पुनः "ण
| [मति पुनरथ निपातानामनकाथत्वात् ,तषां छुल्लकपातालाना
प्रह्मपातालानां चाधस्तनमध्यमषु जभागषु ना बहतर उद्रारा |
द्वाताः सस्विद्यन्त इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण' मित्यादि तदा |
तदुदकं नान्नाम्यत नाद्धं मुत्ततप्यत उत्त्षपकाभावात् पतदेव
स्पण्ठतरमाह--' अन्तरा ऽव य ण ' गमल्याद् , श्रन्तरा--
अद्दाराजमध्य द्विकत्वः प्रतिनयते कालविभागे पक्तमध्य
चतुदश्यादिषु तिथिष्वतिरकेण त वाताः तथाज्गत्स्वाभा-
च्यादुदीयन्त धातूनामनकाथत्वादुन्पद्यन्त., तनाऽन्तरा--
आहोराजत्रमध्ये द्विकत्वः प्रतिनियत कालविभागे पक्तमध्य
चतुदश्यदिषु तिथिषु श्रनिरेकेण तत उदकमुन्नाम्यत ।
तण5वि य ण ` मित्यादि,
आगादन्यत्र त चाताः
कं नान्नाम्यत उन्नामकाभावात्, तत एवं खलु गौतम !
रकम्रतिरेकम्--श्रतिशयेनातिशयन वदत दीयत वेति ॥
| कृतमिदानीमहोरात्रमध्ये द्विरत्वा ऽतिरेकेण॒ जलवुद्धों
| कारणुमाभिधित्सुराह--
। लवणे शं भते ! समुद्दे तीसाए महत्तां कति-
' खुत्तो अतिरेग अतिरेग वड़ति वा हायति वा १ गोयमा !
| लवणे शं समुद्दे तीसाए मुहृत्ताणं दुक्खुत्ता अतिरेगं अ-
तिरेगं बडूति वा हायति वा ॥ से केणड्दरणं भन्ते ! ए
| वं वुच्चई-लवण णं समुद तीसाए मुहुत्ता् दुक्खुत्तो
| अइरेगे अइ्रग बड्ड वा हायइ वा १ गोयमा ! उड़मं-
| तेसु पायालेसु वडइ रपूरितेसु पायालेसु हायइ, से ते
| शडडशं गोयमा ! लव णं समुद तीसाए मुहत्ताणं दु-
क्खुत्तो अरग अदरेग वडद वा हायइ वा ॥ (सू° १५७)
` लवणे णे भत ! समुद ` इत्यादि, लवणा भदन्त ! समुद्र-
स्थ्िशतो मुह तोनां मध्य-श्रहोरात्रमध्ये इति भावः'कतिङत्वः
कति वारान् शअतिरकमतिरेकं वद्धेत हीयते वा ? इति, त-
दृष ( प्रश्न भगवानाद-गोतम ! द्विकृत्वोउतिरेकमातिरेकं
बद्धत दीयत वा ॥ ` स कण् ट्वेण ' मिव्यादि प्रश्नसत्र खु-
गमम् , नगवानाह-गोतम ! उद्वमत्सु श्रघस्तनमध्यमाति-
भागगतवातसन्ताभवशाज्लम् द्धं मुत्क्तिपत्स पातालपु-पा-
तालकलशष महत्सु लघुष॒ च वद्धेत आपृर्यमाणषु--
| यरिसेस्थित पचन भूया जलन घियमाणेषु पातालेषु--
पातालकल्प्शष महत्सु लघुष च दीयत ` सर पपणर '
मित्यादि उपसंदारवाक्यम् ॥
( २१ ) अधुना लवणशिखावक्तव्यतामाद--
(© श भत! केवतियं चक्रवाल विकंवं भणं केवतियं
अहरेगं अहरं उङति वा हायति वा१, गोयमा ! लवणयि-
हाए ख दस जयरसहस्साई चक्कवालविक्खभणं देख-
४,
श्रन्तरा--प्र्तिनयतकालवि- |
नादोयन्त- नोत्पद्यन्त ,' तदभावात् |
शछ्रन्तरा--प्रतिनियतकालावभागादन्यत्र कालावभागे उद- |
| लक्रणसमुद्रे चतुदेश्यष्टम्युदिष्टपूणमासीषु तिथिषु श्रति- |
वदेव चतुदेश्यादिपु तिथिष्वतिरेकण जलबुद्धों कारणमु- '
णं अद्धजोयणं अतिरेगं बड़ति वा हायाते वा || लवणस्स
णं भेते ! समुदस्स कति णागसाहस्सीओ अ।न्भतारय ब-
लं धरंति १, कड नागसाहस्सीओ बाहिरियं बलं धरंति ?,
कड नागसाहस्सीओ अग्गोदय धरति १, गोयमा | लव
णसमदस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अन्भितारेय ब्ल
धरति, बावत्तरं णांगसाहस्सीओ बाहिरिय बलं धरति,
सद्भि णागसाहस्सीश्रा अग्गादयं धरति, एवमेव सपुच्वा
वरेणं एगा णशागसतसाहस्सी चोवत्तरिं च णागसहस्सा
भवतीति मक्खाया ॥ ( प° १५८ )
* लवणसिहा र भते ' इत्यादि, लवणशिखा भदन्त ! कि-
यश्चक्रवालविष्कम्भन ?, कियच्च श्रतिरेकमतिरकम्--श्र-
तिशयन श्रतिशयन वदत दीयत वा ?, भगवानाह-गोंतम !
लवणशिखा सर्वतश्चक्रवालविष्कम्भतया समा--समप्रमा-
णादश याजनसहस्याण वस्कस्भन ७ कऋवालरूपतया व-
स्तारेण देशानमद्धयाजनम्--गव्य॒तद्वयप्रमाणम् श्रातरेक-
मतिरेकम्--श्रातशयनातशयन वबद्धते हायत वा, दय-
मत्र भावना--लवणसमद्र जम्बूद्वीपाद् धघातकीखण्डद्ी-
पाच्च प्रत्यकं पञ्चनवति पञचनवातयाजनसहस्नाण
गातीधम्-गातीथ नाम तडागादाप्वव प्रवशमागरूपा
नाचा नाचतरा भदशा गास्ताथामव गाताथामात व्यु
त्पत्तः, मध्यभागावगादहस्तु दशयोजनसहस्प्रप्रमाणवि--
स्तारः, गातीथ च जम्बुद्रीपवदिकान्तसर्मीप धातको-
स्वगडवदिकान्तसमीप चाङ्कलासख्ययभागः-- ततः परे
समतलाद् भूभागादारभ्य क्रमण प्रदेशदान्या तावन्नीचल्व
नीचतरत्वे परिभावनीयम् यावत्पश्चनर्वातयोजनसहस्माणि,
पञ्चनवतियोजनसदटस्रपयन्तघु समतले भूभागमपक्तयारड-
त्वे योजनसदेसख्रमकम् , तथा जम्बृद्धी पवेदिकाता धातकीख-
रडद्वीपवदिकातश्च ? तत्र समतल भूभाग प्रथमता जल-
बृद्धिरङ्गुलसख्ययभागः, ततः समतलभूभागमवाधि-
कत्य प्रदेशवृद्धथा जलच्रदिः क्रमेण परिवद्धमाना तावत्परि-
भावनीया यावदुभयता ऽपि पञ्चनर्वातयाजनसदस्राणि, पञ्च-
नवतियोजनसहसखरपर्यन्त चाभयता ऽपि समतलभूभागम-
पच्य जलचृद्धिः सप्त योजनशतानि, किमुक्त भवति ?-
तत्र पदेश समतलभूभागमपदयावगादहा योजनसहरू/म् , तदु-
पार जलच्रद्धिः सप्त याजनशतानीति, ततः परं मध्यभाग
दशयाजनसटसखविस्ता ऽवगाहा योजनसदस्रे जलब्द्धिः
घोडश याजनसदस््राणि, पातालकलशगतवायुत्ञामे च त-
चामुपरयहाराज्रमध्य द्धौ वाग किञ्चिन्न्य॒न द्व गन्यृते उदर-
मतिरकण वर्धत पातालकलशगतवायूपशान्तौ च दीयते,
उक्त्च--
** पंचायउयसहस्स, गातिन्थ उभयतो $वि लवणस्स ।
जोयणसयाण सन्त उ, दगपरिवुद्धी ऽवि उभयाऽवि ॥ १॥
दस जायणसाहस्ना, लवणसिदा चक्षवालतो रुदा ।
सालससटस्स उच्चा, सहस्समेगं च श्रागाढा ॥ २॥
देसृणमद्धजायण-लवणांसहावरि दुगे दुबे काला।
अइरग श्रहरग, पर वहूह हायए वाऽचि॥२॥
सम्प्रति वलन्धरवक्कव्यतामाह--' लवणस्स ण मते"
लसमु
४५ )
ऋअभिधानराजन्द्रः।
लवणसमु
इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समद्वस्य कयन्ता नागसहेस्त्रा
नागकुमाराणां भवनपातनिकायान्तवात्तिनां सदस््रा श्राभ्य-
न्तारिकी--जम्बूद्वी पाभिमुखां
च-अवीक पतन्तीं धराःत-वारयन्ति ? क्रियनतों नागसहस्पा
याह्यां-धातकीखणडाभिमुखां वलां घातकीखरडद्धीपमध्य
प्रविशन्तीं धरन्ति बारयन्ति ? . कियन्तो वा नागसहस्पा
श्रग्रादकं देशानयाजनाद्धजलादुपरिवद्धमानं जले घरन्ति-
वारयन्ति ?, भगवानाह-गोंतम ! दिचत्वारिशन्नागसदस्रा-
गयाभ्यन्तरिकी वलां घरान्त द्वासक्तातनागसदस्राणि बाह्यां
वलां धरन्ति, षणिनागसदहस्वाराय रार् कं धरान्त । उक्तल्च-
चलां--शखापरिजल शिखां |
“* ध्यब्मितरिय वरल, धरति लवणाददिस्स नागाणं । वायाली |
ससष्टस्सा. दुसत्तरिसहस्सों बाहिरिद ॥ १॥ खद नागसद- |
स्सा, धरति श्रग्गादयं समुदस्स'' इति एवमव -सपूरवा परण |
पृवापरसरमुदायन पकं नागशतसदस्न चतुःसक्तिश्च नागश- |
तसहस्थनाणि भवन्तीत्याख्यातानि मया शच्च तीथङृ द्धिः ।
( २२ ) वेलन्धरनागराजसंख्यादिकमाह--
कति शं भते ! बेलधरा णागराया पष्पत्ता ?, गोयमा !
चत्तारि वेलंधरा णागराया पणता, तं जहा-गाधृभे सि-
बए संखे मणोसिलए। एतेस शं भते ! चउण्हं वेलघरणा- |
गरायाणं कति आवासपव्वता पणणत्ता १,
आवासपव्वता पत्ता, तं जहा-गोधूभ उदगभासे संखे
दगसीमाए । कटि शं भते ! गोधूभस्स वलंधरणागरा-
गायमा ! चत्तारि
यस्स गोधूमे णामे त्रावासपव्वते पणणत्ते !, गोयमा | |
जबूदीबे दीवे मंदरस्य पुरत्थिभणं लवणं समुदं बायाली-
से जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ शं गोधूमस्स वेलं-
धरणागरायस्स गोधूभे णामं श्रावासपव्वते पण्णत्ते सत्त- |
रस एकवीसाई जोयणसताई उड़ उच्चत्तेण चत्तारि तीसे |
जोयणसते कोस च उव्वधेणं मूले दस बावीसे जोयणसते
आयामविक्खंभेण मज्के सत्त तवीसे जोयणसते उर्व
चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खेभेण मूल
तिप्मि जोयणसहस्साई दोशिण य बत्तीसुत्तर जोयणसए |
किचि .विसेषणे परिक्खेबेणं॑ मज्के दा जोयणसहस्साई |
दोष्पि य छलसीते जोयणसते किंचिधिसमा दिए परिक्खवेणं
उर्बरें एं जोयणसहस्म तिष्पि य ईयाले जोयरण॑सते
किंचिविसेसणे परिक्खेणं मूले वित्थिप्म मज्के संखित्ते |
उर्प्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे
०जाव पडिझूवे । से शं एगाए एउमवरस्वेदियाए एगेण य
वरणसंडेणं सव्वतो स्मता सपर क्खित्ते, दोणह वि वष्मओ
गाधूभस्स श आवासपध्वतस्स उवरि बहसमरमणिजे
भूमिभागे पणणत्ते ०जाब आसयति | तस्स शं बहस-
मरमणिजस्स भूमिमागस्स बहुमज्भदेसभाए एत्थ णं एने
महे पासायवर्डेसए बावद्/ं जोयशद्धं च उड उच्चत्तेशं तं
चतर पमाणं अदं आयामविक्खंभेणं वण्णझो ०जाव सी-
हासणं सपरिवारं । से केणञ्टशं भंते ! एवं वुच्चइ गोधूमे ,
श्रावासपव्वए गो धूमे आआावासपव्वए १ , गायमा ! गोधूमे
णं आवासपव्वते तत्थ तत्थ दमे तहिं तहिं बहुओ खुड़ाखु-
ड्ियाओ ० जाव गोूभव्ाई बहूई उप्पलाईं तंहव ० जाव
गोधूभे तत्थ देवे महि इए ० जाव पलिओंवमद्ठितीए परिवस-
ति, से शं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं ० जाव गोधू-
भ(य)स्म आवासपव्वतस्स गोथूभाए रायहाणीए ०जाव
विहरति, से तेणट्रेणं ०जाव शणित्चे । रायहाणिपुच्छा , गो-
यमा ! गोथूभस्स आवासपव्यतस्स पुरत्थिमेणं तिरियम-
संखेज्ञ दीवसम्रुंददे वीतिवहत्ता अष्पम्मि लवणसमुद्दे तं चेव
पमाणे तहव सव्व ।
कति णे भेत ' इत्यादि, कति भदन्त ! वलन्धरनागराजाः
प्रज्घ्ताः ?, भगवानाह -चत्वारो वलन्धरनागरा जः प्रज्प्ता-
स्तद्यथा-गास्तुपः शिवकः शङ्खा मनःशिलाकः ॥ 'घर्णास ण
मित्यादि, पतेषां भदन्त ! चतुणा बलन्धरनागराजानां कति
श्रावासपर्वताः प्रज्ञाः ?, भगवानाद-गौ तम ! पकेकस्य
पकेकमावन-चत्वार आवासपर्वताः प्रजञपतास्त यथा-गोस्तुष
उद्कभासः शखा दकसीमः ॥ ` कटि णे भत ` इत्यादि प्रश्न-
सूत्र सुगमम् , भगवानाह-गौतम ! अस्मिन जम्बुद्वीप यो
मन्दरपर्वतस्तस्य पृवस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिशत
योजनसहस्ताण्यवगाह्यात्र गास्तृपस्य भुजगन्द्रस्य भुजगरा-
जस्य गोस्तृपा नाम आवासपर्वतः प्रज्ञप्तः, सप्तदश योजन-
शतानि एकविशान्यूद्धमुच्चेस्त्वेन, चत्वारि याजनशतानि
जिशदधिकानि कोश चेकमद्धधन. उच्छुयापेत्तया3वगाहस्य
चतुभागभावात् , मूल दश याजनशतानि द्वाविशत्युत्तराणि
विष्कम्भतः , मध्य रूप्त याजनशतानि त्रयाविशत्युत्तराणि,
उपरि चत्वारे याजनशतानि चतुरविशत्य॒त्तराणि, मूले त्रीणि
य,जनसहस्था।ण द च याजनशत द्वात्रशदुत्त र काश्चाद्व०
शषाने परितक्तेपण, मध्ये द्वे याजनसचस््र द्वे च योजनशते
चतुर शीत किश्विद्धिशिषाधिके परिक्षपण, उपयंक याजनसह-
सत्र जीणि योजनशतानि एकचत्वारिं शानि किञ्चद्धिशषोनानि
परिक्षेपेण, तता मूले विस्तीणा मध्य सा्क्त उपारे तुकः,
अत पव गोपुच्छुसस्थानसस्थिता गोपुच्छस्याप्येबमाकार-
त्वात् , सवात्मना जाम्बूनदमयः, ' अच्छे० जाव पडिरूव '
हृति प्राग्वत् ॥ ` से ण ` मित्यादि सः-गारतूपनामा श्रावा-
सपर्यत एकया पग्रवरवदिकया एकन च चन खण्डन स्वतः
सर्वासु दिष्लु समन्ततः--सामस्त्यन संपरिक्षिप्तः , दयोरपि
चानयार्वदिकावनखराडया वरकः प्राग्वत् । ` गो थूभस्स ण
मित्यादि, गोस्तृपस्य णमिति प्ूवयैवद् श्रावासपवैतस्योषरि
यहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रश्त्तः, “से जहानामए च्रालि-
गपुक्खरेइ घा इत्या? प्राग्वत् यावत्तत्र बहयो नागकुमा-
रा देवा आसते शेरते यावद्धिहरन्तीति ॥ * तस्स ण `
मित्यादि, सस्य-वयहुसम रमरणीयस्य भूविभागस्य बहुमध्य-
देशभागऽच्र महानफः प्रासादायतंसकः प्रल्प्तः, स च विज-
देवस्य प्रासादाघतंसकसदशा वक्रव्यः, स चव-- सार्द्ध
नि छाषाष्टियोजनानि उश्चस्त्वन, सक्र शान्थक त्रशद् योज्ञना-
स्यायापकिष्कर्भाभ्यां, ग्रासादवरणानसल्लोघतणत्त च प्राश्तम् ॥
र
|
लवणसमु
सचरत्नमया मणिपीटिका. साच योजनायामविष्कम्भप्रमा-
शा गव्यूतद्वयवाहस्या, तस्याश्च मरणिपोठिकाया उपार महद्
कं सिदासनम् .तचन्द्रसामानिकादिदवयाग्यभद्रासनः पारचर
तमिति ॥ `स कण्णो भत) ` इत्यादि,.अथ कनार्थन भदन्त ! ए-
चमुच्यत गारतूप द्यावासपवता गास्तृप आरवासपवतः इति
भगवानाह-गातम ! गास्तृप श्रावासपवत क्षुन्लासु क्षुज्लिकासु
चापीषु यावद्विलपङ्क्रिषु वहन्धुपलान यावत् शतसदस्रप-
चाणि गास्तृपप्रभांण गास्तृपाक्राराणि गास्तृपवणानि
गास्तृपवरीस्यवाभा प्रतिभासा यपां तानि गास्तूपचर्णा भानि
लनस्तानितदाकारत्वात तद्ध णत्वात्तदणसादश्याच गास्तृपा
नाति प्रसिद्धानि, तद्यागादावासपवना ऽपि गास्तृपः.स्रनादि-
पलप्रच्॒त्तो ये व्यवहार इति तन नतरतराश्रयदाषः. एवमु-
क्षरत्रापि भावनीयम , तथा गास्तृपश्चात्र भुजगन्द्रा भुजगरा
ज्ञा महद्धिकोा यावत्करणात््-महाद्युतिक इत्यादि परियग्रहः।
सच चतुणां सामानिकसहस्पाणां चतस्र॒णामग्रमहिषीयणां
सपरिवाराणां तिखणां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनी-
काधिपतीनां पाडशानामात्मग्क्तदवसहस्पराणाम ,गास्तृपस्या-
वासपवेतस्य गास्तृपायाश्व राजधान्या अन्यां च बहनां
गास्तपराजधानीवास्तव्यानां देवानां दवीनां
यावद्धिहर्गात, तता मास्तृपदवस्वांमकत्वाच्च गास्तप
` मलयाद्युपसहारवाक्य प्रतातम् ॥
मास्तपां राजधानीं प्रच्छात-- कटि ण भत! इत्यादि
क्र भदन्त ! गास्तपस्य भुजगन्द्रस्य भुजगराजस्य गास्तपा
नाम राजधानी प्रज्ञता ?. भगवानाह-- गातम ! गास्तपस्या
चासपवेतस्य परूवया दिशा तियगसख्ययान् द्ीपसमद्रान
व्यतिव्रञ्यानन्यास्मन लवणसमु द्वादश योजनसहस्पारायव-
गाद्या त्रान्तर गास्तृपस्य भुजगन्द्रस्य भुजगराजस्य गास्तृपा
नाम राजधानी प्रज्ञता. सा च
बक्कत्या ॥ तदवमुक्का गोस्तृपः ।
एणएणाटयग
(२३) श्रधुना दकाभासवक्कव्यतामाह--
कहि णं भत ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओ-
भासणाम आवासपव्वते पण्णत्ते ? , गोयमा ! जंबूददवे ।
शं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं लवणसमुद्दं बा-
यालीस जोयशसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सिवग- '
स्स वेंलंधरणागरायस्स दओभासे णामं आवासपव्वते |
पणणत्ते, त चव पमाणं जे गोथूभस्स, णवरि सन्व-
अकामए अच्छे ०जाव पडिस्वे ०जाव अद्रा भाणियन्यो,
गोयमा ! दओम।से णं आवासपव्यते लवणसमुद अदर
जोयणियखत्त दगं सव्वता समता अ।भामेति उज्जवति
तवति पभासेतिं सिवए इत्थ दवे मदिड्िए ०जाव राय-
हाणी स दक्खिणेणं सि(4गा दअंभासस्स सेसं ते चवे ॥
कटि रो भत ! सिवगस्स इत्यादि प्रश्नसत्रे पाठसिद्धम् , भग-
>> | जम्बूद्वप द्वीप मम्दरस्य परवेतस्य दक्तिण-
त। लव॒णसमुद्र उाचन्वा।* शत याजनसहस्थाणयवगाह्य अ-
न्तर चक्रस्य सुजगन्द्रम्य भुजगगाअजस्य
> ८०
{भारा
चाधपत्य
सम्प्रात '
विजयराजधानीसहशी '
3५ )
ख्राभमधानराजन्द्र
तस्यच प्रासादावतसकस्यान्तवहुमध्यद्शभाग महत्यका- |
तकचणममष्
नामावासपवतः प्रज्ञः. स च गास्तृपवदावशपण वक्कव्या
यावत्सपरिवार सिंहासनम् ॥ अधुना नामानिमित्त पिपृ-
च्छिषुराह--' स कणदरुण ` मित्यादि प्रश्सूत्र सुगमम्.
भगवानाह -- गातम | दकाभास ्मावासपवनो लवरासमुद्र
स्वांखु दिक्षु स्वसीमाता5प्रयाजनिके-अपष्टयाजनप्रमाण
त्तत्र यदुदकं तत्त् समन्ततः--सामस्त्यनातिविशुद्धाडू-
नामरतलमयत्वन सखप्रमयाऽवभासयात. एतदव पयायत्रयण
उयाचण्र--उद्द्यानयति चन्द्र इव. तापयात सय इव.प्रभास-
यांत ब्रहादिांरव. तता दकं पानीयमाभासयति--समन्ततः-
सवाखु दिज्तु अवभासयतीति दकाभासः, अन्यच्च शिवकोा
नामात्र पर्वतषु भुजगनद्रा भुजगराजा महद्धिकोा यावत्प-
स्यापमस्थितिकः परिवसात । `स ण तत्थ चडणह सामाण-
यसाहस्सीण ` मित्यादि प्राग्वत् नवरमत्र शिबका राजधानी
वक्कव्या, तंस्मिश्थ॒ परिवसाति स आवासपर्वता दकमध्ये5
तीवा55भासत--शाभत इति दकाभासः. `स एएणट्टण `
मित्याद्पसहारवाक्यं गताथप् . शिवका राजधानी दका-
भासस्यावासपर्यतस्थ दक्षिणता ऽन्यारमन् लवणसम॒द्र वि-
जयराजधानीव भावनीया ॥
( २४ ) अधचुना शंखनामकावासपवतबक्कब्यतामाह--
कहि णं भत ! स॑खस्स वलन्धरणागरायस्स संखे णाम
अवासपव्वत पप्मत्ते 2, गायमा ! जबुद्दीवे णं दीवे मदर-
स्स पव्ययस्स पच्चत्थिमेणं बायालीस जोयणसहस्साई
एत्थ णं संखस्स ०4 लंधरणागरायस्स सखे णामं आवास-
पव्यते तं चव पमां णवरं सव्वर्यणाएं अच्छे । सेशं
एगाए पउमवरवेदियाए एगण य वणसडणं० जाव अद्रा
बहूओ खुड्डाखुड्िआआओ।० जाव बहुईं उप्पलाई संखाभाई
संखवा्म,ईं संखवष्माभाई सख एत्थ दवे महि इए० जाव
रायहार्णाए पच्।त्थम ण सखस्य स्रावासपव्वयस्स संखा
नाम रायहाणी तं चव पमाणं |
कटि रो मत इत्यादि. भदन्त! शेखस्य भजगन्द्रस्य भजग-
राजस्य शाखा नामावासपर्यतः प्रज्ञप्तः.भगवानाद-गानम ! ज-
म्बृद्धीप प द्वीप मन्द्रस्य पवंतस्य पाश्चमायां दाश लवणसमद्र
हाचत्वारिशत याजनसहस््राख्यवगाद्यात्रान्तरे शैखस्य भुज-
गेन्द्रस्य भुजगराजस्य शंखा नामावासपर्वतः प्रज्ञः, सच
गास्तपवद विशषण तावद्वक्घन्या यावत्सपरिवारं सिंहासन-
म॥ इदानीं नामनिवन्धनमभिधित्सुराद्-- स केणट्वेण ` `
मित्यादि प्रश्नसत्र सुगमम्. भगवानाद- शख आवास-
प्यते चुल्लासु ऋुल्लिकास वापीषु यावद्धलपड्डिषु बहन्यु-
त्पलानि याचत शतसहस््रपत्राणि शेखाभानि-शेखाकाराणि
शंखवर्णानि-श्वतानीति भावः. शेखवणाभान-प्रायः शेख-
वर्णासदशवर्णानि, शंखश्रात्र भुजगन्द्रा भुजगराजा मह-
द्विका यावत्पल्यापमस्थिातिकः पारवसति। `स णंतत्थ
च उगदं सामाणियसाहस्सीण ` मित्यादि प्राग्वत् नवरमन्र
शाखा राजधानी वक्कब्या , तदव यतस्तद्रतान्युत्पलादीन
शखाकाराणि शखद्वस्वामिकश्चायमतः शेख इति, ` स एषः
ग्ण ` मिव्यादयुपन्वहास्वाक्ये गताथम् , शंखा राजधानी
गोम्बम्यानार पचतस्य पश्चिमायां दिशि निद्रगम्ययान्
जबणा लघमएर
देप समुद्रान् व्यातब्रन्यान्याम्मन लब॒ गसमुद्र बजयाराज-
थाना सरशा वबकक्तदव्या ॥
सम्प्रात दकलीमापवतवक्तव्यतामाट--
कहि शं भते ! मणामिलक्रस्स वेलंधरणागरायस्स उदग-
सीमाए शामं आवासपव्यते पप्मत्ते ?, गोयमा ! जं॑बुद्दीये
दीवि मंदरस्स उत्तरण लवणसमु बायालीसं जोयणसह--
स्साईं ओगाहित्ता एल्थ शं मणामिलगस्स वेलंधरणागरा-
यस्य उदगसीमाण णामं आवासपव्यते परष्पत्त, तं चव
पमाणं णवरि सव्वफलिहा मए अच्छ० जाव अद्रा, गोयमा !
दगसीमेते शं आवासपव्वते सीतासीतादगाणं महाण-
दीं तत्थ गतो साए पडिहम्मति, स तेणऽटरं ° जाव शिच
मणासलाए एत्थ दव माहइषएन्जवमस ण तत्थ चउएह
सामाशिय०जावर विहरति ॥ कदि णं भंत ! मणोसिलगस्स
वलंधरणागरायस्स मणोसिला णाम रायदहाणी ?, गोयमा!
द गसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरणं तिरियमसंखेज्जाई
दीवसमुद्दाई वीतिवदइत्ता ० अप्यम्मि लवण एत्थ णं मलोसि-
लिया णाम रायहाण। पप्पत्ता, तं चेव पमाण ० जाव मणो-
सिलाए देवे-'' कशगंकरययफालिया-मया य वेलंधराण-
मावासा । अणुवेलंधरराई-ण पव्वया होंति रयणमया ”
|| ? ॥ ( स्ू० १५६)
कहि ण भत !
गोतम ! जम्बूद्वीप द्वीपे
' इत्यादि प्रश्नसत्र प्रतीतम् , भगवानाह-
मन्दरस्य पयेतस्यात्तरता ल |
वणसमुद्रं द्वाचत्वारिशतं याजनसटस्रारायवगाद्य च्रत्र-- |
यतस्मिघ्नवरकाश मनःशिलकस्य मुजगन्द्रस्य भुजगराज- |
स्य दकसीसो नामावरासपवतः प्रज्ञः, साऽपि गोर्तृपप- |
वैतचर्दविशेधेण तावद्धक्तव्पो यावन्सर्पारवारं सिंहालन- |
म् ॥ दृदाना नामानामत्त वव्रभाणष्रुगाह--
स कण्ण ` |
मित्यादि प्रतीतम् , भगवानाद-- गोतम ! इकसीम श्रावा- |
सपवते शीताशीनादयामदानयाः
गतानि तस्माश्च तन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्मन्त तता दकसी-
श्रातांसि-जलप्रवाहास्तज्न |
माकारित्वाद् दकसीमः. दकस्य सामा--शीताशीतोदापानी- |
यस्य सीमा--यत्रासा
मनःशिलको भरुजगन्द्रा भुजगराजा
ल्योपमस्थितिकः परिवसाति ।
माशणियसहस्सीण ` मित्यादि प्राग्वत् : नवरं मनःशलाऽत्र
राजधानी वक्तव्या, तता मनःशिनस्य दवस्य दक--
लवघ्णजलमध्य सोमा-द्यावासचिन्तायां मर्यादा, अजेति--
दकसीम, मनःशिला च गाजधार्ना दकसीमस्यावासप-
नस्यात्तरतत्तियगसख्ययान् द्वीपनमुद्रान् व्यांनत्रञ्यान्य-
स्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजवानीव वक्त्रा ।
तदवसमकंताश्चत्वाराऽ(वि वलन्धराणामावासपवेताः, सर्व-
अ च गोस्तुपेनातिदशः कृतः , अन्र च मूलदल
विराषस्ततस्तमभिधिःसुराह--' कणगेकरययफालिय-मया
य वेलधराणमावासा । अखुवेलेघरराई-ण पब्वया धौति
ग्यगमया ॥ * `` प्रलन्धरागां -
महाका यावन्प-
दकस्रीम दान व्युन्पत्तः, श्न्यञ्च |
स्र ण॒ तत्थ चडरह सा- |
गास्तूवादीनामाबासा गो |
वे दवि पष्पत्त,
पेदिया दो जायणाई
९ ॥
खाअजधानराजनद्र: |
लवणसमइ
स्तृपादयश्वत्वारः पवता यथ्याक्रमं कनकाङ्करजतस्फटिक-
मयाः, गास्तृयः कनकमयो. दकाभासाऽङ्करत्नमयः, शंखा
रजतमया. (6 स्फाटकमय इति तथा महतां बल-
न्थराणामादशप्रताचउलकतया उनुयायना वलन््धराश्थधानुवल-
6 तचत ६ अनुव ज़न्धरराजास्तपामावाखप-
वता रत्नमया भवान्त। जा ०।(अनुवलन्धर ना गरा जव क्कलयता-
सूत्रम (१६०) अरुवलघर शब्दे प्रथमभाग ३६१प्रष्ठ मतम् )
( २५ ) लव॒णाधिपतद्वीप प्रतिपादयन्नाद-
कहि णं भते ! सुट्टियस्य लव॒णाहिबहस्स गोयमदीवे
णाम दवे पापत्त ?, गोयमा ! जवुरदीवे दीव मंदरस्य प
व्ययस्स पचत्थिमेणं लवणसमुदं बारसजायणसहस्साईं
श्रा गाहिन्ना एत्थ शं सुद्टियस्स लव॒णाहिवइस्स गोयमदी-
बारसजोयणसहस्साई आयामबि-
क्खभेणं सत्ततीस जायणसहस्साई नव य॒ अडयाल जो-
यणसण किंचि विसेश्रणे परिक्ेध्रणं, जबरदीवं तणं अ-
द्रकोणणउत जोयणाई चत्तालसं पचणउतिभागे जा-
यणस्स ऊसिए जलंताओं लवणसमु, तेण दो कोसे ऊ-
सिते जलंताओ ॥ सरणं एगाए य पउमवरवेइयाए ए-
गणं वणसंडेण सव्वतो समता तहेव॒ वष्मओ दोण्ह वि।
गं।यमदीवस्स शं द।वस्स अंतो ०जाव बहुसमरमणिज्ञ
भूमिभाग पण्मत्ते, स जहानामए-आलिंग ०जाव आस-
यन्ति | तस्स णं वहुसमरमणिजस्म भूमिभागस्स बहु-
मज्भदेसभागे, एत्थ णं सुद्ियस्स लव॒णाहिवइस्स एभ महं `
अक लावास नाम भमिज्ञविह।र॒पष्त्त बावाद् जोय-
णाई अद्रज।यणं उडं उच्चत्तेणं एकतीस जोयणाई कसं
च विक्खंभणं ्रणगखभसतसनि विट भवणवष्प्र। भा-
णियव्यों | अइकीलावासस्स णं भ।मज्ञचहारस्स अता
बह समरमणज्ञ भूमिभागे पएणत्त०जाव मरणं भासो ।
तस्स णं बहुसमरम।णेजस्स भू।*भागस्स बहुमज्कदे-
सभाए एत्थ एगा मणिपेठिया पण्णत्ता। सा णं मणि-
आयामधविक्खंभेणं जे।यणबाहल्ले्ण
सव्यमणिमर्या अच्छा ०जाव पडिरूवा | तीसे ण॑ मणि-
पेढियाए उवरि एत्थ णं दवसयाशज्ञ पण्णत्त वएणओ ।
सकेणड्ट्रुश मेते ! एवं वुच्चति-गंयमदीव णं दवं. १,
तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहुई उप्पलादं ०जाव गोयमप्पभाई
से एएणब्ट्रेणं गोयमा ! ० जाव शच । कटि णं भते !
सुद्धि यस्स लवणाहिवइस्स सुद्धा णामं रायहाणी पष्प-
त्ता ?, गोयमदीवस्स पञ्चत्थिभेणं तिरियमसंखेज ° जाव
अप्मम्मि लत्रणसमुद्दे बरस जोयणसहस्साई अ।गाहित्ता,
एवं तंहेव सब्यं शय्य ° जाव सुत्थिए दते । (१०१६१)
कहि र भेत, इत्यादि, क भवन्त ! सखुस्यितस्य लवणा-
परिघस्य गातम्द्(पा नाम द्रापः प्रद्षत ४ भगवानाह-गात-
( ६४७ )
ललेब्रेषसनदै >
म जम्बुद्रीपस्य पाश्चताया दश्च लव्रखसमुद्र दादश यो-
जनसहस््रारव्रत्रगद्याज्ान्तर सास्थतस्य लवणाधपस्य गा-
आभिधानगाजन्द्र
लमद्धीपा नाम दीपः प्रज्ञप्तः, दादश याजनसहस्पाणयायाम- |
विष्कम्भाभ्याम्, सप्ात्रशद् याजनसटहस्राण नव चाष्टा च त्वा-
रिशानि किञ्चदिशषानानि पारत्तेपण, ` जवुदीव तण' मिति
जम्बुद्रीपादांश ` श्रद्धकाननवतीनि '--श्रद्धमकाननवतर्यषां
तान अ्रद्धैकाननवतीनि साद्धाप्राशातिसख्यानीति भावः,
य) जनानि चत्वांरिशते च पश्चनवतिभागान् याजनस्य ज-
लान्तात्-जलपयन्तादृष्वमुच्द्तः, एतावान् जलस्योपरि प्र
कट इत्यश्रः. लवणसमुद्रान्त-लव्रणस्मुद्रादाश द्वा क्राशा ज- |
लान्तादुच्िता. द्ावव काशो जलस्योपरि प्रकट इत्यधः।
सर ` मित्यादि, स एकया पद्यवरवादिकया एकन वन-
घगडन सर्वतः-समन्तात्स परिक्तप्तः.द्यारपि वर्णन प्राग्वत् ।
तस्य च सतमद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयभूमिभागवरान |
प्राग्बद् यावन्ृणानां मणीनां च शब्दवरीने वाप्यादिवणेनं
यावद्धदवा वानमन्तरा देवा श्रासत शरत यावद्धिहरन्ती- |
ति। तस्य वहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदश- |
भागऽत्र खुम्थितस्य लवणाधिपस्य याग्यो महानकः अ-
तिक्रीडावासः- अव्य कीडावासा नाम भामेयावहार
प्रज्ञप्तः. साद्धानि द्वाष्र्योजनान्युर्वमुच्चस्त्वन एकरतरिशतं
च याजनानि कराशमकं च विष्कम्भन ` श्रणगखभसयसन्नि-
विद्रु ` इत्यादि, भवनवणनमज्ञाचवरन भूमिभागवराने च
प्राग्वत् । तस्य च वहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुम-
ध्यद्शभाग, श्रत्र महत्यका मांणपीठिका प्रज्ञप्ता, सा याज
नमायामाविष्कम्भाभ्यामद्धयाजन वादस्यन सर्वात्मना म-
मयी अच्छा यावत् प्रतिरूपा। | तीस ण ` मित्यादि,
तस्या मणिपीटिकाया उपरि दवशयनीयम् .तस्य वरीक उप-
यष्टापए्रमज्गलक्राादक् च प्रागचत् । नामानामत्त ।पत्राच्चृषुगराह- |
* खं कण्ट्गुण ` मित्यादि, श्रथ कनार्थन--कन कारणन
णचमुच्यत-गांतमद्धीपा नाम द्वीपः ?, भगवानाह-गातमद्वी-
पस्य शाश्वतामदे नामधय न कदाचिन्नासीदित्यादि प्रा-
ग्वत् । पुस्तकान्तरघु पुनरवं पाठः--' गोयमदीवे रौ दीवे
तन्थ तत्थ तदि तदि बहूई उप्पलाई
पत्ताई गोयमप्पभाई गोयमवन्नाद गोयमवरणाभादे '
इति, एवे प्राग्वद् भावनीयः | सुस्थितश्चात्र ( देवः ) लव-
गाधिपां महर्झिका यावत्पट्यापमास्यतिकः परिवसति ,
स॒ च तत्र चतुणा सामानिकसहस्ताणां यावत्-
घाडशानामात्मरत्तकदवसदस्राणां गोतमद्वीपस्य सुस्थि-
तायाश्च राजधान्या अन्येषां च वहूनां वानमन्तराणां
डवानां" देवीनां चाधिपत्य यावद्धिहरति, तत पवमव
शाश्वतनामत्वात् , पाठान्तरे--तद्भत।नि उत्पलादीनि गो-
तमध्रभाणीति गोतमानीति प्रसिद्धानि ततस्तद्योगात्तथा
तर्दाधर्पषातगोतमाधिपतिरिति प्रसिद्धम् इति सामथ्यादे
घ॒ गानमद्धीप इति | उपसंदारमाह-- स तरणट्रण `
{म्याद् गताथम् । जी० । ( लवणसमुद्र कियदवगाह्य
जम्बृद्धापगतचन्द्रसत्कादि तत्सृत्र,लवणसमुद्र गतचन्द्रादित्य-
द्वीपवक्कव्यतासू्ज , लवणसमुद्रमवगाद्य धातकीखरडग-
[~ ` चद्व › शब्द ठृती- |
यभाग १० ७४ पृषु टुष्टञयानि)
०जाव सहस्स- |
र ._ लवणसम॒दद
अत्थि णं मते | लवणसमुद्दे वेलंधरा ति वा णागराया
अग्घा ति वा खन्ना ति व सिंहा ति वा विजा ति वा हास-
वड ति १, हंता अत्थि | जहा णं भते ! लवणसमुद्दे अ-
त्थि वेलंधरा ति वा णागराया अग्घा सीहा विजातिवा
हासव्टी ति वा तहा णं बाहिरतेसु वि समुद्देसु
अत्थि वेलंधराइ वा णागराया ति वा अग्घा ति वा
सीहा ति वा विजातीति वा हासवद्टी ति वा ?, णा
इणट्टे समद्ठे ॥ ( स्ू० १६८ ) लवणे णं भते !
समुदे कि ऊसितोदगे कि पत्थडोदग कि खुभि-
यजल कि अक्खुभियजले ? , गोयमा ! लवणे णे
समुदे उसिश्रोदगे नो पत्थडादग खुभियजले नो
अक्खुभियजले, जहा णं भते ! लवणे समुद्दे ऑसितोदग
नो पत्थडोदग खुभियजले नो अक्खुभियजले तहा णं
बाहिरगा समुदा कि ऊसिओदगा पत्थडोदगा खभियज-
ला अक्खुभियजला १, ग।यमा ! बाहिरगा सुदा नो
उस्सितोदगा पत्थडादगा नो खुभियजला अक्खुभियजला
पुष्पा पुष्पप्पमाणा वालट्र माणा वोसद्रमाणा समभरघड-
त्ताए चिट्ठति ॥ अत्थि णं भते ! लवणसमुदे बहवो आ-
राला बलाहका संसयति संमुच्छति वा वासं वासंति वा,
हंता अत्थि । जहा णं भते ! लव्रणसमुदे बहवे श्रोराला
बलाहका संसेयंति संयच्छति वासं वासंति वा तहा णं
बाहिरएसु वि समुदेसु बदवे ओराला बलाहका संसयति
संमुच्छंति वासं वासंति १, णो तिणद्र समद, से केणटर-
शं भते ! एवं वुच्चति बाहिरगा शं समुदा पुष्पा पुष्पप्प-
माणा वोलइमाणा वोसइमाणा समभरघडियाए चिट्ठं ति!
गोयमा ! बाहिरएसु णं समुदेस बहव उदगजोणिया ज
वा य पोग्गला उदगत्ताए वक॒र्मति विउकमंति चयंति
उवचयंति, स तेणड्टरेणं एवं वुचति- बाहिरगा समुद्दा पुष्पा
पुपप्पमाणा °जाव समभरषडत्ताणए् चिति ॥ (सू०१६६)
* अ्रत्थि णं मत ! ' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! लवणसमुद्र
वलन्धरा इति या नागराजा, अ्रग्घा इति वा खन्ना दाति
चा सीहा इतिवा विजाद इति वा ?, अ्रग्घादयों मत्स्यकच्छ-
पविशेषाः, आह च चूिकृत्-"' श्रग्ध्रा खन्ना सीहा विजाद
इति मच्छुकच्छुभा "` दात, हस्वव॒द्धी जलस्यति गम्यत इति.
भगवानाह--गोतम ! सन्ति। ' जदाणे भत ! लवणसमुद्दे
चलेधरा इति वा' इत्यादि पाठसिद्धम'लवण सो भत! इत्यादि,
लवणा भदन्त ! समुद्रः किमुच्छितोंदकः प्रस्तटादकः-प्रस्त-
टाकारतया स्थितमुदकं यस्य स तथः. सर्वतः समादक
इति भावः, चछुमितं जल यस्य स चभितजलस्ततपतिषधा-
दच्युभितजलः ?, भगवानाह -गोतम ! उच्छितेदको न प्रस्त-
टादकः, क्षुभितजजा नाच्लुभितजजल॥ ` जदा णे भेत !` इत्या-
दि, यथा पदन्त ! लवणसखनुद्र उच्छितादक इत्यादि तथा
` .
( दै8द )
ले्रणसमद्
अप्रभिधानराजन्द्र
वाद्या आप समद्रा कमाच्छुता दकाः प्रस्तटादका छाभ- |
तजला अकन्ञाभतजलाः ?, भगवानाह-गातम ! वाद्याः समद्रा |
न उ।च्छुतादका: कन्तु प्रस्तटादकाः रूवत्र समादकत्वात् ,
तथा न ज्चाभतजला: कत्वज्षा भतजलाः क्षाभहतुपातालकल-
णाभावात् ,कन्तु त पूणाः.तत्रा का श्रद्धा नमा पे व्यवहारत
पूण भवात तत आझह-प्णुप्रमाणाः स्वप्रमाण यावज्जलेन
|
पूणा इति भावः, ' वोसदधमाणा ` -परि पृरीभ्रततया उत्लुट-
न्त इवति भावः. ` वोलइमाणा ` इति विशेषण उरलुटन्त !
इत्यथः ` समभरघ्रडत्ताए् चिदट्रुति ` इति समं--परि--
पृणां भरा- मरणं यस्य स समभरः परिपृरीश्रत इत्यथ
स च्रासा घटञ्च समभरधघरस्तद्धावस्तत्ता तया सम--
भृतघट इव तषन्तात भावः ॥ ' अत्थि णे मते! ` इत्या-
दि, अस्त्यतद् मदन्त ! लवणसमुद्र *' आराला बलाहका `
दारा मघाः साखद्यन्त--सम्च्छुनाभिमुखीमवन्ति, तद-
नन्तरं समूच्छान्ति, तता वपम्- पानीयं वन्ति ? ,
भगव्रानाह- हन्त ! श्रस्ति॥ ' जहा र भत ! लवणसमद `
इत्यादि प्रतीतम् ॥ ` स केणट्रण ' मित्यादि, श्रथ कनार्थेन
भदन्त ! एवमुच्यत वाह्याः समुद्राः पृणाः-पृरीध्रमाणाः ?
इत्यादि प्राग्वत् , भगवानाह-- गोतम ! बाह्मषु समुद्रषु
चहव उदकयानका जीवाः पुद्रलाश्चादकतया अपक्रामन्ति-
गच्छरान्त व्युःकामन्ति-उःपयन्ते, एक गच्छुन्त्यन्ये उत्प-
दन्त इति भावः, तथा ` चीयन्त .' चयमुपगनच्छुन्ति उप-
चीयन्त- उपचयमायान्ति, एतच्च पुद्रलान् प्रति द्रष्टव्यम् ,
पुद्रलानामव चयापचयार्थप्रसिद्ध:, स एएणट्रेण ` मित्या-
दय प्रसहारवाक्य प्रतीतम् ।
(२६) सम्प्रत्युद्धधेपरिवुद्धि चिचिन्तायपुरिदमाद--
लवण शं भते ! समुद कवतियं उख्बेहपरिवुड्डीए पा्पत्त ?,
गोयमा ! लवणस्स शं समुदस्स उभओ पामि पंचाणउति पं-
चाणउति पद्रः गता पदसं उब्वेहपरिवुड्टीए पप्पत्त,पंचाण- |
उति पंचाणउति वालग्गाई गता बालग्गं उच्वहपरिवुद्ीए,
पण्णत्ते, पंचाण ०लिकव्खाओ गता लिक्खा उच्बेहपरि०
पचाणउइ जवाश्रो जवमज्मे अगुलविहत्थिरयणं बुच्छी |
धणु ( उव्वेहपगरिवु ईए ) गाउयजायणजोयणसतजोयण-
सहस्साई गता जोयणसहस्सं उन्बेहपरिदर्डए ॥ लवण
शं भत ! समह केवतियं उम्सहपरिवृद़ीए पणणात्ते ?,
गायमा ! लवणस्स शं समुहस्स उभझो पामि पंचाणउति
पदमे गेता सालसपएसे उस्सेहपरिवृड्ढीए पत्त, गोयमा !
लवणस्स णं समुहस्स एएशव कमं ० जाव पंचाशउतिं
पचाणउतिं जोयणसहस्साईं गता सोलस जोयणसहस्साई
उस्सहपरिवुद्ौए पत्ते । [ स्ू० १७० ]
लबण रा भत समह इत्याव लब॒णा भवन्त ! समद्र
क्रियत् क्रियन्ति योजनानि यावद् उद्धधपरिवृद्धा प्रश्नप्तः ?
कमुक्तं भवात {- जम्धृद्धा पर्वादिकान्तान्नदशसमुद्रवादका-
न्ताञ्चारमभ्याभयतातप लघणयशन्षप्नद्॒स्य कियान्त योजनानि
याचन् पात्रपा पारया उक्रश्रधारछ्दारान, भगसानाह:-
‡। वससु
गातम ! लवणसमद्र उभयाः पाश्वयाजंम्बृद्धीपवदिकान्ता-
ल्ञवणसम॒द्र वदिकान्ताच्चारभ्यत्यथः पञ्चनवातिप्रदेशान् ग-
त्वा प्रदेश उद्धधपरिव्॒द्धया प्रज्ञप्तः, इह प्रदशखरसरेरावादि-
रूपा द्र एरव्यः. पञ्चनवति बालाग्राणि गत्वेकं वालाग्रमद्वेधप
रिव्ुद्धया प्रश्नप्तम,एवं लित्तायवमध्याङ्कलवित स्तिरत्निकुल्ति-
धनुगेव्यतया जनया जनशतसूत्राययपि भावनीयानि, पञ्चनव-
ति योजनसहस्प्राणि गत्वा याजनसदस्रमुद्रधपरिवद्धधा प्रक्षप्त-
म.्राशिक्रभावना चव याजनादिषु द्रष्टव्या. इद्ाभयतो ऽपि
पञ्चनर्वातयाजनसटखपयन्त ॒ याजनसहस्रमवगाटन दघ
ततस्त्रेराशिककम्मावतारः, यदि पञ्चनवानसद सपन्त
याजनसदखमवगाहस्ततः पञ्चनवांतयाजनपयन्त को ऽवगा-
हः ?, राशित्रयस्थापना--६५०००। १००० । ६५ । अत्रादिम-
ध्यया राश्योः शन्यत्रयस्यापवतत्तना ६५। १।६५। तता मध्य-
स्य राशरकरूपस्य अन्त्यन पञ्चनवातिलत्तणन राशिना गुण-
नात् जाता पञ्चनवतिः, तत्राद्यन राशिना पश्चनवतिलक्षणन
विभज्यत लब्धमकं याजनम् . उक्रञ्च--
पंचाणउद्डसहस्स, ग तृय जायणाणि उभआ वि ।
जायणसदस्समग, लवण ओआगाहआ हाइ ॥ १॥
पंचाणउईण॒वग, ( लवण ) गंत॒र्ण जोयणाणि उभआओ वि ।
जायणमग लवण, आगाहेणं मणयव्या ॥
पञ्चनवतियाज्ञनपर्यन्त च यद्यकं योजनमवगाहस्तता ऽथ॑(-
त्पश्चनवतिगव्यूतपर्यन्त पकं गव्यृत पञ्चनवतिधचुःपर्यन्त
पकं धञुरिव्यादि लब्धम् | सम्प्रत्युत्सधमाधिकृत्याह--' लव-
णण भेत! समद ` इत्यादि, लवणा भदन्त! समद्रः कि-
यत् कियन्ति याजनानि उन्सधपरिवृद्धवया प्रज्षन्तः ?.
एतदुक्तं भवत्ि-जम्बृद्धीपर्वाद कान्ता ज्ञव णस मुदरर्वादि कान्ता-
चारभ्याभयताऽपि लवणसमद्रस्य कियत्या कियत्या
मात्रया क्रियन्ति याज्ञनानि यावदुत्सधपरेन्ृद्धिः ? ,
भगवानाह गोतम ! ' लवणस्स ण समदस्स ` व्यादि, इह
निश्चयता लचणसम्द्रस्य जम्बृद्धीपचदिकाता लवणसमुद्र-
वदिकातश्च समतले भूभाग प्रथमता जलवृ द्धिरङ्कुलसं ख्यय-
भागः, समतलमव भूभागमाधिछत्य प्रदेशच्द्धया जलचरुद्धिः
क्रमेण परिवदे माना तावदवसेया यावदुभयतोऽति पञ्चनव-
तियोजनसद ख पर्यन्त सप्चशतानि, ततः परं मध्यदशभाग
दशया जनसहस्रविस्तारे पाडशयोजनसहस््राणि , इह तु
पाडशयोजनसदस्रप्रमाणायाः शिखायाः शिरसि उभ--
योश्च वदिकान्तयार्मूले दवरिकायां दत्तायां यदपान्त-
राले एकमपि जलरद्दितमाकाश तदपि करणगत्या तदा-
भाव्यमिति स जले विवांक्तित्वाऽधिङ्तमच्यत-लवणस्य
समुद्रस्योभयतोा जम्बृद्धीपवदिकान्तल्नवणसमुद्रवदिकान्ता-
च पश्चनवति प्रदशान गत्वा षोडश प्रदेशा उत्खधपरिव्रद्धिः
प्रन्नप्ता, पञ्चनवति वालाग्राणि गत्वा षोडश वालाग्राशि, एवं
यावन् पश्चनधाति यासनसहस्नाणि गत्वा षाडश योजनसह-
सराणि । त्रय ्रराशिकभावना-पञ्चनवतियाजनसहश्यातिक्र-
में घाडशयाजनसहस्त्राणि जलात्सधस्ततः पञ्चनवातयाजना-
तिक्रम क उत्सेधः?, राशित्रयस्थापना--६५०००।१६०००।६५
श्रच्रादमध्यया राश्याः शृन्यत्रिकस्यापवस्वैना ६५।१६।६५,
तता मध्यमराशः पाडशलक्तणस्यान्त्यन पश्चनवातिलक्तरेन
गुरने जाताभि पञ्चदश शतानि विशव्याथिकानि १५२०,
9०) कर)
लवणसम॒ह
एपामादराशना पश्चनवातलक्तणन भाग हत लब्धान षा- |
डश याजना न, उक्तञ्ब--
“ पंचाणउइसहस्स, गंतूण जोयणाण उभआओऔ वि ।
उस्सहेण लवणा, सोललखसाहस्लिओों भाणिश्रो ॥ १॥
पचाणउई लवण, गंतूणं जोयणाणि उभआ वि।
उस्सदटरा लवणा, सालस क्रिल जाय हाइ॥ २॥
तज्ञ यदि पञ्चनवांनयाजनपयन्त पाडशयाजनावगादस्त-
त्ताष्थाल्लभ्यत पश्चनवातिगव्यूतपर्यन्त षोडश गन्यूतानि पञ्च
नवतिधनुःपर्यन्त षोडश धनूषीत्यादि |
( २७ ) सम्प्राति गातीथप्रतिपादनाथैमाह--
लवणस्स णं भत ! समुदस्स के महालए गोतित्थे पछ्प-.
१, गोयमा ! लव॒णस्स णं समुदस्स उभआओ पासि षं
चाणउति पचाणउति जायणसहस्साईं गोतित्थ पण्णत्तं |
लवणस्स णं भत ! समुदस्स के महालए गोतित्थविरहिते |
खत्ते पण्णत्त ?, गोयमा ! . लवणस्स शं
जोयणसहस्साई गोतित्थविरहिते खेत्ते पण्णत्ते ।
स्स णं भत् ! समुदस्स के महालए उदगमाले पणणात्त ?,
सम्ुदस्स दस |
लवण- |
गोयमा ! दस जायणसहस्साईं उदगमाले पणणाक्ते |.
( सू० १७१ )
* लवणस्स रा भत ! `
इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्र- |
स्य कि महत्--कि प्रमाणम गोतीथ प्रज्ञम् ? । गोती- |
धमिव गोता4-क्रमेण नीचो नीचतरः प्रवशमागी:,
नाह-गोतम ! लवणस्य समुद्र॒स्याभयाः | -
पवेदिकान्ताल्लवणसमद्र दिकान्ताच्चारभ्यत्य्थः पञ्चनवाति
याजनसहस्राणि यावद् गोतीथ प्रजञघतम् , उक्त -'* पचाण--
उदइसहस्स गातित्थ उभयता वि लवणस्स `` इति ।
शस्स रे भत! ' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य
कि महत्-- कि प्रमाणगदच्ये गाती्थविरदितं त्तत्र परज्ञप्तम् ?
भगवानाद--गौतम ! लवणस्य समुद्रस्य
चराणि गातीधविरहित क्त्र प्रक्लप्तम् । ` लवणस्स शो भत!
इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समूद्रस्य किं महती -विस्तरम-
दश योजनसद- ।
धिङृत्य कि प्रमाणमहत्त्वा उदकमाला-समपानीयोपरिभूता |
पषोडशयोजनसहस्प्राच्छुया प्रक्षणा ?, भगवानाह-गोतम ! |
दश याजनसहस्थनाणि उदकमाला प्रज्ञघ्ता ।
( २८ ) लवणसमृद्रः किंसंस्थानसस्थितः-
लवणे णं भते ! समुहे किं संटिण पष्पत्ते १, गोयमा !
गोतित्थसंटिते नावासंठाणसंठिते सिप्पिसंपुड्संठिए आस-
खधसंठिते वलभिसंठिते वद्ठे बलयागारसंठाणसंठिते पण.
त्ते! लवणे णं भते ! समुद् केवतियं चकवालविवखंभेणं ?
केवतियं परिक्खेवेणं ? कवतियं उव्वेदेणं ? केवतियं उस्से- |
देशं ! केवतियं सव्वग्गणे पष्पत्ते १, गोयमा ! लवणे शं समुद्दे
दो जोयणसहस्साई चकवालविक्ंभेणं पष्णरस जोयण
सतसस्साई एकासीति च सहस्साई सतं च इगुयालं
किंचि विभेघ्र परिक्खेवेणं, एगं जोयणसहस्सं उच्वहेणं
२६३
|.
आामभधानराजन्द्र;: |
भगवा- |
पाश्व॑याज॑म्बूद्वी- |
लब- |
लवणसमु
सालस जायणसहस्साई उस्सहश सत्तरस जायणसहस्साई
सव्वग्गणं पष्पत्तं । ( ( खू० १७२ )
लवण ण भते ` इत्यादि, लव॒णा भदन्त! सम॒द्रः कि-
सॉस्थितः प्रज्ञप्तः ?. भगदानाह-गानम ! गातीधसस्ान-
सेस्थतः ऋमण नाचर्नात्रेस्तरामद्धघस्य भावात्, नावास-
स्थितः वुध्नादृद्ध नाव इव उभयारपि पाश्वयाः समतले
भूभागमपच्य क्रमण जलवृद्धिसम्भवन उन्नताकारत्वात् ,
` सिप्पसंपुडसेटिते ` इति शुक्िकासंपुटसस्थानसंस्थित
उद्वघ्रजलस्य जलवृद्धिजलस्य चकत्र मालनचिन्तायां शु-
क्रिकासपुटाकारसादश्यसम्भवात् . ' अश्वस्कन्धसास्थित
उभयारपि पाश्वयाः पञ्चनर्वातयाजनसदहस्रपयन्त ऽश्वस्क
न्धस्यवान्नततया पाडशयाजनसदसख प्रमाणाच्चेस्त्वयाः शि
खाया भावात् , वलभीसंस्थित:--वलभाग्रहसंस्था-
नसस्थितः दशयाजनसदस्रप्माणविस्तारायाः रिखाया
वलभीग्रहाकाररूपतया प्रतिभासनात् , तथा चत्ता लवणस-
मुद्रा वलयाकारसंस्थितः, चक्रवालतया तस्यावस्थानात् ॥
सम्ध्रात ववष्कम्भादिपरिमाणमककाल पिपृच्छिषुराद--
लवण ण भत. समुह ` इत्यादि, लवणा भदन्त ! समुद्र
क्रयच्चक्रवालविष्कम्भन कियत्परित्तपण कियदद्धधेन--
उगडतवन क्रियदुत्सघन कियत्सर्वाग्रण-उत्सघोद्धधर्परि
माणसामभ्त्येन प्रज्ञः ?, भगवानाह-- गौतम ! लवणस-
मुद्रा & याजनशतसहतस्प चक्रवालविप्कम्भन प्रज्ञप्तः, पञ्च-
दश योजनशतसदस््रांण एकाशीतिः सदस्राणि शतं चेका-
नचत्वारश किश्विद्दशपान परिक्तपण प्रज्ञप्तः, पकं योज-
नसदस्रमृद्धधन, षोडश योजनसहस्पराग्युत्सेघन, सप्तदश
योजनसदस्ताणि स्वाग्रण उत्सघाद्धेधमीलनाचन्तायाम् ।
इद लवणसमुद्रस्य पूर्वाचार्येघरनप्रतरगणितभावना5पि
कृता सा विनयजनानुग्रहाय दश्यत. तत्र प्रतरभावना क्रि-
यत प्रतरानयनाश चदं करणम् , लवणसमुद्रसत्कवि-
स्तारपारमाणाद् द्रिलत्तयाजनरूपाद् दश योजनसदस्राणि
शाध्यन्त, तषु च शाधितषु यच्छुष तस्याद्धं क्रियत, जा-
तानि पञ्चनवतिः सहस्राणि, यानि च प्राक् शोधितानि
दश सहस्माणि तानि च तत्र पक्षिप्यन्त, जातं पञ्चोत्तरं लक्त-
६१०५०००, पतच्च कोटीति व्यवद्धियते, श्रनया च को-
स्या लवणसभुद्रस्थ मध्यभागवरत्ती परिरयो नव लक्ता श्रष्ट-
चत्वारशत्सहस्राण षट् शतान अयशीत्यधिकानि
६४५८६८३, इत्येवं परिमाणो गुरयते, ततः प्रतरपरिमाणे
भवति , तच्चदं -नघनवतिः काटिशतानि पकषष्ठिः कोटयः
सप्तदश लक्षाः पञ्चदश सहस्राणि ६६६६१७१५०००, उक्रञ्च-
“ वित्थाराश्रो सोहिय, दस सहस्साई सेसअद्धम्मि ।
तं चेव पक्खिवित्ता, लवणसम॒द्दस्स सा कोडी ॥ १॥
लक्ख पंच सदस्सा, कोडीए तीएँ संगुणेऊणं ।
लवणस्स मज्भपरिही, तादे पथरं इमं होइ ॥ २।
नवनउई कोडिसया, एगट्टी फकोडिलक्खसत्तरसा ।
पन्नरस सहस्साण य, पयर लवणस्स नदिद्रं ॥ ३॥ ”'
घनगणितभावना
है त्ववम्- इह लवणसमद्रस्य शाखा
पाडश सहस्राण याजनसहस्ममद्धधः रवसख्यया स-
पदशश सहस्लाण, तः प्राक्रन प्रतरपारमाण गुरायत ,
तता घनगुाणत भवात, तच्चदम्-षाडश कारीकार-
यखस्मिनवातिः क।टिशतसदसराणि णकानचत्वारिशत् कोडि-
६१८)
आभधानराजन्द्र; |
परश्भदशकाख्याथकान प-
लव॒णम्समदह
सटस्राण नव काटिशतानि
खा शल्ललाण याजनाना्मिनि २६६३३६६२५५००००००,
उक्रञ्--
`` जायणसटस्ससालस, लवणासहा 5हागया सटस्सगे ।
पयर सत्तरसहट-स्ससगुरो लवराध्ररगगायय ॥ २१ ॥
सालसकाडाकाडा. तगउई काडिसयसहस्साओं ।
उणायालीससहस्सा, नव काडिसया य पन्नरसा ॥ २ ॥
पन्नास सयसहस्सा, जायगयाण भव अखूणा
लवणसमुदस्सर्य. जायणसंखाएँ घणगाणिय ॥
आहर--कथमतावसन््प्रमाणं लवरणसमुद्रस्य घनगरिते भ-
वात ?, न हि सयत्र तस्य सप्तदशयाजनसहस्प्रप्रमाण उ-
च्छुयः. किन्तु मध्यभाग एव दशनहस्प्रप्रमाणांवस्तारस्तत
कथ यथाक्ल घनगाणातमुपपद्यत ? इति, सत्यमतत् , कवले
लवणशिखायाः शरास उभयाश्र वादकान्तयारुपार दव-
र्किायामकान्तक्रजुरूपायां दीयमानायां दीयमानायां यद-
पान्तराल जल श॒न्य त्तत्र तर्दाप करणगत्या तदा भाव्यामाति
सजल विवच्यत, अजाधथ च दृष्टान्ता मन्दरपवतः, तथा-
हि-मन्दरपवतस्य सचत्रकादशभागपरिहाणरुपवरायत ,
श्रधच न सर्वत्रकादशभागर्पग्हाणिः, किन्तु-क्रापि कि--
यती, कवल मलादारभ्य शिखरं यावदहवारकायां दत्तायां
यदपान्तराल क्राप क्रियदाकाशो तत्सव॑ करणगत्या मरा-
राभाव्यामिति मरूतया परिकल््य गाणिनज्ञाः सर्वत्रकादश-
परिभागहानि परिव्रसोयन्ति. तद्धंदिदर्माए यथधाक्ल॑ प्रनर्परि-
माणर्मात., न चतत्स्वमनी पिकाचिज़म्भितम , यत आह जि-
नभद्रगाणक्षमाश्रमणा विशपणवत्यामतद्विच्चारप्रक्रम-- एवं
उभयबइयेताओ सालसहस्सुस्सहस्स कन्नगईएण ज लव--
णसमुद्दाभव्ये जलसुन्न पि चत्त तस्स गणय, जहा मंद-
गपठ्वयस्स एक्रारसभागर्पारहाणी कन्नगईए आगासस्स वि
तदा भव्य ति कार्ड भणिया तदा लवणसमुदस्स वि। इति |
जरणं भत! लव॒णसमुद्दं दो जोयणसतसहस्साई चक-
बालविक्खंभेणं॑ पष्पस जोय्रणसतसहस्साई एकासीतिं
च सहस्साई सतं इगुयाल किचि विसेसणा परिक्खवर्ण
एगं जोयणसहस्स उच्बेहणं समालम ज।यणमहस्साईं उ-
स्मपेणं सत्तरस जायणसहस्साई सव्वग्गणं पणणत्ते | क-
म्हा णं भते! लवणसमरद जवृद्ीवं दीव णो उर्वीलेति
नो उप्पीलति नो चव शं एक।दगं करेति ?, गायमा!
जब॒दीयें ण॑ दीवे भरंहवएसु व।समु अरहतचक्रवद्िबिल-
दवा वासुदेवा चारणा भिज्ञ.धरा समणा समण।ञ्ा
^~ = धरा (^>
मात्रया सावयाआ। मणुया एम् पगत॑महया प
गतिविषपीया पगतिउवसंता पगत्तिपयणुकाहमाणमाया-
लोभा मिउमदवसपन्ना अर्णा भदगा विशता, ताम
गं पणिहात लवण समुद जवृर्हवं दीवं ना उर्वालति
ना उर्प्पलति ना चव णं एग(द्गं करति, गेगासिधुर-
रत्ततईसु सलिलास दवया महिड्डियाओ ०जाब प
लआावमादतया प।रव्रस।त. तसिण प!|णहाए लव॒ग-
समूह ०जावब गा चत्र गे एगादग कराते, चुल्नाहमवत--
चव शमगादगं कराते ॥ ( स्ू० १७३ )
सिहरसु वासहरपव्वतसु देवा महिड्डिया तसि णं पणिहा- ।
ए० हेमवतेरएणवर्तेस वासेसु मणुया पगतिभदगा० ,
रोहितंससुवण्णकूलरुप्पकूलास सलिलासु देवयाओं म-
हिड्डियाओ तामि परि० सद्दावतिवियडावतिवड्वेयड्र-
पव्वतेसु दवा महिड्डिया० जाव पलिओवमट्वितिया प-
रिव ° महाहिमवंतरुप्पसु वासहरपव्वतेस देवा महिड्डि-
या० जाव पलिओवम ड्वितिया हरिवासरम्मयवासेस मणु-
या पगतिभदगा गंधाव।तेमालवंतपरिताएसु वह्वेयड्रप-
व्वतमु देवा महिड्डिया, णिसदनीलबंतेस वासधरपव्व- '
तसु देवा महिड्डिया०, सव्वाओ दहदेवयाओ भाशियच्वा-
रा पउमददतिगच्छिकेसरिदहावसाशेसु दवा महिड्निया-
आओ तासि पिहाए०, पुव्वविदहावरविदहेसु वाससु अ-
रहंतचकवड्टीबलंदवा वासुदवा चारणा विज्ञाहरा सम-
णा समरणीओ सावगा साविय,ओ मणुया पगति° ते- |
मि पणिहाए लवण०, सोयासीतोदगासु सलिसासु देव-
ता महेड्डिया०, देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगतिभदगा०,
मंदरे पव्वत दवता महिड्िया०, जंबृण य सुदंसणाए ज- ४
बूदीवाहिवर्ता अणादेए णामं देवे महिद्डिए० जाव पलि"
आ।मर्वाट्रेतीए परिवसति, तस्स परणिहाए लवणसमुद्दे नो |
उवीलेति णो उर्प्पलेति नो चव णं एकादगग करते, अ |
दत्त च णं गोयमा ! लोगड्रेती ले,गाणुभावे जणं |
लवशसमुदे जबुद्दीव दीव॑ नो उर्यलति ना उप्पीलति ने.
जडइ णे भत ! ` इत्यादि, यदि भदन्त ! लवणसमद्र
ध॒ याजनशतसहस्तष चक्रवालाविप्कम्भन पञ्चदश याजन
शनसदस्रांण एकाशीतिः सच्स्राए्ण शतं चकानचत्वा-
स्रमद्वध्रन षाडश याजनसहस्पारायःसधन सप्तदश यॉजन
सदस्नाणि सवांग्रण प्रकृध्तः, तहि ` कम्हा णे भत! |
इत्यादि, कस्माद् भदन्त ! रूवणसमुद्रा जम्बेद्धीपे ठ
न अवपीडयति-- जलन सावयति क, उत्पी इयति ।
प्राचस्यन वाधत नापि णमिति वाक्यालेकृती एका
दकं--सवीःमनादकल्पाविते करेति ?, भगवानाह-गौर
म ! जम्वद्धीप भरतरावतयाः त्तत्रयाररन्तश्चक्रवत्तिनो |
लदवा वासुदेवाः चारणाः- जक्घाचारण्मनया विद्या
ध्रगाः श्रमगाः-साधवः श्रम्गायः-सयत्य श्रावक
श्राविकाः, एतत् खसुप्मदुष्परमांदकसारकतञ्रयमपक्ष्याक्ल व|
दितव्यम् . तत्नवाहंदादीनां यथायागे सम्भवात्, खुपमस
पमादिकर्माघकृत्याह-मनुष्याः प्रक्रतिभद्रकाः प्रक्तात9
तनुक्राध्रमानमायालाभाः दुमादवरुपन्ना आलीना भे
का विनीताः, एतषां व्याख्यान प्राग्वत्, तां प्रणि
या. प्रणध्रान-- प्रणिधा, ` उपसर्गादात ` इत्यङ् प्रत्यय
तान, प्रणिधाय अपक्य तषां प्रभावत इत्यः, त
वरसमद्रा जम्बरद्धीणे द्वीप! नाचणीडयतील्यादिः दुष्षम
॥
|
( ६५१ )
तलवणममर्
दुष्पमादावपि नावपोडयति, भरतबेताढ्याद्याधिपतिदेवता-
श्रभावात् . तथा सुज्ञाहमर्वाच्छखारेणावेषधरप्वतयादंव-
सा महद्धिका यावत्करणान्महादतिका इत्यादिर्पारग्रहः
परिवसरान्त तेषां प्रणधया-- प्रभावन लवशसमुद्रो ज-
म्बुद्धीप द्वीप नावपीडयर्तीव्यादि, तथा देमवतहेररयव-
्ोवधयोमनु जाः प्रकृतिभद्रका यादत् विनीतास्तषां प्र-
खिध्यत्यादि पृचवत् , तथा तयारेब चषयोयों यथाक्रम
शब्दा पातिवकटापातिनो वृत्तचेताब्यों पर्वतो तयार्देवो
महर्द्धिको यावत्पल्योपमास्थातिकों परिवसतस्तेषां प्रण-
आमभधानराजन्द्र: |
धयल्यादि पूववत् । तथा महाहिमवद्गक्मिवर्षधरपर्वतयो- '
देवता महाद्धका इत्याद् तथव | तथा हारदषरम्यक्वष-
यामनुजाः अ्रद्धभतश्यद्रका इत्याद सच हमवबतचत्, तथा,
तयाः क्षत्रयाथथाक्रमे गन्धापातमास्यवत्पर्यायो यो चृत्त-
चैताद्यपवतः तयादेंवों महर्द्धिकावित्यादि पूववत् । तथा
पू्विदेहापर विदहवप्यारदेन्तश्चकवात्तिना यावन्मनुजाः प्र-
कातमद्रका यावद् गबनातास्तषा प्राणधयत्याद पूवचत् | |
तथा दवकुरूत्तरकुरुषु मनुजाः प्रक्ृतिभद्रका यावरद्धनी-
तास्तपां प्रणिधयत्यादि पववत् । तथा उत्तरकुरुषु कुरुषु
जम्ब्ब्यां खुद्शनायामनादता नरम दवा जम्बूद्दीपाधिपतिः
परिवसति तस्य प्रणिधया-पप्रभावनेत्यादि त्थेच । अ-
आान्यंद् गौतम ! कारणम् , तदेवाह -लाकास्थतिरषा--ल्य-
कानुभाव एप यज्लवणसमुद्रो जम्बूद्वीप द्वीप जलन ना-
चपीडयतीत्यादिं ॥ तृतीय प्रतिपत्ता प मन्द्रादेशकः समा-
श्ल: | (जी ०) लव॒णसस॒द्रा असख्ययाः । जी० ३ प्रति० २ उ० |
अरततक्तेत्रसम्वान्धिमागधादिती थीनि जगत्या अवाक सन्ति
लवण ७म॒द्रे बति परश्च ? अत्रेत्तरे--भर तक्षेत्रसम्बन्धिमाग-
अआदितीथीनि जगत्याः रता लक्णसम॒द्र 5बसीयन्ते, यता
जम्बूढी प्रसमास भरतक्तेत्रव्शनाधिकरारे मागधवरदामप्र-
भाखती थैद्वारमित्यायक्कमस्तीति ॥ २६॥ सच० १ उल्ला० ।
लवणसमद्रे वुद्धकल्शानां लघुकलशानां च सखन रूर्वथा
पानीयस्याथा वर्तन्त कि वा सहस्त्रयोजनानामुपरीति
अश्च ?, अजोक्षरं कलशानां मुखानि पानीयस्याधो भूमिस-
्बद्धानि वत्तन्त इति प्रवचनसाराद्धारसत्रवृत्तिक्तेत्रसमा- `
सानुसारेण ज्ञायत इति ॥ १४० ॥ सन० ३ उल्ला० ।
विषयसूची--
(१) लवणसमद्र वक्तव्यता । .
(२) लसमु द्रचक्रवा लविष्कस्भा दिपरिमाणम ।
(३ ) लवणससद्रचनखरा डवप कः 4
(४ ) लवणसम॒द्र द्वार वक्कव्यता ।
(५) लवणसम॒द्र चि जय दर न्थक्यां चन्दनकलशवसीनम् ।
( ६ ) लवणसम॒द्रावजयद्वारशालभांञ्जकावणनम् ।
{ ७ ) लवणसमद्रविजयद्ार पीर्यादचणनम् ।
( ८ ) लवणसमुद्रविजयद्वारचक्रध्वजादि प्रतिपादनम् ।
( ६ ) लवणसमुद्रगतचिजयराजधानीवनसखरडवणनम् ।
( १० ) लवणस्म॒ुद्र विजयदवसभा |
( १६ ) लबणसम॒द्रावजयद्वारस्य चत्यवृत्तमणिपीटिकानां
महन्द्रध्वजादीनां च प्रतिपादनम् ।
( | ~ ) लवण सम॒द्रावजयद्वा रमांसपीठिकावर्णन म ।
( १३ ) खुधर्पासभायाः सिद्धायतनादिप्रतिपादनम् ।
लचमत्तम
( १४ ) तत्रापपातसभाप्रानिपादनम् ।
( १५ ) विजयदेवाभिषकः ।
( १६ ) लवरसमुद्र स्थिताया विजयराजधान्या अधिपंत-
चिजयदवस्य निष्करमणादिवरसीनम् ।
१७)चिजयदवस्य तन्माहपीणां च निषीदनादिध्रनिपादनम् ।
) लवणसमुद्र गतव जयन्तद्धार प्रतिपादनम् ।
) लदणसमुद्रानत्यतरदशनम् ।
) लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसख्याप्रतिपादनम् |
) लचवणसमुद्रशिखावक्कच्यता ।
) लवणसमुद्रवल्लाघधारकवे लन्धरा दिना गराज़ानां सं-
ख्या तयां वक्तव्यता च |
) दकाभासचवक्कव्यता !
) सखवक्कव्यता ।
) लवणाध्रपतरद्धापप्रा्तपादनम्)
) उदढधपारच्राद्धरंचन्तनम् ।
(२७ ) लवणसमुद्र गात धर्धातपादनम् ।
( द) लवणसमद्रः किसेस्थानसंस्थित इत्यस्य वर्गानम )
लवशिया लवणिक्रा-स्रो० । दिगम्बरप्रसिद्ध साधूपकरण,
आचा० १ श्रु० २ अ? ५ उ०।
लवणोद-लवणोद -पए;ु० । लवर्णामिवादकं यत्र स लवणादः।
समुद्र. स्था० २ टा० १ उ०।
लवमेत्त -लवमात्र -न०स्तो कमात्रपरिमितकाले, पो०रविव० ॥
लवली- लवर्ला- खी । भन्धवद्धुक्ञविशप , आचा० ९ श्रु
१ ० ४ उ० |
लवसत्तम-लवसप्तम-पुं० । परश्चाउत्तरबिमानस्थदवेषु, स्-
ज० २ अर ० € अठ
सख्रम्प्रांत लवसप्तमदेवस्वरूप मा ह -- ४
सत्त लवा जइ आऊ, पह प्पमाणं तता उ सिज्भन्ता ।
तत्तियमत्त न हु तता, ते खव्रसचमा जाया ॥ १३२ ॥
यदि सप्त लवाः-कालावशष्रा ्रायुः प्रमवत्- स्यात् सप्तलव-
प्रमाणे यदायुः प्राप्यतत्यर्थ: ततः सिध्ययुः: परं तत् खपयुस्ता-
वन्मात्रम् , (न दु -)नेव अभवत् ततस्त लवसप्तमा देवा जाता
लव सप्तम सिद्धिरभावप्यत् , यदि तावदायुभवद्यघां त लव-
सक्षमाः “ नाम-नाम्नकार्थं समासा बहुलम् ॥ ३।१।८त्ा
इति समासः,
(
(१
(२
(
(
के ते लवसप्तमा इत्याह--
सच्वटरसि द्विनाम, उक्रासटिई य विजयमादीसु ।
एगावससगन्मा, भवंति लवसत्तमा दवा ॥ १३३ ॥
य दचाः सवी श्सदिनामकरे महाविमान य च विजयादिषू-
त्क स्थतय पका 5बशपा गभा यपषा त प्क्माचशषगमास्त
भवानत लचस्श्षमाः; | व्य० ५ उ०।
अल्थि णु भते! लवसत्तमा दवा लवस० १, हंता अत्थि स
केणउट्वेण भत ! एवं वुच्चर लवसत्तमा देवा लवसत्तमा
दवा १, गायमा! से जहानामए कई पुरिमे तरुण०
जाव णिउणमेप्पावगए सालीण वा वही२ + गोधूमाण
वा जवाण वा जवजवाश वा पक्राणं परियाताणं हारेयाणे
ह रियकरडाणं तिक्वणं णवपज्ञणएणं श्र मियएणं पडि -
साहरिया पड़िसाह रिया पडिसंखिविया पडिसंखिवियः०
( ६४२ )
श्राभधानराजन्द्रः।
लचसत्तम
जाव इणामव इणामवे ति कट सत्तलवए लुएज्जा,जइ णं |
गोयमा ! तसि दवाणं एवतियं कालं आउए बहुप्प तथ्यो
णते देवा तें चव भवग्गहणण सिञ्भन्ता० जाव अतं
करति | मे तेणब्टरणं ° जाव लवसत्तमा देवा लवसत्तमा
देवा । ( सू० ५२५)
' द्मत्थिण ` मित्यादि, लवाः शास्यादिकर्वालका लवन-
क्रिया प्रमिता: का लविभा गाः सप्त सप्तसख्यामाने प्रमाण यस्य
कालस्यासो लवसप्तमस्ते लवसघ्तम काले यावदायुप्यप्रभव-
ति सातय शुभाध्यवसायप्रचुत्तयः सन्तः सिद्ध न न गता अ-
पितु देवषूत्पन्नास्त लवसक्षमास्त च सवी्थसिद्धाभघाना-
नुत्तरसुरविमाननिवासिनः, ` स जहानामए त्तिः स कञ्चि
द्यधानामकोऽनर्दिटनामा पुरूषः * तरुण ` इत्यादेव्याख्या-
न प्रागिव ` पक्राणे ` ति पक्रानाम् ` परियायाणं' ति ।
पयवगतानां लवनीयावस्थां प्राक्तानाम्. * दरियाणे ` ति
पिङ्गीभूतानाम्ं ते च पत्रापक्तया ऽपि भवन्तीत्याह -' हरियकं-
डाणं ` ति पिङ्गीभूतजालानाम् । ` नवपञ्जणपणो ` ति,
नवं-प्रत्यग्र ` पज्णयं ` ति प्रतापितस्यायो घनकुष्नन तीच्णी-
कृतस्य पायन-जलनिवालन यस्य तन्नवपायन तन ` असिय-
१
एशे ` ति दात्रण ˆ पडिसाहरिय ` न्ति। प्रतिसहत्य वि-
कीराणनालान् वाहुना संगृह्य ` पाडसखिविय ` त्ति
माए्ग्रहणन संत्तिप्य ` जाव इणामव ` इत्यादि प्रज्ञापक-
स्य लवनक्रिया शीघ्रत्वापदर्शनपरचप्पुटिकादिहस्तव्यापा-
रसचक वचनम् । ˆ सत्तलव ' इति लृयन्त इति लवाः
शास्यादिनालमुए्यस्तान लवान् ` लुण्ल ` त्ति लुनीयात्,
नत्र च स्प्तलवरलचन यावान् काला भवतीनि वाक्यशपा
दृश्यः, ततः किमित्याह-' जद ण ` इत्यादि, ' तसि दवार `
ति द्रव्यदवत्व साध्वचस्थायामित्यथः 'त ण चव ` त्ति
यस्य भवन्रहणस्य सस्वन्धि श्रायुने परण तनव, मनुष्य
भवग्रहणनत्यशथ्ः । भ० १४ शा० ७ उ० ।
लवालव-लवालव- पु” । कालानुपक्तणन सामाचार्यनुष्टान,
स० ३२८ सम० । प्रश्न०। आव० |
लवालवादाहरणमाह--
“ भरुअत्थम्मि अविज्जए, नगपिडण वास वासनागहर ।
ठवणा आयरिअस्स उ, सामायागीपउेजणया ॥ १॥
आसीद भ्रगुपुर सूरि-रकस्तेन निजा ( नि ) न्तिषत् ।
चिज्ञयः प्रपिता ऽवन्ती-पुयां कार्यण कनचित् ॥ २
च श्लानादिकार्यण, व्याक्षपादन्तरे स्थितः |
रुद्धश्वाकालवर्षण, भूर भृदणडकाकुःल्वा ॥ ३ ॥
चपावासे नर्टापट-ग्राम नापि स्थितः।
कतु गुरुकुलावासे, न्यध्रत्त स्थापनागुरुम् ॥ ४॥
काले जग्राह कृत्वा वा-ऽऽवश्यकं विधिपूर्वकम ।
काल प्रवद्य पश्चाच, छःवा स्वाध्यायमुत्तमम् ॥ ५॥
एवमावश्यकाश्ां स, सांमाचारी व्यघान्मुनिः।
न किञ्चन विसस्मार, सापयागः क्षण क्षण ॥ ६ ॥
क्रिमकड किश्वमकिश्वससं,
कि सक्कणिज्ले समायरामि।
किम परा पासइ किञ्चे अप्पा,
कि वाह खालिय च चिचज्ञयामि ॥ 3 ॥
लग लघुक- पुं । पष्ठभक्ककरणतः पूरणीय त्रिशद्विवस-
| ४ ।
लहुत्तरग
भावय चन्तापरणव, सवदंवाह साधुना॥ ० क०४ अ०।
लवावसाक- लवावश। ङन् । लव कम्म तस्मादपशा्वि-
तुमपसत्त शाल यषा त लवापशाङ्कनः। कायातकषु. शाक्या-
द्घु च लचावसक्ामा य अणागणह, णा तकारयमाहसखु |
श्मकिरियवादी । ” सूत्र० ९ श्रु० ६२अ०।
लवावसष्पि-लवावसर्पिन् तरि । लवे कम्मे तस्माद् * ' अब-
सप्पिणा ` त्ति अवसर्पिणः यदनुष्ठान करस्मवन्धापादान-
भूत तत्परिहारिषु, ` सीओदगपडिदुगगंछिणा अर्पाडण्णस्स
लवावर्साप्पणा ` । सूत्र० १ श्रु० ७ आ० ।
लसइ-देशी-काम, दे० ना० ७ वर्ग दृद गाथा ।
लसक-देशी-तरूक्षीगे, दे० ना० ७ वर्ग शर गाथा ।
लसुअ-देंशी -तन्ले, दे० ना० ७ वर्ग १८ गाथा ।
लसुण-लशुन-न० । कन्दविशष , उत्त० ३६ अ० । ध |
( लथ्युन सचित्तमचित्त चति ` सचित्त ` शब्द व्यत )
लहरी- लहरी स्री ° । उत्कलिकायाम् , स्था० ४ ठा० ३ उ०।
लहु- लघु-न० । शीघ्र, उत्त १ अ० । पञ्चा० | प्रश्न० । प्राय-
स्तियगृद्धाधो गमनहतो क तृलादिनिःखत स्पर्शभद , अनु० ॥
"एग लहुए' । स्था० १ ठा०। विश०।कर्म०।लघुस्पशबदद्रव्य, य
द्रव्यं निसर्गत एवाध्वगतिस्वभावे तज्लघु यथा. दी पफलका-
दि। आ०्म०आअ०। ( अथ क गुरुक लघु कि वा अगुरुलघु
इति ' अगरूलहुय ` शब्द प्रथमभाग ६५७ पृष्ठ दर्शितम )
अखुक, स्था० ५४ ठा० र उ०। गुणगोरबरहित , प्रश्न० ६
आश्र० द्वार । लघुपश्चकादो प्रायश्चित्त, व्य० १ उ०।
लहअकड-देशी-न्यग्राध, द° ना० ७ वर्ग २० गाथा ।
>
लहइय ति ० । (दशी) तुलित, “लहुइओ आहामिओ तुलिश्रे ”
95 ए
पाइ० ना० १८७ गाधा ।
लहुकरण -लघुकरण-न० । गमनादिकायां शीघ्रक्रियायाम ,
ज्ञा० १ श्रु० ३ अ०। लहुकरणजुत्तजोइये” लघकरणन दक्ष-
त्वन य युक्ता पुरुषास्तेयोंजितं यन्त्ररूपादिभिः सम्बद्धित
यत्तत्तथा । उपा० ७ आ० । लघुकरणं शाघ्राक्रियादत्तत्व तन
युक्नों योगिकों चर प्रशस्तयागवन्तों प्रशस्तसहशरूपत्वादू
यो ती तथा | भ० € श० ३३ उ०।
पारिमाण प्रायश्चित्तव्यथद्दारे, व्य० २ उ० | बु०। गोरवज्रय-
त्यागात् लाघ्रववाति , प्रश्० ४ संच० द्वार । एकः
पाश्वस्थादि्भूलकम्मारिषु दुष्कर्मकारी परं शुद्धप्ररूपका$-
पर उन्सूजप्ररूपकः परं तपःप्रशृति भूयः क्रियावान् एत-
यामध्ये करा गौरववान् क्श लाघववानिति प्रन्ने ?, अत्रो
त्तरम-एतयोमैध्ये 5ये गुरुर्य च लघुरिति नियः कन्तु न
शक्यत , तथाविधसिद्धान्ताक्षरानुपलम्भाजीवर्पारिणामानां
वेचिच्याच. सर्वथा निश्चयस्तु सब्व॑विद्धद्या, व्यवहारवुच्या |
तुत्सत्रप्ररूपका गोरववानाति सम्भाव्यत ॥ ६३ ॥ सन
१ उज्ला” ।
लहत्तरग लघरत्तरक-न० | अप्लाविशनिदिनमान प्रायश्चित्त,
त
2:{“ २ उ०।
(2२)
लहत्थाण
लहुत्थाण-लघूत्थान-न० । अल्पात्थान, “ लघू थानानन््यावि- |
ध्नान, सम्भवन्साधनानि च । कथयन्ति पुरः सिद्ध.
कारणान्यव कम्मणाम् ॥ १ ॥ `` संघा० १ आधि० २ प्रस्ता०।
लहदक्खोववेय-लघुदाक्ष्योपपंत न० । लघु-शाप्र दाच्यचा
तुय्य तनापपततः । आवलाम्बतचातुयतया कायकारण
उत्त० ६ उ०।
| लहुदारु-लघुदारु-न० । रूघुकाष्ट, “
।
क ७98 5 भ
लहुदारू किलिचि `
५।३० ना० <२६ गाधा ।
लहुपरकम लघुपराक्रम- प । ईशानन्द्रदवस्य पदाव्यनीका-
धिपतो. स्था“ ५ ठा० १ उ०।
| लहुपवयणसार-लपघुप्रवचनसार-पुं० । श्रीहमचन्द्रखूरिशिष्य-
| श्रीचन्द्रस[रिविराचत साध्वाहारभेदज्ञानार्थ प्रकरणग्रन्थ,
| « रइये पगरणमेगे, मर्णीणमाहार्भयनीणट्ट । सिरिसिरि-
चन्दमणिद-ण हमसरीण सिस्सण ” ल० प्र०।
लहुफासणाम- लपुस्पशनामन्-न० । स्पशेनामभद, यदुद-
यात् जन्तुशरीगमकंतलादिवल्नघु भवति । कम्म० १ कर्म० |
लद्वुद्धि- लघव दधि-खो० । शोघ्राक्रयाकरणाध्यवसाय, क-
ल्प १ श्रध ७ क्षण ।
लहभूय- लघुभूत पुं | रूघुभूता अनुपधित्वेन गारवलत्या-
गन च €घुरूपसाधो, स्था० € ठा० ३ उ० | मात्त, संयम
च । आचा ९ श्रु० ३ अ० २ उ०।
लहुभूयगा(का)मि(न् )- लघुभूतगा।मिन् -प०। रूघुभता माक्षा
संथमो वा त॑ गन्तु शीलमस्य/त रूघुभूतगामी | लघुभूत वा
कामयितु वा शीलमस्यति रूघुभूतकामी । मुमुक्ता. संयत च ।
द्राचा० १ श्र ०३ आ० २ उ०।
लहभूयावहार लघुभूतावहा।रन्- 3० ॥ लघु बता वायुः तार
यभूता 5प्रतिवद्धतया विदारा ऽस्यास्तीति लघुभूतविहारी ।
कचिदप्यप्रातवद्ध विहारिणि, दश० ४ अ० |
लहुमच्छ-लघुमत्स्य-3? । लघुमान, ` कड्याला कुबरा य
॥ लेहमच्छा `` पाइ० ना० दरद गाथा ।
। लय लघुक चि” । अढ्प, सूत्र० २ श्रु० २श्र०। “ छुट्ट म-
इहे लहुय॑ ` पाइ० ना० १७१ गाथा । ऊध्वगमनस्वभाव घू-
मादो, स्था० ६० ठा० ३ उ० | सत्त्वसारर्वाज्ित तुच्छ, प्र-
श्न० २ संव० द्वार । £ ई
लदुयत्त-लघुकत्व -न० । गारवविपरात, भ० १ श० ६
उ०। लाघव, पश्चा० १७ विव० । ( जीवा लघुकत्व
गुरुत्वे वा कथ गच्छन्तीति ` कम्म ` शब्द तृतीयभाग
३३२ पृष्ठ गतम् ) ( ` श्राउलीकररण ` शब्द् द्वितीयमाग
लघुकत्व जीवाः कथ गच्छुन्तील्युक्कम् )
| लदुया-लघुता- खी । लघ्ोभीवा लघुता । लघुत्व. व्य० *
उ० । स्ताकतायाम् , आ० म० १
प्रज्ञा० १ पद ।
लह॒वित्तिपारिक्वेव-लघुब्ृ त्तपरित्षेप पं० । लघुवृत्तिः परित्ते
अ० | जीन्द्रियजीवभद.
प्राउस्यात लघुत्तात्तप।*च्तप: । अत्पाहार, आच्वा० ^ श्रु० ८,
श्र ट उ० |
ऋं । ^“ नन्वीतुस्यष
शांत श्रन्तत्य त्रनान पूर्व उकारः,
१८ ॥ २८९२
लाद्रचववत्पराम , प्रा पाद।
शमभिधानराजन्द्रः।
लहमाहाण०
लहस-लघुस्व॒-त्रि० । लघुः स्व आत्मा यस्य सः कघुस्वः ।
अल्पस्वरूप, ज्ञा०१ श्रु००अ०। इपदरप, स्ताक.न^चू० २ उ०।
-लघुस्वक-त्रि० । स्ताके, व्य २ उ० । लघुस्वभावयुक्ल क्त.
लहुसग कमिति 370 जप ला
भ० € श~ ३३ उ० । लहुस्सग नाम ववहार पट्रात्रयव्वासया।
नि० चू० २ उ० |
लहु सीह निकीलिय-लघुर्सिहनिष्क्रीडित-न० । स्वनामख्याते
तपसि, प्रव० ।
लघुसिहनिष्क्रीडित तपः प्रतिपादयितुमाह-
हा (नन [न ४
इगदुगहगातग चउ तग,दुग पण चउ छक्र पच सत्त छग |
शअटग सत्तग नवग, अटरग नव सत्त अद्रव ॥१५२६॥
छग सत्तग पण कं, चउ पण तिण चउर दुग तिगं एगं |
दुग एकग उपवासा, ल् सीहनिकील्ियतवम्मि १५३ ०॥।
अनन्तरवच्यमाणमहासिहनिष्क्री डितापक्षया लघु हस्व सि-
दस्य निष्क्रीडितामिदमित्यश्ः. सिह निरष्करीडतं तदिव यत्तप-
स्तात्सिहनिष्क्रीडितार्मात, सिंहो दि गच्छन् गत्वा ऽतिक्रान्तं
दशमवलाक्रयतिः एवं यत्र तपस्यतिक्रान्ततपाविशषं पुनरा-
सव्याग्रतने प्रकराति नत्त सिंहनिप्क्रीडितमिति, पतस्य चव
रचना-णकादया नवान्ताः क्रमण स्थाप्यन्त, पुनर्राप प्रत्याग-
त्य वादयः पकान्ताः, ततश्च द्ववादीनां नवान्तानामद्र प्रत्य
कमकादया रान्ताः स्थाप्यन्त, तता नवाद्यकान्तप्रत्यागत-
पड़कतावश्टादीनां दय्यन्तानामादा रुप्तादय पक्रान्ताः स्थाप्यन्त
इति | अयमथः-प्रथममक उपव।(सकः, ततः- पारणकम् ,एच-
मन्तरा सर्वत्र पारणकं ज्ञयम् . तता- द्वा. तत एकः, तत-
खय उपवासाः, तता हो. ततश्चव्वारः, ततखयः, ततः पञ्च,
ततः- चत्वारः, ततः--पट , ततः- पञ्च, ततः-- सप्त,
ततः--षट् , ततः--श्रष्टा. ततः-- सप्त, तता- नव, ततः--
श्रण्ठा. तता--नव, ततः--सष्त, ततः"-अ्रष्टा, तत:--
पर् , ततः-- सप्त, ततः- पञ्च, तत.- पट् , ततः-- चत्वारः,
ततः- पञ्च, ततः- यः, ततः-चत्वारः, ततो- द्धौ,
ततः- जयः, ततः- पक्र दत, पत लघुसिहनिष्क्रीडित
तपस्युपवासाः।
अथोपवासदिवसानां पारणकदिनानां च संख्यामाह--
ख + {८ ० ॉयी )
चउपन्नखमणसय, ।दणाण तह पारणा।ण तत्ते।स ॥
इह परिवाडिचउको,वरिसदुर्ग दिवस अडबीसा १५३१॥
लघुलिहनिष्क्रीडत तपसि क्षमणदिनानाम्-उपवासदिव-
सानां शतमकं चतुःपश्चाशदांघकं, तथाहि--& नवसंकलन,
तत-+एका ४५, पुनः ४५. श्रएरसकलना चका ३६, स-
प्तसकलना 5प्यवेका २८, सर्वमी लने च यथाक्ला संख्या भव-
ति १५४. तथा पारणकानि त्रयस्थिशत् तदेव सर्वदिनसे-
ख्या १८७. तथा च--परमासाः रूप्तादनाथिका भवन्ति,
तच्च तपःपरिपाटाचतुए्येन क्रियते, तत एतेषु चतुगु-
सिन द्व वर्ष अप्रशवशातदिनाधिके भवतः ।
अथ पान्पाटीचतुए्य 5प प्रत्यकं पारणस्वरूप निरूपयति-
विगहओ। निव्विग्य, तदा त्रलेवाडयं च आयाम |
य{वाडिचउक्कम्मि, पारणएसु वि हेयनव्यं ॥ १५३२॥
प्रथमपरियास्यां पारणक्रपु विकृतया भवन्ति, सर्वरसाषे-
लहुसीहनि०
ते पारणकमिति भावः. द्वितीयपरिपास्चां निर्विक्रतर्विकर-
तिविरहः, तृतीयपरिपाख्यामलपका रवज्लचणकादिः,
भरपरिपास्यामाचाम्ने पारामितभेच्यामनि, एवमस्य तपसः
पारणकमभेदेन चतखः परिपाट्या विधया: | प्रव०२७१ द्वार ।
लहुस्सग-लघृस्वक-पुँ० । तुच्छात्मनि, प्रश्न० ३ आश्र०द्वार ।
लदस्सगदे(स-लगुकस्वकदष- पुं? । तुच्छत्वरूपस्वकदोष,
त्य० ४ उ० |
लहुहत्थ-लघुहस्त-पुं० । हस्तलाघवे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार।
क्रियासु दत्त हस्त, ज्ञा० हे श्रु०ण २ आ०।
लाअण्ण-लावएय-न० | क-ग-च--ज--त- द् -प-
य-वां राया लुक ॥८। १। ६७७॥ इति वस्य लुक । लग्र ।
लवणिमनि, प्रा १ पाद ।
लाआगशण-राजनू-9० । चप,
मागध्यां रस्य लः । ` श्रवशलापसप्पणीया लायाणा ` प्रा०।
लाइअ देशी- भूषायाम् , ग्रहीते, चमोरधं च । द० ना० ७ वर्ग
“शेष शौरसनीवत्' ॥८।४।३०२॥
२७ गाथा ।
("< | लाउयानिन्लेवण- अ्रलावुकनिर्लेपन- न° । पाजप्र्षालने, बृ०
लाइम-लाविम-त्रि° ॥ लवनवाति. लवनयाग्य च । दशण० 3 |
श्र० । आचा० |
लाइय-लायित-न० । छगणादिना भूमिकायाः संम्र॒ष्टीकरण,
भ० १२ श० ८ उ० | ज्ञा० । जी०।
लादृल्न देशा-- वृषभ, द० ना० ७ वग १८ गाथा ।
9
लाउ-अलावक-न० । तुम्बके, “वाइलाव्वरण्ये लुक ॥ ८ ।६। |
८६ | इति आदरस्य लक | लाउं । अलाडे | प्रा० | बूृ० | नि० |
चू० । भ० । पात्रभदे, स्था० ३ ठा० > उ० । वश०। ज्ञा०।
नगय्यन्थाभः सच्ुन्तकमलाबु न घत्तव्यम्।
नो कप्पइ निग्गंथीणं स्वेटगं लाउयं धारित्तए वा परि- |
इरित्तए वा ।! ४३ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सर्वेटग लाउय॑
धारित्तए वा परिहरित्तर वा || ४४ ॥
व्याख्या खुगमा । नवरं सवगटकम--नालयुक्लम अलाबुकं |
सझिग्रेन्थीनां न कल्पत ॥ ४३ ॥ निग्रन्थानां तु कल्पत ॥ ४७॥ |
अत्र भाष्यम-
ते चेव सर्वेटम्मि वि, दोसा पादम्मि जे तु सविसाणे |
अइहरेग अपडिलेहा, विय गिलाणा सदद्भवणा ॥
त पव सतुन्त 5पि-सनाले5पि श्रलाबमये पात्र दोषा मन्त
व्याः, य सविषा आसन पादकम्मादय उक्ताः | छ्वितीय-
पद तु घारयदापि, तत्राध्वनि घृतं वा तेल वा सुखनंवार्पार-
गलदृष्यत , ग्लानाया वा योग्यं तत्रापधघे प्राक्तप्तमानतव्य
सघन्तकं प्रवर्सिनी स्वयं सारयति । निभ्रन्थाना्मापि
निष्कारणो न कटपन, यदि धारयन्ति तता ऽतिरिङ्रापकर-
ण॒दोषः सबून्तके च प्रत्युपक्षणन शुद्धश्चति, द्वितीयपदे ग्ला-
नस्य योग्यमोषधर तत्र स्थापयति इति कृन्वा ग्रहीतव्यम् ।
यू० ४ उ० । ( अलाबप्रमाणमात्रा पादकशारका न थार- |
यितब्यांल “ पायकसारया `
उक्कम )
शब्द पश्ुमभाग ८५० पृष्ठ
( ६५४ )
असमिधानराजस्द्र: |
लाभ
लाउडिय-लाकुटिक-पुं? | उङ्गरायाम् , बृ० ३ उ०।
१ उ० २ प्रकरण ।
लाउयपाय-अलाबुकपात्र -न० । तुम्बपात्रे,स्था० ३े ठा०३ ० |
( अत्र भदाः ` पत्तः शब्दे पञ्चमभागे ३६३ पृष्ठ गताः | )
लाउयफल-अलावुकफल-न० । ठुम्बिनः फल, अनु० ।
लाउयवण्ण - अलावुकवणं -त्रि० । आदतुम्बवर्ण, चे० प्र०
२० पाहु०।
लाउयबवणणाभ-अलाबुकवर्णा भ-त्रि० । पक्कावस्थतुम्बकब-
णाभ, भ० १२ श० ६ उ० |
लाउल्ले।इयमहिय-लापितोल्ले। चितमहित-त्रि० । * लाउ-
ल्लोइयं'छागणादिना भूमौ लपनम् । 'उल्लाइयं सेढि (टि)कादि-
ना कुडथादिषु धवलन ताभ्यां महितामिव-पूाजतमिव तेण
वा माहत पूजनतो यत्र । श्रन्ये तु व्याचत्तत-लिप्तम् उल्लो-
चितम् उल्लाचयुक्ल महित चति । भ० १२ श० ८ उ०।
लाघव-लाघव-न०। लघ्रोभावा लाघवम् । आचा० १ श्रु०
६ अ० ३ उ० | द्रव्यत 5ढपापधित्व, भावतो गोरवत्रयत्याग,
कटप० ! अधि० ६ क्षण | आचा० | स्था० । नि चू० +
श्रो० । स०। नि० । तदृष श्रमणभदे, स्था० १० ठा० ३
उ० । क्रियाखुदत्तत्व, भ० २ श० ५ उ० । रा० |
लाधविय-लाधघविक-न० । कम्मणां लाघवापादने कम्प
गुरा्वा्मनः कम्मांपनयनता लघ्ववस्थासंजनने, सृत्र० २
श्रु० १ अ०।
से नृणं भते ! लाघियं अध्पिच्छा अप्रच्छा अगेही
अपडिबद्धय। समणाणं णिग्गंथाण पसत्थं ?, हंता गोय-
मा ! लाधावर्य ०जाव पसत्थ । ( खू० ७४०८ )
` लाघविय ` ति लाघ्रवभव लाघविकम् अल्पापधिकम ,
' आप्पच्छु ' ¡त्त अल्पोडमेलाष आहारादिषु ` अमुच्छ '
त्ति उपधावस्रक्तणानुवन्धः ` अगहे ` ति भोजना(रुपु
परिभागकाल<नास्ंक्तः अ्रप्रातिबद्धता खजनादिष स्नेदाभ।.
व इत्यतत्पश्चकामाति गम्यम् , श्रमणानां--निग्नेन्थानाम ,
प्रशस्तम-सुन्दरम् , अथवा-लाघाविक प्रशस्तम् , कथ-
म्भूतामित्याह-'अप्पिच्छा' श्रल्पेच्छारूपमित्य्थः, एवमितरा-
रयाप पदानि । भ० १ श० ६ उ०।
लाड-लाट-पुँं० । कोटीवर्षनगरप्रतिवद्धे आय्येदेशे , प्रज्ञा०
पद् । आचा० | सूत्र० । स्था० | आ० म० | आ० क० ।
लाद. पुण | लादयति प्रासुकेषणीयाहारेण साधुगुशेः आ-
त्माने यापयतीति लाढः, प्रशेसाभिधया वा , देशीपद-
मतद् वा । ( उत्त० ) लाढयाति यापयति आत्मानम् ए-
पणीयादारण निर्वाहयतीत लाढः | एषणीयचारिणि सा-
धो, उत्त० २ अ० ।
लाढायरिया लाढाचार्य-पुं? । छेद्ग्नस्थव्यारूपाविशेषकारके
स्वनामख्यात आचार्य, बर ६ उ० ३ प्रक० | नि० चू० |
लाभ-लाभ -पुं० | अप्राप्तवस्तुप्राप्ता, उत्त०६ श्र०। लम्भनम्-
लाभः | स्था० ३ ठा० ४ उ० । अभ्युदयप्राप्तिविशष, आ०
की - |
लामा-देशी-डाकिन्याम् , दे०
५. ।
(
म० १ अ० । पश्चा० | सूत्र० | लभ्यत दांत लाभः। उत्त० २८
अ० | अन्न[दा, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
लामतर -लाभान्तर-त्० | लम्भन लाभोऽपूबौधेप्रा्तिरन्तरं-
विशषः, लाभश्रासावन्तरशञ्व | उत्त> ४ ञअ० | लाभविशष,
व्य०१०उ० | एकस्माल्लाभादन्या लाभा लाभान्तरम् | ज्ञानदश-
नचारित्रादीनां लाभविशष, उत्त० ४ श्र०।
लाभंतराय-लाभान्तराय-न० । अन्तरायकर्म्म भदे, यदुदय-
चशादानगुणन प्रासद्धादपि दातुग्रदे विद्यमानमपि देयमर्थ-
जात याञ्ाकुशलाऽपि गुणवानाप याचका न लभत त-
ज्ञाभान्तरायम् । पं० सं० ३ द्वार | कर्म० | स० |
लाभकंखि-लाभाका डिसत्तन्ू-जि० । क्ञानदशनचारित्ररूपपर-
माथलाभार्थिनि, व्य० १ उ०। ८
लाभट्ठटि -लाभाथिन् त° । धनादिलाभार्थिनि, भ० ६ श० ३३
उ० । भाजनमात्रादि प्रा्थिनि, श्रो० ।
लाभद्विय लाभा्थिक-पु ० । भावलाभेन निजरादिनार्थाऽ-
स्येति लाभार्थिकः | संयते, दश० ५ श्र° १ उ० ।
लाभमय -लाभमद्-पु० | अहमव लाभेनोत्तमतया पर्न्त-
वत्तात लाभजन्यमदभद् , स्था० १० ठा० रे उ० | स०। या
हाल्पान्तराया लब्धिमानात्मकृते परस्मे चरापकरणादिकमु-
त्पादायितुमल स लघुप्रकृतितया लाभमदावलिप्ता भवति ।
मूत १ श्रु० १३ श्म०।
लाभविजय-लाभविजय्-पु° । श्रीमहापाध्यायश्रीकल्याण-
विज्यगणिशिष्यमुख्य पणिडत, न° । प्रति । द्वा० । “ चम-
त्कार दत्त त्रिभुवनजनानामपि हदि. स्थितिर्दैमी यस्मिन्न
धिकपदसिद्धिध्रणयिनी । खुशिप्यास्त तषां वभुराधकवि-
द्ाजितयशः--प्रशस्तश्रीभाजः प्रवरविवुधा लाभविजयाः''
॥ १ ॥ द्वा० ३२ द्वा०।
लाभासंसापच्राग-लामाशसाग्रयोग--पृ° । कीर्तिः
लाभा म भूयादिति लामाशंघाप्रयोगः | तद्यापार, स्था०
१० ठा० ३ उ० । ( 'आसेंसापआग' शब्दे द्वितीयभागे ४६६
पृष्ठ अत्रत्या वक्कव्यता गता )
लाम-ललाम--जि० । रम्ये, “ललंतलामगललायवरभूसणाएरं'
श्रुतादि-
ललन्ति-दालायमानानि लार्मान्नत प्राकृतत्वाद् रम्याणि
गललातानि--कण्ठेना 5 ऽत्तानि वरभूषणानि यषां ते तथा ।
( प्राकृतत्वात्तथापद्सिद्धि: ) ) औ० ।
लामजय-लामज्ञय--त० । कमलतत्तों,
उसीर च्व पाइ० ना० १४६ गाथा।
ना० ७. वर्ग २१ गाथा। “ रो-
पाइ० ना० १०७ गाथा ।
२ श्रु०१ चू०४ श्र०२उ०।
४६
नलयं लामजय
अणिआ लामाओ ''
लाय लाज- पुं० | भ्रएत्रीहों, आचा०
लाय -लावष्प-न० । शरीरकान्तो, “
लायरणे `` पाइ० ना० ११३ गाथा ।
लायातरण लाजातरण -न० । तीर्यत इवास्यामतिस्वच्छुतया
इत्यधिकरण अनट तरणम् , लाजा-श्र॒णश ब्रीहयस्तेनिव्रेत्त
तरणे लाजातरणम् | पयायाम् , जीत० । |
लालंपिञ्र-देंशी-प्रवालखलीनाकन्दितेषु | दे० ना० ७ वर्ग
२७ गाथा !
छाया कती छुवी य
आाभधानगाजन्द्र: |
ॐ )
जन्त लासग्
लालप्पहत्ता लालप्य अवग्य० । त्यथ पुन पुनकवा लापत्व-
त्यथ, सूत्र० १ श्रु० १० आ० |
लालप्पणपत्थणा-लालपनप्राथना-खी° । लालपनस्य गर्दि-
तलापस्य प्राधनेव प्राना लालपनप्राथना । चोय दि कुर्वन्
गर्दितलपनानि तदपलापरूपाणि. दीनवचनरूपाणि वा प्रा-
थयत्यव, तब हि कृत तान्यवश्यं वक्रव्यानि भवन्ती-
ति भवः । पञ्चाचिशाततमे गौणचोर्ये , प्र्न० ३
आश्र० द्वार ।
लालप्पणया-लालपनता -सत्री० | भ्रृश् लपनताप्राथन, भ०
९२९ शण० ४ उ०।
| लालप्पमाण-लालप्यमान-त्रे०ण । भोगाथमत्यथ लपति
श्राचा० १ श्र० २ अ० ३ उ०।
| लालस-देशी मृदुनि.इच्छायां च | दे० ना० ७ वर्म २५ गाथा।
लम्पटे, “ लोला-लालस लोलुआ ” पाइ० ना० ७५ गाथा।
लाला-लाला-खी० । लालतीति लाला ! श्रत्रुस्वन्मुख-
श्लप्मसन्ततो, च्राचा० १ श्रु० २ अ० ५४ उ० श्रौ०। ज०।
नि० चू० । जी० । मुखश्रावे, प्रज्ञा० १ पद । उदाहरणम्--
लालापगलतकन्ननासं ' ति लालाभिः क्लदतन्तुभिः प्रग-
लन्तो कणौ नासा च यस्य । विपा० १ श्रु० ७ आ० ।
लालापचासि(न् )-लालाप्रत्याशिन् त्रि । ललतीति लाला
अन्ुख्यन्मुखश्लष्मसन्ततिस्तां प्रत्यशितु शीलमस्यति लाला-
प्रत्याशी । वान्ताभिलाप्िणि, श्राचा० ६ श्रु० श्र० ४ उ० |
लालाविस- लालाविष- पु । लाला मुखश्रावः तत्र विषं
यस्य । सर्पभदे, प्रज्ञा० १ पद | जी०।
| लावज-दशी-उशार, द° ना० ७ वर्ग २६ गाथा।
लावग- लावकः प° । पक्षिविशष, प्रश्न० २ आश्र० द्वार | वि-
पा० । नि० चू० | प्रज्ञा० |
लावगकरण -लावककरण-न० । यत्र लावकपक्तिणमुददिश्य
किचत् क्रियत । तादृशा स्थान, स्था० ४ ठा० १ उ० ।
श्राचा०।
लावगलक्वण-लावकलक्षण-न० । लावकपक्िप्रतिपादक
शास्त्र, सूत्र २ श्रु० २ आ० |
लावष्प -लावएय-न० । स्पृहणी यत्व, ज्ञा० १ श्रु० ६ आ० ।
उत्त० | ओ० । मनाज्ञत्व, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । शरीरका-
न्ता, रा० | सान्दर्य , अणु० । लावण्य छायाविशेषलक्त-
णम् , कुछ्ुमाद्यनुलपनज भित्यपरे, परज्ञा २३ पद । शरी-
राकृतिविशप, भ० १४ श० ५ उ०।
लावप्पलतिया- लावण्यल।(तका- खी
श्रीकान्त्याः दास्याम् , उत्त० १६ श्र०।
; वरधनुषो भायाया:
लास-लास्य-न० | लासिकानां जत्य, “ न दीर्घानुस्वारात् "'
॥ ८। २। ६२॥ इत सकारस्य न द्वित्वम् । लास्यम् ।
लास | प्रा | ` नट्ट लास तडन पाइ० ना० १६६ गाथा ।
लासग लासक पु | गायक, श्रनु० ।
( ददे )
हलासगा
अशब्दप्रयाक्ागा वा भारडाः | आ० | जा० । रा० | न° चू० ।
ज०। प्रश्न० । ज्ञा० ।
लासयबविहआअ-देशी-मयूर,
लाभिय-लासिक-पुं० | भिज्ञविशप, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
द° ना० ७ वग २१ गाथा ।
लाह-लाभ-पुं? । ४ ख-घर-थ-घ-माम्--॥ ८ | १ ॥।
2८७॥ इति भस्य दः । प्रा० । प्राप्नो, ए ५ अप्श० श्राच० ।
द्मप्रतिष्ठितजिनविम्बमञ्चयतः, पादादिना55शातयता वा
लाभालाभौ न चति ?, लाभश्चत्तर्हिं प्रतिष्ठायाः कि प्रयोजन-
मिति प्रश्नः? .त्रजात्तरम्-श्रपर्ताछतर्प्रतिमानां वन्दन व्यवहा-
खआामभमधानराजन्द्र
गसक-09०।| गायक, अनु०। रा० | य रासका न गायान्त, ज~ |
गा नास्तात कंथ लाभः | आरशातनाक रण तु त्रत्यवाया भ- |
वत्यव.ताख तीथक्रराकारापलम्भादिति॥१२२॥सन०२उज्ञा० ।
नमस्कारस्य श्रीश्रञ्जयनाम्नश्च गणन अधिकलाभः कु-
आस्तीति प्रश्नः?, अतरात्तर-यस्य यद्धणन चिन्नाल्लासा ऽधिको
अवति तस्य तद्रणनऽधिकलाभोऽस्ति, परे द्वयोमेहिम्नः
पारा नास्तीति ॥ ४६४ ॥ सन० ३ उरटला० । पुञ्जणि-
कया चायकरण लाभाउलाभा वा इति धरश्चः ?, अत्रा-
नर-मुख्यव्रस्या पुञ्णिकया वायुकरणं ज्ञात मास्ति; परे
ग्व दानां मक्तिकाड़ापनाथ वायक लाभारऽस्ति, न त्व-
ल्लमा.यता मत्तिका डा पनं गुरुभाङ्किर च ति।॥ ६५६॥स न०४उनज्ञा°
बुद्धकल्पदिन पोषधकर ण लाभः पूजाकरण वा इति प्रश्नः १,
श्चातच्तर--मख्यवृस्या पोषध्करण महान
विशेष तु यथाप्रस्तावा भवति तथा करणे लाभ एवास्ति,
यता जिनशारून एकान्तवादों ज्ञाना नास्तीति ॥ ६५१ ॥
मन० ४ उल्ला० ।
लाहण-देशी-भोज्यभंद, द० सा० ७ घर्भं २१ गाथा।
लाभः, कारण- ¦
लाहयिय-लाघविक- न° । लघाभीवो लाघवे तद्विद्यत यस्या- |
सा लाधविकः। लघुभूत, श्राचा० ६ श्रु० ८ अ० । गौरवत्या-
गे, स्था० ५ ठा० ३ उ० | सन० ।
लाहिसकेगीरयणा-लाहिसत्काड्ीरघना-ख््री । जिनप्रति-
मानां रचनाविशेष, सन० । जिनप्रतिमानां लाहिसत्काड़ी- |
रचना क्रियमाणा दृश्यत, सा युक्किमती न वति प्रश्नः ?,
अरत्रात्तर-यद्यपि लादिमस्कार किञ्िदपावित्रये श्रयते त-
थापि नामग्राहे निपधाक्षरानुपलम्भादिदानींतनकाले स्था- |
न स्थान तथाप्रवृत्तिदशनाद्रह्नां पूजाकरणान्तरायप्रसङ्गा-
श्च सर्वथा निषधः कत्त न शक्यत इति ॥ ६५॥ सन० २
उघ्ला।
लाहुक-लाधृुक्य-न० । लाघव, वृण ५ उ०।
लिक-देशी-बाल, द° ना० ७ वग २२ गाथा ।
लिकिञ्च-दशी-श्राक्तिप्त, लीन च । दे०ना० ७ वरौ २८ गाथा ।
लिग-लिङ्ग- न° । लिङ्गधत गम्यते5ती
म् | अथवा--लीने सिरोहितमर्थ गमयर्ताति लिङ्गम् । धूम-
ऋतकत्वादिक, विश० । दश०। पराक्ष्याक्रत्यगमक, पञ्चा० १५
चिव । व्यञ्जक, ध?
श्ण क्षायत ;नननि लिङ्गम । चित्र दशे० ४ तत | पश्चा० |
यार्थो+ऽननति लि-
२ आधि० । दश० । प्रति | लिङ्गधत वि- '
४ ३४ लिंग
आव० । प्रव० । विश० | भ० । श्राकारावि शष, षा० १ विच०।
चप.पा० विव०। शिश्न.सूत्र० १ श्रु०४आ०१ उ० । (अमादाण
शब्द प्रथमभाग ४० पृष्ठ तत्संचालनादिनिषधः ) रजोहर णादि
बाह्मनपथ्य, दशी० ५ तत्व । व्य० । ननु ग्रहिचरकादया भवन्तु
भवानुयायिना भगर्वा्नङ्ग्रारिणस्तु कथमित्यत्राह, “ सेसा-
रसागरामिण, पारब्ममंतहि सब्वजीवहि । गहियाणि य
मुक्काण य, अणंतसा दब्वलिगाई ॥ ८॥ ” ननु जयः ससार
पथाख्रयश्च माक्षपथा इति यदङ्गं तत् खुन्दर परं यत्सुसाधु-
वहारण बहुकालं विहत्य पञ्चात्कम्मपरतन््रतया शेथिल्यम-
लम्न्यत तत् कुत्र पत्त निक्तिप्पतामित्यत आह--“ सांगण
बइय ज ग-च्छु निग्गया पविहरंति पासल्था । जिणव-
यणवादिरा विय, ते उ पमाणं न कायव्वा ॥६॥ ” ग०
१ आधि० । शब्दनिष्ठ अथगतस्त्त्वाद्यपचयापचयानिमि-
त्ते सत्रीत्वपुंस्वादिक धम्मविशष, लिक्षमशिष्य लाकाश्रय-
त्वात् । । कमं० ४ कर्म० । लिक्ञलमतन्त्रम् । कर्म० ५ क्म०।
ऋजुसूत्रन्यायमत-- एकर्माप तजिलिड् म् श्रा० म० १ आ० |
वाक्य लिड्डब्यत्ययं न कुर्य्यात् दश० ७ श्र ० २ उ०। (य~
दि लिङ्गव्यत्यय दाषः तदा कथे पृथ्व्यादीनां नपुसकत्वऽपि
स्त्रीपुस्त्वन निर्देश: प्रवर्तते इति ` भासा ` शब्द् पञ्चमभागे
१५५० पृष्ट उक्तम् ) साध्वादबषे, जीवा०।
वेसो वि अप्पमाण, दव्वाई् वेसिङण वारेति |
सव्व ।प हु करण।य, इह ।लगुवञज।।*णा बवडणो ॥१॥
पो ऽप्यत्रमाणमिव्यादि देशयति य वा आदिग्नहणादू-'अ-
संज़मपएसु वदह्माणस्स कि परियात्ति य वेसविसने मार्
खज्जत ` इति दृश्य वारयान्त सब्वर्माप-समस्तमापष
करणीयम-कत्तव्यम् इह-समय लिक्ञापजीवना- गुणशन्यस्य
ब्रतितः--साधोरिति गाथा्थैः।
उत्त रमाह--
तत्थ वि घुज्भसु ते पड, अप्पमाणमेव सो वेसो |
जो निस्स॑कं वइ३, असुहडणेसु तेण जुओ | २॥
तत्रापि-बघनिराक रण घुध्यस्व-जानी हि ते प्रति-तमाश्रित्य
प्रमाणमेव निष्फलः स चषा रज़ाहरणादियाँ निर्दिष्टना-
मा निःशङ्कं निरपक्त बत्तत अशुभस्थानषु-साध्वयाग्यषु
तन-वपेण युतः-सहित इति गाधाः |
पतदेव भावयन्नाह--
दुग्गश्गइए मच्छ तयस्स न हु तस्स तण साहारो ।
ववहारा अननेसि, तस्स वि लिगं पमाणं तु ॥ ३॥
दरीं तगत्यां -नर कादिकायां गच्छृता-बजतो न वा हुरवधारणे
तन-वपण तस्य-लिङ्गा पजीविनः साधारः-परित्रारौ व्यव-
दारात्--व्यवब्रहारनयमतेन तस्यापि-लिङ्गापजीवनोऽपि,
लिङ्ग-वषः प्रमाणमेव तुरब्रधारण इति गाथाश्रः।
व्यतिरेकमाह--
जइ न पमाणं तां कहं नु, कप्पगंथम्मि एरिसं वुत्तं ।
सुविहियजईण यरं, पडच एयाए गाहाए ॥ ४ ॥
यदि नति निषध, प्रमाणे लिङ्गामति शषः
षत वितक, कल्पग्रन्थ प्रतीते इृ्टग्वदयमाणमुक्कम्-भणितम्-
, तलः कथ्थ नु-
॥
सखुविदितयतीनाम्-- प्रधानसाधृनाम् दइतरम्-लिङ्गापजीविन
|
।
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( ६५७ )
छभिधानराजन्द्रः।
लिंग
लिगक्रप्प
प्रतीत्य+अआश्रित्योपलक्षण॒त्वाद्दिशिष्ट वेत्यपि द्रष्टव्यम् ।
एतद्वाथयेत्यथैः । है
तामेवाह-
लिंगत्थस्स उ वज्ञ, तं परिहरश्रो व श्रुजओ-वावि ।
जुक्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो एत्थ दिदृतो ॥ ५ ॥
लिङ्गस्थस्य-रजोहरणादवतः तुरवधारणे, स च व्यवाह-
तो ञ्यः स चेवं वज्य एव-परिहरणीय एव श्चाघाकमाद्या
|
|
॥
हारः शय्यातरस्याधाकम्मादिकं तस्यखय परिहरता-वज्ज ,
यतो भुञ्ञानस्य-श्रासवतः चापात समुच्चय, युक्घस्य वा
अयुक्वस्य वा चच्यमाणनीत्या वा समुच्चय, रसायणः कल्प |
पालहट्टोी 5त्र दष्टान्तः । इदादाहरण यथाहि-कस्मिश्विद्देश5पि |
रजाह रणादिध्वजः परिध्वज़ः क्रयत, ततस्त दृष्ठटा सुखनव
ब्राह्मणाद्यस्त वजेयन्त्यव तत्रापि रजाहरणादभ्वजतुस्यया ।
ज्यामात गाथाधः।
तामेव गाथां किञ्चिद् व्याख्यातुकाम श्राह
वक्खाण एयाए,
श्रजुयस्स उ तर्हि वि य,इय लिंगुवजी विणो भाणिय ॥६॥
व्याख्यानम्-ववररणम् पतस्याः-पूवाक्कगाधायाः तत्र पुन
कल्पग्रन्थ युक्तस्य-साहतस्य सयमगुण:-त्षान्त्यादाभ अयु
क्लस्य-अस्ाहतस्य तुः पूरण, तरव त्तान्त्यादाभासत दत्थ
लिङ्ञापजावनः-साधुवषधारकस्य भाखुतमुक्लामात गाथाथ:।
व्यातरकमाह--
जई लिंगमप्पमाणं, ह वि तो तस्स अविरयस्सेव ।
सिज्जायरम्मि चिन्ता, आहाकम्मेव का जदणो ॥७॥ |
यदि लिङ्गम-- चषा ऽप्रमाणम्-श्चकारणे भवत्--जायत, त-
नस्तस्य -लिङ्गजी विना <विरतस्येब-मिथ्यादर्शारच शय्यातर |
चसतिदातार श्राधाकम्मणि वा प्रतीत, वा>समुच्चय, |
चिन्ता तद्धङ्कव्यतारूपा का ?,
गाथाथेः ।
न काचित् यतेः--साधोरगरिति
इति स्थिते जीवो परदेशमाह--
तम्हा एवं देससु, रे जिय ! धम्मत्थ अप्पणो एवं।
सन्वाणं सुत्ताणं, विसयविभागो दुहुल्लओ ॥ ८॥
तस्मादवम्-पवोक्कक्रमण आदिश-क थय रे जीव ! भा प्राणि
न् ! धम्मार्थ-वृषनिमित्तमात्मनः सखस्य एचम्-उक्कवत् सर्व्वे- |
, धां-समस्तानां सूत्राणां विषयविभागो-यथावस्थितरूपा दुः-
सन्नयः छ्च्छवाध्य इतिगाथार्थः । वपा ऽप्रमाणामिति कथन-
विचारख्रयां खशा ऽधिकारः । जीचा० ३३ आधि० ।
लिंगकप्प-लिड्रकप्प-पुं? | लिङ्गसामाचा्याम्, पं० भा० ।
क एत्तो वोच्छामि लिंगकृप्पं तु ।
तदि यं तु लिंगकप्पों, इसमो जिणकप्पे भवती तु ॥
सूढणदकक्ख णि गणो, म्ुंडो दुविहोवर्ही जहष् पं ।
एसो तु लिंगकप्पो, शिव्वाघातेण णेयव्वो ॥
रयहरणं प्रुहपात्ती, सखवेणं तु दु विह उवर्ह।अ। |
बाघातो कितर्सिंगे, अरिसपमेहे य॒ कड़िपड्टी ॥
दुविहा अतिसेवा वि य, तसि इमे वष्मिता समासणं |
ची तेसि विसेस पवक्ामि ॥
१६५
| | ।
तत्थ पुण ज॒तस्स संजमगुणेहि ।
बाहिरगो सरीरस्स, श्रतिससो तसिमो उ बाधव्वो ।
अच्छिदृपाणिपाता, वइरोसभसंघयणधारी ॥
अब्भितरमातिसेसों, इमो उ तर्सि समासओ भणिओं |
उदही विव अक्खोभा, घ्रा इव तेयसा जुत्ता ॥
अव्वावश्हसरीरा, वतिगंधो ण भवति सरीरस्स ।
खतमवि श कत्थ तेर्सि, परिकम्म ण वि य कुव्व॑ंति ॥
पाणिपडिग्गहधारी, एरिसया णियमसो प्रुणेयव्वा ।
अतिसेसा वोच्छ।मि, अर्हे वि समासतो तेरसि ॥
दुविहो5तिसेसो तमि, णाणातिसश्रा तंहव सारीरो ।
णाणातिसओ आहि, मणपज्ञव तदुभय चव ॥
अभिशिबोहियणाणं, सुयणाणं चेव शाणमतिसेसो |
तिवली अभिष्य बचा, एसो साशरमतिसेसो ॥
रयहरणं मुहपोत्ती, जदष्ये' वहि पाणिपत्तियस्मेसो ।
उकोस तिणह कष्पा, रयहरणम्रुहपोत्ति पणगं तु ॥
उवड्टों पडिवग्गहीणं, जहन्नमुकोसो ` होति बारसहा ।
तसिं वि इयारिं विय, अतिर्गायातणिज्ञोगो ॥
उवड्ठाण घसणम-ज्जणायणहणुयणदंतसोमाए ।
एते उवघाता खलु, भयति जिणलगकप्पस्स ॥
उवदडणादि याति, उवगरणं चेव थेरकर्प्पणं ।
भईयन्वा लिंगकप्पो, गेलणहार्द,हि कजेहिं ॥
कज्जम्मि गिलाणादिसु, उचड्ठमाइय अणुणहाता ।
दुगुणो चडग्गुणो वा, कारणतो ह।ति 3वर्हओ ॥
रूढणदकक्वणयणो, मुंडो दुविहोवर्ही समासेणं ।
एसो तु लिंगकप्पो, कारणवच्चासि अण्हतरो ॥
लोए खुरकत्तरी य, मुंडे तिविहं तु होति थेराणं ।
असिवादिकारणेरहि, कज्ञविवज्ञ। सलिगस्स ॥
शणिरुवह त लिंगभेदे, गुरुगा कप्पति य कारणे जति ।
गेलणहर। गलोए, सर रवेज्ञ। बाडयमाद ॥
वासत्तणेण वि ह, भेदों लिंगस्स ते अणुणहातं ।
चाउम्मासुकोसं, स्तरिराईदिय जणं ॥
एयं तु दव्र्लिगं, भावे समणत्तणं तु णायव्वं |
को उवणे दच्पर्लिगे, भण्णति इणमो सुणसु बोच्छे ॥
सक्ारवंदणणमं-सणा य पूजा य लिंगकप्पम्मि ।
पत्तेयवुद्धमादी, लिंगे छठमत्थतों गह्ण ॥
वत्थासणसकारो, वंदण अव्भ्ुट्ट्ण तु नायव्वं |
पणिवाते तु नर्मंसण-संतगुण कित्तण पूया ॥
द्रण दव्वलिभं, कुब्बंते ताणि इंदमादी वि।
लिंगम्मि आविज्ञते, णणज्जती एस विरओ त्ति ॥
कहिंतो साहुलिंगेणं, धर्मतो संजतो भवे |
अलिगं ननित करीम, जाणतो ण करे तुमं ॥
( ६श्द )} ~
चछमभिध्रानगाजन्द्रः |
लिंगक्रष्प
लिगपुलागं
पत्तय बुद्धो जव, गिदिलिगी अहव अन्नलिंगीसु ।
देवा वि ताण पए, मा पज्जे होहिति कुलिगं ॥
णयण पृच्छति कोती,केरिसओं होति तुज्ज धम्मो त्ति।
णय सल्लिंगविहूर्ण, छठमत्था जाण विरओ त्ति।
एसो तु लिंगकप्पो | पं० भा० २ कल्प |
इयाणी लिंगकप्पो सा पदमे जिणाणं तत्थ गाहा--रू-
दनहरामया अवाद्यचुयलायया गनागणाो मुडा जहन्नण
दुविहो उवही-रयहरणं, मुदपोत्तिया य । एस लिंग-
कप्पा | गाहा-'अच्छिदपाणि जिणा अच्छिद्रपाया वइरोसभ- |
संघयणधारी समुद्रवद्वम्भीरा सूर्यवत्तेजाराशियुक्लाः । गाहा- |
न भवह खयं |
च्मव्वावन्नसरीरं नाम विगधसरीरया
पि न कुच्छुड बाह्यशरीरपरिकर्मरहिता धीरा- बु-
िमन्त इत्यथः । ईंहशाः पाणिपात्रधराः
शाख विनिर्दिष्टाः । गाहा-दुविहो तसि अइसओ--
नाणाइसश्रा, सरीराइसआ य । नाणाइसओ--ओहिमखण्-
पज्ञवसखत्तत्थ तदुभय च । ' तिवली श्रमिन्नवच्चा सरीरा
दहाति अइसेसा ` तांस जहन्नण
रशो, मूहपात्तिया य । उक्कासणं पेच वहा-रयदहरणं मुह-
पोत्ती कप्पा य॒ तिरिण एस पंचविहों । गाहा--उव्व-
ट्रणारुई सरीरस्स घेसणा धोवणाइ य पायाईगण
हनयणदंतसोहाइ दुंतकट्ठटाइएसु उवकरणाइसु जिणक-
प्पियणे उवघावो भवद् । एयाणि चव थरकप्पिया
जाणि चादसविहउवदहि अइवेगाणि जाणि य उव्वट
णाइ निकारण पच्छित्त, कारणग जनाइसु भद्यव्वे वा
मत्तणण लिंगभेओ भवदइत तु अणखुणणाये केवचश्चिरं का-
~>
ले उक्रासण चाउम्मास, जदन्नण-- सत्त राइईदिया, ठि-
हकप्पे अद्धियकप्प वा असिवाइकारणहि विवच्चासियं
जिनशासन- |
न- |
|
|
| सिंगकरण -लिङ्गकरण -न० । रजोहरणसमर्पणे, व्य० १ उ० |
|
दुविहोवद्दी--रयह- |
नयर | पतक भवात | गाहा- नरू्रहयालग नक्कारण एग |
हत्थालग वा अन्नातात्थयालग वा करइ मूल, नक्कारण क- |
डिपट्टय बंघद चउगुरु, ग्रुरुलघु पक्खे एगआ दुहओ वा
श्रद्ध सकडा चडगुरु, सजइयाउप चडजहु, गंधपुच्छ
मासलहूं, विश्यपए कागर्णुजाए रायडुट्टुमाईहिं गिद्धिलजि-
गमश्रलिग षा करेंतो सुद्धो कडिप्ट्य पि लोये करें- |
लो था भाय उयारेतो वा उलएंतो वा गिलाण व~
हृतो सइ गिलाणा अतरंतो कडिपट्ये काऊण चकमज्जा,
पाहुणये वा बिस्सामित्तों कड्िपट्टये करज्जा.। गुरुलप-
क्व श्रद्ध सकडे वा अणाभाएण सदा वा करेज्जा
सेजयाउय वासारत्त करेज्जा वा कवलनाण वि उप्प-
न्न कदयतस्स छुउमत्थजणा न सददद तुम कीसमप्प-
णा न करसि ज्ञ पुण पुण पत्तयवुद्धाणे गिदलिगे वा
्र््रलिगे वा न पृषप्ई, कोइ न वा क।इ पृच्छद् क-
रिसओ तुब्म धम्मा ते छंडमत्थाणं गहणुमेव णाग
च्छद लिंगकप्पा सम्मत्तो । प० चू० २ कल्प ।
लिझ्कल्पद्वा रमाह-
अहुणा तिलिगकप्प, वेच्छाधि अह्यणुपरुब्नाण ।
दार ।
जेः पूर्विव बक्खातो, जिणथेराणं तु दोणह वी कप्पो। लिंगपुलाग लिप्डयुलाक-पुं” । सेयतवेषधारिफि पुलाकल- '
रूटणहकक्खमादी, सो चेव इहं पि णायव्यों ।
इति एस लिंगकप्पो | पं० भा० ५ कल्प ।
इयि निगकप्पा तत्थ गाहा-' रूढनह ' सो य रूढनहक-
क्लडाजादेद्रु्ादा लिगऊप्पा वन्निषा( तदा इदे पि। षं
चू ५ कल्प ।
लिगतिय- लिङ्गत्रिक -न० । स्त्रीपुनपुसकरूप लङ्ग त्रय, श्नु ०।
चिविधलिङ्ग उदाहरणम्--
तं पुण णाम तिविहं, इत्थी पुरिसं णपुंसर्ग चव ।
एएसिं तिण्टं पि अ, अंतम्मि अ परूवणं वोच्छ ॥१॥
तत्पुनर्नाम द्वव्यादीनां सम्बन्वि सामान्येन सर्वमाप ओऔ-
पुंनपुलकलिक्वेषु वतेमानत्वात् त्रिविधे-त्रिप्रकारम् , तत्र खरौ
लिङ्ग-नदी महीत्यादि, पुंलिङ्गे -घटः पट इत्यादि, नपुतङे-
दधि मध्वित्यादि, पषां च स्रीलिज्नवृत्यादोनां जयाणामपि
नाम्नां प्राकृतशेल्पा उच्चाथमाणानापन्त यान्याकारादीन्य-
क्षराणि भवन्ति तत्परूयणाद्वारंण लक्षण निर्दिदिचुहत्तरा-
द्धप्राह--' पाल ` मित्यादि, गताय्रमतति गायाश्रः।
तत्थ पुरिसस्प रता, आ ३ ऊ ओ हवति चत्तारि ।
ते चेत्र इत्थिआओ, हवंति ओकारपरिहीणा ॥ २ ॥
(अस्या गाथाया व्याख्या 'पुरिस' शञ्दे पञचमभगे १०१७
पृष्ठ गता ) अनु० ।
अंति इंतिअ उंतिअ, अताउ णपुंसगस्स बोद्धव्या ।
एतेसि तिण्दं पि अ, वोच्छामि निदंसणे एत्तो ॥ ३ ॥
नपुंसकर्ृत्तिनास्नां त्वन्ते अकार इंकार उकारश्रेत्येतान्यव
जीण्यक्षराणि भवन्ति , , नापरम्। एंतषां च त्रयाणामपि
निदशनम्--उद्।हरणं प्रत्यकं बच्यामीति गाथार्थः।
तद्बवाह-
अगारंता राया, ईगारंतो गिरी अ सिहरी अ।
ऊगारंतो विष्टर, दुमो अ अत उ पुरिसाणं ॥ ४ ॥
आगारंता माला, इगारंता सिरी अ लच्छी अ।
ऊगारंतं जब , बहू अ अताउ इत्थीणं ॥ ५॥
अकारंतं धन, इंकारंतं नपुसगं अत्थि ।
उकारंतं पीलु, महं च अता णपुसाणं ॥ ६ ॥
से त॑ तिणामे ( घ° १२४)।
गाथात्रयं व्यक्कम् , नवरं सस्रत यद्यपि विष्णुरित्युका- |
रान्तम्रव भवति तथापि प्राङृतलक्तणस्यैवद वक्कुमिशत्वादू-
का(रान्तता न विरुध्यत, पएवमोकारान्ता दुम इत्यादिष्वपि
वाच्यम् , जम्बुः--सखरीलिङ्गवृत्तिवेनस्पतिवि शषः, ' पीलु ' ति |
त्तरम्, शव खुगमम् । 'स ते तिनाम' ति निगमनम्। अचु०। /
लिङ्गत्थ-लिङ्गस्थ- प° । द्रव्यप्रवजिताङ्गारमरईकादौ, दश० ।
२ आ०। |
लिपधरि(र्)-लिङ्गधारिन्-पु० | वेषमात्रधारिण , ग० १ |
श्माधि० । |
|
|
लिंगपुलाग
( ६५६ )
श्रसिधानराजन्द्रः।
लील दिय
म्धिसपन्ने, प्रव ६३ द्वार । ( अस्य व्याख्या ' पुलाग ' शब्दे
पञ्मभाग १०६० पृष्ठ गता )
नामराध्य शवालङ्गघुतपुजातथां, ता० € कर्प ।
| ५ यायथा-इय स्त्रात वक्कव्ये अये खीति वाक्के। आ०्म०१अ०।
लिगमेत्त-लिङ्गमात्र-न० । चुड्धी, द्वा० २० द्वा० ।
। | लिङ्गविहार लिङ्विहार- पं । लिङ्गावस्थितस्य विद्दारः । |
स्वालङ्गपरित्यजनन विदारे, ० १ उ० १ प्रक०।
। | लिंगाजीव-लिड्राजीव-एुं? । लिङ्गम् साधुलिङ्गं तेनाजीव-
` | ति, ज्ञानादिशन्यस्तेन जीविकां कल्पयति । साधुवेषजीबिनि,
¡ | स्था० ५ ठा० १ उ०।
+ | लिगावसेसमेत्त-लिज्भावशेषमात्र-न०। मात्रशब्दो लक्षणवा-
; | ची; इति प्रवज्यालक्षणे द्वव्यलिक्षमात्र, नि० चू० १३ उ०।
लिगि (ण )-लिज्लिनू-त्रि० | लिक्लं-तिरोद्धितमर्थ गमयतीएति
सिङ्ग धूमरङूतकत्वांदकं तदस्यास्तीति लिज्ली । साध्ये5नुमे-
ये, वश० । लिङ्गं विद्यतऽस्यासो लिद्ली। साधुवेषवति, ग०
२ अधि० | नि० चू० !
२० पद् ।
लिंछ-लिच्छु-न" । कुम्भकारस्यापाके भाण्डपचनस्थाने,
। स्था० ८ ठा० दे उ०।
|
संच० द्वार । गोवराख्यरसविशेषकालिते , जी० ३ प्रति०
४ अधि० ।
निली ० व 6८ निली डेर्ग 65 (~~
लिक-निली-धा० । निलयने, “ निलीडगीलीच्र--णिलु-
क-णिरिग्घ--लुक-लिक्त-ल्हिकाः ” ॥ ८। ४ । ५५ ॥
। इति निपूर्वस्य लीघातोलिंक्ादेश: | लिकइ । निलीयते। प्रा० ।
| लिक्वा-लिक्ञा-खी० । लघुयूके, ज० २ वक्त० । वालाग्राष्टके
श्रमाय अवमानभदे, ने० । ज़०। ““दरिवासरम्मगदेमवगेरन्न-
चयाणे पुठ्वविदेदाणं मणरूसाणे अट्टवालग्गा सा पगा लि-
कखा भ० ६ श० ६ उ० । तनुख्नातसि , दे० ना० ७
चग २१ गाथा।
| लिच्च-लिच्च-त्रि० | कोमले, आ० म० १ अ० । जी० ।
| लिच्छु-लिप्स-धा० । लाभेच्छायास् ,, “ हस्वात् थ्य--श्व-
त्स--प्सामनिश्चले ” ॥ ८। २। २१ ॥ इति प्सस्य छः। लिच्छ-
इ। लिप्सते । प्रा० २ पाद ।
। लिट्विअ-देशी--चाद्धुनि, दे० ना० ७ वग २२ गाथा।
लित्त ऋ लिप्त ०॥ स मष 9
स्था० ५ ठा० २
क्षण ) श्लेषिते,अष्ट० ११ अष्ट० । मृत्तिकया सवर्तः खराणिटत,
थू० २ उ० | ग० । प्रचुरकर्मखरणिटते, उत्त० ८ ञअ० । सूत्र० ।
श्रव । वसादिना गर्द्वितद्वब्येण नी पशञश्चा० । पषणादाष-
विशेषे, स्था० ३ ठा० ४ उ०। आचा० । लिप्त यत्र दध्या-
लिंगपूरणपन्व लिङ्कप्रणपवे-न० । माघमासभाविनि शैवा- |
लिंगभिणण-लिड्ञमितन्न-न० । सू्रदोषभदे, यत्र लिङ्गव्यत्य- |
रजादरणादि सा धुलिङ््वति, प्रज्ञा० |
लिंद-लिद्र-त० । सशेवलपुराणजलवत्स्वाद्रदिते, प्रश्न० ५ |
उ० । सर्वतः |
( स्था० ३ ठा० १ उ०) पिच्छिलीकृते, सूत्र० २ श्रु० २ आ०। |
उपदिग्धे, प्रज्ञा० पद् | छुगणादिभः ( कल्प० ३ अधि० € |
दे द्रव्यलपो लगति । पिं० । ( तच्च न ग्राह्यमिति ' एसणा
शब्दे तृतीयभाग ६५ पृष्ठ गतम )
लित्ती-देशी-खज्जादीनां दोष, द० ना० ७ वर्ग २२ गाथा ।
| लित्तसीहकेसर लिप्तसिहकेशर - पुं” । श्रास्तरणविशष, क्षा०
| १ श्रु० १ आ०।
लित्थारिय-देशी-+खर णिट्ते, पिं० ।
| लिप्पकम्म-लेप्यकम्मंन्-न० । लेप्यरूपकर्म्मणि, अछु० ।
| लिप्पगह त्थि-लिप्यकह स्तिन् पुं° | चित्रकद्ठस्तिनि, आव०
४ अ० ।
| लिब्भ-लिह-धा० । आस्वादे, “ ब्भो दुद--लिह--वद--ख-
घामुच्चातः ” ॥ ८। ४ | २४५ ॥ इति द्विरुक्तो ब्भो वा क््य-
स्य च लक । लिब्भइ । लिद्दिज्जइ । लिद्यत । प्रा० ४ पाद् ।
लिम्प-लिप-धा० । उपददे, "“ लिपो लिम्पः" ॥ ८।४। १४
६ ॥ इति लिर्पोलिम्पादेशः । लिम्पइ । लिम्पति । प्रा० । ““स्व-
राणां स्वराः प्रायो5पश्चेश ” ॥ ८। ४। ३२६ ॥ लिद । लद ।
लीद । प्रा० ४ पाद् ।
लिम्ब-निम्ब- प° । पिचुमन्दके, “ निम्बनापिते ल-रदं वा ”
॥ ८। १। २३०॥ इति नस्य लः । लिम्बो । निम्बो । प्रा० ।
कोमले रा०।
| लिवि-लिपि-स्जी० । अक्तरलेखप्रक्रियायाम् , स० १८ सम० |
पुस्तकादावक्षरविन्यासे, भ० १ श० १ उ० । श्रष्टादश
लिपयः शास्त्रषु श्रूयन्त । । तद्यथा--' हंसलिवी १ भूय-
लिवी २, जक्खी ३ तद्द रक्खसी य ४ बोधव्वा । उड़ी ५
जवणि £ तुरुकी ७, कीरी ८ दविडी य £ सिंघवी
य १० । ॥ १९ ॥ मालविणी ११ नडि १२ नागरि १३,
लाडलिवी १४ पारसी य १५ बोधव्वा ॥ तद अनि-
मित्ती य लिवी १६, चाणक्की १७ मूलदेवी य ८ ॥ २॥ ”
विश० । प्रज्ञा० । लेप्यविघो, स० ४५ सम० । ( पता ' आ-
यरिय ` शब्दे द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठे व्याख्याताः )
| लिविपरिच्छेय-लि पिपरिच्छेद -पुं० | लिपिभदपरिज्ञान कला-
| भेदे, कल्प> १ अधि० ७ क्षण ।
लिव्वासण-लिप्पासन-न० । मसीभाजने, रा० । जी० |
| लिस- स्वप-धा० । शयने, “ स्वपेः कमवस-लिस--लोष्धाः ”
॥ ८ । ४ । १५६ ॥ इति स्वपेः स्थाने लिसादेशः । लिसइ ।
| स्वपिति | प्रा० ४ पाद।
| लिसय- देशी-तनूकृते, दे० ना० ७ वर्मे २२ गाथा ।
लिहमाण- लिखत् त° | लखन्या मष्ट कुव ण, अनु० ।
लिहिआ-देशी-तनो, सुप्त च । देना० ७ वग र८ गाथा।
लिहिय- लिखित न° । अक्षरविन्यासीकृत, कर्म० ४ कर्म० ।
शिस्पविशष, कलप० १ अधि० ७,त्तण ।
लीण-लीनि -तरि० | गुप्ते, आचा० १ श्रु० ३ अ० ३ उ०।
| लीलट्विय-र्ल,लास्थित-त्रि० । ललिताङ्गनिवेशरूपया लील-
या स्थित, ज० १ वक्ष० । * लीलट्वियसालिभंजिया० `"
३ प्राति० ४ आधि० ।
जी०
( ६६०. )
लीलां
अभिधानराजन्द्रः
लुद्ध
तीला-लीला-खी० | सकामगमनभाषितादिक , अचु० ।
विलास. श्रज्ञारचष्टायाम्, क्रीडायां च। वाच० । दला
ललिआओ लीला” पाइ० ना” ७० गाथा ।
पकखएण ” लीलया-न तु प्र्ददापनोदाय , प्रस्वदस्य
दिव्यशरीरे अभावात् , तता लीलया ` चाय ' तत्त वातादा-
रणाथ ` कयपक्खपणे ` ति कृतः-अवधूता यः पक्तक-
स्तालव्न्त तेन ( शाभिताम् )। कल्प०
“ लीलावायकय- |
अधि० २ कज्षण। |
लीलाचंकम्ममाण-लीलाचइ-क्रम्यमाण-त्रि० दैलया कुदि- |
लगमन कुवाण, प्रश्न० ४ रूम्ब० द्वार ॥
लीलायत-लीलायत् त्र | सावलालगता कर्प० १ आधथ०
| ० ।
क्षण । लीलां कुवेति, ज्ञा० श्र
लीलालग्ग- ल्ल लालम्र- न° । कल्पनाकल्पितक्रीडामुग्घे, अ-. |
छू० १ अए० ।
लीललो-देशी -यक्ष, दे० ना० ७ वरौ २३ गाधा।
लीव- दशी-वाल, दे० ना० ७ वरे २२ गाथा ।
लीहोदर -लीहोदर-न० । रागविशष, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार ।
लुअ-लून-त्रि० । “'क्ृनाप्फुः घादयः” ॥ ८। ४ । २५८ ॥ निपा- |
तात्। लञ्च । लून | छिन्न, प्रा० । लून, दे” ना०७वगे २३ गाथा ।
लुक-लुड्डू-पुं०। जिनप्रतिमापूजाविरशाधान खनामख्यात ।
गच्छु,' काञचान्नराद्याप्यसमज्जस त-च्छास्था थशुन्य पात-
भोज्मितैश्व | लङ्क! द्यनादेयमतान्धकृप-प्यन्धैरिवोच्येः पतित
० न(०७ वर्ग०१३ गाथा ।
प्रभूतंः। ॥७३॥ ग० रे आध०। सुप्त
लक शि-देशी--लयन, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा।
लुंख-देशी -नियमे, देर ना० ७ चमं ८३ गाथा |
लुंखाअ-देशी-निर्णये दे० ना० ७ वगे २३ गाथा।
लुचन- लुञ्चन- न° । सामान्यतः कशात्पाठटन, प° । श्रप-
नयन, सूत्र १ श्रु० ४ अ० २ उ०।
लचित-लुञ्चित- त्र ० उत्पादितकेश,आचा० १ छु०६ अ०२उ०। |
लुछ-मृज चा०। शुद्धा
फुस-पुस-लुद्र-हुल-रो साणाः” ॥८।५।१०५॥ लञ्च मार्ष प्रा०।
लुपइत्ता-लुम्पयितू-त्रि० । ग्रान्थिच्छेदनादिभिविलुम्पयितरि,
आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० । अन्यतराक्वावयवविकत्तने, सूत्र०
२ श्र० २ अ० । केशाकर्षणायुत्पीडने, सूत्र० २ श्रु० श्र०।
लुपणा-लोपना-खी० | माणानां कदन, प्रश्श०१ आश्र०द्वार ।
लुपाग-लुम्पाफ पु० । प्रातमावराधान दुण्ढक
नीयमन्मिमकुलाद अडइ ' इति श्रत्र लुम्पाका मीचशब्देन
सर्वाणि नीचकुलानि बदान्ति, तत्कथमिति प्रश्नः ?, झ्रत्रोत्तर
म्-नीचकुलानि-द्रिद्रकृलानि-उञ्चकुलानि-ऋद्धिमत्कुला-
नीति श्रीदशवैकालिक्रवृस्यादिषु उयाख्यानमस्तीत्यता नीच.
शब्दना ऽनृदधिमन्कुलानि ज्ञेयानि न तु गहणीयकुलानि, सथा
न्व शतरैकालिकरऽपि 'पडिकुट्ठकुल न पविसे' इत्यादि सूपपन्न-
{मति ॥ १६६८ ॥ सेन ० ३ उल्ला |
लुबी लुम्त्री -स्त्री० | श्राम्नादिमजर्यास, कल्ष० २
चरा | स्तवक , लतायां ख। रे ना० ७ बग र॒८ गाथा |
* उच्च- |
म्बज रुग्धघुस-लुज्छ-पुञ्ख-पुस- | ६ संता
| लुग्ग-रुग्ण- त्रि ° । जी रतां गते, “ क्कनाफुरणादयः ” ॥ ८।
|
अधि० ८ |
| लुक-तुड-धा० । चोटने “ तुडस्ताड-तुट्ट-खुद्द-खु डाकखु-
डाल्लुक-णिलुक-लुकाल्लूराः ॥ ८ ।४। ११६॥ इति
तुडस्थाने लुकादेशः । लुक्कइ । तुडाति । प्रा० । भदे, वाच० |
निली-धा० । तिरोधान, “ निलङरिलीश्र-णिलुक्र-खि-
रिग्घध-लुक-लिक्क-ल्हिक्काः ”' ॥ ८ | ४ । ५४५५ ॥ इति नि-
पूयस्य लिड लुक्कादेशः । लुककइ । निलीयत । प्रा० । ओगा-
रीमुदर्निज्जिअउ, वटति लुक ( क ) मिश्रक |” प्रा० ४ पाद् ।
रुग्णु-त्रि० । रोगिणि , “ शक्त मुक्क-दण्र-रुग्ण-मृदुत्व को
?” ॥८। २। २॥ इति सयुक्रस्य को वा । लक्ता । लुग्गो ।
“ हारद्रादां लः ॥८।१।२५४॥ इात रस्य लः | रुग्णो । प्रा०।
लुञ्चित--उत्पाटि तकर, ' लुक्रविलक्तो जह कवोडो ` लुख्ि-
तविलु्चितो यथा कपातः। पि०।
लुकसिरय- लुश्चितशिरष्क -त्रि° । कत्तरीक्रि्शिरष्के , क~
टप० ३ आंधि० ६ क्षण ।
लुक्ख-रूक्ष-पुं० | संयोगे सति संयोगिनामवन्धकारणे स्प-
शभदे, “ पग लुक्ख ” स्था० १ ठा० । निस्नहे, ज्रि० | प्रश्न०
४ सम्ब द्वार । जीत० | बू०। स्था०।
लुक्खदेसीय -रूच्षदेशीय-पुं० । रुक्तकल्पे , श्राचा० १ श्रु० €
आ० ३ उ०।
लुक्खफासपरिणय-रूक्षस्पशपरिण त-ए० । भस्मादिवत् रू-
क्षस्पशपरिगतेषु पद्वलचु, प्रज्ञा० ६ पद।
लुक्खाणण--रुक्तानन्-ए° । अलाउद्दीनखुरत्राणस्य कनिष्ठ-
श्रातरि, “ ताणस्स कनिट्ठा लुक्खानननामधिज्जो दिल्लीपुर-
श्रा मतिमाहवपरिश्रा गुञ्जरधरं पदट्टिओ ” ती० १६ करप ।
| लुक्वमरसुर्हमनिकाममोई-रूचाऽरसोष्णानिकामभ) जिन्-
पु० । रूच्तम-निस्नेहम् अरसोष्णमिति नञ् प्रत्यकमभिसब-
ध्यते, अरसे दिङ्ग्वादिभिरसस्छृतमयुष्णे-शीतलमनिकामे
परिमित भङ्ग भोक्रं शीलमेषां ते रूक्तारसानष्णानिकामभो-
जिनः । मकारावलाक्षणिकौ। तथाविधाऽभिग्रहविशेषच-
रके, बृ० १ उ० ३ प्रक० । *
४। २५८ ॥ इति रूग्णस्थाने लुग्गेति निपातः
रुग्णो । प्रा० । भग्न, दे° ना० ७ वर्ग २३ गाथा)
लुदन - लुद्दन म० । वधावने, व्य० १ उ०।
लुण-लू-धा० । छेदने, “खि-जि-श्रु-ह-स्तु-लू-पू-धू-गां
णा स्वश्च "` ॥ द ।५। २७१ ॥ इति श्रन्त शकारागमः,
दीघस्वरस्य हस्वः । लुणई । लुनाति । प्रा० ४ पाद् |
लुत्त-लुप्त त्रि० । अपगते, खूत्र० १ श्रु० ५ अ० १ उ०।
लुत्तधम्म लुप्तधर्म्मन्-त्रि+विगतघम्माणि,प्रश्न०२आश्र०द्वार ।
लुत्तपष्प-लुप्नप्रज्ञ-त्रि०। अपगतावधिधिवेके, सूत्र० १ श्रु० ५
अ० १ उ०।
लुद्ध-लुब्ध-त्रि० । अन्नादिष्वभिकाज्लावति, उक्त० ६१ अ० |
लुग्गों ।
आहारापधिपात्रादिषु लोलुपे,ग०रश्रधि० | पाइ०ना०।रागद्े- |
पार्ते, सृत्र०२ श्रु०१अ०। लोभनम-लुब्धम , नपुंसके क्रः। लोभ,
न० । यू० दे उ०।
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( ६६१ )
लोध्र- ० | स्वनामख्याते गन्धद्रव्यविशषे, दश> ६ अ० ।
लु द्रग-लुन्धक् प° । व्याध, प्रश्न० १ आश्र० द्वार ।
लुद्रग।ददु तभा।वय--लुब्धकदृष्टान्तभावेत-। ब ° ।पाश्वस्थाद
भम।।वत्तान०चू०। पासत्थाताह ज भावता त लुद्ध गा द्द्गुत -
भावत्रेता | कह ? त पासत्था एवं कह ति- जहा लुद्गगा हारणस्स
श्रभिध्रानराजन्द्रः |
पिट्ठतो धावति दरिणस्स पलायमाणस्स सेयं लुद्धगस्स वि |
जण तेण पगारणत हरिण असउं वावातेतस्स सेयं एव
जहा हरिणो तदा साह, जहा लुद्धगा तहा सावगा । नि०
० ४ उ०।
५4
` लुप्पमाण लुप्यमान--ति०।करनासिकादिच्चेदनन छिद्यमाने,
उपा० ७ अ०।
| लुरणी-देशी-वाद्यविशष, दे० ना० ७ वर्ग २४ गाथा ।
लुलिय-लुलित-त्रि० | अतिक्रान्तप्राये, ज्ञा० १ श्रु० ४ अ०। |
मदवशन घू{रीत, चलत्पदे च । उत्त० ५ अ० । तीरभुवि
लुखति, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
लुव्बत-लुप्यमान-त्रि० ।
लुक् ` ॥ = । ४। २४२ ॥ लुव्वइ । लूयते । प्रा० । छिद्यमान,
अज्ञा० १ पद्)
लुहिल--रुध॒र- न० । रक्के, “ ता कदि नु गद लृदिलग्पिप भ-
विस्सदि ” प्रा ४ पाद ।
लुश्रा-रशी स्गठष्णायाम्
लृडण दशा[-न० | अपहरण, जा०
लू।खय-लाटेत त्र” । अपहृत, आचा०
हैं उ० ऋः म०।
लृण-खवख - पु° | बनस्पतिविशेषे, येन दग्धेन सर्जिका नि-
प्पद्यते । ध० २ अधि० । खारीत्तारक, घ० २ अधि० ।
लृणप्पसाय- लवणप्रसाद् पु” । अलाउद्ानाऽऽगमनसमका-
लिककरणदेवपूवैजसारङ्गदेवपूव जाजुनदेवपूवयै जविशलदेवपूवै--
ज्ञबीरधबलपूवज गुजरदशाधिपतो वाघलक्तत्रिय, ती० २५
कल्प ।
लृणरुक्खच्छ्ल- लवणवृत्तच्छेवि- खी” । लवणा परपर्याय-
श्य श्रभरनाम्ना वृत्तस्य त्वचि, ध० २ श्रधि०।
लृ शगवसति- ल् कवसति-खी० । अवुदपवत ग्रामविशेषे,
दे० ना० ७ वर्ग २५ गाथा ।
प्रति० ।
पालतजपालाभ्यां स्थापिताः | ती० ४२ कल्प ।
लूया-लूता-खी° । वातिकरोगविशपे, पञ्चा० १ विव० । को-
लक पटक, कोलिकजालक च | बृ० १ उ० २ प्रक० ।
लूर छिद् -धा० । दवे धीकरण, चिदे दुहाव--रिच्चज्ञ-निज्मो- |
२थ्रु० १ चू० २आ० |
“नवा कम्म-भावे व्वः क्यस्यच |
ड-णवब्वर- णुल्लूर--लूरा: । `' ॥ ८ । ४। १२८४ ॥ इयात लूरा- |
देशः । लूरइ । पक्ते-छिदइ । प्रा० ४ पाद् ।
लूसग़-लूपक-त्रि० | मुष्णाति लूषयति वा इति लूषकः । स्था०
४ ठा० २ उ० । चीर, व्य० ४ उ० । क्रूरे, भक्तके च । सृत्र० १ |
३ आ० १ उ० | दिसके.सूत्र० १ श्रु० २ झ० ३ उ०।व्या-
ग्रादके, सूत्र० २ श्रु० ४ अ० । विराधक, स॒त्र० १ श्रु० २ अ०
> उ० । उपमर्दकारिणि, स्यूत” £ श्र० ४ अ० २ उ०।
लू्चरय
साम्प्रतं लूषकर्माधरूत्याह--
तउसगवंसगलूसग-हेउम्मि य मारओ य पुणो ॥८८॥
श्रपुषव्यंसकप्रयागे पुनर्लूपक हतो च माद का नदशनमिति
गाथाक्षगर्थः । भावाथः कथानकादवसयः, तचेदम--' जहा
पगा मणुस्सो तडसाणं भरिएण सगंडन नयरे पविसइ, सा
पविसता घुत्तण भणाइ-जा एथ तउसाण सगड खाइज्जा तस्स
तमे कि दासि ?,ताह सागाडिएण सो धुत्ता भणिश्रो-तस्सादं
ते मायगे दामि. जा नगरद्(रेण ण णिप्फडइ, धुत्तण भर्मात्त-
ताऽदं एय तउससगड खायामि.तुमे पण त मायग दज्ञास
जो नगरदारेण ण नीसरति, पच्छा सार्गाडएण अब्भुवगए
धुत्तण साक्खणा कया, सगड़ अहिट्रित्ता तर्लि तउसाणं
एककये खंड श्रवाणत्ता पच्छा त सागडिय मायज मग्गात
ताह साौगांडओ भणाति--इम तडसा ण स्वादया नुम, धुत्तण
भषात-जईइ न खाइया तउसा अग्घवह तुमे, तश्रा अ्रग्घ-
विएसु कड्या श्रागया, पासांत खाडया तडसा. ताह कइया
भणंति-का पप खण तउस किणइ ?, तआ करण वव -
हारो जाओ खइय ति. जिच्रा सागाडश्रा । एस वसगा चव
लूसगानमित्तमुवष्त्था , ताह धुत्तण मादगं मग्गिज्जाति
अच्चाइओ सार्गाडओ, जूतिकगा आलाग्गया. त तुदा पु-
च्छात, तासि जहावत्त सत्वं कहात, एवं कांहत तदि उत्तरं
सक्खाविश्रो-जहा तुमे खुडय मादग णगरदारे ठावत्ता
भण एस स मादगो ण णीसरइ शगरदारग, गरहा
जिच्रा धुत्ता । पस लोइओ, लोगुक्तरे वि चः ररणाणुयोग
कुःस्खुतिभावितस्स तहा लूपतगो पउंजइ--जहा सम्भ पड़-
वइ । दव्वाणुज,गे पण पुज्ञा भणेति- पुव्व दृरिसिओ
चव । श्रस्ते पण भरणाति पञ्च सयमव सव्वाभचारं हृड (च्चा
रेऊण परविसंभणानिमित्त सहसा वा भरिता होजा, पच्छा
तमव देउ श्रष्षण नरुत्तचयणणं ठावद्। '' दश १ श०।
लूसण-लूपण-न० । कद् थन, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० १ उ०।
दुषणे, सूत्र ० १ श्रु० १४ अ० | उपमदने, सूत्र० १ श्र० १४ अअ०।
आ।तेक्रमण, सूत्र० १ श्रु० ४ अ०२ उ० | विध्वंसने, आचा० १
श्रु० ६ अ०४ उ० । विराधने, झाचा० २ श्रु० १ चू० १ आ० ७
उ० । हस्वकरणोे, सूत्र० १ श्रु० ७ आ० |
| लूसिय-लूपित--त्रि० | परितापने, श्राचा० २ श्रु० ४ चू०।
इिसके, सूत्र० १ श्रु० १ आ० | आचा० |
~ | लूसियपुव्व--लुषितपूर्व-न० । द्विसितपूर्व, आचा० १ श्रु० ६
लूणिगवसत्यां नव शतानि चतुरशीतिश्च पौषधशाला वस्तु- |
आ० ६ उ०।
लृद-रुक्त- त्रि० । निरनेहे स्था० ५ ठा० १ उ० । बृ० श्राचा०।
ज्ञा० | प्रति० | श्रप्रणीते, भ० ३ श० ४ उ० । स्नानरसिनिग्ध-
भोजनादिपरिहा रण, (उत्त० २शञ्म०)तलाभ्यज्ञादिराहिते,उत्त ०
श्र० | स्वजना। दषु स्नटावरदाद्रत्तः । | दश> १० आअ० | रूप
शरीरे मनसि च। द्रव्यभावस्नदवर्जितत्वन परुषे, स्था० ४
ठा० १ उ०। रागद्वषराहत, सूत २ श्रु+ १ श्र०।
लूप-पुं० | लष्यति वा कर्ममलमपनयताति लूपः | स्था० ४
ठा० १ उ० । उत्त० । स्तेहपरित्याग, दश० २ झ० । संयमे,
सूत्र ० १ श्रु० २ अण० २ उ०।
लुह चरय-रुक्तचरक-पु° । रूक्ते--निस्मेह चराति अभिग्रह
विशेषात् । रूच्तमान्नग्राहक भिक्तों,सू)० ५ ठा० १ उ9 । क्न ६
{ 4६२ १९
लृटजीवि
लूहजीवि (ण् )-सुर्जाविन् -पुं । रूक्षण-तलादिवर्जितन |
जावतु शालमस्यात. नस्नहमभाजान आआशभ्चग्राहक साधा,
स्था ४ ठा० १ उ>।
लूह वित्ति रुक्तव्रृत्ति पु । वटनलत्रणक्रादाभवननशाल आ- |
भग्रहिक् साधा. दश ८ झअ० |
लृहाहार-रूत्ताह।र-पुं० । रक्तं तेलादिवर्जितम आहारयति
्क्तावा आहारो यस्प स तथाविध श्राभिग्राहिक साधो,
स्था० ५ ठा० १ उ० !
लूहिय-रूचित-न० । विरूक्षित, ओ० । निजलीकृत, कल्प
* अधि० ३ क्षण |
ले-ला-धा० | आदान, “ स्वराणां स्वरा; ॥ ८।४। २शे८॥
इत्याकारस्थाने एकारः । लड । लानि । प्रा० ४ पाद ।
लेक्वव्िहाण-लख्यविधान--न° | लख्यविधे(, प्रज्ञा” ? पद ।
लच्छइ-लच्छुकिन-ऐ० | क्षत्रियविशेष, सूत्र ट श्रु० १३
अ“ । लब्छुकि जातीथषु काशलदशस्य राजखु, कर्प
‡ अधि० ६ क्षण | भ० | ज्ञा० | औ० |
लेज्फम-लेश--तिं० । मधुशिखरिणीप्रभश्रनाताषु आस्वाद्यरलपु,
बा० ट श्रु० १७ झआ० |
लद्द-लटु-४० ¦ त्रत्तर, प्रश्न० ३ आश्र०द्वार । पापाणे,
फलप० ६ अधि० द क्षण । ( लष्टुकटष्टान्तः
शब्द चतुश्रभागे २५४१२ पृष्ठ गतः)
लड॒ञ -देशी-लोष्ठके, दे० ना० ॐ वर्ग २४गाथा | “ लेडओ
लाट "` पाइ० ना० १५३ गाथा ।
लइक-देशी-लम्पं<, लाए च | द० ना० ७ वर्ग २६ गाधा।
लद्िअ-देशी-स्मरण, दे० ना० ७ वर्ग २५ गाथा ।
लदुक-लेष्टुक-पुं* । लाके, द° ना० ७ वगे २४ गाथा ।
`` तदुका लडश्रा पाइ० ना०।
लण--लयन--न० स्थान, वसतिरूप ( दश० ८ अ० ) रोल,
प्रश्न० ६ सवण द्वार | शितामयग्रहे , प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
पत्च॑तनिकुद्धितग्रह, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । गृह, स्था० ६
ठा० ३ उ० | कटप० । उत्कीरपव्वैतगृहे, भ० ५ श० ७ उ०।
आश्रय, स्था० ८ ठ० ३ उ० गुहायाम ,उत्त० २अ०। सूत्र०।
लणजमय-लयननृम्भक -पु० | जुम्भन्ते-विजुम्भन्ते स्वच्छन्द
चारितया चष्टन्त य ते जम्भकाः-रतिग्लाकवासिना व्य-
न्तरदवाः ( भ० ) लयनम- गृहम . लयनाविभागन ज॒म्भ-
का दवः लयनजम्भकः | जम्भकदवभदे, भ० १४ श० ८ उ०।
लणभोग-लयनभोग-पुं? | चित्रशालाद्यावास-नवनवाभागे,
श्रो०।
लणमुहुम- लयनम्ररम-न। लयनम्-श्राश्रयः स्वानाम् ,यत्र
थीणडि `
कीटिकाइनकसन्मसत्त्वा भवान्ति तल्लयनम्। सृत्मावले,स्था०। |
सर्कितं लणमुहमे ? लणसुहपे पंचहि पणणत्ते, तं
जहा-उत्तिंगलण १ भिगुलेण २ उज्कुण ३ तालमृलणए ४
सबुक्र वद्र नामं पंचमे ५। ज क्रडउमत्थेणं ०जाव पडिलेहि-
यत्र भवह, से ते लगासुहुमे ॥ ७॥
अआभनध्रानराजन्द्रः;।
लक
(सकत लणसुदुम ) ) अथ कानि तत्, लयनम्-श्राश्रयः
सत्वानां, यत्र कीटिकाद्यनक्रसृदपसस्वा भवान्त तल्लयनें
सृच्मविलानि, गुरुराह-( लेणसखुहमे पचविदे परणत्त )
सृतमावलान पशञश्चविधान प्रज्ञत्तानि( तं जहा- ) तद्यथा
(-उात्तगलण १ मिगु तण २ उज्जुर् ३ तालमूनप ४ सबु-
क्वावट्ट नाम पचम ) उत्तिज्ञा-गर्देभाकारा जीवास्तषां विल-
भूमो उन्कीण ग्रहम् उल्तिङ्गलयनम् ६, भ्रगुः-शुष्कभूरखवा
जलशापानन्तरं जलक्रदारादिषु स्फुटता दालिरित्यथः २,
सरल वलम् रे, तालमूलाकारम्-ऋधः पृथु उपार च सद्म
विले तालमुलम् ४, शम्बुकावत्त-श्रमर ग्रह नाम पञ्चमम् ५
(ज छुठमत्थण ०जाव पाडलाहयत्व भवइ ) यान चद्यस्थ-
न यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( स तं लेणख॒हुम )
तानि सृदमविलानि । कटप० ३ आधि० ६ क्षण । कीटिकामग-
गादिक सृदमभद. स्था० १० ठा० ३ उ०।
लच्छारिय-देशी. खराण्टत, बृ० ६ उ० १ प्रक० ।
लप्पकम्म लेप्यकर्मन्-त० । लेप्यपरिज्ञानात्मके कलामेदे,
कट्प० १ अधि० ७ क्षण)
लप्पकार लेप्यकार-पुं० । लेप्यकरणशिल्पिनि, अनुं० ।
लप्यपूकत्तलिया-लेप्यपुत्तलिका- खी० । लेप्यकर्मनिर्मित्तायां
पुत्तालिकायाम् , अनु० ।
ललु-लेए्ट-पुं० । लाए, सूत्र ० २ श्रु० १ अ० | कपाले, आचा०
६ श्रु० ६ अ० हे उ० | पथिवीशकले, श्राचा० २ श्रु० १ चु?
१ अ० ५ उ०।
लव-लेप-पुं० । सल्लेपनादिश्लप, दश० ५ अ० १ उ०। गवये,
उत्त० ८ अ० | बू० |
अधुना लपद्वारमाट--
अप्पत्त अकहित्ता, अण हि गया परिछणे य चउगुरुगा ।
दोहि वि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा।४७७
सूत्र पात्रषणालक्षण अप्राप्त यदि लपस्यानयनाय प्रषर्यात
तदा तस्य प्रायश्चित्त चत्वारो गुरुकाः.तद्था-तपोगुरुकाः-
कालगुरुकाश्च । अथ प्राक्षऽपि श्रुते तदशथमकथयित्वा कथ-
नेऽप्याधगतस्तदर्थो न वेत्यपरिज्ञाय अधिगतमपि सम्यक्
श्रदधाति न वव्यपरीच्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्यक्रमकथ-
नऽनधिगम परीक्षण च तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघु-
काः, द्वाभ्यां लघवः । तद्यथा-तपोलघुकः, काललघु-
कश्च | यत एवे प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्माःसूत्र प्रा-
प्त तत्रापि कथित तत्राप्यधिगते स परीच्य लपस्यानय-
नाय प्रपणीयः , एप लपस्य कल्पिकः ।
्रजक। लियलवं,वयं ति अवियाशिङण सन्भावं |
ते वतव्वा लवा, दिद्ठी तल।कदं सं\ {हं ॥ ७७८ ॥
करांचत्प्रयचनस्य सद्धावम्- रहस्यम् श्रविदित्वा-श्रबि-
ज्ञाय अद्यकालिक लप पात्रस्य वदन्ति न एप पात्रस्य
लपः सर्वज्षैरुक्तः कि त्वद्यकर्रप--अधु तातनसूरिभिः प्रवत्ति-
तः, ते वक्तव्याः, दृष्ट: खलु पात्रस्य लपः जेेलोक्यदर्शिमिः |
पनामव गाथां व्याचख्यासुः प्रथमतः पूर्वार्द्ध व्या-
ख्यानयन् लपस्य जनानुपदिष्त्वे भात्यति--
आतया-पव्य ग-संयम -उवघाओ दीसई जश्रो तिविहो |
|
|
( ६६३ )
अभिधानराजन्द्रः।
तम्हा वयंति केड, न लेवगहणं जिणा बिंति ॥ ४७६ ॥ |
रस्माटनप ग्रह्म माण ज्रावरच उपघात दश्यत. तद्यथा-- |
आत्मनः, प्रवचनस्य, सयमस्य च । तस्मात्कचिद्दन्ति-न
लेपग्रहणो जिना ब्रुवते--न खल भगवन्तः सावद्य वचननु- |
च्चरन्ति ।
कथे पुनरान्मभ्रवचनसयमो पघात इत्यत आह--
रहपडणउत्तमंगा-दिर्भजणा घट्टण य॒ करघातो |
एसाऽऽय विराहणया, जक्खुद्धिदणे पत्रयणम्मि ।४८०।
गमणागमणे गहणे तिदे संजभ विराहणया ।
महि-सरि-उम्युग-हरिया, कुंधू वासे रओवसिया ।४८१। :
रथस्य शकटस्य पतन उत्तमाङ्गादः शरीरावयवस्य भङ्गः, |
तथा-- भाजनस्य लप दत्त घट्टकन दत्तलप पात्र घट्टयतः
करधघातः करस्यापोडा, एषा श्रात्मविराधना । यत्ता -श्वा- |
नस्तेः शकटस्याक्ता नक्रधा जिहयाज्लिखितः साधुरपि च त॑
श्र लपे गृह्ाति, तमपि च भाजनयाग्यं पात्र दास्यति,ततो य-
काज्लिखन-यक्ताल्लिखितलेपग्रहण प्रवच्चन-प्रवच्च नस्योपधातः
तथा-चत्रिस्थान-च्िषु स्थानघु च संयम सयमस्य विराधना,
तद्यथा-लेपग्रहणाय गमन लप ग्रहीत्वा पुनवेसतावागमन-
लपग्रहण च | तथाहि-गच्छुतामागच्छुतां तत्र वा मह्याः स-
चित्तपराथवीकायस्य विराघधना.सरद्-नदी तत्र गमन आग-
मन चा ऽप्कायविराघना, तथा-कदाचिक्तेः शाकटिकेरमझिका
य उद्दीपितों भवत् , तत्र कथमय्यनुपायागत उल्मुक्चालन
श्न्चिकायावराधना, यत्राझिस्तत्र वायुरिति वायुवराधेन
हरितकायक्रमण वनस्पतिकायावराधना, तथा-लप कुन्थ्वा
दयः प्राणा लग्ना भवयुः ततस्तद्म्रहणे जसकायविराधना |
तथा-गमन आगमन तत्रवा वषर पतत् रजा वा सचित्त
बाताद्धतमापतिते स्यात् ततस्तद्धिराधनाऽपि तत्रा उवसेया ।
तंदवमायातम-आत्मप्रवचनसंयमानासुपघातेन च यथा पि
ण्डेषणा, पात्रेषणा वा, जिनेर्भणता, न तथा लेपेपणा5प,
तस्मान्न जिनापदिष्टः पात्रस्य लपः। | तदतदलमीचीनपम्, पा-
अलपस्य जिनेरश्रत उक्तत्वात् | पात्रषणायां हि त्रिविध पा-
अमुक्लम , तद्यथा-यथाक्रतम् अल्पपारकर्म, सपारिकमे च।
नज्रारपपरिकमणः सपरिकमणश्चावश्य लपन कार्यामि-
ति सामथ्यादुक्का जिनः पात्रस्य लपः । अन्यच्चोधघनि-
युक्तो ( निर्युक्षिगाथया ३७१ ) प्रपञ्चेन लपषणा 5प्यर्भिहिता
तस्मात् दृष्टस्त्र लाक्यदर्शिमिः लप
यञ्च वदासि आत्मोपघातादया दाषा इति, तत्र प्रत्युत्त रमाह-
दोसाण परिहार, चोयग जयणाएँ कीरणए तेसि ।
पाते उ श्रलप्पते, त दोसा हःतिञ्णगगुणा।। ४८२ ॥
दे नादक ! य दापास्त्वया प्रागात्मोपघानादयः उक्तास्तेषां
परिहारा यतनया क्रयत, यतनया गच्छतो लपग्रहण च कु.
चेता न काञ्चदात्मापधघातादिको दाष इति भावः। पात्रे तु
श्रलिप्यमान त श्राल्मापधातादया दाष अनकगुणाः--अ-
नकपरकारा भवन्ति ।
कथःमति चदत श्राद-
[व ` शि उ बिरस-भ्मि श्लुजमाणस्स होति आयाए |
लय
दुग्ग।धभायण ति य, गरहात लागा पवयणाम्म || ४ ३॥
अलेपित किल पात्रमताव विरस भवति. तस्मिन भुजञान-
स्य विरसगन्धघ्राणत ऊध्वादान भवान्ति. ऊभ्व-वप्रनम्
श्रादिशब्दादरुचिमान्द्यादपारग्रहः । णन श्रात्मनि दाषाः,
तथा-लोाको भिक्षां ददाना दुगीन्धभाजने द॒ष्छा गहयति-डट-
शा पवामी पापापाचता इत । एव प्रवत्रन उपघ्रातः। य-
दप्युक्रम्--यक्ताज्ञखतलपग्रहण प्रवचनापघातः' तदनत्ता-
चदतिसृदमम् | अन्ये एप खलु महान्तः प्रवचनापघ्राता श्रव-
श्यकतेव्यतया यतनया परिहियन्त |
पुननेष इति प्रतिपादयन्नाद-
पवयशणघायाऽन्ने वि, अत्थि जयणाए कीरए तेसिं।
आयमणभोयण।ई, लवे तव मच्छरो को णु ? ॥४८४॥
श्रन्यऽपि खल अचमनभाजनादयः-कायिकनाचमन का-
यिक्या आचमने वा पात्र भाजने मरडटयां भाजनमित्य-
वमादयः प्रचचनघाताः-प्रवचन।पधाताः सन्ति; पर तप्य
वश्यकत्तेव्यतया यतनया सागारिकरक्तणादिरूपया क्रियन्त
पवमवश्यग्रहीतव्य लप यतनया तत्कालदण्रद्षपरिहारा-
दिलक्षणया गृह्यनाण कः न तव मत्सरा, नवासा
युक्त इति ।
संप्रत्यन्यानपि पात्रा ऽलपे दापाना ह--
खंडम्मि मग्गियम्मि य,लग। दिन्नम्मि अ पयवविणास।।
प्रणुकंपार्द। पाण-म्मि होति उद णस्म उ विणासे ।४८४॥।
श्रजपित पात्र कस्मिश्वित्परयाजने समापतित सखण्ड या-
चितम् । तथा चाविरत्या खरडमिति चरन्त्या श्रनाभोगन
सैन्धवादि लवणं दत्तम् , त्मिश्चालापिने भाजने कलिदवयवा
अद्याप्यम्लाः सन्ति, तवस्तैरवयतरैस्तस्य लवणस्य पृथिबी-
कायस्य विनाशः, तथा+पान के याचित कयाचिदविरत्या
पतं उदकस्य स्वाद् न जानन्तीत्यनुकम्पया आदिशब्दादू--
अनाभागन वा उदकं दायते तत एवम् उदकस्याम्नावयवल-
स्पशता विनाशः ।
पूपलियलग्गञ्अगणी-पलीवर्ण गाममादिणं हाजा ।
रोइपणगा तरुम्भी, भिमुकुन्थादी य छट्ठम८ ॥४८६॥
कयाचिदविरत्या श्नाभ(गतः सागारा पूपलका दत्ता
भत् , तत्राम्तावयव वेस्परोतस्तस्य विध्वेसः । यद्वा-पू-
पलिकालझो 5ग्रिरेहेत्ू सच साधुर्न चेतयते, तत. प्रदीघ्त
पात्र परिनापनगनतः सहता तत्पात्र व्यज्येत् नञ्च कणट-
कभमिच्यादिमध्य पतितप्रिति कृत्या तदा दव्रसङ्गनोग्रामादानां
ग्रामस्य नगरस्य पाटकस्य वा प्रदीपनं भवत् । तता महतो
अग्निकायस्य विगाधना । यत्राग्तिस्तत्र वायुरिति वायुव-
राधना । वनस्पतिविराधनामाह--' रुट् ' त्यादे कयाचद
विरत्या राष्ट्रा-लोट्टा दत्त: सा5म्लाययवर्सस्पशतः प्राण-
विर्षात्तमाप्माति, तथा भ्रगुताम-श तदणराजिः तासु पनकः
संमूच्छुति साउन्नपानग्रहणतों विध्वेसम्रापद्यत , एपा तरो
वनस्परतिकाय विराधना | तथा-श्रगुषु पनक समृच्छति
कुन्ध्वादयाऽपि संमुच्चान्त .तेऽवयवानामम्नमावनान्नपान-
ग्रहगाता वा विराध्यन्त, पषा घष्ठ त्रसक्राय विराधना ।
पर्व घगणामपि कायानां पात्रस्याज़प विराघना ।
|
( ६६७ )
श्रसिधानराजन्द्रः।
त्तत्र
६ ~
यदप्यक्लं लपषणा भगवाद्धनाङ्तात तत्र प्रातावधानमाह-
पायग्गहणाम्म उ द-ासयाम्म लवसणा वि खलु वुत्ता |
महा उ अणणा (ले-पणा य जवरस्स जयणाए ।४८७।
पाजग्रहण दशित खलु लपषणा :प्युक्ला दष्रव्या । लपमन्तरणा-
यश्य षट् जीवनिकायाविराधनात् , यथाक्लमनन्तरम , तस्मात्
जिनापदिष्टत्वाल्लपल्य यदनया श्रानयने तन च पात्रस्य
लपन कव्यम् । पर आह-यतनया लपस्यानयनांद कत्त
व्यम् , तत एवे क्रियताम् ।
हत्थोवधाय गतू-ण लिंपणा-सोसणा य हत्थम्मि ।
सागारिए पभू जि-घणा य छकायजयणा य ॥ ४८८ ॥
यस्माज्ञपस्यानयने हस्तोपघातः; तस्मात्तत्र गत्वा पात्रस्य
लपनं कत्तव्यार्मात नोदकवचनम . इदमपि नादकवचो लिप्त-
स्य पात्रस्य हस्त घारणतः शोषणा कर्तव्या । अचामयत्रापिप्र-
त्युत्तरमग्र दास्यत । तथा-व्रजता प्रत्यासन्न शय्यातरशकटम-
दलाक्य सागाए्रकापरड पष दात कृत्वान वजनाय करतु
तत्रेव लपग्रहणं कार्यम ,तथा तस्य-शकटस्य प्रभुः, प्रमुसाद-
ग्ध वा तमनज्ञापयत् , अनुज्ञाप्प च कदटुगन्धपारज्ञाना
य॒ नासामसस्पगीयन तं लेप जिघ्रत्तदनन्तरं लपस्य
ग्रहण परकाययतनया क्व्यमिव्यष द्वार्गाथासंक्षेपाथः |
साम्प्रतमनामव विवरीषुः प्रथमतः ` गंतूरो लिप ` त्ति
दार व्याख्यानर्यात--
चोयगवयणं गंत्-ण लिंपणा आणण बहू दासा,
|
संपातिमादिघातो,अ है उस्सग्गो य गहियुम्मि ॥४८६॥
नादकवचनम-- तत्न शटकसमोप गत्वा पःच्रस्य लपन
कलव्यम . यता लपस्यानयन वहवो दाषाः. तथाहि-भाग्ण
दस्तापश्रानः पववत . तथा-सपातिमानाम् . श्रादशच्दाद्-
श्रमपातिमानां च जीधानां त पतितानामुपधघरातः, सच
कदाचिदधिकोः लपा गृर्हाता भवन् , ततस्तस्मिन्नाधक ग्रहीत
उन्सशर्पारण्ा पानकादापः सपद्यत । उक्तं च--
वधाओ, तत्थ ये संपादिणा पडत य । पारिट्ठार्वाण दासा
अ्रहिगस्मि य हाइ आरणीाए ` ॥ १ ॥ एचमुक्क आचाय आह-
नाटक ! तत्र पात्र लिप्यमान साविशषतरा आत्मापप्राताद-
या दाषाः ।
तथा चा 5 5ह--
एवं'पि भाणभदो, वियावण अत्तणों उ उवधाओ ।
निस्संक्रियं च पाय-गिण्दण इयरहा सका ॥ ४६० ॥
एवर्माप-तत्र गन्वा पाचलपन 5पि ऊर्ध्वस्थिता लेप ग्रहीत्या
भाजन प्रक्तिपाति, तत्र व्यापृतस्य रतः कदाचित् हस्ता-
द्राजन पतत् , तत एवे व्यापृत भाजनभदः. तद्यथा-कशथमपि
शकदम्य पतनत आन्मनश्चापदातः । किञ्च--पात्र लेपस्य
ग्रहण ग्रहीत्वा च तत्रव पारस्य लपन क्रियमाणो तषां सा-
न्तान्पश्यतामव न .शाद्गित भवाति । यथ्चतनाश्युचिना लेपन भा
ज़नपात्रममी लिम्पान्ति,नता महान प्रतरचनापघ्रातः। इतरथा
तत्र पाता ऽल्लपन शगाराऽवुयवलपस्य ग्रहण
पात्रस्य पनाय. उत-- द गत्रयनः
शङ्कापजायन, कि
पादस्य पिसडीवन्धनाय
लपगाददल उता न पचच्नोपघ्ानः।
भार हत्थु- ,
यदप्युक्रम-' भारेण हस्तापधात ` इत । त््रापि-
प्रस्युत्तरमाह--
4 [ क # [र्त = क
जइ वा दत्थुवघःश्रो, अणिञजतेम्मि होइ लेवम्मि।
, पडिलदणादि चङ्क, तम्हा उ न काइ कायव्वा ॥४६१॥
यदि ल्प आनायमान भारण हस्तोवघात इति नानयने
क्रियतः तहें न कदाचिदपि प्रतिलखनादिक्रिया कतंब्या ।
अश्वापि यथायोगं हस्तपादादरूपघातसम्भवात् . तस्मात
यथा प्रतिलेखनादिका क्रियाऽवश्ये क्रियत तत्कररे गुण-
सम्भवादव लपानयन्मापि। तदेवम--' हत्थावघाय गतूण
लिपण त्ति ` व्याख्यातम् ।
मधुना “ सासणा य हत्थम्मि `" इति व्याख्यानयति-
जति नवं तो पृणरवि, अशं लिंपिऊण हत्थम्मि |
च्छति य धारमाणो,सदव निक्खव परेहारी ॥४६२॥
यदि नाम तत्र गत्वा पात्र लपनीयमिति नेवमिष्यत अन
न्तगादितानकदापप्रसङ्गात्ततः पुनरपि किजिदधक्कव्यम्-लप-
मानाय पात्र लिप्त्वा इव निक्षपपरिहारी स इव निक्ञ-
पर्पारद्ार{मच्छन हस्त पात्र धारयन् तावत्तिष्ठति यावल्ले-
पस्य शाग्रा भवति |
एवं क्रियतामत्राचार्यः प्राह--
एवं पि हु उवधातों, अयाए संजमे पवयणे अ।
मुच्छादी पवर्डते, तम्हा न सासए हत्थ ॥ ४६३ ॥
पवमपि हस्त श्रृत्वा पात्रलपस्य शापणऽपि हुनिश्चि-
॥
] ।
व
|
। |
॥
|
तम् उपघातः आत्मनः, सयमस्य, प्रवचनस्य च । ततात्मा- |
पघ्राता मूच्छीया आदिशब्दात्पात्रभारण च प्रातपततिवे- |
दितव्यः. सयमरा पघातः षट् काश्ानामुपरि पतनात् , प्रवचना-
पघातः पतन्त दृष्टा लाको ब्रयात्-' दुष्टधम्मोणाउमी ' इति ॥
उक्र
* कायाणमुवरिपडण, आयाए सज्ञम पवयण य ।
डण्हेण व भारण व, मुच्छा पवर्डात आयाए ॥ १॥
कायावरि पवडत, अह दादी संयम विराहणया ।
प्रवयणेः अदिद्गुधम्मा, पडत दट वप लागा ॥ २॥ ”
यस्माद्रत दोषास्तस्मान्न हस्त पात्र शापयितव्यम् । अन्न
सर्वत्र नादकस्येवं ब्रुवता यथाच्छन्द इति छृत्वा चतुगुरकं |
प्रायश्चित्तम्,
पवमाचार्यो नादकं प्रतिहत्य साभ्प्रतमात्मना यतना- |
सामाचारीमाह--
~ ३०७ ८६ ०.९ लिपंति
दुविहा य होति पाता, जुषा य नवाय जे उ लिंपंति। |
जण दाएऊं, लिंपति यच्छा य इयरसिं ॥ ४६४॥ |
यानि पत्राणि लिप्यन्त तान द्विविधानि भवन्ति । तद्यथा |
जीरानि, नवानि च । तत्र यानि जीणानि तानि नियमत |
श्राचाय्याणां दशनीयानि | यथा इंडशा लपः क्षमाश्रमणाः !
पात्राणासग्रतना वततत. ततः सम्प्रात लम्पाम न वा; त-
अब दशांयत्वा यद्यनज्ञा ज्ञाता ततस्तानि जी णानि लिम्पात
तरथा,अदर्शयित्वा लपन प्रायश्चित्तं मासलधु ! यानि पनन |
वानि तान्यवश्ये लपनीयानीत कृत्वा आचायस्यापृच्छया-
प तप्राणिलरपा- नवानां लपन कतेव्यम |
।
।
।
५
। दे ) 8
लप ्रभिध्रानगाजन्द्रः !। ल्प
अथ जीणानामदशेने को दाप इत्यत आह--
पाडिच्छगमेहाणं, नाऊण (ऽपि अगमणमाई ।
दहलेधे वि उ पाय,लिंप ति मा तेसि दिजिज्ञा ॥ ४६५ |
अहया वि विभूसाए, लिपति जा सेसगाण पररिहाणी |
अपडिेच्छण य दामा, सह काए अनेगाए ॥ ४६६ ॥
कश्चिन्मया शिष्याणां प्रतीच्छुकानां चागमनं ज्ञात्वा मा
तेषां दद्यादिति कृत्वा दडलपान्यपि पात्राणि भूया ऽपि लिम्प-
ति, अथवा--न शोभनः अघ्रतना लप इति विभृषानिमि-
मजीणनरमपि पात्र भूयः कोऽपि लिम्पति | एवं माय-
या विभूषार्नात्त वा भाजनष तप लिप्तपु या शषक्राणां
साधूना प्रताच्छुकानां शिष्याणां परिहाणिस्तां स मायी वि-
भूषाधी वा प्राप्नाति । तमव दर्शयाति-' श्रपडच्चणय ` इत्या
काच त्थताचउडका: समागतास्तद्याग्यानचपात्राण न सः
न्त लिप्तानि तिष्ठन्तीति कृत्वा तत एवं पात्रेविना तषां प्र-
तीच्छुकानामप्रतीच्छन क्ञानदशनचारित्रपरिद्ाणिः ` सहे
काए ` त्ति तथा त्तः कशिचिदुपस्थितोऽथ च भाजने न
विद्यते लिप्तमस्तीत कृत्वा तता भाजन विना कथ स प्रवा-
ज्यत इति सातप्रत्राजितः कायविराधनां कुयात्, सा च
तान्नाभत्तति ज्ञानदशनचारित्रपरिहाणिप्रत्यये कायविराध-
नाप्रत्यय च प्रायश्चित्त प्राप्रति। यत एवमदर्शित दोषास्त-
स्मात् जीणीनि दर्५त्।
अध केन विधिना लपस्य ग्रहणादि कत्तव्यम् श्रत आह-
पुच््ण्ट गतश, लवबग्गहण सुसवर काउ |
लेवस्स यरणणा लि पणा य जयणाएँ कायव्वा ।४६७।
पूर्वाह्न पानमित्त गमने कृत्वा तत्र तनया लपग्रहण च
कृत्वा ततः खुसवर भवव्यवं लपस्य यतनया आनयने कक्त-
व्यम् , ्चानीते च यतनया पात्रस्य लपना।
पनामव गाथां व्याचिख्यासुराह--
पुव्दणह लवगहण, काह तं चउत्थग कारस्साम |
अमह। वासयभत्त, अकारलभ व ।दातयर ॥ ४६८ ॥
साधुना प्रतिक्रमणचरमकायात्सगास्थतन चिन्तनीयम |
किमद्य भाजनानि लपनीयान न वा, तत्र यदि लपनीयानि |
आजच्ायान शषसाधश्च वक्रि युप्माकमर्प्यास्त लपन प्रयाजन-
मानीयताम | तत्न या वक्षि आमप .ते प्राच व्रत क्रियन्तमान-
याम. कि वा लेप तच यद्धणान तदिच्छामि इात प्रतिपद्य
क्रतात्सग उपयागकायान्सग कृत्वा गुरून नभस्करत्याव्वाश्य-
कों क्रत्वा याद् तषां पातरवस्त्राणां कॉह्यकस्तता ग्रृहपु गत्वा
मल्ज़कं सूत च गरहाति।
अधथाका्पकम्तत आह-
गीयत्थपरिर्गाहत. अयाणआओ रूयमल्नए पत्तु ।
खारं च तत्थ वच्चति, गहिए तमपाणरक्वट्रा ॥|४०१॥
याज्ञायकाऽगाताश्रः स गीताथन पारगुटठीतानि रूनमल्ल-
कान गृहील्या ग्रहोत सात लप संपातमत्रसप्राणग्क्षणा -
थम् तत्र मन्नकपु त्ञारं च गृदीन्वा बजत |
सप्रत यदध्रस्तादभाणतम्। ` सागारिय ` नि
तद्व्याख्याना र्थमाह-
वच्न॑ंतण य दि, सागारिदुचकगं तु अन्भास ।
तत्थव हाड गहणं,न होति सागारिओ पिडा ॥५०२॥
तन ग्रहीतरूतमन्लकत्तारण वन्ता यद्धि सागारिकम्य-
शय्यातरस्य द्िचक्रकं तमभ्यास निकट प्रदेश प्र ततस्तत्रव
तस्य लपय्रहय मवति. यतः स न भर्वात सागारिक{पगड
{ति । ॥
सम्प्रति प्रभुद्धारमाट-
गतं दुचक्मृलं, अणुः पथु तु साहीणं ।
एत्थ य पथु त्ति भणिए, क।ई गच्छ निवसमीव॥५०३॥
के द।म त्त नरवर, तुब्भ खरमक्खया दचके त्त |
साय पसत्था लवा, पतयभदथर द्।सा॥ ५०४ ॥
गत्वा द्वचक्रमूल शक्रटस्य स्वाघ्रान-परत्यासन्न प्रभुमनु-
ज्ञापयत् । च्रनचुज्ञापन प्रायाच्चत्त माखलघु, तस्मात्प्राय।श्च-
त्तभारुणा नयमतः प्रभारनुज्ञापना कत्तव्या | अत्र प्रभुात्त्यु
क काश्थाचन्तय,त राजान मुकत्वा कारन्यः प्रभारात ग-
जा धनुज्ञापनाय उक्कः. एव चन्तायत्वा नरपसमाप गच्छुत्
गत्वाोचत राजान धम लाभयत् | तत्र स नरपातन्रन्यत्-
क ददामि ?, साधुवदात--युष्माकं द्वचक्राण-शकरटानि
खरण-तलन प्रात्ततान सान्त, तत्न च या लपः प्रशस्त
|
: पूरवः = करिष्यामीति विचिन्त्य चनतश्र- |
| दिन अल 3 कर शत तमनजानीता । अत्र अद्वितरदाषाः मदकदोषाः, आन्त
च > [न ५५ £ (~ ॥ [के
पयु पत्र गृह्णा (> डा 2 | ब्रयादहा नममत्वा भगवन्त पतदप्ययाचत न गरृह्नणान्त, ततः
याद वा-न लभ्यत ततः पारुषा न कयात, क त्वतर्
[यत दिरिउत्वा वसत मह ददति । | स श्राज्ञापयत् यानि कानिचित् मम विप्रय शकटानि तानि
ह सकी का, द् 4 / * दा | सर्वाण्यपि तैलेन प्रत्तणीयानि। प्रान्तः पुनरव चिन्तयदहा ५मी
कय,कडकम्माचद शा छ।दता भणत लव घच्छाम | अशुच्चया यदतत् मां याचन्त नून सवाम नगरममीभिधष-
तुञ्छ वि याऽऽणे मट्ढं।,आम॑ त।कत्तियं कि वा ॥४६६॥ | यितव्यमिति प्रदर यायात् , प्रद्धिएश्व घापापयत, यथा मम
सेसे पि पुच्छिञणं, कयरस्सग्गो गुरूण नमिखण । | राज्यन काप शाकट तेलन ख्रक्षयात्क तु -घृतनान्यन वा।
| मन्नगरूए गणहइ, जइ तेमि कप्पितो होति ॥ ५०० ॥ | तम्हा दुचक्रप।तणा, तस्स।दइण वा अणुष्छःत् |
क्रत कृतिकम-वन्दन यन स कृत क्राति कर्मा किमुक्त भवाति- कड़गंधजाणण ट्ठा, जिष नासं अघईतो || ५०४ ||
सख लपानयनाय गन्ता प्रथममाचायाणां वन्दनकं ददाति. दत्वा
यस्मादेवं भद्रकप्रान्तदाषास्तस्मात् राजा नानुज्ञापयि-
इच्छाकारण साद्शत ' एवमुक्के सूरयोऽभिदरधात
तव्यः । को5नुपश्मापयितव्य इति चद् ? उच्यत--य-
"श्र छन्दसा विज्ञापयति भावः। एवं छुन्दसा छन्दिता स्तस्य ्चक्रस्य--शकटस्य पातिः- स्वामी , यो वा
तन--शकटपतिना स्दिप्रः, तन टिचऋषातिना तत्संदि-
निमन्त्रितः सन भणति-गत्वा लप ब्रदीष्यामि पवमुकःवा
१६७
( ६६६ )
आंभधानराजन्द्रः |
लेप
प्रन वा अनुज्ञात तैलस्य किलल कटुको गन्ध इति कढुगत्घ-
ज्ञानां 5थ-कटुगन्धो 5स्ति न वति परिज्ञानाऽथनासामघटय-
न् असंस्पृशन तं-लेप दुरस्थो जिघ्रति, घ्रात च यदि कटुका
गन्धः समायाति ततस्तेललेप इति कृत्वा त समादत्ते ।
सम्प्रति ` छकायजयणाए ` इति व्याख्यानयति-
हरिए बीए बल जुत्त, वच्छ साण जलट्ृए् ।
पुटवि सपातिमा सामा, महोवाते माहेयामितत् ।!५०६॥
हरित बीज वा साधाः शकट वा प्रतिष्ठित तथा बले--
वलीवदीभ्यां युक्त वा शकट, तथा--शकटय सह बद्धे व-
त्से, शकटस्याघः स्थित शुनि वा, तथा जलस्योपरि स्थित |
प्रथिव्यां वा सचित्तपृथिबीकायस्योपरि प्रतिष्ठित शकटे,
तथा--संपातिमेषु त्रसगणेषु सत्खु, तथा-श्यामा>रात्रिः
तस्यां, महावाते वा चाति, महिकायां निपतन्त्यां लेपग्रहरणं
नानज्ञात, नाप्यमितस्य लपस्य ग्रहणम् , एष द्वारगाथासन्त-
पाथः । व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वच्यत | तत्र यद्यप्यनन्तर प्रा-
यश्ित्तगाथाद्वयं तथाप नाऽव्याख्यातेषु द्वारषु तद्याख्या-
तु शक्यमिति प्रथमता दवाराणि व्याख्यायन्त ।
तत्र हरितद्वारवीजद्वारं चाधिकृत्याह--
हरिय बिय पतिद्धिते य, अनन्तर-परंपरे य बोधव्वे ।
परित्तऽणंते य. तहा, चउभंगो होति नायञ्वा ॥ ५०७ ॥
रिति बीज च साधौ शकट वा श्ननन्तरपरम्पर वा प्रति-
णिति प्र्यकं चतुरभङ्गी भवति- ज्ञातव्या । गाथायां पुरस्त्वं
प्राकृतत्वात् । तथा-हरिते बीज च प्रत्यके परीत्त$नन्त
` च साधो शकट वा ऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठित प्रत्यकं चतुभङ्गी।
इयमत्र भावना-दारतषु साधुरनन्तरप्रातौष्ठतः ना पर-
परप्रतिष्टितः १, परपरप्रतिषठिता नानन्तरप्रतिषठितः २, अ-
नन्तरप्रतिषठितो ऽपि परंपर प्रतिष्ठितो पि३,नानन्तरप्रतिष्टितो |
नापि परंपरप्रतिष्ठितः ४.एवं बीजेप्वपि साधुमधिक्ृत्य चतु-
भङ्गी, एवं गन्त्रीमप्यधिकरत्य हरितेषु बीजेष च प्रत्यकं चतु-
भङ्गी द्रष्रव्या।दरितेष्वनन्तर प्रांताछ्ठता गन्त्रानो परंपरप्रांत
एता इत्याद, एव सवसङ्लनया चतुभङ्गाचतुष्टय जातम् ।
चतुभङ्गीदिकं तु-साधुगन्त्रीसयोगतो द्रव्यम् , तथा--
हरितेषु च साधुगेन्त्री चानन्तरप्रतिष्ठिता इत्यादिभङ्गच-
तुष्रयं प्राग्वत् । पव बीजष्वपि सर्वसंख्यया पट चतुमङ्ग्ः। ए- |
तच चतुर्भङ्गाषटरं किल प्रत्यकेष दरितबीजषूक्कम् , एवमनन्त
ध्यपि द्रष्टव्यमेवे मिश्रेष्वपि । १
साम्प्रतमत्रेव प्रायश्ित्तमुच्यत ।
चउरो लहृगा गुरुगा,मासो लद गुरु य पणगलहुगुसुयं ।
छसु परितणंतमीमे, बीजे य अणंतरपरे य ॥ ५०८ ॥
हरित चशब्दसमृचित प्रत्यकक अनन्तरपरंपरभेदतास्थ्रि- |
स्वा्यपु मङ्गपु चत्वाग लघुका वक्तव्याः । इयमत्र भावना-
प्रत्यक्षु हरितिपु साधावनन्तरप्रतिष्ठित प्रथमभद्े प्राय-
श्वित्ते चतुलंघु, द्वितीय परम्परप्रतिष्ठित चतुलेघु, तनीय
भङ्ग अनन्तग्परम्परप्रातिष्ठित द्वे चतुलघुके,चरमे भङ्ग शुद्धः।
तथा प्रत्यकहरितेषु साधो गन्त्रयां वाञनन्तरग्रतिषठायां द चतु
लैघुके, द्वितीयभङ्ग $पि परम्परप्रतिष्ठितायां द्वे चतुलंघुक
लृतीयमङ्ग उभयाः उभयत्र प्रतिष्ठितयाश्चत्वारि लघुकानि
चरमभङ्ग युद्धः। तथा--दरितप्वननतषु साधावनन्तरः
--कबनाएईएई
तिष्ठित प्रायश्चित्तं चतुगुरूकम् , द्वितीय5पि परम्परप्राति- ¦
एत चतुगुरु, तृतीय एनन््तरपर म्परप्रतिष्ठित द्वे चतुगुरुके,
चरमे शुद्धः, गन्त्यामप्यनन्तद रित अनन्तरप्रतिष्ठितायां च~
तुगुरू परम्परप्रतिष्ठितायामपि चतुगुरु,उभयगप्रतिष्ठितायां दवे
चतुगुरुके, चरमे शुद्ध: | अनन्तरहितेषु साधो गन्त्यां बाऽन-
न्तरप्रतिधितायां द्र चतुर्गुरुके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि दवे च-
तुगुरुक, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि चतुगखुकाणि, चरमे शु-
द्धः, तथा-मिश्रेषु प्रत्यकहरितेषु साधावनन्तरग्रतिष्ठिते मास-
लघु, परम्परप्रतिष्ठटित5पि मासलघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मास-
लघुक, चरमे भङ्ग शुद्धः । गन्त्रयामप्यनन्तर-परंपरप्रतिष्टि-
तायामपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठितायां द्व मासलघुके, चरम
भङ्ग शद्धः। साधो गन्त्र्यां वाउनन्तरप्रतिष्ठितायां द्र मासलघुकं
परंपरप्रतिष्ठितायामपि द्वे मासलघुके, उभयप्रतिष्ठितायां च~
त्वारि मासलघूनि, चरमे भङ्ग शुद्ध: | तथा-मिश्रेष्वनन्त-
हरितिषु साधावनन्तरप्रातिष्ठित मासगुरु, परपरप्रतिष्ठिते-पि
मासगरू, उभयप्रतिष्ठित छू मारूगुरुके, चतु शुद्ध: । गन्ञ्वा-
मपि तदनन््तरप्रर्तिष्ठितायां मासगुरू, परसम्परभ्नतिष्ठिताया-
मपि मासगुरु, उभयप्रतिष्ठितायां दे मासगुरुके, चरम शुद्ध: ।
साधो गन्त्यां वाऽनन्तरतिष्ठितायां द्रे मासगुरुके, परंपर-
प्रतिष्ठितायामपि द्व मासगुरुक, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि-
मासगुरुकाणि, चरमभङ्ग शुद्धः । * पणग लडुगुरुगमिति !
वीजेषु प्रयक्रघु सचित्तषु मिश्रषु वा प्रत्यक॑ साधावनन्त-
रप्रतिष्ठित लघुरातरिदिवपञ्चकम् , परंपरप्रतिष्ठित5पि लघु-
पञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठित द्र लघुपञ्चके, चरमभङ्ग शुद्धः । तथा
गन्य्यामनन्तर प्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम् , परंपरप्रतिष्टिता-
यामपि लघुपञ्चकम् , उभयप्रतिष्ठितायां द्वे लघुपञ्चक, चर-
मभङ्ग शुद्ध: | साधो गन्त्यां वाऽनन्तरप्रतिष्ठितायां दवे लघु-
पञ्चक, परंपरप्रतिष्ठितायामपि दवे लघुपञ्चक, उभयप्रतिष्ठि-
तायां चत्वारि लघुपञ्चकानि. चरमभङ्ग शुद्धः । एवमनन्तषु |
रातन्दिविपञ्क गुरुकं द्रष्टव्यम् । एवं वाज, चशब्दात्
हांग्त च प्रत्यक साचत्तऽनन्त साचत्ते सश्र वा+नन्तर षट्
षर्खु भङ्गषु यथायागे प्रायाश्चत्तमक्गन्तव्यम् ।
इदानीं चलादिद्वारप्रतिपादनाथैमाह-
दव्वे भावे य चलं, दव्वम्मी दुद्धियं तु ज दुषयं ।
आयाएँ संजमम्मि य, दुविहा उ विराहणा तत्थ ।५०६।
चले नाम द्विविधम् , तद्यथा -द्रव्यतः, भावतश्च । तत्र द्र
व्यतश्चल यत् द्विपदं शकर्ट दुःस्थित तत्र लेपे ग्रह्णतश्चतु-
रुरुकम् , यतस्ततो द्विविधा विराधना-आत्मनि, संयमे
च । तत्रात्मविराधना शकटेन पततोऽभिघातसम्भवात् ,
सेयमविराधना-शकटे सचास्यमान प्राणिजात्युपमर्दैनात् ।
भावचलं गतुकामं, गोणाई अन्तराइयं तत्थ ।
जुत्त वि अतराई, वित्तस चलणे य आयाए ॥ ४१० ॥
भावचले नाम--गन्तुकामे याज्यमानमिव्यर्थः, तत्र यावत्
लपः गद्यत तावद् वलीवर्दानां चारिपानीयनिरोधनम्, श्रा-
दिणब्दात्-मनचुष्याणामप्यन्तरायम् , ततो भावचलेऽपि
लपे गरृहतश्चत्वारा लघुकाः, | गत चलद्धारम् । श्र
धुना युक्लद्वारमाह--' जुत्त वी ` त्यादि युक्तं योक्रित्रत-
वली वर्दम् । तत् स्थापयित्वा यदि लपे गृह्णाति ततः है!
लेप | ;
शित्त चत्वारो गुरुकाः, यतस्तत्राप सर एवान्तरायदापः |
{ (7
छ्भिधानराजन्द्रः।
शअन्यश्चाय दापः,त वलीवही चत्रस्ययुः तत्र गन्त्रया चलन्त्या
चरणाक्मण-ञआ्रात्मविराधना , संयमविगाघना असादि- |
निपातः । # ९ |
स्म्प्रात वत्सट्ठार एशच्टार ज्ञाह-
च्छो भएण शासति, गंतिक्खोभ य आयवावत्ती |
आया पवयण साण, काया य भएण नामंतो ।५११।
यत्र शकट वन्सो बद्धः, श्वा था यस्याधस्तात्तिष्टति
यद्धा या वततत. तञ वत्स-लएप ग्रहतस्थन्यारा लघुका
शुनि चत्वार गर्कः. यता-वत्सा भयन नश्यान, गन्त्या
क्षाभ चलन आत्मन्यापात्तः, तथा-श्वा समागच्छुन्तमपृत
दृषा दशात तत्र आत्मापध्ातः, शुना लाद लपममा ग्ृह्-
न्तान् प्रव्नापघातः, भ्यन नश्यात शान काया पृथिवी-
कायादया वनाशमापद्यन्तः; ततः सयमापध्ातश्वथ |
सम्प्रति जलस्थितद्वारं पृथिवीसम्थितद्वारं चाह-
जो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमा उदगपुढवीए ।
संपाइमें त्सगणा, सामाए होइ चउभड्ी ॥५१२॥
य एवं गमः प्राक् हस्तिषूक्तः म एदादके पृथिव्यां च बदि- ,
लव्यः, इयमत भावना--सचित्त उदक साधुरनन्तरपति-
णितो, न परपरप्रातपष्ठित, इत्याद चतुभङ्गी । गन्त्यामप्यचे च
न॒भथड़ी । उभयाराप =तुभङ्गी. तदवे चतुनङ्गीचयम् . साचित्ता
एप्काये, आचित्ताउप्काय, एवं मिथ्राप्काय ऽपि चतुभङ्गीत्रयमः
बसातब्यम् , उमयमीलनन चतुर्॑ड्रीपटुम् , एवं चलु्ङ्गाषटं
धूधदीकाय ऽप भावनीयम्। तत्र सचित्तऽप्काय स्याधाव-
नन्तरप्रनिष्ठिन प्रायश्षित्त चतुलंघु, परपरप्र्तिएतिऽप च~
लघु, उभयप्राताएत द्ध चतुलघुकर, चरम भङ्ग शुद्धः । ग-
न्ध्यामव्यनन्तरग्रतिठतायां चतुरश्र , परंपरप्रतिष्ठताया-
मपि चतुलौधु . उभयगप्रतिषठितायां द्र लघुके. चरम भङ्ग.
शुद्ध: । चरमभङ्गषु मिश्रप्फाय साध्रावनन्तरप्रति-
छत मासलघु. परंपरग्रतिष्ठित $पि मासलघु , उभयप्र-
तिष्ठिते ढ़ मासलघुके, चरमे शुद्धः । एवं गन्त्यामपि भ-
जुचतुएय वक्तव्यम् , साधुगन्त्योरनन्तरप्रतिष्ठितयोद्ध मा-
सलघुके, परंपरथरतिष्ठितयारपि द्वे मासलघुके , उभयोारुभ-
यत्च प्रतिष्ठितयो: चत्वारि मासलघुकानि, चरमभङ्गे शु-
धः । एवे प्रथिवीकाये5पि चतुर्भ्लीपट्रे प्रायश्चित्तमवग-
न्तव्यम् । सम्प्रति सम्पातिमद्धारं श्यामाद्वार चाह--
“ संपातिमा ” इत्यादि अथ क नाम सम्पातिमाः-
यपु पतत्सु लप न गद्यत | कि चसा: स्थावरा वा ?।
तत्राद--सम्पातिमाः जसग्राणा न स्थावगास्तघु संपातिमेषु
पतत्सु याद लपे गृह्वाति तदा तस्य प्रायश्चित्त चत्वारो ल-
चुका: । एयामा-- रात्रिः, तत्र--चतुर्भज्ञी. तद्यथा--राज्नों
लप् गृह्मञात, राजावत्र भाजनस्य लप दन्ात। शन प्रायाञ्चत्त
अत्वारा लघुकाः. एवे मध्यमभङ्गद्वयऽपि तपालघवः काल-
गुरुकाः | दिवस ग्रहीत्वा दिवस पव ददाति शुद्धः।
महावातादिद्वार त्रय मा ह--
वायम्मि वायमाण, महियाए चेव पवडमाणीए ।
नाणुष्पायं गहणं, अमियस्स य मा विगिचणया ।५१३।
॥ चानि. तथा-माहिकायां प्रपतन्त्यां लपस्य
ग्रहणं नानुह्ञात तीथकरगणुधरें: महावात बाति तदुद्-
वण कार्य समृत्पन्न स चा5
त्तप
धरूनानां चलस्थावराणां लपसेपर्कता विनाशसंभवात ।
हकायां निपनन्त्यासप्कायविगाध्रनात् तथा अमित-
स्यापि लपस्य ग्रहण नानुज्ञात मा भूद्विविब्वनिकापरिष्ठा-
पनिका इति कत्वा नत्र महावात वाति लपे शूहतः प्रा-
यत्त चतुलघु, महिकायार्मापर निपनन्लां चतुलैघु , ग्राम
ग्रदरे मासलघु ।
एतदव प्रायश्चिन्ते प्रतिपादयश्नाह--
बलजत्तवच्छमहिया, तसमु सामा चव चउलहुगा |
दव्वबलसाणगुरुगा, मासा लहुओ उ अभियम्मि ।५१४।
भावतश्चले वलीवदय॒क्र वत्स निबद्धे, तथा-महिकायां
निप्तस्त्यां रसस सम्पातिमेषु निपतत्सु श्यामायां च ले
गृहतः प्यकं प्रायश्चित्त चत्वारो लघुकाः | दव्यवले शु-
निवा स्थित चत्वारा गुरुकाः, अरित गृहीते लघुक्ामासः।
विशपवाचना तु प्रातिद्वार प्रागव रूता ।
तदासवरिम॒क, घर्तं ल्यारण अकमित्ताणं |
चारण ब।धऊण, गुरुमूल पॉडक््कपा लाए ॥५१५॥
ये णत हारतादया 5ननन््तरं दापा उक्लास्तमुक्त लपे गृरीत्वा
मा सम्पातिमानां वधा भूयात् ते क्षारण-भम्मना आक्र-
म्य चीवरण वध्वा गुरुपादमूलमागच्छात । आगम्य चया-
पथकी प्रतिक्रम्यालाचर्यानि।
दंसिय छादिय गुरु से सण य ्रोमन्थियम्म भाणस्स |
काठ चीरं उवरि, स्येव द्ुसजञ्जता लवं ॥ ४१६ ॥
स्रालान्य लपे गुरादशयतिः दशायन्वा गुरं लपन छुन्द-
यति-निमन्त्रयाति, निमन्त्रणानन्तरं शपकार्नाप साधन् नि-
मन्त्रयति, तनो याचना यस्याथस्तस्य तावन्न दत्त्वा ए-
कस्य भाजनस्यावमस्थितस्यावाङ्मुखीकृतस्यापरि चीवरं
करत्वा तत्र लपे रूत च प्रक्तिपत्।
सम्थ्रति लेपदान्विधिमाद--
अगुडट्डरएसिणिम-ज्मिमाहिं घज्त धणं तता चीरं ।
आलिंपिऊण भारं, एककं दा तिन्नि वा षट् | ४१७॥
अङ्केन प्रदेशिन्या मध्यमया चाङ्गुल्या लपे गृहीत्या घन
च चीवरमादाय तत्र लपे प्रत्तिप्य निष्पीडयत् । निष्पी-
ख्य च एकेकभाजनमकं द्वा त्रीन् बा वागान् लपयत् . . अ-
धिकं तु लप्मइकनिमित्ते सरूतकं पेषयत् । | अथ न दानेव्यः
टकः. यदि वा-तत्रार्था सरूनकं तं क्ता ^"
ग्ष्टापयत् , श्रन्यच्चान्यद्च भाजन लिप्त्वा अन्यदन्यद्वार
वारण पघ्रटष्टगपाषाणेन घटयति ।
तथा चाह--
अपात्रे अकस्मी, अछ घटति वारबारेण ।
आग तमव दिग, दतर च घ्न अभनत्तदरी ॥ ५१२ ॥
अन्यास्मन् भाजन टत अन्यतरभाजनमक्रे स्थापयित्वा
वारवारण घट्टयाति. तत्र यदि उद्धाना लेपो यदिच तस्य द्र
5त्मना5भक्कार्थी ततः साऽभक्ता-
र्थी तस्मिन्नव दिने पात्र लेपनापरज्य उद्धान लप नन द्रवं स-
पानीयमान॑यति । अथ नाद्वानस्तताऽन्येषामभक्राशिनामदि-
रडमानानां वा तत्पात्र समप्यौन्यन पानीयमानयत्।
भत्तट्रीरं दाउ, अन्नेसि वा अदिंडमाणाशं ।
( ६८ )
श्राभधानगाजनद्र
लप
हिंडज्ञ असंथरण, असती घेचुं अरइय तु ॥ ५१६॥
यदि स भक्कार्थी, नच पात्रस्य लपाष्यापि शुष्कस्तता 5से-
स्तरण भोजञनमस्तरण संस्तरीतुमशक्तावभक्कार्थिनामन्यपां
या साधूनामददिगडमानानां तस्पाजे समप्य हिएडेत, असति
अन्यपामभक्काथिनाम दठिण्डमानानां वा अभाव तत् अरज़ित-
मयाप्यपरिणतलपं गूर्टान्वा दिगडत ।
न तरिज्ञ जह तन्नि उ, हिंडाबउं तता णु खारण।
आयत्तेउ हिंडइ, अन्न व द्वंस गिण्दंति ॥ ४२० ॥
यदि जी पाज्राणि हिग्डापायतु न शक्ताति तता नु-नि-
श्वितम् , तत् पाजमुपाश्रय ज्ञारणावनम्य स्थगयित्वा दिग
ते । यादि वा-(स) तस्य याग्य द्ववमन्ये गृह्णन्न, तताऊतिरि-
क्लपात्रवहने न कश्चिद्धार इत्यद्ापः।
लित्थारेयाणि जाणि उ, घडुगमार्द\णि तत्थ लर्वेणे ।
संजमभूतनिभित्त, ताई भूर्ण लिपिज्जा ॥ ५२१ ॥
तत्र पात्रलपन यानि लपन घट्ककादीनि लित्थार्याशणि
दृश।पदमतत् खर) रटतान सयममू[त।नामत्तम्--सयमाव-
मूतिहताः विभूत्या क्ञारण तानि लिम्पत् , यन तन्सस्पशीतः
सानां स्थावराणां वा विनाशा न भवति।
एवं लवग्गहणं, अ्र;णयशं लिपणा य जयणा य |
भया अता वच्छं,परेकम्मविहि तु लित्तस्।५२२।
एवमुक्कन प्रकारण लपस्य ग्रहणमानयन पारस्य लपना-
य र्वन्र यतना, एतान भशणितानि | अत ऊध्व पुनर्लिप्तस्य
परि कम्मार्वाध वक्ष्याम्रि ।
तमवाभिधरातुकाम आह--
लित्त छाणियछ:रो, घणण चरण बंधिठ उण्ह ।
उत्वत्तण परेयनण,.्र च्य ध.ए पुणा लवो ॥४२३॥
पात्र छिप्त सति यः क्षाणिता-गालितः क्षारा-सस्म सतत्र
श्र्निप्यत, तता घनन चीरण वध्वा उष्ण धयत, तत्रच पा-
चस्यादनने परिवतने च तावल्कतव्यं याचत् लपः शुष्को भ
यति । ततः पात्नसश्चषत-आकृष्यत, आकृष्य पानीयन प्र-
क्षालयति, ततः प्रक्ञालित सति पुनर्राप स लपे दीयत।
क्राउं सरयत्ताणं, पत्तावंध अबंधर्ग कुज्जा |
साणाइरक्खण दवा, प्मज्जणाउणहसक्रमणा ॥ ५४२४ |
पात्र या लिप्त सात तस्यापरि सरजस्थाणसहितं पात्रब-
न्थमवन्धकमग्रन्थिक कुयपत् कस्मादवन्धकं कुयोदत आह-
श्वाविग्क्षणा थम , शुनः आदिशब्दातू-मर्कटमार्जारादि-
भ्याऽपि रक्षणार्थम , अन्यथा हि अन्थो दत्ते सपात्रबन्ध पा
अ एवादिभिर्नयित । तथा छायायामुष्ण च पात्रस्य संक्रमण
प्रसज्यत तत्पात्रे स्थापयितव्यम् ।
त्।हवरस् प! ) जैँभप्ठु ण हाई कायव्या |
छप्म य । नल कुंज्जा, कश्॒रकज्जाण ब4गा 3 ।। ४२४ ॥
य) मन् दिन पात्ररुपन त॑स्मन्नव दिवस कुम्ममुखादीनां
घरटकाठाद।नामू आवश्ब्दातू--स्थालीकराठकिपरि यग्रहः-
प्रभ्य पक्षा भवात--कतव्या, कुटकराठार्डीलि तस्मिन दिने
आततब्यणानीत्य4: | क्रिमर्थामित्यत आह- -निशि--रात्रों त-
धाएपार त्ने यदश सितति पाजाफे कृया विन््यचमर्थ तदन-
|
ॐ ४
लष
न्तरं तषां घरमुखादीनां कृठकार्याणां विवकः-परिष्ठा पनिका। |
अट गहेडं लेबा-5हिंग तु ससं सरूतगं पीसे ।
अहवा वि न दायव्वो, सरूयगं छारता उण्ह ॥५२६॥
उष्ण शपमशिकं लपम् अद्वकहेताः--अट्ककनिमित्तम
सरूतकम् पपयत् , | अथवा5पि न दातव्याऽद्कस्तत-
स्तमधिकं सरूतकं लप क्ञारे भस्मनि उष्ण तत्पारेष्ठा-
पयत् , श्रये चार्थो यत्र भणितस्तत्र प्रागवापदर्शितः ।
सम्प्रति तु गाथाक्रमानुलामत उक्क --
पढम चरमा उ सिसिरे, गिम्हे अद्ध तु तामि वज़ित्ता।
पायं ठसि णहा-दिरक्खणट्ठा पवसे वा ॥ ५२७॥
शिशर--शीतकांल प्रथमचरम पौरुष्यो वजयित्वा ग्री-
प्म--उष्णकाले तयाः प्रथ्रमचरमपोरुष्यारद्धमद् वजयि-
स्वा पाजमुप्ण स्थापरयत् , प्रथमचरमपौरुष्यादिकाले | †4
त॒ मध्य प्रवशयत् | किमर्थमित्याह--स्नेहादिरत्ता थ स्नहोा
ऽवर्मायः आदिशब्दा त्-मादटकादेमवष।दिपारग्रहः तद्रत्त- |.
णाधम् , इयमत्र भावना-शिशिरकाल प्रथमायां पोरुष्यामति- ^
ऋनन््तायामुपष्ण ददाति, चरमायां तु पारुष्यामनवगाढायां 4
मध्य प्रवशर्यात, अन्यथा शिशिरकालस्य स्निग्यतया प्रथमा-
यां च पोरूप्यामवश्यायादिपतनभावबता लपविनाशपरसङ्गात्, | `
(
न
ॐ
उष्णकाल तु प्रथमायाः पौंरुष्या अर्थ अपक्रान्त पात्रमुष्ण द- |
द्यात् , चरमायास्तु पोरुष्याः पञश्चिम-ऽद्ध 5नवगाढ़ मध्य भ्रव
शयत् , कालस्य रूक्षतया तत ऊद पश्चाचचावश्यायादिस-
म्भवात् ।
उवयोगं च अभिक्वं, करति वासादिसाण रक्खद्रा ।
वरावारति च अप्र, गिलाणमादीसु कञ्जसु ॥ ५२८॥
उष्ण च पा दत्त सात स वपषादिभ्या रक्तणाथ वर्षम-
चृण्िः आदिशब्दात्--हिमप्रपातादिपरिग्रहः श्वा-कुछुरः
तद्रक्तणाधमभीच्णमनवरतमपयागे कराति | यदि वा-ग्ला-
नादिप्रयाजनषु समापतितष्वन्यान् साधून् व्यापारयात, स
तु ततेव रक्तयन् तिष्टति ।
अर्थ कियन्तः पात्रस्य लपा दीयन्ते ?, इत्याह-
एकी य जहननेणं, विय तिय चत्तारि पंच उकोसा ।
सजमहउ ल, व।ज्जत्ता गारतावभूस ॥ ५२६ ॥
पात्रस्य सयमहंताधघन्यनेको लपा दातव्यः | मध्यमतो द्वौ
त्रयो वा । उत्कषतः--चत्वारः, पञ्च वा वर्जायत्वा गौरवम्,
विभूषां च । गोरवेणात्मनो महर्द्धिकत्वमनन लक्षणन विभू-
षया वा न लपो दातव्यः; किन्तु सयमस्यातिनिमित्तामिति ।
अणवई ते तह वि उ, सव्वं अवणेतु तो पुणो लिंपे। |
तज्जाय सचोप्पडय, घटरएर तता ध।व ॥ ५३० ॥
उत्कर्षतः पश्चस्वाप ल्पपु यदि स लपो नावतिष्ठत--न
पात्रण सदह लालीभवति, ततः तास्मन्ननवानिषटमाने सर्वं |
लप प्रपनीय ततः पुनमूलतः पात लिम्पयत् , यथा स लपा$
वरतिष्ठते । ` तज्जाये ` त्यादि इद यत् श्रलाव्वादिपात्र तेला-
दिना सचोप्पडम-सस्नदं तत्र च धूलिः प्रभूता लग्ना, तं |
रपे घट्टकपाषाणन घट्टायित्वा, तद्गतनेव लपन भयस्तत्पान्न | `
र्जित्वा तनः प्रक्तालयत् , एप तद्यातो नाम नेपः | |
४, क - जा
केव
( ६६६ )
अशभिधानराजन्द्र। |
लव
सम्प्रति लपस्यैव भेदानाह--
तज्ञाय-जुक्ति लवो, दु चकलेवो य होई नायव्वो ।
मुद्दियनावाबंधो, तेणगधो य पडिकुट्ठी ॥ ५२१ ॥
त्रिविधो लपो भवति-ज्ञातव्यस्तद्यधा-तज्वातलेपः, युक्किले-
पः, द्विचक्रलपश्च । द्विचक्रलपो नाम--शकटलेपः, तत्र
लिप्यमान लिप्त वा यदि पात्र कथमपि भङ्गमाप्नुयात् तता
‡न्यस्याभावे मुद्रितनौवन्धन बध्नीयात् न स्तनक्बन्धन ।
यतो मुद्वितनोबन्ध एवं तीथ्थकरेरनुज्ञातः स्तनक्बन्धस्तु
प्रतिक्रुष्ट: ।
साम्प्रतमनामेव गाथां विवर्रीषुस्तद्यातलेपस्य--
प्राग्व्याख्यातत्वात् शषपद्व्याख्याना्थ-
माह--
जत्ती उ पत्थरादी, पडिकुट्ठा सा तु सन्निही काउ |
दयसुकुमालअसब्निहि, दुचकलेवो अतो इट्टो ॥५४३२॥
युक्किः पदेकदेश पद्समुदायोपचारात् धूलिलेपः, प्रस्तरा- '
दिः--प्रस्तरादिकृतः आदिशब्दात्-शर्करराला हकिट्टक दा र स्-
त्तिकादिपरियग्रहः, साच युक्किः सन्निधिरिति छृत्वा तीथ-
करगणधरेः प्रतिक्रुश-निराकृता । तद्यातलेपश्च कदाचिद-
चाप्यत, तत एतेषु मध्य शकटलेपः सुन्दरः । यतः तस्मिन्
सुकुमारतया पानजातयो जन्तवः स्पष्टाः दृश्यन्ते, दृश्यमा-
नषु च तेषु दया कतु शक्यत न च सन्निांधदाषः। श्रतः सुन्द-
रत्वात् स एव द्विचऋलेप इष्टः ।
संजमहउं लवो- न विभूसाए वर्यति तित्थयरा |
सतीऽसती दितो, विभूर्सौए हंति चउगुरुगा ॥५२३॥
लेपः पारस्य दातव्यः सयमहतोनं विभूषया,उपलक्षणमेतत् ,
नापि गौरवेण, इति भगवन्तस्ती ्रकरा वदन्ति। सयमहताः
पुनर्दोयमान लप यदि विभूषा भवति तथापि सा सयमहता-
रव । शत्र सत्यसव्यार्दष्ठान्तः । तथाहि--सती आत्मानं
विभूषयति, असत्यपि । कवल सती कुलाचारनिमित्तमा-
त्मानं विभूषयतीति तुस्यमपि तद्विभूषणमदुष्टम् । इतरा
जारतोषणनिमित्तमिति दोषवत् | एवं यथा सत्यसों तथा
साधुः, यथा विक्रुपणे तथा लेपः; यथा कुलायारः तथा
सेयमः, यथा जारतोषणं तथा असंयमः । विभूषया लपे
ददतः प्रायश्वित्त चत्वारो गुरुकाः ।
गोरवेणापि ददत पतत् प्रायश्ित्तमवसातव्यम् । उक्रञ्च--
“ संयमहऊ लवा, न विभूसा, गारवण॒ वा दया । चडगुरूग-
विभूसाए, लिपित गारवणं वा ॥ ”
भिज़िज्ञ लिप्पमाणं, लित्त वा असइए पुणो बंधे |
मुद्दियनावाबंधे, न तण बंधेण बंधिज्ञा ॥ २६४ ॥
तत्पात्र लिप्यमान लिए वा कथमपि हस्तपतना दिना5 मभि-
॥- न चान्यत्पात्रं तत्पात्रं भूया सुद्रितनोंबन्धन दाध्नीयात् ,
न स्तनकचन्धन । बृ० १ उ० १ प्रक०।
१ द्द
उपनक्षणमतत् ¦
तव्र मुद्धिकाबन्धस्येयं स्थापना--
७
०----० नौबन्धः पुनद्धिविधो भवति तस्य स्थापना चये ६५
°----० स्तनकवन्धः पुनर्गुप्ता भवति मध्यनेव पात्र- २७
° _--“ ककाष्ठस्य द्वरको याति तावत् यावत् सा
०---० राजीः सीविता भवतति तन स्तनकबन्धन दुर्बलं
० पात्रकं भर्वात, अता5सा वजनायः | झआघ० ।
सम्प्रति लपस्य जघन्यादिभदानाह--
खर अयसि कुसंभ सरिसव,कमेण उकोसमज्मिम जहन्ना।
नवणीए-सप्पि वसा, गुले अ लोशे अलवो उ ॥५३५॥
खर सक्ञिकेन तिलतलन यो लपः स उत्कृष्ट:। अतसीतलन
कुखुस्भतलन च मध्यमः, सपपतलन जघन्यः । उक्नश्च-
पण लवो खरस--णहएण उक्कोसओ मुणयनव्वो । श्र्यासि
कुसा भय मज्जा, सारस्वातस्लण य जहन्ना ॥ १॥ `
नवनीतेन प्र्षणन सर्पिपषा घृतेन वसा च नि्ृत्तोऽलपा
ज्ञातव्यः | तस्य पात्र सम्यग् लगनाभावात् , जुगुप्सितत्वाक्ष ।
तथा-गुडभृतषु वा शकटेषु तिलतलघ्रत्तितष्वपि या लप
सो5लपः तस्यापि लवणाद्यवयवा गतः अप्रशस्तत्वात
तंदवमुक्का लपस्य विधिः | बृ० १ उ० १ प्रक०।
अथ कल्पकर ण॒द्वारमभिधित्सुराह--
भाणस्स कप्पकरण, अलवड़ नात्थ काच कायब्बं ।
तम्हा लवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ ॥ ८६८ |
भाजनस्य कल्पकरण चिन्त्यमान यदलेपक्तते द्रव्यं तद्यत्र
प्रक्षिप्तं तस्य भाजनस्य न किचित्कर्तव्यम्-कल्पा न विध्य
इत्यः । लपक्ृतभाजनस्य त्ववश्य कट्पा दातव्यः, इत्यता
लेपकृतस्य मार्गणा कव्या, कीटशे लपकृतम् , अलेपकृते
चति चिन्तनीयमित्यथः। बृ० १ उ० २ प्रक० । ( तत्रालपकू-
तानि 'अलवकड' शब्दे प्रथमभागे ७८५ पृष्ठे गतानि )
अथ लपकृतानि निरूपयाति--
विग विगइ अवयवा,अविगई पिण्डरसणहि ` ज मीस ।
गुलर हितेल्लावयवे, विगडम्मि य ससणएसुं च ॥ ८७१ ॥
द्धिदुग्धघतादिका या विकृतयो ये च विक्ृतीनामव-
वाः मधुप्रभतयस्तेर्यन्मिश्रम् , यद्वा-विक्रतिरूपः पिणडरस
खजूरादिभिर्मिश्रम् , एतत्सवर्माप लेपकृतामति अक्रमः ।
त्रत च गुडदधितेलानां ये अवयवाः यश्च विकटे-मध्य
अवयवः शपेषु च घृतादिषु य$वयवास्त केचिद् विषतयः.
किञ्चिचाविङूतयः प्रतिपत्तव्याः ।
अथैनामेव नियुक्किगाथां विवृणोति-
दृहि अवयवो उ मधू, विगई तक न हाई विगई उ।
खीरं त निरावयव, नवणाआगाहमा चव ॥ ८७२ ॥
घयघदा पृण वग चासद् णसाय क३ ९ दान्त |
तिल्लगलाण अव्रिगई, सुकुमालियखंडमाई णि ॥ ८७३॥
दण मयणम।व्रगई्, खाला मज्ञस्स पाग्गल ।पडड ।
रसआ पृण तदवयत्र सा पुण नयमा भव वेग ८<७४।
दध्नः सम्बन्धी या मधु इति नाम्ना प्रसिद्धा$वयतः स
विकतिः. यन्न तक्रं तदभ्यवयवरूपमपि विकृतिन भवान ।
क्वीर॑ तु दुग्धे पुर्नानरवयवम्- अवयवर हिते नवनीन- प्र्तणस
( ६७० )
अवगाहम पक्रानन् पत आप नरवयव एताद्वपयाणामव-
यवानां पृथगव्यचहियमाण॒त्वादिति । घुतप्रद्गः--पुनश्लृतस्य
सम्बधी यः किट्टा महियाद्रुकमित्यर्थः | स विक्ृतिव्येवहिय-
त । विस्पन्दन नाम--अधनिदंग्धप्रृतमध्यक्तिप्ततन्दुलनिष्प-
न्नम् , उक्रञ्च पश्चचस्तकटी कायाम्--' वीसखदण अद्धनिदृद्ध-
प्रयमज्भजुढतंदुलनिण्फण ति.लो इति पादपूरण.चशब्दाश्र.-
अपिशब्दा्थ,विस्पन्दनमांप कचिद्धिक्रांतकामच्छान्ति न पुनन
चायं यदाह चूर्णिक्ृत-' अम्हाणं पुण वीसंदणंं अविगद
त्ति । तलगुलयायथाक्रम॑ यानि सुकुमारिकाखगडादीनि
तानि अविक्लांतः विक्वातन भवतीत्यथ
तलविशषः, खरडः-प्रतातः आदिशब्दात्-शर्करादिपरि-
। सुकुर्मा रिका-- ¦
ग्रह: | मधुनो माक्षिकांदभद्भिन्नस्यावयवा यन्मदन तद- |
विक्रतिः | मद्यस्य खालम्- किट्टावशपः, साऽपि न विर्क्नात
पुद्रलस्य यत्पिक्ररमुन्भम्रास्थ वा तदप्यावक्ातिरसक
पुनयस्तस्य पुद्रलस्यादयवः स पुनानयमात् भवद् वक्ातः | |
शर पण्डर्सपद् व्याख्यानयात-
ंववाडकयिद्र, मद्या माउलुगशकयल य |
खज्जूरनालिएर, कल चिचाय बाधव्वा ॥८७५॥
आश्रम आमख्रातक्रम , कापत्थम-प्रासद्धम मुद्रका-द्राक्ता
मातुलिज्षम-बी जपूरम , ' कयल “-कन्दलीफलम् , खजूरम
नाालकर सुभयमा प स॒ुआासद्धम , काला-बद्रचूणम् $ चञ्चा
अम्लिका, चशव्दादू-अन्यान्यप्यवंविधानि पिगडरसद्रव्या- |
णि बाद्धरव्यानि | एतानि च नव विक्रतया भवन्ति ।
यत आह-
खज्जूर ` मुदिय-दाडि-माणं पीलल्थु चिचमाईणं ।
पिणडरस न विगइओ, नियमा पुण हंति लवाडा ।८७६।
खज्जूरमुरद्रकादाडमानां पीट्विच्चुचिञ्चादीनां च संवन्धिनो
या प्ररडरसा ता आवक्ृता-ावऊता न भवतः । नयमात् पु
नलपक्रता भवत इात। उक्कान लपऊ्रता न लपक्ातः ससप्रस्य
अजनस्य कल्पकररणा याद पुनस्तस्य भाजनस्य लप् स्फुर
ता नवात ततः कल्पत्रय कऋतभप लपक्रृतमव तन्मन्तव्यम्-
अआनस्तद्वायपारहाराथमाह
कुट्टिमतलसंकासो, भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो वा |
समासधुवणसुका, णायसुहुमरिसो होइ ॥ ८८७ ॥
यथा कुट्टिमतलं निम्नोन्नतप्रद्शरहित सर्वतः सममव भव-
ति, एवं पात्रकस्य लपाऽपि कुद्टिमतलसकाशः सर्वतः स-
म एव कर्तव्यः तथा विसिनी-पद्मिनी तस्य यत्पुष्कलं वि- ।
स्तां पलाशप् तत्र पतित जले यथा नावतिष्ठत, एवं ।
यत्र सृच्मसिक्थावयवा लग्ना अपि न स्थिति कुन्ति स |
विसिनीुष्कलपलाशसदशः, इदशा लंपः
सध्राचनशाचसाः खुखमव कुं शक्यन्त, समिति--सम्यक्
प्रवचनाक्घन विधिना, श्राडति मर्यादया पात्रकलपमवधी-
कृत्य यद्सने सिक्थादयवयवानामपनयने स समासः स लप
न कल्प इत्यथः, चावन कट्पत्रयप्रदानम् , अपराय गुण
इंटश पात्र भवाति “` पगो साह सुक्खमूल समुद्दिसइ, तण
साहुणा दिसालोगो कओ. न पुण उवरिमारूढा धिज्ञाइ-
श्रा ददिद्ठा,तण सो साह दूरश्रा जिमिओ दिद्वो,ताहे सो उवरि
मारूढा गाममहइगन्रा, तत्थ5णण सिद्ध गामिनल्नयाणं,तरण पुण
पात्रकस्य समा- ,
लख छसलानराजन्द्रिः। ल्व
साहुणा सो ओझअरंतों दद्रा, अढ सो भगव दवदव स आउ-
ततो समुद्देलिं तहा संलिहइ जहा नज्जइ धायं |पव पत्तं ।
पच्छा सो भगवं मुहपुत्तियाए मुहे पिहेऊण पटढेतो अत्थइ,
ते आगया पिच्छेति साहु उबसंते, कआ एह कता भिक्खे
गहिये, द्रा भणइ न ताव हिंडामि, कि बेला जाया ते अ-
न्नमन्नस्त महे पलोयंति । ताहे घथिजाइओ भणइ-मए दिद्वा,
पलाएह ल भायण ति, पिच्छा मो भायण, तण द/रलियं,
ताहे ते ददू ढुण भर्णोत-तुम पि पावों मरुगो ” त्ति।
अमुभेवार्थ भाष्यक्दाह--
क क # कर | # # र #
आउत्तो सो भगवं, चोक्ख मुइये च तं कय पत्तं ।
4६. [+> ज्ज 4 |
निस्सीलनिज्जयाणं, पत्तस्स य दायणा भणिया।।<७८॥
जप [अ गि = ५ [|
आभामआ। स मरुआ, पत्ता साहू जस च )क।त्त च |
= २० {~ @ +
पच्छाइआ य दासा-वणणा य पभावे ताहय ८७६॥
स भगवान् तं धिग्जातियै वृक्षादवतरन्तं दषा ्रायुङ्घः
प्रवचनमालिन्यरक्षणाय प्रवचनपरा ऽभवत् , ततस्तन |
नाकटपकरणन "चाक्रख' सखुविकृतं तत्पा्रकम् , ततश्च निः-
शीलनिर्दृतानां च तेषां ग्रामेयकाणां पात्रकस्य दशना-निरी-
क्तध्वामिदं यदि भवतामतदशन कोतुकमस्तीत्यवे लक्षणा--
भणिता पात्र च दशित तमरूुका-धिगजातीयः श्रपव्राजिता,
यथा-ग् भवन्तमसदापोद्धापणक्रारकम , गुणिचु मत्स-
रिणामि । साधुश्च प्रायो यत्राप्यमिथ्यादष्िमानमदनपरा-
क्रमसम॒त्थां कीर्तिं च शुचिसमाचाररूपे सुकृत पराप; प्रच्छा-
दिताश्च दाषाः पानकन चिना तुम्बकषु वा भाजनकरण-
समुत्थाः, वरश्च प्रभावितः प्रवचनस्य , तत्रावसरे तन भग-
चता एप गुणः शाभनलेपापलिप्तस्य पाच्रस्याति ।
श्र यपु द्रव्ये? कट्पकरणमवश्ये कर्तव्ये तानि दशेयति-
लवाडविगइ गोर कटिते पिंडरस जहन्नउब्भज्जी |
एएमि कायन्य, अकरणं गुरुगा य य आणाइ ॥८८०॥
एतानि द्रव्याण लपरूतानि, तद्यथा--विक्तया-दधि-
दृग्धादिकाः.गारस-तक्रादि, कथित-तीमनादि, पिएडरसाः-
खजूरादया यावत् जघन्यतः “ उव्भमलि ` त्ति काद्रवजाल-
कम् , एतषां लप् तानां कल्पकरणं कत्तव्यम् । याद न करा-
ति तदा चत्वारा गुरुकाः, आज्ञादयश्च दाषाः, विराधना
च सयमाददिविषया ।
तामेव भावयति--
संचयपसंगदोसा, निसिभत्त लवकुत्थण मगधं ।
दव्वविणासुड्रादी, अवन्नसंसंजणाहार ॥ ८८१ ॥
लपक्तपात्रकस्य कट्प अक्रियमाण यः सचयः-सृच्मसि-
कथादयवयव्रपरिवासनरूपस्तस्य प्रसङ्गन दाषा पत भवेयुः,
निशिभक्क परति वितं भवति । लपस्य च काथन-प्रतिभवनं
ततश्च अगन्धम्-नजः कुन्साथत्वादतीव दुगीन्धि भाजनं भ-
वति, तादशच भाजन गरृदीतस्य द्वव्यस्योदनाद-
विनाशा भवति । तस्मिन् भुञ्जानस्य च विरसगन्धा-
घाणत ऊध्वौदीनि भवान्ति । ऊध्वम्-- वमनम् , श्रादिश-
ब्दाद्--शअररोचकयान्द्ादिपारिग्रहः । अवरार्णश्व॒ प्रव-
चनस्या दाहो भवति । तथादि- लोकः भिक्षां ददानो दु-
गीन्धिभाजनं इष्ट गर्हिता ईशा प्वेते अशुचयः पापा-
न लेव व
( ३७१ }
पटना इत ` संसजणाहारे ` त्ति | दुगेन्धिनाऽऽहारणं प-
नकङकुन्युप्रथ्तयः प्राणनः ससज्जयुः ॥
यत पवमतः--
लेवकडे कायव्ं, परवयणे तिनि वार गंतव्वं ।
एवं अप्पा य पर, पवयणं हंति चत्ताइ ॥ ८८
लपकत भाजने कत्तव्य कर्पकरयम् ।
कस्तस्य वचन
अ गरदपतिगरेद गन्तव्यमिति । सूरिराह-एवे क्रियमाण
आत्मा श्रपरश्च प्रवचने च भवन्ति परित्यक्लानीति नियुाक्रि-
गाधासमासा्थः _ _
श्रश्नामव विवरीषुराह--
गाउलऽभिस्व संखडि-अलभे साधारणं च सव्वपिं |
गहियं सतीई तहि, तक्कच्छुरसादिलग्गदरा || ८८३ ॥
गच्छे साधवः शचयो भदयुः तेश्च भिन्तां हिण्डमाने-
गोकुल दुग्धदध्यादीनि प्राचुर्येण लब्धानि, विरूपायां वा
श्रनकभदच्वभाव्यप्रकारायां सखञ्यामुःकए्टमशनादिद्रव्य
लभ्यत । तेश्च साधुभिरलाभ अन्यत्र तथाविधस्य दुलभ-
द्रव्यस्यासप्राप्ना सवेषां साधारणमुपषम्भकारकामद्--
मिति मत्वा सर्वारायापि भक्कनाजनानि भत्वा पानकं प्रति-
ग्रहीष्याति, ग्रहीत ततः प्रतिश्चरयमागताः, यावन्पानकन वि-
नान शक्यत समुदृष्डुमाहारस्य गलक विलगनात् , ततः कि
कत्तव्यामित्याह-सन्ति च तत्र तक्रल्ुरसादीनि श्रादिशब्दा-
त्-दुग्धादीनि च तान्यपान्तराले आपिवत् । किमथामव्या-
ह--' लग्गट्न ` त्त लग्न-+भाव क्रप्रतययः, आहारस्य
गलके विलरनभ्, अनुत्तरणं वा तदथ तन्मामूदित्यर्थः ।
आहर--यद्यवे तहिं पानकाभावे समुदशनानन्तरं कथ
तानि कल्पयितव्यानी त्युच्यते-
मडलितक्काखमणए, गुरुभाणेणं च आणयंति दवं ।
अपरीभोगतिरित्त, लहुओ अणुजीविभाण य ॥८८४॥
यः त्षपकः ` मडलितक्रा ` मणडल्युपजीवकः तस्य भाजसन
गुरूणां भाजनन वा द्रवे-पानकमानयन्ति । अथापरिभो-
ग्येषु भाजनषु अतिरिक्र वा नन्दीभाजन मरडल्यनुपजी-
वित्तपकभाजन वा द्रवमानयन्ति तदा लघुका मासः।
श्रथ परवचने चीन वारान् गन्तव्यमिति
पद् व्याख्यानयति--
भणइ जह् एस दोसो, तो आइमकप्पमाणसंलिहिउं |
अन्नेसि तगं दाउ, तो गच्छ विडय तइयाणं ॥८८५॥
भणति परः प्ररयति-यद्यप दाषः प्रायश्रित्तापत्तिलक्षण-
स्ततो ऽहं विधि भणामि । प्रतिग्रहे सलिख्यते एकाकी गरद-
पतिः गृह प्रविश्यादिमकटपमान यावता सर्वसाधुभिरा-
दिमः कल्पः क्रियत तावन्मात्रं द्रवं ग्रहीत्वा अन्येषां सा-
धनां तत्पानकं दत्वा ततः स्वये प्रथमकल्प करात्, क-
त्वा च तता गच्छति दितीयतृर्तीयकटपयोाः । इदमक्रं
भवति-द्धितीयकर्पकरणाथ द्वितीय वारे तत्र गृद प्रविश्य
तावन्मात्र द्रव गृहीत्वा प्राग्वदन्यसाधूनां द्वा द्विती-
यकर्पे करातु, ततस्तृतीयं वारं भूयः प्रविश्य तावन्मात्रं
॥ तथैव तृतीये कल्पे कृत्वा यावन्मात्रेण शेषभा-
जनानि धाव्यन्त. संज्ञाभूमिः पानकं च भव्ति. तावन्मात्र
२॥
दत्र पर:-प्रेर- |
तीन् वारान् कल्प प्रायाग्यपानक्ग्रदणा- |
आभरधानराज ।
|
|
|
|
लव
गृहीत्वा समायायात् । श्राचायः प्राह-एवं कुर्वात आत्मा च
परश्च प्रवचन च पारत्यक्रानि भवन्ति ।
तत्रात्मा कथ व्यक्ता भवतीत्युच्यते-
सदं पण बहसो, संलावणरागकलिआ उभया ।
दती णु कंजिय णु, जइस्स दट्ढी क्ति भणंति।।८८६॥
तस्यकाकिना भूया भूयः तदुगरृहं प्रविशता या कांञ्जकदा-
चरी श्रविरतिका तस्याः सवन्धिना बहुशः संदर्शनन संनापा-
नुरागकेलिप्रभ्तयः आत्मो भयसमुत्था दाषा मवयुः.सलापः-
सकथा अनुरागः-एरस्परं सात्यन्तिकी प्रीतिः, कॉलिः-परि-
हासः | तथा-यद्यपष प्रवजात कः पुनः पुनरात याति च तत्कि-
मस्य ददती पानकदायिका द्रा उत काज्जकमिवयवमगा-
रिणस्तमुदिश्य भणन्ति । चशब्दः उभयत्रापि वितर्के ।
प्रवचन यथा परित्यक्तं भवति तथा दश्यात-
्रायपर।भयद् सा, चउत्थि तणद्रुमकणा णीए |
दाच खु चा।रऊुण, करात् अयट्रुगहणाई् ॥ ८८७ ॥
आत्मपरोभयदोषाः, आन्मानस्तस्मात्परस्याः काजिदा-
यिकायाः तदुभयस्माच पत दापा भवयुः, तद्यथा-चतु
थी-चतुथी भ्रवद्धारविषया स्तन्यार्थविषया वा शङ्का त-
स्याः सत्केः-निजकेः क्रियत, यथा-नुरिति वित, किम
प्रवजाति कः कस्याप्युद्श्रामकस्य मेथुनदोष कराति, या-
वत् समायाति याति च | यद्वा-चारिका भृत्वा चाराणां
तरिक्वलां कतुमित्थमायाति , यद्वा-आत्माथमवायमित्थ क-
राति । स्वयमव मथुनाथ नतुकामा वेत्यथः । इत्थ शङ्क
मानास्त तस्य साधाग्रहणगाकर्षणादीनि कुयुः, ततः प्रवच-
ने परित्यक्तं भवति ।
परः कशं परित्यक्ता भर्वति इति | उच्यते--
गिण्दंति सिज्कियाओं, चिद् जाउगसवित्तिणीओ य ।
सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहि वुड़ी य ॥८८८॥
गृह्णन्ति चिद्रम-- दूषणम् कांञ्जकदायिकायाः, का इत्याद -
“सिज्कभिका: सहवासिन्यः. प्रातिवश्मिकाः सिय इत्यथः ।
जाउग ` त्ति यातरो ज्येष्टद्वरजायाः, सपत्न्यः प्रतीताः,
यथा-यदेष सेयतो भूया भूयः समायाति च नूनमस्या अ-
यमुद्भ्रामक इति, तता यदा तया सह सखडमुपजायत त-
दा तत् प्राग्विकटिपतं दूषणं साच्यनुत्पत्तः पुरत उद्भिर-
न्ति । तथा-सत्रा थविषया परिहाणिः पुनःपुनगच्छता भव-
ति 'निग्गमणो साहिवुड्टी य ' त्त तीन् चतुरा वारान् नि-
रसने शाधव्रद्धश्च तथव द्रषए्व्या यथा भिक्षञाद्वार प्रा-
शुक्रा । यत एंत दोषा अतो नेकाकिना भूयो भूया गन्तव्यम् ।
कथ पुनस्तर्हि गन्तव्यमित्याह--
संघाडएण एगा, खमए विडइए य बुड्डमाइन्न ।
पुव्वुद्धिएण करणं, तस्म च असई अ उस्सित्ते॥८८६॥
संघाटकन भावितकुलेषु प्रावश्य पानकं ग्रहीतव्यम , द्वि-
तीयपदे एको 5पि यः क्षपका वृद्धा वा अ्शङ्नीयः स. आ-
कीर्णापु भावतकुलेषु पानक. गृह्णाति. तच्च पानकं यत्पूर्व॑-
मव सोवीरिणा उद्धूतं प्रथग स्थापितं तन कल्पकरणो
कर्तव्यम् | तस्य वा प्ररवोद्धतस्य असत्यभाव उन्सव तमु-
एत्सक्न त दाप कारापणायम् ! पषा प्॒रगातलनगाशए ।
॥
लव
अध्नामव भाष्यङ्दधित्रणाति--
भावितकुलेसु पे सितु, भाय आशणयंति ससाणं ।
तव्विहकुलाण असई, अपरिभागादिसु जयति ॥८६०॥ |
भावितकुलानि नाम-यपु पूर्वोक्लाः शङ्ादयो दाषा न स्यु-
स्तपु गत्वा ग्रृहस्थभाजन मरणडल्युपजीविक्तषपकभाजन गुरु-
भाजन वा द्रव ग्रटीत्वा स्वकीयभालनानि धात्वा शपाणां ,
भाजनानां धावनाथ सज्ञाभूमि गतानामाचमनाथ चापर-
मपि पानक्रम(नयन्ति | तद्धिधानां--भावितकुलानाम् अस-
ति-अभाव अपरिभोग्यादिषु यतन्त । | अपरिभोग्यानि नाम- |
अत्र वार्यमाणभाजनानि तेषु. आदिग्रहणात्--मण्डल्यनुप-
जीविक्तपकभाजनघु नन्दीभाजन वा द्रव गृहीत्वा सखृष्-
भाजनानां कल्प कुवन्ति,तच्च पानकं पूर्वा्सक्कमेव ग्रूहन्ति ।
ननु याद सावीरिणीमुद्धव्य दीयमाने गृह्णन्ति ततः को
द्रापः स्याद् ? उच्यत । यतः--
उव्वत्ततम्मि वहो, पाणाणं तेण पुव्व उस्सित्त |
असती वृस्सविणीए
वत्ततम्मि' ति प्रातत्वात् पुस्त्वानदंशः, सावीरिरयामु
ढत्तमानायां य तत्र सोवीर गन्धन कंसा रकादयः प्राणजातीया
श्रायाताः सन्ति तां वा वाधा भवति,तन कारणन पूर्याि
कं ग्रहीतव्यम् . अथ र्नास्ति पूर्वात्सिक्नं ततस्तस्यासति उ-
त्सिञ्चनिकया उलत्सिञ्च्य यतनया गृह्णन्ति, अथ नास्त्युत्सि-
अनिका तता यत्पाश्व प्राणिभिरसंसक्क प्रत्तन्ने तनाद्धत्यै
ग्रह भाजन प्रातिहारिक याचित्वा तत्र द्रवे ग्रहीत्वा भाज-
नानि कस्ययन्ति ।
आह च-
गिहिसंति भाणपेहिय, कयकप्पा ससगे दवे घनत ।
धाअशणापग्रणुस्सट्रा, अह थाव गिणहए अन्न || ८६२॥
ग्रहिसक्ले भाजन प्रत्युपक्ष यदि निर्जाबे भवति तदा त्र
द्रवे ग्रहीत्वा कृतकल्पाः स्वकीयभाजनानि कल्पयित्वा शष
दरवमन्यपां भाजनानां धावना्थ भुक्नात्तरकाल च पानार्थ-
मुपलक्तणन्वात् सज्ञाभूमिगमनाश् ग्रहीत्वा समायान्ति ।
थ तत्र स्ताकमवद्रवे लब्ध तता यावता पर्याप्त भवति
तावदन्यदपरषु ग्रहषु ग्रह्लन्ति-
जा भ्रुज३ ता वला, फिट्वर तो खमगधथेरओ आणे |
तरुणों व नायसीलो, नीयन्लगभावियादीसुं ८६३ ॥
"जा भुजइ' त्ति प्राकृतत्वादेकबच्चनन निर्देशः, यावद्वा सा-
धवा मुञ्जत तावत्पानकस्य बला फिट्ठति--व्यतिक्रामति,
ततः क्षपकः--उपवासिकः स्थावरो वा--बरद्धः अशड्भुनीय
इति कटपक्ररणाथमकाक्यपि * श्राणि ` त्ति पानकमानयत् ।
्स्णावाया ज्ञानशीलो ददधर्मा निर्विकारश्च स पका- |
क्यपि निजकानां मात्पितृपक्तीयस्वजनानां कुलु भावित-
कलपु वा आदिशब्दादू--अन्यर्प्वाप तथाविधकुलषु प्रविश्य
पानक गरह्धायान् ।
अत्रेव कल्पकरणाद्वारे विध्यन्तरं बिभणिषुद्धी र्माह-
बिडयपद माय गुरुग, ठाणनिर्सीयणतुयइथधरणं वा |
गोवरपृद्यणटवणा, धोवण छट्टे य दव्याईं ॥ ८६४ ॥
ज पेक्खडइ वा असंसत्तं | ८६१॥ |
५0 ( ६७२ )}
अभिधानराजेन्द्र:।
द्वितीयपदे ऽ पवादाख्य साधवा बजिकां गता भवेयुः, तत्र
च पानकं न लब्धमिति कृत्वा यदि माकन-प्रस्वणनाचमन्ति
ततश्चत्वारा गुरवः, शिष्यः प्राह-यदि माकनाचमने दाषा-
स्ततो रात्रौ स्थाने निधादन त्वग्वतेन चाकुर्वन् संसृष्टपात्रक-
स्य धारणे करोतु | सारिराह-एवं कुवतः संयमात्मविरा-
धना भवति | तता गोवरेण-गोमयन प्राक् तस्य प्रोज्छुनम-
षण कृत्वा स्थापनं कतव्यम् , ततो छ्वितौयदिवसे यदि
द्रव ग्रहीनव्यं तदा धावने कल्पत्रयप्रदानकं कतेव्यम् ।
यदि न कल्पत्रय दातव्यम् , ततः, 'छुट्टे अ दव्वाई' ति शिष्यः
प्राह-यद्यघोत पात्र भक्घ गृह्यत तता नु तत्र यान्यवयव-
द्रव्याणि पयुषितानि सन्ति तेः पछ्ठ॒वतमतिचरितं स्यादिति
नियुक्षिगाथासंक्षेपा थे: ।
विस्तराथ तु विभणिषुराह--
वइगा अद्भाणे वा, दवअसईए विलंबि खरे वा ।
जई मोएणं धोवइ, सेहत्तद भिक्खगेधाई ॥ ८६५ ॥
बजिका-गोकुल तस्यां कारणगतानामध्वनि वा वहमा-
नानां द्रवस्य-पानकस्य श्रसति-ञअप्रा्चो विलम्बिनि वा अ्- ¦
स्तगतप्राय स्ये यदि पानकं नास्ति ततः कथं कल्पः कर-
णीयः, अत्र नादकः खच्छृन्दमत्या प्रतिवचनमाद-मोकन- ,
तदानी पा्रमाचमनीयम् | आचाय आह-एवं त स्वच्छन्दं
प्ररूपणां कुवाणो यथाचुन्दत्वाच्चत्वारा गुरवः प्रायश्चित्तम् ।
माकन पात्रकमाचार्मात तस्यापि चतुगुरवः। कुतः ? इत्या-
ह-यदि माकन धावति तदा रेक्ताणामन्यथाभावोऽपि वि-
परिणमने भवत् , विपरिणताश्च प्रतिगमनादीनि कुयुः,
छितीय च दिवस भित्ताथ पाक प्रसारित सति काय
च्याः कथिता गन्धः समायाति , तता लाकः प्रवचनावर्ण-
वादे कुर्याद् , अहा अमीभिरस्थिकापालिका श्रपि निजितां
यदवे पारकं प्रस्नवणनाचामन्तीति आदिग्रहणन-श्रावकाणां
विपरिणामो भवतीत्यादि परिग्ररः ।
अथ भूयः परः प्राह-
भणई जइ एस दोसो,तो ` य निसीयण तुद् धरणं वा।
भष्पह तं तु न जुज्ञड, दु दोस पादे अ हाणी य ॥८६६॥
भणति परा यद्यष शेक्षः विपरिणामादिक उपजायते तता
माकेनाचामतु परं ग्रहीतनेव पात्रकेण सकलामपि रात्र
ठाणि ` त्ति ऊर्ध्वस्थितः तिष्ठतु , तथा यदि न शक्ताति
स्थातु ततः ' निसीय ` त्ति निषष्पः पात्रकं धारयतु, तथापि
यदि न शक्तोति ततस्त्वर्वतेने कुबीखणस्तिर्यञ्जिषख्णः सन् धा-
रयतु । सूरिराह--भरयत श्रत्रोत्तरम्-दे नोदक ! तत्त न यु
ज्यत यद्भवता परोक्कम , कुतः १, इत्याह--' दु दोसो ` त्ति
द्वौ दापावत्र भवतः, तद्यथा--आत्मविराधना, सेयमविराध-
ना च । ततरः>।स्थतस्यापविष्रस्य वा निद्रया प्रेग्तिस्य भूमौ
ह.
स्न
निपततः शिरोहस्तपादाद्युपघाते आत्मविराधना , परिणतः |
सन् प्रसं कायानामन्यत्र संविराधयदिति सेयमविराधना ।
"पादे अ हाणि'त्ति तदा पात्र पतितं सद्धज्यत तता या पात्र-
कण विना परिहाणिस्तान्निप्पन्न प्रायश्चित्तम् ।
यत पते दाषा अतोए ये विधिः-
चै | = [4
निद्धमनिद्धं णिद्धं, गोव्वरपुट्ट ठर्विति पेहित्ता |
[+ # # को > ऊ = # क क ।
जइ य दवं घत्तव्व, बिहयादण धाडड गर्द ॥ ८६७॥
|*
न्््छ
जक -ण।
( ६७३ ) च्
लेव अआभिध्रानराजन्द्रः लेव
ल्परूत स्निग्ध चा भवेत् , स्नग्ध वा भवत् । यदि स्नि पतदव भावयति--
र्ध तता सावर गामयन- पुट भ्राइ्छत सुघुषए्र पात्रक पिह सोयाई लोए, श्म्हं पि अलवगं अग॑ध॑ च ।
कृत्वा ।नरवयवाश्रत सत्प्रत्युपच्य रात्रा स्थापयान्तन धार- । ॥ र ।
यन्तात भादः | खथास्नरघ ततः सलस्छनकल्पन खुसलीदं माएण वि आयमण दद तह ॒मायपाडमाए ॥६ ०२
छृत्वा स्थाप्यत: न पुनः करीषण सृष्यत, यदिवसे द्रवे ग्र- यथा लाक पृथक्ू-विशभिन्नानि शोचानि दृष्टानि तथा:
ही तव्य॑ तता घावित्वा जि ‡ कठ्पायतव्याः । अथ भङ्ग तता + स्माक्मापात्राभः कट्पः प्रदत्त रलप्कम अगन्ध च पात्रक॑-
धातऽपि गृह्यत न कश्चिराषः। भवतील्यव शाधविधिभगवद्धिद् इति । तथा माकनाप्या-
त्र परः प्राह--- अमन माकप्रातमाया रप्रमव।
जई ओदणो अधाए,पिप्पइ तो अवयवेहि निसिभत्त | परः प्राऽऽह
तिन्निय न होंति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंध | ८६८॥ जह निन्लेवमगंधं, पडिकुद्रं तं कहं नु जिणकप्पे ।
तम्हा गुव्वर पुट, सलीढं चव धोविरं हिंडे। तेसि चव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कव्वंति ॥६०३॥
द्रा भ निसिभत्ते, ओअविञं चव गुरुमादी ॥८६६॥ यदि निलैपमगन्धे च शोच दष्टे ततः कथे न॒ुरिति वित-
यद्यधोते पात्र दितीय अहनि श्रादनो गृहात ततो चु, के, तन्निर्लपने जिनकल्प प्रतिपन्न सति प्रांतक्रप्टम--प्रति-
सत्र सहमा श्रवयवाः सन्ति यां गन्धस्तृतीयेउप्यहानि ल- विद्धम् । ' तसि चव श्रवयव ` त्ति श्रनिलैपिते तेषां-
च्यत, तश्चावयवः तश्ास्थतः सद्धियेद्परं भक्क तत्र गृह्यत । जिनकरिपकानां सन्त्यव समाः पुरीषादरवयवाः यैर-
त्क जानाना एनायमक्त भवात, तच्च युक्माभलपकृतस्थ तज- | मीषां शुचित्वे न भवति । सरिराह--रूक्ताशिना जिनाः-जि-
यः कल्पाः शृद्धिकरणतया नि्ास्तदप्यस्माकं मनसि न नकल्पिका भगवन्तस्ततः अभिक्षवर्चस्कतया न सन्ति सृच्मा-
रुचिपथमियत्ति, कल्पत्रय दत्तऽपि तदीयगन्धस्याघ्रायमाण. अवयवाः अमीषाम ,तदभावाचच दूरापास्तप्रसरस्तषां पुरी-
त्वात् * तताउहामत्थ परूपयामात _ घाव जाव न्ग | चगन्ध इति हेतान लपनम् ॥ आह-यद्यभिन्नवर्चस्कतया
7 तावत् तत्मद्तालय यावा्ः न्नाम › ग च व | जिनकल्पिकाः शौचे न कुवन्ति, तदि य स्थविरकरिपका-
_ र 4 क न संस अप्यभिन्नाआारास्तपार्माप संज्ञामुत्स॒ज्य कि कारणमवश्य
र्- ॐ प 3 ट [8 $ &
कृत्वा ली दिवसे धावित्वा--कल्पयित्वा भिक्तां दिर्डत- | शच कूर णमुक्कम् (>
इतरथा -कल्पकर णमन्तरण (भ) भवतां निशिभक्कमापद्यते , थंडिल्लाण अनियमा, अभाविए इड्टिजुयलमुड्डयरे |
अकृतकल्प च भाजन गरटीतमपरमपि भक्कम * उअवियं ` उ- सज्काए पडर्णीाए, न ते जिण ज अणुप्पहे ॥६०४॥
च्छिष्ट भवति । तच्च गुवादीनामाचा्यापाध्यायग्रभृतीनां दीय- | स्थविरकल्पिका प्रथमस्थण्डिला भावद्धितीयकतीयच-
मान महतीमाशातनामुपजनयति ६ तुर्थान्यपि स्थगिडलानि गच्छन्ति, तत्र च यदि न निलपयान्ति
इत्थ परणाक्र सति सूरिराह-- तत आपाततः सलाकसमुल्था श्रवशवादादया दषा भव-
भन्नह न अन्नगधा, दणंति छट्टं जहव उग्गारा । युः, इति स्थरिधलानामनियमादवश्यतया शोच कुर्वन्ति,
तिन्नि य कप्पा नियमा, जइ वि य गंधो जहा लाए ।६००। प्रभाविता नाम--श्रपरिणतजिनवचनः. तस्य निल्पनाभाव
कि (~ ~ ~ ब त्र ~
भरयते अत्र प्रतिवचनम्-ञअमुष्य भक्स्य गन्धाः षषठ-रात्र- मा मूद्धिपरिणाम इति ' इदि ` त्ति ऋखिमान् राजादीनाम
4 ८ ~ 3 ॐ च र प्र प्रायण ररा च दध्म
विरमणव्रतं न घ्नन्ति, यथवाद्रारा राजौ समागच्छुन्ताऽपि व न कक १ त क १४. व
न पष्ठवतमुपप्नन्ति; तथा पात्रके यद्यपि गन्धः समागच्छति | चर (22 | सा मं सह | (भ
९... + [त व्यु रर पः
तथापि नियमात् जय पव कल्पा दातव्या नाधिका न वा ही- नि र वश्च तशा नयु पता
~ क दीन्यपि लपयति, ` सउ पत स्थविर-
नाः, तथा भगवद्धिरुक्तत्वात् यथा- लाक ऽपि प्रतिनियता | दस्तादान्याप लप्यात, सज्काए [त्ते अआनलापत् स्थवि
५ ताल | काट्पक्रानां स्वाध्यायो न वत्तेत वाचा कनुम् ` पडिणीएत्ति
भाजनशा धनाय मत्तिकालपाः भवान्ति । 7 अर हवा ८
प्रथमस्थणिडलाभावे द्वितीयस्थारिडलगतस्य शोचकरणमर-
तथाहि--
च १ कं ५ प्रा अत्यनीकः उड़ाह कुयात् , , न त जिण ` त्ति जिनकल्पिके
ब॥।रखलाण बरस, मह्या छञ्च वाणपत्थाण | | नतां स्थणिडलानियमादया दाषा भवन्ति ` जं श्ररुष्पद ` नि
मा एत्तिए भणाह।,पडेमा भिया पवयणम्मि॥।६०१। | यय्यस्माच्चासो स्वाध्यायं मनसेवानुप्रक्तितन वा परिवत्तयाति
चारखलाः-प्रनाजकास्तपां द्वादश म्॒त्तिकालपा भाजनशा- तता न निर्लेपयाति, स्थाविरकल्पिकानां तु मनसा स्वाध्याय-
धका भवान्त, षट् च म्रत्तिकालपा वानप्रस्थानां तापसानां | करण प्रभूतनापि कल्पन न सूत्रार्थो पररिजितो भवत इति ।
शोचसाधकाः सजायन्त, एव लाके ऽपि खसमयप्रतिपादिता-
नि प्रतिनियतान्यव शोचानि दृष्टानि | अतो ह नादक ! एता-
एमेब अप्पलेवं, सामासेउ जिणा न धावति ।
शी ~ + 0 + क
चतः कल्पान मा भण-- मा दहि , तावद् दातव्यं यावान्निग- जर् विन नरवयव, अहाबिइण उ सुज्मात ॥€ ०५॥
न्धीभवतीत्यप्रातिनियतानित्यथः। तथा-प्रतिमति--माकप्र- | स्य नञशधवाचकत्वादलपक्रन भाजन
तिमा साऽपि प्रवचन भरिताः; तस्यां हि माकमपि पीत्वा | यद्यपि न निरवयवं सजायत तथाप यथा स्वकल्पानुपालना
शृचिरेव भवति । दव शुच्यति, स्थितिरिय तषां यदचमव्र शुचया भवान्त इति |
१६६
(^ 5 /
चछ नायराजन्ः |
लवं
द
यदप्बुक्क भवना प्राकु अक्रतकल्पभाजने ग्रदीः
भक्कमुच्छिरे भवति, तदपि 'परिफालिंग' त्ति
दशयान-
मन्ता ससद, जं उच्छसि धरणं दिग प्रिडए ।
थ वि सुणसु ्रप।डय!, जहा तयं निच्छए तुच्छे ।६& ०६।
संस मन्यमाना यन् द्वितीव दिन चावनप्र-कल्पकरणम
इच्छासि,अताप्य थे णुणु-निशमय द अपसणिडत यया-तकत-
त्वदीयं वचने निश्चय परमार्थतः तुच्छुम-असारम ।
तंदबाह-
सब्ब पि य संसड्रं, न5त्थि य संसद्वितेल्नय किंचि।
सव्वं पि य लवक्रड, पाणगजाएं कहं सारी | ६०७ ॥ |
यदि गन्धमात्रगव त्व दुक्कया नीत्या भक्कप्ुुच्छि ए भवति ततः
सर्वमप्यन्ने जगनि सेस्प्रम-उच्छिष्ठमव वियत, ` नत्थि' ना
स्ति किश्विदृष्यसंसप्रम , एवं सर्वमाप भक्कं पानकं च लपक |
तम्-उच्छिए भवति; अतः पानक्रजातन कथ शुद्धि मैविष्याति ।
एतदेब भावयाति-
खरं वच्छुच्छिड़, उदगे पि य मच्छकच्छमुच्छिट्ट ।
चदा राहुच्छट्रा, पुृष्फाण य महयरिगणहिं ।
रंघंतीओ वादि ति, व॑ंजण खलगुल य तक्कारी |
ससद्धमुहा य दव्यं, पियति जइणो कहं सुज्भ।।६०८॥
क्षार वत्साचिछुए वन्सन स्वमातुः स्तन्यमापिवता सखृण्म्।
लश्रा--उदकमपि मत्म्यकच्छुयान्छिएस . चन्द्रा राहच्छिए
पुष्पारि मधुकरणगरूच्छिष्रानि, तथा-अविरतिका रन्धय-
न्त्या व्यज्ञनानि-शा लनकानि ` च्य ` न कि एलष्पन्नानि
न वाति परिक्षानाथंम , खतगुतावाप नच्छाककारणः-तस्य
खलादः, कारिणश्थाक्रिकादया ` वाद्यन्ति ` संखण्ठमुखास्य-
चिछुप्टन मुम्वन यतया यद् द्र्नापिचन्ति तदापि सस्रे तन
सेखृण्न यस्य भाजनस्य कल्पः क्रियत तत्कथ शुद्धय्यतीति ।
यत एवमना न गन्धमात्रगव भक्कमुच्छिए भवतीति स्थतम् ।
ध्र कल्पकरण विदश्रसामाचार्ग-
निष्पन्न प्रायश्वित्तमाह--
एकिकिकम्मि उ ठाण, जितह करिंतस्स मामियं लहुओं।
तिगमासिय तिगपणगा, य हति कप्पं कुणइ जत्थ ।६ ०६।
एकस्मिन् स्थान वितथां सामाचारी कुवाणस्य मासिकं
लघ्ुकम । तद्यथा-असंलीढे पात्रक प्रथमे कट्पे कात
साल्व्व्य चा प्रथम कल्प सत्या ते नापिदतीत दिितीये
कल्पे. पात्रक अप्रक्षिप्य वहिनिंगच्छाति, एतपु त्रिप्वपि स्थाः
नपु मासलघु । तथा--त्रीण मा लिकानि पश्चकानि च भ-
चान्त यत्र कल्पे कगाति, तद्यथा--न प्रत्युपरक्तित न प्रमा-
जयति १ , नाप्रन्यपत्षित २, प्रत्पुपक्षित न
प्रमाजयति २ ,
प्रमाजयति ३, पतपु त्रिषु भङ्गपु प्रत्यकं तपःक्ालबिश-
पित मासलघु | चतुध्रमङ्ग
स्युपक्षित प्रमाजयति च नयरे
दुष्प्रत्युपक्षित दुष्प्रमाशिते कान, १ दुष्प्रस्युपज्षित सुधमा |
{जनं कराति २ दुष्प्रमाजिल सुप्रत्युपक्षित कति ३ णतषु
जिषु तपःकालविशेषितानि पञ्चतत्रिन्दिवानि। सुप्रत्युपक्षि-
ते सुप्रमाजि्त्विति चतुर्था भङ्गः शुद्ध: इति गते कल्पक-
ग्णद्वार्म | वृ” > उ० £ प्रक० | आघ्र० । घर० । प्रव७ । नाभ-
॥
लाच
रूपारि जले,करप०३ आश्र०६ क्षण | नाभिरेव तावथत् प्रविशति /
स्् लपः।| ब्र“ ४ उ०। नच । नालन्दावास्तव्य स्वनामख्यात
गृदपता , ` तत्थरा नाजदाए बादारयापः लव नामे गा--
हावइ टात्था ` तस्यांच लपोा नाम गरृदपतिः-कुटुम्वि-
क ्रालात् | (सूत्र) “ से णे लवे नाम गादावई स
मणावासणए यावि होत्था ” स लपाख्या गरदपलिः श्रम
णान-साधूनुपास्ते--प्रत्यहं सेवत इत श्रमरापासकः ।
ख २ श्र० ७ श्र । ( 'पढालपुस ` शब्द पञ्चनमागे १०
पृष वक्तव्यता गता ) सवज प्रत्याख्याने 'अन्नल्थणाभागकं
इत्याद्याकाराच्चारणे प्राक्रमस्ति, परे पाणस्स लेवेण वा '
इत्यादिषु कथे तन्न ? इति प्रश्नः | अज्ोत्त रम- पाणस्ल लवे-
ण॒वा ` इत्यत्र * अन्नत्थणाभागेण ' इत्याद्याकारायुचारणे
टेतुः शास्त्र द॒ष्णा स्मरति, पडावश्यकसूतरमध्य ऽपि तद्र
हित एवं पाठा दश्यत--इंत ॥५७॥ सन० २ उल्ला । विहत-
पात्रकाणि पुनलापतानि चतुमासक विहृतानि कल्पन्त न
वा इंत प्रष्नः.अव्रात्तरम्-पूवदिहतपात्रकाणि पुनलापतान
चतुर्मासके विह्टतान कल्पन्त इति ॥७५॥ सन० २ उल्ला० ।
लवकष्पिय-लपकल्पिक - पु । लपसामाचायभिज्ञ, बृ०।
साम्प्रते लपकल्पिकमादट--
पदिरसुयगुणियमगुणिय -धारमधारउवउत्तो परिहरति।
श्र प्रियादी, अयरिओ उिसोहिकरगो से ५३७।
यस्माद-ज्ञानतः प्रायश्चित्त तस्मादनोंघनियुक्किसत्रमिय
वा कल्पपीठिका पठिता स्यात् , श्रुता वा गुणिता-अत्य-
न्तच्वभ्यस्तीकृता स्याद् , अगुणिता वा स्याद् , धारिता
वा स्याद् अधारिता वाः तथापि चदुपयुक्कः सन् सूचो-
क्रप्रकारण लप पारहरानि-परिभागयातिः स लपकल्पिकः,
तन च लपसूत्रण पठितेनापठितेन वा र)णितनागुणतन
वा. धारतनाधारितन वा उपयुक्त वा वां विराधनामापयतें
सामाचायादेः पुरतः आलाचयन प्रथमत आचापस्य, तद्
भावे उपाध्यायादरापि, आलाचित च ( से ) तस्य प्रायश्वि-
त्तप्रदानन विशोविकारक आचार्य:। उक्का लपकल्पिकः ।
व° १ उ० ९१ प्रक ।
लवण लेपन-न० । कड्यानां कर्दमेन गोायमेन च लेपप्र-
दान, वृ० १ उ०२ प्रक०। अचा०। नि० चू० । प्रलेषे ,
सूत्र० २ श्र० १ अ० |
लपमेग-लपमय।दा-खा० । नयामतलपचध्रान, ` लव (मः
रा) मायाए संजग् ” ( १ गाथा ) दश० ५ अ० २ उ०।
लेवबं-लेपत्रतू-त्रि० । सलेप, सूत्र० १ श्रु० २ अ० १३०।
लेबाड-लेपक्रत-न० । स्निग्वावयवमिश्र, पश्चा० ५ विच० |
( "(` शब्द लंपकृततान्युक्कानि )
लवलव-लपलेप-न० । भाजनभाजनस्य विषया ती
मनादिना वा श्राच माम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयन लिप्तता-
याम् , घ० २ आधि० । "'लेवाज्वणे गिहत्थसंसद्व णे” पञ्चा
५ विच० ।
लवि-लातुम् व्य० । आदाने , “ तुम पवमणाण मणि
मे । ४। ४४१ ॥ अतन तुमः स्थने वेकल्पिकः
च ॥ ए
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= । आदान, `लविखुतयु पालवि' प्रा०
४ प्राद।
लम श्लेष्प्र-पुं० | श्तष्मणि , विश? ।
लशा -पु /संक्तेप.पश्चा० १८विव०। पं>व०ऊल्ञाद्यकाले, त०।
स्ताक.धवलेसालवाकना मत्ता' पाइ०ना० १६७गा था । लि-
चित आश्वस्त, जिद्रायाम्.निःशब्द् च। दन्ना०ञचगरस्गाधा ।
क्षप-पुं। लश्जप, रा० आचा०। मात्रायाम् , पश्चा० ७ वि-
च० । त्रि० । एलपद्रव्ये, प्रश्न० ५ सव द्वार ।
लेसणता-ख्र ० । श्लेष्मण-न० | उव्वादीनां जानुप्रभ्नति-
भिः रूबन्ध, प्रज्ञा० ६६ पद ।
लेसणा-श्लपणा-स्त्री० । श्लपद्वब्येण द्रव्ययोः सम्बन्धन,
भण० ८ श० € उ० | सूत्र० |
त्तशना-ल्ी° । शङ्घुल्याद्यवयवसंश्लषरूपायाः स्तम्भन,
सूत्र १ श्र० ३ आ० १ उ०।
लसणी-श्लपरण।- खा० । श्लप्टताहतो ॥वद्यामद्, ज्ञा० १
9० १६ अ०।
ल्ञवमेत्त- लश्यमात-ि० । अल्पमात्रे, द्रव्या० १ अध्या०।
लेप (स्स) लश्या-र्त्री० जिश्यत प्रार्णी कमंणा यवा खा ज-
श्या । यद्।ईइ-..प इव वणेवन्धस्य कमचन्धस्थिःतविघ्राच्यः।
स्था० ६ ठा० | ज्ञा० । लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा
अनयात लश्या । कच ४ कम० । कृष्णाईडिद्र्यसाबिब्या
दात्मनः परिणामविशेषे,” कृप्णादिद्वव्यस्यान्िव्यात्पल्णामा
य आत्मनः | स्फांटकस्येव तत्राय, रश्चाशब्द्ः प्रवत्तत” ॥१॥
प्रजश० १७ पद् | स्था० | आ० म० | पा०। ८० । अष्यवसान,
काच।०१०५०८अ०५उ० । अन्तः क. णवृत्तो, रचा नल"
‰३०। स्५ । अथ वनानि कृष्णादीनि द्रव्यास् ४, उच्यत-इह
चाग सत लश्या भवात, योगानाव च न नवत ततो याग-
ने सद्दान्वयव्य॑तरकद्४/नात् योगानिमित्ता ८्प्य(त निश्चो-
यत, सवत्रापि तन्निमित्तत्वनिश्चयस्यान्ययव्यतिनकद४/न-
मृलत्वात् , यार निमित्ततायामपि विकेट्पद्वेयमवतर्सति- {क
यागान्तरगतद्रव्यरूपा योगानिर्मित्तकर्माद्वव्यरूपा वा, ? ,
तेन ताचद्य।यानामत्तकम्मद्रव्यरूपा, विकस्पछयानांतऋ
मात् , तथा;{द-य।गनिमित्तक्म्भद्रव्यरूपा सती घातक
मदरव्यरूपा अवातिकम्म
कम्मद्रव्यरूपा, तपानम। पि सयोगिकेत्रलान लश्यथाया:
रूद्धावात् , नापि अघातिकम्मरूपा, तत्सद्भावे अ-
योगिकेवलिनि लश्याया अभादात , ततः पाश्शिष्यात |
यागान्तगतद्रव्यरूपा प्रत्ययथा । तानि च थाोगान्तगंतान द्वू-
व्या यावत्कषायास्तावत्तषामप्युदू+।पंढ६का।ण भवोान्त
चष्ट च यागान्तरगताना द्रव्याणा क्रपायादयाप्ररुछखकान- |
मथ्येम् , यथा पित्तद्रव्यस्य । तथा{द- पित्तथके पनशपा-
दुपरूक्यत महान् प्रवद्ध आन: कापः, ऋअन५्-च।द्यानप
द्रच्या।णथ क,५२।५य स्ते ~ । पशम{ददेतव उपल्भ्यन््त , य~ |
था-आहृरय।प। ७३, नावर सुद्धे पतभस्य , खर।पान ज्ञा- |
ओ केथमन्यया युक्तय क्क, व~क चकलत।पजा- |
येतत, दो. जन नदर् रवर +. ७॥२यरु+4, तोक या-
आसखिधानर न्द्रः !
क ( ६७५
लाव 2004 6 ९ 3202. ९0७.
एव्रिणु ` इत्यादेशः | प्र्दीतुमयय, `` लवि महव्यय सिवु
लटादे `` प्रा० ४ पाद् ।
द्रब्यरूपा दा 2, न तावदू घाति- |
)
खस्त्मा
गद्गरव्याणि न भवान्ति ?, तन यः स्थितिपाकविशण रूश्या-
वशादुपर्गायत शाखान्तर स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थिति-
पाका नामानुभाग उच्यत. तस्य लामित्ते क्ायादयान्त-
गतरृष्णादेलश्या्पार रागाः. त च परमाथतः कणायस्व-
रूपा एव. तदन्तगतत्वात्: कले यागार्तगतद्रव्यसदक्ा-
रिकारण॑भदवेचित्र्या भ्यां त रृष्णादिसिदर्भिन्नाः तारतम्यम-
दन विज्ित्राश्रापजायन्त, तन यद् भगवता कमंप्रक्नाति-
र्ता शिवशमाचायण शतकाख्य प्रन्थ्मादटतम-- {ठ
इ अखुभागं कसायओ कुण `` इत तर्दाप समीचीन -
मव , कृष्णादिलश्यापरिणामानामाप कपायोादयान्तगतानां
कपायरूपन्वात् , तन यदुच्यत फेश्चिटू-योगपरिणामस्व
लेश्यानाम् “ जोगा पर्याडपएसे ठिध्अणुभाग कसाय
श्रा कुणइ `" इति वचनान् प्रकृतिप्रद्शवन्धहतुत्वम्नथ स्या-
प्न कस्म(स्थतिदतुत्वामात, तदापन न रूमीखीनम् , यथाक्ल-
भावार्थापरिज्ञानातू शपि च-न लश्याः स्थितिहतवःः
किन्तु--कपाया: , लश्थास्तु कपरायादयान्तगता झदुभाग-
हतवः, अत एवं च-- स्थितिपाक्रायिश्चपस्तस्य भवात
लेश्याविशपण ” इत्यत्रानुभागद्रतिपच्यथध् पाकग्नहणम् । ए-
दच्च सुनिश्चित्त कम्मप्रकतिरी कादियु, ततः सिद्धान्तप-
रिज्ञानमपि न सम्यक् तपामस्ति। यदप्यक्रम-- कम्मनि
प्यन्दो ष्या, निष्यन्दरूपरव डि यावत् कषायोदयः ता-
वन्निप्यन्दस्यापि सद्भावात् , कम्मस्थिलिहलुत्वभांप युज्य-
त॒ एवत्यादि , तदप्यश्लीलस , लेश्यानागनुभागवन्ध-
हेतुतया स्थितिवन्धहेत॒त्वायागात् । अन्यञ्च--कम्मानष्य-
न्दः कि -कम्भकटक. उत्त कम्मेैलारः ?, न तावत्कम्मेक-
ल्कः तस्यासारतयात्कृष्टानुमागवन्धहजुत्यासुपर्पात्तिप्रसक्तः ,
कल्को हि अला भव्ति. असार कशसुत्कष्ठानुधाग-
चन्थहतुः ?, अथ चात्क्शानभागबन्धहतवापइपि लेश्या
भवन्ति. शरश कम्मंसार इति पतक्तस्तहि कस्य क-
म्भः सार इति वाच्यम् ? , यथायोगमश्ाानामपीति चत्
्ठानामपि कर्म्मणां शास्म विधाक्ा वरण्यन्त, न च क-
स्यापि कर्मणा लेश्यारूपा विपाक उपदर्शितः, नतः
कथे कम्मसासपक्षमद्जीकुम्मह ?, तस्मात् पाक्त एव पः
त्तः अ्रयानिस्यज्ञी कत्तव्यः । तस्य हरिभद्रसरिप्रभ्नातामिराप
तत्र तत्र प्रदेश अद्ञीकृतरत्वारदिति | प्रज्ञा १७ पद ।
(१ ) अध लश्यानिक्षपमाह-
गम नोआगमता, नाअगमता य सा तावहा |
लसाण नक्खवा,चउकआा। दवेह ह।इ नायव्या।।५३४॥
जाखणगभ।वयसरारा, तब्यइरत्ता ये सा पुणा दुबहा |
कम्मा नोकम्भ या,नाकम्प हैत दे;4ह। उ || ४३४ ॥।
जावाखमज।वाण य, दुवा जावाण हाई नायव्या |
भवमभव! द्श्रस्,& (हय "= ह् संत्त;पह {|| ५२६॥
अर्जीवकम्पना दव्य-लमा सा बहा उ नेन्मा ।
चेदाण य सराण य्, गहगण- कं चताराण ॥ ४५३७॥॥।
आमभरणच्छायणा-दंसगाण ४_शिका सिखाण जा लसा |
अजर +स्), नायन्ता दसावहा एता ॥ ३४२८॥
जा दन्यस्य, सा (सलग छाबग्यहा उ नायव्दा।
( ६७६ ) ^
अभिधानराजन्द्रः ।
| लमा हि
लसा
किणडा नीला काउ, तेऊ पम्हा य सुका य ॥ ५३६ ॥
दुविहा उ भावलसा, विसुद्धलेसा तहेव अविशुद्धा ।
दु विहा विशुद्धलसा, उवसमखइआ कसायाणं ॥५४०॥
श्रविसुद्धभावलसा, सा दुविहा नियमसो उ नायव्या |
पिज्ञम्मि अ दासम्मि अ, अरहिगारा कम्मलसाए ।५४१।
नो कम्मदव्यलसा, पञ्रागसौ वीसमा उ नायव्वा |
भव उदओ भणिश्रो, छणह लसाण जीवेसु ॥५४२॥
अज्कयण निक्खेवो,चउकञ्मा दुविह होड दव्वम्मि |
आगम नाग्रागमतो, नोआगमतों य यं तिविहं ।५६३।
जाणगभवियसरीरं, तव्वइरित्त च पोत्थगाईसु ।
णज्भप्पस्साणयण्ण, नायव्वं भावमजञ्छयणं ॥५४४॥
लसा मत्यादगाधा एकादश, तत्र लसाण प्ति खूत्रत्वा-
श्यायाम ,को ऽथः? लश्याशब्दस्य निक्तपश्चतुविधः-नामादि, |
त्ति, '
“ दुविहा ' इत्यादि प्राग्वत् . यावत् ˆ सा पुणा दुविह
सा-व्यतिरिक्रलश्या पुनद्धीवधा , द्रविध्यमवादह-- कर्मणि
नाकमणि च, तत्र कर्मरायल्पवक्कव्यवति, तासुपच्य ना-
कममविषयामाद-' नाक्माण-कमाभावरूप भवति द्विविधा,
तुः-श्रवधारणाथे इति द्विधव ।
कर्थामत्याद-जीवानाम- |
उपयागलत्तणानास, ्रजीचानां च--तद्धिपरीतानाम्, उभयत्र |
लश्यति प्रक्रमः, अत्र च नाकमेत्वमुभयारपि कर्माभावरूप-
न्वान् सम्वान्धरभदाचच द्विमदत्वम् । तत्रापि द्विधा जीवानां
मवति-ज्ञातव्या । ' भवभर्वासद्धियाणं ` ति मकारस्यालाक्ष-
णिकल्वात् , सिद्धि शब्दस्य च प्रत्यकमभिसम्बन्धाद्, भविष्य-
तीति भवा-भाविनीत्यर्थः, ताइशी सिद्धियषां त भवसिद्धि-
का--भव्यास्तपाम , अभवासाद्धकाना-ताहपराताना इद्वाव- |
धानामप्युक्रधदन प्रक्रमाजीवानां भवति सप्तविधा--सप्त-
प्रकारा इहापि ल्श्यात प्रक्रमः। अतञ्न च जयलिंद्दसूरिः कृष्णा-
दयः चट सप्तमी सयागजा.इय च शरगरच्छायात्मिका परि ग्रह्य-
त, अन्य त्वादारिकादारिकामिश्रामित्यादिभदतः सप्तविध-
त्वन जीवशरीरस्य तच्छायामय क्ृष्णादिवणरूपां ना कमणि
सप्तविधां जीवद्रव्यलश्यां मन्यन्त, तथा-
अजीवकम्मणा |
द्व्वलस ' त्ति श्रजीवानां ` कम्मणा' त्ति श्राधत्वान्नाकर्मणि |
द्रव्यलश्या अर्ज़यनाकमेद्रव्यलश्या , तुशब्दस्येह सम्ब-
न्धात्सा पुनर्देशविथा ज्ञातव्या | चन्द्राणां सयाणां च प्रहा
मद्गलादयस्तद्रणश्च नक्षत्राणि च-करत्तिकार्दीनि ताराश्च-प्रकी- |
गाज्यातींपि ग्रहगणनक्षत्रतारास्तपास , आभरणानि च-एका-
चलिप्रभ्रतीनि आच्छादनानि च-सखुवर्णवरितादीनि आदर्शा
एवबादर्शका दर्पषणास्त चाभरणाचछादनादशकास्तेषास् , तथा
मशणिश्थ-मरकतादिः काकिरिः-चक्रवर्तिरत्ने मणिकाकिणयों,
तयायाों लशयति-श्लषर्यात वात्मनि जननयनानीति लश्या-
श्रतीव चक्षुराक्षपिका स्निग्धदीघरूपा छाया अजीवद्॒व्य लेश्या
प्रकरमान्नाकमरि ज्ञातव्या, दशाविधपा । अक्ष च चन्द्रादिश-
ब्देस्तद्विमानानि `` तात्स्थ्यात्तदव्यपदेश ” इति न्यायना-
स्यन्त, तेपां च पृथ्वीकायरूपत्व5पि स्वेकायपरकायश--
खापनिपातसम्भवात् , तत्प्रदशानां कषाञ्जिदचतनत्वना-
जीवद्रव्यलश्यात्व द्रष्रव्यम . उपलक्षणं
मर्वेविधद्रव्याणां रजतरूप्यनाप्रादीनां
याया अधि व्रहुतरनद् सम्भवात् | इत्थ नोकमंद्रब्यलश्या-
चात्र दशाविधत्व- |
बहुतरत्वेन तच्छा- |
ते, तथैव “लेश्या5पि” इति । गुरवस्तु व्याचक्तत-कर्मनिस्य-
तुशब्द सम्बन्धात्सा पुननिंयमात्-अवश्यम्मावात् षड्धा
ज्ञातव्या-अवबो द्धव्या, कथमित्याह-- कृष्णा नीला ` काड
त्ति कापाता 'तेड'न्ति, तैजसी पद्मा च शुक्ला चति,इह च क-
म द्रव्यलश्यति सामान्याविधान ऽपि शरीरनामकरम॑द्रव्यारयेव
कमद्रव्यलश्या , यदुक्तं प्रज्नापनावत्तिकृता- योगपरिणामो
लेश्या, कश्च पुनयोंगपरिणामो ल्या ?, यस्मासयोगिकेवली
शुङ्गलश्यापरिणामन बह्यान्तमुहृत्तै शप यागनिरोधे क-
रात. तता ऽयागित्वमलेश्यत्व च प्राप्नाति : श्रता भवगम्यत-
परागपरिणामो लश्यति । स पुनयांगः शरीरनामकमेपरिण
तिविशषः, यस्मादुक्कलम- कर्म हि का्मणस्य कार्यमन्येषां
च शरीराणा ” मिति, तस्मादोदारि कादिशररयुक्कस्यात्म-
ना वीयपरिणतिविशषः काययागः, तथोदारिक्चेक्रियाहार-
कशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापासे यः
स वाग्यागः, तथेबोदारिकादिशरीरव्यापाराहतमनोद्रब्य-
समूद साचिग्याज्ीवव्यापारो यः स मनोयाग इति । ततो
यथैव कायादि कर णय क्रस्याःमनो वीयपरिणतिर्यांग उच्य-
न्दा-लश्या, यतः कर्मस्थितिटेतवो लश्याः | यथोक्कम्-“ ताः
कृष्णनी लकापा-ततजसी पद्म शुक्लनामा नः । श्लष इव वरी-
बन्ध- स्य कमंवन्धस्थितिविधाज्यः ॥ १ ॥ `` इति, योगपरि
णामत्व तु लश्यानाम् , ^
कसायआ कुणति ” त्ति बचनात्पकृतिप्रदेशबन्धह तुत्वमव
स्यात् न तु कर्मस्थितिहेतुत्वस , कर्मनिस्यन्द्रूपत्व तु याव-
त्कषायादयस्तावर्त्ताश्नस्यन्द्स्यापि सद्धभावात्कर्मस्थितिहेतु-
त्वमापि युज्यत पव. अत एवोपशान्तक्षोणमाहयोः कर्मब-
न्धसद्धावऽपि न स्थितिसम्भवः, यदुक्कम्-“ ते पढमसमय
बद्ध, चीयसमय वेइयं, ततियसमए निजिष्ये ” ति, आह-
यदि कर्मनिस्यन्दो लश्या तदा समुच्छिन्नक्रिय शुकलध्याने
ध्यायतः क्मचतुष््यसद्धाव तब्निस्यन्द्सम्भवन कथं न
लेश्यासद्धावः ?, उच्यत, नाये नियमो यदत निस्यन्दवता
निस्यन्दन सदा भाव्य, कदाचिन्निस्यन्दवःखपि वस्तुषु तथा-
विघावस्थायां तदभावदशैनात् । यच्चोक्कम- अयोगिनो
यागपरिणामाभावे लेश्यापरिणामाभाव ` इति निश्चिनुमः-
योगपरिणाम पव लश्यति, तदप्यसाधकम् , यतो रश्म्यादयः
सूयोद्यभावे न भवन्ति, नच त तद्रपा एव, यत उक्लम-' यश
चन्द्रघ्रभाद्यत्र, ज्ञातं सज्ज्ञातमात्रकम । प्रभा पुद्रलरूपा य-
द्धर्मो नापद्यते ॥ १॥ ” अन्य त्वाहुः-कार्मणशरीरवत्पू-
थगेव कमौष्टकात्कमेवर्भणानिष्पञ्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणीति,
तस्ये पुनः कवलिना विदन्ति । इत्युक्ता द्रव्यलेश्या । भावले-
श्यामाह-द्विविधा च भावलेश्या-विशुद्ध लेश्या-अकलुषद्रव्य
संपर्कजात्मपरिणामरूपा, तथेव--अविशुद्धा-इत्यविशुद्धले-
श्या । तत्र द्विविधा विशद्धलेश्या-' उवसमखदय ` त्ति सृत्र-
त्वादुपशमक्तयजा, केषां पुनरुपशमक्तयों ? यतो जायत इय-
मित्याह-कवायाणाम् . श्रयमथः-कषायापशमजा कषायक्षय-
जा च, एकान्तविशुद्धि चाऽश्ित्येवमभिधानस, अन्यथा हि
त्तायापशपिक्यपि शकला तजःपद्य च विशद्धलेश्य स-
म्मवत एवेति । श्रविशद्धभावलश्या सति या प्रागुप-
त्तिप्ता द्विविधा- द्वभदा * ियमसा उ ` नि , श्राषत्वात्
नियमन--अचश्यम्भावेन ज्ञातव्या, ' पेज्जाम्म य ` त्ति-
माभधघाय कमद्रब्यलश्यामाह-या कमद्रव्यलश्या अग्नतन-
जागा पयडिपएसे , ठिइअणुभागं ,
॥ ६७५
क
लसा
( ६७७ )
* दासाम्मि य ' त्ति प्रेमणि च-रागेद्धपे च दय, किमुक्घ
भवति ?-रागविषया, द्वषविषया च । इय चा थोत्कृष्णनी-
लकापातरूपा. तदवमस्या नामादिभदतो ऽनक्रविधत्वम् , इह
कया ऽधिरङूतमित्याह-अधिकारः कर्मलेश्यया , काथः ?-
कमद्रव्यलश्यया, प्रायस्तस्या एवात्र व्णादिरूपण विचा- |
रणात् । इत्थ नामादिभदन लश्याक्ता, तत्र च वेचितज्र्यात्सूजकू-
तनोकमं द्र व्यलश्यायां भाव्लश्यायां च यत्प्राग् नाकं सम्प्रति
तदाह-नाकमद्रव्यलश्या-शराराभरणादिच्ाया ` पश्राग-
स्स ` त्ति प्रयागः--जोवव्यापारः सच शरीरादिषु तेला-
भ्यञ्जनमनःशिलाघरषणादिस्तन 'वीससा य ' त्ति विखरसा-
ज्ञीवव्यापारनिरपत्ता अश्नन्द्रधनुरादीनां तथा ब्वाक्षिस्तया |
च ज्ञातव्या । 'भाव' इति--भावलश्या उदयः--विपाक
इह तुपचारादुदयजनितपरिणामा भणितः षरण्णां लश्यानां
जीवेषु । * अज्भमयण ` व्यादिगाथाद्यम-अध्ययननिक्षपा- ¦
भिधायिविनयश्रत पव व्याख्यातप्रायमिति गाथेकादश-- |
काथः। |
सम्प्रत्युपसंहा रव्या जनो पदेशमाह--
एयासिं लसाणं, नाऊण सुहासुहं तु परिणामं ।
चइऊण अप्पसत्थं, पसत्थलेसासु जइअव्बं ॥ ५४५॥
पएतासाम--अनन्तरमुक्नलखरूपाणां लेश्यानां ज्ञात्वा-ए- |
तद्ध्ययनानुसारतो 5वबुध्य शुभाशुम् , तुः-पुनरथ, ततः |
शुभाशु्भ पुनः परिणामम् , किमित्याह-त्यकत्वा--अपहा- |
य * अपसत्थ ` ति अप्रशस्ता-अशुभपारिणामा कृष्णादि-
लिश्या इति यो5थः प्रशस्तलश्याख-शुभपरिणामरूपाखु पी |
ताद्यासखु यतितव्यम् , यथा ता भवान्त तथा यल्ला विधय
इति गाथाथः ॥ इत्यवसिता नाम निष्पन्ना निक्तपः । उक्त
2४ अ०।
श्रास्मश्च लश्यापदे षड़ उद्देशकाः, त्रय प्रथमोदे-
शकाथसग्रहगाथा-
आहारसमसरीरा, उस्सासे कम्मवन्नलेसासु । |
सप्रवदणसमकिरेया, समाउया चव बोधव्वा ॥ १॥ |
( 'सम' शब्दे इमं प्रथममुद्देशक वच्यामि ) प्रज्ञा ° १७ पद ।
(२) श्रथ लेश्यासख्यामाद- ।
कई शं भते ! लेस्साओ पाप्मत्ताओ १, गोयमा ! छल्ले-
स्पाञ्रो पप्पत्ताओ, तं जहा-कण्लसा ), नीललेसा २ ,
काउलेसा ३, तेउलेसा ७, पम्हलेसा ५, सुकलसा ६।
( घू० २१४)
कड शे भंते ! लेसाओ' इत्यादि, कः पुनरस्य सूत्रस्य सम्ब. |
न्ध इति चद् ?, उच्यत-उक्गं॒प्रथमादेशके ` स लसाणं
भते ! नरइया ` इत्यादि, इह तु ता एवं लश्याश्रिन्त्यन्त ।
कड् लसा ` इति, तत्र लेश्याः, प्रागनिरूपितशब्दार्थाः
'क' त्ति, किपरिमाणाः प्रज्ञप्तः, भगवानाद-गोतम ! षड़् ।
सा पव नामतः कथयति--' कण्हलसा ` इत्यादि , कृष्ण-
द्रब्यात्मिका ङृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या रृष्णलेश्या , एव |
गीकष्ेश्यत्यादि पदेष्वपि भावनीयम् ।
श्रसिध्ानराजन्द्रः । -
कै] बलि बह: ८४872 ५.2. ए
( ३) नेरयिकादीनां लश्याप्रच्छा-
शेरइयाणं भत ! कड लसाओ पन्नत्ताओं ? , गायमा !
तिनि, तं जहा-किण्टलमा, नीललसा, काउलमा ॥
तिरिक्वजोणियाणं भते ! कड लसाओ पन्नत्ताञ्मा ?,
गोयमा ! छछलेसाओ परणत्ताओ, ते जहा-कणहलेसा०
जाव सुकलेसा ॥ एगिदियाणं भत ! कई लेसाओ प-
णणत्ताओ १, गोयमा ! चत्तारि लसाच्रा पण्णत्ताओ,
तं जहा- कण्ट °जाव तेऽलसा ॥ पुढुविकाइयाणं भेत !
कई लसाओ पश्मत्ताओ १, गोयमा ! एवे चव, आउ-
वणस्सईकाइयाण वि एवं चव, तेउवाउवेहंदि यतईदिय-
चउरिंदियाणं जहा नरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोंणि-
याणं पुच्छा, गोयमा ! छल्नस्सा-कण्टलस्सा °जाव सु-
कलेस्सा ॥ संच्छिमपचिदियतिरिक्छजाणियाणं पृच्छा,
गोयमा ! जहा नेरहयाणं , गब्भवकंतियपंचेंदियति-
रिक्खजोशियाणं पृच्छा, गोयमा ! छल्लसा कण्टल-
स्सा ०जाव सुकलसा ॥ तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,
गायमा ! छलछ्लेसा एयाओ चव ॥ मणूसाणं पृच्छा,
गोयमा ! च्छेसा एयाओ चव । संयुच्छम--
मणुस्साणं पृच्छा, गोयमा ! जहा नेरइयाणं, गन्भवक्ं -
तियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! छछ्लेसाओ, ते जहा--
कणहलेसा ०जाव सुकलेसा । मणुस्सी्ण पच्छा, गोय--
मा ! एवं चच । देवाणं पुच्छा, गोयमा ! छ एयाओ चेव,
देवीण पुच्छा, गोयमा ! चत्तारि कण्हलेसा ०जाब तेउ-
लस्सा । भवणवासीणं भते ! देवाणं पृच्छा, गोयमा !
एवं चच | एवं भवणवासि्णीण वि । वाणमतरदेवाणं पुच्छा,
गोयमा ! एवं चव, वाणमंतरीण वि । जोइसियाणं पुच्छा,
गोयमा ! एगा तेउलेसा एवं जोइसिणीण वि, वेभाणियाणं
पुच्छा,गोयमा ! तिन्नि,तं जहा-तेउलेसा, पम्हलेसा शुकले-
सा, वेमाणिणीणं पुच्छा, गोयमा ! एगा तेउलेस्पा ।
( स्ू० २११५)
नरइयाण भते !' इत्यादि, सृत्रमल्पवहुत्ववक्नव्यतायाः भाक्
सक्लमाप सुगमम्, नवर वबंमानकसूत्र यद्धमानकानामका'
तजालश्योक्ला तजेद् कारण वमानक्या एह द्व्य सोंधम्मे-
शानयारव, तत्रच च कवला तजालश्यात ।
सामान्यतः सड्गह॒शिगाथा अत्रेमाः--
« किरा नीला काऊ, तञ लसा य भवणवंतरिया ।
जोइससोहम्मी सा-ण तउलसा सुणयव्वा ॥ ६ ॥
कप्पे सरांकुमारे, माहिंदे चेव बंभलोए य ।
पपु पम्हलेसा, तण परं सुक्र .सा उ॥ २॥
पुदवी आउ वणस्सह. बायर-पत्तय लस चत्तारि ।
(धो
श्रसिधानराजन्द्रः।
ल्तेम्या
|
गब्भयतिरियनरेखु. छल्लसा तिज्नि ससाण ॥ ३॥ ”
|
प्रश्ा०१७ पद् २ उ० । (णनषां जोवाना मटपवदुन्वम् अप्पाब- '
हय ' शब्द प्रथमभागे ६५८ पृष गतम् )
साधर्मेशानक्ल्प दवाः तजालश्याः-
दोसु कप्येसु देवा तेउलेस्सा प्ता, तं जहा- सोहम्मे
चेव, ईसाणे चेव | स्था० २ ठा० ४ उ० | जी० |
(४) असुरकुमारादीनां दवानां काति लश्या भवन्ती व्याद-
अपुरङमाराणं चत्तारि लस्सातो पष्पत्ता,तं जहा-कथ्ह-
लसा णीललेसा काउलस्सा तेउलेस्सा,एब०्जाव थणि-
खकुमाराणं,एय पुदर्वकाइयाणं अ.उवणस्परकाइयाण वा-
शमतराणं सव्वेसिं जहा असुरकुमाराणं । ( सू ३१६ )
श्रसुरादीनां चतसखा लश्या द्रव्याश्रयथण, भावनस्तु षडपि
सवदेवानां मनुष्यपञ्चन्द्रियातरश्चां तु द्रव्यता भावतश्च ष-
डपीति, प्रृथिव्यब्वनस्पतीनां हि तजालेश्या भवति देवाःपत्त-
रिति तषां चतस्र -ति उक्ललश्याविशपण च विचिचपरि-
रामा मानवाः स्युरिति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । ( कि-
लश्याको नेरायिकादिकः किलश्याकेषु नेरायकादिकेषु उपप-
द्यत इति ' उववाय ` शब्दे द्वितीयभाग ६७५ पृष द शितम् ।)
( ५) श्रटपाद्धकत्वमटाडिकत्व-
एएसि शं भते ! कण्हलसांणं ०जाव ॒सुक्कलसाण य
कयरे कयरे अप्पड्टिया वा महङ्किया वा १ , गोयमा !
कण्हल^ हेतो नीललेसा महाङ्िया, नललेमेहिती का-
उलेसा मह दिया, एवं काउलेस्सेहतो तेउलसा महड्डिया,
तउलेसेहितो पम्हलेसा महड्डिया, पम्दलेमर्दितो सुक्कलेसा
मह्या ,
सुक्कलसा | एएसे शं मंत ! नेरदयाणं कण्डलेसारं
नौललभाणे काउलसाण य कयरे केर अप्पड्डिया वा
मद्। इया वा ?, गायमा ! कण्टलसदितः नललमे
महड्डिया, नीलंलेसेहिंतों काउलेसा महया , सव्वप्प-
सव्वप्प। या जवा कएहलेसा सन्वमहङ्खिया |
ड्रिया नेरश्या कएहलेसा, सव्यमहड्डिया नरइया काउले- ।
सा | एएरिः णं भते ! तिरिक्खजं)णियाणं कणहलेसाणं
०जाब सुक्कलसाण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा
महड्िया वा ?, गोयमा ! जहा जीवा्ण | एएसि शं
भते ! एगेदियति रिक्वजोशियाणं कण्टलेसाणं ०जाव
तउलेसाण य कयर कयरेहिंतो अप्पडया वा महड्डिया
वा १ , गे।यमा ! , कण्हलेस्सहता एगेंदियातिरिक्खजों-
गियाणं नीललमाण महड्डिया, नीललेसहिंता तिरिक्व-
जोणियाणं कोउलसा महड्डिया, काउलेसर्हितो तेउ-
लमा मह्या , सम्पप्पड्डिया एगेंदियतिरिक्खजोंणिया
क०हलेसा, सव्वमहद्डिया तेउलेसा । एवं पुढविकाइयाण .
वि, एव एणगं अभल:वबर्ण जहेव लस्साओ भावियाओं
तदेव नयस्व ऽजा चउरदिया
|
। पंचेदियतिरिक्खजों -
णियाणं तिरिक्वजोणिणीणं समुच्छिमाणं गब्भवकंति-
याण य सव्वेसिं भाशणियव्व ° जाव अप्पड़िया वेमा-
णिया देवा तेउलेस्साणं सव्वमहड्डिया वेमाणिया सुक-
लसा । केड भरंति-चउवीसे दंडणएणं इड भाशियव्या !
( षू° २२१ )।
` एसि रं भत ! जीवाणे करटलसाण ' मिव्यादि, खुग-
मम्. नवर लश्याक्रमण यथात्तर महर्द्धिकत्वे यथा<वांकु
श्ररपाद्धकत्व भावनीयम् , एवं नरयिकति्यग्योनिकमनु-
प्यवमानकावेषयारायाप सूत्रा यषां यावत्या लश्यास्तप+
तावतः पारभाव्य भावनीयानि | प्रज्ञा० १७ पद ३ उ० ।
( किलश्या जीवः किलश्यघृपपद्यत इति * उववाय ` शब्द
दतीयमाग ६७६ पृष गतम् ) कष्णलण्यादिनरयिकः कि
लश्यघृपपद्यत डत तास्मन्नव भाग तस्मिन्नव शब्द ६७५
पृष्ठ उक्तकम । कृष्णलश्यादः नीललष्यादि षूपपद्यत इत्यपि
तास्मन्नव भाग तास्मन्नव शब्द ६२० पृष गतम् । )
( ६ ) कृष्णलश्यः कृष्णलश्यं प्रणिधाय अवधिना कियत्त्तेतज ।
पश्यात । कष्णलश्याद्नरायक्सत्करा व घज्ञानदशनावषयक्ष-
अपारमाणतारतम्यश्चाह-
कणहलस शं भन ! नग्इए कृणएहलस नरहय॑ पशिहाए |
ओहिणा सव्वओ स्मता समभिलाएमाण कवतियं खेत्त
जाणइ केवइयं॑रत्तं पासइ ?, गोयमा ! णो बहु-
यं खत्त जाणई, णो बहुय॑ खनं पास, णो दूरं खेत्त
जाणइ, णो दूरं खत्त पास, इत्तरियमेव वित्तं जाणइ,
इत्तरियमव चत्त पासइ | से कणद्रुणं भते ! एवं बुच्चइ
हलेसे णं नेरइएण तं चव० जाव इत्तरियमेव्र चत्त
पासइ १, गोयमा !, से जहानामए केड पुरिसे बहुसम-
रमणिज्जसि भूममिभागं।ध टिच्चा सव्यओ समता सम
भिल।षएज्जा, , तए णं से पुरिसे धरणितलगरयय पुरि
पशिहाएं सव्वओ स्मता समभिलेाएमाण शो बहुये
खत्तं ० जाव पासइ ० जाव इत्तरियभेव खत्तं पासइ, से
तेणट्टणं गोयमा ! एवं वुच्च_-कणहलेसे णं नेरइए० जाव
इत्तरियमेव खत्तं पासइ । नीललेसे णं भते ! नेष
कणहलेस नरइयं पदाय ओहिणा सव्वश्रा समता
समभिलाएमाणे सम।भल।एमाण कवतिय खत्त जाश
केवतियं खत्तं पासइ १, गोयमा ! बहुतरा्ग खत्त जाण३
बहतराग खेत्त पासइ, . दरतरखत्त जाणइ दरतरखेत्तं
पासइ, वितिमिरतरागं चन्तं जाणइ वितिमिरतर।गं खतं
पासइ , विसुद्धतरागं खत्तं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्त
पासइ । से केणट्रणं भते ! एवं वुच्चई--ने।ललेसे रण
नरइए कणहलेसं नरइय॑ पणिहाय० जाव विसुद्धतराग
त्तं जाणइ, विसुद्धतरागं खेत्त पासई ? से जहानामए
केह प्ग्सि ब्रहुसमरमणिज्ञाओ भूमिभागाश्रो पच्छ
=-=
||
(६७६ )
हजिसा |
दुरूह्ित्ता सव्वओ स्मता समभिलोएञ्जा, तए णं से
पुरिसे धरणितलगयं पुरिस पणिहाय सव्वयओ समता
समभिलोएमाणे समभिलाएमाणे बहुतरा खत्ते जाणइ,
०जाव विसुद्धतरागे येत्तं पासइ, से तेणट्वेणं गोयमा ! |
एवं वुच्चइ-नीललेस्से नरइए कणहलेस ०जाव विद्र
तरागं खत्तं पासइ । काउलेस्से ण॑ भेते ! नरइए नीलले-
स्सं नरइय पणिहाय ओहिणा सव्यओ स्मता समभि-
लोएमाणे समभिलोएमाण कवतियं खेत्त जाणइ पासइ १,
गोयमा ! बहुतरागं खत्तं जाणइ पासइ० जाव विसुद्ध-
तरागं चन्तं पासति | से केणट्वेणं भते एवं वुच्चई-काउ-
लेस्से णं नरइए० जाव विसुद्ध तराग खेत्त पासह १, गो-
यमा ! से जहा नामए केइ पुरसे वहुसमरमणिज्जाओ
आामभधानराजन्द्र: ।
भूमिभागओ। पव्वयं दुरूहइ दुरूद्धित्ता दोडवि पाए उ- |
च्चाविया ( वइत्ता ) सब्वओे समता समभिलोणएज्जा
तए ण॑ से पुरि पव्वयगयं धरणितलगयं च परियं
परशिहाय सव्वओ समेता समभिलाएमाणे बहुतरागं
चन्तं जाणइ बहुतरागं खेत्त पासइ० जाव वितिमिरतसगं
पासइ, से तणटरणं गोयमा ! एवं वुच्चइई-काउलेस्से णं
नेरइए नीललेस्स नरइयं पणिहाय तं चवर °
मिरतरागं खत्तं पासइ ॥ ( सू० २२३)
'कण्हलेसे ण भत !' इत्यादि, कृष्णलेप्यो भदन्त ! क-
ख्िन्नरयिको ५पर॑े कृष्ण #श्याक प्रशिधाय--अपेक्ष्यावधि-
ना--अवधिज्ञानेन सर्वेतः--सर्वाखु दिक्चु समन्ततः--स-
चांस विदिक्चु समभिलोकमानो--निरीक्षमाणः क्रियतू--
किपरिमाणं त्तत्र जानाति कियद्वा क्षेत्रवधिदर्शनन पश्य-
जाव विति- |
ति ?, भगवानाह-- गोतम ! न बहुक्षेत्र जानाति नापि बहु- |
क्षेत्र पश्यात, सुक्कं भवात ?- अपर कृष्णलर्याक नराय-
कम पद्य न ॥ववात्ततः कृष्णलेश्याको याग्यतानुसा रणा-
ग्तावशुद्धाडाप नरायकाउतप्रभूत क्षत्रमवाधना जानाते |
पश्यात | एतद्वाह--न दृरम--आंतेविप्ररूष्ट त्तत्र जाना-
ति नाप्यातावप्ररृष्ट त्त पश्यात, कि तु-इत्वरमव-स्व-
ल्परमवाधक क्षत्र जानाति
इत्वरमेबाधिकं त्तत्र पश्य- |
ति पतच्च सूत्र समानप्राधर्वाककृष्लश्यनरयिक-- |
विषय मवसयमन्यथा व्याभचारसम्भव त्, तथादह्र-सप्त-
भष्राथवागतः कृष्णुलेश्याको नैरयिक्रो जघ्रन्यतो गव्यृताद्धं |
ज्ञाना।त, उत्कपंता ग यूतम् , पष्ठप्राथवागतः कृष्णलश्याका
जघन्यता गब्यू तमुत्कषतः साद्धम्, पशञ्चमप्रा थव।गतः कृष्णा-
लश्याका जघन्यतः साद्ध गन्यूनमुत्क्पतः काञिदून द
गव्यूत । ततता द्गुलाच्रगुखाचकक्तत्र सम्भवाद् भवल्याब्रू-
तेसूत्रस्य व्याभचारः, यथा समानप्राथवाकमपर कूष्णल-
श्याक नराथकमपच्यातावशुद्धो ऽपि कृष्ण लश्याका नरान-
का मनागोधक परयति नातप्रभूत तथा दृष्टान्तेनाप।पेपाद- |
यिघुराइह--'स कराद्दण भते ! ` इर्य
। श समभूभागव्यवास्थत एवं कश्चित् विवाक्षितः पुष
चच्चुनमल्यवशात् मनार्गाघधकं पश्यात न प्रभूततर तभ्य
यमत्र भावना- |
6६9 १3 लमा
वेबक्षितों ऽप काश्चत् कृष्णनेश्याका नरायकः स्वर्भामका-
नुसारणातिविशुद्धाऽपि समानपृधिर्वाकमपरे रृष्णलेश्याक
नेरयिकमपद्य यदि परमायाधना मनागधिकं पश्यत नतु
प्रभूततरम् अतर समभूभागम्थानीया समाना परथिवी, स्व-
भूमिकासमाना च रृष्णरूपा लश्या, चक्तु.स्थानीयमर्चाद
ज्ञानम् । एतावता चतदपि ध्वनितम्-यथा सम भूभागव्यव-
स्थितः पुरुषः सवतः समन्नादभिलाकमाना गत्तागते पुरुषम
पच्यातिप्रभूततरे पश्यति तथा पश्चमप्रथिव्रीगतः स्वभूमि-
कानुसारणातिविशुद्धः रूष्णलश्या को विवाक्तता ऽप नराय
कः सप्तमर्प्रथवीगत छृपष्ण्लश्याकमतिमन्दाजुभागावाधनर-
यिकमपदच्यातिप्रभूत पश्याति , मन(गाधकजिगुणच्तत्रसम्भ-
चात् ॥ सम्प्रात नीललश्याकविषये सृत्रमाद--* नीललस ण
भत ! नरइए करटलस नरइये पाणहाए ` इत्यादि. अक्तरग-
मनिका सुगमा, नवर ‹ एवा्तांमरतराग वत्त जाणड् ` ईत
विगत तिमरम--तिमरसम्पादा भ्रमा यत्र ताद्वातामरम.
र्दे वितमिरमिदम वितामरमनयारातशयन वितिमिरं
विातामरतरम् ' द्वयाविभस्य तराच ` एत तरप्प्रत्ययः । ततः
प्राकृतलक्षणात् स्वाथ कप्रत्ययः पूवस्य च दीघत्वम् . अतः
पव विशुद्धतर-निर्मेलतरम् , श्रतोच स्फुटप्रतिभासमित-
यावत् | भावना त्वयम्-यथधा धरणितलगत पुरुषमपच्य
पर्वतारूढः पुरुषाऽतिदृ त त्तत्र पश्यति तदापि प्रायः स्फुटप्र-
तिभास तथा विवक्तितोषपि नीललेश्याका नरयिका याग्य-
तानसारेणातिविशुद्धार्वाधः कृष्णलेश्याकं नरकमपदयाति-
दुरे वितिमिरतरं स्फुटप्रतिभास चक्तत्रं जानातीति । अत्र
पर्वतस्थानीया उर्पारतनी तृतीया पृथितव्री अतिविशुद्धा च
स्वभूमिकानसा रेण नी ललेश्या, घरणितलस्यानी या अधस्त-
नी कृष्णलश्या, चक्तुःस्थानीयमवधिक्ञानम्तात ॥ सम्प्रांत
नीललश्वाकमपदय कापोतलजश्याबिषय सूत्रमाह--काउले-
स्ले णे भते! नगइए नीललेस्स नरइय परिदाय ` व्यादि.
श्रत्तरगमनिक्रा सुगमा, नवरम् ` दोवि पाए उच्चावइत्ता '
इति, द्वावपि पादो उच्चैः रूत्वा द्वावाप पार्ष्णी उत्पास्येटथ:,
भावना त्वियम्--यथा पर्बतस्योपरि चृक्तम्रारूढ: सवतः
समन्तादवलाकमाना बहुतर पश्यांत स्पष्टतर च तधा
कापोतरलश्यों नेरयिको5परं नीललेश्याकम पद्य प्रभूतं क्षे-
चमर्वाधिना जानाति पश्यति च, तद्रपि च स्पण्टतरमिति |
इट वृत्तस्थार्नाया कापोतलश्या उर्पारतनी च पृथिवी प्व-
तस्थानीया नीललेश्या तृतीया च पृथिवी, चचचुःस्थानीयम-
चधिज्ञानमिति ॥
(७ ) सम्प्रति का लश्या कतिषु ज्ञानिषु लभ्यत इति--
नरूपाथतुकाम श्राह
दलम णं भत ! जवे कइस नाणेसु होज्जा १,
गेयमा! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्ज।,
दासु होमाणे आभिशिषवोहियसुयनाणे होज्ञा, तिसु
होमाणे आंभिेशणबेहियसुयनाणओहिनाणेसु होज्ञा ,
अहवा तिसु होमाणे आ।भिशणत्रो।हियसयनाणमणपज-
वनाणेसु हाञ्जा, चउसु होमाणे आभिशित्रे।हेयसुय-
आ।हिमणपज्जवनाणसु होज्जा, एवं °ज'व पम्हलेस ।
सुकलेसे णं भते ! जवे कदम नमु होज्ञा |; गो-
८ ६&० )।
श्र भध्रानराजन्द्रः।
लसा
यमा! दासु वा तिसु वा चउसु वा ज्ञा, दोसु
हामाणे आभिशित्राहियनाणे एवं जहेव कण्टलेसाणं- |
तहव भाणियव्वं ० जाव चउहिं, एगम्मि नाण होज़ा,
एगम्मि केवलनाे होज़ा । ( छू० २२४ )
करटलस रा भत ! जीव कइसु नाणखु होज्जा ` इत्या-
दिप्रश्नसूतरं खुगमम् , भगवानाह-गातम ¦ ढयाखिषु चतुषु
च क्ञानप भवति । त्र द्योराभिनिबाधिकश्चुतज्ञानयो
तरिषु आभिनिवाधिकश्रतावधिज्ञानषु. यदिवा--श्राभिनि-
बाध्रिकश्रतमनःपयायज्ञानपु.इहावधिरहितस्यापि मनःपयव-
ज्ञानमुपजायत ,
त. अन्यच्च विचतरा प्रतिज्ञान तदावरणक्तयापशमसा-
मग्री . तत्र कस्यापि चारित्रिणो5प्रमत्तस्यामषोषिध्याद्य-
न्यतमकतिपयलब्धिसमन्वितस्य मनःपयायज्ञानावरणत्त-
यापशमनिमित्ता सामग्री तथारूपाध्यव्सायादिलक्षणा स-
सम्पद्यत न त्वर्वाधज्ञानावरणन्तयापशमनिसित्ता ततस्तस्य
मनःपयवक्ञानमव अवति । ननु मनःपर्यवज्ञानमातिविशुद्ध-
स्यापजायत कृष्णलश्या च संक्लिप्टाध्यवलायरूपा ततः
कश कृप्णलश्याकस्य मनःपयायज्ञानसम्भवः ?,
इह लश्यानां प्रत्यकासख्ययलाकाकाशप्रदशप्रमाणान्यध्य-
खस्नायस्थानानि , तंत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसा- |
अत एव कृ- |
यम्थानानि प्रमत्तसहतस्यापि लभ्यन्त ,
ष्णनीलकापातलश्या श्चन्यत्र प्रमत्तसयतान्ता गीयन्ते ,
मनःपयेवज्ञान च प्रथमता ऽप्रमत्तसयतस्याः पयत, ततः प्र- |
मत्तसयतस्यापि लभ्यत इति सम्भवति छरष्णलश्याक-
स्यापि मनःपर्यवज्ञानम् , चतुष्वीभिनिवाधिकश्रुतावाधिमनः-
पर्यवज्ञानपु , ` एवं० जाव पम्हलस ' इति पवे-ङृष्णल-
श्याक्नन प्रकारण तावद् वक्कव्य यावद् पद्मलश्या । कि-
मक्त भर्वात ?-नीललश्यः कापोललश्यः तजालश्यः प-
दलेश्यश्च उक्कप्रकारण ढयाखिषु चतुषु वा ज्ञानषु भ-
गानीयः । स च एवम--' नीललस्स णे भेत ! जीव कदस
नार दाज्ा?, गायमा ! दासु वा तिखु वा चउखु वा ना-
गु हाज्ञा ` इत्यादि , शुक्नललश्येपु विशष इति तं पृथक
वक्कि-' सुक्कलसे णे भंते !' इत्यादि, इह शुक्कनष्यायामव
कवलकज्ञान न लश्यान्तर ततः शपलश्याकेभ्या5स्य शुक्क-
लश्यस्य विशषः ।
प्रथम परिणामाधिकारः १,
५, तृतीया. रखाश्रिकारः ३ , चतुर्था गन्धाधिक्रारः
५, षञ्ञमः शुद्धाशुद्धाधिकारः ५, षष्ठः प्रशस्ताप्रशस्ता-
थिकारः ६, सप्तमः संक्तिप्टासेक्लवप्टांघकारः ७, अप्टम
उप्णशीताधिकारः ८ , नवमा गत्याधिकार; & , दशमः प-
रिणामाधिकारः १० , एकादशा 5प्रदेशप्रदेशप्ररूपणाधिका-
शः ११ , द्वादशा 5वगाद्ाघिकारः , अयादशो वर्गणा-
धिकारः १३ , चत॒देशः स्थानप्ररूपणाधिकारः १४, पञ्च,
दशा एल्पबहुत्वाधिकारः १५ ।
) तत्र प्रथमं परिणामलक्षणमभिधित्सुर्यासां परिणामों
बक्रव्यः ता एव लश्या; प्रतिपादयति--
परिणामयन्नरसगं-धसुद्धअपसत्थस किलि एटा ।
गतिपरिणामपदेसो, गाहसग्गणठाणाणमष्पवहूं ॥ १॥
द्वितीया वर्णाधिकारः
१२
सिद्धप्राभ्र्तादावनकशस्तथा प्रतिपादना- |
उच्यत-
कड णं भते | लेसाओ पन्नत्ताग्र १, गायमा ! छल्ले-
साओ पन्नत्ताओ, तं जहा-कण्टलसा ° जाव सुकलेसा,
से नृणं भते ! कण्टलसा नीललसं पप्प तारूवत्ताए ताव-
प्पत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो
परिणमति, हंता गोयमा ! कण्टलेस्सा नीललेस्स पष्प ता-
स्वत्ताए ° जाव भुज्ञो भुजो परिणमति, से केणट्रशं `
भते ! एवं वृचई ` कण्टलेस्सा नीललेस्स पप्प तारूवत्ताए
०जाव भुज्ञो भुज परिणमति ?, गोयमा ! से जहानाम
ए खीरे दूसि पप्प सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प ताख्वत्ताए०
जाव ताफ़ासत्ताए भुज्जो अज्जो परिणमई, से तेणडशं
गोयमा ! एवं वुचई्- कण्टलसा नीललेस पप्प ताख्वत्ता-
ए० जाव भुज्जो भुज्ञा प्रिणमई, एवं एतेणं अभिलावेशं
नीललेसा काउलेसं पष्प काउलसा तउलसं पप्य ते-
उलसा पम्हसेस पष्प पम्हलेसा सुकलसं पण्प० जाव
जज
प्र
भुजा भुजा परिणमइ ,से नृणं भंते ! कण्हलेसा नील- `
लसं काउलेस तउलसं पम्हलेस सुकलेसं पष्प ताख्वत्ताए
तावष्पत्ताए तागंधत्ताणए तारसत्ताए ताफासत्ताए भज्ञो.
भ्रुज्ञे परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कण्टलेसा नीललेष
पप्प ० जाव सुक्लसं पप्य तास्वत्ताए तागंधत्ताए तार-
सत्ताए ताफासत्ताए भुजो यजो परिणमई, से केणडखं
भते ! एवं बुचचइ-कणहलेसा नीललेसं° जाव ।
पप्य ताख्वत्ताए० जाव भुजो भुजो परिणमई १, गोयमा !
से जहा नामए वेरुलियमणी सिया कणहसुत्तए वा नी-
लसुत्तए वा लोहियामणी सिया हालिदमणी सिया सु-
किल्लमणी सिया आइए समाणे तास्वत्ताए °जाव शुज्ञो
भ्रुज्धो परिणमइ,से तेणद्वेण एवं वुच्चर-कणहलेसा नीललेसे
०जाव सुकलेम॑ पप्प तास्वत्ताए भुजो भज्ञो परिणमति। से
नृणं भ॑ते ! ! नीललेसा किणहलेस ° जाव सुकलसं पष्प तारू-
वत्ताए०जाव भुज युज! परिणमइ,हंता गोयमा ! एवं चेव |
काउलेसा किणहलेसं, नीललसा तउलेसं, पम्हलेसा सुकले
से, एवं तउलेसा किण्हलेस नीललेसं काउलेसं पम्हलेर
सुकलेयं, एवं पम्दलेसा किण्हलेसं, नीललेसा काडलेसं।
तेउलेसा सुक्रलेसं पप्प ° जाव युजो ज्ञो परिणमह !
हन्ता गोयमा ! तं चेव, से नृणं भते ! सुकलेसा किएह'
लेस, नीललेसा काउलेसं, तउलेसा पम्दलेसं पप्प० जा
भञ्जो भुज्ञो परिणमई ?, हंता गोयमा ! तं चेव । (षू° २२४
कड् रो भते ! लसाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इदं सूत्र प्राग
प्युक्त पर पारणामाद्यथप्रातपादताथ भूय उपन्यस्तम्
नूर भते } ' इत्यादि, अथ भदन्त कष्णलश्या--रृष्णलश्या
योग्यानि द्रव्याणि नीललश्यां-नीललश्यायोग्यान व्रज्या
त पात्य अन्या ऽन्याव्रयवसस्पशमासाद्य तद पतया-नील
=)
वि
8
~ जज ~
| लश्यारूपतया, रूपशब्दा ऽत्र स्वभाववाची, नीललेश्यास्वभा- |
चलम् , रज्यत अननाति रागः `
लसा
चतयत्यथः भूया भूयः परिणमतीति यागः । तत्स्वभाव त-
दर्मणा ( तद्धणा ) दिरूपतया भवति, तत आह--तद्धणत या
तद्रसतया तद्भन्धतया तत्स्पशेतया, सर्वत्रापि तच्छुब्दून नी
ललश्यायारयानि द्रव्याणि पराम्शन्ति, भूया भूयः--अनेक-
चारं तिथरमनुप्याणां तत्तद्भवसक्रान्तो शपकाल वा परि-
रमते. इद हि तियग्मनुष्यानधिङत्य वेदितव्यम् , एवं गो-
तमन प्रश्न कृत भगवानाह--' हंता गायमा ! ` इत्यादि, ह-
न्तत्यनुमतो श्रजुमतमेतत् गोतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां
ग्राप्यव्यादि, प्राग्वत् । इयमत्र भावना--यदा रष्णलश्याप-
रिणतो जन्तुस्तियंग्मनुष्या वा भवान्तरसेक्रान्ति चिकीषै-
नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति तदा नीललेश्या-
याग्यद्रव्यसम्पकतस्तानि कष्णलेश्यायाग्यानि द्रव्याणि
तथारूपजीवपरिणामलन्तरं सहकारिकारणमासाद्य नी- |
ललश्याद्रव्यरूपतया परिणमन्त , पद्वलानां तथा तथ '
परिणमनस्वभावत्वात् , ततः स केवलनीललश्यायोग्यद्र- |
च्यसाचव्यान्नीललेश्यापरिणतः सन् काल कृत्वा भवा- |
न्तर समुत्पद्मयत | उङ्क च--' जल्लसादई दब्वाई परियाइत्ता
काले करइ तल्लस उववज्द ` इतिं, तथा स एवं तियग्म- |
ष्या वा तास्मन्नेव भव वर्तमाना यदा छृष्णलेश्यापरिणतो |
भन्वा नीललेश्याभावन परिणमत तदापि कृष्णलेश्यायो-
ग्यानि द्रव्यांण तत्कालगरहीतनीललश्यायाग्यद्रव्यसम्प-
कैता नीललश्यायाग्यद्रव्यरूपतया परिणमन्त, अमुमेवार्थ
दृष्टान्तन विभावयिषुः प्रथमं प्रश्नसूत्रमाह-' स केगट्वेण-
भत ! ` इत्यादि, खगमम् | भगवानाद-गोतम ! ' स जहाना
मए खीर ` इत्यादि, ततः लाकप्रसिद्ध यथानामकं गाक्तीरम्
अजाक्तीरे महिषीक्तीरमित्यादिनामकं क्षीरम् 'दूसि' मिति दे-
शीवचनाद् दुष्यमतत् , माथितं तक्रं प्राप्यान्याऽन्यावयवसस्प-
शनाविभाग गन्वा यथा च शुद्धं-मलरषितं समल हि रागः
सम्पद्यमानाऽपि न तथारूपा लगति तत उक्रम्-शुद्ध वख्र-
करण घञ ` त मज्िष्ठादिक
भ्राप्य तद्रपतया-मज्जि्ठादिरागद्रव्यस्वमावतया, एतदेव व्या-
च्ट-* तद्वरतय ` त्यादि, सुगमम् । तथा कृष्णलश्यायो-
श्यानि द्रव्याणि नीललश्यायाग्यानि द्रव्याणि प्राप्य तद्रप-
लया परिणमन्त । इयमत्र भावना-यथा त्तीरलत्तणकारण-
गता रूपादयस्तक्ररूपादिभावे प्रतिपद्यन्त, यथा वा शुद्ध-
चखकारणगता रूपादया मलज्जिष्ठादिरागद्रव्यरूपादिभाव
प्रतिपद्यन्त तथा कृष्णलश्यायाग्यंद्रव्यरूपकारणगता रूपा- ¦
दयो नीललेश्यायाग्यद्रन्यरूपादिभावं प्रतिपद्यन्त, * से त-
शटरण ` मित्यायुपसदहारवाक्यं सुगमम्, एव नीललश्यः का-
पातलश्यां प्राप्यत्यादीन्यापि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि
तदेवे पूवेस्याः पूवस्या लश्याया उत्तरामुत्तरां लश्यां प्रतीत्य
तद्रपतया परिणमनमुक्कम् | इदानीमककस्याः लश्याया य-
थायागे क्रमण शपसमस्तलश्यार्पार णमनमाद--* स नृरं
भेत ! कराहलसा नीललस्से काउलस्स ' मित्यादि, वाश-
ब्दा+त्र सर्वत्राप्यनुक्ता द्रघ्रव्यः, नीललश्यां वा कापातलश्यां
चा यावत् शुक्कललश्यां वा, एकस्या लश्यायाः परस्परविरू-
तया युगपदनकलश्यापरि णामासम्भवात् । शपषाक्षरग-
मनिका ध्राग्वत् । अत्रैवार्थे दृष्टान्तमभिधित्सुरिदमाह--
॥3 केणद्रगो भत ! ` इत्यादि खुगमम् , नवरं यथा वेटूयम-
१७६
द्शस्तन्म ध्यवर्त्ती
शष द्यातयति । यद्धां-तुः--अवधार ण.
{द
अभिधानराजन्द्रः
लसा
णिरेक एवं तत्तदुपाधिद्रब्यसम्पर्कतस्तद्रपतया परिणमत
तथव तान्यपि कृष्णलश्यायाग्यानि द्रव्याणि तत्तश्नीला-
दिलश्यायाग्यद्रव्यसम्पकंस्तत्तदृ पतया परिणमन्त इति,
पतावतांशन दष्ान्तान तु पुनयंथा वेद्ूर्यमणिः स्वस्व-
रूपमजहानस्तत्त दुपाधिद्रव्यसम्बन्धतस्तत्तदाकारमात्रभा-
+ न ७ भै ९ का
जितया तक्तदृपतया परिणमत तथतान्यपि कृष्णलेश्या-
योग्यानि स्वस्वरूपमजहानान्यव द्रव्याणि तत्तन्नीलादिल-
श्यायाग्यद्रव्यसम्पकतस्तत्तदाकारमात्रधारितया तत्तद्रपत-
या परिणमन्त इत्यननांशेन, तिरश्चां मनुष्याणां च लश्या-
द्रव्याणां सामस्त्यन तद्रपतया परिणामाभ्युपगमात् , श्र-
न्यथा-नेरयिकदेवसत्कलश्याद्रव्याणामिव तियग्मनुष्याणा-
मपि लश्याद्रव्याणां सर्वथा स्वरूपापरित्यागन चिरका-
लमवस्थानसम्भावात् , यत उत्कधतो ऽप्यषामन्तमुहत्तैलक्त-
र स्थितिपरिमाणमन्यत्राक्रं तद्धिरुध्यत, पस्यापमन्रयमपि
यावत् उत्कर्षतः स्थितिसंभवात् , तदवे तदन्यलेश्यापञचच-
कपारिणाममधिरृत्य कृप्णलेश्याविषये सूत्रमुक्रम् , णवं
नीलादिलश्याविषयारायपि प्रत्यक॑ तदन्यलश्यापञ्चकपरि-
णाममधिरृत्य पञ्चे सूत्राणि वक्कव्यानि , तदवे ति्थङ्मनु-
प्राणां भवसंक्रान्तौ शषकालं च लश्याद्रव्यपरिणाम उ-
क्रः । दवनेरयिकसत्कानि तु लश्याद्रव्याणि श्राभवत्तयम-
वर्थितानि यत्तदन्यलश्याद्रव्यसम्पर्कत आकारमात्र तद-
वेव वदयत । तत उक्कः परिणामलक्तणाधकारः।
( ६ ) अधुना वर्णाधिकारमाह--
जीमूतनिद्धसंकासा, गवलरिडगसंनिभा ।
खजजणनयणनेभा, किण्दलसा उ वप्रा || ४॥
नलाऽसागसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा ।
वेरुलियनिद्धसकासा, नीललेसा उ वष्पश्रो ॥ ५॥
अयसीपुप्फसकासा, कोडलच्छद संनिभा ।
पारेवयगीवानिभा, काउलसा उ वष्प्रा ॥ ६ ॥
हिंगुलुयधाउसंकासा, तरुणाइचसनिभा |
+ 0 = = =
सुयत्तुडपइवनिभा, तउलसा उ व्पश्रा ॥ ७ ॥
ह।रयालभयसकासा, हालेदाभद सानमा ।
सणासणकुसुमानभा, पम्हलसा उ वष्पञ्मा ॥ ८ ॥
सखककुंदसकासा, खीरधारसमप्पभा ।
रययहारसंकासा, सुकलसा उ व्रा ॥ & ॥
` जीम्यनिद्धसकास ` त्ति प्राकृतत्वात् स्निग्धश्चासा स-
जलत्वेन जीमृतश्च-मघ्रः स्निग्धजीम॒तस्तद्वत्सम्यक काशत
चसातः प्रकशत दति स्निग्धजीमरतसङ्ाशा तत्सदशीति
यावत् , तथा गवले-महिषश्वरङ्ग रि्ठा-द्राणकाकः स एव
रिकः. यद्धा-रिष्को नाम फलविशषस्तत्सनिभा-तच्छा-
या. ` खजण ` त्ति खञ्जन-स्नष्टाभ्यज्गशकटाक्तघ्रषंणोद्धूत-
म् . अञ्जन च-कजल नयन-लाचनम् . इट चापचाराक्तदेक-
करृष्णसारस्तश्निभा-- तत्समा कृष्णल--
श्या, तुः-विशषण स चर शपलश्याभ्या वर्णकृते वि--
भिन्नक्रमश्च. ततः
ग्सादीन. णवमुत्तर-
वर्णत ण्व-वसमवाध्रिव्य न तु
0 24
अभिधानराजन्द्रः।
लमा
लसा.
आप । नीलश्वासावशाकश्चथ--ब्बुक्तविशषा नालाशाकस्त-
त्सङ्गाशा. रक्राशाकव्यवच्छृदाश्च च नीलविशषणम् , चासः-
पक्तिविशषस्तस्य पिचलछे-पतत्त्र तत्समप्रभा-तत्तत्यद्याति
स्निग्धा-दीम्ता वद्रया-माणिविशषस्तन्सङ्काशा तत्सदशी
पदविप्रययः प्राग्यत् , नीललश्या तु बरणता नीलति तात्प-
यम् | अतसी-धान्यवरिशापस्तत्पुष्पसङ्काशा, काकलच्छदः-
तलकणटकः, तथा च वृद्धसम्थरदायः- वगण्णाहिगार जा
एत्थ काडलच्छृदा सा तलकंटता भगणइ ` त्ति, कचित्त
पठ्यत च~ काइलच्छुवि ` तत्त, तत्र काकिलः-अन्यपुणएस्त-
स्यक्रुविस्तल्खानभा,
कन्धरा तत्निभा कपातलश्या तु वनः , किश्चित्कृष्णा
किश्विच्च लाहितात भावः. तथा च प्रज्ञापना--' काड-
लसा काललादितण बरणया साहिज्जइ `" त्ति । दिङ्कुलकः-
प्रतीता धातुः-पाषाणधात्वादिस्तत्सकड्राशा, तरुण इहामि-
नवादितः
तुगड--मुखे शुक्रतुग्ड तच्च प्रदीपश्च तन्निभा वा, पटान्ति
च-- खुयनुडालत्तदीवाभा `
सा ` द्वयमपि स्पष्टम , तजालश्या तु वरता रक्रति भा
वार्थ:। हरिताला-घातुविशषस्तस्य भदा दविधाभावस्त-
त्सङ्ाशा , भिन्नस्य हि चगीप्रकपां भवतीत भेदग्रहणम् ,
हारिद्रह पिरडदटारद्रा तस्याः भदस्तत्सनिभा, सणा-घा-
न्यावशपः असना-वीयकस्तयाः कुसुम तन्निभा. पद्मलश्या
तु वरतः पीतान गर्भार्थ: | शङ्कः-प्रतीतः, अङा-मणिविश-
चः कुन्दः-कुन्दकुखुम-तन्सङ्काशा, ्तोरे-दुग्ध तूलक-तूले
पाठान्तरतः पूरा वा-ज्नीरध्रवाहः . अन्य तु
पठन्ति तद्ग्रहणं तु भाजनस्थस्य हि तद्धशादन्यथात्वमपि
सेभवतीति तत्समप्रभा ,
चट्टा रथ: | उक्त० ३४७४ श]
(१०) विशपता वर्णाधिकारंः--
कणहलेसा शं भेत ! वन्नेण॑ केरिसिया पन्नत्ता ?, गो-
यमा! से जहानामए जीमूत इवा अंजणे इ वा
खंजण इ वा कज्जल इ वा गवले इ वा गवलए इ
वा जंबृफल इ वा अदागद्िपुप्फ इ वा परपुद्ृरवाभ-
मर इ वा भमरावली इ वा गयकलभ इ वा किण
कमर" इ वा आगासथिग्गल इ वा किण्टासोए इ वा |
कण्टकणवीरण इ वा कण्हबंधुर्जीवए इ वा,
तास्व ?
गा
भवे ए-
, गोयमा ! णो इणद्र समद्र , कणएरलेस्सा
` धारि ` त्ति |
रजत- रूप्य हारो-मुक्काकलाप- |
स्तत्सङ्काशा शुक्कलश्या तु वरतः शुङ्गाति हृदयमिति सूज- |
उत्ता अशिद्वयरिया चेव अकतयरिया चेव अप्पि- |
पारावतः--पक्षिविशेषस्तस्य ग्रीवा- `
आदित्यः स्यस्तत्सान्नभा, शुकः प्रसद्धस्तस्य |
अन्य तु' खुयतुडग्गसंका- |
यतरिया चव अमणुन्नतरिया चेव अमण।मतरिया चे- |
व वन्नगं पन्नत्ता । नीललेस्सा णं भतं ! केरिसिया वनने
शं पन्नत्त ?, गायमा | स जहानामए भिगए इ वा
भिगपत्त इ वा चम इ वा चासपिच्छए इ वा सुए
इ वा सुयपिच्छ
तए इ वा पारवयर्गीवा इ वा मर्गा
हर्वमण उ वा अयसिकुसम इ
वा हल-
वा वणकुसुमे इ वा
इ वा सामा इ वा वणराइ इ वा उचं- |
अजणकमियाकुसुमे इ वा नीलुप्पले इ वा नी- '
लासाए् इ वा नीलकणवीरए इ वा नीलवंधुजीवे इ
वा, भवेयास्व १, गोयमा ! णो इण समद्र, एत्तो°
जाव अमणामयरिया चव वन्नणं पन्नत्ता | काउले- .
स्सा णं भत! करिसिया वन्नणं पन्नत्ता
धमाससारणए इ वातवे इ वा तवकराड इ वा तेवच्छिवा- `
डियाए इ वा बाहगणिकुसुम इ वा काइलच्छदकुसुम इ वा `
जवासाकुसुम इ वा, भवेयारूवे ?, गोायमा ! णोड-
णद समद्ठ , काउलस्मा णे एत्ता अशणिट्टयरिया च- `
व॒°जाव अमणामयरिया चव । तउलस्सा णं भत ! .
केरिमिया वन्नेण पन्नत्ता ?, गोयमा ! स जहानामए ससस `
हिरए इ वा उरन्भरुहिरे इ वा वराहरुहिरे इ वा संवररूहिरे
इ वा मणुस्सरुहिरे इ वा इंदगोपइ वा बालंदगपे इ वा
वालदिवायरे इ वा संभाराग इ वा गुजद्धराग इवा ,
जातिहिंगुले इ वा पवालंकुरे इ वा लक्खारसे इ वा
लोहितक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालु-
एइ वा चीणपिट्टरासी इ वा परिजायकुसुमे इ वा
जासुमणकुसुमे इ वा किसुयपुष्फरासी इ वा रत्तप्पले
इ वा रत्तासोग इ वा रत्तकणवीरण इ वा रत्तवंधुय- `
जीविए इ वा, भवेयास्वे १, गायमा ! णो इण्ट
समद्र | तउलसा णं एत्ता इट्ठतारिया चव ०जाव म~.
णामतरिया चव वन्नणं पन्नत्ता | पम्हलसा णं भते !
केरिसिया वन्नेण पन्नत्ता, १, गोयमा ! से . जहानाम-
एचपे इवा चपयछल्ली इ वा चंपयभेदे इ वा हा-
लिदा इ वा हालिदगुलिया इ वा हालिदभेदे इवा ह
रियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालमेद् इ वा
चिउर इ वा चिउररागे इ वा सुवन्नसिप्पि इ वा वरकणग्- |
णिहसे इ वा वरपुरिसवसणे इ वा अन्नइकुसुमे इ वा चपयङ्क-
सुमे इवा करिणियारकुसुमे इ वा कुहंडयकुस मे इ वा सव
घ्जुहिया इ वा सुहिरन्नियाकुसुमे इ वा कोरिंटमन्नदामे इ-
वा पीतासाग इ वा पीतक्रणर्वर इ वा पीतबंधुजीवए
इ वा, भवयास्वे ? गायमा ! णो इणद्र समद्र, प-
लस्सा णं एत्तो इदतरिया० जाव मणामयरिया
चव वन्नेणं पन्नत्ता | सुकलेस्सा शं भते ! केरिसिया
वन्नणं पन्नत्ता १, गायमा ! से जहानामए अके इ
वा संख इवा चद इवा कुंद इवा दगे इवा द्
गरए इ वा दधौ इ वा दहिघणे इ वा खीरे इ वा
खीरपूरणए इ वा सुकच्छिवाडिया इ वा पहुणमभिजिया इवा
धरतधोयरुप्पपड इ वा सारदब॒लाहए इ वा कुमुददले इ वा
पोंडरीयदले इ वा स/लिपिट्टरार्सीति वा कुडगपुष्फरासी ति
कं
गोयमा!{ _
स॒ जहानामए खदिरसारण् इ वा कइरसारए इवा
७ ७ ~
नकः
ऽ
| र
लसा अ,
वा सद्वारमल्लदाम इवा सयाउसाए इ वा सयकणवार इ
वा सतवेधुजीवए इ वा , भव्रेयाख्वे ? , गोयमा !
नो उणद्र समद्रे, सुकलसा णं एत्तो इदरतरिया चव
मणुप्मयरिया चव वन्नर्ण पन्नत्ता । ( सू० २२६०८)
कणहलस्सा णे भत ! वरणण कौर्रासया पन्नत्ता ` इत्या-
दि. कष्णद्रव्यात्मिका लश्या कृष्णलेश्या,कृष्णलेश्यायाग्यानि
द्रव्याणि इत्यथः, तपामव वर्णादिसम्भवात् नतु ऊष्णद्रव्य-
जनिता भावरूपा कृष्णलश्या. तस्या वर्णाद्ययोगात् , भदन्त !
कीटशी वर्णन प्रज्ञप्त ?.भगवानाह-गोतम ! स लाकप्रसिद्धा
यथानामका--जीमूत
चह प्रात्रटप्रारम्भसमयभावी जलभ्रता
प्रायो इईतिकालिमसम्भवात् . इति शब्द उपमानभूतवस्तुना-
मर्पारिसमा्निदययातकः, वाशब्द उपमानान्तरापक्तया समुच्चय
एवं सर्वत्र इतिवाशब्दो द्रव्यो, अञ्जनम्--सोवीराञ्जनम्-
ईति वा-जीमूता--वला स
वदितव्यः, तस्येव '
रत्नाचशषषा चा खञ्जनम-दापमाज्ञकामलः स्नेहाभ्यक्कशकटा- |
च्षश्रषणाद्ध वामत्यपर कज्जलम- प्रतातम् गवलम-माहपष
ग्गृङ्ग तदपि च उर्परितनत्वग्भागापसारण द्रष्व्यम्, तत्रेव |
विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात् , जम्बूफले प्रतीतम् , अरि
शकं फलावशषः परपुष्टः-काकिलः श्चमरः-चश्चरिकः भ्म
रावलिः- भ्रमर पङ््गिः गजकलभः करिपातः रृष्णकेशरः-
छृष्णवकुलः आकाशथिग्गल-शरदि मघापान्तरालवत्या-
काशखराडम् , तदापि हि अतीव कृष्ण प्रतिभाति इत्युक्तम् ,
छृष्णाशाकरूष्णकणवीर कृष्णबन्धु जी वाः--अशो कक ण वी र --
वन्धुजीवाः वृत्तविशषाः, अशाकादया हि जातिभदेन पश्च-
चणा भवन्ति ततः शपवरीव्यदासाथ कृष्णग्रह णम् , एताव-
त्युक्र गोतम आह--` भव एयारूवा ? ` भगवन् ! भवत्
कृष्णलेश्या वर्णन एतदपा ?, भगवानाह- गोतम ! नायमर्थः
समथेः-नायमश् उपपन्नः, एतद्रपा कष्णलश्यति, किन्त ?
सा कृष्णलश्या इता जीमूतादेः कृष्णन वरन अनिष्टतारिका
चव इयमानिण्टा इयमनयामध्य ऽतिशयनानिष्रा श्रनिषएरतरा
अनिष्टतरेवानिष्टतरिका अनीप्सिततारिका पर्वात भावः। इद
किञ्चिदनिष्रमपि स्वरूपतः कान्तं भवति ततः कान्तताव्यु-
दासाथमाद-अकान्ततरिकेवः किञ्चित्केषाञ्चिदनिषएटमपि स्व-
रूपता $कान्तमपि अपरेषां प्रियं भवति ततः सर्वथा परिय-
। ताव्युदासार्थभाह-अआप्रियतारिकेव, अत एवामनाज्ञतरिकेव,
वस्तुतः सम्यक् परिज्ञान सति मनागप्युपादयतया तत
मनसः प्रवृत््यसंभवात् , अ्रमनाज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यम भव-
ति ततः प्रक्ृष्टतरप्रकषविशषप्रतिपादना थमाह--अमनआ-
पतारकव, मनास आप्नाति--आत्मवशतां नयतीति मन-
श्रापा न मनआपा अमनआपा, तता द्वयाः प्रकर्ष तरप्
वभूता वर्णन प्रज्प्ता । ` नीललसा रे भत ! ` इत्यादि,
अक्षरगमनिका प्राग्वत् . नवरं भङ्गः पक्तिविशषः पच्मलः
भृङ्गपत्र- तस्यव पक्तिविशपस्य पचम, चासः- प्तिचिराषः
^ चासापच्नं ` चासस्य पतन्तं शुकः--कीरः ' शुकापच्छे '
शकस्य पतत्तर श्यामा-प्रियङ्कुः वनराजी -प्रतीता उचचन्तको
दन्तरागः , आह च मृलटीकाक्रारः-
॥7 भन्द्
उच्चतगा दन्त-
पारावतग्रीवा मयूरग्रावा च सप्रताता
हलघरा--बलद॒वः तस्य वसनं वस्त्र हलधरवसनम
“इत्यादि
( ६८३ )
श्भिधानराजन
त्मा
ताद्ध नालं मवतीन्युपात्तम . अतसमीकुसुम वणवृतक्तषकसुमं
च प्रतीतम् . अञ्जनकांसका--चनमस्पतिांचशषः तस्याः कु-
सुमम् अञ्जनकासकाकुखुमं नीलान्पलम-- कुवलये नीलाशा-
कनीलकरवीरनीलवन्धुजीवा--अशाकादिव्र्नांवशपाः 'का-
उलस्साण भत ! ` इत्याद. अन्राप्यक्षरगमानका प्राग्व-
त्, खदिरसार धमासासारश्च लाकप्रतीतः ` तव इ वा
तवकराडण इ वा तव्छर्वाडया इ चा ` इति सम्ध्रदा-
यादवसयम् . दृुन्ताकीकुसमं प्रतीते 'काइलच्छुदकुसमए इ
वा इति- काकिलच्छदः-तलकरटकः. तथा च मूलरीका-
कत--वन्नाहिगार जा एत्थ काइलच्छुदा सा तिलकंटओं
भन्नइ ` इति, तस्य कुसुम प्रतीतम ` तउलस्सा ण भत! `
, शशकारश्रवराह मनुष्यरुधिराणि शपरूधिर भ्या
लाहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत पतपामुपादानम् , वालन्द्र-
गोपकः--सद्या जात इन्द्रगापकः , स हि प्रचरद्धः सन ईप-
त् पारडुरक्तका भवति तता बालग्रहणम . इन्द्रगापकः प्रा-
चुट्प्रथमसमयभावी कीटॉविशषः, वालदिवाकरः-प्रथम-
मुटच्चन सूयः , गुञ्रा-लाकप्रतीता तस्या अधरागो गु-
ज्ञाधरागः , गुज्ञाया हि अधर्मातरक्ल भवति अर्थ चाति-
कृष्ण॒मिति अधग्रहणम् , जात्यः-प्रधाना दिङ्कलका जात्य-
दिङ्कलकः प्रवालः-शिलादल तस्याङ्करः प्रवालाङ्करः,स हि
प्रथममुद्नच्छुन् अत्यन्तरक्ला भवाति ततस्तदुपादानम् , ला-
त्तारसः-प्रतीतः , लाहिताक्षमणिः--लाहिताक्षनामा रत्न-
विशपः छमिरागण रक्कः कम्बलः कृमिरागकम्बलः, शा-
कपाधिवादिद्शनान्मध्यमपदलापी समासः, गजतालुचीन-
पिष्टराशिपारिजातकुसुमजपाकुसुम किशुकपुष्पर्गाशिर क्वा त्प-
लरक्राशाकरक्ककणवीररक्कवन्धुजीवा लाकप्रतीताः ` भवे ए-
यारूवा ` इति पदयाजना प्राग्वत् , भगवानाह-गोतम !
णा इणट्ट सम ` यतस्तजालश्या इतः-शशकरुधिरादिशभ्या
लोहितन वरीनएतरिकव. तत्र किंञ्दकान्तमपि कषांचि-
दिष्रतर भर्वात ततः कान्ततरता्प्रातपादनाशथमाद-कान्त-
तरिकेव, कपाञ्चिदिषएरतरमपि स्वरूपतः कान्ततरमप्यपर-
घामप्रिये भर्वात ततः प्रियतरताप्रतिपच्यथमाद-प्रियतरि-
क्व , अत एव मनाज्ञतरिका . मनाज्ञतरमाप किञ्चिन्म-
ध्यम संभवदतः प्रकृष्ठतरप्रकर्षविशषप्रतिपादनार्थमाह-म-
नआपतरिकेव वर्णन प्रज्ञप्ता । `
पम्टलस्सा र भत ! ` इत्या-
दि, अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं चम्पकरः-सामान्यतः
सुवर्णचम्पका-वृत्तविशषः ` चम्पकछल्ली वा ` इति खुब-
रचम्पकत्वक् ` चम्परकभण इ
भदा द्वघामावः , भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षो भवाति तता भे-
दग्रदणम् , दरिद्रा इद पिरडटरिद्रा हरिद्रागटिका-हरिद्रा-
निवत्तिता गुटिका हरिद्वाभदा-हरिद्राया देधीभावः हरि-
ताला-घातुविशषषः हदरितालगुटिका-हारितालमयी गुटि
का हरितालभंदो-हरितालच्छदः चिकुरः-पीतद्रव्याचिरापः
चिकुररागः-तन्निप्पादिना वखरादो रागः ` खुबन्नसिष्पी इ
वा ` इति खवसामयी शुक्तिका. वरम-प्रधान यत्कनक तस्य
निकपः-कपपटरक रखारूपरः वरकनकानिकषः वरपुरुपः-वा-
खद्रवस्तस्य वसने-वस्त्रे वर्पुरुपवसने तद्धि परीत भवनी-
युपात्तम . अल्लकीकुसुमं लाकता 5बसय॑े चम्पककसम-सव-
खुत्रम्पकवृक्षपुप्पम् ' कन्नियारकुसम इ वा
वा ` इति खुवर्णचम्पकस्य
इति काञ्चनार-
( ६८४ )
अशिधानराजन्द्रः।
लेमा
ककुसुम कृष्मारिडकाकुखुमं-पुष्पा ( पुस्फ ) लिकापुष्पं खु-
रयूथिकाकुखुम प्रतीतं सुहिरगियका-वनस्पतिविशषस्त-
स्याः कुखुमे कारगटकमाटयदामपीताशाकपोातकणवारपी-
नवन्धु जीवाः प्रतीताः । ' सुकलसा रा मत ` इत्यादि , अ-
आधप्यक्तरगमनिका प्राग्वत् , नवरमड्ला-रत्नविशषः शङ्ख-
चन्द्रौ प्रतीतो कुन्द-कुखुमं दकम्-उदकं उदकरजः-उदक-
कणाः. त हि अतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः , दधि-प्रतीतं
दधिध्रना दधिपिरडः क्षीरं-प्रतीत॑ क्तारपूर-क्थ्यमानम् अ-
तितापादृध्व गच्छत् क्तीरम् .' सुक्कच्छिवाडिया इ वा ' इति
द्विबाडः-वल्ञादिफलिका साच शुष्का सती किलातीव
शुक्रा भवतीन्युपात्ता 'पहुणाभजिया इ वा! इति पेहुणं-मयू-
रापच्छुं तन्मध्यवांत्तिनी मिज्ञा पिहणमिञ्जा सा चातीव शु-
कत्यभिदिता ` थेतधायरूप्पपट्ट इ वा ` इति ध्मातः अ-
झिसम्पकंतो निमेलीकृतः धौतो भूतिखरणिटतहस्तसम्मा- |
जननातिनिशितीछता यो रूप्यमयः पटः स ध्मातधोत- |
रूप्यपट्टट, * सारदइयवलाहगे इ वा `
त्कालभावी वलाहकः पुरडराकम्-सिताम्बुजं तस्य दल
इति शारदिकः-शर-
पत्र पुरडगीकदले शालिपिपष्टराशिकुटजपुष्पराशिसिन्दुवा- |
रमास्यदामश्वताशाकश्वतकगवीरष्वतवन्धु जीवाः प्रतीताः |
ग्रज्ञा० ७ पद ।
(११) कृष्णादिलश्याकनारकाणां स्थित्या ऽर्पमदच्वम्-
मिय मंत ! कणहलेसे नेरइणए अप्पकम्मतराए नील-
लय नेरइणए महाकम्मतराए १, हंता सिया, से केणट्वेण एवं
बुचई-कण्टलमे नरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नरइए |
गायमा ! ठिति पहुंच, से तेण्टरणं |
मटाकम्मतराए १,
गायमा ! °जाव महाकम्मतराए । सिय मंते ! नीलले
नरहए अप्पकम्मतराए काउलसे नरइए महाकम्मतराए ?,
हंता सिया, से केणट्रणं भते ! एवं वुच्चति-नीललेसे नरइए
अप्पकम्मतराए काउलमे नरहए महाकम्मतराए १, गा-
यमा ! ठिति पड़च्च | से तेणडणं गोयमा ! ° जाव महा- |
कम्मतराए । एवं असुरकुर्मांर वि, नवरं तउलसा अब्भ- |
हिया एवं ०जाव वमाणिया, जस्स जत्तिया लेसाओ तस्स |
तत्तिया भाणियव्वाओ जाइसियस्स न भन्नइ, ०जाव
मिय भते! पम्हलेस वेमाणिए अप्पकम्मतराए सुकलेसे
वेमाणिए महाकम्मतराए ?, हता सिया से केणट्विणं०
ससं जहा नरइयस्स ०जाव मदाकम्मतराए | ( स्ू० २७८ )
` सिय भत ! कशहलस नरइए ' इत्यादि, ' ठाति पड्् `
लि, अत्रेय भावना-सप्तमप्रृथिवीनारकः कृष्णलश्यस्तस्य ।
च स्वास्थिनो बहुक्तपितायां तच्छुष वतमान पश्चमप्राथिव्यां
सप्तदशसागरापमस्थितिनारका नीललश्यः समुत्पन्नः, तम- |
पच्य स कृष्णलष्टया ऽल्पकमा व्यपदिश्यत, एवमुक्तरसृत्रा-
गर्याप भावनीयानि । ` जाइसियस्स न भजन्नइ ` त्ति एकस्या
प्व तजालश्यायास्तस्य सद्भावात् सेयागा नास्तीति । भ०
\७ श० ३ उ०।
(६५) इह वर्णाः पञ्च भवन्ति, तद्यथा-कृष्णा नीला ला-
हिता हार्द्रिः शुङ्कश्च, लश्याश्च षर् , तत उपमानता वर्णान
दंशे कृतेऽपि सशयः का लश्या कस्मिन्वरी जवति ? ततः
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पृच्छति--
एयाग्रो णं भत ! छल्लेसाओ कडसु वन्नसु सादिज्ञं-
ति १, गोयमा ! पंचसु बन्नेसु सादिज्ञति, तं जहा-कणह-
लसा कालए णं वन्नर्ण साहिजञति, नीललस्सा नील-
वन्नेणं साहिज़ति, काउलस्मा काललोहिएण वन्नेणं सा-
दिज्जति, तेउलस्सा लोदिणएणं वन्नणं॒साहिजति, पम्ह-
लस्सा हालिदएगा वन्नेणं साहिजइ सुक्कलस्सा सुक्किन्न-
एणं वन्नणं साहिजजति । ( सू० २२६ ) |
` एयाच्नो णे भत ! ` इत्यादि, एता अनन्तरादिता भदन्त !
चड़ लेश्याः * कइसु वन्नसु ` त्त प्राकृतत्वात् ठतीया्थे स~
समी यथा-' तिसु तसु अलक्रिया पुढवी ` ( त्रिभिस्तैर-
लेता पृथ्वी ) इत्यत्र, तता5यमथ्थः--कतिभियवर्णः ` खान
हिति ` कथ्यन्त प्ररूप्यन्त इंति यावत् , भगवानाह-गो-
तम ! * पंचसु वन्न ` इति पश्चभिवर्णें: शिष्यन्त यथा शि-
ष्यन्त तथा तद्यथा इत्यादिना दशयति । उक्ता वरपरिणामः।
( १३ ) सम्प्रति रसपरिणाममभिधित्खुराद--
कणहलेस्सा णं भत ! केरिसिया आसाएण पन्नत्तां १,
गोयमा ! स जहानामए निवे इवा निवसार इ वा निंबछल्नी
इ वा निंबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा कुडग-
र्व इ वा कुडगफाणिए इ वा कड़गतुवी इ वा कडगतुबि-
फृले इ वा खारतउसी इ वा खारतउसीफले इ वा देवदालीति
वा देवदाली पुप्फे इ वा मिगवालुकी इ वा मियबालुकी-
फल इ वा घोसाडिए इ वा घासाडिफल इ वा कणह-
कंदए इ वा वज़कंदए इ वा, भवेयास्मे ?, गोयमा ! शो
इणद्रे समद्र, कण्लसा णं एत्तो अशणिट्टतरिया चव °जाव
अमणामयरिया चव आसाएणं पन्नत्ता, नीललेसाए पु-
च्छा, गोयमा ! स जहानामए भर्गाति वा भगीरए इ वा
पाढा इ वा [ चविया इ वा ] चित्तामूलए इ वा पिप्पली
इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलीचुष् इ वामिरिए इ वा
मिरियचुप्मए इ वा सिंगंबरे इ वा सिंगवरचुष इ वा, भवेयारू-
व, गोयमा ! णा इणद्ठे समद्र, नीललेस्सा श एत्तो ०जाव
अमणामतरिया चैव आसाएणं पन्नत्ता, काउलेस्साए-
पुच्छा,गोयमा ! से जहानामए अवाण वा अवाडगाण वा मा
उ्लिगाण वा विज्ञाण वा कविद्धाण वा [ भज्ञाण वा फणसा
। ।
धन १ ^ अ वकष
ण वा दाडिमाण वा पारेवताण वा अक्खोडयाण वा बा |
राण वा तिदूयाण वा अपक्राणं अपारवागाण वन्नण अणुव- |
वेयाणं गधरं अणुववेयाणं फासं अणुववयाणं, भवेया-
स्वे ?, गोयमा ! णा इद्र समद्र, °जाव एत्तो अमणा-
मयरिया चव काउलस्सा अस्साएणं पन्नत्ता | तउले-
स्सा णं पुच्छा, गोयमा ! स जहानामए अवाण वा पक्का- |
णं पारयावन्नण उववयाण पसत्थण
०जाब फ़ासणं `
( ६८५ )
लेसा
अभिधानराजन्द्रः ।
०जाव एत्तो मणामयरिया चव तेउलेस्सा आसाएण
पन्नत्ता । पम्हलस्साए पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए
चदप्पभा इ वा मणसिला इ वा वरसीधू इवा वरवारू-
शी इ वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवेइ वा फलासवे इ वा
चोयासवे इ वा आसवे इ वा महू इ वा मरण इ वा क-
विसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा
सुपकखोतरसे ३ वा अटटटापड्आाणाइया इ वा जबुफलकाल- |
या इ वा वरप्पसना इ वा [ आसला ] मसला पेसला
ईसिं ओड्वलंबिणी इसें वोच्छेदकडुई ईसि तंबच्छिकर-
शी उकोसमदपत्ता वन्नेणं उववेया० जाव फांसण आ-
सायणिज्ञा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विंहणिज्ञा दी-
वशणिज्जा दप्पणिज्जा मदणिज्जा सब्वेदियगायपल्हाय- ।
णिज्जा, भवेयारूवा !, गोयमा ! शो इणट्टे समझे पम्ह-
लसा एत्तो इट्डृतरिया चव ०जाव मणामयरिया चव
आसाएगण पन्नत्ता | सुकलेसा णं भते ! केरिसिया आ-
साएणं पन्नत्ता , गोयमा ! से जहानामए गुले इ वा
खंड इ वा सकरा इ वा मच्छेडिया इ वा पप्पडमादए इ
वा भिसकेदए इ वा पुष्फुत्तरा इ वा पडमुत्तरा इवा आ-
दंसिया इ वा सिद्धत्थिया इ वा आगासफालितोवमा इ
वा उवमा इ वा अणोवमा इ वा, भवेतास्वे १, गोयमा
णो इणट्ठे समद्र, सुकलस्सा एत्तो इटरतरिया चव पियत- |
रिया चव मणामयरिया चव आसाएणं पन्नत्ता ।(पू०२२७)
* कणहलसा णा भते !` इत्यादि, प्रश्नसूत्र खुगमम् , भग-
चानाह- गोतम ! स लोकप्रतीता यथानामको निम्बोा-चृत्त |
विशषः निम्बसारो-निम्बमध्यवत्यवयवविशषः, निम्बछु- |
ज्ञी-निम्बत्वक् निम्बफाणितम्-निम्वक्राथः कुटजो--त्र- |
ज्षविशेषः तस्येव फल कुटजफल तस्येव त्वक् कुटजछज्नी |
तस्येव कार्थ--कुटजफाणितं कटुकतुम्बी प्रसिद्धा तस्या
एवं फले कटुकतुम्बीफलम् , खारतउसी' ति खार शब्दः क-
डुकवाची तथाऽऽगमे अनेकधा प्रसिद्धेः, ततः कटुका त्रपु- |
धी क्तारत्रपुपी तस्या एव फल क्षारत्रपुषीफल देवदाली-- |
राहिणी तस्या एव पुष्प देवदालीपुष्पे खगवालुङ्ी-लोक- |
तो5वसेया तस्या एव फलं,म्तर॒गवाल॒ड्लीफल घोषातकी प्रसि- |
द्धा तस्या एव फलं घाषातकीफल क्ृष्णकन्दो--वज्ञकन्द- |
श्वानन्तकायवनस्पतिविशेषौ लाकतः प्रतव्यो, एतावति
इक्क गोतम, पृच्छति- भगवन् ! भवेत् रसतः कृष्णलेश्या |
पतद्र पा-निम्बादिरूपा 2, भगवानाद-गोांतम ! नायमथः स-
मथः
तरिकैवेत्यादि प्राग्वत् । ' नीललेसाए ' इत्यादि, भद्गी--व-
नस्पतिविशषः तस्या पव रजो भङ्गीरजः पाठा-चिजमूलके |
ल्लाकप्रतीप्ते पिप्पलीपिप्पलीमूलपिप्पलीचूणर्णमरिचमरिच-
चृशषशङ्गवेरशरङ्गवेरचुरणान्यपि प्रसिद्धानि । 'काउलेस्साप' इ |
त्यादि, आघ्राणां फलानामेवे सर्वन्रापि भावनीयम् * अबा- |
डयाण वा ` इति श्राघ्रारकाः-फलविशेषाः मातुलिङ्गविल्व-
चै.पित्थपनसदाडिमानि प्रतीतानि पारावताः--फलविशषाः
१७८
यतः कृष्णलेश्या इतो--नम्बादरसमाधरृत्यानए्ट- |
लेसा
अत्ताडवृत्तफलानि अक्षाडानि वारव्रत्तफलानि बाराणि--
बद्राणि तिन्दुकानि च प्रतीतानि, एतेषां फलानामपक्रा-
नाम्, तत्र सर्वथाऽपि अपके फलमुच्यत तत आहर--
श्रपरिपाकानां न विद्यते परिपाकः-परिपूर्णः पाका
यषां तान्यपरिपाकानि तेषामीषत्पक्रानामित्यथः , एत--
देव बकछादिभिः कथयाति-वर्णनातिविशिष्टन गन्धन प्राण-
न्द्रियनिर्वृतिकरेण स्पेन विशिष्टपरिपाकाविनाभाविना
श्रनुपपतानाम्-श्रसम्प्रा्तानां यादृशो रसः, श्रत्र गोतम
पृच्छति--एतद्रपा-पवरूपरसापता भवत् कापातलश्या ?
भगवानाह-गोतम ! नायमर्थः समर्थः, कि तु इतः--अप-
रिपक्राश्रफलादरनिष्टतारकवत्यादि प्राग्वत् ॥ * तउलस्सा
रो भते ! ` इत्यादि, तामेव आम्रफलादीनां पक्कानां
तत्रेषद्यत् किमपि पक्क लोके पक्त व्यर्वाहयते तत आह-
प्यायापन्नानां-परिपूरपाकपयाय प्राप्तानाम् , एतदव वणादि-
भिर्निरूपयति-- वर्णेन प्रशस्तन-पकान्ततः प्रशस्यन तथा
प्रशस्तेन गन्धन प्रशस्तेन स्पर्शनोपेतानां यादृग् रस
पतावल्युक्ते गोतम श्राह--रसमधिृत्य एतद्रपा-पक्काम्ना-
दिफलरूपा तेजालश्या भवत् ? , भगवानाद- नायमथः
समशः, कि तु- परिपक्राश्रफलादारण्रतरिकेवत्याद भ्रा
ग्बत् ` पम्हलेसाए पुच्छा ` सृत्रपाठाऽच्तरगमानका च
प्राग्वत् , नवरं ' स जहानामए ` इति सा लोकप्रसिद्धा
यथा-येन प्रकारेण नाम यस्याः सा यथानामिका पु
स्त्वं सूत्रे प्राकृतलक्षणवशात् , प्राकृत हि लिङ्गमनियत
यदाद पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षण--' लिङ्ग व्यामचाथपां
ति ` चन्द्रप्रभा इति वे ' ति चन्द्रस्यव प्रभा--आका रो
यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशिलाकेव मणिशिलाका वर
च तत् सीधु च वरसीधु वरा चासौ वारुणी च वर-
वारुणी पत्रेः--धातकी पन्ने निष्पाद्य श्रासवः पत्रा ऽऽसवः एव
पुष्पासवः, फलासवश्च परिभावर्न/यः, चोयो-- गन्धद्रव्यं त
न्निष्पाद्य श्रासवः चोयासवः, पत्रादिविशषण व्यात-
रिक्क श्रासव श्रासव इति गीयते, मधुमेरककापिशाय-
नानि मद्यविशेषाः , मूलदलखजूरसार निष्पन्न श्रासवः
खजूरसारः, म॒द्वीका-द्वाक्षा तत्सारनिष्पन्नो मरद्धीकासार
खुपक्च्चुरसमूलदलनिष्पन्नः--खुपक्च्चुरस अष्टभिः शास्प्रप्र-
सिद्धेः पिष्टः निष्ठिता अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बृफलवत् का-
लव कालिका जम्बृफलकालिका वरा चासो प्रसन्ना च
वरप्रसन्ना, एते सर्वैऽपि मद्यविशषाः पूर्वकाले लोकप्र-
सिद्धा इदानीमपि शाखरान्तरतो लोकतो वा यथास्व-
रूपं वदितव्याः; वर्रसन्नाविशषणान्याह-मांसला--उपचि -
तरसा पेशला--मनोज्ञा मनोज्ञत्वादेव दंषत्- मनाक् ततः
परम्परमास्वादतया भकरिव्यवाग्रतो गच्छति श्रो ऽवलम्ब-
9
त--लगतीत्यव॑ शीला ईषदोष्ठावलाम्बिनी तथा ईषत्--म-
नाक पानव्यवच्छेदे सति तत ऊध्व कटुका पलादिद्रव्य-
सम्पकतः उपलच्यमाणतिक्रवीयँति यावत् तथा इषत्-म
नाक ताम्र श्रत्तिणी क्रियते श्रन्येति ईषत्ताप्राक्षिकरणी
मद्यस्य प्रायः स्ैस्यापि तथाखभावत्वात् 'उक्कोसमयपत्ता'
इति उत्कर्षतीति उत्कर्षः स चासो मदश्च उत्कधमदः
ते प्राप्ता उत्करधरमदप्राप्ता, पतदेव वर्णादिभिः समर्थयते-
वर्णनात्कृष्टमदाविनाभाविना प्रशस्यन गम्धेन घ्राणेन्द्रिय-
नि्ृतिकरेण रसन परमसुखासिका जनकन स्पेन मद-
\
लखा
परिपाकाव्यभिचारिणा अत एवास्वादनीया
स्वादनीया विस्वादनाया प्रोणयसीएति प्रीणनोया
वुल ” मिति वचनान् कर्तयनीयप्रत्ययः. णव दप्पय-
तीति दष्पणीया मदयतीति मदनीया सवाणीन्द्रियाण
सर्व च गाअ्र प्रह्लादर्यात इति सर्वान्द्रयगात्रप्रह्ादनीया
एतावत्युक्के भगवान गौतम आहर' भवयारूवा ` भगवन !
१) कद्
विशेषतः |
णतद्रपा-एवरूपरसापता पद्मलश्या भवत् । भगवानाद-- |
* ना इणढट्ठे समद्र ' इत्यादि प्रात् ॥ ' खुक्कलेस्सा णं भ-
त! ` इत्यादि , गुडखग्ड प्रसिद्ध शकरा-काशादिप्रभवा
मत्स्यराडी-खगडशकररा पपटमादकादयः सम्प्रदायादव-
सयाः , शपे खुगमम् ॥ तदेवमुक्तो लश्याद्रव्याणां रसः । ,
प्रज्ञा० १७ पद् ४ उ० ।
सम्प्रति प्रकारान्तरण रसमाह--
जह कडुय(य)तुवररसोा, निबरसो कडयराहिशिरसो वा |
इत्तो वि अणंतगुणों, रसो उ कणहाइ नायव्वो ॥१०॥
जह तिकइयस्स य रसो, तिक्वोा जह हत्थिपिप्पलीए वा। |
इन्तो वि अ्रणंतगुणो, रसो उ नीलाइ नायव्यो ॥११॥
लह तरुणश्रवयरसो, तुवरकवित्थस्स वावि जारिसओं |
इत्तो वि अणंतगणो, रसो उ काऊइ णायव्यों ॥१३॥
जह परिणयंवगरयो, पक्रकवित्थस्स वावि जारिसओ |
इत्तो वि श्रणंतगुणो, रसो उ तेऊइ नायव्वो ॥ १३ ॥ |
वरवारुणीह व रसो, विविहाणं व आसवाण जारिसओ |
महुमेरगस्स व रंसो, इत्तो पम्हाइ परणएणं ॥ १४ ॥
खज्जूरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसकररसो वा ।
इत्ता उ अरणंतगुणो, रसा उ सुकाइ नायव्वो ॥ १५॥
' यथे ` ति सादृश्य ततश्च यादक् कटुकतुम्बकस्य रसः-
श्रास्यादः कटुकतुम्बकरसः निम्बरसः-- प्रतीतः कटुका
चासो रोहिणी च त्वग्विशषः कठुकराहिणी कटुकत्वाव्य-
भिचारित्वेऽपि तद्रिशषणमतिशयसख्यापकं तद्रसा वा, ओ-
पयीविशषा वा कटुकेह ग्रह्मत, ` यथ ` ति सर्वेत्रापक्षत,
इताऽपि कटुकतुम्बकरसादेरनन्तन--श्रनन्तराशिना गुणनं
गुणो यस्यासावनन्तगुणा रसस्तु-त्रास्वादः कृष्णायाः-
कष्णलश्यायाः-ज्ञातव्यः-श्रववाद्धव्यः, श्रतिकट्ुक इति ता-
त्पयम् । यथा--यादशः चिकदटुकस्य-प्रसिद्धस्य रसस्ती-
चंगाः-क टुर्य था हस्तिपिप्पल्या खा-गजपिप्पल्या वा, अनो 5-
प्यनन्तगुणों रसस्तु नीलाया: ज्ञातव्यो ए्रतिशयतीच्ण इति ह-
दयम् । यथा तरुणम-अपरिपक्क तच्च तदाप्रक च-श्राप्रफल
नद्रसः.तुचरम-सकप्रायम् , पाठान्तरतः-अ्ाद्रत्वाद् , उभयत्र
चाश्यादपक्रं तच्च तत्कपिन्ये च--कपिन्थफले तस्य, वा--
विकल्प, उपिः-पूरणा, यादशका रस इति प्रक्रमः । अतो-
ऋधसिधानराजन्द्रः
प्यतन्तगुणो रसस्तु ' काऊए ' त्ति कापाताया ज्ञातव्यः, अ- |
निशयकपाया इत्याशयः । यथा परिणत-परिपक्रं यदाश्रकं
तद्धसः पक्रकरपित्थस्य वाऽपि यादहशको रसाऽनाऽप्यनन्त
गुणा रसस्तु ' तऊए ` त्ति तजालश्याया ज्ञातव्यः, आम्लः
किञ्िन्मधुरश्चत्यदम्पयम । वरवारुणी-प्रधानखुरा तस्यावा
ग्सो याहशक इनि यागः, विविधानां वा-नानाप्रकारा-
शाम् श्रासवानाम -पुष्प्रसवमदयानां वा यादशका रस
(८)
४ + |
रति सम्बन्धः, ` महुमेरयस्स व रसो ` त्ति मध्ु-मद्वि- _
शष( मरय-सरकस्तयाः समाहारे मधुमेरेय तस्य वा रसौ
यादशका ऽता वरवारूरया दिर सात्पद्मायाः प्रकमाद्रसः' पर-
कणो ` ति अनन्तानन्तयुणत्वात्तदातक्रमण वत्तत इति ग~
म्यत, अयं च किञ्चिदम्लकषायो माधुर्यवांश्राति भावनी-
यम् , पाटान्तरतो $प्यनन्तगुणो रसस्तु पद्मायाः ज्ञातव्यः |
खजूरं च--पिराडखजूरादि मद्धीका च-- द्राक्षा एतद्रसः
तथा त्षीररसः-- प्रतीतः खण्ड च-इक्चुविकारः शर्करा
च--काशादिप्रभवा तद्रसो वा यादृश इति शषः, अतो5प्य-
नन्तगुणा रसस्तु शुक्काया ज्ञातव्या ऽव्यन्तमधुर इति गर्भ
इति सूत्रषट् काथः । उत्त० ३४ आ०।
( १४ ) सम्प्रति लश्यानां गन्धमाह--
कड् णं भते ! लस्साओ दुब्भिगंधाओ पन्नत्ताओ १,
गोयमा ! तओ लस्साओ दृब्भिगंधाओं प्पत्ताञ्रो, तं
जहा-कण्हलेस्सा नीललस्सा काउलस्सा । कई शं भते !
लस्साओ सुब्मिगंधाओ पन्नत्ताओ १, गोयमा ! तओ
लस्साओ सुब्भिगंधाओ पप्मत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा
पम्हलस्सा सुक्कलेस्सा । ( सू० २२८ +)
"कड रा भत! इत्यादि,सुगमम्। नवरम्-रृष्णनीलकापोतले-
श्या दुरभिगन्धाः सतगवादिकलवरभ्योऽप्यनन्तयुणद्र-
भिगन्धापतत्वात् , तजःपद्मश॒क्गलेश्याः खुरभिगन्धाः पि-
प्यमाणगन्धवाससुरभिकुखुमादिभ्या ऽनन्तगुणपरमखुरभि--
गन्धापतत्वात् । प्रज्ञा० १७ पद् ।
कीटग्गन्धः लेश्यानामत्र दृष्टान्तः--
जह गोमडस्स गधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स ।
इत्तो वि अ्रणंतगुणो, लसाणं अप्पसत्थारं ॥ १६॥
जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं। `
हत्तो वि अणतगुणो, पसत्थलेसाण तिरह पि ॥१७॥
यशा गवां मृतकं--मरतकशरीरं तस्य गन्धः श्वमरतकस्य
वा तथा यथा श्रहिः-सपस्तन्मरतकस्य गन्ध इति सम्ब- `
न्धः, सू्रत्वान्मृतकशब्द कलापः श्रतो ऽपि-पतत्प्रकाराद्-
पि गन्धादनन्तगुणो ऽतिदुगैन्यतया लश्यानाम् , अप्रशस्ता
नाम-अशुभानाम् , कोऽथः ?-कष्णनीलकापोतानाम् , गन्ध
इति प्रक्रमः, इह च लश््यानामप्रशस्तत्वे गन्धस्याशुभ-
त्वे हेतुरिति तद्धिशषादनुक्रो ऽप्यस्य विशपो ऽवगम्यत इ-
ति नाक्रः । यथा सुरभिकुखुमानां-जातिकतक्यादिसम्ब-
न्धिनां सुगन्धपुष्पाणां गन्धः-- परिमलः सुरभिकुखुमगन्धः,
तथा गन्धाश्च -काषपुट पाकानिष्पन्ना वासाश्च-इतरे ग-
न्धवासाः, इह चेतदङ्गान्यवोपचारादेवमूक्रानि, तषाम्, पा-
ठान्तरतश्च गन्धानां च पिष्यमाणानां-संचूरयमानानां च~ |
५
था गन्ध इति प्रक्रमः, तथा चातिप्रबलतरो5सों प्राढु- |
भैवतीत्यवमभिघानम् , अतो5पि--एतत्प्रका रादपि गन्धा-
द् अनन्तगुणः अतिशयसुगन्धितया प्रशस्तलश्यानाम् ति-
खृणामपि- तैजसीपद्मशङ्गानां गन्ध इति प्रक्रमः, इहापि
प्रणस्नत्वविशषाद्न्धविशपा $नुमीयत इति नाक इति
सूत्रद्ययार्थः ॥ उत्त० ३४ अ०।
॥
||
।
{
|
(१४ ) अधुना शुद्धाशुद्धत्वप्रातिपादना थमाह--
| एवं तओ अजिसुद्भाओ, तओ विसुद्धाओ, त्यो अप्प-
. मत्थाओं, तओ पसत्थाओ,तओ संकिलिट्ठाओं, तेओ अर्स-
किलिट्राओं । ( सू० २२८ +)
एवं तश्रा अविसुद्धाआ तता विखुद्धाओ ` इति . ण्वम्-
उक्कन प्रकारण आआटास्तस्रा लगा आवश्युद्धा चक्कन्यः
अआप्रशस्तवण्गन्धरसापतत्वात् , उत्तरास्तस्त्रा लश्या ब्र
शुद्धा प्रशस्तवणगन्धरसापत त्यात् , ततश्वत॒ वक्कब्या
"कड रा भत ! लस्साआ आंवसुद्धाओ परणणत्ताओं
)
श्रा पणरणत्ताओ, ते जहा--करणहलेस्सा
लेस्सा ॥ कड ग भत ! लेस्साओ विसुद्धाआ परण्णत्ताओ ?
गोयमा ! तआ लेस्साओ विरुद्धाओ परण्णक्ताओ ,ते
जहा--ते उलस्सा पउमलेस्सा खुक़लेस्सा "` इत . उक्त
शुद्धत्वाशुद्धत्व । सम्प्रति प्राशस्त्याप्राशस्त्ये प्रतिपादयाति--
* तश्चा अप्पसत्थाओ तश्रा पसत्थाओ ` आद्यास्तिस्त्रा
लेश्या अप्रशस्ता वक्तव्याः, अप्रशस्तद्रव्यत्वनाध्रशस्ताध्य-
चसायदहेतुत्वात् , उत्तरास्तिस्त्रों लश्याः प्रशस्ताः , प्रशस्त-
द्रव्यतया प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् , सृत्रपाटः प्राग्वद-
चसयः:, ` कड यो भत ! लेस्साओ अप्पसत्थाओ पन्नत्ता-
श्रा ` इत्यादि. उक्के प्राशस्त्याप्राशस्त्य। अधुना संक्लिष्टा एसे-
लिद्राञ्चा ` इति आद्यास्तिस््नो लश्याः संक्लिष्टाः , संक्रिष्ठान-
रोद्रध्यानानुगवाध्यवसायस्थानदतुत्वात् - उनरास्तिश्चेा
लेश्या असाक्गा्राः, असंक्लिए्घर्मशुक्नध्यानानुगता ध्यवसा य-
कारणत्वात् , अत्रापि पाटः प्राग्वत्कइ णे भत ! लस्साअ
संकिलिदटरा शा पन्नत्ताञ्रा ` इत्यादि | प्रज्ञा १७ पद् ४ उच ।
जम्बूदृष्टान्त भावयाति-प्रतिक्रमामि पडाभिलश्याभिः करण-
भृताभियों मया देवसिकाऽतिचारः कृतः, तद्यथा--कृष्णले-
श्ययेत्यादि--'' कष्णादिद्रव्यसाचव्यात् , परिणामा य
श्रात्मनः । स्फटिकस्यव तत्रायं, लश्याशब्दः प्रयुज्यत ॥९॥''
छृष्णादिद्रव्याण न -सकलप्रक्तातिविष्यन्दभूतान, आसां
च स्वरूपे जम्बूखादकद॒ष्टान्तेन , ग्रामघरातकदश्ान्तेन च
प्रतिपायत--
» जद जवुतख्वरगो.खुपकफलभरियनमियसालग्गो ।
दिद्ठा चदि पुरिसर्दि, ते विती जवुभक्खम्। ॥ ६॥
किं पुल? त बेतेको, आरूहमश्णाण जीवसंद्हा ।
तो छिंदिऊण मूल, पाडमु तादे ˆ भक्तवमो ॥ २॥
बितिआह एददेरा.कि छिएणेणे तरूण अम्ह ति ?।
साहामहल्लछिद्ह. तइआओ वती पसाहाआ ॥ ३॥
गोच्छे चउत्थओं उण, पचमश्रा वति गेरह॒ह फलाई ।
छुट्टा बती पडिया, पप जिय खाह चत्त ज ॥ ४॥
दिद्वुंतस्सा वणआओ,जा वैति तरू वि छिन्नमूलाओ ।
सो |; किण्हाए, सालमदल्ला उ नीलापए् ॥ ५ ॥
` हवई पसाहा काऊ, गाच्छा तेऊ फला य पम्हाए |
पडियाए सुक्कलसा, अटवा अरणो उदाहरणे ॥ £ ॥
चरा गाम वहत्थे, विरिग्गया पगा वरेति घ्राण ।
जे पेच्छुह सव्वं वा.टुपयं च चउप्पय वावि ॥ ७ ॥
बिइओ माणुसपुरिसे य, तइआ साउटे चउत्थे य।
गोयमा ! तओआ लस्साओं ( अप्पसत्थाओं ) अविखुद्धा- |
नीललेस्सा काड- |
क्िएत्व प्रतिपादयाति-- त्रा संकिलिट्टाओ तश्रा असेकि- |
६ ( ८८७ ).
सभिध्रानराजन्द्रः।
पंचमओ जुज्भंत . छटा पुण तत्थिमे भणइ ॥ = ॥
एक ता हरह धणे, वीय मारह मा कुणह एवं ।
कवल हरह धरती, उचसहारा इमा तसि ॥ ६ ॥
सव्व मारेह नी, वद्र सा किशहलसपरिणामा।
एवे कमण ससा, जा चरमा खुक्रलसाण् ॥ १० ॥
आदिल्ल तिणिण एन्थे, अपसत्था उबरिमा पसन्था उ।
अपसत्थासं वद्धिय, न वाद्य जे पसत्थास् ॥ ११॥
एस 5इयारो एया--सु हाइ तस्स य पाडकमामि त्ति।
पडिकूल वद्गामी, ज़ भणियें पुणा न सवाम ॥ १२॥ ``
आच० ४ आ०।
( १६ ) अघुना शीतोष्णस्पशीप्रतिपादनार्ेमाह-
जह करगयस्स फासा, गोजिब्भाए व सागपत्ताणं |
एत्ता वि अणतगुणा, लसाणं अप्पसत्थाणे ॥ १८ ॥
जह बूरस्स व फासा, नवर्णीयस्स व सर।सकुंसुमाण ।
एत्तो विश्रणतगुणा, पसत्थलसाण तिणट ।प ॥१६॥
द्याख्या--यथा ` करगयस्स ` त्ति क्रकचस्य--करप-
त्रस्य स्पशौ गार्जिह्ा गाजिहा तस्या वा, यथा वा
शाको-चृत्तविश्वपस्तत्पत्राणां स्पश इति धरक्रमः, अता5-
{प्र--पतत्प्रकारादपि स्पशादनन्तगुणः अरल्यातशायतया
यथाक्रम लश्यानामप्रशस्तानामाद्यानां तिखृणां प्रक्रमात्स्प-
शोऽतिककश इति हृदयम् । यथा बूरस्य वा प्रत(तस्य
स्पश्चः नवनीतस्य-्रत्तणस्य यथा वा रशिरीषा--वृ्तव-
शपस्तत्कुसुपानामुभयत्र यथा स्पशे इति प्रक्रमः, अतो 5 प-
पतत्प्रकारादपि स्पशाद् अनन्तगुणः--्रतसखुकुमारतया
यथाक्रम प्रशस्तलश्यानां तिरखणार्माप-उक्करूपाणां स्पश
इति प्रक्रमः. इट च यदनकंट्रान्तापादान तचानार्दशजावन
यानुग्रद्या थम , कचिद्धि किज्ित्यतीतमिति, यद्धा-निनदिता-
दाहर्णेषु चवणोदितारतम्यसम्भवाज्लश्यानां स्वस्थानप व-
णीदिवेचित्यज्ञापला था मति सूच्याः ॥ उत्त० ३४ अ० ।
तञ्मा सीतलुकंखाओं, त्रा निदण्डा्र। । (सू० २२८०८)
त्रा सीयलक्खाआ तश्रा निद्धरह्ाओं ` इति , आद्या-
स्तिम्त्रो लश्याः शीतरूच्षाः-शीतरूद्धस्प्शोपताः, उत्तरा-
स्तिसत्रा लश्याः स्मिग्धोष्णस्पर्शाट. इदटान्यऽपि रूश्याद्र-
व्याणां कर्कशादयः स्पशः सन्ति (प्रज्ञा० ) तथापि
शीतरूत्तो स्पशो आद्यानां तिखणां लश्यानां चित्ता
स्वस्थ्यजनने स्निग्धोष्णस्पशा , उत्तरासां तिसृणां लश्यानां
परमसतापात्पादन साधक्रतमाविति ताचव पृथक् पृथक्
क्ञादुक्कावित्यदाषः, सृत्रपाठः प्राग्वत् , ` कह णे घन !
लस्साओ सीयलक्खाओ पन्नत्ताओ ` इत्यादि ।
( १७ ) सम्प्रति गतिद्वास्मभिधित्स राह--
तओ। दुग्गतिगामिणी ( णि ) ओ, तेच्रा सुगतिगामि-
गीओ | ( सू० २२८०८
तआ दग्गइगामिणीआ तओ खुगइगामिणीओ ` इति
आयद्यास्तिस्रा लश्या द्ुरलिगामिन्यः--दुसीति गमयन्तीव्यत्र
शीला दुगांतगामिन्थ!, स्क्लिण्राध्यवसायहतुत्वात् . उक्त-
गास्तिस्त्रा लश्याः खगत गमयन्तीत्यवेशीलाः सुर्गातगामि-
न्यः. प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् , उभयत्रापि गमण्यन््ता-
दिनप्रत्ययः, सत्रपाठः प्राग्वत् कड ण भत ! लेस्साओ
दुग्गइगामिणीओ पन्नत्ताओ' इत्यादि । प्रज्ञा०१७ पद् ४ उ०।
33
अजिधानराजेन्द्रः ।
लेसा
पुनरपि ग्रन्थान्तरतो गतिद्वारमाह--
किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि लस्ाउऽहम्मलसाउ ।
एयाह ताह व जावा, दुगगइ उववज्जइ ॥ ५६ ॥
तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एया उ धम्मलेसाउ ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जई ॥५७॥
रष्णानीलाकापातास्तिखरा ऽप्यता श्रध्मलश्याः,
पापापा- |
दानहतुत्वात् , पाठान्तरतो ऽघर्मलेश्या वा, तिखणामप्य- |
विग्द्धत्वेनाप्रशस्तत्वात् , यदवे ततः किमित्याद-पताभिः- |
अनन्तरोक्ताभिः ` तिरभिरपि-रूष्णादिलश्याभिः जीवः--
जन्तुः दुगतिम्-नरकतियग्गतिरूपाम् उपपद्यते-प्राप्तो-
त, खुब्व्यत्ययाद्वा दुगेतो उपपद्यत-जायत, संकिल्त्वन
तत्प्रायाग्यायुषर एव तद्धतां वन्धसम्भवादिति भावः । तथा
तजसी पद्माशुक्लास्तिस्रो ऽप्यताः धर्मलश्याः-प्रधानलश्याः,
विशुद्धत्वनासा घमहतुत्वात् , तथा चागमः-“ तओ लसा
त्र आवेसुद्धाओ तओ विसुद्धाओं तओ पसत्थाश्रो तश्रा
अपसत्थाओ तश्रा संकिलिट्लाओ त्रो असंकिलिट्टाओ तश्र
दुग्गातगामयाओं तआओ सुगातगामियाश्मा ` । अत एवं |
फएताभास्तदटाभः- तंजस्यादिलश्याभिर्जीवः “ सुगति `
त सुगातम-दवमनुष्यगा तलक्षणा सुक्क वापपद्यत, यद्दा-
ध्ाग्वत्सुगता उत्पदययत-जायत तथावधायुबन्धत सकल-
कमापगमतश्थात सत्रद्धयभावाथे। | उक्त० २४ अआ०।
( १८ ) अधुना परिणामद्वारपभिधित्सुराट--
कण्टलस्सा णं भते ! कतिविह परिणामं परिणमति !,
गोयमा ! तिथिह वा नवविह बा सत्तावीसविहं बा एका- |
सीतिविह वा वि तेयालदुसतविहं वा बहुय॑ वा बहुविहं वा
परिणाम परिणम३, एव ° जाव सुकलसा । (घू०२२६-) |
` कगहलसा ण ` मित्यादि, श्रत्र “ कइविह परिणामं `
इत्यत्र प्राकृतत्वात् तृतीयार्थ द्वितीया द्रष्रव्या,
चाराङ्ग-'श्रगाण (च खलु ) पुट्टा ” इत्यत्र, ततो ऽयमथः-
क्ृष्णलश्या णामात वाक्यालङ्कार भदन्त ! कतिविधन प-
7रणामन पारणमात ?, भगवानाह-- गायमा ! निविदं
वा ` इत्याद, इह॒ त्रिविधा-जध्न्यमध्यमात्कृष्टभदेन नव-
विधा यदेषामापि जघन्यादीनां
था आ- |
स्वस्थानतारतम्याचन्तायां |
प्रत्यक जघन्यादजयण गुणना, एव पुनः पुनास्ञ्रकगुणनया |
सप्तविशतिविधत्वम् एकाशीतिविधत्वं
ध्िकशतद्वयविधत्व बहुत्व-बहुविधत्वे भावनीयम् , स-
वेत्रच तृतीयाथ द्वितीया, ततसख्िविधन वा परिणामेन
पारणम्राति नवावधन वा इत्यवे पदानां योजना कर्तव्या ।
* एवं ० जाव सखुकलसा ` इति एवें--कृष्णलेश्यागतन प्र--
कारेण नीलादयाऽपि लश्यास्तावद्धक्कव्या यावत् शुक्नलल-
श्या: । सृत्रपाटस्तु खगमत्वात् स्वये पारभावनीयः । प्रज्ञा०
१७ पद् ८ उ०।
तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहिकसीओ वा ।
दुसआ तयालो वा, लसा होड परिणामों || २० ॥
त्रिविधो नवविधा वा * सत्तावीसइविहिकसीओ च " त्ति
जचत्वारशद- |
विधशब्दा वाशब्दश्थाभयत्र सवध्यते, ततश्च सप्तावशात- `
|
लस्सा नीललस्सा काउलेसा १, असुरकुमाराणं तओ ,
लेस्साओ संकिलिंड्राओ पशप्पत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा
लेस्सा जहा णरइयाणं | पंचेंदियतिरिक्वजो णियाणं तओ `
लेस्साओ संकिलिट्टाओ पप्मत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा `
लसाओ असंकिलिट्ठाओ पप्मत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा
~ ० ०
विध एकाशीतिविधो वा ' दुसओ तयालो वे'ति पर
विधशब्दस्य सम्बन्धात् त्रिचत्वारिशद्दिशतविधो वा ले ¦
श्यानां भवति, परिणामः-- तत्तद्र पगमनात्मकः, इह च * ज्ि- `
विघः ” जघन्यमध्यमात्कृष्टभदन नवविधः--यदेषामपि ज- `
घन्यादीनां स्वस्थानतारनम्यचिन्तायां भरव्यकं जघन्यादि-
चयण गुणना प्वे पुनस्िकगुणनया सक्तविशतिविधत्व-
मकाशीतिविधत्वे जिचत्वारिशदृद्धिशतविधत्वे च भावनी
यम् | आह-एवं तारतरम्याचन्तायां कः सख्यानियमः १ +
उच्यते . एवमेतत् , उपलक्षणं चेतत् , तथा च प्रज्ञा
पनाया{-'* कणहलेसा ण भते ! कतिविधपरि णाम परिणम-
ति?, गोयमा ! तिविहे वा नवविहं वा सत्तावीसइविह
वा एक्कासीइविह वा वि तेयालदुसयविहं वा बहुये वा बहु-
विदे वा परिणामे परिणमति, एवं ०जाव सुक्कलेसा ” इति
सत्राथः ॥ उक्कः परिणामः। उत्त० ३४ ० ।
( १६ ) ज्यादिपरिणतिश्च जीवानां लश्यावशतो भवतीति
ताश्निवन्धनकमेकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु ले-
श्याच्िस्थानकावतारेण निरूपयज्नाह--
शरइयाणं तओ लेस्साओ पष्पत्ताञ्रो, तं जहा-कणह-
नीललेस्सा काउलस्सा २ एवं ०जाव थणियकुमाराणं
११, एवं पुव काइयाणं १२, आउवशणस्सइकाइयाण वि
१३-१४, तउकाइयाण १५, वाउकाइयाणं १६, बेह-
दिया १७,तेइदियाणे १८, चउरिंदियाण वि १६, तओ `
नीललेसा काउलसा२ ०। पंचंदियतिरिक्छजोणियाशं तओ
पम्हमेस्सा सुकलेसा, २१, एवं मणुस्साण वि २२, वा- |
णमंतराणं जहा-असुरकुमाराणं २३, वमाशियाणं तओ
लस्साआ पप्तत्ताआ, त जहा--तउलस्सा पम्हलस्सा च
कलेस्सा २४ । [ घ्र १३२ ] ।
नेरइयाणं' इत्यादि, दएडकसूत्र करख्यम् , नवरम् । ' नेरइ-
याणं तआ लस्साञ्रा' त्ति णतासामव तिस णां सद्भावादविश-
पणा निर्देशः, असुरकुमाराणान्तु चतसणा सद्भावात् संक्नलिश
इति विशपितं चतुर्थी हि तषां तेजोलेश्याउस्ति, किन्तु-सान
साक्रि्टति पृथिव्यादिष्वसुरकुमारसूतार्थमतिदिशन्नाद-- |
` एव पुढवी ` इत्यादि परथिव्यव्वनस्पतिषु देवोत्पादसम्भ- |
वाच्चतुर्थी तजोलश्या ऽस्तीति सविशषणा लश्यानिर्देशोऽति- `
दिः, तजावायुद्धित्रिच्तुरिन्द्रियषु तु॒देवाजुत्पत्त्या तद् ,
भावान्ना्वशषण इहात, अत एवाह--' तश्रा ` इत्यादे, पश्च
न्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च षडपीति संङ्कि्टाऽर्साक्रि्टवि
शपणतश्चतुःसूत्री नवरं मनुष्यसत्र तिदशनोक्क इति व्य-
तरसत्र सङ्किषएरा वाच्या श्रत पवोक्कम् । ` वाणमंतरे ' व्या- |
दि । वर्मानिकसूत्र निर्विंशषणमव, श्रसंक्लि्रस्यंव रयस्य |
सद्धाव्रात् , व्यवच्छुद्याभावन विशषणायार्गादिति ज्योति |
|
4 ॥॥ ॥
44%.
,# ||
लमा
३-7
ष्कसृत्र नाक्रम , तषां तेजोलश्याया एवं भावन त्रिस्था-
नकानवतारादित | स्था० ३ ठा० १ उ०।
(२०) लक्तषणद्वारम्--
पंचासवप्पमत्ता , तीहि अगुत्तो छस्सु अविरओआ य।
तिव्वारंभपरिणग्रा, खुदा साहस्सिञ्रा नरा ॥ २१॥
निद्धधसपरिणामा , निस्सेसो अजिईदिञ्रा |
एयजागसमाउत्ता, कण्हलस तु परिणम् ॥ २२ ॥
इस्साञ्ममरिसञ्रतवा, अविज्ञमाया अहीरिया ।
गही पञ्मास य सह, रसल।लुए सायगवसणए य ॥ २३ ॥
आरंभा अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरा ।
एयजोगसमाउत्तो, नीललसं तु परिणम ॥ २४ ॥
बंके बंकसमायार, नियटिल्न अणुज्जुए ।
पलिउंचग आवहिए, मिच्छदिट्टी अणारिए ॥ २४ ॥
उप्फालगदुड्ववाई य, तण अविय मच्छरी ।
एयजोगसमाउत्ता, काउलेस तु परिणप ॥ २६ ॥
नीआवित्ती अचवल, अमाई अकुऊहले ।
विणीयविणए दंत, जोगव॑ उवहाणव ॥ २७ ॥
पियधम्मे दद्धम्मे, वज्जभीरूहिए सए |
णएयजोगसमाउत्तो, तउलेसं तु परिणमे ॥ २८॥
पयणुकाहमाणो य, मायालोभे य पयणए |
पसंतचित्त दंतप्पा, जोगवं उवहाणव ॥ २६ ॥
तहा य पयणुवाई य, उबसंते जिदंदिए ।
एयजागसमाउत्ता, पम्हलेस तु परिणमे ॥ ३० ॥
अटररुदि वज़ित्ता, धम्मसुकारि साहए ।
पसंतचित्ते, दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ ३१ ॥
सरागे वीयरागे वा, उवसत जिईंदिणए ।
एयजोगसमाउत्तों, सुकलेस तु परिणमे ॥ ३२ ॥
पञ्चाश्रवाः-दसाद्यस्तः प्रमत्त:--प्रमादवान पद्चाश्रवप्र-
मत्तः पाठान्तरतः पश्चाश्रवप्रवृत्ता वा अतास्त्राभः प्रस्तावा-
स्मनावाकाये: अगुप्त:--अनियन्त्रिता मनोगुप्त्यादिरहित इ
त्यथः, तथा-पटखसु--पृथ्वाकायाद॒पु आवरतः:-आनतुृत्त स्त-
दुपमदकत्वादारात गम्यत, अय चातात्रारम्भाऽप स्या-
दत आह-तावा-उत्कटाः: स्वरूपता ऽध्यवसायता वा श्रार-
म्भाः-सावद्यव्यापारास्तत्परिणतः- तन्प्चृच्या तदात्मतां-
गतः, तथा-क्षुद्रः--सर्वस्येयाहितेषी कापरययुक्ता वा, स-
हसा--अपर्या लाच्य गुणदाघान प्रवत्तत इति साहसिकः,
चोर्यादिकूदिति या ऽथः, नरः--पुरुषः उपलक्षणत्वात्स्त्या-
दिवां * णिद्धंघस ` त्ति श्रत्यन्तमेटिकामुष्मिकापाय-
शङ्काविकलाऽत्यन्तं जन्तुवाधानपेक्ता वा परिणामाऽध्य-
साया वा यस्य स तथा ` शिस्ससा ` त्ति नृशसः-
निस्तृशा जीवान् विहिंसन मनागपि न शङ्कत, निःशशा
वा-परप्रशंसारहितः । अजितेन्द्रियः-अनिग्गही तन्द्रियःः अ-
न्य तु पूर्वेसंच्रोत्तराद्धस्थान इदमधीयत तरूचेहेति, उपसं-
` ऋ च ते अनन्तगोक्ला यागाश्च-मनावाक्रायव्यापा-
१७६
7 |
श्रभिधानराजन्द्रः।
लमा
रा णतद्यागाः-पाश्रवप्रमत्नन्वादयस्तः सामिति-भ्रशमा-
ङित्यभिन्याप्त्या युक्कः-श्रन्वितः णलद्यारासमायुक्कः. कृष्ण-
लश्यां तुः--अवधारण छष्णलश्यामच परिणमन्-नदृद्रव्य-
साचिव्यन तथाविधद्वव्यसम्पर्कात्स्फाटिकत्रत्त दुपर हुनात्त-
द्रपतां भजत् , उक्कं हि-'' कृष्णादिद्रव्यसाचिब्या-त्परिणामा
य॒ आत्मनः | स्फटिकस्येब लत्राये. लश्याशब्दः प्रयुज्यत
॥१॥ ` एतन पश्चाश्रवप्रमत्तत्वादीनां भावरृष्णलश्यायाः
सद्धावापदशनाद मीषां लक्षणत्वमुक्तम , या हि यन्सद्धावण्व
भवति स तस्य लक्तगी यथोप्य्मगनः. एवमुत्तरत्रापि लक्षण-
त्वभावना काया | नीललष्यालक्षणमाह-ईप्या च परगुणास-
हनम , अमर्पश्च-अत्यन्ताभिनिवशः, तपश्च -तपाविपययः
अमीषां समाहारनिर्देश *. च विज्ञ' त्ति अविद्या-कुशास्त्ररूपा
माया-वश्चनात्मिका अ्रहीकता च-श्रसमाचारविपया निल-
जता ग्ृद्धिः-अभिकाह्ना विपयप्विति गम्यत, प्रह्मपश्च-प्रढ्व-
पः मतुब्लोपादभदापचाराद्धा सवत्र तद्वान जन्तुरुच्यत अत
ण्व शटः अलीकभाषणात्् प्रमत्तः धकप जाव्यादिमदासव-
नात् पाटान्तरतः शरश्च मत्तः, तथा रसपु लालुपा-लम्प
खा रसलालुपः. सात- सुख तट्रवेपकश्च-कश्ं मम सुख
स्यादिति बुद्धिमान , आरस्भात्-प्रार्युपमदात् अविरतः-
अनिवृत्तः चुदरः-- साहसिको नरः. एतद्यागसमायुक्ला नील-
लेश्यां पारणमत् , तुः-प्राग्वत् पुनरथों वा ४ व्छः-वचसा
वक्रसमाचारः' क्रियया, निरकुतमान-मनसा. अन्न जुकः-क थ-
चिदजूकत्तमशक््यतया ` पलिउंचग ` नि प्रतिकुश्चकः-स्व-
दोषप्रच्छादकतया उपधिः-छुझ तन चरत्योपधिकः, सर्व-
त्र व्याजतः परत्रत्तः, एकाथिकानि वेतानि नानादेशज-
विनयानु्रहायापात्तानि, मिध्यादष्िरना्यश्च प्राग्वत् . ' उ-
प्फालग ' त्ति उत्प्रासकं यथा पर उत्प्रास्यत दुष्टं च रागा-
दिदाषवद्यथा भवत्यवं वदनशील उत्पासकदुष्टवादी, चः--
समुचय स्तनः--चौरः चः-- प्राग्वत् श्रपि च-इति पूरण
मत्सरः परसम्पदसहनं सति वा वित्त व्यागाभावः, तथा
चाहुः शाब्दिकाः-- परसम्पदामसहनं, वित्ता5त्यागश्व
मत्सरो शेयः ” इति, तद्वान् मत्सरी. एतद्यागसमायुक्कः
कापातलश्यां ` तुः ` इति पुनः परिणमत् ॥ 'णीयावित्ति' तति
नीचेच्त्तिः-कायमनावाग्भिरनुत्सिक्रः श्रच पलः-चापलानु-
पतः श्रमायी--शाख्यानन्वितः अकुतृहलः--कुह कादिष्व-
कोतुकवानत पव विनीतविनयः--स्वभ्यस्तगुवादुचितप्र-
ति्पत्तिः, तथा दान्तः इन्द्रियदमेन ष यागः--स्वाध्या-
यादिव्यापारस्तद्वान् , उपधानवान--विहितशास्त्रो पच्चारः
प्रियधर्मा अभिरुचितधर्मानुष्ठानः द्रढधर्मा-5 जड्रीक तब-
तादिनिवीहकः, किमित्येबम् ?, यतः "वज्ञ त्ति वज्यम् प्रा-
कृतत्वादका रलोप अवब्द्ये चोभयत्र पाप तद्धीरः हितें-
पकः-मुक्रिगवषकः, पाठान्तरता--हिताशया बा-परोपका-
रचेताः पठ्यते च-- श्रणासवे ' नि तत्रच न विद्यन्त
आश्रवा-हिंसादयो यस्यासावनाश्रवः, पतद्योगसमायुक्त-
स्तजालेश्यां तु परिणमेत् | प्रतनू--श्रतीवाल्पा क्राधमा-
नो यस्यस तथा, चः- पूरण, माया लाभश्च उक्करूपः।
प्रतुका यस्यति शषः . श्रत एव प्रशान्त--प्रकर्पेणाप-
शमवश्ित्तमस्यति प्रशान्तचित्तः, दान्तः-श्रहितप्रच्त्तिनि-
वारणतों खशीकृत आत्मा यन स तथा. यागवानुपधान-
वानिति च प्राग्वत् , तथा प्रतन॒वादी-स्वल्पभाषकश्वश-
६ ६६
अआमभधानगाजन्द्र: |
लसा
ब्दा मिन्नक्रमा याच्यत , उपशान्तः अनुद्धटतयापशान्ता-
कतिः जितन्द्रियश्ध-वशीकृताक्षः पतद्यागसमायुक्रः पद्म-
लश्यां तु परिणमत् ॥ आत्तगेंद्रे-उक्करूप ध्यान-वजयित्वा-
परिहत्य धर्मशुक्न-प्रासुक्त एव शुभध्यान साधयत्-सतता- '
भ्यासता निष्पादयत् . यः कीटडशः सन् ? इत्याह-प्रशान्त-
चित्ता दान्तात्मति च प्राग्वत् , पाठान्तरतश्र ध्यायति या
विनीतविनया दान्तः समितः-समितिमान् गुप्तश्च-निर्द-
समस्तव्यापारः गुप्तिभिः-मनागुप्त्यादिभिः, ठृतीयार्थ सप्त-
मी, स च सरागः-अक्षीणानुपशान्तकपायतया वीतरागा
वा ततो 5न्य उपशान्तः. पाठान्तरतः शुद्धयागा वा-निर्दोष-
ब्यापारो जितन्द्रियः प्राग्वत् , सख पतद्यागसमायुक्कः शुङ्ग
लश्यां तु परिणमति, दृद च
णानां पुनरूपादानऽपि लश्यान्तरविषयत्वादपोनरुक्त्यम्
पूयपूर्वा प्तया त्तरात्तरेषां विशुद्धितः प्रकृटत्वं च भावनीय-
म॒, विशिष्टलश्या वा 5पचक्येव लक्षणाभिधानामति न देवा-
दिभिवर्यभिचार अशङ्कनीय इति द्वादशसत्रार्थः॥ उत्त०
३४ अ०।
(२०) सम्प्रति प्रदशद्धाराभधित्सया प्राह-
कणहलेसा णं भते ! कतिपद् सिया पन्नत्ता ?, गोयमा !
अणतपदमिया पन्नत्ता,एवं °जाव सुकलस्सा ।(सू० २२६--)
“'कराहलसा णे भत ! कइपएसिया' इत्यादि खुगमम ,नवरम-
नन्तप्रदाशिकाति-श्रनन्तानन्तसख्यापताः प्रदशाः-तद्याग्या
परमाणवा यस्याः कृष्णलश्यायाः कृष्णलश्याद्रव्यसंघातस्य
सा अनन्तप्रद्शिका अन्य था-अनन्तप्रदशव्यतिग्केण स्कन्ध-
स्य जीवग्रहणयाग्यताया एवाभावात् , "णवं नीलादयाभ्पि
लश्या वक्तव्याः, तथा चाह-' एवें० जाव सुक्रलसा ` इति ॥
प्रज्ञा० १७ पद् ४ उ०।
अचगाहनादारमाह--
कणहलेस्सा णं भत ! कतिपएसोगाढा पज्ात्ता ? ,
गरायमा ! असखज्जा पएसोगाढा पष्पत्ता, एवं० जाव
सुकलसा । ( सू० २२६ ><)
: कराहलेस्सा गा भत ! ` इन्यादि इह प्रदेशाः- क्तत्रप्रदेशाः
प्रतिपत्तव्या स्तप्ववावगाद प्रसिधः, चानन्तानामपि वर्गणा-
नामाधारभूता अस्ख्यया एव द्रष्रव्याः सकलस्यापि ला-
कस्य प्रदेशानामसख्यातत्वात् ।
वर्गणाद्वा रमा ह--
कणहलेस्माए णं भते ! केवतियाओं वग्गणाओ पा्प-
त्ताओं ?, गायमा ! अणशताओ वग्गणाओ, एवं० जाव
सुकलसाए । ( स्ू० २२६ > )
` कगहलेसा रो भत ! कबइयाओ वग्गणाओं परणणत्ताओं `
इत्यादि इह वग्रेणा ओदारिकशरीरप्रायोग्टपरमारुचर णाव-
त् कृप्णलश्यायाग्यद्रव्यपरमाणुवर्गणा ग्रह्मन्त ताश्च वर्णादि-
भदन सामानजातीयानामकसद्धावादनन्ताः प्रत्यतव्याः, एवं
नॉललेश्यादीनामपि वगणाः प्रत्यक वक्लकव्यास्तथा चाह-
“ण्बे० जाब सुक्कलेस्साए ` इत्यादि । प्रज्ञा० १७ पद् ४ उ०।
( २१ ) श्रघुन. स्थानद्वार्मभिधित्सुराह-
कैवतिया शं भते ! कण्हलस्साण ठाणा पन्नत्ता ? ,
^ }
शुभलश्याखु क्वाञ्ाद्वशष- |
लमा
गायमा ` अ्रसखज्ञा कण्टलस्साण ठाणा पनेत्ता, एव ०
जाव सुकलस्सा ।
` कबइया रो भत ! करटलसाण ठाणा पन्नत्ता ` किय
न्ति भदन्त ! क्ृष्णलश्यास्थानानि-प्रकर्षापकर्षक्ृताः
स्वरूपभदाः प्रज्ञप्तानि ?, सत्र च पुस्त्व प्रारूतत्वात् , इह
यदा भावरूपा; कृष्णादया लश्याश्चन्त्यन्त तदा एकेकस्या
लश्यायाः प्रकर्पापकषङूतस्वरूपभदरूपाणि स्थानानि काल-
ताऽसख्ययात्सर्पिरयवसपिंणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रता ऽस-
ख्ययलाकाकाशप्रदशप्रमाणानि, उक्ल॑ च--* अस्सेखजाणु-
स्स-प्पिणीण अवसाप्पणीण ज समया । संखाईया लागा,
लस्साणं होति ठाणाई॥ १ नवरमशुभानां सक्लशरू-
पाणि शुभानां च विशुद्धरूपाणि, एतषां च भावलश्यागता-
ना स्थानाना यान कारणभृतान कष्णादद्रव्यत्रन्दानं.
तान्यपि स्थानान्युच्यन्त तान्यव चह ग्राह्याणि, कृष्णादि
द्रव्याणामवदहादशक चिन्त्यमानत्वात् , तानि च प्रत्यकम-
सख्ययानि, तथाविधकपरिणामनिवन्धनानामनन्तानामपि
द्रव्याणामकाध्यवसायदे तुन्वनेकल्वात् , तानि च प्रत्यक
द्विविधानि, तद्यथा--जघन्यान्युत्कृष्लान च, जघन्यलश्या-
स्थानपरिणामकारणानि जघ्रन्यानि, उत्कृष्टलश्यास्थानर्पार-
णामकारणान्युत्क्ृष्टानि, यानि तु मध्यमानि तानि जघन्य
प्रत्यासन्नानि जघ्रन्यप्वन्त भृतानि, उत्कृष्टप्रत्यासन्नानि तूत्क-
प्रषु, एकेकानि च स्वस्थान परिणामगुणभेदतों5संख्येयानि,
त्र दृष्टान्ता-यथा स्फटिकमणरलक्ककवशन रज्कता भवति,
सा च जघन्यरक्कतागुणालक्ककवशन जघन्यरङ्कता, एकमुणा-
(धकरा ) लक्रकवशनकगुणाघधकजघ्रन्या, एवमकेकगुण-
चुद्ध्या जघन्यायामव रक्कतायामसं व्ययानि स्थानानि भव-
न्ति, तानि च व्यवहारतः स्ताकगुणत्वात् सवारायपि जघ-
न्यान्यवाच्यन्त, एवमा्मनाऽपि जघन्येकगुणाधिकद्धिगुणा-
धिकलश्याद्रव्यापधानवशता लश्यापरिणामविशषा अखे-
ख्यया भवान्ति, त च सर्वे ऽपि व्यवहारता ऽर्पगुणत्वात् जघ-
न्यव्यपदशे लभन्त, तन्कारणभूतानि च द्रव्याणामपि स्थाना-
नि जघ्रन्यानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानान्यसख्ययानि भाव
नीयानि । प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० ।
ग्रन्थान्तरतः पुनः स्थानद्रारमाद--
अस्सखिज्ञाणोस प्पिणीण उस्सप्पिणीण ज समया |
संखाईया लोगा, लसाण हवति ठाणाई ॥ ३३ ॥
श्रसख्ययानां-सख्यातीतानाम् अवसर्पन्ति--प्रातिसमय
कालप्रमाण जन्तूनां वा शरीरायुःप्रमारणादकमपच्य हा-
समनुभवन्त्यवश्यमित्यवसर्पिरायो . दशसागरापमकारीका-
रटिपरिमाणास्तासां तथा तन्पारमाणानामव. उन्सपन्ति-
उक्कन्यायता बृद्धिमनुभर्वान्त अवर्श्यामस्युत्सर्पिण्यस्तासां
य समयाः परमनिरुढ काललक्षणाः कियन्त इत्याह-सं
ख्यातीताः पाठान्तरता $सख्यया वा लाका असंख्ययला-
कप्रमितत्वन यथा दशप्रस्थप्रमितत्वन ब्रोहयो दशपरस्थाः.
तता ऽयमशः--श्रसख्ययलाकाकाशपदेशपरि माणानि लश्या-
नां भवन्ति स्थानानि प्रकर्पापकर्षक्रतानि, अशुभानां स-
क्लशरूपाणि, श॒भानां चै विशुद्धरूपारि तत्परिमाणानीति
शषः, यद्ा-असख्ययान्सपिरयवसर्पिणीनां ये खमया ग-
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= लश्यानां भवान्त स्थानानीति कालताऽ- |
संख्याता लाका इति च क्तत्रतः स्थानमानमवोङ्कमिति सू-
च्रार्थः ॥ उक्तं स्थानम् |
। (२२ ) इदानीं स्थितिमाह--
मुद्ृत्तडं तु जहज्ना, तित्तीसा सागरा मुहृत्तडहिया ।
उकोसा होड ठिई्ड , नायव्वा किणहलसाए ॥ ३४ ॥
मुहृत्तद्ध तु जहन्ना,दस उदहिपलियमसंखभागमब्भहिया।
उकोसा होड ठि३ , नायव्वा नीललसाए ॥ ३५ ॥
मुहत्तद्ध तुजहन्ना तिण्णुदही पालयमसखभागमन्भाहया।
उकोसा हाई ठर, नायव्वा काउलसाए ॥ ३६ ॥
मुद्दत्तद्ध तु जहज्ना,दोण्हुद्ही पलियमसंखभागमब्भहिया।
उकासा हाई टर नायन्वा तेउलसाए ॥ २७ ॥
महुत्तद्ध तु जहना) दसउद॒हां हाइ मुहृत्तमब्भभहआ |
= = ~ ¢ ~
उक्कोसा हाई ठिई , नायव्वा पम्हलसाएं ॥ ३८॥
मुहृत्तद्ं तु जहज्ना, तित्तीसं सागरा मुहृत्तहिया।
उकोसा होइ एई , नायव्वा सुक्कलसाए ॥ ३६ ॥
मूहत्तस्याद्धो मुह त्तौद्धः , तत्कालात्यन्तसयागे
इह च सम्रप्रविभागस्याविवक्षितत्वादन्तमुहत्तमित्युक्क
अवति, तः- अवधारण, तवा महत्ताद्धमव जघन्या ` त-
त्तीस ` त्ति-त्रयास्त्रिशत् सागरा
भ्रयागदशेनात्सागरापमाणि ' मुहुत्तऽदिय `
च महत्तेशब्दन मुहचैकदेश पवोाक्रः, समुदायेषु हि प्रवृ-
त्ताः शब्दा अवयवर्ष्बाप वत्तन्त ,
दग्धः इनि, ततश्थान्तमुहत्ताधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थि-
तिज्ञौतव्या कष्णलश्यायाः । इह॒ चान्तमृह तस्या सख्ययभ-
वादन्तमृह त्त शब्दन पू्वंत्तरभवसम्बन्ध्यन्तमह तद्ध यमुक्क
दरष््यमवमुत्तरजापि । मुहत्तीर्खस्तु जघन्या `दश) ति
इशसख्यानि उदधय इत्युक्कन्यायनोद्ध्युपमानि, कोऽथः ?-
सागरापमाण * पलिय ` त्ति तथेव पल्यापमे तस्यासंख्य-
भागस्तनाध्रकानि पल्यापमासख्ययमागाधकान्युत्कृष्टा भ
चति स्थितिज्ञातन्या नीललश्यायाः नन्वस्या धूम्रप्रभा-
परितनप्रस्तर पव सम्भवः त्रच ` अतो महृत्तम्मि गए
त्यादिवच्यमाणन्यायतः पूर्वोत्तरभवान्तमुह त्तेद्ययपल्योपमा-
सेख्येयभागाभ्यधिकदशसागरोपमपरिमाणवासों कि नो-
कला ?, उच्यत, उक्केब, पट्यापमासख्ययभाग एव तस्या-
ष्यन्तमहत्तद्रयस्यान्तभावात् , तदसख्ययभागानां चास-
ख्ययभदत्वादिंदेतावत्पारमाणस्यैवास्य विवक्तितत्वान्न वि-
राधः, एवमृत्तरत्राप भावनीयम् । अक्षरसंस्का रस्तृत्तरेषु
कृत एवं, नवरं चय उदधयः सागरोपमाणि द्वाबुदधी-द्ध
सागरापम , दशादधया-दशसागरापमाणि, ` तत्तीस `
तति , त्रयास्रिशत्सागरापमाणि, पठन्ति च सर्वत्र ` महुत्त-
द्धाउ ' त्ति तत्र मुहत्त ( त्ताध ) शब्दन प्राग्वदन्तर्मृहत्तस्या-
कृत्वादन्तभह त्तकालमिति सूत्रपट्रा थः ॥
सम्प्रति प्रकृतम॒पसेहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह--
एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वष्तिया होई ।
| ` वरि गइईसु इत्तो, लेसाण ठिई उ वृच्छामि ॥४०॥
(3
द्वितीया, |
ति पदेकदेशेऽपि पद |
न्ति इहोत्तरत्र |
यथा-ग्रामा दग्धः पटो |
६१ )
आमभधानराजन्द्र
लेसा
--क्षाः
स्पष्रमव, नवरम् श्राघन इात-सामान्यन गातभदाव-
वत्तयति यावत् , चतसृष्वपि गातिषु-नगकगर्त्यादिषु
प्रत्यकामति शषः, * अतः ` इत्या घस्थितिवरानानन्तरमि-
ति सूत्रार्थ: ॥
प्रतिशातमवाह--
दसवाससहस्माई, काऊड ठिई जहन्निया होड ।
तिन्नोदहि पलियमसं-खज्ञभागं च उकोसा ॥ ४१ ॥
तिण्णुदहीपलिओवम -मसखभागो जहन्ननीलठिई ।
दसउदहीपलिओवम-मसंख भाग च उक्ासा ॥ ४२ ॥
दसउदहीपलिश्रवम-मसेखभागं जहज्ञिया हाई ।
तित्तीससागराईं, उकोसा होई किणहाए ॥ ४३ ॥
एसा नरइयाणं, लसाणं ठिई उ वष्तिया होइ ।
तेण परं वुच्छामि, तिरियमणुस्साण देवाणं ॥ ४४ ॥
अतोमुहुत्तमद्धं, लसाण दिई जदि जहिं जा उ।
तिरियाणं नराणं वा, वजित्ता केवलं लस ॥ ४५ ॥
मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, उक्ासा हइ पुच्वकाडी उ |
नवहि ` वरिसेहि उणा, नायव्वा सुकलेसाए ॥४६॥
एसा तिरियनराणं, लसाण दिई उ वष्पिया हाड ।
तेण परं बुच्छामि, लसाण ठिई उ देवाणं ॥ ४७ ॥
. दसवाससहस्साई, किएहाए ठिई जहन्निया होइ ।
पलियमसखिजहमो, उकोसो होइ किएहाए || ४८ ॥
जा किणहाइ ठिई खलु, उकोसा सा उ समयमब्भहिया |
जहन्नेणं नीलाए, पलियमसंख च उकासा ॥ ४६ ॥
जा नीलाइटिई खलु, उकोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणं काऊए, पलियमसंखं च उक्सा ॥ ५० ॥
तेण परं वुच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं ।
भवणवइवाणमंतर ज।इसवेमाणियाणं च ॥ ५१ ॥
पलिग्रोवमं जहन्ना, उकोसा सागरा उ दुण्हऽहिया ।
पलियमसं खिज्ञणं, हाई भागेण तेऊए ॥ ५२ ॥
दसवाससहस्साई, तेऊए ठिईं जहन्निया होइ |
दुन्नुदृहा पलआवम-असखभाग च उक्सा ॥ ५३ ॥!
जा तेऊए ठिईं खलु, उकोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणँ पम्हाए, दसमुमुत्ताउहियाई उकोसा ॥ ५४ ॥
जा पम्हाइ ठिई खलु, उकोसा सा उ समयमब्भहिया ।
जहन्नेणँ सुकाए, तित्तीसम्ुहृत्तमब्भाहिया ॥ ५५ ॥
दशवषसहस््रांण कापातायाः स्थितिअंघन्यका भवति,
त्रय उद्धयः ` पलियमसंखज्ञभाग च ' त्ति सत्रत्वात्
पल्योपमासह्लथ्यभाग चात्कृष्टा, पठन्ति च-- उक्कासा
तिन्नुददी, पलियमसंखज्ञभागा5हिय ` त्ति स्ण्ण्म् , इय
च जघन्या रल्नप्रमायाम् , तस्यां हि जघन्यताऽपि दशव-
पसदसखाण्यायुरिति , उत्कृष्टा च वालुकाप्रभायाम् , तत्रा-
प्युपरितनप्रस्तटनारकाणामव, तपामतावटिस्थतिकानामरूा-
( ६६२ )
अआभध्रानराजन्द्रः।
लसा
विति भावनीयम् । जय उदधयः पल्यापमासख्ययभागश्च,
मकारस्यालक्षणिकत्वात् चस्य गम्यमानः्वाज्घन्या नीला-
याः थतिदेशादधयः पट्यापमानसख्ययमभागश्चान्कृषएा, इ
दापि जघन्या
न्क्ष च धूमप्रभायामुपरितनप्रस्तटनारकाणाम् , तत्रापि
येघामनावती स्थितिरिति मन्तव्या, इह्दात्तरत्र च पाटा-
न्तर दश्यत. तत्र च जपघन्यस्थितिः समयाधिकत्वमुक्क त-
च्च न बुध्यत इति, न तदून्याख्या, दशादधयः पट्याप-
मासेख्ययमागा जघन्यिका भर्जति प्रकमात्स्थितिः क़-
ष्णाया इति सम्बन्धः, अ्रस्याश्वय धृमप्रभायामतावत्स्थि-
तिक्रप्वव नारकेषु सम्भवः, अयस्थिशत्सागरोपमाणि उ-
त्कृष्टा भर्वात कृष्णायाः
नर महातमः्प्रभायाम , तहेबेतावत्पमाणस्यायुपः सभवात्
इह च नागरकाणासमुत्तरत्र चः दवानां द्रव्यलश्यास्थितिर-
चवं चिन्त्यत तद्धावलश्यानां परिवत्तेमानतया अन्यथा5रपि
स्शितः सम्भवात्, उक्त हि-- दवाण नारयाण य.
वलसा भवति एयाओ । .भावपरावत्तीए, सुरणरइया-
गा छुल्लसा ॥ १॥ `` पूर्वाङ्ग निगमयन्नुत्तरं च ग्रन्थ प्रस्ता-
वयज्निदमाह--एपा--अनन््तरोक्नका निरय भवा नैरयका-
स्तपां सर्वान्धिनीनां लश्यानां स्थितिः--अर्वास्थातिः तुः--
पूरण. वर्णिता--आख्याता भवति ` तण ` त्ति सत्रत्वात्
तनः परमिति--श््रता वच्याम प्रक्रमान्नश्यानां स्थि-
तिम् , तियग्मनुष्याणां तथा--दवानाम् ॥ यथाप्रतिन्ञातम-
वाह-' अतामुहृत्तमद्ध ' नि अन््तर्मुहत्तोद्धीम--अन््तर्मुहत्ते-
काल लश्यानां स्थितिजंघन्यात्कृष्टा चर्यत शषः, कतरा5
सो ? इत्याह-र्यास्मन इति -प्रथिवीकायादो संमूर्छिसमनु-
प्यादा चर याः कृष्णाद्याः तुः--पूर्ण तिरश्चां मनुष्याणां
मध्य सभवन्ति ताराम्, एता हि क्रचित्काश्चित्सभव-
न्ति, यत आगमः:--' पुढवीकाइया शे भत ! कइ
जखाता प्रत्नलाओ 2, मायमा ! चत्तारि लेसाआ,
जहा--कराहलसा० जाव तउलसा, ऋाउवणप्फदकाडयाण
च एवं चच, तउवबाउवबइंदियतईंदियच्रउरिंदियाण जहा
नरइयाण, पर्चादर्या्तीरक्खजाणियाणे पुच्छा, गायमा ।
छु लसाआ कराहा० जावर सखुक्कलसा । भणुस्साणं पुच्छा
गायमा ! छ एयाआ चवर संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा,
नायमा ! जहा नेरइयाणं `` ॥ नन्वव शुक्ललश्याया अप्य-
न््तमुहत्तमब स्थितिः प्राप्तत्याशड्रबाह-वजयित्वा कव-
लां शुद्धां लश्यां शुक्षल्श्यामिति यावत् अस्याश्व यावती-
स्थितिस्तामाह-' मुहुत्त5द्ध तु त्ति ध्राग्वदन्तमुहत्तमव ज-
प्रन्या उत्कृष्टा भवति पूर्वकाटी तुः--विशषण, स च
जप्रन्यम्थित्यपक्तया ऽस्या उक्रमव चिशृषे द्योत्यति, नवभिः
बषेन्यना ज्ञातव्या ४क्ललश्यायाः स्थितिरिति प्रक्रमः. इट
च यद्यपि कश्चित्पूर्वक्रोस्यायुरष्ूवार्धिक एव व्रत्पारणाम-
प्नाति तथाऽपि नेताचद्धयःस्थस्य वर्षप्यायादवाक शु
क़लश्यायाः सम्भव इति नवभिर्षषेन्येना पूवेकाटिरुच्यत ।
` पसा ` सूत्र स्पष्टमव | प्रतिज्ञातानुरूपमाद-दशवषसहसखा-
गि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यक्रा भवति, भवनपतिव्यन्तरषु
चास्याः सम्भवस्तपामव । जधन्यता5प्यतावत्स्थितिक-
त्वात् , उक्र च-' दसभवणवगयराण वाससटस्सा ठिई
जटन्नर ` ति, ` पलियमसंेखउ्जइसा ` ति पल्यापमासे-
वबालुकाशध्रभायामतावान्स्थातकानामब, उ- *
स्थितिरितीहाप प्रकमः, दय ,
-- ~~~ ~~~ ~~ नि
ख्ययतमः प्रस्तावाद् भाग उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः
स्थितिरिति प्रक्रमः, पएवोवधविमध्यमायषामव भवनपति-
व्यन्तराणामिये द्रष्रव्या । सम्प्रति नीलायाः स्थितिमाह-- _
या कृष्णायाः स्थितिः ` खलुः-- वाक्यालङ्कार ` उत्कृष्ठा-
अनन्तरमुक्करूपा साउ ' त्ति सेव ` समयमब्भहिय "
त्ति समयाभ्यधिका जघ्रन्यन नीलायाः, ` पलियमसखज्ञ "
त्ति प्राग्बःपल्यापमासख्ययश्च भाग उनका स्थितिनंवर-
मक्कहतारव वृहत्तराऽयमसख्ययभागा गृह्यत । या नी
लायाः स्थितिः खलूम्क्रशा ` साड ` त्ति सव समया- _ |
भ्यधिका जघन्यन कापातायाः पस्यापमासंख्ययश्च भाग
उल्का स्थितिः. णतावदायुप्रामव भवनपतिव्यन्तराणामिमे
मन्तव्य, इदाप्युक्कदेतारव पृ्स्माद् ब्ृदत्तरा ऽसं ख्यातभागः
परिगृह्यत । इत्थे निकायद्धयभाविनीमाद्यलेश्यात्रयस्थि--
निमुपदश्य समस्तनिकायमाविनीं तजालश्यास्थितिम-
धातुं प्रतिज्ञासत्रमाह--' तण ` त्ति ततः परं प्रच
स्यामि तजालश्याम् , ` यथ ` ति--यनावस्थानप्रकारण खुर-
गणानां भवति तथत्युपस्कारः, किमन्यतरनिकायानामवा-
मीषामुतान्यधत्याद --भवनपतिवाणमन्तर ज्या तिर्बैमानिका-
नां चतुर्निकायानामिति याथः, चः- पूरण, प्रतिज्ञातम-
वाह-पस्यापम जघ्रन्या उत्कृष्ठा सागर ` त्ति सागरोपम
तुः- प्राग्वत् --द्विसेख्य अधिके--अगल , कियत
त्याह-पल्यापमासंख्ययनति योगः, भवति नजस्याः स्थि- `
निरिति प्रक्रमः, इये च सामान्यापक्रमऽपि वेमानिकनिका-
यविषयतयैव नया, तत्र॒ च सोधममशानदवानां जघन्यत
उल्रएतश्चेतावदायुषः सम्भवात् , उपलक्षणं चेतच्छषनि-
कायतजालश्यास्थितः, ततश्च भवनपतिव्यन्तराणां जघ-
न्यता दशवर्पसदस््रा णि, उत्कृष्टतस्तु भवनपतीनां साम
रोपममधिकं, व्यन्तराणां च पल्यापमे, ज्यातिष्काणां तु
जघन्यतः पल्यापमाष्टभागः, उत्कृष्ठतस्तु वर्षलक्षाधिक प-
ल््योपमम् , एतावन्मात्राया एवेषां जघन्यत उनल्कृतश्चायः-
स्थितः सम्भवात् । ` दसवाससहस्साई , ` इत्यादि स्पष्ट:
मव, नवरमनन निकायभदमनङ्गाञ्त्यव लश्यास्थितिरुक्का ।
इट च दशवसदसखराणि जघन्या तजस्याः स्थितिरभिह्ठिता,
प्रक्रमानुरूपण तु यात्कृष्टा कापातायाः रस्र्थातरसावेवास्याः
समयांधका प्राप्नाति, अधयत च कचनानन्तर सूच ्नयस्थाने
जा काऊइ ठिई खलु उक्कास ` त्यादि तदत्र तत्त्व न विद्यः।
पद्मायाः स्थितिमाह--या तजस्याः स्थितिः खलूत्कृष्टा सा-
उ ' त्ति सेव समयाभ्यधिका जघन्यन पद्मायाः स्थितिरिति
प्रक्रमः, ' दश तु ` इति दशव प्रस्ताबात्सागरापमाण मुह
क्ाधिकान्यस्फृष्टा, इये च जघन्या सनत्कुमार उत्कृष्टा
ब्रह्मलाक, तयारवेतदायप्कसंभवात् , श्रा -यदीदान्तसै-
हतर्माधिकमुच्यत ततः पूर्यत्राप कि न तदधिकमसुच्यत !
दवभवलश्याया पव तत्र विवक्तितत्वात् , प्रतिज्ञातं हि
तण षरं वाच्छामि, लसाण ठिई तु देवा ` ति, एवं सती-
हान्तमुंह॒र्ताधिकत्व॑ विरुध्यत, न अभिप्रायापरिज्ञानात् ,
अन्न हि प्रागुत्तरमवलश्या 5प “ अन््तोमुह॒त्ताम्म गए
त्ति वचनादेवभवसम्बांधन्यवति प्रदर्शनार्थामत्थम॒क्कामात
न विराध इति भावनीयम्) शक्रललषएयास्थातमाद-या
पद्मायाः स्थितिः खलृन्कृष्टा सा उ ` त्ति मव समयाभ्य-
{धिका जघन्यन शङ्कायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, 4
3 । ल्ाकात्प्रभ्रात यावत्सवाथासद्धस्तावत्सभव
। ठाणाण य जहन्नगाणं दव्बडयाए, पएसट्टयाए,
शत् मुहुत्तमब्भाहय त्त प्राग्वन्मुह त्ता भ्याधकान सागरा
पमारयु कृष्टात गम्यत अस्याश्च लान्तक्राभवानषष्ठदव-
, अज्वताव-
दायुपः सद्भाव इति रत्वति पञ्चदशसृ त्राः | उत्त ३४ अ०।
(२३) सप्रति अल्पबहुत्वमाह--
एएसि णं भत ! कण्टलस्साठाणाणं ०जाव सुक्कलसा-
दब्वद्रू
पणसद्रयाए, कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला
वा विससाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा
काउलस्साठाणा दव्वट्टयाए जहन्नगा नीललसाटाणा द-
व्यट्रयाए असखज्ञगुणा जहन्नगा कणहलेसाठाणा दव्व-
दरयाए असखज्गुणा जहन्नतेरलसाठाणा दब्वद्ठयाए
अरसंखेजगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा दव्हयाए असं-
खज्ञगुणा जहन्नगा सुकलसाठाणा दव्वहयाए असंख-
ज्गुणा पएसद्रयाए सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलसाटाणा
पएसट्टयाए असख ° जहन्नगा नीललसाटाणा पणएसद्रुयाए
असंखेजगुणा जहन्नगा करण्टलसाटाणा पएसद्रयाए अ-
संखज्ञगुणा जहन्नतउलस्साटाणा पएसट्रंयाए अर्स-
खेज्ञगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा पएसट्डयाए असं-
खज्जगुणा जहन्नगा सुकलेसाठाणा पएसट्टयाए असं-
खज्जगुणा ॥ दव्वट्डपएसट्डंयाए सब्वत्थोवा जहन्नगा
काउलसाठाणा दव्वद्रयाए जहन्नगा नीललेसाठाणा द-
व्यटयाए असंखज्जगुणा ॥ एवं कणहलेसाठाणा तेउले-
साठाणा पम्हलेसाठाणा जहन्नगा सुकलेसाठाणा दव्व-
दयाए असंखजगुणा जहन्नरएर्दितो सुक्कलसाटाणेहिता
दव्वड्रयाए जहन्नकारलसाठाणा पएसट्टग्राए असंखज्ज-
गुणा जहन्नया नीललेसाठाणा पणएसद्रयाए असंखेज्ज-
गुणा एवं ०जाव सुक्कलेस्साठाणा । एतेसि णं कण्हले-
स्साठाणाणं ०जाव सुक्कलस्साटाणाण य उक्कोसगार्ण
दव्बड्रयाए पएसट्रयाए दव्वद्रपणएसद्रयाए कयरे कयरे-
हितो अप्पा वा बहुया वा तुन्ना वा विसेसाहिया वा ?,
` गोयमा ! सन्वत्थ त्थोवा उक्कोसगा काउलस्साटाणा दव्व-
इयाए उक्करासगा नीललसाटाणा दव्वट्टयाए असंखेज्ज-
गुणा, एवं जहेव जहन्नगा तेहव उक्कोसगा वि नवरं
उक्कोस त्ति अभिलावो । एतेसि णं भते ! कर्टलेस्सा-
ठाणाणं ०जाव सुक्कलस्साठाणाण य॒ जहन्नउक्कोस
गाण दव्वदरयाए पएसट्डयाए दव्वद्रपणएसद्रयाए कयरे क
यरहते। अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विससादिया
वा :, ग।यमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेस्साठाणा
दन्वहयाए जहन्नया नीललेसाठाणा दव्धद्रयाए् असंख
॥ि । एवं कण्टतउपम्टलसद्ाणा जहन्नगा सक्कल-
ग्ज्ड
( ६६३ १
अधिधानराजन्द्रः
लसा
सट्ठाणा दव्वट्रयाए असंखेजगुणा जहन्नएहिता सुकल-
सद णेहिता दव्वट्टयाए उकामा काउलसट्टाणा दब्बद्र
याए असखज्जगुणा उक्कासा नीललसट्टाणा दव्वदरयाण
असं खेजगुणा एवं कणहतउपम्ह ०उक्रासा सुकलसाटाणा
दव्वटूयाए असंखज्जगुणा । पएसट्रयाए सब्वत्धावा
जहन्नगा काउलेसट्टाणा पएसडयाए जहन्नगा नीललम
रणा पएसटयाए् असंखज्ञगुणा एवं जहेब दव्वदयाण
तहव पएसट्टयाए वि भाणियव्वं, नवरं पएसट्रयाए नि
अरभिलावविससो, दव्वट्टपएसट्टयाए सनव्वत्थावा जहन्नगा
काउलसट्टाणा दव्वट्रयाए जहन्नगा नीललेसट्टाणा दव्य
इयाए असंखेजगुणा एवं कणहतेउपम्ह ०जहन्नया सु-
कलसट्टाणा दव्बइ्॒याए असंखेज़गुणा , जहन्नएहिता
सुक्कलेसाठटाणहिंतो दव्वट्रयाएं उक्कासा काउलेसा-
ठाणा दव्यट्टयाए असंखेज़गुणा उक्कोसा नीललेस्सट्टाणा
दव्वट्रयाए असंखेज्जगुणा एवं कण्टतेउपम्ह ०उक्को-
सगा सुक्कलसट्टाणा दव्वड्रयाए असंखेज्जगुणा उक्का-
सएहिंतो सुक्कलसद्ठ|ण ०दव्वट्टयाए जहन्नगा काउलस-
ढ्राणा पएसट्टयाए अणंतगुणा, जहन्नगा नीललेसट्टाणा
पएसट्रयाए असंखेज़गुणा एवं कणहतेउपम्ह ०जह-
नगा सुक््कलेसट्टाणा असंखज़गुणा, जहन्नएहिंतो सुक्क
लसाठाणहिता पएसट्टंयाएं उककोसगा काउलेसाठाणा
पएसद्रयाए असंखज़गुणा उक्क।सया नीललसाठाणा पएस
टयाए असंखेज़गुणा, एवं कणहतेउपम्ह ०उक्कासया
सुक्कलसाटाणा पएसट्टयाए असंखजगुणा । (सू० २३० )
ˆ पास रे भत ? ` इत्यादि, इह अणि अल्पवहुर्वानि.
तद्यथधा---जघन्यस्थानावषयम् , उत्कृष्टस्थानविषयम् , उभ-
यस्थानविषय च । पकेकमपि जिविधम ,तद्यथा-द्रव्यार्थतया
प्रद्शाथतया उभयाथतया च | तत्र जघन्यस्थानविषय द्र
व्याथताया ग्रदशाथताया च प्रत्यक कापातनालक्रष्णतजः-~
पद्मशुक्कलश्यास्थानानि क्रमण हे यथात्तर्मसंख्ययगुणानि-
वक्तव्यान, उभयाथताया प्रथमता द्रव्याथतया कापा तना-
लक्ृष्णतजःपद्मशुक्कलेश्यास्थानानि क्रमण यथात्तरमसंख्य -
यग्रुणान वचक्कन्यान, ततः शुक्ललश्यास्थानानन्तर प्रद्शा-
तया कापातलश्यास्थानान अनन्तगुणान वचङ्कत्यान.
तदनन्तरं नीलकृष्णतजःपद्मशुकललेश्यास्थानान क्रमेर
प्रद्शाथतया यथात्तरमसंख्ययगरुणानि . एवमुल्कशर्न्याप
स्थानान द्रव्याथतया प्रदरशाथतया उभयाधथेतया ञत्र च-
न्ताथतब्यान, तथा चा55ट2-- एव जहवब जहन्नगा तदव
3उक्कासगा तर नवरमुक्कासत्त आभलावा इात। जपघन्यात्क
एस्थानसमुदायावषय त्वत्पवहुत्त प्रथमता जपघन्यान द्वव्या-
शतदा कापातनालकृष्णतजःपद्मशुक्ललश्यास्थानान क्रमण
गव्रात्तरमस्स्ययगुखानि वक्ततव्यान, तदनन्तर जध्रन्यशुकल-
लण्यामस्थानभ्य उन्कृशान कापातनालक्रष्णतज प्रद्यश्रुक्लल
स्यास्थानान कमा ट्रत्याथतयेत् यश्रात्तरम्मसः ययगुगान
( ६६४ )
अखिधानर।जन्द्र। ।
लेसा
वाच्या, पच प्रदर्शाथतया ऽप जधघन्यात्कृष्टस्थानावषय म-
ल्पवहुत्व भावनायम् , तथा चाह--' एव जहंव दव्वद्ुयाप
नहव पएसदट्रुयाए व भाणयव्व, नवर ` पएसट्टडयाए त्ति
श्राभलाव वससा डत यार्थप्रदशा थैतायां प्रथमता
द्रव्या थतया जघन्यान कापातनालकृष्णतजःपग्म शुक्कल-
श्यास्थानान क्रमण यथात्तरमसख्ययगुणान वक्कव्यान |
तता जघन्यभ्यः शक्ललश्यास्थानभ्यः उक्कक्रमणव चात्कृष्टा-
नि स्थानानि द्रव्याथतया यथात्तरमसख्ययगुणान वा-
च्यानि तत उत्कृष्टभ्यः शुक्ललेश्यास्थानभ्यो जघन्यानि का- `
पातलश्यास्थानानि प्रदशाभरतया अनन्तगुणानि वक्कन्या-
नि ततः प्रदेशाथतयेब जघन्यानि नौलकृष्णतेजःपद्मशुक्क-
लश्यास्थानानि यथात्तरमसख्ययगुणान एवसुत्कृष्टस्था-
नान्यपि उक्घक्रमणेव
सीत । प्रज्ञा० १७ पद् ४ उ०।
(२४) साम्प्रतमायुद्धारावसरः.तत्र च यस्या लेश्याया यदा
युषा माने तत्स्थितिद्धार पवा शता ऽभिहितम् . इह त्विदमुच्य
यधातक्तरमसख्ययगुणान वक्तब्या-.
ते अचश्य ह जन्तुयन्नश्यपृत्पद्यत तन्लश्य एवं प्रयत, यत |
जस्लसाई दव्वाइई परियाइत्ता काले करेइ
आगमः--
तज्नलसो उववज्ञइ ” त्ति, तथहँब वच्यति ^ श्रना मुहुक्तम्मि
गए ” इत्यादि तत्र जन्मान्तरभाविलेश्यायाः कि प्रथमसमय
परभवायुष उदय त्राहास्विश्चरमसमय ऽन्यथा वेति सेशया- |
पनादनायाद--
लेसाहिं सव्वार्हि, पदमे समयम्मि परिणयाहिं तु ।
न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ ५८ ॥ |
लमाहि सव्वार्हि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु ।
न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥५६॥
अतयुहुत्तम्मि गए, अतयुहुत्तम्मि ससए चव ।
लसाहि परिणयाहिं, जीवा गच्छति परलोयं ॥ ६० ॥
लश्याभिः--उङ्करूपाभिः सवोधिः इति-षडिरपि प्रथमे स
मय तत्प्रतिपान्तिक्रानापेक्तया परिणताभिः--प्रस्तावादात्मरू
पतामापन्नाभिः, लक्षण चतीया, तुः-- पूरणे, न इु-नेव क
स्यापि 'उबवत्ति' त्ति उत्पत्तिः-उन्पादः, पठ्यत- न वि कस्स
वि उवववाश्रा' त्ति खुगमम् .पर-श्रन्यस्मिन भव-जन्मानम
चति-विद्यते जीवस्य-जन्ताः, तथा ल्या भिः स्वाभिः चरमे
भ्मये इति--श्रन्तसमय परिणताभिस्तु न ह--नेव क
स्याप्युत्पत्तिः पर भवे मवति जीवस्य । कदा तर्हि १ इत्याट्
अन्तमुंहर्त गत णव--श्रतिक्रान्त णव, तथाऽन्तसुहत्त
शपके चव-श्रवतिठमान एवं लश्याभिः परिखताभरुपल
क्षिता जीवा गच्छन्ति परलाकम्-भवान्तरम् . इत्थे चेतन्स
नकाले भाविभवलश्याया उत्पत्तिकाल वा ऽतीतभवलेश्या-
या अन्त्मुहत्तेमवश्ये भावात् न त्विह विपरीतमवधायत-
थन्तसंहर््त एवं गत इत्यन्तमंह्त एवं शपक इति च, दव-
रकाणां स्वस्वलश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तमुहत्तेद्दयसहित-
निजायुःकाले यावदवास्थितत्वात् , उक्क हि प्रज्ञापनायाम्-
` जल्लसाई दव्वाइं आयतिक्ता काले करेति तल्लससु
उबवज्जइ' न्ति, तथा 'कगहलस णर्रातए कराटलससु णर इप-
सु उवचज्जति कगहलसखु उव्वट ` “ जज्लस उचबवज्जइ
तज्ञ उच्बर्ड्धात' एवं नीललेस वि, काउलेस वि,एवं-असुर-
तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुचई कण्हलेसा नीललसं प-
कूःमारा० जाव वमाणय ते, अननान्तमहक्ताचशप
ष परमनवलम्यापारणाम इन्युक्र भवतात त
त्थ लश्याना नामादाभ्रथाय साम्भ्रतमध्ययताथ-
मुपसाजहाषुर पदशमाह-
तम्हा एयासि लसाणं, अणुभाव वियाणिया ।
अप्पसन्था उ वज़ित्ता,पसत्थाओऊहिट्ढ ए ग्रुणी ॥६१॥
` तम्ह ! त्ति यस्मादता अप्रशस्ता दुर्गातहेतवः प्रशस्ताश्च
खुगतिदेतवस्तस्मात् एतासाम--अनन््तरसमुक्कानां लेश्या-
नाम अनुभागम-उक्करूप वज्ञाय वशधघणाःवचवुध्य अप॒नश- त
स्ताः-ङ्ष्णाद्यास्तस्रा वजायन्वा प्रशस्ताः-तजस्याद्या- ०
स्तिस्रः श्रधितिष्ठत्-भावप्रतिपत्या ऽऽश्रयन्मुनिरिति शेष `
इति सूजाः । उत्न० ३४ आअ० |
( २५ ) कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तद्रपतया-
परिणमती त्याह-- । ।
कड णं भते ! लेस्साओ पन्नत्ताओं गोयमा ! छ&
लेस्साओ पनत्ताओ्रो,तं जहा-कण्हलेसा ° जाव सुकलेसा । |
से नृणं भते ! कण्टलेसा नीललसं पप्प तारूवत्ताए ताव-
न्नत्ताए तागेधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो अज्ञो .
परिणमति, इत्त आदत्ते जहा चउत्थओं उदसश्रो तहा `
भाणियव्वं जाव वेरुलियमणिदिडतो ति ॥ से नृणं भते !
कण्टलेसा नीललेसं पप्प णो ताख्वत्ताए०जाव णो ता
फायत्ताए थुञ्जो भुज्ञा परिणमई १, हंता गोयमा !
कण्हलेसा नीललेस्सं पप्प णो तास्वत्ताए णो तावन्न ,
त्ताए णो तागेधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्तए | `
युजो यजो परिणमति, से केणट्वेणं भते ! एवं वुच्चह ¢
गोयमा ! आगारभावमायाएवा से सिया पलिभाग-
भावमायाएवा से सिया कर्टलेस्सा णंसा शो
खलु नीललेसा तत्थ गया ओसकइ उस्सकड वा, से
प्प णो तास्वत्ताए० जाव भुजो भुजो परिणमति,
से नृणं भते ! नललेसा काउलेसं पष्प णो तारू-
वत्ताए० जाव भुञ्ज भुज्जे। परिणमति ?, हंता गोयमा !
नीललेसा काउलेसं पप्प णो तास्वत्ताए० जाव अज्जों
मुञ्जो परिणमति, ते केणटणं भते ! एवं वुच्चई-नीललं-
सा काउलेसं पप्य णा तास्यत्ताए० जाव अओज्जो भ
ज्जा परिणमति ?, गोयमा ! आगारभावमायाए वा
भिया पलिभागभावमायाए वा सिया नीललेस्मा शं
सा णो खलु सा काउलेसा तत्थ गया ओसक्ह
उस्सकति वा, से एएणद्रणं गोयमा ! एवं बुच्चह |
नीललेसा काउलसं पप्प णो तास्वत्ताए० जाव श्रुर
ज्जों भज्जो परिणमति, एवं काउलेसा तेउलसं पष्य
तेउलना पम्हलेस पप्य पम्हलेसा सुकलेस पष्प, से ।
॥
। 2
। }
कसा
ञ्रभिधानराजन्द्रः।
) क
लेखा
नशं भत . सुकलसा पम्हलस पष्प णा ताख्वत्ताए०
जाव परिणमति ? , हंता गोयमा ! सुकलेसा ते चेव,
से केणद्रणं भते ! एवं वुच्चति-सुकलेसा ० जाव
शो परिणमति ?, गोयमा ! आगारभावमायाए वा०
जाव सुकलसा संसा णो खलु सा पम्हलसा तत्थ
गया ओसकह , से तेणद्रेण गोयमा ! एवं वुच्च३०
जाव ण परिणम् | ( मरू २३१ )
इ गो भत! लस्साओ पन्नत्ताओं ' इत्यादि , चतु-
शद्वशकवत् तावद्धक्रव्यं यावद्धट्यैमणिद्ान्तः , व्याख्या
च प्राग्वदेव निरवशपा कत्तव्या, प्रागुपन्यस्तस्याप्यस्य
सत्रस्य पुनरुपन्यासो ऽग्रतनसत्रसम्बन्धार्थः, तदेव सूत्र-
प्राह- से नृण भेत !` इत्यादि, इह ति्यड्नुष्यविषय
सत्रमनन्तरमुक्कम् , इदं तु देवनेरयिकविप्रयमवसयम् , दवन-
रिका हि पृवेभवगतचरमान्तसुहत्तादारभ्य यावत् पर-
भवगतमाद्यमन्तमुहृतं तावदवस्थितलश्याकाः, ततो5मीषां
कृष्णादिलेश्याद्रव्याणां परस्परसम्पकर$पि न परिणभ्यप-
रिणामकभावा घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्चयति--
स नृण भत! ` इत्याद , सशणब्दाऽथशब्दाथः, स च
प्रश्न, अथ नूनम् निश्चितं भदन्त ! कृष्णलेश्याः कृष्णल -
श्याद्रव्याणि नीललश्या नीललश्याद्रव्याणि प्राप्य , प्रा-
प्रिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रे गृह्यत न तु परिणम्यपारिणा-
मकभावेनान्याऽन्यसंश्लेषः , तद् पतया-तदव-नाललश्या-
द्रव्यगत रूपम्-स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य तत्त-
दृष तद्धाचस्तद्रपता तया , एतदव व्याचष्ट-न तद्वरण-
तयान तद् गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पशतया भू-
या भूयः पारणमत, भगवानाह -हन्तल्याद् , हन्त गातम |!
रृष्णलेश्यत्यादि तदव , नयु यदि न परिणमत त-
दि कथ सप्तमनरक्पूथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभः, स
हि तजालेश्यादिपरिणामे भवाति सप्तमनरकप्रथिव्यां
च कृप्णलश्यति , कथे चेतद् वाक्यं घटते ?
* भ्ावपरावत्तीए पुण सुरनरद्याणे पि छुल्लसा `
लश्यान्तरद्रव्यसम्पकतस्तद्रपतया परिणामाऽसम्भवेन भा-
चपराव॒त्तरचायागात् , अत एवं तद्विषये प्रश्चनिवैचनसूत्र
आहर--स कगद्रुग भते ! ` इत्याद तत्र प्रश्नसूत्र सुगम न-
चचनसत्रम- ्ाकारः- तच्छायामात्रमाकारस्य भावः-
सत्ता आकारभावः स ण्व मात्रा आका रभावमात्रा तया आ-
कारभावमात्रया, मात्राशबद श्राकारभावातिरिक्रपरिणामा-
स्तरप्रतिपत्तिव्युदासार्थ:, 'से' इति--सा कृष्णलेश्या नील-
ल्श्यारूपतया, स्यथात् यदि वा-प्रतिभागः-प्रतिविम्बमा-
दर्शादाविव विशिष्टः प्रतिविम्ब्यवस्तुगत आकारः प्रति-
भाग एवं प्रतिभागमात्रा तया, अजञ्रापि मात्राशब्दः
तिविम्वातिरिक्रपरिणामान्तरव्युदासाधः स्यात् , कृष्णले-
श्या नीललश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्येव नो
खलु नाललश्या सा, स्वस्वरूपापरित्यागात् न खल्वाद-
शादया जपाकुसुमादिसान्निधानतस्तत्प्रातिबिम्बमात्रामा-
दधाना नादशादय इति परिभावनीयमेतत् , कवले सा क-
इति |
प्र- |
। £ तज्र-स्वस्वरूप गता-श्रवांस्थता सती उत्प्वष्कत |
तदाकास भ्ावमात्रतार ण॒त स्तन्प्रतिविम्बमात्रवा रणता वा-
त्सप्पंतीत्यर्थः. कृष्णलश्यातो हि नीललश्या विशुद्धा ततस्त-
दाकारभाव तत्प्रातिविम्विमाज वा दधाना सती मनाक वि-
शुद्धा भवतीत्युनसपतीति व्यपंदिश्यत ` उपसंहारवाक्यमा-
ह--'से एणणट्टेण ' मित्यादि, सुगमम् । एवे नीललश्याया
कापातलश्यामाधिकृत्य कापातलश्यायास्तजालश्या मधिकृत्य
तजालश्यायाः पद्मलेश्यामधिकत्य पद्मलश्यायाः शुक्कल-
श्यामधिकत्य सूत्राणि भावनीयानि, सम्प्रति पद्मलश्या-
मधिकृत्य शुक्गलेश्याविषय सृत्रमाह--'से नृण भेत ! सु-
कलेसा पम्हलेस पप्प ' इत्यादि, एतच्च प्राग्वद् भावनीयम् ,
नवर शुङ्ग नश्यापत्तया पद्मलश्या हीनपरिणामा ततः शुक्ल-
लेश्या पद्यलेश्याया आकारभावे तत्प्रतिविम्बमात्र वा भजन्ती
मनागविशुद्धा भवति, तता ऽवष्वष्कत इति व्यपदिश्यत, एव
तेजःकापातनीलरूष्णलश्याविषयारयपि सत्राणि भावनीया-
नि.ततः पद्मलेश्यामधिकृत्य तजःकापातनीलकृष्णलश्यावि-
पयाणि तेजो लश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्णविपयाणि का-
पोतलेश्यामधिकत्य नीलरष्णलश्याविषय नी ललेश्यामधिक्र-
त्य कृष्णलश्याविषयमिति , अमूनि च सूत्राणि साक्षात्
पुस्तकेषु न दृश्यन्त केवलमश्तः प्रतिपत्तव्यानि , तथा
मूलटीकाकारेण व्याख्यानात् , तदवे यद्यपि देवनेरयि-
काणामवस्थितानि लश्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीय-
मानलेश्यान्तरद्रव्यसम्पकंतः तान्यपि तदाकारभावमाच्रां
भजन्ते इति भावपराचृत्तियोगः षडपि लेश्या घटन्ते ,
ततः सप्तमनरकपूथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभ इति न क-
श्चिदोषः । प्रज्ञा० १७ पद् ५ उ०।
(२६) मनुष्यादिगनलश्यासं ख्या मा ह--
कति शं भत ! लेसा पन्नत्ता १, गोयमा ! छ ले-
सा पन्नत्ता , तं जहा-कण्हलेसा ०जाव सुक्कलसा ,
मणुस्साणं भते | कड लेसा पण्णत्ता ?, गोयमा !
छ लेस्साओ पण्णत्ताओं , त॑ जहा-कण्टलसा तत ०जाव
सुक्कलसा, मणुस्सीणं भते ! पृच्छा , गोयमा ! छ-
ज्लेसाओ पप्पत्ताओ , तं जहा-कणहा ० जाव सुक्का, क-
म्मभूमयमणुस्साणं भते ! कड लेसाओ पण्णत्ताओ ३,
गोयमा ! छ लेसाओ पण्णत्ताओं, तं जहा-कणहा ०जाव
सुक्का, एवं कम्मभूमयमणुस्सीण वि । भरहेरवयमणु-
स्ाणं भते ! कति लेसाश्रो प्पतताश्रो { , गोयमा ! छ
लेसाओ पप्मत्ताओ, तं जहा-कण्टा ०जाव सुक्का, एवं
मणुस्सीण वि, अकम्मभूमयमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा !
चत्तारि लेसाओ पप्मत्ताओ , तं जहा-कणहा ० जाव
तेउलेसाओ एवं अकम्मभूमिगमणुस्सीण वि, एवं अंतरदी-
वमणुस्साणं , मणुस्सीण वि, एवं हेमवयएरननवयञ्र-
मम्मभूमयमणुस्साणं , मणुस्सीण य कद लेसाओ प-
घत्ताओ ?, गोयमा ! चत्तारि , लेसाग्रो पष्पत्ताश्रो, तं
जहा कण्टा ° जाव तेउलसा, हरिवासरम्मयअकम्म-
भूमयमणुस्साणं मणुस्सीण य पुच्छा , गोयमा ! चत्ता-
रि, तं जहा -कशहा ० जाव तेउलेसा , देवकुरुउत्तर-
( ६६६. )
आआामभमधानराजन्द्र: |
लसा
कुरुअकम्मभूमयमणुस्सा एवं चव, एतमि चव मणु
स्मीणं एवं चव , धायटमडपरिमश्द्र वि एव चव , प-
च्छिमष्द्ध वि एवं पुक्खरदीवे वि भाणियव्य | कण्हले-
से ण॑ भेते ! मणुस्से कण्हलेसं गन्म जा (ज)णज्जा?, हता
गोयमा ! जाणज्जा , कणहलसा मणुस्मे नीललसं
गब्भ जाणज्जा? , हंता गोयमा ! जाशेज्ञा, ०जाव सु-
कलसं गब्भ जाणज्जा, नीललसा मणुस्से कणहलेसं
गब्भ जाणेज्जा १ हंता गोयमा ! जाशज्ञा , एवं नी-
ललसा मणुस्से ०जाव सुकलेस गर्भ जाशेज्ञा ,
वं काउलसणं छप्पि आलावगा भाणियव्या, तेउल-
साण वि, पम्हलेसाण वि, सकलसाण वि, एवं छ-
त्तीस आलावगा भाणियव्वा, कण्हलसां इत्थिया क-
णहलेसं गब्भ जाणज्ञा ?, हंता गोयमा ! जाणज्जा, एवं
एत वि छत्तीस आलावगा भाणियव्वा कणहलेसा शं
मेते ! मणुस्से कण्हलसाए इत्थियातों कण्हलेस ग्भ
जाशज्जा ?, हंता गायमा ! जाणज्जा, एवं एत छर्त्तासं
आलावगा, कम्मभूमगकण्हलेस णं भते ! मणुस्से क-
णहलेसाए इत्थियाए कण्हलेसं गब्भं जाणज्जा?, हंता ।
गायमा ! जाशज्जा, एवं एत छत्तीस आलावगा भाणि-
यव्वा, अकम्मभूमयकणहलेसा मणुस्सा अकम्मभूमयकणह-
लसाए इत्थियाए अकम्मभूमयकणहलेसं गब्भ जाणे-
१, हंता गोयमा ! जाणेज्जा, नवरं चउसु लसासु
मलम आलावगा, एव अतरदावगाण व|
कइ रो भेत ! लस्साश्रा पन्नक्ताआ ` इत्यादि. सुगमम्
डद्शकर्पारसमाध्ति यावन् , नवरमुत्पद्ययमाना जीवा ज-
न्मान्तर लश्याद्रव्यारायादायान्पद्यत तानि च कस्यचि-
त्कानिचिदिति । करष्णलण्यापरिणने ऽपि जनके जन्यस्य
विचित्रलश्यासभवः, एवं शपलश्यापरिणत ऽपि भावर्नाय-
यम् ॥ प्रक्ना० ६७ पद ६ उ० । ( ध्यानिनां लश्याः
` रूहज्भाण ` शब्द । )
सृ०२३२)
द् ऽस्मिन्नव भाग ५६८ पृष्ठ उङ्काः
किरण, ज्ञा० १ श्रु० ६ अ०। तजसि, भ० १४ श० ६ उ० ।
देहवर्रासुन्दरतायाम् , जी० ३ प्रति० ४ अधि०। “ अतम हु-
त्ताठईआ, तिरियनराणं हवेति लसाओ ` पवे युगलिनामपि
धव लश्यास्थितिकाला ऽन्यथा वति ? प्रश्नः, अत्नात्तरम
युगलिनामप्यन्यतियङ्मनुष्यवदान्तर्मौहृत्तिको लश्यास्थि
तिकाला ज्यः, प्रज्ञापनावृत्त्यादिष्वविशषण तथाऽभिधानः
दिति ॥ ६० ॥ सन० २ उल्ला० |
विषयसूची--
( १ ) लश्यानिक्तेपः ।
(२ ) लेश्या संख्या |
( ३ ) नरयिकादानां लश्याः।
( ४ ) श्रसुरकुमारादीनां, देवानां च लश्याः।
( ५) कृष्णादिलश्यावन्तः क 5ल््पर्खिकाः के महर्खिकाः |
(६ ) कृष्णलण्यां प्राणधाय अवधिना कियत्क्षत्र पश्यति |
(4 प |
(४ हू
(७) का लश्या कतिषु स्थानषु लभ्यत ।
(८ ) का लश्या कन परिणामन परिणमति।
( ६ ) लेश्यानां वर्णाधिकारः।
( १० ) विशषता वर्णाधिकारः ।
(११ ) कृष्णादिलश्याकनार काणां स्थित्या 5ल्पमहत्त्वम }
२ ) लश्यानां वणस्थानम् ।
३ ) लश्यानां रसांधकारः।
४ ) लश्यानां गन्याधकारः।
५ ) लश्यानां शुद्धाशु दृत्वाधिकारः ।
६) लश्यानां शीताष्णस्पर्शाधिकारः । |
७ ) लश्यानां गातिद्धारम् । |
८ ) लश्यानां परिणामसख्यानिरूपणम् ।
६ ) लश्यानां त्रिस्थानकावतारः ।
) लश्यानां प्रदेशाः ।
) लश्यानां स्थानानि |
) का लश्या कियत्काल तिष्टति। ।
)
२३ ) लश्यास्थानानामरपवदहुत्वम् |
२७ ) लश्यानामायुद्धारम् । ।
( ८५ ) लश्यानां परस्परपारिणामानरूपणम | ॥
( २६ ) मनुष्यादिगतलश्यासंख्यानिरूपणम् |
लेस्सापरिणाम लश्यापरिणाम-पु° । जीवानां लेश्यापरिण-
तौ. प्रज्ञा० ६३ पद | स्था०। द 4
लस्साभिताव- लश्यामिताप-पुं । तजसोऽभितापि, भ०८ |
श० ८ उ०।
लस्सि (ण)-लेश्यिन्-त्रि० । लश्या वियते येषां ते लेश्वि- `
नः | शिखादेराकृतिगणत्वादिनप्रत्ययः । लश्य(वति, बृ० १
उ० ९ प्रक०।
लेह-लख पुं° लखने लखः ।
१। १८७ ॥ इति खस्य हः । प्रा० । श्क्तरविन्यासे, स० ७२ `
सम० | आ० चू० | प्रव० | आ० म० । बृ० । ज्ञा० । लिपिप-
रिज्ञान, नं० | तद्धिपय कलाभद, ज० २ वक्ञ० । लिख्यते इति
लेखः । ग्रन्थे, आव० ६अ०।
लह(लिक्ख)ग- लख्यक्-न० | व्यवहारादिसम्बन्धनि पत्र-
चये,प्रव० ३८ द्वार ।
लहड-दशी-लम्पर, दे० ना० ७
लहणा -लखना- खी ०। सत्पुस्तकेषु अक्षरविन्यसने, “तथा |
सिद्धान्तमाश्रित्य, विधिना लखनादि च । ” द्वा० २१ द्वा०।
लस्सागईइ-लश्यागति-खी०। तियङ्मनुष्याणां कृष्णादिले-
श्याद्रव्याणि संप्राप्य तद्रपादितया परिणमतीति लेश्याग-
निः । गतिभदे, प्रज्ञा० १६ पद । ‡ ।
। लेस्साणुवायगह-लश्यानुपातगति-ख््री ० लेश्याया अनुपातो-
अनुसरणे तन गतिलेश्यानुपातगतिः। गतिभेद, प्रज्ञा०१६पद |
लहना -खी० | आखादने, कल्प० १ अधि० १ क्षण ।
लेहणी-लखनी -स््री० | लेखनसाधन, ( कलमे ) रा०।
लहसाला-लखशाला-ख्री० । अक्षरविन्यसनशिक्षणशाला-
(
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“ ख-घ-थ-घ-भाम् ` ॥६॥
वर्म २५ गाथा।
याम् , श्रा० चू० ६ झ० |
|
वीरस्य लेखशाला प्रवेश:-
| झथ ते मातापितरौ, विज्ञो ज्ञात्वा ऽ्टवरषमतिमोहात्।
चरममितालङ्गारे-रुपनयता लखशालायाम् ॥ १ ॥
लग्नदिवसव्यवस्थिति-पुरस्सरं परमहपैसम्पन्नो ।
प्रौढोत्सवान्महार्घान् , वितेनतुधनधनव्ययतः ॥ २
तथाहि--
गज़तुरगसमूहैः स्फारकेयूर हारे
कनकपघार्टितमुद्राकुण्डलेः कङ्कणः ।
रुचिरतर दुकू लः पञ्चवरीस्तदानीं
स्वजनम॒खनरन्द्राः सत्क्रियन्त स्म भक्त्या ॥ ३॥
तथा--
पणिडतयोग्यं नाना, बख्रालङ्कारनालिकेरादि ।
श्रथ लखशालिकानां, दानाथमनकवस्तूनि ॥ ४॥
तथाहि-
पृगीफलशङ्गार क-खञ्जरासतापलास्तथा खराडा ।
चारुकुली चारुवी जा-द्रात्तादिसुख(शिकाव्न्दम् ॥ ५४ ॥
सौवशरत्नराजत- मिश्राणि च पुस्तकोपकरणानि ।
` कमनीयमपषीभाजन-लखानिका पट्टिकादीनि ॥ ६ ॥
बार्देवीप्रतिमार्चा-कृतय सोवणमूपरा भव्यम् ।
नन्यवहुरत्नखचिते, छात्राणां विविधवसख्राणि ॥ ७ ॥ "`
इत्यादि समग्रपठनसामग्रीसहितः , कलब्द्धादिभि-
स्तीरथोदकेः स्नपितः , परिहितप्रचुरालङ्कारभासुरः
शिरोधृतमधघाडम्बरच्छत्रश्चतुरङ्गमेन्य परिवृता वाद्यमाना-
नकचादित्रः परिडतगहमुपाजगाम । परिडताऽपि
भृपालपु्रपाठनाचितां पवैपरिधेयत्तीरादक-धौंतकट-
मयज्ञापवीतकसरतिलकादिसामग्री यावत् करो--
ति तावत् पिप्पलपरवत् , गजकगावत् , क पररिध्यानवत्
जरृपतिमानवत् चलाचलसिदासनः शक्रा ऽर्वाधिना ज्ञातत-
त्स्वरूपो दवान् इत्थमवादीत--अहो ! महतखित्रम , यद्ध
गवतो $पि लखशाइलायां माचनम् ।
यतः--
» साम्र वन्दनमालिका स मधुरीकारः सुधायाः स च.
ब्राहम्याः पाठविधिः स शुश्चिमगुणारापः खुधादीधितों ॥
कल्याण कनकच्छुटा प्रकटन पावित्रयसंपत्त ये
शास्त्राष्यापनमह ता भप यादद सल्लखशालाकृत ॥ १ ॥
मातुः पुरा मातुलवर्णन तत् , लड्भानगयां लहरीयकं तत् ।
तत्पाश्र॒त लावणमम्बुराशः.प्रभा, परो यद्धाचसां विलासः।२।
यतः--
» अनध्ययनविद्धांसा, निद्वेव्यपरमेश्वराः ॥
अनलङ्कारखुभगाः, पान्तु युष्मान् जिनश्वराः ॥ १॥
इत्यादि वदन् क्रतव्राह्मणरूपस्त्वारितं यत्र भगवांस्ति-
षति तत्र परणिडतगद समाजगाम, आगत्य परणिडतया-
ग्ये आसन भगवन्तसमुपवेश्र्य परिडतमनागतान संदेहान
श्रीवीरोऽपि वालाभ्यं करि वच्यतीत्युत्कर्णेषु सकल-
लोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ, तता जेनन्द्र व्याकरणं जज्ञ |
यतः--
» स्का श्र तस्समक्खे, भगवन्तं आसण निवसित्ता ॥
(4 लक्खणे पुच्छ, वागरगो अवयवा इदं ॥ १॥”
जना विभ्मयं प्रायः. आटा वालनायि चर्जमानकुमारण
2७४५
{ 5६६७४)
अशिधानराजन्द्र: | साउज्जाय
एतावती विद्या कुत्राधीता. परिडता ऽपि चिन्तयामास--
अआबालकालादपि मामकीनान ,
यान् सशयान् काऽपि निरासयन्न |
विभद तांस्तान्निखिलान् स एप,
बालाऽपि भाः पश्यत चित्रमतत्॥ १॥ ``
किच--श्रहो इदटशस्य विद्याविशारदस्यापि ईंहश गाम्भी-
यम् । अथवा- युक्कमेवदम् ईदशस्य महात्मनः ।
यतः--
गजांत शर्राद न वषति, वपति वर्षास निःस्वना मघः ।
नीचा वदति न कुरुत, न वदति साधुः करात्यव ॥ १॥
तथा-
सारस्य पदार्थस्य, प्रयणाडम्वरा महान ।
न हि स्वर्ण ध्वनिस्तारग् , यादक् कांस्य प्रजायत ॥
इत्यादि चिन्तयन्त पणिडते शक्रः प्राचाच--
“` मनुष्यमात्र शिशुरष विप !, न शङ्कनीया भवता खचित्त `
विश्वत्रयीनायक एष वीरा,जिनश्वरा वाङ्मयपारदश्वा।२।''
इत्यादि, श्रीवद्धेमानस्तुति निमय शक्रः स्वस्थाने जगाम ।
भगवानपि सकलज्ञातक्तत्रियपरि कालतः स्वगृहमागात् , इति
श्रालखशशालाकरणम् । कलप० १ आध० ४ त्षण ।
लहायारय- लखाचाये-एु० । उपाध्याय, आ० म० १ अ० |
लेहुड-देशी-लाष्ठवाचके, दे० ना० ७ वरग २४ गाथा ।
लोअ-लोच-पुं० । ` क--ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्राया-
लुक ॥ ८। १। १७७ ॥ इति चकारस्य लुक् । प्रा० । कशानामु
त्पाटन, सूत्र० १ श्रु० ५ श्म १ उ०।
लोक-पऐुँ० । जगति, “ भुश्चणे जय च लाओ ” पाइण्ना०
१०० गाथा |
लो्रण- ख्री° । न० । लोचन-न०। नत्र.“ वा ऽच्यथैवचनादयाः
॥८।१।३३॥ इति प्राकृत खीत्वं वा। लोश्रणा । लोश्र-
णाई । प्रा० १ पाद ।
लोइय-लोकिक-ए;ँ? । लोक भवा. लोक वा विदिता इति
लोकिका अध्यात्मादित्वादिकण् | सूत्र० १ श्रु० ३ अ० २ उ५।
इतिहासादिकत्षु, दश० ४ अ० । लाकाचीरी.उन्न ० । अनु०।
सामान्यलाकाश्रय, स्था० ३ ठा० ३ उ५ | सू प्र० । न ० |
लाईइयकदा-लौकिककथा- खी० । श्रसंविस्मलाक्सम्बन्धिन्यां
कथायाम् , प्रश्न० ४ सब० द्वार |
लोइयमग्ग-ले।किकमार्ग-पुं० । यथार्वास्थतशब्दा थी नमभिश-
मुग्धजनव्यवहार, अन० १ अधि० ।
लोउजोय-लोकोद्योत-पुँ० । लोकप्रकाश, स्था०।
चरउदहि ठाणहि लोउज्ाते सिता, त॑ जहा-अरहंतेहिं जाय-
गहि अरहंतेहिं पच्वतमाणे हि अरहंताण णाणुप्पायमहि-
मासु अरहताण पारानेव्वाणमाहमास ४ | ( सृ० ३२४ )
` चजही ` त्यादि, खुगमश्चाये. नवरं लाकोद्यातश्रतुर्ष्वि
स्थानघु देवागमात् , जन्मादटित्रय तु स्वरूपणापि | स्था० ४
जा» २ उ |
( ६६२ )
लोउत्तर
लोउत्तर-लोकोत्तर-न० । लोकस्योत्तरम-प्रधाने लोकोत्तरः
म् । जनशासन, अचु“ | नित चू० ॥
लोउत्तरिय-लोकोत्तरिक -न० । लोकोत्तर--जिनप्रवचने भवे |
लोकोत्तरिकम् । जिनग्रवचनभव, लोकोत्तराणि यानि न
लाके प्रसिद्धानि, कितु-प्रवचन एवं कृतानि तानि लोको- |
त्तराणि। शास्त्रमात्रधलिद्धे, खू०प्र० १० पाहु० । व्य० । नि०्चू०।
लोक-(ग)(य)-लोक-पुं० । लोक्यत इति लोकः । लोक
दर्शन इत्यस्माद् घाताः । “ अकत्तेरि च कारके सज्ञायाम्
दात घज । आच्ा० १ श्रु० १ उ० | लाक्यत दश्यत क-
वलज्ञानभास्वतात लाक्रः। आब० ५अ० | चतुद्शरज्ज्वात्मक |
( आचा० १ श्रु० २अ०१उ०।) धम्माधम्मास्तिकायव्य-
वच्छिन्ने अशपद्रव्याधार वेशाखस्थानकटिन्यस्तकरयुग्म-
पुरुषा पलक्षित आकाशखगण्ड, आचा० ट श्रु० २ अ० १ उ०।
पश्चास्तिकायात्मके, सूत्र १ श्रु० १२ आ० । लाक्यते-
प्रमाणन दश्यत इति भावः । आब० ६ आ० ।
श्राचा० । ल० । विश० । आवब० । सूृ० प्र० । आ०
म० |“ धम्मांदीनां वर॒त्ति-द्रेव्याणां भवति यत्र तत् क्षत्रम् ।
लेंद्रव्येः सह लाक्-स्तद्वपरात ह्लाकाख्यम् ॥ १॥ आवण
४ ० । अनु० । विश० । ल० ।
चतुदशरज्जुपमाणे चत्थम्-
( १) तत्र कियत्प्रामाणो लोक इत्याह--
चउदसरज्ज् लोओ, वृद्धिकओ होई सत्तरज्जुधणो (६७)
चतुदेश रज्ञवा यस्य स चतुदेशरज्जुः, रज्जुप्रमाणतु स्व-
यञ्रूरम्रणसमुद्रस्य पारस्व्यपाश्चरा्यवाद्कान्त याव्ात्तणा- |
सरचाद्क्रान्त का यावदकलयम , उच्छुयमानामद्मस्य-ञअधः-
स्तादेशोनसप्तरज्जुविस्तर., तिर्यगलाकमध्य एकरज्जुविस्त- '
रः ब्रह्मलाकमध्य पञ्चरज्जुावस्तीणः , उपारे त लाकान्त |
एकरज्जुविस्तृतः , शपस्यानघु पुनः कोऽपि कियानस्य
विस्तर इत । तदचरूपा लाका बुद्धकता-मातपारक-
ल्पनया वत्रदद्ता भवात---स्पद्यत, ।करूपा भ्रवतांत्याह-- |
सत्त रज्ञवः धमाणतया यस्य स सत्तरज्जुः स चालं घन-
श समचतुरस्र आयार्माचष्कम्भवाहटयस्तुल्यत्वात् सप्तर- |
ज्जुघनः । स चत्थ बुद्धा विधीयत--इह रज्जुविस्तीर्णा- |
याख्रसनाङ्या दाक्षणादग्वत्यधालाकखण्डमधथादशानरज्जु-
जयावचस्तृतम् , कमण रीयमानावस्तारे तावद्यावदुपरिष्ा-
ड्रज्जुसख्ययभागावस्तार सातरकसप्त ग्ज्ज्च्छ्य ग्रहात्वा
असनाडिकाया णएवात्तरदिग्भाग विपरीतं योज्यते, उपरितन-
भागमधःकऊत्वा5थस्तन चापार वबधाय सघात्यत इत्यथः ।
एव च कृत5उधस्तन लाकस्याशत्र सातरकसप्तरज्जाच्छुत
किचिदुनगज्जुच तुएयाबिस्तीण बाहर्यताउप्यथ:ः: क्ातच्रदशा- |
नसमत्ज्जुमानमन्यत्र पुनरानयतबाहल्य जायत । इृदानामु-
पाग्तनलाकाथ सवत्यत-तत्राप रज्जुन्म्तरायास्त्रसना ड
काया दाक्तणादग्वातना ब्रह्मलाकमध्यादथस्तनमुपारतन च |
द्व अपि खण्ड ब्रह्मलाकमध्य प्रत्यकं द्विरज्जुविस्तर उपर्य- |
लाकसमाप<धस्तु रत्नश्रभाक्षुन्लककध्तरसमा प<5छ्रुलसहस्त्र भा-
गावस्तरवता दशानसाधथत्रयरज्जाचछूत बुद्धध्या गृहात्वा
अस्नना। डकाया प्चात्तरपाश्व पुृतव्रादतस्वरूपणन वपश्ात्यन
सधात; पत्र च कृत उपारतन लाकस्याघ्र द्वार ¶ापङ्कुल-
|
|
लाक
हस्र मागाभ्यामधिकरज्जुजयविष्कम्भम् , इद चतुणा
रडानां पयन्तषु चत्वार ऽङ्ुलसदस्रभागा भवन्ति, केवलमे-
कस्यां दिशि याजिताभ्यां द्वाम्यामप्येक एवाङ्कलसदस्रभाग
पकदिग्र्तित्वादेवमपरमपि द्ाभ्यामित्थमवत्यतस्तदूद्धया-
धिकत्वमक्घं दशानसप्तरज्जूब्छितम् । वाटस्थतस्तु ब्रह्मलो-
कमध्य पञ्चरञ्जुवादटयमन्यत्र त्वनियतवादटयम् । इदे च
सव ग्रहीत्वा श्राधस्त्यसरवर्तितलाकारधस्यात्तरपार््वे संघात्य-
त । एवे च याजित आधस्त्यखरडस्याच्छय यदितरोच्छुया-
धिकं तत् खरडायत्वापरितनसधघातितखरडस्य बाह्ये
ऊर्ष्वायत सयाञ्यत, एवं च सातिरकाः पञ्चरञ्जवः कचि-
द्वाटट्य सिध्यति । | तथा--आधस्त्यखण्डम घस्ताद्यथासंभवे
दशानसक्तरज्जुवादट्यं प्रागुक्तम् , अत उपरितनखरडवाह-
ल्यादशानरज्जुद्रयमत्राघस्त्यखरड ऽतिरिच्यत इत्यस्मादति-
रिच्यमानवादहस्याधं देशानरज्जुरूपं गरदीत्वा पारतनखरड-
बाह्ये सघ्रात्यत, एवं च ऊत वाहट्यतस्तावत् सवैम-
प्येतच्चतुरस्न्रीकृतनभःखरार्ड कियत्यपि प्रदेश रज्ज्वसंख्ये-
यभागाधिकाः षड़् रज्वा भवन्ति । व्यवहारतस्तु सर्वे
सप्तरज्जुवादस्यमिदमुच्यत । व्यवहारनयो हि किचिदूनस-
टस्तादिप्रमाणमपि पटादिचस्तुपरिपूर्णगसप्तहस्तादिमाने `
व्यपदिशति, देशताऽपि च दषे वाहल्यादिधर्म परिपूर्ण
पि वस्तुन्यध्यवस्यति स्थुलदष्िःवादिति भावः। अत एवं
तन्मतनेवाजर सघ्तरज्जुबाहल्यता सवैगता द्व्या । आया-
मविष्कम्भाभ्यां तु प्रत्यक॑ देशोनसक्चरज्जुप्रमाणमिदं जात-
म् | व्यवहारतस्तु तत्रापि सप्तरज्जुप्रमाणता द्वश्टव्या, तदेवे
लाको व्यवह्ा रनयमतेन । अ बायामविष्कम्भवादस्यैः भ्रव्यकं
सप्तरज्जुप्रमाणो घनो भवतीति समुदायार्थः । पतच्च वै-
शाखस्थानष्थितपुरुपाकारं सवेत्र वृत्तखरूप लाकं संस्थाप्य
सव भावनीयमिति ॥ कमे० ५ कर्म० । दश० ।
(२) को 5ये लोकः--
किमिये भते ! लोए तति पवुच्च३ ?, गोयमा ! पचत्थिका-
या, एस शं पवत्तिए लोए त्ति पवुच्चइ, तं जहा-धम्म-
स्थिकाए अधम्मत्थिकाए ° जाव पोग्गलत्थिकाएं ( र
७८१ ) भ० १३ श० ४ उ० । ( धमास्तिकायादीनां व्याख्या |
स्वस्वस्थान । )
(३ ) लोकस्येकत्वे नामादितश्चाष्टविधत्वं निरूपयति--
एग ल्लाए । ( स्ू० ५)
पका लोकः, त्रिविधो5प्यसंख्येयप्रदेशा5पि वा द्रव्याथै- |
तया । स० १ सम० । एकः श्रविवक्तितासंस्थप्रदशाधस्ति- |
यगादिदिग्मेदतया लोक्यत--दृश्यत कवलालाकनात लाः
कः--ध्मीस्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशषः, तदु-
क्लम-' धर्मादीनां ब्रात्त-द्वैव्याणां भवात यत्र तत् क्षत्रम् ।
नेद्रव्येः सह लाक--स्तादपरात ह्यलाकाख्यम् ॥ १ ॥
हति, श्रथवा-लोका नामादिरष्टधा । स्था० १ ठा०।
आह च- ।
नाम ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भवि य। |
पञ्जवलोए य तहा, अद्व विहों लोयनिक्खेतरों ॥१०४७॥ |
आव० २ श्र० । नामस्थापन सुज्ञाने, द्रठ यलोको--जी ४.
वाजीवद्गब्यरूपः । न्ेत्रलाक्ः--आकाशमात्रमनन्तप्रदशात्ः
# ॥ ॥ ॥#
६६६ )
अभिधानराजन
लोक
कम् , काललोकः--समयावलिकादिः, भवलोकः--नारका- |
द्विः, स्वास्मन् स्वास्मन् भवे वतेमाना यथा मनुष्यलोको दे-
चलाक इति । भावज़ोकः-पडादयिकादयो भावाः | पर्यव-
ल्ञाकस्तु- द्रव्याणां पर्यायमात्ररूप इत, पतषां चेकत्वे
क्रेवलज्ञानालाकनीयत्वसामान्यादिति । (स्था० १ ठा०।) |
ज्ञामलाकः १, स्थापनालोकः २, द्रव्यलोकः ३, क्षत्रलाकः2, |
काललोकः ५. भवलाका ६, भावलाकः ७ , पर्यायलाक्श्च |
८, तथा, पवम्टावधा लाकनित्तप इति गाथासमासार्थः॥
व्यासाथ तु भाष्यकार एव वच्यति, तत्र नामस्थापन
नात्य द्वव्यलोकमाभिधित्सुराह--
जीवमजीवे रूवम-रूवी सपएसमप्पएसे अ |
६ 80 025. 20725 2002 ०8४४
जाणाहे दव्यलांग, णिच्चमाणतच्च च ज दव्य ॥१६५॥
जीवाजीवा वित्यत्रान॒ुस्वारो ; लाक्षणिकः, तत्र॒ खुखदुःख- |
कानापयोगलक्तणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः, पतौ च द्वि- |
भदौ --रूप्यरूपिभेदाद् , , आह च-' रूप्यरूापणावि' ति तवा-
नादिकमसन्तानपरिगता रूपिणः--संसारिणः , अरूपिण-
स्तु-कर्मरदिताः सिद्धा इति, अजीवास्त्वरूपिणो--धर्मा-
धमौकाशास्तिकायाः, रूपिणस्तु -परमारवादय इति , एतों |
च जीवाजीवावाघतः सप्रदेशाप्रदशाववगन्तव्यो , तथा |
चाह -* सप्रदेशाप्रदेशावि ` ति, तत्र सामान्यविशषरूपत्वा- |
त्परमाखुव्यतिरकेण सप्रदेशाप्रदेशःव सकलास्तिकायाना-
मेव भावनीयम् . परमाणवस्त्वप्रदशा एव, अन्ये तु व्या-
चक्तत- जीवः किल कालादशन नियमात् सप्रदेशः, ल-
श्ध्यादेशन तु सम्रदेशा वाऽप्रदशा वति, एवं घमौस्तिका-
यादिष्वपि त्रिष्वस्तिकायेषु परापर्निपित्तं पक्तद्धय वा-
च्यम् , पुद्धलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपक्षया चिन्त्यः, यथा-
द्वन्यतः परमाखुरप्रदेशो, ढवखुकादयः सप्रदशाः . क्षेत्रतः
एकप्रदेशावगाढो 5प्रदेशो द्यादिप्रदेशावगाढःः सप्रदेशाः, प-
चं कालतो5प्यकान +समयस्थितिभावतो 5प्येका नेक गुणकू-
च्णादिरिति कृत विस्तरेण । प्रकृतमुच्यत-इद्मवम्भूत॑ जी-
चाजीवबातं जानीहि द्वव्यलोकम् , द्रव्यमेव लाको द्वव्य- |
लोक इति कृत्वा, शस्यैव शपथर्मापदशनाया556--नित्या- |
नित्य च यद् द्रव्यम्, चशब्दाद््भिलाप्यानमभिलाप्यादिससु-
अय इति गाथाथः ॥ १६५॥
सांप्रतं जीवाजीवयोर्नित्यानियतामचो पदशीयन्नाद-
भाष्यकारः
[क
गह १ सिद्धा २ भविआ य ३,
अभवि ४-१ पुर्गंल १ अणागयद्धा य २।
तीअद्ध ३ तिन्नि काया ४-२,
जीवा १ जीव २ ट्विई चउहा ॥ १६६ ॥
श्रस्याः सामायिकवद् व्याख्या कायति, भज्ञकास्तु सा-
दिसपर्यवसाना सायपयवस्ाना अनादसपयवचसाना अ-
नाद्यपयवसानाः, एवमजावषु जावाजावयारष्टा भङ्गाः ।
दारम् अ'चुना चऋत्रलाकः प्रातपाद्यत, तत्र भाष्यम-
आगासस्स पएसा, उड च अहे अ तिरियलोए य । |
ज्ञाणाहि खित्तलोगं, अणंत जिणदसिञ्रं सम्मं ॥१६७॥ '
आकाशस्य प्रदेशाः-प्रङृष्ठा देशाः प्रदेशास्तान् ऊर्ध्व च
इति-ऊध्वलाक्र च श्रधश्च इति-अधालोके च तिथग्ला-
केच, कि ?-जानीदि क्षेत्रलोकप््, त्षत्रभव लोकः क्तत्रलाक्र
इति कृत्वा, लोक्यत इति च लाक इति, ऊर्ध्वादिलाक-
विभागस्तु सुज्ञयः, अनन्तमिति-ञअलोकाकाशप्रः शापक्तया
चानन्तम् , अतुस्वारलोपो 5त्र द्र एव्यः, जिनदेशितमिति-ज
नकाथितम् सम्यक्-शोभनन विधिनेति गाथार्थः ॥ १६७ ॥
साम्प्रतं काललाकप्रतिपादनायाद भाष्यकारः--
समयावलिञ्मुत्ता, दिवसमहारत्तपक्खमासा य |
संवच्छरजुगपलिआ, सागरओसप्पिपरिअट्टा ॥१६८॥
इह परमनिकृष्रः कालः- समयो $भिधीयत, श्रसख्ययस-
मयमाना त्वावलिका, द्विघटिका मुहतः. षाडश महतो दि-
वसः,द्वात्िशद् अहोराजम ,पञ्चदशादहाराघ्राणि प्रत्तः ढो प-
त्ता मासः, द्वादश मासाः सवत्सरमिति. पश्चसंवत्सरं युगम्,
पट्यापममुद्धारादिमदं यथा अनुयोगद्वाग्षु सथावसयम
सागरापम तद्वदेव, दशसागरोपमकाटाकारिपरिमाणाः्स-
परी , पवमवसर्पिरयपि द्रव्या , पराचतेः-पुद्रलपराव-
तैः, स चानन्तोत्सर्पिरयवसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादभदः, त
ऽनन्ता अतीतकालः अनन्त एवेष्याज्नित गाथाथः ॥ ६६८ ॥
उक्तः काललाकः । लोकयाजना पूचवद् ।
अधुना भवलोकममिधित्सराह भाष्यकारः--
णरइअंदेवमणुआ, तिरिक्वजोणीगया य जे सत्ता ।
तम्मि भवे वदुता, भवलोग ते विआ्लाणाहि ॥ १६६ ॥
नारकदेवमनुष्यास्तथा तियग्यानिगताश्चय सत्वाः-प्राणि-
नः ` तम्मि ` त्ति तस्मिन् भवे वनमाना यदनुभावमनुभवान्त
भवलोकं त विजानी , लाकयाजना पूववदिात गाथा-
थः ॥ १६६॥
साम्प्रतं भावलोकमुपदशयति--
ओदइण १ ओ बसमिए २,
खइए अ ३ तहा खग्रोवसमिए अ ४।
परिणामि ५ सन्निवाए अ ६ ,
दच्वहो भावल।गे। उ ॥ २०० ॥
उदयेन निधत्त जौ दयिकः कर्मण दति गम्यते , तथोपश-
मन नित्त औओपशमिकः, क्षयण निच्रैत्तः क्षायिकः, एवं
शष्ष्वपि वाच्यम् , ततश्च क्षायिकश्चव॒ तथा त्तायोपशमि--
कश्च पारणामिकश्च सान्निपातिक ण्व पड्विथों भाव-
लाकः, तत्र सान्निपातिकः श्राघ्रतोऽनकभेदाऽवसरयः, श्र
विरुद्धस्तु पञ्चदशभद इति, उक्र च--
'च्रादटअ-खच्रावस्म.परणामकक्रो (क्र) गद चञउक्रऽवि।
खयज।गण वि चउरा , तदभाव उवेसमयुपि॥६॥
उवसमसदी पका, कवांलणाऽवि य तदेव सिद्धस्स ।
श्रविरुद्धसान्नवादय-- भया पमव पराणरस ॥ २२॥ ” त्ति
दति गाधाथः ॥ २०० ॥
भाष्यम्-
तिव्वो रागो श्र दोसा अ, उडइन्ना जस्प जन्तुणो |
जाणादि मावलोअं, अगंतजिणदेसिअं सम्म ॥२०१॥
( ७०० )
लोक.
ता्रः- उत्कटः रागश्च दधषश्च, तत्रनाभष्वह्नल्क्षणा-राग
च्रनघानराजन्द्रः)
श्रप्रीतिलत्तणा-द्वष इति, एताबुदीणों यस्य जन्ताः-यस्य |
प्राणिन इत्यथः, तं-प्राणिन तन-भावेन लोक्यत्वाजानीदि `
भावलाकमनन्तजिनदेशितम्-एकवाक्यतया अनन्तजिनक-
धितम् ` सम्यग ` इति क्रियाविशेषणमित्ययं गाथाथः
॥ २०१ ॥
द्वारम-साम्प्रत॑ पर्यायलोक उच्यते,तत्रोघतः पर्याया धर्मी
उच्यन्ते,इद्द तु किल नेगमनयदर्शन सूढनयदर्शने वाउघिकृत्य
अतुर्विध पर्यायलोकमाह भाष्यकारः--
दव्वगुण १खित्तपज्ञव २-सगाणु भावे अ ३भावपरिणम४।
जाण चउव्विहमेश्, पञवलगं समासं ॥२०२॥
द्रव्यस्य गुणाः-रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्यायाः--अगुरू-
लघवः भरतादिभेदा एवं चान्ये, भवस्य च नारकादरनु-
भावः-तीवतमदुःखादिः, यथाक्कम्-
“ श्रच्छशिमिलीयमेत्ते, णत्थि सुहे दुक्खमेव अखुवंधे ।
ग्रण णरइआरं, अहोरिसि पच्चमाणारं ॥ १ ॥
अखुभा उव्विय णिज्ञा, सदरसा रूवगधफासा य ।
णरण णरइआएरणं, दुकयकम्मावलित्ताणएं ॥ २॥ `
इत्यादि' एवं शषानुभावो ऽपि वाच्यः' तथा भावस्य जी-
च्ाजावसम्बन्धिनः परिणामस्तेन अज्ञानाद् ज्ञान नीलाज्नो- |
हितमित्यादिप्रकारेण भवनमित्य्ः,
चतु्चिधमनमाघतः पयायलोक समासेन-संत्तपति गा-
थाः ॥ २०२॥
तत्र यदुक्कं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदुपदशनेन-
निगमयन्नाह भाष्यकारः--
वन्नरसगधसंडा-णफासद्राणगडइवनमेए अ ।
जानीहि-अवबुध्यर |
परिणामे श्र बहु विहे, पज्ञवलोमं विच्राणादि ।॥२०३॥
व्णरसगन्वसस्थानस्पशस्शधानगातवयमदाश्च चशब्दाद्
ग्सादिभदपारग्रहः, , अयमत्र भावाथः--वर्णादयः सभेदा |
ग्रृह्यन्त , तत्र वखः--कृष्णाद्भदात् पञधा , रसो--
पि तिझाहदिभिदात्पक्षवा गन्थधः--खुराभा रत्यादभदात्
द्विधा, संस्थान--परि मण्डलादभदात्पश्चथव, स्पशः-क
कंशादिभदाद एथा , स्थानम--अवगाहना लक्षण तदाश्रय-
भदादघनकथा , गातिः-स्पशवहतिरित्यादिभेदाद द्विधा ,
चशब्द उक्काथ एव , अथवा--रृष्णादिवर्णादीनां स्वभदा-
पक्तया पएकगुणकृष्णाद्यनेकभेदो पसङ्ग्रहाथे इति, अनन किल
यगुणा इत्यतद्याख्यातम् | पारणामाश्व बहावधानत्यनन |
तु चरमद्रारम् , शष द्ारद्धय स्वयमव भावनायम् , तच भा- |
विनमवत्यक्षरगमनिका । भावाथस्त्वयम्--परिणामांश्च बहु
विधान जावाजीवभावगोचरान , कि ?-प्यायलाक चिजा-
नीहि इति गाधाथः ॥२०३॥ अक्षरयाजना पूवेवदिति छास्म। |
साम्प्रतं लाकपर्यायशब्दाक्निरूपयन्नाह नियुक्रकारः--
आलुकइ अ पलुकड, लुकइ सलुकई अ एगढ्ढा ।
लोगो अदरुविदहो खलु, तेणेसो बुचचई लोगो ॥१०५८॥ |
अलाक्यत इत्यालाक
क्यत इति लोकः ,
एकार्थिकाः शब्दाः,
इत्यादि याजनीयम् , अत एवबा5४5 तनेष उच्यते लाका
प्रलाक्यत इत प्रलाक्रः , ला-
सलाक्यत इत च सलाकः ,
पत |
लाकः श्रणएविधः खल्वित्यत्र आलाक्यत |
यनाऽ+ऽलाक्यत इत्याद
आव० २ च्र०।
- „|
भावनीयमिति गाथार्थः ॥ १०५८॥
(४ ) त्रिविधो लोकः--
क 4 क क, क कः क क क क, ऋ
तावहं लाम पष्त्त, त जहा-णामलाग, ठवणालाम +
दव्वलोगे । ( सू० १५३०८ )
लोक्यत ऽवलोकयते कवलावलाकेनेति लोकः, नामस्थापन
इन्द्र सृत्रवद् , द्रव्यलोकोऽपि तथैव नवर ज्ञशरीरभन्यशरीर-
व्यतिरिक्रद्रव्यलोको धममीस्तिकायादीनि-जीवाजीवरूपाणि
रूप्यरूपी णि--सप्रदेशा प्रदेशानि द्वव्याण्येव , द्रव्याणि च `.
तानि लाकश्चति विग्रहः । उक्कञ्च -* जीवमजीव रूवम-रूवी `
सपपस अप्पएंस य । जाणादि दव्वलोयं, रिच्मरणिच्च चज्ञ
दव्वे ॥ ६॥ ।
भावलोकं त्रिधाऽऽद--
तिविहे लोभ पन्नत्त, तं जहा-णाणलोंग,
चारेत्तलाग । ( सू० १५३०८)
तिविहे ' त्यादि , भावलोका द्विविधः-आगमतो नो- |
आगमतश्च । तत्रागमतो लोकपर्यालोचनापयोगस्तदुपयोगा- ¦
नन्यत्वाद् पुरुषो वा, नोच्रागमतस्तु-सृ्राक्ता ज्ञानादिः, नो
शब्दस्य मिश्रवचनत्वात् इदं हि त्रय॑ प्रत्यकमितरेतरसब्य-
पेक्त नागम एवं केवलो नाप्यनागम इति । तत्र ज्ञाने चासौ
लाकश्चति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य ज्ञायिकक्षायोपश-
मिकभावरूपत्वात् ्ञायिकादिभावानां च भावलाकत्वेना-
भिदितत्वाद् , उक्नश्च--ओदइए उवसमिष् , खदए य
तदा खओवसमिए य । परिणामसन्निवा्पे य, छुव्विहों
भावलाओ उ ॥ १॥ ” त्ति । एवं दशनचारिजलाकावपीति।
स्था० ३ ठा० २ ड०।
( ५) प्रकारान्तरेण चतुर्विधत्वे तद्धेदांश्राह- +
रायगिहे ° जाव एवं वयासी-कतिविहे शं भत ! लोए
पन्नत्त ३, गोयमा ! चउव्विहे लोए पन्नत्त । तं जहा-दव्व-
लोए खेत्तलोए काललोए भावलोए॥ खेत्तलोए शं भते ! ¦
कतिविहे पष्पत्त ?, गोयमा ! तिविहे पत्ते, ते र
अहोलोयखेत्तलोए १, तिरियलोयखेत्तलोए २, उडलो- (
यखेत्तलोए २॥ अहोलोयखेत्तलोए ण॑ भते ! कतिदि `
पन्नत्ते, गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्त, तं जहा-रयणष्पभाषु- `
ढविअहोलोयखेत्तलोए० जाव अदेसत्तमा पुढवी अहोलो- `
यखेत्तलोए ॥ तिरियलोयखेत्तलोए णं ॒भेते ! कतिविहे
पन्नत्त ?, गोयमा ! असंखेज़विहे पन्नत्ते, तं जहा-जंबुदवे `
तिग्यिखेत्तलोए०जाव सय॑भूरमणसमुदे तिरियलोयचेत्त- `
लोए ॥ उडलोगखत्तलोए शं भते ! कतिविंह पन्नत्ते !,
गोयमा ! पन्नरसविहे पन्नत्त, तं जहा-सोहम्मकप्पउड्ड-
लोगखेत्तलोए ० जाव अच्चुयउड्लोए गेवेजविमाणडड़-
लोए अणुत्तरविमाणउड्डलोए इसिंपब्भारपुढविउड्डलोग-
खत्तलाए | ( सू० ४२० > )
' रायांगहे ' इत्यादि ' दव्वलाए ` त्ति द्रव्यलाक आग-
मतों, नोशागमतख्थ | तत्रागमता तज्यलाको लाकशब्दार्थ-
॥
द्सणलोगे, हे |
|
( ३०!
अमिधानराजन्द्र: |
लोक 20.
११
क्स्तत्रानुपयुक्रः “ अनुपयोगो द्रव्य
श्राह च मङ्गले प्रतीत्य द्रव्यलक्तणम्-
उत्ता, मगलसहाखुवासश्रा वत्ता । तन्नाणलद्धिजुत्ता. उ
नावउत्ता त्ति दव्वं ति ॥१॥' नो श्रागमतस्तु क्ञशरीरभव्यशरी- |
रतद्ञ्यतिरिक्रभदात्तरिविधः, तत्र लोकशब्दाधक्ञस्य शरीरं
स्रतावस्थ ज्ञानापक्षया भूतलाकपयायतया धघृतकुम्भवल्ला-
कः.सच क्षशरीररूपाद्रव्यभूतो लोको क्षशरीरद्रव्यलाकः.
नाशब्दश्चह स्वानपध, तथा लोकशब्दाथ ज्ञास्यति य-
स्तस्य शरारं सचेतन भाविलाकभावत्वन मधुघ्ररवद् भ-
व्यशरीरद्रव्यलाकः, नाशब्द इहापि सर्वानिषध पव, क्षश-
रीरभव्यशरीरव्यतिरिक्रश्च द्रव्यलोको द्रउयारयव धमास्ति-
क्रायादीन, आह च-- जीचमजीव रूविम--रूवि सप-
एस अप्पएस य । जाणादि दव्वलायं, निच्मणिच्चं च ज
दव्वे ॥ १ ॥ `` इहापि नाशब्दः सर्वनिषध, श्रागमशब्दवा-
च्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निपधात् , ` चत्तलाए ` त्ति क्तत्ररूपा
लाकः स त्षज्रलाकः, आह च--''आगासस्स पणसा, उड च
शदे य तिरियलाए य । जाणादि खत्तलाय, श्रणतजिण-
देसिये सम्म ॥ १॥ ” ' काललापः ` त्ति कालः-समयादिः
तदपो लोकः काललाकः; आह च--' समयावली मृदुता
दिवसश्रहारत्तपक्खमासा य । स॑वच्छुरजुगपालया, सा-.
१
गरडस्साप्पपारयट्रा ॥ १॥ `` * भावलोपए ` त्ति भावलाका
दधा-श्मागमता, नाआगमतश्थ । तत्रागमता लाकशब्दाथ-
ब्नस्तत्र चोपयुक्रः, भावरूपा लाका भावलोक इति । नोआग- |
मतस्तु भावा-ओदयिकादयस्तूपा लोको भावलोकः,
आह च-' आदइए
॥ १॥ ” इत, इद नोशब्दः सर्वनिषेध मिश्रवचना वा
श्रागमस्यं ज्ञानत्वात् क्ञायिकक्षायोपशामकज्ञानस्वरूपभाव-
विशेषण च मिश्चत्वादोदयिकादिभावलोकस्यति
लायखत्तलाए ` त्ति, श्रधालाकरूपः क्षत्रलाको ऽधालाकक्तत्र-
लाकः , इह किलाण्रप्रदेशा स्चकस्तस्य चाधस्तनप्रतर-
स्याधो नवयोजनशतानि यावकत्तिर्यगलाकस्ततः परणाधः
स्थितत्वादधालोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः , ` तिरियला -
यखत्तलोप ` त्ति सुचकापक्षया 5७ उपर च नव नव याजन
शतमानस्तिर्यगरूपत्वात्ति्यगलाकस्तदरपः क्षत्रलाकस्तिये-
गलाकन्तजलाकः * उड्डलोयखत्तलाए ` त्ति तियगलाकस्या-
परि देशानसप्तरज्जुप्रमाण
द्रप: त्षत्रलोकः ऊध्वेलाकक्तेत्रलाकः , अथवा-अधः-अशुभ
पारणामा बाहुल्यन क्षत्रानुभावाद् यत्र लाके द्रव्याणाम-
सावधालाकः, तथा--नियङ्मध्यमानुभावे क्षेत्र नातिश॒भ
नाप्यत्यशुभ तद्रपो लाकस्ति्यगलोकः, तथा--ऊध्व-शुभ
परिणामो बाहुल्यन द्रव्याणां यत्रासावध्वलाकः, श्राह च-
अहव अहा पारणामा, खत्तणुभावण जण श्रासन्न । |
असखुहो अहो त्ति भणिओ, दव्वाणे तणञहालोगे ॥ १॥”
दत्याद् । भ० ११ श० १० उ०।
( ६ ) ऊर्ध्वांदितो लोकास्त्रिधा तद्यथा-
तावह लागे पन्नत्ते, त जहा उड्डलाग, अहाला-
गे, तिरियलोगे । ( खू० १५३०९ )
| ` विर इत्यादि. इह च वदुसमर्भामभागे रन्नप्रभाभाग मेरू-
२७६
7...
मिति वचनात् , |
आगमआ 5णुव- |
उवसामिप , खइए य तटा खच्माव- ¦
समिए य। परिणामसन्निवाएँ य, छव्विहा भावलागा उ
) अ्रह- |
ऊध्वभागव त्तित्वादूध्वैलाकस्त- |
)
(0,407 लि लाक
मध्ये अष्टप्रदेशा रूचको भर्वाति,त स्यार्पार तनप्रतर स्यापरिष्टा-
प्रवयाजनशातानि याचज्ञ्यातिश्चक्रस्यापरितलस्तावत् तिरय-
ग्लाकस्ततः परत ऊर्वभागस्थितत्वात् उरध्वलाकोा दशानसप्त-
रस्जुप्रमाणा ख्चकस्याधस्तनप्रतरस्याधरा नवयोजनशतानि
यावत्तार्वात्तयग्लाकः, ततः परताऽधाभार्गास्थितत्वादधाला-
कः सातिरेकरूप्तरज्जुप्रमाणः, अधालाकोध्वेलाकयामध्य
अप्टादशयाजनशतप्रमाणस्तियेग्भागास्थतत्वातू तियग्लोक
इति, प्रकारान्तरण चाये गा्थानिव्या ख्यायत-
“ अहवा अह पारणामा, खत्तुभावण जण श्रासन्न ।
अखुहा अहा त्ति भणिच्चा, दव्वाण तण ऽहालागा ॥ १ ॥
उद्र उर्वार ज ठिय, सुहखक्त खत्तश्रा य दव्वगुणा ।
.उष्पञ्जञति खुभावा. तेण तचा उड्ललागो त्ति ॥ २॥
मज्भणुभावं खेत्त, जे ते तिरियं ति वयणपञ्ञवश्रो ।
भरणद तिरियावसाल, अआऔ्ो य ते तिरियलागो ज्ति॥३॥ `"
स्था०२ ठा० ३ उ०।
(७ ) लाकमध्यद्वाराण--
कहि शं भते ! लोगस्स आयाममज्के पण्णत्ते १, गा-
यमा | इमीस शं रयणप्पभाए उवा ( ओगा ) संतरस्स अ-
संखज्ञतिभाग आगाहत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाम
मज्के पण्णत्ते ॥ कहि शं भेत ! |! अहेलोगस्स आया-
ममज्के पणणत्ते १, गायमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढ-
वीए उवासतरस्स सातिरेगं अद्ध॑ं आगाहित्ता एत्थ णं
अहलागस्स आयाममज्के परणणत्त, ॥ कटि णं भते !
उडलागस्स आयाममज्के पपत्ते १, गोयमा ! उपि
सर्णंकुमारमाहिंदाण कप्पाणं हेट्टें बंभलोए कप्पे रिट्रे-
विमाणे पत्थडे एत्थ णं उड्डलोगस्स आयाममज्के प-
प्पत्त ॥ कहि णं भते ! तिरियलोगस्स आयाममज्के प-
प्पत्त ?, गोयमा ! जंबुद्दीव दीवे मंदरस्स पव्वयस्स ब-
हुमज्मदसभाए , इमीसे रयणप्पभाए पुढदबीए उव--
रिमहेट्टिल्लेसु खुडागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्स म-
ज्३भ अट्डपएणासए रुयए पप्तत्त, जआआ ण इमाआ द्
सदिसाओ पवहंति, तं जहा--पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहि-
णा एवं जहा दसमसए नामघेज ति।( स्ू० ४७६ )
" चउत्थीए पंकप्पभाए ` इत्यादि, रुचकस्याधा नवयोज-
नशतान्यतिक्रम्याधालाको भवति लोकान्तं यावत्, सच
सातिरेकाः खत्त रजवः, तन्मध्यभागः चतुथ्याः पञ्चम्या-
श्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमद्धेमतिबाह्य
भवतीति, तथा दचकस्यापरि नवयाजनशतान्यतिक्रम्या-
इलाका व्यपदिश्यते लोाकान्तमेव यावत्, स च सप्त-
रज्ञवः किञिन्न्यनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपादनायाह-' उ-
प्पि सरंकुमारमाहिदारं कप्पाण ` मित्यादि । तथा-' उव-
रिमहिट्टिल्लखु खुड्डागपय रेसु ` त्ति लाकस्य वज्जमध्यत्वाद्र-
त्नप्रभाया रत्नकारड सब्ुल्लकं प्रतरद्वयमास्ति, तयाश्चा-
` पारमा यत आरभ्य लाक्स्यापारमुखा जराद्धः हाइल्न
अध्वस्तना यत आरभ्य लोकस्याधामस््रा वृद्धि! तयारूप-
(६ ७००२
श्रनिध्रानगाजेन्द्रः'
सवाक
गिमाधस्तनयाः ` खृह्धागपयंरस्तु ` त्ति क्षुल्नकप्रतरयो:-सर्व-
लघुप्रदशप्रतरयोः * ` ति प्रज्ञापकरेनापायतः प्रदश्य-
माने तियेग्लाकमध्य :छप्रदेशकों रूचकः भ्रन्नप्तः . (ख्य
कपवेतस्य विष्कम्भांदिः ` रूयग ` शब्द अंस्ममन्नव भाग ५७६
एए उक्कः ) यश्च तियग्लाकमध्ये प्र्घ्ः स स्ामथ्यात्तिय-
ग्लांकायाममध्य भवन्य्वात. किम्भृताऽसावश्रप्रदाशका रूच
खः; ! दृत्याह-'जञा रे इमाआ' इत्यादि ॥ भ० १४ श० ४ उ०।
पत्थर
तस्य चये स्यापना--
(८) लाकम्य महत्वम-
तेण कालणं तेणं समएणं ० जाव एवं वयासी-के म-
हालए शं भते | लाए पन्ते १, गोयमा ! महतिमहालए
लाए पन्नत्ते, पुरच्छिमणं अयखज्ञा्रो जोयणकाडाको-
डीश्रा, दाहिणेण अमसंखिज्ञाओं, एवं चव, एवं पत्चच्छि-
मेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड् पि अह असंखेज़ाओं
जायणकोडाकीडीओ आयामभिक्खभणं । ( सू० ४५७०९)
म० ६५ श० ७ उ०। (नास्ति कोऽपि लाकस्य एतादशः प्रदे-
|: यत्रायं जीवा न जाता न म्रता वा इति ` जीव ` शब्दे |
खंतुर्थभागे १५४५ पृष्ट गतम् । )
(६ ) लाकम्य संस्थानम--
किंसंठिए णं भेत ! लोए पननत्ते १, गोयमा !
सपद - |
गमेदिए लोए पन्नत्ते, टटा विन्थिन्ने ० जाव उप्पि उड |
मुईंगागारसंठिएण , तसि च शं सासयंसि लोगंसि दे |
वित्थिन्नसि ०जाव उप्पि उड् मुइंगागारसंटियासे उप्पन्न- |
नाणदंसणधंर अरहा जिणे कवली जीवे प्रि जाणड् पा- |
[9
भइ शर्जीवे वि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिज्कति °
जेव श्रतं करेइ | ( प्र° २६१)
खुपइट्टगर्साठ०' न्ति, सुप्रतिष्ठकम्--शरयन्त्रकं तञ्चट उप-
†रस्थापितकलशादिकं ग्राह्यम् , तथाविधनेव लाकसाह-
भयापपरत्तारति । पतस्यव भावनाथमाह--' दृटा वित्थिन्ने '
इत्यादि, यावत्करणात् ` मज्मेः संखित्त उप्पि विसाले श्रद
पलियंकसंठाण संठिए मज्के वरवयरविग्गद्िए' त्ति दयम्,
ते!
)
लोक
व्याख्या चास्य ध्राग्यदिति । अनन्तरं लाकस्वरूपमुक्कम , तब `
च यत्कवली करोति तदर्शयज्ञाह--' तंसी ` त्यादि, * ओ-
त करद् ` ति अत्र याकता । भ० ७ श० ३ ड० । चन्द्रादीना-
मवाथानामाधार सूतस्य लोकस्य स्वरूपमभिधीयत ।
स्था ३ ठा० ३ उ०।
किंसंटिए णं भते ! लोए पष्पत्त ?, गोयमा ! सुप-
इट्टियसंठिए लोए प्पत्त, टटा वित्थिन्ने मज्फे जहा
सत्तमसये पदममे ०जाव अतं करेति । ( भ्रू
न १३ श ४ उ)
(१०)शअधालाकक्त्ादिसम्थानम--
अहोलोगखेत्तलोए णं भते किंसंटिए पण्णत्त ! , गो-
यमा ! तप्पागारसंटिए पष्पत्ते । तिरियलायखेत्तलोए शं
भते ! किसंटिए पत्त ?, गोयमा ? भल्लरिसटिए पन्नत्त
उड्ललोयखेत्तलोयपुच्छा उडमुहगागारसंटिए पन्नत्त । लो-
ए शं भते! किंसंटिए प्रत्ते १, गायमा ! सुपदटरगसंटिए
लोए प्रत्त, तं जहा- दृटा वित्थिन्ने मज्के संखित्ते जहा
सत्तमसण पदमुदेसण ° जाव अतं करति । श्रलोए शं भ-
किंसंठिए पन्नत्त १, मोयमा ! क्रुसिरगोलसंठिण प-
सत्ते | [ सू० ४२० )
* तप्पागारसंठिए ` ज्ञि तप्तः-उड़पकः, अधोलोकत्षेत्रलो-
कः अधाोमुखशरावबाका र संस्थान इत्यथः,स्थापना चेयम्-/ \,
* भल्लरिसंटठिए ` त्ति अरपाच्छायत्वान्मदाविस्तारत्वाच्च ति-
यग्लाकक्षेत्रलोका भल्लरीसंस्थितः , स्थापना चात्र-[ |
डड्डमुइंगागारसंठिए त्ति ऊध्वः--ऊर्ध्वमुखो यो
सृदङ्गस्तदाकारेण संस्थिता यः स तथा शरावसंपुटाकार
इत्यथः, स्थापना चयम् --“ > ` खुपदटरग सदि ` त्ति सुप्र-
तिष्ठकम्-स्थापनकं तच्हारापितवारकादि ग्रह्यत, तथावि-
सनव लाकसादश्यापपत्तेरिति, स्थापना चयम्--
"जदा सत्तमसए' इत्यादा यावत्करणादद् दश्यम् ,
'उरप्पि विसाल शह पलियकसटठाणसदिप मज्ज वर- “
वदराविग्गहिए उाप्प उद्धमुइंगागारसंठिए तसि च शे सासये-
सि लागेसि हेट्ठा वित्थिन्नेस्िि ०जाव उप्पि उल्मुइंगागारसंटि-
यसि उप्पन्नना णदेसणाधर अरहा {जण कवली जीवे वि जाणइ
अजीब वि जाणइ तओ पच्छा सिज्भर बुज्भाइ' इत्यादीति
« क्ुसिरगोलसंठिए ` त्ति अन्तः शुषिग्गालकाकारों यतो5
लाकस्य लोकः शुपरमिवाभाति, स्थापना चेयम्-- (त
भण० ११ शण० १० उ०। +~
^
(११ ) मरणाद्विस्वरूप भगवता लोके प्ररूपितामनि
लाकस्वरूप्ररूपणाय प्रश्न कारयन्नाट--
के मयं लागे ?, जीव चेव अजीव च्चेव, के अशता
लोए ? जीव च्चैव अजीव च्चेव, के सासया लोगे £
जीव च्चव अजीव च्चव ( घू° १०३)
श्रय \ निति देशतः प्रत्यत्त श्राख-
सरणा दिथशस्तासमस्तवस्तुस्तोमतत्त्व-
"क इति प्रश्नाथे.,
सरश्च यत्र भगवता
॥ हा
४८७+ ) |
न शा रन््यसाआ शक न्याबूत
. खाक
(^ ऊ
अभिधानगजन
)
लाकर
मभ्यधायि. लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः, शस्य निवैचनम्
ज्ञीवाश्चाजीवाश्चति, पश्चास्तिकायमयत्वान्लोकस्य, तेषा च
ज्ञीवाजीवरूपत्वादात, उक्रञ-- ` पचात्थकायमहईय, लाग- |
सणाइणिहणं जिणक्खाय `" ति ।
ज्ञावाजावानां स्वरूप प्रश्नपृवकण
लाकस्वरूपभूतानां च |
सूत्रद्धयधनाह--' क |
रणत ` त्यादि के श्रनन्ताः नाक इति प्रश्नः, श्रत्रात्तर- |
भू- जीवा श्रजीवाश्चति, श्रत एवं च शाश्वता द्रव्याथत- |
येति ॥ स्था० २ठा० ४ उ० |
(१२) श्रधालाकादिन्तेजलोकः कि जीवोऽजीवो वा-
श्रहे(हो)लोययत्तलोए शं भंते ! कि जीवा जीवदेसा |
जीवपएसा ? एवं जहा इदा दिसा तहेव निरवसेमे भाणि-
यव्यं जाव अद्भासमए | तिरियलोयसेत्तलोए णं भते ! |
किं जीवा जीवदसा जीवपएसा ?, एवं चेव, एवं उड्
लोयखेत्तलोए वि, नवरं अरूषि छव्विहा अद्वासमओं
नत्थि ॥ लोए णं भते! कि जीवा जहा बितियसए
अत्थि उद्देएए लोयागास नवरं अरूवी सत्त वि० जाव
अहम्मत्थिकायस्स पएसा नोआगासत्थिकाए आगा।स-
त्थिकायस्स देसे आगासत्थिकायपएसा अद्भासमए सेस
ते चेव | ( सू० ४२० + )।
श्रटेलायखत्तलोए रा मते !
दिसा तदेव नरवसस भाणयत्व तत दशमशत प्रथमाइश-
क यथा एम्द्रा [दगुक्तला तथव नरवशषमधघालाक्स्वरुप भ-
शितव्यम् , तच्चवम्--* श्रदेलायखत्तलोपए शेभते ! कि
जीवा जीवदेसा जीवपण्सा अजीवा अजीवदेसा श्रजीव-
इत्यादि, ' एवं जहा इदा |
पएसा ?, गोयमा ! जीवा वि जीवदसा वि जावपपसा वि |
अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि” इत्यादि, नव-
रमित्यादि , अधोलोकतिर्यग्लाकयोररूपिणः सप्तविधाः
प्रागुक्लाः
कालश्रेत्यवम् , ऊद्धलोके तु रविप्रकाशाभिव्यङ्गधः कालो
नास्ति, तियेगध्ोलाकयोरेव राविप्रकाशस्य भावाद् , अतः
षडेव त इरत ॥ लाए ण ` मित्यादि, ' जहा बीयसए अ-
न्थिउदसप
* ल्ोयागास ' ति लोकाकाशे विषयभूत जीवादय उक्ताः
एवमिहापी त्यर्थ:, '
रूपिणः पञ्चविधा उक्ता
लोकाकाशमाधारतया विवाक्तितमत आकाशमेदास्तत्र ना-
धम्माधम्माकाशास्तिकायानां देशाः ३ प्रदशाः ३ |
` त्ति यथा दितीयशते दशमादशक इत्यथः । |
नवर ` मिति कवलमयं विशषः--तत्रा- |
इह तु सप्तविधा वाच्याः, तत्र हि- |
अयन्त, इह तु लाक्राऽस्तिकायसमुदायरूप आधारतया |
विवक्षितो ऽत आकाशमभेदा श्रप्याघया भवन्तीति स्पत, ते |
चैवम्-धर्मास्तिकायः, लोके परि पूरोस्य तस्य विद्यमानत्वात्
शम्मास्तिकायद श्तु न भवति, धम्मास्तिकायस्यव तत्र भा
वात् | घम्मास्तकायप्रदशाञ्च सान्त ; तद् पत्वाद्धमास्तका- |
यस्याति दयम् ।२। एवमधमास्तिकाय ऽपि द्यम् ।४। तथा नो
आकाशास्तिकायो , लाकस्य तस्थेतदशत्वात् , श्राकाश-
देशस्तु भव्यत; तदेशत्वात् लाकस्य, तत्प्रदेशाञ्च सान्त ६,
कालश्च ऽ ति सप्त |
दे ( १३ ) श्रलोकः कि जीवा (जीवा वा ?--
अलोए णं भते | कि जीवा जीवदेसा जीवपएसा १ ,
एवं जहा आत्थिकायउद्देंसए अलोयागास तहव निरवससं *
जव अणतभागूणे ॥ अहलोगखेत्तलोगस्स ण॒ भते [
एगम्मि आगासपएसे कि जीवा जीवदेसा जीवपणएमा,
अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ? गोयमा ! नो-
जीवा जीवदेसा वि जीवपएसा वि अजीवा षि
अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि, ज जीवदेसा ते नियमा
एगिदियदेसा १, अहवा-एगिंदियदेसा य बेइदियस्स
देसे २, अहवा-एगिदियदेसा य बेइदियाण यदसा ३,
एव मज्मिन्लविरहिओ ° जाव अर्शिदिएसु जाव, अहवा -
शागिदियदेसा य अशिदियदेसा य, जे जीवपण्सा ते
नियया एगिंदियपएसा १, अहवा-एगिंदियपएसा य
वेइदियस्स पएसा २, अहवा-एगिंदियपएसा य बेइंदि-
याण य पएसा ३, एवं आइलज्लविरहिओ० जाव पंचिदि -
एसु अशिदिएसु तियभंगो। ज अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता,
त जहा-रूवी अर्जीवा य, अरूतवी अजीवा य, स्वी तहेक-
ज असूवी अजीवा ते पंचविहा पष्पत्ता,- तंजहा-नों
धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे १ धम्मत्थिकायस्स
पएसे २, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि ३,-४, अद्भासमए ५।
तिरियलोगखत्तलोगस्स णं भते ! एगम्मि आगासपएसे
कि जीवा० १, एवं जहा अहोलोगयत्तलोगस्म तहेव,
एवं उड्डलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं अद्धासमओ नस्थि,
अरूवी चउव्यिहा, लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स
एगम्मि आगासपणएस ॥ अलोगस्स णं भते ! एगम्मि
श्रागासपणएमे पुच्छा, गोयमा ! नोजीवा नोजीवदेसा तं
चव ० जाव अंते अगुरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सब्वा-
गासस्स अणंतभागो ॥ दव्वओं शं अहेलोगदखेत्तलोए
अणताईं जीवदव्वाई् अशंताईं अजीवदव्वाई् अणंता
जीवाजीवद्व्वा एवं तिरियलेयखेत्तलोए वि, एवं उड्-
लोयखत्तलोए वि,दव्वग्रो शं अ्रलोए शेवरत्थि जीवदव्वा
नवत्थि अर्जवदव्वा नेवत्थि जीवाजीवदव्वा, एगे अजीव-
दव्वदेसे° जाव सव्वागासच्रणतभागृणे । काल्रो शं
अहेलोयखत्तलोए न कयाई् नासि० जाव निचे, एवं०
जाव अहेलाग | भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अशंता
वन्नपञ्जवा जहा खंदए० जाव अणंता अगुरुयलहुयप-
जवा एवं० जाव लोए, | भावओ णं अलोए नेवत्थि
वन्नपज्जवा ० जाव नेवत्थि अगुरुपलहुयपज्जवा एगे
अजीवदव्वदेसे जव अणंतभागूणे । ( छ्ू० ४२० )।
_ अलाए णो भत ! ' इत्यादि , इदे च ' एवं जहे › व्याद्यति-
देशादेव दश्यम्-श्रलोप रो भते ! कि जीवा जीवदेसा
जीवपएसा, अजीवा अजीवदेसा अ्रजीवपएसा ? , गायमा !
ना जोवद्रा नो जीवपएसा, नो श्रजीवदेसा ना ज््जीरप-
लोक
( 3०४ )
अभिधानराजेन्द्रः।
पसा, पग अजावदब्वदस अणताह अगुरुलदहुःरगुणह सजु- |
त्त सव्वागासर अणतभागूण तत्तत सयाकाशमनन्तभा
गानामत्यस्यायमथः-लाकलत्षणन खमरस्तोक्ाशैस्यानन्तभा-
गन न्यून सवाकाशमलाक इत ॥ ^
ग॒ भत . पगास्म आगास्पप्पल
| वेण समणएणे छ देवा महिड़ीया ० जाव महसक्खा, जबुदवे
अहोलोगखत्तलोयस्स |
इत्यादि, नो जीवा एकप्र- |
देश तेषामनवगाहनात , बहना पुनजायाना दशस्य प्रदशस्य |
चावगाहनात उच्यत- जावदसा एव जावपएसा व
"पः |
यद्यपि धम्मास्तकायाद्यजीवद्रव्यं नेकज्ञाकाशप्रदशप्वगाह- |
त तथापि परमासुकादिद्रव्याणां कालद्रष्यस्य चावगाह- |
है
नादुच्यत--' अजीयवा वि
त्ववगाहनादुक्कषम--' अजीवदेसा वि
कायप्रदेशयो: पुद्वलद्वव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यत-' अजी
वपएसा वि' त्ति, एवं ` मज्मिल्लविरहिआ ` त्ति दशमशत-
प्रदर्शितत्रिकभक्क ' अहबा पागादेयदसा य बेइद्यिद्सा य
इत्यवरूपा यो मध्यमभङ्गस्तद्धिरटिताऽसो जिकभज्ञः,
मिति सूत्रप्रदर्शितभइद्दयरूपो ऽध्यतव्यो मध्यमभङ्गस्यटास-
म्भवात् ,तथादटि-दीरं
न सन्ति.देशस्यैव भावात् ,'पवे आइल्लविरहेआ' लि, ` अहवा
एगिदियस्स पएसा य चैदियस्स पएसा य इत्येवं रूपादयभङ्ग-
क.विरदितस्िमङ्ग मिति सूत्रध्रदशितभङ्गद्यरूपा-
उच्येतव्य आयश्चज्ञकस्येहासम्भवात् , तथाहि-नास्त्यवक-
ाकाशप्दश कवांलसमुद् घ्रातं विनकस्य जीवस्येकप्रद-
शसम्भवा एसख्यातानामव मावादति, ` आर्णिदिएस ति-
यभगो ` त्ति श्रनिन्द्रियपृक्रभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीति कत्वा
तपु तद्वाच्यमिति । “ सूवी तदेव ` क्ति स्कन्धाः देशाः
प्रदशा श्रणवश्चत्यशथः, ` ना धम्मत्थिकाये ' त्तिनोा धर्मा
स्तिकाय एकत्राकाशपरदश संभवत्यसंख्यातप्रदशावगाहि-
त्वात्तस्यति, ` धम्मात्थकायस्स दस ` त्ति यद्यपि धमी
स्तिकायस्येकत्राकाशप्रदश परदेश एवास्ति तथाऽपि देशा-
5वयव इत्यनर्थान्तरत्वनावयव मातरस्पेव विवत्तितत्वात् नि-
लि, दशणुकादिस्कन्यदशानां |
न्ति, धमाधमास्ति- |
9 |
यस्यक्रस्यकत्राकाशशप्रदरश बहवा दशा
रशतायाश्र तत्र सत्या आप आरववाक्ततत्वाद्धमास्तकायस्य ,
दश इत्युक्तम् , प्रदेशस्तु ,निरुपचारित एवास्तीत्यत उच्यत
' धम्मत्थिकायस्स पएस ` तति ` एवमहम्मत्थिकायस्स
वि" त्ति“ नो अहम्मत्थिकाए अहमस्मत्थिकायस्स देल
अहम्मत्थिकायस्स पएस इत्येबमधघर्मास्तकायसूत्र वाच्य-
मित्यथः,
ध्वैलोके5द्धासमयों नास्तीति श्ररू.पणश्चतुचवाः-धमा-
स्तिकायदशाद्यः ऊर्ध्वलोक एकन्नाकाशप्रदेश
न्त।ति । ` लागस्स जहा श्रहालागखत्तलोगस्स एगम्मि
आगासपएस ` चि अअधोालाकक्तेदलाकस्थेकत्राकाशप्रदेरा
यद्वक्तव्यमुक्तं तज्लोकस्याप्यकत्राकाशप्रदश वाच्यमित्यर्थ
तच्दम्-
जीवदेसा जीवपएसा ? पुच्छा गोयमा ! नो जवे `
ध्राग्वत् । श्रदेलायखत्तलोण् अणंता वन्नपञ्रव ` त्ति अ-
धालाकन्तेत्रलाक अनन्ता वरीपयवाः, एकगुणकालकादीनां -
मनन्तगुणकालाद्यवसानानां पुद्भलानां तत्र भावात् । श्रलो-
कसूत्रे ' नवत्थि श्रगुरुलहुयपज्ञव
तद्रव्याणां पुद्वलादीनां तत्राभावात् ।
( १७ ) लोकः कति महालयादिः--
लोए णं भते ! के महालए पन्नत्ते ?, गोयमा !
त्याद
'अद्धासमआओं नल्थि [त्ति अरूवी चडव्यह' त्तिऊ- |
सम्भव- |
गस्सण मत! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा
ति श्रगुखुलघुपयवोप- |
|
|
अगन्न |
दीवे मद्रे पव्वए मंद्रचूलियं सव्वओ स्मता =|
त्ता शं चिट्ेज़ा, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्त-
रियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स
चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्वा ते चत्तारि व-
लिपिंडे जमगसमगं बहियामि मुहे पक्छिवेज्जा, पभू शं
गोयमा ! ताञ्रो एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे धर-
णितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा !
देवा ताए उकेडाए °जाव देवगइए एगे देवे पुरच्छा-
भिषुहे पयात एवं दाहिणाभिमुहे एत्र पत्नत्थाभिमुंदे एवं
उत्तराभिमुहे एवं उड्भाभिमुहे °एगे दवे अहोभिषहे पयाए |
तेण कालेणं तेणं समएण वाससहस्साउए दारए् पयाए,
तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, णो
अब णं ते देवा लोगंतं सपाउणति, तए णं तस्स दारगस्व
आउए पहीणे भवति णो चव णं °जाव संपाउणति,तए शं
तस्स दारगस्स अट्टिमिजापहीणा मरते णो चव णं ते देवा
लोगेतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि
कुलवंसे परहीणे भवति णो चव णं ते देवा लोगतं संपा-
उणंति,तए णं तस्स दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति
णोचवणंते दवा लोगेतं सपाउणति,तेसि णं भते देवा-
णं कि गए बहुए अगए बहुए १, गोयमा ¡ गए बहुए नो
अगए बहुए,गयाउ से अगए असंखेज्जइभाग अगयाउ से
गए असंखज्जगुण लोए णं गं।यमा ! एमहालए पन्त्ते ।
( १५ ) अलोकः कातिमहालय:--
अलोणए णं भते ! के महालए पन्नत्त १, गोयमा ! अयन्न॑
समयखैत्त पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामबि-
क्खंभणं जहा खदए ०जाव परिक्स्रेणं । तेणं कलेशं
तेणं सयएणं दस देवा महिड्डिया तहेव °जाव संपरि-
क्खित्ता णं सचिद्रञ्जा, अह शं अदर दिसाकुमारीओ मह-
त्तरियाओ अट्ट बलिपिंड गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स
चउसु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओं
टठिच्चा अट बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पच्ययस्स जम
गसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेज्जा,पभ्ृ शं गोयमा! तश्रो
एगमेगे देवे ते अद्र बलिपिंडे धरशितलमसंपत्ते खिप्पामेव
पडिसाहरित्तए,ते णं गोयमा ! देवा ताए उकिंद्ाए ०जाब
देवगईए लोगंसि ठिच्चा असब्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरच्छा
भिमुहे पयाए, एगे दवे दाहिणपुरच्छाभिमुहे पयाए, एव°
जाव उत्तरपुन्छाभिप्ठुहे एग दवे उड्राभिमुहे एगे देवे अर
होभिमुह पयाए, तणं कालण तणं समएण वाससयस-
हस्माउण् दारण पयाए, तए णं तस्म दारगस्स अम्मा -
लाक
जबुद्दीवे दीवि सव्वदीवा °जाव परिक्खेवेणं, तेणं कालेण
|
|
|
क्का =
जज
+
लोकः
पाउणात, त चव ०, तासण दवाण क गए बहुए अ-
गए बहुए ?, गोयमा !
याउ से अगण अरंतगुण, अगयाउ से गए अणंतभागे
अलोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्त । ( प्र° 9२१ )
* सव्वदीव ` त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यम--' समु-
डाणे अब्भेतरए सव्वखृङ़ाए् वट तेज्लापूपसंठाणसंठिण व
द्र रहचक्रवालसटारासाठण वद्र पुक्खरकलज्नियास्ेटाणसे-
ठप वट् पा डपुज्नचदसाणसाठए एक्र जायणस्यसह-
स्स आयामावक््खभरा तिन्नि जोयणसयसहस्साइ सालसय
सहस्साई दान्नि य सत्तावीस जोयणसए तन्निय का-
से शट्रावीसे च धणुसय तरस अंगुलाई श्रद्धगुल च |
किच विससाहिये ' ति ` ताए उक्किद्वाए ` त्ति इह याव-
त्करणादिदं दश्यम-- तुरयाणए चवलाए चडाप सिहा-
७ उद्धयाण् जयणाए छुयाए दिव्वाए ' त्ति तत्र त्वरि
तया--आकुलया चपलया-कायचापल्यन चर्डया--राद्रया
गन्युत्कपयागात् सिहया-दाद्यास्थरतया उद्धुतया-दष्पा-
तिशयन जयिन्या--विपक्तजतत्वन दुक्रया-- निपुणया दि
व्यया--दिवि भवयति, * पुरच्छाभिमुह ` त्ति मचपत्तया,
श्रासत्तमे कलवस पहोणे ` त्ति कुलरूपो वशः
भवति आसरूप्तमादपि दंश्यात् . रूप्तममपि वेश्यं यावदि-
व्यः, ' गयाड सर अगए असंखज्जाइभाग अगयाउ स ग-
प असंखेज़गण ` त्ति, ननु पूवादिषु प्रत्यकमर्रज्जु-
प्रमाणत्वान्लोकस्याध्वो धश्च किश्विन्यूनाधिकसप्तरउजुप्रमा-
गात्वात्तुल्यया ग्या गच्छतां दवानां कथ पटस्वपि दिन
गनादगते क्षेत्रमरंंख्यातभागमात्रम, श्रगताच्च गतमस-
ख्यातगुणमिति ?, क्तत्रवपर्म्यादति भावः, श्रत्राच्यत--
चनचतुरस््रीङतस्य लाकस्यैव कल्पितत्वान्न दाषः,
यदयुक्कस्वरूपया ऽपि गव्या गच्छन्ता देवा लाकान्तं बहु-
नापि कालन न लभन्त तदा कथमच्युताज्िनजन्मादि-
चु द्रागचतरन्ति ?, चदुत्वान्तत्रस्याल्पः्वादवनर णकालस्य-
ति, सत्यम . किन्तु-मन्दयं गतः .जनजन्माद्यवतरण-
गतिस्तु शीघ्रतमति । ` ' असब्भावपट्टवणाए ' ति श्रसद्धूता-
अकल्पनयत्य रथ: । पूव लाकालाकवक्कव्यताक्ता ।
(१६) श्रथ लाकैकप्रदेशगतं वक्रव्यविशप दथयन्नाट--
लोगस्स शं भत ! एगम्मि आगासपएसे जे एमिदियप-
एसा० जाव पंचिदियपएसा अशिदियपदमा अन्नमन्नब-
द्धा, अन्नमन्नपुद्ठा ०जाब अन्नमन्नसमभरघडत्ताए चिद्ठ ते,
|
` पियरो पहीणा भवति नो चवणं तेदेवा श्रलोयतं स-
नो गए बहुए अगए बहुए ग- `
प्रहीणा '
ननु |
अत्थि शं भत ! अन्नमन्नस्स किञ्चि आबाहं वा वाबाई '
वा उप्पायंति छविच्छेद वा करति ?, णा तिणट्ठे समद्रु,
मे केणद्रणं भते ! एवं वचह् लोगस्स णं एगाम्म आगा-
सपएसे ज एगिंदियपएसा ० जाव चिद्ंति णऽत्थिणंभं
ते ! अन्नमन्नस्स किचि आबाह वा०जाव करति ? गोय-
मा! स जहानाप्रए नट्टिया सिया सिंगारागारचास्वमा
जाव कलिया रंगद्रागंमि जणसयाउलंमि जणंसयसह-
१७५
( 5६५ )
श्रभिधानराजन्द्रः।
लोक
स्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नटस्य अन्नयरं नडविहिं उव-
दंसेज़ा, स नृणं गोयमा ! त पच्छगा तं नद्यं अणिमि-
साए दिद्वीए सब्वओ समता समभिलोएंति ?, हंता समः
भिल्लोएति, ताओ णं गोयमा ! दिद्दीओ तसि नट्ियमि
सव्वओ समता सन्निपडियाओ १, हंता सन्निपडियाओ
अत्थि णं गोयमा ! ताओ दिद्वओ तीसे नट्वटियाए कि
चिविआबाह वा वाबाह वा उम्पाएंति विच्छद वा
करेंति १, णा तिणट्टे समद्रं, अहवा-सा नया तामि
दिद किचि आबाहं वा वाबाह वा उप्पाएंति छविच्छदं
वा करेइ १, णो तिणद्व समग्र ,ताओ वा .दिद्लीओ अन्नम-
न्नाए दिद्रीए किचि आबाह वा वाबाह वा उप्पाएंति
छविच्छेद वा करेति ?, णो तिणद्ठ समद्रु, से तेणट्रणं
गोयमा ! एवं वुच्च॒इ तं चव ° जाव छविच्छद्ं वा करेंति॥
( ष्ू° ४२२)
लागस्स ण ` मित्यादि, ' अत्थि णे भत ! ` त्ति श्चस्त्यये
भदन्त ! प्तः इह च त डति शषा दृश्यः , ` जाव क~
लिय ` ति इह यावत्करणादवे दृश्यम--' सगयगयह सि--
यभणिर्याचद्भर्यावलासललियसलावानि उणजुन्नावयारक--
लिय ` त्ति. ` बत्तीसइविहस्ल नट्स्स ` त्ति द्वात्रिशद्
विधा--भेदा यम्य तत्तथा तम्य नाख्यस्य , तत्र इंहा-
सुगऋषभतुरगनरमकर्रावहगवत्यालककिन्नरा दिभाक्विचित्र--
नामेका नास्याचाघः . पतच्चरितांभनयनामात संभाव्य-
त . एवमन्य5प्यकत्रिशद्धिधया राजप्रश्नक्तानुसारतो वा-
च्यःः।
लाकेकप्रदशाधिकारादवदमाद--
लागस्म णं भत ! एगम्मि आगासपएस जहन्नपए जी वप
एसाण उकासपए जं।वपएसाण सव्वज।वाण य कयर
= #७ ० (> ॥~ = ~
कयर।हता० जावर ।वेससाहया वा | , गायमा ! सय्व-
त्थोवा ल्लोगस्स एगाम्मि आगासपएसे जहन्नपएण जीव
~ ५ ~ ~;
पएसा, सव्वजावा असखज़गुणा , उक्ासपए ज।वप-
(= [० = वरं + = # ^
एसा विसेसाहिया सवं भते ! भते { त्ति । ( स० ४२३)
'लोगस्स ण' मित्यादि. श्रस्य व्याख्या-यथा किलेतषु त्र-
योादशसख प्रदेशपु जयादश प्रदशकानि दिग्दशकरस्पशीनि -
यादश द्रव्याणि स्थितानि तपां च प्रत्याकाशप्रदेशे त्र-
यादश त्रयादश प्रदशा भवान्ति, एवं लाकाकाशप्रदशऽ-
नन्तजीवावगाटनेककस्मिन्नाकाशप्रदश+ऽनन्ता जीवप्रदेशा
भवान्ति लाक च सृष्पा अनन्तजीवात्मका निगादाः पू--
थिव्यादिसवजीवासख्ययकतुस्याः सन्ति, तथां चेकेक-
स्मिन्नाकाशप्रदश जीवप्रदेशा श्रनन्ता भवन्ति तषां च ज-
घन्यपद एकज्राकाशप्रदश सर्वस्ताका जीवप्रदशाः. तभ्य-
श्च सर्वजीवा श्रसख्ययगुणाः. उन्कृष्टपद पुनस्तभ्या
विशर्षाधका जीवप्रदशा दति ॥ श्रयं च सूत्राथोऽमूभिवृ-
द्धाक्कगाश्राभिमावनीयः--
“ लागस्सगपण्से . जटस्नयप्रयम्मि जयपणसाणं |
( ७८६५ ;
असिध्रानराजन्द्र
लाक
उक्कासपए य तदा, सब्वाज़याण चर के बहया ?। १ | शत प्रश्न: ,
उत्तर पुनरत्ञ--
थाया जहराणयपण, जियप्पएसा जिया असंखगुणा ।
उक्रासपयपएसा, तचा विससाहिया भिया ॥ २॥
अथ जवन्यपदमुन्दघरपदं चाच्यत-
तत्थ पुण जटन्नपय, लागतो जत्थ फासणा तिदिसि।
छदिसिमुक्रास पये, समत्तगालाम्मि .रारणन्थ ॥ ३ ॥
तत्र-तयाजघ्न्यतरपदयाज्जघ्न्यपदं लाकान्ते भवति ` ज-
स्थ ' त्ति यत्र गालक्र स्परशना निगाददशस्तिखृप्वव दिलु
भवति शपदिशामलाकनाच्रतत्वात्, सा च खरडगाल
एच भवतीत भावः ` ऋसि ` ति यत्र पुनगोलक्र षट्-
सवाप दन्न निगाददशः स्पशना धरति तताःकृषए्रपदे . मवति
त्च समस्तगालः एरपृणगालक भवति, नान्यत्र, खण्ड-
गोलके न भवतीत्यर्थ:, सम्पुणगालक्श्च लाकमध्य एव
स्यादति।
अशथ परवचनमाशकूमान आह-
उक्तासमसंखगुरो. जदन्नयाञ्जा पये हवइ कितु ? ।
नखु तिदिसि फुलणाआओ, चछदिसि फुसणा भव दुगुणा ॥५॥
उत्कपम्-उल्छृष्रपदमसख्यातगुणे जीवप्रदशापक्षया जघन्य-
कात्पदादिति गम्य भर्वात, किन्तु-क्थे तु, न भवतीत्यर्थः,
कस्मादवम् ? इत्याट-ननु--निश्चतम् , श्र्तमायां वा
नुशब्दः, चरिदिकस्पशनायाः सकाशात् पडदिकूस्परना
भवेद् द्विगुणति, इह च॒ काकुपाटाद्धतुत्वे प्रतीयत इति, अ-
ता ्गुणमवाकरृ्र पदं स्यादसख्यातगुणो च तदिष्यत,
जपन्यपदाश्रितजीवप्रदरशापक्षया ऽस ख्यातगुणसर्वजीवभ्यो
विरपाधिकजीवप्रदशापतःवात्तस्यति । इदात्तरम्-
धावा जहन्नयपए, निगायांमत्तावगाहणाफुलणा ।
फुसणासंखगुणत्ता, उक्कासपए अखंखगुणा ॥ ५॥
स्ताका+-जीवप्रद्शा जघन्यपदे कस्मात् ?, इत्याह--नि-
गादमात्रे क्षेत्रधवगाहना यपां त तथा, एकावगाहना इत्य- |
श्रः, तरेव यत्स्पशनम-अवगाहने जघन्यपदस्य तन्निगो-
दमात्रावगाहनस्पशीने तस्मात्, खरडगालकनिष्पादक्रनि-
गाद्रैस्तस्यास॑स्पयीनादिव्यश्रः, भृम्यासन्नापवरककाणान्ति-
मप्रदशसदशों दि जघन्यपदाख्य. प्रदेशः, तं चालाकसम्ब-
न्ध्रादकावगाहना णव निगादाः स्पृशन्ति; न तु खणडगा-
लनिष्पादकाः, तत्र किल जघन्यपदं कट्पनया जीवशत
स्पृशति, तस्य च प्रत्यक्रं कट्पनयेव प्रदेशलक्तं तत्रावगा-
इमिव्यवं जघ्रन्यपदं काटा जीवप्रदेशानामवगाद़त्येवं स्ता- ।
कास्तत्र जाबधदशा इत | अ्रथा त्कृष्पपद जाव प्रदशप। रमा ण-
मुच्यत--'फुलणासंखगुणत्त' लि स्प॒शनायाः-उत्क्ृष्टपदस्य |
पृणगालकनिष्पाद्कनिगाद्रैः संस्पर्शनाया यद्संख्यातगुण-
त्ये जघन्यपदापक्षया तन्तथा तस्माद्धतारूकृ्टपदे ऽसेख्या- |
तगुणा जीवप्रदशा जघन्यपदापक्तया भवान्ति, उत्कृष्टपर्द |
हि सस्पृ्गालकनिष्पादकानिगादेरकावगाहनेर संख्येये: त~
शरान्छृपएरपदा{चमाचननेकरेकध्रदशपरिदानिभिः प्रत्यकमसंख्पे-
यरव स्पष्टम, तच्च क्रिल कटपनया कार्टासदस्रण जी-
वानां स्पृश्यत, तत्र च प्रत्यकं जीवप्रदशलत्तस्यावगाद-
नाज्ञीवप्रदशानां दशक्रारीकोस्यो धवगाढाः स्युरित्यवमुत्क-
धरपद तनेख्ययगुणा भावनीया इति ।
अथ गालवः वरूपणायाद-- ॥
उक्रासपयममात्त, नगायच्रागादणाण् सव्वत्ता ।
निष्फाइजइ गोला, पएसपरिवुड्िहाणीहि ॥ ६ ॥
उत्कृष्ट पदं-विवज्ञितप्रदेशम च्रमुञ्चद्धिः निगादावगाहनाया ¦
एकस्याः सर्वतः--सर्वासु दिचु निगादान्तराणि स्थापयद्धि- ।
निष्पाद्यत गालः, कथम् ?, प्रदशपरिवरद्धि टा निभ्यां -कांश्चित्-
परदशान् विवक्तितावगाहनाया आक्रामद्धिः कां्चिद्धिमुञ्च-
द्धिरित्यथः, एवमेकगोलर्कानष्पात्ति: स्थापना चयम्-० __ `
गालकान्तरकर्पनायाह-
तत्ता िय गालाओ, उक्कोसपये मुइत्त जा अन्नो ।
हाद निगाओ तम्मि वि, अन्ना निप्फज्ती गाला ॥ ७॥
तमवाक्रलत्षण गालकमाध्रित्यान्या गालका निष्पद्यत,
कथम् ?, उत्कृष्टपदं प्राक्तगोलकसम्यसन्धि विसुच्य याऽन्यो /
भवति निगादस्तस्मिन्नुःछृएरपद करपननात ।
तथा च यत्स्यात्तदाह--
एव निगोयमेत्त, खत्ते गालस्स हाइ निष्फत्ती ।
, एवं निप्पज्त, लाग गाला असंखिज्ञा ॥ ८ ॥
एवम्-उङ्कक्मण निगादमात्रे क्त्र गालकरस्य भवति
निष्पत्तिः, विवत्ितिनिगादावगादातिरि कनिगाददशानां गो-' हे
लकान्तरानुप्रचशात्, एवं च निप्पद्यन्त लाक गोलका
असख्ययाः, श्रसंख्येयत्वात् निगो दावगादनानाम् , प्रतिनिगो
दावगाहन च गोलकनिष्पर्तारति ।
अथ किमिदमव प्रतिगालकं यदुक्कमुत्कष्ट पद तदेवेह
ग्राह्यमुतान्यत् ? इत्यस्यामाशङ्कायामाद-
ववहारनएण इम, उक्रोसपया वि एत्तिया चव ।
जञ पुण उक्रासपये, नच्छुइ यं होइ तं वोच्छे ॥ ६ ॥
व्यवहारनयेन--सामान्यन इद म्--अनन्तरोङ्गमुन्ृ्टपद-
मुक्तम, काका चदमध्ययम्, तन नेदेदं ग्राह्ममित्यथः
स्यात् , अथ कस्मादेवम् ?, इत्याह--' उक्कासपया वि एत्ति-
याचव ` न्ति न केवले गोलका असंख्येयाः उत्कर्षप-'
दान्यपि परिपरंशगोलकथरूपितानि एतावन्त्येब--असेख्ये-
यान्येव भवन्ति यस्मात्ततो न नियतमुत्कृष्टप्द किञ्चन-
स्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कष्ट पद नेश्चयिकं भवति
त्कषयागाद् यदिद ग्राह्ममित्यर्थः तद्धच्ये ।
तदेवाड
बायरनिगोयविग्गह- गइयाई जत्थ समहिया श्रन्ने।
गोला हुज्न खुबहुला, नच्छुई पये तदुक्रोसं ॥ १०॥
बादरनिगोदानां-कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगो
दविग्रहगतिकादयः, श्रादिशब्द्श्चटाविग्रहगतिकावरोधा- ¦
रः, यत्राल्कृष्टपदे समधिका श्रन्य--सदमनिगादगालके-
भ्यो ऽपरे गालका भवयुः खुवहवो नेश्चयिकपदं तदुत्कषम् । ५
+
स्वरूपता भवन्ति न सृदमांनगादवत्सवेत्रत्यतो यत्र क्- |
|
|
|
बादरनिगादा दि पृथिव्यादिषु पृथित्यादयश्व स्वरः
चित्ते भवन्ति तदुत्कछष्टपर्दे तात्त्विकमिति भावः
एतदेव दशैयन्नाट--
इहरा पहुच्च सुहुमा , बहुतुल्ञा पायो सगलगोला ।
ता बायराइगह एं, कीरइ उक्ासयपयाम्म ॥ ११॥
^ इहर ' त्ति वाद्रनिगोदाश्रयणो विना सदमनिगोदान् | 8
प्रतीत्य वदुतुर्याः-निगोदसख्यया समानाः प्रायश, श्रा
।
योग्रहणमक्रादिना न्यूनाधिकत्व व्यभिचारपारिहारार्थम् , क
चते? इत्याद-सकलगालाः , न तु खण्डगालाः , अता
न नियत काश्चदुःकणएपद लभ्यत , यत एव तता बा-
इरानिगादादिग्रहण क्रियत उत्कृष्ट पदे ।
अथ गोलकादीनां प्रमाणमाह--
गोला य असंखज्ना, होति निगाया अलंखया गोले ।
एक्कक्का उ निगाओ, अणेतजीवो मुरायव्वा ॥ १५॥ ( भ० )
( जीवप्रदशर्पारिमाणप्ररूपणा पूवक निगादादीनामवगाहना
मानादिप्ररूपणा ' आगाहणा ` शब्दे तृतीयभागे ८३ पृष्ठ
गता )
श्रथ सर्वजीवभ्य उत्क्ष्टपदजीवप्रदेशा विशषाधिका इति
विभणिषुस्तषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाह-
गाला जावा य समा, पएसआओ जे च सव्वजीना वि।
होति समागादणया, मल्भिमच्यागादणे पष्प ॥ २३ ॥
गोलको जीवश्च समो प्रदशतः--श्रवगाहनाप्रदशानाध्रि-
त्य, क रखपनया द्वयारपि प्रदशदशसटस्व्यामवगादत्वात् . जे
च ` नि यस्माच सवजावा आप सूक्ष्म भवान्त समावगा-
इनका मध्यमावगाहनामाश्रव्य, कल्पनया हि जघन्याव-
गाहना पश्चप्रदशसदस्राण उत्कृष्टा तु पश्चदर्शात ढयाश्च
मीलननार्डाकरणन च दश रूटस््राण . मध्यमा नवतीति ।
तण फुड चिय सिद्धे, एगपण्सराम्मि ज जियपएसा |
त सबव्वजी बतुज्ला, णस पुणा जह विससहिया ॥ २४ ॥
इद किलास द्धावस्थापनया कोरीशनतरूख्याप्रदेशस्य जी-
चस्याकाशप्रदशदशसदस्स्यामवगादस्य जीवस्य प्रतिप्रदश
प्रदेशलक्ते भवत, तच्च पूर्वोक्रप्रकारता निगोदवातिना
जोचलत्तण गुणत काटिसहसरं भवति, पुनराप च तद-
कमालव। चना ।नगादलक्षण गुणत कादाकाटादशकथपा्रमाण
भवति, जीवप्रमाणमप्येतदव | तथाहि--कोटीशतस ख्य प्र-
दश लाके दशसहस्त्रावगाहिनां गोलानां लक्त भवति, प्रति-
गोलकं च निगादलक्षकल्पनात् निगादानां कोर्टोसहस्म
भवति, प्र्तिनगादं च जीवलत्तकटपनात् सव्जीवानां
कारीकार¶देशकं भवतीत ।
श्रथ सवज्ीवभ्य उत्कृष्टपद््गतर्जीवप्रद्शा विशेषाधिका
इति दश्यत--
ज्ञ संति कइ खडा, गाला लागतवात्तिणो अन्न !
बायरविग्गहिएहि य, उक्रासपय जमव्भ{टयं ॥ २५॥
यस्माद्विदयन्न कचिल्खरडा गाला लाका-८<र्तिनः अन्न '
क्ति पूर्णगालकभ्या5पर5ता जीवराशः कर्पनया काटी-
काटीद शकरूप ऊना भवात.पूणगालकतायामवब तस्यन्यथा-
क्स्य भावात् . ततश्च यन जीवरीशना खराडगालका
प्र्णीभुताः स सवजीवराशरपनीयत असद्भृतत्वात्तस्थ, स
च किल कल्पनया कार्टीमानः, तत्र चापनात सर्वेजीशरा-
शिः स्ताकतरा भवाति, उनकृ्रपदं तु यथाङ्कप्रमाणमर्वाति
तत्वता विशपाधिक भवति. समता पुनः खगडगालानां
जि तथा वादरचित्राहकंश्च बादर्रानगा-
दा।दजावप्रदशश्वात्क्ृएपद यद-यस्मात्सवजीवराशर भ्याथक |
तत: सर्यजीवभ्य उत्कृए्पंद जीवप्ंदशा सिशपषाधिका
श्रद- `
( ७ )
आाजशधानराजन्द्र, |
लाक
न्तीनि । । इयमत्र भावना-वबादरबिग्नहगांतकादीनामनन्तानां
जीवानां सदच्मजीवासख्ययभागवर्तिनां कट्यनया कोटीप्राय-
सख्यानां पूर्वाक्कजीवराशिप्रमाण प्रच्चपणन समताप्राप्तावर्षि
तस्य वादरादिजीवराशः काटीप्रायसंख्यस्य मध्यादुत्कर्ष ता-
ऽसख्ययभागस्य कल्पनया शतसख्यस्य विवक्षितखूद्मगा-
लकावगाटनायामवगादनात् पकेकास्मिश्च प्रदश भ्त्येके
जीवप्रदशलक्षस्यावगाढत्वात् लक्तस्य च शतगुणन्वन को-
रीप्रमाणत्वात् तस्याच्धाकृषएपद प्रक्षेपात्पूों क्रमुत्कष्टपदजी-
वप्रदशमानें कारर्याधकं भवतीति ।
यस्मादवम--
तम्हा सब्वेहितो, जीवहिता फुड गदेयव्वं.।
उकासपयपपसा,. दत विसेसाहिया नियमा ॥ २६ ॥
इदमव प्रकारान्तरण भाव्यत--
श्रहवा जण वहुसमा. खमा लाए5वगाहणाए य ।
तयक जीव. बुद्धीएँ वरल्लण लाए ॥ २७ ॥
यता बहुसमा:-प्रायण समाना जीवसंख्यया कढ्पनया
एकरकावगाहनायां जीवकोटीसहस्वस्यावम्थानात्ू , ख-
राडगालकव्यभिचारपरिदाराश्र चह बहुग्रहणंं सृच्माः--
स्प्रनिगादगालकाः कर्पनया लक्तकर्पाः लाक्र--चतुद-
शरज्ज्वात्मके, तथा ऽवराटनया च समाः, कल्पनया दशसु
दशसु प्रदशसद सखरप्ववगाढत्वात् , तस्मादकप्रदेशावगाढजी-
वप्रदशानां सर्वजीवानां च समतापारज्ञानाथमेकेक जीय
बुद्या * विरल्लप् ` त्त कवांवसमुद्घातगत्या विस्तारय
ज्ञाक | अयमत्र भावाधः--यावन्ता गालकस्येकत्र प्रद
श॒ जीवप्रदशा भवान्त, कट्पनया कारटीकारीदशकथरमः-
णास्तावन्त एवं विश््तारितषु जीवपु लाकस्यैकच प्रद
त भवान्ति, सवर्जीया अप्यतत्लमाना प्रति |
अत पवाह--
एवं पि समा जीवा, एगपएसगयाजियपएसहिं ।
बायरवाहुल्ला पुण, होति पएसा विससहिया ॥ २८ ॥
एवर्माप न कवलं * गाला जीवा य समा ` इत्यादिना पू-
वा क्रन्याथन रूमा जीवा एकप्रदेशगतेजीवप्रदर्शाराति, उ-
त्गा्धस्य तु भावना, प्राग्वद्वलयति ।
- अथ पूर)- क्वराशीनां निदशनान्यभिाधत्सुः प्रस्तावयन्नाद-
तरस पुण रासीणं. निदरिसणामिणं भणामि पच्चक्खे ।
खुहगहरणगाहणत्थे. ठवणा गासिप्यमार्णाड ॥ २६ ॥
गोलाण लक्खमेक्क. गोले गोल निमायलक्ख तु ।
य निगाए. जीवायो लक्खमक्कक्क ॥ ३० ॥
~
त्म
कं(डिसयमगजी व-ष्पणसमाण तमव लागस्स ।
गोल-नगोाय जिया, दस उ सहस्सा समोगाड़ो ॥ ३१ ॥
जीवस्+क्रक्स्स य. दसससाह म्सावगाहिणो साग ।
पक्रक्रम्म पप्र, परुरूलकख समोगा्ढ ॥ ३८ ॥
जीवसयस्स जटन्न. पयाम्म कोडी जिय॑ंप्पएलाणओ।
आओगाढा उक्कास, एयाम्म वाचछे पपुनग्ने .६३॥
कॉडि्सहस्साजियाएं, कोडाक्राडादरूप्पए सास ।
( अश्च |
लाक
खआामधानराजनद्र: |
उक्कास ओगाढा, सव्वजिया 5वत्तिया चेव ॥ ३४ ॥
कोडी उक्कोसपय-म्मि बायरजियप्पएसपक्खवो ।
साहणयमत्तियं चिय. कायव्ये खडगालाण ॥ ३५ ॥
उत्कृष्पपदे सृच्मजीवप्रदशराशरूपरि काटीप्रमाणा बादर-
जीवप्रदेशानां प्रत्तषपः कार्यः, शतकल्पत्वाद्धिवक्षितसक्ष्मगा-
लकावगादवादरजीवानाम् , तेषां च प्रत्यकं प्रदशलक्षस्या-
न्कष् परदे पवस्थितत्वातू तन्मीलन च कारीसद्धावादिति.
था सवजीवरारामध्याच्छाधनकम्-शपनयनम् पत्तिय
चय ` त्ति पतावतामव-कार्टासख्यानामव कक्तब्यम ,
स्वगडगालानाम् खण्डगोलकपूर्णताकरण नियुक्रजावानां त
घ्रामसद्धाविकत्वादिति ।
पर्पांस जदारभव-मल्थाव णये करज्ज रासीय ।
सञ्भावच्रा य जाणि-ञ्ज त श्रणता असेखा वा॥ ३६ ॥ 4
इहार्थोपनया यथास्थानं प्रायः प्राग् दशत एव ' रणत
ननि निगाद जीवा यद्यपि लत्तमाना उक्कास्तथाऽप्यनन्ताः,
पय सर्वजीवा अपि, तथा निगादादया य लक्षमाना उक्कास्त-
एप्यसख्यया श्रवसया इत ¦ भ० ११ श० १६ उ०।
( ६७ ) असंख्ययेषु लाकेषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानीत्याह-
तरं कालणं तशं समणएणं पासावच्चिज्जा ( ते ) थरा
भगवेतो जणव समश भगवं महावीर तणव उवागच्छति
उवागन्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते
टिज्चा एवं वदासी-से नशं भत ! असंखेज्ज लोए
श्रगंता राइंदिया उप्पज्जिसु वा उप्पञ्जति वा उप्पजि-
स्मति वा विगच्छिसु वा विगच्छति वा विगान्छिस्सोति वा
परीत्ता राइंदिया उप्पर्जजिंसु वा उप्पञ्जतिसु बा उप्पज्जिस्संति
वा विगच्छिसु वा विगच्छति वा विगच्छस्मति वा हत
अज्े!?अमंखजे ले।ए अणंता राइंदिया तं चव,म कणट्रगं°
जाव विगन्छिस्सोति वा ?, म नृगं भेत ! अज्ञो! पासेण
श्ररहया पुरिसादाणीएण सासए लःए बुइए, अणादी- `
ए अणवदग्ग परित्त परिवृंड दृटा वित्थिएण गज्ज
संखित्ते उप्पि विमाल अहे पलियंकर्सठिए मज्के वरवइर-
.गिग्गहिते उष्पि उद्भमुद्गाकारसटिए तसि च णं सास-
यमि लोगमि अणादियमि अणवदर्गंसि परित्तमि
परिवुडमि हेद्ढा वित्थिन्नासि मज़्के संखित्तंसि उपि
विसालंसि अह पलियकसटियंमि मज्के वरवइरविग्ग-
हियि उष्पि उद्ध8॒इगाकारसटठियेसि अता जीवघणा
उप्पज्ञित्ता उप्पञजित्ता निलीयति परित्ता जीवघणा उप्प-
ज़ित्ता उप्पज्ञित्ता निलीयंति । से नृणं भणं उत्पन्ने विगए |
परिणए अजीवहिं लाकति पलोकइ, जे लकड से लोए ?,
हना भगवं [ते], से सेणद्वर्ण अज्जो | एवं वुच्चइ
अमंखज़ तं चवर | तप्पभति च र्ण ते पासावचज्ञा थरा
भगवेते समणं भगव महावीर पन्चभिजाणंति सच्वन्नू |
सत्यद रिसी, तए णं ते रगा भगवतो ममणं पगवं पहा
रं बदति नमंसेति वदित्ता नम॑सित्ता एवं ।
इच्छामि णं मेते ! तुन्भं अत्तिए चाउज्जामाओं धम्माओं
पच महव्वइयं सप्प!डकमणं धम्म उवसपज्जित्ता ण विह-
रित्तए, अहासुहं दवाणुप्पिया ! मा पडिविधं करेह, तए शं
त पासावचिज्ञा थरा भगवता ०जाव चरिमहि उस्सा -
सनिस्सासेहि सिद्धा ०जाव सव्वदृक्खप्प्।णा अत्थेगति-
या देवा देवलोएसु उववन्ना । ( स्ूं० २२६ )
` तग कालण ` इत्यादि. त्र ` असंखज्ञ लाए ` त्ति श्रस-
ख्यातऽसख्यातध्रदशात्मकल्वात् लोकें--चतुदेशरज्ज़्वात्मके
क्षत्रलांक आधारभूत ' अणंता राइंदिय ` त्ति श्रनन्तपरिमा-
णानि रात्रिन्दिवानि-अहा रात्राणि ` उप्पाज्िसु वा ` इत्या-
दि. उत्पन्नानि वा उत्पद्यन्त वा उत्पत्स्यन्त वा, पृच्छ
तामयमाभिप्रायः-यदि नामासख्याता लाकस्तदा तब्रा-
नन्तांन तानि कथ भवितुमर्हन्ति ? , अल्पत्वादाधारस्य
महत्वाच्चाघयस्यात, तथा ` परित्ता राइदिय ` कज्ि परीत्ता-
नि-नियतपरिमाणानि नानन्तानि, इद्ायमभिप्रायः-यद्यन-
न्तानि तान तदा कथ परीत्तानि? इति विराधः, अज्ञ
हन्तेत्याद्रत्तरम् , अत्र चायममिप्रायः-असंख्यातप्रदशर्डाप
लाकऽनन्ता जीवा वत्तन्त. तथाविधस्वरूपत्वाद् , , एकत्रा-
श्रय सहस्प्रादिसेख्यप्रदीपप्रभा इव, त चेकत्रेव समयादिक
काले5नन््ता उन्पद्यन्त विनश्यन्ति च. स च समयादिकाल-
स्तषु साधारणशर्गीरावस्थायामनन्तषु प्रत्यकशरी रावस्थायां
च परीत्तिषु प्रत्यक वक्त, तत्स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वा-
त्स्य, तथा च कालाऽनन्तः परीत्तश्च भवतीत. एवं चा-
सख्यय ऽपि लाक रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च का-
लत्रय 5पि युज्यन्त इति । एतदव प्रश्नपूर्वकं तत्संमताजि-
नमनन दगीयन्नाह-` स नृण ` मित्यादि. ` भ ' त्ति भवतां
सम्बन्धिना ` अजा ` त्ति आर्याः ! ` पुरिसादाणीणण `
ति परुषाणां मध्य आदानीयः--आदेयः--पुरुषादानी यस्तन
' सासए ` त्ति प्रतिक्षणस्थायि, स्थिर इत्यथः ` बुइए ` त्ति
उक्तः. स्थिरश्चात्पत्तिक्तणादारभ्य स्यादित्यत आह--* अ-
णाइए ` त्ति ्रनादिकः, स च सान्ताऽपि स्याद्धव्यत्वव-
दित्याह-- अनवयग्ग ' क्षति अनवदग्न:--अनन्तः ` परित्त
त्ति परिमितः प्रदेशतः, अनन लाकस्यासे ख्येयत्व पाश्वाज्ि-
नरस्यापि संमर्तामति दर्शितम् | तथा-' परिबुड ` त्ति श्र
लाकन परिब्रतः ' दृटा वित्थिन्न ` त्ति सप्तरज्जूविस्तृत-
त्वात् ' मज्के सखित्त ` त्ति प्करज्जुवस्तारत्वात् ` उष्पि
विसाल ` ति ब्रह्मलाकदेशस्य पञ्चरज्जुविस्तारः'वात् , , एत-
देयापमानतः प्राह--' अह पलियेकर्साठिए ` त्ति उपरि स-
ङी रन्वाधाविस्तृतत्वाभ्यां ` ' मज्कभे वरवइरविग्गाहिए ' क्ति
चरवल्नवद्धि्रहः-शसीरमाकारा मध्यक्तामत्वनयस्य स तथा.
स्वार्थिकश्वद्द कप्रत्यय;, ` उपष्पि उद्धमुइंगागारसंठिण ` त्ति
ऊर्ध्वों तु तिरश्चीना या सदङ्गस्तस्याकारण संस्थिता
यः स तथा, मल्लकसंपुटाकार इत्यर्थः, ' अणता जीवघण '
त्ति अनन्ताः--परिमाणतः सृच्मादिसाधारणशराराणां बि-
वाच्षितत्वात् , सन्तव्यपक्तया वा ऽनन्ताः. जीवसन्ततीनाम-
पर्यवसानत्वात् , जीवाश्च ते घनाश्चानन्नपयायसमृदरूष-
त्नादचन्त्ययःदरर्णापिग्डरुप-वाच्च जीवघनाः, फिमित्याह--
|£ त्ति उत्पद्य पद्म वलीयन्त-वनश्यान्त, तथा
परीत्ता:--प्रत्यकशरी रा अनपक्षितातीतानागतसन्तानतया
वा संक्षिप्ताः, जीवच्चना इत्यादि तथेच,अनन च प्रश्न यदुक्कम्
* गोता राइंदया ` इत्यादि तस्यात्र सूचितम , यताऽ
नन्तपरीत्तजावसम्बन्धात्कालविशपा श्चप्यनन्ताः परमत्ताश्च ,
व्यपदिश्यन्त ऽता विराधः परिहृता भवतीति । अध ला- |
कमव स्वरूपत श्राह-` स , नृण ) भए ` त्ति यत्र जी-
बघना उत्पद्य उत्पद्य तलायन्त स लाका ्ूतः--सद्धूता |
भवनधर्मयाोगात् , स चानुत्पक्तिकार्डाप स्याद् यथा नय-
मंतनाकाशमत आह--उत्पन्नः, एवेविधश्चानश्वरा ऽपि स्यात्
यथा विवत्तितिघराभाव इत्यत आह--विगतः, स चान-
न्वयो ऽपि किल भवतीत्यत श्राह--परिणतः--पयायान्त-
राणि आपन्ना न तु निरन्वयनाशेन नष्टः । अथ कथमय-
मैवंविधा निश्चीयत ? इत्याह--' अजीवहि ` ति अजी-
वैः-पुद्रलादिभिः सक्तां विश्वद्धिरुत्पद्यमा नर्विंगचछ
पारणमाद्भश्च लोकानन्यभूतः लाक्यत-नश्चायत श्र
लोक्यते-प्रकर्षण निश्चीयत, भूतादिधमंकाउयामात
अत एव यथाथनामा ऽसाविति दशेयन्नाट-- ज लाक्कइ रू
लाए ` ज्ञिया लाक्यत-विलाक्यत प्रमाणन स लाका--
लाकशब्दवान्या भवतीति, एवं लाकस्वरूपामिधायक-
पाध्वांज़नवचनसस्मरणन स्ववचन भगवान् समाथतवा- '
निति । ` सर्पाडक्कमणं ` ति आदिमान्तिमाजनयारवाव-
श्यकरणीयः सप्रतिक्रमणा धर्मो ऽन्यषां तु कद्राचित््रति- |
मणम्, श्राह च-- सर्पाडक्मण धम्मा, पुरिमस्स |
य पच्छिमस्स य जणस्स । मज्भिमगाण जिणाण, का- |
रणजाप पडिक्षमएं ॥१॥ " ति॥ अनन्तरं ` देवलाएसु
उववन्ना' इत्युक्तम् । भ० ५ श० € उ० । ( स्वकीयः स्वक्रीय
पयायः-कताऽय लोक रात ` कडवा ` शब्द ३ भाग २०४
पृष्ठ गतम् ) ( लोकवादे ` लागवाय ` शब्दे वच्यामि)
( १८ ) लोकसरम्मता लाकः--
श्रस्ति लाकः स्थावर जङ्गमात्मकः, तत्र नवखण्डा पृथ्वी,
रू्षद्वापा वधात वा । अपरंषां तु--ब्रह्मारडान्तवत्ता,
श्रपरषां .तु--प्रभूतान्यवभूतानि ब्रह्मारडान्युदकमध्य प्लव-
मानानि सतिष्टन्त । आचा० १ श्रु० ८ अ० १ उ० (पृथिव्या
चलाचलत्वविचारः। सर्वा अपि पृथ्व्यःअलोकं न स्पृशन्तीति
च 'पुढवी ' शब्द पश्चमभांग ६७२ पृष्ठ 'भूगोल' शब्द १४६४प्ृष्ठ
च दर्शितम )अनकेपामत्र मतम्-' ला्काक्रियात्मतच्व.विवदन्त
चादिना विभिन्नाथम् | अविदितपूर्व येषां,स्याद्वादर्वानिश्चितं
तचम् ॥ १॥ ` यषां तु पुनः स्याद्धादमत निश्चितं तथाम-
स्तित्वनास्तित्वादेर स्य नयाभिध्रायण कर्धाचद् वा श्रयणा
द्विवादाभाव इत्यादि । (आचा० १्श्रु५क अ० १ उ०।) 'भूगाल
शब्दे पश्चमभाग १५६४पृष्ठ सर्वेषां मते प्रतिपादितम्--श्रस्ति |
लोका नास्ति वेत्यादि,ध्रवा लाकः श्रध्रवा लोक इत्यादि च।
{ श्रस्वि लाकः इति ` श्मल्थिवाय ` शब्दे प्रथमभाग ४१६ पृष्ठ
उक्कस ) ( नास्ति लाक इत्यस्य खरडनम् “ भूगाल ` शब्द
प्रश्चममज्नाग १५६४ पृष्ठ विस्तरतो दर्शितम | ध्रवा लाकः श्रस्य |
श्वरड़नम् 'युढवा' शब्द ६७२ पृष्ठ उक्कम | श्रध्रवा लाकः दात
[6 मरण' शब्द् 5स्मिन्नव भागेद०्तपृष उक्तम् । सा- |
दिका लाक इति 'कम्म' शब्दे लृ्तीयभागर
प्रष्र दाशतम )।
१७८
विग्रहा
( ३०६ )
असमिधानराजेन्द्रः ।
ललाक्र
(१६) कुत्र लाका वहुसमः--
कहि णं भते ! लोए बहसम ? कहि णं भत ! लोए सन्व-
विग्गहिए पष्पत्त १, गोयमा ! इमीस रयणप्पभाए पुढ़-
बीए उवरिमह ट न्नसु खुडागपयरसु णएन्थ लाए बहुसम
एत्थ णं लाए सब्बबिग्गहिए पष्पत्त । कटि णं भत *
विग्गहविग्गहिए लाए पष्मत्त ?, गायमा ! विग्गहकंडए
एत्थ शं विग्गहेविग्ग हए लोए पप्मत्त | ( घछू० ४८६ )
* काहि ण ` मित्यादि. बहुसम ` त्ति अत्यन्त समः.
लाका हि कचिद्धङमानः कचिद्धायमानाऽनरस्तान्नपघाद्र-
हुसमा वुद्धिहानिवर्जित इत्यथः. ` सब्बबिग्गांहए ` न्ति
वक्त्र लरघुरित्यर्थ: . तदस्यास्तीति विग्र॒हि--
कः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविश्नहिकः-सर्वसंत्षिप्त इत्यथः.
* उवरि मह द्वह्लखु खुड़ागप्रयरसखु ` त्ति उर्दारिमा यमवधी-
छत्याध्व प्रतरब्रृद्धिः प्रवरत्ता. शधस्तनश्च यमवधीकृत्याधथः
प्रतरप्रवद्धिः प्रवुत्ता ततस्तयारुपारतनाधघस्तनयाः क्षुल्न-
कप्रतरयाः शपापक्षया लघुतरया रउजुप्रमाणायामावप्क-
म्भकयास्ति्यगलाकमध्यभागवन्िनाः 'एत्थ ण' ति एतयाः-
प्ज्ञापकरनापदश्यमानतया प्रल्यन्तयाः ` विग्गहविग्गहिए '
त्ति विग्रदा- वक्त तद्क्ला विग्रहः- शरीरं यस्यास्ति स
विग्रहविग्राहिकः ` विग्गहकंडए' त्ति विग्रहा-- वक्त्रे करड-
कम--अवयबा सिग्रररूप कराडकं विद्रदकरडकं तत्र ब्र-
ह्यलाककृप्पर इत्यथः यत्र वा प्रदश्चृद्धा हान्या वा वक्त
भवति तद्विग्रहकणडकम तच्च पधाया लाकान्तप्वस्तीति।
भ० १३ श० ४ उ० । ` चनन्ता नित्यश्च लाक ` इति यद-
महित. तज्रदमभिधीयत- यदि खजात्यज॒न्छंदनास्य नि-
त्यताऽभिघीयत ततः परिणामानित्यत्वमस्मदभी एमवाभ्यु-
पगतन काचिन्त्ततिः, अथाशभ्रच्युतानुत्पन्नस्थिरे कस्वभाव-
त्वन नित्यत्वमभ्युपगम्यत तन्न घटत , तस्याध्यत्तवाध-
तत्वात् .न हि क्षणभाविपयायानालिजक्ञितं किश्िद्धस्त प्र-
त्यक्षणावर्सीयत , निष्पर्यायस्य च स्दपुष्पस्यवास? पते-
व स्यादिति | तथा शश्वद्धवन कार्यद्रव्यस्या55काशात्मा-
दश्वाविनाशित्वम् यदुच्यत-द्रव्यायचशपापक्तषया तदप्यसदेव,
यतः सर्वमव वस्तू-पादव्ययश्रोव्ययुक्वत्वन॒निर्घिभाग-
मव प्रवत्तत, अन्यथा वियदरविन्दस्यव वस्तुःवमंव ही-
यतात । तथा यदुक़म--' अन्तकाट्लाकः सप्तद्वापावाच्छ-
न्नत्वा ' दित्यतन्निरन्तराः सुहृदः प्त्यप्यान्ति, न अ्रक्षापूर्व-
कारिण.) तद्ाहकश्माणामावादिति । तथा यद्प्युक्तम् ,
“ अपुत्रस्य न सन्ति लाका ` इत्यादिव्यतदपि बा-
लभापितम् , तथाहि-कि पृत्ररत्तामात्ररोव विशिष्टलाकाबा-
प्लविरझुत तत्छृतविशिणए्ानुष्ठानात् ?. तद्यदि सक्तामात्रण तत
इन्द्रमहकामुकगर््तावर हा दिश्निव्याप्ता लाका भवयुः, तेषां
पुत्रबहुत्वसेभ्रवात् , अथान्षुष्टानमाश्रीयत तत्र पुत्रद्धय सत्ये-
केन शोभनमन्नुष्ठितम् , अपरेण अशोभनामिति तत्र का वा-
ता ?, स्वकृतानुष्ठानं च निष्फलमापथतेत्यव॑ ्यःकाचदत-
दिति । सृत्र० १ श्रु० १ अ० ४ उ०।
( २० ) धर्मास्तकायादिभिलोंकः: स्पृष्टः--
चउहिं अत्थिकाएहिं लोगे फुड पष्पत्त, तं जहा - थम्मत्थि-
काणं अधम्मन्थिकाएयणं जीवन्थिकाएणं पुर्गलत्थिकाए -
( ७१० )
च्रभिधानराजन्द्रः
लोक 0४४8५)
श चउहिंवादरकाएहिं उववजमाणहिं लोग फुडे पप्तत्त,
ते जहा-पुदविकाइएहिं आउकाइणएहिं वाउकाइएहिं वण-
स्सइकाइएहिं । ( सू० ३३२ )
चउदि ` इत्यादि गताथम् , कवलम् ' फुडे ` ति स्पृष्ट:-
प्रतिप्रदशे व्याप्त:. सक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलाकात् सर्वला-
के उत्पादात् बादरतेजसानां तु सर्वलोकाइुद्धत्य मनुष्यक्षत्र
ऋजुगत्या वक्रगत्या चान्पद्यमानानां दयोरूध्वेकपाटयार--
च वादरतजस्त्वत्यपदेशस्यण्न्वाच्च ' चाह बादरकाएहि ८
इत्युक्तम् , बादरा हि प्रृथिव्यस्वुबायुवनस्पतयः सवता ला-
कादुद्त्य प्राथव्यादपघनादध्याद घप्रनवातवलयाद घनादध्या- '
दिषु यथास्वमुत्पादस्थानष्वन्यतरणगत्योत्पद्यममाना अपयाप्तका-
वस्थायामतिवहुत्वात् सर्वलाकं पत्यक स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्व-
त वादरतजस्कायिकासत्रसाश्च लाकासंख्ययभागमंब स्पृश-
न्तीति. उक्र प्रज्ञापनायाम्-'एल्थ ण. बादरपुढाविकाइयाणं
पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववापणं लायस्स असखजद-
भाग” तथा-' वादरपुदढविक्रादयाणं श्रपजचगा ठाणा
पन्नत्ता,उववाएणं सव्वलाष"एवमव्वायुवनस्पतीनाम् , तथा- |
“ बादरतेउक्काइयाणं अ्रपञ्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं |
लायस्स असंखज्जइभागे' “बादरतेउक्काइयाण
ठाणा पन्नत्ता, लायस्स दाखु उड़कव्ाडस तिरियलायतटर य
अपज़त्तारं |
त्त दयारूध्वक्रपाटयारूध्वक्पारस्यातयग्लाक चत्यथः.{तय- |
ग्लाकस्थालक चत्यन्ये, तथा-' कटि र भत ! खुहुमपुढवि-
काइयाणं परजत्तगाया श्रपज्त्तगाण य ठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! सुहमपुठविकाइया ज पज्ञत्तगा जञ य. अपज़त्तगा
त सव्व पगविहा श्रविससमणाणत्ता सव्वलागपरियाव-
जगा पन्नत्ता समणीउसा ! '' त्ति, एवमन्ये ऽपि. “एवं बेइंदि
याणं पञ्जत्ताऽपज्त्ताण ठाणा पन्नत्ता, उवाएणं लायस्स
असंखजइमभागो ` चि, एवं शपाणामपीति । चतुर्भिर्लोकः
स्पृष्र इत्युक्तमिति । स्था० ४ ठा० ३ उ०।
( २१ ) लाक्रस्य चरमान्ता जीवोाऽजीवो वेत्याह-
लोयस्स शं भते ¦ पृरच्छिमिल्ने चरिमंते कि जीवा जीवदे-
सा जीवपएसा,अ जीवा अजीवदेसा अजीवपर सा?, गोयमा!
ण जीवा जीवदेसा-वि जीवपणसा वि अजीवा वि अजीवदे-
सा वि अजीवपएसा वि।॥ जे जीवदेसा ते णियम॑ एगिंदिय-
दसा य, त्रहवा -एभि।दयदसा य बइंदियस्स य देसे एवं |
जहा दसमसए अग्गेयी दिसा तहेव णवरं दमेसु अणि- |
दियाशं आइल्लविराहिओ, ज अरूबी अजीवा ते छेच्विहा
रद्रा समयो णत्थि ससं तं चव णिरवसेस |। लोगस्स शं भ-
त! दाहि शन्न चरिमंते कि जीव ° एवं चच॥।एवं पच न्लिमिन्न
वि॥ एवं उत्तश्् पि॥ लेगस्स शं भते !
उवरि
चरिमंत कि जीवा० पृच्छा, गंयमा ! णो जीवा जीवदे- |
सा वि० जाव अजीवपएसा वि। ज जीवदेसा ते णि-
यम एगिंदियद्सा य अशिदियंद्सा य, अद्वा-एमिंदिय-
दमाय अर्णिद्यदेसा य, अइंदियस्स य देसे अहवा-
ए।गदियद्सा य अशःदेयदसा य बइंदियाण य देसा एवं
लोक
मज्मिन्नविराहिओ ° जाव पंचिदियाणं । जे जीवप्पएसा ते
णियमं एगिंदियपएसा य अरि दियपदेसा य , अहवा-
एगिंदियपदेसा य अशिदियपदेसा य बेइंदियस्स पदेसा |
अहवा एगिदियपदसा य अशिदियपदेसा य बेहदियाण
य पदमा, एवं आदिल्लविरहिओ०जाव पंचिंदियाणं ।
अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव शिरवसेसं ।
लोगस्स णं भते! हेद्विल्ले चरिमंते कि जीवा“पुच्छा,
गोयमा ! णो जीवा जीवदेसा वि० जाव अजीवपदेसा वि,
जे जीवदसा ते शियमं एगिंदियदेसा, अहवा-एगिंदियदे
सा य बेइंदियस्स देसे, अहवा एगिंदियदेसा बेइंदियाण य
देसा, एवं मज्मिन्नविरहिओ० जाव अशिदियाणं पदेसा
आइल्लबिरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव
अजीवा जहेव उबरित्ले चरिमंते तहेव । ( घ्रू° ५८३ + )
चरिमेत ` क्षि चरमरूपोउन्तश्वरमान्तः तत्र चासंख्या-
तप्रदशावगादित्वाज्ीवस्यासम्भव इत्यत आद नोजीवे
त्ति जीवदशादीनां त्वकप्रदेराऽप्यवगाहः संभवतीत्यत उ-
क्रम् -'जीवदसा वी ` त्यादि । "अजीवा चि ` त्ति पुद्धलस्कन्धाः
अजीवदसा वि ` ्ति। धसास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशा-
श्च त्र सम्भवान्त , पवमजीवप्रदशा अपि । श्रथ जीवा-
दिदेशादिषु विशषमाह-'ज जोवे ` व्यादि य जीवदशास्ते पू-
िव्याद्यकन्द्रियजीवानां देशास्तषां
वादित्येका विक्रस्पः। ` श्रहव ` त्ति । प्रकारान्तरदशना-
भः एकन्द्रियाणां बहुत्वाद्रहवस्तत्र तदेशा भवन्ति , द्वी-
न्द्रियस्य च कादाचित्कत्वात्कदाचिदेशः स्यादिव्यको द्वि-
कयोगविकल्पः । यद्यपि हि लोकान्त द्वीन्द्रिया नास्ति
तथापि यो द्वीन्द्रिय एकेन्द्रियषृत्पित्सुर्मा रणान्तिकसमुद्धातं
गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति “एवं जहे ` व्यादि यथा
दशमशते झआग्नेयीं दिशमाश्रित्योक्लम , तथेह पूर्वचरमान्त-
माश्रित्य वाच्यम् .त्चदम् अहवा एगिदियदेसा य वेदियस्स
य देसा , श्रहवा-एगिदियदेसा य बैदियाण देखा, अहया-
पगिदियदेसा य तदइदियस्स य देसे ” इत्यादि, यः पुन-
रिह विशषस्तदशनायाह-' नवर अरणिदियाण ` मित्या-
दि श्रनिन्द्रियसम्वन्धिनि दशविषये भङ्कत्रये “अह-
वा पगिदियदेसा य श्रणिंदियस्स य देसे ` इत्यवरूपः प्र-
थमभङ्गको दशमशत शआआग्नयीप्रकरणेऽभदिता ऽपीद न वा-
च्यः, यतः-करेवलिसमुद् घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य पूर्व-
चरमान्ते प्रदशव्रद्धिदानिकुतलाकदन्तकसद्धावनानिन्द्रिय-
स्य वहूनां देशानां सम्भवो नत्वकस्यति , तथा आग्नय्यां
दशवधघष्वरूपिद्रव्येषु धम्मौधम्माकाशा स्तिकायद्रव्याणां
तस्यामभावात्सप्रविधा अरूपिण उक्ता लाकस्य पूर्वच-
रमान्तष्वद्वासमय स्याप्यभ।वात् षडविधास्त॒ वाच्याः ,
श्रद्धासमयस्य तु तत्राभावः समयक्तेत्र एव तद्धावादत
पवाह-'' ज अरूवी जीवा ते छुव्विहा अद्धासमया
न5त्थि ” त्ति ॥ ` उवबरिक्ले चरिमत त्त अनन
सिद्धोपलक्षितः उपरितनचरमान्ता विवक्षितः, तत्र च एक-
न्द्रियदेशा श्रनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीत कृत्वा ४ऽह-' जे जीवे '
लाकान्त5वश्यभा-
क, 2) र नी.
लोक _
( ७११ )
त्यादि, इहाथमेका द्विकसयागः तरिकसयोगेषु च दो द्वौ कार्यो
तेषु हि मध्यमभङ्गः, अहवा एगिदियदेसा य श्रशिदियदेसाय
बेदियस्स य दसा ` इत्यवरूपा नास्ति द्ीन्द्रियस्य च देशा
इत्यस्या 3सम्भवाद्यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरमान्त मार-
श़ान्तिकसमुद् घातन गतस्यापि देश एवं तत्र सम्भवतिः
न पुनः प्रदेशव्रद्धिहानिकतलाकदन्तकवशादनकप्रतरात्म-
कपू चरमान्तवदेशाः , उपारितनचरमान्तस्थैकश्रतररूपत-
या लाकदन्तकाभावन दशानकत्वादतुत्वादिति , श्रत ए-
वाह--' एवं मन्भिल्लविरदिश्रा ` त्ति । अिकभङ्गक
इति प्रक्रमः , उपरितनचरमान्तापेत्तया जीवप्रदशप्ररू-
पणायामवम , * आइल्लविरहिओ ` त्ति यदुक्तं तस्या-
यम्थः-इह पूर्वोक्तं भङ्गकत्रय प्रदेशापक्तया, “ अहवा-एगि-
दियपदसा य श्रणिदियपपसा य बेइंदियस्स पदेस ”
इत्ययं प्रथमभङ्गका न वाच्यः , ट्वीन्द्रियस्य च प्रदेश ¦
इत्यस्या ऽसम्भवात्तद सम्भवश्च लाकव्यापकावस्थानि-
श्रभिधानराजन्द्रः
न्द्रियवल्यजीवानां यत्रेकप्रदशस्तत्ासख्यातानामव तेषां भा-
वादिति , ' अजीवा जहा द्समसए तमाणः ` त्ति अजी-
चानाध्रित्य यथा दशमशत, * तमाप ` त्ति तमाभिधानां
दिशमाश्रित्य सू्रमधीत तथदापरितनचरमान्तमाध्चित्य
बाच्यम, तच्चवम्-' ज अजीवा त दुविहा पराणत्ता, ते जहा-
रूवि अजीवा य, अरूवि अजीवा, य जे रूवि अजीवा ते
चउव्विहा पणणत्ता, ते जहा-खंधा० ४ ज अरूवि अजीवा
ते छव्विहा पन्नत्ता, तं जहा--नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थि-
कायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा ` एवमधर्माकाशा-
स्तिकाययार पीति । ` लोगस्स रो भते ! हिट्टिल्ले ' इत्यादि,
इद पूवैचरमान्तवद्धङ्गाः कार्याः,नवरं तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य
मध्यात् “अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य दसा ” इव्यव
रूपो मध्यमभङ्गको ऽत्र वजनीयः , उपरितनचरमान्न्तप्रकर-
ोक्कयुङ्कस्तस्या ‡सम्भवादत एवाह -'पव मज्भिन्लविरहिओ '
त्ति देशभङ्गका दिताः । अथ प्रदेशभद्गकदशनायाह- प-
पसा आइल्लविरहेआ सब्वेसि जहा पुरच्छिमिल्न चरिमेत '
त्ति, प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरदहिताः प्रदेशा वाच्या इव्यर्थः,
श्राद्यश्च भङ्गक एकवचनान्तप्रदशशब्दोपेतः, स च प्रदेशा-
नामधश्चरमान्तऽपि वहुत्वान्न सम्भवति, सम्भवति च-
शअ्रहवा-एगिदियपपसा य बेइदियस्स पपसा, * अहवा-
पर्गिदियपएसा य चेद दियाण य पएसा' इत्येतद् दयम् । 'स-
व्वेसि ` ति | द्वीन्द्रियादीनामनिन्द्रियान्तानाम् । ` अजीवे
स्याद् व्यङ्कमव । भ० १६ श० ८ उ०।
(२२ ) ऊभ्वोधस्तिर्यगलोकानामरपवहत्वम्--
एयस्स शं भते ! अहेलोअस्स तिरियले अस्स उड्डलो-
यस्स य कयरे कयरेद्धितो ०जाव विसेसाहिया वा ?, |
गोयमा ! सव्वत्थोबे तिरियल।ए उड्डलोए असंखेजगुणे,
अहेलोए विभेसाहिए | ( स्ू० ४८७ >< )
` खब्वत्थावे तिरियलोए ' त्ति अधप्शादशयो जनशतायाम-
स्वात् , 'उड्डलाए असंखेज्ञगुणे ' त्ति किचिन्न्यूनसप्तरज्जू-
च्दधितत्वात् । । अहेलोप विसेसाहिए ' त्ति किचित्समधि-
कसपघ्तरज्जूच्छूतत्वादिति । भ० १३ श० ४ उ०।
लाक
(२३ ) रण लाक समानि--
तता लागे समा सपर्क्खि सपाडदिपमि पष्पत्ता, ते जहा-
अप्पइट्टाण णरए जंबुद्दीवे दवे सव्वऽद्रसिद्ध महाविमाण
तश्रा लागे समा सपरकिंख सपडिदिसिं पष्पत्त, तं जहा मीं
मंतए णं शरण समयक्खेत्ते इंसीपब्भारा पृढवी (घृ ०१४८)
त्रीणि लोक समानि-तुस्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात्
नच प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु श्रोत्तराधयव्यर्वास्थि-
ततया समश्रग्यितया ऽपीयत श्राह--' सपकिख ` मित्यादि,
पक्ताणां--दत्तिणवामादिपाश्वानां सदशता-- समता सपत्त-
मित्यव्ययीभावस्तन समपाश्वतया समानीत्यथः, इकारस्तु
प्राकृतत्वात् , तथा प्रतिदिशां-विदिशां सशता सप्रातादक
तन समप्रतिदिक्कयेत्यथः, अप्रतिष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां
नरकावासानां मध्यमः, तथा-जम्बुद्धापः सकलदद्वीपमध्यमः
सर्वार्थसिद्ध विमान पञ्चानामनुत्तराणां मध्यमामनति। सी
मन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तट नरकन्द्रकः पञ्चचन्वारि
शचा जनलत्ताणि, समयः-- कालः तत्सत्तापलतक्तितं क्षेत्र स
मयक्तत्र मनुष्यलाक इत्यथः, इषद् -अल्पा योजनाप्रकबाह-
ल्यपञ्चचत्वारिशल्लत्तविष्कस्भात् प्राग्भारः--पुद्रलनिचया
यस्याः-सेषत्प्राग्भारा-अष्टमप्रथिवी, शषप्रृथिव्यो हि रत्नप्र-
भाद्या महाप्राग्भाराः, अशीत्यादिसहस्थनाधिकयोजनलक्षवा-
हल्यत्वातू, तथाहि-- पढमा5सीइसहस्सा, बत्तीसा
अट्डुबीसवीसा य । अ्रद्टारस सालस य, अट्ठसहस्सलक्खा-
वरि कुज्ञा ॥ १॥ ` इति | स्था० ३ ठा० १ उ० |
( २४ ) लाकानां निःशीलत्वादिकमाह--
त्रो लोगे णिस्सीला शिव्वता णिग्गुणा निम्मेरा णि-
प्पञ्चक्खाणपोसहोववासा कालमास काल किच्चा अह
सत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाण शरण शरहयत्ताए उववज्ञ-
ति, तं जहा--रायाणो मंडलिया ज य महारंभा कोडयी।
तश्रा लोए सुसीला सुव्वया सग्गुणा समेरा सपच्चक्खा-
शपोसटोववासा कालमासे कालं किच्चा सब्वइसिद्धे
महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-रायाणो
पारचत्तकाममभागा सणावत्ता पसत्थारा । ( सू० १५० )
"तश्रा ` इत्यादि, निःशीला--निगेतशुभस्वभावाः दुः
शीला इत्यथः. एतदव प्रपञ्च्यत--निव्रताः--श्रविरताः
प्राणातिपातादिभ्या निगुणा--उत्तर गुणाभावात् ' निम्मर '
त्ति निमर्यादाः- प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यान
च--नमस्कारसदहितादि पांषधः--पचदिनिमष्टम्यादि तत्रा-
षवासः-श्रभक्ताथकरणस च तौ निरीतौ यषां ते निष्प्र-
त्याख्यानपोषधापवासाः कालमास्-मरणमासे कालभ्--
मरणमिति, ` णरइयत्ताए ` त्ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदा र्थम ,
तत्र हयकन्द्रियतया तदन्ये ऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानः--
चक्रव्तिवाखदेवाः , मारडालकाः--शप्रा राजानः, य च
महारम्भाः--पञ्न्द्रियादिव्यपरापणप्रधानकम्मकारिणः कु-
(म्बन इत, शष कराठ्यम् ॥ प्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभि
समाने स्वार्थ य उत्पद्यन्त तानाह-' तश्चा ` इत्यादि खृगम-
< ( ७१५ )
लाक । सभिध्रानगराजन्द्रः।
म्. केवले राजानः- प्रतीताः परित्यक्रकामभागाः-सव्वाव-
:, पतच्ात्तरपदयार पि सम्बन्धनीयम् , सनापतयः-
ञ्नन्यनायकाः प्रशास्तारो-लेखाचार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठ-
का इति क्रचित् | स्था० ३ ठा० ६ उ०। लाक्यतडात लाकः।
लाकालाकस्वरूप समस्तवस्तुस्ताम, भ० १ श० १ उ०। त्तत्र
सूतर० २ श्रु० २ अ० । स्थान, यथा--दवलाकः। सूत्र० ९ श्रु°
ञ० ३ उ० | लोकयतीति लाकः । पकद्धित्रिचतुःपञ्-
न्द्रियजीवराशो, आचा० ६ श्रु० २ अ० ३ उ० | चतुदेशभूत-
आम. आचा० १२ श्रु० ३ अ० २ उ० । तियग्नरनारकिलक्षण-
जीवलाके, स० १ सम० । चतुर्गतिकसंसार , भवाद् भवा-
न्तरगतौ च । सूत्र० १ श्रु * अ' १ उ०। प्रजायाम् , उत्त०
३ आ० | लोक्यत परिच्छिद्यत इति लोकः रूपरसगन्धस्प-
शीद्यात्मके विषय, लोका वाद्या 5भ्यन्तरश्व, तत्र वाद्या धन
दिरण्यमातापित्रादिः, श्रान्तरस्तु रागद्धपादिस्तत्काय वा
अप्रप्रकारं कर्मेति आचा० १ श्रु० १ अ० ५४ उ० । दक्षज-
नसमूहे , अप्र० ३२ अपष्ट० । जन्मनि, स्था० ८ ठा०
३ उ० । पाखण्डिक , पोराणिके , सत्र० १ श्रु० १ अ
४ उ० | लाकाचाररे, बृ० ३ उ० | लाकशास्त्र, स्था० ३ ठा०
ड० | परदर्शन, जीवा० ७ अधि०। षष्टदवलाकविमानमद.
तत्र हि--लाक-सुलाक-ल्ाकावरत्त-लेाकप्रभ-लूाकान्त--
ल्वाकवर्ण-ला।कलेश्य--लाकैरूपादी नि विमानानि रून्ति।
स० १३ सम० | भुवन, सन० । यथा-प्रस्था।दना कश्चित्स-
व्यधान्यानि मिन्ुयादवमसड्धायप्रज्ञापनाड्ीकरणाज्लाक॑ कु-
डबीकृत्याजघन्यास्क्ृष्टावगाहनान प्रुथिवी कायिकान् जीवान्
यदि मिनाति ततः पृथिवीकायिका अस्ख्ययान् लाकान
पूरयन्तीत्याचाराङ्गप्रथमष् तस्कन्धग्रधमाध्ययनद्रितीयादश-
कचृत्तो , स्थावरचतुणा तु अड्भुलासंख्ययभागप्रामितिरब-
गाहनाक्ला.अत एत पृथियवीकायिका: कथ पूरयन्ति{डति प्रश्न
अन्नात्तरम-प्रस्थरष्टान्त सामान्य क्वार्भाप प्रत्याकाशमेक्के
कप्रथिवीकायिकजी वकत्पनया ल्यकरूपपल्यभरणं सम्भा-
व्यत, अन्यथा प्रज्ञापनासूतूर््या दिग्रन्थान्तरविराध इति
॥८२॥ सन० २ उल्ला० | जन. रून० । लाका जिनकसिपने
नग्न पश्यन्ति न वा ? इति प्रश्न-, अन्नात्तरम-लोकास्तं नभ्ने
पश्यन्ति, यतः शास्त्र लज्जाज़ता जिनकल्पमज्ञीकरोतीति
॥ ६० ॥ सन० ३ उल्लञा० ।
विषयसूची-
(१ ) कियन्ध्रमाणो लाक इति रज्जुप्रमाणन दर्शयति ।
(२ ) का5षये लोकः ।
(३ ) लाक्रस्यकनव नामादिभेद॒तश्राष्टाचघधत्व च ।
(४ ) लोकारस्म्रविधः ।
( ५ ) लाकश्चतुर्विध्रः।
(६ ) ऊरध्वादिभदान्तिविधो लोकः।
(७ ) लाकमध्यद्वाराणि।
(८ ) लःकस्य महत्त्वम्
( ६ ) लाकस्य सस्थानम्।
( १० ) श्रधालाकल्तत्रादि सष्यानम् ।
( १९ ) मरणादस्वरूप लाक एवातो लाकस्वरूपानरूरणम् ।
(१२ ) अधालाका दिक्षत्रलाकः कि जीवाजीवा वा |
(१३ ) श्रयं लाकः कि जीवा 5 ज्ीवा वा ।
©
५
( १४ ) लाकः काति महालयादः !
( १५ ) अलाकः कतिमटालयः।
( ६६ ) लाकरेकप्रदेशगतं वक्रव्यविशषनिरूपणम् । ।
, (१७ ) शरसख्ययषु लाकषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानि |
( १६८ ) लाकसम्मता लाकः।
( १६ ) कुत्र लाका बहुसमः ।
( लाक्रा धमास्तकायादामः स्पृष्ट: ।
(२१ ) लाकस्य चरमान्ता जीवाजीवा वा।
(२२ बर्घात्तयेगलोकानामल्पवहुत्वम् ।
(२३ ) जण लाक समानि ।
(२४ ) लाकानां निःशीलत्वादिकम् । ह
लोगत-लो कान्त-पु० | लाकाग्रलक्षण सद्धस्थान, स्था० £,
टा० ३ उ० । लाक्रा लोकशास्त्र तन्कृतत्वात्तदध्ययत्वाच्चाै
शास्त्रादि दस्मादन्तो निणयस्तस्य वा परमरस्य पर्यन्ता
चति लोकान्तः | लोकिकसिद्धान्त, स्था० ३ ठा० ४ उ० ||
ईघत्प्राग्भाराख्यायां पृथिव्याम् . . आ० म० १ अ०।
चउहिं ट.शहे जीवा य पुग्गला य णो संचार्तेति बहिया
लगता गमणतात,तं जहा- गइअभावेण १ णिस्वग्गहयाए
२, लुक्खताए ३, लागखुभ।वणं ४ । ( सु० ३३७)
च उदा" त्यादि, व्यक्कम् . परमन्यषां गातरव न। स्तीति ` जीवा
य पाम्गला यइ, युक्कम् . ` ना सचाए' त्ति न शक्नुवांन्त नाल- |
म् वहि यः न्ति वाहिस्ताज्ञाकान्तादलोक इत्यथः गमनतायैः
गमनाय गन्तुःमलयथः गत्यभावन ल्योकान्तात्परतस्तेषां गति-।
लक्तणस्वनावाभावादध्रादीपशिखावत्तथा निरुपग्रहतया धमा.
येवात लाकानुभावन-लाकमयादया चिषयक्तन्नादन्यत्र मा- |
स रडमण्डलवादिति । स्था० ४ ठा० हे उ० ।
ले गंतिय- ज्लोकान्तिक- पु । लोकान्तिकविमाएनवास्तब्यष
सारस्वतादिकषु, स्था०।
तदि सणि लोगेतिया देवा माणुसं लोग हव्व-
मागच्छिज्ञा, तं जहा-अर हंति जायमाणे दिं अरहतेहिं पव्व
यमा अरहंताणं णाणुप्पायमदहिमासु । ( सू० १३४)
* तदी ` व्यादि करछ्यम् , नवरं लाकस्य ब्रह्मलाकस्यान्तः- |
समीप कृष्णराजीलक्षणं क्षत्र-निवासो यषां ते, लोकान | ।
वा--ओदाधिकभावलोक्रावसाने भवा श्रनन्तरभव मुक्ति
गमनादिति लोकान्तिकाः, सारस्वतादयो ऽष्टधा वच्यमाणं
रूपा इति | स्था० ३ ठा० १ उ०। ( ते च दवाः ` करहराद
१
शब्द तृतीयभागे २१७ पृष्ठ दर्शिताः) ( अष्टानामपि ल _
कान्तिकदवानां स्थितिः “ ठिइ ` शब्दे चतुथभागे १७२.
पृष्ट गता ) लाकान्तिकदेवानां यथा-'पदमजुञ्लम्मि सक्तस|
याणी' ति सर्वषां लोकान्तिकानां षष्ठाङ्गाक्तः ' पत्तश्च पत्त
अर चउदहि सामाणिग्रसाहस्सा ह इत्यादिपरिवारः १ |
वा विमानाधिपतेः ?, परे सामान्यता लाकाान्तका दव
फ्रावन्त विबाधयन्तीति दश्यत न त् क्रापि | ॐ
( 5२३ )
श्रभनिधानराजन्द्रः ` ।
॥' , तथा तत्परिवारभूतानां तेषामेव भवष्थितिः कि
था विशेषो वा ? इति प्रश्न: अज्ोत्तरम--सप्ताधिकसप्तशता-
हीनां लोकान्तिकानां देवानां ज्ञाताघम्मंकथाङ्ञाक्तः , सा-
भ्ानिकादिकः परिवारः प्रत्यक सम्भाव्यते नत्वेकस्य
विमानाधिपतेः, तंत्प्रातिपादकव्यक्कशास्त्राक्तराजुप लम्भा-
दिति, तथा परिवारभूतानां देवानां भवस्थितिः पृथगु-
कता नास्तीति लोकान्तिकानामिव सम्भाव्यते , तत्वे तु
सर्वविदा विदन्ति इति ॥ ५५ ॥ सन० १ उल्ञा० । लाका-
न्तिकाः किमेकावतारिण उत नेति? प्रश्न, अत्रोत्तरम्
लाकान्तिका देवा पएकावतारिण पवेत्येकान्तो क्षातो
नास्तीति ॥ ५२ ॥ सेन० २ उल्ला० । संग्रहरयन्तर्वाच्यादि-
धु लोकान्तिकदेवानां नव निकाया उत्तमचरित्र दश निका-
याः कथिताः, तत्र कि प्रमाणम् ? इति प्रश्नः, श्रत्रात्तरम्-ब-
हृप्रन्थषु तषां नव निकाया उक्ताः, उत्तमचरित्रे यदि दश
लदा मतान्तरामिति ज्ञयम् ॥ १८८ ॥ सन० २ उल्ला० ।
लोगंतिय क = [+ = # ~
विमाण-लोकान्तिकविमान- पु । लोकस्य ब्रह्मलो
कस्यान्त-समीप भवानि लाकान्तिकानि तानि च ता-
नि विमानानि चति समासः । लाकान्तिका वा देवा-
स्तेथां विमानानीति समासः । सारस्वतादिल्लोकान्तिकदे-
चावासवि मानेषु, भ० ७ श० ८ उ०।
ल्लोगतिगविमाणा णे भते ! कि पतिट्टिया पणणत्ता ?,
गोयमा ! वाउपइट्टिया तदु मयपतिद्िया पण्णत्ता , एवं
जेयव्वे, “विमाणाणं पतिट्टाणं, बाहल्लुच्चत्तमेव सटां "
बंभलोयवत्तव्वया नेयव्वा । ( जहा जीवाभिगमे देवुद्देस-
ए ) ° जाव हंता गोयमा ! असति अदूवा अणंतखुत्तो |
नो चेव. शं देवित्ताए । लोगंतियविमाणेसु शं भते ! के-
बतियं कालं ठिती पण्णत्ता १,गोयमा ! अट्ट सागरोवमा-
हं ठिती पण्णत्ता । लोगंतियविमाणेहिंतो शं भते ! केव-
तियं अबाहाए लोगंते पणणत्ते ! , मोयमा ! अस खजा
जोयणसहस्साईं अवाहाए सोगंते पणएणत्ते | (स्ू०२४३-+)
* चवे नयव्वं ' ति पूर्चोक्लप्रश्नोत्तराभिलापन लोका- |
न्तिकविमानवक्तव्यताजातं नतव्यम् , तदव पूर्वोक्नन
सद॒ दशयति- विमाणाण › मित्यादि गाधाद्धम् ,
तत्र॒ विमानप्रतिष्ठान दर्शितमेव , बाहस्य तु विमाननां
पृथिवीवाहल्ये तश्च पञ्चविशतिर्योजनशतानि, उच्चत्वंतु
सप्त योजनशतानि, संस्थान पुनरषां नानाविधमनावालिकाप्र-
विष्टत्वात् , , आवलिकाप्रविष्टानि दि घृत्तत्यस्नचतुरस्त्रभदा-
च त्रिसेस्थानान्यव भवन्तीति । * बंभलोए ' इत्यादि, त
झलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्य-
ता सा तेषु नतव्या-श्रनुसर्तव्या, कियद् दूरम् १, इत्यत
आह--' जावे ' त्यादि, सा चय लेशतः-- “ लोयंतियांव-
माणा शे भते ! करति वरणा पराणत्ता ?, गोयमा !, तिवरणा
पणणत्ता लोहिया हालिदा सुक्किज्ञा, एवं पभाप निश्चा-
लोया शंधेले इट्टंगंघा एवं इृट्फासा एवं सव्वरयणमया
लेख देवा समचउरंसा अल्लमहुगवज्ना पम्हलेसा। लोये-
8 शे भते ! सब्व पाणा० ४ पुदढविकादयत्तापए ५
\9६
सलागधपार
देवत्ताए उववच्रपुव्वा ?. ' हते ` त्यादि लिख्वितसव, ` के-
वतिय ` ति छान्दसत्वात् कियत्या † ' अबाघया ` अन्तरेण
लाकान्तः पक्त इति । भ० ६ श० ५ उ० । ( श््रानां कृष्ण-
राजीनामण्रस्ववकाशान्तरषु राजीद्धयमध्यलक्तणष्वष्टा ला-
कान्तकविमानानि तानि च ` करहराइ ` शब्दे तृनीयभाग
२१७ पृष्ठ दर्शितानि । ) तत्स्थापना चयम-
पृवो
4. ५
=
२ श्र्धिमालिः
¶
च. हिल! ४ वेराचनं
५६2 6: ५ ठ
4. का
६ खूराभ
५
क
२।१।८।॥
लोगधयार--लोकान्धकार -पुं° । लोके श्रयमेवान्धकासो
नान्याऽस्तीदश इति लाकान्धक्रारः । तमस्काय, स्था० ४
ठा० २ उ०।
तिहि ठाणेहिं लोगंधयारे सिया, तं जहा-अरिहंतेहिं
वोच्छिजमाणे हिं अरिहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्ममाणे पु-
व्वगते वोच्छिज़माणे १ | ( स्वूं० १३४ »८ )
कराख्या चयम् , नवरं लोके-क्षेत्रलोके श्रन्धकारम--तमो
लोकान्धकारं स्याद्- मवत् , द्रव्यता लोकानुभावाद्धावतो
वा प्रकाशकस्वभावज्ञानाभावादिति, तद्यथा-- अर्हन्ति. अ-
शोाकादष्टप्रकारां प्ररमभक्किपरसखुराखुरावसरविरचितां ज-
न्मान्तरमदहालवालविरूढ्रानवद्यवासनाजलाभिषिक्कपुरयम--
हातरुकल्याणफलकट्पां महाध्रातिदायरूपां पूजां निखिल-
प्रतिपन्थिपरक्तयात् सिद्धिसौघधशिखरारादणं चत्यर्हन्तः
उष्ठं च-“अरिहंति वंदस-नमं-सणाणि अरिहंति पूयसक्का-
रं | सिद्धिगमणं च अरिहा, आरिहंता तण बुच्ति ॥ १॥ "“
नि, तषु व्यवच्छिद्यमानेषु निर्वाण गच्छत्सु, तथाऽदत्प-
कषस धम्मे व्यवच्छिद्यमान तीर्थव्यवच्छेदकाल , तथा पू-
घणि दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गत-- प्रविष्ट तदभ्य-
न्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छतं तन्पूवंगतं तत्र व्यवच्छिद्यमा-
न, इह च राजमरणदशनररभङ्गादावपि दृश्यत दिशाम-
न्धकारमात्र रजस्वलतयति, यस्पुनर्भगवत्स्वईदादिषु नि-
सखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानघु विगच्छुत्सु लोाकान्ध-
कारं भवति तत्किमद्भ्रुतमिति ? । स्था० ३ ठा० १ उ० ।
चउहिं ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, त॑ जहा--अरहंतेहिं
वीच्छिजमाणेहिं अरहंतपप्मत्ते धम्मे वोच्छिजमाणे पु-
५ ४
अमिधानराजन्द्र: |
जाग बयार
व्यगते वाच्छिज्ममा गे जायत ते वान्छिज़माण (स०३२४०८)
` चउदही ` स्यादिव्यक्नम-किन्तु लाके अन्धकारम्-त-
मि द्रव्यता भावतश्व, यत्र यत्स्यात्सेभाव्यत हाहदा-
दिव्यवच्छेद द्ृव्यताउन्थकारम , उत्पातरूपत्वात् तस्य,
छुत्रभज्ञादों रजउद्धातादिवदिति . वह्िव्यवच्छद्न्धकारं
द्रव्यत एवं, तथा स्वभावात् दीपादरभावादा., भावता
पि वा एकान्तदृष्पमादावागमादगभावादिति । स्था० ४
डा० दे उ०। ८ १
लागकंत- लोककान्त न । लान्तककल्प पण्द्वलाकविमा-
स० १३ सम | भ० ।
लागगरिहणि ज्ञ लाकगहणीय- तरि” । जघन्य, प०व०३द्वार ।
लोगग्ग-लाकाग्र--न० | इषन्प्राग्भाराख्य ( श्राव० ५ अ० | )
ऊध्वेलोकस्याय्र (आ० च” ५ अ०। ) सिद्धानां स्थान, ओ० ।
लोगग्गचु लिया लोाकाग्रच्(लिकाः- खी” । लाकस्य चतुर्देशर
-उ्वात्मकस्य चूलिका शिखररूपा लाकाग्रचूलिका । ईपत्प्रा-
ग्भाराख्यायां प्र्थिव्याम्. स० १२ सम०।
लागग्गपडटाण लकाग्रप्रतिषटठान- पु | ईपत्पाग्भाराख्यप्ाथ-
वीस्थित सिद्ध, ओ० ।
लागजत्ता लाकयात्रा- खी” | लाकव्यवहार, द्वा० ११ द्वा० ।
लाकनित्तानुर्व॒ात्तिरूप व्यवहार, घ० \ अधि० |
लागद्िह- लाकस्थिति-खी° । लाकव्यवस्थायाम् , स्था०।
लाकस्थितिनिरूपणायाद-
तिविहा लोगद्विई पश्चत्ता, तं जहा-आगासपइट्विए वाए,
वातपतिद्विए
श्राकाशे-व्याम तत्र प्रतिष्ठिता-्यर्बास्थत आकाश प्रतिए्टितः,
बातो--घनवाततनुवा तलक्षणः सर्वद्वव्याणामाकाशप्रातिष्ठि- '
तत्वात् , उदधिः-्रनादधिः प्रथिवी-तमस्तमःप्रभादिकेति ।
स्थ4० ३ ठा० ३ उ ।
स्वाध्यायप्रवृत्तस्य लाकम्थितिपरिज्ञाने भवतीति
प्रतिपादयन्नाद-
चउव्विहा लोगद्िती पष्पत्ता, तं जहा-आगासपतिद्धिए |
बात, वातपतिद्धिए उदधी, उदधिपतिद्टिया पुढवी, पुढविप-
हद्िया तसा थावरा पाणा ४ | ( सू० २८६ )
चउव्विद्द व्यादि. लाकस्य-- क्षतरलक्तणस्य स्थिति:-व्यव-
म्था लाकास्थातिः, आकाशप्रातिप्ठितो बातो-घनवाततनुवा-
नलक्षणः,उर्दाधः-घरनादधिः, पृथिवी-रत्नप्रभादिका, च्रसाः-
द्वीन्द्रियादयस्ते पुनयं रत्नप्रभादिषथिवीष्वप्रतिष्ठितास्त ४पि
खिमानपवतादप्राथवाप्राताएतन्वात् प्राथवाप्राताएता एव, '
विमानप्रृथिवीनां च्राकाशादिप्रतिष्ठितत्वे यथासम्भवमवस-
यम् , अविवज्ञा बह चिमानादिगनदवादिन्नसानामिनि, स्था-
चरार्न्विह वादरवनस्पत्यादया ्राह्ाः, सृद्माणां सकलला-
कप्रतिष्ठितत्वात , शष सुगर्मामति । स्था ४ ठा० २उ०।
छव्यिहा लागद्विद पपत्ता, तं जदा -आगासपइ/ट्वेए बाण
ब्रायपहद्विए उदही, उदधिपइड्डिया पुढवी, पृषविषदरह्धिया त-
५ )
देसं आउयायस्स पूरेइ प्रेइत्ता उप्पि सितं बधइ |
उदही, उद हिपड्िया पवी । (व° १६२०९) |
'तिविहे त्यादि करख्यम, किन्तु लोकस्थितिः-लोकब्यवस्था |
लोगहिड
सा थावरा पाणा,अजीवा जौवपई डया, जीवा कम्मपइड्डिया।
( खू० ४६८
` छव्विह ' त्यादि इदं पूर्वमव व्याख्यातम् , नवरमजीवां
श्रोदारिकादिपद्रलास्ते जीवचु प्ररतिाष्ठता-आश्रिताः, इद् चा-
नवधारणं बोद्धव्यम्, जी बविरहणापि बहुतराणामजीवानाम-
वस्थानात् , प्थिबीविरहितो5पि त्रसस्थावरवदिति, तथा
जीवाः कर्मसु ज्ञानवरणादिषु प्रतिष्ठिताः प्रायस्तद्विरहितानां
तपामभावादिति | स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लाकान्तादिलाकपदार्थप्रस्तावाद् गॉतममुखेन लाकस्थि-
तिप्रश्ापनायाह--
भगवं गोयमे समणं ०जाव एवं वयासी-कतिवि-
हा णं भते ! लोयट्टिती पणणत्ता २, गोयमा ! अड्डविहा
लोयट्विती पप्तत्ता,तं जहा-आगासपडइट्टिए वाए १, वायपइ-
ट्विए उदही २, उद॒हिपइड्टिया पवी २, पुढव्पइड्टिया तसा
थावरा पाणा ४, अजीवा जीवपइट्टिया ५, जीवा कम्मपइद्रि-
या ६, अजीवा जीवसंगहिया ७, जीवा कम्मसंगहिया ८।
स कण्णं भते ! एवं वुचई ? अद्र विहा ° जाव जीवा कम्म-
संगहिया १, गोयमा ! मे जहानामए-केइ पुरिसे ब-
त्थिमाडोवेइ बत्थिमाडोवित्ता उप्पि सितं बंधद॒बंधइत्ता
मज्मेणं गरि बंधइ बंधइत्ता उवरिन्लं गरि युयह अयद
त्ता उवरिघ्नं देसं वामह उवरि्लं देस वामेत्ता उब
त्ता मज्मिल्ल गंठिं मुयइ । से नृणं गोयमा ! से आउयाए `
तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरितले चिद ?, हंता चिट्ठ॑इ-
स तेणड्टरणं ०जाव जीवा कम्मसंगहिया, से जहा वा कड
पुरिमे वत्थिमाडोवेइ बत्थिपाडोवेइत्ता कडीए बंधइ बंधइ,
त्ता अत्थाहमतारमपारसियंसि उदगंसि ओआगाहेज्ञा, र |
नृशं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले
चिद ?, हंता चिद्ृद, एवं वा अट्टविहा लोयद्धिईं पण्ण- १
त्ता० जाव जीवा कम्मसगहिया | ( सू० ५४) |
अय सूत्राभलापः आकाशप्राताष्ठता वायु/-तनुवात«» ¶ न
घनवातरूपः, तस्याचकाशान्तरो पारास्थतत्वात् , ६। |
न ज > - =
शतु स्वप्रतिष्ठितमवेति न तत््रतिष्ठाचिन्ता कृतेति । तथा
वातप्रतिष्ठित उदधिः घनोदाघस्तनुवात घनवातोपरिस्थि-
तत्वात् २। तथा उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी, घनोदधीनामु-
पार स्थितत्वात् , रत्नप्रभादीनां वाहुल्यापक्षया चदमुक्तम्
अन्य था--ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितव ३ | त-
था पृथिवीप्रतिष्ठिताखसा स्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रा-
यिकमेव, अन्यथा आकाशपव॑तचिमानप्रतिष्ठिता अपि ते
सन्तीति ४ । तथा अजीवाः--शर्गरादिपुदलरूपा जीव-
प्रतिष्ठिताः, जीवेषु तषां स्थितन्वात् ५। तथा जीवाः
कर्मप्रतिष्ठिताः कर्मसु श्रनुदयावस्थकरमपुद्रलसमुदायरूपे- '
चु ससारिजीवानामाशितत्वात् , श्रन्ये त्वाहुः-जीवाः क-
माभिः प्रतिषणठिनाः--नारकादिभावनावरिथिताः ६। ॥ |
हर
अजीवा जीवसंग्रहीताः, मनोभाषादिषुद्धलानां जीवैः सं-
गृदीतत्वात् , अध अजीबा जीवबप्रतिप्ठितास्तथा अजीवा
जीवसग्रहीता इत्येतयोः को भदः ?, उच्यते, पू्वास्मिन
ब्ाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः,
चो ऽप्युत्तरवाक्ये द्य इति ७ । तथा जीवाः--कमसगृर(-
ताः, ससारिजीवानामुदयभ्राप्तकम्मवशवत्तित्वात् ये च
यद्धशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः, यथा-घटे रूपादय इत्यव-
निद्ाप्याधाराधयता दृश्येति । * सं जहानामण केइ `
त्ति. स यथानामकः--यतप्रकारनामा, देवदत्तादिनाम-
त्यथः, अथवा-' से ' इति स“ यथा ' इति ह-
छान्ताः ` नाम ` इति सभावनायाम् ' ए ` इति वाक्या-
लड्जारे, ` वत्थि ` ति यस्तिम् तिम् ` श्राडावेद ` त्ति,
आदटोपयेत्-वायुना पूरयेत् , * उध्पि सिये बंधइ ` त्ति उप-
रि सितम्-' षिञ् बन्धने ' इति वचनात् क्रपरत्ययस्य च भा-
चार्थत्वात् कमोथत्वाद्धा बन्धम्-ग्रन्थिमित्य्थः बध्नाति--
करातीत्य्थः, श्रथवा-' उध्पिसि ' ति उपरि “त' मिति
उत्तरे तु संग्राह्यस्राह- |
कभाव इति भेदः, यञ्च यस्य संग्राह्यं तत्तस्याधयमप्य्था-
पत्तितः स्याद् , यथा--च्चपूपस्य तेलमित्याघाराधयभा- |
बस्तिस- से आउयाए ' त्ति, सो ऽप्कायस्तस्य-वायकायस्य |
“उप्पि' ति उपरि, उपरिभावश्च व्यवहारताऽपि स्यादित्यत |
आह-उपरितले सर्वोपरीत्यथः, यथा--वायुराधारो जलस्य |
ष्ट एवमाघाराधयभावो भवति आकाशघनबातादीनामिति
भादः | आधाराधयभावश्च प्रागेव स्पदघु व्यज्ञित इति । |
* गत्थाहमतारमपोरुसियासि `
स्ताघम-अगाधमित्यथः, अस्ताधो वा निरस्ताधस्तलमिवे-
त्यथः अत पवातारम्-तरीतुमशक्यम् , पाठान्तरेणापारम्-
पारवर्जितं पुरुषः प्रमाणमस्येति पो रुषये तत्प्रतिषेघादपो गेय-
मर् ततः कर्मधारयोऽतस्तज्र, मकारश्चदहालात्ताणिकः, 'एवं वा
इत्यत्र वाशब्दो दष्टान्तान्तरतासूचना्थः । भ० १ श० ६ उ०।
आव० | स्था०।
दसविधा लोगट्विती पप्तत्ता, तं जहा-जष्प जीवा उदा-
इत्ता उद्दाइत्ता तत्थव तत्थव भज थुज्ञो
पच्या्यति एवं |
न्न, अस्ताघ्रम्-श्रविद्यमान- |
एगा लोगद्विती पष्पत्ता १, जए जीवाणं सता सामिय
पावे कम्म जति एवप्ेगा लोगद्धिती पण्णत्ता २
जघ जीवा सया समितं माहणिज्ञे पवे कम्मे कज़ति
एवप्पेगा लोगड्िती पण्णत्ता ३, ण एवंभूतं वा भ- |
व्वे वा भविस्सति वा ज जीवा अजीवा भविस्यति अ-
जीवा वा जीवा भविस्सति एवप्येगा लोगद्धिती परुण-
त्ता ४, ण॒ एवं शत वा भव्य वा भवत्रिस्स वा जे तसा पा- |
शा वोच्छिजिस्संति थावरा पाणा वोच्छिजिस्संति तसा
पाणा भविस्यति वा एवप्पेगा लोगद्धिती पणणत्ता
श एवं भूते वा भव्यं वा भविस्सं वा जं लोगे,
अलाग भावस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सति एव-
प्यगा लोग।दुत्तौ पणणत्ता ६, ण एवं भूते वा भव्य वा
भविस्सं वा ज लोए अलोए पविस्सति अलोए वा लो- |
| प्रतिस्सति एवप्पेगा लोगद्विती ७, जाव ताव स्तेने |
( ७१५ )
श्रभिधानराजेन्द्रः
लोगडिउ
ताव ताव जावा जति ताव जीवा ताव ताव लाए एव-
प्पेगा लोगट्विती ८, जाव ताव जीवाण ता पोग्गलाण
ता गतिपरिताते तावर तव् लोए जाव ताव लोग ताव
ताव जीवाण य पोग्गलाण ता गतिपरिताते एवप्पेगा
लोगट्विती ६, स्वसु वि श लोगतेसु अबद्धपासपुट्ढा
पोगगला लुक्त्तात कज्जति जणं जीवा ता पोग्गला ता
नो सचायंति बहिता लोगता गमणयाते एवप्यगा लोग्विती
पष्पत्ता १० । ( सू० ७०४ )
दसविहा लोगे ' त्यादि, श्रस्य च पूर्यसत्रण सहाय-
मभिसम्बन्धः-- पूर्य नवगुणरूक्षा: पुद्धला श्रनन्ता इत्यु-
क्रं ते चासख्येयप्रदशे लाकर समान्तीति लोकस्थितिरत
सेवेहोच्यते इत्यव सम्बन्धस्यास्य व्याख्या, इहापि स-
हितादिच्चः प्रथमाध्ययनवत् केवले लाकस्य-पञ्चास्ति-
कायात्मकस्य स्थितिः- स्वभावः लाकस्थितियदित्युदेशे
णमिति वाक्यालङ्कार ` उद्दाइक्त ' त्ति अपद्राय-मु-
त्वेत्यथः, ‹ तत्यव ` त्ति लोकदेशे गतौ-याना कुले वा
सान्तरे निरन्तरं चोचित्यन भूया भूयः--पुनः पुनः प्र
त्याजायन्त-प्रत्युत्पद्यन्त इव्यवमप्यका लोकस्थितिरिति
अपिशब्द उत्तरवाकयापत्तया । अविः कचिन्न दृष्यत १। अश्र
द्वितीया-- जन्न ` मित्यादि, सदा प्रवाहतो ऽनाद्यपयवासिन
काल समिय ` ति निरन्तरे पापे कर्म-ज्ञानावरणादिकं
सव्प्रपिं माक्तविबन्धकत्वेन सवस्यापि पापत्वादिति
क्रियते-वध्यते इव्येवमप्येका अन्यत्यर्थः, सतत कम्मवन्ध-
नमिति द्वितीया २, ` मादणिज्ञ ' ति माहनीयं प्रधानतया
भेदेन निर्दिष्टमिति सतत मोाहनीयवन्धनं तृतीया ३.
जीवाजीवानामजीवजीवत्वाभावश्चतुर्थी ४. त्रसानां स्थावरा-
णां चाव्यवच्छृदः पञ्चमी ५, लाकालाकयोारलाकलाकत्वनाभ-
वन पष्ठी ६, तय [रवान्योऽन्याप्रवशः सप्तमी ७. ' जाव ताव
लाए ताव तात्र जीव ` त्ति यावज्लाकस्तावज्ीवाः, यावान
क्तत्रे लोक्रञ्यपदेशस्तावति जीवा शत्यः. ` जाव ताव
जीवा ताव ताव लोए ' त्ति, इद यावज्जीवास्तावत्ताव-
लोकः , यावति यावति त्तत्र ज।वास्तावत्ततेत्र लाक हानि
भावाः , ' जाव तावे ' व्यादि वाक्यरचना तु भाषामा-
ज्रमित्यष्मी =, यावज्ीवादीनां गतिपर्यायस्तावल्लोक इति
नवमी ६, सर्वेषु लोकान्तेषु 'अवद्धपासपुदट्ट' चि बद्धा-गाढ-
श्लेषाः पाश्वस्पृष्टाः-छुप्मात्रा य न तथा त.ऽवद्धपाश्वस्पृष्ठा
रुत्तद्रव्यान्तरणति गम्यत तत्सम्पकीदजातरूच्तर्परिणामाः स
न्त इति भावः,लोकान्ते स्वभावात् पुद्कलाः रुत्ततया क्रियन्त
रूत्ततया परिणर्मान्त,अधवा-लोकान्तरस्वभावाद् या रूक्षता
भवतितया ते पुद्नला अ्वद्धपाश्वस्प्रृष्टाः-परस्परमसम्बद्धाः
क्रियन्ते,कि सर्वथा ?, नेवम्. अर तु-तनत्यस्य गम्थमानत्वा-
ततन रूपस् क्रियन्त यन जीवाः सकम्मपुद्धलाः. पुद्तलाश्च -
परमारावाद्यः, ' नो संचायंति ' त्ति न शक्नुवन्ति बहिस्ता
ल्नाकान्तादू गमनताय-गन्तुमिति, छान्दसन्वन लुग्ं॑युर्-
प्रत्ययविधानादिति, एवमध्यन्या लाकस्थितिदेशमी १०, शत्र
कराछ्यामति । स्था० १० ठा० ३ उ०।
्रन्थिणं भते ! सया समियं खुहमे सिणेहकाये पत्र-
( 3१६
आमभिधानराजन्द्र। |
लागडिड
इड १, टता अत्थि । से भते! कि उदे पवडड अहे
पवडडइ तिरिए पवडइ ?, गायमा ! उड़ वि पवडइ अहे वि
पव्रडइ तिरिए वि पवडडइ, जहा-से बादरे आउयाए अ-
्मन्नसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठ३ तहा शंसे वि १,
ना इणद्ठ समद, से णं खिप्यामेव विद्धंसमागच्छइ ॥
सेवं भत ? सेवं भंत | त्ति। ( सू० ५६)
सदा--सर्वेदा ' सामिये ति सपरिमाणं न वादराप्का-
यवदपरिमितमपि, अथवा--' सदा ` इति सरब्व॑त्तैजु स-
मत॒ मात राजा एद्चसस्य च पूवापरयाः प्रहरयो
नजाप कालस्य ॥स्नग्धतरभावमपतक््य बहुत्वमल्पत्व चा-
चसयामिति, यदाद--'* पढमचरिमा उ सिसिर, गिम्ह अ-
डतु तासि वज्त्ता । पायं टवेसि णुद्दाइ , रक्लणद्धा
पवमन वा ॥ १॥ ” लपितपात्रं वदिन स्थापयत् स्नदादि-
रत्तगाःथायति, ` सूच्मः स्न्टकाय ' दानि अप्कायविशष
इत्यथः ' उड्डे ` ति ऊध्वेलाके वर्तलवेताद्यादिषु ` अह `
` तिग्यि ` ति तियेशलाके ` दीहकाले
` विद्ध समागच्छंर् ' त्ति
उ०।
लेगणाभि-लेाकनाभि-पु* । लोकस्य निथग्लोकस्य स्था-
लप्रख्यस्य नाभिरिव स्थालमध्यग्नसमुन्नतं वृत्तचन्द्रक श्वे
ति लाक्षनाभिः । मेरुपब्व॑ ते, चं० प्र० ५ पाहु० । सू० प्र०।
लागणार लाकनाथ- १० | लाक्रस्य साज्ञनन्बलारूस्य नाथः
प्रभुलाकनाशथः। स० १सम०।गा०।चतुदैशरज्जुप्रमाणलेकपरभौ,
उत्त० २९ अ०। मव्याना नाथ, कल्प० र आधि० १ क्षण ।
लाकनाथभ्य ` इति | इद्द तु लोकशब्देन तथतरभेदा-
द्िशिष्र एवं | तथा तथा रागाद्युपद्रवरत्तणीयतया वीजाधा-
नादिसविभक्ला भव्यलोकः परिगृह्यत अनीदटाश नाथत्वा-
नु पपत्तः यागक्षमक्दर्यामति विद्धत्पमवादः न तदुभयल्या-
गादाश्रयणीयाऽपि परमार्थेन तलक्तणायोगात् , इत्थ-
मपि सदभ्युपगमति प्रसङ्गात् , महत्वमात्रस्यदाप्रयो-
जकत्वात् विशिष्रापफारकत पव तच्छतो नाथत्वात् ।
आओऑपचारिकवाग्वृत्तश्न पारमार्धिकस्तवन्वात् सिद्धि
नदि येषामच बीजाधथानाद्धेदपाषणेयोंग: क्षेम॑ च
नन्नदुपद्रवाद्यभावन त॒ एवह भव्याः परिगृह्यन्ते न चेत
कस्यचिल्सकलभव्यविषय ततस्तत्पाप्त्या सर्वेषामेव मुक्ति
प्रसङ्गात् , तुल्यगुणा ह्यत प्रायेण ततश्च चिरतरकालाती-
नादन्यनरस्माद्धगवता बीजाधानादिसिद्धरटपनेच कालेन
सकलभव्यमुक्तिः `स्यात् बीजाधानमपि द्यपुनवेन्धकूस्य,
न चास्यापि पुद्धलपगावक्तः संसार इति रत्वा तदेवे
लाकनाथाः ॥ ११ ॥ ल० | जी० | भ० | घ | ख० । स्था०।
लागगीड-लोकनी ति- खी ० । लोकिकन्याये, पश्चा० ८ विच०।
ति अधोलाक्द्रामपु
चिट्ठुइ ` त्ति तङागादिषुरणान्
स्वरटपन्वात्तस्यानि । भ० १ श०
लाङनम-लेकतमस्-- न> । लाके इदमेव तम इति लाकतमः !
तमस्काय, स्था० ४ खा २ उ०।
लागदव्व-लोकद्र॒व्य-न० | लाकस्याशभूत द्रव्य लकद्रन्य-
म। पश्चास्तिकायादोीं , यत उक्रकम-' पचान्थिकायभमरयं ,
गाग्गाइनिहण लि ` । स्था ५ ठा० ३ उ०।
लागादेष्ि- लोकदृष्ि-खी० । सामान्यजनदशन, दहा०
श्ष्र० ।
(४ लोकप्रदी ५ भ विशिष्टतिय॑ग्जन्म- [न्द [४ (८०
लोकपदव-लोकप्रदीप-पु । लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्जन्म- `
जरामरणरूपस्यान्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थ-
भकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपः | स० १ सम० |]
लोकस्य सम्यग् दशेनादेर्यागकरणन लब्धस्य पंरिपालने- `
नात भ० १ श० १ उ० । मिथ्यात्वध्वान्तनःशकत्वात्। क-
ल्प० ६ अधि० १ क्षण । लोकस्य-दशनायोग्यस्य विशिष्टस्य
प्रदी पदशनांशुना भ्यथावस्थितवस्तुध्रकाशको लोकप्रदीपः -
जिन, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । “ लोकप्रदीपेभ्यः ” अन्न लो-
कशब्देन विशिष्ट एवं तद्देशनायशुमिमिंथ्यात्वतमोपनयने-
न यथाह पकाशतज्ञयमावः साज्ञलोकः परिगृह्यत, यस्तु
नेवेभूतस्तत्र तत्वतः अदीपःवायोगाद् , अन्धप्रदीपदष्ठा
न्तन, यया-- ह्यन्धस्य प्रदीपम्तक््वतो5प्रदीप ए तं प्रति
स्वकार्याकर णात्तत्कार्यकृत एव च प्रदीपत्वो पपत्तेः , अन्य
थाउतिप्रसज्ञत् । अन्धकल्पश्च यथादितलोकव्यतिरिक्तस्त-
दन्यलाकः , तदेशनाद्यशुभ्यो ऽपि तच्वोपलम्भामावात् , सम-
वसरणे<5पि सर्वेषां प्रवोधाश्रवणात् , इदानीमपि तद्धचनतः
प्रवो यादशनात् , तदभ्युपगमवतामपि तथाविधलोकदृश्य-
चुसारध्राधान्यादनपक्तितशुरुलाघरब॑ तच्वापलम्भश्ल्यप्रब-
लि क्तिद्धरिति । तदवभूतं लाकं प्रति भगवन्ताऽपि अप्रदी-
पा एवं तत्कायोकरणादित्युक्तमेतत् । नचेवमपि भगवतां
भगवच्वायाग
तत्तत्वायागात् , स्वा भावः स्त्रभाव:--आत्मीया सत्ता, स
चान्यथा चत व्याहतमेतत् , कि च-पएवमचतनानामपि चे-
तनाकरणे समानमतदिव्यवमेव भगवच्वायोगः, इतरेतरक-
रण॒ऽपि खात्मन्यपि तदन्यविधानाद् यत्किचिदेतदिति च~
' श्रोदितलोकापक्षयेव लाकप्रदीपाः । ल० । रल्ञा० । ध०।
लोगपएस - लोकप्रदेश-पुं? । चतुर्देशरज्ज्वात्मकक्षजखण्डस्य
निर्विभागभागषु, कर्म० ५ कमे० ।
लोगपंति-लोकपड्सक्नि-अी० । लोकसदशभावे, । यो० वि०॥
लोकासधनहेतोया , मलिनेनान्तरात्मना ।
क्रियते सत्क्रिया सा च , लोकपङ्ङ्गिरूदाहूता ॥ & ॥
द्वा० १० द्वा० ( व्याख्या ` जोग ' शब्द चतुथभागे १६१८
पृष्ठ गता । )
लोगषगत-लोकम्रकृत- पुं । बहुलोकसम्मते , ० ३ उ० ॥
लोगपञ्ञोयगर- लोकप्र्योतकर- पुं । लाक्यत इति लोकः,
इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्य
भःवस्याखरडमात्तैरडमरडलमिव निखिलभावस्वभावा-
वभासनसमधः केवलालोकपूर्वप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन
प्रद्यात-प्रकाशं करोतीत्यवं शीलो लाकम्रद्योतकरः ॥
स० १ सम० । लोकस्योत्कृष्टमतेभंव्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतने-
प्रधोतकत्व॑ विशिष्टा-शानशक्किस्तत्करणशीलो लोकप्रद्यो-
तकरः | रा० | जी० । सूर्यवत्सर्ववस्तुध्रकाशकल्वाद् जिने,
कठप० १ आअधि० १ क्षण | “ लोकप्रद्योतकरेभ्यः / । इ
यद्यपि लोकशब्देन प्रक्रमाद्धव्यलाक उच्यत-“ भव्याना-
मालोको , वचनांशुभ्यो पि दर्शन यस्मात् । पतेषां भवति
वस्तुस्वमावविपयत्वादस्य, तदन्यथाकरणे `
| .
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तथा, तदभावे व्य थे आलाकः ॥ ६॥ इति वचनात् , तथाप्यत्र
लोकध्वनिनोत्कष्टमतिः भव्यसत््वलाक एवं गृह्यत तत्रैव
तत्वतः प्र्योतकरणशीलत्वापपत्तः, श्रस्ति च चतुदैशपूव-
बिदामपि स्वस्थान महान् दशनभदः, तपामपि परस्परं
चदस्थानपतितत्वश्रवणात् । न चाये सवथा प्रकाशाभद श्र-
| भिन्ना ह्यकान्तनैकस्वभावः तन्नास्य दशनभदटतुतति,
ऋ दि यन खभावनेकस्य सहकारी तत्तल्यमेव दशीनम-
कुर्वन तेनैवापरस्य तत्तत्वविराधादिति भावनीयम् , इतर
तरापत्तो हि वस्तुस्वभावः , तदायत्ता च फलसिद्धिरिति
| उकृएचतुदेशपूर्वविज्लाकमवाधिकृत्य प्रद्योतकरा इति लो-
| कप्र्योतकराः ॥ १४ ॥ प्रद्यात्ये तु सप्तप्रकारं जीरवा[ दतत्त्वम् ,
| सामथ्यगम्यमतत् , तथा शाब्दन्यायात् › अन्यथा शरचतनपु
प्रद्यातना ऽयागः, प्रद्यातन प्रद्यात इति भावसाधनस्यासंभवाः
त्, अतो क्ञानयोग्यतेवेह । प्रद्योतनमन्यापेक्षयेति तद्व
स्तवेष्वपि एवमेव वाचकप्रवृत्तिरेतिस्थितम् । एतनस्तव
अपुष्कलशब्दः प्रत्यवायाय ' इति प्रत्थुक्रम् , तत्वनेदशस्याऽ-
चुष्कलन्वायागादिति । लोकप्रयातकराः ॥ १४ ॥ ल० ।
ल्लोगपरिप्रणा-लाकपरिप्रणा-खी° । इंषत्प्राग्भाराख्यायां
| पृथिव्याम् , स० १२ सम |
ल्लागपाल-लोकपाल- पु । शक्रादीनां पृवादिदिक्पालपु सो-
मादिषु, स्था० ३ ठा० \ उ०।
रायगिहे नगरे °जाव पञजुवासमाणे एवं वयासी-स-
कस्स शं भत ! दविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला प-
| छत्ता १, गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पापत्ता, तं जहा-
| सोमे, जमे, वरुणे, वेसमे । एएसि णं भते ! चउणहं
विमाणा पष्पत्ता, तं जहा-सभप्पभ, वरसद, सर्यजल,
बग्गू | कहि ं भते ? सक्रस्स देविंदस्स दवरो साम-
स्स महारन्नो संभप्पभे णामं महाविमाणे पष्त्त ?, गोयमा !
जवदीवे दीवि मंदरस्स पव्वयस्स दाहिण णं इमीसे रयण-
प्यभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओं उड़ च॑-
दिमसूरियगहगणणकक््खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई०जाव
पंच वर्डिसया पष्पत्ता, त जहा-असोयवर्डसए सत्तवन्नवडि-
सए चपयवर्डिसए चूयवाडसए मज्फे सोहम्मवर्डिसए, तस्स
शं सोदम्मवडंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमे णं ॒सोहम्मे
कष्य असंखेज़ाइई ज।यणाई वीतिवइत्ता एत्थ शं सक-
स्प दर्विदस्स देवरन्नो सोमस्स महरन्नो संभप्पभे नामं
महाविमा पत्त, अद्धेतरस जोयर्सयसहस्साई आ-
ग्रामविक्खंभेणं उयालीस जोयणसयसहस्साई बावन्नं
च सहस्साई अदर य अडयाले जोयणसए किंचि विसे-
साहिए परिक्वधं पणते, जा सूरियाभविमाणस्स व-
तव्वया सा अपरि^सा भाशियव्वा ०जाव अभिसेय। नवरं
8. देव ॥ सं प्यस्य णं महाविमाशस्म अहे सपर्क्खि
१८०
॥ >.
लोगपालाणं कति विमाणा पापत्ता ), गोयमा ! चत्तारि ।
( ७१७ )
अभिधानराजन्द्र ८
लागपाल,
सपडिदिसिं असंखज्ञाई जायणसययहस्साई ओगाहित्ता
एत्थ शं सकस्स देविंदस्स दबरन्नो सोमस्स महारन्नो सामा
नामं रायहाणी पष्पत्ता,एगं जोयणसयसहस्सं आयामवि-
क्खंभेशं जवुदीवपमाणेण बेमाणियाणं पमाणस्म अद
नयव्वं °जाव उवरियलेणं सालस जोयणमहस्साईं आयाम `
विक्खभणं पन्नासं जोयणसहस्साई पच य सत्ताणउणए जोय-
शसते किचि विसेसण परिक्खवेणं पष्पत्त, पासायाणं चत्तारि
परिवाडीओ नेयव्वाओ, ससा नत्थि । | सकस्स णं दूविंदस्स
देवरज्नो सोमस्स महारज्नो इम देवा आणाउववायवयण नि-
इसे चिट्ठेति-ते जहा-सोमकाइयाति वा सोमदेवकाइयाति
वा विज्जुकुमारा विज्जुकुमारीओं अग्गिकुमारा अग्गिकु-
मारीओ वाउकुमारा वाउकुमारीओं चंदा खरा गहा ण-
क्खत्ता तारास्वा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते तब्भ-
त्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सकस्स दविदस्स देवरन्ना
सोमस्स महारज्नों अणाउवबायवयणनिदेसे वचिद्ति ॥
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं जाई
इमाईं सयुष्पज्जति, तं जदहा-गहदंडाति वा गहभु-
सलाति वा गहगज्ञियाति वा, एवं गहयुद्धाति वा
गहसिंघाडगाति वा गहावसव्याइ वा अब्भाति वा अब्भ-
रुक्खाति वा संज्कमाइ वा गंधव्वनगराइ वा उक्रापायाति
वा दिसीदाहाति वा गज़ियाति वा विज्जुयाति वा पंसुबु-
ड्रीति वा जूबे त्तिवा जक्खालित्त त्ति वा धूमयाइ वा म-
हियाई वा रयुग्घायाइ वा चंदोवरागाति था खरोवरागाति वा
चंदपरिवेसाति वा मूरपरिविसाति वा पडिचंदाइ वा पडि-
सूराति वा इंदधरणूति वा उदगमच्छकपिहसियअमोहा-
पाईणवायाति वा पडीणवाताति वा० जाव संवइयवाताति
वा गामदाहाइ वा० जाव सन्निवसदाहाति वा पाणक्खया
जणक्खया धणक्खया कुलक्खया वसणब्भूया अणारिया ज
यावन्ने तहप्पगारा ण त सक्रस्स दविदस्स दवरन्ना सोमस्स
महारन्ना श्रण्णाया अदिद्ठा अस॒या अम्रुया अविणण या तसि
वा सामकाइयाणं द वाणं, सक़स्स णं दविदस्स दवरन्नो सो-
मस्म महारन्नो इम अहावच्चा अ्रभिन्न'या हात्था, तं जहा-
इंगालए वियालए लाहियक्खे सणिच्चरे चंदं घरे सुक्रे बुंहे
बहस्सती राहु ॥ सकृस्स णं दर्विदस्म दवरन्ना सामस्स
महारन्नो सत्तिभाग पलिओवमं दिती पण्णत्ता, अहावच्चा-
भिन्नायाणं दवाणं एग पलिओवम ठिई पणएणत्ता, एवं म-
हिड्डीए० जाव महाणुभागे सामे महाराया । ( म्ू०१६५)।
* रायागह ' इत्यादि, ` ब्रह जायणाई ` इह॒ यावत्करणा-
दिदं दश्यम-' बहई जावयणसयाई वहई जायणसहस्साई बहुई
जायणसयसहस्साई बहआ। जायणगकाडीआ वहुआ जायण-
(्न-4
८5
( 75
लागपाल
7डाकोडीओ उड दूरं वीइबइत्ता पन्थ णे साहम्म णामे कप्पे
पतलत्त, पारई्णपदडाणायप उदीणदाहिणवित्थिन्न श्रदचद-
संठाणसंटडिएण श्राच्चमालभासर्गासवन्नादे श्रसखजाश्रा
जायणकाडाक्ाडाञ्मा श्रायामविक्खभण असंखेजाओ जा-
यणकोडाकोडीआ पारक्रस्वव्रण, पत्थर सोाहम्माणे देवार
यत्तीस विमाणाचाससयसदस्सार् भवन्तीति श्रक्लाया
ते खे विमाणा सव्वरयणामया अच्छा ० जाब पडिरू-
वा, तस्स णं सोहम्मकप्पस्स बहुमज्भदेसभाए इति,
* वीडवरत्त ` नि व्यतिवव्य--व्यतिक्रम्य “जा सूरिया-
भविमाणस्स ` नि पुरिकाभविमाने राजप्रश्नीयोपाज्ञाक्र- |
स्वरूप तद्धक्कटयनद वाच्या. तत्समानलक्षणत्वादस्येति । कि
गती सा दाच्या ?, इव्याह--यावदाभषकः- -श्रामनवा-
र्पन्नस्य सामस्य राज्याभिषकं यावदिति, सा चेहाति-
अहुत्वान्न लिखितति ॥ ' श्रे ` इति तियेगलोके ‹ वमा-
णियाण पमाणस्स ` त्ति वैमानिकानां सोधमेविमानसत्क-
भ्रासादप्राकारद्ारादीनां भमाणस्यह नगयोमद्धं॑ज्ञातव्यम्
` मेसा नांन्थ ' नि सुघम्मादि ( क्राः ) सभा इह न स
न्ति, उत्पत्तिस्थानष्वेव तासां भावात्, , ' सामकाइय ' त्ति
सोमस्य कायोा--निकाया यषामस्ति ते सामकायिकाः-- |
सोमपरिवारभूताः * सामदेवयकादय ' त्ति सोमदेवताः--
नन्सामानिकादयम्तासां काया यप्रामस्ति ते सामदवता-
कायिकाः-सामसामानिकादिदेक्परिवारभूता इत्यथः,
रारू ' लति तारकारूपाः ' तब्भक्षिय ' त्ति तत्र--सोमे भ-
क्रिः- मवा बहुमानो वा येषां ते तद्धक्किकाः * तप्प- |
क्त्य ` त्ति सामपाक्तिकाः-- सोमस्य प्रयाजनवषु सहायाः,
तन्मारिय ` ति तद्धायाः--तस्य सामस्य भाया इब
भाया अत्यन्ते वश्यन्वानूपोषणीयत्वाञ्चति तद्भायौः, तद्धा- |
गो वा यषां वाढव्यतयाऽस्ति ते तद्धारिकाः ॥ ` गहदेड! |
ति दण्डा उव देगडाः--तियगायताः अ्रणयः ग्रहाणां-
महूलादीनां त्रिचनुरादीनां दगडा ग्रहदराडाः, एवं ग्रह-
म॒ुशलादीनि नवस्मूर्ध्वायताः श्रणयः, ' गहगज्जिय ' त्ति
अ्रहसच्चालादा गर्जितानि--स्तनितानि ग्रहगर्जितानि प्र |
दयुद्धानि--ग्रहयारेकत्र नक्षत्र दक्षिणोत्तरेण समश्रेणित- |
या उवस्थानानि , प्रदलिह्न|टक्रानि--प्रहारां सिद्दाटक- |
फलाका रणावस्थानान , ग्रह्मपसव्यानि--अ्रहाणा मपसव्य- |
गमनानि प्रतीपगमनानीत्यथः, श्रश्रात्मका वक्ता अश्नवृ |
क्षाः, गन्धवैनगराणि--श्राकाशे व्यन्तरङृतानि नगरा-
करार प्रतिविम्बानि , उल्कापाताः--सरेखाः - सोद्ययोता वा
नारकस्थव पाताः दिग्दादाः--श्रन्यतमस्यां दिशि श्रधोऽ
न्ध्रकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्ममानमद्दानगरप्र- |
काशकट्पाः ` जूबय ` त्ति शुक्कपक्त प्रतिपदादिदिनत्रय
यावद्यः सन्ध्याच्दा श्रावियन्ते ते यपकाः ` जकूखालि-
क्षय ` ति ` यन्तादीप्तानि आकाश व्यन्तररूतज्वलनानि,
धव मिकामदिकयावगतो विशष्ः, तत्र धूमिका--धूम्नव-
गा धूससरा इत्यथः, माहका त्वापाराइराति, ` रउग्बाय `
नि दिशां गजस्वलत्वानि ` चदावरागा सूरोबरागा' च- |
नद्रसूवग्रहणानि ` पडिचद ' त्ति दितीयचन्द्राः ' उदगः
मच्छ त्ति इन्द्रधनुःखगडङानि' कविहसिय ` त्ति श्ननघ् |
या वद्युत्सहसा तत् कपिदसितम् , श्रन्ये त्वाहः--क- |
पिहासित नाम यदाकाशे व्रानरमुलपटृशस्य विकृ तमुग-
खामनधानगाजन्द्र: |
! का
राग
~ 0 क्य
नका = शि
` छ
स्य हसनम् 'अमोह' नि श्चमोवा--श्रादित्यादयास्तमयया-
गादित्यकिरणविकारजनिताः आतामाः कृष्णाः श्यामा
वा. शकटोध्वंसंस्थिता दगडा इति, पादणवाय ` त्ति पूर
दिम्बाताः ' पडीणवाय ` ति प्रतीचीनवाताः, यावत्करणा-
दिदे दश्यम्-- दाद्विणवायाइ वा उदीणवा याइ वा उद्वायराए
वा अद्दोचायाइ वा तिरियवायाद वा विदिसीवायाई
वा वाउव्भामाद वा वाउक्कलियाइ वा चायमंडलियाह
वा उक्कलियावायाइ वा मंडलियावायाइ वा गुजावायाइ वा `
मेकावायाइ व ' त्ति, इट वातेद्श्चामाः--श्रनवस्थितवाताः
वानोत्कलिकाः--समुद्रात्कलिकावत् वातमरडलिका-वातो-
ल्यः उल्कलिकावाताः-उत्कलिकाभियं वान्ति, मगडलिका-
वाताः-मरण्डलिक्राभिर्य बान्ति , गुञ्जवाताः-गुङ्गन्तः सश- ।
ध्व य वान्ति, भञ्भावाताः-श्रशुभनिष्डुराः सवत्तकवाताः-
लृणादिसवतेनस्वभावा इति । श्रथानन्तरोाक्तानां प्रहद- |
ण्डादीनां प्रायिकफलानि दशीयश्नाद-- पाणक्खय ' लि
बलतक्तयाः ` जणक्खय ` त्ति लोकमरणानि , निगमयक्षा- |
इ-- बसरणब्भूया अणारिया ज यावन्न तदष्पगार' ति `
इद्वेवमक्तरघटना-न केवले प्रायत्तयादय पव , । चान्ये
पतद्व्तिरिक्रास्तत्पकाराः--पार्तयादितुर्याः
ताः--श्रापद्रपाः अनायाः--पापात्मकाः न ते5क्षाता एति ।
योगः ्रगणाय ` ति श्रनुमानतः “ श्रद् ' क्षि प्र- `
त्यक्षापक्षया ' असुय ' त्ति परवचनद्ारण ' अमुय, नि श्र- `
स्मृता मनो ऽपक्तया * श्रविरणाय ' जनि अवध्यपक्तयति । `
° श्रहावश्च ` तत्त यथा अपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्याः- `
दवाः पुत्रस्थानीया इत्यथैः, ' अभिरणाया ' इति अभ्रिप्तता। `
श्रभिमतवस्तुकारित्वादिति ' होत्थ ` त्ति श्रभवन् , उप-
लक्तणत्वाश्चास्य भवान्त भविष्यन्तीति द्रष्टव्यम् , , अद्याव-
बाभिन्नायाणं ' ति यथा ऽपत्यमेवमाभिक्षाता-श्रवगता यथा- `
-ऽपत्याभिज्ञाताः , श्रथवा-यथाऽपत्याश्च तेऽभिज्ञाताश्चेति `
कम्मधारयः , ते चाह्लारकादयः पूर्वोक्ताः, पतघु च यद्यपि
चन्द्रसूययावषलत्ताद्यधिक्तं पल्योपमे तथा ऽप्याधिक्यस्या-
विवक्तितत्वादङ्गारकादीनां च ग्रहत्वेन पटयापमस्यैव स-
द्धावात् परयो पममित्युक्रामेति ।
कहि शं भते ! सकस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स मं- `
हारन्नो वरसिट्रं णामं महाविमाणे पष्पतते १, गोयमा ।
सोहम्मवर्डिसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे
कप्पे असंखेज़ाई जायणसहस्साईं वीइबतित्ता एत्थ है
सक्स्स देविंदस्स देवरन्नो जम्मस्स मारता वरसिद्रे
णामं महाविमाणे पष्पत्त, अद्रतेरसजं
जहा सोमस्स विमाे तहा० जव अभिसेओ राय-
हाणी तहेव० जाव पासायपंतीओ ॥ सकस्स शं देविं-
दस्म देवरज्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा आणाए«
जाव चिट्ठं ति तं जहा-जमकाइयाति वा जमदेवका
इयाह वा पेयकाइयाइ वा पेयदेवकाइयाति वा असुर-
कुमारा असुरकुमारीओ कंदप्पा निरयवाला आभिओ्रो `
गा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्ये ते तब्भत्तिगा तप्पक्खि
|
लोगधाल
` खाराति वा महायुद्धाति बा महासंगामाति वा महास-
| त्थनिवडणाति वा एवं पुरिसनिवडणाति वा महारु- |
धिरनिवडणाई वा दुव्भूयाति वा कृलरोगाति वा गाम-
| या तब्भारिया, सकस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महार
| श्रो आणाए ०जाव चिट्ठं ति ॥ जंबुद्दीवे दीवे मंद्रस्स प- |
सयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पजति , तं जहा-
| हिंब्राति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा |
(७१६ )
¦ अआनव्ानराजन्द्रः।
लागपाल
महारणाः 'महासंगास' नि सब्यवस्थचक्रादिव्यूहरच नोपत-
महारणाः महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रया महायुद्धादिकार्य-
भूताः, ` दुब्भूय ` ति दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रवहतुत्वाद
भूताः-- सत्वाः यूका - मत्कुणान्दुर्रतडुप्रभ्रतयो दुभूता-ईत-
इत्यथः, इन्द्रग्रहादयः उन्मत्तताहतवः, एकाहिकादयॉ-
ज्वरविशषाः, ' उवब्बयग ' त्ति उद्वेशकका-इृष्टवियागादिजन्या
उद्भगाः उद्वजका वा लाकाद्धेगकारिगश्चोरादयः ' कच्ल-
काह ` त्ति कन्ताणां--शरीरावयवविशषाणां वंनगहनानां था
काथाः--कुथितत्वानि शटितानि वा कक्ताः कोथाः कक्तका-
गाति वा मडलरोगाति वा नगररगाति वा सीसवेयणाइ
वा अच्छिवेयणाह वा कन्ननहदंतवेयणाई वा इंदग्ग-
था वा | 'अम्ब' इत्यादयः पञ्चदशासुरनिकायान्तर्व्तिनः प-
रमाधार्मिकनिकायाः, तत्र या देवों नारकानम्बरतल नीन्वा
विमुञ्चत्यसो श्रम्ब इत्यभिधीयते १, यस्तु नारकान् कछप-
भूयरगहाड वा एगाहियाति वा वेश्म हियाति वा तेञ्राहियाति
वा चाउत्थहियाति वा उव्वेगाति वा कासाति वा सासाति
वा सोसेति वा जराइ वा दाहाति वा कच्छकोहाति वा
अजीरया पंड्रगा हरिसाहइ वा भगंदराइ वा हियय- |
सलाति वा मत्थयग्रूलाति वा जोणिमूलाति वा पास- ,
खलाति वा कुच्छिम्लाति वा गाममारीति वा नगरमारी-
|
|
हाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा जक्खर्गहाइ वा
ति वा खेडमारीति वा कब्वडमारीति वा दोणमुहमारीति-
मडंब्रमृहभारीति वा पट्टणमुहमारीति वा आसमसंवाहसमुह-
मारीति वा संनिविसमारीति वा पाणक्खया धणक्खया
जणक्खया कुलवसणब्भूयमणारिया जे यावने तहप्पगारा न॒
। ते सकस्स देविंदस्स दवरन्नो जमस्स मह।रन्नो अणणा-
या० ५ तेसि वा जमकादयाणं देवाणं । सक्स्स
दविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा
अहावच्चा अभिष्पाया हात्था, तं जहा-““ अवे १ अ
स्वि चव २, सामे २३ सबले त्ति यावरे ४।
रुदो ५-वरुदे ६ काले य ७, महाकाले त्ति यावरे ८ ॥१॥
असिपत्ते ऽधरणु १०कुभे ११, वालू१ रवेयरणीति य १३ ।
खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एए पन्नरसादिया ॥ २ ॥”
सकस्स णं देविंदस्स देबरन्नो जमस्स महारन्नो सत्तिभागं
पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं
एगे पलिग्रोवमं ठिती पन्नत्ता, एवं महिड्डिए ०जाव जमे
महाराया ॥ २ ॥ ( खू० १६६ )
"पयकादय त्त प्रतकाायक्राः व्यन्तरावशबा: परयदवतकाइ
य त्ति प्रतसत्कदरवताना सम्बान्यनः कदप्प त्तिय य कन्दप
भावनाभा वितत्वेन कान्दर्षिकदवपृत्पन्नाः कन्दर्पशी ला श्व, क-
न्दपश्च-श्तिक्रलिः. आहियोग' जि येऽभिय।गमावनाभावि-
सत्वेनाभियोगिकदेवेषृत्पन्ना श्रभियोगवरसिनश्च,आंभयोगश्च- |
आदेश इति ॥ ` डियार व ` त्ति डिम्बा--वि्राः 'उमर ' त्ति
| अप एवं राजकुमारादिकृतापद्रवा: 'कलद ' तति वचन- |
खार "त्ति पर- |
राटयः बोल ' नि श्रव्यङ्घाक्तरध्वनिसम्डाः '
कारमत्सराः "महायुद्ध ' त्ति महायुद्धानि-व्यवम्थाविहीन-
निकाभिः खण्डशः इत्वा श्राष्ट्पाकयाग्यान् करातीत्यसा-
वम्बरीषस्य-श्राष्टस्य सम्बन्धादम्वरीष एवाच्यत २, यस्तु
तषां शातनादि कराति वणीतस्तु श्यामः स श्याम इति
३, 'सबले त्ति यावरे ` [क्तं शवल ईति चापरा दव इति प्रक्रमः.
स च तषामन्त्रहदयादीन्युत्पाटयति वरतश्च शबलः--क-
बुर इत्यथः ४, यः शक्षिकुन्तादिषु नारकान् प्रातयति स
रौद्रत्वाद्रोद्र दति ५, यस्तु तेषामवाङ्गापाङ्गानि भनक्त सो
त्यन्तरौद्रत्वादुपरोद्र इति ६, यः पुनः करङादिषु पचति
वरीतश्च कालः स काल इति ७; “ महाकाले ननि याचर `
त्ति महाकाल इति चापरा देव इति प्रक्रमः, तत्र यः: च्छद्ण-
मांसानि खण्डयित्वा खादर्याति वरतश्च महाकालः स महाः
काल इति ८, ' असी य ' क्षि यो दवोऽसिना तान् छिनक्ति
साऽसिरेव ६, * असिपत्त ' त्ति श्रस्याक्रारपत्रवद् वनविकु-
वणादसिपत्रः १०, ` कुंभ ` त्ति कुम्भादिषु तेषां पचनान्कु
म्भः १, कचित्पख्यत-* असिपत्ते धरु कुंभ ' त्ति तत्रालिप-
श्रकुम्भो पूयवत् , ' धरु ' जि यो धनुर्विमुक्घादधचन्द्रादिभि-
वाणेः कणादीनां देदनभेदनादि करोति स धनुरिति ११,
"वालु' त्ति कदम्वपुप्पाद्याकारवालुकाखु यः पचति स वालु-
कं इति १२, "वेयर णीति य' वैतरणीति च देव इति प्रक्रमः.
तत्र पूयरुधिरादिभ्रतवैतरणयभिधाननदीविकुवणाद्वेतररी-
ति १३, * खरस्सर' त्तया वज्ञकण्टकाकुलशारमलीवृतक्तमा-
रोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुबन वा कर्षत्यसौ सखरस्वरः
१४, “ महाधघोसि ' ति, यस्तु भीतान् पलायमानाश्नारकान
पशनिव वारकषु मदाघोष कुर्वन्निरुणद्ध स महाघाष इति
१५, "एष् पन्नरसाहिय ' त्ति ' एवम् ' उक्रन्यायन-पत यम-
यथा ऽपत्यदवाः पञ्चदश श्राख्याता इति । भ०३ श०७उ० ।
(शतञ्जलमदाचमानस्य वक्तव्यता । 'सयंजल' शब्दे द्यामि)
सकस्स णं वरुणस्स महारन्नो इमे दवा श्राणाए० जावर
चिद्रति, तं जहा-वरुणकाइयाति वा वरुणद् बयकाडयाइ
वा नागकुमारा नागकुमारीओं उदहिकुमारा उदहिकुमा-
रीओ थणियकुमारा थणियकुमारीओ ज याव तहप्प-
गारा सब्ब ते तब्भत्तिया ०जाव चिति । जंबुद्दीवे दीव
मंदरस्स पच्वयस्स दाहिणण जाई इमाईं समुप्पजजति,
तं जहा-अतिवासाति वा मंदवासाति वा सुवाति वा
दृव्वुद्दीति वा उदब्भेयाति वा उपप्पीलाइ वा उदवाहाति वा
( ०९० )
श्रभिधानराजन्द्रः। |
लागपाल
पव्वाहाति वा गामवाहाति वा ०जाव सन्निवेसवाहाति
था पाणक्खया ०जाव तेसि वा वरुणकाइयाणं दवारं,
सकस्स शं दर्विदस्स देवरज्नो वरुणस्स महारत्नो ०जाव
अरहावचाभिननाया होत्था, तं जहा-ककरोडण कदमए अ-
जे सखवालए पड पलासे माएजणए् ददिमहे अयंएल
कायरिए । सकरस्य देविंदस्स दवरो वरुणस्स महार-
घो देखूणाई दो पलिओवमाई दिती पण्णत्ता, अहाव-
चाभिन्नायाशं दवाणं एग पलिश्रोवमं दिती पण्णत्ता,
एवं महिड़ीए °जाव वरुणे महाराया | ३।८ भ्° १६७ )
अतिवास ` त्ति अतिशयवपा-वगवद्षणानीव्यथः, ` म-
न्दवास ` त्ति शनवपणानि ` सुवुद्ट ` त्ति धान्यादिनिष्प-
ज्िहतुः ' दुव्बांट्र ' क्ति धान्याद्यनिप्पत्तिदतुः * उदब्भेय '
नि उदकाद्धदाः गरितटादिभ्या जलाद्धवाः ` उदप्पील '
त्ति उदकाःपीलाः-तडागादिषु जलसमृहाः ` उदवाह ` त्ति
अपकछृष्टान्यल्पान्युदकबहनानि, तान्यव प्रकर्षर्वान्त प्रवाहाः,
इह प्राणक्षयादया जलकृता द्रव्याः, ' कक्काडए , ति क-
कॉटकामिधाना 5नुवलन्धरनागराजावासभूतः पवेतों ल-
वणसमुद्र ्टशान्यां दिश्यस्ति तन्निवासी नागराजः कर्को-
खकः, ` कद्दमए ` त्ति आग्नय्यां तथेव विदयल्प्रभपवतस्तत्र
कदेमका नाम नागराजः * अज्
युकुमारगाजस्य लाकपालाऽञ्जनाभिधानः ˆ संखवालप ' त्ति
त्ति वलम्बाभिधानवा- |
ध्रणाभिधाननागराजस्य लोकपालः शंखपालको नाम,
शपास्तु पुरड़ादयाऽप्रतीता इति ।
कहि सं भेत ! सक्रस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स |
महारन्ना वग्गू णामं महाविमाण पर्णत्त ? , गोयमा !
तस्म णं सोहम्मवडिमयस्सय महाविमाणस्स उत्तरणं जहा |
मामस्म विमाणरायहाणिवत्तव्वया तहा नयच्वा ०जाव
पासायवर्डिसया । सक्रस्सय णं दविंदस्सय देवरन्नो वेस-
मणस्म महारन्नो इमे देवा अअणाउववायवयणनिदेमे चि-
दुति,तं जहा-वसमणकाइयाति वा वेसमणदेवकाइयाति वा
सुवन्नकुमारा सुवन्नकुमारीश्रा दीवकुमारा दीवकुमारी
दिसाकुमारा दिसाकुमारीओं वाणमंतरा वाणमंतरीओ
ज यावन्ने तहप्पगारा सव्व ते तब्भत्तिया ०जाव,चिट्टंति ।
जंबुद्ीव दीवे संदरस्स पव्वथ्स्स दाहिणेणं जाई इमाई
समप्पजञेति, ते जहा-अयागराई वा तठयागराइ वा तंब-
यागराइ वा एवं सीसागराइ वा हिरज्नेसुवन्नरयणवइरागराह
वा वसुहाराति वा हिरन्नवासाति वा सुवन्नवासाति वा रयण
०-बहर ०-अभरण ० -पत्त ०-पुप्फ०-फल ० -बीय ०-मल्न ०-
वापर ० -चुन्न ०-गंध ०-वत्थवासाइ वा, हि रन््नवुद्ठी ति वा सुवा्म
०-रयण ०-वहर ०-आभरण ० -पत्त ०-पुप्फ ०- फ़ल ०-बीय-०
मलन ° -वाप०-चुन्न -गेध ° -वल्थवु्टति वा भायणवृद्ीति वा
खीरबुद्ढति वा सुयालाति वा दुक।लाति वा अप्पग्घाति वा
महग्घ।ति या सुभिक्खाति वा दब्धिकवानि वा कयविक्रया-
क
लागपल
--~-ने
ति वा सन्निहियाति वा संनिचयाति वा निहीति वा शिहा-
णात वा वचरपारणार् पहाणसामयात वा पहीणसउ-
याति वा ( पहीणमग्गाणि वा ) पहीणगोत्तागाराइ वा
उच्छिन्नसामियाति वा उच्छिन्नंसउयाति वा उच्छिन्नगो-
त्तागाराति वा सिंघाडगतिगचउकचचरचउम्मुहमहापहप-
हेसु नगरनिद्धमणेसु वा सुसाणगिग्किंदरसंतिसलोवडा-
णभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिट ति, एताई सकस्स
देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स मह।रन्ना ( ण ) ) अणणा-
याईं अदिद्वाई असुयाई् अविन्नायाई तसिं वा वेसमणका-
इयाणं देवाणं, सकस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स
महारन्ना इमे देवा अहावच्चाभिन्नाया होत्था, तं जहा-पु-
न्नभहे माणिभदे सालिभददे सुमणभद्दे चके रक्वे पुन्नर-
क्ये सव्वाणे ( पव्वाणे ) सन्वजसे सव्वकामे समिद्धं
अमोहे असंग, सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स
महारन्नो दो पलिओआवमाणि ठिती पणणत्ता, अहावच्चा-
भिष्ायाणं देवाणं एरगं पलिओआवम ठिती पष्पत्ता,एवं महि-
ड्री|ए०जाव वेसमणे महाराया सवं भत !२त्ति । (सू ० १६८)
'वसुहाराइ व' त्ति तीधकरजन्मा दिव्या 5ऽकाशाद् द्रव्यन्र-
चरः, ' हिरणणवास ` हि हिरणय रूप्य घटितसुवर्शमित्यन्य
वर्षो <ल््पतरो चृध्िस्तु महतीति वधवरष्धार्भदः, माल्ये तु
ग्रथतपुष्पाणि वर्ण:--चन्दन चूो--गन्धद्रव्यसम्बन्धी ग-
न्धाः-काष्टपुटपाकाः ` सुमिक्खाइ व ` ति सुकाले दुष्का-
ले वा भिक्षुकाणां भित्तासग्रद्धयः दुर्भिक्तास्तृक्कविपरीताः
' सेनिहियाइ ` नि घृतगुडादिस्थापनानि ` संनिचयाई '
त्ति धान्यसञ्याः निहीइ व ` त्ति लक्षादिप्र-
माणद्रव्यस्थापनानि ` निहाणाइ व ` त्ति भूमिगतसदहस्रा-
दिसख्यद्रव्यस्य सञ्चयाः, किविधानि ?, इत्याह--' चिर-
पाराणाह ` ति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि
श्रत एवं ` पहीणसामियाई ' ति स्वर्पीभूतस्वामिकानि
` पहोणसेडयाई ` ति प्रहीणाः-अल्पीभूताः सङ्गारः- सच
काः--धनप्र्षप्तारा यषां तानि तथा, प्रहीणमार्गाणि वा,
पटी णगात्तागाराड् ` ति प्रदीरो--विरलीभूतमानुषं गो-
त्रागारं--ततस्वामगारगरदं यषां तानि तथा, ` उच्छिन्नसा-
मियाई ` ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि * नगरनिद्धमणसु
त्ति नगरनिद्धंमनघु-नगरजलनिगेमनपषु “ खुसाणगि-
रिकन्द्रसंतिसलोवट्टाणभवर्णागहसु ` त्ति ग्रहशब्दस्य प्र-
त्यक्तं सम्बन्धात् श्मशानग्रहम--पिलृवनग्रहस् , गिरियग्रृह-
म>पर्वतापरिग्रहम कन्दरशहम-सुहा शान्तग्रहम्-शा-
न्तिकमस्थानम् शलग्रृहम--पर्वतमुत्कीरय यत्कृतम् उपस्था-
नग्रदम--आस्थानमराड॒पा भवनग्ृहम--कुठुम्बिवसनग्रृह-
मित | भ० ३ श० ७ उ०।
रायगिहे नगर ° जाव पज्जुबासमाण एवं वदासी-असुरकु-
माराणं भते ! दवाणं कति देवा अहेव ° जाव विहरंति ¢
गोायमा ! दस देवा अहिवञ ° जाव विहरंति, तं जहा- चरे
|
#
लोगपाल
देवराया सोमे जम वरुणे वेसमणे,
( ७२१ )
अभिधानराजन्द्रः। ए
लोगपाल
असुरिदे असुरराया सोम जमे वरुणे वेसमणे बली वइरोय-
सिदे बइरोयणराया सोमे जमे वरुणे वेसमण | नागकु- |
माराणं भते ! पृच्छा, गोयमा ! दस? दवा आहवं ° जाव
विहरति, तं जहा- धरणे नागकुमारिंदे नागकुमारराया
कालवाल कोलवाले सलवाल संखवाले भूयाणदे ना-
गकुमारिंदे णागकुमारराया कालवाल कोलवाले संखवाले
क ५4 रिंदाणं ष |
सलवाल, जहा नागकुमा। एयाए वत्तव्वयाए् णय |
ब्य॑ एवे इमां नेयव्यं, सुबन्नकुमाराणं वेणुदाली चित्ते |
विचित्त चित्तपक्खे विचित्तपक्ख , विज्जुकुमाराणं
हरिकंत हरिस्सह पभ १ सुप्पम २ पभकत ३ सुप्पभ-
कंत ४, अग्गकुमाराणं अग्गिसीहे अग्गिमाणवतउ
तेउसीहे तेउकंते तउप्पभे, दीवकुमाराणं पुष्पविमिद स्य-
सुरूय-रूयकंत-रूयप्पभा,उद॒हिकुमाराणं जलकंते जलप्पभ
जल-जलसरूय-जलकेत-जलप्पभा, दिसाङुमाराणं अमिय-
गति अमियवाहण तुरियगति खिप्पगति सीहगति
सीहविक्रमगति,वाउकुमाराणं बलेवपभंजण काल महाकाल
अजणरिट्ठा,थणियकुमाराणं घोस महाघोस आवत्त विया-
वत्त नदि यावत्त महानदियावत्ता, एवं भाणियव्वं जहा अ-
सुरकुमाराणं सो ० १का० रचि०३प्प०४त०४५रु० ६ ज०७तु ०
८ का० & आ० १०, पिसायकुमाराणं पुच्छा, गोयमा !
दो देवा अहिवच्॑ ° जाव विहरंति, तं जहा- काल य
महाकाल, सुरूवपाडस्वपुन्नभद य । अमरवइ माणिभट,
भीमे य तहा महाभीम ॥ १॥ किनर किंपुरिस खलु,
सप्पुरिमे खलु तहा महापुरिसि । अतिकाय महाकाए,
गीयरती चव गीयजमे ॥२॥ ” एत वाश्मतराणं
देवां । जातिसियाणं दवाणे दो दवा आहवच०
विहरति,तं जहा-चंद यूर य ।
भते ! कप्पेसु कह देवा आहवं °
गोयमा ! दस देवा ° जाव विहरति, तं जहा-सके
जाव विहरंति ?
देविदे
इंसाण देविदे दे-
वराया सोमे जमे वरूणे, बेसमणे एसा वत्तव्वयया सब्वे-
सु वि कप्पसु, एए चव भाणियव्या, ज य इंदा ते य
भाणियव्वा सवे भेते ! त्ति। ( सू० १६६ )
देववक्तव्यताप्रतिवद्ध एवाप्रसाद्रेशकः,
नवरं ' सा शका २चि३प्प ४त ५ रू ६ तु
का ६ आ १० ` इत्यननात्तरदशकन द्तिणमवनपतीन्द्रा-
शां परथमलाकपालनामानि सूच्चितानि, वाचनास्तर न्व-
तान्यव गाथायाम् , सा चयम--* साम य १ महाकाल
२, चित्त ३ प्पम ४ तड ५ तह रुप चव ६ । जल ७ तह
तुरियगद य ८, काल ६ आउत्त पदरमाड ॥ १॥ `"
पव द्वितीयाद्या ऽप्य भ्यूद्याः, इद च पुस्तक्ान्तर यमर्धं
प्त
ज ७ तु पत
क
4७5
स च खुगम ण्व, |
जब |
सोहम्मीसाणेसु णं
इदश्यत-दात्तणात्यषु लाक्पालघु प्रातसूत्र यो तृतायच-
तुश तावादाच्यषु चतुथतूृतायावात ` पसा वत्तव्वया
सव्वस्रु व कप्पसु पप चच भाशणयव्य 7. > ` पा
साधमशानाक्ला चज्कव्यता सवप्वाप ऋल्लपपषु इन्द्रानवास-
भूतपु भाणतव्या--सनत्कुमा रादान्द्रयुर मपु पूत्रन्द्रापक्षया
त्तरन्द्रसम्बन्धिनां लाकपालानां ततीयचतुश्रयाञ्यत्यया
वाच्य इत्यथः , शरत एव सामादय<: प्रातदवलाकं बा-
च्या न तु भवनपतीन्द्राणामिवापरापर, “जय इंदा ते
य भाणियव्या ` शक्रादया दशन्द्रा चाच्याः. अन्तिम द
वलोकचतुष्टय इन्द्र द्रयभावादिति ॥ ॥ कृतीयशतषएटमादेश-
कः ॥ ३--८ ॥
देवानां चावधिज्ञानसद्धावऽपीन्द्रियापयागाऽप्यस्ती-
त्यत इन्द्रियाविषय निरूपयति--
रायंगिहे° जाव एवं वयासी- कतिविह णं भंत!
हृदि यविसए् पप्मत्त ?, गायमा ! पंचविह इदियविसण
पा्पत्त, तं जहा-सातिदियविसए जीवाभिगम जाति-
सिय उद्देसा नयव्वो अपरिसेसो ॥ ( स्ू० १७० )
° गायागिहे ` इत्यादि, ' जीवाभिगम ` जाइसिय उद्देसओ
रयव्वा त्ति । भ० ३ श० & उ०।
सोतिंदियविसएण० जाव फासिंदियविसए । सातेदिय-
विसए णं भंते ! पोग्गलपरिणाम कतिविह पशात्ते ?,
गायमा ! दुविहे पष्पत्त , ते जहा-सुब्भिसदपरिणाम य
दुब्भिसदपरिण।मे य, एवं चकखदियविसयादिएहि वि
सुख्वपरिणाम य दुरूवपरिणामे य । एवं सुरभिगंध-
परिणामे य दुरभिगंधपरिणाम य, एवं सुरसपरिणामे य
दुरसपरिणामे य, एवं सुफासपरिणाम य दुफासपरेणा-
मय॥ से नृणं भते! उच्चावएसु सदपरिणामेसु उच्चा-
वएसु रूवपरिणामेसु एवं गधप.रेणामेसु रसपरिणामेसु
फासपरिणामसु परिणममाणा पागगला परिणमतीति व~
त्तव्वंसिया ? हंता गोयमा ! उच्चावएसु सदपरिणामेसु
परिणममाणा पोग्गला परिणमति त्ति व्रत्तव्वं मिया,
से नृणं भत ! सुष्िसदा पोग्गला दुब्मिसदृत्ताए परि-
णर्मति, दुव्िसदा पोग्गला सुब्भिसददत्ताण परिणमति ?
हंता गोयमा ! सुव्मिसद्दा दु व्मसदत्ताणए परिणमति, दु-
न्िसदा सुब्भिसदृत्ताए परिणमंति, से नृणं भते ! सुरूवा
पाग्गला दुरूवत्ताए परिणमति, दुरूवा पाग्गला सुरूव
त्ताए परिणमति १, हता गोयमा ! एवं सुब्भिगंधा पा-
ग्गला दब्भिगंधत्ताए परिणमति दुब्भिगंधा पाग्गला स-
व्मिगधत्ताए परिणमति ?, हंता गोयमा ! एवं सफासा
दु फासत्ताए परिणमंति ?, सुरसा दूर्सत्ताए परिणमंति ?,
हता गायमा | ० | (घ्ू०° १६१ )
` कडविह रे भत ! ` इत्यादि, कतिविधा मदन्त ! इन्द्रि-
यविप्रयः पुद्धलपररिणामः प्रज्ञप्तः ? , भगवानाह-गौतम !
न
_लोगपाल
पञ्चविध इन्द्रियविषयः युद्धलपरणामः प्रज्ञत्ः, तयथा-
आतरन्द्रियविषय इत्यादि सुगमम् , “ खुब्मिसद् परिणाम
दति शुभः शब्दपरिामः ` दु्मसद्परिणामे
शब्दपरिणामः ॥ ` सर णूणं भते ` ! इत्यादि, अथ ` नृनम्
निश्चितमेतद् भदन्त ! उच्चावचेः--उत्तमाधमेः शब्दप-
रिणामेयौवत्स्पशपरिणामेः परिणमन्तः पुद्धलाः । परिण-
मन्तीति वक्रव्ये स्याद् ?, परिणमन्तीति त ॒वक्कव्या भवेयु-
रित्यर्थः, भगवानाह-'हंता गायमा' ! इत्यादि
त्यवधारण स्यादव वक्तव्यमिति भावः , परिणामस्य
यथावस्थितस्य भावात् , तथा तथा द्रव्यत्तेत्रादिसामग्री-
वशतस्तत्तद्रपास्कन्दन हि परिणामः, स च तत्रास्तीति
न कश्चित्तथाउभमिधान दोष: ॥ ` स नूणे भते !` इत्या
^ ( ७२२).
शरभिध्रानराजन्द्रः।
|
|
। हन्ति प्र- |
श्रथ नूनम्-निश्चितमतद् भदन्त ! शुभशब्दाः शुभशब्द- |
रूपाः पुद्रला च्रशुभशब्दतया परिणमन्ति श्रशुभशब्दा वा |
पुद्रलाः श॒मशब्दतया ? भगवानाद-- दन्त गोतम ! इ-
त्यादि सुप्रतीतम् | पतन सान्वयं परिणाममाह, अन्यथा |
तद्योगादसतः सत्तानुपपरत्तरातप्रसङ्गात् । । एवं रूपरसग- |
न्धस्पशष्वप्यात्म। यात्मायाभलापन दा दइावालापक्रा वक्त- |
ष्या । जा० रे प्रति २ उ०।
रायगिंहे नगरे °जाव एवं वयासी-ईसाणस्स णं भते !
देविंदस्स देवरो कति लोगपाला पष्पत्ता ? गोयमा !
चत्तारि लोगपाला पप्तत्ता, तं जहा-सामे जम वेसमणे
वरुणे । एएसि णं भेत ! लोगपालाणे कति विमाणा
पष्पत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि विमाणा पष्पत्ता, तं जहा-
सुमणे सब्यओभद्दे वग्गू सुवर्ग । कहि शं भति ! ईसा-
शस्स दविंदस्स देवरनो सोमस्स महारन्नो सुमणे नामं
महाविमाणे पष्पत्ते ?, गोयमा ! जवुदीवे दीबे मदरस्स
पव्ययस्प उत्तरेण इमासे रयणप्यभाए पुढवीए ०जाव
ईसाणे णामं कप्ये पछात्ते तत्थ शं ०जाव पंचवर्डेसया |
पण्णत्ता, तं जहा-अकबडेंसए फलिहवर्डेसए रयणवडं-
सए जायसूववडेसए, मज्के य॒ तत्थ इंसाणवर्डेसए ,
तस्स शं इंसाणवरडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेयणं
तिरियमसंखेज़ाई जोयणसहस्साई वीतिवतित्ता एत्थ णं |
इंसाण॒स्स देविंदस्स दवरण्णो सोमस्स महारणणो सुमणे
नामं महाविमाणें पणणत्ते अद्धातरतजोय्ं जहा सकस्स
वत्तव्वयया ततियसए तहा इंसाण॒स्स वि ०जाव अच्चाणेया
समत्ता । चरण वि लोगपालाणं टिमाणे वितियउद्देस-
ओ।, चउसु विमाणसु चत्तारि उद्देसा अपारिसेसा, नवर
टितिए नाणत्त-- आदिदुय तभागरणा, पालया ध-
शयस्म होति दो चव । | दो सतिभागा वरुणे , पलिय- |
महाव्रच्देवाणं ॥ १ ॥ ” ( सू० १७२ )
"चत्तारीत्यादि' व्यक्कार्था: अच्चाणिय' त्ति सिद्धायतने जिन-
प्रतिमाद्यत्ननमभिनवात्पन्नस्य सामाख्यलोकपालस्यति । भ° |
४ श ४ उ० । ( राजधानी वङ्कत्यना `, रायद्वाणी ` श-
# १ १
लागमज्ज
बद् ऽ स्मिन्नव भाग ५५६ पृष्ठ गता । ) सूर्यवत्सर्ववस्तुप्रकाश- `
कत्वात् । स्था० ४ ठा० १ उ० । पश्चा० । प्रज्ञा० | भ०।
ति अश्मः लोगप्पिय-लोकप्रिय-पुं* । लःकस्य स्वजनस्य इद
परलाकाविरुद्धाववजनन दानशीलादिगुणश्च प्रिया वज्ञभा
लोकाप्रयः। प्र २३६ द्वार । सदाचारचारिणि, घ०
अधि० गुण । अयमभिघ्रायः- एतानि कर्माणि
लोक्वेमुख्यकारणानि परिहरन्नव शिष्टजनप्रिया भवति-
घम्मस्यापि स एवाधिकारीति । तथा दानम्-व्यागो
विनयः--उचितप्रतिपांत्तः शीलम्-सदाचारपरता एभि-
राठ्यः-- परिपूर्णो यः स लोकप्रिया भवति ।
उङ्क च--
दानन सत्वानि वशीमवति, दानन वैरारयपि यान्ति नाशम् ।
पराऽपि बन्धुत्वमुपेोति दाना-त्तस्माद्धि दाने सततं प्रदयम्॥६॥
विणपण नरो गेध-ण चद सामयाईइ रयणियरो ।
महुररसेण अमये, जणप्पियत्त लद भुवे ॥ २॥
सखुविखुद्धसीलजु त्ता, पाचइ किन्ति जसे च इह लोए ।
सव्वजणवल्लहो वि य, खुहगइभागी य परलोए ॥३॥ ” इति ।
एतस्य धर्म्मप्रातिपत्तों फलमाह-एवंविधा लाकथियो
जनानां सम्यग्दशामपि जनयत्युत्पादयाति घर्ग-यथावस्थि-
तमुक्किमार्म बहुमानम्-आन्तर प्रीति धमेप्रतिपत्तिदतु बाधि-
चीजे वा। विनयंघरवत् , तथा चोक्कलम--' युक्ले जनपरिय-
त्व, शुद्ध सद्धर्मसिद्धिफलद मलम् | घम्मेप्रशसनादे-र्बी-
जाधानादिभावन ॥१॥ ” इति | ध० र० १ अधि० ४ गुण ।
( लोकप्रियत्व विनयन्धरकथा ` विणयेघर ` शब्द वक्ष्यत )
सदा सदाचारत्वन सम्मत, दशै° २ तत्त्व ।
लोगप्पइअ-लोकप्राङरत- पुं०। जिजगता श्र्चित,उत्त०२३अ०।
ले।गफुड- लोकस्पष्ट- पुं । लोकेन-लोका काशन सकलस्वप्र-
देशेः स्पृष्रो लोकस्पृष्टः । तथा लोकमव च सकलस्वश्र-
देशः स्पृष्टा तिष्ठति । सकललोकपरिमिते आत्मनि, भ० २
श० १० उ० |
लोगबाह-लोकबाध-पुं> । लोकः प्रामाणिकलाकः सामा-
न्यलोकश्च तन बाधो विरोधो लोकवाधस्तदप्रतीतव्यवदा-
रसाधनात् वाधशब्दस्य । लोकविराधे, स्या०।
लोगविन्दुदार-लोकबिन्दुसार - पु । अस्मिन लोक थ्रुतलो
के विन्दुरिवात्तरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्र-
तिषितःवन लाकविन्दुसारम् । चतुर्दशे पूर्व, तत्माणमद्धे-
यादशपदकोस्य् दात । स० । न०। 4
लोगबिन्दुसारस्स शं पुव्वस्स पणवीस वत्थू पष्एत्ते ।
स० २६ सम०।
लोगमज्क लोकमध्य- पुं । लोकस्य तिथगलोकस्य सम-
स्तस्याप॒ मध्ये वत्तत इति लोकमध्यः । मेरुपव्व॑ते, चे०
प्र० ४ पाहु० । स प्र० । संपूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव
स्यदिति । भ० १९ श० ११ उ० । दश० । “जे मंद्रस्स
पुत्च-ण मणुस्सा दाहिणण अवरेण । जे वावि उत्त
रेण, सर्व्वा उत्तरो मरू ” ॥ ४६ ॥ आचा० ९ श्रु० १ अ०.
१ उ० । ( व्याख्या5स्या गाथायाः ' दिखा ` शब्दे चतुभभागे
२५२३ पृष्ठ गता । )
3
( ७२३ )
ञ्भिभ्ानराजन्द्रः। _
लागवाग
लोगमञ्भः चासय
७ ठा० ४ उ०।
|
| ल्लोगभञ्छावसाणिय लोकमध्यावसानिक- न° | आभनय-
अद, रा० पतच्च नाख्यकुशलब्या चाद्तत्यम् । झआा० म०
तशास्प्रज्ञ भ्या वसया: । ज० ४ वक्ता० ।
। लोगमत्थयत्थ-लोकमस्तकस्थ-ए० । भेलोकयोपरिवत्तिनि
सिद्ध दश० ४ अ०।
[गरिमि- लोकचऋछःपे - पु | तापसे, व्य० १० उ०।
| ज्लोगरूढिनिरकय-लकरटिनिराकृत-पु” । मिथ्याभदे, यथा |
| शचि नरशिरःकपालमिति । स्था० १० ठा० ३ उ०।
। लोगववहार विरय ` ल।कव्यवहारविरत- पु° | लाकयाज्ानद
त्त, पञ्चा० १० वव० ।
लोगवाइ-लोकवा दिनू- वि? । लोकयतीति लोकः प्राणगण-
स्तं वदितु शीलमस्यात । बहूत्मवादान , आचा० १ श्चु°
१ ० १ उ०। हर
लोगवाय-लोकवाद् - पु । पाखारडना पाराणकाना वावा
खज # . ] [ >> ~> ~~ , = “~¬
लोगवायं णिसामिज्ञा, इहमेगेसि माहिय ।
विपरीयपन्नसंभूय, अन्नउत्तं तयाणुयं ॥ ५ ॥
लागवायाम त्या{द, लाकाना पाखाणडना पाराणकाना
वा वादो लोकवादः । यथा-स्वामभिप्रायेणाउन्य था वा<भ्युप-
गमस्ते निशामयत्-शणुयात् जानीयादित्यथः । तदेव
दशेयति -इद-्रसमन्ससार पक्षां कषांर्चिं
ऋअभ्यपगमः | तदव वाशनाण्र। विपरीता-परमाथौदन्यथा-
भूता या श्रज्ञातया सभूत-समुत्पन्न तत्वावपयस्तदूवुाद्धन्र
थितमिति यावत् , पुनराप वश्रषयत-अन्यसत्रचाक्रोन-
यैदुक्क तदनचुग यथावास्थताथावपरातानहुसाराभयवुक्क व |
पराताथाभिघायितया तदनुगच्छतीव्यर्थः।
तमव विपर्यस्तवुद्धिरहितं लोकवादे दशयितुमाद-
अशते निइए लोए, सासणए ण विणस्सति ।
श्रतवं णिडणए लोए, इति धीरो ऽतिपासई ॥ ६ ॥
* श्ररोत निदप लाए ` इत्यादि
निरबधिक्र इति यावत् । तथा नित्य इति-अप्रच्यतानुत्प-
श्लस्थिरेंकस्व भावों लोक इति | तथा-शश्वद्धवतीति शाश्वतो
डाणुकादिकार्यद्रव्यापक्तया शश्वद्धवन्नपि न कारणद्रव्यं प-
र्माणुत्वे परित्यजतीति । तथान विनश्यतीति दिगात्मा- |
काशाद्यपक्तया, तथा-अनन््तो 5स्यास्तीत्यन्तवान् लोकः ` स- |
द्वीपा वसंघरति ` परिमाणोक्केः स च तादकूपरिमाणा
नित्य इत्यवे धीरः कश्चित्सादसिकाऽन्यथाभूतार्थधरतिपा
वनात् वउ्यासादिरिवातिपश्यतीत्यतिपश्यति । तदवभूत-
॥ ऋ लाकवाद् नशामयदिति परतन संवन्धः ।
तथा-- अपुत्रस्य न सान्त लाकाः, ब्राह्मणा दवाः, श्वाना
र.
लोगमज्भवासिय-लोकमध्यवासिक-त० । अभिनयभद्, स्था० |
9 ० | पत नास्यावधया भमनयावधयश्च भरतादसद्) =
माख्यातम्- |
, ना ऽस्यान्ता ऽस्तीत्यनन्तः । ।
ने निरन्वयनाशन नश्यतीध्युक्ं भवतीति | तथादहि-यो |
अादगिह भवे स तादृगेव परमवेऽध्युत्पद्यते पुरूपः-पुरूष |
चव, अङ्गना-श्रङ्गनेवेव्यादि । यदि वा-अनन्तः-अपरिमितो |
यत्ताः, गोभिष्तस्य गोध्नस्य वा न सन्ति लोका `" इत्यव-
मादिकं नियुक्तिक लाकवादं निशामयदिति ।
किञ--
१. ५०० ४27८ दल के
अपरिमाण वेयाणार्, इह मगासमाहय |
सव्वत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासई् ॥७॥
श्परिमाणमिति-न विद्यते परिमाणमियत्ता ्तत्रतः कालतो
चा यस्य तदपेरिमाणं तदेवभूत विजानाति कश्चित्ती्थिकः-
र्थकृत् , एतदुक्क भवति--श्परिमितज्ञाऽसावतीान्द्रयद्रष्टा
न पुनः सर्वज्ञ इति । यदि वा-अपरिमितज्ञ इत्यशिप्रताथो-
तीन्द्रियदर्शाति, तथा चोक्नलम्-'सव पश्यतु वा मा वा, इष्ट
मर्थ तु पश्यतु | कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्रापयुज्यत ?
॥ १॥ ” इति । इट आऑस्मन लोक एकषा>>सवज्ञा 3पह्ववा-
दिनाम् ; इदमाख्यातम-अयमभ्युपगमः , तथा सवत्त-
अमाश्रित्य काले वा परिच्छेद कर्मतापन्नमाध्रित्य सह
परिमाणेन सपरिमाणम-सपरिच्छदे धीः-बुद्धिस्तया राजत
इति धीर इत्यवमसो अतीव पश्यतीर्त्यातपश्याति । तथा-
दि-ते व्रवत-दिव्यं वषसहस्ममसों ब्रह्मा स्वपित, तस्यामव
स्यायां न पश्यत्यसो, तावन्माज च काल जागति, तत्र च
पश्यत्यसाविति तदेवम्भृतो बहुधा लोकबादः प्रवृत्तः॥ ७ ॥
मस्य चोत्त रदानायाह--
जे केइ तसा पाणा, चिट ति अदु थावरा।
परियाए अत्थि से अंजु, जण ते तसथावरा ॥ ८ ॥
(जे के इति) ये केचित्त्रसाः-प्राणिनस्तिष्टन्ति अथवा-स्था-
वराः तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽयं पर्यायाउस्ति ( श्चजु इति )
प्रगुण ऽन्यभिचारी तन पर्यायेण ते चसा स्थावराः स्युः
त्रसत्वमनुभूय कर्मपरिणत्या स्थावराः स्थावरत्वमनुभूय त्र-
साश्च भवन्तीति । ततो यो यादगिदह भवे स परभवऽपि ताद-
गिति नियमो न युक्कः ॥ ८॥ सूत्र० दी० १ श्रु० १ अ० ४ उ०।
ये केचन त्रस्यन्तीत त्रसा-द्वीन्द्रियादयः प्राणा:--प्रा णन
सत्त्वाः तिष्ठन्ति--तसत्वमनुभवन्ति, अथवा--स्थाव रा:-
स्थ।वरनामकर्मोदयात् ( याः ) पृथिव्यादयस्त, यद्ययं लोक-
वादः सत्या भवत् यथा-यो यादगस्िन् जन्मनि मनु
ष्यादिः सो ऽन्थस्मिन्नपि जन्मनि तादगव भवतीति, ततः
स्थावराणां जसानां च तादृशत्वे सति दानाध्ययनजप-
नियमतपो 5नुप्ठानादिकाः क्रियाः सवा अप्यनारथिका आ-
पदयरन् । लोकेनापि चान्यथात्वमुक्कम् , तद्यथा--“ स वे ए-
घ शृगाला जायते यः सपुरीषा दह्यते " तस्मात् स्था-
वरजङ्गमानां स्वकृतकर्मवशात् परस्परसक्रमणादयानिवार-
तमिति । ( सृत्र ० ) लोकव्यवस्था “ लोक ` शब्देऽस्मिन्न-
व भागेऽनुपदमेव दर्शिता | ) तथा * श्वानो यत्ता ' इत्या-
दि युक्किविरोधित्वादनाकरीनीयमिति । यदपि चोक्म--
अपरिमाणं विजानाती ` ति, तदापि न घरामियर्ति, यत
त्यप्यरपारिमितज्ञन्व यद्यसौ सवज्ञा न भवत् ततो हे-
यापददयापदेशदानविकलत्वान्नेवासो प्रत्तापूर्वकारिभिराद्र
यत , तथादि--तस्य कीरसंख्यापरेज्ञानमयप्युपयाग्येव
यता यथेतद्धिषयऽस्यापरिज्ञानमवमन्यत्रापील्याशङ्कया हे-
यापादेये प्रक्षापूर्वकारिणः प्रव्॒त्तिन स्यात् , तस्मा-
त्सज्ञत्वमेष्रव्यम् । तथा यदुक्कम--' स्वापबोधविभागेन
( ७२४ ) 3557 के ..
लोगवाय अभिधानराजन्द्रः | लागाबिजय
परिमितं जानाती ` व्यतदपि सर्वजनसमानत्वे यत्किञ्चि- | ध्यस्थो-लोभः, चशब्दः समुच्चये, पतान मानार्दीश्र-
दिति। यदपि च केश्विदुच्यते-यथा “ ब्रह्मणः स्वभ्ना-
ववाधयार्लोकस्य प्रलयादयो भवत ”
सगतमव, प्रतिपादितं चेतत् प्रांगवेति न प्रतन्यते
इति, तदप्ययुक्त- |
चात्यन्त सर्वजगत उत्पादविनाशौ विद्यत “न कदाचि- |
ह
दनीटश जगदि ` ति वचनात् ।
तदेवमनन्तादिकं लाक- |
वादे परिहत्य यथावस्थितवस्तुस्वभावाविभावने पञ्चा- |
डन दशयति-ये कचन साः स्थावरा वा तिष्ठन्त्य-
स्मिन् ससारे तेषां स्वकर्मपारिगात्या ऽस्त्यसौ पयायः अ-
जु ` इति परगुणोऽव्यभिचारी तेन पायेण खकमपरि-
शतिजनितन ते साः सन्तः स्थावराः सयद्यन्त, स्था-
वरा अपि च जसत्वमश्नुवते ! तथा असाल्रसत्वमेव स्था- |
स्थावरत्वमवा ऽऽप्नुवन्ति, न पुनर्यो यादगिह स,
वराः
तादगवामुत्रापि भवतीत्यय नियम इति ॥
एवं मूलगुणानभिधायदानीमुत्तरगुणानभिधातुकाम आह-
[> [+ गयगेही #
वुसिए य विगयगेही, श्रायाणं सम्म रक्खणए |
(न ५ 5. #'
चारआसणसेज़ासु, भत्तपाणे अ अतसो ॥ ११ ॥
विविधम्-च्ननकप्रकारमुषितः- स्थितो
समाचाया व्युषितः , तथा विगता-अपगता आहारादों
ग्रृद्धियस्यासों विगतगृद्धिः साधुः पवभूतश्चादीयत स्वी-
क्रियत प्राप्यत वा माक्तो यन तदाद्ानीयम् ज्ञानदशन-
चारित्रत्रय तत्सम्यग् रक्तयद्-अनुपालयेत् , यथा यथा त-
स्य वृद्धिभवेति तथा तथा कुयादित्यशः।
रित्रांदपालिते भवतीति
चरणे चया--गमने साधुना दि सति प्रयोजने युगसात्रद-
एना गन्तव्यम्, तथा सुप्रत्युपक्षिते सुप्रमार्जत चासन
उपवष्रव्यम् , तथा शय्यायाम-वसतों सस्तारक वा खुप्रत्यु-
पक्षितप्रमार्जित स्थानादि विधेयम् , तथा भक्क पाने चान्त-
शः सम्यगुपयोागवता भाव्यम् , इदमुक्तं भवाति-ईयाभा-
प्षणाम दानानक्षपप्रातछ्ठ। पनासामांत पूपयुक्लना न््तशो भक्क- |
पाने यावदद्ढ मा दोषराहेतमन्वेषणीयामति ॥ ११॥
पुनरपि चारित्रशुद्धय थ गुणानधिकृत्याह--
एतेहि तिहि ठाणेहिं, संजए सततं मणी ।
उकसं जलणं शमं, मज्भत्थं च विगिंचए ॥ १२॥
दशविघचक्रवाल- |
थ पुनश्चा- |
दशेयति--चयोसनशय्याखु- |
|
तुराऽपि कषायांस्तद्धिपाकाभिज्ञो स॒निः सदा ` पीशंचष् "
त्ति विवेचयेद्- आत्मनः परथक्कु्यादित्य्थः । ननु चान्य
आगमे क्राघ आआदावुपन्यस्यत, तथा त्तपकश्चरयामारूदो
भगवान् कोधादीनव सञ्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थ--
मागम्रसिद्ध क्रममुन्नइथादों मानस्योपन्यास इति ?, श्रत्रो-
च्यत--मान सत्यवश्येभावा क्राधः, कध तु मानः स्याद्वा
न वत्यस्यार्थस्य प्रदशनायान्यथाक्रमकरणामाति ॥ १२ ॥
तदेवे मूलगुणायत्तर युणांश्चापदश्यां चुना सर्वो-
पसंहारा्थमाद--
समिए उ सया साहू, पंचर्सवरसंवुडे ।
सिएहिअसिएमिक्खू ,आमोक्खायपरिव्वए |? ३।त्ति वेमि
तुरवधारण , पञ्चभिः समितिभिः समित णवं साधुः,
तथा प्राणातिपातादिपश्चमहावता पेतत्वात्पश्चप्रकारसंबर--
सवरतः, तथा मनावाक्कायमुप्तिगुसः, तथा ग्रहपाशादिषु
सिता--बद्धाः अवसक्का गृदस्थास्तष्वसितः-अनववद्ध-
स्तघु मूच्छीमकुर्वाणः पङ्काधारपङ्जवत्तत्कर्मणा 5विल्य--
मानो भिक्षुः--भिक्षणशीलो भावभिक्षुः आमात्ताय अ-
शेषकर्मौपगमलक्षणमोत्षार्थ पीर-समन्तात् बजेः-सेयमालु-
प्लानरतो भवेस्त्वमिति विनयस्यो पदेशः । इति अध्ययन
समापो ब्रवीमीति गणधर एवमाह , यथा तीथरूताक्तं त~
येवां व्रवीमि, न सखमनीषिकयेति गतो भनुगमः । साम्प्र८
ते नयास्तपामयमुपसहारः “ सब्वेसि पि नयाणं , -बहु-
विघवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सव्वणयविसुद्ध , ज चर-
णगुरद्धिश्रो साह ॥१॥” ॥१२॥ सूत्र० १ श्रु० १ ० ४ उ०।
। लोगविजय-लेकविजय- प° । भाविलाकस्य रागद्वेषलक्त-
एतानि-अनन्तराक्कानि जीणि स्थानानि, तद्यथा-ईर्यासमि- |
तिरिव्यकं स्थानम् , शरासने शय्यत्यननादामभारण्डमात्रनिक्ते-
पणासर्मितिरित्येतच्च द्वितीय स्थानम् , भङ्गपानामत्यननेष-
णासमितिरूपात्ता भक्कपानाथ च पविष्रस्य भाषणसभवाद्धा-
पासमितिराक्तिप्ता, सति चाहारे उश्चारप्रख्रवणादीनां स-
द्वाबात्प्रतिष्ठापनासमितिरप्यायातेत्येनच्च लूतीय स्थानमि-
त. अत एतपु त्रघु स्थानषु सम्यम् यतः सयत श्रामाक्ताय |
प्रारवजाद्न्युत्तरसऋ्छाकान्त क्रयात | तथा-सततम-अनवर- |
तम मुनिः-सम्यक् यथावस्थितजगत्जयवेत्ता उत्कृष्यते श्रा-
त्मा दपध्मातो विधीयत ऽननन्युत्क्पो-मानः.तथा- रात्मानं
च्रारत्र वा ज्वलयाति-वहंतीसि ज्वलनः--क्रोधः, तथा रुम-
मिति गहने मायन्यथः, त्या श्रलन्धमध्यत्वादेवमभिधी-
यत, तथा आसंसारमसुमतां मध्य--ग्रन्तमवतीति म-
णस्य विजयो निराकरणे यत्राभिधीयते स लोकविजयः।
्याचाराङ्गस्य द्वितीयाध्ययने, स्था० & दा० ३ उ० । प्रश्न० ।
लोकाविजये ऽधिकाराः।
तथाहि--अधिगतशर्त्रपरिज्षासत्रार्थस्य सत्प्रतिपादितेके-
न्द्रियप्ृूथिवी कायादिश्रद्धानस्य सम्यक् तद्रत्तापरिणामवतः
सर्वोपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतया ऽऽरापित पञ्चमहावतभारस्य
साधोयेथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य
वा विजयो भवति लथा ऽननाध्ययनेन प्रतिपाद्यते । तथा
च नियुक्षिकारणाध्ययनार्थाधिकारः श्रत्रपरिज्ञायों प्राग् नि
रदेशि-* लोओ जह वज्कभइ जह य ते विजहियव्वं !
ति, इत्यनेन सम्बन्धनायातस्या ऽस्या ऽध्ययनस्य चत्वार्य
नुयोगद्धाराणि भवन्ति । तत्र सूत्राथकथनमयुयागः, त~
स्य द्वाराणि उपाया ष्याख्याङ्गानीत्यथः, तानि चोपक्र-
मादीनि , तत्रोपक्रमो देधा-शाखायुगतः शास्त्रीयः
लोकानुगतो लोकिक इति , निक्तपस्त्रिधा-श्राघनाम-
सूत्रालापकनिष्पन्नभदात् , श्रचुगमा दधा--सूत्राचुगमो नि-
युक्त्यनुगमश्च, नया-नगमादयः तन्न शाख्रायापक्रमान्त-
गताऽथाधिकारयो देधा-श्चध्ययनाथा घकार उद्देशार्था>
चकारश्च, तजाध्ययना्थीधिकारा ऽध्ययनसम्बन्ध शख्-
परिज्ञायां प्रागेव निरदेशि, उदेशा्थाधिकारे तु स्वयमव
नियुक्षिकारः प्राचक्रटयिषुराद--
सयणे य अद॒ढत्त, वीयग/म्म माणो अ अत्थसारो अ।
प्र
॥ ॥ १। 7 है
|
( ७२५ )
ल्ागाचजय
भोगेसु लोगनिस्साई, लोगे अममिज्िया चेव ॥१६३॥
तत्र प्रथमोादशकाधकारः-स्वजन--मातापित्राद्क अ
निष्वङ्गाऽघगतसत्रा्भन न काय द्रत्यध्यादारः, तथा
च सूत्रम्-- माया में पिया में ` इत्यादि, १, अद-
त्त यीयगम्मि ` त्ति । द्वितीय उदशक श्रटदत्वं स-
यम न कामिति शपः, विषयकषायादो चादृदढत्वं
कामिति, वच्यति च-- शरद आउडट्टू महावी `
२. तृतीय उद्देशके ` माणो अ अत्थसारो अ `
हपेतेन साधुना कम्मवशाद्धिचित्रतामवगम्य सवमदस्था-
४
नानां माना न कार्यः, आह च-- के गाश्रावादी? क
माणावादी ` त्यादि, श्रश्रसारस्य च निस्सारता वरयत,
तथा च-' तिविहण जा अवि स तत्थ मत्ता शष्पा वा
बहुगा वे ` त्यादि ३, चतुर्थ तु ' भागसु त्ति भागष्वभि-
ष्वङ्गा न काय इति शपः, यतो भागिनामपायान् वच्यति,
सूत्र च-' धि लाप पव्वहिए ` ४, पञ्चम तु ` लागाणि-
स्साए ` त्ति व्यक्तस्वजनधनमानभोगनापि साधुना संयमत्रे-
इभ्रतिपालनाय स्वाथारम्भग्रवृत्तलोकानिश्रया विहक्तव्यमि-
ति शेषः, तथा च सूत्रम--' समुट्टिए अणगारे इत्या- |
दि० जाव परिव्वए ` ५, प्ठादेशक तु--* लाप श्र्मामिज्ञ- |
याच्च लाकानश्रयाऽप वहरता साधुना तास्मन् लोक
पूबीपर सस्तुतऽसस्तत च न ममत्व कायम्, पङ्कुजवत्त-
दाधारस्वभावानभिष्वङ्गिणा भाव्यमिति, तथा च सूत्रम-
* जे ममाईयमई जडाति स जहाति ममातिय ” इति गाथा-
तार्पयाथेः ॥ आचा० १ श्र ०२ श्र० १ उ०।
किम्भूवः सन् ? प्रमत्तः । प्रमादश्च रागद्वेधात्मको, देषश्च |
आयो न रागस्त,रागो ऽप्युल्पत्तरारभ्यानाद्िभवाभ्यासान्मा-
तापित्रादिविषयो भवतीति दर्शायाति--
ज्ञ गुणे से मूलट्टाणे, ज मूलट्टाणे से गुणे, इतिमे |
शृणद्री महया परियावेणं पुणो पुणो रसे पमत्ते माया मे
पिया में भज्जा मे पुत्ता मे धूआ मे एणहुसा मे सहिसयण-
संगंथसंथुआ मे विवित्तुवतगरणपरिवट्टशभोयणच्छायणं मे ।
इच्चत्थं गड़िए लोए अहो य राओ य परितप्पमाणे काला-
कालसम्ुट्टाई संजोगट्टी अट्टालोभी आलुंपे सहसाकारे
विशिविद्ठ चित्ते, एत्थ सत्थे पुणो पणो । ( स्ू० ६२ + )
( गुणव्याख्या * गुण' शब्दे तृतीयभागे ६०८ पृष्ठ गता । ) |
“मायामे ` इत्यादि, त्र मादृविषयो रागः ससारस्व-
भावादुपकारकतैत्वाद्धोपजायत, राग च सति मदीया मा-
श्राजधानराजन्द्रः।
त्ति जात्या-
ता चरिपपासादिकां वदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्य- |
सेवादिकां प्रारायुपध्रातरूपां क्रियामारभते ,
कारिणि वा तस्यां वा श्रकार्यप्रवृत्तायां. द्वेष उपजायत, त-
चथा-अनन््तवीर्यप्रसक्वायां रेणुकायां रामस्येति, एवं पिता
तदुपघात- |
मे पिठृनिमित्त रागद्वेषौ भवतः, यथा--रामेण पितरि रा- |
गारदुपहन्तरि च द्वेषात् सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्थापादिताः, |
सुभूमनापि त्रिःसप्तकृत्वा ब्राह्मणा इति, भगिनीनिमित्तेन च
क्शमनुभवत प्राणी, तथा भायानिमित्तं रागदढेषाद्धव
तद्यथा-चाणक्यन भगिनीभगिनीपत्याद्यवन्लातया भायया
[वि ` ` नन्दान्तिक्ं द्रव्याथमुपगतन कोापान्नन्दरकले क्षय
घर
लोगविजय
निन्य, तथा-पुत्रा म जीवन्तीति आरम्भ प्रवतत. ण्व
दुहिता म दुःखिनीति रागद्धघापदतचताः परमार्थमजाना-
नस्तत्तद्विधत्त यन एहिकार्माष्मकान अपायान श्रवाप्राति
तद्यथा-जरासन्धा जामार्तार कस व्यापादित स्ववलाव-
लपादपस॒तवासुंदवपदानुसारी सवलवादनः त्षयमगात् ,
स्नुषा म न जीचन्तीव्यारम्भादा प्रवक्तेत , ' सस्वस्वजनस-
ग्रन्थसस्तुता म ` ' सखा मित्र स्वजनः पितृव्यादिः संग्रन्थः
स्वजनस्य स्वजनः पिठृव्यपुत्रश्यालादिः सस्तुता-भूया
भूया दशनन परिचितः, श्रथवा-पृवसस्तुता मातापित्रादि-
राभाहतः पश्चा्सस्तुतः श्यालकादिः स इट ग्राह्यः, सच
म दुःखित इति परिप्यन, विविक्ल शाभन प्रचुरं वा उप-
करर--टस्त्यश्वरध्रासनमन्चैकादिर्पारवत्तन द्विगुणात्रगु-
णादिमदभिन्न तदेव. भाजन-मादकादि आउचछादने-पट्टयु-
ग्मादि तच्च म भविष्यति नष वा | ` इच्चन्थ ` मिति इ-
येवमथ गृद्धा लाक्रः तस्वव मातापित्रादिरागादिनिमि-
त्स्थानष्वामरणे प्रमत्ता ममदमह मस्य स्वामी पापका वत्यव
मादितमना वसत्-तिष्टादरति, उक्तं च-- पुत्रा म भ्राता
म, स्वजना में गृहकलजञ्नवर्गों । इतिङृतमेमेशब्दे, पशुमिव
सन्युजन हरति ॥१॥ पुत्रकलत्रपरिग्रह-ममत्वदाषनेरा वजति
नाशम् । कृमिक इव काशक्रारः.परि ग्रहाद् दुःखमाम्नाति ॥२॥
अमुमवाथ नयुक्रकाया गाश्राद्यनाह--
ससार छत्तमणा, कम्म उम्मूलषए तददाए |
उम्मूलिज्ञ कसाया, तम्हा उ चइज़ सयणाई ॥१८५॥
मायाम तत्त पयाम, भोगणा माया य पुत्तदारा म |
अत्थम्मि चव गिद्धा, जम्ममरणाणि पावति ॥१८६॥
संसारम--नारकतियग्नरामरलत्तणं मातापितृभायांदिस्ने-
हलक्षण वा छेत्तुमना-उन्मुमूलयिपुरष्प्रकारं कम्मोन्मूल-
यत् , तदुन्मूलनार्थ च तत्कारणभूतान् काषायानुन्मूलयेत् ,
काषायापगमनाय च मातापित्रादिगतं स्नेह जह्यात् , यस्मा-
न्मातापित्रादिसेयोगाभिलापिणाऽर्भे-रत्नकुष्यादिक ग्रुद्धा:-
अध्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभ्रतः प्रा--
प्नुवन्तीति गाथाद्रयाथैः । तदवे कषायेन्द्रियप्रमत्ता मातापि-
आद्यर्थमर्थोपाज्जेनरक्षणतत्परा दुःखमेव कवलमनुभवतीत्या-
ह-- अहो ' इत्यादि, श्दृश्च सम्पूण रात्रि च, चशब्दात्पत्त
मासं च, निवृत्तशुभाध्यवसायः परि--समन्तात्तप्यमानः प-
रितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा--“ कइया वच्चइ सत्थ,
कि भण्ड कत्थ क्रित्तिया भूमी । को कयदिक्रयकालो, नि-
व्विसइ कि कहि कर ? ॥१॥ ” इत्यादि, स च परितप्यमानः
किम्भूता भवतीत्याह -'काल' त्यादि कालः--कक्तेव्यावसर -
स्तद्विपरीताऽकालः सम्यगुन्थातुम्-श्रभ्युयन्तु शीलमस्ये-
ति समुत्थायीति पदार्थः । वाक्यार्थस्तु काल-कर्तव्यावसरे
अकालन-तद्विपयोसन समुत्तिषप्ठते--अभ्युद्यतमनुष्ठाने रू-
रोति तच्छीलश्चति, कत्तेव्यावसरे न करोत्यन्यदा च वि-
दधातीति, यथा वा काल करोव्यवमकालऽपीति, यथा वा
अनवसर न करोत्यवमवसर ऽपीति, शअन्यमनस्कत्वादपगत-
कालाकालाववक इति । भावना--यथा प्रद्यातेन सगापति-
रपगतभर्तेका सती ग्रहणकालमतिवाह्य कृतप्राकारादिर-
क्षा जिघृक्षिताति, यस्त॒ पुनः सम्यक्रालात्थायी भवति
` ता
लाग।वबज़ग
स यथाकाले परस्परानावाधया सव्वीः क्रियाः करातीति
तदुक्लम--'' मासेर्टभिरदह्वा च, पूर्वेण वयसा55युषा। तत्
कत्तव्य मनुष्य
घ्रानस्य च न कश्चिदकाला सव्यारिवति । किमश् पुन
कालाकालसमुन्थायी भवती याह--' संजागट्टी ` सयुज्यत
संयोजने वा सयागोाऽथ्ः--प्रयाजन सयागाभ्रः साऽस्या-
स्तीति सयोगार्थी, तत्र धनध्रान्यहिररयद्विपदचतुष्पदरा-
ज्यभायीदिः सया गस्तनार्थी--तत्प्रयाजनी, शथवा--शब्दा
दिविषयः-सयागा मातापित्रादिभिवाँ तेनार्थी कालाका-
लसमुत्थायी भवतीति । कि च-- अट्वालाभी ` अर्थो
रत्नकुप्यादिस्तत आ--समनन््ताल्लोभो5थालाभः स वि-
द्यते यस्येत्यसावषि कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्म-
णवरणिग्वत् , तथाहि--असावतिकरान्ताथांपाजंनसमथयों-
वनवया जलस्थलपथर्प्रषितनानांदशभा राडशथ्बतबाहित्थगन्त्री -
कोष्टूमगडलिकासम्भ्रतसम्भारा 5५पि प्रावुषि सप्तरात्रा-
वचिछन्नमुशलप्रमाणजलधारावर्षनिरुद्धस कलप्राणिगणस----
आारमनार थायां महानदीजलपूरानीतकार्ट्रान जिघृक्तुरुप-
भोगधस्मीवसर निवत्तापराशप्रशुभपरिणामः केवलमर्थापा
नप्रवृत्त इति, उक्तं च--' उकखराइ खणइ निहणइ, |
शक्ति ण खुआति दिया वि य ससंको। लिंपइ ठएइ स- |
यय, लंछियपडिलंछिये कुणइ ॥ १ ॥ भुजसु न ताव रक्रा
जमेड न विय अज्जमज्जीह । नवि य वसीहामि घर.काय
व्वमिरं बहु श्रज्ञे ॥२॥ ” पुनरपि लोभिनोऽशभव्यापा-
रानाह-' श्रालुपे ` श्रा--समन्ताल्लुम्पतीत्यालुम्पः, स हि
लाभाभिभूतान्तःकरणोऽपगतसकलकत्तव्याकत्तव्याविषेको-
-ऽथलोभैकदत्तरष्िरेहिकामुष्मिकविपाककारिणीर्निलाञ्चन-
गलकरुनचोर्यादिकाः क्रियाः करोति , अन्यछ्च-- सह-
सक्कारे ' करण कारः,
रण सहसाकारः, स विद्यते यस्यति “ अशे आदिशभ्यो
असमी क्षितपुर्वापरदोष सहसा क- |
च" ( पा० ५-२-१२७ ) अथवा->डछान््दुसत्वात्कत्तयव |
घन्न करोतीति कार
टदष्टिस्वेंकमना: शकुन्तवच्छराघातमनालोाच्य पिशताभि
लापषितया सन्धिच्छदनादिनो विनश्यति , लोभाभिभूतो
हयर्भैकटष्िस्तन्मनास्तद शे। पयुक्तो ऽथमेव पश्यति नापायान् ,
आह च--' विशिविद्वचित्त विविधम्-श्रनकधा निविष्टे
तथादि-लोभर्तिमिराच्छादित- |
स्थितमवगाढमर्थोपार्जनापाय मातापित्राद्यभिष्वज्ञे वा श- |
ब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्-श्रन्तःकरण यस्य स॒ तथा,
पाठान्नरं वा-' विरिविद्रुचिद्र ' त्ति विशषण निविष्टा का-
यवाग्मनसां परिस्पन्दा^मिका ऽर्थोपाञ्ज्नोपायादौ चेष्ठा य-
स्य॒ स विनिविष्चेष्टः। तदेवे मातापित्रादिसंयोगार्थी अ- |
थीलोभी श्रालुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचिक्ता विनिवे- |
= |
च्र-श्रस्मिन्मातापित्रादौ शब्दादिविषयस्रयोग वा विनि |
विष्रचित्तः सन् पृथिवीकायादिजन्तनां यच्छख्रम्--उपघा- |
च्चेष्ा घा किम्भतो भवतीत्याह--' इत्थ इत्या
यनान्त स्ुखमधघत ॥६॥ `` धम्माचु- |
तकारि तत्र पनः पुनः प्रवत्तत , एव पान पन्यन श |
स्र प्रवृत्तो भवति, यदि--प्राथवीकायादजन्तेनामुपघात
वस्त, तथाहि-' शसु
भदभिन्नमिति । पाठान्तरं वा ` एत्थ सत्त पुणो पणो
शअत्र-मातापितृशब्दादि लेयागे लोभार्थी सन् सक्ता--ग्रद्ध
हसायाम् , दत्यस्पाच्छुस्यत--ाह- |
स्यत इति करण ष्टन् विहतः, त्च खकायपरकायाद- |
६)
अशिधानराजन्द्रः !
लोगविजय
अध्युपपन्न: पानःपुन्यन विनिविष्चेष्ट श्रालुम्पकः |
साकारः कालाकालसमुल्यायी वा भवतीति । ( श्राचा०) ,
( पतञ्च साम्प्रतेक्षिणामपि युज्यत ययज्ञरामरत्व दीघौयु-
ष्कंवा स्यात् | इत्यादि ` आउ ' शब्दे द्वितीयभागे ६ पृष्ठ
गतम् ) (यपि दी घौयुष्कस्थिस्तिकाः उपक्रमणकारणा-
भाव च्रायुःस्थतिमनुभवन्ति तञ$पि मरणाद्प्यधिकां
जराऽभिभूतविन्रहां जघन्यतमामवस्थामनु भवन्तीति ' आ-
तद्ध ` शब्द द्वितीयभांग १५६ पृष्ठ दितम् । )
श्र हिचारित्रमाहनीयत्तयापशमादवाप्त चारित्रस्य पुनरपि
तदुदयादवादधावषारनन सूत्रणापदशा दीयत, तञ्चावधा-
वन सयमाद् यं तुभिर्भवति तान्नियुक्किकारा गाथया ऽऽच्ट-
बिइउदेसे अदढो, उ संजम कोइ हुज़् अरईए ।
अन्नाणकम्मले। भा-इएहिं अज्मत्थदोसेहिं॥ १६७॥
इह हि प्रथमोद्दशके यहा निर्यक्षिगाथाः अस्मिस्त्विय-
मवक्रव्यता मन्दबुद्धः स्यादारेका, यथा-इयमपि तज़त्येबे-
त्यतो विनेयसुखप्रातिपक्त्य थ द्वितीयोादशकग्रदणमिति । क~
ख्ित्करडरीकदशीयः सयमे-सपदशमेदभिन्न अदृढः--
शिथिला माहनीयादयादरत्युद्धवाद्धवेत् , मोहनीयोदयो-
-ऽप्याध्यात्मिकदोपेमवत् , त चाध्यात्मदाषा अज्ञानलोभा-
दयः, श्रादिशब्दादिच्छामदनकामानां परिग्रहः, मोहस्याज्ञा-
नलोभकामाद्यात्मकत्वात्तषां चाध्यात्मिकत्वादिति गाथा्थैः।
ननु चारतिमतो मेधाविनो ऽनेन सूत्रणो पदेशो दीयते, यथा-
सयमारतिमपवरत्तत, मेधावी चात्र विदितससारस्वभावो
विवजक्षितः, यश्चेवंभूतो नासावरतिमान् तद्वांश्चेन्न विदित
वेद्य इत्यनयोः सहानवस्थानलत्तणेन
विराधन विरोधा-
च्छायातपयारिव नैकत्रावस्थानम् , उक्तं च-“ तज्ज्ञानमेव
न भवति , यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतो-
ऽस्ति शक्कि-दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥१॥ ” इत्य.
यो ह्यज्ञानी मोहोापदतचताः स॒ विषयाभिष्वज्ञात्संयमे
सवद्धन्द्धप्रत्यनीक रत्यभाव वदध्याद् , , आह च-' अज्ञा-
नान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्तापतास्त, कामे सक्ति दधति
विभवाभागतुङ्गाजने वा। विद्धच्चित्तं भवति हि महन्मोक्ञ-
मार्गेकतानं, नारपस्कन्ध विरटपिनि कषत्यसभित्ति ग्जेन्द्रः
॥ १ ॥ ” नेतन्सरृष्यामह, यतो हावाप्तचारित्रस्यायमुपदेशा
दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्व न ज्ञानमरते,तत्कार्यत्वाञ्चारित्रस्य।
न च ज्ञाना रत्ययार्विरो घः, अपि तु-रत्यरत्योः, ततश्च संयम-
गता रतिरेवारत्या वाध्थतेन ज्ञानम्, अतो ज्ञानिनोएपि
चारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्यादेवार तिः, यतो ज्ञानमप्य-
ज्ञानस्थेव बाधकम् , न संयमारते; | तथा चोक्म--“ ज्ञानं
भूरियथाथवस्तुविषये खस्य द्विषो बाधकं , रागाराति-
शमाय हेतुमपर युङ्क्र न क्रतैस्वयम् । दीपो यत्प्रति व्यन-
क्लि किमु ना रूप स पवत्ततां, सर्वः स्वे विषय प्रसाधयति
हि प्रासरङ्गकोऽन्या विधिः ॥ १॥ ” तथेदमपि भवतो न
करीविवरमगाद् यथा--' बलवानिन्द्रियग्रामः, परिडतो5-
प्यत्र मुह्यती ` त्यतो यत्किञ्चिदेतत्, अथवा-ना रत्यापन्न
पैवमच्यते, अपि त्वयमरपदेशा मधावी सयमविषये मा
विधाद्रत्तिमिति । सयमारतिनिच्त्तश्च खन् कं गुणमवाप्रो-
तीत्याह-' खणसि म॒क्के ' परमनिरुद्धः का लः-क्षणः ज्रत्प-
इशाटिकापाटनइष्टान्तसमय प्रसाधितः; तत्र मुक्तो विभक्ति
|
|
$
विपरिणामाद्धा क्षणन-अष्टप्रकारेण कम्मणा संसारबन्धनैर्वा
( 35६३
ज श्रभिधानराजन्द्रः।
लागविजय
विषयाभिष्वङ्गस्नहादिभिमक्को भरतवदिति ।
ये पुनरनुपदेशवरत्तिनः कणडरी काद्या छत चतुग्गतिकस-
सारान्त्वत्तिनो दुःखसागरमधिवसन्तीव्याद-
अणाणाए पुट्टा वि एगे नियडति, मदा मोदेण पाउडा,
अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्टय लद्ध कामे अभिगाहड,
अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो
सन्ना नो हव्वाए नो पाराए । ( स्तू० ७३ )
आज्ञाप्यत इत्याज्ञा--हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया
सर्वज्ञापदेशस्तद्धिपययो ऽनाज्ञा तया अनाज्नया सवया
स्पृष्टाः परीषडोपसर्म्भैः, अपिशब्दः सम्भावनायां स |
च भिन्नक्रमो निवत्तन्त इत्यस्मादनन्तर द्रष्टव्यः, 'प-
कै-' मोहनीयादयात्करडरीकादयो न सर्वे संयमा-
च्समस्तद्वन्द्वोपशमरूपात् निवत्तेन्त अपीति सम्भाव्यत
चतन्मादादयस्यत्यपिशब्दा्थः । किंभूतः सन्ता निव-
सन्त इत्याह-मन्दा--ज़डा अपगतकर्तेग्याकत्तेव्यविवे-
काः, कुत पवेभूताः ?,यतो ' मोदेन प्राज्रताः ' मोहः--अज्ञा- |
ने मिथ्यात्वमोहनीय वा तन प्राव्रता--गुरिटताः, उक्तं च--
& अज्लाने खलु कणम् , क्राधादिभ्योऽपि सर्वपापभ्यः। श्रध |
हितमहिते वा, न चेतति येनाऽऽच्रतो लोकः ॥ १॥ ” इत्यादि, _|
तंदेवमवाप्तचा रित्रो ५पि
कम्मोंदयात्परीषहोदये 5ज्ञीकृत- |
लिङ्गः पश्चाद्भावतामालम्बत इत्युक्तम् । अपरे तु-स्वरुचि- |
विरचितवृत्तयो नानाविधेरुपायेलाॉकादर्थ जिघृत्तवः किल |
चये संसारोह्धिग्ना मुमुत्तवस्तघु तयु शआ्ारम्भावषयाभिप्व- |
कृषु प्रवर्तन्त इति दशैयति-- अपरिग्गहा ` इत्यादि, परिः- |
समन्तात् मनोवाक्कायकम्म॑भिग्ृंहात इति परिग्रहः स येषां |
नास्तीव्यपरिग्रहाःः एव भूता वय भविष्याम इति शाक्या- |
दिमताजुसारिणः खयुथ्या वा ' समुत्थाय › चीवरादिग्र- |
इशे प्रतिपद्य, ततो लब्धान् कामान् अभिगाहन्त-सव- |
न्ते, तिङ्ब्यत्ययन चैकवचनमिति, अज चान्त्यवतो पादानात्
शषारयपि ग्राह्याणि । श्र्दिसका वय भविष्याम पवमम-
चावादिन इत्याद्यप्यायाज्यम् | तदेवे शेलूषा इवान्यथावा- |
दिन्नऽन्यथाकारिणः कामा्थमेव तांस्तान् प्रवज्याविशेषा- |
न्विश्रात, उक्तं च-“'स्वच्छाविरचितशास्ेः, प्रवज्यावेषधा- |
रिभिः चदे: । नानाविधैरुपाये--रनाथवन्मुष्यते लोकः ॥१॥”
इत्यादि । तदेवे प्रवञ्याचषधारिणो लन्धान्कामान वगाहन्त |
तरलाभाथ च तदुपायेषु प्रवर्तन्ते इत्याह--' अणाणाए ` |
इत्यांदि, अनाक्षया-स्वेरिएया वुद्रथा ` मुनय ` इति--
मुनिवेषविडम्बिन कामोपायान् प्रत्युपत्षन्ते--का- |
मोपायार स्मेषु पोनःपुन्यन लगन्तीति, आह. च--
एत्थ ` इत्यादि, अज्र-अस्मिन् विषयाभिष्वक्ञाज्ञान-
मये भावमोहे पोनःपुन्यन सन्नाः-विषरणाः नि-
मग्नाः पङ्कावमग्ना नागा इवात्मानमाक्रष्डुं नालमिति,
आह च-- नो हव्वाए नो पाराए ' यो दि मध्य महानदी-
पूरं निमग्नो भवत्यसो नारातीयतीराय नापि पारे महा-
नदीपूरमिति, एवमत्रापि कुतश्चिज्निमि त्तात्त्यक्कगृद्गृहिणीपु
ऋ आकिञ्च-- |
नये प्रतिङ्ायारातीयतीरदेश्याद् गरृहवाससौ ख्यान्निगतः सन्
नो हव्वाए ' ति भवति, पुनरपि बान्तभोगाभिलापितया
यथोक्कसेयमाभावेन तत्क्रियाया विफत्वात् “ नो पाराए !
त्ति भवति,उभयतो मुक्रवन्धनामुक्रप्रतोलीबोभयच्रष्ठा न ृद-
स्थो नापि प्रवजित इत्युक्रं भवनि । उक्तं च-- इन्द्रियाणि
न गुप्तानि, लालितानि न चच्छया । मानुष्यं दुलेमे प्राप्य, न
भुक्क नापि शापितम् ॥ १॥ ” इति ।
ये पनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते-
किभूता भवन्तीत्याद--
विम्ुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलो-
भेण दुगुंछमाणे लद्ध कामे नाभिगाहइ । ( ब्रू ७४)
विविधम--अनेकप्रकारं द्रव्यता--धनस्वजनानुषङ्गाद्धा-
वतो-विषयकषायादिभ्योऽनुसमय मुच्यमाना पव भा-
ते जना ये
विनि भूतवदुपचारान्मुक्ा- विमुक्ताः
जनाः सवस्वजनभूता निर्मेमत्वाः पारगामिनो भव-
न्ति, पारा--मात्तः ससाराणवतरच्रृत्तित्वात्तत्कार-
णानि-क्षानदशनचारित्रारयपि पार इति, भवति दि
तादर्थ्यात्ताच्छुब्यम् , यथा--' तम्दुलान् वर्ति पजेन्यः '
अतस्तत्पारम--ज्ञानद्शनचारित्राख्य गन्तु शीले येषां ते
पारगामिनः, त मुक्ता भवन्तीति पूर्वण सम्बन्धः । कथ
पुनः सम्पूणपारगामित्वे भवतीत्याह- लाभे ` इत्यादि
इद दि लाभः सवसङ्गानां दुस्त्यजा भवति, तथाहि-त्ष-
पकश्चरयन्तर्गतस्यापगताशषकषायस्यापि खरडशः तक्षि-
प्यमाणो ऽप्यनुवध्यत इति, श्रतस्त-- लोभम्, तद्विपक्तय
अलोभन जुगो"समानो- निन्दन्परिदरन् कि करोतीत्याह-
` लद्ध ` इत्याद, लब्धान--प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामा-
न् नाभिगाहते--न स्रवत, यों हि शरीरादावपि निवृत्त-
लोभः स कामाभिष्वज्ञवाप्न भवति, ब्रह्मदत्तामन्त्रितचि-
श्रवदिति, प्रधान्छन्त्यलोभपरित्यागन चोपसज्जनाधस्त-
नपरित्यागा द्रष्टव्यः, तद्यथा--क्राधे न्तान्त्या जुगुष्समा-
ना, मान मादवन, मायामाजवनत्याद्यप्यायोज्यम् , लोभाषा-
दाने तु सर्वेकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपाददे, तथाहि--त-
त्पच्रत्तः साध्यासाध्यविवकविकलः कार्याकार्यविचाररदि-
तः सन्नर्थैकदत्तदण्टिः पापोपादानमास्थाय सववौः क्रियाः
अधितिष्ठतीति, तदुक्रम्--“ धावइ रादणे तरद सायरं,
भमद गिरि खिगजसखु । मारेइ वंधव पि हु, पुरिसाजो हो
इ धणलुद्धो १५ ॥ अडइ बहुं वदद भरं, सहइ दुं
पावमायर इ घिट्टो कुलसीलजाद पञ्चय -धिद च लाभदश्रो
चयइ ॥ २ ॥ ” इत्याद, तदेव कुतश्चिन्निमिक्तात्सदापि
लोभादिना निष्कम्य, पुनर्लोभादि परित्यागः कार्यः ।
अन्यस्तु लोभ विनापि प्रबज्यां प्रतिपद्यत इति दशैयति-
विणा वि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पास,
पडिलेहाए नावकखडई, एस अणगारिे त्ति पव्वुच्चइ,
अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुद्गाई संजो-
गट्टी अट्टालोभी आलुपे सहसकारे विशणिविट्टचित्ते इत्थ
सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्त-
बले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोर-
€ ७२ )
श्राभिधानराजन्द्रः।
लागविजय
शलागदिजय |
बले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले इ-
च्चेएहिं विरुवरूवहिं कजञहिं दंडसमायाणं संपहाए
भया कज्जइ , पावगुक्सु त्ति मन्नमाे ,
ससाए । ( स्तू० ७५ )
कश्चिद्धरतादिर्निःशपतो लाभापगमाद्धिनाऽपि लोभ * नि-
ष्करम्य ` प्रवज्यां प्रतिपद्य , पाठान्तरं वा ˆ विणइत्त ला-
भ ' सञ्वलनसंज्ञकमपि लाभे विनीय-निमृलताऽपनीय ए-
घ पवभूतः सन् दकमो-ञ्रपगतघ्रातिकूम्मचतुष्टयाविर्भू-
तानाचरणज्ञाना विशषता जानाति सामान्यतः पश्यति,
एतदुक्ल भवति- एवेभूता लाभा यन तत्क्षय--मोहनीयक्षय
चावश्य घातक्रम्मत्तयस्तस्मिश्च निरावरणज्ञानसद्धावस्त-
ताऽपिभवोपग्राहिकम्मापगम इत्यतो लाभापगमे अकम्में-
त्युक्रम । यतञ्चेवम्भूतो लाभो दुरन्तस्तद्धानौ चावश्यं '
कम्मत्तयस्ततः कि ककत्तेव्यमित्याह--' पडिलेहाए `
इत्यादि, प्रत्युपत्षणया-गुणदापपयालोचनयापपन्नः सन् |
श्रथवा-लाभावपाक्रं प्रत्युपच्य-पर्यालोच्य तदभाव
च लाभ नावकाह्लीत-नाभिलफषतीएति
तान्तःकर णो 5प्रशस्तमूलगुणस्थानवर्ती विषयकषाया-
चुपपनश्नस्तस्य पूर्वोक्तं वपरीततया सर्व संतिष्ठते ।
तथाह--श्रलाभ लाभन जुग्ुत्समानों लब्धान् कामान-
चगाहत , लाभमनपनीय निष्क्रम्य पुनर्रप लाभेकमना
सकम्मा न जानाति नापि पश्यति
णया ऽभकाङ्घाति । यच्च प्रथमादशकऽप्रशस्तमूलगुणस्था-
नमवाच तच्च वाच्यामात, आह च-' अहो य राआ `
इत्याद , श्रहारात्र परितप्यमानः क्ालाकालसमुल्थायी
स्यागार्थी श्र्थालाभी आलुम्प: सहस्राकारा विनिविष्ट-
चित्तः श्त शस्त्र प्थिवीकायाद्यपप्रातकार्गिण पोन-पु-
न्यन वततत । कि च--' से आयवल ` आत्मना बले--श-
फ्त्युेपचय आत्मबले तन्म भावीति कृत्वा नानाविधेरुपाय-
रात्मपुष्ठय तास्ताः क्रियाः एहिकामुप्मिकापध्रातकारिणी-
र्वेघन , तथाहि-' मांसन पुष्यत मांस ` मिति छत्वा पञ्च-
न्द्रियघातादावपि प्रवर्त. श्चपराश्च लम्पनादिकाः-सूत्रणे-
वाभिहिता, पव च-ज्ञातिवलम् खजनवल म भावीति, तथा
तन्मित्रबले म भविष्यति यनाहमापदे सुखेनव निस्तारिष्यामि,
तम्प्रत्य बले भविष्यतीति वस्तादिकमुपटन्ति, तद्धा-दवव-
गुण
+ यश्चाज्ञानापह-
अपश्यंश्ाप्रन्थुपक्ष- '
अदुवा आ- |
ल भावात पच्रनपाच्रनाद्क्राः क्रया गवचत्त, राज़बल वा |
में भावष्यतात राजानमुपचरात ,चारन्रामवा वसात चा- |
रभागे वा प्राप्स्यामीति चोारानुपचरति , अतिथिवले वा
म भविष्यतीव्यतिथीनुपचरति, अर्तिथिर्दहि निःस्प्रहाऽभि-
धीयत इति , ( श्राचा० ) ( अतिथिलक्षणम ' अइहि '
शब्दे प्रथमभाग ३३ पृष गतम् | ) एतदक्ल भवति-तद्रला-
थमपि प्राणयु दरडा न निन्तप्तव्य इति , ण्व कृपणश्रम-
रगश्रमपि वाच्यमिति--पव पृ्ोंक्रः विरूपरूपः नाना-
श्रकारैः पिराडदानादिभिः कार्यैः ` दगडसमादान ` मिति
दर ङ्यन्त-व्यापाद्यन्त प्राणना यन स दग्डस्तस्य सम्य-
गादान-ग्रहगौ समादानम् , तदात्मबलादिक मम नाभविष्य-
त् यद्यहमतम्न।करिष्यमिस्येय सप्रत्तया-पर्यालाचनया एवं
स्धन्य वा भयान् कियत , एवे तावदिह भ्रयसाश्रिव्थ द-
र्डसमादानकारणमुपन्यस्तम् , श्रामुष्मिक्ा्थमपि परमा
थमजानानेदेण्डसमादानं क्रियत इति दशयति-'पावमा-
क्खा ' त्ति इत्यादि, पातयति पासयतीति वा पापे तस्मा-
न्मोक्तः पापमात्तः, इतिः- हेतौ, यस्मात्स मम भविष्य
वीति मन्यमानः देरडसमादानाय प्रवत्तत इति । तथाहि-
ताज षड्जीवापघातकारिणि शस्त्र नानाविधापायप्रा-
रयुपघ्रातात्तपापावेध्वं सनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिक
शय्युदेग्राह्ितमतया जुहूति, तथा--पिर्तापण्डदानादों ब-
स्तादिमांसापस्छृतभाजनादिकं द्विजातिभ्य उपक्रल्य-
यान्ति , तद्धृक्रराषानुज्ञातं स्वताऽपि, युजत, तदव ना-
नाविधरुपायेरज्नानोपहतबुद्धयः पापमान्ता दरण्डापादानन
तास्ताः क्रियाः प्रास्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अ-
नकभवशतकोटीदुर्मांचमघमवापाददत इति । किश्व--
अदुबा ` इत्यादि, पापमोक्त इति मन्यमानो दण्डमाद-
त्त इत्युक्तम, अथवा-आशसनम् आशंेसा-अप्राप्तप्रापणा-
भिलाषस्तदर्थ द्राडसमादानमादत्त । तधाहि-ममैतत् प-
रुत्परारि वा प्रत्य वोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु
प्रवत्तेत , राजान वा<र्थाशाविमाहितमना अबलगाति , उ-
छ च--आराध्य भूपतिमवाप्य तता धनानि, भाक्ष्या-
मदे किल वयं सतते खुखानि। इत्याशया धनविमाहि-
तमानसानां , कालः प्रयाति मरणावधिरव पुलाम् ॥१॥
पि गच्छ पतात्तिष्ठ , वद मौन समाचार । इत्याद्याशा-
ग्रहग्रस्तेः, कीडन्ति धनिनाऽर्थिभिः॥२॥ ” इत्यादि ॥
तदेव ज्ञात्वा कि कक्तेव्यमित्याह--
तं परिष्पाय मेहावी नवर सय एएहिं कज्ञहिं दं डं समारंभिजञा,
नेव अन्नं एएहि कज़ेहिं दंडं समारंभा।वेज्ञा,णए हिं कज्जं
दंडं समारंभंतं पि अन्नं न समणुजाणिजा, एस मग्ने
आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ सले नावलिपिज्ञासि त्ति बेमि।
( स्तू० ७६ )
` तदि" ति सर्वनामप्रक्रान्तपरामर्शि, ` तत् ` शखष-
रिज्ञाङ्गं स्वकायपरकायादिमदभिन्ने खरम् , इद वा यदङ्ग
म्--अप्रशस्तगुणमूलस्थानं-विषयकेषायमातापित्रादिकम ,
तथा--कालाकालसमुत्थानक्षणपरिज्ञानश्रात्रादिविज्ञानप्रहा-
णादिकं तथाऽऽ्मबलाधानाद्यथं च दरडसमादाने ज्ञपरिज्ञया
ज्ञात्वा प्रत्याल्यानपरिज्ञया परिहरेत् मेघावी-मर्यावावर्त्ती । ,
ज्ञातहयोपादयः सन् कि कुर्यादित्याह नव सयं ' इत्यादि,
नेव स्वयम्-श्रात्मना पतः- श्रात्मचलाधानादिकः /
कार्ये:-- कक्तव्ये: समुपस्थिनैः साद्धिः दण्डम्-सच्वा--
पघातं॑ समारभत् , नाप्यन्यमपरमभिः कार्यहिंसान्तादिक |
८
दगडे समारम्भयत् , तथा-सामारममाणमप्यपरं योगात्रि- |
णन समनुज्ञापयद् । ` एप चापदशस्तीथरृद्धिरभिहत
इत्यतत् सुधम्मस्वामी जम्बुस्वामिनमादति दर्शयति-
एस ` इत्यादि, ' एप” इति ज्ञानादियुक्ना भावमार्गो
यागात्रिककर णर्जिकेण दणडसमादानपरिद्दारलक्षणा वा
आर्ये:--आराद्याताः सर्वद्ेेयधम्मेंभ्य इत्यार्याः--संसा--।
राशवतटवर्ज्षिनः ज्ञीणघातिकम्माशाः संसारोद्रविषर- |
चर्तिभावविदः-तीथेकृतस्तेः. प्रकर्षण-- सदेवमनुज्ायां |
पपरदि सर्वस्वभाषालुगामिन्या वाचा योगपद्याशषसंशी- ¦
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'्ची
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| < , पवम्भूते च मार्गे ज्ञात्वा कि कत्तेव्यमित्याह- ` ज-
हेत्थ ` इत्यादि, तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेणु कार्येषु
समपास्थतषु सत्स द्रडससपाट्नाद्कं पार्हरन् ` कु-
शला-निपुणः अवगततत्यो ययैतस्मिन् दरडससपा-
दाने स्वमात्मान नोर्पालम्पयः-न तत्र सश्लषे कयो इति
विभक्रिविपरिणामाद्धा पतन दणडसमुपादानजनितकम्मैणा
यथा नोपलिप्यसे तथा सर्वैः प्रकारैः कुयौस्त्वम् । इति-
शब्दः परिसमाप्तौ , ब्रवीमीति पूर्वत् । उक्तो द्वितीयादे-
शकः । साम्प्रतं तनीय श्रारभ्यते । शरस्य चायमभिसम्ब-
न्धः--इहानन्तरोद् शके सयमे दृढत्व॑ कायमसयमे चा-
डृढत्वम॒क्कम , तञ्चाभयमपि कपायव्युदासन सम्पद्यते , त
श्रापि मान उत्पत्तरारभ्य उच्चेगोत्थापितः स्यात् श्रत-
स्तदृग्युदासार्थामिद मभिध्ीयत । शरस्य चानन्तरसृत्रण स-
अचन्धः- ' जदत्थ कुसले नावलिपजासि ` कुशला नि-
पुणः सन्नस्मिन्नुच्चेरगोत्राभिमान यथाऽऽत्मानं नापलि-
मपयस्तथा विदध्यास्त्वम् |
कि मत्वा ? , इत्यतस्तदभिधीयते-
से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो
अइरित्ति, नो अपीहए, इय संखाय को गोयावाई ? को
माणावाई १, कंसि वा एगे गिज्का, तम्हा नो हरिसे
नो इष्य, भणि जाण पहिलह साय । ( ख० ७७ )
“स ' इति सेसायैखुमान् श्रसरूद्-श्रनकशः उच्चेगोंत्रे
म्रानसत्कारा उत्पन्न इति शषः, तथा-श्रसरूकाचेर्गोति
सर्वलोकावगीते , पोनःपुन्यनान्पन्न इति । तथाद्वि-नीचे-
गोत्रोदयादनन्तमपि काल तियच्वास्त , तत्र च पय-
टन द्विनवतिनामोत्त रप्रकृति सत्कर्म्मा खन् तथाविधाध्यव-
सायापपन्न: शआ्ाहारकशरीरतत्सधघ्रातवन्धनाङ्गापाङ्गदेवग-
ल्याचुपूर्वा द्यनरकगत्यायुपूर्वी द्वयचेक्रियचतुष्टयरूपा पता
द्वादश क्मध्रङृतीर्निलप्याशीतिसत्कम्मा तजावायुषूत्यन्न
सन् मनुजगत्यानुपूीद्यमपि निलप्य तत उचद्चेगोंत्रमु-
दलयति पस्यापमासख्ययभागन ,
सत्कम्मता ऽपीति, ततो ऽप्युद्वृत्तस्यापरेकेन्द्रियगतस्यायमव
भङ्गः, असष्वप्यपर्याप्तकावस्थायामयमव, अनिर्लेपित तूखै- |
शेत्रि द्वितीयचतुर्थों भङ्गो, तद्श्रा-नीश्चगगोँ त्रस्य बन्ध उद- |
श्रतस्तजोवायुष्वाद्य |
घव भङ्गकः, तद्यथा-नीखेगोत्रस्य बवन्ध उदयोऽपि तस्यव |
याप तस्यव सत्कम्मता सूमयरूपस्यवात द्वतायः, तथा |
उच्चेर्गोजस्य बन्धा नीचस्योदयः सत्कम्मता तूभयरूप-
स्यति चतुः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्यव, तियेन्तूच्चर्गो- |
श्रस्यादयाभावादिति भाव: | तदेवमुच्चेर्गोतरोद्धलनन कलं- |
कलीभावमापन्नो ऽनन्त कालमकान्द्रियष्वास्ते, अनुद्वालित
चा तियच्वास्तेऽनन्ता उत्सर्विरयवसप्पिणीः , श्रावलिका-
कालासख्ययभागसमयसंख्यान् पुद्रलपर।वत्तानिति ! कीदश
* घुनः पुद्धलपराचस्च द्वात ? उच्यत, यदोदारकवाक्यतज-
सभाषानापानमनःकर्मसश्केन संसारोद्रविवरवत्तिनः पु-
द्ला: आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्वलपराबर्त
| छा अन्य तु- द्रय्यत्तेत्रकालभावभदाच्चतुद्धा वयायान्त
अत्यकमसावांप बाद्रसूदंमभ्दाद् दाचध्यमनुनवबात् . तत्र
4 +
#. = ५
( ७२६ रे
श्भिधानराजन्द्रः।
तिच्ञ्या प्रक्षण वेदितः- कथितः प्रतिपादित इति या- |
लोगविजयग
द्रव्यतो बादरो यदौदारिकवैक्रियतेजसकाम्मंणचतुश्यन
सर्वेपुह्ला शृद्दीत्वोज्भितास्तदा भवति, सृदमः पुनयेदेक-
शरीरेण सर्वपुद्लाः स्पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः १. क्ते-
चरता वादरो यदा कमात्कमाभ्यां प्नियमाणन सर्वे लोका-
काशप्रदशाः स्पृष्टा भवन्ति तदा विज्ञयः, सृच्मस्तु तदा
विषयो यदैकस्मिन् विवक्षिताकाशखण्डके सतः पुनर्यदा
तस्यानन्तरग्रदेशच्रद्या सवं लोकाकाश व्याप्राति तदा
ग्राह्यः २, कालना बादरो यदोत्सर्पिण्यवर्सापणीसमया
ऋमोत्क्रमाभ्यां च्रियमाणनालिद्किता भवान्ति तदा विश्वेयः
सृच्मस्तूत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य क्रमण सर्वसमया त्रि-
यमान यदा छुप्ता भ्रवन्ति तदाऽवगन्तव्यः ३, भावतो
बादरो यदाऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि कमात््रमाभ्यां
स्रियमाणेन व्याप्तानि भवान्त तदाउमिधीयते, अनुभाग-
बन्धाध्यवसायभरमाणे तु सयमस्थानावासंर प्रागवाभ्यघा-
यीति, सूच्मस्तु जघन्यायुभागवन्धाध्यवसायस्थानादारभ्य
यदा सर्वेष्वपि क्रमेण सता भवति तदा.ऽवसय इति । तदेवे
कलकलीभावमापन्ना ऽन्या वा नीचेगोत्रादयादनन्तमपि का-
ले तिर्यच्वास्ते, मनुष्यष्वपि तदुदयादेव चावगीतेषु स्था-
नषूत्पद्यत , तथा--कलेकली सत्वा ऽपि द्वीन्द्रियादिषूत्पन्न
सन् प्रथमसमये पव पर्याप्त्युत्तरकाले वोच्चैगोँत्रे ठध्ट
मनुष्यष्वसर दुच्चेगोत्रमास्कन्दति, तत्र॒ कदाचित्ततीयभ-
ङ्गकस्थः पञ्चमभङ्गोपपन्ना वा भवति, तांविमौ-नीचेर्गोत्र
बध्नात्युच्चेगोत्रस्यादयः सन्कम्मता लूभयस्यति , तृतीयः
पञ्चमस्तूच्चेगेतिं वध्नानि तस्येवादयः सत्कम्मता तृभयस्य,
पष्टरूप्तमभङ्गो तृपरतचन्धस्य भवतः, अविषयत्वान्न ताभ्या-
मिदाधिकारः, तो चमो वन्धापरमे उच्चगोत्रोदयः सत्क-
स्मता तूभयस्यति षष्ठः, सप्तमस्तु शेलश्यवस्थायां द्विचरस-
समयनीचैर्गोत्रे क्षपित उच्चेगांजादयस्तस्येव सत्कम्मेतेति ।
तदेवमुच्चावचेषु गोत्रषु असकछृदुत्पद्ममाननाखुमता पश्चभ-
द्रकान्तवैर्तिना न मानो विधेयो नापि दीनतति । तया
श्चोच्चावचयोः गोत्रयोर्चन्धाध्यवसायस्थानकर्डकानि तु-
ल्यानीत्याद-'णो दीणे णो अइरित्ते' यावन्त्युच्चेर्गोच्रऽजुभाव-
वन्धाध्यवसायस्थानकरडकानि नीचेरगोतरि $पि ताबन्त्येव,
तानि च-सवीरयप्यसखुमता ऽनादिससारे भूयो भूयः स्पर्शि-
तानि, तत उच्चेगॉत्रकरडका थंतया5सुभ्ृज्ञ हीनो नाप्यति-
रङ्कः, पवे नीचेगोंत्रकाएडकार्थतया ऽपीति । नागाज्छनीया-
स्तु पटन्ति-“ एगमगे खल् जीव अईअद्धाप श्र-
सद उच्चागाप असई नीआगोए, कडगद्गयाए नो
हणे नो अइरिक्त ” पकेको जीवः खलृशब्दो वा-
कयालङ्कार अतीते कालेडसहृदुल्यावचेषु गोजेघूत्पन्नः,
स चोचचावचानुभागकण्डकापक्षया न हीनो नाप्यतिरि-
क्र इति | तथादि-उद्छगौत्रकरडकेभ्य पकभविकेभ्यो ऽनेक्भ-
विकेभ्यो वा नीचैर्गोदकरडकानि न हीनानि. नाप्यति-
रिक्रानीत्यताऽवगम्यात्कर्षापरकर्षौ न विधयो, श्रस्य चो-
पलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि मदस्थानेष्वेतदायाज्यम् । य-
तश्चोञ्चाचचषु स्थानणु कम्मंवशादुत्पद्यन्त, बलरूपला-
{®
भादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य कि कत्तव्य-
मित्याइ-- नोउपीहए ' अपिः सम्भावने स च भिन्न
कमः, जाल्यादीनां मदम्थानानामन्यतमदपि नो ईंहेता-
पि-नाभिलषदपि, श्रयदा--ना स्पृइयेत--नावकाल्लेदि-
५ 3३० )
लोगविजय . अभिधानराजन्द्रः !
ति । तत्र॒ यद्युच्चावचेषु स्थानष्वसकृदुत्पन्नोऽखुमांस्तत
किमित्याह-- इय सखाय ` इत्यादि, इतिरुपप्रदशन, इ
ति--पतत्पूर्वोक्कनीत्याच्चावचस्थानान्पादादिकम् परिस-
ख्याय ज्ञात्वा का गात्रवादी भवद् ? यथा--ममाच्चैर्गो-
त्र सर्वलोकमाननीय नापरस्यत्यवेवादी को बुद्धिमान
भवेत् ?, तथादि-मयाऽन्येश्च जन्तुभिः सर्वारयपि स्था- |
नान्यनेकशः प्राप्षपृवाणीति, तथाच्चैर्गोनिमित्तमानवादी |
या को भवत् ?, न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदी त्य थेः,
कि च-- कसि वा एग गिज्के ` अनेकशा5नकस्मिन्
स्थान ऽनुभूने सति तन्मध्य कस्मिन्वा एकस्मिन्नुच्चैगों-
त्रादिके ऽनर्वास्थतस्थानक रागादिविरहादेकः कथ गृध्य-
स् ?, तात्पर्यम्-श्रासवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात्
युज्यत गाद्ध्थ यदि त्स्थाने प्राप्तपू्व नाभविष्यत् , त-
च्यानकश प्राप्तपूर्व म् + अतस्तटला भालाभया: नात्कषा- |
पकर्षों विधेयाविति, आह च--' तम्हा ` इत्यादि, ( आ-
खा०) ( मदस्थानसंबन्धः ` मयद्वाण ` शब्द पञचमभागे
१०७ पृष्ठ गतः। ) तदेवसुच्चनीचगात्रनिर्विकल्पमनाः अ-
न््यदपि अविकल्पन कि कुयोदित्याह-- भृष्टं ` इत्यादि,
भवन्ति भविप्यन्त्यभूवन्निति च भूतानि--असुभ्रतस्तेषु |
प्रत्युपक्य-पर्या लोच्य विचायं कुशाग्रीयया शसुष्या जा- |
नीडि--अवगच्छु, कि जानीहि ?-सातम्-सुखे तद्विपरीत-
भसातमपि जानीहि, कि च कारण साताऽसातयाः?
पतज्जानीहि, कि चाभिलघन्न्यविगानन प्राणन इति, अन्न
जीवजन्तुप्राणयादिशब्दानुपयागलक्षणद्वव्यस्थ मुख्यान् वा-
चकान्वदाय सत्ताकाच्ना भूतशब्द्स्यापादाननद्मावभा- |
अयति यथा अयमुपयागलक्षणपदाथाउवश्य सचता बभात्त,
साताभिलाष्यसाते , च जुशुसते, साताभिलाषश्च शुभप्र-
ऊातत्वाद रता ऽपरासामाप शुभधरक्ृतानामुपलक्षण मत-
बुयसयम् अत शुभनामगात्रायुराद्या कस्मप्रक्रृतार नु-
घावचत्यशुभाश्य जुगुप्सत सवा ऽप प्राणा ।
पव चर व्यवस्थित सति कि विधयमित्याह-
समिए एयाणुपस्मी, तं जहा--अन्धत्त बहिरत्त भूय-
त्त काणत्त कुंटत्त खुज़त्तं वडभत्त सामत्ते सबलत्ते सह
पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ सधायह् विरूवरूवे
कासे परिसंवेयह | ( सू० ७८ )
अथवा--भृतयु शुभाशुभरूप कम्मे प्रत्युपक्ष्य यत्तेषामप्रियं |
तन्न विदध्यात्, इत्ययमुपदेशः, नागाजुनीयास्तु पठन्ति-
पुरसण सलु इक््खुत्वञ्मसहस्रप पुरुषा-- जीवः
शांमति--घाक्यालङ्कार खलुः:--अवधारण खात् |
उद्गा यस्य स द साद्वेगः, सुखस्येषकः खुखषकः, याज- |
कादित्वात्समासश्छान्द्सत्वाद्दा, दुःखोद्धगश्चासो खुखे-
चक दुःखाद्वगसुखवकः, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वग-
सुस्तेषक एव भवत्यता जीवप्ररूपणे कार्यम् , तच्चावनि-
वनपवनानलवनस्पातमसृच्मबादरायकलपसश्ान्द्रय संज्ञीतरपयां |
सकापयाप्तकरूप शस्त्रर्पारक्नायामकार्यव तषा च दुःख
परिजिद्दीर्षणां सुखलिप्सूनामात्मीपस्यमाचरता तदुपमर्द- |
कानि हिंसादिस्थानानि परिहरता55त्मा पश्चमहावतेष्वा-
स्थयः, तत्पारिपालनार्थ चोत्तरगुणा अप्यनुशीलनीयाः, तद- |
थमुपदिश्यते---' समिय एयाणुपस्सी ' पञ्चभि
समितः सन् एतलू--शुभा ऽशुभे कम्म वच्यमारो चा ऽन्धत्वा-
दकं द्रष्टु शीले यस्यत्यतदनुदर्शी भूलषु सात जानीदीति
सरटङ्कः | तजर ` सामिति ' रिति ` इण गता ` वित्यस्मात्स-
म्पूर्वांत् क्लिन्न्ताद्भधवाति, सा च पञ्चधा, तद्यथा--इ्याभा- |
पेषणा55दाननित्षपात्सग्गरूपाः , तत्रेयासामितिः-प्राण- , ^
व्यपरापणकत परिपालनाय , भाषासामतिरसदभिधाननिय-
मसंसिद्धय, एषरणासमितिरस्तयवतपरि पालनाय , शष-
दयं तु समस्तवतप्ररकृष्टस्यादहिसावतस्य संसिद्धय व्यापियते |
इति, तदव पञ्चमदाबतापपतस्तद्व्रत्तिकट्पसमितिभिः स-
मितः सन् भावत एतद्भूतसातादिकमनुपश्यति, अथवा-
यदनुदश्यसौ भवति तद्ययेत्यादिना सत्रेणव दशयति-
श्न्धत्वमित्यादिना यावत् ` विरूपरूप फास परिसंवे-
पइ ` ससारादर पयटन् प्राणी श्रन्धत्वादिका अब
यहुशः परिसवदयते । ( श्राचा० ) ( अन्धः इ ध
इति “ अन्ध ` शब्दे प्रथमभागे १०४ पृष्ठ गतम् । )
( “ बहिर ' शब्दे पञ्चमभागे १२६७ पृष्ठ बधिरवक्लचता
गता। मूकभेदाः ` जडु ` शब्द चतुर्थभाग १३८७ पृष्ठ गताः। ) |
( कारणत्वं महदःसखमिति ` काण ` तृतीयभागे ४३०
पृष्ठ गतम् । ) कुर्टत्व-- पारवक्रत्वादिकं कुब्जत्वं वाः |
मनलत्तषणे वडभत्वं--विनिगतपृष्ठी वडभलक्तणं श्या-
मत्व-कृष्णलक्षण शवलत्वम्-- श्वित्रलक्तणे सहज प-
श्वाद्भधावि वा कमस्मंवशगो भूरिशा दुःखराशिदिशीय
परिसंवदयत । कि च--खसह प्रमादेन--विषयश्री डाभिष्व- `
ङ्गरूपण श्रयस्यनुदयमात्मकन श्रनकरूपाः-सङ्कटविक-
खशीतोष्णादिभदाभिन्ना योनीः संदधाति-संधक्ते च
तुरशीतियानिलक्तषसम्बन्धाविच्छुदं विदधातीति भावः स-
म्यग् धावतीति वा , ताखु तास्वायुष्कवन्धोत्तरकाल
गचछुतीत्यर्थः. ताखु च नानाप्रकारासु योनिषु विरूपः |
रूपान् नानाप्रकारान् स्पशान्--दुःखानुभवान् परिस-
वदयत, श्रचुभवतीवयभथैः ।
पसदतां नावधारयति, हिताहिते न गणयति , शओ्रोचित्य
मिव्यनवगततच्वा मुढस्तत्रवाच्र्गोत्रादिक विपयौसखमरु, `
येति । । आह च-
से अबुज्कमाणे हओवहए जाईमरणं अणुपरियङ्मार `
जीवियं पुढो पियं इहमगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममाय। `
माणाणं आरक्तं विरत्त मशिकुंडलं सह दिरण्णेण इ |
त्थियाओ परिगिज्भति तत्थेव रक्ता न इत्थ तबो ३
दमो वा नियमो वा दिस्सइ, सपुण्णं वाले जीविउका'
लालप्पमाणे मूढे विप्पारेयासमुवेड | षू° ७६ )
“ से ' इल्युच्चेर्गोत्राभिमानी श्रन्धवधिरादिभावसंवेद्कं।
चा कम्मविपाकमनवनवुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाव्या
धिसद्भावन्ततशरीरत्वाद्धत समस्तलाकरपरिभूतत्वादुपह १
तः, श्रथवा-उच्चैर्गोत्रगर्वाध्मातत्यक्तोचितविधेयविद्धज्ञनव ॥
दनसमुज्भूतशब्दापयशःपटहद्दतत्वाद्धतः, अभिमानोत्पादि
तानेक॒भवरकाटिनी चे गों ओ दया दुप द तः, मूढो विपयौसमुपैती
ल्युत्तरण सम्बन्धः, तथा जातिश्च मरण च समाहारढन्द्रस्तद् |
झनुपरिवत्तेमानः-पुनजन्म पुनमरणमिव्यवमरदटघरीयन्त्र-
न्यायन सेसारोदर विवत्तमानः, आवीचीमरणाद्वा प्रतित्षण
ज्ञन्मविनाशावनुभवन् दुःखस्वगरावगादा विशरारुण्यपि
नित्यताकृतमतिः हिते ऽप्यदहिताध्यवसायो विपयोसमुपैति |
(जीवितस्वरूपम् 'आउ' शब्दे द्वितीयभाग ए पृष्ठे गतम् )तथा - |
क्षत्रम-शालिक्तेत्रादि वास्तु-घवलगरदादि मम इद्मित्येबमा-
, चरतां सतां तत्त्तत्रादिकं परयो भवति, कि च-आरक़म-ईंप- |
द्रक्लं वस्मादि विरक्रम्-विगतरागे विविधराग वा मणिः-इति
बत्नवेइययेन्द्रनीलादि कुएगडलम-करण्ाभररं
हिरणयेन सह |
स्त्री: परिगृह्य तत्रेव-त्तत्रवास्त्वारक्रविरत्तवख्रमणि कुरडल- |
इत्यादो रक्रा- गृद्धा श्रध्युपपन्ना मूढा विपयासमुपयान्ति,
अदन्ति च-नात्र तपो वा-अनशनादिलक्षणम् दमा वा-
इन्द्रियनाइन्द्रियो पशमलक्षणा नियमो वा-अहिंसाव॒त- |
लत्तणः फलवान् दश्यत,
न्मान्तरे भात्रष्यतातचद् व्युद्ग्रााहतस्य्यज्ञाप
रृए्ह्ानरटएकटपना च पापायसात , तदव साम्प्रतत्ता
भोगसड्विहितेकपुरुषा थंबुद्धि: संपूर्ण यथावसरसंपादित-
विषयोपभोग॑ वालः-अज्ञः
नियमो वा फलवान्
श्रवुध्यमानो हनापहतो
कराति, तद्यथा-अजतञ्र तपो दमो
न दृश्यते इत्येवमर्थ ब्रवन् सदः
ज्ञातिमरणमनुपरिवर्तमाना जीवितक्तेत्रूयादिलोभपरिमो- |
दितमनाः विपयोसमुपेति-तत्त्व ऽतच्वाभिनिवेशम् , श्रतच
च तस्वाभिनिवेशं हिते5हितबुद्धिमित्येव॑ सर्वत्र विपयय
तथादि-तपोनियमोपपतस्यापि |
कारयक्केशभागादिवश्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते , ज- |
। कि च- |
जीवितुकामः-श्रायुष्कानुभव- |
नमभिलषन् लालप्यमानः-मोगार्थमत्यधं लपन् वागद्ड |
विदधाति । उक्तं च--'* दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो ब- |
न्धनं विष विषयाः । काऽयं जनस्य मोद्दो ? , य रिपव-
स्तचु सुहृदाशा ॥ १॥ ` इत्यादे ।
य पुनरन्मज्ञच्छुभकमपादिताध्यवसायपुरसकतमो-
च्तास्त कभूता भवन्तात्याद-
इणमेव नावकंखंति,
भरण पारेन्नाय, चर संकमणे ददे ॥१॥ '' नऽत्थि का,
स्म णागमा, ( आचा० ) तं परिगिज्भ दुपयं चउ-
ष्यये अभिजुंजिया शं ससिचिया णं तिविहेण जाऽ
विसे तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहया वा, से त-
त्थ गड्डिए चिद्रड भोअणाए, तओ से एगया विविहं।
परिसिडं संभूय महोवगरणं भवद्, तं पि से एगया
दायाया वा विभयंति, श्रदत्तहारो वा से अवहरति,
रायाणो वा स विलुपंति, नस्सह वा से विणस्सइ वा से,
अगारदाहेण वा से उजञ्भड, इय से परस्स5्ट्टाए कूरा-
8 कम्माइ बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण समद वि
प्यरियासमुवेइ, युणिणा हु एयं पवेहयं , अणोहंत-
[~ एए नो य ओह तरित्तए , अर्तरंगमा एए नो य
तीरं गमित्तए, अपारंगमा एएनोय पारं गमित्तए , ,
जणा धुवचारिणो | जाई- |
( ७३१ )
अभिधानराजेन्द्रः।
लागविजयं
श्याणेज च अयाय तम्मि ठाणे न चिड् , वितं
पप्पऽखेयन्ने तम्मि ठाणम्मि चिट्ठ॑इ | ( खू० ८० )
` इणमेव ` इत्यादि , इदमव पूर्वोक्तं सम्पूरीजावितं क्षे-
बराङ्गनापरिभागादिकं वा नावकाङ्कुन्ति-नाभिलषन्ति , ये
जना ध्रवचारिणो ध्रवा-मोक्तस्तत्कारणे च ज्ञानादि ध-
वं तदाचरितुं शीले येषांते तथा, धुतचारिणो वा धु-
नातीति धुत-चारित्रं तश्चारिण इति। कि च- जार `
इत्यादि , जातिश्च मरण च समाहारद्धन्दः, तत् परिज्ञा-
य-परिच्छिद्य ज्ञात्वा चरत्--उद्युक्तो भवत् , क ?--सं-
ऋमण--संक्रम्यत $ननति संक्रमर-चारित्रे तत्र रदा-
विश्रोतसिकारहितः परीषद्ोपसरग्गैं: निष्प्रकम्पो वा, य~
दि बा-श्रशङ्कमनाः सन् संयमे चर, न विद्यते शङ्का
यस्य मनसस्तदशङ्कम् ; श्रशङ्क मनी यस्यासावशङ्गमनाः-
तपादमनियमनिष्फलत्वाशङ्कारदित श्रास्तिक्यमत्युपपत-
स्तपादमादौ भ्रवक्तेत , यतस्तद्धान् राजराजादीनां पूजा-
प्रशसाहों मवति , न चोपशमिकसुसखावाप्तफलस्य तप-
स्विनः समस्तद्वन््दवीयसो ऽसत्यपि परलोके किञ्चित्
स्तयते । उक्तं च-'* सेदिग्धऽपि परे लाक, त्याज्यमेवाशथु-
भ बुघेः। यदि नास्तिततः कि स्यादस्ति चेन्नास्ति-
का हृतः॥ १॥ ” इत्यादि। तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे
ख्देन भाव्यम् , न चेतद्धावनीयम् , यथा-परुत्परारि बृद्धाव-
स्थायां वा धम्मं करिष्यामीति, , यतः- नत्थि ` इत्या-
दि नास्ति-न विद्यत कालस्य--सृत्यारनागमः--
छअनागमनमनवसर इति यावत् , तथाहि-सो पक्रमायषो ऽसु-
मतो न काचित्साऽवस्था यस्यां कम्मपावकान्तर्वर्ती जन्तु-
जतुगोलक इव न विलीयत इति । उक्तं च--“ शिशुम-
शिशुं कठोरमकटारमपरिडतमपि च परिडतम् , धीरमधी-
रं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति
परकाशमवलीनमचतनमथ सचतन , निशि दिवसे<पि
स्रान्ध्यसमय ऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि॥ १॥ ” त-
देवं सवं कषत्व॑ सत्यारवधार्याहिसादिषु दत्तावधानेन
भाव्यम् , ( आचा० ) ( सव्वे पाणा पियाउया ` इत्या-
दीनां व्याख्या'पियजी विशब्दे पञ्चमभागे ६३६ पृष्ठ । 'श्राड '
शब्दे द्वितीयभागे ८ पृष्ठ च गता)" तं परिगिज्ज ' तदू-अ-
सेयमजीवितं परिगृह्य श्राधित्य कि कुर्वन्तीत्याद-' दुप-
ये' इत्यादि, द्वपदम्--दासीकम्मकरादि चतुष्पदम्--गवा-
भ्वादि श्रभियुल्य-याज्यत्वा अभियोगे ग्राहयित्वा व्या-
पारयित्वेत्युक्कं भवति , ततः किमित्यत श्राह-' संसि-
चियाग ' इत्यादि प्रियजीविताधमधाभिच्रद्धये दविपदच-
तुष्पदादिव्यापारण सेसिच्य--श्रथनिचयं सेवद्ध्थ ति-
विधन--योगत्रिककरणात्रकेण याऽपि काचिदर्पा परमा-
भचिन्तायां बह्वपि फल्गुदेश्या (से ) तस्याथीराम्भिणः
सा चाथमात्रा। तत्र इति-द्विपदाद्यारम्भे माता इति-
सोापस्कारत्वात्सूजाणाम् , श्रथमाग-श्रथीरपता भवति-
सत्तां विभि, कि भूता ? सा, सूत्रेणैव कथयति-श्रल्पा
या बही वा, श्रटपवहुत्वं चापक्तिकमतः सर्वाऽप्यल्पा
सव। ऽपि वही 'स' इत्यथवान तत्र-तस्मिख्र्थं ग्रद्धः-
ध्यु पपन्नस्तिष्ठति, नालाचयत्यथस्यापाजनक्रशम् , न गण-
यति रक्तणपारश्रमम् , न विवचयाति तरलताम् , नावधारय-
५~ ~
( ५३ }
असिध्ानराजन्द्रः।
लोगविजय _
ति फल्गुताम् , उक्तं च-' छमिकुःलचितं लालाङ्किन्ने विगान्धि
ज॒गुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खाद न्रार्थनिराभिषम् । सु
रपतिमपि श्वा पाश्वैस्थ सशङ्कितमीत्तत, न हि गणयति
चद्रो लोकः परिग्रदफल्युताम् ॥१५॥” इत्यादि, स च
किमथमथमथयत इत्यत अआह-- भायणाप ` भोजनम
उपभोगस्तस्मे अधथमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवत्तेंत
क्रियावतश्च कि भवर्तवत्यःद-' तञ्मा-स ` इत्यादि, तत
(स ) तस्यावलगनादिकाः क्रियाः कुचतः पकदा-ला-
भान्तरायकम्मन्तयापशमे विविधम्-नानाप्रकारम् परिशि-
प्रम-प्रभूतत्वाद्धुक्काद़रितम् , खम्भतम-सस्यकूपरिपालनाय
भूत॑ं-संवृत्ते, कि तत् १, महच्च तः परिभोगाङ्कत्वादुपकरणं
ख मदापकरणे-द्रउ्यनिचय इत्यथः, स कदाचिल्ञाभादये
भवति, श्रसाचप्यन्तरायादयान्न तस्यापभागायत्याद-* तं
पिस ' इत्यादि, तदपि समुद्रोत्तरणरोहणखननविलप्रवे-
शर सन्द्रमदनराजावलगनरूपीवलादिकाभिः क्रियाभिः स्व-
परापतापकारिणीभिः स्वापभोगायापाजितं सत्“ से ' |
तस्याथापाजनोपायङ्कशकारिणः एकदा-भाग्यक्षय दायादाः-
प्रद्नापएडादकदा नया ग्या$ विभजन्त- विलुम्पति अदत्त-
` हारा वा-दस्युवा अपहरात, राजाना वा वलम्पान्त--अवब- |
च्छन्दान्त नश्यात बा-स्वत एवाटवीतः, ' स ` तस्य वि-
नश्यात वा जीणभावापत्तः अगारदाहेन वा-गहदाहेन-
वा दह्यत, क्रियन्ति वा कारणान्यथैनाश वच्यन्ते इत्युपसं-
दरात--इत-- प्व बहुभिः प्रकारेरूपार्डिजतो ऽप्यर्थो नाश-
मुपेति,नंवापाज्नायितुरुपतिष्टत इत्युपदिश्यते । सः-श्रधस्योा-
त्पादायता परस्म-ञअनन्यस्म श्रथाय प्रयोजनाय अन्यप्रया- |
जनक्रत क्रृराण-गलक्त्तनादीनि कस्माोाश अनुछाना।न
यालः- अज्ञः प्रकुवाणः-विदधानः तन-कम्मंथविपाकापादि-
तन दुःखन-असातादयन समदः श्रपगतविधक
पयासमुर्पात-श्रपगतसदसद्धिवकन्वात्कायंमकायं मन्यते व्य
व्यय चति । उक्तं च-“ रागद्वेषाभिभूतत्वा-त्कायांकार्य-
पराङ्मुखः । एप मूढ इति ज्ञया, विपरीतविधायक
तदव माढ्यान्यतमसाच्छादितालाकपथाः सुखार्थिना दुः-
खम्तच्छान्त जन्तव इत ज्ञात्वा सर्वक्ञवचनप्रदीपमराषपदा-
धस्वरूपाविभावकमाललाम्बिरे मुनयः, शरदश्च मया न स्व-
मनीपिकयाच्यत खुधम्मंस्वामी जम्बुस्वामिनमाह, यदि
स्वमनीपिकया नाच्यते कोातस्त्यं तर्दीदमित्यत श्राद-“ मु-
णिणा ` इत्यादि, मनुत जगत॒खिकालावस्थामिति मुनिः-
तीथकृत्तन .पतद्- श्स्कृदुच्चेर्गो्रभवनादिकं प्रकर्पेणादो
वा सवस्वभावानुगामिन्या वाचा वदित-- कथितं वक्ष्यमार
च प्रवादतम् , के तदित्याह-अणाहं' इत्यादि, श्राधा द्विधा
द्रत्यभावभदात् , द्रव्योघो नदीपूरादिको, भावाघा 5एप्रकारं
कम्मं ससारा वा, तन हि पारायनन्तमपि कालमुद्यत, तम्-
आधघ ज्ञानद्शनचा रित्रवाहित्थस्थाः तरन्तीत्याघन्तरा नश्रा-
घन्तरा अनाघन्तराः, तरतश्छान्द्सत्वात् खश् , खित्वान्मु-
मागमः, एने कुतीर्थिकाः पाश्वस्थादया वा ज्ञानादियानवि-
कलाः, यद्यपि तऽप्योघतरणायाद्यतास्तथापि सम्यगुपाया- |
ना य|
भावात् न न आधघतरणसमथो भवन्तीति । आह च-
श्राह तारक्षएण” न च-नंव झोघे-भावोघे तरितुं समर्था
ससाराघतरणप्रत्यला न भषन्तीत्यथैः, ( श्राचा०) ( ' श्र-
तीरंगमा ` इत्यादिकस्य व्याख्या ' अतीरंगम ' शब्दे प्रथम-
वि- |
॥ १॥” |
|
|
|
् नै
भाग ४६८ पृष्ठ । अपारंगम › इत्यादिकस्य व्याख्या चं
अपारगम ` शब्द तास्मन्नव भाग ६०६ पृष्ठ गता । )
अथ तीरपारयोः का विशष इति, उच्यत-तीरम् -मोहर
नीयक्षयः, पारे-शषधघातित्षयः, अथवा-तीरं-घातिचतुएट-
यापगमः, पारं भवोपग्राह्ममाव इत्यथः, स्यात्-कथमोः
घतारी कुतीथोदिको न भवति तीरपारगामी चेत्याह-
आयाशिज़ ` इत्यादि, श्रादीयन्त- गृह्यन्त सर्वभावा अ
ननेत्यादानीये-श्चत तदादाय तदुक्त तस्मिन् सयमस्थानि
न तिष्ठति, यदि वा-आदानीयम्-आदातव्य भागाङ्गं द्वि
पदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि तदादाय--गृदीत्वा, श्रथ
वा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेरादानीयं-कम्मीदाय ,
क्रिभूतो भवतीत्याद-तस्मिन--ज्ञानादिमये मोक्षमाग्गँ स-
म्यगुपदेश वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति--नात्मान बि-
धत्त, न केवले सर्वज्ञाप्रदेशस्थाने न तिति, विपर्यया
नुष्ठायी भवतीति दशयति-- वितं ` इत्यादि, चित
थम्-त्रसद्धूतं दुगेतिदेतु तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्य श्रखद-
--अकुशलः खदज्ञा बाऽसयमस्थान तस्मिश्च सामप्र-
तच्याचरित उपदिष्टे वा तिष्ठति, तत्रैवासंयमस्थानऽध्यु-
पपन्नो भवतीति यावत् , श्रथवा--वितथमिति श्रादानी-
यभोगाहृव्यतिरिक्ल सयमस्थाने तत्प्राप्य खदज्ञा निपुणस्त-
स्मिन्स्थाने श्मादानीयस्य हन्तृणि तिष्ठति, स््ञाज्ञायामा-
त्मानं व्यवस्थापयतीत्य्थः ।
श्रयं चापदेशो प्रतवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवत्त-
मानस्य दीयते, यस्त्ववगतहया पादयविशषः स यथा$
खसर यथाविधय स्वत पव विधत्त इत्याह--
उदेसोपासगस्स न5त्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने
असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमव आवइं अणुपरियद्वइ।
्तिवेमि। (० ८१)
उदिश्यते इत्युदेशः-उपदेशः सद सत्कर्तव्यादेशः स प-
श्यतीति पश्यः स एवं पश्यकस्तस्य न विद्यते, खत
एव विदितवंद्यत्वात्तस्य अथवा पश्यतीति पश्यकः-
सर्वज्ञस्तदुपदेशवर्ती वा तस्य, उदिश्यत इत्युदेशो-नार-
कादिव्यपदेश
थोपदेशकारी न भवति, इत्याह--' बाले ` इत्यादि, बालो ¦
शाम रागादिमोहितः सः पुनः कषायैः कम्मभिः परी-
घहोपसर्गेवो, निहन्यत इति निहः निपूर्वाद्न्तेः कम्मणि ¦
डः । शथवा-स्नह्छत इति स्निहः स्नदवान् रागीत्यथैः, |
अत एवाहर- कामसमणुण्ण ` फामाः-इच्छामदनरूपा /
सम्यग्मनाज्ञा यस्य स तथा, अथवा-सदह् मनाश्ैवेत्तेत |
इति समनोह्ञो गमकत्वात्सापेक्षस्थापि समासः, कामैः सह ।
मनोज्ञः कामसमनोज्ञः, यदि वा-कामान् सम्यगनु-प- .
आात्स्नदानुबन्धाञजानाति सवत इति कामसमनाज्ञः, पवे- `
भूतश्च किभूतो भवतीत्याह-' श्रसमियदुक्खे ' शअशमितम्-
श्रजुपशमितं विषयाभिष्वङ्गकपषायोन्थ दुःखे येन स तथा, |
यत पएवाशामतदुःख अत पव दुःखी शारीरमानसाभ्यां |
दुःखाभ्याम् , तत्र शारीरं करटकशसख्रगरडलूताद समुत्थम्
मानस प्रियविप्रयागाप्रियसेप्रयोगेष्सितालाभद्रारिद्रधदोभा- ,
उच्चावचगोत्रांदिव्यपदेशो वा सतस्यन
चद्यत, तस्य द्रागेव माक्तगमनादिति भावः । कः पुनर्य- |
|
+
।
ग्यदोर्मनस्यकृत तद्विरूपमपि, दुःखे विधते यस््याउसों | ५५
“इत्यता
( ७३३ )
लोगविजय
दुःखी, एवेभूतश्च सन् किमवाप्नोतीत्याह-' दुक्खाणे ' इत्या
दि. दुःखानां शारीरमानसानामावत्त पानःपुन्यभवनमनुप-
रिवत्तेते दुःखावर्त्ावमझो बंशभ्रम्यत इत्यथः । इतिः परिस-
मांप्तों ब्रवीमीति पूवेवत्। आचा० १ श्रु० २ अ० ३ उ० ।
( भागसखवक्रव्यता ' भागसुह ` शब्द पश्चमभाग १६०६
पृष्ठ गता ) ( `` जमिणं ` इत्यादानि सूत्राणि ' आरंभ
शब्द द्वितीयभाग ३६५ पृष्ठ गतानि | )
परिग्रहादात्मानमपसमप्पयदिन्युक्घ. तश्च न निदानाच्चृदम-
न्तरेण, निदान च शब्दादिपञ्चगुणानुगामिनः कामाः, तषां
चाच्चेदा ऽसुकरः. यत श्राह-
कामा दुरतिकमा, जीवियं दुप्पडिबृहगं, कामकामी ख-
छु अय पु रस,स सायइ जूरइ तप्पइ प।रतप्पइ । (ष् ६२)
कामा दविधाः- इच्छाकामा, मदनकामाश्च । तवच्छाका-
मा माहनीयमभदहास्यरत्य॒द्धवाः,
नीयभदवदादयात् प्रादुःष्यान्त, ततश्च द्विरूपाणामपि का-
मानां माहनीय कारणम्, तत्सद्धाव च न कामाच्चुद्
दु.खनातिक्रमः--ञअतिलङ्घने विनाशा यषां त
तथा, ततच्चदमुक्कं भवति-न तत्र प्रमादवता भाव्यम। न
केवलमत्र जीवित $पि न प्रमादवता भाव्यमिति, श्राह च--
* जीविये
* दुष्प्रतिबृहणीये ` दुरभावार्थ, नेव द्ध नीयत इति याव-
त्,
कामानुपक्कजनान्तवत्तिना दुःखन बृद्धि नीयत दःखन नि-
ध्य्युदः सयमः प्रतिपास्यत इति, उक्रं च-' आगास गग-
र्उञ्व, पडिसाउ व्व दृत्तरा। । वाहाहि चव गभीरा.तरश्र-
व्वा महाअही ॥६॥ चालृगाकवला चव. निरासाप हु सजमो ।
जवा लादमया चव, चाययव्वा खुदुक्कर ॥ २॥ ` इत्यादि,
यन चाभिप्रायेण कामा दुरतिक्रमा इयात प्रागभ्यधायि तम- |
भिध्रायमाविप्कुवन्नाद-- कामकामी ` इत्यादि कामान्
कामयितुस--अमभिलपितुम शीलमस्यति कामकामी “ ख-
लः ` वाक्यालङ्कार ` श्रयम् ` इत्यध्यक्षः पुरुषः-- जन्तुः, य-
स्त्ववविधाऽविरतचताः कामकामी स नानाविधान् शारी-
रमानसान दु.खविशपाननुभवतीति दशयति--' से सा
यई ` त्यादि,
तद्वियोग च स्मरत्यजुषङ्गः शाकस्तमनुभवति, अथवा-
शाचत इति काममदाज्वरगहीतः सन् प्रलपतीति, उक्तं च-
^“ गत प्रमावन्ध प्रणयवहुमान च गलित, निवृत्त सद्भाव |
जन इव जन गच्छति प॒रः । तमु्प्रच्यात्प्रच्य प्रियसखि ! |
गतांस्तांश्च दिवसान् , न आन का हतुदलति शतधा यन्न |
हृदयम् ? ॥ १ ॥ ” इत्यादि शाचत, तथा ' जूरइ ' त्ति हृद-
अन खिद्यत, तच्च था--“‹ प्रथमतरमथदं चिन्तनीय तवासी-
द्वह जनदयितन प्रम कृत्वा जनन । हतहदय ! निराश !
~“ [न क छ ऋ ^~ |
ङ्गव ! संतप्यस कि ?, न दि जडगतताय सतुवन्धाः क्रिय- |
न्ते ॥ १॥ ” इत्यवमादि, तथा 'तिप्पइ' त्ति तिप तप्र प्रक्तर-
णार्थी, तपत--क्षराति सञ्चलति म्यादाता भ्रश्यति निर्म-
- भवतीति यावत् , तथा शारीरमानसे दुःखः पीड्यते-
तथा पारः--समन्ताद्रहिरन्तश्च तव्यते--परितप्यत. पश्चा-
क्षाप वा कराति, यथष्ट पत्रकलत्रादौ कोपात् कचिद्रत स
मया नानुवत्तित इति परितप्यत, सर्वाणि चैतानि शाच-
र =
अथिधानराजन्द्रः
यत्नतः परिडतन | आतिरभसकृतानां ,
मदनकामा श्रपि माह- |
` इत्यादि, जीवतम-आयुष्के तत् ्तीण सत्-
थवा--जीवित--सयमजीवत तदप्प्रतिवृहणीयम् , |
|
इात--क्एमक्रामा इप्सतस्याथस्याप्राप्ता
| लागविजय
नि विषयविषावष्रन्धान्तःकरणानां दुःखावम्थासस्-
चकान, अथवा--शाचत इति यावनथनमदमाहानिभृत
मानसा विरुद्धानि निषव्य पुनव्रयःपांरणामन सृत्युकाला-
पस्थानन वा माहापगम सान कि मया मन्दभाग्यन पूव
मशरपाशष्टाचीणः सुर्गातगमनकदहतु दुगांतद्वारपारध्रा धम्मो
नाचीणः ? इत्यव शाचत ईन । उक्तं च--* भावत्री भृतानां
पारणातमनालाच्य नियतां. पुरा यद्यत् किश्विरत्वाहतमशु्
योंवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलाककगमन, तद-
वेकं पुसां व्यथयति जराजीरवपुपाम् ॥ १ ॥ ” तथा
जूरतीत्यादीन्यपि स्ववु याजनीयानि । उकं च--
ˆ सगुणमपगुण वा कुवता कार्यजाते , परिणतिरवधार्या
कम्मणामाविपत्त-
भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ ६ ॥ ” इत्यादि ।
कः पुनरव न शाचत इत्याद--
आययचक्खू लोगविपस्सी, लागस्स अहा भागे जाणइ
उड् भाग जाणई तारय भाग जाणर्, गाइए लाए अ-
शुपरियडमाण संधि विइत्ता इह मचिएहिं , एम वीरे
पसासए ज बद्ध पाडमायए, जहा श्रतो तहा बा।ह, जहा
बाह तहा अता, अता अता पइ दहतराण पासइ पुढा-
वि सवताई पाडणए पडिलहाए । ( स्ू० &३ )
श्रायत--दीघभहिकामुष्मिकापायदशि चक्ुः--श्ान यस्य
स आयतचक्षु: . कः पुनारित्यवंभूतो भवति ? यः कामा
नकान्तनानथरभूयष्ठान् परित्यज्य शमसुखमनुभवति , कि
च--' लागविपस्सी ` लाक-विषयानुषङ्गावशाक्षदुःखाति-
शय तथा त्यक्ककामावाप्तप्रशमसु्ख विविध द्र शीलम-
स्यति लाक्रविदरशी, श्रथवा--लाकस्य ऊद्धीधस्तिय॑गभा-
ग्मातकारणायुष्कस्ुखदुः खविशषान् पश्यतत , पतदश-
याति--' लागस्स ' इत्यादि , लोकस्य--धर्माधमास्तिका- ,
यावच्छिन्नाकाशखण्डस्याघाभागं जानातोति, स्वरूपतो 5व-
गच्छाति . इदमुक्ल भवाति--यन कर्मणा तज्रोत्पद्यन्ते5सुम
न्तः यादक् तत्र सुखदुःखविपाकरा भवति तं जानाति , ए-
वमृद्धंतियैग्भागयारपि वाच्यम्. यदि वा-लोकविदर्शी-
ति--कामाथमथों पार्जनप्रसक्क गृद्धमध्युपपन्न लोकं पश्य-
तीति । पतदेव दशायतुमाह--* गह्िए् ` इत्यादि, श्रयं हि
लाका गृद्ध:-अ्रध्युपपक्षः कामानुषङ्ग तदुपाय वा तत्रै
वानुपरिवक्तषमाना भूया भूयस्तदेवाचरस्तज्ञानतन वा क-
म्मणा संसारचक्र ऽनुपरिवत्तमानः--पयरन्नायतचक्षुषा गो-
चरीभवन् कामाभिलापनिवत्तनाय न प्रभवति ?, यदि
वा--कामग्रुद्धान् संसारेऽनुपरिवक्तमानानसुमतः पश्यत्य-
वमुपद्रशः, अपि च--'संधिम्' इत्यादि , इद मर्त्यषु--मनु-
जघु या ज्ञानादिको भावसन्धिः, स च मर्स्येष्वव सम्पू-
णा भवतीति मच्यग्रहणम् ; श्रतस्त विदित्वा या विषय-
कषायादीन् परित्यजति स एव वीर ईत दशयति-प-
स ` इत्यादि, एपः--अनन्तराक्तः आयतचक्षुय धावस्थित-
लाकावभागस्वभावदर्णी भावसन्धवंत्ता परित्यक्रविष्रयतषां
वीरः कम्मव्रिदारणात् प्रशसितः--स्तुतः विदिततच्वे-
रिति । स एवेभृतः किमपरं करोतीति चदित्याह--'जे
बद्ध ' इत्यादि या बद्धान द्रव्यभाववन्धनन स्वता विमु-
क्राऽपरानपि मोचयतीत्यतदृव द्रव्यभाववन्धनविमात्त बा-
नादान
( ७३४ )
लोगविजय
चोथुकत्या 5 *चंए--' जहा चरता तहा वाहि ` इत्यादि, य
थाऽन्तभौववन्धनमणप्रकारकर्मनिगडने माचयाति एव पु-
सकलत्रादि बाह्यापि, यथा वा वाह्य वन्धुवन्धन माच-
यलि एवं माक्तगमनविधष्नकारणामान्तरमपीलि , यदि वा-.
कथमसौ माचयतीति चत्तत्वाविर्भावनन , स्यादतत्-त-
दव किभतमित्याह-- जहा श्रता ` इत्यादि। यथा--स्व-
कायस्यान्तः--मध्य ्रमध्यकनर्लापशिताखकपृव्यादिपूसी-
त्वनासारत्वमियवे वदिरत्यसारना द्रण्व्या, श्रमध्यपृरी-
घटवदिति | उक्रच--
दषटिभनत् । दगडमादाय लाकाउयम् , शुनः काकांञ्च बार-
यत् ॥ > ॥
पीति । कि च--' अता अता ` इत्यादि. दहस्य मध्य मध्य
धृन्यन्तराणि--पुर्तिविशषान् दहान्तराणि--दटस्यावम्था-
विरापान् इह मांसामिह रुधिरमिद मदा मज्ञा चलत्यवमा-
दिपूातदहान्तराणि पश्यति-यथावस्थितान परिछिछुनात्ति
इत्युक्तं भवति । यादि वा-देहान्तरागयवेभूतानि पश्यति-' पु-
दा ` इत्यादि. प्रथगपि-प्रत्यकर्माप अपिशब्दादू-कुष्ठाद्य-
लस्थायां योगपचतापि सर्वान्त न्वाभिः श्रानाभः-कर्णा-
त्िमलश्लष्पलालाप्रश्रवणाच्चारादीन् तथा-अपरव्याधि-
विशेषापादितव णसुखपूतिशाणितरासिकादीनि चति । यद्य- `
तानि ततः किम ?-' पाडण् पडिलहाए ` णनान्यवंभूता-
{नि गलच्द्धातात्रणरामक्रपान पागडतः:-अचग ततत्त्व प्रत्यु
पतच्तल-यथावबास्थतमम्य स्वरूपमवगन्द्द़ात । उक्त च-
& मसाटुरा हग्ाहा रुव-णद्भधकलम लय मय मज्जासु पुष्म्मि
चम्मक्रास. दृगगच अखसुइबाभच्छ ॥?॥ सनचाारमजतगल-
सव्च्चम॒त्ततसअ्रपुप्लास्म । दृह हज्जा क्र रा-गकारण शः
स्वृरहउाम्म.॥२॥ द्रत्याद |
तदवे प्रुतिदहान्तराणि पश्यन पृथगपि स्र
वन्तीत्यवे प्रल्युपच्य कि कुर्यादित्याह-
म महम परिन्नाय मा य हू लालं पासी, मा तेसु तिरि-
च्छमप्पाणमावायण्, काम कास खलु त्रयं पुरिसे, बहुमाई
कडेण मृे,पुण। तं क लेहं वरं वंह अप्पणो | (मू०६४
स--पुवाक्रा यातमातमान्--श्रतसस्क्रृतवुद्धियंथावस्थितं
हहस्वरूप कामस्वरूप से द्वावधया<पि पारज्ञया पारज्ञाय
कि कुयादित्याह-' मा य हु ' इत्यादि, मा-प्रतिषधे चः स-
मन्चय , हुवाक्यालकार , ललतात लाला अज्॒व्यन्मुख-
श्लष्मसन्ततिः तां प्रत्याशतु शीलमस्यति प्रत्याशी, वाक्या-
थस्तु यथा दह बाला नगगतामाप लाला सदसाद्रवका-
भावात पुनरप्यक्षातीत्यव॑ त्वमपि लालावच्यक्त्वा मा भो- ,
गान् प्रत्यशान् , वान्तस्य पुनरप्याभलाष मा कुर्वित्यथः।
कि च-' मा तेसु तिरिच्छे ' इत्यादि संसारश्रोतांसि अज्ञा-
नाविरतिमिथ्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वा
अतिक्रमणीयानि, निर्वाणश्रातांसि तु ज्ञानादीनि तत्रानु-
कुल्ये वध्यम् , मा तष्वानमाने तिरश्चीनमापादयः, ज्ञानादि
कार्य प्रतिकुलतां मा विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यम् ,
प्रमादवांश्चहव शान्ति न लभत, यत आह-' कासकास '
इत्यादि, या हि ज्ञानादिश्रोतास तिरश्चीनवर्ती भागाभि-
स्गापवरन् स एवंभूतो 5ये पुरुषः स्वेदा कि करञ्यताकुल
आभधानराजन्द्र: |
याद नामास्य कायस्य, यदन्नस्त- `
दति, यथा वा बरहिरसारता तथाऽन्तरे- |
लोग |
इदमह मकापैमिदे च करिष्य इत्यवे भागाभिलाषक्ियाव्या-
पृतान्तःकरणो न स्वार्थ्यमनुभवति, सखलुशब्दो ऽवधारण्,
वनमानकालस्यातिसृच्मत्वाद सञ्यवहारित्वमतीतानागतया-
चदमटमकाषपमिद च करिष्य इत्यवमातुरस्य नास्त्येव
स्वास्थ्यमिति । उक्तं च-'' इदं तावत् करोम्यद्य, श्वः कन्ती-
ऽस्मीति चापरम् | चिन्तयन्न कार्याणि, प्रत्याश नावबु-
ध्यत ॥ १ ॥ " श्रत्र दधिघारिकाद्रमकदण्रान्ता वाच्यः, स
चायम्-द्रमकः कश्चित् क्चिन्मदहिषीरक्तणावाप्तदुग्धः तहधी-
क्न्य चिन्तयामास, ममातो घृतवतनादि यावद्धाया
श्रपत्यात्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पार्ष्णिप्रहारंणव दधिध-
टिकाव्यापर्तिरित्यवे चिन्तामनारथव्याकुलाकृतान्त करण
इति, तदछत्थयानयन शिरोविण्टलिकाची वर अदीयमान इव
शिरा विधूयास्फाटिता दधिघाटिकेत्येवे यथा तेन न तद्दांघ
भक्तितं नापि कस्मेचित्पुरयाय दत्तम् , एवमन्यापपि कासे-
कसः-किकत्तव्यता मूढो निष्फलारम्भा भवतीति। अथवा-क-
स्यतऽस्मिश्निति कासः-सेसारस्त कषतीति-तदमिमुखा या-
तीति कासकषः, या ज्ञानादिश्रमादवान् , वच्यमाणो वत्याह-
` बहुमायी' कासकषा हि कषाये भवति, तन्मध्यभूताया मा-
याया ग्रहण तपामपि ग्रहणे द्र॒ष्टग्यमिति. ततः क्राधी मानी
मायी लाभीत द्रट्यमिति । । अपि चर कडण मूढं क
रगो कृते तन मूढः- कि कत्तव्यताकुलः खुखार्थी दुःख
मश्नुत इति । उक्कं हि-' साड सावणकाल, मज्जणकाल य
मज्जिउ लाला । जमउच वराश्रा, जमणकाल ण चाए-
इ ॥ १ ॥ ” श्रत्र मम्मणवणिगदण्ठान्ता वाच्यः, स चवम-
कासक्यः बहूमायी कृतन मदस्तत्तत्करात यनात्म-
ना वेरानुषङ्गा जायत इति । | आह च- पुणा ते करेइ-
व्यादि. मायावी परवश्चनवुद्ध्या पुनरपि तल्लाभानुष्ठाने
तथा करोति यनात्मना वेरं वद्धत । अथवा-तं लाभ
करोतीति-अजैयाति यन जन्मशतप्वपि वैरं वद्धत इति ।
उक्रच- "` दुःखात्तेः सेवत कामान्, सवितास्त च दुः
सखदाः । यदि ते न प्रिय दुःख, प्रसङ्गस्तयु न क्षमः ॥ १॥
कि पुनः कारणमस्ुमांस्तत्करोति यनात्मना वैर
वद्धते ? , इत्याह-
जमिण परिकहिज़इ इमस्म चेव पडिवृहणयाए, श्र-
मराय महासड़ी अटमय तु पाए अपरिपाए कंदइ ।
( प्रू० ६&४ >)
* ज़मिण ` मित्यादि. यदिति यस्मादस्यैव विशराराः
शरीरकस्य परिवृदेणाथ प्राणध्रातादिकाः क्रयाः करा
तीतिः त च तनापहताः पाणिनः पुनः शतशो घ्नन्ति, त~
ता मेयदे कथ्यते कासेकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी
कतन मृदः पुनस्तत्करोति यनात्मनो वैरं वद्धयतीति
यदि वा-यदिदे मयापदेशध्रायं पोनःपुन्येन ` कथ्यते
तदस्यैव सयमस्य पारवृहणाधम्, इदं चापरं कथ्यत
' श्रमराय ` इत्यादि, अमरायते-अनमरः सन द्रञ्ययौ
वनप्रभुत्वरूपावसक्ला 5डमर इवाचरति अमरायते , का
सो ?-महाश्रद्धी-महती चाना श्रद्धा च महाश्रद्धा सा
विद्यत भागषु तदुपायेषु वा यस्यस तथा श्रतरादा-
हरणम् । ( मगघसलना गाणिका तदवृत्तम ` मगहभ्णा
शदे "रस्मिकेव भागे ३७ गृ गतम् । ) य्श्ञामगायप्राए
~
-----~+
3
`
लोगविजश
काममोगाभिलापुकरः ख किभूतो भवतीत्याह- ` अट्ट इ-
त्यादि, आकत्तः-शारी रमानसीपीडा तत्र भव श्रात्तस्त
१
मात्तेममरायमाएं कामाय श्रद्धावन्तं प्रेच्य--दृष्टा
प्रयोालाच्य वा कामार्थयान मना विधयमिति , पुनर-
मरायमाणभागश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते-' अपरिज्नाए `
इत्यादि , कामस्वरूप॑ तद्धिपां$क वा परिज्ञाय तत्र
दत्तावधानः कामस्वरूपापरिज््या वा ऋन्दते भोगष्व-
प्राप्तनएपु काज्लाशाकावनुभवतात ॥ क्र, चिन्ता- |
गत भवात साध्वसमान्तक्रस्थ मुक्त तु तापराथ-
का रामतउप्यतापत । द्वपा5न्यभाज वशचातन दग्ध-
मानः, प्राप्ति: सुखस्य दायते न कर्थच्निदस्ति ॥ १॥ ""
इत्यादि ॥
तदवमनेकधा कामविषाकमुपदर्श्य उपसटरति-
सतं जाणह जमह नेमि, तेइच्छे पंडिए पवयमाणे
म हंता चित्ता भित्ता लुंपित्ता विज्ुपदत्ता उदवहत्ता |
अकडं करिस्सामि ति मणणमाने, जस्स विय शं करइ
अलं बालस्म सगेण, ज वामे कारइ बाल, ण एवं
अणगारस्स जायति ति बेमि | ( सू० ६५ )
"स्र `नि तदर्थे तदपि हेत्वर्थ , यस्मात्कामा दुःखे-
कहतवः तस्मात्तजानीन यदहं व्रवीमि, मदुपदेश कामप-
रित्यागविषये कर्ण कुरुतति भावाधः, । ननु च काम-
निग्रहा पत्र चिकीर्षितः स चान्यापदशादपि सिद्धधत्येबेतदा- |
शद्॒द्याह--'तइच्छे इत्यादि, फामसचिकित्सां पणिडतः प-
रिडताभिमानी
अपरस्तीर्थिको जीवापमदं वत्तेत इत्याट-'स हंता' इन्यादि,
"स" इत्यावदिततच्वः कामचिकित्सापदेशकः प्राणिनां हन्ताद्
ण्डादिभिश्छत्ता कणादीनां, भत्ता सूलादिभिलेम्पयिता ग्र-
न्थिच्छुदनादना, विलुम्पयिता श्रवस्कन्दादिना. अपद्रावायि
ता प्राणव्यपरापणादिना, नान्यथा कामाचिकित्सा व्याधि-
चिकित्सा वा अपरमाथदशां सपद्यत । कि च-शअछते
यदपरण न कृत कामचिकरिल्सन व्याधिचकिल्सन वा त~ |
ददं करिष्य इत्यचं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करो-
ति, ताभिश्च कम्मवन्धः. श्रता य पवभूतमुपदिशति य-
स्याप्युपदिश्यत उभयारप्यतयोरपशथ्यत्वादकार्थमांत । आह
च--' जस्स विय णे ' इत्यादि. यस्याप्यसावेवंभूतां चि-
कित्सां करोति न कवले स्वस्यत्यपिशब्दाध्रस्तयाद्वैयारपि
कतुः कारयितुश्च हननादिकाः क्रियाः, अतो5लम-पए्याप्त
बालस्य--श्रज्ञस्य सङ्गन कस्मवन्धदतुना कत्तरिति, याप्य
तत्कारयति बालः-श्न्नस्तस्याप्यलमिति सट ङः | एतच्चैव-
भूतम पदशदाने विधान वा अवगततत्त्वस्य न भवती-
त्याद-'ण प्व इन्यादि, प्वभूत प्रारयुपमर्न चिकि-
त्सापदशदान करणं वा अनगारस्य-साथाः ज्ञातससा
र्स्वभावस्य न जायत-न कल्पत, य तु कामचिकित्सां
ब्याधिचिकित्सां वा जीवापमर्देन प्रतिपादयन्ति त बालाः-
। = : तषां वचनमवधघीरणी यमवति भावाथः। इतिः
परिसमाप्त्यर्थ ब्रवीमि चूववदिति । उक्तः पञ्चमादेशकः।
सेयमदेहयात्राथ लोकमनुसरता साधुना लाके म--
प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवापदिशन् |
4 ७२५ )
अआनघानराजन्द्रः |
स्ताग्ाकेजय
मत्वं न कतेव्यमित्यदशार्थाधिकाराप्भिहितः , साधुना
प्रतिपाद्यत, अस्य चानन्तरसृत्रलवन्धा वाच्या नवमनगा-
रस्य जायत दृत्याभिद्वितम , एतदेबात्रापि प्रतिपिपादायि-
षुराह-
सतं संबुज्कमाण अ।याणाय समुद्ठाय तम्हा पावके
म्म नेव कुज्ञा न कारवेज़ा । ( मू० ६६ )
यस्यानगारस्येतत्पूवोक्क न जायत साऽनगारस्तन्- धा-
रयपध्रातकार.चाकन्सापदशदानमनुष्टान वा सवुद्धधमानः-
अवगच्छुनकर्पारज्ञयाप्रत्याख्यानपारज्ञया च पारदरन्नादात-
व्यम-श्रादानीयम् : त्च परमार्थता भावादानीय ज्ञानदर्श-
नच्चारिच्ररूपं तद् * उत्थाय ` त्यनकार्थत्वादादाय-ग्रहीत्व। ,
आअथवा-साउनगार इत्यतदादानीयम--क्ञानादयपवरैककार-
णमित्यवं सम्यगववुद्धधमानः स्म्यक् सयमानुष्ठाननान्धा-
य सव सावदय कम्म न मया क्तव्यमित्यवं प्रतिज्ञाप-
न्दिरमारुद्य, क्त्वाप्रन्ययस्य पूवकालाभिर्धायन्वान् कि कु-
योदित्याह-' तम्टा ` इत्यादि यस्मात् सयमः--स्वसावद्या-
रम्भनिवृत्तिरूपः तस्मात्तमादाय पापे पापहतुत्वात् , कम्म-
क्रियां नकुयात् स्वना मनसाऽपि न समनुजानीयादन्यव-
धारणफलम्, च्रपरणाऽपिन कारयदिति ' आह च-न का र-
बे इत्यादि, अपरणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भ न कार-
यदित्यक्न॑ भवति, प्राणातिपातस्रपावादादत्तादानमधुनप-
रिग्रहक्राधमानमायालाभरागद्वपक लहा भ्या ख्या नप शून्य प -
एरिवादारतिर्रतिमायास्पावादमिथ्यादर्शनशल्य रूपम प्रा द --
शप्रकारं पापे कम्मं स्ता न कुयांन्नाप्यपरेण कारयद्
पवकाराञ्च अपरं कुर्वन्तं न समनुजानीयादोगत्रिकेणापीति
भावाथेः ।
स्यादतत्-किमकं प्राणातिपातादिक पापे कर्वताऽपरम-
पि ढोकते श्चादाखिन्नत्याद-
सिया तत्थ एगयरं विपरामुभइ छस॒ अन्नयरम्मि, कष्पर
सुहड्ढी लालप्पमाण, सण्ण दुक्वेण मृदं विपरियासषु-
सएण पिप्पमाएण पुढे वयं पकुव्यइ, जसि मे पाणा
पव्व्राहया, पाइलहाए ना ततकरणयाए, एस पारन्ना
पवुचट्, कम्मोवसं (ति । ( सू० &७ )
स्यात्तत्र-कदाचित्तत्र पापारम्भे पकतरं पृथिवीकाया-
दिसमारम्भ विपरामशाति-प्रृथियीकायादिसमा रम्मभ कराति,
पक्रतरं वाऽ ऽश्रवद्वारं पलम्रशति--आरमत स॒ षटम्ब-
न्यतर स्मिन् कल्प्यत, यां स्मन्नवालाच्यते तस्मिन्नेव भत्रता
दर्रव्यः, इदमुक्तं भवाति-प्रथिवीकायादिषु षपद्खु जीव-
निकायपष्वाश्रवद्धारेषु वा मध्यन्यतरस्मिश्नपि प्रवत्तमाना
यस्मिन्नव पर्यालोच्चत तस्मिन्नव कल्प्यत, सर्वस्मिन्नव
वस्त इति भावाथेः । कथमन्यतरस्मिन् प्रथिवीकायादिस-
मारम्भ वस्तमानाऽपरकायसमारम्भः सर्वपापसमारम्भ वा
चत्तत इत्येवे मन्यत ?, कुम्भका रशालोदकप्लावनदष्टान्तेन क -
कायसमारम्भकाऽपरकायसमारम्भका मवति । श्रधवा-
प्राणातिपातास्त्रवद्धा राविघटनादे क जी वातिपा तादेकका या ति-
पातादा अपरजीवातिपाती द्र॒ष्टव्यः, प्रतिज्ञालापाश्ान्रतः ।
नच तन उ्यापाद्यमाननासुमता 55-मा व्यापादकाय देल-
( ७३६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
_लोगविजय
स्तीश्रकरण च्रानुज्ञाताऽनः प्राणिनः प्राणान ग्रह्नन्न दत्तग्राही,
सावद्यापादानाच्च पारियग्राहिकः, परिग्रहाउच मैथुनरात्रि-
भाजन श्रपि ग्रहीत, यता नापरियृद्दी तमुपभुज्यत परिभुज्य-
त चत्यता 5न्यतरा रस्भे पराणामप्यारस्सः । अथवा--अना-
वुतचतुराभश्रवद्धा रस्थ कथ चतुर्थपष्ठ॒श्बतावस्थानं स्याद् £,
अतः पटस्वन्यतरास्मिन प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, श्रथ
वेकतरमपि पापसमारम्भ य आरभते स षटुस्वन्यतर-
स्मिन् कटपन-याग्यो भवति . अकर्तब्यश्रवृत्तत्वाद् ,
श्रथ वबा-एकतरमणि यः पापारम्भ करात्यस्शावष्ठप्रकारं क-
म्मादय षरस्वन्यतरम्मिन कल्पत--ग्रभयति , पोनःपु-
न्यनात्पदययत इन्यथः . स्यात्--किमथसेवविध प्रापकं क-
स्म समारभत ? , तदुच्यत-- खदरी लालप्पपराण ` खु- |
मत्वर्थी- |
खनाथः सुखार्थ: स विद्यत यस्यास्ति
यः , स एवम्भूतः सन्नत्यथ लपति पुनः पुनव लपति
लालप्यत वाचा कायन धावनवर्गनादिकाः क्रिया: करात
मनसा च तत्साधनापायां्चिन्तयति। तथाह-खुखाथीं
सन कृष्यादिकम्मभिः पृथिवी समारभत, स्नानाथमुदकं,
वितापनाश्रमग्नि.घर्मापनःदाथ वायुम् ,आहारार्थी वनस्पति, |
त्रसकाये वा इति श्रसंयतः संयता वा रससुखार्थी साचत्त
लवणवनस्पतिफलादि ग्रह्णाल्यवमन्यदपि यथासेभवमाया-
ञ्यम् । स चेव त्वालप्यमानः किभ्नता भवतीत्याह-' सपण `
इत्यादि, यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतसुकम्मवीज तदात्मीय
दुःखतरुकायमाविमौवयाति , तच्च लनेव कृतमित्यात्मीय-
मुच्यत, श्रतस्तन खकीयन दुःखन--स्वहृतकम्मांदयज-
नितन मूढः-परमांथमजानाना विपयीसम॒र्पाति--खुखा-
थीं प्राय्युपघातकारणमार म्भमारभत. खुखस्य च विपर्या-
सा दुःख तदुर्पति। उक्तं च-- दुःखाद्विटद खुखालिप्सु--
मो दान्धत्व्राददप्रगुणदाषः । यां यां कराति चष्ठां , तया तया
दुःखमादत्त ॥ ६॥ ” यदि वा-- मृढा--हिताहितप्राप्तिप-
रिदहाररदिता विपयासमपेति-हितमप्यटितवृद्धना ऽघतिष्ठ-
न्यहिते च हितवद्धर्याति , एवं कायाकायपथ्यापथ्यवा-
च्यावाच्यादिष्वपि विपयासा योज्यः | इदमक्तं भवाति-
माहा ज्ञाने मोदनीयभदा वा, तनाभयप्रकारणापि मादन
मूढा <रुपखुखछूत तत्तदारभत यन शागीरमानस दु-खव्य-
सनापनिपातानामनन्तमपि काले पात्रतां व्रजतीति | पुनरः
पि मूडस्यानर्थपरम्परां दशयितुमाह--' सण्ण ' इत्यादि-
स्वकायनात्मना रतन प्रमादन मद्यादिना विविधमिति मद्य-
विषयकषायविकथानिद्राणां खभवदग्रहणम् ,तन पृथग-विभि-
श्वतं कराति। यदि बा-पृथु विस्तीरम् ` वय ` मिति-व-
यन्ति-परयरन्ति प्राणिनः स्वकीयेन कम्पेणा यास्मिन् स
वयः:-संसारस्ते प्रकराति, एकेकस्मिन काय दाधका-
लावस्थानाद् । यदि वा--कारण कायोप्रचारात् सखकीय-
न नानाविधप्रमादङ्तन कम्मण वयः--अवस्थाविशेषस्त-
मरकेन्द्रयादिकललायुदादितदहजातवालादिव्यांधग्रदीत--
दारिद्र्यदोभाग्यव्यसनापनिपातादिरूपे प्रकर्षेण कराति-चि-
ध्रत्त इति । तस्मिश्च ससार ऽवस्थाविशर वा प्राणिनः
पीड्यन्त इति दशेयितुमाह--' जसि मं इन्यादि, च-
स्मिन स्वरृतप्रमादापादिलकरम्मविपाकजानित चतुगति-
कसंसारे णकन्द्रियाद्यवस्थाविशेष वा इम--प्रत्यत्तगाच-
शाझूता: ` पाणो ' इत्यभदाफ्वारात्प्राणिनः प्रञ्यशिनाः--
| ज
नानाप्रकारेञ्यसनोापनिपातैः पीडिताः, सुखाथभिरारम्भ-
प्रवृत्तेमोहाद्विपयेस्तेः परमादवद्धिश्च गृदस्थः पाषरिडकै-
येत्याभासेश्वेति वा । यदि नाम शत्र प्रव्यथिताः प्राणि-
नस्ततः किमित्याह--' पड़ ` इत्यादि एतत् ससारच-
वाले स्वक्ृतकस्मंफलश्वराणामसुमतां ग्रहस्थादिभिः
परस्परता वा कम्मविपाकतो वा प्रव्यथने प्रत्युपक्ष्य
विदितवेद्यः साधुर्मिश्चयन नितरां वा नियतं वा क्रिय
न्त नानादुःस्वावस्था जन्तत्रा यन तन्निकररो निकारः-शा-
रीरमानसदू-खात्पादन तस्मे नो कम्मे कुयाद् , यन प्रा-
शिनां पीडात्पद्यत तमारम्भ न विदध्यर्णदति भावार्थः |
एवं च सति कि भवतीत्याह--' एस ` इत्यादि, ययं
सावद्ययागगानर्वात्तिरेषा परिज्ञा-एतत्तत्त्वतः परिज्ञाने प्र-
कर्षणोच्यत श्रोच्यते, न पुनः शेलूषस्यव ज्ञान नियृत्ति+ | ।
फलरटितमिति । एवं द्विकिधयाऽपि ज्ञपरिज्ञया प्रत्या `
ख्यानपारिज्ञया च प्राणिनिकारपरिहार सति कि भव- |`
तीत्याह--' कम्मावसति ` त्ति कम्मंणाम--अशपद्धन्ध- ।
व्रातात्मकससारतरुवी जभूतानामुपशान्तिः-- उपशमः क्म `
त्तयः प्राणिनिकारक्रियानिवृत्तभवनील्युङ्कं भवति ।
शरस्य च कर्म्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य
मूलमा्मात्मीयग्रहः, तद् पनादाथमाद--
ज ममाइयमई जहाइ से चयद ममाद्य, से हु
दिद्पहे भणी जस्स न5त्थि ममाइये, तं परिन्नाय |
महावी वीइत्ता लोगं वेता लोागसन्न स महम |
[क 3 ~~~ # ५ पक |
परिकमिज्जासि त्ति वेमि ॥ “ नारह सहई. वीर,
वीरे न सहई रतिं । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न
रज्जई ॥ १ ॥ '” ( घ्रू० ६८ )
ममायत-- मामकं तत्र मतिममायितमतिस्तां यः परिग्रह- | `
विपाकज्ञा जदाति--परित्यजति स ममायितं- स्वीकृत | »
परिग्रह जहाति--परित्यजति । इह द्विविधः परिग्रहो- | `
द्रव्यता.भावतश्च | तत्र परिग्रहमतिनिषधादान्तरा भावपरि- | `
ग्रहा निषिद्धः, परिग्रहबुद्धिविषयप्रतिषधाच्च बाह्या द्रव्यष- | `
रिग्रह इति । अ्रथवा-काक्रा नीयत.यो हि परिब्रहाध्यवसाय- | `
कलुपिते ज्ञानं परित्यजति स एवं परमाश्रतः सवाद्याभ्यन्तरं
परिग्रदे परित्यजाति,ततशअ्रद्मुक्कं भव॒ति-सत्यपि सम्बन्धमात्र `
चित्तस्य परिग्रहकालप्याभावान्नगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसख- |
म्वम्थे एपि जिनकल्पिकस्येघ निष्परिग्रहतेव | यदि नामेव ततः |
किमित्याह-' से हु ' इत्यादि, या हि मोक्षकविप्नहेताः
संसारश्रमणकारणात् परिग्रहान्नवरत्ताध्यवसायः, हुः-अव-
धारण, स एवं मुनिः; दुष्टा ज्ञानादिको माक्तपथा येन स
दृष्टपथः, यदिवा-दृष्टभयः--अवगतसप्तप्रका रभयः शरीरादेः|
परियग्रहात्साक्षात्पारम्पर्येण वा पयालाच्यमान सप्तप्रकारमपि
भयमापनीपद्यत इत्यतः परियग्रहर्पारत्याग ज्ञातभयत्वमव्सी”
यत इति । एतदव पूर्वोक्क स्पष्टयतुमाह--' जस्स ' इत्यादि
यस्य ममायितं--स्वीकृत परिग्रहा न विद्यते स दृष्टभया|
मुनिरिति सवन्धः | कि च--' ते ' इत्यादि, तम्--पूररैब्याव
रितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधया ऽपि परज्ञया परिज्ञाय =| ।
वी--ज्ञातज्ञया विदित्वा लोकम-परिय्रहाग्रहयोंगाविषाकि `
नपकेन्दरियादिप्राणिगणं वान्त्वा-उद्वीय लाकस्य--प्राणिग
9)
| |,
लोगविजय __
( ७३. )
खामिधानराजन
सलागविजय
9
शस्य सज्ञा दशप्रकारा अतस्ताम् ` स ` इति-मुनिः, कि-
भरतो? , मतिमान् सदसद्विवेकज्ञः ' पराक्रमेथाः-सयमानु-
छाने समुयनच्ुः, सपमाचुष्ठानोद्ययाग सम्यग्विदध्या इति
यावद् । अयवा-अए प्रकारं कम्मारिषरड्वगवा विषयकषायान्
॥
चा पराक्रमस्वात ¦ शतराधकारसमाप्ता, ब्रवामात पूचवत् । |
स एव सयमानुषप्ठान पराक्रमसाणस्त्यक्कपारग्रहाग्रहयागा |
स॒निः किभूता भवतीत्याह-तस्य हि त्यक्लग्रहग्राहिणीथन-
हिरणयादिपरिग़हस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठान कुर्वतः
साधाः कदाचिन्माहनीयादयादरतिराविः स्यात् , तामुत्पन्नां
संयमविषयां न सहते-न क्षमते, को ४सो ? विशेषणरयाति- |
व्ररयति अष्टप्रकारं कम्मारिषड्गं वति वीरः-शक्किमान, स
शव वोरा ऽसंयमे विषयेषु परिग्रहे वा या रतिरुत्पद्यते ताम्
श सहते न मर्षीति, या चारतिः संयमे, विषयेषु च रतिस्ता
भ्यां विमनी भूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरि-
ल्यागान्न विमनस्का भवति नापि रागसमुपयातीति दर्शयति-
यस्माच्यक्करत्यरतिरविमना
न रज्यति-शब्दा दिविषयग्रामे न गाद्धश् विदधति ।
यत पएवे ततः किमित्याह-
सदे फासे अहियासमाणे, निव्विद नदिं इह जीवियस्स |
मणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥ २ ॥
पतं लूह सेवंति वरा, संमत्तदंसिणो एस ।
ओहंतरे णी तिन्ने यत्त बिरए वियाहिए त्ति वेमि ॥
( स्ू० ६६ )
ग्रस्माह्गी रो रत्यरती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनाज्ञषु
न रागमुपयाति, नापि दिष्रषु दपम , तस्माच्छुब्दान् स्पशा श्र
मनोज्ञेतरभदभिन्नान् ' अहियासमाण 'क्ति सम्यक् सहमाना
निविन्द नन्दीत्युत्तरसृत्रण सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-मना-
ज्ञान शब्दान् श्चत्वा न रागमृुपयाति, नापीतरान् दृष्टि
श्राद्यन्तग्रहणाच्चतरेषामप्युपादान द्रव्यम् तत्रा-
ष्यतिसहन विधयमिति । उक्रञ्च-“ सदु अ भद-
वीरस्तस्मात् कारणाद्धीरो |
यपा-वपसु स्रोयविसयमुवगयखु । तद्ेण व रुद्ेण व , |
समणण सया न होअव्वय ॥ १ ॥ एवं रूचसु अ भद्दयपा-व-
पसु० । तहा गंधेसु अ० ॥ ” इत्यादि वाच्यम् , ततश्च श-
ब्दादीन्विषयानतिसहमानः कि कुर्यादित्याह-' निव्विद
इत्यादि, इहो पदेशगोच रापन्नो विनया ऽभिधीयत , सामा-
न्येन वा मुमच्तो रयम॒पदेशः, निर्विन्दस्व-ज़ुसुप्सस्व ऐश्व-
यैविभवात्मिका मनसस्तुप्रिनन्दिस्ताम् इह-मनुष्यलोके
यज्ञीवितमसंयमजीविते वा तस्य या नन्दिःतुष्टिः प्र-
मोदो यथा ममेतत्सम्ृद्ध्यादिकमभूदझ्भ वात भविष्यति व-
ल्यवेविकल्पजनितां नन्दीं जुगप्सस्व्र-यथा किमनया पापा-
पादानदेतुभृतया ऽस्थिरयति ? , उक्तं च--'"विभव इति कि
मदस्त ? , च्युतविभवः कि विषादमुपयासि ? । करनिदि-
तकन्दुकसमाः, प्रातात्पाता मनष्याणाम् ॥ १॥ ” एवं रू-
पवलादिष्वपि वाच्यम् , सनत्कुमारदष्टान््तनाति, अथवा-
पञ्चानामप्यतीचाराणामतीते निन्दाति प्रत्यत्पन्न संचुणा-
त्यनागत प्रल्याचष्र । स्यादेतत्--किमालम्न्य करोतीत्याह-
॥ ^~ व्याद् , मनिस्मिकालवेदी यातिरित्यर्थ:, म॒नरय
सोनः-संयमः , यदि वा-मुनभावः मुनित्वं तदप्यसाचव
१८५
मौन वा वाचः संयमनम् , शरस्य चापलत्तणा्त्वात् का-
यमनसारपि , श्रतः सवथा संयममादाय, कि कुयात् ?-
घुनीयात् कम्मशरीरकम् ओदारिकादिशरीरं वा, अथ-
वा-- धुनीहि ` विवेचय प्ृृथक्कुरू-तदुर्पारि ममत्वं मा वि-
घत्स्वति भावार्थ: । कथं तच्छरीरक धुयत, ममत्वेवा
तदुपरि न कत्त भवतीत्याह-' प्रान्त-स्वाभाविकरसरषित
स्वल्प वा रूत्तम्-श्रागन्तुकस्नदादिरदितं द्रव्यता भावतो
ऽपि प्रान्तम्-द्वषरदितं विगतधूम रुक्षम्-रागरदितमप-
गताङ्गारं सवन्त-मुज्जत, के ? वीराः-साघवः | किभूताः £
समत्वबाशन:ः: रागद्बषराहता: सम्यकत्वदाशना बा-सम्यकः
तत्व सम्यक्त्व॑ तद्र्शिनः , परमाथदशः , तथादि-इदं श-
रीरकं छृतघ्नं निरुपकारि , एतत्कृते प्राणिनः एऐहिकामु
ष्मिकक्केशभाजो भवन्ति, श्रनकादेशे चेकादेश इति हः
त्वा , प्रान्तरूच्तलेवी समत्वदर्शी च कं गुणमवाप्रातीत्या-
ह-' एस ` इत्यादि, एप इति प्रान्तरूक्तादारसवनेन क-
म्मादिशरीर धुनाना भावता भवोधे तरतीत । काऽसो?
सनिः-यतिः , अथवा-क्रियमाएं कृतमिति कृत्वा तीरं
पव भवौघ्म् । कश्च भवौघ तरति १-यो म॒क्रः-स-
बाह्या भ्यन्तर परिग्रहरहितः, कश्च परिग्रहान्मक्रा भव-
ति ?-यो भावतः शब्दा 55दिविषयाभिष्वज्ञाद्विरतः, ततश्च
यो मुक्कन्वन विरतत्वन क विख्याता मुनिः स एवं भवो
घे तरति, तीण एवेति वा स्थितम् । इतिः अधिका-
रपरिसमाप्तौ , ब्रवीमीति पूर्वत् । यश्च म॒क्कत्ववि-
रतत्वाभ्यां न विख्यातः स किभतो भ्रवतीत्याह--
( “ दव्वखुमणी ” इत्यादि सूत्राणि ` धम्मकहा ` शब्द
चतुर्थभाग २७१२ प्रष्ठ प्रसङ्गाद् गतानि। ) तदन्या ख्या-चेयम्
वसु-द्रभ्यमतच्च भव्य5्थ व्युत्पादितं द्रव्यं च भः
इत्यनन, भव्यश्च-म॒ङ्किगमनयाग्यः ततश्च मुक्किगमनयोग्यं यद्
व्यम् तद् वख, दु बसु दुर्वखु, दुवेखु चासां मुनिश्च दुर्व-
सुम॒निः--मोक्षगमना 5योग्य: स च कुता भवति ?--श्रना-
ज्ञया-ती थकरो पदेशशन्यः स्वेरीत्यथः, किमत्र तीथकरा-
पदेश दुष्करे यन स्वेरित्वमभ्युपगम्यते ? , तदुच्यते--उद्द-
शकादरारभ्य सर्व यथा सम्भवमायोज्यम् , तथाहि-मिश्या-
त्वमोहिते लोके संबोद्धु दुष्करं बतेष्वात्मानमध्यारोपयितु
रत्यरती निग्महीतुं शब्दादिविषयेष्विष्टा निष्टपु. मध्यस्थतां
भावयितु प्रान्तरूक्षाण भाक्रम् , एवं यथोद्दिष्टया मोनीन्द्रा-
क्षया असिधारकल्पया दुष्करे सश्चरितु तथा5नुकूलप्रतिकू-
लांश्च नानाप्रकारानुपसर्गान् सोहुस,अलहने च कम्मोदयो-
5नाय्रतीतका लसुखभावना च कारणम् , जीवो हि स्वभा-
वता दःखभोरूरनिरोधसुखप्रियः, अतो निरोधकर्पाया-
माज्ञायां दुःखे वसति, अरवसंञ्च किभूतो भवतीत्याह--' तु-
च्छ ` इत्यादि, तुच्छा-रिक्रः,सच द्रव्यतो निधनो घटा
दिवा जलादिरदिता, भावता ज्ञानादिरदितः, ज्ञानादिरदि-
तो हि कचित्सेशीतिविषये कनाचनत्पृष्टा ऽपरिज्ञानात् ग्ला-
यति वक्रम, ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कार-
भयात् शुद्धमागप्ररूपणावसर ग्लःयति यथावास्थतं प्रज्ञा-
पयितुम.तथाहि-प्रचृत्तसन्निधिः सन्निधरनिर्दोषतामाच एे,एव-
मन्यत्रापीति । यस्तु कपायमहाविपागद्कटपभगवदाज्ञाप-
जीवकः स खुबखमुनिर्भवत्यरिक्तो ग्लायति च वक्कुम ,
यथावस्थितवस्तपरिज्ञानाद अनुष्ठतानानच । आह च--
( ७रै८
(ल भ्य न्न
गविजय थमिधानर
€ एस ` इत्यादि, पष ` इति झुबखुनसुनिशज्ञीनाद्यारिक्तो य-
थावस्थितमार्गमरूपको वीरः कम्म॑तदारणात् प्रशासितः
तद्धिद्धिः ल््ाथित इति । क्रिश्व-- अच्चेइ ' व्यादि,
स एवे भगवदाज्षानुवत्तका वीरोपउत्यति--अतिऋमति , कं
लाकतयागम्-लाकनासंयनलाकन सयागः-- सम्बन्धः
ममत्वकृतस्तमव्यान. श्रथवा-लाका वाद्या ऽभ्यन्तरश्च. तत्र
वाह्या-घनहिररामातापित्रादिः, आन्तरस्तु-रागद्धषाद-
स्तत्काय वा चअण्र्कारे कम्मं तेन साद्ध संयोगमत्य-
ति-आतिलङ्कयतोत्युक्तं भवनि । यदि नानेवै ततः किमि-
त्याह-' एस ` इत्यादि, याभ्य लाकसयार्गातिक्रमः एप
न्यायः-पएष सन्मामः मुमुज्ञणामयमाचारः प्रोच्यत-अ-
भिधीयत , श्रथवा-परम्-- आत्मान माक्त नयतीति
द्ान्दसत्वात्कर्तार घञ्-नायः: या हि व्यक्रलाकसयाग
एप पव परात्मना माक्तस्य नायः प्रोच्यते-मोक्षप्रापको5-
भियीयते सदुपदशात् | स्यादेतन् किभूतोऽसावुपदश इत्यत
आद-यददुःख दुःखक्तारण वा कम्मलाकसयेागात्मक वा भ्रव
दितम्-तीथकृद्धिरावेदितम् इह-अस्मिनू ससार मान-
वानाम-जन्तूनाम. ततः किम ?-तस्य दु.खस्य-असात-
लक्षणस्य कमणा वा कुशला-निपुणा धम्मकथालब्ध्िसम्प-
च
न्ना: स्वसमयपरसमयाविद उदयुक्तावहारिणेः यथावादि--
नस्तथाकारिणा जितनिद्रा जितन्द्रिया दशकालादि-
ऋमनज्ञास्त पवभूताः परिज्ञाम्- उपादानकारणपरिज्ञान
निराघकारणपरिच्चछदं चादादरान्त-ज्ञपरज्ञया प्रत्याख्या-
नपरिज्ञया च परिहरन्ति परिहारयन्तिच। कि च- इ--
तिकम्मे ` इत्यादि, इतिः-पूर्वप्रक्रान्तपरामशका यत्तद्दुःखं-
प्रचदितं मनुजानाम् , यस्य च दुःखस्य परिज्ञा कुशला खदा
हरन्ति तद्दुःख कम्मकृते तत्कम्मोणप्रकारं परिज्ञाय तदा--
श्रवद्धाराणि च । तदयथा-ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञानावरणीय
गत्यादि, प्रत्याख्यानपारन्नया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वार्ु
सर्वशः-सर्चे: प्रकासेयांगत्रिककरणत्रिकरूपने वत्तंत , अथ-
दा-सर्वशः परिज्ञाय कथयति, सर्वशः परिज्ञान च कवलिः
नो गणधरस्य चतुद्देशपृ्वेविदों, बा यदिवा-सर्वशः कथ--
यति, आक्तपरयाद्या चतुर्थिधया धर्मकथयति । साच
-कीटक्तधत्याह-' ज ` इत्यादि , अन्यद् द्रशरु शीलमस्यत्यन्यद-
शी यस्तथा नासावनन्यदर्शी-यथार्वास्थतपदार्थद्र॒ष्टा , क-
श्चेवभूता ?-यः सम्यग्डाप्टमौनीन्द्रप्रबचनाविभूततत्त्वार्थः,
यश्चानन्यरः साऽनन्यारामा-माक्तमार्गादन्यत्र न न रमत | :
देतुटेतमद्धावन सूत्र लगयितुमाह-' जे ` इत्यादि, यश्च
भगवदुषदशादन्यत्र न रमत साऽनन्यदर्शी , यश्चेवम्भूत
साऽन्यन्रन रमत इात । उक्त च- ` श॒वमस्तु छुशास्त्राणा ,
वेशाधिकषष्ठितन्त्रवौद्धानाम् । यषां दुर्विहितत्वा- ूगवत्य--
नुग्ज्यत चतः ॥ १॥ ” इत्यादि
पमाख्यातम , कथश्चारक्काद्वएः कथयतीति दर्शयाति-' जहा
पुरागस्स ` इत्यादि. तीधकररगराध्रराचा्यादिना यन प्रकार-
रा पुरायवतः-रुगुरश्वरचक्रवत्तिमारडलिकरादः कथ्यते-उप-
। तदेव सम्यक्त्वस्वरू-- !
दशा दीयत तथा-तनव प्रकारण तुच्ुस्य-द्रमकस्य का- |
प्रहारकादः कथ्यत, अथवा-पूर्णा--जातिकुलरूपाद्यपे-
तस्तद्विपरीतस्तुच्छः, विज्ञानवान् वा परीस्तनाऽन्यस्तुचञ
| नक लोगविजय
इति, उक्तं च-- ज्ञानश्वर्यधनोपेरो. जात्यन्वयवलान्वि-
तः । तजस्वी मतिमान् ख्यातः, पृूणस्तुच्छो विपर्ययात्
॥ १ ॥ `` एतदुक्तं भवात, यथा--द्रमकादस्तदनुग्रहवु-
दया प्र्युपकारानरपत्तः कथयत्यवे चअक्रवत्यादर॑पिं,
यथा वा चक्रवर्यादेः कथयव्यादरेण ससागार्तरणदतुम-
वमितरस्यापि । शत्र च निरीहता विवक्षिता । न
पुनरये नियमः--एकरूपतयेव कथनीयम्, तथाहि-यो
था बुध्यत तस्य तथा कथ्यत, बुद्धिमतो निपुण
स्थृलवुद्धस्त्वन्यथति, राज्ञश्च कथयता तदभिप्रायमचुच्-
मानन कथनीयम् ; किमसावभिग्रदीतमिथ्याट ष्टिरनाभिग-
हीता वा सशीत्यापन्ना वा ?, श्रभिग्रदीताऽप कुतीर्थि-
केव्युद्आहितः स्वत एवं वा 2, तस्य चवम्भृतस्य यद्य
वे कथयद्यथा--* दशसूनासमश्चक्री, दशर्चाक्रसमो ध्वज्ञः |
दशध्वजसमा वश्या, दशवश्यासमा नृपः॥ १ ॥ ” तद्ध
क्लिविषयरुद्रादिदिवताभवनचरितकथन च मोहादयात्तथा-
विधकम्मोंदय कदाचिदसों प्रद्धेषमुपगच्छेद् , द्विष्श्चेत-
द्विदध्यादित्याह च-अपिः सम्भावन, श्रास्तां तावद्वा
चा तञ्जनम, अनाद्वियमाणो हन्यादपि, चशब्दादन्यद्-
प्यवे जातीयक्रोधाभिभूता दर्डकशादिना ताडयदिति ।
उक्त च--* तत्थव य निट्रुवण, वंधणनिच्दयुभणकडगम-
हो वा | निव्विसय व नरिदा, करज्जञ स्थे पि सो कुः
द्धा॥९१॥ `" तथा तच्चानकापासका नन्दबलातू बुद्धा-
त्पक्षिकथानकाद्धागवतो वा भल्िगरहापाख्यानाद्रौद्रा वा
पेढालप॒त्रसत्यक्युमाव्यतिकराकरनात् प्रद्धपरमुपगच्छेत् ,
द्रमककाणकुरटादिवौ कश्चित्तमेवाद्दिश्योद्दिश्य धर्म्मफलो-
पदशननति । पएवमविधिकथननदेव तावद्धाधा, आमुष्मि-
कोऽप न कश्िचिद्युणास्तीत्याद च-` एत्थ पि ' इत्यादि,
मुमुक्ताः परदिताथं धर्मकथां कथयतस्तावत्पुरयमस्ति,
परिषद् त्वविदित्वाऽनन्तरापवरितस्वरूपकथन ` अज्ञापि-
घम्मकथायामपि श्रयः--परायसित्यतन्नास्तीत्यवे जानी
हि, यदिवा असों->-राजांदरनाद्वियमाणस्तं-साधु धम्म-
काथकर्माप हन्यात् | कथामत्याद पत्थ पी ` ल्याद्,
।४
यद्यदसो पशुवधतप्पणादिकं धर्मकारणमुपन्यस्यति तत्तद्
सो धम्मकथिको ऽत्रापि श्रया विद्यत इत्यवे प्रतिहन्ति,
यदिवा-यद्यदविधिक्रथन तत्र तत्रदमुपतिष्ठत-अज्ञाप श्रयो
नास्तीति, तथाहि-ग्र्तरकोाविदपारपदि पक्तहतुद्टान्तान-
नारत्य प्राकृभाषया कथनमविधिरितरस्यां चान्यथ-
ति । एवं च प्रवचनस्य दहीलनव कवल कम्मवन्धश्च, न
पुनः श्रयो, विधिमजानानस्य मोनमेव श्रय इति । उक्घं
च--* सावज्जणवज्जाणं, वयणाणं जा न याणइ विसे ।
वुत्तं पितस्सन खमे. किमंग ? पुण देस काउं ?॥ १॥ ”
स्यादेततू--कथे तद्धि धम्मकथा कार्येत्युच्यत--काऽयम्-
इत्यादि. या हि वश्येन्द्रिया विषयविषपराङ्मुखः संसा- ¦
राद्धिन्नमना वेराग्याकृष्यमाणहदया धम्म पृच्छति, तना- |
चायादिना घम्मकाश्रक्रनासो पययालाचनीयः-- कायं परू-
षः? , मिथ्याहाष्टरूत भद्रकः, केन वा55शयना<5यं पृच्छ
ति, के च दवताविशे नतः, किमनन दर्शनमाश्रिताम- `
त्यवमालाच्य यथायागमुत्तरकाले कथनीयम्, एतदुक्तं भ- |
वति--धम्मकथावधिज्ञा ह्यात्मना परिपूर्णः श्रातारमाला-
चर्यात द्रव्यतः, त्तत्रतः- किमदं त्तत्र तश्चानकभागवतर-
प्र
|,
॥.-
( ७३६ )
लोगबविजय
स्यैचा तज्ञातीय:ः पाश्वे स्थादिभिरवोत्सग झविभियी भावितम्
कालना-दुष्पमादिकं काले दुलभद्गव्य का ले वा, भावता-अर
क्ृद्विटमध्यस्थमावापन्नमवे पर्यालोचय यथा यथा चसा
बुध्यते तथा तथा धम्मंकथा कार्या, पवमसो धम्मेकथा-
योग्यः, अपरस्य त्वधिकार एव नास्तीति । उक्तं च--
५ ज्ञा हेउवायपक्ख-स्मि हेडओ आगमस्मि आगमिश्नो । सा
ससमयपण्णवआओ, सिद्धंतविराहओ अररणा ॥ १॥ / य॒ ण्व
धम्भकथाविधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च-- एस `
इत्यादि, यो हि पुरायापुरायवतो धम्मकथासमदण्िविधिज्ञः
ाताववचकः पषः--श्ननन्तरोक्का वीरः--कम्मविदा-
रकः प्रशणोसितः-च्छाधितः । किभूतश्च यो भवतीव्याह-
"ज्ञ वद्ध ` इत्यादि , यो ह्यष्पकारेण कम्मणा स्नटनि-
गडादिना वा बद्धानां जन्तूनां प्रतिमोचकः धर्म्मकथाप-
द्मभिधानराजन्द्रः।
देशदानादिना स च तीर्थकृद्रणध्र आचायोदिवों यथो- `
क्धम्मकशाविधिज्ञ इति । क पुनव्यवध्थितान् जन्तून् मो-
चयतीत्याद - उड ` इत्यादि, ऊद्धु-ज्योतिष्कादीन् अधो-
भवनपत्यादीन् तिर्यक्षु-मनुष्यादीनिति । कि च-- से
सव्वश्रा ` इत्यादि , स `
सवेतः- सवकालं स्वपरिज्ञया छिविधया5पि चरितुं शी-
लमस्यति सर्वपरिज्ञाचारी--विशि्ज्ञानान्वतः सर्वसव-
इति-वीरो वद्धप्रतिमोचकः '
रचखारतज्रापता वा , स एवभूत: क गुणमवामातात्याह-- |
न लष्पडइ् त्याद , न लप्यत--नावगुणण्यत , केन् ? |
क्षणपरदेन-हिंसास्पदेन प्रागयुपमदेजानितन, ` क्षणु हिसा-
यामित्यस्येतदपम् । काऽसो ? , वीर इति । किमेताव-
देव चीरलन्तणमुतान्यदप्यस्तीत्याह-' से महावी `
त्यादि , स मंधावी-बुद्धिमान्ू यः अणोद्घातनस्य
खद॒ज्ञ:--अण॒त्यनन जन्तुगणश्चतुरगंतिक॑ संसारमित्यणं--
कम्म तस्य उत्-प्रावस्यन घातनम्-अपनयन तस्य तत्र
वा खदज्ञा-निपुणः, इह हि कम्मत्तपणाद्यतानां मुमुक्ञणां
यः कम्मक्तपरविधिज्ञः स मधावी कुशला वीर इत्युक्तं
त्ाग।चर्प्वेाय
यसन्ने ' इत्यादि , लोकस्य गृदस्थताक्स्य संज्ञान संज्ञा-
विपयामिष्वज्गजानतकखच्छा पारघ्रदे<ज्ञावा, तांचक्ञपरि-
या ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरत् , कथ ?-रूरवश
सर्वैः प्रकारेयोगत्रिककरणांत्रकेशत्यर्थ:. तस्येवेविधस्य
यथा्गुणा्वास्थितस्य घम्मंकथाविधिज्षस्थ चद्धश्रतिमा-
चकस्य कम्मोद्वातनखदक्षस्थ वन्धम्रोत्षान्वेषिणः सत्प--
थव्यवास्थितस्य कुमार्गनिराचिकीपार्दिसाचइप्टादशपापस्था-
नविरतस्यावगतलोकसंज्ञस्य यद्धर्बाति तदणैयति-उदि-
श्यत नारका दिव्यपदशनव्युदशः, स॒ पश्यकस्य-- परमा-
थदशा न विद्यत इत्यादीनि च सूत्ागयुदटेशकपरिस--
माप्ति यावत्ततीथादेशक्र व्याख्यातानि , तत॒ एवार्थो--
ऽवगन्तव्यः , आक्षपपरिहारों चाति । तानि चामूनि--
चालः पुनानिंहः कामसमनुज्ञः अर्शामतदुःखः दुःखी--
दुःखानामवावत्तमनुपरिवत्तत । इतिः परिसमाप्तों ब्रवी--
मीति पूर्ववतू । उक्तः षष्ठादेशकः ॥ तत्परिसमाप्तो
चाक्कः सूतानुगमः सत्रालापकनिष्पन्नः, निक्तपश्च ससृत्र-
स्पशनियुङ्किकः । साम्प्रत नेगमादयोा नयाः, ते चान्यत्र
न्यत्तण प्रतिपादिता इति नद ध्रतन्यन्त, संक्तपतस्तु
ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्मतत्वात्तपां तावच प्रतिपाद्यत, तया-
रप्यात्मीयपत्तलावध्रारणतया म।्ताङ्गत्वामावात् प्रत्यक म-
थ्यादण्ित्वम् ; अतः पङ्ग्बन्धवत् परस्परसापत्ततयषटका-
्यावाक्षिरवगन्तव्यति उपगम्यत । आचा० १ श्रु २ आअ०
६ उ० । लाककष।यविजये, सथा०।
लोगवियस्सि ( न् )-लोकविदशिन्-तरि० । लोकं विष--
भवति , कि चान्यत्-` ज य ` इत्यादि , यश्च प्रकृतिस्थि- '
ल्यचुभागव्रदेशरूपस्य चतुविघस्यापि वन्धस्य यः प्रमो्तः |
तदुपायो वा तमन्वष्र-मरगयितु शीलमस्यत्यन्वेषी , यश्च
चम्भूतः स वीरा मधावी खदज्ञ इति पूर्वेण सम्बन्धः,
अणं।द्घ्रातनस्य खदज्ञ' इत्यनन मूलात्तरप्ररृतिभदामन्नस्य
यागनिमित्तायातस्य कषायस्थितिकस्य कम्मणो वध्यमा-
नाचस्थां वद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितरूपां तद पनयनोपायं च
बत्तीन्यतद भिदितम् , अनन चापनयनानृ्ठानर्मिति न पु-
नरुक्रदाषानुषद्गः प्रसजात । स्यादतत्--याऽयमणादूघात-
नस्य खदज्ञा-बन्धमात्तान्वेषका वाऽभिदितः स कि छुझ-
स्थ श्राहास्वित् कवली ? , कवलिनो यथोक्नविशेषणास-
म्भवाच्चद्मस्थग्रहणम् , कवलिनस्तरहिं का वात्तात ?, उ--
च्यत- कुसल ' इत्यादि ( आचा० ) ( आ--
रमस्मविषयः ` आरंभ ” शब्दे २ भागे ३७२ पृष्ठ गतः। )
यद्यद्भ गचदताचीणं--परिहार्य तन्नामग्राहमाह--
चरणं ` इत्यांद , क्षणु हिंसायाम् , क्षणन क्षणो-हिंस
कारण कायो पचारात् , यन यन प्रकोगेण हछिंसोत्पद्यते
॥ पारज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया पारहरद् ,
यदिवा कत्तव्यकालस्तं ते ज्ञपरिज्लया
लछाण-
` छोणु-- अवसरः
कात्वा आसतवनापरि्लया च आचपदिाति । कि च-- ला- |
याचुषङ्गावाप्तदुःखातिशय तथा व्यक्रकामावाश्चप्रशम--
सुख विविध द्रष्टुं शीलमस्यात लोकाविदर्शी, अ--
थवा-लोकस्योध्वाध्रस्तियग्भागगतिकारणायुष्कसुखदुः --
खविशपान् पश्यतीति लोकविदर्शा । लास्य विशषतों
द्र॒ष्टरि, आचा० १ श्रु० २ अ० ५ उ०।
लोगवित्त-लोकबृत्त-न० । आहद्वारभयमैथुनपरिय्रद्दो त्कट--
संज्ञात्मके लोकस्य चत्त. श्राचा० १ श्रु० ४ आअ० २ ड० |
लोगविरुद्र-लोॉकविरुद्ध-न० । बहुजनविरोधहेतुभूतालष्ठान-
विशषे, पञ्चा० २ विव० | जननिन्य, जीवा० १३ आअधि० ।
लाकविरुद्ध लोकस्य निन्दावशिष्टस्य च गुणसमसुद्धस्ययम ,
आत्मात्कर्षश्च, यतः-- परपरिभवपारिवादा-दात्मात्कषोञख
वध्यते कर्म।नीज्ेगोत्र प्रतिभव-मनेकभवकोटिदुर्माचम॥१॥
था-ऋजूनासुपहासः: , सुणवत्सु मत्सरः, छतधघ्नत्वे च
चहुजनविरुद्धेः सह सर्ञातः, जनमान्यानामवज्ञा, धर्मिणां
स्वजनानां वा व्यसन तापः, शक्रो तदप्रतीकारः, दशाद्यचि-
ताचारलक्नम. वित्ताद्यननुसा रणा त्युद्धरातिमलिनवेषादिक-
रणम्.एणबमादिलाकविरुद्धासहाप्यपकी त्या दिक्नत्ू यदाह वा-
चकमुख्यः-“लाकः खल्वाधारः, सर्वेषां धम्मचारिणां यस्मात्।
तस्माल्नो कविरुझे, धर्मावरुद्ध च संत्याञ्यम् ॥६॥``तत्पागच्र
नानु रागस्वधर्मनिर्वाहरूपा गुणः। राह च-'' एआई परि हरे-
तो, सव्वस्स जणस्स वज्नहा हाइ। जणवटजहत्तण पुण.नरस्त
सम्मत्ततरुबीय ॥ २ ॥ `` घ० २ अधि> |
लोगविरुद्धच्चाय -लोक विरुद्ध त्य|ग॒ - पु? । सर्वजननिन्दादि-
लाकावरुद्धा नुठ्ठानवजन, घ० २ आंध० । क्ञ० ।
( ७४० )
झ्रशिधानराजन्द्रः ।
लोगसषा __
ल्लोगसण्णा-लोकसंज्ञा-ख० । मतिज्ञानावरणकर्मक्षयो पशम-
नात् शब्दाद्रर्थगोंचरायां सामान्याववोधक्रियायाम् , प्रज्ञा०
१० पद । लाक लेज्ञा-खच्छुन्द्घटि तविकल्परूपा लोकि का-
चरिता,यथा-न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः,शवाना-यक्ताः, विप्रा-
देवाः, काकाः-पितामदाः । आचा० १ श्रु० १ आअ० १ उ०।
अथ निवेदी जीवः
मुद्यति,लाकसज्ञा हि धर्मसाघनव्याघाक्करा च्रा्स्त्याज्या
इत, तदु पदेशरूपे लोक सज्ञात्यागाष्टकं विस्तार्यत । लोकः,
सप्तविधः-नामलाकः--शब्दालापरूपः,
श््ञरः, लोकनालियन्त्रन्यासरूपः, रूप्यजीवाजीवात्मकः-
दव्यलाकः, ऊध्वौधस्तियग्लक्तषणः-क्तत्रलोकः, समयाव-
ल्यादिकालपरिमाणलन्तणः-काललोकः, नरनारकादिचतुगे-
तिरूपः-भवल्लोकः, ओंदयिकादिभावपरिणामः-भावलोक
द्व्यगुणपयौय परिणमनरूपः-पयवलाकः । इदे च सर्वेभपि |
श्रावश्यकनि्युक्रिता क्षेयम् । अथवा-द्वव्यलोकः-संसाररूप
अप्रशस्तभावलोकः-प रभावकत्वजावसमूहः, अज भवला-- |
काप्रशस्तभावलोकस्य सन्ना त्याज्या, लाकसशज्ञा च नयस- |
घकन धर्मार्थिभिः परिदरणीयः-
गराः षष्टं गुणस्थानं , भधदु गा द्विलक्घनम् ॥
लाकसंज्ञारतो न स्यान्, मुनिर्लोकोात्तरस्थितिः॥ १ ॥
स्थापनालाकः-- |
मोत्तसाधनादयमवर्ती लोकसक्षायां न |
|
॥
प्राप्त इात--मुानः-सयमा आखस््रवावरतः षषम्-स-- |
यवर तिलक्तषणं प्रमत्ताख्य प्राप्त
तं तत्कत्तव्यम् गतानुगतिकतानीरतिरित्यत्र
लाकसज्ञा-लाकः कृू--
रतः-रागी
|
ग्ररीतग्रहः नस्यात् , लाकेः कृतं तदेव करणीयम् इति मति |
निवाय आन्मसाध्रनोपायरतः स्यात् । किंभूत षष्ठ गुण-- |
स्थानम् ?, भवः ससारः-सख पव दुर्गांद्विःचिषमपर्वतः तस्य |
लट्टनम् , कि विशिष्टः मुनिः
? लाकात्तरस्थितिः-लाकाती- |
तमयौदया स्थितः. लोकी हि विषयाभिलापी मुनिः- निष्कामः, |
लाकः पुद्रलसरपञ्य्येष्ठत्वमानी मुनिज्ञानादिसेषदा श्रेष्ठः ,
अतः किल लाकसज्ञया कि तषाम् ?॥ !
यथा चन्तामाणख दत्त, बठरा बदराफल;ः ।
हहा जहाते सद्धम, तथव जनरज्ञनः। २॥
यथा चिन्तमाणामिति-यथा यन प्रकारणं कश्चित् वठरः
सखः बदरीफलः चन्तामणि दत्त; तथव मृदः जनरञ्जनः--
लाकख्छार्घाभिलापेः सद्धम
द्रव्याचरणातत्त्वानुभवलक्षण |
हहा इयात खद् , जहा।त-त्यजात, इत्यनन जनभाङक्कश्रुत-- |
श्रचरादारत्यागादिकं यशःपूजादिना हारथाति । उक्तं च--
“त्वत्तः सुदुष्प्रापमिदे मयाप्त, रत्तत्रये भूरिभवश्रमेण। प्रमाद- |
निद्राचशता गत तत् , कस्याद्रता नायक ! पूत्करामि ॥ १॥
चेराग्यरद्भः परवश्चनाय, चर्मापदेशा जनरञ्जनाय ।
बिद्याध्ययन च मऽभू-कयद् वरवे दास्यकरं स्वमीश ! ॥२॥
लोकमन्नामयानया- मनुघाताऽ्युमा न के ।
प्रातस्लाता 5नुगस्त्वका, राजहसा महाम्लान; |) ३॥
वादाय
लाकसेज्ञति+लाकस्ज्ञा--लोकरी तिरूपा महानदी , त-
स्याः अनुस्तातः-प्रयाहः तस्य अनुगाः श्चदुयायिनः के
न भवान्ति ? शनक इत्यथः, तच. प्रतिख्राताऽयुगः स-
न्सुखप्रवाहचारी तु एक एव महामुनिः शुद्ध श्रपण॒ः रा--
ज्हंसललामा इति , सेन लाकरूहिरूडा बअद्यो जीवाः, नि
ग्रन्थः स्फुरद्रत्नत्रयसखाधनोाद्यतः स एव स्वरूपाठुगामी ॥
उक्त च दशवकालक--' अणुसायाचाटुय बहु--जणाम्म
पडिसोयलद्धलक्खण । पाडसायमेव अप्पा, दायव्वो हाड
कामण ॥ १॥ अखुसोयखुहो लोगो, पडिसोओ आसमो खु
विहेयाएं । अणुसोआ ससारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो
॥ २॥ ` तेन मुनिलाकसज्ञानुयायी न स्यात् ॥ ३. ॥
लोकमालम्ब्य कर्तव्यं, कृत बहुभिरेव चत् ।
तदा मिथ्यादशां धर्मो +न् त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥४॥
लाक्मिति--चत्--यदि यद् बहुमिः कृत तत् कत्तव्य
लोकमालम्ब्य एवं क्रियत तदा मिथ्यादशां ध्मः कदाचन
कदापि न त्याज्यः स्यात् , तच्च बहुभिः क्रियमाणत्वात् ,
स्वच्छाचरणो लोको बहुतरः, यतः-अनार्यभ्यः आर्याः
स्तोकाः, आयेंभ्यः जनाचाराः स्तोकाः, जेनाचारवर्तिषु
ज्ैनपरिणतिपरिणताः स्तोकाः, अतः बहुलोकानुयायी न
भवनी्यामिति ॥ ४ ॥
अ्रयोष्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च |
स्ताका हि रललवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः ॥५॥
भ्रयाऽ्थिनो दहि भूयांस इति-लोके-बाह्मत्रवाह श्रयो-
<र्थिन:--धनस्वजनभुवनवनतनुकल्याणार्थिन:.. भूयांस+--
प्रचुराः सान्त, च>-पुनः लोकात्तरे-अमूर्त्ता-त्मस्वभावा-
विर्भावलक्षण प्रवत्तमानाः न च--नेवति टौतिनिश्ितम् ,
रत्नवणिजः स्ताकाः, तथा च--पुनः स्वात्मसाधथकाः-
स्व॒ आत्मा तस्य साधकाः निरावरणत्वनिष्पादकाः
स्तोका इति ॥ ५॥
= ५ ९९ © दशने
लाकसज्ञाहता हन्त | नचगमनदशने; ।
शसयान्त स्वसत्याग ममधातमहाव्यथाम् ॥ ६ ॥
लोकसंज्ञ ति-हंत-ईइति खदे, लोकसंज्ञाहता--लोकसंज्ञा-
व्याकुलाः नीचेगमनदशैनेः--वक्रीभूतशरीर भून्यस्तरष्ट्या
गमनस्य दशनः, स्वसत्यागमभघातमहाव्यथां स्वीया यः
सत्यागः जैनबूत्तित्यागः स च लोकरञ्जनाध्यवसायचहु-
लन मर्मणि घात लभते, तस्य घातस्य महाव्यथाम-
मदापीडां शेसर्यान्त-- ज्ञापयन्ति, ` वय पीडतन वक्र
शरीरा भवामः ` इति शेसयन्ति--कथयन्ति वेति ड-
तप्र्ता, लाकााक्ामिति व्यागवन्तो जीवा आत्मस्वरूपघात-
का इति ॥ ६॥
आत्मसाक्षिकसद्भरम सिद्धौ किं लोकयात्रया ? ।
तत्र ग्रसन्नचन्द्रथभ, भरतश्च निदर्शनम् ॥ ७ ॥
आत्मेति--हे उत्तम ! आत्मसात्तिकाः--श्रात्मा एव
साक्षिकः आत्मसाक्षिकः, स चासो सत्--शाभनः धर्मः,
तस्य सिद्धो- निष्पत्तौ लाकयात्रया कि ? न किमपि,
लाकानां ज्ञापनन किमित्यथः, तत्र प्रसन्नचन्द्रः च-पुन
भरत इति निदर्शन दृष्टान्तः, सात द्रव्यलिङ्ग कायोत्स-
गे परसन्नचन्द्रस्य नरकगतिवन्धः, असति लिङ्ग मादक
लाकेर्बलभृतर्वानताव्यृदर्पार व्रता ऽपि भरतः संप्राप्तात्मसाक्षि-
कत्यैकत्वरूपधर्मपरिणतः कवले प्राप, इति आत्मसाक्षिका
घर्मः-घम हति दण्रान्तः, अतः आत्मसात्तिक एवं ध्मः
करणीय इति ॥ 3 ॥
लोगससा
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१
१
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लोगसषा
लोकसंज्ञोज्मितः साधुः, परव्रह्मसमाधिमान् |
। सुखमास्ते गतद्रोह- ममतामत्सरञ्यरः ॥ ८ ॥
ह खाकात-साथु -परमात्मसाघनायतः, सुखम् आस्त-ात- |
छाति, कथभूतः साधुः ? लोकसेश्लाज्कितः-लोकसंज्ञा रहित
' स्थ्ये तद्वान-तन्मयः, आत्मज्ञानानन्द्मग्नः, पुनः कथभूतः ?
| गतः- नष्ट: द्राहः-मोषणशीला ममता परभावषु ममका-
। र्ना. मत्सरः-अहंकारः एवं ज्वरः-तापा यस्यस, इत्यनन
। कषायकालुप्यरहितः स्वात्मारामः स्वात्मज्ञानी तत्त्वानुभ-
|
पुनःकिभूतः ? परब्रह्मणः-शुद्धात्मस्वरूपस्य समाधिः-स्वा- |
चयुक्का ्।4: सुख ॥तष्टात । लाकसज्ञात्यागन स्वरूपया- |
गर्नागसुख मग्ना निग्रन्था ओदयिकार्मान्द्रियखुख दह्यमान- |
स्वग्रृदप्रका शवद् मन्यन्त न खुखर्मास्त ॥ ८॥ इति व्याख्यातं |
लोकसंज्ञात्यागाएकम् ॥अष्ट०२४अप्ट ०-.। लाकस्य-गृदस्थला-
कस्य , संज्ञान--संज्ञा | विषयातिष्वज्ञजनितसुखब्छायाम्
आचा० १ श्रु० २ अ० ६ उ० | विषयपिपासायाम् , आचा०
लोगसपण्म,.हय -ले।कर्सज्ञाहत-पुं? लाकसन्ञाव्याकुल, अष्ट”
२३ अष्ठ० |
लोगसहाव भावणा - लोकस्व भाव भावना - त्ली ० । लोकस्वभा-
परिचन्तन, घ० ३ अधि० । प्रव० (लाकस्वभावभावना
। "भावया ` शब्द पशञ्चममभाग १५०६ पृष्ठ गता । )
| लागगमार लाकमसार पु० | चअतुदशर बात्मकस्य लाकस्य
प्ररमाथ, आचा० १ श्रु० ४ अ० १ उ*।
अपरापसारप्रकर्षगातिरस्तीति दर्शयन्नुपक्तेपमा ह--
१ थश्रा० ३ अ० २ उ०।
|
|
|
ल.गस्म उ को सारो, तस्स य सारस्स को हवई सारा ?। |
तस्स य सारे सारं, जई जाणसि पुच्छिओं साह ॥२४४॥
ल्ागस्य-चतुदशरञ्ज्वात्मकस्य कः सारः ? , तस्यापि
सारस्य काऽपरः सारः ?, तस्यापि सारसारस्य सारं यदि
ज्ञानासि ततः पृष्टा मया कथयति गाथायेः।
प्रश्नप्रतिवच ना थैमाह--
लोगस्स सारधम्मो, धम्मं पि य नाणसारियं बिंति।
नाण संजमसारं, सजमसारं च निव्वाणं ॥ २४५ ॥
समस्तस्या ऽपि लाकस्य तावद्धमः सारः, धम्मेमपि न्ञा- |
नसारं व्रवत, ज्ञानमपि संयमसारं संयमस्यापि सारभूत
निव्वाणांमति गाथाथेः ।
उक्का नामनिष्पन्नां नित्तपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे
सूत्रमुच्चारयितव्यम् , तचदम्--
अआवेती केयाव्रती लोयंसि विपरामुसंति अट्टाए अ-
शद्ू(ए, एएसु चव विपरामुमति, गुरु से कामा,
तश्चा मारत, जग्रा से मारते तश्रा से दर, नव
से अंतो नेव दरे ( प्रू०-१४१)
.श्राचन्ता ` च यावन्तो जीवा मनुष्या श्रसयता वा
स्युः, ' के आवंति ` त्ति केचन लोके चतुदैशरज्ज्वा-
त्मके ग्रहस्थान्यतीथिकलोके वा प्रडजीवनिकायान् श्रा-
रञ्भध्रचृत्ता विविधम्--श्रनकयमकारम् विषयाभिलापित-
या परामूशन्ति-उपतापरयन्ति ,
अन्तील्ययः, किमर्थ
(८९
दरडकशाताडनादिभिघ्ांत- |
विपरासूशन्तीशि दश्चयति--श्रथ।य- '
( ७७१ )
अभिधानराजन्द्रः।
लागसार
अथाथेम् अथाद्वा अधः--प्रयाजन धम्माधकामरूपम्, वः
म्मणि स्यञ्लापे पञमी, अथमुद्दिश्य-प्रयाजनमुन्प्रच्7
प्राणिना घातयन्ति, तथादि--धम्मानामत्त शाचाथ ए-
शिवीकाय समारभन्त, अथोथ कृष्यादि कुवान्त, का-
माथमाभरणादि, एवं शपर््वपि कायषु यथायागे वः
च्यम्, श्र्तथाद्ा--प्रयाजनमनुदिश्येव तच्छीलतयेव रू -
गयाद्याः प्रारयुपघातक्रारिणीः क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवम -
थादनथांद्रा प्राणिना हत्वा एनप्वव पडजीवनिकाय -
स्थानघु विविधम--अनेकप्रकारं सृच्मवादरपय। कापया -
कादिभदेन तानकन्द्रियादीन् धाणिनस्तदुपघातकारिरः
पराम्शन्ति, तान् प्रपीक््य तप्ववानकश उत्पद्यन्त दां.
यावत् , यदिवा-तन्पडर्ज(वनिकायवावाऽचाप्त कम्म त-
चव कायपृन्पय त तेस्तेः प्रकारेरुदीणं विपरासशन्ति
अनुभवन्तीति । नागाज्जुनीयास्तु पठन्ति--' जावेति कः
लोए च्ुकायवदं समारभत अट्टाए अणद्वाए वा `" इर्यः
गताथम् , स्थाद-अली किमथनवविध्'नि कम्माणि कुरुत
यान्यस्य काथगनस्य विपच्यन्त ?, तदुच्यत ` गुरू २4
कामा' `स ` तस्य--अपर माथविदः काम्यन्त इति कामाः
शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वान् . कामा द्यटपसस्वैरन-
वाप्तपुरायापचय ख्लक्तायतु दुष्कर्रामत्यतस्तदथ -कायषु प्र
वततत , तत्परवृत्तो च पापरापचयस्तदुपरचयाच्च यत्स्यात्तदा
द--ततः कायविपगमशांत् परमकामगुरु-
त्वाच्चालो मरौ मारः-आयुषः क्षयस्तस्यान्तर्वत्तत
मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चाव्रण्येमावी मन्युरवं जन्म-
मरणात् सेरारादरन्वानि मज्जनान्मञ्जनरूपान्न मुच्यते !
ततः किमपरमित्याह--' जश्रा स ` इत्यादि, यतोऽ
मृत्योरन्तस्तताऽसो दूर परमपदापायात् ज्ञानादित्रयास
तत्कार्याद्धा माक्ताद् , यदि वा>खुखार्थी कामान्न परित्य-
जति, तदपरित्याग च मागान्तवर्ती, यतश्च मारान्त्वत्ती
तता जातिजरामरणरागशोकाभिभूनत्वादसो सुखाद् दूर ।
यस्मादसो कामगुरस्तद्गुरत्वान्मारान्तवत्ती तदन्त-
वरसित्वात्किम्भूतो भवतीत्यत श्राह--' नव से ' इत्यादि
नेवासो विषयसुखस्यान्तवत्तत, तदाभिलाघापरित्यागःच्च
नैवासौ दुर, यदि वा--यस्य गुरवः कामाः स कि
कमणा ऽन्त्वहिर्चाति प्रश्नावसरे सत्याह--' रव से ' त्यादि
नवासो कम्मणाऽन्तः-मध्य भिन्नग्रन्थित्वात्सेभावितावश्यभा-
विकम्मत्तयापपत्तः, नाप्यसौ दूर देशानकारीकारिकम्म-
स्थितिकत्वात् , चारित्रावाप्तावपि नवान्तनव च दुरे इत्य-
तच्छृकयत वक्रम् , पूर्वाक्तदेव कारणादिति । अथवा--यन
दं प्राणायि कमसाच्न्तभूतः संसाग्स्याहोस्विद्व हिवैत्तेते
इत्याशङ्खाद-- रोव से ` इत्यादि , नेवासों संसारान्त
घातिकम्मक्तयात् . नापि दूरे अद्यापि , भवोपग्राहिकम्मेस
द्धावादिति।
यो हि भिन्नग्रन्थिको दुरापावाप्तसम्यक्त्वः संसागारा-
तीयती रबर्ती स किमध्यवसायी स्यादव्याद-
से पासइ फुसियामेव कुसग्गे परुं निवहयं वाए-
रेयं , एवं बालस्स जीविय॑ मंदस्स अधियाणओ -
कूराई कम्माई बाले पकुव्बम,णे केश दुक्खेण मृद
| - =
( ७४० )
जोगसार
विपरिआसमुत्रेड, मोदेण गन्भं मरणाद एड,
भहे पृणो पुणा | € स्रू०-१७२ )
स पासई ' त्यादि, सः-अपगतमिथ्यान्वप्टलः स-
म्यक्त्वप्रभावावरयतनसारासारः
क्रिय इन्यत उपलभन-- अवगच्छति.
यामव. नि-( उन्यादपदानां व्याख्या
तुधभाग १५४६४ पृष्ठ गता । )
ता बालग्रहणम . वाला--ह्ायज्ञः , नत्वादब जोवितं
यहु मन्यत यत एवं बराल्लाघव एवं मन्दः सदसाठ्वकापट:,
यत एव वुद्धिमन्दा्न ण्व परमाथ न जानाति, अतः पर-
माश्र्मावजानत एवम्भूतं जीवितमित्यवें परयति | परमाथम-
जानश्च यन्कुयात्तदाह-- कृगणि ` इत्यादि. कृराणि--
कि नत् ?--' फुस-
जीविय शहद च-
निदयानि निरनुक्राशान कम्माणि- अनुष्ठानानि हि-
सानृतस्तयादीन सकललोकचमन्क्ातकारीणि अपष्टादश `
वा पापम्थानानि बालः-अज्ञ: प्रकषण कुबाणः , ^ कत्र-
भिधाय ्रियाफल "' आत्मनपदविधानाचस्यव तत्क्रिया-
फलविपाक दर्शायाति-तन-क्ररकम्भविपाकापादितेन दुः-
स्वन मृढः- किकत्तेड्यता55कुल: कन कृतेन ममेत-
दुदुःखमुपशर्म यायादिति माहमोद्दितो विपयोसमुपैति--
यद्व प्राययुप्रवातादि दुःखात्पादने कारणं तदुपशमाय त-
देव विदधातीति | किंच--' माहण ' ( इत्यादि पदानां व्या-
ख्या ` माह ` शब्दे पञ्चमभाग ४५६ प्र गता।) ततश्चन
यावाहिशणश्ञानात्पत्ति: संवुत्ता तावत्कम्मशमनाय परत्र
न्तिः स्यात् , नष दाषः. श्रध्रसशयनापि प्रव्रात्तदशनादिति।
हैं श्राह च--
ससय णरेआणओ संसारे प्रिननाए भवइ ,
अपारयाणआ ससार अपारन्नाए भवह | ( सू०-१४३ )
ससय मित्यादि
श्रतीतः सशयः. स चाथसंशयाउनथरुशयश्व॒ । इद
चार्था--माक्षा म।क्षोपायश्व , तत्र मात्त न सशयाऽत्ति,
परमपदार्शात प्रतिपादनातू, तदुपाय तु संशयेडपि
प्रवात्तिभवत्यव, च्रथरसशयस्य प्रवृच्यङ्गत्वात् । श्रन्रस्तु
ससारः ससारकारणं च. तत्सन्दह 5पि निचरत्तिः स्यादेव
श्रनश्रसणशयस्य नित्रच्यङ्गःवात् : श्रतः सशयमश्ानश्रगत परि-
जानता देयापादयप्रत्त्तिः स्यादिन्यतदव परमाथतः ससा-
रपरिज्ञानमिति दर्शयाति--तन संशयं परिजानता ससार
श्वतुगतिकः तदुपादाने वा मिध्यान्वाविरत्यादि श्रनरूप-
तया परिज्ञात भवनि क्षपरिक्षया , प्रत्याख्यानपरिक्ञया तु
पारहतामात । यस्तु पुनः सशय न जानाते स ससारमांप |
न जानातीति दर्शायतुमाद--` ससय ` इत्यादि, सशय-
सन्दहं द्वाविधमप्यपरिजानता देयापादेयपच्रृत्तिन स्यात् ,
लद॒प्रवत्तों च ससारोपनित्याशुचिरूपा व्यसनापनिपातबहु-
लो निःसारा न ज्ञाता भयति |
कृतः पुनरेताज्नश्चीयत ? यथा तन संशयवदिना सेसारः-
परिज्ञात हति ?. किमत्र निश्चनव्यं ?, संसारपरिज्ञानका-
याबग्त्युपलब्धः, तत्र सर्वविरतिप्रष्टां विरात निर्दि--
दिल्लुराह--
जे छेए से सागारिय न मेवद, कद एवमवियाणओ |
च नधानराजन्द्र
एत्थ
॥
एश्यात- दशिहपलड्यि-
नाप्यलो तदभिकाक्कति अ- |
ससयं .
सर्श\तिः सशयः-उभयांशावलम्बा |
लागसार
बरया मदस्म बलया, लड़ा हरत्था पाइंलहाए आग-
मत्ता अआखवज्ञा अणासवणय त्ति बाम | ( खू०-१४४ )
ज कुण ' इत्यादि यश्छुको--निपण उपलब्धपुण्यपापः
सः सागारिये ' ति मेथुने न सवेत मनावाक्रायकम्मैभिः,
स एव यथार्वास्थितसेसा रवदी , यस्तु पुनर्माहनीयादवान्पाश्व-
स्थादिः तत्लवत, सेवित्वा च सातगारवभयात् कि कुयो-
दित्याह-' कद ठु ' इत्यादि, रहसि मेयुन्रसङ्ग कृत्वा पन-
गुवांदिना पृष्टः सन्नपलपति तस्य चवमकायमपलपताऽचि-
ज्ञापयतावा कि स्यादिन्याद-- ` विद्या ` इत्यादि, मन्द्-
स्य-अवाद्धमत एकमकार्यासवनमिय वालता-ञ्ज्ञानता ,
द्वितीया तदपह्ववन सृपावादः तदकरणतया वा पुनरनुत्था- -
नामि, नागाजुनोयास्तु परन्ति--" ज खलु विसए सवद
सचित्ता वा णालाण्ड, परण वा पट्टा निगटवद. अहवा-
तपरं सपण वा दासण पविद्धयरण वा दासण उवलि-
पिञ्ज ` त्ति" सुगमम् । यद्यवे ततः कि कुयौदित्याह-
` लद्धा हु ` इत्यादिः लब्धानपि कामान हरत्थ क्ति
बहिश्चित्रक्ुण्लका दिव त्तद्गधिपा्क॑ पत्युपच्य चित्ताद्रहिः कुः
यात्; यदि वा--हुशब्दः--अपिशद्दार्थ, रफागमः खु-
ब्व्यत्ययन द्वितीयाश्च प्रथमा. तताऽयमर्थो--लब्धानप्यश्च-
न््त-अमभिलषन्त इत्यधाः--शब्दादयस्तानुपनतानपि त-
द्विपाकद्धारण प्रत्युपच्य--पयालाच्य ततः आगम्य ज्ञा-
त्वा दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्गम् , कत्वा प्रत्ययस्यात्तराक्र-
यासव्यपक्तत्वात्तां दशयति--तदनासवनतया परानाज्ञापये-
त्. स्वताऽपि परिहरेदिति, एतदहं व्रवीमि यन मया पूर्वाथ
व्यावरणनमर्कार स पवाटमव्यवाच्छन्नसम्यग््ञानध्रवाद.
शब्दादिविषयस्वरूपापलम्भात् समुपजनितजिनवचनसेमद
इति । एतच्च वक्ष्यमाणं ब्रवीमीति |
तदाह-
पासह एमे रूवेसु गिद्ध परिणिज्जमाण,इत्थ फासे पुणो
पुणो, आवत कयावती लोयंसि आरंभजी वि, एएसु चव
आश्भजीवी इत्थ वि बाल पारपच्चमाण रमई पावाह
कम्महि असरण सरण ति मन्नमाण | ( सू०-१४४ > )
पासह ` इत्यादि, हे जनाः ! पश्यत यूयमकान्तप॒ष्टथ-
म्माणा, बहुवचननिद्देशादाद्यर्थो गम्यत, रूपषु-रूपादि-
ष्विन्द्रियविषयषु निःसारकठुफलेषु ग्रद्धान--अध्युपपन्नान्
सतः इन्द्रियर्विषयामिमुख ससाराभिमुखे वा नरकादियात-
नास्थानक्रषु वा परिणीयमानान् प्राणिन ईते | तच विषय
गरध्नव इन्द्रियवशगाः संसाराणव किमाप्लुयुरित्याह--
एत्थ फास ` इत्यादि, श्र्-ञ्रस्मिन् ससार हृषीकवशगः
सन् कम्मपरिणतिरूपान् स्पशान् पोनःपुस्यन-आवदृत्त्या
तानव तयु तेष्वव स्थानघु प्राप्नुयादिति । पाठान्तरं वा-
` एत्थ माह पणा पणा ` अत्र--श्रास्मन् ससार माह-
अज्ञान चारित्रमाहे वा पनः पुनभवर्ताति । काउसावेवम्भूतः
स्यादित्यत आह-' आवती ' त्यादि, यावन्तः केचन लोके-
ग्रहस्थलाक च्रारम्भजीविनः--सावयायुष्ठानस्थितिकाः, ते
पोनःपन्यन दुःखन्यनुभवयुरिति । यप गृहस्थाश्रताः
सारम्भास्तीशधकादयस्तऽपि तहःखभाजिन इत दशैर्याति
` एएसु ' इत्यादि, एतेषु सावद्याग्म्भप्रवृत्तषु | शरी
( भ्न । च्ट् )
लागसार
रयापनाथ वत्तंमानस्ती धिक
सावद्यानुष्टा नव॒ांत्तः पृवोङ्कदुःखभाग् भवति । आस्तां ताव-
द् ग्रहस्थः तार्थिको वा. याऽपि ससाराणवतटदशमवाप्य
सम्यकत्वरले लड्ध्वाडप माक्तककारणं
सफलतामनोत्वा कम्मादयात् साऽपि सावद्यानुष्टायी स्या-
दित्याह-- एत्थ वि वाल ` इत्यादि अत्र-अस्मिन्नप्यह-
त्प्रणीतसयमाभ्युपगमे बालो-रागद्वेपाकुलितः पारतप्यमा-
नः पारपच्यमाना वा विषयपिपासया रमत कैः ?-पापेः
श्राभधघानराजन्द्रः
पाश्वस्थादवा आरम्भज्ञाबा- |
विरातिपरिणामं |
कम्मभिः. चिषयाध्र सावद्यानुष्ठान धरति विधत्त, कि कुर्वाण |
इत्याह--'असरण' मित्यादि. कामाभ्चिना पापवी कम्मभिः
परिपच्यमानः सावद्यानुषएठानमशर रमव शरणार्मात मन्यमा-
ना भागच्चाऽज्ञानतमिखाच्छादतदष्िविपर्ययः सन् भूया
भूया नानारूपा वदना अनुभवदात । च्रास्तां तावदन्य
प्रब्॒ज्यामप्य भ्यपत्य काचाद्वष्यापपासात्तास्तास्तान् कलक्रा- |
चारानाचरन्तीति दर्शायतुमाह--' इहमर्गास ` मर्त्यां
( आचा० ) ( सत्रम् ` पगचरारया शब्द तृतीयभाग ७ पृष्ठ
गतम् । ) ( अत्रस्था चारवक्कव्यतानियुक्किः 'चार' शब्दे तृती
यभाग ११७२ पृष्ठ गता । )
एकचयौ प्रतिपन्ना ऽपि सावद्यानुष्ठानाद्धिरतरभावाच्च न
मुनिरित्यक्तम , इह तु तद्भिपययण यथा मुनिभावः स्यात्त
थाच्यत, इत्यनन सम्तब्रन्थनायातस्यास्याइशकस्या द्सत्रम-
आवन्ते। कयावन्ता लाए अणारभजीविणो तसु,
एत्थोवरणए ते भासमाणे, श्रयं संधीति अदक्खू , ज इमस्स
विग्गहस्स अयं खण त्ति अन्नसी एस मग्ग आरण
पवेइए, उद्िए नो पमायए,
पद छदा इह माणवा पुद। दुक्खं पवदयं से अविहिंसमाणे
अणवयमाण, पदा फास विपणुन्नए | ( स्ू० १४६ )
यावन्तः कनन लाक-मनुप्यलाक अनारम्भजीविनः-
श्रारम्भः-स(वद्यानुषठान प्रमत्तयागा वा, उक्तं च-* आदा-
शे निक्खच.भासुस्सग्ग अठाणगमणाई । सव्वा पमत्तजोगा
समणस्स वाइ आग्म्मा ॥ १॥ ` ताद्रपययण त्वनार-
म्भस्तेन जीवितु शीले यपामित्यनारम्भजीविना-यतयः स-
मस्तारम्भनिवरत्ताः तष्वव-ग्रृदिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्य-
थमारम्भव्रत्रत्तप्वनारम्भजीविना भवन्ति, एतदुक्क भवति-
जाणित्तु दुक्खं पत्तयं सायं, |
सावद्यानुष्ठानघवृ नषु ग्रहस्थषु दहसाधनाथथमनवद्यारम्भ- |
जीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कजवन्निलपा एव भवन्ति । |
यद्यवे ततः किमित्याह-अत्र-अस्मिन् सावद्यारम्भे कत्ते-
व्ये-उपरतः-सङ्कचितगाच्ना , वा55हते धर्म व्यवस्थितपा-
पारम्भात् , कि कुयात् सः ?-तत्-सावद्यानुष्ठानायातं कर्म्म
भोषरयन-- क्षपयन् मुनिभावे भजत इति | किमंभिसन्धाया- |
ओपरतः स्यादित्याह श्रयं संधी * इत्यादि, श्रविवत्तित-
कम्मेका प्यकम्मका धातवः. यथा पश्य मगा धावति,
पवबमवाप्यद्राक्तीदिवयेतन्क्रियायागे ऽप्ययं सन्धिरिति प्रथमा
छृतात, ` श्रय ' मिति प्रत्यक्षगाचरापन्न आर्यक्षेत्रसुकुलो-
न्पत्त न्द्र यानद्ृत्तिश्वद्धा सवेगलक्षणः सन्धिः-श्रवसरा मि-
त्वक्षय्रानुदयलक्षणो वा सम्यकत्वावाप्तहतुभूतकम्नावे-
नी न जा | अपहम सनन्घः शुभाध्यवसाय सन्धानभूतो वा सान्ध-
सलागमसार
रत्यव खान्मनि व्यवस्थापितमद्रा्ताद्धवानन्यतः क्षणम-
प्यक न प्रमाद्यत् न विषयादिप्रमादवशगा भूयान् , कञ्च
न प्रमत्तः स्यादन्याह-' ज इमस्स ` इत्यादि. य- इनि उप-
लन्धतत्वः श्रस्य--श्रध्यक्षस्य विशपण गृह्यत श्रननाण्र-
रकारं कम्म तद्धतरशर्सीरर्विशिष्रं वाह्यन्द्रियण ग्रह्मत इति
विच्रहः-श्रादारिकं शरीरं तस्य अयम-चाक्तर्मानकतक्षणः
पवम्भूतः खुखदुःखान्यतर रूपश्च गतः पवम्भृतश्च भावी -
त्यवे यः त्षणान्वषणशीलः सा ऽन्वपी सदा प्रमन्नः स्या-
दिति । खप्तनीषिकापगिहाराथमाह- ' एस मग्ग ` इत्यादि.
पषः-अनन्तराक्रा मार्गो-माक्षपथः शआ्रार्यः-सवदयधरम्मागा-
तीयतीरर्वाच्तिभिस्तीश्रकरगणधरैः प्रक्षणादों वा वदि-
तः--काथितः प्रचदित इति । न केबलमनन्तरगोक्ना वच्य-
माणश्च तीथ्थकरेः प्र्वादत इति, तदाह-' इत्यादि,
सन्धिमधिगस्यात्थितों धर्मचरणाय क्षणमप्यकं न॒प्रमादयत्
कि चापरमाधिगम्यत्याद- ज्ाणित्त ` इत्यादि, ज्ञात्वा प्रा-
णिनां प्रत्येक दुःख तदुपादाने वा कर्म तथा प्रत्यक॑ सात
च-मन आह्वादि ज्ञात्वा समुत्थिता न प्रमादयत् न कवलं
दुःख कम्मे वा प्रत्यकम् .तदुपादानभृनाऽध्यवसायाऽपि प्रा-
णिनां भिन्न वति दशयितुमाह-' पुढा ` इत्यादि , प्रथग--
मिन्नः छुन्दः--अशभिश्राया येषां ते प्रथकुछन्दाः, नानाभुतव-
न्धाध्यवसायस्थाना इत्यथ:, ` इह ` ति ससार संज्ञिलोक
वाक ते मानवाः मनुष्याः : उपलक्तगाशत्वादन्य ऽपि
सल्ञिनां परथक्खकरपःवाच्च तत्कायर्माप कम्म पृथगव , त-
त्कारणमपि दुःखे नानारूपामति । कारणभदे कार्यभदस्य
अवश्यंभा वित्वादिति;अतः पूर्वाक्न॑ स्मारयन्नाट- ` पुढा
त्यादि,दुःखापादानभदाद् दुःखमपि प्राखिनां पृथक् प्रवादतम
सवस्य स्वकृतकम्मंफलश्वरत्वात् नान्यकृतमन्य उपभुङ्क्र
इति, पतन्मत्वा कि कुर्यादित्याह-'स' इत्यादि, सः-अना-
रम्भजीवी प्रत्येकसुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधरुपा-
यैरहिसन् तथा-अनपवदन्-अन््यग्रेव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा
वदन्नप्रवदन नापवदन् अनपवदन . मृषावादमव्रवन्नित्यथ
पश्य च त्व तस्याप प्राकृतत्वादाषत्वाद्वा लापः, एवं प-
रस्वमगरृहन्नित्याद्यप्यायाञ्यम् । एतट्विधायी च किमपरं
कुर्यादितव्याह-'पुद्ा' इत्यादि, स पश्चमहाबतव्यवस्थित
सन् यथाग्रहीतप्रातिज्ञानिवेहणोद्यतः स्पृष्ठ: परीषहापस-
गेस्तान-तत्कृतान् शीताष्णादिस्पशोन दुःखस्पर्शान् वा त-
त्सदिष्णुतया अनाकुला विविधेरुपायेः-प्रकारे: संसारासा-
रभावनादिभिः प्रर्येत् , तत्पेरणं च सम्यक् सहनम् , न त-
त्कृतया दुःखासिकया 5 ऽ्मानं भावयदिति यावत्।
यो हि सम्यक्ररणतया परीषहान्सहेत स किंगुणः स्यादित्याह
एस समिया परियाए वियाहिए, ज असत्ता पावेहिं
कम्मेहिं उदा ते आका फुर्सति, इति । (छू०-१४७+)
एपः--अनन्तरोक्ला यः परीषहाणां प्रणादकः, समिया'
सम्यक् शमिता वा.शमो ऽस्यास्तीति शमी तद्धावः शमिता
पयायः-प्रचञ्या सम्यक् शमितया वा पर्वायः-प्रनञ्याऽस्याति
विग्युह्य बहुब्रीहिः स सम्यकूपयायः शमितापयाया वा व्या-
ख्यातो नापर इति | तदव परीषहोप तगीन्ञाभ्यतां प्रतिपाद्य
व्याधिसदिप्णुतां प्रतिपादयन्नाह-'ज असत्ता इत्यादि, ये
अपाकृतमदनतया समतृणमणिलेष्टुकाञ्चनाः समतापन्नाः
उरद्ष `
( ७४४ )
ञअभिधानराजन्द्रः।
लागसार
ल्ागसार 4
पापचु कम्मस्वसक्काः--पापापादानानुष्टानारता 'उदाडु- |
कदाचित्तान् तथामूृतान साधून आतक्का-आशुजीविताप
हारिणः शूज़ादया व्याधिवशपाः स्प्रशान्त-आभभवान्न्त
पाडर्यान्त । यदि नामेव ततः किमित्याद- इति उदाहु `
इत्याद ( मूलसृत्रम ` तिन्थयर ` शब्द चतुर्थभाग २-६२
- पुष गतम् । ) इति एतद्रद्यमाणमुदाहतवान् व्याक्ृतवान ,
का5सो ?-धीगा-धीः-वबुद्धिः तथा राजत, सच तीथकूद्
गणधरा वा, कि तदुदाह्वतवान् ?, तंगातङ्कः स्पृष्टः सन् तान् |
स्पशान् -दुःखानुभवान् व्याधविशषापादतानध्यासयत्-
सदत । किमाकलय्यत्याह-' स पुव्व ` मित्यादि, स स्पृ
प(डतः अशु कागाभिरातङ्करतद्ध (वधत्, यशा-पूचनप्यतद्-
अलातावेदर्नीयविपाकजानते दुःखे मयेव साढव्यम् , पश्चाद्
प्यतन्नधैव सटर्म(चम : यतः-सप्तारादरविवरवर्ती न विद्यत
एवासौ यस्यालातावदनीयविपाकापादिता रागातङ्का न
भवयुः, तथाहि-केवलिना ऽप माहनीयादिधातिचतुप्टयक्ष-
या दुन्पन्नज्ञानस्य बदनीयसद्धावन तदुदयात्तत्रूम्मव इति,य-
सश्व-तीथकरेरप्थतद्वद्धस्प्रर्शानधत्तानकाचनावस्थायात॑ क- |
मर (वर्यं वद्ये नान््य-या तन््नाक्षः, अताउन्यनाप्यसातावंद- |
नीयादय सनत्कुमागर्टण्शान्तन मयेबतत्साढ्व्यमित्याकलय्थ |
नाटिंजतव्य मत । उक्ल च-- स्वक्ततर्था र्णतानां दनयानां
विपाकः, पुनरपि सहनीयो 5न्यत्र त निसु णस्य स्वयमनुभव- |
लाऽता दुश्खमोक्षाय सद्यो, भवशतगांतहतुजायते3डानिच्छु
तस्ते ॥ अपि च-एतदोदारिक शरीर सखुचिरमप्याप
घग्सायनाशप्ृहिते मसुन्मया 5 एयघटाद।प निःसारतरं खब-
था सदा विशशर्दिवात दर्शयन्नाह--' भिदुरधम्म ` मिल्या-
दि. यदि वा-पूर्व पश्चादष्यतदोदारकं शरीरं वच्य माणथम्मे
स्वभायामत्याह-- भिदरधम्म ` मत्यादि.स्वयमव भिद्यत-
दाति भद्रः स धम्माञऽस्य शनारस्यात भिदरधम्मम् . इद-
मादारिकं शरीरं खुपाषितमाप-वेदनादयाब्छिरादर चक्षुरुर
प्रथत्यवयवपु स्वन ण्व भिद्यत इति भिदुरम्. तथा विध्वंस
ध्रम्मपणिपादाद्यवयवविध्वंसनात् . तथा अवश्यंभावस
भावितं त्रियामान्त सूर्धोदयवत् धवन तथा यत्तदधरवम् त-
था श्रप्रच्युतानुःपन्नस्थिरेकस्वभावतया कूटस्यनित्यत्वेन
व्यवस्थित सन्नित्यम : नवं यत्तदानत्यर्मिति , तथा तन तेन
रूपाद् कधारावच्छष्वद्धवतीति शाग्वतम्,तताऽन्यदशाभ्व-
तम. तथप्टाह्रापभागतया धृत्युपष्टम्मादा दा रिकशरी रवगै-
णगापरमाणुपच्याद्वयः,तदभावन ताद्वचटनादपचयः.चयाऽ-
पक्त्यों विद्यत यस्य त्चयापर्चायकम्, अत एव विविधः परि-
रामः-ञअन्यथाभावात्मका धम्मः-स्भावो यस्य तह्विपरिणा-
मधस्मंस | यतश्चवम्भूतमिदे शरीरकमतोऽस्यापरि कोऽनुव
न्धः का मूच्छ {नास्य कुशलाचुष्टानमरनऽन्यथा साफस्यमि-
त्यतद्वाह--' पासह ` इत्यादि, पश्यतेनें-पूर्बोक्ल॑ं रूपसन्धि
भिदुरधम्माद्याप्रातोदारिक पश्चन्द्रियनिद्वेतिलाभावसरात्म-
कम , दष्टा च विविधातङ्जांनतान् स्पर्शीनध्यासयदिति ॥
पतत्पश्यतश्च यत्स्याक्तदाह-सम्यगुत्प्रक्षमाणस्य--पश्यता-
ऽनित्यताघ्रातमिद् शरीरमित्यवमवधारयता नास्ति मागे
इति सम्बन्धः, कि च--श्राङ् अभिविधों समस्तपापार-
म्मेभ्य आत्मा आयत्यते-आनियम्यत यस्मिन् कुशलान-
छान वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतने-ज्ञानादित्रयम एकम्
श्रद्वितीयमायतनमेकायतन तत्र रतस्तस्य ,{# चू-इ- |
ह-शरीरे जन्मनि वा विविधे परमाथभावनया शरीरा-
जचन्धात् प्रमुक्ता-विभ्रमुक्कस्तस्य नास्ति-न विद्यत ,
काऽसौ १--मार्गो-नरकातयङ्मनुष्यगमनपद्धतिः, वत्तमान-
सामीप्य वरत्तमानदर्शनान्न भविष्यतीत नास्तीत्युक्षम ,
यदि वा-र्तास्मन्नव जन्मनि समस्तकम्मंत्तयापपत्तर्नास्ति
नरकादिमार्ग: , कस्यति दर्शायात--बिरतस्य-हिंसाद्राश्र-
वद्धारेभ्या निवृत्तस्थ , इतिराधिकारपरिसमाप्तों , ब्रवीमी-
त पूववत् , खुधर्म॑स्वाम्यात्मानमाह , यद्धगवता बीर
दमानस्वामिना दिव्यज्ञाननार्थानुपलभ्य वाग्योगनोक्न॑ तद-
हं भवतां व्रवीमि, न स्वमतिचिरचननेति । ( आचा० )
( श्रविरतवादी पारिप्रहवानिति ` पारग्गहावत ` शब्द
पञ्चमभाग ५६७ पृष्ट गतम् । )
आवंती केयावंती लोयसि अपरिग्गहावंती एण्सु च
अपर रिग्गहावंती, सोच्चावई मेहावी पंडियाण निसाभि-
या समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जदित्थ मण
संधी ोमिए एवमन्नत्थ संधी दुजासए भ्रइ, त-
म्हा बेमि नो निहणिज वीरिये | ( इ०--१५१ )
यावन्तः कचन लोके5परियग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः,
ते सवरं एतष्वव अल्पादिष द्रव्यपु त्यक्तेपु सत्स्वपरिग्रहघ-
न्तो भवान्त, यदि वेतप्वव परस जावानकायषु ममत्वा-
भावादपारग्रहा भवन्ति । स्यात् , कथमपरिग्रहभावः स्या-
दित्याह--' साझा ` इत्यादि, ` बइ ` त्ति सुब्व्यत्ययन द्वि
याथ प्रथमा, अता वाच--तीथकराज्ञामागमरूपां श्र-
त्वा-आकरर्य मघावी-मयादाव्यवस्थितः सश्रुतिका
हयोपादेयपरिहारप्रब्वात्तज्ञ . तथा परिडतानां गणध-
राचायादीनां विधिनियमात्मकं बचने निशम्य सचि-
त्तावित्तपरिग्रहपरित्यागादपरिग्रहों भवाति । स्यादेतत्
कदा पुनरुत्पन्ननिरावरणज्ञानानां तीथेकृतां वाग्यागों भ~
वात यनासावाकरायत ? , उच्यत-धम्मकथाऽवसरे, कर
म्भूतस्तेः पुनधम्मेः प्रवदित इत्यारेकापनादाथमाद ` स~
मिय ` त्ति समता--समशत्रमित्रता तयाऽऽँधम्मैः प्रव-
दित इति । उक्तं च-- जा चदणण बाहु. श्रालिपषट
वा सिणावतच्छत्ति । संथुणद जो अ णिदति, महास-
णा तत्थ समभावा ॥१॥ ” यद्िवा--श्रार्यसु-दशभाषाच-
रितराऽभयेषु समतया भगवता धम्मः प्रवदितः, तथा
चाक्रम्-- जहा पुरणस्स कत्थइ तदा तुच्छस्स क
त्थ ` त्यादि. श्रथचा-शाममा भावः शमिता तया ख-
वहयधम्मारातीयवत्तिाभः आर्येः प्रकचंणादो वा धर्म्मं
चदितः- प्रदितः, इन्द्रियनाइन्द्रियापशमन तीथरुद्धिधम्भः
परज्ञापित इति यावत् । स्याद्--श्नन्यरपि स्वाभिप्रायण
धम्मीः प्रवदिता एवेत्यतस्तद्व्युदासाथ भगवानवाद--
जहत्थ ' व्यादि, सदवमनुजायां पषदि भगवानवमाद-
यश्ाऽत्र मया ज्ञानादिको माक्तसन्धिः ` कोसिश्रा ` ्तिस-
वित इति, यदिवा-अत्र-अस्मिन ज्ञानर्दशनचारित्रात्म-
के माक्तमार्ग समभावात्मके इन्द्रियनाइन्द्रियोपशमरूवे
मया--मुमुच्लुणा स्वत एवं सन्धाने सन्धिः कर्म्मसन्त-
तिः, सन्धीयत इति वा भवाद्धवान्तरमननेति 53]
अप्रप्रकारकर्म्मसन्ततिरूप:ः ; स क्राषितः--क्षपितः अता
५
|
|
।
( ७४५ )
स्तागसार
य एव ताथकाड्ूद्धम्माउआाभाहतः स पव मात्तमागा नाऽ |
एयमन्यजत्र
पर इत्यतदवाह-यथा<त्र मया सन्धिर्काषितः
श्नन्यतीधिकप्रणीत मात्तमागे सन्धिः कम्मंसन्तातिरूपः
दुभोष्या भवति-दुःक्तया भवति , श्रनमा्चौनतया त-
दुपायाभावात् , यदि नाम भगवताऽत्र कम्मस(न्धर्भोषि-
नस्ततः किमिव्याद--यस्मादास्मन्रव मार्गे व्यवास्थतन
मयाभप विरूष्रतरण तपसा कम्म क्षपित तताऽ-
न्याऽपि मुमुचतुः सयमानुष्ठान तपासि च वीयना निह-
न्यात् नो निगढयद् श्रनिगृहितवलवीयों भूयाद् पएतदहे
ब्रवीमि परमकारूणयाकृए्हृदयपरहितेकोापदेशदायी त्यतद्धी-
रचर््धमानस्वाम्याह; सुघर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म।
( आचा० ) ( अग्नतनसत्राणि ` धम्म ` शब्दे चतुर्थ-भाग
२६७३ पृष्ठ गतानि । )
सदाऽ ऽचायसविना भवितव्यम् , आचार्यण च हदोपमे-
न भाव्यम् , तदन््तवासिना च तपःसमयगुप्तन निःसङ्गन
ख विहक्तञ्यर्मित, पतत्प्रतिपादनसम्बन्यनायातस्थास्या-
देशकरस्यादिस्जम्-
से बेमि, ते जहा-च्वेहरण पडिपुष् स्मसि भामे
चिट्ठ३ उवसतरण सारक्वमाण, स चिद्रू सोयमज्क-
गए से पास सज्यओ गुत्ते, पास लोए महेसिणों जे य
पएन्नाणमंता पवुद्रा आरम्भोवरया सम्ममयंति पासह
ङलस्स क्खाए पारव्ययंत तवम् | (प्रू
* स ` शब्दस्तच्छुच्दार्थ, यद्गुण आचार्या भवाति तददे
तीरथकरोपदेशानुसारण व्रवीमात , तद्यथात वाक्याप-
स्थासाथ, अपिशब्दा भड्समुच्ययाथः , त चासौ भङ्गाः
पका हृदा-- जलाशयः परिगलत्स्राताः परयागलःस्रा-
साश्च . सीनासीनादाधवादहदवत् , अपरस्तु परिगलत्स्रा-
ताः ना पयागलन्खादाः, पदमहदवत् , तथा उपरा ना
परिगलःस्राताः पर्यागलन्स्रोताश्च. लवणादश्िवत् , अ-
परस्तु ना पारगलस्नाता ना पयागलःस्राताश्चः, मनुष्य- |
कोकाद्रटिः समुद्रवत् । तत्राऽध्चायः श्रुतमन्गीकृत्य प्रथम-
भङ्गपनितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्धावात् , साम्परायक-
कर्म्मापक्तया तु द्विनीयभङ्गपतितः , कषायादयाभावन
ग्रहणाभावात्तपःकायोत्सगादिना क्षपणापपत्तश्चति , च्रा-
लाचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः श्रालोचनाया अप्र- |
तिश्रावित्वान् , कुमाग प्रति चनुथमङ्पतितः, कुमागस्य
ह् रमभः प
ञ्यन्त- तत्र स्थविरकर्पिकाचायौः प्रधमभङ्गप्रतिनाः
दवितीयमङ्गपतितस्तीयचछन् , तृतीयभष्ठ प्थस्त्वहालान्दिकः ,
स॒ च क्रयदर्थाएरिसमान्नावाचायादर्जिणयसद्धा--
चात् , प्रत्टकवुद्धास्तूनयाभावाच्चतुथभङ्गस्था इति , इह
पुनः प्रथमभन्ञपतितेनो भयसद्भाविना ऽधिकारः ५ तथा-
भूतस्येवायं इृददष्ान्तः , स च हदो निस्मलजलस्य
प्रतिपूर्णा जलजः सर्वत्तजख्पशाभितः समे भूमाग विद्य-
मानोदकनिर्गमप्रवशा नित्यमब तिष्ठति म न कदाचिच्छा-
वमुपयराति , खुखात्तारावतारसमान्वितः , उपश्तान्तम्-अ-
पत रजः कालुण्यापाद्कं यस्य स तथा , नानाविशांश्व
यादसां गणान संगक्षन सह वरा यादीगगगानमानमागन्तनं
97-5७
श्रभिधानरानजन्द्र
ललागमसार
प्रातपालयन् सारक्तन् निष्टतीत्यपा क्रिया प्ररृतव | यथा
चासा हदस्तथाऽभ्चायाऽपीति दशयात-सः--श्राचाय
प्रथमभङपतितः पञ्चविधाचारसमन्विता ऽघ्रावधाचायम-
म्पदुपतः, तद्यया-'“ आयार स्र सरीरे, वपण वायणमरं
पञ्मागमई । एए सुसपया खलु. अट्टांमआ सङ्गहपारक्ना
॥ १॥ `` घदर्जिशद्रु गगणाधारा हदकटया निम्मलज्ञानप्राति
पूणः सम भूभाग इति संसक्लादिदापराहते खुखबिह्दार
त्तत्र समा वा ज्ञानदशनचारित्राख्यो मोान्ततागः उपशम-
वतां तत्र तिएति-समध्यास्ते , किभृतः , उपशान्तरजाः
उपशान्तमाहनीय दति, कि कुर्वन् ? . जीवनिकायान् र-
ततन् स्वतः परतश्थ सदुपदेशदानना नरकादिपाताद्वेति
' स्रातोमध्यगत ' इत्यनन प्रथमनङ्गपतितं स्थविराचार्य-
माह-तस्य हि श्रुताथदानग्रदणसद्धावात् खातामध्यग-
तत्वम्, स च किम्भूतः स्प्रादियाद--सः-त्राचर्योऽ-
क्षाभ्यहद्कल्पः , सर्वतः-सवयक्रारतयन्द्ि यनोदान्द्रयरूप-
या गुप्त्या गुप्त इन्यतन्पश्य अआजाठवरातरङेलान्व्त्य-
वम्भूना वटवः साध्यः सम्भवन्तीत्यतन्निर्दिदित्तुराह
मनुष्यलाके पूर्वच्यावाणितस्वरूपा: महर्पया-मदहापुनयः स
न्ति इत्यतत्पश्य, फकिमूतास्ते महर्षय इत्यन आहर--न के
वलमाचाया हृदकरया य चान्य साथयसम्त5प हदकस्पा.
एकम्भूताः?, प्रकरंण ज्ञायत5ननात प्रज्ञानम-स्वपराव-
भासकन्वादागमस्तद्रन्तः--य्रज्ञानवन्तः आगमस्य वेत्तार
इत्यः, तज्ज्ञा आप मादहादयात् क्चिद्धत् दादरणा-
सम्भव ज्ञेयगदटनतया संशयाना: न सम्यक् श्रद्धानं वि-
दध्युरित्यता विश्िनषि, प्रबुद्धाः--प्रकर्षण यथेव तीथ-
ङदाह तथवावगततत्त्ताः ॥ थाभूता श्रपि करमे
गुरुत्वान्न सावदानुष्टानविरात कुरयरित्यतो विशफयति-
आरम्भापरता: आरम्पः-लखावद्यो यागस्तस्मादुपरता शा
रम्भोपरताः , एतनच्च न मदुपरोधेन ग्राह्मम् अपि तुस्व
एबं कुशाग्रीयया बुद८्धा विचार्याभत्याइ-एतदच्चन्मया
प्रोक्के तत्सम्यग् मध्यस्था भूत्वा समयाद यूयमपि पश्यतः:
श्रपि चेतत्पश्यत--कालः--समाधिमरणकालस्तदमिका
ङन्तया साधो माक्ताध्वान-सयमे परिः-समन्ताद् जन्ति
परिब्रजन्ति-उपगच्छुन्ति, इतिरात्रिकारपरिसमाप्तों, ब्रवीमी
स्येतत्पकरणादहेशकाध्ययनश्रुतस्कन्धाह्ुपरिसमाएँ प्रयुज्यते,
तदिहाधिकारपरिसमाप्तों द्रष्व्यमिति ।
आजचार्याधिकारं परिसमापय्य विनेयवक्कब्यतामाह---
वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणणं नो लह समाहि,
सिया वेगे अणुगच्छेति असिता वेगे त्रणुगच्छति .
अणुगच्छमाणहिं अणणुगच्छमाण कहं न निविज्ञे ?
00)
विचिकित्सा या चित्तविष्लुतिः यथा-इृदमप्यस्तीत्येव-
साकारा. युकत्या समुपपन्न 5प्यर्थ मतिविश्चता मोहादयारु
बति , तलथाहि--अच्य मद्दतस्तपः+क्केशस्य सिकताकणक
[लानि:स्वादस्य स्यात् सफलता न बति ? , कृपीशला
दिक्रियाया उभयशा:प्युपलब्धरिति , दयं च मतिम
ध्यात्वांशानवंघाऊवालति डेयगदनत्वाद् ¦ तव्यादि--श्र-
ख्िविधः सुखाधभरगमों, वुर्गाधिममो-ऽनथिगमश्च, श्रानारं 2
` ७३४६5 )
लागसार
ति भिद्यते, तत्र सुखांघगमा यथा चक्तष्मतश्वित्रकम्म-
निपुणस्य रूपसिद्धिः, दुर्गाधगमस्त्वनिपुणस्यथ, अनधिग-
मस्त्वन्धस्य , तत्रा्नाधगमरूपा5वस्त्वव. सुखाधिगमस्तु
विचिकित्साया विषय एवं न भर्वति, दशकालस्वभाव-
विप्रकृष्टस्तु विच्चिकित्सागोचरीभवाति । तस्मिन् धर्म्माध-
म्माकाशादों या विचिकित्सति, यदि, वा--' विदगिच्छ'
न्ति विद्रज्जुगुप्सा, विद्वांस--साधवा विदितसंसारस्वभा-
वाः परिल्यङ्कसमस्तसङ्गास्तपां जुगुप्ला--निन्दा अस्नानात्
प्रस्वदजलक्लिन्नम लत्वाइर्गान्धिवपुषस्ताज्िन्दति--काः दाषः
स्याद्यदि प्राखकन वारिणाउज्ञक्तालने कुर्वीरन्नित्यादिजुगु-
प्सा तां विचिकिन्सां विद्वज्जुगुप्सां वा सम्यगापन्नः-प्रा-
सः श्रात्मा यस्य स तथा तन विचिकिन्सासमापन्नना-
आाभधानगाजन्द्र: ।
त्मना नापलभत समाधम्--चत्त स्वास्थ्य ज्ञानदशनचा- |
रित्रात्मकों वा समाधिस्ते न लभत, विचिकित्साकलुषि-
सान्तःकरणो
दि कथयतःऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाख्यां |
योधि नावाप्नोति । यश्चावाप्नोति स गृहस्था वा स्याद्य |
तिवैति दर्शयितुमाह-- सिताः--
बद्धाः, वाशब्द उत्तरापक्षया
चघुकम्माणः सम्यक्त्वे अतिपादयन्तमाचार्य मनुगच्छान्ति-
श्राचार्योक्र प्रतिपद्यन्त.तथा असिता वा गृहवासविमुक्का वा
पुत्रकलत्रादिभिरव- ,
पतक्तान्तरमाह-- एके ल- |
क्के-विचिकित्सादिशहेता श्राचायमागमनुगच्छन्ति | ते- |
थां च मध्ये यदि कश्वित् कङ्कटुकदेश्यः स्याद् स तान्,
श्ञूताननपाचीनमागप्रतिपन्नानवलोाक्यासावपि कम्मवि- |
रतः प्रतिपद्यतापीति दर्शायतुमाह--आचार्योक्ने सम्य-
कत्वमयुगच्चुद्धिविरताचिरतेः सह सवस॑स्तेवा चाद्यमाना<-
ननुगच्छुन-अप्रतिपद्यमानः कथ न निवदं गच्छद् ? असदनुष्ठा
नस्य मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सां परित्यज्या55चार्याक्क
सम्यकत्वमय प्रतिपद्यतत्यश्रः, यदि वा-सितासितराचार्यो- |
कमदुगच्चद्भिरवगच्छाद्ध वध्यमानः सद्धिः कथ्िदज्ञानाद- |
यान्मतिजाङ्यतया ज्षपकार्दाश्वरप्रतजिता ऽप्यननुगच्छन्--
अनवधारयन कथन निर्विद्यत ?, न निर्वेदं तपःसयमयाग-
चरेत् ?.निर्विष्ठञ्चदमपि भावयत् , यथा-नाहे भव्यः स्यां न च
म सयतभावो ऽप्यस्तीति, यतः-स्फुर्टावकटमाप कथितना-
वगच्छाम , एव च निर्विरणस्याचायाः समाधिमाहुः--
यथा--भोः साधा! मा विपादमवलम्विष्ठाः, भव्यो भवान्
यता भवता सम्यक्त्वमभ्युपगनम् , तच्च न ग्रान्थभदसरत
मद्धदश्च न भत्यत्वमरत, अभव्यस्य इह भव्याभव्यशङ्काया |
खझभावादिति भातः ।
कि चाये विशतिर्पान्णामो द्वादशकषायक्तयायशमादय-
स्यतमसद्धाव सति भवाति, स च भवता 5वाप्तः, तदव द-
शुनवारित्रमाहनीय भवनः क्षयापशम समागत, दर्शनचा-
रि त्रान्यथानुपपत्तः, यल्पुनः कथ्यमानरऽपि समस्तपदाथाव-
गातिने भवात तजञ्ज्लानादरणीयावजाम्भतम्, तत्र चर श्रद्धान
रूप सस्यक्न्वमालम्बनामत्याद
तमेव सच नीसकं, ज जिशेहिं पवेडय | ( सू०-१६२ )
यद्र कवचिनस्वरसमयपरसमयज्ञा $ऽचा्याभावात् सृदमव्यव-
दितातीनद्रयपदा थंषू मर्यासद्ध द घ्रान्तसस्यगदेत्वभावाच्च --
शानावरणीयादयेन सम्यगशानाभावडाप शङ्कावचिक्र-
त्सादिरादित इदं भावयन्. यथा--तदवेक सत्यपमू-आखि-
लागसार
तथम ,
कवलागमग्राह्यष्वधष्ववं स्यात् , एवं वा इत्यवमाकारा स-
शीतिः-शहुग निगता शड़॒ग यास्मन् प्रवदन तन्निःशह्लम , य-
त्किमापि धर्म्माधर्म्माकाशपुद्वलादिप्रवदितम् , कैः ?-जिनेः-
तीथकरे रागद्वपजयनशीलैः , तत्तथ्यमवन्यवम्भूतं श्रद्धानं
विध्य सम्यकपदाधांनवगमर्डाप. न पुनर्वि चिकित्सा कार्यति।
कि यतरपि विचिकित्सा स्याद्नदमभिधीयत ? , ससा-
रान्तवर्तिना मारोदयात्तत्कि ? यन्न स्यादिति, तथा चागमः
श्रात्थिरो भत! समणा वि निग्गंथा कखामादणिज्जं
कम्म बदीति !, हता अत्थि, कहन्न॑ समणा चवि णिग्गंथा कं-
खामादणिज्ञ कम्मं वयंति !, गायमा ! तेसु तसु नाणन्तरे-
सु चरित्ततरेखु सक्रिया कखिया विदगिच्छासमावन्ना भय-
समावन्ना कलुत्तसमावन्ना, एवं खल् गायमा ! समणा वि
निग्गंथा कंखामादणिज्ञ कम्मे बदति, तत्थालंबणं "तमव सश्च
णीसकं जं जिणहि पवेदय,' सर रूण भते ! एवं मणे धारेमाणे
आशणाए आराहए भवति ?, हंता गोयमा! एव मणे घारमाण
आगणाए आराहए भवति ” कि चान्यत् ?-“ वीतरामा हि
सर्वन्ना, मिथ्या न ब्रुवते कचित्। यस्मात्तस्माद्दचस्तषां ,
तथ्य भूताथेदशनम् ॥ १॥ ” इत्यादि ।
सा पुनर्विचिकित्सा प्राविव्जिषोभवत्यागमा-
परिकर्म्मितमतेः, तत्राप्यतत्पूर्वोक्घ
भावयितव्यमित्याह--
सड़िस्स श समणुन्नस्स संपव्वयमाणस्स समियं ति
मन्नमाण॒स्स एगया समिया होइ १, समिये ति मन्नमाणस्स
एगया असमिया होइ २, ( मू०-१६३+ )
भ्रद्धा-धर्म्मेचछा सा विद्यत यस्यासौ श्रद्धावांस्तस्य
समनुज्ञस्य--सेविश्चविदारिभिमीवितस्य संविद्यादिपिया
गुणेः प्रवज्याहसय सप्रव्रजतः-सम्यकूप्रवज्यामभ्युषगच्छनो
विचिकित्सा-शक्ला भवेत् , तत्रैतस्य सम्यग्जीवादपदा्था-
वध्रारणाशक्तस्यदमुपदेष्टव्यम् , यथा-तदेव स्यं निःशङ्क य-
ज्जिनेः: प्रवेदितमिति, तदव प्रत्ज्यावसरे तदेव सत्य नःशृङ्क
यज़िने: प्रवादेतमित्यव यथोपदश प्रवतमानस्य प्रवरद्धमान-
करडकस्य सत उत्तरकालमपि तदाधिकता तत्समता त-
यूनता तदभावा वा स्यादिव्यवरूपां विचित्रपारेणामतां
दशेयतुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रतजतस्तदव
सत्य निःशद्गु याज्िनेः प्रवादितमित्येतत्सम्यागित्यव मन्यमान-
स्य एकदा-इशति उत्तरकालमपि शङ्काकाङ्घाविचिकित्सादर-
हिततया सम्यगव भवति-न तीधकरभाषते शङ्कायुत्पद्चत
दति १। कस्यचित्त प्रथज्यावसरे श्रद्धानुसारितया सम्य
नित मन्यमानस्य तदुत्तरकालमधीतान्वीक्तिकीकस्य दुरग-
दीतदतुद एान्तलेशस्य ज्ञयगदनताञ्याकुलिनमतः एकदे' ति
मिथ्यात्वांशादये इसम्यागात भवात, तथां -असो सवन-
यसमूद्माभिप्रायतया श्ननन्तघम्माध्यासितवस्तुप्रसाधने स-
ति माहादकनयाभिप्रायणकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नि-
ये कथमनित्यमानित्य चत्कथ नित्यमिति, परस्परपारहार-
लक्षणतया ऽनयार स्थानात् , तथाहि-अप्रच्थुतानुःपन्नस्थि-
रकस्वभावं हि नित्यम् श्रता $न्यत्प्रतिक्तगविशगारूरूपमनि-
त्यमित्यचमादिकमसरम्यग्भावमुपयाति , न पुनर्विवचयात ,
॥
नि -शङ्मिति--श्र द दुक्र'्वत्यन्तसच्मष्वतीन्द्रयेषु _
¶ |
है ५
इरीतमातिगदटत मन्दाधया श्रद्धागस्प्रपवन हतुक्ञाभ्यामात।,
उक्तं च- स्पवैनयैर्नियतनेगमसव्रहायै-रेकंकशा विहतती-
थिंकशासनेयत | निष्ठां गते वदहावधगमपययस्तः, श्रद्धय-
मव बचने न तु टतुगस्यम् ॥ १ ॥ "` इत्यादि, यतो हतुः भर-
वर्तमानः एकनयःाभप्रायण प्रवर्तत. एक च धम्म साधयत्
सर्वधर्म्म प्रसाधकस्य हतारसम्भवादिति २। (* असामिय
शब्दे प्रथमभाग ८७४ पृष्ठ सूत्रे गतम् | ) व्याख्या चयम-यदि
हि पोद्रालिकः शब्दा न स्यात् ततस्तत्कतावनुग्रहापघातों श्र
अर्गान्द्रियस्स न स्याताम्, श्रमृत्तन्वादाकाशवदित्यादिक
सम्यग भवाति ३। कस्यचिच्वागभापारामलितमतः कथ-
मकनव समयन परमारार्लोकान्तगमनमित्यादिकमसम्य-
गिति मन्यमानस्यकदात--कुटेतुवितक्रीवभ।वावसरे नित
रामसम्यगव भवात, तथाहि-चतुदेशरज्ज्वात्मकस्य लाक
स्यादयन्ताकाशवदेशयाः समयाभेदतया योगपद्संस्पर्णात्
तावन्मात्रता परमाणोः स्यात् , प्रदेशयार्लोकान्तद्वयगतयो-
चैंक्यमित्यादिकमसम्यर्गिाति भवति. न त्वसौ स्वाग्रहावप्र
चतद् भावयति, यथा--विख्सा परिणामेन शीघ्रगतित्वात्
परमाणारक्लमयनासख्ययप्रदशातक्रमरणम् यथाट-श्रह्ख
लिद्रव्यमकसमयना पख्ययानप्याकाशप्रदशानतिलङ्कर्याति ,
गतदेव कुत इति चत् , न हि दण्रऽनुपपन्न नाम.न च सकल
अमागाप्रत्यक्षासद्ध श्रधऽनुमानमन्व्रव्यम् , तथाहि-यद्यन-
प्रदेशातिक्रमएं साम्रयिकं न भवन् तताउड्लमात्रमपि
क्षत्रमर+ख्ययसमयातिक्रमणीय स्यात् , तथाच साति दृष्ट-
च्रवाधा ऽऽपद्यतति, याःकाञ्चिदतत् ४ ।
साम्प्रतं भङ्कोपसहारद्वारण परमाथमाविभोवयन्नाह--
समियं ति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा समि-
आ होइ उवेहाए ५, असमियं ति मन्नमाणस्स समिया
बा असमिया वा असमिया होड उवेहाए ६, उवेहमाणो
अणुधेहमाण बूया-उवेहाहि समियाए, इच्चेव॑ तत्थ संधी
ओकोसिओ भव, मे उद्वियस्स ठियस्स गई समणुपासह,
इत्थ वि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्ञा । (घ॒° १६३+)।
सस्यगित्यवे मन्यमानस्य शङ्कार्विचकित्सादिरदितस्य स-
लस्तद्स्तु यत्नेन तथारूपतयेव भावितं तत्सम्यग्वा स्या-
बुसम्यग्बा , तथापि तस्य तत्र सम्यगुप्प्रक्षया--पर्याला-
चनया सम्यगव भवति , दर्यापथो पयुक्रस्य कचिल्परायु-
पमदवत् ५ । साम्प्रतमतद्धिधथयमाह--श्रसम्य गिति कि-
श्िद्रस्तु मन्यमानस्य शङ्का स्यादर्वाण्दर्शितया छुद्मस्थस्य
सतस्तद्धस्तु सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगवा-
च्वेत्तया श्रसम्यकप्यालाचनतया ऽशुदधाध्यवसायतयति--
यावत् * यद्यथा शङयत्तत्तथव समरापद्यते ` ति व-
चनादति ६ ॥ यदि वा-- समिय ति मन्नमाणस्स "इत्या
न्यथा व्याख्यायते--शमिनो भावः शमिता इतिः-उ-
पथ्रदशने , तामतां शमितां मन्यमानस्य शुमाध्यवसायि-
नः ` एकदे ' त्युत्तरकालमपि शमितेव भवति--उपशम-
>> प | , अन्यस्य तु शमितामपि मन्यमानस्य
कषा यादयादशमितापजायत इति , अनया दिशात्तरभङ्ग
ष्वपि सम्यगुषयुञ्याः-याज्यमिति | तदेवे सम्यगलम्यगित्थ- |
` | . . .
| . गतिः स्यात् ,
( ७५४७ ) {
लागसार अआसिधानरगाजन्ट: ! । त्त' गससार
यथा--अनन््तधम्माध्यासित वस्तु सर्वतयसमूहात्मकं च ! वं पर्यालाचयज्रपरस्याप्युपद्शदानायालामात , श्राह. च
आगमप्रपरिकर्मिमतमतित्वाद्थथावास्थितपदार्थ स्वभावदार्शित --
या सम्यगसम्यागति चाल्प्र्षमाणः--पयालाचयन्नपरमनु-
त्यत्तमाण गड्रिकायूथप्रवाहप्रव्॒त गतानुगातकन्यायानु-
सारिणे शङ्या वाऽपधावन्त व्रूयात्. यथा--उत्प्रक्षस्व--प-
्यालाचय सम्यग्भावन माध्यस्थ्यमवलम्त्य किमदं दुक्त
जीवादितच घटामियर्याहाश्विल्लत्याक्षणी निर्मील्य चि-
न्तयति भावः , यदिवा--उत्प्रक्षमाणः संयमम् उत्--प्राव-
ल्यनत्तमाणः--संयम उद्यच्छुन्ननुस्प््तमाणं व्रयात् . यथा-
सम्यग्भावापन्नः सन् संयममुत्पक्तस्व-सेयम उद्यागं कु-
रू । किमवलम्ब्यत्याह-इत्यवें-पूर्वोक्तन प्रकारण तत्र--
तस्मिन् सयम सान्धः-कम्मसन्तातरूपा भाषतः-
त्तपिता भवति , यदि सयम सम्यगभाव वात्प्रत्तणं स्या-
त् , नान्यध्रति । सम्यगुल््रत्षमाणस्य च यत्स्यात्तदाह-
( से ) तस्य-सम्यगुत्थाननात्थितस्य निःशङ्कस्य श्रद्धावतः
स्थितस्य गुरुकुल गुरोराज्ञायां वा या गातिभवति--या-
पदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत युयम् , तद्यथा-सक-
ललाकश्लाध्यता ज्ञानदशीनस्थेय चारित्र निष्प्रकम्पता
श्रुतज्ञानाधारता च स्यादिति , यदिवा-स्वर्गापव्गादिका
तां पश्यर्तात सम्बन्धः, अथवा-उत्थित-
स्य-सयमाद्यागवतः तदभावन च स्थितस्य पाश्वेस्थाद-
रतिम् सक्लजनापदास्यरूपामधमस्थयानगति वा पश्यत-
ति । तदेवमुयुक्रतरय(गतिमुपज्भ्य पश्चविधाचारसार प्र-
क्रमितव्यम्, यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिभवति
ततः किमित्याह-अत्रापि-अलेयम--वालभावरूप इतर-
जनार्चारत श्रात्माने सकलकटयाणास्पदे नापदशयत् ,
बालानुष्ठानविधायी मा भूदिति यावत् . तथाहि--बा-
लाः शाक्यर्कापरलादयस्तद्धावता वालभावमाचरति, व-
क्रि च--नित्यत्वादमुरत्तत्वाच्चात्मनः प्राणातिपात एव
नासूयाक्राशस्यव , न हि वृक्षादिच्छुद दाह वाऽऽकाश-
स्य भिदा प्लाषा वा स्यात् पवमान्मनाऽपि श्णरविकारेऽ-'
विक्रारित्वम् | उक्तं च-- न जायने ध्रियत वा कदाचि-
श्नाथ भृत्वा भावनात ॥ “ नन क्न्दान्त शख्राण,
- त पावकः । न चैन करदयन्व्यापा , न शाषय-
ति मारुतः ॥ १ ॥ अच्छदा ऽयमदाह्या ऽय-मङ्कयो ऽशाप्य एव
च । नित्यः सवैगतः स्थाणु-गचलाऽय सनातनः ॥ २ ॥ ""
इत्यादि ॥
अध्यवसायात्तद्धननादों प्रवृत्तस्य तत्प्रतिषेधा्थमाह--
तुमसे नाम सचव जे हंतव्य॑ तिं मन्नसि, तुमंसि नाम
सच्चेव जे अज्ञावियव्व ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव
जं परियावेयव्य॑ ति मन्नसि, एवं जे परिधित्तव्व ति मन्न-
सि, ज उदवेयं ति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी
( सू०-१६४०< )
याऽय हन्तव्धत्वन भवताऽध्यवसितः स त्वमव, नाम-
शब्दः सम्नावनायाम् , यथ।-भवान् शिरःपाणिपादपाश्व-
पृष्ठारूदरवान् एबमसावपि ये हन्तव्यमिति मन्यल, यथा
च भवता हननादत॑ दृष्ट्रा दु.खमुत्पद्यत पवमन्यषामपि,
तद् दुःखापादनाच्च किास्वषानुषङ्गः ! इदमुक्तं भवति--
( ७७८ )
शमभिध्रानराजन्द्रः।
लागमार
नाव्रान्तरात्मतः आकाशहदे गस्य व्यापादनन हिला , आप |
तु शरीरान्मनः, तस्य हि यत्र काचःस्वाधारं शरीरं नि- `
तरां दयित तद्धियाजीकरणमव हिंसति । उङ्क च-
“ पञान्द्रयाण तत्रविध वल च. उच्छा सानिः भवासमशान्य- '
दायुः । प्राणा दशते भगवद्धिरुक्ता-स्तेषां वियाजीकरगणो
तु दसा ॥ १॥ ``न च संसागस्थम्य
त्वाचासिः, यनाङकाशस्यव विकारों न स्यात्, सवत्व
च॒प्राग्युपमदेचिकीर्षितायामात्मतुल्यता भावयितव्यव्ये-
तदुत्तरसूत्रदशवितुमाद- त्वमपि नाम ख एव ये प्रपणा-
दिना च्राञ्लापयितव्यमिति मन्यस, तथा
स एव ये पारतापायतव्यामिति मन्यसे. एवं ये परिग्र-
हीतव्यामिति मन्यस, यमपद्रावायितव्याभाति मन्यस, असो
न्यमव, यथा भवताउनिष्टापादनेन दुःखमुन्पद्यत पवम-
स्थापी त्यथे: , यादिवा-य कायं हन्तव्यादितयाऽध्यवस्यसि
तत्रानकशा भवताऽपि भावाच्वमवासो, एवं सषावादा-
दावप्यायाञ्यम् । यदि नाम हब्तव्यपघ्रातकयारूुक्कक्रमण-
क्य नतः किमित्याह--' अच्जु रानि ऋजुः-प्रगुणः सा-
चुरिति यावत् . चशब्दाऽ्यधारण , पतस्य-हन्तव्यघात-
ककल्वस्य प्रतियाधः भ्रातवुद्धमनन्प्रतिवुद्धं तन जीवितु
शी लमस्यत्यतत्यतिवु दजावी साधुरेव तत्परिज्ञानन जीवति
नापर इन्युक्र भवात । (आजक्षा८) ( 'तम्हा' इत्यादिसत्राणि,
सव्याख्यानि `द्राता शब्द छितीयमाग २०० पृष्ठ गतान ।)
अयधाये च कि कुर्यादित्याह--
निदेमं नाइड ज्ञा महावी सुपडिलेहिया सब्बओ सव्य-
रपणा सम्मं सममिप्ाय, इह अरामो परिव्यए णिद्धि-
यद्र बीरे आगमेण सया परक्रम । ( खू० १६८ )
निर्दिश्यत इति तिदिः तीथकराद्रपदशस्ते नातिवर्तत
मधाची-मयीदायानिात । कि कृत्वा निशे नातिव-
नेतत्यत आइ->खुप्दु प्रत्युपक््य दहयापादयतया तीधि-
कवादान् सवज्ञवादे च सर्वतः>सर्वेः प्रकारेंद्रंब्यक्षत्र-
कालभावरूपः सर्वात्मना सामान्यविशषात्मकतया पदा-
शरान् पर्यालाच्य सदह सन्मत्यादित्रिकण परिन्छिद्य सदाऽ
चारयनिर्देशवर्ती तीथिकप्तवार्दानिराकरणं कुयात्. कि च-
न्वत्यत आह--सम्यंगव स्वपरतीर्थिक्वादान् समाभि-
ज्ञाय--बुद्धा तता निराकरण कुयात् । कि च--इद--
श्रस्मिन् मनुप्यलाक आरमणमारामा रतिरित्यर्थः, सचा-
रामः परमार्थाचन्तायामात्यन्तिकेकान्तिकरतिरूपः सयम
तमालवनपरिश्या प्रज्ञाय प््रालीना गुप्तश्च परिवजन्--
सयमानुष्ठान विह लू , किभूत इत्याह--निष्टतो-माक्त-
सस्तनार्थी ,
यस्थ सर निष्ठिताथः वीर:-करम्मविदारणसहिष्णुः सन्
अआगमन-सर्वज्नषप्रणी ताच्रारादिना सदा-सर्वकालम् परा-
क्रमथा: कमरिपून् प्रति भाज्ञाध्यान वा गच्क्रुः। इतिः-
अधिकारपरिसमात्ता ब्रग्री मीति पूर्वत् ।
किमथ पुनः पॉन:पुन्यनापदेशदानमित्याह--
उड् साया अद सावा, तारय साया वियाहिया |
ण्ण मोया वि अक्खाया, जहि संर्गति पासह॥ १ ॥
श्रानासि- कस्मा खवब्द्वाराण नानि च प्रतिभवाभ्यासा-
सवथा अमूत्ते- |
त्वमाण नाम
याद वालानाप््रतः-पारसम्राप्तः झ्था-प्रयाज़्न |
# १
लागसार
द्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्त, तत ऊध्च 'आरातांसि-कैमा
निक्राङ्गना ऽभिलापच्छा वेमानिकसुखनिदान वा. अधो-
भवनपात खुखाभिलाषिता, तियग--व्यन्तरमनुष्यतिर्यग्वि-
घयच्छा, यदि वा--प्रज्नापकापक्ष या ध्व-गिरिशिखर प्राग्भार-
नितस्बप्रपातादकादी न अअ्घाऽपि--श्वश्रनदीकृलगुदालय-
नादीनि, तियेगप्यारामसभा55वसथादीनि प्रालिनां विष-
योपभागस्थानानि वांवधमाहितानि-प्रयागविस्न सा भ्यां स्व-
कम्मपरिणत्या वा जनितानि व्याहितानि, फएतानि च
कर्म्मास्त्रवद्वाराणीति छूत्वा श्रातांसीव श्रातांसि, एमि-
श्च जिभिः प्रकारेसप्यन्येश्व पापोपादानहतुभूतयें: सङ्गम-
प्राणिनामासक्कि कम्मोनुपड़ वा पश्यत, इतिः- दतो, त-
स्मात्कर्मानुषज्ञात् कारणादतानि श्रोतांसीत्यता5पदिश्य-
ते, आगमन सदा पराक्रभेथा इति ।
आवइं तु पेहाए इत्थ विरमिज्ञ वेयवी, विणइत्तु सोयं
निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए ना-
वर्कंखइ इह आगई गई परेन्नाय । ( सू०-१६६ )
रागद्धपक्रषायविषयावत्त कम्मवन्धावत्त वा तुशब्दः
पुनःशब्दार्थे, भावावत्त पुनरत्पच्य श्रत त्रस्मिन् भा-
वावसं विषयरूप वदविद्--द्ागमविद् विरमद्-श्रा्र-
वद्धारानगाय विदध्यात्, पाठान्तरं वा “ विवय कि
बदवी `" च्राख्रवद्वारानिराघन तञ्जनितकम्मविचकम्-च्र-
भाव कीत्त्यति--प्रतिपादयति वेदविदिति । श्राखवद्वा-
रनिराघन च यट्स्यात्तदाह-ख।तः--श्रास्रवद्वार तद्धि
नतुम--अपनतु निष्कम्य -एवञ्य_ पप इति--रत्यक्तः
प्रस्तुताथस्य चावश्येभावित्दादेष इति प्रत्यक्षवाचिना स-
वनाम्नाक्ना यः कश्चिदित्यर्थ: मटान्--महापुरुषः अति-
शुयिककरम्मविधायी, एवम्भृतश्च किविशिष्टः स्यादेति द-
शयति--श्रकम्मा--नास्य कम्म विद्यत इत्यकर्म्मा, क-
स्मशब्दन चात्र घातकम्मविवात्तितम् , तदभावाश्च जाना-
ति विशफ्तः, पश्यति च सामान्यतः, सर्वाश्च लन्धयो
विशेषा पयुक्तस्य भवन्तीव्यतः पूर्व जानाति पश्चाच्च प-
श्यति । अनन च फमोपयाग श्राविष्कृतः;ः स चोःपन्न-
यज्ञानखलाक्यललामचूडामणिः सखुरासुरनःत्परैकपूज्यः
ससारारवपारवत्तीं विदितवद्यः सन् कि कुयादित्याह-
स॒ हि-ज्ञातक्नयः सुराखुरनरापददितां पूज्लामुपलभ्य
छृत्रिमामनित्यामसारां सापाधिकां च प्रत्युपेच्य--पर्या-
लाच्य हृषीकविजयज्ञनितसुखनिःस्पृहतया तां नाका-
ह्वति--नाभिलषतीति । कि च--इद--श्रस्मिन मचुष्य-
लाकर व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञानः प्राणिनामागान गति
ख ससारश्चमणे तत्कारण च झपरिश्ञया ज्ञात्वा प्रत्या-
ख्यानपरिज्ञया निराकराति।
तन्निराकरणे च यत्स्यात्तदाद-
चद जाईमरणस्स वह्टमर्ग विक््खायरए, सव्वे स-
रा नियदरृति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न
शाहिया, श्राए, अप्पइड्टाणस्स खयन्ने, से न दीदे
न हस्से न बडे न तंसे न चरसे न परिमंडले न
किएहे न नीले न लोदिए न हालिदे न सुक्षत्र
` स्तस्माच्लिवक्तन्त, तद्बाउ्यवाचकसम्वन्ध न ॒प्रवच्तेन्त , त- `
रूपरसगन्धस्पशानामन्यतम “
( ४६ ॥.
शच्राभध्रानराजन्द्रः |
लागस्ार
न सुरभिगधे न दुराभगध न तत्तन न कइए न केसाए न
अबले न महुर न कफक््खड़ न मउए न गरुए न ल>
हुए न उण्ह न निद्रे न लुक्ख न कड नरूहे न
संगे न इत्थी न पुरिमे न अन्नहा परिन्ने सने उव-
मा न विज्ञए , अरूवी सत्ता अपयस्म पय न5-
त्थि | ( सू०-१७० )
अत्याति--अतिक्रामाति जातिश्च मरणे च जातिमरणं |
तस्य ` वद्टमसम्ग ` ति पन्थानम्-मागम् उपादान कम्म-
ति यावत्, तदत्याति-अशपषकर्म्मक्षयं विधत्त , तत््या-
छ किं गुखः स्यादत्याह--विविघम्-श्रनकप्रकारं प्रधान-
पुरूपाथतया ऽ ऽरब्यशाखाश्रतया तपःसेयमानुषएानाधत्वन
(व्याख्याता) माच्तः--ञअशापकम्मत्तयलत्तणा विशिष्टाकाशप्र- |
शाख्या वा तत्र रता--व्याख्यातरतः, आत्यन्तिकेका-
न्तकानाबाघखुखत्तायिकज्ञानदशनसपदु पता ऽनन्तमपि का- |
ले संतिष्ठत । किम्भूत इति चत् , न तत्र शब्दानां प्रत्रू- |
र्िस, न सा काचद्वस्थाऽस्ति या शब्देराभधघीयत इ-
स्यतत्परतिपाद यितुमाह--सर्वे-निरवशपाः स्वरा-ध्वनय- |
थादि- शब्दाः प्रवत्तमाना
विशष सङ्तकालग्टात तत्तद्य वा प्रवत्तेरन्, न चेत-
त्त्र शब्दादीनां प्रत्रत्तिनिमन्तमस्ति, अतः शब्दानभिधे-
या मात्तावस्यति । न कवलं शब्दानभिधेया, उत्प्रेज्ञणी- |
याऽपिन सम्भवतीत्याद--सस्भवत्पदार्धविशपास्तित्वाध्य- |
वतायः, ऊटस्तकः--एवमव चतत्स्यात्, सच यत्र न |
विद्यत ततः शब्दानां कुतः प्रवृत्तिः स्यात् ?। किमिति |
तत्र तक्ाभाव इति चदाद--मनन मांतः--मनसो व्या-
पारः पदा्थचिन्ता सोत्पत्तिक्यादिका चतुर्विधापि म- |
तिस्तत्रन ग्राहिका , मोत्तावस्थायाः सकलविकट्पाती-
तत्वात् , तत्र च मात्त कम्माशसमन्वितस्य गमनमादा-
श्विल्नष्कम्मेणः ? , न तत्र कम्मसमन्वितस्य गमनमस्ती-
त्यतदशेयितुमाह-श्राजः-पकाऽशषरमल्कलङ्काङ्करदितः, कि |
च--न विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादः कम्मंणो वा य-
र साऽगप्रतष्टाना-मोक्तस्तस्य खदज्ञा-निपुणा, यदि वा-
अग्रतिष्ठानो नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदन्नः , |
लोकनाडिपर्यन्तपरिजश्ञानावेदनेन च समस्तलाकखदङ्ञता |
श्रावदिता भवति। सवखरनिवर्तने च यनाभिप्रायणा-
क्रवास्तमभिप्रायमाविष्कुवन्नाद-सः-प्ररमपदाध्यासी लोका- |
न््तक्रोशपडभागक्तेत्रावस्थानो उननन््तज्ञानद्शनो पयुक्तः संस्था- |
नभाश्चिल्य-न दीधे न हस्वो नवूत्तो न ज्यस्त्रा न चतु-
रस्त्रोन॒ परिमएडलो , वर्शमाश्रित्य-न कृष्णो न नीलो न
लाइतो न हारिद्रो न शुङ्गा, गन्धमाश्रित्य--न सुरभि-
गन्धा न दुरभिगन्धो, रसमश्रित्य-न तक्को न कटुको
न क्षायो नाम्नोन मधुरः, स्परीमाधित्य--न कर्कशो न
खदने लघुन गुरुनं शीता नाष्णा न स्निग्धो न रूच्तो, "न का-
ऊ इत्यनन लश्या गृटीता, यदि वा--न कायवान यथावे-
दान्तवादिनाम्-' एक पव मुक्तात्मा तत्कायमपर क्षीण-
कशा अनुप्रविशनति आदित्यरश्मय इवांशुमन्तमिति ,
[व - र स्ह: रूह वाजजन्मान प्रादुभाव च राहतात
(¬)
लागद्धिर्
रूह: , न रुटाऽरुहः, कर्म्मवीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थः ,
न पुतर्यथा शाक्यानां दशनानिकारता मुक्कात्मनाडीप पु-
नर्भवापादानामिति । उक्कं च--' दग्धन्धनः पुनरुपति भ--
वे प्रमथ्य, निरवीणमप्यनवर्धा रितभीरुनिष्टम । सुक्रः स्व-
यङृतभवश्च परार्धश्ग-स्त्वच्छासन्प्रानिदनप्विह माहराञ्य-
म् ॥ \ तथा च-न व्यत सङ्गा^मृत्तत्वाद्यस्यस्रत-
था , तथान स्रा न पुरुपा नान्यथात-न नपुसक क
वल सवरान्मप्रदशः पारः-समन्ताद्रशपना जानातीति
परिज्ञः, तथा सामान्यातः सम्यग्जानान-परश्यतीतन सः,
नद्शनयुक्क इत्यः, यदि नाम-स्वरूपना न ज्ञायत
मुक्कात्मा तथा ऽव्युपमाद्वारणादिन्यगर्तिरव ज्ञायत एव ड्वांत
चन्, तन्न, यत आह-उपमीयत सारश्यात् परिच्छिद्यत यया
सापमा-तुल्यता सा मुक्कात्मनस्तउज्ञानसुखयोरवा न विद्यत ,
लाक्रातिगत्वात्तपाम,. कुत एतदिति चदाह--तपां मुक्रान्मनां
या सत्ता सा अरूपिणी, अरूपित्वे च दीर्घादिप्रतिपंधन
प्रतिपादितमव । किंच--न॒ विद्यत पदम-अचस्थाविशषा
यस्य साऽपद्ः, तस्य पद्युत--गम्यत यनाथस्तत्पदम-आमि-
घान तच्च नास्ति-न विद्यत, वाच्यावशषाभावात् |
तथाहि-यो ऽभिघीयत स शब्दरूपगन्धरसस्पशौन्यतराविश-
परणाभिघ्रीयत, तस्य च तदभाव इत्यतदशीयितुमाष्ट- यदि
वा-दीघ इत्यादिना रूपादिविशषनिराकरणं कृतम् | इह तु
सत्सामान्यानिराकरणं कलुकाम आह--
से न सददे न रूवे न गंध न रसे फास, इजेव त्ति
वेमि । ( सू० १७१ )
सममुक्कात्मा न शब्दरूपः न रूपात्मा न गन््धः सम रसः न स्पश
इत्यतावन्त एवं वस्तुना भदाः स्युः, तत्प्रातिपरधाच्च नापरः
कश्चिद्धिशषः सम्भाव्यत यनासो व्यपादिश्यतति भावाथ
इतिरधिकारपरिसमापतों, त्रवीमिति पूवैवत् । आचा० १ श्रु०
४ ० ६ उ०।
लोगसारत्थ-लोकसारार्थ- पंख । जैलोक्यप्रधानविजये, बृ० २
उ०।
| लोगसिद्धिवासि-लोकसिद्धिवासिनू-पुं)। चतुदेशरज्ज्वात्मके
लोकान्त या सिद्धिः प्रशस्तक्षेत्र रूपा तद्भासिनः।ईपत्प्राग्भारा-
वासिषु सिद्धेषु. पं० सू० ५ सृत्र ।
लोगसिरी-लोकश्री-खी० । खनमिख्यात ज्योतिष्कम्रन्ये,
स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लोगहिय-लोकदित- पु । लोकस्थेकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य
हित श्रात्यन्तिकतद्रन्ताध्रकर्षप्ररूपरनानुक्रलव्रत्तिलोंकदि-
तः | स० १ सम० । ` लोकहित भ्यः ' इह लोकशब्देन सकल
पव सांव्यवहारिकादिभदभिन्नः प्राणिवग्गों गृह्यते तस्मे
सम्यग्दशनप्ररूपग्रस्षणयागन हिता लोकहितः। ध० २
अधि० । रा०। लाकस्य प्राणिलोकस्य पश्चास्तिकायात्मक-
स्यवाषितापदशेन सम्यक्ूप्ररूपणतया दितो लाकटितः।
जीवानां हितकारके दयाप्ररूपके, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
कल्प० । लोक़शब्दन सकलब्यवहारिकादिभेदशभिन्नप्रा रिणला-
को गृहात पश्चास्तिकायात्मकों वा।ल०। जिन , करप०
१ आध० ? क्षण । रूचकपर्वतस्य दक्षिणकूट, द्वी० ।
॥ ४९ )
अनिधानगाजन्द्रः |
खलागागमणौड
लागुत्तरनत्त० १
लागागमणंइ-लाकागमर्नाति-खी“ । लाकन्याय, पश्ञ[०२७
उच ।
लागाणुवित्ति लेकानुवृत्ति खी” । लाकचित्ताराध्रनायाम्,
~
क्रा० |
लागायत -लोकायत्-न० । प्रत्यक्षकप्रमाणवादिनां जडमात्र-
पदाथवादिनां वाहस्पत्यानां शास्त्र, तस्य लाक विस्तीणंत्वा-
ज्ञाकायत नाम | अनु? | सम्म० | दश)
लागायातिग -लेकायतिक-प० । चावाक वृहस्पतिशिष्य, सर
त? श्र ०१ ०? उ० । "पिव खाद च चारुलाचन !. यदनीते
बग्गांत्र ! तन्न त | न हि भीरु गते निवत्तत, समुदयमात्र-
सिदे कलवरम् ॥ १॥ ` आचा० श्रु ४ आ० २ उ०। (यु
डरीय ` शब्द पञ्चमभाग ६४६ प पचन्मते खरिडतम् )
लागालागप्पमाण लाकालाकप्रमाण-न० । लाकालाकया- '
म्तद्दग्नकत्यायत्प्रमाणमनन्ताः ` प्रदेशास्तदव परिमाणमस्यति
लाकालाकप्रमाण:ः | लाकालाकधदेशपरिंमन आत्मनि, स्था०
४ ठा० २ उ०।
लागालागपवच लाकालाकपपश्च- पुं” । लाक चतुदेशरज्ज्वा-
तमक श्रालाका लाकालाकस्तस्य प्रपञ्चः पर्याप्तापर्याप्कसु-
भगादिद्वन्द्रविकतप, तद्यथा--नारका नारकल्वनावलाक्यते
पकन्द्रर्यादिररकन्द्रयन्वनेवे पर्याप्तापर्थाप्तकाद्मपि वाच्यम् ।
आजाद १ श्रु° २ अ० २3०७)
लागालोगावलायणाभाग- लाकालाकापलाकनाभाग- त्रि
लाकालाकयाः समयाप्रसिद्धयारवलाक्नम् आभाग उपया-
गाऽस्यति लाकालाकावलाकनामागः | लाक्रालाकन्नार्तार,
पा० ६५ विव ।
लागावाई-लाकापातिन् -त्रि० । लाकश्रतुर्देशरज्ज्वात्मकः प्रा-
णिग़णों वा तत्रापातितुं शीलमस्यति | काकाकाशमध्यर्वात्ति-
न. श्राखा० १ श्रु० १? अ० १ उ०।
लोगुज्ञाय-लाकोाद्योत- पुं” । लाकप्रकाश, स्था० |
तिहिं ठाणदि लोगुज्जोए मिया, तं जहा--अरहंतहिं
जाबमाणेहिं अरहतेसु पव्वयमाणेसु अरहताणं णाणुप्पाय-
महिमासु ।
लाकाद्याता लोकानुभावात् , मनुष्यलाक दवागपाद्वा ।
णाणुप्पा० ' इति । कवलज्ञानान्पाद दवकृतमहात्सवषु।
स्था० ३ ठा० १ उ०।
लागुज्ञायगर-लोकाच्यातकरर - पु” । लोकप्रकाशकर, पाक्षिकः
दिन ढादशानां चनुमासक विशतः सांवत्सारेकादन चत्वा-
रिशता लाकाद्यातकराणां कासान्सग्गः क्रियत, तात्किमाति ?
अत्रात्तरम-पाक्षिकादिदिवसपु यन्कायान्सगः क्रियत तत्त्
प्रतिक्रमणे कुब्चतां यदतीचार शुद्धिनो भू त्तद्तीचार शुद्धि नि-
मत्तम् , दिनप्रतिवद्धसंख्यानियम त्वाज्ञाप्रमाणामिति ॥१४३॥
सन ४ उल्ला० । सांवत्सरिक्प्रतिक्मणकायात्सग्गे च-
त्वारिशज्नाकाद्रातकरान् कथयित्वा तत्प्रान्त एका नम-
स्कारा वक्तव्यः पश्चात कायात्सग्गः पारणीयः कश्चिदिति
बक्ति, कश्चिच्च प्रान्त नमस्कारे वक्तव्यं न द्रत, तेन
कि प्रमासांमाति प्रश्चः ?, श्जान्नरम-सांवन्सरिकप्रतिक्रमग
-----~
ग्रतिक्र-
क्रियत
सनमस्कारश्चत्वारिणज्ञकोद्योतकरकायात्सर्म्मः
मणदतुगव्भीदावुक्को ऽस्ति, पारम्पर्येणापि तथैव
इति ॥ २८६ ॥ सन० ३ उज्ञा० ।
लोगुचम-लोकोतम-पु° । लोको-भव्यसत्वलाकस्तस्य स~ _
कलकटयारकनिवन्धनतया भव्यसत्वमावनाचमः ला-
कोात्तमः। जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०। लाकस्य सकल-
कल्याणनिवन्धनतया भव्यन्वभावनात्तमः लाकोत्तमः । धं
२ आधि० । लाकस्यात्तमश्चतुख््रिशद्वुद्धातिशयाद्यसाधा-
रणगोणापपततया सकलसुरासुरखचरनिक्ररनमस्यतया च
प्रधाना लाकात्तमः। स० १ सम०। लोकस्य भवग्यसमृद्स्य
चतुखरशदतिशययुक्कन्वाद्रा उत्तमा लाकात्तमः, सकलखुरा-
स्ुरादिवन्द्यमानपु जनादिषु. कल्प० १ आध० १ क्षण | भ० । `
लाकश्रष्, आव० ४ अ० । आण० चू०। |
चत्तार लागुत्तमा आरहता हता लायुत्तमा सद्धा लायुत्तमा.
साहू लोगुत्तमा कवलिषन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो ।
( ` पड्किमण ` शब्दे पञ्चमभागे २७० पृष्ठ चतद् व्याख्यात-
) तन्नित्तपस्याप र्तान्नवन्धनत्वांन्नश्चयमतभदाद-
तिसृमवुद्धिगम्यमिति लोकोत्तमः । ल० ।
लागुत्तमदव-ल्लोकोत्तमदव-पु । लाकस्य त्रिभुवनान्तवर्ति-
जनस्यात्तमा लोकोत्तमाः साधवस्तषां देव श्राराध्यः । श्रध-
वा-लोक्रानामुत्तमो लोकोत्तमः, स चासो दवश्च लाकाक्तम-
देवैः | जिन, वीतरग, दर्श> ५ तत्त्व ।
लोगुत्तममईइ-लोकोत्तममति- खरो ° । सत्यजनप्रधानबुद्धघाम ,
जिनप्रवच्चननानुसारिधियाम , पञ्छा० ३ विच ।
लागुत्तरट्िद- लाकात्तरस्थिति- खरी । लाकातीतम्यादायाम्,
ज्रप्ट० २३ अप्ठ ० ।
लोगुत्तरतत्तसपत्ति- लोकोत्तरतच्वसम्प्राप्नि खरी” परमार्थस्य
लाभ, पा०।
अधुना लोकोात्तश्तक्ष्वसंप्राप्तिमाह--
एवं सिद्ध धर्म्मे, सामान्यनेह लिड्डसंयुक्ते ।
नियमन भवाति पुसां, लाकोत्तरतत््रसप्राप्रः ॥१॥
एवे सिद्ध धम्म -पूर्वांक्रनीत्या सामान्यन लाकलोको त्तरा-
प्रविभागनद प्रक्रम लिङ्गसयुक्क-प्रतिपादितनीत्या नियमेन
नियागेन भवति-जायत पुसां -पुरूषाणां लोकात्तरस्य-ला-
कात्तमस्य तत्वस्य-परमाथस्य संप्राप्तिः-लाभ इति ।
इय च यदरपा यास्मेश्च काले सेभवति तदेतदाभिधातुमाह-
आं भावारोग्यं, बीजं मेषा परस्य तस्यैव ।
अधिक्रारिणो नियोगा-चरम इयं पट्रलावर्ते ॥ ३ ॥
आदो भवमा भावाराग्यम्-भावरूपमारोग्ये तच्चेह
सम्यक्त्व तद्गपत्वाल्लाकात्तरतस्वसंग्राप्त बीज चेषा-ला-
कोत्तरतक्ष्वसंप्राप्तिः परस्य-प्रधानस्य तस्येव-भावारोाग-
स्य मोत्तलक्तषणस्य रागद्वेषमोहानां तन्निमित्तानां च जा-
तिजरामरणार्द।नां भावरागरूपत्वात्तदभावरूपत्वाच्च निश्चे-
यसस्य , अधिकारिण = नियागान्नियमेन
चरम पर्यन्तभववात्तनि इयम्-प्रस्तुता पुद्रलावर्ते--पुद्धलप-
रावत्तं समयप्रसिद्ध श्चौदारिकवेक्रियतेजसका्म्मणप्राणापा-
नभाग्रामनाभिरतत्परिशामपरिणत सव्वपुद्रलग्रह णरूप ॥ २॥
वमी का र
म क +ा |
इ |
असिधानराजत्द्र
त्तरत ९
9१ ))
लागुक्तरनन्त°
कुतः पुनर्दैतोश्चरनपुद्रलावरतो भवतीत्याशङ्ायामिदमाद--
स भवति कालादव, प्राधान्येन सुकृतादेभवेऽपि ।
ज्वरशमनोषधसमय-वदिति समयविदो विदुनिपुणम् ।३।
सः--चरमपुद्रलावतों भवति स्वरूपतः कालादेव पघा-
स्थन हन विवत्तायां कालप्राघान्यमाश्ित्य शषकम्मादिदत्व
स्तसोपलञनी भावध्रतिपादनन सखुकृत। दिभाव.ऽपि-खुरत-
दुष्कृतकम्मेपुरूपकारनियत्यादिभाव ऽपि ।
पी `` ति पाठान्तरम्, नाश्रितं न्दाभङ्गमयात् । नि-
दशनमाद-- ज्वर शमनाषधघसमयवत् , ज्वर शमयति इांत
ज्वरशमने तच्च तदोषध च तस्य समयः--प्रस्तावा
देशकालस्तद्वद्धवति चरमः । ज्वरशमनीयमप्यापघं प्रथ-
मापाते दीयमानं न कञ्चनगुण पुष्णाति प्रत्युत दा-
नुदीरयति , तदेव चावखर जीरीज्वरादों वितीयमाणे
स्वकाय निवत्तेयात | पव्रमयमप्यवसरकर्पो वत्तते चरम
इति भावः । इत्यवे समयविदः-सिद्धान्तन्ञाः विदुः-जानान्त
क्रियाविशषणं निपुणामिति ॥ ३॥
कस्मात् पुनश्चरमपुद्रलावत्तैः प्राधान्येन लोकोत्तरतत्वसप्रा-
जहतुराश्रीयत इत्याह-
नागमवचन तदधः, सम्यक् परिणमति नियम एपोज्त्र ।
शमनीयमिवाभिनवे, ज्वरोदये काल इति कृत्वा ॥४ ॥
कम्माहदिभावेऽ |
नति--प्रतिषध, श्रागमवचनमाषवचन तदधस्तस्याघस्ताद् |
चुद्रलपरावन्तादभ्यधिकसंसारस्य सम्यग् विषयविभागेन
परिणमति न परिणमत्यवत्यथः। नियम पष प्रस्तुताऊ5त्र
प्रक्रम शमनीयमिवोषधम् , अभिनवे ज्वरादय प्रत्यग्र-ज्वरप्रा-
दभाव किमित्यकाल ईति कृत्वा अप्रस्ताव हान कृत्वा ॥ ४॥
नागमचचने तस्याधस्तात् पारणमतीत्युङ्घ तदव
दर्शर्याति-
आगमदीपेष्ध्यारो-पमण्डल तचतोऽसदव तथा ।
पश्यन्त्यपवाद्ात्मक-मविषय इह मन्दर्धानयनाः ॥५॥
आगमप्रदीप अध्यारोपमरडलम्--भ्रान्तिमएडलम् अ-
ध्यारोपो-श्रान्तिस्तया मण्डल मण्डलाकारं दीप,
सु-भ्रान्तिसमूहम , तक्त्वतः-परमार्थन, वस्तुवृत््या असदेवा-
विद्यमानमंव, तथा तन रूपण तमिरिकं दश्यन प्रदीप-
स्यापवर्तितया पश्यन्ति दण्िदराषात् अपवादात्मकम् अपवाद
स्वरूपम् श्रविषय याऽपवादस्य कशचिन्न विषयस्तस्मिन्नवि- |
अपर |
द्यमानमव पश्यन्ति इह लाक मन्दधीनयनाः--मन्दवुद्धिच- |
छ्षः | यथाक्रम्-““ मयूरचन्द्रकाकार, नाललाहितभास्ुरम् ।
भ्रपश्यान्ति प्रदीपादे-रमरडलं मन्दचच्ुषः ॥ १ ॥ ” ॥ ५॥
यत एवागमदीप ऽध्यारोपमर डल ततक्त्वतो $सदेव
पश्यन्ति--
तत एवाविधिमेवा, दानादौ तत्प्रसिद्धफ़ल एव ।
तत्तच्वदृशामेषा, पापा कथमन्यथा भवति ॥ ६ ॥
तत एव--अध्यारोपादेव श्रान्तेरेवेत्यर्थ: । अध्यारोप-
मण्डलद॒शनादेव वा अविधिसेवा--अविधर्विधिविपर्यय-
| इमे सेवा--सेवने दानादौ विष्ये । आदिशब्दाच्छीलत-
पोभावनापारिग्रहः । तत्प्रसिद्धफल पएव-रतस्मिन्नागमे प्रसिद्ध
कले वस्य दानारेस्तस्मिन् । तस्यागमस्य तच्च -परमाथस्त
पर्यन्त तत्तच्वदशस्तेषामपा श्र्विधसवा पापा स्वरूपण
कथमन्यथा भवात, न भवतीत्यथः ॥ ६ ॥
श्मविधिसवागतमवाद-
येषामेषा तेपा-मागमवचनं न परिणतं सम्यक |
्मृतरसास्वादज्ञः, को नाम विपे प्रवर्तेत ॥ ७ ॥
यपां - जीचानामेषा-ञ्विधिसवा तेपामागमवचने-सर्वश-
वचन न परिणतं सम्यग-क्षयविपयाचमागन चतसि न व्यव-
स्थितम्। श्रागमवचनापरिणतो कारणमाह -्मरतरसास्वाद्-
ज्ञः पुमान् को नाम-न कश्चिद्धिध-मारसात्मकं प्रवत्तत-
भक्तयतु प्रवृत्ति विदधीत, विषप्रव्क्तिकल्ण अर्विधिसवा
तता विज्ञायत नागमवचनं सम्यककपरिणतमिति ॥ ७॥
प्रतियेघनुखनोक्रम्थं विधिमुखन नानागमवचनपार--
रामाश्रयमाद--
तस्माच्चर्मे नियमा-दागमवचनमिह पुद्रलावर्ते ।
परिणमति तच्यतः खलु, स चाधिकारी भव्रत्यस्याः॥८॥
तस्माच्चरम -श्रवसरानचर नौ नियमात् -नियमनागमवचनं पू-
वोँक्कमिडह पुद्वलावर्ते प्रागुक्त परिणमति-उत्तगात्तरपारणाम-
विशषमासादयति , स्वरूपण परि स्फुरतीत्यथः । त्वत
खलु त्वत एव यस्थेतदागमवचन परिणमति स चाच
कारी--अधिकारवान भवत्यस्या--लाकोत्तरतच्वसंप्राप्तः,
शषस्त्वनधिकासीति ॥८॥ ( षा० ) ( आगम०' ( € ) सछाक
्गमवयणपरि णड ' शब्दे द्वितीयभाग ८२ पृष्ठ गतः। )
कथं पुनः सद्राधादनुष्ठाने परिपूर्ण भवतीत्याह--
दशसंज्ञापिष्कम्भण- यागे सत्यत्रिकलं यदो भवति |
परहितनिरतस्य सदा, गम्भीरोद्रभावस्य ॥ १० ॥
दश च ताः सन्ञाश्च तासां चिष्कम्भणे--यधाशक्िनिरोध-
स्तद्याग-तत्सवन्ध सति तान्निराघधात्सादे वा. अविकल-
ह्यसखराडम् , अ्रदः-पतत्सदनुषठानं भवान परहितनिरतस्य परो
पकाराभिरतस्य.सदा-सव्वकालम् , गम्भीरादारभावस्यगा
म्भीर्योदा्ययक्रमनसः ॥ १० ॥ ( घा० ) । ( “ सवज्ञवचन० ”
(१९) इत्यादिश्लाकः ' श्रागमवयण ' शब्दे द्वितीयभागे
८२ पृष्ठ गतः । )
अध्यारोपादविधिसेवा दानादावित्युक्क तद्धिपयये-
णाह-
क (न ०९ ट, क ०
वाधसवादानादा,खसत्रानुगता तु सा नयागन।
गुरुपारतन्त्रययोगा-दोचित्याच्चेव सब्बेत्र ॥ १२ ॥
विधिसवा-आगमाशिमतन्यायसवचा, दानादो विषय, ज्ञया
सूत्रानुगता तु आगमानुगता तु विधिसेवा, नियागेन-नियमे न
गरूपारतन्दययागाद्- गुरुपरतन्त्रसंवन्धात् , ओओचित्याच्चव
अनोचित्यपरिहारेण सब्वेत्र-दीनादावाविशषेण ॥१२॥ (षा०)
(८ न्यायात्त० ( १३ ) `` इत्यादन्छाकः ` दाण ` शब्द चतु-
भागे २४६० पृष्ठ गतः । )
पव महादान दान चाभिधाय देवाचेनमाह--
देवगुशपरिज्ञाना- द्धावानुगतयुत्तमं विधिना ।
स्यादाद्रादियुङ्गं , यत्तदेवार्चनं चेष्टम् ॥ १४ ॥
देवगुखपारिज्ञानात्-दवगुखानां बीतरागत्वादीनां परिज्ञान-
( ५५२ )
्ाभिध्रानगाजन्द्रः |
लागुत्तरतत्त“ _
म्--अववाधस्तस्मात् , नद्धावानुगतमुत्तमं विधिना तषु
गुणपु भावो बहुमानस्तनानुगते युक्रम् . उत्तमम्- प्रधानम्
विधिना-शास्राक्रन.स्यादादगादिय॒क्गं यत आदरग्करणतप्री त्या-
दिसमन्विन यत् स्यान् तहवबाचने चण्ट--तच्च दवाचन-
मिष्टम् ॥ १४ ॥
प्रस्तुत एव सवन्धार्भामदमाद-
एवं गुरुसवादि च, काल सद्योगविष्नवजनया ।
इत्यादिकृत्यकरणं, लोकोत्तरतच्चसंप्राप्तिः ॥ १५॥
पव गुरुसवादि च -पव विधिनव गुरूणां--धर्म्माचार्य प्रभ्र-
तीनाम् , सवा आदिशब्दात्-पूजना दिग्रहः काल--अवसर,
सद्यागविप्नवज्जनया, सन्तश्च--त यागाश्च सद्याग-धम्म-
व्यापाराः स्वाध्यायध्यानादयस्तपु विघ्नः-उपराया विघात-
स्तस्य वञ्जनया गुरूसवादि विधयम ,. इत्यादिकृत्यकर-
णम् , एवमादीनां कृत्यानाम-कार्याणामागमोक्कानां करणम्-
विधानम् , लोकात्तग्तत्त्वसेप्राप्तिर्च्यत ईत ॥ १५ ॥
इय च कथ सपद्यत इत्याह-
इतरतरसापक्ञा, त्वप पुनराप्रवचनपरिणत्या ।
भवति यथोदितनीत्या, पुंसां पुएयानभावेन ॥ १६ ॥
इतरंतरसापक्ता तु-इतर तरसापक्तेव परस्पराविराधनी ।
एपा पुनराप्ततचनपरिणत्या-एघा--एनलों का त्तरतत्त्वसंप्रा-
प्विगाप्तस्यथ यदह्दचने तत्परिणत्या--आगमपरिणत्या भवति-
शरादितनीत्या जायन यथाक्रन्यायन पुंसां पुरयानुभावन-
पुरुपाणां पुरादविपाकन ॥ १६ ॥ घा० ५ विच० ।
लागसणा-लाकेषणा- खी० । प्राण्णिगणस्थ्रेपणा-अन्वषणा ।
शयु शब्दादिषु प्रत्त अनिष्षु चर हयबुद्धो, आचा० १
श्रु० ४ अ० १ उ०।
लोगोवेयारविणय-लोकापचार विनय -पुँ” | लोकानासुपचा-
रा व्यवहारस्तन स एव वा विनया लोकोपचाराविनयः |
विनयभदे, से च सप्तविधः | स्था० ७ ठा० ३ उ० । (सच
` विणय ` शब्ब् दशयिष्यत । )
लोइ-स्वपू-धा० | शयन,
॥ ८ । ४ । १४६ ॥ इति स्वपः लोइादेशः, | लोड
“ स्वपः कमवस-लिस-लोट्ाः ” |
इ, | स्वपिति, |
, लोणभाव-लवणभ।(व-पु० । ज्ञारभाव, आव० ३आ०।
लोणासायण-लवशणास्वादन-न०” । लवणस्य प्रासन न्त्
प्रा० । असत्थाचहता आम श्चयणे ,तंदुल लोझो भरति । |
अशरत्रपहत आम अचतने तराइल, नि० चू० ४ उ०।
लाइण-ल।|इन न० | अवधावन, व्य० १ उ०।
लाइय-ल।इक--७० | कुमारावस्थ हास्तान, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०।
लोइयतू-त्रि० । सुप्त, “
गाथा।
लोट्िअं-देंशी--उपविष्ट, दे० ना० ७ वर्ग २५ गाथा |
लेह-लोष्ट-पं० । शिलापुत्रके, दश० ५ अ० | स्यते, शयिते
च । द० ना० ७ वर्ग रद गाथा ।
लाहग - लाइक-9० । पांझनाक अधि० ।
लाइये सुवते चर” पाइ० ना० २२६ |
लोाहयंती-ले|हयन्ती-स््री ० स्फुटितवनीफलात् कार्पासनि- |
(काररने कुर्वत्याम घट ३ आधि० ।
लोण-लवन-न० । “न वा मयूख-लवण-च तु्गुण-चतुर्थ- _
लोणग-लवणक-पुं? । वनस्पातिविशेष, प्रव० ४ द्वार ।
लाणदघी-लव णद वी -स्ज्री० । नन्दस्तूपानां चतुर्मुख स्वनने स-
लेतुरली-ले।तुरली - खी । वादना अपवेवेशखण्ड, मालि
लाद्र-लोध्र- फु | चुच्तविशष, जी० । स° ।
लाद्रय् -लुब्धक -पुं० । व्याध, 'लाडय चाद पाइ० ना० २४८
लोम-लोभ- पुं । लोभनमभिकाङ्घणे लुभ्यते अननति वा
चतुदश-चतुवार-खुकुमार कुतृहलादुखलोलूखले” ॥८॥ । ६॥
१७१ ॥ इत्याद: स्वरस्य परण सस्वरव्यञ्जनन सह श्रद्ध
वति । प्रा० । सामुद्रादिक क्षारे, प्रज्ञा० १ पद । सेन्धवसोवचै- ¦
लादिकेषु, आचा० २ श्रु० १ चु० ९ अ० १ उ० । खनि
विशषात्पन्न, आचा० २ श्रु० १ चू० १ अ० १ उ० । लवण
पञ्चकं चदम् , तद्यथा-सन्यव सावचेल विड राम सामु
द्र चात । सूत्र० १ श्र० ७ अ० । ( साचत्तलवणग्रहख
` मूलगुणपाडसवना ` शब्द ऽस्मिन्नव भाग ३४६ पृष्ठे पृरथि-
चीकायन्रतिसवनायां प्रतिषिद्धम् । )
« नामण लाण-
भूया, दीसि खि-
ति शिलीमयगारूपत्वनात्पन्नायां दव्याम्
द्रवी रूवेणे नाम अहितुच्छा । घरखियला
लामयी गावी । `` {ति ।
« पमा दत्त लाणासायणमित्तमवि पड़िगाहिया । "` कल्प०
३ अधि० ८ क्षण ।
यत्ति अपव्या भवति सा पुण लातुरली भक्षति । नि०चू०१उ०॥
ज्ञा० । तद्ठक्षत्वग
रूप हट्दद्वव्ये, न० । न० चू० १ उ० ।
गाथा ।
लाभः । कपायभदे. स्था० ४ ठा० १ उ०
बॉन्धिप्रश्नतया 5प्यज भदाः
पृष्ठ दर्शिता: । )
लाभश्रतुर्विघः-कर्मद्रव्यलो भो योग्यादिभेदाः पुद्धला इति,
नाकरमद्रव्यलाभस््वाकरमुक्रश्चिकणिकत्यश्रः , भावलाभ-
स्तु तत्कर्मविपाकः, तद्धदाश्चत-'' लाटा हलिदखंजणकद्-
मकिमिरायसामाणा `` सर्वेषां काधादीनां यथायोगे स्थि-
तिफलानि-'पक्खच उमासवच्छर-जावज्जी वाणुगामिणो क
मसो । देवनरतिरियनारग-गइसाट णदयवा नया ॥ १ ॥ ”?
लाभ लुद्धनन्दोदादरणम्-पाडलिपुत्त लुद्धणेदो वाणियओ +
ज़णुदत्ता सावआ , जियसत्त राया, सं, तलागं खणावेड् ,
फालाय दिद्ठा कम्मकरहि सरा मोज्लेति दा गहाय बी
दीप साचगस्स उवणीया, तेण त च्या, रुदस्स उ
पनीया, गहिया, भणिया य--अणण वि अणेज्ञट, अहं चेवं
गेरिदस्सामि दिवस दिवस गिरहइ फाल । श्ररणया अ
ब्भहिए सयण्िज्ञामंतगएण बलामोडीए णीओ , पृक्ता भ
शणिया-फाले गेरशहह, सो य गओ , ते य आगया , तेहि
फाला ण॒ गहिया , अक्कुट्टा य गया पूविथसाले, तिं ऊ
शग मोहल ति एमं ते एडिया, किदं पडिय॑ , रायपुरिसेहदि
गहिया , जहा वत्त रत्नो कहिये सो नंदा आगआओआ भण
गहिया र ब त्ति, तदि भ्र्मइ-किं अम्हे चि गद्ेण गढिया ?
। ( अनन्ताचु-
` कपाय ` शब्द तृतीयभागे ३६६
चक
( ७५३ )
लाभ
अधिधानराजन्द्रः।
[
तख अइलोलयाए पात्तयस्स लाभस्स ॥फटद्चधाउहात पा
दाण दासय पक्काए कुसाए दा वपाया भग्गा, सयणा '
विलवइ । तओ रायपुरिसहि सावओ दा य घत्तण रा-
उले नीया, पुच्छिया , सावआ भणइ-मज्भ इच्छा पारि मा-
णातिरित्त , श्रविय कूडमाणं ति, तण न गहिया , साव-
आ पूएऊण विसाजआ, नंदा सूलाए भिन्ना, सकुला य
उच्छाइओ, सावगो सिरिघरिआ्रो ठवियआ । एरिसा दुरंता
लाभो ॥ एवंविधे लाभ नामयन्त इत्यादि पूवेबत् । आच १
श्म०।( दण्डकः 'कसाय' शब्द तृतीयभाग ३६७ पृष्ठ गतः । )
मच्छ स्वभाव, सूत्र० १ श्रु० ६६ अ० । विश० ( वख
दष्टान्तन लोभचातुर्विध्यम् * कसाय ` शब्द् तृतीयभाग
३६६ पृष्ठ दशितम् । )
तिलाभ उदाहरणम्--
« जा जहा वद्दए काला ” इत्यादि शलाकः | शरस्य चाः
कथानकादवसयस्तच्चेद्म--कस्मिश्विद्टवी प्रदेश सरावर-
मकमास्रीत् । तच्च लोकिकेषु कामिकती थैमुच्यते । तस्य हि
तीरे वज्जुलनामा ब्रा ऽभृत्तच्छाखामारुह्य यदि तिथक सरो
चरज्ल निपतति तदा तीथ्थमाहात्म्यात्किल मनुष्यो भवति ।
यस्तु मनुष्य एव सेनिपतति असा दवा जायत, । यस्तु
लाभाधिक्रयाद् द्वितीयामपि वारां निपतति स यादशः प्रागा
शगत्पुनरपि तादश एवं संपद्यते, एवं चान्यदा वानरमिथु-
नस्य पश्यता नरमिथुन वज्जुलच्रत्तशाखाता निपतते तत्स-
राचरजल। संजातं च भास्वरशरीरं दवमिथुनम् ¦ नता वानर-
मिथुनर्माप तथव तत्र पातिते जातं च प्रवररूपधरं नर-
मिथुनम् । तता वानर प्राक्रम्-- पुनरपि तथवह निपतावः,
यन दवरूपौ भवावः, तता ऽसा निषिद्धा यापता-“ यद्
न ज्ञायत, पुनरपीत्थे कृत कि सपद्यत ? , पर्याप्त चाननव
परचरमानुषत्वन. निषद्धा दयातलाभः सवशाखत्रष्वाप `` इति ।
इत्थ निवायमाणा ऽपि तयाऽसा पुरुपा द्धितीयामपि वारां
शव तत्र निपपात. जातश्च पुनरपि वानरः । तता ग्रहीता
सा प्रवररूपा यापित्तत्रायातन कनापि राज्ञा, संजाता च
तस्य वल्लभा पत्नी | वानरस्तु ग्रहीता मायन्द्रजालिकेः. शिति
नश्च नत्तायतुम | नातश्चासा सकलत्रापविष्टस्य राज्ञः पुरतः।
प्रत्यभिज्ञाता च तन सा राज्ञी, तया ऽप्युपलांत्तता ऽसा वा-
नरा धावति च पुननिगृ्यमाणाऽपि राज्ञः सन्मुखग्रह-
शाम् . श्रता राज्ञा पठितम-
जा जहा वडए काला, तं तहा सव वानर ! |
मा वजुलपरिभद्रृ, वानरा ! पडणं सर ॥| ८६३ ॥
उत्तानाथश्चाये श्लाकः । तदवे यथा अधिका लाभाऽ्मि
रायः कता वानरस्याऽनर्थाय जातस्तथा मात्राद्यधिकं
सृत्रमपात भावनीयमिति । विश० | आ० म०।
अथ लाभ उदाहरणम् |
नगर पाटलीपतं, जितशत्रनेराधिप
आवका 'जनदत्ते। 5 भू-द शिग्नन्दश्य लोभनः ॥ १ ॥
अभुजा खन्यमानन, तडाग स्थानक कचित् |
दष्टाः कम्मकरेः फाला, मटलयकलपान्मकाः ॥ ~ ॥
९८६
ण
फालद्धय गरदीत्वा ते-जिनदत्तस्य ढौकितम् ।
चिलाक्षय तन मक्त त-दक्त नन्दस्य तेस्ततः ॥ ३ ॥
ज्ञाततच्वः स जग्राह, स्माद चाऽ ऽनयताऽपराम् ।
अयःकुशानां मूल्यन. तनात्ता शतशाऽपि त ॥ ४॥
नान्ताः फालाः सुतस्तऽथ. वलित्वा ऽगुर्निजाश्चरय।
तान् घातना ऽमुचद्धूमा. लपः स्ताक्राऽपतत्ततः ॥ ५॥
राजपुमिग्रहीतास्त, राज्ञः सव निवदितम ।
इतश्चायातवान्न्दः. पुत्राना सम कि कतम् ॥ ६॥
ऊचुस्त ग्राहिलाः स्मान. कार्य किन्तु ऋयाणकेः ।
नन्दा ऽथ कुपितः स्वाड्री, कुशामादाय भश्नवान् ॥ ७ ॥
इयलज्ला भा ममाद्यागा-दतयारव दाषतः ।
ब्यलपन सख्जनाश्चव. किमिदं नन्द ! निमम ॥ ८॥
राजपुभिस्तता नन्द-जिनदत्ता न्॒पान्तिक |
धृत्वा नीतो चरपाऽप्राक्लात . श्राद्धानात्ताः कथं कुशाः ॥६॥
सोऽवदन्नियमा मे5हं, कुव्चे कृूटक्रय न तत् ।
साऽथ समान्य संभूष्य, मुक्ता राज्ञा 5गमद् गृहम् ॥ १० ॥
लाभनन्दः पुनः शला-रापदगाडन दणिडतः ।
लाभा दुरन्त इत्यव, नमादाणामता मतः ॥ १६ ॥ "
श्रा० क० १ अ०। विश०।
। अथ लाभद्वाग्माह--
लब्भंतं पि न गिण्हह, अन्ने अमुर्ग ति अज्ञ घच्छामि ।
भदरसं ति व काउं, गिण्हइ खड्/ं सिणिद्धाई ॥४८१ ॥
अद्याहममुक सिहकसरादिकं ग्रहीष्यामीति बुद्धया एन््यद्ध-
ल्वचणकादिक लभ्यमानमपि यन्न गृह्णाति, कि तु-तदवाप्सि-
तम स लाभपिरडः । अथवा-पूव तथाविधवुद्धश्रभाव5पि
यथाभाव लभ्यमानम् खद्ध-- प्रचुरम् । स्निग्धादि-ल-
पनश्रीप्रभ्रतिकरं भद्रकरसार्माति छन्वा यद् गृह्णाति स लाभ-
पिरडः।
तजर प्रथमभदमाश्रित्यादाहरण गाथाद्रयनाद-
चपा छणम्मि घिच्छाप्ति, मोयए ते वि सीहकेसरए ।
पडिसेहधम्मलाभं, कारणं सीहकेसरए ॥ ४८२ ॥
सड़इ्रत्तकसर-भायण भरणं च पुच्छं पुरिमड़े ।
उवञ्राग सत चायण,साहू त्ति विगिंचणे नाणं।।४८३॥
चम्पा नाम पुरी, तत्र खुबता नाम साधुः । अन्यदा च
तत्र मादकात्सवः समजनि. तस्मिश्च दिने सुत्रताऽचिन्त-
यत्-अद्य मया मादका पव ग्रहीतव्याः तऽपि सिदकस-
रकाः । तत इन्थं संप्रधाय भिन्नां प्रविषठा लालुपतया अ-
न्यत्प्रतिषध्रन सिदक्रसरमादकश्चालममानस्तावत्पारिश्रम-
ति स्मः यावत् साद्धं प्रहरद्वयम् , ततो न लब्धा मोदका
इति प्रनएचित्ता वभूव, तता, गृहद्वारे प्रविशन् वक्रव्यस्य
धमलामस्य स्थान सिंहकसरा इति वदति । एवं च सफ
लमपि दिन श्रान्त्वा रात्रौ तथेव परिश्रमन् प्रहरद्धयसमये
श्रादकस्य ग्रह प्रविवश । धर्मलाभभणनस्थाने सिंहकेसरा
इन्युवाच , साऽपि च श्रावक्राऽतीव गीतार्थो दक्षश्च ।
तस्तन परिभावयामासे-नूनमतन क्वापि न लभ्धाः सि-
हकेसरा मादका इति चित्तमस्य पनघ्रम् । ततस्तस्य चि-
त्तसस्थापनाय सिदक्रसराणां भरने भाजनमुपदौकितम् ,
भगवन् ! प्रतिगृहाण सर्वानप्यतान सिदकलरनादकानि-
( ७५४ )
अभध्रानराजन्द्रः।
ति, सुबतन च परिग्रृहीताः ततः स्वस्थीभूतं तस्य चि
त्तम्, श्रावकण चाक्रम्-भगवन् ! अद्य मया पूर्वार्ध्धः प्र-
त्याख्यातः स कि पूर्णा न वा? इति, `ततः खुब्बत उपयो-
गमुध्य दत्तवान्, पश्यति गगनमरडलमनकतारानिकरप-
रिकरितमद्धरात्रापलक्षितम् , तता ज्ञातवानात्मना भ्रमम्,
हा ! मूढेन मया विरूपमाचरितम् , धिग म लोभाभिभूतस्य
ज।वितम् , भोः श्रावक ! सम्यक् कृते त्वया, यदह सिंह-
कसरप्रदानपूर्व पूर्वाद्धप्रत्याख्यानपरिपूणंताप्रश्नेन संसार
निनञ्जन् रात्ततः, सतीम तव चोदना, तत आत्माने नि
न्दन् विधिना च मादकान् परिषठापयन् तथा कथमपि
ध्यानानल भ्रज्वालायतु प्रज्रृत्तः यथा क्षणमात्रण सकला- |
न्याप घातकमारणयुवाष, तत प्रादुभूत॑ तस्य कवलज्नानम् |
सूत्र सुगमम् | उक्क लाभद्वारम् । एप । कषपायभंद, स० ४
सम० | गाणमाहनायकमाण, स० ५१ सम० | भ०।
लोमभ॑ाण--लो भध्यान-त० । लोभशब्दाक्नर्सिंहकेसरमुग्धसु
बतसाधारिव दुध्यान, आतु० ।
लोभणिस्सिय-लोभनिश्चित-न० । वणिकपभरतीनामन्यथा-
ऋतमवेत्थ क्रीतमित्यादिरूपे मिथ्यावचन,स्था०१० ठा०३उ०।
लोभदंड-लोभदणड--पुं० । लाभनिवन्धनप्राणिहसायास्, प्र-
श्न० ४ सव० द्वार ।
लोभपडिसंलीण-लोभप्रतिसंलीन-पुं? । लोभ प्रति उभय- |
निराधनादयप्राप्तविफलीकरंणेन प्रतिसेलीनः लोभप्रतिसं-
लीनः । प्रतिसेलीनभदे, स्था० ४ ठा० ४ उ० |
लोभपिंड-लोभपिणएड--न० । लोभन पिरडग्रहणि, पिं० । ( अ-
ओदाहररां सुबतसाधाः ' लाभ ` शब्द 5स्मिन्नव भागञनुपद
मच गतम । )
लोभभय-लोभभय--न० । लाभश्च भयं च समाहारद्धन्द्रः,
लोभाद्वा भयम् | लाभभयद्धय, लाभरूप भय च । “ सन्ता-
पिणो लोभमयावतीताः ” लाभभयादतीताः लोभश्च भय क्र
समाहारद्न्वः, लाभाद्वा भय तस्वादतीताः । स्था ७
ठा० रे उ० ।
लाभवत्तिय--लोभप्रत्ययिक-न० । लाभदण्ड लोभप्रत्ययिका-
भिधान द्वादश क्रियास्थान, सूत्र ।
इदे द्वादशे क्रियास्थान् पाखरिडकानुदिश्याद--
अहावरे वारसमे किरिय
है, जे इमे भर्वति, ते जहा--आरंनिया आवसहिया
ण॒ लाभवात्तए त्ति आहज- |
गामंतिया कण्हुई रहस्सिया णो बहुसंजया णो बहुप-
डिविरया सव्वपाणभूतजीवसत्तेहिं ते अप्पणो सच्चा-
मासाई एवं निरजंति, अदे ण हंतव्यो अनने हंत-
व्वा, अह ण अज्जावेयव्यो अने अज्जवियव्वा, अहं |
शण॒परिघेतव्वो अनन्ने परिघतव्वा, अहं ण परितावेय- |
श्चा अन्ने परितावयव्वा, अदे ण उद्दवेयव्यों अने उद-
व्रेयव्या, ( सूतर० ) एवं खलु तस्स तस्म तप्पत्तियं
लो मवत्तिघदेड
सावज्ञति आहिजइ, दुवालममे किरियट्ठाणे लोभवत्ति-
ए त्ति आहिए। ( छू० २८ +)
द्वादशे क्रियास्थाने लाभप्रत्ययिकमाख्यायत, तद्यथा-य इमे
वच्यमाणा अरणय वन्नन्तीत्याररयकाः, त च कन्दमूलफला-
हाराः सन्तः कचन चरत्तमूल वसन्ति. केचनावसथषु-उटजॉ-
कारषु गहु. तथा अपर प्रामादकमुपजोावन्ता न्रा
मस्यान्त--समीप वसन्तीति प्रामान्तिकाः, तथा--कचित्-
काय मण्डलप्रवशादिके रहस्यं यपां त कचिद्रादास-
काः,त च न बहुसेयता--न सर्वसरावद्यानुष्ठानभ्या नि-
दत्ताः । पतदुक्तं भवाति--न बाहुल्यन सषु दण्डसमा-
रम्भ विदधति, एकेन्द्रियापजीविनस्त्वविगानन तापसादयो
भवन्तीत , तथा न बहुविरता न सर्वष्वपि प्राणातिपप्तवि-
रमणादिषु तपु वतेन्त, किन्तु ?-- द्रव्यतः कातपरयव्रतव-
तिना न भावतः, मनागपि तत्कारणस्य सम्यग्दशनस्या-
भावादित्यभिप्रायः। इत्यतदाविर्भावयितुमाह--' सब्वपाण *
त्यादि, ते ह्याररयकादयः सर्वप्राणिभूनजीवसच्वेभ्य आ-
त्मना-स्वतः श्रविरताः--तदुपमदकारम्भादविरता इत्य-
थः | तथा ते पाषरिडका आत्मना-स्वतो वहनि सत्या--
सपाभूतानि वाक्यानि, एवम-वक्ष्ममाणनीत्या वि-
शपण युअन्ति-प्रयुञ्ञन्ति, चरुवत इत्यथः । यदि बा--
सत्यान्याप तानि प्राण्युपमर्दकत्वेन मसुषाभूतानि सत्या-
सखषाणि, एवं ते प्रयुज्जन्तीति दर्शयाति--तद्यथा-अइं
ब्राह्मणत्वाइरडादिभिन हन्तव्योऽन्य तु शद्रत्वाद्धन्त-
व्याः, तथाहि तद्घाक्यम--' श॒द्र व्यापाद्य द्राणायामं
जपत् , किचिद्वा दद्यात् , तथा च्ुद्रसच्वानामनस्थिकानां
शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मण भाजय ` दिव्यादि, अपरं
च अहं वर्णात्तमत्वात् नाज्ञापयितव्योऽन्य तु मत्ता
धमाः समाज्ञापयितव्याः, तथा नाह परितापयितव्या-
धन्ये तु परितापयितव्याः, तथाऽहं वतनादिना कर्मक
रणायन ग्राह्योउन्ये तु शद्धा ग्राह्या इति, कि बहुनोक्के-
न ?, नाटमुपद्रावयितव्या--जीवितादपरोपयतव्योऽन्ये लु
अपरोपयतव्या इति | तदेव तषां परपी डापदेशनताऽति-
मृदतया ऽसंचद्धप्रलापिनामज्ञानावतानामात्मम्भरीणां वि
घमदष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूपं तमस्ति, अस्य
चापलक्तणाधत्वात् मृपावादादत्तादानविरभणाभावोऽप्या-
योज्यः । अधुना त्वनादिभवाभ्यासाद्स्त्यजन्वन प्राधान्यात्
सूत्रणवाब्ह्माधिकृत्याह-- एवमेव ` इत्यादि, एवमेव पूर्वोक्त
च कारणनातिमूढत्वादिना परमाथमजानानास्त,
थिका
व्याख्या ' इत्थिकाम ` शब्दे द्धितीयभागे ५८६ पृष्ठ गता । )
तदवभूतं खलु तषां तीधिकानां परमार्थतः सावध्ाचु-
छानादनिवृत्तानामाधाकर्मादिप्रव्॒त्ते स्तत्प्रायोग्यभो गभाजां--
* तत्प्रत्याथकं--लाभप्रत्ययिकं सावद्ये कर्माधीयते । तदेत-
टलाभप्रत्ययिकं द्वादश क्रियास्थानमाख्यातर्मिति । सूत्र
२ श्रु०ण २ अ० । स० । आ० चू०।
लोभवत्तियदंड-लेभग्रत्ययिकद्रड-पुं" । लोभप्रत्ययि-
इति, लोभनिमित्त द्वादशे क्रियास्थाने, सूत्र० २
२अ०।
का द्राड
श्र०
ती-
स्रीप्रधानाः कामाः स्रीकामाः। ( सूत्र० ) ( तषां -
( ७५५ )
[वि थ. 0 - "` #
लाभावजय लाभा|वजय पुक | लाभादयानराथ उत्त०
२६ अ०।
लाभविजयफलम-
लोभविजणणं भते ! जीवे किं जणयइ ?, लोहविज-
एणं सतासिभवं जणयर् लोभवयणिज्ञे कम्म न बन्धइ
पुच्ववद्ध च कम्मे निज्ञरड ॥ ७० ॥
ह भगवन् ! लाभविजयन जीवः कि जनयति ? , गुरु-
राह- टे शिष्य ! लोभविजयेन जीवः सन्ताषिभावं स-
न्तोपिणा भावः सन्ताषिभावस्तम् उन्पादयति लोभवदनीय
कम्मे न वध्न,ति पूर्वनिबद्धं च कम्म निजर्यति ॥ ७०॥
उत्त० २६ अ०।
लोभसण्णा-लोभसंज्ञा-खी० । लाभादयात्प्रधानभवकार-
शाभिष्वज्गपूर्विकासचित्ततरद्रव्योत्पादनक्रियेव संज्ञायतऽन-
यति | भ० ७ श० ८ उ० | स्था० । लाभवदनीयोदयतो ला-
लसत्वन लाभादयान्नाभसच्वान्विता सचित्ततरद्रव्यप्राथनव
संज्ञायत 5नयाति लोभसंज्ञा । स्था० १० ठा० ३ उ०। सचि-
त्ततरद्रव्यप्राशनायाम् , प्रज्ञा० ८ पद्।
लोभा लोभा-खी० । लोभाजुगतायां क्रियायाम् , श्राव
३ अ० । वाराणस्यामुदितादयराजमार्यायाम् , च्रा०चू०५अ०।
लोभाणु लोभानु - प° । लोभलक्षणकषायसूक्मकिट्टिकाया-
म्. भ० ५ श० ७ उ० |
लोभि-लेभिनू-त्रि० । लुब्ध, अनु० ।
इति लामम् । कक्षादिजात कशाकार रोमाख्ये द्रव्ये, प्र-
श्न १ सव द्वार ।
लोमडिया-लोमडिका-खी० । शिवायाम् , ज्ञा० १ श्रु० |
१ श्र०।
पत्तिभदे, सूत्र० २ श्रु० ३ अ० । स्था० । प्रज्ञा ।
के ४4 ५.९ 92. [पि
से कितं लोमपक्खी ?, लोमपक्खी अणेगविहा पष्पत्ता,
त जहा दका कंका जे यावन तहप्पगारा | से त लोमपक्खी |
“सकि ते लोमपक्खी ? लामपक्खी अणगविहा परण-
त्ता, त जहा-ढंका कंका कुरला वायसा चक्रवागा हं-
सा कलहसा पोयहंसा रायहेसा अडा सेडीवडा बलागया
कचा सारसा मेसरा मयूरा सवयगा गहरा पोडरिया कामा
कामयगा वज्ुलागा तित्तिरा वह्रगा लावगा कपोया क-
पिज्ञला पारवया चिडगा बीसा कुक्कुडा सगा वरहिगा
मयणसलागा काकिला सरहावररणगमादी । स त लामप-
क्खी । `` जी० ९ प्रति०।
>> १ | 2 पके हक ७७७
लोमसिया-लोमसिका- स्त्री० । वल्ली भदे, व्य०
लोमहत्थ-लोमहस्त-पुं० लोममयप्रमाजनक, ओऔ० ।
| शशिशंशीए आशा | । लुनाति निलीयन्त वा तेषु युका
इति लामानि तेषां हर्षा लोमहर्ष: । रोमाञ्च, उत्त० ५ अ० ।
शा० | रामाद्भपे, सूज”? श्रु० २ अ० २ उ०।
9
९ उ०।
आभधानराजन्द्र; |
त्वालुच्
ल।मावहार-लामावहार- पु । लामान्यव्हरान्त यत लामा-
वहाराः | लामकत्तंकेषु, प्र्च> २ आश्र० द्वार ।
लोमाहार-लोमाहार- पुर । शरीरपर्याप्ट्युत्तरकाल बाह्यया
त्वचा लार्माभरादहारा लामाहारः । आहारभदे, सृत्र० २ श्रु०
३ अ० | प्रव०।
लोय-लोच- प° । स्तन कशलुञ्चन,पञ्च(० १० विव० | झआ०
म० ( लाचकम्मंमुहत्त: ` णक्खत्त ' शब्द चतुर्थभाग १७६२
पृष्ठ गतः । ) ( पर्युपणायां लोचकररं “ पज्जुसवणाकप्प `
शब्द पञ्चमभागे २४७ पृष्ठ उक्तम् । )
लोयग-लोचक-न० । विगुण अन्ने, यत्पुनरन्नादि स्वभावादव
लुप्तमाहा रगु गेरन॒पतं तल्ञाचकं नाम । बृ० २ उ०।
लोयग्ग लाकाग्र- न° । माक्त, “ लोयग्ग परमपयं मुत्ता सि-
द्धी सिव च निव्वाण पाइ० ना० २० गाधा।
लोयण-लोचन-न० । अवलाकने, दर्शने,ज्ञा० १ श्रु० १ अ० |
उत्त० । नत्र, “ अच्छी नयने च लाश नित्ते । पाइ० ना०
११९ गाथा ।
| लोयणविहाण-लोचनविधान- न” लोचकरणे,षो० ६ विव०।
लोयणा-लोचना-खी० । उज्ञयिन्यां देवलाखुतराजमायो-
याम् , आ० चू० ४ अ०।
लोयबज्क-लोकबाद्य- त्र० । बाहभूते, जनवाजत च । प्रश्न०
३ आश्र० द्वार ।
लोयसार-लोकसार-न० । लोकप्रधाने,प्रश्न० ३ आश्र०द्धार ।
लोम-लोम-न० । लुनाति, निलीयन्ते वा चस्मिन् यूका |
लोयाणी-लोकानी-खी० । वनस्पतिभदे, प्रज्ञा० १ पद् ।
| लोयायार-लोकाचार-ए० । प्राण्युपमर्दा दिकषा यहेतुके कर्मो-
पादान, यन पुनः पुनः ससार जन्म भवति तथामभूतानुष्टान,
आचा० १ श्रु० ३ अ० १ उ० ।
कः ४ न „ _ लोल-लोल-पं* । चपल, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । स्था० ।
लोमपक्खि-लोमपक्तिन्- प° । सारसराजहंसकाकबकादिके
लोभ च । “ लोला लालस-लोलुअ-उल्लेहड-लेपडा लुद्धा ।”
पाइ० ना० ७४ गाथा । लम्पट, ज्ञा० १ श्रु० ८ अ०। रत्न-
प्रभायां प्रृथिव्यां मध्यनरकन्द्रकात्सीमन्तकात्पूवाबलिकायां
नरकन्द्रक, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लोलंठिअ -देंशी -चाढुनि, दे० ना० ७ वर्ग २२ गाथा ।
लालण-लालन-न० | परता लालन, सृत्र० १ श्रु० ४ अ० १
उ० । भूमा हस्ते वा5वज्ञया लोलयात, ध० ३ आध० ।
लालमञ्छ -लोलमध्य-पुँ० । रत्नप्रभायामुत्तरस्यामावलिका-
या नरकन्द्रक, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लोलावद -लोलावत्त॑-पुं० | रत्नप्रभायां पश्चिमायामावलिका-
यां नरकन्द्रक. स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लोलावसिट्र--लोलावाशिष्ट --पुं० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः दान्ति
णायामावलिकायां नरकन्द्रक, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
लोलिक-लौल्य -न० । चाञ्चस्य, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
लोलुअ -लोलुप-त्रि? | लाभ, लुब्ध च । “लाला लालस
लान् -उल्लद ड -लंपडा लुद्धा ” ! पाइ० ना० ७५ गाथा |
॥ |
( ७५६
त्ालय
ल।लुय लालुप पु० । लम्पट, उत्त० २ अ० । पाशत., उत्त०
७ अ० | ग्रद्धों, सत्र० २ श्रु० ६ अ० । रत्मप्रभाया पूवावाल- `
७ खा०२उ०५ । आ० म० ।
वग २५ गाथा।
कायां नरकन्द्रके, स्था०
लोलुवाविञ्म-देशी-रचितकष्ण, दे ना०
लोव-लोप-पुं० श्रदशेन, अचु० ।
लोह-लोभ-पु० | द्रव्याद्यभिकाक्कायाम् / उत्त०
भिष्वक्के, पा० | “दुक््ख दयं जस्स न होइ मोहो, मोहा हओ
जस्सन होइ तराहा । तरहा हआ जस्स न होइ लोहा ,
लाहा हआ जस्स न कच्रणाऽव॥९॥ ` उत्त० ३२ श०।
“* जहा लाहो तदा लोहो, लाहा लोहो पब । दोमासकर्य
कञ्जे, कोडीए वि न निट्टियं ॥ १॥ ” उत्त० ७ आ०। ग्रद्धो,
प्रच० ७१ द्वार | असंतोषात्मक भावपरिणाम , प्रव० २१६
द्वार । “पग लाभ" स्था०
लालतापरिणाम, अष्ट० ३ छष्र० । लुब्धतायाम् , निग्रहशील
त्वे ममत्ववुद्धो, दशै १ तक्त्व। ( मायालाभो ` कसाय
शब्द तृतीयभागे ३६८ पृष्ठ व्याख्यातो ।) ( अतिलाभता
यक्षत्वावाप्तिराय्यमज्ञाः सा च ` श्रज्जमगु` शब्दे प्रथ-
मभाग २११ पृष्ठ उक्ता । (अन्न कथा दष्टान्ताञ्च ' लोभ '
शब्द् ऽस्मिन्नव भाग गताः । )
६ अ० | अ-
लोह-न० । श्रयसि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार । “ लोहागरधम्म-
ध्मायमानस्यामिना ,
ताप्यमानस्य धमधमायमाना धमधमंति वगव्यक्किमिवोत्पा-
णधमधमेतिघासं ” लोहस्येवाकरे
दयन् घोषः शब्दा यस्थ सः। भ० १५ श० | “लोहे कालायसे
पा३० ना० २३० गाधा |
लाहकडाह- लाहकटाह -न०। बृहत्कुणड
ज्ञ ( अनु० ) भाजन-
विशेष भ० ८ श० ६ उ०।
लोहकडाही-लोाहकटाही- खी । कवस्याम् , भ०५ श ०७ उ०।
लोहग्गल-लोहार्गल-न० | पुष्कलावतीविज स्वनामख्याते
क्षण । वज्रजङ्गस्य राक्ञः स्रनाम- |
नगर, कल्प० १ अधि० ७
ख्याते पुरे च श्रा० क० १ आ०।
लोहजंघ-लोहजड-घ-पुं०।डज्जयिनीनगरे चराडप्रद्योतराजदूते,
उत्त० & श्र०। “ लोादजङ्घा लेखहारी , अग्निभीरुस्तथा
ग्थः | स्त्रीरत्न च शिवा दवी, गजा नलगिरिस्तथा॥ १॥ ”
श्रा० क० ४ अ० | द्वितीयवासुदेवप्रतिशत्रौ, स० । ती०।
ल।(हजेघवण -लोहज्डबन-न० ।
चन, ती० ८ कटप |
ल।दज्ज_ लाहा्य- पु०। उत्पन्नकेवलज्ञानवी रस्य भिक्षादायके
साधो, न्रा म० र श्च०। |
लाहबविलीणतत्त-लाहबिलीनतप्न-त्रि० । लाहमयस्तद्वत्तप्तम्-
्रतितापविलीनलाहसदश, सूत्र० १ श्रु० ४५ अ० २ उ०।
लेहागरिय-लाहाकरिक - पुण | लाहाकरो ऽस्यास्तीति लोहा-
रिवः: । लाहखानिस्वामिनि, आावध०।
लाहारंबरीस -लोहकार |म्बरीष पु" | लाहकारश्राएंड्रेयु, स्था०
८ का ३ उ०।
मथुरायां स्वनामख्यात
श्मिधानराजन्द्रः।
ठा० । मूच्छायाम् ,धघ०श्अधि० । |
लोहियपाएि
लोहिआअ-लोहिताय-नैमधातुः । लादितस्यवाचरणे,
^“ कयङार्यलुक् '" ॥ ८।३। १३८ । इति यस्थ लुक । लाहिआइ ।
लोहिआअइ । लोहितायते, प्रा० ३ पाद)
लोहिच्च-लौदित्य- प° । लोहितष्यंपत्ये, ज० ७ वक्ष० ।
स्था० । भूतदत्ताचाय्येशिष्य, “ सब्भावुब्भावणशया तत्थ
लादिच्चणामाणे ॥ ४० ॥ ” नं० । शचरुञ्जय पवत, ती० ६४
कटप। ।
लोहिच्चायण-लोहित्यायन-न० । लोहितर्षिगात्रापत्य, स
प्र० १० पाह०।
लाहिणी-लोहिनी - खी” । कन्दविशध, उत्त० ३६ अ०। भ०।
चाद्रवनस्पातकायमभद्, प्रज्ञा० १६ पद्।
लोहिय-लोहित-न० । राधर, सूत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ०५ |
* लोहियपूयपाइणी ' लोहिते--रुघिरम् , पूयम-रुधिरमेव
क्तं ते द्धे अपि पर शीलं यस्यां सा लाहितपूयपा-
चिनी । सूत्र० ९ श्रु० ५अ० १ उ० । सूत्र० । दिङ्क-
लादिवत् लादितवणपरिणन रक्त, प्रज्ञा १ पद । स्वनाम-
ख्याते महाग्रह, * पग लाहिए } `` स्था० १ ठा०।
लोहियकुंथु -लोहितकुन्थु पुं” । श्रारक्तस्वरूप कुन्धो, जी० ३
प्रति० १ आधि० २ उ० |
लोहियक्ख-लो हिताक्ष-पुं ० । स्वनामख्याते महाग्रहे, कल्प० १
अधि० ६ क्षण | “ दो लोहियक्खा | ” स्था५ २ ठा० ३ उ० |
स्वनामख्यात रल्नविशेषे , रा० । जी० | ज़ं०। प्रज्ञा० | ज्ञा० ४
सूत्र ० । आ० म० । “ लोहियक्खपइवंसग “ लोहितातक्षमयाः
प्रतिवेशा यषां तानि लाहिताक्षप्रतिवंशकानि | जी० ३
प्रति०ण ४ अधि० । चमरस्य अखुरन्द्रस्य महिषानीका-
घिपतों , स्था० ५ ठा० १ उ०। शक्रस्य देवेन्द्रस्य अप-
त्यस्थानाय , भ० ३े श० ७ उ० । रत्नप्रभायाः पृथिव्या+
स्वनामख्यात काराड, स्था० १० ठा० ३ डइ० |
लोहियक्खकूड-लोहिताजक्षकूट--7 पु? । जम्बृद्धीपे द्वीपे ग-
नधमादन वक्तस्कारपव्वेत स्वनामख्याते षष्ठ कूटे, स्था०
द छा० ६ उ०।
। लोहियक्खबिंवउट्ट--लो हिताज्षत्रिम्बो छ्--त्रि० । लोहिताज्ष-
रत्नवत् विम्बवच्च-विम्बाफलबत् ओष्ठो यषां ते लोहि-
ताक्षविम्बाष्ठाः | आरक्राप्टेषु, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
लोहियगंगा--लोहितगड़ा--ल्ली० । गोशालकपरिभाषिते
परिमाणभेदे, भ० ६५ श०।
लादहियणाम-ललोहितनामन्- न° । यदुदयाज्जन्तुशरीरं लो-
दिते रङ्गं दिङ्कलकादिवद्धवति तज्ञाहितनाम | वरीनामभदे,
कम्म० १ कम० ।
। लोहियपत्--लोहितपत्र--पुं* । चतुरिन्द्रियजीवभदे , प्र-
ज्ञा ०९ पद्।
लोहियपारि--लोहितपाणि--त्रि० । प्राशिवत्कत्तनन ला-
हितो रक्कारक्कतया पाणी हस्तौ यस्य । प्राशिहिंसया लोहि-
तदस्त, विपा० १ श्रु० २ आ० | ज्ञा० | सूत्र० ।
_ ( ७9५७ )
_ल।हिल् अभिधानराजन्द्रः । । ल्हिक
| लोहिलल-लो भवत्-त्रि० । मत्वर्थ इल्लप्रत्ययः । लाभनि, ° | ल्हादिजणण-- हादेजनन--न० । ह्वादेजननमुत्पत्ति्वा-
| १ उ० | लम्पट, दे० ना० ७ वर्ग २५ नाथा । द्जननम् । भ्रमादात्पाद्न , व्य० १ उ० । मनः्भ्र्नक्तिज-
। लोही--लौही--खी० । मणडकादिपचनिकायाम् , भ० ५ | नक, व्य० ३ उ०।
| श० ७ उ० । अनु | आयसभाजनविशेषे , सत्र १ श्च ° ५ | ल्हिक--निली ०--धा० । तिरोधान, निलीजर्तिलीश्च -णि-
श्म १ उ० | कन्दविशषे , जी० १ प्रति०। वनस्पतिविशष 9 ~ ~ ~ ~ ~
क-णारग्ध-लुक्क- --द्टक्षाः ` प्र ५
आचा० १ श्र० १ ० ५ उ०। लु ५ लुक्क- लक्ष क्का ॥ । ४ । ५५ ॥
| ~ तो आय पतन ~ इति निपूर्वस्य लीधातार्लिहक्कादशः | ल्हिकइ। निली--
ल्हस-सखस्लस यत । प्रा० ४ पाद ।
१६७ ॥ इत स्रसघातार्ट सादश: । ह्हसइ । स्लसात । प्रा०।
। न्हसुण लशुन -न० । कन्दविशेष, प्रव० ४ द्वार । नष्ट-त्रि० । “ क्लेनाप्फएणादयः ” ॥ ८। ४। २५८॥ इति
। न्हादि-हादि- खी० । ह्वादन ह्वादिः, श्रोणादिक इप्रत्ययः | | निपूर्वस्य लीधाताः ल्टिक्कादेशः। ल्हिक्को-नष्टः | निलीन ,
| श्रह्नत्तो, व्य० १ उ०। | तिरोहित, प्रा० ४ पाद ।
|
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इति श्रीमत्सोघमबृद्त्तपागच्छी य -क लिकाल्लसवेकृकद्प-
श्री मद्धद्वारक-जेनश्ताम्बराऽऽचायं श्री श्री १००७ श्रीम-
द्विजयराजन्द्रसूरी शवर विर चते ' अजिधानराजन्द्रे '
ह्कारा55द्शिब्दसक्लूलनं समाप्तम् ॥
44.22. ग ८ 4 ऋ.
। 74:
व 85३३7 २7३३३३३7४३३२२४४४5४$३
१६०
आभधानराजनद:ः |
5 इक
ध वकार
व
ब-व-पु० । दन्त्यो ४यमन्तस्थसञ्ज्ञका वरीः ।
वा-डः। सान्त्वन, वात, वरूण,
चन्दन , एका० । वायौ , रादौ , मन्त्रण , कल्याणे ,
बलवति , वसतो , समुद्र . व्याघ्र , वसने
सादृश्य , अव्य० | ˆ मणी वाष्टस्य लम्बत ”
श्रावक , वपति गुणवत्सप्तक्षत्रषु धनवीजानि
पतीति वा इति व्युत्पत्तः | “
त्यनारतम् `` इति श्रावक--शब्दघरक ` व ` शब्दाथनिव-
चनात् | स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
नयाः समाहारः । दरिदरदन््ध, गा० | एका०।
वाच० ।
सयम, दरे, प्रबोध,
वाच० ।
व-इव-श्रव्य० । इवशब्दार्थे , आचा० । “ मिव पवि विव
च विश्व इवा ४थ वा ” ॥ ८। २। १८२ ॥ इति इवार्थे वशब्दप
यागः । “ ससस्स व निम्माओ ” प्रा० २ पाद |
बञम-व्रज-पुं० | ग. “ गुट्र तह गाउले वश्रा घासो ”
पाइ० ना० १४२ गाथा | गृद्ध, गहरा दमा अ गिद्धा ”
पाइ० ना० १२६ गाथा । दे० ना० ।
व्मण-पुं° न० | वचन-न? । “क-गच जत-द पय-वां प्रायो |
लुक ॥ ८। १। १७७ ॥ इति चलुक । “ना णः” ॥ ८। १। २२८॥
दरति नस्य णः | प्रा० । `` वादयथवचनाद्याः ` ॥ ८
दति वा पुस्त्त्रम् | उक्तो , वश्चणा । वश्रणाई | प्रा० १ पाद् |
वन्मस्स-वयस्य- प° । मित्रे, सवयस्के, “ ही दी संपन्ना
मे. मनालधा पियवअस्सस्स '" प्रा० ४ पाद।
बइ-वाच्-खा०। वच --परिभाषण
चाच० । बचन , श्रुत , बू०।
, वच्चनमुच्यत इति ।
अथ्य वागनिन्तपमाद-
दव्ववती दव्वाई, जाई गहियाईं युचइ न ताव ॥
अराहणि दव्स्म वि, दाहि वि भावस्स पडिवक्खो॥
यानि भाषायाग्यानि द्रव्याणि भाषात्वन गृहीतानि न
तावदद्यापि मूर्ति सा नाआगमता व्यतिरिक्ता दव्य |
वाक । श्रथ द्रव्यस्याराधनी यथा्थरूपध्रतिपादिका सा
द्रव्यवाग् , द्वाभ्यार्माप प्रकाराभ्यां भावस्य प्रतिपत्ता
वक्तव्यः । किमुक्तं भवति--यानि भाषायाग्यानि द्रव्या-
णि भाषात्वन परिणमय्य मञ्चति सा नाआगमतों भा-
ववाक । अथवा>-या जीवस्य भावे ज्ञानादिकमाराधय-
त्यजीवस्य घटादेवैर्णादिक सा नोआगमता भाववाक
॥
4
डः-शम्भुः अः-विष्णुश्चा- |
। १। ३३॥ |
|
, शालूकं । |
नित्ति- |
धनानि पात्रेषु वप- |
वइअ-देशी>पिहिते,
बु० ९ उ० । आ० म० | झाचा० | आ० चू० | सूत्र० | |
“ परिसा जावइ
अ० ? श्र० २ शमन
पमा, अग्गवणु व्व करिसिता ” सू-
३ उ० ।
` व्रतिन् पुण । वने-नियमविशषो विद्यते यस्य स वती । श्रा-
वकर, प्रव० ८५० द्वार | हिंसलादिविरतत्वात्साथो, दश० १०
अ० | द्वा० ।
“ पच्छाइअ नूमिआइ बइआई ”
पाइ० ना० १७६ गाथा | पीते, दे० ना०७ वर्ग ३४ गाथा
वहआयार-वागाचार-पुं०। वाच्याचारो वागाचारः । वाग्गो-
चरे,वाग्व्यापारे, आचा०२ श्रु०१ चू० ४ अ० १ उ०। ^ बह |
अआ्रायाराइ साञखा ।णसम्म। ` आअआचा०
छ० १ उ०।
श्रु० १ चु०
वहइआलिय-वैतालिक-पुं? | “ वैराऽऽदौ वा ” ॥ ८।९। १५२॥ `
इति पकारस्य अइ आदेशः । बैतालापासके , प्रा० १ पाद।
वहस्स- वेश्य-पुं० । 'अइर्दैत्यादों च” ॥८।१।१५१॥ इत्यैतः स्थाने
अइ इत्यादेशः । वणिजि, प्रा० १ पादं ।
४. चैकल्य = कर्ये ५५
वइकलिअ-वैकल्य-न०। वेकल्ये,
पाइ० ना० २३६ गाथा ।
वइकुंठ-वैकुएठ - पुं० । उपन्द्रे, “ सडरी दसारनाहो वइकुं-
ठो महुमहो उबिंदों य ” पाइ० ना० २१ गाथा |
बइकंत-व्यतिक्रान्त-त्रि० । गते, “ बहुख॒हेण भ दिवसों
वदक्ततो `" आव० ३ झ० | कट्प० |
चलिच वइकलिओआओ ”
४४
| वइकम--व्यतिक्रम- पुं । विशेषणापदभदकर णतो ऽतिक्रमशे
व्यतिक्रमः | आतु० । परमादद्धवे विपरी तकार्य,आव०३ श्र०।
अवश्य करणीयानां यागानां विराधने , आ० चू० ४ आ०।
घ०। प्रव० । व्य० । प्रति० | आव० । ( आधाकर्मा श्रित्य
व्यतिक्रमस्वरूपम् अइक्कम' शब्दे प्रथमभाग २ पृष्ठ गतम। )
( ज्ञानादित्रिविधा व्यातिक्रमः 'संकिलेस' शब्दे वच्यते । )
वहक्खालिय-वाग्विस्खलित्-न०। बाचि विविधमनेकैः प्रका-
रेलिड्भदादिभिस्स्खलिते, दश० ८ अ० ।
वइगा-व्रजिका-््ली० । गोकुलिकायास् , बृ० ३ उ० ॥
नि० चू० |
वइयगुप्म-वेंगुएयप-न० । विधमतायाम् , विपरीतभावे, आ०
चू० 3 अब |
बहगुत्त-वाग्गुप्त-त्रि० | वाचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तः । मौ-
नव्रतिनि, सपर्यालाचितधर्मसम्बन्धभापिणि, सूत्र० ६ श्रु०
१० ० । आचा० |
का भवति वाग्गुप्तः।
वयणविभत्तीकुसलो, वओगयं बहुविहं विआशणंतो ।
[> * [>> नि [न्य #
दिवसं पि भासमाणो, तहा वि वइगुत्तयं पत्तो ॥२६१॥
वचनावभक्घिकुशला--वाच्यतरप्रकाराभिन्ञः ाग्गतं बहु-
विधमुत्सर्गादिभदाभिन्ने विजानन् दिवसमपि भाषमाणः
सिद्धान्तविधिना तथापि, वाग्युप्ततां प्राप्तः, वाग्गुप्त एवा-
सावति गाथाधः | दश० ७ श्र०। मू० प्र०।
कर
इमुत्तया
बहगुततया -वाग्गुप्रता-ख्नी° । बचलो5शुभपदा भत्वात् गोपन
उत्त० २६ आ० । वाग्ग॒प्तिमत्तायाम् , उत्त० ।
अथ वचोगुप्तिफलमाहं--
वडगुत्तयाए णं भेते ! जीवे कि जणयई बडगुक्तयाए शं
निन्विकारत्तं जणयई निव्विकारणं जीवे बहगुत्त अज्ज
| च्यजोगसाहणजुत्ते आऊवि भव ॥ ५४॥
हू भदन्त ! वचोगुप्ततया जीवः कि फले जनयति ?, गुरू-
राह- ह शिष्य ! वचागुप्ततया निर्विकारित्वें--विरागभावम्
उत्पादयति.निर्चिकारा जीवः वाग्गुप्तः-गुप्ततचनश्ध सर्वावक-
थात्यागात् , वाङ्निराध वागगशुप्तिमान् सन् अध्यात्मयोंग-
साधनयक्रश्चापि भवति । आत्मनि आधितिष्ठतीति अध्यात्म-
मनस्तस्य योगाः-शुभव्यापारा धर्मध्यानादयः तषां साधनम्
स्ताटशश्चापि स्यादव्यथः ॥ ५४ ॥ उत्त० २६ श्र ० ।
बहगुत्ति -वाग्गुप्ति-खी ० । गातम वाग्गुप्तिद्दिधा--मुखन-
यनश्रविकाराङ्गट्याच्छोटनलष्टुक्तपहरृ्तर्णद सज्ञाव जनन मो-
|
|
लमवेत्यका ९,
माऽविराधन मुखवस्व्रिकाच्छादितमुखस्य भापमाणस्याप
| चागनियन्त्रण द्वितीया २, तदुक्कम-- संज्ञादिपरिहारण
। यन्मोनस्यावलम्बनम् । वागवृत्तः संवृतिवा या, सा वा
ग्गुप्तारदटाच्यत॥॥ `` आभ्यां भदाभ्यां वाग्युक्तः सव
था वागनिराधः सम्यग्भाषणं च खरूपं प्रतिपादितं भवति,
भाषासमितो तु सम्यग् वाकृप्रवृत्ति रवति वाग्गुत्िभाषास-
मि्यार्जदः, यदाह--“* समिआ नियमागुत्ता, गुक्ता समिश्चत्त
शम्मि भयणिज्ञा | कुसलवयमुईरंतो, ज वदगुत्त वि समि-
श्रावि॥ १॥ `" इति | थ० ३ अधि० ।
उदाहरणं वाग्गुप्तो--
“साधुः सज्ञातिकान् द्रप्रु, गच्छन् पल्लीं मलिम्लुचेः।
तस्याग्र मिलिता माता-पितृभ्रात्रादयोाऽखिलाः।
श्रायान्ता जन्ययात्रायां, ववल साऽपि तंः सह ॥ २॥
तस्करेमुषितः सार्थो, दषा त मुनिमूचिर।
साधुः सेष गृहीत्वहा-स्माभिमुक्राऽधुनव यः ॥ ३॥
तच्छु वा 5म्बा 5वदच्चों रान् , समप्प॑यत म क्षुरीस ।
स्तनो छिनझि येना5सो, किमिव्युच ऽथ चोरपः ॥ ४ ॥
|. कुष्पुआा5पात् ययोः क्ञारं, नाख्यद्युष्मान् सताऽपि यः।
| चोराऽवक् ते कथ नाऽख्यः, पित्राराख्यादथो मुनिः॥५॥
स्वधम चोरपो बुद्धः, सव तन्मुष्टमापयत् ॥झा० क०४अ०।
बइच्छूल-वाकुछल-न० । असाधारण शब्दे प्रयुक्त वक्ररभि-
अ्रतादथान्तरकल्पनया >>: न स्या० ( ' छुल ` शब्द तती
यभाग १३५३ पृष्ठ वाक्दलं व्याख्यातम । )
| बहजोग-वाग्योग--पु० । वागविषये योगा वाग्योगः | वा-
चकाप्रयम् श्रध्यात्मयागसाधने तन युक्रः अध्यात्मयोगयुक्क- `
नावलम्बनम् .सज्ञादिना हि प्रयाजनानि सूचयता माने नष्फ- `
चाचनप्रच्चनपरपृष्रव्याक्रणादषु लाकाउ5ग- '
( ७५६ )
श्रागधानराजन्द्रः |
झिसगाविष्य व्याप्रियमाणं याग, विश० । वाकूपारिस्पन्द,
वाग्वीयं, विश० । ओदारिकवक्रियाहार कशरीरव्यापारा-
हतवागद्र्यसमृहसाचिव्याजीवव्यापार, स्था० \ ठा० ।
दश० । ने० । दश० । कम० । जीत० । * वद ` त्त । चाग्यागा-
पि चतुद्धा--द्रष्व्यः। तथा ह-सत्यवागयागः १. श्रसल्य
वाग्याग:२, सत्यासत्यवागयागः३, अस्या ऽमृपवाग्यागः५.
तत्र सतां हिता सत्या, सत्यां चासो वाक् च सत्यवाक. तया
सहकारकारणभूनया यागा-सत्यवाग्यागः । श्रधवा-वच-
नगतं सत्यत्वे तःकायत्वा--द्यागऽप्युपच्रयत , ततश्च स-
त्यश्चासो वाग्यागश्च सव्यवाग्यारः। भावाथः सत्यमनाया-
गवद्वाच्यः । असत्या-सेत्याद्धिपीता सा चासो वाक् च
असत्यवाक ; तया यागाऽसत्यवाग्यायः । तथा-सत्या चा-
सावसत्या चेत्यादि पूत्रवन्कमध्वारया वदुव्रीहिवा, सा
चासौ वाक् च सल्यासत्यवाक् , तन्प्रत्यया यागः सन्या-
सत्यवाग्यागः। न विद्यते सत्ये यत्र साऽसत्यः, न विद्यत
मृषा यत्र साऽगरृषः, असत्यश्वासावसपश्च श्रसन्यामूषः, स
चासो वाग्यागश्च असत्या ऽखरृषवाग्यागः.शप मनायागवत्सवं
वाच्यम् । अत्र तृतीयचतुर्थौ मनायागो बाग्यागो च -परिस्थू-
लव्यवदारनयमतन द्रष्व्यो । | निश्चयनयमतन त॒ मनाज्ञाने
वचने वा सवमदु्राववत्तापू्वकं सत्यम् , श्राश्चानादिदूषि-
ताशयपूरवकं । त्वसत्यम् , उभयानुभयरूप तु नास्त्यव
सत्यासत्यराशिद्वय ऽन्तभीवादिति भावनीयम् ॥ क्म० ४
कर्म० ।
वडणभीरु - बृजिनभीर् प° । वृजिनम् पाप तस्माद् भीरु-
बैजिनभीरूः | पापभीरों, यो निरनुवन्धदोाषाच्छाद्धा नाभा-
गवान् वृजिनभीरूः । षा० १२ विव०।
वहणी- त्रतिनि-- खरी” । साध्व्याम् , प० व० ४ द्वार ।
वक्तृ त° ।कथयितरि,'"मुख वदता भवइ ` स्था०३ ठा० १३०।
वइतुलिय -वैतुलिक-ए० । विगतास्तुर्यभाव वेतु्लिकाः। ना-
स्तित्वादिषु, नि० चु० ११ उ० ।
बइतेण-वाक्स्तेन “५० । धर्मकथिकादितुल्थरूप वाकूचोरे,
गरृदीताऽमाचि चेत्युकत्वा, मा ख्यः कस्यापि ना5त्रगान् ॥१॥ |
दश० ५ श्र०।
वइत्ता-उदित्वा-उक्त्वा-श्रव्य° । कथयित्वेत्यर्थे, स्था० ३
ठा० १ उ० | भ०।
वदं ड-वाग्दण्ड- पृ । सावद्यभाषायाम् , आ० चू०। तत्रो-
दाहरणम्- साध सस्षाभूमिश्रो श्रागता ॥ अविधीए आ-
लोएति । जथा सृयरवदं दिट्ठं ति, परिसेहि खतं. गतु मा
रितं। श्रहवा- कारा सामि दद्रुं भणति। जदि दिव-
सो हॉतो | सव्वे समणगाहले वादाचैन्ता ॥ आ० चू० ४ अ०।
बहदं भ-वैद भे-त्रि० । / अइर्देत्यादों च ” ॥ ८। १५। १४५१ ॥
इति एतो ऽदः । विदर्भदेशादिभवे, प्रा० १ पाद |
वइदिस-वैदिश-न० । विदिशाया अदूरभवे नगरे, “द८दिस-
गाचरगामे, खल्ला डगधुत्तकोलियो थरो ”। वैदिशनगरासन्न
गोचरग्राम धृत्तः कालिकः। बृ० ६ उ० श्रा० म०। ( * स्वि-
सियवयण ` शब्द् तृतीयमाग ७४० पृष विस्तरता व्याख्या
गता ।)
( ७६० )
श्रभिधानराजन्द्रः)
वइदु क्कडा
वहृदुकडा-वाग्दुष्करृता खा । असभ्यपरुषादवचना नामि- वइरउसभनारायस्घयण- वचज्रषभनाराचसहनन-न० । बच्च-
क्षायां भाषायाम् , ध० २ अधि० ।
पहदुष्पणिहाण--वाग्दृष्प्रणधान-न० । वर्णसंस्काराभाव अ-
धानवगम, चापल च । धन २ अधि० ।
वइदृहिया--वाग्दुःखिता-खी" । वचसा वचसा वा
रित्व, द्रादकन्व च । स्था० ७ ठा० ३ उ०।
वडधम्म-वेधम्य-न० । विधर्मतायाम , विपरीलभावे च ।
० चू० ४ आ० ।
वहपाडव--वाङ्पाटव--न० । वा्णविषयकपठुतायास , कल्प०
१ आधि० ७ त्तण ।
वइप्पओग-वाक्प्रयोग--पु० । प्रयुज्यन्त इति प्रयोगाः व्यापा.
रा घमकथाः प्रबन्धा वा। वाग्न्यापारपु.सूज० १ श्रु०१३अअ० |
वदष्पञ्मगपारेणय-वाकप्रयागपरिणत-ति* । भापाद्रव्यं
काययागन ग्रृहीत्वा वाग्यागन नसृञ्यमान, भ०८ श०१उ० |
वहभड--वाग्भट-पुं० । आत्रयादिसंहिताएकसंग्रहात्मका 5
शाक्लायुवेदप्रभ्नतिग्रन्थकारक स्वनामख्याते विदुषि, स्वनामप्र
सिद्ध मन्चत्रिप्रवर, गुजरदेशाधिपतिः तिसत्र:--कार्टी स्थिलत्षा
ना व्ययित्वा मन्त्रीश्वरा युगादीशप्रासादमुददीघरत् ।
ती० १ कल्प | >
चहमत्त-वा इम्मात्र--त० । वागेव वचनमेव वाह़मातस । वचन-
दुःखका-
मात्र, “ वइमत्ते णिव्विसय दासा य "' पञ्चा० १२
बइमय-वाहम्मय--न० । व्यजनात्ष रमय, "` पश्यन्ति ब्रह्म निद्ध-
न्ध, नहृन्डानुमव विना। कथ लिफपिमयी दष्ि-वाङ्मयी
था मनोमयी ॥ ष्ट २६ च्रण्र० । स्वरादिवागान्मके,
सादहञ्ञ कंटण् बइमए कन्नसर सपुज्ञा ” दश० ६ अ०।
वइमादिय-वागादिक--पु० ¦ बचनकायांवकार विशषषु, “ ब-
इमा।दएणाह सम्म गुरुणा आलायरण य ` पश्चा० १५ विव०।
वइंयव्व--व्र जितव्य-न०, आगन्तब्ये, बृ० १ उ० २ प्रक० ।
वहर-वज्ञ--न० । ` श-ष-तप्त- वज्र वा ” ॥ ८। २। १०४५ ॥
श-पंयास्तप्तवज्ञयाः संयुक्लस्यान्त्यव्यअनात्पूर्व इकारों वा
भवति । इति मध्य इकारः | वन्न । वद्र । प्रा० । हीरके,
अनु० । सूत्र० | स्था० । भ्रज्ञा० । जी० । आण० म० | रा०।
श्रा । सर्वेषां रुवकादीनां रत्नमयानि कृटानि रत्नानीत्यु-
च्यन्त | दी० । आयेवज्जनाम्ना प्रसिद्ध दशपूर्विणि
स्थविरन्द्र, “ वंदामि छज्धम्मे, तत्तो वैदे य भद्गुत्त च ।
तत्ता य॒ अज्जबइरं, तवनियमगुर्णाह वद्ूरसमं ” ॥ १ ॥
नं० । ( ' अज्ञवइर ` शब्द प्रथमभागे २१६ पृष्ठ कथाक्ता।)
( श्रीचच्रस्वामिना पटविद्यया सङ्घः खुभिक्तदशे नीत इति
` सघ ` शब्दे वन्यते । ) शरीरावयवकी लिकायाम , जी० १
श्रात० | स्था० । पचम ।
त्रर-न० । ^ वैरादौ वा” ॥ ८॥ १। १५२॥ इति चैरशछदे पेत
इरादेशः । प्रा० । शत्रुतायाम् , “ हत्थिसीसय नगरं तत्थ
दमदेतो नाम राया, इतो य पेचपडवारु परोप्परं घरं ”
श्रा म० १ झअ० | महा० | अतीतायां त्रयाविंशतितमायां चतु
विंशतिकायां जाते पञ्चशतगच्छाधिपतो, महा० ४ झ9 ।
वचिच०।
कालका ऋषमः-पारवषरणपट्कः नाराचम्-उमयता मकटवन्धः
ततश्च द्वयारस्थ्नारुभयता मकटवन्धन बद्धयाः पदाङातङ्ग-
च्छता तृतायनास्थापरिवेाषण्टतयारुपरितदस्थित्रयभदकौलि-
कार्य वञ्जनामकर्मास्थ यत्र भवति तद् वञ्जपभनाराचसंह-
ननम् । प्रथमसेहनन, जी० १ प्रत० । कर्प० । पं० सं० |
स्था० | कम० । त० | वज्जषभनाराचसहनने यषां त वज्ञप-
भनाराचसह ननिनः । प्रथमसहननिनि.जी ०३ प्रति ० अधि०।
वइरकंड-वज्रकाणएड--न० । रत्नप्रभाया: पृथिव्या: वच्चरल्लमये `
कार्ड, स्था १ ठा० ३ उ० ।
वहरकंत-वज्ञकान्त--त० । पष्ठदवलोकीये विमानभदे, स० १३
सम०।
वइरकंद-व जकन्द-प० । कन्दभदे. दश” ३ अ । जी० ।
बइरकूड--वेरकूट--न० । मन्दर पर्वतस्य नन्दनस्य वलाहकाया
देव्या आवासभूत कूट, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
वइ्रजंघ--वज्रजङ्क--प० । श्रीऋपभस्वामिनः पवाकदह पष्क
लावतीविजय लाहागलनगरे जाते पृ्धभवजीच, आ० म० १
आ० | कल्प० । आ० क० | (* उसभ ` शब्द
११६ पृष्ठ कथा | )
तण काल तयी समयणे अवगरवबिदेहे वास धसा नाम
सन्थवाहो हात्था ( आब० ) तेण साहण घयं फासुयं चिउले
दाणे दिरणे, सा य अहाउये पालत्ता कालमास काले क्रि
च्चा तण दाणफलण उत्तरकुराण मणूसो जाओ, तद्या आ-
उक्वणणं साटस्मे कप्प दवा उप्पणणा, तता चाइऊण इवं
जबूद्दीव अदरविद्रह गेधिलावनीविजय वयहपव्वए गंधा-
रजणवए गंधसमिद्धे
नाम राया जाओ | (आव०) मरिऊण इंसाणकप्प सिरिप्पभ
विमाण ललियंगआ_ नाम देवो जाओ, तता चइऊण इदेव '
जंबुद्दीवे दीवे पुक्खलावइविजए लाहग्गलणगरसामी वइर-
जघा.नाम राजा जाओ । ” आव० १ अ० |
वइरणाभ-वज़नाभ-चत्रि० । वज्ञमयी नाभियेस्य सः । मध्ये
वञ्जरत्नमय, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०।
वैरनाभ-पुं०।खनामख्याते राजनि,(६७०गाथा)ञआआव०६अ०।
श्रीषभस्वामिनः पूर्वभवीये जम्बृद्वीपस्य पूर्वविदेहे ^
पुष्कलावतीविजय पुरडरी किरायां नगया वजद्धसेनस्य केव-
लिनः पुत्रे चक्रवत्तितां प्राप्ते जीव, आ० क० १ अ०। ति° ॥
कल्प० ! आ० म० | आ० चू० ।
“ कुरुजणएपद गयपुरणगर बाहुबालपत्ता सामप्पभा, तस्व । †8
पुत्ता सज्ञसा जुवराया, सो ख़ामणे मदर पव्यय सामवरशौ
पासति, तता तण अमयकलसेण अमिासत्ता अन्भदिञ्चं
सामतुमादढत्ता । नगरसद् खुबुाद्धनामा, सा सूरस्स रस्सी
सहस्स ठाणाआ चालय पासात, नवर स्जस्ण हक्खुत्त |
साय झाहअयर तयसपुश्नचा जाआ । रादा सुमिणे फ्क्का
पुरिसों महप्पमाणो महया रिउवलेण सह जुज्मंता बिद्ढी, ,
सिज्जेसण साहज्जे दिरणे, ततो रेण तं बले भग्ग ति । तती
अत्थाणए एगआ मालया, सुमख सात , न पुख
६-अ[मनानेप्तम् |
[
~ `
द्वितीयभाग
विज्ञाहरणगरे ( श्राव ) महाबलों ।
चइरणामभस २४
जाणति-कि भविस्सइ त्ति, नवरे राया भणइ-कुमारस्स
महेता कोऽवि लाभा भविस्सइ त्ति भणिऊण उद्लिश्ना अत्था-
णीआ . प्सज्सा वि ग्रा नियगभवण, तत्थ य श्मालायण-
हिरा पच्छति सामि पविसमाण, सा चितइ-कहि मया
एरिसे नवत्थे दर टरुपुव्वे ? जारिस पपितामहटस्स त्ति, जाती-
सभरिना-सा पुञ्वभव भगवआ॥ सारटी आसि, तत्थ तण
वडइरसर्णातत्थगरा तित्थयर्रालगण दिट्ठा त्ति, वहइरणाभेय
पत्वयत सा अवि अणुपव्वइआ, तण तत्थ खुयै. जहा--एस
चइरणाभा भरट पढमतित्थयरो भविस्सड् त्ति । आब० (आ०।
"` बइगजघो नाम राजा ( आव७ ] मरिऊण उत्तरकुराए स-
भारिओ मिहणगो जाओ, तओ सादम्मे कप्प दवा जाआ,
ततो चइऊण महाविदेद्े वास खिइ॒पइट्टिए णगर वज़पुत्तो
याश्चा ( आझव० ) स इम चत्तारि वयंसगा, ते जहा-राय-
पुत्त, सट्ठिपुत्त, अमचपुत्त, सत्थवाहपुत्त त्ति, ( आव० )
तत पच्छा साह जाता , अहाउय पालदइत्ता तम्मू-
लागे पच वि जणा अच्चुए उववरणा , तता चइऊण
इहव जवृदीव पुव्वविदरह पुक्खलावडइविजष पुंडरीगिणीप
नयरीए चरसरास्स ररणा धारिणीप दवीप उयर पदमा
बहरणामा णाम पुत्ता जाओ, जो स वज्ञपुत्ता चक्चद्टी
सागता, अवससा कमण वाहुसुवाहुपीढमहापीढ त्ति, वदर-
सणा पव्वइआ , सोय तित्थंकरों जाआ।'” श्राव ६ अ०। -
बइरतुंड-वज्जतुएड-त्रि० । वञ्जवत्ताच्णतुगड़, कल्प” १ आधि०
६ क्षण । (` बंभी ` शब्द पश्चमभाग १२८४ पृष्ठ.कथा | )
चहइरदंड--वजदणड-पुं० । वञ्जरत्नमय रूप्य पटमध्यवर्तिनि
दगड, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
वइरपाडिरूव--वज्ञप्रतिरूप-त्रि० । वज्ञसदश ,
ई उ०।
भ० ७ शा |
८ 5६१ )
अभिधानगाजन
वइररयण- वज्ररत्न- न० । वज्ञाभधानरः
वहरारासे-१र२प्-पु० । वरगाभध्रान मनिपता.पञ्चा०६ वच ।
वरसामि-परेरस्वामिन् - पुं” । आयवञ्जति प्रसिद्ध, सिहर्गिरि-
शिष्य, स्था० ४ ठा० १ उ० । (` अज्जबइर ' शब्द प्रथम-
भाग २५६६ पृष्ठ कथाक्ना । ) आयेसमतसूरिमातुल, करुप०
२ आधि० ८ क्षण ।
वहरसार-वच्नसार-न० । कुरडलद्धपस्थकुरडलाख्यपचंतस्य
वहरेय_
भ० १५ श० ।
पूर्वस्यां दिशि स्वनामख्यात कृट, द्वी० ।
वहरसूरि-वज्ञसूरि-पुं० । दशपूर्विशिणि स्वनामख्यात आचार्य,
कल्प० २ आंधर० ८ क्षण ।
वहरसेण--बेरसन--पु० | ऋषभदवपूर्वभवर्जीव वज्धनाभपितरे,
सच पूर्वाव्देंह--पुरडरीकिण्यां नगय्यों राजा भूत्वा प्रत-
जितस्तीथकरः सञ्जातः । पश्चा० १६ विच० । आ० क० ।
।आ० चू० । ( वंभी ` शब्द पश्चमभागे
८८४ पृष्ठ किश्विद् वृत्तमस्य । ) (* उसह ` शब्द द्वितीय-
भाग १११७ पृष्ठ व्रत्तम |) आयवज्र्सारशिप्य, ग०३ अधि०।
( तद्दीक्षाक्ता ' अज्जवइर ` शब्द प्रथमभाग २१६ पृष्ठ । )
यं पूवेघर राचारः वेक्रमीय १६५ सबत्सर विद्यमान आ-
सीत् । ज० इ० |
बहरसेणसरि-वज्ञसनसरि-पु” । नागपुरीयतपागच्छोद्धव
हमतिलकसरिशिष्य, सीहडमन्त्रप्रशसया अलाउद्दीनना-
म्ना दिल्लीपतिनाउस्मे हारादिक उपहागो दकत्तः। जे० इ० |
वइरागर-वज्ञाकर-पु० । वज्ञानि रत्नान तपामाकरा बच्चा-
करः । वज्ाख्यरत्नोत्पत्तिस्थाने, औ० । नि० चू०।
चन्र मन
। वरराड-वेराट--न० । मल्स्यदेशराजधान्याम् , प्रज्ञा० १ पद् ।
चडरपाणि--वज्रपाणि--पु° । वजे पाणौ अस्य वज्रपाणिः । |
जी० ४ प्रात्त० २ उ० | करधरतवञ्र,कटप १ अधि० १ क्षण ।
चडरभूद-वज्रभूति-खी° । भरूकच्छुनगंर नरवाहनन्भपस-
मय एकदा समवस्रत स्वनामख्यात आचार्य, व्य० ३ उ० |
। बइरामय-वज्ञमय>त्रि० ।
वहरभूमि-वजरभूमि-खी° । श्ङ्गदेशीय नगरीभदे, यत्र श्रीवी- |
रो नवमे वर्षारात्र कृतवान् | कटप० १ अधि० ६ क्षण ।
बहरमज्भचद पडिमा-वजमध्यचन्द्रप्रतिमा-खी०। वञ्रणोपमा
चन्द्रण च । चज्रस्यव मध्यं स्याः सा वञ्जमध्या । चन्द्रा-
कारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा । प्रतिमाभदे, यस्या हि
कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश कवलान् युक्त्वा ततः प्रतिदिन-
मकदान्या अमावास्यायामेकं णुकलप्रतिपदि अप्यकमव ततः.
पुनरकेकल्द्धया पौणमास्यां पञ्चदश भुड़, सा तनुमध्यत्वाद्
चन्नमध्या | स्था० २ ठा० २ ड०। ( चन्द्रप्रतिमाप्राङ्तमधि-
कृत्य वचद्नशब्द्स्थ पयायेण व्याख्यानम् ` पड़मा ` शब्दे
पञ्चमभागे ३३४ प्र गतम् । ) ( ` कराह ” (२०) इत्यादि
पञ्चाशकेकानविर्शातविवणगाथया वज्रमध्याप्रतिपादनम्
चैदायण ` शब्द् तृतीयभागे १०६६ पृष्ठ गतम् । )
की 5४ बहरम्ुह्दा-वजमुद्रा-ख्ली० । मान्त्रिकप्रसिद्धे मुद्राविशष ,
सह्वा० १ आधि० १ प्रस्ता०।
श्६१
सूत्र० | "` वइराडमच्छा `` बेराठा देशों मत्स्यराजधानी ।
अनन्य तु-मत्सदशो बेराटपुरं नगरमित्याहु:। प्रव० २७५
हढ्वार ।
चज्रशब्दस्य दीघ्रत्वे प्राकृत-
३ प्रति ४ अधि०। भ० | औं० ।
आम
त्वात् । वज्जस्त्नमय, जी०
४ चइरामया सधी "` ज० १ वक्ष० । प्रशज्न० | रा०
रामया णमा । रा०।
वडरामयपासाणा--वज्रमयपापाणा--खी° । बज्जमयाः पाणा-
णाः यासान्ता वज्रमयपापाणाः । वज्रमयपाषाणे रचित-
तरिकायां नयाम, जी० ३ प्रति० ७ अधि० | रा०।
बइरासण-वज्ञासन-न० । प्रधानयोगिप्रतीत आसनविशेषे,
वज्ञासने प्रकर्षप्राप्त सति नियमाद् दिव्यज्ञान समुत्पद्यत ।
अन० ३ अधि० ।
वहरित्त-व्यतिरिक्क-त्रि० । तदन्यस्मिन् , श्रा० म० १ अ० |
« बदइरित्ता णाम जहाभिहियक्रालाओं अक्षा अकालो भव-
ति ` । नि० चू० १ उ५।
वड्रय- व्यतिरक पुं | अभाव, षा० ३ विव० । साध्याभावे
साध्रनामावरूप. विश० | उपमानादन्यस्मिन् , प्रति० । प्रक्र
मविपर्यय, पञ्चा” १२ विच ।
( ७६२ )
श्रानश्रानराजन्द्रः
वटरोयण
वटरायण -वराचन् 7२०? । विविध राचन्त दीप्यन्तं इति
विराचनास्त एव वेराचनाः | स्था० ४ ठा० २ उ०। दा-
ज्षिणात्यासुरकुम्ता रभ्यः सकाशाद विशिष्ट राचन दीपन
यपामास्ति त वगाचनाः ¦ ओदीच्यासुरकुमारपु, भ० ३ शण
प्रज्ञा० | अम्ना, सूज० १ श्रु० 2 अ० | कष्णराज्य-
चक्राशान्तरग वह्िनाप्रकदवावासभून, स्था० ८ ठा० ३
उ० । भ० । बुद्ध. द० ना० ७ वग ५६ गाधा।
वहरायशिद -वर।चनन्द्र प° । वेंराचना द्मा दाच्याखुरास्तपु
१ ० |
मध्य इन्द्रः-परमश्वर वैराचनन्द्रः। वलौ, प्रा० | भ० । बें-
राचनाऽग्निः स पव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रः । विभावसौ,
सूतच० १ श्रु० ६ अ०।
बदृल्न-वलीवदं पं । “ गोणादयः ” ॥ ८। २। १७४॥ इति
निपातः । पङ्गव, प्रा० २ पाद । आ० म०।
बइ(ई)वाय-व्यतीपात-पएं० । रविशशिगतिप्रयुक्नलयोगभदे ,
ज्यो० ।
सम्प्रति व्यातिपातं विवचुराद--
अयणार संबंध, रविसोमाणं तु बहे य जुगम्मि।
जं हवइ भागलद्ध वइवाया तत्तिया हति ॥ २६१ ॥
बावत्तरीपमाणो, फलरासी ........ ..... . -- ----
[7११११११
इह सूयीचन्द्रमसौ स्वकीये ऽयने वत्तमानौ यत्र परस्परं |
उयतिपततः स काला व्यतिपातः, तत्र ' रविसामयोः !
याचन्द्रमसोाः * युग ` युगमध्येडयनानि तेषां परस्परं * स-
म्यन्य ` एकत्र मीलन कृत सति द्वाभ्यां भागो हियते, हत
च भागे यद् भवति भागलब्ध ` तावन्तः ' तावत्प्रमाणा ए-
स्- |
कास्मन युग व्यातपाता भवान्त,सच भागलच्यक्राशद्वा- |
रूप्ततिप्रमाणः, तथादि-सूयस्यायनानि दश चन्द्रस्यायनानां
च तुखिशदधिकं शत, तयारकत्र मीलन जातं चतुश्चत्वारि
शदधिकं शतं १४४, तस्य द्वाभ्यां भागो हियते, लब्धा द्वास
= ~ ^
घातरव, तावत्पमाणा झुगमध्य ठ्यातपाताः ॥ रध्श ॥
स्ताम्प्रतमाप्सतव्यातप्रता 55न_यनाय करणमाह---
ध इच्छते उ जुगभए ।
इच्छियवइवार्य पि य. इच्छ काङण आदि ॥२६२॥
जं भव भागलद्धं, तं इच्छ निदिमाहि सव्वत्था |
समेऽवि तस्य भेए फलरासिस्साणए सिग्घ ॥ २६३ ॥
ईप्सिते
भमिव्याद तत्र यद् भवति भागेन-द्वासत्तव्यादिभागदारेण लज्ध
ते-तत्सख्यम् 'इच्छे ति ईप्सितं व्यतिपात निर्दिशेत् । शषा
नपि युगभदान् मुह त्तोदिखू्पान् ` फलरासिस्स ` त्त तृती-
यार्थ षष्ठो फलराशिना द्वालपतिलक्षणन शीघ्रमानय। पष
करणगाशथाक्तराथः,
सम्प्रति भावना क्रियते--
यदि द्वासप्तांतसड़ग्ख्येब्यातपातेश्रतुर्विशत्यधिक पवैशत
लभ्यत तत एकास्मन व्यातिपाते कि लभामहे ? , राशि-
अयस्थापना-9२-१२४-१ अत्रान्त्येन राशिना एककलत्तण-
न मध्यराशिश्रतुर्विशत्यधिकशत प्रमाणो गुरयत, जातं तद्व
' विचक्तिते ` युगभदं ' युगाविशष इच्छाम-ईण्लि- |
लव्यतिपातविषयां छत्वा इप्सित व्यतिपातमप्यानय । कथ- |
चतुर्विशत्यधिकं शन ६२४, तस्य द्वासघत्या भागो
लब्धमकं पर्व, पश्चादवतिष्टत द्विपञ्चाशत् , सा पञ्च ।
गुगयते, जातानि सप्त शतान्यशात्याधिकानि, तषां द्वासप्तत्या- `
भागहार लञ्धा दश तिथयः, शपा षष्ठिः , सा मुह
थ त्रिशता गुरायन, जातान्यण्ठादश शतानि १८००, तषां रा
सप्तत्या भागहरण लब्धाः परिपूर्णा: पञ्चविशतिमुहर्ताः, ष
श्चान्न किमपि तिछाति, आगतमेकस्मिन पवाणि दशसु च ति.
धपु गतास्वकादश्यां पञ्चविशनतो मुह तेषु परथमो व्यतीपातः `
समाप्त इति, तथा यदि द्वासक्षतिसङ्-ख =
त्यधिक पर्वेशतं लभ्यत ततः पञ्चभिव्येतिपातेः कि लभ्यम् १
इति, राशित्रयस्थापना ७२-१२४-४, श्रच्रान्त्यन रारिना पञ्च-
कलक्तणन मध्यराशगुणने, जातानि षट् शतानि विशत्यधि- `
कानि ६२०, तषां द्वासप्तत्या भागो दियते, लब्धान्य्रौ पौ.
णि ८, शपास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् ४७, सा तिथ्यानयना-
य पञ्चदशभि्मुणयत, जातानि घट शतानि षण्स्यधिकानि- `
०, तयां द्वासप्तत्या भागहार लन्धा नव ६, शपास्तिष्ठन्ति
द्वादश१२, त मुहत्तोनयनाय तरिशता गुरायन्त, जातानि त्रीणि
शतानि षष्ख्यधिकानि ३६०, तषां द्वासप्तत्या भाग इत लन्धाः `
पारपूणाः पञ्च मुहत्ताः, पश्चान्नाक्मापातष्ात, अआगतमश्र- `
सु पवसु गतघु नवमस्य च पवणा नवखु तिथिषु गताखु दर
शम्यां तिथो पञ्चसु मुहर्तेषु पञ्चमो व्यातिपातः समाप्त, एके
सऽपि व्यतीपाताः। ( संप्रति चन्द्रनक्तत्रव्यतिपात ) षरि
ज्ञाना थमुपक्रम्यन्त- यदि द्वासक्तिसङ्ख्यव्य ती पातैः रूप्तप-
ए्ञ्न्द्रनक्तच्रपयीया लभ्यन्ते तत पक्स्सिन् व्यतिपात कि
लभेयमिति, राशित्रयस्था पन[-७२-६७-१ , अत्रान्त्यन राशिना
एककलक्षणन मध्यमराशेः सप्ताप्टिरूपस्य गुणनात् जातः स~
पर्पाशरेब, तस्या द्वासप्तत्या भागा हियत, सा च स्तोकत्वा+
द्धागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनाथमण्टादशप्िः शतेखि-
शदधिकेगुणयिष्याम इत्यस्य शुणकारराशेश्छुद्राशश्व द्वासप्त-
तिरूपस्य षपटकेनापवत्तेना, तत्र जातो गुणकारराशिखाणि
शतानि पञ्चात्तराणि ३०४, चछुद साशद्धादश. गुणकारराशि-
नाच सप्षपश्ठगुरायत, जातानि विशतिसहस्तराण चत्वारि
शतानि पश्चत्रिशराधिकानि २०४३५, छद गाशिरपि दादशलक्त-
णः सप्तपस्या गुरयत, जातान्यटौ शतानि चतुरुत्तराणि-
८०४, ये चामिजितः सक्तपष्िभागा पकविशतिस्त ऽपि द्वादश
भिगुरयन्त, जात द्धे शते द्विपञचाशद धिकं २५२, त उपरितन-
राशः शोध्यन्त, स्थितानि पश्चा द्धिशतिः सह स्राए्णि शतमेकं
ज्यशीत्यधिक २०१८३, तेषामष्टामः शतेश्चतुरुत्तरे भागो डिय-
ते, लब्घा पश्चविंशातिः, शषास्तिष्ठान्ति उयशी तिः संप्रति मुट्ठ-
त्ता आनतव्याः, मुह त्ताञ्च अहोराजे त्रिशत् , तस्याः षदके-
नापवरत्त नायां जाताः पञ्च, देदराशिरपि षद केनापवततितो
जातश्चतुख शादधिकं शनं १३४, तत्र ज्यशीतिः पञ्चभिशुिता
जातानि चत्वारि शतानि पञ्चदशा तराणि ४१५, तेषां चतु-
सिशदधिक्रन शतन भागदरण, लब्धाखये मुह ततीः, |
स्तिष्न्ति जयादश, तच्र द्वाचिशत्या श्रवणादीनि विशाखाप-
यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शषास्तिष्ठन्ति जयः, तेश्वानुराधा-
ज्ये्ठामूलरूपाणि नन्तत्राणि शुद्धानि, परं ज्यष्ठानत्त्मद्धे्त-
त्रमिति तत् पश्चदशभिसुह ते: शुद्ध्याति, शेषाः पञ्चदश ति-
^" +
( ७६३
आधभिधानराजन्द्र
चटवाय
चउचाय
छन्त, ते मुहत्तराशों प्रक्षिप्यन्ते, तत आगतं-पूवोषाढान- |
क्षत्रस्याष्टादश मुहू चानेकस्य मुहत्तस्य च ्रयादश चतखि- |
शदधिकशतभागानवगाह्य प्रथमा व्यतिपाता गत इति, त- |
था यदि द्वासघतिसंख्येव्यतिपाते: रूप्तषण्िश्चन्द्रनक्तत्रपया- |
या लभ्यन्त ततः पञ्चभिव्यातिपातः कि लभामह ? राशित्रय- |
स्थापना- ७२-६७-५५. श्त्रारत्यन राशिना मध्यरारागुणन.जा. |
लानि त्रीणि शतानि पञ्चतिशर्दाधकानि ३३५, तषां द्वासप्त-
त्या भाग हत लब्धाश्चत्वारः पयोयाः, न तः प्रयोजन, शषा
स्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिशत् , सा नत्तत्रानयनाधमण्टादशभिः
शनस्िशदधिकेगुणयितव्यति गुणकारच्छदराश्याः षट्-
कनापवत्तना्याता गुणकारराशिस्राण शतानि पञ्चा-
क्षराणि--२०५ , छुदराशिद्वादश , तत्र गुणकारराश-
ना पश्चात्तरात्रिशतप्रमाणनः सप्तचत्वारिंशदू गुण्यते ,
जातानि चतुदश सहस्वांण त्राणि शतान पश्चत्रिशद-
धिक्रानि १४३३५, छुदराशिना च द्वादशप्रमाणन सप्तषाष्टसु
ण्यते, जातान्यष्ा शतानि चतुरुत्तराण , आर्भिजता5प्य-
कविशातिः सप्तपा्टभागा द्वादशभिगुणिता जाता द्व शत
द्विपश्चाशदथधिके २५२, ते प्राक्ननराशः शाध्यन्त, स्थितानि |
पश्चाचतुदश सहस्राणि उयशी त्यघिकानि १४०८३, तेषामण्ट-
भिः शतश्चतुरुत्तरेभागहरणे, लब्धाः सप्तदश १७, शष तिष्ठति
ज
चत्वारि शतानि पञ्चदशाधिकानि ४१५, एतानि च मुहत्तो- |
नयनाय तरिशता गुणयितव्यानि, तिशतश्च पट्कनापचत्तेना-
यां जाताः पञ्च, छद राशरपि घट कनापवत्तन जाते चतुखि-
शदधिकं शत, तत्र चतुणा शतानां पञ्चदशात्तराणां पञ्चनभिर्ग-
शन जातानि विशतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि २०७५, तषां
चतुखिशदधिकशतन भागा हियत, लब्धाः पञ्चदश महर्त्ताः,
शषाः तिष्ठन्ति चतुस्विशदधिक्रशतभागाः पञ्चषण्ठिः, तत्र य
पूवलब्धाः. सप्तदश तभ्यख्रयोद शभिः श्रवणादीनि पनवसखु-
पयन्तानि शुद्धानि, शघास्तिष्ठन्ति चत्वारि, तश्च पष्यादीनि
चूवफाल्गुनी पयन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि शुद्धानि, परमच्छे-
षानक्षत्रमद्धक्षत्रमिति तत् पञ्चदशभिर्महर्तेः शुद्ध्यतीति
शपास्ति्ठन्ति परश्चदश, त मुह त्त राशो प्रक्तिप्यन्त, जाताखि-
शन्मह त्ताः, आगतमुत्तरफाल्गुनीनक्तत्रस्य तिशन्मृहत्तान्
एकस्य च मृहत्तस्य पश्चर्याष्ट चतुस्त्रिंशद शिकशतभागानाम-
खगाह्य पञ्चमो व्यतिपातो भूदिति, एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातपु
भावनीयम् ॥ सम्प्रति सूर्यनक्षत्रानयनायोपक्रम्यत-यदि द्वा-
सप्ततिसख्येत्यतिपातेः पञ्च सूर्यनक्तत्रपर्याया भवन्ति तत
एकस्मिन् व्यतिपाते कि भवति ?, राशित्रयस्थापना ७२-४-१,
श्रत्रान्त्यन राशिना मध्यराशग्गुणने, जाताः पञ्चव, तघामायेन
राशिना द्वासक्षतिलक्तणन भागो हार्यः, तच स्ताकल्वाद्धागं
न प्रयच्छन्ति, तता नक्षत्रानयनारथमष्टाद्शाभिः शतेखिशद-
धिकेः सप्तपष्टिभागैगेणयितव्या इति छेदराशिगुणराश्योः
षट्कनापवत्तनाः, जातश्छेदराशिद्वी दश, गणका रराशिस्त्रीणि
शतानि पञ्चा चराणि ३०५, तथापरितना राशिः पश्चकलक्षणो
गुरयत, जातानि पञ्चदश शतानि पञ्चविशरत्यधिकानि १५२५,
छदराशिना च द्वादशकलक्तषणन सप्तपष्टिगुणयते, जातान्यष्ठो
शतानि चतुरुत्तराणि ८०४, पुष्यस्य च सप्तप्प्टिभागाश्चतश्र-
त्वारिशद् दवादशमि्ुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि श्रष्टावि-
शत्यधिकानि ४२८, तानि पूर्वराशः शोध्यन्ते, स्थितानि प-
शचा स्तिष्टन्ति पश्चार्निशत् ,
श्ान्नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि ६६७, तपामप्रभिः शर्तें
श्चतुरुत्तरेभागा दियत, लब्धमकं नक्तत्रमस्छषारूप, स्थितं
पश्चात्त्रिनवत्याघिकं शतम् , पतच्च नक्तत्भागे न प्रयच्छतीति
सप्तपष्टिभागानयनाय छदराशिर्मोल एव द्वादशलक्षणः परे
पञ्चभिः सक्षपण्टिभागेरदारात्रा लभ्यत इति स पश्चभिगणयत
जाता षणः, तया भागा हियत, लब्घारत्र यो ऽदारात्राः, शषा-
स्तिष्ठन्ति चयादश, त म॒ह त्तानयनाय त्रिशता गुण्यन्त, जा-
तानि त्रीणि शतानि नवत्यधिकानि ३६०, तषां चथ्छ्या भाग
हत लब्धाः साद्धाः पड़ महत्ता: , अम्झषानक्षत्रमिति तद्धता
अहाराजा णकाविशतिश्च महत्ता उद्धरन्ति, त अन् प्रक्षिप्यन्ते
आगतमस्झेषानक्षत्रमतिक्रम्य मधघानक्षत्रस्य त्रिष्वहारात्रषु
गतेषु चतुधस्य चादारात्रस्य साउँघु च सप्ताविशतिषु म॒ह-
त्तेषु गतपु प्रथमा व्यतिपाता गत इति, तथा यदि दासप्तति-
सख्ये्व्यातिपातेः पञ्च सूर्यनक्तत्रपय्राया लभ्यन्त ततः पञ्चभि-
व्यतिपानेः कि लभ्यम् ? इति राशित्रयस्थापना-७२-५-५,
अत्रान्त्येन राशिना मध्यगाशगुणने, जाता पञ्चविशतिः २४,
तस्या आद्यन राशिना भागहरण, साच स्ताकत्वाद् भागं
न प्रयच्छति तता नत्तत्रानयनाशमनामण्रादशभिः शतेखि-
शदधिकेः सप्तपष्टिभागेगुणयिष्याम इति छेद्राशि--
गुणकारराश्याः षट्कनापवत्तंना, जातो - गुणकाररा
शिखीणि शतानि पञ्चात्तराणि-३०५, दराशिद्ा-
दशप्रमाणः-१२, गुणकारराशिना च पश्चविशतगुणन जाता-
नि षटसप्ततिः शतानि पचर्विशव्याधकानि ७६२५, छुदराशि-
नाऽपि च द्वादशलक्षणेन सप्तपाए्गुंग्यते ,जातान्यष्टरौ शतानि
चतुरुसराणि ८०४, पुष्यस्य च सप्तर्ष्टिभागाश्चतुश्चव त्वारिश-
त्, सा द्वादशाभगुण्यते,जातानि पश्च शतानि अष्टाविशत्य-
घिकानि, तानि पू्वराशः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्त-
तिशतानि सप्तनवत्याधकानि ७०६७, तष(मषटमिः शर्तेश्वतु-
सत्तरेभागदहरणं, लन्धान्यण्रौ नक्तत्राणि, शषारि तिष्ठन्ति षर्
शतानि पञ्चषष्स्याधिकानि ६६४, एतानि नत्तत्रभागं न प्रय-
च्छन्ति ततः सप्तर्षाष्टभागानयनार्थ छुदराशिमृल एव द्वाद-
शप्रमाणः पर पञ्चभिः सप्तपष्टिभागरहारात्रा लभ्यन्त इति
पञ्चभिर्गरायत, जाता षण्िस्तया भागो दियते, लब्धा एका-
दशादारा्ाः, शपास्तिष्ठन्ति पञ्च, त मृह त्तौनयनाथ जतिशता
गुरयन्त, जात साद्धेशत, तस्य षष्टया भागे हत लब्धो द्धौ
साधौ मृहृन्तौ, यानि च पूर्वेलब्धान्यण्टा नक्तजाणि तान्यन्छे-
घादीनि विशाख।(पर्यन्तानि द्रणए्व्यानि, तत श्रागतमनुराधा-
नक्तत्रप्रविष्रस्य सूयेस्य एकादशसु दिवसषु गतषु द्वादशस्य
च दिवसस्य इयाः साद्धयामुहत्तयोगतयाः पञ्चमो व्यतिपा-
तो गत इति, एवं सर्वेष्वाप व्यतिपातषु सूर्यनक्षत्राण परि-
भावनीयानि ॥ सम्प्रति लक्नपरिज्ञानाथसुपक्रम्यत-यदि .
द्वासप्तातिसख्येव्यतिपातेरशादश शतानि पश्चत्रिशदधिकानि
लघञझ्मपर्यायाणां लभ्यन्त ततः प्रथम व्यातिपाते कि लभ्यत ?
राशिद्यस्थापना-७२- १८३५-२, अजान्त्यन राशिना मध्यरा-
शिगरायत, स च तावानव भवति, तत आयेन राशिना
द्वासक्चतिलक्षणन भागहरणं, लब्धाः पश्चर्विशातिः लमञ्नपर्याया:
पनां नक्षत्रानयनाथैमण्रादशमिः
शतेखिशदधिकेः सप्तर्षाष्ठरभागशुणयिष्याम इति देदराशगु-
( ७६४ )/
_बइवाय
आमिधानराजन्द्रः |
चइसासय
करूपा गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पस्चलोत्तराणि ३०४, तन
पश्चज्रिशद्गुण्यते, जानानि दश सदस््राण पद शतान पञ्च
सप्तत्याधिकानि १०६७४, छद राशद्वा दशक लक्षणः सप्तपपष्ख्या
गगयते, जातान्यष़्ौ शतानि चतुरुत्तराणि ८०४, अस्य राश-
श्च प्राक्कनः पञ्चाभः एतरण्राचशन्यश्विकः पुष्यः श
तानि पश्चादश सहस्ताण शातमकं सप्तचत्वारिशद्थिकं
१०१४७, तपामण्राभिः शनश्चतुरु तरेभीयटरयो, लब्धा द्वादश
१२, शपाणि तिष्ान्त चत्वारि शतानि नवनवतत्यधिकांन
४६६, द्वादशनिश्चाख्छषादीनि यूवाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि
स्थि- |
णकारराश्या पट् कनापवरत्तना, तता जातश्छदराशहादश- |
शुद्धानि, परे ज्यष्टानक्षत्रमदंक्षेत्रमति तच्चतुर्भिः शर्तेद्व्यु- |
त्तरः शुद्धयति, शपाणि चत्वारि शतानि दृव्युत्तराणि तिष्ठ- |
न्ति, तान्युद्धरितराशो प्रक्तिप्यन्त, जातानि नव शतान्यकोा- |
त्राणि ६०१,
लेय प्रशमा व्यातपाताऽभवादात । तथा याद द्वासप्तातस-
ख्येठ्यतिपाते रष्टादश शतानि पर्श्चात्रशदधिकारन लस्रपया- |
५ #+ ॥ (~ = [ @4 ~ क |
याणः भवान्त ततः पञ्चमिव्यातिपानेः कि भवति ?, राशित्र- |
यस्थापना-७२-१८३५--५ अच्ञान्त्यन राशिना मध्यराश-
गुणन, जातान्येकनवानि शतानि पश्चलप्तत्याधकानि ६१७५,
तपामायन राशिना द्वासर्ततिलतज्ञणन भामा दियते, लब्धे |
शपास्तिष्ठन्त्यक बिशत्
सप्तविशत्याचिक लगञ्नपर्यायाणां शत,
तान् नन्तत्रानयनाश्रयण्राद शामः शतेखिशदधिकैः सप्तर्षाप्ट-
भागेगुणायिष्याम इति सुणकारच्छेदराश्यो: पटकेनापवत्त ना,
तत्र जाता गुणकाररााशस््रीण शतानि पञ्चात्तराणि
चद गाशिद्ादश, गुणकारराशिना चकञ्चिशद् गुण्यत, जातां
नि चतुनवतिशतानि पञ्चपञ्चाशदाच्कानि ६४४४५, एते-
भ्यश्च पञ्चमिः शतरणाविशत्याथधिकेः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि
पञ्चान्नवाशीतशतानि सप्ताविशत्याथिकानि ८६२७, छदराश-
२०४
गतमुत्तराषादढानत्तत्रस्य लभ्नप्रवत्तकस्य |
चतुरुत्तराणएणतमागाना नवखु शतष्वकात्तरपु गतु सकर- |
ना च दादशकलक्षणन सप्तपाएगुग्यत, जातान्यण्ा शतान |
तुरुत्तराण, तभागा हयत, लब्धा एकादश, पश्चात्तष्टान्त
ज्यशातः, एकादशाभश्चादर्ाषादपु मूलपयन्तान शुद्धान
नवर ज्यष्टरानक्षत्रमथत्षत्रामात चताभः शतदव्यक्तरः
णद्ध
मात चत्वार शत्तान दृव्युत्तराण शषा तान्त, तान्य- |
शगशा प्र्तिप्यन्त जातान चन्वारि शतानि पञ्चा-
दशम्बु न्षत्रषु गतपषु पूर्ताषाढानतक्षत्स्य चतुरूत्तराण्रणतभा-
गानां चतुषु शतपु पञ्चाणीत्यधिकषु गतघु घनलझ पञ्चमो
ब्यातपाता गत इति, एवे सर्वेष्चापि व्यतिपातपषु लग्नानि प-
रिमावनायानि ॥ २८६२-३ ॥ ज्या० १६ पाछु० ।
वटवीरिय-वाग्वीय-न० । वीरिय' श5 द वद्यमाणस्वरूप वा-
ग्विषयक प्रकर्ष, सूत्र १ श्र ८ अ० |
वबहयभव-वाग्बेभव-न० । विभव एव वेभवम् ,
प्रज्ञादि- |
त्वान् स्वार्थ5ण विभाशभभावः कर्म वा वभवप | वाचया चैभवे
वाग्वभवम् | वच्चनसंपन्प्रकर्ष, वाचा विभाभीव च स्या०। |
वहमपायण- वरशम्पायन-पृ^। वरा5<5दा वा
वगादेत्वादता 5इत्या दशः । व्यासशिष्य चिशम्पष्य पत्य, प्रा०।
वइमदेव -वश्वदेव-ए;ं० । विश्वेभ्यो
दृबभ्या दया बालः |
॥ ८ ।१। १५२ ॥
॥
|
| बइसिय-वैशिक--पुं० । " अइर्दैल्यादी च
शीत्यधिक्रानि ४८५, तत अ्रागतमच्छपादिषु मूलपर्यन्तष्वका- |
अण् । वैश्वदेवोदेशन दीयमाने वल्लो , । ती० ५५ कल्प ॥
वईइसमाहारणा-वचःसमाधारणा-खरा० । वचनस्य शु- |
भ कार्ये स्थापन, उत्त० ।
चचःसमाध्रारणया अपि फलमाह-
वहसमाहारणयाए णं भंत ! जीवे कि जणयह ? वइसमा-
हारणयाए णं वइसमाहारणदंसणपज्ञवे विसाहेइ वहस-
माहारणदंसणपज्ञवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्त निव्वत्ते-
इ, दुल्लहवोदियत्तं निज्जरई ॥ ५७ ॥
है भगवन् ! सिद्धान्तोक्कमार्ग वचनसमाध्ारणया स्वा-
ध्याय एव वागानवसनन जीवः कि फल जनयति , तदा
गुरुराह-ह शिष्य ! वचःसमाधारणया-वाक्साधार्णया
दर्शनपर्यवान् विशाघर्यात वाचः साधारणया-वाकूसाधार-
या वाचा कथयितुं योग्याः ये पर्यवाः-शब्दविशषाः ,
तथा-दशनस्य-सम्यकूत्वस्य ये पर्यवा-सदास्तान वि,
शाधयति-निमलीकराति, यता हि -वाकसमाधारणां
कुर्वन् स्वाध्यायं करोति, स्वाध्याये कुर्वन दव्याचुयोगाद्य- `
भ्यासे विदधत् अनकयज्ञों भूत्वा शङ्काददिदाप्यन् निवारय
ति; अतः सम्यक्त्वं निर्मल कराति यता वाक्लाधारणदशी-
नपर्यवान् विशाध्य खुलभवाधित्वं निर्वेत्तियाति सुलभा वा-
धिः परभवे जैनधर्मप्राप्तियस्य स सुलभवोध्िस्तस्य आवः
खलभवाधित्वे तत् उत्पादयति, दुलमवाधित्वं निज्ञरयति ।
॥ ५७ ॥ उत्त० २६ अ०।
वडसवश--वैश्रव--पं० । “वैरा5<5दो वा”॥ ८।१। १४२ ॥ एता-
35३: । प्रा० १ पादं।
वडसाह--वेशाख--प॑० । । १। १५२॥ इति
अइः । विशाखानक्षत्रयुतपोर्णमाली पर्यन्त मासभेद, स० २६
सम० । याघस्थानभद् , आचा० १ श्रु० २आ० १३०॥
आए० म०।
“"वैराऽऽ्दौवा""॥ ८
च
वइसादी-प्रंशाखी--खी० । वेशाखमासमभावन्याममायाम् , पू-
सिमायां च । ज० ७ वक्त० ।
*॥८।१। १५१॥
एतो ५३: । वेशोपजीचिनि, प्रा० १ पाद ।
वडसुहया--वचःशुभता--खी० । वचसः शुभभावे, तस्याः सा-
ताचुभावकारणत्वात् । सातानुभवभदे, स्था० ७ ठा० ३ उ०।.
| वइमेसिय-वेशेषिक-पृ० । विशषा्यातिरिक्तपदाथाभ्युषग-
न्तरि कणादांशप्य, वेशपिकाणां शाखे कणादमुनिना- द्व
उयगुणक्रमसामान्यविशषसमवायाः षट् पदाथा इति, षरप-
दाथानज्ञीकृत्य प्रपञ्चितम् | सूत्र० १ श्रु० अ० १ उ० ॥
अत्र पदाथाचभागव्यवस्थानुपपन्नत्याह-- नापि वैशेषिका-
क्रं तत्वर्मिति, तथा “ज
याभावास्तत्वमिति । सूत्र० १ श्ष० १२ अ । द्रव्यादीनां |
विवरणे स्वस्थान । ) (, इस्सर ' शब्द द्वितीयभागे
६३६ पृष्ठ वेशाषकाश्युपगतशध्यरखराडनमकार । )
(७६५ )
| 34. छः नियत: हे
>वैश्वानर-पुं० । श्रद्दैत्यादो च ”॥८।
४१ ॥ दतो ऽइ: । अग्नो , प्रा० १ पाद ।
बृड-वपुष्--न० । शरीरे , विश० । अनु० ।
इउल-वकुल-पं० । मुकुलश्रीनामके वनस्पतिभदे ,
श । स । केसरे , प्रज्ञा०
पद् । कलप० । घवलपरवास्त-
आमभधानराजन्द्र: ।
ञ्य स्वनामख्याते ग्रहपता, ( पश्चा० ) “ चतुरांधरकविशतियु- |
ने, व्षसहस्त्र शत च सिद्धयम् | धवलकपुर वसव्ये. घनपत्यो
चैकुलचान्दिकया: ॥७॥ अणहिलपाटकनग रे, संद्डवरेवेत्ते मान- `
बुधमुख्य: । श्राद्राणाचायाद्ये-वद्वाद्धः शाधता चात । ”
पञ्चा० १६ ववम ।
वङ्श--ज०। शवल, कठुर, भ०२५ श०६ उ० । वकुशस- |
यमयागाद् खक्शः | भ०२५ श०६ उ०। शरारापकरणाव भूषा-
दिना शवलचा रित्रपटे,स्था० ३ ठा० २ उ०। निग्रेन्थमेदे, भ० ।
बउसे णं भते ! कइविहे पप्तत्ते २, गोयमा ! पंचविहे
पश्चत्ते, तं जहा -आभोगवउसे अणाभोगवउसे संवुडबउसे
असंवुडवउसे अहासुहुमवउसे णामं पश्चम | (सू०-७५१२८) |
बकुशा द्विविधो मवति-उपकरणशरीरभदान् ,तत्र वस्रपा- !
आद्यपकरणावभूषानुवत्तनशील उपकरणवकुशः, करचरणु--
नखमुखादिद्हावयवाविभूषानुवर्त्ती शरीरवकुशः । ख चा-
य द्धितिघाभंप पञ्चविधः, तथा चाह-' वउस णं् ` इत्यादि।
* आमभोगवडसे `
ग्रकरणविभूषणमित्येवें ज्ञान तत्यथानां
कुशः, पएवमन्य ऽपि, इहाप्युक्रमू--'
बऊुश आनाय
आमभाग जाता, कर-
त्ति आमागः-साघूतामकृत्यमेतच्छूरी रो-
ड दास अजारामणुत्नाग | मूलुत्तराह सदुड-प्वकसास्माऽस- |
चुडा हाइ॥ १ ॥ अच्छिमुहमज्ञमाणा , होइ अहासुडहुमओ
नदा वउसो । अहवा जांलज्ञता, असबुडा संबुडा इय-
गे॥२॥ भ० २५ श० ६ उ० | स्था० । ज्ञा० | ध | वकु-
शः शवलः कवुर इति पयायाः, सातिचारत्वादवभूतः
अयमा ऽज वङुश्स्तत्सयमयागात्साघुरपि वकुशः , सा-
तिचारत्वात् शुद्धयशुद्धिव्यतिकीर्शचरण इत्यथः ,
द्विविधः-उपदःरणशगैराविपयभदात् , तच--अकाल पव
अच्षालितचालपट्टकान्तरकल्पा देश्चाक्तवासः प्रियः पात्रद-
गडकाय्राप भूषा चलमात्रया उज्ज्वलाकृत्य धारयन्चुप-
करणवकुशः, तथा-अनागुप्तव्यतिरेकेण हस्तपादधावन-
अलापनयनादि देहविभूषाथमाचरन् शरीरवकुशः, अये च-
द्विविधाऽपि आभागा 5नाभोगसंदुता 5सेवु तसूक््मवकुशम दा-
श्थश्चविधः,यतः -* उचगरय॒शरीरेसं, वहस दुविहो दुदावि
पञ्चविदा । आभाग अणाभागे, सवुड असंबुडे खुदम ॥ १॥”
इति, तच्राभ्मगः पूचांक्रद्विविघभूषपणम ङतमिन्यवंभृत ज्ञाने
तत्छधाना वकुरा आमागवकुशः १, छ्विविधविभृए्णस्य चअञ
सहरसा काम अनाभोगवकुशः २, सवना लाक ंवज्ञातद्ाष
सेबृतवकुशः ३, प्रकटकारी त्वसंदुतवकुशः ४, मूलात्तरसु-
णाश्रित वा संवुता5संबतत्वम , नेत्रमलापनयनादि किश्वि-
त्प्रमादवान सद्मवकुशः ५। घ ३ अ्रधि० | प्रव० । पजा" |
( 'णिग्गंथ' शब्द चतुर्थभाग २०३४पृष्ठ वक्रव्यताक्ता।) म्लच्छ-
विशव, तदश च । प्रश्न १ आश्र० द्वार | प्रज्ञा० ।
भ सख्या वकुशिकाः । ज्ञा० १ श्रु० १ ० | म
चउसत्तण- वकुश॒न्व-न । शरारापक्रणावसमूषाक्ररण्, व्य०
> उ०।
तददश-
५६
स च
20 ७"
। १ | वबऊ-देशी--लावरण्ये, द० ना० ७ वरं ३० गाथा |
वओगय-वग्गत-न० । वचनगते, ˆ वयणविभत्तीकु
| सला, वश्रागये बहुविहं विश्ञाणंता `` दशा० ७ अ०।
वि- | वंक-वक्र-जि० । ^“ वक्रादावन्तः `` ॥८। १ ।२६॥ इति
प्रथमस्वरात्परो ऽनुस्वारागमः । प्रा० | कुटिल, स्था० ४ ठा०
६ उ०। अन्तमीयिकत्य ज्ञा० १ श्र० ८ अ० | महा० | श्रो ।
रा० | स्था० | असयम, ्रा्रा० १ श्रु० ४ ० २ उ०।
कगई्- वक्रगति-खी० । वक्रा चासो गतिः । गतिभेदे
वकवलीविगयमसखमुदा-वक्रं पाटान्तरण व्यङ्ग्यम्
सलाज्छन वलिभिर्विकृते बीभत्स भषण-भयजनकं सुख
येषां न तथा | चृ० १ उ० ३ प्रक०।
अथ बक्रगातिभेदानाह--
से कि ते वंकगती १, वंकगती चउच्विहा पष्पत्ता, ते
जहा घट्टणता थभणता लसणता पवडणया । से तं दं-
कगतौ । ( सू० २०४+ )
ङ्का -वक्रा सा चासो गतिश्च वङ्कगतिः। सा चटी, सद्यथा-
घद्दनला स्वभ्मनता स्ऊप्मणता(प्र)पलनता । तत्र घट्टनशब्द-
स्य भावः-प्रद्धा निनिमित्ते घट्टनमवति । एवं शथपदणशब्दा थो ऽ-
पिसावनीयः | तप्र पउृप्-शख्ञागतिः, स्तम्भनम-ग्रीदायां
घपन््यादीनां निष्टा . आत्मनो5ज्ञ८द्शानाम् , श्लप्मणम्-
अदीनां जाजुपश्रति | सम्वन्यः, (प्र) पतनम्-तनिछत एव
गच्छुता वा यस्लुठतम , एतानि च घट्दनादीनि जीवस्यानी-
प्लितत्वाद्प्शस्यत्याच् वज्रुगतिशव्द्वाज्यानि। प्रज्ञा० २ पद ।
वंकचूल--बक्रचूड--छु० । भारतवर्ष विमलयशसोा भूषतः
खमङ्गलादव्याः पुष्पचूलापरनामक्र पुत्र, ती०2२ कल्प ! (वक्र-
चूडकथा “ टिपुरी ` शब्द चतुध्रमाग १६७६ पृष्ठ गता । )
वकजड-वक्रजड-पु० | वकगश्यासा जडश्च वक्रजडः | कुट-
लाध्राज्ञ. वीरतीर्थ हि साधवा वक्रजडाः | कर्प । त-
था-कश्िद् व्यवदहारिखुतः पित्रा बहशः शिकच्तमाणो जनका-
दीनां सन्मुखे उल्पन न कर्तव्यम, इति पितृवचन चतरः -
तया मनमि दधार । अथकदा सर्वषु स्वजनघु वदिगलपु
पुनः पुनः 'शक्तयन्त पितरम, अद्य शित्तयसीति विचि-
न्त्य कपाटं (चत्वा स्थितः, श्रागतषु च पित्रादिषु द्वागोद-
घाटनाथ बहुशब्द्रणेऽपिन वकि, न चोद्धाट्यति । चिच्य-
ज्लड्बनन मध्य प्रविष्टन' च पित्रा दसन् रण उपालन्धश्च
कथयामास, भवद्धिरवाक्के च्दधानामुत्तरं त देयम् ¦ दनि
द्वितीय: | कर्प र अधि० ६ क्षण | द्रु० । नि० चू० ।
वकशणया-वह्ूनता-स््री० । वक्राकरण, स्था० २ ठा० १३५॥
बंकसमायार-वक्रसमाचार-जति० । वक्रः समाचारो यस्य स्प
तथा | असंयमानुष्ठायिनि, आचा० १ श्रु
मारष्डिनि. त्राचा^ ९ श्रु० ४ अ० ३ उ०।
वेकाशिक्रय-वक्रानिकेत-एुँ०। असंयमाश्रये
१ आ० ५ उ८।
च्छा वीया
यंक्राणिक्रया (खु १३१) । आचा> १ श्र०४ झ०० उ५{द्या-
धम्म शब्द चतुर्यमागे २६६ ७-२६६ स्पृष्टे गता )
वृब्--वृद्ध--पुं* | ऋपमदवस्य जयाविश पुत्र, कल्प० १ झधि०
ख्या'
७ त्तर ! तच्छासित देशाचिश्वष, यत ताम्रारप्ती राज़वान्या-
सांत् | अज्ञा० * पद | कल्प८ ; प्रवृ |
( 35८ )
रा भधानराजन्द्र ५५
कग
व्यड्भू-त्र० । विगनाङ्ग, ज्ञातग्रस्त, घ २ आवण० । प्रश्न० |
वंगण-व्यड्रन--न० । क्षत, कल्प० * आंध० ७ क्षण । व्य०।
वंगाल-देशी-वङ्गदश. कल्प १ आधि० ७ क्षण ।
बंगिय-व्य[ड्रत- त्र० । जुड्वता क्र, सथा० ‰ ठा० ३ उ०।
वचरत्ता--वश्च[यत्वा- सत्रा । परभूत त्याज्ञायत्वा5रप ग्राह्याय-
न्वत्यथे, सूत्र १ श्र० ५ श्र ९ उ०।
वचग - वश्चक- 3० । प्रतार्क,. षपा० १५ वव० । द्वा० ।
वचणु-वश्चन न० । प्रतारण, सूत्र०ण २
दशा० । रशन, सूत्र० १ श्रु० १३ अ० । रा०।
वंचणया-वश्चन॒ता-ल्जी० । प्रतारणताबाम् , ओ० । प्रश्न । |
स० । उपघात, व° ।
वंचिग्र-वञ्ित-ति० । प्रतारिते, “पयारिओ वेचिच्रे च वेअ- |
लिओ'' पाइ० ना० १८७ गाथा |
वंचिय-वश्चित-त्रि० । व्यामाहं प्रापिते, प्रति० ।
वला वाज्छा-खी° | इच्छायाम् , `" इहा इच्छा व्रा स- |
द्धाकामोयश्रासेसा ” पाइ० ना० ७० गाथा)
बंज-वन्द्य-त्रि० । वन्दनार्दै, ध० २ अधि० । आव०।
वंजग- व्यञ्जक -ति० । प्रकाशके, विश० ।
बंजण-व्यञ्ञन न” । व्यञ्यतेऽननार्थः प्रदीपेन घट इवेति |
व्यञ्जनम् । विश० । ककाराद्यक्तर, अनु० । प्रव० । ने० | व्यज्ञ-
यंति व्यनक्ति वा--श्रश्रमिति व्यञ्जनम् । सम्म० १ काराड।
धरदौ वाचकशब्दे, विशे“ । अनु० । आव०। आचा० ।
ने० चु० । प्रज्ञा० । कमें० | आ० म० | पदे , तस्याथीकमिधा-
यकत्वात् | बृ० ४ उ० । आ० म० । सूत्र, सुत्ते कम्हा वेजणं
भक्तति?, उच्यते-वंजति ि-व्यक्तं कराति जटादणरसो वंज-
लसंयागाद् व्यक्ता भवति एवं खुत्ता अत्थो वत्ता भवाति
ति वजरं सुत्तं । नि० चू ६ उ । पुद्धल, तषां
दिपरिणतद्रव्याणां च परस्पर रूपक , आ० म
ने । स्था०
शालनके, स्था० ३ ठा० ₹
च० प्र २० पाहु०। भ० | प०। बु० ।
शारीरे शुभाशुभसूच के चिह्ने,
सहजे , जन्मना सदेव जाते शारीरे चिह्ने , भ० २ श० १
उ० । कटप० । स० । नि० । वेजणुभय--मर्षातलगादी , सद
जाये लक्खणं, पच्छा जायं-वेजयं । नि” चू० ६७ उ०। भ०। |
श्राव | रा० ¦ विपा० । नि०। ्रा० चू०। इट `वजण' मपादि।
प्रव० २९४ दार । इदास्सिन् शास्त्र व्यज्ञनम-मषादि । प्रच |
२५७ द्वार । मसाइये वंज्ञणे । अहवा जे शरीरेण सद समु-
ष्पन्न त लकखस्,
कार । मषादिव्यञ्जनफलो पद शक्र शास्त्रे,स०२६ सम०। प्रश्ष०।
टशा०। वस्तिकूर्चकक्तादिगामाणि, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । |
उपस्थरोमग[, व्य० १ उ०।
बंजणअत्थतदुभयभेद-व्यञ्ञनाथतदुभयभद् -एं० व्यजना थे
तदुभयान्याश्रित्य भद्रूपे दर्शनातिचारे,द्श० । व्यज्ञना थैत-
दुभयान्या शध्रित्य भवा न कार्य इति वाक्यशषः। एतदुक्ल भवात
श्रु० २आअ० । ज्ञा० | |
क्षेत्राभि- |
व्यञ्जकत्वात् । आ० म० १ आअ०। उपक्ररणन्द्रियस्य शब्दा- |
अ० । |
। बडटिकामर्जिकापत्रशाकतीमनतक्रसुपादिके |
उ० । रसानिव्यञ्जकत्वात्तषःम् । |
मपतिलकादिक |
अनु० । विशे० । स्था० | ज्ञा०। |
पच्छा उप्पन्न वंजणमिति। प्रव० २५७ |
श्रतप्रवृत्तन तत्फलमभीप्सता व्यञ्जनभदो ऽथमेदः उभयभद-
श्चन कार्यं इति, तत व्यज्षनभदो यथा-' धम्मो मङ्गलमुद्धिद्
इति वक्कव्य "पुस्तं कल्लाणमुक्को स ` मित्यादिः अशथभदस्तु यथा-
शरावती केयातरेती लोगेलि विष्पराय्रुसती ” इत्यज्राचार- .
स्त्र यावन्तः कचन लाक-अस्मिन्पाषरिडलाके विपरासश-
न्तीव्यवविघाथाभिधाने अ्रवन्तिजनपदे कया-रज्जुर्वान्ता-
पतिता लकः परामस्शति करूप इत्याह, उभयमेदस्तु योरपि
याथात्मयोपमर्देत यथा-' घर्मो मङ्गलमुक्ठः श्र्हिसा पर्वत
मस्तक' इत्यादि, दोषश्थात्र व्यञ्जनमदे अथमभेदंस्तड्भेदे क्रिया-
या भदस्तद्धदे माक्तामावस्तदभाव च निरर्थिका दीन्नति। उ-
दाहरणं चात्राघीयतां कुमार इति सर्वत्र याजनीयम् । चुक्ष-
त्वादनुयोगद्वारषु चाक्कत्वान्नेह द शीतमिति । दश० ३ अ०।
व्य० । ग० | थ० ।
इदाणि तदुभए त्ति दारं--
3 ३.६
दुमुपुष्फि पदमसुत्त, अहागडरीयति र्पो भत्तं व।
उभयष्वकरणणं, मीसगपच्छित्तभयदोसा ॥ २० ॥
दोखुवमाच्रो दुमो पुप्फविकसण-दुमस्स पुप्फं दुमपुष्फं,
तेण दुमपुष्फण जत्थ उवमा कीरइ तमज्भयण दुमपुष्किया
आदेाणपदेणं च से णाम, धम्मो मगल, तत्थ पढमसुत्त
पढमसिलागो, तत्थ उभयमभदो दारसिजति--““ धम्मो मग-
लमुक्किट्टं, `` एवं सिलागा पढ्ियव्वो; सा चुण एवं
४ धम्मा मंगलमुक्कद्दा, अहिंसा डोगरमस्तक । दवा वि त-
स्सनासंति जस्स घम्म सया मती ॥१॥ ` 'अहागडरीयति'
त्ति अदाकडख रीयेति' त्ति, एत्थ सिलोगा पढियव्वो ` अत्थ
उभयभदा दरिसिज्ञाति-* अद्दाकर्डाह रधेति, कट्टेंहि रहका-
रिया । लाहारसमावुद्धा, ज भवति अणीसरा ॥१॥ ”
रणो भत्तति -एन्थ वि उभयभेदो दरिसिज्वाति-* रायभत्ते-
सिणाण य ” सिलागा कराठो- रप्षा भत्ते सिखाण य, गदो
जत्थ खज्जति | सपझृभत्ती गिही जत्थ, राया पिड किमत्थती
॥ १॥ ` उभय खुत्तत्थ तमराणहा कुणात , खुत्तमणहा
पढांते, अत्थमष्यहा वक्खाणति, एवमप्महा खुत्त अत्थ
कप्पयतस्स मीसगपच्छत्त । मीस णाम वजणभदे अत्थमेदे
य जे पच्छित्ताभाणया ते दा वीह दद्वव्वा , हल । उभय
दासा य, व्यञ्जनमदादथभेदः, अथमदाश्च चरणमेदः, इह तु
चरणभेद-एव द्रषए्व्यः । यतः-श्चताथग्रधान चरणे तम्हा
उभयमदा-चरणभदा दद्वुव्वो ॥ न° चू० १ उ०।
वंजणक्खर-व्यश्जनाक्षर-न०।शब्दरूप अक्षरश्रुतविशषे,विशे०।
अथ उ्यञ्जनात्तरमाद-
वंजिजई जेण5त्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तो त॑।
भई भासिज्ं ते, सन्वमकाराई् तकाले ॥ ४६५ ॥
व्यज्यते5ननाथेः प्रदीपेनव घट दाति , अतस्तद् व्यञ्जने
भरयत , व्यञ्जन च तदक्षर च व्यञ्जनाक्तरम् , तच्चह सर्वमव
भाष्यमाणमकारादिहकारान्तम् , तस्याः भाषायाः कालो यत्र
तत्तत्काले वदितव्यम् , भाष्यमाणः शब्दा व्यञ्जनात्तरामिति
हदयम् : अधथा भव्य अकत्वाच्छुब्द्स्यांत ॥४९५॥ ।वशे०। बू०।
( तज सुत्रम् अक्खर' शब्दे प्रथमभाग १४० पृष्ठे उक्तम् । )
वजण।यय- व्यञ्नननि यत्त त्रे० । शब्दनयानवन्धन, साऊ-
ण॒ समासओ य, वंजणणियओ य अत्थाणियओ य" । स
भ्म० १ काणड ।
॥
। ॥ बंज़णमेय व्यज्ञनभद् - पु” । व्यञ्जनमाधरित्य भदरूपे ज्ञानाचा-
|
|
| | 2
0 | बजणपरियाय
५
॥ ३ गं० ? आधि० | दश० |
बंजण(पजव परियाय- व्यज्जनपयोय-पुं? । कालान्तरस्था-
[शब्दानां सकेताविषयेषु, द्रेव्या० ८ अध्या० ।
व्य० । घ० । व्यञ्जयतीति व्यञ्जन
लं च अक्खरं अक्सरं खुत्त णिज्जुत्ति त्ति काउं सुत्त व-
ज्ञने तमणणहा करोंत | कट ?
सकयमत्ता बिंदू अण्णभिधाणेण वा वि तं अत्थं ।
बंजिजइ ति सुत्त, वंजणमिति भण्णते लहुगो ॥१७॥
चाइत सुत्त सक्तये कर्रात,जहा-'धर्म्मो मङ्गलमुनकृषम् अभूत॑
वा मच्च दति फडान वा.जहा- सव्व सावञ्ज जागे पचक्खामि
एव चत्तव्वःसव्व सावज्ञ जाग पञच्चक्खाम त्ति भणति । एवं
विदभूतं वा फडति अभूत वा दाति.जहा-णमा अरहंताणं ति
चत्तव्च पंचविसारुस्सराणगारा वत्तव्वा सा पुण-नमा अरहं- |
ताण भणति आभवोयत जण तमाभदाणे, जहा-घडा पडावा,
अराण आभटहारो अणणभिहाणं तता तण अण्णण अभिहाण-
श् तम्मित चव अत्थे आभलर्वात, जहा-'' पुप्फं॑ कढ्लाण-
मुक्कास दयासंवरणिज्ञरा `" । अभिसद्दो विकप्पत्थे पयत्थ-
सभावण वा, करि पण पद॒त्थ संभावयति--अकखरपएणर्हिं
वा हीणा्तारत्तं कराति अण्णहा वा सुत्त करेति; एवं पय
पयत्थ सभावति । सुत्त कम्हा वजणे भष्षत्ति ? उच्यते-वं-
छनि ्ि- व्यक्तं कराति जहादणरसो चेजणसंजागा व्य-
का भवति एव खत्ता अन्था वत्ता भवति जणं ति तम्हा
कारणा वंजति त्ति अत्था, एवं वजणसामत्थातो वजणमि-
ति बुच्चत सुत्त । णिगमणवयण, त वेजणे सक्रयवयणादिनिः
कप्पियं तस्स पच्छुत्त भवति--
तदेव प्रायश्चित्तमाह--
लहुगा वंजणभंद, आणादी अत्थभेअचरणे य ।
चरणस्स य भंदण,अमे।क्खदिक्खा य अफला तु ।१८।
सक्कयमत्ताबिन्द्अक्खरपयभणएसु वट्ठमाणस्स मासलह,
श्रयो सुत्त करति चउलहु आणाअणवत्थ मिच्छुत्तविरा-
हणा य मचति । एवं सुक्तत्थभेओ, सखत्तत्थभेया अल्थमेश्रा,
अत्थभेया चरणभेयो, चरणभया अमाक्खो, माक्रखभावा
दिक्खादयो किरिया भदा अफला भवंति | तम्हा वंजणभदोा
श कायव्यो । नि” चू” १ उ०।
बैजगाऽवग्गह- व्यज्ञनावग्रह- पं । व्यज्यत ऽन नाथः । प्रदी-
पैनेव घट इति व्यञ्जनम् । ,तच्चापकरणेन्द्रियस्य श्रा-
शरदिः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः, स-
भ्वन्धे हि सति साऽथः शब्दादिरूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्य-
ज्जयितु शक्यत, नान्यथा । ततः सम्बन्धा व्यञ्जन च। त-
था चाह भाष्यक्रत--' वंजिज्ञइ जरणत्था, घडा व्व दी-
चैण वेज्ञगो तं च | उवगरणिदियसदा- इ परिणए दव्वस-
बेधो ॥ १॥ ” व्यञ्जनन-सवन्धनावग्रहणं सम्बध्यमा-
नस्य शब्दा दिरूपस्या्थस्याव्यक्रूपः परिच्छदा व्यञ्जनाव-
ग्रहेः, श्थवा- व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि "कृद्रहुल' मिति व-
चनात् कम्मरयनट् , व्यञ्जनानां -शब्दादिरूपतया परिणता-
नां द्रव्याणाम्-उपकरणेन्द्रियसंप्राप्नानामवग्रदः-अव्यक्ररूपः
परिच्छेदो व्यजञ्जनावग्रहः, अथवा--ब्यज्यते 5नेना थेः प्र-
दीपनेव घट दानि उयञ्जनम--उपकरणेन्दरियं नेन स्वस-
( ७६७
छमनघ्ानराजन
चंजणाऽचग्गह
म्बद्धस्याथस्य--शब्दादेरवग्रहणम्--श्रव्यक्रूपः परिच्छेदा
व्यञ्जनावग्रहः । ने । ततश्च -व्यञजननापकर णनेन्द्रिये (आ०
म० । थ० ) प्रतिज्ञानरूप अवग्रहविशेष, भ० ८ श० २
उ० । न० । उपक्र णन्द्रियशब्दादि परिणतद्रव्यसम्बन्ध प्रथ-
मसमयादारभ्याथावम्रहान्ाक या सुप्तमत्तमूर्चछितादि--
पुरुपाणामवं शब्दादिद्रव्यसंवन्धमाउविपया काचिद--
व्यक्ता ज्ञानमावा सा व्यज्जनावग्रहः, स चान्तर्मृहर्त-
प्रमाण: । अत्राह-- ननु व्यजञ्जनावग्रहवेलायां न किमपि
सवदन सवद्यत तत्कथमसौ ज्ञानरूपा गीयत ?, उच्यते-
अव्यक्नत्वान्न सवदयत, ततो न कथिदापः. तथादहि-यदि
प्रथ॒मसमयञऽपि शब्दादि परिणतद्रव्येरुपक्ररणन्द्रियस्य स-
पृक्तो काचदपि न ज्ञानमात्र भवेत् तता द्वितीयेऽपि
समय न भवत्: विशषाभावात् ; एवं यावच्चरमसमय-
भप, अथ चरमसमये ज्ञानमर्थावन्रहरूप जायमानमु-
पलभ्यत ततः प्रागपि कापि कियती ज्ञानमात्रा द्रष्व्या।
अथ मन्यथाः मा भूत् प्रथमसमयादिषु शब्दादिपरिणत-
द्रव्यसबन्ध ठप काचदपि ज्ञानमात्रा, शब्दादिपरिणत-
द्रव्याणां तषु समयषु स्तोकत्वाच्रमसमय तु॒भविष्य-
ति, शब्दादरूपपारणतद्रव्यसमूढस्य तदानीं भूयसा
भावात्. तदयुक्तम्, यता>यदि प्रथमसमयादिष शब्दा
देद्रव्याणां स्ताकत्वात्सपृक्रा वक्कव्याऽपि काचिदपि ज्ञान-
मात्रा न समुल्लखत् तहिं प्रभूतसमुदायसम्पकंऽपि न भव-
त्, न खलु सक्रताकणेषु प्रत्यकमसाति तेललश समुदायेऽपि
तले समुद्ध वदु पलमभ्यत । अस्ति च चरमसमये प्रभूतश-
व्दादिद्रञ्यसेपृक्ता ज्ञानम् , ततः प्राक्रनष्वपि समयेषु स्तोक-
स्ताकतररपि शब्दादिपरिणतद्रव्येः सम्बन्धे काचिदव्य-
क्ता ज्ञानमात्राऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपि ज्ञा-
नानुपपत्तेः तथा चाक्कम्-“ जञ सव्वहा न वीस, सव्वसु
वितं न रंखुतज्ल व । पत्तयमणिच्छतो , कहमिच्छुसि स-
मदय नाण १ ॥३॥ `" ततः स्थितमतत्-व्यञ्जनावग्रहो
ज्ञानरूपः , कवलं तपु ज्ञानमनव्यक्तमेव बाद्धव्यम् । चशब्दो
स्वगतानकभदसंस्ूचका,त च स्वगतनकभदाः अग्रे खयम-
व सूत्रक्रता वर्णायष्यन्त । आह-प्रथमं व्यञ्जनावग्रहो भवति
तताऽ्थावन्रहः.ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः?
उच्यत-स्पषएटतयापलमभ्यमानत्वात् , तथाहिं-अथावश्नह: स्प.
रूपतया सर्वरपि जन्तुभिः संवेद्यत, शीघ्रतरगमनादौ स-
छ सत्वरनुपलम्भ मया किचित् दषं परं न परिभावित स-
सम्यगिति व्यवहारदर्शनात् , अपि च-अर्थावग्रहः सर्ववेन्दरि-
यमनाभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नति प्रधमम्थावग्रह उक्तः ।
संप्रति तु व्यञ्जनावग्रदादृद्धंमधावग्रद इति क्रममाश्रि-
त्य प्रथम व्यञ्जनावब्रटस्वरुप प्रतिपिपादयिषुः शिष्यः प्र
श्च कारयति" स कि ते वेजणुग्गहे ” ( सू०-श८ ) ( इत्या--
दिसूत्रम् उग्गह ` शब्दे द्वितीयभागे ६६८ पृष्ठ गतम्। )
व्याख्या चयम-अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः ?, आचार्य आह
व्यञ्जनावग्रटः-चतुर्विघः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- थ्रात्रन्द्रियव्य श्र-
नावग्नह ` इत्यादि, अत्राह-सत्खु पश्चस्वबिन्द्रियषु पष्ठ च
मनसि कस्मादयं चतुर्विधा व्यावरणर्यत ? उच्यत-इह व्यञ्जन
मुपकरणन्द्रियस्य शब्दादिद्रव्याणां च परस्पर सम्बन्ध उ-
च्यत. संतन्धश्चतुर्णामेव भ्रात्रन्द्रियादी नाम, न नयनप्रनसाः
तयार प्राप्यक्तारित्वात् । न० । व्यज्ञनावग्रहस्य मज्लकह-
ष गि
( ७दद
अभिधानराजन्द्रः।
चबजणा5वग्गहं
शब्द तायभाग
प्रान्तन प्ररूपणा आभाणवाहयणाण
२७१ पृष्ठ द्रष्टव्या । )
वबंजिय-व्यज्जित-त्रि० । व्यक्नीकृत, ग० ३ झधि० | ^
व्याज्जिता-व्यक्कीकृता यथा गड्जत्यादि "` ग० ३ आंधि० ।
व॑जुल-बजञ्जुल- पुं । वतसे, दश० २ अ । विशे० । स्था०।
“ चेजुला वडसो य वाणीरो ” पाद” १४४ गाथा ।
लामपक्तषिविशपष, स्त्री० । जी० १ ध्रति० । प्रज्ञा० ।
वंटग-वण्टक-पुं? । विभाग, नि० चु० १६ उ०।
वंद--देशी--बन्धे, दे० ना० ७ वर्ग २६ गाया ।
यथा-
जा०
वंत-वान्त-न० । नपुसके भावे क्रः | वमन, ज्ञा० १ श्रु० १ झ०।
कर्माण--क्लकः परित्यङ्क, दा० २७ द्वा | दश० ।
वंता-वान्त्वू-अव्य ० । उद्दीयत्यर्थ, बंता लोएसणं स मदम
परिकमञ्जासि ` आचा० १ श्रु० २ अ० ६ उ० । सूत्र ।
वमित-जि०। उद्घारके, “से वेता कोटं च माणे च '(सू०१२१+) |
चमिता,डुवमुद्भिरण इत्यस्मात्ताचछील लिकस्तन , तद्योग च ष-
प्रथा: प्रतिषथ क्राध्रशब्दाद् तीया, लुडन्त चेतस् , या दि.
यथाक्तसयमानुष्टायी सा ऽचिरात्कोधे वमिष्यत्यवमुत्त रत्ञापि।
श्राचा० १ श्रु० ३ अ० ४ उ०।
दंतएटिन्राया(य)ण - वान्तप्रत्यादान -न० | भुक्त्वा ञ्ितपरिः
भाग,दश० | ` वतस्स पडिआयाणं ६” दश० १ चु०। (इद सू-
चन् 'अट्टारसट्राण शब्द प्रथमभाग २४६ पूछे व्याख्यातम् | )
उतामव-बान्ताश्रव-पु० । वान्त-वमन तदाश्रवन्तात, वा-
न्ताश्रवाः । ज्ञा० १ श्रु० १ अ० | वान्ताशिषु, अप्ट० १८ अष्ट०।
(कारण वान्ताशनर्मापि 'राइभायण' शब्द ऽस्मिन्नव भागे ५३६
र प्रतिपादितम् । ) ( वान्ताशित्वोन्मुखा रथनमी राजीम-
त्या यथा प्रतिबोधितस्तथाक्लं ` रद्णामि ` शब्देऽस्मिन्नव
भाग ४६८ पृष्ठ । )
बंद-वन्ध-त्रि० । वन्दनीय. स्तुत्य, षो० १५ विच० । विशे०।
वंदण-वन्दन-न० । वाचा स्तुता, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०।| स्था०।
आच्या० । उत्त० । संथा० | ति० । विधिना कायवाङ्मनःप्र-
णिधांन , प्रच १ द्वार । दश० | जी० | सथा० । प्रति० ।
सूृत्र०। शिरसाऽभिवादन, च०
आए चू० । चदि अभिवादनस्तुल्याः दति । कायनाभिवाद्न
चाचा स्तवन , आए० चरू १ आ० । इादशाचक्तादिना
(स्था० ४ ठा० १ उ० । ल०) प्रश॒स्तकायवाङ्मनःप्रचृत्तौ. आ-
च ५ अ० | ` चदणं जिणसूद्ाप्' ल० । पं० चू०। बन्दन नि- '
रूप्यन-- चदि अभिवादनस्त॒त्योः, इत्यस्य ^ करणाधिकर-
गायोश्य "` ( पा० ।३। ४। ११७। ) इति ल्युद् “ युवारना-
--( पा० | ७ । । ) इति अनादेशः । `` इदिता
सुमधाता: ( पा० | ७। १।५८। )इति नुमागमः । नतश्च व-
न्यत स्तृयल 5नन परश्स्तममावाक्रायव्यापारजालनति वन्द-
नम् । श्राव ३ अ ।
कतिद्। सविष्पमृक्ं, कितिकरम्मं कीस क्रीरई वा वि। १ १०३।
अवनतिः- अयनते कन्यवननं तद्भन्दन कत्तेद्यम , कति शिरः,
कति शिगांसि तत्र भवन्तीन्यश्ः.कतिभिरावश्यक्ररावर्तादि-
सिः परिशुद्धम . कतिदाषसिप्रम॒ुक्कं टालगत्यादया दाषाः फ़-
तिकर्म-वन्दनकर्म कीस कीगइ त्तिः क्रिमिति वा क्रियत
अधि० | आब० | आण० म०।
इति । आव० ३ अ० । प्रव० । ("किडकम्मः शब्दे ठतीयमाने
५०७ पृष्ठ व्याख्यातम् । )
पयायशब्दान् प्रतिपादयन्निदे गाथाशकलमाद-
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वंद णचिडई किहकम्म, पूयाकम्मं च विणयकम्मं च |
वन्दनकम द्विधा-द्रव्यता, भावतश्च | द्रव्यता-मिध्यादष्-
रनुपयुक्रसम्यगदष्श्च, भावतः--सम्यग्रष्टरुपयुक्वस्थ । आ-
च० ३ ० ।
तत्र क्तिकर्मणि शीतलकदष्टान्तमाह--
“एगस्स ररणा पुत्ता सीयला णाम, सा य णिव्विण्णकाम-
भागो पव्वतिश्रा, तस्स य भगिणी अण्णस्स रराणो दिणणा
तीस चत्तारि पृत्ता-सा तसि कहंतरखु कह कहइ,जद्दा-तुज्भ
मातुलओ पुव्वपव्वइआ, एवं काला वच्चइ । त वि अज्नया
तहारूवाण थराणं अतिए पव्वइया चत्तारि, बहुस्खुया जा
या आयरियं पुच्छिडे माउलगे बंदगा जति, एगम्मि शये
खुआ,तत्थ गया वियालो जाउ त्तिकाड बाहिरियाए ठिया।
सावगा य णयरे पवसिउकामा सो भणिश्रा-सीयलाय
स्या कटाह तज्म भाराणज्ात आगया वयाला
तिन पददा. तण कहिये. तुट्ठा, इमासले पि रत्ति खुहण |
अज्भवस्ताणण चट वि कवलनागे समुप्पप्त । पाष आ-
यरिया दिसाउ पजापति. णत्ताहे स णो एहिति, पारिसि-
सत्त मरणे करेंति अच्छाति | उग्घ ण अत्थपोरिसि त्ति
अतिचिराबिएण य त दवकुलियं गयः. त बीयरागा ण आ-
दायति, दंडश्रोराण खविच्रा, पड्क्तिना आलोइए भणइ-क-
आओ वदामि ?, मणेति-जश्रा भ पडिहायइ । सा चितेइ-अहो
दुदुखहा निनल्लज्ज त्ति, तह धि रासेण बंदइ, चउखु विषे
दिएसु, कवली किर पुव्वपउत्त उवयारं न भेजइ, जाब न
पडिंमसिज्नइ, एस जीयकप्पो तसु नर्डात्थ पुव्वपवक्तो उवयाग
त्ति, भणंति--दव्ववेदणएुण वंदिया, भाववंदणएण वंदा
हि | तेच किर वंदंतं कसायकंडणहि छुट्टाणपाडियं पच्छाति
सो भणति-एये पि नज्जाति ?, भरंति-वाढे, कि अति-
सआओ अत्थि ? आमे। कि छाउमत्थित्रो, कवलिआ ?। केचली
भरणति-केवलिओ । सा किर तदव उद्धलियरामकूबवा अहो
मणु मेदभग्गण कवली आसातिय त्ति, रूंबगमागओ। ते
टि चव कंडगटाणदि नियत्तो तति ०जाच अपुव्वकरण
्रणुपविद्धा,कवलनाण समुप्पन्न । चउत्थ वंदंतस्स समत्ति।
सा चच काइया चिदा ए्गम्मि वधाय पगाम्मि मोक्खाय।
पुव्चे दवववंदणे रसि, पच्छा भाववंदगे जायं ।
आ० | आा० चु० । बन्दन चेत्यवन्दनम् , गुख्दन्दने च । तत्र
गुरुवन्दन, ( ध्र ३ आधि०। ) चन्दन कस्य कन कन कुत्र क
तिकृत्वः ४ छृत्यवनतं ५ कति शिरः ६ कतिभिरावश्यकैश्च
परिशुद्ध कर्तव्यमिति ( ' किइकम्म ` शब्द तृतीयभाग ५०७
पृष्ठ व्याख्यातम् । ) (कृतिकर्म च द्विप्रकारं, वन््दनकम श्चभ्यु
त्थान चति 'अब्भुद्भाण' शब्द प्रथमभाग ६६३ पृष्ठ उक्तम । )
थ वन्दनकमभिधित्सुराद--
दसिय-राइय-पक्खिय, चाउम्मासा तंहव वरिम य॒ |
लहुगुरु लहुगा गुरुगा, वंदगए जाणिय पदा ७५५८
देव सिक्र राजिक वा आवश्यके वन्दनकं न ददात मास-
लघु, पात्ति वन्दनकं न प्रयच्छन्ति मालगुरः। ४।
आवण् |
|
है
षेव
मासिक वन्दनकमददतां चतुलघु, सांवत्सरिके वन्दनकाऽ-
नि चतुरुरु । चशब्दाद्विपरीत न्यूनाधक च कुवतां लघु-
भासः | या ऽभिवन्दनक द्थवनतः यथा जातादीनि पदानि
। | ज्ञेषामप्यकरण श्समाचारीनिष्पन्न मासलघु ।
| श्रयेतदेव प्रायश्चित्त विशेषयन्नाद--
| 'आयरियाइचउण्हं, तवकालविसेसियं भवे एयं ।
| अहवा पडिलेमि य॑, तवकालविसेसिञ्रो होइ ॥७७६॥
। श्राचायादीनां चतुरार्णामप्येतदनन्तरोक्घं प्रायश्चित्त तपः-
( ७६१
अभिधानराजेन्द्रः।
।| कालविशेषित भवात, तत्राचायंस्य द्वाभ्यामपि तपःकाला- |
भ्यां गुरुकम्,चरषभस्य तपोगुरुकम्,भिक्तो: कालगुरुकम चुल्ल
कस्य तपसा कालन चतुलंघुकम् । श्र थवा-तपःकालविशषत
पतदेव प्रतिलोम पर्चादयुपृव्या बज्कव्यम् । श्राचार्यस्य द्वा-
अ्यामपि लघुकम् , वृषभस्य कालगुरुकम् , भिक्तोस्तपोगुरु-
` कम् , चुल्लकस्य द्वाभ्यामपि गुरुकम् ।
अथ ` देसियराइय ` त्ति पदद्वये विशेष ग भावयाति--
दुगसत्तगकिंडकम्म- स्स अकरणे होइ मासियं लहुं ।
आवासगविवरीए , ऊणहिए चेव लहुओ उ ॥७८० ॥ |
“*दुगसत्तग' त्ति द्व सप्तके चतुर्देश भवन्तीति कृत्वा पूर्वाह्मप
राह्याश्वतुदश चन्द्नक्यान नवान्त। क्थामात चद् १ उच्य- |
त-इ सात्रकपध्रातक्रमण चत्वार चन्दनकानने । तत्क
| मलाः नायाम् , छताय ज्ञामणक, तृताय षारमासकम्-त- |
|
|
पञ्चिन्तनकायात्सगाथ च, चतुथ प्रत्याख्यानग्रहणार्थामिति ।
यश्चा ध्यायं चीणि वन्दनक्रानि, तत्र च इृद्धसथदायः-
` मासमणो बदिउ० जाव णिज्ञाए निसीहियाए `
सेज्काए चादुत्ता पवद एय पढम पावय तस्स वद्य पच्छा |
| उंदिट, समुदिड पढइ उद्देससमुद्देसवेद्०णामिद्देवे तब्भा
| यो | तओ जाह चउभागावसरेसा पारिसी ताहे पाए पडि-
देइ जड न पडिलेहिउकामों तो वंद्इ, अह पडिलाहिउक, मो
तादे पडिलहेइ, श्रव दित्ता पाण पडिलदद पाए पडिलहित्ता
तत्थ पढइ कालवलाप व ठिआ पडिक्कमइ एय तदय ।पवेपू.
चाद्वं सप्त वन्दनानि, अपराह्न ऽप्यवमव स्च भवान्ति । तत्र-च- |
त्वारि देवसिकधरतिक्रमणे, जीय स्वाध्याये , अनुज्ञावन्द-
नानां स्वाध्यायवन्दनायामेवान्तभौवादिति सवेसख्यया
चतुरश चन्दनकानि भवान्ति ।
कृल्योक्तम् । यस्तु भक्काथिकस्तस्य भाजनानन्तरभावपत्या--
ख्यानचन्दनकसदितानि पश्चदश भवान्ति, तेषां मध्यादेकत-
रस्यःपि कृतकर्मणो 5करणे मासिकं लघुकं प्रायश्चित्त भव-
ति, तथा आवश्यक कुर्वन् विपरीतमालापकोच्चारणं क~
रोति | तयथा-दैवसिके आवश्यके क्षमरयामि क्षमाश्रमण !
रात्रिक व्यविक्रममित्युच्चरति ,
लापे करोति । पदे पाक्तिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेष्वपि
रतिक्रमणेषु वक्तव्यम् , शत्र सर्वत्राप्यसमाचारी निष्पन्नं मा-
रात्रिके वा दैवसिकमा- |
एतच्चाभक्लाधिकमड़ी- |
सलघु ' ऊगद्िपए चेव ' त्ति ऊनानि वा पकद्कयादिभिर्व- |
न्वनकैर्दीनानि अधिकानि च यथोक्लप्रमाणादतिरिक्कानि |
दैवसिका दिप्रति ऋमणुष॒ चन्दनकानि प्रयच्छतो मासलघु।
श्रध ` वदणप जाणि य पयाणि ` त्ति पदन यानि
यवन तादी नि पञ्च चशतिवन्द्नक्रस्यावश्य-
। >> | खूचितानि तानि दर्शयाति--
दुञ्ओणय अहाजायं, किडकम्म वारसावयं होड ।
ति गुत्तं च, दुपवेस एगणक्ख मखं ॥॥७८१॥
चदणा
अवनो अवगतम उत्तमाङ्गप्रधाने प्रणमता-द अवनते य~
स्मन् तद् दृथवनतम् , एकम-यदा प्रथममव “इच्छाम स्व-
` इत्याभ-
धाय छन्दो 5नुशापनायावनतमिति । द्वितीयं पुनरवमेव हि-
तीयप्रवेशे इति । यथाजात नाम यथा प्रथमता जननी-
जटरान्निर्मतो यथा च श्रमणो जातस्तथैव बन्दनकं दा-
तव्यम् , तत्र रजोहरणमुखवस्त्रिकाचो लपट्टकमात्रया श्रव-
रः संजातो रचितकरसेपुरस्तु योन्या विनिगेतः पवभून
पव वन्दनकं दत्ते ३, कृतिकमेवन्दनकं वारसावय `
ति दादशावत्तं भवति । इह प्रथमतः प्रविष्ठस्य “ आहो
कायं कायं जुत्ता भे जवणिज्ञे च भे" इति सूत्राभिधानगभा-
गुरुचरणन्यस्तहस्तशिरःस्थापनरूपाः षडावत्ता भवन्ति ।
श्रवग्रहान्निगत्यापुनःप्रविष्टस्याप्यवमव षडिति दादशाव-
तवन्दनकमुच्यते ६५, चत्वार शिरांसि उपचाराच्छरा-
नमनानि यास्मन् तच्चतु शिरः तत्न “ सफासनमरणग
खामणा नमण सीसस्स वीयं एवे बीए पवसे वि. दोन्नि ”
त्ति। १६। यथा रयो वा-मनोवाक्काययोगा गुप्ताः-सुप्रणिहि-
ता यस्मिन् तत्जिगुक्तम् । इयमत्र भावना-मनसा सम्यक
प्रणिता, वाचा अस्खलितानि तत्र पदानि विकथादि-
निरोघेनोच्चारयन् , कायेनावर्तान् सम्यक् प्रयुज्ञाना वन्दन
कं ददाति २२, द्धौ परवशो गारारवग्रदेऽलुज्ञाप्य प्रविशत
यस्मिन् तद् ह्विप्रवेशम् २३, पकं निष्क्मणं गरोरवग्रहा-
दावश्यकान्निगच्छतो यत्र तत्रैकनिष्क्रमणम् २५, एतेपां प-
अखविशतरावश्यकानामकरणे प्रत्यक॑ मासलघु प्रायश्चित्तम् ,
अथवा-वन्दनके यानि पदानीत्यत्र नोद्धूतादीनि द्वाजिशत्
सख्याकानि दाषपदानि मन्तव्यानि | बृ० ३ उ०।
तानि चामूनि-
9: ४ स । 28 72
अशणाहदेंय च यद्ध च, पाव्यद्ध परापाडय।
टोलगइ अंकुसं चव, तहा कच्छभरिंगियं ॥ १२०७ ॥
अनाहतम--अनाद्रं सम्श्रमरदितं वन्दते १ , स्तन्ध-
जात्यादिमदस्तव्यो वन्दत २, पविद्ध-वन्दनकं दददेव न-
श्यति ३, परिपिरिडतं-प्रभूतानेकवन्दनन वन्दते श्रावर्तान्
व्यञ्चनाभिलापान् वा व्यवच्छिन्न। न् कुवन्, 'टोलगाति' त्ति
तिड्डबड॒स्प्लुत्यो त्प्लृत्य बिसंस्थुल बन्दते ५, अङ्कशे-रजोहरण-
महुशवत्करद्ययेन गरृदीत्वा वन्दते ६, कच्छुभारिंगियं-कच्छुप-
वत् रिज्ञलित कच्छुपवत् रिङ्गन बन्दत इति गाथाथः ॥१२०७॥
मच्छुव्वत्त मणसा, पदर तह य वेहयाबद्धं ।
भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥ १२०८ ॥
मत्स्योद्धत्तम--एकं वन्दित्वः मत्स्यवद् द्वुत द्वितीय साधुं
द्वितीणपार्श्वेन रेचकाव त्तेंन परावर्तते ८, मनसा प्रदृष्रम् ,वन्यो
हीनः कैर्नाचद्गुणन, तमच च मनांस कृत्वा सासरूया बन्दत
६, तथा च वेदिकाबद्ध जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याथो वा
पार्श्वयोर्वा उत्सङ्ग वा एक वा जानुं करद्वयान्तः कृत्वा
वन्दते ६०, * भयसा चव ' त्ति भयेन बन्दत, मा भृद्गवच्छादि
भ्यो. निर्दांटनामिति ११, * भयेतं ' ति भजमान वन्दते * भज-
त्यय मामतो भक्तं भजस्वेति तदा्यवृत्तम् ' इति १२, * मेत्ति `
क्षमेत्रानामत्त ्ाातामच्दन् वन्द्त १३, ` गारव ` त्ति गार
वनिभित्तं वन्दते, विदन्तु मास् , यथा-साम्राचारी कुशलो-यम्
१४, क़ारण० ` न्ति ज्ञानादरि|्यातिरिक्क कारणमाश्रित्य वन्दत,
( ७७० ) €
अधिधानराजन्द्रः)
यंदण _
वस्रादिम दास्यतीति १५, अय गाथार्थः ॥ १२०८ ॥
तेणियं पडिणियं चव, रुद्रं तज्जञियमेव य ।
सदं च हीलियं चवर, तहा विपलिउचियं ॥ १२०६ ॥
स्तेन्यामिति-परभ्यः खटवात्मानं गूदयन् स्तनक् इव वन्द- |
ते, मा ( ममैवं ) लाघवे भविष्यति १६, प्रत्यनीक क मू-आहा रा-
दिकाले ठन्दत १७, रुष-क्रोधाध्मातं वन्दत ऋधाध्मातो
बा १८, तर्जिते-न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव
इवेत्यादि तजयन्-निर्मत्संयन् वन्दते , अक्लुल्यादिभिर्वा
तर्जयन् १६, शई-शाव्यत विश्रम्भार्थ बन्द्त, ग्लानादि-
ब्यपदेश वा कृत्वा न सम्यग् वन््दते २०, हीलित॑ हे गणिन !
याचक ! कि भवतो वन्दितेनेत्यादि हीलयित्वा वन्दत २१,
तथा विपरिकुश्चितम-अद्धवन्द्त एवं देशादिकथाः करोति |
२२, इति गाथार्थः ॥ १२०६ ॥
दिद्ठमदिट्टं तहा, भिगं च करमे।अणं ।
आलिट्टमणालिट्ूं, ऊर्ण उत्तरच्।लय ॥ १२१० ॥
दष्टा$दष्टे तमसि व्यवहितो वा न वन्दते २३, शृङ्गम्-उत्त-
माङ्गेकदशन वन्दते २०, करमाचने--करं मन्यमानो वन्दते
न निरजराम् , * तहा मोयणं नान न अन्नदा मुक्खो, एएण
पुण दिलश्लेण मुश्चेमि त्ति वेदणग देइ २५८-रद-' आर्क्षिष्टा5-
नार्छिए ' मित्यत्र चतुभङ्गकम्--रजाहरणे कराभ्यामा्छि-
ष्यात शिरश्च, रज्ञादरणो न शिरः२, शिरो न रजोहरणम् ३, |
न रजोहरण् नाऽपि शिरः ४, अत्र प्रथमभङ्गः-शोभनः, शेषु
प्रकृतवन्द्नावतारः २७, ऊन-व्यञ्जनाभिलापावश्यकेरसम्पू-
री वन्दते २८, उत्तरचूड-वन्दन त्वा पश्चान्महता शब्देन
मस्तकेन वन्दे इति भणति २६, इति गाथार्थः ॥ १२५१० ॥
मूयं च ढडडुरं चव, चुडलि च अपच्छमं ।
बत्तीसदोसपरिसुद्ध, किडकम्मं पडंजई ॥ १२११ ॥
मूकम्-त्रालापक्राननुच्चारयन् वन्दते ३०, ढहरं--
महता शब्देनाच्चारयन् वन्दत ३९, ' चुडली ' ति उर्का-
मिव पयन्त गरृदीत्वा रजादरणे भ्रमयन वन्दते ३२, श्र
पश्चिमम्- हृदे चरमामत्यथः , पत द्वात्रशदाषाः, पथिः
परिशुद्धं कृतिकर्म कार्यम् , तथा चाद--द्वात्रिशदोषपरिशुद्ध
कृतिकर्म-- वन्दन परयुडजीत-कुयौदिति गाधाथैः ॥ १२११ ॥
यदि पुनरन्यतमदापदुष्मपि करोति ततो न
तत्फलमासादयतीति, आह च--
किंडकम्मं पि करितो, न होइ किह्कम्मनिज़राभागी ।
बरत्तीसामनयरं, साहू ठाणं विराहिंतो १२१२ ॥
रतिकर्मापि कुर्वन्न भवति कृतिकमनिर्जराभागी, दाच्रिश-
दाषाणामभ्यतरत्साधुः स्थाने चिराधयन्निति गाथाथः। १२१२
दाषविप्रसक्ककृतिकर्मकरणे गुणमुपदशयन्नाद--
बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किडकम्मं जो पठंजइ गुरूणं ।
सो पावइ निव्याणं, अ. चरण विमाणव।सं वा ॥१२१३॥
दवात्रशद। परिशुद्धं कृतिकमे यः प्रयुडुक्ते-करोति गुरव स
प्राञ्चति निर्वाणम् आचि रण वमानवासं बति गाथाऽथः। १२१३।
आहर--दापषपरिशुद्धाद्वन्दनात्को गुणः ? यन तत
एव निर्वाण॒प्राप्तिः प्रतिपाद्यत इति, उच्यत-
आवस्सएसु जह जह, कुणइ पयत्ते अहीणमइरित्त ।
बिविहकरणवउत्तो, तदह तह से निज्ञरा होई ¦ १२१४॥
|
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आवश्यकेणु-अवनतादिणु दोषत्यागलक्षणषु च यथा यथा
कराति प्रयत्नम् , अहीनातिरिक्लं-न दीने नाप्यधिकम् , कि-
मभूतः सन् १--त्रिविधकरणोपयुक्कः, मनावाक्कायेरुपयुक्न इ-
व्यथः, तथा तथा “ से ' तस्य-वन्दनकर्तु्निंजरा भर्वात-कर्म-
क्यो भवति, तस्माच्च निर्वाणप्राष्टिरिति, अता दाषपारथु-
द्वादेव फलावाप्तिरिति गाथाः ॥ ६२१४ ॥ आव ० ३ श्र ।
साम्ध्रतमतेष्वेव प्रायश्चित्त माह--
द्धे गारवतेणिय, हीलियरुट्ट लहुगा सढ़े गुरुगो ।
दु्ट पडिणीय तज्जित , गुरुगा सेसेसु लहुगो उ ॥
स्तन्धगौरवस्तनितदीलितरुषटेष् प्रत्यकं चतुलघवः । शडे-
मायादोषध्रत्यये माखगुरुकम् , दुष्टप्रत्यनीकतजितेषु चत्वार
युरुकाः, शेषेषु अनारतश्रविद्धपरिपिरिडतादिषु ्रयार्विशतौ
दोषेषु भ्त्येकं सामाचारीनिष्पन्नं मासलघु । बृ०३ उ०। प्रव०।
बन्दनफलम्-
वन्द णणएणं भन्ते ! जीवे कि जणयई ? बन्दणणएणं नीया- ¦
गोयं कम्मं खवेई, उचागोयं निबन्धई, सोहग्गं च अष्डि-
हयं आणाफलं निव्वत्तेड दाहिणभावं च णं जय ॥१०॥
डे भदन्त ! पूज्य ! बन्दनकन गुरूणां द्वादशावत्तंविधिब-
न्दनेन. जीवः कि जनयति, हे शिष्य ! श्रीगुरूणां बन्दन
केन नीचैर्गोन्न कमं क्षपयति गुरूणां बन्दनकारी नीचै-
गोत्रे न श्रवतरतीत्यथः , पृयैवद्ध च क्षपयति 5
म बध्नाति उद्चेरगोंजे अवतरतीत्यर्थः । पुनरुच्चेगोत्रि3वती- |
सः सन् सौभाग्यं सर्वलोकेषु बह्लमत्वे पुनरप्रतिहत कना-
पि निवारयितुमशक््यम् श्राज्ञाफलम्-्रा्ञासारं प्रभुत्वं
नि्यैतयति-उत्पादयति, च -पुनदा क्षिए्यभावं सर्वलोकानाम-
ज॒कूलत्वे जनयति ॥१०॥ उत्त० २६ अ० । स्तुत्वाऽपि तीथंक-
रान् गुरुवन्दनकपूर्विकेव तत्पतिपन्निरिति , तदाद-बन्द्-
नकेनाचायीदयुचितप्रतिपनि रूपण नीचेर्गोत्रम् श्रधमङ्लोात्प- `
्तिनिवन्धनम् कम क्षपयाति, उच्चेर्गोत्र-तद्धिपरीतरूप निब. `
घ्नाति , सौभाग्यं च सवजनस्पृहणीयतारूपमप्रतिदतं ~ `
यैत्राप्रतिस्खलितमत एवाज्ञा-जनन यथादितवचनप्रतिपक्ति- `
रूपा फलम्-- निवत्तयति--जनयति , तद्धतो हि भरायश्चा `
देयकम्मैणो ऽप्युदयसम्भवादादेयवाक्यताऽपि संभवती- `
ति , दक्तिणमावं च अनुकूलभाव॑ जनयति लोकस्येति `
गम्यते , तन्माद्ात्म्यतोऽपि सर्वः स्वावस्थाखनुकूल `
एव भवति ॥ १० ॥ उत्त० पाई० २६ आ० | या च,
सुरासुराधिपतिचक्रव्तिवलदेबबाखदेवा दिवन्दना तां >
याचेत । सूज० १ श्रु० £ आ० । ( बन्द्माने न याचेत-इत्थियं
पुरिस वा ” (२६) इत्यादि । दश० ५ अ० २ उ० । गाथा.
° गोयरचरिया ` शब्दे ठतीयभागे ६६० पृष्टे गता । ) ( काररे
घिग्जातीयानामपि वन्दनं क्रियत, इति *पडिलवणा' श्ये
पञ्चमभागे ३६७ पृष्ठ. उक्तम् । ) पाश्यस्थादिविषथवन्वनादि
चूत्सगापवादोौ प्रदर्श्यते,तत्र पाश्वैस्था दीनां वन्दननिषेधः प्रा
२५रूवन््दुनाधिकार-“* पासत्थाइबंदमाणस्स त्यादिना भद्
शित एव,एतेषामम्युत्थानादो च प्रायश्ित्तमप्युक्तम् ,तद्चधा
“ श्हचेदब्भुदधाण, अजालिकरणं य हुंति चउगुरुआ।
अराणेसं च उलहुश्रा, एवं दाणाइसु वि णेयं ॥ १॥” |
व्याख्या--पतेषामभ्युत्थानादौ प्रायश्चित्तमाद यथाच्छस्
स्याभ्युत्थानाञ्जलिकरणयोभेरन्ति प्रत्यक हज
| | बंदण
४ जज
६ \७७१ )
अमभिधानराजन्द्र: ।
वदण
ख्काः प्रायाश्चत्तम् । तत्राभ्युत्थाने षोढा-अभिमुखो-
ह्थानम् १ श्रासनोपढोकनम् २ , कि करोमीति भणनम्
३,धर्मच्युतस्य पुनधरमस्थापनारूपमभ्यासकरणम् ४, अभेदरू
पाउविभक्षिरेतत्पश्चपदरूपः संयोगः ५--६ चेति | तत्राभिमु- |
खोत्थानादिपश्चके कृते अभ्यासकरणे पुनः सामथ्ये सत्यकृते
प्रायश्चित्तम् | अजलिकरणमपि षोढा, पश्चविशत्यावश्यकयु- |
क्वन्दनम १, शिरसा प्रणामकरणम् २, एकस्य दयाव
इस्तयोयों जनम् ३, बहुमानरसभरेण सरभसम्-““नमो खमा-
समणाणे ” इति भणनम् ४, निषद्याकरणम् ५, एतेषां पदानां
योगश्च ६.पतषु सर्वेष्वपि कृतेषु प्रायश्चित्तम् , श्रन्येषु पाश्वं
स्थादिषु नवस गरहस्थसहितेषु कृतिकर्मांड्जलिकरणयाः प्र
स्यकं चतुलघुकाः प्रायश्चित्तम् । ध० ३े अधि० ।
मुद्धजणहिययसंथिय, द् सणवररयणलूडणं सजदा ।
श्रन्नायसाहुसावय-जोगा अनने भणन्ते घं ॥ १ ॥
मुग्ध:--स्वल्पमतियों जनो--लोकस्तस्य हृदयम्-मानसं
तत्र॒ सस्थितमाधितं दशेन-सम्यक्त्वे तदेव बररत्न
प्रधानमाणिक््य तस्य लूडणं देशीभाषया प्रहरणम् , तत्र |
सदृढा--बद्धाग्रहाः श्रज्ञातसाधुश्रावकयोगाः--श्रविहित-
श्राद्धव्यापारा भणन्ति-जटपन्ति पवं-वदयमाणनीत्या श्रयमा-
शयः--वच्यमाणकथने हि मुग्धश्रावकाणां दर्शनपत्चषपाता-
भावन सम्यक्त्वध्वशा भवतीति गाधाथेः ।
तदेवाद--
पासत्थाई सावय-जणस्स नो होति वंदणि जा उ।
तं नो जम्हा कुत्थ इ, नो दीसइ भणियमेवेत्ति ॥ २॥ |
पाश्वस्थादयस्समयभसिद्धाः श्रावकजनस्य--श्राद्धलोकस्य
नो- नैव भवन्ति-जायन्त वन्दनीया--नमस्कर्तव्याः, तुः-
पूरणे । तद्धन्दनाकरणे, ना-नेव यस्मात् कुत्रापि कस्मि-
श्िदपि शास्त्र ना दश्यते,-नावलोाक्यत भणितमक्कमेवं
पूर्वोक्षप्रका रण इतिः--वाक्यसमाप्तो इति गाथाः ।
यद्भणितं तत्पूर्वपक्षगाथाद्वयेनाह--
वद्दावदविभागो, सविग्गयरजडईण सव्वत्थ ।
जे पुण दंसशसत्तति-ग ण भणियं नमस्सति ॥ ३ ॥
अङ्गसु अणंगेसु, छेयग्गंथेसु पयरणेसु च ।
, सवाञ्ा ता कहं ते, भवे पमाणं पमाणीण ॥ ४ ॥
बद्याचद्याचभागा-नमस्करणायानमस्करणायावशेषा भ- |
णित साचग्नतरयताना--सखावार्ततरसाधूना सवत्र--सवे
स्मिन् सूत्र इति शषः, यन्पुनर्दशनसप्ततिकावचनम् पतन्ना- |
म कारणगदितम् › `समणाण सावयाण य अवंदणिज्ञा जि-
शमयम्मी "' त्यादिलक्तषण न-नेव तस्य--सप्ततिकाभाणित- |
स्यास्ति-विद्यते अज्ञपु-आचाराकजक्लादषु अनङ्गष-श्रापपात-
कादिषु:छद॒ग्रन्थषु निशीधशाखरादिषु प्रकरणेषु-उपदशमाला- |
दिषु चः-समुच्चये; सवादस्तत्तादृशभरने तस्मात्कथं केन
. भ्रकारेण तत्सक्ततिकाभरनं भवत्-जायेत प्रमाणं-व्यवस्थाप-
कम् ; प्रमाणिनां यथा ऽवस्थितवस्तुत्रेदिनामिति गाथार्थः |
किमित्यत आह--
[= | जम्हा सविदई-यं खलु भवे पमारमिह ।
सिद्धंतियवयशेि, नो इहरा अइपसड्भाउ | ५ |!
प्रकरणवच नम॑बाीचीनसाधुविरचितं शाखं यस्मात्सावादि त-
मव श्रावेतथम् ; खलुः-अवधा रण; स च योजित एवं भवेत्-
जायत प्रमाण व्यवस्थापकरामिह-मानीन्द्र प्रवचन । श्रनुखारः
पूठ्ववत् । ख द्धारतवचनरागमभाणिननों- नेव, इतरथा स
वथाभाव कुतो ऽतिप्रसङ्गात् , स्वाभिध्रायवशतो ऽन्यो ऽन्यथा
श्नन्यञ्चान्यथाकरणता ऽनवस्थापात इति गाथाथः।
अथ यतिवत् श्रावकाणामपि दृश्यं तदित्याह--
जई जईाकच सव्व, पि सावयाणं पि हज करणीयं ।
तो इको पिय धम्मो,हवेज़ दुविहो विरुद्धेज़ ॥ ६ ॥
यदीत्यभ्युपगमे यतिकृत्यं-साध्वनुष्ठानं सवमपि निःशे्
भ्राधकाणामपि-शभ्राद्धानां केवले यतीनामित्यपिशब्दार्थ
भवेत्-जायत करणीये-कृत्य तत एक एव धर्म्मो भवत् दि-
विधो-द्विप्रकारो विरुध्येत-विघटेतेति गाथाः ।
अत्रेवार्थ कारणान्तरमाह--
तह सेपुष्पगुणे वि हु, न वंदिओं वज़पाणिणा भरहो ।
तो नज़इ सां, वेसो चिय होइ नमणीओ ॥ ७ ॥
तथा-अभ्युच्चया थः | सम्पूण एंगु णा ऽपि-सुविश्युद्धज्ञानादिः
रापि हुः-पूरण, न वन्दितो- न नभस्क्ृतो वज्धभपाणिना-इन्द्रेण
भरतः-प्रथमचक्ती,वेषरद्वित इति शषः, तस्माज्ज्ञायते-बुध्यते
श्रावकाणां वेष पव रजाहरणादिको भवति-जायत
नमनीयो-बन्य इति गाधाः ।
सूत्रकृत् सम्बद्ध गाधथाद्वयमाद-
कि च जई सावयाणं, नमणं नो सम्मयं भवे एयं ।
पासत्थाईसं तो, कह उवएसमालाए || ८ ॥
सिरिधम्मदासगणिणा, न वारियं वारियं च अन्नेसि |
परतित्थियाण पणमण, इच्चाइवयणओ पयडं ॥ ६ ॥
कि च-अभ्युचय, यदि-विकट्पाथैः, श्रावकाणाम्-श्राद्धानां
नमनं-नतिः नो--नेब सम्मते भवेत्- जायत, पतत्पूर्वोक्त के-
षामल्याह--पाश्वस्यादीनां-प्रतीतानां ततः कथं-केन प्रका-
रणापदशमालायां श्रीधम्मदासगणिना पतन्नाम्ना तत्कर
न वारतं,वारत पुनानाषद्धम् श्न्येषां शाक्यादीनां परती
कानां प्रणमनमिल्यादिचचनतः,प्रकटम्-प्रसिद्धम्-च्रादिग्रद-
णात्-- उब्भावणथुणणभत्तिराग च सक्वारसम्मासं दाणं-
वणय च वज्जड "` शत दशावबाध चेति गाथार्थः।
पराभिप्रायमाशङ्क्याद-
आलावो संवासो, इच्चाईयं तु युणिजणस्तेव |
एव ना जइ तो व, पुव्वभाखया उ पासत्थों ॥१०॥
आलापः-स्तोकभणने संवासस्तु-एकत्र निवसनमित्यादिकं
उुनसानजनस्थव साधुलोकस्येव तेन हि तेषां निष्कारण
न कत्तव्यम्--वन्दनादकम् , कारण तु कर्तव्यमिति प्रागेव
चाचतम् , आदिग्रदणन-“ बीससोसंघ्रवोपसङ्गो पहीणायारे
दिं समे सव्वा जिर्शिंदेहि पाडकुट्टा ” इति दश्यम् , तथा च
तत्राक्तं बलाद्यनिव्योकुलीभवतीति, करि च-इतः श्रावकधम्म-
वच्य इति भणता वृत्तिक्तता भिन्नाधिकारिता दर्शिता
गाथाभिसक्रः
एवं प्रतिपा
खुत्तत्थ पोरिसि नो करे "
स. च-- वबंदइ पडिपुच्छुद ” इत्यादि
सूत्रे पवमनिच्छन्ते नैव यदि ततस्तेऽपि
द्यन्ति पृवैभमणितान-
4 आओ ७७२ )
अभिषधम्नराज न्द्र! ।
वंदण
इत्यादिकारे पाश्वसथाः शिथिला उपलक्षण॒त्वादवसन्नादय-
श्चेति गाथार्थैः। ९,
ततः किमित्याइ--
तं वदंतु वराया, धम्मत्थी सावया तओ तुन्भे । |
सयभमडिया हु मूढा, अन्ने वी मा भमाडेह ॥ ११॥ |
ते-साधु बन्दन्तु-नमस्कुषन्तु वराका-अनुकम्पनीया घम्मौ- |
धिनो-वृषलम्पटाः, श्रावकाः-श्रद्धाः, तस्मात् "ठुन्भ' यूयमा- |
त्मना श्रान्ता-नषए्टसद्रोधाः मूढा-ज्ञानविकलाः अन्यान्-श्राव |
कादी न् मा-निषधे, भ्रामयत-नष्टसद्वोघान् कुरुतेति गाधाथः। |
ननु ययेवं ततः को ऽप्यवन्द्या नास्तीत्याह-
संघेण पुणो बाही, जो बिहिओ दोज्ञ सो उ नो वंदो । |
पासत्थाई सढाणं, सव्वहा एस परमत्थो ॥ १२ ॥
संघन-:प्रतीतन पुनर्बदिस्ताद्यो निर्दिष्टतया विहितः--
कृतो भवेत्-जायेत स पुननैव वन्यो नमस्करणीयः पा- |
ग्वस्थादिः- परतीतः श्राद्धानां-श्रावकाणां सव्वैथा-सर्वः
प्रकाररेष-निर्दिष्टरूपः परमाथतस्वमिति गाथाथैः ।
सूत्रकृत्संबन्धगा थामा दद-
कि च सिरिपंचकप्पे, दव्वलिंगस्स धारणे भशिश्रो । |
एस गुणो प्रीरि, इमाहि गाहाहि पयडत्थो ॥ १३॥
किञ्चत्यभ्यु्चय श्रीषच्चकस्पे-चदम्नन्य दव्यलिङ्गस्य-रजाद- |
रणाद: घारण-स्वीकारे भणितः-उ्कः, एप-वक्ष्यमाणा गुणा- |
लघ्त्व सूरिभिस्तत्कारकेरिमाभिर्वच्यमाणाभिगाथानिः-च-
न्दाविशेषरूपाभिः प्रकटार्थो-निश्चिताभिचेय इति गाथा्थः।
ता एवा 44ट-
एयं तु दव्वलिङ्ग, भवे समणत्तणं तु नायव्वं |
को उ गुणो दव्बलिङ्ग, मन्नद इणमो सुहं वोच्छे ॥१४॥
सकारवन्दननमं-सणा, पूयणकदणा य लिङ्गकप्पम्मि ।
पत्तयवुद्धमाई, लिङ्गं छठमत्थओं गहणं ॥ १५ ॥
दण दव्वलिङ्ग, कव्यते पाणिइंदमाई वि । |
लिंगम्मि श्रविज्ञते, न नखई एस विरओ ति ॥१६॥ |
पत्तेयबुद्धें। जाव उ, गिहिलिंगी अह वअन्नलिंगी वा । |
देवा वि नानॉपूण, मा पुजञं होहिइ लिङ्गं । १७॥
लिङ्गकटपः पञ्चकल्पमाणितः प्रकटाथश्व, विशेषावश्यके5पि |
लिङ्गस्य पूज्यता »सपूर्वपक्तोत्तरा भणिता, अमू्िगांथामिः,
“ नरु मुणिवेसवन्न, निस्खीले वि मुखिच्चुपट्तो पावडई । |
मुणिदाणफले तद, किन्न कुलिगदाया वि ॥ ९॥ आयरि- |
याङघाणे, मुन्नंत, तेण पड़िम व्व । पुज्ञ प्पाण मई य वि, |
न कुर्लिंग सब्बहा खुत्ते ॥९॥” परः प्राद-“नरणु केवलकुलिगे
चि, हंउते दव्यभावओ । ” श्राचा्यः न वयमू--' मुणिलिक्ष
मग्गभावे, जाद तआ तेण त॑ पुज ॥ ३॥ ।
पव स्थित जीवस्यीपद्शमाोह--
नित्थयरदं सणोवरि, जह् जीव ! तुद त्थि निचला भक्ती |
मुद्भाण सावयाणं, ता मा लाएसु कुरगाह ॥| १८ ॥
रत, प्रकरदरशनो परि-सब्धन्नप्रवचनापरिष्टात् यवि जीव} तः
घास्त निश्चला--डढा भक्किरास्तिक्यम् मुग्धानाम्--मुगध- |
पतीनां भ्राबकाणां तस्मात् मा इति-नियेध, ' लाएसु
विगलय-संबन्धय कुआहईं कुत्सितबोधे श्रावकेः-पा श्वंस्थाद्- द्.
यो न वन्द्याः एयरूप पूर्व साधृपेच्तया = वन्दनं ० ।
तम्- उक्तमत्र तु श्रावकापक्तयोल्ै(मति न
गाथाः । जीवा० २५ अधि०।
जे भिक्खु पासत्थं वंदइ वन्दंतं वा साइज़इ । न° चू०।
मैथुनप्रतिसेवी अवन्धः--
से भयवं ! जे णं केइ साहू वा साहुणी वा मेहुणमासे-
विज्ञा से शं वंदेज़ा, गोयमा ! जे शं साहू वा साहुणी वा ॥
महणं सयमेव अप्पणा शं सेवेज् वा, परि उवदिसेत्तं मेः
२ विज्ञा, सेविजमणं समणुजाणिज वा, दिव्वं वा माणु-
से वा तिरिक्खजोशियं वा०जाव णं करकम्माई सावित्ता-
वित्तवत्थुविसयं वा वि अञ्भवसाएणं कारिमाकारिमोब-
गरणेणं मणसा वा वयसा वा काणं से शं समणो वा `
समणी वा दुरंतप॑तलक्लणे अ दड्व्वे अमग्गसमायारी म-
हापावकम्मे णो णं वदिज्ञा, णो णं वंदावज्ञा, णो शं
दिजमाणं वा समणुजाशज्ञा, तिविहं तिविहेणं ° जव शं
विसाहिकालं ति, से भयवं ! जे वंदेज्जा से कं लभज्जा!, `
गोयमा ! जे तं बंदेज्जा से अट्टाउसणहं सीलंगसहस्सधारी- | `
शं महाणुभावाणं महती वा आसायणं कुज्जेज्जा, ज शं ' `
तित्थयरादीण आसायं ञ्जा से णं अज्भवसायं प-
इच्च ०जाव णं श्रणंतसंसारियत्तणं लभेज्ञा विपहिवि- |
त्थियं सम्मं सव्वहा मेहुण पि य । महा० २अ०।
( न वेषमाजश वन्द्यो भवतीति सर्वत्रानाभश्वासवत्तामाब्य- | `
क्रिकनिह्ववानाम इति ' झअव्वत्तिय ' शब्द ८१४ पृष्ठ प्रतित्तष (
उक्कः । ) ( चत्यवन्दनविधिः ' चेइयघंदण ` शब्दे तृतीयभागे
१३१२ पृष्ठ उक्तः । ) |
वन्दन्रकीर्णोक्रश्चत्यगुसवन्दनविधिः- |
तित्थयरे मुशणिनाहे, छुक्खपहपणएसए व सोंडीरे। ।
खायगभावे वंदे, कम्मरयरहिय-जिणवीरे ॥ १ ॥
नमिऊण गणहराई, सुयनाणशसमत्थपारगा$्ं । ।
पूया विहि जह भशिया,तह वंदणविहिं भणिस्साप्रि॥२॥ `
दव्वाभावे सड्डो, करेइ शिच॑ जिद पाडमाणं ।
पुरओ ठिद्चा भावा, पूआ साड व्वसंसुद्धा ॥ ३॥ |
अट्ट विह कम्मरयं, बहुएहि भवेद" संचिय जम्हा। ।
तवसंजमेण घोवइ,तम्हा भाव॑ पहाणं वि॥४॥ |
आवस्सयँ काऊणं, गोसे सुहजोगझाणसंजुत्तो । _ '
वेतो भूभागे, गाच्छिज्ा जिणवरे गेहे ॥ ५॥ |
क्यआवस्सएँ साहू, जई वि इयाणि अच्छती गेसे।
शियमा उ व॑दिश्रव्वा, पच्छित्त हा अवंदिए ॥ ६ ॥ |
पर्योहीण उ पणामा,तिदिसि निरिक्खण निवारइ अवत्था |
झालंबण तिक्खुत्तो, तह किर मुद्दा य पणिहाणं ॥ ७॥ | "4
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...
#: ( ७७३)
बंदण शअ्भिधानराजन्द्रः।
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एए अड! तिविहा, सविरइ वि करेइ अवस्सं । |
पूआ निसीहि एगा, भणिआ किर साहुअहिगारे ॥८॥
अच्चा उ अचित्ताणं, मणुएगत्तं पुणा पि जिणदिद्ठे ।
अंजलिमत्थे तिन्नि, उ, साहुगो अहिगमा नञा ॥६॥ |
पूयणनिमित्तें वज्ञ, सावर्ज़ सावओ वि जयणाए ।
उत्तरसंग बीअं, तिन्नि य सेसाणि साहु व्व ॥ १० ॥
अकसिणपतवत्तगाणं, दव्वत्थं सविहि पुव्वमक्खायं ।
तशद सचित्ताणं, अच्चाओ अत्थि लाहस्स ॥ ११॥
तंबोलभत्तपाण-सयणउवाणहजुय च निद्धििणं ।
भहुणमुत्तचारं, वजइ जिणगेहसी मासु ॥ १२ ॥
काऊण पयार्हीं, भूमि पमज्जइ सुहेण जोएण ।
भशर इरियाविहिअं, उस्सग्गो जाव लोगस्स ॥ १३ ॥
दो जाण् दोष्पि करा, पंचमर्ग होइ उत्तमगं तु ।
पशिव,ओ पंचंगो, भणिओ सुत्तड्ट दिद्लीहिं ॥ १४ ॥
पणामत्तियं किचा, भणई सुत्तत्थ संथवरणं ।
दाहिणजाणुणि तओ, ठवेइ भूभागदेसम्मि ॥ १५ ॥
सजलनयणो य पडिमा, पिक्खइ इग(गा)दाहिणे पास । `
भाव विसुद्धी३ भणइ, सक्कथयं जोगमुदासु ॥ १६ ॥
अघ संतरि अंगुलि, कोसागारेहिं द्। हिं हत्थेहिं ।
पिड्लोवरि कोप्पर स-रिएहिं जह जोगयुद् त्ति ॥१७॥
महुस्दशिमक्खलिअं, संपततं मुक्ड जाव ज अ जिणा।
उवणावंद णहेऊ, भावविसुद्ध सुद (रा्।)य।अ। ॥१८॥
कारणं उडकाय, अरिहंतचेइअदंडयं पटई ।
वरदणयाईफलट्े, उस्सग्गो (पुण) हइ जिणमुद्दा ॥१६॥
चत्तारि अगुलाई, याउ पुरो हीणपच्छिमो जत्थ |
वित्थरे जिणमुद्दा, उवओगटं अखुट्टाणं ॥ २० ॥
उगणीसदोसवज, भाणइरुद॒विमुकसज्काण ।
विग्गोसग्गे ठिच्चा, अद्डस्सासा जहल्ेण ॥ २१ ॥
पूरइ णप्म॒ुयारेणं, एगो सुद्धक्खरेण संथुत्ति ।
एगसिल। गेय अहवा, वटति य मूलणाहस्स ॥ २२ ॥
निउणोवमाई कित्ति, सब्भूअगुणासु ज अलंयारा ।
ललियक्खरेण पएणं, सरेण वडूण सा थुत्ति ॥ २३॥
अन्ने सुरति सव्व, एगग्गमणा उसग्गमज्भम्मि ।
कायति धम्मसुकं, तस्स धरति बा. एगे ॥ २४॥
नामत्थय च पच्छा, कट्टह समग्गसुवन्नअक्खलिओ ।
सञ्तर लाए अरिहं-तचहयाणं समग्गे वि ।२५।।(ंद् ०)
घ्रत्तासुत्तियमुदा, धरेइ सुहजोगसंपन्ना ॥ २६ ॥
दो वि हत्था उ सुसमा, उन्नयसुत्तीव संठिया मज्मे |
[~ या , ललाडदेसेसु सा किच्चा ॥ ३० ॥
द-स्तुतिभक्तन्यता ` धुर्?
१६५
शब्दे चतुथमागे २४१४ प्रदरे गता |
दो पणिहाणा थवणं , सुसरेश सुहावमाइसंजुत्त ।
जपर्वयरायपडा , मुद।पुच्ं च सव्यं वि॥ ३१ ॥
घुशिवसहा य निरीहा, इच्छा जेमि वि नत्थि मुक्खस्स ।
कम्मा जायण तेसि , पुणरुँत्दासो कटं नत्थि ॥३२॥
नत्थि पुणरुत्तदोसो , भत्तियरागेण भासमाणस्स ।
जिणजायणविवहारो, करेइ तहा विणसो दुद्रा ॥२३॥
उकोसा विहि एसा , नवयारण च जहज्नसंकहिया ।
मज्किमअशणेगभेया, णेया सुत्ताणुसरेणं ॥ ३४ ॥
उभओ कालजिणहरे , उक्सा बदणा य णायव्या ।
जहज्नों कारणवसओ, पणवारं मज्किमा दिवसे ॥२५॥
चेइयवंदणाविहिणा, करंति जसि च शिज्ञरापिउला ।
अविहिकए पच्छित्त, उवह.णविणा बिनिहिईं ।॥ ३६॥
चेइयहरे न गच्छंति , , पमायजोएण साहू सड़ो वा ।
तस्सम्मत्तं मलिणं , उवएमो तित्थणाहस्म ॥ ३७ ॥
चइयवद् णभ शय , अह गुख्वदर्णे समासओ वुच्छे ।
तिविहा फिद। थाभे, दुब।लसावत्त्रा शयं ॥ ३८ ॥
सिरनमणाईइसु पढमं , खमासमणदुल्नि दाणओ। बयं ।
वेद णदृगण तइयं, पडिवत्ती गुणदञ्रा एसा ॥ ३६ ॥
मूलं विशये धम्मस्स , पढ़मा सड्ढेंस कारणे हवइ ।
तह वि ह विसिद्रुकज्ञ, बीया रयणाभिकरे तइया ॥४०॥
पञ्चरणदं कायव्या , पासत्थाणं च नत्थि पंचर्हं ।
वद् शववहारो वि य, शिज्रहउः जिणो दिसति ॥४१॥
गुणनिदहिगुरु अभावे, ठवणा उाव॑ति सुद्धअक्खाशं ।
सञ्भावमसन्भावं, दुविहाऽऽवकटा य इत्तरिया ॥४२॥
रत्त अक्खे नीला- रहे सा णीलकंटणामासं ।
बहु सुह विज्ञा राड , वइइ ठवणा न संदेष्टो ॥ ४३॥
मोहणयादिसु रन्ता, अद्धरत्ताद्धयी यसा ठवणा ।
कुदं ए़डड अत्थि , दुहनासणौ य अइरम्मा ॥ ४४ ॥
सक्ता य सव्ववाहि , सूलरोगहरा युेयच्वा ।
नीली हलिद् तिलया, विसहरणी सुहा सुघयवन्नी ॥४५॥
इगदुतियण यावत्ता, गुआइरोगा विसं भयं हंति ।
चउआवत्ता णिट्ठा, संता वत्ता सुदा णेया ॥ ४६ ॥
मतक्खरेण वासो, किच्चा उवणा य याव कहिया वा ।
पव्वुत्तरासु दिसासु, टाइत्ता उग्गो जाव ॥ ४७ ॥
आसायणप रिहारो, विंगयविउत्त सुहेण जोएण ।
इरियाविहिय पुव्व, करेइ सप्रिग्गाचेत्तेण ॥ ४८ ॥
पडिलेहइ म्ह १।न्ति, वंदण अणुजाणहाइ सव्वं पि ।
गोसे पचक्ख।णं, वंद णच थोभसिञ्छाय ॥४६॥
सेमे दिवसे वि पणो, वेदित्ता चरिमवंदणा सव्वं |
खमावहत्ता जीव-रासि समभ।वनासदिमो ॥ ५० ॥
+
+ स ननं कप्य शङनि ध्ययम् ॥ ११६ ॥ सन० ५
"वैते : दिनमान
अणय। वंदणबिहिणा, वंदता तस्स शिज्ञराणता ।
अव।हेकए प।च्छत्त, अवीदेए तह विससेण ॥ ५१॥
किडकम्म करतो वि य,ण हे।इ तह वि ह सणिज्ञराभागं।
पणत्रीसा मन्नयरं, विराहइ इण जो साहू ॥ ४२ ॥ *
अणाइ निहण लाए, अविहिअणुद्भाणवसेण जीवोति |
भमिआ अणंतकालं, तम्हा भासंति विहिमर्ग ॥ ४३ ॥
आले।इऊण एवं, सव्य पुव्वावरण किरिया वि ।
विहिणा उकिरमाणं, लहेइ मुक्खं न संदहो ॥ ५४ ॥
वदणपयरण एमे, समयाओं विहियवायपुव्वाओं ।
सखवणृद्धरिञ्ा, रह्मा सणिभदबाहुणा एसो ॥ ५५॥
--
वन्द्नक्रावसरे गुरुपादचिन्तन क विधेयम--?, वन्दनका-
वेसर मुखवरस्थ्रिकायां रजाहरण वा यत्र वन्दनकं ददाति
तत्र गरुपादा चन्तयात ॥ ३॥ हा० २ प्रक(० | वन्दनक्रा- .
सर मुखवास्प्रका कुत्र मुच्यत--?, बन्दनकावसरे मुख-
वास्त्रका साधुमियांमजाडुनि सुच्यते, भ्रावकेस्तु गुरुपाद-
यावन्दनावसर जानुनि,अन्यथा तु भूमो रजाहरण वति ॥५॥
ही० २ धका० । अपष्टापक्गिरों स्वकलब्ध्या ये जिनप्रतिमा
सन्दन्त ते तद्धर्वानद्धिगामिन इत्यक्षराणि सन्ति, तथा
च सातये विद्याधरयामनस्तथा रात्तसवानरचारणमदाभन्ना
अनके ये तर्पास्वनस्तत्र गन्तं शक्तास्तषां सर्वेषामपि तद्ध-
वासाद्धगामत्वमापद्यत, ततः सा का लज्धियेया तत्र गमन
गोतमादिवत्तद्धवासद्धिगामिनों भवन्तीति ।११। ही० ६ प्रका०।
श्रावको वन्दनक्रानि ददत् मुखवास्थिकया ग़ुरुप।दे प्रमा-
ज्यति तदा5;शातना लगति न वा? इति प्रश्न:.अजत्रात्त रम-
मुखवरस्थ्रिकया गरुपादप्रमाजन आशातना ज्ञाना नास्ति
त्युत तत्प्रमाज्न युज्यत. यथा-शिष्या गुरूपादो रजाहरण
न प्रमाञ्जयान्त तद्धदिद्धपि ज्ञयमित॥१०८॥ सन०२ उज्ला ।
श्यद्धाः प्रातिक्रमणं कुवाणा बन्दनकदानावसरे कि मख-
वास्त्रकां शुद्धभूमो मुचन्ति ? किमुत पादपोज्छनापरि मख
वासरकं मुक्त्वा वन्दनकानि ददति ? इति प्रश्नः, श्रजोत्तर-
म्-प्रतिक्रमणं कुवाणाः श्राद्धा वन्दनकदानावसरे मुख-
वासत्रकां शुद्धभूमो रजाहरणापरि वा मन्ति नान्यत्राति
वाचाराति ॥ ६६ ॥ सन० १ उल्ला० । साध्वीनां कालिक-
यागक्रियायां श्रावकदत्तानि वन्दनकानि शुद्धन्तिन वा ?,
ईति प्रश्नः, अच्रात्तरम-साध्यीनां कालिकयागक्छियायां
श्राददन्तानि वन््दनकानि शुद्धन्तीति च्द्धाः ॥ ६१ ॥
सन० ३ उल्ला । ङष्णनाऽप्रादशसदस्रसाधूनां चन्दनक्रानि
दत्तानि तानि कि लब्ध्या, अन्यथा वा १. यदि लब्ध्या तदा
व्रीरासालविकस्यापि तथैवान्यथा वा?इति प्रश्नः, श्रत्रात्तरम्-
कृष्णन सदेस््रादिपरिवारसहितधावच्चापुत्रादीनामग्रसरा-
णां वन्दनक्रानि देनानि. तदनुयायिसमस्तपरिवारस्यापि
ताति समागनान्यय, तता मनसा त्वष्टादशलहस्म॒लाधू-
मां दृन्नाच्यव, .यद्रीत्य ने कथ्यत तदा बला न प्राप्नाति,
तद् महज्आाभूसथा कृष्णस्यापि वन्दन-
केवामेलेब्धिनाती नास्ति, वस्मादीरासालविकस्य वन्दे
उक्ना०।
( ७5४ )
अ नध्रानराजन्द्रः )
चदण
सामायिकादिषु उपवस्त्रमध्य सखन्ध्याप्रतिलखनायां
खवख्िकां प्रतिलिख्य प्रत्याख्यानं क्रियते. पकाशनादि-
प्रत्याख्यान च वन्दनकानि दत्वा तत् क्रियत, तत्कथ,
म्? इति प्रश्नः, अत्रात्तरम-समाचार्राप्रश्नतिग्रन्थेषु भा-
जनदिवस वन्दनकरानि दच्वा प्रत्याख्यानं कियत इत्यक्ष-
राशि सन्ति, उपवस््रदिवस वन्दनकाधिक्रारयो नास्ति
मुखवरस्थिका तु प्रतिलिख्यत यतस्तां विना प्रत्याख्याने न शयु
दशतीति सामाचायस्ति, तथापघानमध्यऽपि ष
ख्यान कायत इात ॥१३६॥ सन ४ उल्ला० । ( देवान्
त्वा क्षमाश्रमणानि संवद्धानि नवन्यादि अश्वः
उत्तरच खमासमण ' शब्दे ठतीयभाग ७६५ पृष्ठ
आयरियउबज्काए ' इत्यादिगाथात्रय केचन न
वदन्ति च योगशास्त्रवृत्तो “ काऊण वंदरौ ता ” इत्यक
श्राद्धानामेव पोक्तमस्ति न यतीनामिति ? प्रञ्चः, क म
यो गशाखनव्रत्तिजीणेषुस्तकषरकं किलाकितम् , तत्र
पि“ काउण बंदर तो ` इति गाथायाः पाठ
इति पदेनव संयुक्तो दश्यत, तत्र-अशठा इति
ख्यानन साधुश्राद्धयाः समानमेवावश्यककर्तव्य दृश्य
तथापि भावदवसूरिङतसमाचायौ अवचूणौवेतद्राधा-
सदा 5
अयं केषांचिन्मते साथवा न पठन्तीति प्रोक्लमास्त त
न्मतान्तरम् ॥ १४५ ॥ सन० ३ उल्ला० । उद्धाटितमु- |
समाया।त बन्दनकदानावसरे-
खजर्पन ईयांपथिकी
तु कथं नायाति ? इति प्रञ्चः , अत्रोत्तरम--वन्दनक-
दानावसर गवाव्रत्त्यापनाथनरुद्धारतमुखस्या प जल्पतः |
प्रमादाभावाज्नयापाथका समायातात ध्ययम् ॥ ४३० ॥
सन० ३ उल्ला०। दिगम्बरादियप्रासादे आत्मीयाचार्यप्रति- |
इति प्रश्नः, अबो- |
त्तरम-सा एकान्त वन्यत , परं तत्समुदायमध्य वन्दने
छ्वितप्रतिमा5स्ति सा वन्यंत न वा ?
कुरव॑तस्तन्मतस्थिरीकरणं यथा न भवति तथा करोति
द्रव्यक्तत्रकालादिक विचायं इति ॥ ४३६ ॥ सन० ३ उल्ञा०।
पूर्वनिष्पन्न जिनयृह कदा्चि7कञ्चित्पतिते तावन्मात्रं द्र-
ब्यलिज्ञिद्व्येण कृतं तत्रस्थश्रतिमा वन्यत नवा ? इति
प्रश्नः. अत्रोत्तरस--तत्रस्थजिनप्रतिमा वन्यत इति ज्ञायते
॥ ६२ ॥ सन ० ४ उज्ञा० । साध्वी कवलज्ञानात्पत्यनन्तर छु-
द्मल्थस।धून् वन्दते न वा ? इति पञ्चः, श्रत्रात्तरम्-कवल-
ज्ानवरति साध्वी छप्मस्थलाधूनू न वन्दते , यतः केवली
ज्ञातस्सन् छुञ्म स्थलाधून् चन्दत इत्यव शास्रे न दश्यत
था केवलज्ञानवतीनां दुद्मस्यसाधुञन्दत इत्यपि सम्भव-
न्नास्ति, यतः पुरुपः स्रियं वन्दत तदा लौकिकमार्गे अ-
नचितं दश्यत , परमाथतस्तु कवली सर्वेषां वन्दनीय ए-
चेति ॥ ४० ॥ सन० ४ उल्ला० । यत्सम्वन्धिप्रतिष्ठित जि-
नविम्य वन्य. तदि. ते कथन वन्दा ? इति प्रश्नः , अ-
त्रात्तरम्--"" पासत्थोी ओसणणा , कुखीललेसत्तओं अहा>
च्छदा | दुग दुग ति दु रगविहा , अवंर्दाझुआ जिणमय-
म्मि ॥ १॥ ” इत्यादिवच्रनात्तषामवन्दय.वम् , प्रतिमानां त
न््यतीशधिकर्षारशुदीतप्रातिमाव्यतिरकेणान्यासा बन्धन्वम-
स्तीति ॥ १३० ॥ अभिनिवेशभिश्यारक॒प्रतिष्ठितं जिनविम्य
वन्यनां प्राप्ते तत्र कि बीजम् ? इति प्रश्चः, अन्रोत्तरम-आ-
मपूर्व प्रिभिस्तद्वन्द्नादी अन्विारणुभेव बीजम् , किल्व-शा-
मकर काम-~ १
र जनक २# साशककापक क-.क-- 7०७
( ७७५ )
चद
शख ऽभानवशामस्यादाप्रत्व वविह्ववानां प्राक्कम्, साम्प्रतोना- |
स्तु मातना [दगस्बर हाय चह्नवा इत न व्यवाह्ययन्त ,
तथैव गवादौ नामाज्ञासदद्धावादिति ॥१३१॥ सेन० २ उल्ला० । |
पौषधदिन श्राद्धः प्रतिक्रमश कत्वा दवान् वन्दित्वा प-
चात् पोषध कराति तथा क्तः पोषधः शुद्ध्धति वा?
इति प्रश्नः, अजोत्तरम-पोंषधे कालवलायां कत्वा प्रति-
कमण च कृत्वा देवान् वन्दत इति विधिः कालातिक्रमा-
दिकारणवशात्त पूर्व देवान् बन्दित्वा पश्चात्पोत्र गृह्णा
तीति ॥ १२४ ॥ सेन० ३ उल्ला | साधूनां सप्र चेत्यवन्द्-
नानि प्राक्रानि तषां मध्ये प्रतिक्रमणयादई चेत्यवन्दन कुत्र
स्थान क्रियेत ? इति प्रश्नः, अज्नात्तरम-प्राभातिकप्रतिक्रमण
इच्छामा अखुसट ' इति कथनानन्तरं यहववन्दने क्रिय
ते तत्रैकं चेत्यवन्दनम् , सन्ध्याप्रतिक्रमणे तु देवसिक प्राति-
ऋमणस्थापनादर्वाग् यंदेवचन्दनं क्रियत तञ्चैत्यवन्दने
भिध्ानराजन्द्रः।
द्वितीयमित्यत्तराणि सङ्काचारन्रसो सन्तीति ॥१२६॥ सने |
३ उल्ला | पोषाधक्रन जिनालय गत्वा प्रदरे साऊँएग्गे.
बा. देवा बन्दितास्तस्य कालवेलायां पुनर्देववन्दने युज्य
तेनवाः दात प्रश्नः,अत्रोत्तरम-यना 5 काले देवा बन्दितास्त
स्य कालवलायां पुनर्देववन्दन युज्यते यतः कालवलाका-
यं कालवलायामव कत्तेव्यम् , परञ्पराऽप्यवमेव दृश्यः्
इति ॥ १२० ॥ सन० ३ उल्ला०
बैदणकम्म- वन्द नकमन्- न° । “ वदि
' छ्मभिवादनस्तुत्योः, '
= बन्द्यत स्तूयतनन प्रशस्तमनावाक्तायव्यापारनि- |
करेण गुरुरिति बन्दन तदेव कम वन्दनक्मं । कृतिकमेक-
रण, प्रव० २ द्वार |
बंदणकलस-वन्दनकलश्-पु° । माज्नल्यप्रटे, ज्ञा० १ श्रु० ^
अ० | आ० म० |
|
वंदणग-बन्दनक-न० । दन्यन्त पूज्या गुरवा ऽननति वन्दन |
तदेव वन्दनकम् , स्वाथ कन् । प्रच० ६ द्वार, आचार्यादिप- |
तिपत्तो , बन्दनकमपि षरक्षामाचश्यक्ानामन्यतम सा-
धोरवश्यकायेम् श्रावकस्यापि कक्तेब्यम् । गुणचत्प्रतिप- |
त्तिरूपत्वात् । तस्य गुणवत्प्रतिपत्तश्च श्रावकस्याप्यविर-
त्वात् । ध० २ अधि० । आ० म । गुखवसत्प्रतिपत्तिप्रधाने
अध्ययनविशष, पा० | ध० । च्रा० घु० । श्राव०।
बंदणषड-बन्दनघर- पु” । वन्दनकलश, आ० म० १ अ० ।
बंद णपराप्पय - वन्द नग्रक शं ङ् - न० । गुरुदेववन्दनवक्रव्यताके
भद्रवाहुस्वामिकत स्वनामख्याते प्रकीरकम्रनथ, वन्द्० ।
बेदशवत्तिया- खी ०। बन्दनप्रत्यय-न०। वन्दन प्रशस्तमनावा- ।
क्रायप्रवृत्तिस्तत्पत्ययं-तज्निमित्त म् । बन्दना.
याप करमि काउस्सरग्गं ”
क्वायात्सग: कार्य: । प्रति० । । औ० । रा० | दश० |
“बन्द्णवक्ति
यादक बः दनात् (ुण्य स्यात्ताद- |
वंदशविहि-वन्दनविधि-पुँ० । चेत्यवन्दनाथि'तौं, सझधा० १
आधि० १ प्रस्ता०।
बदणसुद्धि-वन्दनशुद्धि -ख्री० । अस्खलितपरणिपातादिद्राड
केसमुच्चारणासम्ध्नान्तकायात्सगादिंकरण्, ध” २ अधि
बदणिज -वंदभ्ीय-्रि०।वन्यन्त स्तूयन्ते ऽभियायन्ते च भक्ति
भरननरान्तःकरणः खुराखुरनरनायकगणुये तं वन्दनीया
द्नीयाः । |
चंफ
सह्ृग० १ आधि० १ प्रस्ता०। स्तुन्यघु. जी० ३ प्राति० ४ आधि०।
आा० | उपा० | सतातवय, ते० । ्राबघयागन सम्यकस्तुत
घ० २ अधि० | कर्म० | ल० । कल्प ! श्राव । ज्ञा० | भ० ।
वंदणीओदय-वन्दनीयोदक-न? | आचमनोवकप्रवाहभूमो.
“णा गाहावातिस्स वंदणीआदय पविदुजा' आचा० १ श्रु
चू० १ अ० ६ उ०।
वंदारय-बृन्दारक-पुं० । दव. “ अमरा तियसा वदा-रया य
विबुहा खुरा देवा ” पाइ० ना० २२ गाथा |
वंदि-चन्दिन्- तरि । स्तुतिपाठोपर्जाविनि,सत्र०१ श्रु०१७आ०।
वंदिऊण-वन्दित्वा-अव्य० । नमस्क्ृत्यत्यथ,च० प्र० १ पाहु०।
वंदित्तए-वन्दितुम्-अव्य० । अभिवादने कतुमित्यर्थ, प्रति० ।
उपा० । स्था० । रा०।
वंदित्तु- वन्दित्वा -श्रभ्य० । ` वदि ` अभिवादनस्तुत्योरित्य-
थद्धयामिधायी धातुः । आश्रा० १ श्रु० १ आ०१५ उ०।
करवस्तुमत्तूण--तुआणाः ॥८। २। १५४६॥ शत कत्वास्था-
न तुम आदशः । खन्दित्त इत्यनुस्वारलापात् | प्रा० । आभि-
वाद्य स्तुत्वा चत्यर्थ, आओघ० | घ०। ' काऊण साभइय, इरि-
श्र पड्क्रिमियः गमणमालाण । वेद्वि सूरिमाई, सञ्भायाव-
स्सय कुणई” ॥१॥ दति श्राद्धदिनकृत्य-- ६३९ गाथायाः कोऽ
ऽथः? दति प्रश्नः, श्रत्रोत्तरम्-गाथाया श्रथ वृत्तौ खुप्रिसि-
द एव, यक्तु प्ृत्रपाठमात्रण सामायिकानन्तरमैर्यापाथिकी प्र-
तिक्रमणं प्रसिभाति तत्र सविस्तगाणयावश्यकचृर्यत्तरा-
णायनुसरशशीयानि यन सशयापनादो भवति, सर्वरमवावध-
पाठानां सन्मूलकत्वादिति ज्ञायत ॥ २२५ ॥ सन० ३ उल्ला ।
वंदित्तसुरा- वन्दि चुत्र-न० । बन्दिुशब्दादिके ध्रावकग्रति-
क्रमणसूतर, ही० १ प्रका० । प्रति० | ( सदालपुत्रकुम्भकार-
क्ृतप्रति्मणसूत्रामिति प्रघोषः । सन्या नवा ? कम्य तवी
सा? इक प्रष्नस्यात्तरम् , 'पडिक्रमण शब्दे पञ्चमभाग ३१७
पृष्ठद्रष्टःयम्।)
वंदिनरवित्ते-बन्दित्तवृन्नि-खी० । | भ्रावकप्नतिक्रमणसज्बुत्तो
सन० । उग्दिन्तवरत्तो ' सखा करखा ` इति गाथाक्रत्तौ एकोना-
शीतिमिथ्यत्वस्थानक्रषु षद्घष्टितमस्थान सर्वमासेषु वा
तासपदच्सा दीनि सवौस्वेकादशीषु उपवासकर्णे कशं मि-
ध्यात्वपर् १३ तं पश्नः , अत्रोत्तरम्--चलुदैश्यष्टमीक्षानपञ्च-
मीषु नियत पोदिनेषु उपवासूमकृत्वा थद्ि सवौस्वेकाद-
शीषु उपकार! करोति तदा मिध्यात्वस्थाने भवतीति ज्ञाय-
त दात ॥ ४५४३ ॥ सन० ३ उक्ना०।
वंदिम-वन्द्य-\ ० । वन्दनीये, * जया य वदिमो होइ, पच्छा
हाद श्रषदिमा। " यदा वन्द्यो भवति श्रमणपर्यायस्था नंर-
न्द्रादीनाम । दश० १ चू ।
वंदिय-वन्दित-त्रि० । शुणस्तुतिकरणज नमनीये, कल्प०
१ आधि० :\ क्षण |
बंफ--काऋ क्ष--धा० । गार्ध्ये, “ काक्वराहाहिलह्वाहिलड़स्सख-
वबच्च--व० +--- मह--7 सह -- त्लुषाः ॥८।४।१६२॥ इ-
ति काः वम्फादशः | शा०। ` ण प्रफज्ञ ” नाभिलष--
त् । खून ? श्र० ६ अ० !
१-श्रनु. १ररखत्वन ` वन्द स्त्यनुवाद.}
( ७७६ )
अशभिधानराजन्द्रः |
4 6
व॑
वित्र -काङ्दवित- त्रि । कवलित, “
सिञ्रं विलुपिच्रं वंफिआ खद्रश्र `` पाइ०
भुक्त, द० ना० ७ वर्ग ३५ गाथा |
घटश कवलिआ अ-
ना० ७७ गाथा।
|
9 ५ = = [> ० | > |
चस-वश-एु० । परम्परयात्पात्तप्रवाह, विश० ¦ श्रा० म० | अ्र- |
क्षा० । ऋमभाविपूवैपुरुपध्रवाह, ने । पुत्रपोत्रादिपरम्परा-
याम् , स्था० १० ठा० ३ उ० । अन्वय, सथ।० । सन्तान,
स्था० ६ ठा० दे उ० | दारवशादक, ज्ञा० र श्र० १६ अ०। |
वेणो, ज्ञा०
राधारभूते, भ० ८श० ६ उ० । महति षष्ठवश, रा० । “ जो-
इ रसमया वंसकवेज्लका य ” जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा०।
वाद्यमदे, न° । । आचा० । प्रश्न“ ।
ना० १४४ गाथा ।
जबुदीवे दीवे भरहरवश्सु वासेस एगमेगाते ओसप्पिणी
उस्सष्पिणीए तओ वंसाओ उप्पजञिसु वा उप्यज्जति वा
उप्पज्जिस्संति वा, त॑ जहा-अरिहंतवंसे, चकवद्टिवंसे, द-
सारवंसे २१, षय ° जाव पुक्खरवरदीवद्धपच्चत्थिमद्ध
२५ । ( सू०-१४३०८ ) स्था ३ ठा० १३०।
वसमक्रिल्लय - वंशक्ररी लक्र- न° ¦ कासर्लााभनववशावयववि-
शष, रा० |
क्ु० ९७ अ० । प्रश्चा० । आ०। आचा० । दत्व |
अद्गडलये वेसाणे अट्टू- |
सय वस्रवायगाण रा० ¦ चरणा, “ वसो वरष्र बलू य ” पाइ०
वेसकवल्लुय - वंश॒कवेन्लुक-न ० । उभयतस्तियैकृस्थाप्यमाने
चश. रा० | जी०।
बसग-व्यसक- पु० । व्येसयति पर व्यामाहयति शकटति- |
तिर ब्राहक्ष्रतवदू यः स व्यसक्रः । दुहतुभ
तथादि-- कश्चिदन्तराललब्धसततित्ति रीयुक्रन शकटन न
स्था० |.
गर प्रविष्टः, उक्का धर्नन., यथा-शकटतित्तिरी कथं लभ्य |
त?,सच किलाय शकटसत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रा-
यादवाचत् तप रारलाडकयति, सकत्वालो डनन जलाद्यालो-
डितसक्रुमिरित्यर्थ:, नता धूक्तेः साक्षिण आहत्य सतित्तिरी
कं शकटं जग्माह,उक्लवांश्र मदीयमतद् , अनेनेव शकर्टातित्ति
रीति दत्तत्वात्, , मया तु शकटसहिता तित्तिरी शकरति-
त्िरीति ग्रदीतत्वादिति, ततो विषणणः शाकटिक इति,झजो-
क्रम- सा सगडतित्तिरी वसगम्मि देउभ्मि होड नायव्वा ?
इति, स चवम्--श्रस्ति जीवो ऽस्ति घट इत्यभ्युपगम जीव- |
घर खार स्तित्वमविशषघण चतेत ततस्तयारेक॑ल्वं प्राप्तमभिन्न-
शब्दविषयन्वादिति व्यंसको देतुः, घटशष्द्रविषयघटस्वरूप-
वत् , श्रथा-ऽस्तित्वे जीवाद न वतत; ततो जीवाद्यभावः |
स्यादस्तिः्वाभ्ावादिति व्यसक प्रतिवादिनो व्यामाहक- |
त्वादिति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । नि० चू० । दृश० ।
साम्प्रभ इयसकमार-
सा सगडतिनिरीवं सगाभ्म हेउम्मि होइ नायष्वा |
श्रमस्य व्याख्या--सा शकटुनित्िसया व्यसकदंतों
भर्वात, शातन्यत्यक्तराश्रः ॥ भावार्थः कथानकाद--
सयः, पगा गामिन्नगो सगड
कड्ठाश भर तण गच्छुतण असरा पगा
सि्सिरी निगद फण सगडस्स उवरि
सच्चद्म-* जहा
गर्द्रर्.
पहा दिद्धा, खा >
ऊगाे नम्रे
| बेसिअ-व्य॑सित--जि० । लिते, श्रनथप्रा्त,ज्ञा०६ ~ |
पक्खिविऊण नयरं पविट्ठो, सो एगेण नयरधुत्तेण पुचदश्चो
कटं सगडतित्तिरी त्लब्भइ ?, तेण गामिल्लएण भद तप्पणा
दुर्यालियाए' लव्भति, तश्चा तण साक्खिण उआहणित्ता
सगडे तित्तिरीण सह गहिये, एत्तिलगो चव किल
पस वंसग्य त्ति, गुरवो भणंति--ततों सो गामेज्नओ दी-
णमणसो अच्छुइ, तत्थ य एगा मूलदेवसारिसा मणुस्सा
आगचछुइ , तण सो दिट्ठो, तण पुल्छिओ कि मियायसि /
अर देवाणुप्पिया ! ?, तेण भणियं-अहमेगेण गाहेण
पगारेण छुलिओ, तेण भणियं-मा वीहिद,, तप्पणा ष
लिय तुमं सोचयारं मग्ग, माइट्टाणं सिक्खाविश्ों, एवं भवड
त्ति भणिऊण तस्स सगासं गओ, भियं च5णेण-मम
जड सगड़ हियं तो में इयारिं तप्पणा दुयालियै सोचयारे
दवावेदि, एवं दोउ त्ति, घरं णीओ महिला संदिद्वा, अले-
कितविभूसिया परमेण विणएण पएञ्मस्स तप्पणा दुयालिय ,
ददि सा वयणसमं उवद्भिया, तश्रा सा सागडिओ भणति । `
मम अंगुली छिन्ना इमा चीरणावढिया ण॒ सक्केमि उडड्या- ¦
लउ, तुमं श्रदुयालिड देहि, अदुआलिया तेण हत्थण ग ¦
हिया गामे तण संपट्टिआ, लायस्स य कहति-जड़ा मए
सतित्तिरिगेण सगडण गहिया तप्पणादुयालिया, ताहे तय
धुत्खसगड़ विसज्जियं, तं च पसापङण भजा णियन्षिया, |
एस पुण लूसओ चष कहाणएयवसेण भणिओ । एस लो-
इरा, लोगुत्तर वि-चरंणकरणानुयोग ङस्खतिभावियस् |`
तस्स तहा वंसगो पउर्ज्ज़ात जहा सम्म पडिवज्जाति | द्
बचाशुआग धुर् कृप्षाण्यणित्यो चोइज्जा, जथ्टः- जति जि-
शपणीप मग्ग श्रल्थि जीवा श्रत्थि घडा, अत्थित्त जीवे
वि. घड वि, दोसु वि अविससण वद्र त्ति, तण अत्थित्त-
सदइतुल्लत्तणण जीवघडाणं एगत्त मवति । अद्द अत्थि भा-
वाश्रा वतिरित्तो जीवा, तण जीवस्स अभावो भवइ तनि पस
क्रिल एद्दहमेत्षो चव वसगा, लूसगण पुण पत्थ इमे उत्तरं
भाखियव्व-जदि जीवघडा अत्थित्त वहति तम्हा तसि-
मगत्ते संभावहि , एवं त सव्वभावाणे पएगत्त भवति ,
कहे ?,. श्रत्थि घड़ो अत्थि पडो श्रन्थि परमाणू , अत्थि
दुपएसिए सेध, एवं सब्वभावेसु अत्थि भावा वह क्ति काडं |.
कि सव्वभावा एगी भवन्तु, एत्थ सीसो भणति-कई षुण ।
पते जाणियव्वं ?, सव्वभावसु आन्यथिभावा वहति, शयत
पमी मवेति । श्रायरिश्रा श्राह--श्रणगताश्रो पतं सिज्कार |
इत्थ दिद्वुंतोा-खइरा बणस्सती,वणस्सई पुण खदिरो,पालासा
वा, एवं जीवो वि णियमा अत्थि, श्रत्थिभ्रावो पुण
व हाज्जश्न्ना वा घम्माघम्मागासादीणे'ति। उक्तो व्यंसक॥
दश० १ आ० ।
वंशक-पुं० | दणड, दरडकाकुदणे, पं० व० ४ द्वार । जं०। ।
वंसप्फाल-देशी-प्रकट ऋजो,चुल्लीमूले,इ०ना०७बर्ग४८गाथा। `
वंसा-वंशा-स्त्री० । शर्कराप्रभायां नरकपृथिन्याम् , ढृतीय- |
(काम [9 - ।
नरकप्र्थियी दि गोत्रेण शर्करप्रभा नाम्ना वेशा । जी० ३ |
प्रति १ झधि० ६ उ०। स्था०।
वसालय- व॑शालय- प° । वैताद्यनगे उत्तरभ्रण्यां खनाम- |
ख्यात नगर. कएप० १ अधि० ७ क्षण | आए चू०।
। वंसीणदिया-वशीनखिका- खी°
( ७७७ )
अभिधानराजेन्द्रः।
वक्लचीरि
_वंसिय
चांशिक पु “ मांसादिष्वनुस्वारे ” ॥८। १। ७० ॥ इति |
आतो5त् । वंशवादनर्शाल, प्रा० १ पाद ।
वंशी-खी० । मुरालिकाख्ये वाद्यभदे, बृ० २
वांशी-सख्री० । वशकरालानष्पन्न सुराभद, बु०
म० | ओ० |
उ०।
ज्ञा० १ श्रु० १८ अ० | न° | आ० चू० ।
कुहरणाख्यवनस्पातभद्
प्रज्ञा० १ पद् |
बंसी पत्तिया वंशी पत्रिका- खी° । वश्या वशजात्याः पत्रक-
मिच या सा वशीपत्रिका | यानिभदे. स्था० ३ ठा० १ उ० । | `, ४ ¢
| वकबंध-वल्कबन्ध-पुं० । शणप्रश्नतिकवल्कलबन्धन, विपा०
( व्याख्या ' जोणि ` शब्दे चतुर्थभागे १६४२ पृष्ठ दशिता । )
वंशीपासाय-वंशीग्रासाद-ऐ० । वंशमहन तदुपलक्षितं प्रासा
|
प्रशापनायाः षष्ठ पदे,व्युत्कान्तिलक्षणाधिका रयुक्नत्वात्तस्य ।
प्रश्ञा० १ पद्। स्था० | भ० |
| वक्तकर वाक्यकर- प° । गुरुनिरदेशकर णशील, “ वाइओ वा-
उ० | आ० |
|
यवे वक्ककरे सपुज्जो" दश० ६ अ० ३ उ०।
वल्ककर-पु० । चम्मकरार, आव० ४ आ० ।
वंसीकलका-वंशीकलङ्खा- खी० । वंशज़ालमय्यां वृक्त्याम् , | बक्गय-वाक्यगत॒-न० । वाक्य बचनरचनात्मनि गते वाक्यः
गतम् । उत्त० पाइ० १ आअ० | वाक्यविषये, उत्त १ आ० |
| बकत्थमेत्तविसय-वाक्यार्थमात्रविषय-पुं०। सकलशाख्थ॒गत-
|
|
|
|
|
|
|
द वंशीप्रासादम् । स्वनामख्यात सन्निवेशे, यतः प्रचलि- |
तस्य ब्रह्मदत्तचक्रिणः समकूटकान्तरवत्तिन्यामरव्यां तृड-
तशय: सजातः । उत्त० १३ ० ।
# ¢ /- न क क क [=
बंशीमुहा-वंशीमुखा-स््ी० । द्वीन्द्रियजीवाविशष, जी० १
अति० । प्रज्ञा०
वचनाविराधिनिर्णीताथ वचने वाक्य तस्यार्थमाच्र प्रमाण
नयाधिगमरहितं तद्विषयस्तद् गोचरो, वाकार्थमात्रविषयः ।
कवलवाक्या्थगोचरे, षा० ११ विव० ।
१ श्र० ८ ०।
वकभय वाक्य भद पु० । मुख्यावशषताद्वयप्रयाजक वाक्य
स्य तनन््त्रणातचृत््या वा काटपत खाडठ्धय, आचा० १ श्रु०
प < उ०।
| चवकमाख- व्युत्क्रामत्ू-त्रि० । उत्पद्यमान, ज्ञा० १ श्ु०।
| वक्रय-वल्कज-न० । शणप्रथ् तक, वर्क जात.श्रा० म०१ झ०।
वंसीमूल वंशीमूल न° । गृहाद् वहिः स्थित अलन्दकादिके , |
बरृ० २ उ० । स्था० । (खन्न व्याख्या 'वसाहि' शब्द् आंस्मन्नव
भागे दृष्ठव्या )
चकुल-वकुल - पु” । केसरे, यः खीमुखसी धुसिक्तो विकस- |
त° । ज० ३ वत्त ।
चकुस-वकुश पुं । शबलचारित्र निग्रन्थे, स्था० ५ ठा० ३
उ० । उत्त० ।
चक्क -व।क्रय-न० 3 वचने, द श० ।
चाक्यनिद्धपाभिधानायाद-
निक्खेवो अ ( उ ) चउको, वक्रे दव्वं तु भासदव्वाई।
भवे भासासदो, तस्स य एगट्टिआ इणमो ॥२६६॥
निक्तपस्तु चतुष्को नामस्थापनाद्रव्यभावन्ल्षणो वाक्य-
चाक्यविषयः, तत्र नामस्थापने छुणणे , ' द्रव्यं ' तृ-द्रव्यवा- |
क्ये पुनक्षशरीभव्यशरीरव्यतिरिक्कं भाषाद्रव्याणि भाषकेण |
गरहीतान्यनुच्चायमाणानि, भाव इति भाववाक्यम् , भाषा- |
शब्दः-भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणा-
नीत्यथः । तस्य तु वाक्यस्य एकर्थिकानि अमूनि वच्य
माणलत्तणानीति गाथाथः ॥ दश० ७ अ० २ उ० । ( तानि
एकार्थिकान ` भाखा ` शब्दे पञ्चमभागे १५२२ पृष्ठ |
गतानि । )
बल्कर- पु० । त्वचि, स्था० १० ठा० ३ उ० | श्राचा० |
चक्र-जि० | कुटिल, श्रा० क०
वकत-व्युत्क्रान्त् -त्रि० । उत्पन्न,कल्प० १ अधि०१ क्षण | ज्ञा०।
| त ~ = न ट
-व्युत्क्रान्ति-स्ली० । उत्पत्तौ, स्थानात्प्राप्तस्योत्पादे,
श्था० ६ ठा० ३ उ० । (निष्कम स्था० !
१६५
१ श्र० | षो० ।
ग्रज्ञा० १ पद् ।
वक्षल-वल्कल-न० । “ सवत्र ल-व--रामचन्द्रे ” ॥ ८। २
७६ ॥ इति लकारस्य लुक् । प्रा० । तस्त्वचि, प्रति० ।
ऋपीखणामुपकरणभदे, भ० १९ श० ६ उ० । सूत्र० ।
“ ताव सरूव विडव्वत्ता वक्कले णियत्था' आ०्म० १ आ० ।
वर्ध, सृत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ०।
वक्रलची रि-वल्कल्चरिण्- पुं०। वल्कले स्थापितत्वाद् वल्क
लचीरीति । खनामख्यात ताप, तं० । | आ० म० | आ० चू८ !
तत्कथानकं चदम्--
श्रणुमूते जटा वक्कलचीरिस्स। का य वक्लचीरी- तग
कालेश तण समयेणं चेपाणयरीए सुहस्मो गण्गा
समोसढो, कोणियो राया वदितुं निजात कतप्पणामो य
जबू ( नाम ) रूवदं सखणाविम्हिता गणहर पुच्छृति-भगवे ! इ-
मीस महदण परिसाए एस सद्धे घतसित्तो व्व वणिहदित्ता
मणाहरसरीरो य कि मक एतेण सीलं सेवित, तवा वा
श्राचिष्ष दाणं वा दिषं, जता प्टरिसी तयसंपत्ती | क्ता
भगवता भणियो-सखुणादहि एये जहा तव पितुणा सेखिएण
रषा पुच्छितेणश सामिणा कटित--तण कालेण तसं
समणएणं गुणसिलषए चेतिए सामी समोसरितो , सेणिआा
राया तित्थगरदंसणसमुस्सुओ वंदड णिज्वाइ, तस्स ५
अग्यगाणीए दुव पुरिखा कुद्धेबसंबद्ध कदं करेमाणा पस्स-
ति एगे साधु पगच्रलणपरिद्टतं समूसावियवबाहुजुयल
आतावेतं, नत्थक्रण भितं, अदा एस महपण्पा रिसी
सूराभिमुद्धा तप्पतिः एतस्स सग्गा मोक्खो वा हत्थग-
ता त्ति । बितिएण प्चभिरखणाञ्रा । तला भणति--कि ण
याणसि एस राया पसरणचदा । कतो यस्स धम्मा
पुत्ता5णण चालो रज्ञ ठवितासा य मतीदि रल्नाश्रोमा-
इज्जति | सो5णण वसा विशणासिओं ! अतेउरजणों चि ण
शज्गति कि परार्विहिलि । ते ख से घयणं काणवाघातने
( ७७८ )
खआामसधानराजन्द्र; |
वकलचार
वक्कलचार
करमाणं खुतिपहमुवगत, तता सा चितितु पयत्तो अ-
हारत्ते, अणज्ञा त अमच्चा मया समाणिया निच्चे, पुत्त-
स्समे वि पडिवरणा जदि हं होतो एवं च वहत ता णसु
नासित करेलामि । एवं च से सक्रप्पयतस्स तस्स
ते कारणो वष्ठमाणमिव जाते । तदि य समं जुडजाण
मणसा चव काडउमारद्धा । पत्ता य सणिआ राया तं
पदस, वंदितो 5णण विणएण पच्छति -। ण॒ भाणनिच्च-
लते अहो अच्छुरीरं तं परिस तवस्सिसामत्थ रायरिसि-
णा पसन्नचदस्स त्ति चिन्तयता पत्ता तित्थगरसमीव, व-
दिन्ना विणएण पुच्छति-भगव ! पसरणचंदा अणगा-
रा जम्मि समप ता वदिश्रा जदि तम्मि समए काले कर-
ज्ञकरास्र गती भवज्ञा ?, भगवता भणितं--सत्तमपुढविग-
मणजोग्गा ततो चितति, साधुणा कहं नरकगमणं ति । |
पुणा पुच्छुति-भगव ! पसन्नचदा जइ इद्ाण काल कर
ज के गति वद्च्ञात ?
ररणा नि ? नरगाऽमरखु नवस्सिणा क्षि भगवता भणि-
त-भाणविससण् । तम्मि य इमम्मि समप परि सितस्स अ-
सातसातकम्मादाणता । सा भणति--क्रदं ? भगवता
भरितं । तव॒ अग्गाणीतपुरिसमुहनिग्गते पुत्तपरिभव-
वयण सोतूण उज्मितपसत्थभाणा तुम वदिज्माणो
मणसा जुज्मति तिव्वे पराणीएण समे । तओ सो तम्मि
समए अहरगतिजाग्गा आसि, तुमम्मि य उचगतज(तकर-
रसतन्ति सीसावरणण पहरामि परं तिलाइत सीख हत्थे |
निकिखवन्ता पडडवुद्धा , , अहा कज कजे पयदहितृण प-
रन्थ जदि जणविरूद्ध मग्गमवतिणणो त्ति चितितूण निद-
णगरहरां करता मम परमितुण तल्थ गतो चव ्रालोदय-
पडिक्ता पसत्थभाणी संपतंत वप्णण कम्म खवितं अखु-
भ, परणमग्जिनं, तण कालविभागण दुविदगतिनिदेसा ।
लता कोशणिओ पच्छुति--कह वा भगवं ! वाले कुमारं टव-
त्त पसरणचन्दा राया पव्वइता , सानुमिच्छं । तता भण-
ति-पोतणपुरे णगरे सामचन्दा राया; तस्स धारिणी देवी,
सा कदाइ तस्स ररणा श्रालायणगनस्स केसे रपति पलि- |
ते दट हरं भणाति-सामि दूतो श्रागतो त्ति, रण्णो दिद्ठी
[न
वितारिया ण॒ य परस्सति अपुव्वजणे , तता भणति--
दिवि दिव्वं त चक्खुती य पलिय दंशितं घम्मदूतों एसो
त्ति,तं च॒ ददढ़ण दुम्मणसिता राया । तं नाऊण देवी
भणति-लजद वुद्धभावण निवारिज्ञही जिणो, तता भ
ति दवी--न प्व, कुमारो वाला श्रसमन्थो पयालण
होज्जति . म मण् जात पच्वपुरिसाणुचिर्णण मग्गण ग-
ता5ह ति न निवारितु मे पसन्नचदं
घलुसु लि । स खिच्छत्ता गमणे । तता पुत्तस्स रज्ञ
दाऊण धानिदेविसदिता दिला पक्खिय भावसत्ताए
दिफिखितो, चिरखुएण आसमपदे ठिता देवीए पुव्वाह-
ना गइब्भो परिवहति । पसणणचंदस्स य चारपुरिसांह
निवदितो । पृरखसमण् सूता कुमारे वक्कलेखु ठवितों
त्ति वक्कलचीरि त्ति । दवी विसूइया रागण मला , वणम
हिसीदुद्धेण य कुमारो वड्डाविज्ञति धाती ति थावेण का-
लंण कालगता किंदणण बदति रिसी वक्रलचीर प-
भगवता भणित-सव्वट्रसिद्धिगम- |
रजाग्गो इद्ाणि ति। तता भणति-कहं इमे दुवि वा-
सा रक्गवमाणा अ- |
~~
रिवड्डितो य लिहिऊरण दंसिता चित्तकारहि पसन्नचंदस्स ।
तेण शखिणेहेश गाणिका दारियाआ रूवास्सिणी खंडमय-
विविहफलेहि णे लेभद्दि जि। पच्छा वि ताओ णं फलांह
मधुरि य वयणहि य खुकुमालपीरणुणणतघणसेपीलसाहहि
य॒ लोर्भात्त, सो कतमसमवाता गमण जाव अतिगतो
सभेडग सटवतु ताव स्क्खारूढटि च।रपुररूदि तासि स-
षा दिष्ा रिखी आगतो ति ताश्या उत्तमवर्कताओ सा ता-
सि वाधिमखुसजमाखा ताओआ अपस्समाणा अष्ठता गता,
सो अडवीए परिभमता रहगते पुरस दट्ठूण तात ! अभि-
द्यामि त्ति भणंतों रहिणा पुच्छिता, कुमार ! कल्थ गे-
व्वे ? सा भणति-पोतरणं नाम आसमपदे तस्स य पुरिस-
स्स तत्थेव च गतत्वे । तेण समय वच्चमाणा रथिरा भणि-
ते तात त्ति आ्आलवति तीए भणिता कामा उवयारा, र-
धिणा भणित सुदरि ! इत्थिविर दिते रण एस आसमपदे व-
ड्विता ण याणति विससे,न से कुप्पतिव्वे, कुमारा य भणति-
कि इम मग्गे वाहिज्जति ? तता राथिणा भणित.कुमार ! एत
एतम्मिए चव कज्जंति । तं एत्थ दोसा तेख वि से मोदगा
दिष्षा। सो भणति--पायणसमवासीहिं म कुमारदि एता-
रिसा चव फलाणि दत्तपुञ्वाण त्ति। वश्चेताण य स एक्क
चारण सह जुद्ध जाते । राधा गादप्पहारो कतो सिकखा-
गुणपार्तासश्रो भणति- अत्थि विउले धणे तं गएहखु सू-
र त्ति । तदहि तीहि वि जाहि रहा भारता कमण पत्ता पा-
तर, मोन्न गहाय विसज्िता उदये मग्गसु क्षि | सो भमता
गणियाघरे गतो, अभिवादय दह इमेण मुज्नलण उदये ति।
गणियाप भिश्रा-दिज्ति निविस त्त.तीपए कासवच्रा सदा-
विश्रो,ततो अणिच्छुतस्स कत णह परिकम्म। | अवणीयवकला
य वत्थाभरणविभूसितो गणिया दारिया य पाणि गादितो
रहविता य, मा म रि सिस अवशहि त्ति जपमाणोा ताहि
भणता- ज उदगव्थी इदहमागच्छति तमि प्परिसा उवयायो
कीर त्ति । । ताओ उबगणियाओ उवगायमाणीश्रो बधरवर
चिट्ठुति । जो य कुमार्वलाभणनिमित्तं रिसिवेसो जणा पे-
सितो सा आगता कटति, ररणा कुमारों अडावि अतिगता
अम्टदि रिसिस्स भणण तता णो सद्दाविओ, तता राया वि-
सप्षमानसों भणति-अहो अकये न य पितुसमीव जातो,
य इह नाणज्जति, कि पत्ता दाटिति त्ति चिंतापरो अच्छात
खुणाति य समुरतिगसणणो सद्दावआ । तता राया वसर्ख-
मानसा भणति-अहो अकय दत्त च संखुतिपवहमाणं
भणति-मत दस्खित को मरण सहता गधव्वण रमात
त्ति । गणियाएण अहितेण ज्ञाणए कात । सा आगता पाद्-
{डता राय पसन्नचदं विज्नवाति | देव ! नामत्तसदसा दज्ञा
ताव सरूवा तख्णो एग मागच्छजा | तस्स म व दार्यं
ज्जासि सा--उत्तमपरिसा । त सांसत्ता वउलसाक्ख-
भागिणी होहित्ति क्ति। सो य जहा भणिओ णमित्तिणा
रज ! मे गिहमागतों । त च सदस पमाणे कारता पदत्ता
स मया दारिया, तन्निमित्ते उस्सवो नयाणं कुमारं पण
पच्छ म म अवराह मरिसिह्दि त्ति, ररणा सददध मणुस्सा ।
जाह आसम दिद्पुव्यो कुमारा ताह पर गताद् पच्चाभयाणः
उ निवेदित च पिय ररणा परमपीतिम॒वगतण य वधूस-
दितो समीवसुवबणीश्रा । सरिसक्लरूवा जाव्वणगुणाण य
रायकण्णयाण य पारणि गाहितो, कतरज्ज सांवभागो य
भ) = तो ~) -- नी नै १
[ि) क क +यक-
+ न. > न
किय
+ नौ)
कलचीरि
जहासुहमभणिग्गइराहिओ य चारदत्तं दव्व॑ विक्किणेता राय-
पुरिसहिं चारा त्ति गदिता चारिणा मोइतो . पसरणणचंद-
विदितं | सोमचेदो वि आसन कुमारं अपस्समाणा सोग-
सागरावगाढा पसन्नचंदस्सपेसितहि पुरिसाहे नगरगतव-
कलचीरिं निवेदितेदि कटि वि संठवितो पुत्तमणुसंभरंतो
अंधो जाता, रिसीहि साणुकम्पहिं कतफलसंविभागो त-
, तथव श्रासम निवसति | गतेखु य वारसखु वासखु कुमारा
| _ अद्धरत्ते पडिविवुद्धा पितरं चिंतितुमारद्धो, किह मरणे ना-
| सोमया खिग्धिणण मताणि विरहितो श्रच्छति त्ति पितु-
। दंसणसमुस्खुगो पसन्नचेदसमीवं गेतृण विरणवति । दव !
। विसज्जेह मे उक्कठितों हं तातस्स। तण भणिता समय
चच्चामो गता य य आसमपदं निवदिते च रिसिणा पसराण-
चदा पणमति त्ति चलणावगतो य णण पाणिणा परामुद्ठो
पत्त ! निरामयोऽस्ि त्ति वक्रलचीरी पणा अवदासिश्नो
ने दो वि जणा परमतुद्धा पच्छृति य सव्वगत काले ।
तातस्स तावसभेडयं अणुवेक्खिज्ञमाणं केरिसे जातं ति ।
| तं च उत्तरिये तण पडिलेहिउमारद्ध जति वि च पत्त पायं
केसपरियाप । कत्थ मस्र मया परिस करण कतपुव्वं ति
। विधिमसपुसरतस्स तदावरणक्खएण पुठ्वजातिस्सरण जातं।
खमरती य देवमाणुस्तलमव य सामष्म पुरा कत संभरि-
ज्कभमाणपार णामा य ववरातयसखुक्रञ्जाणश्रूाममातक्रता नद
माहावरणविग्घो कवली जाता य परिकहिता घम्मा जिण-
। प्परशीता पितुणो पसन्नचदस्सय ररणा, तदा वि लद्धस- |
र व € | वक्ंग- व्याख्याङ्ग न°
चरकालघ्रारय च स्वाह तस्स उामन्नाण णयणारण पस्स |
चक्रलचीरी वि कुमारो श्रतिगतो उदयं पस्सामि ताव |
|
| तूण वरग्गमग्ग समात्तराणा धम्मफाणण तचसयाताताव्व- |
। म्प्रत्ता पणता सिरेहि कवलिणो सुद्ध भे दंसितो मग्गोत्ति |
। बकलचीरी पत्तयवुद्धा गतो , पितर गहतृण महावीरवद्ध-
माणसामणो पासे पसन्नचदा नियकपुरे गता.जिणा य भगवं
। समणा विहरमाणो पातणपुर मणारमे उज्जाण समासरिता
पसन्नचदा वकलचीरिवयणजणितवरग्गा परममणदरति-
त्थगरभासितमतिवड्तुच्छाहा वाल पत्त रज्ञ ठविऊ-
श॒ पव्वइता, अधिगतसुत्तत्था तवसेजमभावितमती मगह-
पुरमागता | तत्थ य सेणिएण सादरं वदिता आताबंतो
तिजञोरगे त॒ काणफ्ववर्य
पसरणच्दस्स वरणात । ताव
। एण ररणा । किणिणमित्तो एस दवसपादा त्ति । सामिणा
दवा उचागत- त्त । तता पुच्छात । पय महाणुभाव कवल-
विज्जुमाला दवा चरउ॒हि दवादे सहिता वदितुमुवगतौ उज्जो
वेता दस दिसाओ | सो दंसिआओ भगवता । एवमादि जहा
5सुदवाहर्डाए” एत्थ पुण वक्कलचीरिणा अहिगारो | आ०
चू० १ अ० | आ० क० | आ० म०।
पकलवास-वल्कलवासस्-पुं० । वल्कलवासासि वानप्रस्थ,
नि० १ श्रु० ३ वर्म ४ आ० | भ० |
वक्कप॒ वक्रम-न० ।
ष्पीडितरते तुते, उत्त० ८ अ०।
॥
एवे तिक्खाता जाव भगवे नरगाऽमरगतीखु उक्कासट्ठि-- |
यदवा ताम्म पदसर उबद्विता, पृच्छितो य अरहा सणि- |
भणितं पसराणचदस्स अणगारंस्स णाणुप्पत्ती दा सिता |
नाण कत्थ मर्ण वाच्छिज्जहिति त समये बभमिदसमाणा |
मुद्माषादिनखिकानिप्पन्न अतिनि-
( ७७६ )
अआशिधानराजरन
चक््ग्वाण
वाक्यशुद्धि-स््रीॉ० । सयमशाद्धानामत्त वाक्याक्ता,
वक्रसुद्ध्
दश०।
जं वर्क वयमाणस्स, सजमो सुज्कर न पुण हिंसा |
न य अत्तकलुमभावो, तण इहं वकसुद्धि ति ॥२८८॥
यद्-यस्माद्वाक्ये शुद्धे वदतः सतः संयमः शुद्धश्चति, शुद्ध थ-
तीति निमल उपजायत, न पुनर्दिंसा भवति काशिकादरिव न-
चात्मनः कलुषभाव. कालुष्यं दु्टाभिसोंधरूपे संजायत, तन
कारणन इह -प्रवचन वाक्यशुद्धिः भावशुद्धनिमित्तमित्यताः
त्र प्रयतितव्यमिति गाथाः । दश० ७ आ० २ उ०।
वक्व व्याघ्र-पृ० प्राक्त व्याघ्रशब्दस्य वग्घः | “` चूलिका
पेशाचिके तृतीयतु्ययोरायष्वितीयौ ” ॥ ८। ४। ३८५॥ इति
घस्य खः । आटब्यजन्तुविशषे, प्रा० ४ पाद् |
गोणव्याख्यारूप अध्याहारादो-
अध्याहारो विपरिणामा व्यवहितकल्पना गुणकल्पना लक्ष-
णा वाक्यभदश्चति । श्राचा० १ श्रु० १ अ० ४ उ०।
वक्खा-व्याख्या-स्त्रा० । व्याख्यान, उत्त० १ अ०। स्था०।
वक्खाण-व्माख्यान्-न०।व-च्राङ््-ख्या-ल्युद् । यकारलापः।
“ द्वितीयतुयैयारूपरि पूवैः” ॥ ८। २। ६० ॥ इति खकारार्पर
ककारः प्रा० । अनुयोगे, विधिप्रातिषधाभ्यामर्थप्ररूपण,
विशे० । आ० च्ु० । ( श्रस्य निक्तपेकाथनिसक्रविधिप्रवृत्ति-
प्रभरतिद्धरः प्ररूपणा 'अरणुच्राग' शब्द प्रथमभाग ३४१ पृष्ठ-
5कारि )
गवाद्युदाहरणान्याश्रित्य व्याख्यानविधिमाह--
गोणी चंदण कंथा, चेडीओ सावए बहिरगोदोहें ।
टंकणओ ववहारो, पडिवक्खे आयरिय-सीसे॥।१४२४॥
आचार्यशिष्ययोयोग्यायाग्यविचार-गोणी-गोस्तदुदाहर -
रो वक्तव्यम् । तथा .--वन्दनकन्थानिदशनम् । तथा--
चस्य -जी्णाभिनवश्रषटिपुचिक, तद्द॒ृष्टान्तो वाच्यः ।
तथा--श्रावकादाहरणभ् । तथा--बधिरगादोहनिदर्शनम ।
था-टक्डूणकव्यवहारः षष्ठमुदाहरणम् | एतपु षट्स्वप्युदाह-
रणपु-शिष्याचार्ययाः साक्तादयाग्यत्वमभिघधाय ततः प्रतिपत्त
याग्यत्वं याजनीयम् । अथवा--एपां षराणामप्युदाहरणानां
मध्य याग्याऽयाग्ययाविकरपनकमुदादरणमाचा्यस्य , पक.
तु शिष्यस्य , इत्यव याजनीयम् ॥ इति नियुक्ति
गाधासत्तपाश्ः ॥ १४३४ ॥ विश० । “ संहिता च पदं
चव , पदाथः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थाने, व्या-
ख्याया लक्षणानि पद् ॥ १ ॥ "` अनु० ।
व्याख्यालक्षणमाह
संहिया य पयं चव, पयत्था पयविग्गहो ।
चालणा य पसिद्धी य, छविवहं विद्धि लक्वणं।।२०४॥
संहिता १. प्रदम् २ , पदाथः ३, पदविप्रहः४, चा--
लना ५, प्रसिद्धिश्च, एवं पड्िधम्-परट्प्रकारं व्याख्या-
लक्षण विद्धि-जानीहि ।
तत्र संहितति को5थ इत्याह--
सन्निकरिसो परा होड, संहिया संहिया व जं अत्था।
लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धृमकेउ त्ति ॥३०५॥
( ७८० )
वकग्वाण
अआमिधानराजन्द्र: |
कक्म्वाणं
यो दयोचेहनां वा पदानां परः--अस्खलितादिगुणोपेतो
विविक्लाक्षरों कटिति मेधाविनामथप्रदायी सन्निकषेः-सम्प-
केः संहिता, एषा सिता सा द्विधा--लोकिकी, लोको-
त्तरा च । तत्र लोकिकी-यथा धूमकेतुरिति, यथा इति प-
दम् , धूम इति पदम् , केतुरिति पदम् ।
तिपयं जह श्रोवम्मे, भरूमऽभिभवे ` केउउस्सए अत्थो ।
कोऽसु त्ति अग्गि उत्त, कैलक्वणो ददणपयणाई ।२३०६।
यथा धूमकेतुरिति संहिता । तत्र त्रिपदम् , सम्प्रति पदा- |
थ उच्यत--यथत्यापम्य, घूम इति अभिभव * धू ` विधूनन
इति वचनात् , केतुरित्युच्च्छये पष पदाथः । धूमः कतुरस्य-
ति धूमकेतुरिति पदविग्रहः । कोऽसाविति चत्-च्र्निः, ए-
वम॒क्ल पुनराह-स किलक्तणः ? स्दारराह--दहनपचनाद्ः--
दाहनपाचनप्रकाशनसमथों ऽचिष्मान् ।
अज चालनां प्रत्यवस्थान चा55ह-
जई एव सुत्तसोवी-रगाई वी होति अग्गमक्खवो ।
न वि ते अग्गि पहन्ना,कसिणग्गिगुण जिओ हेऊ ३०७
दितो घडगारो, न वि ज उक्खवणाइतक्रारी ।
जम्दा जहुत्तहेउ-समज्निओ निगमणं अग्गी ॥ ३००॥ |
यदि नाम-द्हनपचनादिस्तर्िं शुङ्किसोवीरकादयोऽपि दह
न्ति, करीषादयोऽपि पचन्ति, स्ष्यातमणिप्रभतयोऽपि प्र-
काशयन्ति ततस्त ऽप्यस्चि प वितुमईन्ति एष आक्तेपः-चालना ।
अजत्र प्रत्यवस्थानमाह-नेव शुक्त्यादयोऽस्रिभवन्तीति प्रति-
ज्ञा, रत्स्नगुणलमन्वितत्वादिति हतुः, दष्ान्तो घटकारः । |
यथाहि--घटकता म्॒त्पिएडद्रड्चऋसत्रादेकप्रयत्नहेतुकस्य
श्रटस्य का्स्नेनाभिनिर्वर्तकाभिनिद्रत्तस्य चोत्त्पणोद्-
इनसमर्थो यथा 5न््ये परुषाः, नच ये घरस्योत्त्पणादय-
कारी घट स्याभिनिर्वत्तक पवमत्राऽपि । यो दहति प-
चति प्रकाशयति चः; यथा-सख्गतन लत्तणन साधारण
स एव यथाक्कदतुसमन्धितः परिपूर्णो ऽन शुकत्यादय इति
निगमनम् ।
सम्प्रति लाकोत्तरे सदहितादीनि दशेयति--
उत्तरिएँ जह दुमा, तहत्थ हेऊ अविग्गहा चव |
को पुण दुम् तत्त वृत्ता, भष्पद् पत्ताइउब्रओ । २०६ ॥
लोकोत्तरे- ' जहा दुमस्स पुप्फखु भमरो श्रावियड रसे'इति।
सिता । अब पर्दानि--यथा इति, दम इति, पुरप्पाप्वाति
श्रमर इत्ति, श्रापिवतीति,रसमिति । श्रघुना पदाथ उच्यत-
ति-श्रौपम्य, द्र गतौ, द्रवति गछति अध उपरि च~ |
तिद्रमः, श्नौणादिको मक॒प्रत्ययः, तस्य द्रूमस्य, पुष्प विक-
सन, पुष्पन्ति-विकसन्तःति पुष्पाणि अचू तषु, भ्रम
अनवस्थान श्राम्यति निरन्तरमिति भ्रमरः श्रोणादिकोऽर
प्रत्ययः. पा पान आङ् मर्यादायामभिविधों या, तस्य
तिपि श्रापिवतीति रूपम् , रस श्राखादन, रस्यते श्राखाद्य-
न॒ इति रसः कर्मणयोणादिकोऽकारप्रत्यैयस्तम् , श्रत्र
-यस्तपदत्वाद्विग्रदाभावः । तथा चाह--' तदलत्थदेऊ अ-
विग्गहो चव ` तषां पदानामथस्य दतुरविग्रह एव, न वि-
हद्वारणात्र पदार्थ इत्यथः, श्त्र चालना । नोदक आह-क
कीटगलक्षणा द्रम उक्तः, सूरिराह भर्यत--पत्राद्युपतः-
पत्रपुष्पफलादिसमन्वितः । उक्ल च--“ पत्रपुष्पफलापता,
मूलस्कन्धसमन्वितः । एप वृक्ष इति ज्ञयो , विपरीतस्त-
तान्यथा ॥ १॥ ” है
तदभावेन--
तदभावे न दुम त्ति य, तदभावे वि स दुम त्ति य पइन्ना |
तग्गुणलद्धी हेऽ, दिदतो होई रहकारो ॥३१०॥
यदि पत्राद्युपेता दुमस्तर्हिं तदा परिशटितपारड़पत्रा-
दिदुमो भवति, तदा तस्या$ढमत्वे प्राप्नोति, पषा चा-
लना । अत्र पव्यवस्थानम्--तदभावभऽपि स दम इति
प्रतिज्ञा, तद् गुणलन्धित्वादिति हतुः, दृष्टान्ता रथकारः, य~
थाहि--रथकारघ्य रथकरणे प्रयत्नमकुवौणस्यापि रथ-
कतृत्वे तद् गुणलब्धित्वात् : एब परिशटितपारड़पत्रस्यापि
द्रमस्य तद् गुणलब्धेरनिच्रत्तःवादव्याहतं द्रमत्वमिति ।
सम्प्रति मतान्तरेणान्यथा व्याख्यालक्षणमाह--
सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्खवो य निन्नयपसिद्धी ।
पंच विगप्पा एए, दो सुत्त तिनि अत्थम्मि ॥३११॥
प्रथमताऽस्खलितादिगुणापेत सूत्रम॒च्चारणीयम् , ततः
पदम्-पदच्छंदो विधयः , तदनन्तरं पदाथः कथनीयः,
ततः पद् नित्तपः-पदाथनादना , तदनन्तरं निर्णयप्रसि-
द्विः-निणयविधानम् , पदनिग्रहः पदार्थ ऽन्तभूतः । एवमत
पञ्च विकल्पाः व्याख्यायां भवन्ति । अत्र-सूत्रम् पदमिति
दधौ विकरपौ सूत्रे प्रविष्ठो अयः-- पदाथाः तदात्तपनि
यः प्रालद्धघात्मकः अथ इ।त । बृ० १ उ० १ प्रक० |
अथ पदस्य कि परिमाणबत आह--
अत्थवसा हवइ पय, अत्था शच्छयवेसण विज्नेओं ।
इच्छा य पकरणवसा, पगरणओ निच्छआओ समत्थे ॥
यत्रार्थोपलन्धिस्तन्पदमतोा ऽथवशाद्धवति पदम् , अअधस्य
कि प्रमाणमत आह--अशथे इप्सितवशेन विज्ञेयः, इच्छा-
याः कि प्रमाणमत आह--इच्छा च प्रकरणवशात्-प्रकार-
णानुरोधत इच्छायाः प्रमाणम् , प्रकरणस्य च निश्चयः शा-
खे-शाख्नान्ुसारतः । गतं लच्तणद्धारम् । छृ० २ उ० १ प्रक० |
नामस्थापनाद्रव्यभावेरपि व्याख्या भवति। तथा चाह--
« संहितादि्यतो व्याख्या-विधिः सर्वत्र दश्यते ।
नामांदेविधिना5>रब्धुं, न व्याख्या युज्यत ततः ॥१॥
इत्याहुरपि भाव्येव , स्याद्भाद् वादिनाऽपरे ।
यत्तदत्र निराकार्य--माचजक्षाणेन तद्धिधिम् ॥ २॥
स्याद्स्तीव्यादिको वादः , स्याद्वाद इति गीयते ।
नयौ न च विमुच्यायं , द्रम्यपयौयवादिनौ ॥ ३॥
श्रतश्चेतद् दयोपेत , स्वे मते समुदाहृतम् ।
सञ्जाततच्चसविद्धिः, स्याद्वादः परमेश्वरः ॥४॥
ते हि ती्थविधो सव्वं , मातृकाख्य पदत्रयम् ।
उत्पक्तिविगमध्रोव्य-ख्यापकं संप्रघकच्तत ॥ ५॥
उत्पक्तिविगमावत्र , मतं पर्यायवादिनः ।
द्रव्या थिकस्य तु भरौव्ये , मातृकाख्यपदज्ये ॥ ६ ॥
द्रव्यत्वमन्वयित्वेन, खदा यद्धद्धटादिषु ।
तद्धदशान्वयित्वेन , नामस्थापनयोरापि ॥ ७ ॥
अन्वयित्वं तु सब्वंत्न , सज्लेतान्नास्न उच्यते ।
स्थापनायाश्च तद्रूप--क्रियातो बुद्धिता 5पि वा ॥ ८॥
| विग्नहभाजि तषु विग्रह उपदशर्नायः | विग्रहीत च सूत्रतो5 |
( ७८१ )
अ।भधानराजन्द्र: |
चकक्ग्वाण
तन्नामस्था पनाद्रव्य- नित्तेपेरनुवत्तितः ।
दरव्यार्थैकनयो भाव-निक्तेपादितरः पुनः ॥ ६ ॥
तथा च महामतिः-
तित्थयरवयणसेगह-विवेगपत्थारमृलवागरणी ।
दृब्बद्ठिआ वि पञ्जव-नञ्ना य ससा वियप्पांख ॥ ६० ॥
तथा--
नाभ ठवणा दविय-- त्ति एस दव्वद्धियस्स निक्खवो ।
भाव त्ति पज्वाद्रय--परूवणा एस परमल्था ॥ १६ ॥
यद्वा किन्नः किलेताभ्यां, कित्वष विधिराध्चितः।
यद्ञ्याख्या वस्तुतत्त्वस्य, वाध्रायव विधीयत ॥ ६२ ॥
तच्च नामादिरूपण, चतृरूपे व्यर्वास्थतम ।
नामाद्यकान्तवादाना--मयुत्वन सस्थितः ॥ १३ ॥ उत्त
पाई० ९ ० । नयाः व्याख्यानाङ्गानि--** एेन्दवीव विमला
| कला ऽनिश. भव्यकरवविकाशनाद्यता । तन्वता नयाववक-
॥ नयो० । ( अत्र
आरती भारती ज्यात विश्वरवादिनः ` ॥
चश्षः खसय शब्द चतुथभाग १८५२ पृष्ठ गतः । )
सूत्र वग्रह्दत5था ठ्याख्ययः-
सेवधो दरिसिजई, उस्सुत्तो खलु न विज्ञते अत्थो |
उच्चारित लिष्पपद, विग्गहिए चव अत्थो उ ॥ ६४ ॥
सत्र उच्चारित सति सम्बन्धाऽनन्तरसूत्रादिभिः सह् |
दश्यते , , यतः--संवन्धो ऽतो भवति वरणानां खतः सवन्धा-
| भावात् | स चाः खल् उत्सूत्रः-सूत्ररहितों न विद्यत, स- |
चन्घ चापदित, उच्चारितसूत्रस्य दिन्नानि पदानि कत्त- |
व्यानि, पदच्छृदा विधातव्य इत्यथः । तता यानि पदानि
शो व्याख्ययः । व्य० ५ उ०।
गुरुणा यथा व्याख्यातव्य तदाह--
सुत्तत्थो खलु पदमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ । |
तडा य निरवसेसो,एस विही हाई अणुओगे ॥५६६॥
सूत्रस्याऽथों यत्रासो सूत्राथः | खलुरवधारण । ततश्च
सूत्रा्थ एब-सूत्रा थेमात्रप्रातिपादनपर एव प्रथमः--प्रथमचा-
रायामनुयोगो गुरुणा कत्तेव्यः , छ्वितीयस्तु--द्धितीयवा- |
रायां सतरस्पशकनिरयुक्रिमिश्रक कक्तेव्यतया भणित
स्ती्धक्रगणध्यरेः । तृतीयस्तु-तृतीयवारायां प्रसक्लानुप्र-
रूक्कमप्युच्यत यस्मिन् स पबलच्षणा निरवश्षषा भितः ।
एप उक्रलत्तणा विधानं--विधिभयति | क ? इत्याह, सूरस्य
निज्ञनांभधयन साद्धमनुकूलो यागो ऽनुखामः खज स्याथो-
न्वाख्यानमित्यथः तस्मिन्ननुयाग--श्रनुयोगविषय इति
नि्युक्रिगाथाथः । विश । उक्नकलक्षणो विधिभवत्यन॒ुयो-
गन्याख्यायाम् , आाह पारानष्ठा सप्तम इत्युक्रम् , वयश्चा- |
चुयायश्रकारास्तदेव कथम् ? उच्यत-त्रयाणामनुयोगप्रकारा-
शामन्यतमन केनचिल् श्रकारेण भूयो भूया भाव्यमानन स-
पवार श्रक्ल कायल तत्ते न कथ्चिदटाषः, श्रथवा-कचिन्मन्द-
मतिविनेकमधिकृत्य तदुक्तं द्र्न्यम् , न पुनरेष एवं सर्वे-
श्रवरखविधिनियमः, उद्धारततजञ्ज्ञाचनयानां सक्चश्रवणत
० ।
र कृते प्रसङ्गन । | आ० म०६
यथा व्याख्यानयितव्य तथाह--
। (नि
अह वक्खाशो्यव्यं,
१६५
जहा जहा तस्स अवबगमा हाइ |
आगमिअमागमेणं, जुत्तीगम्पं तु जुर्ताएं ॥ ६६१ ॥
इथ व्याख्यानायितब्य किम्पि श्रत कर्थामत्याह--
यथा यथाश्रातुरवगमा भवति पारज्ञत्य्थः, तत्राप स्थिति-
माह-आगमिकं वस्त्वागमन, यथा-स्वगऽ्सरसः, उत्तराः
कुरव इत्यादि, युङ्किगम्य पुनर्थुकत्येव, यथा-वहमात्र्पारणा-
म्यात्मव्यादीति गाथां
किमित्यतदेवमित्याह--
जम्हा उ दोणह वि इहे, भणिअ पन्नवगकहणमभावाणे ।
लक्खणमणघमए हिं, पुव्वायरिएहि आगमता।६६२॥
यस्माद् दयोरप्यत्र--प्रवचचन भणिते प्रज्ञापककथनभाव-
याः पदार्थयारित्यर्थः, लक्षणे-स्वरूपम् , के रित्याह-अनघम-
तेः-अवदातचुद्धिभिः पूर्वाचार्यः, कुत इत्याइ-आगमाजन्न तु
स्वमनीपिक्रयेवति गाथाथः।
कि भृत तदित्याह--
जो हेउँवाओ पक्ख-म्मि हहओ आगंम अ आगमिओ |
सो समयपप्मयओ, सिद्धंत विराहओ अन्नो ॥ ६६३ ॥
यो देतवादः पत्त य॒ुक्तिगमस्ये वस्तुनि हतुका-हतुना चरति
आगम चागमिका न त्रापि मतिमाहनीं युक्किमाद। * स
पएवेमूतः स्वसमयप्रज्ञापका भरवदनुमतः, सिद्धान्तविरा-
चक्रा ऽन्यः तल्लाघ्रवापादनादिति गाथाः।
आगणागिज्को अत्थो, आणाए चव सो कहेयव्वो |
द्ठातआाददुता, कहणावाहाबराहणा इहरा ॥ € € ४॥
द्माज्ञाग्राह्या ऽश्ः--आगमग्राह्यः आज्ययवासों कथयितव्यः
आगमनेवत्यर्थ: | दाष्टीन्तिका ` दृष्टान्तात् दृष्टान्तेन कथन-
विधिरेष सूत्रार्थ चिरधनवरथा कथननास्यति गाथार्थः।
तो आगमहउगभं, सुअम्मि तह गोरं जणंतणं |
उत्तमनिदंसणजुअं, विचित्तणयगन्भसारं च | ६६५॥
तत्तस्मादागमदतुंशत--यथाविषयमुभयापयागन व्याख्या-
नं कन्यामिति यागः श्रुते, तथा गौरव जनयता--न यथा
तथाभिधानं न हयवुद्धि कुर्वता, तथा उत्तमनिदशनयुतम्
अहोनोदाहरणवत् , तथा विच्ित्रनयगभसार च निश्चयाद्यन
कनयार्थप्रधानामिति याथा ।
भगवंते सव्व, तप्पचय-का रिगंभ। रसारभणिईहिं ।
संवेगकरं निञ्रमा, वक्खाणं होइ कायव्वे ॥ ६६६ ॥
भगवति--सवेज्ञ ततूप्रत्ययकारिता--सर्वज्ञ एबमाहेत्येव-
गम्भी रसारभणितिभिः न तुच्छग्राम्योक्तिभिरिति संवगकर
नियमाच्छोतृणामोचित्येन व्याख्याने भवति कत्तव्ये-नान्य-
धति गाथार्थः । ५
पएतदेवाद--
हति उ विपयज्ञम्मि, दासा एत्थ विपज्ञयादेव ।
ता उवसंपन्नाणं, एवं चिअ बुद्धिम कुज्जा ॥ ६६७ ॥
भवन्ति तु विपयये-अन्यथाकरण दोषाः अन्न, कुत इत्या-
द--पर्ताद्रपययादव कारात् तत्तस्मादुपसंपन्नानां सतां
शिष्याणामव यथोक्कबुद्धिमान् कुया द्ववाख्यानमिति गाथाः
कालादन्यथाकरण श्रदापाशङ्का परि दरन्नाह--
क.ला 4 वितह करण, णर्गंतणह हाई सरणं तु ।
(
येक्स्याणा
गाह छत्र,म्म विकल, वरिमा सुढहय अमतजुञ्र।।€६८॥
काला 5पि वितथक्रण-विपरीतकरग्ण नक्रान्तन इह-प्रक्रम
अजात शरगापय , कुत इच्याह-न हातास्मन्लाप काल
दुःषप्तालक्षण विषादि प्र
वतीति गाश्राश्रः।
एल्थे च वितहकरण , नञ अःउद्ि्रा उ सव्वं पि।
पायं विसायतुन्लं, अणाजोाग। अ मंतसमो ॥ ६६६ ॥
त्र च यक्रम थितथकरणं ज्यमाकुट्टिकयापेत्यकरणन
सव्यमपि पाप निघ्न न्पादितुद्य विपाकदारूखन्त्ा-
दाज्ञायागश्च---सृचव्यापाग्श्च अत्र मन्त्रसमः तदापाप-
नय्रनादिति सूत्राधः।
उपस्ूहर ननाह
ता एञ।म्म त्र ऋले, आशणाकरण अमृदलक्खा |
सत्त।ए जश्ञ्वव्य, एत्थ वहां हद् एसा ॥१०००॥
यस्मादव तस्मादेतस्मिन्नाप काल-दु.पमारूप आज्ञाकरणे
सात्रविधिसंपादन अमृढ लक्षे: सद्धिः शकत्या यातितव्यमुपस्त-
पदादो, अत्र विधिरष व्याख्यानक रण. हंदीत्युपप्रद्शन एप
च--वक्ष्यमाणलक्तण इति गाथाथः ।
मज़णनिसिज्जअक्खा, . किह्कम्मुस्सग्गवंदर्ण जिट्टे |
भागता होइ जिट्ढी, न उ परिझाएण तो वद् ॥१००१॥
माजन व्याख्यास्थानस्य, निषय्या-गुर्वाद:, श्रत्ताः-वन्दनका
* उपनीयन्ते। कृतिकर्म-वन्दनमाचार्याय कायोत्सगों 5नुयागा थ
बन्दनं-ज्येष्टविषयमिह भाषमाणा भवति, , ज्यष्ठः न तु पर्यो-
यण तनो बन्दत तमबति गाथार्थः ।
व्यासा त्वाह--
ठार पमजिङऊशं, दोज्नि निसिज्जाउ होंति कायव्वा ।
एका गुरुणो भणिआ. बीआ पुण होई अक्खाणं। १ ० ०२।
स्थान प्रसृज्य व्याख्यास्थानं द्व निप भवतः कतव्य स
भ्यगुचितकल्येस्तत्रका गुरा अना निषीदनानमित्तम् , दि
तीया पुनर्भर्वात मनागुच्चतरा अक्षाणां समवसरणोपल-
क्षणमतांदात गाथार्थः ।
विधिशषमाहर--
दो चव मत्तगाई, खले काइअसदासगस्सुचिए ।
एवंविहो वि शिरच,वक््खाशिज़ ति भावत्थो ॥१००३॥
द्वे एव मात्रके भवतः, खछष्ममाच्रकं, कायिकमात्रकं च। स-
दोषकस्य गुरानै सर्वस्य, उचित भूमागे भवतः । एदंपर्यमा-
ह-एवेविधो5पि सदरापः सज्नित्ये स व्याख्यानयदिति प्र-
स्तुतभावार्थ इति गाथार्थः ।
भावावो उ सुर्णेती, सब्य ब्रि हु ते तओ अउवबउत्ता ।
पडिलेहिऊण प्ति, जुगत्र वंदंति भावणया ॥१००४॥
भावतः श्टराचान््त व्याख्यान स्वरेऽपि साधवः सर्वेऽपित
ततश्च तदनन्तरसपयुक्राः सन्तः प्रत्युपदय पात्ततथा कायं
च गुगपद्न्दन्त गुरु विषमे भावनताः सन्त इति गाथाथेः |
सन्य ब्रि उ उम्सग्गं, करिति सत्रे पणा वि बंदंति ।
२)
जअवा ~ ¶ नर ज क्ष्प्र्+ |
क्रतद तत्खुखदममन्त्रयु तनु भर
चक्त््थाण
ा- बा...
नासन्न नाइदर, गुरुवयणपांडच्छगा हाते ॥ १००४ ॥ |
स्वच्रऽच च भूयः कायात्सग छुबान्त अनयागप्रारसम्भाथ
तत्समाप्ता च सवे पुनराप चन्दन्त गुरुमव ज्यषछठायामात ।
न्य तदनु नासन्न नातिदूर गुववग्रहं विहाय गुरुवचन-
रतीच्छका भवन्त्युपयुक्ला इति गाथार्थः | पे० ब० ४ द्वार । |
( श्रवणाविधिम् ` सवण ` शब्द वच्यामि )
वक्खाणसमत्तीए, जग कारण काइआइईणं ।
वदति तआ जड़, अप्प पुव्वाच्चग्र भणत ॥ १००६ ॥
व्याख्यानसमाप्ता सत्या कामत्याह-याग कृत्वा कायका-
दानामादशब्दादू--गुरा वश्चव मणाद्प/ र ग्रह: , बनन््दन््त तत्ता
ज्यप्ठ-प्रत्युत्चारक श्रवणाय अन्य पूत्रमच भान्तः; यदुतादा- |
बच ज्य वन्दन्त इत गाथाथः ।
चाण्ड जइ उ, जिटा, कटि, वि सुत्तत्थधारणाविकलो ।
वक्खाणलद्भिहीणोा, निरत्थयं वंदणं तम्मि ॥ १०१०॥
चोदयति कञ्िद्-यदि तु ज्येष्ठः पर्यायच्द्धः कथचित्सूत्राध- '
ध्यारणाविकला जडतया कर्मदाषात्ततश्च व्याख्यानलब्धि- |
हीनो 5सो वतते, एवं च निर थक वन्दनं तास्मन्निति गाथाः। '
अह वयपरिआएहिं, लहुगो वि हु भासगो इहं जिद्धो ।
रायणियवंदणे पृण, तस्स वि आसायणा भते! ॥१०११॥
अथ वयःपर्यायाभ्यां लघुः यदि कश्चिद्भाषक इह ज्यष्ठा
ग्रह्मत, रत्नाधिकं वन्दत पुनस्तस्यापि लघाः आशातना भ-
दन्त ! भवतीति गाथाथः।
श्रतराह--
जई वि वयमाईइणर्हि, लहुओ सुत्तत्थधारणापडओ ।
वक्खाणलद्विमं जो,सो चिअ इह घिप्पई जिद्रो ।१०१२।
यद्यपि वयआदिमिः-वयसा पर्यायेण च लघुकः सन् सूत्रा-
थ-धारणापदुदेक्षः व्याख्यानलब्धिमान यः कश्ित्स पवद
प्रक्रम ग्रह्मत ज्यष्ठः, न त॒ वयसा पर्यायेण वेति गाथाः ।
असायणाऽवि नव, पट्च जिणवयणभासगं जम्हा। |
वंदणगे रायशिओ,तेण गुणेणं पि सो चव ॥ १०१३॥ |
आशातना5पि नेवं भवति प्रतीत्य जिनवचनभाषकं य~
स्माद्न्दनकं । तद्रत्नाधकस्तन गुणनापि भाषणलक्तणेन स |
एवाति गाथाः ।
पतदेव भावयति-
ण वओ एत्थ पमाणं,ण य परिआओ उ निच्छयणणशं। |
ववहारश्रा उ जुजइ, उभयण्यमय पुण पमाण।१०१४।.
न वया5त्र प्रक्रम सामान्यगुणाचन्ताया वा प्रमाणम्, नच
पयाया ऽप प्रत्रञ्यालच्तणः ॥_नशग्यथयनयमतन व्यवदारतस्तु ।
युज्यत । वयः पर्यायश्च । उभयनयमतं पुनः प्रमाणं सर्वत्र-।
वति गाथाथः । |
यतः--
निच्छयओ दननन्र, को भावे कम्म बद्र समणो | |
बवहारओ उ कीरई,जो पुव्वाठिओं चरित्तम्मि।१०१५॥ |
नश्चयता दावज्लयमतत्का भाव कास्मन् शुभाशुभतरादों
चत्तत श्रमणस्ततश्चाकत्तव्यमवतत्प्राप्ना।त
व्यब्रहारतस्त्
-।
|
(७
अभधानराजन्द्रः)
चङ्ण्दाण
। कियत प्वेतयः पूवमादां [स्थतश्थाग्ञ आदा म्रत्राजत |
| इति गाथाथः । र
युक्के चेतद्त्याह--
| वेवंहारो प द बल, ज छठमत्थ प बद॒ई अरहा ।
वक्खार-वक्चार-प० । अपचरक, व्य ०
चवक्ग्वारपनच्चय
आययोान्तकेकान्विकानावाथखुखसतायिकज्ञानदशनसंपदुपत
वहमग्गे वक्खायरले सव्व सरा णियदट्ति तकका जत्थ णा
विज्जति ” श्राचा० १ श्रु० ४५ अ० ६ उ
द
उ०।
जा हाई अणाभिन्नों, जाणंत। धम्मय एयं ॥ १०१६ ॥ वक्खारपव्यय-व(क्षार)क्षस्कारपवंत--उ०| वज्ञांस मध्य गत्व
« व्यचहारा5पि निश्चयन वलवान् वत्त यत् छुद्मस्थमापस
| न्तं चिरप्र्नाजत वन्दते श्रहन् कवली, यावद्धवत्यनभिन्नः स
चिरध्रवाजतः. जानाना धम्मतामनाम् व्यवदहार्गाचरामात
| गाथार्थ: ।
यद्यव कः प्रकृतोपयोग इत्याह--
एत्थ उ जिणवयणाओ, सुत्तासायणबहुत्तदोसाओं |
भासति जिद्रगस्स उ, कायव्य हइ किंडकम्मं ॥१० .७॥
अब तु ' जिनवचनाद् ' ` भासन्त ` हाती ` त्यादेः खात्
सूत्राशातनाया दाषवहलत्वात्कारणाद्धाप्रमाणस्यषछस्यव क |
क्षेव्य भवात-छातकस्म वन्दन नतरस्यात गाथाथः ।
व्याख्ययमाह--*
वक््खाणेअव्यं पुण, जिणवयणं णंदि माइसुपसत्थे ।
ज्ञं जम्मि जम्मि काले, जावइओ भावसंजुत्त | १०४८॥ |
व्याख्यानयितव्य पुनस्तन जिनवचने, नान्यत् । नन्यादि,
सुश्रशस्त-सवेगकारि, यत् यस्मिन यस्मिन् काल यावत्प्र- |
चरति * भावसंयुक्ल भावाधसरारमिति गाथाथः।
मिस्ये वा णाऊणं, जाग्गयरे केइ दिट्टिवायाई ।
तत्ता वा निज्जूढं, सस ते चव विअरंति ॥ १०१६॥
शिष्यान वा ज्ञात्वा योग्यतरान कांश्चन रष्िवादादि- |
ब्याख्यानयितव्यम् , तता वा दृष्टिवादादः नियृदमाकृ् शष
नन्द्ादि, ते एव योग्याः वितरन्ति तदन्यभ्या ददतीति गा-
थाथः।
नियूढलक्तणमाह--
सम्म धम्मविसेसो, जहि य कसच्छेअतावप रिसुद्धो ।
बिज्ञइ निज्जृट, एवंविहम्ुत्तमसुआइ ॥ १०२० ॥
सम्यग् धर्मविशषः-- पारमार्थिकः यत्र-ग्रन्थरूप कषच्छे-
इतापपरिशुद्धः जिकोटीदोषवरर्जितः वर्यत-सस्यक् नियूढ-
नरेवविध भवति, ग्रन्थरूप तच्योत्तमश्रतादि, उत्तमश्रतं |
स्तवपरिन्ा इत्यवमादीति गाथाः ॥ पं० व० ४ द्वार । (श्रा- |
तृणाममाव5पि व्याख्यान दातव्यमिति ` च्रणुच्राग '
प्रथमभाग ३४१ पृष्ठ गतम् । ) व्याख्यानाङ्गं च व्याख्यानवि
धिः-श्चनुयोगऽन्तभवति । विश० ।
बरक्खाविहि- व्याख्यानविधि- पुं । व्याख्यानस्य विधिः
व्याख्यानविधिः ! शिष्याचार्यपरीक्ताभिधान.श्रा० म०१ अ०।
वक्खाशयव्व -व्याख्यानयितव्य-न° । कत्तव्य व्याख्यान,
पे० ब॒० ४ द्वार ।
वक््खायरय-व्याख्यातरत-पुँ” | विविधम--अनेकप्रकारं प्र-
व स ता तपःसंयमानुष्टा ना थ-
त्वेतत आख्यातो व्याख्यातो
शो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रता व्याख्यातरतः।
मोत्तः अशेषकर्मक्षयलक्ष- |
शब्द्
त्तत्र ढो सभूय कुवन्तीत वत्तस्कागः । तज्ञातायाउय
मिति वक्तस्कारपवतः । गजदन्तापरपयाय पवत, ज० ४ व-
च्त० । चण प्र०।
मरोदन्तिण ष्टौ वक्तस्काग-
जेबू पंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं दवकुराए पुव्वावर पास
एत्थ श॒ आसक्खंधगसरिसा अद्भचंदसंठाणसंठिया दा
वक्खारपव्यया पन्नत्ता, त जहा--बहुसमा ० जावर
सोमणम चव, विज्जुप्पभे चव । जंबूमंदरस्स उत्तरण
उत्तरङुराए पुव्बावर पास एत्थ श असक्खंधगसरिया
अद्वचंद्सठाणसंटिया दा वक्खारपव्वया पष्पत्ता, तं
जहा--बहुसमतुछा ० जाव गधमायणे चच मालवेत चच ।
( सू०-८७ >€ )
जेबू' इत्यादि "पव्वावर पास! ति पाश्वशब्दस्यः प्रत्यकं स-
सम्बन्धात् प्वपाश्वं च, किभून ?-- एत्थ ` त्ति प्रज्ञापक
नापदश्यमानन क्रमण सोमनसावदय॒तूप्भो परज्ञा, कि
भूता :. अश्वस्कन्थयसटशावादा एनम्ना पयवसान उन्नता,
यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छितों मेरूसमीप तु पञ्च
शता च्द्धिताविति । आह च--
वासहर गिरि तण, र्दा पञ्चव जोयणसयाई ।
चत्तारि सउब्विद्धा, ओगाढा जोयणाण सय ॥ ?॥
पश्चसए उव्विद्धा, श्रागाद्धा पच गाउयसयाई।
अगुलअसंखभागा, वित्थिन्ना मंदरंतणं ॥ २॥
वक्खारपव्वयाणं, आयामसा तीसजायणसहस्सा ।
दोन्नि सया य नवहिया, चंच कलाश्रा चडरणहं पि॥ ३॥
इति, अवद्धचंद' क्षति अपरृष्टमर् चन्द्र स्यापाद्धं चन्द्रस्तस्य
यत्संस्थानम् च्राकारो गज़दन्ताकृतिरित्यर्थः, तन सप्स्थि-
तावपाद्धेचन्द्रसंस्थानसंस्थितो, श्रद्धचन्द्रसंस्थानसस्थिता-
विति कचित्पाठः ५ तत्राद्धशब्देन विभागमाञ्र विवच्यते ,
न तु समप्रविभागतेति , ताभ्यां चाद्धंचन्द्राकारा देवकु-
रवः कृताः, शत एव वत्ताराकारक्तत्रकारिणौ पर्वतौ ब-
क्तारपर्वताविति * जम्ब ' इत्यादि तथैव नवरमपरपाभ्वे ग-
न्धमादनः पूवपाश्वं माल्यवानिति | स्था०
( एकशलबक्षस्का रकूटवक्कब्यता
तीयभाग ३१ पृष्ठ गता । )
जम्बुद्वीप सीताया उभयकूल--
जम्बुद्दीवि दीवे मंद्रस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीआए
महाण॒इए उत्तरकूल चत्तारि वक्खारपव्वया पष्पत्ता , तं
जहा-चत्तकरूड पम्हङूड णलणक्रूड एगसल | ज--
म्बुदीवे दीवे मंदरपुरात्थिमेएं सीआए महाणईए दाहि-
कूल चत्तारि वक्खारपव्वया पप्मत्ता | त॑ जहा--तिकूडे
वेसमण॒कूडे अजणे मायंजण । ( मृ०° ३०२ » )
२ ठा० ३ उ०।
` पगसलकूड ` शब्द तृ-
„ ऋ `
( अल )
खक्गवारपन्क्य
_ अभिधानराजेन्द्रः |
वक््सारपव्वय
सातबदाया उभयकृूल--
जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पत्मत्थिमे णं सीओआए
महाणईए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पप्मत्ता, ते
जहा-अंकावई पम्हावई आसीविसे सुहावहे । जंबृदीवे
दीवि मंदरस्स पचन्थिम शं सीओआए महाणईए उत्तरे
कूल चत्तारि वक्खारपव्यया पष्पत्ता, तं
सरपव्वए देवपव्वए णागपव्वए | ( छू०-३०२)८ )
मन्द्रस्य चतुर्दिक्षु--
जहा-चदपव्वए `
जंवृर्दीवि दीवे मद्रस्स पव्ययस्स चउसु वि दिसासु चत्तारि '
वक्खारपव्वया पष्पत्ता, ते जहा -स(मणस विज्जुप्पभ गध-
माये मालवते । (प्र०-३०२-) स्था० ४ 2।० २ उ०।
जम्बूद्वीप सीताया मदानद्याः--
जम्बृदीवे दीवे मद्रस्स पव्वयस्स पुरच्छमे शं सीयाए
महानदीए उत्तर णं पञ्च वक्खारपव्वया पष्पत्ता,तं जहा-
मालवए चित्तकूडे पम्ह कूड णलिण कूडे एगसेले(््-४२४-)
२+(तासा दाक्तण---
जंबूमन्द्रस्स पुरओ सीयाए महाणदीए दाहिणे णं पंच
वक्खारपव्वया पत्ता, त॑ जहा-तिकूडे वेसमण॒कूडे अंज- |
णे मायजणे सोमणसे । ( षू०-४३४ ~+ )
सीतादाया उभयकुले--
जंबूमंदरस्स पच्नत्थिमे णं सीओयाए महाणईए दाहिणे णं
पंच वक्खारपव्वया पष्पत्ता, तं जहा-विज्जुप्पमे अंका-
वई पम्हावई आसीविसे सुहावए । जंबूमंदरस्स पचत्थिम णं |
सीओयाए महाणदण उत्तर णं पश्च वक्खारपव्वया पष्पत्ता,
ते जहा-चंदपव्वष् सरपव्वए णागपव्वए देवपव्वए गन्ध- |
मायश । ( सू० ४३४ + )
करख्यश्चायं नवर मालवन्तो गजदन्तकात् प्रद॒क्तिणया |
सूत्रचतुष्टयोक्ता विशतिवैक्षस्कारगिरया5वगन्तव्या इति । |
स्था० ४ ठा० ८ उ०।
जम्बूद्वीप सीताया नद्या उभयतट--
जम्बूमंदरस्स पव्वयस्स पुराच्छिमे णं सीयाए महानईए |
उभयती कूले अट्ट वक्खारपव्वया प्पत्ता, त॑ जहा-चित्तकु-
ड पम्हकूडे नलिणकूडे एगसेल तिकूडे वसमणकूडे अंजणे
मा्यजणे । ( सू०-६२७ + )
सीतोदाया उमयकूले--
जंबुमंद्रस्स पच्चत्थिम णं सीओयाए महाणईए उभयतो
कूल अद्र वक्खारपव्यया पष्यत्ता, तं जटा - अकावई पम्हा-
वट आमीविस सुहावहे चंदपव्यए घ्रूरपव्वए नागपव्वए
दवपव्यए । ( सू०-६३७ + ) स्था० ४ ठा० ३ उ०।
सीताया महानद्या उत्तर-
घायईययपड दात्रे पुरच्छिमद्भ णं मंदरस्स पव्वयस्स
पुरच्छिमे णं सीयाए महाणदीए उत्तरे णं पञ्च वक्खार-
पव्वया पष्पत्ता, तं जहा-मालवंते एवं जहा जम्बीर
तदा ० जाव पोक्खरवरदीवडूपच्चत्थिमद्ध वक्खारा | ( घूर
४२४ ><) स्था० ५ ठा० २उ० |
सीताया उभयकूले--
जम्बुदीवे दीवे ० मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए
महानईए उभयओ कूले दस वक्खारपव्वया पण्णत्ता, | +
ते जहा--मालवंते चित्तकूड़ विचित्तकूड बंभकूडे० जबर ¦
सोमणसे । जवृमेदरस्स पच्चत्थिम ण॑ सीओयाए महान
ए उभओ कूल दस पक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा- ¦
विज्जुप्पभे० जाव गधमायण । एवं धायइसखंडपुरच्छिमद्ध
वि वक्खारा भाणियव्वा °जाव पुक्खरवरदीवद्धपत्नत्थिम- ६:
द्ध । ( सू०-७६८ ) स्था० १० ठा० ३ उ०।
सर्वेषां वत्तस्काराणामुच्चत्वादि--
सव्वे वि णं वक््खारपव्वयया सीआसीअ,ओ महानईओ `
मेद्रपव्वयंते णं पंच पंच जोयणसयाईं- उड़ उचत्तेणं पच
पंच गाउयसयाई उच्हेणं पासत्ता । ( प° १०८३६ )
* सव्व वि णे वक्रखार' त्यादि शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मख
प्रत्यासत्तो च पञ्चश्तताच्चा इति, तथा--( स० ) तत्र वषे-
धरकृटानि शतद्धयमशीत्याधकम् कथम् ? `"लहदिमर्े दिवँ
निसद. एक्कारस अट्टु नव य कूडाई। नीलाइसखु तिखु नव-
गे, अट्डुकारस जहासंखे ॥ १ ॥ `` एतषां च पञ्च गुण-
त्वात् वक्षस्कारकृटानि त्वशीत्याघक्चतुःशतीसख्यानि ।
कथम् ? “ विज्जुपहमालचंते, नव नघ सससु सत्त सत्तव ।
सालसवक्रखारखु.चउरा चडउरा य कूडाई ” ॥ ६॥ चत्वारि
एतषां पञ्चगुणत्वात् , पञ्चगुणत्वे च जग्वृद्धी पादिमरूपल-
क्तितत्तत्राणां पञ्च^वात् .सर्वीरयतानि पश्चशताच्छितानि। णवे
मानुषात्तरादिष्वपि, वैताढ्यकृटानि तु सक्राणशषडयाजना-
च्छुयाणि,वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यण्ट याजनोच्ितानीं
ति,हरिकूंटहरिसहकूटव जने त्विह तयाः सह खाच्छरायत्वाद्
आह च-“विज्जुप्पमहरिकूडो, हरिस्सहो मालवेतवकखार ।
नंद्णशावणवलकूडो, उव्विद्धा जोयणसहस्स ॥ १॥ ”
अथोच्चत्वादिकमाह--
सोमणसगधमाद णविज्जुप्पभमालवताणं वक्खारपव्व-
याणं मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उड उच्चत्ते-
शं पंच पंच गाउयसयाई उव्वेदेणं पणणत्ता, सब्बे वि शं
वक्खारपव्वयकूडा हरिहरिसहकूडवज्ञा पंच पंच जोयण-
सयाई उड़ उच्चत्तेण मूले पच पच जोयणसयाई आयाम-
विक्भेण पष्पत्ता । ( खू०- १०८) स० ५०० सम०।
शीतासीतोदे प्रति वत्तस्कारमाद--
सव्ये वि णं वक्खारपव्वया सीयासीओयाओं महाणईओ
मैदरं वा पव्वर्यतेणं पंच जोयणसयाईं उडं उच्चत्तेणं पंच
गाउयसयाई उव्वेहेण ! ( इ०- ४२४६ )
' सच्चे वि णं ` इत्यादि, सर्वेऽपि जम्बूद्धीपादिसम्बन्धिनः
|;
क |
( ७५
खक्सवारपत्वय
प्राभध्रानगाजन्द्रः |
शरगत्ता
+ तेण ति ` शीताशोतादे महानद्यों प्रतीत लक्तणीकूत्य न-
दीदिशीत्यथः, मन्दरं वा मरू वा पव्वते प्रति तददिशीत्यथः,
तत्र मालवत्सोमनसावयुत्पभगन्धमादनाः गजदन्ताकारप-
ता मरू प्रति यथाक्कष्वरूपाः, शेषास्तु वच्तस्कारपवता महा-
नदो प्रताति | स्था० ५ ठा० २ उ० |
बक्वित्त -व्याज्षिप्त-त्रि० | कमणि कत्तव्य व्याकुल, व्य० ६
उ० । धर्मकथादिना ( आब० ३ श्र°।). पयाजनान्तरोपयु
क्र. शा० १ श्र० २ अ०। “ वाक्खत्तचित्तण न सुद्दु नाय,
सकुंडल वा वयणं न वत्ति `` आचा० |
बकक््खेव-व्यपेत्त-पुं | चि त्तेकतानताविच्छेदे, व्य० । (व्याक्ते- |
चण कार्यहानिप्रदर्शने तत्र. दष्टान्ताश्च ` अइसस ` शब्दे,
प्रथमभाग २८ पृष्ठ उक्तकाः | )
वग-वक्र-पु० । | वकि--अच् । पृ० नलोपः । स्वनामख्याते वि-
हग, स्वनामख्यात पुष्पव्रत्त.कुवर, रात्तसभद, यो भीमेन ह- |
अनर ४ =
तः । श्रोषधादिपाचनयन्त्रभदे, श्रीकृष्णेन हते देत्यमेदे, |
बाच० । अनन्तकायवनस्पतिभेदे,आचा० १ श्रु° १ अ०५उ०।
बृग-पुं० | शुगालाकृतों हिस्नजन्ता, आ० म० १ आ०।
वगडा-वगडा-स्त्री ० । परिक्तप, व्य० & उ०।
श्रथ वगडाया नित्तपः कत्तव्यः, तमवातिदेशनाह--
एमेव होइ वगडा, चउव्विद्य सा उ वत्तिपरिखवो ।
दव्वम्मि तिप्पगारा, भावे समणेहि भुज्जंती ॥ ७ ॥
पएवमेवापाश्रयवद्वगडा ऽपि नामादिभदाच्तुर्विधा भवति,
तत्र द्रव्यवगडा गृदसवन्धी चरृत्तिर्पारक्तपा मन्तव्यः, सा च |
ज्रिप्रकारा, तद्यथा--सचित्ता, अचित्ता, मिश्रा च । इय
त्रिप्रकारा5पि, यथा मासकल्पप्रकृते द्वव्यपरिक्तेप उक्स्तथ- |
च वङ्कव्यः, भाव-भाववगडा श्रमशेः- साधुभिर्यो वृत्तिपारिक्ते-
चः परिभुज्यत सा मन्तव्या | बृ० २ उ० । (अत्रत्या 'तदोस'
शब्दे गाथा गता, तद्व्याख्या * ' वसहि › शब्दे वच्यामि । )
( * प्ररिक्रखेव ` शब्दे पञ्चमभागे ५५२ पृष्ठ तन्निक्तेप उक्तः । )
बगलग-अवलगक- प° । अलोपः । कुद्म्बिनि, रा०।
ब्रगोड़ायक -वकोड़ायक -पु० । स्व्यादेशप्रयुक्नस्वसंज्ञाप्रसिद्धे,,
पुरुषविशेष, पि० । (पष वकोड़ायकः ' माणपिड' शब्दे ऽस्मि-
अब भाग २४१ पृष्ठ उक्तः । )
बग्ग-वर्ग-पुं? । वृजी वजन, वृज्यन्ते दूरतः परिह्वियन्ते रा-
शादया दोषा अनेनति वग्गे: । विश०। “ सर्वत्र लवराम-
चन्द्र ॥ ८ । २। २७६ ॥ इति रलोपः । प्रा० । आवश्यके
समूह, स० । ने० । समुदाय, नि० १ श्रु० १ वर्ग १
आ० । अन्त० ] स्था० | कम० । समानजातीयबृन्दे, औ० ।
स० । जातीयप्रकृतीनां समुदाय, कर्म० ५ कर्म० । राशो, |
विशे० | आ० म० । अध्ययनानां समूहे, यथाउनन््तकूदशास्व- |
रौ बर्गा इत्यादि । नं० । स्था० । गोवर्गवत् वर्मः ।
अनु० | तेनेव राशिना गुणने, आव० ४ ० । ज्ञा० ।
श्र-क-च-ट-त-प-य-श-वगौ इति परिभाषितेषु स्वरा-
दिषु दकारान्तेषु अक्षरसमूदेषु, नि० चू० १ उ० । पुरुषा-
पक्तया खरी पत्त, नि० चू० २० उ०।
बल्क-पृ° । वंशादिवन्धनभूतायां वटादित्वचि, भ० ८ श०
६ उ० । विशे० ।
१६७
वग्गंत-वल्गत--त्रि ०। चल्गने कुर्वाण, बट वग्गंततुरंगरह पहा-
वियसमरभडा ” वब्गत्तरहै रथैश्च प्रधाविताः वेगेन प्रब्रू
तायेत समरभटाश्रेति । प्रश्न ३ आश्र० द्वार ।
वरगचुलिया-वर्गच् लिका--खरी । वर्गो ऽध्ययनानां समदा य-
था-न्तरूदशास्वष्टों बगो इत्यादि.तषां चूलिका । सांत्तपिकद-
शानां प्रथम अध्ययन उत्कालिकश्चतविशपे, स्था० १० ठा०
३ उ०। न०। पा०।
वग्गण--वल्गन-न० । उत्कूदैने, ज्ञा० १ श्रु० १७ अ० | स्था०।
आ० म०। औ० उल्लङ्यन, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । मन्नवद्
(नि०चू० १ उ०) उनल्ललन, भ० १९ श० ११५ उ०। श्रा०म०।
44 छः (न
वण्गणा--वगेणा--खी० । सजाती यवस्तु समुदाय वरीराशो ,
विश० । श्रा० म० । क० प्र | कर्म० । अष्ट० | विश० ।
उदारवैक्रियादिवर्गणाः-
ओ।राल विउव्या हा-र तेय-भासा णपाण-मण कम्मे ।
अह दव्ववग्गणाणं, कमो विवज्ञासओ खत्ते ॥ ६३१॥
एतां नियुक्षिगाथां' भाष्यकारः ` कुविकर्णगाप ` इच्युदा-
हरणपूवक वस्तरतः स्वयमेव व्याख्यास्यतीति ।
तथा च भाष्यम्-
चा ~~~ शा 9,
दृद यष्गावससा-वलक्खसणा बम्मओ विशेयाणं |
८ थप ५4 ७ ०५७ क
दव्वाइवग्गणाहहें, पोग्गलकाय पयसं।ति ॥ ६३२ ॥
आह-किमर्थ पुनरता वशाः प्ररूप्यन्त ?, उच्यत-कुविकर्ण-
स्य गोमणडलाधिपतर्गावस्तासां परस्परं विशषस्य यदुपलक्त-
ण परिज्ञान तद पम्यात्तदूटष्टान्ताद्विनयानामसमोदाथं द्वव्या-
दिवर्गणामिः, आदिशब्दात्-क्षेत्रवगणामिः, कालवर्गणाभिः,
भाववगेणाभिश्च समस्तमपि पुद्रलास्तिकायं विभज्य ती थकर-
गणधराः प्रदशयन्तीति गाथाऽत्तराशः। श्रथ भावार्थ उच्यते-
इद भरतत्तत्र मगधजनपदे प्रभूतगोमरडलस्वामी कुविकरर्णो
नाम ग्रहपतिरासीत् । सच तासां गवामतिवहुत्वात् सह-
स्रादिसख्यापरिमितानां पृथक् पृथण श्रनुपालनार्थं प्रभू-
तान् गोपालांश्चक्र। तेच तासु परस्परं मीलितासु गोष्वा-
त्मीया श्रात्मीयाः सम्यगजानन्तः सन्ता नव्यं कलदमका-
पु; तांश्च तथान्योन्यं विवदमानानुपलभ्यासौ तेषामव्या-
मोहार्थ कलहव्यवच्छित्तय थ॒ङ्गरूष्णरक्रकवुरादिभेदभिन्नानां
गवां प्रतिगोपाल सजातीयगोसमुदायरूपा भिन्ना वगणा
व्यवस्थापितवानिति एष दृष्टान्तः । श्रथापनय उच्यते-षद
गामरडलप्रभुकटपस्तीथकरो गोपतुस्येभ्यः स्वशिष्येभ्या
गोखमृह माने पुद्रलास्तिकायं तदसंमोहार्थ परमारवादिवर्म-
रादिविभागेन निरूपितवानिति ।
पता एवं वर्गणाः ““ श्रोरालविउन्व ” इत्यादि
गाथां व्याचिख्याखुर्निरूपयितुमाद--
एगा परमाणं, एगुत्तरव्डिया तओ कमसो ।
सखेजपणएसाणं, संखेज़ा वग्गणा होंति ॥ ६३३ ॥
ततो संखाईआ, संखाईयप्पएसमाणाणं ।
तत्तो पणो अणंता-णंतपएसाण गंतूणं ॥ ६३४ ॥
ओ।रालियस्स गदण-प्पाओोग्गावर्गणा अता ।
॥ ( ७2 )
च्निध्रानराजन्द्रः।
चग्गणा
अग्गहणप्पाओग्गा, तस्सेव तओ अणताओं ॥६३५॥
इद सजातीयवस्तुसमुदायो-वर्गणा ,समूहा,वग:,राशः,इत
प्रयोयाः। तनश्च समसस््तलाकाकाशप्रदेशवातिनामकेकपरमारण
ना समुदाय एक्रा वगणा, तत समस्तलाक्वातना {दश्रद्-
शिकस्कन्धानां द्वतीया व्गणा,ततः समस्तानामाप त्रपद्-
शिकस्कन्धानां तृतीया .चतुष्पदाशकस्कन्धाना चतु पन्च
ग्रदेशिकस्कन्धानां पश्चमी,पदप्रदाशकस्कन्थाना षष्ठा ,एवमके
कात्तरतृद्धथा तावन्नय यावत्संख्यातप्रदाशकस्कन्धाना सवा,
श्राप सख्यया वगणा भवान्त,इत ऊद्ध मसख्यातप्रदशस्कन्धा
नामकोत्त रवृ द्धया सवा अप्य ल ख्यया वगणा भवान्त ततश्धा-
मन्तप्रदेशिकस्कन्धानामप्यका त्तरवुज्योदारिकशरी रह णप्रा -
योग्या श्ननन्ता वर्गणा भवन्ति ओदारिकशरीरनिवेर्तनयोग्या
इत्यथः, ततः प्रदशत्र्या वर्धमाना शओौदारिकस्यैवाग्रहण-
याम्या अनन्ता वगेणा भवान्त | एताश्व प्रभूतद्रव्यानष्पन्न- ।
त्वरात्सृल्मपारणापापतत्वाच् आदागरकस्याग्रद्रणयास्था म-
न्तव्याः । इट च्व स्वल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्धादरपारिमाणयुक्क- |
त्वाच्च वेक्रियस्याप्यग्रदणयाग्या एवैताः कवलमोदारिकवम-
शानामासज्नत्वन तद्ाभासत्वात्तदग्रररयाग्या उच्यन्त इात।
अआथ कामरपयन्ताना शपवगणानामात दशमाह-
एवमजोग्गाजोग्गा, पुणा अजोग्गा य वग्गणा5णता ।
वरउव्वियाइयाणं, नयं तिविगप्पमिकेक ॥ ६३६ ॥
एवयमक्ानुसारणाऊयाग्यास्तता याग्याः, पुनरयाग्याः प्रत्य ,
ऋमनन्ता वगणा इति। एवं वाक्रेया5हारकतेज सप्ाषानापान
मनःकर्मणामकेकं जिवकलप-त्रप्रभद क्षयामात गाथाक्ष- |
राथः।
भावाश्स्तु उच्यत पुनरादा। ग्काग्रहणप्रायाग्यवगणानामुप
येकात्तरच्ख्या वद्धमाना स्वस्पठव्यनिष्पन्न त्वा द्वा द रपरिणा-
मयुक्रःवाच्च वाक्रयशरारस्याग्रहणायाग्या अनन्ता चर्मणा भ-
वान्ति । पताश्च प्रचुर्द्रत्यानन्रुत्तःवात्सनमपाःसामत्वाञ्चन्रा
दारकस्याप्यम्ररणप्रायग्या एव, केवल वेक्रियत्रमेणा 5 5स- |
न्मत्वन तदाभासःवात्तदग्रहणयाग्यवगेणा प्राच्यन्त इात ।
एवमुत्तरत्राप सवेत्र भावनायम् | ततच्चिकरात्तरन्रुद्धया चद्ध- |
मानाः प्रचुर द्रव्यनिच्र तत्वात्तश्राविधसूमपररिणामत्वाच्चवं
क्रियशगरस्य ग्रहणयोग्या अनन्ता वगणा भवन्ति। त-
तश्नैकात्तरवृद्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यत्वात् सृद्मतरपरि-
णामत्वाच्च वेक्रियस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वगणा भव-
न्त, तता वेक्रियाग्रहणयाग्यवरगणानामनन्तरमेकोत्तरवु-
दा बद्धमानाः
चत्र आहारकशरीरस्याग्रहणयोग्या श्ननन्ता वरणा भव-
न्ति । ततश्चैकोत्तरव्रद्धथा वद्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिष्पन्नन्वा- |
क्षथाविधसृक््मतरपरिणा मत्वाच्चा हारकशरी रस्य॒ग्रहणयो-
ग्या- अनन्ता वरणा भमवान्ति | ततोथप्यकोत्त रब दया वद्धे-
माना बहुतमद्रव्यनिन्रत्तन्वादतिसुह्मपारिणामत्वाच्चाहार-
कशरीरस्याग्रदणयोग्या श्रनन्ता वर्गणा भवन्ति। एवं ते-
जसस्य, भाषायाः, आनापानया: , मनसः, कम्मेणश्च
श्रथात्तरमकात्तरप्रदरशन्रुदूध्युपताना
आायाजर्नया[र्मात ।
स्वल्पद्रव्यनिप्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्वा- |
प्रत्यकमनन्तानामया- |
स्यानां याग्यानां पुनरयोग्यानां वर्गणानां पृथक् पृथक् त्रय- |
चग्गणा
क
--------->
आह कथ पुनरकैकस्योदारिकादेः पृथक् त्रये यमिदं
लभ्यत ? इत्याह--
एकिकस्साईए, पञतम्मि य हवंति जोग्गाईं ।
उभया जोग्गाई जच्रा, तेया भायेतेरे पढई ॥ ६३७ ॥
एक्रेकस्योंदारिकवैकियादेरादों पर्यन्त चायोग्धानि द्रव्यासि
भवन्तीति लभ्यत एवं । कुतः ? उच्यत-' तयाभासा दव्वाख॒ `
अतरा ` इत्यादिवचनाद् , यतस्तेजसभाषयारन्तरे उभयायो-
ग्यानि द्रव्याणि पठति । इदमुक्तं भवति--यतस्नेजसस्या-
न्तेऽयाग्यद्रव्याणि पठति, अतः सर्वस्याप्योदारिकादेरन्त
तानि लभ्यन्त, यतश्च भाषाया आदौ तदयाम्यान्यधी-
त, अतः सवस्याप्योदारिकादेरादौ तानि गम्यन्त; उभ-
यान्तरालवर्तिनां च सर्वेषामुभयायोग्यत्व तुल्येऽपि यथा-
सन्न तत्तदाभासत्वन तत्तदयोग्यव्यपदेश इत्युक्तमवनि `
गाथाषट्टा्थः । ५
अशथ कर्म्माग्रहणवर्गणानामुपर्यन्या वर्गणाः सन्ति, न वा ?
इत्याह-
कम्मोर्वारें धुवेयर, सुगेयरवग्गणा अणताओ ।
चउधुवणंतरतणुव -ग्गणा य मीसो तहा चित्तो ॥६३८॥ `
इय नियुक्चिगाथा, एतां च भाष्यकारः स्वयमव विस्तारता
व्याख्यास्यतीति । ।
तथा च भाष्यम्--
निच होति धुवाग्रो, इयरा लोए न होति वि कयाई ।
एकोत्तरवुडीए, कयाइ सुप्मेतराओो वि ॥६३६॥
जाओ हवति ताओ, सुप्मंतरवग्गण त्ति भष्यन्ति।
नियये निरन्तरा, होंति असुष्लेतराउ त्ति ॥ ६४० ॥
क्णो 5ग्रहणप्रायोग्यवरगणानामुपयाधिकर क पर मा णूपचिता-
तिसूच्मपरिणा मानन्तस्कन्धा त्मिकाः प्रथमा धववर्गणा भ-
चन्ति । ततश्चक्रात्तरवृ द्रथा वद्धमानैः प्रत्यकमनन्तेः स्क-
स्थेर्निष्पन्ना एता अपि धवचगणा अनन्ता भवन्ति, धवा
नित्या लोकव्यापितया सर्यकालावस्थायिन्य इति भावः ।
श्रन्तदीपक्तं चेदम् | ततश्चतासां धवत्वभणनन प्रागुक्ता ्च- `
पि कम्मवगणान्ताः सवी एव वगणा ध्वा इत्यवगन्तव्यम् ,
तासामपि सर्वत्र लाके सदैवाव्यवच्छेदात्। श्नन्यश्च-पताश्च
ध्रववशणा वच्यमाणाश्चाध्वादयया सर्वाः अप्यग्रहणवर्गणाः,
अतिबहद्रव्योपचितत्वनातिसूचम्परिणामत्वेन च सर्वजीव-
रोदारकादिभावेन कदाचिदप्यग्रहणादिति । इतश्चोष्वमि-
त्थमवेकात्तरत्रह्धिकरमण वडमाना ध्ववगणाभ्य इतरा श्र-
ध्रववर्गणा अनन्ता भवन्ति । एताश्च तथाविधपुद्रलपरिण-
मतरैचिञयात्कदाचिल्लाक न भवन्त्यपि । अत एवाध्रवा पता
उच्यन्त । ततश्च शन्या इतराश्चाश्ल्या वशखा भवन्ति | इ
सूचकत्वात्सृत्रस्याह "एकोत्तर त्यादि एकोत्तरवृद्था क
दाचिच्छुन्यानि उ्यवदितान्यन्तराणि यासां ताः शल्यान्तरा
अपि भवन्ति यास्ताः शन्यान्तरयगेणा भग्यन्त | पता श्यः
कात्तरव्रद्धया नरन्तरमनन्ताः सदेव प्राप्यन्त, परे =
को त्तरवाद्धिरतास्वन्तरा न्तरा चर्यति, न तु नैरन्तर्येण प्रा-
प्यन्त इति भावः। एकात्तग्व॒द्धया सर्वदेवाशन्यान्यव्यवदि-
तान्यन्तराणि यासां ता: अ्रश्ल्यान्तराः। एता शाशन्यान्तर-
( ७८७ )
खरगणा
छ्मभिघानराजन्द्रः।
वरगणा
यर्गणा एकोत्त रवृ द्रथा निरन्तरमेव लाक सदेव प्राप्यन्ते, न
पुनरेको त्तरव॒द्धिरेतास्थन्तराले कदापि चुख़्यतीति भावः ।
“४ चउधुवणतरे ” इत्यादि उयाचिख्याखुराह--
धुवणतराई चत्ता-रि जे धुवाई अणंतराई च |
भेयपरिणामओ। जा, सरीरजोगगत्तणाभि पहा ॥६४७॥
खंधदुगदेहजोग्ग-त्तणेण वा देहवग्गणाउ त्ति ।
सुहुमोदरगयबायर-परिमाणो मीसयक्सधो ॥६४२॥
सता ऽशरन्यान्तरवगेणानामुपरि भ्वानन्तराणि चत्वारि व-
रणाद्रर्ज्या याण भकन्त, यद्यस्मात्तान ध्रताण सर्वेकालभा- |
खीनि, अनन्तराणि च निरन्तरेकात्तरचृद्धिभाज्ीति। इदमु
क्रं भवति-आया धुवानन्तरवर्गणा अनन्ता भवन्ति, पवम-
तावत्या दवतायाः, चतायाः, चतुथ्यश्च वाच्याः । चूवचगणः
प्रागप्युक्ताः, परं ताभ्य एता भिन्ना एव न पुनस्तास्वन्तभ-
चन्ति, आतिसृच्म परिणामत्वाद्रदुदरव्योपचितत्वाच्चति पृथगु-
क्राः । । आह--ननु भवत्ववम् , केवले यद्यता निरन्तरमका-
क्तरवृद्धिभाजस्तर्हि चातुर्विध्य कि कारणम् ?, सत्यम् , कि-
तत चतखृणामपि वर्गणानां मध्येष्वेब नेरन्तयलेकोत्तर- |
बद्धः प्राप्यते, अन्तरालेषु पनस्तस्यास्ज्रटिसभवे सत्ये-
च भिन्नवर्गणारम्भः, अन्यद्वा-किचिद्धर्णादिपरिणामबैचि-
श्य तद्भदारम्भ कारणम्, दाति बहुश्रुता विदन्तीति । एवं व-
स्यमारतजुचगरास्वापि वाच्यमिंत । एतासां चतखणां भु-
चानन्तरवमेणाना मुर्पारि
णात्मिकाश्वतस्त्र एव तनुवर्गणा चवन्ति, एताश्व तनूनामो-
प्रत्यकमको त्तरवृद्धियुक्तानन्तवर्ग- |
दारिकादिशरीराणां भेदाउभदपरिणामाण्यां योग्यत्वाभिम- |
स्रा इति तनुवर्गणा-देहवर्गणा उच्यन्ते । । अथवा-वक्ष्यमा- |
णमिश्रस्कन्धानित्तस्कन्धद्धयस्य तनुर्ददः
रिति याचत् तद्याग्यत्वाभिमुखा वर्गणाः ।
न्धरस्वरूप विव राषुराह--` खुहुमो ' इत्यादि ।
शरीरं मूर्ति-
सरो दरगतवादरपरिणामः,अनन्ताऽनन्तपरमारुप्रचितः सू-
चमपरिणाम एवषद्रादरपरिणामाभिमुखः स्कन्धा मिश्र इत्य-
अः । ( विशे० । ) ( `खध' शब्द तृतीयभागे ६६६ पृष्ठ चित्त-
महास्कन्धवङ्कव्यता गता । )
अथ * विवज्ञासओ खेत्ते ` एतद्याचिख्यासुः
क्षेत्रादिवर्ग गास्वरूपमाह--
एगपएसोगाढा-ण वग्गणगा पएसवुड्रीए ।
सखेजोगादाणं, सखेजा वर्गणा तत्तो ॥६४७॥
तत्तो सखाईया, ऽसंखाईयप्पएसमाणाशं |
गंतुमसंखेजाओ, जोग्गाओं कम्मुणो भरिया ॥६४८॥
तत्ता सख।इया, तस्सव पणा हव।ते जाग्गाओ ।
माणसदव्वाईण वि, एवं तिविगप्पमक्केक्क ।६४६॥
बिपयोसता-विपयासेन पश्चान्मुखः क्तत्रविषया वर्गणाक्रमो
वदितव्यः, न तु द्रव्यवगैणावदिति भावः | इदमसक्ल॑ भवति-
परमाणूनां व्यणुकाद्यनन्ताखुकपयन्तस्कन्धानां चैकाका-
अशथ मिन्नस्क- |
दरगय ` जि
` दूरगत इंबत्प्र।प्तस्तदा ग्यत्वामिमुख्येन बादरः परिणामो यभा-
शप्रदेशावगाहिनां सर्वेषामप्यका त्रगणा कम्म
कपयन्तस्कन्धानामव द्प्रदेशावगादहिनां द्वितीया वगणा
ज्यखुकाद्यनन्ताखुकपयन्तरकन्धानामेक लिष्रदेशावगादिनां
तृतीया वरणा.एवमककप्रदेशत्रदधश्वा संख्ययप्रदशावगाहिनां
स्कन्धानां संख्यया वर्मणाः, तता5संख्ययप्रदेशावर्गाहिना-
मपि स्कन्धानां प्रदशवुद्धया ऽसख्या वगणा गत्वा ंतलङ्घ्या-
न्तख्य प्रद शावगादिस्कन्धानामव पकेकाकाशप्रदशब्रद्धश्रा व-
डमानाः कर्मणा ग्रहणयाग्या श्रसख्यया वर्गणास्तीथेकर-
सिताः । तता ऽनन्तरमल्पपरमाखुनिष्पश्नत्वाद्वादरपरिणा-
मत्वन यहाकाशध्रदशाक्गादित्वाश्च तस्यव कम्मणा 5ग्रह-
णयाग्या पककाकाशपद शचरद्धश्वा वद्धमाना श्रसेख्यया वगणा
भवान्त । ततश्चवमकेकाकाशप्रदशावगादन्रद्धश्चा बद्धमाना
मनसाऽप्यसख्यया अग्रहणवगणाः पुनरतावत्य पव तस्येव
प्रहणवगणाः पुनरतावल्पमाणाः एवं तस्यवाग्रहणवर्गणा
वाच्याः । पवमानापानयाः, भाषायाः, तजसस्य, आहार-
कस्य, वेच्ियस्य, , ओदारिकस्य चायाग्ययाम्यायाग्यवगणानां
त्तत्रताऽपि प्रतिलाम चये रये प्रत्यक्मायाजनीयमिति ।
धुवादिवरगणास्कन्धा अपि प्रत्यकमङ्कुलासे ख्ययभागप्रदशा-
चगाहिनाऽचगन्तव्याः, परे तच््चिन्तद न छता, जीवेः शगी-
रादौ कचिदप्यनुपयुञ्यमानत्वन भ्रवादिवरगणानामग्रहणाद ।
श्रथवा-कर्मणा-ऽग्रहणवर्मणानां मध्य तासामप्यन्तभावा
द्रष्टव्यः । द्रव्यवगणाधिकारे तु पृथगेतत्स्वरूपमाज्रश्लापनार्थ
चिस्तरण छता तच्चिन्तति मन्तव्यमिति । कालभावव-
गणास्तु समयास्मयादिस्थतिमात्रं वरलादिमाञ्र चाज्ञी-
कृत्य सामान्यन वयन्त । | अतस्ताभिः सयौ ऽपि पद्धलास्ति
कायः सेगृद्यत इति भःवनीयमिति । तदेवमार्भाहताः क्षत्र-
वर्मणः ।
अथ कालव्गणाः पाद--
एगा समयटिईणं, खजा सखसमयटिदहयाशं ।
होति असंखेज्ञाओ, तओ अस खज्ञसमयाणं ॥६५०॥
विवत्तितर्पारणामेन य एक्ेकसमयमात्रास्थितयस्तषां स-
वेषामप्यका वर्मणा, त पुनरविशेषेण परमाणवः स्कन्धाश्च
मन्तव्याः, एवमरकेकसमयन्रद्धया संख्ययसमयस्थितीनां परः
मारावादीनां सेख्यया वर्मणाः, असख्ययसमयस्थितीनां त्व-
संख्यया वगणा भवन्ति | पवमताभिः सर्वाऽपि पद्वलास्ति-
कायः सखद्यत, एकसमयायसख्येयसमयान्तायाः स्थित-
वहिः पुद्धलानां स्थितरेवाभावादिति ।
स्थ भाववगैणाः प्राह--
एगाएगगुणाणं, एमुत्तरवड्िया तओ कमसो ।
सखज्ञगुणाण त्रा, ससजा दग्गणा हति ॥६५१॥
संखाईयगुणाणं, संखाईया य वर्गणा तत्तो ।
ह।ति अतगुणाणं, दव्वाणं वग्गणाऽणंता ॥६५२॥
व्छरसगन्धफ(सा, ण होंति वस समासभेएणं ।
गुरुलहुअगुरुलहूर्ण, बायरसुहुमाण दो वग्गा ।
एकगुण।ना४कगुणकृष्णानामित्यथः, परमाणूनां स्कन्धा-
नां च सर्वेषामप्थेका वर्गणा , इःष्णवररगुणद्धययुङ्तानां तु-
परमारावादीनां द्वितीया वगणा ; कृष्णवर्णगुणत्रययुक्का-
नातु तषां चूतीया वगणा । एवमेकेकगुणवृद्धया सख्य
यङूष्णवरणेगुणानां संख्यया वर्मणा: , श्रसख्ययकृष्णवरा।गु-
णानामसख्यया व्गणाः, अनन्तरूष्णव शृगुणानाननन्ता ब~
( ष्ट )
दमथिधानराजन्द्रः।
यरगणा
गणा भवन्ति । पवमकगुणनीलानाम् , संख्ययमुणनीला-- |
अनन्तगुणनीलानामंपि |
ननाम्, असंख्ययगशुणनीलानाम् ,
धाच्यम् । एवं क्ृष्ण-नी ल-लोहित-हाररेद्-शुक्ललक्षणाः पञ्च
वर्णाः, सुरभीतरो द्वा गन्धा. तिक्कन-कटु-कपाया-5 5मल-स- |
धुराः पञ्चे रसाः , कर्कश-म्॒दु-शुरू-लघु-शीतो-ष्ण-स्ति-
ग्थ-रूक्षास्त्वण़ सपशाः , एवमतेष वर्णागन्धादिगत--
विशतिभदषु प्रत्यकं सर्वत्वेकगुणानामेका, संख्येयगुणानां
संख्येयाः , असंख्येयगुणानामसंख्येयाः
मनन्ता वर्मणा वाच्याः ! नवरं यो यत्रे वरण्णगन्धादि-
भेदस्तत्र तदेमिलापः काये इति । तथा गुरुलघुपर्यायाणां
बादरपरिणामान्वितवस्त्ूनामेक्ा वर्मणः , श्रगुरुलघु--
पयायाणां तु सद्मपरिणामपरिखतवस्तृनामेका वर्मणा , |
पवमतौ द्वावेव वर्गों भवतः । तदेवमताभि्माववरग--
णाभिः सर्वोऽपि पुद्रलास्तिकायः संग्रह्यन यथाङ्क-
बण्णीदिभावेभ्यो ऽन्यत्र पुद्लानामभावादिति । विशे० ।
सम्प्रति प्रदेशवन्धस्यावसंरः ,
णास्कन्धानां सम्बन्धिना जीवेनात्मसात्कियन्त अतः क
भमवगणास्वरूपे वज्कव्यम् । तच्च प्राचानवगणास्वरूप
निगदिते ज्ञातु शक्ष्यमतः प्रसङ्गतः शषवरणास्वरूप-
मपि निगदनीयम् । शेषाः पुनरोदारिकाद्याः, ताश्च ग्रह-
ण॒प्रायोग्याउग्रहणप्रायोग्यभेदाद् द्विथा, अत पकाणुकद्धय
रगुकादिस्कन्यनिष्पन्ना इणवर्गणाद्याः कर्मवर्गणाव-
साना वर्मणाः सजातीयद्रव्यसमुदायरूपा निरूपयन्नाह -
सेसम्मि दुहा इग दुग णुगाद जा अभवणंतगुणियाणु ।
खंधाउरलो चिय व-ग्गणाउ तह अगहशं तरिया ॥७५॥
'ससम्मि दुद'त्ति पदम् अनुबन्धवन्धाधिकार बहुभिः प्रका-
रेव्याख्यातमिल्यनुभागवन्धः सर्माथतः । अणुकरशब्दः प्रत्य-
क सम्बध्यते । ततः केवलो ऽखुःवाणुकः-परमाणुरिव्य- `
शः । पकोाऽणुको यत्र स एकाणुः , दो अखुकों
यत्र स दथणुकः, पकारुकद्वघणुकस्कन्धा श्रादिर्येषां उ्य-
णुकादीनां ते एकाणुकद्धन्यणुकादयः
दयः" ( ३--१-११६) इति मध्यमपद्लापी समासः ।
विभक्षिलोपश्च प्राकृतत्वात् । किमवसाना इत्याह--“ जा-
श्रभवरंते ” त्यादि | यावदिल्यव्ययं पयवसानार्थं अभव्ये- |
उपलक्तणत्वात् सिद्धानामनन्तभागेऽ- |
। गमकत्वात्समासः । |
भ्या ऽनन्तगुखिताः ,
णवो येषां ते श्रभव्यानन्तगुखिताणवः
स्कन्धाः द्विपरमारवादि रूपाः । श्रयमथेः--एकाखुकद्वशधररु-
कादयः स्कन्धाः पकेकपरमायुच्रख्या तावन्नया यावदभव्ये-
भ्या ऽनन्तगुशेः सिद्धानन्तभागवतिभिः परमाणुभिर्निष्पन्ना-
स्ते स्कन्धा पवेभृताः । किमित्याह--श्रोदारिकाचितवगेा
भवन्ति । तत्रोदाराः स्फारतामाजसारा वेक्रियादिशसीरपु-
दलापेक्षया स्थूला इत्यथः, तैरित्थेभूतेः पुद्लर्निष्पन्नमों दा र- |
कशरीरं तस्योदारिकस्य निष्पत्तौ कक्तैव्यायामुचिता-योग्या
श्रोदारिकाचिताः, ताश्च ता वर्गणाश्व सखमानजातीयपुद्रलस- |
मूदामका ओदारिकोचितवर्गणा भवन्तीत्यक्षरार्थः। भावा-
धस्न्वयम्-इद समस्तलाकाकराशप्रदेशेषु य केचन पकाकिनः
परमाणवा विधन्ते तत्समुदायः सजातीयत्वादेका वरणा,
णवे द्विप्रदेशणिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजातीयत्वा-
.स्कन्धानतमिकेकपरमाणुवृद्धानामसंख्येया वरणाः,
, अनन्तगुणाना- |
ते च प्रदेशाः कर्मवर्ग- |
। “ मयूरव्यसकेत्या- |
' तथा कामेणा नाम करमासरप्रकृत्या नउूत्त कामण १
की)
४
4
करगए ५.
त् द्वितीया वरणा, त्रिषदेशिकानामनन्तानामपि स्कन्धा _
नां सजातीयत्वात् कृतीया वगणा, श्वमेकेकपरमाणु
वृद्धया सख्ययप्रदे शिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजा
तीयसरमुदायरूपाः सख्याता वर्गणाः, अस ख्यातप्रदेशिक `
श्ननन्त-
परमाणुनिष्पन्नस्कन्धानामनन्ता वगेणाः, अनन्तानन्तप्रादे-
शिकानां स्कन्धानामनन्तानन्तवरणाः, सवां अप्यता
अल्पपरमारुमयत्वन स्थुलपरिमाणतया च स्वभावाज्ञी-
वानां ग्रह न समागच्छुन्तीत्यग्रहणा वगणा पताः सवा
अप्युच्यन्ते । एताश्च सर्वाः समतिक्रम्य अभव्यानन्तगुणः
सिद्धानन्तमागवर्विभिः परमाखुभिर्निष्पन्नः स्कन्धरारज्धा
ग्रहण॒प्रायोग्या जघ्रन्योदारिकवरगणा भवन्त । तत श्रार
भ्येकेकपरमा रुच स्कन्धारब्धा आदा कशरीरयाग्योत्क-
शछवगणां यावदेता अपि जघन्यान्षमध्यवर्तिन्योऽन-
न्ता वरेणा भवन्ति । यता जघन्यायाः सकाशादुत्कृश-
या अनन्तभा्गाधिकत्वे वक्ष्ते , अनन्तभागश्ानन्तषर-
माणमयः; तत पक्रात्तरप्रदशापचये सात मध्यवतिनीना-
मानन्त्ये न विरुध्यत । “तह अग्गहणर्तार य `` त्ति तथा तनेक
कपरमारगूपचयरूपेण पकार णाग्रद णान्तरिता अग्नहणवर्ग-
रान्तारता वगरणा भवान्त । एतदक्लक दुक्क भवात--आदारक->
शरीरात्कृष्टवर्गगा भ्यः परत एकपरमाखुसमाधिकस्कन्धरू-.
पा वगणा श्रादारिकशसीरस्यव जघन्या5ग्रहणप्रायोग्या, `
तता द्विपरमारव्िकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणधायो- |
ग्या, पवमक्रैकपरमारवधिकस्कन्धरूपा वरीणास्तावद्वाच्यां |
यावदुत्क्ृष्टा अग्रहणप्रायोग्या वगणा भवान्त | जघन्याया-
श्च वगणायाः सकाशादुन्कृष्टा वगणा अनन्तगुणा । गु-
शकारश्चाभव्यानन्तगुणसिद्धानन्तभागकल्परारिधमाणो द्र-
षर्यः । पतासां चाग्हण॒प्रायाग्यतोर्दारकं प्रति प्रभूतपर-
मारुनिष्पन्नत्वात् सम परिणामत्वाच् चदितव्यति।
एमेव विउव्वाहा-र-तेयभासाणुपाणमणकम्मे ।
सहमा कम्मोवगाहो, उणुखगुल्रखसो ॥ ७६ ॥
पवमव, वकारलापः “ यावत्तावज्जी वितवत्तेमानावट- |
भ्रावार कदेव कुःलेवमेवे वः ” ॥८।१।२७१ ॥ इति प्राकृतसत्र- |
ण, पृ्वोक्कोदारिकशरीरग्रहणप्रायोग्याग्रहणप्रायोग्यवर्गणा- |
न्यायन वेक्रियादहारक-तजस-भाषा ऽऽ-ना-पान-मनः-कम- ।
विषया वगणा भवन्ति । तत्र विधिना--नानाप्रकारा क्रिया
विक्रिया, तथा च तद्धतुभूतायाः क्रिया याः वैक्रियसमुद्धात-
करणद्गडनिसरग्गादिविविधत्वं प्रक्मप्त्यादिषु निर्दिष्टमेव, औ*
दारिकाद्ययेन्तया वा विशिष्टा-विलक्षणा वा क्रिया विक्रिया, |
तस्यां भवं वैक्रिय शरीरम् . तथा अपूर्यो थग्नहणादिनिमित्त-
मुत्कृष्टलो दस्तप्रमाणो चतुद शपूवैविदा : ; हियत-गरृह्यत यत्त-
दाहारकम् , ““रृद्रहुलम् ` (५। १। २) इति कर्मणि शकः यथा
पादहारक इत्यादौ । यद्धा-आहियन्ते--णहान्त समा जी" |
वादयः पदार्थाः केषलिसमीपेऽननति 'नपातनादाहारकम् | |
तथा श्रादारपाककारणभूतास्तजानिसभटेतवश्चाष्णाः षृद्ध- ।
लास्तज् इत्युच्यन्ते, तजसा निचत्ते तेजसे शरीरं सृदमादि- ..
लिङ्गगम्यम् , तथा-भाषणं भाषा | तथा श्रानापाना- #
चचा सनिः श्वासः | तथा- मन्यत-चिन्त्यत वस्त्वननाति मनः ।
क
१८९
बरगणा
( ७८६ रः
श्रभिधानराजेन्द्रः |
वर्गणा
शीयाद्यष्टविधकममस्वध्रायोग्ययपुद्धलानां गृहीतानां तत्तदरपेण |
तता वोकफियादिनिष्पत्तियाग्याः |
परिणामजनकमि त्य थे
पुद्इलवगणा अपि वेक्रियादिशब्दैः प्रोच्यन्त, यावञ्ज्ञानाव-
रणाद्यष्टविधकमंपरेखामह तुकं दलिकमपि कार्मणवगेखति
तता वेक्रियं चाहारकं च तेजस च भाषा च! 5ऽनापानश्च मनश्च
कामण चात समादारद्न्द स्तस्मिन् वाक्रयाहारकतेजसभा-
|
घाउ5नापानमनः का मंणे। एता वेकियाद्ा वरेणा अग्रहणवर्ग- |
शान्तरिता भवन्ति इत्यत्तराधः । भावास्त्वयम्-तत्र या पू-
वमोदारिकं प्रति प्रभूतपरमाणुनिष्पन्न-वात्सृच्मपरिणामत्वा- |
श्चाग्रदणप्रायोग्या वगणा उक्कास्ता एव वैक्रिय प्रति स्वल्प |
परमारुनिष्पन्नत्वात् स्थूलपरिणामत्वाच्चाग्रहणप्रायाग्या
चरणा वदितव्या: | ततोऽग्रहणप्रायाग्यात्कृएरवग शापत्तदा च
एकपरमाणवधिकस्कन्धरूपा वगणा वेक्रियशसीरप्रायाग्या
ज्ञघन्या वर्गणा , तता द्विपरमारवधिकस्वरूपाः द्वितीया
चैक्रियशरीरस्य ग्रहण॒प्रायोग्या वर्मणा, पवमकेकपरमाराव-
विक्रस्कन्धरूपा वेक्रियशरीरप्रायोग्या वर्गणास्तावद्वाच्या
यावदुत्कृष्टा च्रहणध्रायाग्या वगणा भवति,जघन्यायाश्चात्कृ्टा
अनन्तगुशेति । पये सत्र वैक्रियशरीरोत्कृश्वर्गणापक्षया
कपरमारवाचिकस्कन्धरूपा जघ्स्या अग्रहणप्रायोग्या व--
गणा । ततो द्विपरमारर्वाधकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणप्रा
योग्या! पवमकेकपरमारवधिकस्कन्धरूपा अग्महणप्रायोग्या-
चगेणास्तावद्धाच्या यावदुत्कृष्टा अग्नहण॒प्रायाग्या वर्मणाः।
ताश्च भ्रभूतट्व्य{निष्पन्नत्वात् सृन्मपरिणामापतत्वाच्च
वैक्रियशरीरस्याग्रदणयोग्याः। आहारकस्याप्यर्पपरमाणु
निष्पन्नत्वाद्रादरपरिणामोपतत्वाच्चाग्रहणयोाग्या, पवमुत्तर-
ज्ञापि भावना कायौ । अग्रदणध्रायोग्यात्कृएवगणापत्तया चे-
कपरमारावधिकस्कन्धरूपा वर्गणा आहारकशरीरप्रायोंग्या |
जघन्या वगणा, जघन्याद्या उन्कृष्टान्ताः। पता अपि यथात्तर |
अकोत्तरपरमाणुव्र॒द्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता भवन्ति, तत- |
स्तदुपरि रूपाधिकस्कन्धेरारब्धा आहारकतेजसयोसुक्लादेव
हेतारयोग्या जघन्या श्रग्रहणवर्गणा, जघन्याद्या उल्छृष्रान्ताः।
पता अप्यकात्तरपरमाणुत्राद्धमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव |
भन्तव्याः । तदुपरि च रूपाधिकस्कन्धारनब्धा तेजसशसीर-
निष्पादनहतुजघन्या तेजस शरीर वर्गणा, जघन्याया उत्कृष्टां
यावदेता अप्यकोनरच्रद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव म-
न्त्याः | तदुपरि चक्रात्तरपरमारावारन्धाः स्कन्धाः प्रागुक्त
हेतोरेव तेजसभाषयारयोग्यत्वादनन्ता अग्रहणवरणा वा-
च्याः । तदुपरि रूपाधिकस्कन्धैरारव्धा जघन्या भाषाव- |
गणा या भाषाथ जावाऽवलमस्वत, या च गृदात्वा चतावथ-
|
|
|
भाषात्वन पारणमय्य वसखूजतात भावः) जघन्याया उत्कृषश्ठा |
यावदता अप्यकेकपरमाणुचृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता
ज्यास्तदुर्पार च रूपाधिकस्कन्धेराब्धा जघन्या अग्रह
णुवगंणा जघन्यामादा कत्वान्कृषएठां यावदेता = =
भाखुब्रद्धिमतस्कन्धारन्धा अनन्ता अवयाः! तदप
रूपाधकस्कन्धेरारन्यः जघन्या आनापानवर्गणा भनति,
यां ग्रहीत्वा आनापानभाव नयति, जघन्याया आर ब्योत्क्रष्टां
यावदता अप्यकेको त्तरवृद्धिमत्स्कन्धारब्या अनन्ता सन्त-
ष्याः । ततस्तदुपरि पुनरकैकात्तरस्कच्धारव्धा जधन्याद्या
उनकृष्ान्ता अनन्ता एवाग्रहशावगणा वाच्याः | तद्रा च ।
इणबगणोपारे रूप प्रघ जघन्या मना निष्प्तिदतमना-
१६८
वगणा भवति, यां गृहीत्वा जीवः सत्यासत्यादिचतुर्विधमनो-
यागभावेन परिणमय्य चिन्तयति , जघन्याद्या उत्कृष्ठा-
न्ताः, एता अप्यकेकात्त रपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धा रब्धा अन-
न्ता श्रवस्या: । ततस्तदुर्पार एकेकपर माणुवद्धि मत्स्कन्धा-
रब्धा जघन्याद्या उत्कृष्टवगणान्ता अनन्ता अग्रहणवर्गणाः ।
तत उत्कृष्टाग्रहणवर्गणापरि रूपे प्राक्षप्त जघन्या ज्ञाना-
चरणादिहेतुभूता कार्मणवरणा भवति जघन्याया उत्कृष्टां
यावदेता अप्यकैकात्त रपरमाणुव्रुद्धिमत्स्कन्धा रब्धा अनन्ता
मन्तव्याः । अत्नोदारिकादिवर्गणा आदो कत्वा जघन्यमध्य-
मोन्कृष्टा अग्नहणग्रहण॒प्रायाग्या वर्गणाः। श्रौ दारि काग्रहणव-
गंणाः १ ओंदारिकग्रह णवर्गणाः २ अग्नहणवर्गणाः ३ बैक्रिय-
अ्रहणवगरणा: ४ अग्रहणवर्गणाः ५ आहारकवर्गणाः ६अग्नहरण-
वर्गणाः७ते जसग्रहणवर्गणाः८ञग्नह ण॒वर्गसमा: ४ भाषावगैणाः १०
अप्रहणवर्गणाः ११ आनापानवर्गणाः १२ अग्रहणवगंणाः १३
मनोग्रहणवर्गणाः १४ अग्नहण॒वर्गणाः १५ कार्मण॒ग्रहणवर्गणाः
१६ एवमेता ओंदारिकाद्याः कार्मणवरगगणावसाना चर्मणः
प्ररूपिता: इत ऊद्धमन्यत्र कम्भप्रक्ृत्यादिष्वन्या अपि धवा-
चित्ताद्या वगंणा निरूपिताः, ताथ्यहानुपयागित्वेन नाङ्कास्तत
एवावसयाः, संक्षपरुचिसत्त्वानुग्रहाथत्वात्पस्तुतप्रारम्भस्ये-
ति। उक्ता वगणाः, एताश्च बहुतरपरमाखुनिचयरूपा अभि-
हिताः, अतः कियन्मात्रे त्तत्र ता व्याप्ठुवन्तीत्याद-“खहुमा
कम्म त्यादि पता चओ्रोदारकाद्या वर्गणा: ऋमात् कमणात्तरो
त्तरपारपास्या सचा ज्ञातव्धाः। अयमथः- प्रथममग्रहण-
वगणा श्रादारिकस्य सृच्माः, ततस्तस्यैव ग्रहणवर्गणा
सृच्माः, ततप्तस्यव अग्रहणव्भणाः सृच्माः । तता वेक्रिय-
स्य ग्रहणवगणाः स्ृ्माः, ततस्तस्येवाग्र हणवर्गणाः सूक्ष्म
तत आहारकग्रहणवर्गणा: सूच््मा), ततस्तस्येवाय्रहणव-
गणाः सखूद्मा।। ततस्तेजसस्य ग्रद्णवर्गंणाः सृच्माः, तत-
स्तदग्रहणवभणाः सृन्माः। ततो भापाग्रहणवर्गणाः सूच्मा
ततस्तद्म्रहणवगणाः घृदमाः, । तत आनापानग्रहण॒वगणाः
स्ृद्माः, ततस्तदग्रहणवगेणाः सूच्माः । तत आनापानग्र-
हणवगणाः सचमाः, ततस्तदग्रहणवगेणाः सृच्माः, त-
ता मनाग्रहणवगणः सूदमाः, ततस्तदुग्रहणवर्गणाः स
च्माः, ततः कामण॒ञ्रहणवगैणाः सद्मा इति । “ अबगाहा
ऊरणएणगुलच्स खसु ” त्ति अवगादन्ते अवस्थाने कुर्वन्ति
वगणा यास्मन्नसाववगाहो ऽवस्थानक्तेचम् , स च कियन्माज्र
इत्याह--ऊनोनाङ्खैलास ख्थयांशो न्यूनो न्यूनतरो ऽङ्कुलस्या-
सख्ययांशो5ड्ुुलासंख्येयभागो यत्र स ख तथा । एतदुक्ल मवति
पुद्रलद्रव्यारं हि यथा यथा प्रभूतपरमाखनिदयः सप
दयत तथा तथा सृद्भसृच्मतरः पा.णामः सजायते, तत
आंदारिकवर्गणा: स्कन्धरानामवन्वहनाङ्कलासंसख्यभागः, स
एव तदग्रहणवर्गणानां न्यूनः । स एव वेक्रियग्नहणवर्गणा-
7 न्यूनः, तदग्रहणवरगणानां स पच न्यूनः । आहारकग्नह-
रवगरानां स॒ घव न्यूनः, तदन्रदणवगेणानां स प्व न्यून
तजसग्रहणवगणानां स एवं न्यूनः, तदग्हरणावरीणानां स
पव् न्यनः | भाषाशअ्रद गवगणा ग सर पत न्यून तद्ग्रहणे
गणानां स एव न्यृनः | दनापानग्रदणवर्गमणानां स ण्व
न्नः, तदृग्रहणवगणानां स ण्वन्दृतः । मनाग्रहणवर्गणानां
स एव न्वृनः, सदग्नृहणबर्गणानां ल एव न्यूनः । कार्मणग्र-
( ७६० )
आमभवधानराजन्द्र: |
तस्गणा
हगवगेणानां स पवाङ्कलासंख्ययभागा न्युनतर इत । उक्त |
वर्मणानां स्वरूपमवगादहन्नतमान च | |
अधुनेकादिव॒ द्ब्या वर्द्धमानानामग्रहणवर्गणालां
माणनिरूपणाया ह--
इक्तिकहिया सिद्धा-णंत सा अंतेरस अग्गहणा ।
सव्वत्थ जहन्नाचया, नयणतसाहया जदा ||.५७।।
परि-
एकरकपरमाणुः प्रानस्कन्धमाथक उत्तरप्रन्रुद्धा यासु
ता एकक्राधका एक्रकपरमारुत्रद्धा इत्यथः । अग्रहण
वगणा भवन्तीति यागः । क्रयत्य इत्याह-सद्धानन्तांशाः
सिद्धानामनन्ना $शा भागा यासां ताः सद्धानन्तांशाःस-
द्धानन्तभागवर्तिन्यः । उपलक्तषणत्वाद मव्यानन्तगुणाः। श्र |
सामाधारनिरूपणायाह--अन्तरषु -श्चन्तरालप्वादारिकवे- |
क्रियादिवगणामध्यष्वित्यध्ः अग्रहणा-अग्रहखवर्ग णा: पत- |
दुक्क भवात-ानजातन्जजपघनन्न्याग्रहण॒वग णकस्कन्ध य परमाण
वत्तऽभव्यराशिप्रमाणनानन्तकन गुणता यावन्ता भव- |
न्ति तावव्याऽग्रहणवगणा एकेकपरमाणुत्रद्ध अन्तरेषु
मन्तव्याः | अधुना व्रहणयाग्यवगणाखु निर्जानजजघन्यवर्ग-
णायाः सकाशात् स्वस्वात्कृष्रब्गणायां यावन्मात्राधिकत्व
तदाह-' सब्वत्थ जहन्नांचया नियरंतेसाहिया जिट्टा
वैच्र-सवास्वप्यो दा रिकवेक्रियाहारकत जसभाषानापानमनः-
कार्मणवरगणासु. जघन्या चासावुच्चिता चयाग्या च जघन्या
चिता योग्यअधन्यत्यथः | तस्याः
म्यकवचनस्य लुप । निज्ञन स्वकीयनानन्तांशानानन्तमा-
गाशिका समगला भवात । कासावित्याह -ज्यछ्ठा उत्कश ।
किसुक्के भवति-ओदारिकजवन्यग्रहणवगंणारस्मकस्कन्ध-
स्यानन्तभांग यावन््ता5णवस्तत्प्रमाणन विशषणोत्कृष्ठचग
शारम्भक एककस्कन्धाऽधिका मन्तव्यः। अत एवान-
न्तभागलब्धपरमःखूनामनन्तत्वनेकक परसाखुच्रच्या जाय-
प~
सकाशात्थाऊतत्वात्पश्च-
भाना जपघन्यात्कृष्टान्तरालबातन्य आदाग्कब्रगणा अध्य- |
नन्ताः सिद्धा भर्वान्त, एव चेक्रियाहारकतेजसभापा 5 5ना-
पानमनःकार्मणवगणास्वपि अ्रदणपरायाग्यासु निर्जानजज-
प्रस्यवगैणा रस्भकस्कन्यस्यानस्तभाग य अनन्तपरमाणव-
स्तावन्मात्रेणानन्तभागन स्वस्वाल्करण्रवर्मणारम्भक एकाः
स्कन्धा ऽधिक्ता वाच्यः, तस्य चानन्तभागस्यानन्तपरमा-
रुमयत्वनेक्ेकपरमाणुतरद्धाः सर्वग्रह एवरीणा अप्यनन्ता अब-
सयाः , कवलमुत्तरात्तरव्गणा स्कन्धानामनन्तगुखपरमा-
रएपचितत्वनानन्तभामा 5प्युत्तरानुपरवृद्धप्रबुद्धतर प्रदु द्वतमा -
दिभदेन नानावियों दृश्य इति। कर्म० ५ कर्म० | क० प्र०।
पे० से० | आ० चू० ! आचा०। १
दंगडकक्रमण चरगीणा उच्यन्त--
एगा णरइयारं वग्गणा , एगा असुरकुंमाराणं वग्ग-
णा, चउवीस दंडओ० जाव एगा वेमाशियाणं वग्ग-
खा, एगा मवसिद्धियाणं वग्गणा , एगा अभवसिद्धि
याणा वग्गणा , एगा भवसिद्धियाणं णेरहयाण वग्गणा- ¦ ड
०जाव |
एगा अभवसिद्धियाण णरहयाणं वर्गणा , एवं
एणा भवसिद्धियाणं वमाशियाणं वग्गणा, एणा अभ-
वशिद्वियायं वधाणियाण वर्गणा, एणा सम्महिद्विय,सां
वग्गणा, एगा मिच्छदिट्टियाणं वग्गणा, एगा समं
भिच्छदेट्टियाणं वग्गणा, एगा सम्प्रद्िद्वेयाण शेर
इयाणं वग्गणा, एगा मिच्छदि इयां णेरइयाणं वग्गणा।
एगा सम्मामिच्छ देद्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवै
जव थणियकुमाराणं वग्गणा, एगा मिच्छदिद्विया-
शं पुढविकाइयाणं वग्गणा, एव
मिच्छदिद्वियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियारं का
वि, चउरिंदियाणं वि, सेसा जहा नेरइया ०जा॥
कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा सुक्रपक्खयाशं बब्ग- `
णा, एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं बग्गणा, एग `
सुकपक्खियाणं णेरइयाणं वर्गणा, एवं चउवीसदं-
डओ भाणियव्यों एगा कण्हलेस्साणं वग्गणा, एग
णीललेस्साणं वग्गणा, एवं ०जाव सुकलेस्साणं ब-
ग्गणा , एगा कणहलेसाण नरइयाणं वग्गणा °जाः
काउलेस्साण नेरइयाणं वग्गणा , एवं जस्स जति
लेस्साओ , भवणवइवाणमंतरयुदविआउवणस्सइका-- `
इयाणं च चत्तारि लेस्साओँ, तेउवाउबइंदियतीदि-
यचउरिंदियाणे तिनि लेस्साश्रो , पचदियतिरिक्व- `
जोशियाणं मणुस्साणं छल्लेस्साओं , जोइसियाण एग |
तेउलेस्सा वेमाणियाणं तिन उवरिमलस्साओ, एग )
कणहलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्मणा , एवं छसु व
लस्सासु दो दो पयाणि भाणियव्वाणि । एगा कणह- `
लेस्सायं भवयिद्धियाणं नरइयाणं वग्गणा, एगा क
हलेसाणं अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं
जस्स जति खेस्साओं तस्स तति भाणियब्वा- `
ओ। ०जाव वेमाणियाणं । एगा कण्टलेसाणं सम्बरि
द्ियाणं वग्गणा , एगा कण्टलेस्साणं मिच्छदिद्धियारं
वर्गणा , एगा करुहलेस्साणं सम्मिचछदद्विरं ४.
वग्गणा , एवं छस॒ वि लेसासु ॥
जति जति दिट्टीओ | एगा कण्हलेस्साणं कण्हपक्खि-
याणं वग्गणा , एगा कण्हलेस्साणं सुकपक्खियाण
वग्गणा ० जाव वेमाणियाणं , जस्स जति लेस्साओं
एए अद्र चउवीपरदडया | ( प्रू° ५१५ ) |
तत्र ` नरइयारं ` ति निगेतम्-श्रविच्मानमयम्-इष्टफलं
कम्म यभ्यस्त निरयास्तघु भवा नैरथिकाः-ङ्गिषटखच्ववि- `
शषाः, ते च प वी धरस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभेः |'
द् दनकविघास्तषां च सर्दषां वर्मणा वर्ग:-खम॒दायः ,_
तस्याश्चक्त्वे सर्वत्र नारकःत्वादिपर्यायसाम्यादिति । तथा
श्रखुराश्च ते नवयोवनतया कुमारा इव कुम(राश्च्यसुर
( ७६१
वर्गणा अभिधानराजन्द्रः। ` ^ वा
| ^ |कुमारास्तेषामका वर्गणति , ` चडवीसदेड नि | भूमिखनने स्वाभाविकसम्भवाद् रवत् । श्रथवा--
चतुर्धिंशातिपदधतिव्द्धा इरडको वाक्यपद्ध॑तिश्चतुर्वि-- | सात्मकमन्तरिक्तादकम् .स्वभावतो व्यामसम्भूतस्य पातात् ,
शतिद्ण्डकः, स इट वाच्य इति शेषः, ( स्था० ) | मत्स्यवत् । आह च-- भूमिक्खयसाभाविय- संभवश्रो
एतदनुसारेण सत्राय वाच्यानि, यावच्चतुर्विश- ददय व्व जलमुत्तं । ” [ सात्मकत्वनेति ] अदहवा मच्छ व
। तितमम् । ` एगा वमाएणयाण वग्गण ` त्ति, पष सहा-ववामसभूयपायाश्रा ॥१॥ `` इति तथा सातम्मका
सामान्यदरडकः २;
स्तां तद्धम्मभूताया वर्गणाया एकल्वमनकत्वे चति, तथाहि-
न सन्ति नारकाः तत्लाधकप्रमाणाभावात् , व्योमकुखु-
ननु नारकसत्त्व दुरुपपादा आ- |
मवत् । अत्राचयत- प्रमाणाभावता द॒त्यासद्भधा हतुः, तत्सा- |
9 घकानुमानसद्धाचात्, तथाह>--वद्यमानभाक्कक प्रकृष्ठपा- |
पक्रस्मफलम कम्मंफलत्वात् , पुरायकम्मफलवत् । नच
तिङ्नरा एव प्रकष्ठरपापफलभुज:, तस्यादारकशरारवता |
` वेदयित मशक्यत्वात् , २ कृष्टपु
फलवत् । आह च--* पावफलस्स पगिट्ु-स्ख भोइणा क-
स्मओ 5वसस व्व । सति धुवे तेडमिमया, नरदया श्रद मई
हाज्ञा ॥ १ ॥ अच्चत्थदुक्खिया ज,
ते$भिमया । त॑ जग्रा खुरसोक्ख-प्पगरिससारिसं न त॑ दु
कंसे ॥ २॥ `` इत्ति । “अवसेसव्व” नि यथा नारकेभ्यों5-
न्य तियेडुतसा इत्यथः, अथ सुराणामपि विवादास्पदीभूत-
त्वात् विशि्टखुरजन्मनिवन्धनपरङृ पुण्य फलवत् इत्यासि --
डा दृष्टान्तः | अत्रोच्यत-देव इति साथकं पदम् , च्युतव्यु -
| त्पत्निमत् . शुद्ध पदत्वाव् , घ्रटाभिधानवादति । ततः सान्ति दे-
वा इति प्रत्यनव्यम् । श्रथ मनुष्येण गुणद्धि संपन्ननाथवद्
भविष्यति देवपदमिति न विवक्तितदेवसिद्धिरिति । अज्चो-
| च्यते- यदिदे नरविशषे दवत्वे तदो पचारिकम् , उपचारश्च
| तथ्याशसिद्धौ सत्यां भवति । यथा-निरुपचरित सिह सद्भाव
| माणवके सिहापचार इति, आद च--
^ देब जि सल्थय निदे, सुद्धत्तणओ चडाभिदहाणे च ।
शह व मती मणुआ जिय, दवा गुणरिद्धिसपन्ना ॥ १॥
तंन जश्रा तञ्चल्थे, सिद्ध उबयारआओ मया सिद्धी ।
तश्च^थ सीहालिद्धे, माणवसीहोवयारों व्व ॥ २॥ ”?
| आप च--
^“ देवेसु न स्देदो, जुत्तो ज॑ जाइसा स पञ्चक्खे ।
दीसेति तक्कया वि य, उपघायाणुग्गहा जगश्रो ॥ १॥
आलयमेत्त च मई, पुरं च तव्वालणो तद वि सिद्धा ।
ज्ञते देव न्ति मया, न य निलया निच्पडिखुरणा ॥ २।
* को जाणइ व किमय, ति होज्ञ णिस्ससयं विमाणाई ।
र्थशमयनभोगमणा-दिह जह विज्ञाहरादीणं ॥ ३॥ ”
दृति, तेषामखुरादिविशषः पुनराप्तवचनादवसय
ति । अथ प्रथिव्यत्तजोवायुवनस्पतिकायिकाः कथमिह
जीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः ? , उच््रासादिप्राणिधर्म्माणां ते-
ष्वप्रतीयमानत्वाद् । अत्रोच्यत--आप्तवचनादनुमानतश्र ।
तत्राप्तवचनमिदमेव । अनुमान त्विदम--वनस्पनयो
विद्र नलवणोपलादयः स्वस्वाश्रये वर्तमानाः सात्मकाः,
समानज्ञातोयाङ्करसद्धावाद् , श्र्णोविकाराङ्करवत् । | आह
च--* मसेकुरो व्व समाणं , जाईरूव ऽकुरोवलभाश्रा ।
इति
(4 ==
तख्गणावदमलवण-पलादया सासयावत्था ॥ ९ ॥ ” न ऋणगे
इति इह समान जातम्रहण शक्नाहुरव्यबच्छुदाथम , ख गद
न समानजातोथो भवतात ।
धरा--सात्मकमस्भा भाम
विशिषएटखुरजन्मनिवन्धनप्रङृएपुराय-- |
तिरियनरा नारग ज्ि |
वायुरपरप्ररिततियगानियतादिग्गतित्वाद् गोवत् । इह चाप-
रप्ररितग्रहणन लेष्रादिना व्यभिचारः परिहृतः, एवं निय -
ग्यहणनाध्वेगतिना धूमनानियमितग्रहणन च नियमित-
गतिना परमाणुनति। तथा तजः, सान्मकमाहारापादाना-
त् तदृद्धिशेपोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाञ्च पुरुषवद् । । आह
च-'* अपरष्पारियतिरिया, नियमियदिग्गमणश्रा निलो गा
व्व । श्रनलो आहाराओ, विद्धिविगारावलभाञ्रा ॥ ?॥
इति, अथवा-पृथिव्यप्तजोाबायवो जीवशरीराणि, अश्रा-
दिविकारवर्जितसूर्त जाती यत्वात् , गवादिशरीरवदिति । अ-
श्रादिविकागा हि मूतजानतीयत्वे सत्यप न जीवतनव-
स्तेन तत्परिहारो हेतुविशषणम्। आह च--* ठणओं
5णब्भाइविगा-रमुकत्तजाइक्तआउ5निलेताई । ( भूतानि--
ति प्रक्रमः) सत्थासत्थहयाओ , निज्ञीवसजीवरूबवाओ
॥ १॥ ” इति ।
वनस्पतीनां विराण सचतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयत-
“ जम्मजराजीवणमर-णरोहरणाहारदाहलामयओ ।
रोगतिगिच्छाईहि य, णारि व्व सचयणातरव ॥ १॥
छिक्कप्पराइयाछि -कमित्तसंकोयश्रा कुलिगि व्व ।
आसयसंचाराओ, वियत्त ! व्लीवियाणाहि ॥ २॥
सम्मादया व साव-प्पवाहसकायणादिश्रोऽभिमया।
चउलादयो य सद्दा-द विसयकालावलभावो ॥ ३ ॥' इति ।
सम्मादओं ' त्ति शम्यादयः , विसयकालोवलभाश्रो
त्ति विषयाणां-गीतखुरागणटड्रपकामिनीचरणताडनादीनां
काला वसन्तादिरिति, ' रागाभवसिद्धिये ` त्यादि, भवि-
ष्यतीति भवा- भाविनी सा सिद्धिः- निवृत्तिर्येषां त भ-
वजिद्धिका--भव्याः, तद्विरीतास्त्वभवसिद्धिका अभव्या
इत्यथः । ननु जीवत्वे समाने सति का भव्याभव्ययोर्वि-
शषः ?, उच्यत-- स्वभावतो, द्रव्यत्वन समानयाोर्जीवन-
भसारिव । आह च--“ दवाइत्ते तज्ञ, जीवनभाणं सभाव.
आओ भदा। जीवाजीवाइगओ, जह तह भव्वेयरविसेसो ।१।''
इति, राभ्यां विशपिताोभन्या दरडकरः २। ‹ पगा सम्म-
दिद्भियाण ` मित्यादि, सम्यग--अविपरीता दणिः-दशीनं
रूचिस्तत्त्वानि प्रति येषांत सम्यगष्टिकाः, ते च मि-
ध्यात्वमाहनीयत्तयत्तयापशमेभ्या भवान्त , तथा मिथ्या--
विपयासवती जिनाभिहिंतार्थसार्था श्रद्धानवती दृष्टिः--द-
शरन श्रद्धाने यषां त मिध्यारश्िकाः-मिध्यात्वमोाद-
नीयकर्मोद्यादरुचिताजिनवचना इति भावः , । उकङ्क--
आअ--' सृत्राक्कस्मेकस्या--भ्यरोचनादक्तरस्य भवति न--
मिध्वादण्रिः सूत्र , हि नः प्रमाएं जिनाभिदहितम् ॥
॥ १॥ `` इति | तथा सम्यक मिथ्या च दृष्श्यिषां ते
सम्यग्मिथ्याहष्टिका '--जिनाक्कभावान प्रत्युदासीनाः । इह
च गम्भीरभवादाघ्रमध्यविपरिवर्ती जस्तुरनाभागनिवरर्ति-
- ठ
तन गिरिसरिदुपलघालनाकल्पन यथाप्रवृत्तिकरतगन सपा-
१-' ।वयत्त ' त्ति गणधरामन्त्रणमिति |
( ७६२ ४६
श्भिधानराजन्द्रः।
वरगणा
वर्मणा
दितान्तःसागरोपमकाटाकोरीस्थितिकस्य मिथ्यात्वेद-
नीयस्य कर्मणः स्थितरन्तमुहतमुदयत्तणादुपयतिक्रम्यापूर्व-
करणानिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिवशषाशभ्यामन्तर्मुष्ट-
तकालश्रमाणमन्तरकरणं कराति, तस्मिन् छत तस्य कम्म-
रः स्थितिद्धय भवति, अन्तरकरणादघस्तनी प्रथमस्थिति- |
रन्तमुहत्तमात्रा, तस्मादेदोपरितनी रषा । वत्र प्रथमस्थितों |
अन्तमुहत्तेन तु |
मिथ्यात्वदलिक्वेदनादसो मिथ्यारदाष्टि!,
तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवॉपशापिकसम्य-
कत्वमाप्नात मथ्यात्वदालकवदनाऽभावात् । यथा ह-- |
द्चानल पूवद ग्धन्धनमूषर वा देशमवाष्य विध्मापयाति तथा |
मथ्यात्ववदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्मापयतीति तदेवं
सम्यक्त्वमोषधघविशपकल्पमासाद्य
शनमोाहनीयम् , अशुद्ध कमं त्रिधा भचति-अशुद्धमद्ध॑ विशुद्ध
विशुद्ध चात। त्रयाणां तेषां पुज्ञानां मध्ये यदा<5्॑विशुद्धः पुञ्ज
उदात तदा तदुद्यवशादद्धाचश्द्धमदंदृदष्टतच्वश्चद्धाने भवति
ज(वस्य, तन तदाउसो सम्यग्मिथ्यादष्िमिवति अन्तमुहर्त्त
मदग ्ाद्रचस्थानाय द |
यावत् तत ऊध्व सम्यक्त्वपुज्ज मथ्यात्वपुञ्ज चा गच्छुतात |
सम्बगरा्रानध्वाद्! ्रानन्नविश्चाषत।ऽन्या द्रडकः, तत्रच
नारकाद॒ष्वकादशखसु पदषु दशेनललयमास्त । अत उक्कम्- |
एवे जाव धरिष ' त्यादि पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेत
तेषां तनैव व्यपदेशः
मिच्छ" त्ति चतुदशगुणश्थानकवन्तख्रसाः,
मिथ्यादष्टय पवव्यर्थः ।
संल्िनामव तद्भावात्,
तयेव व्यपदेशः । एवं * तेइंदियाण वि चउरिंदियाण वि!
चि द्वीन्द्रियवद् व्यपदेशद्येन वर्गशेकत्वे वाच्यम् , पञ्च-
स्थावरास्तु
द्वीन्द्रियादीनां मिश्र नास्ति,
। उक्कख--* चादस तस ससया |
ततस्तषु सम्यगदष्टिमिथ्यादष्टि- |
न्द्रियतियगादीनां दशनत्रयमप्यस्ति ततखिघाऽपि तद््य- |
पदेशः । अत पवोक्कम्-- ससा जहा नेरइय ' त्ति, तथा
वाच्या इति शषः | दरडकपयन्तसूत्र पुनरिदम--“' पगा
सम्मदिद्धियाण वमाणियाणे वग्गणा, एवं मिच्छदिद्धियाणे
एवं सम्मामिच्छादिद्भियाण ” पतत्पर्यन्तमाह--“ जाव एगा
सम्मामिच्छे ” त्यादि ३। एगा कराहपक्खियारं ` इत्या-
दि कृष्णपक्षिकेतरयोलैक्षणम-“ जसिमवह्धा पोग्गल--परि-
यदधो ससश्ना उ स्सारो । ते खुक्पक्खिया खलु, अहि-
ए पुण किरदपरक्खीश्रा ॥ १ ॥ ” इति, पतद्विशेषितोऽ-
न्यो वरडकः ॥ ४॥ ” पगा करदलेसाण › मिर्त्या
श्यत प्राणी कमेणा यया सा लेश्या, यदाह--“' श्लेष इव
चणबन्धस्य कम्मवन्धस्थितिविधात्यः ” तथा--“ कष्णा-
दिद्रव्यसाचिष्यात्, परिणामो य श्रात्मनः। स्फटिकस्येव
तत्राय, लश्याशब्दः प्रञुज्यते ॥ १॥ ” इति। इय च श
रीरनामकम्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात् , योगस्य
शरीरनामकम्मपरिणतिविशेष्रत्वात् , यत उक्र प्रज्ञाप-
नाबुत्तिकृता-- यागपरिणामा लेश्या, कथ पुनर्योगपरि-
रामा लेश्या ?,. यस्मात् सयागिकवली शुक्गलश्यापरिणा-
मन चिहृत्यान्तमुंहत शप यागनिरोध कराति तताभऽयोगि
त्वमलश्यत्वे च प्राप्नाति; अतोष्वगम्यत ' योगपरिणामो
लण्य ` ति, स पुनर्योगः शरीरनामकम्मपरिणतिविशषः,
यस्मादुक्तम्-'' कम्म हि का््मणस्य कारणमन्यषां च
श्रोराणामि '` ति, तस्मादोदारिकादिशरीरयुक्कस्यात्म-
लि- |
ना वी्यपरिणतिवशषः काययोगः १ , तथोदारिक-
वेक्रियाहारकशरीरग्यापाराहतवागूद्रव्यसमूढसाचिव्यात्
जीवव्यापारो यः स वाम्यागः २, तथोदारिकादिशरीर-
व्यापाराहतमनाद्रव्यसमृड साचिव्यात् जीवव्यापारो यः स
मनायोग इति ३, ततो यथेव कायादिकरणयुङ्कस्यात्म-
नो वीयपरिणतियागी उच्यत-तथेव लेश्यापीति । अन्ये `
तु व्याचत्तत-' कम्मेनिस्यन्दा लेश्य ` ति सा च द्श्यभा-
वभदात् द्विधा, तत्र-द्व्यलश्या छष्णादिद्रव्यारयेव, भाव-
लश्या तु तज्जन्या जीवपरिणाम इति । इये च षयप्रकारा
जम्बृफलखादकपुरुषषदुदष्टान्ताद् ग्रामघ्रातकचोरपुरुष-
षटुदष्टान्ताद्वा आअगमप्रसिद्धादवसयेति । तन्सूत्राणि सु
गर्मान नवरं छृष्णवगीद्रव्यसाचिग्यात् , जाता ऽशुभपरिणा-
मरूपा कृष्णा, सा लश्या येषां त तथा, एवं गेषारयपि
पदानि, नवरं नीला इष खुन्दररूपा, एवमिति-अनने क्रमेण `
यावत्करणात्--* एगा कावायलेस्साण ` मित्यादि सूत्र्रथै
दृश्यम् , तत्र कपोातस्य--पक्तिविशषस्य वर्णन तुल्यानि
यानि द्रव्याणि घूम्राणीत्यर्थः, तत्सादाय्याज्ञाता कापोतल-
श्या मनाक् शुभतरा, सा ल्या यषां त तथा, तजः-
श्रप्निज्वाला तद्वणानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यथ:,
तत्साचिव्याज्जाता तजालश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णात्रि
यानि द्रव्याणि पीतानीत्य्थः तत्साचिव्याञ्जाता पद्मल-
श्या शुभतरा, शुक्लवर्शद्रव्यजनिता शुक्ला , अत्यन्तशुभ-
ति। एतासां च विशपतः स्वरूपे लेश्याध्ययनादवसेयमिति |
` एवं जस्स जइ ` त्ति नारकाणामिव यस्यासुरादेयो या-
वत्या लश्यास्तदुद्देशन तद्धरगशेकत्वे वाच्यम् , ` भवे "
त्यादिना तल्लश्यापार माणमाद । अन्न संग्रहणीगाथःः--
“काऊ नाला एकरा, लसा तिन्न हति नरएसु । | त
तइयाए काउनीला, नीला किणहा परिट्वाए ॥ १॥ कं
किणहा नीला काऊ, तऊ लसा य भवणवंतरिया ।
जोइससोहंभीसा-णु तउलसा मुणेयव्वा ॥ २॥
कप्प सणेकुमारे , माहिदे चव बंभलोए य ।
एएसु पम्हलसा, तण परं सखुक्कलेसा उ ॥ ३॥
पुढवी आउ वणस्सइ, बायर पत्तेय लस चत्तारि।
गब्भयतिरियनरेसु, छुज्लसा तिन्नि सेसारणं ॥ ४ ॥
छ्रये सामान्या लेश्यादरडकः ५! अयमेव भव्याभव्यविशे-
घणादन्यः , पगा कराहलेसाणे भवसिद्धियाणं बग्गण '
त्यादि , ` एवमिति कृष्णुलश्यायामिव ' छुखु वि ' ति छ
ष्णया सद षटसु , अन्यथा अन्या पञ्चैवातिदेश्या भव- | ,
न्तीति , दे दवे पदे प्रतिलश्य भव्याभव्यलक्षण वाच्ये, य~ |.
था--' पगा नीललेसाणे भवसिद्धियाणं बग्गणे ` त्यादि
| (७-५७ ८
६, लेश्यादरडक पव दशीनत्रयविरोषितोऽन्यः , ` पगा |
|
||
करण्हलेसाण सम्मदिद्धियाण ' मित्यादि , ` जेसि जइ दि-
ह्रो ` त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः सम्य
क्त्वाद्यास्तवां ता वाच्या इति । तत्र पकन्द्रियाणां मि- | .,
थ्यात्वमेव , विकलेन्द्रियाणां सम्यकत्वमिभ्यात्वे, शेषाणां .
तिस्राऽपि इप्रय इति ७, लश्यादण्डक एव छष्णणशुङ्ख-
पक्तविशिष्टो ऽन्यः , * पगा कणहलेसारंं कण्हपक्खियाण ' |
मित्यादि , पते “ श्रटुचउवीसदं डय ` त्ति, प्ते चेवम्- `
श्रोदो १ भव्वाईहिं , विसेसिओ २ दंसणेदि ३ पक्ले- |
हा
9
( ७६३ )
अभिध्रानराजन्द्रः।
वर्गणा
चरगणा
दि ४। लसादि ५ भव्व ६ दंसण ७, पक्खदि ८ विसिद्दुले-
सादि ॥ २॥ `` इति ॥
इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते--तत्र सिद्धा दिधा--
अनन्त रसिद्ध-परम्परासिद्ध भदात् , तत्रानन्तरसिद्धाः
पञ्चदशविधाः, तद्धगेशेकत्वमाद-
एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं ०जाव एगा एक-
सिद्धाणं वग्गणा, एगा अशिकसिद्धाणं बग्गणा, एगा
पटमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एवं ०जाव अणतसमयसि-
द्धा वर्गणा । एगा परमाणुपोग्गलाणं वग्गणा, एवं °
जाव एगा अणतपएसियाणं खधाणं वग्गणा । एगा एग- |
पएसोगादाणं पोग्गलाणं वग्गणा, ०जाव एगा असं-
खज्ञपएसोगादाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा एगसमय ट्वि-
तियाणं पोग्गलाणं वग्गणा, ०जाव असंखेज्ञसमय ट्टिति-
आ।र्ण पोग्गलाणं वग्गणा, एगा एगग्रुणकालगाणं पो-
ग्गलाणं वग्गणा ०जाव एगा असंखेज्ञ ०एगा अणंतगुण-
कासयाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एवं वष्मा गधा रसा फासा |
भाणियव्या °जाव एगा अणंतगुणलुक्खाणं पोगगलाणं
वर्गणा । एगा जहन्नपएसियाणं खधाणं वग्गणा, एगा उ- |
क्स्सपएसियाण खधाणं वग्गणा, एगा अजहन्नुकस्सप- |
शमियाणं खधाणं वमगणा, एवं जहनोगाहणयाण उको-
सोगाहणगाणं अजहन्नुक्रासोगादणगाणं जहन्नद्वितिया- |
शं उक््कस्सट्टि तियाणे अजहन्नुकोसट्टितियाणं जहन्नगुण -
कालगाण उक्कसगुणकालयाणं अजहन्नुक्की सगुण काल- ।
गाणं एवं वष्मगंधरसफासाणं वग्गणा भाणियव्वा, ०जाव |
एगा अदजन्नुकोसगुणलुक्खाण पोगगलाणं वग्गणा ।
(ष्रू० ५१)
॥ ३ क ` त्यादि 7यः (व ० # € |
एगा तित्थ ` त्यादिना, तत्र तीर्यते ऽनेनेति तीथम् , द्व-
श्यता नद्यादीनां समाऽनपायश्च भूभागो भोतादि प्रवचनं |
चा, द्रव्यतीथता त्वस्याप्रधानत्वाद् , अप्रधानत्वे च भा- |
बतस्तरणीयस्य ससारसागरस्य तन तसीतुमशक्यत्वात् ,
सावद्यत्वादस्यति, भावती तु सङ्घः, यतो ज्ञानादि-
भावन तद्विपत्तादज्ञानांदितो भवाच्च भावभूतात् तारय
तीति, श्राह च--' ज णाणदंसणचरि-त्तभावच्मा तत्विव-
कंखमावाश्रा । भवभावओ य तारे-इतेण तं भावओ ति-
त्थे॥ १॥ ” इति, तरिषु वा--क्राधा्चदाहोपशमलोभतृष्णा-
निरासकम्ममलापनयनलक्तणेषु ज्ञानादिलक्षणघु वा अथपषु
तिष्ठतीति त्रिस्थम् , भ्राकृतत्वात् तित्थं, श्राह च-- दा-
हावसमादख वा, ज तसु थयमह व द्सणाइसु । ता तत
. स्थ सङ्गा चित्रय, उभय च विससणुविसेस ॥ १॥ `` इयात,
“ विशेषणविशेष्य ' मिति तीथ सङ्घ इति, सङ्गा वा तीर्थ- |
मिति। जयो वा कोधान्निदाहोपशमादयोऽथोः--फलानि
सि तित्ति ' वृद्चवत् , आह च-- कोह-
ग्गिदाहसमणा-दआ। व त चव तिज्नि जस्सऽत्था। होइ ति-
हि य तमत्थसदो फलस्थऽय ॥ १॥ श्रथत्रा--त्रयो
६६
ज्ञानादयो ऽर्था.--वस्तूनि यस्य तत्त्यथप् , आह च-““ अह-
वा सस्मदंसण-नाणचरित्ताई तिनि जस्सःत्था। ते तित्थे
पुव्वोदिय--मिहमन्थो बत्थुपलाश्रो ॥१॥ ” त्ति ॥ तत्र
नीथ सति सिाः--निव्रतास्तीभथांखद्धाः, ऋषभसनगणध-
रादिवत् तेषां वर्ग्गणाति १, तथा श्रतीथ-तीथान्तर सा-
धुव्यवच्छदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमांगा मरुदेवी-
वत् सिद्धा श्मतीधसिद्धास्तषाम् २ , एवं करणात्-* एगा
तित्थगरस्िद्धाणे वग्गण ` त्यादि दश्यम् , ती थमुक्कलत्तणं
तत्कुव॑न्त्यानुलोम्यन हतुन्वन तच्छीलतया वेति तीधकराः,
आह च--'' अणुलोमहउतस्सी-लया य ज भावतित्थमय
तु । कुञ्वेति पगासात उ , ते तित्थगरा हियत्थकरा ॥ १॥
इति , तीथकराः सन्तो य सिद्धास्ते तीथक्रसिद्धा ऋष-
भावत् , तेषाम् ३ ३ छतीश्रकरसिद्धाः सामान्यकेवालिनः
सन्ता ये सिद्धा गोतमादिवत् तषाम् ४ , तथा स्वयम्-च्रा-
त्मना बुद्धाः-तत्व ज्ञातवन्तः स्वयेवुद्धास्ते सन्तो ये सि-
द्वास्त तथा तपाम् ५, तथा प्रतीलेकं किञ्चित् वृषभा-
दिकम् अनिव्यता्दिभावनाकारणं वस्तु बुद्धाः--बुद्धवन्तः
परमामिति प्रयकवुद्धास्त सन्तो य सिद्धास्ते तथा त-
षाम् ६ , स्वयम्बुद्धप्रत्यकवुद्धानां च वोध्युपधिश्रतल्िङ्गर-
ता विशेषः, तथादि-स्वयम्बुद्धानां वा्यानमित्तमन्तरणेव
बाधि; प्रत्यकवुद्धानां तु तदंपक्षया, करकराड्ादीनामिव-
ति, उपधिः खयम्बृद्धानां पात्राविद्ञादशविधः ; तद्यथा-
“ पत्तं १ पत्तावंधा २ , पायटुवण ३ , च पायकेसरिया ४।
पडलाइ ५ रयत्तारो , च ६ गाउ्छुआ ७ पायनिज्ञागो ॥ १ ॥
तिन्नेव य पच्छागा १०, रयहरणं १६ चव होइ मुहपोत्ति
॥ १२॥ ” त्ति , प्रत्यकवृद्धानां तु नवविधः प्रावरणवज्ज
इति, स्वयम्बुद्धानां पूवांघीते श्रुत अनियमः, प्रत्यकबुद्धानां तु
नियमतो भवत्यव,लिह्ञप्रतिर्पात्तिः स्रयम्बद्धानामाचार्यसान्नि-
घावपि भवति,प्रत्यक्रवु द्धानां तु देवता प्रयच्छतीति । बुद्धवा-
धिताः-आआचार्यादि्बाघताः सन्त ये सिद्धास्त बृद्धया-
धितसिद्धास्तषाम् ७, पएतषामव स्त्रीलिज्ञसिद्धानां ८ पुलिङ्ग-
सिद्धानां ६ नपुसकलिङ्गिद्धानां १० खलिड्डासिद्धानां रजा-
दरणाद्यपक्तया ११ अन्यलिङ्गसिद्धानां परिवाजकारदिलि-
सिद्धानां १२ गरहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभ्रतीनाम् १२
पएकासिद्धानामकेकास्मिन् समय पएकेकसिद्धानाम् १४ अन-
कसिद्धानामेकसमये द्यादीनाम् अष्रशतान्तानां सिद्धाना-
मका वरग्मणति १५। तत्रानकसमयसिद्धानां परूपणागाथा-
“ वत्तीसा अड्याला, सदा वावत्तगी य बोत्वा ।
चुलसीई छुन्नउई, दुराहियअद्भात्तरसय च ॥ १॥ ”
एतट्विवरणम्-यदा पकसमयन एकादय उत्कर्षण द्वा-
विशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयऽपि समय द्वाचिशद् , एवं
नैरन्तयेण अषौ समयान् यावत् द्वािशत् सिध्यन्ति, तत
ऊध्वमवश्यमबान्तरं भवतीति । यदा पुनख यसखिशत आरभ्य
अष्टचत्वारिंशदनता: पकसमयन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं सप्त
समयान् यावत् सिध्यन्ति, ततो ऽवश्यमवान्तर भवतीति ।
पव यदा एकोनपशञ्चाशतमादि कृत्वा यावत् बष्टिरेकसमयेन
सिध्यन्ति तदा निरन्तरं चट् समयान् सिध्यन्ति, तदुपरि
अन्तर सभ्रयादि प्रवति, पवमन्परापि योस्यम्। यावत् श्र-
श्शतमकसमयन यदा सिध्यति तदाऽवद्वमेव समयाय
( ७६४ )
ख्जिधानराजन्द्र। |
४.
न्तर भवतीति । अन्य तु उ्याचक्तत--श्रष्टौ समयान् यदा
नेरन्तर्येण सिद्धस्तदा प्रथप्रसमय जघन्यनेकः सिध्यत्यु-
त्कृएतोा द्वाचिशदिति, द्विनीयसमय जघन्यनेकः उत्कृष्टतो-
5एचत्वारिशत् . सर्वत्र जवन्यनैकः समयः.उन्कृष्टतः-"गाथा-
श्यां ऽये भावनीयः ” * वत्तीस ` त्यादि । एवमनन्तरसिद्धानां |
तीथादिना भूतभावन प्रत्यासाक्तिव्यपदेश्यत्वन पञ्दशवि- |
धानां वरग्गशेकत्वमुक्कम् , इदानीं परस्परासिद्धानामुच्यत,
तत्र-- अपढमसमयालिद्धाण ` मित्यादि, जयादशसू्ी, न |
प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्धितीयस- |
मयवार्त्तिनः तषाम् , ' एवं जाव ` त्ति करणाद् * दुसमयसि- |
द्धाण तिच उपचक्ुसत्त टदुनवद ससखज्ञासखज्ञसमयसिद्धाण
मिति दश्यम् ,तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयपु छ्विसमय- |
सिद्धादयः प्राच्यन्त, यद्वा-सामान्येनाप्रथमसमयाभिधाने |
विशषता द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वगणा, कचित् |
“पढमसमयासिद्धाणं नि पाटः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसि-
डलक्तणं भदमरूत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा एव
व्याख्यातव्याः, द्यादिसमर्यासद्धास्तु यथा श्रुता एवति ।
इत द्रव्यक्तेत्रकालभावानाश्रित्य पुद्रलवगेशकत्वे चिन्त्यत- |
पूरणगलनधर्माणः पुद्धलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति |
विशष्यति--परमारवा निष्प्रदेशास्ते च त पुद्धलाश्चति
विग्रहस्तेषाम् , एवे करणात् “ दुपणसियाण खंघधाणं ति~ |
च उ-पच-छ-सत्त-दु-नव-दसख-सखज्ञपणसियाणे असंख- |
ऊपदसियाणः मिति दश्यामिति । कृता द्रव्यतः पुद्धलाच-
न्ता । अतः क्षत्रतः क्रियते--' एगा एगपएसे ' त्यादि, एक-
स्मिन् प्रदेश क्षेत्रस्यावगाढाः-अवस्थिता एकप्रदेशावगाढा- |
स्तेषाम् तेच परमाणवादयो5नन््तप्रादेशिकरस्कन्घान्ताः स्युः, |
अचिन्त्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य, यथा पारदस्येकेन कर्ष-
श् चारिताः खुवसेस्य ते सप्ताप्यकीभवन्ति , पुनावीमि-
ताः प्रयागत: स्तव त इति। "जाव एगा असख्यज्ञपर- |
सागादढा रौ ति अनन्तप्रदशावगादित्वे तु नास्ति पुद्ट- |
लानाम् ,लोकलक्तषणस्यावगाटत्तत्रस्याप्यस्रस्ययग्रदेशत्वादि- |
ति । कालन आआह-' एगा एगसमए' व्यादि । एकं समये या
वत् स्थितिः--परमारुत्वादिना एकयदेशावगाढःदित्वेन
पएकगुणकालादित्वन वाऽवस्थाने यपां ते एकसमयास्यात-
कास्तषामिति । इह च अनन्तसमयास्थतः पुद्रलानाम-
भावाद्-श्रसखज्समयद्टितीयाण्' मित्युक्नामति । भावतः पु
द्रलानाद- एकेन गुणा-- गुणनं ताडनं यस्य स एकगुण
करुणः कालो-वर्णो यषां ते एकगुणकालकाः,
न कृष्णुतरक्ृष्णतभादीनां यभ्यः आरभ्यप्रथमनुत्कषेधरच्न्ति-
सचनीति भावस्तपाम्। एवे सवौरयपि भावसूत्राणि षष्ख्य-
{धिकद्धिशतधरमत्णानि ( २६० ) वाच्यानि विशतः कृष्णादि-
| वर्गय-देशी-वार्तायाम् , दे
| बग्गवग्ग-वगवग-पुं० । वर्गगुणितो वर्गों घगीवर्गो भवति ।
तारतस्य- |
भावानां तरयादश्वभिगुणनादिनि । साम्प्रतं भङ्गन्यन्तरण द्र |
{? दवशाषनाना जव्रन्याादभद्ामन्नाना स्कन्घाना वगणक-
न्न्वमाह- एगा जहज्न पएस्ियाणं' इत्यादि जघन्याः सवाल्पाः |
प्रदशा: परमाणवस्त सन्ति यषां त जघन्यप्रदशिक्राः- द्वध- |
रुकरादय इत्यथः, स्कन्धाः श्रणुसमुदयास्तेषाम् , उत्कषन्ती
युत्कर्षाः--उत्कर्प वच्तः उत्कृष्ट लेख्याः परम्रानन्ताः प्रदशाः-
अगचस्ते सन्ति यषां ते उत्कषप्रदशिकास्तेषाम् , जघन्या-
च उत्कषाश्व जघन्यात्कर्पाः, न तथा त अजघन्यात्क-
दीः, मध्यमा इत्यथः , त प्रदुशाः सान्ति यषां त अज-
धन्योत्कपप्रदोशिकास्तेषाम् , एतपां चानन्तवर्णतऽ्य एतषां -
जघ्रन्योत्कपरणड्दञ्य पदेश्यत्वाद कवग ्ात्वमिति “ जहन्नोगा-
हरणागाणं ` त श्वगाहन्त आसत यस्यां सा अवगाहना-
क्षत्रप्रशशर्पा सा जघन्या यषा ते स्वांथककप्रत्ययाज्ज-
घन्यावगाहनकास्तेषाम् ˆ एकप्रदशावगाढानामित्यथः , उ-
त्कपीवगाहनकानामसंख्यातप्रदेशावगाढानामित्यथेः , अज-
घन्योत्कर्षावगाहनकानां संख्ययासख्ययप्रदशावगाडानापि-
त्यर्थः । जघन्या--जघन्यसख्या समयापक्तया रि
त जघन्यस्थितिकाः , एकसमयस्थितिका इत्यथः
पाम् , उत्कर्षा उत्कषवत्सख्या समयापक्तया रि
पांत तथा तषामसख्यातसमयस्थितिकानामित्यथः ।
तृतीये कराछ्यम् , जघन्यन जघन्यसख्याविशषेकनेत्य-
. गुणो--गुणन ताडने यस्य स तथा, तथाविधः कालौ-
वरणो यषां त जघन्यगुणकालकास्तपाम् , एवमुत्कर्षगुण-
कालकानामनन्तगुणकालक्रानामित्यथः, तृतीयं करस्यम् ,
एवे भावसूजाणि षणिमावनीयानीति । स्था० १ ठा. | भ्ज्ञा०।
वग्गतव-वगंतपस्- न० । यदा घनः चतुःषषिपदात्मको धं
व-चतुःषष्टिपदात्मकेनेव गुरायत तदा वगा भवति, तदुषल-
क्षितं तपो व्मतप उच्यत । तपाभदे. उत्त० ३० अ० | त-
था भवाति वर्गश्वेतीहापि प्रकमाद्धगे इति वर्गतपः, तत्न च `
घन एव घनन गुणिता वग्गोां भवति, ततश्चतुःषष्टिश्च-
तुपष्टयव गुणिता जातानि षरणवत्याधिकानि चल
सदेख्राणि एतदु पलत्तित तपो बर्गतपः । उत्त० ३० आ०।
ना० ७ वर्ग ३८ गाथा ।
वर्गगुणितवर्गे, उत्त० ३० अ० । पृथक्सजातीयसमूहे, बृ० १
उ० ३ प्रक० । स्था० । “ श्रोता वम्गवग्गदि ” श्रनन्ता-
भिरपि वर्गवर्गाभिः-वर्गवर्गवर्गितमपि, तज तद्गुणो बग `
यथा-द्वयार्वगश्चत्वारः । तस्यापि वर्गों वर्गवगः, यथा-षोडश
पएवमनन्तशा वर्गितमपि | चूर्णिकारस्त्वाइ--अनस्तेरपि बर्ग
वर्गे:--खराडखरणडेः । ओ० ।
वस्गवग्गतव-वगवर्गतपस्-न० । वर्गवर्गोपलक्षित तपोमेद,
उत्त० । वर्गवगेतपः, तुः समुच्यय पञ्चमं पञ पूरणम
वर्ग एव यदा वर्गेण रुरायत तदा वर्गवर्गों भ्रवाति, तथा च
चत्वारि सहस्रणि षण्णवत्यधिकानि तावतेव शुखितानि `
जातैका कोटिः सप्तपष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिसहस्ननाणि द श्त
पोडशाधिके अड्भुताउपि २६७७७२१६, एतदुपलक्षितं तपो -
वगैवर्मतप इत्युच्यते । उत्त० ३० आ० ।
वग्गसं ख्या-वगसख्या-ख्ी० । वर्ग: संख्यानं यथा द्योवर्ग
श्चत्वारः * सदशहिराशिघात `` इात वचनात् । संख्याभदे, `
स्था० १० ठा० ३ उ०। र
वर्गसीह वर्मसिंह- पु । सप्तदशस्य जिनस्य प्रथमभिक्षादा-
यक, स०। |
वग्गु-वल्गु -त्रि० | शोभन, खत्र० १ श्रु० ४ झ० २ उ०।आण०्म०।
शक्रदवन्द्रलाकपालवैश्रवण॒स्य स्वनामख्याते विमाने, नपुं०॥
भम०३श०७उ०।(वक्कब्यता लोगपाल शब्द ऽस्मिन्नेव भागे ४५ | गी
पृष्ठ गता |) “दो वग्गू"। स्था०२ ठा०३ उ०। चक्पुराख्यपुरी-
विभूषितविजयक्तेजयुगले, स्था० २ ठा० ३ उ०। तच्च ज-
/
( ७६५ )
आभधानराजन्द्रः |
वग्घी
कि 5
हे 4 ~ 9 ~ भ न
| श्वृद्धीपे मन्दरस्य पश्चिपायां शौतोदाया उत्तरेऽस्तीति।
| स्था० ८ ठा० ३ उ० । मघुरे , “ ललियं बग्ग मंजु मजुलयं
| पतल कल महुर `' पाइ० ना० ८८ गाथा ।
| वाच्-स््री० | वचने, “वग्गु क्ति वा वय ज्ञिवा बयणेतिवा
श्कै
#९
| एगट्टा `` झा० चू० श्खण० । ४ 4 ग
॥ | बग्गुफल ` वल्गुफल न । शाभन, नारकराद्क फल, सूत्र
१ श्चु० ४अ०२उ०।
वाकफल- न, घमेकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपा-
||
| यथा वाचा वस्प्रादिलाभरूपे फले, सूज० १ श्रु० ४ अ० २ उ०।
| बग्गुर-वागुर-४० । पएरिमताल नगर जातिवन्ध्याया भद्राया
| पत्यो श्रेष्ठनि, आ० म० १ अ०।
बग्गुरा-वागुरा-स्ी° । सगवन्धन, विपा०
भ० | “ परिसवग्गुरा परिक्खित्ता ” वागुरा सगबन्धनम् ।
चागुरव वागुरा समुदायः | ज्ञा० १ श्रु० ४ अ० | आ० चू०।
ज्ञा० | ओ० ।
वग्गुरिय-वागुरिक-९० । पाशप्रयोगेय श्गघातके, ० १
उ० । नतेकभेदे, पं० चू० । खृगजालजीविनि, व्य० ३ उ० ।
बग्गुली वल्गुली -खी० । चम॑पक्तिविशषे , भ० १३ श० ६
१ श्रु० २आ०।
१ ० ६ उ०।
| बग्गुल्लीकिच्चगय-वल्गुली कृत्यगत- पु ° । वल्युलीलक्तणं कू-
त्ये कार्य गते प्राप्ते येन स तथा । वद्गुलीरूपतां गते,
भ० १३ श० & उ०।
| बग्गुवाइ-वल्गवादिन्-त्रि० । बल्णु-शोभनं-वदतीव्येवं शी- |
| लो वल्गुवादी । शोभनवादिनि, व्य० ८ उ० |
बग्गू-वाच्-स्त्री० । वारयाम् ,
बग्गेज़-देशी-प्रचुरे, दे० ना० ७ वर्ग ३८ गाथा ।
| बग्गोअ-देशी-नकुल, दे० ना० ७ वर्म ४० गाथा ।
बग्गोरसमय-देशी-रूच्ते, दे० ना० ७ वर्ग ५२ गाथा ।
करगोल-रोमन्थ-नामधातुः। उद्धीय चवैणे, “ रोमन्थे रो-
ग्गाल-वग्गोलो बी
लादेशः । वग्गोलइ रोमंथइ। रोमन्थयते । प्रा० ४ पाद् ।
वरघ-व्याप्र-पुं०। ` सर्वत्र लवरामचन्द्रे” ॥ ८।
रलाप;।'द्वितीयतुययोरुपरि पूर्वे:।८।२।६०। इति घकारोपरि
गकारः । प्रा० शादले, जी० १ प्रति०। ज०। प्रा० ! घ्रश्ष० | प्र
ज्ञा० । नि० चू०। स्था० । आचा० । (वाघ्र ) इति ख्या-
त सनखपदे जन्ता, प्रज्ञा० १ पद । “इल्ली पुल्ली वग्घो
सदला पुंडरीओआ य `” पाइ० ना० ४४ गाथा ।
स्था० ४ ठा० २ उ०। श्त्त० | प्रञ्च० | प्रज्ञा० । न० ।
ली - ` अ 2 १ आ०।
|
| उ० | स० । प्रञ्च० । जी० । चर्मजलूकायाम् , आचा० १ श्रु० |
श्र । स्था० । वश्च | भ० |
। ४। ४३ ॥ इति रोमन्थयत्रगगो- |
। ७६॥ इात
बरम्ह -व्याघ्रम्ुख- प° । गामुखद्वीपस्य परतो ऽन्तरद्वीप, |
भ- |
च । ( अन्तरदीव' शब्द प्रथमभागे ६७ पृष्ठ व्याख्याक्ता । )
वरधसीह-व्याघ्रसिंह-पुं० । सप्तदशतीथकरस्य कुन्थुनाथस्य |
वग्धाञ्-देशी-सादाय्य, विकसित च। दे० ना० ७ वर्ग
८६ गाथा।
वग्धाडिया-उ्याघ्राटिका-खी° । उपहासार्थरुतविशेष, ज्ञा०
१ श्रु० ८ अ० । उद्घट्टककारिण्याम् , बृ० ६ उ०।
वग्घारिय-देशी-प्रलम्बिते, सूत्र० २ श्रु० २आअ०। औ०।
प्रज्ञा० । जी० । “ गलाते सीओदगवग्घारियहत्थमेत्तेणं ग-
लतेण त्ति भिय होइ” आव० ४ अ० । ज्ञा० ।
वग्धारियपाणि वग्धारियपाणि -त्रि° । प्रलाम्बितभुज, भ०
३ श० २ उ० | दशा० । ज्ञा० | अन्त०। पश्चा० । ज्ञा० । प्रल-
म्बितभुजद्दये, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
| बग्घारियमन्नदामकलाव-वग्घारियमाल्यदामकलाप-ति० ।
अबलम्बितपुष्पमालासमूहे, रा०।
वग्धारियवुद्धिकाय-वग्धारियद्रृष्टिकाय- पु । श्रच्छि्नधारा-
वृष्टौ, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण |
| वग्धावच्च-व्याघ्रापत्य-पुं० । स्वनामख्याते व्याप्रषेरपत्ये, जञ°
७ वत्त० । यद्गोत्रे उत्तराषाढनच्तत्रम् । चे० प्र० १०
पाहु० ।
वगधी- व्याघ्री -खी० । खीत्वविशिष्टे व्याजघ्रासौ, आ० कण
१ अण० । त०। प्रज्ञा० । अनेकेषां व्याघ्राणां विकुर्बणालि-
कायाम् परिवाजकविद्याविशेषपारिपान्थन्यां जेनविद्ायाम् ,
| करप० २ अधिण० ८ क्षण । विश० | आ० म०। ल० प्र०।
व्याप्रीकल्पमाह--
यः स्यादाराधको जन्तुः, अ्रयस्तत्कीतनाद् धुवम् ।
इत्यालाच्य हृदा किचिद् , व्याघ्रीकरपं वदाम्यहम् ॥ १ ॥
। श्रीशत्रुअयनाभेय-चेत्रवप्रस्य कहिंचित् ।
| प्रतोलीद्वारमादुत्य, काचिद् व्याप्री समस्थिता ॥ २॥
|. निरीक्ष्य निश्चलाङ्गी ता-मातङ्कातुरमानसाः ।
| जेना; श्राद्धा जिन नन्तु, बहिस्तो न डूढोंकिरे ॥ ३॥
राजन्यसाहसी कोऽपि, तस्याः पाश्वमुपाखपत् ।
सातुतं प्रति नाकार्पौत् , , हिसाचेश्टां मनागपि ॥ ४ ॥
विश्वस्य वाहुजस्तस्य, कुतो ऽप्यानीय तत्पुरः ।
आपमिषे मुमुच साच, दशाऽपि न तदस्पृशत् ॥ ५॥
अथ श्राद्धजनो 5प्येत्य, त्यक्कभी स्तत्पुरः ऋमात्।
तरसा सरस भव्ये, पानीय चोपनीतवान् ॥ ६ ॥
तदप्यनिच्छतीं दषा, तां दध्यो जनता हृदि ।
नृनं जातिस्मरेषा ऽत्र, तीथ ऽनशनमाददे ॥ ७ ॥
स्छाध्यस्तियेगभवो5षप्यस्या--श्च तु द्वौ हारमुक्कित ॥
पकाग्रचचुषा चषा, दवमव नरात्तत ॥ ८ ॥
अशभ्यच्य गन्धपुष्पायेः, साधा: साधर्मिका धिया।
सेभावयांवभूवुस्तां, स्फातसङ्गतिकोत्सवेः ॥ ६ ॥
निराकारं प्रत्याख्यान, तथा तस्या अच्चीकथन |
मनसेव श्चदधाना, साध्वी चक्रे च तन्मुदा ॥ १० ॥
| इत्थ सा तीथमाहात्स्या-त्सम्रद्धाचछुद्धवासना ।
दिनान्युपोष्य सप्ता, नषएटपापा यया दिवम् ॥ ११ ॥
( ७६६ )
खासमिधानराजन्द्रः ।
_बर्घी
चन्दनागुरुभिस्तस्या, वपुः सस्कायं सक्ञितः।
प्रत्योल्या दक्षिण पत्त, शेलीं सर्ति न्यवीच शत् ॥ १२ ॥
तीयचूडामणिर्जीयात् , सेष श्रीविरलाचलः ।
भवेयुयेत्र तियञ्ा-ऽप्यवमाराध्काद्धिमाः ॥ ६३ ॥
व्याघ्रीकट्पामिम कृत्वा, श्रीजिनप्रससरयः ।
पुरायं यदाजयस्तन, श्रीसघोऽस्ल् छुलास्पदम् ॥ १४॥ ”
ती० ४६ कल्प। “व्याघ्रा तन्नैखाकारः करटको$-
स्त्यस्या श्च गौं० ङीष् कण्टकारिकायाम्, जातौ
ङीष । व्याप्रयोषिति, वाच० ।
वङ्क- वक्र -त्रि०। कुटिले," कुडिलं वह भंगुरं।” पाइ०ना० १७३
गाथा। कलङ्क, देशी-७ वर्ग ३० गाथा |
वङ्कच्छा-देशी-प्रमथषु, दे० ना० ७ वरः ३६ गाथा ।
वच्च-वज्ञ-धा०। गतौ, “बज-चत-मदां चः" ॥ ८ । ४। २२५॥
इत्यन्त्यस्य द्विरक्तश्चः । वच्चद् । बजति । प्रा° ४ पाद ।
काडुन्त॒-धा०। गाध्यै, "“काद्घराहाहिलङ्घा दिलङ्ख-वच्च-वेफ-
मह-सिह-विलुम्पाः'' ॥ ८ । ४। १६२ ॥ इति काङ्कतर्वच्चादे-
शः । वच्चइ । काङ्कृते । प्रा० ४ पाद् ।
वर्चस्-न० । तेजसि, प्रभावे, ज्ञा० १ ध्रु० १ अ०। पुरीषे,
घ० ३ अधि० । बु० । उत्त०। सूत्र० | गथ, त० । आाचा०।
“ वच्चं विद्धा पुरीस उच्चारो । ” पाइ० ना० ११४ गाथा।
ग्रहस्य समन्ततः स्थान, यत्र वा वचः करोति। गिदस्स
समततो वच्चं भरणति | पुराद डं वा वच्च पच्छेत ति वुत्तं
भवति, जे वा करति,तं वच्चसरणाभूमि भरणति। नि०चू०३
उ० । “वच्चसमुच्छिअज्ञा' वचेः-व्चःप्रधानानि समुच्छिता-
न््यन्त्राय्यड्ञानि वा यपां ते तथा | सूत्र० १ श्रु० ४ आअ० १ ड०।
वाच्य-ति० । अभिधये, स्या०।
वच्च॑सि वर्चस्विन्ू-त्रि० । शरीरकलोपेतत्वास् ( स० ) वि-
शिष्टप्रभावापते, भ० २ श० ४ उ० । रूपवति, आचा० २ श्रु०
१ चू० २ अ० १ उ०। बचो-बचने सौभाग्याद्पेतं यस्यास्ति
स वचस्वी। ज्ञा० १ श्रु० १ आ० । विशिष्टवचनयुक्ते ,
भ० २ श० ५ उ० | रा०।
वच्चकिमि-वच्च॑स्कृमि-पुं” । विछ्ठालझकमी, उद्रमध्य-
स्थविष्ठायामुत्पन्न द्वीन्द्रियजन्तुविशष, ते० ।
वच्चकुंडी-वर्चस्कुएडी-स््री० । विष्ठाकुण्ड्याम् , तै० ।
वचक्रूव -व्चैस्कूष- पं । विष्ठाभूतक्प, तं० ।
वच्चग-वर्चऋ-न० । दर्भाकारे तृणविंशंष , बू० २ उ०।
आचा० । तणरूपवाद्यविशष, जी० ३ प्रति अधि० ।
वच्चघर-वर्चोग्रृहू-त० । पुरापषात्सर्गस्थान सूत्र० १ श्रु० ४
आ० २ उ०।
वच्चसंघाय-ब्चेःसंघात-पुँ० | परमपाविञ्ञविष्ठा समूहे , ते० ।
वच्चामलिय- व्यत्याम्रडित- न० | श्रस्थाननिवद्ध पटने, स्वम-
तिचर्चितसत्र प्रक्िप्य पठन च । अस्थानविरतिस-
हित, आ० म० १ च्र० । आव०। आ० चू०।
एकस्मिन्नव शास्त्र यान्यस्थारनाननबद्धान्यकार्थानि सूत्रा-
शयकत्र स्थान समानीय पठता व्यत्याप्राडतम् , अथवा--
| बच्चाविष्पय-वल्ककविप्पक-न० । स्
ए्रवष्पक कुट्टितत्वग्रपस्तेन गनष्पन्न वलककावष्पकम् ॥ चु
|
त्याग्नेडितम् । अनु० । विशे० ।
णविशेषविष्पकजे, ““ पंचरयहरणाई परणणत्ताई । ते जहा--
उरिणयर उट्लिए साणाए वच्चाविष्पए मुजविप्पए ।'बृ०२उ०|
| बच्चीसग-वर्चीसक-पुँ? । तन्त्रीवाद्यविशष, अणु० । आचाण
चो ऽच्यादो `` ॥ ८।२।१७॥ इति
वच्छ -यक्तस्-न० ।
युक्तस्य छः | प्रा० । उरास, ज्ञा १ श्रुण्८ आअ०। | |
ज० | श्रा० । स० । “ˆ वच्छ उर ”। पाइ० ना० २५१ गाथा। '
गापुत्र, तरणआ वच्छा । पाइ० ना० २३५ गाथा ।
बत्स-पुं० । पुत्र,डिस्मे,स्था० १० ठा०३ उ०। श्रीऋषभदेवस्थ ,
पुत्रशतकान्तगत सप्तदशे पुत्र, कल्प० १ आधि० ७ क्षण।
स्था० । तच्छासिते कोशाम्वीनाम नगरीप्रतिबद्ध जनप,
ती० १० कल्प । प्रव० । प्रश्न० । सूत्र० ।
अथ पूवैसूत्राज्ञव्यऽपि वत्सविजयदिशियम विचि-
त्वात् सूत्रप्रवृत्तेरित्यन्तरमाह--
वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणेणं सीआ उत्तरेण दा-
िणिल्नसीदामुहवणे पुरत्थिमेणं तिउडे पच्चत्थिमेणं सु-
सीमारायहाणीपमाणं तं चेवेति । ( स्रू० &६ )
* बच्छस्स ` इत्यादि, वत्सस्य विजयस्य निषधा दक्षिणेन
तथा तस्यैव शीता उत्तरेणत्यादि स्पष्टम् न चेवे निषधा-
दयो लद्याः लक्षण वत्सविजय इति वाच्यम् , लच्यलत्त-
शभावस्य कामचारात् । प्रस्तुते च प्रकर णवबलात्- वत्स एव
लच्यत इति,सुसी माराजधानीप्रमाणम् ,तदेव-अयोध्यासम्ब-
न्ध्यव, प्रमाणाभिधानाय राजधान्याः पनरुपन्यासेन न पुन-
रुङ्किदाषः । जञ० ४ वत्त० । जम्बुद्धीपे मन्दरस्य पूर्वे सीताया
महानद्या दक्षिण चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ठा० ३ उ० |
दो वच्छा ( खू०-६२ + )।
मेगोछित्वास् वत्सानां द्वित्वम् । स्था० २ ठा० ३ उ०। ख-
नामख्याते ऋषिविशेषे, यो हि प्रसिद्धगोत्रविशेषप्रवर्तकों
उभूत् । कल्प० २ अधि० ८ क्षण । स्था०।
जे वच्छा ते सत्तविहा पापत्ता, तं जहा-ते वच्छा ते
अग्गिया ते मित्तिया ते सामलिणो ते सेलयया ते अट्टिसे-
णा ते वीयकम्हा ।
वत्सस्यापत्यानि वत्साः-शय्येभवादयः, स्था०७ ठा० ३३०।
वात्स्य- पं । वत्सस्यापत्य वात्स्यः । गगदि्यीजञिति
यञ्प्रत्ययः । बत्सापत्ये व॒त्सगोजीये पुरुषे, “ पभवं कच्चा-
यणं वेद् वच्छ सिज्ञेभवे तदा " । न०।
उक्त पं” । “वृत्तत्तिप्तयोः रुक्खछूढो ” ॥८।२। १२७ ॥ इति
रुक्खादेशाभावे, बच्छ: । चूतादो, प्रा० । पाश्वं, दे ना० ७
वर्ग ३० गाथा । “ सादी विडवी वच्छ महीरूहो पायवो दुमो
य तरू ` । पाइ० ना० ५४ गाथा ।
वच्छग- वत्सक प° । क्ुद्रवृक्तभदे, “ एलगदारगसारा वच्छगं
77. कोट्रूष ` दश० ५ अ० | आ० म० । आव० ।
.
११४
॥ 8
#
ति महानद्या दक्षिण सखनामख्याते विजयक्षेत्रयुगले, जे०
% वक्त०। 'वच्छावई विजए पमंकरा रायहाणी `` जं०४ वक्त० ।
दो वच्छगावरे ( खू०-8२२८ )।
मरोहिित्वाद् वत्सावतीद्वित्वम् । स्था० २ ठा० ३े उ०।
(वच्छणयरी वत्सनगरी -खौ० । कोशाम्ब्याम् , आ० म० १
। अ | आ० चू० |
वच्छभूमि -वत्सभूमि-खी० । कोशलायाः पूव्रविषय, आ० म
१ गण | आ० चू० |
बच्छवाली- वत्सपालौ
वाली परमन्न `` आ० म० १ अ० | आव० ।
बच्छमित्ता-वत्सभित्रा-खी° । अधालाकवासिदिकमारीम-
हत्तरिकायाम् , स्था० ७ ठा० ३ उ०। आ० क०। आ० म०।
०। गोप्याम् , ` तत्थव चच्छु-
आच० । जम्बूद्वीप मन्द्र पर्वत नन्दनस्य वनस्य रुूचककूट- |
देव्याम् , स्था० ६ ठा० ३ उ० | आ०चू० । ऊध्वलोकवासिन्यां |
दिक्रमारीमहत्तरिकायाम् , ज० ५ वक्ष० ।
बच्छराय-वत्सराज- पं । वत्सद्शमहाराज, आ० क० १
अ्र०
पाले, पिं० !
वच्छुल वत्सल-त्रि० । रक्षके, आव० ४ अ० । वत्सलस्तु
पुत्रादिस्नदात्मा । रातिभदे, हैम ।
चच्छलया चत्सलता-सखरा० । वत्सलभाव , अनुराग
१० द्वार । वात्सल्य, अनुरागयथावस्थितशुर्रत्कातनरूपा-
चारं , ज्ञा० १ श्र ० ७ अ० । प्रज्ञा० | | आ० म० । हतक्रार-
तायाम् , स्था० {० ठा० रे उ०।
बच्छुलिज़् -वत्सलीय-न० । श्रीगुप्तान्निगतस्य चारणगणस्य
प्रच
प्रथमकुले , कल्प० २ आंध्० ८ क्षण |
वच्छल्लन-वात्सल्य-त० । आचार्ग्लानप्राघूर्णकासहबालबु- |
द्धादीनामाहारापध्यादिना समाध्सम्पादन जी०
व्य० । प्रच० | साधामकाणां भङक्कपानायभाङ्ककरण,
२८ अ० | दश० | ग०। घ०।
इदाशि वच्छुल्ले तति दारं-
साधम्मियवच्छलूं, आहारा55तीहि होड सव्वत्थ |
आएसु गुरुगिलाण, तवस्सिवालादि संहे य ॥ २६॥
समाणधम्मों साहम्मिओ तुल्लधम्मा, साय साह साहु-
प्रतत०।
शी वा। चसद्दा--खत्त कालमासज्ज सावगो वि घेप्पाति, व- |
ऋत्ुल्लभावा वच्छ॒ुल्ल पत्रादेरिवलत्यथः । कटे केण वा कस्स वा
कायञ्च ? साहरण साहुणा सव्वथामेणं. एयं कायव्वं आहा-
रादिणा दव्वेण, आहारो आदी जसि ताणि इमाणि आहा
रादीणि । आदिसद्दातो वत्थ-पत्त-भसजासद-पादसोया-
ब्भज्ञणविस्सामणा दिखु य एवं ताव सब्वेसि साहम्मियाणं
वच्छुल्ले कायव्वं, इमालि तु विसेसिओ आएसो-पाइुणआझो
शुरू सू गिलाणो जरादिगदितो विमुक्को वा तवस्सी-वि
किट्ठंतवकारी वालो, आदिसद्दातो बुद्धा सहा महोदरो
[` । सेहो-अभिणवपव्वइतो । महादरो-जा बहु भुजति । स
विसेसति षवि आएसादिआणं जहा ऽभिदित।स सह वि-
4.
| वसन्तपुरनगर राक्मणापताजनदासश्रावकस्य गा
उत्त० |
| बच्छुवाल-वत्सपाल-पुं० । गोवत्सरक्षके , “
( ७६७ )
अआभ्ध्रानराजर
गावई-वत्सकावती -खी० । जम्वृदधाप मन्दरस्य पूर्वै सो |
चच्छाणुवधया
ससण सावससे सादरं सादिगयर सातसययरामात।
जा एव वच्छुल्ले प॒रयण ण क्रगात तस्त पाच्छ्रत्त भर्णात
सामरणण साहम्मियवच्छल्ले ण कराति ता मासलह ।
विससये भराणाति--
अयरेए् य गिलाणे, गुरुणः! लहुगा य खमगपाहुणए।
गुरुगो य बालवुडू, संह य महादल लहुओ ॥ ३० ॥
आयरियगिलाणाणे वच्छुल्ने करति चडउगुरुगा पत्तय.ख-
मगस्स पाहुणगस्स य बच्छुल्ले करात चउलहुगा पत्तय
वालवुह्धाण पत्तयं मासगुरुगा , सहमहायराणं पत्तये
मासलहुगो । वच्छल्ल त्ति दारं गतं। नि०चू०१ उ दृष्टान्तः ।
'वच्छुल्न वरो दिद्वुंतोी--भगव बइरो--वइरसामी उत्तरावहं
गआ,तत्थ य दुब्भिक्ख जाये, पंथा वाच्छिणणा। ताद सङ्खाडउ
वागओ शिन्थारहि' त्ति ताद पडविज्ञा आवाहिता संघ्रा
डिओ उप्पातितो, सञ्जायरा य चार्मण गना पासति
चिन्तइ य कोइ विणासा भविस्साति जण सघा जायति
इलएण विहालिछिदित्ता भरणात भगव साहम्मिआ त्ति। ताद
भगवया विलइतो इमे सुत्त सरंतण साहम्मियवच्छुज्नाम्म
उज्जुत्ता उव्वत्ता य सज्भाते चरणकरणम्मि य तहा तित्थ-
स्स पभावणाए य जहा वइरण कये एवे सार्हाम्मयवच्छ--
ज्लंकायब्ये। अहवा-खंदिसणा बच्छुल्ल उदाहरणे । नि
चू० १ उ०।
अधथाधिकारात्परवात्सल्यका रिणामतिस्तो कतामाह-
भूण अत्थि भविस्स-ति कड् तलुक्क्नमिअ्रकमजुअला।
जसि परहियकरणि-कबद्धूलक्खाण वालिही कालो, ३६।
भूते--अतीतकाल “अत्थि ' त्ति सन्त-विद्यन्त व--
तमानकाल भविप्यान्ति-भविप्यत्काल केचिदतिस्ताका-
एव ते पुरूषाः किंभूता: ? जैलाक्येन-ख्र्गमर्त्पाताल--
लक्षणन तक्निवासिध्राणिगणनव्यथः । नते कऋरमयुगले-
यषा त अलोक्यनतक्रमयुगलाः । ते के ? येषां पर--
दितकरेकवद्धलक्ताणाम् , परेषाम्--अन््येषां हित वात्स-
स्यं परहितं-परहितस्य करणं परहितकरणे तस्मिन् एकम-
द्वितीयं बद्धं लक्त वध्ये तस्य लयहतुत्वन कारणे कार्या-
पचाराज्नयो यस्त परदहितकरणेकवद्धलक्तास्तषां परहित-
करणकबद्धलक्षाणाम् एवेविधानां सताम् , ` बालिदहि' स्ति
प्रातत्वात् व्यतिचक्राम व्यतिक्रामति व्यतिक्रमिष्यति वा
कालः समयादिलक्षण इति । गीतिच्छुन्दः ग० २ अधि० |
स्वाम्यस्थाःङ-
पया तस्य, दष्टा प्रमुमुपागमत् | गोपालवत्सपालाद्या, वृ-
त्ताद्यन्तरिताः स्थिताः॥ ९॥ ” आ० क० १ आ०। “ वच्छी
वा वच्छुवाला अ `` पाइ० ना० १०३ गाथा ।
वच्छसुत्त-वक्षःसूत्र-त० । हृदयाभरणभूतखुवर्णसक्ुलके ,
भ० € श० ३३ उ०।
वच्छण-उक्तन-पुं० | वृषभे ,
णा" पाइ० ना० १५१ गाथा।
वच्छाणुव्रं धिया-वत्सानुबन्धिका-स्त्री० | वत्सः पुत्रस्तदनुब-
न्धा यस्यां सा वत्सानुबान्धिका । वैरस्वामिमातुः प्रबञ्या-
याम्, स्था १० ठा० ३ उ प भा० । पं० चू० |
“ उकखा बसहा य वच्छु-
( ७६८ )
आमवधानराजनद्र:
चच्छ्रायण
वच्छायण-वात्सायन्-७० | वत्सगात्रापत्य साहत्यशारत्रा-
चाय, स्था० दे ठा
उ०।
|
वच्छ्राव्रद- वत्पावता स्रा । प्रमङ्कराख्यराजधानावनूष्त- |
चवजपक्षत्रयुग « ज” ४ वत्त. ¦ स्था० |
वच्छास॒त्त-वक्षःसत्र न” । उत्तरासङ्गपरिधानीय, भ० ६
श ३३ उ० ।
वच्छी-वार्ञी -ल््ली० । चारुदत्तकन्यायां ब्रह्मदत्तचक्रि-- |
भायायाम् , उत्त० २३ अ०।
वच्छीउत्त- वात्सीपुत्र -पु० । वात्सीपुत्र , वच्छीउत्त जाण- |
द य चेाडले रावि च रत्तीओ | `` पाड ना० ६१ गाथा।
वच्छीवा -वत्साजीव -त्रि० । वत्सपालके, “ वच्छीवा वच्छ-
पालाय । '` पाइ० ना० १०३ गाथा |
वज्ञ त्रम्-घा० । उद्धंग, “ सडर-वाज्-वज्राः ।” ॥ ८।४। |
६६८ ॥ इति असवेज्ञादेशः । प्रा० ४ पादं ।
वज्ञ-न० । कुलिश. “ असणी वज्ञे कुलिस । ” पाइ० ना० |
६६ गाथा |
त्रज-घा० । गता. मागध्याम । व्जज
ति जकारः आदशभूतत्वात् द्वित्वम् | वज्ञ | बजति | प्रा० । |
वज्र -न० । दीर कर, ज० ३ वत्त । कुलिश, पञ्च[० १७ वि-
व० । कीलिकायाम् , स० । उत्त० । गुरुत्वादधः पातकत्व- |
ड० | |
]
न वा वज्वद् वज्रम् । पाप , खूत्र० १ श्रु०४ आ० २
श्राचा०। स्था० | षण्ठदवलाक्विमानमदे, स ।
॥ ८ ।४।२६४ ॥ इ- |
वर्जं त्रि० | वजेनीये वञ्यत इति वजम् । पाप, विश०। आ० |
म०।
धा लोकिकं, लोकोत्तरिकं च ( तच्च
मभाग ६६० पृष्ट द्गरतम्।
वज्ये-त्रि० | वज्यैत विवेकिमिरिति वज्यम् । व्य० १ उ०क-
माण, प्रञ्चः २ आश्र० द्वार |
चर्जनीयवस्तून्याह--
पंचुम्बरि चउविगई ४,
परिहार ' शब्द पश्च-
हिम १० विस ११ करगय १२ सव्वमद्दी य १३ ॥
रयणीभोयणगं चिय १४
बहुबीय १५ अ्णंतसघाणं १६ ॥ ५०॥
पन्चानामुदुम्दराणां समाहारः पश्चादुम्बरी, वटापिप्पल्यों दु-
म्बरप्तन्चकाका दुम्वरी फलरूपा समयर््रातिद्धा, सा मशका-
कार सृ्मचहुजीवरभ्रततवाढजनीया, तथा चतखो विरत
या-मद्यमांसमधुनवनीतरूपा वज्यौः, सद्य एव तत्र तद्धणा
नकजीवसंमर्छनास , तथा हिम शुद्धासख्याप्कायरूपत्वात्
तथा विष मन््रापदतवीयमपि उद्रान्तवार्तिगएडालका'दि-
जीवबिघातहतुत्वात् मसणसमये महामाहात्पादकत्वाच्च
तथा करका अप्यसेख्याप्कायिकत्वात्ू तथा सवाप म्ु-
त्तिका दर्दरादिपर्शा द्वयप्राणयुर्व्पात्तानामत्तत्वात् , सवग्रहरा
खटिकांद तद्भधदपरिशत्रहाथ तद्धक्षणस्यापि आआमाशयाद्-
टायजनकत्वात् , तथा रजनाभाजन बह्ावंधज'वबरूपातलभ
घन इहलीकिकपारलोॉकिकदापदुष्त्यात् तथा बहुबीजं पम्पो
टक्रादि प्रतिवीज जीवोपमर्द्सभवात् , अनन्तान्यनन्तका- |
अक्ृत्य , आव० ४ अ० । त° । वज तत् छि- |
यिकानि व , तथा
सध्रानमस्त्यानकं विस्वकादीनां जीवसंसक्िहेत॒त्वात् ,
तथा घोलवटकानि उपलक्षणत्वादामगारससंपृक्तद्धिदला-
निच केवलिगम्यसुक््मजीवसंसक्किसंभवात् , तथा वृन्ता-
` कानि निद्राबाहुल्यमदनाद्दीपनादिदोषदुश्तत्वात् तथा ख-
ये परेण वा येषां नाम न ज्ञायते तान्यज्ञातनामानि षु
ष्पाष्णि फलानि, अज्ञानता निषिद्धफलप्रवृत्तो बतभङ्गस-
भवात् , विषफलेपु प्रच्त्तो जीवितविनाशात्, तथा तु-
च्छमसारं फलं मधूकविल्वां
मरणिशिग्रमधूकोदेः, पत्र प्राचृषि तरडलिकादेः, बहुजी-
चसमिश्रत्वात् , यद्वा तुच्छुफलमधनिप्पन्नकामलचवल-
कशिम्बादिकम् , तद्भक्षण हि तथाविधा वक्िरपि ना
पजायते , दाप्राश्च वहवः सभवन्ति, तथा चलितरसं-
कुथितान्नम् , उपलक्तणत्वात् पुष्पितादनादि, दिनद्या-
तीते च दधि वजनीयम् , जीवसंसक्त्या प्राणातिपातादि-
लक्तणदोषसभवात् , एतानि ाविशतिसख्यानि वजेनी-
यानि वस्तूनि कपापरीतचेतसः सन्तो हेभव्यजनाः ! वर्ञ-
यत परिदरतति । प्रव० ४ द्वार ।
बर्य-त्रि० । “द्य-य्य-यों जः" ॥ ८।
जः । प्रा० । ज० । प्रधान, स्था० ७ ठा० ३ उ०।
वाद्य-न० । वादनकर्मी भूत ततादौ, स्था०।
[७ 4 = 4 ५
चउ व्विहे वज्ञे पण्णत्ते । तं जहा-तत वितते षणे सु-
सिरे १, ( ष्रू° ३७४ )
४ = ~ ~ ४५ -~- ~ +~ *-
वज्ञ ' 7त्त वाद्य तत्र--* तते वीणादिकं ज्ञयं, विततं
पय्दादिकम्। घन तु कांस्यतालापि, वेशःदि श॒षिरं म-
तम् ॥ ६ ॥ `` इत्ति | स्था० ४ ठा० ४ उ० | आ० म० । करटप०।
आ० चू |
अवद्य-न० । प्राकृतत्वात् अकारलोपः । संथा०। पापे, ब॒० १
उ० २ प्र ० ।
वज्ञकंद् -वज्रकन्द् -पुं० । कन्दविशेष, पव ०४ द्वार । ध०। भण ¦
वज्धकर-अवद्यकर- तरि० । अव्य पाप वज्ज वा गुरुत्वादधः
पातकत्वेन पापमव तत्करणर्शालो5बद्यका वज्ञकरों वा ।
पापकृति, सूज० १ श्रु० ४ अ० २ उ०।
। बज्ञकिरिया- वर्जक्रिया-खी० । आत्मार्थ गृहं निवैत्यै सा-
धुभ्यो दत्वान्यद् गृहं निवेत्य त्रापित्वा निवसति । शय्या
तर तद्दत्तग्रहवसतों, आचा० २ श्रु० र चू० २ अ० २ उ०॥
| ( ' कालाइक्तकिरिया ` शब्दे तृतीयभागे ४६५ पृष्ठस्-
। आणि ।)
| वजङ्मार-वज्रकुमार-पु° । यादववेशस्यान्तिमपुरुषे, स च
द्वेपाथनन दग्धायां &रवत्यामुच्छिन्नथाये यदुवंशे स्वभाया-
यां दृढप्रहारिणं नाम पुत्रमजीजनत् । ती० २७ कर्प ।
वज्ञण- वर्जन-न० । व्यजन, आव ० ५ अ० । विशे० । प्रव० ।
वज्ञणञ वदितु-त्रि० । वद-कतेरि तून। “ भक्त्यादीनां
वोन्ना 55दयः ` ॥ इति वदस्थाने वज्ञाऽऽदेशः । “ तृनः अ
“` ” ॥ ८ । ४ । ४४३ ॥ इति ठन: स्थाने अ-
, उपलत्तणत्वाच्च पुष्प |
२।२४॥ इति यभागस्य
४ ( ७६६ )
श्चा भधानराजन्द्र $
बह
५४ ए
शश्च श्रादेशः । वक्रि पडडु
संणड `" प्रा० ४ पाद् ।
वज्जणड खणड भ-
प्रथमभिक्तादायक , स० । ति०।
चज्जणिज्ज-वजनीय--रि० । व्ज्यत इति वजनीयम् । परि-
हरणीय , परश्च ४ आश्र० द्वार । पापे, विश०।
बज्ञतुड-वज्तुरड-तरि° । वच्नवद् टढमुख, “ कीलियाओ
बज्जतुंडियाओ विउव्बइ ” आ० म० २ आ०।
कं
| | बज्ञपृली-वज्रधूली -खी° । वञ्जवत्तीदणकणकरे णौ, “ सा- |
मिस्स उवरि वञ्जधली वस्सि वरिसइ ' आ० म० १ आ०।
वज़पारिवज्ि-वज्येपरिवर्जिन्-त्रि० । वजनीयं वज्येमरुत्यं
चरि गृह्यते तत्परिवर्जी । अप्रमत्त, आव० ५ अ०।
बज्ञपाशि-बज्पाणि-पु० । वज्नञ॑ वञ्नाभिधानायुध पाणाव-
स्येति वज्ज पाणिः । प्रज्ञा० २ पद । उत्त । कुलिशकर, उ-
क्षण २ अ० | आ० म०।
१ आ०।
वज़बहुल-वजबहुल॒-त्रि० । वज्वद्धज्ज गुरुत्वात्कर्म तद्हु-
लस्तत्करणप्रचुरस्तथा । वध्यमानक्मगुण, सूत्र० २
२\अ०।
बज्ञभीय-वज्ञभीत-तरि०। वज्-पापे कटमषमित्यथः । त-
स्माद् भीतो वज्भीतः | असयममीते, प चू० १ कल्प ।
आ० चू० । व्य० । आ० म०। प्रश्न०।
|
खः | पापभीते, बृ० १ उ० २ प्रक०।
वज्ञभूमि-वज़भूमि-ख््री० | लाटदशस्थे खनामख्याते गतै-
कराटकादिधधाने नगर, आ० म० १ अ० | आचा० |
वज्माणेरणं `" दुततुर्यंण वाद्यमान, विपा० १
वजयंत-वज्ज॑यत्-त्रि० । परित्यजति, सूत्र० १ श्रु० ११ अ० |
काचिद्यलोपः । “ वज्जंतो बीयहरियाई ” वज्जयन--परिह-
रन् | दश० ५ आ०।
बज्जर-कथ-धा० । वाक॒प्रबन्धे, “कथेर्वजर-- पञ्जरोपाल-
पिखण -सघ-वोल्ञ-चव-जस्प-सीस-साहाः ” ॥ ८ । ४।२॥ |
इति कथवै्ररादशः । श्रयं चापनरदेशीषु पठितो ऽप्यस्माभि- |
धात्वादशीकृता विविधेषु प्रत्ययघु प्रतिष्ठित इति । तथा
च-वज्जरिओ-कथितः, वज्जरिऊण-कथयित्वा, वज्जरण-
कथनम् , वज्ञरंता-कथयन् , वज्ञार अव्व-कथयितग्यमिति
रूपसहस्राणि सिध्यन्ति सस्छृतधातुवच प्रत्ययलापागमा-
दिविधिः । प्रा० ७ पाद् ।
वज्जरिसभनारायसंघयण-वज़र्प भनाराचसंहनन-न० । ना
अर मकटवन्धः, ऋषभः-तदुपरिवेष्टनपट्टः, की |
लिका अस्थि उभयस्यापि भेदकमस्थि एवं रूपं सदननं य- |
स्य सः तथा । प्रथमसरहनिनि, सू प्र
पाहु० | आ० चू०। |
बज्जणाम-वज्ननाभ- पं” । अभिनन्दनस्य चतुथेकुलकरस्य |
बज्जबेध-वज्रवन्ध-पं० । वज्रवष्ट, वज्जकालक, श्रा° चू० |
श्र० |
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बजभीरु-अवद्यभीरु-त्रि० । अकारलोपादवचे-पापे तदुभी- |
चज्जमाण-वाद्यमान-त्रि० । वादने कार्यमाण, “ चिप्पतरेण |
श्रु० रे अ०। |
। बजलाद-वज्जलाट-पुं० । लाटदेशवास्तव्यषु म्लच्छावशषषु ,
आए० म० १ श्र०।
| बज्जवित्ति-वर्यव्रत्ति-स्रो० । प्रधानजाविकायाम् , अनु० ।
स्था०।
| वज्ञसामि(ण )-वज्स्वामिन्-प° । श्रायवज्ज, नि० चू० १उ०।
वज्ञवद-वज्रवषएट--पु० । वच्र कालकायाम् , श्रा० चृ० १ श्र०।
| वज्जा--वज्ा-स्ना० । ' पारणामया ` शब्द पञ्चमभाग ६१७
। पृष्ठ उदाहतस्य काष्टठश्राप्रमायायाम् , आ० म० १ आ० ।
“ शत्तट्रुकड दाउ, जदण शस्त करइ वज्जाओ । जम्हा ते
पुव्वकयं, वज्जे ति अआ भव वज्ञा ॥ १॥ `" इत्युक्नलक्षण
दाष्युगुपाश्रय, आचा० २ श्रु० १ चू० २ अ० २ उ० ।
ग० । प० ब० । दे० ना०। ( 'वसहि' शब्दे विशष वक्ष्यामि ।)
| वज्जायरिय-वज्ञाचार्य--पएु० । आ्रार्थवज्ञस्वामिनि, ्रति० ।
वज्जि ( ण् )-वजिन्-पु० । शक्रेन्द्र, भ० ७ श० ६ उ० ।
वज्जित्ता-वर्जयित्या-श्रव्य०। अपहत्येत्य थे, पे० च० ३ द्वार ।
| बज्जिय-वर्जित्ू-जि० । रहिते, परित्राणविकले, सूत्र० १
† श्रु०१ श्र० २ उ०। त्यक्त, सखूतर० १ श्रु० २ अ० २ उ०। उत्त० ।
श्रावण ।
। बज्जियावग-ऐ० । देशी० । इक्तो, “ बल्िियावगो नाम उच्छु ”
इति वचनात् । व्य० १ उ०।
वज्जत्ता वजेयतुम्- अन्य । माक्रमिव्यर्थ, नि० चू० २० उ०।
वज्जेयव्वय-वजेयित॒व्य-त्रि० त्याज्ये, सूत्र० १ श्रु० १३ अ०।
स्था० । परिहार्य, सूत्र० १ श्रु० ४ आ० |
वज्क-वध्य-त्रि०। वध्य, “वज्जो वद्धा |! पाइ०ना०२३६गाथा |
वश्च-वञ्च-धा० । प्रलम्बने, “ व्चरवेदव-वलव-जूरवामच्छाः
॥ ८। ४। ६३ ॥” इति वज्जतेरते चत्वार आदेशा भवन्ति। इति
चञ्चतेरादेशत्रयादेशः। वह वइ । वेलबइ । जूरवइ । उमच्छुइ ।
चञ्च । वञ्चति । प्रा ४ पाद् ।
चृत्त-प्रवृत्त-मक्तिका-पतन-कदर्थिते टः"
८६
| बड़-शृ्- त° ।
॥ ८। २। २६ ॥ इति संयुक्नस्य टः । प्रा । श्रयोगोलकवत्
| (अनु०) वतुले, ज्ञा० १ श्रु० १ आ० | स्था०। सूत्र० । विशे०।
स्था०। आ० भ" । प्रज्ञा० । भ० । अन्तःशुषिररहिते परिम-
ण्डलरूप, भ० १४ श० ७ उ० ।
एगे बद्धे | ( प्रू०-४७ )
चरत्तसस्थान मादक्वत् , तच घनप्रतरभेदाद् द्धिधा । पुन
प्रत्यक समावषमप्रद्शाकवमाद(मात चतुथा ; स्था० १ ठा० ।
जा० | आ० | रा० | ज० | घ० | आच्या०। आआण० म० ।
बई-तेलापूयसंठाणसंठिए, बड रहंचकवालसंडाणसंटिए,
वड पुक्खरक पियास टाणसंटिए, बड -पडिपुष्पचंद संठ।ण-
संठेए ।
( * जवृदीव' शब्दे चतुर्थभागे १३७३ पृष्ठे इद् सूत्र व्याख्या-
तम् । ) विधिप्रतिषधरूपे वर्तने, षो० १ विव०। समाचारे ,
आ० म० ९ अ०।
( ०० )
सभिध्ानराजन्द्रः।
कट्
वत्मन् न । माग
नान माग स्थापयतात्यथः । आ०।
यट गाह इत वत्म ग्राहयात या-
बट्ठअ-वतंक-पुं० । ततात्तिरजातीय, सूत्र० १ श्रु० २आ० १ |
उ०। बृहत्तेर रक्पाद ( {नन चू ६ उ०। ) ( वरर ) रति
ख्यात पाक्ताण, आ” म० १ अ० । प्रश्न० उत्त०। नि०
चू? । जत्वादिमयगालके , ज्ञा० १ श्रु० (८ अ० । सृ० प्र० ।
वालरमणक्विशेप, अखु० ।
वडुत वतमान -जि० । विद्यमान ,
वर्तयत्-त्रि० ॥ परिवषयाति स्थ | ठा० =\ उ |
वटुखुर व्रत्तसुर-पु* । ठरङ्गम , बृ २ उ०। अश्वप्रधाने
आध० । [नम चू० ॥
वइखेड्ड-बृत्तच्वेड-पुं० न° । कन्दुकक्रीडायाम् , स० ७२
सम० | ओ० ।
बटूचणग-वृत्तचणकः -पुं° । मसूरधान्ये, स्था० ५ ठा० ३ उ०।
वदणा-वना- खी । वतेत ऽनवच्िन्नव्वेन निरन्तर भवती- |
“ चट्टणालक्खणों |
ति वना | कालकार्य , आत्मधारण ,
काला, जीवो उवश्रागलक्खणा ” उत्त० २८ अ०।
वद्र भावपरिणय-वृत्तमावपरिणत- तरि । वर्तुलाकृतो , जें० |
६ वक्ष० |
वट्टमाण-वत्तेमान-त्रि० । व्यवंस्थित, स्था” ६ ठा० ३ उ०।
व्याप्रियमाण, पञ्चा० १६ विच०। पं० सू०। तपा5ह प्रायश्षित्त |
वहति, व्य० १ उ०।
हरि स विषिन- ति । वत्तेमान-
वदु माणसुहसि ( ण् ) वत्तमानसुखाषिन्-
सुखमेव खुखामिह लोकखुखमाधाकर्मिकादुपभोगजमेषितु
शील येषां ते वत्तमानसुखेषिण' । समुद्रवायसवत् तत्काला-
वाप्तसुखलवासक्तचेतस्खु . अनालाचिताधाकर्मोपभोगजनि-
तातकदुकदुःखोघ्राचुभवनयघु , सृत्र० १ श्र० १ अ० ३ उ०।
वट्टमाणी-व वत्तेमानी-स्ज्री० वार्तायाम् , वत्तेन्यां च । "* कुस- |
लस्स.वा वद्धमारणीति `` आ० म० १ आ०।
वदरलोह - बरत्तलाह -न० । त्रिकुटीत्यभिधाने गोलायसि, औ०। |
९ ¢ च पट्याकार त्वात्
वड् व यइूपव्वय वृत्तवेताट्यपवत 3० । त्त, पल्याकारत
वेताद्या नामता चत्तवताल्यः। स च प्रचतश्चात वृत्त-
वंताद्यपचतः; । स्वनामख्यात पवत , स्थरा०।
जबूम्रदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहंणेण हेमवएरनवणएसु ।
वासेसु दो वद्वेयड्डपत्वया पन्नत्ता तं जहा-बहुस--
मउन्ना अविसेसमणाणत्ता ०जाव सदावाई चेव, वियडा-
वाई चेव|तत्थ णं दो देवा महड्डिया ° जाव पलियोवमट्टि तिया -
परिवसंति,तं जहा-साई चेः,पमासे चैव! जंबूमंद्रस्स उत्तर-
दाहिणेणं हरिवासरम्मएसु वासेसु दो वड्वेयड्रपत्वया पन्न-
त्ता,त॑ जहा-बहुसमतुन्ना ° जाव गंधावाई चव, मालवंतपरि-
याए चेव । तत्थ णं दो देवा महड्डिया चेच पलिवओ-
मद्या परिवर्सति, त जहा-अरुणे चेव, पउमे चेव |
( ध्र° ८७ + )
सूज० १ श्रु २अ० ४ उ०। |
|
| बहुल -वहुल--वि” । चतुल
|
|
|
| वडप्पय-वंडप्पक - प।काष्ठयन्त्रविशेष, ४ आश्र०द्वार |
जब्र ` इत्यादि “ दो बद्वेयड्वपव्वय ” ति द्वौ वृत्तो प-।
स्याकारत्वात् वेताढ्यों नामतः तो च तो पर्वतौ चेति वि-
ग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाणौ रजतमयो , तजर है
शब्दापाती उत्तरतस्तु एरण्यवते विकटापातीति |
^, तत्थ ` त्ति तयोचरत्तवेताढ्ययाः क्रमेण स्वातिप्रभासों
देवो वसतः, तद्धवनभावादिति । एवं हरिवर्ष गन्धा-
पाती रम्यकवर्ष माट्यवत्पयायो देवों क्रमशेवेति ।
चतुधस्थाने चत्वारि--
सव्व विण वद्व्रयडइपव्वया दस स मि उड्
चत्तेण दस गाउयसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समा
णसंठिया दस जोयणसयाई विक्वंभेणं पत्ता । (षू०७२२)
सर्वेऽपि वृत्तबताब्यपर्चताः विशतिः प्रत्येक पञ्चखु च्व
तेरण्यवतहरि वधर म्यकप्वेषां शब्दावती विकटावती
वती मास्यवत्पर्यायाख्यानां भावादिति, वृत्तग्रहणं दीर्धैवै-
ताद्यव्यवच्छदाथामात । स्था० १० ठा० २३ उ० । ३
वद्रावरय-वतीवरक- पुं । लोष्ठकप्रधांन, भ० १६ श० ३ उ७
वद्भि-वर्ति--खी० । गुटिकायाम् , , औ० । |
व्टिजमाणचरय-वर्त्ममानचरक-पुं०परिवेप्यमाणचरके,औण
वद्धिम-देशी-अतिरि क्व, दे० ना० ७ वर्ग ३४ गाथा |
वद्टिय-वर्तित-लि० । वृत्त, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार । आचा०। |
ओए० । ज्ञा० | बद्धस्वभावानुपच्ितकरिटत्वभाव, रा०।
बइ-बइ--न० । अएकमये भाजन, बृ०१ उ०। कमठक, बृ०१३०॥
वद्कर--वद्धकर--ए० । यत्तनद्, वद्यासाहूम स्त्री० ।
स्म क० १ अ० ।
४६
पेढालनिअक्ल बट्लाई परि
मडलरत्थम्मि ” । पाइ० ना० ८४ गाथा । |
वट्टेलिखेडग-बड्टें लि(ली)खेटक-पुं.। अवद गिरिसविधे खनाम- |
ख्याते ग्रामे, यत्र वर गच्छः प्रथममजनि | व्य० २ उ० | “ अथं
युगनवनन्दामिते, वर्ष विक्रमन्भपादतिकान्ते । पूर्वावनितों
विहरन् , सो ऽवुदखुगिरः सविधमागात् ॥१६॥ तत्र वद्धलि-
खटक-सीमाबनिसस्थवरवराघः।सखुमुहत स्वपदे ऽषट, खन्
सस्थापयामास ॥ २० ॥ `` ग० ३ आंधघ० |
वड-वट- प° । वृक्षभेदे, परज्ञा० १ पद् । प्रा० ओ० | आ० म०।
वटके, विभागे, आ" चू० ५ अ० । अनु० । मत्स्यभेदे,
परज्ञा० १ पद् । वटवृक्षाधो दीक्षा भवति | बृ० १ उ० २ प्रक०।
वडग- घटक -न० । जिसरीमये निकृष्टकोशयसत्रे, ज्ञा० १ श्रु०
१ अ०।
वड़गच्छ-वटगच्छु--९० । वटधेलीखेटकसी मावनिसंस्थवरव-
खाधःसस्थापिते बुद्धगच्छे, ग० ३ अधि० । ( ' वहलीखेडग'
शब्दा षीच्यः।)
वगर वटक्रर-पु०। मत्स्यभेदे, जी० १ प्रति० । प्रज्ञा०।
वडपायव- वटपाद प-प०।वटनामके वृक्तविशेषे, उत्त ० १३अ०। । #
वडभ-वडभ् त्रि°। मड़हकोष्ठे, दशा० १० आ० । एकपाश्वै-
हीन, प्रव० ११० द्वार | नि० चू० । श्राच० । बृ० । वामने, वि-
निरगतपृथिबीवडभे, श्राचा०'६ श्रु० २ अ० ३ उ०।
~
| ~ 3 श्रम 0४
_वटभिका -ख््री० । वक्राधः कायायाम्, औ०। म
डहकोप्ठाधिपत्यां दास्याम् , रा०।
-वटर-पु? । मूख, अष्ट० २३ अए० ।
-वटबृत्ष-पुं० । वटवृक्ते, “ नग्गाह वडरूक्खे `` पाइ०
ना० २४७ गाथा ।
(इबड- ! वलय धाऽ । चबलपन
ॐ ८। ४। १४८ ॥ इति विपुवैकस्य लपवेडवडदेशः । वड-
चड़ । विलपति । प्रा० ४ पाद् ।
-वडवा-स्री० । घारक्याम्, “ तुरागिश्चा वडवा
पाइ० ना० २२६ गाथा ।
-वडवागुख-न० । च तषु महापातालेषु मध्ये प्रथमे
महापाताल, स्था० ४ ठा० २ उ०।
वलया[य ]मुख-पु० । चतु महापातालेषु मध्य प्रथमे म-
हापाताल, स्था० ४ ठा० २ उ० ।
_ देशी-पक्तिभदे, दे० ना० ७ वग ३३ गाथा ।
'डार-वटा|चार-पुं? | वडो वण्टगा वा एगट्ट । आरितो आय-
रितो बडारो इति | विभागव्यवहार,नि०चू०८३० | आण्चू० ।
(ड।ली-देशी- पङ्क्तो, ३े० ना० ७ वर्ग ३६ गाथा ।
(डिसय-अवतंसक--पु० । शखरक, कपूर च । श्रवतसक
इवावतसकरः । प्रध्याने, स० २०० सम० । रा० । श्रो० । ज्ञा०।
स्था० । भ्रष्ठ, ज १ वक्त ।
डिसा-अवतस [सि ]का-खरी०। किन्नरनाम्नः किन्नरेन्द्र स्या-
ग्रमाहष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ०। भ०।
।डिया-वटिका-स्त्री ० । वरी इति ख्यात पदार्थ,प्रज्ञा० १ पद् ।
|अब० । वर्धपट्टिकायाम् , औं० ।
_ लोहकी लके,उत्त०२अ०।
« विलपर्भख- च डवडो
डु-वटु-पुं० । ब्राह्मण, ब्रह्मचारिणि, विश०।
-बटुक-न० । कमठके, व° ३ उ० | स्वनामख्याते वाणा
रसीराज, आ० म० १अ०।
-वटुकर-पुं० । गुडाकरपुरजात स्वनामख्याते वाद-
पराजितपरिवाजकजीव, श्रा क० १ अअ०। त्रा० म०।
--अवतंसक-पुँ० श्रवतसक इवावतसकाः । शिखरे,
ज्ञा० १ श्रु० १ आअ०।
इति वुद्धस्थान वड़ादेशः । प्रा० । महति, श्राव० ४ अ० ।
-वृहत्तर- चि । गोणादित्वाद् पसिद्धिः
महत्तरे, प्रा० । दे० ना०।
कुमारी--बृद्धकुमारी-स्त्री । विन ( ण ) यशब्दे उदाहरि-
प्यमाण मालिन आत्मसमर्पयाति स्त्रीभदे, नि० चू० १ उ०।
दश० । कोमार्यवस्थायामव वाद्धंक्यमनुभवन्त्यां सियाम्
नण चु० १ उ०।
“वृद्ध-पु० | वृद्धा, क्थ वधा
धस्य ढः | वहृद । वधते । पा० ४ पाद ।
२०१
( ८०१ )
अभिवानराज
ण
वङ्द-वधाके-पु० । सत्रघार, स्था० ७ ठा० ३ उ० । सूत्र” ।
रथादिनिमापयितरि, स० १४ सम० । न० । “ रहयारा वह
इणो ` पाइ० ना० १०३ गाथा ।
| बड़॒इरयण-वर्धकिरत्न-न० । अत्युल्कष्ट खत्रधारे, स्था० 3
ठा० रे उ० ।
वदत -बद्धयन्तक - पुं” । ऋमशो वृद्धि प्राप्ते विहार, पे० चू०।
^“ बहत ति जहा भद्धारओं एगागी पव्वज्जइओ पच्छा केव-
लनाणाइविभूई पत्तो इंदभूदप्पमुदा च(दससमणसाद -
स्ीसर्पारवुडा ` । प० चू० २ कल्प ।
बडणी -वा्न। - खरी” । गलन्तिकायाम् , ज० २ वक्त० ।
बहृप्पण-षृद्धत्व-न° । त्वस्थाने-प्पणादेशः । महत्त्व ,
बतलोः प्पणः `` ॥ = दशर त्दन-
लोः प्रत्यययोः प्पण इत्यादे शो भवानि । `` बह्ृप्पखु पार पादि-
अइ "प्रायो ऽधिकाराद्-""बहृत्तणदो तण प्रा० ४ पाद् !
वडुमाण-वर्धमान- पु । उत्पत्तरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धते ईन
वद्धमानः। घज २ अधि० । करप० । “ चट् नायकुले नि य,
तेण जिणो वद्धमाणो त्ति ` । घ० २ अधि० । स्वकुल स-
मृद्धदेतुतया पिठ॒भ्यां कृतवर्धभानाभिधान, पा० । वीरज
नन्द्र, अस्यामवसर्पिणयां जात चतुर्विंश ती धकर, स० । ने० ।
आए चू० ( ` वीर' शब्दे सवा वक्तव्यतां वच्यामि। ) स्वना-
मख्याते चान्द्रकुलीये, आचार्य न्द्र कुल सद्वनकन्त-
कल्पे, महाद्मा घधर्मफलप्रदानात् । चछायान्विताशस्तविशा-
लशाखः, श्रीवध्रमानो मुनिनायकोा ऽभूत् ॥॥ ” भ० ४१
श० । द्वापणएटितमे महाग्रहे,स्था०२ ठा०३ उ०। च०्र०। कल्प० ।
बड्डिअ-देशी-कृपतुलायाम् , दे० ना० ७ वर्ग ३६ गाथा ।
६६ ~
॥ = ४ ~25॥
| बड़िय-वर्धित-त्रि० । वृद्धिसुपरनीते, भ० ६ श० ३३ उ० ।
| बड्ियग-वर्दधितक्-पु० । इाजरमनपुसक, यस्य हे आयत्या-
डिसामिस-व डिशामिष्-न० । मत्स्यगलमांस,द्वा० २३ द्वा० |
राजान्तःपुरमहल्लकपदप्राप्त्यादिनिमित्त यस्य वालत्वे5पि
छेद दत्त्वा बृषणी गालितो भवतः । ग० १ अधि० । च०। पे०
भा०। प० चु
| वण-वन-न० । एकजातीयबृत्तसमुदाये, भ० १ श० ८ उ०।
गड्-बूद्ध-ति० । “शीघ्रादीनां बहिल्लादयः” ॥ ८। ४ | ४२२ ॥
। श्रतिशयन- |
ढः *'॥ ८ । ४ | २२० ॥ इति |
कट्प० । जी० । अनु० । ज्ञा० । स्था०। उद्याने, न० “ खड
वणं । ” पाइ० ना० २६६ गाथा। नगरविप्रकृष्ट गहन,
सूत्र० १ श्रु० १४ च्र० । भ० । ज्ञा० । श्ररव्याम् , खूत्र० १
श्र० ३ अ० २ उ०। तरूविशेषे, जी ० ३ प्रति ४ अधि० । वन-
स्पतो, कमे० ४ कम० । सालले, न० ` श्रवु सालल वणं बा-
रि नीरे उदयं दय पय तोयं `` पाइ० ना० र८ गाथा ।
व्रण पु”। बणति गच्छतीति रणः । अनु० । विस्फोटकादि-
त्तत, ज० २ वचक्षा० | दश०। ( द्रव्यवणभाववणयोर्विस्तरः
पच्छित्त ` शब्दे पञ्चमभाग १२६ पृष्ठे गतः । )('काउस्सग्ग'
शब्दे तृतीयभागे बणचिकित्सायां व्याख्यातोऽयं व्रणः । )
( बणमालिम्पाति शत्र सूत्राणि ' कायबण ` शब्दे हूतीय-
भागे ४६३ पठे गतानि | ) लाञ्चने,खनु० । बण इत्यरक्लद्धिप्टन
बणलेपादानवद् भोक्कव्यमित्यश्ैः। सृचकत्वाद् इ मपुष्पिका-
ध्ययने, दश० १ अ० १ उ० | प्रहारे, * घण पदागो "` पाइ०
ना० २२४ गाधा ।
( ८० )
अशिधानराजन्द्र: |
एत
=
वगत--वनान्त--पु> । वनावभाग, ज्ञान १ श्रु० ९ अ०।
वणकम्म-उनकमन् -न० | वनाव्रषव कम वनकम ॥ वचनच्छेद-
नविक्रयरूप कमत उपमागर्पारभागव्रतानिचार, भ० ८
श० ५ उ० | यच्दुन्नानामनच्छन्नानां च तसूसखरडानां पत्राणां
पुष्पाणां फलानां च विक्रय ब्रुकत्तिकतन । प्रव० ६ द्वार ।
यत्र वा समुदित वन क्री-चा ततशिछित्ता विक्रय च तल्लाभन
जीवति, घ० र० ~ आधि० | आव० | आचा० । दुन्नादचृन्न-
बनपत्रपुष्वफलकन्दमू लत॒णकाएप्टठऊक॑ वा वंशादिविक्रयः कण-
दलपषरणं चानकच्छादिकरग च । तस्मिन् , घ० ~ अधि० ।
० चू० । उपा०।
वणकरम्मत-वनक मान्त -न० । यत्र वनक्म क्रियत तादश गृहः _
आचा० २ ०० ६ श्चू> २ अ० २ उ०।
वणकर--व्रणकर --5० । व्या दह क्षत स्वय करात राध- |
रादिनिगलना्थमिति वणकरः
ठा० 3४ उ०।
वणखण्ड--वनखण्ड-पुं”। एकजातीयवृक्षसमूहे, भ० ५ श० ७
उ० | अनकजातीयात्तमचक्षेषु, स्था० २ ठा० ४ उ० । ज०।
( चनखणडवर्शकः लवणसमुद्रवनखगडवसानावसर ऽस्मिन्नव
भाग ६०४ पृष्ठ गतः । )
वशणग्गि--वनागिनि -पु० | वनाम्ना,
पाइ० ना० १४१ गाथा ।
। वणजनक्र , स्था० ४
।
दावा दवा वशग्गी । `"
वणचर- वनचर पं” । पुलिन्द्रशवरादिके आरगण्यक मनु-
ष्य, प्रश्च० २ आश्र० द्वार ।
वणनिता--त्रणचिन्ता - खी” । क्षतनिरूपण, पश्चा० १६ विव०।
वशण--वनन--न० । वत्सस्यान्यमार्तारे याजन, प्रश्च० २ आ-
श्र द्वार ।
वशतिगिच्ा-त्रणचिकित्सा- खी” । वणणत गच्छतीति व
शः. त्रस्य . चिकित्सा । चारित्रपुरुषस्य याऽतिचाररूपा
भावव॒णः । दशविधप्रायश्चित्तमपजन कायात्सर्गाध्ययन प्र-
तिपादिते ऽधिकारविशप, अनु० ।
वर्णतेन्न व्रणंतल -न । व्रणसराहक तेल, व्य ० ५ उ०।
वणदव-वनद ब- पु” । वनाझों, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। आण्चू० ।
वशपव्वय वनपव्व॑त- प° । वनमध्यपवत, श्राचा० २ श्रु० |
चु० ३ स० २ उ०।
वरणपिसाय-वनपिशाच-छ० । पिशाचभद, प्रज्ञा० १ पद ।
वरणप्यः(स्स)ई-वनस्पति- पुं । “` वृहस्पति-वनस्पत्याः सो
चा" ॥८।२।६६॥ इति संयुक्कस्य सा वा । वणस्सई ।
वणाणप्फई । प्रा० । लतादरूपे
१ पद ।
अथ खनस्पातिकायप्रातिपादनार्थमाह--
सर्वि
तं जहा-सुदमवणस्सइकाइया य, बादरवणस्सहकाइया य ।
( सू०- १६ ) सकि तं सुहुमवण॒स्सइकाइया ?, सुहुमवण- |
स्सइकाइया दु व्रहा प्रामत्ता, तं जदा-पञ्चत्तसुद्ुमव्रणस्मट्-
इकाइया ? बादरवणस्सइकाइया दुविहा पष्यत्ता, तं
पएक्रन्द्रियजीवशरीर, प्रज्ञा० |
व णस्सईकाडय।?, वणस्सइकाइया द विहा पप्मत्ता, |
काइया य, अपज़त्तसुह मवण॒स्सइकाइया य । सत्त
मवणस्सह काइया | ( खू० २० ) से कि तं व
पत्तयसरी रबादरवणस्सइकाइया य, साहारणसरीरब
वणस्सइकाइया य | ( सू०-२१ ) प्रज्ञा० १ पद |
वनस्पातकायस्तु 0 इन सके
लापापत अत < पत्र तावत्पातपायत इत्यनन
नायातस्यास्य चत्वायनुयागद्वारयाण वाच्यान
निष्पन्न निक्तप वनस्पत्युदेशकः , तत्र च वनस्पतः ख-
[अ ^ नियुक्ति
भदकलापप्रतिपादनाय पूवप्रसिद्धार्थातिदेशद्वारण
कृदाह-- छः
पदर्वाए ज दारा , , वणसइकाए वि हति ते चव । `
नाणत्ती उ विहाणे , परिमाणुवभोगसत्थे य ॥१२६॥
यान पृथवाक्रायसमाथगतय दाराणयुक्रान तान्यव
वनस्पता द्रशव्यान नानात्व तु भरूपणापा.माखपमायश्च- |
स्त्रषु चशब्दाल्नच्ण च द्रशव्यामात । ।क्
-तच्रादो प्ररूपणास्वरूपविज्ञापनायाद-
दुविह वणस्सदजीवा , सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि।
सहमा य सव्वलाए, दो चव य बायरविहाणा॥१२७॥|
वनस्पतयो छ्विविधा:-सूच्मा , वादराश्च । सृच्माः सब- |
लाकापन्नाश्चनुग्र'द्याश्च न मवन्त्यकाकारा एवं , बाद
राणां पुनद्धं विधान ।
क पुनस्त बादरविधान इत्यत श्राह--
पत्तया साहारण , बायरजीवा समासओ दुविहा । |
बारसविह5णगविहा, समासओ छव्विहा हुति ॥१२५॥ |
चादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्यकाः, साधारणाश्च । तत्र
पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धा दीन् प्रति प्रत्यको जीवा यषां ते प्रत्य-
कजीवाः, साधारणस्तु परस्परानुविद्धानन्तर्जावसंघातरू-
पशरीरावस्थानाः , तत्र प्रत्यकशर्गरा द्वादशविधानाः सा- |
घारणास्त्वनकभदाः , सर्वै ऽप्यत समासतः षाढा प्रत्य
तव्याः । आच्ा० १ श्रु० १ श्म ५ उ०।
प्रत्यकतरुद्वादशभदप्रत्यायनायाद--
से कि तं पत्तयसरीरबाद् रवणस्सइकाहया १, पत्तेयसरी
रबादरवणेस्सरकाइया दवालसावहा पष्पत्ता , त जहा |
( घ्रू० २२) प्रज्ञा० १ पद | |
रुक्खा गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पव्वगा चवं |
णवलयहरियआअसहि जलरुहकुहणा य बोधव्वा।{२६।
चुश्च्यन्त इनि वृक्तास्त द्विविधाः-एकास्थिका , बहुबीज्ञ- `
काश्च । तत्रेकाल्थिकाः-पिचुमन्दाप्रकाशम्बशालाङ्गालपी--
लु शल्लक्यादयः , बहुबीजकास्तु उदुम्बरकपित्था्तिकति- | +
न गुच्छास्तु--
वृन्ताकीकपासीजपा 5 ऽदकीतुलसीङु स्तुम्भ रीपिप्पली नी ८
तु--नवमालिका सेरियकको
यादयः, गुटमानि
व - 7 - -- ~ - = ---- -
रिश्टकवन्धुजीवकवाणकरवीरासिन्दुवारविचाकिलजाति---
यूधिकादयः , लतास्तु--पद्मनागाऽशोकचम्पकचूतवास--
न्त्यतिमुक्कककुन्दलताययाः, वल्लयस्तु-कुष्मारडीकालि-
ङ्गात्रपुषीतुम्यीवालुङकयलुकीपरोस्यादयः, पवगाः प--
-इच्लुवीरणश्ुरटशरवेजशतपववंशनलवेखुकादयः, तृणानि
तु-श्वोतिकाकुशदभपवकाज्जुनखुरभिकुरूविन्दादीनि , वल-
यानि च--तालतमालतकलीशालसरलाकेतकीकदलीकन्द्-
ल्यादीनि,दरितानि-तन्दुलीयकाधूयारुह वस्तुलवद्रकमाजार
पादकाचिल्ली पालक्यादीनि.ओपध्यस्तु-शालावीहिगाधूमय
बकलममसरतिलमुद्न माषनिष्पावककुलत्था 5तसीकुसुम्भ को -
द्रवकड़ग्वाद्यः, जलरूहा-उदकावकपनकशवलक लम्बुकापा-
बककशरुकोःपलपद्मकुमुद्नलिनपुराडरीकादयः , कुहुणास्तु-
भूमिस्फाटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुणडको दे हालि--
काशलाकासर्प्पच्छ॒त्रादयः, एपां हि प्रत्यकजीवानां बू-
क्ञाणां मूलस्कन्धकन्दत्वकशालप्रवालादिष्वसंख्येयाः प्रत्ये-
कं जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चेकजीवानि मन्तव्यानि
साधारणास्त्वनकविध्राः, तद्यथा-लोहीनिहुस्तुभायिका-
उश्वकर्णी सिंहकर्णी शज्ववरमालुका सूलक कृष्ण कन्द्स्रण क --
न्दकाकोलीक्तारकाकोलीप्रभ्रतयः । सर्वे ऽप्यते सत्तपात् षोढा
भवन्तीत्युक्रम् ।
के पुनस्ते भदा
अग्गव्रिया मूलविया, खंधबिया चव पोरवीया य ।
बीयरुहा संमुच्चिम समासओ बणप्फई जीवा।।१३०॥
कदट्यादयो सूलबीजा
इत्याद-
तत्र कोरिण्टकादयो ऽग्रवीजाः,
निहुशल्लक्यरणिकादयः स्कन्धवीजाः , इच्ुवशवेत्रादयः,
प्यवी जाः, बीजरूहाः शालिवीह्यादयः, सम्मृदनजाः पद्मि-
नीश्यङ्गाटकपाटरोवालादयः, एवमत समासात्तरुजीवाः
चोदा कथिताः, नान्य सन्तीति प्रतिपत्तव्यम् ।
किलक्तणः पुनः प्रत्यकतरवा भवन्तीत्यत श्राह-
जह सगलसरिसवार्स, सिलसमिस्माणवत्तिया बद्री |
पत्तयसरीराणं, तह हां ति सरीरसघाया ॥ १३१ ॥
यथति-द्र्रान्तापन्यासा्थः, यथा-सकलसषपाणां स्छेषय-
तीति रछषः-- सजरसादिस्तेन मिश्रितानां वर्तिता-
बलिता वर्तिः तस्या वर्तो प्रत्यकप्देशाः कमण सि-
द्धार्थका स्थिताः, नान्योान्यानुवधघन, चूर्गिणतास्तु कदा-
चिदन्या ऽन्यायुवधभाजो ऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणम् , य-
थाऽसरा वर्तिस्तथा प्रत्यकतरुशरीरसंघातः , यथा च
सर्षपास्तथा -तद्िष्टायिनो जीवाः, यथा स्छेषविमि--
धितास्तथा रागद्धेषप्रचितकर्मेपुद्रलादयमिभध्रिता जीवाः,
पश्चिमाद्धन गाथाया उपन्यस्तदण्रान्तन सह साम्य प्रति-
पादिते तथति शब्दापादानादिति ।
अस्मिल्नेवार्थ दृष्टान्तान्तरमाह-
जह वा तिलसक लिया, बहुएहिं तिलेहिं मेलिया संती |
पत्तयसरीराणं, तह हति सरीरसंघाया ॥ १३२ ॥
यथा वा तिलशष्कुलिका-तिलप्रधाना पिए्मयपोलिका ब-
न्न सती भवति, तथा प्रत्यकशसीराां
तरूणां शरारसघाता भवन्तीति द्रव्यमिति ।
{ -2०2 )}
अभिधानराजः
चणप्फइ
साम्प्रत प्रत्यकशरी रजीवानाम कानकाधि-
छिनत्वप्रातिपिपारदायषयाःऽद--
नाणाविहसंठाणा, दीसती एगजीविया पत्ता |
खधा वि एगजीवा, तालसरलनालिएरीणं || १३३ ॥
नानाविधम-भिन्ने सस्थान यषां तानि नानाविध्रसस्था-
नानि, पत्राणि यानि चेवेमूतानि दृश्यन्त तान्यकजीवाध-
छितान्यवगन्तर्व्यानि, तथा स्कन्धा अप्यकजीवािष्टिता-
स्तालसरलनालिकयादीनाम् , नात्रानकजीवाईएर्धाष्टतत्वे स~
भवतीति अवशिष्टानां त्वनकजीवारर्धिप्रितत्ये सामथ्यात्प्राति-
पादित भवति ।
.साम्प्रत प्रत्यकतरुजीवराशिपरिमाणाभिधित्सथा 5 5ह-
पत्तेयापज्जत्ता, सेढीएँ असंखभागमित्ता ते |
लोगारखप्पज्ञ-त्तगाण साहारणाऽणता ॥ .१३४॥
प्रत्यकतरूजीवाः पर्याप्तकाः सर्वात्ततचतुरस्रारूतलाकश्र-
रयसख्येयभागवत्याकाशप्रदशराशितुरयप्रमाणाः, पतच पु
नवादरतजस्कायपयोप्तकराशरसख्ययगुणाः, य पुनरपया-
प्तकाः प्रत्यकतरुजन्तवः त ह्यसख्ययानां लाकानां याचन्तः
प्रदेशास्तावन्त इति, एत<प्यपर्याप्का बादरतेजस्कायजी-
वराशरसख्ययगुणाः, सृन्मास्तु वनस्पतयः प्रत्यकशरीरिणः
पर्याप्तका अपर्याप्तका वां न सन्त्यव, साधारणास्त्वनन्ता
इति विशषानुपादानात् साधारणाः सृच्मवादरपर्याप्तका-
पर्याप्तकभदेन चतुर्विधा श्रपि प्रथक् प्रधगनन्तानां लाकानां
यावन्तः प्रदशास्तावन्त इति, अय॑ तु विशषः- साधारण
बाद्रपर्याप्तकेभ्या बादरा अपर्याप्तका असंख्ययगुणाः बाद
रापयाप्तकेभ्यः सूक्माः,अपर्याप्तका असंख्ययगुणास्तभ्योर्डा
सूच्मा:ः पयौप्तका असंख्ययगुणा इति ।
सम्प्रत्यपां तरूणां यो जीवत्व॑ नच्छुति तं प्रति जीवत्वप्र -
तिपादनच्छया नियुक्किकदाह--
एएहि सरीरेहिं, पचक्खं ते परूविया जीवा ।
सेसा आणागिज्का,चक्खुर्णों जे न दीसंति || १३५ ||
पतेः पूर्वप्रतिपादितेस्तरुशरीरेः प्रत्यक्षप्रमाणचिषयें: प्रत्य-
त्तम्--सात्तात् त वनस्पतिजीवाः, प्ररापताः- प्रसाधितः
तथा दहि-नद्यतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेगोचाचि-
घाकारमभाजि भवन्ति, तथाच प्रयागः-जीवशरीराणि चं
क्ताः, अक्षाद्यपलब्धिभावात् , पाणयादिसघातवत् , तथा क-
दाचित् सचत्ता अपि वृक्षाः, जीवशगीरत्वात् पाण्यादिसे
घातवदेव, तथा मन्दविज्ञानखुखादिमन्तस्तरवः, अव्यक्नच-
तनानुगतत्वात् खुप्तादिपुरूषबत् , तथा चाक्रम्--"' चक्ताद-
या +त्ताद्युपर्लाव्धभावात् , पारयादिसघातचदव देहाः ।
तद्वत्सजीवा श्राप दहतायाः, सुप्तादिवत् इानखुखादिमन्तः
॥ ९॥ ` शषा इति-- सृच्मास्ते च चक्षुषा नापलभ्यन्त इ
त्याज्ञया ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्धचनमवितथमरक्रद्धि-
एरप्रणी तामत श्रद्धातव्यामति । | आचा०१ श्र° १ अ० ५ उ०।
(साधारणवनस्पतिकाय लक्षणम् 'साहारण' शब्द वद्यामि |)
अथ ये वीजात्प्रयोहन्ति वनस्पतयस्तषां कथ-
मार्विर्भाव इत्यत आह--
जोणिब्भूए बीए, जीवा बकमइ सो व अषप वा ।
( ८०४ )
श्भिधानराजन्द्रः।
(स 2
9८१
वणप्फड
र द कर = |
जो वि य मूल जीवो, सो चिय पत्ते पदमयाए ॥१३८॥ |
त भूतशब्दा ऽवस्थावचनः, यान्यवस्थ चीजे यानपरि-
शाममजटहतीत्यथः, चीजस्य हि द्विविध(ऽवस्था-योन्यवस्था
द्योन्यवस्था च, यदा यान्यवस्थां न जहाति बीजमुज्मितं
च जन्तुना तदा यानिभूनमुच्यत, यानिस्तु जन्तोरुत्पत्तिस्था-
नमविनष्टमिति, तस्मिन् बीज योनिभूते जीवो व्युत्कामाति-
उत्पद्यत.स पव पूवैका बीजजीवाऽन्या वाऽऽगत्य तत्रोत्पद्य-
त । एतदुक्क भवति- यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः
ङता भवति, तस्य च यदा वाजस्य क्तित्युदकादिसयोगस्त-
दा कदाचित्स एव प्राक्ननो जीवस्तत्रागत्य परिणमते कदा-
चिदन्य इति | यञ्च मूलतया जीवः परिणमत स एव प्रथम-
पत्रतया ऽपीति, एकजीवकर्तृके मूलपत्रे इति यावत्, प्रथम-
पत्रकं च । याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था भूजलकालापेत्षा
सेवाच्यत इति नियमभ्रदशनमेतत् , शष तु किशलयादि
सकल न मूलजीवपरिणामाविभौवितमवेत्यवगन्तव्यमिति ।
यत उक्कम--' स्वो वि किसलश्रो खलु, उग्गममाणो च्रणे-
त्मा भणिआओ । ” इत्यादि श्राचा० १ श्र० १ अ० ५ उ०।
( अनन्तजीवलक्षणम--' अरंतजीब ` शब्दे प्रथमभागे २६३
पृष्ठ उक्तम् । )
ज यावय तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पत्ता, तं
जहा- पज्ञत्तगा य अपज़त्तगा य; तत्थणं जे ते अप-
ज़त्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ शं जे ते पज्ञत्तगा
तसि णं वन्नादसेणं गंधाएसणं रसाएसेणं फासादसेणं
सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिज्ाई जोणिप्पमुहसयसहस्सा-
ईं, पञ्जत्तगणीसाए अपञ्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो
तत्थ सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा सिय अणंता,
एएसि णे इमाओ गाहाओ अखुगंतव्वाओं । तं जहा-
“ कंदा य कंद मूला य, रुक्खमुलाइयावरे |
गुच्छा य गुम्मवन्नी य, वेणुयाणि तणाणि य ॥१०३॥
पउमुप्पलसघाड, हदे य सवालकिएहए पणए |
अवए य कच्छभाणि, कंदुकेगूणबीसइम ॥ १०४ ॥
तयछल्लिपवालेस य, पत्तपुप्फफलेसु य ।
मूलग्गमज्भर्बी एसु, जोणी कस्स वि कित्तिया ॥१०४॥”
( बू° २६ )
' जं यावन्न.तदृप्पगारा ' दति येऽपि चान्य श्रनुक्ररूपा-
स्तथाप्रकाराः-प्रत्यकत रूरूपाः साधारणरूपाष्च, तेऽपि वन-
स्पांतकायत्वन प्रतिपत्तव्या:,'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत्। |
चर यत्रेका बाद्रपयाप्तस्तत्र तन्निश्रया अपयाप्ताः कदाचि-
त्लख्यया: कद्ाचक्सख्ययाः कदाचिदनन्ताः, प्रत्यकतरवः
रूंख्यया अरूंख्यया वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति
भावः। पतषां साधारण प्रत्येकतरूरूपाणां चनस्पतिविराषाणां
वच्यमाणानःमिमाः- विद्षप्रतिपादिका वच्यमाणा गाथा |
श्नुगन्तव्याः-प्रति पत्तव्याः,ता एवाह ` तं जहा -तद्यथा-कंदाये' |
त्यादि गाधात्रयम्, कन्दाः-सूरणकन्दादयः, कन्दमूलानि
वृक्षमूलानि च साधारणवनस्पतिविशषराः, ग्रुज्छा- गुटमाः
वर्ट्यश्च प्रतीताः.वेखुका-र्वशास्तणानि-श्रजुनादीनि ॥१०३॥
पश्चोत्पलग्धङ्गारकानि- प्रतीतानि हढो--जलजवनस्पति-
विशषः , सेवालः- प्रसिद्धः कृष्णकपनकावककच्छुभाणि
कन्दुकाः-साधारणवनस्पतिविशेषाः ॥ १०७ ॥ पते-
षामेकोनविशतिसंख्यानां त्वगादिषु मध्य कस्यापि काऽपि
योनिः । किमुक्कम्भवति--कस्यापि त्वग्योानिः कस्यापि छु-
ज्ञी यावत्कस्यापि मूलं कस्याप्यग्र कस्याप मध्यं कस्यापि-
बीजमिति ॥ १०५ ॥
परिमाणमभिधीयते- तत्र प्रथमे सूक्ष्मानन्तजीवानां द-
शंयितुमाद--
पत्थेण व कुडवेण व, जह कोड मिणिज्ञ सव्वधण्णाई।
एवं मविज्ञमाणा, हवन्ति लेया अणंताओ ॥ १४४॥
प्रस्थक्डवादिना यथा कशचित्सवेधान्यानि अमिणुया-
न्मित्वा चान्यत्र प्रक्षिपेद् एवं यदि नाम कश्चित्साधारणजी-
बराशि लोककुडवेन मित्वा ऽन्यत्र प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमा-
ना श्ननन्ता लाका भवन्तीति ।
इदानी बादरनिगोदपरिमाणाभिधिंन्सया ऽ ऽह--
ज बायरपजत्ता, पवरस्स असखभागमत्ताते।
ससा असखलोया, तिष्ि वि साहारणाऽणंता ॥१४५॥ | 7
ये पयाप्तकवादरनिगोदास्ते संवस्तितचतुरसखीरृतसकल- `
लोकप्रतरासख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, `
पत पुनः प्रव्येकशरीरवाद्रवनस्पतिपर्याप्तकजीवेभ्योऽसं- :
ख्ययगुणाः , शपाखयो ऽपि राशयः प्रत्यकमसंख्येयला- | -
काकाशप्रदेशपरिमाणाः । के पुनखरय इति ?, उच्यत-अप- | ,
याप्तकबादरनिगोंदा अपयोप्तकसूक्ष्मनिगादाः पर्याप्तकस्- | ` .
च्मनिगादाः । पते च क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति । सा-
धारणजीवास्तभ्यो ऽनन्तगुणाः, एतच जीवपरिमाणम् , प्राज्ञ
नं तु राशिचतुष्टये निगोद परिमाणमिति ।
परिमाणद्धारानन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्खुराह- |
आहारे उवकरणे , सयणासणजाणजुग्गकरण य ।
` आवरणपहरणेसु य, सत्थविहाणेंसु य बहुसु ॥१४६॥ _ .
श्रादारफलपत्रकिशलयमूलकन्दत्वगादनिवेत्यः , , उपकर- ।
रौ व्यजनकटककवलकागलादि , शयनम्-खद्वाफलकरादि |
श्रासनम्-त्रासन्दकादि,यानम्-शिविकादि,युग्धम्-गन्त्रिका `
दि,आरवरणम्-फलकादि, प्रदरणम्-लकुटि भुशरङ्यादि,शख- |
विधानानि च बहूनि तन्निवैव्यानि , शरदाज्नखज्ञक्षुरिकादि, ¦
गरडोपयागित्बादिति ।
तथा परोऽपि परिभोगविधिस्तदशैनायाह-- `
वनस्पतिपरिभोगः-
अआउज्ञकटूकम्मे, गधंगे पत्थमन्नजोए य ।
भझावण वियावरेसु य, तेलविहाणे य उज्जोए ॥१४७॥
श्रातोद्यानि-परदभेरीवशवीणाभल्लयादीनि, काष्ठकर्म्म-प्र- ।
तिमास्तम्भद्वारशाखादीनि, गन्धाङ्गानि-वालकापियङ्कुपत्रक-
दमनकत्वकचन्दनाशी रदेवदार्वा दी नि,वस्प्रारिए-वल्कलकार्पा -
समयादीनि, माल्यायोगा-नवमालिकावकुलचम्पकपुन्नागा-
शाकमालतीविचकिलादयः, ध्मापनं-दाहो भस्मसाल्करणः
मन्धननैः, वितापन-शीताभ्यार्दितस्य शीतापनयनाय काए-
| ।
~~ तै
ऋ
का
चणप्फइट
प्रज्वालनात् , ते लविधानं-तिजात ली सरपये हरी ज्यो तिष्मती -
करज्ञादिभिः, उद्योतो-वर्त्तित॒णचूडाकाप्ठादिमिरिति ।
एवमतान्युपभोगस्थानानि प्रातिपाद्य तदुपसेजि-
ही षुराट-
एएहि कारणेहि, हिंसति वणस्सई बह जीवे ।
सायं गवसमाणा, परस्व दुक्खं उदीरेति ॥ १४८ ॥
एतेगथादयोपात्तेः कारणेः-प्रयोजनेर्दिंसन्ति-व्यापादय-
{न्ति प्रत्यकसाध्रारणवनस्पातजीवान् वहन वनस्पतिसमार-
म्भिणः पुरुषाः. कि भूतास्त इति दशयति-सात-खुखखे तद-
न्वपिणः परस्य च वनस्पव्यादयर्कान्द्रयाद दुःख बाधामुत्पा-
द्यन्ति ।
साम्प्रतं शसत्रभुच्यत-तच्च द्विधा द्रव्यभावभदात्-
द्रव्यशखरमपि समासविभागभदात् द्विघव
तत्र समासद्रव्यशस्त्राभिधित्सया 55ह--
कप्पणि-कुहाशि-यसियग-द्त्ति-कुद्दा लियासि फरख् य |
सत्थं वणस्सईए, हत्था पाया मुहे अग्गी ॥ १४६ ॥
कठ्प्यते-छिद्यात यया सा कल्पनी शरस्त्रविशषः ,
परशवश्चय, एत वनस्पतः शस्त्र त् |
इत्यतत्सामान्यशस्त्रमिति ।
विघागशच्राभिधित्सया 5 ४ ह--
किवी सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किची।
एये तु दव्वसत्थ, भावे य असंजमो सत्थे ॥ १५० ॥
किचित् स्वक्रायशख्रं लकुटाद् , शच्च परकायशस्मे
पाप्राणागन्यादि, तथामयशस्प्रे >दाजद,जिकाकुटठारादि, पतद्
द्रव्यशस्त्रप , भावशस्त्र पुनरलंयम:। दुष्प्रर्णि दतमनावाक्काय-
लक्षण इति ।
सकल-नियुकत्यथपरिसमाप्ति प्रचिकरयिषयाऽऽह-
समाई दाराई, ताईं जाई हवति पुढवीए ।
एवं वशस्सईए, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥ १५१ ॥
उक्कब्यतिरिक्नशर्पाणि तान्यव द्वाराणि यानि प्रृथित्याम्रभि-
हितानि ततस्तद् द्वाराभिधानाइनस्पतों निर्युक्तिः कीर्तिता-
व्यावर्णिनति । । आचा० १ श्रु० १ अ०५ उ०। (
हार ` शब्द द्वितीयभाग ४६२ पृष तदाहास्प्रकारः। )
सांप्रते सूआनुगम5स्खालतादिगुणापतं सूृत्रमुच्चारणीयम् ,
तचदम-,
तथा हस्तपाद्मरुखाञ्नयश्च
* आ-
ते णो करिस्सामि समुद्ठाए,मत्ता महम, अभयं विदित्ता, |
तजणो करए, एसावरए, एत्थावरषए्, एस अणगारे त्ति
पवुचर । ( घ्र० ३६ )
अस्य चानन्तरपरम्परादिस्त्रैः सम्बन्धः प्राग्बद्वाच्यः, उक्क-
भ्राक् ' सातान्वपिणा हि वनस्र्पातिजन्तृनां दुःखमुदीरयन्ति
ततश्च तन्मूलमव दुःखगहन संसारसागर श्राम्यन्ति स-
बा: ` इत्यव वदितक्रटुकावपाक्रः सनस्तवनस्पातसत्वाव-
घयविमंदनिच्रातमाव्यन्तिकीमात्मनि दर्शयनज्नाह-तत्ू-वनस्प-
~ खमहे टण्रतत्यपायान करिष्य, यदिवा
खे(.पत्तिनिःनततभूते वनस्पतावारम्भे छदनभेदनादिरूप ना
कारष्ये मनावाकत्य बा5परेने कारयिष्य, तथा कु-
५८५
तट 2 ~
~ |
कुठारी
श्रसिद्रव, अशियग दात्रे, दाजिका-प्रासिद्धा, कुद्दालकवालि- |
( ४०४५ )
ाभध्रानराजन्द्रः |
४ चणप्कड
व्वतश्चान्यान्नानुमेस्य, , कि कृत्वानि दर्शर्यात-सर्वेज्ञाप-
विप्रमार्गीनुसत्या, सम्यक् प्रवज्यात्थाननोत्थाय समुसत्थाय,प्र-
बज्यां प्रतिपद्चत्यर्थः, तदव वजतसकलसावद्यारम्भकला-
पः सस्तद्धनस्पतिदुःखे तदारम्भ वा ना करिष्यामीति. अ-
नन च सयमक्रिया दर्भिना, न च क्रियात एवं मोत्षा-
वापिः, कि तर्हिं ?. ज्ञानक्रियाभ्याम्, तदुक्कम--“ नाग
किरियारगहिये, किरियामत्त च दाऽवि पगन्ता । न स
मलत्था दाउ ज, जम्ममग्णदुकखदाहाई ॥ १ ॥ यत
एवमता विशिष्रमात्तकारणभूतज्ञानप्रतिपिपादयिषपया55-
ह-- मत्ता मदम ` मत्वा--ज्ञात्वा-श्ववुध्य यथावत्
जीवान , मतिरस्यास्तीति मतिमान् मतिमानवापदशादहोा भ-
वतीव्यतस्तद् द्वारणेव शिप्यामन्त्रणम् , ह मतिमन् ! प्रव्रज्यां
प्रतिपद जीवादिपदाथाश्च ज्ञात्वा माक्तमकाप्नातीत.सम्यग
ज्ञानपूर्विका हि क्रियाफलवतीति दर्शित भवात । पुनरत्रवाह-
"अभय विदित्ता' अविद्यमान भयमस्मिन् सच्वानामित्यभयः-
सयमः. स च सप्तदशविधानरुत चाभयं सवभूतर्पारपालना-
त्मकं ससारसागगालिदाहकं विदित्वा वनस्पत्यारम्भा-
निव्र्तिर्दिधयति । एतदव दर्शयितुमाह--' ते ज ना
इत्यादि. त--वनस्पत्यारम्भ या विदिततदार--
म्भफ़टुकाचपाकः ना कुर्यात् तस्य प्र्तिवांशण्रष्रफलावा-
सिनान्यस्यान्यमृदख्या प्रवतमानस्य, आरभिलविर्तावपकृष्र-
स्थानप्राप्तिप्रश्ञ तान्थक्रियाव्याघातवदिति मन्तव्यम् ज्ञानमपि
क्रियाहीन न भाज्ञाय, ग्रडान्तदेद्ममाननिनद्वुपह्ुुःचक्तुज्ञनव-
दिति,एवं खात्वा अभ्युपत्य च तत्परिहारः कत्तव्य ईत दरशन
भवति । एवं बः सम्यगज्ञानपूर्धिवकां नित्रा करोति स एव
समस्ता रम्भनिद्ग त इति दर्शायात-' एसोबरए ` त्ति एप एव
सर्वेस्मादारम्भावनस्पातिविषयादुपरता या यथावज्ज्ञात्वा--
४रम्स ने करोतीलि, स पुनरवावरघ्रनिवृत्तिभाक्रि शाक्या-
दिष्वपि संभवत्युतहेव प्रवचन इति दशर्यात-एत्थावरए'त्ति
एतस्मिन्नव जनन्द्र प्रवचन परमार्थत उपरतो नान्यत्र । य-
थाप्रतिज्ञा्तानिरवद्याचुषएटायित्वादुवरतव्यपदशमाग्भवति, न
शषाः शाक्यादयः, ताद्ि परी तत्वादू । एप एव च सस्पूर्मा नगार
व्यपद्शमणनुत इति दर्शयालि--' एस अणगार त्ति पवुचद `
एपा- ऽतिक्रान्तसूत्ाश्रव्यवस्यितः, अआवद्यमानागारो ऽनगारः
प्रकर्षेण उच्यत पाद्यत इति, कि कतः प्रकर्षः. अनगारव्य-
पदशक्रारणभूतगु गकलापस्वन्धकृतः प्रकपः, इतिशब्दा$
नगारव्यपदेशका रणपरिस्पमाप्तिद्याती , एतावद्नगारलक्तण
नान्यदिति । य पुनः प्राज्कमितपा र्माथिकानगा र गुणा: शब्दा-
दीनन््वषयानज्लीकृत्य प्रवतत्त ते तु नापक्षन्त वनस्पतीन् जी-
वान्, यता भूयांसः शब्दादया ग॒णाः वनस्पतिभ्य एव निष्पद्य-
न्ते. शब्दादिगुणप्वव वक्तमाना रागद्वपविषमविषविधूर्ण मा-
नलाललाचना नग्कादिचतुर्विधगैत्यन्तःपातिना वाद्धव्या-
स्तदन्तःपातिन एवं च शब्दादिविपरयाभिष्वङ्गिणा भवन्ती-
ति । आचा० १ श्रु० १ अ० ५ उ० |
वणस्सई न रहिमति, मणसा वयर्सों कायसा ।
तिप्रिहण करणजाणएणं, मजया सुसमाहिआ ॥ ४० ॥
वगुस्सई विमता, हिमः अ तयस्सिए |
क्रप् `
( =^, )
आमधानराजन्द्र: |
चण्ड
तम अ विविहे पाण, चक्खुम अ अचक्खुपे ॥ ४१॥
तम्हा एअं विआशित्ता, दामं दुग्गडव इणं ।
वणस्सडस मारभं, जाव जीवाइ वज्ञए ॥ ४२ ॥
"वस्स ` इत्यादि सबत्रय वनस्पतराभिलापन ज्ञयम् , तत-
श्चकादशस्थानावाधरप्युक्र एव ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२॥ दश ६
छम० २ उ०। (अस्याशस्य पातद्धय गतप्रत्यागत लक्षणा मत र-
तरावधागरणशफनज खूत्रप- तच्च सव्याख्य गुण शब्द चतुश्र
भाग ६०८८ प्रष्ट गतम |) सत्र क श्वज्चाय्रच्नच्चुराह-या गुणपषु
चतत सु आवत वतत इदात साधु यः पूनरावत वतत नासा
नियमत एव गुणपु वतत यस्मात्साथवा चत्तन्तं आव-
तन गरुणघु तदेतत्कथामात ? ऋपत्रास्यत-सत्यम आव-
ते यतया वतन्त न गुरचु. कि तु-रागद्वषपूवक गुणषु व-
तनमिदहदाधिक्रियत, तच्च साधूनां न संभवति तदभावात् , |
आपदवतों ऽपि ससरणरूपा दःखात्मका न सभवति, सामा- |
न्यतस्तु ससारान्तःपातित्व सरामान्यशब्दादिगुणापलन्धिश्च
संभवव्यवाता नोपलब्धिः प्रतिषिध्यते, रागपारणामो द-
घपरिणामा वा यस्तत्र स प्रतिषध्यत, तथा चाक्कप्--
"` कन्नसोक्खहि सददि, पम्म नामिनिवेसए ” इत्यादि
तथा “ न शक्य रूपमद्रष्र. चन्लुगोचरमागतम् । रागद्षां
तु यो त्र, तो बुधः परिवज्जयत् ॥ ९॥ कथे पुनगुणभूथ-
सत्वे वनस्पतिभ्य इति प्रदश्येत-वेणुबीणापटहमुकुन्दादी- |
नामातायावरशषाणा वतस्पतरूत्पात्त ततश्च मनाहरा
शब्दा नष्पद्यन्त, प्राघान्यमनत्र वनस्पताववात्ततम् अ
न्यथा तु तन्त्रीयमपारायादलयागाच्छुब्दानप्पात्तारात
रूप पुन काष्टकम्मंस्त्रीप्रतमादषु ग्रहतारणवादकास्त- |
म्भादिषु च चक्त्रमणीयम , गन्धा अपि हि कपूरपाटला-
लवलीलवङ्खकेतकी सर सचन्दनागुरुकक्रालकलाजा तीफ नप -
त्रिकाकेसरमांसीन्वकृपत्रादीनां खुरभया गन्धान्द्रयाह्ाद-
कारिणः प्रादुर्भवन्ति, रसास्तु विसमरणालमूलकन्दपु-
ष्प्रफलपत्रकगरकमञ्ात्वगङ्कगक्िसलयारविन्दकसरादीनां-
जिहृन्द्रियप्रह्मा दिना निषप्पद्यन्त अतिवहव इत, तथा
स्पर्शः पद्धिनीपत्रकमलदलेस्रणालवत्कलदुकृलशारकाप-
ध्रानतलिकयच्छादनपटादीनां स्पशनन्द्रियसखुखाः प्रादुःष्य-
न्ति, पवमतपु वनस्पति निप्पन्नषु शब्दादिगुणषु यो वतत स
श्राचतें वर्तत, यश्च श्रावतवर्ती स रागद्धपात्मकत्वात् गुण-
चु वतत इति । स चावर्तो नामादिभदाचनुद्धा । नाम-
स्थापन क्षुस, द्रव्यावर्तः। (अत्रस्थपाठ 'आवद्द' शब्दे द्वितीय
भाग ४३६ पृष्ठ गत: | ) इट चर भावावतनाधकारा न शषार-
सि। (अथ य एत गुणाः ससारावर्तकारणभूताः शब्दादयों
वनस्पतरभिनिचरत्तास्त कि नियतदिग्दशभाजः उत सर्वदिक्षु
दति, सूत्रम-(४२) गुण शब्द चअतुथभाग ६०८ पूछे गतम्। )
ण्व विंपयलाकमाण्थाय विवक्षितमाह--
एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्त अणाणाए ।(सू०४२)
° एप इति “-रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्या लाका व्या-
ख्यातः, लोक्यते-परिच्छिद्यत इति कत्वा, एतास्मिश्व प्र-
स्तुत शब्द।दिगुणलाक गुप्ता या मनावाक्रायैर्मनसा द्वाप्टि-
रज्यत बा. नाना प्राथन शत्दादीनां कराति. कायेन शा -
दिविषयदेशमणिसपीति , एवं यो हागुप्तो भवति सो5-
नाज्ञायां वतते , न भगवत्प्रणीतवचनानु तारी ति यावर्दाति।
एवगुणश्च यत् कुयात्तदाद--
पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे । ( षू° ४३ )
ततश्चासावसक्च्छृब्दादिगुणलुब्धा न शक्ताल्यात्मानं
शब्दादिगद्रर्निवतयितुम् , अनिवतमानस्य पुनः पुनर्गुणा
स्वादा भवात. क्रियासातत्यन शब्दादिगुणानास्वादयतीं
त्यथः , तथाच यादृशा भवति तदर्शयति--वक्रः-असंयमः
कुटिलो नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्समाच रणं-समाचाः |
रः अनुष्ठा नम् ,वक्रः समाचारा यस्यासो वक्रलमाचारः-ञ्सं-
यमानुष्ठायी त्यथः, अवश्यम शब्दादिविषयामिलाषी भूता-
पमईकारीत्यतों बक्रसमाचारः । प्राक शब्दादिविषयलव्स-
मास्वादनाद् ग्रद्ध: पुनरा-्मानमाचार यितुमसमर्थत्वादपशथ्या-
म्रफलभोजिराजवद्विनाशमाशु संश्रयत इति ।
पव चासा गनतरा जतः शब्दादायषयसमास्वादनात् ।
` खतपुत्ता व्व ` इदमाचरति- पर
पमत्ते अगारमावये । ( सू० ४४ ) | ¢
मत्ता विषयविषमूर्छितः अगारे--ग्रहमावसति , ओ £
पि' द्रव्यलिज्ञसमन्वितः शब्दादिविषप्रमादवान् असावपि ८
वरातरूपभातालङ् ह तत्वात् ग्रहस्थ एवात । #
अन्यती थिकाः पुनः सवदा सर्वधा ऽन्यथावादिनोऽन्यधा- ~
कारण दात दशायतुमाह--- -
लज्जमाणा पुढो पास , अणगारामो त्ति एगे पदद- 5
माणा जमिणं विरूवरूवेहिं स््थहि वशणस्सइकम्म- ७
समारम्भं वणस्सडसत्थं समारभमाणा गप्र अशेगस्वे `
पाणे विहसति, तत्थ खलु भगवया परिषा पवेदि-
ता, इमस्स चव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयशाए
ज!तीमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेडं से सयमेव ब ४
णस्सइसत्थं समारंभई अपरं वा वणस्सइसत्थ समा"
रंभावेइ अषप वा वशस्सइसत्थे समारंभमाणे समणु-
जाणइ, ते से अहियाए ते से अबोहिए से ते सेबुज्छ- ,
माणे आयाणीयं समुट्ठटाए सोचा भगवओ अणगाराणं `
वा अंतिए इहमगेसिं णाय भवति । एस खलु गथ एस '
खलु महे एस खलु मार एस खलु शरण इक्त्थ
गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकस्म `
समारंभणं बणस्सइसत्थं समारंभमाणे अप्म अणेगरूवे
पाण विहसति । ( ख़ू० ४५ )
प्राग्वत् ज्ञयम् , नवरं वनस्पत्यालापा विधेय इति ।
साम्प्रत वनस्पातजावास्ततव लङ्कमाह-
से वेमि इमं पि जाइधम्मयं एयं पि जादधम्मयं,इमं पि वुड़ि
धम्मयं एयं पि वुड्डिधम्मयं, इमं पि चित्तमेतयं एयं पि
चित्तमंतयं, इमं पि छिपं मिलाइ एयं पि लियं भिलाई,
हमं पि आहारगं एयं पि आहारगं, इमं पि अशिचयं एय
पि अशिनं, इमे पि असासय एमं पि असासय, संपि
|
चणप्फर
चआवचइय एय पि चओवचइयं,इम पि विपरिणामधम्मयं
एये पि विपरिणामधम्मयं | ( सू० ४६ )
` सवभी ` त्यादि साऽदम्-उपजञ्धतच्वा व्रवीमि, अथवा-
बेनेस्पांनचतन्य प्रत्यत्तप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तद-
हं व्रवीमि , यथाप्रा्ज्ञातमथ दर्शयति-- इमे पि
जाइधम्मयं ति इहापदेशदानाय सृत्रारम्भस्तया-- |
ग्यश्च पुरुषा भवत्यतस्तस्य सामर्थ्येन सानिहितत्वात्त-
चचछरीरं प्रत्यत्तासन्नवाचनेदमा परामृशति । इदमपि-मनुष्य- |
शरीरं, जनन-जांतरूःपात्तिस्तद्धमेकम् । एतदपि वनस्पति-
शरीरे तद्धम्मक--तत्स्वभावमेव, इतिपूर्वका5पिशब्द
सवत्र यथाशब्दार्थ, द्वितीयस्तु समुखये व्याख्येयः, ततश्चा-
यमर्थ:-यथा मनुष्यशरीरं बालकुमारयुवच्रद्ध तापरिणामवि-
शेषवत् चतनावत् सदाधिां्ठत प्रस्पष्टचतनाकमुपलम्यत,
लैथदमपि वनस्पतिशरीरम् , यतो जातः केतकतसर्बालका
युवा चद्धश्च संवृत्त इति, श्रतस्तुर्यत्वादेतदपि जातिधर्मकम् , |
न च कश्चिद्विशषा ऽस्ति.यन सर्त्याप जातिधर्मत्वे मचुष्याद्-
शरीरमेव सचतन न वनस्पांतशरीरामिति। ननु च जातथ- |
मत्वं कशनसखदन्तादिप्वप्यास्ति व्यभिचारी च लक्षण
भवत्यस्ति च व्यभिचारः तस्मादयुक्र कल्पायतु
जातिधम्मत्व॑ जीवलिङ्गमिति , उच्यते--सत्यमस्ति
जननमात्रम् , कि तु-मनुष्यशरीररप्रसद्ध-वालकुमारका-
चवस्थानामसभवः करशादष्वस्ति स्फुटः, तस्मादस-
मञ्जसमतद् , अपि च--कशनखे चेतनावत्पदार्थाधिए्टि-
तशरीरस्थे जातमित्युच्यते, वदधते इति वा, न पुनस्त्वयेव
तरवाऽपि चतनावत्पदा्थाधारस्था इष्यन्ते, त्वन्मत भुवाऽ
ज्तनत्वात्तस्मादयुक्लामाति। अथवा-जातिधर्मत्वादीनि समु-
दितानि सूत्राक्तान्यक्त एव हेतुः, न प्रथक् टतुता, न च
मुदायदतुः कशादिष्वस्ति तस्माददोष इति । तथा यथद्
मचष्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविशषेवद्ध ते ,
तथैतदपि वनस्पतिशररमङ्करक्रिशलयशाखाप्रणाखादिभि-
विशेषवद्धत इति | तथा यथदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वन-
स्पतिशरीरमपि चित्तवत्। कथम् ?, चतयति यन तच्चित्तम्-
( ८०
अभिधानराजन
ज्ञानम् , ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञाननायुगतमेवं वनस्पति- |
शरीरमपि, यतो धात्रापुशन्नागादीनां स्वापाचवाधसद्धावः,
तथाऽघानिखातद्रविणराशः स्वप्ररोहणावष्टन॑ धराव्रडजल-
थधराननादाशाशरवायुसस्पशाद छुराद्भवः तथा>मदमदन- |
सङ्गमस्खलद्रातावघूणमानलाललाचनात्रला सना सन्नृ पुर --
खुकुमारचरणताडन.दशाकतरोः पल्लवकुखमाद्रमः, तथा |
सुरभिसुरागरणाड्रपंसकादकुलस्य स्पष्रध्ररादिकादीनां च
हस्तादिसस्पशात्सकाचिकादिका परिस्फुटा क्रियोपल-
ग्धिः ।
न्तरेण
तथा- यथद् चिन्न म्लायति तथैतदपि चिन्न म्लायति, म-
जुष्यशरोरं दि हस्तादिच्छिन्नं म्लायाति-- शुष्यति, तथा-त
रूशरी रमपि पल्लवफलकु सुर्माद च्छिन्न शापमृपगच्चृत् दृष्टम
न चाचतनानामय घम्म इति । तथा--यथद मयुष्यशरीरं
>>? तथतदपि व
नस्पतिशरीर भूजलाद्याहाराभ्यवहारकम् , न चेतदाहारक- |
त्वभखलनानां टष्टम् , अरतर्रद्धष्दःस्खयतनःवमिति ' तथा
न॒ चैतदभिहिततरुसंवन्धिक्रियःजालं ज्ञानम- |
घटत, तस्मात्सिद्धं चित्तवत्वे खनस्पतेरिति । |
"पु वणप्फहट
यथद् मनुप्यशसीरमनित्यक्तं न सवदा ऽवस्थायि तथैतदपि व-
नस्पातशरीर मानत्ये नियतायुष्कत्वात् , तथा हि--अस्य द्-
शवषसहस्राणि उन्कषटमायुः । तथा यथेदं मनुष्यशरीर-
मशाश्वतं-प्रतिक्षणमात्रीचीमरणन मरणात्तयैतर्दापि वन-
स्पातशरारामात । तथा यथदमिष्टानि्टादारादिष्राप्त्या च-
यापचयिकं जृद्धिहान्यात्मकं तथेतर्दाप इति । तथा यथेदं
मनुष्यशरीरं विविधपरिणामः, तत्तद्रागसपकात् पारडत्वो-
द्रब्रद्धिशाफङ्शत्वाङ्कलिनाशिकाप्रवशादिरूपा बालादिरूपो
वा, तथा--रसायनस्नदादुपयोगाद्विशिष्टकान्तिबलोपचय) -
दिरूपा विपरिणामः तद्धम्भकम्-ततस्वभावकं तथैतदपि
वनस्पतिशरीरं तथाविध्रोगोद्ध वात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथा
भवनात् , तथाविशिष्टदौ हद प्रदानन पुष्पफलायुपचयाद्वि परि-
रामघमकम् । पवमनन्तराक्धमकलापसद्धावादसशय गृहा-
रेतत्-सचतनास्तरव इति ।
वणस्सई चित्तमेतमक्खाया अशणेगजीवा पुढोसत्ता अन्न-
त्थ सत्थपरिणणणं ॥
वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । विशष-
त्वभिधीयत-सात्मकं जलम् , भूमिखातस्वाभाविकसभवात्
.ददुरवत् । सात्मकाशञ्चः आहाग्ण ज्राद्धदशनात् , चालकव-
त् । सात्मकः पवनः, अपरप्रारत्तातयगानयामतादग्गम-
नाद् , गाचत् । चतनास्तरवः सर्वत्वगपहरण मरणाद् गदे-
भवत् । है
चनस्पतिजीवविशषप्रतिपादनायाद--
तं जहा-अग्गबीया १ मूलबीया २ पोरबीया ३ खं-
धवीया ४ बीयरुहा ५ सम्मुच्छिमा ६ तण-लया-वण-
स्सइकाइया सबीया चित्तमतमक्वाया अणेगजीवा पुढो-
सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणणणं || ६ ॥
ते जहा-अग्गवीया ` इत्यादि तद्यथन्युपन्यासा्थः, अग्न-
चीजा इति-अग्ने बीज यषां ते शग्रवीजाः कोरिण्टकाद-
यः, एवं मूल बीज यषां ते मूलबीजाः उत्पलकन्दादयः,
पर्व बीज यपां ते पववीजाः इच्वादयः. स्कन्धा बीज यषां
ते स्कन्धवीजाः सल्लक्यादयः, तथा वीजाद्राहन्तीति बीज-
रुहाः शाट्यादयः, समूच्छन्तीति संमूछिमाः भ्रसिद्धवीजा-
भावन प्रृथिवीवषादिसमुद्धवास्तथाविधास्तणादयः। नचेते
न संभवन्ति दग्धभूमावपि सभवात् , तथा तृणलतावनस्प-
तिकायिका इत, अत्र तृणलताग्रहणे स्वगतानकभदसद-
शनाथम् , वनस्पतिकायिकग्नहणं सृच्मवाद्राद्यरोपवनस्प-
तिभेद्सेग्रहा थम् , एतेन परथिव्यादीनःमपि स्वगताः मदाः
पूरथिवीशकरादयस्तथा ध्वस्थाय मदिकादयः, तथा-श्ङ्गार-
ज्वालादयः तथा-भङ्कामरडलिकादया भदाः सूचिता दति।
सवी जाश्ित्तवन्त श्राख्याता इति, पत ह्नन्तरोदिता व-
नस्पतिषिशषाः सवी जाः--स्वस्वनिवन्धनाश्चित्तवन्तः-श्रा-
त्मवन्त आआख्याताः-- कविताः । एत च अनेकजीवा इत्यादि
ध्रवगांरडक्रा पृववत् | सवीजाश्चित्तवन्त श्राख्याता इत्यु-
क्रम् | अत्र च भवत्याशङ्का कि बीजजीव पव मूलादिजीवो
भवत्युतान्यस्तस्मिन्नुत्कान्ते उत्पद्यत इति ?,
चरस्य व्यपाटायाऽऽह--
बीए जोशिव्भूए , जीवा वुकमइ सो य अन्नो वा ।
च
| 4
( 5०८ )
वशप्फड
जो वि य मूल जीवो, सो विय पत्त पटमयाए ॥२३२॥
बीज योनिभूत इति- वीज हि हिविध भवात यानिभू-
तम् , अयानिभूत च । अविध्वस्तयानि , विध्वस्तयानि
च । प्रराहसमथ तदसमथ चत्यश्रः । तत्र या-
निभूत सचतनमचतनं च, अयोनिभूत तु निय--
मादचतनामिति। तत्र वीज योनिभूते इत्यननायानिभूत-
स्य व्यवच्छेदमाह--तत्रात्पक््यसं भवादू , अरवीजत्वादित्यथः।
यानिभूत तु यान्यवस्य बीज , यानिपरिणाममत्यजतीत्यु-
क्रं भवाति । किमित्याह जीवा व्युत्कामति उत्पद्यत स ए-
व पूर्वको बीजजीवः वीजनाम गोत्रे कर्माणि वदयित्वा
मूलाद्दिनामगोत्रे चा पानिवध्य, अनन्या वा प्रथिवीकायिकादि-
जीव एवमेव, याऽपि च मूल जीव' इति य एव मूलतया प-
रिणमते जीवः साऽपि च पत्र प्रथमतयेति-स एव प्रथमपत्र-
तयाऽपि परिणमत इत्येकजीवकर्तके मूलप्रथमपत्र इति ।
श्राह--यद्यवम्-““ सव्यो वि किसलओ खलु , उग्गममाणा
अरखंतओ भणिओं ” इत्यादि कथं न विरुध्यत? इति,
उच्यत- इह वीजजीवाऽन्या वा वीजम् त्वनात्पदयय त-
दुच्छूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किशलया-
वस्थां नियमनानन्ता जीवाः कुवन्ति, पुनश्च तषु स्थि-
तिक्तणात्पारेणतप्वसावव मूलजीवा ऽनन्तजीवतयुं परिण-
मय्य स्वशरीरतया तावद्रद्धत यावत् प्रथमपत्रामाति न वि-
राधः । अन्य तु व्याचत्तत-प्रथमपत्रकमिद याऽसं वीज-
स्य समुच्छूनावस्था , नियमप्रदशंनमतत् , शष किसल-
यादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितामति
मन्तव्यम् । ततश्च सूव्वा चि किसलयो खलु,
रगममाणा अरंतओआ भणिश्रा ”
श्रनिर्वतनारम्भकाल किसलयत्वाभावादित गाथाः ।
पतदवाह भाष्यकारः--
जज
श
विद्धत्थाऽविद्धत्था, जोणी जीवाण होइ नायव्वा ।
तत्थ अविद्धत्थाए, वुक॒मई साय अज्नी वा॥ ५८॥
विध्वस्ता ऽविध्वस्ता-श्रप्ररादप्रदाहसमथौी यानिर्जीवानां
भर्वात ज्ञातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनां व्युत्कामात स-
चान्या वा, जीव इति गम्यत इति गाथाथः।
~~ 2 | ४९ ४, [4 व्व 3 4
जा पृण मूल जवा) सा [नस्वत्तइ् जा पढमपत्त |
कंदाइ जाव बीय॑, समं अन्न पकुव्वाति ॥ ५६ ॥
यः पुनर्मूल जीवा वीजगताभ्न्या वा स निवेत्तंय-
ति यावत् प्रथमपत्र ताव्दक पवर्त , अत्रापि भावाथ
पूववदव । कन्दादि यावद्रीज शपमन्य प्रकुर्वान्त, वनस्प
तिजीवा एव, व्याख्याद्वयपक्त 5प्यतद्विराधि, एकतः स-
मच्छनावस्थाया ण्व प्रथमपत्रतया - विवक्षितत्वात्तदनु क
न्दादिभावतः अन्यत्र कन्दादवनस्पातमदत्वात्तस्य च प्र-
धमपत्रात्तरकालमव भावादिति गाथाथ
अतिदश्शमाह--
-समं सुत्तप्फार्स, काए काए अहकम बूया।
अज्भयणत्था पंच य, प्रगरणपयवंजणविसुद्धा ।|६०॥
शाप सूत्रस्पशम् उक्रलत्तणो काय काय>प्रूथिव्यादा य-
थाक्रमम-यथापरिपार्टि त्रयात् अ्रु।गध्रर एव, न कवलैस्
आमभवधानराजन्द्र: ।
इत्याद्यप्यविरुद्ध मूलप- |
त्
स्पशमव
न॒ जीवाजीवाभिगमादीन प्रकरणपदव्यञ्जनविश्युद्धान् ब्र
यात् , सत्र एव जीवामिगमः काय काचं इन्यननव ल-
व्ध ईति पञ्चत्रहणम् , अन्यथा पांडहाथाधिकारा इति\
प्रक्रियत ऽथो ऽस्मिन्निति प्रकरणम् , अनकार्थाथिकारवत्का-
यप्रकरणादि, पदम्--खचन्तादि. क्ादीनि-व्यञ्जनानि, ए-
मिर्दिशद्धान् व्रयादिति साधाथः। दश० ४ अ० । विश्च ।
स्था० । दर्श० आचा० | सूत्र | व्य० | घम०।
पच वनस्पतश्चतन्य प्रदश्य तदारम्भ वन्धे तत्परिहाररू-
पविरत्या सवनन च मुनित्वे अतिपादयन्नुपसाजदी--
पुराह--
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चते अरंभा अपरिपाता
भवति, एत्थ सन्थं असमांरंभमाणस्स इच्चते आरंभा
[क = ऊ >= । 6
पाष्या भवत्रात, त॒ परणणाय महावा णव
सय वरणस्सर्सत्थ समारभज्जा णव5्णणा।ह वशणस्सइ>
सत्थ समारभावज्ञा खवञ्ख्ण वणस्पर्सत्थ समा
रभते समणुजाणेजा जस्मत वणस्सतिसत्थसमारं--
भा पारष्पाया भवात सदह मुखा पारणाय कस्म त्त बाम |
( सू० ४७ )
पत्थसत्थः मित्यादि एतस्मिन् वनस्पतो शखर द्रव्य
भावाख्यमारभमाणस्वत्यत आरम्भा अपरिज्ञाता अप्र-
व्याख्याता भवान्ति , एतास्मिश्च वनर्पतो शख्रभसमा-
रभप्राणस्यत्यत आरम्नाः परिज्ञाता: प्रत्याख्याता भव-
न्तीति पूवचञ्चचः यावत् स एवं मुनिः परिज्ञातकर्मति
व्रवीमि पू््वयादिति । आचा० १ श्रु० १ अ० ५ उ. । ( वन
स्पतिकायर्प्रातसवना ` मूलगुण्पाडसवणा ` शब्द अस्मि-
न्नव भाग ३५८ पृष उक्ता । ) ( वनस्पतयः कं काले स्वा-
ट्पाहारकाः इति आहार शब्द डितीयमागः८१ पृष्ठ उक्कम । )
उत्पलादिजीवानाम--
> कु [ ल म्
उप्पल सालु पलासे, कभी नाली य पठमकप्मी य ।
नलिण सिच लोग काला, लमियदसदा य एकार ।५।
* उप्पले ` त्यादि, उत्पलाथः प्रथम उद्दशकः ९, ' सालु `
त्ति-सालूकम्-उत्पलकन्दस्तदथों द्वितीयः २, ' पला ` त्ति
पलाशः--किथुकस्तदथस्ततीयः ३ ` कमि त्ति-
वनस्पतिविशवस्तदशश्चतुधः ४ * नाडी य ` त्ति नाडीव-
द्यस्य फलानि सनाडाका-वनस्पतिविशप एव तदथः पञ्च
मः ४ पडम ` त्ति पद्माथः षष्ठः ६, ` कराणी य ` त्ति कार्णे-
काथः सत्तमः ७ 'नलिण' त्ति नालिनाथों 5एमः, यद्यपि चा-
त्पलपद्मनलिनानां नाम काश एकाथतयाच्यते तथाऽपीह रूढ
विंशषा 5वसेयः , * सिव ` त्ति शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थो
नवमः ६, * लाग ` त्ति लाका्थो दशमः १०, ` कालालामष
त्ति काला एकादशः ११ आलमिकायां नगया यत्प्ररूपि-
त तत्प्रातिपादक उद्दशका 5प्यालमिक इत्युच्यत, तता 5सा ढ्वा
दशः १५ ' दस दा य णक्तारि ` न्ति द्ादशादशका एकादश
शत भवन्तात । तत्र प्रथमाहशकद्वारसंत्रहगाथा वाचना-
न्तर दण्रास्ताश्चमाः
बबाओ ६ परिमाणे २,अवहारु ३ च्चत्त ४ यध ५ घ् प,६।
मं
#
क्र तु-अध्ययनाशथान् प्व च प्रायुपन्यस्ता-
॥
( ८०६ )
अआ्राभधानराजन्द्र। |
| कणप्फड
नि
वणप्फड
शी ~ _
दथ ७ उदीरणाप ८, लसा ६ दिद्ठवी १० नाणी य ११॥१॥
जागु १२ वआग १३ वरणण १४ र>समाइ १५ ऊस्तासग य
१६ आहार १७ । विरई १
कसायि २२ त्थि २३ बंधे २४॥२॥ सि २५ दिय २६
अखुवंध २७, सवदा २८ हार २६ ठिइ ३० समुग्धाप ३१ ।
चथण ३२ मूलादीसु य, उबवाओ सव्वजीवाणे ॥ ३॥ "`
एतासां चाथ उद्शका्थाधिगमगम्य इति । आचा० १ श्रु०
१ आ० ५ उ०। ई
उत्पलजावानाम्-
तेणं कालेणं तणं समएशं राय गिह ° जाव एवं वयासी-
उप्पलेण भत ! एगपत्तए कि एगर्ज।वे अणगजीवे १,
गायमा ! एगजीव णो; अणगजीवे, तेण परं ज अण्णे
जीवा उववज्जंति ते णं णो एगजं।वा अशगजीवा । तेण
भते ! जीवा कओ।हिंतो उववज्जति, कि शरइएहिता उव-
वर्जति,तिरियमणुस्सदेवेहिंतो उववज्ञेति ?,गोयमा! णो श-
रए टितो उववञ्जं ति, ति रिक्डज।णिणए हितो वि उववज्ति।
मणुस्ये हितो वि उवदेज्जति देवेहिंतो वि उववज्जेति, एवं
उववाश्रा भाशियव्वो जहा बकंतीए वणस्सइक[इयाणं
०जाव इंसाणेति १ | तें भत ! जीवा एगसमएणं कव
इया उववज्जति ?, गोयमा ! जच्छणं एक्रावादोावातिश्ि
वा उक्षाणं सखज्ञ। वा असंखेज्ञा वा उववज्ज॑ति २। तणं
भत ! जीवा समए समए अवहीरमाणा २ केवइका लेणं अव-
किरया १६ बंधे २०, सष २१ |
हरंति १, गोयमा ! तं असखज्ञा समए समए अवहीरमा- |
णा अवर्हीरमाणा असंखज्ाहिं उस्सप्पिर्णीओसाप्पिणीहिं
अप्रहीरंति णो चव णं अव्रहिया सिया ३।
*उप्पलणं भत एगपत्तए' इत्यादि, उत्पल+नीलोत्पलादि पकं
पत्र यत्र तदेकपत्रकम् , अथच एकं च तत्पत्र चेकपत्र तदेवे-
कपत्रकं, त रति, एकपच्रकं चह किसलयावस्थाया उपार
द्ध्व्यम् , * एगजीव ` त्ति | यदा ह्यकपत्रावस्थे तदेकजीवं
तद्यदा तु द्धितीयादिपत्र तन समारब्धं भवति तदा नैकप
चावस्था तस्यति बहवा जीवःस्ततरात्पद्यन्त इति , एतदे-
बाह-' तण परमि ` व्यादि । ` तण परे ' ति ततः प्रथम-
पत्रात्परतः । ` ज अः५ जीवा उववज्ञति ` ति | यन्ये प्रथ
मपत्रव्यतिरिक्ता जीवा ज।वाश्रयत्वृात् पत्रादयाऽवयवाः
उत्पद्यन्ते त नेकजीवाः- नेकजीवाश्रयाः कि त्वनकजीवा-
श्रया इति | अथवा--' तण ` त्यादि । तत एकपत्रात्परतः
शषपत्रादिष्वित्यर्थ: य अन्य जीवा उत्पद्यन्त त नेकर्जाबा-
_ नेककाः कि त्वनकजीयाः-अनके इत्यथः |
अपहारबन्धद्धार--
स = == । शं भत ! जीवा शं के महालया सरीरोगाहणा पाप्म-
त्ता+गायमा ! जहांसणं अगुलस्स असंखेज्जइभागग उकासणं
साइरगे जोअणसहस्सं ४। ते शं भते ! जीवा णाणावर-
शिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा अबंधगा ?, गोयमा ! णो
अत्रधगा बंधए वा बंधगा वा एवं ० जाव अतराइयस्स
२०३
रवर आउयस्स पृच्छा, गायमा . बधए वा अबधए वा
बधगा वा अबधगा वा, अहवा---बधएण यं अब्रघधए य,
अहवा--बंधए य अबंधगा य, अहवा-बंधगा य अवं-
धमे य,अहवबा-बंधगा य अबंधगा य ८, एए अद्र भगा ५।
"तण भत! जीव जि य उत्पल प्रथनपत्राद्यवस्थाया-
मुत्पयन्त ` जहा चेक्कतीए ` त्ति प्रज्ञ(पनायाः पष्ठपदे स चेव-
मुपपातः--' जइ तिरिक्खजाणिएहिता उववज्ञति ` कि
एगिंदियातिरिक्खजा णिएहिंता उववज्ञात०जाव पंचिदियति-
शिक्खजा णएहिंता उववज्जाति?, गोयमा ! एागिदियति-
रिक्खजाणिएहिता वि उववज्ञेति ' इत्यादि णवे मनुष्यभेदाः
वाचया:--' जड दवेहिता उववज्ञेति कि भवणवासी `
त्यादि प्रश्ना निवेचने च इंशानान्तदवभ्य उत्पद्यन्त इत्यु-
पयुञ्य वाच्यामिति,तदतनापरपात उक्तः । ` जटन्नण णकोवे
त्यादिना तु परिमाणम् २।' त णे सखा समप ` इत्या-
दिना त्वपहार उक्कः, एवं द्वारयाजना काया ३। उच्चत्वद्रारे
* साइरेग जायणसटस्सं ` ति तथाविध्रसमुद्रगातीधकादा-
विदमुच्चत्वमुत्पलस्यावलयम् ४, वन्धद्वार--' बन्धए व-
घया व ` ति । एकपत्रावस्थायां बन्धक एकत्वात् , द्यादिप-
आवस्थायाश्व वन्धका बहुत्वादिति,एवं सवकमखु, आयुष्क
तु तदवन्ध्रावस्याऽपि स्यात् ,तद्पत्षया च अवन्धक्रो ऽपि अव-
न्धका अपिच भवन्तीति । एतदवाह--' नवरमि ` त्यादि
इह वन्धकरावन्धकप्रद वारकत्वयाग एकचचनन द्धौ विकल्पों
बहुवचनन च छो, द्विकयागे तु यथ्रायागमकत्ववहुःवाभ्यां
चत्वार इल्यवमष्रा विकल्पाः । स्थापना--
१ बन्धकः र् ४ बन्धका ऽवन्धकः
२ अबन्धकः श् ६ वन्धक्राऽबन्धकाः २
२ वन्धक्राः २ ७ वन्धक्राः अवन्धकः १
४ अबन्धकाः = ८ बन्धका: अवन्धक्राः ३
एकसयागिभङ्गाः ४ द्विकसर्यागिभङ्गाः
चवदनद्वार--
तेणं भत ! जीवा णाणावर ज्जस्स कम्मस्स कि वेद-
गा अवदगा?, गोयमा! णो ्रवेदगावेदए वा बेदगा
वा एवं ०जाव अतराइयस्स, ते णं भत ! जीवा किं सा-
याव्रद्गा असायावेदगा १, गोयमा ! सायावेदए वा अ-
सातावदण वा अट् भड़ा ६ ॥
त भदन्त ! जीवा ज्ञानवरणीयस्य कर्मणः कि चदका
अवेदकाः ? , अत्रापि एकपत्रतायामकचचनान्तता अ-
न्यत्र तु वहुवचनान्तता, एवे यावदन्तरायस्य , वदनीय
सातासाताभ्यां पूववद्शो भङ्गाः, इह च सर्वत्र प्रथमपत्राप-
च्यकचचनान्तता, ततः परन्तु बहुवचनान्तता, वदन चा-
चक्रमादितस्यादीरणाद्रीदितस्य वा कम्मेणाऽनुभवः। उदय-
श्चानुक्रमादितस्यवति वदकत्वध्रूपण् ऽपि भदनादयित्वध्ररू-
परणांमति । स्थापना--
६ सातावदकः १ ५ सातावेदकोऽसातावदक १
२ असातावदकः १ ६८ सातावदकाधसातावदकाः ३
३ सातावदकाः ३ ७ सातावदका असातावदकः . १
४ असातावदकाः ३ ८ साताचदकाः असातावदकाः ३
एकरंयागिभकद्गा: ४ हद्विकसंयोगिनज़ाः
(८१० )
असिधान/ाजन्द्र:
वणप्कड
तेनि णं भत ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स
कि उदई अणुदई १, गोयमा ! णो अणुदई, उदई वा
. उदइणो वा एवं ०जाबव अतराइयस्स ७। ते णं भते!
।
जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि उर्दीरगा अणुदी- |
रगा, गोयमा ! णो अणुदीरगा उदीरण वा उदीरगा |
वा एवे °जाव अतराइयस्स णवरं वेदणिज्जाउवएसु अद्र
भङ्गा ८ |
"ना अखुदीरग' त्ति तस्यथामवप्थायां तेषामलुदी रकत्वस्या स-
म्भवात्, 'वेर्याणज्ञ/उएसु द्रु भङ्ग त्ति वदनीय साता5सा-
तापक्षया ऽऽयुप पुनरुदा रकत्वानुदी रकत्वापक्षया 5छो भङ्गाः,
अनुदीरकत्व चायुप उदीरणायाः कादाचित्कत्वादिति ।
लश्याद्वार अशीतिमेज्ञाः कथम्--
ते ण॑ भत जीवा कि कण्टलस्मा नीललेस्सा काउले- |
स्या तेउलेस्सा ?, गोयमा ! कएहलस वा ०जाव तेउ-
लस वा कण्दलस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा
वा तेउलस्सा वा, अहवा--ऋणहलस्स य नीललेस्से
य एवं एए दुयासंयागतियासंजोगचउकसंजोगिण असी- |
तिभद्जा भवन्ति । & | तशं भते! जीवा कि सम्मदि-
ट्री मिच्छदिद्ली सम्मामिच्डदिद्धी ?, गोयमा !, णो सम्म-
दिद्ली णो सम्मामिच्छादिद्टी मिच्छादिद्टी वा मिच्छादिंद्रि
णो वा १०, ते ण॑ भते? जीवा कि नाणी अप्माणी ?, गो-
यमा! णा शाणी अप्माणी वा आप्राणिणो वा ११ |
पएककयाग एकव्च्ननन चत्वारा बहुवचनरनाप अत्वार
एच, द्विकयागतु यथायागमकवबचनवह॒वच नाभ्यां चतुमङ्ग,
चतुणा तः पदाना कि ङ्क्यागास्त च चतुग गाव्यतावशातः हे
जिकयागे तु जयाणां पदानामणो भङ्गाः, चतुणाच पदानां
चत्व(रस्थिकसेयागास्ते चा5प्र/मिर्गुणिता द्वात्रिशत्, चतु- |
प्कसेयागे तु षाडश भङ्गाः, सर्वेमीलन चाशीतिरिति | अत
एयवॉक्कम-' गायमा कण्हलेखस वे ' त्यादि | भ० ११ श०।
चवणा<5 5 देद्वा रे---
तेसि णे भते! जीवाणं सरीरगा कडवण्णा कइगंधा
कडरसा कइफासा पप्पत्ता , गंयमा | पञ्चवेप। दुर्भधा
पश्चरसा अड्वफासा पष्पत्ता, ते पुण अप्पणा अबण्णा
अगंधा अरसा अफासा पष्पत्ता १४१ । १५॥
` त पुण अप्यणा अवस्त ` त्ति शरीराण्यब तषां पञ्चव- |
णांदीन त पुनरुत्पलजीवाः ` अप्प ' त्ति स्वरूपण, झ- |
वणा-वणादिवाजिता अमृ्तत्वात्तेपामति ।
उच्छा सा 5 5दिद्वारि--
तण भन्त ! जीवा कि उस्मासा निस्पासा णो उ-
स्मायणस्सासा ?, गोयमा ! उस्मासण वा १, णिस्सासए
वा २, णो उस्सासशिस्सासए वा ३, उस्मासगा वा ४,
णिस्सासगा वा ५, णो उस्सासणिस्सासगा वा ६,
' . ¶।
हवा--उस्सासए य णिस्सासए य, अहवा--उस्सासए
य, णो उस्सासणिस्सासए य । अहवा-शणिस्सासए
य, णो उस्सासणिस्सासण् य ४, अहवा-उस्सासणए य,
नीसासणए य, णा उस्पासणिस्सासणए य। अद्र भगा एए
छव्वीसं भगा भवन्ति २६ ॥
* ना उस्सासनिस्सासषए ` त्ति अपर्याप्तावस्थायाम् इद च
पिरि तिभङ्गाः, कथम् ?, एककयागे एक्रवचनान्ताखयः +
वहुवचनान्ता अपि चयः, द्विकयाग तु यथायागमकत्वबहु-
9 ए्तस्नश्चतुभा ज्ञका द्वादश, व त्वशाव-
त । अत एवाह- एन छुव्वासे भज्ला भवन्तीांत `` ।
ऋहारक्द्धार-
तेशं भते! जीवा कि अरारगा अणाहारगा ?, गोयमा!
णो अणाहारगा, आहारए वा अशाहारए वा, एवं अ
भङ्गा १७। ते शं भते! जीवा कि विरया अविरया विर -
याविरया ?, गोयमा ! णो विरया णो विरयाविरया अधि
रए वा अविरिया वा १८।त णं भते! जीवा कि सकिरिया
अकिरिपा १, गोयमा! णो अकिरिया सकिरिए वा सकिरिया
वा१६ । तणं भते! जीवा कि सत्तविहबंध गा अट विहबंधगा ?
गोयमा! सत्तविहबं धए वा अड विहवंधए वा अद भगा२०॥
आहारए य अणाहारए चति पिच्रदगतावनादार कोऽन्य
द्ात्वाहारकस्तत्र चापा भङ्गाः पूववत् ॥
तेणं भते! जीवा कि आहारसन्नोवउत्ता भयस-
ज्लोवउत्ता महणसन्नोवउत्ता परिग्गहसन्नोवउत्ता १, गो-
यमा ! आहारसन्नोवउत्ता वा असीती भगा २१। ते
णं भते ! जीवा कि कोहकसाई माणकमाई मायाक-
साई लोभकसाई १, अप्रीती सगा २२ । ते शं भते!
जीवा कि इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा नपुसगवेदगा १,
गोयमा ! नो इत्थीवेदगा नो पुरिसवदगा नपुसगंवदण
वा नपुसगवदगा वा २३ | ते ण॑ भेते ! जीवा कि इ
त्थीवेदबंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगंवेदबंधगा १, गौ"
यमा ! इत्थीवेदबंधए वा पुरिसवेदवंधए वा नपुसग-
वेयबंधए वा, छत्वीसं भगा २६ ।
सशाहार--
ते णे भेते ! जीवा कि सर्पौ असणछी ?, गोयमा!
ण। सापी असर्प व। अपप्पिणें वा २५। ते ण॑ भते,
जीवा कि सहंदिया अशदिया ? , गोयमा ! णो अ-
गिदिया सइंदिण वा सइंदिया वा ॥ २६॥ से शं
भेते ! उप्पलजीवे त्ति कालओ कव चरं दाइ? गो-
यमा ! जहण्यणं अतोमुहुत्त उकोसेणं असंखेज कालं
॥ २७ ॥ से णं भते ! उप्पलजीवे पुट्ीजीवे पुणर-
वि उप् गज | ति केवतियं काल सवज्ञा ?, के्रइय-
३५
व
|
|
१
|
क्र
है
(८१)
चाःप्फड
काल गातरागात करज्जा
गोयमा ! भवादसमणं ज-
ह्यं दा भवग्गहणाईं उकोसेण असंखेज्जाई .भवग्गह- |
ण।ई, कालदिसेणं जदप्पणं दा अतोम॒हुत्ता उकोसेणं अ-
संखज काल, एवतियं कालं सज्ञा एवतियं काले गई-
रागति करज। | ( सू०--२८ >< )
"स ण मते ! उप्पलजीव ` ति इत्यादिनात्पलत्वरस्थितिर-
जुवन्धपयौयतयाक्ता |
से णे भते! उप्पलजीवे आउजीवे एवं चेव एवं ज-
द्रजध्रारूरगाजन्द्रः |
हा पढरीर्जतर भणित तहा °जाव वाउजीवे भाणिय- |
च्रे से शं भते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे से पुण-
रवि उप्पलजीवे ति कवदयं कालं सवेज्ञा केवइय कालं
-शडरागतिं क(जड)रेजा, गोयमा ! भवादमेणं जहप्णं दो |
भवग्गहणाई उक्ासणं अणताई भवग्गदणाई, कालादसे-
शं जदष्षणं दो अतोगृहुत्ता उकरोसेणं अशत कालं त- |
एवडइयं कालं गतिराग- |
रुकले एवतिय कालं सवजा,
ति करेञ्जा. से णं भत ! उप्पलजोवे बडंदियजीवे पुण-
रवि उप्पलजीवे त्ति कवडय कालं सवेञ्जा कट्इयं का-
६ ^ क ।
लं गडरागतिं कज्जइ ?, गोयमा | भवादेसेण जहण्णे-
शं दा भवग्गहणाई उकोसणं संखेज्जाई भवग्गहणाईं,
कालादसणं जदप्णं दा अन्तोमुहृत्ता उकासेण संख- |
ज्जं काले, एवइयं कालं सवज्ञा एवहइयं कालं गइराग-
तिं कज़इ , एवं तहदियजीवे, एवं चउरिंदियजीवे
वि, से णं भत ! उप्पलर्जीवे पचिदियतिरिक्वजाणि-
यजीव पुणरत्रि उप्पलर्जीबे ति पृच्छा, गोयमा ! भ- |
वादय जहप्मण दा भवग्गहणाई उकोसणं अदर भ-
बग्गहण।ई, कालादसं जहण्णेण दो अतोम्रहुत्ताईं उ- |
क्कासं पुव्वकाडिमुहुत्ताईं, एवड्य कालं सेवेजा ए-
बइये काले गइरागति करेजा ,
ते शे भेत! जीवा किमाहारमाहारेति ?, गोयमा ! दव्व-
श्रा अरातपएमियाई दव्वाई, एवं जहा आटःरुदेसए व-
शस्सहकाइयाणं आहारो तहेव' ° जाव सव्वप्पणयाए
आहारमाहारति णवरं णियमा छट्दिसि ससं तं चव २६।
तेमि णं भते ! जीवाणं केवहयं काल ठिई पण्णत्ता ?, |
गोयमा ! जहण्णेण अतोझुहुत्त उकोसेणं दसवाससहस्साई
३० । तेमि णं भते ! जीवाणं कड समुग्धया पप्मत्ता ?,
गोयमा ! तओ सम्ुघाया पष्पत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए
कसायसमरगधाए मारणतियसमुग्घाए ३१ | (ब्रू० ४०६+) |
सरश भत, उप्पलजीव पुढविजीव ` ज्ञिइत्यादिना तु स
[~~ ~ तजर च ' भवादस्रण ` ति भवप्रकारेण |
` जटराणणे दा भवग्गद्वणाई '
भवमाधित्यत्यथः,
तिष्ठ
एवै मणुस्सेण ` वि- |
समं ० जाव एवइये कालं गहरागति करेज़ा र८ ||
चवराप्कर
पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनु-
प्यादगात गच्छेदिति ` कालादेसेणं जहप्मण दा अतो-
महत्त ` त्ति , पृथिवीत्वेनानतमुहत्त पुनरूःपलत्वनान्तमृहत्त-
मत्यव कालादेशन जघन्यता द अन्तमुहनं इति । एवं द्वी-
न्द्रयादषु नयम् । 'उक्कासेण दरु भवग्गहणाई ` ति चत्वा-
रि पञ्ान्द्रयतिरश्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्ययमण्रों भवग्रदणा-
न्युत्कषत इ।त | उक्रासेणं पुव्वक्राङामुहुत्त ` ति चतुधु प
सान्द्र यतियग्भवरग्रहणेषु चतस्रः पूवकोास्यः, उत्छृएकालस्य
चवात्ततत्वनात्पलकायाद्धत्तज(वयाग्या त्कृष्टपश्चान्द्रयातयक
स्थितग्रहणात् . उत्पलजीवित त्वतास्वाधकमित्यवम॒त्कृष्ठत
पूवकारीपृथकृत्वे भवतीति । ` एवं जडा आहारुद्देलए व-
णस्सइकाइयाणं ` इत्यादि अनन च यदतिदिष्ट तदिदम--
` खत्तओ असंखेज़पएसोगाढाई कालओ च्रष्मतरका-
लट्टिइयाईइं, भावआ वसप्ममंताई ' इत्यादि, “सव्वप्पणयाए' त्ति
सवात्मना * नवर नियमा छुद्दिसि ` ति प्र्थिवीकायिकादय
सूक््मतया निष्कुटगतत्वन स्यादिति स्यात् तिखषु चतस्षु
दिक्षु वेत्यादिना5पि प्रकारणादारमाहारयन्ति,उत्पलजीवास्तु
बादरत्वेन तथाविधनिष्कुटष्वभावान्नियमात्पटसु दिक्षवाद्दार
यन्तीति ।
ते णं भते! जीवा मारणंतियसमुगधाएणं कि समोहया
मरति असमोहया मरति १, गोयमा ! समोहया वि मरति
असमोहया वि मरति ३२ । ( स्ू०--४०८+ )
ते णं मंते ! जीवा अणंतरं उव्बद्धित्ता कहिं गच्छन्ति
करहि उववज्ञति,किं शेरइणएसु उववज्ञति तिरिक्डजाणिणएसु
उववज्ञति एवं जहा वर्कंतीए उब्बट्टणाए वणस्सइकाइया-
शं तहा भाणियव्वं | अह भते! सव्ये पाणा सव्वे भूया सव्व
जीवा सव्वे सत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंद ताए उप्पल
गालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलक-
पियत्ताए उप्पलथिश्ुगत्ताए उप्पप्मयुव्या ? हंता गोयमा !
असति अदुवा अणतखुत्तो सेवं भत! भत ! त्ति।(सू० ४०६)
` वक्ततीपए त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपद् “ उवद्यणाए ` त्ति उ-
दत्तनाधिकरारे तत्र चदमवं सूत्रम--'“मणुपखु उववज्ञति
दवसखु उववज्ति ?, गोयमा ! ना नरइएस उववज्ञेति
तिरणएसु उववज्जेति मणुएसखु उववज्ञति ना दवखु उ-
ववज्ञेति ” “ उप्पलकसरत्ताए ` त्ति इह कसराण क-
िकरायाः परिता ऽवयवाः ` उप्पलकरिणयत्ताए ` त्ति डद
तु कर्गिंणका-वाजकाशः “ उष्पलध्िभुगत्ताए ` त्ति ॥
थिभुगा च यतः पराणि प्रभवन्ति। | भ० ११ श० १ उ०।
सालुए गण भत ! एगपत्ताए कि एगजीवे अणगजीवे ?,
गोयमा ! एगर्जवि एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्यया अपरिसेसा
भाणियव्वा० जाव अणंतखुता, णवरं सर्ररोगाहणा ज -
हन्नेण॑ अंगुलस्स असंखेजइभाग उकोसेण धणुपुदृत्तं ।
संसं तं चव सवं भत ! भते ! त्ति | (सू०४१०) (भ०११श०)
पलासणं भत ! एगपत्तए किं एगजीव अगणगजीवे १, एवं
उप्पलुद्देसगवत्तव्वयया अपरिसिसा भाणिवव्या, शरं
0)
च्रानधानराजन्द्रः)
वणप्फड
सरीरोगादणा जह्मणं अंगुलस्स असंखज्ञडभागं उको-
सेशं गाउयमुहुत्त, देवा एषएसु चव न उववज्ञति ।
लसासु तं भते ! जीवा कि कणहलसे वा नीललेसे |
काउलम?,गोयमा! कण्टलेस्स वा नीललस्म काउलेस्से वा
छव्यीस भङ्का सम ते चव सवं भत ! भत ! ति । (सू०-४११)
|
|
( भ०११ श० ३ उ०।) कुंभि य णं भत ! जीवे एगपत्तए |
कि एगर्जाव अआणेगर्जीवे एवं जहा पलासुदेसण तहा भार |
णियव्ये, णवरं ठिती जहष्णं अंतोमुहुत्त उकासेणं वासपु-
हुत्त सेसे त॑ चव। सवं भते! मत ! त्ति ( सू०४१२ )(भ° |
११ श०४३० | ) नालिए णं भते ! एगपत्तए कि एग- |
जीवे अशेगजीवे १, एवं कुंमिउद्देसगवत्तव्यया णिरवसेसं |
भाियव्वा सेवं भतं ! भते ! त्ति । ( सू०-१ १३)(भ० ११
श० ५उ०।) पउमे णं भते ! एगपत्तए कि एगजीवं
्रणेगरज।१, एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया णिखसेसा भाणिय-
व्वा सं भते ! भते! त्ति। (सू०४१४)(भ० ११श०६उ०।)
कष्पिए णं भते ! एगपत्तए कि एगर्जावे, अणेगर्जाबे १ ,
एवं चव शिरवसेसं भाशणियव्वं | सवं भत ! भते ! त्ति ।
(सा ७१५) (+ अ, ६६९ श० ७3)
नलिणे णं भते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे १ ,
एवं चव शिरवसेसं ० जाव अणंतखुत्तो सवं भत ! भत!
त्ति ( ( सू० ४१६ ) भ० ११ श० ८ उ० |
सालूकाइेशकादयः सप्तादेशकाः प्राय उत्पलोदेशकसमान- |
गमाः, विशषः पुनर्यो यत्र स तत्र सृत्रसिद्ध एवं, नवरं
पलाशाइशक य दुक्कम्
थः-उत्पलादेशक हि दवभ्य उद्वृत्ता उत्पल उत्पद्यन्त इत्यु-
क्रम् ,इह तु पलाशनाःपययन्त इति वाच्यम् .अप्रशस्तत्वात्तस्य,
` दवेखु न उववज्ति ` त्ति तस्यायम- |
यतस्ते प्रश॒स्तप्ववाःपलादिवनस्पति षृत्पद्यन्स इति । तथा |
लस्सासु त्त लश्याद्वार इद्मन्ययामात वाक्यशपष:, तद्व
दश्यत-' तेणाम त्याद । इयमत्र भावना-यदा कल तज्ञा- |
लश्यायता दवा दवभवादुद्धत्य वनस्पातषृत्पद्यत तदा तपु
तजालश्या लभ्यत नच पलाश दवत्याद्वक्त उत्पद्यत, पूवराक्त-
युक्तः, एव चह तजालश्या न सस्भवात तद॒भावादाद्या एव
तिस््रा लश्या इह भवन्ति, एताखु च षडर्णात्भङ्गकाः, जया- |
णां पदानामतावतामेव भावादिति । एतेषु चादशकषु नाना-
त्वसंग्रहा थी स्तिस्त्रा गा थाः--
' सार्लाम्म धरणुपुहुत्त, हाइ पलास य गाउयपुद्दत्त |
जाअणसहस्समहियं, अवससाणं तु छुणहे पि॥ १॥
कुम्भीण नालियाए, वासपुहुत्त ठिई उ वोधव्चा ।
दसवासखसहस्साई, अवससारं त॒ छुगहे पि।
कुःम्भीप् नालियाए, दाति पलास य तिशिण लसाओ ।
अत्तारे उ लसाआ।, अवससाएणं त पश्चरह ॥ ३ ॥
एकादशशत द्वितीयाद्या 5प्रमान्ताः शास्याथदेशकाः ।
भ० ११ श० ८ उ० ।
सालि कल अय|।से वंसे,इक्खू दव्भे य दव्भतुलसी य ।
अटत दस वग्गा, असीति पुण होंति उद्देसा ॥ १॥
साली ' त्यादि सूत्रम् , ` ' सालि ' त्ति शाल्यादिधान्यदधि ।
शपविपयादेशकदशाकात्मकः प्रथमा वर्भः शालिरवोच्यक,
पएवमन्यत्रापीत । उदशक्दशक्ं चवम् "मूल १ कंदे २ खेध
३, तया य ४ साल ५ पवाल द पत्त य ७ पुष्क ८ फल ६
बीए वि य १०, एकोक्को होइ उद्देसो ॥ १॥ ईत । “ कलल
त्ति, कलायादिधान्यविषपयो द्वितीयः २, ` अयसि ' त्ति
अतसीप्रभ्नतिधान्यविषयस्तृती यः ३, ` वसे ` त्ति वंशादिपर्व-
गविशपविषयश्चतुशः । ` इक्खु ` त्ति इच्वादिपर्बगविशष- ।
विषयः पञ्चमः , दब्भ त्ति ` दर्भशब्दस्योपलक्षणाथत्वात-
सेढिय-भंडिय-कोतिय त्यादितृणभदविषयः पष्ठः ‰, |
अब्भे ` न्ति चत्त समुत्पन्ना विजातीया वृक्तविशपाऽध्यव-
राहकस्तत्प्रभ्नतिशाकप्रायवनस्पतिविषयः सप्तमः, 'तुलसीय'
त्ति तुलसीप्रश्न॒तिवनस्पतिविषया5ए्मो वर्गः ८। ` अद्ुत दस
वग्ग ` त्ति अष्टावेत अनन्तगोक्ता दशानाम--दशानामुदशका- ।
नां सम्बन्धिना वग्गोः-समुदाया दशवर्ग्गा:.अशीतिः पुनर" |
शका भवान्ति, वर्ग वर्ग उदणशकदशकभावादिति । |
यागह ०जाव एवं वयासा-अह भतं . साला वीही-
गोधूमजवजवाणं एएसि. णं भेत ! जीवा मूलत्ताए व~
क्मंति, ते णं भत ! जीवा कओ हिंतों उववर्जति?, कि गणेर-
इए हितो उववज्ञति ?, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्ञति |,
मणुस्सदहितो उववज्ञेति?, दवेहिंतो उववज्ञति?,जहा वकंतिए
तहेव उबवाओ णवरं दववज्ञ, ते णं भते ! जीवा एगस-
मए केवश्या उववञ्जंति ?, गोयमा ! जद्षणश एकौ
वा दो वा तिशिण वा उकोसेणं सञ्जा वा असंखेज्जा
वा उववज्जंति, अवहारों जहा उप्पलुदेसए । एएसि शं
भते ! जीवार्ण के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ९,
गोयमा ! जदण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग उक्षोसेशं
धरुहपुहुत्त । ( सू०- ६८८३८)
'रायगिहे' त्यादि 'जहा वक्कतिए त्ति" यथा प्रज्ञापनायाः ष
छपदे तत्र व्रेवमुत्पादा ना नारक्रभ्य उत्पद्यन्त, किन्तु
तियग्मनुष्यभ्यः लथा व्यु.कान्तिपद देवानां वनस्पतिषृ.पान्त-
रक्ता इह तु सा न वाच्या मूल द्वानामचु.पत्तः पुष्पा
दिष्वेव शुभेषु तपामुत्पत्तरत पवाक्रम्-' नवर दववज्ञ ' ति
'एक्को वे! त्यादि यद्यापि सामान्येन वनस्पतिषु प्रतिसमय-
मनन्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यत तथा5पीह शाल्यादीनां प्रत्य-
कशगीरत्वादेकाययुःपत्तिने विरुद्धाति । । वहारा जहा उप्प-
लुदसपः ` त्ति उत्पलादशकः पकादशशतस्य श्रथमस्तत्र
चापहार पवम्-' त णे भत ! जीवा समये समय अवहीरमा>
णा २ क्रेवतिकालणे अवहीराति ?, गोयमा ! त शे अस
खज्जा समण समए त्रवहीरमाणा २ असंखज्ञाहिं उस्साष्ष-
णीहि अवसण्पिणीह अवहीरंति ना चय णो अवहिया
सिय ` त्ति ।
¢
ते णं भते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किंब-
धगा अबंधगा ? , जहा उप्पलुद्देसे, एवं वद वि उदए
न के
+ र ६
। | बि उदीरणाए वि। ते णे भेते जवा किं कणहलेस्सा-
। णीललेस्सा काउलेसा छव्वीसं भगा दिद्वी० ज।व वेइंदि--
| या जहा उप्पलुद्देसए, ते णं भते ! साली वीही गोधूमा
० जाव जवजवगमूलगजीवे कालओ केवचिरं होइर, गोय-
मा! जहष्पणं अंतोमुहुत्त उकोसणं अर्सखञ्जं कालं |
चेशं मेत! साली बीही गोधूमा०जाव जवजवगमूलगजीवे
पदवी जीवे पुणरवि साली वीही० जाव जवजवगमूलगजीवे
, एवे जहा उप्पलुदेसए, एएणं अभिलावणं ०जाव
मरणुस्मजीवे आदारो जहा उप्पलुदेमे ठिती जहष्पणं अं-
_्ष्तोमुहृत्त उकोसेणं वासपुहुत्त समुग्धाया समोहया य उच्व-
णा य जहा उप्पलुदेसे । अह भते ! सव्वपाणा० जाव
सव्वसत्ता साली वीही० जाव जवजवगमूलगजीवक्नाए उ-
ववष्पपुव्ा हता, गोयमा ! असति अदुवा अणंतखुत्ता
सेवं भत ! भते ! ति । ( खू० ६
"तरो भते ! जीवा नाणावरणिज्ञस्त कम्पस्स कि बंधगा |
अवंधगा ?' इतः पर यदट॒क्लम-'जहा उप्पलद् सण त्ति अननदं
कत्रश्य काल सव्रज्ञा ., क्वर्य काल गातरागति कर
| सृचितम्-'गायमा) नाअवंधगा बंधए वा बंधगा वा इत्यादि ।
एवं चदादयादीरणा आप वाच्याः | लश्यासु सु तिस पु षाड
शतिभङ्गा
पदानां तत्रषु,द्विकसंयागेषु प्रत्यकं चतुरङ्ग काभावाद् द्वादश
एकत्र च अिकसयागःणएराविति
त्यादि दृष्टिपदादा र भय इन्द्रियपदे यावदुत्पलाइशकचन्नयम ,
| ततर घ्र मिथ्यादषयस्त ज्ञान अज्ञानिनः , योग काययो-
गिनः, उपयाग द्विविधधापयागाः. एवमन्यदपि | तत एवं
चाच्यम , 'स णं भंत !' इत्यादिना ्रसखज्ञ कालमित्यतदन्त-
नाचुबन्ध उक्तः | अथ कायसंवेधमाह “ से णमि '
4
श्रसखेज्ञे कालमि ` त्यादि ' आहारो जहा उप्पलुद्देण
चवे चासो `ते भते ! जीवा किमाहारमाहरिंति गायमा !
द्च्वश्रा अखेतपएसियाई ` व्यादि ` समुग्घाये ` त्यादि
अनन च यत्सृचित तद् लशो ऽयम्-तषां-जीवनामाययाल्रयः
पाड्शतिरिति । दिद्ठी '.
त्यादि |
“छव जहा उप्पलउद्देसए' ति, अनन चदं सूचितम् ,गोयमा! |
भवादेसगा जहरणण दा भवग्गहणाई उक्ासणं असंखज्नाई |
भकरगदणाई कालादसरा जहपेण दा अतोमुहुत्ता उकासणं |
इति |
पक्वचनान्तत्तर बहुबचनान्तत्व तथा याणा |
समुद्धातास्तथा मारणान्तिकसमुद्धातन संमवहता ध्रियन्त |
असमवहता वा, तथोद्वृत्तास्त ति्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्त
हात | भ० २१ श० { वर्ग १ उ०।
अह भते ! साली वीही० जाव जबजवाणं एएसि शं जे
जीवा कंदत्ताए वक्कमंति ते णं भते ! जीवा कओहिंतो
उवरवज्ञति एवे कंदादिगारेण सो चेव मूलुद्ेसी अपरिसे-
षो भाणियव्वो ° जाव अस्तिं अदुवा अणंतखुत्तो सेवं
भते | भते ! त्ति । (भ० २१ श० १ वर्ग १ उ०।)
शभ खंधे बि उद्देसो शेतव्वो । ८( भ० २१
¢ + (~ >
श २ वेग ३े उठ । ) एवं तयाण व्रि उदनो
२०४ ,
(भ० २१ श० १ वगद८
वग्गो
( ८१३ )
च्रभनिध्रानराजन्द्रः
है __ _वणप्फड
झेयव्वों । ( भ० २१ श० १ वग ४ उ०।) साल वि
उद्देसो णयव्वों (भ० २१ श० १ वग ५ 3० |) पवाले वि
उद्देसा भाशियव्यो । ( भ० २१ श० १ वर्ग ६ उ० | )
पत्त वि उद्देसा भाणियव्वों ( भ० २१ श० १ वग ७
उ० । ) एण् सत्त वि उद्देसगा अपर्सिस जहा मूल तहा
यव्वा एवं पुष्फ वि उददेसआ णवरं दवा उववज्जंति,
जहा उप्पलुदस चत्तारि लस्साओ असीतिभंगा अगा-
हणा जहण्णणं अङ्कलस्म असखज्जडभागे उक्कासणं
अद्भुलपुहत्त ससं तं चव सवे भेत ! भेत! त्ति।
उ० | ) जहा पृष्फ एवं फ-
ले वि उंदसओ अपरिसिसो भाणियनव्वा । ( भ० २१ श०
१ वगे & उ० | ) एवं बीए उंद्सओ एए दस उद्देस-
गा पढमो वग्गो समत्तो ( खू०--६८६ ) ( भ० २१
श० १ वर्ग १० उ० ) अद भेत ! कलायमसर तिलमुग्ग-
मासनिष्फावकुलत्थआलिसेदगसडिणपलिपंथगाणं एए-
मिणं ज जीवा मुलत्ताए वक्कर्मति ते णं भत! जीवा
कओहितो उववज्जति १ । एवं मूलादीया दस उद्देसगा
भाणियव्या जहेव सालीण णिरवसेस त॑ चव बितिओ
वग्गों समत्तो अह भत ! अयसिकुस भकोाहवर्कंगु-
रालगतुवरिगकीदूसासणसरिसवमूल गबीयाणं एएसि णं जे
जीवा मूलत्ताएं वक्कमंति तेणं भत ! जीवा कओहिंतो
उववज्जति १ एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसा जहेब
सालीणं शिरवसेसं तहेव भाशियव्य | तइओ वग्गो समत्तो।
अह भत! वंसवेणुकणगककार्वंसवारुवंसदं डा कुं डा विमान च॑ -
डावेणुयाकन्ला णीणं एएसि णं जीवा मूलत्ताए वक्कमंति-
एवं एत्थ वि मूलादीया द्स उद्देसगा जहेव सालीणं णवरं दे-
वो सव्वत्थ वि ण उववज्जइ, तिशष लस्साओ सब्वत्थ वि
छव्बीस भङ्गा | ससं तं चव । चउत्थो वग्गो समत्तो |
अह भत ! उक्खुडक्खुवाडियावीरणाईक डभमाससुटिसत्तव
त्ततिमिरसयपोरगनलाणं एएसि शं ज जीवा मूलत्ताए
वकमंति एवं जहेव वंसवग्गो तहेव एत्थ वि मूलादीया दस
उद्देसगा णवरं खधुदेमे देवो उववज्जति चत्तारि लस्साओ्मो
पण्णत्ताओं, यसं तं चवं | पंचमो बर्गो समक्ता | अह
भते ! समियभंडियदन्भकोतियदन्भकुसदन्भगयोइद (इत)
लअज्जुणआसाढगरोहियंसम्ुअवक्खीर भूसएरंडकुरुभकुंद -
करवरसुटविभेगमुहवयणथुरगसिप्पियसंकलितणाणं । ए-
एसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति एवं एत्थ
वि दस उदेसगा णिरवसेस जहेव वंसस्स । छड्रो
समत्तों अह भते ! श्रब्भरुहवोयाणहरि--
१ मूलादिक। दति |
( ८१४ )
वणप्कड
अभिधानराजन्द्र ;।
तगवंदुले ज्ञ तजुतत्थु न वोरगवज़ .रयाइ चिल्लिपालकदग- |
पिप्पलियद व्यिसेत्थिक्सायम ड कमूलगसरिसवच्रं बिलसा- |
गजीबंतगाश एवमि णं ज जीवा मूलत्ताए वकर्मति, एवं
एत्थ वि दूस उद्यमा ऊय वंदस्स । सत्तमो वग्गो स- |
मतौ । अड भत ! तुलसीकण्टदलफणज्रा अज्ञाच
यणाचोराजीराद मणामरुयाइंदीवरसयपुप्फाणं एए शं
ज जीवा मूलताए वक्कर्भेति एत्थ वि दस उद
सगा गिरवसेस जहा वंसाणं । एवं एसु अट्सु वग्गसु
अतीति ८० उद्देसगा भवन्ति | ( प्रू ६६० )
णव समस्ताऽपि वर्गः सूर््बाश्रद्ध पवमन्यऽपि,नवरमशीति-
भङ्धाः. एव चतसुषु लश्यास्वक्रत्व ४ वहुत्व ४ तथा पदच-
तृष्य पटसु छ्वकसंयागषु प्रत्यकं चतुभङ्गिकासद्धावात्
२०, तथा चतुषु त्रिकुसयागषु प्रत्यकमण्रादां सद्भावात् ३२, |
चतुष्कसयाग च १६. एव्रशीतिरिति | इह चयमवगाहना- | -
विशपामिधघायिका ब्रद्धाक्ता गाथा-- मूल कंद खंध, तया |
य साल पवाल-पत्त य। सत्तसु वि घणुपुहत्त, अगुलिमा
पुप्फफलबीए ॥ ९ ॥ ” इति । भ० २९ श० ८ वर्ग ।
तालादिकानाह-+
“४ तालेगट्वियबहुबी -यगा य गुच्छा य गुम्मवन्नी य ।
छदस वग्गा एए, सद्टं पुण होति उद्देसा॥ १॥ ”
रायगिंहे ०जाव एवं वयःसी - ग्रह भते ! तालतमलतक्क-
लितेतलिसाललिसरलासारमल्नाणं ° जाव कयतियकदलच- |
म्हरुक्वगुंदरुक्ख हिंगुरुक्खलवंगरुक्खपूयफलखज्जू रिना - |
लिएरीणं, एएसि सं ज जीवा मूलत्ताए बकरमंति ते णं भते!
जीवा कओहिंतो उववज्जंति! एवं एत्थ वि मूलादीया दस
उदसगा कायव्या जहेव सालं णं, णतरं इमं णाणत्त मून
कंद खद् तयःए साले य एण्सु पञ्चसु उदसणसु देवो ण
उववञ्जई तिणिण लस्साओ दिती जणएटणणं अतःमदुतत
उक्कोसणं दम वाससहस्साई उवगिल्लसु पञ्चसु उद्देसएसु
देवो उववज्जइ, चत्तारि लस्साओ ठिई जहण्णेणं अतो |
मुदृत्त उक्कोमेणं वासपुहुत्त ओगाहणा,मूले कंदं धरुहपु-
हृतं । खंधे तया य साल य गाउयपुदृत्त, पवराले पत्ते
धणं, पुप्फे हत्थपुहुत्त, फल बीए य अंगुलपुदृत्त, |
सब्वर्सि जहणणेण अंगुलस्स असंखज्जइभागं भसं जहा
सालीणं । एवं एए दस उद्देसगा वावीसहमस्स पमो |
बग्गो | अह भते ! णिम्पर5म्बजंबुकोसंबतालअक्डोन्नपीलुसे- ,
लुसन्नरमोयईमालुयचरलपलासकरंजपुत्तं जीवगरिट्वहेंडे-
गहरियगमल्नायउंवरिय मरियखीर शधायडइ पियःलुप्इमणि -
वायगर्सण्हयपासियसी सवअयसि५ एणागणागरुक्ख सीव -
छाअसोंगाणं , एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वक्कर्म-
ति एवं मूलःऽऽदीया दस उद्देसगा कायव्वा णिखसेसं
जहा तालवग्गो । तरितिच्रा वग्गो समत्तो । अह भेत ! अ-
'छत्तोहसिरीससत्तवपष्मदधिवण्ण लोड धवचेद णज्जुणणीव --
त्थियातिंदुयवोरकवैदरखंवाडग माठनिङत्ि्मामलगफ़ग
सदालिमञ्रासत्थउबरवडणग्गोह णं दिरुक्ख पिप्पलिसतर--
पिलक्खुरुक्खंकाउंवरियकुच्छे भरियंदेवदा लि तलगलउय- ।
कुइंगकलंबाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति ते
शं भते ! एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा वाज्ञ- ।
वग्गसरिसा शेयव्वा °जाव बीयं, त्रो बर्गो समन्त || हि
अह भते ! वातिगणे अल्ल पोडइ एवं जहा पष्ठागणाएं
गाहाणुसारेण शेयव्यं ०जाव गंजपाडणा वासिअक्ञोन्ना- |
शं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकर्मति एवं एत्थ वि | १
मूलादिया दस उदसगा तालवम्गसरिसा नेयव्वा जाव बं ^
ति णिरवसेस जहा वंसवगगा चउत्थो वग्गो समक्त । अह.
भते ! सिरियकाणवनालियकोरंट गवं धुजीवगमणोज्ञा जहा
पाण्रणाए् पट मपदे गाहाणुसारण °ज।ब णलणीयकुँ-
दमहाजातीणं, एएसि णं ज जीवा मूलत्ताए वक॒मंति `
एव एत्थ वि मूलःदीया दस उदगा शिरखसेस जहा
सालीशं । पञ्चमो वग्गो समत्तो । अह भत ! पूसफली- `
कालि्गीतुबीतउसीएलावालकी एवं पदाणि छिंदे-
यव्वाणि पपष्पत्रणागाहाणुसारेण जहा तालवग्गो ° जाब
दधिकोन्नईंकाकलिसोकलिअकबो दीं, एएसि णं जे जीवा
मूलत्ताए वकर्मति एवं मृलादीया दस उद्देसगा कोय
व्वा जहा तालदग्गो णवरं फलउद्देस आगाहणाए जह-
छेणं अद्भुलस्स असंखेजइभाग उकेसिरं धरणुहपुहुत्त ठि- `
ई सव्वत्थ जहप्णेणं अन्तेमुहुत्त उक्ोसेण वासपुहुत्त सें
तं चेव । छट्ठी वग्गो समत्तो | एवं छसु वि वग्गेसु सद्वि.
उद्देसगा भवंति । ( ख्ू० ६६१ )
* ताले ` त्यादि तत्र ' ताले ` ज्षि ताजतमालप्रश्नतिवत्षवि-
शपविपयादेशकदणकान्मकः प्रथमो वरगः, उद्शकदशके च
मूलकन्दांदविषयमेदात्पूववत् । ` एगट्टिय ` त्ति णकमस्थि-
कं फलमध्य यपां त तथा, त च-निम्वा ५ऽच्रजम्बृकोशाम्वा-
दयः, त तीय वाच्याः ` बहुवीयगा य ` त्ति बहनि वीः
जानि फलयु यषां ते तथा, त च-अिथकलन्दुकवद्रकपि- ।
(:
६।
त्थादयो वक्तवशषपास्ते तृतीय बाच्याः। ` गच्छाय" त्ति
गुच्छा-वृन्ताकीप्रभ्रतयस्त चतुश्च वाच्याः । ' गुम्म `त्ति `
गुद्माः-सिरियकनवमालिकाकाररटकादयस्ते पञ्चमे घा-
च्याः । "वल्ली चति वरुल्यः-पुष्पफलाकालिङ्गीतम्बीधभरत- ४
यः, ताः पृष्ठ वरौ वाच्याः । इत्यवे षष्टवर्गों वल्लीयनी ४
यते ' द्ुदसवग्गा एए ` त्ति षटदशादेशकपमाणा वर्गो पत #
अन तगाक्लाः.अत पव प्रत्यकं दशादेशकप्रमाणत्वाद्वगौणामि- | ॥.
ह प्रणिरुदेशका भवन्तीति ¦ इदं च शतमनन्तरशतवत्स्व व्याः
ख्ययम्, यस्तु विशेषः स ध :, एवम् इय चह बृद्धोंक्ता |
गाधा" प्र्तपवाल पुष्करे, फल य वीप य हाइ उघवाओ। _
रूक््खसु सुरगणार.पसन्थर सव्र धेखु॥१॥ `` त्ि। भ०२९श०।
|: कै
११
धर
बणप्कड
0)
ख्ाभसधानराजन्द्र: |
चषपमःला
स्ालुका+ऽदि--
४ आलयलोहोअवया, पादी तह मास्व षिवल्ली य ।
पश्चेते दस बग्गा, पष्षासा होंति उदेसा ॥१॥ ”
रायगिदे °जाव एवं वयासी-अह भते ! आलुयमू-- |
। लगसिंगवेरहालिदरुक्खकंड रि यजरुच्छी र विराली कि ट्वि कुं--
दुकण्टकडडसुमधुपयलईमहुभिगि णिरुहसप्पसुगंधा छिन्न -
| रुहावीयरुहाणं एएसि णं ज जीवा मूलत्ताए वक्कमंति
एवं मूलादौया दस उदेसगा कायव्वा वंसवग्गसंरिसा
| शरं परिमाणं जहष्णं एक्को वा दो वा तिण्णि
वा उक्कासणं सखज्ञा असखेज्ञा वा अणता वा
उववज्ञेति अवहारो, गोयमा ! ते णं अणता समए
| अवहीरमाणा २ अणंताहिं उस्सप्पिणीहें ओसप्पिणी-
| हिं एवतिकालण अवहीरंति णो चव णं अवहरिया सिया
दईं जहांसण वि उक्क)मेण वि अतोयुहुततं , ससं तं चव |
। पटो वग्गो समत्ता। अह भत ! लोहिणी हूथीहूथिवगा अ -
स्पकीसीउदीमुसर्बाणं एएसि शं जीवा मूल ०एवं एत्थवि
दस उदसगा जहव आल्लयवग्गे णवरं ओओगाहणा तालव-
ग्गसरिसा,ससं तं चव सवं भते ! भत ! त्ति। वितिओ वग्गो
समन्ता | अह भते ! आयकायकुहुणकुंदुरुकउग्वे हलिया-
सफासज।छत्तावंसाणियकुमाराणं एएसि णं ज जीवा
मृलत्ताए एवं एत्थ वि मूलादीया दस उदेसया
क
५
णिरवसेस तं चव सवं भते ! भते ! त्ति । । तइओ वग्गो समत्ता |
अह भतं ! पादामियवालुकिमहुररसारायवल्निपउमामोढ- |
। | द्दितिचडीणं एएपि शं जे जीवा मूलत्ताएं वकमंति,
एवं एल्थ त्रि मूलादीया दस उदसगा आलुयवग्गसरिसा |
शवर ओंगाहणा जहा वल्लीणं, ससं तं चव सेव भत!
भेत ! त्ति । चउत्थो वग्गो समन्ता । अह ते मासपप्मीम-
ग्गपर्म जवगसरिसवकणएणुयकाञ्चलिखीरकाकोलिभगि -
शरि किमिरासिभदयच्छगलईपग्रायकिष्प।पउलपा--
बहरणुयाल हाणं एएसि णं ज जीवा मूलत्ताए व° एवं |
एत्थ वि दस उदसगा शिरवसेसं आलुयवग्गसरिसा ।
पञ्चमा बग्गा समन्ता ॥ एएसु पञ्चसु वग्गसु पप्मास
उदसगा भाणियव्यां सव्वस्थ देवा ख॒ उववज्ञति त्ति तिप्षि
लस्साओं। सेवं भेत ! भते ! त्ति | ( सू०-६६२ )
आलुये त्यादि तत्र 'आलुय ` चि च्रालुकमूलकादिसा-
धारणशगारवनस्पातभेदविषय इशकरदशकात्मक प्रथमा
चग।॥ ` लोही ` ति ॥ लोद्दीअभृत्यनन्तकायिकविषयो द्विती-
थः । 'अवइ'त्त अवककवकप्रभ्नृत्यनन्तकायिकमभेद्विषयस्त्-
तीयः।' पाढ त्ति पाठा-द्गवालुङ्गीमधुररसादिवनस्पांत-
। ऋ । मासवर्णीमुगगवरणी य' त्ति माषपर्णी
शुद्गपयीधशरतिवल्लीविशषविषय. पञ्चमः तन्नामक पवे-
|
|
त पञ्चैते अनन्तराक्का दशादेशकपमाणा वगा दशवचर्गाः यत
पवमतः पाशदुद्शङा भवन्ताह शत इात | भ २३ श० ।
शालचत्तवक्कव्यता--
एस शे भते ! सालस्क्खए उण्हामिहत तण्हामिहए
दवग्गिजःलाभिहत कालमास कालं क्रिचा कहिं गच्छि-
हिति कहिं उववजिहिई ?, गोयमा ! इहव रायगिह शये
सालरुक्खत्ताए पचायादिति, स णे तत्थ श्रचियवदि यपृइ-
यसकारियसंमाणिये दिव्वे सचे सचोवाए सप्यिहियपाडिहे
लाउल्लोइयमहिए याऽवि भविस्सइ । स णं भत ! तओदिंतो
अणतरं उव्वद्ित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववजिहि-
ति, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्किहिइ ०जाव अतं-
काहिति, एस णे भत! साललट्टिया उण्हाभिहया तण्णा-
मिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे काल किच्चा ० जावर
कहिं उववज़िहिति १, गोयमा ! इदेव जम्बुद्दीवे दीव भार-
है वासे विञ्छगिरिपायमूले महेसरिए णयरीए सामलि-
रुक्त्ताए पचायाहिति, सा णं तत्थ अच्चियवंदियपूइय
°जाव लाउद्लोइयमहिए याऽवि भविस्सद्, से णं भत !
ततोहिंतो अणंतरं उव्वट्ित्ता ससं जहा सालरुक्खस्स०
जाव अतं काहिति । एस णं भते ! उंवरलट्टिया उण्टाभि-
हया तण्हाभिहया दव्वग्गिजालाभिहया कालमास कालं
किचा ०जाव कटिं उववजजिहिति १, गोयमा ! इदेव जम्बु-
दवे,दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्त णामं णगरे पाडलिरुक्व-
त्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ अच्चियवंदिय ०जाव
भविस्सइ । से णं भते ! अंतरं उब्बद्वित्ता सेसं तं चव०
जावर अतं काहिति । ( घू०-५२८ )
` एस णामे ` व्यादि ' दिन्वे ` ति प्रधानः ` सच्चावाप ` त्ति
सत्यावपातः-सफलसवः कस्मादेवमित्यत आहर-' संनिदिय-
पाडिहर' त्ति । सन्नचिहितम-बिहित प्रातिहार्यम्- प्रतिदार-
कम सान्त्य द्वन यस्यस तथा, 'साललाटूय' त्ति । सालय-
एकरा इह वच यत्याप शालन्रृत्तादावनक जाया भवान्त तथापि
प्रथमज्ावापत्ते सूत्रजयमभिनतव्यम् , पवेविधप्रश्नाश्च वन-
स्पतीनां जीवत्वमश्रदधाने श्रातारमपद्य भगवता गोतमन
कृता इत्यवसयर्मिति । भ० १४ श० ८ उ०।
वणप्फ(स्स)इकाइय- वनस्पतिकायिक- पुं? वनस्पतिर्लता-
दिरूपः स एव कायः शरीरे यांत वनस्पतिकायाः, त एव
चनस्पतिकायिका. । वनस्प्रातिशगारक्षु एकन्द्रियजीवभदेषु,
प्रज्ञा० १ पद् | जी० | दश० । स्था | ग० | स० ।
वणप्फ(स्स)दकाल वनस्पतिकाल - प° । अनन्तात्सर्पिएयव-
त्सापणालक्षण कालभद, आ० म० १ अ०।
वरणप्फ(स्स)इगण-वनस्पतिगण-पुं० । वनस्पतीनां समुदाये,
प्रञ्च० ४ आश्र० हार |
वणमाला-वनमःला-खा० | रत्नादेमय आपदीन आ भर ण-
वशष, स्था० ८ ठा० ३ उ०। ( वनमालावर्णकः *
5 लचण-
समुद् ` शब्द्ऽस्मन्नव भाग ६१८ पृष्ठ गतः। )
वणमाला
( ८१६ )
अभिधानराजन्द्र; ।
बण मालापाडमउलकुडलसच्छद् विउच्वियाभरणचारुभू - | वणादिवर्-वनाधिपति- पु । यक्षभेदे, प्रज्ञा० १ पद
सणधरा ।
वनमाला --वनमालामयान आमलमुकुटकुरडलानि, आ
मल इंत-आपी डशब्दस्य प्राकृतलक्षणबशात् आपीडः-शेख- |
रकरः तथा स्वच्छन्दे विकुर्वितानि यानि श्राभरणानि तेयेत्
चारू भूषणं-मरणाडने तद्धरन्तीति वनमालापी डमुकुटकुरडल-
स्वच्छन्दविकुर्विताऽ ऽभरणचारूभूषणधराः। लिहादित्वादच । |
जी० ३ प्रति० ४ अधि० । त०। जे०। रा० श्रौ ०। वनस्पतिस्राज
[4 कर. लोकी हा छ, नि हि
च । स०। ओ०। द्वादशदेवलोकीयविमानभेदे, नपुं० | स०।
वणमुह-वरणमख-न० । बणाच्र , “ वणमुहटकिमिउत्तरयतप-
गलेतपूयरुहिरं ” वणमुखानि कृमिमिरुत्तुद्ममानानि ऊध्य
व्यथ्यमानानि प्रगलत्पूयरुघिराणि यस्य सः । एवपा० १
श्रु० ७ ० |
०. >प
वणयरय-वनचरक-एछु० । शवरादों, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० |
वशराइ-वनराजि-खी० । एकजातीयानामितरेषां वा तरूणां
पङ्का, अनचु० । ज्ञा० । एकजातायात्त मव॒क्तसमूहे, जी० ३ प्र- |
ति० ४ अधि० । श्रज्ञा० | भ० । रा०।
वशराय-वनराज-पु० । वेक्रमसंवत्सराणि २०८ अणहिलपत्त-
नस्य निवेशके चाल्लुकवशीय राजनि, ती० २५ कल्प |
वणणलया-वनलता-ख्त्री० | अशाकादिलतासु, प्रज्ञा० १ पद ।
ज० | रा० | जी० | भ० । करुप० । ज्ञा० । एकशाखेषु तरू-
विशषषु, वणा-दरमविशषाः द्रमाणां च लतात्वमकशाखाका
| द्वरष्टव्यम् , य हि द्रुमा उरध्वागतेकशाखा न तु दिग्विदि-
कपरच॒त्तबहुशाखास्त लता इति प्रसिद्धाः । रा० |
वशवास-वनवास-पुं* । श्रररयवासर, बृ० । लौकिका हि
वानप्रस्थाश्रमे वतमाना वनवासमव अ्रयसे मन्यन्त । तत्रा-
प्राश्ुकादेपारभागद्ोपः | बृ० १ उ०
खांड ` शब्दे दशयष्यत। )
वणवासी-वनवासी- खी ° । दक्िणाद्ध मरतक्तत्रीये नगरीभदे,
“ इहव अद्धभरहे वणवासीनगरीए वासुदेवस्स जहट्टभाउं,
जरकुमारपुत्ता जियसत्त राया ” ग० २ अधि०।
बणविदुग्ग-वनविदुर्ग पुं । नानाविधचृक्तसमूद, भ० १ श० |
८ उ० । व्य ० । पकं वनं वनम् , नानारूपे वनम् , वनविदु्मः।
व्य० & उ० | सूत्र ० ।
वणविरोह- वनविरोध-पुं० । लोकात्तररीत्या द्वादश मास,
कल्प० १ अधि० ६ क्षण | जे० | ज्यो० । सृ० प्र० | चे० प्र० ।
वनसंड-वनषणड-पुं० । अनेकजानीयोत्तमवृक्तसमुदाय, क-
टप० १ अधि० ४ क्षण | अनकजातीयाना मुत्तमानां महीरूहा,
रां समूहे, जी० ३ प्रात० ४ श्राध० । रा० | जी०। अनु० ।.
एकजातायचृक्तसमुहे, ज्ञा० १ श्रु० १ अ० । ज्ञा० | स्था०।
वणसवाई-खरी० । काकिलायाम् , '
येठी काइला वणसवचाई `` पाइ० ना० ४२ गाथा ।
वणहत्थि ( ण् )-वनहस्तिनू-पुं०। आररायगजे,उत्त०१३अ०। |
“पियमाहवी परहुआ कल- |
प्रक० । ( सच 'सं- |
वणाहार- वनाहार -पुं° । वन्यवस्सृपभोक्करि यक्तभदे, प्रश्ञा० १
पद !
| बशी-वनी- स्री । कपोसानिष्पादक फलीभदे
वणि (ण् )-वरणिन-त्रि० | वणां ‡स्यास्तीति तरणी ।
रे शल्य, श्राव० ५ श्र०।
वणिया-वनिता- खरी ० । सियाम् , उत्त० |
पुरिसे नाणाविहेदि, भावेहिं वणंति त्ति वशियाओ। _
पुरिसे त्ति-पुरुषान् नानाविधेः भावैरभिप्रायविला च
भिवयैकयन्ति- कामोादी पनगुणान् विस्तारयन्तीति वनित
त० । तथा च हारिलः--“ वातोद्रता दहति इतमुग् ददः
नराणां, मत्ता नागः कुपितमुजकश्चकददे तथैव । ज्ञानं
विनयाविभवोदार्य विज्ञानदेहान् , सवानर्थान् दहति
-5ऽमुष्मिकानेहिकां ञ्च ॥ १॥ ” उत्त० ८ ० | "क
हि
8 ~ 2 द् ०. --> < ह सूत्र है
श्र० १ अ० १ उ० ) स्था० । दायकामिमतजनप्रशंसोपायतो
लब्घार्थे, पञ्चा० १३विव०। _ ` व व
वणीमक वनीपक-पुं* । परेषामात्मदुस्थत्वदर्श |
भाषणता यज्ञभ्यत द्रव्यं सा वनी--प्रतीता, तां पिवति-आ- |
स्वादयति पातीति वति वनीपः | स एव वनीपकः । याचके,
स्था०५ ठा० ३ उ० | पञ्चा० | कृपण, दश० ५अ० । वु या
चन, वनुत प्राया दायकामिमतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं
दशेयित्वा पिरड याचते । प्रव ०६७ द्वार । पि० । अभीश्टजनप्रशं
सन, ग० १ आध० । *
प्रथमतो वनीपकस्य भदान्निरुक्रि च शब्द्स्याह--
समणे माहणि किवणे, अतिही साणे य होड पंचमए । |.
वणिजायण त्ति वशिमओ, पायप्पाणं बेड त्ति।४३॥ | ।
वनीपकः पञ्चधा, तद्यथा-श्रमश-श्रमणविषयः ब्राह्मण । `
कृपण अतिथों शुनि च पञ्चमो भवति, तर वनी पक इति । व-
निरित्ययं धातुयाचन, वनु याचन इति वचनात् । ततो बनु-
त--प्राया दायकसम्मत श्रमणादिष्वात्मान भक्तं दशंयित्वा
पिरड़ याचते इति ` वाड ` त्ति वनीपकः ऑणादिक
ईपकप्रत्यथः ।
सप्रति प्रकारान्तरेण वनीपकशब्दनिरुक्कि प्रतिपादयति-
मयमाइ वच्छगं पि व, वणइ आहारमाइलो भेणं ।
समणेसु माहणेसु य, किविणातिहिसाखभक्तेसु ॥४४॥
सरता--पञ्चत्वमुपगता माता यस्य वत्सकस्य-तरकस्य |
तमिव गोपालको ऽन्यस्यां गवि इति शषः.श्रादारादिलोभेन-
भक्तपात्रवस्तुलुब्धतया ब्राह्मणेषु श्रमणपु कृपणातिथिष्व-
वभङ्गेषु वनति--भक्रमात्माने दर्शयतीति वनीपकः । पूर्वव-
दोणादिक ईपकप्रत्ययः ।
सम्प्रति यावन्तः श्रमणशब्दवाच्यास्तावतो दशेयित्वा
तेषु बनीपकत्व यथा भवति तथा दशयात-
निग्गंथसक्तावस- गरुयग्राजीवपंचहा समणा ।
तेसि परिसणाए, लोभेण वणिज्ञको अप्पं ॥ ड ॥
निच्रन्थाः--साधवः, शाक्या--मायासनवीयाः- तापसाः
वनवांसनः पाखयिडनः, गरुकाः--गरुकरजितवाससः प-
रिव्राजकाः, अ'जीवकाः--गोशालकशिप्या इति पञ्चधा
&
-----
-~ ------- ~
पश्चप्रकाराः श्रमणा भवान्ति. एतषां च यथायागे ग्रृहिग्रदेषु
समागतानां परिवेषण-भोजनप्रदान क्रियमाणे सतिका-
उप्याहारलम्पटः साधुलॉभनाहारादिलुब्धतया वनति-शाः
कप्रादिभक्कमात्मानं द्शयति तद्धक्कग़ाहणः पुरत इति सा-
मध्यगम्यम् ।
इह प्राय: शाक्या गरुका वा ग्राहग्र :पु भुञ्जत ततस्तान्
भुज्ञानानाधकृत्य यथा साधुवनीपकत्वं कुरत तथा-
दर्शयात--
भजंति चित्तकम्मे, टिया व कारुणियदाणरूइणो वा ।
अभिकामगददेसु ५, न नस्सई कि पुण जईसु ॥४४६॥
एवं नाम निश्चला भगवन्ताऽमी शाक्यादया भुञ्जत
यथा चित्रकर्मालाखता इव भुञ्जाना लच्यन्त, तथा--
परमकारुणिका एत दानरुचयश्च, तत णनभ्याऽवश्य भा-
जनं दातव्यम् । | अपि च-कामगद्दभेष्वपि मेथुने गदभप्वि-
चातिप्रसक्कषु ब्राह्मणाप्वति गम्यत । दत्त न नश्यति कि पु-
नरमीषु शाक्यादषु एतभ्यो दत्तमतिशयन बहुफलामति
आवः । तस्मादातव्यमतभ्या विशपतः ।
अत्र दाषान् दशर्याति--
पिच्छत्तथिरी कर णं, उग्गमदापा यतेसु वा गच्छ |
चडकार दिल्नदाणा, पच्चत्थिण मा पुणा इतु ॥४४७॥
एवं हि शाक्यादप्रशेजन लाक मिथ्यात्वं स्थिरीकृत
अवति, तथादि-साधवाऽप्यमून् प्रशसन्ति तस्मादतेषां
धम्मः सत्य इति | तथा यदि भक्का मद्रका भवयुः तत
इत्थ साधुय्रशंसामुपलभ्य तद्याग्यमाधाकर्मिकादिखमा -
चरेयुः । ततस्तल्लेव्यतया कदाचन् साधुवेषमपहाय तषु-
शाक्यादिषु गच्छेयुः | तथा लोकं चाटुकरणयुत जन्मान्त-
बे ऽप्यदत्तदाना आहाराद्यर्थ श्वान इवात्मान दशर्यान्त-
इत्यवरवादः, यदि पुनः शाक्यादयः शाक्यादिभक्तावा
प्रत्यर्थिकाः--प्रत्यनी का भवयुस्ततः प्रद्रपतः प्रशसावचनम-
चज्ञायत्थ व्रयुः मा पुनरत्र भवन्त आयान्त्विति ।
ब्र।ह्मणभक्कानां परता ब्राह्मणध्रश तारूपे वनीपकन्वं य-
था करोति तथा दर्शयति--
लोयाणुग्गहकारिस, भूमादवसु बहुफलं दाशं ।
अवे नाम वभवधुसु, कि पुण छकम्मनिरएसु ॥४४८॥
पिरडप्रदानादिना लाकोपकारिप भरामदेवष व्राह्मणष
श्रपि नाम ब्रह्मवन्घुष्वपि जातिमात्रव्राह्मणप्वपि दाने दीय-
माने बहफले भवति, कि पनर्यजनयाजनादिरूपपटूम-
निरतषु तपु विशपता बहुफल भविष्यतीति भावः |
सप्रति क्पणभक्कानां पुरतः क्रपणप्रशंसा रूप वनीपक-
त्व यथा समाचरति तथा प्रातिपादयाति--
क्रिविशेसु दुम्मणेसु य, अवंधवाय कजुंगियंगस ।
पूयादिज्ञ लाए, दाणपडागं हरइ «तो ॥ ४४६ ॥
इ लाकः पृजाहायः- पूजया यत - शरावय्यते
पृजञादायः, पराजतपरूजका न काऽपि कृपणादिभ्यो ददानि,
ततः >> *+ 9:52 तथा इष्टवियागादना दुर्मनस्सु तथा
अबान्धवषु तथा आतड्लो-ज्वरादिस्तद्योगादातर्द्धिनीं 5प्या -
तङ्कास्तषु, तथा जुद्धिताङ्गप च का ततहम्तपादद्रवयत्रषु
०४
इति
( ८१७ )
प्रा जध्रानराजन्द्रः |
वणामग
निराकाह्लतया दरद्दास्मन् लाक दानपताकां हर्रात-ग्रह्मा/त ॥
साम्प्रतमार्तिथभक्कानां पुरनाऽतिथिप्रशेसारूप वनीपक-
त्वे यथा साधुविंदधराति तथा दशेयात--
पाएण दइ लागा, उवगारिसु परिचिएसु भुमिए वा |
जा पुण अद्भाखिन्ने, अतिहिं पृण्डतं दाण || ४५० ॥
इट प्राया लाकर उपक्रारषु, यद्वा--पाराचतषु यदि-
वा अध्पुपत--आश्रित ददाति भक्कादि, यः पुनरर्वाखन्न-
मतिर पूजयांत तदव दान जर्गात प्रधार्ना्मात शपः |
अधुना शुनां भक्तानां पुरतः शुनकप्रशंसारूप वर्न।पकन्वे कु-
वेन् यद्वक्ति तदुपदर्शयति--
अधि नाम हाज्ञ सुलभा, गोणाईण तणाई आहारा |
छिल्छिकारहयाणं, ण ह सुलहा हाइ सुणगार्ण ।४५१॥
केलासभवणा एए, आगया गुज्कगा महि ।
चरात जक्खस्वण, पूयाऽपूया हयाजहया ॥ ४५२॥
आप नाम गवादीनां तण दक आहारा भवत् खुलभः
छिच्छिकारहतानां त्वमीपां शुनां तु कदाचना एप भवति
सुलभः. तत पतभ्या यंद्दीयत तदव वहफलामति भावः,
अपि च-नत श्वानः श्वान एव, कि तु-गुद्यका दवविशपाः
केलासभवनात््--केलासपर्वेतरूपादाश्रयादा गत्यमहीं पृथि
वीं यक्षरूपण श्वाकृत्या चरन्ति तत एंतपां पृजा5प्रजा च
धासख्यं हिता अहिता च्ाति ।
सप्रति ब्राह्मणादिविषयवनी पकत्व दापानाह--
एएण मञ्ममावा, ।दड़ा लए पणामहज्।म्म |
एककं पुव्व॒ुत्ता, भदगपताइणा दासा | ४५३ ॥
एतन--अनन साधुना ` मञ्मः ` मदीया मावा-भक्कत्वल-
क्षणा दृष्टाप्बवगता लाक ब्राह्मणादा. कि विशिष्ट ? इ-
त्याह-प्रणामहाय प्रणामः--प्रणमन तन, उपलक्षणमत-
त् दानादिना च हार्य--आवजंनीय. तत एकेकास्मन
ब्राह्मगादिविषय वनीपकत्व प्रबाक्ला मद्रकप्रान्तादया दा-
पा भावनीयाः । किसमुक्के भवति--यदि भद्गकस्तर्ि प्रश-
सावचनता वशीकृत आधाकर्मादि कत्वा प्रयच्छति, अथ
पान्तस्तदि ग्रहनिष्काशनादि कराति । इह प्राक् ` सा पुणा
टाई पचमण ` इत्युक्रम् , तत्र साणग्रहण काकादीनामुप जक्ष-
णम् , तन काकादष्वाप वनीप्रकत्वे दर्व्यम् ।
थाचाऽऽद--
एमेव कागमाई, साणग्गहणण खया होंति ।
जा वा जम्म पसत्ता,वणहइ ताह पुद्ठंऊ द्ञा वा।। ०५४ ॥
एवमव वनीपकत्वप्ररूपणांवषयत्वन श्वश्रहणन काकाद-
यार्डप स॒चिता भवन्ति, ततस्तत्राप वनीपकत्व भावनी-
यम् । एतदेव व्याप्तिपुरस्सरमाह--या वा यत्र काकादो
प॒जकरःवन प्रसक्कस्तत्र कार्कादस्वरूप प्रष्ठा धपृष्ा वा बनाति-
प्रशसाद्वारणात्मान भक्तं दर्शयाति ।
सम्ध्रति वर्नःपकत्वं कुवतः साधार्यक्ल्या
दापगगीयस्त्वं प्रकरर्याति-
दाणं न होइ अफलं, प तमपत्तसु सनिजुज्जतं ।
इय विभणिए वि दोसा, पसंसओ क्रि पुण अपत्त ।४५५।
( स्मद् )
खआामभधानराज़न
वर्णीमग
इट पाजष्वपात्रषु वा सज्िप्ुज्यमाने दाने न भवत्यफल,म-
त्यपि भणित दोषः | अपातजदानस्य पात्रदानसमतया प्रशे-
संनन सम्यकत्वातीचारसंभवात् | कि पुनरपात्राययव सा-
क्ञात्प्रशसतः ?, तत्र खुतरां महान दापा मिथ्यात्वश्थिरीकर-
णादिदापभावादिति | पिः । व्य० | जीत० । आचा० । स्था० |
से भिक््खू वा भिक्खुणी वा ०जाव समाणे स जे पुण जा-
णिज्ञा असणं वा पाणे वा खाइम॑ वा साइम वा बहव समणा
माहणा अतिहिकिव॒णवणीमए पगणिय पगणिय समदि -
स्य पाणाई वा० ४ समारब्भ ०जाव नो पडिग्गाहिज्ञा ॥
( म्रू०-७)
स भावमभिक्षुप्रावत् ग्रहपतिकुल प्रविष्रस्तद्यत् पुनरवे-
भूतमशनादि जानीयात्तद्यवा-बहन श्रमणानुद्दिश्य, त च प
अआविधाः-निग्रेन्थ-शाक्य-तापश-गरिका-55जीविका इति।
ब्राह्मणान भाजनकाला पस्था य्यपूर्वा वाऽतिथिस्तानान छप
णा दरिद्रास्तान वर्णीमका-बन्दिप्रायास्तानपि श्रमणा-
दीन बहर्जुदिश्य प्रगणय्य प्रगगय्याहिशणनि, नतद्यथा-द्वित्राः
श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्यणा इत्यादिना प्रकारण श्रमणादीन ।
परिसख्यातानदिश्य , तथा प्रारयादीन् समारभ्य यदश
नादि संस्कृत तदासवितमनार्ताचने वाउप्राखुकमनप--
णीयमाधाकर्म , एवं मन्यमाना लाभ सति न प्रातग्रहणा-
यादिति ।
विशाधिकाटिमधिकृत्या 5 एह--
से भिक्खू वा भिक््खुणी वा ०जाब पच
समाणे सज्जं पुण जाणिज्ञा असणं वा पाणं वा
खादमं वा साइमं वा बहवे समणा माहणा अतिथे
किवणवणीमए् सम्रुदिस्स °जाव चण्ड तं तहप्पगारं अपण
वा पाण वा खाइम वा साइमे वा अयुरिसंतरकर्ड वा अ-
वहियाणीहड अगणतक्तट्वियं अपरिभ्रुत्ते अणासेविते अफा-
स॒ुयं अणेसशणिज ०जाव णा पडिगाहेजा, अह पण एवं
जाणज्ा पुरिसंतरकर्ड बहियानीहड अत्यं परेभुतत
असव्रियं फासु एसणिज जाव० पडिगाहिज्जा | ( खू०-८)
स भिक्तुयत्पुनरंशनादि जानीयात् , किभूतमित दर्शय-
ति-वहन श्रमणब्राह्मणातिशथिक्रपणवणोमकान समुदश्य
श्रमणाद्रथामति यावत् , प्राणादीश्च समारभ्य यावदाह्वत्य
कश्चिद् ग्रदस्था ददाति, तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तर-
छत मवदिर्निर्मतमनान्मीकतम परि भूक्रमनासावतमध्रासुक --
मनपणीये मन्यमाना लाभ सति न प्रतिगृह्णीयात् । इये
च~" जावेतिया मिक्खु "` त्ति, पतद्धयत्यश्रन ब्राह्ममा -
अथशब्दः पूरवादत्ता , पुनःशब्दों विशषेणा्थः, अथ स
{नखः पुने.व जानीयात् , तद्यथा-पुरूुषान्तरक्रतम्-अ-
न्या छनं बहिनिंगतमात्मीकृतं प मुक्रमालपितं प्रासु-
कमपणीय च ज्ञात्वा लाम सति प्रतिगरृह्ायात् , इदमुक्तं
भर्वात--अविशाधिकारटियेथा तथा न कल्पत, विशाधिक्रा-
रिस्तु पुरूषान्तग्क्ृतात्मीयक्रतादिविशिष्टा कल्पत इति ।
आचा० + श्रु { चू० २ झ० २ ३०।
जञ भिक्खू वा भिक्खुणी वा वर्णं।मगपिड श्रुज३
वा साइज्जइ ॥ ६३ (
ज भिक्खुं वणियपिड, भुज अहवा वि जा तु सातिज्ञा।
स। अणाश्रणवत्थ, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ १५६ ॥
नि०चू० १३उ०। तकुक, प्रश्न०५ सव० द्वार । (वनी पकपिण्ड-[ `
ग्रहणनिषेथ:ः “रायपिड' शब्द् ऽस्मिन्नव भाग ५५३ पृष्ठ गतः। )
असर पाणगं वा वि, खाइम साइमं तहा । ;
जं ज।शिञ्ज सुणिज्जा वा, वाणमद्ठा पगडं इमं ॥५१॥
दुश० ५ अ० १ 3०।( व्याख्यानेषा ` उदसिय ` शब्दे द्वि-
तीयमाग ८२० पृष ।)
वण-वश- श्नव्य०। निश्चयादिषु.प्रा०। ` वण-निश्चयविक्रल्पानु-
कम्प्यसंभावनषु” ॥८।२।२०६। वण इति, निश्चयादौ संभावने
च प्रयोक्कव्यम् । ` वण दाम ` निश्चये ददामि । विकल्प-
हाई वण न होइ । भवति वा न भवति । अनुकण्प्य
दासा वण न मुच्चइ । दासा ऽनुकम्प्या वन न व्यज्यत । से- |
भावन-न ल्व जन इर् वाहपारखणामा) स भाव्यते प चः
तादत्यथः | प्रा० २ पाद् ।
वणण-वश- पु । चण्यत-ञ्रकाश्यत5था अननात चश
अकारक्कारादा,. वश० | अआआ्ा०।
चरास्वरूपे तत्र वर वसायन्ति--
रकारादिः पौद्गलिको वष्प इति ॥ ६ ॥ |
रत्ना पारि ०। आ० म० | प्रश्च०।( ` * आगम ` शष्द द्वि
तीयभाग ७९ प्रष्ठ व्याख्या गत।। ) निषादपश्चमादिषु, दृश
२ ० । सङ्का० । वराते श्र्लाक्रयते चस्त्वननति वीः
अनु०। श्यामादौ पुद्धलपारणामे, उत्त ५ ३३ अ० । ज्रौ
दशा० । रज्ञा०। सच पश्चवा-वतपी तरक्कनी लकालभेदात्
प्रच० ८७६ द्वार । प्रज्ञा० शओर०।
पंच वरणा पण्णत्ता,त॑ं जहा -किणहा नीला लोहिया हा
लिद। सुक्कला ( सू० ३६००८ ) स्था० ४ ठा० |
एग वण्ख (परत्र) |
स्था० २ खा०। उत्त० | भ० | आ० म० | सर} आच्ा० |
प्राणातिपातादिः कतिवरणे: कातिगन्ध इत्यादि
रायगिहे ०जाव एवं वयासी-अह भते ! पांणाञा।
मुसावाए अदिणणादाणे महुणे परिष्गह एस शं कड `
कइगंध कडरमे कइफासे पणत्त ?, गोयमा ! पंचव ४ । क
रमे दगध चठफासे पपत । अह भते ! कोहे केव रोः
दाम अक्खमे सजले कलहे चडिक्के भंडणे वि
वादे १० एस शं कडव्य ०जाव कइफासे पतते ¢ 4
गे।यमा ! पंचदणण पंचरस दृगन्धे चठफासे पएलत्ते।
अह भते ! माण मद दप्य थमे गव्वे अणुक्कोसं परपरि
वाए उक्कासे अवक्कास उष्पमि दृष्पमे १२ एस २
कवहवष्य ० ४ पष्यत्त ?, गोयमा ! पंचवष्म जहा का
तहव । अह भेत ! माया उवह नियडी वलए गहशे श
मे कक्क द जिम्ह किव्वेसे १० आयरणया गुहशय
बंचणया १लिउंचणया साणिजोंगे य! ५एस शं देण
त
पण्णत्त 2, गोयमा
लाम इच्छा मुच्छा कंखा गही तणहा भिज्मा अभिज्का
आसासणया पत्थणया १०,लालप्पणया कामासा भोगा-
सा जीवियासा मरणासा नंद।रागे १६, एस शं कडवष्य
४ पत्ते ?, गोयमा ! जहेव कहे । अह भते ! पेज्जे
दोसे कलह ०जाव भिच्छादंसणसल्ले एस णं कइवप्म !
जहेव काहे तहेव चठफासे । ( सू०-४७४६ )
* रायगिह ` इत्यादि पाणाइवाए' त्ति प्राणातिपातजनितं
तज्जनक वा चारित्रमाहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात
एव, एवमुत्तरत्रापि तस्य च पुद्रलरूपन्वाद्रणादयो भवन्ती -
त्यत उक्रम- पचचवरण `` इत्यादि आह च-' परचरसपंचवष्-
हि परिणय दविहगधचउफासे । दवियमणेतपएसे, सि-
इदि अगतगुणटीरो ॥ १ ॥” इति 'चउफासे' त्ति स्निग्धरू-
त्षशीताष्णाख्याश्चत्वारः स्पशाः सृचमपरिणामपरिणतपुद्धला-
नां भवन्ति. सूच्मपरिणाम च कम्मंति । ` काद ` ति क्राधप-
रिणामजनकं कम, तत्र क्रोध इति सामान्ये नाम कापाद-
यस्तु तद्धिशेषाः, तत्र कापः क्राधादयात् स्वभावाच्च-
लनमात्रम , रापः काध्रस्येवानुवन्धा , दाषः आत्मनः पर-
स्य वा दुपणमतच्च काधकायम्. द्वेषो वा5प्रीतिमात्रम , अ-
क्षमा-परकतापराघस्यासहनम्, सेज्वलना-मुहुमुदुः क्राधा 5-
सिना ज्वलनम् .कलहा-महता शब्दनान्यान्यमसमञ्जसभाष-
शम .पतच्च काधकायम्.चारिडक्य-रोद्राकारकरणम् एतदपि
ऋाधकायमव, भरडन-दरडादिभियुडम् पतदपि काधकाय
मच, विवादा-विध्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यम
चति काघेकाथाश्चत शब्दाः । ` मान्ति ` मानपार्णामजनकं
कम्म, तत्र मान इति सामान्यं नाम, मदादयस्तु तद्धिशषा-
स्तत्र मदा-हषमाच्र, दप्पा-रप्तता, स्तस्भा-ऽनस्रता, गर्वः- |
शाोण्डीयम-' अत्तकाल ` त्ति आत्मनः परेभ्यः सकाशाद् गु
शरु कप गमुत्कृषएटताभिधानम् .परपरिवादः-परषामपवदन प
रिपाता वा गुणेभ्यः परिपातनामिति । ` उक्तास ' क्षि।
उत्कर्षणमात्मनः परस्य वा मनाक् क्रिययो त्क्ृष्टता करणम् , उ-
तकासन वा प्रकाशनममिमानात्स्वकीय सम द्धवा दे: 'अवक्कास,
ज्षि अपकर्षणमवकर्षण वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्र
यारम्भात् कुताऽपि व्यावत्तनामति. अप्रकाशों वा अभिमा-
नादेवति । ` उन्नए ` न्ति | उच्छिख नते पूर्वप्रव॒त्त नमनममभि-
मानादृन्नतम् , उच्छिन्नं वा नया नीतिराभिमानादवान्नया
नयाभाव इत्यथः, “ उन्नाम ` त्ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादु-
झमनमुन्नामः । दुन्नाम ` नि मदाददु्रं नमन दुनाम इति।
इह च स्तम्भादीनि मानकायाणि मानवाचकाञ्चत ध्वनय
हात. ` माय' त्ति सामान्यमुपध्यादयस्तद्धदास्तत्र 'उवटि' त्ति
उपधीयत यनासावपाधिः वश्चतीयसमीपगमनहे ता रति भावः
* नियड़ ` त्त नितरां करणो निक्रतिरादरकरणन परवश्चने
पवैक्ततमाया प्रच्छादना थ वा मायान्तरकरणम् ``वलयः' त्ति
यन भावन वलयमिव वक्रं वचन चष्टा वा प्रवततस भावा
अव - ` गहण ` ति परव्यामाहनाय यद्वचनजाल तद्--
गहनमिव गहनम् ` खुमे' ननि परवञ्चनाय निम्नताया नम्न
स्थानस्य वा आश्रयते तन्नूमान्तिःककर त्ति कट्कटसादरूपं
पचवष् जहव क।ह । अह भते !
॥
(८२६ )
अआआभध्रानराजन्द्रः। . ६
बणर
पापे तन्निभित्तो यो वश्चनाभिप्रायः स कल्कमेवाच्यत 'कुरूए'
त्ति ` कुत्सित यथामवत्यव रूपयति-विमाहयति यत्त-
त्कुरूप भार्डादिकम मायाविशेष एव' जिम्ह ` त्ति यन पर-
वश्चनाभिप्रायण जह्मये क्रियासु मान्द्रमालम्बते, स भावा
जह्ययमेवनि ` किव्विस ` त्ति यता मायाविशषाजन्मान्तर
त्रैव वा भव किट्विषः-किल्वपिका भवति स किल्विष
एवेति । ' आयरणय ` जि यता मायाविशषादादरणम--च्र-
भ्युपगमे कस्यापि वस्तुनः करानि असावादर णम , ताप्रत्य-
यस्य च स्वार्थिकत्वादायरणया आचरण वा परप्रतारणाय
विविर्धाक्रयाणामाचरणम् , गृढनया' गृहन-गापायन स्वरू-
पस्य 'वश्चणया' वञ्चन-परस्य प्रतारणम् । “ पलिउेचणया `
प्रतिकुञन सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्थ खराडनम ,'साइजाग'
त्त श्रविश्रम्भसम्वन्धः सातिशयन वा द्रव्यण निरतिशय
स्य॒ यागस्तत्प्रतिरूपकरणमित्यश्रः, मार्यकार्था वत ध्वनय
दति ` लाभ ` त्ति सामान्यम् इच्छादयस्तद्धिशषाः, तत्रच्छा-
अभिलाषमात्रम् `मुच्छा कंखा गहे' त्ति मृन्छी-सरक्षणानुव-
न्धः, काह्ला--अरप्राप्तार्थाशंसा ` गदि ` त्ति । ग्रृद्धिः-प्राप्तार्थ-
ष्वासक्किः । "तरह ` त्ति तृष्णा-प्राप्तार्थानामव्ययच्छा "भिज्ञ `
त्ति श्रभिव्याप्त्या विषयाणां ध्यानम् .तदकाग्रत्वमभिध्या पि-
ध्रानादिवद्-अकारलापाद्धिध्या ' अभिज्म ` त्ति न भिघ्या
अभिषध्या, मिध्यासदश भावान्तरम् , तत्र टदाभि-
नवशा भिध्याध्यानलक्षणत्वात्तस्याः . अदृढाभिनि-
वशस्तु अभिध्याचित्तलक्तणत्वात् तस्याः. ध्यानचि-
त्तयास्त्वय विशषः-- ज थिरमज्भमवसारणं, तं भारा
ज्ञ चले तय चित्त ” ति ` आओआसासणय ` त्ति आ-
शासनं मम पुत्रस्य शिष्यस्य वदमिदं च भूयादित्यादिरूपा
आशीः, “ पत्थणय ` त्ति प्राधन--परं प्रति इ्ाधयाञ्चा
लालप्पणय ` त्ति प्रार्थनमव भ्रुशे लपनतः ` कामास ` त्त
शब्दरूपप्राप्तिसंभावना. 'भागास' त्ति गन्धादिप्राघप्तिसम्भा-
वना. 'जीवितास' त्ति जीवितव्यप्रा†प्तसम्भावना, ` मरणा-
स ` त्ति कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्तसम्भावना, इद च
क्राचन्न दश्यत 'नन्दिराग त्ति समृद्धो सत्यां रागा-दर्पो नन्दि
रागः'पज्ञ त्ति प्रम-पुजादिविषयः खटः 'दासेत्ति अप्रीतिः,
कलहः-इह प्रमहासादिप्रभव युद्ध यावत्करणात् 'अब्भक्खा-
ण पसुन्न अगइरइपरपरिवाए मायामास ` त्ति दश्यम ।
|]
अथाक्लानामवा प्ादशानां प्राणातिपातादिकानां पाप--
स्थानाना य त्रपययास्तषा स्वरूपाभधाना याह--
अह भेत! पाणाइवायवरमणे ०जाव परिग्गहवेरमण
कोटविवगे ° जाव मिच्छादमणमल्लविवग एस शं कडव -
प °जाव कइफासे पष्पत्त ?, गायमा ! अवण्ण अगध
अरसे अफास पण्णत्त । अह भेत ! उप्पत्तिया वशइया
कम्मिया परिणामिया, एस णं कडवण्णा०४ पण्णत्ता,
तं चच०जाव अफसा पष्पत्ता । अह भत ! उग्गह
इहा अवाए धारणा एस शे कंडवष्मा पापत्ता ? एवं
चव °जाव अफासा पष्पत्ता । | अह भते ! उदरा कम्मे बल
वीरिए पुरिसक्कारपरक्कम् एस णं कइवष्म० ४ पष्पत्ते १, त
( ८२० )
आमधानराजन्द्रः |
वर्ण्
चव ० जाव अफास पष्पत्त | सत्तम ण भत . उवासतर |
कड ४ पणणत्त ?, एवं चव ° जाव अफासे पण्णत्त |
सत्तमे णं भते ! तणुवाए कडव् ? जहा पाणाइवाए,
णवरं अट्टफासे पणणत्त, एवं जहा सत्तम तणुवाए तहा
सत्तमे घणवाए घणोदही पुढवी छ, उवासंतरे अवण्णे
तणुवाए० जाव चछर पदवी एयाई् अद्रफासाई एवं जहा
सत्तम.ए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा० जाव पटमाणए
पुटवीए भाणियव्यं । जवुदीवे "दवि ० जाव सर्यभुरमणे
समुंद्दे सोहम्मे कप्प० जाव ईसिप्पभारा पुढवी णेरइया55-
वासा० जाव वेमाणियावासा, एयाणि सव्वाणि अटरफा- |
साणि | णरइया णं भते ! कडवष्पा° जाव कइफासा
पण्मत्ता ?,
न्धा पंचरसा अद्फासा पणणत्ता, कम्मग पड्च्चव पचः
वष्मा दुगन्धा पचरसा चउफासा पप्तत्ता | [म्०
समवराण त्ति वधादिविरमणानि जीवा-
जोवापयागश्चामृनां ऽमृनत्वाच्च तस्य
वध्रादिविरमणानाममूर्तत्व तस्माच्चावर्णादित्वामति ।
जीवस्वरूपविशपमवाधिक्रत्याह-- उप्पत्तिय ” त्ति उ-
न्पात्तिरव प्रयाजने यस्याः सा ओत्पतिकी, नचु त्तया-
` अट ` त्यादि `
पया गस्वरूपाि
गोयमा ! वेउव्वियतयाई पड्च्च पंचवप्पा दुग- |
-४५० >]
पशमः प्रयाजनमस्याः ? सत्यम्, स खल्वन्तरङ्ग"वात्सच- |
बुद्धिसाधारण इति न विवच्यत, न चान्यच्छास्त्रकर्म्मा भ्या- |
सादिकमपक्तत इति, ` वरणदरय ` त्ति विनया गुख्णुश्रषा
स कारणमस्यास्ततप्रघाना वा वैनयिकी. “ कम्मय `
अनाचार्यक कम्म.साचायकर शिल्पम , कादाचित्कं वा कम्म,
शिल्प तु निव्यव्यापारः,
रिणार्णमय ` त्ति प्ररि--समन्तान्नमने परिणामः खदीत्रका-
लपूवी पराथावलाकना दिजन्य आन्मघम्मः. सः कारण यस्याः
स्ता पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशपषः,
नि
ततश्च कम्मगा जाता कम्मजा, "पा- |
|
इयमपि वरणादि- |
रहिता जीवधर्मनवनामृत्तःवात् । जीवध्र्माधिकारादवग्रहा- |
दिम कर्मादिसत्रे च, अमृत्ताधकारादवकाशान्तरसूत्रम ,
अमून्तत्वविपर्ययात्तनुवातादिसत्राण चाह तत्र च ' सत्तम
गो भेत ! उवासतर `
स्नान्तस्यापारण्रान्सप्तपस्तनवानस्तस्य) पारि
त्ति प्रधरमद्ितीयप्रथिव्यायेदन्त- |
गाल आक्राशसगड तप्रथम तदपक्तया सप्तम सप्तम्या अध~ |
सप्तमा घन- |
वबातस्तस्याप्युपार सत्तमा घनादाधस्तस्याष्युपार सप्तमा प्र |
धवा, तन॒ुवातादाना च पञ्चत्रयाद्^व पाटद्टालकत्वन मृत्त- |
त्वाद् . अप्रस्पशन्वच वादरपारणामन्वांद् , घ्रा च स्पशा
शाताष्णगास्मगर प्ररूचाम दुकाटन लघुगुरू भदादात ।
नर्गायकादयः कतिवर्णाः--
गरइया शं भत ! कडवण।० जाव कहफासा पणत्ता ?,
गायमा वउच्वियतेयाई पटृच्च पंचवाग। दु्गधा पंच-
रसा अद्भफासा प्रण्णत्ता, कम्मगं पट्च्च पंचवापा पच
रया दु्गधा चडउाखा पणता, जीवं पइच अवन्ना० जाव
अफासा पापरता, एव ०जाव थणियकुमारा | पुठवीकाइ-
वर्ण
यपुच्छा, गायमा ! आरालियतयगाई पड़ पचदण्णा
०जाव अट्टफासा पापत्ता, कम्मर्ग पट्च जहा णरइया शं
जीवं पटच तहेव एवं ० जाव चउरिंदिया, णवरं वाउक्काडया
ओरालियवेउव्वियतेयगाई पड़ पंचवष्पा ° जाव अट्टफासा
पापत्ता, सेमं जहा णरइया, पंचिदियतिरिक्खजोणिया
जहा वाउक्काइया । मणुस्साणं पृच्छा, ! ओरा--
लियवेउव्वियआहारगतेयग।ई पट्च पंचवष्ा ०जाव |
अट्टफासा पण्णत्ता, कम्मगं जीवं च पड्ज्
जहा शेरहयाणं , वाणमंतरजोइसियवमाणिया जहा
शरहया । धम्मत्थिकाए ०जाव पोग्गलत्थिकाए | `
एए सव्व अवापा णवरं पोग्गलत्थिकाए पंचव पंचर |
दुगन्ध अड्टफांस पष्पत्त, णाणावरणिज्ञ ०जाव अंतराइए
एयाणि ० जाव चठफासाणि ।
जम्बूद्वीप इत्यत्र यावत्करणाज्ञवणसमुद्रादीनि पदानि
वाच्यानि ` जाव वर्माणयावासा ` इह यावत्करणादखुर-
कुमारावासरादिपरिग्रहः + त च भवनानि नगराणि विमा
नानि तियग्लाक तन्नगयश्चति । ' वडव्वियंतययाई प~
ड्य ` तत्त वक्रियतजखशरार टि .वाद्रपरिणामपुद्रलसूय व
तता बादरत्वात्तयानारकाणामएस्पशत्वम् , कम्मग पइच्च'
त्ति । कार्मण हि सूृक्मर्पारिणामपुद्ठलरूपमतश्चतुःस्पशम् | `
तच शीताष्णास्नग्धरूक्ताः ` घम्मात्थकराप ` इह यावत्कः | `
ररा।द्व रृश्यम-' अधम्मात्थकाए आगासात्थकाए पाम्गल्ल- | `
त्थिकाए अद्धासमए आवांलया मुहुत्त ` इत्याद् ।
चणलश्यापूच्छा--
कण्टलस्सा णं भते ! कइवष्पा ? पुच्छा, गोयमा ! दव्ब-
लस्य पटुच्च पंचवप्णा ०जाव अट्टफासा पणत्ता, भाव-
लस्सं पडुच्च अवण्णा ३ एवं ० ज।व सुकलेस्सा, सम्म-
टिद्री ३ चक्वुदसणे ४ अमिणिवंदहियणशे ० जाब
पिभंगणाे, आहारसप्पा ° जाव परिग्गहसण्णा एयाणि
अवण्णारि ७, ओरालियसरीरे ° जाव तेयगसरीर ए
याणि अड्टफासाणि, कम्मगसरीरे चउफ।स, मणजोगे व-
यजोगे य चठफासे, कायजोंग अटफास सागारोवञ्।गे
य अशागारोवग्रोगे य अबएणा। सव्वदव्वा यं भते !
करतिवना ? पृच्छा, गोयमा ! अत्थगतिया सब्द्च्ा
पंचवन्ना ० जाव अट्टफासा पण्णत्ता, अत्थेगातिया संब्ब- |
व्वा पंचवन्ना चठफासा पप्तत्ता, अत्थेगतिया सब्बद- ¦
व्वा एगगधा एगवशा एगरसा दुफासा पपत्ता, अत्ये- '
गतिया सन्द्व्वा अवन्ना ° जव अफासा पन्नत्ता, एवं
सव्वपएसा वि सन्वपज्ञवा वि, तीयद्धा अवन्ना ° जव
अफासा पणत्ता, एवं अणागयद्धा वि, एवं सवद्धा वि |
(प्रू 9 ५० ) अ मु क |
दञ्वलसं पड़ ` ति । इह द्रव्यलेश्यावर्णः । * भावलसं-
# च|
|
|
¶
| त्वादवणादिकम् ।
(+),
चरण
चडुञ्च ` लि । भावलश्या अनन्तरः पारणामः, इद च कृ
णालश्यादीनि परिग्रदसेज्ञावसानान अवर्मादीनि जीव-
परिणामत्वात् श्रोदारिकादीन चत्वार शरीराणि पञ्च-
चणादिविरापणानि अप्टस्पर्शान च वादरपरिणामपूद्ल-
रूपत्वात् , सर्वत्र च चतुःस्पशेत्व सृच्मपरिणामः कारण-
| म्, अष्टस्पशत्व च वाद्रपरिणामः कारणं वाच्यामाति ।
सव्वदव्व ` त्ति सवद्रव्यणण धमास्तिकायादीनि ` अ-
| क्थगइया सब्वदव्वा पचवक्ष ` रत्यादि वादरपुद्रलद्रव्या-
| चि प्रतीत्योक्नं सब्वेद्रव्याणां मध्य कानिचित्पञ्चवणादी-
| नीति भावाथः। ` चउफासा इत्यतश्च पुद्धलद्रव्यारयव स्
| चपाणि प्रतीत्याक्रप् ` एगगंथे ` त्यादि च परमारावादि-
द्रव्याणि प्रतीत्याक्तम , यदाह परमाखुद्रव्यमाश्रित्य--कार
घानराजन्द्र: |
णंमव तदन्त्यें, सक्मो नित्यश्च भवति परमाणुः। एकर- |
सचरणागन्धा, दिस्पशः कार्यालङ्गश्य ॥॥ इति, स्पशद्ध -
यञ्च सृच्मसम्वन्धिनां चतुणा स्पशानायन्यतरदाविरुद्धं
भवति, तथादि- स्निग्धाप्णलक्तण
रूक्तशीतलक्तर रूत्ताप्णलन्तण वति, ` अवक्षि ` व्यादि च
धमास्तिकायादिद्रव्यारयाश्रत्याक्रम् , द्रव्याशध्रितत्वात्प्रद-
शपयवाणां द्रव्यसत्रानन्तरं तन्सूञे तत्र च प्रदशाः- द्र
व्यस्य निर्विभागा ओअशाः
गायमा ! अत्थगइया सब्वपएसा पेचवप्रा ०जाव द्भ
परदशा: पयवाश्व मूत्तद्रव्यवत्पन्च वणाद्यः, अमूतद्रव्याणा
चाम्तद्रल्यव्रदवणादय इात ।
वराणाद्यधिकागादवदमाद--
कडफासं परिणामं परिणमइ ?, गायमा ! पंचवष्प दुगंध पंच-
रं अटृफासं परिणामं परिणमइ | ( सू० ४५१)
'जीव णाम! त्यादि परिणाम परिणमइ ज्ञि इति स्वरूप ग-
जलाति कतिवणादिना रूपण परिणामतीत्यर्थः | पंचवरणाण'
त्ति गर्भव्युत्कमणकाले जीवशरीरस्य पश्चवर्णीदित्वात्-गर्भ-
ब्युल्करमणकाले जीवपरिणामस्य पश्चवर्णादित्वमवसयामि-
ति। भ० १२ श० ५ उ०।
फ़ाणियगुले णं भते ! कतिवनन कतिगंधे कतिरसे कति- |
फासे पप्मत्त , गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवेति, तं
जहा निच्छहयंनये य, वावहारियनण य, वावहारियनय-
स्म गोड़ फ़ाणियगुल, नेच्छड्यनयस्स पंचवन्ने दुगेधे
पंचरसे अड्भफासे पण्णत्ते | भमरे शं भते ! कतिवन्ने !
(स = गोयमा ! एत्थ शं दो नया भवंति, तं जहा-निच्छ- ¦
इयनणए य, बावहारियनए य, वावहारियनयस्स कालए
भमेरे नेच्छडयनयस्स पंचवन्न ०जाव अड्टफासे पछात्ते ।
सुयपिच्छे णं भते ! कतिवनने एवं चव, नवरं वावहारिय-
नयस्स नीलए सुयपिच्छे, नेच्छडयनयस्स पंचव । सेस
त चेष, एव एणण अ.मलावण लाहया माजाट्रेय| प(तया ।
८५६
(=
स्निग्धशीतलक्षणे वा
जवि णं भत ! गठ्भं वक्कममाे कडवषपं कडगधं कइरस
पयवास्तु धर्मास्त चवे कर- |
शादेवं बवाच्याः-- सव्वपएसाणं मत ! कइ वरणा पुच्छा, |
| फ़ासा ' इत्यादि एवं च पयैवसूत्रमपि, इद च मूत्तेद्रब्याणां |
श्रताताद्धादित्रय चामूत- |
चर्ण
हालिदा सुकिल्लए संखे सुन्भिगध काट दृन्भगेध मय-
गसरीरे तित्त निवे कदुया सुठी कमाए कदिद्रे अंबा अं -
बिलिया महुरे खंड कक्वंड वइंर मठए नव्र्णीण गरुए
आए लहुए उलुयपत्त सीए हिभ उसिण अगशकाए
णिद्धि तन्न, छारिया णं भत ! पृच्छा, गायमा ! एत्थ द।
नया भवंति, तं जहा निच्छहयनणए यं वावहारियनए य,
ववहारियनयस्स लुक्वा छारिया नच्छडयनयस्स पच
वन्ना०जाव अद्र फासा पन्नत्ता | ( सृत्र ०-६३० )
फाणिण ` त्यादि ` फांणयगुलण ` ति द्रवगुडः ' गाड '
त्त गाद्य--गाल्यरसापत मधुररसापतामात याचत् . व्यव-
हारा ट लाक्सव्यवह({रपरत्तरात् तदब तत्राभ्युपगच्ल्ात
शपरसवणौ दस्तु सतो 5प्युपक्षत इति, ' नच्छुदयनयस्स `
त्ति नेश्चयक्रनयस्य मतन पशञ्चवर्णादिपरमारुनां तत्र विद्य-
मानत्वात् एञ्चवणादिरिति ।
परमाणुपाग्गल शे भते ! कतिवन्न ° जाव कतिफासे
पन्नत्त ?, गायमा ! एगवन्न एगगंध एगरसे दुफास पन्नत्त ।
दुपएसिए शं भत ! खंघ कतिवन्न पृच्छा, ग।यमा ! सिय
एगवनने मिय दवन्ने मिय एग्गध मिय दगंध सिय एगरस
सिय दुरम मिय दुफासे मिय तिफास मिय
चउफास पन्नत्त, एवं तिपएसिए वि, नवरं मिय एगवन्न
सिय दुवन्न सिय तिवन्ने, एवं रससु वि, सस जहा दुप-
एसियस्स, एवं चउपएमिए वि नवरं सिय एगउन्ने ०जाव
मिय चउवन्न, एवं रसु वि ससत चव, एवं पंचपए--
सिए वि, नवरं भिय एगवन्ने °जाव मिय पंचवन्ने, एवं
रसमु वि गंधफासा तहव, जहा पंचपएसिओ एवं ० जाव
असंखेज्जपएसिओ । सुहुमपरिणए शं भते ! अणंत--
पएसिए खंधे कतिवन्ने जहा पंचपएसिए तंहव निरवसम् ।
बादरपरिणए शं भते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने पु-
च्छा, गोयमा ! सिय एगवन्न ०जाव †५य पंचवन्ने मिय
एगगंधे सिय दुणंध सिय एगरसे °जाव सिय पंचरसे सिय
चउफासे० जाव सिय अट्टफासे पष्यत्त | सेव भत | भत!
त्ति | [्र०--६३१]
* परमाणुपाग्गाले ण॒ ' मित्यादि, इद च च वर्णगन्धरसेषु पञ
दवो पञ्चच विक्रर्पाः दुफास' त्ति स्निरथरुक्तशी ताष्णस्पश। -
नामन्यतराविरुद्धस्पशंद्व ययुक्र इत्यथः, इद च चत्वारो विक-
ल्पाः शीर्तास्नग्धयाः शीतरुक्षयोः उष्णस्निग्धयोः उष्णरूत्त-
योश्च सम्वन्धादीति | ' दुषणासए ण मि ` त्यादि, ' सिय
एगवन्ने ` त्ति द्वयारपि प्रदेशयोरेकवगीत्वात् , इह च पञ्च
विकल्पाः, * सिय दुवन्न ' त्ति प्रतिप्रदश वर्णान्तरभावात् ,
इह च दश विकल्पाः, एवं गन्धादिष्वपि. ` सिय दुफास '
त्ति प्रदेशद्वयस्यापि शीतस्निग्धत्वादिभावात् , इहापि त
पल चत्वार वक्रदपाः ५ सिय र तफास ' चि इह चत्ताय
ब्रकलपास्तन्र धदशहयस्याप शातभावात् , णक्रस्य च तत्र
( £^ )
सनिध्रानराजन्द्रः।
चरण
स्निथभावाग्त . दितीयस्य च रूक्षप्ावादकः, ' एवम्. -अन
नच न्यायन प्रदणशद्॒ यम्याष्णधावाद द्रिनायः. तथा प्रदशद्रय
स्यापि स्निग्धभावात . तत्र चकस्यशानभावादकस्य चाष्ण-
भावान्नायः. एवम-अननवच न्यायन प्रदशद्रयस्य रूक्षभावा-
च्यत इति. ` सिय चडफास ` त्ति इह
उसि दम निद्ध दस लक्ख ` त्ति वद्यमाणवचनादक
एवं तरिप्रदशादिप्वापस्वयमभ्यृह्यप्। ` खुहमपारिणए रण मि-
व्यादि अनन्तप्रदशिका दादरारिणामाऽपि स्कन्धा भव्ति
दश्खुकादिस्तु सन्मपर्णाम णएवत्यनन्तप्रदशिकस्कन्ध
सृच्मपरिणामन्वन विर्णापतस्तत्राद्याञ्चत्वारः स्पशाः सच्मेषु
वादेगष चानन्तप्रदाशकस्कन्धषु भवान्त, मदुकाटनगुख्लघु
स्पशास्तु वादरप्ववति। भ० ८ श० ६ उ०। पभा-
चणा वरणा भरणि ते करेति तिन्थस्स . तित्थं चडउवर्णा
समणसंध्रा दवालसंग वा गार्णापडगं । नि० चु० १ उ०।
( वर्णोच्चारण लघुन्वगुरुत्वादविचारः तत्प्रतिपादिका प्राणि
ध्रान् जिकवर्गासंख्याख्यापनाय गीतिगाथा चडयवदग
` देव साप दस
शब्दे तृतीयभाग १३२१ पृष्ठ गता ।) तद्व्याख्या चयम्-क्रमा- `
यथाक्रमम् एषु नमस्कारः क्षमाश्रमणर यापथिकी ३ शक्रस्तव |
४ चेत्यस्तव ५ नामस्तव ६ श्रुतस्तव ७, सिद्धस्तव ८ प्रणिधा-
नपु ६ नवसु स्थान गुरूवर्णा ज्ञातव्या इति शपः । "कियन्तः
इत्याह-सप्त ?.त्रयः २ चतुविंशतिः३ त्रयम्त्रिशत्४ एकोनत्रि-
शत् ५ श्ष्ाविशतिः ६ चतुखिशत् ७ एकोनत्रिशत् ८, द्वात्रि-
शत् €. गुरवा ।ठगाणतरूपा न तु सयाग पूवा ग़ुरा<त्या- |
दिलक्तण्लाक्तिता वणा अक्तराण।| सद्दग ०१ आधि०३ प्रस्ता०।
परमाणुपुद्धलः कातिवर्ण :--
परमाणुपोग्गले ए भत ! कतिवन्न कतिंगंधे कतिरसे कति
फास पन्नत्त १, गोयमा ! एगवन्न एगर्गघ एगरस दुफामे प-
न्ततं जहा-जइ एगवन्ने सिय कालए सिय नलषए सिय
ल।हिए सिय हालिद सिय सुकिले,जइ एगगध मिय सन्ि-
ध सिय दृब्मिगंध, जह एगरसे मिय तिने सिय कइए
सिय कसाए सिय अंबिल सिय महर , जह दफासे मिय
सीए य निद्धू १ सियसीयय लुक्खे यर मिय उसिणे
य निद्धे य ३ेसिय उसिण य लुक्व य ४। दुपएसिए रे भत!
खंध कतिवने ? एवं जहा अट्टारसमसए छद्देसए० जव
सिय चउफासे पन्नत्ते, जई एगवन्ने सिय कालए० जाव
मिय सुकरिल्नए जड दुवन्ने मिय कालए नीलएय १
सिय कालए य लादिए य २ मिय कालण य हालि-
दए य ३ मिय कालए य सुक्रिष्टए य ४ सिय नीलए य
लोहिए य ५ मिय नीलण य हालिदेए य ६ सिय नीलश य
सुक्रिल्लए य ७ मिय लोहिए य हालिदए ८ मिय लाहि-
ण्य सकिल्लण य मिय हालिदए य सुक्कि्टए य
१० एव एए दुयासजाग दस भगा । जई एगगंध सिय
सुब्मिगंध सिय श्द्ृड्भिगंध य २जइ दुगेध सब्भिगंधे य
दृव्भिगंध य,रसस जहा वन्नेसु जह दफासे सिय सीए य निद्ध
य एवं जहब परमाणुपाग्गल ४, जई तिफे. मव्वे सण
दस निद्रे दमे लुक्छ १ एण नव भगा फ़ामसु ।
देस निद्ध दसा लुक्खा २ सव्व सीए दसा निद्धा दसे
दस निद्ध दसा लुक्वा ५ दस सीण देसा उसिणा देसा
दस निद्ध दम लुक्ख १ सव्व उसिण दस निद्ध लुक्व
= = ^~ = ~ = नक
२ सव्व नद्ध दस माए दस उासण २ सव्व लुक्ख दस
सीए दसे उमिणे जई चउफास दस सीए दमे उसिण
तिपएसिए शं भते ! खध कतिवन्न जहा अट्टारसमसए
छदम °जाव चउफासे पष्पत्त, जइ एगवन्ने मिय कालए* | `
जाव सुक्किल्लए ५ जई दुवन्न मिय कालए य सिय ।
नीलगे य १ सिय कालगे नीलगाय २ मिय कालगा
य नीलए य ३ सिय कालए य लोहियए य १ मिय,
कालए य लाहियगा य २ मिय कालगा य लोहिए य ३
एवं हालिद णवि समं भगा ३ णवं सुक्कि्टएण विसर
३ सिय नीलए य लोहियए य एत्थ पि भंगा ३ णडा
लिदएण वि समं भगार एवं सुकिल्लेण वि समं भगा
मिय लोहियए य हालिदए प भङ्गा ३ एवं सुक्किल्लेण
वि ममं ३ सिय हालिदए य सुक्किल्नए य भेंगा ३ णवं
सव्रते दस दुयासंजोगा भगा तीसं भवति , जह तिबन्ने |
सिय कालए य नीलए य लोहियए य १ सिय कालए
य नीलश् य हालिदए य २ सिय कालए य नीलर य
सुक्किकृण य ३ सिय कालण् य लोहियए य हालिदण य॒
४ सिय कालए य लोदियप य सुक्किहए य ५ मिय
कालण्य हालिदए य सुकिल्लण य ६ सिय नीलए य लो-
हियए य हालिदए य ७ सिय नीलए य लोहिए य सुक्कि-
लए य ८ सिय नीप य हालिदर य सुक्किन्नर ये £&
मिय लोहिए य हालिदण् य सुक्किलण य १० णं.
पए दय तियासंजागा । जद एगगंध सिय सुब्मि-
गेधे १ मिय दृव्िगघर जइ दुगंघ मिय सुब्भिगंधे य दुब्भि |
गंध य भंगा ३ । रसा जहा वन्ना । जइ दफासे मिय सीए य| `
निद्धयण्वं जहव दुपणसियस्म तहव चत्तारि भगा ४, जह |
तिफासे सव्वे सीए दम निद्रे दसे लुक्वे १ सव्वे सीए `
लुक्खे २ सव्ये उमिण दमे निद्ध दसे लुक्ख ३ एत्थ वि भेगा
तिन्नि,सब्बे निद्धदसे सीर दसे उसिण भगा तिनि & सत्वे
लक्ख दस सए दस उसे भगा ननि ए३१२,जह् च~
फसे देसे सीए देस उसिणे दस निद्र दमे लुक्ब १ देसे
सीए दस उसिणे दस नेद्ध दसा लुक्खा २ दमे सीद
/
दम उसिणे दसा निद्धा देसे लुक्खे ३ देसे सीए दसा
|
उसिण। दमे निद्ध दन लुक्व ४ देसे सीए देसा उसिणा |
निद्धा " तप न ले कई लुक्ख ६ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे
देसे लुक्ख ७ दसा सीया देसे उसिणे देय निद्धे देसा
:
ते चत्तालीसं भगा ४०,
लादियदहालिदप य १ सिय काल० नील लोहि० सुक्किन्नए
पएसिए णं भते ! सध कतिवन्ने जहा अट्टारसमसए०
जावर सिय चठफासे पन्नत्त, जइ एगवन्ने मिय कालए य० |
जाव सुकिल्लए य ५ जइ दृवन्ने सिय कालए य नीलगे य १
मिय कालगे य नीलगाय २ सिय कालगाय नीलगय
३मिय कालगा य नीलगा य ४७ मिय कालए य लोहियए
य एत्थ वि चत्तारि भगा सिय कालए य हालिदए य ४
मिय कालए य सुक्किल्नए यथमिय नीलए य लोहियए य |
४ सिय नीलए य हालिर्दए य ४ सिय नीलए य सुकरि |
छृए य ४ मिय लोहियए य॒ हालिदए य ४ मिय ला-
हियए य सुकिलए य ४ सिय लोहियए य हालिदषए् य|
४ मिय लोहियए य सुक्रिलए य ४ सिय हालिदष् य |
सुकिलए य ४ एवं एए दस दुयासजोगा भगा पुण
चत्तालीस ४०,
सिय कालगा य नीलगा य लाहियए य ३ सिय कालगा
य नीलए य लोहियए य, एए भगा ४ एवे कालनील-
जह तिवन्ने सिय कालए य नीलए य
लोदियए य १ सिय कालए नीलए लोहियगा य २ |
हालिदण्हिं भगा ४ कालनीलसुकिल्न४७काललीहियहालि- ।
ह ४ काललोहियसुक्किन्न ० कालहालिदसुक्किन्न ४ नी- |
ललोहियहालिदगाणं भगा ४ नीललोहियसुक्किल ४ नी-
लहालिदसुक्किन्न ४ लोहियहालिददसु क्किनल्लगाणं भगा४ एवं |
एए दस तियासंजागा एकक्के संजोए चत्तारि भगा सव्वे
जई चउवने सिय कालए नील०
२ सिय का० नील० हालि० सुक्किन्न ३ सिय का० लो०
हा० सुक्कि० ४ सिय नी० लोहि० हा० सु० ५ ०वमेंते
चउक्कगसंजोए पंच भगा, एए सव्व नउडइभगा । जई एग-
गध सय सुन्भगध सय दुन्मगध य, जह् दुगे सय |
सुब्भिगंध य सिय दुब्मिगंधे य रसा जहा वन्ना। जह्
दुफासे जहेव परमाणुपोग्गल ४, जइ तिफांस सव्वे सीए |
दम निद्ध दस लुक्ख १ सव्वे सीए देसे निद्रे दसा लु- |
क्वा २ सव्ये सीए दसा निद्धादसे लुक्ख ३ सव्व सीए
देसा निद्धा दसा लक्खा ४ सव्व उसिणे देसे निद्रे देसे
लक्खे एवं भगा ४ सव्व निद्धे देसे सीए देस उसिणे ४.
सव्व लुक्खे दस सीए दमे उसिणे ४ एए तिफासे सो- |
लस भगा | जई चउफासे दसे सीर देसे उसिणे दसे निद्धि
देखे लुक्खे १ दस सीए देसे उसिणे देस निद्धेदसा लु-
भन | २ देसे सीए दसे उसिणे देसा निद्धा देसे लु-
चते ३ देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसा
८२३ )
ए अभिध्रानराजन्द्रः। च्
लुक्वा ८ दसा सीया दमे उसिणे देसा निद्धा देसे लु- लुक्खा ४ देसे सीए दसा उसिणादमे निद्र दमे लुक्व ५
` क्ख ६ एव एए तिपएसिए फाससु पणवीस भगा । चडउ- दम सए दसा उसिणा दम निद्धे दमा लक्खा ६ दस सीए
दसौ उनणा दपा नद्धा दम ल्ञक्ख ७ दस साए दसा
उमिणा दसा निद्धादेसा लुक्खा ८ देसा सीया दम उ-
मिणे देम निद्धदम लुक्च & एवं एण चउठफास सालम
भेगा भाणियव्वा ०जाव दसा सीया दसा उमिणा दमा
निद्धा दसा लुक्खा सव्वे एते फाससु छत्तीसं भगा ॥ पं-
चपणएसिए णे भते ! खध कतिवन्न जहा अट्टारसमसए०
जाव सिय चउफामे पष्प, जई एगवन्न एगवन्नदुवन्ना ज-
हेब् चउप्पएसिए,जइ तिवनने मिय का ०नीलए लोहियए
य १ सिय काल ०नीलए लाहिया य २ सिय काल ०नी-
लगा य ३ लोहिए य ३ मिय कालए नीलगा य लोहिय-
गाय ४ सिय काल०नलिए य लोहियए य ५ सिय कालगा
य नीलगे य लोहियगा य ६ सिय कालगा य नलिगा य
लोहियए ७ सिय कालए नीलए हालिदए य एष्थ वि
सत्त भगा ७, एवं कालगनीलगसुक्किलण्सु सत्त भेगा,
कालगलाहियहालिदेसु ७ कालगलोहियस क्किन्लेस ७ का-
लगहालिदसुक्किल्लेस ७ नीलगलोहियहालिदेस ७ नीलग-
लोहियसक्किल्लेस सत्त भगा ७ नीलगहालिदसुक्किलय ७
लोहियहालिदसक्किल्लेस वि सत्त भेगा ७ एवमत तियास-
जोए एए सत्तरि ७० भेगा, जइ चउवनन सिय कालए् य
नीलए लोदियण् हालिदए य १ सिय कालप य नीलश् य
लोदिय य हाल्लिदगा २ सिय कालए य नील य
लोहियगा य हालिदगे य ३ सिय कालए य नालगाय
ल।हियग य हालिदगे य ४ सिय कालगा य नीलए य
लोहियए य हालिदएण य ५ एए पंच भंगा, सिय कालए
य नीलए य लोहियए य सुक्किल्लए य एत्थ वि पंच भगा,
एवे कालगनीलगह लिदसुक्किन्नसु वि पच भगा, कालग-
लोहियहालिदसुक्किन्लएस वि पंच भगा ५, नीलगलोहिय-
हालिदसुक्किल्लसु वि पंच भगा, एवमेते चउक्कगसं जोएणं
पणवीसं भगा, जइ पचवन्ने कालए य नीलए लोहियए
हालिदए सुक्किन्नए सव्वमेत एक्कगदुयगतियगचडउक्कपच
यसंजोएणं ईयालं भगसयं मवति । गधा जहा चउप्पएसि-
यस्स । रसा जहा वन्ना । फ़ासा जहा चरप्पएसियस्स ॥
छप्पएसिए णं भते ! खंधे कतिवन्ने ? एन जहा पंचपए-
सिए °जाव सिय चउफासे पन्नत्ते, जई एगवन्ने एगवन्नदु-
वन्ना जहा पंचपएसियस्स, जइ तिवन्ने सिय कालए य
नीलए य लोदियए य एवं जहेव पंचपएसियस्स सत्त भ-
गा °जाव सिय कालगा य नीलगा य लोहियषए य ७
सिय कालगा य नीलगा य लोदियगा य ८ एण अट्ट-
भङ्गा एवमेते दस तियासजोगा प्केकप संजोगे अद्र भगा
८२४ )
श्रभिध्रानराजन्द्रः।
वर्ण
एवं सव्य वि तियगसंजोंग असीति भंगा, जई चडउवष्म
मिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिदएण य १
सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिदयायर सि
य कालण य नीलण य लोहिया य हालिदए य ३ सिय
कालग य नीलग य लोहियगा य हालिदए य सिय कालगे
य नीलगा य लोहियए य हालिदए य ५ सिय कालए य
नीलगा य लोहियए य हालिदगा य ६ मिय कालग यनी
लगा य लोदियगा य हालिदणए य ७ मिय कालगा य|
नीलए य लादियण य हालिदए् य ८ मिय कालगा यनी-
लए य लोहियए य हालिदगा य & सिय कालगा य नी-
लगे य च्रादियगा य हालिदगे य १० मिय कालगा |
य॒ नीलगा य लोहियए .य हालिदए य ११ ए
एकारस भगा । एवमेते पंचचउठका सजागा कायव्वा ।
एकरकसजाए एक्रारस भगा । सव्ये ते चउकगसंजाएणं प-
शपन्नंः भगा । जई पचवन्न मिय कालण य नीलर य
लाहियए य हालिदए य सुक्िल्लण य ? सिय कालए य नी-
लए य लाहियए य हालिदण य सुकिल्लगा यर सिय कालप
य॒ नीलए य लोहियए य हालिदगा य सुक्रिन्नए य ३ सिय
कालप य नील य लोहियगा य हालिंदण य सुकिल्नण य
सिय काल य नीलगा य लोदियण य हालिदप् य सुकिलन्नए
य ५ सिय कालगा य नीलगे य लाहियग य हालिदए य सु-
किल्लण य ६ एवं एप छब्भंगा भाणियव्वा | पवमते स- |
व्वे वि पकगदु यगतियगचउकगपचगसंजोगेसु छासीय॑ भग-
सयं भवति | गधा जहा पंचपएसियस्स | रसा जहा |
एयस्सेव वन्ना | फासा जहा चरप्पएसियस्स । सत्तपण-
सिए ण॑ मते! खंध कतिवन्न० ?, जहा पंचपएसिए |
०जाव सिय चठफासे प०, जई एगवन्ने-एवं एगवन्नदुव- ¦
णएणतिवन्ना जहा छप्पएसियस्स, जइ चउबन्ने सिय
कालए य नीलए य लोहियए य हालिदएय १ सिय |
कालए य नीलए य लोहियर य हालिदगाय २ सिय |
कालप् य नीलः य लोहियगा य हालिदृए य ३ एवमेते च- |
उकगसंजागेणं॒पन्नरस भगा भाणियच्वा °जाष सिय |
कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिदए य १४
१वमते पंचचउकसंजोंगा नयव्वा, एकेके संजोए पन्नरस
भगा । सव्वमेतं पंचसत्तरि भगा भवन्ति | जई पंचवन्ने-सि- |
य कालप् य नीलए य लोहियए य हालिदए य सुकिल्नए य १ |
सिय कालण् य नीलए य लोहियए य हालिदगे य सुकिल्लगा
य २ सिय कालए य नील य लोहियए य हालिदगाय
सुकिन्नए य २ सिय काल् य नीलए य लोहियए य हालि- |
दणां य सुकिन्लगा य मिय कालष् य नीलए य लोहियगा
-य ७ सिय कालए य नीलगा य लोहयगे य हालिदण
य लाहियमा य हालिदगे य सुक्किन्लएण य ६ सिय का-
लए य नीलए य लादियगा य हालिदगा य सुक्किल्लण
य सुक्किल्लए य ८ मिय कालग य नीलगा य लोहियए
य हालिदृष्ट य सुक्किन्लगा य & सिय कालगे य नीलगा
य लादियग य इहालिष्गा य सुक्रिन्लण य १० सिय कालए
य नीलगा य लोहियगा य हालिदणए य सुक्किल्लए य ११
सिय कालगा य नीलग य लोहियए य हालिदए य सूक्ति
ज्वए य १२ मिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य
हालिदए य सुक्किलगा य १३ सिय कालगा य नीलए
य लोहियए य हालिदगा य सुक्किल्लण य १४ पिय
कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिदए य सुकिलए
य १५ सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालि
दए य सुक्किल्लए य १६ एए सोलस भगा । एवं सव्व
मेते एक्कदुयगतियग चउकगपचगसंजोगेणं दो सोलस
भेगसया भवंति । गधा जहा चउप्पएसियस्स, रसा जहा `
एयस्स चव बन्ना, फासा जहा चरप्पएसियस्स ॥ अद्र
पणसियस्स ं भते ! खध पच्छा, गायमा ! मिय
एगवन्ने जहा सत्तपणएसियस्स °जाव सिय चठफासे प्ते,
जई एगवन्ने एवं एगवन्नदुवन्नतिवन्ना जहेव सत्तपएमिए,
जई चउवन्ने-सिय कालए य नीलए य लोहियए यं
हालिदृए य १ सिय कालए य नीलए य लोहियए य
हालिदगा य २ एवं जहेव सत्तपएसिए ०जाव सिय काल-
गा य नीलगा य लोहियगा य हालिदगे य १५ स्थि
कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिदगा य १६
एए सालस भगा , एवमते पंचचठक्कसंजोगा , एवमत
असीति ८०, भगा जई पंचवन्न-सिय कालप य नीलए
य लेहियए य हालिदए य सुकिल्लए य १ सिय कालए
य नीलगे य लोहियगे य हालिदगे य सुक्किल्लगा य २
एवं एएण कमेण भगा उच्ारेयव्वा ०ज।व सिय कालए य
नीलगा य लोहियगा य हालिदगा य सुक्किल्लगे य १५
एसो पन्नरसमो भगो सिय कालगा य नीलगे य लोहि
यगे य हालिदण् य सुक्िकिल्लर य १६ सिय कालगा यं
नीलगे य लोदियगे य हालिदगे य सुक्किल्लण य {७
सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिदगा य
सुक्किल्लए य १८ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य
हालिदगा य सुक्रिकल्लगा य १६ सिय कालगा य नील
य लोहियगा य हालिदए य सुक्किन्लए य २० धिय
कालगाय गा = य लोहियगा य ह।जदए य सुक्कि-
न
य हालिदए य सुक्किन्लए य ४ सिय कालए य नीलए |
२४
अभिधानराजन्द्र
वरण
६ य २१ मियकालगा य नीलगे य लोहियगा य
हालिदगा य सुक्ि्ए य २२ सिय कालगा य नीलगा
य लोहियने य हालिदए य सुकिन्लएण य २३ सिय का |
लगा य नीलगा य लोहियगे य हालिदए य सुकिन्नगा |
य २४ सिय कालगा य नीलगा य लोहियग य हालि- |
| य सुकरिल्लए य २५ सिय कालगा य नीलगा य लो-
हियगा य हालिदए य सुकिल्लए य २६ एए पचसजाएण
छर्व्वासं २६ भगा भवेति, एवामेव सपुव्वावरेणं एक-
गदूयगतियगचउक्गपंचगसजाएहिं दो एक्कतीसं भगसय
भवेति, गेधा जहा सत्तपएसियस्स, रसा जहा एयस्स
चेव बन्ना, फासा जहा चउप्पएसियस्स । नवपएसिय-
स्स पृच्छा, गोयमा ! भिय एगवन्ने जहा अद्रुपएमिए०
जाव सिय चउफासा पष्पत्ता,जइ एगवन्ने- एगवन्नदृन्नति-
चन्नचउवन्ना जहेव अटूपएसियस्स, जई पंचवन्न ` सिय
कालए य नीलए य लोहियए य हालिदए य सुक्किल्लए य १
सिय कालग य नीलगे य लोहियए य हालिदण य|
सुक्किल्लगा य २ एवं परिवाडीए एक्कतीसं भगा भाणि-
यव्या, एवं एक्कगदुयगतियगचडउक्कगपचगंसजोणहिं दो
छत्तीस भेगसया भवति, गधा जहा अट्टपएसियस्स,
र्या जहा एयस्म चव वना, फासा जहा चउपएसियस्स ।
दसयणएसिए णं भत ! खध पुच्छा, गोयमा ! सिय एग-
चेन्न जहा नवपएसिए ° जाव सिय चठफासे पन्नत्ते, जई
एगवनने एगवन्नेदुवन्नतिवन्नचडउवन्ना जहव नवपणएमियस्स,
पंचवन्ने वि तहेव नवरं वत्तीसतिमो भग भन्नति, एवमेत ए-
क्ंगदुयगतियगचउकगपचगसजोगेसु दौ न्नि सत्ततीसा भग |
सया भवति, गधः अहा नवपणासियस्स, रसा जहा एयस्स
चवर वन्ना,फासा ० जाव चउप्पएसियस्स । जहा दसपएसिओं |
एवं संखेज़पएसिओ वि, एवं असंखेज़पएसिओ सहमप-
| रिणओ वि अणंतपएसिओ वि एवं चव ॥ (सू०-६६८)
इत्यथैः स्निग्धः २ दशश्च रूच्त:ः ३
। २०५
“परमाणु' इत्यादि
द्, एगवन्न' त्ति कालादिवणानामन्यतरया- |
गात् , एवं गन्धादिष्वपि वाच्यम्, दुफासे' त्ति शौताप्णन्नि-
ग्धरूल्षाणामन्यतरस्याविरुद्धस्य द्वितयस्य योगाद् द्वि स्पशः,
तत्र च वकरुपाञ्चत्वारः, शातस्य स्मिग्धथन रूक्तण च कमण
अगाद् दा, पवमुष्णस्यापि द्वाविति चत्वारः, शास्तु स्पशौ
बादराणामव भवान्त ॥ ` दुपर्णसए ण मित्यादि, द्विप्रदे-
शिकस्यैकवरीता प्रदशद्यस्याप्यकवरी परिणामात् , तत्र च
कालादिभदेन पञ्च विकल्पाः, द्विवर्शता तु प्रतिप्रदशं वर्णभ-
दात् , तत्र च द्विकसयागजाता दश विकट्पाः सूर््ासद्धा
एव, एवं गन्धर स्वाप, नवरं गन्ध एकत्व द्वौ द्विकसयाग
त्वेकः, रसष्वकत्व पञ्चे द्वित्व तु दश, स्पर्शीषु दिस्पश-
तायां चत्वारः प्रागुक्ताः, * जद तिफास' इत्यादि * सव्व-
सीप त्ति ध्रदशद्रयमपि शीतम् १. तस्यैव द्यस्य देश एक
इत्यका भङ्गकः, एवम-
न्य $पि चयः सुत्रसिद्धा एवं, चतुःस्पशी त्वक पव, एवं
चत स्पशमभङ्गा सठ ऽपि मीलिता नव ६ भवन्तीति ॥ * ति-
पर्णासए ` इत्यादि, ` खिय कालप ` त्ति अयाणामपि प्रदेशा-
नां कालत्वादित्वनेकवरीन्व पञ्च विकल्पाः, द्विबरणतायां
चैकः प्रदशः कालः, प्रदेशदय तु तथाविधेक्रप्रदशावगा-
हांदकारणमपक्ष्यकत्वन विर्वाक्षितार्मात स्याश्नल इन्यका
भङ्गः, श्रथवा-स्यान्कालस्तथव प्रदशद्धय तु भिन्नप्रदशा-
वगाहादिना कारणन भदन विर्वक्षतमता नीलकाविति
व्यपददिष्टमिति द्वितीयः, अथवा-द्वा तथैव कालकावि
त्युक्ता एकस्तु नीलक इत्यवे तृतीयः, तदेवमकत्र द्धिकसे-
यागे याणां भावादशखु द्विकयागषु त्रिशद्धज्ञा भवन्ति ।
पत च सूत्रसिद्धा पर्वति, तरिवरतायां त्वेकवचनस्येव
सम्भवादश त्रिकसंयोगा भवन्तीति , गन्धे त्वकगन्धत्व
द्धो द्विगन्धतायां त्वकत्वानकत्वाभ्यां पचवत््रयः, * जइ
दुफास ` इत्यादि समुदितस्य प्रदेशत्रयस्य द्विस्पशतायां
द्विकप्रदेोशिकवच्चत्वारः, जिस्पशतायां तु सवः शीतः प्रदे
शत्रयस्यापि श।तत्वात् दशश्च स्निग्धः एकप्रदेशात्मका
दशश्च रुत्ता द्विप्रदेशात्मका द्वयारपि तयोरेकप्रदेशावगा-
हनादिना एकत्वेन विवत्तितत्वात् । प्वे सर्वत्रव्यका भ-
ङ्गः. १, त॒तीयपदस्यानकवचनान्तत्व द्भितीयपदस्यानकव-
चनान्तत्व तृतीयः.तदव सवशीतन जया भङ्गाः ३ एवं सर्वा-
ष्णनापिरेएव सवस्निग्धनापि ३ एवं सर्वरूक्तणापि३ तदवमत
दादश१२,चतुःस्पशतायां तु दस सीप" इत्यादि.एकवचनान्त-
पदचतुषए्रय आद्यः । स्थापना चयम्- ` ` अन्त्यपदस्यानक--
वचनान्तत्वे तु द्वितीयः, स चवम्- द्रयरूपा देशः शात ए-
करूपस्तूष्णः पुनः शीतयारक्रः स्निग्धः द्वितीयश्राष्ण
पतो रुत्ताविति रूत्तपद् ऽन कवचनम् , तृती यस्त्वनकवचना-
न्ततृतीयपदः, स चैवम्- एकरूपा देशः शीतो द्विरूपस्त्-
ष्णः, तथा यः शीता यश्चोष्णयारकस्तो स्निग्धा इत्यवं
स्निग्धपद ऽनकवचनं यश्चेक उष्णः स रुक्त इति, चतु-
धस्त्वनकवचनान्तद्वितीयपदः, स चेवम्- स्निग्धरूपस्य द्व-
यस्थेकः शीता यश्च तस्येव द्वितीयो ऽन्यश्चको रूच्तः एता-
वुष्णावित्युपष्णपद् ऽनकवचनम् , स्निग्ध तु द्यारकप्रदेशा -
श्रिवत्वादकवचने रुक्त त्वकत्वादवति, पञ्चमस्तु दिती-
यचतुश्रपदयोरनकवचनान्ततया , स चेवम-एकः शीत
स्निग्धश्च अन्यो च पृथग् व्यव्रस्थितावुष्णो चत्युष्णरूक्तयो-
रनकवचनम् , पस्तु द्वितीयत्ततीयपदयारनेकवचनान्तत्वे
स चेवम्--एकः शीता रूक्षश्च अन्यो च प्रृथग््यवस्थितावु-
ष्णो स्निग्धा चल्युष्णस्निग्धयारनकवचनम्, सप्तमस्त्वनकव
चनान्ताद्यपदः, स चेवम्-स्निग्धरूपस्य दयस्थयेकाऽन्य-
श्चक पतौ द्रा शीतावि्यनकवचनान्तत्वमाद्यस्य, अष्टम
पुनरनकवचनान्तादि मान्तिमपदः, स चरेवम्-पृथक्स्थितया
शोतत्वरूक्तत्व चेकस्य वाष्णत्व स्निग्धत्व च, नवमस्त्वनक-
चचनान्तत्व आआद्यतृतीययाः, स चवे दयार्भिन्नदशस्थयाः
शीतत्व स्निगधत्व च णकस्य चोष्णरुक्तत्व चति, “ पण-
वीस भंग ' जि. द्विचिचतुःस्पशसम्बन्धिनां चतुद्धादशनवा-
नां मीलनात् पश्चविशातभड़ा भवन्ति । ` चउपणसिप ण
मिव्याद' एसय कालप य नीलए य ` त्ति द्धो द्वावकप-
रिणामपरिणताधिति कृःवा स्यात्कालको नीलकश्चाति प्रधमः,
अन्त्ययोरनेकत्वपरिणामे स्त द्वितीयः आद्यस्ततीयः
( <> )
वरण
उभयाश्चतुर्थः, स्थापना चयम्- ५: ४-५ ४ | एवं दशस द्वि |
“ जह ति- |
कयागपु प्रत्यके चतुमङ्गीभावाच्त्वारिशद्धङ्गाः।
वन्न ` इत्यादि नत्र प्रधमः कालका द्वितीया नीलकः अ--
न्त्ययोश्चेक पारणामत्वाज्लादितकः १६१ इत्यकः त॒तीयस्या--
नकपरिणामतया ऽनकवचनान्तन्व द्वितीयः ११२, एव द्वि-
तीयस्यानक्रतायां तृतीयः १५१५ ऋद्यस्यानकन्व चतुथः
२११ एवमत चत्वारः एकत्र ्रिकसयाग, दशस चेतपु
चअत्वारिशादाति । ` जइ चउवन्न' इत्याद. इद पञ्चानां वर्णा-
नां पञ्च चतुस्कसयागा भवन्ति,त च सृत्रासद्धा एव,
` सव्व नउई भग ` त्ति एकद्वित्रिचतुवणंषु पञ्चचत्वारि-
शन् २ पञ्चानां भङ्गकानां भावान्नवतिस्त स्युरिति । * जड
एगगंध ` इत्यादि प्राग्वत् । ` जइ तिफास ` इत्यादि, ` सव्व
साए त्त चतुणामाप प्रदशाना शातपारणामत्वात् र ` देस |
निद्ध ` त्ति चतुणा मध्य द्वयारकपरिणामयाः स्निग्धत्वात् २
` दस लुक्ख त्त तथव द्रया रू्तत्वात् २ इत्यकः द्रताय- |
स्तु तथव नवर भिन्नपरिणामतया 5नकवचनान्ततृतीयप- |
चतुरः पुनस्तथेवा- ,
तृतीयस्ल्वनकवचनान्तद्वितीयपदः,
नक वचनान्तद्धितीयतृतीयपद इत्यत सर्वशीतन चत्वार
एवे सर्वोप्णन सवरस्निग्धन सवरुत्तणत्यवे पाडश
चरउफास ` इत्यादि तत्र ` दस सीए ` त्ति एकाकारप्रदश-
द्यलक्षणा देशः शीतः तथाभूत एवान्या दश उष्णः, तथा
य एव शीतः स एव स्निग्धः यश्चाष्णः स रूक्ष इत्यकः,
चतुश्रपदस्य प्रागवानकवचनान्तन्व द्वितीयः तृतीयस्य च
तृतीयः, ततीयचनुशरयारनक्रवचनान्तत्व चतुरश्रः, पवमन
घाडश, आनयनापायगाथधा चयमपाम्--* अतलहुयस्स
हट्ठा, गुरुये टावह ससमुच्ररिसमे ; अत लहुण॒हि पुणा,
पूरज्ञा भंगपत्थार ॥ १ ॥
स्थापना चयम्--
ह
ग
१९. ~र
|
2११ ९ 2१/२२.
2.१ । ` २११२ ४ २१२२2
00 ५२८ १२ ८२८ २? श्र श्र ८२
छुत्तीस भग ` त्ति द्रिचरिचतुःस्पराषु चतुःपाडश षाड-
शाना भावादात । इद बुद्ध गाथ---
“४ वीसइमसउद्दस, चउप्पएसाइए चउप्फास ।
एगबहुवयणमीसा, बीयाइया कहे भगा ? ॥ १॥ ”
एकवचनबहुबचनमिश्रा द्वितीयत्ततीयादयः कथ भड्का
भवन्ति ? , यत्रैव पद एकवचन प्रागुक्क तत्रैव बहुवचने
वहुवचन त्वकवचनम् , एतच्च न भवतीति कृत्वा विराध
उद्भावितः । श्रत्रात्तरम्-
५१
दसा दसा व मया, दव्वक्खत्तवसआ विवक्रलाष् ।
संघायभयतदुभय-भावाआ वा वयणकाले ॥ ६॥ ”
श्रयमथः- दशा दशा वत्यय निर्देशा न दृष्रः एका--
नक्रवां(दघम्मयुक्कद्रव्यवशनकानकावगादक्तत्रवशन वादश-
स्येकल्वानक.वाववन्षणात्। श्रथवा-भणनध्रस्ताव सङ्खातविश
पभावन भदाव्रशपभावन वा तस्यकत्वानकत्वविवक्षण, दवा त।
॥५ ~ जद
आाभधानराजन्द्र: |
जइ तिवन्न ` त्यादि ,
कवलामहट सप्तेव ग्राह्याः , पञ्चप्रदशिकरऽष्म-
प्रदाणक `
भङ्गाः
स्यासम्भवात् ण्वच दशसु जक्सयागसघु सप्तातारात |
` जइ चउवन्न इत्याद तुषा पदाना षाडश भङ्गास्तषु
चह पश्च सम्मावनस्त च सृत्रासद्धा एव, प्सु वणु
पच्च चतुष्कसयागा भवान्त, तपषु चषा प्रत्यक भावात्पश्चर
वशातागात, ` इयाल भगसय ` त पञ्चप्रदाशकं पकाद्-
चिचतुःपञ्चवणसयागजानां पश्चचत्वारिशत्सप्ततिपञश्चावश- `
व्यकसख्यानां भङ्गानां मीलनादकात्तरचनत्वार शदधिकं भद्ग-
कशतं भवतीति । ` छुप्पएणांसए ण॒ ` मित्यादि, इह सर्व
पञ्चप्रदाराकस्येव, नवरं वरत्रया भङ्गा वाच्याः, अष
मस्याप्यत्र सम्भवात् , एव च दशसु त्रिकसंयागेष्वशीति-
भङ्का भवन्तीति, चतुव तु पूर्वोक्तानां पोडशानां भङ्ग
कानामष्रदशान्तिमत्रयवजितानां शषा एकादश भवान्ति,
तषां च पश्चसु चतुष्कलंयागेषु प्रत्यक॑ नावान्पञ्चपन्चा-
शदिति । ` जइ पचवन्न ` इत्यादो षड भङ्गाः, ` छासीये
भगसये ` ति एकादिसंयागसम्भवानां पञ्चचत्वारिशदशी-
तिपञ्चाधिक पञ्चाशत्षर सेख्याभङ्कानां मीलनात् पद्धत्तरा-
शोत्यधिकं भङ्गकशतं भवति । ` सत्तपएसिय ` इत्यादि,
इह चतुवणत्वे पूर्वाक्तानां पाडशानामान्तमवर्जाः शषाः पञ्च-
दश भवन्ति. एपां च पञ्चखु चतुप्कसंयागष प्रत्यकं भावा-
त्पञ्चसप्ततिरिति । ' जइ पचवन्न ` इत्यादि, इह पञ्चानां
पदानां द्वातरिशद्धङ्गा भवन्ति, तष चहाद्यानां पाडशानाम-
प्रमद्वादशान्त्यत्रयव्जिताः शषा उत्तरां च षोडशाना-
माद्याख्यः पञ्चमनवमो चत्यवं सवे शप पाडश संभ
वन्तीति , ` दा साला मगसयं ` ति एकद्वित्रिचतुःपञ्च
कसयागजानां पश्चचत्वारिंशद्शीतिपश्चाधिकलप्ततिषाडश-
संख्यानां भङ्गकानां मीलनाद् द्व शत पाडशात्तरे स्थाता-
मिति । ' अह्रुपसिए ` इत्यादि, इह चतुवरोन्वे पूर्वोक्ताः
पाडशापि भङ्गा भवन्ति, तषां च परक पञ्चखु चतुष्कसं-
योगप भावादर्शीतिर्भङ्गका भवन्ति, पञ्चवणेत्व तु दातरिशतो
भज्ञानां पोडशचतुर्विशाष्टाविशाष्टाविशान्त्यत्रयवजाः शषाः
षपडविशतिभङ्गका भवन्तात्यथः,. ` दा इक्कतासाइ त | ९
वोक्कानां पञ्चचत्वारिंशदशीत्यशीतिषडत्तर विशतिसंख्यानां
भङ्गकानां मीलनाद् द्वे शते एकत्रिशदुत्तर भवत इति । 'नव-
पणलियस्स ` त्यादि, इह पञ्चवगीत्वे द्वात्रिशतो भङ्गकाना-
मन्त्य एव न भवति, शष तु पूर्वोक्तानुसारण भावनीयमिति।
बायरपरिणए णं भत ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने,
एवं जहा अदरारसमसए ० जाव सिय अट्टफासे पन्नत्ते,बन्न-
गंधरसा जहा दसपएमियस्म, जइ चउफासे सव्व कक्खडें
सव्ये गरुए सव्व सीए सव्वे निद्रे १ सब्बे कक्खड सव्ये
गरुए सव्व सीए सव्ये लुक्खे २ सन्ते कक्वड सव्व ग~
रुए सव्वे उसिणे सब्बे निद्धे ३ सव्ये कक्खड सब्बे गरुण
स सीए सच्चे लुक्ख ४ सव्ये कक्खडे सब्बे लहुए सब्बे
सीए सब्बे लुक्खे ५ सबव्वे कक्खड सव्वे लहुए सच्च
सीए सव्र लुक्खे ६ सव्ये कक्वड सव्बे लहुए सब्बे उ-
सिणे सब्बे निद्धे ७ सन्ये ककड सव्ये लहुए सत्वे
|
|
५ म उन
:
( ८२७ )
चरण
उसिण स्पे लुक्ख ८ सव्वे मउए स्वे गरुए सव्वे सीए |
सव्वे निद्ध£ सव्व मउए स्वे गरुए सव्वे सीए.सव्वे लुक्खे
१० सच्व मउए सत्व गरुण सचय उासणे सव्वे नद्ध ११
सव्व मउए सव्व गरुए सव्ये उमिणे सव्ये लुक्ख १२ |
सव्ये मउए सब्बे लहुए सव्वे सीए सव्ये निद्धे १३ सव्ये
मउए सव्ये लहुए सवते सीए सव्वे लुक्खे १ ४सव्वे मउए सव्ये |
सभिधानराजन्द्रः।
लहुए सव्ये उसिणे सव्वे निद्धे १५ सव्वे मठए सव्ये लहुए |
सन्ये उसिणे सव्व लुक्खे › ६ एए सोलस भगा ॥ जइ पच - |
फामे सच्चे कक्खडे स्वे गरुए सव्वे सीए दमे निद्धे देसे
लुक्खे १ सव्वे कक्वड सव्ये गरुए सव्वे सीए देमे निद्धे
देसा लुक्खा २ सव्ये कक्खड सव्वे गरुए सव्वे सीए |
देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ सव्वे कक्खड सब्बे गरुए स्वे
सीए दसा निद्धा देसा लुक्खा ४ स्वे कक्खड स्वे
गरुए स्वे उसिणे दसे निद्धे दस लुक्खे ४ स्वे कक्खड
रूव्व लहुए सव्वे सीए दमे निद्रे देसे लुक्खे ४ सव्वे
कक्खंड सव्वे लहुए सव्वे उसिणे देसे निद्ध दमे लुक्वे |
४ । एवं एए कक्खडणं सोलस भेगा । सव्ये मठए सव्व ¦
गरुए सव्वे सीए दम निद्र देसे लुक्खे ४ एवं मउएण वि
सोलस भगा, एव बत्तीस भगा | स्वे कक्खंड सव्वे गरुए
सव्व निद्ध देस सीए दसे उासिण ४ सव्ये कक्खड सव्व
गरुए सव्वे लक्ख दमे सीए देसे उसिणे ४ एए बत्तीसं
भगा, सव्वे कक्खड सव्व सीए सव्वे निद्धे दमे गरुण दषे
लहुए एत्थ वि वत्तीस भगा ४, सव्व गरूए सव्ये सीए
सन्य निद्ध दस कक्वड दसे मउणए एत्थ ऽवि बत्तीस भगा,
एवं सव्व ते पंचफासे अड्टावीस भगसयं भवंति | जह छ-
फास सव्व कक्वड सव्ये गरुए दसे सीए दस उ-
सिणे दस निदधे दस लुक्े १ सव्ये कृक्खडे सव्ये गरुए
दमे सीए दसे उसिणे दमे निद्रे देसा लक्खा २ एवं ०जाव
सव्व कक्वड सव्व गरुए दसा सीया दसा उसिणा दमा
नद्धा दसा लक्खा १६ एए सालम भगा । सव्ये कक्वड
भव्वे लहुए दस सीए देम उसिणे, देमे निद्र दमे लक्वे
एत्थञवि सालस भगा, सव्व मउण सव्वे लहए देमे
सए देसे उसिणे देसे निद्रे देसे लुक्वे एत्थ वि
सालस भगा, एए चउसद्टिं भगा, सव्वे कक्खड
सव्व निद्रे दमे गरुए दमे लहुए देसे निद्रे देसे लुक्वे
एत्थ वि चउसद्टं भगा, सव्व कक्खड सव्ये निदे देसे
गरुए दमे लहए देसे सीए देमे उसिणे १, ० जाव सव्ये
मृउए सव्व लुक्ख दसा गरुया दसा लया देसा सीया
भगा, सव्वे गरुए सच्चे
॥> उासणा १६ एए चउसा ए |
दस कक्खड दमे मउए दम निद्ध दमे लुक्खे एवं
| णण
देसे निद्ध
वरणा
० जाव सच्चे लहुए सव्वे उसिणे देसा कक्डडादेसा नि-
द्वा देसा मउया दसा लुक्खा एए चउसट्टं भगा, सव्व
गरुए सव्वे निद्रे देसे कक्खड देस मउणए् देसे सीए दमे
उसिे ०जाव सव्वे लहुए सव्ये लृक्खे दसा कक्खडा
देसा मउया दसा सीया दसा उसिणा एए चउसद्धं भ-
गा, सच्चे सीए सब्बे निदधे दसे कक्खड दस मउण् दस
गरुए दस लहुए °जाव सन्व उसिणे सव्व लुक्ख दमा
कक्खडा दसा मउया देसा गरुया देसा लहुया एण
चउसद्टं भगा, सव्व ते छफासे तिन्नि चउरासीय भग
सया भवंति ३८४ । जई सत्तफासे सव्वे कक्खड दम
गरुए देस लह्ए देसे सीए देस उसिणे दमे निद्धे दम
लुक्खे १ सन्ये कक्खडे देमे गरुण देसे लहुए दमे सीए
दमे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खवा ७ सव्वे कक्खंड
देसे गरुए देसे लए देसे सीए देसा उसिणा दमे
निद्धे दसा लुक्खा ४ सव्बे कक्वड दमे गरुए दमे लहुए
देसा सीया दमे उसिणे देसे निद्रे दमे लुक्खे ४
सव्वे ते सोलस भगा भाणियव्ा, सव्ये कक्खडे देमे
गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे दमे निद्ध दमे
लुक्खे एवं गरुएणं एगत्तेणं लहुएणं पुहुत्तेण एते वि सो-
लस भगा, सव्ये कक्खड दसा गरुया देसे लहए दमे
।ए दमे उमिणे दमे निद्रे दसे लुक्खे एए वि सोलस
भगा भाणियव्या , सन्य कक्वड दसा गरुया दसा
लहुया से सीए देसे उसिणे दसे निद्धे दमे लुक्वे एए
वि सोलस भगा भाणियव्वा , एवमेते चउसद्ं भगा
कक्खडण समे, सन्ये मउए देसे गरुए देमे लहुए दमे
सीए देसे उसिणे देमे निद्धे दमे लुक्खे । एवं मउणण वि
समं चउसद् भगा भाणियव्वा, सव्व गरुए देमे कक्-
ड दसे मउण देसे सीए देसे उसिणे दमे निद्ध देसे
लुक्च एवं गरुएण वि समं चउसट्टें भगा कायव्वा, सच्चे
लहुए देम कक्खंड देसे मउण दस सीए देस उसिण
` दस लक्ख एवं लहुणण वि समं चउसट्ट मगा
कायव्वा, सव्व सीए देस कक्खंड दस मठए दस
गरुए दमे लद्ुए देस निद्रे देस लुक्खे एवं सीतेण त्रि
समं चरसद्टं भगा कायव्वा, सव्व उमिणे दमे कक्खड
दमे मठए दमे गरुए दस लहुए दस निद्र देम लक्व
एवं उमिणेण वि सम चउसद्टं मेगा कायव्वा,सव्वे निद्र
देसे कक्खड दमे मउण दमे गरुए देसे लहुए देसे सीए
देसे उसिणे एवं निद्धण वि चउसद्टं मेगा कायव्वा,
सव्व लुक्खे देस कक्खडे देसे मउण दमे गरुण दमे ल-
हुए दूस सीए देसे उसिणे एवं लुक्खेण व्रि समं चउस-
( दरदं )
अमिधानराजन्द्रः ।
वरण
ह्रिं मगा कायव्वा ०जाव स्वे लुक्खे दसा केक्खडा देसा |
मउया दसा गुरुया दसा लहुया दसा सीया देसा उसिणा, |
एवं सत्तफासे पंचवारस॒त्तरा भगसया भवति । जइ अद्रफामे |
देसे कक्खडे देस मउ देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए |
दमे उसिणे दमे निद्धे देसे लुक्खे दसे कक्खडे देमे
|
|
मउए दमे गुरुप देमे लहुए देसें सीए देसा उसिणा |
देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ देस कक्खडे देसे मउए देसे |
गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे |
दम लक्खे ४ दस कक्खड देसे मउण दसे गुरुए देसे
लहुए दसा सीया दसा उमिणा देसे निद्ध दमे लुक्खे
४ एए चत्तारि चठका सोलस भगा, देसे कक्खडे देसे
मउण् दमे गुरुए दसा लहूया देसे सीए दम उमिण देखे निद्ध
दस लुक्खे । एवं एते गुरुएणं एगत्तणं (लहुएणं) पृहत्तएणं |
सोलस भगा कायच्वा | दमे कक्खड दसे मउए देसा
गुख्या देसे लहुए दस सीए दस उसिणे देसे णिद्धे देसे |
लुक्खे ४ एए वि सोलस भगा कायव्वा । दमे कक्खड दस
मउए देसा गुरुया दसा लद्या दमे सए दमे उसिे दसे
निद्ध दम लक्ख एते वि सालस भगा कायव्वा । सव्वेऽवि
ते चउसट्टिं भगा कक्वडमउणएहिं एगत्तएहिं, ताहे कक्खडणं
एगत्तएणं मउणएशं पुहत्तेणं एते चव चउसट्टि भगा कायव्वा |
ताहे कक्खडणं पुहत्तएणं मउणएणं एगत्तएणं चउसट्टिं भगा |
कःयव्वा,ताह एतहि चव दोहि वि पुहत्तेहिं चडउसदट्टि भगा
कायव्वा ०जाव देसा कक्खडा दमा मउया दसा गुरुया
दसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा दसा निद्धा दसा
लुक्खा एमो अपच्छिमो भगो, सव्वेते अटफासे दो छ-
प्पन्ना भगसया भवति | एवं एत बादरपरिणए अरत -
पएसिए खंध सब्वेसु संजोएस बारस छन्नउया भगसया
भवति । ( झ्ू०-६६६ )
* वायरपरिणप् ण ` मित्यादि, सव एव ककंशा गुरः
शीतः स्निग्धश्च पकद्ेवाविरुद्धानां स्पशानां सम्भवादिव्य-
का भङ्गः, चतुश्रपदव्यत्यय द्वितीयः, पवमत ण्कादिपद-
यमिचारण पाडश भङ्गाः । पंचफास ` इत्यादि, कक्रश-
गुरूेशातः ।स्नग्धरूक्तया रकत्वानकत्वक्रता चतुभकज्ञा लन्धा, |
एपव च कर्क्कशगुरूप्णे लभ्यत इत्यवमण्रौ
शगुरूभ्याम
कक्कशपदेन लब्धा एतानव च म्ृदुपदं लभत इत्यव द्वाजिश-
त्,
न्या च द्वात्रिशत् शीताप्णयारन्या च गुरुलघ्वारन्या च क-
कशमद्रारित्यव सवे पवेत मलिता अष्टाविशत्युत्तरं भङ्ग-
कशत भवतात । ` चृफास ` इत्याद, तत्र सवक्क्शा १
गुरुश्य २ देशश्च शीत. उष्णः ४ स्निग्धा ५ रू्तश्च ६ ति ।
इह च देशशीतादीनां चतुणा पदानामकत्वादिना षाडश भ-
पत चोप्रा कक्ष
१-परम।छुव णं। डिवक्तव्यता ` परमाणु ` शब्द पत्चमभागे ५४१ पृष्ठ ॥
पवमन्य च कक्रशलघुभ्याम् , एवमत षाडश |
इय च द्वातिशत् स्निग्धरूक्तयारकत्वादिना लब्धा, अ- |
शै श च ॐ
ङ्गाः, पत च सवेककंशगुरुभ्यां लञ्धाः, पत एव ककंशलघु-
भ्यां लभ्यन्त तदव द्वात्रिंशत् । इये च सब्बेकर्कशपदन ल- `
चधा इयमव च सवम्रुदुना लभ्यत इति चतुःषषिभङ्गाः । इय
च चतुःषष्ठिः सर्वककंशगुरुलक्षणन द्विक लयागन सविपयय-
र लब्धा, तदेवमन्या ऽप्यवविधा द्विकसयागस्तां लभत, क-
कशगुरूशीतस्निग्धलत्तणानां च चतुणा पदानां षड द्विकसे-
यागास्तदेवे चतुःषष्ठिः पडभिदिंकसयागेगुणिताख्रीणि शता-
नि चतरशात्याध्रकान भवन्तात । अत पवाक्रम्-' सच्च वत
छुफास ` इत्यादि । ` जइ सत्तफास ` इत्यादि, इहाय॑ कक
शाख्य पदं स्कन्धरव्यापकत्वाद्धिपक्तरहिते शर्षाण त॒ गुव दी
नि षट् स्कन्धदशाश्रितत्वात् सविपत्ताणीयवे सप्त स्पशाः
पषां च गर्वादीनां पषषां पदानामकल्वानकत्वाभ्यां चत॒ःर्षाष्ट-
भङ्गका भवन्ति, त च सर्वशब्दावर्शापतनादिन्यस्तन
कर्कशपदन लब्धाः । एवं मदुपदनापाीत्यवमण्ाविशत्य-
धिकं शतम् , एवं गुरुलघुभ्यां शेः पड़भिः सह १२८, शी-
ताष्णाभ्यामप्यवमेव १२८८, एवं स्निग्धरुत्ताभ्यामपि १२८,
तदेवमष्राविशत्य॒त्तरशतस्य चतर्भगुणने पञ्च शतानि द्वाद-
शोत्तराणि भवन्तीति । श्रत एवाह-' एवं सत्तफास पच बार-
खुत्तरा भंगसया भवती ` ति । ` अट्टफास ` इत्यादि, चतुर्णा
कर्कशादिपदानां सविपथ्याणामाश्रयणादष्रौ स्पर्शाः । पत च
वाद्रस्कन्धस्य द्विधा विकल्पितस्येकत्न देश चत्वारो विरू
द्धास्तु द्वितीय इति.एपु चकत्वानकलत्वाभ्यां भङ्गका भवान्ति ।
तत्र च रूत्तपदनेकवचनान्तन वहुवचनान्तन द्वा, पतौ च
स्निम्धकवचनन लब्धावेतावव स्निरध्रवहुवचने लभते, पत
चत्वारः, पत च सूतरपुस्तक चतुष्ककन सूचिताः । तथेत-
प्ववाष्टास पदेधघूष्णपदन वहुवचनान्तनाक्रचतुभङ्गीयक्क
नान्य चत्वारः ४, एवे शीतपदेन वहुदचनान्तनेव ४, तथा
शी ताष्णपदाभ्यां वहुवचनान्ताभ्यामत एव४एवं चेत१६,तथा
लघुपदेन बहुवचनान्तनत एव ४, तथा लघुशीतपदाभ्यां
वहुवचनान्ताभ्यामत एच ४, एवं लघूष्णपदाभ्याम् ४, एवं
लघुशातीपष्णपदारात ४ , एवमत5प षाडश १६, एतदव
दशयति- एवं गुरूएणं एगत्तणण ` मित्यादि, तथा-कर्क-
शादिनेकवचनान्तन गुरुपदेन च च बहुबचनान्तनत एवं, तथा
गुरूष्णाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामत पव ४, एवं ग्ुरुशीता-
भ्याम् ४, एव्र गुरुशीताष्णैंः ४, एवं चेत षोडश, तथा गुरु- `
घुभ्यां वहुवचनान्ताभ्यामत पच ४, एवं ग्ुरुलघूष्णेः ५,एवं
गुरुलघुशीतंः ४, एवं गुरुलघुशीतोप्णेः ४, पतऽपि षोड़श,
सर्व ऽप्यादित एते चतुःषष्ठिः ' कक्खडमउपहि पगत्ताहिं '
ति कर्कश्बदु पदाभ्यामकवचनवद्भ्यां चतुःषष्ट्रिते भङ्गा
लब्धा इत्यश्चः, ` ताह ` त्ति तदनन्तरम् ' कक्खडणं पगत्त-
परो ` ति कर्कशपदनेकत्वगेन पकवचनान्तनेत्यथैः ' मडउणणे |
पुटत्तपणं ` ति ग्ृदुक पदेन प्रधक्त्वगनानकवचनान्तेनत्यथैः।
पत चव ` त्ति एत पव पूरवौक्ककमाचतुःपष्टिभिङ्गकाः क|
व्या इति, “ तांह कक्खडण ' मित्यादि, ' ताहे ` त्ति तत
कर्कशपदेन बहुवचनान्तन सृदुपदन चैकवचनान्तेन चतुः
घष्टिभकृुकाः पृवाज्गक्रमणुव कत्तव्या ततश्चतानेव कर्कशस्-
दुपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यां पूवेबच्चतुष्षष्टिमज्ञाः कक्तेव्याः
पताश्चादितश्चतस्रश्चतुःपष्या मीलिता द्र शते षट्पञ्चाश-
द् धिक स्यातामिति, एतंदेवाह-' सव्व त अट्टफास, दो |
प्पन्ना भेगखया भवेति ` त्ति ।
ङः
हज
>
॥
ध.
7
( ८२६ )
| शरण श्रभिधरानराजन्द्रः। . चर्ण पार्णाम
पतां च सुखतर प्रतिपत्तये यन्त्रकमिदम्-
च 4 -
धै
वश । ॥ ६ ४.
५८
॥
६१
चो
#
4
दस देसम. दस ग. देस ल. देस सी बेस उ. देसे नि. देख रू. |
* बारसछुज्नउया भंगसया भवेति ` त्ति बादरस्कन्धे चतु-
गदिकाः स्पर्शा भवन्ति | तत्र च चतुः स्पशादिषु कमण
घाडशानामणष्राविशत्युत्तरशतस्य चतुरशीत्यधिकशतत्रयस्य |
द्वादशात्तरशतपञ्कस्य षद् पञ्चाशदांघक्रशतद्वयस्य च भा-
चाद्यथोक्कं मान भवतीति । भ० २० श० ५ उ० ।
चरयत अलेक्रियत शरीरमननति वणः । पे० से० ३ द्वार ।
शर्गरच्छवा, ज” ३ वक्त० । प्रज्ञा० | गौरत्वादौ, उत्त० २०
० । वगीन वरीः । श्लाघन, परश्च २ सम्बण द्वार । प्रव ।
शद्धादरव्यापिनि साधुवाद. | भ० १५ श । यशसि, स्था० ३
ठा० ३ उ० । नि० चू० । सर्वेदिग्व्यापिनि साधुवादे, स्था० १०
ठा० ३ उ० । नि° चू० । युक्तता लक्ष, ज्ञा० १ श्रु० ६ अ० ।
ब्राह्मणत्वादा, सूत्र० १ श्रु० १ अ० ३ उ०। ( ब्राह्मणत्वादि जा-
ज़िप्रकाराः ` वंभ ` शब्द पश्चमभाग १२५८ पृष्ठ उक्काः । )
श्रमणादिषु , श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चति,
चन्दन, ध० २ आध० । सयम, मात्तच | आज्ला० १ श्रुण ८
श्म ८ उ० । ( ` वमाण शब्द विमानवणान दयन्त । )
ब्रागआ( ग )-वर्णक -न० । वर्णरूप, वृ० १ उ० २ प्रक० ।
विलेपन, ओ० । आ० म० । चन्दन वर्णनके, विपा० १ श्रु० १
अ्र० । ज्ञा० । कम्पिल्लकादों, आचा० २ श्रु० १ चू० २ अ० १
० | व्चाआ जा सुग्रधा चदणाद् । न० चू० { उ० । हक्लुल- |
कतेलादो, वसा पुण हिंगुलादी तज्ञमादी । न° चू० १४ उ० ।
चष {र वण।न्तर-न० । अअपान्तरयालघु नवखु वणु, आच्चा०
६ श्रु० १ अ० १ उ० | ( ` वंभ ` शब्दे पञ्चमभाग १२५७ पृष्ठ
दर्शितम । )
बरघमक्रर- वकर न० । पकदिगब्यापिनि साधुवादकर, तं०।व-
घुषि गोरत्वादिवरकरे, तं० ।
चपक्ररण-बगकरण-न० । विशिष्षु भोजनादिषु विशिष्टव-
शोपादन, सूतर० १ श्रु० १ अ० १ उ०।
ब्मकाल -वरीकाल- पु । वणीश्चासो कालश्च वर्णकालः ।
कालभद, चिश० ।
अथ नियुक्तकूद् वरीकालमाद--
पचर वष्माणं, जो खलु वज्नण कॉलओं व्या ।
सो हाई वष्मकालो, वष्पिज्ञइ जो व जं कालं।२०७३॥
शुक्कादीनां पञ्चानां वर्णनां मध्य यो वर्णन--छायया कृष्ण
एवं वशैः स भवति वर्णकालः । अथवा>यः कोऽपि
जीवादिपदार्थों यत्काले-यास्मिन् काले वरयते -प्ररूप्यते स | श् < ॥ < ४
क ५ | ब्लेपरिणय-वर्णपरिणत-त्रि० । वरतः परिणतो वरणप*ण-
चशन-वरस्ततप्रधानकालो वरकालः । यदिवा-शुक्लादे-
पर एवं वरणायेते यत्न काले स शुक्लादिवर्ण[प्ररूपणस्य काला
वर्णकाल इत्यादि स्वधिया ऽभ्यृह्य वाच्यमिति ॥ २०७३ ॥
०८
अथ भाप्यम्-
पञ्जायकालभे्या, वण्णो कालो त्ति वायकालोाऽयं ।
नणु एम नामउ च्चिय,काल। नानियमतो तस्स। २०७४।
योऽय कालः ष्णो वणः स वरश्चासो कालश्च वणाकाल
इति भगयते । स च कथभूतः ?। पर्यायकालभेदः । इदमुक्ग
भवति-यथा द्रव्यस्य कलन काला द्रव्यकालः प्रागुक्तः, तथा
पर्यायाणां कलन कालः पयायकाल इत्यपि द्रएरव्यम् | ततश्च
कृष्णवरास्य द्रव्यपर्यायत्वादय वगकालः पयायकालभद
पव मन्तव्यः । ननु यदि पयायकालाऽपि कश्चिदस्ति, तहि
* दव्वे श्रद्ध श्रदाउय ` इत्यादो किमये नोपन्यस्तः ? । स-
.त्यम् , किन्तु-द्रव्यात् पर्यायाणां कर्था्चिदभिश्नत्वाद् द्रव्य
कालभणनद्धार गवाङ्गन्वाद् न पृथगत्रायमुक्रः | च्रथवा-त-
द्धदभूतस्याऽस्य वरकालस्याभिधानात् साऽप्यभिहित एव
द्रष्व्यः। त्राह नन्येप छृष्णो वर्णो नामत पव कालो
राखत, ततश्च नामकाल एवाये किमितीहोपस्यस्तः ? इति
भावः । अरात्तरमाह--नानियमतस्तस्यान, तस्य कालना-
म्नः संकतवशाद गारे ऽपि विधोयमानत्वादानियतत्वम् , श्रना
-न्यस्माद् व्यवच्छिद्य वण एव यः कालः स इह वराकाला-
ऽमिधीयत, नान्यत् इव्यतावता नामकालादस्य भेदः।विशे०।
वष्पगपेमिया-वरकपेपिका-खी० । चन्दनपेविकायाम् , भ०
१६ श० ३ उ० ।
वप्मगुणप्पमाण -वर्णगुणप्रमाण -न० । स्वनामख्याते प्रमाण-
भद.अनु०। ( श्रत्र सूत्रम--' पमाण' शब्दे, पञ्चमभाग ४७२
पृष्ठ गतम् । )
वाप्रचउक् -व्शचरुष्क -न? । वर्णेनोपलाक्षित चतुप्क वगीच-
तुप्कम । वर्णगन्धर्सस्परशचतुए्रये, कर्म० ५ कर्म० ।
वाप्ण-वगन-न० । सद्भृतगुणात्कीत्तन, द्वा० २६ द्वा०।
वध्यणा-वर्णना -स्त्री० । प्ररूपणायाम् . विश० ।
। वष्मणाम वरणनामन् न° । वरयत अलेकियते शरीरमननति
चरणेः | स च पश्चप्रकारः--वतपोीतरक्कनी लकृष्णभदात् । त-
न्निवन्धन नाम | नामकर्मभदे, तच्च पश्चथा-तत्र यदुदयवशा-
जन्तुशरीरे भ्वतवणवादुभावो यथा वलाकादीनाम् तत् श्वेल-
वररनाम, एवं शपारायापि वक्छनामानि भावनोयानि। पे० सं°
३द्वार। स० । कर्म० ।श्रा० । वर्शरूप<र्थ , अनु०।
( श्रत्र सत्रम-' गुणणाम ` शब्दे तृतीयभागे ६२८ पृष्ठ गतम्।)
वप शिव्वत्ति-व णं नि्धृत्ति- खी ० । वरीसंसिद्धौ, भ० १६ श०
८ उ०। ( वर्णनिवृत्तिसूत्रम् * शिव्वत्ति ' शब्दे चतुर्थभाग
२१२० पृष्ठे गतम् । )
वष्पपज्ञव-वश्पर्यव- प° । तत्तदन्यसमुत्पद्यमानवगीविशेष,
. जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
| वष्पपणग्-वरपश्चक-न० । वर्णोपलक्षिते पञ्चावयवे समुदा-
य, कण प्र० ५ प्रक० ।
तः । वर्णभाजि, प्रज्ना० १ पद ।
वप्तपरिणांम-वर्णपरिणाम-पुं? । पञ्चानां श्वेतादीनां घणा नां
ह (८20)
अ।भधानराजन्द्र:
वण्णपरिणाम
परिणातिः । द्रब्या दिलयागर्पारणुतां, सूत्र० १ श्ु० १ अ” (३
उ५ | स्था०।
वष्यफरिसजुत्त-वर्णस्पर्शयुक्त-त्रि० । प्रधानवर्शस्पश,
श० ३३ उ०
वामभत -वर्णवत्-त्रि० । प्रशेलायामतिशायन वा मतुप् । प्रश-
भ० €
सतवर्ण, अतिशयितवर्ण च । स्था० ४ ठा० ४ उ० | सूत्र० |
आचा० ।
वण्णय-देशी-श्रीखणडे, द
वागव्राइ ( ग )-वर्णवादिन्-त्रि० ।
२ उ०।
वाम्राय-वर्णवाद-पुं० । धरायाम्
ग्रहण, घ० ३ अधि०। प्रव० । ( श्रघमस्य
ति ` अहस्म ` शब्दे प्रधमभाग ८६२ पृष्ठ उङ्कम् । )
पचाह ठाण।ह जवा सुलभग्रधयत्ताए कम्म पग्रात,
ना० ७ चग ३७ गाथा ।
स्झाघावादिनि,
पञ्चा० ६ विव । गुण
व्य०
चरणावादा न कत्तव्य |
तं जहदा-अरहताण बन्न वदमाणं० जव विवक्कतव्रवभ्-- |
चराणं दवाणं वन्न् वदमाण | ( छ. २६ )
अटता वणवादा यथा-- * (जयरागदासमादहा सत्वन्नू
एतयसनाहकयपूया । अच्चतस्च्चचयणा एससवचगदइंगमणा जयात
जणा ॥ १ ॥ तेअहस्प्रणातथमवणा यथा5"- चत्थुर
प्रयाससम अइस्ययरयणोण सायगा जय ॥ सव्वजयजाव-
बचुर--बधू दावहा शव ` पजणध्म्मा ॥ ॥
याद यथधा- जि नमा तास नमा, भावण पुल
रा व तास च्वनमा ॥ श्रणुवक्रयपरादहयरया, ज नाण
देति भव्याणं ॥ > ॥ " चतुचरणश्रमणसघ्रचवणा यथा--
अआआचार्यवण- |
एयाम्म पृश्याम्म य नत्थि तय ज न पूइय हाई । भुवणाब |
पूआणज्जा , न गुणा संघराउ जे अज्ञा: ॥ १ ॥ `` दववग्-
वादा. यथा--' दवाण अदा सील , विलयावसमाहिया वि
जिणभवण । अच्छुरसाहि पि समः हासाइ जण न क
रिंति ॥ १ ॥.”' स्था० ४ ठा० २ उ०।
वाप्य प्रीसड- वशी व्िंशति- खरी” । वर्णनापलक्षिता विशातारात ।
चरणाः ५ गन्धो २ रसाः ५ स्पशः ८ इन्यव् (वशता, कम० ४
कर्म० । ( वर्णादीनां भदाः स्वस्वस्थान )
वष्ममेजलणा -वर्णसंज्वलना - खी” । तीथेकरादीनां सद्भूत-
गुणोल्कीननायाम् , दश० ६ अ० * उ० ।
साम्प्रते बणसंज्वलनतां पिप्राच्छपारदमाद--
से कि ते वष्मपजलणता?,वण्णसंजलणता चउाव्यहा प
पत्ता, त॑ जहा-आह-भव्वाण व्पव्रायी भवति, अवश्मवा-
ति प।डदर्। सत्ता भव्रति बरुणवात अणुबाहता भवात्, आ-
यवु इसर्वे( याञवे भवात । सत्त व्रपमजलणता ।
स्र छित न्न्याद, प्रश्चसूत्र व्यक्तम् ्राचाय आद-वणस. |
ज्वलनना चताववा प्रज्ञता तद्यधा-यथा भव्याना वणवादा
भवानि * अवणवादन प्रानटन्ता भवान २ बणवादनम
अनवदहायता भवातर्रात्मन्रूद्धसवा चाप भवात ४, तत्र य
था भव्यानामग्र आचाथस्य गुणजात्यादयस्तपा वर्णावादी प्र
शेसाकथका भवात् २, अवपष्मवादा आजन्यायादानामयशावादा
यो भवति त प्रतिहन्ता भवति युकत्यादिभिस्त निपषधयिता
इत्यथः२, वर्शवादिन प्रति आचारयांदीनां गुणग्राहकं प्रति बूं-
दयिता प्रशंसाकतुदंपब्र॒ुद्धिकरो भवति यथा-'"जा जाणइ ज-
स्स गुण, सा लाए तस्स आयरे कुणइ। ” तथा>-गुणिनि
“गुणकज्षो रमंत, नासुणशीलस्य गुणिनि परितापः । अतिराति
वनात् कमल. न ददुरस्त्वकवासऽप॥ १ ॥ तथा--“ गुशि-
नि ग्रुणज्ञा रमत, इतरः ` "` कस्तु वराकः | सरसिजपरि-
मलगरसिका. मधुपयुवा नतु वकः काकः ॥१॥ `` इत्यादिभिः
आपत्मनः स्वयं वृद्धा आचायादयस्तषां सवी ईङ्गताकारेः त
भाव त्वा कारक:
वर्ध ज्ञात्वा :। सत्तम त्यादि व्यक्षम। दशा०४आगे
वण्णादसि( ण् )-वणाद।शनू- पु” । वरयत प्रशस्यत यन स
वणः । साथुकारादेशिनि वणाभिर्लापणि, अचा० १ श्रु० ५
अआ० ३ उ०।
वष्याबास-वष्याबास-पु० । वरः ऋछाघरा यथावस्थितखकू-
पकीर्तन तस्यावासा-- निवासा अ्रन्थपद्धतिरूपा वर्णावासः।
वरकनिवश, जी० ३ प्रति ४ अधि० | आ० म० | रा०।
प्रति० । भ० ।
£ = [क =
वणकव्यास-पुं० | चणक विस्तर, भ० १४ श० ६ उ०।
व्षिय-वणित- त्रि । प्ररूपिते, उत्त० ५ श्र० । उपदिष्ट, ्रा- ` `
व० १ श्र०। कथित, दश० १० आ० । व्याख्यात,विश० । नि० ३.
चू० । सूत्र | अनु० । स्था० । | आचा०। |
वांगऊण -वरीयित्वा-खी° ¦ |
वत्पतुं -वशयतुम्- अन्य । प्रतिपादयितुमित्यर्थ, आ० म० {द
२ ० ।
व्याख्यायत्यर्थ, व्य० ३ उ० ।
$
११
वॉणह-वबृष्ण पु? । “ स्वृच्म-श्च-प्ण-स्न-ह्-ह्-च्णा रह
॥ ८। २। ७५॥ हात संयुक्रस्य प्णभागस्य णकाराक्रान्ता पका
हकारः । प्रा० | अन्थक्रव्राष्णनरााच्प, पा० ।
वबाह्-952 । अभ्यन्तर दक्षिणाया: कृष्णराजवराचनावमानत्रा- पर
सिनि लाकान्तिकदेवे, स्था० ८ ठा० ३ उ०। अम्नों, ज्ञाण। `
० मन । प्रव०। `` धूमद्धआ हुआवहा वह्ावस् पावझआ `
सिरी वण्द्दी ” पाइ० ना० द गाथा ।
वशिहदसा-वृष्णिद्शा-स्त्री० | नासन््युत्तरपदस्प वे" ति
लक्तणवशादा दिषद स्यान्धकशब्द्रूपस्य लापः । तताभ्यं
परिपरणः शब्दः अन्धकवृष्णिद्शा इति, श्रय चान्व्धः--
अन्धकवृष्णिनराधिपकुले य जातास्तशपि अन्धकवृष्यः| |
तथां अचस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षशा यास्
गरन्थपरद्धातिषु वरन्त ता अन्धकर्ाष्णदशाः.अथवा-श्न्धक|
वप्णिवक्क्यताप्रतिपादिका दशाः-अध्ययना।न श्रन्धक््
आह च चुूरिंगक्त-- अधकवरिहण
श्नन्धसदलावाश्रा चरिहणो भणिया, तासि
द्शा
ष्णिदशाः ,
ज कुल
चरिये गनी सिज्कणा य. जत्थ भिया ता वरिहिदासा-
आओ, दस त्ति अवस्था अज्मयणा वा `
कव्ष्णिनराधिपवक्लब्यता प्रतिपादके ग्रन्थविशष, पा । निर
ग स्वनामख्यात पञ्चमवगे, नि” `
यदुप्रधान, ज्ञा० ६ थ्रु० {६
इति । न° । अन्ध-
वणि पुंगव - वृष्णि पङ्क ` प”
हि.
मिकुमारः । उत्त० २२ आ० ।
वतन-वदन-न । “ तदास्तः ” ॥
प्रशाच्या दस्य तः | मुख, ध्रा० ४ पाद ।
वात-वाच्--आा० । द्रव्य श्रुत, भ० १६ श० ३ उ०।
८ । ४ । ३०७ ॥ इति
हु रत्था श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ आअ० ३ उ०।
बतु -दशो-निवद, दे० ना० ७ वर्ग ३२ गाथा ।
| बत्त-उ्यक्त-त्रि० | प्रकट, द्वा० ११ द्वा० । प्रति० | स्फुट,विशे०।
श्रा० म० । स्पष्ट, जी० १ प्रति० । सूत्र० । आभि-
रणत्वात् । ( स्था० ७ ठा ३ उ०। ) स्फुटार्थ सूत्रादो, अनु०।
पञ्चमहाभूतं प्रति सन्दिहाने श्रीवीराजिनन्द्रसमीपे प्रव-
जिते स्वनामख्यात चतुथे गणधर, विश० ।
अध चतुधस्य व्यज्कगणधरस्य वक्कव्यतामभिधित्खुराद-
>, = ¢ #~~ € ५
ते पत्वरण साउ, वयत्तु आगच्छइ जिणसगासं |
वच्चामि ण वदामि, वदित्ता पञ्जुवासामि ॥ १६८७ ॥
एवं वचिन्त्य व्यक्ननामा द्वि
समोपम , तता भगवता कि कृतम् ? इत्याह--
्राभट्रा य जिरणं, जाइ-जरा-मरणविप्पप्रुकेण ।
नाम य गोत्तण य, सव्वण्णू सव्वद रिसीणं।१६८८॥
व्याख्या पूवर्वादति ॥ १६८८ ॥
अथ भाप्यम्-
भृएसु तुज्कम सका, सुत्रिणय - माञ्रोवमाई होज तति ।
न वियारिजेताई, भव।त ज सव्वहा जुति ॥१६६०॥
भूयाइसंसयाओ, जीवाइसु का कह त्ति ते बुद्धी |
तं सव्वसुष्पमकी, मन्नमि मायोवमं लोय ॥ १६६१ ॥
आयुप्मन भूतेषु मवतः संदेहः, यतः स्वप्नोपमानि
मायापनानि चतानि भवयुरिति त्व मन्यस । यथा हि स्वप्न
किल काश्चद् निः स्वापि निजग्रहाह़ण गजघटा--त॒रगनि
वह-माणिकनकराश्यादिकमभूतमाप पश्यति,मायायां चन्द्र-
ज्ञालावलसितरूपायामविद्यमानमपि कनक-मांण-मोक्िक-
रज्ञत-भाजनाऽऽराम-पुष्प-फलादिकं दश्यत, तथेतान्यपि
भूतान्यवे विधान्यवेति मन्यस, यद्-यस्माद् विचायमाणा-
न्यतानि सवध्य न काञ्चिद् युक्तिं भजन्त--सहन्त । भूतपु
च सशय जीव-पुराय-पापादिषु किल का वार्ता, भूतविका-
राधिष्ठानत्वात् ताम् ?. इति तव बुद्धिः । तस्मात् सर्वस्यापि
भूत-जःवादिवस्तुनस््वदनिप्रायणानावात् सर्वश॒न्यताशङ्ी |
त्व नरवश्चचम्राप लाक मायापम स्व्नन्द्रजालतस्य मन्यस
ईति ॥ ६६६० ॥ १६६१ ॥ विश० । ( युक्किश्चात्र व्यक्नचतोग- |
ता ` भाव ` शब्दे पञ्चमभागे ४६१ पृष्ठ व्यक्नीकृता । )
तदेव युक्तिमः शून्यतामपाकृत्य भगवान्
अप शिक्षयन्नाह--
वतिमिस्स-व्यतिमिश्र-त्रि० | सांम्मलित , “ वतिमिस्सं |
| ब्यक्कार्थे, प्रतिपादितार्थ, घा० १ विव०। श्रक्तरस्वरस्फुटक- |
जापाध्यायः समागता भगवतः
। ( ८३१ }
वण्हिपुंगव 0 अभिध्रानराजन्द्र वत्तव्चया
आ० | ` भवणाआ णिग्गओ वरिदपुगवा ` ब्रष्णिपुगवोने- तस्माद् भूभ-जल-वद्धिषु प्रयक्षु तव सोम्य ! संशया न
| युक्कः, यथा स्वस्वरूप | तथा, अनिला 5पि प्रत्यन्त एव, गुण
| प्रत्यक्त्वात् , घटवत् , ततस्तत्राप न सशयो युक्रः । भच-
| तुवा, अनिला -55काशयोरप्रत्यक्तत्वन सशयः, नथा ऽप्यस्य
न युक्रः, अ्नुमार्नासद्धन्वात्तयांराति ॥ १७४८ ॥
तत्रानिलविषयं तावदनुभानमाह--
अत्थि अदिस्सापाइय, फरिसर्णोईणं गुणी गुणत्तणओ ।
रूवस्स घडा व्व गुणी, जो तेनि स(ऽनिलो नाम ।१७४६।
य पत ऽदश्यन केनाप्यापादिता-जनिताः स्पश।दयस्त वि-
.द्यमानगु) यनः, गुणव्वात् , , आदिशब्दाच्छुब्दस्वास्थ्य-कम्पा
गृह्मन्त, णतप हि वायुप्रभवाद् वायगुणा एवं इह य
गुणास्त वद्यमानगुणना दष्टाः, यथा घररूपादयः, यश्चषां
स्पशगब्दस्वास्थ्यकम्पानां गुणो स वायुः, तस्मादस्त्यसा-
विति ॥ १७४६ ॥
आकाशसाधकमनुमानमाह--
आत्थ वसहाइभाण, तोयस्स षडा व्व ग्रात्तमत्ताआ ।
ज भूयाण माण, त वोम वत्त ! सुब्वत्त ॥| १७४० ॥
श्रास्त वखुधा--जला--४नल-वायूनां भाजनमाधारः, म्
तिमच्त्वात् , तायस्य घटवत् , यच्च तां माजन तदायुप्मन!
व्यक्त ! खुव्यक्कं व्यामेति । यदि च-साध्येकदशतां दान्तस्य
काश्चत् प्रर्यात, तदेत्थे प्रयाग:--विद्यमानभाजना पृथिवी-
मृतत्वात् , तायवत् । तथा-आपः, तजावत्। तजश्च
वायुवत् , वायुश्र, पृथिवीवादिति ॥ १७५० ॥ विश॒० ।
वृत्त-ात्र० | ्रातक्रान्त, दश० १ अ०। प्रव०।
व्याप्त” । पूण, श्रा० म० १ अ०।
वत्तक्खा- व्यक्त्यख्या-खी° ।
ध० २ श्रधि०।
वत्तण-वत्तन-न० । पालन.सूत्र० १ श्रु० ७ अ० | अन्यत्र पात-
न, आचा० २ श्रु० ३ चू० ।
वत्तगय-वत्तनक -न० । बालानामधीयानानां
विश० ।
वत्तणा- वर्तना-खी० । नवपुराणादिना रूपेणाभवने, विशे० ।
| पं० चू० । प्राग्गरदीतस्येव सूजादेरस्थिरस्य गुणन्, आ० म०१
अ० | च्रा० चू० |
वत्तगा-वत्तना-सख्रा० । माग, वश०।
| वत्तजुवत्त-वृत्तानुबृत्त-न० । वृत्तिमतिऋान्तमनु॒वर्त्तमानन
ज्ञायत इति वृत्तानुवृत्तम । वत्तं मानदेतुके भूतानुमान
दश० १ अ० |
वत्तद्ध-दशी- खुन्दर बहुशिक्षिते च, दे° ना० ७ वर्ग ८५ गाथा
वत्तव्व- वक्रच्य-त्र० | कथायतव्य, सूत्र १ श्रु० & आ० ।
| विश० । प्रज्ञा० । प्रश्च० ४
| वत्तव्वया- वक्रव्यता- खी० । श्रध्ययनादिषु प्रत्यवय यथा
| सम्भवं प्रतिनियतार्थकथन ।
गै
एकस्याईतः प्रतिष्ठायाम् ,
वातोकरण ,
४
अनुवक्नव्यताद्वारं निरूपयितुमाह--
से कि तं बत्तव्वया १, वत्तव्यया तिविद्या पप्मत्ता, तं जहा-
पत्रक्खेसु न जुत्तो, तुह भूमि-जला-5नलेसु संदेहो । |
अनिल।55गाससु भव्रे,से5वि न जुत्तो5णुमाणाओ। १७४८। |
( ८३२ 2
च्रभिधानराजन्द्रः ।
वेत्तव्वया
ससमयवत्तव्वया, परसमयव्रत्तव्वया, ससमयपरसमयवत्त-
व्वया | से कि तं ससमयवत्तव्वया ?, २ जत्थ णे ससमए
आधविज़इ पप्पविञ्जई परूविज्ञर दंसिज्जड निर्देसिज्जइ
उवद सिज्जड सतं ससमयवत्तव्वया | स कि ते परसमयव- |
परसमयवत्तव्वया जत्थ णं परसमए आधविजइ ,
तव्वया?,
० जाव उवदं मिज्जई, सतं परसमयवत्तव्यया | से कि तं
ससमयपरसमयवत्तव्वया ?, सममयपरसमयवक्तव्वया ज- |
त्थ णं ससमए परसमए आधविज्जइ ०जाव उवदंसिजइ,
सतं ससमयपरसमयवत्तव्वया । ( सू०-१५१ >८ )
' स कि ते वत्तव्वया ` इत्यादि, तत्राध्ययनादिषु प्रत्यवयवं
यथासम्भव प्र्तिनियताथक्थन वक्तव्यता इयं च त्राविधा-
स्वसमयादिभदात् , तत्र यस्यां शमिति वाक्यालङ्कार स्वस-
मयः-स्वासद्धान्तः श्राख्यायते यथा पञ्च श्रस्तिकायाः.तद्य
था--धमास्स्तिकाय इत्यादि, तथा पज्ञाप्यते यथा गतिलक्ष-
णो धमास्तिकाय इत्याद, तथा--प्ररूप्यत यथा स॒ पवास-
ख्यातप्रदशात्मकादिस्वरूपः, तथां दश्यत दृष्टान्तद्वारण यथा
मत्स्यानां गत्युपष्टम्मक जर्लामव्यादि. तथा निर्दिश्यत उपन- |
यद्वारेण यथा तधवेषा ऽपि जीवपुद्धलानां गत्युपष्टम्भक इत्या
दि, तदवे दिग्मार्रपदरानन व्याख्यातमिदम् , सृज्रावराधता.
ऽन्यथाञऽपि व्याख्येयमिति | सयं स्वसमयवङ्कव्यता । परसम
यवक्गव्यता तु यस्यां परसमय श्राख्यायत इत्यादि, यथासू
अकृताह्वप्रथमाध्यय ने---
सान्त पञ्चे महब्भूया, इहमंगेसलि आहिया ।
पुढवी आऊ तङ (य), वाऊ आगासपश्चमा॥ २ ॥
एए पञ्च सहब्भूया, तब्भो एगो क्षि आहिया।
अह तसि जिणासेणे, विणासों होइ दहिणो ॥२॥” इत्यादि,
स्यच स्छ | कह्व यस्य सूत्रकद्व॒त्तिका र लिस्ित पवाय भावा-
थे:एकेषां नास्तकानां स्वकीयाप्तन आहितान्याख्यातानि इह-
लाक् सन्ति-विद्यन्ते पश्च समस्तलाक्र व्यापकत्वान्महा भूता-
नि तान्येवाह-्पाथिवीत्यादि पश्चमृतव्यतिरक्कजीर्वानषधाथ-
माह-'एए पंच' त्यादि एतानि-अनन्तरोक्कानि पृथिव्यादानि
यानि पञ्च महाभूतानि ' तभ्य इति तेभ्यः-कायाकारपरिण-
तभ्य: पकः-कश्चित्किच्िदपो भूताव्यतिरिक्तः आत्मा भवति,
नतु भूतव्यतिरिक्ः परलाकयायीव्येवे ते ` श्रादिय ` त्ति
आख्यातवन्तः | अथ तषां भूतानां विन।शन देदिना-जी
चस्य विनाशा भर्वात तदब्शार्तारङ्कत्वादेवतव्यवं लोकायत-
५तध्रतिप।दनपरत्वात् परसमयवक्कव्यतयमुच्यत--श्रा-
ख यत इत्यादि । पदानां तु विभागः पृवोङ्ाचुनारेण स्ववु-
दबा कायः । सये परसमयवक्कव्यता स्वसमयपरसमयवक्घ-
व्यता पुनयत्र स्वसमयः परसमयश्च श्रा ख्यायत, यथा--
“` श्यागारमावसन्ता वा, आरणणा वावि पठ्वया ।
इमे दरिस्रणमावन्ना, सव्वदुक्खा विमुच्चइ ॥१॥ `"
व्याख्या-आगा२-गह तत्र $ऽवसन्ता गृहस्था इ
त्यथः, आरणया बा-तापलाद्यः ` पव्वइय' ति प्रनजिताश्च-
शाक्यादयः इदम-अस्मदीये मतमापन्ना-आश्षि ताः- सवदुः-
२4५4] (व मुच्यन्त इत्वं यदा सांख्यादयः प्रतिपादयान्त
तदयं परलमयवक्कन्धता, यदा तु जनास्तदा स्वस-
इत्यादि ,
~ पविद्ठा, तम्हा दुविहा वत्तव्वया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया,
मयवक्रव्यता, ततश्चासौ स्वसमयपरसमयवह त्यत ।
अथ वक्रव्यतामव नयेर्विचारयन्नाह-- ४३
इयाणि को णओ कं वत्तव्वयं इच्छह १, तत्थ
संगहववहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छति, तं जहा ससमयव-
त्तव्वयं परसमयवक्तव्वयं ससमयपरसमयवत्तव्वय, उज्जू-
सुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छ, तं जहा--ससमयवत्तच्वथं
परस मयवनत्तव्वयं, तत्थ णं ॒जा सा ससमयवत्तव्वया सा |
ससमयं पविट्ठा, जा सा परसमयवत्तव्वया सा परसमर्य
तिष्ठि सदणया एगं ससमयवत्तव्वयं इच्छति,नत्थि परसमय
वत्तव्वया,कम्हा १, जम्हा परसमए अण अहेऊ असन्भवि
अआकिरिए उम्मग्गे अणुवएसे मिच्छादंसणामाते कट्, ग ।
सव्वा ससमयवत्तव्वया, णत्थि परसमयवत्तव्वया त
ससमयपरसमयवत्तव्वया । सतं वत्तव्वया । ( ष्°- १५१) |
‹ इयाशे का नओ ` इत्यादि, श्रत्र नेगमव्यवहारों जिबि-
धामपि वक्कव्यतामिच्छुतः, नेगमस्यानकगमत्वाद् व्यवहा-
र (पर) स्य तु लाकव्यवहारपरत्वाल्लाके च सर्वप्रकाराणां
रूढत्वादिति भावः । ऋजुसत्रस्तु विशद्ध तरत्वादनाद्यामव
द्विविधां वक्तव्यतामिच्छति, स्वपरसमयवक्रव्यतान
युक्रमाद ` तत्थ णे जा सा इत्यादि. ठतीयव्यक्कव्यताभद्
याऽसौ स्वसमयवक्रव्यता गीयत सा स्वसमये प्रविष्टा, कां
ऽथः ?, प्रथम वक्रव्यताभदं अन्तभूता इत्यथः | या तु परस
मयवक्व्यता सा परसमयं प्रावष्टा इदमत्र हृदयम्- द्वितीय
वक्कव्यताभदे श्रन्तभाविता इत्यथः, ततश्चाभवरूपव-
क्रल्यतायाः प्रस्तुतनयमत $ सत्वात् द्विविधैव वक्गव्यता न `
च्रिविधति. भावः । सग्रहस्तु सामान्यवादिनगमान्तगै-
तत्वेन विवन्तितत्वात् सूत्रगतिवेचित्रयाद्या न पृथ
गुक्क इति । यः शब्दनयाः--शब्दसमभिरूदेवंभूताः
शुद्धतमत्वादकां स्वसमयवङ्कव्यतामिच्छन्ति, नास्ति परस-
मयवङ्कव्यता इति मन्यन्त,कस्मादिवयाद--यस्मात्परसमयोःऽ
नथः, इत्यादि । इत्थ चद याजना काया-- नास्ति परसमयव-
क्रव्यता, परसमयस्यानथत्वादिव्यादि, अनर्थत्वं परसमयस्य
नास्त्यवात्मलयनथप्रतिपादकल्वाद् , आत्मनो नास्तिन्वस्य
चानथत्वमात्माभावे तत्प्रतिषधानुपपत्तः। उक्तं च-"“जा चि~
तइ सरीरे, नत्थि अहे स पव होइ जीवो त्ति। न हु जीवम्मि
श्रसत, ससयउप्पायआ श्रा ॥ १॥ `` इत्याद्यन्यदष्यभ्युद्य
म् । अरदेतुत्व च परसमयस्य देत्वाभासबलेन प्रवृत्तः, यथा
नास्त्यवात्मा अत्यन्तानुपलब्धः । हत्वा मासश्चायं ज्ञानादेस्त-
दृगुणस्योपलब्येः, उक्त च--* नाणाईण गुणाणे, अणुभवओ
दाइ जतुणा सत्ता । जह रूवाइगुणाणे, उवलभाश्ना घड़ाइणं
॥ ६ ॥ ” इत्यादि प्रागवाक्कर्मिति । श्रसद्धावत्वं चैकान्तक्तण-
भङ्गासद्धूताथौभिघधायकल्वाद् , एकान्तक्तषणभङ्गादश्चासद्भूत- | ।
त्व युक्नविरोधात्तथाहि--'' धम्माधम्मुवएसा , कयाकर्य
परभवाइगमणं च । सब्या वि हु लायठेइ, न घडइ ३
रयाम्मि ॥ १॥” इत्यादि, अक्रियात्वं चेकान्तशृन्यताध्रतिषा-
दनात् , स्वशन्यतायां च ्रयावताऽमावेन क्रियाया श्रसं- |.
भवाद् , उक्ल च--"" सन्वं खुन्ने(त जयं, पडिवन्ने जदि तेऽ
बत्तव्वा | सुन्नाभिहा णकिरिया, कत्त रभावेण कड घडडई ॥१॥
इत्यादि , उन्मागेत्व' परस्परविराधस्थाणवाद्याकुलत्वात् ,
तथाहि--' न हिस्यात्सवभूतानि, स्थावराणि चराणि च |
श्रान्मवत्सवभूतानि, यः पश्यति स धार्म्मिकः ॥ ६॥ ` इ-
त्याद्यभिधाय पुनरपि-- षट् सहस्राणि युञ्यन्त, पशनां म-
ध्यम ऽदनि । अश्वमंघस्य वचना- न्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभि
॥१॥” इत्यादि. प्रतिपादयन्तीति अनुपदर्शित्वे चकान्तत्तण-
भक्लादिवादिना महित 5पि प्रवतंकत्वात्तदुक़्र--' सव क्ष-
खिकमिन्यतद् , ज्ञात्वा को न प्रवतते । विषयादों विपाका
त्र. न भावीति विनिश्चयाद् ॥ १॥ ” इत्यादि, यतश्चवे तता
मिथ्यादशनम् . इति ततश्च मिथ्यादंशनमिति रृत्वा नास्ति
चरसमयवक्रव्यतति वतत, एव सांख्यादिसमयानामप्यनथ-
ल्वादियोजना स्वबद्ध्ा कायात | तस्मात्सवी स्वसमयवक्कब्य-
नैव, लाकर प्रसिद्धानपि परसमयान् स्यात्पदलाचछुर्नानर-
चक्षतया दुनयत्वादसच्चनेत नयाः प्रतिपद्यन्त हात भावः।
स्यात्पदलाच्छनसापत्ततायां तु स्वसमयवक्रव्यतान्तभावं
एव । ध्राक्र च महामतिना--* नयास्तव स्यात्पदलाच्छ्िता-
ङ्म, रसापदिग्धा इव लाहधातवः । भवन्त्याभप्रतगुणा यत-
स्तता, भवन्तमायाः प्रणता हितैषिणः ॥ १ ॥ ” इत्यादि, सय
वक्कव्यतात नगमनम् | अनु० । व्य० | झआ० म० । न० चूु2]
वत्ता-वाती- खी०। "' तस्याऽधू सीद "' ॥ ८। २। ३० ॥ इति |
तस्य त्ता धूत दित्वात् पय्यदस्तः । प्रा० । न० । वृति-अण।
आरोग्य,निरामय, वृत्तिशील च । त्रि० । दुगीयाम् , कृषिक
मणि, वृत्तो, जनश्रतों, कालकर्तके, भूतनाशन च । स्त्री० ।
अस्मिन् महामोहमये कटाह, सू्याभ्मिना राकिदिनेन्धनन ।
मासतुदर्वो परि घटनेन भृतानि कालः पचतीति वार्ता ॥ १॥”
इति भारतम् । वाच ० । द्व्यगन्धानुभवे वार्ता-गन्धलसवित्तिः
चचिशब्दन तान्त्रक्या परिभाषया घ्राणन्द्रियमुच्यत,
वत्तेमान गन्धविषय प्रवत्तत इति कृत्वा बृत्तो- घ्राणेन्द्रिय
भवा वार्ता यतव्यकर्षा द्विव्या गन्धोाऽनुभूयत । द्वा० २६ द्वा० ।
सत्रब्रलनके, तं० । वृत्तान्ते, ` बुत्तता य उच्चता, वत्ता य प-
उक्ति नामाद ` | पाइ० ना० ६६ गाथा ।
वक्तु-त्रि० । व्याख्यातरि, विपा० २ श्रु १ अ०।
| चत्तार-दशी-गवित, दे° ना० वर्ग ४१ गाथा |
वत्ति-व्यक्ति सख्री० । भावः विशे० । मद, भदो--विशेष इत्य- |
नधान्तरम् । स्था० १० ठा० ३ उ० । सामान्याश्रये वस्तुनि, |
आ० म० १ श्र० । सम्म०।
वृत्ति-स्री० । वेने, स्था० ४ ठा० १ उ० । सूत्र०।
उक्ना-ल्ली० | अभिहितायाम् , “ असमिक्खा वत्ती कता ``
सूत्र १ श्रु० ३ अ० ३ उ०।
वर्षि-स्त्री० | दशायाम् , भ० ८ श० ६ उ०।
वत्तिश् वर्तित चि । “्तस्याधूत्तादों” ॥ ८। २
धूतादिपर्युदासान्न टः | प्रा० | पुजीकृते, आव० ४ अ०। धू
223४ >> >>) च । विश० । |
वातिक्-नत० । वृत्तः सूत्रविवरणस्य व्याख्याने भाष्यम् वा- |
तिकम् । सूत्रविवरणे, विशे० । |
२०६
३० ॥ इति
( ८३३ )
अभिधानराजन्द्रः।
[4
चात्तञ्ज
अथ वातिकस्वरूपमाद-
वित्तीए वक्खाणं, वत्तियमिह सव्वपज्ञवहिं वा |
वित्ताओं वा जाय, जम्मि व जह वत्तए सुत्त ॥१४२२॥
वृत्तः सूत्रविवरणस्य व्याख्यान भाष्ये ,वार्तिकमुच्यत ।
यथदमव विशपावश्यकम् । अथवा-उत्कृष्ट श्र तवता गण-
घरादेभगवतः सर्वप्यायेयद् व्याख्यान तद्धार्तिकस । वत्ता
सूत्रविवरणाद्यदायात सूृत्राथोनुकथनरूप तद्धार्तिकम् . य-
दि बा-यस्मिन्सूत्र यथा वतत सूत्रस्यवापरि गुरूपारम्प
यणायाते व्याख्यान तद्धार्तिकमिति ।
एवं च सति यस्य संवन्ध व्याख्याने वार्तिकमुच्यत,
तदाह-
उक्रासयसुयनाणी, निच्छयआओ वत्तियं वियाणाइ ।
जा वा जुगप्पहाणा,तओ व जो गिणहए सव्यं।।१४२३॥
उत्टछृ्टश्रुतज्ञान्यव निश्चयनयमतन तावहार्तिक करते
विजानाति, नान्यः। या वा यस्मिन् युग प्रधानों भद्र-
वाहुस्वाम्यादिमवनि, तता क युगप्रधानाद्यः स्थृलमद्र-
स्वाम्यादिः सव श्रतं ग्रृह्णाति स वार्तिककांदात | घिश०।
आव०। च्रा० म० । आ० चू० | वृ०। ते० ।
संप्राति मड़खदष्टान्तापतं वार्तिकद्वारमाद--
सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमों विभासेइ ।
चउरो खलु मखसुया, वर्त्ताकरणम्मि आहरण ।२०२॥
यः सामायिकस्यार्थ पूवध्रश्चतुदशपूवधारी सन् समस्तम
इति पादपूरण विभाषत यतः परं किमपि न वक्कव्यमस्ति स
व्यक्तिकरा वासिककर इत्यकाशः,तस्मिश्च व्यक्तिकरण चत्वा-
रः खलु मङ्खपुत्रा आहरणानि।
तान्यवाद--
फलभिक्रगे हो हिं, बिदओ तइओ य वाइयत्थेणं ।
तिन्नि वि अकुडंबभरा,तिंगजोगचउत्थ भरई य ॥२०३॥
चत्वारा मङ्खास्तपामकरः फलकं ग्रहीत्वा हिर्डत न गाथा
उच्चरति नापि वाचकमप्यथं भाषत स न किचिल्लभन,
द्वितीया न फलकं गृह्णाति कवले गाथाः पठन् दिरडत साऽ
पिन किचिल्लभत.तृतीया न फलकं गृह्णाति न गाथा उच्चरनि
परं वाचकमप्यर्थ भाषत सोऽपि न किचिल्लभते, चतुथस्त्
फलकं गृहीत्वा गाथाः पटंश्च तासामर्थ च भाषमाणा हि-
रडत स सर्वत्र लभत । आद्यासत्रयः कुटुम्बाभराश्चतुर्थस्िक-
योगे त्रिकयोगलंप्रयुक्रः कुटुम्बभ रः,एप दष्रान्तः, अयमथोपन
यः व्यक्तावपि चत्वारा भङ्गा एकस्य सूत्रमायाति नाथीः,द्विती-
यस्याथों न सूत्रम् ,तृतीयस्य सूत्रमप्यायाति अर्थो 5पि चतथ
स्य न सूत्र नाप्यर्थः। अत्र द्वावाद्यो चतुर्थश्चाद्यत्रिमङ्ख
पुरुषवत् न मोत्तलक्तणस्वकार्यप्रसाघकाः, तृतीयस्तु चतु-
थमङ्खवत् शरात्मना मोक्षप्रसाधक
आह संप्रति कीदृशा व्यक्तिकारक इत्यत श्राट-
जे जम्मि युगे पवरा, तेसि सगासम्मि जेण उग्गहिअं |
परिवाडीण पमाणं, वुच्छे विरत्तकरों खलु ॥२०४॥
य यास्मन् युग प्रतरराः-प्रधानास्तषा सकाश-समी पे यन
ग्रहणा-धारणासमथनावगृहात काताभ परिपा्ीमि रेत
(. ८३४ )
यत्ति श्रनिधानगाजन्द्रः।
आह परिपाटीनां पमाणमग्र वच्य स खलु तदा व्यक्तिकर:।
ब्रृ० १ उ० ९ प्रक |
वत्तिअयर वातिककर -पुं | प्रज्ञातिशयवत्तया व्याख्यानाद-
धिक भाषमाणे, विशः ।
व्यत्तिकर पु“ । निःरवशपरपि व्याख्याप्रकारेव्याख्ययप्राति-
पादनक्राति. चश० ।
वत्तिणी-वर्तिनी -खो० । माग, “ मग्गा पथा सरणी अद्धारं
वत्तिणी प्रहा पयवी `` | पाइ० ना? ४२ गाथा |
वत्तिपइद्ठा -व्यक्निप्रतिष्ठ। -ख्लो० । यस्तीर्थक्रयदा किल तस्थ
तदाद्रात समयविद इव्युक्नतक्त ए वतमानतीथकरप्रतिष्ठाप-
न. जी० १ प्रति | प१०।
वत्तिय-बर्तित-त्रि० । बृत्तीभूत, तए ण साली पत्तिया
वत्तिया गब्मिया परुूगओर ` ` वतिय ` त्ति ब्रीहीणां पत्राणि |
मध्यशलाकार्पारवप्रनन नालरूपतया च्रत्तानि भवन्ति,
तद्ध्ततया जातव्रत्त्वाद् वर्तिताः. शाखादीनां वा समतया
च्रत्तीभूताः सन्ता वतिता अभिधीयन्त । ज्ञा० १ श्रु०७ आ० |
वत्तियामय-वार्तिकामृत-न० । स्वनामख्यात अध्यात्मग्रन्थ-
वित्तात्पुत्रः प्रियपुत्रा त्पिगडाः पिएडात्त्थन्द्रिय म। इन्द्रिय भ्यः
परः प्राण: .प्राणादात्मा परः स्मतः. इत तत्रत्यं वचनम्।ती०।
वत्ती -दशी- सीख, द० ना० ७ वग ३१ गाधा ।
वत्तल वर्तुल -त्रि० । ब्रत, स्था० ४ ठा० २ उ०।
वत्तत-वतेयत् त्र । णता नयात, भ० ८ श० ७ उ०।
वत्थ-वक्ञम्-न० । हृदथ ,। “ हारविराइयरइयवत्था ”
हारेण विराजमानन, रचित-शाभिते वक्ता यस्य स हारवि-
राजमानरचितवत्ताः | रा०।
वद न० । वस्त ऽनर्नाति वस्थ॒प् | वासांसि, स्था० ६ ठा
५४
साटकादों, उत्त २ आ०। चीनांशुक्रादा, सूत्र० १ श्रु० ३ रे
अ० २ उ> | आए मण | अम्वर, सूत्र० १ श्रु० ४ अ० २उ०। |
^“ वत्थगन्धरमलकारा इत्थीआ सयरणाण य ” अनु? | दशः।
(१) पपणासमितिवस्रगता प्रतिपाद्यत, इत्यनन सम्बन्धना-
यातस्याध्ययनस्य चत्वायनुयागद्वागाण उपक्रमादीन
भवन्ति, तत्रापक्रमान्तगतो धध्ययनार्थाधिकारा वस्प्रषणाप्र-
तपादात, उद्दशाथाधका रदशनाथ त॒ नयरुक्क कार आह-- |
पद्म गहण बाएं, धरण पगय तु दव्यवत्थण |
एमव हाई पाये, भव पायं तु गुणधारी ॥ ३१५ ॥
प्रथम उद्दशके वस्त्रग्नहण वच्रिः प्रतिपादितः, द्वितीय तु
धरणविधिरिति । नामनिष्पन्न तु निक्षप वस्रपणति , तत्र |
वस्त्रस्य नामादिश्चतुर्दिधा निक्षप:, तत्रापि नामस्थापन क्षु- |
गण । द्रव्यवस्त्र त्रिधा, तद्यथा-एकेन्द्रियानिष्पन्न कार्पाश
कादि , विकलान्द्रयनिप्पन्न चीनांशुकाद , पञ्चन्द्रियानप्पन्न
कम्बलग्त्नाद । भाववस्र त्वष्टदशशी लाइसहस्लाणीति ।
इढ त द्रव्यवस्त्रगाधिकारः , तदाह नियुक्चषिकारः--' पगये
तु दव्ववत्थरं ` ति । वस्म्रस्यव पात्रस्थापि निक्षप इति म-
न््यमाना धत्रैव पातस्यापि निक्षपातिनिर्देश निय्राक्लफारोगा
थापश्चार्डनाह -- णवमव ` इति वख्वन्पात्रस्पापि चतुर्ति-
१{-अयमनुवाद। अ.4 र! तुर ध्रा |
धा निक्षपः, तत्र द्रव्यपात्रमकन्द्रियादिनिष्पन्नम् , मा
साधुरव गुणधयाराति । आचा० २ श्रु० ६चू०५अअ० १
श्रथ भूयाऽपि परः प्ररयति--
किं लक्खणे अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाशं । _
लक्खणमिच्छति गिही, धणधन्न कोसपरिवुड्डी ॥२७६॥
अस्माकं सर्वस्माद्धनधान्याद्यभावात्तत्परिग्रहान्निवृत्तानां
पापाल्प्राणातिपातादिनिवरत्तानां कि वत्रादिलक्तरनान्वेषि-
तन किश्चिदित्यथः, य तु गृहिणः सारम्भाः सपरिग्रहास्तन
धनधान्याद्यभावान्न किमपि च्रद्धि प्रापणीयमश्नुवन्ति।
परस्याभिप्राय सूँरिराह--
(०४ ५. क 4
लक्खणहाणा उवही, उवहणता णाणदसशणतचारत्त |
तम्हा लक्खणजुत्ता, गच्छ दमएण ददता ॥ २७७ ॥
लक्तणेः-प्रशस्तवषसस्थानादिभिर्टौन उपधिः साधूनां ज्ञा-
नदशनचार ाराय॒पटन्ति, तस्माट्लक्तषणयुक्रा ऽसो धारयि
तव्यः, तन हि धार्यमाणन गच्छ महती ज्ञानादिस्फातिख्प-
जायत । तथा चात्र द्रमकेण दण्ान्तः | बृ ३ उ० । ( पुंसाँ
वस्त्रद्यये स्रीणां च चस्रत्रय विना देवपूजादि न कल्पत इतिं
चइय ` शब्द ततीयभाग ६२७६ पृष्ठ गतम् । ) "च
( २ ) वसख्राण जङ्कादीनि-
कप्पति निर्ग्गथाण वा णिग्गंथीण वा तओ वत्थाह् धा-
रित्तए वा परिहरित्तते वा, तं जहा-जमित भभिते खो-
भित । ( सू०- १७००८ ) स्था० ३ ठा० ३ उ०।
कप्पइ निग्गथाण वा निग्गंथीण वा पञ्च वत्थाई धारि
त्तषए वा परिहरित्तए वा, ते जहा-जगिए भङ्गए साणए
पोत्तिए तिरीडपट्टए णाम पंचमए । ( सू० ४४६ ) स्था”
५ ठा० ३ उ०।
अथास्य सूत्रस्य कः सबन्ध इत्याह--
उबगरणं वि य पगय,तस्स विभागो उ बितियचरिमम्मि।
आहारो वा वृत्ता, इदाणि उवहिस्स अधिकारो ॥ ६१॥
प्रयैसूत्र तावदुपकरणमव छतम् , अतस्तस्यापकरणस्य
विभागा विशषप्ररूपणे द्वितीयादेशकस्य चरम-अन्तितर
सत्रद्वय क्रियत । अथवा>-पूर्वसत्रेषु सप्रपश्ममाहार-उक्काः
इदानीं त्वस्मिन् सूत्र उपधरधिकारो यादृश उपधिग्रहीतुं
कर्पत तादक् प्रतिपाद्यत इति भावः, ।
ताईं विरूवरूवाइ, दति वत्थाणि ताणि वा वृत्तं ।
ससे जतीण देजा, तत्थ इमे पंच कप्पति ॥ ६२॥
अशथवा--तानि परिधानप्रावरणकम्बलादीनि-- रूपा व
सत्राणि यदा सागारिकप्रांतहारिकतया ददाति तदा ग्रही
त्वा प्रज्यकलाचायादिशषाणि भक्ता द्ररितानि यतीनां दद्यात् ,
तत्र तषु दीयमानपु श्रमूनि पञ्चे वस्त्राणि कल्पस्त अनत
सम्बन्धनायातस्यास्य ( सू ४४६ ) व्याख्या कल्पते निग्र
न्थानां वा निग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि धारयितु वा
~ धत्त पारभाक्रं तद्यथा--ज # माः--त्रसा स्तदवयव-+
निष्पन्नत्वाज्ञाङ्गामिकम् ,सत्र प्राकृतत्वात् मकारलोपः | भङ्गा
अतसी तन्मयं भाद्गि तम् ,सनकसूजमय-सानकम् , पोतकम्
#
[
|
है| चत्थ व
कार्पाभिकम् तिरी डा-व्रक्षविशषस्तस्य यः पटा वरल्कलक्षण |
तान्नप्पन्न तरडपटूक नाम पश्चकम | पष सूत्रसत्तपाथः ।
अथ विस्तरा भाष्यकारो विभणिषुराह--
जगमजायं जगिय, तं पुण विगलिंदियं व पंचिंदी ।
एककं पिय एत्तो, होति विभागण णगविह ॥ ६३ ॥
ज्ङ्गमभ्या जात जा क्षिकम
न्द्रिये वा अनयोमध्य एकेकमपि विभागन विद्यमानमनक-
विधे भवति ।
तद्यथा--
पटं सुवन्नमलप, असुगचीणंसुके य बिगलिदी ।
उप्मोट्टियमियलोमे, कते किट पचिदी ॥ ६४ ॥
* पट ` त पट्टसूत्रजम् ` सुवन्न `
, तत्पुनःविकलन्द्रियानिष्पन्न पञ्च- |
त्ति सुवप्वक्षं सूत्र कषां- |
चित् कृमीणां भवाति. तन्निष्पन्न सुवससत्रजम् , मलया नाम- |
देशस्तत्सभवे मलयजम् , अशकः-सछक्ष्णपट्टः तन्निष्पन्न
मेशकम् , चीनांशको नाम काशिक्ररोमाशणि तस्माद्यात चीनां- |
शकम् ,यद्वा- चीना नाम जनपद्स्तत्र सछच्षणतरः पट्स्त-
स्माद्यातं चीनांशुकम् | एतानि विकलन्द्ि यनिष्पन्नानि। तथा
श्रोगिकम् . ज्राष्टुकम् उष्टरोमज चति प्रतीतानि | कुतपा-
जिणे किट्टे तेषामवाणी रामादीनामवयवास्तान्नष्पन्न वस्त्र-
मपि किट्टम एतानि पश्चन्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि |
अथ भाङ्किकादीनि चत्वायेप्येकगाथया व्याचण्र--
अतसीवसीमादिउ, भज्डलियं साणकं तु सणवक्र ।
पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरीडप्टी ॥ ६५ ॥
अतसीमय वा ` वसि: त्ति वंशकरीलस्य मध्याद्यन्नि-
ष्पद्यत पटा एवमादिकं, भाङ्गिकम् यत्पुनः सनवृत्तवल्कात्
ज्ञात तद्वख्र सानकम् , ` पातकं कापासमयम् , तिरी उवृ्तव-
ल्काज्ञात तिरीडपट्टकम ।
पञ्च पस्वऊणं, पत्तेय गएहमाणसंतम्मि ।
कप्पामिगा य दोष्ि उ, उाध्यिय एको य परिभोगे ॥६६॥
एवं पञ्च वस्माणि प्ररूप्य सम्प्राति ग्रहणविधिराभिधीयत
प्रत्यकम केकस्य साधोः प्रयाग्याणि वख्राणि ग्रहतः सवि- |
दयमाने लाभ दौ कल्पो कार्पासिकों , एकरत्वोर्णिक-
इत्येव यत्र: कटपाः म्रहीतव्याः, परिभागश्चामीषां
बत्यमाणर्विधिना विधातव्यः | यथा पुरातनगाथा ।
अयेनामव विव॒णोति--
एकोनि सोत्ति दुन्नी,तिप्ि वि गणिज ओषि ए लहुओ ।
पाउरमाणा चवं, अतो मज्के व जति ओप्पि॥ ६७॥
एक आर्णिकः कल्पा, द्वा वा सोत्रिको प्रत्यकं ग्रहीतव्यो ।
श्रथ त्रीनाप कल्पत, सोत्रिकानोरशिंकान् वा गृह्णाति तता
मासलपघु. ध्रातरृरावन्नपि यद्यकमोर्णिकं प्राव्रुणाति तत एवमव
मासलघु. अन्तश्च शरीरानन्तरितं मध्य तावद् द्वयाः सो-
चरिकयामध्य भाग यद्यारिकरं प्रात्रणाति तदापि मासलघु ।
मव भावयात--
अन्भितरं च वाहि, वाहि अन्भितरं करमाण |
~ परिभागविवचास, आवजइ मामियं ल्य ॥ ६
अभ्यन्तरपारभाग्य सात्रिक कल्प वाद कुवन् प्रान्ररावन् ब-
८॥
(8३७०)
अआआभध्ानराजन्द्रः
त्थ
हः पारिभाग्यं चागिकरमभ्यन्तरं कुवन् परिभागव्यत्यास क
रातिः तत्र चापद्यत मासिकं लघुकम् | अतः सातिकमन्तः
प्रावुणुयात् ओर्रिणकं तु बहिंः, एप विधिपरिभाग उच्यते
अथ विधीयमान गुणानुपदशयति--
लप्पडयपणगरक्खा, भूसा उज्कायणा य परिहरिया |
सीतत्ताणं च कतं, खोम्मिय अन्भितरणं व ॥ ६६ ॥
श्रोरकर ह्यन्तःपरिभुञ्यमान पट्पादिकाः सगच्छुरन् ततः
सौत्रिकमन्तः प्रावरृवता प्रद पदिका राक्षिता भवान्ति. श्रोशिकं
चान्तः परिभुञ्यमान मलीमस भर्वात, तत्र॒ च पनकः
ससस्यत, अतो विधिपरिभोगे पनक्रस्यापि रक्षा कृता
भवति, सोत्रिकेण च बहिः प्रात्रतन विभूषा न भवत् , तथा
वखमह्निंशमपि परिभुज्यमान न मलीमसरम्भवति, , क-
न्दली तु परिभुज्यमाना मलीमसा जायत, मलामसतया
च दुरीन्धा । श्रता विधिपरिभागे ` उज्जायणा ` दुगन्धतः
साऽपि परिहृता, सोत्रिककल्पगभया च कम्बलिकया प्रा-
वियमाणया शीतत्राण कृत स्यात्, एतन कारणकलापन
क्तौमिक कार्पासिकं वस्त्रमभ्यन्तरे प्रावरणीयम् ।
अथ कापीसिकं न प्राप्यत ततः कि करतव्यमित्याद-
कप्पासियस्स असती, वागयपद्र य कासिवारे ये |
असती य उप्मियस्स, वागतकासयपद्र य ॥ ७० ॥
कार्पासिकस्याभाव--वल्कजम् , तस्याभाव पटरवस््रम् ,
तदपरापतौ कौशिकवसख्रमपि ग्रहीतव्यम , अथोर्णिक न
प्यते तत ओर्गिणकस्य स्थाने प्रथम वट्कजम्
ततः--कोशयम् , ततः पट्टमपि ग्राम् , यद्धा>पद्दशब्द-
नात्र घिरीटपत्रकमुच्यत । चशब्दादतसीबंशमयमापि ग्रही
व्यम् । { [0
अथ प्रावरण गणनाविधिमाह--
ण उप्पिय पाउरत तु ण्कं,
दोष्पी जतो खोम्मिय उप्तियं च।
दा सुत्ति अतो बहि उप्पिती ता,
दगाहि ओ व बाह परण || ७१ ॥
श्रोरिक कटपमकं न प्राव्रणुत अर्थादापन्न सात्रिकमपि
प्रावणुयात् . यदा तु ढो कट्पौ प्रावुणोति तदा न्नोमिकमन्त
द्वितीये पुनरा्िकं बहिः प्रावुणुयात् । त्रिषु कल्पपु प्रावग
तमि्रषुदढो सोत्रिकावन्तः एकं चार्पिक्रं वहिः प्रात्रणुयात्
श्मश्ोिकान् द्रवादीनपि प्रावरीतुमिच्छाति, ततो चिप्रभ्रत-
या ऽप्योजिका वादः सोजिकात्परतः प्रावरणीयाः ।
अथ वस्त्रग्रहण विधिमाह--
पश्चणह वत्थाणं, परिवामिगए य दाह गहणं तु ।
उप्परिवाडीगहण, पच्छित्त मग्गणा ६।इ || ७२ ॥
पशञ्चानां जाइकादीनां वस्त्राणां परियाख्या ग्रहण कर्तव्यम् ,
परिपाटी नाम कार्पीसकमार्णिक च, तदभाव वल्कजपट्टका-
दिकमित्यादिरनन्तगाक्कःक्रमः, तमुल्लङ्ध्यात्पारपार्श्चा ग्रहण
प्रायश्चित्तस्य मागणा भवात, तद्यथा -जप्रन्यमुपरधिसुत्परि-
पारया गृह्णाति पञ्च रात्रिन्द्वानि, मध्यम मासलघु उत्कृष्ट
चतुगुरुकम।
[क
( ८रेद६ १
आमिधानराजन्द्रः |
कत्थ
एतदव भावयत--
अलभकम्मस् तु अप्पकम्म, भावेय तस्सावि तु ज सकम्मं
एवं अकाउं चउरो उ मासो, भवेति वत्थे परिवाडिहीणे७३े
नच्छदनसीवनसन्धानाद्रकमपि परिकमे यत्र न भवति,
तद्यथाकृतम् । यस्य तु दशिका वा कवले छेत्तव्या, सन्धानं
वा द्याःखण्डयार्विधयम् , वनन वा कत्तव्यम् , तदरपपरि क-
में यत् बहुधा छिद्यमाने सधीयमानतयाप्रमाणब्राप्त भवति,
यद्धा-बहुधा सीवितव्यम् , तद्ध््नं बहुकस्मोंच्यत,तत्र प्रथमं
यथाकृतं मार्मयितव्यम् , तस्याभावे यत्सत्कम तस्याप्यभाव
चदु परिकम्भकम् | अथेवेविध यागमरृत्वा प्रथममेवारपर्पारक-
में बहुर्परिकर्म वा गरृरदाति ततश्चन्वारा मासा लघवः। तुश-
ब्दा विशषण । तल्लब्धश्वायमथः--उत्कृष्टवर्त्र यथाकृतादि- |
विपयासग्रहण चतुलघवः, मध्यमस्य विपर्यास मासिकम् ,
जघ्रन्यस्य व्यत्यास पञ्चकम् , एवं परिपाटीहीन यथोक्घग्रह-
णक्रमरहिते वस्त्र गृहमाणे प्रायश्चित्तम् ।
अथ द्वितीयपदमाद-
अद्भाणमाईसु उ कारणेसं,
कुजा अरलभम्मि उ उकम पि।
गलन्नमादीसु विवजिथ वा,
ऽसती य कुजा खलु खुम्मियस्स ॥ *
अध्वा-विप्रकृष्टा मागंस्ते प्रपन्नानां तता वा निरतानां दुले-
भ वस्र भवेत् एवमादिषु कारणघु वस्त्रस्यालाभे उत्क्रममपि
कुयात् , , यथाक्ृतादिक्रमव्यत्यासनापि गृह्णीयादिति भावः | |
तथा ग्लानत्वानात्मवशतादिषु कारणषु वि पयेयमपि कुर्यात्
द्रन्तः परिभाग्यं बहिः परिभाग्य वा अन््तः प्रावृणुयादितति
भावः । क्ञोमिकस्य वा करपस्याभावे खल्वेकमप्योरिंण