Skip to main content

Full text of "Saundaranandam kavyam"

See other formats


क. 
५ 
(्िष्एह# 07 1080 प्रात 
{1224 ए 


पा. प्र. तिरि 
[9 9109790 919)। 


1047८1105€व्‌ {1011 
८ € ४ 


(प्रह 0९ (^ ^^ 
्0त2^ तपि 


( 8181101॥६0॥ ।#010॥ : 


(01.1.10 प्त (ष्वापया. }# ० हष 


्एणाग8ऽप्ष्ठ0 एए (षट 
4814116 801 08 8641. 


पष्ट 8४8, १0. 1251. 
९6. 0 ४ ©. 0 4 ~~~ 1५ ^~ 


सोन्दरन्दं काव्यम्‌ 


< \) 6 9 ©- ई 6५ 


आयेभदन्ताश्चधाष प्रणौतम्‌ । 


भर१11/14107 5 


| 


॥ 


हो 
[1 


॥ 


॥ 


| 


|| 


86 
॥॥ 


1) ((20/1-111)((¬(४ा (4\/1. )41[)(( (४ 


महामहो पाध्यायशओरौ इर प्रलादशास्विण सम्पादितम्‌ । 


-~~~-~^~~-~+--~- ~~~ 


4 थ + ~ 
एषिकष्ट) अव कप्त 54 एा8 31188107 एद््ठ85, 
4 पा) एए) एए क्ष 


476 5ऽ0लाष्कष, 1, एप -ऽप्टषा. 
1916. 


4 
3 
0 


५ 


उत्सर्गं पचम्‌ । 


खमस्ति, ओमरतिप्रचण्डभुजदण्डत्यादि-विविध विरूदावलि- 
विराजित-मानोन्नत-श्रौश्रञ्रौमहाराज मेजर जनरल खर चन्र 
शरम्ेर जङ्ग बाहादुर राणा जि, सि, वि. जि, सि, एस, श्रा 
एण्ड डि, सि, यफ श्रनररि कर्णेल फोय गोर्खाज्‌ खोडः लिन्‌ 
पिधा को काडः राङ्‌ स्यान प्रादमभिनिष्टार षण्ड मार्धेल. 
नेपाल | करकमलेषु। 


यद श्वघोषः प्रवरः कवौनां 
चक्रार काव्यं रसभावपूणम्‌ । 
शमाश्रयं लोकडितं गभर 
बन्द तत्‌ काल्वश्ादिल्नम्‌ ॥ 


तवाच्याद्‌ भारतरन्नकोषा- 
दुदधूत्य यन्युद्रितमेतदच । 
ष्णनुखन्धाननि विष्ट बुद्ध 
शणज्ञतायास्तव सोऽनुभावः ॥ 
ययाश्चघोषस्य गुरोः प्रसादात्‌ 
खविम्ततं राज्यमश्र्‌ ककः । 
तत्क वयरुज्नौ वयतस्तथा ते 
राज्यं खण्डद्धच्च उभित्तमस्तु ॥ 


9.1.397 

` [7 1898 1 शरको16त्‌ रला 11881] 8 2910 -1< 8. 
268 ताश१९४९्‌, ग इउक्प्ोतश्यकााशात्‌२य्‌। [वकण 8 116 
एषणाः [नएषछाफ, दिदुव््‌. 1४ 88 80 ता क्ृ00९॥6त्‌ ५21 7 वाप 
106 एला{पा€ 0 पान 116 16कछर्€ड ०ण्ला. [ फ€ा10006€त € 
68151616 ग ६176 पाश्ाप्ञलात॥ 7 0. 74 ग पोङ््‌ ९१ (08 - 
10प€ ए प7181€त्‌ 1 1905. ला शश्च 17) 08 171 1907 
गा6 ग ष 078४ 00]€९#8 8 {0 € 81111116 11118 1118.108611]0॥ 
एला (उकार्धपाङक. 1४ ८रह्त्‌ ४० € 9 ए0ल€) 0 ए 4 इए 8110838. 
एप 98 1 88 17]008801€ ६५ 116 > (नए 07 1180 7पाप्रल्त्‌ 
7187 पऽला]9४, [ €श[016886त्‌ पर 1616४ ६11&॥ इप्ट] को 170601४ 
फार 800पात € ०ए४क्ष०€त्‌ 17) उप्र 8 7पा€त्‌ ललात. (7116 
€र्€ाः {171त्‌ &त्‌ ९८ पा४ल्छपड [एकादा , ऽप ४1510 प01888.48 
28]2- 81214811, 70पद्) 8 (नप0€ह€ [शला 0क्पप्ञलात0॥ ण 
116 फकातर {0 फ़ 1780९९0. 1४ 88 फाला 7 176 18 
(लापा पपिटरक्षयं 1180 त्‌ पा] गं 00180868. उपा 16 त€- 
112४6व ॥16 #0 18४6 & ९010]01€॥€ (० ग ०6 ग 4 इए 8९110888 
@ा©8{ नु७8 ; शत्‌ 1 > ०1९6 कडल्त्‌ {० > (नए 9 ५6 18. 
0110 0 (श<पा१2 , 1 0९६ 60 (न 118 1187 पटा] 107 
06 01688, एप 0पात्‌ ॥7€ एकडुर रला विटपा. = एठा 700तला 
86068 गं क्षलश््‌ १० ००५१ [10 इकणडुदातं४ 87त्‌ ९1976 स्त 811त्‌ ष 
2 [01688प्ा€. 116 †8^28 211त्‌ ^पवि^88 876 7106 पप्रलो ९कवत्त्‌ 0. 
(€ 778] त 18 171 71081 ९8868 त70]0€्त्‌ ; कत्‌ नाल गल) 118 
87816 ९0011180) 8९८०तापड् -60 नालाः शद. 116 181 
(लापा 278. 88 पड पि] रम ऋक्षला ८९8, 9त्‌ {16 0तलता 

९0] 084€ {07 € 7] ४११९५ ॥0 {1686 . 
ला 70 8. ९० 0" 1116 [0688 पऽ 16क्तृषु, 1 पात्‌ 
1॥ 17000881116 0 &० 0 01688 1111 {1181 (ष्ट, 9त्‌ 1 फणातला'ल्त्‌ 
10 शिरा. ‰. 3. (ण्ण्ला ्लकष्टत्‌ 118 118. 0. ४06 [0१658 , 
76 उपब का फा) ५० 1971 द्लाफपाष 88. ग]. 1 
एल ९६ 16 208] ज दिकुव्च क8 रला पाका 60 


11 17.407. 


नातं एवाप 16४ 138. #0 81100. 80 1 पत 701 रला 
{01 8, 1011 {17006 {0 कडार 11170 {07 8 10) 9 116 8. एप ४ 
188{ [ 100 ९०७पा2६€ 21 €[01810€त्‌ 10 11170 € लोष्टपा0- 
81811९6 प्रातहः क ला [ (८पत्‌ ० 6 ठप {€ 1080, 20 
{1181 8 2००त्‌ एठा र # ह768{ फाक्षा एठा ७6 108# ऋ किठप। 
1४. प्रि€ 88 2186९10 प] [16886 10 160 116 001 {16 तवाश- 
१९१९ 28 0-1€्ष त € श्ल प81प3९11]068 {0 11166 
11011118, 811त्‌ [ 8९1 {0 फ़ जावर 8{ 011९6. 

110€ ?श्ा0-1€् 218., 116) [ 1741686 171 ॥1€ 1€4४ल8 
2.1.41. , 18 ९0010166. 1४ 128 111171ए-0 ९९ 168 ए९8 0 आं > 11168 68९}. 
उ पा {116 70781 0 11068 ग 1116 1€र्ला86€ 846 8०५ 1116 198४ 0 
11168 9 {116 00686 8106 21 €ण्€ा $ 16४ 816 2110080 0116. = 90106- 
॥11068 {16 18८ प्रा12 17९8५१९8 ४116 #117त 8 €र्ला 116 {प्रणा 1106. 
(लाल #€ 8076 फए0ा)-68{€ा [0180668 0681068. 3 प४ 16 18. 18 
9 768६ पऽ€. [# 18 शाला) 17) ४16 120] (लापा विलकश्चषं 
00कावछ{ला. 1116 फाधर 31668 = फणि 187 रग एावलडिडण 
86181178 ०. 1693, ५१९४९ 1165 ; ॐत 1४ 18 पा7गि101्ग ७०166. 
1 18९९, णलल्रय 00881016, {0110९ ४6 ९6९4118 ग 2.1... 

ए1)€16 {18 810 88 11017 2९?8118.916., 1 184 ४० गान 
116 श्ल कपान्‌] 114168४6 ४ २.04., ॐत ङ ता 
९प्रा68 शला€ &€8४. 1 118 0 1768016 16678, 80706068 
0108 ; [ 18 ४0 81120 शालाः ॥16 €, क 111९) 1 119 ए९ 17041९8 
16त ङग #6€ लल्लः व. 10 116 ०४५६8. 80617068 1 84 #0 
९कार्छापर]]ङग ०08लाए6 16 एला18008 ° 16४68 10 2.1.21. , 80706- | 
{11168 {116 0) 0 लात्‌ 8 एला{168] 87016, 80106011068 & १०४, 
8011611168 {116 1€11181108 ° 8 (पाए € 0 88९लक्ष 127 1010४ 
186 €) {116 ऋणात्‌ 17 (2 11801 प्डलात]00. = ¶1718 188 1166688 
६२९ ॥116 100] पजा) ग 0068 0) 1680411 &† 16 € ग "€ 
छकार. क़ पिपा€ लाा6९8 करक 77 शि पा# 16) 106, 70106 [म# 
0प। ला078 ग | पवद्0€0४ ; एप [ 18४९ {06 88182610 ग 08111 
१०९ पोष 068४ {0 {11166 © {0पा' 11011118 11९} [ [09886 1 
0010081 110. 4 इ ए१.९1088 . 

1४ वक 107 € छपा ग [18४८6 0 लाप 1€€ {1४ 1 १० 
101 {1701९ {1181 72.01. 183 8 (ककलन ज 2.1... ¶ो€ल 816 
1611ार३ 11 {116 ^ 10168 फ 1016]1 क1]] 8110 ॥16 २68त68 {086 16 


7 ए.4 072, 111 


काक {ना 71] ९.1. 188 ए९्€ा ९०06त्‌ 18 2 वारिलाला$ 21६. 
प्ण छपरा 2.1... एठा 2.71. ऽनाला1168 &1ए6३ 8 0€6४€ा' 1€8त्‌- 
1712 ; 80716 प्€8 17 इपणा€ऽ 00188108 17 2.1... 

्वि०फ "€ पलहत) 18 : 18 #0€ फार 1681] 0 ^ 8४811088, ? 
4 ए कञफलाः 18 10 6 ककार, ए 16880118 816 88 
10110 :-- 

(1) (€ 188४ 60००) रज §श्पात्‌221180त्‌8 170 1001) 
2.1... 20 7.4. १९३८०९8 ^+इ ९8९11088, 88 881९18२8, 8 प्रए811)8- 
पञाएप्ण2 88 ४३९1३, 418 871त द (द्वा ए2--#116 8क716 ९010- 
एठा) 10 विला ` पाका 18 ह्ार्ला 17 6 एला रलहता) 
इ ९३९10६8/"8 3प्रत्‌त्‌]18८ का. (8९९ 70887 [शला 01) ण - 
९९ कात] 1911818.}8 871२8161 18. [त्‌. 4१४., 1905, &लु)- 
1€10 06}. 

(11) (€ ० ऋणा8 8 कप्र1त8.181181त8, 89 ए प्रतत] 20९1168 
इपएालणाला६ = श्व्टो छत्रालः 10 हारा 10186701 800 
8110व7128 16. पाड तकश्चषपा€ ला ॥16 [81४५८ 811त्‌ 118 
8परतवा€ऽ 81त 11618०78 ॐ€ हांरला 10 १९४४] 10 116 ए प्तत॥२ 
८३११४, एप एला एलीक 17 $िकपातृद्यका81त्‌2. {116 €8{90ा181- 
न) णा [इ शुराकरक्डाप 88 8 (कद्‌ )8 हाला) 17 वरदन] 70 उक्प्ा- 
वक्वा १९, 0प्॥ एला (लीङ्‌ 170 एप्तताास्ट्छाा 0४. प्तताोाक्<्का४४ 
1006168 0 छा) {16 ९जारलाश01) गं कष 2०त8, एप 1६ 18 ९४ ]‰१९१ 
160 ‰ फए़]101€ [न्ल) 17 §क्प्रात्‌&78.118. 

(1) (€ ल्वा८ क्त्‌ {€ ए कपाह1111% 81] 8710118 876 21111081 
1तलात्टव््‌ 1 पु एक णएग8. (106 11115 0१ 08788818, 816 
10610060 10 8.6. 1४. 76 शात्‌ 71 8. णा. 29. ४श्डाइ{119*8 
{9713 876 १९८३८०९ 10 ए.0. 1. 77 ण्त्‌ 8. प्रा, २8. 
€ मणः ग एकएव 86 हार्ला) 10 8.0. 1४. 79 कात्‌ 11 8. 
णा. 45. 16 (छपा ग एङढ8९ फा 8 फलाश) क 11-शि06 
8 -उलाकष68 86 १८८96 70 3.6. 1४. 16 ०णत्‌ 8. णा. 30. 
106 [भा7ध्8 ग {8 ह११०९३., (8प्6811, ए1इषक07 0 81 0011615 
816 अपाक्ष १८३८त४९त्‌ 71 00६ धृा€ कठणृर8, 4 तल्टु) 110 ण- 
1648€ ° 87811101010 1016 18 ल८नसुनिंए€ 19 00४10 ४16 णन. 

(0४) 171€ ०त5 तषे धम्मन्‌ पुष्पव प्रविद्ध॒ पा10०70 पता 17) 
९1०881९] इक्ाञतात( 816 (लात 70 10001 ॥1€8€ फणानर8. = 11 
16०ा16्९ह [00 ज खद 15 एत्व्‌ 7 00] 116 शण. 11९ 


1) 


1 एए 7.^0ए. 


0०11०५४.४०) -प्रासाङसोप्रानतल प्रणादं 810 वहूुविविधसमागैगामिनां 
216 0011110011 0 00111. उप ~+ पद 110 {116 8€ा186 ग 10710, परि + 
रम 77) {16 86186 ग शृए्लाताह्ट ४006€, कत्‌ स्या 171 176 86186 
81811010 8४111, 76 ए€्<पाोक्न' ४0 0011. = [78४71668 10 € पा- 
1170116, ए [ ०९6 701 1८6६886 06 एप गं ४6 एा९66 फी 
1116111. 

(ए) 7व्छपाक्षं्€ड ज 516 कआ€ 16 88106 170 10061. 86 
{116 करणा 816 0716 €९870]0168 0४116 एक्षेतद्मएतोे्ं भात्‌ 2195888 
दप्रा18, (0 1106€ [लाशू९प् ग 8९) , का धऽ वारलाला)९6, ॥18॥ 
#176€ ऽ^ङ़]ल ग ॥1€ प्ततोक्लक४8 ९0000976 00 € एष्डपकपा 
816 भ 116 8दषप्0त8818142,, 8]9[0€क्8 0 € ३ 11096 एप्तल, 
018 11 06 0111 ॥0 ५116 8४ ग &००्‌ फश्न्लातकइ ०0 लो 
(0 ल्‌ फ ०€त्‌, छ € श्08 1४ 88 {116 द्क्णालः शठा. 062 
{108 {1070 (18881681 इद्वत @6 प्रफठा९क्]ङग 1688 10 #€ 
३8.प11त81.81181108 {11811 77 116 प्रतत] 8उक्ा१६. = ¶10€ ९8870 688 810 
010 816 &168९67 111 € 8कप्0त'818त8, त्‌ ॥116 [णन 
१९९्‌€' कत्‌ 01016 क्छ ए6. 

एप 0 कद्व जा का 06 3कपाात्‌क्षाः१३०१० फछपात्‌ 189९ 
€ला €] 0 शङ ग ५06 068॥ 0ल08 70 3कञन्ल ४. 1 एषते 
101 एलाो$प्रा€ #0 0180 लं नालः 116 006 0 {€ 190द्पश््< भ 
88.प1084181181108, 88 2710८ श्‌. ¶11€ 181 प९<€ 38 गणशः त्‌ 
६1€ [00९ फ़ 198९1181. 

{0 2 0ाताश्णए ला1४16 [९811086878 [8116 16878 011 81171168. 
1 80, ^ इए 82110६8, (ला {कष7111$ = €९९]8 1110. = 0010 ९8) ९ 
` 87016 धाक 116 गार्य :-- 


तां सुन्दरौ चेन्न लमेत नन्दः 
सावा निषेवेत न तं नतन्नरः | 
इन्द्रं धुवं तद्‌ विकलं न शोभे- 
तान्योन्यह्गेना विव राचिचन्द्रौ ॥ 
(01) [0816त 10 (15-- 
 . परस्परेण स्पृहगौयश्ोभं 
 नचेदिद्‌ इन्द्रमयोजधिष्यत्‌ । 


18:21. 4900 ॥ 1 


अस्मिन्‌ देये रूपविधानयल्नः 

पल्यः प्रजानां वितथोऽभविष्यत्‌ । 
प्रात्‌ 96 ॥0 06 8{1€ 20 170श0त्‌. 

(1010876 2180-- 

लं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष 

भाय्धानुरागः पनराचकषं । 

सोऽनिश्यान्नापि ययौ न तसौ 

तरस्तरङ्कख्िव राजहंसः ॥ 

` कात्‌ 
मार्गाचलब्यतिकराकुलितेव सिन्धः | 
प्रलाधिराजतनया न ययौ न तस्यो । 


[1 16. पतत्‌])-९द168 € 60 ७6 {0पात्‌ 2] इना ग उपत्‌- 
40156 {€्लाप्ा९क् (ला) 8. उप्र 717 {€ $कपावक्षा81त्‌8 1116 11081 
80886 14९७७ ग {€ प्तत्‌ा018६ 711108ग $ € € ])1"€88९त 11) 
1116 8170[0168॥ 1811९ &€ 8त्‌ शा {116 ला न € प087 1010 
11678.])11018, 28 81) 11881166 :-- 


दौपो यथा निव्वुतिमभ्येपेतो 
नैवावनिं गच्छति नान्तरिच्तम्‌ । 
दिश्रं न काञ्चिद्‌ विदिशं न काञ्चित्‌ 
, खद च्तयात्‌ केवलमेति शान्तिम्‌ । 
तथा क्तौ निरेतिमभ्यपेतो 
नेवावनिं गच्छति नान्तरिच्तम्‌ । 
दिशं न काचित्‌ विदिशं न काचित्‌ 


ज्ञेशच्तयात्‌ केवलमेति श्रान्तिम्‌ । ` 
ए, 28, 29. 


€ पाः 10016 पीड 816 ९016886 1 € {010 


॥€ा108 :-- 
बाघात्मकं दुःखमिदं प्रसत्त 


दुःखस्य हेतुः प्रभवात्मकोऽयं 


॥ २ 18:110.१8;8 


दुःखच्तयो निःग्रारगात्मकोऽयं 
चाणात्मकोऽयं प्रशमाय मागः रषा. 4. 
जरादयो नैकविधाः प्रजानां 
सत्यां प्रन्तौ प्रभवन्त्यनथीः 
प्रवात्सु छोरेष्वपि मारुतेष 
न यपद्धूतास्तर वशछनलन्ति ॥ रए. 10. 
तच्जन्मनो नैक विधस्य सौम्य 
दृष्णादयो हेतव इत्यवेत्य 
तांज्डिन्धि दुःखाद्‌ यदि निर््मुमुत्ता 


काय्धेच्तयः कारगसंच्तयादि | 
४. 25. 
(1€ ्वा10& - 9 116 1166] ग 18 18 6016886 1 € 
{0110 110 प्ला18 :-- 
अथ धम्मेचक्रम्टतनाभि छतिमतिसमाधिनेभिमत्‌ । 
तच्च विनयनियमारुग्टधिजेगतो हिताय परिबर्यवत्तैयत्‌ ॥ 
। 0.9 

^ ₹प्रा0ोोकवष्न 116€ फ0षुर 18 रला) 0वठक :-- 

1९श्19, एलगाद्वा ४० 06 लकपक्षा) 8 &०॥18, 01860860 
208{€ा 1४168 1116 € 69४8118, [९91587४ क11. = पि€ 88 8600116 0 
070128])88 871त्‌ पात्‌ ज {हर 211 4101181. = पत18 [ल- 
{६6 2३ 011 {1€ 810]€8 ° € प्र1700 8४8४. 

30116 [1६ 1111668 ९816 0 {118६ 16701086, क~ 
1816 एङ णाल शाला &{ 16 10818907 ग काला {लु-फठणीलः, 
(९ शु719 ४८८86 नाला एएक्वााङक्2, कात्‌ {ठ0 16 2०४४ 
ला लप्र धल 0८९१6 ७०४९083 10 पौ) {€ ९6 [९8 प 88 
र््धा0ा€ 118. = ([70€ 8008 0 06 8 €ा पाक 18४6 ताला 
20188 {070 8९९९ तारिलिला+ लिप, ] पड 88 र.8708, फथ8 
(1 211त ४३8प1478, 88 (8 प्†8108. {10686 [ईद 
ए 10९68 फला€ ९९116त्‌ उद्षदक 2६, 06९३४५९ 116 1९त & 8 800 

९०४6९ ए 881९४ 76९8. , 0116 प #116 इडो 1086 {0 {116 शर्कर फ्णंणी 
। 8 फप्यालः जा फकल्टा 80त्‌ ३शए९त्‌ नाल ४0 जाणठ्क कको 7 लष 


1:21: १929 ष] 


९०९81668 8 101 पालो) 60 ` ्ण]त 606 ल ज ककल 
{81110 ठप € 10 कपडनि0]€ ष्टाल. (€ 116 ०8६९५ 
0€ा0 0 18186 8 लान 01) #1€ शप्‌ 008111९ छप $ ४116 
फ€ा-]11116 कलाः 118 १९९६-9 11161 190{0€€त्‌ 1 एष्णुल€ाः' पफाल 
(70€ 11668 6€८8170€ 11681816 कत्‌ ॥1€ २58 [४ ६16 
180९ {०' +€ प्रादा ४8. = ग< एष्५९३ 17 प्रालो' 70808 
00081116 10८] 110क्तट्व्‌ ट्छडप्ा'€, क्वात्‌ का) 187 एप ४ 
अगलतात्‌ व्क, फाला, 25 1 88 पा] 8६ (€ #ङ्घ्ड्प ज 
16810611९66 ° 90118, फ 28 18116 ९ शुणाकरकेडप. 

7 शालंला){ 11012 8€श्ला8] 16101868 ए€16 ९010 ए€1{6€व्‌ 
1710 लं68 ; € 1008{ 1068016 ० 11670 18 {९8.88.11 ए, 11010 {116 
06111४86 {इ पडकष108. 48 {11९ 7€रलाः 111]008९त्‌ ४868 ०01) 
€< 29211180 {116 एप्ा€ ग ॥1€ 6881788 , {118 लाए 8007) 06९810€ 
11९1 शात्‌ गपठपड. उपा 2 [170हत्‌०ा0 ं00पा 8 170 18 8 
एल ४० 9187610. 80 #11€ 11668 18186 पोल ववल्ड॥ 76 णालः 
0 16 ॥117016. 

लाः 8076 &€6€7211008 ३्१त]1०५१80४ 0668706 {1€ 170 
र 6 38] ४४8. प्€ 28 8, &००त्‌ [प71्, 81 # 14€द््‌ प्प. 

वऽ 8 {78 धण€ € &०१8 गं € इप्तत्‌))8.ए ३82 ॥6्दण्ला 
फए€76 01) 2 {छपरा ग 178द्८प्णा 01 लदा छा ४) ॥16 ए€ क ॥0 0704 
8, [8701] 71 1161 एपतता12, {8111पद 0 06 क षडा0& 168, 
108 06 007 ; 20 "€ 86ा६९५6त्‌ ५1€ इद्रङ2 शि 11$. (1116 
¶प€€ा) 232, इफ 17) 2 वाहक) {1186 8 फ 1166 वलक्ष ॥ फा] दर 
पऽ [8 28 60061111 10 ॥€ा' 0100. = ¶1€ त16व70 88 17+ला- 
ए1606त्‌ रला 8 एठपा8॥01 , 21 ‰ शता न1€ प्ट पतता) 2 88 
00. 4 0पा1हलाः वपद्ला 28 ए€ 01111 0 8700ल' 00 18.106त्‌ 
पि ात३, 116 1181148010611688 9 11086 [0€801 681116त {07 11170 
16 प्रा2706€ $ऽपात818. 36४ फए९्€प 1686 ४० 8078 116 117 
81101716 116 16 {2411९५९8 ॥€{एद्ला प्रि108ए 2४ 2 एद 
0878. 1 71686 दवत 80पष्)6 0 [ट्छ्डपा€, 1116 ए पवत्‌) & 
88 81088 &18.ए€ 871त्‌ 8610 पऽ, 

प्रि€ [रधा [श्एक्डप 0 "€ [पा[0०8€ ज [7८01 
कप्8{€1168. = प्र€ ¶078॥ कला) {0 41848, € [एणल्कष्लाोल' ग €ाााश्चो- 
610 कणा), &त्‌ नाला ५0 एवा्षर&, ५16 10रलाः ग शूप [68८6. 
एप ॥6€ [४ भोल ‰8 लाः 98 1 70 शुणु ४0 06 116 


111 :9:1:0.१9:8 


70700€ा' फकफ8. 413510३ 10 110 फ 180 18 {16 11168 11188 
111 1118 फत्‌, 16 018९1860 8€र€1€ [06181668 , एप 16 [€# {18 
100, &8 1४ 88 110 {116 [गल फक. = 4 86110168 € ॥10पह 00 
168 ४0 १186886, 8116 80 16 26 1166 &त 46670106 #© [ठक 
116 11110178]. प्र€ फला पावला 8 7 ५66 ॐत € 0 
11601686. प€ पव्‌ पला६्त्‌ 16 क0168 ग 21718 81 008106व 
16 पा]एल18118016 प, &त्‌ 171 गावल 10 [0168९] 1180 (प्र € 
€) 0 ॥116 नङ इप्राक्ठपातल्त्‌ 0 ४818108 20 488. {1066 
16 1€्णरए6तव्‌ {0 16 70780 #1706€ € व्ल] ग [क्क तिक्ण7ष् 
1718{7प८{९६त्‌ 08 [6001९ 1 ए , 170 1९881 871त 8 (एगध, 
1€ फएला1† 0 1708 ््९{ 1118 का) [0607016 87 1९ चाकण्क्डत्प. ¶111€ 
11166111 ज 116 कालाः त्‌ {€ 80 88 ९द्ललुकग 8भो€्९, 
एप पतत्‌]1& 88 107 110४त्त्‌ 8 श्वा. प्ि€ 1€द्लौ€त्‌ कणत 
1तप९९त्‌ फक [0€ग्‌0€ ० नलाः" € 71078866 तातल, 8१ #1086 - 
110 (छप्रात्‌ 10 लला 16 गतला 0 का ४0 इलठपड शिफा 
16810018101116168, 018९186 ५116 7एप1€8 ग #6€ 0्वलः 2४ 6116. 
` 06 9६, 7741082 ॥181 118 8011 83 8, 7 प्रठुा 2168४67 0७08, शन] 
81 1118 {667 81त 1€९८लंर्€त्‌ 118 11187761018. 

(10 प्व।॥ #1€ 11016 लं 88 प्व्‌€ाः 60707000901, पि 2108 
11४ 1) 1118 1081866, 170106186त्‌ 170 [01688प्ा€३ 190 16 € 
र 118 116, > {8100 पऽ 6कपष. {116 प8०8०त 8 06 6 
616 एला {0114 ग 68८1 छाल. 076 पश ४6 6 28९ ॥ल' 
108 ४0 गव & ण्ठा एध 016 ॥&ा' ४0 &€08016 € #0 कंप 
8110 १6९०1806 11€' 1266. 816 10०16त्‌ &४ 76 €्छाव म तल 
1810811 &त्‌ 1९8 0 [काप € (व्लर्‌ 1 पान्ििठा ग 8 
06810. {1116 1७808०१ 01 पा ०९५९०४९ 16 पफातठाः कात्‌ 
8116 88 11011-]01प886त. 8116 शल 8110$6त्‌ पा 28 2 1981 
206९३९५, 8 816 7118116 € [9170182 , फ 0€) 8 गव "क्त- 
861*ए 8110 11110110€त ६16 71166 ५8 ए पतत} 2 ९8116 0 1118 11086 
{01 0९ 1118 100, प 88 110 0106 88 {1676 {0 श ए€ 7 
21. 1117 16 फला# ककष. = 4818106 8 118 6070९ दि क्षात> 
, [€ 116 0818९ 17 8016 ग € 1066808 6008 ग 118 16 710, 
10फ८र्लाः, €द{ता+6त्‌ ‰ [एणां8€ {ना 1170 ४0 ९०106 करध0ा€ 6 
1081116 111 [ला ९]ल्लुदर कड वा, 80 एला10 71 86876) त 16 1८104. 
प्र€ एप्त उप्तताो02 इपा7०पाात€त्‌ ७ > 1916 60९60 पा8€ ग छन 


13:42 .१9:8 ड  ‹ 


त्‌ 80 ©0पात्‌ 70४ शष्ठक्लु) पा. = प्र€ 81४९6 7 क ्१९त्‌ 
811त्‌ लाए 186 पर्ात्‌३ 0108678॥6त्‌ [डा 0016 एप्त) 8 पत्‌ 
प्रात्त्‌ 7 ६0 शव्व्न४ 178 108¶शा तक. एप एप्त) 
1106 ५&४ € ततव 007 ष्ल्वृ पाह 1४. प्€ [018दल्त्‌ 118 21005- 
एरक] 7 2१०१९०३ 1871त्‌, ए प४ परि कत्‌ 28 80 811510३ ४0 एलपाण 
६0 118 फ16 एर्ल०ा€ #16. [000 88 ताए 0180 116 1816 0 &0 
98९]र 1४11 {€ 90फ] 7 18्7त्‌. ए पतत1& उकण 0118 87त शुभा 
पपश्चाङग ३६५18९१6 [ोपा. एप १३३ 10717त्‌ 88 एला{ 01 1076. 
8५2. 28]६6त्‌ 1170 60 गाठ [17 ६0 ४7€ 11878, क 1116] पित्‌ 
84 ४0 १०. {7€ा€ ए पतवता1& 10807एपटन्हत्‌ ए. = एप 16 78 19 
श्ल. व्ल एशंवला) पपं (का6 #0 6 [1८९, श्नात्‌ 28 
गतलाल€्व ए 3पतत्‌]8 ४0 10167906 रिक्त, एप प्िशात्‌2 0- 
लंरलाङग रलपञ्त्‌ 0 प्ला०पा1९€ ४76 कणत. = ४क्रंतला2 पणा 
7600९ € ङ४ह्टाः 0 एपतत्‌]% 10 9€व्€त्‌ ४० ४€ 2०० 
86186 छा रपिकात, व का एठप्ाः लताः एकताल, 1 18१6 
7610प्९६्व्‌ ६116 फ०षव. = कश्चोङ्न ज ४16 888 18 ए९ १०९ {116 
88116, 0{16€78 876 1687 2 28066 11€ 0पद्टा) &४ 11006. 
411 2९९४ क] 88 एला०प्र)७€ € फठ्‌त्‌ त्‌ 0 810पात्‌ ठप 
106 १० ॥7€ 88706. दिशत 26 > कएलपटकक्षाा# €०ोऽला)४ कात्‌ 
16€ 88 171706त1क्ल 808९त्‌. = दरिक्षात्‌2 कल0४ नल, एप 7 
ए8110. 

प्रातश्च वड &168 धर 2९०१९ & {7€ 068. पलः [काला 
1800708 #8¶€ प "€ श्णगा€ ग ४€ 6 (का160. 116 € 
68100 18 त१९€१०४९्‌ 0 € 8§0एक्इ ग 218 क]0 778 
70 ाल्क्डपा6 10 8 पफ्लातातठक्ा{ 116 कणत पाणस ज शाणः 
9 1687 8 8)त &168 1118 21त्‌ >† 1887 7680]ए€8 {0 पर 
क्क्ष {7070 लाता९क४ 116 »इ 800) 88 पतत्‌) 2 ०68 छपा 116 
706 † 8 0 061. 

06 एल 6810 ए€द्रा08 का क्षल 8, 9 3118, 8810 
पवि7वर 10 16 लि. = वऋ]€ङ्ग ० 0 ‰ (€प्िष€त्‌ 0 फ 7ल€ा6 € 
8्प्€ छपर {€ वृ्ल्ड्म) ¶ प्रा, 7 एफ ० ९1608, 116 8४1 #त्‌ 9111. 
10€ 8 (गावलफा8 06 (गफ रग {6118168 80त्‌ {18 
9611 18 1166९46 38०5६ [पत्‌€ 10 शलालाश््‌. = 218, फ 28 11- 
65078116, 20त्‌ 80 ककल 2 एल6ु०ा४९त्‌ 176 रक्ष {0 एप्तता18, 
10 86 जिः रिक्त, 30त्‌ वाद [आयो पा18118द्ला 111 118 


१ 4 ॥ #:911 4 .38010 


त९५९11118707 , ६001 1018 11871 811 ए€0{ प) {0 1168र्ला). 
(111९ ९886 116 01108 ॥170प्ह्ा1 ॥1€ व्रि170819 क) 1610708, 
फ 11161) 816 १६8९ 0६व फा) @1686 [0णलाः ॐत शषिदङक. वला 
एपववा1& 88 8 816-701011€ङ़ 1611 016 ९6 0, 806 881६6 1 
षि211त878 16 ३७5 060४6 {181 {118६ 0110 ९616 {पा९. ०५8 
881 < 11107106] ०९४१९. €) 1९ [४७8९्‌ 0 1168ला) , छ16/6 
1116 ^ {0887188 ९९९1४ 116 दङ्‌ जा दिक्षात्‌३, 110 "0पदा+ € 
01808166 060९661 11086 81त 1118 116 फ 28 7686 88 11181 
06 फष्ला € %त्‌ 16 06€-€€त्‌ "00पद्रद्ष. = प€ 88 9710 
10 26 ॥1086, पौ 8प्तत्‌ा08 {नात्‌ वापा 187 ॥0€ङ़ ९०पात 06 08 
0111 ग ५116 018९166 र क पड{€ा16168, 911त्‌ क ९५१२ 60786760 00 
10786186 €) [जः 16 8क्6 ग 1168१९11 १8708618, 308 
88110111 & ९811४66 {07 118 8०९९९३8. 

१९०१8 &०४ 68 87त्‌ €70861816त्‌ ग 1118 [0€1211668. प€ 
४३ 8781676 [प 1118 1€दा{ 88 8] {01 116 1€दर्ला ग त९8618. 
41181108, ९8116 {0 1111, ९0718] 2१९ 1771 {0 1118 ९1876 
० 0४ शणत्‌ >8त्त्‌ कणा 7 10 88 (प्रह न 16 88 
10186018 पला 6168 {07 , € 886 9 4088788. 3610 
7160116 170 16  ी7710801ए6€, 16 0९81 8 11846 2क71850 
{16 €)]0ष्ाला॥8 ग {16 शतात्‌ कत्‌ €र्लो 76086 1 
16861, 8] ग 1116} 16 वल्वक्हत्‌ 0 6 (काण. 116 
४1846 18 16 १6811९0 €6९४. [४ 170त्‌प्८८्व्‌ % 86086 ग 
81181116. 2108 {010† 1118 16 {0 ४16 ^+ {0881188 806 76 70 
{0706 116 ` ^+ 08 काइ 107 111110118117क. प्र€ 0९6९806 00 
610 पष्ट) 0 0010860 उपतरव]8 82त प्‌] तपा 187 16 88 
10 1011267 ॐ 10प्§ {07 {16 68€ा11 ग १2.08618. (618 0 € 
॥118 {707 ९०१8, पतत्‌] 16८¶पा€त्‌ ४० [पा 0 € का १6 
९8108 8 {€ &8]ए९€त्‌ [71 0 701€त्‌ा ५९6 0 [068५6 #फत्‌ 
80 कत्रुक्टलालाा0. 4४ 16 एटा ग 006 170) 
(18४6 ष ९8 1607168 0 8 {0168४ {0 १९९) ०१6वा४क्०. € 
18 8प्९८८७धप]. प्€ &€४8 {0 {€ त९००' ग पाए. = प€ [07186- 
1868 {16 {0 116त1#8{10108, प0€18{81148 {116 €र8)€8९ला४ 
0087861{€ा' 9 16 फएणत्‌, शात्‌ 0६८०068 8 41118. = नकक¶जप। 
{0 फ 181 ए3प१त]1& 118 त०16€ 10 11170, 116 0९01068 8110 ४868 16 
{66४ 9 ४06 &1€8# [16कसोलाः 10 गतला§ 1771 1101 ४0 06 88 05- 


ए.77.4 07. १.५। 


१6 तं 118 0 लाक्ालाक्ष्जा छपा ४0 लफक्ाला]0&४€ 00068 

8180. पलल ९०168 ॥6€ व8्०९् एड लघ्व्‌ ग 21208. 318. 

प्€ &०68 ०प४, 8668 118 फ77€ त्‌ 7618018, ए पौ व प्रा€ & वारलिषला६ | 
विक्त. प्रधी पह 06. 00०६ 60168 ४0 क) €त्‌, छठा रग 

3 &7९8{ [006४ 8त्‌ ॐ &168# ]016€&ल€ा. 


इत्यतः परमकारुणिकस्य शास्तुः 
मूर्द्धा वच चरणो च समं ग्ट हत्वा । 
खस्थः प्र शान्तद्ृदयो विनित्तकाय्येः 
पार््ान्म॒नेः प्रतिययौ विमदः करव ॥ 
भित्ताधं समये विवेश्र च पुर दृष्टौ जनस्याच्तिषन्‌ । 
लाभालभस॒खासुखादिषु समः खच्येन्दरियो निःस्परहः । 
निरम्मोतच्ताय चकार तच च कथाः काल्ञे जनायारधिने । 
नैवोन्मागंगतान्‌ जनान प्ररिभवन्नात्मानसुत्‌क्षयन्‌ ॥ 


¶0€ा€ € ४० 01076 ए€ा७९8 171 11111 ४16 06४ € 08 
116 ०0] €५४ ग #€ (च्ल. पौन 216 :-- 


द््यषा ब्युपशान्तये न रतये मोच्ताथेमर्भाकतिः 

ओतु यरहणाथैमन्यमनसां काव्यो पचारात्‌ छता । 
यन्मोच्तात्‌ छतमन्यदचद्िमया तत्‌ काव्यधम्भात्‌ छतम्‌ 
पातुं तिक्तमिवौषधं मधय॒तं इदयं कथं स्यादिति । 
प्रायेणालोक्य लोकं विषयरतिपरं मोत्तात्‌ प्रतितं 
काव्यव्याजेन तत्वं कथितमिद मया मोच्तपरमिति ॥ 

तद्‌ बुद्धा श्राभिकं यत्‌ तदवदह्ितमितो न ललितम्‌ 
पांश्ुभ्यो घातुजेभ्यो नियतमसुपकरं चामौकरमिति। 

[118 8108 12४ ४16 006 1006 छत्ीलाः फलानरड 1107 ० 8 
0०6४1681 08{प्र€. (1018 कतानः € 1016 काब्यघर्म्मात्‌ ; 0167 ए ]र8 
116 7०6 मोक्तात्‌ (४}18 18, {0 [एलकष्ना, ल0श्छलोएकनं, 
ए108ग0 ङ). ए "118 4 उए2९11088, (लाक शापत्‌८ड #0 118 
एपा०डनुणातद्ड्‌ कणा, पश्चाद गा प्राजा 876 लान्िजात्त्‌ 17 
पविक]10 18 (@8{क1९द्ुपह ° ॥16 (ा6€8€ पपतभ, त्‌ 16 
फा] 188 0९८) तका8]8{6त्‌ ठा) च 2081686 1760 [एह्ा)8]0. 


11 र77.^ 07. 


7प8दद7] पा)8 18 {06 {0पा1व्‌€ा' ग {06 1181 210 819 ५6० 
0 ४116 (शद 218 8९11001. प € 18 {€ ९९116 "€ प्रवल 
16 19.18.818. 1081. {11118 18 17010, {01 116 छात्‌ 18.18 58108, 
88 101) 06016 11170. =^ इए8९ 11088 188 ॐ 1001 २87१6त्‌ 
11918589 14त1101708त8 88४18, ; 811त्‌ €णला) एर्ला0'6 [700 #ल€ 
फला6 फ छार8 = 116 11818. 8118, 8९100], 10 10808166, #1€ 
1. कोक 218 89 81 ५116 उना द]98प्8 276 0 88 
21211818, रप्ि8. 80 दिदद्क्] पा)2 88 {16 10पााव्‌€ा ज 
0116 2 {116 86९8 ° 16 18118818 8611001. {106 11840 $ 
11181६8 {1€0ाफ त1त 1100 ल्य 0016 का. 16 नाल्गङ ज 
8 प्ा1 8.08, 18 1116 €8861166 ग ॥16 कधहव्‌ङ का शर {16० एप 
17 5801088118118 16 14€४--€रला) {16 ०1 इतरा ९४४--त०९8 
101 0९८९८प्रा. 80 .^8९8.211082 8661118 {0 18४6 061011९ {० 80106 
€क्ालाः 86100] -रग ४16 18119, 87 ५18 8९700], 1 
एला€र€, 88 १०९३९३1४. प€ +€ 8{0€8ए8 ग 116 01860166 
ण ४0०2 8110 प8€8 {116 01 ४ ०९8९६1४ 166. (9९6 1४, 19, 
816 ~ ४, 68.) {116 “1011858 ९0111618 18 8816 #0 18४6 
€ल) ९०10]00०86त्‌ 7 ॥1€ धात्‌ (ठपालं] ग [र क्ा81४, 811त्‌ 16 
ए8101185118 8९11600] ग [0111080 98व 1४8 011 2† ॥180 भ6€. 
80 ४0०80818 0601068 06†फकष्ला ५06 + 21018.5118 804 € 
21841. 811191२ ४. 


पि ^ प्र) 1.४6 एप) 011 847१8 एए 8080198. 


{1 3पतत्‌]1९८102, 9.8. (शुषा 13, ^" 06 [पप८€8, 
00, ग ॥116 इश्क 2 106, लाः 017 €1110॥616त्‌ #0 एलठलं श्ट 
{116 [€{९०१ {प्रा# ग 11द1€0पड11688, 1583. 

८‹ प्रादा 8२४९6 ४ &11४ 610 10४ ज 16 णजधत, 
{0788111 1101116, 160९6 0 ग 118 (ताश्व (6601706 
1€ा70108). = &18148, 7३११९, [10701 (10112), 4 पोकप्रतताा२, 
1584. 

०८ वषि श्7वप०९०६५१९ , 1४1) 1९ प१९१००९, 21] 0686 [108 लए 
11010168 87त्‌ 0{11€ा8 07 {116 उद्र ङ़‰ शाक, 1585. 

1586 «° एषप०ा) ४116 {68017 ° ए पतता18 ८९९6 तांडलो]ग6€8 
84 80९6[०४९6त्‌ {116 [कण.' 

ल28 श्प ज [फताभ्ा एप्ततापंड, 02९ 28, 11016 


1:32: १9: 111 


लि" 0 ॥1€` 35६। [श्लात ज ६16 3108त्‌78 218२३५३४. 
17 11९] प्व, &7त्‌ §प्रत8.8.08.1त्‌2 2006 81015710 पऽ 
10] }र९१५१8. उप पठि पक्लाङ्ग ध116€ ¢ 81806 80ला€ (78 (ण 
ग ५16 811०472 1९ 21] ९९५३118 00108178 34 16608 011. 

16 इष्ण 9१8. 10 ५06 एद) [लाद त्णाठ :-- 

[१ € 00870701808त8 ॥1€ {गाला २868 (1110. 08. 
13 &त 14) 86 88त्‌ ६0 ॥कए€ एदल) परण्लाल्त्‌ $ एप्तता1& 
रशलि110& (0 १९148. 


% 818 कटका) तप्ट्लाद्षत्ाद्षको) 
। ॥ 111, त -11.1141111.111 
# परिरक्ष) 80116870 लाक) 
९.80 88118111] ] 1261, 
% 8118 88771 80९९11811118.11 
प््त ०8 88108091] 08४ 
॥ 1 (1/1, 1011 1:1, 8.111.111 
280 18, 8811811] ] 18. 


व6 9780 एला5€ 85 821 फा] एरय लाल1०6 #0 पष २५8.8 81216 
2 10171 र्०€ दगा एरल'81010 , 2716 ६116 8660171त्‌ 111 कलि" €ा166 ४0 
118 8६&{€ ग 701त्‌ कलिः 16 कक्षा ला४ त 54116०40. 11116 
९0 लाक्षा 010 {1€86 एला8€8 @1१€8 171 पा] 16 इण ग 118 
९० र्€ा81070. 1{ 7प्रा)8 धीप्रड :--*#* # # # *# * 1810 तप्रनङष्ता १२७५९ 
र 2048 पाका 2888, = 8.0111861६806118]2 [09 68818 -ए1 ए 118-1118.72- 
16 एक{{्वा1806€इप् (8201118), 10110082 108 ए181/ए 8 प 2108- 
्पााकि8888 = 1180116 0808) = त९६एद३ 08281870 = ए8.{ए 
पाद €2118 [0 8र81718100 = [र प108.12888 = 1810210 कषक) 
१8 &21111. 30 [भ (12122६8 दका कएल) [08१६३ पा ए० 0121166 
2971818 ४ एकप) 78 इश्ययदा11 ; €रकष्पी [0818 लंप्ाल्डा ; 
< 80088886 0868 81011188 ` ; = 88018 = पथा = [97 
{0816 18 &2)01. = 1६870 = ^ 800कष18[084811प16 = 28.11115- 
` 8कत््िं ` लंप््ल्डा ; 82६0 = (कणक्ू ०9 2811111. 10970 18] 2- 
7228116 = 28111888. ” = ल प्ल्ट्डा ; = इका पकता 118 
2811111. [इ पाद70 ाएकपिपददद्0 कापट क &९९९0 8.70 82101 प्र 
£व78एला18, ^ [08687 @211118108, ` ध एकप ०2 इछत ; 14108 
£810111888.11, = &{{18 ` €†{19 21118880 लं7160 28९९18४]. 


उप्र ए९.ए7.4 07. 


पकड 1406 = वकषाद्कतश शकक कलापी ; ^ वक 
81898 21081] 21870 2816६ &2{0, = $प्ा1760 = ४8 
18 1811888४. 98 पत्र 010त्‌प्रा11, 81181816} *€ए 2 
1111, 11111 3,111 1/1 २. ~ 1 111 1.111.193, 
` 820 प{ 08 ३28९61९4 एद 218. = (187) {8888 ए8.08.18/70 ६8888. 
18त्‌फ6 = पिङुकी) 09010 ए {1110870 ; 8800 क्ष ५४888, 
1181180 [08 क्ष) 208/111110 ए 8 ए 18/10. ए111 187) 11608 : ' 8.0- 
08]1888.81 2048 ` {1 818. 80 उपतत्‌ा18818ए९108 ^ 08 [080- 
08]188810701 ३४१४, ^ 87118, 08.008] 1888 07४ 818. 38.118 : 
1608, 111 द्श्ातृक्ना) [02008] €(118 ° ॥1 2118, 88118 [रक] श्पकप 
£81{ए ३, {8.01 १५1९१86 2.018.171 [082008}681 = # नै नै 


नैः नैः नः नः नैः नैः नैः नैः 


एध) 800 वलाकरश्ा6 ए10का81106 क28118 8986 
प्रादार80{116ए 8 0111) € 860 कषा = क70८ल्डं : ^ 8780 11- 
180 2118771 = ३४80, 01811118 काग ए 8171 ९811111, 118, 380 
[0718118 (का एको) 88111 दप्लप् 0 , आता) 109८९कदर82, 1108- 
11111 11111 11111111. 11111111 
षि 2187) [081] 08व0€0ए ३, ९४९ 8९०९९ ; ( 88608) [78 {एक 
2148 88100811 प्]81871 0111 प्रे 870 €) ३10९6 : ^“ 8118 
0111180 2118770 :. . , . 17108 8 ए९01838 81011. ‹ प्रक 010810- 
16 1 ` ‹ [7888 [0818 (एक) कि2.10्‌8 211801112.00 01811018 (वाकी 
९7881, 18 उकसार0डां 07द10कठकानङृको) 88 पिप) शीतद्तीकचपती 
11१11111 1 1 1119. 
व्९0९त९र९] दा = 11812 र 18018108888 २तत्‌0 पाण्ट 
1686111 & [९10९४४१8 €४९त्‌ 8४०९९ --- ^^ {पर्ष्ुक्ष0 [110 चङ एकप& 
३९90९11९ ए 28701, 88 110 81870 10118006 {8.4 8.17 प88.78108110 
2081011178.00 017211118(क्ात की तकि... ५.५५५.०५१... 
1118. 8 ए81018881016 १ == ^ 0012 110 31९8 वै 28118108 
प) 08118. 2 ९२11९४३, 10411091609 {8 ए २५8६-९ ९810६ क) 
1161110 811081811126 €] 25111170 ] 18118 [र [1166 ]0 काप ` 
1118111318770 = 01111118 [8111 8-11888-118.7 ९ प{{1870 लर8्ी शप 
-118]र]र8{1771 ५888९, {8 ए 2.{177188.1)118.ए 8116 88] [६ 8888, १९९87870 
पत्रा ्ो देद्क्ष्का [रशरप(९[08त8101 87८० 86९18788 न्ि1 
(88881 ; = (त्प{क्दवक्णा 1808 ९811118.48.58 = [कात [0819-108त 


॥ :9:1:0 49. । ॐ 


8801881} 08तद्ाा7. [02886 ९४ 090 ` ३18 : ‹ (रशी दा) 
परोक्ष ङ्डां ददात्‌ 19.088 प्र 110 अणा एत १९.३8३३- 
119 2018 ए [088केत्‌1 कात एवे, उकेदारक्ा ए8 प 218[08त21 218 
- 1711 ए [09९8 266187588.08111 रश्म क्वक्पापि १ 
` 8९ 26118, [1 88, 0119166 ९0110091 8.010 80888-18तद्टुप{0112- श्प 
{08-10ार8{7 = €र्कष्ची € (110 0106 इत्षपषका व) [९त 
श्ङ्कप्रचा 11168270 080९8187 8061181888.18.118.17 प्र08110 1188 
३8 1187) [91 18 पलप, (शकष 11 118 प्रएलाा, 12120188) [7 
78, प्0९€घ् ; >> 110 1708116 ए ४ [087९8 26९118158-38.{क111 2}2111- 
1086 कात111 ९'€ए 2 १३३३811 8187811 ९8, [0कञकतारकवहाा ५३8 9. 
4 01111818 ष 2148 8118) € 02101040 08९11087) 26611818 - 
88811870 [02118018 2 [8 प{९-0कवााा7) ध. 88९6 118 10118116 
80209१३ 08110100... ---- 2011118.1111888.108.118 ए) 
01866 012्22४] क18(कात वध. 4 {112 [110 2310१९१३ 
द 287002108.7) पष 8.1तिक्का) 28116४४, {20118 810818.1160 € 816- 
€, कपा 1108. = 4 8808इप्॥ [110 010 ; ‹ 8828111, 1118 
९8140 3122९2६० 1011868, 18 प८लौोद्पा४० शटल ख्वद्ोक्षप्तो 1 € प 
10181118 कात्‌ एक) 0818.01, 31888, [सा 2888 [08110100 एष्त- 
11.11 1,11.9 1111111 1.11 1111. 
4 ६118, 110 ३811180 सि 72882 88118818, 01710 प॒द 2डा1- 
8116870 ष 8108 10118 0&1२8.१ ३९112 ९३४ प 11४ १1२४,२३.१९६118. ५४ 
88111 पत्‌३.९६7 101 : ^ 0121810 [7218 ९8100, पश्चा (९1२० 
वअ 2 2040, शव्लााक्षाक्काक्पा लप... ....... ्श््रप{९[08- 
तादः ४. 4118 1110 8 28118, (4118100 88117 शरक 101111द- 
प्राक 01081 एकेवला> ९४ पुएश्बसद्रन्दररदतवला2 ९8 2119 व- 
7018710 = 1878. 811810 ]12प९९11870870 = €1० णएप]श््प्{110 90- 
1811800 878 शा1४8000 र10क187160, 110 ला1888*6४8 ए 28881- 
{12 ्रपाक्पह 8270718त्‌ = € = ३728708 = 2118171 
02008}809 ५९तक पकक) 0781111868त1 ङ 808111४ 088118 त) 11116 
ए 11810106 इवकष0) 20110708 88061111 8.४१ ३, [11718 12४1, 
एप्रञा{क 07811186), कका) (2811718) 1180 
878.11808.171 21081. 

4 11 €18, १९१९३ 18610186 888] वो 6कषरश्ााका) 0018 
866४2, 82{111818.171 प08887 र 811116४, २8701698, 2104681 ; कए 88108, 


1 15:1:1:0.१9;9 


0109106 = क्वि ्१० 21909 ९8.10 1087601] प्00 = 28कएकाकप) 
11 014 1,1.11 11.1.11 1111 
110 तदाक पत९वत्‌ा, " दिक्षात० क8कएवे18य) [दाकदक.,........ 
प्र0288.10 [08] 2 11878111. 

90 10782618, 18888, 18118 8९९86108 31184888) 
प्02,88.171र8716एवै, ४810108 €{३त्‌& ९०९8, : ‹ एष्ष 1016 1018006 
1194१४३, 8{10100 [08681118 26९1181888.871870 08118 
0188, = रशदप(एक्ताका, 1 प्रतेतवक (21870 0081106 8192 
ए871{क70 €{887008, [02118388 ४811. 2188, 11 110 2१५९ ९९88३, 
९९70 [09९५8 रांव्‌ा7॥0. = ^" दिशात्‌० 888 [ताककद.,... + 
91181871 ; ` १९९९६४३ 7 16 €(द् प क्क्ष) 7100681, < 8881708 
प्रित... . . . शाका क्ा ; ०१८४२ [110 6 रत 2 क पतक 
888९111 ९117871 रो प्र {27), 21118181 प्रो प४० €(&811.8, 0878- 
३2.४६” 1. # च + छै नै भै 

{0 1116 (11612808 € त € {011भ ०६ ६0 812710- 
08110 ए€1868 प 1110 {16 100प्#॥ ग पि 2148 :-- 

4 ए 0111801708118 8 72, 11181108187) को प्प] 18870 , 

 एवता०४० जवश्० बवल) 110810९8, 21160. 
113 1 1111111 11111111 
41111111 1111111. 11110 

(11168808, ₹९7868 157, 168). 
(11686 ए€ा8€8 €76 881त्‌ 0 पि ०५९ {€ 116 0666 81 
81118.#. 


21 १९०१8३8 1€ € 18४८ 116 {0110 का 7र्लालाल1९68 17 
एद]1 [ल श्प्ा९. व्06€ {गा०ण्यफष्ट एला86 17 (116 [क 9]848. 
88 8871 1 6 पतत) 11 7661166 0 ॥&ा' :-- 

4 {{1171870 11808787) 1 ३6ए३/ 1181788.101116816क्ाकष , 

भ्र 81118. 1818, ९8 118८८ ९8, 18110 10081र]र110 ०8 ०0४6. 

(1)1]0. २786 150.) 


01 ६९८०प्र॥४ ग [€ ९ प 816 ०६९ ४० ७6 ९8116 दप 
18108, िप्ाातद्ता)2१३ 8 व 90कवश्द शङ्क. 116 6न- 
पाला 0) #16 20096 २९86 60118178 11 नाणक ह्ण 
76ाकष्रा1@ 0 € :-- 


1#:3213 १928 411 


# #* # 5 [तो लर्श्तारण्ञ्छय) लंण्प्ठ्यः ' 708) 
311,.1.1.1111 १, 111 1.1. व, 1, 11 1111 
३९९९९810 3 पत१०0 18४0, एप^० 888 एद] पशप पा 810 
10800810, 01808 (१) एं € {20029]160 , 71298 7 106 10800811४8 , 
शव्या कं कन्डाप्ट कद] त [क्एएननुप्ट ददा€ त क्क्व, 
क्क क एष्एएन्मइडक्णणातध्ि (दसोप्फता पएष्डडवेशकयो) @81४ए 
1080991 789810611610*€ए8 100 8841788 ; 9011170९ 2 रप ]08- 
18108 र [क्नोतहश्ा. 88 88078 कप पपक्ष शाद्व... ... 
एषति इप्रएक, 80 €षएक्षण) १888776 [08.8वत्‌ा7[ए6 = 11181718ु07 
106 १०8९) 86 एकेःध् उक्ती इका पार 101018 एक) 18 
एष्छ्छाकनि. -# # *#* # # -# + #  [्तिभ्०शातड एल 
्रपात्रा27116'€ए8& पशादा 68 8816118 = {12{118१08888. 
शपा व्क) = इपण्पि नष्टां: कवर 116 018 888 
१2111187 12116111, € 81 ए ९2.88.170 116 7पर[0€ १०88) 1२8{1161160 
1111 1 11 1 त 111 1718 
01170. दकव$एक्े 86187) १९88९१३. (18118881 [088816४ 
तक्को) हप्र वद्श्व्लाल्ङङश्यध्. 38: ^ काको) 2 ]& 
त18ो 2.68 ए 21170 = 28118388101761 दीप्र = 8106८ल्डा. 
एदा पा ङ0 : " लं7९.88क70 ए 28. दिप ]087181त5ए8 8३.४1 प प०९१- 
{17870 22 परार 11818 = पश्चा38., 8] ¡8 8811, 17087) 71888 
ए101+8व्‌]12001180688718171 १९888701 ` {प {{11803811888 = $का71 
३88 पासा का1फोडप. 38 = प1ात181081ह1860 = [0811182 
< 270 8{{187) 116 ए 8 १९.8६8९३811767 › ल1॥68. 8६618 : 82 
द्िपेएक्ष811क 118. 11811 प08.{{0818 7) ३871888 01, [सता प्र 1170 
18.858, 011870108.06881158 88008, ५ 61167, ॥प]0 भशप्रे, €8३ , 
2018.0118ए© 0818 ए88171618, {80 {18ला18 18111 शरप्ततााश्व शा) का 
ए1ए2+ 00616 ए 2888, पेशो दतृकात्रकी 8क00विङष्) प 
88711110 कको) 18198, 18888, ए1]1 कवक) 108.ए18811888708.ए€ रक्षो 
11111111 1 1411141 ~ 1.41, 11111111. 1111 
111. 11111111 11171 ए] 81170 &९7€0एत 26 
{4710 88776 18४९8 एत] श718118् 71 11170962. 27011101101701. 
87) {10 10918, 1#{100 88.113, ९6४३ 08888 रपर 08112110868. 
9 रपां 88त्‌त7ए = कणांञ$रएवदे ातताप्कोपकय) [0111 
1084886 {1469३ 087९8[02{01 ला 8877) ए21त्‌16ए ३, 11117 
प्रा प्क्ष, कशि6 पाशके, [02त8116871810 0802 उवतरा 


111 एर 7.^ 0. 


(9 १, 1:1 ३.१.111 11411111 कप्र्वि] भा48क0प] 21870 08- 
78.10 ]08018.{08111 11111871 38 प इका) 18 त, [पा01)8.6 4102 
38881111 8170 प्रद] 01016 = 8810706 11087) $ताततकष 
९५१५९३8. 88, {70 01016४३, 27801188 1 ०जाप्लाधि, इपर 2111081 
1111 1 11111 1/1 19111111. 1 
119. 87) [प्र ]0870 1118190 [09112 ९९ 1017888, शयत 
10118101718प्. 98, ; ^ 8110 1101888, २688 80011818. 2110 1081818 
80118118 ध 88.0068क्ष71 8कान78]01080688108171 प [08171 व, 8818138 
११111861॥18, {88100171 ॥प्र]0€ 1818 ए 28111618, 8110871. 88.118, {8888 
18118 80117871 78ए8, त द्क1118 71 68600 ए8, 1871 कपषण 
801888४ १88पत्‌त्‌ल1]811् ए 871 21111 2100168, ए788.{1 ए888पत्‌- 
१९811९01 8 2170 1 &{ए ६, १2६8९81. प्र 08118.1108, 0101र6€{ए दै, (118 ए३.॥8 
1तक्7) एरक) [एपा11888त188 7) ४1 {100 ए118{02ल#18 81681. 
98.18, क प्र 216106४8 = {888 1011158 = इश 0 ए] 808९811 
1.1, क, .11111/1111/11 4.11 1.1, क 11111111. /1.1/1111111/11111111.1 11 1 
१९88681. 8801 श प्रुपएएला€र 2 तश्चा 811818111680) 108 कं 
21{8111108.170 {7 1812]10081 € {क्क एप] ]श्वादैताक्च) 2078 
7827 १९211870 108१९त[1दफोधैपकक) त15व 
21112 #118]]1. 412 88078 8 ए$8ता1108 2071- 
00 प्क [86 १९88८. 98 8) [18106 ९८१8, १९487) 08 
३18. 81110871. ९8 ९194९४४३ 10818118) ए172 9810878 0 ्- 
71181 [02017 एहै 8816 1प्{कदकष86 110 प28 8082097 
ए९तत्‌॥7. = दपेा0 91208, {870 11 १18 एह 9.0 एए 8 एद 1. 9811108 
1 ५९88, 16128 171812118771 त९886€डा. 38 वपर {1810870 ९४४ 
प्रतत पााक्पर0]करकष) 8101. = दिकरश1 २8877 पद06€1 एष- 
02080410 (१) ९6१९ प]& ९३ ९8 [81 0ऽप. 2186950 
8211111108.1{ए8, ए1[1प0 डप. = रप्र 0क1811त8, 010९४ एह & 8) 160 
11185717) € {11816 ] 47810088, एफदताप [९8 , 70918) 8) 
09६18. = 11118801 = 8.110.018. 8888. € रक्षो 67) {98 ए४३त11- 
11181811 8811118881167 81801) ्वएक्ो) 81)668.00 [08887. 4 716- 
९80 त्‌ {68 €रकषकी 0808 तपाद 11810 818 #{80 त{008 $€ए8 
101. ^{112888. ॥व0 018. ए३, 80118 $ 2618, शारद 
08तवताशपा120क्प एर 8 ९8, पशप डप ; 1811112.111878011- 
70 पारोकी दाक [08 पा18पता. 88४1108 {82 21166810 ता 
07 एक्ोी) 784एद, ° इधादार118880 = पपाद10 = 8वङक्व1 ९९४, 2181090 


~ 


13:3:2 9 १9: + $? ५ 


. एक्न््ाक्षपी वदप) ' ध गनल0 पडदा 1188811, 02110618 
8९८82 12तपी पत ए {कत प लं९४९ ३, ६२88३, 82008. 9.ए९.86118. 
त118.1101718.71 १९8३९710 ३}1& : 

& पपा) कडप्रलं प) [एप्रेप्ंपी [08888 21681 ३881 

एद्श्षभ्ा्वपोी 08 कादा6270 एदद्वा 2011081. 
(१।1:111 

% 21118, 1त क 08008 € ए 2118, €{8 प) ३08 1481770, 

त1दप० पतौ 20 08888, 118, 10870 ]पा181द्डा1, 

018 र्ठ ९1810487 ए17त]] €४ एह प 0881118, ९8888797 


नैः नैः नैः नैः नैः नैः 


2105 त€डाक् प8द16€118, 78118 तो [06€5€४ए द, 8018 [02.0011018- 
[कप क्प). # त र 9 1 
{0 ५0€ लप ६३४8 € गानप्रणद ण्टा8€8 18९6 द्य 
2&४010प+€व्‌ ४० दिशत :-- 
पपाद शालं [त्तनि्ी [०७88 दात इक 888ए 1 
4 उप} 1दए8 नापदो 01द एला लाक इप्डकाााक्ाप 0. 
पर 818 105) 6818 €) 8.18 €{क0 ६8.18, [तक्षा 
९९811870 [प्प एकत 081ह181718101111187त्‌ा18ो. 
1/1, 1.1.111 १311 118.1111 11111111, 1111 
(180 88 हए 882 8.1011171001]}28 तश्र 1188171. 
(12.88, 716 810 10811188 ए161811 एवै, 01180 
४ 2110800 (को 8$ क्षपो) (दरु0 109 8810812-081170. 
4 18 71011167 21870 1 व< श] 12.681 ९8 178] 7 21187 , 
411. 11114111. .1.11..1.111 1 
(({1€न 22118, »€868 82-86.) 


{9 € एकाक 8४ा क्ता, 1 06 दफल 01) 11686 
एला86९३, फ6€ पत्‌ 8 जा {जला 11९0 18 इप्08180 61 ४1९ 
88.716 8९ 81187 शषा 7 ४1€ € फपल 070 #116 15011 .रएला६€ 
9 ४1€ [18701708ृ)2त्‌४, व प्०६्त्‌ ०9०९९, (785 वाफीलला७९, 
18 € ए€ा8€8 [प 1710 € ठप ज € एप्तवत्‌) 2, &€ 
1४४९ वारिलाला# ॥1€ा€ कत्‌ २16 ४1 ४16 (10ल1 ३६18 र€ा8९8 
82--84 4००६६ 290९९. {€ (तफल 888 1187 01 {16 
0९ ए68€8 8४४1 प्र४६त्‌ ४० प्रि श्प 7) € (0 ल€नद्टक३ , ५11€ ¶0181 


>. 4 ^ 69. 


{11166 १6868 816 {116 णात्‌ ग 16 3 पतत्‌ 8 9० वप्०४८्त्‌ गाङग 
ए विह, 204 ४16 1887 {0 816 € छक 8118. 1106 
^ [0487188 8180 ९011810 8प्र8कनशाद् ४16 88106 8{्ठि€8 10 
४९786. 


एफ एण वप्त दा ^ प्रा) वप्त 84 प्ऽ््माण 
४ ए2810 7. 

11 §क्पा1त्‌ता218148 3प्तत्‌]8 €)४6&€त 06 1086 €) 
पि 108 &1त्‌ 118 116 फल€ा€ 011 1701106186त 7 [16886 , 17 ॥€ 
एदा ण्लाश0प 8 पतत्‌18 €1#616त्‌ ६16 [१12५९ 1616 81867060 08 
फ€16 ©01101606 [0 ४16 प्श 8९€ @त्‌ ९८०18088. 
(116 [018्स7ह ग 16 श0800] 17) ९188 11871 18 &रला 7 
एक गाल रलशंगा8. = एपा 7 दा प्त8 18 160686४९ 28 
2713108 {0 7€{ध्ाधा 116 00], 70 8४ {€ 68 9 {06 8{ 817 
९886; 110 &{ #16 {001 ग 1४, 70 र 10 {€ (८पाङष्वत, त 80 
०. [7 {6 9४, 16 88 811810३ ६0 ए€५पाा 101 € 
00] 1 1118 181. [7 ॥1€ 8 श्प एला810ा) द्वि तह छन्हि 
2 [02011186 {70170 € 1187816 ६0 लप्र एर€ा०ा6 06 [090४ ० 
€ ९16्लार फ86 तफ, पा 11 {106 द्मा, 8116 सपद्व ठप ४0 € 
1 पऽ 081त्‌ 0 कलप्र व पलदङ्ग. [7 2811 1४ 18 1107 8४९४6 क10 
0010८7९त्‌ कि ९०8, एप 10 क्ष्या ४ 16 18 (0ार्ला6त 
एक्वल्‌1र पप्रा (4789118). पर€ 1846 86 एला] लइ #0 
7ल6परात) 10106 1711 9 क03ा{. उप 10 ए8]1 16 8170101 881 ५६१ 
16 ४88 [01861810 कप {€ा1॥168 2811180 118 0) 11]. {106 806- 
110117९ 110 88.181 18 0116-66त, एप 7 २8] 816 18 क 00प 
11086, 6818 811त्‌ 811. = € ०2 28 [07861810 ॐप्रञ{ल1- 
४168 {07 #116 8क्र€ ण 06 €दरएटप ग प९78618, &08708 , 00 पुः 
08106 11170) 171 {16 82881116 ए€ा8101, एप 10 2811 16 18 0180€ 
116 प ग परताप ज 9] ५06 (इप8. 

07 ॥16 व प्९न्ढलमा)8 17000 281} 1 90 16006 ॥0 प्क 
{160 {10168807 कवाक0201 (व्यद ण्वाति, 1.4.., त 06 ल्श 
१6९ (0०11686, (भ९प&, 10 198 ॥1170प्टारप+ 06 पण्णे 
ण इदप्0त्‌काव8०त्‌९ छर१९९त्‌ 8 हलयाप्र0९ [आ४लाल्डा 79 #1€ कठा. 

1४ 1198 0661 88त्‌ 18४ 88 पत९६०९त१8 18 107 170 फ) 
लशधरालाः 10 (018 07 10 (106४. उप पालाः€ 18 870]016 6९16066 
10 816 {18४ {116 फ णा"]र 88 ठका) 800 इ्परतालत्‌ क 86112941 


784 09. डा 


17 ४116 एधा प्ा& ग ४116 156 एलापाङ़ ज ४16 (इनि 18. 
उकार णएवेवात्‌8 कलाः, 110. फ7006 8 (0ापपालाान्वफ 0 ४९ 
4 7181810६. , ९ ४९8 8871081811811त8 88 811 व प्॥1071{. ९168 
368 शा उव पपार8 186 16 द०फालाा्िफ 28 फाला 
एल€्णएल्€ा) 1417 21त 1431.1 = [7 06 [द प्ल्ला एलका 8710116 6010- 
लाद 0 116 4118181 088, 8.8 16661 0 -31188]0801 
फए1{]) ५16 #ध€ ग दिष्क्ापहप8. 0 ५186 (छफ्ाालाात्द्कक, 100) 
8वप्ा1त881811त8 1188 दला ©1घ्€्त्‌ 88 क कप््राजप्.* (11118 
8108 16 पाक्षं ग ४16 फजयर 10 867६ 8 #126 प्6. 
€ श्पणठाः ^ इए २९11082 1188 16611 68611060 88 {16.801 
ण ऽपरकापह्ा, 81 11021010 8110 01 98.९68 ण 88168, 81४8, 18.818, 
#120808110108 87त्‌ 219108९ 8471. 411 ४118 [017४8 [7 (प्र 88 
8 &@९६४ उ प्रतत्‌]18४ [णट्क्ललाः क्त्‌ फां ष्टा. रपि क्या]10 8४10 प(68 
8€टला॥ फए0ाएड 80 1177 कात्‌ उपपाद लापा 2.८8 6 ९।॥ ए 0 फ 0118 
28८5००३५ एङ 7. व ककक्रला7द ण दधा 70 वाह 
एक19, {78118126 ग पटढणाद्य 170 0ट]781 -06101&8 प०त१०प०४- 
€वा ४० € 191वदा% 80100. पौ ४6 वकल0€ णं इत्र 
१३१० 0 शाप पाराय) ग दरदा] 188 000 € 
€ त९२५्‌०]९त्‌, 11116 ५16 1468 गं 88 एह 0४0€ा5 ॐत 11606 
एलं (०फष्ला४९त्‌ फा 006 8877 ता 01168 01 ३0प] तारा 
 ला६०६68§ ^ उ९8.211058.*8 १०९४1768 {7070 1116 जृतलाः कए 8 वृदे 
18, ग]11611 7€08118 ©0पला{ ए161 01678 01) 8३1९8110 01. 
(€ 18 का [ताश्च ४7841107 [71€इलार्लत्‌ 1 (1108 187 ^ इए 8- 
11058, 88 1116 81४ [९८९ ° 18115158, ॥116 ‰168.॥ 
एत०-उ० नाक पातात] 111011870]1 0 268]. 111 {06 1180 ता क्ण 
27618 0 37५11187) 118 [01866 18 {1117 170 ॥1€ व८8८ाोता०६ 11116 
{7010 {118 ग एक्ाइए३ , फ]10 ]7€ड १९१ ‰॥ 16 &768४ (द०पफल] ग 
९801518, 804 #117त्‌ 17 ॥16€ 28९61व्‌702 116 {7070 टके] 1२.) 
{16€ {0प0व्‌€ा जग इत्र २४३१९. 411 1018 81108 {1130 116 पप्र 
1ॐ€ 0718116 @00प{ "€ €@त्‌ ग 706 185४ व्लाणपाङ 4.1). 
86५९86९ 8३7] प0९.३ १९४९ 18 णलाङ़ € कु 26 ४ 106 10- 
लए ग 18 174575८ 771 ५16 च १९९२४ ए 2९४8 8 प. (108 


1 ९०४ ०0 8 86०) 9 808८६ 8त्‌ वहत] ककपप्ञटात065 0 ५) 
5९878 1893-94, ए. 24 814 ६2. 
» 2.70..6., ए. 117, = 8 8९6 47९1. ‰.6., ३०) [०व१, एण8688› ए. 112. 


ष 


म 


५ 
। > 
५... च 


प 1.८; 
१ ५ ५ 17670 पड ६0 कष8्क | प8, 87त्‌ 80 16 पऽ 186 0 प्रा8106व्‌ 
४ ०५. ५। 116 ©) † {16 181 (लापा. 


श््11 ॥#:121 2 १०28 


11836111007 18 फाला 10 76 ध 717 (दलरपाङ्ग पदा) 31781701 
(8110 1100 1 {€ ल॑ प]8 &8 ए प1&€88 86€ला18 {0 प्र] 0086 7 
0 प४नणदड्ु 1४ त0कप 2४ 600 4.7).), 80 81] पा 70 प8५ [8४6 
00 पा181€त्‌ ४० 8प९९6881018 016 11171, 2.९. , ४0०प४ #6€ लात्‌ 


9 ६16 27त (ल्पा &.1{)., 21त्‌ 4 इ४2£11088 ५० 80९66881078 


५ कः ~ ब 


# 


1 0 06 8प६९९३॥९ब्‌ 166 ४186 {116 1080001 । 1 € 


+ 4 इण 10118" 8४ 8818118.0118 166017व710 = 80161111 2 1818 
 ^8ए.11088, 1 {116 401} €दा' (ग {९ 871181२8) (१), 118. 06 कर्थ 


16त्‌ ६0 पाः कप्प्ाः, 28 [0क्छपि] 0718 €<) 10 0प्राः ५३8 
18९6 {16 8]€्‌]8 00 ° 88 81त्‌ 11811818 }8 &1रला) 0 "€. 
(पड 1676 18 8 नाका जा €शवला९€€ #© ००706९६ छपा कपीन 
11 ५16 €] [6० ग {946-8९ङ् क्ष 4०077010 17 1018. 

48 0 {16 [1५ ग 1118 01711) $पद्रपाद्तं ०५68 86४68 
[ताक नक्ता जाऽ [10 का 171 (11108 81 ९०८पत€8 187 16 
108. 18.7९ 10661 00711 87 ए ]166 17) 172, एष 10 16 प्रजी, 
एप ध८ प्रताप 6त्केठकवानव्व क क्ट 1). 
16 79प्ऽठा[00 ज ककव एषां जन्ल) पत्‌ठप्रएल्वङक 1 ५06 1200 
९लशा$प्रा फ़ 18 10 प्र९]) 71016 7678016 धाश्च 6९11068 ग 10190 नक्ता 
1018 {7071 (11118 ; 87 8९८्८ता9६ ४0 186 ॥84160प 06 ७88 
21) 111118101687 ° 88९१8, 8 लाक 170 ॥1€ 1010तल 10 रं966 ग 
0प्त. 118 € 88 & 37817017) 1 10170. 18 6९10606 {0 
113 11111186 11107166 ग 16 #€५16 1016 त)ऽ]195९५ 001 7 
98५९९81५ 804 3 पत्‌त्‌112९व1४३. 

3681068 16 फ़0ार8 2{7710प€व्‌ 0 1117 0 वि 20]10 #प्रत 
अप्रदपापं ॥1€16 18 &71077€ा तार [00 10 1012 21006 
11101) 1188 प0त्‌€ा्०ा€ > एद्टपाक्ष लक0ि180107 17 #16 
18148 0 ॥16€ {0110 लाइ ज 5811818. {1018 छता 15 लानि्रल्व्‌ 
४ 8}198प्ला 07 € त2000प-66प्‌16€. 1४ 18 & [01610681 क णाधःः 
फाला) 100 &7€8# [00 एला 2211081 ४16 ९८९816-88601. = 70168- 
807 ए€ाात्‌श्न्‌] वल्डल0€8 10 7 118 (00114 (१४९1०दप९. €. 
217. +0111187080 20४ & ९० गं € फजर 8 सपाः, 70 06 


1 ए. 1०4. , एग. ए, एए. 171, 172. 


3:33 १92) 111 


एला क्8, एप 0118106 1॥ 10 1839 फा)  कर्टप्नि०ा एष # ए81811- 
1018112, €11#16त्‌ ४९ ]४सप०ा{क्]र 8. ^ 78. 0 ६116 फणर 18 0 06 
0प्ात्‌ 71 छपा [एष एप 10 छपा [107 01€76 876 0णाला 
णु € ग #1€ ४8]प४इप्ल हला 21080 17 116 88116 ए07त्‌8 एप 
1€81त€त 88 95248 871त्‌ कए पलत ४०: रक रवा (वफ 8. 
1६ 8108 110 १८९91 ४५116 ^ त ए९108.1118 68 18 1106०४९ ४० ४१€ 
2768४ ए] {ला§ ४6 1218. 8118 8611001. 

(106 [कए ए8.९8.1188870 ९९१३, ॐ) 21111010 ए त1860ण्€ा्व्‌ 
एङ 706 771 दकष 4०६९8 4 इए8.९1058.1 1४ फ०पात्‌ € €९९९6त्‌- 
17द्ाङग [लिलत ४0 ९600016 16 एला8€8 81710 प४6त्‌ 0 
4 उए8९11058 17 186 फछाःर शाप) 11086 70 ए प्ततााश्टक ६६. कात्‌ 
8811008787181108. उप {€ तापर 18 110४ 17 [7त्‌78. 10 188 
€< 00706 ४ 17. {1101085 त ४16 [7072 000९९ [जक्ष , 
पए10 18 €ताप्1£ 1६ कत्‌ क]0 1] = पणतठप एष्व्‌ 1081€ 1116 
९0100 1801, 111९ 1 70 1107 17 ॐ [00810 ६0 त०. = एप 16 
1 18 (लाक. (1116 218. 18 फाल) 17 ४16 106 दलाक्पाद 
©118186{ल€ा' &त {116 19४68४ {0€४8 10616016 &€ 3118 ए 8701 प्रेण, 
पादातं 87 ९.8] ४इलुद11878, फ 110 00 पा7816त 170 116 8711, 9४] शत्‌ 
100 उला{पा68, 7८8एदल्८प्िरलुङ्क. 706 णार 1018 06 र्घटय 
१०7 10 #1€ 10४) (लापा, 81161 1186 87 {1186 {106 
4 उए8.९11058, 88 00प्र1६6त्‌ श्व०ा7ष् ॥116 768६ [0९४8 ग [ता 
8० 00णाक्षः 88 4 इ ए३.९11088, 17 81616106 2116 7166188 ए ९] [7078 
{187 क्च 00067 [00608 18ए९6 टला ९०फ00पात्‌ह्त्‌ प्री [17). 
व्च 88 171 लाद 60007001 72० , 80 [तद शठा 0ा 
क़ 1817 88.711 18 20710 प्€्त्‌ 0 {९ व्रात €& , 80 116 फएता]र8 
का 7077071" [00९४8 प३6९त्‌ 79 कलाल [0त्‌ा2/ 00 € क न्तएपल्व्‌ 
0 {0८ &768॥ [०6४ ग एप्तताडा. ~ 7. {1100088 188 870] १९६७४ 
ए1#1 ॥686,-- 12. 116, {01101 {18111212 , 68118 कारलि'ला४ 
1871168 2 ^ इए 8.11088--11) 1118 8171९616 710 {16 ‰10 पा €) 811 
11 1118 श्ल ०) ){क्प९ल2 21 2181818] 2 ९ 27111 8161र118. 111 
{16 [वाश्च 40्वु प्फ, 86ह्टा006€ा, 1903, 80 ॥187 1 76त्त्‌ 
106 त18८प88 {116 468६107) 676 &{ 81]. 


1 $ €]. 07 1895 ४० 1900, एए. 21 &०4 2२. 


~ 


ष 


6 


(0. 
९23 


सोन्दरनन्दम्‌ काव्यम्‌ । 


प्रथमः सगेः। 

ॐ नमो बुदाय । 
गोतमः कपिलो नाम सुनिधेम्मेभ्तां वरः। 
बश्रूव तपसि श्रान्तः काच्तौवानिव गोतमः ॥१॥ 
्रगश्रिचियत्‌ चस्य ततं दौप्नं काश्यपवन्तपः । 
सुभियाय च तद्द्धौ सिद्धिं काश्ठपवत्‌ पराम्‌ ॥२॥ 
विषे यश्च खात्मायं गामभुच्तत्‌ वशिष्ठवत्‌ । 
तपःश्ष्टेषु भ्रि्षु गामधु(घो)चत्‌ वशिष्टवत्‌ ॥२॥ 
मादाव्यात्‌ दीर्घतपसो यो दितीय इवाभवत्‌ । 
दतौय इव यश्चाश्डत्‌ काव्याङ्किरषयो द्विया ॥४। 
तस्य, विस्तोणंतपसः पाञ्च हिमवतः प्रभे । 

कें चायतनद्चेव तपसा माश्रयो ?ऽभवत्‌ ॥५॥ 

र्चारनोरुत्तरुवनः प्रक्िग्धष्डद्‌ शाइलः । ` 
विध्रमवितानेन यस्सदाभ्रे इवाबभौ ॥६॥ 
खटदुभिः सेकतेः" च्िग्धेः केसराप्तर पाण्डुभिः । 
मिभागेरसंकोणैः साङ्गरागर इवाभवत्‌ ॥७॥ 


१ ?. #. तस्या 1. , २ ?. 1. अभियो 1. 
इ ?. 11. चर्° "7. 8 7. ‰¶. स्यैकटैः {. 


५ केसरारूगपाण्डभिः। ६ ?. 14. सारुराग्‌ । 
1 | 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ | । 


प्रमचिभिस्तो थैसंख्यातेः पावने भावनेरपि । 
बन्धुमानिव यस्तस्थौ सरोभिः सरो रुहैः ॥८॥ 
पर्य्या प्रफलपुष्याभिः स्वतो वनराजिभिः । 
ग्रद्णभे वदषे चेव नरः साधनवानिव ॥९॥ 
नो वार फल सन्तुष्टः सस्यैः" गान्तेरनुत्सुकरैः । 
च्राकौर्णोऽपि तपोश्ङ्गः श॒न्यशयन्य इवाभवत्‌ ॥१ ०॥ 
अग्नोनाम्‌ हयमानानाम्‌ ग्िखिनाम्‌ कूजतामपि । 
तौर्थानाच्चाभिषेकेषु श्रञ्रुवे तत्र निखनः ॥११॥ 
विरेजुः हरिणा यच सुप्ता मेध्यासुः बवेदिषु । 
सलाजेमांधो पुष्येरुपदाराः छता इव ॥१२॥ 
श्रपि चुद्रग्टगा यत्र शान्ताञ्चरः समं शेः । 

, आर ्येभ्स्तपख्िभ्यो विनयं भिचिता दव ॥१३॥ 

` सन्दि्येऽपि पुनर्भावि विरद्धेष्वा गमेख्वपि । 
प्रत्यकिणर दूवाकुव्वेस्तपो यत्र तपोधनाः ।.१ ४। 
यच स्म मौोयते* ब्रह्म केखित्‌ कैथित्‌ न मोयते* । 
काले निमोयते५ सोमोऽ न चाकाले प्रमोयते ॥१५॥ 
निरपेच्ला(]शरौरेष धर यच खबुद्धयः । 
संदृष्टा दव यनेन तापसास्तेपिरे तपः ॥२१ ६॥ 


९ ?. 1. सख्यः । २ 7, 4 सुप्तमव्याञ्च। 
३ १. 1. प्रदच्तिग । 8 1. /, लयते । 
५ 12. 1. निलयते । ६ ?. 11. भूमौ । 


ॐ 1. 4. पलौयते । = = [. 1. अन्तेन । 


पथमः सगेः । 


श्राम्यन्तो सुनयो यत्र स्र्गायोद्‌युक्तचेतसः । 
तपोरागेण धम्मस्य विलोपमिव चक्रिरे ॥१७॥ 

अरय तेजखिसदनंः तपःचेचः तमाश्रमम । 
केचिदिच्वाकवो जग्म राजपुत्रा विवत्छवःः ॥१८॥ 
खवणेस्तम्मवर््राणः सिंहोरस्का महामुजाः । 
पात्र शब्दस्य महतः* अियाञ्च* विनयस्य च ॥१९८॥ 


त्रदरूपा द्यनहेस्यर महात्मानश्चलात्मनः । 

प्राज्ञाः प्रज्ञाविसुक्तस्य भ्वाटव्यस्य यवौयसः ॥२०॥ 

मादश्ल्काद्‌ पगतां ते श्रियं न विषेहिरे । 

रर चु पितुः सत्य यस्माच्छिञ्चियिरे वनम्‌ ॥२१॥ 

तेषां मुनिरूपाध्यायो गोतमः कपिलोऽभवत्‌ । ¦ 

गरोगेचरादतः कौ सास्ते भवन्ति स्म गौतमाः ॥२२॥ 

एक पिच्रोयेथा श्वाचोः एग्गृरूपरि ग्रहात्‌ । 

राम एवाभवत्‌ गार्ग्यो वाखुभद्रोपि गोतमः ॥२२॥ 
. श्राकटचप्रतिच्छन्नं< वासं यस्माच्च चक्रिरे । 

तस्मादिच्चाकुवश्वास्ते शुवि शाक्या इति स्मृताः ॥२४॥ 


१ २. 21. तेजाखसदने। २ {?. 1. °त्तचं। 
द ?. 4. विक्खभरः | 8 {. 21. मेदतः। 
५ 2. ¶. शियाच। ६ !. 11. नेदस्य । 
७ ?. 0, सस्तत । < . 14. ग्गो । 


< 2. 24. शोकदतच्तपरिच्छन्न। ` 


# 


४ सौन्दरनन्दं काच्यम्‌ । 


स तेषां गोतमश्चक्रं ख्व शसदृशो" क्रियाः । ` 

सुनिर्ब्वैः ! कुमारस्य सगरस्येव भार्गवः ॥२५॥ 

कण्वः शाकुन्तलस्येव भरतस्य तर खिनः । 

वाल्लीकिरिव धोमांश्च धौमतोः मेथिलेययोः ॥९६॥ 

तदनं मुनिना तेन तेश्च चचिन्रपुङ्गवेः । ` 
8 शान्तां गघ्ताञ्च युगपत्‌ ब्रह््त्रिय दघे॥२७॥ 

॑ योद कलसं रद्य तेषां दद्धिचिकौषेया । 

` सुनिः-स वियद्‌त्पत्य तानुवाच नृपात्मजान्‌ ॥२८॥ 
्रपतेत्कलगशाद स्मात्‌ अ्रचय्यसलिलात्‌ महोम्‌ । 

धारा तामनतिक्रम्य मामन्वे(्)त यथाक्रमम्‌ ॥२९॥ 

ततः परमभित्युक्ता ग्रिरोभिः प्रणिपत्य च । 

रथानाररुह्ः सव्वं शोप्रवाहनलङ्कतान्‌ ॥२ ०॥ 

ततः स तैरनुगतः स्न्दनख्येनेभोगतः । 

तदाञ्रममहो [| यांतु परिचिक्षप वारिण ॥११॥ 

अष्टा पद्‌ मिवालिख्य निमित्तैः इुरभौरुत[]म्‌ । 

तामुवाच सुनि: खिला श्मिपालखतानिदम्‌ ॥ २ २॥ 

श्रस्िन्‌ धारापरिकि्े नेभिचिद्धितलक्षणे । . 
देनिभ्भिमोध्वं पुरं यूयं मयि याते चिविष्टपम्‌ ॥९२॥ 

ततः कदाचित्‌ ते वौराः तस्मिन्‌ प्रतिगते मुनौ । 


१ 1. 21, सटाः क्रियाः । र 2. 01. मनिर्द्धं । 
३ 1. 11. निभ्मिताध्वं 1 | | 


पथमः सगेः ¦ ५ 


बस्सु [| ष्यौवनोदामा गजा दृव निरङ्श्ाः ॥द४॥ 
१्बद्धा ङ्गा क्ुलिजाणारदहस्ताधिषठितकान्बैका[ः]। ~ नि = 
शराश्रात मदाद्वणं याता विद्धवाससः २/६ न्व 
जिज्ञासमाना नागेषु कौशलं श्वापदेषु च। ,, व 
अ [नु]चक्रवेनस्थस्य दौ श्रन्तेदेवकम्मेण ४ 
तान्‌" दृष्टा प्रतिं चातान्‌ इद्धा स । 
तापसास्तत्‌ वनं हिता हिमवन्त सिषविरे ॥३ ७॥ 

ततस्तदा श्रमस्थानं शून्यं तेः शन्यचेतसः । 
पश्यन्तो मन्युना तप्ता व्याला* इव निशश्वसुः ॥२८॥ | 


अथ ते पुण्यकर्माणः प्रत्युपख्वितटद्धयः । 
तत्र तजृन्नेरपा ख्यातान्‌ अवापु्मंहतो निधौन्‌ ॥२९॥ 


अलं घर्म्रायेकामानां निखिलानामवाप्तये । 

निधयो नेक विधयो श्र यस्ते गतारयः ॥४ ०॥ 
ततस्तत्रतिलम्भाच्च परिणमाच्च कममणः । 

तस्मिन्‌ वास्ठनि वास्तुज्ञाः पुरं श्रौमच्यवेशचन्‌ ॥४ १॥ 
सरिदिस्तौणेपरिखं स्पष्टाितमहापयम्‌ । 
जेलकल्यमदावप्रम्‌ गिरिव्रनमिवापरम्‌ ॥४२॥ 
पाण्डुराडालखुसुखं सुविभक्ान्तरापणम्‌ः । 


९ ?. 21. यविनोदासा. २ 7?. }1. बद्धगोष्ाङ्लिवाणा 1. 
२ 2. 21. इस्तविद्टित ^. 8 {. 1, तां. 
५ ए. 11. बयाजा 1. द्‌ २. 1, ‹रायनम्‌ | 


+ 


सौन्द्रनन्द्‌ं काव्यम्‌ । 


दम्येमालापरिचिप्तम्‌ कुक्ति हिमगिरेरिव ॥४२॥ 
वेदवेदाङ्गविदुषः तस्युषः षट्‌ख कम्मेख । 
शान्तये दद्धये चैव यच विप्रानजौजपन्‌ ॥४४॥ 
तद्ूमेरभियोकरणाम्‌ प्रयुक्तान्‌ विनिरृन्तये । 
यत्र खेन प्रभावेन ल्ट देण्डानजौजपन्‌ ॥ ४ \॥ 
चारि चरधनसम्यन्नान्‌ सलल्नान्‌ दौघेद शिनः । 
च्रहेतोऽतिष्टपन्‌ चैते शरान्‌ दक्तान्‌ कुटुम्बिनः ॥४६॥ 
यस्तेसेनतेगी रेयुक्तान्‌ मतिवाज्क्रमादिभिः । 
कममसु प्रतिरूपेषु सचिवांस्तान्‌ न्ययूयुजन्‌ ॥४७॥ 
वसुमद्धिरविभरान्तेरलंविेरविकितेः। 
यदभासे नरैः कोणम्‌ मन्दरः किन्नरोरिव ॥४८॥ 
यच्च ते इष्टमनसः पौरप्रौ तिचिकौषेया । 
ओरौ मन्त्यद्यानसंज्ञानि यश्रोधामान्यचौ करन्‌ ॥४८॥ 
3 शिवाः पुष्करिणौखेव परमाग्यगुणाम्भसः । 
1 “0. 82 (न शाजनया चेतनो दिव्‌ सनासः चेतनोत्कर्षात सर्व्वाख चो खनन ॥५०॥ 
/ 719 मनोज्ञाः] ओमतोः प्रष्ठः" पयिष्‌पवनेषु च । 


; 1.८ “~ सभाः कूपवतोओचैव ममन्तात्‌ प्रत्य तिष्ठिपन्‌ ॥५१॥ 


? रि अ 


= 0 


( हस्त्य श्वर थसङ्ो णं श्रसद्गोणमनाङ्ुलम्‌ । 
अनिगूढायेःविभवम्‌ निगूढज्ञानपौ रुषम्‌ ॥५९॥ 


१.१. 14. षषः । 
२ {. 1. अनिगृढाधिं० । 


प्रथमः सगेः। ७ 


सन्निधानमिवार्यानाम्‌ ्रघधानमिव तेजसाम्‌ । ` 
निकेतमिव विद्यानाम्‌ संङेतमिव सम्पदाम्‌ ॥५३॥ 
वासटृच्तं गुएवताम्‌ च्राश्रयं शररेषिणणम्‌ । 
श्रान्ते छृतश्टास्ताणाम्‌ आलानं बाङ्कश्रालिनाम्‌९॥५४।॥ 
समाजेरुत्पतैः दाथः? क्रियाविधिभिरेव च । 
्रलंचक्ररलंवो यास्ते जगद्धाम तत्पुरम्‌ ॥५५॥ 
यस्मादन्यायतस्ते च कच्चिन्नाचोकरत्करम्‌ । 
तस्मादल्येन कालेन तत्तद्‌ापूपुरन्‌ पुरम्‌ ॥५६॥ 
कपिलस्य च तस्येस्तसिननाश्रमवास्तनि । 
यस्मात्ते तत्‌ पुर ञ्चुः तस्मात्‌ कपिलवास्त॒ तत्‌ ॥५७॥ 
ककन्दस्य मकन्दस्यरं कुशाम्बस्येव चाश्रमे । 
पुय यथा हि श्रूयन्ते तैव कपिलस्य तत्‌ ॥५८॥ 

प्रापुः पुर तत्‌ पुरूहतकल्पा- 

स्ते तेजसार्य्यण न विस्मयेन । 

च्रापुः चशोगन्धमतञ्च शश्वत्‌ 

सुता ययातेरिव कौ्निंमन्तः ॥५९॥ 

तन्नायवन्तेर पिराजपु्रे- 

रराजकं नेव रराज राष्रम्‌ । 


९ २, 1, खाह्लानां बाड्धसालिनाम्‌ । ?, 11. /. खालानां बाह्- 
प्रान्दिनाम्‌। २ ?, 11. दाश्चियेः। ` ३ 1. 11. ग्टकन्दस्य। 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


तारासहखेरपि दौप्यमानैः 

्रनुत्थिते, चन्द्र दवान्तरोचम्‌ ॥ ६ ०॥ 

यो ज्यायानय वयसा गुणेश तेषाम्‌ 
भ्रादरणणम्‌ षभ दवौजसा टृषाणणम्‌ । 

ते तच प्रियगुरवस्तमभ्यषिञ्च- 

न्नादित्या दशश्रतलोचनं दिवौव ॥६१॥ 
आचारवान्‌ विनयवान्‌ नयवान्‌ क्रियावान्‌ 
धश्मोय नेरद्दियसुखाय टेतातपन्नः । 
तर्‌श्राटभिः परितः स ज॒गोप राष्रम्‌ 
संक्रन्दनो दिवमिवानुद्टतो मरुद्धिः॥६२॥ 


सौन्दरनन्दर-महाकाये क पिलवस्तुवणेनो नाम 
प्रथमः सगः । 


१ †. 11. अनुदिते । र 1. }1, धम्भ(यतेन्दरिय° । 
इ 12. 11. सन्द रानन्द्‌ ° । | 


दितौयः सगः । 


दितलौयः सगैः । 


ततः कदाचित्‌ कालेन तदवाप कुलं क्रमात्‌ । 
,राजा ष्रद्धोदनो नाम श्टद्धकम्मा जितेद्धियः॥१॥ 


यः स सव्निनिकामेषु भओरौप्राप्नौ न विसिस्मिये। 
, 4 , | 4 नापमेने परान्‌ ख्या परेभ्यो नापि विव्यये ॥९॥ 
0 


)^4८॥ ( 2 ॥ 


{ 


बलोयान्‌ सत्त्वसम्पन्नः श्रतवान्‌ बुद्धिमानपि । 
विक्रान्तो नयवांञ्चैव धौरः सुमुख एव च ॥३॥ 
वपुश्रांश्च न च स्त्धो दक्षिणो न च नाज्नेवः। 
तेजसौ न चन चान्तः कत्त च नच विस्मितः ॥४॥ 
राकः] शच्रभिः संस)ख्ये सुहट्‌भि[ख] वयपाभ्रितः । 
्रभवद्यो न विसुखः तेजसा दित्छयेव च ॥५॥ 

यः पूर्वै राजभिर्याताम्‌ यियासुर्ध्पड़्तिम्‌ । 

राज्यं दौचामिव वदन्‌ टन्तेनान्वगमत्पिढन ॥६॥ 
यस्य सुव्यवदहाराच र्णा सुखं प्रजाः । 

शिशिरे विगतोदेगाः पितुरङ््गता इव ॥७॥ 

छत शास्तः कृतास्त्रो वा जातो. वा विपुले कुले । 
अृतायो न ददृश्र योऽख द्‌ शेनमो यिवान्‌ ॥८॥ 


९.7. #, नामि। 


१ © 


सोन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


हितं विप्रियमणक्तो यः श्राव न चुक्भे । 
दुष्कृतं बह्ृपि त्यक्वा सस्मार कतमण्ठपि ॥<॥ 
प्रणताननुजय्राइ विजग्राह कुलदधिषः । 
आपन्नान्‌ परिजयादह निजग्राह स्थिता[न्‌] पथि ॥१०॥ 
प्रायेण विषये तस्य तच्छौलमनुवत्तिनः । 
अन्जं यन्तो ददृशिरे धनानौोव गुणानपि ॥११॥ 
्र्चे(ध्य)्ट यः परं ब्रह्य नाध्ये(भ्या)ष् सततं एतेः । 
दानादि पाचेभ्यः पापं नाङत किञ्चन ॥१९॥ 
शत्या. र्रक्तौत्रतिज्ञां स सदाजोवोदयतां धुरम्‌ । 
नद्यकाङ्खेत च्यृतःः सत्या नूहनत्तेम पि जौवितम्‌ ॥१२॥ 
विदुषः पथ्यृपासिष्ट यकाशि्टात्मवत्तया । 
रोचिष्ट च शिष्टेभ्यः मासौषे चन्द्रमा दव ॥१४॥ 
श्रवेदोत्‌ वुद्धिश्ास्ल्ाभ्याम्‌ इद चासु च चमम्‌ । 
अरच्तौत्‌ धेय्यैवौय्येभ्यां इद्दियाण्छपि च प्रजाः ॥१५॥ 
च्रहार्षो[त्‌] दुःखमारत्तानाम्‌ दिषतां चोजितं यशः । 
8 च नयेः श्चूमिं श्यसा यश्रसेव च ॥२६॥ 
छष्यासोत्‌ दुःखितान्‌ पश्यन्‌ प्रत्या करुणात्मकः । 
नाघोषोत्‌ च यशोलोभात्‌ अन्यायाधिगते्धनेः ॥ १ ७॥ 
सो हाद दृ ठभक्तित्वात्‌ मेचेषु विगणष्वेपि । 
नादिदासौत्‌ अ्रदिषसौत्त सौसुख्यात्‌ सखं(्व)मथेवत्‌ ॥ १ ८॥ 


१ ?. 1. °रात्तौत्‌। 
२ {>. 11, न द्यवाच्पाच्तः 12. 1, 14. 1701807९ जावत । 


दितोयः सगः । श. 


च्रनिवेद्यायमरह्यो नालिचत्‌ किञ्चिदशचुतः । 
गामधर्डेण नाधुचत्‌ खरतष॑ण गामिव ॥१<॥ ्् 9 
ना्कचत्‌ कलिमप्राप्तम्‌ नारचत्‌मानमेशवरम्‌ । > 29 -“/ 
त्रागनैबेद्धिमाधिक्षत्‌ चश्माय न तु कौत्तये ॥२० 1 
्ेशार्ानपि कांञित्त्‌ नाक्किष्ट क्लिटकम्मेणः । स 
त्य्येभावाच्च नादिचत्‌\ दिषतोऽपि सतो गणान्‌ ॥२१॥ 
आत्‌ वपुषा दृष्टौ: प्रजानाम्‌ चन्द्रमा इव । 
परसखं सवि ,ना्डकत्‌ मदा विषमिवौ (वो)र गम्‌ ॥₹२२॥ 
धन्ना षये तस्य कञ्चित्‌ के्ित्‌ क्रचित्‌ चतः? । 
अ्रदिच्चत्‌ तस्य इस्तम्यमात्तेभ्यो दभयं धनुः ॥२३॥ 
कृतागसोऽपि प्रणतान्‌ प्रागेव प्रियकारिणः । 
९... (श्रोदचिग्धवा दृष्या छच्तणेन वचसा सिचत्‌ ॥२ ४॥ 
वद्धौरध्यगमत्‌ विद्या विषयेष्वक्रुदव.इलः । 
स्थितः कान्तेयुगे घन घम्मोत्‌ छृचछऽपि नाखसत्‌ ॥२५॥ 
्वद्धिष्ट गृणे: शरश्चदरधत्‌ भिचमम्पद्‌ा । 
श्रवस्तिंष्ट च दद्धेषु नाटृतत्‌ गदति पथि ॥९६॥ 
ररौ ्मच्छन्‌न्‌ गृणेभ्वन्सेनरौरमत्‌ | 
रमर्नाचचुदत्‌ खत्यान्‌ करः नापौपिडत्‌ प्रजाः ॥९७॥ 
रक्षणात्‌ चेव शौर्य्याचच निखिलां गामवौवपत्‌ । 


५ ?. 21. नादयुत्तत्‌ 1. र +. 1. कुतः । 
३ ?. 1. प्राणः । 


श्‌ 


सौन्दरनन्दं कावम्‌ । 


स्ष्ठया दण्डनोत्या च रािसत्रानवौवपत्‌ ॥२८॥ 
कुलं राजषिडत्तन यश्रोगन्धमवौवपत्‌ ।' 

दौघ्या तम दृवादित्यः तेजमारौनवौवपत्‌ ॥२९॥ 
्रपप्रथत्‌ पिहञ्चैव सत्‌पुचसदुेः गुरः । 

स लिलेनेव चाम्भोदो" इत्तेनाजिह्दत्‌? प्रजाः ॥₹ ०॥ 


दानैरजखविपुलेः सोमं 2 न्‌ अषनृत्‌ । 
राजधश्मेख्ितलाच्च कालं संख भखषवत्‌ | दे १॥ 
अधभ्िष्ठामचकयन्नकथामकथंकथः । 

चक्रवर्तोव च परान्‌ धम्मोयान्युदसौर्सहत्‌ ॥३ ९॥ 
राष्रमन्यच च वलेन स किञ्चिददौदपत्‌ । 
स्तयैरेव च सोद्योगं दिषद्पेमदौदपत्‌ ॥३३॥ 
सेरेवादौदपत्‌ चापि श्यो श्यो गैः कुलम्‌ । 
प्रजा नादौद पच्चैव सव्वैधन्मेव्यवस्यया ॥ २ ४॥ 
श्रान्तः समये यज्वा यज्ञश्रमिममो मपत्‌ । 
पालनाच्च दिजान्‌ ब्रह्म निरद्‌ विग्रानमौमपत्‌ ॥₹ ५॥ 
गरुभिविंधिवत्‌ काले सौम्यः" सोमममौ मपत्‌ । 
तपसा तेजसा चेव द्विषत्‌ सेन्यममौ मपत्‌ ॥९ ६॥ 
प्रजाः पर मधम्मज्ञः खड धम्मेमवौवपत्‌ । 


९ २. ४. चस्तो दौ। २ ?. 01. अजिक्कदत्‌ | 
३ 12. 1. परां धम्भायाभ्यद सौवहत्‌ । 
8 7. 1. 14. सोभ्यः। 


दितौयः सेः । शद 


द्‌ गरेनाच्चैव धष्मस्य काले स्वगे मवो [व]पत्‌ ॥३ ॥ 
वयक्तम्ययेृच्छरषु नाधम्मिष्टमतिष्टिपत्‌^ । 
प्रिय इत्येव चाशरक्त न मरागात्‌ अ्रवोटघत्‌ ॥३ ८॥ 
तेजसा च विषा चेव रिपून्‌ दान्‌ दोमषव्‌ › 9८ ।- 
यश्णोदोपेन दौ प्रन प्रथिवोच्च त्रीभसत्‌ ॥२८॥ 
आनृश्स्यान्न यश्रसे तेनादायि सदाथिने। 
द्रं महदपि त्यक्ता न चेवाकत्तिं किञ्चन ॥४०॥ 
तेनारिरपि दुःखात्ता नात्याजि शरणागतः । 
जिला दृक्तानपि रिपन्‌ न तेनाकारि विस्मयः ॥४१॥ 
न तेनाभेदि मर्य्यादा कामाद्‌ देषाद्‌ भयादपि । - 
तेन सत्‌खपि भोगेषु नासेवो द्दियदत्तिता ॥४२॥ 
न तेनादशि विषमं कार्यये कचन किञ्चन । ४,८.०१ 2, 
विप्रिय प्रिययोः कत्य न तेनागामि निक्रियाः ॥४ द॥ दि : 4 
तेनापायि यथाकल्पं सोमश्च यश्र एवच । “ˆ = (८ 
बेदशान्नायि सततं वेदोक्तो धगमे एवच ॥४४॥ (६ -५ (7† ;5.{ 
एवमादि भिर त्यक्तो बग्दव सुलभः गणे: । 
अश्रक्य्रक्यसामन्तः शाक्यराजः स शक्रवत्‌ ॥४५॥ 
रय तस्मिन्‌ तथा काले धष्मेकामा दिवौकसः । 


विचरदि शि लौकस्य धच दिद चवः ॥४ ९॥ 


९ ?. 24. ना म्नि मतिग्बपत्‌ । २ †. 01. अवोहसव्‌ । 
द >. 1. न तेनादाधि विषमं काम्य । 


१९ 


1 


| 


सोन्दरनन्दं काव्यम्‌ । . 


धश्मोत्मानः चरन्तस्ते धम्मजिज्ञासया जगत्‌ । 
दृदृष्रएस्तं विशषण धर््रात्मानं नराधिपम्‌ ॥४ ऽ॥ 
दे बेभ्यस्तुषितेभ्योऽय बोधिसत्वः क्विति ब्रजन्‌ । 
उपपत्तिं प्रणिदधे कुले तस्य मरोपते(:] ॥४८॥ 
तस्य देवो नृदेवस्य माया नाम, तदाभवत्‌ । 
वौत्करोधतमा माया मायेव दिवि देवता ॥४९॥. 
खप्रेऽय समये गभमाविग्रन्त ददश खा। 
षडदन्तं वारणं श्वेतम्‌ रेरावतमिवौजमा ॥५०॥ 
तं विनिदिदिष्टः श्रला खप्नं खभ्रविदो दिजाः । 
तस्य जन्म क्रुमारस्य लच्छो धम्मेयगशोग्तः ॥५१॥ 
तस्य सत्त्व विगरेषस्य जातौ जातिच्चयै षिणः । 
साचला प्रचचालोर्व्वौ तरङ्गाभिहतेव नौः ॥१५२॥ 
सूय्यैरश्िभिर कनिष्टं पुष्यवषे[ : ] पपाते खात्‌ । 
दिगवार णकराधूतात्‌ वनादेचरथादिव ॥५२॥ 
दिवि दुन्दुभयो नेदुः दौव्यताम्‌ मरूतामिव । 
दिदौपेत्यधिकं खय्येः शिवश्च पवनो ववौ ॥५४॥ 
तुतुषुस्दषिताशचैव ग्णद्धावासाश्च देवताः । 
इ्जनानेन सजन वोधतन चानुकम्पया ॥५५॥ 
समाययौ यशःकेतं भ्रेयस्केतुकरः परः । 


९ 2. 7. कौज. ¶ | 


दितौयः सगेः | १५ 


बभ्राजे शान्तया लच्या धमा वियदवानिव ॥५ ६॥ 
देव्यामपि यकवौयस्यामरण्यामिव पावकः । 

नन्दो नाम सुतो जज्ञे नित्यानन्दकरः कुले ॥५७॥ 

दौ घेबाडमेदावच्ाः भिंहांसो ठटषभेच्णएः । 

वपुषाग्येण चो नाम खुन्दरोपपदं दधे ॥५८॥ 

मधुमास दव प्राप्तः चन्द्रो नव द्वोदितः) 


= 


श्ङ्गव।निव चानङ्गः स वभौ कान्तया त्रिया ॥५९॥ 

स तौ स्वङ्कयामास नरेन्द्रः परया खुदा । 
श्रथः सव्ननहस्तस्थो धम्मेकामौ महानिव ॥६ ०॥ 
तस्य कालेन सत्युचौ वधाते भयापदहौ (सतौ) । 
श्रा ्यैस्यारम्भमदतो धर्भार्थाविव श्तये ॥ ६ १॥ 
तयोः सत्पु चयो मेध्ये श्राक्यराजो रराज सः । 
मध्यदेश दृव व्यक्तो हिमवत्पारिपाच्रयोः॥६९॥ 
ततस्तयोः संस्ञतयोः क्रमेण 

नरेन्द्रखन्वोः रत विद्ययोख । 
कामेव्वजख प्रममाद नन्दः 

सर्वाय सिद्धस्तु, न संररञ्ज ॥६ ३॥ 
स प्रच्छेव हि जौणंमात्रञ्च स्टतञ्च 

विग्डश्रन्‌ जगद नभिन्नमात्तेडदयः, । 


९ . 2. सिस्तु । 


१६ सौन्दरनन्दं कव्यम्‌ । 


£ -गतपरमशङधं नि] विषथर तिमगमत्‌ 
जननमरणभयममितम्‌भितो विजिघांसुः ॥६ ४॥ 
उद्धेगात्‌ श्रपुनभेवे मनः प्रणिधाय 
स ययौ शयितवराङ्गनादनाख्ः । 
निशि नृपतिनिलयनात्‌ वनगमनङृतमनाः 
सरस टव मथितनलिनात्‌ कलहंसः ॥ € ५॥ 


सोन्दरनन्दे महाकाव्ये राजवणंनो नाम दितौयः सगः । 


दलौयः सगः: । 


तृतीयः समैः । 


तपसे ततः कपिलिवास्त॒ इयगजर यौ घमङुलम्‌ । 
ओरोमदभयमनुरक्रजनं स विदहाय निखितमना वनं ययौ ॥ १॥ 
विविधा गमांस्तपस्सितांञ्च विविधनियमा श्रयान्‌ सुनोन्‌ प्रच्छ । 
म विषयदषारृपणान्‌ चरनवस्ितं तम दति न्यवत्तेत ॥२॥ 
अथ मोच्तवादिनमराढम्‌ उपशममतिं तथोदकम्‌ । 
त्वकृतमतिरूपास्य जहावयमप्यमागे इति मागेकोविदः ॥३॥ 
म विचारयन्‌ जगति किन्न परममिति तन्तमागमम्‌ । 
निश्चयमनधिगतः परतः परमं चचार तप एव दुष्करम्‌ ॥४॥ 
अय नेषमागं दति वोच तदपि वष लं जहौ तपः । 
व्याधिः विषयमवगम्य परम्‌ बुभुजे नरान्नम्टतलन्‌द्धये ॥ ५॥ 
स सुवणेपोनयुगवा हः खछषभगतिरायतेचणः । 
्षमवनिरुहमभ्यगमत्‌ परमस्य निश्चय विधव तसया ॥ ६॥ 
उपविश्य तत्र छृतबुद्धिरचलष्टतिरद्विराज्वत्‌ । 
मार बलमजयद्‌ ग्रमथो बृबधे पदं शिवमहाय्येमव्ययम्‌ ॥७॥ 
अवगम्य तं चः कतकाय्यैमग्तमनसो दिवौकसः । 
दष्मतुलमगमन्मदिता विसुखो तु मार परिषत्‌ प्रचुचुभे ॥८॥ 
सनगा च श्चुः प्रविचचाल तवदसखः शिवो ववौ । 


र 1. 14. प्रियौ) 


१९ सौन्द रजनन्दं काव्यम्‌ । 


श्रवनुध्य चेव परमायेमजरमनुकम्यया विभुः । 
नित्यमशटतमुपद्‌ शे यितुम्‌ स वरणएसापरिकरामयात्‌ पुरम्‌ ॥१ ०॥ 
अथ धम्मचक्रस्टतनाभि टेतिमतिसमाधिनेभिमत्‌ 1 \ 
तच विनयनियमारण्टषि जेगतो डिताय परि षद्यवन्तेयत्‌ ॥११॥ 
इति दुःखमेतदि यमस्य समुद्‌ यलता प्रव्तिका । 
शराज्तिरियमयसुपाय दति प्रविभागशः परमिदं चतुष्टयम्‌ ॥१२॥ 
अभिधाय च तरिपरिवन्तेमतुलमनिवत्येष्मुत्तमम्‌ । 
इद्‌ शनियतविकन्यमपि विनिनाय कौ ण्डिनसगो चमादितः॥१३॥ 
स हि दोषसागरमगाघसुपधिजलमाधिजन्तुकम्‌ । 
क्रोधमद्‌ भयतर चपलं प्रततार लोकमपि चाप्यतारयत्‌ ॥१४॥ 
स विनोय काशिषु गयेषु बह़्जनमयो गिरित्रजे । 
पिच्यमपि परमकारुणिको नगर ययावनुजिष्टच्या तदा ॥१५॥ 
विषयात्मकस्य हि जनस्य बहक वि विधमा गेसे विनः । 
खव्येखदृ शवपुरभ्यदि तो विजहार सख्ये इव गौतमस्तमः ॥१ ६॥ 
अभितस्ततः कपि लवास्त परमश्भवास्तसं्ततम्‌ | 
व [1]स्हम तिप्ररविशिवो पवनम्‌ स ददश निष्यहतया यथा वनम्‌ ॥१७॥ 
अपरिग्रहः स हि वश्व नियतिमतिरात्मनोश्वरः । 
नेकविधभयकरेषु किमु खजनः सदे श्र `एव भिचवस्तुषु ॥१८॥ 
प्रतिप्रूजया न स जदषे न च प्रचमवन्ञयागमत्‌ । 
निञ्ितमतिरसिचन्दनयोः न जगाम सुखदुःखयोश्च विक्रियाम्‌ ॥१९॥ 


१९ ‰?. 2 अनित्यम्‌ । 
३ [. 1, खन 7, 1. ‰#. 18008. ` ¶. 


>€ १८८०५५५ र ग्रं ॥ १. "ज व्द्‌.@ गरन्य | 2.6 <~ (क { #.. र #। ८ 4 
4 ति ) स्न छे (^, 4 1 #» + (2 की ~ = 
५ | च ॥ ध ^ +~ < 
(6 (० 0 0 (९.9 
ट 1 € ^€. 7 ॥ चथ 
= ~. (र्त्यः. समैः । ~ ८ ^ ^ ८ 9 
८ ० 

1.2 ट =^ 94 7८ {3 ६. श ८ 
(4 4 4 


अथ पाथिवः समुपलभ्य 
द्रणेमबज्तुर गालुगतः सुतद भनोत्‌ सुकतयाभिनियंयौ ॥२ ०॥ 
प्श 


सुतसु पगतम्‌ तयागतम्‌ । 


सुगतस्तथा गतमपेच्य नरपतिमघोरमानसतया । 

शेषमपि जनमश्रसुखम्‌ विनिनोषया गगनसुत्‌पपात इ ॥२१॥ 

स विचक्रमे दिवि भुवोव पुनरुपविवेश तस्थिवान्‌ । 

निश्चलमतिः शिश्यिषुः पुन बैडधाभवत्‌ पुनरश्त्‌ तथेकधा ॥२२॥ 

सलिले ल्िताविव चचार जलमिव विवेश मेदिनोम्‌। 

मेघ इव दिवि व[वाषे पुनः पुनरूज्चलन्नव दवोदितो रविः॥२२॥ 

युगपज्चलन्‌ ज्वलनवच्च जलमवद्जंख मेघवत्‌ । 

तप्तकनकसदृ श्रप्रभया स वभौ प्रदौप्त दूव सन्ध्यया घनः ॥२४॥ 

तमुदौच्छ हे ममणिजालवलयिन मिवो ल्थितं षघ्वजम्‌ । 

मरौतिमगमदलतुलां नृपतिः जनता नताञ्च बह्मानमभ्ययुः ॥२५॥ 
अरय भाजनोकृतमवेच् मनुजपतिष्टद्धिसम्पदा । 

पौरजनमपि च तत्‌ प्रसवेन निजगाद धन्मैविनयं विनायकः ॥२६॥ 

नृपतिस्ततः प्रथममाप फलमग्टतधम्मे सिद्धयोः ' 

धेम्मेमतुलमधिगम्यसुनेः मुनये ननाम स यतो गुराविव ॥२७॥ 

बहवः प्रसन्नमनसोऽथ जननमरणा्तिंभौरवः । 

शाक्यतनयदषभाः कृतिनौ टठषभा इवानलभयात्‌ प्रवव्रजुः ॥२८॥ 

विजङ्कस्तु येपि न शटदहाणि तनयपिद माच्पेचया । 

तेऽपि नियमविधिमामरणात्‌ जग्ज्ख युक्तमनसञ दधिरे ॥२९८॥ 


१ ?. 04. सुगत°। 


२० सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


न जिदिस दच्ममपि जन्तुममरि परवधो पजो वनः । 

किं वत विपुलगुएः कुलजः सदयः सदा किमु सुनेरुपामया ॥२५॥ 
अङृशोद्यमः कृषधनोऽपि परपरि भवासहोऽपि सन्‌ । 
नान्यघधनमपजदहार तथा भुजगा दिवान्यविभवात्‌ (विव्ये ॥२१॥ 
श ऽपि व विषगृपोपिर) । 

नेव च परयुवतोर गमत्‌ लसिका दहनतोप्यमन्यत ॥ २ २॥ 
अनृतं जगाद न च कञ्चित्‌ छतमपि जजन्प नाप्रियम्‌ । 
क्च््एमपि न जगावदितम्‌ दितमप्यवातच न च पेश्टनाय यत्‌ ॥१ ३॥ 
मनसा लुलोभ न च जातु परवसखुषु बद्धमानमःः । 
कामसुखमसुखतो विग्डशन्‌ विजहार ट्त दव तच सज्जनः ॥३४॥ 

न परस्य कञ्चित्‌ श्रपघातमपि च मणौ व्यचिन्तयत्‌ । 

माद पिदसुतसुदत्सदृशं स ददशे तच हि परस्परं जनः ॥३ ५॥ 
नियतम्‌ भविग्यति परच्र भवदपि च शतमष्ययो | 

कम्म फलमपिच लोकगतिनियतेति दशेनमवाप साधु च॥२६॥ 
दति कश्मेणा दशरविधेन परमङ्कुशलेन श्ररिणा। 

श्रेशिनि शियिलगुणेऽपि युगे विजहार तच सुनिसंश्रयाव्जनः ॥ ३ «॥ 
न च तत्र कञश्चिदुपपत्तिसुखमभिललाष तेगेणेः । 
सबव्वेमशरिवमवगम्य भवम्‌ भवसच्याय बट़ते न जन्मने ॥२८॥ 


१९ {2.1}. 1.11. 1. परमदिता 1. 
२ {. 1. 4. उर्धमानसः। 


तौ यः सगः । २१ 


अकथयंकथयाग्टदहिन एव परमपरिश्ड्दृष्टयः । 

स्रोतसि हि वदतिरे बहवो रजसस्तनुत्वमपि चक्रिरे परेः ॥२९॥ 
वदतेऽच योऽपि विषमेषु विभवसदृ शेषु कश्चन । 

त्या गविनयनियमाभिरतो विजहार सोऽपि न चचाल सत्पयात्‌ ॥४०॥ 
 श्रपि च खलोऽपि परतोऽपि न भयमभवत्‌ न देवतः । 

| तच च सुखसुभिचगुणोः जदषुः प्रजाः कृतयुगे राज्ञो मनोरिव॥४१९॥ 
दति सुदितमनामयन्निरापत्कुररचुपुरूपुरो पमं पुर तत्‌। 
श्रभवभयदे शरिके महर्षौ विहरति तच शिवाय वौतराग इति ॥४२॥ 


सौन्दरनन्दे महाकाव्ये तथागतवणैनो नाम 
ठतौयः सगं: ॥ ३॥ 


२ 1. #. खोतसिद्धौस ततरे वद्धवोरजसत्वतमपि चक्रिरे प्ररे, 


५: सौन्द्रनन्द्‌ काश्यम्‌ 


चतुथः सगेः। 


सुनौ ब्रुवाणेऽपि तु तत्र धश्मम्‌ धम्मे प्रति ज्ञातिषु चादृतेषु । 
प्रासादसंस्थो मदनैककाय्यैः प्रियाषदायो विजहार नन्दः ॥१॥ 
स॒ चक्रवाक्येव हि चक्रवाकः तया समेतः प्रियया प्रियाः । 
नाचिन्तयत्‌ वैश्रमणएम्‌ न शक्रम्‌ तत्‌ सखानहेतोः रेत एव धम्मे: ॥२॥ ` 
लद्छया च रूपेण च सुन्दरौति स्तम्भेन गरव्व॑ंण च मानिनोति। 
दौष्या च मानेन च भाभिनोति यासौ वभाषे चिविधेन नान्ना ॥३॥ 
सा हासहंसा नयनददिरेफा पौनस्तनाभ्यन्नतपद्मकोषा । 
श्यो वभासे खक्ुलोदितेन स्तो पद्धिनो नन्ददि वाकरेण ॥ ४॥ 
रूपेण चात्यन्तमनोहरेण रूपानुरूपेण च चेष्टितेन । 
मनुष्यलोके हि तदा वश्व सा सुन्दरो स्तौ पुरुषेषु नन्दः ॥५॥ 
सा देवता नन्दनचारिणोव कुलस्य नान्दोजननश्च नन्दः । 
अतोत्य मर्त्यानतुपेत्य देवान्‌ ्ष्टावग्डतामिव शतधा ॥६॥ 
तां सुन्दरो चेत्‌ न लभेत नन्दः सावा निषेवेत न तं नतभूः । 
इन्दं भ्रुवं तत्‌ विकलं न ग्ोभेतान्योन्यहो ना विव राचिचनद्रौ ॥७॥ 
कन्दपैरत्योरिव लच्छग्दतम्‌ प्रमोदनान्द्यो रिव नोडश्चलम्‌ । 
प्रहषेतुश्चो रिव पाचश्लतम्‌ इन्दं सहार[]स्त मदान्धग्तम्‌ ॥८॥ 
परस्परो दौच्षणतत्पराच्चं परस्पर व्याइतसक्त चित्तम्‌ । 
,परष्यराक्चेषदताङ्गरागम्‌ परस्परं तन्मिथुनं जहार ॥९॥ 
भावानुरक्तौ गिरिनिद्येरस्थौ तौ किन्नरोकिपुरुषाविवोभौ । 
चिक्रोडतखापि विरेजतुख रूपञियान्योन्यमिवाकिपन्तौ ॥१ ०॥ 


चतुर्थः सगेः । ४३. 


अन्योन्यसंराग विबद्धेनेन तद्ृन्दमन्योन्यमरोरमच । 

क्रमान्तरे तषेवकञेन तेन, सलोलमन्योन्यममोमदच् ॥१ 1 ॥ 
विन्डषयामास ततः भरि(पोयां स सिषे विषुस्तां न सजावहाचेम्‌ । 
खनव रूपेण विभ्वषिता- हि विश्टषणानामपि षणं सा ॥१९॥ 
दलाय सा दपेणमस्य हस्ते ममाग्रतो धारय तावदेनम्‌ । 
विशेषकं यावदहं करोमौत्यवाच कान्तं स च तं वभार॥१२॥ 
भन्तैस्ततः श्र निरूप्यमाणा विगेषकं भासि चकार तादृक्‌ । 
निश्वासवातेन च दपंणस्य चिकित्छयिला निजघान नन्दः ॥१४॥ 
सा तेन. चेष्टाललितेन भन्ैः शान चान्तमेनसाः जास । 


स 
दव ईडा किल नाम तद ललाटजिद्धां भृकुटि चकार ॥१५॥ 


चिचेप कणौत्यलमस्य चांसे करेण सययेन मदालसेन । 

पत्राङ्गलिं चाद्धंनिमोलिताच्तं वक्तेऽस्य तामेव विनिदधाव ॥१६॥ 
ततञ्चलन्नपुरयन्त्िताभ्याम्‌ नखपरभोद्धासितराङ्कुलिभ्याम्‌ । 

पद्यां प्रियाया नलिनोपमाभ्याम्‌ मृ द्ां भयानाम ननाम नन्दः ॥१७॥ 
स सुक्तपुष्यो न्धिषितेन मूर्धा ततः ्रियायाः प्रियकृत्‌ वभासे । 
सुवणवेद्यां अनिलावभग्मः पुष्यातिभारादिव नागदक्तः ॥१८॥ 

सा तं स्तनोदत्नितदहारयष्टिरत्थापयामास निपद्य दोर्भ्याम्‌ । 


कथं कतोसोति जहास चोचेः सुखेन साचोङतद्कुण्डलेन ॥१८॥ 


९ 21. वर्थबलेहतेन । 
२ ए. 4. भासापिषि, 10711 ‰. 1. #. 1. 
३ 2. 11. साध्येन चातुमेनसा । | 


२४ सोन्द्रनन्द्‌ं काव्यम्‌ । 


पत्यस्ततो दपेणसक्तपाएेः सुमु वक्रमनेक्माएा । 
तमालपत्रादरतले कपोले समाधयामाम विश्रोषकं त॑त्‌ ॥२०॥ 
तस्या सुखं तत्‌ सतमालपचम्‌ ताम्राघधरोष्टम्‌ चिकुरायताक्तम्‌ । 
रक्राधिकाय्म्‌ पतितद्धिरेफम्‌ मशरोवलं र ९ ॥ 
नन्दस्ततो दपेणमाद्रेण विश्वेत्‌ तदा मण्डनसाक्ति 
विशषकावेच्णएकेकराच्तो लडत्‌ प्रियाया वदनं ददश ।॥२२॥ 
तत्‌ङ्ुण्डलाद स्तविशेषकान्तं कारण्डवक्िष्टमिवार विन्दम्‌ । 
नन्दः प्रियाया सुखमोच्षमाणो श्यः प्रियानन्दकरो वश्व ॥२३॥ 
विमानकल्य म॒ विमानगमें ततस्तथा चैव ननन्द नन्दः । ` 
तथागतञ्चा गलभेक्तकालो भेक्ञाय तस्य प्रविवेश नेश ॥२४॥ 
श्रवाञ्मुखो निस्यृणयञ्च तस्यौ भ्वातुरेेऽन्यस्य गटडे यथेव । 
तस्मादयो प्रयजनप्रमादात्‌ भिच्तामलन्धरैव पुनजेगाम ॥२५॥ 
काचित्‌ पिपेषान््विलेपनं हि वासोङ्गना कावित्‌ अवासयच्च । 
अयोजयत्‌ खान विधिं तथान्या जयन्धृरन्याः सुरभोः खजश्च ॥२ ६॥ 
तस्मिन्‌ हे भत्तुर तश्चरन््यः क्रौडानुरूपं लडितं नियोगम्‌ । 
काञ्चिन्न बुद्धं ददृष्टयुवत्यः बुद्धस्य वेषा नियतं मनौषा ॥२ ०॥ 
काचित्‌ स्थिता तच्च तु ₹इमयेष्ठे गवाक्पक्ते प्रणिधाय चचुः । 
विनिष्यतन्तं सुगतं ददर पयोदगर्भादिव दौप्रमकम्‌ ॥२८॥ 
सा गौरवं तच विचाय्ये भत्तैः खया च भक्ाहंतयाहेतञ्च । 
नन्दस्य तस्यौ पुरतो विवचुः तदाज्ञया चेति तदाचचचे ॥२९॥ 
श्ननुग्रहायास्य जनस्य शङ्के गुरुग्ेह नो भगवान्‌ प्रविष्टः । 
भिच्ामलन्घा गिरमासनं वा शन्यादरण्वादिव याति शयः ॥₹ ०॥ 


चतुर्थः सगेः। २५ 


श्लवा महषः स ग्टदप्रवेशं सत्कार हौनञ्च पुनः प्रयाणम्‌ । 
चचाल चिचराभरणाम्बरखग्‌ कल्पद्रुमो धूत टूवानिलेन ' ३ १॥ 
छत्वाज्ञलिं मूदधेनि पद्मकल्य ततः स कान्तां गमनं ययाचे । 
कत्तं गमियामि रौ प्रणामम्‌ मामभ्यनुज्ञातुमिदादंसौति ॥२२॥ 
सा वेपमाना परिमसखजे तं शालं लता वातममौरितेव ) 
ददे चाशरक्तललोलनेचा दोघेज्च निश्वस्य वचोऽभ्युवाच ॥२२॥ 
नाहं यियासो गरुद शेना्थ॑म्‌ अरहामि कन्तुम्‌ तव धम्मपोड़ाम्‌, । 
गच्छाय्यैपुतैहि च ग घ्रमेव विगरेषको यावदयं न शष्कः ॥३२४। 
स चेत्‌ भवेस््वम्‌ खल टो चेख्चो दण्डं महान्तम्‌ वयि पातयेयम्‌ । 
सु डसुंह्धस््वां शयितम्‌ कचभ्याम्‌ दिनुयुम्‌ चन न ॥ 
अ+ स | त्रितम्‌ ततः लाम्‌ । 
निपौडयिय्ामि सुजदयेन विष्ठषणेनाद्रं विलेपनेन ॥२६॥ 
दत्येवसुक्तञ्च निपौडितञ्च तया स वेण खनया जगार्म + 1 
एवं करिव्यामि विसुञ्च चण्डि यावद्‌ गरुदूरगतो न मे सः॥२०॥। 
ततस्तनोदट्‌वत्तितचन्दनाभ्याम्‌ सुक्तो सुजाभ्याम्‌ न तु मानसेन । 
विदाय वेषम्‌ मदनानुरूपम्‌ तत्कालयोग्यम्‌ स वपुवभार॥>८॥ 
सा तं प्रयान्तम्‌ रमण प्रदध्यौ प्रध्यानश्यन्यस्थितनिश्वलात्तो । 
स्थितोचकर्णा वयपविद्धग्ष्या भ्रान्त श्ठगं भ्वान्तसुखो सगौव ॥३९८॥ 
 दिदृच्याकिघ्नमना मुनेस्तु नन्दः प्रयाण प्रति तल्ररे च । 
विदत्तदुष्टश्च शनेययौ ताम्‌ करौव पश्छन्‌ स लडत्करेणम्‌ ॥४ ०॥ 


९ 7. 1. 21. घम्मयाचजां । 


६ | सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


श्रातोदरौं पौनपयोधरोरूम्‌ स सुन्दरौ रुकदरो मिवाद्रेः 

काकेण पश्यन्‌ न ततप नन्दः पिवन्निवेकेन जलं करेण ॥४ १॥ 
तं गौरवं बद्धगतम्‌ चकषं भार्यानुरागः पुनरा चकषे । 

४ यात्‌ नापि पौ न तस्यौ तरस्तर ङ्ेख्िव राजसः ॥४ ९॥ 
रद्शेन यगत तस्या इग्येत्ततञ्चाबततार द्ूणम्‌ । 

श्रुत्वा ततो नुपुर निखनं स पुनः ललम्बे दये ररदोतः ॥४२॥ 

स कामरागेण निग््ह्यमाणणो घर्म्मानुरागेण च छष्यमानः। 

जगाम दुःखेन विवत्येमानः श्वः प्रतिखोत द्वापगायाः ॥४४॥ 
ततः क्रमैर्दौघेतमैः प्रचक्रमे कथं नु यातो न गृरुभवेदिति । 
खजेय तां चैव विशेषकप्रियां कथं प्रियामाद्रे विगेषकाभिति ॥४१॥ 
अथ स पथि ददश सुक्रमानं पिदनगरेपि तथा गताभिमानम्‌ । 
द्‌ श्वलमभितो विलम्बमानम्‌ ष्वजमनुयान दूवन्द्रमच्छेमानम्‌ ॥४६॥ 


सौन्दरनन्दं महाकाव्ये भार्ययायाचितको नाम 
चतुयेः सगे: ॥ 8 ॥ 


पञ्चमः सगेः । २७ 


पञ्चमः सगः । 


च्रथावतौरययाश्वरथदिपेभ्यः शाक्या ययाखद्धिः गडोतवेषाः । 
महापरेभ्यो व्यवहारिणञ् महामुनौ भक्तिव शात्‌ प्रणेमुः ॥१॥ 
केचित्‌ प्रणम्यानुययुसुहृत्तम्‌ केचित्‌ प्रणम्याथैवगेन जग्मुः । 
केचित्‌ सखकेव्वावथेषु तस्यः कताञ्जलोन्‌ वो णतत्पराचाः ॥२॥ 
बद्धस्ततस्तच नरेनद्रमा्ं खोतो महत्‌ भक्तिमतो जनस्य । 
जगाम दुःखेन विगाहमानो जलागमे खोत दवापग{7]याः ॥३॥ 
श्रयो मदृद्धिः पथि सम्पतद्भिः सन्यृज्यमानाय तयागताच । 
कन्त प्रणामं न श्रश्ाक नन्दस्तेनाभिरेमे तु गुरोमेदिच्ना ॥४॥ 
सखञ्चावसङ्गम्‌ पयि निसुमुचतुः भक्ते जनस्यान्यमतेञ्च र चन्‌ । 
नन्दञ्च गेहाभिमुखं जिटचन्‌ मागं ततोऽन्यं सुगतः प्रपेदे ॥५॥ 
ततो विविक्रञ्च विविक्तचेता: सन्मागं वित्‌ मागे मभिप्रतस्ये । 
गलायतश्चाश्यतमाय तसै नान्दौविसुक्ताय ननाम नन्दः ॥६॥ 
श्रनेत्रैजन्ेव स गौरवेण पटादरतां शो विनताद्धकायः । 
अधो निबद्धाञ्ञलिरूडंनेचः सगद्गदम्‌ वाक्यमिदं वभाषे ॥<॥ 
प्रासादसंस्थो भगवन्तमन्तःप्रविष्टमश्रौषमनुयदाय । 
अतस्वरावानहमभ्युपेतो ग्रहस्य कनान्‌]; महतोभ्यसूयन्‌ ॥८॥ 
तत्‌ साधु साधुभ्रिय मभियाथेम्‌ तत्रास्तु भिचृन्तम भे्चकालः। 
असौ हि मध्यं नभसो यियासु: कालं प्रतिस्मारयतौव ख्य्यैः ॥<॥ 


१९ ?. #¶. मूडि। 
२ २, 1. कचत्तामहतो, 7. 1. 1, कच्छामहतः | 


+ सौन्दशनन्द्‌ं काव्यम्‌ । 
-धेतश्यर 

दत्येधसुक्तः प्रणयेन तेन स्ेहाभिमानोन्मृखलो चनेन । 

तादृ डनिमित्तं सुगतञ्चकार नाहार छ्य स यथा विवेद ॥१०॥ 
ततः स कृता मुनये प्रणामं र्टदप्रयाणाय मति चकार । 
अनुग्रहाय सुगतस्तु तद पाच ददौ पुष्कर पचनेचः ॥११॥ 

ततः स लोके ददतः फलाये पाचस्य तस्याप्रतिमस्य पाचम्‌ । 
जग्राद चापग्रहण्तमाभ्यां पश्मोपमाग्याम प्रयतः करग्याम्‌ ॥१२॥ 
पराद्मखन्वन्यमनस्कमारात्‌ विज्ञाय नन्दः सुगतं गतास्थम्‌ 
दस्तस्थपाचोऽपि गद यियासु: ससार मार्गात्‌ सुनिमौकरमाणः॥९२॥ 
भार्य्यानुरागेण यदा ग्ण स पाच गटडोच्ापि यियासुरेव। 
विमोहयामास सु निस्ततस्तं रण्यामुखस्यावरणेन तस्य ¦ १ ४॥ 
निन्नौ (खी) चवोजंः हि द दश तस्य्‌. जानं द्‌(;) क्ेशरजख्च तोत्रम्‌ । 
ञो ्ाकुलान्‌ [तान्‌] विषयान्‌ सत नन्दं यतस्तं सु निरा चकष ।१५॥ 
सज्ञा शप्तो दि विधश्च दृष्टः तथा दिकल्यो व्यवदानपक्तः । 
आत्माश्रयो हेतुवलाधिकस्य वाद्याश्रयः प्रत्ययगौरवस्य ॥ १९ €॥ 
अरयनतो डउेतुवलाधिकस्त॒ निमुच्यते घट्ितमाच (एव । 

यन्नेन तु प्रत्ययनेयनुद्धिः विमोच्चमाप्रोति पराश्रयेण ॥१ °॥ 
नन्दः स च प्रत्ययनेयचेताः यं शिश्ये तन्मयतामवाप। 
यस्मादिमं त्र चकार यन्न तत्‌ खेहपच्ान्‌ सुनिरुव्निरहो षेन ॥९८॥ 


१९ {, ##, कारं बाहार, }). 1. 1. कालन्महार , 
२ 1. 1, निर्खत्त । 
२ ?. 1. प्रत्ययने प्रचेता ^. 


पञ्चमः सगः । € 


नन्दस्तु दुःखेन विचेष्टमानः 7नेरगत्या गुरुमनगच्छत्‌ । 
भार्ययासुखं वौ चणलो लने विचिन्तयन्नादर विेषकं तत्‌ ॥१९॥ 
ततो सुनिस्तम्‌ प्रियमाल्यदहारम्‌ वमन्तमासेन छताभिहारम्‌ । 
निनाय भग्रप्रमदाविदारं विद्याविदहाराभिमतं विदारम्‌ ॥२०॥ 
दौनं मद्य[का]}रुणिकम्ततस्तम्‌ दृष्टा सुहन्तं करूणायमानः ! 
करेण चक्राङ्तलेन मू द्धं पस्यशं चेवेदं उवाच चैनम्‌ ॥९ ९॥ 
यावन्न दिखम्‌ समुपैति कालः शमाय तावद्‌ कुरु सौम्य वृद्धिम्‌ । 
सर्व्वाखवस्था खिद वत्तेमानं सर्व्वाभिसारेण निहन्ति च्छत्युः ॥२२॥ 
साधारणात्‌ खभ्रनिभादसारात्‌ लोलं मनः कामसुखाननियच्छ | 
हरेरिवा्नः पवनेरितस्य लोकस्य कामेन हि ठिरस्ति॥९३॥ 
श्रद्धा धनं श्रेष्ठतमं धनेभ्यः प्रज्ञारसस्तृत्तिकरो रसेभ्यः । 
प्रधानमध्यात्मखखं सुखभ्योऽविद्यारतिः द्‌ःखतमा र तिभ्यः॥२४॥ 
हितस्य वक्ता प्रवरः शोय खेदो गुणवान्‌ अमेभ्यः । 
ज्ञानाय क्त्यम्‌ परमं (र नरा रपण दास्यम्‌ ॥२५॥ 
तन्निश्चितं भोक्तमश्रन्ियुक्तम्‌ परेव्वनायत्तमहा य्येमन्येः । 
नित्यं शिवं शान्तिसुख टणोष्व किमिद्दियार्याथेमनयमूदरा ॥₹ ६॥ 
जरा समा नार्ग्टजा प्रजानाम्‌ व्याधेः समो नास्ति जगत्यनथेः । 
ग्टत्योः समं नास्ति भयं एथिव्यां एतच्तयं खल्वव रेन सेव्यम्‌ ॥ ₹ ७॥ 
सेहेन कञ्िन्न समोऽस्ति पाशः खोतो न दष्टासममस्ति हारि ) 
रागा्चिना नास्ति समस्तया श्चिस्तच्वेत्‌ चयं नास्ति खुखं च तेऽस्ति ॥२८॥ 
अवश्यभावो प्रियविप्रयोगः तस्माच्च शोकः नियतं निषेव्यः । 
ओकेन चोन्प्रादसुपेयिवांसो राजषयोन्येऽप्यवशा विचेलेः ॥२९॥ 


३० सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


प्रज्ञामयं वश वधान तश्मात्‌ नेष्यन्ति, निघ्नस्य हि शोकवाणाः। 
मद दग्धं भवकच्तजाल संधुचयाल्पाप्निमिवात्मतेजः ॥ ३ ०॥ 
 यथौषपेदैस्तगत्रः स स दृश्यते कञ्चन पन्नगेन । 
4. दश्यते शोकमभुजङ्गमेन ॥द १॥ 
आसाय योगं परिगम्य तत्वं न चासमागच्छति ख्त्युकाले । 
्रावद्धवर्म्रा सुधनुः छतास््लो जिगोषया शूर द वाहवस्थः ॥₹ २॥ 
दत्येवसुक्रः स॒ तथागतेन सर्वषु श्वतेष्वनुकम्पकेन । 
ष्टं गिरान्तद्ेदयेन मोदस्तयेति नन्द] सुगतं वभाषे ॥२ १॥ 
त्रय प्रमादाच्च तसुल्निहोषेन्‌ मलागमस्येव च पाचभ्रूतम्‌ । 
्र्राजयानन्द्‌ श्रमाय नन्दं इत्यत्रवौत्‌ मेचमना महषिः ॥ 2 ४॥ 
नन्दं ततोन्तमेनसा रुदन्तम्‌ एहोति वेदे दसु निजगाद । 
श्नेस्ततस्तम्‌ समुपेत्य नन्दो न प्रतरजि्याम्यहमित्यवाच । 2 ५॥ 
श्रुलाय नन्दस्य मनोषितं तत्‌ बुद्धाय वेदेहमुनि(] शशंस । 
मंश्रत्य तस्मादपि तस्य भावम्‌ महासुनिनेन्दसुवाच श््यः।रे ६॥ | 
मय्यग्रजे प्रव्रजिते जितात्मन्‌ भ्राटष्वनु 4१५. चास्मान्‌ । 
ज्ञातोंख दृद्व व्रतिनो ग्टदस्थान्‌ संविन्न न न वास्ति चेतः।२७॥ 
राजषेयस्ते विदिता न नूनम्‌ वनानि ये शिभ्रिधिरे दसन्तः। 
निष्ठीव्य कामान्‌ उपशान्तिकामाः कामेषु नैवं कृपणेषु सक्ताः ॥२८॥ 


यः समालोक्य गटहेषु दोषान्‌ 1.1 त श्रमे । 
नैवास्ति मोक्तु मतिरालयं ते देशं सुमूीरिव सोपसगम्‌ ॥९<॥ 


१ 3011 1188. नैष्यान्ति 


पञ्चमः सगः । । 


संसारकान्तार परायणस्य शिवे कथं ते पयि नाररच्ा । 
्ररोप्यमाणस्य तमेव मागे श्वष्टस्य सार्थादिव सार्थिंकस्य ॥ ४ ०॥ 
य: सव्व॑तो बेश्यानि दद्यमाने श्रयोत मोहात्‌ न ततो व्यपेयात्‌ । 
कालाग्निना याधिजराग्रिखेन लोके प्रदीपे" स भवेत्‌ मरमत्तः ६ ॥ 
प्रणोयमानञ्च यथा वधाय मन्तो दहसे प्रलपेच्च वध्यः । 
खछत्यौ तथा तिष्ठति पाश्रदस्ते शोच्यः प्रमाद्यन्‌ विपरौ तचेताः ॥४२॥ 
यदा नरेन्राश् कुटुम्बिन विहाय बन्धेख परिग्रहांश्च । 
ययुञ्ख यास्यन्ति च यान्ति चेव प्रियेष्वनित्येषु कुतोऽनुरोधः ॥४२॥ 
किञ्चिन्न पश्यामि रतस्य यत्र तदन्यभावेन भवेन्न दुःखम्‌ । 
तस्मात्‌ कचिन्न क्षमते प्रसक्तिः यदि चमस्तदिगमान्न शोकः । ४ ४॥ 
तत्‌ सौम्य लोलं परिगम्य लोकं मायोपमं चित्तमिवेन्द्रजालम्‌ । 
प्रियाभिधानं त्यज (तो)मोदजालं कत्त मतिस्ते यदि दुःखजालम्‌ ॥ 
{ ४४॥ 
वर[] हितोद्‌कंमनिष्टमन्नम्‌ न सादु यत्थाद हितानुबद्म्‌ । 
यस्माद ह(न)लां विनियोजयामि शिवे प्रचो वत््मनि विप्रियेऽपि ॥ 
४ ६॥ 
बालस्य धातौ विनिश्द्य लोष्रम्‌ ययो द्रत्यात्मपुरप्रविष्टम्‌ । 
तथोत्निहोपषुः खल्‌ रागशच्यं तत््वामवोचं परुषं हिताय ॥४७॥ 
अनिष्टमप्यौषधमातुराय ददाति वैद्यश्च यथा, निगद्य । 
तदन््योक्तम्‌ प्रतिकरूलमेतत्‌ तुभ्यम्‌ हितो द कंमनुग्रहाय ॥ ४ ८॥ 


१ 2801} †. 1. 4. ०५ ?. 24. प्रदोपे स (. 


३२ सौन्दरनन्द्‌ काच्यम्‌ । 


तद्यावदेव चणसन्निपातो न खल्युरागच्छति यावदेव । 
यावद्यो योगविधौ समथे बुद्धिं कुरु भ्रेयसि तावदेव ॥४९॥ 
दत्येवसुक्तः स विनायकेन हित्रौषिणा कारुणिकेन नन्दः । ` 
कर्तास्मि स्वे भगवन्‌ वचस्ते तया यथा न्ञापयसोत्युवाच ॥५.०॥ 
आदाय वेदेसु निस्ततस्तम्‌ निनाय संक्षिश्य विचेष्टमानम्‌ । 
व्ययोजयचाश्रपरिक्चताक्तं केशिय कचनिभस्य मूड: ॥५१॥ 
| # अथो . तेस्य सुखं सवाध्यम्‌ प्रवास्यमानेषु शिरोरुडेषु । 
वक्राग्रनाल नलिनं तडागे वषादकक्तिन्नमिवावभासे ॥५२॥ 
नन्दस्ततः तरूकषाय विविक्तवासा- 
खिन्तावभो नवग्टहोत इव दिषेन्रः। 
पणेः श्रो बहल पन्चगतः चपान्ते 
बालातपेन परिषिक्र दृवावभाके ॥५२॥ 


सौन्दरनन्दमहाकाव्ये नन्दप्रत्राजनं नाम पञ्चमः सगे: । 


(ठ _ - (69 ०0 , ०/4 
(क 


2 ॥ {> -1> 
1. >~ 4 ८42 ^ ८२ ` “ ~ {> (2.9 / क, { ~ 
9 <. > (0९710८८ - , ५ > 2 >>> १,९2 ८५८ 
क 26 श्त 7 4.4 "+~. ६; ~ ) 
+ © ५. : क ^ 88. | (1 र न = र 4 "1न्है 
1 । ६ ^~ 6 । +न ५1 ४ ( ५ 


षष्टः सगेः । २३ 


षष्ठः सगेः। 
ततो इते भर्तरि गौरवेण म्रीतौ इतायामरतौ कृतायां । (11 
तक्चैव हश्रयापरि वन्तेमाना न सुन्दरौ सेव तदा वभासे॥१॥ | 
सा भत्तेरभ्यागमनप्रतौक्ा गवाक्तमाक्रम्य पयोधराभ्याम्‌ । | ९ 
दारोन्युखौो ह्येत लाल्ललम्बे सुखेन \तिय्यङ्गतङ्ुण्डलेन ॥२॥ 
विलम्बहारा चलयोक्तका सा तस्माद्‌ विमानादिनता चकाशे । 
तपःचयात्‌ अष्एरसां वरेव च्युतः विमानात्‌ प्रियमोकमाणा ॥ ३॥ 
सा खेदमंखिन्नललाटकेन निश्वासनिष्यो तविगरेषकेण । 
चिन्ताचलाकेण मुखन तस्थौ भरत्तारमन्यच्र विशङ्कमाना ॥४॥ 
ततञ्िरस्थानपरिश्रमेण खितेव पय्येङ्तले त । 
तिष्यैक्च शिश्ये निनि ड तेवदविलमपादः ॥५॥ 
रथाच काचित्‌ प्रमदा सवाच्यां तां दुःखितां द्रष्टुमनौशमाना | (3, 
; मासादमोपानतनप्रणाद्‌ चकार पड्ां सदसा र्दन्तो ॥ ६॥ 
(तसया सोपानतलगप्रणादं भरुवेव दवण पुनरत्यपात । 
मरौत्या प्रसक्तव च संजदषे प्रियोपयानं परि श्रङ्माना ॥€॥ 
सा अस्यन्तौ वलभो पुटस्यान्‌ पारावतान्‌ नूपुरनिःखनेन । 
सो पानङुकिं प्रससार हर्षात्‌ भ्रष्टं द्‌ कूलान्तमचिन्तयन्तौ ॥८॥ 
तामङ्गनां प्रच्छ च विप्रलब्धा निश्वस्य श्रयः शयनं प्रपेदे । 
विवणेवक्का न रराज चाग्टु विवणचनदरव हिमागमे द्यौः ८॥ 
सा दुःखिता भन्तुरदशभेनेन कामेन कोपेन च दद्यमाना। 
त्वा करे वक्तमयोपविष्टा चिन्तानदौं शोकजलां ततार ॥९ ०॥ / 


९ ?. 1. निय्येन्नत ° ¦ २ {. 1. ता । 
3 


२४ ` सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


तस्या सुखं पद्मस पन्नभ्यतम्‌ पाण्णै स्थितं पल्लवरागतास्न । 
त ~ यामय सि पद्कजस्य वभो नतं वी ॥११॥ 
११ 


| मा खलोखभावेन विचिन्त्य तत्तत्‌ दृष्टातुरागेऽभिसुखेऽपि प्त्यौ । 
(4 घश् {भिहि-तत्लम्‌विन्दमाना संकर तत्तत्‌ विललाप तत्त्‌ ॥१९९॥ 


~ 


॥ ट | ध ९ 


...; एष ख्नाण्यान्‌विेषकायां व्योति छता मयि तां प्रतिज्ञां । 
कस्मान्नु हेतोद यितप्रतिज्ञः सोद प्रियो मे वितथप्रतिज्ञः ॥१३॥ 
्रय्येस्य साधोः करुणात्मकस्य मन्नित्यभो रोर तिद चिएस्य । 
कुतो विकारोयमश्तपूव्वेः खेनापरागेण ममापचारात्‌ ॥१४॥ 
रतिप्रियस्य प्रियवत्तिनो मे प्रियस्य नृनं इदयं विरक्तम्‌ । 
तडरागो यदि तस्य हिस्यात्‌ मदित्तरच्ौ न सनागतः' स्यात्‌॥\५॥ 
रूपेण भवेन न च यत्‌ विशिष्टा प्रियेण दृष्टा नियतं ततोऽन्या । 
तथा डि क्ञला मयि मोघसान्तवं लद्मां सतौ मामगमत्‌ विहाय ॥\६॥ 
भक्तिं स बुद्धं प्रति यामवोचत्‌ तस्य प्रयातु, मयि सोऽपदेशः। 

५.४ ॥ | 
म दो यदि तस्य हिस्यात्‌ त्यो रिवो याद्‌नुं तत्‌ विभौ यात्‌ ॥९७॥ 
लेखाया भेमनन्य चित्तो ` विश्वषयन्त्या मम धारयिता । 
विभन्तिं सोऽन्यस्य जनस्य तशचेत्‌ नमोस्तु तस्मे चलसौ ददाय ॥ १ ८॥ 
नेच्छन्ति याः शोकमवापरमेवंः श्रद्धातुमहन्ति न ता नराणणम्‌ । 
कर चानुटत्तिमयि सास्य पव्वं त्यागः क चायं जनवत्‌ षणेन ॥१९॥ 
दत्येवमादि रिय विप्रयुक्ता भियेऽन्यदाश्् च सा जगाद 
सम्भ्नान्तमारदह्य च तत्‌ विमानं सा स्तौ सवाष्या गिर भित्युवाच ॥२०॥ 


९ 2. 21. न समागतः स्यात। 
र 1. 1. ्ेवाथं [. 1, 11. 196०8 ¶. द 7. 1.. ४. र्तम्‌ । 


वष्टः सभ: | २५ 


युवापि तावत्‌ प्रियदेनोऽपि सौभाग्भाग्धाभिजना च्वितोऽपि । 
यसां प्रियो नाग्यत्तरत्‌ कदु तम्‌न्युथा यास्यसि कातरासि॥२९॥ 
मा खामिनम्‌ खाभिनि दोषमागोः प्रियं प्रियां प्रियकारिणं तम्‌। 
न स तदन्या प्रमद्‌ामवेति खचक्रवाक्या दव चक्रवाकः ॥२२॥ 
(स तु लद रटवासमो न्‌ जिजो विपुस्त्परितोषडेतोः । # 
भ्राचा किलार्येण तथागतेन प्रव्राजितो नेचजलाद्रं वक्त: ॥२२॥ 
श्रता ततो भन्तेरि तां प्रत्तं सवेपथुः सखा सहसोत्पपात । (^ 
रहय बाह विरराव चोचेः इदौव[[ ]दग्धाभिदहता करेणः ॥२४॥ 


सा रोदनारोषितरक्रदुष्टिः सन्तापसच्लोभितगाचयष्टिः। ` 

पपात ओोर्णा्गलदहारयष्टिः फलातिभारादिव चूतयष्टिः ॥२१५॥ | 
सा पद्मरामं वसनं वसाना पद्मानना पद्मदलायताच्तौ । | ? 
पद्मा विपद्मा पतिताचलाच्छौ प्रशोष [प)द्मसख्लगिवातपेन ॥२६॥ 


संचिन्त्य संचिन्त्य गुणांख भ्तैः दौषे निगश्रश्वास तताम चेव । 
विश्षणश्रौ निदिता प्रको [तो तान्ने कराग्रे च विनिदुधाव॥२७॥ 

न षणे[णा]ऽयौ मम संप्रतोति सा दिचु चिक्तेप व्ठिषणनि । |, 
निगभ्वषणा सा पतिता चकाशे विश्ौणेपुष्यस्तवका लतेव ॥२८॥ 

तः प्रियेणयमश्त्‌ ममेति रुऋत्सरं द पएमा लि लिङ्ग । 

यन्ना विन्यस्ततमालपचौ रुषेव षटं प्रममाजे गण्डौ ॥२९॥ 

सा चक्रवाकौव श्रं चुकूज श्येनायत चक्रवाका । # 
विस्द्धेमानेव विमानसंखयेः पारावतः कूजनलो लकण्ठेः ॥ २ ०॥ 
विचिचश्डद्ास्तरणेऽपि सुप्ता वैदूव्यैवज्प्रतिमण्डितेऽपि । 


१ ए. 1. नाभ्यह[र]त्‌ । 


।| 


२६ सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


रुक्याङ्गपादे शयने मदाहहे न श्रश्मे रेभे परिवचेष्टमाना॥२१९॥ 
संदृश्य भत्तुश्च विग्धूषणानि वासांसि वौणाप्र्तोख लौडाः। 
तमो विवेशाभिननाद रोचेः पड्ावतौरणव च संसमाद ।३२॥ 
सा सुन्दरो श्वासचलोदरो हि वज्राग्निसंभिन्नदरोगहेव । 
शओरोकाभ्मिनान्तददि दद्यमाना विभ्रान्तवित्तेव तदा बनव ।३३॥ 


| रुरोद मम्लौ विरूराव जग्लौ वभ्नाम तस्थौ विललाप दश्रौ। 
ह, 


1.2 


| चकार रोषं विचकार माल्यं चकन्तै वल्ल विचकषे वस्त्रम्‌ ॥२ ४॥ 


/ तां चार्दन्तं प्रसभं रुदन्तो संश्रुत्य नाय्येः परमाभितन्नाः । 
। अरन्तम़हादारुरुडतिं मानं चासेन किन्नय्यं दवाद्विषष्टम्‌ ॥३५॥ 
वाष्येण ताः क्रिन्नविषषवक्ता वरण पद्विन्य दवाद्रेपद्माः । 
स्थानानुरूपेण ययाभिमानं निशिल्धिरे तामनुद दयमानाः । २ ६॥ 
ताभिटेता दग्यैतलेऽङ्गनाभिः चिन्तातनुः सा सुतनुवेभास । 
श्रतह्ृदाभिः परिवेष्ठितेव श्रग्राङ्ःलेखा शर दश्रमध्े ॥ ३ ७॥ 

या तच तासां वचसोपपनना मान्या च तस्या वयसाधिका च। 
खा ध्रष्टतस्तां ठ्‌^ समालिलिङ्ग प्रटज्य चाभि वचां स्वाच ॥ ८॥ 
राजपिवध्वा स्त्व नानुरूपो धर््मा्िते भ्ेरि जातु शोकः। 
द्च्वाङ्ुवंगरे द्यभिकाङ्धितानि दायाद्यश्ूतानि तपोवनानि ₹९॥ 
प्रायेण मोचाय विनिःषतानाम्‌ शाक्यषभाणां विदिताः स्तियस्तेर । 
तपोवनानोव ग्टहाणि यासां साध्वौव्रतंरं कामवद्‌ाअितानाम्‌ ॥४ °॥ 
यद्यन्यया रूपगुणाधिकलात्‌ भर्तां इतस्ते कुर्‌ वाष्यमोच्म्‌ । 


९ ?, 1. च। २ 7. 1. स्तियक्ता । 
३ 1. 1. साध्विपथं, 1. 1. 01. साध्विव्रतम्‌ 1. 


घष्ः सगेः | -- 


मनखिनो रूपवतो गणाव्छा ददि कते काच दिनार सुदधेत्‌ ॥४९॥ 
श्रयापि किञ्चित्‌. खनं प्रपन्नो मा चेव तद्भूत्‌ सद्‌ गोऽच वाण्यः। 
रतो विशिष्टं दहि दुःखमस्ति कुलोद्ृतायाः पतिदेवतायाः॥४२॥ 
रथ विदानो पलडितः सुखेन खस्थः फलस्थो व्यसनान्यदृष्टा । 
वौतस्पो धञ्मेमनुप्रपन्नः कि विक्तवेः रोदिषि दष्काले ॥४३॥ . 

दूलेवमुक्तापि बज्गप्रकारम्‌ सेहात्‌र तया नैव ति चकार । 
 ्रयापरा तां मनसोनुकरूलं कालोपपन्नम्‌ प्रणयादुवाच्त ॥५४॥ 
त्रवौमि सत्यं सुविनिशितं मे प्राप्तं प्रियं द्र्छयसि ोघ्रमेव। 
लया विना स्थास्यति तत्र नासौ सलाञ्रयश्चेतनयेव हौनः ॥ ४ ५॥ 
श्रङ्कपि लच्म्याः न स निदटेतः स्यात्‌ लं तस्य पाश्च यदि तच्नस्याः। 
रप्सु छृच्छराखपि चागतासु लां पश्यतस्तस्य भवेन्न दुःखम्‌ ॥४ ६॥ 
लं निदेतिं गच्छ नियच्छ वाव्यम्‌ तक्ता्रमोच्तात्‌ परिरक् चचुः । 
यस्तस्य भावस्वयि यञ्च रागो न रस्यते वदिरहात्‌ स ध्यं ॥४७॥ 
स्यादच नासौ कुलसत्वयोगात्‌ काषाचमादाय विदहाखतौति । ` 
अनात्मनादाय गोन्मखस्य युनविंमोक्त्‌ क एवास्ति दोषः ॥४८॥ 

दूति युवतिजनेन सान्त्वमाना 
इतददया रमणेन सुन्दरौ सा । 
द्रमिडमभिसुख पुरेव रम्भा 
` स्ितिमगमत्‌ परिवारिताष्रोभिः॥४९॥ 
सौन्दरनन्दे महाकाये भार्य्याविलापो नाम षष्ठः सगैः। ` 


९ ए. }¶. चलितः २ ?. #. वक्तवा ३ ?..11. सतदा। 


८ सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


सत्तमः सगेः । 

लिङ्गं ततश्चास्त॒ विधिप्रदिष्टम्‌ गाचेण विभ्र्न तु चेतसा तत्‌ । 
भार्य्यागत्रेव मनोवितकरैः यो दौयमानो न ननन्द नन्दः ॥१॥ 
स पुष्यमासस्य च पुष्यलच्म्या सर्व्वाभिसारेण च पुष्यकेतोः । 
यानोयभाषेन च यौवनस्य विहारसंस्थो न शमं जगाम ॥२॥ 
खितः स दौनः सदकारवौथ्यामालौ नसंमूच्छिंतषट्‌पद्‌ायाम्‌ । 
खरं जजम्मे युगदौ घैबाह्कः ध्याला प्रियां चापमिवाचकषे ॥॥ 
स पातको दमिव प्रतोच्छ[न्‌] चतदु मेभ्यस्तनुयुष्यवषेम्‌ । 
दौष निश्खास विचिन्त्य भ्यां नवयो नाग इवावरुद्धःः ॥४॥ 
शोकस्य हन्तां श्ररणागतानाम्‌ शोकस्य क्ता प्रतिगव्वितानाम्‌ । 
श्रश्रोकमालम्न्य स जातशोकः परियां पियाशोकवनां श्रटशोच ॥५॥ 
प्रियां प्रियायाः प्रतनु प्रियङ्गुः निशाम्य भौतामिव निष्यतन्तोम्‌ । 
सस्मार तामश्रसुखों सवाष्यः प्रियां भ्िच् प्रसवावदाताम्‌ ॥६॥ 
पुष्यावनद्ध तिलकद्रमस्य दृष्टान्यपुष्टां शिखरे निविष्टाम्‌ । 
सङःल्पयामास श्िखां प्रियायाः श्ररक्ताँग्रकाइालमपाभितायाः ॥७॥ 
लतां प्रपुलामतिसुक्तकस्य चूतस्य पाञ्चं परिरभ्य जाताम्‌ । 
निशाम्य चिन्तामगमत्‌ तदैवं शिष्टा भवेत्‌ मामपि सुन्दरौति ॥८॥ 
पुष्ये{र]राला* रपि नाग्च्चा दान्तेः ससुद्गेरिव, हेमगभेः। 
कान्तारटृ्ा इव दुःखितस्य न चचुराचिचिषुरस्य तच ॥९॥ 


९ {. 21. इव नागावबुद्धः 1. २ ‰. 1. पियन्‌ 
द 12, 1. भियां पियं सप्रसवावदाता 1. 8 #?. 14. एष्पोकभर्गा । 
५, ?. 11, दान्तैः समुङ्धैः 7, 1 1, 14९००९, 


सप्तमः सगेः। ३९ 


गन्धं वमन्तोपि च गन्धेपूर्णा गन्धेव्वेदेश्चा दव गन्धपूर्णः । 
तस्यान्यचित्तस्य श्ररगात्मकस्य' घ्राणं न जहुः; हृदय प्रतेषुः ॥१०॥ 
संरक्तकण्टैरपि चनोलकण्ठेः तुः प्रदटेरपि चान्यपुष्टः । 
लेलिद्यमानेश्च मधु दिरेफः खनदनं तस्य मनो नुनोद“ ॥११॥ 
स त्र भार्ययार णिसम्भवेन वितकंधूमेन तमःशिखेन । 
कामाभ्निनान्तहंदिदद्यमानो* विदाय चैय्यं विललाप तत्तत्‌ ॥१२॥ 
शरद्यावगच्छामि सुदुष्करं ते चक्रः करिव्यन्ति च कुव्वेते च। 
तयक्घा भ्रियामश्रसुख्ौँं तपो९ घे चेरुश्चरिष्यन्ति चरन्ति कैव ॥१२॥ 
तावद्ृढ बन्धनमस्ति लोके न दारवं तान्तवशमायसं वा। 
यावहढं वन्धनमेतदेव सुखं चलाम्‌ ललितञ्च वाक्यम्‌ ॥१४॥ 
ङित्वा च भित्वा च हि यान्तितानि खपौरुषाद्धेव सुददट्बलाच । 
ज्ञाना रौच्ा विना विमोक्तुं न शक्यते खेहमयम्तु पाशः ॥९५॥ 
ज्ञानं नमे तच्च श्रमाय यत्‌ स्यात्‌ न चास्ति रौचं करुणात्मकोस्ि। 
कामात्मकश्चासि ग॒रुख बुद्धः खतो ऽन्तरे चक्रगतेरिवासि ॥१६॥ 
त्रहं ग्टहौत्वापि हि भिचृलिङ्ग भादषिणा दिगरुणनुशिष्टः ! 
 सर्व्वाखवस्यासु लभे न श्रान्तिं प्रिया वियोगादिव चक्रवाकः ॥१७॥ 
श्रद्यापि तन्मे इदि वन्तेते च यद्पेणे वाकुलिते मया सा । 
हतानृतक्रोधकमव्रवन्मां कयं छृतोसौ ति शठं हसन्तो ॥१८॥ 


१ ?. 01. सुखात्मक्स्य । २ ?. 01. जशः । ३ ?. 1. 14, 
संर त्त करटेद्च विनोल० । 8 २. 11. ननानुमोद ए, 1. 14, 1198 
07] 6 10्€7 1181९68 2 116 0९6 1601678 एला870108. 

५ २, 11, तद्विदद्यमानो । ६ 7. 1/1. तया ये। 


ऽ >, 1, आसरः | ८ ए. 11. हतोसौति | 


8० सौन्द्रनन्दं कायम्‌ । 


८०१ 


यथेवब्यनाश्चानविगेषकायां मयोति यन्मामवदच सार । 
पारिक्षवाक्चेण सुखेन बाला तन्मे वचौऽद्यापि मनो रुणद्धि ॥१९६॥ 
बद्धा सनं पाद पनिच्छीरस्ः खस्थो यथा ध्यायति भिचुरेषः । 
रक्तः कचिन्नाहमिवेष नूनम्‌ शान्तस्तथा टपर इवोपविष्टः ॥९०॥ 
पुंस्को किलानामवि चिन्त्य घोषं वसन्तल्यामविचाय्ये चः । 
शान्तं यथाभ्वस्यति रेष युक्तः शङ्के प्रियाकष॑ति नास्य चेतः ॥२१॥ 
अस्यै नमोस्तु स्थिरनि्चयाय निदटत्तकौ ठरहलविस्मयाय । 
शान्तात्मने ऽन्तम॑तमानसाय चङ्कम्यमानायः निसत्छुकाय ॥२२॥ 
निरोक्षमाणस्य जलं सपद्मम्‌ वनच्च“यु ण्ठम्‌ पर पुषटजष्टम्‌ । 
कस्यास्ति वीये नवयौवनस्य मासे मधौ ध्मसपल्नश्डते ॥२२॥ 
भावेन गब्व॑ण गतेन लच्छया सितेन कोपेन मदेन वाभि: । 
ज्रः स्रियो दे वनृपषिसंचान्‌ कस्माद्धि नासादिधमाक्पियुः ॥९४॥ 
कामाभिश्रतो हि हिरण्यरेताः खादहां सिषेवे मघवानहच्यां । 
सत्वेन सर्गेण च तेन रौन: स्रौ निजितः किं वत मानुषोहम्‌ ॥२५॥ 
खग्येः स रम्भां प्रति जातरागस्तत्रौतये नष्ट इति रतं नः।. 
यामशचठतोऽवधू समेत्य र(य)तोऽश्िनो तौ जनयाम्बश्दव ॥ २ ६॥ 
स्तीकारणं वैर विषक्तवुद्योः वेवखताग्योञ्चलितात्म्टत्योः । 
बहनि वर्षाणि बश्यव युद्धं कः स्तो निभित्तं न चलेदि हन्य: ॥२७॥ 
भेजे श्वपाकं मुनिरक्षमालां कामाद्‌ वश्ष्टश्च स सट्वरिष्टः। 
यस्या विवखानिव श्जलादः सुतः प्रसखूतोऽस्य क पिञ्ञलादः ॥२८॥ 
पराशरः  शापशररस्तयधिंः काले [']सिपेवे यषग्भंयो निं । 


~~“ 


९ 23011 7. 0. 816 7. 1, 1/¶, यं कंम्यमानाय ¶, 


सप्तमः सगः 8२ 


+ सुषुवे महात्मा देपायनो वेद विभागकन्तां ॥९९॥ 
दैपायनो ध्रपरायणश्च रेमे समं काशिषु वेश्रवध्वाः । 

यया इतोच्छत्‌ चलनूपुरेण पादेन विदयु्लतयेव मेघः इ ०॥ 
तथाङ्किरा रागपरौतचेताः सरखतो[ ] ब्रह्मसुतः सिषेवे । 
सारखतो यच सुतोऽस्य जज्ञ नष्टस्य वेदस्य पुनःप्रवक्ता ॥₹ १॥ 
तथा नृपं दिंलिपस्यं य(जोश्ञे सखगस्तियां काश्यप आगतास्छः । 
श्रुचं रहो ला खवदात्मतेजः विच्देप वद्ध ° -प्रसितो यतोऽग्धत्‌ ॥३९॥ 
तथाङ्गदोऽन्त[]नपसोऽपि गला कामाभिग्वनो सुनामगच्छत्‌ । ` 
धोमत्तरं यच रथौतरं स सारङ्गज्॒टं जनयाग्बश्डव ॥३ २॥ 
निशाम्य शान्तां नरदेवकन्यां वनेऽपि शान्तेऽपि च वन्तैमानः। 
चचाल धैर्य्यात्‌ सु निच्छंवयश्टङ्गः* जलो महो कम्य वोच रङ्गः ॥ २ ४॥ 
ब्रह्मर्षिंभावा्थमपास्य राज्यं भजे वनं यो विषयेष्वनाख्यः । 

स गाधिजश्चापदतो टताच्या समा द ओेकं* दिवसं विवेद ॥३१५॥ 
तयेव कन्दपैशराभिच्टष्टो रम्भां प्रति स्थलगशिरा सुम च्छे। 

यः कामरोषात्मतयानपेक्च(ः] शशाप तामप्रतिगरुद्यमानः ॥ ३ ६॥ 


प्रमत्वरायां च रसः वनो । 
= 4 60, र । 
संदृश्य संदृश्य जघान सब्वन्द्रियः५न रोषेण तपो ररक्तः ॥३७॥ 
„+. यंस्यासुघुवे | २ {, 1. 4. 19९प8 2. 1. 
वेष्सवर्था । ९२. 1. वहि". 8 1. 11. चेय न्मुनि 
ऋषिष्टङ्ः 7. 11. 11. घेर््यान्मुनि उटव्यष्टङ्ः। ५ 1. 11. दश्रौकं 


ह्‌ सर्व्वान्द्रियं ( 0011} | | <: 1 21. 20 २2, 21. ) 1. 
ॐ {. }{. तथोररस्को। 


४२ सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


नप्ता शशाङ्कस्य यशोगणाङगो वृधस्य खनुविवुधप्रभावः । 
तथोव्व्नो मण्यरसं विचिन्त्य राजषिरुन्मादमगच्छदेडः ॥२ ८॥ 
रक्तो गिरेमहेनि मेनकायां कामात्मकन्चाञ्च स तालजङ्घः । 
पादेन विश्वावसुना सरोषम्‌ वज्रेण दिंताल टवाभिजक्ने ॥२९॥ 
नाग्रङ्गतायां परमाङ्गनायां गङ्गाजलेऽनङ्गपरोतचेताः । 
जनश्च गङ्ग नुपतिसुजाभ्ाम्‌ ररोधे मेनाक^ इवाचलेनदरः ॥ ४ ०॥ 
पञ्च गङ्गा विरहात्‌ जृ गङ्गाम्भसा श्राल दवात्तमूलः । 
कुलप्रदौ पः प्रतिपस्य खुन्‌[:] श्रो मत्तनु[:) शान्तनुर खतन्लः ॥४ १॥ 
इताञ्च सौनन्दकिनानु शोचन्‌ प्राप्तामि्वोर्ववौ' स्तियमुब्वशौ तां । 
सहृत्तवर्म्ां किल सोमवर्मां वभ्राम चिन्तोद्धवमिन्नधन्मां ॥४२॥ 
भाय्यां षतां चानुममार राजा भोमप्रभावो भुवि भोमकः सः। 
बलेन सेनाक दति प्रकाशः सेनापतिदंव इवा्तसेनः ॥४ ३॥ 
खगं गते भन्तरि शान्तनौ च कालों जिहोषेन्‌ जमनेजयः सः। ` 
श्रवाप भौमात्‌ समवेत्य शल्यः न तद्गतं मन्मथसुत्ससजे ॥४ ४॥ 
श्च पाण्डुमैदनेन नूनम्‌ स्त्सङ्गमे खत्युमवाश्यसोति । 
जगाम माद्रौ न महरषिंशापात्‌ च्रसेव्यमेतत्‌ विममे श्त्युम्‌ ॥ ४ ५॥ 
एवंविधा देवनृपषिसक्ना स््ौणां वशं कामवशेन जग्मुः । 
धिया च सारेण च दग्बेलः घनूमियामप्न्‌ किमु विक्तवोऽहम्‌॥ ४ ६॥ 
यास्यामि तस्मात्‌ हमेव श्यः कामं करिग्ये विधिवत्छकामम्‌ । 
नच्यन्यचित्तस्य चलेन्दरियस्य लिङ्ग चमं ध्मेपयाच्युतस्य ॥४७॥ 


९ ४, 21. मनामक। 


सप्तमः सगेः । ४३ 


पाणौ कपालमवधाय विधाय मौण्ड्यम्‌ 

मान निधाय विक्त परिधाय वासः। 
यस्योद्धवो न टतिरस्ति न शान्तिरस्ति ` 

चिचप्रदौप दव सोऽस्ति च नास्ति चैव ॥४८॥ 
यो निःखतश्च न च निःषटतकामरागः 

काषायसुदहति यो न च निष्कषायः। 
पाचं विभक्तिं च गनं च पाच्श्छतो 

लिङ्ग वहन्नपि स नेव ग्टहौ न भिचुः॥४९<॥ 
न न्याय्यमन्वयवतः परिग्टह्य लिङ्गम्‌ 

श्यो विमोक्तुमिति योपि डि मे विचारः। 
सोऽपि प्रणश्यति विचिन्त्य नुपप्रवौरां 

स्तान्‌ ये तपोवनमपास्य ग्टदाण्छतौयुः ॥५०॥ 
श्राज्वाधिपो डि सखुतोपि तथाम्बरौषो 

रामोन्े एव स च साङ्तिरन्तिदेवः। 
चौराण्धपास्य दधिरे पुनरश्रयकानि 

च्छव जटाश्च कुटिला सुकुटानि बभ्युः ॥५.१॥ 
तस्मार्‌ भिक्चाथं मम गुरूरितो यावदेव प्रयातः 
त्यक्ता काषायं ग्टहमडहमितस्तावदेव प्रयास्ये । 
पूज्यं लिङ्गं हि स्खलितमनसो विश्वतः जि्टवुद्धः 
नासुायेः स्यात्‌ उपहतमतेर्नाष्ययं जौवलोकः ॥५२॥ 


दति सौन्दरनन्दे महाकाव्ये नन्दविलापो नाम सप्तमः सगेः ॥ 


88 सोन्द्रनन्द्‌ काव्यम्‌ । 


श्रष्टमः सगः । 
अरय नन्दमधोरलो चनम्‌ ग्टहयानोत्छुकसुत्सुको त्सु कम्‌ । 
अभिगम्य शिवेन चचृषा श्रमणः कञिद्वाच मैया ॥१॥ 
किमिदं सुखमश्रदु दिनम्‌ ददयस्यं विदणेति ते स॑मः । 
टतिमेदि नियच्छ विक्रियां न हि वाष्यख शमश्च शोभते ॥२॥ 
विविधा समुदेति वेदना नियतं चेतसि देह एव च। 
शृत विध्यपचा[र कोविदा दिविधा एव तयोखिकित्सकाः ॥२॥ 
तदियं यदि कायिकौ रुजा. भिषजे व्रणेमसौ समुच्यताम्‌? । 
विनिगुद्य हि रोगमातुरो नचिरान्तौत्रमनयग्टच्छति । ४॥ 
श्रय दुःखमिदं मनोमयं वद्‌ वच्छामि यद च भेषजम्‌ । | 
मनसो हि रजस्तमःसत २ भिषजोऽध्यात्मविदः परौ चकाः ॥५॥ 
निखिलेन च सत्यमुच्यताम्‌ यदि वाच्य मयि सौम्य मन्यसे । 
गतयो विविधा हि चेतसाम्‌ वज़्[गुद्यानि महाक्लानि च ॥६॥ 
दूति तेन सं बोधितस्तदा व्यवसायं प्रविवक्तुरात्मनः। 
श्रवलग््य करेण करेण तं प्रविवेशान्यतरत्‌* वनान्तरम्‌ ॥७॥ 
श्रय तच प्रटुचौ लताण्े कुसुमोद्गारिणि तौ निषेदतुः । 
खदु भिण्टेदुमारुतेरितेः उपगूढा ति[वबालपल्ञवैः ।८॥ 
स जगाद ततिकौषिंतम्‌ घननिश्वासररहौोतमन्तरा । 
श्ुतवामिभवाय^ भिक्षवे विदुषा प्रत्रजितेन दुवेचम्‌ ॥९॥ 


१ 7. 11. मैचयः। २ 1. 11. मभूनसुचतां ¶. 
३. 2. 1. "सत्न 1. 8 1, 1. पविव्यश्ान्यतसार्‌ 1. 
५ ?, 2. वागिभिसदाय (1. 


अद्मः सगः । ४१५ 


सदृशं यदि धम्मेचारिणः सततं प्राणिषु मेचचेतसः । 

श्र्टतौ यदियं ह्हितैषिता मयि ते स्यात्‌ करणात्मनः सतः ॥१०॥ 

अरत एव च मे विशेषतः प्रविवक्ता चयवादिनि लयि। 

न डि भावमिमं चलात्मने कथययेयं नृवतेष्यसाधवे ॥११॥ 

तदिदं ष्टण मे समासतो न रमे धेम्मेविधाट़ते प्रियां । 

गिरिसानुषु कामिनौग्टते छृतरेता इव किनरश्चरन्‌ ॥१२॥ 

वनवासखुखात्‌ पराञ्ुखः प्रयियासा गटदमेव येन से । 

न हि रम्मे लभे तया विना नृपतिर्न इवोत्तमभिया ॥१३॥ 
अथ तस्य निशम्य तदच: प्रियभार्य्याभिमुखस्य शोचतः । 

मणः स शिरः प्रकम्पयन्‌ निजगादात्मगतं शनेरिदम्‌ ॥१४॥ 

कृपणं वत यूयलालसो महतो व्याघधभयात्‌ विनिःतः । 

प्रविविच्ति वागुरां खगः चपलो गौतरवेण वञ्धितः॥ ११५॥ 

विदगः खल्‌ जालसंदतो हितकामेन जनेन, मोक्तितः । 

विचरन्‌ फलयपुष्यवर्‌ वनम्‌ प्रविविचुः खयमेव पञ्जरम्‌ ॥१६९॥ 

कलभः करिणा खलुद्तो बह्पङ्कात्‌ विषमात्‌ नदौतलात्‌ । 

जलतषेवप्रान तां पुनः सरितं यावतौ तितोषति ॥ १७॥ 

शरणे सभुजङ्गमे खपन्‌ प्रतिबुद्धेन परेण बोधितः । 

तरुणः खल्‌ जातविभ्रम[:] खयसुयं भुजगं जिषचति ॥१८॥ 

मता खल्‌ जातनेदसा ज्वलिताद्‌त्यतितो वनद्रुमात्‌ । 

पुनरि च्छति नोडटष्णया पतित्‌ तच गतव्ययो दिजः ॥१९<॥ 

अवशः खल्‌ कामम च्छया प्रियया श्येनभयाद्‌ विनाङूतः । 

न तिं समुपैति न दियं कर्णं जोवति जोवजौवकः ॥२ ०॥ 


७व्‌ सन्द रनन्दं कायम्‌ | 


श्रृतात्मतया दषान्वितो णया चैव धिया च वच्नितः। 
अशनं खल्‌ वान्तमात्मना छपण[:] श्वा पुनर त्तमिच्छति ॥२९॥ 
दति मन््मयशोककषितम्‌ तमनुध्याय सुनिरोच्य च । 
अमणः स हिताभिकाङ्खया गुणएवद्‌ वाक्यभु च विप्रियम्‌ ॥२२॥ 
श्रविचारयतः ्टभागश्यभम्‌ विषयेस्वेव नि विष्टचेतसः । 
उपपन्रमलग्चचुषो न रतिः अयसि चेत्‌ भवेन्तव ।२३२॥ 
श्रवरे यदणेऽथ धारणे परमार्थावगन्ने मनःशजे । 
अविषक्तमतेः चलात्मनः न हि धर॑ऽभिरतिविधौयते ॥२४॥ 
विषयेषु ह दोषद शिनः परितसट-एचेरमानिनः | 
श्रमकग्ोखु युक्तचेतसः छृतबुद्धेने रतं न विद्यते,॥९५॥ 
रमते उषितो धनभरिया रमते कामसुखेन वालिशः । 
रमते प्रशमेन सष्ननः परिभोगान्‌ परिग्डय विद्यया ॥२६॥ 
रपि च प्रथितस्य धोमतः कुलजस्याचचिंतलिङ्गधारिणएः । 
सदुशौ न गहाय चेतना प्रणतिर्वायुवश्रात्‌ गिरेरिव ॥२७॥ 
स्पृहयेत्‌ परसं्रिताय यः परिग्यात्मवशां खतन्ततां । 
उपश्रान्तिपये भिवे खितः स्यदयेदो षवते ग्एहाय सः ॥९८॥ 
. व्यसनाभिहतो. यथा विरेत्‌ परिमुक्तः पुनरेव बन्धनम्‌ |. 
ससुपेत्य वनं तथा पुनः ग्टहसन्ञं श्गयेत बन्धनम्‌ ॥२९॥ 
पुरुषश्च विदाय यः कलिम्‌ पुन रिच्छत्‌ कलिमेव सेवितुम्‌ । 
स विहाय भजेत वालिश्ः कलिग्धताम जितेन्द्रियः स्यम्‌ ॥ र ०॥ 
सविषा दूव संता लताः परिष्टष्टा इव सोरगा गहाः । 


१ न रितिन्नबिन्ते। 


अद्मः सगः । 8 


“विदता दव चासयो टता वचयसनान्ता हि भवन्ति योषितः ॥ २ १॥ 
प्रमदाः समदा म्रदप्रदाः प्रमदा वोतमदा भयप्रदाः । 

इति दोषभयावहाश्च ताः कथमदन्ति निषेवणं नुताः॥३२॥ 
सखजनः खजनेन भिद्यते सुददश्ापि सुदन्ननेन यत्‌ । 
परदोषविवच्णागश्याम्तदनार््याः प्रचरन्ति योषितः ॥३३॥ 
सुजनाः (ङुराजा) छपण्णौभवन्ति यत्‌ यद युक्तम्‌ प्रचरन्ति साहसम्‌ । 
प्रविशन्ति च यद्मूसुखं रभसा तचः निसित्तमङ्गना ॥२४॥ 
वचनेन इरन्ति वणेनाः निशितेन प्रह[र]न्ति चेतसा । 

मधु तिष्ठति वाचि योषितां इदये दाललम्‌ः मट्‌ विषम्‌ ॥३५॥ 
प्रददन्‌ द हनोऽपि गद्यते विश्ररौरः पवनोऽपि रुद्यते । 

कुपितो भुजगोऽपि ग्टद्यते प्रमदानां तु मनो न गद्यते ॥२६॥ 
न वपुर्वि्धशन्ति न जि(पि)यम्‌ न मतिं नापि कुलं न विक्रमम्‌ । 
प्रदरन््यविगश्ेषतः स्यः सरितो ग्रा[द]कुलाकुला दव ॥३ ७॥ 

न वचो मधुरं न लालनम्‌* स्मरति स्तौ न [च) सौददम्‌ [कदा] । 
बलिता वनितेव चञ्चला तदितरा भुवने न विद्यते५ ॥३८॥ 
्रददत्छु भवन्ति नब्मेदाः प्रददत्सु प्रविशन्ति विभ्वमम्‌ । 

प्रणतेषु भवन्ति गव्िता प्रमदास्ृप्ततराञ्च मानिषु ॥३९<॥ 
यण्वत्छु चरन्ति भत्तवत्‌ गणदहोनेषु चरन्ति शचुवत्‌ । 


२ 23५11 ?. [/. ‰. ०१ २. 7. स्तच | 

२ ?. 11. वचनेन न हन्ति वगेना | 

३ 7. 11. इलाइलं "1. ४ 2. 21 राडनं 1. 

५ 2. 11. तदिदरेष्छि वनावद्यते {. 1/. 11. 1४८12 ¶. 
६ {. 2. तवत्‌ । 


४८ सोन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


धनवल्सु चरन्ति ठष्णया धनरहोनेषु ` चरन्त्धवन्ञया ॥४ ०॥ 

विषयाद्‌ विषयान्तरं गता प्रचरप्ेव यथा हतापि गौः । 

अनवेचितपून्वेसौ दद्‌ रमतेऽन्यत्र गता तथाङ्गना ॥४१॥ 

प्रविश्रन्त्यपि हि म्त्रयिः चितामनुबघ्रन्यपि सुक्तजोविताः 

श्रपि विभवति नैव यन्त्रणा न तु भावेन वहन्ति मौददम्‌ ॥४२॥ 

रमयन्ति पतोन्‌ कथञ्चन प्रमदा याः पतिदेवताः करत्‌ । 

चलचिन्दतया सदसो रमयन्ते दय खमेव ताः ॥४३॥ 

श्वपच किल शक्रजित्सुता वकमौनरिपुं कुमुदतो । 

म्टगराजमयो इदद्रया प्रमद्‌ानामगतिने विद्यते ॥ ४ ४॥ 

कुरुडेदयटष्िवं शरजा बहमायाकवचोऽथ श्वरः । 

सुनिरद्गान्तमनाञ्च गौतमः समवा पुवेनितोद्धतं रजः ॥४१॥ 
श्रङ्ृतन्ञमनाय्येमध्थिरम्‌ वनितानामिदमोदृगशं मनः । 

कथमेति ताख पण्डितो इदयं स्नयितु चलात्मसखु ॥४ ६॥ 

श्रय खच्ममतिः प्रियाश्या लघुता सा दय न पश्यसि । 

किसु शव वत्‌ वेनितानाञ्चरितं न पश्यसि ॥४७॥ 

यद्‌ न्य धावनेवेसनेश्चाभरणेशच संतम्‌ । 

अष्रभ तमसादृतेच्चण ग्रभतो गच्छसि नावगच्छसि ॥४८॥ . 

अथवा ममपरेषि तत्तनुम्‌ अ्र्रएभं त्रम्‌ न तु संविदस्ि ते। 

सुरभिं विदधासि डि क्रियां श्रष्ररचेस्तत्प्रभवस्य शान्तये ॥४९॥ 

श्रनुलेपनमञ्ननं खजो मणिसुक्ता तपनोयमंप्ररकम्‌ । 

यदि माधु किमच योषितां महजं तासु विचौयतांर एचि ॥५ ०॥ 


१९ 2. 1. विनौयताम्‌ | 


अष्टमः सगेः | 8€ 


र 
मलपङ्धरा दिगम्बरा प्रकतिदयेन॑खदन्नरोमभिः । 
यदि सा तव सुन्दरौ भवेत्‌ नियतं नेऽद्य न सुन्दरौ भवेत्‌ ॥५१॥ 
खवतोमशतिं स्यश्च कः सषटणो जन्नेरभाण्डवत्‌ स्वियम्‌ । 
यदि केवलया त्चादेता न भवेन्म्चिकपचमा त्रया *५२॥ 
त्वचवेष्ठितमख्िपञ्नरम्‌ यदि कायं समप्रैषि योषितामं । 
मदनेन च ₹व्यसे बलाद णः खल्व्टतिश्च मन्म्रथ[:] ॥५ ३॥ 
प्भतामग्भेषु कन्ण्यन्‌ नखदन्तलचके शरो मसु । 
श्रविचक्षण किं न पश्यमि प्रकतिच्च प्रभवञ्च योषिताम्‌ ॥५४॥ 
तदवेत्य मनःश्रोरयोवे निता दोषवतौ विग्रषतः । 
चपलं भवतोत्सुकं मनः प्रतिमया नबल्तेन वाय्येताम्‌ ॥१ १॥ 
श्रतवान्‌ मतिमान्‌ कुलोद्गतः परमस्य प्रश्रमस्य भाजनम्‌ । 

उपगम्य यथा तथा पुन न हि भ्त नियम लमहंसि ॥१६॥ 
श्रमिजनमहतो मनखिनः प्रिययश्रसो बह मानमिच्छतः । 
निधनमपि वर स्थिरात्मनः चयतविनयस्य नेव जो वितम्‌ ॥५७॥ 

ब्धा यथा हि कवचम्‌ प्रग्रहो तचापो 

निन्द्यो भवत्यपष्तः रुमराद्रयसः । 

भेचाकमभ्युपगतः परिग्ट्य लिङ्गम्‌ 

निन्द्यस्तथा भवति कामदतेद्धियाश्वः ॥५८॥ 

हास्यो यथा च परमाभरणाम्बरसरग्‌ 

भेच्छं चरन्‌ तधनखचलचिमौलिः 


९.९. ). दकैव । 


+ ह 1 


सौन्द्रनन्दं काच्यम्‌ । 

4 
वैरूप्यमभ्यपगतः परपिण्डभोजो 
हास्यस्तया गटहसुखाभिमुखः सटष्णः ॥५९॥ 

यथा खन्न सुक्ता परमश्रयनोयेऽपि श्यितो 
वराहो निशभुक्तः पुनर एचि धावेत्‌ परिचितम्‌ । 
तथा श्रेयः ग्रटखन्‌ प्र्ममसुखमाखाद्य गुणवद्‌ 
वनं शान्तं हित्वा गएहमभिलषेत्‌ कामदषितः ॥ई °॥ 
यथोलका ₹दस्तस्था ददति पवनप्रेरितशरिखा 
यथा पादाक्रान्तो दशति भुजगः क्रोधरभसः। 
यथा इन्ति व्याघ्रः शिष्रररपि ग्डोतो गटहगतः 
तथा स्तौसंखगो बहविधमनर्थाय भवति ॥६१॥ 
तदिज्ञाय मनःश्रौरनियतान्‌ नारौषु दोषानिमान्‌ 
मला कामसुख नदौजलचलं कशाय शोकाय च। 
ृ्ा दुब्डेलमाम^पाचसद्‌ शम्‌ सखल्यपद्षटं जगत्‌ 
निमौचाय कुरुष्व बुद्धिमतुलामुत्कष्ठितुं नाहेसि ॥६२॥ 


इति सौन्दरनन्दे महाकाये स्तौ विघातो नाम 
अष्टमः सगे: । 


१ 7. 1. °मान ° । 


नवमः सेः । 


नवमः सगेः। 


श्रथेवसुक्तोऽपि स तेन भिचृण 
जगाम नेत्रोपश्रमं प्रियां प्रति । 
तथाहि तामेव तद्‌ा स चिन्तयन्‌ 
न तस्य एएश्राव विसन्ञवान्धवः" ॥१॥ 
यथा इहि वैद्यस्य चिकीषेतः शिवम्‌ 
वचो न ग्टह्ाति मुमूषुरातुरः। 
तथेव मत्तो बलदपयौ वनेः 
हितं न जग्राह स तस्य तदचः ॥२॥ 
न चात्र विचर यदि रागपाप्मना 
मनोऽभिश्रयेत तमोटढतात्मनः । 
नरस्य पाप्मा हि तदा निवत्तेते 
यद्‌ा भवत्यन्तगतं तमस्तनु ॥२॥ 
ततस्तथाचि्नमवेच्छ तं तदा 
बलेन रूपेण च यौवनेन च । 
ग्टदप्रयाणं प्रति च व्यवस्थितं 
श्रशास नन्द्‌ अमणः स ग्रान्तये ॥४॥ 

बलञ्च रूपञ्च नवञ्च यौवनम्‌ 
तथावगच्छामि यथावगच्छसि । 


५९ 


९1. . 16८प18. 2, 1, विसंज्ञा ° । 


५२ सौन्दरनन्दं काब्यम्‌ । 


प 


अहन्त्विदं ते चयमव्यवस्थितम्‌ ` 
स 
॥ ४॥ 


ययावनुद्धो न तथाच वु 
ददं दि रोगायतनं जरावगश्म्‌ 
नटौतटौनौ कदवचला चलम्‌ । 
न वेत्सि देहं जलफनद्‌व्बेलम्‌ 
बलस्थतामात्मनि येन मन्यसे ॥ ६॥ 
यद्‌ान्नपानाग्रनयानकम्मेणा- 
मसेबनादप्यतिसेवनादपि । 

श्ररौोरमासन्न विपत्ति दृश्यते 

बलेऽभिमानस्तव केन हेतुना ॥७॥ 

डहिमातपव्या ६ बुदादिभि 

यद्‌ाप्यनयरूपनौ यते जगत्‌ । 

जलं दरचौ मास दवाकंरस्िभिः + 

चय व्रजेत्‌ किं बलदृप्त मन्यसे ॥८॥ 

त्वगस्यिमां सक्ततजात्मकं यदा 

शररोरमादहारवग्रेन तिष्ठति । 

श्रजसखमानते नि ^ इकवलि 
बलाच्ितोऽस्रौति क ॥९॥ 

यथा घटं श्टणए्समयमाममा्ितो 

नरस्तितौरधेत्‌ चुभितं महाणेवम्‌ । 

समुच्करय तदद्‌ सारसुददन्‌- 

बलं व्यवस्येत्‌ विषयायेसुद्यतः ॥१ ०॥ 


नवमः सर्गैः । ५द्‌ 


` श्ररौरमामादपि ्ण्मयाद्‌ घटात्‌ 
ददन्तु निःसारतमं मतं मम । 
चिरं हि तिष्ठेत्‌ विधिवद्धतो घ्‌ 
ससुच्छ्रयोऽय सुश्टतोऽपि भिद्यते ॥१  ॥ 
यद्‌ाम्ब्‌ न 7 ८४ 
सदा [नि]रुद्धा विषमा इवोरगः । ८०१०0 
भवन््यनर्थाय शरौरमाभिता (9 2 
कथं बलं रोगविधौ व्यवस्यसि ॥१२॥ | 
प्रयान्ति मन्तः प्रशम भुजङ्गमा 
न मन्तसाध्यास्तु भवन्ति धातवः । 
केचिच सिज दशन्ति पन्नगाः 
सद्‌ा च सव्वेञ्च तुदन्ति धातवः ॥१३॥ 
ददं हि शय्या ग्रनपानभोजनेः 
गणैः शरीरं चिर मण्यवेकितम्‌ । 
न मषेयत्येकमपि व्यतिक्रमम्‌ 
यतो \महा शो विषवत्‌ प्रकुष्यति ॥१४॥ 
यदा हिमान्ता ज्वलनं निषेवते ` ` ` 
हिम निदाघाभिहतोऽभिकाङ्गति.। 
चेधाितोऽन्न सलिलं ठषाचितो 
बलं कुतः किञ्च कथञ्च कस्य च ॥१५॥ 


१ ?. 4. महाह ° । 


५४ 


सौन्दरनन्दं काच्यम्‌ । 


तदेवमानज्ञाय शरौरमातुरम्‌ 
वलान्ितोऽस्नौति न मन्तुमहंसि । 
श्रसुारमखन्तमनिशितं जगत्‌ 
जगत्यनित्ये बलमव्यवयितम्‌ ॥१ ६॥ 
क्र कान्तैवोय्येस्य बलाभिमानिनः 
सदहखवाहोबंलमव्लनस्य तत्‌ । 
चकन्तं बाह्ृन्‌ युधि यस्य भागेवो 
महान्ति पएङ्गा्यश्रनिगिरेरिव ॥१७॥ 
क तदलं कंसविकर्षिंणो हरे- 
स्तर ङ्गराजस्य पुटावभेदिनः* । 
यजेकवाणेन निजत्निवान्‌ जरा 
क्रमागता रूपमिवोनत्तमं जरा ॥१८॥ 
दितेः] सुतस्यामररोषकारिणः 
चमूरचेर्वां नमुचेः क तदलम्‌ । 
यमावे ब्रुद्धमिवान्तकं स्थितम्‌ 
जघान फेनावयवेन वासवः ॥१९॥ 
बलं कुरूणां क च तत्तदाभवत्‌ 
युधि ज्वलिला तरसौजसा च ये। 
समित्छमिद्धा ज्वलना दू वाध्वरे 
हतासवो भस्मनि पय्येवश्धिताः ॥९ ०॥ 


4 व 14. पच्छेर्‌ | 


नवमः सगेः । ५१५ 


अतो विदिला बलवौय्येमानिनाम्‌ 
बलान्वितानामवमर्दितं बलम्‌ । 
जगन्नरग्डत्युवशं विचारयन्‌ 
१बलेऽभिमानं न विधातुगृहति श. १॥ 

बलं महदा यदि येन भन्ये च 

कुरुब्व युद्धं सह तावदिद्धिः । 

जय <तेऽचास्ति मदद ते बलं 

पराजयश्चेद्‌ वितथं च ते बलम्‌ ॥ ९२॥ 

तथा डि वराः पुरुषा न ते मता 

जयन्ति ये साश्वरयददिपान्‌ नरान्‌ । 

यथा मता वौरतरा मनौषिणो 

जयन्ति लोलानि षडिन्द्रियाणि ये॥९३॥ 

श्रहं वपुश्रानिति यच्च मन्यसे 

विचक्षणं नेतदिदं च गरद्यताम्‌ । 

करं तदपुः सा च वपुश्नतो ततः 

गदस्य साम्यस्य च सारणस्य च र (0 

यथा मयूर ञ्चलवचिचचन्रको < (0997 ८4 , 4२, 

(बलत द ल्त खभावतः {९/2 ८ श, 

शररोरसस्कारगणादूते तया 

विभषिं खूपं यदि रूपवानसि ॥२ ५॥ 


८ 


१ 2. ‰#. 2. 1. 4. °बिय्य। 
२ 2. #. परे, ?. 1. 1, पले | ३ ?, 1, तेन । 


५६ सौन्दरनन्दं काश्यम्‌ । 


यदि प्रतपं ठणयान्न वाससा 
न शौचकाले यदि संस्यशेदपः । 
ग्टजाविग्रेषं यदि नाददौत वा 
वपु वैपु्मन्‌ वद्‌ कदु शं भवेत्‌ ॥९ ६॥ 
नवं वयखात्मगत निग्राम्य यद्‌ 
गटोन्मखं ते विषयाप्तये मनः । 
नियच्छ तच्छैलनदौ प्रयो पमम्‌ 
दरुतं डि गच्छत्य निवन्ति यौवनम्‌ ॥९७॥ 
तुव्येतोतः परिवन्तेते पुनः 
चयं प्रयातः पुनरेति चन्द्रमाः । 
गतं गतं नेव तु संनिवन्तेते | 
जलं नदौनाञ्च नृणाञ् यो वनम्‌ ॥९८॥ 
विविितश्बश्रु बलो वि्ु्चितम्‌ 
विभ्रौणेढन्तं शिथिलभ्नु निष्य॒भम्‌ । 
यदा सुखं द्रच्छसि जल्नेर .तदा 
जराभिभ्रतो विमदो भविष्यसि ॥२९॥ 
` निषेव्य पानं मदनौयसुत्तमम्‌ 
निगश्राविवासेषु चिरादिमाद्यति । 
नरस्तु मत्तो बलरूपयौवनैः | 
न कञिदधप्राप्य जरां विमाद्यति॥२०॥ 
यथेचुरभ्न्तरसंप्रपिण्डितो 


१ 12. 10, तज्ञेनदौ० । 


नवमः सगेः। । ५७ 


` भुवि प्रविद्धो दहनाय श्टवयते । 

तथा जरायन्लनि पिण्डिता तनु- 
निंपौतसारा मरणाय तिष्टति ॥३९॥ 
यथा हि नृभ्यां करपचरपौडितम्‌ 
समुच्छ्रितं दारु भिनत्यनेकघा । 

तयो ्छ्रितां पातयति प्रजामिमाम्‌ 
श्रहनिंशाभ्यासुपसंहिता जरा ॥२२॥ 
स्मृतेः प्रमोषो वपुषः पराभवो 

रतेः चयो वा भ्रुतिचच््षां यहः 
श्रमस्य योनि बेलवोय्येयो वधो 
जरासमो नास्ति रिः : ॥ २ २॥ 
ददं विदिला (विधत दे गिकेम्‌ 


जराभिधान व इद्धयम्‌ । `, {2८८८9०4८ -- 

चरं वपु्मान्‌ करान्‌ चवेति वा | „ - र ड 0८9 094 

न मा[न]मारोढमनाय्वेमहेसि ॥२४॥ ८. ~. छ / 
शरं ममेत्येव च रक्रचेतसाम्‌ `, ^^ ० 

श्ररर संज्ञो भवज(य); कलौ ग्रहः । -ॐ 44 

तसुत्‌ जेव यदि शाम्यते भवात्‌ 

भयं दहं चेति ममेति वच्छति ॥२ ५॥ 

यदा शरौरं न वशेऽस्ति कस्यचित्‌ 

निरस्यमानं विविधेरुपशषवेः । 


९ ?. 11. शरणेरे न वश्णो$स्ति° । 


सोन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


कथं चमं वेत्तमहं ममेति वा 

शरौ रसंज्ञं ग्टहमापद्‌ाभिदम्‌ ॥२ ६॥ 
सपन्नगे यः कुण्डे सदाऽश्टचौ 
रमेत नित्यं प्रतिसंद्छतेऽबले । 

स दुष्टधातावग्ररचौ चलाचले 
रमेत काये विपरौतदभेनः ॥३ ७। 
यथा प्रजाभ्यः कुनृपो बलाद्‌ बलौ 
हरत्यशेषं च न चाभिरचति। 
तयैव कायो व्यसनादि साधनम्‌ 


हरत्य गेषञ्च न चानुवत्तते ॥२८॥ 


यया प्ररोन्ति रहाण्ययन्नतः 
चितौ प्रयन्नात्त्‌ भवन्ति शरालयः। 
तथेव दुःखानि भवन्ययन्नतः 


दनि 


सुखानि यत्नेन भवन्ति वा न वा॥३९॥ 


श्ररौरमान्ते परिकरषंतश्चलम्‌ 


न चास्ति किञ्चित्‌ परमाथेतः सुखम्‌ । 


सुखं हि दुःखप्रतिकारसेवया 


खिति च दुःखे ततुनि वयवस्यति ॥४०॥ 


यथानपेच्छाग्यमपौ षवित सुखम्‌ 
प्रबाधते दुःखमुपेतमणपि । 
तथानवेच्छात्मनि दुःखमागतम्‌ 


न विद्यते किञ्चन कस्यचित्‌ सुखम्‌ ॥४१॥ 


` नबमः सगंः। 8 ५< 


शरोरमोदृक्‌ बह्कदुःखमघ्रैवम्‌ 
फलनुरो धाद यवावगच्छसि। 
द्रवत्‌ फलेभ्यो टेतिरश्िभिमेनो- 
ऽभिग्द्यतां गौरिव शस्यलालसा ॥४ २॥ 
न कामभोगा हि भवन्ति ठ्य 
दवौषि दौप्षस्य विभावसोरिव । 
` यथा यथा कामसुखेषु वत्तेते 
तथा तथेच्छा विषयेषु वद्धेते ॥४३॥ 
यया च कुष्टव्यसनेन दुःखितः 
प्रतापयन्नेव शरमं निगच्छति । 
तयेद्धियायग्वजिते द्दरियश्चरन्‌ 
न कामभोगेरुपशा न्तिर्टच्छति ॥४ ४॥ 
यथा हि भेषज्यसुखाभिकाङ्खगया 
भजेत रोगान्न भजेत तत्‌ चयम्‌ । 
तथा शरौरे बहृदुःखभाजने 
रमेत मोहार्‌ विषयाभिकाङ्खगया ॥४५॥ 
अनथेकामः पुरुषस्य यो जनः 
स तस्य शचः किल तेन कम्मण । 
अनवमा निदु रेवन, ५/८ ८ 
नतु प्रहेया विषय चयारयः ॥४६॥ 
देव ग्ला रिपवो वघात्मकाः 
प्रयान्ति काले पुरुषस्य मित्रताम्‌ । . 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


परत्र चेवेह च दुःखहेतवो 

भवन्ति कामा न तु कस्यचित्‌ शिवाः ॥४७॥ 
यथो पयुक्तम्‌ र सवणेगन्धेवत्‌ 

वधाय किम्याकफलम्‌ न पुष्टये । 
निषेव्यमाणएण विषयाश्चलात्मनो ` ` 
भवन्तयनर्थाय तया न तये ॥ ४८॥ 


१ ग यर विपाप्रन्‌त्मना ,. ८/८ (१^,..2 ९. 
रग ट 
1, 1 


4 


जषख मे सज्जननसम्मतं मतम्‌ 

प्रचच्च वा निश्चयसुट्‌गिरन्‌ गिरम्‌ ॥४९८॥ 
दूति हितमपि बह्पौदसुक्तः 

शरुतमहता रमणेन तेन नन्दः । 

न ेतिसुपययौ च न शग्मं लेभे 

दिरद इवातिमदो मदान्धचेताः ॥५०॥ 

नन्दस्य भावमवगम्य ततः स भिः 

पारिक्चवं रहसुखाभिमुखं न धम । 

सत्वाग्रयानुग्रयभावपरौ चकाय । 

बद्धाय तत्वविदुषे कथयाञ्चकार ॥५ १॥ 


सौन्दरनन्दे महाकाव्ये मद्‌ापवादा नाम 


नवमः सगेः ॥ 


दशमः सगेः | ९१ 


४ दशमः सगेः। 
त श्रूत्वा ततः सद्भतसुत्‌ सिषे भार्य्यादिदु चुं भवनं वि विचुम्‌ । 
नन्दं निरानन्दमपेतचैष्यं अन्युल्जिरोषुं मुनिराजुदाव ॥१॥ 
ल नव मागे पप्रच्छ चिन्तखलितं सुचित्तः। 
स ह्ोमते हो विततो जगाद खं निश्चयं निश्चयको विद्‌ाय॥२॥ 
नन्दं विदिता खगतस्ततस्तं भाय्यांभिधाने तमसि भ्रमन्तम्‌ । 
पाणौ गहौतल्वा वियद्‌त्पपात मलं जले साधुरिवोल्निहोषुः ॥२॥ 
काषायवस्त्रौ कनकावदातौ विरेजतुस्तौ नभसि प्रसन्ने । 
अन्योन्यसं ्िष्टविकौणेपक्तौ सरःप्रकौर्णाविव चक्रवाकौ ॥४॥ 
तौ रेवदारूत्तमगन्धवन्तम्‌ नदौसरःप्रखवणौ घवन्तम्‌ । 
्राजग््रतुः कञ्चन धातुमन्तम्‌ देवषिंमन्तं दिमवन्तमा्र ॥५॥ 
तस्मिन्‌ गिरौ चारणएसिद्धजष्टे शिवे दविधूमरूतोत्तरौये । 
अगम्यपारस्य निराश्रयस्य तौ तख्यतुर्दौप द वाम्बरस्य ॥६॥ 
शान्तेद्दिये तच सुनौ स्थिते तु सविस्मयं दिच्‌ द्‌दगरं नन्दः। 
दरौ कुज्ञांख वनौकसश्च विग्षणं रक्षणमेव चाद्रे: ॥७॥ 
ब्धायते तच सिते हि श्ङ्ग रुकि्तवहेः शयितो मयूरः । 
सुज बलस्यायतपौनवा होः वेदू व्यकेयूर इवावभासे ॥८॥ 
मनःशिलाघातुशिलाश्रयेण पौतोकृताङ्गो विरराज सिंहः, 
र्सन्तप्रचामो करभक्ति चिचम्‌ रुप्याङ्गदं शौणेमिवाम्बरस्य ॥< ॥ 
व्याघ्रः क्तमव्यायतखेलगामो लाङ्ुलचक्रेए छता पसद्यः । 
बभौ गिरेः प्रवणं पिपासुदित्न्‌ पिटभ्योऽम्बृ इवावतौ णेः ॥१०॥ 


१ †. 0. तापौकताश्रो (. २. 1, तं तन्त. 


¦ +: | सोन्द्‌रनन्दं काच्यम्‌ । 


चलत्‌कदम्बे हिमवज्नितम्बे तरौ प्रलम्ब पि जलम 0160 
क्तु विलघ्रं न ्रभाक बाल कुलोद्गतः प्रौ तिभिवाय्यत् 1 4.406/ 
सुवं गौराञ्च किरातसंघा मयर पिच्छो “च्वलगा रेखा 4 
शाद्‌ लपातप्रतिमा गुदाभ्यो निष्येतुरुद्ार इवाचलस्य ॥१ २॥ 62“ 
दरौचरौणणमतिखुन्दरौणां मनो हरथ्रो णिकुचो दरौणाम्‌ । 
छृन्दानि रेज॒दिं शि किन्नरों पुष्योत्किराणा मिव वह्नरौ णाम्‌ ॥१३॥ 
नगाननगस्योपरि देवदारूनायासयन्तः कपयो विचेरः । 
तेभ्यः फलं नापुरतोऽपजग्ः मोघप्रसादेभ्य दृवेश्वरेभ्यः ॥१४॥ 
तस्मात्तु यूथादपमाय्यंमाणां जिष्यौ डितालक्तकर क्वक्ताम्‌ । 
प्राखाग्टगोमेक विपन्नदृष्टिं दृष्टा सुनिनेन्दमिदं बभाषे ॥१५॥ 
का नन्द रूपेण च चेष्टया च संपण्यत्ारुतरा मता ते । 
एषा ष्मो वेक विपन्नदुष्िः स वा जनो यच्च गता तवेष्िः ॥१९॥ 
दत्येवसुक्तः सुगतेन नन्दः कृता स्मितं किञ्चिदिदं जगाद । 
क चोत्तमस्तौ भगवन्‌ वधृस्ते श्ठगौ नगज्ञे्रकरौ क तेषा ॥१७॥ 
ततो मुनिस्तस्य निशम्य वाक्यं हेलन्तरं किञ्चिदवेचमाणः । ` 
श्रालग्ब्य नन्दं प्रययौ तथैव क्रीडावनं वञ्जधरस्य राज्ञः ॥१२८॥ 
तादतावाङृतिमेक एके षणे चषणे विभ्रति यत्र चाः । | 
चिचां ममस्तामपि केचिदन्ये षलाश्छणं भियमुदट्‌ वदन्ति ॥१९॥ 
पुव्यन्ति केचित्‌ सुरभौरुदारा मालाः खजश्च यथिता विविक्राः। ` 
कर्णानुकूलानवतंमकांञ्च प्रत्यथिश्चूतानिव कुण्डलानाम्‌ ।२०॥ 


१ 2. 24. °पिन्नो । 


दशमः सगः । ६३ 


रक्तानि फुल्लाः कमलानि यत्र प्रदौपटक्ता इव भान्ति टक्ाः। 
प्फुल्लनो लोत्यलरो हिणोऽन्ये सोन्मो लिताक्ता दव भान्ति इन्ताः॥२९॥ 
नानाविरागाण्छय पाण्डराणि खुवश्भक्तिव्यवभासितानि ) 
अतान्तवान्येकघनानि यच दद्साणि तासांमि फलन्ति चाः ॥२२॥ 
हारान्‌ मणोनुत्तमङ्ुण्डलानि केयूर वच्यैण्ठय नूपुराणि। 
एवंविधान्याभरणानि यत्न स्वर्गानुरूपाणि फलन्ति ठाः ॥२३॥ 
बैदूष्येनालानि च काञ्चनानि पद्चानि वज्चाङ्कुरकेश्रराणि। 
स्यशंचमाण्यत्तमगन्धेवन्ति रोहन्ति निष्कम्यतला नलिन्यः ॥२४॥ 
पत्रायतांञचैव ततां श्च तांस्तान्‌ वाद्यस्य इधन सुखरान्‌ घनां श्च । 
फलन्ति च्चा मणिडेमचित्रा क्रोड़ासदहायां सिद शालयानाम्‌ ॥२१५॥ 
मन्दारद्तांञ्च कुशे शयां ञ्च पुष्यानतान्‌ कोकनद्‌ख ठक्तान्‌ । 
आक्रम्य माहा तयगुणेव्विराजन्‌ प्रजायते यच स पारिजातः॥२६॥ 
इष्टे तपः गौ लफंलेर खिन्ने स्तिपिष्टपरेचतले प्रसूताः । 
एवंविधा यत्र सदानुदन्ता दिवौकसां भोगविधानट़क्ाः ॥ २७॥ 
मनःशिलाभेवेदनेविदङ्गग यचा चिभिः स्फारिकसन्निभेश्च । 
शादे प्रित 8 केरद्धां तेश्च पादैः ॥२८॥ 
चित्रः खुवणंच्छदनेस्तथान्य वेदू ्येनौ लेः नतः प्रन्नः । 
विहङ्गमा ओोञ्जिरिकाभिधाना रूतैमेनः श्रो चदरेभेमन्ति ॥२८॥ 
रक्राभिरयेषु च वल्लरौभिः मध्येषु चामौोकरपिन्ञराभिः। 
वेद वयव्णाभिरुपान्तमप्येव्वलङ्कता यत्र खगा खरन्ति ॥२ ०॥ 
रोचिष्एवो नाम पतत्रिणोन्छे. दौप्ताभ्रिवणाज््वलितेरिवासयेः। 
भ्रमन्ति दृष्टौवंपुषाकिपन्तः खनेः श्एभेर रसो रन्त: ॥३ ! ॥ 


६४ । सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


यचेष्ट चेष्टाः सततप्रदष्टा ^ निन्नैरसो विशोकाः । 
खे: कन्म भिर्ोनविशिष्टमध्याः खयप्रभाः पुण्यकृतो रमन्ते ॥३२॥ ` 
नित्योत्छवं तञ्च निशाम्य लोकं निस्तद्िनिद्धारतिगशोकरीगम्‌ । 
नन्दो जराण्डल्युवश्रं सदात्ते मेने ्वश्रानप्रतिमं नृलोकम्‌ ॥र र॥ 
णेन्द्र वनं तच्च ददं नन्दः समन्ततो विस्मयफु्लदृष्टिः । 
दर्षान्विताश्चाष्र सः परौ युः सगव्वेमन्योन्यमवेक्षमाणः ॥२ ४॥ 
सद्‌ा युवत्यो मदनेककार्य्याः साधारणणः पुण्ठहृतां विहाराः । 
दिव्याश्च निर्दोषपरिग्रदाञ्च तपःफलस्याश्रयण सुराणाम्‌ ॥ २ ५॥ 
तासां जगरपौरसुदात्तमन्याः पद्मानि काञ्चित्‌ ललितं वभच्ुः । 
अन्योन्यदर्षात्‌ ननृतुस्तथान्याञ्चितराङ्गदहाराः स्तनभिन्नदाराः ॥ द ६॥ ` 
परध तपोमूल्यपरियदेए खगं क्रयाय छतनिश्चयानाम्‌ । 
मनांसि खिन्नानि तपोधनानां इरन्ति  यचाष्यरसो लडन्त्यः ॥ ३ ७॥ 
कासाञ्चिदासां वद्नानि रेजवेनान्तरेभ्यश्चलकुष्डलानि । ` 
व्याविद्धपरभ्य दवाकरेभ्यः पद्यानि कादम्नविघटटितानि ॥३८॥ 

ता निःखताः प्रच्छ वनान्तरेभ्यस्तडत्यताका दव तो यदेभ्यः । 
नन्दस्य रागेण तनुविवेपे जले चले चन्धमसः प्रभेव ॥३ ९॥ 
वपुश्च दिव्यं ललिताश्च चेष्टाः ततः स तासां मनसा जहार । 
कौ लूहलावज्जिंतया त्‌ दृष्या सं्षषतर्षादिव चऋतरागः॥४०॥ 
स जातत्ाऽष्रषः पिपासुः तत्प्राप्नथेऽधि णित विक्तवान्तैः । 
लोलतेन्दरियाश्न मनोरयेन जेद्नोयमानो न तिं जगाम ॥४१॥ ` 

यया मनुग्या मलिनं हि वासः चारेण शयो मलिनौकरोति । 
मलच्याये न मलोद्धवाथं रजस्तयाकग सुनिराचकषे ॥४२॥ ` 


५ ॥ ॥ ५ 
दशमः सगः | ६५ 


दोषा[]ख (ख)काया[र्‌] भिषरुज्िहो षुः श्यो यथा क्तंशरयितुं यतेत। 
रागं तया तस्य सुनिजिंघांसुश्ंयस्तर रागमुपानिनाय ॥४२॥ 
दौपप्रभां हन्ति यथा च काले मदखरम्मेरदितस्य दधिः । 
मनुव्यलोके दुतिमङ्गनानामन्तद्‌ धात्यप्परसां तथा श्रौ: ॥४४॥ 
मच्च रूपं खण दन्ति रूपं शब्दो मदान्‌ न्ति च ग्ब्दमन्यम्‌ । 
गर्वो रुजा इन्ति रुजं सुखदो सव्वा महान्‌ डहेतरणोवधाय ॥४१॥ 
सुनेः प्रभावाच्च शशाक नन्दम्तदगेनं सोदमसद्यमन्यः । 
श्रवोतरागस्य हि दुब्बेलस्य मनो दहेदप्एरसां वपुःओ्रोः ॥४ ६॥ 
मला ततो नन्दसुदौणेरागं भार्ययानुरोधाद पटत्तरागम्‌ । 
रागेण रागं प्रतिहन्तुकामो सुनिविरागो गिरमिल्युवाच ॥४७॥ 
एताः ख्यः पश्य दिवौ कमसस्वं निरी च्छ च बूहि यथाय तच्चम्‌ । 
एताः कथं रूपगुणेमेतास्ते स॒ वा जनो यत्र गतं मनस्ते ॥४८॥ 
अथाप्यरस्येव नि विष्ठदृष्टो रागाभ्रिनान्तहेदये प्रदीप्तः । 
सगद्भदं कामविषक्रचेताः कताञ्नलिर्वाक्यसुवाच नन्दः ॥४०॥ 
दय्येङ्गनासौ सुषितेकदृष्टियंदन्तरे स्यात्‌ तव नाय वध्वाः । 
तदन्तरेऽसौ छृप्रणा वधृस्ते वपुश्रतोर एर सः प्रतीत्य ॥५०॥ 
आस्था यथा पूव्वेमग्छन्न काचित्‌ ्रन्यासु मे स्तौषु निशाम्य भाय्यीम्‌ । 
तस्यां तथा संप्रति काचिदास्ानमे निशाग्येव हि रूपमामाम्‌ ॥ ५१॥ 
यथा प्रतक्नो ग्टद्नातपेन दद्येत कश्चिन्महतानलेन । 
रागेण पृष्व ग्ठदुनाभितप्नो रागाभ्निनानेन तथाभिदद्ये ॥५ २॥ 
वाग्बारिणा मां परिषिच्च तस्माद्‌ यावन्न दद्य ख दवालश्रचुः। 


रागाभिरदयेव हि मां दिधकुः कचं स टक्षायमिवोत्थितोऽभभिः ॥५२॥ 
(51 


({ | सौन्द सनन्दं काव्यम्‌ । 


प्रसोद सोदामि विमुञ्च मां सुने वसुन्धराचेय्ये न चैवमस्ति मे । 
अन्‌ विमोक्तामि विसुक्तमानसः प्रयच्छ वा वागण्डतं सुमूषेवे ॥५४॥ 
अनयेभोगेन विघातदुष्टिना प्रमाददंद्रेण तमो विषाभ्चिना । 
अहं डि दष्टो इदि मन्मया हिना विधत तस्माद गदं महा भिषक्‌॥५५॥ 
अनेन दष्टो म दनि हनति हना न कञ्िद्‌त्मन्यनवस्थितः सितः । 
मुमोह बोद्यो [हि] चलात्मनो मनो बभ्रूव धो माश्च म्‌ श्रन्तदुसतन्‌ः॥५६ ॥ 
सखिते विशिष्टे लयि संश्रये रये यया न यायौ(मौ) बह्कसं दि 
दिशम्‌ । 
यथा च लब्धा वयसनच्चयं त्यं ब्रजामि तन्मे कुर्‌ शंसतः सतः ॥५ ७॥ 
ततो जिघां सुद्धदि तस्य तत्तमस्तमोनुदो नक्रमिवोत्थितं तमः। 
मदषिचन्द्रो जगतस्तमोनुदस्तमःप्रहौणएो निजगाद गौतमः ॥५८॥ 
तिं परिख्वन्य विधूय विक्रियां निग्टद्य तावत्‌ श्रुतिचेतसौ श्रटण॒ । 
द्मा यदि प्राथेयसे लमङ्गना विधत्ख ग्ररल्काथेमिहोत्तमं तपः ॥५९॥ 
ष्टमा हि शक्यन्न बलान्न सेवया न संप्रदानेन न ूपवतन्तया |. 
द्मा द्वियन्ते खल्‌ धम्मेचय्येया स चेत्‌ प्रहषेञर धम्मेमादृतः ॥६०॥ 
दहाधिवासो दिवि दैवतैः समं वनानि रम्याण्छजराख्च योषितः । 
ददं फलं खस्य श्रटभस्य कम्मणः न दन्तमन्येन न वप्वतुतः ।९१॥ ` 
चितौ मनुग्यो घनुरादि भिः शरभैः स्तिय कदाचिद विलत वानवा। 
श्रसंग्रयं यतिह धमं चय्यंया भवेयुरेता दिवि पुण्छकश्मेणः ॥&२॥ 
तद प्रमत्तो नियमे समुद्यतो 1 यद्यष्एर सोऽभि लिष्यसे । 
श्रं च तेऽच प्रतिभूः सिरे व्रते यथा तमाभिनिथतं समेव्यसि ॥६२॥ 


१ ?. 1. 24. इमा हि शक्य रव गा सेवया । 


रखकादश्चः सगः । द, 


अतःपरं परममिति व्यवश्धितः परां तिं परमसुनौ चकार सः। 
ततो मुनिः पवन इवाम्बरात्‌ पतन्‌ प्ररह्य तं पु नर गमन्‌ महौतलम्‌ ॥ 
६४॥ 
द्रति सौन्दरनन्दे महाकाव्ये खर्गनिदर्भनो 
नाम दश्रमः सगेः। 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


रकाद शः सगः । 


ततस्ता योषितो दृष्टा नन्दो नन्दनचारिणौः । 
बबन्ध नियमस्तम्म दुदेमं चपलं मनः ॥१॥ 
सोऽनिष्टनेष्कम्ेपरसो स्तञानतामरसोपमः । 
चचार विरसो धम्मे निवेश्याष्यरसो इदि ॥२॥ 
तथा लोलेदन्दरियो श्रत्वा द यितेद्दरियगोचरः। 
दृद्दियाथेवश्रादेव बश्ूव नियतेद्दियः ॥२॥ 
कामचर्या घु कुशलो भिचुचर्य्यासु विक्तवः । 
परमा चाय्यै विष्टो ब्रह्मच चचार सः ॥४॥ 
संटतेन च शान्तेन तौत्रेण मदनेन च। 
जलान््ोप्रिव संसर्गात्‌ श्रशामर च श्रदशरोष च ॥५॥ 
स तावद्‌ दशरेनौयोऽपि वैरूप्यमगमत्‌ परम्‌ । 
चिन्तयाप्यरसाञ्चैव नियमेनायतेन च ॥६॥ 
परस्तावेष्वपि भार्ययायाः प्रियभास्थेस्तथापि सः ) 
वौोतराग इवातश्यौ न जदषे न वचुुभे ॥७॥ 

तं ववस्थितमाज्ञाय भार्य्यारागात्‌ पराञ्मुखम्‌ । 
अभिगम्यात्रवोत्‌ नन्दमानन्दः प्रण्यादिदम्‌ ॥८॥ ` 
अरहो सदुश्मारग्धं श्रुतस्याभिजनस्य च । 
निग्टदोतेद्धियः खस्थो नियमे यदि सस्थितः ॥९॥ 


१ 7. 1, जलामरेः 1. २ {?. /॥, शग्रास 1. 


रखुकादश्रः सगे: । ६९ 


श्रभिष्वक्तस्य कामेषु रागिणो विषयात्मनः । 

यदियं रुविदुत्पन्ना नेयमच्येन हेतुना ॥ १ ०॥ 

व्याधिरल्पेन यत्नेन श्दुः प्रति निवाय्येते । 

प्रबलः प्रबलेरेव यननेनेश्ति वा नवा॥१,॥ 

दुरो मानसो व्याधिबेलवां ञ्च तवाभवत्‌ । 

न ते सब्वेया टतिमानसि ॥१२॥ 

दुष्कर साघनाय्युण मानिना चेव मादंवम्‌ । 

अरतिसगञ्च लब्धेन ब्रद्धचय्येञ्च रागिणा ॥१२॥ 

एकस्तु मम सन्देहस्तवास्यां नियमे टतौ । 

श्रचानुनयमिच्छामि वक्तव्यं यदि मन्यसे ॥१४॥ 

्आान्जवाभिहितं वाक्यं न च गन्तव्यमन्यथा । 

रुच्मप्या शये श्रद्धे रक्ततां नेति सन्ननः ॥ ! ५॥ 

श्रप्रिय हि हितं लिग्धमल्िग्धमहितं प्रियम्‌ । 

दुशंभं तु प्रियहितं खाद्‌ पथ्यमिवौषधम्‌ ॥१ ६॥ 

विश्वासश्चायेचर्य्यां च सामान्यं सुखद्‌ःखयोः । 

` मर्षणं प्रणयञ्चेव मिचटृन्तिरियं सताम्‌ ॥१७॥ 

तदिदं लां विवच र प्रणयान्‌ जिांभ्यू ^... 20. < ^ 

लच्छरेयो हि विवचा मे यते नार्हाम्यपे कतुम्‌ ॥१८॥` 7" ८“ 
अरष्रोग्तको धम्मं चरसोत्यभिधोयसे । 

किमिदं खतमादो खित्‌ परिडासोऽयमोद्‌शः॥९९॥ 


१ ?, 1. 1. सुच्ततो । 


सौन्दरनन्द्‌ काव्यम्‌ । 


यदि तावदिदं सत्यं वच्छाम्यच्र यदौषधम्‌ । 
श्रोद्धत्यमय वकतुणामभिधास्यामि तद्रजः ॥२०॥ 
क्णपूव्वेमयो तेन इदि सोऽभिहतस्तदा । 
ध्याला दधे निशश्चाम किंञ्चिचा वाड्मुखोऽभवत्‌ ॥२१॥ 
ततस्तस्य ्गितं ज्ञाला मनःसंकन्पद्चकम्‌ । 
वभाषे वाक्यमानन्दो मधुरोद्‌ कंमप्रियम्‌ ॥२९॥ 
श्राकारेणावगच्छामि तव घर्॑प्रयोजनम्‌ । 
यज्ज्ञात्वा तयि जातं. मे हास्यं कारण्छमेव च ॥२३॥ 
यथासनाथे स्कन्धेन कञ्चिद्‌ शर्व्वौ' शिलां वहेत्‌ । 
तदत्‌ तमपि " थं नियमं वोद सुद्यतः ॥२ २॥ 
तिताडइयिषया दष्टो यथा मेषोऽपमपेति | 
तद द ब्रह्मचर्याय ब्रद्माच््येभिदं तव ॥२५॥ 
चिक्रौषन्ति यथा पण्धे वणिजो लाभजिष्यया । 
धन्मेचर्य्यां त तथा पण्छभूता न शान्तये ॥२.६॥ 
यया फलविगशेषाथें वौजं वपति कषेकः। 
तद दिषयकापेण्धात्‌ विषयां स्तक्तवानसि ॥२७॥ 
आकाङ्खचच यथा रोगं प्रतौ कार सुखेष्पया । 
दुःखमव्िच्छति भवान्‌ तथा विषयदष्णयां ॥२८॥ 
यथा पश्यति मध्वेव\ न प्रपातमवेच्ते । 
पश्यस्यप्एरसस्तदट्‌ भशमन्ते न पश्यसि ॥२९॥ 


९ 7.1. 11. मच्येव 2. }॥. मभ्टेव । 


रखकादशः सगेः। । ७१ 


इदि कामाग्निना दौरे कायेन वहतो ब्रतम्‌ । 
किमिदं ब्रह्मचय्यं ते मनसाब्रह्मचारिणः ॥› ०॥ 
संसारे वन्तमानेन यद्‌ा चा्यरसस्वया । 
प्रापतास््यक्ताञ्च शत गश्स्ताभ्यः किमिति ते स्या ॥२१॥ 
ठतिरनास्तीन्धनेरग्रे नाम्भसा लवणाम्भसः । 

नापि कामेष्वद्रस्य तस्मात्‌ कामा न ठषप्तये॥२२॥ 
अट्तौ च कुतः -शान्तिरशरान्तौ च कुतः सुखम्‌ । 
श्रसुखे च कुतः प्रौतिरप्रोतौ च करतो रतिः॥३२॥ 

रिरंसा यदि ते तस्मादध्यात्ये घौयतां मनः। 
प्रशान्ता चानवद्या च नास्यध्यात्मसमा रतिः ॥२४॥ 

न तच काय्यं दवर्यस्ते न स्तोभिने विग्वषणेः। 
एकस्त्वं यच तचस्थस्तया रत्याभिर स्यसे ॥२ ५॥ 

9 न 
५ व ष 0 0.1, (1 ¢ 
तं तष िन्ि दुखं हि दष्णा नास्ति च नास्ति च॥द६॥ 
सम्पत्तौ वा विपत्तौ वा दिवा वा नक्तमेव वा ।. ”“ ० 
कामेषु हि सद्रष्णस्य न शान्तिरूपपद्यते ॥ २ ७॥ 
कामानां प्राथेना दुःखा प्राप्तौ टस्नि नं विद्यति। 
वियोगान्नियतः शोको वियोगश्च प्रवो दिवि॥र२८॥ 
कृत्वापि दुष्करं कौ खगे लन्धापि दुलभम्‌ । 
नृलोकं पुनरेवेति प्रगसात्‌ खग्रहं यथा ॥२९॥ 
यथा भ्रष्टस्य कुश्लं शिष्टं किञ्चिन्न विद्यते । 
तिच पिटलोके वा नरके वोपपद्यते ॥४ ०॥ 


` र 


सोन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


तस्य भुक्तवतः खगं विषयानुत्तमानपि । 

भष्टस्यान्तैस्य दुःखेन किमाखादः करोति सः ॥४१॥ 
श्येनाय प्राणिवात्सच्यात्‌ खमांान्यपि दत्तवान्‌ । 

शिविः खर्गात्‌ परिभ्रष्टस्तादृक्‌ कलापि दुष्करम्‌ ॥४२॥ 

श्रक्रस्याद्धासनं गला पव्वैपाधथिव एव यः । 

स देवलं गतः काले मान्धाताधः पुनचयौ ॥४३॥ 

राज्यं कछत्वापि देवानां पपात नडङकषो मुवि । 

प्राप्तः किल भुजङ्गत्वं नाद्यापि परिसुच्यते ॥४४॥ 

तथेव दि विडो राजा राजटत्तेन संसत: । 

खगं गला पुनभष्टः कुरो श्तः किलाणवे ॥४५॥ 

रियो ययातिश्च एते चान्ये नृपषेभाः। 

कम्मेभिर्यामभिक्रौय तत्‌कचयात्युनरत्यजत्‌ ॥४ ६॥ 

श्रसुराः पव्वेदे वास्तु सुरेरपदतश्चियः । 

भियं समनुशो चन्तः पातालं शरणं ययुः ॥४ ७॥ 

किञ्च राजषिंभिस्तावदसुरेवा सुरादिभिः 

महेन्द्रा: शतशः पेतुर्माहाक्यमपि न स्थिरम्‌ ॥४८॥ 

संसदं शोभयिवेनद्रौ सुपेन्द्रश्चण्ड विक्रमः । 

चोणकग्मोा पपातो्व्वो मध्यादष्रसां रसन्‌ ॥४९॥ 

हा चेचरथ हा वापि हा मन्दाकिनि हा भिये। 

दृत्यात्तां विलपन्तोपि गां पतन्ति दिवौकसः ॥५०॥ 

नोत्रं दुत्पद्यते दुःखं घौमतां* यन्मुमृषेताम्‌ । 


१ ?. 14. हिमतावत्‌ {. 


रखकादश्चः सगः । ञ्ह 
0.98 

किं पुनः पततां खर्गाहेवान्त॒खखसे विनाम्‌ ॥५१॥ 

रजो ग्टह्नाति वा ५८ सचन्त रा खजः । 
गाचभ्यो जायते खेदो रतिभेवति नाशनौ ॥५२॥ 
एतान्यादौ निमित्तानि च्युतौ खरगादिवौकसाम्‌ ! ` 
अनिष्टानोव मर्त्यानामरिष्टानि सुमृषेताम्‌ ॥५३॥ 
सुखमुत्पद्यते यच्च दिवि कामानुपान्नताम्‌ | ` 
त(योच दुःखं निपततां दुःखमेवावभरिव्यते ॥५४॥ 

तस्मादखन्तमच्राण(ण)मविष्वासयमतपकम्‌ । ` 
विज्ञाय ्षयिणं खर्गमपवर्ग मति कुरु ॥५५॥ 
श्रशरोरं भवाग्यं हि गल्वापि सुनिरद्रकः। 
कम्मेणोऽन्ते च्तस्तस्मात्‌ तिय्येग योनिं प्रपद्छते ॥५ ६॥ 
मेचया सप्तवार्षिक्या ब्रह्मलोकमितो गतः । 


। 


सुनेचः पुनराटत्तो गभेवासमुपेयिवान्‌ ॥५७॥ 
यदा चेश्वय्येवन्तोपि चयिएः खगेवासिनः। 
को नाम सखगेवासाय चिष्णवे स्येद्‌बुधः ॥५८॥ 

छत्रेण बद्धोहि यथा विहङ्गो व्यावन्तेते दूरगतोपि यः । 
शरज्ञानद्तरेण तथावबद्धो गतोपि दूरं पुनरेति लोकः ॥५९॥ 
ज्ञता काल विलच्णं प्रतिभुवा सुक्तो यथा बन्धनाद्‌ 
भुक्ता बेश्मसुखान्यतोत्य समयं श्रयो विशेद्‌ बन्धनम्‌ । 
तद्वद्‌ द्यां प्रतिश्वदात्मनियमे ध्यानादिभिः प्राप्तवान्‌ 
काले कश्मषु तेषु शुक्र विषयेव्वाहृव्यते गां पुनः ॥ ६ °॥ 


१ 1. 1, कृत्वाथ ^. 


७8 


सोन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


अन्तराल गताः प्रमत्तमनसो मोनास्तड़ागे यथया 
जानन्ति वयसनं निरोघजनितं खस्थाश्चरन््यम्भभि । 


, श्रन्तलाकगताः छताथेमतयस्तददिवि ध्यायिनो 


मन्यन्ते श्रिवमच्यतं प्रुवमिति खं स्थानमावन्तकम्‌ ॥६ १॥ 
तन्नन्मव्या धिछत्युव्यसनपरिगतं मला जगदिदं 

ससार भ्राम्यमानं दिवि नृषु नरके तिय्येक्‌ पिटषु च। 
यत्चाणं निभेयं यत्‌ शिवममरमजरं निः शो कमग्टतम्‌ 
तद्धेतो बद्ध चय्ये चर जडहिहि चलं सगे प्रति रुचिम्‌ ॥६२॥ 


दति सौन्दरनन्दे महाकाव्ये खर्गापवादो नाम 
एकादशः सगेः ॥ 


दादशः सेः । । ७ 


इादशः सगेः । 


श्रष्टरोषलको घश्मञ्चरसौत्यय चोदितः। 
श्रानन्देन तदा नन्दः पर त्रोडसुपागमत्‌ ॥ १ ॥ 
तस्य ब्रोडन महता प्रमोदो इदि नाभवत्‌ । 
अप्रामोद्येन विमुखं नावतस्ये व्रते मनः ॥ २ ॥ 
कामरागप्रघानोऽपि परिहामसमोऽपि सन्‌ । 
परिपाकगते डतौ न स तन्दश्टषे वचः ॥ उ ॥ 
श्रपरौक्चकभा वाच्च पून्वं मत्वा दिवं भवम्‌ । 
तस्मात्‌ चिष्ण परिश्ुत्य श्टग्रं मवेगमोयिवान्‌ ॥ ४ ॥ 
तस्य स्वर्गात्‌ निवदते मङल्पाश्चो मनोरयः । 
महारथ इ वोन्प्ार्गादप्रमन्तस्य मारय: ॥ ५ ॥ 
सखगेतर्षाज्निदत्ख सद्यः खस्थ इवाभवत्‌ । 
खष्टादपथ्याददिरतो जिजो विषुरिवात्रः ॥ ६ ॥ 
विमस््मार प्रियां भाय्यामष्यरोदग्नाद्‌ यथा । 
तथा नित्ण्तयो दिग्रस्तत्याजाप्यरसोऽपि सः ॥ ऽ ॥ 
महतामपि शतानामाटृत्तिरि ति चिन्तयन्‌ । 
संवेगाच्च सरागोऽपि वौतराग इवाभवत्‌ ॥ ८॥ 
बभूव सदि सुवेगः अयसम्तस्य उद्धे । > 
ष्धातोरधिरिवाख्याते पटितोऽच्चर चिन्तकः ॥ < ॥ 


९ ?. 1, 4. घातु । -ण्व 4 


ई 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ } 


न तु कामात्मनस्तस्य केनचित्‌ जग्टडे तिः । 

चिषु कालेषु सर्वषु निपातोऽस्तिरिव रतः ॥ १ ०॥ 

खेलगामो महाबाङ्क गजेन्द्र दव निक्ोदः। 

सोग्यगच्छट्‌ गरु काले विवचुर्भावमात्मनः ॥ ११ ॥ 
प्रणम्य च गुरौ मूर्धा वाष्यव्याक्रुललोचनः। 

रलाञ्जलिमुवाचेदं हिया किञ्चिदवाञ्चुखः ॥ १ ९॥ 

च्र्यरःप्राप्रये यन्त्रे भगवन्‌ प्रतिग्ध्रसि । 

नाष्परोभि ममायौऽस्ति प्रतिश्वलं त्यजाम्यहम्‌ ॥ ९ ३ ॥ 

श्रुला ्यावन्तेकं खगे संघारस्य च चिताम्‌ । 

नं मरच्यैषु न देवेषु प्रटत्तिग्मेम रोचते ॥ १४॥ 

यदि प्राप्य दिवं यन्नान्नियकेन दमेन च। 

अ विहप्ताः पतन्त्यन्ते खर्गाय त्यागिने नमः ॥ ९१५ ॥ 

श्रतख॒ निखिलं लोकं विदिला सचराचरम्‌ । 

सव्वेदुःखचय करे लद्धं परमे रमे ॥ › ९ ॥ 

तस्माद्‌ व्याससमासाभ्यां तन्मे याख्यातुमहेसि । 

यच्छरुला ्रटण्वताम्‌ शष्ठ परमं प्राप्नुयां पदम्‌ ॥ ९७॥ 
ततस्तस्याशयं ज्ञाता विपक्लाणौद्धियाणि च। 

्ेयशचैवामु खोग्टतं निजगाद तथागतः ॥ १८ ॥ 

रहो प्रत्यवमश्रौोऽयं भ्रेयसस्ते पुरोजवः । 

अरण्वां मथ्यमानायामधूम इवोत्थितः ॥ १९ ॥ 

चिरमुमागे र लो लेरिद्दरियवाजिभिः। 

श्रवतोणाऽसि पन्थानं दिश्या दृष्याऽविमूढया ॥ २०॥ 


इादश्चः सगः । 


श्रद्य ते सफलं जन््र लाभोऽद्य सुमहांसव ।. 

यस्य कमर सन्ञस्य नेष्कर्म्म्यायोत्‌ खक मनः॥ २१॥ 

लोकेऽस्मिन्नालयारामे निटत्तौ दूलेभा रतिः । 

व्यथन्ते छ्यपुनर्भावात्‌ प्रपातादिव बालिशाः \¦ २२ ॥ 
दुःखं न स्यात्‌ सुखं मे स्वादिति प्रयतते जनः। 

श्रत्यन्तदुःखोपरम सुखं तच्च न वृध्यते ॥२३॥ 

श्ररिग्धतेष्वनित्येषु सततं दुःखद्ेतुषु । 

कामादिघु जगत्‌ सक्त न वेत्ति सुखमव्ययम्‌ ॥२४॥ 

सव्वेदुःखापदहं तन्तु हस्तस्थमग्डतं तव । 

विना यदगद्‌ समये पातुमिच्छसि ॥ २५॥ 

शरनहसंमोरभयं माना ते .चिकौ धितम्‌ । 

रागाद्चिस्तादृश्ो यस्व ध्ौनमुरासखः ॥२६॥ 

रागोद्‌ामेन मनसा क द्रष्टरा्टतिः। 

सदोषं सलिल दृष्टा न नो ॥ २७ ॥ 

दैदृश्रो नाम बुद्धिस्ते निरुद्धा रजसाऽभवत्‌ । 

रजसा चण्डवातेन विवसखत दव प्रभा॥२८॥ 

सा जिघांसुस्तमो हादे या संप्र्िः विजम्भते । 

तमो नेशं प्रभा सौरौ विनिर्गौणंव मेरुणा ॥ २८ ॥ 

युक्ररूपमिदश्चैव शएद्धसलस्य चेतसः । 

यन्ते स्यान्नेिके स्मे मेयसि अदधानता ॥ ३ ०॥ 

धशेच्छन्दमिमं तस्माद्‌ विवद्धवितुमहेसि । 

सव्वधा हि धम्मन्ञ नियमाच्छन्दहेतवः ॥ ३ १॥ 


58 


छद 


सौन्दशनन्दं काव्यम्‌ | 


सत्यां गमनबुद्धौ हि गमनाय प्रवत्तते । 


शय्यावुद्धौ च श्रयनं स्ानवुद्धौ तथा स्थितिः ॥ २२॥ 
अन्तर्भूमिगतं दम्भः अरहधाति नरो यदा । 

अयित्वे खति यनेन तद्‌ा खनति गामिमाम्‌ ॥२२॥ 
नार्धौ यद्यभचिना वा खात्‌ श्रदध्यात्त्‌ न वारणौ । 
मथोयान्नारणि कञ्चित्‌ तद्धावे सति मथ्यते ॥२४॥ 
सस्योत्‌ पत्तिं यदि न वा ्रहध्यात्‌ कषकः चितौ । 
र्थो स्स्येनवान स्याट्‌ बोजागिन वेद्वि ॥ र५॥ 
अतञख दस्त इत्य॒क्ता मया अ्रद्धाविगश्रेषतः । 

यस्माद्‌ ग्रह्णाति सद्धग्भं दायं इस्त दवाच्तः॥र२६॥ 
प्राघान्यादिद्धियमिति श्विरल्वाद्‌ बलमित्यतः । 
णदारिश्चग्रमनाद्‌ धनमित्यभिवणिता ॥ २ ° ॥ 
रच्णार्थन धष्मस्य तयषोकेप््यदा इता । 

लोकेऽस्मिन्‌ दु लेभवाच रन्नमित्यभिभाषिता ॥ ₹८॥ 
पुनख वौोजमिल्युक्ता निमित्त ्रेयखो यद्‌ । 
पावना्येन पापस्य नदौत्यमिदिता पुनः ॥ २९ ॥ 
यस्माद्भशमेस्य चोत्पन्तौ श्रद्धा कार णसु न्तमम्‌ । 

मयोक्ता काय्येतस्तस्मात्‌ तच तच तथा तथा ॥ ४० ॥ 
अरद्भाङ्करमिम तस्मात्‌ स्वद्धियितुमदेसि । 

तहृद्धो वद्धेते धन्चा मूलदद्धौ चथा द्रुमः ॥ ४१॥ 


१ 1. 14. *चोके° | 


दादश्चः सगेः। ` ७< 


व्याङ्कलं द्‌श्रनं यस्य दुब्बेलो यस्य निश्चयः । 

तस्य पारिक्षवा श्रद्धान डि हत्याय वन्तेते॥४.९॥ 
यावन्त न भवति हि दृष्ट श्रतवा 
तावच्छरद्धा न भवति बलस्था खिरा वा। 
दृष्टे तत्वे नियमपरिग्धते द्दरियस्य 
अद्धाट्चो भवति सफला ्रयस्च ॥ 


दति सौन्दरनन्दे महाकाय्ये प्रत्यवमश्ौ नाम 
द्वादशः सगं: । 


सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


चथा सगः। 


अथय संराधितो नन्दः श्रद्धां प्रति महषिण 
परि षिक्रोऽग्टतेनेव युयुजे परया सुदा ॥ १९॥ 
शृतायेमिव तम्‌ मेने संबुद्धः श्रद्धया तया । 
मेने प्राप्चमिव अयः स च बुद्धेन संख्तः॥२॥ 
कच्छेन वचसा कांश्चित्‌ कांचित्‌ परषया गिरा । 
काँशिदाभ्यासुपायाभ्याम्‌ स विनिन्ये विनायकः ॥ २॥ 
पांप्ररभ्यः काञ्चनं जातं विष्रद्धं निभ्मलं प्रचि । 
सितं पांग्रष्वपि यथा पांग्ररदोषै नं लिप्यते ॥ ४॥ 
पद्मपणे यथा चेव जले जातं जले सितम्‌ । 
उपरिष्टादधस्ताद्‌ वान जलेनोपलिष्यते ॥ ५ ॥ 
तद्धल्लोके सुनिर्जातो लो कस्यानुग्रहं चरन्‌ । 
ृतिलानिग्भेललाच लो कध ने लिप्यते ॥ ६ ॥ 
केष त्यागं प्रियं र्तं कथाञ्च ध्यानमेव च । 
मन्त्रकाले चिकित्साथ चक्रे नात्म्मानुटत्तये ॥ ७ ॥ 
अत सन्दधे काय मदाकरुणया तया । 
मोचयेयं कथ दुःखात्‌ सलानोत्यनुकम्पकः ॥ ८ ॥ 

अथ संहषेणान्नन्दं विदित्वा भाजनोकृतम्‌ । 
अत्रवोर्‌ ब्रवतां भ्ेष्ठः कमज्ञः भरेयसां क्रमम्‌ ॥ < ॥ 
अतः प्रण्डति शयस््म्‌ श्रद्धेद्दियपुरःसरः । 
श्र्टतस्याप्रथे सौम्य उत्तं रक्तितुमहेसि ॥ १ ०॥ 


चयोद शः सेः | ष ८९ 


प्रयोगः" कायवचसोः श्रएद्धो भवति ते यथा । 

उत्तानो विदतो गु्नोऽनवद््रिस्तथा कुरु ॥ १९१॥ 

उत्तानो भावकरणात्‌ विडतञ्चाणग्‌ इनात्‌ । 

गुप्तो रच्षणतात्पर्ययांद च्छिद्र च्चानवद्यतः ॥ १२ ॥ 

श [रो]रवचसोः इद्धो सप्ताङ्ग चापि कम्मेणि। 

श्राजोवसमुदाचारं शौचात्‌ मंस्करमरभि ॥ १२ ॥ 

दोषाणां कुदनादौनां पञ्चानामनिषवणत्‌ । 

त्यागाच्च ज्यो तिषादौनां चतुर्णा टत्तिघातिनाम्‌ ॥ १४॥ 

प्राणिधान्यधनादौनां वच्ज्यनिामप्रतिग्रहात्‌ । 

मेच्छाङ्गानां निषष्टानां नियतानां प्रतिग्रहात्‌ ॥ १५ ॥ 

परितुष्टः प्विमे्शौ चया जोवसम्पदा | 

कुब्बाहुःखपरतोकार, यावदेव विसुक्तये ॥ १६ ॥ 
कमणो हि यथा दुष्टात्‌ कायवाकूप्रभवादपि। 

आजोवः एयगेवोक्तो दुः्ोघलादयं मया ॥ १७॥ 

गस्येन हि दुःशोधा दृष्टि विविधदृष्टिना । 

आजोवो भिचतुणा चेव परेष्टायन्तटत्तिना ॥१८॥ 
एतावच्छोलमित्यक्तमाचारोयं समासतः । 

शरस्य नागेन नेव स्यात्‌ प्रत्रज्या न क कता ॥१९॥ 

तस्माच्ारिचसम्पन्नो त्रद्धचय्येमिदं चर । 

अणमाजष्ववदयषु भयदर्गो द्ट्ब्रतः ॥२०॥ 
ओोलमास्थाय वन्तन्ते सर्व्वा हि श्रेयसि क्रियाः 


स्थानाद्यानौव कार्य्याणि प्रतिष्ठाय वसुन्धराम्‌ ॥२९॥ 
6 


श 


सोन्दशनन्दं काव्यम्‌ । 


मोचस्योपनिषत्‌ सौम्य वेराग्यमिति गण्यताम्‌ । 
्रैराग्यस्यापि संवेगः संविदो ज्ञानदगेनम्‌ ॥ ९२॥ 
ज्ञानस्यो पनिषच्चैव समाधिरूपधाय्येताम्‌ । 
समाधेरप्युपनिषत्‌ सुखं शरारोरमानसम्‌ ॥२२॥ 
प्रखध्विः कायमन्‌क्ष(खुखस्यो प निषत्परा । 
प्रखध्येरप्युपनिषत्‌ भरौ तिरष्यवगम्यताम्‌ ॥२₹ ४॥ 
तथा परीतेरुपनिषत्‌ प्रामोद्यं परमं मतम्‌ । 
्रामो स्या प्यदल्ेखः कुङतेष्वृतेषु वा ॥२५॥ 
श्रविलेखस्य मनसः शौ लन्त्‌पनिषच्छंचि । 
रतः श्रौलं नयत्यग्यमिति शलं विशोधय ॥ २६॥ 
फ्रोलनात्‌ भौ लभिन्युक्त शौलनात्‌ सेवनादपि । 
सेवनात्तन्निदे शाच निदं शख तद्‌ाश्रयात्‌ ॥२७॥ 
गेलं डि शरणं सौम्य कान्तार दव देशिकः । 
मित बन्धश्च रक्ता च धनञ्च बलमेव च ॥२८॥ 
यतः ग्रोलमतः सौम्य शौलं संस्कन्तमदेसि । 
एतत्‌ स्थानमयान्ये च मोक्तारम्भेषु योगिनाम्‌ ॥२९॥ 
ततः सूतिमधिष्टाय चपलानि खभावतः । 
इद्दरियाणौ द्दियायग्यो निवार चितुमहेसि ॥२ °॥ 
भेतव्यं न तथा शचौ (4 नाहेनेचा शनेः । 
दू न्दरिथेभ्यो यथा खेभ्यस्तेरजस्तं दि न्यते ॥२ १॥ 
दिषद्धिः शभिः कञ्चित्‌ कदाचित्‌ पोते न वा । 
द द्दिेर्ाध्यते सब्यैः सव्यैच च सदेव च ॥३२॥ 


चयोदशः सेः । < ८३ 


न' च प्रयाति नरकं शद्प्र्टतिभिहेतः। 

ङब्यते तच निघ्नस्ठ॒ चपलेरि द्धिथेदेतः ॥२ ३॥ 

इन्यमानस्य तैदुःखं दाद्‌ भवति वा न वा । 

द द्दियैर्बाध्यमानस्य इदं शारौरमेव च ॥३४॥ 

सङ्ल्यविषदिग्धा हि पञ्चेद्धियमया(:] शराः । 

चिन्तापुद्खगन रतिफला विषया काश्रगोचराः ॥२५॥ 

मनुखदरि णान्‌ घ्रन्ति कामव्याधेरिता इदि । 

विहन्यन्ते यदि न ते ततः पतन्ति तैः चत{:] ॥२६॥ 

नियमाजिरसंखेन धेय्यैकाम्भृकधारिणा । 

निपतन्तो निवार्य्यास्ति महता स्छतिवम्मैणएण ॥२ 5॥ 

इद्दियाणसुपगश्मादरौणं नियदहादिव। 

सुखं सखपिति वासते वा यच तत्र गतोद्धूवः ॥ > ८॥ 

तेषां हि सततं लोके विषयानभिकाङ्खताम्‌ । 

संविन्नैवास्ति कापैष्छाच्छनामा शरावतामिव ॥२९८॥ 

विषयेरि न्रिययामो न ठदस्निमधिगच्छति । 

अजस्त पूय्येमाणोऽपि समुद्रः सलिलेरिव ॥ ४० ॥ 
्रवश्टं गोचरे) सै(ः] खेवत्तितव्यमिहेद्दियेः । 

` निमित्तं त्र न ग्राह्यमनुव्यञ्ञनमेव च ॥४१॥ 

आलोक्य चच्तृषा रूपं धातुमातरे वयवस्थितः । 

स्तो वेति पुरूषो वेति न कल्पयितुमरेसि ॥ ४२॥ 

स चेत्‌ स्तौपुरुषयाहः कचिद्‌ विद्येत कश्चन । 

श्भतः केशदन्तादौन्‌ नानुप्रखयातुमदेसि ॥ ४२ ॥ 


8 


सौन्दरनन्द्‌ं काव्यम्‌ । 


नापनेयं ततः किञ्चित्‌ प्रचयं नापि किञ्चन । 
द्रष्टये श्ततो शलं यादृ ग्रञ्च यथा च यत्‌ ॥ ४४॥ 
एवं ते पश्यतस्तव शश्च दि द्दियगो चरे । 
भविष्यति पदस्थानं नाभिध्यादौश्मनस्ययोः ॥ ४ ५॥ 
श्रभिध्या प्रियरूपेण दन्ति कामात्मक जगत्‌ । 
अरििचसुखेनेव प्रियवाक्‌ कलुषाग्रयः ॥ ४६॥ 
दौर्मनस्याभिधानस्तु प्रतिघो विषथाञ्जितः। 
मोहाद्‌ येनानुत्तेन परचेद च इन्यते ॥ ४७॥ 
अनुरोधविरोधाभ्यां शौतोष्णाभ्यामिवादिंतः। 
शर्म नाप्नोति न भ्रयश्चलेद्धियमतो जगत्‌ ॥ ४८॥ 
नेन्द्रियं विषये तावत्‌ प्रटृत्तमपि सज्जते । 
यावन्न मनमसस्तच परि कल्पः प्रवत्तेते ॥ ४५८ ॥ 
दृन्धने सति वायौ च यथा ज्वलति पावकः। 
विषयात्‌ परिकल्या्च क्ते शराभिर्जायते तया ॥५०॥ 
श्रश्चतपरिकल्येन विषयस्य हि बध्यते । 
तभेव विषयं पश्यन्‌ शलतः परिमुच्यते ॥ ५१. ॥ 
दृद्ैकं रूपमन्यो हि रज्यतेऽन्यः प्रदव्यति । 
कञ्चिद्‌ भवति मध्यश्यस्तञेवान्यो णायते ॥ ५२ ॥ 
अतो न विषयो हेतु बेन्धाय न विसुक्रये। 
परिकल्पविग्रेषण सङ्गो भवति वा न वा॥५३॥ 


९ ?. 11, संयोग 1. 


चयोदभ्ः सगेः। ८५ 


काय्येः परमयन्नेन तस्मा दि द्द्रियसंवरः। 

दृद्दियाणि दयगक्षानि दुःखाय च भवाय च॥५४॥ 
कामभोगभोगवद्धिरात्मदृष्टिदृष्टिभिः 
प्रमादनेकमृद्धेभिः प्रदषलो लजिङ्ककरेः । 

इद्दियोरे मेनो विलश्रयेः स्यु हा विधैः 

श्रमागद्‌ादृते न [द)ष्टमस्ति यचि कित्छयेत्‌ ॥५५॥ 
तस्मादेषामकु शलकराणामरौणाम्‌ + 
चचर्घ्राणश्र वणर सनस्यग्नानाम्‌ । 

सर्व्वावस्थं भवति नियमाद प्रमत्तो 

मासिन्नयं चणमपि कथास प्रमादम्‌ ॥५६॥ 


सौ न्दरनन्दे महाकाव्ये भेले न्द्रियजयो नाम 
चयोदशः सगेः। 


१ ?. 11. शमागतादृते नमति यञ्खिकित्सेत्‌ 1. 


रै 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


चतुदंशः सगः। 

अरय सतिकपाटेन पिघायेद्ियसवरम्‌ । 
भोजने भव मा] चज्ञो ध्यानायानामयाय च ॥१॥ 
प्राणापानौ निगह्णाति ग्लानिनिद्रे प्रयच्छति । 
छृतो द्य्माद्यरो विदन्ति च पराक्रमम्‌ ॥२॥ 
यया चात्ययैमादहा[र]; क्ृतोऽनर्थाय कल्यते । 
उपयुक्स्तयात्यन्पो न सामर्थ्याय कल्पते ॥२॥ 
आचयं युतिसुत्साहं प्रयोगं बलमेव च । 
भोजनं कतमत्यल्यं गशरौरस्यापकषेति ॥४॥ 
यथा भारेण नमते लघुनोन्नमते तुला । 
समा तिष्ठति युक्तेन भोज्येनेयं तथा तनुः ॥५।॥ 
त समाद भ्यवदहन्तव्ये खगरक्तिमनुपश्यता । 
नातिमाचः न चात्यल्यं मेयं मानवग्रादपि ॥९॥ 
च्रभ्याक्रान्तो डि कायाश्ि गुङणान्नेन श्राम्यति । 
श्रवच्छन्न दृवाल्योऽभ्भिः सहसा महतेन्धसा ॥ऽ॥ 
अरत्यन्तमपि संहारो नाहारस्य प्रशस्यते । 


अनाहारो हि निर्वाति निरिन्धन इवानलः ॥८॥ 


यस्मान्नास्ति विनाद्ारात्‌ सव्वेप्राणश्छतां स्ितिः। 
तस्मादुव्यति नाहारो विकल्पोऽच तु वाय्येते ॥९८॥ 
न दोक विषयेऽन्यच सज्यन्त प्राणिनस्तथा । 
परविन्ञाते यथयाहारे बोद्धव्य तच कारणम्‌ ॥१०॥ 


चतुर्दशः सगेः। ८ ८9 


' विकिल्ाथे यथा धत्ते व्रणस्यालेपनं व्रणौ । 
चुदिघातायेमाहारमस्तदत्‌ सेव्यो सुसुचृणण ॥१ ९। 
भारस्योददहनाथंञ्च रथाक्ोऽभ्यद्यते यथा । 
भोजनं प्राण्याजथं तद्‌वदिद्धान्निषेवते ॥१२॥ 
समभिक्रमणाथेञ्च कान्तारस्य ययाष्वगौ | 
पुचरमांसानि खादेतां दन्पतौ खशद्‌ःखितौ ॥१३॥ 
एवमनग्यवहन्तेव्यं भोजनं प्रतिसख्यया । 

न श्षाये न वपुषे न मदाय न दृ्तये॥१४॥ 

धारणाथे श्ररोरस्य भोजनं हि विधोयते । 

उपस्तम्भः पिपतिषो दुन्बैलस्येव वेश्षनः ॥१ ५॥ 

क्व यन्नात्‌ यथा कञ्चिद्‌ बघ्रौयाद्‌ धारयेदपि । 

न तत्ल्रहेन यावन्त महौ घस्यो त्तित षया ॥१ ६॥ 

तयोपकरणैः कायं धारयन्ति परौचकाः। 

न तत्‌ हेन यान्त दुःखौ घस्य तितोषेया ॥१७॥ 

श्रो चता पोड्यमानेन दौयते श्चवे यया। 

न भत्वा नापि तपण केवलं प्राणगुप्तये ॥१८॥ 

यो गाचारस्तयाहारं शरोराय प्रयच्छति । 

केवलं चद्धिघाताथं न रागेण न भक्तये ॥१८॥ 
मनोधारणएया चेव परिणाम्यात्मवानहः । 

विधूय निद्रां योगेन नि शामप्यतिनामयेत्‌ ॥२ ०॥ 

दि यत्‌ संज्िनथैव निद्रा प्रादुभेवेत्तव । 

गृणवत्संज्ञितां सज्ञां तद्‌ा मनसि मा कथाः ॥९१॥ 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


धातुरारम्भत्योख सामविक्रमयोरपि । 
नित्यं मनसि काय्यैस्ते बाध्यमानेन निद्रया ॥२२॥ 
आन्नातव्याश्च विश्दंते धश्मा ये परिश्र॒ताः । 
परेभ्यश्च पदेष्टव्याः मञचिन््याः खयमेव च ॥२२॥ 
्रकघद्यम ्धिवैदनं विलोक्याः सव्वेतो दिशः । 
चार्य्या दृष्टिश्च तारासु जिजागरिषुणा सदा ॥२४॥ 
श्रन्तगेतेर चपले वग्रस्थायिभिरिद्धियैः। 
अविकिप्रेन मनसा चंक्रम्यखासख वा निशि ॥२५॥ 
भये प्रोतौ च शोके च निद्रया नाभिग्धयते। 
तस्मान्निद्राभियोगेषु सेवितव्यमिद्‌ चयम्‌ ॥२६॥ 
भयमागमनान्त्योः मतिं धक्ेपरियदात्‌ । 
जन्मद्‌ःखाद प्न्तात्‌ शोकमागन्तुमहेसि ॥२७॥ 
एवमादिः क्रमः सौम्य कायौ जागरण प्रति । 
बन्ध्ये हि श्रयनाद्‌ायुः कः प्राज्ञः कन्तमहंति ॥२८॥ 
दोषव्यालानलतिक्रम्य व्यालान्‌ ग्टहगतानिव। 
चमं प्राज्ञस्य न खपु निस्तितोषो म॑हद्धयम्‌ ॥९९॥ 
परदौभे जौवलोके हि ग्डत्युाधिजराम्निभिः । 
कः श्रयोत निरुदेगः प्रदौप्त दव वेश्मनि ॥२०॥ 
तस्मात्‌ तम इति ज्ञाला निद्रां नावेष्टुमहसि । 
अप्रशान्तेषु दोषेषु सशरस्तेष्विव रषु ॥३ १॥ 
पूव्वेयामं त्रियामायाः प्रयोगेना तिनाम्यतु । 
सेव्या शय्या शरोरस्य विश्रामायेमतद्दिणा ॥३२॥ 


चतुदश: सगः । <€ 


दक्िणेन तु पार््ेन सितया लोकसंज्ञया । 
ग्रबोधं इदयं छता श्योथाः श्राज्तिमानसः ॥ रे २॥ 
यामे ठतौये चोत्थाय चरन्नासौन एव वा । 
श्यो योगं मनःप्रद्धो कुर्व्वौथा नियतेन्द्रियः ॥३ ४॥ 
अ्यासनगत [1]स्थार- न -म्रेकितव्या-इतादिषु । 
सम्प्रजानन्‌ क्रियाः सर्व्वाः तिमाधातुमहसि ॥२ ५॥ 
दाराध्यच् दृव दारि यस्य प्रणिहिता रतिः । 
धषेयन्ति न तं दोषाः पुर गृक्चमिवारयः ॥२६९॥ 
न तस्योत्पद्यते क्लेशो यस्य कायगता रतिः । 
वित्तं सर्व्वाखवस्थासु बालं धाचौव रच्ति॥3 5॥ 
शरव्यः सतु दोषाणां यो हीनः स्मृतिवश्मेणा । 
रणस्यः प्रतिशतं विद्धौन इव वकमणा ॥३८॥ 
अनाथं तन्मनो ज्ञेय यत्‌ सूतिर्नाभिरकति । ` 
निरता दृष्टिर हितो विषयेषु चर न्निव ॥३९<॥ 
अनरथेषु भ्सक्ताञ्च खायन्चञ्च परा्मुखाः । 
यद्धये सति नोदिग्माः तिना गोऽच कारणम्‌ ॥४ ०॥ 
सग्धमिषु गणणः सर्व्वं ये च शौलादयः ख्िताः। 
विकीर्णा इव गा गोपः स्मृतिस्ताननुगच्छति ॥४१॥ 
भ्रनष्टमन्तम्‌ तस्य यस्य विप्रता रूतिः। 
हस्तस्यमम्टतं तस्य यस्य कायगता रतिः ॥४ २॥ 
आर्यो न्यायः कुतस्तस्य स्एतियंस्य न विद्यते । 
यस्याय्यौ नास्ति च न्यायः प्रनष्टस्तस्य सत्‌ पथः ॥४३॥ 


९० | सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


प्रनष्टो यस्य सन्मागौ नष्टं तस्याष्टतं पदम्‌ ।- 
प्नष्टमश्तम्‌ यस्य स दुःखान्न विमुच्यते ॥४४॥ 
तस्माच्चरन्‌ चरोऽस्मोति सितोस्रोति च तिष्ठतः 
एवमादिषु कालेषु स्मृतिमाघातुमहसि ॥४५॥ 
योगानुलोमं विजन विगशरब्दं 

शय्यासनं सौम्य तथा भजख । 

कायस्य कृता हि विवेकमादौ 

सुखोऽधिगन्तु मनसो विवेकः ॥४ ६॥ 

अलम्धचेतःप्रशमः सरागो 

यो न प्रचार भजते विविक्तम्‌ । 

स च्ष्यते द्यप्रतिलब्धमागेः 

चरन्निवोल््यै। बकण्टकायाम्‌ ॥४७॥ 

श्रदृष्टततल्ेन परौक्केण 

स्थितेन विचरे विषयप्रचारे । 

चित्तं निषेद्ध न सुखेन गरक 

ङष्टोदका गौरिव सस्यमध्यात्‌ ॥४ ८॥ 

अरनोय्येमाणस्त॒ यथानिलेन 

प्रशा न्तिमा गच्छति विचभानुः। 

अल्पेन यनेन तया विविक्ते- 

व्वघद्टितं शान्तिमुपैति चेतः ॥४९॥ 


१ 7. ४. विजलं 


४ ४५ 
चतुदण्ः सगेः। 


कर चिद्ुक्ता यत्तदसनमपि यन्तत्परिदितो 
वसन्नात्मारामः कचन विजने योऽभिरमते । 
कृतायः स ज्ञेयः शमसुखरसन्नः कतमतिः 

परेभ्यः संसगे परिहरति यः कण्टकमिव ॥५०॥ 
यदि इन्दारामे जगति विषयव्ययददये 

विविक्त निदन्दो विरति कतौ शान्तहृदयः । 
ततः पौला प्रज्ञारसमग्टतवत्‌ टठप्तददयो 

विविक्तः संसक्तं विषयक्कपणं शो चति जगत्‌ ॥५१॥ 
वसन्‌ शून्यागारे यदि सततमेको ऽभिरमते 

यदि क्तशोत्पादैः सदह न रमते श्रचभिरिव । 
चरन्नात्मारामो यदि च पिवति प्रौ तिसलिलं 
ततो भुङ्क शरेष्ठं चिद श्पतिराज्यादपि सुखम्‌ ॥५२॥ 


सौन्दरनन्दे महाकाव्ये ्रादिप्रस्थानो नाम 
चतुदेशः खगे: । 


€ 


प 4 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


पञ्चदशः सगेः 

यच तच विविक्तं तु ब्धा पय्येङ्धमुत्तमम्‌ । 
ज्‌ कायं समाधाय स्मृत्याभिमुखयाच्ितः ॥१॥ 
नासाय वा ललाटे वा भरृवोरन्तर एव वा। 
कुर्व याञ्चपलं चित्तमालम्बनपरायणम्‌ ॥२॥ 
स चेत्‌ कामवितकंस्वां धषयेन्मानसो ज्वरः । 
केपत्थो नाधिवास्यः स वस्त रेणरिवागतः ॥द॥ 
यद्यपि प्रतिसख्यानात्‌ कामानुलसृष्टवानसि । 
तमांसौव प्रकाशेन प्रतिपच्ेण तान्‌ जहि ॥४॥ 
तिष्ठत्यनु श्यस्तेषां कन्नोऽग्रिरिव भस्मना । 
स ते भावनया सौम्य प्रशाम्योऽभ्निरिवाग्बेना ॥५॥ 
ते दि तस्मात्‌ प्रवन्तन्ते श्यो वौजादिवाङ्कराः , 
तस्य नाग्रेन ते न स्युः वौजनागशरादिवाङ्कराः॥६॥ 

्ज्नेनादौनि कामेभ्यो दृष्वा दुःखानि कामिनाम्‌ । 
तस्मात्‌ तान्‌ मृलतज्डिन्धि भिचरसन्ञानरोौ निव ॥७॥ 
अनित्या मोषधन्माणो रिक्ता वयसनडहेतवः। 
बह्कसाधारणणः कामाः वर्ज्या द्याशौविषा इव ॥८॥ 
ये द्टग्यमाणा दुःखाय रच्छमाणण न शान्तये । 
भ्रष्टाः शोकाय महते प्राप्नाख्च न विक्रये ॥९॥ 
तिं विन्तप्रकर्षेण खर्गावाघ्या कतायेताम्‌ । 
कामेभ्यश्च सुखोत्पत्तिं यः पश्यति स नश्यति ॥१०॥ 


१ {. 1. च । 


पञ्चदशः सगः । ५ ९ 


चनलानपरिनिष्यन्नानसाराननवस्थितान्‌ । 

परिकल्यसुखान्‌ कामान्‌ न तान्‌ स्मन्तृमिहाहंसि ॥११॥ 
व्यापादो वा विसा षा चोभयेद्‌ यदि ते मनः। 

परमाद्यं तद्‌ विपक्तेण मणिनेवाक्लं जलम्‌ ॥१ २॥ 

प्रतिपच्षस्तयो ज्ञयो मेचौ कारुण्यमेव च । 

विरोधो हि तयोजित्यं प्रकाग्तमसोरिव ॥१३॥ 

निदत्त यस्य दौः जोय व्यापादश्च प्रवत्तेते । 

न्ति पांश्रमभिरत्मान सुस्लात दव वारणः ॥१४॥ 

दुःखितेभ्यो हि मत्तेभ्यो व्याधिग्डव्युजरादिभिः। 

आय्येः को दुःखमपरं सषटणो धातुमहेति ॥१५॥ 

दूष्टेन चेह मनसा बाध्यते वा परो न वा। 

द्यस्त॒ द द्यते तावत्‌ खमनो दुष्टचेतसः ॥१६॥ 

तस्मात्‌ सर्व्वेषु श्ठतेषु मैरी कारण्यमेव च । 

न व्यापादं विहिखां वा विकल्पयितुमरेसि ॥१ ७॥ 
यद्यदेव प्रसक्तं हि वितक्कयति, मानवः । 

अभ्यासात्‌ तेन तेनास्य प्रतिभवति चेतसः ॥१८॥ 

तस्मादङ्शल त्यक्ता कुशलं ध्यातुमहंसि । 

यत्ते स्यादिह चार्थाय परमाथस्य चाप्ये ॥१९॥ 

संवधेन्ते ङ्ुशरला वितकाः सम्भृता ददि । 

अ्रननथेजनकास्तुख्यमात्मनश्च परस्य च ॥२०॥ 


१९ ए, 14, विवज्नेयति । २ 7. 11. नति". 


€8 


सौन्द्‌ रनन्दं काव्यम्‌ । 


श्रेयसो विप्नकरणात्‌ भवन््यात्म विपत्तये । 
पाचौभावोपघातं तु परभक्तिविपत्तये ॥२१॥ 
मनः कश्मसु विवेष्यमपि वा वस्हमरंसि९ । 
"नलेवाकुशलं सौम्य वितकंयितुमहेसि ॥२२॥ 
या चिकामोपभोगाय चिन्ता म[न]सि वत्तेते । 
नच तं गुणमाप्रोति बन्धनाय च कल्पते ॥२३॥ 
सत्वानासुपघाताय परिङ्ञेशाय वा मनः। 
मोदं व्रजति कालेव्यं नरकाय च वत्तते ॥९४॥ 
तदितकेरक्रुशलैरनात्मानं इन्तुमहेसि । 
सुशस्तं रन्न वितं श्दतोरगांः खनन्निव ॥९१॥ 
अनभिज्ञो यथा जात्य दडेदगुरूकाष्टवत्‌ । 
अन्यायेन मनुव्यलसुपहन्यादिद्‌ तथा ॥२ ६॥ 
त्यक्ता रत्नं यथा लोष्रं रन्नदोपाच्च सदहरेत्‌ । . 
त्यक्ता नेःखेयसं घडे चिन्तयेदप्ररभं तया ॥२ ऽ॥ 
हिमवन्तं यथा गला विषं भुञ्चौत नौषधम्‌ । 
मनुव्यतलं तथा प्राप्य पापं सेवेत नो शभम्‌ ॥२८॥ 
तद्धा प्रतिपचचेणए वितकं चेषुमहेसि । 
सख्च्छेण प्रतिकौलेन कौलं दाव्वेन्तरादिव ॥९९॥ 
दृद्धयटद्योरय भवेचिन्ता न्ञातिजन प्रति । 
खभावो जोवलो कस्य परौ च्छस्तन्निटत्तये ॥ रे ०॥ 


१ 1. 1. वाग्वस्तुमदसि 11. २ {2, 1. नत्वेक ° "1. 


पञ्चद शः सगेः । » ६५ 


सारे ङव्यमाणानां सलानां खेन कम्मण । 

को जनः सुजनः को वा मोहात्सक्तो जने जनः ॥३१॥ 
 अरतोतेऽध्वनि संढत्तः खजनो दि जनस्तव । 

श्रप्राप्ने चाध्वनि ननः खजनस्ते भविय्यति ॥३२॥ 
विहगानां यथा सायं तत्र तच समागमः । 

जातौ जातौ तथाश्चेषो जनस्य सवजनस्य च ॥२ २॥ 
` अतिश्रयं बह्विधं संश्रयन्ति यथाध्वगाः । 

ग्रतियान्ति पुनस्यक्रा तदत्‌ ज्ञातिसमागमः॥₹२४॥ 
लोके प्रजृतिभिन्नेऽस्मिन्‌ न कश्चित्‌ कस्यचित्‌ प्रियः । 
काय्यैकारणसंबद्धं बालृकासुष्टिवल्नगत्‌ ॥२ ५॥ 
विभति हि सुत माता धारयिद्यति मामिति, 
मातरं भजते पुत्रो गमेणाघत्त मामिति ॥ ३ ६॥ 
श्रनुकूलं प्रवन्तन्ते ज्ञातिषु ज्ञातयो यदा । 
तदा खद प्रकुव्वन्ति रिपुलवं ठु विपय्येयात्‌ ॥₹ ऽ॥ 
अहितो दृश्यते ज्ञातिरज्ञातिद्श्वते दितः । 

खें कार्य्यान्तराज्ञोकभ्ड्टिनित्ति च करोति च ॥३८॥ 
खयमेव यथालिख्य रचेचिच्रकरः स्तियम्‌ । 

तथा शृत्वा खयं सहं सङ्गमेति जने जनः ॥ २ <॥ 

यो ऽभवत्‌ बान्धवजनः परलोके प्रियस्तव । 
सते कमयं कुरुते तल्ंवा तस्मै करोषि कम्‌ ॥४०॥ 
तस्मात्‌ ज्ञातिवितर्केन मनो नावेष्ुमहंसि । 
व्यवस्था नास्ति संसारे खजनस्य जनस्य च ॥४१॥ 


€ 


सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


असो चेमो जनपदः सुभिच्ोऽसावसौ शिवः । 


 दृत्येवमय जायेत वितकंस्तव कञ्चन ॥४ २॥ 


प्रेयः स त्या सौम्य नाधिवास्यः कथञ्चन । 

विदिता सव्वैमादीप्तं तैस्तदा षाभ्निभिजंगत्‌ ॥४२॥ 
ऋतु चक्र विवत्ताच चृत्पिपासाज्ञमादपि । 

सव्वेच नियतं दुःखं न कचिद्धिद्यते शिवम्‌ ॥४ ४॥ 
कचित्‌ शतं कचिद्ठमेः कचिद्रोगो भयं क्रचित्‌ । 
बाघतेऽभ्यधिक लोके तस्मादशरण जगत्‌ ॥४५॥ 

जरा व्याधिश्च श्टत्युश्च लोकस्यास्य मद्भयम्‌ । 

नास्ति देशः स यत्रास्य तद्भय" नोपपद्यते ॥४ ९॥ 
यच गच्छति कायोऽय दुःखं तचानुगच्छतिं । 

नास्ति काचित्‌ गतिल्लीके गतो य न वाध्यते ॥४७॥ 
रमण्णौयोऽपि देणः सन्‌ सुभिचः चेम एव च । 
कदेश दति विज्ञेयो यच क्त विंद द्यते ॥४८॥ 
लोकस्याभ्याइतस्यास्य दुःखैः ग्रारोरमानमेः 

क्षमः कखिन्न दे शोऽस्ति खस्थो यच गतो भवेत्‌ ॥४९॥ 
दुःखं सव्वेच सव्ैस्य वन्तेते सव्वेदा यदा । 
कन्दरागमतः सौम्य लोकवचिेषु मा कथाः ॥५०॥ 
यदा तस्माननिटन्तस्ते कन्दरागो भविश्यति \ 

जोवलोकं तदा सव्वेमादौप्नमिव मंस्यसे ॥५१॥ 


१ 7. 1. 0008 नात्ति देश्ः स यचास्य तद्धयं । 


पञ्चदशः सगेः। ह -€ 9 


, श्रय कञ्चित्‌ वितकंस्ते भवेद मरणाश्रयः । 
यनेन ख विदन्त्यो व्याधिरात्मगतो चथा ॥५२॥ 
सुह्न्तेमपि विश्रम्भः कायौ न खल्‌ जो विते । 
निलन दव हि व्याघ्रः कालो विश्वस्तघातकः॥५२॥ 
बलस्थोऽहं युवा वेति न ते भवितुमहतिः। 
त्युः सर्व्वाखवस्थासु दन्ति नावेक्षते वयः ॥५४॥ 
चचग्दतमनर्थानां शरोर परिकषेतः । 
खस्थाशा जोविताश्ा वां न दृष्टाथेस्य जायते ॥५ ५। 
नि््वैतःः को भवेत्कायं महाग्ताञ्रय वदन्‌ । 
परस्पर विरद (ना मोना मिव भाजनम्‌ ॥५६॥ 
परश्वसित्ययमन्वच्म्‌ यदुच्छरृसिति मानवः । 
अ्रवगच्छ तदाञ्चय्येमविश्चास्यं हि जौ वितम्‌ ॥५ ७॥ 
ददमाश्चय्येमपर यद्सुघ्तः प्रतिबुध्यते । ` 
खपित्युत्थाय वा श्यो बह्ृमितरा हिः देहिनः ॥५८॥ 
गर्भात्‌ प्रश्टति चयो लोक जिघांसुर नुगच्छति । 
कस्तस्मिन्‌ विश्वसेन््मत्यावुद्यतासावराविव ॥५९॥ 
प्रख्ूतः पुरषो लोके श्रतवान्‌ बलवानपि । 
न जयत्यन्तकं कञिन्नाजयन्नापि जेष्यति ॥६ ०॥ 
सान्ना* दानेन भेदेन दण्डन नियसेन वा । 
प्राप्तो हि रभसो शल्यः प्रतिदन्त॒ न शक्यते ॥६ १॥ 


२ 1, 21. चेति न ते भवितुमह्सि र 2. 21. नितः । 
३ 2. [/. 14. 19609, ?. 1. वह्ृमिचालि ]. .8 ` ए. 11. सान्ना । 
प 


[ॐ 


सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


तसमान्नायुषि विश्वासं चञ्चले कत्तेमहेसि । 

नित्यं इरति कालो हि स्थाविय्ये न. प्रतौचते ॥६२॥ 

निःश्नोचं पश्छतो लोकं तोयवुदु द द्‌ब्बेलम्‌ । | 

कस्यामरवितकी हि स्या दनुन्मनत्तचेतसः ॥६ ३॥ 
तस्मादेषां वितर्काणणं प्राणाय समासतः । 

आनापानस्मृति सौम्य विषयो कन्तमदेसि ॥६ ४॥ 

इत्यनेन प्रयोगेण काले सेवितुम दसि । 

प्रतिपक्चं वितर्काणां गदानामगद्‌ानिव ॥६१५॥ 

सुवण्ेलोरिव पाश्रमधावको 

विदाय पां श्यन्‌ ठतो यथादितः । 

जहाति दखुच्छानपि तदिश्एद्धये 

विशोध्य डेमावयवान्नियच्छति ॥६ ६॥ 

विमोचहेतोरपि युक्रमानषो 

विद्यय दोषान्‌ ङडहतस्तथादितः । 

जहाति खच्छानपि तदिश्रद्धयेर 

विशोष्य घर््रावयवान्नियच्छति ॥ ६ ७॥ 

क्रमे णद्धिः श्एद्धं कनकमिदह पांश्व्यवहितम्‌ 

यथाग्नौ कर्मारः पचति शशमावन्तयति च। 

तथा योगाचारो निपुणएमिह टदोषव्यवहितम्‌ 

विशोध्य क्तेशेभ्यः शमयति मनः संचिपति च ॥६८॥ 


१ ?. #. नित्य ¶. २ ‰. 1. दिश्चुदये। 


पञ्चदशः सगः | ॥ ९€ 


यथा च खच्छन्दादुपनयति कम्मोश्रयसुखं 

सुवणं कश्मारो बहविधमलंकार विधिषु । 

मनः श्रद्धं भिच वेशगतमभिज्ञाखपि तथा 
यथेच्छं यतरच्छं श्रमयति मनः प्रेरयति च ॥६९॥ 


दति सौन्दरनन्दे महाकाव्ये वितकंप्रहाणो नाम 
पञ्चदशः सगे: । 


१०० सोन्द्रनम्दं काश्यम्‌ | 


षोडशः सगेः। 

एवं मनोघधारणया क्रमेण व्यपोद्य किञ्चित्‌ समुपोद्य किञ्चित्‌ । 
ध्यानानि चलाय्येधिगम्य योगौ प्राप्नोत्यभिनज्ञा, नियमेन पञ्च ॥१॥ 
ऋद्धि प्रवेकञ्च बह्कप्रकारं परस्य चेतश्चरितावबोधम्‌ । ` 
रतो तजन््मरसरणञ्च दौघे दिषेः विग्रदध शुतिचच्लृषौ च ॥२॥ 
अतःपरं तत्व परौच्षणेन मनोर दधात्याखवसंचयाय । = 
ततो हि दुःखप्रशतौनि सम्यक्‌ चतारि सत्यानि पद्‌ान्यवेति ॥₹॥ 
वाधात्मक दुःखमिदं प्रसक्त दुःखस्य हेतुः प्रभवात्मकोऽयम्‌ । 
दुःखकच्चयो निःश्ररणात्मकोऽयं चाणात्मकोऽयं प्रण्माय मागेः॥४॥ 
दत्याय्यैसत्यान्यववुध्य बृहद्या चलारि सम्यक्‌ प्रतिबुध्य चेव । 
सर््वाखवान्‌ भावनयाभिश्रय न जायते शान्तिमवाप्य शयः ॥१॥ 
च्रवोधतो दयप्रतिवेधतश्च त्नात्म कस्यास्य चतुष्टयस्य । 
| भवाद्वं याति न शान्तिमेति ससारदोला"मधिरोद्य लोकः ॥ ६ ॥ 

तस्माज्जरादे व्यसनस्य मूलं समासतो दुःखमैडि जन्म । 
सव्वैषपोनामिव श्भ्भेवाय सर्वापदां चेच मिदं डि जन्म ॥७॥ 
यन्नन्म रूपस्य हि सेद्दियस्य दुःखस्य तन्नेक विधस्य जन्म । 
यः सम्भवखास्य समुच्छरयस्य स्टत्योओ् रोगस्य च सम्भवः सः ॥८॥ 
सद्वा्यसद्या विषमिश्रमन्नं यया विनाग्राय न धारणाय । 
लोके तथा तिच्धैगुपर्छैधो वा दुःखाय सव्व न॒ सुखाय जन्द ॥९॥ 


१९ {. 11. ५0708 व्य । र ?. 14, 07008 र 1० दिख्े। 
२ £. 11. °रौत्तगे मम। 8 2. 11. 088 दोलाधा | 
५ ?. 2. सुवभेवाय | 


षोडशः सगेः । ६१६ 


जरादयो नैकविधाः प्रजानां सत्यां प्रत्तौ प्रभवन्त्यनर्याः । 
प्रवात्सु घोरेष्वपि मारुतेषु नद्यप्रख्ता स्तर वञ्च लन्ति ॥ १ ०॥ 
आकाश्योनिः प्वनो यथा डि यथा शमोौगभेश्रयो इताशः। 
रापो यथान्तवेसुघाश्याख्च दुःख तथा चित्तशरोरयोनि ॥११॥ 
अपां द्रवलं कठिनल्वसुरव्यां वायो श्चललं भरुवमौ ष्ण्यमप्नः । 
यथा सभावो हि तथा खभावो दुःखं शरौरस्य च चेतसञ्च॥९२॥ 
काये सति व्याधिजरादि द्‌ःखं चत्तषेवर्षाष्णदिमादि चेव । 
रूपाञ्चिते चेतसि सानुबन्धे शोकारतिक्रोधभयादि दुःखम्‌ ॥१द॥ 
परत्यचमालोक्य च जन््मद्‌ःखं दुःखं तथातोतमपौति विद्धि । 
यथा च तदुःखमिदच्च दःखं दुःखं तया नागतमयप्यवैहि ॥१४।॥ 
वौजसखभावो हि ययेह दृष्टो शतोपि भव्योपि तयानुमेयः । 
प्रत्यचतञखच ज्वलनो यथोष्णो तोऽपि भव्योपि तयोष्ए एव ॥१५॥ 
तन्नामरूपस्य गुणानुरूप यत्रैव निटेन्तिरुदार त्त । 
ततैव दुःखं न हि तदिमुक्तं दुःखं भविव्यत्यभवद्धवेदा ॥ १ ६॥ 
प्रह्तिदुःखस्य च तस्य लोके टष्णादयो दोषगणण निमित्तम्‌ । 
नेवेश्वरो न प्रृतिने कालो नापि खभावो न विधियंदृच्छा ॥१७॥ 
ज्ञातव्यमेनेन च कारणेन लोकस्य दोषेभ्य दति प्रततिः । 
यस्माद्‌ सियन्ते सरजस्तमस्का न जायते वौ तर जस्तमस्कः ॥ १९ ८॥ 
दच्छाविशेषे सति तच तच यानासनादि भवति प्रयोगः । 
यस्माद तस्तषेवश्ा त्‌ ] तथेव जन्म प्रजानामिति वेदितव्यम्‌ ॥१८॥ 
सत्वान्यभिव्वङ्गवशानि दृष्टा खजातिषु प्रौ तिपराण्यतौव । 
अभ्यासयो गादुपपादितानि तेरेव दो[षै]रिति तानि विद्धि ॥₹०॥ 


१० सौन्दरनन्द्‌ं काव्यम्‌ । 


करोधप्रहर्षादिभिराश्रयाणमुत्य द्यते चेह यथा विशेषः । 
तयेव जन्मखपि नैकरूपो निर्वन्तेते क्तेशक्छतो विगरेषः ॥२ १॥ 
दोषाधिके' जन्मनि तौत्रदोष उत्यद्यते रागिणि तोत्ररागः। 
मोहा धिके मोहवलाधिकश्च तदल्यदोषे च तदल्यदोषः ॥२९॥ 
फलं हि यादृक्‌ समवैति साक्लात्‌ तद्‌ागमो वौज'मवैत्यतौ तम्‌ । 
अवेत्य वोजप्ररुतिञ्च सा्तादनागतं तत्फलमभ्युपेति ॥९ २॥ 
दोषच्यो जातिषु यासु यस्य वैराग्यतस्तासु न जायते सः। 
दोषागश्रयस्तष्ठति यस्य यत्र तस्योपपन्तिविंवशस्य तच ॥२४॥ 
तन्नन्मनो नेकविधस्य सौम्य ठष्णादयो हेतव दत्यवेत्य । 
तां्किस्धि दुःखाद्‌ यदि निसुमुचा काय्ये्यः कारणसङ्खगया द्वि ॥२५॥ 
` दुःखक्चयो हेतुपरिचयाच्च शान्तं शिवं साचिद्करुष्व धम्मोम्‌? । 
ष्णा विरागं लयनं निरोधं सनातनं चाणएमहाय्येमाख्छैम्‌ ॥२६॥ 
यस्मिन्न जाति ने जरा न श्टत्युने व्याधयो नाप्रियसम्प्रयोगः । 
नेच्छा विपन्न प्रियविप्रयोगः च्म पदं नैष्ठिकमच्युतं तत्‌ ॥र ७॥ 
दौपो यथा निरटेतिमभ्यृपेतो नेवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्‌ । 
दिशं न काञ्चिद्‌ विदिशं न काञ्चित्‌ सरहच्यात्‌ केवलभेति 
शान्तिम्‌ ॥९८॥ 
एवं कतौ निरेतिमभ्पेतो नेवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्‌ । 
दिशंन काञ्चिद्‌ विदिश न काञ्चित्‌ क्तंशच्यात्‌ केबलभेति 
श्रान्तम्‌ ॥२९॥ 


९ ?. 11. सोषा०¶. २ ?. ॥. बौजगर। ३ ?. 1. चन्म । 


षोडशः सगेः। १०३ 


च्रस्याभ्यपायोऽधिगमाय मागे: प्रज्ञाचिकल्यः प्रशमदिकन्पः । 
स भावनोयो विधिवद्‌ बुधेन, ओले श्एचौ चिप्रसुखे स्थितेन ॥ २ ०॥ 
वाङ्घम्पे सम्यक्‌ सहकायकम्म ययावद्‌ाजगेवनयश्च ्ररद्धः । 
ददं चयं ठत्तविधौ प्रदत्तं श्ौलाश्रयं धम्मेपरिग्रहाय ॥२ १॥ 
सत्येषु दुःखादिषु दृ ष्टिरार्ययां सम्यज्वितकंञ पराक्रमञ्च। 
ददं चयं ज्ञानविधौ प्रदत्तं प्रज्ञाश्रय क्तश्परिच्याय॥३२२८॥ 
न्यायेन सत्याभिगमाय युक्ता सम्यक्‌ स्मृतिः सम्यगयो समाधिः । 
ददं इयं योगविधौ प्रत्तं शमाश्रयं रित्तपरिग्रहाय ॥२र॥ 
क्ेशाङ्करान्नः प्रतनोति भौलं वोजाङ्करान्‌ काल दवातिदटन्तः । 
प्ररचौ हि भोले पुरुषस्य दोषा मनः सल्ला दव धषेयन्ति ॥२ ४॥ 
केशांस्तु विष्कम्भयते समाधिर्वेगानिवाद्विमंहतो नदौनाम्‌ । 
सखिते समाधौ हि न धर्षयन्ति दोषा भुजङ्गा इव मन््रबद्धाः ॥२५॥ 
प्रज्ञा त्वशेषेण निदन्ति दोषांस्तोरद्रुमान्‌ प्राटषि निन्नगेव । 
दग्धा यया न प्रभवन्ति दोषा वच्ाग्निनेवानु्टतेन टक्ताः ॥२ ६॥ 
चिसकन्धमेतं प्रविगाद्य मागें प्रस्यष्टमष्टाङ्गमहाय्येमाय्येम्‌ । 
दुःखस्य डेद्धन्‌ प्रजहाति दोषान्‌ प्राप्नोति चात्यन्तशिवं पदं तत्‌ ॥२७॥ 
श्रस्यो पचार एटतिराजेवञ्च छोर प्रमादः प्रविविक्रता च। 
अन्येच्छता तुष्टिरसङ्गता च लोकप्रटत्ता च रतिः चमा च ॥२८॥ 
यायाक्यतो विन्दति यो हि दुःखं तस्योद्धवं तस्य च यो निरोधम्‌। 
आखण मार्गेण स श्राज्तिमेति कल्याणमितैः सदह वत्तेमानः ॥२८॥ 


१ ?. 11. 07008 घे 70 बुधेन । २२, 4. 'ङ्करं। 


१०४ | सौन्द्रनन्दं काच्यम्‌ । 


यो व्याधितो याधिमवरेति सम्यग्‌ व्याधेनिंदानच्च तदौषधञ्च । 
अआरोग्यमाप्रोति डि सोऽचिरेण, मितैरभिनज्ञेरुपत्तथ्येमाणः ॥ ४ ०॥ 
तद्‌ व्धाधिसंनज्ञां कुरु दुःखसत्ये दोषेव्वपि व्याधिनिद्‌ानमन्नाम्‌ । . 
्रारोग्यसन्नाञ्च निरोधसत्ये भेषनज्यः्संज्ञामपि मागंसत्ये ॥४१॥ 
तस्मात्‌ प्रटृत्तिं परिगच्छ दुःख प्रवत्तं कानप्यवगच्छ दोषान्‌ । 
निटत्तिमागच्छ च तनिरोधं निवत्तकञ्चाप्यवगच्छ मागेम्‌ ॥४२॥ 
शिरस्यथो वाससि संप्रदौप्े सत्यावबोधाय मतिविंचार््या । 
दग्धं जगत्‌ सत्यनयं हयदृष्टा प्रदद्यते सन््रति घच्छतेः च ॥४२॥ 
यदेव यः पश्यति नामरूपं चयो ति तद्‌ शेनमस्य सम्यक्‌ । 
सम्यकू च निंद सुपेति पश्यन्‌ भन्दौच्याच च्यमेति रागः ॥४४॥ 
तयोश्च नन्दोरजसोः चयेण सम्यग्‌ विमुक्तं प्रवदामि चेतः। 
सम्यग्‌ विसुक्तिमेनसञख ताभ्यां न चास्य श्वय: करणौयमस्ति ॥४५॥ 
यथा खभावेन डि नामरूपं तद्धृतुमेवास्तगमं च तस्य । 
विजानतः प्त एव चाह व्रवीमि सम्यक्‌ चयमाखवाणाम्‌ ॥४ ६॥ 
तस्मात्‌ परं सौम्य विधाय व्यै भोघ्रं चकारख) खवसंचयाय । 
दुःखाननित्यांश्च निरात्मकांश्च धाद्धन्‌ विग्रषेण परौ चमाणः॥४ ७॥ ` 
धाट्न्‌ हि षड्ग्ध*सलिलानलादौन्‌ सामान्यतः खेन च लचणेन । 


१ २, 11. चिचन, ?. 1. 1. अचिरेण ए1110}1 8001] € "€ €. 
२ २. 1. #. सेष्यद्य ° । दे 1. /; सम्प्र तिवच्तते । 
४ 1. 14. धातुविशेषेण ए111९]1 8100118 {116 11616. 

५ २. 1. घातु हि षट्कं । 


षोडशः सगेः । ५ १०५ 


अवेति यो नान्यमवेति तेभ्यः सोत्यन्तिकं मोचमवैति तेभ्यः ॥४८॥ 
ञे शप्रहाणाय, च निञ्चितेन कारोऽभ्टपायञ्च परोक्तिः । 
यो गोऽप्यकाले यतुपायतञ्च भवत्यनर्याय न तह्ुणाय ॥४८॥ 
अजातवत्सा यदि गा दुहौत नेवाभ्रुयात्‌ चौरमकालदोहो । 
कालेऽपि वा स्यान्न पयो लभेत मोहेन श्टङ्गाद्‌ यदि गा द्‌होत॥५०॥ 
शराद्राच काष्ठाज्चवलनाभिकामो नेव प्रयन्नादपि वद्िग्डच्छत्‌ । 
काष्ठाच्च प्रष्कादपि पातनेन नेवाभ्निमाप्रोत्यनु पा यपून्बम्‌ ॥५.१९॥ 
तदेशकालौ विधिवत्परौच्छ योगस्य मात्रामपि चाभ्युपायम्‌ । 
बलाबले चात्मनि स्प्रधाय्ये काय्यै: प्रयनोन तु तदिर्द्धः॥५२॥ 
प्र्राइकं यत्त॒ निमिन्तमुक्तमुद्धन्यमाने इदि तनन सेव्यम्‌ । 
एवं डि चित्तं प्रशमं न याति [न] वद्किना वद्किरिवेय्येमाणः॥५२॥ 
शमाय [य]व्धान्नियननिमित्तं जातोद्धवे चेतसि तस्य कालः। 
शवं हि चित्तं प्रशम नियच्छत्य | ¡दौ्येमाणोऽभ्रिरिवो द केन ॥५४॥ 
श्मावह यत्‌ [नियत] निभित्तं सेव्यं न तच्चेतसि लौयमाने। 
णवं हि यो लयभ्ेति चित्तमनौय्ेमाणोऽश्चिरि वाल्सा रः ॥५५॥ 
ग्राहक यन्नियतं निमित्तं लयं गते चतसि तस्य कालः । 
क्रियासमथं हि मनस्तथा स्यात्‌ मन्दायमानोऽ्निरिवेन्धनेन ॥५६॥ 
ओओपेकिकं नापि निभित्तमिष्टं लयं गते चेतसि सोद्धवे वा । 
एवं हि तौत्रं जनयेद नयंमुपेदितो व्याधिरिवातुरस्य ॥५७॥ 
यच्छादुपेच्चा नियतं निमित्तं साभ्यं गते चेतसि तस्य कालः । 
एवं डि कृत्याय भवेत्‌ प्रयोगो रथो विधेयाश्च दव प्रयातः ॥५८॥ 
रागोद्धतव्या कु लितेऽपि चित्त मेचो पसंहार विधिने काय्यैः। 


१०९ सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


रागात्मको सुद्यति मेचया हि खेहं कफच्ोभः इवोपयुज्य ॥५९ 

रागोद्धवे चेतसि चेय्येमेत्य निषेवितव्यं लग्ररभं निमित्तम्‌ । 

रागात्मको दयेवसुपेति शग्मं कफात्मको रचमिवोऽपयुज्य ॥६ ०॥ 

व्यापाद्‌१्दोषेण मनस्यदौणं न सेवितव्यं तप्रुभं निमित्तम्‌ । 

देषात्मकस्य दयष्टभा वधाय पिन्तात्मनस्तौच्छए द्वोपच्ारः ॥६ १॥ 

व्यापाद दोषचुभिते तु चिन्त सेव्या खपच्तो पनयेन मेनो । 

देषात्मनो हि प्रश्रमाय मेचौ पित्तात्मनः शोत इवोपचारः॥६ २॥ 

मोहानुबद्धं मनसः प्रचारे मेच्रा एएभा चेव भवत्ययोगः । 

ताभ्यां हि संमोहमुपैति श्रयो वाखवात्मको रंलमिवोपनौय ॥६२॥ 

मोहाद्मिकायां मनसः प्रढन्तौ सेवयस्लिदमत्ययताविहारः। 

मूढे मनस्येष हि शाज्तिमागां वाय्यात्मके ग्धं दवोपचारः ॥९ ४॥ 

उल्कासुखस्थं हि यथा सुवणे सुवणंकारो धमतौदह काले । ` 

काले परिप्रो चयते जलेन क्रमेण काले ससुपेचते च ॥ ६१५॥ 

द हेव्छुवणे हि धमन्‌ न काले जले किन्‌ संशमयेद काले । 

न चापि सम्यक्‌ परिपाकमेन नयेदकाले समुपेचमाणः ॥६ ६॥ 

संप्रयदस्य प्रश्रमस्य चैव तथेव काले समुपेक्षणस्य । 

सम्यग्‌ निमित्तं मनसा त्ववेच्छं नाशो हि यन्नोऽप्यनुपायपूव्वः ॥ € ७॥ 
दत्येवमन्यायनिवन्तेनच्च न्यायञ्च तस्मै सुगतो वभाषे। 

ग्रयश्च तत्तच्चरितं विदिला वितकंहानाय विधौनुवाच ॥६८॥ 

यथा भिषक्‌ पित्तकफानिलानां य एव कोपं समुपैति दोषः । 


९ ?. 1. (1. श्च्तोभय। २ >. 11. यापार्‌° | 
३ २. 14. कोषं। 


षोडशः सगुः । ५ १०७. 


शमाय तस्यैव विधि विधन्ते व्यधत्त दोषेषु तथेव बुद्धः ॥६९॥ 
एकेन कल्पेन स चेन्न न्यात्‌ खभ्स्तभावा दप्ररभान्‌ वितर्कान्‌ । 
ततो दितौयं क्रममारभेत नत्वेव हेयो गुणवान्‌ प्रयोगः ॥€ ०॥ 
्रनादिकालोपदितात्मकलत्वात्‌ बलोयसः क्तोशगणस्य चेव । - 
सम्यकूप्रयो गस्य च दुष्करलात्‌ कत्त न शक्याः सहसा हि दोषाः ॥७१॥ 
अण्व्या यथाष्टा विपुलाणिरन्या निर्वाह्यते तदिदुषा नरेण । 
तदत्‌ तदेवाङ्शलं निमित्तं किपेन निमित्तान्तरसेवनेन ॥७२॥ 
तवायवाध्यात्मनवय्रहत्ान्नेवोप शाग्येदश्ररभो वितकंः । 

हेयः स तदोषपरौकच्षणेन सश्वापदो मागे दवाध्वगेन ॥७३॥ 

यथा चुधार्तोपि विषेण एतं जिजौ विषुनच्छति भोक्तमन्नम्‌ । 
तथेव दोषावदमित्यवेत्य जहाति विद्धानएभं निमित्तम्‌ ॥७ ४॥ 
न दोषतः पश्यति यो हि दोषं कस्तं ततो वारयितं समथेः। 
गणं गरे पश्ठति यश्च यच स वाय्यमाणोपि ततः प्रयाति ॥७१॥ 
व्यपचपन्ते हि कुलप्रसूता मनःप्रचाररण्टभेः प्रटत्तेः। 

कण्वे मनखांञ्च युवा वपुश्मान्‌ न चाचुषेर प्रयुते विषक्तैः ॥७६॥ 
निध्रयमाणासय लाषतोपि तिषठेयुरेवाक्कुशला वितर्का: । 

काय्यै न्तरोरष्ययनक्रियाद्यैः सेव्यो विधिरविंस्मरणाय तेषाम्‌ ॥७७॥ 
सखप्त्मण्येव विच[च ]णेन कायक्तमो वापि निषेवितः । 

नलेव सञ्चिन्यमसन्निमित्तं यचावसक्तस्य भवेद नथः ॥७ ८॥ 

यया हि भोतो निशि तस्करेभ्यो दार[] प्रियेभ्योऽपि न दातुमिच्छेत्‌ । 
प्राज्ञस्तया संहरति प्रयोगं समं प्रभस्याप्यश्एभस्य\ दोषैः ॥€ ९॥ 


९ ?. 1. 1. त"0]8 °प्यश्चुभस्य । 


१०८ | सौन्द्रनन्दं काश्यम्‌ । 


एवं प्रकारैरपि यदयुपायेनिवाग्येमाणा न पराडसुखाः स्यः । 
ततो यथास लनिवदंणेन सृवणंदोषा दृव ते प्रहेया: ॥८ ०॥ 
द्रुतप्रयाणप्र तोश] तौच््एकामप्रयो गात्‌ परि खिद्यमानः । 
यथा नरः संश्रयते तयेव प्राज्ञेन दोषेष्वपि वन्तितव्यम्‌ ॥८ १॥ 
ते चेदलबधप्रतिपच्भावा नेवो पशाग्येयुर सदितर्काः । 
मुत्तं मप्यप्रतिवध्यमाना गहे सुजङ्गा दव नाधिवास्याः॥८२॥ 
दन्तेऽपि दन्तः प्रणिधाय कामं ताच्वग्रसुत्पौद्य च जिद्कयापि। 
चित्तेन चित्ते परिग्ह्य चापि काय्य प्रयन्नो न तु तेऽनुदन्नाः ॥८२॥ 
किमच विच यदि वीतमोहो वनं गतः खस्थमना न सुदेत्‌ । 
आ्चचिप्यमाणो इदि तन्निमित्ते न चोभ्यते यः स रतौ स धौरः॥८४॥ 
तदाय्यैसत्या धिगमाय पूव्वे विश्रोधयानेन नयेन मागम्‌ 1 
यत्रागतः शचुविनिग्रहाथेः राजेव लष्डौ मजितां जिगौषन्‌ ॥८५॥ 
एतान्यरष्धान्यभितः शिवानि योगानुकूलान्यजनेरितानि। 
कायस्य क्त्वा प्रविवेकमाच क्तेशप्रहाणाय भजख मागेम्‌ ॥८६॥ 
कै णडिन्य-नन्द ्रिमिला निरुद्धाः तिश्यो पसेनो विमलोऽय राधः२। 
वाण्योत्तरौ धौ तकि-मो हराजौ कात्यायनद्रव्यपिलिन्दवत्साः ॥८७॥ 
भद्ालि-भद्रायणए-सपदास-सुग्डति-गोदत्त-सुजात-वत्छाः । ` 
संय्ामजिद्‌ भद्रजिदश्रजिच्च श्रोण्श्च शोणश्च स कोटिकंणेः ॥८८॥ 
चेमाजितो" नन्दकनन्दमात। बुपालि-वागौश्-यशोयग्ोदाः । 
महाङ्कयो वल्क लि-राष्रपालो सुद गेन-खागत-मेधिकाश्च ॥८९॥ 


| ९ ४. 1/4. दन्तं। २ 1. 11. ° विनिव्वैह्ाथ | 
३ 1. 1/1, रूधः। ¢ 7. 11. त्तमलितो । 


षोडशः सगः । १०९ 


स कष्फिनिः काश्पश्चोरुविल्वो महामहाकाश्यप-तिव्य-नन्दाः । 
पू पूण स प्रणंकख शोणापरान्तख॒ स पूणं एव ॥< ०।॥ 
शारदतौपु्- खुवाह्-चन्दाः कोन्दय-काषय-श्गु-ङ्ष्डधानाः । 
सगरेवलौ रेवत-कण्ठिलौ च मौद्धच्यगो चश्च गवांपतिख॒ ॥< ¦ ॥ 
यं विक्रमं योग विधावङ्ुव्वेस्तमेव शौर विधिवत्‌ कुरुष्व । 
ततः पद प्रा्यसि तैरवाप्तं संख्याञ्च ते स्वन्नियतं यशश्च ॥९ २॥ 
द्रव्यं यथा स्यात्‌ कटुकं रसेन तच्चोपयुक्र मधुरं विपाके) 

तथेव वच्छे कटुकं श्रमेण तस्यार्थसिद्धौ मधुरो विपाकः ॥< ?॥ 
वौच्ये परं काय्य॑हतौ हि मूलं वौर्य्यादृते काचन नास्ति सिद्धिः, 
उदेति वौर्खया दि इ सवेसम्यन्निर्वो्येता चेत्सक लख पाप्मा ॥< ४॥ 

अलब्धस्यालाभो नियतमुपलब्धस्य विगमः 

तयेवात्मावज्ञा कपणमधिकेभ्यः परिभवः । 

तमो निस्तेजस्तं श्रतिनियमतुष्िव्येपरमो 

नृणां निर्वर्य्ाणां भवति विनिपातश्च भवति ॥< ५॥ 

नय श्रलाशरक्तो यद्यमभिदद्धिंन लभते 

परं धम्मे ज्ञाल्ा यदुपरि निवासं न लभते। 

गहं त्यक्ता सुक्तौ यदयमुपश्ान्तिं न लभते 

निभित्तं कौसोद्यं भवति पुरुषस्यान्तर रिपुः ॥< ६॥ 

भ्रनिचिघ्रोत्छादो यदि खनति गां वारि लभते 

प्रसक्तं व्यामथ॒न्‌ ज्वलनमर णिभ्यां जनयति । 


र 2. #. वौ त्त ०, 


२१० 


सोन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


प्रयुक्ता योगे ठु भ्रुव पलभन्ते श्रमफलं 

दरुतं नित्य यान्त्यो गिरिमपि हि भिन्दन्ति षरितः॥< ॥ 
छृष्टा गां परिपाल्य च श्रमश्तेर श्राति सस्यभयं 

यन्नेन प्रविगाद्य सागरजलं रन्नचिया क्रौडति । 

श्रचरूणा मवधूय वय्येमिषुभिभङ्क नरेन्द्रः श्रिय 

तदौय्ये कुर्‌ शान्तये विनियतं वौ्ये हि सवदे ॥< ८॥ 


दति सौन्दरनन्दे महाकाये ्राय्येसत्यवयाख्यानो 
नाम षोड्श्रः सगेः। 


सप्तदशः सगेः । ५ १९१९१ 


सप्तदशः सगैः। 


अधेवमादे शिततच्चमागों नन्दस्तदा प्राप्तविमोचमागेः 
सर्वेण भावेन गुरो प्रणम्य क्क श्प्रहाणाय वनं जगाम ॥१। 
तचावकाश्ं, श्ठदुनौलग्रष्यं ददे शान्ते तरूषण्डवन्तम्‌ । 
निःशन्दया निन्नगयो पगृढं वैदूय्येनोलो दकया वदन््ा ॥९॥ 
स पादयोम्त्र विधाय शौचं शचौ शिवे ओ्रौमति टचमूले । 
मोच्चाय बद्धा अवसायकच्षां पय्येङ्कमङ्‌ः। वहितं वबन्धे ॥३॥ 
राजन्‌ खमयं प्रणिधाय कायं काये स्मृतिं चाभिमुखो विधाय । 
सवेद्दियाण्यात्मनि सन्निधाय स तत्र योगं प्रयतः प्रपेदे ॥४॥ 
लतः स तच्लं निखिलं चिकौषुं मेचानुकूलां ञ्च विधौ धिको षन्‌ । 
ज्ञानेन लोक्येन शमेन चेव चचार चेतः परिकम्मेश्वमौ ॥५॥ 
सधाय धेय्ये प्रणिधाय वौ्खयेः व्यपोद्य सक्ति परिग्टद्य शक्तिम्‌ । 
अश्रान्तचेता नियमस्थचताः खस्थस्ततो श] दि षयेष्वनास्यः ॥६॥ 
त्रातप्तवुद्धः प्रहितात्मनोऽपि खभ्यस्तभावादय कामसज्ञा । 
` र्य्याक्कुलं तस्य मनश्चकार प्राटररसु विद्युन्नलमागतेव ॥ 5॥ 
स पय्येवस्थानमवेत्य सद्यञ्चिकेप तां घम्मेविघात-कर्चम्‌ । 
प्रियामपि क्रोधपरोतचेता नारोभिवोहृत्तय॒ण्णं मनसौ ॥८॥ 
आरब्धवौय्येस्य मनः शमाय श्यस्त॒ तस्याकुश्रलो वितकंः। 
च्याधिप्रणाग्राय निविष्टशबुद्धरूपद्रवो घोर इवाजगाम ॥<॥ 


९ 2. 1. तच्रावभासं। २ 2. 1. राज्यं। 
३ . 11. चेध्ं । -8 २. }¶. निर ° । 


११२ | सौन्दरनन्टं काच्यम्‌ । 


स तदिघाताय निमित्तमन्यद्यो गानुकरूल कुशलं प्रपेदे + 
 आरत्तायनं णलो बलस्थं निरस्यमानो बलिनारिणेव ॥१ ०॥ 
पुर विधायानुविधाय दण्ड मित्राणि सग्रद्य रिपून्‌ विग्टद्य । 
राजा यथाप्नोति डि गामपून्वी नोति सुसुक्तोरपि सैव योगे ॥१९१२॥ 
विमोक्कामस्य हि योगिनोपि मनः पुरं ज्ञानविधिश्च दण्डः। 
गणश्च भिचाण्धरयश्च दोषा श्मिविंसुक्रि यंतते यदर्थम्‌ ॥१२॥ 
म दुःखजालान्म्हतो सुसुचुविमोक्मार्गाधिगन्ने विविचुः । 
पन्थानमाय्ये परमं दिद्चुः शमं ययौ किञ्चिदु पात्तचचः\ ॥१ २॥ 
यः स्यान्निकेतस्तमसोऽनिकेतः त्वायि ततं स भवेत्ममत्तः । ` 
यस्मात्तु मोचाय स पाचश्ठतः तस्मान्मनः सात्मनि संजहार ॥१४॥ 
सन्भारतः प्रत्ययतः खभावादाखादतो दोषविगरेषतश्च। ` 
च्रथात्मवान्‌ निःशररणात्मतश्च धम्मषु चक्र विधिवत्‌ परौक्वाम्‌ ॥१५॥ 
सरूपिणं छृत्लमरूपिणञ्च सार दिद चविचिकाय कायम्‌ । ` 
श्रथाप्ुचिं दुःखमनित्यमखं निरात्मकं चेव चिकाय कायम्‌ ॥१९॥ 
अरनित्यतस्ततच हि शून्यतश्च निरात्मतो दुःखत एव चापि। 
मागेप्रबेकेन स लौकिकेन क्तशद्रमं सञ्चलयाञ्चकार ॥१७॥ . 
यद्माट्‌श्ूला भवतौ स्वे च्टूला च श्यो न भवत्यवश्छम्‌ । 
सदहेत्‌कञ्च च्थिडेतुमच्च तस्माद नित्यं जगदित्यविन्दत्‌ ॥१८॥ 
यतः प्रसूतस्य च कम्मरेयो गः प्रसज्यते बन्धविघातडेतुः । | 
दुःखप्रतौकारविधौ खुखाख्यं ततो भवं दुःखमिति व्यपश्त्‌ ॥१९८॥ 


९ 7. ध. उपान्त । २... तस्मात्‌ । 


सप्तदशः सगः । १९ 


यत्य सस्कारेगतं विविक्तं न कारकः कखन बेदको वा। 

सामग्यतः सम्भवति प्रटर्तिः शुन्यं ततो लोकमिमं ददशे।।९२०॥ 

यस्भान्निरो हं जगदखतन्तरं नेश्यय्येमेकः९ कुरूते क्रियासु । 

तन्नत्‌ प्रतत्य प्रभवन्ति भावा निरात्मकं तेन विवेद लोकम्‌ ॥२१॥ 
ततः स वातं खजनादिवोष्णे काष्टाञ्चितं निमेयेनादिवा्िम्‌ । 

अन्त.क्ितिस्थं खननादिवाम्भो लोकोत्तर वत्म दुरापमाप॥२२॥ 

सज्ज्ञान-चाप-स्मृति-वम्प बद्धा विश्एद्ध शो लब्रतवानस्थः । 

्ञेशारिभिशिन्तरणाजिरन्यैः सद्धं युयुत्छु विजयाय तस्थौ ॥९२॥ 

ततः स बोध्यङ्गशितान्तशस्तः सम्यक्‌ प्रधानोत्तमवाहनस्थः । 

मार्गाङ्गमातङ्गवता बलेन श्नः प्रनेः क्तेशचम्‌ं जगाहे ।२४॥ 

स खत्युपस्थानमयेः प्षत्कः शच्न्‌ विपर्यवासमयान्‌ चणेन । 

दुःखस्य हरश्चतुरश्तुभिः खैः खेः प्रचारायतने ददार ॥९५॥ 

आबेलेः पञ्चभिरेव पञ्च चेतःखिलान्यप्रतिमे बेभञ्ञ । 

भिश्याङ्गनागांञ्च तथाङ्गनागे विनिद्‌धावाष्टभिरेव सोऽष्टौ ॥२६॥ 
अरथात्मदु ष्टं सकलां विधूय चतुषु सत्येव्वकथंकथः सन्‌ । 

विष्द्ध गो लव्रतदृष्टधर्मा धर्मस्य पृव्वां फलश्ठमिमाप ॥२७॥ 

स द्‌ गनादाय्यैचतुषटयस्य क्तेगोकटे शरस्य च विप्रयोगात्‌ । 

प्रत्या त्मिकाच्वापि विगशेषलाभात्‌ प्रत्यक्ततो ज्ञानसुखस्य चेव ॥९८॥ 

दार्क्यात्‌ प्रसादस्य तेः स्थिरत्वात्‌ सत्येष्वममूढतया चतुषु । 

जनोलस्य चाच्छिद्रतयोत्तमस्य निःसंशयो घम्मोविधौ वश्व ॥२९॥ 


९ ?. 4. र्कं, 


१२४ सौन्दरनन्दं काच्यम्‌ । 


कुदृष्टिजालेन स विप्रयुक्तो लोकं तथाश्चतमवेच्तमाणः । 

ज्ञानाश्रयं प्रोतिमुपाजगाम श्यः म्रसादच्च गरावियाय॥₹०॥ 

यो हि प्रत्तिन्नियतामवेति नैवान्यहेतो रि इ नाण्यहेतोः । 

परतोत्य तत्तत्‌ समरे ति तत्त्‌ स नेष्ठिकं पश्यति धममोमाय्येम्‌ । २ ९॥ 

शान्तं शिवं निन्नेरसं विरागं निःखेयसं पश्यति यश्च धष्धे । 

तस्यो पदे्टारमयाय्येवय्ये संप्र्ते बुद्ध मवाप्रचचुः ॥२२॥ 

यथो पदेशेन शिवि]न मुक्तो रोगादरोगो भिषजं तज्ञः । 

श्रनुस्मरन्‌ पश्यति चित्त्या मेच्या च शास्ते ज्ञतया च तुष्टः॥२ इ॥ 

त्राय्य॑ण मार्गेण तयेव सुक्तस्तथा गतं तत््वविदाय्येतत्चः । 

अनुसपररन्‌ पश्यति कायसाचौ मेच्या च सवज्नतया च तुष्टः ॥ २ ४॥ 

स नागक्रदुंष्टिगते विमुक्तः पर्यन्त] मालोक्य पुनभेवस्य । 

वक्रे टणाज्ञप्र विजम्मितेषोग्टेत्यो ने तचा न दुगेतिग्यः ॥३५॥ 

लक्‌ पायुभेदोरधिरास्थिमां सकेश्रादि ना ऽमेध्यगणेन पणम्‌ । 

ततः स कायं समवेचचमाएः सारं विचिन््याण्ठपि नोपलेभे ॥१ ६॥ 
स कामरागप्रतिघौ ख्थिरात्मा तेनेव योगेन तनू चकार । 

त्वा महोरस्कतनुस्तनू तौ प्रापद्वितौयं फलमाय्येध् ॥ २ ७॥ 

स लोभचापं परिकन्यवाण रागं महावैरिणमन्यगेषम्‌ । 

कायस्तभावाधिगतेविभेद योगायुधास्तरग्रभा एषत्केः ॥२ ८॥ 

देषायुधं क्रोधविकौणेवाणं व्यापादमन्तःपरसवं सपन्नम्‌ । 

मैच एषत्‌के छेतिद्रएसख्येः चमा धनुर्ज्या विषते जघान ॥३ <॥ 


१ 2. )1. 070])8 तत्त° । 


सप्तदशः सगः । १९५ 


मूलान्यथ चौ्यष्ररभस्य वोर स्तिभिविमो छायतनेश्चकन्ते । 
चमूसुखस्थान्‌ तकाम्भुकां स्तौ नरौ निवारि स्तिभिरायसायेः । ४ ०॥ 
स कामधातोः समतिक्रमाय पाष्िगरहांस्तानमिन्धेय शदून्‌ । 
योगादनागाभिफलं प्रपद्य दारौव निर्व्वाणपुरस्य तस्थौ ।॥ ४९॥ 
कामेविविक्तं मलिनैश्च ध्र वित कंवच्वापि विचारवच्च । 
विवेकजं प्रोतिखुखो पपन्नं ध्यान ततः स प्रथमं प्रपेदे ॥४९॥ ` 
कामाग्निरैडेन स विप्रमुक्तो हाद परं ध्यानसुखादवाप। 
सुखं विगाद्या शिव घम्मेखिन्नः प्राप्येव चाथं विपुलं दरिद्रः ॥४२॥ 
तचापि तद्ध्मेगतान्‌ वितर्कान्‌ गुणएणगुणे च प्रष्टतान्‌ विचारान्‌ । 
बुद्धा मनःक्तोभकरानश्रान्तांस्तदिप्रयोगाय मतिञ्चकार ॥४४॥ 
कोभं प्रकुव्वेन्ति यथो श्यो हि धो रपसन्नाम्बृवदस्य सिन्धोः । 
एकाग्रश्चतस्य तयो श्मिग्धताखिन्ताम्भसः क्ोभकरा वितकाः ॥४१५॥ 
खिन्नस्य सुप्तस्य च निदेतस्य वाधां यथा संजनयन्ति शब्दाः । 
ध्यात्ममेकाश्यसुपागतस्य भवन्ति वाधाय तथा वितर्का: ॥४६॥ 
अथावितकं क्रमशोऽविचारमेकायभावान््नसः प्रसन्नम्‌ । 
समाधिजं प्रौ तिसुखं दितौय ध्यानं तदाध्यात्मगिवं स दध्यौ ॥४७॥ 
तद्यानमा गम्य च चिन्तमौनं लेभे परां प्रौतिमलबधपूर्व्वाम्‌ । 
प्रीतौ ठु तापि स दोषद्र्भो यया वितर्कँ्वभवन्तयैव ॥४८॥ 
प्रोति(] परा वस्ठनि थच यस्य विपय्येयान्तस्य हि तच दुःखम्‌ । 
प्रोतेरतः* प्रच्छ स तच दोषान्‌ प्रौतिकच्ये योगसु पाररोह ॥४९॥ 


९ 2. 7, परौतौ बतः ¶. 


१९६ | सौन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


रोते विरागात्‌ सुखमा्यैजषटं कायेन विन्दन्नथ प्रजानन्‌ । 
उपेच्तकः स स्मृतिमान्‌ व्यहार्षौत्‌ ध्यानं ठतौयं प्रतिलभ्य घौरः॥५०॥ 
यस्मात्‌ पर तच सुखं सुखेभ्यस्ततः परं नास्ति सुखप्रढत्तिः । 
तस्माद्‌ बभाषे प्ररभरृत्ल्वमिं परापर ज्ञः परमेति मैच्या ॥५१९' 
ध्यानेऽपि तचराथ दद्शे दोषं मेने परं शान्तिमनिच्ञमेव । र 
आभोगतोऽपौज्ञयति स्म तस्य चित्तं प्रदत्त सुग्मित्यजसखम्‌ ॥५२॥ 
यचेञ्ितं स्पन्दितिमस्ति तत्र यचास्ति च स्यन्दितिमस्ति दुःखम्‌ । 
यस्माद तम्तत्सुखमिञ्ञकल्वात्‌ प्रशान्तिकामा यतयस््यजन्ति ॥१ २॥ 

अथ प्रहाणात्‌ सुखदुःखयोश्च मनो विकारस्य च पष्व॑मेव । 
दध्याबुपेक्चारतिमदिष्रड ध्यानं तथाऽदुःखसुखं चतुथेम्‌ ॥५४॥ 
यस्मात्‌ तस्िन्‌ न सुखंन दुःखं ज्ञानं च तत्रास्ति तदयंचारि। 
तस्मादुपेा स्मृतिपारिशएद्धि निरुच्यते ध्यान विधौ चतुयं ॥५५॥ 

ध्यानं स॒ निःञित्य ततश्चतुथैमहेत्लाभाय मतिं चकार । 
सत्वाय मिच बलवन्तमाय्ये राजेव दे शानजितान्‌ जिगोषुः ॥५६॥ 
चिच्छेद काठन्येन ततः स पञ्च प्रज्ञासिना भावनयेरितेन । 
ऊद्धग मान्यत्तमवन्धनानि संयो जनान्येत्तमवबन्धनानि ॥१५७॥ 
बोध्यङ्गनागेरपि सप्तभिः स सत्तैव चित्तानुगश्रयान्‌ मम्‌ । 
दौपानिवोपस्थितविप्रणाशान्‌ कालो ग्रहेः सप्तभिरेव सक्त ॥१५२८॥ 
अचचिद्र्‌माज्याम्बृषु या हि ठत्तिः कबन्धवाखद्निदिवाकराणणम्‌ । 
दोषेषु तां ढत्तिभियाय नन्दो निर्वा पणोत्याटनदादशोषेः ॥५९॥ 


१ 2. 1. पारिश्चुदं। 


सप्नदशः सगेः। ९९७ 


दति चिवेगं चिद्यं चिवो चमेकाम्भसं पञ्चरयं दिकूलम्‌ । 
दियाहमष्टाङ्गवता, सवेन दुःखाणेवं दुस्तर सुत्ततार ॥६ ०॥ 
चरदेत्मासाद्य स सत्‌ क्रियाहो निरुत्छुको निष्यृण्यो निरा शः । 
विभीर्विश्रम्बौतमदो विरागः स एव शटत्यान्य इवावभासे । ६ १॥ 
भ्रातुश्च शास्तुख तयानुशिश्छा नन्दस्ततः सेन च विक्रमेण । 
प्रशान्तचेता: परिप्रणेकाम्यो वाणौमिमामात्मगतां जगाद ॥६ २॥ 
नमोऽस्त तै सुगताय येन हितेषिणणा मे करूणात्मकेन । 
बहनि दुःखान्यपवत्तितानि सुखानि श्ूयांस्यपसहतानि ॥६ २॥ 
रहं छ्यनार्यंण शरौरजेन दुःखात्मके व्मौनि रव्यमाणः । 
निवर्ितस्तद चनाङ्ुगेन दर्पान्वितो नाग दवाङ्कुशेन ॥६४॥ 
तस्याज्ञया कारुणिकस्य शास्तुः इदिस्थमुत्पाख हि रागशल्यम्‌ । 
श्रयेव तावत्‌ सुमहत्सुखं मे सव्वेच्ये किं वत निदेतस्य ॥६ ५॥ 
निर्वाप्य कामाभ्निमहं हि दौप्र त्यम्बृना पावकमन्बृनेव । 
ह्वादं पर साग््रतमागतोऽस्ि श्रौतं हदं चन्म दवावतोणेः ॥६ ९॥ 
नसे प्रियं किञ्चन नाप्रियं मे न मेऽनुरोधोऽस्ि कुतो विरोधः। 
तयोरभावाह्सुखितोऽस्मि सद्यो हिमातपाभ्यामिव विप्रसुक्तः ॥ ६ ७॥ 
महाभयात्‌ च्षममिवोपलभ्य महावरोधादिव विप्रमोचम्‌ । 
महाणवात्‌ पारमिवाञ्चवः सन्‌ भो मान्धकारादिव च प्रकाशम्‌ ॥६८॥ 
रो गादिवारोग्धमसद्यूपाद्‌ णादि वानृष्यमनन्तसख्यात्‌ । 
दिषत्छकाशादिव चापयानं द्‌ भिक्चयोगाच्च यया सुभिच्षम्‌ ॥६९<॥ 
तदत्‌ परां शान्तिसुपागतोऽदं यस्यानुभावेन विनायकस्य । 


1 


करोमि श्यः पुनरुक्रमस्मे नमो नमोऽहांय तथागताय ॥७ ०॥ 


१९८ | सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


येनाहं गिरिमुपनौोय स्क्रप्रटङ्ग 

खगेञ्च क्षवगवधूनिद भेनेन । 

कामात्मा चिदिवचरौभिरङ्गनाभि- 
निष्वृ्टो युवतिमये कलौ निमग्नः ॥७ १ 
तस्माच्च व्षनपरादनयपङ्ाद्‌ 

उल्छष्य क्रमभिथिलः करोौव पङ्कात्‌ । 
शान्तेऽस्मिन्‌ विरजसि विज्वरे विशोके 
सदधर् वितमसि नेशटिके विमुक्तः ॥७२॥ 
तं वन्दे परमनुकंपकं* महषिं 

मूद्ाहं प्ररुतिगुणज्ञमाश्रयज्ञम्‌ । 

संबुद्धं द शवलिनं भिषक्‌ प्रधानं 

तारं पुनरपि चास्मि सन्नतस्तम्‌ ॥७३॥ 


आर्य्याश्वघोषकतौ मदहाकाथ्ये सौन्दरनन्दे 
अश्टताधिगमो नाम सप्तदशः सगेः। ` 


१ 0. 1/1. ५1008 ° पकं । 


अष्टादशः सर्गः। ३.) 


अष्टादशः सगः । 

अथ दिजो बाल दूवाश्षवेदः चिप्र वणिक्‌ प्राप्न द्वाप्नलाभः। 
जित्वा च राजन्य दवारिसैन्यं नन्दः छतार्थो गुरमभ्यगच्छत्‌ ॥ ? ॥ 
द्रष्टुः सुखं ज्ञानसमाधिप्काले श॒रुदि भव्यस्य गुरो भिग्यः । 
परिश्रमस्ते [स]फलो मयति यतो दिदृक्तास्य मुनौ बग्दव ॥२॥ 
यतो डि येनाधिगतो विग्रेषस्तस्योत्तमां सोऽदहंति कन्तमोद्याम्‌ । 
्राययैः सरागोपि कतज्ञभावात्‌ प्रक्ोणमानः किमु वौतरागः ॥३॥ 
यस्वा कामप्रभवा हि भक्तिः खतोऽस्यः सा तिष्ठति रूढमूला । 
धर्मन्वयो यस्य तु भक्तिरागस्तस्य प्रखाटो इद्‌यावगाढः॥४॥ 
काषायवासाः कनकावदातस्ततः स मूरा गुरवे प्रणमे । 
वातेरितः पल्लवतास्रागः पुष्योज््वलश्रौरिव कणिकारः ॥५॥ 

` श्रयात्मनः भिच्यगुणस्य चेव मदासुनेः शास्तृगुणएस्य देव । 
सन्दभेनाथं स न मानहेतोस्खां काच्येसिद्धिं कथयाम्बश्वव ॥ ६॥ 
यो दुष्टिग्रल्यो इद यावगाढः प्रभो ग्टश्रं मामत्‌दत्छुतोच्एः । 
वद्वाक्यसदं शसुखेन मे स समुद्धृतः ग्रल्यहतेव शचः ॥ ७॥ 
कथंक्थौभावगतोऽस्मि येन ङिन्न: स निःसंशय संयो मे। 
लच्छा सनात्‌ सत्पथमागलोऽस्मि सुदे शिकस्येव पयि प्रनष्टः ॥८॥ 
यत्पौ तमाखाद्‌ वशे न्द्ियेण दर्पण कन्द पेविषं मयासौत्‌ । 
तन्त्रे हतं लद्चना गदेन विषं विनाश्ौव महागदेन ॥९॥ 
चयं गतं जन्म निरस्तजन्म सदुम्मेचय्य मुषितोऽस्मि सम्यक्‌ । 


१ 2. 24. समाप्त । 
२ ?. 4. सुतस्य 2. 1, 1/1. 1४(प08, ^ . 


१२० । सौन्दरनन्दं काव्यम्‌ । 


रुद्र छृतं मे छतकाय्ये काय्यै लोके प्रभ्रतोऽस्मि न लो कधर््ा ॥ १९ ०॥ 
मेचौस्तनो यज्ननचारुसाल्ां सद््दुग्धां प्रतिभानग्रङ्गाम्‌ । 
तवास्मि गां साधु निपोय ठपतस्तृषेव गामुत्तमवल्छवण : ॥१ १॥ 
यत्यश्यतश्चाधिगमो मयायं तन्त्रे समासेन सुने निबोध । 
सवेन्न कामं विदितं तेतत्‌ खन्त्‌पचारं प्रविवचुरस्मि ॥१२॥ 
अन्येऽपि सन्तो विसुसुचवो हि श्ुला विमोक्चाय नय परस्य । 
मुक्तस्य रोगादिव रो गवन्तस्तनेव मार्गण सुखं घटन्ते ॥१ ३॥ .. 
द्रव्यादिकान्‌ जन्मनि वेद्धि धाद्धन्‌ नात्मानसुरव्यादिषु तेषु 
८ किद्धित्‌। 
यस्माद तस्तेषु न मेऽस्ति शक्रं वदिश्च कायेन समा मति मं ॥९४॥ 
स्कन्धांश्च रूपग्रशटनोन्‌ द ्राद्धान्‌ पश्यामि यस््माञ्चपलानरारान्‌ । 
अनात्मङ्गांखेव वधात्मकांख तस्मादिर्‌क्रोऽखयशिवेभ्य एभ्यः ॥१५॥ 
यस्माच्च पश्वाम्यृदयञ्च सन्ता * सर््वाखखवस्थाखहमिद्दियाणणम्‌ । 
तस्माद नित्येषु निरात्मकेषु दुःखेषु मे तेष्वपि नास्ति सङ्गः '१६॥ 
यत्च लोक समजन्मनिष्ठं पश्यामि निःसारमसच सवम्‌ । 
तो धिया मे मनसा विवद्भूमस्मोति मे नेज्जितमल्ति येन ॥१७॥ 
चतुविधे नेकविधप्रसङ्गे यतोऽहमाहार विधा वसक्तः९ । 
श्रमूच्छितश्ाययितश्च ततर चिभ्यो विुक्रोऽस्मि ततो भवेभ्यः ॥१८॥ 
अरनिःितश्चाप्रतिवद्धवित्तो दृष्टश्रतादौ व्यवहार धनं । 
यस्मात्‌ समात्मानुगतख तच तस्म्मादिस्योगगतोऽस्मि सुक्रः ॥९९॥ 


९ 2. [.. 14. 01018 सत्तां ?. 2. सत्वां 7 
२ {. 1. °विचारश्क्तः। 


अङ्ादशः सगेः। + (क 


दत्येवसुक्का य॒रुबाङ्मान्यात्‌ सवेण कायेन स गां निपन्नः | 
्रवेरितो लोदितचन्द्रनाक्तो हेमो महास्तम्भः दूताबभाते । ₹०॥ 

ततः प्रमादात्‌ प्र्टतस्य पूवं रत्वा तिं व्याकरणञ्च तस्य 
धर्म्मान्वयं चान्‌गत प्रमादं मेघस्रस्तं मु निराबभाषे ॥२१॥ 
उत्तिष्ठ ध्म स्थित भिच्यजष्टे किं पादयोमें पतितोऽबि मृद्धं । 
श्रभ्यञ्चनं मे न तथा प्रणामो धमं ययेषा प्रतिपत्तिरेव ॥२२॥ 
अद्याभि सुप्रतरजितो जितात्मननेश्य्येमप्यात्मनि येन लब्धम्‌ । 
जितात्मनः प्रत्रजनं हि साधु चात्मनो न त्वजितेद्दियस्य ॥₹२॥ 
च्रद्यासि शौचेन परेण युक्तो वाङ्धायचेतांसि श्एचोनि यत्ते । 
अतः पुनखाप्रयताममौम्यां यत्‌ सौम्य नो वेच्छसि गभंगश्य्याम्‌ ॥२४॥ 
अदय ्यत्त शरुतवच्छरतं तच्छ्रुतानुरूपं प्रतिपद्य धम्‌ । 
ुतश्रुतो विप्रतिपद्यमानो निन्द्यो हि निर्ववैष्यि इ वान्त शस्व: । २ १॥ 
श्रो टतिस्ते विषयात्मकस्य यच्च मति मोच्विधावकार्घोः । 
यास्यामि निष्ठामिति बालिशो दि जन्रचयात्‌ चास मिदाभ्यपे ति॥२६॥ 
च्दिश्चा दुरापः चणसन्निपातो नायं कृतो मोहवशेन मोघः । 
उदेति दःखेन गतो द्यधस्तात्‌ कूं युगच्छिद्र दवाणेवस्छः ॥२ ७॥ 
निज्लित्य मारं युधि दुगिःवारमद्यासि लोके रणश्रा[स्त्र]शरः । 
शरोऽप्यश्रः स हि वेदितव्यो दोेरमिैरिव इन्यते यः ॥९८॥ 
निर्व्वाप्य रागाभ्निसुदौणमद्य दिश्चा सुखं खश्यसि वोतदादहः । 
दुःखं दि ओते शयनेऽपयुदारे ज्ञेशाभ्िना चेतसि दद्यमानः ॥२९॥ 


९ 2. #. शशुम्भः। 
२ {. 11. 188 ऋअतोवियामे 0016 ₹१€18€ 2¶. 


९२२ | सोन्द्रनन्दं काव्यम्‌ । 


अभ्यच्छ्रितो द्रव्यमदेन प्रव्वेमद्यासि दष्णोपरमात्‌ सण्टद्धः। 
यावत्‌ सतषेः युरुषो हि लोके तावहछण्छद्धोऽपि सदा दरिद्रः ॥२ ०॥ 
अद्यो पदेषु तव युक्तरूपं श्द्धोदनो मे नृपतिः पितेति । ` 
भ्रष्टस्य धरात्‌ पिदभिनिपातादश्नाघनौयो हि कुलोपदेशः ।३ १॥ ` 
दिश्चासि शान्ति परमासुपेलो निस्तोणेकान्तार इवाप्रसारः । 
सर्वो हि संसारगतो भयान्तां यथैव कान्तारगतस्तयेव ।२९॥ 
आरण्यकं भेक्तचर विनतं द्रच्छामि नन्दं निश्वतं कदेति। 
श्रासोत्‌ पुरस्तात्‌ यिम दिदृ्ा तथासि दिश्चामम द शेनौयः॥२२॥ 
भवत्यरूपोपि डदि द शनो यस्वलं कतः अ्रष्टतमेगणेः सेः । 
दोषेः परौतो मलिनौकरेस्त॒ सुद शनोयोऽपि विषूप एव ॥३ ४॥ 
अद्य प्रष्टा तव बुद्धिमत्ता छसनं यया ते कतमात्मकाय्यम्‌ । 
श्रतोन्नतस्यापि दि नास्ति बुद्धिर्नत्पद्यते श्रेयसि यस्य बुद्धिः ॥३५॥ 
उन्म लितस्यापि जनस्य मध्ये निमोलितस्यापि तथेव ` चचतुः । 
म्ज्ञामयं यस्य हि नास्ति चचुश्चचतु नं तस्यास्ति खचदुषोपि ॥३ ६ ॥ 
द्‌ःखप्रतो कारनिमित्तमात्तैः छब्यादिभिः खेदमुपेति लोकः । 
अजसख मागच्छति तचच्च श्यो ज्ञानेन यस्याद्य कृतस्वयान्तः ॥ > ॥ 
दुःखंन मे स्यात्‌ सुखमेव मेस्यादिति प्रत्तः सततं हि लोकः। 
न वेत्ति तच्चैव तथा यथा स्थात्‌ प्राप्तं लयाद्ासुलभं यथावत्‌ ॥३८॥ 
दत्येवमा दि स्थिर बुद्धि चित्तस्तथागतेनाभिहितो हिताय । 
स्तवेषु निन्दासु च निव्यपे्ः कताञ्ज लि्वाक्यमुवाच नन्दः ॥२९॥ 
अहो विगरेषेण विगेषद्‌ शिंस्वयानुकन्पा मयि दर्भिंतेयम्‌ । 
यत्कामपदङ्कं भगवन्निमग्मष््[] तोऽसि ससारभयादकामः ॥ ४ ०॥ 


अङ्ादश्रः सगेः। + १२३ 


भरात्रा तया खेयमि देशिकेन पित्रा फलस्येन तथेव माचा । 
इतोऽभविष्यं यदि न व्यमोच्छं सार्यात्‌ परिगेष्ट इवाङूतायेः ॥४१॥ 
शान्तस्य तुष्टस्य सुखो विवेको विज्ञाततत्वस्य परौ कस्य । 
्रहोणमानस्य च निश्रोदस्छ सुखं विरागलमसक्तवुद्धः ॥४२॥ 
अयो] हि तत्वे परिगम्य सम्यम्िरेय दो षानधिगम्य शान्तिम्‌ । 
सखव नाश्रमं सम्प्रति चिन्तयामि नतं जनं नाश्यरसो न देवान्‌ ॥४२॥ 
इद हिभुक्ता प्रचि शणामिक खुखंनमे मनः कांति कामजं सुखम्‌ । 
मदादेमण्यन्नमदेवताइतं दिवौ कसो युक्रवतः सुधामिव ॥४४॥ 
अदोऽन्ध विन्ञाननिमो लितं जगत्‌ पटान्तरे पश्यति नोत्तमं सुखम्‌ । 
स्वाधोनमध्यात्मसखं यपास्य दि श्रमं तथा कामखखायेग्च्छति । ४५॥ 
यथा हि रन्नाकरमेत्य दुरति दिदाय रन्नान्यसतो मणौन्‌ हरेत्‌ । 
अपास्य सम्बोधिखखं तथोत्तम्‌ अमं ज्रजेत्‌ कामख्खो पलब्धये ॥४९॥ 
श्रद्यो हि सत््ेव्वतिमेतचेतसस्तथागतस्यानुजिषटचता परा । 
श्रपास्ट यद्यानसखं सुने परं परस्य द्‌ःखो परमाय खिद्यसे ॥४ ॥ 
मया नु शक्त प्रतिकरैमद्य किं गुरौ हितेषिष्छलुकम्पके लयि । 
समुद्भूतो येन भवाणेवाद हं महाणवाचणितनौ रिवो स्विभिः ॥४८॥ 
ततो मुनिस्तस्य निग्रम्य हेतुमत्‌ प्रहोणसर्व्वाखवस्चकं वचः । 
ददं बभाषे वदतामनुत्तमो यद हेति ओघन एव भाषितुम्‌ । ४९॥ 
ददं छृता्थैः परमाथेवित्‌ कृतौ लमेव धोमन्नभिधातुमदेसि । 
अरतोत्य कान्तारमवाप्नमाधनः सुद गरिकस्येव कतं महावणिक्‌ ॥५०॥ 
श्वेति वृद्धं नरदम्बप्सारथि कृतौ यथाहेननुपश्ान्तमानसम्‌ । 


९ 2. ४. ०दन्त° | 


१२४ सौन्द्रनन्द' काव्यम्‌ । 


न दृष्टसत्योपि तथाच बुध्यते एथगजनः किं वत बुद्धिमानपि ॥४ १ ॥ 
रजस्तमोभ्यां परिसुक्रचेलसस्तवेव वेयं सदृ श्रौ छतज्ञता । 
रजःप्रकर्षेण जगत्यवश्िते छतज्ञभावो हि कतज्ञ दुलभः ॥५२॥ 
सधम धर्मरान्वयतो यतश्च ते मयि प्रसादोऽधिगमेन कौशलम्‌ । 
अतोऽस्ति श्यस्वयि मे विव चितं नतो हि भक्तेव्वभियो गमं सि ॥५२॥ 
्रवाप्तकार्य्योसि परां गतिं गतो न तेऽस्ति किञचित्करणोय- 
मण्ठपि। 
श्रतःपर सौम्य चरानुकम्पया विमो चयन्‌ छच्छरगतान्‌ परानपि । ५४॥ 
द हाथेमेवारभते नरोऽघमो विमध्यमस्द्रभयखौ किक क्रियाम्‌ । 
करियामसुतैव फलाय मध्यमा विशिष्टधर््मा पुनर प्रटनत्तये ॥५५॥ 
ददो त्तमेग्योपि मतः सुश्चमो य उत्तमं घ्ममवाप्य नेष्िकम्‌ । 
अरचिन्तयिला सुगतं परिश्रमं शमं परेभ्योऽष्ुपदे षटमिच्छति ॥५६॥ 
विहाय तस्मादिह काय्येमात्मनः कुरू स्थिरात्मान्‌ पर काय्येमप्ययो । 
भरमस्सु स्वेषु तमोटतात्मख श्॒तप्रदौपो निभि घास्येतामयम्‌ ॥४॥ 
नरवत्‌ तावनत्पुरि विस्मितो जनः यि द्धिते छ्रव्वेति धर्मदेशना: । 
अहोवताश््यंमिदं विसुक्तये करोति रागो यदयं कथामिति ॥५८॥ 
भवं हि संश्रुत्य तव खिर [मानो 
निदनत्तनाना विषयेमनोर थैः । 
वधुग्टेहे सापि तवानुकुव्वेतो 
करिग्यते स्तौषु विरागिणः कथाः ॥५९॥ 
वयि परमष्टतौ निविष्टतनत 
भवनगता न हि रस्यते धुवं सा । 


अद्ाटशः सगं: । क १२५ 


मनसि `शमद मात्मके विविक्त 
मतिरिवकामसुखेः परोक्षकस्य ॥६ ०॥ 

दूत्यहेतः पर मकार णिकस्य शास्त: 
मृद्धं वचश्च चरणौ च समं ग्टहौला। 
स्वस्थः प्रशान्तददयो विनिटनत्तकाय्येः 
पार््ान्नेः प्रतिययौ विमदः करौव ॥९१॥ 
भिच्लाथे समये विवेश च पुरौ दृष्टौजेनस्याङिपन्‌ 
लाभालाभसुखास्खादिषु समः खखेन्दियो निस्पृहः । 
निभाक्ताय चकार तत्र च कथां काले जनायाथिने 
नवोन्मागेगतान्‌ [जनान्‌] परिभवन्नात्मानमुत्कषेयन्‌" ॥ ९ २॥ 


सो न्दरनन्दे महाकाव्ये आज्ञाव्याकरणं 
नामाष्टादश्मः सगे: ॥ 


९ ?. 1. उत्कषेति । 


यद्‌ सौन्दरानन्द्‌' काव्यम्‌ । 


दत्येषा ब्यृपश्रान्तये न रतये मोचाथेगर्भाङतिः 
ओटढणां ग्रहणायंमन्यमनसां काव्यो पचारात्ता । 
यन्मो चात्छत मन्यद च हि मया तत्काव्यघर्म्मात्‌ कतम्‌ 
पातुं तिक्षमिवौषधं मधुयुतं द्यं कथं स्यादिति ॥६ ३॥ 
प्रा्ेणालोक्य लोकं विषयरतिपरं मोच्लात्‌ प्रतिहत 
काव्यव्याजेन तत्वं कथितमिह मया मोच्परमिति। 
तदुद्धा श्राभिक यत्‌ तदवहितमितो यादय न ललितम्‌ 
पांगएभ्यो धातुजेभ्यो नियतमुपक्रर चामोकरमिति ॥६४॥ 


्राय्येसुव्णतो पुरस्य साकेतकस्य भिच्ो-? 
राचाय्ये-भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेमेदहावादिनः कतिरियम्‌ ॥ 


१९ ?, 1. साङ्गेतकस्य । २ ?.1,. भित्तोः ओ। 


५ 


` ^ 22). 
पपि0ए8 0ष् पप 00401068 07 (पष्ट 1 एर्व. 


{. 2. सुभियाय 18 001 ९]28810681 81311. 2.1... 

18९पा. 
 {. 3. श्धोक्तत्‌ 18 1011 10 £7क710्ष7, 80 1# 1188 
७९४ ९४०९९ 10 श्रघुत्तत्‌ . 11.11. 18९8. 

1. १. 2.1... व्ण. स्फकटेः 1 2.14. 110€ 
100तला9 > €[0816€86€ 8611068 ©180&€ ण्डा द्वृ प्लत घ्र 
17010 स्त अत्‌ स्त 17110 षटु. 90 1 088 एला ९181166 1710 
चेकतेः . 
२.४. केखरारुणपाण्ड्भिः. 116 1८९वाण ग 1.1.7४. 
केशरास्तरपाण्डुभिः, प 1116] 1288 0€९0 ३0160. 

1. 28. 2.0. मनिर्द्धं इमारदय. 7.1.01. ६८ छल 
0818 ग सु, नि 84 रु 86 &06€. उप €€ 28 प्लान 
10162007 #0 8100 ॥1181 16 इप 8८१00 च 170 सु फ 28 11616. 
चं 18 2101087 € 0776 फ प्1 87 का एडका 2 81 {16 (00. एप 28 
॥116 80 प 18, ९8111107 06 6018760, 1# 138 0€€ा) ८} €्‌ 
1010 18218. 


1. 8. तेषां ठद्धिचिकोर्घया. 12.11. 185 लें ठ॒ भिय 
चिकोषया. 2.1.11. 198 8 10708 19९8. = उपह ॥1€ क ण5- 
एक्वा8 170 तेषां 18 (ल्श ए181016. ठ 18 810€णाल' 016. 
49 शीलाः 1081, ॥1€ णण (श्च ण द्धि, #120 28 दि, 18 
२181016. {17€76 18 70070 0४] 07 {फण 16 ह ईला तेषां . 
30 { 18९6 70806 1४ बद्धिचिकरौषथा . "1116 01 बुद्धि 19 11 
386 एष्०्शएलयप्कि 18 कथ्‌] 1001 10 1106 प्तप 
11081181 078, 88 17 116 (€) बृद्धिश्राद्व , 1{ 18 8180 
३6 17 116 88116 86186 170 {1118 01} (1. 89 8० 44}. 
1. 88. निभ्मिम्मीष्वं. 2.1.11. 1801112. 12.11, निभ्मिंताध्वं 
11161 188 0661 ©}080&6त 100 ॥6 (0116८ हाकणा) 21681 
य ग निभ्मिमोौध्वं . 


128 एए. 


1. 44. ?.01. 88 विद्षस्तख्यु पष्यत्सु कम्मेषु . [" 1.1.01. 
॥€ पल [08118 ग 116 16॥{€ा३ {707 वि 10 क 86 ९0106 
९. 11616 18 ॥1€ पलत त, प 0इलान्‌]0 चु, ॐत € 
10 फटा (पाए गाप 0 घ 01 य, {€ ॥16 10फण€ाः [क्षण ण 
8108011}06 घ्र, 8116 € 16 10 कन [0811 ग 0106 इणएडलत0॥ ` 
सु. 0 (8 1 18९ 11846 तस्थुषष्षटसु कम्मेसु 0 तस्थुषः 
षटसु कम्मेसु 

1. 46. 2.14. 128 €रातला प चैत्रे 2.1.21. 188 106 
[न [ग 008 800९6 76 फाद्ठ7 के ९017046. 16 इण- 
8011]{ 0९10 त 18 8&180 0017066. 1116 7781 1€्ला' प॒ 088 
9 102 1086, {7070 1161 16 ए 06 €ाध्ो€ाः यत्र 07 षत्‌ 
[ [षर्लला 06 68771 ग 0.0. 0८९8प86 2.1.01. 18 80 
11101811९1. ॑ 

1. 58. ?2.71. 188 ऋल्लानां बाहूसालिनास्‌ 1.1... श्रालानां 
बाहशान्दिनां . ए € €2त7028 216 008९प्"€. 3 प 88 
1116 01 अ्रालानं 18 €]] 10070 8116 @1१68 8 ९1681 7068 - 
110, [ 18९८ णलो €त्‌ 10 ९0896 #16 0287 पतात 1000 
श्रालानं . 

1. ©. 2.1.101. 1018117 ९ब्‌]8 ४९ ए01]र सौन्दरनन्द, 
पा ?.7. सौन्दशानन्द, [ 118९९ ]7र्थलि९त्‌ € एल्व्वणद्च ण 
2.1.14. 88 11016 81660. 

11. 18. एल व्णनप्, 2.10. 128 नद्यवाच्याच्ुप्रतः 
सत्यान्मुह्ूततेमपि जोवितं . 7.1... 188 नद्य 6181061. 16 10 लः 
{08118 ° {16 ०6 {फ 0 1611618 816, 10 9 (लाक्षा) 660, 
ए181016. 11686 1718 € {€ 10 णलः [एश ग क 806 € 
10 फला" [0817 ग ज्ञ . {116 1165† {क0.160॥€ा8 € 808०1ण१6क 
8016. € शि 18८68 ग सत्या , €) € 10 _ 
ष्ण न्मु. 1716 101 ग इत्ते. 106 शक्लः [षं 
116 10 फ़€ा' 8661011 मपि ज्ञावत . 1 81९68# नद्यकाङ्खचुयतः 
सत्यान्मुह्त्तेमपि जौ वितं 88 270 {116 {९>#. 

11. 18. 2.1.21. (गफ क्ट २.14. 088 
स्यंत्रमथेवत्‌ 11101 @)१७8 70 एलका. 1 इण्ट्टछ् 
ख स्व्रम्ैवत्‌. (पठ 28१९ ए ९81१1) 1 &००५ [षप']०४९.) 


477 प्प्ा1९. 129 


11. 80. 2.1... मपप्रथत्‌. 2.1. अरवतपत्‌ ए111011 1188 
066 616९6. 

[. 381. 801 189. 168४त कालमस्य मस्रूखवत्‌. 1 ९811- 
70 0816 क़ 10€क्षा7 पौ रग 1118 171 @1810171811- 
९8] ९0781876€ातए. 1 8प्व्टु<8१ काल स स्वमसूषवत्‌ (1187 18, 
16 10846 {17016 [0100८९6 68111) 

[. 41. 2.1.11. तेनाधिरपि. 2.1. तेनारपि. [{ 18१6 
81126860 तेनारिरपि 

1. 53. ^ प्ट्गतवाणश्च 0 ०8881९9] 88170 वशे 18 
1028001176 88 2 ए07त्‌ {07760 एग 1116 पीर अल्‌ , 2110 8017) 
116 ०० ग {16 ००} [ 1686016 8 ए1881@.. -उण॥ ] 07 
11187 ^ ६7811058, 01611 1868 870 श्लन्त ए07त 170 11€रप्ालिः, 
000 11 118 [006 2 एपरत्‌त]1क्ष८क्षा0४. = +त 80 10 ५11€ 
818 [ 118९6 ©011.6616त्‌ {176 76€8{078107 1110 2108 षव्रा8 
1087686 0 18818. [7 2.14... [ 77 & 81117 178८८ ग 
2118 एव18, 100. 

[11. 8. 2.20. 148 तेन्द्रं ए 11111 18 €४106101] 10118 
88 1018 {68€1167 28 11011 10 उ7तत11287 118त101078 28 
सद्रकः रासपुत्रः 07 उद्रक. 1.1.101. 198 तथ्यो कः . 3 प॥ 1116 
8९61106 2 {1118 18. 18 1 {116 18010 ग वता 8 इपु)€ा- 
8९01101 र फ 11616 €ा' {1616 18 8 80086100 र - 

7. 4. 2.11. 188 हन्तमागसस्‌ । निश्वयमनवगतः 1 फ 116] 
दन्त 18 20801016] 611, 28 11616 18 110 116८ 
107 खेद 11616. -[ 18१6 8९060४6 1116 168410& 2 1.1... 

111. 18. २.11. 98 श्रपरिग्रहस्य . 30 1116 शर] 
९486-6 0811007 06 0018776५. 1116 2.1.01. 1४8 
0111 {116 1€#-181त 1181 ग ख, 2०0 1676 18 & {9101 {18९6 
ण {€ #] ग {€ ००86 ° {16 इप0इल]॥ ख , 290 1 18१८ 
ए6107 प्6त 10 11816 17 श्रपरिग्रहः ख 

111. 20. 2.14. वण 72.11.24. 188 011] {16 10फल€1 
३0861]008 ए181016, {€ 0181 87108611}0॥ 18 ऊ 800 116 8€९०7त 
उप0इछातए ण. 1 ४९।९ 2४ 10 06 त्रुणे 

1. 3. २.7४. निश्वलमतिरसयिषु पुनन्ने बहधाभवत्‌ पुनरभरत्त- 


130 ^एएष्टप्र प. 


चैकधा. 7.1... लाः ४ 100 ]ध्८प४ 188 यु पुनन्ेबेहूधा० . 
[ 1816 1४ 88 70 106 +€. शरखधिघ्ु 18 107810170801681 
2106 80 { 1708 € 17 शिशयिघ्ुः -411€7 पुनः ¶ 5700 न 

[11. 28. 2801) 2.1.14. 21 2.24. प्रसन० 1110611 
68108 116 1676. ` 1 18.16 17 प्रसन्न 

[1. 34. 2.14. ख 60116९6 1010 व ; 20 द 2.1..4. 
यद्ध॒. 1 19१९ धरन) 1116 €0176616त 76810 ग 1.4. 

2.0. चप इव 2.1.11. तृष इव . {116 1867 1680108 
188 0661 8006]0१60. 

1४. 1. २.४. मनोत्रुवाये 1.1.01. 188 116 पलः [एक 
ग म 2० 116 पलाला ग त्रौ, पणा ए1016]) [ 10816 10 
मुनौ . 

[४. 12. 12.11.11. 188 8 1018 1४८8. 2.14. पद्यां . 
(1116 1611617 76860110 इ 1188 0667 {0 8656181 8068 
-10 2.14. 88 1 01811617. = [ 118९९ »€70{प्€त 10 8१६€ 
11 प्रियांखः 

[भ४. 17. 2.14. योक्तिताभ्यां, 72.11.14. 1188 10९7 ¢ 
ण यो, 10 [एषषा 01 स्तु, 10शलाः [01 0 त, 6 10७ ए 
ण भ्यां. 1 1916 {16 11011-18.1त. ए९117८841 1106 ग यो 10 06 
1116 एला 1९] 7610811. 2 1€{7-081त्‌ †? ग न्त , 90 {16 २९8. 
108 ०।५ ७८ योन्तृताभ्यां . {1 81९९९8४ ` यन्तुताभ्यां . 1 
718 2180 6 योक्तुकाभ्यां, ६8 116 ०1 योक्तुक 188 1667. 
86 1 ४1. 8. 116 त 10 12.11.11. 18 0€र्लाः त18्िणठछ 
610प््) 007 10 06 क , | 

1४. 84. २.0. धम्मपोडां . 2.1.11. धम्मंयाचजा. 1118 
31678 {18 2.14. 18 8, ९0] ग 8 क्पडठात]॥ 0णील' पक्षे 
0" 12.11.11. 

५१. 81. 2.1.14. सविद्यो. 2.14. स वैद्यो. 1106 14609 
1188 0661 ]07€116त ९९४प8€ 16 188 1616706 7 1018 
180. 

४1. 16. 8010 1706 188. "68५ यदधिशिष्टा. मदहिशिठा 
० &1ए९ ॐ 061{€' 0671108. 

911. 6. 2.1.14. 208गपा€ 18619, 1 8१९ ९1896 


4 एए र, ६ 131 


प्रिय भ्रूः 11 2.1. 10 प्रियङ्क ; 20 प्रियं खप्रघवावदातां 1 ४}€ 
8716 100 प्रिषङ्क प्रसवावदातां . 4.8 1116 ए€ा३९ 8781108 10 ८.1 
1 &1ए68 70 7168111.  परियङ्क, 2 10 फ 6110 1.66, 18 8 &7687 
रकया फण) इकडे ०४8. 1 18 8 त६ा1९८क#€ क्षणा ` 
2० 6]] १६8९8 06 नण 6॥8 प्रतनुं 20 भौतामिव निष्यतन्तो. 
४1. 9. 2.0. पुष्योक्कभरगा. 1 2.1.21. {€ ए]01€ 
11716 18 & 1९2, 10) {116 €&९6 0 ग 8 ९9ृ€-]€ [0- 
1९८ ९०090192 ॥7€ 10 रला [878 9 रा 81त ला 216 ॥1€ 
16४्ल§ ऋ, पि 20 ना 8171087 €017€. 306 रा 11166 18 2 
81120 7866 1011 8 10167 फा ॐ व 1क18. 1 फफ 06 
रा. 9० [ (रट 16 0 118९९ ८्€ ( पुष्ये) राराला . एप 88 
{16 [<लः रा फ1]) 2 केद्रक्रा8 11066168 16 0676, 1 
19९ 11846 1 पुष्पेरराला, 06610 १०४7 फा] 0 ला8. 
` {7 ५0€ 8्7€ »€8€ 1.11. 16808 कन्तः खङ्खः . [१ 18 
107 विलप] 0 ©080€ ङ्ग 110 ब्ग 01" 8 861106€ फ 10 ध व8- 
€10€8 ॐ ०]त दटकक्षा 8. 11110 710तला दिल. 
-[ 7) {€ा0]0॥€त्‌ ४0 02]६€ 17 खसुद्ध, 88 {€ 20 €18 ग 11€ 
88 07" 16 29६ €इ 278 {766 100 1१ € > 0 कला]0५॥ 
10806 ग एणा, {08106 ४॥€ 0 कल€ा' 1 18 एला० क. = 106€- 
1016 116 20 जला"8 ग 8९165818 8708 फ 618 10 ४106 १९३५) 
1107 कान्तः खमसुद्धरिव हेमगभ 
४. 11. २.4. 1€वतवाणहु 18 €रात€णकक ५06 ए<४ण्लः 
०16 11676. [४ 8116 इ 2180 {81 2 88 (ण्त्‌ पणा ॐ 
18. 0ला (का 0पा' 2.1... 
४111. 14. 7.1.21. तान्तव 20 1.}/. ब्राश्मर. 1 १० 
707 [0 फर फ 11611 1680108 00 गर्छ, 41008 फा४]1 ००९ 
871 छप लक्षण, € ण्णात्‌ ७6 {ल ]1€त्‌ ६0 [रलह ‰ सौभ 
9806 0 8100९. -उण†  ॥85€ [र्थ्यात्‌ "€ ?.11. 0. 
1680111, 28 {087 8. 18, 28 2 7प्]€, > उप्ाला' शप्१९ नाकि 


06 २.14. 
४11. 26. 2.1.04. 100 1४(प०8. 2.21. वतो फ }16]1 


शाष्ड 70 6€वा17्. 1 18ए€ एल०प6त ॥0 © &9&€ 1 
1700 रतो . 


182 र ^ एए क्रा. 


१. 80. ?2.1..14. ।क्टपा8, 12.14. वेश्मवर्था. 118 
18 वेशवध्वा 28 वेशवधू 18 9 ए 0170 01{6 पा6† फ) {प 0071©0.- 
0 110€ा8{प'९. 10 30त119681108, 11 18 ०३९६ 170 1118 
एला'ए़ 0011661101, 9९6 4. 16. प 

४१1. 88. ९.4. 198 नकाशशाङ्कस्य. 1.1..1. 88 न 
2110081 €11{116, 81त ॐ {116 1167 1667 ॥1€ 8प 08९00 त 
18 61] ए181016 ए1{]1 8 (छपण्ठडर एप्राए6 क्रत अ आकार. 
1 ॥8]र€ 1४ 0 € नघ्ना. 1 ॐ ]प्3106€त्‌ क़ "€ {860 धाना 
एपत118*8 उ०ा) ए 1116 ५1*81त8011 ° € तना &०५ 88 
ण़€]] &8 ५116 €स्रालत अक्लाालाा 79 ए पततक्षटक्ष104. 9९6 
2111. 19. 

9१11. 40. 7.4. गङ्गाज्लेनांग० 1.1.14. गङ्गाजलेनङ्ः० 
1110} 21968 ९२६९१1४ 1116 7681011 एश्)१6त. 

शा. 8. 2.1.04. 10 1४८प8. २.4. रजस्तमखत्व , 
सत्व पा 8 पाप श 10 स 80ा]8 ॥106 1016176. 1 8९ 
0180860 11 17110 रज्स्तमःखतां. 1 ३8१९8 1116 10616. एप 
खत्‌ 98 & 80108110016 {07 सत्व 18 प ३०8. 11616 18 80106- 
1101098 1116 > १०१ 7 {€ (ला{€ ग € रल7९४्‌ 1९ ण र, 
{1 9) इप्ा6 11 ९8111107 € 168 88 स. 17 18 2 ण्डक 
१००४१] [088886. 

४1. 34. 1.1... 1च्छप8. 2.1. कराज्ा 11161 
8100118 16776, 86786 206 @7 70. 1 118९९ एलाो$प्ा'९€त 
10 81 68# सुक्नाः ए 1116] 88.१९8 811 {116 1111*66. 

४111. 88. 7.1... (ना]01€॥€ 1४९प०8. ?.14. बलिता 
वनितेव चञ्चला तदितरेष्टिविनावद्यले. {7116 {011 [848 188 8 ` 
160{6ा' 1688, 8०५ 88 11 8181108, 1{ &1ए€8 ०0 86186. {[ 18१९ 
९118860 17 88 1 1116 {€†. वद्यते 1188 066 ९118060 100 
विद्यते ४11 8 न 1188 06९ [18 ५९त [र्ध0ा'€ विद्यते {0 8प])]] 116 
81101226 ॐ 1676178 216 1 {16 16616. छि 188 96९ 
11866 170 सषु 87त्‌ ना 110 ने. 11686 8६९6860 
९084068 11876 27 16887 076 16९०6480. 17 &1९€8 
2 &००५ 86086. 10 {106 11124 [508 [ 88 2111087 {670 ४6व्‌ 
10 ९118126 वलिता 1110 वनिता , 3 प† २.14. 18 29087 1#. 


4 एष्ट र, = 138 


४111. 40. २.4. स्ूतवत्‌ ए 11161) 18 1011861186. 2.1.24. 
188 {16 10 फ़ € [08 0 1116 {क ० 1607678 ए01€ वत्‌. 111€ 
80086110 र 1. {06 8€९००त €{लः 18 1800९ 1810916 
फ10}) 8 81117 ४1866 ग उकार, 111] 188 ३९९९8९५ शच्च 8.00र 
1116 787 € [188 प०९त 0४ {0 € "€ 10 कलाः एका 
ण क. | 

४111. 42. @ "08 ए्ला8€ 2.1.24. 1188 0111 न वहन्ति 
सोद {]|7 876 0281000] 8701९. 1” ?.. ॥178 [0- 
070 8 दल) फाला 70 8 एला ए 08 86 ए 0116 ए 108 
(९ 70 88086. (16 786 11817 ग 106 ए€ा§6 88 11 
8081108 1 2 . }1. 10118 1108 :--प्रविशत्यपि हि स्वियश्चितामवधन्त्यपि 
मक्तजौोविताः । प्रविशति 18 ९611810] 107 वेड स्वियः, 116 
ऽप0]€©॥, 18 10 [पा2. 80 1 168 प्रविशन्ति. अवधन्ति 18 
णाह. 1 18७ 8०४४७४९५ अ्रनुवध्रन्ति 28 ॐ 0011.661 
व्हा []पा8] एला 08] 107 = 600881{6ा{ = फ1611 16716. 
मक्त 1188 0661 (11811960 110 सुक्त 

१1. 44. (0रला6त्‌ ए 9 107 ]ध्<पाॐ 11 2.11. 
2.1. 188 श्वपचं किलशो ज्ित्सुता, 111८]1 1188 0661 104 
शक्रजित्सुता ; 210 प्रसदानाच गति चर विद्य ए1116]) 188 €) 
८118060 1710 प्रमदानामगतिने विद्यते . 

(1. 48. 2.1.21. 1198 श्च गोतमः समवापुवेनितोद्धतं रजः. 
4 11116 016 {118 € 18 ए6 8प 0861106 उ 27 1116 लात्‌ ° & 
ए€101621 1106 10] & ९00९8 ९पा 6 {81011 1891016. 1118 
1 ५8 € ४0 06 सु , -4{{€' {118 1€77€1, {11616 18 ‰ ए८ा{1८8] 110€ 
16]076860617 16 10 फलाः [0870 ग 10618] इ 8116 {16 10 फनः 
एष ण न. वला {16 10 कलाः [क्षा र फा{)1 8 10619] च 
08110 {7070 ॥16€ णातत ग 108 एला] 1716 ; 20 
21{€1 ॥1087 {1€76 18 ‰ 8086100 र . पि € {0 118 11676 18 
8 ऽप0इलातए त , = 8९ 10806 06 1887 0 ]6ौ(ला३ दान्त , 
वला ॥1€'€ ॐ€ ५7166 २६४1९] 8770168 ग मना . 116€ 
फ 1016 फ0पात ९य्त्‌॒सद्भान्त मना . 2.1. 1९808 सुनिरखंतवाच 
गोतमः, 096 ०प्त ४6 {€ [06 ४० २6४ सभ्ुनिरश्रान्तमनाश्च . 
एषा [ ल्पात्‌ ०0# 8८८लु0 718 16841, ४8 {1676 18 ॐ 


184 ^ एए 71१. 


1116019] उ 21161" र 310 116 क क्ठा"8.30 श्रान्त ०५ ९०106 10 ए 
४6110811 0 {16 {007 9 "16 116. उप 1४ 18 707 80. 
{1 (06 ९.1...) (6 (87 81706 70 द्धा 1660 1101 (0९ 
0 1 80 10. [7 66181] ९601068 ५0 रा {7070 {16 
दनि 0 8 11076 2006 € उपएडलप) म , 

ण्ाा, 41. [0 2.1.14. शच 18 81016, "€ 10686 
08108 0 सूतम 816 {18068 016. {1116 8€ो' 8 8110147 ©0 - 
{1606 18९18 {06 10 फ ©8॥ [08708 0 क 21 य 816 ए181016. 
1361016 छ, 116 ए€ा'फ़ 10 फ 680 0817 ग ए€1{71681 8110156 18 
{74९०8016. 1 ?.4. ॥16 1८877 28 श्रच शुदममतौदथां श्च 
धक. 3 11 18 701 ]प78710€त 7 ॥0€ #१६९९8 1 2.1.14 
90 1 1876 1806 1# सरदममतिः पियाश्या ~ [7 {€ €+ 1190€ 
1 8१७ 0112136 व्रतं 0" चरतं 1 12. )/. 1010 चरितं, {108 88४ 
111 {116 0€7९. = #7706 18910 80716 छ]0€1610९66 ग 
11004611 कपि€षा1 1187718611]01, 111, „| 06116९6, 8ए10]08- 
11126 10 116 

2. 18. 1.1... तुग्ग० 8004 2.4. तस्ग०. 28) 
16801028 216 60९] फ़ 2९66]008016. 8 प४ 1 18१८ ][0र्लालि76त 
तरङ्राजस्य, 8३ 1 100 0 8 18117 0@फएष्ला छिना 15118, 80 
38117018, ॥प# [ {10 फ़ 9 110 72)॥ 06{क९्ला & 10186 9.0. 
उर 1508. 

[>. 22. 2.4. श्द्धिपानरान्‌. 71011 1116] । 10846 
1 ण्डिपाद्नरत्‌. उप 72.11.04. 1128 8 1€{6 1684108, 
द्धिपानरोन्‌ . 

क. 86 2.1.24. €०1[0161€ 1ध्८पा०>. 2.11. °्शरौरे 
न वश्णोऽस्ति. 1 119९९ 708€ 11 शरौरं न वशेऽस्ति . 

र. 48. 8001 ॥16 188. 118९ त्तम. 80 1 18१६ 
शु 1४. एप क्षयं एण०्णात्‌ शार 8 ए€निलः हठकषण0ह्‌, 
8[0€6791] फ़ फ116 7684 1111 1116 पटर 1106. । 

इ, 9. 2.1.14. ७0०९९16 १ 9 1018 1४८०8. 2.04. 
तापौक्ताशो . {118 188 1066 1189९ 17110 पौतौक्ताङ्गो, 
ए, {16109 ९0९९1९त फ) मनःशिला, ©. 28 ९0102960 #0 
2०16४ 168 १९8. | 


83 42.41159 185 


र. 26. 2.21. ०विराज्ञनाजायते, {1707 ए 1110] [ 18९ 
70906 विराजन्‌ प्रजायते. 3४ 01) 8 01086 1708८001 
2.1.70. 1# पाड 0पा {0 ७6 विराज्ञन्‌ राजायते. (0116८760 11 
{16 € छपा. 

क. 56. 230४1 2.1.04. 2०4 2.7. बोद्ध. 1118 18 
10 #17€ {1 ९४86-6 ताद्च क 1167 18 प0&7व7110801681. 1 
{11171 1४ 18 {€ 6४) (९88€-60त1& रण वोदुः, 8 ९१६६४ 
शक्रस 2 {68८6 त प्रिव. = पर18 7081716 18 8011€017168 
1176 28 बोद्धुप. 

क. ह. यामौ 7 0001 1188. एण यामौ 8 एला 
्प्ञ8]. 1 18१९ ९118906 17 100 यायौ 11} {पि{पा'€ चिन्‌, 
108 ए178 17 16 लब्धा 11 1116 ९ 1116, फ्र]11९6)}) 18 771 
{पपा'€ तुन्‌. 

९1. 18. 80) 27६8. 684 सन्तते . एषा 88 1† (का- 
101 06 601187९, 1४ 188 066 ९118०26 1010 सुत्ततां . 

1. 20. 280४] 2188. 1€8व तद्रज्ञः. 3 10 ©00116€८- 
{10 फा परौषध, रुजः 88 111 {116 {€ † 8€ल)8 0 106 {0 € 
8 एल" एच्छतोण्ु. [9 2.24. 70 016 कफातताल ग पाट रलव्छ | 
106 ण र {7€€ 18 8 ५07 7116] 18 710, 0, 8 
1166181 उ . 

31. 29. 2.1.04. मध्येव 814 ?.4. मभ्येव . 30111 816 
पात्व. ^+ 811 शहलद 170 2.1.01. रठणाति 
118]:6 17 सध्वेव फ 1161 €&1१€8 8 0€61{€ा 8€186€ ; 88 {11 
1006 -866 € 7 1111] 78678 100ुर8 पक कषतइ 07 [01 - 
९0008, 8त्‌ 111 प {8118 0 0166 7€ला]01668. 

111. 38. 2.1.14. ]श्ट्पा2. 2.21. संयोगः ए1116) 
0687078 ॥1€ "16076. 1 08ए€ 17806 16 सङ्गः, 111} 
17001068 16 70676 88 €]] 88 1116 86786. 

111. 35. 11018 18 > ल्ट €. = 171€ 7781 
1106 ९0708178 158 81180168, ॥0€ ०५९8 0610 ¢ 81 
1116 €षला18 (040१. {1116 8€९00त 1196 60081708 16 8] 
180168 16 1116 ०५५8३ 14401 ४2 116 €र्€ा8 4९11८. 11€ 
11170 (6011€8[00४त8 0 116 7157 &त {€ छपा] ६0 {}€ 


186 ५ एप. 


86000. 07 128 ][110€ा]016€ 1 184 0 84 > क 87 {16 
९ 116 86९00 11०6, 17 88 जिङ्कः 10 2.10. 12301 
000४ 41411 [ 1९९७ 8११०१ ॐ क 80 1780 जिङ्ककैः . 1116 
{प्रा} 1116 10 [2.4 028 0101 14 87120168. 1 084 {0 
1681016 ॐ इ 0011) {01 {116 86086 89 116 11676 80 {0 
९118186 चिक्षित्सेत्‌ 1110 चिक्गित्सपेत्‌ {01 1176 ३४]:€ ° 11€ 
1116116. 13.11.41. . ९0110166 1४९०8. 
| का. 56. 2.70. मास्मिद्नवेक्षणेसपि ए1110]1 £1१७8 19 
86186. [ 18१6 840]6त ५6 ?.1.. 4. 1684108. 

शाण, 47. २.24. क्षण्यते, 72.11.11. 188 07] ॥6 
8061860५ रजते. 

3९४. 16. . 0.1. स्वमनोदरशठ चेतखः. 2.1.01. 1188 111 9, 
{010]6९{100 17 > 10118 19९8, 01] 1111*66 1600678, इपल€ः- 
30101 स ए1]1 8108९818, म 800 नो . 1 18१6 76046166 10 
स्वं मनो दुष्टचेतसः 

४. 18. 2.4. नति. गाला ५16 ०86 ग 
1888108] 8808111 ] 18ए€ 11946 11 रति , उणा नति 10 
116 86086 † परिणति 18 01/61 १३९५ 10 3 पतत118 9808- 
। ९.10 

उभ. 2. ?.24. नत्वेकक्कुशल, ए 1110}1 १068 1107 ©0106 10 
१८06 (०८ 3 8, [18५6 ए 160 श्रज्कुश्लकम्मे 18 1116 ३१0]९९7 
9 168९1010. 1 19९6 ९180260. 10 100 नत्वेवाक्गुश्लं 

४. 26. 2.1. खृद्धतोगः खनत्रिव . 1 18९८ ९1860 
ग्रोकार 11 तो 01 बृद्धतो, 11110 इंकार . । 

४. 580. 1.4. लोके चित्रेषु सा कथाः {.11.)1. लोकचित्रेखु 
एए 11८] @1९€8 06006" 86186. 

२४1. 6. 8071 2198. प्रतिवेधतः. 30# श्रप्रतिबोधतः 
एप्त &ारठ % 0607ला' 16811. {116 ०8८ ग श्रवबुद्धप 840 
प्रतिबुध्य 171 {€ [016४10३ ए ९6186 [7811068 770 00867 एकनिण). 
णा 2४ 18 तिपा 10 ९० 9087 000] {06 2188. 

४1. 11. 2300) ॥16 फक पला1]008 २686 करौरयोनिः 
एण 1 एनालर< 1४ #0 € 6 व]ल्व्एठ ण दुःख. 90 1 
1186 11806 1# 116प{€ा. 


4 एए. ध 18 


४. 14. एग) 116 2188. ऋकैदहि ए 11९11 18 10118 

11) 01288108] 9808111. 
उरा. 28. 7.1.11. 18८प2. 2.11. शरवे 11८] 1 

1896 ` 8001016 * 170 {06 €, ठप 11 28 फ7गा)् 17 
218110171द1. + । 

र्णा. 26. 2.1... चम 2० 2.14. धम्म. 3000 
118 06 0011660, 28 116 8 प्रभ" ४868 0060 11€ -ए81त्‌1}<8 
{00 9 अम्मंन्‌ 8116 116 61888168] {0110 ० च्म. 

४. 27. 80) 2188. व्याधियोः [ 11४१6 10806 11 
९18881९8] 92081111 व्याधयो . 

षा, 41, 2.1.70. श्रपि ममैष [.11. अभिमामसल्ये . 
1 [षर्ल€ाः 106 ८€द्वाड ण ‰.1.01., ४8 2 (ातपाक्षारए6 (णा) - 
] 1161070 18 16068881 11616. 

रषा. 74. 2.1. प्र्छंति. 2.1.21. 16 प्ल कष 
8 न फए1{]) रेफ 871त्‌ रकार, 1116 10) 8 [€ला, (76 ति 


21111081 6110176. [ 18४९, प्लार€ा०९, 240}॥€त 116 {?.1..14. 
1680111 नंच्छरति . 


२४1. 76. 10 72.1.20. €] 116 ग]101€ 0 € | 
{0 [08088 816 ‰ ]8८प्ा)8. 2.14. कण्ठं ए 1116]1 ९1१९8 110 
11168178. एप{ कर्वे 8110 कर्ठे 11) 12.21. 18110 11111) 816 
30 1681 11187 [ 118७ 18त€ 17 करे, ए 111९}1 7716818 परापे 81 
फ 11९11 008 फ] € (ला{€ श. 

2४1. 88. 1.1. इन्तेऽपि कत्त ४111८11 &17€8 110 11168.11- 
172. 2.1... 176 पल एषा 8७३०1 प{ट] ९०1८ ; 111९ 
10 फएला' [08118 ° 116 त्‌ त्‌ #11€ हौ 1€ा{€ा'३ 86 1116 
88116. 90 1 18१९ 18५९ 1† दन्तेऽपि दन्तं . 

2४1. 817. 30] ४16 18६. ° कृमिल० ए1110]1 81018 
1116 17161776. [ 18९6 (शर्लाठा€ 1086 11 नगक्रिमिल० . 

2४1. 90. 2301 (88. कफिणः ए]116]1 80118 116 
1116116. _ 18९ 11816 17 क्षप्फिशः , 88 {1187 8])])€88 10" € 
॥06 1816 (8९6 €). उपरत. [411., . 88). 1 18 81380 ] 0811 - 
7९ ए € क्षाल्‌ जा 8 फक ला6त्‌ कष्फिणाम्य॒दय 018- 
९0९6160 11 81.28 ६11 [1 018. 


188 ध 417 ए प्रा) ९. 


५1. 48. 23011 188. कामाग्िदेदेन. 3 ०19 
101 ०ङाद्ेन 06 [01618016 ? 

¬++४* 111. 31. 2.4. शुद्धोदनोमनचपति. 2.1.14. 198 3 
16 18८पा)8 1&16 फा] 9 0806-111€ 010]€क४०ा 19 पलो 
816 0181106 ए18101&. जृपत्तिः पितेति, 1 ९1986 स 110 मे 
2100 1684 शुद्धोदनो मे चर पतिः पितेति . 

3111. 62. 1 18? 7681016 जनान्‌ 101" {116 7016116. 

रा. 68. मोघात्‌ 1 18९८ 019०&९॥ 10 मोक्तात्‌ 28 
8९11068 17 ९9 {0 871 (९लाप1168 1166] 1016101806 
रख, क्ष 2110 घर. 


„~~ ~~~ ~~~ ~ ˆ ~~ ~~ ~~~ ~~ ~~ 


ए2474 ^ पा) 00816 ए परा) ^. 


^ „ 1416. 
१ १६ 
९ पि 
द रे 
9 १५ 
१० १० 
१० ९६ 
१२ ट 
१२ १ 
१२ प३ 
१२ पिष 
१३ १३ 
१४ १३ 
१४५ ।: 
१७ ध 
१९ १२ 
१९ १६ 
२२ ३ 
२२ ह ` 
२२ १८ 
२३ | 
२४ ९ 
२४ ६ 
३. । 
२8 ष 
२४ ह 
र्ठ ~ 


[{1160166#. 


०रखङ्शो ४ 

= 

तसाश्रमम 
रपुः यशो० 
नद्यकाङ्खौत 
नयैः भ्रमिं 
श्रभ्यदसोसदत्‌ 
हो 


भ्यदसौवत्‌ 


०सराडस्‌ उपशम ० 
सृपतिः जनता 
०समधिगम्यसुनेः 
चक्रवाकः तया 
नाचिन्तयत्‌ वेश्रमणं 
परष्यरा० 

षणं 
०मबेत्तमाणा 
खतमालपत्रम्‌ 
ताच्नाधरोष्ठुम्‌ 
रक्ताधिकाग्रस्‌ 
पतितद्धिरेफम्‌ 
०साक्तिश्तं 


(10171.€@#. 
© रङ्को ‡ 
१५ 2.1. 
तमाश्रमस्‌ 
श्रापुयंश्चो० 


्भयुदसोषत्‌ 
द्रो 
च्रथ्युदसोवत्‌ 
सोम्य 
निक्रिया 
पुष्यवषं[ ` | 
प्राप्श्वन्द्रो 
०सराडमु पशम ० 
चपत्तिजेनता 
०मधिगम्य मुनेः 
चक्रवाकस्तथा 
नाचिन्तयदश्रमशं 
परस्परा० 
भूषणं 
०सवेत्तमाखा 
सतसालपत्रं 
ताच्नाधरोष्ठ 
रक्ताधिक्लाग्रं 
पतितद्धिरेफ 
सा्तिभरतं 


{86 
२४ 
२४ 
२४ 
२५ 
२५ 
२४ 
२६ 
२६ 
(2 
ट 
रट 
८ 
रट 
२९ 
२९ 
हे © 
३१ 
३१५ 
३१ 
३२ 
२३३ 
३४ 
३५. 
३६ 
29 
[~| ट 
(<| | ~~ 
द ट 
३९ 
© 


11116. 


१० 
११ 
१२ 

9 
१० 
११ 


2 


160116८. 


वेश्म 

निस्प्रणयश्च 
काचित्‌ वासय 
क्तुम्‌ 

विवबोधयेयस्‌ च 
्रथाप्यनानाश्यान० 
पुनः ललम्बे 
क्रष्यमानः 

खदु(:) 

तौत्र( ` ) 

दृः तथा 
०वलाधिक्षस्य 
7.1.14. कालन्महार 
चेवेदं उवाच 
शोकः नियतं 

स्तसू 

प्रसक्तिः यदि 
लोष्रम्‌ 

भ्यस्‌ 

०त्तयात्‌ श्ष्छरसां 
वलभो० 
स्वामिनम्‌ 

भन्तः दौर्भे 
रङ्नाभिः चिन्ता० 
क र्वास्ति 

पधार 

परियङ्क३ 
प्रियङ्गप्रसवावदाताम्‌ 
^ द्दयं 


० बुद्धयोः वैवस्वतागरमोः 


(10116. 
वेश्म 
निष्पणयश्च 
काचिदवाखयच्च 


थाप्यनाश्यान० 
पुनलेलम्बे 
कृष्यमाणः 

ख्दु( ). 

तोत्र) 

दृष्स्तथा 
०बलाधिक्षस्य 
पवि. 
चेवेदसुवाच 

शोको नियतं 

स्त 

प्रसक्तिथेदि 

लोर 

तुभ्य 

०त्षयादप्सरसां 
बलभ 

स्वासिनं 

भत्तरोधे । 
श्रङ्गनाभिशिन्ता० . ` 
क इवास्ति 

पिधा. . 

प्रिषङ्क२ 
प्रिङ्कप्रसवावदातास्‌ 
जच्रद्ेदयं 
०वुद्धमोवेवस्वतागरमोः 


3 


{601166४. 


वह्नो अषितो 
०सप्रतिख्द्यमानः 
शिवेन 


०भयात्‌ विनिःख्तः 


खगः चपलो 
जातवेदसा 


श्रविष्रक्तमतेः चलात्मनः 


वालिशः 
वालिशः 

1 
चलचित्तमौलिः 
०द्धिपात्ररान्‌ 
स्ति 

त्तयस्‌ 

वि मोक्षधम्मों 
ऋत्‌णां 

० पित्तो 
प्रजायते 


वेह ्येनौलेः नयनैः 


वल्लरौभिः मध्येषु 
चेष्ठाः ततः 

जे छ्ोयमानो 
उल्जिहोषैः भ्रूयो 
्रद्येव 
श्रद्धाविशेषतः 
संवद्धि० 
उपाधाभ्यास्‌ 
त्वम्‌ 

०द्मरोरास्‌ 

चत्त 


(10116९४. 


वड्कावसितो 
०सप्रतिष्द्यमाणः 
शविन 
भयाह्िनिःखटतः 
खृगश्चपलो 
जातवेदसा 
रविषक्तमतेश्चलात्मनो 
बालिशः 
बालिशः 

१ 7. 1. 
चलचित्रमौलिः 
० द्धि पानरौन्‌ 
स्ति 

त्तमस्‌ 
विमोत्तधमस्मां 
ऋतूनां 

० पित्तो% 
यज्ञायते 
वेदू्येन लेनेयनेः 
वल्रौभिमं ध्येषु 
चेष्ठास्ततः 
जेद्ोयमाणो 
उच्जिहौषुभयो 
श्रद्येव 

श्रद्धा विशेषतः 
संवद्धे० 
उप्ाधाभ्यां 

त्व 

०ण््ररौरां 

चित्त 


2९९6. 


९७ 
१०४ 
१०५ 
१०६ 
१०६ 
९१०६ 
१९९ 
१९४ . 
१२8६५ 


{/16€. 


९१९ 
१३ 
९१७ 

दे 
१९ 


१४ 


& 
१८ 
1 & ~ 


1 


[160116€ल#॥, 


न्वतम्‌ 

यथा स्वभावेन 
तथा 
इवोऽपयुज्य 
वाय्यात्मको 
धमन न काले 
ववन्ध 
योगायुधास्त 


वदुः 


(01167. 


्रन्वन्त 
यथास्वभावेन 
तदा 
इवोपयुच्य 
वायवात्मको 
धमन्रकाले 
ववन्ध 
योगाध्ुधास्ते० 
वधू 


ए 468६0०88 ` 

379] = ऽदप्ात8द080तद्या 168 
47325 

1910 


९६८5६ 00 ।407 २६।०५/६ 
^२05 0२ 51125 7२0॥॥ 1115 ?०८<ला 


(वा४हर॥ 0? 70२0410 (18२९८